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श्री
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अनाप-लेविकाकर-पूज्य-श्री-प्रतीलालजी-मरा दिनमा अनगारधर्मानमणिभ्यागमा
हिन्दी गुर्जर भागावर
ज्ञावान
THE CATONADANG NATHANGA SCODA
माझी जैनागमरियार गतिमनि मीकहेगाव्यखनीमा
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मनिषासी अनिल रोड-सादगी के
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नामिति
कालिदासभाई मह
20R0
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जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराज - विरचितया अनगारधर्मामृतवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर - भाषाऽनुवादसहितम्
श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् ।
SHREE GNATADHARMA KATHANGA SOOTRAM
(तृतीयो भागः )
नियोजक :
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि - पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः
प्रथमा - आवृत्तिः प्रति १२००
प्रकाशकः
'मद्रास निवासी - श्रीमान्-शेठ - ताराचंदजी - साहेब गेलडा ' तत्प्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० भ्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्री शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई -महोदयः मु० राजकोट
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वीर-संवत्
२४८२
विक्रम संवत्
२०२०
मूल्यम् - रू० २५-०-०
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ईसवीसन्
१९६३
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મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. ३. स्थानवासी नन शास्त्रोद्धार समिति, २. गठिया ॥ २३, श्रीन air पासे, 13, (सौराष्ट्र ).
Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Gareddia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India.
ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्नि ते किमपि तान प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
हरिगीतच्छन्दः
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करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूयः ३. २५%300
પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૨૦૦ वीर संवत् : २४८६ વિક્રમ સંવત ૨૦૧૯ ઈસવીસન ૧૯૬૩
: मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, घी in 3, अमहापा,
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दक्षिण भारत में जैन समाज के प्रावर नेता दानवीरशेठ स्व० श्रीमान ताराचंदजी साहेब गेलडाकी
जीवनझलक दक्षिण भारत के प्रवास पर आये हुए किसी भी व्यक्ति के दिलमें, मद्रास जैसे शहर के जैन समाज की शिक्षण और-वैद्यकीय संस्थाओं का सुव्यवस्थित क्रम और प्रबंध देखकर आनंद हुए बिना नहीं रह सकता । और स्वतः ही जैन समाज की दान-दिशा को इस ओर ले जाने वाले व्यक्तिके रूपमें दानवीर शेठ स्व० श्रीमान् ताराचंदजी साहेब गेलड़ाका नाम व व्यक्तित्व नजरमें आये विना नहीं रहता।।
मध्यम कदका इकहटा बदन, खादीकी धोती, खादीका कुरता और खादी की टोपी, पैरमें केन्वास के पादत्राण हाथमें छोटीसी लकडी-चमकती तेज आंखे और ७० वर्ष की अवस्थामें भी-जवानों की तेजी-चे आप के अभिन्न गुणों के सूचक थे। उनके यह सादगी अंत समय तक भी कायम रही थी। ___ सन १९३७ में आप राजकोट पधारे थे वहां अनेक शिक्षण संस्थाओंको देखकर आपने अपने मनमें तय किया कि मैं मद्रास जाकर शिक्षाकी ऐसीही संस्थाएँ बनाउंगा। उनके विचारों की पुष्टि के रूप श्रीमान् बिरदीचंदजी सा. मलेचाने ५०००० रूपया दान दिया और यहां की श्री एस.एस.जैन एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना हुई । इस सोसायटी के विकास के लिये आपने अपने ध्यापार से भी-निवृत्ति ले ली और-क्रमशः इसका विकास करते रहे । इस सोसायटी के तत्वावधानमें क्रमशः प्रायमरी स्कूल, बोर्डिंग होम, हाईस्कूल एवं कॉलेज भी स्थापित हुर और आज भी सुचारु रूपसे चल रहे हैं । जब तक ये संस्थाएँ पूर्णरूपसे आत्म-निर्भर नहीं हुई तबतक आप सोसायटी के प्रारंभ कालसे मंत्री बने रहे । इतनाही नहीं प्रत्येक संस्था के लिये आपने दान दिया था ही-किन्तु ताराचंद गेलडा जैन विद्यालयके लिये ३१००० रु.का भव्य दान दिया। इसके उपरांत भी २२००० रू. का और दान आपका से आप
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सोसायटी के पेइन ( संरक्षक ) वने । सन १९५६ में अन्यों को भी कार्य संचालन का अनुभव हो एतर्थ आप निवृत्त हुर, किन्तु अंत समय तक सोसायटी के प्रत्येक कार्य के लिये आप सलाह देते रहे और वह समाज का गौरव था कि आप जैसे कुशल एवं विचक्षण सलाहकार मिले।
दानके प्रवाह को शुभ मार्गमें बहाने का आप का प्रयास अत्यंत अनुकरणीय रहा । और मद्रास के जैन समाजने वैदकीय राहत क्षेत्रमें "जैन मेडिकल रिलीफ सोसायटी" स्थापित की-जिसके तत्वावधानमें कई डीसपेंसरियां और एक प्रमूतिगृह चल रहा है। आप उसकी कार्य कारिणी के पदाधिकारी व सदस्य रहे ।
इतनाही नहीं आपने अपने व्यापार क्षेत्रको नहीं भूला और सैदापेट (भूदान) में शुद्ध आयुर्वेदिक औषधलय-जिनेश्वर औषधालय खोला जिसके साथ आगे जा कर अपनी पत्नी के नाम पर राममुरजबाई गेलडा प्रमूतिगृह भी खोला। एतदर्थ आपने अपने द्वितीय पुत्र स्व. नेमीचंदजी की इच्छाके अनुसार अलग टूस्ट बना दिया है।
आपने अपनी जन्मभूमि कुचेरा के लिये भी कुछ करने के विचार से वहां पर भी छात्रालय शुरू १९४२ में करवाया और उसके प्रारम्भकाल से आपकी ओर से २५० मासिक सहायता उसे दी जा रही है जो अब भी चालू है।
तदुपरांत ताराचंद गेलडा ट्रस्ट भी आपने कायम किया जिससे कई उदीयमान जैन समाज के विद्यार्थिओं की आशाओं को प्रोत्साहन दिया गया और दिया जा रहा है। ___ उनके अदम्य उत्साह और जोश के साथ उनके दृढ मनोबल का परिचय न दिया जावे तो उनका व्यक्तित्व अधूरा रहेगा । वे अपने आप आगे बढ़ने वाले थे । बहुत ही छोटी उम्र में उन्हों ने व्यापार किया और ताराचंद गेलडा एन्ड सन्स, टी. बी. ज्वेलरीन एवं महेन्द्र स्टोर्स आदि व्यापारिक फर्म चले । सामान्य पूंजीसे लेकर वे लाखोपति बने । सामान्य शिक्षा ज्ञान के बाद भी चार भाषा की जानकारी और प्रबल व्यापारिक ज्ञान आपकी विशेषता थी।
आजीवन खादीव्रत, हाथघंटी का पीसा हुआ धान और गायका दूध-घी कठिन व्रत वे आजीवन निभाते रहे। समाज-सुधारणा भी आपने कई प्रकारसे की।
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७८ वर्ष की आयुमें आपका पंडित-मरण हुआ जो आपके यशस्वी जीवन की यशकलगी के समान था । अर्थात् यशस्वी पुरुषों के शिरोमणि थे। ____ आपके सुपुत्र श्रीमान् भागचंदजी सा. गेलडा भी कर्मठ कार्यकर्ता हैं । जैन एन्ड नेशनल सोसायटी के आप सदस्य एवं पदाधिकारी रह चुके हैं-वर्तमानमें आप सोसायटीके सभापति हैं । गोसेवा और पांजरापोल के कार्य के लिये आप घर २ जाकर चंदा करने में संकोच महसूस नहीं करते और विगत आठेक वर्षों से आप मद्रास पांजरापोलके मंत्री हैं और उसका बहुत ही विकास किया है। द्वितीय पुत्र श्री नेमचंदजी स्वर्गवासी हुए हैं किन्तु आप भी औषधालय निमित्त ट्रस्ट करके गये हैं । तृतीय पुत्र श्री खुशालचंदजी व्यापार-कुशल हैं और कार्यभार सम्हाले हुए हैं।
इस आगम प्रकाशन के लिये जब आपके पास डेप्यूटेशन पहुंचा तब इन सुपुत्रोंने उदारता से ५००१) रू. दिये हैं एतदर्य धन्यवाद है । अन्य सज्जन भी उनका अनुकरण करें यही अभ्यर्थना है ।
. सेक्रेट्री
शास्त्रोद्धार समिति
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विषय
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र तृतीय भा. की विषयानुक्रमणिका क्रमाङ्क
चौदहवां अध्ययन १ तेतलीपुत्र प्रधानके चारित्रका वर्णन
१-१८ पंद्रहवां अध्ययन २ नंदिफलके स्वरूपका निरूपण
११-१३१ सोलहवां अध्ययन ३ धर्मरुचि अनगारके चरित्र निरूपण
१३२-१८२ ४ सुकुमारिका के चरित्रका वर्णन
१८३-२५१ ५ द्रौपदी के चरित्रका निरूपण
२५२-२९६ ६ द्रौपदी पूजा चर्चा
२९७-४२६ ७ द्रौपदी के चरित्रका वर्णन
४२७-५८५ सत्रहवां अध्ययन ८ नावसे व्यापार करने वाले वणिजोंका वर्णन
५८६-५९० ९ नावके निर्यामक का दिङ्मूढ होनेका कथन ५९१-५९५ १० कालिक द्वीपमें सुवर्ण आदिका वर्णन
५९५-५९६ ११ कालिक द्वीपमें हिरण्य आदिसे पोतकाभरना ५९७-६०० १२ कालिक द्वीपमें रहे आकीर्णाश्वों का वर्णन
६०१-६१९ १३ आकीर्णाश्चोके द्रष्टांतको दार्टान्तिक के साथ योजना ६२०-६३७
अठारहवां अध्ययन १४ सुसमा दारिका के चारित्रका वर्णन
६३८-७०७ उन्नीसवां अध्ययन १५ पुंडरीक-कंडरीक मुनिके चरित्रका वर्णन
७०८-७५२ द्वितीय श्रुतस्कंध १६ द्वितीय श्रुतस्कंध का मङ्गलाचरण
७५३-७६०
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१७ द्वितीय श्रुतस्कंधका उपक्रम
प्रथम वर्ग-पहला अध्ययन १८ कालीदेवीका वर्णन
७६१-८०५ दूसरा अध्ययन १९ रात्रीदेवीका वर्णन
८०६-८१० तीसरा अध्ययन २० रजनी दारिका के चरित्रका निरूपण
८११-८१४ दूसरा वर्ग २१ शुंभानिशुंभादि देवीयोंके चरित्रका वर्णन
८१५-८१९ तीसरा वर्ग २२ अलादि देवियोंके चरित्रका वर्णन
८२०-८२५ चौथा वर्ग २३ रूपादि देवियों के चरित्रका वर्णन .
८२५-८२८ पांचवा वर्ग २४ कमलादि देवियों के चरित्रका वर्णन
८२९-८२३ छट्ठा वर्ग २५ उत्तरदिशाके इन्द्र महाकाल आदिकोंकी अग्रमतिषियों का वर्णन ८३४-८३५
सातवां वर्ग २६ सूरमभादि देवियों के चारित्रका वर्णन
८३६-८३८ आठवां वर्ग २७ चन्द्रप्रभादि देवियों के चरित्रका वर्णन
८३९-८४२ नववा वर्ग २८ पमादिदेवियों के चरित्रका वर्णन
८४२-८४५ दशवा वर्ग २९ कृष्णादि देवियोंके चरित्रका वर्णन
८१६-८५१ ३० शास्त्र प्रशस्ति
८५२
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તા. ૧૫-૭-૬૩ ના રોજ કલાસવાર
મેમ્બરની સંખ્યા.
૨૭.
૩૨ ૧૩૩ ૫૮૬
આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, ૫૦૦૦ થી વધુ રકમ ભરનાર મુરબ્બીશ્રી, ૧૦૦૦ થી વધુ રકમ ભરનારા સહાયક મેમ્બરે, ૫૦૦ થી વધુ રકમ ભરનારા લાઈફ મેમ્બરે, ૨૫૦ થી વધુ રકમ ભરનારા બીજા નંબરના જુના મેમ્બર, ૧૫૦થી વધુ રકમ ભરનાર કુલ મેમ્બરે
૭
રૂપિયા બસે પચાસ તથા રૂપિયા પાંચ વાળા મેમ્બરે લેવાનું હવે બંધ છે. ફક્ત રૂ. ૧૦૦૧ થી મુરબ્બીશ્રી માટે ૭૦ સીતેર જગ્યા ખાલી છે અને આદ્ય મુરબ્બીશ્રી રૂા. પ૦૦૧ થી દાખલ કરવામાં આવે છે.
મેમ્બરોની સંખ્યા પૂરતાં જ શાસ્ત્રો છપાય છે જેથી પાછળથી દાખલ થનારને સૂત્રે મળવા મુશ્કેલ છે માટે જીજ્ઞાસુ ભાઈઓ તથા બહેને અમારી વિનંતી છે કે તેઓ મુરબ્બીશ્રી અથવા આદ્ય મુરબ્બીશ્રીમાં પિતાનું નામ જદી મોકલી આપે.
રાજકોટ તા. ૧૫-૭-૬૩
નમ્ર સેવક, સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ
મંત્રી.
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(સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
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(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર બારસી.
* * અમદાવાદ.
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(સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ:
કે ઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજકોટ,
શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ,
(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર બારસી,
- અમદાવાદ,
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(સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણું
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શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વિરાણું
રાજકોટ,
(સ્વ) વિનોદકુમાર વીરાણી
રાજકોટ, (દીક્ષા લીધા પહેલા શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા)
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા, લણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
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આધમુરબ્બીશ્રીએ
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(સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઇ વેલજીભાઇ વીરાણી રાજકોટ.
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી રાજકોટ.
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(સ્વ.) વિનાદાર વીરાણી રાજકા (દીક્ષા લીધા પહેલા શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા)
શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચંદજી સા.
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(સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ
અમદાવાદ.
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(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
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શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ,
સ્વ.શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ
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આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદ્રજી સા, આલિયા પાલી મારવાડ,
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શેઠશ્રી જેસિગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ.
(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ.
(સ્વ.) શેઠ ર ંગજીભાઈ માહનલાલ શાહ અમદાવાદ.
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સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ
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સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચંદ શાહ
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શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકેટ,
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આમુરબ્બીશ્રીઓ
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જોહરી દિલી શેઠ સાહેબ શ્રી કીશનચંદજી સાહેબ
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બરડિયા ૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાન
મૂલચંદજી જવાહરલાલજી બરાડયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા મિશ્રીલાલજી ૩ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
શેઠ સાહેબ શ્રી કીશનચંદજી સાહેબ
જોહરી દિલહી
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સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ
ખંભાત
૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાન | મૂલચંદજી જવાહરલાલજી બરાડયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા મિશ્રી લાલજી
અરડિયા ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ
બરડિયા
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકોટ,
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॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरक्तिया अनगार
धर्मामृतवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् . तृतीयो भागः
____ अथ चतुर्दशाव्ययनं प्रारभ्यते अस्य व्यख्यायमान चतुर्दशाध्ययनस्य व्याख्यातेन त्रयोदशेनाध्ययनेन सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने सतां गुणानां गुणाभिवर्द्धकसद्गुरूपदेशरूपसामग्र्यभावे हानिरुक्ता, इहतु-तथाविधसामग्रीसद्भावे गुणसंपदुपजायते, इत्यभिधीयते, इत्येवं पूर्वेण सहाभिसंबद्धस्यास्वेदमादिमूत्रम्-'जइणं भंते इत्यादि।
मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्त णायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, चोदसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावारणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णते? एवं खलु जंबू ! तेणं
चौदहवां अध्ययन प्रारंभःइस चौदहवें अध्ययन का तेरहवें अध्ययन के साथ इस प्रकार का संबन्ध है-तेरहवें अध्यन में जो यह बात कही गई है कि आत्मा में सम्यग्दर्शन आदि प्रकट भी हो गये, हों परन्तु यदि उन को बढाने वाली सद्गुरु आदि की उपदेश रूप सामग्री का अभाव रहे तो उन गुणों की हानि हो जाति है । इस अध्ययन में अब सूत्रकार यह स्पष्ट करेंगे कि यदि जीव को तथाविध सामग्री प्राप्त होती रहती है तो गुण संपत्ति भी बढती रहती है:-' जइणं भंते' इत्यादि ।
योभु मध्ययन प्रा२४ચૌદમા અધ્યયનને તેરમા અયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે તેરમા અધ્યયનમાં જે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે કે આત્મામાં સમ્યગ્દર્શન વગેરે પ્રગટ પણ થઈ ગયાં હોય છતાં જે સદ્દગુરૂ વગેરેની ઉપદેશ રૂપ તેમનું વર્ધન કરનાર સામગ્રી હોય નહિ તે તે ગુણોની હાનિ થઈ જાય છે. આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર હવે એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જીવને જે તથવિધ સામગ્રી મળતી રહે છે તે ગુણ સંપત્તિ પણ વધતી રહે છે.
'जइणं भंते ' इत्यादिहा १
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शाताधर्मकथागत कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उजाणे कणगरहे राया । तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी । तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे सामदंडदक्खे । तत्थ णं तेयलिपुर कलादे नामं मूसियारदारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूए । तस्स णं भद्दा नामं भारिया। तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया, भदाए अत्तया पोहिला नामं दारिया होत्था रूवेण य जोठवणेण य लावपणेण य उकिट्टा उकिट्टसरीरा । तएणं पोटिला दारिया अन्नया कयाइ पहाया सव्वालंकारविभूसिया चेडियाचकवालसंपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगासतलगंसिकणगमएणं तिंदूसएणं कीलमाणीर रिहरइ ॥ सू० १ ॥
टीका-जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन त्रयोदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः चतुर्दशस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्सम्पाप्तेन कोऽर्थः
टीकार्थ-जंबू स्वामी पूछते हैं कि ( भंते-जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं) हे भदंत! यदि श्रमण भगवान महावीरने कि जिन्होंने सिद्धिगति नाम का स्थान प्रोप्त कर लिया है (तेरसमस णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते चोदसमस्स णं भंते! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरे णं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते) तेरहवें ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है-तो हे भदंत ! चौदहवें ज्ञाताध्ययन का उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ निरूपित किया
थ-भू स्वामी पूछे छ है (भंते ! जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं) हे महत! श्रभा भगवान महावीरे-3 का सिद्ध ગતિ સ્થાનને મેળવી ચૂક્યા છે.
( तेरसमस णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, चोदसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते )
તેરમાં જ્ઞાતધ્યયનને પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદંત! તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે જ આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનને શું અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે?
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भनगारधर्मामृतवषिणो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ॥ प्रज्ञप्तः । मुधर्मा स्वामी कथयति-एवं खलु जम्बू! । तस्मिन् काले तस्मिन् समये तेतलिपुरं नाम नगरम् आसीत् । तत्र प्रमदवनं नाम उद्यानमासीत् । तस्य नगरस्य कनकरथो नाम राजाऽसीत् । तस्य खलु कनकरथस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी । तस्य खलु कनकरथस्य राज्ञः तेतलिपुत्रो नाम अमात्यः 'सामदंडदक्खे' सामदण्डदक्षः अत्र सामदण्डग्रहणाद् दानभेदयोरपि ग्रहणं तेन सामदानभेददण्डात्मकचतुर्विधोपायनिपुण इत्यर्थः आसीत् । ___ तत्र स्खलु तेतलिपुरे कलादो नाम ' मूसियारदारए ' मूषीकारदारका सुवर्णकारदारकः, ' मूपी' इति मूषापर्यायः, गौरादित्वाद्ङीष यत्र सुवर्णादि है ? ( एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरे पमयवणे उज्जाणे कणगरहे राया, । तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी ) श्री सुधर्मा स्वामी अब श्री जंबू स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देने के अभिप्राय से कहते हैं-जंबू ! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है-उस काल और उस समय में तेतलिपुर नाम का नगर था। उस में प्रमदवन नाम का उद्यान था। उस नगर के राजा का नाम कनक रथ था। इस कनकरथ राजा की रानी का नाम पद्मावती देवी था। (तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे सामदंडदक्खे । तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मुसियारदारए होत्था अड्डे जोव अपरिभूए ) उस कनक रथ राजा का अमात्य था जिस का नाम तेतलि पुत्र था । यह साम, दान, भेद और दंड इन चार प्रकार की राजनीति में विशेष पटु निपुण था। उसी तेतलिपुर में कलाद नाम का
( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उज्जाणे कणगरहे राया। तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी)
શ્રી સુધર્માસ્વામી હવે શ્રી અંબૂ સ્વામીને આ પ્રશ્નોના જવાબ આપવાની ઈરછાથી કહે છે કે હે જંબૂ! સાંભળો તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે તેતલિપુર નામે નગર હતું. તેમાં પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતું. તે નગરના રાજાનું નામ કનકરથ હતું. તે કનકરથ રાજાની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું.
(तस्स णं कगगरहस्स तेयलि पुत्ते .णामं अमच्चे सामदंडदक्खे । तत्य णं तेयलिपुरे कलादे नाम मूसियारदारए होत्था अड्रे जाव अपरिभूए)
તે કનકરથ રાજાને એક અમાત્ય (મંત્રી) હતો જેનું નામ તેતિલપુત્ર હતું. તે સામ, દાન, ભેદ અને દંડ એ ચારે પ્રકારની નીતિમાં સવિશેષ નિપુણ-કુશળ હતું. તે તેતલિપુરમાં કલાદ નામે મૂષકાર દારક (સેનીને પુત્રી
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शाताधर्मकथासूत्रे
गाल्यते सा तां करोति = साधनसामग्रीत्वेन निष्पादयति, इतिव्युत्पत्या मूषीकारइति सुवर्णकारे योगारूढोऽयं शब्दः । ' होत्या ' आसीत् । यो हि आढ्यो यावदपरिभूतः । तस्य खलु कलादस्य मूपिकारदारकस्य दुहिता भद्राया आत्मजा पोहिला नाम दारिका आसीत्, याहि रूपेण च = आकृत्या, यौवनेन च = तारुण्येन च लावण्येन च = शरीरोत्कृष्टकान्ति विशेषेण उत्कृष्टा एव उत्कृष्टशरीरासीत् । ततः खलु पोहिला दारिका अन्यदा कदाचित् स्नाता सर्वालङ्कारविभूषिता मूषीकार दारक- सुवर्णकार का पुत्र रहना था । मूषी शब्द का अर्थ सांचा है । इस में सुवर्णादि द्रव्य पिघलाये जाते है । इस सांचे को जो बनाता है उसका नाम मूषीकार है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द सुवर्णकार (सोनार) में योगारूढ हुआ है । यह मूषीकार दारक आढ्य यावत् अपरिभूत था । ( तस्स णं भद्दा नाम भारिया, तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया, भद्दाए अत्तया पोहिला नाम दारिया होत्था, ख्वेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठ सरीरा ) इस मूषिकार दारक कलाद-सौनी की अत्यन्त प्रिय पोहिला नाम की लड़की थी जो इस की पत्नी भद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी । यह आकृति से, यौवन से एवं लावण्य से शारीरिक उत्कृष्ट कांति से बहुत ही अधिक मनोहर थी- -अतः इस का शरीर बहुत अधिक उत्तम था । (तएणं पोहिला दारिया अन्नया कयाई व्हाया सव्वालंकाररहेता हतो. 'भूषी' शब्दनो अर्थ सांथो ( जीयु ) छे. तेमां सोनुं वगेरे દ્રવ્ય એગાળવામાં આવે છે. આ સાંચાને મનાવનારનું નામ મૃષીકાર છે. આ વ્યુત્પત્તિને લઇને આ શબ્દ સુવર્ણકાર ( સેાની ) માટે ચેાગારૂઢ થઈ ગયા છે. તે મૂષિકારદારક આઢય ( ધનવાન ) યાવત્ અભૂિત હતા.
( तस्स णं भदा नाम भारिया तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया भाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्या, रूवेण य जोवणेण य लावण्णेणं उक्कट्टा उक्कडसरीरा )
તે કૃષિકારદારક કલાદ સાનીની ખૂબ જ વહાલી પાટ્ટિલા નામે પુત્રી હતી જે તેની પત્ની ભદ્રાના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થઈ હતી તે આકૃતિથી, યૌવનથી, લાવણ્યથી—શરીરની ઉન્નલ-કાંતિથી બહુ જ મનેાહર હતી, એથી તેનું શરીર ખૂબ જ ઉત્તમ હતું.
( तणं पोटिलादारिया अन्नया कयाई व्हाया सव्वलंकारविभूसिया चेडियाचक्कवाल संपरिवुडा उपि पासायवरगया आगासतलगंसि कणगमएणं विंदुसएवं कलमाणी २ विरह )
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५ 'चेडियाचक्कबालसंपरिखुडा' चेटिकाचक्रवालसंपरिवृता-चेटिकाः दास्यस्तासां यच्चक्रवाल मण्डलं तेन संपरिवृता-सहिता दासीसमूहपरिवेष्टितेत्यर्थः, उपरिप्रासादवरगता प्रासादोपरिस्थिता-आकाशतले अनावृतप्रदेशे 'छत्त' इति प्रसिद्ध कनकमयेन स्वर्णनिर्मितेन 'तिंदसएणं' तिन्दूसकेन कन्दुकेन क्रीडन्ती २ विहरति ॥ मू० १॥
मूलम्-इमं च णं तेयलिपुत्ते अमच्चे पहाए आसखंधवरगए महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते आसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्त मूसियारदारगस्त गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयइ। तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे२पोटिलंदारियं उप्पिं पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासइ, पासित्ता पोटिलाए दारियाए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता. एवं वयासी - एसा णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया ? किं नामधेजा ?। तएणं कोडंवियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एसा णं सामी ! कलायस्स मूसियारदारगस्स धूया, भद्दाए अत्तया पोटिला नामं दारिया रूवेण यजाव उकिट्ठसरीरा।तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओपडिनियत्ते समाणे विभूसिया चेडियाचक्कवालसंपरिबुडा उप्पि पासायवरगया आगास तलगंसि कणगमएणं तिंदूसएणं कीलमाणी २ विहरइ ) एक दिन की बात है कि यह स्नान कर के तथा समस्त आभरणों से विभूषित हो करके अपनी दासियों के साथ प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण निर्मित कन्दुक (गेंद ) से क्रीडा कर रही थी। सूत्र ॥ १॥
એક દિવસે તે સ્નાન કર્યા બાદ પોતાના બધા અંગેને ઘરેણાંઓથી શણગારીને પોતાની દાસીઓની સાથે મહેલની ઉપરની અગાશીમાં સેનાથી બનાવવામાં આવેલી દડીથી રમી રહી હતી. સૂત્ર “૧” .
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शांताधर्मकथासूत्रे
अभितरट्टाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता, एवं वयासीगच्छहणं तुभे देवाणुपिया ! कलादस्स मूसियारदारयस्स धूयं भद्दाए अन्तयं पोहिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह | तणं ते अभंतरट्टाणिजा पुरिसा तेतलिणा एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्टा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कह तहत्ति किच्चा जेणेव कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया । तएण से कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठित्ता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता, आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता, आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासीसंदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं ? तणं ते अभितरट्ठाणिजा पुरिसा कलायं मूसियदारयं एवं वयासीअम्हे णं देवाप्पिया ! तव धूयं भद्दाए अन्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियन्ताए वरेमो, तं जइ णं जाणसि देवाणु - प्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो संजोगो ता दिज्जउणं पोहिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, तो भण देवाणुप्पिय ! किंदलामो सुकं ? तरणं कलाए मूसियारदारए ते अभितरट्टाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी - एस चेत्र णं देवाणुप्पिया ! मम सुक्के, जन्नं तेथलिपुत्ते मम दारिया निमित्तेणं अणुग्गहं करेइ । ते अभितरठाणिजे पुरिसे विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं मे पुष्कवत्थ जाव महालंकारेणं सकारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइं । तएणं ते कलायस्स मूसिया
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भनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् . रदारयस्त गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमदं निवदंति ॥ सू० २ ॥ ___टीका-'इमं च णं' इत्यादि । अस्मिंश्च खलु समये तेतलिपुत्रोऽमात्यः स्नातः 'आसखंधवग्गए' अश्वस्कन्धवरगतः अश्वारूढः 'महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते महाभटचटकरबन्दपरिक्षिप्तः महान्तो भटचटकराः भटसमृहाः तेषां बन्दैः समूहैः परिक्षिप्तः परिवृतः सन् 'आसवाहणियाए ' अश्ववाहनिकायै अश्ववाहनेन क्रीडनार्थ -णिज्जायमाणे 'निर्यान-निर्गच्छन् कलादस्य मूषीकारदारकस्य गृहस्य अदूरसामन्तेन पार्श्वभागेन · वीइवयइ 'व्यतिव्रजति गच्छति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो मूपीकारदारकस्य गृहस्य अदूरसामन्तेन व्यतित्रजन् पोट्टिलां दारिकाम्
इमं च णं तेयलि पुत्ते अमच्चे' इत्यादि। टीकार्थ-इमं च णं) इसी समय (तेयलिपुत्ते अमच्चे बहाए आसखं. धवरगए महया भटचडगरवंदपरिक्वित्ते आसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदरसामंतेणं वीइवयइ) तेलि पुत्र अमात्य स्नान से निबट कर घोड़े पर चढा हुआ बड़े २ भट समूहों के वृन्दों से घिरा होकर अश्वक्रीडा के लिये मूषीकारदारक कलादके (ोनार) मकानके पास से निकला । (तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे २ पोटिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिदूसएणं कीलमाणी पासइ ) मूषोकार दारक कलाद के मकान के पास से होकर जाते हुए
'इमं च णं तेयलिपु अमच्चे' इत्यादि
At-( इमं च णं) ते मते (तेयलिपुत्ते अमच्चे पहाए आसखंधवरगए महया भटचडगरवंदपरिक्खित्ते आसवाहाणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अद्रसामतेणं वीइवयइ)
તેતલિપુત્ર અમાત્ય સ્થાનથી પરવારીને ઘોડા ઉપર સવાર થયા અને ત્યારપછી વિશાળ ભટે (દ્ધાઓ) ના સમૂહથી વીંટળાઈને અશ્વક્રીડા માટે મૂવીકારદારક કલાદના ઘરની પાસે થઈને નીકળ્યા. (तएणं से तेयलिपुत्ते मूसियादारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणे२ पोट्टिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासइ)
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गस उपरि प्रासादवरगतामाकाशतले कनकतिन्दूसकेन क्रीडन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा, पोट्टि लाया दारिकाया रूपे च यौवने च लाइण्ये च 'जाव अझोववन्ने ' यावत्-मूच्छितः, गृद्धः, ग्रथितः, अध्युपपन्नः = अत्यन्नसक्ताइत्यर्थः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता, एवमवदत्-एपा खलु देवानुप्रियाः ! कस्य दारिका किं नामधेया ? । ततः खलु कौटुम्धिकपुरुषाः तेतलिपुत्रम् एवमवदन्-एषा खलु स्वामिन् ! कलादस्य मूषीकारदारकस्य दुहिता, भद्राया आत्मजा पोटिला नाम दारिका रूपेण च उस तेतलिपुत्र अमात्य ने प्रासाद के ऊपर छत पर सुवर्ण की कन्दुक ( गेंद ) से क्रीडा करती हुइ उस पोट्टिला दारिका को देखा । (पासित्ता पोहिलाए दारियाए रूवे य जाव अझोववन्ने कोडुबियपुरिसे सहावेह सद्दावित्ता एवं वधासी-एसा णं देवाणुप्पिया कस्स दारियो ? किं नाम धेज्जा?) देख कर वह उस पोट्टिला दारिका के रूप, यौवन एवं लावण्य में मूर्छित, गृद्ध, नथित बनकर उस पर अत्यन्त आसक्ति मे युक्त हो गया। उसी समय उस ने कौटुम्यिकपुरुषों को बुलाया-धुलाकर उन से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो! कहो यह कन्या किसकी है और इसका नाम क्या है ? ( तएणं कोडंघियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एसा णं सामी ! कलायस्स मूसियारदारगस्म धूया भद्दार अत्तया पोट्टिला नोमं दारिया स्वेण य जाव उकटुसरीरा) उन कौटुम्बिक पुरुषों ने तेतली पुत्र से ऐसा कहा-हे स्वामिन् ! यह मूषीकार दारक कलाद की पुत्री है जो भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न हुई है।
મૂષિકારધારક કલાદના ઘરની પાસે થઈને જતા તે તેતલિપત્ર અમા મહેલના ઉપરની અગાશી ઉપર સોનાની દડીથી રમતી તે પદિલા દારિકાને જોઈ (पासित्ता पोटिलाए दारिभाए रूवे य जाव अज्झोववन्ने कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी एसा णं देवाणुप्पिया कस्स दारिया ? किं नामधेज्जा?)
તે પિટિલા દારિકાને જોઈને તે તેના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમાં મૂચ્છિત શ્રદ્ધ, ગ્રતિ બનીને અત્યંત આસકત થઈ ગયે. તરત જ તેણે કૌટુંબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેણે તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવા નુપ્રિયે ! બોલ, આ કન્યા કોની છે અને એનું શું નામ છે?
(तएणं कोडुबियपुरिसा तेयलिपुत्त एवं वयासी-एसा णं सामी । कलायस्स मूसियारदारगस्स धूया, भदाए अत्तया पोटिला नामं दारिया रूवेण य जाव उक्किट्ठ सरीरा)
તે કૌટુંબિક પુરૂએ તેતલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન! તે મૂષિકારદારક કલાદની પુત્રી છે અને ભદ્રાભાર્યાના ગર્ભથી તેને જન્મ થયે
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् यावत्-उत्कृष्टशरीरा अस्ति । ततः खलु स तेतलिपुत्र अश्ववाहनिकायाः प्रतिनिवृतः-प्रत्यागतः सन् ' अभितरवाणिज्जे' अभ्यन्तरस्थानीयान अन्तरङ्गप्रेष्यपुरुषा शब्दयति, शब्दयित्या एवमवदत्-गच्छत र लु यूयं देवानुप्रियाः! कलादस्य मूषीकारदारकस्य दुहितरं भद्राया आत्मनां पोटिला दारिकां मम भार्यात्वेन वृणुत । हे देवानुप्रियाः यूयं तथा प्रयतथ्यम् , यथा स मूषीकारदारकः स्वदुहितरं मम भार्यात्वेन मह्यं दद्यादितिमारः। ततः खलु ते आभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषास्तेतलिना एवमुक्ताः सन्तो हृष्ट तुष्टाः करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलि कृत्वा, 'तहत्ति' तथेति तथा करिष्यामीति 'किचा' कृत्वा स्वीकृत्य यत्रोव कलाइस का नाम पोटिला है। रूप आदि से यह बहुत ही उत्कृष्ट शरीर वाली है। (तएणं से तेयलिपुत्ते आप्तवाहणिएओ पडिनियत्त समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी, गच्छहणं तुम्भे देवाणुपिया ! कलादस्स मूसियारदारयस्त धूय भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्साए बरेह) इस के बाद वह तेतलि पुत्र अमात्य, अश्ववाहनिका से पीछे जब लौटा तो लौटते ही उसने अपने अन्तरंग प्रेष्य पुरुषों को बुलाया-और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहाहे देवानुपियों ? तुम लोग जाओ-और मूषीकार दारक कलाद की पुत्री जिसका नाम पोटिला है, जो भद्रा की कुक्षि से उत्पन्न हुई है उसे मेरी भार्यारूप से वरआओ। तात्पर्य इस का यह है कि तुमलोग वहां जाकर ऐसा प्रयत्न करो कि जिस से वह मूषीकारदारक कलाद अपनी पुत्री को पत्नी के रूप में मुझे दे देवें। (तएणं ते अभंतरठाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुट्टो करयल परिग्गहियं सिरसा છે. તેનું નામ પદિલા છે. તે રૂપ વગેરેથી ખૂબ જ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે.
(तएणं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडि नियत्ते समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सदावेद सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्स मसियारदारयस्स धूयं भदाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह )
ત્યારપછી તે તેતલિપુત્ર અમાત્ય અશ્વવાહુતિકાથી ઘેર પાછો આવ્યો ત્યારે આવતાંની સાથે જ તેણે પોતાના-અન્તર ગ શ્રેષ્ય પુરૂને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જાઓ અને મૂષીકારદારક કલાદની પુત્રી છે–કે જેનું નામ પિક્રિયા છે, અને જે ભદ્રાના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થઈ છે તેને ભાર્યા રૂપમાં મને આપો. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે તમે લેકે ત્યાં જઈને એવી કેશિશ કરે કે જેથી તે મૂષીકારદારક કલાદ પિતાની પુત્રીને પત્ની રૂપમાં મને આપી દે,
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दस्य मूषीकारदारकस्य गृहं तत्रैव आगताः। ततः खलु स कलादो मूपी कारदारकः तान् अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषाने जमानान् पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टोऽतिशयप्रमुदितः आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय तान् सम्मानयितुं तेगामभिमुखं सप्ताष्टपदानि वत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु तहत्ति किच्चा जेणेव कलायरस मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया ) इस प्रकार तेतलि पुत्र के द्वारा कहे गये वे अन्तरंग प्रेष्य पुरुष हृष्ट तुष्ट होते हुए वहां से निकल कर मूषीकार कलाद का जहां घर था वहां आये। आते समय उन्होंने तेतलि पुत्र को दोनों हाथों की अंजलि बनोकर और उसे मस्तक पर रख कर नमः स्कार किया-और हम ओपने जैसा कहा है वैसा ही करेंगे इस बात को उसे आश्वासन देकर स्वीकार किया था। (तएणं से कलाए मूसिचारदारए ते पुरिसे एजमाणे पासइ, पासित्ता हट्ट तुटूटे आसणाओ अब्भुटूठेइ, अन्भुट्टित्ता सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ, उवणिमंतित्ता आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी संदिसतु णं देवोणुप्पिया! किमागणपओयणं-तएणं ते अ. भितरठाणिज्जा पुरिसा कलायं मूसियदारयं एवं वयासी) जब उस मूषीकार दारककलादने उन पुरुषों को आपने घर की ओर आते हुए देखो-तो वह देखकर हष्ट तुष्ट हो अपने आसन पर से उठ बैठा-उठ
(तएणं ते अभंतरठाणिज्जा पुरिसा तेतलिगा एवं बुत्ता समागा हट्टट्ठा करयलारिग्गहियं सिरसावत्त मत्थए अंजलि कडु तहत्ति किचा जेणे कलायस्स मूसियारस्स गिहे तेणेव उवागया)
આ રીતે તેતલિપુત્રે જેઓને આદેશ આપ્યો છે એવા તે અંતરંગ પ્રેગ્ય પુરૂષ હષ્ટ તુષ્ટ થતાં ત્યાંથી રવાના થઈને મૂષીકાર કલાદનું જ્યાં ઘર હતું ત્યાં પહેંચ્યા. તેતલિપુત્રની પાસેથી પાછાં ફરતાં તેઓએ બંને હાથોની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને અમે આપે જેમ હુકમ કર્યો છે તેનો યથાવત પાલન કરીશું. આ રીતે તેમની આજ્ઞા તેઓએ સ્વીકારી.
( तएणं से कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हट्ठतु। आसणाओ अभुट्टेइ, अब्भुद्वित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणेणं उपणिमंतेइ, उपणिमंतित्ता आसत्थे सुहासणवरगए एवं बयासी संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं-तएणं ते अभितरठाणिज्जा पुरिसा कलायं मूसियदारयं एवं वयासी)
મૂષીકારદારક કલાદે જયારે તે પુરૂને પિતાના ઘર તરફ આવતા જોયા ત્યારે તે જોઈને હૃષ્ટ તુષ્ટ થઈને પિતાના આસન ઉપરથી ઊભું થઈ ગયે અને
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ११ गत्वा तानग्रे कृत्वा स्वयम् 'अणुगच्छइ' अनुगच्छति, तेषां पृष्ठवर्तीभूत्वा गच्छति, अनुगम्य, आसनेन उपनिमन्त्रयति आसनदानेन तान् पुरुषानुपवेशयति, उपनिमन्त्र्य, आस्वस्थः, विस्वत्यः एतेषाममात्यपुरुषाणां सत्कारो यथावज्जात इति हेतोः सस्थमनाः भूत्वा सुखासनबरगतः स्वयमपि स्वकीयासने मुखोपविष्टः सन् एवमवदत्-संदिशन्तु खलु हे देवानुप्रियाः! भवतां किमागमनप्रयोजनम् ? ततः खलु ते आभ्यन्तरस्थानीयाः पुरुषाः कलादं मृपीकारदारकम् एवमवदन्-वयं खलु देवानुप्रिय ! तव दुहितरं भद्राया आत्मजां पोट्टिला दारिकां तेतलिपुत्रस्य भार्यात्वेन तृणुमः, तद् यदि खलु त्वं जाणसि' जानासि-मन्यसे, हे देवानुप्रिय! यद् अस्माकमेतत्त्वत्कन्याविषयकं याचनं ' जुत्तं वा ' युक्तं वा-उचितम् ' पत्तं वा' प्राप्तं वा मनसिसंलग्नं वा 'सलाहगिज्ज वा' श्लाघनीयं वा-प्रशंसनीयं वा अपि च 'सरिसो वा संजोगो' सहशो वा संयोगः तेतलिपुोग सह तब कन्याया वैवाहिकः कर फिर वह सात आठ डग प्रमाण आगे उन का सत्कार करने के लिये गया। वहां से उन्हें आगेकर के वह स्वयं उनके पीछे २ आया। आकर के फिर उसने उन्हें आसनों पर बैठाया-बैठा कर आश्वस्त विश्वस्त होकर बाद में वह स्वयं दूसरे अपने आसन पर शान्ति पूर्वक बैठ गया। बैठ जाने के बाद फिर उसने इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो ! कहिये-किस कारण से आप यहां पधारे हैं-आपलोगों के आने का क्या प्रयोजन है-इस प्रकार उसके पछने पर उन अभ्यन्तर स्थानीय पुरुषों ने उस सुवर्णकार के पुत्र कलाद से इस प्रकार कहा ( अम्हे पं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भद्दाए अत्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए परेमो, तं जाणं जाणसि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संमोगो ता दिज उणं पोट्टिला दारिया तेयलि. ઊભો થઈને તેમના સ્વાગત માટે સાત આઠ પગલાં સામે ગયે. ત્યાંથી તેણે આવનારાઓને આગળ કરીને એટલે કે પિતે તેઓની પાછળ પાછળ ચાલતે ત્યાં આવ્યું અને આવીને તેણે તેઓને આસનો ઉપર બેસાડયા. ત્યારપછી આશ્વસ્ત વિશ્વસ્ત થઈને તે પિતે બીજા આસન ઉપર શાંતિપૂર્વક બેસી ગયે. બેસીને તેણે તેઓએ વિનય પૂર્વક કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! બોલ, તમે શા કારણથી અહીં આવ્યા છે ? તમે શા પ્રજનથી આવ્યા છે ? આ રીતે કલાદ ( સવકાર) ની વાત સાંભળીને તે આત્યંતર સ્થાનીય પુરૂએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(अम्हेण देवाणुप्पिया ! तव धूयं भदाए अत्तयं पोटिलं दारियं तेयलि पुनस्स भारियत्ताए बरेमो, तं जाणं जागसि देवाणुप्पिय ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज
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शाताधर्मकथाङ्गसूत्र सम्बन्धो योग्यो भवतीति, यदि जानासि तदा दीयतां खलु पोटिला दारिका तेतलिपुत्राय 'तो' तर्हि भण-ब्रूहि, हे देवानुप्रिय ! किं दद्मः शुल्कम् सम्मानपुरस्कार भवते किं समययामः । ततः खलु कलादो मूपीकदारकः अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् एवमवदत्-एतदेव खलु देवानुप्रियाः ! मन शुल्कम् , यत्खलु तेतलिपुत्रो मम दारिकानिमित्तेन अनुग्रह-दयां करोति । इत्युक्तमाऽसौ तान् अभ्यन्तरस्थानीपुत्तस्स तो भण देवाणुप्पिया! किं दलामो सुक्कं ? तएणं कलाए मूसियार दारए ते अभितरठाणिज्जे पुरिसं एवं वयासी) हे देवानुप्रिय हम लोग तुम्हारी पुत्री पोटिला दारिका को कि जो भद्राकी कुक्षि से उत्पन्न हई है तेतली पुत्र अमात्य की वह भार्या बने इस रूप से वरण करने के लिये आये हुए हैं-तो यदि तुम हे देवानुप्रिय ! हमारी इस याचना को उचित, प्राप्त, और इलाघनीय-प्रशंसनीय मानते हो और यह समझते हो कि यह तेतलिपुत्र के साथ तुम्हारी कन्या का वैवाहिक संबंध योग्य है-तो पोट्टिला दारिका तेतलि पुत्र के लिये प्रदान कर दो-और साथ में यह भी कह दो कि हम आपके लिये इस निमित्त क्यो सम्मान पुरस्कार देवें । इस प्रकार उन सब की ऐसी बाते सुनकर उस सुवर्ण कार पुत्र कलादने उन आये हुए अभ्यंतर स्थानीय पुरुषों से इस प्रकार कहा-(एस चेव णं देवाणुप्पिया ! मम सुस्के जन्नं तेयलिपुत्तेमम दारिया निमित्तेणं अणुग्गहं करेइ, ते अमितर हाणिज्जे पुरिसे वा सरिसो वा संजोयो ता दिज्जउणं पोटिला दारिया तेयलिपुत्तस्स तो भण देवाणुप्पिया ! किंदलामो सुकं तएणं कलाए मूसियारदारए ते अम्भितरठाणिज्जे पुरिसं एवं वयासी)
હે દેવાનુપ્રિય! તમારી ભદ્રા ભાર્યાને ગર્ભથી જન્મ પામેલી તમારી પિદિલા દારિકા અમાત્ય તેટલીપુત્રની ભાર્યા થાય આ જાતની માંગણી કરવા અમે તમારી પાસે આવ્યા છીએ. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તેતલિપુત્રની માંગણી ઉચિત, લાઘનીય અને પ્રશંસનીય માનતા હોય તેમજ એમ પણ તમને થતું હોય કે અમાત્ય તેતલિપુત્રની સાથે આ લગ્ન સંબંધ યગ્ય છે તે તમે અમાત્ય તેતલિપુત્રને પિફ્રિલાદારિકા આપી દે અને એની સાથે તમે અમને એમ પણ જણાવી દે કે તમને અમે એના બદલ સન્માન પુરસ્કારના રૂપમાં શું આપીએ? આ રીતે તેઓ બધાની વાત સાંભળીને તે સુવર્ણકારના પુત્ર કલાદે આધંતર સ્થાનીય પુરૂષોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(एस चेव णं देवाणुप्पिया ! मम सुक्के जन्न तेयलिपुत्ते मम दारिया
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गारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
१३
यान् पुरुषान् विपुलेन अशनपानखाद्यस्याचेत पुनखगन्धमाल्यालंकारेण च सत्करोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य, प्रतिविसर्जयति । तत- खलु ते = आभ्यन्तर स्थानीयाः पुरुषाः कलादस्य मूवीकारदारकस्य गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यन्ति, प्रतिष्क्रिम्य यत्रैव तलिपुत्रोऽमात्य तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तेतलिपुत्राय अमात्याय 'एयमहं ' एतमर्थम् = विवाहस्य स्वीकृतिरूपमर्थं निवेदयन्ति ॥ ०२ ॥
,
विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्कवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेड़, सक्कारिता, सम्माणित्ता पडि विसज्जेह । तएर्ण ते कलायस सूसियारदारयस्स गिहाओ पडिनिक्वमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे, तेणेत्र उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमहं निवेदेति ) हे देवानुप्रियो । मेरा सन्मान पुरस्कार यही है कि जो तेतलि पुत्र दारिका के निमित्त से मेरे ऊपर ऐसी दया कर रहे हैं - अर्थात् मेरी पुत्री को जो वे अपनी पत्नी बनाने की चाहना कर रहें यही सब से बड़ा उन की ओर से मेरे लिये सन्मान पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है । इस प्रकार कह कर उस कलाद ने उन अभ्यंतर स्थानीय पुरुषों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से एवं पुष्प, वस्त्र, गंध माला एवं अलंकारों से खूब सत्कार किया - सन्मान किया । सत्कार एवं सन्मान करने के बाद फिर उसने उन्हें विसर्जित कर दिया। वहां से विसर्जित होकर वे अभ्यंतर स्थानीय निमित्तेणं अगुग्गहं करेड़, ते अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्कवत्थ जात्र मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ । तरणं ते कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेत्र ते यलिपुत्ते अमच्चे, तेणेव उवागच्छति, उबाग- च्छित्ता तेयलिपुत्तस्स अमञ्चस्स एयमहं निवेदंति )
હે દેવાનુપ્રિયે ! અમાત્ય તૈતલિપુત્ર મારી દારિકાને સ્વીકારવા રૂપ 2 મારા ઉપર દયા મતાવી રહ્યા છે તે જ ખરેખર મારા માટે સન્માન અને પુરસ્કારની જ વસ્તુ છે. એટલે કે તેએ મારી પુત્રીને પેાતાની પત્ની પત્ની તરીકે ઇચ્છી રહ્યા છે, એજ તેમના તરફથી મારા માટે સન્માન અને પુરસ્કાર રૂપ છે. આ રીતે કહીને તે કલાદે આભ્ય'તર સ્થાનીય પુરૂષના વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યથી અને પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગંધ, માળા અને અલંકારાથી ખૂબ જ સરસ રીતે સત્કાર કર્યાં અને તેમનું સન્માન કર્યુ. સત્કાર અને સન્માન કર્યાં પછી તેણે તેમને વિદાય આપી. ત્યારપછી તે આભ્યંતર સ્થાનીય પુરૂષો તે સુવણુ -
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शाताधर्मकथाजस्ले . मूलम्.-तएणं कलाए मूसियारदारए अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुत्तसि पोटिलं दारयं पहायं सव्वा. लंकारभूसियं सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तणाइसंपीरबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सव्विड्डीए तेयलीपुरं मज्झं मझेणं जेणेव तेयलिस्तगिहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पोटिलं दारियं तेयलिपुत्तस्त सयमेव भारियताए दलयइ । तएणं तेयलिपुत्तं पोटिलं दारियं भारियत्ताए उव. णीयं पासइ, पासित्ता पोटिलाए सद्धिं पट्टयं दूरूहइ, दूरूहित्ता सेयपीएहिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावेइ, करावित्ता पाणिग्गहणं करेइ, करित्ता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेगं असगपाणखाइम साइमेणं पुप्फ जाव पडिविसज्जेइ। तएणं से तेयलिपुत्ते पोटिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाइं जाव विहरेइ॥सू०३॥ . टीका-'तएणं' इत्यादि, ततः खलु कलादो मूषी कारदारकः अन्यदा कदाचित् 'सोहणंसि' शोभने-शुभावहे विवाहयोग्ये 'तिहिनक वत्तमुहुनंसि' तिथिनक्षत्रमुहूर्ते पुरुष उस सुवर्णकार पुत्र कलाद के घर से निकले और निकल कर जहां तेतलि पुत्र अमात्य था वहां आये-यहां आकर उन्हों ने तेतलि पुत्र अमो. त्य को विवाह स्वीकृति रूप अर्थ की खबर दी। सूत्र ॥ २ ॥
"तएणं कलाए मूसियारदारए” इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद ( मूसियारदारए ) मूषी कार दारक ने ( अनया कयाइं ) किसी एक समय (मोहणंमि तिहिनखत्तमुहत्तंसि કાર પુત્ર કલાદના ઘરથી નીકળ્યા અને ત્યાંથી જ્યાં અમાત્ય તેતલિપુત્ર હતો ત્યાં પહોંચ્યા. અમાત્ય તેતલિપુત્રની પાસે જઈને તેઓએ રકતસંબંધ સ્વીકા२१॥ ३५ ॥२ माची. ॥ सूत्र " २ ॥
'तएणं कलाए मूसियारदारए' इत्यादि
Ast-(तपणं ) त्या२५७ (मूसियारदारए) भूपी४।२ ४.२ ( अन्नया याई) 5 मे मते
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी०४० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम १५ पोट्टिलां दारिकां स्नतां सर्वालङ्कारभूषितां 'सीयं ' शिविका दृरोहयति आरोहयति, दूरोह्य आरोह्य मित्तणाइ संपरिबुडे' मित्रज्ञाति संपरिहतः मित्रज्ञाति स्वजनसंबन्धिपः रिवेष्टितः, सर्वान् वैवाहिकान् संभारान्-विवाहसंस्कारोचित सामग्रीन् गृहीत्वा स्वकाद् गृहात् पतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य 'सब्जिनोएसर्वदया-सर्वप्रकारिकया ऋद्धया सह 'तेयलिपुरं' तेतलीपुरस्य मध्यमध्येन निर्गच्छन् यत्रैव तेतले हं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पोटिला दारिका तेतलिपुत्राय स्वयमेव भार्यात्वेन ददाति । ततः खलु तेतलिपुत्रोऽमात्यः पोटिला दारिकां स्वभार्यात्वेन ' उवणीयं ' उपनीपोटिलं दारियं महायं सयालंकारविभूसियं मीय दुरूहइ ) शुभ तिथि नक्षत्र, मुहर्त में पोटिला दारिको को स्नान करा कर समस्त अलंकारों से विभूषित किया और विभूषित कर के फिर उसे शिविका पर बैठा दिया-( दुरूहित्ता मित्त गाइ संपरिवुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिवमित्ता सविड़ीए तेयली पुरं सज्झं मज्झे णं जेणेव तेयलिस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ ) बैठा कर फिर वह मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों से परिवेष्टित होकर एवं वैवाहिक समस्त सामग्री को लेकर अपने घर से निकला । निकल कर सर्व प्रकार की अपनी ऋद्धि के साथ २ तेतलि पुर के बीच से होता हुआ जहां तेतलि का घर था वहां पहुँचा। वहां पहुँच कर उसने अपनी पुत्रो पोटिला दारिका को तेतलि पुत्र को अपने आप से भार्या रूप से प्रदान कर दी। (तएणं ___ (सोहणसि तिहिनक्खत्तमुहुत्त सि पोट्टिलं दारिय हाय सब्यालंकार, भूसियं सीयं दुरूहइ)
શુભ તિથિ નક્ષત્ર, મુહૂર્તમાં પિફિલા દારિકાને સ્નાન કરાવીને બધી જાતના અલંકારોથી શણગારીને તેને પાલખીમાં બેસાડી દીધી.
( दुरुहिता मित्तणाइसंपरिबुडे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख. मित्ता सब्धिडीए तेयलीपुरं मज्झ मज्झेणं जेणेव तेयलिस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोट्टिल दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ता दलयड )
બેસાડીને તે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સંબંધી અને પરિજનેની સાથે લગ્નની બધી સાધન સામગ્રી લઈને ઘેરથી નીકળ્યો. નીકળીને તે અર્વ પ્રકારની પિતાની ઋદ્ધિની સાથે તેતલિપુરની વચ્ચે થઈને જ્યાં તેલિકાનું ઘર હતું ત્યાં પહોંચે ત્યાં પહોંચીને તેણે પિતાની પુત્રી પિફ્રિલા દારિકાને તેટલી પુત્રને તેની ભાર્યાના રૂપમાં આપી દીધી.
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शाताधर्मकथासूत्रे ताम् उपनयनीकृतां पति, दृष्ट्वा पोटिलया साई पट्टकं दूरोहति, दुरुह्य · सेय पीरहिं ' श्वेतपीतै := रजतसुवर्णनिर्मितैः 'कलसेहिं ' कलशैः घटैः आत्मानं 'मज्जावेइ ' म जतिनपयति, मज्जयित्वा अग्निसाक्षिको विवाह इति हेतोः 'अग्गिहोम करावेई 'अग्निहोमं कारयति, कारयित्वा 'पाणिग्गहणं' पाणिग्रहणं%D विवाहं करोति, कृत्वा पोटिलाया भार्यायाः ‘मित्तगाइ जाव परिजणं ' मित्र ज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनम् पिपुलेन अशनपान वाद्यस्यायेन चतुर्विधाहारेण तेयलिपुत्ते पोटिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासह, पासित्तो पोष्टिलाए महिं पट्टयं दुरूहइ ) तेतलिपुत्र अमात्य ने पोटिला दारिका को अपनी भार्या रूप से अपने लिये प्रदान की हुई देखा तो देख कर वह उस पोट्टिला दारिका के साथ पटक पर बैठ गया। (दुरुहिता सेयपीएहिं कलसेहिं अपाणं मज्जाइ, मजाविता अग्गिहोम करावेइ, करावित्ता पाणिग्गहणं करेइ करित्ता पोष्टिलाए भारियाए मित्त गाइ जाव परिजणं विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमेणं पुष्क जाव पडिविसज्जेइ। तएणं से तेयलिपुत्ते पोटिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाइं जाव विहरेह ) बैठ कर फिर उसने रजत एवं सुवर्ण से निर्मित कलशों द्वारा अपना अभिषेक कर पाया। अभिषेक करवा कर " अग्नि साक्षिक विवाह होता है" इस ख्याल से फिर उसने अग्नि में होम करवाया। करवा कर बाद में उसने उस पोट्टिला दारिका का पाणि ग्रहण कर लिया। विवाह हो चुकते के अनन्तर फिर उस तेतलि पुत्र अमात्य ने - (तएणं तेयलिपुत्ते पोटिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासइ, पासित्ता पोटिलाए सद्धिं पट्टयं दुरूहइ)
તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિટિલા દારિકાને તેની ભાર્યા રૂપમાં આપેલી જોઈને તે પટ્ટિકા દરિકાની સાથે પટ્ટક ઉપર બેસી ગયે.
(दुरुहिता से यपीएहिं कलसेहिं अपाणं मज्जावेइ, मज्जावित्ता- अग्गिहोम करावेइ, करावित्ता पोटिलाए भारियाए मित्तणाइ जाव परिजणं विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमेणं पुष्फ जाव पडिविसज्जेइ । तएणं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए भारियाए अणुरते अविरत्ते उरालाइं जार विहरेइ )
બેસીને તેણે ચાંદી અને સોનાના કળશે વડે પિતાનો અભિષેક કરાવડાવ્યો. અભિષેક કરાવડાવીને તેણે “અગ્નિ સાક્ષિક લગ્ન થાય છે' આમ વિચારીને તેણે અગ્નિમાં હવન કરાવડાવ્યો. ત્યારપછી તેણે પોટિલા દારિકાનું પાણિ ગ્રહણ કર્યું. લગ્નની વિધિ પૂરી થયા બાદ તેતલિપુત્ર અમાત્યે
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बनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १७. 'पुप्फजाव' पुष्पयावत्-पुष्पवस्त्रादिना यावन्माल्यालङ्कारादिना सत्कारय ति, सत्कार्य ' पडिविसज्जेइ ' प्रति विसर्जयति । ततः खलु स तेतलिपुत्रोऽमात्यः पोट्टिलाशं भार्यायाम् 'अणुरते' अनुरक्तः आसक्तः 'अविरत्ते ' अविरक्ता अत्यन्तानुरक्त इत्यर्थः, 'उरालराई जाव' उदारान् यावत्-उदारान् भोगभोगान् विषयभोगान् भुआनो विहरति ।। सू०३ ।।
मूलम्-तएणं से कणगरहे राया रज्जे य रट्रे य बले य बाहणे य कोसे य कोट्रागारे य अंतेउरे य मुच्छिए४ जाए पुत्ते वियंगेइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्टए छिदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्टएचि, कन्नसक्कुलीएवि, नासापुडाई फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ । तएणं तीसे पउमावईए देवोए अन्नया पुठवरत्तावरत्तकालसमयसि अयभेयारूव अज्झस्थिए५ समुप्पज्जित्था एवं खल्लु कणगरहे राया रज्जे व जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अंगमंगाई वियंगेइ । तं जइ अहं दारथं पयायामि, सेयं खलु मर्म
तं दारगं कणगरहस्ल रहस्तियं चेव सारक्खेमाणीए संगो. पोटिला भार्या के मित्र, ज्ञाति, स्वजन संबन्धि परिजनों का असन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार से तथा पुरुष, वस्त्र यायन माल्य अलंकार आदि से सत्कार करवाया, सत्कार करवाने के बाद फिर उन सब को वहाँ से विदा कर दिया। इसके पश्चात् पोटिला भार्या में आसक्त एवं अनुरक्त बने हुए उस तेतलि पुत्र अमात्य ने उसके साथ पंचेन्द्रिय संबन्धी सुखों का अनुभव करने लगा। सूत्र ॥ ३॥ પદિલા ભાર્યાના મિત્ર જ્ઞાતિ, સ્વજન સંબંધી અને પરિજનોને અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચ ર જાતના આહારથી તેમજ પુષ્પ, વસ્ત્ર યાત્ માલ્ય અલંકાર વગેરેથી સત્કાર કરાવડાવ્યું અને સત્કાર કરાવડાવ્યા પછી તેણે બધાને પિતાના ઘેરથી વિદાય અપી. ત્યારપછી પોલ્ફિલા ભાર્યામાં આસક્ત અને અનુ. રક્ત થયેલ તે અમાત્ય તેતલિપુત્ર તેની સાથે પંચેન્દ્રિય સંબંધી સુખને SEA1 ४२१दाव्य.. ।। सूत्र "३" ।।
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हाताधर्मकथाजस्त्रे वेमाणीए विहरित्तए तिकट्ठ एवं संपेहेइ, संपेहिता तेयलिपुत्तं अमञ्च सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे रायारजे य जाब वियंगेइ, तं जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं पयायामि । तएणं तुमं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रहस्सियं चैव अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणे संगोवेमाणे संबड्डेहि । तएणं से दारए उम्मुक्कवाल. भावे जोवणगमणुप्पत्ते तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्तइ । तएणं से तेयलिपुत्ते पउमावईए एयमह पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता पडिगए ॥ सू० ४॥
टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स कनकरथो राजा राज्ये च-राष्ट्रे च-देशे बले सैन्ये च, वाहने अश्वादिषु च कोशे-भाण्डारे च धान्यादीनां कोष्ठागारे च अन्तः पुरे च, 'मुच्छिए' मूछिता मोहं प्राप्तः, गृद्धा आसक्तः प्रथितः विशेषेणासक्तः, अध्युपपन्नः सर्वथा तत्परायणः, जाए २=जातान् २= उत्पन्नान २ पुत्रान् ‘वियंगेइ ' व्यङ्गयति-विगतानि अङ्गानि येषां तान् व्यङ्गान्
'तएणं से कणगरहे राया' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कगगरहे राधा रज्जे य रटे य यले य पाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिए ४ ) वह कनकरथ राजा राज्य में राष्ट्र में सैन्य में अश्वादि बाहन में, धान्यादिकों के कोष्टागार में एवं अन्तः पुर में मूछित, गृद्ध अत्यंत अतुरक एवं अध्युपपन्न-सर्वथा तत्परायण बन गया । सो (जाए पुत्त वियंगेइ )
तएणं से कणगरहे राया इत्यादि
( तएणं) त्यामा Estथ-( से कणगरहे राया रज्जेय रहे य वले य वाहणे य कोडागारे य अंतेउरे य मुच्छिए ४)
તે કનકરથ રાજા રાજ્ય રાજ્યમાં, રાષ્ટ્રમાં, સિન્યમાં, અધ વગેરે વાહ. નમાં, ધાન્ય વગેરેની બાબતમાં, કેષ્ટાગારમાં અને રણવાસમાં મૂછિત, વૃદ્ધ, थ! मासात अने अध्युपपन्न संपूर्ण पाये तत्५२ थई गयो. मेथी ( जाए पुत् वियंगेइ) तेन्मेका पोताना पुत्राने मगहीन मनावी तो तो.
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानयरितवर्णनम् १९ करोतीति व्यङ्गयति अङ्गहीनान् करोति । 'विइंतेइ ' इति पाठे विकर्तयति छिनत्ति इत्योंवोध्यः । तत्पकारमाह-अप्येकेषां केषांचिदुत्पन्नानां पुत्राणां हस्ताजुलीछिनत्ति, अप्येकेषां केषांचित् बालानां हस्ताङ्गुष्ठान छिनत्ति । एवं पादानुलिकाः पादाङ्गुष्ठान अपि, एवं 'कण्णसकुलीए वि' कर्णशष्कुलीरपि-कर्णानपि तथा नासापुटानि च 'फालेइ ' पाटयति-छिनत्ति, इत्यर्थः । अनेन प्रकारेग एष कनकरयो राजा बालानाम् 'अंगमंगाई' अङ्गानि अंगानि सर्वाग्यङ्गानि व्यङ्ग्यति-छिनत्ति । ततः खलु अनेन प्रकारेण समुत्पन्नानां पुत्राणां विनाशानन्तरम् ' तीसे' तस्याः कनकरथस्य राज्याः पद्मावत्याः देव्या अन्यदा 'पुनरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये-राः पश्चिमे भागे अयमेतद्रूप आध्यात्मिक आत्मगतो उत्पन्न हुए अपने पुत्रों को अंगहीन कर देता। (अप्पेगइयाणं हत्थं गुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए, छिंदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुढए वि कन्नसक्कुलीए वि, नासापुडाई फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ ) कितनेक बालकों के वह हाथों की अंगुलियों को छेद देता था, कितनेक बारकों के हाथों के अंगूठों कोकाट देता था, इसी तरह वह पैरों की अंगुलियों को पैरों के अंगुष्ठों को, कानों को नासा पुटों को छेद देता था। इस तरह यह कनक रथ राजा बालकों के अंगों का भंगकर देता था। (तएणं तीसे पाउमावईए देवीए अन्नया पुन्धरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समु. प्पजित्था) इस प्रकार समुत्पन्न पुत्रों के विनाश के बाद उस कनकरथ राजो की रानी पद्मावती देवी के किसी एक समय रात्रि के पश्चिम भाग में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न ( अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ अप्पेगइयाणं हत्थंगुष्ठए छिंदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्टए वि कन्नसक्कुलिए वि, नासा पुडाइं फालेइ, अंगमंगाईवियंगेइ)
કેટલાક બાળકોની તે હાથની આંગળીઓ કપાવી નખાવતે હતા, કેટલાક બાળકોના હાથના અંગૂઠાઓ કપાવી નંખાવતે હવે, આ રીતે તે પગની આંગળીઓને, પગના અંગૂઠાને, કાન, નાકને કપાવી નંખાવતે હતો. આમ તે કનકરથ રાજા બાળકના અંગેનું તે છેદન કરાવી નંખાવતે હતે.
(तएणं तीसे पाउमावईए देवीए अनया पुनरत्तावरत्तकालप्तमयसि अयमेवाख्वे अज्जस्थिए ५ समुपज्जित्था )
આ પ્રમાણે જમેલા પુત્રોના વિનાશ પછી તે કનકરથ રાજાની રાણી પદ્માવતી દેવીને કે એક સમયે રાત્રિના છેલા પહેરમાં આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવતું મને ગત સંકલપ ઉત્પન્ન થયે કે –
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शाताधर्मकथागसूत्रे विचारो यावत् मनोगतः संकल्पः, 'समुप्पज्जित्था ' समुदपद्यत । संकल्पप्रकारमाह-' एवं खलु' इत्यादि-एवं खलु कनकरथो राना राज्ये च यावत् व्यङ्गयति। यावत् अङ्गानि अङ्गानि व्यङ्गयति अनेन प्रकारेण कुत्सितमारेण मारयति । तद्यदि खलु अहं दारकं 'पयायामि ' प्रजनयामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्तियं चेव सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए विह रित्तर' श्रेयः खलु मम तं दारक कनकरथस्य — रहस्सियं चेव ' रहस्थिकमेव गुप्तमेव आपदः संरक्षन्त्या ' संरक्खमाणीए' संरक्षन्त्याः भूपदृष्टयादेः, 'संगोमागीए' संगोपायन्त्या भूपकृतोपद्रात् विहर्तुम् , ' तिकडु' इति कृत्वा इति मनसि कृत्वा एवं संपेक्षते एवं विचारयति संप्रेक्ष्य-विचार्य तेतलिपुत्रममात्यं प्रधानं शब्दयति, शब्दयित्वा एचमवदत्-एवं खलु देवानुप्रिय ! कनकरथो राजा ' रज्जेय जाव वियंगेइ ' राज्ये च यावद् व्यङ्गयति राज्यादिषु च मूच्छितो जातान् पुत्रान् विकृताङ्गान करोत्ति एवं तेषामङ्गोपाङ्गानि खण्डयति । अनया रोत्याःपुत्रान्मारयति, तद्यदि खलु अहं देवानुप्रिय ! दारकं प्रजनयामि । ततः खलु त्वं कनारथस्य रहस्यिकमेव हुआ-(एवं खलु कगगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अङ्ग • मंगाई वियंगेइ ) यह कनकरथ राजा राज्य आदिमें मूर्छित गृद्ध, अत्यन्त अनुरक्त एवं अध्युपपन्न अत्यन्त तत्पर बनकर पुत्रों को काट देता है-बुरी तरह से उन्हें मार डालता है ( तं जइ अहं दारयं पायायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्त रहस्सियं चेव सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए विहरित्तए त्ति कटूटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता, तेयलिपुत्तं अभच्च सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कण. गरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ तं जइणं अहं देवाणुपिया! दारगंपयोयोमि, तएणं तुमं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रहस्मियं चेव अणुपुष्वे ( एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेइ, जाव अंग मंगाई वियंगेइ)
કરથ રાજા રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં મૃછિત ગૃદ્ધ, ખૂબજ આસક્ત અને અશ્રુપપન્ન–અત્યન્ત તત્પર થઈને–પુત્રોને અંગહીન કરાવી નાખે છે યાવત્ તેમના અંગોને કપાવી નખાવે છે અને ખરાબ હાલતમાં તેઓને મરાવી નંખાવે છે.
(तं जइ अहं दारयं पायायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए विहरित्तए तिकटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता तेयलिपुतं अमच्चं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! माणसरहे, सपा रज्जे य जाव वियंगेई तं जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारंग पयायामि, तरण तुमं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रहस्तियं व अणुयुठवेणं सारक्खे.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० 40 १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् 'अणुपुव्वेण ' आनुपू] ग-यथाक्रमम् संरक्षन् थूरदृष्टयादितः संगोपायन भूपकृतो पद्रवात् तं दारकं 'संवड़ेइ' संबद्धय, तस्य बालस्य वृद्धिमुपनय । ततः खलु स दारकः ‘उम्मुक्कवालभावे' उन्मुक्तबालभावः--उन्मुक्तः परित्यक्तो बालभाषो बालत्वं येन सः, 'जोमणगमणुप्पत्ते' यौवनकमनुप्राप्तः प्राप्ततारुण्यः तव मम च णं सारक्खेमाणे संगोवेमाणे संबड्डेहिं । तएणं से दारए उम्मुक्कबाल भावे जोधणगमणुप्पत्ते तव यमम य भिक्खाभायणं भविस्तइ तएणं से तेयलिपुत्ते पउमावइए एयमढे पडिप्लुणेइ, पडिसुणित्ता पडिगए) तो यदि मेरे यहां पुत्र उत्पन्न होता है-मैं पुत्र को उत्पन्न करती हूँतो मुझे यही योग्य है कि मैं राजा कनकरथ को खबर न पडे इस रूप से उसकी रक्षा करूँ-उनकी दृष्टि से -उसे बचाकर रखू-ऐसा उसने मन से विचार किया। विचार कर फिर उसने अमात्य तेतलिपुत्र को घुलाया-बुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूर्छित गृद्ध-अत्यंत अनुरक्त एवं अध्युपपन्न बना हुआ है जो वह उत्पन्न हुए बालकों को अंग हीन कर देता है-उनके हाथों की अंगुलियों आदि अङ्गों को काट देता है। तो हे देवा नुप्रिय ! यदि मैं पुत्र को उत्पन्न करती हूँ तो देवानुप्रिय तुम उसे राजा को खबर न पडे इस रूप से रक्षित करते हुए और उनकी दृष्टि से बचाते हुए क्रमशः वृद्धिंगत करो। जब वह बालक क्रमशः संवर्द्धित होता हुआ बाल्यावस्था से रहित होकर यौवनावस्था वाला बन जायगा माणे संगोवेमाणे संबडेहिं । तएणं से दारए उम्मुक्क वालभावे जोवणगमणुपत्ते तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्सइ तएणं से तेयलिपुत्ते पउमावइए एयमढे पडिसुणेइ पडिसुणिता पडिगए)
હવે મને પુત્ર ઉત્પન્ન થવાનું જ છે, તે મને એ જ યોગ્ય લાગે છે કે કનકરથ રાજાને ખબર પડે નહિ તે રીતે બાળકની રક્ષા કરું. તેમની કુદષ્ટિથી તેને બચાવું. આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો વિચાર કરીને તેણે અમાત્ય તેતલિપુત્રને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેના કામમાં આટલે બધે મૂચ્છિત, ગૃદ્ધ-ખૂબજ આસક્ત અને અગ્રુપપન્ન થઈ પડે છે કે તે જન્મેલા બાળકોના અંગે કપાવી નાખે છે. તેમના હાથની આંગળીઓ વગેરે અંગેને કપાવી નાખે છે. જે હે દેવાનુપ્રિય! હું પુત્રને જન્મ આપે તે દેવાનુપ્રિય તમે રાજાને ખબર પડે નહીં તેમ તેમની કુદષ્ટિથી બાળકની રક્ષા કરતા તેનું ભરણ-પોષણ કરો. જે તે
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शाताधर्मकथासूत्र 'भिक्खाभायणं' भिक्षाभाजनम्-भिक्षाया आधारभूतो भविष्यति । ततः खलु स तेतलिपुत्रः पावत्याः एकमथै प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य पद्मावत्याः समी गत् पतिगतः स्वगृहे गतवान् ।।०४॥
__मूलम्-तएणं पउमावई य देवी पोटिला य अमच्ची सयमेव गन्भं गिव्हइ, सयमेव परिवहइ । तएणं सा पउमावई नवण्हं मासाणं जाव पियदंसणं सुरुवं दारगं पयाया, जं रयणि च णं पउमावई दारयं पयाया तं रयणिं च णं पोटिला वि अमच्ची नवण्हं मासाणं विणिहायमावन्नं दारियं पयाया। तएणं सा पउमावई देवी अम्मधाइं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमे अम्मो! तेतलिगिहे तेतलिपुत्तं अमच्चं रहस्सियं चेव सदावेह । तएणं साअम्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उरागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पउमावई देवी सदावेइ । तएणं तेतलिपुत्तं अम्मधाईए अंतिए एयम सोच्चा हटतुटे अन्नधाईए सद्धिं साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता अंतेउरस्स अवदारेणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव
तो हमारे तुम्हारे दोनों के लिये भिक्षा पात्र-भिक्षा का आधार भूतबन जायगा इस प्रकार पद्मावती के इस कथन रूप अर्थ को उस तेत लिपुत्र अमात्यने स्वीकार कर लिया। और स्वीकार करके फिर वह पद्मावती देवी के पास से अपने घर पर चला आया। सू०४॥
બાળક આખરે માટે થઈ જશે અને બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ જશે તે મારા અને તમારા બંનેને માટે ભિક્ષાપાત્ર ભિક્ષાને આધારભૂત થઈ જશે. આ રીતે પદ્માવતીના આ કથન રૂપ અને તે તેતલિપુત્ર અમાત્ય સ્વીકાર કરીને તે પદ્માવતી દેવીની પાસેથી વિદાય લઈને પિતાને ઘેર આવી ગયે. સૂ. ૪
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधान चरितवर्णनम २३ उवागए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं. कट्ठ एवं वयासी-संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! जंमए कायव्वं ? तएणं पउमावई तेतलिपुत्तं एवं वयासी-एवं खलु कणगरहे राया जाव वियंगेइ, अहं च णं देवाणुप्पिया ! दारगं पयाया तं तुमं णं देवाणुप्पिया ! एयं दारगं गेहाहि जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ तिकडे तेतलिपुत्तं दलयइ । तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारगं गेण्हइ गिण्हत्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ,पिहित्ता अंतेउरस्त रहस्सियं अवदारेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता, जेणेव सये गिहे जेणेच पोहिला भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोटिलं एवं क्यासी-एवं खलु देवागुप्पिया! कणगरहे राया रजे य जाब वियंगेइ, अयं च णं दारए कणगरहस्तपुत्ते पउमावईए अत्तए, तं गं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुवेणं सारक्खाहि य संगोवाहि य संवड्वेहि य । तएणं एस दारए उमुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्तइ त्ति कटु पोट्टिलाए पासे णिविखवइ, णिविखवित्ता, पोहिलाओ पासाओ विनिहायमावन्नियं दारियं गेण्हइ,गेण्हित्ता उत्तरिजेणं पिहेइ, पिहित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव परमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावई ए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिणिग्गए । तएणं तीसे पउमावईए अंगपरियारियाओ पउमावइं देवि विणिहायमावन्नं च
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
दारिखं पालति, पासिता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं म स्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी एवं खलु सामी ! पउमावई देवी मइल्लियं दारियं पयाया । तरणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेइ, बहूणि लोइयाई मयकिवाई करेइ. करिता कालेणं विमयसीए जाए । तरणं से तेत लिपुलेको हुंबिय पुरिसे सहावेइ, सदावित्ता, एवं वयासी - खिप्पामेत्र चारगसोहणं जाव ठिइवडियं, जम्हाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्ल रज्जे जाए, तं होउ णं दारए, नामेणं कणगज्झए जाव भोग समत्थे जाए ॥ सू० ५ ॥
6
टीका- ' तरणं' इत्यादि । ततः खलु पद्मावती च देवी पोहिला च अमात्यी सममेत्र गर्भ गृह्णाति, सममेवगर्भ परिवहति धारयति । ततः खलु सा पद्मावती नवहं मासाणं जाव' नवानां मासानां नवसु मासेसु व्यतीतेषु यावत् सत्सु 'विषदंसणं' प्रियदर्शनम् - प्रियं चेतोहरं दर्शनमवलोकनं यस्य तं = दर्शकजनचेोहादजनकं सुरूपं दारकं 'पयाया' प्रजाता=मजनितत्रती । यस्यां रजन्यां च तणं परमाई देवी ' इत्यादि ॥
6
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद ( पउमावई य देवी पोहिलाय अमच्ची सयमेव गर्भ गिरहइ) पद्मावती देवी और पोहिला अमात्यी ने साथ ही गर्भ धारण किया । (तएणं सा पउमावई नवहं मासाणं जाव पियदसणं सुरूवं दारगं पयाया ) पद्मावती देवी ने जब नौ मास अच्छी तरह गर्भ के समाप्त हो चुके तब दर्शकजन चित्ताह्लाद जनक अच्छे रूप शाली पुत्र को जन्म दिया। (जं स्यणिं च णं पउमोबई दारयं पयाया
'तएण पउमावइ य देवी' इत्यादि
टीअर्थ - (तएणं) त्यारयछी (परमाइ य देवी पोट्टिला य अमची मयमेव गमं गिण्हइ ) पद्मावती देवी भने पोट्टिसा समात्यो साथै साथै गर्भ धारशु ये. ( तरणं सा परमावई नावहं मासाणं जान पियदंसणं सुरूवं दारणं पयाया ) જ્યારે નવ માપુ સારી રીતે પસાર થઇ ગયા ત્યારે પદ્માવતી દેવીએ હેનારાએ જોઈને પ્રસન્ન થઇ જાય એવા રૂપાળા પુત્રને જન્મ આપ્યો.
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् २५ खलु पद्मवती दारकं प्रजाता तस्यां रजन्यां च खलु पोटिलापि अमात्यी 'नवण्डंमासाणं' नवानां मासानाम् नवसु मासेषु व्यतीतेषु 'विणिहायमावन ' विनिघातमापन्नाम्-मृताम् दारिकां प्रजाता-जनितवती । ' तएणं' ततः खलु पुत्रजन्मा. नन्तरं सा पद्मावती देवी अम्बधात्रीं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूयमम्ब ! 'तेतलिगिदे ' तेतलिगृहे-तेतलेरमात्यस्य गृहे तेतलिपुत्रममात्य रहस्यिकम् अन्यैरपरिज्ञातमेव शब्दयत-आइयत । ततः खलु सा अम्बधात्री तथेति प्रतिश्रृणोति, अङ्गीकरोति, प्रतिश्रुत्य अन्तः पुरस्य ' अवदारेणं ' अपद्वारेण-पृष्ठद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य, यौव तेतले हम् , यौव तेतलिपुत्रस्तव उपा. गच्छति, उपागत्य करतल यावद् अञ्जलिपुटं कृत्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे तं रयणिं च ण पोटिलावि अमची नवण्हं मोसाण विगिहायमापन दारियं पाया) जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया था उसी रात्रि में पोटिला अमात्यी ने भी नौ मास व्यतीत हो जाने पर एक मरी हुइ कन्या को जन्म दिया (तएणं सा पउमावई अम्मधार्य सहावेह, सदायित्ता एवं क्यासी गच्छह णं तुमे अम्मो ! तेतलिगिहे तेतलीपुत्तं अमच्चं रहस्सियं चेव सद्दावेह) इस के बाद उस पद्मावती ने अम्बधात्री को घुलवाया और वुलवाकर उससे ऐसा कहा हे अम्म ! तुम तेतलि अमात्य के घर पर जाओ। और किसी को पत्ता न पड़े इस रूप से तुम तेतलि पुत्र अमात्य को बुला लाओ। (तएणं सा अ. म्मधाई तहत्ति पडिसुणेइ. पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ जिग्गच्छित्ता जेणेव तेतलिस्सगिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा. गच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया
(जं रयणिं च णं पउमावई दारयं पयाया तं रयणिं च णं पोटिला वि अमबी नवण्हं मासाणं विणिहायमावन्न यारियं पयाया)
જે રાત્રિએ પદ્માવતી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે તે જ રાત્રિએ પોરિલા અમાત્યીએ પણ નવ માસ પૂરા થવાથી એક મરેલી કન્યાને જન્મ આપે
(तएणं सा पउमावई अम्मधायं सदावेइ, सदारिता एवं वयासी गच्छह णं तुमे अम्मो ! तेतलिगिहे तेतलिपुत्त अमच्च रहस्सिय चैव सदावेह )
ત્યારપછી તે પદ્માવતીએ અંબધાત્રીને બોલાવી અને બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે અમ્બ ! તમે તેતલિ અમાત્યને ઘેર જાઓ અને કોઈને ખબર પડે નહિ તેમ તેતલિપુત્ર અમાત્યને તમે અહીં બોલાવી લાવે.
(तएणं सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेड, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव ततलिस्स गिड़े जेणेव तेतलिपत्ते तेणेत उवा
हा४
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हाताधर्मकथा देवानुपिय ! पद्मावती देवी भवन्तं शब्दयति । ततः खलु तेतलिपुत्रः ‘अंबधाईएअंतिए ' अम्बधाच्या अन्तिके अम्बधाच्याः सकाशात् एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्टोऽम्बधाच्याः साद्धं स्वकाद् गृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य अन्तपुरस्य अपद्वारेण रहस्यिकमेवप्रच्छन्नमेव अनुप्रविशति, अनुपविश्य, यत्रैव पद्मावती देवी तत्रैव 'उगए' उपागतः संप्राप्तः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवदत्- संदिसतु ' संदिशतु-आज्ञापयतु खलु हे देवानुप्रिये ! पउमावई देवी सदावेइ । तएण तेतलिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोच्चा हट्ट तुढे अम्मधाईए सद्धिं साओ गिहाओ णिग्गच्छद) पद्मा. वती देवी के इस प्रकार वचन सुनकर उस अम्बधात्री ने तथेति कह कर उसकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वह अंतः पुर के अपद्वार से-पीछे के दरवाजे से बाहिर निकली-निकल कर जहां तेतलि का घर और उसमें भी जहां तेतलिपुत्र था वहां गई। वहां जाकर पहिले उसने तेतलिपुत्र अमात्य को दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया-बाद में बोली-हे देवानुप्रिय ! आपको पद्मावती देवी बुला रही हैं। अम्बधात्री के मुख से इस प्रकार वचन सुन कर व तेतलि. पुत्र हर्षित एवं तुष्ट होता हुआ अम्याधात्री के साथ ही अपने घर से निकला। (णिग्गच्छित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं रहस्सि यं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वया. गच्छइ, उपागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पउमावई देवी सहावेइ । तएणं तेतलिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एयमटं सोचा हट्ठतुढे अम्म. धाईए सद्धि साओ गिहाओ णिगच्छइ ).
- આ રીતે પદ્માવતી દેવીની વાત સાંભળીને અંધાત્રીએ “તથેતિ (સારું) આમ કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. સ્વીકારીને તે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી અને નીકળીને જ્યાં તેતલિપુત્રનું ઘર અને તેમાં પણ
જ્યાં તેતલિપુત્ર અમાત્ય હતા ત્યાં પહોંચી. ત્યાં પહોંચીને તેણે સૌ પહેલાં બંને હાથ જોડીને તેતલિપુત્રને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તેણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને પદ્માવતી દેવી બોલાવે છે. અંબધાત્રીના મુખથી આ જાતની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્ર હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થતે અંધાત્રીની સાથે સાથે જ તે પોતાના ઘેરથી રણવાસ તરફ રવાના થયે.
(णिगच्छित्ता अंतेउरस्स अवदारेणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसइ, अणुण्प विसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागप, करयलपरिग्गहियं दसणई सिर.
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नगी · वर्षिणी टी०म० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् "जंमए कायव्वं ' यन्मया कर्तव्यम् , ततः खलु पद्मावती देवी तेतलिपुत्रमेवमव. दद एवं खलु कणगरहे राया वियंगेइ ' एवं खलु कनकरथो राजा व्यङ्गयात हे देवाणुप्रिय ! मया पूर्वमेवकथितं-यत्कनकरथ उत्पन्नान्पुत्रान् विकृतानान् कृत्वा मारयति । अहं च खलु देवानुप्रिय ! दारकं प्रजाता-प्रजनितवती, "तं वस्मात् कारणात् त्वं खलु देवानुप्रिय ! एतं दारकं गृहाण यावत् तव च मम च सी संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जंमए कायव्वं ? तएणं पउमावई तेतलि पुत्तं एवं वयासी-एवं खलु कणगरहे राया जाव वियंगेइ, अहं चणं देवाणुप्पिया दारगं पयाया तं तुमंणं देवाणुप्पिया! एयं दारगं गेहाहि चलकर वह अंतः पुर के पृष्ठ भाग के द्वार से किसी को आने का पता न लगे इस रूप से वहां प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहां पद्मावती देवी थी वहां गया। वहां जाकर उसने दोनों हाथ जिसमें जुडे हुए हैं और दशोनख जिसमें हैं ऐसी अंजलिको दक्षिण तरफ से घुमाकर बायें तरफ लेजाकर और मस्तकपर अंजलि को रखकर कहा-अर्थात् नमः स्कार कर पूछा हे देवानुप्रिये ! जो मुझे करने योग्य कार्य है उस के करने की आप आज्ञा दीजिये। इस के बाद पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र: से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मैंने तुमसे पहिले ही कह रक्खा है। कि कनकरथ उत्पन्न हुए पुत्रों को विकृत अंग बनाकर मार डालता है।
और मैंने हे देवानुप्रिय ! पुत्र को उत्पन्न किया है । इसलिये तुम हे देवासावतं मत्थए अंजलिं कडु एवं वयासी-सं दिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जंमए करणिज्ज तएणं परमावीइ देवी वयासी-एवं खलु कणगरहे राया जार वियंगेइ अई चण देवानुपिया !दारगं पयाया तं तुमं गंदेवाणुप्पिया ! एवं दारगं गेण्हाहि )
ત્યાં પહોંચીને રણવાસના પાછલા બારણેથી કોઈને ખબર પડે નહિ તેમ રણવાસમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયે. પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યાં પદ્માવતી દેવી હતી ત્યાં પહોંચે. ત્યાં પહોંચીને તેણે દશે નખ જેમાં છે એવા બંને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવીને તેને જમણી બાજુથી ફેરવીને ડાબી બાજુ તરફ લઈ જઈને મસ્તક ઉપર અંજલિ મૂકીને આ પ્રમાણે કહ્યું-એટલે નમસ્કાર કરીને પૂછયું કે-હે દેવાનુપ્રિયે ! મારે લાયક જે કંઈ પણ કામ હોય તે મને કહે. ત્યાર પછી પદ્માવતી દેવીએ તેતલિપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને મેં પહેલેથી કહી રાખ્યું છે કે રાજા કનકરથ ઉત્પન્ન થયેલા પુત્રને અંગહીન કરી નાખે છે. અને તે દેવાનુપ્રિય! મારે પુત્ર થયો છે. હે દેવાનમિય! એ બાળકને તમે લઈ જાઓ.
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शाताधर्मकथाजसून भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजनं, यथा भिक्षाभाजनं जीवन निर्वाहयति तथाऽयमपि जीवननिर्वाहको भविष्यति 'त्तिक?' इति कृत्वाः इत्युक्त्या ' तेतलिपुत्तं ' तेतलि. पुत्राय प्राकृतत्वादत्र द्वितीया ददातितेतलिपुत्रस्य हस्ते दारकमर्पयति । ततः खलु तेतलिपुत्रः पद्मावत्या हस्ताभ्यां दारकं गृह्णाति, गृहीत्वा उत्तरीयेण-उत्तरीयवस्त्रेण तं ' पिहेइ' पिदधाति आच्छादयति, 'पिहित्ता' पिधाय अन्तः-पुरस्य 'रहस्सिय' रहस्यि-प्रच्छन्नं यथा स्यात्तथा अपद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य यौव स्वकं गृहं कौक पोटिला भार्या तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पोटिलामेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुपिये ! कनकरथो राना राज्ये च यावद् व्यङ्गयति स्वपुत्रान् मारयति अयं च खलु मम हस्तस्थितो दारकः कनकरथस्य पुत्रः पद्मावत्या आत्मजो मयाजानीतः, ' तं' तस्मात् कारणात् खलु हे देवानुपिये ! इमं दारकं 'कणगरहस्सनुप्रिय ! इस बालक को लेलो (जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइत्ति कटूटु तेतलिपुत्तं दलयइ ) यावत् यह हमारे तुम्हारे लिये भिक्षा का भाजन हो जायगा जिस प्रकार भिक्षा भाजन जीवन निर्वाहक होता है-उसी तरह यह भी जीवन निर्वाहक होवेगा इस प्रकार कहकर उसमे तेतलिपुत्र के हाथमें आपने पुत्र को दे दिया। (तएणं तेतलिपुत्ते पउमाधईए हत्थाओ दारगं गेहई ) तेतलिपुत्र ने भी पद्मावती देवीके हाथ से बालक को ले लिया। (गिण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहित्ता अंते उरस्सरहस्तियं अवद्दारेणं णिग्गच्छइ,णिग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोहिला भोरिया-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता-पोहिलं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ, अयं (जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइत्तिक? तेतलिपुत्तं दलयइ)
એ મારા અને તમારા માટે બે ભિક્ષાભાજન' થશે એટલે કે જેમ ભિક્ષાનું પાત્ર જીવનને ટકાવનાર હોય છે તેમજ આ બાળક પણ જીવન નિર્વાહક થશે. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેતલિપુત્રના હાથમાં પોતાના નવ જાત પુત્રને સેંપી દીધે. (तएणं तेतलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारगं गेण्हइ)
તેતલિપુત્રે પણ પદ્માવતી દેવીના હાથમાંથી બાળક લઈ લીધું. ... (गिण्हित्ता उत्तरिजेणं पिहेइ पिहिता अंतेउरस्स रहस्सियं अवदारेणं निम्मन्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोहिला भारिया-तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पोटिलं एवं वयासी, एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ, अयं च णं दारए कणगरहस्सपुत्ते पउमावईए आलए
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् , रहस्सियं चेव ' कनकरथस्य रहस्यिकमेव कनकरथो यथा न जानीयात्तथैव 'अणु. पुषेणं' आनुपूर्येण अनुक्रमेण तत्कृतोपद्रवतश्च 'सारक्वाहि य' संरक्ष्य कनकरवः पष्टितः संगोपाय च तत्कृतोपद्रवतः, तथा संवड़हिय' संवर्धय च-स्तन्यपानादि: माऽस्य बालस्य वृद्धिमुपनय ! ततः खलु एष दारकः उन्मुक्तबालभाकः तव च मम ध पद्मावत्याश्च 'आहारे' आधारः आधारस्वरूपो भविष्यति ' तिकडु' इतिकरया च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अत्तए, तं गं तुमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुव्वेणं सारक्खाहिं य संगोवाहि य सं. बड़ेहि य) लेकर फिर उसे अपने दुपट्टे से ढक लिया और ढककर प्रच्छन्न गुप्तरूप से अंतः पुर के पीछे के दरवाजे से बाहर निकल गया। निकल कर जहां अपना घर और पोट्टिला भार्या थी वहां गया। वहीं जाकर उसने पोहिला भार्या से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! कनक रेय राजा राज्य आदि में इतना अधिक मूच्छित हो रहा है कि वह उत्पन हुए अपने बालकों को अङ्ग विच्छेद कर मार डालता है। यह जो पुत्र मेरे हाथ में है वह कनक रथ राजा का पुत्र है यह पद्मावती देवी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ है। इसलिये हे देवाणुप्रिये! तुम इस पुत्र को कनक रथ को खबर न पडे इस तरह प्रच्छन्न रूप से क्रमशः रक्षित करती रहो-पालती रहो उसकी दृष्टि से बचाती रहो और स्तन्य पान आदि से बहाती रहो। (तएणं एस दारए उम्मुक्कबालभावे तव य तं गं तुम देवाणुप्पिया ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुत्वेणं सारक्खाहिं य संगोवाहि य संवड्देहिय )
લઈને તેણે ખેસમાં ઢાંકી દીધું, અને ઢાંકીને છુપી રીતે રણવાસના પાછલા બારણેથી બહાર નીકળી ગયે. બહારનીકળીને જ્યાં પિતાનું ઘર અને પિટ્ટિલા ભાર્યા હતી ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે પિફ્રિલા ભાર્યાને એમ કહ્યું કેદેવાનુપ્રિયે ! રાજા કનકરથ રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં એટલે બધે આસક્ત થઈ ગયે છે કે તે જન્મ પામેલા પિતાના બાળકોના અંગેને કપાવીને મારી નાખે છે. મારા હાથમાં જે બાળક છે તે પણ કનકરથ રાજાને જ પુત્ર છે. પદ્માવતી દેવીના ગર્ભમાંથી આને જન્મ થયે છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય ! કનકરથ રાજાને જાણ થાય નહિ તે પ્રમાણે તમે છુપી રીતે આ પુત્રનું રક્ષણ કરતા રહે, પિષણ કરતાં રહે, રાજાની કુદષ્ટિથી એને દૂર રાખતા રહે અને સ્તન્ય પામ એટલે કે ધ વગેરે પીવડાવીને એને માટે કરે.
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३० . .
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे इत्युक्त्वा पोटिलायाः पार्वे 'गिक्खिवइ ' निक्षिपति स्थापयति, तथा पोधिलायाः पार्थात् तां विणिहायमावणं ' विनिघातमापन्नां मृतां दारिकां गृह्णाति, गहीत्वा उत्तरीयेण पिदधाति, पिधाय अन्तः पुरस्य अपद्वारेण अनुपविशति, अनुप्रविश्य यौव पद्मावती देवी तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पद्मवत्याः देव्याः पार्थे स्थापयति, स्थापयित्वा तावत् 'पडिगिग्गए' प्रतिनिर्गतः प्रतिनिवर्त्य स्वगृह मम य पउमावईए य आहारे भविस्सइत्ति कटु पोटिलाए पासे णिक्खिवह, णिक्खिवित्ता पोटिलाओ पासाओ विनिहायमावन्नियं दारियं गेण्हह, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ पिहित्ता, अंतेउरस्स अवद्दारेणं अणुप्पविसइ) इस तरह क्रमशः वृद्धिंगत होता हुआ यह बालक जय बाल्यावस्था से रहित हो जावेगा तो हमारा तुम्हारा और पद्मावती देवी का आधार होगा, ऐसा कहकर उस तेतलिपुत्र अमात्य ने उस पुत्र को पोटिला के पास रख दिया। और पोटिला के पास से मरी हुई कन्या, को उठा लिया-उठाकर उसे अपने उत्तरियवस्त्र से ढंक लिया, ढंक कर फिर अंतः पुर के पिछले दरवाजे से वहां आया (अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठोवित्ता जाव पडिनिग्गए ) वहां आकर जहां पद्मावती देवी थी वहां पहुँचा, वहाँ पहुँच कर उसने उस मृत कन्या को पद्मावती देवी के
(तएणं एस दारए उम्सुक्कवालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सह त्ति कटु पोट्टिलाए, पासेणिक्खिवइ, णिविखवित्ता पोटिलाओ पासाओ विनिहायमावन्नियं दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेगं पिहेइ, पिहित्ता, अंतेउरस्स अवदारेणं अणुप्पविसइ)
અને આ રીતે અનુક્રમે મેટે થતા આ બાળક જ્યારે બચપણ વટાવીને જવાન થઈ જશે ત્યારે આ માટે, તમારો અને પદ્માવતી દેવીને આધાર થશે. આ પ્રમાણે કહીને તે તેતલિપુત્ર અમાત્યે તે બાલકને પિફ્રિલાની પાસે મૂકી દીધું અને પફ્રિલાની પાસેથી મરી ગયેલી બાળકીને ઉપાડી લીધી. ઉપાડીને તેને પિતાના ખેસથી ઢાંકી દીધી અને ત્યારપછી તે રણવાસના પાછલા બારણેથી પદ્માવતી દેવીના મહેલમાં ગયે. ___(अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिनिग्गए )
ત્યાં જઈને જ્યાં પદ્માવતી દેવી હતી ત્યાં ગયે અને ત્યાં પહોંચીને તેણે તે મરી ગયેલી બાળકીને પદ્માવતી દેવીના પડખામાં મૂકી દીધી. અને ત્યાં મકીને તે ત્યાંથી પાછા ફર્યો અને ત્યારપછી તે પોતાને ઘેર આવી ગયે.
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ ते तलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् १ गतवान् । 'तएणं' ततः खलु तस्याः पद्मावत्याः 'अंगपडियारियाओ' अङ्गपतिचारिकाः दास्यः पद्मावतीदेवी:विनिघातमापनां प्राणरहितां दारिकां च पश्यन्ति, दृष्ट्वा यौव कनकरथो राजा, तव उपागच्छंति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा ' एवं ' = वक्ष्यमाणरीत्या अवदत्-हे स्वामिन् ! पद्मावतीदेवी ' मइल्लियां' मृतां दारिका ‘पयाया' प्रजाता-जनितवती । 'तएणं' इति, ततः खलु दासीमुवान्मृतवालिकाजन्मश्रवणानन्तरं कनकरथो राजा तस्या 'मइल्लियाए ' मृतायाः दारिकाया ' नोहरणं' निर्हरणं 'निष्काशनं 'करेइ' करोति, कृत्वा वहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति, कृत्वा ‘कालेणं' पास रख दिया। और रखकर फिर वह वहां से चल दिया चलकर अपने घर आ गया। (तएणं तीसे पउमावईए अंगपरियारियाओ पउमावई देवि विणिहायमावन्न दारियं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्तो करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटूटु एवं वयोसी एवं खलु सामी पउमावई देवी मइल्लियं दारियं पयाया) इसके बाद पद्मावती देवी की अंगपरिचारिकाओंने पद्मावती देवी को और मरी हुई उस कन्या को देखा देख कर वे सब जहां कनक रथ राजा थे वहां गई-वहां जाकर उन्होंने दो नों हाथों की अंजलि बना कर और उसे मस्तक पर घुमाकर-अर्थात् नमस्कार कर इस प्रकार कहा हे स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत कन्या को जन्म दिया है । (तएणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेइ,यहूणि लोइयाई मयकिच्चाई करेइ करित्ता कालेणं विगयसोए जाए) इस प्रकार उन के मुख से सुनकर कनक रथ राजाने उस मृत
(तएणं तीसे पउमाईए अंगपरियारियाओ पउमावइं देवि विणिहायमावन्नं दारियं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उबागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-एवं खलु सामी पउमावईदेवी मइल्लियं दारियं पयाया )
ત્યારબાદ પદ્માવતી દેવીની અંગ–પરિચારિકાઓએ પદ્માવતી દેવી તેમજ તે મરેલી કન્યાને જોઈ જોઈને તેઓ બધી જ્યાં કનકરથ રાજા હતા ત્યાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથેથી અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તક ઉપર ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી ! દેવી પદ્માવતીએ મરેલી કન્યાને જન્મ આપે છે.
(तएणं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेइ, बहूणि लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ करित्ता कालेणं विगयसोए जाए).
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
कालेन समये व्यतीते ' विगयसोए ' विगतशोकः = शोकरहितो जातः । ततः खलु सतलपुत्रः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एत्रमवदत् - ' खिप्पामेव ' क्षिममेव ' चारगसोद्दणं' चारक शोधनं=बन्दीजनमोक्षणं यावन्मानोन्मानवर्द्धनम् पुत्रजन्मोत्सव निमित्तकं राजकर्मचारिणां वेतनवृद्धयादिना सत्कारसम्मानवर्द्धनं कुरुत इत्येवंरूपामाज्ञां दत्वा स्वयं ' ठिइवडियं ' स्थितिपतितां कुलमर्यादान्तर्गतां पुत्रजन्मनिदशदिवससाध्यमहोत्सवरूप मक्रियां करोति । पुनश्वाशनादिना मित्रज्ञातिसुखान् सत्कृत्य सम्मान्य तत्पुरत एवं कथयति - ' जम्हाणं ' यस्मात्खलु कन्या का निर्हरण - श्मशान में ले जाना - क्रिया । निर्हरण कर के फिर अनेक लौकिक मृतकृत्य किये। मृत कृत्य कर चुकने के बाद धीरे २ बे विगत शोक हो गये । (तएणंसे तेतलिपुत्ते कोडुंबियपुरिसे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव चारगसोहणं जाव ठिइवडियं जाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्म रज्जे जाए तं होउणं दारए नामेणं कणगज्झए जाव भोग समत्थे जाए) इस के बाद तेतलिपुत्र अमात्यने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा - शीघ्र ही तुम लोग चारक शोधन करो-बन्दीजनों को मुक्त करो यावत् मानोमन का वर्द्धन, और पुत्र जन्मोत्सव के निमित को लेकर राज कर्म वारिय के बेलन की वृद्धि आदि करके उनके सन्मान का वर्द्धन करोइस प्रकार आज्ञा देकर स्वयं उस तेतलिपुत्र अमात्यने अपनी कुल मर्यादा के अनुसार पुत्र का जन्म होने के कारण दश दिवस तक बड़ा
આ રીતે તેમનાં મુખથી આ વાત સાંભળીને કનકરથ રાજાએ તે મરેલી કન્યાને શ્મશાનમાં પહાંચાડી અને ત્યારબાદ તેણે મરણ પછીની ઘણી ક્રિયાએ પૂરી કરી, મરણ ક્રિયાઓને પતાવ્યા પછી રાજા કનકરથ ધીમે ધીમે શાક રહિત થઇ ગયા.
( एणं से तेतलिपुत्ते कोड बियपुरिसे सहावे, सदावित्ता एवं वयासीविपामेव चारगसोहणं जाव ठिडवडियं, जम्हाणं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होणं दारए नामेणं कणगज्झाए जाव भोग समत्थे जाए )
ત્યારબાદ તેતલીપુત્ર અમત્યે પેાતાના કૌટુંબિક પુરુષોને એલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-તમે લોકો સત્વરે ચારક શેાધન કરા-એટલે કે જેલખાનામાંથી કેદીઓને છેડી મૂકે! યાવત્ માનેાન્માનનું વન તેમજ પુત્ર જન્માત્સવ બદલ રાજકમ ચારીઓના પગાર વગેરેની વૃદ્ધિ કરીને તેમના સમાનનું વહેંન કા આ રીતે કૌટુંબિક પુરુષોને આજ્ઞા આપીને તેતલિપુત્રે જાતે પોતાની કુલ મર્યાદા મુજબ પુત્ર જન્મ હેાવા બદલ દશ દિવસ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रवधानचरितवर्णनम ॥ अस्माकमेष दारकः कनकरथस्य राज्ये जातः, 'तं' तस्मात् भवतु खलु दारको नाम्ना · कनकध्वजः' इति । अनन्तरमसौ दारकः क्रमेण वृद्धिं गच्छन् यावद् ‘भोगसमत्थे जाए' भोगसमर्थो जातः तारुण्यं प्राप्त इत्यर्थः ।। सू०५ ॥
मूलम्-तएणं सा पोटिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा ५ जाया यावि होत्था,णेच्छइ य तेतलिपुत्ते पोट्टि. लाए नाम गोत्तमवि सवणयाए, किंपुणदरिसणं वा परिभोगं वा ? । तएणं तीसे पोटिलाए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपजि. स्था-एवं खलु अहं तेतलिस्स पुट्विं इट्टा ५ आसिं इयाणि आणिट्ठा ५ जाया, नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पं जाव झियायइ । तएणं तेतलिपुत्ते पोटिलं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि । तुमं च णं मम महाणसंसि विउलं असणपागखाइमसाइमं उवक्खडावेहि,उवक्खडावित्ता बहणं भारी उत्सव किया। तथा भोजन आदि द्वारा मित्र ज्ञाति द्वारा प्रमुख जनों का सत्कार सन्मान करके फिर उसने उनके समक्ष इस प्रकार कहा-यह हमारा पुत्र कनक रथ राजा के राज्य में उत्पन्न हुआ है-इस लिये यह "कनकध्वज" इस नामसे प्रसिद्ध होवे । इस के बाद यह पुत्र क्रमशः वृद्धिंगत हुआ यावत्-भोग समर्थ हो गया-अर्थात् जवान युवा-बन गया ॥ सू० ५ ॥ સુધી ભારે ઉત્સવ ઉજવ્યો તેમજ ભેજન વગેરેથી મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પ્રમુખ લકોને સત્કાર અને સન્માન કરીને તેણે તેની સમક્ષ આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ અમારો પુત્ર રાજા કનકરથના રાજ્યમાં ઉપ્તન્ન થયા છે એથી એ“કનક વજ” નામે પ્રસિદ્ધ થાય. ત્યાર પછી તે કનકધ્વજ સમય પસાર થતાં ધીમે ધીમે મટે થતાં યાવત ભેગ સાથે થઈ ગયે એટલે કે જુવાન થઈ ગયે. એ સૂટ ૫ w
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३४
साताधर्मकथाको समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि।तएणं सा पोटिला तेतलिपुत्तेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ठतुट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमद्रं पडिसुणित्ता, कल्लाकल्लि महाणसंसि विपूलं असण जाव दवावेमाणी विहरइ ॥सू०६॥
टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु स पोटिला अन्यदा कदाचित् केनापि कारणेन तेतलिपुत्रस्य अनिष्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता चाप्यऽभवत् । नेच्छिति च तेतलिपुत्रः पोटिलाया नाम गोत्रमपि ' सत्रणयाए ' श्रवणतायै श्रूयतेऽनेनेति श्रवणं कर्मः, तस्य कर्म श्रवणता तस्यै, श्रवणविषयीकर्तुम् इत्यर्थः किं पुनः तस्या ' दरिसणं वा' दर्शनं वा तया सहपरिभोगं वा, वाग्छेत् , अपितु न । ततः खलु तस्याः पोट्टिलाया अन्यदा कदाचित् पुवरत्तावर
तएणं सा पोटिला इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा पोटिला) वह प्रधानकी स्त्री पोहिला (अन्नया कयाइं ) किसी समय-कोई निमित्त को लेकर-किसी भी कारण से-(तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा जाया यावि होत्था ) तेतलिपुत्र के लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम बन गई । (णे. च्छइ तेतलिपुत्त पोहिलाए नाम गोत्तमवि सवगयाए किं पुणदरिसणं वा परिभोगं वा) इस प्रकार वह तेतलिपुत्र उस पोहिला के नाम गोत्र तक को भी सुननो पसंद नहीं करता तो फिर उसके देखने और परिभोग पास जाने की तो बात ही क्या है। (तएणं तीसे पोटिलाए अन्न
तएणं सा पोट्टिला इत्यादि ॥
टी-(तएणं) त्या२ ५छ(सा पाहिला) ते अमात्यनी पत्नी पाहिली (अ. नया कयाइं) मते गमेत आरणे ( तेतलिपुत्तस्स अणिद्रा ५ जाया यावि होत्था) ततलि पुत्रने माट मनिष्ट, 24न्त, अप्रिय, ममना सने અમનેમ થઈ પડી.
(णेच्छइ तेतलिपुत्ते पोट्टिलाए नाम गोत्तमवि सपण पाए किं पुगदरिसणं वा परिभोगं वा )
એથી તેતલિપુત્ર અમાત્યને તેનું નામ ગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવું પણ પસંદ પડતું ન હતું ત્યારે તેને જોવાની અને તેની પાસે જવાની તે વાત જ શી?
(तएणं तीसे पोटिलाए अन्नया कयाई पुयावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
३५
,
,
तकालसमए ' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये = रात्रेः पश्चिमे भागे ' इमेयारूवे ' अयतद्रूप :=क्ष्यमाणप्रकार: ' अज्झथिए जाव' आध्यात्मिको यावत् मनोगतः संकल्प: ' समुपज्जित्था ' समुदपद्यत, संकल्पप्रकारमाह एवं खलु अहं ' तेतलिस्स ' तेवले:- तेत लिपुत्रस्यामात्यस्य पूर्वम् इष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोमा 'आसि ' = आसम् परन्तु ' इयाणि ' इदानीम् अनिष्टा यावद्-अमनोऽमा जाता । नेच्छति च तेतलिपुत्रः मम नाम यावत् परिभोगं वा = मम नाम गोत्रमपि श्रोतुं नेच्छति किंपुन र्मम दर्शनं मया सह परिभोगं वा । इत्थमेषा पोहिला ' ओहयमणसंकप्पा' अपहृतमनः संकल्पा= अपहतो = दुःखावेगवशाद् रुद्रो, मनः संकल्पो= मानसिक विच यस्याः सा ' जावझियाय ' यावद् ध्यायति = यावदार्त्तध्यानं करोति । ततः खलु तेतलिपुत्रः पोट्टिकामपहतमनः संकल्पां' जाव झियायमाणि ' या कयाई पुवावरतकालसमयंसि इमेयारूवे अज्जत्थिए जाव समुप्पजित्था ) जब पोहिलाने अपनी तरफ तेतलि पुत्र अमात्य की इतनी अधिक उपेक्षा- अनादरता देखी तो एक दिन किसी समय उसे रात्रि के मध्यभाग में इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - ( एवं खलु अहं तेतलिस्स पुवि इट्ठा ५ आसिं, इयाणि अणिट्टा ५ जाया नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पा जाव झियाय ) मैं तेतलि पुत्र अमात्य के लिये पहिले इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी, परन्तु इस समय मैं उन्हे अनिष्ट योवत् अमनोम बन रही हूँ । वे तेतलि पुत्र अमात्य देखने और परिभोग करने की तो बात कौन कहे मेरे नामगोत्र तक को भी सुनना पसंद नहीं करते हैं । इस तरह वह अपहृतमनसंकल्प होकर पावत् अत्झत्थिए जाव समुपजित्था )
જ્યારે અમાત્ય તૈતલિપુત્રને પેટિલા એ પેાતાના પ્રત્યે આટલી બધી ઉપેક્ષા અને અનાદરતા જોઈ ત્યારે કાઈ વખતે એક દિવસ રાત્રિના મધ્યભાગમાં તેના મનમાં આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મનેાગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થા કે
( एवं खलु अहं daलिस पुवि इट्ठा ५ आसिं इयाणिं अणिट्ठा ५ जाया नेच्छइ य तेतलिपुत्ते मम नाम जाव झियायइ )
પહેલાં હું તેતત્રિપુત્ર અમાત્યને માટે ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય, મનેાજ્ઞ અને મને મ હતી. પણ હમણાં હું તેમના માટેઅનિષ્ટ યાવત અમનેામ થઈ પડી છું. તેતલિ પુત્ર અમાત્ય જ્યારે મારું નામ ગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવું ઇચ્છતા નથી ત્યારે મારી સામે જોવાની અને મારી સાથે રિલેાગની તા વાત જ શી કરવી ? આ રીતે તે પાટિલા અપહત મન સ`કલ્પ થઈને યાવત આ ધ્યાન કરતી બેઠી હતી.
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6
शाताधर्मकथासूत्रे
यावद् ध्यायन्तीम् = यावदार्तध्यानं कुर्वन्ती पश्यति दृष्ट्वा एत्रमवदत् मा खलु त्वं हे देवानुप्रये ! अमनः संकल्पा ' जात्र झियाहि यावदध्याय = यावदार्तध्यानं माकुरु । हे देवि । त्वं च खलु मम ' महाणसंसि महान से= भोजनशालायाम् विपुलम् ' असण जाव' अशन यावत् = अशनपान खादिम स्वादिमं चतुर्विधमाहारम् उवक्खडावेहि ' उपस्कारय, ' उबक्खडावित्ता' उपस्कार्य ' बहूर्ण समण माहण जावणीमगाणं ' बहुभ्यः श्रमणब्राह्मण यावद् वनीपकेभ्यः = याचकेभ्यः, स्वयं देयमाणी ' ददती च, अन्यैः ' दवावेमाणी ' दापन्ती च विहर । ततः खलु सा आर्तध्यान कर रही थी - ( तरणं तेतलिपुत्ते पोहिल ओहग्रमण संकष्पं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी माणं तुमं देवाणुपिया ओहयमण संकप्पा जाव झियाहि, तुमं च णं ममं महाणसंसि विउलं असणपाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेहिं, उवक्खडावित्ता बहूणं समण माहण जाव वणीपगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि, तरणं सा पोट्टिला तेलीपुत्त्रेण एवं बुत्ता समाणा हट्ट तुट्टा तेयलिपुत्तस्स एयम पडिसुणेइ, पडिणित्ता कल्ला कल्लि महाणसंसि विपुलं असण जाव दवावेमाणी विहरइ ) इतने में तेतलिपुत्र ने उस अपहतमनः संकल्प होकर आर्तध्यान करती हुइ पोहिला को देखा तो देखकर उसने उससे कहा- हे देवानुप्रिये तुम अपहृतमनः संकल्प होकर आर्तध्यान मत करो तुम तो मेरी भोजनशाला में विपुलमात्रा में अशन, पनि, खादिम एवं स्वादिम इस तरह चतुर्विध अहार बनवाओ बनवाकर उसे अनेक श्रमण ब्राह्मण यावत् याचकजनों के लिये स्वयं दो और दूसरों
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१
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(तपणं तेतलिपुते पोट्रिटलं ओहयमणसंकष्पं जात्र झियायमार्णि पास पासित्ता एवं वयाची माणं तुमे देवाणुधिया ओयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुमं चणं ममं महाण संसि विउलं असणपाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेहि, उत्रक्खडावित्ता बहूणं समणमाहण जाव वणीपगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि तरणं सा पोटिला तेतलिपुत्तेणं एवं बुत्ता समाणा हट्टा तेयतिपुत्तस्स एयमहं पडिसुणे, पडिणित्ता कल्लाकालि महागसंसि विपुलं असण जाव दवावेमाणी विहरइ ) આટલામાં અપહતમન સંકલ્પ થઈને આ ધ્યાન કરતી તે પેટ્ટિલાને અમાત્ય તેતલિપુત્રે જોઇ અને જોઇને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તમે અપહેતમનસ'કલ્પ થઈને આયાન કરી નહિ-તમે મારી ભેાજન શાળામાં જઇને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વામિ આમ ચાર જાતના આહાર બનાવડાવા અને બનાવડાવીને તેને ઘણા શ્રમણ બ્રાહ્મણુ
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धर्मामृत
૩૭
टी० अ०१४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् पोट्टिला तेतलिपुत्रेण ' एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण उक्ता सती हृष्टतुष्टा तेतलिपुत्रस्य 'एम' एतमर्थम् = अन्नदानरूपमभिप्रायं 'पडिसुम' प्रतिशृणोति=स्वीकरोति, पडिणिता' मतिश्रुत्यन्वोकृत्य, 'कलाकलिं करवापि = पतिदिनम्, महानसे विपुलम् ' असण जात्र' अशन यावत् = अशनपानखाद्यस्त्राद्यं चतुर्विधमाहारमुपकार्य ददती च ' दवावेमाणी ' दापयन्ती च विहरति ॥ ६ ॥
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अजाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुवि० चरमाणागामाणुगामं दुइजमाणा जेणामेव तेतलिपुरे जयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, अहापडि - रूवं उग्गहं उग्गिपहंति, उग्गिहित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणिओ विहरति । तष्णं तासि सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणे तेतलिस्स हिं अणुपविट्टे । तणं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता, हट्टतुट्ठा आसणाओ अब्भुट्टेह, अब्भुट्ठित्ता, वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता, विउलं असण जाव पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता, एवं वयासी - एवं खलु अहं अजाओ तेतलिपुत्तस्स पुवं
से दिलवाओ। इस तरह तेतलिपुत्र अमात्यने जब उस पोट्टिला से कहा तो वह बहुत अधिक प्रसन्न एवं संतुष्ट हुई । और उसने तेतलि - पुत्रकी इस बातको मान लिया। मान करके वह प्रतिदिन भोजन शाला में चारों प्रकार का आहार बनवा कर उसे श्रमण, माहण आदि जनोंके लिये स्वयं देने लगी और दूसरों से दिलवाने लगी | सू० ६ ॥
યાવત યાચકાને પોતે આપે। અને બીજાને હુકમ કરીને અપાવેા. તેલિ પુત્ર અમાત્યે જ્યારે આ પ્રમાણે પાટ્ટિલાને કહ્યું ત્યારે તે ખૂબજ પ્રસન્ન તેમજ સંતુષ્ટ થઈ ગઈ અને તેણે તૈતલિપુત્રની આ વાત સ્વીકારી લીધી, અને તે દરરાજ ભાજન શાળામાં ચારે જાતના આહાર બનાવડાવીને શ્રમણ બ્રાહ્મણુ વગેરે ને પાતે આહાર આપવાલાગી અને ખીજાએ દ્વારા અપાવવા લાગી સૂ
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ま
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
इट्ठा ५ आसि, इयाणि अणिट्ठा५ जाव दंसणं वा परिभोगं वा, तं तुभेणं अजाओ सिक्खियाओ बहुनायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर जाव आहिंडह बहूणं राईसर जाव गिहाई अणुपसिह, तं अस्थि आई भे अजाओ ! केइ कहिंचि चुन्नजोए वा मंतजोए वा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा काउडवणे वा आभिओगए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूकम्मे वा मूले कंदे छल्ली वल्ली, सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसने वा उवलद्वपुब्वे वा जेणाहं तेतलिपुत्तस्स पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि । तएणंताओ अज्जाओ पोहिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठवेंति ठवित्ता, पोहिलं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुपिया ! समणीओ निग्गंथिओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अहं एयप्पयारं कन्नेहिवि णिसामेत्तए, किमंग पुण उवदिसित्तए वा आयरित्तए वा ? अम्हेणं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलि - पन्नत्तं धम्मं पडिक हिज्जाम । तएणं सा पोटिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी - इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामेत्तए, तरणं ताओ अजाओ पोहिलाए विचित्तं धम्मं परिकहेंति । एणं सा पोटिला धम्मं सोच्चा निसम्म
तुट्ठा एवं वयासी - सदहामि णं अज्जाओ ! णिग्गंथं पात्रयणं जाव से जहियं तुब्भे वयह, इच्छामि णं अहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्मं पडिवज्जित्तए, अहासुहं, तरणं
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०म० १४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
३९
सा पोहिला तासि अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्मं पडिवज्जइ, ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ । तएणं सा पोहिला समणोवासिया जाया जाव पडिला भेमाणी विहरइ || सू० ७ ॥
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टीका - ' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सुव्रतानाम आर्या ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यो बहुश्रुता बहुपरिवाराः 'पुत्राणुत्रि ' पूर्वानुपूर्व्या=तीर्थङ्करपरम्परया विचरन्त्यः ' जेणामेव ' यचैव तेतलिपुरं नगरं तत्रैवोपागच्छंति, उपागत्य ' अहापडिरूवं ' यथामतिरूपम् = यथाकल्पम् 'उग्गहं ' अवग्रहम् = वसत्वर्थमाज्ञाम् ' उग्गिन्हंति अवगृह्णन्ति = याचन्ते, अवगृह्य ' संजमेण ' संयमेन सप्तदशविधेन, तपसा द्वादशविधेन आत्मानं भावयन्त्यो
9
6
1 तवसा
,
' तेणं कालेणं तेणं समएर्ण ' इत्यादि ।
·
टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (सुब्वयाओ नाम अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरि वाराओ पुग्वाणुपुच्वि० जेणामेव तेयलिपुरे णयरे तेणेव उवागच्छइ ) सुव्रता नामकी आर्या तीर्थकर परंपरा के अनुसार विहार करती हुइ उस तेतलिपुर नगर में आई । ये ईर्यासमिति आदि पांच समितियों की पालक थी - गुप्त ब्रह्मचारिणी थीं। बहुश्रुत थी । अनेक परिवार से युक्त थीं । ( उवागच्छितो अहा पडिरूवं उग्गहं उग्गिहंति, उग्गहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति तरणं
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ते कालेणं तेन समपर्ण इत्यादि ॥
टीडार्थ - ( तेणं कालेणं देणं समष्णं ) ते पुणे राने ते समये ( सुन्याओ नाम अज्जाओ ईरिया समियाओ जाव गुत्तभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुच्वि० जेणामेत्र तेवलिपुरे जयरे तेणेत्र उवागच्छइ) સુત્રતા નામની આર્યાં તીર્થંકર પર’પરા મુજબ વિહાર કરતી તેતલિપુર નગરમાં આવી તે ઈર્ષ્યાસમિતિ વગેરે ૫ (પાંચ) સમિતિઓનું પાલનકરનારી હતી તેમજ ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી હતી. તે બહુશ્રુત તેમજ ઘણા પરિવારા થી વીંટળાયેલી હતી.
( उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्डंति उग्गिन्हित्ता संजमेणं तत्रसा
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(
४०%
शात धर्मकथासूत्रे
विहरन्ति । ततः खलु तासां सुव्रतानामार्यागामेकः संघाटकः प्रथमायां पौरुष्याम् स्वाध्यायं=मुत्रमूलपठनरूपं करोति, ' जाव अडमाणे ' यावदन्त्याः, यावच्छन्दात् द्वितीयस्यां पौरुष्यां मृवार्थचिन्तनरूपं ध्यानं करोति, तृतीयस्यां पौरुष्यां सुव्रतामार्यामापृच्छय उच्चनीचमध्यमकुलेषु गृहसामुदानिकभिक्षार्थमटन इत्यर्थी बोध्यः, तेतले गृहमनुप्रविष्टः । ततः खलु सा पोहिला ताः संघाटकस्था आर्या एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा, हृष्टतुष्टा आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय वन्दते
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तासि सुव्वायाणं अज्जाणं एगे संघाइए पढमाए पोरिमीए सज्झायंकरे, जाव अडमाणे तेतलिस हिं अणुपविट्ठे) वहां आ कर उन्होंने यथाकल्प ठहरने की आज्ञा मांगी-मांगकर फिर वे १७ सतरह प्रकार के संयम और १२ बारह प्रकार के तपसे अपने आपको वासित करती हुई ठहर गईं। इन सुव्रता आर्या का एक संघाटक था जो प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करता - द्वितीय पौरुषी में सूत्रार्थका चिन्तनरूप ध्यान करता और तृतीय पौरुषी में सुव्रता आर्या की आज्ञासे ऊँच नीच एवं मध्यम कुलोंमें भिक्षा के लिये अटन करता । इस तरह वह संघाटक (संघाडा) तृतीय पौरुषी में इन उच्चादि घरों में भिक्षार्थ अटन करता हुआ तेतलिपुत्र अमात्य के घर पर आया (तएण सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासह ) इतने में उस पोहिलाने उन संघाटकस्थ आर्याओं को ज्यों ही अपने घर पर आया हुआ देखा तो (पासित्ता हट्टतुट्ठा आसणाओ अअप्पाणं भावेमाणीओ विहरति तरणं तासि सुव्वायाणं अज्जाणं एगेसंघाडए पढाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जात्र अडमाणे तेतलिस्स गिहं अणुपविट्ठे ) ત્યાં આવીને તેમણે યથાકલ્પ (સાકલ્પ પ્રમાણે) રહેવાની આજ્ઞા માંગી અને ત્યારપછી તે ૧૭ જાતના સયમ અને ૧૨ જાતના તપ વડે પેાતાની જાતને વાસિત કરતાં તે ત્યાં રોકાઇ. સુત્રતા આર્યાના એક સંઘાટક હતા જે પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરતેા હતેા, દ્વિતીય પૌરૂષીમાં સૂત્રાર્થનું ચિંતન રૂપ ધ્યાન કરતા અને તૃતીય પૌરૂષીમાં સુત્રતા આર્યોની આજ્ઞા મેળવીને ઊંચા, નીચા અને મધ્યમ કુળામાં ગોચરી માટે જતા હતા. આ પ્રમાણે તે સંઘાટક તૃતીય પૌરૂષીમાં ઉપરોક્ત ઊંચા વગેરે કુળાના ઘરમાં ગેચરી માટે ફરતાં ફરતાં तेतत्रिपुत्र अमात्यने त्यां खाव्या. ( तएवं मा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ) पट्टिसामे न्यारे संघाटस्थ आर्याने पोताने घेर मावेसी हत्यारे ते (पासित्ता हट्ट तुट्ठा आसणाओ अब्भुट्ठेइ ) लेने ते जू પ્રસન્ન થઈ અને પેાતાના આસનથી ઊભી થઈ.
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पगारामृतवर्षिणी टी० म० ४ तेतलिपुभप्रधानचरितवर्णनम्र
नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, विपुलमशनगनखाद्यस्वाद्यरूपं चतुर्विधमाहारं 'पडिलाभेइ ' प्रतिलम्भयति ददाति, प्रतिलभ्य, एवमवदत्-एवं खलु अहं हे आर्याः ! तेतलिपुत्रम्य पूर्वमिष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा, मनोऽमा, आसम् , परन्तु 'इयाणि' इदानीम् ' अणिहार जाव दंसणं परिभोगं वा' अनिष्टा' यावत् दर्शन परिभोगं वा-साम्प्रतं तेतलिपुत्रस्याऽहमनिष्टा अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोऽमा जाता, तस्मादेप तेतलिपुत्रो मम नामगोत्रमपि श्रोतुं नेच्छति, किं पुनर्हे आर्याः ! स मम दर्शनं मया सह परिभोगं या कथं वाञ्छेत् ? । ' तं तुन्भेणं
इ) देकर वह बहुत अधिक प्रसन्न हुई, और अपने स्थान से उठी अभुहित्ता बंदइ णममइ, बंदित्ता, मंसित्सा विलं असग जाव पहिलाभित्ता एवं घयासी) उठकर उसने उसको वंदना की-नमस्कार किया । बन्दना नमरकार परके फिर उसने उन्हें विपुल मात्रा में अशन पान आदि चतुर्विध आहार दिगा-और दे कर वह इस प्रकार कहने लगी-( एवं रुल अहं अज्जाओ ! तेतलिपुत्तरस पुब इट्ठा ५ आसि, इमाणि अण्टिा ५ जाव दमण वा परि भोगं वा-तं तुम्भेणं अज्जाओ सिविषयाओ पहनायाओ बहुपहियाओ बहणि गामागार जाव अहिंडइ, दणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसइ ) हे आर्याओ! पहिले मैं तेतलिपुन अमात्य के लिये बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी परन्तु अब इस समय में उनके लिये अनिष्ट, अकान्त, अभिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम बन रही हूँ। वे मेरा नाम गोत्र तक भी सुनना पसंद नहीं करते हैं तो फिर मेरे साथ परिभोग करने की __(अभुट्टिना बंदइ णमंसइ. बंदित्ता, णमंसित्ता विउलं असण जाा पडिलाभेइ पडिलाभित्ता एवं बयासी)
ઊભી થઈને તેણે તેમને નમન કર્યા. વંદન અને નમન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન વગેરે ચાર જાતના આહારો આપ્યો અને આપીને તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે
( एव बल अहं अनाओ । तेतलिपुत्तस्स पु इट्टा ५ आसि. इयानि ५ दंस या परिभोगं वा तं तुम्भेणं अज्जाश्री सिविखयाभो बहुनायाभो बहुपहियाभो बहूणि गामागर जार अहिंडइ, बहूणं राईमर जाव गिहाई अणुविनइ)
હે આર્યાઓ ! પહેલા તેતલિપુત્ર અમાત્યના માટે ખૂબ જ ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય, મને જ્ઞ અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે અનિષ્ટ, અકાંત, અપ્રિય, અમને જ્ઞ અને અમનેમ થઈ પડી છું. તેઓ મારાં નામ ગોત્ર સુદ્ધાં સાંભળવા ઇચ્છતા નથી ત્યારે મારી સામે પરિભેગ કરવાની અને મને જોવાની
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साताधर्मकथासूचे अज्जाओ' इति, तत-तस्मात् कारणात् यूयं खलु हे आर्याः ! 'सिक्खियाओ' शिक्षिताः शिक्षा प्राप्ताः, 'बहुणायाओ ' बहुज्ञाता: अनेकशास्त्रज्ञाननिपुणाः 'बहूपढियाओ' बहुपठिता नानाविधविद्याकुशलाः स्थः पुनः 'बहुणि गामागर जाव अहिंडह ' बहूनि ग्रामाकर यावत् आहिण्डय-बहुषु ग्रामाकरनगरादिषु परिभ्रमणं कुरुथ । तथा च 'बहूणं राईसर जाव गिहाई अणुपसिइ' बहूनां राजेश्वर यावद् गृहाणि अनुमविशथ हे आर्याः ! यूयं बहूनां राजेश्वर तलवरवेष्ठि सेनापत्यादीनां गृहे प्रवेशं कुरुथ, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् 'अत्थि अइभे अज्जाओ।' अस्ति आई युष्माकमार्याः ! 'आई' इति वाक्यालङ्कारे देशी शब्दः । हे आर्याः ! अस्ति 'केइ कहिं चि' कोऽपि कुत्रचित्=युष्माकं ज्ञानविषये 'चुन्नजोए वा' चूर्णयोगो वा-चूर्णानां द्रव्यचूर्णानां योगः, स्तम्भनादिकर्मकारी, 'मंतजोए वा' मन्त्रयोगो वा-मन्त्राणां योगो व्यापारो वा वशीकरणादि मन्त्रयोगः 'कम्मणजोए
और देखने की उनकी बात ही क्या कहूँ इस लिये हे आर्याओ। आप सब तो शिक्षित हैं, बहुज्ञाता हैं-अनेक शास्त्रों के ज्ञानसे निपुण हैंबहुपठित हैं-नाना प्रकार की विधाओं में कुशल हैं-अनेक ग्राम, आकर
आदि स्थानों में विहार करती रहती है, अनेक राजेश्वर आदिकों के घरों में आती जाती रहती हैं (तं अस्थिआईभे अजाओ) तो हे आर्याओ ! (केइ कहिं चि चुन्नज्जोएवा ) कहीं कोई चूर्ण योग- द्रव्य चूों का स्तम्भनादि कर्मकारी योग (मंतजोए वो कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कंदे छल्ली, बल्ली, सिलिया, वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा, उवलद्धपुब्वे वा जेणाहं तेतलिपुत्त. स्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि ) मंत्र योग-वशीकरण आदि मंत्रों का તે વાત જ ક્યાં રહી? એથી હે આર્યાએ તમે સૌ શિક્ષિતા છે, બજ્ઞાતા છે–એટલે કે ઘણું શાસ્ત્રોના જ્ઞાનથી નિપુણ છે, બહુપંડિતા છે-અનેક જાતની વિદ્યાઓમાં કુશળ છે, ઘણાં ગામ, આકર રથામાં વિહાર કરતાં રહે છે, भने । २।२३२ पोरेना भसामा आव २तां २ छ।. ( तं अत्थिआई में अज्जाओ) तो मायाम!! (केइ कहि चिचुन्नज्जोएवा) यां ગમે તે ચૂર્ણ રોગ-દ્રવ્ય ચૂને સ્તંભન વગેરેને રોગ, ___(मंतजोएवा कम्मणजोए वा हिय उड्डावणे वा, काउड्डावणे वा अभि
ओगिए वा वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा मूले कंदे छल्ली बल्ली सिलिया, वा गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा उवलद्धपुव्वे वा जेणाहं तेतलि. पुनस्स पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि )
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arrafort टी० अ० ४ तेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम्
3
वा कार्मणयोगो वा उच्चाटनादिकर्मयोगो वा 'हिय उड्डावणे वा 'हृदयोडायनं वा चित्ताकर्षक वस्तु विशेषो वा 'काउड्डायने वा' कायोड्डायनं वा शरीरावस्तुविशेवा 'आभियोगए वा' अभियोगिको वा = पराभवकरणयोगो वा' वसीकरणे वा' वशीकरणं वा वशीकरणयोगो वा, 'कोउयकम्मे वा 'कौतुककर्म वा = सौभाग्यवर्द्धकस्नानादि वा 'भूइकम्मे वा' भूतिकर्म वा = मन्त्राभिमन्त्रित - भस्मप्रक्षेपणं वा तथा औषधीनां 'मूले ' मूलम् ' कंदे ' कन्दः ' छल्ली ' स्वरु ' बल्ली ' लता ' सिलिया वा शिलिका - तृणविशेषः, 'गुलिया ' गुलिका= गुटिका' ओस वा भेसज्जे वा' औषधं वा भैषज्यं वा, इत्यादिकं वस्तुजातं युष्माभिः 'उबलद्वपुब्वे ' उपलब्धपूर्वम् = प्राप्तपूर्वम्, हे आर्याः । भवत्य एषु किमपि उपलब्धपूर्वा अवश्यं भवेयुः, तत्कृपया मामर्पय, 'जेगाई' येनाहम्, यत्सेवनादहं
,
लिपुत्र पुनरपि इष्टा कान्ता प्रियामनोज्ञामनोऽमा भवेयम् । ततः खलु ता आर्याः पोट्टिलाया एवमुक्ताः सत्यो द्वावपि हस्तौ कर्णे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा योग कामेण योग- उच्चाटन आदि मंत्रो का योग हृदयोड्डीयनचित्ताकर्षक वस्तु विशेष का योग, कायोडायन - शरीराकर्षक वस्तु विशेषका योग, आभियोगिक पराभव करने का योग, वशीकरणवशीकरण योग, कौतुक कर्म-सौभाग्यवर्द्धक स्नान आदि का योग, भूति कर्त-मंत्रादि से अभिमंत्रित भस्म के प्रक्षेपण करने रूप योग तथा आषधियों के मूल, कंद त्वक - छाल तथा लता, शिलिका-तृण विशेष गोलो, ओषध - मेवज्य इत्यादि वस्तुओं का योग आपके देखने में अवश्य आया होगा- इस लिये कृराकर इनमें से कोई न कोई योग आप हमें अवश्य - अवश्य प्रदान करें कि जिससे मैं जिस के सेवन से मैं-तेतलिपुत्र का पुनरांपे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम बन जाऊँ (तएणं ताओ अज्जाओ पाहिलाए एवं वुत्ताओ समागोओ दावि हत्थे कन्ने ठवेंति,
મંત્રયાગ-વશીકરણ વગેરે મંત્રાના ચાગ-કામણુયાગ, ઉચ્ચારણ વગેરે મત્રાના યાગ, હૃદયાડ્ડાવન-ચિત્તાકર્ષક વસ્તુ વિશેષના યાગ, આમિયાગિકपरात्मन उरवानों योग, वशी४२५ - वीड योग, श्रीतुम्ऽर्भ - सौभाग्यवद्ध સ્નાન વગરના ચાળ, ભૂતિકમ-તંત્ર વગેરેથી અભિમ ંત્રિત કરીને ભસ્મ ( राजोडी ) नुं प्रक्षेपये ३५ योग तेभर औषधीयाना भूत, ॐ६, (१५ (छात्र) તેનજ લતા, શિલિકા—તુણુ વિશેષ ગેળી, ઔષધ, ભૈષજ્ય વગેરે વસ્તુઓને ચેગ તનારા જોવાના ચાક્કસ આવ્યા જ હશે. એટલા માટે તમે કૃપા કરીન એમાંક ગમે ત યાગ મન ચાત આપી કે જેના સેતથા હું ફરી તેતિલે पुत्रनो ष्टि, हात, प्रिय, मनोज्ञ भने मनोम थुई ल
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साताधर्मकथाङ्गसूत्रे पोटिलाम् एवमवदन-वयं खलु हे देशानुप्रिये ! श्रमण्यो निम्रन्थ्यः, बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिताः, यावद् गुप्तब्रह्मवारिण्यः, नो खलु कल्पतेऽस्माकम् ‘एयप्पयारं ' एतत्पकारं-कर्णीरपि 'णिसामेत्तए' निशामयितुं-श्रोतुं न कल्पत इति पूर्वेण सम्बन्धः । 'अङ्ग इति सम्बोधने ' हे पाहिले ! किं-कथं पुनः ' उवदिसित्तए वा ' उपदेष्टुम् वा, स्वयम् 'आयरित्तए वा' आचरितुं वा कल्पते । न कल्पतइत्यर्थः, वयं खलु तव हे देवानुपिये ! विचित्र केवलिपक्षप्तं धर्म परिकथयामः । ततः खलु सा पोट्टिला ठावित्ता पोट्टिलं एवं बयासी-अम्हेणं देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गंधीओ जाव गुत्तभयारिणीओ, नो खलु कप्पई अम्हं एयप्पयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमंग उयदिसित्तए वा, आयरित्तर वा। अम्हं गं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहिज्जामो) इस प्रकार उस पोट्टिला के द्वारा कहीं गई उन आर्याओं ने अपने दोनों कानोंपर हाथ रख लिये-और रख कर पोहिला से इस प्रकार कहने लगीं-हे देवानुप्रिये ! हम तो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, नव कोटि से पूर्ण ब्रह्मचर्यको हम पोलती हैं। हमें तुम्हारी ऐसी बाते कानों से सुनना भी कल्पित नहीं हैं तो फिर हे पुत्रि ! हम इनका उपदेश तुम्हें कैसे दे सकते हैं
और स्वयं भी इनका आचरण कैसे कर सकता हैं। अर्थात् इन बातों का उपदेश देना और स्वयं इनको अपने आचरण में लाना यह सब हमारे कल्प के अनुसार निषिद्ध है । हम तो हे देवानुप्रिये ! तेरे हितके
(तएणं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवंयुत्ताओ समाणीओ दो वि हत्थे कन्ने ठति, ठावित्ता पोट्टिलं एवं वयासी अम्हेणं देवाणुपिया ! समणीभो निग्गंधीओ जाव गुत्तवंभयारिणीभो, नो खलु कप्पद अम्हं एयपयारकन्नेहि वि निसामित्तए किमंग उवदिसित्तर वा, आयरित्तए वा ! अम्हं णं तब देवाणुपिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहिज्जामो)
આ પ્રમાણે પિદિલની વાત સાંભળીને તે આર્યાએએ પિતાને બને કાનો ઉપર હાથ મૂકી દીધા અને મૂકીને એમ કહેવા લાગી હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તો નિગ્રંથ શ્રમણીએ છીએ. નવાવાડ સહિત બ્રહ્મચર્યનું અમે પાલન કરીએ છીએ. હે પુત્ર! તમારી એવી વાત અમારા માટે કાનથી સાંભળવી પણ .... લેખાય નહિ ત્યારે તેના વિશે ઉપદેશની વાત તે સાવ અગ્ય જ છે. અમે આ વિશે તમને કઈ પણ જાતને ઉપદેશ પણ આપી શકીએ નહીં તે પછી જાતે આનું આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? એટલે કે આ બાબતને ઉપદેશ આપ તેમજ પોતે આનું આચરણ કરવું તે બધું અમારા કલ્પ
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भनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ०८ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ४५ ता आर्याः एव मवादीत्-इच्छामि खलु हे आर्याः ! युष्माकमन्ति के केबलिप्रज्ञप्त धर्म निशामयितुम् श्रोतुम् । ततः खलु सा पोट्टिला धर्म श्रुत्वा ‘निसम्म' निशम्य हृदयेनाधार्य हृष्टतुष्टा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु हे आर्याः ! नैग्रन्थ्य प्रवचनं यावत् ' से ' तत् तथैव यथैतद् यूयं वदथ । हे आर्याः ! 'इच्छामिणं' इच्छामि खलु अहं युष्माकमन्तिके 'पंचाणुव्वइयं जा गिहिधम्म' पश्वाणुव्रतिकं यावत् गृहिधर्म ‘पांडवज्जित्तए' प्रतिपत्तुंबीकर्तुम् । अनन्तरं ता आर्या एमवालिये विचित्र केवल प्रज्ञप्त धर्मका उपदेश कहते हैं ( सो तृ सुन)(तएणं मा पोटिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी इच्छामिणं अज्जाओ! तुम्हें अंतिए केलि पन्नत्ते धम्म निसामेत्तए-तएणं ताओ अज्जामो पोटिलाए विचित्तधम्म परिकहेंति ) उनकी इस प्रकार बात सुन कर उस पोटिलाने उनसे कहा-हे आर्याभो! मैं आप लोगों के मुख से केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहती हूं । पोटिला की ऐसी प्रार्थना सुन कर उन आर्याओं ने उस पोहिला के लिये विचित्र केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनाया (तएणं सा पोटिला धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा एव वयासी ) उन के मुख से केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुन कर और उसे अपने हृदयमें अवधृत कर अत्यन्त हर्षित एवं संतुष्ट हूई उस पोटिलाने उनसे ऐसा कहा ( सद्दहामि णं अज्जाओ! जिग्गथं पावणं जाव से जहियं तुम्भे वयह, इच्छा म णं अहं तुम्भ अंतिए पंचाणुच्चयं जाव गिहिधम्म पडिवजि. राए-अहानुह, तएणं सा पोहिला तासिं अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं મુજબ અયોગ્ય ગણાય છે. હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે તારા હિત માટે વિચિત્ર કેવળિ પ્રાપ્ત ધર્મને ઉપદેશ આપીએ છીએ તેને તું સાંભળ.
(तपणं सा पोटिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी इच्छामि णं अाभो ! तुम्हं अंतिए के गलिगन्नत्ते धम्म निसामेत्तए-तएणं ताो अन्नाभो पोहिलाए विचित्तं धम्म परिकहेति)
તેમની આ જાતની વાત સાંભળીને તે પિહિલાએ તેમને એમ કહ્યું કે હે આર્થીઓ! તમારા મુખથી હું કેવળી પ્રજ્ઞપ્ત ધમને સાંભળવા ઈચ્છું છું. પિટિલાની એવી વિનંતી સાંભળીને તે આર્થીઓએ તેને વિચિત્ર કેવળ પ્રજ્ઞમ
भने। पहेश माया. (तएणं सा पोट्टिला धम्म सोच्चा निसम्म हटू-तुद्धा ए। क्यासी ) तमना भुथी 3जी प्रज्ञा यमन व शने तनयमां ધારણ કરીને ખૂબ જ હકિત અને સંતુષ્ટ થતી તે પિફ્રેિલાએ તેમને એમ કહ્યું કે
( सहामिणं अज्जाओ ! गिरगंथं पावयणं जाव से जहियं तन्मे वयह, इच्छामि णं अहं तुम्भं अंतिए पंचाणुबइयं जाव गिहिधम्म पजिवज्जित्तए-अहा.
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शाताधर्मकथासूत्रे दिषुः- अहामुहं ' यथा सुवं, हे देवानुप्रिये ! । ततः खलु सा पोटिला तासा. मार्याणामान्तके पश्चाणुबतिक यावद् गृहिधर्म प्रतिपद्यते, पुनस्ता आर्या वन्दते नमस्पति, वन्दित्वा नमस्थित्वा प्रतिविसर्नयति । ततः सा पोट्टिलाश्रमणोपासिका जाता, 'जात्र पडिलाभेमागि ' यावत् पतिलम्भयन्ती-निग्रन्येभ्यः श्रमणेभ्यः श्रमणीभ्यश्च चतुर्विधमाहारं ददती विहरति । मु० ७ ॥ जाव गिहिधम्म पडिवज्जेइ, ताओ अज्जाओ वंदइ, णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ ) हे आर्याओ ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं यावत् ऐसा मानती हूं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन जैसा आप कहती है वैसा ही है । अतः हे आओ ! अब मैं आपके पास पंचाणु व्रत मात शिक्षावन आदि रूप १२ बारह प्रकार का गृरस्थ धर्म को धारण करना चाहती हूं। इस तरह पोट्टेला की भावना जान कर उन आर्या ओं ने उससे कहा-यथा सुखं देवानुप्रिये ! तुझे जिस तरह सुस्व हो वैसा तुं कर-श्रेयस्कर कार्य में विलम्ब करना योग्य नहीं हैं-इस प्रकार उन आयोजनोंकी आज्ञा प्राप्त कर उस पोटिलाने उन्हीं आर्याओं के पास से श्रावकधर्म पंच अणुवन एवं सात शिक्षाबलों को धारण कर लिया । इस प्रकार श्रमणोपासिका बनी हुई उस पोटिला ने उन आर्या ओं को वन्दना एवं नमस्कार की-वन्दना नमस्कार करके फिर उन्हें विसजित कर दिया । (तएणं सा पाहिला समणोवासिया जाया जाव पडि. मुहं, तएणं सा पोहिला तासि अजाणं अंतिए पंचागुमइयं जा गिहिधम्म पडिवज्जेइ, ताओ अज्जाओ वंदर, णमंसद वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जे)
હે આર્યાઓ ! આ નિગ્રંથ પ્રવચન ઉપર હું શ્રદ્ધા કરું છું. યાવત આ નિગ્રંથ પ્રવચન જેવું તમે કહે છે તેવું જ છે. એથી હે આર્યાએ ! હવે તમારી પાસેથી પાંચ અણુવ્રત વગેરેને ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરવા ઇચ્છું છું. આ રીતે પિફ્રિલાના વિચારે જાણીને તે આર્યાઓએ તેને કહ્યું કે 'यथासुखम्' मेट वानुप्रिये ! तने मां सुभ प्राथाय तेम तुं ४२ સારા કામમાં વિલંબ કરવા જોઈએ નહિ. આ પ્રમાણે તે આર્યાની આજ્ઞા મેળવીને તે પિઢિલાએ તે આર્યાઓની પાસેથી શ્રાવક-ધર્મ-પાંચ અણુવ્રતે અને સાત શિક્ષાવ્રત–ને ધારણ કરી લીધું. આ રીતે શ્રમણે પાસિકા થઈ ગયેલી તે પદિલાએ તે આર્યાઓને વંદન તેમજ નમન કર્યા અને વદન તથા नमन शन तमन विहाय भापी (तरण सा पोहिला सम गोशासिया जाया जाव. पडिलाभेमाणों विहरह) | रीते श्रमपसि! २७ गयेसी त पहिसा
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० ४ तेतलिपुत्रप्रधान रितवर्णनम्
मूलम् - तरणं तीसे पोहिलाए अन्नया क्याई पुव्वरस्तावरसकालसमर्थसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुत्पन्ने । एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुठिंब इट्ठा ५ आसि, इयाणिं अणिट्टा ५ जाव परिभोगं वा, तं सेयं खलु मम सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए, एवं संपई, संपेहित्ता, कलं जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए । तएणं तेयलिपुत्ते पोहिले एवं वयासी एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पव्वइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि, तं जइ णं तुमं देवाणुपिए ! ममं ताओ देवलीयाओ आगम्म केवल पन्नत्ते धम्मे वोहेहि, तोहं विसज्जेमि, अह णं तुमं ममं ण संबोहेसि, तो ते पण विसज्जेमि । एणं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमट्टं पडिसुणेइ । ततः खलु तेतलिपुत्ते विपुलं असणं४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता, मित्तणाइ जात्र आमंतेइ, आमंतित्ता, जात्र सम्माणेइ, सम्माणित्ता, पोहिलं पहायं जाव पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूह इ, दुरुहित्ता, लाभेणी विहरइ ) इस प्रकार श्रमणोपासिका बनी हुई वह पोहिला निर्ग्रन्थ श्रमणजनों कोएवं निर्मन्थ श्रमणियों को दान चारों प्रकार का आहार देती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी || सू० ७ ।
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४७
નિગ્રંથ શ્રમણેા અને નિગ્રંથ શ્રમણીઓને દાન-ચારે જાતના આહારો-આપતી પેાતાનેા વખત પસાર કરવા લાગી. ।। સૂત્ર ७
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” แ
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माताधर्मकथासूत्र मित्तणाइ जाव संपरिबुडे सव्विाड्किए जाव रवेणं तेयलिपुरस्स मज्झं मज्झणं जेणेव सुव्वयाण उवस्सए तेणेव उवागच्छद । पोटिला सीयाओ पच्चोरुहइ । तेतलिपुत्ते पोटिलं पुरओ कटु जेणेव सुव्वया अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदइ नमंरूइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया! मम पोटिला भारिया इट्ठा ४, एसणं संसारभउठियगा जाय फवइत्तए, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिगीभिक्खं अहासुहं मा पडिबंधं करहि । तएणं सा पोट्टिला सुव्वयाहि अज्जाहि एवंवुत्ता समाणा हट्टतुट्टा उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं अवकमइ, अबक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओम् इत्ता, सयमेव पंचमुट्टियं लोयं कइ, करित्ता, जेणेव सुव्वयाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता. एवं बयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए एवं जहा देवागंदा जात्र एकारसअंगाई अहिज्जइ,बहुणि वाप्ताणि सामन्नरियागं पाउग्इ, पाउगित्ता, मासियाए संलहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सटि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववण्णा।सू०८॥
टोका-'तएणं तीसे ' इत्यादि । ततः खलु तस्याः पोहिलायाः 'हुन्ध. रत्तापातकालसमयंस' पूर्वरात्रापररात्र कालसनयात्रेः पश्चिमे भागे कुटुंब काग
लएणं-'तीसे पोहिलाए' इत्यादि ।
टोकार्थ - (तएण) इसके बाद ( तीसे पोटिलाए) उस पो.िला के जय कि वह ( अन्नया कयाई ) किमी एक दिन (पुजारतकाल नमः 'तएण-तीसे पोट्टिलालाए' इत्यादि ।
-(तएण) त्या२ ५७ ( तीसे पाहिलाए ) ते ने-3 न्यारे ते (अन्नया कयाई) ४ मे 6िसे (पुवावरत्तकालसमय सि ) विना
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ सेतलिपुत्र प्रधानचरितवर्णनम् . रियं जागरमाणीए' कुटुम्ब नागरिको जाग्रत्या अयमेतद्रूप 'अज्झस्थिए जाव' आध्यात्मिको यावत् आध्यात्मिका आत्मगतो यावन्मनोगतः संकल्पः समुत्पन्नः । संकल्पप्रकारमाह-एवं खलु अहं तेतलिपुत्रस्य पूर्वम् इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोऽमा आसम् , इदानीमनिप्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा यावत् परिभोगं वा । अस्याभिप्रायः-अहो मनुष्याणां मनोवृत्तेरस्थिरती । पूर्व यस्याहम् इष्टा कान्ता प्रियाऽदिकाऽसम् , सेवाहमस्यानिष्टाऽकान्ताऽभियादिका जाताऽस्मि । अयं तेतलिपुत्रो मम नाम गोत्रश्रवणमपि नेच्छति किं पुनर्ममदर्शनं मया सह परिभोगं वाञ्छेत् अपितु नेत्यर्थः । 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् । सेयं' यसि ) रात्रि के पिछले भागमें (कुटुंबंजागरियं-जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव ममुप्पन्ने ) कुटुंब की चिन्ता से जाग रही थी इस प्रकार का आध्यात्मिक यावन्मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-( एवं खलु अहं तेयलिपुत्तरस पुचि इट्ठा ५ आसि इयाणि अंणिट्ठा ५ जाव परिभोगं वा, तं सेयं खलु मम सुव्ययाणं अजाण अंतिए पवइत्तए) में पहिले तेतलिपुत्र को बहुत ही अधिक इष्ट, कान्त प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम थी-परन्तु अब मैं ऐसी नहीं रही हूं-अनिष्ट आदि बन गई हैं। और बातों की बात ही क्या है-वे तो अब मेरा मुख तक नहीं देखना चाहते हैं-देखो मनुष्यों की मनोवृत्ति कितनी अस्थिर है-पूर्व मैं जिसे इष्ट, कान्त, प्रिय, आदि रूप थी-अब वही मैं उसके लिये अ. निष्ट अप्रिय आदि बन गई हूं। यह तेतलिपुत्र तो मेरो नाम गोत्र तक भी सुनना नहीं चाहता है तो फिर मेरे साथ रहने की तो चाहना ही આધ્યાત્મિક યાવત મનોગત સંકલ્પ ઉદ્દભવ્યું કે ____ (एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुब्धि इट्ठा ५ आसि इयाणि अणिट्ठा ५ जावं परिभोग वा तं सेयं खलु मम मुव्बयाणं अज्नाणे अतिए पव्वइत्तए )
પહેલાં હું તેતલિપુત્રને ખૂબજ ઈષ્ટકાંત, પ્રિય, મને અને મનેમ હતી પણ હવે હું તેમના માટે તેવી રહી નથી અનીષ્ટ વગેરે થઈ પડી છું. મારી સાથે વાતચીતની વાત તે તરે રહી પણ તેઓ મારૂં મેં પણ જોવા માંગતા નથી એરખર પુરુષોની મનોવૃત્તિ કેટલી બધી ચંચળ હોય છે જેને પહેલાં જે હું ઇષ્ટ, કાત, પ્રિય, વગેરેના રૂપમ હતી, હવે તેને તેજ હું અનિષ્ટ વિ વગેરે થઈ પડી છું આ તેતલિપુત્ર મારા નામ ગોત્ર સુદ્ધા સાંભ( 1 ગાતા નથી ત્યારે મને જોવાની અને મારી સાથે રહેવાની તે તેમને " । ५.२मा ( कुडु बजागरियं जाग माणीए अयमेयारूवे अज्ज्ञथिए जाव ममुपन्ने ) घर-गृहस्थीना पिया२४२ती onvी २४ ती त्यारे-मा तनो
शा ७
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माताधर्मकथासमे श्रेयः उचितं खलु मम सुव्रतानामार्याणामन्ति के प्रत्रजितुम् , एवं संपक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य-विचार्य 'कल्लं जाव पाउप्पभायाए ' कल्यं यावत् प्रादुष्पभाता: याम्-भातः सूर्योदयसमये यत्रैव तेतलिपुत्रस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य ' करयलपरि०' करतलपरीगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवदत्-एवं खलु हे देवानप्रिय ! मया सुत्रतानामार्याणामन्ति केधर्मः ‘णिसंते' निशान्तः श्रुतः, 'जाव अब्भणु उसे कैसे हो सकती है । इस लिये मुझे अघ यही उचित है कि मैं सुव्रता आर्यिका के पास प्रवजित हो जाऊँ । ( एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाय पाउप्पभायाए जेणेव तेलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ ) इस प्रकार जब वह विचार कर चुकी तो विचार करके फिर जब प्रातःकाल हुआ और सूर्य का उदय हो चुका तब जहाँ तेतलिपुत्र था वहां पहुंची ( उवागच्छित्ता करयल एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुव्वयाणं अजाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अन्भणुनाया पन्चइत्तए, तएणं तेयलिपुत्ते पोटिलं एवं वयोसी-एवं खलु-तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पव्वइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि, तं जह तुम देवाणुप्पिए! ममं ताओ देवलो. याओ आगम्म, केवलिपनत्ते धम्मे बोहेहि तो हं विसज्जे मि ) वहां जा कर उसने दोनों हाथ जोड कर उस को नमस्कार किया-बाद में वह इस प्रकार उससे कहने लगी हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि मैंने દરકાર જ શી હોય? એથી મને હવે એજ એગ્ય લાગે છે કે હું સુત્રતા આર્થિકાઓની પાસે પ્રત્રજિત થઈ જાઉં.
( एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) ..
આ રીતે જ્યારે તેણે ચોક્કસ વિચાર કરી લીધે ત્યારે તે સવારે સૂર્યોદય થતાં જ્યાં તેતલિપુત્ર અમાત્ય હતું. ત્યાં પહોંચી
( उवागच्छित्ता करयल० एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुन्वयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव अब्भणुनाया पवइत्तए, तएणं तेवलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मुंडा पन्धइया समाण कालासे कालं किच्चा अन्नतरेसु देवलोएस देवत्ताए उववज्निहिसि तं जाणं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म, केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेहि तोहे विसाजेमि)
ત્યાં જઈને તેણે તેમને બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે હે દેવાનુપ્રિય! મેં સુવતા આર્યાની પાસેથી
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11642 अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५५ Uणाया पाइत्तए ' यावदभ्यनुज्ञाता प्रव्रजितुम्-स धर्मों मम मनसि रुचितः तस्माद् भवताऽभ्यनुज्ञातासती प्रत्रजितुमिच्छामीतिभावः । ततः खलु तेतलिपुत्रः पौहिलामेवमवदन्-एवं खलु त्वं देवानुप्रिये ! मुण्डा प्रव्रजिता सती कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्स्यते । 'तं तदा यदि खलु त्वं देवान. प्रिये ! मां ततो देवलोकादागत्य केवलिप्रज्ञप्तं धर्म बोधयेः, 'तोहे ' तदाऽहं त्वां 'विसज्जेमि' प्रवजितुमाज्ञापयामि ! 'अहण' अथ खलु यदि खलु त्वं मां 'णं संबोहेसि' न संवोधयसि के वलिप्ररूपितं धर्म बोधयितुं प्रतिज्ञा न करोषि 'तो' तदा 'ते' त्वां न विसृजामिप्रवजितुं नाज्ञापयामि । 'तएणं' ततः खलु तेतलिपुत्रस्य एतद्वचनश्रवणानन्तम् , सा पोहिला तेतलिपुत्रस्य ' एयमहें' एतमर्थ-धर्म प्रति बोधनरूपमर्थ ‘पडिसुणेइ' प्रतिशृणोति-स्वीकरोति । ततः खलु तेतलिपुत्रो विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य चतुर्विधमाहारम् , ' उवक्खडावेइ'. उपस्कारयति निष्पादयति, 'उबक्खडावित्ता' उपस्कार्य : मित्तणाइ जाव आमंतेइ ' मित्रज्ञाति सुव्रता आर्यिका के पास धर्म का उपदेश सुना है वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक रुचिकर प्रतीत हुआ है। इस लिये मैं आपसे आज्ञा लेकर दीक्षित होना चाहती हूँ। पोट्टिला की ऐसी बात सुन कर तेतलिपुत्रने उससे कहा-देवानुप्रिये ! बात ऐसी है कि तुम दीक्षित हो कर जब काल अवसर काल करोगी ( यह निश्चित है) अन्यतर देवलोक में देवता की पर्याय से उत्पन्न होओगी-तप यदि देवानुप्रिय ! मुझे वहां से आ कर तुम केवलिप्रज्ञप्त धर्म समझाओ-तो मैं तुम्हें प्रवजित होने के लिये आज्ञा दे सकता हूँ (अहं णं तुमं ममं णं संयोहेसिं तो ते ण विस. ज्जेमि तएणं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेइ, ततः खलु तेयलिपुत्ते विपुलं असणं ४ उवक्डावेइ, उवक्खडाविसा मित्तणाइ जाव ધર્મનો ઉપદેશ સાંભળે છે અને તે મને ગમી ગયો છે, એટલા માટે હમ તમારી આજ્ઞા મેળવીને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. પિદિલાની આ જાતની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્રે તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દીક્ષિત થઈને જ્યારે કાળના સમયે કાળ કરશે અને અન્યતર દેવલમાં દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામશે ત્યારે જે તમે હે દેવાનુપ્રિયે! ત્યાંથી આવીને મને કેવળ પ્રાપ્ત ધર્મ સમજાવે તે હું તમને અત્યારે ખુશીથી પ્રવજીત થવાની આજ્ઞા આપી शतम छु.
(अहं णं तुमं ममं णं संबोहेसि तो ते ण विसज्जेमि तएणं सा पोटिला तेयलि. पुत्तस्स एयमढे पडिमुणेइ, ततः खलु तेतलिपुत्ते विपुलं असणं ४ उपक्खडावे, उवक्खडाबित्ता, मित्तणाइ जाव आमतेइ, आमंतित्ता, मित्तणाइ सम्माणित्ता पोहिलं
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भाताधर्मकथास यावदामन्त्रयति, मित्रज्ञाविस्वजनसम्बन्धिपरिजनान् आमन्त्रयति, 'आमंतित्ता' आमन्व्य 'जाव संमाणेइ' यावत्-संमानयति-प्रशनपानादि चतुर्विधाहारेण संमान्य, 'पोटिलं हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणि सीअं' पोटिलां स्नातां यावत् पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकाम् , ' दूरोहेइ.' दोहयति-आरोहपति, ' दुरुहिता' आमंतेइ आमंतित्ता जाव सम्माणेइ, सम्माणित्ता पोटिलं व्हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहइ, दुरुहित्ता मित्तणाइ जाव संपडिबुडे सन्विड्डीए जाव रवेणं तेलिपुरस्स मज्झं मझेणं. जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ ) यदि तुम मुझे संबोधित नहीं करोगी अर्थात् केवलि प्रज्ञप्त धर्म को मुझे समझाने की प्रतिज्ञा नहीं करोगी तो मैं तुम्हें दीक्षित होने की आज्ञा नहीं दूंगा-इस प्रकार के तेतलिपुत्रके इस कथनको उस पोटिलाने स्वीकार कर लिया । अर्थात् मैं देवलोक में जाऊँगा तो वहां से आ कर आप को प्रतियोध दूँगी इस प्रकार जब पोटिला ने स्वीकार कर लिया। इस के पाद तेतलिपुत्र ने, विपुल मात्रा
अनशनादि रूप चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करवाया-करवा करके फिर उसने अपने मित्र, ज्ञाति, आदि जनो को आमंत्रित किया। मित्र, ज्ञाति, स्वजन संबन्धी परिजनोंको आमंत्रित करके यावत् अशन पानादिरूप इस चतुर्विध आहार से उनका सन्मान करके उसने पोहिलाको स्नान करवा कर यावत् उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिथिका पर बैठाया, हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहइ दुरूहित्ता मित्तणाइ जाव संपडिबुडे सबिड़ोए जाव रवेणं. तेयलिपुरस्स मझं मझेणं जेणेव सुब्बयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ)
- જો તમે મને સંબોધશે નહિ એટલે કે જે તમે મને કેવળિ પ્રજ્ઞસ ધર્મને સમજાવવાની પ્રતિજ્ઞા કરશે નહિ તે તમને હ કેઈપણ સંજોગોમાં પણ દીક્ષા સ્વીકારવાની આજ્ઞા આપીશ નહિ. આ રીતે કહેવાથી પદિલાએ તેતલિપુત્રના કથનને સ્વીકારી લીધું એટલે કે પિટ્ટિલાએ તેમને આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞાબદ્ધ થઈને કહ્યું કે હું દેવલોકમાં જઈશ અને ત્યાંથી આવીને તમને ધર્મને બેધ આપીશ. આમ જ્યારે પિટ્ટિલાએ સ્વીકારી લીધું ત્યારપછી તેતલિપુત્રે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેના રૂપમાં ચાર જાતના આહારો બનાવડાવ્યા અને ત્યારબાદ તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, વગેરે સવજનને આમંત્રણ આપ્યું. મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજને સંબંધી પરિજનેને આમંત્રણ આપીને યાવત અશનપાન વગેરે ચાર જાતના આહારેથી તેમનું સન્માન કરીને તેણે પિહિલાને સ્નાન કરાવડાવ્યું અને ચાવત તેને પુરુષ સહસવાહિની પાલખીમાં બેસાડી.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म०१४ तेतलिपुत्रवधानचरितवर्णनम् ५३ दरोह्य आरोह्य · मित्तणाइ जाव संपखुिडे ' मित्रज्ञाति यावत् संपरिवृतः मित्रजातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनादिभिर्युक्तः 'सविडोए' सर्वर्या 'जाव रवेणं' यावद्रवेण=भेर्यादिनिनादेन सह तेतलिपुरस्य मध्यमध्येन यौव सुव्रतानामुपाश्रयः स्तत्रैव उपागच्छति । सा पोटिला शिविकातः 'पञ्चोरुहइ' प्रत्यवरोहति अवतरति। ततः स तेतलिपुत्रः पोटिला पुरतः कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्या तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत्-एवं खलु हे देवानुप्रियाः मम पोट्टिलाभार्या इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोऽमा, वर्तते, बैठा कर मित्र, ज्ञाति स्वजन संबन्धी परिजनों से युक्त होकर अपनी समस्त विभूति के अनुसार गाजे बाजेके साथ तेतलिपुर नगर के बीचोंबीच चल कर वह जहाँ सुव्रता आर्यिका का उपाश्रय था वहां पहुंचा। ( पोटिला सीयाओ पच्चोरूहइ, तेतलिपुत्ते पोटिलं पुरओ कटु जेणेव सुव्वया अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी, एवं खलु देवाणुप्पिया!मम पोहिला भारिया इट्ठा ५ एसणं संसारभउन्विग्गा जाव पचहत्तए पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणीभिक्खं अहासुहं मा पडिबंधं करेहि ) पोहिला शिक्षिका से उतरी-तेतलिपुत्र पोहिलाको आगे करके जहाँ सुव्रता आर्यिका थीं वहां गया। जा कर उसने उनको वंदनाकी नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिये ! यह मेरी पोटिला नाम की पत्नी है । यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम है। इसने પાલખીમાં બેસાડીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, રવજન સંબંધી પરિજનેને સાથે લઈને તે પિતાની સમસ્ત વિભૂતિ મુજબ ગાજાવાજાની સાથે તેતલિપુર નગરની વચ્ચે વચ્ચે થઈને જ્યાં તે સુવ્રતા આર્થિકાને ઉપાશ્રય હતું ત્યાં પહો . (पोटिला सीयाओ पचोरूहइ, तेवलिपुत्ते पोटिलं पुरओ कट्टु जेणेव सुन्धया अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पोट्टिला भारिया इट्टा ५ एसणं संसारभउविग्गा जाव पव्यइत्तए पडिच्छतु णं देवाणुपिया ! सिस्सिणीभिक्खं अहामुहं मा पडिबंध करेहि ) પિકિલા પાલખીમાંથી નીચે ઉતરી પડી, તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિફ્રિલાને આગળ રાખીને જ્યાં સુધતા આર્થિક હતી ત્યાં ગમે ત્યાં જઈને તેણે તેમને વંદના તેમજ નમસ્કાર કર્યો, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! આ પોદિલા નામે મારી પત્ની છે. મને એ ઈષ્ટ કાંત, પ્રિય, મને અને મનેમ છે. એણે તમારી પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કર્યું છે
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
एषा खलु भवतीनां समीपे धर्म श्रुत्वा धर्मश्रवणजनितवैराग्यवशात् संसारभयोद्विग्ना ' जान पाइत्तए ' यावत् मत्रजितुम् भीता जन्म मरणेभ्यो भवतीनामन्ति के ज्यां ग्रहीतुमिच्छति, तस्मात् 'पडिच्छंतु ' प्रतीच्छन्तु = स्त्रीकुर्वन्तु खलु देवानुमियाः ! इमां शिष्यामिक्षाम् सुव्रतार्या माह-यथासुखम् मा प्रतिबन्धं कुरुष्व । ततः खलु सा पोट्टिला सुवताभिरार्याभिरेवमुक्ता सती हृष्टतुष्टा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् = ईशानकोणम् अवक्राम्यति गच्छति, अवक्रस्य स्वयमेव आभरणमाल्यालंकारमवमुञ्चति, अत्रमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैत्र सुत्रता आर्यास्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - ' आलित्ते भंते ! लोए ' आदीप्तः खलु भदन्त ! लोक:- हे आयें ! एष कोको जन्म जरामरणादिभिर्दुःखैः प्रज्वलितः, 'एव ' अनेन प्रकारेण 'जहा देवागंदा' यथा देवानन्दा देवानन्देव एषाऽपि सुव्रतानामन्ति के प्रवजिता यावत् - एकादश अङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या आपके पास धर्म सुना है तो उसके प्रभाव से यह संसार भय से उद्विग्न हो कर जन्म मरण से भीत, त्रस्त हो कर आपके पास दीक्षित होना चाहता है। इसलिये हे देवानुप्रिये ! आप मेरे द्वारा दी गई इस शिष्य भिक्षाको अंगीकार कीजिये । तथ सुव्रता आर्यिका ने कहायथासुखं मा प्रतिबंधं कुरुष्व - (तएणं सा पोट्टिला-सुव्वयाहिं अज्जाहि एवं वृत्त समाणा तुट्ठा उत्तरपुत्थिमं दिसी मार्ग अवकमइ, अवकमित्ता मयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयह, ओमुहन्ता सयमेव, पंचमुट्ठियं लोकरे, करिता जेणेव सुब्वयाओ तेणेव उबागच्छड, उचा गच्छत्ता बंद नसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - अलित्तं णं भंते । लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एक्कारसअंगाई अहिज्जह, बहुणि તેનો પ્રભાવથી એ સસારભયથી વ્યાકુળ થઇને જન્મ-મરણથી ભીત અને ત્રસ્ત થઇને તમારી પાસેથી દીક્ષા શ્રદ્ગુણ કરવા ઈચ્છે છે. એટલા માટે હું દેવાતુપ્રિયે ! મારા વડે અપાતી આ શિષ્યા રૂપી ભિક્ષાના સ્વીકાર કરેા. ત્યારે भवानां सुत्रता आर्थिजथे तेने उछु है ' यथासुखं मा प्रतिबंध कुरुज (तरणं सा पोहिला सुन्वयाहिं अज्जाहिं एवं वृत्ता समाणा हडतुडा उत्तरपुरस्थि दिसी भागं अवक्कमर, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण - मल्लालंकारं ओमुयह, ओमुइत्ता सयमेत्र, पंचमुट्ठियं लोयं करे, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ तेणेव उपागच्छा, उनागच्छित्ता बंद नमसइ, वंदित्ता, मंसित्ता एवं वयासीeffort it ! लोए एवं जहा देवानंदा जान एक्कारस अंगाई अहिज्जर, वहूणि
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जनगारधर्मामृतव विणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ५५ संलेखनया आत्मानं जुष्ट्वा पष्टि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा, 'आलोइयपडिकंता' आलोचित प्रतिक्रान्ता 'समाहिपता ' समाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्ना । सू०८ ।। बासाणि मामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संदेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सदिभत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु - देवलोएस्सु देवत्ताए उबवण्णा) इस प्रकार सुव्रता आर्यिका के द्वारा कही गई वह-पोटिला बहुत अधिक दृष्टतुष्ट हुई। बाद में वह ईशान कोण में गई । वहां जाकर उसने अपने हाथों से शरीर पर रहे हुए आभाण, माल्य एवं अलं. कारों को उतार दिया। उत्तार कर अपने आप पंचमुप्टिक केशों का हुंचन किया-लुंचन कर फिर वह जहां सुव्रता आर्या थी वहां आई। आते ही उसने उन्हें वन्दना एवं नमस्कार करके फिर वह इस प्रकार बोली- हे भदन्त ! यह लोक जरा मरण आदि दुःखों से प्रज्वलित हो रहा है, इस प्रकार से देवानंदा की तरह यह सुव्रता आर्या के पास दीक्षित हो गई। यावत् उसने ११ अंगों का अध्ययन भी कर लिया। बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय को पालन किया। प्रीतिपूर्वक अन्त में एक मास की संलेखना धारण कर ६०, भक्तों का अनशन द्वारा छेद वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएमु देवत्ताए उववण्णा)
આ રીતે સુવ્રતા આર્થિક વડે આજ્ઞા અપાયેલી પદિલા ખૂબ જ સુષ્ટતુષ્ટ થઈ ગઈ ત્યારપછી તે ઈશાન કોણ તરફ ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે પિતાના હાથથી જ શરીર ઉપરના આભરણે, માળાઓ અને અલંકાર ને ઉતાર્યા અને ઉતારીને પિતાની મેળે જ પાંચ મુઠી કેશોનું લંચન કર્યું. લુચન કર્યા પછી તે જ્યાં સુવ્રતા આર્યા હતી ત્યાં આવતી રહી. ત્યાં આવીને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યો, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે આ પ્રમાણે વિનંતી કરવા લાગી કે હે ભદન્ત ! આ સંસાર જરા (ઘડપણ મરણ વગેરે ખેથી સળગી રહ્યો છે. આ રીતે પદિલા દેવાનદાની જેમ સુત્રતા આવોની પાસે દીક્ષિત થઈ ગઈ અને અનુક્રમે તેણે અગિયાર અગોનું અધ્યયન પણ કરી લીધું. તેણે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય પર્યાયનું પાલન કર્યું છેવટે પ્રીતિપૂર્વક એક માસની સંખના ધારણ કરીને અનશન વડે સાઠ ભક્તોનું છેદન કર્યું
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होताधर्मकथास ___मूलम्-तएणं से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । तएणं राईसर जाव णीहरणं करेंति, करित्ता, अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था, अम्हेणं देवाणुप्पिया! रायाहीणा रायाहिटिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतली अमचे कणगरहस्स रन्नो सवट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपचए दिनवियारे सव्वकज्जवडावए यावि होत्था, तं सेयं खल्लु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारं जाइत्तएत्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमष्टुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणे उवागच्छंति, उवागच्छिता, तेतलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य रहे य जाव वियंगेइ । अम्हे यणं रायाहीणा जाव रायाहोणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रणो सम्वट्ठाणेसु जावं रज्जधुराचिंतए, तं जइणं देवाणुप्पिया! अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेयारिहे, तणं तुम अम्हं दलाहि । जाणं अम्हे महयार रायाभिसेएणं अभिसिंचामो । तएणं तेतलिपुत्ते तेसि ईसर० एयम₹ पडिसुणेई, पडिसुणित्ता, कर्णगज्झयं कुमारं पहायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करित्ता तेसि ईसर दिया। छेद कर आलोचित प्रतिक्रान्त बनी हुई यह ममाधि प्राप्त हो गई और काठ अवमर काल कर अन्यतर देवलोकमें देवता को पर्याय से उत्पन्न हो गई ।सू. ८ છેદન કરીને આચિત પ્રતિક્રાંત બનેલી તે સમાધિ પ્રાપ્ત થઈ ગઈ અને કાળ અવસરે કાળ કરીને અન્યતર દેવકમાં દેવતાના પર્યાયથી જન્મ પામી. સૂ. “
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अगारधर्षिणी टीका म० १४ ते लिपुत्रप्रधान चरितवर्णनम् जाब उवणेइ, उवणिता, एवं वयासी एस णं देवाणुप्पिया ! कणगरस रण्णो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए नामं कुमारे अभियारिहे रायलक्खणसंपन्ने भए कणगरहस्स रन्नो रहस्सियं संवड़िए, एयं णं तुम्भे महयार रायाभिसे एणं अभिसिंह । सव्वं च से उद्वाणपरियावणियं परिकहेइ । तएणं ते ईसर० कणगज्झयं कुमारं महयार रायाभिसेएणं अभिसिंचति । तणं से कणगझ कुमारे राया जाए, महया हिमवंत मलय० वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । तएर्ण सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सहावेइ, सद्दावित्ता, एवं वयासीएस णं पुत्ता ! तव रज्जे य जाव अंतेउरे य० तुमं च तेतलिपुन्तस्स अमच्चस्स पहात्रेण, तं तुमं णं तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि परिजाणाहि सक्कारेहि सम्माणेहि इंतं अब्भुट्ठेहि, ठियं पज्जुवासाहि वयंतं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोगं च से अणुदेहि । तपणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहन्ति पडणे जाव भोगं च से अणुवड्डेइ ॥ सू० ९ ॥
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टीका - तप से ' इत्यादि । ततः खलु स कनकरथो राजा अन्यदा कदाचित् । ' कालधम्गा संजुत्ते' कात्रधर्मेण संयुक्तः = मृतश्वाप्यभवत् । ततः
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'तएण से कणगरहे राया' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एणं ) इसके बाद ( से कणगरहे राया अन्नया कयाई) वह कनकरथ राजा किसी एक दिन काल कवलित हो गया (तएर्ण
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तएण से कणगरहे राया इत्यादि
टीडार्थ - (तएणं) त्या२पछी (से कणगरहे राया अन्नया कयाई) ते उन१२थ રાજા કેઈ દિવસે કાલકલિત થઇ ગયા એટલે કે મૃત્યુ પામ્યા.
झा ८
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माताधर्मकथासूत्र खलु 'राईसर० जाव 'राजेश्वर० यावत् राजेश्वरतलबरमाडम्बिककौटुम्बिकादिसार्थवाहप्रभृतयः तस्य 'णीहरणं' निहरणं मृतककृत्यं कुर्वन्ति, कृत्वा अन्यो. ऽन्यमेवमवदन-एवं खलु हे देवानुपियाः ! का करथो राजा 'रज्जे य जाव प्रत्ते' राज्ये च यावत् पुत्रान् राज्यादिषु मूच्छित उत्पन्नान् पुत्रान् ‘वियंगित्था' अव्यङ्गयत्-विकृताङ्गान् कृतवान् मारितवानित्यर्थः । ' अम्हेणं ' वयं खलु देवानु. मियाः ! 'रायाहीणा ' राजाधीनाः राजवशवर्तिनः, 'रायाहिट्ठिया' राजाऽधिष्ठिता-राजाश्रिता इत्यर्थः, 'रायाहीगकज्जा' राजाधीनकार्याः, राज्ञामधीनं कार्य राईसर जाच णीहरणं करेंनि, करित्ता अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था ) राजेश्वर, तलवर, माडम्पिक, कौटुम्बिक, सार्थवाह आदि व्यक्तियों ने मिल कर उसका दाह संस्कार कियो । दाह संस्काररूप मृतक कृत्य करने के बाद फिर उन लोगों ने परस्पर में इस प्रकार का विचार किया । हे देवानु. प्रियो । देखो कनवरथ राजाने तो राज्य आदि में मृच्छित हो कर उत्पन्न हुए समस्त पुत्रों को विकृत अंग करके मार डाला है ( अम्हे णं देवाणुप्पिया! राया हीणा रायाहिटिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतलीअमच्चे कणगरहस्स रनो सब्वट्ठाणेसु-सव्वभूमियासु लद्धपच्चए, दिनवियारे-सव्वकज्जवडावए यावि होत्था ) अब इस समय कोइ राजा है नहीं अतः हमलोगों का क्या होगा क्यों कि हम लोग तो हे देवानुप्रियों ! राजा वशवर्ती है, राजा के आश्रित ही रहते आये हैं, हमारा ___ (तएणं राईसर जाव णीहरणं करेंति, कारित्ता अन्नमन्न एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था ) - રાજેશ્વર, તલવર, માંડબિક કૌટુંબિક, સાર્થવાહ વગેરે લેકેએ મળીને તેને અગ્નિ-સંસ્કાર કર્યો. અગ્નિ-સંસ્કાર આદિ મૃત્યુ વિધિ પતાવીને તે લે કે એ પરસ્પર મળીને આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે હે દેવાનુપ્રિયે! જુઓ, રાજા કનકરથે તે રાજ્ય વગેરેની બાબતમાં લુપ તેમજ મેડિત થઈને ઉત્પન્ન થયેલા પિતાના બધા પુત્રના અંગે કાપીને મારી નાખ્યા છે. -- ( अम्हेणं देवाणुप्पिया ! राया हीणा रायाहिद्विया रायाहीणकज्जा, अयं च णं तेतलीअमच्चे कणगरहस्स रनो सचट्ठाणेसु सबभूमियासु लद्धपञ्चए, दिनविचारे सव्वकज्जवडावए यावि होत्था )
- હવે અત્યારે કે રાજા છે જ નહિ તે અમારી શી દશા થશે? હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે તે રાજાના વશવર્તી છીએ, રાજાને અધીન રહેવામાં જ
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अं
गो हो । १४ तेतलिपुत्र प्रधानपरितवर्णन ५६ येयां ते तथा, सर्वमस्माकं कृत्यं राजाधीनं वर्त्तते इति भावः । अयं च खलु तेतलिरमात्यः कनकरथस्य राज्ञः ' सवट्ठाणेमु' सर्वस्थानेषु-संधिविग्रहादिषु सर्वेषु कार्येषु, · सयभूमियासु ' सर्वभूमिकासु = स्वाम्यमात्यग टूदुर्गकोषवलसुहृत्पौरश्रेणिरूपाष्टविधासु ' लद्वपञ्चए ' लब्धप्रत्ययः-लब्धःप्राप्तः प्रत्ययो विश्वासो यस्य सः, सकलजनविश्वासपात्रमित्यर्थः, 'दिनवियारे' दत्तविचारः, दत्ता राज्ञ वितोगः, विचार-शोभनो विचारो येन सः, लोकोपकारि विचारदायक इतिभावः, सयाज्जबडायए' सर्वकार्यवईकः राज्ये समस्तकार्यसम्पादकश्चापि 'होत्था' अस्ति । 'तं' तत्-तस्मान् कारगात् ' सेयं श्रेयः-उचितं खलु अस्माकं तेतलिपुत्रममात्यं कुमारं ' जाइत्तए' याचितुम् , अयमभिप्रायः-यदयममात्यो राज्ञः सकलकार्यनिर्वाहकः, अतस्तत्समीपे गत्वा ' कोऽपि राजलक्षणसंपन्नः कुमारो राजपदे स्थापनीयः' इति वार्तालापमुपक्रम्य, समागते प्रसङ्गे, तत्पुत्री राजपदे स्थापयितुं याचनीयः, 'त्तिकटु' इति कृत्वा इति मनसि कृत्वा अन्योऽन्यस्य एतमर्थ 'पडिसुगति' प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, 'पडिसुणित्ता' पतिश्रृत्य, यौव तेतलिपुत्रोऽमात्यस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, एवमवदन्-एवं खलु जितना भो कार्य होता है वह सब राजाधीन ही होता आया है। इस लिये तेतलिपुत्र जो अमात्य है चलो उनके पास चले क्यों कि वे ही कनकरथ राजाके लिये संधिविग्रह आदि समस्त कार्यों में एवं स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग कोश, बल, सुहृत् और पौरश्रेणीरूप आठ भूमियों में विश्वसनीय थे । राजा के लिये ये ही लोकोपकारी कार्यों में सलाह दिया करते थे और ये ही राज्यमें समस्त कार्यों के संपादक हैं (तं सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारंजाइत्तए तिकटु अन्नमन्नस्स एय. मटुं पडिसुणेति, पडिस्तुणित्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुટેવાઈ ગયેલા છીએ. અમારા બધા કામે રજાધીન જ હોય છે એથી ચાલે આપણે સૌ મળીને અમાત્ય તેતલિપુત્રની પાસે જઈએ, કેમકે તેઓ જ રાજા કનકરથના સંધિવિગ્રહ વગેરે બધા કામમાં અને સ્વામી, અમાત્ય, રાષ્ટ્ર, ગ, કેશબળ, સુહત અને પૌર શ્રેણિરૂપ આઠ ભૂમિમાં તે વિશ્વસનીય છે. લોકોના હિત માટે તેતલિપુત્ર અમાત્ય જ સલાહ આપતા રહેતા હતા તેમજ રાજ્યના બધા કામને પાર પાડનારા પણ તેઓ જ છે.
( तसेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमच्चं कुमारंजाइत्तए त्ति कटु अनमन्नस्स पयमदं पडिमुति, पडिसुणित्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति. उवागछिता तेतलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कमगरहे
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ताधर्मकथासूत्रे
हे देवानुप्रिय ! कनकरथो राजा राज्ये च राष्ट्रे च यावत् व्यङ्गयति, वयं च खलु हे देवानुप्रिय ! राजाधीना यावद् राजाधीनकार्याः, स्वं च खलु हे देवानुप्रिय ! पिया ! कणगरहे राया रज्जे य रट्ठे य जाव बियंगे, अम्हे य णं राया हीणा जाव रायहीणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया । कणगरहस्स रण्णो सासु जाव रज्जधुरा चितए-तं जड़णं देवाप्पिया । अस्थि केह कुमारे रामलक्खणसंपन्ने अभिसेघारिहे, तरणं तुमं अम्हं दलाहि ) इसलिये हमको उचित है कि हम तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करें। तात्पर्य इस का यह है कि ये तेतलिपुत्र अमात्य राजा के सकल कार्य निर्वाहक हैं इसलिये उनके पास चलकर 66 कोई राज लक्षण संपन्न कुमार राजपद में स्थापनीय है " इस बात की हम चर्चा करें । इस चर्चा के प्रसंग में उनसे यह भी निवेदन करेंगे कि आप अपने पुत्र की ही राज पद में स्थापित कर दीजिये । इस प्रकार का विचार उन्होंने किया। जब विचार स्थिर होचुका - तब सबने इस बात को एक मत से स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर के फिर वे सबके सब जहां अमात्य तेतलिपुत्र थे वहां गये। वहां जाकर उन्होंने ऐसा कहाहे देवानुप्रिय ! कनक रथ राजाने राज्य और राष्ट्र आदि में विशेष मूच्छित बनकर उत्पन्न हुए अपने समस्त पुत्रों को अंगभंग कर मारडाला
राया रज्जेय रहे य जाव वियंगेश, हेय में देवा ! गगरहस्त गो सट्टासु जाव रज्जधुराचितए - तं जणं देवाणुपिया | अस्थि के कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेबारिहे, तष्णं तुमं अम्हं दलाहिं )
એથી અમને એ ઉચિત લાગે છે, કે અમે તેતલિપુત્ર અમાત્યની પાસે જઈને રાજકુમારની યાચના કરીએ. કારણ કે તેતલિપુત્ર અમાત્ય રાજાના બધા કામેાને સારી રીતે પાર પાડનારા છે, એટલા માટે તેમની પાસે જઈને રાજા થવા ચેગ્ય રાજ–લક્ષણ યુક્ત કાઈ કુમાર મળી શકે તેમ છે કે કેમ ? તે વિશે ચર્ચા કરીએ. આ જાતની વિચારણાં કરતાં કરતાં અમે બધા તેમને એવી વિન'તી પણ કરીશું કે તમે પેાતાના પુત્રને જ રાજગાદીએ બેસાડી દે. આમ તે લેાકેાએ મળીને વિચાર કર્યો. આમ વિચાર પાર્ક થઈ ગયા ત્યારે સૌએ એકમત થઈને તેને સ્વીકારી લીધા. સ્વીકાર કરીને તેએ બધા ત્યાંથી જ્યાં અમાત્ય તૈતલિપુત્ર હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે તેતલિપુત્રને કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિય ! કનકરથ રાજાએ રાજ્ય અને રાષ્ટ્ર વગેરેમાં સવિશેષ સૂશ્ચિંત એટલે કે મેહવશ થઈને જન્મ પામેલા પેાતાના બધા જ પુત્રાના અગા કાપીને તેઓને મારી
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अनमारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ६१ कनकरथस्य राज्ञः सर्वस्थानेषु यावत् ‘रज्नधुराचिंतए ' राज्यस्य धूः राज्यधुरा, तस्याश्चिन्तकः, राज्यभारनिर्वाहकश्वासि, तद् यदि खलु देवानुप्रिय! अस्ति कोऽपि कुमारो राजलक्षणसंपनः — अभिसेयारिहे' अभिषेकाों राज्याभिषेकयोग्यः, 'तं गं' तं खलु त्वमस्मभ्यं ' दलाहि ' देहि 'जो' यस्मात् ' ' तं ' अम्हे' वयं महता २ ‘रायाभिसेएण' राज्याभिषेकेण-राजयोग्येनाभिषेकेण अभिपिश्चामः राज्ये स्थापयाम इत्यर्थः। ततः खलु तेतलिपुत्रः तेषाम् 'ईसर० ईश्वर = ईश्वरतलबरमाडम्बिकादि सार्थवहप्रभृतीनाम् एतमर्थ 'पडिसुणेइ' परिशृणोति= स्वीकरोति, प्रतिश्रृत्य स्वाकृत्य, कनकध्वज कुमारं 'हायं सस्सिरीयं ' स्नातं यावत् सश्रीकं, स्नातं-कृतस्नानम् , यावत् मश्रीकम्-सालङ्कारविभूपितं शोभासमन्वितं च करोति, कृत्वा तेषाम् ' ईसर जाव' ईश्वर यावत्-ईश्वरादीनां सम्मुखे ‘उवणेइ ' उपनयति, उपनीय एवमवादीस-एष खलु हे देवानुपियाः ! है। अब इस समय राज पद में कोई नहीं है । हमलोग तो हे देवानुप्रिय ! राजाधीन यावत् राजाधीन कार्य वाले हैं। और देवानुप्रिय ! कनक रथ राजा के लिये संधि विग्रह आदि समस्त स्थानों में एवं स्वामी अमात्य आदि आठ भूमियों में विश्वसनीय रहें हैं। राजो के लिये लोकोपकारी कार्यो में ओप सलाह देते रहे हैं। और आप ही राज्य भार के निर्वाहक है । इसलिये हमारी आपसे यह प्रार्थना है कि हे देवानुप्रिय! यदि राज्यलक्षण संपन कोई कुमार राज्य पद में अभिषेक करने के योग्य हो तो उसे आप हमें देवें! (जो अम्हे महया गयाभिसे एणं अभिसिंचामो। तएणं तेतलिपुत्ते तेसिं ईसरएयमé पडिसुणेइ, पडिसुगित्ता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करिता तेति ईसर जाव उवणेइ, उपणित्ता एवं वयासी) कि जिससे हम उसे નાખ્યા છે. હવે અત્યારે રાજપદ માટે કોઈ રહ્યું નથી. હે દેવાનપ્રિય ! અમે લેકે તે રાજાધીન રહીને જ રહેતા આવ્યા છીએ અને હે દેવા. નપ્રિય ! તમે રાજા કનકરથના સંધિવિગ્રહ વગેરે બધા કામમાં એટલે કે સ્વામી અમાત્ય, વિગ્રહ વિગેરે તમામ કામમાં હંમેશા વિશ્વાસપાત્ર રહ્યા છે, લેકહિતની બાબતમાં તમે રાજાને સલાહ આપતા રહ્યા છે, અને તમે જ રાજ્યના બધા કામને પાર પાડતા આવ્યા છે. એથી અમે તમને એવી વિનંતિ કરીએ છીએ કે હે દેવાનુપ્રિય ! રાજ-લક્ષણે વાળ અને અભિષિકત થઈને રાજગાદીએ બેસવા ગ્ય કેઈ કુમાર હેય તે તેને તમે અમને સેપ. (जे णं अम्हे महया २ रायाभिसरणं अभिसिंचामो । तएणं तेतलिपुत्तं तेसि ईसर एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीये करेइ, करित्ता तेसि ईसर नाव उवणेइ, उपणिना एवं वयासी)
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माताधर्मकथास्त्र कनकरथस्य राज्ञः पुत्रः पद्मावत्या देव्या आत्मनः कनकध्वजो नाम कुमारः अभिषेका) राजलक्षणसम्पन्नो मया कनकरथस्य राज्ञो 'रहस्सियं ' रहस्पिकं प्रच्छन्नं यथा स्यात्तथा संवर्द्धितः, एतं खलु यूयं महता २ राजाभिषेकेण अभिपिश्चत । पुनः सः सर्व च ' से ' तस्य — उढाणपरियावणियं' उत्थानपरियापनिकम् = राज योग्य अभिषेक द्वारा अभिषिक्त कर राज्य में स्थापित करें। इस तरह के उन ईश्वर, तलवर, माडम्बिक आदि सार्थवाह वगैरह के इस कथन रूप अर्थ को उस तेतलिपुत्र अमात्य ने स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके कनकध्वज कुमार को उसने नहा धुवाकर सर्वालंकारों से विभूषित किया। विभूषिक करके फिर वह उसे उन ईश्वर तलवर आदिकों के समक्ष ले आया । लाकर के उनसे उसने ऐसा कहा-(एस गं देवानुप्पिया ! कणगरहस्स रपणो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए णाम कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहरस रणो रहस्सियं संबङ्किए एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह) हे देवोनुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र है जो पद्मावती की कुक्षि से जन्मा है। इसका नाम कनक-वज कुमार है। अभिषेक के योग्य है और राजलक्षण संपन्न है । मैंने इसको कनकरथ राजा से छिपा कर पालापाषा है और वृद्धिंगत किया है। इसे आपलोग बडे भारी राजयोग्य अभिषेक के साथ राज्य में स्थापित कीजिये। ( सव्वं च से
કે જેથી અમે તેને રાજ્યસને અભિષેક કરી શકીએ. આ રીતે અમાત્ય તેતલિપુત્રે તે ઈશ્વર, તલવર, માંડબિક, સાર્થવાહ વગેરેના કથનને સ્વીકાર્યું અને સ્વીકારીને તેણે કનકધ્વજ કુમારને સ્નાન કરાવ્યું અને ત્યારપછી બધા અલંકારોથી તેને શણગાર્યો. ત્યારબાદ અમાત્ય તેતલિપુત્રે સુસજજ થયેલા કુમારને ઇશ્વર, તલવર વગેરેની સામે લાવ્યું અને તેઓને કહ્યું કે –
( एसणं देवाणुपिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्ते पउमावईए अत्तए कणगज्झए णाम कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रणो रहस्सियं संवड़िए एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह)
“ હે દેવાનપ્રિયે ! આ કનકરથ રાજાનો પુત્ર છે અને પદ્માવતી દેવીના ગર્ભથી આનો જન્મ થયે છે. કનક્વજ કુમાર આનું નામ છે. આ કુમાર રાજ્યાસને બેસાડવા યોગ્ય તેમજ રાજલક્ષણેથી યુક્ત છે. રાજા કનકરથને આ બાબતની જાણ નથી, મેં આનું પાલન તેમજ રક્ષણ છુપી રીતે કર્યું છે પામે ભારે મહેસૂવની સાથે આ કુમારને રાજગાદીએ બેસાડે.
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अमगारधर्माभूतयषिणी टोका भ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् । उत्थान जन्म, परियापनिका जन्मानन्तरमद्यावधिका संवर्द्धनादि-रिस्थिति, उत्थानं च परियापनिका च-स्थानपरियापनिकम्-जीवनचरितं परिकथयति । ततः खलु 'ईसर० ' ईसरतलवरमाडम्बिकादयः कनकध्वज कुमारं महतार राजाभिषेकेण अभिषिञ्चन्ति । ततः खलु स कनकध्वजः कुमारो राजा जातः, स च कनकध्वजो राजा 'महया हिमवंत०' महाहिमवद० महाहिमवन्महामलय मन्दरमहेन्द्रसारः'-महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्राणां सार इव सारो यस्य सः, पढाणपरियावणियं परिकहेइ, तएणं ते ईसर० कणगझयं कुमार महया २ गयाभिसे एणं अभिसिंचति । तएणं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत मलय० वण्णओ जाव रज पसासेमाणे विहरह, तएणं सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सहावेइ, सद्दावित्ता एवं घयासी) ऐसा कहकर फिर उन तेतलिपुत्र अमात्य ने उस कनकध्वज कमार का उत्थान-जन्म और परियापनी का-जन्म से लेकर अभी तक की समस्त पालन पोषण संवर्द्धन आदि परिस्थिति रूप-जीन चरित्र उन्हें कह सुनाया-इस के बाद उन ईश्वर, तलवर, माडयिक एव कौटुं म्बिक आदिकोंने कनकध्वज कुमार का बड़े जोर शोर के साथ राज्या. भिषेक किया। राज्य में अभिषिक्त होने के बाद वे कनकध्वज कुमार अब राजा बन गये। इसका सार-पल लोकमर्यादा कारी होने के कारण महा हिमवत् जैसा, यश और कीर्ति के फैलाव के कारण महामलय
( सव्वं च से उटाणपरियावणियं परिकहेइ, तएणं ते ईसर०कणगज्झयं कुमार महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचंति । तएणं से कणगज्ज्ञए कुमारे राया जाए, महया हिमवंता मलय० वण्णी जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ, तएणं सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी)
આ પ્રમાણે કહીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તે કનકદેવજ કુમારને ઉસ્થાનજન્મ અને પરિયાપનિકા એટલે કે જન્મથી માંડીને અત્યાર સુધીની પિષણ સંવર્લૅન વગેરેની જીવન ચરિત્ર સંબંધી બધી વિગત અથથી ઇતિ સુધી કહી સંભળાવી. ત્યારબાદ તે ઈશ્વર, તલવર, માંડબિક અને કૌટુંબિક વગેરે લોકોએ કનકદેવજ કુમારને બહુ જ મોટા પાયા ઉપર ઉત્સવ ઉજવીને રાજ્યાભિષેક કર્યો. અભિષિક થવા બાદ કનકધ્વજ રાજા થઈ ગયા હતા. તેમનું બળ લેક મર્યાદાને રક્ષનાર લેવા બદલ મહાહિમવત જેવું હતું. તેમના યશ અને કીર્તિ ચોમેર પ્રસરેલા હતા તેથી તે મહામલય જેવા હતા તેમજ તેઓ દૃઢ પ્રતિ
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ક
tatusurat
कारित्वेन
,
मनपराः कीर्तित्येन महामलयतुल्यः, हृदप्रतिस्वेन कर्तव्य दिग्दर्शकत्वेन च मन्दरमहेन्द्रतुल्यः, 'वष्णओ ' वर्णकः विशेषरूपेण अन्यतोऽवसेयः, 'जाव रज्जं पसासेमाणे ' यावद्राज्यं प्रशासद् विहरति राज्यं कुर्वन्नास्ते । ततः खलु सा पद्मावतीदेवी कनकध्वजं राजानं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत् - एतत् खलु हे पुत्र ! तव ' रज्जे य जाव अंतेउरे य० राज्यं च यावदन्तः पुरं च एतत्सर्व तेतलिपुत्रस्य प्रभावेन वर्त्तते 'तं ' तत्कारणात् त्वं खलु तेतलिपुत्रममात्यं ' आढाहि ' आद्रियस्व = आदरं कुरुष्व ' परि जाणाहि, परिजानाहि = अवेक्षस्व तदनुमत्या सर्व कार्य सम्पादयेत्यर्थः सत्कारय वखादिना सम्मानय माल्यादिना, 'इंतं' यन्तम् = आगच्छन्तमेतं तेतलिपुत्रम् 'अहि' अभ्युत्तिष्ठ=अभ्युत्थानादिना विनयं प्रदर्शयेत्यर्थः 'ठियं पज्जुवासाहि ' स्थितं पर्युपास्त्र - सेवस्त्र, 'वर्यतं ' व्रजन्तं गच्छन्तम् ' पडिसनाहेहि ' प्रतिसंसा धय अनुगमनादिना प्रसादय, तथा 'अद्धासणेणं उत्रणिमंतेहि ' अर्धासनेन उपनिमन्त्रवस्यास तवेषय, भोगं=मुखसामग्रीरूपं च ' से ' तस्य अनुरर्द्धय । ततः स कनकध्वजः ' पउमात्रईए देवीए पद्मावत्या देव्याः वचनं ' तढत्ति '
"
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के जैसा, दृढप्रतिज्ञा वाले एवं कर्तव्य का दिग्दर्शन कराने वाले हाँने के कारण मन्दर महेन्द्र- मेरू के जैसा था । और भी इन राजा के विषय का विशेष वर्णन दूसरों शास्त्रों से जान लेना चाहिये। यावत् इस तरह ये कनकध्वज कुमार अपने राज्य के शासन करने में तत्पर बन गये । इसके बाद उस राजमाता पद्मावतीदेवो ने उन कनकध्वज राजाको अपने पास बुलाया और बुलाकर फिर उनसे उसने इस प्रकार कहा - (तरणं पुत्ता ! तव रजे य जाव अंतेउरेय ० तुमंच तेनलिपुत्तस्स अमचस्स पहा वेणं, तं तुमं णं तेतलिपुत्तं अमच्चं आढाहि, परिजानाहि, सकारेहि, सम्मा हि इंतं अन्भुहि ठियं पज्जुवासाहि वयंतं पडिससाहेहि, अद्धासणेणं
સાલાળા અને કબંને બતાવનાર હેાવા બદલ મન્દર મહેન્દ્ર-મેરુ જેવા હતા. રાજા કનકધ્વજ વિશે સવિશેષ વણુન ખીજા શાસ્ત્રોમાં વધ્યું છે, જીજ્ઞાસુએએ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે તે કનકધ્વજ કુમાર પેાતાના રાજ્યના વહીવટને સાંભાળવા માટે સાવધ થઇ ગયા. ત્યારપછી ૨ જમાતા પદ્મ વતીદેવીએ કનકધ્વજ રાજાને પોતાની પાસે લાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(तपणं पुत्ता ! तत्र रज्जे य जाव अंतेउरेय ० तुमं च तेतलिपुत्तस्स अमञ्चस्स पहावेणं, तं तुमं णं तेतलिपुतं अमरचं आढाहि, परिजानाहि, सक्कारेदि, सम्मा
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० भ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् तथेति='तथास्तु' इतिकृत्वा प्रतिशृणोति-स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य तथैव कुर्वाण पावद् भोगं च तस्य अनुचर्द्धयति ॥ ९॥ उवणिमंतेहि, भोगंच से अणुवदेहि । तएणं से कणगज्झए राया पउमाव. ईए देवीए तहत्ति पडिणेह,जाव भोगंचसे अणुवड्डे) हे पुत्र! यह तुम्हारा राज्य और अंतः पुर तथा तुम स्वयं यह जो कुछ है वह सब तेतलिपुत्र अमात्य के प्रभाव से ही है इसलिये तुम तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करते रहो, उनकी अनुमति से काम किया करो उनका वस्त्रादि द्वारा समय २ पर सत्कार करते रहो, अभ्युत्थानादि सन्मान करते रहो और जय तेतलिपुत्र तुम्हें आते हुए दिखलाई दे तो तुम उठकर इनके प्रति अपना विनय प्रदर्शित किया करो। जब ये जावे-तब तुम बैठ कर इनकी सेवावृत्ति किया करो, जब ये चलने लगे तो तुम इनके पीछे २ थोड़ी दूर तक अपने महलों में पहुँचाने जाया करो, अपने बैठने के आसन पर इन्हें अर्धभाग में बैठाया करो और जो भी सुख साधनकी सामग्री है यह इनकी घड़ा दो। इस प्रकार रोजमाता पद्मावती देवी के वचनों को “तथास्तु" कहकर कनकध्वज राजाने स्वीकार कर लिया। णेहि इंत अब्भुट्रेहि ठियं पज्जुवासाहि वयं तं पडिसंसाहेहि, अद्वासणेणं उवणिमं तेहि. भोगं च से अणुनडेहि । तएणं से कणगज्झए राया पउमावईए देवीए तहत्ति पडिसृणेइ, जाव भोगं च से अणु रडे) હે પુત્ર? આ તમારૂ રાજ્ય રણવાસ તેમજ તમે પિતે આ બધું જે કંઈ છે, તે સર્વે તેતલિપુત્ર અમાત્યના પ્રભાવથી જ છે. એથી તમે તેતલિપુત્ર અમાત્યને સદા આદર કરતા રહે, દરેક કામ તેમની આજ્ઞાથી કરતા રહે, વસ્ત્રો પગેરે આપીને યથા સમય તેમને સત્કાર કરતા રહે, તેમનું સાન કરતા રહો અને અમાત્ય તેતલિપુત્ર તમને આવતા દેખાય ત્યારે તમે ફાઈ તેમના પ્રતિ વિનય યુક્ત થઈને વ્યવહાર કરે જયારે તેઓ જવા તાર " ય ત્યારે તમે બેસીને તેમની સેવા કરતા રહો. અને જ્યારે તેઓ શાસન માંડે ત્યારે તમે તેમની પાછળ પાછળ થોડે દૂર સુધી પિતાના મહેલ માં વિદાય આપવા માટે તેમનું અનુસરણ કરતાં જાઓ. તમે તેમને પિતાના આ સનના અર્ધાભાગ ઉપર બેસાડે અને તેમની બધી સુખસગવડની સામગ્રી માં વધારો કરી આપે. આ રીતે રાજમાતા પદ્માવતી દેવીની આજ્ઞાને કનક દેવજ રાજાએ “તથાસ્તુ' કહીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર્યા પછી તેઓએ તે
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पाताधर्मकथासूत्र . मूलम्-तएणं से पोट्रिले देवे तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपन्नत्ते धम्मे संबोहेइ, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबुज्झइ । तएणं तस्स पोटिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए५ एवं खलु कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं अढाइ जाव भोगं च से वड्डे तएणं से तेतलीपुत्ते अभिक्खणं२ संबोहिज्जमाणे वि धम्मे नो संबुज्झइ, तं सेयं खलु मम कणगज्झयं रायं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेत्तए तिकटु एवं संपेहेइ, संपेहिता, कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामेइ । तएणं तेतलिपुत्ते कल्लं पहाए जात्र पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहुहिं पुरिसेहिं संपरिबुडे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थए गमणाए । तएणं० तेतलिपुत्तं अमचं जे जहा बहवे राईसरतलवर जाव पभियाओ पासंति, ते तहेब आडायति, परिजाणंति, अब्भुटुंति, आढाइत्ता, परिजाणित्ता, अधभुडित्ता, अंजलिपरिग्गहं करेंति, इटाहिं कंताहिं जाव वन्मूहि आलवेमाणा य संलवेमाणा य पिटुओ य पासओ चमगाओ य समणुगच्छंति तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए गया तेणेव उवागच्छइ । तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं एजमाणं पासइ, पासित्ता, नो अढाइ, नो परियाणाइ, नो स्वीकार करके फिर उन्होंने वैसा ही सब कुछ करते हुए तेतलिपुत्र अमात्य की यावत् सुख साधन सामग्री बढा दी ॥ सू० ९॥ પ્રમાણે જ બધું કરતાં તેતલિપુત્ર અમાત્યની સુખસગવડ વગેરેની સામગ્રીમાં पधारे। ४री माया ॥ सू० ८ ॥
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अनगारथ यो तपिगो टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितनिरूपणम् अब्भुटेइ, अणाढायमाणे, अपरियाणमाणे, अणब्भुट्ठायमाणे, परम्मुहे संचिट्ठइ । तएणं तेतलिपुत्ते कगगझ यस्स अंजलिं करेइ । तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीएं परम्मुहे संचिठ्ठइ । तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाविता भीए जाव संजायभए एवं वयासी-रुटेणं मम कण. गहार राया हीणे णं ममं कणगज्झए राया, अवज्झाए णं ममं कंगनझए, राया तं ण नजइ णं ममं केणइ कुमारेण मारेहिइ त्ति कटु भीए तत्थे५ जाव सणियं२ पञ्चोसकर, पच्चोसकित्ता, तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता, तेतलिपुरं मज्झंमझेणं जेणेव सए गिहे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तएणं तेतलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति, ते तहा नो आढायंति नो परियाणति नो अब्भुटेंति नो अंजलिपरिग्गहं करेंति, इटाहिं जाव णो संलवंति नो पुरओ य पिटुओ य पासओ य मग्गओ य समशुगच्छति । तएणं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता जाविय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा-दासेइ वा पेसेइ वा भाइल्लएइ वा सावि य णे नो आढाइ नो परियाणाइ नो अब्भुट्टेइ,जाविय से अभितरिया परिसा भवइ, तं जहा - पियाइ वा मायाइ वा जाव सुण्हाइ वा सावि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुटेइ । तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता, सयणिजसि णितो.
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शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यइ, णिसीइत्ता, एवं वयासी-एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चेव जाव अभितरिया, पुरिसा नो आढाइ नो परिजाणाइ, नो अब्भुढेइ, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जी. वीयाओ ववरोवित्तएत्तिकट्ठ, एवंसंपेहेइ, संहिता तालउडं विसं आसगसि पक्खिवइ, से य विसे णो संकमइ । तएणं तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असि खंधंसि ओहरइ, तत्थ वि य से धारा
ओपल्ला । तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना । तएणं से तेतलिपुत्ते महइ महालयं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अस्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए । तएणं से तेतलिपुत्ते सुक्कंसितणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवइ, पक्खि. वित्ता मुयइ, तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए। तएणं से तेतलोपुत्ते एवं वयासी-सद्धेयं खल्लु भो समणा वयंति, सद्धेयं खलु भो माहणा वयांत, सद्धेयं खलु भो समणामाहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि, एवं खलु अहं सहपुत्तेहिं अपुत्ते को मेयं सदहिस्सेइ? सहमित्तेहिं अमित, को मेयं सदहिस्सई, एवं अत्थेणं दारेणं दासहिं परिजणेणं एवं खलु तेतलिपुत्तेणं अमच्चे कणगज्झएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्तेणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य जो कमइ को मेयं सदहिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं नीलुमल जाव खंबीत, ओह.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम्
रिए, तत्थ वि से धारा ओपल्ला को मेयं सहहिस्सइ । तेतलि - पुणं पास गवाए बंधेत्ता जाव रज्जू छिन्ना को मेयं सदहिस्सइ ? तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव वंधित्ता अत्थाहे जाव उदगंसि, अप्पामुक्के, तत्थ वि य णं थाहे जाए को मेयं सद हिस्सइ ? तेतलिपुत्तर्ण, सुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पामुकको तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए, को मेय सहहिस्सs ? ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ ॥ सू० १० ॥
टीका - ' वर्ण से पोहिले ' इत्यादि । ततः खलु स पोट्टिलो देवस्तेतलि - पुत्रम् 'अभिक्खणं २' अभीक्ष्णम् २ = पुनः पुनः केवलिमज्ञप्ते धर्मे संवोधयति । परन्तु नो चैव खलु स तेतलिपुत्रः 'संबुज्झइ' सम्बुध्यते = प्रतिबोधं प्राप्नोति । ततः खलु तस्य पोहिलदेवस्य 'इमेयारूवे' अयमेतदूपः = पुरउच्यमानः 'अज्झथिए ' ५ = आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत । संकल्पप्रकारमाह - ' एवं खलु ' इत्यादि । एवं खलु कनकध्वजो राजा तेतलिपुत्रं आद्रिय यावत् भोगं च संबर्द्धयति, ततः खलु स तेतलिपुत्रोऽभीक्ष्णं २ मया 'तरण से पोहिले ' इत्यादि ||
[
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (से पोहिले देवे) वह पोहिलाका जीव देव (तेतलिपुत्त' अभिक्खणं २ केवलिपनन्ते धम्मे संबोद्देह, नो चेव णं से
लिपुत्ते संबुज्झइ) तेतलिपुत्र अमात्यको बार बार केवलिप्रज्ञप्त धर्म में प्रतिबोधित करने लगा परन्तु तेतलिपुत्र प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ। (तएणं तस्म पहिलदेवस्स इमेघावे अज्झत्थिए ५ - एवं खलु कणज्झए या तेतलिपुत्तं अढाइ, जाव भोगं च संवढेह, तएणं से ते लिपुत्ते अ
तरणं से पोहिले इत्यादि ॥
अर्थ - ( तरणं) त्यार पछी ( से पोट्टिले देवे ) ते पोट्टिसानो व देव ( तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपत्ते धम्मे संबोहेइ नो चेत्र णं से तेतलि वृत्ते संबुज्झ )
તેતલિપુત્ર અમાત્યને વારવાર કેવળ પ્રસંધમાં પ્રતિબાધિત કરવા લાગ્યા પણ તેતલિપુત્રને પ્રતિખાધ પ્રાપ્ત થયા નહિ.
( तरणं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्जत्थिए ५ - एवं खलु कणगज्झएं राया तेतलि आढा, जाव भोगं च संवइ, तपणं से तेतलिपुते अभिक्खणं
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७०
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ज्ञाताधमकथासूत्र
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'संवादिज्जम वि' संबोध्यमानोऽपि धर्मो न संबुध्यते=प्रतिबोधं न प्राप्नोति । 'तंत=मान कारणात् श्रेयः खलु मम कनकध्वजं राजानं तेतलिपुत्राद् विपरि मथितुम्= तत्रविषये कनकध्वजस्य मानसिको भावो यथा विपरितो भवेतथा कर्तुमुचितम् इतिकृस्वाति मनसि विचार्य एवं संप्रेक्षते विचारयति संप्रेक्ष्य कनकध्वजं तेतलिपुत्राद् विपरिणमयति- विपरीतं करोति । ततः खलु तेतलिपुत्रः कलं कलये द्वितीयस्मिन् दिने प्रायः ' हाए जाय पायच्छिते ' स्नातो यावत् प्रायवित्तः स्नातः = कृतस्नानः यावत् पदेन कृतवलिक = काकादि निमितं कृताननाःकृतीत कमांगल्यमायश्चित्तः =कतानि कौतुकानि दुःस्वप्नादिदोपनिवारणार्थ मी पुण्ड्रादीनि माङ्गल्यादीनि = मङ्गलकारकाणि दुर्वाक्षतादीनि =मायश्चित्तदवश्यं कर्त्तव्यानि येन सः, 'आसक्खधवरगए ' अश्वस्कन्धवरगतः =अश्वारूढः बहुभिः पुरुषैः संपरिवृतः स्वस्माद् गृहाद् निर्गच्छति, निर्गस्य भिक्खणं २ संबोहिजमाणे वि धम्मे नो सबुज्झइ, तं सेयं खलु मम कणज्यं रायं तेन लिपुत्ताओ विष्परिणमेत्तर ति कट्टु एवं संपेहे ) तब उस पाहिल देवको ऐसा आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कनकध्वज राजा तेन लिपुत्र अमात्यका आदर करते हैं यावत् वे उनके सुख सावन की सामग्री बढा दिया है-इसलिये मेरे द्वारा बार बार प्रतिबोधित करने पर भी वे धर्म में प्रतिबुद्ध नही बन रहे हैं-प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हो रहे हैं। इसलिये मुझे अब ऐसो करना चाहिये कि जिससे तेतलिपुत्र के विषय में कनकध्वज राजा का मानसिक विचार बदल जाये । इस प्रकार का विचार उस देवके मन में जगा (सपेहित्ता कणगज्झयं तेतलिपुत्ताओ विष्परिणामेइ, तरणं तेतलिपुत्ते कलं पहाए
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२ संवोज्निमाणे विधम्मे नो संबुज्झइ, तं सेयं खलु मम कणगज्झयं रायं तेलताओ विष्परिणामेत्तर तिकट्टु एवं संपेर )
ત્યારે તે દેવરૂપ પાટ્ટિલાના છત્ર દેવને એવા આધ્યાત્મિક યાત્ મનો ગત સંકલ્પ ઉદ્દભવ્યે કે રાજા કનકધ્વજ અમાત્ય તેતલિપુત્રને આદર કરે છે ચાવતુ તેએએ તેમની બધી જાતની સુખસગવડની સામગ્રીમાં વધારા પણુ કરી આપ્યા છે, એથી મારાવડે વારંવાર પ્રતિબેાધિત કરવા છતાંએ
તે ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થઈ જતા નથી એટલે કે તેમને વારંવાર પ્રેરણા આપવા છતાં પ્રતિબંધ થયા નથી. એટલા માટે હું હવે એ પ્રમાણે કઈક કર' કે જેથી રાજા કનકધ્વજના માનસિક વિચારો અમાત્ય તેલિપુત્રને માટે પ્રતિકૂળ થઈ જાય તે દેવે મનમાં આ જાતને! વિચાર કર્યાં.
( संपेहिता गज्झयं तेतलिपुत्ताओं विपरिणामेद तरणं तेतलिपुत्ते कल्ले हाए जा पायच्छिते आसखंभवरगए, बहूईि पुरिसेहिं संपरिबुडे, साओ गिहाओ,
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भनगारधामृतषिणी ० ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानधरितवर्णनम्र पत्रैव कनकध्वजो राजा तव 'पहारेत्थ गमगाए ' प्राधारयद् गमनाय-प्रस्थित. पान् । ततः खलु तेतलिपुत्रममात्यं 'जेजहा' ये यथान्येन प्रकारेण बहवो 'राई. परतलवर जावपभियओ' राजेश्वरतलवर यावत्प्रभृतयः, राजेश्वरतलवरादयः पश्यन्ति, ते तथैव तममात्यमाद्रियन्ते नमस्कारादिना परिजानन्ति शुभारमनमित्यनुमोदयनिन, अभ्युत्तिष्ठन्ति अभ्युत्थानं कुर्वन्ति, आदृत्य परिज्ञाय, अभ्युत्थाय अञ्जलिपरिग्रहं कुर्वन्ति, तथा इण्टाभिः कान्ताभिः यावत्-प्रियाभिर्मनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिः' आब पायच्छित्तं आसखंधवागए, यहूहिं पुरिसेहि सपरिबुडे, सामो गिहामो, णिग्गच्छह, गिरगच्छित्ता जेणेव कणगझए राया तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं तेतलिपुत्तं अमच्चं जे जहा यह राईसरत. लचर जाव पभियाओ पासंति ते. तहेव आढायंति परियाणंति, अब्भुइति ) इस विचार के आते ही उस देवने कनकध्वज राजा को तेतलि पुत्र अमात्य के प्रति विपरीत परिणमादिया। जब द्वितीय दिन प्रातः काल स्नान कर बलिकर्म कर-काकादि निमित्त अन्न का विभाग कर, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त कर-दुःस्वप्न आदि दोषों को निवारण करने के लिये मषी पुण्ड्रादि और मंगल कारक दुर्वाक्षतादि तथा प्रायश्चित्तकी तरह आवश्यक कृत्य समाप्त कर-वह तेलिपुत्र अमात्य घोडे पर बैठ कर जब अनेक पुरुषों के साथ सार अपने घर से निकला तब निकल कर वह ऊस ओर गया जहां कनकध्वज राजा थे। तेतलिन अमात्य को ज्यों ही राजेश्वर आदि कों ने आता हुआ देखा तो उन्होंने पहिले की तरह ही उसका आदर किया, उसके आगमन की सराहना की णिगन्छिइ णिग्गांच्छत्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थ गमणाए,नएण. तेतलिपुत्तं अमचं जे जहा बहवे राईसर तलवर जाव पभियाओ पासंति ते तहेव आहायति पमियाणंति, अन्भुटेंति )
- આ જાતને વિચાર ઉત્પન્ન થતાં જ તે દેવે અમાત્ય તેવિ પુત્ર ને માટે રાજા કનકવને પ્રતિકૂળ બનાવી દીધો બીજા દિવસે સવાર થતાં નાન, બવિ. કર્મ, (ક ગડા વગેરે પક્ષીઓ માટે અન્નભાગ અર્પવું) કૌતુક, મંગળ, પ્રાયશ્ચિત્ત-એટલે કે દુત્તમ વગેરેના દોષોના ઉપશમન માટે મષી પુરુડ વગેરે તેમજ મંગળ કારક દુર્વા અક્ષત (ચોખા) વગેરેથી પ્રાયશ્ચિત્ત ની આવશ્યક વિધિ પતાવીને ઘણા પુરુષથી વીંટળાઈને અમાત્ય તેતવિપુત્ર ઘોડા ઉપર સવાર થઈને જ્યાં કનવજ રાજા હતા ત્યાં ગયે. અમાત્ય તેતલિપુત્રને આવતાં જોતાની સાથે જ રાજેશ્વર વગેરે લેકેએ પહેલાની જેમ જ તેમને આદર કર્યા, તેમના આગમનની સરાહના કરી અને બધાએ ઉભા થઈને તેમને વધાવી લીધા
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ज्ञाताधर्मकथासू
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वाग्भिः आलपन्तः संलपन्तथ=ओलापं=संभाषणं, संलापं= परस्परसं भाषण कुर्वन्तथ पुरतः = अग्र व पृष्ठतः = पश्चाद्भागतश्च पार्श्वतः पार्श्वभागतश्च, मार्गतः = यस्मान्मार्गात् तेतलिपुत्रो निर्गच्छति तन्मार्गत 'समणुगच्छति' समनुग च्छन्ति । ततः खलु स तेवलिपुत्रो यत्रैव कनकध्वजस्तव उपागच्छति । ततः खलु स कनकध्वजो राजा तेतलिपुत्रमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा नो आद्रियते, नो परि जानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । अनन्तरं 'आणाढायमाणे ' अनाद्रियमाणःस्मादरंसबने उठकर उसे लिया (आढाइसा, परिजाणित्ता अम्मुट्ठिता अंजलि परिग्रहं करेंति, इट्ठाहिं केनाहिं जाव वग्गूहिं आलमाणाय संलवे मागाय पुरओ य पिओ य पासओ य मग्गओ य समयुग छेति तसे ते लिपुते जेणेव कणगज्झए राया तेणेव उवागच्छर, तएण से कणगज्झए गया तेनलिपुत्तं एज्जमोण पासइ, पासित्ता नो आढाइ नो परियाणा, नो अब्डेई, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अगन्भु हायमाणे परम्मुहे संचिट्ठ) आदर देकर शुभागमन की अनुमोदनाकर तथा उठकर न सबने फिर दोनों हाथो की अंजलि जोड़कर उसे नमस्कार किया । बाद में इष्ट, कांत यावत् प्रिय- मनोज्ञ-मनोम वाणियों से आलाप संभाषण, संलाप परस्पर संभाषण करते हुए वे सब आगे पीछे आजू बाजू होकर जिस मार्ग से वह आरहा था उसी मार्ग से उसके साथ साथ चले आये । चलते २ तेनलिपुत्र अमात्र जहां कनकध्वज राजा बैठे थे वहाँ आया । कनकध्वज राजा ने उन्हें आता हुआ देखा - तौभी पहिले की तरह देखकर न
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( अठाता, परिजागिता अभुट्टित्ता अंजलि परिगहं करेंति इहा, कहि जात्र वग्गूर्हि आलवेमाणा य संलवेमाणा य पुग्ओ य, विडओ य, पारुओ य मगओ य, समणुगच्छति तरणं से तेतलिपुत्ते जेणेत्र कणगज्झए राया तेणेत्र उबागच्छइ, तए से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं एज्जमाणं पास, पामित्ता नो आहार, नो परियाणा, नो अब्भुडे, अणाढयमाणे अपरियागनाणे अभु हायमाणे परम् ifts )
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તેમને આદર આપીને, શુભાગમનને અનુમેાદિત કરીને તે બધા ભા થયા અને ત્યાર પછી બંને હાથેાની અજળિખનાવીને તેમને નકાર કર્યો. ત્યાર બાદ ઇષ્ટ, કાંત, યાવત્ પ્રિય, મનેજ્ઞ અને મનેમ વાતેથી આલાપ -
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સ’ભાષણ, સલાપ -પરસ્પર સ`ભાષણ કરતાં તેએ સર્વે આગળ, પાછળ અને તેમની બંને બાજુએ થઈ ને જે માત્રથી તેએ આવતા હતા તે માંથી જ તેની સાથે સાથે ચાલવા લાગ્યા તૈત િપુત્ર અમાત્ય ચાલતાં ચાલતાં જયાં રાજા કનકધ્વજ બેઠા હતા ત્યાં આવ્યા પણ કનકવજ રાજાએ તે તેમને જોયા છતાં પણતેમના
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भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् माब्रुवन् 'अपरिजाणमाणे ' अपरिजानन् , तदागमनमननुमोदयन् अनभ्युत्तिष्ठन अभ्युत्थानाधकुर्वन् ‘परम्मुहे' पराङ्मुखा-विमुखः सन संतिष्ठते । ततः खलु तेतलिपुत्रः कनकधनस्य राज्ञः सं पुखे अञ्जलिं करोति । 'तएणं' ततः खलु= तेतलिपुत्रेण अञ्जलिकरणानन्तरमपि स कनकध्वजो राजा अनाद्रियमाणः, अपरिजानन् , अनभ्युत्तिष्ठन् तूष्णीकः पराङ्मु वः संतिष्ठते । ततः खलु तेतलिपुत्रः कनकध्वजं विपरिणतं-विपरीतं ज्ञात्वा ' भीए जाव संजायभए' भीतो यावत् संजातभयः, एवमवदत्-मनस्यकथयत्-रुष्टः खलु मम मम विषये कनवनो राजा, उसका कोई आदर किया-न उसके आनेकी कोई सराहना की और न उठकर उसे लिया ही। इस तरह अनादर अननुमोदन एवं अनभ्यु: स्थान करते हुए वे रोजा प्रत्युत उस ओरसे अपना मुँह फेर कर बैठ गये। (तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयस्स अंजलिं करेइ) तेतलिपुत्र ने आते ही राजा कनकध्वज को नमस्कार किया-(तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ ) तो भी उन कनकध्वज राजा ने उस अंजलि करने का भी कोई आदर नहीं किया केवल चुप चाप ही विमुख बना हुआ बैठा रहा-(तएणं तेतलिपुत्ते कणगन्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए संजायभए एवं वयासी ) तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को विपरीत जानकर भीत (भय पाया हुओ) यावत् संजात भय होकर मनमें ऐसा विचार किया-(रुटे णं ममं कणगझए राया) कनकध्वज राजा मेरे ऊपर रुष्ट हो गये हैं। (हीणे णं ममं कणઆદર ન કર્યો, તેમના આવવાની સરાહના ન કરી અને ઉભા થઈને તેમને સત્કાર્યા પણ નહિ આ રીતે અનાદર, અનુમોદન અનભુત્થાન કરતા તે રાજા तभना त२५ थी भावाने में भी गया. (तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयम्स अंजलिं करेइ ) तेतलिपुत्र आवतांनी सा2 ४ रात भने नभ२४१२ ज्यो.
(तएणं से कणगज्झए राया अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मु हे संचिट्ठइ) છતાંએ રાજા કનકધ્વજે તેમના નમસ્કારને પણ ઉચિત સત્કાર કર્યો નહિ ફક્ત તેઓ ચુપચાપ ફેરવીને બેસી જ રહ્યા.
(तएणं तेतलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाच संजायभए एवं वयासी)
ત્યારે તેતલિપુત્ર અમાત્ય રાજા કનકધ્વજને પ્રતિકૂળલથઈ ગયેલા (નારાજ થયેલા) જાણીને ભયભીત યાવત્ સંજાતભય વાળા થતાં મનમાં વિચારી या (स्ट्रेण ममं कण गज्झए रोया ) ४१४ भा२५२ नारा
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ज्ञाताधर्मकथासूत्र 'होणे णं' हीनः खलुप्रीतिहीनः खलु ममोपरि कनकध्वजो राजा ' अवज्झाए ' अपध्यातः दुर्भावसम्पन्नो जातः खलु मम विपये कनकध्वजो राजा 'तं' तत्तस्मात् 'न नज्जई' न ज्ञायते खलु एप मां केन कीदृशेन कुमारेणः कुत्सितेन मारेण 'मारेहिइ' मारयिष्यति 'त्तिक?' इति कृत्वा इति विचिन्त्य भीतस्रस्तः यावत्त्रसितः, उद्विग्नः, सत्रातभयः सन् 'सणियं२' शनैः२ पच्चोसक्केई' प्रत्यवस्वष्कते प्रत्यवसर्पति-पश्चाद्गच्छति प्रत्यवस्वक्य, तमेव ' आसखंधं 'अश्वस्कन्धं दूरोहति, दुरूह्य ' तेतलिपुरं' अत्र पष्टयर्थे द्वितीया, तेतलिपुरस्येत्यर्थः, मध्यमध्येन यौव स्वकं गृहं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय । ततः खलु तं तेतलिपुत्र जेजहा' गज्झए राया ) कनकध्वज राजा मेरे ऊपर प्रीति से रहित हो गये हैं। (अवज्झाए णं ममं कणगज्झए राया ) कनकध्वज राजा मेरे विषय में सद्भाव रहित बन गये हैं। (तं ण नजइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारेहिइ त्ति कट्टु भीए तत्थे पूजावसणियं २ पचोसका ) तो न मालूम यह मुझे किस कुत्सित. मरण से मरवा डाले, ऐसा विचार कर वह भीत (भययुक्त) हो गया त्रस्त यावत् संजात भयवाला बन गया। और धीरे २ वहाँ से पीछाहट कर चला आया-(पच्चोसकित्ता तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुहिता तेतलिपुरं माझं मज्झेणं जेणेव सएगिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए) आकर के वह अपने उसी घोडे पर बैठकर तेतलिपुर के बीच से होता हुआ अपने घर की तरफ चल दिया (तएणं तेतलिपुत्त जे जहां ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो परियाथ 140 छ. ( होणेण ममं कण गज्झए गया ) ४४४१०८ २० वे भा। ७५२ प्रेम रह्यो नथी. ( अवज्झाए णं ममं कणगझए राया ) 31४१०४ २in મારા પ્રત્યે સદૂભવના રહિત થઈ ગયા છે.
(तं ण नज्जइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारेहिइ त्ति कटु भीए तत्थे जाव सणियं २ पच्चोसक्का)
તે કોણ જાણે કયારે તેઓ મને કમોતે મરાવી નંબવે આ રીતે વિચાર કરીને તે ભયભીત થઈ ગયે, તે ત્રસ્ત યાવત સંજાત ભયવાળો થઈ ગયો અને ધીમે ધીમે ત્યાંથી પાછા ફરીને આવતો રહ્યો. - (पच्चोसक्त्तिा तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता तेतलिपुरं मझं मझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमगाए )
ત્યાંથી આવીને તે પિતાના ઘોડા ઉપર સવાર થઈને તેતવિપુરની વચ્ચે થઈને પોતાના ઘર તરફ રવાના થયો.
तएणं तेतलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति ते राहा नो आढायंति, नो
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अनगारधर्मामृत पिंगी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ७५ ये यथा ये यथास्थिताः 'ईसरगाव ' ईश्वर यावत्-ईश्वरतलबरमाडम्बिकादयः पश्यन्ति, ' ते तहेब ' ते तथा स्थिता एव सन्तो नो आद्रियन्ने, नो परिजानन्ति, नो अभ्युत्तिष्ठन्ति, नो अञ्जलिपरियहं कुर्वन्ति, इटाभिर्यावद्वाग्भिों संलपन्ति, नो पुरतश्च पृष्ठतश्च पाचश्व मार्गतश्च समनुगच्छन्ति । ततः खलु तेतलिपुत्रों यत्रैव स्वकं गृहं तौव उपागच्छति । यापि च ' से' तस्य ' तत्थ । तत्र भवने बाह्या परिषद् भाति, तद् यथा-' दासाइ वा ' दासाइति वा, गंति, नो अमुटुंति ) मार्ग में तेतलिपुत्र को आते हुए जिन ईश्वर तलवर, माडम्बिक आदिको ने देखा तो उन्होंने अब पहिले की तरह न उसका आदर किया न उसके आगमन की अनुमोना की और न उसे देखकर वे उठे ही (नो अंजलिपरिग्गहं करेंति, इट्टाहिं जाव णो संलवंति नो पुरओ य पिट्ठओय पोसओय मग्गओय समणुग० ) और न उसे हाथ जोड़ कर नमस्कार ही किया। न इष्ट प्रिय वाणियों से उससे आलाप, मलाप किया, और न आजू बाजू से होकर वे उसके साथ मार्ग में ही चले । (तएणं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ ) इस तरह चलता हुआ वह तेततिपुत्र अमात्य अपने घर पर आ गया। उवागच्छित्ता जावि से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहां दोसेइ वा पेसेइ वा भाइल्लएइ वा सा वि य णं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अन्भुट्टेइ) वहां पर भी जो दास घर के काम काज करने परियाणंति, नो अब्भुति )
માર્ગમાં જતાં તેતલિપુત્રને ઈશ્વર તલવર માડંબિક વગેરે લેકએ જે પણ કેઈએ પહેલાંની જેમ તેને આદર ન કર્યો, તેના આગમનની અનુમોદના ન કરી અને તેને જોઈને તેઓ ઊભા ન થયા.
(नो अंजलि परिग्गरं करेंति, इटाहिं जाव णो संलवंति नो पुरओ य पिट्ठो य पासओ य मग्गओ च समणुग०)
અને તેઓએ હાથ જોડીને તેને નમસ્કાર પણ ન કર્યો. ઈષ્ટ, પ્રિય, વચનોથી તેઓએ તેની સાથે આલાપ ન કર્યો, સંતાપ ન કર્યો અને બંને मासे थने तेसो भागमा तनी साथे साये यास्या ५ नहि. ( तएणं तेतलिपुत्ते जेणेत सएगिहे तेगेव उवागच्छइ ) मा प्रभारी यासतो यासतो તેતલિપુત્ર અમાત્ય પિતાને ઘેર આવી ગયે. ___ (उवागच्छित्ता जाति से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा दासेइ वा पासेइ वा भाइल्लएइ वा, सा चि य णं नो आहाइ नो परियाणाइ, न अब्भुढे) ત્યાં પણ જે દાસ-ઘરમાં કામ કરનારા નેકરે, પ્રે-ઘરના કામ માટે
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शाताधर्मकथाङ्गसूचे दासाः गृहकार्यकारिणोभृत्याः, पेसाइवा' प्रेष्याइति वा, प्रेष्याः गृहकार्य कर्तुमन्यत्र प्रेषणीया भृत्याः, ‘माइल्लएति वा' भाइल्लाइति वा, 'भाईल्ल' इति देशीशब्दः,हालिका भागिनश्चेति तदर्थः हालिकाः भूमिकर्षणार्थ नियुक्ता भृत्याः, भागिनः, स्वव्ययेनाऽ न्यस्य क्षेत्रे कृषि कृत्वा उपजातान्नस्यार्धभाग ग्राहिणः, एतद्रूपा या परिषत् साऽपि च एतं नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठते । याऽपि च तस्य आभ्यन्तरिको परिषद् भवति, 'तं जहा' तद् यथा 'पियाइ वा पिताइति वा, ' मायाइ वा ' माता इति वा, 'जाव मुण्हाइ वा ' यावत् स्नुमाइति वा, स्नुषा:-पुत्रवध्वः, तवापि च परिषद् एनं नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो यत्रैव वासगृहं यत्रैव स्वकं शयनीयं तत्रैव उपागच्छति,उपागत्य, वाले नौकर प्रैष्य, घर के काम के लिये जिन्हें बाहर भेजा जाता है ऐसे भृत्य, तथा भाईल्ल-हालिक-भूमि कर्षणार्थ नियुक्त भृत्य, अथवा भागीदार-अपने व्यय से अन्य के खेत में कृषिकरके उत्पन्न अन्न के अर्घभोग को लेने वाले वटियाजन इनरूप जो बाह्य परिषत् थी उमने भी उसका आदर नहीं किया, उसके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उसके आने पर अपने अधिष्ठित स्थान से उठे। (जाविय से अभितरिया परिसा भवइ-तंजहा-पियाइ वा मायाइ वा जाव सुण्हाइ वा सावि य णं नो आढाइ, नो परियागाइ, नो अब्भुट्टेइ) इसी तरह जो उसकी अन्तरंग परिषद थी जैसे पिता माता यावत् स्नुषा-पुत्रवधू आदि जन इन्होंने भी उसका आदर नहीं किया, आगमन का अनुमोदन नहीं किया और न ये कोई भी उसके आने पर अपने स्थानसे જેઓને બહાર મોકલવામાં આવે છે તે ભ, તથા ભાઈલ-હાળકે એટલે કે ખેડવા માટે નિયુક્ત કરાયેલા ભ્રત્યે અથવા તે ભાગીદારે-કે જે પિતાના ખર્ચે જ બીજાના ખેતરોમાં અનાજ વાવે છે અને વળતરમાં ખેતરના માલિક પાસેથી અભાગ મેળવે છે–એવા જે બાહ્ય પરિષત સંબંધી સેકો હતા તેઓ એ પણ તેને આકર નહિ, તેના આગમનને અનમેદન આપ્યું નહિ અને ન તેના આવવા બદલ પિતાના સ્થાનેથી સત્કાર માટે તેઓ ઊભા થયા. (जा वि य से अभितरिया परिसा भवइ-तं जहा-पियाई वा मायाइ वा जाव मुण्हाइ वा सा वि य णं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुटे) અને આ પ્રમાણે જ તેની અંતરંગ પરિષદના લેકે જેમ કે પિતા માતા યાવત્ સ્તુષા-બેટા વહુ-વગેરે લેકે એ પણ તેને આદર કર્યો નહિ, તેના આગમનને અનમેદન આપ્યું નહિ અને તેમાંથી કઈ પણ તેના આવવા બદુલ પિતાના સ્થાનથી ઊભા થયા નહિ,
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arraft टोका अ० १४ तेतलिपुत्रधपान खरितवर्णनम
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शयनीये निषीदति, निषद्य, एवमवदत् = मनस्य कथयत् एवं खलु यथा अद्य तथैवान्यस्मिन्नपि दिवसे, अहं स्वकाद् गृहात् निर्गच्छामि, ' तं चेत्र जोत्र अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परियाणाइ नो अभुडेइ ' तदेव यावत् आभ्यन्तरिकी परिषद् नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अभ्युत्तिष्ठति, अस्यायमभिप्रायःपूर्वस्मिन् दिवसे राज्ञि प्रसन्ने मां दृष्ट्वा राजेश्वरादयः सर्वे आद्रियन्ते स्म परिजानान्ति स्म अभ्युत्तिष्ठन्मि स्म, अद्याऽपि गृहनिर्गतं मां ते तथैव सत्कारयन्तिस्म । परन्तु राज्ञि अकस्मात् अप्रसन्ने राजेश्वर तलवरमाडम्बिक कौटुम्बिकमभृतयः तथा मदीय ब्राह्याभ्यन्तरा च परिषदपि सर्वेऽपि च मां नाद्रियन्ते, नो परिजानन्ति, नो उठे! (तएण से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ ) इस तरह घर पर आकर वह तेतलिपुत्र अमात्य जहां अपना वासगृह और उसमें भी जहां अपनी शय्या थी वहां गया ( उवागच्छित्ता सयगिज्जसि निसीयह, णिसीइत्ता एवं वयासी) वहां जाकर वह उस पर बैठ गया और मनही मन विचार करने लगा - ( एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चैव जोव अभितरिया पुरिसा नो आढोह, नो परिजाणाइ नो अब्भुट्ठेइ - तं सेयं खलु मम अ प्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तपत्ति कहू एवं संपेहेड ) पहिले के दिनों में जब मैं अपने घर से निकलतो था तो लोग-राजेश्वर आदि समस्त जन मुझ पर राजा की प्रसन्नता होने के कारण आता जाता हुआ देखकर मेरा आदर करते थे- मेरे आगमन आदि की अनुमोदन करते थे उठ कर अपने विनय प्रदर्शित करते थे तथा आज भी जब में घर से निकल
( तणं से तेतलिपुत्ते जेणेत्र वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेत्र उवागच्छ ) આ રીતે ઘેર આવીને તેલિપુત્ર અમાત્ય જ્યાં તેની રહેવાની આરડી अने तेमां पशु नयां पोतानी पथारी हती त्यां गये. ( उवागच्छित्ता सयणिजसि निसीय, णिसीइत्ता एवं वयासी ) त्यांने ते तेना उपर मेसी गये। અને મનમાં જ વિચાર કરવા લાગ્યા કે
( एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि, तं चैव जाव अभितरिया पुरिसा नो आढाइ, नो परिजागाइ, नो अब्भुडे-तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवि याओ ववरोवित्तरति कट्टु एवं संपेहेइ )
પહેલાં જ્યારે હું ઘેરથી બહાર નીકળતા હતેા ત્યારે લાકા-રાજેશ્વર વગેરે બધા લેાકા–રાજા મારા ઉપર ખુશ હતા એટલે-આવતાં જતાં જોઈને મારા આદર કરતા હતા, મારા આગમનનું અનુમેદન કરતા હતા તેમજ ઊભા થઇને વિનય પ્રદર્શિત કરતા હતા અને આજે પણ હું જ્યારે ઘેરથી નીકળાને
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शानाधर्मकथासूत्रे अभ्युत्तिष्ठन्ति । ' तं' तत्-तस्मात् कारणात् , श्रेयः खलु मम आत्मानं जीवि. ताद् व्यपरोपयितुम् , इति कृत्वा, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तालपुटं विषम् ' आसगंसि' आस्ये-मुखे प्रक्षिपति, विष नो संक्राम्यति-विषत्वेन नो परिणमति । ततः खलु स तेतलिपुत्रो - नीलुप्पल जाव असिनीलोत्पल यावदसिं-नीलोत्पल गवलगुलिकसमप्रभ नीलोत्पलं-नीलकमलम् गालं-माहिष शृङ्गम् , 'गुलिकं' नीलरङ्गविशेषः, तैः समा प्रभातेतलि कान्तिर्यस्य स तं तादृशं यावदसि तीक्ष्णखड्गं खंधे ' स्कन्धे कण्ठमूले ' ओहरइ' अवहरति=निपातयति । तत्राऽपि च कर राजा के पास गया-तब भी इन सबलोगों ने पूर्ववत् मेरा आदर
आदि सब कुछ किया-परन्तु अकस्मात राजा के रुष्ट होने पर जब मैं वहां से लौटकर वापिस अपने स्थान पर आने लगा-तो किमी ने भी मेरा आदर आदि कुछ भी सत्कार नहीं किया। यहां तक कि जो मेरी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद है-भीतर बाहरके नौकर चाकर एवं माता पिता आदि जन हैं-उसने भी आज इस समय आने पर मुझे कुछ नहीं समझा-अतः मुझे अब ऐसी स्थिति से मरना ही उत्तम है। इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया-(संपेहित्ता ताल उडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, सेय विसे णो संकमह, तएणं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असि खंधसि ओहरइ, तत्थ विय से धारा ओपल्ला, तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उ०) विचार करके उसने तालपुटविष को अपने मुख में डाला-परन्तु उसने अपना कुछ भी प्रभाव રાજાની પાસે ગયો ત્યારે પણ એ બધાંએ પહેલાની જેમજ મારો આદર વગેરે બધું કર્યું હતું પણ એ ચિંતા રાજાને નારાજ થઈ જવા બદલ જ્યારે હું ત્યાંથી પાછા ફરીને પિતાને ઘેર આવવા લાગ્યા ત્યારે કેઈએ પણ મારે આદર કે સત્કાર કર્યો નહિ મારી બાહ્ય અને આત્યંતર પરિષદ એટલે કે બહારના નેકરે-ચાકરે અને માતા પિતા વગેરે-છે તેઓએ પણ આજે અત્યારે મારા આવવા બદલ કંઈ પણ કિંમત કરી નહિ. એથી એવી પરિસ્થિતિમાં મારૂં મરણ જ ઉત્તમ ઉપાય છે. .. (संपेहित्ता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ, सेय विसे णो संकमइ, तएणं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असिं खंधसि ओहरइ, तत्थवि य से धारा ओपल्ला, तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेवउ० ) ... तन। विया२ अरीने तेथे तारापुट वि५ ( ३२ ) ने पोताना
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम्
लपुत्रप्रधानचारतवणनम्
५९ ' से ' तस्य खङ्गस्य धारा 'ओपल्ला' कुण्ठिता, 'ओपल्लं' इति देशी शब्दः तलपुटेन विषेण, कण्ठे निपातितेनामिनाऽपि च तदभिलपितं मरणं न जातम् । ततः खलु तदनन्तरं स तेतलिपुत्रो यत्रैव अशोकवनिका=अशोकवाटिका तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पाशकं ग्रीवायां वघ्नाति, बद्धवा 'रुक्ख' वृक्षं 'दुरुहइ, दुरो हति आरोहति, दमा, पाशं वृक्षे बध्नाति, बद्ध्वा आत्मानं 'मुयइ ' मुश्चति= अधः पातयति । 'तत्थवि' तत्राऽपि=एतस्मिन्मरणोपाये कृतेऽपि च ' से ' तस्य रज्जुश्छिन्ना-मध्यत एव पाशस्सुटितः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः 'महइमहालयं ' महातिमहतीम् अति विशालां शिलां ग्रीवायां बध्नाति, बद्धवा 'अत्थाहमतारमपोमियंसि' अस्तापातागपौरुषेये-नास्ति सायः यस्य तत् अस्ताघम्= नहीं दिखलाया-अर्थात् वह विष रूप से परिणत नहीं हुआ। इसके बाद उम तेतलिपुत्रने नीलोत्पल गवल, गुलिक की प्रभो जैसी प्रभावाली अत्यन्त नीलवर्ण वाली-ऐसी तलवार को कि जिसकी धार बहुत तीक्ष्ण थी-अपनी गर्दन पर रखा-अर्थात् उसे गर्दन पर चलाई-परन्तु उसने भी अपना काम नहीं किया-वह भी-कुंठित हो गई-इस तरह जब इन दोनों वस्तुओ से अपना अभिलषित मरण साध्य नहीं हुआ-अब वह तेत. लिपुत्र जहां अशोकवनिका-अशोक वाटिका-थी वहां गया (उवागच्छित्ता पासगगीवाए बंधइ) वहां जाकर उसने अपनी ग्रीवामें फंदा डाला-बांधा (बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से रज्जू छिन्ना ) बान्ध कर फिर वह वृक्ष पर चढ़ गया और वहां से अपने आपको नीचे लटका दिया परन्तु यहां पर भी उमकी रज्जू बीच में से टूट गई (तएणं से तेतलिपुत्ते મુખમાં નાખ્યું. પણ તેણે કંઈ અસર બતાવી નહિ એટલે કે તે વિષ રૂપમાં પરિણમ્યું નહિ. ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્ર, નીલે—લ ગવલ, ગુલિકના જેવી પ્રભાવાળી તેમજ તીક્ષણ ધારવાળી તલવારને પિતાની ડોક ઉપર મૂકી એટલે કે તેના વડે તેણે પિતાની ડેક ઉપર ઘા કર્યો પણ તેનાથી પણ કંઈ કામ થયું નહિ એટલે કે તરવાર પણ બૂરી થઈ ગઈ હતી. “એપલ” આ પંડિત ( બૂડી ) અર્થ માટે વપરાયેલે દેશી શબ્દ છે. જ્યારે આ રીતે તે બંને વસ્તુઓથી તેની ઈચ્છા પૂરી થઈ નહિ એટલે કે તેનું મરણ થઈ શક્યું નહિ. त्यारे ते न्यो पनि!--ms पा४िा-ती त्यां गया. ( वागच्छित्ता पोसगं गीवाए बंध ) त्यां४४२ तेथे पोतानी 31 शंस मेवाने मध्य (बधित्ता अप्पाणं मुयइ तत्थ वि से रज्जू छिन्ना ) मधीन ते वृ५ ५२ ચઢી ગયો અને ત્યાંથી પોતાની મેળે જ તે લટકી ગયો પરંતુ અહીં પણ ફાંસાનું દોરડું વચ્ચેથી તૂટી ગયું હતું.
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জানাঘদখাই अतैलस्पर्शि, अतारम् अतरणीयम् , अपौरुषेयम्-पुरुषः प्रनाणं यस्य तत् पौरुषेयम्= न पौरुषेयम्=अपौरुषेयम्=पुरुषप्रमाणरहितम् , एतेषां कर्मधारयः, तस्मिन् अतिगम्भीरे इत्यर्थः, उदके आत्मानं मुश्चति । तत्राऽपि तस्मिन्नुदकेऽपि च 'से' तस्य-तेतलिपुत्रस्य ' थाहे ' स्ताघो जातः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः शुष्क तृणकूटे-तृणपुले ' अगणिकायं' अग्निकार्य प्रक्षिप्य, तत्र आत्मानं मुञ्चति । तत्रापि-शुप्के तृणेऽपि सो.ऽग्निकायो ‘विज्झाए' विध्यातः-उपशान्तः । 'तएणं' ततः खलु-एतस्य सर्वस्य असम्भाव्यस्य सम्भावनानन्तरम् स तेतलिपुत्र एवमवा. महइमहालयं सीलं गीवाए-बंधइ बंधित्ता अस्थाह मतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्य वि से थाहे जाए ) इसके बाद उस तेत. लिपुत्र ने एक बहुत विशालकाय शिला को अपने गले में बांधा-और बांध कर अपने आपको अथाह-अतार एवं अपुरुष प्रमाग जल में छोड़ दिया-परन्तु वह जल भी उसके लिए स्ताध थाह युक्त-बन गया-(तएणं से तेतलिपुत्ते सुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवह पक्खिवित्ता मुयह, तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए-तएणं से तेतलिपुत्ते एवंवयासी-सद्धेय खलु भो समणा वयंति सद्धेयं-खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणमाहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि एवं खल अहं सह पुत्तहिं अपुत्ते को मेयं सद्दहिस्सइ १ सहमित्ते हिं अमित्ते को मेयं सद्दहिस्सइ ) इसके बाद तेतलिपुत्रने शुष्क घासके ढेर में अग्नि लगाई-और उसमें अपने आपको डाल दिया-परन्तु वह भी ( तएणं से तेतलिपुत्ते महइ महालयं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्य वि से थाहे जाए)
ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્રે એક બહુ મેટી ભારે શિલા ( પથરો ) ને. પિતાની જાતને અથાહ-અતાર અને અપુરુષ પ્રમાણે પાણી માં નાખી દીધી પરંતુ તે ઊંડુ પાણી પણ તેના માટે થાહ વાળું એટલે કે છીછરું થઈ ગયું.
(तएणं से तेतलिपुत्त सुक्कंसितणकूडंमि अगगिकायं पक्विवइ, पक्विवित्ता मुयइ, तत्थवि से अगणिकाए विज्झाए-तएणं से तेतलिपुत्ते एवं बयासी सद्धेयं खलु भो समणा वयंति सद्धेयं-खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणमाहणा वयंति , अहं एगो असदधेयं वयामि एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते को मेयं सहहिस्सइ ? सह मित्तेहि अमित्ते को मेयं सदहिस्सइ)
- ત્યાર પછી તેતવિપુત્રે સૂકા ઘાસના ઢગલામાં અગ્નિ પ્રગટાવ્યું અને પિતાની જાતને તેમાં નાખી દીધી પરંતુ તે પણ વચ્ચેથી જ ઓલવાઈ ગઈ,
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बनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् दीत-चित्तं संबोध्य मनस्येवमकथयत्-भो चित्त ! श्रमणा यद् वदन्ति तखलु श्रद्धयं श्रद्धा योग्य, श्रद्धेय खलु शोः ब्राह्मणा वदन्ति, श्रद्धेयं खलु भोः ! श्रमण ब्राह्मणा वदन्ति । अयंःभाग-आत्मपरलोकाधर्थ प्रतिबोधकं श्रमणादीनां वचनं श्रद्धेय भवति, अतीन्द्रियस्याप्यात्न रलोकादिस्वरूपस्यानुमानादि प्रमाणविषयतया श्रद्धाविषयत्वात् । परन्तु अमेको असहायः अश्रद्धेयम् अविश्वसनीय वंदामि । यद्यपि मदीयं वचनं सर्वथा सत्यम् , तथापि असम्भाव्यतया जनैः प्रत्येतुमशक्यम् । तदेशह-' एवं खलु' इत्यादिना — एवं खलु ' मयि अश्रद्धेय. बीच ही में बुझ गई । इन तरह इन समस्त असंभवनों की संभवना के बाद तेतलिपुत्रने अपने आपको संबोधित करते हुए मन में विचार किया-हे चित्त ! श्रमणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय हैं। ब्राह्मणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय है इसी प्रकार श्रमणमाहणजन जो कहते हैं वह श्रद्धेय है। इसका भाव यह है कि आत्मा, परलोक आदि पदार्थ जो कि अतीन्द्रिय हैं वे अनुमान आदि प्रमाण कि विषयभूत हो जाते है-इसलिये ये श्रद्धाके विषय बन जाते हैं -अतः इन अतीन्द्रिय आत्म, परलोक आदि पदार्थों को प्रतिपादित करने वाले श्रमण माहण आदिकों के वचन भी श्रद्धेय हो जाते हैं, परन्तु में जो कह रहा हूँ वह अश्रद्धेय कह रहा हूँ एक असहाय हूँ-इसलिये-मुझे इस विषय में किसी को भी सहायता मिलने वाली नहीं है । उन श्रमण माहण आदिजनों के वचनों के सहायक तो अनुमान आदि प्रमाण है-परन्तु मेरा सहायक कोई प्रमाण ही नहीं होता है, यद्यपि मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ परन्तु वह मेरा वचन असं. भवित असहाय-होने की वजह से मनुष्यों के लिये श्रद्धेय नहीं बन આ રીતે આ બધા અસંભવનની સંભાવના બાદતે તલિપુત્રે પિતાની જાતને જ સંબંધિત કરતાં મનમાં વિચાર કર્યો કે હે ચિત્ત ! શ્રમણને જે કંઈ કહે છે તે શ્રદ્ધેય છે, બ્રાહ્મણો જે કંઈ કહે છે તે શ્રધ્યેય છે આ પ્રમાણે કામણ માહણેજને જે કઈ કહે છે તે શ્રદ્ધેય છે. આને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આત્મા પરલેક વગેરે પદાર્થો જેઓ કે અતીન્દ્રિય છે-તે એ અનુમાન વગેરે પ્રમાણના વિષયભૂત થઈ જાય છે. એટલા માટે તે પાર્થો શ્રદ્ધાના વિષય બની જાય છે. એથી આ બધા અતીન્દ્રિય આત્મ, પરલોક વગેરે પદાર્થોનું પ્રતિપ ન કરનાર શ્રમણ માહણ વગેરેના વચને પણ શ્રદ્ધેય થઈ જાય છે, પણ હું જે કંઈ કહી રહ્યો છે તે અશ્રદ્ધેય કહી રહ્યો છું. એક અસહાય છું એથી મને આ બાબતમાં કેઈની મદદ પણ મળી શકે તેમ નથી. તે શ્રમણ માહણ વગેરેના વચનના સહાયક તે અનુમાન વગેરે પ્રમાણે છે. પણ મારા કથનનું સહાયભૂત થાય તેવું કઈ પ્રમાણુ જ નથી. જે કે હું જે કંઈ પણ કહી રહ્યો છું તે સંપૂર્ણ રીતે યથાર્થ અંત્ય-કહી રહ્યો છું. પણ મારા તે વચને અસંભવિત અસહાય હોવા બદલ
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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वचने सती यदि अमे= एवंभूतं सत्यमपि वदामि यत् - अहं ' सहपुतेहिं अपुत्त ' सहपुत्रैरपि अपुत्रः पुत्रेषु विद्यमानेष्वपि अहं पुत्ररहित एवास्मि तैरनाद्यतत्वात् कः ' मेयं ' ममेदं = इदं मदीयं वचनं ' सदस्सिर ' श्रद्धास्यति प्रत्येध्यति, न कोऽपि, तथा अहं 'सहमअिमिते सहमित्रैरमित्रः = मित्रेषु विद्यमानेष्वपि ' मित्ररहितोऽहं ' को ' मेदं ' ममेदं वचनं श्रद्धास्यति । एवम् अनेन प्रकारेणैव अर्थेन दारैः दासैः परिजनेन च सहितोऽपि ते रहितोऽस्मि, इदं मदीयं वचनं कः श्रद्धास्यति, अपितु न कोऽपि । एवं अमुना प्रकारेण ख यद्यहं ब्रवीमि यत् ' ' ' तेतलिपुत्र तेतलिपुत्र नामधेये ख मत्रि अमात्ये कनकध्वजेन राज्ञा ' अवआपण समाए अपध्या तेन दुचिन्तकेन सता अर्थात् कनकध्वजो राजा सकता है जैसा मैं यह सब भी कहूँ कि मैं पुत्रों के विद्यमान होने पर भी अपुत्र पुत्र रहित हूँ, तो कौव मेरी इस बात को श्रद्धा से देखेगाइसी तरह में यह कहूँ कि मैं मित्रों के विद्यमान होने पर भी मित्र रहित हूँ तो कौन मेरे इन वचनों पर विश्वास करेगा - ( एवं अत्थे णं दारेणं दासेहिं परिजणेणं एवं खलु तेलिणं अमच्चे कणगज्झएणं रनाअवञ्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्रेण तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खिते से वियणो कमइ को मेयं सद्दहिस्मइ ? तेनलित्तेगं नीलुप्पल जाव खंसि ओहरिए तत्थ वि से धारा ओपला को मेवं सद्दहिस्सइ ) इस तरह अर्थ, दारा, दास, परिजन, इन से युक्त होने पर भी मैं इन से रहित हूँ, कौन मेरे इस वचन को मानेगा ? अर्थात् कोई नहीं मानेगा इसी तरह यदि मैं ऐसा कहूँ कि मुझे तेनलिपुत्र अमात्य के ऊपर कनक
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માણસા માટે શ્રદ્ધેય થઈ શકે તેમ નથી. જેમ કે હું અત્યારે આ જાતની સાચી વાત પણ કહું કે પુત્ર હાવા છતાંએ હું પુત્ર વગરના છું તે કાણુ મારી આ વાતને શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ જોશે ? આ પ્રમાણે જ હું કહું કે મિત્રા હોવા છતાં એ હું મિત્ર વગરના છું તે કે!ણુ મારી આ વાત ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવશે?
( एवं अत्थेणं दारेणं दासेहिं परिजणेणं एवं खलु तेतलिपुत्तेणं अमच्चे कणगज्झणं रना अवज्झाएणं समाणेणं तेवलिपुत्रेण तालyडगे जिसे आसगंसि पक्खित्ते से त्रियणो कमर, को मेयं सदस्सिर ? तेतत्रिपुत्तेणं नीलुप्पल जात्र खंसि ओहरिए तत्थ वि से धारा ओपला को मेयं सदस्सिर )
मा ते अर्थ ( धन ), द्वारा ( पत्नी ) हास, परिन्न मे मधा होवा છતાં પણ હું એમના વગર છુ. મારી આ વાત ઉપર કાણુ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે ? એટલે કે કોઈ પણ વિશ્વાસ કરશે જ નહિ. આ રીતે જ જો હુ આમ કહ્યું કે મારા ઉપર રા ફનક ધ્વજ નારાજ થઇ ગયા હતા એટલા માટે
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मेनगारधर्मामृतवर्षिया टीका अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानमरितवर्णनम् ८३ तेतलिपुत्र दुश्चिन्तको जातः इतिहेतोः, तेतलिपुत्रोण तालपुटकं विषम् ‘आसगंसि' आस्ये-मुखे प्रक्षिप्तम् , ' से वि य' तदपि च विषं नो 'कमइ न क्राम्यति-विषस्वेन न परिगमति को जनः । मेदं मदं सत्यमपि वचनं श्रद्धास्यति न कोऽपि, तथा ' तेतलिपुत्तेणं' नीलुप्पल जाव खंधसि ओहरिए ' तेतलिपुत्रेण नीलोत्पल यावत् स्कन्धे अपहृतः तेतलिपुत्रेण नीलोत्पलगवलगुलिक मप्रभाऽसिः 'स्कन्धे कण्ठमूले ' अहृतः ' प्रहतः ' तत्ववि' तत्रापि अस्मिन् मरणोपाये कृतेऽपि च' तस्य असेः धारा ओपल्ला-कुण्डीभूना को 'मेदं ममेदं श्रद्धास्यति । एवमेव यद्यहं ब्रूयाम् यन्मया ' तेत लपुरेण पापणं गीवाए बंधेत्ता जाव रज्जूछिन्ना को मेयं सद्दहिस्सइ' तेतलिपुत्रेण पाशकं ग्रीवा बद्ध्वा यावत् रज्जुश्छिन्ना, को ममेदं श्रद्धास्यति ? तेतलिपुत्रोण अतिविशाल शिलां यावद् बद्ध्वा अस्ताधयावध्वज राजा दुश्चितक बन गये-इसलिये मैंने तालपुट विष मुख में डाल दिया परन्तु वह विषरूप से परिणमित नहीं हुआ। मैंने विष खाया-पर मैं मरा नहीं-कौन मनुष्य मेरी इस सत्य बात को श्रद्धा की दृष्टी से देखेगा। तथा मैंने नीलोत्पल, गवल एवं गलिका की प्रभा जैसी प्रभाव वाली तीक्ष्ण तलवार अपनी गर्दन पर मरने के लिये चलाई-परन्तु वह भोटी घारवाली बन गई-कुण्ठित हो गई-उससे मेरी गर्दन नही कटीकौन मेरी इस बात को मानने के लिये तैयार हो सकेगा (तेतलिपुत्तेणं पासगं इत्यदि ) इसी तरह यदि मैं यह कहूँ कि मुझ तेतलिपुत्रने अपने गले में पाशक डाला और वृक्षपर चढकर वहां से नीचे मैं लटक पड़ा
और फंदा बीच में से टूट गया तो कौन इन वचनों पर विश्वास करेगा। (तेतलिपुत्तेणं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्याह जाव उदगंसि अप्पा મેં તાલપુર વિષ (ઝેર) ખાધું હતું પણ તે વિષના રૂપમાં પરિણત થયું નથી એટલે કે વિષ ભક્ષણ કરવા છતાં એ હું મરણ પામ્યા નહિ. આ વાત ઉપર કે માણસ વિશ્વાસ મૂકવા તૈયાર થશે? તેમજ નીલેલ, ગવલ અને ગુલિકાના જેવી પ્રભાવાળી તીક્ષ્ણ ધારવાળી તરવારને મેં મરવા માટે મારી ડેક ઉપર ઘા કર્યો પણ તે તરવાર જ બૂડી ધારવાળી થઈ ગઈ-કુંઠિત થઈ ગઈ–તેનાથી મારી ડેક કપાઈ નહિ. મારી આ વાત ઉપર કેણ વિશ્વાસ કરવા તૈયાર થશે? ( तेतरिपुत्तेणं पासगं इत्यादि ) त माम ई. में तेतलिपुत्रे પિતાના ગળામાં ફાંસી નાંખે અને વૃક્ષ ઉપર ચઢો. વૃક્ષ ઉપર ચઢીને ત્યાંથી નીચે લટકી પડ્યો પણ ફસે વચ્ચેથી જ તૂટી ગયે. તે કેણ મારી આ વાત ઉપર વિશ્વાસ મૂકશે ?
( तेतलिपुत्तेगं महइमहालयं जाव बंधित्ता अत्याह जाव उदगंसि अप्पा मुक्के,
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
दुदके आत्मा मुक्तः, तत्रापि च खलु स्ताघो जातः, को ममेदं श्रद्धास्यति = मया स्वकुण्ठे महाशिलां बद्धा अगाधे उदके आत्मा मुक्तः, परन्तु तस्मिन्नुदकेऽपि मम तलस्पर्शो जातः इति मम वचनं कः श्रद्धास्यति ? पुनश्च - तेतलिपुत्रेण मया शुष्के तृणकूटे = तृणपुजेऽग्निकार्य प्रक्षिप्य प्रज्वलिते तस्मिन् आत्मा मुक्तः, परन्तु सोऽग्निकायः ' विजाए ' विध्यातः = उपशान्त, इत्येवंरूपमपि मदीयं वचनं कः श्रद्धास्यति ? न कोऽपि, इत्येवं स तेतलिपुत्र: ' ओहयमणसंकप्पे ' अपहृ तमनः संकल्पः =भग्नोत्साहः सन् यावद् ध्यायति = आर्त्तध्यानं करोति ||सू० १०॥ सुक्को, तत्थ वि णं थाहे जाए को मेयं सहहिस्सइ ? तेन लिपुत्त्रेण सुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पा मुको तत्थ वि से अगणिकाए विज्झाए को मेयं सद्दहिस्सइ ? ओहयमणसं कप्पे जाब झियाय ) मुझ तेतलिपुत्र ने एक बहुत बड़ी शिला का गलेमें बांधी और बाद में अथाह अतार अपुरुष प्रमाण जल में कुंद पड़ा परन्तु वह जल कूदते ही थाह बाला बन गया अथाह नहीं रहा मेरी इस सत्य बात पर भी कौन श्रद्धा करेगा। इसी तरह मुझ तेतलिपुत्रने एक बडे भारी शुष्क घास के ढेर में अग्नि लगाई और उस में अपने आप को प्रक्षिप्त कर दियापरन्तु वह अनि बुझ गई उसने मुझे भस्म नहीं किया मेरी इसबात को कौन श्रद्धा रूप से स्वीकार करेगा। इस प्रकार अपहृत मनः संकल्प वाला बन कर - उत्साह रहित होकर वह तेतलिपुत्र अमात्य आर्तध्यान में पड़ गया || सू० १० ॥
क.
तस्थ विणं था जाए को मेयं सदस्सिर तेतलिपुत्तेणं मुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकार्य पक्खिवित्ता अप्पा सुक्को तत्थवि से अगणिकार विज्झाए को मेयं सस्सिर ? ओहयमणसंकरपे जाव झियाय )
મેં તેતલિપુત્રે એક બહુ ભારે મેટી શિલા ( પથરા ) ગળામા બાંધી અને ત્યાર પછી હું અથાહ ( ઊડા ) અતાર અપુરુષ પ્રમાણ જેટલા પાણીમાં કૂદી ગયા પણ કૂદતાંની સાથે જ પાણી થાહવાળુ' ( છીછરુ' ) થઇ ગયું, અથાહ ( ઊંડુ ) રહ્યું નહિ મારી આ વાત ઉપર પણ કાણુ વિશ્વાસ મૂકશે ? આ પ્રમાણે જ મેં તેતલિપુત્રે એક બહુ મોટા ભારે સૂકા ઘાસના ઢગલામાં અગ્નિ પ્રગટાવ્યે અને તેમાં મે' પેાતાની જાતને ઝ ંપલાવી દીધી. પણ તે અગ્નિ એલવાઇ ગયા. તેણે મને ભસ્મ કર્યાં નહિ. મારી આ વાતને કાણુ શ્રદ્ધેય માનીને સ્વીકારવા તૈયાર થશે ? આ રીતે તે અપહતમનઃ સંકલ્પવાળા ( હતાશ ) થઈને निरुत्साही, मनी, गयो भने मातध्यानमां डूजी गये. ॥ (6 સૂત્ર ૧૦ ፀ
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नगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम्
मूलम् - तपणं से पोहिले देवे पोहिलारूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता, तेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी-हं भो ! तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवाए पिट्ठओ हत्थिभयं, दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिसंति, गामे पलित्ते रन्ने झियाइ, रन्ने पलिते गामे झियाइ । आउसो तेतलिपुत्ता ! कओ वयामो ?, तणं से तेतलिपुते पोट्टिलं एवं व्यासीभीयस्स खलु भो ! पव्वज्जा सरणं, उक्कंठियस्स सदेसगमणं छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसजं, माइयस्स रहस्सं अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्त्र वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकिच्चं परं अभिउंजिङ कामस्स सहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एचो एगमवि णं भवइ । तएणं से पोहिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी - सुद्ध णं तुमं तेयलिपुत्ता ! एयमहं आयाणाहि त्तिकद्दु दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं पडिगए ॥ सू० १९ ॥ ||
"
टीका -' तरणं से' इत्यादि । ' तरणं' ततः खलु तेतलिपुत्रे आर्तध्यान रते सति स पोहिलो देवः 'पोहिलारूवं पोहिलारूपं विकुर्वति वैक्रियशक्या
"
'तएण से पोहिले देवे ' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (ए) इसके बाद ( से पोहिले देवे ) उस पोहिल देवने (पाहिला रूवं विव्व) पोहिला के रूप की विकुर्वणा की - अर्थात वैकिय शक्ति के प्रभाव से उसने पोट्टिला का रूप धारण किया ( विउन्विता
'तएण से पोट्टिले देवे' इत्यादि
टीडार्थ - (तएण ) त्यार पछी (से पोट्टिले देवे ) ते पोट्टिसहेवे (पोट्टिका रूवं बिउब्वइ) पोट्टिसाना उपनी विदुवारी भेटते है. वैडिय शक्तिना अलावथी,
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शाताधर्मकथासूत्रे
66
धारयति, विकुर्वित्वा तेतलिपुत्रस्य अदूरसामन्ते= नातिदूरे नातिनिकटे स्थित्वा एत्रमवादीत् - हंभो तेतलिपुत्र ! 'हंभो ' इत्यामन्त्रणे, हे तेतलिपुत्र ! ' पुरओ' पुरतः =अग्रतः पवाए ' प्रपातःगर्तः, अतो निर्गमनमसम्भवि पृष्ठतः हस्तिभयम्, अतो प्रत्यावर्तनं चासंभवि, 'दुहवो ' उभयतः = उभयतः = उभयोः पार्श्वयोः ' अचक्खुफासे' अचक्षुस्पर्श: =अन्धकारः, 'मज्ज्ञे' मध्ये यत्र वयमास्महे तत्र ' सराणि शराः = वाणाः, ' वरिसंति ' वर्षन्ति = निपतन्ति । 'गामे पलित्ते ' ग्रामे प्रदीप्ते = प्रज्वलिते सति रगे अरण्यं वनं 'झियाह' ध्यायति गन्तुं चिन्तयति, अरण्ये प्रदीप्ते ग्रामं ध्यायति गन्तुं चिन्तयति, 'आउसो त पुत्ता'
=
,
आयुष्मन् पुत्र ! ' उमओ रठिते ' उभयतः प्रदीप्ते = उभयस्मिन् प्रज्वलिते वयं ' कओ क्यामो' कुतो व्रजामः = कगच्छामः । ततः खलु स तेतलिपुत्रः पोहिलातेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठीच्चा एवं वयासी ) धारण कर के वह तेतलिपुत्र के समीप गयी । वहाँ जाकर उसने उससे इस प्रकार कहा - ( हं भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवार पिलो हस्थिभयं ) अरे ओ तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात खड्डा है और पीछे हाथी का भय है । (दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिसंति) दोनों ओर अन्धेरा है और जहां हमलोग ठहरे हुए हैं वहां वाणों की वृष्टि हो रही है। (गामे पलिते रण्णो झियाइ, रनो पलिते गामे शिपाई ) ग्राम में आगलगने पर मनुष्य जंगल में चले जाने को सोचता है और जंगल में आग लगने पर ग्राम में चले आने के लिये विचारता है। (आउसो तेतलिपुता ! उभओ पलिते कओ वयामो) परन्तु जब दोनों में आग लग जावे तो हे आयुष्मन लिपुत्र ! कहो ! हम कहां जावे ? (तपणं से तेथे पोट्टिसानुं ३५ धार! यु. ( विउब्वित्ता तेतलिपुत्तस्स सामंते ठीच्चा एवं वयासी ) धार, उरीने ते तेतसिपुत्रनी पासे गई त्यां बहाने तेथे तेने या प्रमाणे उद्धुं } (हं भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवार पिटुओ हत्थिभयं ) अरे, એ ! તૈતલિપુત્ર ! તમારી સામે પ્રપાત-ાધ છે અને તમારી પાછળ હાધીના भय छे. (दुइओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिति ) ने तर संधा३ छे भने ल्यां अभे औंला छीथे त्यां तीरो वर्षो रह्या छे ( गामे पलिते रणो झियाइ रन्नो पलित्ते गामे जियाई ) गाममा भाग लागतो भालुस समां નાસી જવાના વિચાર કરે છે અને જંગલમાં આગ લાગતાં ગામમાં આવતા रवाना रियार पुरे छे. ( आउसो तेतलिपुत्ता उभओ पलित्ते कओ वयामो )
પણ જ્યારે બંને તરફ આગ સળગી ઉઠે ત્યારે હું આયુષ્મન્ત તેતલિપુત્ર!
मोबो, अभेइयां हो ?
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ८७ मेवमवादीत् 'भो' हे पोट्टिले ! भीतस्य खलु प्रवज्याशरणं भाति तत्र दृष्टान्तमाह-यथा- उडियस्म' उत्कण्ठितस्य परदेशवर्तित्वादुम्सुकस्य स्वदेशगमनं, 'छुहियस्स' क्षुधितस्य अन्नम् , 'तिसियस' तृषितस्य पानं, 'आउरस्स आतुरस्य-रोगिणः 'भेसज्ज' औरत्यं 'मायिस्म' मायिकस्य-मायाविना रहस्य-गोपनम् , 'अभिजुनस्ल' अभियुक्तम्य = दोषापवादयुकस्य ' पञ्चयकरणं = प्रत्ययकरणं तन्निराकरणेन स्वविषये निर्दोषता प्रतीत्युत्पादनम् , अडाणपरिसंतस्स' अध्वपरिश्रान्तस्य मार्गगमनपरिखिन्नस्य वाहणगमणे' वाहनगमन, शकटादिना गमनं ' तरि. तेतलिपुत्त पोट्टिलं एवं वयामी-भीत्तस्ल खलु भो पवजा-सरणं-उक्कडियरस मदेसगमणं छुहियस्स अन्नं, तिसियस्त पाणं, आउरस्स भेसज्ज, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाण परिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पहवणकिच्च, परं अभिजिउकामम्स सहायकिच्चं संतम्म दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवइ ) इस प्रकार पोट्टिला की बात सुनकर तेतलिपुत्र अमात्य ने उससे ऐसा कहा हे पाहिले ! भीन (भय युक्त) के लिये प्रव्रज्या शरण भूत होती है, जैसे-परदेश वी उत्सुक व्यक्ति के लिये स्वदेश गमन शाण भूत होता है, भूखे के लिये अन्न शरण भूत होता है प्यासे के लिये पानी, आतुर रोगी के लिये भैषज्य, मायावी के लिये मायाचारी, अभियुक्तदोषापवाद वाले के लिये दोषों के निराकरण से अपने विषय में निर्दो षता की प्रतीति का उत्पादन, शरण भून होता है। मार्ग प्रान्त के लिये वाहन से गमन, करना शरण भूत होता है, तैरने की इच्छा वाले के ... (तएणं से तेतलिपुत्ते पोट्टिलं एवं बयासी-भीतस्स खलु भो पज्जा सरणं उक्कं डयस्म सदेस गमणं छुहियस्स अन्न निसियस्म पाणं, आउरस्स मेसज्ज, माइयस्स रहम्स, अभिजुत्तस्स पञ्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउ. कामस्स सहायकिच्चं संतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमविण भवइ )
આ રીતે પિટિલાની વાત સાંભળીને તેતલિપુત્ર અમાત્યે તેને કહ્યું કે હે પિફ્રિકે! ભયભીત થયેલાને માટે પ્રવજ્યા શરણ ભૂત હોય છે-જેમ-પરદેશમાં રહેતી ઉત્સુક વ્યક્તિને માટે પિતાને દેશ પાછા ફરવું શરણ ભૂત હોય છે ભૂખ્યા ને માટે અન્ન શરણ ભૂત હોય છે. આ પ્રમાણે જ તરસ્યાને માટે પાણી, આતુરરોગ–ને માટે ભષય-દવા, માયાવીને માટે માયા ચરી, અભિયુક્ત-દોષાપવાદ. વાળા–ને માટે દેશના નિરાકરણથી પિતાના વિષે નિર્દોષતાની પ્રતીતિનું ઉત્પાદન શરણ ભૂત હોય છે. માર્ગ માં ચાલતાં થાકી ગયેલાને માટે વાહનનો ઉપયોગ શરણુ ભૂત હોય છે, તરવાની ઈચ્છા ધરાવતા માણસને માટે નાવ વગેરે જલયાન
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झाताधर्मकथाजस्त्र उकामस्स' तरीतुकामस्य 'पवहणकिच्चं ' प्रवहणकृत्यम्-प्रवणं-प्रतरण कृत्यं यस्य तत् , जलयानं-नौकादिकमित्यर्थः ' परं अभियोजितु कामस्स' परमभियोजयितुकामस्य समाक्रमितुमुद्यतस्य ' सहायकिच्चं ' सहाकृत्यं मित्रादीनां साहाय्यं शरणं भवति, परं प्रव्रज्यानन्तरं ' खंतस्स' क्षान्तस्य-क्षमाशीलस्य, ‘दंतस्स' दान्तस्य इन्द्रिय नो इन्द्रियाणां दमनशीलस्य, 'जिइंदियस्स' जितेन्द्रियस्य वशीकृतेन्द्रियस्य 'एत्तो' इतः एषु पूर्वोक्तेषु मध्ये 'एगमवि न भवई' एकमपि न भवति । एकमपि शरणं तस्य प्रवजितस्योपादेयं न भवतीत्यर्थः । ततः खलु तेतलिपुत्रस्यैतद्वचनश्रवणानन्तरम् स पोटिलो देवः तेतलिपुत्रममात्यमेवमवदत्-सुष्ठु खलु वे हे तेतलिपुत्र ! एतमर्थम्=' भीतस्य प्रव्रज्या शरणम् ' इत्येवंरूपं भावम् 'आयाणाहि' आजानीहि अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्व-प्रवज्यां गृहाणेत्यर्थः ‘त्ति लिये नौकादि यान शरण भूत होता है, और जो दूसरों पर आक्रमण करने के लिये उद्यत होता है उनके लिये मित्रादिकों की सहायता शरण भून होती है। परन्तु जो क्षमाशील होता है, दान्त-इन्द्रियों को एवं मन को दमन करता है, जितेन्द्रिय होता है ऐसे प्रबजित को इन पूक्तिं शरणों मेसे एक भी शरण उपादेय नहीं होता है। (तएणं से पोहिले देवें तेयलिपुत्तं अच्चं एवं वयासी-प्लुट्ठण तुमं तेयलिपुत्ता ! ऐयम? आयाणाहिं त्ति कटु दोच्चपि तच्चपि एवं वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिमं पडिगए) इस प्रकार तेनलिपुत्र के वचन सुनने के याद उस पोटिल देवने तेतलिपुत्र अमात्य से ऐसा कहा हे तेतलि. पुत्र ! डरे हुए को प्रव्रज्या शरण होती है इस भावरूप अर्थ को तुम अनुष्ठान द्वारा अच्छी तरह जानो अर्थात् प्रवज्या ग्रहण करो। ऐसा શરણ ભૂત હોય છે અને જે બીજાઓ ઉપર હુમલો કરવા તૈયાર હોય છે તેના માટે તત્ર વગેરેની મદદ શરનું ભૂત હોય છે પણ જે ક્ષમાશીલ હોય છે, દાંત-ઈન્દ્રિ અને મનને દમન કરનાર હેય છેએટલે કે જિતેન્દ્રિય હોય છે એવા પ્રવ્રુજિતના માટે એ બધી ઉપર વર્ણવામાં આવેલી શરણેમાંથી એકેય કામમાં આવતી નથી.
( तएणं से पोटिले देवे तेयलिपुत्त अमच्चं एवं वयासी-मुठ्ठणं तुमं तेयलिपुना ! एयमढे आवाणाहि त्ति कटु, दोच्चपि तच्चपि एवं वयइ वइत्ता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए)
આ રીતે તેતલિપુત્રનાં વચન સાંભળીને તે પદિલ દેવે તેતલિપુત્ર અમાત્યને છે કે હું તેતલિપુત્ર! ભયભીત થયેલાને માટે પ્રવજ્યા શરણભૂત હોય છે ઓ ભાવ૫ અર્થને તમે અનુષ્ઠાન દ્વારા સારી રીતે સમજે. એટલે કે તમે
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरित निरूपणम्
,
कट्टु ' इति कृत्वा इत्युक्ला 'दोच्चपि ' द्वितीयमपि द्वीतीयवारमपि एवं वदति, वदित्वा यस्या दिशः प्रादुर्भूतः, तस्यामेव दिशि प्रतिगतः ॥ सू० ११ ॥
मूलम् - तणं तस्स तेतलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने । तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पजित्था - एवं खलु अहं इहेव जंबूदीवे दोघे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजये पोंडरि गिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था । तएर्ण अहं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोदसपु०वाई० बहूणि वासाणि सामन्नपरियायं ० मासियाए संलेहणाए महासुके कप्पे देवे । एणं अहं ताओ देवलोयाओ आयुक्ख३ इव तेतलिपुरे तेतलिस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए, तं सेयं खलु मम पुण्वदिट्ठाई महत्वयाइं सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ, संपे - हित्ता सयमेव महत्वयाई आरुहेइ, आरुहित्ता, जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, असोगवारपावयस्स अहे पुढविसिलापट्ट्यंसि सुहनिसन्नस्स अणुचिंते माणस्स पुग्वाहीयाई सामाइयमाइयाई चोदसपुव्वाई सयमेव अभिसमन्नागयाई । तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्त सुभेणं परिणामेणं जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणं खयोव
और कह
कहकर उसने इसी बात को उससे दुबारा तिबोरा भी कहा कर बाद में वह पोहिला रूप धारी देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था मी दिशा तरफ चला गया । मू० ११ ॥
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પ્રવ્રજયા સ્વીકારી લેા, આ પ્રમાણે કડીને તેણે બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ રીતે જ કહ્યું અને ત્યાર પછી તે પેટ્ટિા રૂપ ધારી દેવ જે દિશા તરફ થી પ્રગટ થયેા હતેા તે તરફ પાળે જતા રહ્યો. ॥ સૂત્ર (6 ११ ” ॥
शा १२
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९०
शाताधर्मकथानमधे समेणं कम्मरयविकरणकर अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ॥ सू० १२ ॥
टीका- 'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य शुभेन परिणामेण जातिस्मरणम्-पूर्वभवज्ञानं समुत्पन्नम् । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः प्रार्थितः चिन्तितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत एवं खलु अहम् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहेवर्षे पुष्कलावती विनये पुण्डरीकिण्यां राजधान्यां महापद्मो नाम राजा आसम् । ततः खलु अहं स्थविराणामन्तिकेमुण्डो भूत्वा यावत् — चोइसपुयाई०' चतुर्दशपूर्गणि०=चतुर्दशपूर्वाणि अधीतवान् , वहूनि वर्षाणि — सामनपरियायं ' श्रामण्यपर्यायं ०=चारित्रपर्यायं पालित
'तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स ' इत्यादि । टीकार्थ- (तएणं) इसके बाद (तेतलिपुत्तम्स) तेनलिपुत्र को (सुभेणं परिणामेणं जाइ सरणे समुपन्ने)शुभपरिणाम से जातिस्भरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। (तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेगारूवे अज्झथिए ५ समु. प्पज्जित्था-एवं खलु अहं इहेव जंबूद्दोवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खला. वई विजए पोंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था) उसके प्रभाव से उसने अपने पूर्वभव को जान लिया-उमने जाना कि मैं इसी जंबूद्रोप नामके द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामकी राजधानी में महापद्म नाम का राजा था (तएणं अहं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोद्दमपुवाई. बहूणि
'तएण तस्स तेतलिपुत्तरस' इत्यादि
टी-(तएणं ) त्या२मा (तेतलिपुत्तस्स) तेतलिपुत्रने (सुभेणं परिणामेणं जाइ सग्णे समुप्पन्ने ) शुभ परिणामयी जति २भ२५] ज्ञान Gपन्न आयु:
(तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इहेव जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावई विजए पोडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था)
તેના પ્રભાવથી તેણે પિતાના પૂર્વ ભવને જાણી લીધું. તેને આ જાતનું જ્ઞાન થયું કે તે આ જ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં મહા વિદેડ ક્ષેત્રમાં પુષ્ક લાવતી વિજ્યમાં પુંડરીકિણી નામની રાજધાનીમાં મહા પર્વ નામે રાજ હતે.
(तएणं अहं थेराणंअतिए मुंडे भवित्ता जाव चोइस पुव्वाइं० बहूणि वासाणि
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अमगारधर्मामृतयषिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम ९१ वान् । अनन्तरं मासिक्या संलेखनया कालमासे कालं कृत्वा ' महामुक्के कप्पे' महाशुक्रे कल्पे-सप्तमे देवलोके 'देवे' देवः-देवत्वेनोत्पन्नः । ततः खलु अई तस्माद् देवलोकात् ' आयुक्खएणं ३' आयुः क्षयेण ३=आयुर्भवस्थिति क्षयानन्तरम् इहैव तेतलिपुरे तेतलेरमात्यस्य भद्राया भार्याया ' दारगत्ताए ' दारकत्वेनपुत्रतया 'पच्चायाए ' प्रत्यायातः उत्पन्नः, तत तस्मात् श्रेयः ख मम पूर्वदृष्टानि-पूर्वभवपालितानि महत्वयाई' महाव्रतानि पञ्चमहाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य विहर्तुम् , एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य स्वयमेव महाव्रतानि आरोहति स्वीकरोति, आरुह्य, यौव प्रमदवनम् उद्यानं तौव उपागच्छति, उपागत्य ' असोगवरपायपासाणि सामन्नपरियायं० मासियाए संलेहणाए महामुक्के कप्पे देवेतएणं अहं ताओ देवलोयाओ ओयुक्खएणं ३ इहेव तेतलिपुरे तेतलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए ) वहां मैंने स्थविरों के पाम मुंडित होकर दीक्षा धारण की थी और ग्यारह अंगों को अध्ययन कर विशिष्ट तपस्या की थी अन्त में अनेक वर्षोंतक श्रामण्य पर्यायका पालन कर एक मासकी संलेखना धारण कर मैं काल अवसर काल कर सोतवां महाशुक्र कल्पमें देवकी पर्यायसे उत्पन्न हो गया। वहां की आयुष्य स्थिति अवस्थिति स्थितिके क्षयके अनन्तर मैं वहांसे चलकर इस तेतलिपुर में तेतलि अमात्य के यहां भद्रा भार्या की कुक्षि से पुत्र रूप में अवतरित हुआ। (तं सेयं खलु मम पुचदिट्ठाई महव्वयाई सय मेव उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए-एवं संपेहेइ, संपेरित्ता सयमेव महत्व याइं आम्हेइ, आरुहित्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, सामनपरियाय० मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे-तएणं अहं ताओ देवलोयाओ आयुक् वएणं ३ इहेब तेतलिपुरे तेतलिस्स अमञ्चस्स भदाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए)
ત્યાં મેં મુંડિત થઈને સ્થવિરેની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી હતી અને અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કરીને વિશિષ્ટ તપસ્યા કરી હતી. છેવટે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક મહિનાની સંખના ધારણ કરી અને ત્યાર પછી કાળ અવસરે કાળ કરીને સાત મહા શુક કલ૫માં દેવ પર્યાયથી હું જન્મ પામે. ત્યાંની ભવસ્થિતિ ૩(ત્રણ) ના ક્ષય થવા બદલ હું ત્યાંથી આવીને આ તેતલિપુરમાં તેતલિ અમાત્યને ત્યાં ભદ્રા ભાર્યાના ગર્ભથી પુત્ર રૂપમાં જન્મ પામ્યો.
(तं सेयं खलु मम पुवदिट्ठाई महत्बयाई सयमेव उपसंपज्जित्ताणं विहरिपए एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महब्बयाई आरुहेइ, आरुहिता जेणेव पमयवणे
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शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वस्स ' अशोकवरपादपस्य अशोकवृक्षस्य 'अहे ' अधः परिणतशिलोपरि 'सुहनिसनस्स' सुखनिषण्णस्य-मुखोपविष्टस्य ' अणुचितेमाणस्स ' अनुचिन्तयतःपूर्वभवे कृतमध्ययनादिकं स्मरतः 'पुत्राहीयाई' पूर्वाधीतानि-पूर्वभवे पठितानि सामायिकादीनि चतुर्दशपूर्वाणि स्वयमेव 'अभिसमन्नागयई ' अभिसमन्वागतानि ज्ञानविषयतया संजातानि । ततः खलु तस्य तेतलिपुत्रस्य अनगारस्य शुभेन परिणामेन ' जाव ' यावत्-प्रशस्तैरध्यवसायैः, प्रशस्ताभिर्लेश्यामि विशुद्धयमानाभिः 'तयावरणिज्जाणं ' तदावरणीयानां-ज्ञानावरणीयादीनां कर्मणां ' खयोवसमेणं' उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसमस्स अणुचित्तमाणस्स पुष्वाहीयाइं सामाइयमाइयाई चोदसपुच्चाई सयमेव अभिसमन्नागयाइं) इसलिये अब मुझे यही उचित है कि मैं पूर्व भव में पालित किये पंच महाव्रतों को अपने आप धारण करलूं । ऐसा उसने विचार किया। विचार करके फिर उसने अपने आपही महाव्रतों को धारण कर लिया। धारण करके फिर वह जहां प्रमदवन नामका उद्यान था वहाँ चला गाया। वहां जाकर वह अशोक वृक्ष के नीचे रक्खे हुए पृथिवी शिलापट्टक पर पटाकार से परिणत शिला के ऊपर-आनन्द के साथ बैठ गया और पूर्व भव में कृत अध्ययन आदि का बारर चिन्तवन करने लगा। इस तरह विचार करते२ उसके पूर्व भव में पठित सामायिक आदि चौदह पूर्व ज्ञान के विषय भूत बन गये। (तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जोव तयाउज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिला पट्टयंसि सुहनिसनस्स अणुचिंत्तेमाणस्स पुयाहीयाई सामाइयमाइयाइं चोइस मुव्वाइ सयमेव अभिसमन्नागयाइं)
એટલા માટે હવે મને એજ યોગ્ય લાગે છે કે પૂર્વ ભવમાં જે પાંચ મહાવ્રતને મેં ધારણ કરેલાં તેને પિતાની મેળે જ ધારણ કરી લઉં. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો. વિચાર કર્યા બાદ તેણે પિતાની મેળે જ પાંચ મહાવતે ધારણ કરી લીધાં ધારણ કર્યા પછી તે જ્યાં પ્રમાદવન નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં જતો રહ્યો. ત્યાં જઈને તે અશોક વૃક્ષની નીચે મૂકાયેલા પૃથિવી શિલા પટ્ટક ઉપર-પટ્ટાકાર રૂપથી પરિણત શિલા ઉપર-આનંદ અનુભવતે બેસી ગયે અને પૂર્વ ભવમાં જે કંઈ અધ્યયન કર્યું હતું તેનું વારંવાર ચિંતન કરવા લાગે. આ રીતે ચિંતન કરતાં કરતાં પૂર્વભવમાં ભણેલા સામાયિક વગેરે ચૌદ પૂર્વજ્ઞાન તેને વિષયભૂત થઈ ગયાં.
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भनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १४ तेतलिपुत्रधानचरितवर्णनम् । क्षशोपशमेन-उदितानां कर्मणां क्षयेण अनुदितानां कर्मणामुपशमेन-निरुद्धोदयस्वेन 'कम्मरयविकरणकरं' कर्मरजो विकरणकरम् ‘अपुवकरणं' अपूर्वकरणम् अष्टमगुणस्थानम् पविष्टस्य तस्य केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ॥सू०१२॥
मूलम्-तएणं तेतलिपुरे नयरे अहा संनिहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि देवीहिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयंगधवनिनाए कए यावि होत्था । तएणं से कणगज्झए राया इमोसे कहाए लद्धडे समाणे एवं वयासी-एवं खल्लु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पवइए, तं गच्छामि णं तेतलिपुत्तं अणगारं वंदामि नमसामि वंदित्ता नमंसित्ता एयम, विणएणं भुजो २ खामेमि, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहाए. चाउरंगणीए वरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविहरणकरं अघुव्वकरणं पविट्ठस्स केवलवर नाणदंसणे समुप्पण्णे) इस प्रकार शुभ परिणामों से यावत् प्रसस्त अध्यवसायों से विशुद्धमान लेश्याओं से, उसके ज्ञानावरणी आदि कर्मों का क्षयोपशम-उदित कर्मों का क्षय एवं अनुदित कर्मों का उपशम-हो गया-सो इस के प्रभाव से वे कर्मरज को दर करने वाले अष्टम अपूर्व करण नामके गुणस्थान में प्राप्त हो गये। बाद में बाहरवे गुणस्थान के अंत में और तेरहवें गुणस्थान के प्रारंभ में उन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया ॥स्व० १२॥
(तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलबरनाणदंसणं समुप्पण्णे)
આ રીતે શુભ પરિણામેથી, યાવત્ પ્રશસ્ત અધ્ય સાથી, વિશદ્ધમાન લેશ્યાઓથી તેના જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને ક્ષોપશમ–ઉદિત કર્મોને ક્ષય અને અનુદિત કમેને ઉપશમ થઈ ગયો. એના પ્રભાવથી તેઓ કમરજને વિકરણ કરનારા અષ્ટમ અપૂર્વકરણ નામના ગુણસ્થાનમાં પ્રાપ્ત થઈ ગયા. ત્યાર પછી બારમા ગુણસ્થાનના અંતમાં અને તેમાં ગુણસ્થાનના પ્રારંભમાં તેમને કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શન ઉત્પન્ન થઈ ગયાં. એ સૂત્ર “૧૨ માં !
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शाताधर्मकथासूत्रे
सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेतलिपुत्ते अणगारं बंदइ नमसइ वंदित्ता नर्मसित्ता एयमट्टं विणएणं भुज्जोर खामेइ, नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ । तपणं से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रन्नो तीसे य महइ महालयाए० धम्मं परिकहेइ । तएण से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म, पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं सावगधम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणोवासए जाए जाव अहिगय जीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवली बहूणि वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि ॥ सू० १३ ॥
|| चउद्दस अज्झयणं समत्तं ॥
टीकां - ' तणं ' इत्यादि । ततः खलु तेतलिपुरे नगरे ' अहासंनिहिएहिं यथा संनिहितैः = आसन्नैः ' वाणमंतरेहिं ' वाणव्यन्तरैः देवैः देवीमिव देवदुन्दुभयः समाहताः = आकाशे देवैः देवोभिश्व देवदुन्दुभयवादिता इत्यर्थः, दसवणे कुसुमे निवाडिए' दशार्द्धवर्ण कुसुमं निपातितम् अत्र जातिविवक्षायामेकवचनम्, तएणं तेतलिपुरे नयरे ' इत्यादि ॥
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टीकार्थ - (एणं) इसके बाद ( तेनलिपुरे नयरे तेतलिपुर नगर में (अहासंनिहिएहिं वाणमंत रेहिं देवेहिं देवीहिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयगंधव्वनिनाए कए यावि
'तरणं तेतलिपुरे नयरे' इत्यादि -
टीडार्थ - (तएणं ) त्यार पछी ( तेतलिपुरे नयरे ) तेतसिपुर नगरभां ( अहा संनिहि एहि वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीडिय देवदुंदुभीओ समाहयाओ, दसवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिव्वे देवगीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था )
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भमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम ९५ दशावनि-पञ्चवर्णाणि अचित्तपुष्पाणि निपातितानिवर्पितानि, दिव्या मनो. हरः गीतगन्धर्व निनादः कृतश्चापि अभवत् । ततः खलु स कनकध्वजो राजा 'इमीसे कहाए लढे समाणे ' यस्याः कथाया लब्धार्थः मया दृष्टचिन्ता विषयीकृतस्तेतलिपुत्रः अमात्यः प्रव्रज्य प्रमदबने केवलवरज्ञानदर्शनसम्पन्नो जात इति वृत्तान्ताभिज्ञः सन् एवमवादीत्-एवं खलु तेतलिपुत्रो मया 'अवज्झाए ' अप: ध्यात: दुष्टचिन्ताविषयीकृतः सन् मुण्डो भूखा प्रबजितः, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् नमस्यित्वा 'एयमढे ' एतमर्थ-मया कृतमपमानरूपमर्थं विनयेन भूयो भूयः 'खामेमि' क्षमयामि, एवं संप्रेक्षते. संप्रेक्ष्य ‘हाए ' स्नातः कृतस्नानः 'चाउ. रंगिणीए सेणाए ' चतुरङ्गिण्या सेनया साई यत्रैव प्रमदवन उद्यान यौव तेतलि. होत्था ) यथा संनिहित आसन्न भूत हुए वाण, व्यन्तर देवों ने और दवियों ने आकाश में देवदुन्दुभियां बजाई। पंचवर्ण के अचित्त कुसुमों की वृष्टि की। मनोहर गीत गंधर्व निदान भी किया। (तएणं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लद्घढे समाणे एवं वयामी) जब यह समाचार कनकध्वज राजा को ज्ञात हुआ मेरो दुष्ट विचारणा के विषय भूत बने हुए, तेतलिपुत्र अमात्य ने दीक्षित होकर प्रमदवन में केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त कर लिया है-इस प्रकार का वृत्तान्त जब उसे मालूम पड़ा-तब उसने अपने मन में विचार किया (एवं खलु तेत. लि पुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पव्वइए, तं गच्छामि गं तेतलिपुत्तं अणगारं वंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमलु विणणं भुज्जोर खामेमि एवं संपेहेइ-संपेहित्ता बहाए०चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेतलि
યથા સંનિહિત આસન્નભૂત થયેલા વાણા 'તર દેવોએ અને દેવીએ એ આકાશમાં દેવદુંદુભિ વગાડી, પાંચ રંગના અચિત્ત પુની વર્ષા કરી અને भना२ गत मध निना (नि) ५१ यो. ( तएणं से कणगज्ज्ञए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं वयासी ) न्यारे समायारोनी AM કનક દવજને થઈ કે મારી દુષ્ટ વિચ રણને લીધે તેતલિપુત્ર અમાત્યે દીક્ષિત થઈને અમદવનમાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શન પ્રાપ્ત કરી લીધાં છે ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો કે
(एवं खलु तेतलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पवइए तं गच्छामि गं तेतलिपुत्तं अणगार बंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमर्ट विणएणं भुज्जो २ खामेमि एवं संपेहेइ-सपेहित्ता पहाए० चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्नाणे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता तेतलिपुत्त अणगारं
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शाताधर्म कथासू
पुत्रोऽनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तेतलिपुत्रमनगारं वन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्त्विा एतमर्थ = स्वकृतापराधलक्षणं विनयेनभूयो भूयः क्षमयति = क्षमां कारयति, तथा 'नच्चासन्ने० ' नात्यासन्ने नातिदूरे यावत् पर्युपास्ते= सेवां करोति । ततः खलु स तेत लिपुत्रोऽनगारः कनकध्वजाय राज्ञे तस्यां च पुतं अणगारं बंदर, नमसह, वंदिता नर्मसित्ता एमय विणणं भुज्जो २ खामेइ नच्चामन्ने जाव पज्जुवासह ) मैंने तेतलिपुत्र को अपनी दुष्ट चिन्ता का विषयभूत बनाया है- सो वह मुंडित होकर दीक्षित हो गया है । इसलिये मैं अब उसके पास जाऊँ और उन तेतलिपुत्र अनगार को वंदना करूँ - नमस्कार करूँ । वंदना नमस्कार कर मैं अपने द्वारा किये अपमान रूप अपराधकी बड़े विनय के साथ बार२ उनसे क्षमा मांगूंइस प्रकार ज्योही उसने विचार किया कि उसी समय वह उठा और स्नान किया बाद में अपनी चतुरंगीनी सेना के साथ जहां प्रमदवन था - उसमें जहां तेतलिपुत्र अनगार विराजमान थे वहां पहुँचा वहाँ पहुँच कर उसने तेतलिपुत्र अनगार को वंदना की नमस्कार किया । वंदना नमस्कार करके फिर अपने द्वारा कृन अपमान रूप अपराध की बड़े विनय के माथ बार २ उनसे क्षमा कराई और समुचित स्थान पर बैठ कर उनकी सेवा सुश्रूषा की ( तरणं से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झवंद, नस, वंदित्ता नमसित्ता एवम विणणं भुज्झो २ खामेइ नच्चासन्ने जाब पज्जुवामइ )
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તેતલિપુત્ર અમાત્યને મેં પેાતાની દુષ્ટ ચિંતાના વિષયભૂત ( લક્ષ્ય ) અનાન્યેા છે તેથી જ તે મુંડિત થઈને દીક્ષિત થઈ ગયા છે. એટલા માટે હવે હું તેની પાસે જાઉં અને તેતલપુત્ર બનગારને વંદન કરૂં નમસ્કાર કરૂ વંદના અને નમસ્કાર કરીને હું મારા વર્ડ થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધ બદલ બહુ જ નમ્રપણે તેમની પાસેથી ક્ષના યાચના કરૂ. આ રીતે વિચાર થતાંની સાથે તરત જ તે ઊમા થયા અને સ્નાન કર્યુ ત્યાર પછી પોતાની ચતુરગણી સેનાને સાથે જ્યાં પ્રમદવન હતું અને તેમાં પણ જ્યાં તૈલિપુત્ર અનગાર વિરાજમાન હતા ત્યાં પહેચ્યું ત્યાં પહોંચીને તેણે તેતલિપુત્ર અનગારને વંદના કરી અને નમસ્કાર કર્યાં. વ'ના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેના વડે થઈ ગયેલા અપમાન રૂપ અપરાધની બહુ જ નમ્રપણે ક્ષમા માગી અને ત્યાર પછી તેણે ઉચિત સ્થાન ઉપર ભસીને તેમની સવા તેમજ સુશ્રુષા કરી.
( तरणं से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रण्गो तीसे य महइ महालयाए० धम्मं परिकर )
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १४ तेतलिपुत्रप्रधानचरितवर्णनम् ९७ ' महइमहालयाए०' महातिमहत्त्यां परिषदि धर्म ‘परिकहेइ' परिकथयति= उपदिशति । ततः खलु स कनकाजो राजा तेतलिपुत्रस्य केवलिनोऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं इत्येवं द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रतिपयते, प्रतिपद्य श्रमणोपासको जातः । कीदृशः ?-अभिगत जीवा-जीवः परिज्ञातयस्स रण्णो तीसे य महामहालयाए० धम्म परिकहेइ ) इसके बाद उन सेतलिपुत्र अनगार केवली ने कनकध्वजराजा को उपस्थित परिषद को विशाल धर्म का उपदेश दिया-(तएणं से कणज्झझए राया तेतलिपुतस्स केवलिस्म अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वयं सत्ससि. क्खावइयं सावगधम्म पडिवजइ पडिवजित्ता समणोवासए जाए जोव अहिगयजीवाजीवे । तरणं तेतलिपुत्ते केवली बहणि वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स णायझयणरस अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि ) उपदेश सुनने के बाद कनकध्वज राजाने तेतलिपुत्र केलि के समीपश्रुतचारित्ररूप धर्म के प्रभाव से प्रेरित होकर और उस श्रुत धर्म का अच्छी तरह हृदय से विचार कर पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षा रूप श्रावक धर्म धारण कर लिया। धारण करके वे श्रमणोपासक बन गये-यावत् जीव और अजीव तत्व का क्या स्वरूप है इसके भी वे ज्ञाता हो गये। बाद में तेतलिपुत्र केवळीने अनेक वर्षा तक केवलि
ત્યાર પછી તે તેતલિપુત્ર અનગાર કેવળીએ કનકધ્વજ રાજાને તેમજ ઉપસ્થિત પરિષદને સવિસ્તર ધર્મ વિષે ઉપદેશ આપ્યો.
(तएणं से कणगझए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं सावगधम्म पडिविज्जड पडिविसज्जित्ता समणोवासए जाए जार अहिगयजीवाजीवे । तएणं तेतलिपुत्ते केवलि बहूणि वासाइं केवलिपरियागं पाणित्ता जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं नाव संपत्तेणं चोदसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पणत्ते तिबेमि )
ઉપદેશ સાંભળીને કનકદેવજ રાજાએ તેતલિપુત્ર કેવળિના કૃતચારિત્રરૂપ ધર્મના પ્રભાવથી પ્રેરાઈને તે શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મ વિષે મનમાં સારી રીતે વિચાર કરીને તેમની પાસેથી પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષારૂપ શ્રાવકધમ ધારણ કરી લીધાં. ધારણ કરીને તેઓ શ્રમણોપાસક થઈ ગયા અને યાવત્ જીવ તેમજ અજીવતત્વનું સ્વરૂપ શું છે ? તેનું પણ તેઓને જ્ઞાન થઈ ગયું. ત્યાર પછી તેતલિપુત્ર કેવળીએ ઘણાં વર્ષો સુધી કેવળી પર્યાયનું પાલન કર્યું અને આમ તેઓએ યાવત સિદ્ધપદ
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
सकलजीवाजीवतत्त्वाऽपि जातः । ततः खलु तेतलिपुत्रः केवली बहूनि वर्षाणि केवलपर्यायं पाला यावत् सिद्धः = मोक्षं गतः ।
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सुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयमङ्के' अयमर्थः = पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः = प्ररूपितः, 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि = भगवत्समीपे यथा श्रुतं तथा त्वां प्रतिकथयामि । एतेन अध्ययनेन इदमायातं यत् प्राणिनो यावद् दुःखं मानभ्रंशं च न प्राप्नुवन्ति तावद् बहुशः प्रबोधिता धर्मे न स्वीकुर्वन्ति, यथा तेतलिपुनः ॥ सु० १३ ॥
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इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ- प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितळ लि.तकलापालापक-प्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - ' जैनशास्त्राचार्य पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री- घासीलालव्रतिविरचितायां ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ' सूत्रस्थानगारधर्मामृतवपिण्याख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशमध्ययनं संपूर्णम् || १४ |
पर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। सुधर्मास्वामी कहते हैं- हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने इस चौदहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से भाव अर्थ प्ररूपित किया है। सो जैसा मैंने उन भगवान के समीप में सुना है यह वैसा ही तुमसे कहा है । इस अध्यधन से हमें यह ज्ञान हो जाता है कि संसार में तेतलिपुत्र की तरह ऐसे भी प्राणी हैं कि वे जब तक दुःख और अपमान को नहीं पालते हैं तब तक अनेक बार प्रतिबोधित करने पर भी धर्म को स्वीकार नहीं करते हैं || सू० १३ ॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका चौदहवां अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥
મેળવી લીધું. સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હું જ ખૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયને પૂર્વોક્ત રૂપથી ભાવ-અનિરૂપિત કર્યાં છે. જેવા અથ મે તેએશ્રી પાસેથી સ ભુખ્યું છે તેમજ તમને કહ્યો છે. આ અધ્યયનથી અમને આ જાતનું જ્ઞાન થાય છે કે સ સારમાં તેતલપુત્રની જેમ એવાં પણ પ્રાણી.
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આ છે કે તેઓ જયાં સુધી દુઃખી અને અપમાનિત થતા નથી ત્યાં સુધી ઘણા વખત પ્રતિ મેાત્રિત કરવા છતાં ધમ ને સ્વીકારતા નથી... ।। સૂત્ર ૧૩ '' || શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવિષેણી व्याभ्यानु यौभुं अध्ययन समाप्त ॥ १४ ॥
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॥ अथ पञ्चदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥
गतं चतुर्दशमध्ययनं सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते, पूर्वाध्ययनेऽपमानाद् विषयत्यागः प्रदर्शितः, अत्र तु स जिनोपदेशाद् भवतीति प्रतिपादयिष्यतेऽतस्तस्य सद्भावेऽर्थमाप्तिः, असद्भावेत्वर्थमाप्तिर्भवतीत्येवं पूर्वेण सम्बन्धः तत्रेदमादिसूत्रम् -' जइणं भंते ' इत्यादि ।
मूलम् - जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स नायज्झणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते पन्नारसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, पुन्नभद्दे चेइए जियसत्तू राया । तत्थ णं चंपाए नयरीए धपणे णामं सत्थवाहे होत्था अड्ढे जाव अपरिभूए । तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था,
-: नन्दिफल नामका पन्द्रहवां अध्यायन प्रारं :चौदहवाँ अध्ययन समाप्त हो चुका - अब पन्द्रहवां अध्ययन प्रारंभ होता है। पूर्व अध्ययन में तेतलि प्रधान के आख्यान द्वारा अपमान से भी विषयों का त्याग कर दिया जाता है यह बात समझाई गई है । इस अध्ययन में यह विषय त्याग जिनके उपदेश से होता है यह कहा जावेगा । इस लिये उसके सद्भाव में अर्थ प्राप्ति और असद्भाव में अनर्थ प्राप्ति होती है इस तरह से पूर्व अध्ययन के साथ इसका संबन्ध बन जाता है: - जइणं भंते! समणेणं इत्यादि ॥
નદિફળ નામે પંદરમું અધ્યયન પ્રારંભ
ચૌદમુ' અધ્યયન પુરૂ થયુ' છે. હવે પદરમું અધ્યયન શરૂ થાય છે. પહેલાંના અધ્યયનમાં તેતલિપ્રધાનના આખ્યાન વડે એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે અપમાનથી પશુ વિષયાને ત્યાગ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં આ વિષય ત્યાગ જેમના ઉપદેશથી થાય છે તે વિષે કહેવામાં આવશે. એટલા માટે તેના સદ્ભાવમાં અર્થ પ્રાપ્તે અને અસદ્ભાવમાં અન પ્રાપ્તિ હોય છે, આ રીતે પૂર્વ અધ્યયનની સાથે આના સબંધ સમજી શકાય છે.
टीडार्थ' - 'जइणं भंते ! समणेणं' इत्यादि ।
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शाताधर्मकथासूत्रे
रिद्धत्थिमियसमिद्धा वन्नओ । तत्थ णं अहिच्छत्ताए नय ए कणगकेऊ नामं राया होत्था, महया वन्नओ । तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए कप्पिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था सेयं खलु मम विपुलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नगरिं वाणिजाए गमित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता गणिमंच४ चउव्विहं भंडं गेण्हइ, सगडीसागडं सज्जेइ सज्जित्ता सगडीसागडं भरेंति२ कोडुंबिय पुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! चंपाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु घोसणं घोह ॥ सू० १ ॥
टीका - जम्बूस्वामी पृच्छति - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिमानधेयं स्थानं सम्प्राप्तेन चतुर्दशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः = पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः तर्हि पञ्चदशस्य ज्ञाताध्यनस्य श्रमणेन भगवता महा
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टीकार्थ- जंबूस्वामी पूछते हैं कि (जइणं भंते । समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते णं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते पन्नरसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते पण के अट्ठे पण्णत्ते) भदंत । यदि श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मोक्षप्राप्त कर चुके हैं चौदहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है - तो हे भदंत ! मुक्ति प्राप्त हुए उन्हीं श्रमण भगवान
જબૂ સ્વામી પૂછે છે કે
( जइणं भंते ! समणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोदसमस्स नायज्ायणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते पन्नरसमस्स णं भंते णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते )
હે ભદંત ! જો શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી ચૂકયા છે-ચૌદમા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપથી અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે તે હું ભદત ! મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પંદરમા જ્ઞાતાધ્યયનના શે। અં નિરૂપિત કર્યાં છે.
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अनमारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् ०५ वीरेण यावत्सम्माप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ! सुधर्मस्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बू! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्यासीत् । तत्र पूर्णभद्र चैत्यं जितशत्रू राजा चाभवत् । तत्र खलु चम्पायां नगयों धन्यो नाम सार्थवाह आसीत् । स कीदृशः ? इत्याह-आढयो यावद् अपरिभूतः प्रभूतशक्तिशालीत्यर्थः । तस्या खल चम्पाया नगर्या उत्तरपौररत्ये दिग्भागे अहिच्छत्रा नाम नगर्यासीत् । सा कीशी?स्याह-'रिद्धत्थिमियसमिद्धा' ऋद्धस्तिमितसमृद्धा, तत्र ऋद्धानमः स्पशिबहुमासादयुक्ता, स्तिमिता = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा-धनधान्यादि परिपूर्णा, 'बण्णओ' वर्णकः नगरी वर्णनपाठोऽत्रवाच्यः, स तु औपपातिकमूत्रादवसैयः । तत्र खलु अहिच्छत्रार्या नगर्यो कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् । 'महया वण्मओ' महावीर ने पन्द्रहवे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ निरूपित किया है। (एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानामं नयरी होत्या) इस प्रकार जंबू स्वामी के प्रश्न के समाधान निमित्त श्री सुधर्मा स्वामी उन से कहते हैं कि जंबू ! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार हैउस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी (पुन्नभद्दे चेहए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धण्णे नामे सत्यवाहे होत्या अड़े जाव अपरिभूए) पूर्णभद्र नाम का उसमें उद्यान था। जितशत्र नामका राजा उसमें रहता था। उसी चंपा नगरी में धन्य नामका सार्थ वान भी रहता था। यह जन धन धान्यादि संपन्न था। एवं लोकमान्य भी था। (तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तर पुरथिमे दिसीभाए अहिच्छता नाम नयरी होत्था, रिद्धथिमिय समिद्धा वन्नओ-तत्थणं अहिच्छत्साए ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था)
આ રીતે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નના સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી. ___ (पुन्नभद्दे चेइए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धण्णे नामे सत्थचाहे होत्था अड़े जाव अपरिभूए)
તેમાં પૂર્ણ ભદ્ર નામે ઉઘાન હતું. તેમાં જિતશત્રુ નામે રાજા રહે હતે ધન્ય નામે એક સાર્થવાહ પણ તે ચંપા નગરીમાં જ રહેતા હતા. તે જન. ધન, ધાન્ય, વગેરેથી સંપન્ન હતો, તેમજ લેક માન્ય પણ હતે.
(तीसेणं चंपाए नयरीए उत्तरपुरथिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्या, रिद्धस्थिमिय सभिद्धा वन्नओ-तत्थणं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगड नामं राया होत्था महया क्न्नओ)
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माताधर्मकथासूत्र महा० वर्णकः स च 'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे ' महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारः, इत्यादिरूपोऽत्र विज्ञेयः । तस्य धन्यस्य सार्थवाहस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये-रात्रे पश्चिमे प्रहरे अयमेतद्रूप आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः विचारः समुदपद्यत-श्रेयः उचितं खलु मम विपुलं प्रचुरं 'पणियभंडं' प्रणितभाण्डं-गणिमादिक्रय विक्रयवस्तुभाण्डम् 'आयाए' आदाय गृहीत्वा अहिच्छत्रां नगरी वाणिज्याय गन्तुम् , गणिमादिपण्यवस्तुजातं गृहीत्वा व्यापारायाहिच्छत्रां नगयों मया गन्तव्यमिति भावः । एवं
संपेहेइ ' सप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य गणिमं ४-गणिमं धमि मेयं परिच्छेचं चेत्येवंरूपं चत्तर्विध भाण्डंपण्यवस्तुजातं गृह्णाति, गृहीत्वा 'सगडीसागडं' शकटीनयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्था, महया वनओ) उस चंपा नगरी के ईशान कोण में अहिच्छत्रा नामकी नगरी थी। यह नभस्तलस्पर्शी प्रासादों से युक्त स्वचक्र और परचक्र के भयसे रहित तथा धन धान्य
आदि विभव से विशेष समृद्ध थी। नगरी के वर्णन का पाठ औपपा. तिक सूत्र में जैसा नगरी का वर्णन किया गया है वैमा ही यहां जनना चाहिये। उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामका गजा रहता था। इस राजा के वर्णन में "महया हिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे " इत्यादिरूप पाठ यहां लगा लेना चाहिये । (तस्स धन्नस्म सत्यवाहस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालममयंसि इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए, कप्पिए, मणोगए संकप्पे समुप्पाजत्था-सेयं खलु मम विउलं अभियभंडमायाए अहिच्छत्तं नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए, एवं संपेहेह. संपेहित्ता गणिमंच४ चउविहं भंडे गेण्हइ, सगडी सागडं सज्जेह. स. - તે ચંપા નગરીના ઈશાન કોણમાં અહિચ્છત્રા નામનગરી હતી. આકાશને સ્પર્શતા એવા ઊંચા પ્રાસાદથી આ નગરી યુક્ત હતી તેમજ સ્વચક્ર અને પરચક ના ભયથી રહિત તથા ધન ધાન્ય વગેરે વૈભવથી આ નગરી સવિશેષ સમૃદ્ધ હતી. પપાતિક સૂત્રમાં નગરીના વિષે જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ તે અહિચ્છત્રા નગરીમાં કનકકેતુ નામે રાજા २। तो, म न वर्णन भाटे ( महया हिमवंत-महंत-मलय मंदरमहिंदसारे ) वगेरे पाठ मडी समन्व य (तस्स धन्नस्स सत्यवाहस्स अन्नया कयाइं, पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयासवे अज्यथिए वितिए, पत्थिए. कप्पिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मम विउलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए एवं संपेहेड, पेरिसा गणिमं च ४ चउन्विहं मंडे गेण्हइ सगडीसागडं सज्जेइ, सज्जिचा
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भनगारधर्मामृतषिणो टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम १०३ शाकटं लघुमहच्छकटसमूह सज्जयति,-पगुणी करोति सज्जयित्वा शकटोशाकटं भरेंति, भृत्या कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आह्वयति, आहूय एवमवादीव-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! चम्पाया नगर्याः 'सिंघाडगनावपहेसु' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्क चन्वरमहापथपथेषु घोषणाम् घोषयत ॥ मू०१ ॥ ज्जित्ता सगडीसागडं भरेइ भरित्ता कोडुंबियपुरिसे मदावेह, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छदणं तुम्भे देवाणुपिया ! चंपाए नयरीए सिंगाडग जाव पहेसु घोसणं घोसेह) एक दिन की बात है कि उस धन्यसार्थवाह को रात्रि के पश्चिम प्रहर में यह इस प्रकार का आध्मात्मिक चिन्तित, प्रार्थित कल्पित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं गणिमादि रूप विपुल पण्य वस्तु को लेकर व्यापार के लिये जो अहिच्छत्रा नगरी में जाऊँ तो बहुत अच्छी बात है। इस प्रकार उसने विचार किया-ऐमा विचार करके उसने गणिम, धारिम, मेय और परिच्छेद्य रूप चार प्रकार का भाण्ड लिया। भाण्ड लेकर फिर उमने गाड़ी और गाड़ों को तैयार करवाया-जब वे गाडी गोड़े तैयार हो चुके तब उमने उम पण्य (विक्रेय वस्तु ) को उनमें भरा-भर कर फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उसने ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ
और चंपा नगेरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, मRITथ इन सब मार्गों में घोषणा कगे। क्या घोषणा करना-यह बात नीचे के सूत्र से सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं ।। म्० १ ॥ सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छदणं तुब्भे देवाणुप्पिया । चंपाए नयरीए सिंघाडगजाब पहेसु घोसणं घोसेह)
એક દિસે તે ધન્ય સાર્થવાહને રાત્રિના છેલ્લા પહેરમાં આ જાતને આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, કપિત, મનો મત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે પુષ્કળ પ્રમાણમાં ગણિમ વગેરે વેચાણની વસ્તુઓ લઈને વેપાર ખેડવા માટે જે હું અહિચ્છત્રા નગરીમાં જાઉં તે બહુ સારુ થાય. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો. આ વિચાર કરીને તેણે ગણિમ, ધરિમ, મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂ૫ ચાર પ્રકારની વસ્તુઓ વાસમાં ભરી. ચારે જાતની વસ્તુઓ વાસણમાં ભરીને તેણે ગાવતેમજ ગાડાંઓને તૈયાર કરાવ્યા જયારે ગાડી અને ગાડાંઓ તૈયાર થઈ ચૂક્યાં ત્યારે તેણે તે વેચાણની વસ્તુઓને ગાડી અને ગાડાંઓમાં મૂકી ત્યાર પછી તેણે પિતાન કૌટુંવિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુ ! તમે જાઓ, અને ચંપા નગરીના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહ પથ આ બધા માર્ગોમાં ઘેષણ કરો. ઘેષણ કરતાં શું કહેવું તે નીચેના સૂત્ર વડે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. ' સૂત્ર “ ૧ ” !
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এলাঘমকথা घोषणास्वरूपमाह-एवं खलु' इत्यादि ।
मूलम्-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धपणे सत्थवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छइ अहिच्छत्तं नयरिं वाणिजाए गमित्तए तं जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा चोरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छडे वा पंडुरंगे वा गोयमे गोव्वइए वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुद्धवुड्डपावगरतपडनिग्गंथप्पभिइपा. संडत्थे वा निहत्थे वा धण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नगरिं गच्छइ तस्स णं धणे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तर्ग दलाइ अणुवाहणस्म उवाहणाओ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलगइ अपत्थरणस्त पत्थयणं दल यइ अपक्खेवगस्त पक्खें दलबइ अंतराऽविय से डियस्त वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ सुहंसुहेण य णं अहिगच्छत्तं संपावेइ तिकट्ठ दोच्चंपि तच्चपि घोसेह घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं ते कोडुबिय पुरिसा जाव एवं वयासी-हंदिसुणंतु भवतो चंपानगरीवत्थव्वा वहवे चरगा य जाव पच्चपिणति सू०२॥
टीका-एवं खलु हे देवानुपियाः धन्यः सार्थवाहः विपुलान पणितभाण्डान् 'आयाए ' आदाय इच्छति अहिच्छत्रां नगरौं 'वाणिज्जाए' वाणिज्याय= .' एवं खलु देवाणुप्पिया' इत्यादि ।
टीकार्थ-( एवं खलु देवाणुपिया ! धण्णे सत्यवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छइ अहिच्छत्तं नयरिं वाणिजाए गमित्तए ) हे देवाणुप्रियो !
एवं खलु देवाणुप्पिया इत्यादि । ( एवं खलु देवाणु पिया ! धणे सत्यवाहे विउलं पणियं मायाए इच्छा अहिच्छत्तं नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે શૃંગાટક વગેરે માર્ગોમાં આ જાતની ઘોષણ
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भारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदीफलस्वरूपनिरूपणम्
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व्यापाराय गन्तुं तत् = तस्मात् यः खलु हे देवानुप्रिया ! कोऽपि धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिच्छत्रां नगरी 'गच्छतो' त्युत्तरेण सम्बन्धः कोऽसौ, यस्तेन सार्द्धं गच्छेदित्याह - ' चरए ' इत्यादिना 'चरए वा ' चरकः = गृहस्थस्य गृहे निष्पन्नस्यौदनादे भागो दानार्थं पृथकृत्य स्थापयते तस्य भिक्षावृत्त्याग्राहकः, 'चीरिए वा ' चीरिकमार्ग पतितशटित चीवर परिचारकः, चम्मखंडिए वा । चर्मखण्डिकः = वर्म धारक:, ' भिच्छ्रेडे वा 'भिक्षोण्ड : = अन्यानीतभिक्षानभोजी, 'पंडुरंगे वा ' पाण्डुराङ्गः - भस्म लिप्तशरीरः, 'गोयमे वा' गौतमः = वृषभमधिकृत्य कणभिक्षाग्राही, 'गोव्वए वा गोव्रतिकः = गोचर्यानुकारी यथा यथा गौः स्थानासनादिक्रियां करोति तथा तथा सोऽपि करोतीति भावः, गिहिधम्मचिंतए वा ' गृहिधर्मचिन्तकः=गृहिणो=गृहस्थस्य धर्मो गृहिधर्मस्तं चिन्तयतीति तथा, 'गृहस्थधर्म एकश्रेयान् नान्यः ' उक्तश्च -
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तुम लोग शृंगाटक आदि मार्गों में खड़े होकर इस प्रकार की घोषणा करना - कि धन्य सार्थवाह विपुल मात्रा में पणित ( विक्रय वस्तु ) को. लेकर अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार के लिये जाना चाहता है ( तं जो णं देवाणुपिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे वा गोय गोइए वा गिहिधम्मर्चितए वा अविरुद्धविरुद्ध वुड, सावगरतपडनिग्गंथप्पाभिपासंडत्थे वा गिहत्थे वा घण्णेणं सत्थवाहेणं सर्द्धि अहिच्छत्तं नयरिं गच्छइ तस्स णं घण्णे सत्थवाहे अच्छन्तite छत्तगं दलाइ ) इसलिये हे देवाणुप्रियो ! जो भी कोई धन्य सार्थबाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहता हो चाहे वह चरक हो. चीरिक हो, चर्मखंडधारी हो, भिक्षोण्ड हो, पाण्डुरङ्ग हो, गौतम हो, गोव्रतिक हो, गृहस्थधर्म चिन्तक हो, अविरुद्ध हो, विरुद्ध हो, वृद्ध
કરો કે ધન્ય સાવાડુ પુષ્કર પ્રમાણમાં પણિત ( વેચાણની વસ્તુઓ ) લઇને અહિચ્છત્રા નામે નગરીમાં વેપાર ખેડવા માટે જવા ઈચ્છે છે.
( तं जो णं देवाशुप्पिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे ar mouse or freeम्मर्चितए वा अविरुद्धविरुद्धबुद्ध सावगर तपड निम्गंथ offer पाडत्थे वा गिहत्थे वा घण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नयरिं गच्छ तस्स णं ण्णे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ )
એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! અન્ય સાર્થવાહની સાથે જે કાઈ જવા ઈચ્છતા હોય—ભલે તે ચરક હાય, ચીરિક હાય, ચમ' ખંડ ધારી હાય, ભિક્ષેાંડ होय, पांडुरंग होय, गौतम डेय, गोवति होय, गृहस्थ धर्म थित होय,
ज्ञा १४
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" गृहाश्रमसमो धर्मों, न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः क्लीवा पाषण्डमाश्रिताः ॥ १ ॥
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इत्यभिसन्धाय तथा चिन्तनशीलः, 'अविरुद्धविरुद्बुद्धपात्रगरतपड निम्गंथभिपासडत्थे वा' अविरुद्धविरुद्ध श्रावकरक्त स्टनिग्रन्थप्रभृतिपाषण्डस्थः तत्र - 'अविरुद्ध ' अविरुद्धः विरुद्धः कस्नादपीत्यविरुद्धः = विनयवादी क्रीयावादीत्यर्थः, परलोकाभ्युपगमात् 'विरुद्ध' विरुद्रः विरुद्धः = विरुद्धवादोऽस्यास्तीति भर्श आदित्वादच विरुद्धवादी आक्रियावादीत्यर्थः परलोकानभ्युपगमात्, 'बुढ्ढमावग' वृद्धश्रावकः=ब्राह्मणः, वृद्धः = कालिको यः श्रावकः सः, भरतादिकाले पूर्व श्रावकसत्त्वेन पथाद् ब्राह्मगत्वभावात्, ' रक्तपड ' रक्तपट = रिकवस्त्रधारी परि-ब्राजकः, 'णिग्गंधयभिड़ निर्ग्रन्थप्रभृतिः = साधुप्रभृतिरन्यः कोऽविकपिलादिः पापण्डस्थो वा गृहस्थो वा इति यदि एषु यः कोऽपिगच्छेत् तस्मै खलु धन्यः सार्थवाहः इः अच्छाकाय = छत्ररहिताय छत्रकं ददारिदास्यतीति भावः एवं सर्वत्र विज्ञेयम् ' अणुवाहरू' अनुपान हे = पादत्राणरहिताय ' उपाहणाओ' उपानहौ ददाति, अकुण्डिकाय = जलपात्ररहिताय कुण्डिकां जलपात्रं ददाति । ' अपत्थयणस्स ' अपथ्यदनाय शम्बलरहिताय 'पत्थयणं ' पथ्यदनं = शम्बलं ददाति । ''अपक्खेवमस्स ' अप्रक्षेपकाय, प्रक्षेपकः = पूर्तिद्रव्यं तद्रहिताय मध्यमार्गे न्यून शम्बलाय प्रक्षेपकं = शम्बलपूरकं द्रव्यं ददाति । अंतरात्रिय' अन्तराऽपि च मार्गान्तरालेऽपि च ' से ' तस्मै पतिताय = वाहनाद् पादादिस्खलनेन वा, वा= आवक हो, गैरिकवस्त्रधारी परिव्राजक हो, निर्ग्रन्थ हो, पाखंडी हो, art गृहस्थ हो कोई भी क्यों न हो, उसके लिये धन्य सार्थवाह वह छत्ररहित है तो छत्र देगा ( अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलयह अपत्ययणस्स पत्ययणं दलयह अपक्खेवगस्स पक्खेवं दलयइ अंतराविय से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयह,
"
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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અવિરુદ્ધ હાય, વિરુદ્ધ હોય, વૃદ્ધ શ્રાવક હોય, ઐરિક વસ્ત્ર ધારી પરિવ્રાજક હાય, નિગ્રંથ હાય, પાખડી હેાય અને ગૃહસ્થ હાય કઈ પણ કેમ ન હાય તેના માટે જો તે છત્ર વગરના હોય તેવાને ધન્ય સાવાર્હ છત્ર આપશે.
( अणुवहणस्स उवाहणाओ दलयड, अकुंडियस्स कुंडियं दलयइ अपत्ययणस्स पत्ययणं दलय अपक्खेवगस्त पक्खेवं दलयइ अंतराविय से पडियस्स वा
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मनगारधर्मामृतवषिणी टोका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १०७ अथवा ' भग्गलुग्गस्स ' भग्नरुग्गाय भग्नाय = त्रुटितहस्तपादाद्यवयवाय रुग्णाय = रोगाक्रान्ताय रोगग्रस्ताय वा 'साहेज्ज 'साहाय्यम् = औषधोपचारादि करणरूपं ददाति, तथा - सुख -- सुखेन = मुखपूर्वकं च तम् अहिच्छत्रां नगरों ' संपावेई' संप्रापयति संप्रापयिष्यतीत्यर्थः । तिकटु' इति कृत्वा एवमुच्चार्य द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं घोषयत, घोषयित्वा मम 'एयमाणत्तियं एतामाज्ञप्तिकाम् एतद्रूपां ममाज्ञां ' पच्चप्पिगह' प्रत्यर्पयत-मदुक्तां घोषणां कृत्वा पुनर्मां निवेदयतेत्यर्थः । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः 'तथाऽस्तुसुहंसुहेणं अहिच्छत्तं संपावेइ, त्ति कटु दोच्चपि तच्चपि घासेह) पदत्राण (जूना) रहित है तो जूना (पदत्राण ) देगा जलपात्र रहित होगा उसे जलपात्र देगा, कलेवा (भोजन) रहित है तो कलेवा (भोजन) देगा, शम्प लपाथेय पूरक द्रव्यसे रहित है तो उसे शम्बल पाथेय-भाता पूरक द्रव्य देगा, अर्थात् चलते२ रीच मार्गमें ही जिसका कलेवा (भोजन) समाप्त हो जावेगा उसे उसके योग्य द्रव्यप्रदान करेगा, मार्गके मध्यमें चलते२ यदि वह घोड़ेसे गिर गया होगा, अथवा पैदल चलते२ यदि वह पैर फिसल कर गिर गया होगा और इस तरह से उसके हाथ पैर आदि टूट गये होंगे तो उसकी सार संभाल करेगा-रोगी की दवाई करेगा, और बड़े आनन्द के साथ उसे अहिच्छत्रा नगरीमें पहुँचा देगा। इस प्रकार की इम घोषणा को तुम लोग दो तीन बार करना । और (घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिपणह ) करके फिर हमें पीछे इमकी खबर देना (तएणं ते कौटुंबियपुरिसा जाव एवं क्यासी हंदि सुणंतु भांतो चंपा भग्गलुग्गस्स साहेज्नं दलयइ, सुहं सुहेणं अहिच्छत्तं संपावेइ, त्ति कटु दोच पि त चंपि घोसे ह )
જોડા વગરનો હશે તેને જોડા આપશે, જમવાની સગવડ હશે નહિ તેને જમવાની સગવડ કરી આપશે. શંબલ-પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય વગરનો હશે તેને શંબલ-પાથેય-પૂરક દ્રવ્ય આપશે. એટલે કે માર્ગમાં અધવચ્ચે ભાતું ખલાસ થઈ ગયું હશે તેને યોગ્ય ધન આપશે. માર્ગમાં અધવચ્ચે ચાલતાં ચાલતાં જે તે ઘોડા ઉપરથી પડી જશે અથવા પગે ચાલતાં ચાલતાં જે તે પગ લપસવાથી પડી જશે અને તેથી તેના હાથ પગ વગેરે. ભાંગી ગયા હશે તે તેની તે સઋષા કરશે-રોગની દવા કરશે અને સુખેથી તેને અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચાउश. माशते तमे मे जग मत घोषणा ४२॥ अने (घोसित्ता मम एयमाण त्तियं पच्चप्पिणह ) घोषणा ४२शन समन म २ पापा.
(तएणं ते कोडुबियपुरिसा जाव एवं वयासी हंदि सुगंतु भवंतो चंपानयरी
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शाताधर्मकथासूत्रे इत्युक्त्वा चम्पानगयाँ शृङ्गाटकादिमहापथपथेषु समागत्य-एवमवादिषुः-'हंदि' “इत्यामन्त्रणे तेन हे लोकाः ! शृण्वन्तु-भवन्तः-यत् चम्पानगरी वास्तव्या बहवः "चरगाय जाव ' इति-चरकचीरिकादयो धन्येन सार्थवाहेन सार्द्धमहिच्छत्रां नगरी गच्छन्ति तेभ्यो धन्यः सार्थवाहश्छत्रादिकं सर्व दास्यति, मार्गे च स्खलितेभ्यो
रोगांदिग्रस्तेभ्यश्च औषधोपचारादिना साहाय्यं करिष्यति, सुखपूर्वकमहिच्छेत्रों 'नगरी प्रापयिष्यति च, इत्येवं घोषयित्वा धन्यसार्थवाहाय ‘पच्चप्पिणंति' प्रत्यर्पयंति-निवेदयन्ति । सू०२॥ नगरीवत्थव्या वहवे चरगा य जाव पच्चप्पिणंति ) इस प्रकार धन्यसा‘र्थवाह की बात को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने "तथास्तु" कहकर स्वीकर लिया और चंपानगरी में शृंगोटक आदि महापथ पर्यंतके समस्त मार्गों में जाकर इस प्रकार की घोषणा की, हे लोको! सुनो-जो कोई चंपा नगरी का निवासी चरक आदि जन धन्य सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा 'नगरी को जाना चाहता हो उसके लिये धन्यसार्थवाह छत्रादि 'संब देगा तथा जो मार्ग में पतित हो जावेंगे अथवा रोगाक्रान्त बन जावेंगे उनकी औषधि आदि द्वारा सहायता भी करेगा और इस तरह वह उनके लिये सकुशल अहिच्छत्रा नगरी में पहुँचा देगा-इस प्रकार की घोषणा करके उन लोगों ने इसकी खबर धन्य सार्थवाह के पास भेज दी। गृहस्थ के घर निष्पन्न हुए औदनादिक खाद्य वस्तुओं का जो सर्व प्रथम हिस्सा दान के लिये पृथक कर रख लिया जाता है, उस वत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चप्पिणंति )
આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહની આજ્ઞાને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ સ્વીકારી લીધી અને ચંપા નગરીના શૃંગાટક વગેરે મહાપમાં જઈને આ રીતે તેઓએ છેષણ કરી કે હે લેકે ! સાંભળે, ચંપા નગરીમાં રહેનાર ચરક વગેરે ગમે તે માણસ ધન્ય સાર્થવાહની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીમાં જ તેને ધન્ય સાર્થવાહ છત્ર વગેરે બધું આપશે, તેમજ માર્ગમાં કોઈ પડી જશે અથવા તે માંદે થઈ જશે તે ધન્ય સાર્થવાહની તેની બરાબર માવજત કરાવીને તેની સહાય કરશે અને તેને કુશળ અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચાડશે આ રીતે વેષણ કરીને તે લેકેએ ધન્ય સાર્થવાહને ઘેષણનું કામ પૂરું થઈ જવાની ખબર આપી. ગૃહસ્થને ઘેર તૈયાર કરાયેલા ભાત વગેરે ખાદ્ય વસ્તુઓને જે સૌ પહેલાં દાન માટે જૂદે કરીને રાખવામાં આવે છે તે ભાગને જે ભીખ માંગીને લઈ જાય છે તેને ચરિક કહે છે. માર્ગમાં પડેલાં ફાટેલાં વસ્ત્રો જે
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नगारधामृतवषिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् 'हिस्से को जो भिक्षा वृत्ति से ले जाते हैं उनका नाम चरिक है । मार्ग में गिरे हुए फटेचिटे वस्त्र को लेकर जो पहिनते हैं उनका नाम चीरिक है। चमड़े को जो अपने पहिरने के उपयोग में लाते हैं वे 'चर्म खंडिक है । दूसरे के द्वारा लायी गई भिक्षा से जो अपना निवौंह करते हैं घे भिक्षोण्ड हैं । अपने शरीर पर जो भस्म लपेटे रहते है वे पांडुरंग हैं । बैल को लेकर जो दूसरों के घरों से अनाज मांगते हैं वे गौतम है। दिलीप राजा की तरह जो गायकी सेवा करने में लगे रहते है-जब वह बैठती है तब वे बैठते हैं-वह खड़ी होती है तो वे भी खडे हो जाते हैं इत्यादि रूप से गोचर्यानुकारी जो जन होते हैं वे गोव्रतिक हैं। गृहस्थ धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार मान कर जो उसमें रह रहते हैं वे गृहिधर्म चिन्तक है। जैसे-गृहस्थाश्रम के समान 'धर्म न हुआ है और न आगे होगा ही। जो शूरवीर मनुष्य होते हैं वे ही इसे पालते हैं । पाषंड धर्म को पालने वाले मनुष्य शरवीर नहीं हैं किन्तु वे तो क्लीव-नपुंसक हैं . ऐसी इनकी मान्यता होती है। अविरुद्ध शब्द का अर्थ विरुद्ध नहीं रहते हैं सवका समानरूप से विनय करते हैं। विरुद्ध शब्द का अर्थ अक्रियावादी है । ये अक्रिया बांदी परપહેરે છે તેનું નામ ચીરિક છે. ચામડાને જે વસ્ત્ર તરીકે પહેરવામાં કામમાં લે છે તે ચર્મ ખંડિત છે. બીજાઓ વડે લાવવામાં આવેલી ભિક્ષાથી જે પિતાનું ઉદર પિષણ કરે છે તે ભિક્ષેડ છે. પિતાના શરીર ઉપર જે રાખ ચોળે છે તે પાંડુરંગ છે. બળદને સાથે લઈને જેઓ બીજાઓના ઘરોથી અનાજ માંગે છે તેઓ ગૌતમ કહેવાય છે. રાજા દિલીપની જેમ જેઓ ગાયની સેવા કરવામાં વ્યસ્ત રહે છે જ્યારે ગાય બેસે છે ત્યારે તેઓ બેસે છે, જ્યારે ગાય ઊભી થાય છે ત્યારે તેઓ પણ ઊભા થઈ જાય છે વગેરે રૂપમાં જેઓ ગોચયૌનકારી જન હોય છે તેઓ ગોવ્રતિક કહેવાય છે. ગૃહસ્થ ધર્મજ ખરેખર ઉત્તમ ધર્મ છે આમ ચક્કસ પણે માનીને તેમાં દત્ત ચિત્ત રહે છે તેઓ ગૃહિધર્મચિંતક છે. જેમકે–ગૃહસ્થાશ્રમ જે ધર્મ થયા નથી અને આગળ ભવિષ્યમાં થવાની સંભાવના પણ નથી. જેઓ શૂરવીર માણસો હોય છે તેઓ જ આ અમન પાલન કરે છે. પાખંડ ધર્મને પાલન કરનારા માણસો શૂરવીર નથી પણ તેઓ તે નપુસક છે. ગૃહસ્થીઓની આ જાતની માન્યતા હોય છે. અવિરુદ્ધ શબ્દનો અર્થ કિયાવાદી છે. કેમ કે એઓ કઈ પણ માણસથી વિરુદ્ધ આચરણ કરતા નથી તેઓ બધાની સાથે સરખી રીતે વિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરે છે. વિરુદ્ધ શબ્દનો અર્થ અક્રિયાવાદી છે. અક્રિયાવાદી લેકે પલક જેવી અવસમાં
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शाताधर्मकथासूत्रे मूलम्-तएणं तेसिं कोडुंबिय पुरिसाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म चंपानयरी वत्थव्वाबहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति तएणं से धपणे सत्थवाहे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव पत्थय णं दलाइ दलइत्ता एवं वयासोगच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! चंपाए नयरीए बहिया अग्गुजाणंसि मम पडिवालेमाणा चिट्टह, तएणं ते चरगा य जात्र गिहत्था य धपणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा जाव चिटुंति, तएणं धण्णे सत्यवाहे सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तंसि विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता मित्तनाइ० आमंतेइ आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ भोयावित्ता आपुच्छइ आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता चरगा य जाव गिहत्था य सद्धिं घेत्तूण णाइवि. प्पइटेहिं अद्धाणेहिं वसमाणे२ सुहेहिं वसहिं पायरासेहिं अंगं लोक नहीं मानते हैं । वृद्धश्रावक-ब्राह्मण-अर्थ का वाचक है। क्यों कि ये पहिले भरत चक्रवर्ती के समय में श्रावक थे-पश्चात् ब्राह्मण बन गये इसलिये " वृद्धकालिको यः श्रावकः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार वृद्धश्रावक शब्द ब्राह्मण अर्थ का वाची बन जाता है । वाकी अवशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट है ।। सू०२॥
વિશ્વાસ કરતા જ નથી વૃદ્ધ શ્રાવ-બ્રાહ્મણ અને સ્પષ્ટ કરે છે કેમ કે એઓ પહેલાં ભરત ચક્રવર્તીના વખતે શ્રાવક હતા ત્યાર પછી એને બ્રાહ્મણ થઈ गया थेटसा भाट · वृद्ध कालिको यः श्रावकः सः वृद्ध श्रावकः । ॥ व्युत्पत्ति મુજબ વૃદ્ધ શ્રાવક શબ્દ બ્રાહ્મણ અર્થનો વાચક થઈ જાય છે. બીજા શેષ शहाना म त २५ट ४ छ. ॥ सूत्र " २ " ॥
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम १११ जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोयावेइ मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ करित्ता कौटुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-तुन्भेणं देवाणुप्पिया! मम सत्थनिवसंसि महया महया सदेणं उग्रोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमीसे आगमियाए छिन्नावायाए दीहमदाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे दिफला नामं रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति मणुण्णा वन्नेणं४ जाव मणुन्ना फासणं मणुन्ना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया ! तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा कंद० तय० पत्त० पुप्फ० फल० बोयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ छायाए वा वीसमइ तस्स.णं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा२ अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेति, तं माणं देवाणुप्पिया ! केइ तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, मा णं सेऽवि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजिस्सइ, तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणिय जाव हरियाणि य आहारेह छायासु वीसमहत्ति घोसणं घोसेह जाव पच्चप्पिणंति, तएणं से धण्णे सत्थवाहे सगडीसागडं जोएइ२ जेणेव नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं अदूरसामंते सत्थणिवेसं करेइ करित्ता दोच्चपि तच्चपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सहावित्ता
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१११.
ज्ञाताधर्मकथा
एकं वयासी- तुब्भेणं- देवाणुप्पिया ! मम सत्थनिवसंति महया: महया सदेणं उग्घोसेमाणा२ एवं वयह-एएणं देवाशुप्पिया ! तो मंदिफला रुक्खा किव्हा जात्र मणुन्ना छायाए तं जो णं देवाप्पिया ! एएसिं णंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद० पुष्फल तय० पंत० फल० जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरो केह, तं माणं तुब्भे जाव दूरे दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा पणं अकाले चेत्र जीवियाओ ववरोविस्सइ, अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमहत्तिकद्दु घोसणं जाव पञ्चष्पिणंति, तस्थ
अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमहं सहति पत्तियंति रोयंति एयमहं सद्दहमाणा३ तेसिं नंदिफलाणं० दूरं रण: परिहरमाणार अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणिय जाव वीसमंति तेसिं णं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणार सुहरूवत्ताए भुज्जोर परिणमंति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निम्गंथो निग्गंधी वा जाव पंचसु कामगुणेसु नो सजेइ नो रजेड से णं. इहभवे चेत्र- बहूणं समणाणं अच्चणिज्जे ५ परलोए नो आगच्छइ जाव वीइवइस्सइ, जहा य ते पुरिसा तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमहं नो सद्दहति धूपणस्स एयमठ्ठे असद्दहमाणा३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाव कीसमंति तेर्सिणं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा जात्र ववशेवेति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा
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११३
नामृर्षिणी टीका अ० १९ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् निग्गंथी वा जाव पव्वइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ सज्जित्ता जाव अणुपरिहिस्सइ जहा वा ते पुरिसा || सू० ३ ॥
टीका- ' तरणं तेर्सि' इत्यादि । ततः खलु तेषां कौटुम्बिकपुरुषाणामन्तिके एतमर्थ = पूर्वोक्त महिच्छत्रानगरीगमनार्थ घोषणारूपं भावं श्रुत्वा कर्णविषयीकृत्य, निशम्य यधार्य चम्पानगरी वास्तव्या अहिच्छत्रानगरीगन्तुकामा बहवश्वरका यादव गृहस्था यत्रैव धन्यः सार्थवाह-स्तत्रैवोपागच्छन्ति । ततः खल्लुस धन्यः सार्थवाहस्तेषां चरकाणां च यावद् गृहस्थानां च मध्ये अच्छत्रकायछत्रं ददाति यावत् पथ्यदनं सम्बलं ददाति एवमवादीत् कथयति गच्छत खलु यूयं हे देवानुमियाः ! चम्पाया नगर्यो वहिः अगुज्जागंति अय्योद्याने मां पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः = प्रतीक्षमाणास्तिष्ठत । ततः खलु ते चरकाश्च = -:नएणं तेसिं इत्यादि:
i
4
टीकार्थ - (तपणं) इसके बाद (तेर्सि कोचियपुराणं अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म चंपानगरी वत्थवा वहवे चरगाय जाव गिहत्था य जेणेव घणे सत्थवाहे तेणेव उत्रागच्छंति) उन कौटुम्बिक पुरुषों के मुख से इस घोषणारूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारणकर चंपा aat faarसी अनेक चरक से लेकर गृहस्थ पर्यंत मनुष्य जहां धन्य सार्थवाहक था वहां आये (तएण से धष्णे सत्थवाहे तेसिं चरगाण य जाव गिरस्थान अच्छत्तगस्स छत्तं दलड़ जाव पत्थयणं दलाइ दलइत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया। चंपाए नगरीए वाहिया अगुज्जाणंसि ममं पडिवाले माणा चिट्टेह) इसके बाद धन्य सार्थवाह
तपणं तेसिं' इत्यादि । अर्थ - ( तरणं ) त्यार पछी
( तेसको पुराणं अंतिए एयम सोच्चा जिसम्म चंपानगरी वत्थन्त्रा वह चरगाव जाव गित्या य जेणेव घण्णे सत्थवादे तेणेव उवागच्छति ) તે કૌટુંબિક પુરુષાના મુખથી આ ઘાષણા રૂપ અને સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારવુ કરીને ચંપા નગરીના ઘણા ચરકથી માંડીને ગૃહસ્થ સુધીના બધા માણસે જ્યાં ધન્ય સાવિાહ હતા ત્યાં આવ્યા.
(सेत्वा तेसिं चरगाण य जाव गिरस्थान अच्छत्तगस्स छत्त' दलयइ, जाव पत्थयणं दलाइ, दलइत्ता एवं वयासी - गच्छद्द णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! चंपार नवरीए चाहिया अगुजाणंसि ममं पडिवालेमाणा विद्वेह )
ज्ञा १५
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हाताधकथासूत्र परकादयो यावद् गृहस्था धन्येन सार्थवाहेन-एवमुक्ताः सन्नः 'जार' यावत्धन्यं सार्थवाहं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः शोभने तिथिकरणनक्षोशुभदिवसे विपुलमशनादिकं चतुर्विधाहारम् उपस्कारयति-निष्पादयति उपस्कार्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनान् आमन्त्रयति, भोजनं भोजयतिकारने उन चरक आदि से लेकर गृहस्थ पर्यन्त के मनुष्यों में जिसके पास छत्ता आदि नहीं था उसे छत्ता दिया यावत् जिस के पास कलेवा नहीं था उसको कलेवा-मार्ग भोजन-दिया। बाद में उसने उन सबसे कहा हे देवानुप्रियों ! तुम यहां से चलो और मुख्य उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे रहो-(तएणं ते चरगाय जाव गिहत्था य धण्णेणं सस्थ वाहेणं एवं वुत्ता ममाणा जाव चिटुंति, तएणं घण्णे सत्यवाहे मोहणंसिं त्तिहिकरणनक्वत्तसि विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, उवावडाविस्ता मित्तनाइ० आमंतेह, आमंत्तित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपु. च्छा, आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ, जोयवित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छह ) इस प्रकार धन्यसार्थवाह के द्वारा कहे गये वे चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्तजन वहां से चलकर मुख्य उद्यान में गये और धन्यसार्थवाह की प्रतीक्षा करते हुए वहां ठहर गये । धन्यसार्थवाह में शुभ तिथि, करण, एवं नक्षत्र में विपुल मात्रा में अशन आदि स्पं चारों प्रकार का आहार निष्पन्न करवाया। जय आहार निष्पन्न हो
ત્યાર પછી ધન્ય સાર્થવ હે તે એ ચરક વગેરેથી માંડીને ગૃહસ્થ સુધીના બધા માણસેમાંથી જેની પાસે છત્રી વગેરે ન હતી તેને છત્રી વગેરે અને જેની પાસે માર્ગ માટેનું ભોજન ન હતું તેને ભેજન આપ્યું. ત્યાર બાદ તેણે બધા ને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અહીંથી મુખ્ય ઉદ્યાનમાં જાઓ. અને ત્યાં મારી પ્રતીક્ષા કરો.
(तएणं ते चरगाय जाब गिहत्थाय धण्णेणं सत्थवाहे णं एव वुत्ता समाणा जाव चिट्ठति, तएणं धण्णे सत्यवाहे सोहणसि तिहिकरणनक्वत्तसि विउलं असणं ४ उवक्खडवेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ पामतेइ, आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसग्गडं जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ)
આ રીતે ધન્ય સાર્થવાહ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા ચરક ગૃહસ્થ વગેરે બધા માણસે ત્યાંથી મુખ્ય ઉદ્યાનમાં ગયા અને ધન્ય સાર્થવાહની રાહ જોતા, તેને ત્યાં જ રેકાયા. ધન્ય સાર્થવાહે શુભ તિથિ, કરણ, અને સારા નક્ષત્રમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે રૂપ ચારે જાતના આહાર તૈયાર કરાવ્યા, ત્યારે
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मरगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् १५ प्रति, भोजयित्वा · आपुच्छइ ' आपृच्छति-विदेशगमनार्थमाज्ञां प्रार्थयति, आपु
छय आज्ञो प्राप्य शकटीशाक्टं योजयति, योजयत्वा चम्पा नगरीतो निर्ग: च्छति-निस्सरति, निर्गत्य चरकान् यावत् गृहस्थांश्च सार्द्ध गृहीत्वा 'नाइविप्पगिटेहि' नातिविपकृष्टेषु नातिरेषु यथोचितेषु' अद्धाणेहि ' अध्वमु=मार्गेषु 'वसमाणे २' बसन्-वमन् स्थाने स्थाने निवासं कुर्वन् 'सुहेहिं ' शुभैः-प्रशस्तैः · वसहिपायरासेहि वसतिपातराशैः = निवासस्थाने प्रातःकालीनलघुभोजनैः सह अङ्गजनपदस्य अङ्गदेशस्य मध्य-मध्येन यौव 'देसग्गं ' देशाग्यं अङ्गदेशसीमा वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शक्टीशाक्टं मोचयति, मोचयित्वा 'सत्थनिवेसं' सार्थनिवेशं करोति, कृत्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आह्वयति शब्दयित्वाआहूय एवमवादीत्-" हे देवानुप्रियाः ! यूयं खलु मम सानिवेशे महता-महता शब्देन उच्चस्वरेण उद्घोषयन्तः सन्तः एवं वक्ष्यमाणपकारेण वदत-कथयतचुका-तब उसने अपने मित्र, ज्ञाति आदि परिजनोंको आमंत्रित किया।
आमंत्रित करके फिर उन सबको उसने उस चतुर्विध आहारको भोजन कराया भोजन कराके फिर उन सबसे परदेश गमन करने की उसने भाज्ञा मांगी। आज्ञाप्राप्त करके उसने गाडी और गाड़ों को जुतवाया जुतवा कर फिर वह चंपा नगरी से बाहिर निकला। चरकादि गृहस्थ पर्यन्त समस्त जन को अपने साथ में ले लिया-( निग्गत्तिा चरगाय जाव गिहत्थाय सद्धिं घेत्तण णाइविप्पगिटेहि अद्धाणेणिं वसमाणे२ सुहेहि वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसर्ग तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मगडीसागडं मोयावेइ मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ करित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सहवित्तो एवं घयासी - तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! मम सत्यनिवेसंसि महया २ આહારો તૈયાર થઈ ગયા ત્યારે તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પજિનેને આમંત્રિત કર્યો. આમંત્રિત કરીને તેણે બધાને ચારે જાતના આહારો જમાડયા. ત્યાર પછી તેણે સૌની પાસેથી પરદેશ જવાની આજ્ઞા માગી આમ તેણે બધાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને ગાડી તેમજ ગાડાઓ જોતરાવ્યાં અને ત્યાર પછી તે ચંપા નગરી થી બહાર નીકળ્યા. તેણે ઉદ્યાનમાં રાહ જોનારા બધા ચરક ગૃહસ્થ વગેરે માણસને પણ સાથે લઈ લીધા હતા.
(निग्गच्छित्ता चरगाय जाव गिहन्था य सद्धिं घेत्तूग णाइपिप्पगिटेडि अद्धाणेहिं वसमाणे २ सुहेहि वसहिपायरासे हिं अंगं जणवयं मज्झं मझेणं जेणेच देसग्गं तेणेव उवागच्छा, उवागन्छित्ता सगडीसागडं मोयादेइ, मोयाविचा सस्थणिवेसं करेइ, करित्ता कौडषियपुरिसे सद्दावेइ, सदाकिया
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माता कथासूत्रे
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एवं खल हे देवानुप्रिया !' इमोसे ' अस्या: ' अगामियाए ' = ग्रामरहितायाः छिन्नवायाए ' छिन्नपातायाः छिन्नः आपातो = जनसञ्चारो यत्र सा, तस्याः जनसञ्चाररहितायाः ' दीहमद्वार दीर्घाध्वायाः दीर्घः = बहुकालगम्यः अध्वा = मार्गों यत्र सा, तस्याः - चिरकाललङ्घनीयायाः, एतादृश्या अटव्याः बहुमध्यदेशभागे = अतिमध्यभागे, ' एत्थ णं ' अत्र खलु बहवो नन्दिफलानामवृक्षाः प्रज्ञप्ताः = लोकैः कथिता । कीदृशास्ते ? इत्याह-' किव्हा ' इत्यादि = कृष्णाः = कृष्णवर्णाः, कृष्णावभासाः - अतिनीलत्वेन कृष्णच्छटासम्पन्नाः यावत् - नीलादिवर्णयुक्ताः, सणं उग्धो सेमाणार एवं वयह-एवं खलु देवाणुपिया ! हमीसे अगामियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे मंदिफलानामं रुक्खा पत्ता किव्हा जाव पत्तिया, पुष्फिया, फलियो हरियगरेरि जमाणा सिरीए अईवर उवसोभेमाणा चिट्ठति) निकल कर नाति विप्रकृष्ट-यथोचित मार्गों में ठहरता २ और वहां२प्रातः कालीन कलेवा करता हुआ वह जहां अंगदेश की सीमा थी वहां पर आया। वहां आकर के उसने अपने शकटी शकटों को ढील दिया और ढील करके फिर अपने सार्थ को ठहरा दिया । ठहरा देने के बाद फिर उसने अपने कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों! तुम लोग हमारे सार्थनिवेश में बड़े जोर २ से घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि हे देवानुप्रियो ! सुनो जन संचार रहित दीर्घ मार्ग वाली इस आगे की अटवी के मध्यभाग में लोग कहते हैं कि अनेक नंदीफल नाम के एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुपिया ! मम संस्थ निवेसि महया २ सणं उग्धोसेमाणा २ एवं वयह--एवं खलु देवाणुपिया ! इमीसे अगामियाए छिन्नावायाए दीहमद्वार, अडनीए बहुमज्ज्ञदेसभाए बहवे मंदिफलानामं रुक्खा पन्नत्ता किव्हा जाव पत्तिया, पुष्क्रिया फलिया, हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अत्र २ उसोभेमाजा चिद्वंति )
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ત્યાંથી રવાના થઈને તે માગ માં યથાસ્થાને નજીક નજીકના સ્થળે ઉપર વિશ્રામ કરતા અને ત્યાં સવાર થતાં જલપાન ( નાસ્તા ) વગેરે કરતા તે અંગદેશની હદ ઉપર પહેચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેણે ગાડી અને ગાડાંઓને છેડી મૂક્યા અને ત્યાં પેાતાના સાને રોકયેા. રાકવ્યા પછી તેણે પેાતાના કૌટુબિક પુરુષોને લાવ્યા અને ખેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિયા ! અમારા સા સનિવેશમાં તમે લેકમેટેથી આ પ્રમાણેની ઘોષણા કરતાં કહે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળેા ! હવે આગળ આવનાર લાંખા માર્ગીવાળા નિર્જન વનમાં લકે એમ કહે છે કે તેમાં ઘણાં ન ફિળ
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arraigadfort टीका अ० १५ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम्
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तथा - ' पत्तिया पत्रिता : = पत्र बहुलाः पुष्फिया पुष्पिताः = पुष्पबहुलाः, ' 'फलिया' फलिताः फलव हुलाः 'हरियगरेरिज्जमाणा' हरितकरारज्यमानाः हरित केन - हरितवर्णेन भृशं शोभमानाः ' सिरीए ' श्रिया = हरितपल्लवादिशोभया अतीवातीव उपशोभमानास्तिष्ठन्ति = वर्त्तन्ते । पुनः कीदृशास्ते ! इत्याह- मनोज्ञाःवर्णेन, ' जाव' यात्रत् - गन्धेन रसेन स्पर्शेन, मनोज्ञा छायया रम्यवर्णादिना रम्य छायया च युक्ता इत्यर्थः, 'तं ' तत् तस्मात् नन्दिवृक्षाणां सौन्दर्यादिकारणशात् ' जो णं' यः खलु हे देवानुप्रियाः ! तेषां नन्दिफलानां = नन्दिफलाभिधान वृक्षाणां मूलानि वा कन्दानि वा वचो वा, पत्राणि वा, पुष्पाणि वा, फलानि वा, बीजानि वा, हरितानि वा आहारेइ ' आहारयति तेषां छायाया वा 'वीसमइ' विश्राम्यति तस्य खलु आवाए' आपाते = पूर्व भक्षणादि समये ' भदए ' वृक्ष हैं। ये वृक्ष कृष्ण वर्णवाले हैं और देखने पर भी अति हरित होने के कारण कृष्ण ही प्रतीत होते हैं। पत्र, पुर एवं फलों से वे युक्त हैं। वे हरित वर्ण से बडे सुहावने लगते हैं। उनके पल आदि सब हरे २ हैं। इससे उन की शोभा बडी नीराली बनी हुई हैं। (मण्णा वन्ने ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया ! तेसि नंदिफलाणं रुक्खाणं मृलोणिवा कंद० तय० पत्त० पुष्फ० फल० बीयाणि या हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए मद्दए भवई, तओ पच्छा परिणममाणा २ आकाले चेव जोवियाओ व वरो वेति ) वर्ण, रस, गंध एवं स्पर्श से वे बड़े मनोज्ञ हैं। छाया भी उनकी ast मनोज्ञ है । इस लिये हे देवानुप्रियो ! जो कोई इन की सुन्दरता आदि कारण के वशले आकृष्ट होकर इन नंदिफल वृक्षों के मूलों को कंटों को छालों को, पत्रों को, फलों को बीजों को अथवा हरित अंकुरों
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નામે વૃક્ષો છે. તે વૃક્ષો કૃષ્ણ વર્ણવાળાં છે અને ખૂબજ લીલાં હાવાથી કૃષ્ણ વણુના જેવા જ લાગે છે. પત્ર, પુરા અને ફળાથી તેઓ સમૃદ્ધ છે. લીલાં છમ હોવાથી તેએ અત્યંત સુંદર લાગે છે. તેમનાં પા વગેરે અંધાં લીલાં છે. તેથી તેમની શાભા એકદમ અનેાખી છે.
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( मण्णा वन्ने ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए तं जो णं देवाणुपिया ! तेर्सि नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद्र० तय० पत्त० पुष्क० फल० याणि वा हरियाणि वा आहारे, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए मद्दए भव, तपच्छा परिमाणा २ अहाले चेव जीवियाओ वबरोवेंति )
વણું, રસ, ગધ અને સ્પથી તેએ ખૂબજ મજ્ઞ છે. છાંયડા પણ તેઓને અત્યંત મનેાજ્ઞ છે. એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયેા ! કાઈ પણ માણસ તેમની સુંદરતા વગેરે કારણેાથી આકર્ષાઇને તે નિષ્ફળ વૃક્ષોના મૂળાને, કઈંને, છાલને પાંદડાંઓને, પુષ્પાને, બિયાંઓને અથવા તેા લીલી કૂપળાને ખાશે
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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भद्रकं सुखं भवति, ततः पश्चात् = स्तोककालानन्तरं ' परिणममाणा२ ' परिणमन्द्रः २ रसादिरूपेण परिणमनं प्राप्नुवन्तस्ते मूलकन्दादयस्तं पुरुषम् अकाले एव जीविताद् व्यपरोपयन्ति = प्राणनाशं कुर्वन्तीत्यर्थः तं ' तत् = तस्मात्कारणात् मा खल हे देवानुप्रियाः ! केइ ' कोऽपि तेषां नन्दिफलवृक्षाणां मूलानि वा यावत्कन्द्रादीनि आहारयतु, तेषां छायायां वा विश्राम्यतु तेषां फलानि मा आहारयतु, छायायांच मा विश्राम्यतु इतिभावः, सोऽपि च = पो नन्दिफलक्षाणां मूलादीनिनाहारयिष्यति, नापि च तच्छायार्या विश्रामिष्यति सः न खलु अकाल एव जीविताद व्यपरोविष्यते स न मरिष्यतीत्यर्थः । यूयं खलु हे देवानुभियाः ।
को, खावेगा अथवा उनकी छाया में विश्राम करेगा उसे उससमय तो बड़ा अनन्द आवेगा परन्तु उसके बाद में थोडे ही समय में जैसे २ रसादिरूप से उसका परिणमन होगा वैसे२ वे भक्षित मूलादिकंद इस पुरुष को अकालमें ही जीवन से रहित कर देंगे । ( तं मागं देवाणुपिया केइ तेर्सि नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, माणं से बि अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जिस्सह, तुम्भेणं देवाणुपिया ! अन्ने सिं रुक्खाणं मूलानि जाव हरियाणिय आहारेह, छायासु वीसमह चि घोसणं घांसेह, जाव पच्चपिणंति) इसलिये हे देवानुप्रियो ! तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति उन नंदिफल वृक्षों के मूल आदिकों को न खाबे और न कोई उन की छाया में ही विश्राम करे। जो उन नंदिफल वृक्षों के मूल आदिकों को नहीं खावेगा और न उनकी छाया में विश्राम ही करेगा वह अकाल में अपने जीवन से रहित नहीं बनेगा। वहां इनसे તેમના છાંયડામાં વિસામા લેશે ત્યારે તે તેમને ખૂબજ આનદ પ્રાપ્ત થશે પણ ત્યાર પછી થોડા જ સમયમાં જેમ જેમ તેમનું રસાદિરૂપ પરિણમન થશે તેમ તેમ તેમે ખાધેલા મૂળ કદ વગેરે તે માણસને અકાળે જ નિર્જીવ બનાવી દેશે.
( तं माणं देवापिया ! केइ तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए बाबीसमउ, माणं सेवि अकाले चैव जीवियाओ वत्ररोविज्जिरसह, तुम्भेणं देवापिया ! अन्नेसिं रुक्खाणं मूलानि जाव हरियाणि य आहारेह, छायासु वीसमद तिघोसणं घोसेह जात्र पच्चप्पिनंति )
એથી હે દેવાનુપ્રિયા ! તમારામાંથી કોઈ પણ માણસ તે નક્િળ વૃક્ષોના મૂળેને ન ખાય અને તેની છાયામાં પણ વિસામે લેવા બેસે નહિ. જે માણસ નદિફળ વૃક્ષોના મૂળ વગેરનું ભક્ષણ કરશે નહિ તેમજ તેમના છાંયડામાં પણ વિસામે લેશે નહિ તેનું અકાળે મરણુ થશે નિ. તમે લેકે તે વનમાં નળિ વૃક્ષોને બાદ કરતાં બીગ્ન જે વૃક્ષો હાય હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે તેમના મૂળે ને તેમજ લીલી કૂંપળો વગેરેનું ભક્ષણ કરજો અને તેમની જ છાયામાં વિસામા લેશે. આ પ્રમાણે તમે ઘાષણા કરો. ત્યાર પછી તે લોકોએ આજ્ઞા પ્રમાણે
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भगारधर्मामृतयषिणी टी० अ० १३ नन्दिफलस्वरूपनिरूपणम् १९ भन्येषाम् तद्भिश्नानां वृक्षाणां मूल नि च यावत् हरितानि च ‘आहारेत्थ आहारयत, छायासु विश्राम्यत च" इति एतद्रषां घोषणां घोषयन कुरुत । 'जाव' यावत्-ते च तथैव कृत्वा तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति-तस्मै निवेदयन्तीत्यर्थः । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः शकटोशाकटं योजयति, योजयित्वा यत्रैव नन्दिफलाक्षास्तोवोपागच्छति, उपागत्य तेषां नन्दिफलानाम् अरसामन्ते सार्थनिवेशं करोति, कृत्या द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं कौटुम्बिगपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्भिन्न जो और दूसरे वृक्ष हों हे देवानुप्रियों ! तुमलोग उन्हीं के मूलों को यावत् हरितोङ्करों को खाना उनको ही छाया में विश्राम करना। इस प्रकारकी तुमलोग घोषणा करो । यावत् उन्होंने वैसा ही किया और इस की खबर धन्य सार्थवाह को भी दे दी। (नएणं से घण्णे सत्थ वाहे सगडीमगडं जोएइ २ जेणेव नंदिफलरुग्वा. तेणेव उवागच्छड, उवाग. च्छित्ता तेसि नंदिफलाणं अदूरसामंते मत्थणिवेसे करेइ,करित्ता दोच्चंपि तच्चपि कोडंपियपुरिसे मद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तुम्भे ण देवा. गुंप्पिया! मम सस्थनिवेसंसि महयार सद्देणं उग्घोलेमा गार एवं वयह -एएणं देवणुप्पिया! ते णंदिफलारक्खा, किण्हा जाव मणुन्ना छायाए) इस के पद उस धन्यः सार्थवाहने अपनी गाड़ी और गाड़ों को जुन वाया और जुनवाकर जहां वे नंदि फलवृक्ष थे वहां गया। वहां जाकर उसने उन नंदिफल वृक्षों के पास अपने सार्थ को ठहरा दिया-अर्थात् अपना पडाव डाला ठहरने के बाद फिर उसने कौटुम्पिक पुरुषों को दोबार और જ ઘોષણા કરીને ધન્ય સાર્થવાહને ઘેષણાનું કામ થઈ જવાની ખબર આપી. ... (तएणं से धण्णे सत्यवाहे सगडी सागडं जोएइ २ जेणेव नंदिफलरुक्खा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं अदूरसामंते सत्थणिविसे करे करिता दोच्चंपि तच्चंपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ. साविता एवं वयासी तुभेणं देवाणुप्पिया! मम सत्यनिवेसंसि महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं वयहएएणं देवाणुप्पिया ! ते णंदिफला रुकवा, किण्हा जाव मणुन्ना छायाए )
ત્યાર પછી તે ઘન્ય સાથે વાહે ગાડીએ અને ગાડાંઓને જોતરાવ્યાં અને જેતરાવીને તેઓ જે તરફ નદિફળ વૃક્ષો હતાં તે તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે નંદિફળ વૃક્ષોની પાસે પોતાના સાર્થને રોક્ય અર્થાત્ વિસામાં માટે ત્યાંજ પડાવ નાખે પડાવ નાખ્યા બાદ તેણે બે ત્રણ વખત કૌટુંબિક પુરૂને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે!
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यूयं खलु हे देवानुपियाः ! मम सार्थ निवेशे महता-महता शब्देन उद्घोषयन्तः२ एवं वदत-" एते खलु हे देवानुप्रियाः ! ते इमो नन्दिफलाक्षाः यदर्थ, पूर्वमु पदिष्टम् कृष्णा यावत्-मनोज्ञा छायया, तद् यो खलु हे देवानुपियाः ! एतेषां नन्दिफलानां वृक्षाणां मूलानि वा कन्दानि वा पुष्पागि वा, त्वचो वा, पत्रागि वा, फलानि वा, यावत्-तानि मूलकन्दादीनि तं जीविताद् व्यपरोपयन्ति, तत् मा खलु यूयं 'जार' यावत्-तेगां मूलमन्दादीनि मा आहारयत, मा च तेषां छायासु विश्राम्यत किन्तु तान् दरं-दरेण दात एव परिहरमाणा' परिहरन्तःवर्जयन्तः तीन बार बुलाया-बुलाकर उसने ऐसा कहा हे देवासुप्रिया ! तुम मेरे सार्थ निवेश में जाकर जोर २ से ऐसी धोषणा करो-कि हे देवानुप्रियो जिन नंदिफल वृक्षों के विषय में पहिले सूचना दी गई है-वे येही कृष्ण यावत छाया से मनोज्ञ नंदिफल वृक्ष हैं। तं जो णं देवाणुप्पिया ! एएसिं गंदिफलाणं मर खाणं मूलाणिवा कंद० पुप्फ० तय० पत्त० फल जाव अकाले चेव जीवियाओ वयोवेइ, तं माण तुम्भे जाव दुरे रेण परिहरमाणा वीसमह. माण अकाले चेव जीबियाओ ववरोविस्मइ, अ. न्नेसि रुवाणं मूलाणि य जाब वीसमहत्ति कटु घोसण जाव पच्च. पिणंति ) इस लये हे देवानुप्रियो ! तुम लोग में से कोई भी व्यक्ति इन नंदिफलवृक्षों के मूलोंको, कंदों को, पुष्पों को, छालोंको, फलोंको नही खावे और न वह इनको छाया में विश्राम ही करे-नहीतो वह अकालमें ही कालकवलित अर्थात् मर जावेगा हो जावेगा। इस लिये इन्हें बहत दर छोडकर दूसरी जगह तुम लोग विश्राम करो इससे जीवन से रहित મારા સાથે નિવેશમાં જઈને મેટેથી તમે આ પ્રમાણે ઘોષણા કરો કે હે દેવાનુપ્રિયે ! જે નંદિફળ વૃક્ષોના વિષે પહેલાં તમને જાણ કરવામાં આવી હતી તે એજ કૃષ્ણ તેમજ છાયાથી મને જ્ઞ લાગતાં નદિફળ વૃક્ષો છે..
(तं जो णं देवाणुप्पिया ! एएसिं गंदिफलाणं रुक्खाणं मूलागि वा कंद० पुप्फ० तय० पत्त० फल जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ तं माणं तब्भे जाव दरं द्रेणं परिटरमाणा वीसमह,माणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविस्मइ, अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमहत्ति कटु घोसणं जाव पच्चप्पिणंति)
એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારામાંથી કોઈ પણ માણસ નરદિફળ વૃક્ષોનાં મૂળને, કંદને, પુષ્પને, છાલને, ફળને ખાય નહિ અને તેમની છાયામાં પણ વિસામે લે નહિ, નહિતર તે અકાળે જ મૃત્યુને ભેટશે. એટલા માટે એમનાથી ખૂબ જ દૂર રહીને વિસામે લેશે તેથી તમારા જીવનને કંઈ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम्
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'सन्तोऽन्यत्र 'वीसमह ' विश्राम्यत = विश्रामं कुरुत तेन न खलु यूयं जीविताद् व्यपरोपिष्यध्वे तथा अन्येषां वृक्षाणां मूलानि च यावत् कन्दादीनि आहारयत छायासु विश्राम्यत " इति कृत्या घोषणां घोषयत, यावत्-ते घोषणां घोषयिताधन्यसार्थवाहाय तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति । तत्र साथै अप्येके पुरुषा धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थम् एतइपदेशं श्रदधति, प्रतियन्ति रोचयन्ति एतमर्थ श्रदधानाः श्रद्धाविषयकुर्वाणाः प्रतियन्तः रोचयन्तः तेषां नन्दिवृक्षाणां मूलादीनि छायाँ च दूरं - दूरेण दूरतएव परिहरन्तः परिवर्जयन्तोऽन्येषां वृक्षाणां मूलानि च यावत्कन्दादीनि आहारयन्ति, अन्यवृक्षाणां छायासु च विश्राम्यन्ति तेषां खलु नहीं होओगे । तथा इनसे अतिरिक्त और जो दूसरे वृक्ष हैं उनके मूलों
'यावत् कन्दादिकों को खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो । इस प्रकार की घोषणा कर दो-उन्हों ने धन्य सार्थवाह की आज्ञानुसार वैसा ही किया और इसकी उसे खबर भी दे दी । ( तत्थ णं अपेगया परिसा धस्स सत्यवास्स एयम सद्दति, पत्तियंति रोयंति, एयमहं सहमाणाइ तेसि नंदिफलाणं० दूरं दूरेणं परिहरमाणा २ अ
सिं रुत्रवाणं मृलाणि य जाब वीसमंति) वहां सार्थ में के कितने क मनुष्यों ने धन्य सार्थवाहके इस सूचना रूप अर्थको स्वीकार कर लिया। उस पर श्रद्धा जमाई उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाया तथा उन्हें यह बात अच्छी तरह रुचि कर भी हुई। इसलिये इस बात पर श्रद्धा आदि संपन्न बने हुए उन लोगों ने उन नंदि फल वृक्षों के मूलादिकों को और उनकी छाया को बहुत दूर से छोड़कर अन्य वृक्षों के मूलादि
પણ મુશ્કેલી નડશે હિ. તેમજ આ વૃક્ષો સિવાયનાં બીજા વૃક્ષો છે, તેમનાં મૂળ, કંદ વગેરે તમે ખાવ અને તેમના છાંયડામાં વિશ્રાા કરે. તેઓએ ધન્યસાવાહની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણા કરીને તેને ખબર આપી.
( तत्थ णं अपेइया पुरिसा धरणरूप सत्यवाहस्स एयम सद्दहंति, पत्तियंति, रोयंति, एवम सहमाणाई तेर्सि नंदिफलागं० दूरं दुरेणं परिहरमाणा २ अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति )
ત્યાં સામાં આવેલા કેટલાક માણસોએ ધન્યસાર્થવાહની સૂચના રૂપ આ વાતને સ્વીકારી લીધી અને તેને શ્રદ્ધાની અપેક્ષાએ પેાતાના હૃદયમાં સ્થાન આપતાં રે” તેની ઉપર પ્રતીતિ કરી લીધી તે લેાકેાને તે વાત રૂચિકર પણ થઈ પડી. આ રીતે શ્રદ્ધાયુક્ત થયેલા તે લેાકેાએ તે નળિ વૃક્ષોના મૃળ વગેરેથી અને તેમની છાયાથી ખૂબ જ દૂર રહીને ખીજા' વૃક્ષોના મૂળ તેમજ ક'દ વગેરેને ખાધાં તથા તેમની છાયામાં વિસામે લીધા.
बा १६
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१२.
हाताधर्मकथागपत्रे भापाते=पूर्वमाहारसमये नो भद्रकं भवति विशिष्टस्वादादिलाभो न भवति किन्तु ततः पश्चाद-भक्षणविश्रामानन्तरं परिणम्यमानानि २ रसादिरूपेण परिणतानि मूलकन्दादीदि शुभरूपतया भद्रकतया भूयो भूयः परिणमन्ति । __ अथोपनयं दर्शयन् सुधर्मस्वामी पाह-' एवामेवे ' स्यादिना । ' एवामेव ! एवमेव अनेनैव पूर्वोक्तमकारेण हे आयुष्यन्तः श्रमणाः ? योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा 'जाव' यावत्-आचार्योपाध्यायानामन्ति के मुण्डो भूत्वा प्रबजितस्ते. पामुपदेशं श्रद्दधानः सन् पञ्चच कामगुणेषु-शब्दादिविषयेषु नो सज्जेइ' नो कों को यावत् कंदों को खाया और उनकी छाया में विश्राम किया । (तेसि णं आवाए णो भदए भवड, तओ पच्छा परिणयमाणा २ सुहरूवत्ताए भुज्जो २ परिगमंति, एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो था निग्गंथी वा जाव पंचसु कामगुणेसु नो सज्जेह, नो रज्जेइ, से गं इहभवे चेव यहणं सभणाणं ४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छइ, जाव वीईवयस्सह, जहा वा ते पुरिसा) परन्तु इन पुरुषोंको उनके मूला दिकों के खाने के समय विशिष्ट स्वादादि को प्राप्तिरूप भद्रक का लाभ तो नहीं हुआ-किन्तु उसके बाद जप खाये हुए उन मूलादिकों का रसादि रूप से परिणमन हुआ तब उन्हें यार २ शुभ रूप परिणमन होने से आनन्द आया और जीवन सुरक्षित रहा-अय सुधर्मास्वामी इसका उपनय ( दृष्टान्त के अर्थ को प्रकृति में जोडना ) दिखलाते हुए कहते हैं कि इसी तरह से हे आयुष्मन्त श्रमणो । जो हमारे निर्ग्रन्थ श्रमण एवं श्रमणियांजन हैं वे आचार्य उपाध्याय के पास मुंडित होकर दीक्षित हो जाते हैं और उनके उपदेश को श्रद्धा आदि का विषयभूत
(तेसिणं आवाए णो भदए भाइ, तभी पच्छा परिणममाणा २ सुहरुवताए भुज्जो २ परिणति, एवामेव समगाउमो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव पंचसु कामगुणेसु नो सज्जेइ, नो रज्जेइ से णं इहभवे चे बहूर्ण समणाणं४ अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छइ, जाव वीइवयस्सइ. जहा वा ते पुरिसा)
તે માણસને વૃક્ષોના મૂળ કંદ વગેરે ખાતી વખતે સવિશેષ બાદ વગેરેની અનુભૂતિ તે થઈ શકી નહિ પણ ખાધા પછી તે મૂળ કંદ રસ વગેરે રૂપમાં પરિણત થયાં ત્યારે તેમને સુખ મળ્યું અને સાથે સાથે તેમનાં જીવન પણ સુરક્ષિત રહ્યા. સુધર્મા સ્વામી હવે એજ વાતને દષ્ટાન્તનાં રૂપમાં સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે કે હે આયુષ્મત શ્રમશે! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ અમણીએ, આચાર્ય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે મુંડિત થઈને શ્રદ્ધા વગેરેથી
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मेलंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १५ नंदिफलसम्पनिरूपणम् १९३६ स्वजते=आसक्तो भवति, ‘नो रज्जेइ ' नो रज्यते नो अनुरक्तो भवति स खलु इह भवएव बहूनां श्रमणानां श्रमणीनां वहूनां साधूनां साध्वीनां मध्ये-अर्चनीयः= माननीयः सन् परलोके भवान्तरे नो आगच्छति-जन्म न प्राप्नोति किन्तुयावत्-अस्मिन्नेव भवे चातुरन्तसंसारकान्तारं व्यतिव्रजिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति, मोक्षं प्राप्स्यतीत्यर्थः 'जहा वा ते पुरिसा' यथा वाते पुरुषाः-यथा वा-येन प्रका. रेण धन्यसार्थवाहोपदेशश्रद्रया तेनन्दिफलवृक्षमूलकन्दादि परिवर्जनेन तकथनानुसारसमाचरणशीलाः पुरुषाः सार्थपुरुषाः सुखपूर्वकमहिच्छत्रां नगरी प्राप्स्यन्ति तयेत्यर्थः । अथ श्रद्धा रहितान् वर्णयति-तत्थ णं' इत्यादि । तत्र खलु साथै अप्ये. के ये तेचित् पुरुषाः धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थ-नन्दिफलभक्षणादि निषेधरूपं बनाते हुए पांच काम गुणों में-शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं बनते हैं अनुरक्त नहीं घनते हैं वे इस भवमें ही अनेक साधु और साध्वियों के बीचमें माननीय होते हए परलोक में जन्म से रहित हो जाते हैंअर्थात् पुनः उन्हें जन्म धारण नहीं करना पड़ता है। कारण वे इसी भव में चतुर्गति रूप इस संसार कान्तार को पार करने वाले बन जाते हैं-उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जावेगा ऐसे वे तैयार हो जाते हैं। जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा करने से ये सार्थ के कितनेक पुरुष नंदि वृक्षों के मूलकंदादिकों का परिहार-त्याग करते हुए और उसके कथनानुसार अपना आचरण बनाते हुए सकुशल अहिच्छत्रा नगरी को प्राप्त कर लेंगे ऐसे बन गये । अब जिन्होंने धन्य सार्थवाहके वचनों पर अदा नहीं की-उनको क्या दशा हुई इस बात का वर्णन सूत्रकार करते हैं-( तत्थ णं अपेगइया पुरिसा धण्णस्म सत्यवाहस्स एयચુત થઈને પાંચ કામ ગુણેમાં શબ્દાદિ વિષયમાં-અનાસક્ત રહે છે એટલે કે અનુરક્ત થતા નથી, તેઓ આ ભવમાં જ ઘણા સાધુઓ તેમજ સાધ્વીઓની વચ્ચે સન્માનનીય થતાં પરલોકમાં જારહિત થઈ જાય છે એટલે કે ફરી તેઓને જન્મ થતું નથી કેમકે તેઓ આ ભવમાં જ ચતુર્ગતિ રૂપ આ સંસાર કાંતારને પાર કરવા લાયક સામગ્ધ મેળવી લે છે તે મોક્ષ મેળવવા યોગ્ય થઈ જાય છે, જેમ ધન્યસાર્થવાહના ઉપદેશ ઉપર શ્રદ્ધા મૂકીને સાર્થના કેટલાક પુરૂષોએ નંદિ વૃક્ષોના મૂળ કંદ વગેરેને ત્યજીને તેની સૂચના મુજબ અચરણ કરતાં અહિચ્છત્રા નગરીમાં પહોંચી શકે તેવા થઈ ગયા. હવે જે પુરૂએ ધન્યસાર્થવાહની વાત ઉપર શ્રદ્ધા મૂકી નહિ તેઓની શી હાલત થઈ તેનું વર્ણન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે –
(वत्यणं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सस्थवाइस एयमद्वं नो सदईवि ३
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ઓ
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
नो श्रदधति नो रोचयन्ति नो प्रतियति । ते धन्यस्य - एतमर्थम् अश्रद्दधाना अरोचयन्तः, अपतियन्त यचैव नन्दिफला वृक्षास्तत्रैवो पागच्छन्ति, उपागत्य तेषां नन्दिफलानां मूलानि च यावत्- कन्दादीनि आहारयन्ति तेा छायासु च विश्राम्यन्ति तेषां खलु आपाते= पूर्व फलभक्षणादिसमये भद्रकं भवति शुभस्वादादिलाभो भवति किन्तु ' तभी पच्छा' ततः पश्चात् = फलभक्षणाद्यनन्तरं परिणम्यमानाः = रसादिरूपेण मनो सद्दति ३ धस्स एयमहं असहमाणा ३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छिंति उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं मूलाणि य जाव वीसमंति, तेसि णं आवाए भद्दए भवह, तओ पच्छा परिणममाणा जाव वबरोवेंति एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पवइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सइ जहा वा ते पुरिसा) वहां पर कितनेक पुरुषों ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को कि नंदिफल वृक्षों के कंदमूलादि नहीं खाना चाहिये और न उनकी छाया में ही विश्राम करना चाहिये श्रद्धाकी दृष्टिसे नहीं देखा उस पर अपनी श्रद्धा नहीं जमाई, उसे अपनी रुचि का प्रतीति का विषय नहीं बनाया- वे पुरुष - धन्यसार्थवाह के इस कथन को अश्रद्वेिय आदि मानकर जहां पर नंदिफल वृक्ष थे - वहां गये वहां जाकर उन्होंने उनके मूल कंदादि कों को खाया उनकी छाया में विश्राम किया उस समय उन्हें बड़ा आनन्द आया - स्वाद जन्य कोई अपूर्व सुख मिला - किन्तु जब उनका परिपाक काल आया जब वे खाये हुए मूलकन्दादि aण्णस्स एयम असदहमाणा ३ जेणेव ते मंदिफला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तेर्सि नंदिफलाणं मूलाणि य जाब वीसमंति, तेसिं गं आवाए भद्दर, भवइ, तो पच्छा परिणममाणा जान ववरोवेंर्ति एवामेव समणाउसो । जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पञ्चइए पंचसु कामगुणे सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सा, जहा वा ते पुरिमा )
ત્યાં કેટલાક માણસેાએ ધન્યસાાહના નદિફળ વૃક્ષોના કદમૂળે વગેરે ખાવા જોઇએ નહિં તેમજ તે વૃક્ષોની છાયામાં પણ વિસામે લેવા નિહુ આ જાતના કથન પ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થયા નથી, તેના ઉપર વિશ્વાસ મૂકયા નહિ અને પ્રતીતિપૂર્વક તેમાં પેાતાની અભિરૂચી બતાવી નહિ. તે માણસા ધન્યસા વાહના કથન અશ્રદ્ધેય માનીને જ્યાં ન ફળ વૃક્ષો હતાં ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમના મૂળ કદ વગેરે ખાધાં અને તેમના છાંયડામાં વિસામા લીધે. તે સમયે તા તેમને ખૂબ જ આનંદ પ્રાપ્ત થયા, ફળેાના સ્વાદમાં અપૂર્વ સુખ મળ્યું, પશુ જ્યારે તેઓની પાચન ક્રિયા થવા માંડી એટલે કે ખાધેલા મૂળકદ વગેરે
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मेनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम् १०५ परिणामं प्राप्नुवन्तः सन्तः कन्दादयः यावत्-तान् जीविताद् व्यपरोपयन्ति । 'एवमेव ' एवामेव-अनेनैव प्रकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत् प्रत्रजितः सन् पञ्चमु कामगुणेषु शब्दादिकामभोगेषु स्वजते, रज्यते-कामभोगासक्तो भवति यावत्-स खलु इहभवे बहूनां श्रमण-श्रमणीनां, वहूनां श्रावकश्राविकानां मध्ये हिलनीयो, निन्दनीयः, खिंसनीयो भवति, परलोके च भवान्तरे चातुरन्तसंसारकान्तारम् अनुपर्य टिष्यति चातुर्गतिकसंसार एव स्थास्यति न तु मोक्ष प्राप्स्यतीत्यर्थः । येन प्रकारेण तेधन्योपदेशमश्रद्दधानाः पुरुषा:-सार्थस्थिता जना नन्दिफलवृक्षमूलकन्दादिभक्षणेन तत्रैव म्रियन्ते नतुअहिच्छत्रा नगरी प्राप्नुवन्तीति भावः ।। सू०३ ॥
मूलम्-तएणं से धण्णे सत्थवाहे सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता नयरी तेणेव उवागच्छइ उवारसादिरूप से पणिमने लगे-तब वे सब अपने २ जीवन से रहित हो गये -मर गये-। इसी तरह हे आयुष्मंत अमणो । जो हमारा निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थी साध्वीजन यावत् प्रवजित होकर पंचकाम गुणों में-पंचइन्द्रियों के शब्दादि विषयों में-आसक्त बन जाता है-अनुरक्त हो जाता है, वह इस भवमें अनेक श्रमण श्रमणियोंके बीच हीलनीय, निंदनीय एवं खिसनीय होता है एवं वह भवान्तर में भी इस चतुर्गति रूप संसार कान्तार में ही घूमता रहेगा-मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा। जिस प्रकार धन्य सार्थवाह के उपदेश पर श्रद्धा नहीं करने वाले सार्थ के ये कितनेक पुरुष नंदिफल वृक्षों के मूलादि के खाने से वहीं पर मर गये-अंहिच्छत्र नगरी नहीं जा सके ।। सू० ३ ॥ રસ વગેરે રૂપમાં પરિણત થવા લાગ્યા ત્યારે તેઓ બધા નિર્જીવ થઈ ગયા. મૃત્યુ પામ્યા. આ પ્રમાણે જ છે આયુમંત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ કે નિથ સધિઓ પ્રવજીત થઈને પાંચ કામ ગુણોમાં અર્થાત પચે ઈન્દ્રિયોના શબ્દાદિ વિષમાં આસક્ત થઈ પડે છે-એટલે કે અનુરક્ત થઈ જાય છે, તે આ ભવમાં ઘણા શ્રમ અને ઘણું શ્રમણીઓની વચ્ચે હાલનીય, નિંદનીય, અને ખિસનીય હોય છે અને બીજા ભાવમાં પણ આ ચતર્ગતિ રૂપ સંસાર–કાંતારમાં જ બ્રમણ કરતા રહેશે. તેને મોક્ષ પ્રાપ્ત થશે નહિ. ધન્યસાર્થવાહના ઉપદેશને શ્રદ્ધેય ન માનનારા કેટલાક માણસો જેમ નંદિ ફળ વૃક્ષોના મૂળ વગેરે ખાઈને ત્યાંને ત્યાંજ મરણ પામ્યા, અહિચ્છત્રા નગમાં પહોંચી શક્યા નહિ, તેમજ તેઓની પણ સ્થિતિ થાય છે. છે . ૩
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भाताधर्मकथाजसून गच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ करित्ता सगडीसागडं मोयावेइ, तएणं से धण्णे सत्यवाहे महत्थं३ रायरिहं पाहुडं गेण्हइ गेण्हित्ता बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिबुडे अहिच्छत्तं नयार मज्झं मझेणं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं३ पाहुडं उवणेइ, तएणं से कणगकेऊ, राया हट्टतुट्ट० धण्णस्स सस्थवाहस्स तं महत्थं३ जाव पडिच्छइ पडिच्छित्ता धणं सत्थवाहं सकारेइ सम्माणेइ सकारिता सम्माणित्ता उस्सुकं वियरइ २ पडिविसज्जेइ । तएणं से धण्गे सत्यवाहे भंडविनिमयं करेइ करित्तापडिभंडं गेण्हइ गेणिहत्तासुहंसुहेणं जेणे, चंपानयरी तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता मित्तनाइ०अभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई कामभोगाइं भुंजमाणे विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं धण्णे सत्थवाहे धम्मे सोच्चा जेट्टपुत्ते कुडुंचे ठावेत्ता पवइए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता मासियाए सं० अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिह जाव अंतं करेहिइ। एवं खलु जंबू ! समगेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं पन्नरसमस नायज्झयणस्स अयमट्रे पण्णत्ते त्तिबेमि ॥ सू० ४ ॥
॥ पन्नरसमं नायज्झयणं समत्तं ॥
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम. १२७
टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवादः शकटीशावट योजयति, योजयित्वा यौवाहिच्छत्रा नगरी तीवोपागच्छति, उपागत्य अहिच्छ प्रायां नगर्या बहिः अय्योद्याने=मुख्योद्याने सार्थनिवेशं करोति, कृत्वा शकटीशाक्टं मोचयति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः 'महत्थं ' महार्थ-महापयो जनकं. 'महग्धं' महाघ-महामूल्यं, 'महरिहं ' महाई महतां योग्यं 'रायरिहं' राजाई-राजयोग्य प्राभृतं गृह्णाति, गृहीत्वा बहुभिः पुरुपैः साई संपरितृतः अहिच्छत्रां नगरी मध्यमध्येन अनुपविशति, अनुप्रविश्य यौव कनककेतू राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' करयल जाव बद्धावेइ' करतल यावद् वर्धयति-कर___तएणं से धण्णे मत्थवाहे' इत्यादि ।।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से घण्णे सत्यवाहे) उस धन्यसार्थवाहने (सगडी सागडं जोयावेइ जोयायित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेष उवागच्छद) वहां से अपने गोड़ी और गाड़ों को जुनवाया और जुतवाकर जहां अहिच्छत्रा नगरी थी उस ओर चल दिया। (उनागच्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए बहिया अगुजाणे सनिवेसं करेइ ) धीरे धीरे अहिच्छत्रा नगरी में वह पहुँच गया। वहां पहुँच कर उमने बाहर रहे हुए प्रधान बगीचे में अपने मार्थ को ठहरा दिया। (करित्ता सगड़ी सागडं मोयावेइ ) और वहीं पर अपनी गाड़ी और गाड़ों को ढील दिया। (तएणं से धण्णे मत्यवाहे महत्थं ३ रायारिहं पाहुडं गेहइ, गेण्हित्ता बहुहिं पुरिसे हिं सद्धिं संपग्वुिडे अहिच्छत्तं नयरिं मज्झं मझे णं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसितो जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागतएणं से धण्णे सत्यवाहे इत्यादि
4-(तएणं ) त्या२०॥४ ( से धण्णे सत्यवाहे । ते धन्यसाथ वाडे (सगडी सागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता पयरी तेणेव उवागच्छद ત્યાંથી પિતાની ગાડીઓ અને ગાડાંને તરાવીને જે તરફ અહિચ્છત્રા नगरी ती ते हिशत२५ पाना थयो. ( उवान्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए बहिया अगुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ ) भने धीमे धीमे महिनछत्रा नगरीमा પોંચી ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે નગરીની બહાર આવેલા પ્રધાન ઉદ્યાનમાં याताना साना भुराम नाच्यो. ( करित्ता सगडीसागडं मोयावेइ) सने ત્યાં જ પોતાની ગાડીઓ અને ગાડાઓને છોડાવી નાખ્યા.
(तएणं से धण्णे सत्यवाहे महत्थं ३ रायरिह पाहुडं गेण्हइ, गेण्डित्ता बहुर्हि पुरिसेहिं सद्धिसंपरिबुडे अहिच्छत्तं नयरिंमज्झं मझेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता
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ज्ञाताधर्मकथासूत्र तलपरिगृहीतं शिरावर्त दशनखं मस्तके ऽञ्जलिं कृत्वा राजानं जयविजयशब्देन वर्द्धयति, वर्द्धयित्या तन्महार्थ महार्य महाहं प्राभृतम् उपनगति-गज्ञः समीपे स्थापयति । ततः खलु स कनककेतू राजा हृष्टतुष्टहृदयो हर्षवशविसर्पहृदयो धन्यस्य सार्थवाहस्य तन्महार्थं ३ यावत् प्राभृतं 'पडिच्छइ ' प्रतीच्छति-स्वीकरोति, प्रतीष्य धन्य सार्थवाहं सत्कार यति सम्मानगति, सत्कृत्य सम्मान्य तम्मै ' उस्मुकं' उच्छु-शुल्काभावपत्र केनापि राजपुरुषेणारमात्करो न ग्राह्यः' इत्येतदरूपमा भापत्र वितरति-ददाति वित्तीय तं प्रतिविसर्जयति ।
छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं ३ पाडं उवणेइ ) इस के बाद उस धन्य मार्थवाह ने महार्थ साधक, महामूल्य एवं महा पुरूषों के योग्य-प्रामृत-भेंट को साथ में लिया, और लेकर अनेक पुरुषों के साथ २ अहिच्छन्ना नगरी में वीच से होता हुआ प्रविष्ट हुआ। नगरी में प्रविष्ट होकर यह जहां कनक केतु राजा थे वहां गया वहां जाकर उमने राजा को दोनों हाथ जोड कर नमस्कार किया, और जय विजय शब्दों को उच्चारण करते हुए उन्हें बधाई दी। बधाई देकर उसने फिर राजा के ममक्ष अपनी भेट रखदी। (तए से कणगकेऊ राया हट्ट तुट्ट० घण्णस्स सत्यवाहस्म तं महत्थं ३ जाव पडिच्छह पडिच्छित्ता धण्णं सत्यवाहं मक्कारेइ मम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता उस्लुक्कं विधरह २ पडिविसज्जेइ) कनककेतु राजाने हर्षित एवं संतुष्ट होकर धन्यसार्थवाह की उस महार्थ साधक महामूल्य राज योग्य भेंट जेणेव कणगकेउ राया तणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं ३ पाहुडं उवणेइ)
ત્યારપછી તે ધસાર્થવાહે મહાર્થ સાધક બહુ કિંમતી અને મહા પુરૂપિને યોગ્ય ભેટ સાથે લઇને ઘણા માણસોની સાથે અહિચ્છત્રા નગરીની વચ્ચેના ભાગે (રાજમા) થઈને નગરીમાં પ્રવિણ થયો. નગરીમાં પ્રવેશીને તે જ્યાં કનકકેતુ રજા હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે રાજાને બંને હાથ જેડીને નમસ્કાર કર્યા અને જય વિજય શબ્દો ઉચ્ચારણ કરતાં તેમને વધાઈ આપી. વધાઈ આપ્યા પછી તેણે રાજાની સામે પિતાની ભેટ મૂકી દીધી.
(तएणं से कणगकेऊ राया हट्ठ तु४० घण्णास सत्थवाहास तं महत्थं ३ जाव पडिन्छइ पडिच्छित्ता धणं सत्यवाह समारेइ सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता उस्सुकं वियर३ २ पडिविसज्जेइ )
કનકકેતુ રાજાએ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને મહાઈ સાધક મહામૂલ્યવાળી અને રાજાઓને માટે ગ્ય ભેટ સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કર્યા બાદ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १५ नंदिफलस्वरूपनिरूपणम्
ततः खलु सधन्यः सार्थवाहस्तत्र 'भंडविणिमयं ' भाण्डविनिमय भाण्डानां क्रयाणकवस्तूनां विनिमयम् आदानप्रदान करोति, कृत्वा 'पडिभंड' प्रतिभाण्डंविनिमयेन प्राप्त वस्तुजातं गृह्णाति, गृहीत्वा शकटीशाकटे भरति भृत्वा शकटीशाकटं योजयति, योजयित्वा सुख-सुखेन-सुखपूर्वकं यौव चम्पानगरी-स्वनिवासस्थानं तवोपागच्छति, उपागत्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धि परिजनैः सह 'अभिसमन्नागए' अभिसमन्वागतः संमिलितो विपुलान् मानुष्यकान् कामभोगान् भुञ्जानो विहरति । को स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उन्हों ने धन्यसार्थवाह का सत्कार एवं सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके "किसी भी राज पुरुष को इन से कर नहीं लेना चाहिये इस प्रकार का शुल्क भाव विषयक आज्ञा पत्र" उसके लिये प्रदान किया और प्रदान करके बाद में उसे वहां से विदा कर दिया। (तएणं से धण्णे सत्यवाहे भंडविणिमयं करेइ, करित्ता पडिभंड गेण्हइ, गेण्हित्ता सुहं सुहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ ) इसके बाद धन्यसार्थवाह ने वहां रह कर अपनी ऋयाणक वरतुओं का विक्रय किया और उससे प्राप्त द्रव्य से और दूसरी वस्तुओं को खरीदा। खरीद कर उसने उन्हें गाडी और गाडों में भरा भरकर उन्हें जुतवाया और जुतवाकर फिर वह वहां से चंपानगरी की ओर वोपिस चल दिया। (उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अ. भिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणे विहरह) તેમણે ધન્યસાર્થવાહનો સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું. સત્કાર અને સન્માન કરીને રાજાએ “કોઈપણ રાજપુરૂષ તેમની પાસેથી રાજકર લે નહિ” તે પ્રમાણેની વ્યવસ્થા કરતાં તેમને શુક માફીનું આજ્ઞાપત્ર લખી આપ્યું. ત્યારપછી તેને ત્યાંથી જવાની આજ્ઞા આપી.
(तएणं से धण्णे सत्यवाहे भंडविणिमयं करेइ, करित्ता पडिभंडं गेण्हइ, गैण्हिता सुहं सुहेणं जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छइ )
ત્યારબાદ ધન્યસાર્થવાહે ત્યાં રહીને પોતાની કયાણક વસ્તુઓને વેચી અને તેનાથી જે ધન મળ્યું તેનાથી બીજી વસ્તુઓ ખરીદી લીધી. વસ્તુઓની ખરીદ કરીને તેણે બધી વસ્તુઓની ખરીદી કરીને તેણે બધી વસ્તુઓને ગાડી તેમજ ગાડાઓમાં ભરી અને ત્યારપછી ગાડી અને ગાડાઓને જોતરાને ત્યાંથી ચંપા નગરી તરફ પાછા રવાના થયે.
(उवागच्छित्ता मित्तनाइ० अभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई काम भोगाई मुंजमाणे विहरा)
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्थविरागमनम् । धन्यः सार्थवाहो धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धः सन् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा प्रव्रजितः, सामायिकादीनि एकादशाङ्गान्यधीते । बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्या संले'खनया ऽऽत्मानं जुष्ट्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छत्वा कालमासे कालं कृत्वा - " चंपानगरी में आकर वह अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों से मिला और विपुल मनुष्य भव संबन्धी काम भोगों को भोगने लगा ( तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, घण्णे सत्थवाहे धम्मं सोच्चा जे पुन्तं कुटुंबे ठवेत्ता पव्वइए, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अनतरेसु देवलोएस देवताए उववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं कहि । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते पश्नरसमस्स नायज्झयणस्स अंयमठ्ठे पण्णत्ते तिमि ) उसी काल और उसी समय में वहां पर स्थविरों का आगमन हुआ । धन्यसार्थवाह ने उनसे धर्म का व्याख्यान सुना सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गया और प्रतिबुद्ध हो करके फिर वह कुटुंब में अपने ज्येष्ठ पुत्र को रखकर दीक्षित होकर उसने सामायिक आदि ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया । अनेक वर्षो तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर १ मास की संलेखना से ६० भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करके काल अवसर काल करके देव
ચંપા નગરીમાં આવીને તે પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, જન, સંબંધી પરિજનાને મળ્યા અને વિપુલ મનુષ્ય ભવના કામભોગે ભાગવવા લાગ્યા.
( तेण कालेणं तेणं समपर्ण थेरागमणं घण्णे सत्यवाहे धम्मं सोचा जे पुत्त कुटुंबे ठवेत्ता पत्रइए, सामाइयमाइयाई एक्कारसगाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउण, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अन्नतरेसु देवलोएसु देवता ववन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिर, जाव अंतं करेहिइ । एवं खल जंबू ! समणे भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स अयमठ्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि ) તે કાળે અને તે સમયે તે નગરીમાં સ્થવિર। પધાર્યા. ધન્યસા વાહે તેના સુખથી ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળ્યુ...અને સાંભળીને તેને પ્રતિબંધ થયા. પ્રતિબુદ્ધ થઇને તેણે પોતાના કુટુંબના વડા તરીકે પોતાના મેાટા પુત્રનીનીમણુક કરીને દીક્ષા મહેણુ કરી દીક્ષા ગ્રહણ કર્યાં બાદ તેણે સામાયિક વગેરે અગિયાર અગાનું અગ્રંથન કર્યું' અને ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક માસની લેખનાથી ૬૦ ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરીને કાળના વખતે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १५ नंदीफलस्वरूपनिरूपणम् अन्यतरेषु देवलोकेषु ' देवत्ताए ' देवतया देवत्वेन उपपन्नः । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत्-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्-सिद्धिगतिनामधेय स्थान सम्माप्तेन पञ्चदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमयः-पूर्वोक्तो मात्रः पज्ञप्तः 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमि व्याख्या पूर्ववत् ।०४।
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धबाचकपश्चदशभाषाकलितललितकलापालापक -प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक
श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्यानगारधर्माम
तवर्षिण्याख्यायां व्याख्यायां पञ्चदशमध्ययनं समाप्तं ॥१५॥ लोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो गया। महाविदेह क्षेत्र से यह सिद्ध अवस्था कोप्राप्त करेगा-यावत् समस्त दुःखों का अन्त करने वाला होगा इस प्रकार हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धगति नाम के स्थान को पास कर चुके हैं इस पंद्रहवे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त भाव प्रजप्त किया है। ऐसा मैंने उनके मुख से सुना है सो यह पैसा तुमसे कहा है ।। सू० ४॥ । श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराजकृत " ज्ञाता___ धर्मकथाङ्गसूत्र"की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका पंद्रहवा
अध्ययन समाप्त ॥१५॥ કાળ કરીને દેવકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી તે સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવતુ બધા દુઃખેને તે અન્ત કરનાર થશે. આ રીતે હે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓએ સિદ્ધિગતિ નામના
સ્થાન મેળવી લીધું છે-આ પંદરમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત ભાવ નિરૂ પિત કર્યો છે, મેં જે પ્રમાણે તેઓશ્રીના મુખથી સાંભળ્યું છે તે પ્રમાણે જ तभारी मा २१ यु छ. ॥ सूत्र ४ ॥
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગારધર્મામૃતવષિણી વ્યાખ્યાનું પંદરમું અધ્યયન સમાપ્ત .૧૫
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॥ अथ षोडशाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
उक्त पञ्चदशाध्ययनम्, तत्र विषयसङ्गोऽनर्थस्य कारणमित्युपदिष्टम् इह पोड़शाध्ययने तु तद्विषयनिदानमनर्थस्य मूलं भवतीत्युच्यते, इत्येवं सम्बन्धेन प्रसङ्गतः प्राप्तस्यास्याध्ययनस्य प्रथमं सूत्रमाह - ' जइणं भंते!' इत्यादि ।
मूलम् - जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते सोलसमस्त णं भंते णायज्झयणस्स णं समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं के अद्रे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, तीसेणं चंपा नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए सुभूमिभागे उज्जाणे होत्था, तत्थ णं चंपा नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तं जहा- सोमे सोमदत्ते सोमभूई, अड्डा जाव अपरिभूया रिउव्वेय जाव सुपरिनिडिया, तेसि णं माहणाणं तओ भारियाओ होत्या, तं जहा - नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी
सोलहवां अध्यन प्रारंभ
पन्द्रहवां अध्यन समाप्त हो चुका अब सोलहवां अध्यन प्रारंभ होता है । पंद्रहवें अध्यन में विषयसंघ अनर्थ का कारण कहा गया है- अब सोलहवें अध्यन में विषय निदान अनर्थ का कारण होता है यह स्पष्ट किया जायगा । इस संबन्ध से आया हुआ इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है ' जहणं भते । ' इत्यादि ।
સાળનું અધ્યયન પ્રારંભ
પંદરમું અધ્યયન પુરૂં થાય છે. હવે સેાળખું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. પદરમાં અધ્યયનમાં વિષયસંગને અનનું કારણુ ખતાવવામાં આવ્યું છે. હવે સેાળમા અધ્યયનમાં વિષય-નિદાન અનનું કારણ હાય છે, આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે. આ વિષયને લગતું આ અધ્યયનનું પહેલું સૂત્ર આ છે: जणं भंते इत्यादि
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मारमा विगी टी० ० १६ धर्ममध्यनगारमरितवर्णनम् ॥ सुकुमाल जाव तेसि णं माहणाणं इटाओ ५, विपुले माणु. स्सए जाव विहरंतिं । तएणं तेसिं माहणाणं अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजिस्था, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविउं उवक्डावित्ता परिभुंजमाणाणं विहरित्तए, अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति परिसु. णित्ता कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असण४ उवक्खडा।ति, उवक्खडावित्ता परिभुजमाणा विहरंति, तएणं तीसे नागसिरोए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था, तएणं सा नागसिरी विपुलं असणं४ उवक्खडेति उवक्खडित्ता एगं महंसालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडेइ उवक्खडित्ता एगं बिंदुयं करयलंसि आसाएइ आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खजं अभोज्जं विसब्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए, सुबहुदवक्खए, नेहक्खए य कए, तं जइणं मम जाउयाओ जाणिस्संति तो णं मम खिसिस्संति तं जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणति ताव मम सेयं एयं साल
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............ माताधर्मकथासूचे इयं तित्तालाउ य बहुसंभारणेहकयं एगंते गोवेत्तए अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं सालइयं जाव गोवेइ, अन्नं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडेइ, तेसिं माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असणं४ परिवसेइ, तएणं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था, तएणं ताओ माहणोओ पहायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं ४ आहारॊति आहारित्ता जेणेव सयाइं२ गेहाइं तेणेव उनागच्छइ उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ ॥सू०१॥
टोका-श्रीजम्बूस्वामी श्रीमुधर्मस्वामिनं पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त != हे भगवन् श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन पञ्चदशस्य अयम्-उक्तरूपः, अर्थः प्रज्ञप्तः, पोडशस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?,
टीकार्थ-(जइणं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्गत्ते सोलसमस्स णं भंते? णायज्झयणस्सणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संत्तण के अढे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ? ) श्री जंबू स्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि भंदत । श्रमण भगवान महावीरने जो कि सिद्धि गति नामक स्थानको प्राप्त हो चुके हैं पन्द्रहवें ज्ञाताध्ययनका यह पूर्वोक्तरूपसे अर्थ निरूपित किया है तो ___ -( जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पणत्ते सोलसमस्स गं भंते ! णायज्झयणस्स गं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू !)
શ્રી અંબૂ સ્વામી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદૂત! શ્રમણ ભગ વાન મહાવીર કે જેઓ સિદ્ધિગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચૂકયા છે-પદરમા રાતાધ્યયન આ પૂર્વેત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તે શમણુ ભગવાન
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ धर्मरुध्यनगारसरितवर्णनम १३५ . श्रीसुधर्मास्वामी कथयति-' एवं खलु जंबू' इत्यादि ! एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत् , तस्याः खलु चम्पाया नगर्या बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे सुभूमिभागनामक मुद्यानमासीत् , तत्र खलु चम्पायां नगर्यां त्रयो ब्राह्मणा भ्रातरः परिवसन्ति, तद् यथा (१) सोमः, (२) सोमदत्तः, (३) सोमभूतिः, ते कि भूताः-आढयां धनवन्तः यावद्-अपरिभूताः, तथा-'रिउव्वेय जार' ऋग्वेद-यजुर्वेदसामवेदावेदेषु साङ्गोगङ्गेषु सुपरि. निष्टिताः । तेषां खलु ब्राह्मणानां तिस्रोभार्या आसन , तद् राधा-(१) नागश्रीः, सोलहवें ज्ञाताध्यन का ह भदंत ? उन्हीं श्रमण भगवान महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रति. पादित किया है ? इस प्रकार के जंबू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि जंबू ! (तेणं कालेणं तेगं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या, तीसेणं चपाए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए सु. भूमिभागे उज्जाणे, होत्था, तत्य णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भाय रा परिवसंति ) उस काल और उस समय में चंपा नोमकी नगरी थी। उस चंपा के बाहिर ईशान कोण में सुभूमि भाग नाम का उद्यान था। उसी चंपा नगरी में तीन ब्राह्मण भाइ रहते थे (तं जहा) उनके नाम ये हैं-(सोमे सोमदत्ते सोमभूई ) सोम, सोमदत्त, और सोमभूति (अड़ा जाव अपरिभृया) ये सब धन धान्यादि संपन्न एवं जन मान्य (रिउब्वेय, जाव सुपरिनिट्टिया ) ये सबके सब ऋग्वेद आदि चारो वेदों મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધિગતિ મેળવી ચૂકયા છે–ળમા જ્ઞાતાદ ચનને શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? આ રીતે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને સુધમાં સ્વામી તેમને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે હે જબૂ!
( ते णं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या, तीसेणं चंपाए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए सभूमिभागे उज्जाणे, होत्था तत्थ णं नयरीए तओ माहणा भायरा परिवसंति )
તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી તે ચંપા નગરીની બહાર ઇશાન કોણમાં સુભૂમિભાગ નામે ઉદ્યાન હતું તે ચંપા નગરીમાં ત્રણ माझए मायो २उता . ( तंजहा ) तमना नाम मा प्रमाणे छे-(सोमे सोमदत्ते सोभूमई ) सेम, सेमिहत्त, मने सोमभूति. (अड्ढा जाव अपरिभूया ) तेमात्र धनधान्य वगेरेथा सपन्न तम नमान्य ता. (रिउठवेय, जाव सुपरिनिट्टिया ) ते त्रये वह गेरे यारे वेदाना सा। ज्ञाता ता. (तेसि गं माझ्णा * तभी भारिपामी होत्यात महा-नागसिरी, भूपसिरी
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
"
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(२) भृतश्री:, (३) यक्षश्रीव, ताः किं भूताः सुकुमारपाणिपादाः यावत्- सर्वाङ्गसुन्दर्यै:, तेषां खलु ब्राह्मणानामिष्टाः = कमनीयाः, विपुलान् मानुष्यकान् यावत् कामभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति ।
3
ततः खलु तेषां ब्राह्मणानामन्यदा कदाचिदेकतः समुपागतानां यावत् अयमेनूपः = वक्ष्यमाणस्वरूपः मिथः परस्परं कथासमुल्लापः = वार्तालापः समुदपद्यत एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अस्माकमिदं विपुलं धनं गणिमधरिममेयपरिछेध भेदाच्चतुर्विधं यावत् ' सावतेज्जे ' स्वापतेयं - पद्मरागादिरूपं वा अत्र यावत्पदबोध्यं कनकसुवर्णरत्नादिकं तथा मौक्तिकादिकं च विद्यते किंभूतं तदिस्याह- अलाहि पर्याप्त=परिपूर्ण यावत्-आसप्तमात् कुलवंशात् = सप्तम वंश पर्यन्तं
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के अच्छे जानकार थे । ( तेसिणं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था-तं जहा - नागसिरो, भृयसिरी, जवखसिरी, सुकुमाल जाव तेसि णं माहाणं इट्ठाओ ५ विपुले मा० जाव विहरंति ) इन तीनों ब्राह्मणों की तीन स्त्रियां थी । उनके नाम ये हैं । - नाग श्री, भूत श्री, और यक्ष श्री, ये सब सुकुमार करचरणवाली थी यावत् सर्वाङ्ग, सुन्दर थीं । ये तीनों ब्राह्मण इनके साथ मनुष्यभव संबन्धी काम भागों को भोगते हुए आनंद से रहते थे । (तपणं तेसिं माहणाणं अन्नया कमाई एगय ओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुपजित्था ) एक दिन की बात है कि जब ये तीनो भाई एक जगह बैठे हुए थे तब इनका परस्पर में इस प्रकार का विचार चला - ( एवं खलु देवाणुपिया | अम्हं इमे विउले धणे जाव सावतेज्जे अलाहिजाब आसत्तभाओ कुल
जवखसिरी, सुकुमार जात्र तेसि णं माहणाणं इट्ठाओ५ विपुले मा०जाव विहरंति)
આ ત્રણે બ્રાહ્મણેાને ત્રણ સ્ત્રીએ! હતી. તેમનાં નામે આ પ્રમાણે છે. નાગશ્રી, ભૂતશ્રી, અને યક્ષશ્રી. તે ત્રણે ચુકેામળ હાથ અને પગવાળી હતી અને બધાં અંગે તેમનાં સુદર હતાં. ત્રણે બ્રાહ્મણે તેમની સાથે મનુષ્ય ભવના કામભોગ ભાગવતાં સુખેથી રહેતા હતા
( तरणं तेसिं माहणाणं अम्नया कयाई एगयओ समुनागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कासमु समुपज्जित्था )
એક દિવસની વાત છે કે તેઓ ત્રણે ભાઈ એક સ્થાને બેઠા હતા ત્યારે . તેએ પરસ્પર આ જાતના વિચાર કરવા લાગ્યા કે~
( एवं खलु देवाशुपिया ! अई इमे विउ घणे जाव सावतेज्जे अलाहि
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अमगारधामृतषिणी टी० भ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १३७ मकामं दातुं, मकामं भोक्तुं प्रकामं परिभाजयितुम् ततः = तस्मात् श्रेयः = श्रेयस्करं खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! अन्योन्यस्य = परस्परस्य गृहेषु 'कल्लाकल्लिं' कल्याकल्यं प्रतिदिवसं विपुलं = बहुलम् , अशनं पानं खाद्य स्वाधं ' उवक्खडा' उपस्कायुपरिभुजानानां विहर्तुम् । अन्योन्यस्य परस्परस्य एतमर्थं ते त्रयो भ्रातरो ब्राह्मणाः मतिश्रृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य ' कल्लाकल्लि' घंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउ-तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया । अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविउ) हे देवानुप्रियो ! अपने पास विपुलमात्रा में, गणिम, धरिम, मेय, एवं परिच्छेद्यरूप चारों प्रकार का धन है, यावत् पद्मराग आदिरूप स्थापत्य भी हैं, कनक,सुवर्ण,रत्न,मणिमौक्तिक आदि सब कुछ है-और वह इतना अधिक है कि सात पीढी तक भी यदि खूब दान दिया जावे, पैठ २ खूब खाया जावे-और उसका हिस्सा भाग भी कर दिया जावे-तो भी वह समाप्त नहीं हो सकता है। इसलिये हम लोगों को उचित है कि हम लोग प्रति दिन एक दूसरे के घर पर अशन, पान, खाद्य एवं स्थाद्यरूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में धनवावें और ( उवक्खडावित्ता परिभुजमाणाणं विहरित्तए ) बनवा कर उस का भोजन करें। ( अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति ) इस प्रकार का आपस का विचार उन्होंने एक दूसरे का स्वीकार कर लिया। जाव आसत्तमाओ कुलवंसोओ पकामं दाउं पकामं भोत्तं पकामं परिभाएउं तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उपखडाविउं)
હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણી પાસે પુષ્કળ પ્રમાણમાં ગણિમ, ધરિમ, મેય, અને પરિછેદ્ય રૂપ ચારે જાતનું ધન છે. યાવત્ પદ્મરાગ વગેરે રૂપ સ્થાપત્ય प . न सुवण, २त्न, म, माती, पोरे ५धु छ-मन २ छ તે એટલું બધું છે કે સાત પેઢી સુધી પણ જે પુષ્કળ પ્રમાણમાં દાન કરવામાં આવે છતાં તે ખૂટશે નહિ. એથી અમને એ ગ્ય લાગે છે કે અમે બધા દરરોજ એકબીજાને ઘેર અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચાર જાતના माला। पु०४१ प्रभामा मनापावी मने ( उवक्खडावित्ता परिभुजमाणाणं विहरित्तए ). मनावावीन भीस. ( अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणे ति) मा शत બધાએ એકમત થઈને વાત સ્વીકારી લીધી.
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
कल्या कल्यं प्रतिदिवसम् अन्योन्यस्य गृहेषु विपुलमरानादिकमुपस्कारयन्ति । उपस्कार्य परिभुञ्जाना विहरन्ति । ततः खलु तस्या नागश्रियो ब्राह्मण्या अन्यदा= कदाचिदन्यस्मिन् समये ' भोयणवारए 'भोजनवारकः भोजयितुं नियमितो दिवसो भोजनवारकः जातः = समायातश्वाप्यभवत्, ततः खलु सा नागश्रीः विपुलमशनं पान खाद्यं स्वाद्यमुपस्करोति-निष्पादयति, उपस्कृत्य एकं महत् ' सालइयं ' सारचितं - सारेण रसेन चितं युक्तं यद्वा - शारदिकं = शरदृतु भवं ' तित्तालाउअं ' तिक्तालाबुकं = निम्बादिवत् तिक्तरसयुक्ततुम्बीफलं बहुसंभारसंयुक्त=बहुभिः= अनेक विधेः संभारद्रव्यैः शाकादौ स्वादसुगन्धविशेषार्थं हिहुमेथिकाजीरकादीनि व्याघारकद्रव्याणि निक्षिप्यन्ते, तैर्मिश्रितं, 'हावगाढं' स्नेहावगाढं घृतादिलावि तम् (युक्तम्) ' उबक्खडे ' उपस्करोति, उपस्कृत्यैकं विन्दुकं करतले समादाय ( पडिणित्ता कल्ला कल्लि अन्नमन्नस्स गिहेतु विउलं असण ४ उचक्खडावेति ) स्वीकार करके अब वे एक दूसरे के घर पर विपुल मात्रा में निष्पन्न हुए अशनादिरूप चतुविध आहार को खाने पीने लगे। (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था ) किसी एक दिन नागश्री ब्राह्मणी की भोजन बनाने की बारी आई ( तरणं सा नागसिरी विउलं असणं ४ उचक्खडेंति) सो उस दिन उसने विपुल मात्रा में चारों प्रकार का आहार बनाया ( उबक्खडिता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहुसंभार संजुत्तं णेहावगाढं उवक्ख डेइ) आहार बनाकर फिर उसने शरदऋतु में उत्पन्न हुई अथवा रस से सरस बनी हुई तिक्तरसतुंबी का शाक बनाया और उसमें स्वाद एवं सुगंधि के निमित्त हींग, मैथी, जीरे आदि का वधार दिया। उसे खूब अधिक घृत में छोका था इसलिये घृत उसके ऊपर तैर रहा था ।
( पडिणित्ता कल्ला कल्लि अन्नमन्नस्स गिहेसु विउलं असण ४ उक्खडावेंति ) સ્વીકારીને તેએ એકબીજાને ઘેર પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશનપાન વગેરે ચાર જાતના આહારીને ખાવા-પીવા લાગ્યા.
( तरणं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोगणवारए जाए यानि हत्था ) કોઈ એક દિવસે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને ભેજન તૈયાર કરવાના છ આવ્યે ( तरणं सा नागसिरि विउ असणं ४ उवकडे ति ) तेषु ते हिवसे पुण्डज પ્રમાણમાં ચારે જાતના આહાર મનાવ્યા. (उवक्खडिता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहुसंभार सजुतं नेहावगाढं उडे
આહાર બનાવીને તેણે શરતૢ ઋતુમાં ઉત્પન્ન થયેલી અથ તે રસા સરસ થયેલી તિક્તરસવાળી તુંત્રીનું શાક બનાવ્યુ અને તેમાં રદ અને સુગધીના માટે હીંગ, મેથી, જીરૂં વગેરેના વઘાર દીધા હતા એટલે તેની
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नगरचतविणी टी० २०१६ धर्मरुय्यनगारचरितवर्णनम्
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आस्वादयति अस्वाय तत् क्षारं कटुकमस्वाद्यमभोज्यं विषभूतं ज्ञात्वा एवमत्रादीत्धिगस्तु मां नागश्रियमन्यामपुण्यां दुर्भगां 'दुभ सत्ताए' दुर्भगसत्वां दुर्भगं= निष्फलं सन्तं बलं यस्याः सा तां व्यर्थपरिश्रमानित्यर्थः ' दूर्भागणिबोलिए ' दुर्भगनिम्बगुलिका निम्वफलिका, तद्वद् दुर्भगा तां= जनैरनादरणीयामित्यर्थः, अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतस्यात्, 'जीए ' यथा खलु मया शारदिकं बहुसंभारद्रव्यसंभृतं स्नेहाव( उवक्खडिता एवं बिंदुयं करयलंसि आसाएइ) जब वह तैयार शाक हो चुका तब उसने उसमें से एक बिन्दु मात्र शाक अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चखा - (आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खजं अभोजं विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्यु णं मम नागसिरीए अहनाए, अपुन्नाए दूर भगाए दुभगसत्ताए दुभगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहु संभार संभिए नेहावगाढे उचक्खडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाक तो बहुत खारा है, बहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नहीं है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विष जैसा है ऐसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार में उसने कहा- मुझ नागश्री को धिक्कार है, मैं अधन्या और अपुण्या हूँ । जनों के द्वारा आदर पाने योग्य नहीं हूँ । मेरे इस बल को बार २ धिक्कार हो - मेरा यह बल बिलकुल निष्फल है मैंने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीम
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उपर घी वस्तु हुनु (अक्खडिता एवं विदुयं करयल सि आसाएइ ) क्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું. ત્યારે તેણે તેમાંથી ફક્ત એક ટીપા જેટલું શાક પેાતાની હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું.
( आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खज्जं अभोज्जं विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी - धिरथु णं मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुन्नाए, दुरभगाए दूभगसत्ताए भगजिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उबक्खडिए) ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તે ખૂબ જ ખારૂં છે, ખૂબ જ કડવું छे, भावासाय नथी, लोभनमा अभ लागे तेवु नथी, या तो और भेवु छे, આમ જાણીને તેણે પાતાંના મનમાં જ વિચાર કર્યાં અને વિચાર કરતાં તેણે પોતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કેમને–નાગશ્રીને-ધિકાર છે, હું ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુણ્યા છું. હું લેાકેા દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી. મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારૂં આ ખળ સાવ નકામું છે. શાક તૈયાર કરવામાં જેટલા મે' શ્રમ કર્યાં છે તે બધા નકામા ગયા, જેમ શ્રીમ
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बाताधर्मकथासूत्रे गाढमुपस्कृतं, तेन सुबहुद्रव्यक्षयः-हिङ्गुनीरकादिद्रव्यनाशः, स्नेहक्षया घृतादिक्षयश्चकृतः, तत्-तस्मात् यदि खलु मम 'जाउयाओ ' यातृकाः, देवरभार्याः ज्ञास्यन्ति, 'तोणं' तर्हि खलु मम 'खिसिस्संति खिसिष्यन्ति-निन्दा कोपं च करिष्यन्ति, तत्-तस्मात् यावन्मम यातृका न जानन्ति, तावन्मस श्रेयः-उचितं एतत् शारदिकं तिक्तालाबुकं बहुसंभारस्नेहकृतम् एकान्ते 'गोवेत्तए' गोपयितुम् , अन्यत् शारदिकं मधुरालावुकं मधुरतुम्बीफलं यावत् स्नेहावगाढमुपस्कर्तुम् । एवं की निबौली किसी मनुष्य की दृष्टि में आदर पाने योग्य नहीं होती है उसी प्रकार में भी जनों द्वारा अनादरणीय बनी हूँ। जो मैंने शरद् कालिक अथवा सरस इस तुंबी फल का हिङ्गु, जीरकादि द्रव्यों से युक्त और घृतादि से युक्त शाक बनाया है (सुबहुव्वक्खए, नेहक्खए य कए) इस के बनाने में मैंने व्यर्थ ही बहुत से हिगु जीरे मैंथी आदि द्रव्य का और घृत का विनाश किया है। (तं जाणं ममं जाउयाओ जाणिस्संति, तो, णं मम खिसिस्संति) इस बात को यदि मेरी देवरानी जाने गी तो वे मेरे ऊपर गुस्सा होगी और मेरो निंदो करेंगी। (तं जाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति ताव ममं सेयं एयं सालइयं तित्तालाउय बहुसंभारणेह कयं एगंते गोवेत्तए) इसलिये मुझे अब यही उचित है कि मैं इस शारदिक तिक्तोलाबु के शाक को जो बहुत संभार एवं घृत डालकर बनाया हैं किसी एकान्त स्थान में छुपाकर रख दूँ और ડાની લીંબોળી માણસની સામે આદર મેળવવા યોગ્ય ગણાતી નથી તે પ્રમાણે હું પણ માણસે દ્વારા આદર પ્રાપ્ત કરવા લાયક રહી નથી. એટલે કે હું લેકેની સામે અનાદરણીય થઈ ગઈ છું. મેં શરદુ કાલિક અથવા સરસ તુંખીના ફળનું હીંગ, જીરું વગેરે દ્રવ્યથી યુક્ત અને ઘી વગેરેથી યુક્ત શાક अनाव्युं छे (सुबहु दव्वक्ख ए नेहक्ख ए य कए) मेने तैयार ४२वामा में વ્યર્થ હીંગ, જીરૂ, મેથી વગેરે તેમજ ઘી વગેરે વસ્તુઓને દુર્વ્યય કર્યો છે ( जइणं ममं जाउयाओ जणिस्स ति, तो णं मम खिसिरसति) ने भारा દેરાણીને આ વાતની જાણ થશે તે તેઓ ચોક્કસ મારા ઉપર ગુસ્સે થશે અને મારી નિંદા કરશે.
(तंजाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति ताव ममं सेयं एवं सालइयं वित्तोलाउय बहु संभारणेहकयं एगंते गोवेत्तए )
એથી અત્યારે મને એ જ યોગ્ય લાગે છે કે આ શારદિક તિક્તલાવ્યું ( કડવી તુંબડી) ના શાક ને-કે જે ખૂબ જ સરસ ઘી નાખીને વધારવામાં मन्यु छ- त२५ छुपायाने भूी 66 भने ना यामे (अन्नं सालइयं
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गरधर्मामृत
टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् संप्रेक्षते = विचारयति, संप्रेक्ष्य तत् शारदिकं यावद् तिक्कालानुकं गोपयति=कचित् समाच्छाद्य धरति अन्यत् शारदिकं मधुरालावुकमुपस्करोति = रन्धयति शेशबारादिभिः संस्करोति । तेषां ब्राह्मणानां यावत् सुखासनवरगतानां निजनिजासनेसुखोपविष्टानां तद् विपुलमशन पान खाद्यं स्वाद्यं परिवेषयति तेषां भोजनावसरे भोजनपात्रे ददातीत्यर्थः । ततः खलु ते ब्रह्माणाः 'जिमियत्तु त्तरगया' जिमित
उसके स्थानपर (अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खतए) दूसरी शारदिक मधुर तुंबड़ी का शाक हींग, जीरे और मैंथी का वघार लगाकर घृत में तैरता हुआ बनाएँ ( एवं संपेहेइ, संपेहित्ता तं सालइ य जाव गोपेइ अन्नं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडेइ तेसिं महणानं पहायाणं जाव सुहासनवरगयाणं तं विपुलं असणं ४ परिवे सेइ ) ऐसा उसने विचार किया विचार करके उस शारदिक कडबी तुंबडी के बहुत संभार एवं घृत युक्त शाक एकान्त में छुपाकर रख दिया और दूसरी शारदिक मधुर तुंबडी का शाक हींग जीरे और मैथी का वघार लगाकर घृत में तैरता हुआ बना लिया। इतने में वे तीनों ब्राह्मण स्नान आदि से निबट कर भोजन शाला में आकर अपने २ आसन पर शांति के साथ बैठ गये । उनके बैठते ही उसने उन्हें अशन आदिरूप चारों प्रकार का आहार थालों में परोसा (तएणं ते माहणा जिमिय भुत्तत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परम सुइ
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महराला
जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए) भी शारहिक भीडी तूजडीनु ઘી ઉપર તરી રહ્યું છે એવું શાક હીંગ, જીરૂં અને મેથીમાં વઘારીને બનાઉં, ( एवं संपेहे, संपेत्ता तं सालाइ य जाव गोवेइ, अन्नं सालइयं महुरालाउयं उक्खडे, तेर्सि माहणाणं व्हायाणं जात्र सुहासनवरयाणं तं विपुलं असणं ४ परिवेसेइ )
આ જાતના તેણે વિચાર કર્યો, વિચાર કરીને તે શાકિ કડવી તુંબડીના સરસ ઘીમાં વઘારેલા શાકને એક તરફ છૂપાવીને મૂકી દીધું અને ખીછ શાહિક મીઠી તુંબડી-દૂધી-તું હીંગ, જીરૂં અને મેથીના વઘાર કરીને ઉપર ઘી તરતું શાક બનાવ્યું. એટલામાં તે તે ત્રણે બ્રાહ્મણેા સ્નાન વગેરેથી પરવારીને ભેાજનશાળામાં આવીને પોતપોતાના આસન ઉપર શાંતિથી એસી ગયા. તેમને એસતાં જ તેણે તેને અશન વગેરે રૂપ ચારે જાતના આહાર ચાળીમાં પીરસ્ચા,
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भाताधर्मकथाजस्व भुक्तोत्तरगताः भोजनानन्तरं बहिरागताः सन्तः 'आयंता' आचान्ताः कृतचुलुकाः ' चोक्खा ' चोक्षा-मक्षालितहस्तमुवाः परमशुचिभूताः ‘सकम्मसंपउत्ता' स्वकर्मसंप्रयुक्ताः स्वस्वकार्यसंलग्ना जापाचप्यभवत् । ततः खलु ताः ब्राह्मण्यः स्नाताः यावत् वस्त्रालंकारविभूषितास्तद् विपुलमशन पान खाद्य स्वायम् आहारयन्ति-आहारकुर्वन्ति भुञ्जते स्म । आहत्य, यौव स्वकानि स्वकानि गृहाणि= आवासभवनानि तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य स्वकर्मसं प्रयुक्ता जाताः ॥ सू० १॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहपरिवारा जेणेव चंपा नामं नयरी जेणेव सुभूमिभागे भूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था) आहोर जब परोसो जा चुका-तप उन सबने उसे खाया पीया-और खा पीकर जब वे निपट चुके तब उन्होंने कुल्ला आदि कर अपने मुँह का प्रक्षालन किया-और हाथों को साफकर वे अपने २ कार्य में लग गये। (तएणं ताओ माहणीओ होयाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं ४ आहारे ति, आहारित्ता जेणेव सयाई २ गेहाई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सकम्म संपउत्ताओ जायाओ) इसके बाद उन ब्रह्मणियोंने जो कि पहिले से ही स्नान कर चुकी थी और अपने २ शरीर को सुन्दर वेष. भूषा से सुसजित किये हुए थी, उस विपुल अशनादिरूप चतुर्विध आहार को खाया-और खाकर के फिर वे अपने २ वामभवनों में चली गई-वहां जाकर अपने २ वे सब काम में लग गई ॥ सूत्र १॥ . (तएणं ते माहणा जिमिय मुत्तुत्तरागया समाणा आयंता, चोक्खा परममुह भूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था)
આહાર જ્યારે પીરસાઈ ગયે ત્યારે તેઓ ત્રણે જમ્યા અને જમી પર વારીને કે ગળા વગેરે કરીને હાથ માં સાફ કર્યા અને હાથ મેં સાફ કરીને તેઓ ત્રણે પિતાપિતાના કામમાં પરોવાઈ ગયા. (तएणं ताओ माहणीओ व्हायाो जाब विभूसियाओ तं विपुलं असणं४ाहारिता जेणेव सयाइं२ गेहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाभो)
ત્યારબાદ તે બ્રાહ્મણીએએ-કે જેઓએ પહેલાં સ્નાન કરીને પોતાના શરીરને સુંદર વસ્ત્રોથી શણગાર્યું હતું–તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલ અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતને આહાર કર્યો. આહારથી પરવારીને તેઓ પોતપોતાના વાસભવનમાં જતી રહી અને ત્યાં જઈને તેઓ સર્વે પિતપોતાના કામમાં પરોવાઈ ગઈ હસૂ૦૧૫
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खम गार मतिवर्षिणी टी० ४० १६ धर्मध्यगाश्चरितवर्णनम्
उज्जाणे तेणेव उवागच्छति २ अहापडिरुवं जाव विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तरणं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरह, तएण से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसएि सज्झायं करेइ बीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तव उग्गाइ उग्गाहित्ता तहेव धम्मघासे थेरं आपुच्छइ जाव चंपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविट्ठे, तरणं सा नागसिरी माहणी धम्मरुइं एजमाणं पासइ पासित्ता तस्स सालइयस्स बहुसंभारसंभियस्स हावगाढस्त तित्तकडुयस्स पट्ठवणट्टयाए हट्टतुट्ठा उडाए उट्ठेइ उट्टित्ता जेणेव भक्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं च बहुसंभारसंभियं णेहावगाढं धम्मरुइस्स अणगारस्स डिग्गहंसि सव्वमेव निसिरइ, तरणं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जतमितिकट्टु णागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता चंपाए नयरीए मज्झ मज्झेणं पडिनिक्खमइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामंते अन्नपाणं पडिलेहेइ पडिलेहिता अन्नपाणं करयलंसि पडिदंसेइ, तरणं ते धम्मघोसा थेरा सालइयस्स जाव नेहावगाढस्स गंधेणं
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ जाद नेहावगाढाओ एवं बिंदुणं गहाय करयलंांस आसाएइ । तित्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्जं विसभूयं जाणित्ता धम्मरुडं अणगारं एवं वयासी-जइर्ण तुमं देवाणुप्पिया ! एवं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेत्र जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जांब आहारेहि, मा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जेहि, तं गच्छ णं तुमं देवाणुपिया ! इमं सालइयं एगंतमणावाए अञ्चित्ते थंडिले परिद्ववेहि परिववित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्जं असणंपाणं खाइमं साइमं पडिगहित्ता आहारं आहारेहि ॥ सू० २ ॥
टीका' तेणं काले' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा यावत्-बहूपरिवारा:- बहुसाधुपरिवारेण सहिता यत्रैव चम्पा नाम नगरी, यौत्र सुभूमिभागमुद्यानं तत्रैवोपागच्छन्ति, अत्र 'धर्मघोपा' इति बहुवचनमादरार्थं प्रयुक्तम्, उपागत्य यथा प्रतिरूपं यावत् - अवग्रहमवगृह्य संयमेन
तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यदि ॥
टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (धम्पोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नामं नघरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छह, उवागाच्छित्ता अहापडिरूवं जाव विहरति - परिसा निरगया, धम्मो कहिओ परिसा पडिगया-तरणं तेसिं धम्मघोसान थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले
( ते णं कालेणं तेणं समएणं ) इत्यादि ।
टीडार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समरणं ) ते आणे याने ते समये
( धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेत्र चंपा नामं नयरी जेणेब सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उत्रागच्छछ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं जान विहरति परिसानिया, धम्मो कहिओ, परिसापडिगया, तपर्ण सेर्ति मोसा घेराणं
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Pun
जगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरितवर्णनम् १४५ सपसाऽऽत्मानं भावयन्तो विहरति-आसतेस्म । परिषद् निर्गता धर्मः कथितः धर्मकथा कथिता. परिपत् प्रतिगता-धर्मकथा श्रवणानन्तरं प्रतिनिहत्ता । ततः खलु तेषां धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तवासी धर्मरुचिन मानगारः उदारः प्रधानो यावत् संक्षिप्तविपुल तेजोलेश्यः संक्षिप्ता शरीरान्तः संकोचिता, विपुला अनेकयोजन प्रमितक्षेत्रस्थितवस्तुदहनसमर्था, तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषो येन सः जाव तेउलेस्से मासं मासेण खममाणे विहरइ) धर्म घोष नामके स्थविर यावत् अनेक परिवार से युक्त होकर जहां चंपा नगरी, ओर उसमे जहां वह सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहां आये। वहां आकर के उन्हों ने वहाँ टहरने के लिये अपने कल्पानुसार आज्ञा मांगी बाद मे वे वहा संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए ठहर गये । चंपानगरी के ममरून जन उनको चंदना एवं धर्मकथा सुनाने के लिये वहाँ आये। उन्होंने श्रुतचोरित्र रूप धर्मका उपदेश दिया। उपदेश श्रवण कर परिषद अपने २ स्थान पर पीछे गई । इसके अनन्तर इन धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी जिनका नाम धर्मरुचि अनागार था बड़े उदार प्रकृति के थे विशिष्ट तपस्याओं को किया करते थे-उसके प्रभाव से इन्हें तेजोलेश्या की प्राप्ति हो गई थी और वह तेजोलेश्या इन्होंने अपने शरीर के भीतर संक्षिप्त कर रक्खी थी इस तेजोलेश्या का यह स्वभाव होता है कि जब वह शरीर से बाहिर निकलती है तो अनेक योजन प्रमित क्षेत्र में रही हुइ वस्तुओ को भस्मकर देती है । मास क्षपण की उपवास रूप तपस्या अंतेवासी धम्मरूई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणं विहरइ
ધર્મ શેષ નામના સ્થવિર પિતાના ઘણા પરિવારની સાથે જ્યાં ચંપા નગરી અને તેમાં પણ જ્યાં તે સુભૂમિભાગ નામે ઉઘાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે ત્યાં રોકાવાની પિતાના આચાર મુજબ આજ્ઞા માંગી. ત્યાર પછી તેઓ ત્યાં પોતાના આત્માને તપ અને સંયમથી ભાવિત કરતાં રહેવા લાગ્યા. ચંપા નગરીના બધા કે તેમનાં વંદન તેમજ ધર્મકથા શ્રવણ માટે ત્યાં આવ્યા તેઓશ્રીએ થતચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપે. ઉપદેશ સાંભળીને લોકે પતપિતાના નિવાસ સ્થાને જતા રહ્યા. ત્યારપછી ધર્મશેષ વિના અંતેવાસી-જેમનું નામ ધર્મરુચિ અનગાર હતું, જેઓ ખૂબ જ ઉદારે પ્રકૃતિના હતા, વિશિષ્ટ તપસ્યા કરતા રહેતા હતા. જેના પ્રભાવથી એમણે તેઓલેશ્યા મેળવી હતી અને તેજલેશ્યાને તેમણે પિતાના શરીરમાં જ સંકોચી રાખી હતી. આ તે –લેશ્યાને પ્રભાવ આ જાતને હોય છે કે જ્યારે તે શરીરની બહાર નીકળે છે ત્યારે ઘણા જ સુધીના ક્ષેત્રમાં મૂકેલી વસ્તુઓને ભસ્મ કરી નાખે છે-માસક્ષપણની ઉપવાસ રૂ૫ તપસ્યાથી તેઓ
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हाताधर्मदास तया, मास-त्रिंशदहोरात्रात्मकं कालं मासेन-मासक्षपणेन मासोपचाप कर्मणा ' खममाणे' क्षपयन्न्याश्यन् विहरति । ततः खलु स धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां ' सज्ज्ञ यं ' स्वाध्यायं मूत्रपापं करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानम् सूत्रार्थचिन्तनरूपं ध्यायति-करोति, एवं यश गौतमस्वामी, तथैव गौतमस्वामीवत् तृतीयपौरुष्यां भाजनवस्त्राणिपमार्जयति, प्रमार्य भाजनानि 'उग्गाहेइ ' अवगृह्णाति, अवगृह्य यत्रैव धर्मघोषस्थविरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तथैव श्रीमहावीरस्वामीनं गौतमस्वामिवदेव धर्मघोपं स्थविरमापृच्छति, से ये अपने त्रिंशत अहोरात्रात्मक काल को उस समय व्यतीत कर रहे थे । अर्थात् एक महीने की तपस्या इन्होंने उस समय कर रखे थे(तएणं से धम्ममइ अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ बीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छह, जाव चंपार नयरीए उच्च नीय मज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणी र गिहे तेणेव अणुपविटे, तएणं सा नागसिरी माहणी घम्पकाई एज्जमाणं पासइ) ये धर्मरुचि अनगार मासक्षपण की पारणा के दिनप्रधान पौरुषी में सूत्रपाठ रूप स्वाध्याय, द्वितीय पौरुषी में सूत्रार्थ चिन्तन रूप ध्यान
और तृतीय पौरुषी मे गौतम स्वामी की तरह वस्त्रपात्रों का प्रमार्जन करते । इस तरह इन्होंने तृतीय पौरुषी में वस्त्र पात्रो का प्रमार्जन कर अपने पत्रों को उठाया और उठकर ये धर्मघोष स्थविर के पास गये। પિતાના ત્રિશત્ અહોરાત્રાત્મક કાળને તે સમયે પસાર કરી રહ્યા હતા-એટલે કે તેઓ તે સમયે એક માસની તપસ્યા કરી રહ્યા હતા.
(तएणं से धम्मरूइ अणगारे मासखमणपारणगंसि पहनाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरीसए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ, जाव चंपाए नयरीए उच्चनीय मज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविठे, तएणं सा नागसिरी माहणी धम्मरूई एज्जमाणं पासइ)
ધર્મરુચિ અનગાર ગૌતમ સ્વામીની જેમ પ્રથમ પરુપીમાં સૂત્રપાઠ રૂ૫ સ્વાધ્યાય, દ્વિતીય પિરુષીમાં સૂત્રાર્થ ચિંતન રૂપ ધ્યાન અને તૃતીય પરુષીમાં વસ્ત્ર અને પાત્રોનું પ્રમાર્જન કરતા હતા, માસક્ષપણને પોતાના પારણાના દિવસે પણ તેઓએ તૃતીય પૌરુષમાં વસ્ત્ર-પિતાનું પ્રમાર્જન કરીને પિતાના પાત્રને લીધા અને લઈને તેઓ ધર્મષ સ્થવિરની પાસે ગયા. જેમ ગૌતમ
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मनगारधमानी
भनगारधर्मामृतपोषणी टी० भ० १६ धर्मरच्यनगारचरितवर्णनम् १७ यावत्-चंपायां नगर्याधुचनीचमध्यमकुलानि यावदटन् यौव नागश्रिया ब्राह्मण्या गृहं तत्रैवानुमविष्टः । __ततः खलु सा नागश्री ब्राह्मणी धर्मरुचिमनगारम् एजमानम्-आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तस्य 'सालइयस्स' शारदिकस्य तिक्तकटुकस्य-तिक्तकटुकतुम्बकस्य बहुस मारसंभृतस्य स्नेहारगाढस्य पट्ठवणट्टयाए' प्रस्थापनाथ-परिष्ठा. पनार्थ हृष्टतुष्टा 'उहाए' उत्थया-उत्थानक्रियया उत्तिष्ठति, उत्थाय यौव भक्तगृहं तौवोपागच्छति, उपागत्य तद् शारदिकं तिक्त कटुकतुम्बकं बहुसंभारसंभृतं स्नेहावगाडं धर्म हवेरनगारस्य 'पडिग्गहंसि' पतद्ग्रहे-पात्रे, सर्वमेव 'निसिरह' जिस प्रकार गौतन स्वामी श्री महावीर स्वामी से पूछकर आहार लेने के लिये जाते थे उसी प्रकार इन्होंने धर्मघोष स्थविर से आहार लाने के लिये आज्ञा मांगो । आज्ञा प्राप्तकर ये चंपानगरी में उच्च नीच एवं मध्यमकुलो में श्रमण करते हुए जहाँ नागश्री ब्राह्मणी का घर था वहां गये । नागो बाम गी ने इन्हें ज्योंही आते हुए देखा (पासित्ता तस्स सालइयस्स बहु संभारसंभिवस्स हावगाढस्त तितकडुयस्त पट्ठवणट्ठयाए हह तुट्ठा उट्ठाए उठेइ उद्वित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ ) त्योहों यह बहुसंभार संभृत एवं स्नेहावगाढ उसकडवी तुंबडीका आहार देने के लिये उत्थान क्रिया द्वारा-उठी-अर्थात् अपने में रही हुई उठने की शक्ति से उठी और हृष्ट तुष्ट होती हुइ जहाँ भोजन-गृह था वहां गइ । ( उवागच्छित्त। तं सालइयंतित कडुयं च बहुसंभार संभियं णेहावगाई धम्मरुझ्यस्त अगगारस्स पडिग्गहंसिं सत्थमेव निसिरइ ) वहां સ્વામીને પૂછીને આહાર લાવવા માટે નીકળતા હતા તેમજ તેઓએ પણ આહાર લાવવા માટે ધમશેષ સ્થવિરની પાસે આજ્ઞા માંગી. આજ્ઞા મેળવીને તેઓ ચંપા નગરીમાં ઉચ્ચનીચ અને મધ્યમ કુળમાં ભ્રમણ કરતાં જ્યાં નાગશ્રી બ્રાણીનું ઘર હતું ત્યાં ગયા. નાગશ્રી બ્રાહ્મણીએ તેઓને આવતા જોયા (पासित्त' तम्स सालझ्यस्त बहुसंभारसंभियस्स हावागाढस्स तित्तकडुयस्स पढवणट्ठयार हातुट्ठा उठाए उट्टेइ, उद्वित्ता जेणेव भत्तधरे तेणेव उवागच्छद)
ત્યારે તરત જ સરસ વઘારેલે ઘી તરતો કડવી તુંબડીને આહાર આપવા • માટે જાન કિયા વડે ઊભી થઈ એટલે કે પોતાનામાં રહેલી ઊભા થવાની તાકાતથી
તે લી થઈ અને હું તેમજ તુષ્ટ થતી જ્યાં ભેજનશાળા હતી ત્યાં ગઈ. . (उबामच्छित्ता तं सालइयं तिक्तकडुयं च बहुसंभारसंभियं णेहावगा. मरूइयस्स अणगारस्स, पडिग्गइंसिं सबमेव निसिरह)
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-शाताधर्म-कथासूत्रे
निम्सृजति = परिष्ठापयति । ततः खलु स धर्मरुचिरनगारः ' अहापज्जतं ' यथा पर्याप्तम् - उदरपूर्तये पूर्णमेतद् इति कृत्वा = इति मनसि विभाव्य, नागश्रिया ब्राह्मण्या गृहात् प्रतिनिष्क्रामति- निर्गच्छति प्रतिनिष्क्रम्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन प्रतिनिष्क्राम्यति प्रतिनिष्क्रम्य यचैव सुभूमिभागमुद्यानं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धर्मघोषस्य स्थविरस्य 'अदूरसामन्ते = नातिदूरे नातिसमीपे अन्नपानं 'पडिले३' प्रति लेखयति प्रतिलेख्य अन्नपानं करतले पात्रं कृत्वा मतिदर्शयति । ततः खलु ते धर्मघोषाः स्थविरास्तस्य शारदिकस्य तिक्तकटुतुम्बकस्य यावत् स्नेहावगाढस्य गन्धेनाऽभि भूतासन्तस्तस्माच्छारदिकाद् यावद् स्नेहावगाढादेकं विन्दुकं गृहीत्वा करतले कृत्वा आस्वादयति । तिक्तकं क्षारं कटुकम् अखाद्यमभोज्यं विषभूतं ज्ञात्वा धर्मजाकर उसने उस शारदिक कडवी तुंबडी का बहु संभार संभृत एवं 1. स्नेहावगाढ शाक धर्मरुचि अनागार के पात्र में सब का सब डाल दिया ( तणं सेधम्मरुइ अणगारे अहापज्जन्तमित्तिकट्टु णागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ ) इसके बाद वे धर्मरुचि अनगार " यह उदर पूर्ति के लिये पर्याप्त है " ऐसा मन में समझ कर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले पडिक्खिमित्ता चंपाए नयरीए मज्झं मज्झेणं पडिनिक्खमह, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे - तेणेव उवागच्छह, उवागच्छत्तो धम्मघोसस्स अदुरसामंते अन्नपोणं पडिछेहेइ, पडिले: हिता अण्णपाणं करयलंसि पडिदंसेइ, तएणं से धम्मघोसा थेरा तस्स सालइस्स जाव नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूषा समाणा ताओ सालइयाओ जाव नेहावगाढाओ एवं बिंदुगं गहाय करयसि आसाएइ )
ત્યાં જઈને તેણે તે શાદિક કડવી તૂખડીનું ખૂબ જ સરસ રીતે વધા રેલું તેમજ ધી તરતુ શાક લઈ આવી અને ત્યારપછી ધરુચિ અનગારના પાત્રમાં મધુ નાખી દીધું.
( तणं धम्मरूई अणगारे अहापज्जतमित्ति कट्टु णागसिरीए महिणीप गिहाओ पडिनिक्खम )
46
ત્યારપછી તે ધરુચિ અનગાર આ ઉદર પોષણ માટે પર્યાપ્ત છે ” એવું જાણીને નાગશ્રી બ્રાહ્મણીના ઘેરથી બહાર નીકળ્યા.
( पडिनिक्ख मित्ता चंपाए नयरीए मज्झे मज्झेणं पडिनिक्खमइ, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे- तेणेव उवागच्छछ, उनागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदुरसामंते अन्नपाणं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता अण्णपाणं करयलंसि पडिदंसह, तरणं से धम्मघोसारा तस्स सालइस्स जाव नेहावगाढस्स गंघेणं अभिभूया समाणा त सालइयाओ जाव नेहावगादाओ एवं बिंदुगं ग्रहाय करयलंसि आसाएइ )
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मेजगार मृतगी टी० अ० १६ धर्मरुध्यनमारचरितवर्णनम् १४९ रुचिमनगारमेवमवदन् यदि खलु त्वं हे देवोनुप्रिय । एतद् शारदिकं यावत्तिक्तकटुकतुम्बकं यावत् स्नेहावगाढम् आहारयसि आहारं करिष्यसि, तर्हि खल त्वमकाले एक जीविताद् व्यपरोपिष्यसे' एतदशनेन मरणमवश्यं प्राप्स्यसीत्यर्थः । तत् तस्मात् मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! एतद् शारदिकं यावदाहास्य, मा खलु निकल कर चंपानगरी के बीचो बीचसे होकर चल दिये सो जहां सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहां आ गये। वहां आकर वे अपने आ. चार्य धर्मयोष स्थविर के पास आये वहां आकर उन्होंने भिक्षामें प्राप्त हुआ आहार बताया और बताने के बाद उस शारदिक कडवी तुंबडी के यावत् स्नेहावगाढ शाक की गंध से अभिभूत होते हुए उन धर्मघोष आचार्य ने उस शारदिक यावत् स्नेहावगाढ शाक में से एक बिन्दु मात्र को अपने हाथ की हथेली पर रख कर चखा (तित्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्ज विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइ अणगारं एवं वयासी -इणं तुमं देवाणुपिया। एयं सालइय जाब ने हावगाहं आहारेसि तो णं तुमं अकोले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ) चखते ही " यह तिक्त हैं क्षार से युक्त है कटुक है अखाद्य एवं अभोज्ज है तथा विषभूत है" ऐसा जानर धर्मरुचि अनगार से उन्होंने ऐसा कहा हे देवानु प्रिय ! यदि तुम शारदिक कडवी तुंबडो के बहु संभार संभृत एवं स्नेहावगाढ इस शाक का आहार करोगे-तो निश्चय से विना मृत्य के
નીકળીને ચંપા નગરીની વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતાં ત્યાં સુભૂમિભાગ નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ પિતાના આચાર્ય ધર્મઘોષ સ્થવિરની પાસે આવ્યા અને ત્યાં આવીને તેમણે ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા આહારને બતાવ્યું અને બતાવીને તે શારદિક કડવી તુંબડીના સરસ વઘારેલા થી તરતા શાકની સુવાસથી અભિભૂત થતાં તે ધર્મઘોષ આચાર્યે તે શારદિક સરસ વઘારેલા ઘી તરતા શાકને હથેળી ઉપર મૂકીને ચાખ્યું.
(तत्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्नं विसभूयं जाणित्ता धम्मरूई अगगार एवं वयासी-जइणं तुम देवाणुप्पिया ! एयं सालइयं जाव नेहावगा आहारेसि तो गं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि)
ચાખતાં જ “આ તિકત છે, ખારૂં છે, કડવું છે, અખાદ્ય તેમજ અન્ય છે તથા વિષભૂત છે” આવું જાણીને ધમરુચિ અનગારને તેઓએ આ પ્રમાણે કદી કે હે દેવાનુપ્રિય! જે તમે શારદિક કડવી તુંબડીના સરસ વધા કરેલા વીતરતા શાકને આહાર કરશે તે ચોક્કસ તમે કમેતે મરી જશે.
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... चाताधर्मकथागसूत्र स्वमकालएव जीविताद् व्यपरोष्यम्व-मा म्रियस्व । तत्-तस्माद् गच्छ खलु त्वं हे देवानुपिय । इदं शारदिकं ‘एगंतमणावाए ' एकान्तेऽनापाते-एकान्ते निर्जनस्थाने, अनापाते-आपातः-द्वीन्द्रियादिप्राणिनां संयोगस्तद्वर्जिते, अचित्ते= जीवरहिते, स्थण्डिले भूमौ 'परिहवेहि परिष्ठापय, परिष्ठाप्यान्यत् प्रासुकमेपणीयं = द्वाचत्वारिंशदोपरहितं, शुद्धम्-अशनपानखाद्यस्वायम् प्रतिगृह्य आहारमादारय।।०२। ___ मूलम्-तएणं से धम्मरई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिल्लं मरजाओगे-(तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारेहि मा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजहि तं गच्छणं तुम देवाणुपिया ! इमं सालइयं एगंतमगावाए अच्चित्ते थंडिले पडिटोहि, परिवित्तो अन्नं फासुयं एसपिज्जं असणं पाणं खाइमं लाइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेहि) इसलिये हे देवानुप्रिय ! तुम शारदिक कडवी तुंबडी के शाक किसी एकान्त स्थानमें कि जहां दोन्द्रियादि प्राणियोंको संचरण नहीं-और जो अचित्त हो ऐसी भूमि पर परिष्ठापना कर आओ । और परिष्टापना करके फिर प्रास्लुक एषणीय ४ ४२ दोषों से रहित शुद्ध अशन, पान खाद्य स्वाय रूप दूसरे आहार को लेकर भोजन कर लो ।। सू० २॥
(तं माणं तुम देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं जाव आहारेहि माणं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्नहि तं गच्छणं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगतमणावाए अचिते थंडिले पडिहवेहि, परिडवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्ज असणं पाणं खाइम साइमं पडिगाहित्ता आहारं आहारेहि)
એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ શારદિક તુંબડીના શાકને ખાશે નહિ તેથી અકાળે તમારૂં મરણ પણ થશે નહિ. માટે હે દેવાનુપ્રિય! તમે આ આ શારદિક કડવી તુંબડીના શાકની કેઈપણ એકાંત-નિર્જન સ્થાનમાં કે જ્યાં દ્વિન્દ્રિયાદિ પ્રાણીઓનું સંચરણ હેય નહિ અને જે અચિત્ત હોય એવી ભૂમિ ઉપર પરિઝાપના કરી આવે અને પરિઝાપના કર્યા બાદ પ્રાસુક એષણીય ૪૨ દેથી રહિત શુદ્ધ અશન, પાન, ખાદ્ય-વાઘ રૂપ બીજે આહાર લાવી તે पासा२ ५ २ ॥ सूत्र “२"।
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मनगारधामृतवर्षिणी टोका० अ० १६ धज्यिनगारवरितवर्णनम् १५१ पडिलेहेइ, पडिलेहिता तो सालाइयाओ ए विंदुगं गहेइ गहित्ता थंडिलंसि निसिरइ तो णं तस्स सालइयस्स तितकडुयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेण बहूणि पिरोलिगासहस्साणि पाउभूयाई जा जहा य णं पिवीलिका आहारेइ सा तहा अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जइ तएणं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए ५ जाव ताव इमस सालइयस्त जाव एगंमि बिंदुर्गमि पक्खित्तंमि अणेगाई पिपीलियासहस्साई ववरोविजति तं जइ णं अहं एयं सालइयं थंडिलंसि सव्वं निसिरामि तएणं बहूर्ण पाणाणं ४ वहकारणं भविस्सइ, तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जावगाढं सयमेव आहारत्तए, मम चेव एएणं सरीरेणं णिजाउत्तिकद्दु एवं संपेहेइ संपेहिता मुहपोतियं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता ससीसोवरियं काय पमजेइ२ तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूतणं अ. पाणेणं सव्वं सरीरकोटुंसि पक्खिवइ, तएणं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणापाउब्भूया उज्जलाजाव दुरहि• यासा, तएणं से धम्मरुची अणगारे अथामे अवले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे आधारणिज्जमितिकट्ठ आयारभंडगं एगते ठवेइ ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथारेइ संथारित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहिता पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-नमोऽस्थ
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साताधर्मकथागवे णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोव एसगाणं, पुट्विपि गं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावळीवाए जाव परिग्गहे, इयाणिपि णं अहं तेति चेव भगवंताणं अंतियं सव्वं पाणाइवाइं पञ्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सासहिं वोसिरामितिकटु आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालगए ॥ सू० ३॥ ___टीका-ततः खलु स धर्मरुचिरनगारो धर्मघोषेण स्थविरेणैवमुक्तः सन् धर्मः घोषस्य स्थविरस्यान्तिकात् समीपात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागोघानाद् अदरसामन्ते नातिदूरे नातीसमीपे स्थण्डिलं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य ततःस्माद् शारदिकात् तिक्तरुटु कात् तुम्बकादेकं विन्दुकं गृह्णाति, गृहीत्वा स्थण्डिले भूमौ निसिरइ' निसृजतिपरिष्ठापयति । ततः खलु तस्य शादिकस्य
तएणं से धम्मरुई अणगारे इत्यादि ॥ टीकार्थ-( तएणं ) इसके बाद ( से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसे णं थेरेणं एवं बुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिश्वमइ) वे धर्म रुचि अनगार धर्म घोष से इस प्रकार कहे जाने पर धर्मघोष के पास से चले आये (पडिनिक्खमित्ता सुभूमि भागाओ उजागाओ अदर सामंते थंडिलं पडिलेहेह,पडिलेहिता तओ सालइयाओ एगं बिंदुर्ग गहेर, गहित्ता थंडलंसि निसिरह, तो णं तस्स सालइयस्स वित्त कडय
त एणं से धामरूई अणगारे इत्यादि E -( त एणं ) त्या२५७ ( से धम्मलई अणगारे धम्मघोसेगं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स घेरस्म अंतियाओ पडिनिक्खमइ )
તે ધર્મરુચિ અનગાર ધમષની આ વાત સાંભળીને તેમની પાસેથી આવતા રહ્યા. . (पडिनिक्वमित्ता सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थं डलं पडिलेहेइ, पडिलेहिता तो सालइयाओ एग विंदुगं गहेइ, गहित्ता थंडिलंसि निसरह, तो णं तस्स सालइयस्स तित्तकडुयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं बहूणि पिशलिगा
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरित निरूपणम् १५३ तिक्तकटुकस्य तुम्बकस्य बहुसंभारसंभृतस्य स्नेहावगाढस्य गन्धेन बहूनि पिपीलिकासहस्राणि प्रादुर्भूतानि या यथा च ' णं तं शारदिकस्य तिक्तकटुक तुम्बकस्य विन्दुकं पिपीलिका आहरति, सां तथा अकाले एव "जीवियाओ वनरोक्विज्जइ ' जीविताद व्यपरोप्यते = प्राणेभ्यो वियुज्यते म्रियते ' इत्यर्थः, ततः खलु प्रिपीलिकाविराधनमवलोक्य धर्मरुवेरनगारस्यायमेतद्रूपः = वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्या· त्मिकः=५ आत्मगतः चिन्तितः = स्मरणरूपः प्रार्थितः = अभिलापरूपः कल्पितः= कल्पनारूपः, मनोगतः = अन्तः प्रकाशितः संकल्पो विचारः समुदपद्यत यदि तावदस्य शारदिकस्य यावत् - तिक्त तुम्बकस्य एकस्मिन् विन्दुके प्रक्षिप्ते सति अनेकानि पिपीलिकासहस्राणि 'ववपरोविज्जंति' व्यपरोप्यन्ते प्राणेभ्यो वियुज्यंते म्रियन्ते । स बहुने हावडास्स गंधेणं बहुणि पिपीलिंगासहस्साणि पाउब्याई जा जहायणं पिपीलिका आहारेड़ सा तहा अकाले वेव जीवियओं ववरो विज्जह) और आकर के उन्होंने सुभूमिभाग उद्यान से न अतिदूर और न अति समीप भूमि की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके फिर उन्होंने उस शारदिक तिक्तकटु-तुंबडी के शाक में से एक विन्दुमात्र शाक लिया और लेकर उसे भूमि पर डाल दिया । तो इतने में ही शारदिक तिक्तकडवी तुंबडी के उस बहुस्नेहावगाढ शाक की गंध से वहां हजारों कीड़िया एकट्टी- एकत्रित हो गई। उनमें से जिस कीड़ीने जिस समय उसे खाया वह कीड़ी उसी समय वहां मर गई । (तएणं तस्स घम्मरुइयस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए ५-जइ तांव इमम्स सालइयम्स जाव एगंमि बिन्दुगंमि पक्खित्तंमि अगाई पिपलिया सहस्त्राणि पाउन्भूयाई जा जहायणं पित्रीलिका आहारेइ सा तहा अकाले चैत्र जीवियाओ वचविज्जइ )
અને આવીને તેમણે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનથી વધારે દૂર પણ નહિ અને વધારે નજીક પણ નહિ એવા સ્થાને ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેએ તે શારદિક-તિકત કડવી તૂખડીના શાકમાંથી એક ટીપા જેટલું શાક લીધું અને લઈને તે ભૂમિભાગ ઉપર નાખી દીધું, નાખતાંની સાથે જ ત્યાં શારદિક તિકત-કડવી તુંબડીના થી તરતા શાકની સુવાસથી હજારે કીડીએ એકઠી થઈ ગઈ. તેએમાંથી જે જે કીડીએ તે શાકને ખાધું હતું તે તે તરતજ
ત્યાં મરી ગઈ.
तपणं तस्स धम्मरुइयस्स अणगारस्ए इमेयारूवे अज्झत्थिए ५ जइ ताव इमइस सालइयस्स जाव एगंमि बिंदुगंमि पक्खियम्मि अणेगाई पित्रीलिया सहस्साई
क्षा १९
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शाताधर्मकथासूत्रे
यत्तस्माद् यदि खल्वहमेतद् शारदिकं ' थंडिलंसि ' स्थण्डिले = भूमौ सर्व निसिरामि' निस्सृजामि= परिष्ठापयामि, ' तोणं ' तर्हि खलु बहूनां प्राणानां= प्राणाः सन्त्येषामिति प्राणाः प्राणवन्तस्तेषां तथाभूतानां जीवानां तत् तस्माद् श्रेयः श्रेयस्करं खलु ममेदं शारदिकं तिक्तकटुकालायुकं यावत् - स्नेहावगाढं स्वयमेव आहारयितुं भोक्तुम्, ममेव ' एएण' एतेन तिक्ततुम्बकाहारेण 'सरीरेणं' शरीरं खलु ' णिज्जाउ' निर्यातु - निर्गच्छतु नश्यतु 'त्तिकट्टु ' इति कृत्वा इति मनसि निधाय एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते पुनः पुनर्विचारेण शरीरनिर्याणं कर्त
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TP
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सहस्साई बबरोविज्जंति, तं जणं अहं एवं सालहयं थंडलंसि सबं निसिरामि तणं बहुणं पाणाणं ४ वह कारणं भविस्सइ तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेसए) इस तरह पिपीलिकाओ की विराधना, देखकर धर्मरूचि अनगार को इस प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प-विचार हुआ यहां संकल्पके चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित इन तीन विशेषणों को ग्रहण कर ने के निमित्त सूत्र में ५ का अंक दिया है। जब इस शारदिक तिक्त कडवी तुंबडी की शाक की एक बिन्दु मात्र जमीन पर डालने पर अनेक पिपीलिका सहस्र प्राणों से वियुक्त हो जाती हैं तो मैं जब इस शारदिक तिक्त कडवी तुंबी के शाकको पूरेरूपमें जमीन पर परिष्ठापित कर दूंगा तो अनेक प्रणियों ४ के वह विराधना का कारण होगा इसलिये मुझे उचित है कि मैं ही इस शारदिक तिक्त कड़वी तुंबडी के इस बहुत मसालेदार एवं स्नेहावगोड बहुत घृतसे युक्त शाक को स्वयं आहार कर जाऊँ । ( मम चैव एएणं सरीरेणं णिज्जाउसिक एवं संपेहेइ संपेहिता मुहपोतियं २ बबरोविजंति, तं जइणं अहं एयं सालइयं थंडलंसि सव्वं निसिरामि तरणं बहु पाणा ४ वह कारण भविस्सइ तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेत्तर
આ પ્રમાણે કીડીઓની વિરાધના જોઇને ધરુચિ અનગારને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત્ મનેાગત સ’કલ્પ-વિચાર-ઉદ્ભજ્યેા. અહીં સંકલ્પના ચિતિત, પ્રાર્થિત, કલ્પિત આ ત્રણે વિશેષણાના ગ્રહણ માટે સૂત્રમાં ૫ ના અંક આપ વામાં આન્યા છે કે જ્યારે આ શારદિક તિકત કડવી તૂખડીના શાકના ફક્ત એક ટીપાને પૃથ્વી ઉપર નાખવાથી ઘણી કીડીઓ હજારા પ્રાણાથી વિયુકત થઈ જાય છે ત્યારે હું શારદિક કડવી તુંબડીના બધા શાકને પૃથ્વી ઉપર નાખીશ ત્યારે તે અનેક પ્રાણીઓ ૪ ની વિરાધનાનું કારણ થશે. એથી મને એજ ચેાગ્ય લાગે છે કે હું આ શારદ્વિક તિકત કડવી તુંબડીના આ સરસ મસાલાવાળા અને શ્રી તરતા શાકને પાતે જ ખાઈ જાઉં,
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भनगारधर्मामृतर्षिणी टी० १० १६ धर्मरुध्यनगारचरितवर्णनम् . निश्चिनुते । संप्रेक्ष्य-' मुहपोतियं ' मुखपोत्तिकांसदोरकमुखत्रिका रजोहरणं व प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य 'ससीसोवरियं ' सशीर्षापरिचरणतलाद् मस्तकोपरिभागर्यन्तं कायं-शरीरं, ‘पमज्जेइ ' प्रमार्जयति, प्रमायं तद् शारदिकं तिक्तकटुकं बहुसंभारसंभृतं स्नेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना सर्व शरीरकोष्ठके-उदरे प्रक्षिपति मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य धर्मरुस्त पडिलेहेइ, पडिलेहिता ससीसोवरियं कार्य पमज्जेह पमजित्ता तं सालहयं तित्तकडुयं वहुनेहावगाढं बिलमिव पनगभूएणं अपाणेणं सव्वं सरीरकोसि पक्खिवइ) मेरा ही शरीर इस तिक्त कटु तुंबडी के आहार से नाश होवे इस प्रकार उन्होंने अपने मनमें पार २ सोचा सोचकर अपने शरीर के निर्याण करने का उन्होंने निश्चय कर लिया। निश्चय करने के अनन्तर सदोरक मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण इनकी उन्होने प्रतिलेखना करके फिर वे चरण तल से लेकर मस्तकोपरिभाग पर्यन्त तक के समस्त अपने शरीर की प्रमार्जना करके उन्होंने उस शारदिक तिक्त कडवो तुंबडी के बहुत मसाला से युक्त एवं स्नेहावगाट बहुत घी से युक्त समस्त शाक का आहार कर लिया-जिस प्रकार सर्प जब बिल में प्रविष्ट होता है तय बिल के दोनों पर्श्वभागों को स्पर्श नहीं करता हुआ उसमें सोधा प्रविष्ट हो जाता है-उसी तरह वह शाक रूप सर्प भी मुख रूप पिल के दोनों पार्श्वभागों को स्पर्श नहीं करता हुआ सीधा गले से होकर पेट में चला गया। (तएण तस्स
(मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउत्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता मुहपोत्तियं २ पडिलेहेइ, पडिलेहिता ससिसोवरियं कायं पमज्जेइ पमज्जित्ता सं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पनगभूएणं अप्पाणेणं समं सरीर कोहसि पक्खिवइ)
મારું શરીર જ આ તિક્ત કડવી તુંબડીના આહારથી નષ્ટ થાય. આ રીતે તેણે પિતાના મનમાં વારંવાર વિચાર કર્યો. વિચારીને પિતાના શરીરને નષ્ટ કરવાને તેમણે મક્કમ વિચાર કર્યા બાદ તેણે સદરક મુખત્રિકા અને રોહરણની તેમણે પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેમણે પગના તળિયાથી માંડીને મસ્તક સુધીના પિતાના આખા શરીરની પ્રમાર્જના કરી ત્યારે તેમણે તે શારદિક તિકત કડવી તુંબડીના સરસ મસાલાવાળા અને ઉપર થી તરતા બધા શાકને આહાર કરી લીધે. જેવી રીતે સાપ જયારે દરમાં પ્રવેશે છે ત્યારે દરના બંને પાર્શ્વભાગને સ્પર્શ કર્યા વગર તેમાં સીધે પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે તેમજ તે શાક રૂપી સાપ પણ મુખ રૂપી દરના બંને પાશ્વભાગને સ્પર્યા વગર સીધું ગાળામાં થઈને પેટમાં જતું રહ્યું.
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
शारंदिकं यावत्- स्नेहावगाढम् आहारितस्य= भुक्तवतः सतो मुहूर्तान्तरेण परिण म्यमाने = आहारे परिणाम प्राप्ते सति शरीरे वेदना प्रादुर्भूता सा कीदृशी ? त्याहउज्ज्वला = वीवा, याबद् दुरहियासा' दुरध्यासा=दुरधिसहा - असह्येत्यर्थः । ततः खलु से धर्मरुचिरनगारो ऽस्थामा, हीनपराक्रमः, अवल:- मनोबलरहितः अवीर्यः = हतोत्साह : अपुरुषकार पराक्रमः, पुरुषार्थहीनः, ' अधारणिज्जमितिकट्टु ' अधार णीयमिति कृत्वा - धारयितुमशक्यमिदं शरीरमितिमनसि विचार्य ' आयारभंडगं आचारमाण्डकम् - आचाराय आचारपालनार्थ भाण्डक =भाण्डोपकरणं वस्त्रपात्रादिक धम्मरुइस्स त सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुह तरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जलो जाव दुर हियासा-तरण से धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिस कारपरक अधारणिज्जमित्ति कटु अपारभंडगं एगंते ठवेइ, ठवि ता डिल्लं पडिलेड, पडिलेहित्ता दग्भसंधारगं संधारेह, संधारित दभसंधारगं, दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्याभिनु संगलियंक निसन्ने कर o परिहिये एवं वयासी ) शाक उन धर्मरुचि अनगार के पेट में
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वते ही एक मुहूर्त के बाद जब वह पचने लगा तब उनके शरी में उज्ज्वल यावत् दुरधिध्यास वेदना प्रकट हुई। इस से वे धर्मरुचि अनगार पराक्रम से हीन, मनोबल से विहिन, हतोत्साह होकर पुरुवार्थ रहित बन गये । यह शरीर अब धारण करने से अशक्य हो रहा है ऐसा जब उन्होंने प्रतीत होने लगा तब उन्होंने अपने आचारभांडक पंचविध आचार पालने के लिये जो वस्त्र - पात्रादिक थे उनको - एकान्त में रख दिया - रखकर फिर उन्हों ने संस्तारक भूमि की
( aणं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जात्र नेहावगाढं : आहारियस्स समा णस्स मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरंगंसि वेणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा - तरणं से धम्मरूई अणगारे अथामे, अबले अवीरिए अपुरिसकारपरTea अधारणिज्जमित्ति कट्टु आयारभंडगं एगंते ठवेइ, ठविता थंडिल्लं पडिलेहेर, पडिलेहिता दभसंधारगं संथारेद, संधारिता दभसंधारगं दुरुह दुरुहित्या पुरस्थाभिमुद्दे से पलियेक निसन्ने करयलपरिगहियं एवं वयासी શાક તે ધરુચિના પેટમાં પહોંચતાં જ એક મુહૂત પછી જ્યારે તેનું પાચન શરૂ થયું ત્યારે તેમના શરીરમાં ઉજ્વલ યાવત્ દુરભિધ્યાસ વેદના થવા માંડી. તેથી તે ધરુચિ અનગાર પરાક્રમ વગર, મનેાખળ વગર હુતાત્સાહી થઈ ને પુરુષાર્થ વગર ખની ગયા. હવે આ શરીર ટકવું અશકય થઇ પડયુ છે એવી જ્યારે તેને પ્રતીતિ થવા લાગી ત્યારે તેમણે પાતાના આચાર
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अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० १६ धर्म रुच्यनगारचरितवर्णनम् १५७ मित्यर्थः, एकान्ते स्थापयति, स्थापयित्या स्थण्डिलं सस्तारकभूमिं प्रतिले खति, प्रतिलेख्य दर्भस्तारकं 'संथारेइ' संस्तृणाति आस्तृतं करोति संस्तीर्य, दर्भसंस्तारक दृरोहति आरोहति, दूरूह्य पौरस्त्याभिमुखः पूर्वदिगभिमुखः, ' संपलियंकनिमन्ने ' संपल्यङ्क निषण्णः पद्मासनसंनिविष्टः, करतलपरिगृहीतं संयोजितहस्त तलद्वयं मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा एवं-चक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् स्वमनस्युक्तवान् ,
" नमोऽत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं,
--मोऽत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं " नमोऽस्तु खलु अर्हद्भयो भगवद्भयो यावत् संप्राप्तेभ्यः, नमोस्तु खलु धर्मघोषेभ्यः स्थविरेभ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि दीक्षाग्रहण कालेऽपि खलु मया धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवं 'यावत् परिग्रहः' अत्र यावच्छब्देन-सर्वो मृपावादः, सर्वमदत्तादानं सर्व मैथुनं च प्रत्याख्यातम् , तथा-सर्वः परिग्रहः प्रत्याख्यातः। इदानी पि खलु अहं तेषामेव भगवतामन्ति के सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि या त् परिगहं प्रत्याख्यामि याव. प्रतिलेखना की प्रतिलेखना करके फिर उसके ऊपर उन्होंने दर्णसंस्तारक को बिछाया-बिछाकर फिर वे उसपर बैठकर फिर पूर्वदिशा की और मुखकर पर्यङ्कासन से उस पर विराजमान हो गये विराजमान होकर उन्होंने अपने दोनों हाथों को जोड़ा ओर मस्तक पर उसकी अंजलि रखकर इस प्रकार अपने मन ही मन वे कहने लगे( नमोत्युणं अरिहंतागं जाव संपत्ताणं, णमोत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं पुम्विपिणं मए धम्मधोमाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चखाए जावजीवाए जाव परिग्गहे. इयाणि पि अहं तेसिंचेव भगवंताणं अंतियं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव ભાંડક-વસ્ત્ર પાત્ર વગેરેને એકાંતમાં મૂકી દીધાં. મૂકયા બાદ તેઓએ સસ્તારક ભૂમિની પ્રતિલેખના કરી. પ્રતિલેખના કરીને તેની ઉપર તેમણે દર્ભ સંસ્તા રક કર્યો દર્ભસંસ્કારક પાથરીને તેઓ તેની ઉપર બેસીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને પર્યકાસનથી તેની ઉપર વિરાજમાન થઈ ગયા. વિરાજમાન થઈને તેઓએ પિતાના બંને હાથને જેડયા અને તેમની અંજલી બનાવીને મસ્તક ઉપર મૂકી અને પિતાના મનમાં જ કહેવા લાગ્યા.
(नमोत्थु ण अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायारियाणं धम्मोवएसगाणं पुबि पि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव जीवाएं जाव परिग्गहे, इयाणि पि अहं तेसिं चेव
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बाताधकथाहर ज्जीवं, यथा-स्कन्दकः स्कन्दकवत् यावच्चरमै-रुच्छ्वासैः, 'वोसिरामितिका व्युत्सृजामि-शरीरं परित्यजामि' इति कृत्वा 'आलोइय पडिकते' आलोचितपति कान्तः-पूर्वकृतं यदतीचारजातं तदालोचितं, पुनरकरणप्रतिज्ञया प्रतिक्रान्तं येन स तथाभूतः समाधिप्राप्तः आत्मसमाधियुक्तः कालगत: मरणं प्राप्तः ॥मू०३॥ __ मूलम्-तएणं ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अणगारं चिरं
गयं जाणित्ता समणे निग्गंथे सदाति सहावित्ता एवंवयासी परिग्गहं पच्चक्खामि जाव जीवाए जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सा सेहिं वोसिरामित्ति कटु आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते कालगए) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अरिहंत भगवंतो के लिये मेरा नमस्कार हो-धर्मोपदेशक मेरे धर्माचार्य श्री धर्मघोषस्थविर के लिये मेरी नमस्कार हो मैंने पहिले दीक्षा ग्रहण के समय उन धर्मयोष स्थविर के समीप ममस्त प्राणातिपात, समस्त मृषावाद, समस्त प्रदसादान, समस्त मैथुन तथा समस्त परिग्रह जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यात कर दिया है। अब भी मैं उन्हीं भगवंतो के समक्ष समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का यावज्जीव प्रत्यख्यात करता हूँ। यावत् अन्तिम श्वासोतक स्कन्दककी तरह इस शरीरका परित्याग करता हूँ। इस प्रकार मन ही मन कह कर वे धर्मरूचि अनागार आलोचित प्रतिक्रान्त बनकर आत्मसमाधिमें तल्लीन होते हुए मरण प्राप्त हुवे । सू०३।। भगवंताणं अंतियं सव्वं पागाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जान जीवाए जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहि वोसिरामित्ति कटु आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालगए)
થાવત્ સિદ્ધગતિ મેળવેલા અરિહંત ભગવંતેના માટે મારા નમસ્કાર છે. ધર્મોપદેશક મારા ધર્માચાર્ય શ્રી ધર્મષ સ્થવિરના માટે મારા નમસ્કાર છે. પહેલાં દીક્ષા ગ્રહણ કરતી વખતે મેં તે ધર્મઘોષ સ્થવિરની પાસે સમરત પ્રાણા તિપાત, સમસ્ત મૃષાવાદ, સમસ્ત અદત્તાદાને સમસ્ત મિથુને તથા સમસ્ત પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતું. અત્યારે પણ તે જ ભગવંતેની સામે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત યાવત્ સમસ્ત પરિગ્રહોનું યાજજીવ પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. જીવનના છેલ્લા શ્વાસ સુધી સકન્દકની જેમ આ શરીરનો ત્યાગ કરું છું. આ રીતે પિતાના મનમાં જ કહીને તે ધર્મ-રુચિ અનગાર આચિત પ્રતિકાંત થઈને मात्मसमाधिमा तीन यतi भ२०५ पाया. ॥ सूत्र "3" ||
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ममगारधर्मामृतवर्षिनी टीका: भ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १५९ -एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मई अणगारे मासखमण. पारणगंसिं सालइयस्स जावगाढस्सणिासरणट्टयाए बहिया निग्गए चिरगए तं गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! धम्मरुइस्स अणगारस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेह, तएणं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिलं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटं जीवविप्पजढं पासंति पासित्ता हा हा अहो अकज्जमितिकटु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति करित्ता घम्मरुइस्स आयारभंडगं गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमति पडिक्कमित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हे तुभं अंतियाओपडिनिक्खमामोर सुभूमिभागस्स उजाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्व जाव करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा०२ जाव इहं हव्वमागया, तं कालगए णं भंते ! धम्मलई अणगारे इमे से आयारभंडए, तएणं ते धम्मघोसा थेरा पुत्वगए उवओगं गच्छंति गच्छित्ता समणे निर्गथे निग्गंथीओ यसदावेंति सहावित्ता एवं क्यासी -एवं खलु अजो ! मम अंतेवासी धम्मरुची नाम अणगारे
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१६०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
पगइभद्दए जाव विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविट्ठे, तरणं सा नागलिरी माहणी जाव निसीरइ, तपणं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमितिकट्टु जाव कालं अणवकखेमाणे विहरति, से णं धम्मरुई अणगारे बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डुं सोहम्मजाव सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे देवताए उवबन्ने, तत्थ णं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता, तत्थ धम्मरुइस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता से पणं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहि तं धिग्त्थुणं अज्जो ! नागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुन्नाए जाव णि बोलियाए जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारण सि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चैव जीवि याओ वरोविए ॥ सू० ४ ॥
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टोका - तरणं ते ' इत्यादि । ततः खलु = इतश्च ते धर्मोपः विरा धर्मरं चिरं गतं बहुकाल गतं ज्ञात्वा श्रपणान निर्ग्रन्या शब्दांत,
तरणं ते धम्मघोसा थेरा इत्यादि ॥
टीकार्थ - ( एणं ) इसके बाद ( ते धम्मघोसा थेरा) उन-धर्मघोष स्थविरने ( धम्मरुई अणगारं ) धर्मरुचि अनगार का विषय जाणता बहुत देर के गये हुए जानकर ( समणे निग्गंथे महावेंति, सदाविना एवं
तरणं ते धम्मधोसा थेग इत्यादि
टीडार्थ - (तएणं) त्यारजाह ( ते धम्म ऐसा थेरा) ते घोष स्थविर (धम्मरुई अणगार ) भर्धरुत्रि अनगारने ( चिरगयं जाणित्ता ) महुं बणती अडार ગયેલા જાણીને
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6
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम्
-१६१
शब्दयित्वा, एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अत्रादिषुः = उक्तवन्तः, एवं खलु हे देवानुपियाः ! धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारणके शारदिकस्य तिक्तकटुकतुम्बकस्य यावत - स्नेहावगाहस्य णिसिरणद्रयाए ' निसृजनाथं वहिर्निर्गतश्चिरगतः तस्मिन गते सति बहुतरः कालो व्यतीत इत्यर्थः । तत्-तस्माद् गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! धर्मरुचेरनगारस्य सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं = सम्यगन्वेषणं कुरुत । ततः खलु ते श्रमणा निर्ग्रन्था यावत् प्रतिशृण्वन्ति=तथा करिष्यामीत्युक्त्वा तामाझां स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनि
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amrit - एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणट्टयाए बहिया निग्गए-चिरगए, तं गच्छहणं तुभे देवाणुप्पिया ! धम्मरुइयस्स अणगास्स सव्वओ समंता गवेसणं करेह) श्रमण निर्ग्रन्थों को बुलाया | बुलाकर उनोने ऐसा कहा - हे देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार आज मासखमण की पारणा के दिन शारदिक तिक्त कडुधी तुंबडी का बहु संभार संभृत शाक कि जिसके ऊपर घृत तैर रहा था लाये थे- मैंने उसे परिष्ठापन के लिये उन्हें आज्ञा दिया सो वे उसे परिष्ठापन करने के लिये यहां से बाहिर चले गये गये उन्हें बहुत देर हो गई वे अभीतक नहीं आये इसलिये हे देवानुप्रियों ! तुम लोग जाओ और धर्मरुचि अनोगार की सब तरफ चारों दिशाओं मे मार्गणा एवं गवेषणा करो । ( तरणं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुर्णेति, पडि सुणित्ता धम्मघोसाणं
( समणे निग्गंथे सदावेति सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मरूई अणगारं मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणट्टयाए बहिया निग्गयाए - चिरगए, तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! धम्मरूइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेह )
શ્રમણ નિથાને લાવ્યા. મેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું-કે હું દેવાનુપ્રિયા ! ધ રુચિ અનગાર આજે માસ ખમણની પારણાના દિવસે શાર દ્વિક તિકત કડવી તૂ'ખડીનું સરસ વધારેલું ઉપર ઘી તરતું શાક આહાર માટે લાવ્યા હતા. તેઓને મેં પ્રતિષ્ઠાપાનની આજ્ઞા આપી છે, તે પરિષ્ઠાપન માટે અહીંથી મહાર ગયા છે. તેઓને બહાર ગયાને બહુ જ વખત થયા છે, હજી તેએ આવ્યા નથી. એથી હું દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેકે જાઓ અને ધમ રુચિ અનગારની ચામેર માણા તેમજ ગવેષણા કરે,
( तपणं ते समणा निगंधा जाय पडिमुनेति, पडिणिसा धम्मघोसान
का २१
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साताधर्मकथाङ्गसूत्रे कम्य धर्मरुचेरनगारस्य सर्वतः समन्ताद मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो यत्रैव स्थण्डिलंस्थलं धर्मरुवेरनगारस्य कालकरणस्थानं तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य धर्मरुचेरनगारस्य शरीरकं निप्पाणं' निष्पाणाणरहितं, 'निच्चेट' निश्चेष्ट-चेष्टारहितं 'जवविप्पनढं ' जीव विपत्यक्तं-जीवहीनं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हा ! हा ! अहो ! इति खेदे, 'अफज्ज' अकार्यम्=अनिष्टं जातं यद्धर्मरुचिनगारो मृतः, 'तिक?' थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्वमित्ता धम्मरुइस्सअणगाहस्स सव्वाओ समंता मग्गणगवेसणं करे माणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजदं पासंति, पासित्ता हा हा अफज्जमित्ति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्स परि निव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं-करें ति) उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने अपने धर्माचार्य की इस आज्ञा को यावत् स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके फिर वे धर्मघोष स्थविर के पास से निकले निकल कर उन्होंने धर्मरुचि अनागार की चारों दिशाओमें सब प्रकार से मार्गणा गवेषणा की । इस तरह मार्गण गवेषणा करते हुए 'जहां वह स्थण्डिल था-धर्मरुचि अनागार की मृत्यु होने का स्थान थावहां आये वहां आकर के उन्होंने धर्मरुचि अनगोर के शरीर को प्राणरहित, चेष्टो रहित और जीव रहित देखा । देखकर के सहसा उनके मुख से हाय हाय यह खेद सूचक शब्द निकल पड़ा वे कहने लगे यह वडा अनिष्ट हुआ-जो धर्मरूचि अनागार का देहावसान हो गया। थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धण्मरुइस्स अणगारस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्लं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता धम्मरुहस्स अणगारस्स, सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीव विप्पनढं पासंति, पासित्ता हाहा अकज्जमित्ति वडु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिवाण वत्तियं काउस्सग्गं करेंति)
તે નિગ્રંથ શ્રમણોએ પિતાના ધર્માચાર્યની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેઓ ધર્મઘોષ વિરની પાસેથી નીકળીને ધર્મરુચિ અનગારની બધી રીતે ચોમેર માર્ગોણા તેમજ ગષણા કરવા લાગ્યા. આ રીતે માગણ ગવેષણ કરતાં જ્યાં તે Úડિલ હતું-ધર્મરુચિ અનગારના મૃત્યુનું સ્થાન હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓએ ધર્મરુચિ અનગારના શરીરને નિદ્માણ નિચેષ્ટ અને નિર્જીવ જોયું. આ દશ્ય જોતાની સાથે જ તેઓના મુખથી હાય ! હાય ! ના ખેઠ સૂચક શબ્દો નીકળી પડયા. તેઓ કહેવા લાગ્યા કે આ બહુ જ ખોટું થયું છે-ધર્મરુચિ અનગારનું દેહાવસાન થઈ ગયું છે. આ
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अमगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम् १६३ इतिकृत्वा-इतिखेदं कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्य 'परिनिव्वाणवत्तियं' परिनिर्वाणप्रत्ययिकं परिनिर्वाणं मरणं तत्र यन्मृतशरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययोहेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययिकः तं तथा, मृतपरिष्ठापननिमित्तकमित्यर्थः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, कृत्वा धर्मरुचेरनगारस्याऽऽचारभाण्डकं वस्त्रपात्रादिकं गृह्णन्ति गृहीत्वा यत्रैव धर्मघोषाः स्थविरास्तत्रैवोपागच्छन्ति,उपागत्य गमनागमनम् इपिथिको प्रतिक्रामन्ति, प्रतिक्राम्यैवमवादिषुः एवं खलु हे स्वामिन् ! वयं युष्माकमन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामामः प्रतिनिर्गताः, प्रतिनिष्क्रम्य सुभूमिभागस्योद्यानस्य इस प्रकार कहकर उन्होंने वहीं पर मृत शरीर को वोसराने रूप कायोस्सर्ग किया। ( करित्ता० उबागच्छ० ) कायोत्सर्ग करके फिर उन्होंने उन धर्मरुचि अनागार के आचार भांडको को वस्त्र पात्रादिकों को-उठा लिया-उठाकर वे जहां धर्मघोष स्थविर थे-वहां आये ( उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हेतुम्भं अंतियाओ पडि निक्खमामो २ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपे. रंतेणं धम्मरुइस्स अगगारस्स सव्व जाव करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा० २ जाव इहं हवमागया, तं कालगएणं भत्ते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडए - तएणं ते धम्मघोसा थेरा पुत्वगए उवओगं गच्छति गच्छित्ता समणे निग्गंथे निग्गंथोओ य समावेति-सद्दावित्ता एवं क्यासी) आकर के उन्होंने ईगिथिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण करके फिर इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वामिन् ! हम लोग आपके पास से यहां से गये-और जाकर सुभूमिभाग उद्यान की चारों રીતે કહીને તેમણે ત્યાંજ મૃત શરીરને વસરાવા રૂપ કાર્યોત્સર્ગ કર્યો.' (करित्ता. उव.गच्छ० ) योस ४रीने तमामे यथि मनगारा मायार ભાંડકોને તેમજ વસ્ત્રોને લઈ લીધાં અને લઈને જ્યાં ધર્મશેષ સ્થવિર હતા ત્યાં આવ્યા. (उवागच्छित्ता गमगागमगं पडिक्झमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासो-एवं खलु अम्हे तुम्भं अंतियाओ पडिनिक्खमामो २ सुभूमिभागास उन्नाणस्स परिपेरंतेगं धम्मरुस्त अगगारस्त सब जाव करेमाणे जेणे थंडिल्ले तेणेव उवा० जाव इहं हन-मागया तं कालगरगं भंते ! धम्माई अगगारे इमे से आयारभंडए तरण ते धम्मघोसा थेरा पुधगए उपभोग गच्छति गच्छित्ता समणे निगंथे निग्गंधीओ य सद्दावेति-सदावित्ता एवं वयासी) ત્યાં આવીને તેમણે ઈપથિક પ્રતિક્રમણ કર્યું. પ્રતિક્રમણ કરીને તેઓ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે સ્વામિન ! અમે લેકે અહીંથી આપની પાસેથી ગયા અને જઈને સુબમિભાગ ઉદ્યાનની મેર ફરતાં ફરતાં ધર્મરુચિ
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ક
शाताधर्मकथासू
,
' परिपेरंतेणं परिपर्यन्तेन चतुर्दिक्षु परिभ्रमन्तो धर्मरुचेरनगारस्य 'सव्वजाव ' सर्वतः समन्ताद मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो यौन स्थण्डिलं तत्रैवोपागच्छामः, उपागत्य यावद् इह हव्यमागताः स कालगतः खलु हे भदन्त ! धर्मरुचिरनगारः, इमानि ' से ' तस्य, आचारभाण्डकानि । ततः खलु ते धर्मघोषाः स्थविरा: ' पुव्वगए पूर्वगते= दृष्टिवादान्तर्गतश्रुताधिकारविशेषे उपयोगं गच्छन्ति लगयन्ति यदा धर्मरुचिराहारमानेतुं नगर्यां गतस्तदा कस्य गृहे गतः ? केनेदमाहारंदत्त ' मित्यादि ज्ञातुं स्वकीयोपयोगं नयन्तीत्यर्थः, गत्वा स्वकीयोपयोगं लगयित्वा श्रमणान् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थीश्च शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् — एवं खलु हे आर्याः ! ममान्तेवासी - शिष्यः, धर्मरुचिर्नामाऽनगारः 'पगइभद्दए' प्रतिकभद्रकः = प्रकृत्या
दिशाओं में फिरते २ धर्मरुचि अनगार की सर्व प्रकार से मार्गण, गवे - षणा करने लगे । मार्गणा, गवेषणा करते हुए हम लोग फिर उस स्थान पर पहुँचे जहां धर्मरुचि अनगार का शव पड़ा हुआ था वहां से अभी २ हम लोग आरहे हैं । हे भदंत ! वे धर्मरुचि अनगार कालगत हो गये हैं-ये उनके आचार भाण्डक वस्त्र पात्र हैं । इस के बाद उन धर्मघोष स्थविर ने दृष्टि बाद के अंतर्गत श्रुताधिकार विशेष में अपना उपयोग लगाया तो उन्हें यह ज्ञात हो गया कि जब धर्मरुचि आहार लेने के लिये नगरी में गये तो वे किसके घर गये, किस ने यह आहार उन्हें दिया इत्यादि । अपने उपयोग से इस बात को जानकर उन्होंने निर्ग्रन्थ श्रमणों और निर्ग्रन्थ श्रमणियों को बुलाया और वुलाकर उनसे ऐसा कहा - ( एवं खलु अज्जो मम अंतेवासी, धम्महई, णाम
અનગારની બધી રીતે માણા ગવેષણા કરવા લાગ્યા. માણા તેમજ ગવે. ષણા કરતાં અમે લાકે તે જગ્યાએ પહોંચ્યા જ્યાં ધરુચિ અનગારનું મડદું પડયું હતું. અમે લેાકે અત્યારે ત્યાંથી જ આવી રહ્યા છીએ. હું ભદત ! તે ધ રુચિ અનગાર મરણ પામ્યા છે. તેએશ્રીના આ આચાર લાંડક વજ્રપાત્ર છે. ત્યારપછી તે ધર્મ ઘાષ સ્થવિરે દૃષ્ટિવાદના અંતગ ત શ્રતાધિકાર વિશેષમાં પાતાના ઉપયાગ લગાવ્યે. તેમાંથી તેઓને આ વાતની જાણ થઇ કે જ્યારે ધરુચિ આહાર લાવવા માટે નગરીમાં ગયા હતા, ત્યારે તેએ કાના ઘેર ગયા હતા, આ આહાર તેમને કણે આપ્યા હતા વગેરે, પોતાના ઉપયોગથી આ બધી વિગત જાણીને તેમણે નિથ શ્રમણેા અને નિગ્રંથ શ્રમણીઓને પોતાની પાસે ખેલાવી અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે—
( एवं खलु अज्जो मम अंतेवासी, धम्मरूई गाम अणगारे पगइभदए जाव
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ धर्मच्यनगारचरितवर्णनम्
१६५
स्वभावेन भद्रकः - शान्तः, यावद् यावत् करणादिदं द्रष्टव्यम् -' पगइ उवसंते, पगड़ - पशु को हमाणमायालोहे, मिउमद्दवसंपण्णे, आलीणे, भद्दए, इति । प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृति प्रतनुक्रोधमानमाया लोभः, मृदु मार्दवसंपन्नः, आलीनः, भद्रकः, इति । विनीतः । मासं मासेणं' मासं शप्य मासेन = मासक्षपणनामकेन, अनिक्षितेन = अन्तरहितेन, अविश्रान्तेनेत्यर्थः तपः कर्मणा विचरन पारणकदिने यावत्नागश्रिया ब्राह्मण्यगृहमनुपविष्टः, ततस्तदनन्तरं सा नागश्री ब्राह्मणी यावत्शारदिकं तिक्ताला कं 'निसिरइ ' निस्सृजाते पात्रे निक्षिपतिस्म । ततः धर्मरुचि
अणगारे पगइमद्दए जाव विणीए मासं मासेणं अणिक्खिन्तेणं तवोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविट्टे तरणं सो नागसिरी माहणी जाव निसीरह, तरगं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमित्ति कट्टु जाव कोले अणवकखेमाणे विहरइ, सेणं धम्मरुई अणगारे बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं पउजित्ता आलोयपडिक्कते समाहि पत्ते कालमासे कालं किवा उडूं सोहम्म जाव सव्वसिद्धे महाविमाणे देवताए उवबन्ने टिई पण्णत्ता ) आर्थो ! सुनो बात ऐसी है मेरे अन्ते वासी शिष्य- धर्भरुचि अनगार स्वभाव से ही भद्र परिणामी थे । यावत् शब्द से इस पाठ का यहां संग्रह हुआ है " पगह उवसंते पगइ पगणु कोहमाणमाया लोहे मिउमदवसंपणे आलीणे भद्दए "। ये अविश्रान्त अंतर रहित - मास नामखमण पारणा करते थे । आज उनके पारणा का दिन था - सो गोचरीके लिये भ्रमण करते हुए ये नागश्री ब्राह्मणीके घर
foote मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुवि एणं सा नागसिरि माहणी जात्र निसीर, तरणं से धम्मरूई अणगारे अहापज्जमित्ति कट्टु जाब कालं अणवखेमाणे विहरइ, सेणं धम्मरूई अणगारे बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पउणित्ता अलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ड सोहम्म जाव सव्वसिद्धे महात्रिमाणे देवत्ताए उनबन्ने ठिई पत्ता) मार्यो ! सांलणो, वात એવી છે કે મારા અંતેવાસી શિષ્યધ રુચિ અનગાર સ્વભાવથી જ ભદ્ર પરિણામી હતા. યાવત્ શબ્દથી અહીં આ પાઠના संग्रह थयो छे-" पगइ उवसंते " ( पगइपयणु को हमाणमायालोहे मिउमद्दव संपण्णे अलिणे मद्दए ) तेथे अविश्रांत-मंतर रडित - ( निरंतर ) भास अभ કરતા રહેતા હતા. આજે તેમના પારણાનેા દિવસ હતા, તે આહાર માટે ભ્રમણુ કરતાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણીના ઘેર ગયા હતા. બ્રાહ્મણીએ શારદિક તિકત
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शाताधर्मकथासूत्रे
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नगारो यथापर्याप्तमितिकृत्वा = क्षुधानिवृत्तये पूर्णमिति मला यावत् कालम् अवणकं खेमाणे ' अनवकाङ्क्षमाणः विहरति स खलु धर्मरुचिरनगारो बहूनि वर्षाणि श्रमण्यपर्यायं पालयित्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधियाप्तः कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वे ' सोहम्म जात्र सम्बद्धसिद्धे ' सौधर्मादयो द्वादशदेवलोकाः, तत उर्ध्वं नवग्रैवेयकानि तदुपरि यावत् सर्वार्थसिद्धे महाविमाने देवत्वेनोपपन्नः = देवभवं प्राप्तवान् । तत्र= तस्मिन् सर्वार्थसिद्धरिमाने, खलु ' अजहण्गमणुक्को सेणं' अजधन्यानुत्कुष्टेन= जघन्योत्कृष्टवर्जितेन तत्र हि सर्वेषां देवानां स्थितिः समानैव भवति न तु न्यूनाधिककालाविवमेतिभावः । त्रयत्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र धर्मरुवेरपि देवस्य त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, स खलु धर्मरुचिदेवस्तस्माद् देवलोकाद= सर्वार्थसिद्धयमानाद् यावद् च्युतः सन् यावद् महाविदेहे वर्षे सिज्झिहि ' सेत्स्वति, सिद्धिं प्राप्स्यति । तत् = तस्माद् विगस्तु खलु हे पहुंचे । यावत् उसने शारदिक तिक्त कडवे तुंबे की शाम उनके पात्र में बोहराया धर्नरुचि अनगार ने उसको बुवानिवृत्ति के लिये पर्याप्ति मान कर लिया। उन धर्महचि अनगारने अनेक वर्षों तक श्रमण्य पर्याय का पालन किया और पालन करके आलोचित प्रतिक्रान्त होकर वे समाधि में लीन हो गये । काल अवसर काल करके अब वे सौधर्त आदि १२ देवलोको से कार नवत्रैवैय को से भी आगे जो सर्वार्थसिद्धि नाम का विमान है कि जिसमें ३३ सागर की स्थिति हैं और यह स्थिति जहां सब देव की समान हैं उसमें ३३ सागर की स्थितिवाले देव हुए हैं । " अजहण्णमणुको सेणं " जधन्य और उत्कृट तेत्रीस सागरोपन की स्थिति है । ( से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलगाओ जाब महाविदेहे - वासे सिज्झिहिद्द, तं धिरत्यु
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કડવી તુંબડીનું શાક તેમના પાત્રમાં વહેરાવ્યું. ધ રુચિ અનગારે તેને ક્ષુધા નિવૃત્તિ માટે પર્યાપ્ત જાણીને તેને સ્વીકારી લીધુ તે ધરુચિ અનગારે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કર્યુ છે અને પાલન કરીને આલેચિત પ્રતિક્રાંત થઇને તેએ સમાધિમાં લીત થઇ ગયા છે. કાળ સમયે કાળ કરીને હવે તેએ સૌધમ વગેરે ખાર દેવલાકાથી ઉપર નવ ત્રૈવેયકાથી પણ આગળ જે સર્વાસિદ્ધિ નામે વિમાન છે કે જેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિ છે અને આ સ્થિતિ જ્યાં બધા દેવાની સરખી છે, તે તેમાં ૩૩ સાગરની સ્થિતિવાળા દેવ થયા છે. જધન્ય અને विष्ट 33 सागरोपमनी स्थिति छे.
6:
अजमणुको
( सेणं धमरूई देवे ताओ देवलगाओ जान महाविदेहे-यासे तिज्झिदि
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"3
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arrrraneafoot टी० अ० १६ धर्मरुय्यनगारचरितवर्णनम्
१६७
आर्याः ! नागश्रियं ब्राह्मणीमधन्यामपुण्यां यावद् दुर्भः निम्बगुलिकाम्, यथाखलु नागश्रिया ब्राह्मण्या तथारूपः प्रकृतिभद्रत्वादिगुणयुक्तः साधुः धर्मरुचिरनगारी माक्षपणपारण के शारदिकेन तिक्तालाबुकेन यावत् स्नेहावगा देनाsकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः ||५०४ ॥
मूलम्-तएणं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एवमाइवखंति-धिरत्थु णं देवाणुप्पिया ! नागसिरीए माहणीए जाव जिंबोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहूरूवे सालइए जीवियाओ ववशेवेइ, तए णं तेसि समणाणं अंतिए एयमहं सच्चा सम्म बहुजण अन्नमन्नस्स एवम इक्खइ एवं भासइ णं अज्जो ! नागसिरीए माहणीए अधन्नाए, अपुन्नाए, जाव विबोलियाए जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइए जात्र गाढेणं अकाले चेव जीविधाओ रोविए) वे धर्मरूचि देव इस देवलोक से चवकर यावत् महाविदेह क्षेत्र से सिद्धिको प्राप्त करेंगे आर्यो ! अधन्य, अपुण्य यावत् दुर्भग निम्यगुलिका जैसी अनादरणीय उस नागश्री ब्राह्मणी को धिकार हो कि जिसने तथारूप, प्रकृति भद्रस्वादि गुणों से संपन्न साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पोरणा के दिन शारदिक तिक्त कडवी तुंबी का शाक यावत् स्नेहावगाढ बनाकर दिया कि जिससे वे अकाल में मरण को प्राप्त हुए | सू० ४ ॥
तं रत्थु अज्जो ! नागसिरीए माहणीए अपनाए, अपुन्नाए, जाव जिंबोलिया जाए णं तहारूवे साहू धम्मरूई अणगारे मासखमणवारणगंसि साल एणं जाव गाढेणं अकाले चैव जीवियाओ ववरोविए)
તે ધર્માંચિ દેવ તે દેવલેાકથી ચવીને યાવત્ મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી સિદ્ધિને भेजवशे. हे खायो ! अधन्य, अयुष्य, यावत् दुभंग निमगुलिअ नेवी नाદરણીય તે નાગશ્રી બ્રહ્મણીને ધિક્કાર છે કે જેણે તથારૂપ, પ્રકૃતિ ભદ્રંત્વ વગેરે ગુણાવાળા સાધુ ધરુચિ અનગારને માસ ખમણના પરણાંના દિવસે શારદિક તિકત કડવી તુખડીનું શાક-કે જે સરસ વઘારેલું, જેની ઉપર ઘી તરતું स्तु- बाहोरायुं ने सीधे ठाणे मोनु भरथयु | सूत्र "" ॥
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१६८
ज्ञाताधर्मकथाङ्गने धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमहें सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता णागसिरी माहणीं एवं वयासी-हं भो ! नागसिरी ! अपत्थिय पत्थिय दुरंत पंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे धिरस्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए जाव जिंबोलियाए जाव गं तुमं तहारूवे साहू साहरुवे मासखमणपारणंसि सालइएणं जाव ववरोविए, उच्चावएयाहिं अकोमणाहिं अकोमेंति उच्चावयाहिं उदसणाहिं उद्धंसेंति उच्चावयाहिं णिभत्थणाहिं णिभत्थंति उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं निच्छोडोंति तज्जेंति तालेति तज्जेत्ता तालेत्ता सयाओ गिहाओ निज्छु ति, तएणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छुढः समःणी चंपार नगरीए सिंघाडगतियच उक्कचच्चर चउम्मुह बहुजणेणं होलिजमाणी खिंसिज्जमाणी निदिजमाणी गरहिजमाणी तज्जिज्ज झाणी पाहिजलागी धिकारिजामाणी थुक्कारिजमाणी कथइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडिखंडनिवसणा खंडमल्लयखंडघडगहत्थगया फुट्टहडाहडसीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं बलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ, ताणं तीसे नागमिगए महणोए तम्भवंसि चेव सोलस रोयायंका पाउब्भूया, तं जहा-मासे कासे आणिसूल जाव कोढे, तएणं सा नागसिरी माहणी
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अन गारधामृतपरिणी टी० अ०१६ धर्मरुध्यनगारचरितवर्णनम् १६९ सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमहिइएसु नेरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना ॥ सू० ५॥ _टीका-'तएणं ते ' इत्यादि । ततः खलु ते श्रमणाः निर्ग्रन्था धर्मघोषाणां स्थविराणामन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य चंम्पायाँ श्रृङ्गाटक-यावन्महापथेषु बहुः जनस्य एवमाख्यान्ति धिगस्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! नागश्रियं ब्राह्मणी याय दुर्भगनिम्बगुलिकाम् , यया खलु तथारूपः साधुः साधुरूपो धर्मरुचिरनगार:-चार दिकेन यावत्तिक्तालाबुकेन जीविताव्यपरोपितः। ततः खलु तेषां श्रमणानामन्तिके
'तएणं ते समणा निग्गंथा ' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते समणा निम्गंथा धम्मघोसा राणं अंतिएएयमलु सोच्चा निसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एकमाइक्खंति-धिरत्युणं देवाणुप्पिया! नागसिरीए जाव णिवालियाए जाएणं महारूवे साहू साहरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेइ) उन श्रमण निर्ग्रन्थोंने धर्मघोष स्थविर के मुख से इस समाचार को सुनकर और उसका हृदय में विचार कर चंपानगरी में शृंगाटक यावत् महापथों में बहुजनों से ऐसा कहा हे देवानुप्रियो ! ब्राह्मणी नागश्री को धिक्कार है यावत् निम्ब की निबोली जैसी अनादरणीय है कि जिसने तथा रूप साधु-साधुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक यावत् कडबे तुम्बे का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है । (तएणं तेसि समणाणं अं.
'तएणं ते समणा निग्गथा ' इत्यादि2 . (तएणं) त्या२मा
(ते समणा निग्गंथा धम्मघोसा थेराणं अतिए एयमटं सोचा निसम्म चंपाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणस्स एव माइक्वंति-धिरत्युणं देवाणुप्पिया! नागसिरीए माहणीए जाब णिकोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहूरूवे सालइएणं जीवियाओ क्रोवेइ )
તે શ્રમણ નિગ્રંથોએ ધષિ વિરના મુખથી આ વાત સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ચંપાનગરીમાં કંગાટક મહાપ વગેરેમાં ઘણા માણુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! બ્રાહ્મણી નાગશ્રીને ધિક્કાર છે અને તે લીમડાની લીંબેળીની જેમ અનાદરણીય છે કેમકે તેણે તથારૂપ સાધુ સાધુરૂપ ધર્મરુચિ અનગારને શારદિક કડવીબડીનું શાક આપીને મારી નાખ્યા છે.
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साताधर्मकथा एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य बहुजनोऽन्योन्यस्य परस्परस्य एवमाख्याति-एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति, एवं परूपयति धिगस्तु खलु नागश्रिया ब्राह्मण्याः, यया धर्मरुचिरनगारः शारदिकेन यावद् जीविताद् व्यपरोपितः । ततः खलु ते ब्राह्मणा चंपायां नगयों बहुजनस्यान्तिके एतमथं श्रुत्वा निशम्य, आशुरुताः-शीघ्र क्रोधाविष्टाः यावत् मिसमिसन्तः क्रोधानलेन प्रज्वलन्तः,यत्रैव नागश्रीाह्मणी तौवीपागच्छन्ति, तिए एयमटुं सोचा बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासह घिरत्युणं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहण चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमलु सोच्चा निसम्म आसुरत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति) उन श्रमणजनों के मुख से इस समाचार को सुनकर और उसे हृदय में धारण करके अनेक मनुष्य आपस में इस प्रकार कहने लगे बोलने लगे प्रज्ञोपना करने लगे प्ररूपणा करने लगे कि ब्राह्मणी नागश्री को धिक्कार है जिसने धर्मरुचि अनगार को शारदिक-तिक्त कडवे तुंबे के शाक से जीवन रहित करदिया है । इस प्रकार उन ब्राह्मणों ने तथा सोम, सोमदत्त, सोमभूति आदि ने जब चंपानगरी में अनेक मनुष्यों के मुख से इस बात को सुना-तो वे सुनकर और उसे अपने २ हृदय में धारण कर इकदम क्रोध से तमतमा उठे और यावत् क्रोधानल से जलते हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी थी वहां आये(तएणं तेसिं समणाणं अंतिए एयमढे सोच्चा बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ धिरत्थुणं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए, तएणं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरत्ता जाव मिसिभिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उपागच्छंति) તે શ્રમણ લેકના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ઘણુ માણસે એકબીજાની સાથે આ રીતે વાતચીત કરવા લાગ્યા, પ્રજ્ઞાપના કરવા લાગ્યા, પ્રરૂપણ કરવા લાગ્યા કે બ્રાહાણુ નાગશ્રીને ધિક્કાર છે. જેણે ધમરુચિ અનગારને શારદિક-તિકત કડવી તુંબડીના શાકથી મારી નાખ્યા. આ રીતે તે બ્રાહ્મણએ એટલે કે સેમ, સેમદત્ત અને સમભૂતિએ
ત્યારે ચંપા નગરીના અનેક માણસના મુખથી આ વાત સાંભળી ત્યારે તેઓ સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને એકદમ ‘ધાવિષ્ટ થઈ ગયા અને કાધરૂપી અમિમાં સળગતા જ્યાં નાગશ્રી બ્રાહ્મણી હતી ત્યાં આવ્યા
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अमगारधर्मामृतमर्षिणी हो० भ०१६ धर्मरुच्यनगारचरितवर्णनम्
. १७१
"
उपागत्य नागश्रियं ब्राह्मणी मेवमवादिषुः उक्तवन्तः, हं भो ! नागश्रीः ! अमार्थित प्रार्थिके ! मरणाभिलाषिणि ! दुरन्तप्रान्तलक्षणे ! हीनपुण्यचातुर्दर्शिके ! धिगस्तु खलु तव अधन्यायाः अपुण्यायाः यावद्-दुर्भगनिम्बगुलिकायाः, अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी स्वात् यथा खलु त्वया तथारूपः साधुः साधुरूपो धर्मरुचिरनगारो मासक्षपणपारण के शारदिकेन तिक्ताला केन यावद् व्यपरोपितः, ' उच्चावयाहि ' उच्चावचाभिः=उच्चनीचाभिः ' अकोसणादि ' आक्रोशनाभिः = निन्दावचैः नीचाऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनै: ' अक्कोसंति ' आक्रोशन्ति- फटकारयन्ति उच्चावचाभिः उद्धं सनाभिः दुष्कुलोत्पन्नाऽसित्यादिवचनैः, ' उद्धसेंति ' उद्धंसयन्ति - कुलादि( उवागच्छित्ता णागसिरीं माहणों एवं वयासी ) हं भो ! नागसिरी ! अपत्थिय पत्थिय दुरंतपत लक्खणे, हीण पुष्णचाउद्दसे घिरत्थुणं तव अघनए अपुन्नाए जावणिंबोलियाए जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहूरूवे मास खमणवारणसि साल एणं जाव ववरोविए उच्चावएयाहि अक्कोसणाहि अको संति.. उद्ध से ति) वहां आकर न्होंने नागश्री ब्राह्मणीसे कहा अरीओ नागश्री ! अरी अप्रार्थित प्रार्थके । हे दुरन्तप्रान्त लक्षणे | ओ हीन पूण्य चातुर्दशि के ! तुझ अपुण्य अधन्या को धिक्कार हो ! तूं दुर्भग निम्बगुलिका जैसी अनादरणीय है जो तूने मासखमण के पारणा के दिन घरपर आहार लेने के निमित्त आये हुए तथा रूप साधुरूप धर्मरुचि अनगार को शारदिक तिक्त कडवे तुंबे का शाक देकर जीवन से रहित कर दिया है। तूंबडी नीच है इत्यादि रूप ऊँच नीच आक्रोश निन्दा - वचनों से उन्हों ने उसे फटकारा तूं नीच खानदान की
( उवागच्छित्ता णागसिरों माहणीं एवं वयासी-हं भो ! नागसिरी ! अपत्थि य पत्थिय दुरंत पंतलक्खणे, हीनपुष्णचाउद से घिरत्थु णं तब अपनाए अपुन्नाए जाब गिबोलियाए जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहूरूचे मासखमणपारणंसि सालइणं जाव ववरोत्रिए उच्चावण्यादि अक्कोसणाहिं अक्को संति... उर्द्धसे ति) ત્યાં આવીને તેમણે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને કહ્યું કે- કે સુઈ એ નાગશ્રી ! અપ્રાર્થિત પ્રોથકે ! હે દુરત પ્રાંત લક્ષણે ! એ હીનપુણ્ય ચાતુ શિકે! તારા જેવી પાપણી અધન્યાને ધિકકાર છે. તું દુભગ નિખર્ચુલિકા ( લિમાળી જેવી અનાદરણીય છે. કેમકે તેણે માસ-ખમણના પારણાંના દિવસે ઘેર આહાર લેવા માટે આવેલા તથારૂપ સાધુ સાધુરૂપ ધરુચિ અનગારને શારકિ તિકત કડવી તુ બડીનુ શાક આપીને મારી નાખ્યા છે. તું સાવ નીચ છે, આમ ઘણા ઊંચ-નીચ આક્રોષ-નિદા–ના વચનથી તેઓએ તેને ફીટકારી. તુ નીચ
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१७२
माताधर्मकथासूत्र
गौरवात्पातयन्ति, उच्चावचाभिनिर्भत्सनाभिः = परुषवचनैः ' णिन्भत्यंति' निर्भ यन्ति, उच्चावचाभिः ' णिच्छोड़णाहिं ' निभ्छोटनाभिः = ' अस्मद गृहान्दहिनिस्सर इत्यादि वचनै: 'निच्छोडेंति ' निभ्छोटयन्ति = गृहादित्यागभयोत्पादनेन भीषयन्ति, ' तज्जेति तर्जयन्ति ' ज्ञास्यसि पापे !' इत्यादिवाक्यैरकुली प्रदर्शनपूर्वकं ताडनभयं प्रदर्शयन्ति, 'तार्लेति ' ताडयन्ति चपेटादिभिः, तर्जयित्वा ताडयित्वा स्वाद् गृहाद् 'निच्छुभंति' निक्षिपन्ति = बहिर्निःसारयन्ति । ततस्तदनन्तरं सा नागश्रीः स्वकाद् गृहाद 'निच्छूढा समाणा ' निक्षिप्तासती निः सरिता सती, चम्पाया नगर्याः शृङ्गाटक त्रिकचतुष्कचत्वर चतुर्मुखमहापथपथेषु यत्र यत्र
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है इस तरह की ऊँची नीची वाणियों से उसे भला बुरा कहा कुलादि के गौरव से उसे पतित कहा। ( उच्चावयाहिं णिमत्यणाहि णिग्भत्यंति उच्चावयाहि णिच्छोडणाहि निच्छोडेंन्ति, तज्जेति, तार्लेति, तज्जेता तालेता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति ) ऊँचे नीचे कठोर वचनों से Sent frरस्कार किया। भले बुरे वचनो से उसे डरवाया - हमारे घर से तूं बाहिर निकल जा इत्यादि भयोत्पादक शब्दों से उसे भय दिखलाया । ओ पापिनी । तूजे मालूम पड जायगा, इत्यादि वाक्यों से अंगुली दिखा २ कर उसे मारने का भय दिखलाया और चपेटा-थप्पड आदि से उसे पीटा भी। और पीटपाट कर उसे उन्होंने फिर अपने घर से बाहिर निकाल दिया । ( तरणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चंपाए नगरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरच उम्मुह०
ખાનદાનની છે, આ જાતનાં ઉંચા નીચા વચનાથી તેણે ખેાટી ખરી સ’ભળાવી. કુળ વગેરેના ગૌરવથી તેણે પતિતા કહ્યું.
( उच्चावयाहि णिन्मस्थणाहिं निन्मस्थंति, उच्चावयाहि णिच्छोडणाहि निच्छो डेंति, तज्जेति, तार्लेति तज्जेता तालेत्ता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति )
6
ઉંચા નીચા વચનેાથી તેના તિરસ્કાર કર્યાં, ખાટાં ખરાં વચનેાથી તેને श्रीवडावी. અમારા ધરથી તુ બહાર નીકળી જા ’ વગેરે ભયાત્પાદક વચનાથી तेलीने मी मतावी. 'से पायली ! तने भन्न मताववी शु १' वगेरे क्य નાથી સામી આંગળી કરીને તેને મારી નાખવાની ખીક બતાવવા લાગ્યા અને થપડ લાફા વગેરેથી તેને માર પણ માર્યા, મારપીટ કરીને તેઓએ તેને પેાતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકી.
(तपणं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूडा समाणी चंपाए नगरीए सिंघांडगतिगच उक्कचच्चर चउम्मुह० बहुजणेणं हीलिज्माणी खिंसिज्जमाणी
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ धर्मरुच्यनगारचरिवर्णनम् ॥ गच्छति तत्र तत्र सर्वत्र बहुजनेन हीलिजमाणी' हील्यमाना-जात्यायुद्धाटनेन, 'खिसिज्जमाणी' विस्यमाना-परोक्षसनेन, निदिज्जमाणी' निन्धमानातत्परोक्षम् 'गरहिज्जमाणी ' गीमाना-तत्समक्षमेव. 'तज्जिज्जमाणी' तय॑मानाअङ्गुलीचालनेन भयमुत्पादयमाना पवहिज्जमाणी ' मव्यथ्यमाना यष्टयादिताडनेन ‘धिकारिज्जमाणी' धिक्रियमाणा 'थुकारिन्जमाणी' थुक्रियमाणा कुत्रापि बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी, तज्जिज्जमाणी, पब्वाहिज्जमाणी, धिकारि जमागी, शुक्कारिज्जमाणी, कस्थइ ठाणं वा मिलथं वा अलभमाणी र दडि खंडा निवसणा खंड खंडमल्लय खंड खंड घ उगहत्यगया कुड्डाहडनीसा मच्छियाउगरेणं अन्भिज्जमागमग्गा गेहं गेहेणं देहं बलियाए वित्तिकप्पेमाणी विहरई) अपने घर से बाहिरनिकल कर वह नाग श्री चंपानगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुग्व महापथ आदि मार्गों पर जहां २ गई, वहाँ २ सर्वत्र अनेक जनों ने उसकी “ यह नीचजाति की है " इत्यादिरूप से हीलना की । सब के सब उसपर बहुत क्रोधित हुए सक्ने उसकी परोक्ष में निंदा की । सामने सबने उसे भला बुरा कहा। अंगुली संचालन पूर्वक उसे मारने पीटने का भय दिखलाया। किन्हीं २ ने उसे लकडी आदिसे मारा पीटा भी। अनेकों ने उसे धिक्कारा। कितनेक जनों ने उसे देखकर उसपर थूक भी दिया । इस तरह की परिस्थिति मिदिज्जमाणी, गरहिज्जमाणी,तज्जिज्जमाणी पाहिज्जमागी,धिकारिज्जमाणी, थुक्कारिज्जमाणी, कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी २ दंडिखंडा निवसणा खंडमल्लय खंड खंड धउगहत्थगया फुड्डहडाहडसीसामच्छियाचउगरेणं अभिज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं बलियाए वित्ति कप्पेमाणी विहरइ ) પિતાના ઘેરથી બહાર નીકળીને તે ના શ્રી ચંપા નગરીના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, ચતુર્મુખ, મહાપથ વગેરે મા ઉપર જ્યાં ગઈ ત્યાં ત્યાં બધે ઘણા માણસોએ તેની “ આ નીચ જાતની છે” વગેરે વચનેથી હીલના કરી. બધા માણસે તેની ઉપર ખૂબ જ ગુસ્સે થયા. તેની ગેર હાજફીમાં લોકોએ તેની ખૂબ નિંદા કરી, તેની સામે તેને બધાએ ખરી ખોટી સંભળાવી, આંગળી ચીપી ચીપીને તેની સાથે મારપીટ કરવાની બીક બતાથવા લાગ્યા. કઈ કઈએ તે તેને લાકડી વગેરેને ફટકે પણ માર્યો, ઘણઓએ તેને ફિટકારી, કેટલાક માણસેએ તેને જોઈને તેની ઉપર મૂકી ,
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माताधर्मकाणचे स्थानं वा निवासार्थं निलयं वा-अल्पकालविश्रामार्थस्थानम् , अलभमाना २=अमानुवती २, 'दंडीखंड निवसगा' दण्डिखण्ड निवसना-दण्डि-कृतसन्धानं जीर्णवस्त्र, तस्य खण्डं, तदेव निवसन-परिधानं यस्याः सा तथा, 'खंडमल्लयखंडघडगहस्थगया' खण्डमल्लक-खण्डघटकहस्तगता=रवण्डमल्लः-भिक्षर्थ शरावखण्डं खण्डघटकश्च पानार्थ घटखण्डं, तद् द्वयं हस्तगतं यस्याः सा तथा, 'फुट्टहडाहड़सीसा' स्फुटितहड़ाहड़शीर्षा-स्फुटितं स्फुटितकेशं 'हड़ाहड़ा ' अत्यर्थ शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा, विकीर्ण केशवतीत्यर्थ 'मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा' मक्षिका चटकरेण अन्वीयमानमार्गा मक्षिकासमूहेन अनुगम्यमानमार्गा शरीरवस्त्रादीनां मलिनत्वान् मक्षिकास्तत्पृष्ठतो धावन्तीत्यर्थः गेहं गेहेणं देहं बलियाए' गृहं गृहेण देहबलिकया प्रतिगृहं देहनिर्वाहहेतोः उदरपूर्त्यर्थमेवेत्यर्थः-वृत्ति ' कप्पेमाणी' कल्प्यमाना-कुर्वाणा सती विहरति । ततस्तदनन्तरं खलु तस्या नागश्रिया ब्राह्मण्या स्तस्मिन् भवे एव षोडश रोगातङ्काः प्रादुर्भूताः, तद्यथा-(१) श्वासः, (२) कासः, (३) ज्वरः, 'जावकुढे ' यावत्-कुष्ठम् , (४) दाहः, (५) कुक्षिशूलम् , (६) का सामना करती हुई वह कहीं पर भी बैठने के लिये स्थान को, और ठहरनेके लिये-विश्राम करने के लिये-जगह भी को नहीं प्राप्त करती फटे हुए जीर्ण वस्त्र के टुकड़े को पहिरे हुए भिक्षा के लिये मिट्टी के खप्पर को और पानी के लिये फूटे घडे के टुकडे को हाथ में लिये हुए इधर उधर एक घर से दूसरे घर पर उदर पूर्ति के लिये फिरने लगी। इसके शिर के बाल ईधर उधर विखरे हुए रहते थे। शरीर और वस्त्रादिकों के मैले कुचैले होने के कारण मक्षिकाओं का समूह इसके पीछे पीछे २ भागता रहता था। (तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भवंसि चेव सोलसरोयोयंका पाउब्भूया- तं जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव આવી પરિસ્થિતિનો મુકાબલો કરતી કોઈ પણ સ્થાને બેસવાની કે રોકાવાની કે વિશ્રામ કરવાની જગ્યા તે મેળવી શકી નહિ, અને છેવટે ફાટેલા જૂના થના કકડાને વીંટાળીને ભિક્ષાના માટે માટીનું અપર અને પાણીના માટે ફટી માટલીના કકડાને હાથમાં લઈને પેટ ભરવા માટે આમતેમ એક ઘેરથી બીજે ઘેર ભમવા લાગી, તેના માથાના વાળો આમ તેમ અસ્ત વ્યસ્ત રહેતા હતા, શરીર અને વસ્ત્રો વગેરે મેલા હોવાને લીધે માખીઓના ટોળેટોળાં તેની પાછળ પાછળ ભમતાં રહેતાં હતાં.
(तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भवंसि चेव सोलसरोयायंका पाउ. गया- जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव कोडे तरणं सा नागसिरी मारिणी,
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ धर्मरुध्यनगारचरितवर्णनम १७५ भगन्दरः, (७) अर्शः, (८) योनिशूलम् , (९) दृष्टिशूलम् , (१०) मूर्धशूलम् , (११) अरुचिः, (१२) अक्षिवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कण्डूः, (१५) जलोदरम् , (१६) कुष्ठम् । ततस्तदनन्तरं सा नागश्री ब्राह्मणी पोडशभी रोगातङ्करभिभूतासती आतंदुःखाविशार्ता शारीरिकमानसिकदुःखयुक्ता कालमासे कालं करवा षष्ठयां पृथिव्याम् ' उक्कोसेणं' उत्कृष्टतः, द्वाविंशति सागरोपमस्थितिकेषु नरकेषु-नरकावासेषु नारकत्वेन उपपन्ना-उत्पन्ना ॥ सू०५॥ ___ मूलम्-सा णं तओऽणंतरंसि उव्वट्टित्ता मच्छेसु उववन्ना, तत्थ णं सस्थवज्झा दाहवकंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तेत्तीस सागरोवमट्टिईएसु
नेरइएसु उववन्ना, सा णं ततोऽणंतरं उद्वित्ता दोच्चंपि कोढे तएणं सा नागसिरी माहिणी, सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूया समाणी अदृदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसे णं बावीससागरोवमहिइएस्सु नर एसु नेरइयत्ताए उववन्ना) उस नागश्री बामणी को उसी भव में ये सोलह रोगातंक प्रकट हो गये-(१) श्वास (२) कास (३) ज्वर (४) दाह (५) कुक्षिशूल (६) भगन्दर (७) अर्श (८) योनिशूल (९) दृष्टिशूल (१०) मूर्धशल (११) अरूचि (१२) अक्षिवेदना (१३) कर्णवेदना (१४) कण्डू (१५) जलोदर (१६) कुष्ठ । इन १६ सोलहरोगातंको से अत्यन्त दुःखित हुई-शारीरिक एवं मानसिक व्यथाओं से व्यथित हुई-वह नागश्री काल अरसर कालकर छठी पृथिवी में २२ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकावासों नैरपिक की पर्यायसे में उत्पन्न हुई ।। सू० ५॥ सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूया समाणी अट दुइटवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमटिइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना)
તે નાગશ્રી બ્રાહ્મણીને તેજ ભવમાં આ સોળ રોગાતકે પ્રકટ થયા. (१) श्वास (२) आस (3) ४१२ (४) । (५) इक्षिशूर (६) २ (७) मश (८) योनिश्र (6) टिशु (१०) भूपशुस (11) २५३थि (१२) अक्षिवहन (13) ४ वहन। (१४) ४५५ (१५) २ (१६) ४. २मा सो ગાંકેથી અતીવ દુઃખી થયેલી શારીરિક તેમજ માનસિક વ્યથાઓથી વ્યથિત થતી તે નાગશ્રી કાળ અવસરે કાળ કરીને છઠ્ઠી પૃથિવીમાં બાવીસ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં રયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી. સૂ. ૫
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खाताधर्मकथाम मच्छेसु उववज्जइ, तत्थ विय णं सत्थविज्झा दाहवक्कंतीए दोच्चंपि अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीससागरोवमदिईएसु नेरइएसु उववज्जई, सा णं तओहिंतो जाव उन्नद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उववन्ना तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चयि छट्ठीए पुढवोए उक्कोसेणं० . तओऽणंतरं उध्वट्टित्ता मच्छेसु उरएसु एवं जहा गोसाले तहानेयव्वं जाव रयणप्पभाओ सत्तसु उववन्ना तओ उज्व. द्वित्ता जाई इमाइं खहयर विहाणाई जाव अदुत्तरं च णं खर बायर-पुढविकाइ यत्ताते तेसु अणेगसतसहस्स खुत्तो ॥सू०६॥
टीका-'साणं ' इत्यादि। सा=नागश्री ब्राह्मणी खलु ततः= पठ्या पृथिव्या, अनन्तरम् आयुर्भवस्थितिक्षये सति ' उचट्टित्ता' उद्वर्त्य-निस्सृत्य मत्स्येषूत्पत्रा, तत्र खलु मत्स्यभवे सा 'सत्थवज्झा' शस्त्रविद्ध। 'दाहवक्कंतीए' दाहव्युत्क्रान्या-दाहोत्पत्त्या, कालमासे कालंकृत्वाऽधः सप्तम्यां पृदिव्योमुत्कृष्तस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकेभु' नेरा' नैरपिके उत्पन्ना । सा खलु ततः सप्तम्या: पृथिव्याः अनन्तरप्नुवयं हिती पधारमपि मत्स्येवृत्पद्यते । तत्रापि च खलु शस्त्र___ 'सा णं तओ' इत्यादि।
टीकार्थ-(सा) वह नाग-जी तोऽणंतरंसि) उस छट्ठी नरककी भवस्थिति समाप्त होने पर ( उद्वित्ता ) वहां से निकली-और निकलकर ( मच्छेसु उववन्ना तथणं मत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढबीए उक्कोसार ते तीसं सागरोवमटिइएसु नेरइएस्तु उववन्ना, साणं ततोऽणं रं उद्वित्ता दोच्चपि मछेनु उवव- ‘सा तओ' इत्यादि
साथ-(सा) ते नी (त ओत्तरमि) ते ७ न२४ नी मपस्थिति पूरी यया माह ( उवद्वित्ता ) त्यांथी नlsvी मने नजाने
(मच्छेसु उववन्ना तत्य णं सत्यवज्झा दाह वताए कालपासे कालं किच्चा भहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोपाए तेत्तीसं मागवट्टिइएतु नेरइएस उपवना साणं उववज्जइ)
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भमगारधामृतषिणीटी०४० १६ घमरुच्यनगारचरितवर्णनम् १७७ विद्धा दाहच्युत्क्रान्स्या द्वितीयवारमपि अधः सप्तम्यां पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूपपद्यते, सा खलु ' तओहितो' तस्याः सप्तम्या: पृथिव्याः, यावद् उद्वर्त्य तच्चंपि' तृतीयवारमपि मत्स्येषु उत्पन्ना । तत्रापि च खलु शस्त्रविद्धा 'जाव कालं किच्चा' यावत् दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि षष्ठयां पृथिव्यामुत्कृष्टतो द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नरकेप्रत्पन्ना, सा खलु ततः षष्ठयाः पृथिव्या अनन्तरं ' उवट्टित्ता' उद्वर्त्य = निस्सृत्य उरःपरिसर्पकृत्पन्नाः, तत्र शस्त्रवध्या दाहव्युत्क्रान्त्यामुत्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेषत्पन्ना । एवं यथा गोशरलकस्तथा ज्ञातव्यम्-गोशालकवदस्याज्जई ) तिर्यश्चगति में मच्छ की पर्याय से उत्पन्न हो गई । वहां वह मत्स्य के भव में शस्त्र से विद् होकर दाह की उत्पत्ति से काल अवसर काल कर मरी सो नीचे सप्तम नरक में ३३ तेतीस सागर की उत्कृष्ट स्थितियाले नरकावास में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां से निकलकर फिर वह मत्स्य की पर्याय से उत्पन्न हुई। (तस्थ वि यण सत्थविज्झादाहवक्कंतीए दोच्चंपि अहे सत्तमीए पु०) वहां वह शस्त्र से पुनः विद्ध होकर दाहकी व्युत्क्रान्ति से मरी और मरकर द्वितीयवार भी सप्तम नरक में ( उक्कोसं तेतीससोगरोवमटिइएसु नेरइए उवर. ज्जइ ) उत्कृष्ट-तेंतीस सागर की स्थिति लेकर नैरयिक की पर्याय में उत्पन्न हुई । ( सा गं तो हिं तो जाव उववद्वित्ता तच्चपि मच्छेसु उववना, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चपि छट्ठीए पुढवीए उक्कोसे णं तओऽणंतरं उवद्वित्ता मच्छेसु उरएसु एवं जहा गोसाले
તિર્યંચ ગતિમાં મર છથી પર્યાયની જન્મ પામી. ત્યાં તે મત્સ્યના ભવમાં શસ્ત્ર વડે વીંધાઈને દાહથી પીડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને મરણ પામી અને નીચે સાતમાં નરકમાં ૩૩ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નરયિકની પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંથી નીકળીને ફરી તે મત્સ્યના પર્યાયથી જન્મ પામી. (तत्थ वि य णं सत्थविज्झा दाहयक्तीए दोचंपि अहे सत्तमीए पु०) ત્યાં તે ફરી શસ્ત્ર વડે વિદ્ધ થઈને દાહથી પીડાઈને મરી અને મારીને wile and yy स.तमा न२४मा ( उक्कोसं तेतीससागरोवमट्टिइएसु नेरइए उववज्जइ) 8 33 सनी स्थिति बन नैयिनी पायमi rम पाभी. ( सा णं तओहिं तो जाव उव्वद्वित्ता तचंपि मच्छेसु उववन्ना, तत्थ वि य गं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चंपि छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं तओऽणंतरं
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বামকাথায় वर्णनं बोध्यमित्यर्थः, 'यावरयणप्पभाए सत्तसु उववना' यावद् रत्नप्रभायां सप्तसूत्पन्ना-अयं भावः-उरः परिसर्पभवतो निः मृत्य पञ्चम्यां धूमपभायां पृथिव्यासस्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थितिकेषु नरयिकेवत्पना, ततो निः मृत्य द्वितीय बारमुर परिसर्वेषत्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमणि पञ्चम्यां पृथिमहा नेयध्वं जाव रयणप्पभाओ सत्तसु उववन्ना, तो उव्वद्वित्ता जाई ईमाई खहायर विहाणाइं जाव अदुत्तरं च णं खरवायर पुढविकाइयत्ता ते तेसु अणेगसतसहस्स खुत्तो) वहां से भव स्थिति समाप्त होते ही वह निकली-निकल कर तीसरी बार भी मत्स्य की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां शस्त्र विद्ध होकर दाह की व्युत्क्रान्ति से मरी सो मर कर दुधारा भी छठी ही पृथिवी में २२ बावीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति ले कर उत्पन्न हुई । वहाँ की भवस्थिति समाप्त कर जब वह वहां से निकली तो उरः परिसर्प की पर्याय में उत्पन्न हुई । वहां पर भी वह शस्त्र विद्ध होकर दाह की व्युत्क्रान्ति से-उत्पत्ति से काल अवसर काल कर धूमप्रभा नाम की पंचम पृथिवी में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई । वहां सत्तरह सागर की उत्कृष्ट-स्थिति इसकी हुई। गोशालक की तरह इसका वर्णन जानना चाहिये । तात्पर्य इसका इस प्रकार है१७ सागर की उत्कृष्ठस्थिति वाले पंचम नरक से निकल द्वितीय बार भी वह उरः परिसर्प की पर्याय से उत्पन्न हुई । वहां से पूर्व की तरह उव्वद्वित्ता मच्छेसु उरएमु एवं जहा गोसाले तहा नेयन्वं जाव रयणप्प भाओ सत्तम उववन्ना, तो उन्वद्वित्ता जाइं इमाइं खहयरविहाणाई जाव अदुत्तरं, च णं खरवायरपुढविकाइयत्ता ते तेसु अणेगसतसहस्सखुत्तो) ત્યાંની ભવસ્થિતિ પૂરી થતાં જ તે ત્યાંથી નીકળી અને નીકળીને ત્રીજી વાર પણ માછલીના પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાં શસ્ત્રથી વીંધાઈને તથા દાહથી પીડાઈને મરણ પામી અને તે વખતે પણ છઠી પૃથિવીમાં ૨૨ સાગરની . સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાં ! નીકળી ત્યારે તે ઉરઃ પરિસર્પના પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાં પણ તે શસ્ત્રથી વધાઈને અને દાહથી પીડાઈને કાળ અવસરે કાળ કરીને ધૂમાબા નામની પંચમ પૃથિવીમાં નરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાં ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેની થઈ. ગોશાલકની જેમ આનું વર્ણન જાણી લેવું જોઈએ. મતલબ આની આ છે કે ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા પંચમ નરકથી નીકળીને બીજી વખત પણ તે ઉરઃ પરિસર્પના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંથી પણ પહેલાંની જેમજ કાળ અવસરે કાળ કરીને બીજીવાર પણ આ પંચમ પથિવીમાં
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ धर्मरुध्यनगारचरितवर्णनम् १७९ व्यामुस्कृष्टतः सप्तदशसागरोपमस्थिति केषु नैरयिकेषूत्पन्ना। ततो निः स्मृत्य तृती. यवारमपि उरः प्रतिसर्पकृत्पद्यते, अत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा चतुर्थ्यों पङ्कप्रभायां पृथिव्यामुकतो - दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना, ततो निःमृत्य सिंहेवृत्पद्यते,तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि चतुर्थी पृथिव्यामुत्कृष्टतोदशसागरोपस्थिति केषु नैरयिकेपूत्पन्ना। ततश्चतुर्थ्याः पृथिव्याः निःसृत्य द्वितीयवारमपि सिंहपुत्पद्यते, तत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा तृतीयायां बाहुकप्रभायां पृथिव्यामुत्कृष्टतः सप्तसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना, ततो निः सृत्य पक्षिघूत्पद्यते, तत्र पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि तृतीयायां पृथिव्यामुस्कृष्टतः काल कर दितीयवार भी यह पंचम पृथिवी में १७ सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले नरकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां की स्थिति समाप्त कर जब यह वहां से निकली-तो तीसरी बार भी यह उरः परिसों में उत्पन्न हुई । वहाँ से पूर्व की तरह काल कर चौथी पंक प्रभा पृथिवी में कि जहां १० सागर की नैरथिकों की उत्कृष्ट स्थिति है वहाँ नैरयिक की पर्याय से उत्पस्न हुई। वहां से निकल कर यह सिंह की पर्याय में उत्पन्न हुई । पहिले की तरह वहां से भी मर कर द्वितीय बार भी यह चतुर्थ नरक में दश सागर की स्थिति वाले नरक में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। चतुर्थ नरक से निकल कर यह दुवारा भी सिंह को पर्याय से उत्पन्न हुई । वहां से अपने समय पर मर कर फिर यह बालुका प्रभा नाम की तीसरी पृथिवी में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर नैयरिक की पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां से निकल कर फिर यह पक्षियों के कुल में उत्पन्न हुई । यहां से मर कर ૧૭ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નરકેમાં નરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ત્યાંની સ્થિતિ પૂરી કરીને જ્યારે તે ત્યાંથી નીકળી તે ત્રીજી વાર પણ તે ઉર પરિસર્ષમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંથી પહેલાંની જેમ કાળ કરીને ચોથી પંકપ્રભા પૃથિવીમાં–કે જ્યાં દશસાગરની નિરયિકેની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે, ત્યાં નૈર. યિકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ, ત્યાંથી નીકળીને તે સિંહના પર્યાયથી જન્મ પામી. પહેલાની જેમ ત્યાંથી પણ મરણ પામીને બીજીવાર પણ ચતુર્થ નરકમાં દશ સાગરની સ્થિતિવાળા નરકમાં નૈરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. ચતુર્થ નરકથી નીકળીને તે ફરી સિંહના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી મરણ પામીને ફરી તે વાલુકાપ્રભ નામની ત્રીજી પૃથિવીમાં સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને નરયિકની પર્યાયમાં જન્મ પામી. ત્યાંથી નીકળીને તે ફરી તે પક્ષીઓના કુળમાં
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माताधकथा सप्तसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना । ततस्तृतीयायाः पृथिव्या निः मृत्य द्वितीयवारमपि पक्षित्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्या शर्करप्रभायामुत्कृष्टतस्त्रिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना। ततो निसृत्य सरीस्पेषत्पद्यते, तत्रापि शस्त्रवेध्या दाहव्युत्क्रान्त्या कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयवारमपि द्वितीयायां पृथिव्यामुत्कृष्टतस्त्रिसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषूत्पन्ना । ततो द्वितीयायाः पृथिव्याः निः मृत्य द्वितीयवारमपि सरीसृपेषत्पद्यते, तत्रापि पूर्ववत् कालं कृत्वा प्रथमायां पृथिव्यां रत्नप्रभायामुत्कृष्टत एकसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेपूत्पन्ना, ततो निः मृत्य संज्ञिषु, ततो निः मृत्याऽसंज्ञित्पद्यते, ततो निः फिर यह पुनः तीसरे नरक में सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। यहां से निकल कर पुनः यह पक्षियों के कुल में उत्पन्न हुई । यहां से मर कर फिर यह दूसरी पृथिवी जो शर्करा प्रभा है और जिसके नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति है वहो नैरयिकों को पर्याय से उतनी स्थिति लेकर उ. स्पन्न हुई । वहां से निकल कर सरीसृपों में यह दाह की व्युत्क्रान्ति से मरी तो मर कर द्वितीय वार भी द्वितीय पृथिवी के नरकावासों में तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर उत्पन्न हुई। द्वितीय पृथिवी से निकल कर दुबारा यह सरीसृप में उत्पन्न हुई । वहां से अपने समय पर मर कर रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी में उत्कृष्ट एक सागर की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई। वहां की भवस्थिति समाप्त होने पर यह वहां से निकलकर संज्ञी जीवों में वहां જન્મ પામી. ત્યાંથી મરણ પામીને ફરી તે ત્રીજા નરકમાં સાત સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા નૈરયિકમાં નૈરયિકના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી નીકળીને ફરી તે પક્ષીઓના કુળમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંથી મરણ પામીને ફરી તે બીજી પૃથિવી જે શર્કરપ્રભા છે અને જેના નારકાવાસમાં ત્રણ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે ત્યાં નરયિકના પર્યાયથી તેટલી જ સ્થિતિ લઈને જન્મ પામી. ત્યાંથી નીકળીને સરીસૃપમાં તે ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાં શસ્ત્રથી વધાઈને તથા દાહથી પીડાઈને મરણ પામી અને ત્યારપછી બીજીવાર પણ બીજી પૃથિવીને નરકાવાસોમાં ત્રણ સાગર જેટલી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ લઈને ઉત્પન્ન થઈ. બીજી પૃથ્વિથી નીકળીને બીજીવાર તે સરીસૃપમાં ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંથી યથા સમય મરણ પામીને રત્નપ્રભા નામની પ્રથમ પૃથ્વિમાં ઉત્કૃષ્ટ એક સાગરની સ્થિતિવાળા નરકા વાસમાં નરયિકના પર્યાયતી ઉત્પન્ન થઈ ત્યાંની ભવસ્થિતિ પૂરી કરીને તે ત્યાંથી નીકળીને સંર-ામાં, ત્યાંથી પણ મરણ પામીને અસંસીમાં
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मृत टीका अ० १६ धर्मरुव्यनगारब रितवर्णनम् રો नृत्य द्वितीयवरमपि प्रथमायां पृथिव्यां पल्योपमस्याऽसंख्येयभागस्थितिकेषु 'नैरयिकेषु नैरयिकतयोत्पन्ना ' इति ।
' तओ उबट्टित्ता ' तत उद्वर्त्य - रत्नप्रभातो निःसृत्य यानि इमानि ' खरंयरविहाणाई' ' खचरविधानानि चर्मपक्ष्यादीनि भवन्ति तेषु, यावत् अथोत्तरं च खलु यानीमानि खरवादरपृथिवी कायिकविधानानि तेषु खरबादरपृथिवीकायिकतयाऽनेकशतसहस्रकृत्वः समुत्पन्ना ।। सू०६ ।।
मूलम् - सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबूद्दोवे दीवे भारहेवासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि दारियन्ताए पच्चायाया तरणं सा भदा सत्थवाही णवण्हं मासाणं० दारियं पयाया सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं, तीसे दारियाए निव्वत्तवारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिष्पन्नं नामधेज्जं करेंति - जम्हा
अहं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होउणं अहं इमी से दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया, तरणं तीसे दारियाए अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति सूमालियत्ति, तपणं सासूमालिया दारिया पंचधाई परिग्गहिया तं जहा - खीरधाईए से भी मर कर असंज्ञी जीवों में और फिर वहां से मर कर फिर दुबारा भी प्रथम पृथिवी में १ एक पल्य के असंख्यात वें भाग प्रमाण स्थितिवाले नरकावासों में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुई । उस रत्न प्रभा पृथिवी से निकल कर फिर यह जितने ये पक्षिभेद हैं-चर्म पक्षी आदि हैं - उनमें और उनके बाद जो ये खर-बादर - पृथिवीकायादि भेद हैं उनमें खरबादर पृथिवीकाधिकरूपसे लाखों बार उत्पन्न हुई || सू० ६ ॥
અને ફરી ત્યાંથી મરણ પામીને ખીજીવાર પણ પહેલી પૃથ્વિમાં ૧ એક પલ્યના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુ સ્થિતિવાળા નરકાવાસામાં નૈરયિકના પર્યાયથી જન્મ પામી. તે રત્નપ્રભા પૃથ્વિથી નીકળીને ક્રૂરી તે જેટલા પક્ષી ભેદો છેથમ પક્ષી વગેરે છેતેએમાં અને ત્યારપછી ખર-ખાદર પૃથ્વિીકાય વગેરે ભેદ છે તેમાં ખર-ખાદર પૃથ્વિકાયિકના રૂપમાં લાખા વાર જન્મ પામી, સૂ. ૬
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શ્
hattarai tere
जाव गिरिकंदरमालीणा इव चंपकलया निव्वाए निव्वाघायंसि जाव परिवड्ढइ, तपणं सा सूमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावा जान रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठ सरीरा जाया यावि होत्था ॥ सू० ७ ॥
"
टीका - ' साणं तओ' इत्यादि । सा खलु नागश्रीः ततोऽनन्तरम् उद्वर्त्य जम्बूद्वीपे दीपे भारते वर्षे चम्पायां नगर्यां सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य भद्राया भार्यायाः कुक्षौ ' पच्चायाया ' प्रत्यायाता गर्भेसमागता । ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्वेणु अष्टमेषु रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु दारिकां साणं तओतरं' इत्यादि ।
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टोकार्थ - (सा णं तओऽणंतरं उदट्ठित्ता ) इसके बाद वह नागश्री खर पृथ्वी कायिका से निकल कर ( इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वाले चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसिदारियत्ताए पच्चायाया ) इसी जंबूद्वीप नाम के द्वीप में स्थित भारतवर्ष नामके क्षेत्र में वर्तमान चंपानगरी में सागरदत्त सेठ की धर्मपत्नी- भद्रा की कुक्षि में पुत्रीरूप से अवतरी ( तरणं सा भद्दा सत्थवाही नवहं मासाणं दारियं पासा सुकुमालकोमलियं गयनालुयसमाणं तीसे दारियाए वित्त बारिसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिष्पन्नं नाम घेज्जं करेंति, जम्हाणं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुप समाणा सं होणं अहं इमीसे दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया ) भद्रा सार्थ
,
'सा णं तओऽनंतर' उवट्ठित्ता' इत्यादि
टीडार्थ - ( साणं तओडणंतर' उवद्वित्ता) त्यारपछी ते नागश्री पर पृथ्वि वि४थी नीउणीने ( इहेब जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदस सत्यवास्स भद्दा भारियाए कुच्छिसि दायित्ताए पच्चायाया ) એ જ જ બુઢીપ નામના દ્વીપમાં આવેલા ભારત નામના ક્ષેત્રમાં વિશ્વસાન ચ'પાનગરીમાં સાગરદત્ત શેઠની ધર્મપત્ની ભદ્રાના ઉદરમાં પુત્રી રૂપમાં અવતરી. ( तरणं सा भद्दा सत्यवाही नवन्दं मासाणं० दारियं पयाया सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं ती से दारियाए निव्वत्तवारिसाहियाए अम्मावियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिफन्नं नामधेज्जं करेंति, जम्हाणं अम्हं एसा दारिया सुकु माला गयतालुयसमाणा तं होडणं अहं इमी से दारियाए नामधेज्जे सुकुमालिया)
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अगरधर्मामृतवर्षिणी डी० अ० १६ धर्महरूयनगारचरितनिरूपणम्
ક્
' पयाया' प्रजाता=प्रजनितवती, किं भूतां दारिकामित्याह - 'सुकुमालकोमलियं' सुकुमारकोमलाम्-अतिमृदुलाम् गजतालुकसमानां अङ्गस्याविकोमलतया गजतालुतुल्यामित्यर्थः । तस्या दारिकाया 'निव्वत्तचारसाहियाए ' निर्वृ द्वादशाहिकायाः सम्प्राप्तद्वादशदिवसायाः अम्वापितरौ मातापितरौ इदमेतदूवं 'गोणं' गौणं गुणेभ्य आगतं प्राप्तं गुणनिष्पन्नं= गुणबोधकं नामधेयं कुरुतः कर्त्तुविचारयतः तथाहि यस्मात् खलु अस्माकमेषा दारिका सुकुमारा गजतालुकसमाना जाता, तद्= तस्मात् भवतु खलु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं सुकुमारिका इति । ततः विचारकरणानन्तरं खलु तस्या दारिकाया अम्वपितरौ नामधेयं कुरुतः 'सुकुमारिका ' इति । ततः खलु सा सुकुमारिका दारिका पञ्चधात्रीपरिगृहीतापञ्चसंख्यकाभित्रीभिः = उपमातृभिः सुरक्षिता जाता, तद् यथा=तासां पञ्चान यात्रीणां नामानि दर्शयति ' खीरधाईए जाब गिरकंदर ' इति । क्षीरधात्र्या= स्तन्य
4
,
वाहिके गर्म के नौ मास तथा साढे सात दिन रात पूर्णरूप से व्यतीत हो चुके तब उसने पुत्रीको जन्म दिया। यह पुत्री अत्यन्त कोमल अंगवाली थी इसी लिये गजका तालु भाग जिस प्रकार मृदुल होता है यह वैसी ही कोमल थी । जब यह १२ बारह दिन की हो चुकी-तब इस के मातापिताने इसका 'यथा नाम तथा गुण' इस कहावत के अनुसार गुणों को लेकर नाम संस्कार करने का विचार किया । विचार करने के बाद उन्होंने इस ख्याल से कि यह हमारी पुत्री अत्यन्त सुकुमार और गज तालुका के जैसी मृदुल है अतः इसका नाम सुकुमारिका रहे (एणं तीसे दारियाए अम्मा पियरो नामघेज्जं करेंति सूमालियत्ति ) उस कन्या का नाम सुकुमारिका रख दिया (तरणं सा सुकुमारियदारिया
ભદ્રા સાર્થવાહીના ગર્ભના નવ માસ અને સાઢા સાત દિવસ રાત પૂરા થઈ ચૂકયા ત્યારે તેણે પુત્રીને જન્મ આપ્યા. આ પુત્રી અતીવ કેશમાંગી હતી. હાથીના તાળવાના ભાગ જેવા સુકામળ હાય છે, તે તેવી જ કામળ હતી. જ્યારે તે ખાર દિવસની થઈ ગઈ ત્યારે તેના માતાપિતાએ જેવું નામ તેવા ગુણવાળી એ કહેવત મુજબ ગુણ્ણાના આધારે તેના નામ 'સ્કાર કરવાને વિચાર કર્યાં, વિચાર કર્યાં બાદ તેએએ પેાતાની પુત્રીની સુકામળ દૃષ્ટિ સમક્ષ રાખીને એટલે કે તેઓએ આ પ્રમાણે વિચારીને કે આ મારી પુત્રી હાથીના તાળવા જેવી સુકેામળ છે માટે એનું નામ સુકુમારી રાખીએ.
(तपणं ती से दारियाए अम्मावियरो नामधेज्जं करेति समालियति ) તે કન્યાનું નામ સુકુમારી રાખ્યુ.
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w
tara कथासूत्रे
दायिन्या, यावत्करणादेवं बोध्यम् -'मंडणधाईए' मज्जणधाईए की लावणधाईए अंकधाईए' इति । मण्डनधात्र्या =चत्रमाल्याङ्कालरपरिधाविकया, मज्ज्जनधाय = स्नानकारिकया, क्रीडनधात्र्या या क्रीडां खेलनं कारयति तथा, तथा अङ्कधात्र्या =उत्सङ्गे स्थापिकया च पाल्यमाना, उपलालयमाना आलिङ्गयमाना स्तूयमाना प्रचुन्यमाना, गिरिकन्दरमालीना चम्पकलतेव निर्वाते महावातरहिते निर्व्याघाते= पंचधाई परिग्गहिया तं जहा खीरधाईए जाव गिरिकंदर मालिणा इव
कलया निooty निव्वाघायंसि जाव परिवडूइ-तपूर्ण सासूमालिया दारिया उम्मुकबालभावा जाव रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेणय किट्ठा उकिडसरीरा जाया यावि होत्था ) इसकी रक्षा के लिये माता पिताने ५ घाय माताए - उपमाताएँ रख दी उनकी देखरेख में यह सुरक्षित रहने लगी उनके नाम ये हैं-क्षीरधात्री दुग्ध पान करानेवाली धाय, मंडनधात्री - वस्त्र माला अलंकार आदि पहिरानेवाली धार्य, मज्जन घी - स्नान करोनेवाली घाय, क्रीडन धात्री - खेल कुंद करोनेवाली घाय, अंक धात्री-अपनी गोद में बैठानेवाली धाय, इस तरह इन ५ घाय माताओं द्वारा पालित होती हुई, उपलालित होती हुई, आलिङ्गय मान होती हुई, स्तूयमान होती हुई और प्रचुम्यमान होती हुई यह सुकुमारिका कन्या, गिरिकन्दरा में उत्पन हुई चम्पकलता जैसे महावात से वर्जित एवं उपद्रवों से रहित स्थान में आनन्द के साथ बढ़ता है-उसी प्रकार बढने लगी। धीरे २ बाल्यावस्था से जब यह रहित हो गई -
- तय
(तपणं सा सुकुमारिया दारिया पंचधाई परिम्गहिया तं जहा - खीरधाईए जान गिरिकंदर मालिगा इत्र चंपकलया निव्वाए निव्वाघायंसि जात्र परिवड्डूइतसा सूमालिया दारिया उम्मुक्कवालभावा जात्र रूवेणं य जोन्त्रणेण लावणे यउक्कट्ठा उकि सरीरा जाया यानि होत्था )
તેના રક્ષણ માટે માતા-પિતાએ ૫ ધાય-માતાઓ ઉપમાતાઓની નીમણુંક કરી, તેમનાં નામે નીચે લખ્યા મુજખ છે—ક્ષીરધાત્રી-દૂધ પીવડાવનાર धाय, भरनधात्री वस्त्र, भाजा, असारो वगेरे पडेशवनारी धाय, भन्न. ધાત્રી-સ્નાન કરાવનારી ધાય–કીડનધાત્રી રમાડનાર ધાય, અકધાત્રી-પેાતાના ખેાળામાં બેસાડનારી ધાય, આ રીતે આ ૫ ધાય માતાએ વડે પાલિત થતી– ઉપપાલિત થતી, આર્લિગ્યમાન થતી, સ્તુયમાન થતી અને પ્રચુખ્યમાન થતી તે સુકુમારિકા કન્યા ગિરિક ંદરાઓમાં ઉત્પન્ન થયેલી ચંપકલતાની જેમ મહાવાતથી રક્ષિત તેમજ બીજા ઉપદ્રવેાથી રહિત સ્થાનમાં સુખેથી વધે છે. તેમજ માટી
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अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १८५५ - उपद्रववर्जिते स्थाने यावत् सुखं सुखेन परिवर्धते स्म । ततः खलु सा कुमारिका दारिका उन्मुक्तबालभावा-व्यतीतबाल्यावस्था, यौवनमनुमाप्ता यावद् रूपेण आकृत्या च, यौवनेन तारुण्यवयसा च, लावण्येन-यौवनवयोजनितकान्तिविशेषेण च, उत्कृष्टा -विशेषशोभासम्पन्ना, उत्कृष्टशरीरा-सर्वाङ्गसुन्दरी जाता चाप्यभवत् ॥ सू०७॥ ___मूलम्-तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्थवाहे
अड्डे तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया सूमाला इट्टा जावे माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणा विहरइ, तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूवे, तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ इमं च णं सूमालिया दारिया पहाया चेडियासंघपरिवुडा उपि आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कलमाणी२ विहरइ, तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सूमालियं दारियं पासइ पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवे य३ जायविम्हए कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एस गं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा णामधेनं यौवनने इसके शरीर पर अपना अधिकार स्थापित करना प्रारंभ कर दिया-उस समय यह रूप आकृति-से यौवन-तारुण्य वय से, और यौवन वय जनित कान्ति विशेषसे विशिष्ट शोभा संपन्न हो गई और समस्त इस के शारीरिक अवयव सुंदर हो गये अर्थात् उस समय यह सर्वाङ्ग सुन्दरी बन गई। सू०७।
થવા લાગી. ધીમે ધીમે જ્યારે તે બચપણ વટાવીને યુવાવસ્થા સંપન્ન થવા માંડી ત્યારે તેના શરીર ઉપર યૌવનના ચિહ્નો દેખાવાલાગ્યાં. તે સમયે તે રૂપઆકૃતિ-થી, યૌવન-તારૂણ્ય-થી અને યૌવનાવસ્થા જનિત સવિશેષ કાંતિથી વિશિષ્ટ શોભા સંપન્ન થઈ ગઈ અને તેના શરીરનાં બધાં અંગે સુંદર થઈ ગયાં, એટલે કે તે વખતે તે સર્વાગ સુંદરી બની ગઈ. | સૂત્ર ૭
का २४
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हातापर्मकथा से ?, तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जिणदत्तेण सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! सागरदत्तस्स सस्थवाहस्त धूया भदाए अत्तया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उक्किट्रसरीरा तपणं से जिणदत्ते सत्थवाहे तेसि कोडुंबियाणं अंतिए एयम सोचा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहाए जाव मित्तनाइ परिबुडे चंपाए० जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तएणं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं एजमाणं पासइ पासित्ता आसणाओ अब्भुटेइ अब्भुद्वित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी-भण देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं ?, तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सस्थवाहं एवं वयासी-एवं खल्लु अहं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भहाए अत्तियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए वरेमि, जइ णं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो दिजउणं सूमालिया सागरस्स, तएणं देवाणुप्पिया कि दलयामो सुकं सुमालियाए?, तएणं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्टा जाव किमंग पुण पासणयाए ते नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं तंजइणं देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए
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मंदारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १३ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् भवइ तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामितणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदार सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! सूमालिया ! दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा तं चैव तं जइ णं सागरदारए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि, तरणं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुते समाणे तुसिणोए, तरणं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहुत्तंसि विडले असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आमंतेइ जाव सम्माणिता सागरं दारगं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करिता पुरिससहस्वाहिणि सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सविडीए साओ गिहाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता चंपानयरिं मज्झमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चीरुहावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्त सत्थ० उवणेइ, तपणं सागरदत्ते सत्थवाहे विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेइ उवक्खडवित्ता जाव सम्माणेत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धि पट्टयं दुरूहावेइ दुरूहावित्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावेइ करावित्ता सागरं दारयं सूमालियाए दारियाए पार्णि गिण्हावेइ ॥ सू० ८ ॥
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हाताधर्म कथा ___टीका-' तत्थ णं चंपाए' इत्यादि । तत्र खलु चम्पायां नगयीं जिनदत्तो नाम सार्थवाह आढयो यावद् अपरिभूत आसीत् , तस्य जिनदत्तस्य भद्रा भार्या आसोत्-सा किम्भूता-पुकुमारा इष्टा यावद् मानुष्यकान् ‘पच्चणुब्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्ती विहरति । तस्य खलु जिनदत्तस्य पुत्रो भद्राया भार्याया आत्मजःअगजातः, सागरो नाम दारकः आसीत् स किंम्भूतः-सुकुमारपाणिपादः, सर्वलक्षणसम्पन्नः यावत्-सुरूपः । ततः खलु स जिनदत्तसार्थवाहः अन्यदा कदाचित्
'तत्थ णं चंपाए ' इत्यादि।
टीकार्थ-( तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्यवाहे अड्डे, तस्स गंजिणदत्तस्स भद्दा भारिया, सूमाला इट्ठा जाव माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणा विहरइ) उस चंपा नगरीमें जिनदत्त नामको एक सार्थवाह रहता था जो धनधान्य आदि से विशेष परिपूर्ण एवं जन मान्य था। इसकी धर्मपत्नी का नाम भद्रा था । यह सर्वाङ्ग सुन्दरी थी। समस्त अंग और उपांग इसके बडे ही सुकुमार थे। यह अपने पतिको अत्यन्त इष्ट प्रिय थी। पति के साथ मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगों को भागती हुई यह आनंद के साथ अपने समय व्यतीत किया करती थी (तस्त णं जिणदत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए सुकुमाले जाव सुरूवे ) भद्रा भार्या से उत्पन्न हुओ जिनदत्त सार्थवाहके एक पुत्र था जिसका नाम सागर था । यह सुकुमाल यावत् ... तत्थणं चंपाए इत्यादि
A -(तत्थणं चंपाए नयरीए जिगदत्ते नाम सत्यवाहे अड़े तस्सगं जिग दत्तस्स भद्दा भारिया, माला इट्टा जाव माणुसए काममोए पच्चणुभवमाणा बिहरह) या नगरीमा नहत्त नामे मे साथवाड २७ता तो. ते धन - ધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સંપન્ન તેમજ સમાજમાં પછાતે માણસ હતે. તેની ધર્મપત્નીનું નામ ભદ્રા હતું, તે સર્વાગ સુંદરી હતી. તેના બધા અંગે અને ઉપગે બહુ જ સુકેમાળ હતાં, તે પોતાના પતિને બહુજ વહાલી હતી, પતિની સાથે મનુષ્ય ભવના કામભેગો ભગવતી તે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરી રહી હતી.
(तस्सणं जिणथत्तस्स पुत्ते भदाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए सुकुमाले जाव सुरूवे)
ભદ્રાભાર્યાથી ઉત્પન્ન થયેલે ભદ્રાભાર્યાને એક પુત્ર હતું. તેનું નામ સાગર હતું. તે સુકુમાર યાવત્ સુંદર રૂપવાન હતો.
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भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति=निर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य, सागदत्तस्य गृहस्य 'अदरसामन्ते ' =नातिदूरे नातिसमीपे वोइवयइ ' व्यतिव्रजति गच्छति, 'इमंचणं' अस्मिन् समये मुकुमारिका दारिका स्नाता=कृतस्नाना 'चेडियासंघपरिवुड़ा ' चेटिकासंघपरिवृता-दासीसमूहमध्यगता, उपरि आकाशतलके-प्रासादस्याहालिकोपरि · कणगतेंदुसकेणं' कनकतेंदुससयेन तेंदुसय' इतिदेशीशब्दः, सुवर्णमयकन्दुकेन ‘कीलमाणी २ ' विहरति, ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः मुकुमारिकां दारिकां पश्यति, दृष्ट्वा सुकुमारिकाया दारिकाया रूपे च यौवने च लावण्ये च 'जाव विम्हए' यावत् विस्मिता आश्चर्ययुक्तः सन् कौटुम्बिकपुरुषान्आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादी-एषा स्खलु हे देवानुपिया. ! कस्य दारिका किंवा नामधेयं ' से ' इति तस्याः ?, ततः खलु ते अच्छे रूपवाला था । (तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूर सामंतेणं वीईवयई ) एक दिन जिनदत्त सार्थवाह अपने घरसे निकला और निकलकर सागरदत्तके घरके पाम से हो कर जा रहा था। ( इमं च णं सूमालिया दारिया हाया चेडियासंघपरिवुडा उप्पिागा सतलगंसि कणगतेंदूस एणं कीलमाणी२ विहरइ ) इसी समय सुकुमारिका दारिका नहा धो कर अपने प्रासाद की छत पर दासी समूहके साथ २ सुवर्णमय कंदुक (गेंद ) से खेल रही थी। (तएणं से जिण. दत्ते सत्यवाहे सूमालियं दारियं पासइ पासित्ता सूमालियाए दारियाए स्वेय ३ जाय विम्ह ए कोडुविय पुरिसे सदावेद, सदावित्ता एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं वा-नामधेज्ज से ? तएणं ते
तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयई) .
એક દિવસે જનદત્ત સાર્થવાહ પિતાને ઘેરથી બહાર નીકળે અને નીકળીને સાગરદત્તના ઘરની પાસે થઈને જઈ રહ્યો હતો.
(इमं च णं मूमालिया दारिया ण्हाया चेडियासंघपरिवुडा उप्पि आगाससलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी २ विहरइ)
તે વખતે સુકુમારિકા દારિકા સ્નાન કરીને પિતાના મહેલની અગાશી ઉપર દાસી સમૂહની સાથે સુવર્ણમય કંદુક (દડી) રમતી હતી.
(तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे मूमालियं दारियं पासइ पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवेय ३ जाय विम्हए कोडुबिय पुरिसे सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं. वा नामधेज्ज से ! तएणं ते कोइषिय
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प्राताधकथाजपने कौटुम्बिकपुरुषा जिनदत्तेन सार्थवाहेनैवमुक्ताः सन्तो हष्टतृष्टाः-अतिमुदिताः 'करयल जाव' करतलपरिगृहीतं शिर आवत दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवा; दिषुः-हे देवानुप्रियाः ! एषा सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य 'धूया' दुहिता-पुत्री, भद्राया आत्मना सुकुमारिका नाम दारिका सुकुमारपाणिपादा यावद्-रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्ट शरीरा । ततः खलु स जिनदत्तः सार्थकोडंबिय पुरिसा जिणदत्तेग सत्थवाहेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स धूयाभदाए अत्तिया मूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उकिट सरीरा) खेलती हुई उस कुमारिका दारिका को जिनदत्त सार्थवाह ने देखा-देखकर वे सुकुमारिका दारिका के रूप यौवन एवं लावण्य में आश्चर्यचकित हो गये-और आश्चर्य से युक्त होकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रियो ! यह कन्या किसकी है इसका नाम क्या है । जिनदत्त सार्थवाह के द्वारा पूछे गये उन कौटुम्पिक पुरुषों ने हर्षित हो कर और अपने दोनों हाथों जोड़ कर वडे विनय के साथ उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! यह पुत्री सागरदत्त सार्थवाहकी है । भद्रा भार्या की कुक्षि से यह जन्मी है । इसका नाम सुकुमारिका है । इसके कर चरण बडे ही सुकुमार हैं यावत् रूप, यौवन एवं लावण्यसे यह सर्वोत्कृष्ट है और सर्वाङ्ग सुन्दरी है । (तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे तेसि कोडुबियाणं पुरिषा निणदत्तेण सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं वयासीएसणं देवाणुपिया ! सागरद तस्स सत्यवाहस्स धूया भदाए अत्तिया मूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव, उक्किट्ठसरीरा)
રમતી સુકુમાર દારિકાને જનદત્ત સાર્થવાહ જોઈ જોઈને તેઓ સુકુમાર દારિકાના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યમાં આશ્ચર્ય ચકિત થઈ ગયા અને ત્યાર પછી તેમણે કૌટુંબિક પુરૂષને બેલાવ્યા અને બેલાવીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિયે! આ કન્યા કેની છે? એનું નામ છે છે? જીનદત્ત સાર્થવાહ વડે એવી રીતે પૂછાએલા તે કૌટુંબિક પુરૂએ હર્ષિત થઈને પિતાને બંને હાથ જોડીને બહુજ વિનયની સાથે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સાર્થવાહ સાગરદત્તની આ પુત્રી છે. ભદ્વાભાર્યાના ઉદરથી આને જન્મ થયે છે સુકુમારિકા આનું નામ છે. એના હાથપગ ખૂબ જ સુકે મળયાવત્ રૂપ, યૌવન અને લાવથી આ સર્વોત્કૃષ્ટ છે અને સર્વાગ સુંદરી છે.
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० प्र० १६ सुकुमारिका चरितवर्णनम्
१९१
वास्तेषां कौटुम्बिकानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्नातो यावद् मित्रज्ञातिपरिवृतश्चम्पाया नगर्यां मध्ये भूत्वा यत्रैव सागरदत्तस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, ततस्तदनन्तरम् सागरदत्तः सर्थवाहः खलु जिनदत्तं सार्यवाहम् एजमानम्=आगच्छन्तं पश्यन्ति दृष्ट्वाऽऽसनादुत्तिष्ठति, उत्थाय 'आसउवणिमंते ' आसनेनोपनिमन्त्रयति = आसन उपवेशनाथं प्रार्थयति, उपनि मन्त्रय, आसनोपर्युपवेशनानन्तरम्, आस्वस्थं मार्गश्रमापगमात् श्रान्तिरहितं विस्थ स्थं विशेषतो विश्रान्तिमुपगतं सुखासनवर गतं = सुखेन विशिष्टासनोपविष्टं तं
,
1
अंतिए एयमहं सोच्चा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हाए, जाव मित्तणाइपरिबुडे चंपाए० जेणेव मागरदत्तस्स गिहे तेव उवागच्छह, तरणं सागरदन्ते सत्थवाहे जिणदन्तं सत्यवाह एज्जमार्ण पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुट्ठेइ, अम्मुट्ठित्ता आसणेणं उबणितेइ उवणिमंत्तित्ता आसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी) जिनदत्त सार्थवाहने उन कौटुम्बिक पुरुषों के मुख से जब इस अर्थ को सुना तो सुनकर वह पहिले अपने घर गया-वहां जा कर उसने स्नान किया । यावत् फिर वह अपने मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों के साथर चंपानगरी के बीच से हो कर जहां सागरदत्त का घर था वहां पहुँचा सागरदत्तने ही अपने घर पर आते हुए जिनदन्त सार्थवाहको देखा - तो वह जल्दी से अपने स्थान से उठा1- और उठकर 16 आप यहां बैठिये " इस प्रकार उनसे कहने लगा जब वे यथोचित स्थान पर बैठ चुके और अस्व
(तर से जिणदत्ते सत्यवाहे तेर्सि कौड बियाणं अंतिए एयम सोच्चाजेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता व्हाए, जाव मित्तणाइ परिवुडे चंपाए० जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तरणं सागरदत्ते सत्थवाहे, जिणदत्तं सत्यवाहं एज्जमानं पासर, पासित्ता आसणाओ अम्भु, अभुट्टित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ उवणिमंतित्ता आसत्यं बीसत्थं सुहासणवरगयं एवं व्यासी) જીનવ્રુત્ત સાવાહે તે કૌટુ બિક પુરૂષોના મુખથી આ વાત સાંભળીને સૌ પહેલાં તેઓ પેાતાને ઘેર ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે સ્નાન કર્યું. ચાવત પછી તે પોતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનાની સાથે ચપા નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં સાગરદત્તનું ઘર હતું
દ્રુત્ત જીનદત્ત સાથે વાહને પેાતાને ઘેર આવતા જોઇને માસન ઉપરથી ઊભેા થઈ ગયા અને ઊભેા થઇને
ત્યાં પહાંચ્યા. સાગરત્વરાથી તે પેાતાના તમે અહીં ખેસે ”
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१९२
माताधर्मकथासो जिनदत्तं सार्थवाहमेवं-चक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-हे देवानुप्रिय ! भण-कथय,किमागमनमयोजनम् कस्मै प्रयोजनाय समागतो भवान् ? ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तं सार्थवाहमेवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादोत्-एवं खलु अहं हे देवानुप्रिय ! तव दुहितरं-पुत्री, भद्राया आत्मजां सुकुमारिकां=सुकुमारिकानाम्नी संगरस्य-सगरनामकस्य मत्पुत्रस्य भार्यात्वेन 'वरेमि' वृणोमिवाञ्छामि, यदि खलु त्वं जानीहि हे देवानुप्रिय ! 'जुत्तं वा ' युक्तं वा योग्यं वा-' एतत् कार्य समुचितं भवति ' ति 'पत्तं वा' प्राप्तं वा एतत् कार्य कुलमर्यादामनुप्राप्त वा, स्थविश्वस्थ बन चुके-तब विशिष्ट आसन पर शांति के साथ बैठे हुए उन जिनदत्त सार्थवाह से उसने इस प्रकार पूछा।-(भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं ) कहिये देवानुप्रिय ! यहां पधारने का आपका क्या प्रयोजन है ? किस प्रयोजन से आप यहां आये हैं-कहिये-(तएणं से जिणदत्तसत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भदाए अंतियं सूमालियं सागरस्स भा रयत्ताए वरेमि जइणं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउणं सूमालिया सोगरस्स ) जिनदत्त सार्थवाहने सागरदत्त सार्थवाहसे तय इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! में आपकी सुभद्रा की कुक्षिसे उत्पन हुई सूमालिका पुत्री को अपने पुत्र सागर की भार्या बनाना चाहता हूँ। यदि आप इसे स्वीकार करें कि यह कार्य योग्य है-उचित है-कुल मर्यादा के अनुसार है अथवा मेरा पुत्र आपकी આ રીતે તેમને કહેવા લાગ્યા. જ્યારે તેઓ ઉચિત સ્થાને બેસી ગયા અને આસ્વસ્થ વિશ્વસ્થ થઈ ચૂક્યા ત્યારે વિશિષ્ટ આસન ઉપર શાંતિપૂર્વક બેઠેલા तनहत्त सार्थवाडने ते मी प्रमाणे धु-(भण देवाणुप्पिया! किमोगमण पओयणं) देवानुप्रिय ! मतामही पधारपानी पा७१ मापने शत છે? ક્યા પ્રજનથી આપ અહીં આવ્યા છે?
(तएणं से जिणदत्त सत्थवाहे सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं भदाए अंतियं ममालियं सागरस्स भारियत्ताए वरेमि जइणं जाणाह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउ णं सूमालिया सागरस्स)
જીનદત્ત સાર્થવાહે સાગરદત્ત સાર્થવાહને ત્યારે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! હું તમારી સુભદ્રાના ઉદરથી જન્મ પામેલી સુમાલિકા પુત્રીને મારા પુત્ર સાગરની પત્ની બનાવવા ઈચ્છું છું. આપ મારી માગણી ઉચિત સમજતા હૈ, કુળ-મર્યાદા એગ્ય તેમજ મારો પુત્ર તમારી કન્યા માટે રેગ્ય
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भगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
१९३
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पात्र = कन्या योग्योऽयं मत्पुत्रः सागरः' इति, 'सलाह णिज्जं वा ' श्लाघनीयं = प्रशंसनीयं वा 'सरिसो वा संजोगो' सदृशो वा संयोगः - अयं कन्यावरयो वैवा हिकः ः सम्बन्धः कुलेन रूपेण गुणेन वा तुल्य इति, 'तो' तर्हि ' दिज्जउ ' ददातु भवान् खलु सुकुमारिकां दारिकां सागराय = मत्पुत्रायेतिभावः । ततः खलु हे देवानुप्रिय ! ब्रूहि किं दशकिं दद्यां शुल्कं = संमानार्थं द्रव्यं सुकुमारिकाया दारिकायाः ? ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाहस्तं जिनदत्तमेवमवादीत् - एवं खलु हे देवानुप्रिय ! सुकुमारिका दारिका ममैका एकजाता = एकैवोत्पन्ना, तथा-इष्टाअनुकूला, यावत् - कान्ता - ईप्सिता, प्रिया = प्रीतिपात्रा, मनोज्ञा मनोगता तथाकन्या के योग्य है यह संबन्ध प्रशंसनीय है, कन्या और वर का यह वैवाहिक संबन्ध कुल रूप और गुणों के अनुरूप है तो आप अपनी पुत्री सुकुमारिका को मेरे पुत्र सागर के लिये प्रदान कर दीजिये - ( तएर्ण देवाविया ! किं दलपामो सुक्कं सुमालियोए ? ) हे देवानुप्रिय ! साथ में यह भी कहदीजिये कि सुकुमारिका दारिका के संमानार्थ हम क्या द्रव्य देवें ( एणं से सागरदन्ते तं जिणदत्तं एवं वयासीएवं खलु देवाणुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगा, एगजाया ईट्ठा जाव किमंगपुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि, सूमालियाए दारियाए खणमवि विष्पओगं तं जहणं देवाणुपिया ! सागरदारए मम धरामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि ) सागरदत्तए ने जिनदत्त से तब इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय ! यह सुकुमारिका पुत्री मेरे यहां एक ही लड़की है और यह एक ही उत्पन्न हुई
છે, આ સબધ સારા છે, કન્યા તેમજ વરનેા આ લગ્ન સબધ કુળ રૂપ અને ક્ષુણ્ણાને અનુરૂપ છે તે તમે તમારી પુત્રી સુકુમારિકાને મારા પુત્ર સાગરને भाटे आये. (तएणं देवाणुपिया ! किं दलयामो सुक्क सुमालियाए १) डे हेवाનુપ્રિય ! સાથે સાથે એ પણ અમને જણાવા કે સુકુમારી દારિકાના સમાના અમે શું દ્રવ્ય રૂપમાં આપીએ ?
( तणं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगा. एग जाया इट्ठा जाव किमंगपुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमत्रि विष्पओगं तं जइर्ण देवाणुपिया ! सागरदारए मम धरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सुमालियं दलयामि ) त्यारे सागरहते हत्तने या अमाशे उठे हे हेवानुप्रिय ! मा સુકુમારિકા દારિકા મારે એકની એક પુત્રી છે અને આ એક જ જન્મી છે.
ज्ञा २५
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माताधर्मकथासो ममोमा-मतसः स्थानभूता, किंबहूना उदुम्बर पुष्पमिव — उदुम्बरपुष्पं केनापि इष्टम् ' इतिवत् श्रवणविष यत्वेन सा दुर्लभा, किमङ्ग ! पुन-दर्शनविषयतया, तत्तस्माद् नो खलु अहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोग= वियोगम् , तत्-तस्माद् यदि खलु हे देवानुप्रिय ! सागरदारको मम 'घरजामाउए ' गृहजामातृका गृहवासीजामाता भवति 'तोणं' तर्हि खलु अहं सागराय दारकाय मुकुमारिकां ददामि । ततः खलु स जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तेन सार्थवाहेनैव मुक्तः सन् यौव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सगरदार स्वपुत्रं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे पुत्र ! सगारदत्तः सार्थवाहो ममम प्रति, 'सम्बन्धसामान्ये षष्ठी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीएवं खलु हे देवानुप्रिय ! सुकुमारिका दारिका ममैका एक जाता इष्टा ' तं चेव' है। यह मेरे लिये ईष्ट यावत् मनोम है-कान्त है, प्रिय है और मनोज्ञ है । अनुकूल होने से इष्ट, ईप्सित होने से कान्त प्रीतिपात्र होने से प्रिय मनको रुचने वाली होने से मनोज्ञ एवं मन का स्थान भूत होने से मनोज्ञ है । ज्यादा क्या कहूँ यह तो हमें उदुंबर पुष्प के समान दर्शन दुर्लभ थी-सुनने की तो बात ही क्या । अतः मैं इसे देना नहीं चाहता हूँ। कारण इस सुकुमारिका दारिका के विना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता हूँ इसलिए हे देवानुप्रिय ! सागर यदि घरजमाई बन कर रहना चाहे तो मैं उन्हें यह अपनी सुकुमारिका पुत्री दे सकता हूँ। (तएण से जिणदत्त सत्थवोहे सागरदत्तण सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदोरगं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सत्थवाहे मम एवं આ મને ઈષ્ટ યાવતું મનેમ છે એટલે કે કાંત છે, પ્રિય છે, અને મનેમ છે. અનુકૂળ હવા બદલ ઈષ્ટ, ઈસિત હોવાથી કાંત, પ્રીતિપાત્ર હોવા બદલ પ્રિય અને મનને ગમે એવી હોવાથી મને જ્ઞ તથા મનને આશ્રય હોવાથી મનેમ છે. વધારે શું કહું ! આ તે અમને ઉર્દુબર પુષ્પની જેમ દર્શન-દુર્લભ હતી. સાંભળવાની તે વાત જ શી કરવી ! એથી આને હું આપવા ઈચ્છતા નથી. કારણ કે એના વગર હું ક્ષણવાર પણ રહી શકતું નથી. એટલા માટે હે દેવા મુપ્રિય ! સાગર જે ઘર જમાઈ થઈને મારી પાસે રહેવા ઈચ્છતા હોય તે હું આ મારી સુકુમારીક પુત્રી તેમને આપી શકું તેમ છું.
(तएणं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्ते णं सत्यवाहे गं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारंग सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते सस्थवाहे मम एवं बयासी-एवं खल्लु
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिका चरितवर्णनम्
१९५
तदेव = पूर्वोक्तवर्णनमेवात्रवोध्यं यावत् तस्माद् नो खल्वहमिच्छामि सुकुमारिकाया दारिकायाः क्षणमपि विप्रयोगं, तत् = तस्माद् यदि खलु सागरदारको मम ' घरजामाउए ' गृहजामातृकाः= गृहवासी जामाताभवति, तर्हि ददामि । ततः खलु त सागरको दारको जिनदत्तेन तार्थवादेनैवमुक्तः तन् तूष्णीकः - मौनावलम्बी सन् संतिष्ठते ।
वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगो एगजाया इट्ठा तं चैव जइणं सागरदारए मम घरजमाउए भवइ ता दलयामि ) इस प्रकार सागरदत्त सार्थवाहके कहे जाने पर जिनदत सार्थवाह जहां अपना घर था वहाँ आया वहां आकर उसने अपने सागेर पुत्र को बुलाया | बुला कर फिर उससे उसने ऐसा कहा - हे पुत्र - सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है कि आपका पुत्र सागर यदि मेरे घर जमाई बन कर रहना चाहें तो मैं अपनी सुकुमारिका उन्हें दे सकता हूँ । उनका घरजमाई बनाने का कारण यह है कि यह सुकुमारिका पुत्र पुत्री उसके एक ही पुत्री है और एक ही उत्पन्न हुई हैं । यह उसे बहुत ही अधिक इष्ट यावत् मनोम है। इस तरह सोगरदत्त का कहा हुआ समस्त कथन जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर को सुना दिया । इसलिये वह उसका एक क्षण भी वियोग सहन नहीं कर सकता है । अतः वह
देवाशुपिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया हट्ठा तं चैव जइर्ण सागरदारए मम घरजमाउए भवइ ता दलयामि )
આ રીતે જીનદત્ત સાથે વાતુ તેમની આ વાત સાંભળીને તે જીનદત્ત સાથૅવાહ જ્યાં પેાતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે પાતાના સાગરપુત્રને લાવ્યેા. ખેલાવીને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાગરદત્ત સાથે વાહે મને આ પ્રમાણે કહ્યુ` છે કે તમારા પુત્ર સાગર જો મા ઘર જમાઈ રહેવા કબૂલતા હાય તા હું મારી પુત્રી સુકુમારિકા તેમને આપવા તૈયાર છું. તેઓ તમને ઘર જમાઈ બનાવવા એટલા માટે ઇચ્છે છે કે સુકુમારિકા દારિકા તેમની એકની એક પુત્રી છે. તે તેમને અતીવ ઈષ્ટ યાવતુ મનાય છે. આ રીતે સાગરદત્ત જે કઇ કહ્યું હતું તે બધું તેમણે પેાતાના પુત્ર સાગર આગળ રજૂ કર્યું. અને છેવટે કહ્યું કે એટલા માટે જ તે એક ક્ષણ પણ પાતાની પુત્રીના વિયાગ સહી શકતા નથી. તમને તે આ કારણથી જ ઘર જમાઈ બનાવવા ઇચ્છે છે.
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भाताधर्मकथागणे ततः खलु जिनदत्तः तार्थ वाघो ऽन्यदा कदाचित् शोभने शुभकारके, तिथिकरण नक्षणमुहूर्ते विपुलमशनं पानं खाद्यं स्वाद्यमुपस्कारयति, निष्पादयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिप्रभृतिनामन्त्रयति, आमच्य ' जाव सम्माणेइ ' यावत् सम्मानयति भोजयति, भोजयित्वा वस्त्रादिभिः सत्करोति, सत्कृत्य स्वागतवचनादिना तुम्हें घरजमाई बनाना चाहता है । (तएणं से सागरए दारए जिणदत्ते णं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं जिणदत्ते सत्थ. वाहे अन्नया कयाइं सोहणंसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहूत्तसि विउलं असण पान खाइम साइमं उवक्खडावेह, उचक्खडावित्ता मित्तणाइ आमंतेइ, जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सव्वा. लंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्स वाहिणिं सीयं दुरूहावेह, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिबुडे सविडीए साओ गिहाओ निग्ग च्छइ निग्गच्छित्ता चंपा नरि मज्झं मज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ ) जिनदत्त सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहा जाने पर वह सोगर दारक चुपचाप रह गया उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। एक दिन जिनदत्त ने शुभ, तिथि करण, दिवस नक्षत्र मुहूर्त में विपुल. मात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाधरूप चतुर्विध आहार बनवाया -बनवाकर उसने अपने मित्र ज्ञाति आदिबन्धुओं को आमंत्रित किया आमंत्रित करके फिर उसने उन सबको भोजनकराया-भोजन कराकर
(तएणं से सागरए दारए जिणदत्ते णं सस्थवाहे णं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्टइ, तएणं जिणदत्ते सत्यवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहूत्र्तसि, विउलं असणपान खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाई आमंतेइ, जाव सम्माणित्ता सागरं दारगं हायं जाव सबालंकारविभूसियं करेइ, करिता पुरिसस हस्सवाहिणिं सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडं सविडीए साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता चंपा नयरिं मझ मज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ )
જનદત્ત સાર્થવાહ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયેલે સાગર પુત્ર એકદમ ચૂપ થઈને બેસી જ રહ્યો. તેણે કઈ પણ જાતને જવાબ આપે નહિ. એક દિવસ જનદત્તે શુભતિથિ, કરણ, દિવસ, નક્ષત્ર મુહૂર્તમાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતને આહાર બનાવડાવ્યું. બનાવડાવીને તેણે પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે સંબંધીઓને આમંત્રિત કર્યા. આમંત્રિત કરીને તેણે તે બધા આવેલા સંબંધીઓને જમાડયા. જમા
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अंगारधर्मामृतषिणो टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १९७ सम्मानयति समान्य सागरं दारकं स्नातं यावत् सर्वालङ्कारविभूषितं कारयति, कारयित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति-आरोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति स्वजन-सम्बन्धिभिर्यावत् परितः सर्वद्धर्या सकलविभवेन स्वकाद् गृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन-मध्येभूत्वा यत्रैव सागरदत्तस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शिविकातः ‘पञ्चोरुहावेई' प्रत्यवरोहयति, सागरदारकं स्वपुत्रं प्रत्यवतारयति, प्रत्यवरोह्य सागरकं दारकं सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य उपनयति-समीपमानयति ।
ततः खलु सागरदत्तः सार्थवाहो विपुलमशनं पानं खाचं स्वाद्य-चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति-निष्पादयति, उपस्कार्य यावत् = मित्रादिसहितं जिनदत्तमामन्त्र्य भोजयित्वा, सत्कृत्य, संमानयति, संमान्य सागरकं दारकं सुकुमारिकया दोरिकाया साधं 'पट्टयं ' पट्टक ‘दुरूहावेइ ' दूरोहयति-आरोहयति, दुरूह्य श्वेतपीत: सबका वस्त्रादिक से सत्कार किया सत्कार करके फिर उनका स्वागत बचानादिकों द्वारा सन्मान किया- । सन्मान कर के बाद में उसने अपने सागरपुत्रको स्नान कराया- । स्नान कराकर उसने उसे समस्त अलंकारो से विभूषित कराया । विभूषित कराकर बाद में उसने उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर चढाया चढाकर मित्र, ज्ञाति, स्वजन संबंधियो को साथ लेकर फिर वह सकल विभवके अनुसार अपने घर से निकला -निकलकर चंपानगरी के बीचो बीच से होता हुआ सागरदत्त का जहाँ घर था वहाँ पहुँचा । ( उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्थ० उवणेइ, तएण, सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असणपाण खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता जाव सम्माणेत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टयं ડીને બધાને વસ્ત્ર વગેરે આપીને સત્કાર કર્યો, સત્કાર કરીને તેણે તેમનું સ્વાગત વચને વડે સન્માન કર્યું. સન્માન કર્યા બાદ તેણે પિતાના સાગર પુત્રને સ્નાન કરાવ્યું. સ્નાન કરાવીને તેણે તેને બધા અલંકારથી શણગાર્યો, શણગારીને તેણે તેને પુરૂષ–સહસ્ત્રવાહિની પાલખીમાં બેસાડે. ત્યારપછી મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન સંબંધીઓને સાથે લઈને તે પિતાના સંપૂર્ણ વૈભવની સાથે પિતાના ઘેરથી નીકળે-નીકળીને ચંપા નગરીની વચ્ચે થઈને તે જ્યાં સાગરદત્તનું ઘર હતું ત્યાં પહોંચ્યો.
( उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहावेइ, पच्चोरुहावित्ता सागरगं दारगं सा. गरदत्तस्स सत्थ० उवणेइ, तएणं, सागरदत्ते सस्थवाहे विपुलअसणपाणखाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता जाव सम्माणत्ता सागरगं दारगं समालियाए
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f
शाताधर्मकथा
राजतसौवर्णैः फलशैः = वारिपूर्णैर्घटैर्मज्जयति स्नपयति, मज्जयित्वा अग्निहोमं कारयति, कारयित्वा सागरं दारकं सुकुमारिकाया दारिकायाः पाणि ग्राहयति ।। सू. ८ ||
=
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दुरूहावे, दुरूहावित्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेद, मज्जावित्ता अग्गोमं करोवेद, करावित्ता सागर दारयं सूमालियाए दारियाए पार्णि गिण्हावे ) वहां पहुँचकर उसने अपने पुत्र सागर को पालखी से नीचे उतारा और उतारकर सागरदत्त सार्थवाह के पास उसे ले आया । सागरदन्त सार्थवाहने भी पहिले से ही विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार करवालियो था सो उससे मित्रादि सहित जिनदत सार्थवाह को आनंद के साथ खिलाया खिलाकर सबका सत्कार किया सम्मान किया । सत्कार सन्मान करने के बाद फिर सागरदत्तने सागर दारक को अपनी पुत्री सुकुमारिका के साथ एक पक पर बैठाया-बैठाकर सुवर्ण चांदी के कलशोंसे उनका अभिषेक कराया अभिषेक हो जाने के बाद अग्निहोम कराया अग्निहोम जब हो चुका तब सागरदत्तने अपनी पुत्री सुकुमारिका का सागर के हाथ में हस्तमिलाप किया- अर्थात् लग्न कर दिया ।। सू०.८ ॥
दारिया सद्धिं पट्ट, दुखहावेइ, दुरूहाचित्ता सेयापी एहिं कल सेहिं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिोमं करावे, करवित्ता सागरदारयं मूमालियाए दारियाए पाणि गिण्डावे )
ત્યાં પહોંચીને તેણે પોતાના પુત્ર સાગરને પાલખીમાંથી નીચે ઉતા અને ઉતારીને સાગરન્દ્વત્ત સાથે વાહની પાસે લઇ ગયા. સાગરદત્ત સાથે વાહે પણ પહેલેથી જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહાર તૈયાર કરાવીને રાખ્યા હતા. તેણે મિત્ર વગેરે લેાકેાની સાથે જીનદત્ત સાવાર્હને આનની સાથે જમાડયા અને ત્યારપછી તેણે સૌના સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું". સત્કાર અને સન્માન કર્યાં બાદ સાગરદત્તે સાગર દારકને પાતાની પુત્રી સુકુમારિકાની સાથે એક પટ્ટક ઉપર બેસાડયા. બેસાડીને સાના-ચાંદીના કળશેાથી તેમને અભિષેક કરાવડાવ્યે, અભિષેકનું કામ પુરૂ થયા બાદ તેણે અગ્નિહામ કરાવ્યેા. અગ્નિહેામની વિધિ પૂરી થઈ ગઈ ત્યારે સાગરદત્ત પાતાની પુત્રી સુકુમારિકાના સાગરની સાથે હસ્તમેળાપ કરાવી દીધા मेरो सम उशवी दीघां ॥ सू. ८ ॥
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ममगारधर्मामृतपक्षिणीटी० ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
१९९
मूलम्-तएणं सागरदारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेइ से जहां नामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा एत्तो अणिटुतराए चेव० पाणिफासं पडिसंवेदेइ, तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहुतमित्तं संचिट्ठइ, तएणं से सागरदत्ते सस्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ० विउलेण असणपाणखाइमसाइमं पुप्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जइ, तएणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागगच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ, तएणं से सागरए दारियाए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामयरागं चेव अंगफासं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ, तएणं से सागरए अंगफासं असहमाणे अवसव्वसे मुहत्तमित्तं संचिटुइ,तएणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उट्टेइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसिनिवज्जइ, तएणं सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पइमणुरत्ता पतिं पासे अपस्समाणी तलिमाउ उट्टेइ, उट्टित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्तासागरस्स पासे णुवज्जइ, तएणं से सागरदारए सूमालियाए दारियाए
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२००
माताधर्मकथा दुच्चपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिटुइ, तएणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्तासयणिज्जाओ उद्वेइ उद्वित्ता वासघरस्स दारं विहाडेइ विहाडित्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू०९॥
टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतद्रूपं वक्ष्यमाणपकार पाणिस्पर्श करस्पर्श पतिसंवेदयति अनुभवति, कीदृशः स करस्पर्शः इति सदृष्टान्तमाह-' से जहानामए' इत्यादि । तद् यथा नामकम् यथा दृष्टान्तम्-दृष्टान्तं प्रदर्शयति-' असिपत्तेइ वा ' इत्यादि । असिपत्रमिति वा असिपत्रं-खगः, यथा खड्गधारायाः स्पर्शः सोढुमशक्यस्तद्वत् सुकुमारिका दारिकायाः करस्पर्शः प्रतिसंवेद्यत इति भावः । 'जाव मुग्मुरे इ वा.' यावत् मुमुरेति वा अत्र यावत् करणादिदं वोध्यम्-'करपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा
'तएणं सागरदारए ' इत्यादि। ___टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद-अर्थात् सागरदारकने जब हस्तमिलाप किया तब (सागरदारए) उस सागर को (सूमालियाए दारियाए) सुकुमारिकादारिकाका (पागिपासं) वह हस्तका स्पर्श (इमं एयाख्वं पडिसंवे देइ ) इस प्रकार से लगा ( से जहा नामए असिपत्तेइ या जाव मुम्भुरेइवा, एत्तो अणि?तराए चेव० पाणिफासं पडिसंवेदेइ ) जैसे वह असिपत्र तलवार का स्पर्श हो यावत् अग्नि कणमिश्रित भस्म का स्पर्श हो । यहां यावत् शब्दसे " कर पत्तेइ " वा खुर पत्तेइवा, कलंब चीरिया
'तएणं सांगरदारए' इत्यादि ટીકાર્થ-(i) ત્યારપછી એટલે કે સાગરદાર કે જ્યારે હસ્તમેળાપ કર્યો ત્યારે ( सागरदारए) ते सा॥२२ (सूमालियाए दारियाए) सुकुमार हानी (पाणिः पास ) ते सायन। २५ (इमएया रूवं पडिसंवेदेइ) 0 प्रमाणे साये। 3
( से जहा नामए असि पत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा, एत्तो अणिट्ठत्तराए चेव पाणिफासं पडिसंवेदेइ )
જાણે તે અસિપત્ર-તરવારને સ્પર્શ ન હોય, યાવત્ અગ્નિકણ મિશ્રિત ભસ્મને સ્પર્શ ન હોય. અહીં “યાવત’ શબ્દથી
(करपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा, कलंबचीरियापत्तेइ वा सत्ति अग्गेइ वा कोतग्गे
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ममगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०१, कलंवचीरियापत्तेह वा सत्तिअग्गेइ वा कौतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा भिंडिमोलग्गेइ षा सूचिकलावएइ वा विच्छुयडंकेइ वा कविकच्छूइ वा इंगालेइ वा मुम्सुरेइ वा अच्चीइ वा जालेइ वा आलाएइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयास्वेसिया?, नो इणढे समहे, करपत्रमिति वा क्षुरपत्रमिति वा कदम्बचीरिकापत्रमिति वा शक्त्यग्रमिति वा कुन्ताग्रमिति वा तोमराग्रमिति वा भिन्दिपालाग्रमिति वा वृश्चिकदंश इति वा फपिकच्छुरिति वा अङ्गार इति वा मुर्मुर इति वा अर्चिरिति वा ज्वालेति वा, अलातमिति वा शुद्धाग्निरिति वा भवेदेतद्रूपः-स्यात् ?, नायमर्थः समर्थः, इति । तत्र करपत्रक्रकचं ' करवत् ' इति प्रसिद्धं क्षुरपत्रम्=' उस्तरा' इति प्रसिद्धम् , कदम्बचीरिकापत्रम्-कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, अस्या अग्रभागोऽतितीक्ष्णो भवति तस्य पत्र, शक्तिः शस्त्रविशेषः-त्रिशुलं वा तस्या अग्रभागः स्व कुन्तः 'भाला ' इति प्रसिद्धः शस्त्रविशेषः, तदग्रभागः, तोमरः बाण विशेषस्तदग्रभागः, भिन्दिपाल = शस्त्रविशेषः सूचीकलापकं सूचीसमूहस्तस्याग्रभागः, वृश्चिकदंशावृश्चिक कण्टका, कपिकच्छुः-खर्जुकारी वनस्पतिविशेषः, अङ्गारः ज्वालारहितोऽग्निः, मुर्मुरः अग्निपत्ते वा, सत्ति अग्गेइवा कोतग्गेइवा तोमरग्गेइ वा, भिंडिमालग्गे वा सूचिकलावएइवा विच्छुय डंकेड या कवि कच्छूइवा इंगालेइ वा मुम्मुरेह वो अच्चोइ वा जालेइ वा आलाइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयारू वेसिया ? नो इणद्वे समढे ) कर पत्र-कर वत, सुर पत्र-उस्तरा कदम्बचीरिका पत्र छुहिया घास-जिसका अग्रभाग अधिक तीक्ष्ण होतो है शक्ति-अग्र -शक्ति-त्रिशूल अथवा आयुधविशेष का अग्रभाग कुन्तान भाले की नोक तोमराग्र-बाण की अनी भिन्दिपाल-शस्त्र विशेष-का अग्रभागसूची कलापका अग्रभाग-बिच्छु का डंक कपिकच्छु-करेंच-जिसके स्पर्श होनेपर खुजली आती है-ज्वाला रहित अग्नि, मुर्मुर-अग्निकणमिश्रित तोमरग्गेइ वा, भिडिमालग्गे वा सूचिकलावएइ वा विच्छय डंकेइ वा, कविकच्छुइ वा इंगालेइ वा, मुम्मुरेइ वा अच्चोइ वा जालेइ वा, आलाइ वा सुद्धागणीइ वा भवेयारूवे सिया ? नो इणहे समढे)
४२५३-४२१त, क्षु२५त्र - असो, या पत्र-छुरिना અગ્રભાગ એકદમ તીણ હોય છે, શકિત-અગ્ર-શક્તિ,-ત્રિશૂળ અથવા આયુધ વિશેષને અગ્રભાગ, કુંતાગ્ર-ભાલાની અણી, તેમાગ્ર-તીરની અણી, ભિદિવાલવિશેષને અગ્રભાગ, સૂચકલાપનો અગ્રભાગ, વીંછી ડંખ, કવિકચ્છ-કવચજેના સ્પર્શથી ખંજવાળ આવે છે, વાળા રહિત અગ્નિ, મુર્મર-અગ્નિકશ મિશ્રિત ભરમ, અચિલાકડાઓથી સળગતી વાળ, વાળા–લાકડા વગરની
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माताधर्मकथासूचे कणमिश्रितभस्म अचिः इन्धन प्रतिबद्धा ज्वाला, ज्वालातु-इन्धनच्छिन्ना, आला. तम्-उन्मुकं, शुद्धाग्निः लोपिण्डस्थाऽग्निः । असिपत्रादि-शुदाग्निपर्यन्तानां स्पर्श इव सुकुमरिकायाः करस्पर्शी भवेत्कथञ्चित्किम्? नायमर्थः समर्थ-अयं दृष्टान्तसमूहः करस्पर्श साम्यं प्राप्तुं न समर्थः तर्हि कीदृशः १ इत्याह 'एत्तो अणिद्वतराए चेव०' एतस्माद् असिपात्रदीनां स्पर्शादनिष्टतरक एव, अकान्ततरक एव-अत्यन्तमकमनीय एव, अप्रियतरक एव अतिदुःखजनकएव अमनोज्ञतरकएच-अतिशयेन मनोविकृतिकारकएव अमनोमतरकएर अतिशयेन मनः प्रतिक्लएव वर्तते, तमेवम्भूतं पाणिस्पर्श सुकुमारिकादारिकायाः करस्पर्श प्रतिसंवेदयति अनुभवति ।
ततः खलु स सागरदारकः अकामकः= निरभिलाषः 'अवसव्वसे' अपस्ववश:= अपगतस्वातन्त्र्यः विवशः सन् मुहूर्तमात्र=स्तोककालं संतिष्ठते (ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाहः सागरस्य दारकस्य अम्बापितरौ मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपभस्म अचिं-इन्धन प्रतिबद्ध ज्वाला, ज्वाला-इन्धन से रहित ज्वाला अलात-उल्मुक शुद्धाग्नि-लोहपिण्डस्थ अग्नि । इन असिपत्र से लेकर शुद्धअग्नि पर्यन्त पदार्था का स्पर्श जैसा होता है वैसा ही सुकुमारिका के कर का स्पर्श हो सकता था-परन्तु यहां यह अर्थ समर्थित नहीं है -अर्थात् उसके सुकुमारिको के कर स्पर्श में इन दृष्टान्तों के स्पर्श की समानता नही मिल सकती है क्यों कि वह स्पर्श तो इनके स्पर्श से भी अधिक अनिष्टतर हीथा, अकान्ततरक ही था-अत्यन्त अकमनीय था, अप्रिय तरकही था-अत्यन्त दुःखजनक ही था, अमनोज्ञतरक ही था -अत्यंन्त मनो विकृतिजनक ही था, अमनोमतरक ही था अत्यन्त मनः प्रतिकूल ही था। (तएणं से सागरए अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ, तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगस्स જવાળા, અલાત-ઉત્સુક, શુદ્ધ અગ્નિ-હપિંડસ્થ અગ્નિ-આટલી વસ્તુઓનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ અસિપત્રથી માંડીને શુદ્ધ અગ્નિ સુધીના પદાર્થોને જે જાતને સ્પર્શ હોય છે તે જ સુકુમારિકાના હાથને પણ સ્પર્શ હતે.
પણ હકીકતમાં તે આ વસ્તુઓની સમાનતા પણ તેના તહણ સ્પર્શની સાથે કરી શકાય તેમ નથી કેમકે તેને હાથને સ્પર્શ તે ઉકત વસ્તુઓના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે અનિષ્ટતર હતો, અકાંતતરક હતા, અતીવ અકમનીય હતું, અપ્રિયતરક હતું, અત્યંત દુઃખજનક હતું, અમને મરક હો, ખૂબજ મને વિકૃતિજનક હતું, અમનેમ તરક હતા, બહુ જ મનઃ પ્રતિકૂળ હતા.
(तएणं से सागरए अकामए अवसबसे मुहत्तमित्तं संचिट्ठइ, तएणं से सा
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अनगारी टी० अ० १६ सुकुमारिकावरितवर्णनम्
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रिजनाँश्च विपुलेनाशनपानखाथस्वाद्येन पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करोति संमानयति सत्कृत्य संमान्य प्रतिविसर्जयति = प्रस्थापयति । ततः खलु सागरको दारकः कुमारिकया सार्धं यत्रैव वासगृहं - शयनगृहं तत्रैवोपागच्छति उवागत्य सुकुमारिकया दारिकया सार्धं 'तलिमंसि' तलिमे देशीयोऽयंशब्दः तल्पे शयनीये 'निवज्जइ ' निषीदति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया इममेतमद्रूपमङ्गस्पर्श प्रतिसंवेदयति-तद् यथानामकं तत् प्रतिसंवेदनं दष्टान्तोपन्यासपूर्वक प्रदर्श्यते-असिपत्र वा यावद् अमनोमतरमेव सुकुमारिकाया अङ्गस्पर्श अम्मापरोमित्तगाइ० विउलेणं असणं पाणखाइमं साइमं पुफ्फवत्थ जाव सम्प्रणेत्ता पडिविसज्जति ) अतः वह सागर उसमें अभिलाषा से रहित बन गया । फिर भी वहां विवश होकर वह कुछ समय तक ठहरा रहा | सागरदत्त सार्थवाह ने सागर दारक के मातापिता का तथा उसके मित्र, ज्ञाति स्वजन, संबन्धी परिजनों का विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वायरूप चतुर्विध आहार से एवं पुष्प वस्त्र, गन्ध, माला तथा अलंकार से खूब सत्कार किया-सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उसने सबको अपने यहां से बिदा कर दिया । ( तरणं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासगिहे तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता सूनालिवाए दारियाए सद्धिं तलिंगंसि निवज्जइ, तएण से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगकासं पडिसंवेदे से जहानामए असि पत्तेइवा जाव अमणामयरागंचेत्र अंगफासं गरदते सत्यवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तगाइ० विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पुष्कवत्थ जाव सम्माणेता पडिविसज्जति )
એટલા માટે તે સાગર તેમાં અભિલાષાથી રહિત ખની ગયા. છતાંએ તે ત્યાં લાચાર થઈને થાડા વખત સુધી રોકાયેા. સાગરદત્ત સાવાહે સાગર દ્વારકના માતાપિતાને તેમજ તેના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન, સંબંધી પરિજનાના વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારથી અને પુષ્પ વસ્ત્ર, ગંધ, માળા તેમજ અલંકારાથી બહુ સત્કાર અને સન્માન કર્યું". સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે સૌને પેાતાને ત્યાંથી વિદાય કર્યો.
( aणं सागर दार मालियाए सद्धिं जेणेत्र वासगिहे तेणेत्र उवागच्छ उवागच्छिता सूमालियाए दारियार सद्धि तळिगंसि निवज्जइ, तपर्ण से सागरए दार सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगकासं पडिसंवेदे से जहा नामए असिपत्ते वा जाव अनगामयरागं चेव अंगका पञ्चगुग्भमाणे विहरइ तरणं
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शाताधर्मकथा
प्रयत्नुभवन् विहरति । ततः खलु स सागरदारकस्तस्या अङ्ग स्पर्शमसहमानोऽपस्ववशः=अपगत स्वातन्त्र्यः, सन् मुहूर्तमात्र संतिष्ठते । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकां दारिकां सुखप्रसुप्तां ज्ञात्वा सुकुमारिकाया दारिकायाः पार्श्वत उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव स्वकं शयनीयं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शयनीये, 'निवज्जइ ' निषीदति स्वपितीत्यर्थः । ततः खलु सुकुमारिका दारिका ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा - जागरिता सति पतित्रता ' पइमणुरत्ता' प्रत्यनुरक्ता स्वपतिं प्रत्यनुरागिणी, पार्श्व पतिमपश्यन्ती ' तलिमाउ ' तल्यात्= शयनीयाद् उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्र पच्चणुभवमाणे विहरड़ तएण से सागरए अंगफासं असहमाणे अत्रसव्वसे मुत्तमित्तं संचि ) इसके बाद सागरदारक सुकुमारिका के साथ जहां वासगृह - शयन घर था वहाँ गया वहां जाकर वह उस सुकुमारिकाके साथ एक शय्यापर बैठ गया। बैठ जाने पर उस सागरदारक को सुकुमारिका दारिकाका अगंस्पर्श इस रूपसे प्रतीत हुआ - जैसे मानो असिपत्र आदिका स्पर्श हो ! इन असिपत्र (खड्गको यावत्) आदिको के स्पर्श से भी उसका वह अंगस्पर्श यावत् अमनामतरक ही था । इस प्रकार का उसका अंगस्पर्श अनुभवता हुआ वह सागरदारक विवश बनकर वहां कुछ समय तक ठहरो बाद में जब उससे सहन नही हुआ तो । (तएण से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्त जाणिता सूमालियाए दरियाए पासाउ उद्देह, उद्वित्तां जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ, तरणं मालिया दारिया तओ मुहन्तं तरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पह से सागर गफार्स असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमित्तं संचि )
ત્યારપછી સાગર દારક સુકુમારિકાની સાથે જ્યાં વાસગૃહ-શયનઘર હતું ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તે સુકુમારિકાની સાથે એક શય્યા ઉપર બેસી ગયા. એઠા બાદ તે સાગર દ્વારકને સુકુમારિકા દ્વારિકાના અગ-સ્પેશ એવા પ્રકારના જાય કે તે અસિપત્ર તરવાર વગેરેને સ્પર્શ ન હેાય ! અસિપત્ર વગેરે કરતાં પણ તેના અંગ ૫ યાવત અમનેામતરક હતા. આ રીતે તેના અંગ સ્પર્શીને અનુભવતા સાગર દારક લાચાર થઈને ત્યાં ઘેાડા વખત સુધી રાકાા અને ત્યારબાદ જ્યારે તેને તે પશ અસહ્ય થઇ પડયે ત્યારે
( तरणं से सागरदारए समालियं दारियं सुहपमुत्तं जाणिता सूमालियाए दारियाए पासाउ उट्ठे, उद्वित्ता जेणेव सए सयजिज्जे तेणेव उवागच्छर, उवापच्छिता सयणीयंसि नित्रज्ञ, तपर्ण समालिया दारिया तो मुहूर्ततरस्स
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुवारिका चरितवर्णन
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4
1
से' तस्य शयनीयं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य सागरदारकस्य पार्श्वे (निवज्जई ) निषीदति = स्वपिति । ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकाया दारिकाया 'दुच्चपि द्वितीयवारमपि इममेतद्रूपम् पूर्वोक्तमकारकम् अङ्गस्पर्श पतिसंवेदयति यावद्-अकामकोऽपस्ववशो मुहूर्तमात्र संतिष्ठति, ततः खलु स सागरदारकः सुकुमारिकां दारिकां सुखप्रसुप्तां ज्ञाला शयनीयात् शय्यात उत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहस्य = शयनगृहस्य द्वारं ' विहाडे ' विघाटयति = उद्घाटयति विघाटय मारामुक्के विकाए ' मारामुक्त इव काकः = मार्यन्ते प्राणिनो यस्यां सा मारा मरता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उट्ठेइ उट्ठित्ता.... उवागच्छइ ) वह सागरदारक उस सुकुमारिका दारिका को सुख से सोई हुई जानकर उस सुकुमारिका दारिका के पास से उठ बैठा और उठकर जहां अपनी शय्या थी वहाँ चला गया। वहाँ आकर उस पर पड़ गया इतने में ही एक मुहूर्त के बाद वह पति में अनुरक्त बनी हुई पतिव्रता सुकुमारिका दारिका जग गई और अपने पास पति को न देखकर अपने पलंग से उठ बैठी । उठकर वह जहां सगिरदारक का पलंग था वहां गई । ( उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ ) वहां जाकर वह उसके पास सो गई । (तसे सागरदारए सुमालियाए दारियाए दुच्चपि इमं एयावं अंगकासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसव्वसे मुहुतमितं संचिgs, तणं से सागरदारए समालियं दारियं सुहपसुत्तं डिबुद्धा समाणी पव्या परमणुरत्ता पत्तिवासे अपरसमागी तलिमाउ उट्ठे उद्वित्ता उवागच्छ३ )
તે સાગર દારક તે સુકુમારિકા દ્વારિકાને સુખેથી સૂતેલી જાણીને તેની પાસેથી ઉચે, અને ઉછીને જ્યાં પેાતાની શય્યા હતી ત્યાં જતા રહ્યો. ત્યાં જઈને તે તેની ઉપર પડી ગયા. એટલામાં એક મુહૂત પછી પતિમાં અનુરકત બનેલી પતિવ્રતા સુકુમારિકા દારિકા જાગી ગઈ અને પોતાની પાસે તિ ન જોતાં પેાતાની શય્યા ઉપરથી ઉઠી અને બેઠી ગઈ. ત્યારપછી તે ઉઠીને જ્યાં સાગર हारउनी शय्या हुती त्यां ग ( उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ ) त्यां જઈને તે તેના પડખામાં સૂઈ ગઈ.
(तएण से सागरदारए स्मालियाए दारियाए दुच्चंपि इमं एयारूवं अंगकासं पडिसंवेदेइ जान अकामए अवसन्नसे मुहुतमित्तं संचिद्वर, तरणं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपत्तं जाणित्ता सयगिज्जाओ उठे, उद्वित्ता वासवरस्स दारे विहा
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not
ararathura
शूना वधस्थानं, तस्यामुक्तो निस्सृतः काक इव यद्वा-माराद् = मारकपुरुषादामुक्तः =निर्मुक्तः विच्छुटितः फाको यथा वेगतो निर्गच्छति तद्वत् यस्था एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ मू० ९ ।।
1
मूलम् - तपर्ण सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पइवया जात्र अपासमाणी सयणिजाओ उट्ठेइ सागरस्स दारियाए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी२ वासघ रस्स दारं विहाडियं पासइ पासित्ता एवं वयासी - गए से जाणित्ता सयणिज्जाओ उडेह, उट्ठित्ता वासवरस्स दारं विहाडेई, विहाडेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाऊभूए तामेव दिसिं पडिगए) सागरदारक को सुकुमारिका दारिका का अंगस्पर्श दुवाराभी वैसा ही पूर्वोक्तरूप से अनुभव में आया - अतः उसके पास सोने की इच्छा न होने पर भी वह विवश होकर कुछ समय तक उसके पास सोता रहा जब वह अच्छी तरह सो गह-तब वह उसे सुख प्रसुतजानकर उसके पास से उठा और उठकर उसने उस वास गृह के दरवाजे को खोला खोलकर जिस प्रकार 'मारामुक्त' काक बड़े वेग से निकलता है - उसी तरह यह भी बहुत जल्दी वहां से निकलकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा तरफ वोपिस चला गया। जिस में प्राणी मारे जाते हैं उसका नाम मारा-शूना- वधस्थान है । इस मारा से निकला हुआ अथवा मारनेवाले पुरुष के हाथ से छूटा हुआ - ऐसे ये दो अर्थ " मारमुक्त " इस शब्द के हो सकते हैं। सू० ९
डेई, विहाडित्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउयूए तामेव दिसिं पडिगए) સાગર દારકને સુકુમારિકાના ખીજીવારના અંગ સ્પર્શ પણ પહેલાંની જેમજ લાગ્યા. એટલા માટે તેની પાસે સૂવાની ઇચ્છા ન હોવા છતાંએ તે વિવશ થઈને થાડીવાર સુધી તેની પાસે પડી રહ્યો. જ્યારે તે સારી રીતે સૂઈ ગઈ ત્યારે તે તેને સુખેથી સૂતી જાણીને તેની પાસેથી ઉઠયા અને ઉડીને તેણે તે વાસગૃહના ખારણાને ઉઘાડયું. ઉઘાડીને જેમ મારા-મુક્ત કાગડા જલ્દી નીકળી જાય છે તેમજ તે પણ બહુ જ રાથી ત્યાંથી નીકળીને જે દિશા તરફથી ખાન્યેા હતેા તેજ દિશા તરફ પાછે જતા રહ્યો. જે સ્થાને પ્રાણીઓ મારી નાખવામાં આવે છે તેનું નામ મારા ( वधस्थान ) छे मा 'भारा' थी. છૂટીને આમ બે અર્થી ‘ મારમુક્ત' શબ્દના થઈ શકે છે. ા સૂત્ર ૯ ૫
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. जनगारधर्मामृतषिणी टी० १० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०७
सागरे तिकटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएणं सा भद्दा सस्थवाही कल्लं पाउ० दास चेडियं सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए ! वहुवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि, तएणं सा दासचेडी भदाए एवं वुत्ता समाणी एयमहं तहत्ति पडिसुगंति, मुहधोवणियं गेण्हइ गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासइ पासित्ता एवं वयासी - किन्नं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहिसि ?, तएणं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उद्वेइ उट्रित्ता वास. घरदुवारं अवगुणइ जाव पडिगए तएणं तओ अहं मुहत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए णं से सागरएत्तिकटु ओहयमण जाव झियायामि, तएणं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमटुं सोचा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमह निवेएइ, तएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जिणदत्तं एवं वयासी-किण्णं देवाणुपिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं - वा जन्नं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्टदोसं पइवयं
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छाताधर्मकथासू
विप्पजहाय इहमागओ बहूहिं खिज्जणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभइ, तणं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमहं सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी- दट्टणं पुत्ता ! तुमे कथं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागते, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे, तरणं से सागरए जिणदत्तं एवं वयासी - अवि आई अहं ताओ ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुष्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापिटुं वा पवज्जं वा विदेसगमणं वा अब्भुवगच्छिज्जामि नो खलु अहं सागरदत्तस्त गिहं गच्छिज्जा, तरणं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुडुं तरिए सागरस्स एयमहं निसामेइ निसामित्ता लजिए विली विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनि - क्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सदावेइ सद्दावित्ता अंके निवेसेइ निवेसित्ता एवं वयासी - किण्णं तुमं पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का ?, अहंणं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं वग्गूहिं समास से समासासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १० ॥
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टीका - ' तरणं इत्यादि । ततः = तन्निर्गमनानन्तरं खलु सुकुमारिका दारिका ततो वरे प्रतिबुद्धा जागरिता सती पतिव्रता यावत् पतिमपश्यन्ती
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २०९ शयनीयात-शय्यात उत्तिष्ठति, उत्थाय सागरस्स दारकस्य सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कुर्वतीर वासगृहस्य-शयनगृहस्य द्वारं विघाटितम्-उद्घाटितं पश्यति, दृष्टा एवमवादीत-गतः स सागरदाम, इति कृत्वा 'ओहयमणसंकप्पा' अपहतमनः संकल्पा-नष्टमनोरथा, यावत् व्यायति आर्तध्यानं करोतिस्म । ततस्तदन न्तरं भद्रा सार्थवाही ' कल्लं 'कल्ये-द्वितीयदिन से प्रादुः प्रभातायां रजन्यां यावत् तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने मर्ये उदिते दासवेटी-दासपुत्रीं शब्दयति, शब्दयित्वा
तएणं सूमालिआ दारिया' इत्यादी। .. टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सूमालिया दारिया) सुकुमारिका दारिका (तओ मुहुत्ततरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी ) एक मुहूर्त के बाद जग पडी-सो उस पतिव्रता ने यहां अपने पतिको जब नहीं देखा तय (सयणिज्जाओ उट्टेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वाओ समता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहोडियं पासइ, पासित्ता एवं षयासी) पलंग से उठी उठकर उसने सागर दारक की वहीं पर सब और बार २ मार्गण गवेषणा की- । जब उसने शयन गृह के दरवाजे को उघड़ा हुआ देखा-तब उसे विचार आया कि ( गये से सागरे ति कह ओहयमणसंका जाव झियाघह, तएण सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउ० दासचेडियं सद्दावेइ ) कि सागर चले गये हैं। इस प्रकार अपहतमनःसंकल्प होकर वह विचार में पड़ गई, इतने मे भद्रा सार्थवा
( तएणं सूमालिया दारिया इत्यादि
टी -( तएणं ) त्या२मा (सूमालिया दारिया ) सुभा२ि४ हा२ि४॥ ( तओ मुहुर्ततरस्स पडिबुद्धा पइवया जाव अपासमाणी ) से भुत पछी જાગી ગઈ તે પતિવ્રતાએ ત્યાં પોતાના પતિને જ્યારે જયા નહિ ત્યારે
( सयणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी )
શયા ઉપરથી ઊભી થઈ અને ત્યારપછી તેણે ત્યાંજ આસપાસ મેર સાગર દારકની માર્ગણુ-ગવેષણું કરી. જ્યારે તેણે શયનગૃહના બારણને ઉઘાડેલું જોયું ત્યારે તેને વિચાર આવ્યું કે
( गए से सागरे निकटूटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियापइ, तपणं मा भद्दा सस्थवाही कल्लं पाउ दासचेडियं सदावेह )
સાગર જતા રહ્યા છે. આ રીતે અપહત મન: સંકલ્પવાળી થઈને તે हा २७
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हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे एवमवादी-हे देवानुपिये ! गच्छ खलु स्वं ' बहुवरस्स' वधूवरयोः समीपे 'मुधोवगियं ' मुखधावनिकांदाधावनादिरूपाम् ' उवणेहि ' उपनय यापय । ततः खलु सा दासचेटी भद्रया सार्थवाह्या एवमुक्तासती ' एयमटुं' एतमर्थम्= एतद्वचनं ' तथा ऽस्तु ' इतिकृत्वा प्रतिशगोति, प्रतिश्रुत्य ' मुहधोवणियं' मुख धावनिकां Zलाति, गृहीत्वा यत्रैव वासगृहं तत्रैवोपरागच्छति, उपागत्य सुकुमारिकां दारिकामेकाकिनी यावत्-ध्यायन्ती आर्तध्यानं कुर्वतीं पश्यति. दृष्ट्वा एवमवादीत्हीने द्वितीय दिन प्रातः काल होते ही दासपुत्री को बुलाया ( सहावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए! वहूवरस्स मुधोवेणियं उवणेहि तएणसा दासचेडी भद्दाए एवं वुत्ता समाणी एयमढे तहत्ति पडि सुगंति मुहयोवणियं गेण्हइ, उवागच्छित्ता, सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया!
ओहमणेसंकप्पा जाब झियाहिसि ? तरण मा सूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जणित्ता मम पासोओ उट्टेह, उहित्ता वासघरदुवारं अवगुणइ, जाव पडिगए ) घुलाकर उससे ऐसा कहा कि हे देवाणु प्रिय तूंजा,
और बधूवर के पास इस दन्त धावन आदिरूप मुख धावनिका को ले जा भद्रा के इस कथन को उस दासचेटी ने “ तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया और मुख धावनीको को ले लिया-और लेकर फिर वह जहां वासगृह था-वहां गई । वहां पहुंचकर उसने सुकुमारिका दारिका कों ચિંતામાં ગમગીન થઈ ગઈ. એટલામાં બીજા દિવસે સવારે ભદ્રાસાર્થવાહીએ દાસપુત્રીને બેલાવી.
(सदायित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए ! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि, तएणं सा दासचेडी भदाए एवंवुत्ता समाणी एयमई तहत्ति पडिसुणंति महधोवणियं गेहइ, गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, ममालियं दारियं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहिसि ? तएणं सा मूमालिया दारिया तं दासचेडी एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जणित्ता मम पासाओ उठेइ, उद्वित्ता वासघरदुवारं अवगुणइ, जाव पडिगए)
બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે તુ વરવધુની પાસે આ દંતધાવન વગેરે મુખધાવનિકા લઈ જા. ભદ્રાના આ કથનને સાંભળીને તે દાસચટીએ “* તહત્તિ” કહીને તેને સ્વીકારી લીધું અને મુખધાનિકા ( દાતણ ) ને લઈ લીધું અને લઈને તે જ્યાં વાસગૃહ હતું ત્યાં ગઈ ત્યાં
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अनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २११ हे देवानुप्रिये ! हे सुकुमारिके ! किं-कुतः खलु स्वप् अपहतमनः संकल्पा यावत् ध्यायसि ?, ततस्तदनन्तरं सा सुकुमारिका दारिका तां दासचेटी मेवमवादीत्-हे देवानुप्रिये ! एवं खलु सागरको दारको मां सुखपमुप्तां ज्ञात्वा मम पार्थादुत्तिष्ठति, उत्थाय वासगृहद्वारम् ' अवगुणइ ' अवगुणयति अपावृणोति उद्घाटयति, 'यावत् पतिगतः ' यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततस्तदनन्तरं खलु 'तो' ततो मुहूर्तान्तरेऽहं यावत -प्रतिबुद्धा सती सागरदारकमपश्यन्ती शयनादुत्तिष्ठामि, उत्थाय तस्य मार्गणगवेषणं कुर्वती वासगृहस्य द्वारं विघाटितं पश्यामि गतः खलु स सागरकः' इति कृत्वा=इति हेतोरहम् अपहतमनः संकल्पा यावद्चिन्ता मग्न देखा-देखकर उसने उससे पूछा कि हे देवानुप्रिये ! क्या कारण है जो आप अपहतमनः संकल्पा होकर चिन्ता मग्न बनी हुई हो ? इस दासचेटी के प्रश्नको सुनकर उस सुकुमारिका ने उस से कहा-देवानुप्रिये-सुनो-सागरदारक मुझे सुख प्रसुप्त जानकर मेरे पास से उठे और उठकर वासगृह के दरवाजे को खोलकर जहां से आये थे वहां चले गये है। (तए णं तओ अहं मुहत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि गएणं से सागरए त्तिकटु ओयमाणं जाव झियायामि, तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमटुं सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छह ) उसके बाद ज्योंही मैं जगी-तो मैंने जब सागर दारक को अपने पास नहीं देखा तो में शय्या से उठ बैठी-और उठकर मैंने उनकी यहीं पर सब तरफ आर्गण गवेषणाकी उसमें मैंने वासगृह के दरवाजे उघडा पाया-तब मैं समझ જઈને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને ચિંતામાં ગમગીન જોઈ જોઈને તેણે તેને પૂછયું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહત મનઃ સંકલ્પા થઈને ચિતામાં બેઠા છો ? દાસટીના પ્રશ્નને સાંભળીને તે સુકુમારિકાએ તેને કહ્યુંકે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, સાગર દારક મને સુખેથી સૂતી જાણીને મારી પાસેથી ઉભા થયા અને ઉભા થઈને વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડીને જ્યાંથી આવ્યા હતા, ત્યાં જતા રહ્યા છે.
(तएणं तओ अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि गएणं से सागरए त्ति कटु ओहयमणं जाव झियायामि, तएणं सा दासचेडी, मूमालियाए दारियाए एयमह सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ) ।
ત્યાર પછી જ્યારે હું જાગી ત્યારે મેં સાગર દારક ને મારી પાસે જોયે નહિં, હું શા ઉપર ઉઠી અને બેઠી થઈ ગઈ અને ત્યાર પછી મેં અહીં જ તેમની બધે માગણ-ગવેષણ કરી. મેં જ્યારે વાસગૃહના બારણાને ઉઘાડું જોયું ત્યારે હું સમજી ગઈ કે તેઓ ચાલ્યા ગયા છે. આ વિચારથી જ હું અપહત
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शाताधर्मकथासूत्र आर्तध्यानध्यायामि । ततः खलु सा दासचेटी सुकुमारिकाया दारिकाया अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा, यौव सागरदत्तः सार्थवाह =सुकुमारिकायाः पिता, तरैवोपागच्छति, उपागत्य तं सागरदत्तमेतमर्थ निवेदयति । ततस्तदनन्तरं स सागरदत्तः सार्यवाहो दासचेटयाअन्तिके एतमय श्रुत्वा निशम्य आशुजप्तः शीघ्रं क्रोधाविष्टः सन् यत्रैव जिनदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-हे देवानुप्रिय ! किं-कथं खलु एवं युक्तम्-उचितं वा प्राप्त कुलमर्यादामनुप्राप्तं वा कुलानुरूपं कुलयोग्यतानुकूलं वा कुलसदृशं कुलसाम्यापन्नं वा, यत् खलु सागरो दारकः सुकुमारिका दारिकामदृष्टदोषां निर्दोषां पतिव्रता गई कि वे चले गये है इस विचार से मैं अपहतमनः संकल्प होकर आर्तध्यान-चिन्ता-में पड़ रही हैं। इस प्रकार सुकुमारिका की बात सुनकर वह दासचेटी बहुत सोच विचार करके वहां से सागरदत्त के पाम आई । ( उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयम निवेएइ-तएणं से मागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरत्ते जेणेव जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छ इ-उवाच्छित्ता जिणदत्तं एवं क्यासी ) वहाँ आकर उसने सगरदत्त से इस बात को कहा-। इस तरह दासचेटी के मुख से इस योत को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर सागरदत्त बहुत अधिक-क्रुद्ध हआ-और उसी समय जहां जिनदत्त सार्थवाह का घर था वहां गया। वहां जाकर उसने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-(किण्हं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुटाणुरूवं वा कुलसरिसं या जन्नं सागरदारए सूमालियं મનઃ સંકલ્પ થઈને આતંદયાન-ચિંતામાં પડી છું આ રીતે સુકુમારીકાની વાત સાંભળીને તે દાસ ચેટી ખૂબજ વિચાર કરીને ત્યાંથી સાગરદત્તની પાસે ગઈ
उवागच्छित्ता सागरदत्तस्य एयम निवेएइतएणं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयभद्रं सोचा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तस्म सत्यवाहस्स गिडे तेणेव उवागच्छइ-उवागच्छित्ता जिणदत्त एवं वयासो)
ત્યાં આવી ને તેણે સાગરદત્તને આ વાત કરી. આ રીતે દાસ ચેટીન મુખથી બધી વિગત સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને સાગર દત્ત અત્યંત ગુસ્સે થયો અને તરત જ જ્યાં જિનદત્ત સાર્યવાહનું ઘર હતું ત્યાં ગ. ત્યાં જઈને તેણે જિનદત્ત સાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(किणं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा जन्नं सागरदारए ममालिथं दरियं अदिइदोसं पइवयं विपनहाय इहमागओ बहहिं खिज्जणियाहि य रुहणियाहि य उवालभइ)
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वैनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् विप्रहाय त्यक्त्वा इहागतः-कथमेत्तद् युक्तं, यत् निर्दोषां सुकुमारिकां विहाय सागरदारकोऽत्र सभायात इति । एवं बहोभिः 'खिज्जणियाहि य' खेदनिकामिःखेदपूर्णाभिस्तथा ' रुंटणियाहि य 'रुटणियाभिश्च देशीयोऽयं शब्दः, रोदनक्रियायुक्ताभिः वाग्भिः उपालभते पागरदत्तो जिनदत्तस्य उपालम्भं करोतीत्यर्थः ।
ततः खलु जिनदत्तः सार्थवाहः सागरदत्तस्य सार्थवाहस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशभ्य यत्रैव सागरदारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सागरकं दारकं स्चपुत्रमेवं वक्ष्यमाणपकारेण आदीत्-हे पुत्र ! त्वया खलु दुष्ठु अशोभनं कृतम् यत-सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहादिह हव्यमागतः, तत्-तस्माद् गच्छ खलु त्वं हे पुत्र ! एवमपि यथास्थितस्तथैव सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहम् । सागरदारको जिनदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-हे तात ! अपि-निश्चयेन — आई' इति वाक्यालंकारे अहं दारियं अदिट्ठदोसं पइवयं विप्पजहाय इह मागओ बहूहिं खिजणियाहि य रुट्टणियाहि य उबाल भइ ) हे देवानुप्रिय ! क्या यह बात योग्य हैअथवा कुलमर्यादा के लायक है, या कुल की योग्यता के अनुसार है या कुल को शोभित करे ऐसी है, जो सागरदारक विना किसी दोषके देखे-पतिव्रता सुकुमारिका दारिका को छोड़कर यहां आ गया है इस प्रकार अनेक खेदपूर्ण एवं रोदनक्रिया युक्त वचनोंसे सागरदत्तने अपने संबधी जिनदत्तको ठपका-उलाहना दिया। (नएणं निणदत्ते सागरदत्तस्स एयमटुं सोच्चा जेणेव सागर ए दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवंवयासी-दुहुणं पुत्ता तुमे कयं,सागरदत्तस्स गिहाओ इह हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमविगए, सागरदत्तस्त गिहे, तएणं से सागरए जिणदत्तं एवं वयासी-अवि आई अहं ताओ!
હે દેવાનુપ્રિય ! શું આ વાત વાજબી છે? કુળ મર્યાદાને લાયક છે ? અથવા તે કુળની ગ્યતા મુજબ છે? કુળને શેભોવનારી છે ? કે જે સાગર દારક કોઈ પણ જાતના દેષ જોયા વગર પતિવ્રતા સુકુમારીકા દારિકાને ત્યજીને અહીં આવી ગયો છે? આ રીતે મનને દુભાવનારા તેમજ ગળગળા થઈને રડતાં રડતાં ઘણું વચનેથી સાગરે પોતાના વેવાઈ જિનદત્તને ઠપકો આપે. ( तएणं जिगदत्ते सागरदत्तस्स एयमढे सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छित्ता सागरयं दारय एवं वयासी-दुट्ठणं पुत्ता तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इह हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता ! एवमविगए, सागरदत्तस्स गिहे, तएणं से सागरए जिणदत्त एवं वगासी अघि आई असं
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शाता कथासूत्रे
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तवाज्ञया गिरिपतनं वा तरुपतनं वा मरुप्रपातं वा निर्जलदेशगमनं वा जलप्रपातं वा = अगाधजले पतनं वा, ज्वलनप्रवेशं वा ज्वलदग्नौ प्रवेशं वा विषभक्षणं वा, ' सत्थोवाडणं वा ' शस्त्रावपाटनं वा शस्त्रेण शरीरविदारणं वा, वेहाणसं वा ' वैहायसं वा कण्ठे पाशकग्रहणं वा तथा-गृतस्पृष्ठ = गृधेः स्पर्शनं मया गजोष्ट्रा दीनां कलेवरे प्रवेशितस्य शरीरस्य मृतबुद्धया गृत्रैर्भक्षणं, तथा प्रव्रज्यां वा, विदेश
गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापिट्ठ वा पवज्जं वा विदेसगमणं वा अन्भुवगच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिह गच्छिज्जा ) जिनदत्त सागरदन्त के इस उलाहने रूप अर्थ को सुनकरके जहां सागरदारक था वहां गया वहां जाकर उसने सागर दारक से इस प्रकार कहा- हे पुत्र ! यह तुमने अच्छा नहीं किया-जो तुम सागरदत्त के घर से यहां इतने जल्दी आ गये । इसलिये हे बेटा ! तुम जैसे यहां बैठे हो वैसे ही सागरदत्त के घर चले जाओ। तब सागरदारकने अपने पिता जिनदत्त से इस प्रकार कहा- पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा से पर्वत से गिरना स्वीकार कर सकता हूँ, वृक्ष से नीचे पड़जाना स्वीकारकर सकता हूँ- मरुप्रपात - निर्जलप्रदेश में जाना अंगीकारकर सकता हूँ, अगाधजल में डूबकर मरसकता हूँ तथा जलती हुई अग्नि में प्रवेश करना, विषका भक्षण करना, शत्रु से शरीर का ताओ ! गिरिपडणं वा तरुवडणं वा मरुष्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धापि द्वं वा पवज्जं वा विदेसमणं वा भुवगच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा ) જિનદત્ત સાગરદત્તના આ ઠપકાને સાંભળીને હું સાગર દ્વારક હતા ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઇને તેણે સાગર દારકને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! તમે આ જે કઈ કર્યું છે, તે સારું ન કહેવાય. તમે સાગરદત્તના ઘેરથી આટલા જલ્દી આવતા રહ્યા આ ઠીક નથી. એથી હું બેટાં ! તમે અત્યારે જેવી સ્થિતિમાં છે તેવી જ સ્થિતિમાં સાગરદત્તને ઘેર જતા રહ્યા. ત્યારે સાગર દ્વારકે પોતાના પિતાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું પિતશ્રી ! તમારી આજ્ઞાથી હું પર્યંત ઉપરથી નીચે ગબડી પડવું સ્વીકારી શકું છું, વૃક્ષ ઉપરથી નીચે પડી જવું સ્વીકારી શકું છું, મરુષપત-નિળ પ્રદેશમાં જવું સ્વીકારી શકું છું, ઊંડા પાણીમાં ડૂબીને મરી શકું છું, તેમજ સળગતા અગ્નિમાં વેરાલુ, વિષનું ભક્ષણ કરવું, શસ્રનાઘાથી શરીર ને કાપવુ', ગળામાં ફ્રાંસે
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भनगारधर्मामृतवरिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम गमनं वा अभ्युपगच्छामि-स्वीकरोमि. किंतु खलु-निश्चयेन सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य गृहे नैयगच्छामि । ततस्तदा-स सागरदत्तः सार्थवाहः कुड्यान्तरितः- भित्तिव्यवधानेन स्थितः सागरस्य दारकस्य एतमर्थम् उक्तं वचनं निशामयति-शृणोति, निशाम्य लज्जितः स्वयं, वीडितः परतः ‘विडे ' विड्ड:-देशीयोऽयं शब्दः स्वपरतोलज्जितः, जिनदत्तस्य गृहात् प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छति । प्रतिनिष्क्रम्य यौव स्वकं गृहं तत्रोपागच्छति, उगत्य सुकुमारिकां दारिका शब्दयति, शब्दयित्वा अके-उत्सङ्गे ' निवे सेइ ' निवेशयति= उपवेशयति, निवेश्य एवमवादीत-हे पुत्री ! कि केन कारणेन खलु त्वं सागरेण दारकेण 'मुक्का' मुक्ता-त्यक्ता ? ।
विदारण करना गले में फांसी लगाकर मरजाना, गज, उष्ट्र आदि के मृतकलेवर मे मैं अपने आपको प्रविष्ट कराकर उस शरीरको मृतबुद्धि की कल्पना से गृद्ध पक्षियों द्वारा भक्षण करवाना यह सब में स्वीकारकर सकताई, इसी तरह दीक्षागृहण करना अथा विदेश में चलेजाना भी स्वीकारकर सकता हूँ-परन्तु मैं मागरदत्त के घरजानास्वीकार नहीं कर सकता हूँ । अर्थात् ये सब पूर्वोक्त आपकी आज्ञाएँ मुझे विना किसी संकोचके या विचारके मान्य हैं परन्तु सागरदत्तके घरजाना मुझे मान्य नहीं है । (तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुटुंतरिए मोगरस्स एयमटुं निसामेइ, निसामित्तालज्जिए, विलीए, विड्डे, जिनदत्तम्स गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सदावेह, सदावित्ता अकेनिवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी, किण्णं तुमं पुत्ता सागरएणं दारएणं मुक्का? अहं णं तुमं तस्स
ભેરવીને મરવું, હાથી ઊંટ વગેરેના મરેલા શરીરમાં પ્રવેશ કરી મારા શરી. રને મૃતબુદ્ધિની કલ્પનાથી ગીધ પક્ષીઓને ખવડાવવું આ બધું હું સ્વીકારી શકું તેમ છું, તેવી જ રીતે દીક્ષા ગ્રહણ કરવી અથવા તે પરદેશમાં જતા રહેવું પણ હું સ્વીકારી શકું છું પણ હું સાગરદત્તના ઘેર જવું સ્વીકારવા તૈયાર નથી. એટલે કે આ બધી ઉપરની તમારી આજ્ઞાએ મને કઈ પણ જાતના વિચાર કર્યા વગર માન્ય છે, પણ સાગરદત્તને ત્યાં જવું માન્ય નથી. ( तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुटुंतरिए सागरस्स एयमढे निसामेइ, निसामित्ता लज्जिए, विलीए, विड्डे, जिनदतम्म गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सदावेइ, सदावित्ता अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी किण्णं पुत्ता सागरएणं दारएणं
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शाताधर्मकथासूत्रे
अहं खलु स्वां तस्मै दास्यामि यस्य खलु त्वमिष्टा=अभिलपिता कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोमा=मनोगता भविष्यति इति एवं सुकुमारिकां दारिकां तामिरिष्टाभिर्वाग्मिः 'समासा से ' समाश्वासयति समाश्वास्य प्रतिविसर्जयति = प्रस्थापयति ॥ १० ॥
मूलम्-तएणं से सागरदत्ते एवं महं दमगपुरिसं पासइ दंडिखंडनिवसणं खंडग मल्लग घडग हत्थगयं मच्छिया सहस्से हिं
दहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाव मणामा भविस्मसित्ति समालियं दारियंताहि इाहिं वग्गूहिं समासा सेइ, सम सासित्ता पडिविसज्जेह ) वहीं भित्ति के पीछे छुपा हुआ सागरदत्त सार्थवाह सागर के उन बचनों को सुन रहा था । सो सुनकर के स्वयं यडा लज्जित हुआ तथा दूसरोंसे भी उसे बड़ी शर्म आई इस तरह स्व और पर से लजाना हुआ वह जिनदत्त के घर से बाहर निकल गया । और जाकर अपने घर पहुँचा । वहां पहुँच कर उसने अपनी पुत्री सुकुमारिका दारिका को बुलाया - बुलाने पर जब वह आ गई तब उसे उसने अपनी गोदी में बैठा लिया बैठाने के बाद फिर उसने उससे पूछा बेटी ! सागरने तुम्हें किस कारण से छोड़ दिया है मैं तुम्हे उसी के दूंगा कि जिस के लिये तुम अच्छी तरह इष्टा, कान्ता, प्रिया, मनोज्ञा एवं मनोमा होओगी, इस प्रकार उसने सुकुमारिका दारिका उन२ इष्ट वचनों द्वारा अच्छी तरह आश्वासन दिया- धैर्य बँधाया और आश्वासन देकर उसे विसर्जित कर दिया । सू०१०
मुक्का ? अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्सणं तुमं इट्टा जात्र मणामा भविस्ससित्ति समालियं दारियं ताहिं इहाहिं वम्मूर्हि समासासे, समासासित्ता पडिविसज्जेइ ) ત્યાં જ ભીંતની પાછળ છુપાઇને સાગરદત્ત સાવાર્હ સાગરની તે બધી વાતને સાંભળી રહ્યો હતા. સાંભળી તે બહુજ લજ્જિત થયા તેમજ ખીજાએથી પણ તે ખૂબજ લજ્જિત થયા. આ રીતે ‘ જાતે ’ અને ખીજાએથી લજાતે તે જિનદત્તના ઘેરથી ખહાર નીકળી ગયા અને નીકળીને પેાતાને ઘેર પહેચ્યા. ત્યાં જઈને તેણે પોતાની પુત્રી સુકુમારિકા દારિકાને મેલાવી, જ્યારે તે સુક્રમારિકા દ્વારિકા આવી ગઈ ત્યારે તેને પેાતાના ખેાળામાં બેસાડી લીધી. બેસાડીને તેણે તેને પૂછ્યું. હું ભેટી ! શા કારણથી સાગરે તને ત્યજી છે? તને હું તે પુરુષને જ આપીશ કે જેના માટે તું સારી રીતે ઇષ્ણ, કાંતા. પ્રિયા, મનેાજ્ઞા અને મનેામા થશે. આ રીતે તેણે સુકુમાર દારિકાને પોતાના ઇષ્ટ વચ નાથી સારીરીતે આશ્વાસન આપ્યું અને ત્યાર પછી તેને વિદાય આપી સૂ॰ નૈના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् जाव अनिमाणमग्गं, तएणं से सागरदत्ते कोडुंबिय पुरिसे साइ सदावित्ता एवं क्यासी तुम्भे णं देवाणुपिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमं पलोभेहि पलोभित्ता सिंहं अणुष्पवेसेह अणुष्पवेसित्ता खंडगमलगं खंडघडगं ते एगंते एडेह एडित्ता अलंकारियकम्मं कारेह कारिता हायं कयबलि० जाव सव्वालंकारविभूसियं करेह करिता मणुणं असणपाणखाइ मसाइमं भोयावेह भोयावित्ता मम अंतियं उवणेह, तरणं कोडुबियपुरिसा जात्र पडिसुर्णेति पडिणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दमगं असणं उवप्पलोभेंति उवप्पलोभित्ता सयंहिं अणुपवेसिंति अणुपवेसित्ता तं खंडगमलगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगंते एडंति, तणं से दमगे तंसि खंडमलगंसि खंडघडगंसि य एते एडिजमाणसि महयार सद्देणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महयार आरसियसदं सोचा निलम्म कोटुंबिय पुरिसे एवं वयासी - किण्णं देवाणुप्पिया ! एस दमपुरिसे महया महया सदेणं आरसइ ? तएणं ते कोबियपुरिसा एवं वयासी - एस णं सामी ! तंसि खंड मल्लगंसि खंडघडगंसि एगंते एडिजमाणंसि महया महया सदेणं आरसइ, तरणं से सागरदत्ते सत्थ ते कोडुंबियपुर से एवं वयासी- मा णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगस्स तं
क्षा २८
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शाताधर्भकथागसूत्र खंड जाव एडेह पासे ठवेह जहा णं पत्तियं भवइ, ते वि तहेव ठविति. तएणं ते कोडुंबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति करित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अब्भंगेति अब्भंगिए समाणे सुरभिगंधुव्वदृणेणं गायं उव्वडितिर उसिणोदगेणं गंधोदगेणं सीतोदगेणं ण्हाणेति पम्हल सुकुमाल गंधकासाइयाए । गायाइं लूहति लूहित्ता हंसलक्खणं पट्टसाडगं परिहत परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति करिता विउलं असणपाणखाइमसाइमं भोयाति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेति, तएणं सागरदते सूमालियं दारियं पहायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करिता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-देवाणुप्पिया! मम धूया इट्टा एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि भद्दियाए भद्दओ भविजासि, तएणं से दमगपुरिसे सागरदतस्स एयमह पडिसु. गति पडिसुणिता सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि निवज्जइ, तएणं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुढेइ अब्भुट्टित्ता वासघराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता खंड मल्लगं खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए, तएणं सा सूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे त्तिक? ओहयमण जाव झियायइ ॥ सू० ११ ॥
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१९ ___टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स सागरदत्तः सार्थवाहोऽन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिश्चित् काले 'उपि आगासतलगंसि' उपरि आकाशतलके पासादोपरिभागे , सुहनिसण्णे ' सुखेनोपविष्टः, राजमार्गमवलोकमानः २ तिष्ठति । ततः खलु स सागरदत्त एकं महान्त ' दमगपुरिसं' द्रमनपुरुष 'दमग' इति देशीयः शब्दः दरिद्रपुरुषं पश्यति, किम्भूतम् ? इत्याह-'दंडिखंड निवसणं ' दण्डिखण्डनिवसनं दण्डि-कृतसन्धानं जीर्णवस्त्रं तस्य खण्डं तदेव निवसनं परिधानवस्त्रं यस्य स दण्डिखण्ड निवसनस्तम्, तथा-, खंडमल्लग घडगहत्थगयं' खण्डमल्लकघटकहस्तगत= खण्डमल्लकं-खण्ड शरावं स्कुटितशरावं भिक्षापात्रं, तथा खण्डघटकश्च-खण्डरूपो घटः स्कुटितस्य घटस्य भागः स एवं जलपात्र, एतदद्वयं हस्तगतं यस्य तम्, 'मच्छियासहस्सेहिं जाव अन्निज्जमाणमग्गं' मक्षिकासहरी वित् अन्वीयमानमार्ग, शरीरवस्त्रादेर्मलिनत्वात् तत्पृष्ठतो मक्षिका आप
'तएणं से सागरदत्ते' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं से सागरदत्ते)इसके बाद सागरदत्तने किसी एक समय " उप्पि आगासतलगंसिं" अपने प्रासाद के ऊपर सुख पूर्वक बैठी हुई स्थिति में राजमार्ग का अवलोकन करते समय ( एगं महं दमगपुरिसं पासइ) एक अत्यंत दरिद्र पुरूष को देखा ( दंडिखंडनिवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणनग्गं ) जो जीर्णवस्त्र के जुड़े हुए चिथडे को पहिने था और जिसके हाथ में खंडमल्लकथा-फुटा हुआ मिट्टि के खप्पर था - तथा पानी पीने के लिये फुटे हुए घट का एक खप्पर था। हजारो मक्खिया जिसके पीछे पीछे, शरीर और वस्त्रो के मलिन होने से भिन्न २ करती हुई उड़ रही
'तएणं से सागरदत्ते' इत्यादि । Aथ-(तएणं से सागरदत्ते) त्या२ मा सा२त्त असे मत (उपि आगासतलगंसिं) पोताना भाडेसानी ७५२ सुमेथी मेसी२ २।४मानुं अपन४२. तो. त्यारे तेणे (एगं महं दमगपुरिसं पासइ) मे ५४ ६२-४ -पुरुषने यो. (दंडिखंड निवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं जाव अनिज्जमाणमग्गं ) तेथे पूना पखना थीथमा ५७२६। उता भने तना मां
ખંડમલ્લક હતું ” એટલે કે ફુટી ગયેલા માટીના વાસણને એક કકડો હિતે તેમજ પાણી પીવા માટે ટેલી માટલીનું એક ખપર હતું હજારે માખીઓ તેની પાછળ પાછળ-શરીર અને વસ્ત્રોની મલીનતાને લીધે ઉડી રહી હતી.
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२२०
ज्ञाताधर्मकथाजस्त्र तन्तीत्यर्थः । ततः खलु स सागरदत्त कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् हे देवानुप्रियाः ! यूयं खलु एतं द्रमकपुरुष रङ्कपुरुष विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाधेन प्रलोभयत प्रलोभ्य गृहमनुषवेशयत, अनुप्रवेश्य खंडकमल्लक खण्डशरावं खण्डघटक-पानीयपानं ' से ' तस्य द्रमकपुरुषस्य एकान्ते एकान्त स्थाने ' एडेह । निक्षेपयत, निक्षेप्य अलंकारिककर्म = केशनखच्छेदनादिकं नापितादिमिः कारयत, कारयित्वा स्नातं कृतवलिकर्माणं यावत् सर्वालङ्कारथीं। (तए णं से सागरदत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखोहम साइमं पलोभेइ, पलोभित्ता गिहं अणुपवेसेह, अणुपवेसित्ता खंडगमल्लग खंडघडगं तं एगंते एडेह एडित्ता अलंकारिकम्मं कारेह कारित्ता पहायं कयबलि० जाव सव्वालंकारविभूसियं करेह करित्ता मणुपणं असणपाणखाइमसाइमं भोयावेह, भोयोवित्ता मम अंतियंउवणेह ) इसके बाद सागरदत्तने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया । बुलाकर उसने इस प्रकार कहा देवानुप्रियो। तुम लोग इस दरिद्र पुरुषको विपुल अशन, पान,खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहारका प्रलोभन दो-प्रलोभन देकर फिर इसे घर में भीतर करलो । जब यह घरके भीतर हो जावेगा तय तुमलोग इसके ये खंडमल्ल (फटी लंगोटी ) और खंडघटक इससे छुड़ा. कर किसी एकान्त-सुरक्षित स्थान में रखो। बाद में नापित ( नाई ) को बुलाकर इसके सुन्दर ढंग से बाल बनवाओ नखआदि जो वढ़ रहे ( तएणं से सागरदत्ते कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-तुम्भेणं देवानुप्पिया! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपागखाइमसाइमं पलोभेइ,पलोभित्ता गिहं अनुप्पवेसेह, अणुप्पवेसित्ता खंडगमल्लगखंड धडगंतं एगं ते एडेह, एडित्ता अलं. कारिकम्मं कारेह कारित्ताहायंकयवलिजाव सव्यालंकारविभूसियं करेह करिता मणुण्णं असणपाणखाइमसाइमं भोयावेह, भोयावित्ता मम अंतियं उवणेह) ત્યારપછી સાગરદત્ત આજ્ઞાકારી પુરૂષને બોલાવ્યા. બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે આ દરિદ્ર પુરૂષને પુષ્કળ પ્રમા
માં અશન,પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારની લાલચ આપે. લાલચ આપીને તેને ઘરની અંદર બોલાવી લે. જ્યારે તે ઘરમાં આવી જાય ત્યારે તમે તેની પાસેના ખંડમલ અને ખંડઘટક લઈને તેને એકાંત સુરક્ષિત સ્થાનમાં મૂકી દે. ત્યારપછી હજામને બેલાવીને તેના સરસ રીતે વાળ કપાવી નાખે અને વધી ગયેલા નખ વગેરેને કપાવી નાખે. ત્યારપછી તેને સ્નાન
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २१ विभूषितं कुरुत कृत्वा ' मणुण्ण ' मनोज़-रुचिरम् अशनपानखाद्यस्वाध भोजयत भोजयित्वा ममान्तिक-समीपमुपनयत । ततः खलु कौटुम्बिकपुरुषा यावत्-प्रतिशृण्वन्ति तथाऽस्तु ' इति कृत्वा तदाज्ञां स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य यत्रैव स द्रमकपु रुषारपुरुषः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं द्रमकं रुचिरेण विपुलेनाशनादिना मलोभयन्ति प्रलोभ्य स्वकं गृहमनुप्रवेशयन्ति, अनुमवेश्य त खण्डकमल्लकं खण्डकघटकं च तस्य द्रमकपुरुषस्यैकान्ते ' एडंति' निक्षेपयन्ति, ततः खलु स द्रमकस्तस्मिन् खण्डमल्लके खण्डघटके च एकान्ते ' ' एडिज्जमाणंसि' निक्षेप्यमाणे सति महता २ शब्देन 'आरसइ ' आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तस्तस्य द्रमकपुरुषस्व तं महान्तं ' आरसियइ सदं ' आक्रन्दनशब्दं श्रुत्वा निशम्य कौटुहैं उन्हें कटवाओ। उसके प्रश्चात् इसे स्नान कराओ। बाद में इससे पशु पक्षी आदिको अन्नादिका भागरूप बलिकर्म आदिकरवाओ-जब यह पलिकर्म आदिकर चुके तय तुमलोग इसे.समस्त अलंकारो से विभूषित करो, विभूषित करके फिर इसे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार खिलाओ-खिलाकर के बाद में फिर हमारे पास इसे ले आओ। (तएणं कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता तं दमगं असणं उवप्पलोभेति, उपप्पलोभित्ता सयं गिहं अणुपवेसिति अणुपविसित्ता, तं खंडमल्लगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडेंति, तएणं से दमगे तंसि खंडमल्लगंसि, खंडधडगंसि य एगंते एडिजमाणसि महया २ सद्देणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया२ आरसियसई सोच्चो કરાવે સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેના હાથેથી પશુ-પક્ષી વગેરેને અન વગેરેને ભાગ આપવા રૂપ બલિકર્મ કરાવડાવે. જ્યારે બલિકર્મની વિધિ પતી જાય ત્યારે તમે લેકે એને બધી જાતના અલંકારથી શણગારે. શણગારીને તેને મનેશઅશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહારો જમાડે. જમાડ્યા પછી તેને અમારી પાસે લઈ આવે.
(तएणं कोईवियपुरिसा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं दमगं असणं उपप्पलो ते उवप्पलोभित्ता सांगेहं अणुपवेसिति, अणुपविसित्ता, तं खंडगमल्लगं खंडगधडगंच तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडेति तएणं से दमगे तंसि खंडमल्लगंसि, खंडघडगंसि य एगंते एडिज्जमाणंसि महया २ सद्देणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महयार आरसिय सदं सोचा निसम्म कोडंबियपुरिसे एवं वयासी)
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२२.
নামােজর म्बिकपुरुषानेवमवादीत्-हे देवानुप्रियाः ! वि-केन कारणेन खलु एष द्रमकपुरुषो महता २ शब्देन आरसति आक्रन्दति ? । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः एवमवदन्-एष खलु हे स्वामिन् ! तस्मिन् वण्ड मल्ल के खण्डघटके एकान्ते निक्षेप्यमाणे महता २ शब्देन आरसति-आक्रन्दति । ततः खलु स सागरदत्तः सार्थवाहस्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् एवमवादोत्-हे देवानुप्रियाः ! मा खलु यूयं एतस्य निसम्म कोडुचियपुरिसे एवं बयासी ) इस प्रकार की उन कौटुम्बिक ने सागरदत्त सेठ की इस आज्ञा को अच्छी तरह स्वीकार लिया और स्वीकार कर वहां जाकर उन्होंने उस दमक को अशन पान आदिरूप चतुर्विध आहार से बार २ लुभाया लुभाकर वे उसे अपने घर तक ले आये और अंत में अपने घर में उसे प्रवेश कराया। बाद में उन लोगोंने उस दमक पुरुष के फूटे हुए मिट्टो के दीपक के खंड को, तथा फूटे हुए घडे के खप्पर को उससे लेकर किसी सुरक्षित स्थान में रख दिया। जब उस दमकपुरुषने अपने खंडमल्लक फटी लंगोटी) को और खंडघटकको अपने से लेकर एकान्त स्थान में रखा जाता हुआ देखा-तो वह जोर जोरसे रोने लगा-उसके उस रोने की आवाजको सुनकर और उसे अपने चित्त में धारण कर सागरदत्तने कौटुम्यिक पुरुषों से इस प्रकार कहा-(किण्णं देवाणुप्पियो ! एसदनगपुरिसे महया २ सद्देणं आरसइ ३ तएणं ते कोडांबियपुरिसा एवं यथासो एस सामी ! तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि एगते एडिज्जमाणसि महया २ सद्देणं આ જાતની સાગરદત્તની આજ્ઞાને તે કૌટુંબિક પુરૂએ સારી રીતે સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર્યા બાદ તેઓ દરિદ્ર માણસની પાસે ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેને બોલાવ્યા અને અશન, પાન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહારની વારંવાર લાલચ આપી. લલચાવીને તેઓ તેને ઘર સુધી લઈ આવ્યા અને છેવટે તેને ઘરમાં દાખલ કરી છે. ત્યારપછી તે લોકોએ તે દરિદ્ર માણસની પાસેથી ફૂટેલા માટીના વાસણને કટકે તેમજ ફૂટેલા માટલાના ખપ્પરને લઈને સુરક્ષિત સ્થાને મૂકી દીધું જ્યારે તે દરિદ્ર માણસે પિતાના ખંડમલ્લકને અને ખડાટકને પિતાની પાસેથી છીનવીને એકાંત સથાનમાં મૂકતાં જોયું ત્યારે તે મોટેથી ઘાંટા પાડીને રડવા લાગ્યો. તેના રડવાના અવાજને સાંભળીને અને તેને પિતાના ચિત્તમાં ધારણ કરીને સાગરદત્ત કૌટુંબિક પુરૂને આ પ્રમાણે કહ્યું. (किणं देवाणुप्पिया ! एस दम गपुरिसे महया २ सदेणं आरसइ, तएणं ते कोडुबियपुरिसा एवं वयासी एसगं सामी ! तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि एगंते एडिज्जमाणंसि महया २ सदेणं आरसइ, तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे ते
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२३ द्रमकपुरुषस्य तत् खण्डमल्लकं ग्वण्डघटकं यावत्-एकान्ते — एडेड ' निक्षेपयत अस्य परोक्षे मा स्थापयतेत्यर्थः, किन्तु पार्थे स्थापयत, यथा खलु 'पत्तियं ' प्रत्ययः विश्वासो भवति । तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव स्थापयन्ति । ततः खलु ते कौटुआरसइ, तएणं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते कोडुंबिय पुरिसे एवं वयासी) हे देवानुप्रियो ! क्या कारण है जो यह दमक पुरूष जोर २ से रो रहा है ? तब उन कौटुम्पिक पुरुषों ने ऐसा कहा कि हे स्वामिन् ! इसने ज्योंही अपने खंडमल्लक को और घटखंड को लेकर एक ओर सुरक्षित स्थान में रखे जाते हुए देखा वैसे ही यह बड़े जोर २ से रोने लगा है । ऐसा सुनकर मागरदत्त ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा(माणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एयस्त दमगस्स तं खंड जाव एडेह, पासे ठवेह, जहाणं पत्तियं भवइ, तेवि तहेव ठवेंति, तएणं ते कोडुबिय पुरिसा तस्म दभगस्स अलंकारियकम्मं करेंनि, करित्ता सपपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अ०भगेति, अभंगिए समाणे सुरभिगंधुव्वदृणेणं गायं उव्वादिति, २ उसिणोदगेणं गंधोद्गेणं सीतोदगेणं व्हावेंति) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग इस दमक पुरुष के फूटे हुए मिट्टी के दीपक के खंड को और फूटे हुए घड़े के खप्पर को इससे लेकर परोक्ष मेंअदृश्य स्थान में-मत रखो किन्तु इस के पास में ही-समक्षरखो, जिमसे इसे अपनाविश्वात बना रहे । इस प्रकार सागरदत्त की बात कोडविय पुरिसे एवं एवं वयासी)
હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી આ દરિદ્ર માણસ મેટેથી ઘાંટા પાડી પાડીને રડી રહ્યો છે ? ત્યારે તે કૌટુંબિક પુરૂએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન્ ! પિતાના ખંડમલ્લક અને ખંડઘટકને તેની પાસેથી લઈને બીજા સુરક્ષિત સ્થાને લઈ જતાં જોઈને આ દરિદ્ર માણસ મેટેથી રડવા લાગે છે. આ પ્રમાણે સાંભળીને સાગરદત્તે કૌટુંબિક પુરૂષને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(माणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगस्स तं खंड जाव एडेह पासे ठवेह, जहाणं पत्तियं भवइ, ते वि तहेव ठवेंति, तएणं ते कोडुबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहि अब्भगेति अभंगिए समाणे सुरभिगंधुबट्टणेणं गायं उव्वदिति २ उसिं णोदगेणं गंधोदगेणं सीतोदगेणं हाति )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો ઓ દરિદ્ર પુરૂષના ફૂટેલા માટીના દીપકના કટકાને અને ફૂટેલા ઘડાના ખપ્પરને એની પાસેથી લઈને દૂર એકાંતમાં મૂકશો. નહિ પણ એની પાસે જ-એની સામે જ મૂકી રાખે. જેથી એને વિશ્વાસ રહે.
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૨૨૪
साताधर्मकयाङ्गसूत्रे म्बिकपुरुषास्तस्य द्रमक्रस्य-रङ्कपुरुषस्य अलंकारिककर्म कारयन्ति कारयित्वा शतपाक सहस्रपाकैस्तैलैरभ्यङ्गयति-मर्दयन्ति । अभ्यङ्गितः सन् सुरभिगन्धोद्वर्तनेन= सुगन्धिपिष्ट केन गात्रमुद्वर्तयन्ति, उद्वर्त्य उष्णोदकेन गन्धोदकेन शीतोदकेन स्नपयन्ति, स्नपयिता 'पम्हलसुकुमालगंधकासाइयाए ' पक्ष्मलमुकुमारगन्धकाषायिकया पक्ष्मला पक्ष्मवती मदुरोमयुक्ता अत एव सुकुमारा तथा कपायेण रक्ता साटी काषायिका तया गात्राणि 'लूहति' रूक्षयन्ति = प्रोग्छयन्ति,
सुनकर उन आदेशकारी पुरुषों ने वैसा ही किया-अर्थात् उसके मल्लकखंड और घटखंड दोनों को ही उसके समक्ष उन्होंने रख दिया। इसके बाद उन कौटुम्पिक पुरुषोंने उस दमक पुरुषका आलंकारिक कर्म करवाया । अब उसका अच्छी तरह अलंकारिक कर्म निष्पन्न हो चुकातब उसके बाद उस दमक पुरुष केशरीर की उन लोगों ने शतपाक और सहस्त्र पाकवाले तेल से मालिश की-मालिश करनेके पश्चात् , सुगन्धि. पिष्टक-सुगंधितपिटी-से उसके शरीर का उपटन किया उस सुगंधित पिटी को उसके शरीर पर रगड़ २ कर मला इससे जो उसके शरीर पर मल जमा हुआ था वह चिकनाहट के संबन्ध से उस पिटीद्वारा निकल गया । जब उनके शरीर का उद्वर्तन हो चुका-तब फिर उन लोगों ने उसे उष्णोदक से गंधोदक से, एवं शीतोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर बाद में उसका शरीर (पम्हलसुकुमारगंधकासाइयाए गायाइं लूहंति ) पक्ष्मल-रूएँवाली-मृदुरोमयुक्त-सुकुमार-नरम, रंगीहुई ट्वाल से-अंगोछी-से-तौलिया से पोंछा । ( लूहित्ता हसलक्षणं
આ રીતે સાગરદત્તની વાત સાંભળીને તે આજ્ઞાકારી પુરૂષોએ તે પ્રમાણે જ કર્યું. એટલે કે તેના મલકખંડ અને ઘટખંડને તેની સામે જ મૂકી દીધા. ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરૂએ તે દરિદ્ર માણસના વાળ અને નખ કપાવ્યા. જ્યારે આકામ સરસ રીતે પુરું થઈ ગયું ત્યારે તેઓએ દરિદ્ર માણસના શરીરને શતપાસ અને સહસ્ત્રપાકવાળા તેલથી માલિશ કર્યા બાદ સુગંધિપિષ્ટક-સુગંધિત પીઠી-તેના શરીરે ચોળીને ઉપટન કર્યું. એથી તેના શરીર ઉપર જેટલો મેલ હતું તે પીઠીની સ્નિગ્ધતાને લીધે સાફ થઈ ગયે જયારે તેના શરીરે પીઠી ચોળાઈ ગઈ ત્યારે તે લોકોએ તેને ગરમ પાણીથી, સુવાસિત પાણીથી અને ઠંડા પાણીથી સ્નાન કરાવ્યું. સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેને शरीरन (पम्हल सुकुमार गंध कोसाइयाए गायाई लहंति ) पक्ष्भस-३ वाटाणा સુકમળ, નરમ રંગીન ટુવાલથી લૂછ્યું.
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२५ रूक्षयित्वा 'हंसलकवणं' हंसलक्षणं = हंसस्वरूपं तदिव शुक्ल स्वरूपं यस्य तत् । 'पट्टसाडगं' पट्टशाटकं क्षौमवस्त्रं परिहेति' परिधापयन्ति परिधाप्य सर्वालंकारविभूषितं कुर्वन्ति, कृत्वा विपुलमशनपानखाद्यस्वाद्य भोजयन्ति, भोजयित्वा सागरदत्तस्योपनयन्ति । ततः खलु सागरदत्तः सुकुमारिकां दारिकां स्नाता यावत्सर्वालङ्कारभूषितां कृत्वा तं द्रमकपुरुषम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अबादीत्-हे देवानुपिय ! एषा खलु मम दुहिता इष्टा, एतां खलु अहं तव भार्यात्वेन ददामि पट्टसाडगं परिहेति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करिता विउलं असनपाणखाइमसाइमं भोयाति, भोयावित्तो सागरदत्तस्स उवणेति ) जय शारीरिक प्रत्येक अवयव ठीक २ अच्छी तरह से पोशाजा चुका-तय फिर उन्होंने हँस चिह्नवाला अथवा हँस के जैसा शुभ्रपटशाटक-क्षोमवस्त्र उसको पहिराया। क्षौमवस्त्र पहिराकर फिर उसको विपुल, अशन, पान, खाद्य एवं स्वाधरूप चतुर्विध आहार का भोजन कराया । भोजन कराकर फिर वे उसको सागरदत्त के पास ले गये (तएणं सागरदत्त सूमालियं दारियं व्हायं जाव सव्वालंकार विभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! मम धूया इट्टा एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि ) सागरदत्त ने अपनी सुकुमारिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारो से विभूषित करके उम दमक पुरुष से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! यह मेरी लड़की है । और मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रिय, कान्त ( लूहित्ता हसलकावणंपट्ट साडगं परिहेति, परिहित्ता सवालंकारविभूसियं करें ति, करित्ता विउलं असनपाणखाइमसाइमं भोयाति,भोयावित्ता,सागरदत्तस्स उवणेति)
- જ્યારે શરીરના બધા અંગે સરસ રીતે લુંછાઈ ગયા ત્યારે તેઓએ હિંસચિત્રિત અથવા તે હંસ જેવું સ્વચ્છ ધોળું પટ્ટફાટક ક્ષૌમ વસ્ત્ર પહેરાવ્યું. લીમ વસ્ત્ર પહેરાવીને તેને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારો જમાડયા. જમાડ્યા પછી તેઓ તેને સાગરદત્તની પાસે લઈ ગયા __(तएणं सागरदत्ते ममालियं दारियं हायं जाव सबालंकारविभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! मन धूया इट्ठा एयं णं अहं तव भारियत्ताए दलामि )
સાગરદત્ત પિતાની સુકુમારિકા દારિકાને સ્નાન કરાવીને યાવત્ બધી જાતના અલંકારોથી શણગારીને તે દરિદ્ર માણસને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ મારી પુત્રી છે અને મને બહુ જ ઈષ્ટ, પ્રિય, કાંત, મનેz
हा २९
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'भदियाए' भद्रिकया भाग्यशालिन्याऽनया लमपि भद्रको भाग्यशाली भविष्यसि । ततः खलु स द्रमक पुरुषः सागरदत्तस्यैतमर्थ प्रतिशृणोति स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य सुकुमारिकया दारिकया सार्ध वासगृहम नुप्रविशति. सुकुमारिकया दारिकया साधं 'तलिगंसि' तल्ये शयनी ये 'नीवजा निपीदति उपविशति । ततः खलु स द्रमकपुरुषः सुकुमारिकाया इम-पूर्वोक्तम् एतद्रपंपूर्वोक्तस्वरूपम् अङ्गस्पर्श 'पडिसंवेदेई' प्रतिसंवेदयति-प्रत्यनुभवति शेपं यथा सागरस्य शेषवर्णनं सागरदारकवद् बोध्यम् , यावत्-अत्र यावच्छब्दादिदं द्रष्टव्यम्-'असिपत्रादीनां स्पर्शादप्यनिष्टतरं तदङ्गस्पर्श ज्ञात्वा सागरदारकवद् द्रमकपुरूपोऽपि तां सुकुमारिकां सुखप्रसुप्तां ज्ञात्वा, शयनीयादुत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय वासगृहाद् निर्गच्छति, निर्गत्य खण्डमलवंरफुटिमनोज्ञ एवं मनोम है । मैं अपनी इस पुत्री को तुम्हें तुम्हारी भार्या के रूप में प्रदान करता हूँ ( भदियाए भद्दओ भविज्जस्ति, तप से दमगपरिसे सागरदत्तस्स एयम्मु पडि०२ समालियाए दारिगाए सद्धिं वास घरं अणुपविसइ, अणुएविसित्ता स्मालियाए दारियाए सद्धिं तलिगसि निवज्जइ ) इस भाग्यशालिनी से तुम भी भाग्यशाली र नजाओगे। दमकपुरुष ने सोगर दत्त के इस कथनरूप अर्थ को अंगीकार करलिया,
और फिर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ। वहां जाकर वह उस सुकुमारिका दारिका के साथ साथ एक ही पलंग पर-बैठ गया-सोगया (तएणं से दमगपुरि से रामालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडि संवेदेइ,से सं जहा सागररस जाव मयणिज्जाओ अन्भुट्टेइ, अभुट्टित्ता वासघराओ निग्गच्छ, निग्गच्छिता खडमल्लगं અને મનેમ છે. હું મારી આ પુત્રીને તમને તમારી પત્નીના રૂપમાં આપું છું. भदियाए भद्दओ भविज्जसि, तएणं से दागपुरिसे सागरदत्तस्म एयमढे पदि० २ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुपरिसइ, अणुपविसिता सुमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवजई)
આ ભાગ્યશીલાથી તમે પણ ભાગ્યશાળી થઈ જશે. તે દરિદ્ર પુરૂષ સાગરદત્તની એ વાતને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારબાદ તે સુકુમારિકા દારિકાની સાથે વાસગૃહમાં પ્રવિષ્ટ થયું. ત્યાં જઈને તે દરિદ્ર ભણસ સુકુમારિક દારિ. કાની સાથે એક જ શય્યા ઉપર બેસી ગયો. . (तएणं से दमगपुरिसे ममालियार इमं एयारूनं अंगफासं पडि संवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्माो अभुटेइ, अब्भुहिता वासघराओ निग्गछड निग्गच्छित्ता खंडमल्लग खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव
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मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २२७ तभिक्षापात्र, खण्डघटकं-स्फुटित पानीयपात्रं च गृहीत्वा 'मारामुक्के विव काए' मारामुक्तझ्य काकः मारा-शूना प्राणियधस्थानं ततो मुक्तः निःसृतः काक इव, अथवा-माराद्-मारकपुरुषात् तदीयहस्तादित्यर्थः मुक्त -विच्छुटितः काक इव शीघ्रतया यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः। ततः खलु सा सुकुमारिका यावद्-ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा सती पतिमपश्यन्ती शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्थाय द्रमकपुरुषस्य मार्गणगवेषणं कुर्वाणा वासगृहस्य द्वारं विघाटितं पश्यति खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए) उस समय उस दमक पुरुष को उस सुकुमारिका दारिका का वह पूर्वोक्त तथा पूर्वोक्त स्वरूपवाला अंगस्पर्श अनुभव में आया। शेष वर्णन सागरदारककी तरह जानना चाहिये । इस तरह वह दमक पुरुष भी असिपत्रादिकों के स्पर्श से भी अधिक अनिष्ट उसके अंगस्पर्श को जानकरके, सागरदारक को तरह, सुख प्रसुप्त उस सुकुमारिका दारिका को जान उसे छोड़ने के लिये पलंग से उठा और उठकर उस वाल घर से बाहिर निकला-निकलकर खंडमल्लक-फूटे हुए भिक्षात्र को तथा खंडयटक-फूटे हुए पानी पीने के पात्र को-लेकर वध्यस्थान से अथवा मारक पुरुष के हाथ से मुक्त हुए काककी तरह वह बहुत जल्दी जहां से आया था उसी ओर चलदिया (तएणं सा सूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे त्ति कटु ओहयमण जाव झियायइ ) इसके थोड़ोदेर बाद वह सुकुनारिका दारिका जगी और पतिको अपने पास न दिसं पाउन्भूर तामेव दिसं पडि गए )
તે વખતે તે દરિદ્ર માણસને સુકુમારિકા દારિકાના અંગને સ્પર્શ પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યા પ્રમાણેને કઠેર જ લાગે. (અહીં સાગરદારક જેવું જ વર્ણન સમજી જવું જોઈએ.) આ રીતે તે દરિદ્ર માણસ પણ તરવારના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે અનિષ્ટકર તેને સ્પર્શ જાણીને સાગર દારકની જેમજ સુખેથી સૂઈ ગયેલી તે સુકુમારિકા દારિકાને જોઈને, તેને ત્યાગ કરવા માટે પલંગ ઉપરથી ઊભું થયું અને ઊભા થઈને વાસગૃહની બહાર નીકળ્યો અને નીક ળીને ખંડમલક-ફૂટેલા ભિક્ષાપાત્ર તેમજ ખંડઘટક-ફૂટેલા પાણી પીવા માટેના પાત્રને લઈને વધસ્થાનથી અથવા તે મારક (હિંસક) પુરૂષના હાથથી મુક્ત થયેલા કાગડાની જેમ તે ત્વરાથી જ્યાંથી તે આવ્યું હતું તે તરફ જ જતો રહ્યો. (तएणं सासूमालिया जाव गएणं से दमगपुरिसे त्ति कटु ओहमण जाव झियायइ) છેડા વખત પછી તે સુકુમારિકા દરિકા જાગી અને પતિને પિતાની પાસે ન જોઇને
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૨૨૮
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
दृष्ट्वा एवमवादीत् ' इति कृत्वा अपranनः संकल्ला यावद - आर्तध्यानं
,
ध्यायति ।। सू० ११ ॥
मूलम्-तएणं सा भद्दा कलं पाउ० दासचेडिं सदावेइ सद्दावित्ता एवं व्यासी जाव सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेइ, तपणं से सागरदत्ते तव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ निवेसित्ता एवं वयासी - अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणा णं जाव पञ्चणुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जाव झियाहि तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं४ जहा पुट्टिला जाव परिभाएमाणी विहराहि, तरणं सा सुमालिया दारिया एयमहं पडिसुणेइ पडिणित्ता माहणसंसि विपुलं असणं जाव दलमाणो विहरइ ॥ सू०११ ॥
टीका - ' तरणं सा ' इत्यादि । ततः खलु सा भद्रा सार्थवाही=मुकुमारिका दारिकाया जननी ' कल्लं ' कल्ये द्वितीयदिवसे मादुः प्रभातायां रजन्यां यावत्
देखकर पलंग से उठी । उठकर उसने उस दमकपुरुषकी मार्गणा एवं गवेषणा की। उसमें उसने वासगृह के द्वार को खुला हुआ देखा। देखकर उसने विचारा कि वह दमक पुरुष अब चला गया है। ऐसा सोचकर वह अपहृत मनः संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी || सू० ११ ॥
"
तएणं सा भद्दा कल्लं ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एणं) इसके बाद ( सा भद्दा कल्लं पाउ० दासचेडि શષ્યા ઉપરથી ઊભી થઈ. ઊભી થઈને તેણે તે દરિદ્ર માણસની શોધ ખાળ કરી. તેણે વિચાર કર્યાં કે તે રિદ્ર માણુસ તા જતા રહ્યો છે. આ રીતે વિચાર કરીને તે અપહતમનઃ સંકલ્પા થઈને યાવત્ આ ધ્યાનમાં ડૂબી ગઈ, ૫ સૂત્ર ૧૧ ૫
6
तणं सा हा कल' इत्यादि
,
टीडार्थ - (तएण ) त्यारणा (सा भद्दा कले पाउ० दाखवेडिं सहावे, सहा
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% 3D
भेनेगारधर्मामृतवाणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् ३९ तेजसा ज्वलति सूर्ये-उदिते दासचेटी शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यावत् सागरदत्तस्यैतमर्थ निवेदयति, अत्र यावच्छब्देन पूर्वसूत्रोक्तवर्णनमनुसन्धेयम् , तथावधूवरयोर्मुखधावनिकामुपनयेति । एवमुक्तासती दासचेटी वासगृहमुपागत्य सुकुमारिकामार्तध्यानं ध्यायन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-हे देवानुप्रिये ! किं खलु त्वम् अपहतमनः संकल्पा ध्यायसि ? ततः सुकुमारिका तां दासचेटीमेवमवादीत्-स द्रमकपुरुषो मां सुखप्रमुप्तां ज्ञात्वा मम पार्थादुत्थाय निर्गतः, ततोमुहूर्तान्तरेऽहमुत्थाय तमपश्यन्ती 'गतः स द्रमकपुरुषः, इति कृत्वाऽऽतध्यानं ध्यायामि सद्दावेह, सहावित्ता एवं वयासी जाव सागरदत्तस्स एयमढ़ निवेदेइं) सुकुमारिका दारिकाकी माता उस भद्रा ने द्वितीय दिन जब प्रातः काल हो गया था और सूर्य उदित हो चुका था-तब अपनी दासचेटी को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-यहां यावत् शब्द से यह पूर्वसूत्र गत वर्णन जोडलेना चाहिये जैसे, भद्राने बुलाकर उससे ऐसा कहा कि तूं वधू और वर के लिये यह मुख धोने की सामग्री दतौन आदि -लेजा जब भद्रा ने उससे ऐसा कहा तब वह दासचेटी वासगृह में गई -और वहां जाकर उसने सुकुमारिका को आर्तध्यान करती हुई देखा तय देखकर उसने उससे ऐसा कहा-देवानुप्रिये । क्या कारण है जो अपहतमनः संकल्प होकर तुम आर्तध्यान कर रही हो-तब सुकुमारिका दारिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा-वह दमक पुरुष मुझे यहां सुख प्रसुप्त जान छोड़कर चला गया है । जब मैं थोड़ी देरवाद उठी तो मैंने उसे अपने पास नहीं देखा, वासभवन का द्वार खुला हुआ वित्ता, एवं वयासी जाव सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेई) सुभाशि हशिनी भात। ભદ્રાએ બીજા દિવસે જ્યારે સવાર થઈ ગયું અને સૂર્ય ઉદય પામે ત્યારે તેણે દાસીને બોલાવી અને બેલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું–અહીં યાવત શબ્દથી પહેલાંના સૂત્રની જેમ જ વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. જેમકે ભદ્રાએ તેને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વધુ અને વરના મુખ પ્રક્ષાસન માટે દાતણ વગેરે લઈ જા. જ્યારે ભદ્રાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તે દાસી વાસગૃહમાં ગઈ અને ત્યાં જઈને તેણે સુકુમારિકા દારિકાને આર્તધ્યાન કરતી જોઈ. ત્યારે આ પ્રમાણે તેની હાલત જોઈને તેણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શા કારણથી તમે અપહતમનઃ સંક૯પ થઈને આતધ્યાન કરી રહ્યાં છે. ત્યારે સુકુમાર દારિકાએ તે દાસીને આ પ્રમાણે કહ્યું–કે તે દરિદ્ર માણસ મને અહીં સુખેથી સૂતેલી છોડીને જતો રહ્યો છે. જ્યારે થોડા વખત પછી હું જાગી ત્યારે મેં તેને મારી પાસે જે નહિ અને મેં વાસગૃહના બારણાને પણ ખુલે
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२३०
anarai कथासूत्र
ततः सा दासचेटी सागरदत्तस्य सार्थवाहस्य समीपमागत्यैनमर्थं निवेदयतीति योजना बोध्या । ततः खलु स सागरदत्तस्तथैव 'संयंते' संभ्रान्तः = उद्विग्नः सन् यचैव वासगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुकुमारिकां दारिकामङ्के निवेशयति, निवेश्य एवमवादीत्-अहो ! इत्याश्वर्ये खलु हे पुत्र ! त्वं पुरा' पुरा - पूर्वभवेषु ' पोराणार्थं पुराणानाम् = अतीतकालकृतानां यावत् अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम्- ' दुचिष्णाणं दुप्परकंताणं कड़ाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति
*
'
देखा तब मैं समझ गई कि वह यहां से चला गया है । इस प्रकार मैं चिन्ता में पड़ रही हूँ । सुकुमारिका की इस बात को सुनकर दालचेटी ने उसी समय वहां से वापिस आकर सागरदत्त को इस बात की खबर दी --" इस प्रकार यह पूर्वोक्त पाठ यहां लगा लेना चाहिये - (तएणं से सागरदन्ते तव संभते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उपागच्छ उवागच्छित्ता समालियं दारियं अंके निवेसेड, निवेसित्ता एवं वयाली, अहोणं तुमं पुत्ता पुरा पोरागाणं जाव पच्चणुभवनागी बिहरसितं माणं तुमं पुत्ता ओमण जाव शिपाहि-तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं४ जहा पुट्टिला जाव परिभाएमाणो विहराहि) इसके बाद वह सागरदत्त पहिले जैसा उद्विग्न चित्त होकर जहां वासगृह था वहां गया। वहाँ जा कर उसने सुकुमारिकादारिका को अपनी गोद में बैठा लिया और बैठाकर कहने लगा- हे पुत्र ! तुमने पहिले भवों में जो दुखीर्ण दुष्पाराकान्त, (कठिनताई से भोगने योग्य एवं कृत ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्म उपार्जित
જોયું ત્યારે મને ચાક્કસપણે ખાત્રી થઈ ગઈ કે તે અહીંથી ચાહ્યા ગયા છે. આ રીતે હું ચિંતામાં પડી છું. સુકુમારિકાની આ વાત સાંભળીને દાસીએ તરત જ સાગરદત્તને ખબર આપી. આ રીતે અહીં પહેલાના પાઠ જાણી લેવા જોઈએ, तरणं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे, जेणेव वासरे तेणेत्र उवागच्छर, उवाग. च्छित्ता सुमालि दारिये अंके निवे सेइ, निवेसित्ता एवं क्यासी अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणी विहरसिं तं माणं तुमं पुत्ता ओहमण जाव झियाहि-तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं ४ जहा पुट्टिला जान परिभाएमाणी विहराहि )
ત્યારપછી સાગરદત્ત પહેલાની જેમ વ્યાકુળ ચિત્તવાળા થઈને જ્યાં વાસગૃહ હતું ત્યાં આન્યા. ત્યાં આવીને તેણે સુષુમરિકા દ્વારિકાને પેતાના ખેાળામાં બેસાડી લીધી અને બેસાડીને કહેવા લાગ્યા કે હે પુત્રિ ! તેં પહેલા ભવમાં જે કંઈ દુષ્પી, દુષ્પરાક્રાંત અને કૃતજ્ઞાનાવરણીય વગેરે અશુભ કર્મો ઉપા
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अनगारaratणी १० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम्
,
विसेस ' इति दुखीर्णानां दुश्चरितानां वाङ्मनोजनित मृषावादादिकर्मणामित्यर्थः, किं भूतानां तेषां ? दुष्पराक्रान्तानां कायिकानां प्राणिहिंसाऽदत्तादानादीनां कृतानां प्रकृतिस्थित्यनुभागमदेशभेदेन बद्धानां पापानां =अशुभानां कर्मणां = ज्ञानावरणी यादीनां पापकम् - अशुभं, फलवृत्तिविशेषम् प्रत्यनुभवन्ती = वेदयन्ती विहरसि= वर्तसे तत् तस्माद् मा खलु हवं हे पुत्र ! अपहतमनःसंकल्पा यावद् ध्याय= आर्तध्यानं मा कुरु इत्यर्थः, त्वं खलु हे पुत्र ! मम 6 महासंसि ' महानसे - पाकशालायां विपुलमशनं पानं खाद्य स्वाद्यं यथा पोट्टिला यावत् परिभाजयन्ती = श्रमणादिभ्यः प्रविभागं कुर्वती ' विहराहि ' विहर = तिष्ठ । ततः खलु सा सुकु
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२३१
किये - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधके भेद से बांधे हैं उन्हीं पुराने अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के तुम अशुभ फल विशेष को इस समय भोग रही हो । पूर्व भवों में जो पाप किये हैं वेही यहां " 'पुराण' शब्द से गृहीत हुए हैं। पाप शब्द यहां अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बोधक है। ये अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव अशुभ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से जन्म मृषावाद आदि क्रियाओं से, तथा प्राणिहिंसा, अदत्तादान आदि कुकृत्यों से बांधता है। बांधते समय इनमें प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश बंधरूप विभाग हो जाता है। अधिक स्थिति और अधिक अनुभाग यंत्र इनमें संक्लेश परिणामों से पडता है । इसलिये हे पुत्र । तुम अपहतमनः
संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान मत करो | तुम तो मेरी भोजन शाला में चतुर्विध आहार तैयार करा कर पोहिला की तरह श्रमण आदि
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ર્જિત કર્યાં હતાં–પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ અધના ભેદથી બાંધ્યા છે. અત્યારે તુ તેજ પહેલાંના અશુભ જ્ઞાનાવણીય વગેરે કર્મોના અશુભ ફળ વિશેષને ભેગવી રહી છે. પૂર્વ ભવમાં જે પાપ કરવામાં આવ્યાં હાય તેને અહીં “ પુરાણુ ” શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. અહીં પાપ શબ્દ અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મને સ્પષ્ટ કરે છે આ બધા અશુભ જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મો જીવ અશુભ-મન, વચન, અને કાયની પ્રવૃત્તિથી જન્ય મૃષાવાદ વગેરે ક્રિયાએથી તેમજ પ્રાણીએની હિંસા, અદત્તાદાન વગેરે કુકમેાંથી બાંધે છે. આંધતી વખતે એએમાં પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ અધરૂપ વિભાગ થઇ જાય છે. અધિક સ્થિતિ અને અધિક અનુભાગ બંધ તેએમાં સંકલેશ પિરણામાથી પડે છે. એથી હે પુત્ર! તમે અપહતઃ મનઃ સંકલ્પ થઈને યાવતુ
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ફર
start कथासूत्रे
मारिका दारिका एतमर्थ प्रतिशृणोति = स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य महानसे विपुलमशनपानखाद्य खाद्य यावद् ' दलमाणी ' ददती विहरति = आस्ते स्म ।। सू०१२ |
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुन्वयाओ तहेव समोस डाओ तव संघाडओ जाव अणुपविट्टे तहेत्र जात्र सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वयासी - एवं खलु अजाओ ! अहं सागरस्स अणिट्टा जाव अमणामा नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा, जस्स २ वि य णं दिजामि तस्स २ वि य णं अणिट्टा जाव अमणामा भवामि, तुब्भे य णं अजाओ ! बहुनायाओ एवं जहा पहिला जाव उवलद्धे जे पणं अहं सागरस्स दारियाए इट्टा कंता जाव भवेजामि, अजाओ तहेब भांति तव साविया जाया चिंता तहेव सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छइ जाव गोवालियाणं अंतिए पव्वइया, तरणं सा सूमा
जनों के लिये वितरण करती रहो (तएणं सा सूमालिया दारिया एयमहं परिसुणेह पडिणित्ता महाणसंसि विपुलं असण जाव दलमाणी विहरइ ) इस तरह पिता सागरदत्त के समझाने पर उस सुकुमारिका दारिका ने अपने पिता के इस कथन को स्वीकार कर के वह महानस भोजन शाला में निष्पन्न चतुर्विध आहार को श्रमणादि जनों के लिये वितरण भी करने लगी | सूत्र १२ ॥
આ ધ્યાન કરીશ નહિ, તુ મારી ભાજન શાળામાં ચાર જાતના આહાર તૈયાર કરાવડાવીને પેટ્ટિલાની જેમ શ્રમણ વગેરે જાને આપતી રહે. ( तरणं सा सूमालिया दारिया एयमहं पडिसुणे, पडिसृणित्ता महाणसंसि विपुलं असण जाव दलमाणी विहर: )
આ રીતે પિતા સાગરદત્ત વડે સમજાવવામાં આવેલી તે સુકમાર્ક हारि કાએ પોતાના પિતાના કથનને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ભેજનશાળામાં A તૈયાર થયેલા ચારે જાતના આહારાને શ્રમણુ વગેરેને આપવા લાગી. ।। સૂ. ૧૨
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १५ सुकुमारिकासरितवर्णनम् २॥ लिया अजा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी बहहिं चउत्थछट्टम जाब विहरइ, तएणं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवंवयासीइच्छामि णं अज्जाओ! तुम्भेहिं अब्भणन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणा विहरित्तए, तएणं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं एवं क्यासीअम्हे णं अज्जे ! समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पइ बहिया गामस्स जाव सणिवेसस्स वा छठं२ जाव विहरित्तए, कप्पइ णं अम्हं अंतो उबस्सयस्स विइपरिविखत्तरस संघाडिवद्धियाए णं समतल पइयाए आयावित्तए, तएणं सा सूमालिया गोवालियाए एयमटुं नो सदहइ नो पत्तियइ नो रोएइ एयमद्रं अ०३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्त अदूरसामंते छटुंछट्टेणं जाव विहरइ ॥सू०१३॥
टाका-' तेणं कालेणं ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'गोवालियाओ अज्जाओ ' गोपालिका गोपालिकानाम्न्यः आर्या: साध्व्यः, 'बहुस्सुयाओ बहुश्रुताः श्रुतपारगामिन्यः, एवम् अनेन प्रकारेण यथैव तेतलिणाए' तेतालेज्ञात चतुर्दशे तेतलिपुत्राध्ययने वर्णिताः ' सुब्धयाओ' सुत्रता:-सुव्रता
' तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं-तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुव्वयाओ
— तेण कालेण-तेण समएण' इत्यादि10-( तेण कालेण-तेण समएण) ते ॥णे भने ते समय (गोवालियाओ अजाओ बहुस्सुयायो एवं जद्देव तेयलिणाए सुब्बयानो
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२३४
ज्ञाताधर्मकथासू
नाम्न्यः साध्यः, ‘तहेब समोसड्डाओ' तथैव समवसृताः सुव्रतावद् गोपालिकाः समागताः । ' तव संघाडओ जांव अणुष्पविद्वे ' तथैव संघाटको यावद् अनुपविष्टः गोपालिकानामार्याणामेकः संघाटकः यावत् सुकुमारिकाया गृहेऽनुपविष्टः । तथैव यावत् सुकुमारिका ता आर्याः अशनादिना प्रतिलभ्भ्य एवं वक्ष्यमाणमकारेण अवादीत् - हे आर्याः ! एवं खलु अहं सागरस्य दारकस्यानिष्टा यावद्= अकान्ता अप्रिया अमनोज्ञा अमनोमा मनः प्रतिकूलाऽस्मि, नेच्छति खलु सागरको मम नाम वा गोत्र वा श्रोतुम्, किं पुनर्यात् मया सह परिभोगं वा, यत्र मम नामाऽपि श्रोतुं नेच्छति तत्र का वार्ता परिभोगस्य, अहं तु तेन सर्वथा परि, त्यक्तेति भावः । अपि च यस्मै यस्मै खलु ' दिज्जामि ' दीये = स्वपित्रा प्रदत्ता भवामि, तस्य तस्यापि च खलु अनिष्टा यावद् अमनोमा - मनः प्रतिकूला भवामि, हे आर्याः ! यूयं च खलु ' बहुनायाओ' बहुज्ञाताः ज्ञानातिशययुक्ताः, 'एवं तहेव समोसड्डाओ तहेब संघाडओ जाव अणुपविडे तहेब जाव समा लिया पडिलभित्ता एवं वयासी) गोपालिका नामकी आर्यिका जो श्रुत पारगामिनी थीं इस प्रकार से कि जिस प्रकार से तेतलि प्रधान नामक चौदहवें अध्ययन में सुब्रता साध्वी वर्णित हुई है - थीं- वे उसी तरह से वहीं आई। इनका एक संगाडा था, यावत् सुकुमारिका के घर में गोचरी के लिये प्रवेश किया। सुकुमारिका ने बड़ी भक्ति के साथ उन्हें आहार पानी दिया और देकर वह फिर इस प्रकार से उनसे कहने लगी- ( एवं खलु अज्जाओ ! अहं सागरस्म अणिट्टा, जाव अम नामा, नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोग वा जस्स २ वि यणं दिजामि तस्म - तस्स वि य णं अणिट्टा, जाव अमणामा भवामि तुग्भे य णं अज्जाओ ! बहुनाघाओ एवं जहा पहिला जाब ज्वलद्वे ata समोसाओ तब संघाडओ जाव अणुपविडे तहेव जात्र समालिया पडि भित्ता एवं वयासी)
ગોપાલિકા નામે આયિકા કે જે શ્રુત પારગામિની હતી. તેતલીપ્રધાન નામના ચૌદમા અધ્યયનની સુવ્રતા સાધ્વી જેવી હતી. તેવી જ તે પણ हती. સુત્રતા સાધ્વીની જેમ જ તે યાવતુ સુકુમારિકાના ઘેર તે ગેચરી માટે ગઇ. સુકુમારિકાએ ખૂબ જ ભકિત-ભાવથી તેમને આહારપાણી આપ્યુ. અને આપીને તે તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગી~~~
( एवं खलु अज्जाओ अहं सागरस्स अणिट्ठा, जाव अमणामा नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा जस्स २ वि यणं दिज्जामि तस्स तस्स वि य णं अणिवा, जाव अमणामा भवामि तुभे य णं अज्जाओ ! बहुनायाओ,
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वामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकानिरूपणम्
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यथा पोहिला यावद् उपलब्धम्' अयमर्थः यथा तेतलिपुत्रभार्या पोहिला स्वभर्तृवशीकरणोपायप्रदर्शनार्थ सुव्रतां साध्वों पृच्छनिस्ट तथा सुकुमारिका दारिका गोपालिका संघाटकं पृष्ठवती, तादृशं चूर्णयोगादिकमुपलब्धं ज्ञातं किम् ? येनाई सागरस्य दारकस्येष्टा कान्ता यावद् भवेयं आर्यास्तथैव भणन्ति यथा पोट्टिलि जेणं अहं सागरस्त दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेजाभि, अज्जाओ तव भणति तहेव साबिया जाया, तहेव चिंता, तहेव सागरदत्त सत्थवाह आपुच्छर जाव गोवालियाणं अंतिए पव्वइया ) हे आर्याओं । मैं अपने पति सागर दारक के अनिष्ट बनी हूं यावत् अकान्त अप्रिय अमनोज्ञ एवं अमनोम मनः प्रतिकूल बनी हुई हूँ । वे मेरा नाम गोत्र कुछ भी सुनना नहीं चाहते हैं। तो फिर उनके साथ परिभोग करने की तो बात ही क्या है । मुझे तो उन्होंने सर्वथा ही छोड़ दी है। अपिच- मेरे पिता मुझे जिस २ व्यक्ति के लिये देते हैं- मैं उस २ व्यक्ति के लिये भी अनिष्ट आदि बन जाती हूँ । हे आर्याओ ! आप तो बहुश्रुत हैं अनेक शास्त्रों की ज्ञाता है-ज्ञान के अतिशय से संपन्न हैं । इस प्रकार उस सुकुमारिका ने पोट्टिला की तरह अपने पति को वश में करने के विषय में उनसे उपाय पूछा पोहिलाने अपने पति तेतलिपुत्र को वश में करने को पहिले जैसे सुव्रता साध्वी के संघाटेसे उपाय पूछा था और कहा आपको यदि कोई ऐसा चूर्ण आदि का प्रयोग उपलब्ध
एवं जहा पुढला जाव उवल जेगं अहं सागरस्स दारगस्स इड्डा कंता जात्र भवेज्जामि, अज्जाओ तहेव भगंति, तदेव साविया जाया, तब विता, तव सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छर जाव गोवालियाणं अतिए पञ्ञझ्या ) હું આર્યાએ ! મારા પતિ સાગરદારક માટે હું અનિષ્ટ થઈ ગયેલી છું ચાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અમનેાજ્ઞ અને અમનેામ થઈ ચૂકી છું. તેએ મારા નામ ગેાત્ર કઇ પણ સાંભળવા ઈચ્છતા નથી ત્યારે તેમની સાથે પરિભાગ કરવાની તે વાત જ શી કરવી. તેએએ મને એકદમ જ જે છેડી દ્વીધી છે. અને મારા પિતાએ મને જે જે માણુસને આપે છે તે બધા માટે પણ હું અનિષ્ટ વગેરે થઈ જાઉં છું. હું આર્યાએ! તમે તા મહુશ્રુત છે, ઘણાં શાસ્ત્રોને જાણા છે, જ્ઞાન સ`પન્ન છે. આ રીતે પાટ્ટિાની જેમ જ સુકુમારિકા દારિકાએ પશુ પતિને વશમાં કરવા માટેના ઉપાયેાની પૂછપરછ કરી. પેાટ્ટિલાએ પતન, તેલિપુત્રને વશમાં કરવા માટે પહેલા સુત્રતા સાધ્વીના સઘા ઢાથી જેમ ઉષાયે પૂછ્યા હતા તેમજ તેણે પશુ તેમને કહ્યું કેજો એવા
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२३६
वाताधर्मकथासू
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कथा पृष्टा सुत्रतायाः संघाटकस्थिताः साव्यस्तामवोचत् तथैव गोपालिका संघाटस्थाः आर्या भणन्ति वदन्ति स्मेत्यर्थः । ' तहेव साविया जाया ' तथैव श्राविका जाता = पोहिला वत् सुकुमारिका दारिकाऽपि श्राविका जाता । तथैव चिन्ता - पोट्टिलावदेव पश्चात् प्रवज्यां ग्रहीतुं चिन्ता सुकुमारिकाया मनसि मादुर्भूता । सुकुमारिका सागरदत्तं सार्थवाहं स्वपितरं तथैव यथा स्वपतिं पोहिला, तदद् आपृच्छति यावद् गोवालिकानामन्तिके प्रत्रजिता-दीक्षां गृहीतवती । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या = साध्वी जाता सा कि भूता - ईर्यासमिता यावद् गुप्त हो तो भी बता दीजिये कि जिससे में अपने पति सागरदारक को इष्ट, कान्त यावत् मनोम बनजाऊँ । गोपालि का के संधाडे की इन आर्याओं ने सुकुमारिका को, पोहिला को सुव्रता साध्वी की तरह समझाया - वह उसी तरहसे श्राविका बन गई । पोहिला की तरह इस सुकुमारिका ने भी बाद में दीक्षा लेने का मन में विचार किया - 1 पोट्टिलाने जिस तरह अपने पति से आज्ञा लेकर दीक्षा धारण की थी - उसी प्रकार इस सुकुमारिका ने भी अपने पिता सागरदत्त से पूछकर गोपालिका आर्या के समीप दीक्षा धारण कर ली । (तपणं सा सूमालिया अज्जा जाया ईरिया समिया जाव गुत्तबंभयारिणी बहूहिं छम जाव विहरइ, तरणं सा सूमालिश अज्जा अन्नया कयाई जेणेव गोवालिया अज्जाओ तेणेव उवागच्छ ) इस तरह वह सुकुमारिका आर्या बन गई । वह ईर्यासमिति आदि का पालन करने लगी
કોઈ ચૂણુ વગેરેના પ્રયાગ મળી શકે તે પણ મને બતાવી દો કે જેથી હું મારા પતિ સાગરદારકના માટે ફ્રી ઇષ્ટ, કાંત, યાવતુ મનેામ થઈ જાઉં. ગાપાલિકા સંઘાડાની તે આર્યાએએ-સુત્રતા-સાધ્વીએ જેમ પટ્ટિલાને સમજાવી તેમજ સમજાવી અને છેવટે તે શ્રાવિકા બની ગઇ. પાટ્ટિલાની જેમજ તે સુકુમારિકાએ પણ ત્યારપછી દીક્ષા લેવાના મનમાં મક્કમ વિચાર કરી લીધા. પાટ્ટિલાએ જેમ પેાતાના પતિની આજ્ઞા લઇને દીક્ષા ધારણ કરી હતી તેમજ સુકુમારિકાએ પણ પોતાના પતિ સાગરદત્તને પૂછીને ગેાપાલિકા આર્યાની પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી
(तपणं सा झूमालिया अज्जा जाया इरिया जाव गुत्तवं भयारिणी बहूहिं उत्थ छट्ठट्ठम जाव विहर, तरणं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाई जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ )
આ રીતે સુકુમારિકા આર્યો થઈ ગઇ, તે ઇર્યા સમિતિ વગેરેનું પાલન કરવા લાગી. અને નવકાટીથી બ્રહ્મચર્ય મહાવતની રક્ષા કરવા લાગી, ઘણા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् ५७ ब्रह्मचारिणी सा बहुभिश्चतुर्थषष्ठाप्टमभक्तैर्यावत्-तपः कर्मभिरात्मानं भावयन्ती विहरति आस्तेस्म । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैव गोपालिका आयर्यास्तौवोपागच्छति उपागत्य वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-हे आर्याः ! इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती चम्पानगर्या बहिः मुभूमिभागस्योद्यानस्यादरसामन्ते = नातिदूरे नातिनिकटे षष्ठषष्ठेन-पाठ भक्तानन्तरं पुनः षष्ठभक्तेन ' अणिकिवत्तेणं ' अनिक्षिप्तेन =अविश्रान्तेन-अन्तररहितेन, तपाकर्मणा ' सूराभिमुही' सूर्याभिमुखी 'आया. वेमाणी' आतापयन्ती-आतापनां कुर्वती विहर्तुम् ' इति । ततस्तदनन्तरं ता गोपालिका आर्याः सुकुमानिकामार्यामेवमवादिषुः-हे आर्ये ! वयं स्खलु श्रमण्यो और नौ कोटी ब्रह्मचर्य से महाव्रत की रक्षा करने लगी। अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, भक्त आदि तपस्याओं से अपने आपको भावित भी करने लगी। एक दिन की बात है कि वह सुकुमारिका आर्या साध्वी-जहां गोपालिका आर्या विराज मान थी वहां गई-( उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी, इच्छामि णं अ. ज्जाओ! तुन्भेहिं अभणुनाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूर सामंते छटुं छठेणं अणिक्खित्ते णं तवोकम्मे णं सरा भिमुही आयावेमाणी विहरित्तए ) वहां जाकर उसने उन्हें वंदना की, नमस्कार किया ! वंदना एवं नमस्कार कर फिर वह इसप्रकार कहने लगी-हे भदंत ! मैं आप से आज्ञा प्राप्त कर चंपा नगरी से बाहिर सुभूमिभाग नाम के उद्यान के समीप अंतररहित छ? छ? को तपस्या से सूर्याभिमुखी होकर आतापना करना चाहती हूँ। (तएणं ताओ गोवालियाओ अज्ञाओ सूमालियं एवं क्यासी-अम्हेणं ચતર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ ભક્ત વગેરે તપસ્યાઓથી પિતાને ભાવિત પણ કરવા લાગી. એક દિવસની વાત છે કે તે સુકુમારિકા આર્યા સાધ્વી જ્યાં ગપાલિકા भार्या विमान ती त्यां 5. ( उधागच्छित्ता वंदइ, नम सइ, वंदित्ता, नर्मसित्ता एवं वयासी, इच्छामि णं अज्जाओ ! तुभेहिं अब्भणुन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस उजाणम्स अदूरसामंते छ8 छद्रेणं अणिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणि विहरित्तए ) त्या नेते तेभने नारी નમસ્કાર કર્યા. વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત ! આપની આજ્ઞા મેળવીને હું ચંપા નગરીમાં બહાર સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે અંતર રહિત છઠ્ઠ છઠ્ઠની તપસ્યા કરતાં સૂર્યાભિમુખી થઈને माता५॥ ४२१॥ २छु छु. (तपणं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ समालियं
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ताधर्मकथासूत्रे
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निर्ग्रन्ध्यः ईर्यासविताः = ईर्यासमितियुक्ताः, यावद् - गुप्तब्रह्मचारिण्यः स्मः, तस्माद् नो खलु अस्माकं कल्पते-' बहिया ' वहि: - ग्रामाद् यावद् संनिवेशाद् षष्ठ पष्ठेन 'जाव विहरित ' यावद् विहर्तुम् ग्रामादे बहिः प्रदेशे साध्वीनां स्थितिः शीलभङ्गादिकारणं भवतीति भावः । किंतु कल्पते खलु अस्माकम् 'अंतो ' अन्तः=अभ्यन्तरे ‘ उवस्सयस्स उपाश्रयस्य = वसतेः किम्भूतस्य ' वितिपरिक्खित्तस्स ' वृविपरिक्षिप्तस्य = भित्यादिना सर्वतः समाहृतस्य, 'संघाडिवद्धियाए ' संङ्घाटिका प्रतिवद्धायाः=मतिवद्धशाटिकायाः सर्ववाऽनुद्घाटितगात्राया इत्यर्थः समतलपइयाए' समतलपदिकाया: = भूमौ समतलत्या स्थापितचरणयुगलाया आयावित्तए ' आतापयितुम् = आतापनां कर्त्तुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । ततः अज्जे ! समणी ओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तरंभचारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पइ बहियागामस्स जाव सण्णिवेसस्स वा छटुंο जाव विहरितए) इस प्रकार सुकुमारिका साध्वी का कथन सुनकर गोपालिका आर्या ने उस सुकुमारि का आर्या से इस प्रकार कहा है आयें ! हम लोग निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं । ईर्या आदि समितियों का पालन करती हैं । और नौ कोटि से ब्रह्मचर्य की रक्षा करती हैं । इसलिये हम लोगों को ग्राम से यावत् सन्निवेश से बाहिर रह कर षष्ठ षष्ठ की तपस्या करना यावत् सूर्याभिमुखी होकर आतापन योग धारण करना कल्पित नहीं है । कारण - ग्रामादि के बाहिरी प्रदेश में साध्वियों का रहना शीलभंग आदि का निमित्त बन जाता है । (कप्पड़ णं अम्हंअंतो उवस्सस्स विज्ञपरिक्खित्तस्स संघाडिवद्वियाए णं समतल पड़- - याए आयात्तिए) हमें तो यही कल्पित है कि हम लोग उपाश्रय के एवं वयासी - अम्हेणं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओईरिया सामियाओ जान गुत्तबंभवारिणीओ, नो खलु अम्ह कप्पइ बहिया गामरस जाव सण्णिवेसल्स वा छुट्टेο जाव विहरित्तर ) मा रीते सुकुमारि साध्वीनं अथन सांलजीने गोपासि આર્યોએ સુકુમારિકા આર્યાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આવે ! આપણે નિથ શ્રમણીએ છીએ. ઇર્યો વગેરે સમિતિઓનું પાલન કરીએ છીએ, અને નવકેટિથી બ્રહ્મચર્ય નું રક્ષણ કરીએ છીએ. એથી આપણે ગામથી યાવત્ સન્નિવેશથી બહાર રહીને ષષ્ઠ ષષ્ઠની તપસ્યા કરવી યાવતું સૂર્યાભિમુખી થઇને આતપન ચેાગ ધારણ કરવા કલ્પિત નથી. કારણ કે-ગામ વગેરેથી બહારના પ્રદે शमां साध्वी रहेनु' शीसलग विगेरेनुं निमित्त थर्ड लय छे. (कप्पइ णं अम्' अंतो उवत्स्यस्स विइपरिक्वित्तस्स संघाडिव दियाए णं समतलपइयाए आया वित्तए) आपने तो मे ४ उस्थित छे में यापये भींत वगेरेथी यामेर
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाचरितनिरूपणम् २३९ खलु सा सुकुमारिका गोपालिकानामार्याणामेतमर्थ नो श्रद्दधाति 'नो पत्तियइ' नो प्रत्येति-नो विश्वसिति, ‘नो रोएइ ' नो रोचते, एतमर्थम् अश्रद्दधाना, अपतियन्ती, अरोचमाना सति समूमिभागस्य उद्यानरय अदरसामन्ते पष्ट-पाठेन यावत्-तपः कर्मणा मर्याभिमुखी भूत्वा-आतापनां कुर्वती विहरति ।। मू० १३ ॥
मूलम्-तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्री परिवसइ, नरवइ दिपणवियारा अम्मापिइनिययनिप्पिवासा वेसबिहारकयनिकेया नाणाविहअविणयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभूया, तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामंगणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए, तएणं तीसे ललियाए गोट्टीए अन्नया पंच गोट्ठिलगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स कि जो भित्ति आदि से सब तरफ से परिक्षिप्त है भीतर ही अपने शरीर को शाटिका से अच्छी तरह संवृत्त करती हुई और भूमि पर दोनों चरणों को बराबर स्थापित कर आताएना लें ( ताणं सा सूमालिया गोवालियाए एयमट्ट नो सहहह नो पत्तियह नो रोएइ एयमटुं अ० ३ सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदृरसामंते छट्टे छट्टणं जाव विहरइ ) इस गोपालिका आर्या के कथन ऊपर उस सुकुमारिका आर्या को श्रद्धा नहीं जमी उस पर उसे विश्वास नहीं आया, वह उसे रुचा नहीं । इस तरह वह उसे अश्रद्धा अप्रतीति और अरुचि का विषय बनाती हुई सुभूमिभाग नामक उद्यान के पास षष्ठ षष्ट की तपस्या करती हुई वह सूर्याभिमुख होकर आतापना करने लगी ।। सू० १३ ॥ પરિક્ષિત ઉપાશ્રયની અંદર જ પિતાના શરીરને શાટિકા-સાડીથી સારી રીતે ઢાંકીને અને ભૂમિ ઉપર બંને ચરણને બરાબર સ્થાપિત કરીને આતાપના समे (तएण सा सूमा लिया गोवालियाए एयमद्रं नो सदहइ नो पत्तियह नो रोएइ, एयम अ० ३ सुभूमिभोगास उज्जाणम्स अदूरसामंते टू' छट्रेण जाव विहरह) पनि। माना थन 6५२ सु. २ मार्याने श्रद्धा थनड, તેના ઉપર તેને વિશ્વાસ થયે નહિ તે તેને ગમ્યું પણ નહિ આ રીતે તે તે કથન પ્રત્યે અશ્રદ્ધા, અપ્રતીતિ અને અરુચિ ધરાવતી સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે ષષ ષષની તપસ્યા કરતી સૂર્યાભિમુખી થઈને આતાપના કરવા લાગી. એ સૂત્ર ૧૩
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૨૨૦
शाताधर्मकथासूत्रे
उज्जाणरस उज्जाणसिरिं पञ्चणुभवमाणा विहरंति, तत्थ पां एगे गोहिलग पुरिसं देवदत्तं मणियं उच्छंगे धरइ एगे पिट्ठओ आयतं धरे एगे पुष्प पूरयं रए एगे पाए रएइ एगे चामरुक्खेवं करेइ एणं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल पुरिसेहिं सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणी पासइ तरणं तीसे इमेया रूवे संकप्पे समुप्पज्जित्था - अहो णंइमा इत्थिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव विहरइ, तं जड़ णं केइ इमस्स सुचरियस्स तत्रनियम भरवारस कहाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि तो णं अहमत्रि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उग लाई जाव विहरिज्जामि तिकट्टु नियाणं करेइ करिता आगावणभूमिओ पच्चीरुहइ ॥ सू- १४||
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टीका तस्य णं चंपाए ' इत्यादि । तत्र खलु चम्पायां नगर्यां ललिता नाम्नी ' गोट्टी' गोष्टी=मण्डली परिवसति किंभूता सा गोोत्याह- 'नरवइदियावियारा ' नरपतिदत्तविचारा पतिना दत्तो विचारः संमतिर्यस्यै सा तथा सेवादिना सन्तुष्टान्नरपतेर्लब्धस्वतन्त्रता तथा अम्मापहनिययनिधिवासा ' अम्बावितृनिनकनिः पिपासा = मातापित्रादि निरपेक्षा 'विहार निकेया'
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तस्य णं चपाए ललिया नाम ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ) उस चंपानगरी में 'ललिता' इस नामकी गोष्ठी मंडली - रहती थी । ( नरवइ दिण्णविधारा, अम्मापि नियय निपिवामा वेसविहारकयनिकेया,
तत्क्षणं चंपाए ललिया नाम ' इत्यादि -
टीअर्थ - ( तत्थणं चंपाए ललिया नाम गोट्टी परिसइ) ते यांचा नगरीमा 'सबिता ' नाभे गोष्ठी' भांडजी रखेती हती. ( नरवइ दिष्णवियारा अम्मापि निययनिष्पिवासा, देवविहारकयनिकेया, नाणाविहअरिणयमाणा, अटा
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मनगारधामृतवर्षिणो टीका 10 १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् १४५ वेश्याविहारकृतनिकेता - वेश्यागृहकृतनिवासा, तथा-' नाणाविहअविणयप्पहाणा' नानाविधाऽविनयप्रधाना, तथा-आढया धनधान्यसम्पन्ना, यावद् अपरिभूता-परैरनभिभूता, आसीत् । तत्र खलु चम्पायां नगयों देवदत्ता नाम 'गणिया' गणिका-वेश्या, आसीत् , सा किम्भूतेत्याह-सुकुमारपाणिपादा, चतुष्पष्टिकला. विशारदा 'जहा अंडणाए' यथा अण्डज्ञाते अण्डनामके तृतीये ज्ञाताध्ययने यथाऽस्यारर्णनं तदिह बोध्यम् । ततः खलु तस्या ललिताया गोठ्या अन्यदाअन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये, पञ्च ‘गोहिल्लगपुरिसा' गोष्ठिकपुरुषा-मण्डलीपुरुषाः समानवयस्का इत्यर्थः देवदत्तयागणिकया साधै मुभूमिभागस्योधानस्योद्यानश्रियं= उद्यानशोभा पत्यनुभवन्तो विहरन्ति । तत्र खलु एको गोष्ठिकपुरुषो देवदत्ता नाणाविह अविणयपहाणा, अड्डा जाव अपरिभूया) इसने अपनी सेवासे राजाको प्रसन्न कर रखा था-लो उसकी कृपा से यह बिलकुल स्वच्छंद थे। अपने माता पिता आदि कुटुम्बी जनों की यह परवाह नहीं किया करते थे-उनको इन पुरुषों से बिलकुल भय नहीं था। वेश्याओं के घर में पड़े रहना-यही इनका एक काम थो। अनेक प्रकार के अविनय प्रधान रूप अनावारों का सेवन करना यही उनका काम था। पैसे की-द्रव्यकी उनके- पास कमी नहीं थी। कोई इनको कुछ कह सुन नहीं सकता था। (तस्थ णं पाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था, सुकुमाला, जहा अंडणाए, लएणं तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया पंच 'गोहिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ) उसी चंपा नगरी में जाव अपम्भूिया ) ते भी ये तानी सेवाथी २०१२ प्रसन्न ४३a &तो. તેમની કૃપાથી તે મંડળી એકદમ સ્વછંદપણું આચરતી હતી. પિતાના માતા પિતા વગેરે કુટુંબી લોકોની પણ તેઓ દરકાર કરતા ન હતા તેઓને આ વડીલેની કેઈપણ જાતની બીક હતી નહિ, વેશ્યાઓના ઘેર પડયા રહેવું ફકત એજ એમનું એક માત્ર કામ હતું. અનેક પ્રકારના અવિનયપૂર્ણ આચરણ કરવાં એજ તેઓના જીવનનું મુખ્ય કામ હતું. ધનની તેઓની પાસે ખોટ હતી નહિ. કેઇપણ નાગરિકની એટલી પણ તાકાત નહોતી કે તેઓ તેમને કંઈપણ કહે! (तत्थ ण चंगाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था, सुकुमला, जहा अंडणाए, तएण तीसे ललिवाए गोदीर अन्न या पंच गोदिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सदि सुभूमिभागस उजागरस उजाणसिरि पच्चणुभवमाणा विहरांति ) ते २५॥
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शाताधर्मकथासूत्रे गणिकामुत्सङ्गे धरति एकः 'पिट्टओ' पृष्ठतः ‘आयवत्तं ' आतपत्रं-छत्रं धरति, एक: 'पुष्पपूरयं' पुष्पपूरक-पुष्पाणां रचनाविशेषं 'रएइ' रचयति, एका पादौ-अल.क्तकादिना रञ्जयति । एकः 'चामाखेवं ' चामर -चामरवीजनं करोति । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या देवदत्तां गणिकां तैः पञ्चभिगौं ष्ठकदेवदत्ता नाम की एक गणिका रहती थी। यह चौसठ कलाओं में निष्णात थी। इसके हाथ पैर आदि सब ही अवयव बहुत ही अधिक सुकुमार थे। मयूर अंड नाम के तृतीय ज्ञाताध्ययन में इसका जैसा वर्णन किया गया है-वैसा ही वर्णन इसका यहां जानना चाहिये । एक समय की बात है कि गोष्ठी के ५, एरुष कि जो समाल वयसवाले थे देवदत्ता गणिका के साथ उस सुभूमिभाग उद्यान में आये-और यहां की उद्यान की शोभा का निरीक्षण करते हुए इधर-उधर धूमने लगे-(तस्थ णं एगे गोहिल्लग पुरि से देवदत्तं गणियं उच्छगे धरइ, एगे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुप्फपूरयं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे
चामरूवखेवं करेइ, तएशंसा सम्मालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लगपुरि सेहिं सद्धिं उरालाई माणुसगाई भोगभोगाई भुंज. माणी पासइ ) वहां एक उस मंडली के पुरुष ने देवदत्ता मणिका को अपनी गोदी में बैठाया, एक दूसरे-मंडली के पुरुष ने उसके पीछे से उसके ऊपर छत्तो ताना, एक तीसरे पुरुषने उनके निमित्त पुष्पों की रचना रची, चौथे पुरुष ने उसके दोनों पैरों में माना लगाया पांचवें ने નગરીમાં દેવદત્તા નામે એ ગણિકા રહેતી હતી. તે ૬૪ કળાઓમાં નિપુણ હતી, તેના હાથ-પગ વગેરે બધાં અંગો અતીવ સુકોમળ હતાં. મયુરી અંડ નામના ત્રીજા અધ્યયનમાં દેવદત્તાનું જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ વન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. એક દિવસની વાત છે કે ગેઈનnીના પાંચ માણસે કે જેઓ સરખી ઉંમરવાળા હતા–દેવદત્તા ગણિકાની સાથે તે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનમાં ગયા અને ત્યાંની ઉદ્યાન શોભાનું નિરીક્ષણ કરતા આમ तेम ५२१६ साया. ( तत्थणं एगे गोलिगपुरिसे देवदत्तं गणिय उगे धाइ, एगे पिटुओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुएफपूरय राइ, एगे पाए रएइ, ए च नसक्खे वं करेइ तएण सा सूमालया अजा देवदत्तं गणियं हि पचहि गोहिल पुरि. सेहि सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भागभोगाई भुजमाणी पासइ) य त भ3ળીના એક માણસે દેવદત્તા ગણિકાને પિતાના મેળામાં બેસાડી બીજા માણસે તેની ઉપર છત્રી તાણ, ત્રીજા માણસે તેના માટે પુષ્પોની રચના કરી, ચોથા માણસે તેના પગમાં લાલ રંગ લગા, પાંચા માણસે તેને ઉપર ચામર
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिका चरितवर्णनम्
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पुरुषैः सार्धमुदारान=श्रेष्ठान् भोगान् भुञ्जानां कुर्वतीं पश्यति, ततस्तस्याः सुकुमा रिकाया अयमेतद्रूपः- वक्ष्यमाणखरूपः संस्ः = विचारः समुदपद्यत - अहो ! खलु इयं स्त्री पूर्वभवे 'पोरागाणं पुराणानाम् पुरातनानां संचितानां कर्मण पुण्यकर्मणां चिविशेषं प्रत्यनुवन्ती विहरति तत्तस्मात् कारणाद् यदि खलु कोऽप्यस्य सुचरितस्थ तपोनियम ब्रह्मचर्यवासस्य कल्याणः - इष्टः शुभरूपः कटुत्तिविशेषः अस्ति, 'तो' तर्हि खलु अहमपि ' आगमिस्सेणं ' आगामिना भवग्रहणेन इमान् एतद्रूपान् उदारान् भोगान् यावद् भुञ्जाना ' विहउस पर चमर ढोरे । इस तरह से उस सुकुमारिका आर्या ने उन मंडली के पांच पुरुषों के साथ उस देवदत्ता गणिका को उदार मनुष्य भव संबन्धी काम भोगों को भोगते हुए देखा । (तएणं तीसे इमेया
संजित्था - अहो णं दमा इत्थिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाब विहर) तो उस सुकुमारिका आर्या को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हुआ- अहो ! इस स्त्री ने पूर्वभव में जो पुण्य कर्म कमाये हैं उन्हीं पुराने पुण्य कर्मों के यावत् फलवृत्ति विशेष को यह भोग रही है । (तं जणं के इमस्त सुचरियस तव नियमभचेरवासस्स कलाणे फलवित्तिविसे से अत्थि तो णं अहमवि आगमिस्लेगं भवग्गहणेणं इमेवारूबाई उसलाई जाव विहरिज्जामि, तिकडु नियाणं करेइ, करिता आयात्रभूमिओ पच्चोरुहइ ) इसलिये यदि इन पालित तप, नियम एवं ब्रह्मवर्ष व्रतों का कोई शुरूप फलवृत्ति विशेष है तो मैं भी आगामी भव में इसी तरह के उदार मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगों
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ઢળ્યા. આ રીતે તે સુકુમારિ આર્યોએ મંડળીના પાંચે માણુસાની સાથે તે देवदत्ता गणिअने उद्वार मनुष्यलवना अमलोगो लोभवतां लेया. ( तपण तीसे इमेारूवे संकप्पे समुज्जित्था - अहो णं इमा इत्थिया पुरा पोराणाणं कम्माणं जाव विहरइ ) त्यारे ते सुकुमार भार्याने या जतनो विचारભવ્યેા કે અહે ? આ સ્ત્રીએ પૂર્વભવમાં જે પુણ્યકમ કર્યા છે તેમને લીધેજ એટલે કે તે જ પૂર્વભવના પુણ્ય-કમેના ચાવતા વિશેષને આ ભેાગવી રહી छे. ( तं जइ णं केइ इमास सुचरियल्स तत्र नियम बंभचेरवालरस कल्ला फड़ वित्तविसे से अत्थि तो णं अहनवि आगमिस्से णं भवग्गहणे णं इमेवाहवाई' उरालाई जाय विहरिज्जामि, ति कट्टु नियाण करेइ, करिता आयावगभूमिओ पच्चारुह३) मा अघा भारा વડે આચરવામાં આવેલા તા, નિયમ અને બ્રહ્મચર્ય વ્રતાનું શુભ ફળ છે તે! હું પણ આવતા ભવમાં આ ાતના જ ઉદાર મનુષ્યભવ સંબધી કામલેગાને લગવું, આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે નિદાન
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૨૪
झोताधर्मकथासूत्रे
5.6
रिज्जामित्ति कट्टु " विहरामि ' इति कृत्वा ' नियाणं ' निदानं करोति, कृत्वा आतापन भूमितः प्रत्यवरोहति - आठापनां परित्यजति | सू० १४ ॥
मूलम् तपणं सा सूमालिया अज्जा सरीरवउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणंर हत्थे धोवेइ पाए धोवेइ सीसं धोइ मुहं धोत्रेइ थणंतराई धोवेइ कक्खं तराई धोवेइ गोज्झतराई धोइ जत्थ णं ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा एइ तत्थ वियणं पुव्वामेव उदएणं अब्भुक्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं वा३ चेइए, तएणं ताओ गोवालियाओ सूमालियं अजं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! अजे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव वंभचेरधारिणीओ नो खलु कप्पइ अम्हं सरीखा उसियाए होत्तर, तुमं चणं अजे ! सरीरबाउसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेसि जाव एसि, तं तुमं णं देवाशुप्पिए । तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, तरणं सा सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमट्ठे नो आढाइ नो परिजागइ अणाढायमाणी अपरिजानमाणी विहरइ, तरणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलति जाव परिभवंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमहं निवारेति, तएणं तीए सूमालियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमागए जाव वारिज्ज -
को भोगू । ऐसा विचार कर उसने निदान बंध किया और करके फिर वह आतापन भूमि से आतापना लेकर अपने स्थान आगई ।। सू० १४॥ અધ કર્યાં અને કરીને તે આતાપન ભૂમિથી આતાપના લઇને પેાતાના સ્થાને આવી ગઈ ! સૂત્ર ૧૪
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भनगारधर्मामृतवषिणी टीकाअ० १६ सुकुमारिकानिरूपणम् माणीए इभेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जयाणं अहं अगारवासमझे वसामि तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पम्वइया तया णं अहं परवसा, पुद्धि च णं मम समाणीओ आढायंति२ इयाणि नो आढ़ति२ तं सेयं खलु मम कलं पाउ० गोवालियाणं अंतियाओ पडिनिक्खभित्ता पाडिएकं उवस्सयं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए तिकट्ट एवं संपेहेइ संहिता कलं पा० गोवालियागं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता पडिएकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तएणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्रिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ तत्थ वि य णं पासस्था पासत्थविहारो ओसग्णा ओमण्गविहारी कुसोलार संसत्तार बहुणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ अदमासियाए सलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणंसि देवगणियत्ताए उववण्णा, तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ॥ सू० १५ ॥
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा सुकुमारिका आर्या ' सरीर 'तएणं सा सूमालिया अजा' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद (सा सूमालियाए अज्जा सरीर बसा
'तएण' सा सूमालिया अमा' इत्यादिAथ-(तएण) त्या२५०ी ( सा सूमालिया अज्जा सरीरबउमा जाया यावि
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२४६
हाताघकथाङ्गसू
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बउसा' दारीरवकुता शरीरसंस्कारपरायणा जाता चाप्यात् अभीक्ष्णं २ पुनः पुनः हस्तौ धोवे' धारति = पक्षालयति, पादौ धावति 'सी' शीर्ष=शिरः धावति, धावत, 'राई' सनान्वराणि धारति ' कतराई ' कक्षान्तराणि धावति, 'गोज्झताई' गुद्यान्तराणि गुह्यपदेशं धावति, यत्र खलु 'ठाणं वा' स्थानम् - उपवेशनाये स्थानं ' सेज्जं वा ' शय्यां वा 'निसोधियं वा ' नैषेकिवा 'चेए' चेतयति करोति, तत्रापि च खलु पूर्वमेवोदकेन अवमुक्रखइत्ता ' अभ्युप=अभिषिच्य ततः पश्चात् ' ठाणं वा स्वानं वा शय्यां वाधिक वा es' चेतयति-करोति ।
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जाया यावि होत्या - अभिक्खणं २ हत्थे धोवेद, पाए धोवेद, सीस धोवे, मुहं धोवेद, धणंतराई धोवेह, कक्वंतराई धोवेद, गोंतराई धोवेर) वह सुकुमारिका आर्या शरीर संस्कार करने में भी तत्पर बन गई। चार २ वह हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, शिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनान्तरों को धोने लगी, कक्षाओं को धोने लगो और गुह्य प्रदेश को धोने लगी । (जस्व णं ठाणं वा सेज वा विदीहियं वा चेएइ तत्थ वियणं पुत्रवामेव उद्एणं अब्भुक्खइत्ता त पच्छा ठाणं वा ३ चेएइ, तरणं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अजं एवं वयासी) इसी तरह वह जहां अपना बैठने के लिये स्थान बनाती, शय्या - पाथरती, स्वाध्याय स्थान करती, वहां भी वह पहिले से ही उसे जल से सींच देती-तब जाकर वहां वह अपना स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय भूमि नियत करती । इस प्रकार की परिस्थिति देख कर गोपा
होत्था - अभिक्खण २ हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोबेइ, धतराई धोवेइ, कतराई धोवेइ गोज्झतराई धोवेइ) ते सुठुभारित भार्या शरीर-सरा રના કામમાં પરોવાઇ ગઇ. વારવાર હાથ ધોવા લાગી, પગ ધોવા લાગી, માથુ’ ધોવા લાગી, મુખ ધાવા લાગી,સ્તનેાના વચ્ચેના સ્થાનને ધાવા લાગી,બગલાને घोवा सागी, मने गुप्त स्थानाने धावा सागी (जस्थणं ठाणं वा सेज्जवासीहियं वा चे तत्यवि य णं पुत्रमेव उदपणं अच्भुक्खइत्ता तो पच्छा ठ बा ३ एइ तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वचासी) આ પ્રમાણે જ તે જ્યાં પેાતાનું બેસવાનું સ્થાન નક્કી કરતી, કે પથરી પાથરતી અથવા તેા સ્વાધ્યાય માટે બેસવાનું સ્થાન નક્કી કરતી. ત્યાં પહેલેથી જ તે સ્થાનને પાણી છાંટતી હતી અને ત્યારપછી તે ત્યાં પેાતાનું સ્થાન-શય્યા અને સ્વાધ્યાય સ્થાન નક્કી કરતી હતી આ જાતની પરિસ્થિતિ જોઈને ગપાલિકા આર્યોએ તે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ० १६ सुकुमारिका चरितनिरूपणम्
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ततः खलु गोपालिका आर्याः सुकुमारिकामार्यामेवमादिषुः एवं खलु हे देवानुपये ! आयें ! वयं श्रमण्यः - तपस्विन्यः निग्रन्ध्यिः ब्राह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिताः समायावद ब्रह्मचारिण्यः स्मः, नो खलु कल्पतेऽस्माकं सरीसिवाए शरीरखकुशिया होत्तए ' भवितुम् इति स्वं च खल हे आयें | शरीराकुक्षिका जाता. अभो६= पुनः पुनरतिशयेन हस्तौ धावसि =प्रक्षालयसि यावत् स्थानं वा शय्यां वा स्वाध्यायभूमिं वा जलेनाभ्युक्ष्य चेरसि' चेतयसि स्थानादिकं करोमीत्यर्थः । तत्-तम्मात् त्वं खलु हे देवानुप्रिये ! तत् स्थानम् ' आलोएहि ' आलोचय, स्वाविचारं प्रकाशयेत्यर्थः । यावत् 4 पड़िवज्जाहि ' प्रतिपद्यस्व प्रायश्चित्तं स्वीकुरु ' इत्यर्थः । ततः खलु सा सुकुfear आर्या ने उस सुकुमारिका ओर्या से कहा - ( एवं खलु देवाणुष्पिया ! अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेर धारिणिओ, नो खलु कप्पड़ अम्हं सरीरबाउसिया होत्तए, तुमंच णं अज्जे सरीरवासिया अभिकवणं २ हत्थे धोवेसि, जाब चेरसि ) हे देवा! हम आर्याएँ निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं। ईर्या आदि पांच समि तियोंका पालन करनी हैं। नौकोटि ब्रह्मचर्य सहितको पालन करती हैं । अतः हम लोगों को अपने शरीर के संस्कार करने में परायण बनना कल्पित नहीं हैं । हे आयें ! तुम शरीर संस्कार करने में परायण बन चुकी हो । बार २ तुम हाथों को धोती हो यावत् स्थान को शय्या को, और स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से धोकर नियत करती हो ( तं तुमं णं देवाणुप्पिए ! तस्स ठाणस्स आलोएहि, जाव परिवज्जाहि ) इस लिये हे देवानुप्रिये ! तुम उस स्थान की आलोचना करो- अपने अतिचारों को प्रकाशित करो यावत् उनका प्रायश्चित्त लो ।
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सुकुमारि मायने आ प्रमा उधुंठे - ( एवं खलु देवाणुपिया ! अज्जे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाब गंभचे धारिणिओ को खलु कप्पइ अम्हे सरीरवा उसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्जे सरीरबाउसिया, अभिकरणं २ हत्थे धोवेसि जा चएसि ) देवानुप्रिये ! अमे मर्यायो निर्भय श्रमણીએ છીએ, ઇર્યાં વગેરે પાંચ સમિતિએનું અમે પાલન કરીએ છી, નવકોટિથી બ્રહ્મચ મહાવ્રત ધારણ કરીએ છીએ. એધી પેાતાના શરીરના સસ્કાર કરવા એ આપણા માટે ચેાગ્ય ગણાય નRsિ. હું આર્ય ! તમે શરીરના સસ્કારમાં પરાયણ બની ચૂકી છે. તમે વારંવાર હાથે ને ધુએ છે. યાવત્ સ્થાનને, શય્યાને અને સ્વાધ્યાયભૂમિને પહેલેથી જ પાણીથી ધેઈને નક્કી કરી લે છે. ( तं तुमं णं देवाधिए ! तरस ठाणस्स आलोएहि, जाव पडिवज्जाहि ) संधी
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माताधर्मकथाजसचे मारिका आर्या गोपालिकानामार्याणामेतमर्थ 'नो आढाइ' नाद्रियते, नो परिजानीते तद्वचने ध्यान न ददाति, । अनाद्रियमाणा अनादरं कुर्वती, अपरिजानाना-ध्यानमददाना विहरति आस्ते । ततः खलु ताः गोपालिका आर्याः सुकुमारिकामार्यामभीक्ष्णं-पुनः पुनरभिहीलन्ति खसन्ति निन्दन्ति यावत् परिभवन्ति । अभीक्ष्णं पुनः पुनः, ' एयमद्वं' पतमर्थम् उक्तमय शरीरशोभाकरणजलपक्षेपादिकं निवारयन्ति प्रतिषेधयन्ति । ततः खलु 'तीए' तस्याः सुकुमारिकायाः श्रमणीभिर्निग्रन्थीभिः हील्यमानाया यावद् वार्यमाणाया अयमेतपः वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्यात्मिको यावन्मनोगतः संकल्पो-रिचार समुपद्यत-भादु(तएणं सा सूमालिया गोवालियागं अजाणं एगाष्टुं मो आढाइ, नो परिजागाइ, अणाहागमाणी, अपरिजाणमाणी, विहरइ) सुकुमारिका आर्या ने गो पालिका आयौ के इस कथन रूप अर्थ को आदर की दृष्टि से नहीं देखा. उनके वचनों पर उसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इस तरह बाले वचनों का अनादर और उन पर ध्यान नहीं देती हुई वह रहने लगी (तएणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्ज अभिवणं २ एयरटुं निवारेति, तएणं तीसे सूमालियाए समी िनिगंथीहिं हीलिजाए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए जान सनुपज्जिस्था । इस के पश्चात् उन गोपालि का आर्या ने उस सुकुमारिका आर्या की धार २ अवहेलना की, उस पर वे गुस्सा भी हुई उसकी निंदा भी की गावत् उसका तिरस्कार भी किया। बार २ उसे शरीर की शोभा करने से और जल का सिंचन करने से रोका। तब उसे इस प्रकार का હે દેવાનુપ્રિયે! તમે તે સ્થાનની આચના કરે–પિતાના અતિચારને પ્રકા शित ४२॥ यावतू ना माटे प्रायश्चित्त ४२१. (तएणं सा सुमालिया गोवालियाणं अनाणं एयम, नो आढाइ, नो परिजाणःइ, अणादायमाणी, अपरिजाणमाणी, विहाइ) सुभारि सार्या गोपाल। मार्यान मा ४थन३५ २०५ने मा६२ દષ્ટિથી જોયો નહિ, તેમનાં વચનો ઉપર તેણે કંઈ પણ વિચાર કર્યો નહિ. આ રીતે તેમના વચનો અનાદર અને તે પ્રત્યે બેદરકાર થઈને તે પિતાનો १मत ५.२ ४२॥ al. ( तएणं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्ज अभिक्खणं २ एयमटुं निवारे ति, नएणं तीसे सूमालियाए समणीहि निग्गंधीहि हीलिज्जमाणीय जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्जथिए जाव समुप्पन्जित्था) या२५छी તે ગે પાલિકા આર્યાએ તે સુકુમારિકા આર્યાની વારંવાર અવહેલના કરી, તેની તરફ તેમણે ગુસ્સો પણ બતાવ્યો, તેની નિંદા કરી યાવત્તેને તિરસ્કાર પણ કર્યો. તેને વારંવાર શરીરને શોભાવવા બદલ તેમજ જળનું સિંચન કરવા બદલ
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् . २४९ भूतः, यदा-यावत् कालं खलु अहमगारवासमध्ये वसामि, तदा तावत् कालं खल्लहं ' अप्पवसा' आत्मवशा स्वाधीना आसम् , यदा खल्वहं मुण्डा भूत्वा प्रव्रजिता तदा खल्वहं परवशा पराधीना जाता । 'पुब्धि ' पुरा पूर्वस्मिन् काले च खलु ' ममं मां श्रमण्यः ‘आढायंति ' २ आद्रियन्ते, तथा परिजानन्ति, इदानी नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, 'तं' तत्=तस्मात् श्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्भूत प्रभातयां रजन्यां यावज्ज्वलति सूर्ये अभ्युद्गते गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य 'पाडिएक' पार्थक्यं पार्थक्याश्रयं पृथग्भूतम् अन्यमित्यर्थः ' उवयह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-(जयाणं अम्हं आगारवासमज्झे वसामि तयाणं अहं अप्पवसा जयाणं अहं मुंडे भवित्ता पव्वया तयाणं अहं परवसा, पुचि च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणि णो आढ़ति २ तं सेयं खलु मम कल्लं पोउगोवालियाणं अंतियाओ पडिनिक्वमित्ता पडिएक्कं उवस्सयं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ ) जब तक में घर में रही तब तक स्वाधीन रही-और अब जब से मुंडित होकर प्रव्रजित हुई हूँ तब से पराधीन बन रही हूँ। पहिले ये श्रमणियां मेरा आदर करती थीं-मेरी बात मानती थी परन्तु अबतो कोई भी न मेरा आदर करती है-और न मेरी बात ही मानती है। इस लिये मुझे अब यही उचित होगा कि मैं दूसरे दिन जब प्रातः काल होने पर सूर्य प्रकाश से चमकने लगेतब मैं गोपालिको आर्याके पास से निकल कर किसी दूसरे भिन्न उपा.
રોક ટેક કરી. ત્યારે તેને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવતું મને ગન સંકલ્પ
सव्य ( जयाणं अम्ह आगारवासमझे वसामि तयाणं अह अप्पवसा जयाणं अह मुंडे भवित्ता पव्वइया तयाणं अहं परवसा पुटिव च णं मम समणीओ आढायंति, इयाणि णो आदति २ तसेयं खलु मम पाउ० गोवालियाण अंतियाओ पडिनिक्खमित्तो पडिक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताण विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ) यां सुधी हुँ घरमा २डी त्या सुधी स्वाधीन रही ५ न्यारथी મુંડિત થઈને પ્રવ્રજીત થઈ છું ત્યારથી પરાધીન થઈ ગઈ છું. પહેલાં આ અમણીએ મારે આદર કરતી હતી. મારી વાત માનતી હતી પણ અત્યારે તે કઈ પણ મારો આદર નથી કરતું અને મારી વાત પણ માનતું નથી. તેથી મારે માટે એ જ ઉચિત છે કે બીજે દિવસે સવારે સૂર્ય ઉદય પામતાં જ હું ગોપાલિકા આર્યાની પાસેથી નીકળીને કેઈ બીજા ઉપાશ્રયે જતી २९. 20 तन त विया२ ये (संहिता) विया२ ४शने त ( कल्लपा०
का ३२
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२५०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
स्वयं ' उपाश्रयम् उपसंपद्य विहर्तुमितिकृत्वा एवं संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुर्भूतप्रभातायां रजन्यां यावज्वलतिसूर्ये उदिते ति गोपालिकानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य ' पाडिएक' ' प्रार्थक्यं - पृथग्भूतमन्यमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति आस्ते स्म ।
ततः खलु ता सुकुमारिका आर्या ' अणोहट्टिया ' अनष्पघट्टिका अपवारकरहिता - उच्छ्खला अविनयवतीति यावत् ' अनिवारिया ' अनिवार्या दुर्निवारा ' सच्छंदम स्वच्छन्दमतिः- चारित्रधर्मानुरोधरहितभावा, अभीक्ष्णं पुनः पुनईस्तो धारति प्रक्षालयति यावत् स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकीं वा जलेनाभ्युक्ष्य चेतयति स्थानादिक' करोतीत्यर्थः । तत्रापि च खल पार्श्वस्था, पार्श्वस्यविहारिणी,
1
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श्रय मे चली जाऊँ इस प्रकार का उसने विचार किया ( संपेहिता ) ऐसा विचार करके (कल्लं पा० गोवालियाणं अज्जाणं ) दूसरे ही दिन प्रातः काल जब सूर्योदय हो गया तब वह गोपालिका आर्या के ( अंतियाओ) पास से ( पडिनिक्खमित्ता) निकल कर (एडिएक्i) भिन्न दूसरे (उस्स) उपाश्रय को ( उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ) प्राप्तकर वहां रहने लगी- अर्थात् दूसरे उपाश्रय में चली आई। (एणं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ) वहां वह सुकुमारिका आर्या विना किसी रोक टोक के स्वच्छंद बनकर रहने लगगई । वहाँ उसे कोई रोकने वाला रहा नहीं-सो जो मन में आया वह करने लगगई - इस तरह वह चारित्र धर्म के भाव से रहित बन गई । बार २ अपने हाथों को धोती यावत् स्थान, शय्या, और स्वाध्याय को भूमि को धोकर वहां गोवालियाणं जाणं ) जीने हिवसे सवारे न्यारे सूर्य उदय पाभ्यो यारे ते Sulan mill (sifaqıзit) vùal (qfèfazofaaı) «dynila (afeq) जीन ( उवस्सयं ) उपाश्रयने ( उपसंपज्जित्ताणं विहरइ ) भेजवीने त्यां रहेवा बागी, भेटखे है जीन उपाश्रयमांनती रही. ( त एणं सा खूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं हत्थे धोवेइ जाव चेएइ ) त्यां તે સુકુમારિકા આર્યા કાઈપણ જાતની રોક ટોક વગર સ્વચ્છતાપૂર્વક રહેવા લાગી. ત્યાં તેને કોઈ રોક-ટોક કરનાર હતું નહિ એટલે જે પ્રમાણે તેની ઇચ્છા થતી તે પ્રમાણે જ તે આચરતી હતી. આ રીતે તે ચારિત્ર ધર્મ'ના ભાવથી રહિત ખની ગઇ. વારવાર તે પેાતાના હાથાને ધેાતી હતી યાવત્ સ્થાન, સ્થારી અને સ્વાધ્યાયના સ્થાનને ધોઇને ત્યાં પેાતાનું સ્થાન નક્કી કરતી હતી.
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ममगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ सुकुमारिकाचरितवर्णनम् २५१ अवसन्ना, अबसन्नविटारिणी, कुशीला कुशीलविहारिणी, संसक्ता, संसक्तविहारिणी, बहुनि वर्षाणि श्रामण्यय पर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्धमासिक्या संलेखनया तस्य स्थानस्याऽनालोचिा अप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा, ईशाने कल्पेऽन्यत. मस्मिन् विमाने माथुर्यादि वाचनासमये आचार्याणां विमानसंख्याया विस्मरणेन निश्चयाभावादन्यतमस्मिन्नित्युक्तम् , देवगणिकत या उत्पन्ना। तौकासां देवीनां नवपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।। मू. १५ ।। अपना स्थान नियत करती । इस प्रकार (तत्थ विय णं पासत्था पासस्थ विहारी, ओसामा ओमण्णविहारी कुसीलार मंसत्तार बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउचाइ ) वहां उस सुकुमारिका ने पार्श्वस्था पार्थस्थ विहोरिणी, अवमन्ना, अवसन्न विहारिणी,कुशीलो,कुशील विहारिणी, संसक्ता, संसक्त विहारिणी बनकर अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया ( पाउणित्ता अमासियाए) पालन करके वह अर्धमास की संलेख्ना धारण कर ( कालभोत ) अपनी मृत्यु के अवसर ( कालं किच्चा ) पर मरी-सो मरकर ( अणालोइय अपडिक्कता) अपने पापों की अनालोचना करने से वह प्रतिक्रान्त नहीं बन सकने के कारण ( ईसाणे कप्पे ) ईशानकल्प में ( अण्ण यरंसि विमाणंसि ) किसी एक विमान में ( देवगणियत्ताए उववण्णा) देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई। (तत्थेगझ्याणं देवीणं नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सूमालियाए देवीए नव पलिओवभाई ठिइ पण्णत्ता ) वहां किनिक देवियों भारीत (तत्य विथ णं पासत्था पासत्यविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलाऽसंसत्ता २ बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ ) त्यां ते सु. મારિકાએ પાર્થરથા, પાર્શ્વસ્થ વિહારિણી, અવસન્ના, અવસન વિહારિણી, કુશીલા, કુશીલ વિહારિણી, સંસકતા, સંસકત વિહારિણી થઈને ઘણાં વર્ષો सुधी श्राम९५ ५ रनु पास यु . ( पाउणित्ता अद्धमासियाए ) पान ४रीने ते ममासिनी समना धारण ४रीने ( कालमासे ) पोताना मृत्यु णे ( कालकिच्चा ) ते भरण पाभी. मने भए पामीन (अणालोइय अपडिकता) પિતાના પાપની આલોચના ન કરવાથી પ્રતિકાંત ન બની શકવાના કારણે તે ( ईसाणे कापे) ४शान ४८५i ( अण्णयर सि विमाणंसि ) 353 विभा. नमा ( देवगणियत्ताए उववण्णा) देवाना ३५i orम पाभी. ( तत्थे गइयाणं देवी णं नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सूमालियाए देवीए नव पलिभोवमाई ठिई पण्णत्ता) त्यां सी तुवामानी स्थिति न पक्ष्यापननी .
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२५२
বাথামুখ - मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे नामं नयरे होत्था, वनओ तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था, वन्नओ, तस्स णं चुलणीदेवी धद्वज्जुणे कुमारे जुबराया, तएणं सा सूमालियादेवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे हीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे नयरे दुपयस्त रणो चुलजीए देवीए कुञ्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया, तएणं सा चुलणीदेवी नवण्हं मासाणं जाव दारियं पयाया, तएणं सा तीसे दारियाए निबत्तबारसाहियाए इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं नामधेनं जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तया तं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोवई, तएणं तीले अम्मापियरो इमं एयारूवं गुण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेनं करिति दोबई, तएणं सा दोबई दारिया पंच धाइपरिग्गहिया जाव गिरिकंदरमल्लीण इव चंपगलया निवायकी स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है-सो इस सुकुमारिकादेवी की वहां नौ पल्योपम की स्थिति हुई। यहां जो" किसी एक विमान में " ऐसा अनिश्चयात्मक पदआयो है उसका तात्पर्य यह है कि माधुर्यादिवाचना के समय में आचार्यों को विमान संख्या का विस्मरण हो जाने से उसका निश्चय नहीं रहा । अतः ऐसा कहा गया है । सू० १५ ॥
વામાં આવી છે તે તે સુકુમારિકા દેવીની પણ ત્યાં નવપલ્યોપમની સ્થિતિ થઈ. અહીં જે “કેઈ એક વિમાનમાં” આ જાતનું અનિશ્ચયાત્મક પદ આવ્યું છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે માથુર્યાદિ વાચનાના સમયે આચાર્યોને વિમાન સંખ્યાનું વિસ્મરણ થઈ જવાથી તે વિષે નિશ્ચય રહ્યું નહિ. એથી આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. એ સૂત્ર ૧૫ છે
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भनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २५३ निवाघायंसिसुहंसुहेणं परिवड्डा। तएणं सा दोवई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिट्टसरीरा जाया जावि होत्था,तएणं तं दोवइं रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंतेउरियाओ पहायं जाव विभूसियं करेंति करित्ता दुवयस्त रण्णो पाएवंदिउं पेसंति तएणं सा दोवइं राय० जेणेव राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दुवयस्स रण्णो पायगहणं करेइ, तएणं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ निवेसित्ता दोबइए रायवरकन्नाए रूवेण य जोवणेण य लावणेण य जायविम्हए दोवई रायवरकन्नं एवं वयासी- जस्स णं अहं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तएणं मम जावजीवाए हिययडाहे भविस्सइ, तं णं अहं तव पुत्ता ! अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए गं तुमं दिण्णसयंवरा जणं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि से गं तव भत्तारे भविस्सइ तिकटु ताहिं इट्राहि जाव आसासेइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १६॥
टीका-' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे पश्चालेषु जनपदेषु काम्पिल्यपुरं-काम्पिल्यपुरनामकं नगर
' तेणं काठेणं तेणं समएणं' इत्यादि । टीकार्थ-( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिलपुरे नाम नयरे होत्था ) इसी जंबूदीप में भारत वर्ष में पांचाल जनपद में
तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि
साथ-(तेणं कालेणं तेणं समएण) ते आणे भने ते समये (इहेव जंबुद्दीवे भारहेवासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे नामं नयरे होत्था ) भाद्वीपमा भारत वर्षमा पांया नभां पिट्यपुर नामे नगर तु. (वन्नओ) ॥ નગરનું વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે ત્યાંથી પાઠકએ જાણી
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२५४
ताधर्मकथासूत्रे
मासीत्, वर्णकः=अस्य नगरस्य वर्णनमोपपातिकसूत्राद् बोध्यम् । तत्र खल्लु द्रुपदो नाम राजाऽऽसीत्, चुकनी नाम्नी देवी भार्याऽभवत् तस्य पुत्रः ' धट्टज्जुणे' धृष्टद्युम्नो नाम कुमारो युवराजोऽभवत् ।
,
ततः खलु सा सुकुमारिका देवी तस्माद् देवलोकादायुःक्षयेण यावत्व्युत्त्रा इव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पंचालेषु जनपदेषु काम्पिल्यपुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञः = चुलन्या देव्याः कुक्षौ दारिकतया = पुत्रीत्वेन ' पच्चायाया' प्रत्या याता=समुत्पन्ना । ततः खलु सा चुलनीदेवी नवानां मासानां बहुमतिपूर्णानां यावद्दारिकां पुत्रीं जाता = प्रजनितवती । ततः खलु सा तस्या दारिकाया
hifterपुर नाम का नगर था । ( वन्नओ ) इस नगर का वर्णन औपपातिक सूत्र मैं किया गया है सो वहां से जान लेना चाहिये । (तत्थ णं दुचए नामं या होत्था बनाओ नस्म णं चुलणीदेवी, घट्टज्जुणे कुमारे जुवराया, तपणं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ जाब चइत्ता इव जंबुद्दीचे दीवे, भारहे वासे पंचालेख जणवर कंपिएलपुरे नगरे वस्स रण्णो चुलणीए देवीए कुच्छिसि दारियताप पच्चामाया ) वहां के राजाका नाम द्रुपद था। रोजाका वर्णन भी पहिले जैसा ही जानना चाहिये । इस की रानी का नाम चुलनीदेवी था । कुमार का नाम धृष्टद्युम्न था - यह युवराज था । वह सुकुमारिका आर्या का जीव उस दूसरे ईशान देवलोक से आयु आदि क्षय हो जाने के कारण चक्कर इसी जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भरत क्षेत्र में, पांचाल जनपद में कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की चुलनीदेवी की कुक्षि में पुत्री रूपसे अवतरित हुआ । (तएणं सा चुलणीदेवी नवण्हं मासाणं जाव
बेधुं हो. ( तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था, वन्नओ, तस्सणं चुलणी देवी धज्जुणे कुमारे, जुवराया, तरणं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आ Baणं जाव चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएस कंपिल्ल पुरे नयरे दुवयस्स रण्णो चुरणीए देवीए कुच्छिसि दायित्तात् पच्त्रायाया ) त्यांना રાજાનું નામ દ્રુપદ હતું. રાજાનું વર્ણન પણ ઔપાતિક સૂત્રમાં વર્ણિત કોણિક રાજાની જેમજ જાણી લેવું જોઇએ. તેની રાણીનું નામ ચુલની દેવી હતું. તેના પુત્રનું નામ ધૃષ્ટદ્યુમ્ન હતું. ધૃષ્ટદ્યુમ્ન યુવરાજ હતા, સુકુમારિકા આર્યાને જીવ તે બીજા દેવલેાકથી આયુ વગેરે ક્ષય થવા બદલ ચીને આજ જબુદ્રીપ નામના દ્વીપમાં, ભરત ક્ષેત્રમાં, પાંચાલ્ય જનપદમાં, કાંપિલ્યપુર નગરમાં દ્રુપદ शन्तनी युद्धनी देवीना G४२मां पुत्री ३ये अवतरित थये. ( त एवं सा चुळणी
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अमगारधर्मामृतषिणी टी० म० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२५५ 'निबत्तवारसाहियाए ' निवृत्तद्वादशाहिकायां-द्वादशेऽहनि संप्राप्ते इदमेतद्रूपं नाम कृतवती यस्मात् खलु एषा दारिका द्रुपदस्य राज्ञो ' धृया ' दुहिता-पुत्री चुलन्या देव्या ' अत्तिया' आत्मजा=अङ्गजाता, तस्माद् भवतु खल्वस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं द्रौपदी ' इति । ततः खलु तस्या अबापितरौ इसमेतद्रूपं गोणं गुणमाप्त गुणनिष्पन्न-गुणसंपन्नं, नामधेयं कुरुतः। ततः सा द्रौपदी दारिका पञ्चधात्रीभिर्यावद् गिरिकन्दरमालीने चम्पकलता निर्वातनिर्याघाते सुखमुखेन परिवर्धते स्म। दारियं पयाया तएणं सा तीसे दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए इमं एया रूवं गोणं गुणणिफणं नामधेज्जं जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रणो धूया चुलणीए देवीए अत्तया तं होउणं-अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोवई ) गर्भ के जघ नौ मास अच्छी तरह समाप्त हो चुके तथ चुलनीदेवी ने एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री को उत्पन्न हुए १२ वां दिन लगा-तब चुलनी माताने उसका इस रूप से गुणनिष्पन्न नामरक्खा क्यों कि यह द्रुपदराजा की पुत्री है और मुझ चुलनी के उदर से उत्पन्न हुई है-इसलिये इस हमारी कन्या को नाम द्रुपदी रहो इस तरह के विचार से ( तीसे अम्मा पियरो) माता पिता ने उसका (इम एयारूवं गुण्णं गुणनिप्पन्नं नामवेज्ज करिति दोबई ) इस तरह का गुणनिष्पन्न नाम द्रौपदी रख दिया । ( तएणं ) इसके बाद-( सा दोवई दारिया पंचधाइ परिग्गहिया जाव गिरिकंदरमल्लीणइव चंपगलया निवायनिव्वाघायंसि सुहं सुहेणं परिवड्ह ) वह द्रौपदी दारिका पांच धाय माताओं से युक्त देवी नवण्ह मासाणं जाव दोरियं पयाया तएणं सा तीसे दारियाए निव्वत्तबारसाहियाए इमं एयारूवं गोण गुणणिप्फवण्ण नामधेज्ज जम्माणं एम दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चूलणीए देवीए अत्तया तं होउण अम्ह इमी से दारियाए नामधिज्जे दोवई ) गलना नभास न्यारे सपणे समास या त्यारे લની દેવીએ એક પુત્રીને જન્મ આપ્યો. પુત્રીના જન્મ પછી જ્યારે અગિ. ચાર દિવસ પૂરા થયા અને બારમે દિવસ શરૂ થયું ત્યારે ચુલની માતાએ વિચાર કર્યો કે દુપદ રાજાની આ કન્યાપુત્રી છે અને મારા ગર્ભથી જન્મ પામી છે. આ પ્રમાણે આનું નામ દ્રૌપદી રાખીએ તે સારું આમ વિચારીને (तीले अम्मापियरो) मातापिता (इमं एयारूवं गुण्ण गुणनिष्पन्न नाम घेज करिति दोवई ) ॥ शते ते न्यानुं गुण नियन्न नाम द्रौपट्टी पाउयु. ( तएण') त्या२५०ी ( सा दोवई दारिया पंचधाइरिग्गहिया जाव गिरिकंदर मल्लीण इव चपगलया निवायनिव्वाधायंसि सुह सुहेण परिवड्ढेइ) द्रौपदी
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माताधर्मकथासूत्रे ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या उन्मुक्तबालभावा यावद् उस्कृष्टा, उत्कृष्टशरीरा जाता चाप्यभवत् । ततः खलु तां द्रौपदी राजवरकन्यामन्यदा कदाचिद् 'अंते उरियाओ' आन्तः पुरिक्यः अन्तः पुरवर्तिन्यः स्त्रियः स्नातां यावत्-वस्त्राकंकारविभूषितां कुर्वन्ति कृत्वा द्रुपदस्य राज्ञः पादौ वन्दितुं 'पेसंति ' प्रेषयन्ति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या यत्रैव द्रुपदो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य द्रुपदस्य राज्ञः पादग्रहणं करोति, ततः खलु स द्रुपदो राजा द्रौपदी दारिकामङ्के होकर इस तरह पलने पुषने लगी कि जिस तरह गिरि की कंदरा के प्रदेशमें उत्पन्न हुई चंपकलता वात रहित निरुपद्रव स्थान में आनन्द के साथ पलती पुषती है । (तएणं सा दोवई रायवरकना उम्मुक्कबालभावा, जाव उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होस्था, तएणं तं दोवइं रायपरकन्नं अण्णया कयाई अंते उरियाओ हायं जाव विभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रपणो पाए वंदिउं पेसंति ) वह राजवर कन्या द्रौपदी पालभाव रहित होकर जव यौवन अवस्था वाली हो चुकी तब इस के शरीर में लावण्य की चमक से विषय सौन्दर्य आ गया-अत: उस समय यह विशेषरूप से उत्कृष्ट शरीर वाली बनगई । किसी एक दिन की बात है कि अंतः पुर को स्त्रियों ने द्रौपदी को स्नान कराकर यावत् घस्त्रालंकार से विभूषित किया-और विभूषित कर के द्रुपद राजा की चरण वंदना करने के लिये भेज दिया (तएणं सा दोवइ राय० जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता, दुवयस्स रगो पायग्रहण करेइ, દારિકા પાંચ ધાયમાતાએથી યુક્ત થઈને આ પ્રમાણે લાલિત પાલિત થવા માંડી જેમકે પર્વતની કંદરાના પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલી ચંપકલતા નિર્વાત, नि३५द्र स्थानमा सुमेथी मेरी यती न डाय ! (.एण सा दोबई रायवर. कन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिदुसरीरा जाया यावि होत्या, तएणं तदोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाई अते उरियाओ व्हाय जाव विभूसिय करें ति करिता दुवयस्स रणो पाए वंदिर पेसति) ते २०४१२ :न्या, द्रौपदी भयपण पटापान જ્યારે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના શરીરમાં લાવયના ચમકથી સવિશેષ સૌદ દ્વિીપી ઉઠયું. તેથી તે વખતે તે વિશેષ રૂપથી ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી થઈ ગઈ હતી. કેઈ એક દિવસની વાત છે કે રણવાસની સ્ત્રીઓએ દ્રૌપદીને સ્નાન કરાવ્યું યાવત્ વસ્ત્રાલંકારોથી વિભૂષિત કરી અને વિભૂષિત કરીને २५६ २रानी य२९ ! ४२॥ भाटे भसी . (तएण' मा दोवइ राय. जेणेव दुवए राया तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ, तएण
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
२५७
निवेशयति, निवेश्य द्रौपद्या राजवरकन्याया रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च ' जायविह्मए ' जातविस्मयः = आश्चर्य प्राप्तः स द्रुपदो द्रौपदीं राजवरकन्या मेवमवादीत् - हे पुत्र ! यस्य खलु अहं राज्ञो वा युवराजस्य वा भार्यात्वेन स्वयमेव दास्यामि, तत्र खलु त्वं सुखिता वा दुःखिता वा भविष्यसि ततः खलु मम जात्र जीवाए ' यावज्जीवं ' हिययडा हे ' हृदयदाह: - मनोदुःखं भविष्यति ।
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तएण से दुबए राया दोवई दारियं अंके निवेसेह, निवेसित्ता, दोवईए रायवर कनाए रुवेण य जोन्वणेण य लावण्णेण य जायबिम्हए दोवई, रायवर कन्नं एवं वयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहां दुपद राजा था वहां आई। वहां आकर उसने वंदना करने के लिये द्रुपद राजा के ज्योंही दोनों पैरों को पकड़ो कि इतने में उस दुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेष विस्मित हुआ - सोविस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा - ( जस्स णं अहं पुत्तो ! रायस्स वा जुवरीयस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खियात्रा भवि जासि तरणं मम जाव जीवाए हियवडाहे भविस्सह ) हे पुत्रि | मैं स्वयं तुम्हें जिस राजा को अथवा युवराज को भार्या के रूप में दूंगा वहां तुम सुखी और दुःखी दोनों भी हो सकती हो। तो इससे मुझे यावज्जीव हृदय दाह - मानसिक दुःख रहेगा । ( तं णं अहं पुत्ता
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से दुवए राया दोवई दारियां अके निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए रुवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवई रायवरकन्न एवं वयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યાં રાજા દ્રુપદ હતા ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઇને તેણે દ્રુપદ રાજાને વંદન કરવા માટે અને પગેા પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દ્વારિકાને પેાતાના ખેાળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે ખેાળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી સવિશેષ વિસ્મિત થયા અને વિસ્મિત થઇને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું— ( जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्व वा जुवरायस्स वा भारित्ताए सवमेव दलइस्सामि, तत्थ तुमं सुहिया वा दुखिया वा भविज्जासि तपणं मम जाव जीवाए हिययोद्दे भविस्सइ ) डे पुत्रि ! हुं तने ? रामने हैं युवरानने लायना ३षभां આપીશ ત્યાં તું સુખી પણ થઈ શકે તેમ છે અને દુઃખી પણ. તેથી મને
क्षा ३३
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२५८
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
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= तत्तस्मात् खल्वहं हे पुत्र ! तव ' अज्जयाए ' अद्यतया - एषु दिवसेषु अल्पेषु दिनेषु इत्यर्थः स्वयंवरं वरयामि - कारयामि अद्यतया स्वल्पदिवसेष्वेव खलु स्वं दिण्णसवरा दत्तस्वयंवरा - वियते इति वरः कन्यया स्वयं हृतः स्वयंवरः, स दत्तः कन्यायाः पित्रादिना यस्यै दत्तस्वयंवरा भविष्यतीति भावः । 'दत्तस्वयंबरा' इत्तिपदं व्याचक्षाणः कथयति- 'जंण्णं तुमं' इत्यादि । यं खलु त्वं स्वयमेव रा जानं वा युवराजं वा वरिष्यसि स खलु तत्र भर्ता भविष्यति' इतिकृत्वा इत्युसाभिरिष्टाभिर्यावद्वाग्भिराश्वासयति, आश्वास्य प्रतिविसर्जयति ।। मृ०१६ | मूलम् - तणं से दुवए राया दूयं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! बारवई नयरिं तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं समुदविजयपामोक्खे दस दसारे बलदेवपामुक्खे पंचमहावीरे उग्ग सेणपामोक्खे सोलसराय सहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडीओ संबमोखाओ
क्वा
अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिष्ण सयंवरा जण्णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा बरेहिसि से णं तब भत्तारे भविस्सइ ति कट्टु ताहि इद्वाहि जाव आसासेइ, असा सित्ता पडिविसज्जेह ) इस लिये हे पुत्र ! मैं थोड़े ही दिनों में तुम्हारा स्वयंवर करवाने वाला हूँ । तुम इन दिनों में दत्तस्वयंवरा हो जाओगी, मो 'तुम जिस राजाको या युवराज को अपनी इच्छानुसार वरोगी वही तेरा भर्ता घन जायगा । इस तरह कहकर राजा ने अपनी पुत्री को इष्ट आदि विशेषणों वाली वाणी से आश्वासित किया और फिर आश्वासित करके उसे वहाँ से भेज दिया ! सू० १६ ॥
लवन पर्यन्त दु:म थया २शे. ( त णं' अहं पुत्ता ! अज्जयाए सयंवर विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिण्णत्रयंवरा जण्णं तुमं सयमेत्र रायं वा जुवरायं या वरेहिसी से णं तत्र भत्तारे भविस्सइ, ति कट्टु ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेइ आसासित्ता पडिविसज्जेइ ) हे पुत्र ! थोडा दिवसोभां हुं तमारा भाटे સ્વયંવર કરવાનો છું. ત્યારે તુ સ્વયંવરમાં દત્ત સ્વયંવરા થઇ જશે. જે રાજા કે યુવરાજને તું તારી પસંદગી આપશે તેજ તારા પતિ થશે. આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ પાતાની પુત્રીને ઇષ્ટ વગેરે વિશેષણાથી યુક્ત વને આશ્વાસનથી આગ્ન્યાસિત કરીને તેને ત્યાંથી વિદાય કરી. ॥ સૂત્ર ૧૬ ।।
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् सहि दुसाहसीओ वीरसेणपाभोक्खाओ इक्कीसं वीरपुरिससाहसीओ महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं वलवगसाहस्सीओ अन्नेय वहवे राईसरतलवरमाडंबिय कोडुंबिय इन्भसिट्टिसेणाइत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अंजलि मत्थए कट्टु जपणं विजएणं वद्धावेहि वद्धावित्ता एवं वयाहि एवं खलु देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूचाए चुहणीए देवीए अन्तयाए घट्टज्जुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ तं णं तुम्भे देवाशुपिया ! दुवयं रावं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेन कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह, तपणं से दूए करयल जाव कट्टु दुवयस्स रण्णो एयमहं पडिसुर्णेति पडिणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ सदावित्त एवं वयासी - विप्पामेव भो देवाणुपिया ! घाउघंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्टवेह जाव उबटुवेंति, उवट्ठवित्ता तएण से दूए पहाए जाव अलंकार० सरीरे चाउग्घंटं आसरहं दुरुह दुरुहिता बहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउह पहरणेहिं सद्धि संपरिबुडे कंपिल्लपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ पंचालजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसवंते तेणेव उवागच्छइ, सुरट्टाजणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव बारवइ नयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बारवई नयरिं मज्झं मज्झेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया
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माताधर्मकथाङ्गसूत्र उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चाउघंटं आसरहं ठवेइ ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहिता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहस्सीओ करयल तं चेव जाव समोसरह । तएणं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियएतं दूयं सका इ सम्माणेइ सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० १७ ॥
टीका-'तए से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं स द्रुपदो राजा दूत शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! द्वारवती द्वारकां नगरीम् , तत्र खलु त्वं कृष्णं वासुदेवं, समुद्रविजयप्रमुखान् दश दशान्,ि बलदेवप्रमुखान् पञ्च महावीरान् , उग्रसेनप्रमुखान् षोडश राजसहस्त्राणि, प्रद्युम्नप्रमुखाः अर्थचतुर्थीः कुमारकोटीः प्रद्युम्नप्रमुखान् सार्वत्रिकोटिराजकुमारान् , साम्बप्रमुखाः पष्टिदुर्दान्तसाहस्रीः साम्बप्रमुखान् पष्टिसहस्रदुर्दान्तान् , वीरसेनप्रमुखान् एकविंशतिवीरपुरुषसाहस्रीः वीरसेनप्रमुखान् एकविंशतिसहस्रवीरपुरुषान , महासेन
'तएणं से दुवए' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं से दुवए राया दूयं सदावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! बारवइं नयरि-तत्थणं तुमं कण्हं वासुदेवं समु. द्दविजय पामोक्खे दसदसारे बलदेव पामोक्खे पंचमहावीरे उग्गसेन पामोक्खे सोलसरायसहस्से पज्जुण्णपामोक्खाओ अदुवाओ कुमारकोड़ीओ संबपामोक्खाओ सटि दुईत साहस्सीओ वीरसेन पामोक्खाओ इक्कवीसं
'तएण से दुवए' इत्यादि
2010-(तएण से दुवए राया दूयं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया ! वोरवई नयरि-तत्थण तुमं कण्हं वासुदेवंसमुद विजयपामोक्खे दसदसारे बलदेवपामोक्खे पंच महावीरे उग्गसेनपामोक्खे सोलसरायसहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुढ़ाओ कुमारकोडीओ संबपामोक्खाओ सट्ठि दुईत साहस्सीओ वीर सेन पामोक्खाओ इकत्रीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेनपामोक्खाओ छप्पन बलव
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम्
ममुखाः षट्पञ्चाशत् बलवत्साहस्री: = महासेनममुखान् पट्पञ्चाशत्सहस्रममितबलवतो राज्ञः, अन्यांश्च बहून् राजेश्वर तलवरमाडंबिककौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठि सेनापति सार्थवहप्रभृतीन् करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्तमञ्जलिं मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन =जय विजयशब्देन बद्धावेहि ' वर्धय = अभिनन्दय वर्धयित्वा एव ब्रूहि - हे देवानुप्रियाः ! एवं खलु काम्पिल्यपुरे नगरे ब्रुवस्य राज्ञो दुहितुः पुत्र्याः, चुलन्या देव्या आत्मजायाः धृष्टद्युम्न कुमारस्य भगिन्याः, द्रौपद्या राजवरकन्यकाया स्वयंवीर पुरिससाहस्सी भो महसेनपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सी ओ अन्नेय बहवे राई सरतलवर मावियकोडुंबिय इन्भसेट्ठिसे णावह सत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अंजलि मत्थए कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि वद्धावित्ता एवं वयाहि ) इस द्रुपद राजाने अपने एक दूत को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा- देवानुप्रिय ! तुम द्वारका नगरीको जाओ वहा तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्र विजय प्रमुख दश दशाहों को, बलदेव प्रमुख पांच महावीरों को, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं को प्रद्युम्न प्रमुख ३ || ) साढे तीन करोड़ राजकुमारों को ६० हजार दुर्दान्त साम्ब प्रमुखों को २१ हजार वीरसेन प्रमुख वीरों को ५६ हजार महासेन प्रमुख बलिष्ठ राजाओं को, तथा और भी अनेक राजेश्वर तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदिकों को दोनों अपने हाथों की दशनखों वाली अंजलि बनाकर और उसे मस्तक से घुमाकर नमस्कार करना तथा " जय विजय" शब्दोच्चारण करते हुए उन्हें धाई देना- -उनका अभिनन्दन करना । बधाई देकर के फिर उन से ऐसा
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साहसीओ अन्य बहवे राईसर तलवर माडंबिय कोडु' बियइव्भसेट्ठिसे णावइ संत्थवाह पभिइओ करयल परिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं अंजलि मत्थए कट्टु जपणं विज• एण वद्धावेहि, वद्धावित्ता एवं वमाहि ) त्यारयछी दुयह रामसे पोताना भे નૂતને ખેલાવ્યેા અને ખેલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે દ્વારકા નગરીમાં જાએ, ત્યાં તમે કૃષ્ણવાસુદેવને, ખળદેવ પ્રમુખ પાંચ મહાવીરાને, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સાળ હજાર રાજાએાને, પ્રદ્યુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ રાજકુમારેાને, ૬૦ હજાર દુર્દા તમાંમ પ્રમુખાને, ૨૧ હજાર વીરસેન પ્રમુખ વીરાને, ૫૬ હજાર મહાસેન પ્રમુખ બલિષ્ઠ રાજાઓને તેમજ બીજા પણ બધા રાજેશ્વર, तसवर, भांडण, मैटुमिङ, ल्य, श्रेष्ठि, सेनापति, सार्थवाह वगेरेने घोताना અને દશ નખાવાળા હાથેાની અજિલ ખતાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરો તથા · જય વિજય' શબ્દોચ્ચારણ કરતાં બધાને તમે અભિનંદિત
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દુર
arma कथासूत्रे
वरो भविष्यति, तत् = तस्मात् खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! दुपदे राजानमनुगृह्णन्तः 'अकालपरिहीणं चैव ' कालविलम्वरहितमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत, ततः खलु स दूतः करतल० यावत्-अञ्जलिं मस्तके कृत्वा द्रुपदस्य राज्ञ एतमर्थ प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः चतुर्घष्टं = घंटाचतुष्टययुक्तम् अश्वरथं युक्तमेवोपस्थापयत । यावत् - उपस्थापयन्ति । ततः खलु स दूतः कहना - ( एवं खलु देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवस्सरण्णो धूयाए चुल्लीणीए देवीए अन्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्म भगिणीए दोबई रागवर कण्णाए सयंवरे भविस्सह, तं णं तुम्मे देवाणुपिया ! दुवर्य रायं अणुगिवडे मागा अकालपरिहीणं चैव कंपिल्लपुरे नगरे समोसरह ) हे देवानुप्रियों ! कांपिल्यपुर नगर में दुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी को आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की भगिनी राजवर कन्या द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला है, इसलिये हे देवानुप्रियों ! आप लोग दुपद राजाके ऊपर अनुग्रह करके बहुत ही शीघ्र कॉपिल्यपुर नगर मे पधारें। (तएण से दूर करयल जाव कट्टु दुबयस्स रण्णो एयस पडिसुर्णेति पडिणिस्ता जेणेव लए गिहे तेणेत्र उवागच्छह, उवागच्छित्ता कोचि पुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एवं बयासी विप्पामेव भो देवाणुपिया ! नाउरघंट आसरह जुत्तामेव उबट्टवेह जाव उबटुवेति ) दूतने दुपद राजा के इस कथन को दोनों हाथ जोड़कर स्वीकार कर लिया । स्वीकार करके फिर
કરજો. અભિનંદિત કર્યા બાદ તમે તેમેને આ પ્રમાણે વિનંતી કરો ( વેં खलु देवाणुपिया ! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुहणीए देवीए अत्तयाए धट्टज्जुणकुमारस्य भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविरसई, त ण तुभेदेवाणुनिया ! दुवर्य रायं अणुगिन्छेमाणा अकालपरिहीण चेव कंपिल्ल पुरे नयरे समोसरह ) is हेवानुप्रियो ! यिपुर नगरभां द्रुयह शन्तनी पुत्री ચુલની દેવીની આત્મજ, ધૃષ્ટદ્યુમ્નકુમારની અહેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના સ્વયંવર થવાના છે. એથી હું દેશનુપ્રિયા ! તમે દ્રુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને सत्यरेाचिय नगरभां पधारो. ( तपण से दूए करयल जाव कट्टु दुवयस्स रणो एमट्ठे पडणेति, पडिणित्ता जेणेव सए गिछे तेणेव उत्रागच्छइ, उवागच्छत्ता कोडुं बियपुरिसे सहावेइ, सहा वित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवा. शुप्पिया ! चाउट आसरह जुत्ताभेव उबटूवेह जाव उबटुवेंति ) दुपट राक्तनी આજ્ઞાને તે બંને હાથ જોડીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કર્યા બાદ તે જ્યાં
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २६३ स्नातः यावत्-सर्वालङ्कारविभूषितशरीरश्चतुर्घण्टमश्वरथं · दुरुहइ' दरोहति-आरोइति । दुरुह्य बहुभिः पुरुषैः कीदृशैः पुरुषैरित्याह-' सन्नद्ध जाव गहिया ' इति अत्र यावच्छब्देनैवं बोध्यम्-सभदबद्धवम्मियकवएहि, उप्पीलियसरासनपट्टगेहिं, पिणद्धगेविज्जगबद्धाविद्धविमलचरचिन्धपहि, गहियाऽऽउहपरणेहि इति । समद्धबद्धवर्मितकवचैः उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः, पिनद्धौवेयकबद्धबिद्धविमलवरचित पट्टैः गृहीतायुधप्रहरणैः, सन्नद्धाः सज्जीकुताः, बद्धाः कशाबन्धनेन संबद्धा, वर्मिताः अङ्ग परिहिताः कवचा यै स्ते सन्नद्धबद्धवर्मितकवचास्तैः, तथा-उत्पीड़ितशरासनपट्टकैः उत्पीडितानि-गुणारोपणेन वक्रीकृतानि शरासनपट्टकानि धनुः प्रकाण्डानि यैस्ते उत्पीडितशरासनपट्टकाः रज्ज्वारोपणवक्रीकृतधनुर्धारिणम्तैः, वह जहां अपना घर था वहां आया। वहां आकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों! तुम लोग शीघ्र ही चार घंटों से युक्त अश्वरथ को घोड़े जोतकर यहां ले आओ। उन्होंने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। वे चार घंटा वाले उस रथ में घोड़े जोतकर उसे वहां ले आये (तएणं से दूए पहाए जाव अलंकार सरीरे चाउरचंट आसरहदुरुहइ, दुरुहित्ता बहहिं पुरिसेहिं सन्नाद जाव गहियाऽऽउहपहरणेहिं मद्धिं : संपग्लुिडे कंपिल्लपुरनयरं माझं मज्झे गं निग्गच्छइ ) इस के बाद दूतने स्नान किया, यावत् अपने शरीर को समस्त अलंकारों से विभूषित किया। बाद में वह उस चतुर्घट वाले अश्वरथ पर सवार हो गया। उस के साथ सजाकर अपने शरीर पर कवच पहिर रखा है ऐसा अनेक पुरुष थे ज्यापर योग को आरोपित करने से वक्री भूत हुआ धनुष जिनके हाथों में हैं ऐसे अनेक धनुर्धारी પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે કૌટુંબિક પુરુષને બતાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે સત્વરે ચાર ઘંટડીઓવાળો અશ્વરથ તરીને અહીં આવે, કૌટુંબિક પુરૂષએ તેમજ કર્યું. ચાર ઘંટડીभोपा
तारीने त्यi as माव्या. (तएण से दूए हाए जाव अलंकार० सरीरे चाउग्घट आसरह दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणे हिं सिद्धिं संपरिखुडे कंपिल्लपुरनयर मज्झं मझेण' निग्गच्छइ ) त्या२६ ते २ान ४थु यावत् पाताना शरीरने ५धी andal અલંકારોથી શણગાર્યું. ત્યારપછી તે દૂત ચતુર્ઘટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગયો. તે દૂતની સાથે બખતરથી સુસજજ થયેલા ઘણા પુરૂ હતા. પ્રત્યંચા ઉપર બાણું ચઢાવવાથી વક્ર થઈ ગયેલા ધનુષ જેમના હાથમાં છે
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२६४
ज्ञाताधर्मकथासू
तथा - पिनद्धयैवेयक बद्धाविद्धविमलवरचिह्नपट्टे :- पिनद्धानि - परिधृतानि ग्रैवेयकाणि कण्ठभूषणानि ये स्ते तथा, बद्धः = आरोपितः संयोजितः आविद्धः = मस्तकेपरिघृतः विमलः-स्वच्छः वरः चिह्नपट्टः - स्वपक्षबोधक चिह्न : यैस्ते तथा, ततो द्विपदकर्मधारयः तथा गृहीतायुधप्रहरणैः- आयुधानि अत्राणि, प्रहरणानि - शस्त्राणि गृहीतानि यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणा स्तैः सार्धं संपरिवृतः काम्पिल्यपुरं नगरं मध्यमध्येन मध्यमार्गेण निर्गच्छति, पञ्चालजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव 'देसप्पंते ' देशप्रान्तं - देशसीमा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'सुरट्टाजणवयस्स ' सौराष्ट्र जनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव द्वारवती नगरी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य द्वारवती नगरी मध्यमध्येन अनुपविशति, अनुप्रविश्य यचैत्र कृष्णस्य वासुदेवस्य
पुरुष थे, जिन्होंने गले में आभूषणों को पहिररक्खे हैं और मस्तक के ऊपर स्वच्छ, स्वपक्षबोधक चिह्न धारण किया है ऐसे अनेक व्यक्ति थे । तथा आयुध एवं प्रहरणों को लेकर अनेक सैनिक जन इसके आसपास हो कर चल रहे थे । सो वह दूत इन सब के साथ २ उस कांपिल्यपुर नगर के बीचोंबीच से होकर निकला । ( पंचालजणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव देस पंते तेणेव उवागच्छइ-सुरट्ठा जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव बारचइ नयरी तेणेव उवागच्छ ) चलते २ वह पांचाल जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ जहां पर अपने देशकी सीमा का अन्त था वहां आया । वहां आकर वह सौराष्ट्र देशके बीचसे निक लता हुआ जहां द्वारावती नगरी थी वहाँ आया- ( उवागच्छितो बारबरं नयरीं मज्झ मज्झेणं अणुपविसः, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स
એવા ઘણા ધતુરા તેની સાથે હતા, જેઓએ ગળામાં આભૂષણા પહેરેલાં અને મસ્તક ઉપર સ્વચ્છ સ્વપક્ષ મેધક ચિહ્ન પટા બાંધી રાખેલા એવા પણ અનેક પુરૂષા તેની સાથે હતા. આયુધ અને પ્રહરશેાને ઉચકીને પણ ઘણા સૈનિક તેની મને ખાજુએ ચાલી રહ્યા હતા. આ રીતે તે કૃત તેએ બધાની સાથે अंचिस्यपुर नगरनी वय्ये थर्धने नीडज्यो. ( पंचाल अणवयस्स मज्झ मज्झेणं नेणेव देस पते तेणेव उवागच्छइ सुरट्ठा जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव धारवइ नयरी तेणेव उवागच्छइ ) आम पोतानी यात्रा पूरी उरीने ते इत पांयास मनपहनी વચ્ચેાવચ્ચ જ્યાં પેાતાના દેશની હદ પૂરી થતી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને ते सौराष्ट्र देशनी वस्थे धाने न्यां द्वारावती नगरी हुती त्यां माग्यो (उवागच्छित्ता बारवई, नयरिं भज्झं मज्झेणं, अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी रीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
२६९ बाहिरुपस्थानशाला-भास्थानमण्डपः, दौंबोपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टनश्वरयं स्थापयति, स्थापयित्वा — रहाओ' स्थात् ' पचोरुहइ ' प्रत्यवरोहति-प्रत्यवतरति, प्रत्यवरुप - मनुस्सवग्गुरापरिविखत्ते' मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त मनुष्यसमूह परिवृतः, स दतः पादविहारचारेण=पादाभ्यां गमनेन यौव कृष्णवासुदेवस्तत्रैवोपागच्छति, उपगस्य कृष्णं वासुदेवं समुद्रविजयप्रमुखांश्च दशदशान् ियावत् बलवत्साहस्रीः, परतलपरिगृहीतदशन्खं शिरआवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत-तं चेर' नदेव-अत्र पूर्वोक्तमेव वर्णनं बोध्यम् यावत्-समवसरत वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्ठाण माला तेणेव उवागच्छह, उचागच्छित्ता चाउघंटं आसरहं ठवे, टवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोहित्ता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेण जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उदागच्छइ ) वहां आकर द्वारावती नगरी में बीचोंबीच के मार्ग से होता हुआ प्रविष्ट हो कर वह जहां कृष्ण वासुदेव की बाहिर में उपस्थानशाला-सभामंडप था वहां गया । वहां पहुंचकर उसने अपने चार घंटावाले अश्वरथ को खड़ा कर दिया। रोक दिया-उसके रुकते ही वह उससे नीचे उतरा । उतर कर वह मनुष्यों के समूहसे परिक्षित (युक्त) हो कर पैदल ही जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां गया । ( उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवसमुद्दविजयपामुक्खे य दस सारे जाव बलवगसाहस्सीओ करयल तं चेव जाव समोसरह ) वहां जा करके उसने कृष्ण वासुदेव को समुद्रविजय प्रमुख दश दशाों को यावत् महासेन प्रमुख९६, हजार बलिष्ट राजाओंको दोनों हाथों की अंजलिकर और उसे मस्तक पर रखकर देवस्स बाहिरिया उद्वाण लाला तेणे । उवारान्छइ, उवागच्छित्ता चाउघंटे आसरह ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पञ्चोकहइ. पचोरुहित्ता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पाय विहारचारेण जेणेव ऋण्हे वासु वे तेणेष आगच्छइ ) त्यो मावीन ते २१ વતી નગરીના મધ્યમા થઈને નગરમાં પ્રવિણ થશે અને ત્યારપછી તે જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવની બાહા ઉપરથાનશાળા-દીવાને આમ-(સભા મંડપી હતી ત્યાં ગ. ત્યાં પહોંચીને તેણે પિતાના ચાર ઘંટડીઓવાળા રથને ઊભે રાખ્યો અને પિતે નીચે ઉતર્યો. ઉતર્યા પછી તે પોતાના નોકરો-સેવકની સાથે જ્યાં ४०-वामुढे तो त्यां गया. (उवागच्छित्ता कण्ह वासुदेवसमुद्दविजयपामुक्खे य दस दमारे जाव बलवगसाहस्तोओ करयल त चेव जाव समोसाह) त्यां જઈને તેણે કૃષ્ણ-વાસુદેવને સમુદ્ર વિજય પ્રમુખ દશાહને યાવતું મહાસેન પ્રમુખ ૫૬ હજાર બલિ રાજાઓને બંને હાથની અંજલિ બતાવીને તેને
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शांताधर्मकथाङ्गसूत्रे इति पर्यन्तम् , अयमर्थ:-काम्पिल्यपुरनगरे द्रुपदस्य राज्ञः पुत्र्या द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति, तस्माद् यूयं द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः कालविलम्बरहितं काम्पिल्यपुरे नगरे समागच्छ तेति स दूतः प्रोक्तवान् ' इति ।
ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः यावत्-हर्षवशेन विसर्पदहृदयस्तं दृतं सत्कारयति तथा संमानयति, सत्कार्य समान्य प्रतिविसर्जयति ।। सु०१७ ।।
मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरिं तालेहि, तएणं से कोडुंबियपुरिसे कर यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे पडिसुणेइ पडिसुणित्ता नमस्कार किया। यहां पर 'एवं खलु देवाणुप्पिया,' से लेकर समोसरह "तकका पूर्वोक्त पाठ इसके द्वारा कहा गया लगा लेना चाहिये-जिसका तात्पर्य यह है कि कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है सो आपलोग द्रुपद राजा के ऊपर कृपा कर के उसमें शीध्र पधारें। इस प्रकार (तएणं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियए तं यं सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ) कृष्ण वासुदेव ने उस दूत के मुखसे जब इस समाचर को सुना-तो वे सुनकर और उसे हृदयमें धारण कर बहुत ही अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हुए। दूतका उन्होंने सत्कार किया, सन्मान किया। बादमें उसे वहां से विसर्जित कर दिया।सू०१७॥ भस्त भूडीने न १२४.२ ४ो. मी ' एवं खलु देवाणुपिया' थी समोसरह' સુધીને પાઠ ડૂત વડે કહેવામાં આવે છે એમ સમજી લેવું જોઈએ તેની મતલબ એ છે કે કાંપિલ્યપુર નગરમાં કુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીનો સ્વયંવર થવાને છે તો આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને તેમાં સાત્વરે ५५.स. मा शते ( तएण से काहे वासुदेवे तस्स दूयस्स ऑतिए एयमलु सोचा निसम्म हद जाव हियए त दूयं सक्कारेइ सम्माणेइ सकारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ) ०१-वासुदेव इतना भु५थी A Mतना सभाया। सामन्या ત્યારે સાંભળીને અને તેઓને બરાબર હૃદયમાં ધારણ કરીને અત્યંત હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને તેમણે દૂતને સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું. ત્યારપછી તેમણે દૂતને વિદાય કર્યો. એ સૂત્ર ૧૭ !
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अनगारधर्मामृतषिणो टी० अ० १६ द्रौपदीयरितवर्णनम् जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरि महया महया सदेणं तालेइ तएणं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समागीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामुक्खाओ छप्पण्णं बलवगसाहस्सीओ पहाया विभूसिया जहा विभव. इड्डिसकारसमुदएणं अप्पेगइया जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता कर. यल जाव कण्हे वासुदेवे जएणं विजएणं वद्धावति, तएण से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! अभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह हयगय जाव पञ्चपिणंति, तएणंसे कण्हे वासुदेवे जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवइं नरवई दुरूढे, तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खेहिं दसहिं दसारेहिं जाव अणंगसेणापामुक्खेहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं बारवइनयरिं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता सुरट्ठाजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंचालजणवयस्स मझ मज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू॥ १८ ॥
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साताधर्मकथासूचे टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीद-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! सभायां सुधर्मायां ' सामुदाइयं ' सामुदायिकि भेरि ताडय, ततः खलु स कौटुम्बिकपुरुषः करतल. यावद-मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा यावत् कृष्णस्य वासुदेवस्यैतमर्थ पतिशणोति, पतिश्रुत्य यौव सभायां सुधर्मायां 'सामुदाइया' सामुदायिकी भेरी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सामुदायिकी मेरी महता २ शब्देन ताडयति, येन महाशब्दो भवति, तथा भेरी साडयति स्मे ' त्यर्थः, ततस्तदनन्तरं खलु तस्यां
'तएणं से कण्हे वासुदेव' इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तएणं इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेवने ( कोडुंबियपुरिसं सदावेई ) अपने कौटुम्बिक पुरूप को बुलाया, बुलाकर ( एवं वयासी ) उनसे ऐसा कहा- (गच्छह णं तुमं देवाणुपिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि तालेहि ) हे देवानुप्रिय तुम सुधर्मा समामें जाओ और वहां जाकर सामुदाय की मेरी को बजाओ (तएणं से कोडंपिय पुरिसे करयल जाब कम्हस्त वासुदेवस्स एपमढे पडि सुणेइ, पडि णित्ता जेगेव सभाए सुहम्माए सानुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सानुदाइयं भेरिं महयार सदेणं तालेह ) इस प्रकार की कृष्ण वासुदेव की आज्ञा को उस पुरुष ने बड़े विनय के साथ अपने दोनों हाथों को मस्तक पर रखकर स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर वह सुधर्मा सभा में जहां वह सोमुदायिकी भेरी थी यहां आया। वहां आकर उसने उस सामुदायिकी भेरी को इसतरह से
'तएणं से कण्हे वासुदेवे ' इत्यादि--
2 -(तएण) त्या२पछी (से कण्हे वासुदेवे) ते ४-शु-पासुदेवे (कोडुबिय पुरिसं सदावेइ) पाताना टुमि ५३पाने माताच्या अने मातादीन ( एवं षयासी) तमन २ प्रमाणे ४ह्यु -( गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाइय भेरि तालेहि ) पानुप्रिय ! तमे सुधर्मा सभामi and भने त्यो ने सामुदायिकी से का. ( तएणं से कोडुबियपुरिसे कर. यल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयममट्ठ पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ उजागच्छित्ता सामुदाइय' भेरिं महया २ सद्देणं तालेइ) 0 तनी दृ-पासुहेवनी माज्ञाने ते ३५ भूमस न. પણે બંને હાથને મસ્તકે મૂકીને સ્વીકારી લીધી, સ્વીકાર કર્યા પછી તે ત્યાંથી
જ્યાં સુધર્મા સભામાં સામુદાયિકી ભેરી હતી ત્યાં જઈને તેણે મોટે અવાજ थाय तेम त सामुदायिक सेशन माडी. (तएण ताए सामुदाइयाए भेरीए
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antaratit टीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
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सामुदायिकयां भेयां ताडितायां सत्यां समुद्रविजयममुखा दश दशाह यावत्महासेन प्रमुखाःपट्पञ्चाशद्बलवत्साहस्रयाः=पपञ्चाशत् - सहस्रनमिता बलवन्तो राजानः स्नाता यावद् सर्वालंकारविभूषिता यथाविभवर्द्धिसत्कारसमुदयेन अप्पेगइया ' अध्येके-यावद् = केचिद् हयारूढा = अश्वारूढाः केचिद् गजारूाः, केचिद् रथारूढाः केचिद् पादविहारचारेण यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रोपागच्छंति, उपागत्य करतल० यावत् कृष्णं वासुदेवं जयेन विजयेन - जयविजय - शब्देन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमादीन् मो देवानुमिया: 1 क्षिप्रमेव ' अभिसेक्कं ' आभिषेकयं गजबड़े बल से बजायी कि जिससे उससे बड़ी भारी आवाज निकली (तपणं ताए सामुदाइयाए मेरीए तालियाए समाणीए समुदविजय पामोक्खा दस दसारा जाव महासेण पामुक्खाओ छप्पणं बलवगसाहसीओ व्हाया जाय विभूसिया जहा विभव इड्डी सक्कारसमुदपणं अत्थेगइया जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेव उबागच्छति ) इस तरह उस सामुयिकी भेरी के बजने पर समुद्रविजय आदि दश दशाह ने यावत् ५६ हजार महासेन प्रमुख बलिष्ठ राजाओं ने स्नान किया । यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर एवं सबके सब अपने विभव ऋद्धि और सत्कार के अनुसार जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां आये। इनमें कितनेक घोड़ों पर कितनेक हाथियों पर कितने क रथों पर बैठकर आये और कितनेक पैदल ही चलकर आये ( उवागच्छित्ता करयल जात्र कण्हं वासुदेव जएणं विजएणं बद्धावेति, तएण से कहे वासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे सहावेह सद्दवित्ता एवं वयासी, खियामेव
तालियाए समाणोए समुदविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महासेण पामुखाओ छपण बलवगसाहस्सीओ व्हाया जाव विभूसिया जहा विभव इड्ढी सकारसमुद्रण अप्पेगइया जाव पायविहारचारेण जेणेत्र कण्हे वासुदेवे तेव सवागच्छति भारीते ते सामुयिडी लेरी बगाडवामां भावी त्यारे समुद्र विभ्य વગેરે દશ દશાોએ યાવત પ↑ હજાર મહાસેન પ્રમુખ બલિષ્ઠ રાજાઓએ સ્નાન કર્યું. યાવત તેએ સર્વ સમસ્ત અલકારેાથી સુસજ્જ થઇને પોતાના વિભવ અને સત્કારની સાથે જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં ગયા. આમાં કેટલાક ઘેાડાઓ ઉપર, કેટલાક હાથીઓ ઉપર, કેટલાક રથે! ઉપર સવાર થઇને ત્યાં પહોંચ્યા હતા તા કેટલાક પગે ચાલીને જ કૃષ્ણુ-વાસુદેવની પાસે હાજર થયા ता. (उगच्छित्ता करवल जावक वासुदेवं जग बिजरगं बद्धावे ति सवर्ण से कन्दे वासुदेवे कोडु बियपुरिसे सदावेद सहावित्त एवं व्यासी खिप्पा
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জানাঙ্কা रत्नं मम मुख्यहस्तिनं परिकल्पयत-सज्जीकुरुत, हयगजरथपदातिरूप चतुरङ्गबलं सज्नी कुरुत, एतां ममाज्ञां प्रत्यर्पयत, इति ततस्ते कौटुम्बिकापुरुषाः ' तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा तदाज्ञा स्वीकृत्य सर्व संपाद्य वाहनं बलं च सर्व सज्जीकृतमस्माभिरिति यावत् प्रत्यर्पयन्ति=निवेदयन्ति स्म । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो यौव मज्जनगृहं तवोपागच्छति, मज्जनगृहं कीदृशमित्याह- समुत्तजालाकुलाभिरामे' समु. तजालाकुलाभिरामं मुक्ताभिः सहितानि जालानि गवाक्षास्तैराकुलं युक्तमतएवा. भिरामं सुन्दरम् , उपागत्य स तत्र स्नानं कृत्वा यावत्-सर्वालंकारविभूषितः, अअनगिरिकूट संनिभम् उच्चतरं श्यामवर्णमित्यर्थः, गजपति हस्तिषु मुख्यं हस्तिनं नरपतिः श्री कृष्णवासुदेवः ‘दुरुढे ' दूरूहासमारूढः, ततः खलु स कृष्णो भो देवाणुप्पिया ! अभिसेक्कं हथिरयण पडिकप्पेह, हयगय जाव पच्चप्पिण ति ) वहां आकर उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण बासुदेव को नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा बधाई दी-इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने कौटुबिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही मेरे मुख्य हाथी को सजाओ-तथा-हय, गज, रथ और पदातिरूप चतुरंग युक्त सेना को भी सजाकर तैयार करो । पीछे हम को इसकी खबर दो । इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने-"तथास्तु" कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार लिया
और स्वीकार करके बल और वाहन लब हमने सजित कर दिये हैं इस प्रकार की खबर उन्हें पीछे कर दी। (तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिता समुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरि कूडसनिभं गयवई नरवई दुरुढे ) इसके पश्चात् वे मेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेकं हस्थिरयण पडिकप्पेह, हयगयजाव पञ्चप्पिणंति) ત્યાં જઈને તેઓએ બંને હાથ જોડીને “વિજય’ શબ્દોથી કૃષ્ણ-વાસુદેવને નમસ્કાર કરતાં અભિનંદિત કર્યા. ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સત્વરે તમે મારા મુખ્ય હાથીને તેમજ બીજી પણ ઘેડા, હાથી, રથ અને પાયદલની શતરંગિણી સેનાને સુસજજ કરે અને સેના સુસજજ થઈ જાય ત્યારે અમને ખબર આપે. ત્યારપછી કૌટુંબિક પુરૂએ તથાસ્તુકહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેઓ પિતાના કામમાં પરોવાઈ ગયા. જ્યારે કામ થઈ ગયું ત્યારે તેઓએ “સેના અને વાહન તૈયાર છે ” આ જાતની ખબર આપી. (तएण से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उबागच्छइ उबागच्छित्ता मुत्तजालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरुढे)
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अनगारधर्मामृतषिणो टी० अ० १६ दोपदीवरितवर्णनम वासुदेवः समुद्रविजयप्रमुखैदशाहे वित् अनङ्गसेनाप्रमुखाभिरनेवाभिगणिका साहस्रीभिः साध संपरितः सर्वद्धर्या छत्रादिराजचिह्नरूपया यावत्-शवपणवपटहभेर्यादिरवेण द्वारवती नगर्या मध्यमध्येन=निर्गच्छति, निर्गत्य सौराष्टूजनपदस्य मध्यमध्येन यौव देशमान्तं-देशसीमा तौवोपागच्छति, उपागत्य पश्चालजनपदस्य मध्यमध्येन यौव काम्पिल्यपुरं नगरं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय: गन्तुं प्रवृत्तः।।मु०१८॥ कृष्ण वासुदेव जहां स्नान घर थो वहां गये-वहां जाकर उन्होंने मुक्ताओं सरित गवाक्षों से सुन्दर उम स्नान घर में स्नान किया-स्नान करके फिर सर्व अलंकारो से विभूषित होकर वे नरपति अंजन गिरि के शिखर जैसे-विशाल कृष्णवर्ण वाले गजपति पर आरूढ हो गये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारेहिं जाय अणंग सेणा पामुक्खेहिं अणेगाहिं गणिया साहस्सीहिं सद्धिं संपरिघुडे सव्व. ड्डीए जाव रवेणं धारवइनयरिं मझं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरट्ठा जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचाल जणवयस्स मज्झ मझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमगाए ) आरूढ होकर वे कृष्ण वासुदेव समुद्र विजय आदि दश दशा) यावत् अंगसेना प्रमुख हजारों गणिकाओं के साथ २ छत्र आदि राज चिह्नरूप विभूति से युक्त होकर शंख, पणव, पटह, भेरी आदि बाजों की तुमुल ध्वनि पूर्वक द्वारावती नगरी के बीच से ત્યારપછી તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ જ્યાં સ્નાનઘર હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે મોતી જડેલા ગવાક્ષેથી રમણીય લાગતા સ્નાનઘરમાં નાન કર્યું અને ત્યાર પછી બધા અલંકારોથી વિભૂષિત થઈને-નરપતિ અંજનગિરિના શિખર જેવા nिa .५ व ४५ति ५२ सा२ 25 गया. (तएण से कण्हे वासुदेवे समुदविजय पामोक्वेहि दसहि दसारेहि जाव अणगसेणा पामुक्खेहि अणेगाहिं गणयासादस्सीहिं सद्धिं संगरिदुडे सबिढीए जाव रवेण बारवइ नयरि मझ मज्झेण निगाच्छइ निगच्छित्ता सुरद्वा जणव यस्स मज्झ मझेण जेणेव देसपते तेणेव उबागच्छद आगच्छिता पंचालजणत्रयस्स मज्झ मग जेणे। कपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए ) स!५४ ने ते समुद्र विश्य વગેરે દશ દશાર્દો યાવત્ અંગસેના પ્રમુખ હજારો ગણિકાઓની સાથે છત્ર વિગેરે રાજચિહ્ન રૂપ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને શંખ, પણવ, પટ૭, ભેરી વગેરે તુમુલ દવનિ સ્થાને દ્વારવતી નગરીની વચ્ચે થઈને પસાર થયા. ત્યાંથી પસાર
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aratधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तणं से दुवए राया दोघं दूयं सदावेइ सद्दावित्ता एवं बयासी - गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरं नयरं तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुक्तयं जुहिठिल्लं भीममेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणी किवं आसत्थामं करयल जाव कट्टु तहेव समोसरह, तणं से दूए एवं क्यासी जहा वासुदेवे नवरं भेरी नस्थि जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए२ । एएव कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्हं अंगरायं से नंदिरायं करयल तहेव जाव समोसरह । चउत्थं दूयं सुतिमई नयरिं तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयसंपरिवुडं करयल तहेव जाव समोसरह । पंचमगं दूयं हत्थसनियरं तत्थ णं तुमं दमदंतं रायं करयल तहेव जाव समोसरह | छंट्टं दूयं महुरं नयरिं तत्थ णं तुमं धरं रायं करयल जाव समोसरह । सनमं दूयं रायगिहं नयेरं तत्थ णं तुमं सहदेवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह । अट्टमं दूयं कोडिण्णं नयरं तत्थ णं तुमं रुप्पि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समो सरह | नवमं दूयं विराडनयरं तत्थ णं तुमं कीयगं भाउसय समग्र्ग करयल जाव समोसरह । दसमं दूयं अवसेसेसु य गामागार
होते हुए निकले । निकलकर वे सौराष्ट्र देश के बीचों बीच से चलकर वहां आये जहाँ देश की सीमा थी। उस सीमा पर आकर के फिर वे पांचाल जनपद के मध्य से होते हुए जहां कांपिल्य पुर नगर था उस और चल दिये । सू० १८
થઈને તેએ સૌરાષ્ટ્ર દેશની વચ્ચે થઈને પેાતાના દેશની હદ સુધી પહોંચ્યા. ત્યાંથી તેઓ પાંચાલ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યાં કાંપિલ્થપુર નગર હતું તે
તરફ રવાના થયા. મા સૂત્ર ૧૮ ૫
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अमगारधामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् नगरेसु अणेगाइं रायसहस्साई जाव समोसरह । तएणं से दूए तहेव निग्गच्छइ जेणेव गामागर जाव समोसरह। तएणं ताई अणेगाइं रायसहस्साइं तस्स दूयरस अंतिए एयमद्रं सोचा निसम्म हट्र० तं दूयं सकारोंति सकारिता सम्माणति सम्माणित्ता पडिविसर्जिति, तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायता हस्सा पत्तेयं२ ग्रहाया सन्नद्धहस्थिखंधवरगया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सएहिंतो२ नगरेहिंतो अभिनिग्गच्छतिर जेणेव पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १९॥ ____ टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स द्रुपदो राजा द्वितीयं दृतं शब्दयति, शब्दायित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु वं पाण्डु राजं सपुत्र-पुत्रैः सहितं
'तएणं से दुवए राया ' इत्यादि । ___ टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद ( से दुवए राया ) उस द्रुपद राजाने (दोच्चं दयं सहावेइ) अपने दूसरे दृतको बुलायो (सहावित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा-गच्छणं तुम देवाणुप्पिया हत्थिणारं नयरं तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिडिल्लं भीमसेण अज्जुण नउलं सहदेवं दुजोहणं भाइसयसमागं गंगेयं विदुर दोण जयद्दह सउणीकिवं आसत्थामं करयल जाव कटु तहेव समोसरह) बुलाकर उससे ऐसा कहा हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ-वहां जाकर तुम पुत्र ... 'तएण से दुवए राया ? इत्यादि
2014-(तएण) त्या२५४ी (से दुवए राया) ते ५६ २०१३मे (दोच्चं दूयं सद्दावेइ ) पाताना elan इतने मोसाव्यो ( सद्दीवित्ता एवं वयासी) मोसावान तेने मी प्रमाणे धुं ( गच्छह ण तुमं देवाणुप्पिया हथिणार नयर, तस्थ णं तुमं पंडुराय सपुत्तयं जुद्दिटिलं भीमसेण अज्जुणं नउलं सहदेवं दुज्जोहण भाइप्रयसमग्गं गंगेयं विदुर दोण जयदह' सउणी किवं आसत्थामं करयल जाव कटु तहेब समोसरह ) 3 देवानुप्रिय ! तमे स्तिनापुर नगरमा |
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शाताधर्मकथासूचे युधिष्ठिरं भीमसेनम् अर्जुनं नकुलं सहदेवं दुर्योधनं भ्रातृशतसमग्र-शतभ्रातृभिः सहितं, गाङ्गेयं भीष्म, विदुरं द्रोणं जयद्रथं शकुनि · किवं ' कृपम् कृपाचार्य, अश्वत्थामानं करतल० यावत् मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, तथैव समवसरत यथा पूर्वमुक्तं तथैवात्र 'समवसरत' इतिपर्यन्तं बोध्यम् अयं भावः-जयविजयशब्देन वर्धयित्वा एवं ब्रूहि-काम्पिल्यपुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञः पुच्या द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति तस्माद् खलु हे देवानुप्रियाः ! यूयं द्रुपदं राजानमनुगृहन्तः कालविलम्बरहितमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत । ततः स दूतो द्रुपदस्य वचनं स्वीकृत्य हस्तिना पुरं गत्वा पाण्डुराजादिकमेवमवादीत= काम्पिल्यपुरे द्रौपद्याः स्वयंवरो भविष्यति तत्र शीघ्रमागच्छत ' इति ततोऽसौ दूतः पाण्डुराजादिना सम्मानितो विसर्जितश्च 'जहा वासुदेवे' यथा-वासुदेवः कृष्णस्तद्वदत्रापि विज्ञेयम्-' नवरं' विशेषस्तु 'भेरी नत्थि' भेरीनास्ति, कृष्णवासुदेव इव पाण्डुराजादिः स्नातः सर्वालंकार विभूषितो गजारूढश्चतुरङ्गसेनया संपरितः सर्वद्ध युक्तो यावत् यौव काम्पिल्यपुरं नगर तौव माधारयद् गमनाय गन्तुं प्रवृत्तः । सहित पांडुराज को, युधिष्ठिर को, भीमसेन को, अर्जुन को नकुल को, सहदेव को, सौभाईयों सहित दुर्योधन को, गांगेय भीष्म पितामह को विदुर को, द्रोण को जयद्रथ को, शकुनि को, कृपाचार्य को, और द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को पहिले दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार करना उन सबको जय विजय आदि शब्दों से बधा देना । वधाकर फिर इस प्रकार कहना कि काँपिल्य पुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर है, इस लिये हे देवानुप्रियों! आप सब द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके विना किसी विलंब के शीघही कांपिल्यपुर नगर में पधारें। (तएणं से दूए एवं वयासी-जहा वासुदेवे नवरं भेरी नत्थि, जाव जेणेव कंपिल्लपुरे અને ત્યાં જઈને તમે પુત્ર સહિત પાંડુરાજને, યુધિષ્ઠિર, ભીમસેનને, અને નને. નકુલને, સહદેવને, સે ભાઈઓ સહિત દુર્યોધનને, ગાંગેય ભીષ્મ પિતામહને, વિદુરને, દ્રોણને, જયદ્રથને, શકુનિને, કૃપાચાર્યને અને દ્રોણાચાર્યના પુત્ર અશ્વત્થામાને સૌ પહેલાં કરબદ્ધ થઈને-અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરજો અને “જય વિજય” શબ્દથી તેઓને અભિનંદિત કરજો. ત્યારપછી તમે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરજે કે કપિલ્યપુર નગરમાં કુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાનું છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! આપ સૌ દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને સત્વરે કાંપિલ્ય નગરમાં પધારે. (तपणं से दूए एवं क्यासी-जहा वासुदेवे नवरं भेरी नत्थि जाव जेणेव कंपिल्ल
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नगरर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदी यरितवर्णनम्
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नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए २ एएणेव कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्णं अंगरायं सेल्लं नंदिरायं करयल तहेव जाव समोसरह
त्थं दूयं सुत्तिमहं नयरिं, तत्थणं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइस संपरिवर्ड करयल तहेव जाव समोसरह) इस के बाद दूत अपने राजा की आज्ञा प्रमाण कर वहां से हस्तिनापुर को चला गया । वहाँ पहुँच कर उसने पांडुराजा आदि से बडे विनय पूर्वक इस प्रकार कहा- कांपिल्यपुर में द्रौपदी का स्वयंवर होगा - सो आप सब कृपाकर शीघ्रातिशीघ्र वहां पधारें। इस तरहके समाचार देकर वह दूत पांडुराजा आदि से सम्मानित होकर वहां से वापिस हो गया। पांडुराज आदि स्नान कर सर्वालंकारों से विभूषित होकर गजारूढ हो, चतुरंगिणी सेना के साथ अपनी ऋद्धि आदि के अनुसार यावत् जहां कापिल्यपुर नगर था उस ओर चल दिये। इस तरह कृष्ण वासुदेव की तरह यहां पर सब पाठ लगा लेना चाहिये । उस पाठ से इस में विशेषता केवल इतनी है कि वे सब जब द्वारावती नगरी से कांपिल्यपुर नगर को जाने के लिये निकले तो उनके साथ भेरी थी- यहां वह नहीं है । इसी क्रम से द्रुपद ने तीसरे दूत को बुलाया - बुलाकर उससे भी इसी प्रकार से
पुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए २ एएणेत्र कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरिं तत्थ णं तुमं कण्ण अंगराय सेल्ल नंदिराय करयल तद्देव जाव समोसरह उत्थ दूयं सुतमई नयरिं तत्थण तुम सिसुपाल' दमघोससुयं पंचभाइसयस प वुिडं करयल तत्र जाब समोसरह) त्या२पछी इत पोताना राजनी आज्ञा પ્રમાણે ત્યાંથી હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થઈ ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે પાંડુ રાજા વગેરે રાજાઓને નમ્રપણે આ રીતે વિનંતિ કરી કે–કાંપિલ્યપુરમાં દ્રૌપદીના સ્વયંવર થશે તેા આપ સૌ કૃપા કરીને સત્વરે ત્યાં પધારો. આ રીતે સમાચાર આપીને તે દૂત પાંડુરાજ વગેરેથી સન્માન પામીને ત્યાંથી પાછા ફર્યાં. પાંડુરાજ વગેરે બધાએ પણ સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તેમજ સર્વોલંકારોથી સુસજ્જ થઈને હાથીઓ ઉપર સવાર થયા અને ાત પેાતાની ચતુરગિણી સેના તેમજ ઋદ્ધિની સાથે યાવત્ જે તરફ્ કાંપિલ્યપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થયા. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ-વાસુદેવની જેમજ અહીં પણ વર્ણન સમજી લેવું જોઇએ. કૃષ્ણ-વાસુદેવના પાઠમાં પાંડુરાજ કરતાં એટલી વિશેષતા હતી કે તેઓ જ્યારે દ્વારાવતી નગરીની બહાર નીકળ્યા ત્યારે તેમની સાથે શેરી પણ હતી, પાંડુરાજની સાથે ભેરી ન હતી આ પ્રમાણે દ્રુપદ રાજાએ ત્રીજા તને ખેલાવ્યા અને તેને પણ આ રીતે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે
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माताधर्मकवाने । एतेनैव क्रमेण तृतीयं दृतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! चम्पानगरीम् , तत्र खलु कर्णकर्णनामकम्-अङ्गराजम् अङ्गदेशस्याधिपति, तथा ' सेलं' शैल्य शैल्यनामकं नन्दिराज-नन्दिदेशाधिपं करतलपरिगृहीतं दशनखं यावत्-मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयित्वा एवं ब्रूहि-" तहेव ' तथैव-पूर्ववदत्र बोध्यम्-तद् यथा-"काम्पिल्यपुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञः पुत्र्या द्रौपयाः स्वयंवरो भविष्यति, तस्माद् खल्लु हे देवानुप्रियाः ! यूयं द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः शीघ्रमेव काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत" इति एवं द्रुपदोराजा चतुर्थ दृतं शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं शुक्तिमती नगरी, तत्र खलु त्वं शिशुपालं दमघोपसुत्तं पञ्चभ्रातृशतसंपरिमृतं करतय० यावन्मस्तकेऽञ्चलि कृत्वा बहि-' तथैव यावत् समवसरत' यथा पूर्वमुक्तं तद्वदत्र 'समवसरत' इतिकहा-कि हे देवानुप्रिय ! तुम चंपानगरी जाओ वहां अंगदेश के अधिपति कर्ण राजा को तथा नन्दिदेश के अधिपति शैल्यराजा को कर तल परिगृहीत दशनखवाली अंजलि मस्तक पर रखकर नमस्कार करना बाद में जय विजय शन्दों से उन्हें वधाई देकर पूर्व की तरह ऐसा कहना-कि कांपिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है, सो हे देवानुनियों ! आपलोग द्रपद राजा पर कृपा करके जल्दी से जल्दी कांपिल्यपुर नगर पधारें। इसी तरह द्रुपद ने चौथे दूत को बुलाकर उससे ऐसा ही कहा कि तुम शुक्तिमती नगरी में जाओ वहां जाकर दमघोष के पुत्र तथा पांचसी अपने भाइयों से युक्त शिशुपाल राजा से करतल परिगृहीत दशनखवाली अंजलि मस्तक पर रखकर कहना, पहिले की तरह ऐसा कहना कि कांपिल्यपुर नगरमें ચંપા નગરીમાં જાઓ, ત્યાં અંગ દેશના અધિપતિ કણે રાજાને તેમજ નંદિ દેશના અધિપતિ શૈલ્યરાજને હાથની અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરજે અને જય-વિજય શબ્દોથી તેમને અભિનંદિત કરજે. ત્યારપછી તેમને વિનંતી કરજો કે કાંપિલ્યપુર નગરમાં ૫૮ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાનું છે તે હે દેવાનુપ્રિયે તમે સૌ દ્રુપદ રાજ ઉપર કૃપા કરીને અવિલંબ કાંપિત્યપુર નગરમાં આવે. આ રીતે કપટ રાજાએ ચેથા દૂતને બોલાવ્યો અને તેને પણ આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે શક્તિમતી નગરમાં જાઓ અને ત્યાં જઈને દમષના પુત્ર શિશુપાલ રાજાને જ પિતાના પાંચસો ભાઈઓ સહિતકરબદ્ધ થઈને અંજલિ મસ્તકે મૂકીને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણેના સમાચાર આપજે કે કપિલ્યપુર નગરમાં કુપદ રાજાની પુત્રી કૌ
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मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
२७७ पर्यन्तं वाच्यमित्यर्थः । एवं द्रुपदो राजा पञ्चमकं दूतं शब्दयित्वा एवमवादीत्गच्छ खलु त्वं हस्तिशीर्षनगरं, तत्र खलु त्वं दमदन्तं दमदन्तनामकं राजानं करतलपरिगृहीतदशनखं यावन्मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा ब्रूहि-' तथैव यावत् समवसरत' इति पूर्ववदेवात्रापि ' समवसरत' इतिपर्यन्तं वाच्यम् एवं स द्रुपदो राजा पष्ठं दूतं शब्दयित्वाऽवादीत्-गच्छ खलु त्वं मथुरा नगरी, तत्र खलु त्वं धरधरनामकं राजानं ' करतल० यावत् समवसरत' अत्रापि पूर्ववतगमनादिकं बोध्यम् , एवं सप्तमं दूतं शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छ खलु त्वं राजगृहं नगरम् , तत्र खलु त्वं सहदेवं जरासिन्धुसुतं ' करतल० यावत् समवसरत' इति पूर्ववत्-द्रौपद्याः स्वयंवरस्य वातों कथयित्वा 'काम्पिल्यपुरे नगरे समवसरत ' इति ब्रूहि । तथा स द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है-सो आप कृपा करके शीघ्र ही वहां पधारें । (पंचमगं यं हथिसीसनयरं तत्थ णं तुम दमदंतं रायं करयल तहेव जाव समोसरह,छठं दयं महुरं नयरिं तत्थ णं तुमं धरं रायं करयल जाव समोसरह सत्तमं यं रायगिहं नयरं तत्थणं तुमं सहदेवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह, अट्टनं दूयं कोडिपणं नयरं तत्थणं तुमं रुप्पि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह, नवमं दूयं विराडनयर तत्थ णं तुम कीयगं भाउसयसमग्गं करयल जाव समोसरह, दसमं यं अवसेसेसु गामागरनगरेसु अणेगाइं रायसहस्प्लाई जाव समोसरह) इसी तरह पांचवे दूत को हस्तिशीर्षनगर में दमदन्त नाम के राजा के पास छठे दूत को मथुरा नगरी में धर राजा के पास, सातवें दूत को राजगृह नगर में जरासिंधु के पुत्र सहदेव के पास દીને સ્વયંવર થવાનું છે એથી તમે કૃપા કરીને અવિલંબ ત્યાં પધારે. (पंचमगं दूयं हत्थसीसनयर तत्थ णं तुम दमदत रायं करयल तहेव जाव समोसरह छ8 दूयं महुर नयर तस्थण तुम धर रायं करयल जाव समोसरह खत्तम दूयं रायगिहं नयर तत्थ ण तुम सहदेवं जरासिंधु सुय करयल जाव समोसरह अट्ठम दुयं कोडिण्ण नयर तत्थण तुम रूप्पि भेसगसुय करयल तहेव जाव समोसरह नवम दूयं विराडनयर तत्थ णं तुम कोयगं भाउसय. समग्गं करयल जाव समोसरह, दसम दूर्य अवसेसेसु गामागर नगरेसु अणे गाई' रायसहस्साईजाव समोसरह ) २मा प्रमाणे पांयमा तने ताशी नामा દમદન્ત નામના રાજાની પાસે, છઠ્ઠા દૂતને મથુરા નગરીમાં ધર રાજાની પાસે, સાતમા દૂતને રાજગૃહ નગરમાં જરાસિંધુના પુત્ર સહદેવની પાસે, આઠમા દૂતને કૌડિલ્ય નગરમાં ભીષ્મકના પુત્ર કિમ રાજાની પાસે, નવમાં દૂતને
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शाताधर्मकथागसूत्रे द्रुपदो राजा अष्टमं दतं शब्दयित्वाऽवादीत्-गच्छ खलु त्वं कौण्डिल्यनगरं तत्र खलु त्वं रूपि ' रुक्मिणं-रुक्मिनामकं भीष्मकसुतं करतल तथैव यावत् समवसरत पूर्ववत् ' समवसरत ' इति पर्यन्तं वाच्यम् । एवं स द्रुपदो राजा नवमं दृतं शब्दयित्वाऽवादीत्-गच्छ खलु त्वं विराटनगरं, तत्र खलु त्वं ' कीयगं' कीचकंकीचकनामकं राजानं शतभ्रातृसहितं करतल यावत् समवसरत अत्रापि व्याख्या पूर्ववत् । एवं स द्रुपदो राजा दशमं दृतं शब्दयित्वाऽवादीत्-अवशेषेषु च ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि यावत् समवसरत, अत्रापि व्याख्या पूर्ववत् , ततस्तदनन्तरं खलु स दूतस्तथैव-पूर्वोक्तदूतइत्र निर्गच्छति काम्पिल्यनगरतो निः में आठवें दूत को कौण्डिल्य नगर में भीष्मक के पुत्र रुक्मि राजा के पास में नौवें दूत को विराट नगर में सौ भाइयों से युक्त कीचक के पास में, और दशवे दूतों को अवशिष्ट ग्रामों में आकरों में एवं नगरों में हजारों राजाओं के पास जाने के लिये कहा। इन दूतों को राजा द्रुपद ने यह समझादिया कि तुम लोग जब इन राजाओं के पास जाओ तब पहिले उन्हें दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना और कहना कि कांपिल्य पुर नगर में द्रुपदकी पुत्री द्रौपदी को स्वयंवर होने वाला है सो आप लोग उस में द्रुपद राजा उपर दया कर के शीघ्र से शीघ्र पधारें। राजाकी आज्ञानुसार तीसरे दूतसे लेकर नौवें दूत तक समस्त दूत जिन्हें २ जहाँ २ जाने को कहा था-वे वहांर चले गये। वहां जाकर उन्हों ने जैसा द्रुपद राजा ने इन से करने एवं कहने को कहा था-वैसा ही उन्हों ने वहां २ किया और कहा । इस तरह पहिले की तरह यहां तक सब व्याख्या समझलेनी चाहिये। (तएणं से दूए तहेव निगच्छइ, વિરાટ નગરમાં સૌ ભાઈઓથી યુક્ત કીચકની પાસે અને દશમા દૂતને બાકી રહી ગયેલા બીજા ગ્રામમાં આકરામાં અને નગરમાં હજાર રાજાઓની પાસે જવા હુકમ કર્યો. આ બધા દૂતને રાજા દ્રુપદે જતાં પહેલાં આ વાત સરસ રીતે સમજાવી દીધી હતી કે જ્યારે તમે રાજાઓની પાસે જાઓ ત્યારે સૌ પહેલાં પિતાના બંને હાથ જોડીને તેઓને નમસ્કાર કરજો અને ત્યારપછી તમે તેમને વિનંતી કરજો કે કાંપિલ્ય નગરમાં દ્રુપદની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાને છે તે આપ સૌ કુપદ રાજા ઉપર કૃપા કરીને અવિલંબ ત્યાં પધારે. રાજાની આજ્ઞા મુજબ ત્રીજા કૂતથી માંડીને નવમાં ડૂત સુધીના બધા દતે જ્યાં જ્યાં તેઓને જવાનું હતું ત્યાં ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેઓએ કુપદ રાજાએ જેમ આજ્ઞા કરી હતી તેમજ તેઓએ કર્યું અને કહ્યું, અહીં પહેલાંની જેમજ समय से . (तएण' से दूर तहेव निग्गच्छद, जेणे। गामागर जाव
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मनगारधर्मामृतवषिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम सरति, निर्गत्य यत्रैव ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि, नत्रैवोपागच्छति उपागत्य यावत्-समवसरत, ' समवसरत ' इति पर्यन्त दूतवाक्यं पूर्ववद् बोध्यम् । ततः खलु तानि अनेकानि राजसहस्राणि तस्य दृतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुन्या निशम्य हृष्टतुष्टाः सन्तः दूतं सत्कारयन्ति-सत्कृतं कुर्वन्ति समानयन्ति,सत्कार्य, संमान्य प्रतिविसर्जयन्ति । ___ ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानः, पत्येकं २ स्नाताः जेणेव गामागर जाव समोसरह) वह दशवां दूत उसी तरह सेपहिले के दूतों के समान कांपिल्य नगर से निकला और निकल कर जहां ग्राम आकर और नगर थे-वहां पर अनेक राजसहस्त्रों के पास गया-वहां जाकर शिष्टाचार पूर्वक उसने सब से इस प्रकार कहा कि काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है-सो आपसब लोग द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके जल्दी कांपिल्य पुर नगर पधारे (तएणं ताई अणेगाइं रायसहस्साई तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ट० तं यं सक्कारेति, सक्कारित्ता सम्माणति, सम्माणित्ता पडिविसज्जे ति ) इस प्रकार वे अनेक सहस्त्र राजा उस दूत के मुख से इस समाचार को सुन कर और उसे अपने अपने २ हृदयों में अवधारित कर बहुत ही अधिक आनन्द से प्रमुदित बनकर परम संतोष को प्राप्त हुए। उन्होंने उस दन का सत्कार किया सत्कार करके सन्मान किया और सन्मान करके फिर उसे पीछे विसर्जित कर दिया-भेजदिया।(तएणं ते वासुदेव पामुक्खा यहवे रायसहस्सा पत्तेय समोसरह ) त श इत मधानी भ xiपास्य नाथी नीज्यो भने નીકળીને જ્યાં ગ્રામ આકર અને નગર હતા ત્યાં અનેક સહસ્ર રાજાઓની પાસે ગયે. ત્યાં જઈને નમ્રપણે તેણે સહુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે કાંપિલ્ય નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વયંવર થવાનું છે તે આપ સૌ કંપ
01 6५२ ४रीने मलित siteय नगरमा ५धारी. (तएण ताई अगाई रायसहस्साई तस्स दूयस्स अतिए एयमद्रु सोचा निसम्म हद त यं सकारे ति, सक्कारित्ता, सम्माणे ति, सम्माणित्ता, पडिविसज्जे ति ) ॥ शते સહ રાઓ તે દૂતના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ પરમ સંતુષ્ટ થયા. તેઓએ દૂતને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારપછી દૂતને તેઓએ विहाय आयी. (तएण ते वासुदेवामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तय २ हाया
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arrainer
समद्धबद्धवर्मितकवचाः यावद गृहीतायुदप्रहरणाः हस्तिस्कन्धवरगता हयगजरथ महाभट कर मकरन्दपरिक्षिप्ताः=अधगजरथ महासुमट समूह परिवृताः, स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो अभिनिछन्ति, अभिनिर्गत्य यचैव पञ्चालो जनपदस्तत्रैव माधारयन् गमनाय गन्तुं प्रवृत्ताः ॥ सू० १९ ॥
मूलम् - तणं से दुबए राया कोहुंबिय पुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं बयासी - गच्छहणं तुमं देवाप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविद्धं लीलट्ठियं सालभंजिआगं जाव पञ्च पिणंति, तएणं से दुवए राया दोच्चंपि कोटुंबिय पुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव
२व्हाया सन्नद्ध हत्थिखंधवरगया हम गयरह० महया भडचडगररहपहकर महिंतो २ नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पांचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) बादमें जब दूत समाचार देकर वापिस कांपिल्य पुर नगर में आचुके तब वासुदेव प्रमुख वे अनेक शहस्त्र राजा प्रत्येक स्नान से निबटे, और सजाकर अपने२ शरीर पर कवच पहिरा, यावत् आयु और प्रहरणों को अपने २ साथ लिया, अपने २ प्रधान हाथियों पर चढे और हाथी घोडे रथ और महाभटों के समुदाय से घिरे हुए होकर ये सब अपने राज महलोंसे-नगरों से निकले - निलकर जहां पांचाल जनपद था उस ओर चल दिये ।। सू० १९
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सन्नखिंवर गया हयगयरह० महया भडचडगररहपहकर० सरहिंतो २ नगरे हिने अभिनिगच्छति २ जेणेव पांचाले जणवए तेणेत्र पहारेत्थ गमणाए ) ત્યારપછી જ્યારે બધા ક્રૂત સમાચાર આપીને કાંપિયપુર નગર પાછા આવી ગયા ત્યારે વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણા હજારા રાજાઓએ સ્નાન કર્યો અને ત્યારબદ પેાતાના શરીર ઉપર કવચેા ધારણ કર્યાં યાત્રત્ આયુધા અને પ્રહરણાને પેાતાની સાથે લીધા ત્યારપછી તેએ બધા પાતપુતાના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને હાથી, ઘેાડા, રથ અને મહાનટેટના સમુદાયની સાથે પેાતાના રાજમહેલથી-નગરેથી નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં પાંચાલ જનપદ હતા તે તરફ રવાના થયા · સૂત્ર ૧૯ !
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी ० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् भो देवाणुप्पिया ! वासुदेवपामुक्खाणं बहुणं रायसहस्साणं आवासे करेह तेवि करेत्ता पच्चप्पिणति, तएणं दूवए वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमं जाणेचा पत्तेयं हत्थिखंध जाव परिवुडे अग्धं च पजं च गहाय सकिथिए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामुक्खा बहा रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सकारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं २ आरासे वियरइ, तएणं ते वासुदेवपामाक्खा जेणेव सयार आवासा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हत्थिखं. धाहिंतो पच्चोरुहंति पच्चोरुहिता पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति करित्ता सए२ आवासे अणुपविसंति अणुपविसित्ता सएसु२ आवासेसु य आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्ना य संतुयट्टा य वहहिं गंधवेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य उवणच्चिजमाणा य विहरंति, तएणं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नगरं अणुएविसइ अणुपविलित्ता विउलं असण४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं४ सुरं च मज्जं च ममं च सीधुं च पसण्णं च सुबहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, तेवि साहरांति, तएणं तं वासुदेवपामुक्खा तं विउलं
शा ३१
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
असणं४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा४ विहरति, जिमियाभुत्ततरागया वि य णं समाणा आयंता जाव सुहासणदरगया बहहिं गंधव्वेहिं जाव विहरंति, तएण से दुवए राया पुव्वावरण्हकालसमयसि कोडुंबिय पुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छहणं तुमं देवाणुपिया ! कंपिल्लपुर संघाडग जाब पहे वासुदेवपामुक्खाण य रायसहस्साणं आवासेस हरिथखंधवरगया महयार सद्देणं जाव उग्घोसेमाणा२ एवं वदह एवं खलु देवाएप्पिया कल्लं पाउ० दुवयस्स रष्णो धूयाए चुलणीए देवीए अन्तयाए धट्टज्जुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! दुवर्य रायाणं अणुगिहे माणा व्हाया जाव विभूसिया हस्थिसंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामर० हयगयरह० महया भडचडगरणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छ उनागच्छित्ता पत्तेयं २ नामंकि एसु आसणेसु निसीयहर दोवई रायकष्णं पडिवालेमाणार चिट्टह, घोसणं घोसेहर मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तरणं ते कोटुंबिया तहेव जाव पच्चविर्णति, तरणं से दुवए राया को बियपुरिसे सदावेइ सद्दावित्ता एवं क्यासी - गच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया ! सयंवरमंडपं आसियसंमजिओवलित्तं सुगंधवरगंधियं पंचवणपुप्फपुंजांवयारकलियं काल - गरुपवर कुंदुरुक्कतुरुक्क जाव गंधवट्टिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह करिता वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं परनामं
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ममगारधर्मामृतर्षिगी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् काई आसणाई अत्थुयपच्चत्थुयाई रएह२ एयमाणत्तियं पच्चपिणह, ते वि जाव पच्चप्पिणति, तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहरसा कल्लं पाउ० पहाया जाव विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामराहिं हयगय जाव परिवुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं जेणेव संयंवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसंति अणुपविसित्ता पत्तेयं२ नामंकिएसु आसणेसु निलीयंति दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिटुंति, तएणं से पंडुए राया कल्लं पहाए जाव विभूसिए हथिखंधवरगए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरे भझंमज्झेणं निग्गच्छंति जेणेव सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं करयल० वद्धावेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठति ॥ सू० २०॥ __टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स द्रुपदो राना कौटुम्बिकपुरुपान् शब्दयति, शब्दायत्वा एवमपादोत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य बहिः प्रदेशे गङ्गाया महानया अदूरसामन्ते-नातिदूरे नातितनापे एक महान्तं स्वयम्बरमण्डां कुरु कोशनित्याह-'अणेग' इत्यादि।
'तएग से वए राया कोडविय पुरि से ' इत्यादि ।
टोकार्थ-(तएगं) इसके बाद (दवए राया) द्रुपद राजा ने (कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ ) कौटुम्विकपुरुषों को बुलाया (सदाविता एवं वयासी) बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-गच्छह णं तुमं देवाणुपिया ! कंपिल्लारे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह,
'तएणं से दूवर राया कोडुबिय पुरिसे' इत्यादि
st-(तपण) त्या२५७ी ( दूवए राया ) ६५४ गये (कोडुबियपुरिसे सहावेह) अमित पुषाने मोबा. ( सदाविना एवं वयासो) मावान तमन प्रभाग ४ (गच्छह ण तुमं देवाणुप्पियो ! कपिल्लरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामने गं मई सयंवरमयं करेह, अणेगखंभस
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anarainer
I
अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टं=अनेकशतस्तम्भयुक्तं, 'लीलट्ठियसालभंजिआगे ' लोलास्थितशालभ=ि लीलया स्थिता शालभञ्जिका पुतलिका यस्मिंस्तादृशं यावत्'तथास्तु' इति कृत्वा ते कौटुम्बिकपुरुषास्तदाज्ञां स्वीकृत्य तथैव संपाद्य, प्रत्यर्पयन्ति = मण्डपोनिर्मित इति निवेदयन्ति । ततः खलु स दुपदो राजा 'दोचंपि ' द्वितीयवरमपि कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् हे देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेव वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणाम् आवास - वासस्थानं कुरुत = रचयत, तेऽपि कौटुम्बिकपुरुताः 'करेचा ' कृत्वा वासुदेवादीनां निवासार्थ पृथक् पृथक् योग्यं वासस्थानं विधाय प्रत्यर्पयन्ति = दुपदाय राज्ञे कथयन्ति । ततः अग खंभसयसन्निविडं लीलट्ठियसाल मंजियागं जान पच्चष्पिणंति) हे देवानुप्रियों ! तुमलोग जाओ और कांपिल्यपुर नगर के बाहिर गंगा महानदी के अतिदूर और न अति समीप - उचित स्थान में एक बड़ाभारी स्वयंवर मंडप बनाओ । जो अनेक सैकडों स्तं मांसे युक्त हो तथा जिसमें विविध प्रकार की क्रीडा करती हुई पुतलिकाएँ सजा कर लगाई गई हों । यावत् " तथास्तु " कह कर उन लोगों ने राजा की इस आज्ञा को मान लिया और उसी आज्ञा के अनुसार स्वयंवर मंडप बना कर इसकी खबर राजाको कर दी । (तएण से दूर राया दोच्वंपि को डुबिय पुरिसे सहावे सहावित्ता एवं बयासी विपामेव देवाणुनिया! वासुदेव पामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह ते वि करेता पच्चपिर्णति इसके बाद द्रुपद राजा ने दूसरे कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्रातिशीघ्र वासुदेव यसन्निट्ठि लोलट्ठियसालभंजिआगं जाव पच्चविण ंति) देवानुप्रिये ! अंपिढ्यપુરનગરની બહાર મહા નદી ગ`ગાથી વધારે દૂરનહી તેમજ વધારે નજીક પણ નહિ એવા ચેાગ્ય સ્થળે એક ભારે વિશાળ સ્વયંવર મંડપ તૈયાર કરો કે જે ઘણા સેકડા થાંભલાઓવાળા હાય, તેમજ જેમાં અનેક જાતની ક્રીડા કરતી પૂતબીએ સજાવીને મૂકવામાં આવી હોય તે લેાકાએ પણ રાજાની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને ત્યારપછી તેમની આજ્ઞા મુજબ જ સ્વયંपर भडय तैयार रीने सलते तेनी अमर साथी (तएण से दुवए राया chaft his बियरिसे सहावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - खियामेव देवाणुनिया ! वासुदेव पामुकखार्ण बहूण' रायसाहस्साण' आवासे करे, ते वि करेत्ता पचविणति ) ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ ખીન કૌટુબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિયા ! તમે લોકો અવિલંબ વાસુદેવ પ્રમુખ ઘણા
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તથાસ્તુ
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अनगारधर्मामृत
टीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
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खलु द्रुपदो राजा वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणाम् आगमं= आगमनं ज्ञात्वा प्रत्येकं २ दस्तिस्कंधवरगतः, हयगजरथ महाभटसमूहपरितः, अध्य= पानार्थं जलं पाद्ये=चरणप्रक्षालनार्थमुदकं च गृहीत्वा सर्वद्वर्या छत्रचामरादिरूपया काम्पिल्यस्तो निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते वासुदेवमुखा बहुसंख्यका राजानस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तानि वासुदेवमुखागि बहूनि राजसहस्राणि= तान् बहुसहस्र संख्याकान् वासुदेवमुखान् राज्ञः, अर्मेण च पायेन च सत्कारप्रमुख अनेक सहस्र राजाओं को बैठने के लिये पृथकर स्थान बनाओ । उन्होंने राजाकी आज्ञानुसार बैसा ही किया और इसकी खबर राजा को कर दी । (तणं दूवए वासुदेव पामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमं जाणेता पत्तेयं २ हत्थिखंध जाब पडिवुडे अग्धं च पज्जं च गहाय सव्वि डीए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ, निगच्छित्ता जेणेव ते वासुदेव पामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्वेग य पज्जेण य सक्कारेइ, सम्माणे ) इसके बाद दुपद रोजा वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को आगमन जानकर अपने प्रधान हस्ती पर आरूड हो हय, गज, रथ तथा महानों के समूह के साथ २ प्रत्येक राजा के लिये अध्ये-पीने के लिये पानी, पाद्य-चरण प्रक्षालन के जल लेकर छत्रचामर आदि अपनो राजविभूति से युक्त होकर कांपिल्य पुर नगर से निकले निकलकर जहां वासुदेव प्रमुख हजारों राजा थे वहां गये। वहां जाकर उन्होंने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का अर्ध्य
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હજારો રાજાઓને બેસવા માટે જુદા જુદા સ્થાન તૈયાર કરો. તે લાકોએ પણ રાજાની આજ્ઞા મુજબ જ બધું કામ પતાવી દીધું અને કામ થઈ ગયાની ખબર रान सुधी पडयाडी हीघी ( तग दुबर वासुदेवपामुकखाणं' बहूगं रायसहस्सा आगम जाणेता पतेयं २ इत्थिबंध जाव पडिवुडे अग्धं च पज्ज' च गहाय सव्त्रिद्दृढोए कंपिल्लपुराओ गिगच्छर, निमच्छितः जेगेव ते वासुदेवना मोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेत्र आगच्छर, उबगच्छिता ताई वासुदेवपामुक्खाई अणय पज्जेण य सकारेश, सम्नागेइ ) त्यापछा वासुदेव प्रमुख मरे। રાજાએનું આગમન સાંભળીને દ્રુપદ રાજા પોતના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને ઘેાડા, હાથી, રથ તેમજ મહાલયોના સમૂહની સાથે દરેકે દરેક રાજાને માટે અ-પીવા માટે પાણી-લઇને છત્ર ચામર વગેરે પેતાની રાજ વિભૂતિથી યુક્ત થઈને કાંપિધ્ધપુરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યા ત્યાં જને તેમન્ને તે
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থানাঙ্কগ্রাঙ্কনুই यति, संमानयति, सलमार्य सत्कारं कृत्वा, समान्य तेषां वासुदेवप्रम पाणां प्रत्येकर पृथक २ आराम वियरइ' वितरति । ततः खलु ते वासुदेशनमुनाः कौव स्वकाः २-निजा २ आसास्तत्रयोपागच्छनि, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यारोहन्ति प्रत्यवरुह्य प्रत्येकर स्कन्धावारनिरेशं कुर्वन्ति, कृत्वा सके स्वके आवासेऽनुमविशन्ति, अनुपविश्य स्वकेषु स्वकेपु आवासेपु-आसनेषु च शपनेषु च सनिषण्या उपविष्टाश्च तथा 'संतुयद्या' संत्ववर्तिताः परिलतितपाचीच बहुमिर्गन्धश्च नाडएहि य' नाटच ' उअगिज्जमागा च उपगी वमानाच, 'उपणा यजामा य'
और पाद्य से सत्कार किया-सन्मान किया । (सक्कारित्ता, सम्माणित्ता, तेमि वासुदेवपोमुक्खाणं पत्तय २ आवासे वियरइ, तएणं ते वासुदेव पामुक्खा जेणेब सवा २ आवासा तेणेव उवागच्छद,उवागचित्ता हस्थि खंधाहिं तो पच्चोरहंति, पच्योरुहिता पत्तेयं खंधावानिवेस करेंति ) सत्कार सन्मान करके उन्होंने उन सब वासुदेव प्रमुखों को प्रत्येक के लिये पृथक आवास-स्थान-दिया, । इसके पश्चात् वे वासुदेव प्रमुख राजा जहां अपना २ स्थान नियत था-वहां गये । वहां जाकर के जाने २ हाधियों पर से नीचे उतरे और उत्तर करके उन्होंने अपनी २ स्कन्धावार स्थापित कर दो-अर्थात् सैन्य को ठहरा दिया। (करित्ता सए २ आवासे अणु०) ठहरा कर फिर वे अपने २ आवासों में प्रविष्ट हुए (अणपविसित्ता सासु २ आवासु य आसणेसु य सयणेसु य मन्निसन्ना य संतुपट्टा य बहूहिं गंधम्बेहिं य नाडएहि य उवागजमाणा य વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓનું અર્થ અને પાઘથી સત્કાર તેમજ સન્માન
यु. ( सकारिता सम्माणित्ता तेलिं वासुदेव रामुक्खाणं पत्ते २ आवासे वियाइ, तएण ते वासुदेवपामुक्खा जेणेव सया २ आवासा तेणेव उपापच्छइ, उवा. गच्छिता हत्थखंधाहितो पच्चोरुहति, पच्चोहहिता पतेयं खंधावारनिवेसं करेति) स२ तभन्न सन्मान ४रीने तेमणे वासुदेव प्रभुम ६२ १२४ રાજાને જુદું જુદું આવાસ સ્થાન આવ્યું. ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓ
જ્યાં પિતપતાનું આવાસ સ્થાન નક્કી કરવામાં આવ્યું હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેઓ પિતપિતાના હાથીઓ ઉપરથી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને તેઓએ જેતપોતાની સ્કન્ધાવાર-છાવણી સ્થાપિત કરી એટલે કે સેનાને પડાવ નાખે. (करित्ता सए २ आवासे अगु० ) छापणी नामाने तो पातपाताना वास स्थानमा प्रविष्ट थया ( अणुपविसित्ता सएसु २ आवासेसु य आसणेनु य सयणे. सय सनिसन्ना य संतुयट्टा य बहूहि गंधवेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य
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भनगारधर्मामृतषिणी टी० ० ६ द्रौपदीचरिलवर्णनम उपनृत्यमानाश्च गीतं श्राध्यमाणाश्च, नृत्यं दर्यमानाश्च विहरन्ति । ततः खलु स द्रुपदो राजा काम्पित्य रं नगरमनुप्रविशति, अनुमविश्य विपुलम्- अशनं पानं खाद्य स्वायम् उपरकारयति. संस्कारयति. उपस्कार्य कौटुबिक पुरुपान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमयादीत-गच्छत स्लु यूयं हे देवानमिया: ! विपुलम् , अशनं पानं स्वाद्य वाद्य सुरां च मधं च मांसं च सीधुं च प्रसन्नां च सीधुः प्रसन्ना च मदिरा विशेषे, तथा सुबह पुष्पवस्वर धमाल्यालंकारं च वासुदेवप्रमुखाणां राजसहस्राणाम् आवासेषु 'साह रह ' संहरत-उपनयत, तेऽपि कौटुम्बिव पुरुषास्तथैव संहरन्ति ।
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उवणच्चिजमाणा य विहरति. तएणं से दुए गया कंपिल्लपुरं नयरं अणुपविसह, अणुपविसित्ता विउलं असण ४ उवक्खडावेह ) प्रविष्ट होकर के वे अपने अपने आवास स्थानों में आसनों पर एवं बिस्तरों पर जाकर अच्छी तरह वैठ गये लेट गये । वहाँ लेटे हुए उनकी अनेक गंधर्षोंने, अनेक नाटयकारों ने स्तुति की-उन की प्रशंसा के गीत गाए, नाटक दिखलाया। इसके बाद द्रुपद राजा कांपिल्यपुर नगर के भीतर आये-वहां आकर के उन्होंने विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया-पकवोया। (उवखडा वित्ता कोटुंबियपुरिसे सहावेह महावित्ता एवं बयासी-(गच्छह णं तुम्मे देवाणु प्पिया ! विउलं असणं ४ सुरं च मजं च सीधुं च परसणं च सुबह पुष्फवस्थ गंधमल्यालंकर च वासुदेवपामोकवाणं रायमहरमाणं आवासे सुसाहरह) तैयार करवा कर फिर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो तुमलोग जाओ और इस उवणचिज्जमाणा य विहर ति, तएण से दुवए राया कंपिल्लपुर नवर अणुप. विसइ अणुपविसित्ता विउल असण४ उवक्खडावेइ) प्रवेशान तसा पातपोताना આસન ઉપર સારી રીતે બેસી ગયા, સૂઈ ગયા. ત્યાં સૂઈ ગયેલા તેઓની ઘણુ ગંધર્વોએ, ઘણા નાટયકારોએ સ્તુતિ કરી, તેમની પ્રશંસા ગીત ગાયાં અને નાટક ભજવ્યાં. ત્યારપછી દ્રુપદ રાજા કપિલ્યપુર નગરમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓએ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચાર जतनी मा२ तैयार ४२११४०यो. ( उवखडा वित्ता कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी गच्छह ण तुब्भे देवाणुप्पिया ! विउल असण'४ सुर च मज्जच मसं च सीधु च पसण्ण च सुबहुपुप्फवस्थगंधमलाल कार च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहरसाणं आवासेसु साहरइ) तैयार ४२०ीने तभने भि પુરૂને લાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે
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દ
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखास्तद् विपुलम्, असनं पानं खायं स्वाद्यं यावत् प्रसन्नां च ' आसायमाणा ' आस्वादकन्तो विहरन्ति, अपि च खलु ' जिमिया जिमिता:- भुक्तवन्तः, 'भुत्तत्तरागया' अकोत्तरागताः शुक्तोत्तरं = भोजनानन्तरम् आगताः भुक्तेश्यत्र भावे क्तः भोजनस्थानादास घनदेशे मुखप्रक्षालनार्थमागताः सन्तः आयंता ' आचान्ताः - कृतचुल्लुकाः यावत्-सुखामनवरगताः = आसनवरे सुखोअशन, पान, खाद्य स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार को सुरा मय, सीधु और प्रसन्न मदिरा को और अनेक विध इन पुष्पों को वस्त्रों को गंधमाल्य एवं अलंकारों को वासुदेव प्रमुख राजसहस्रों के आवास स्थानों पर ले जाओ । (ते वि माहरंति ) राजा की आज्ञानुसार वे सब उन अशनादिवस्तुओं को वहां पर ले गये । ( तएणं ते वासुदेवपामुक्खा तं विज्लं असणं ४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा विहरति ) इसके बाद उन वासुदेव प्रमुख राजाओं ने उस आनीत विपुल अशनादिरूप प्रसन्ना मदिरा तक की आहार की सामग्री को खाया ( जिमिया भुत्तत्तरागया वि य णं समाणा जाव सुदामा बहूर्हि गंध जाव विहरति ) खा पी कर जब वे निश्चिन्त हो चुके और मुख प्रक्षालन के लिये भोजन स्थान से उठकर दूसरे निकट स्थान पर आये तब उन्होंने कुल्ला किया और फिर सुन्दर अपने २ आसनों पर शांतिपूर्वक आकर बैठ गये । इनके बैठते ही मनोविनोद के लिये
લેકં! જાએ અને આ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહા રને સુરા, મદ્ય, માંસ, સીંધુ અને પ્રસન્ન મદિરાને અને ઘણી જાતના આ પુષ્પાને, વસ્રોને, ગધમાલ્ય અને અલકારાને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજસહસ્રોના आपास स्थाने पोयाडो. ( ते वि साहरति ) राजनी याज्ञा प्रमाणे तेथे अधःशे ते जाद्य पदार्थोंने राज्योना भावास स्थाने महाथाडी हीधा (तएण ते वासुदेवपामुक्खा तं विउल असण ४ जाव पसन्न च असाएमाणा ४ विहरति ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રસુખ રાજાઓએ ત્યાં પહાંચાડવામાં આવેલા પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરેથી માંડીને પ્રસન્ન મદિરા સુધીના બધી જાતના આહાર સામગ્રી વગેરેનું ખૂબ રૂચિપૂર્વક પાન કર્યું..
( जिमिया भुत्तत्तरागया विय णं समाणा आयंता जात्र सुहागुणवरगया बहूरिं गंधव्वेहिं जाव विरंति )
જમી પરવારીને જ્યારે તેઓ નિશ્ચિત થઈ ચૂકયાં ત્યારે તેએ મુખ પ્રક્ષાલન માટે ભેજન સ્થાનથી ઊભા થઇને ખીજા પાસેના સ્થાને ગયા. ત્યાં તેઓએ કાગળા કર્યો અને ત્યારપછી તેમા ફ્રી પોતપાતાના સુંદર માસને
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मनगराधर्मामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् पविष्टाः बहुभिर्गन्धर्वैर्यावद् नाटकैश्चोएगीयमानाः उपनृत्यमानाश्च विहरन्ति आसते स्म इत्यर्थः।
ततः खलु स द्रुपदो राजा पूर्वापराह्नकालसमये कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु हे देवानुपियाः ! काम्पिल्यपुरे नगरे शृङ्गाटक यावत्-त्रिकचतुष्कचत्वर महापथपथेषु वासुदेवप्रमुखाणां च राजसहस्त्राणामावासेषु आवाससमीपेषु हस्तिस्कन्धवरगता महता २ शब्देन-उच्चैः स्वरेण यावद् उद्घोष यन्तः २ एवं वदत-एवं खलु हे देवानुमियाः! कल्ये-आगामीनि द्वितीय गंधर्वो ने नाना प्रकार के स्तुत्यात्मक गीत गाये और नाटयकारों ने नृत्य दिखलाये । (तएणं से दुवए गया पुव्वावरणहकालसमयंसि कोडं थियपुरिसे सहावेइ,सदावित्ता. एवं वयासी, गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे सिंघोडग जाव पहेसु वासुदेवपामुक्खाण य राय सहस्साण य आवासेसु हत्थि खंघवरगया महयो२ सद्देणं जाव उग्धोसेमाणा २ एवं वदह, एवं खलु देवानुप्पिया ! कल्लं पाउ० दुवयरस रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धजुण्णस्स भगिणीए दोवई ए रायवरकन्नोए सयंवरं भविस्सइ ) इमके बाद द्रुपदराजा ने पूर्वापराह्न काल के समय में कौम्यिक पुरुषों को बुलवाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानु प्रियो ! तुमलोग हाथी पर बैठकर कांपिल्यपुर नगर में जाओ और वहां शृंगाटक यावत् त्रिक चतुष्क चत्वर महापथ आदि मार्गों में जो वासुदेव प्रमुख राजा के आवासस्थान हैं उनके समीप बडे जोर २ ઉપર શાંતિપૂર્વક બેસી ગયા. તેમના મન-વિનોદ માટે ગંધર્વોએ અનેક જાતના સ્તુત્યાત્મક ગીતે ગાયાં અને નાટયકારોએ નૃત્ય કરી બતાવ્યાં.
(तएणं से दूरए राया पुयावरणहकाल समयंसि कौडुंबियपुरिसे सदावेद, सहावित्ता, एवं वयासी, गच्छह गं तुमे देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहेसु वासुदेवपामुक्खाण य महया २ सद्देणं जाव उग्धोसेमाणा २ एवं वदह, एवं खलु देवाणुप्पिया ! काल्लं पाउ० दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्ठजुण्णस्स भागणीए दोवईए रायवरकन्नाए सयंवरं भविस्सइ)
ત્યારપછી દુ૫૬ રાજાએ પૂર્વાપરત કાળના સમયે કૌટુંબિક પુરૂને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેક હાથી ઉપર બેસીને કપિલપુર નગરમાં જાઓ અને ત્યાંના સંગાટક યાવત ત્રિફ ચતુષ્ક ચવર મહાપથ વગેરે માર્ગોમાં–કે માર્ગોની પાસે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓના આવાસ ઘરો છે તેની પાસે બહુ મોટા સાદે આ જાતની
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ज्ञाताधर्मवा
दिवसे प्रादुर्भूतमभातायां रजन्यां तेजसा ज्वलति सूर्येऽभ्युद्गते दुपदस्य राज्ञो दुहितुः = पुण्याः, चुलन्यादेव्या आत्मजायाः धृष्टद्युम्नस्य भगिन्या द्रौपद्या राजवर - कन्यायाः स्वयंवरो भविष्यति, उत्तरमात् ख्लु हे देवानुप्रिया ! सूर्य द्रुपदं राजानमनुगृह्णन्तः स्नाता यावत सर्वालङ्कारविभूषिता- हस्तिस्कन्धरगताः सकोरण्टमाल्यदाग्ना छत्रेण ध्रियमाणेन श्वेतवरचामरैरुधूयमाने युक्ताः हयगजरथमहाभटकरेण चतुरङ्गबलेन यावत् परिक्षिप्ताः = परिवृताः यद स्वयंवर - से ऐसी घोषणा करते हुए कहो कि हे देवानुप्रिय ! कल गर्योदय होने पर द्रुपद राजा की पुत्री चुलनी देवी की आत्मजा और वृष्टद्युम्न की बहिन राजवर कन्या- द्रौपदी का स्वयंवर होगा ( तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! दुपयं रायाणं अणुमिव्हे माणा व्हाया जाव विभूसिया हत्थिम्बंधवर गया सकोरण्ट० सेयवर चामर० हय गगरह० महया भडचडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवर मंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागति पत्ते २ नामंकिएस आसणेस निसीयह २ दोबई रायकरणं परियालेमाणा २ चिह्न) इस लिये हे देवानुप्रियों ! आपलोग दुपदराजा के ऊपर कृपा करके स्नान आदि से निवट कर एवं समस्त अलंकारों से विभूषित होकर जहाँ स्वयंवर मंडप है वहां पधारें । आते समय हाथियों पर बैठकर आयें। कोरण्ट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित छ उस समय आप सब के ऊपर तने हों और वेल सुन्दर चामर ऊपर ढोरे जा रहे हों । हय, गज, रथ एवं महाभटों का समूहरूप चतुरंगवल आप ઘાષણા કરે કે હું દેવાનુપ્રિયે ! આવતી કાલે રાવાર થતાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી ચુલની દેવીની આત્મા અને ધૃષ્ટદ્યુમ્નની અહેન રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને
સ્વયંવર થશે.
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(तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! दुवयं रायाणं अणुगिमाणा व्हाया जाय विभूसिया इत्थिधवरगया सकोरण्ट० सेयवरचामर० हय गय रह० महया भडचडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उपागच्छह, उवागचित्ता पत्तेयं नामंकिएस आसणेसु निसीयड २ दोनई रायण्णं पडिवाले मामा रहि ) એથી હુ દેવાનુપ્રિયા ! તમે લાકે દ્રુપદ રાજા ઉપર મહેરબાની કરીને સ્નાન વગેરેથી પરવારીને તથા સમસ્ત અલંકારોથી વિભૂષિત ને જયાં સ્વયંવર મડપ છે, ત્યાં હાથીઓ ઉપર સવાર થઇને પધારે. કેરટ પુષ્પાની માળાઓથી શેશભતું છત્ર તે વખતે તમારા ઉપર તાણેલું હાવું જેઈએ અને સફેદ ચમરે પણ તમારા ઉપર ઢોળાતા હોવા જોઇએ. હાથી, રથ અને મહાભટોના સમૂહ રૂપ ચતુર'ગિણી સેના તમારી સાથે હોવી જોઇએ. દરવર
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अनगारधर्यामुतवर्षिणी टी० अ० १६ हौपदीबरितवर्णनम् .. २९१ मण्डपस्तत्रेयोपागच्छत, उपागत्य प्रत्येकं ' नामंकिएसु' नामाङ्कितेषु स्व स्व. नामाक्षरयुक्तेषु आसनेषु निपीदत, निपद्य द्रौपदी राजकन्यां 'पडिवालेमाणा २' प्रतिपालगन्तः २ प्रतीक्षमाणाः २ तिष्ठत इति घोषणां घोषयत, घोषयित्वा ममैतामाज्ञपिकां प्रत्यर्पयत, ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तथैव यावत् प्रत्य पयन्ति । ततः खलु स दुपदो राजा कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवाहोत्-गच्छन खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! स्वयंवरमण्डपम् “ आसियसमज्जियोपलि" आसिक्तसंमार्जितोपलिप्तम्-आसिक्तम्-जलप्रक्षेपेणार्टीकृतं, संमा. जितं-कचराद्यपनयनेन संशोधितम् , उपलिप्त-मृद्गोमयादिभिरनुलिप्तं, तथासुगंयमगंधेियं ' सुगंधपरगन्धित-अगुरुगुग्गुलकपूरसरलदाहादिजनितसुगन्धयुक्त, 'पञ्चागपुरफनोवयारफलियं ' पञ्चवर्णपुष्पपुञ्जापचारकलितं । ' कालागुरुपवरकुंदुरुक रुक-जाव गन्याटिभूयं' कालागुरुपवरकुन्दुरुष्कतुरुक-यावद्-गन्धयतिभूतं, अत्र यावछन्देन-धूपडझंतमघमतगन्धुवुयाभिराम' इति वोध्यम् । सब के साथ हो । मंडप में आकर प्रत्येक जन अपने अपने नामवाले आसन पर बैठजावें । बैठकर फिर वहां वह राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें। (घासणं घोसेह २ मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह) इस प्रकार की घोषणा करो और जब तुमलोग ऐसी धोषणा कर चुको तय इसकी हमें पाछे खबर दो । ( तएण ते कोडुबिया तहेव जाव पच्चपिण ति ) उन कौटुम्बिक पुरुषों ने नृपाज्ञानुसार ऐसा ही किया-बाद में हमलोग आपकी आज्ञानुसार घोषणा कर चुके हैं ऐसी सूचना राजा के पास भेज दी । (तएण से दुवए राया कोडु बिय पुरिसे सद्दोवेइ, सदाविती एवं क्यासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियसमज्जिवलितं सुगंधवरगंधियं पंचत्रगपुप्फपुंजोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुका जाव गधवटिभूयं मंचाइमंचकलियं મંડપમાં આવીને દરેકે દરેક પિતપોતાના નામવાળા આસન ઉપર બેસી જાય. त्यो सीने ते १३२ अन्याद्रीपहीन. माशमाननी प्रतीक्षा 3रे. ( घोसण घोसेह २ मम एयमाणत्तिय पच्चपिणह) मा शत तमे घोष। २। अने साम 25 लय त्यारे भने ५४२ आपो. (तएण ते कोडुपिया तहेव जाव पञ्चप्पिणति) ते अदमि ५३॥ रानी माज्ञा प्रमाणे मधु अम પતાવી દીધું અને “અમે લોકેએ આપની આજ્ઞા અનુસાર ઘોષણા કરી છે” એવી ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડી દીધી.
(तएणं से वए राया कोडु वियपुरिसे सहावे, सदावित्ता एवं वयासीगकलह ण तुम्भे देवाणुपिया ! सगरमड आसियतमग्नि प्रोवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्यपुष्फाजोपयारकलियं कालापुरुषवरकुंदरानुरुषक जार गंधवाद्विक
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saraserjet
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धूपदद्यमानमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामं तत्र कालागुरुः कृष्णागुरुः, मारकुन्दुरुः कं - चीडानामको गन्धद्रव्यविशेषः, तुरुष्कं च सिल्लकं, धूपश्च गन्धद्रव्य संयो गज इति द्वन्द्वः, यद्रा - एतत्सम्बन्धी यो धूपस्तस्य दानानस्य यः सुरभिर्मघवा यमानः- अतिशयान् गन्य उद्यूतस्तेनाभिरामो रमणीयः स तथा तं तथागायत्तित्व सौम्यातिपात् तथामंचाइमंचकलिये ' मञ्चातिमञ्चकलितं कुरुत, कृत्वा वासुदेवखाणां बहूनां करेह, करिता वासुदेव पामुक्खागं बहूगं रामसहस्सा गं पतेयं २ नामकाई आसगाई अत्युपपव्वत्युबाई रएह २ एवाणत्ति पच्चधिगह ) इसके बाद दुपदराजा ने कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिया ! तुमलोग जाओ और स्वयंवर मंडप को आसित कर - जलसिवन से आई करो, संभाजित कराकचवर आदि को उससे बाहिर कर उसे साफ करो एवं उपलिप्त करोमि तथा गोबर से उसे लोंगो । सुगंधवरवित करो उसमेंअगुरु, गुग्गुल, कपूर आदि को जलाकर उनकी गंध से उसे सुगंध युक्त बनाओ पंच के पुत्रों के पुंज उसमें जगह २ रखो । कृष्णागुरु प्रवर कुन्द्रुक, तुरुष्कलोबान इनके चूर्ण को वहां आने में खूब जलाकर उनके गंध से उसे बहुत हो अधिक मनोभिराम बनाओ ज्यादा क्या उस ऐसा करदी कि जिससे ऐसा ज्ञात हो कि यह एक सुगंधित द्रव्यों को वर्तिका है। वहां मंचों के ऊपर मंचों को भूमंचामंचका करेह, कारचा वालुदेवमुक्खा बहूनं रायसहस्सा गं पत्तेयं २ नामंकाई आसगाई अत्युपपचत्युबाई र९६ २ एवनागति पाग )
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ત્યારપછી ક્રુપદ રાજાએ કૌટુબિક પુરૂષાને લાગ્યા અને બેલાવીને કહ્યું કે હું ઢવાદુપ્રિયા ! તમે લેાકેા જાએ! અને સ્વયંવર મંડપને આસિક્ત કરા-પાણી છાંટા, સમાર્જિત કરો, કચરા વગેરે સાફ કરે, અને ઉપલિસ કરે, એટલે કે માટી તેમજ છાણથી લીંપા, સુગધવર ગધિત કરો એટલે કે તે સ્થાને અનુરૂ, ગુગ્ગલ, કપૂર વગેરેના ધૂપ કરીને તેની સુગધથી તે સ્થાનને સુવાસિત કરો, પચવણુના પુખ્તપુજના સમૂહ સ્થાને સ્થાને ગેાઠવાને તમે મડપની शोलामां अभिवृद्धि ४. उष्णागु३, प्रवर, ३०५, तु३०, सोमान भा બધા પદાર્થાંના ચૂર્ણને અગ્નિમાં નાખીને તે સ્થાનને સુગંધથી ખૂબ જ રમણીય બનાવી દો. તે સ્થાનને તમે એવું સરસ સુગધમય બનાવી દે કે જેથી તે સુગંધિત દ્રવ્યેની વર્તિકા ( અગરબત્તી) જેવું લાગે. ત્યાં તમે મ ંચ ઉપર
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अनगारवा मृविती टीका अ० १६ द्रौपदीवरितवर्णनम्
२९३ राजसहस्राणां प्रत्येकं २ नामाङ्कितान्यासनानि 'अत्थुयपञ्चत्युयाई' आस्तृत प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादित प्रत्याच्छादितानि 'रएह ' रचयत, रचयित्वा एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत, तेऽपि कौटुम्पिकपुरुषाः, यावत् प्रायन्ति । ' तएणं ते' वासुदेवप्रमुखाः बहुसहस्रसंख्यकाराजानः 'कटु ' कल्ये प्रादुर्भुतप्रभातायां रजन्यां यावत् तेजसा ज्वलति सूर्येभ्युद्गते स्नाता यावत् सर्वालंकारविभूषिता हस्तिस्कन्धवागता सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेग प्रियमाणेन श्वेतवरचामरैरुद्धूयमानश्च युक्ता हय गज-यावत्-रथपदातिसमूहेन परिष्टता सर्वद्वर्या यावन् ' शङ्खपणहपटहादीनां रवेण यत्रैव स्थाने स्वयंवरमण्डपस्तौ योपागच्छन्ति, उपागत्यानुप्रविशन्ति, अनुपविश्य प्रत्येकं २ 'नामंकिए मु' नामायिनेषु-स्वस्वनामाक्षरयुक्तेषु आसनेषु निषीदन्ति-उपविशन्ति, निषध द्रौपदी राजवरकन्यां पडिबालेमाणा' पतिपालगन्तः प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । रखो। उन पर वासुदेव प्रमुख राजाओं के प्रत्येक के नाम के आसनों को आस्तृत-शुभ्रवस्त्र से ढककर प्रत्यवस्तृत-और द्वितीय शुभ्रवस्त्र से आच्छादित कर रखो। रख कर फिर हमें पीछे इस सब कार्य के समाप्त होने की खबर दो। (ते वि जाव पच्चप्पिणंति ) इस प्रकार राजा की
आज्ञानुसार उन कौटुम्विक पुरुषों ने सब कार्य उचित रूप में करके पीछे राजा को “ सय कार्य आज्ञानुसार यथोचित हो चुका है " ऐसी खबर करदी। ( तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउ० पहाया जाव विभूसियो हथिखंधवरगया सकोरंट० सेयवर. चामराहिं हय गय जाव परिवुडा सव्विड्डीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसंति, अणुपविसित्ता पत्तेयं नामंकिएस्तु आसणेसु निसीयंति, दोवइं रायवरकण्णं पडिवालेमाणा२ મંચની ગેઠવણ કરો. ત્યાં તમે વાસુદેવ પ્રમુખ દરેકે દરેક રાજાના નામથી અંકિત થયેલા આસનને આતૃત-સ્વચ્છ વસ્ત્રથી ઢાંકીને, પ્રત્યાવસ્તૃત અને બીજા સ્વચ્છ વસ્ત્રથી ઢાંકે આ બધું કામ પતાવીને તમે અમને ખબર આપો. (ते वि जाव पच्चप्पिण ति) मारीत शनी याज्ञा सामनीन ते अमि પુરૂએ તે મુજબજ બધું કામ પતાવી દીધું અને ત્યારપછી “તમારી આજ્ઞા મુજબ કામ બધું પતી ગયું છે” એવી ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડી. __ (तएणं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउ० हाया जाव विभूसिया हत्यिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामराहिं हय गय जाव परिवडा सविड़ीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छइ, उआगच्छिता अणुपवि. संति, अणुपदिसित्ता पचेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयंति, दोवई रायवरकणं
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ततः खलु ' पंडुए ' पाण्डुः नामको राजा कलं ' कल्ये - प्रातः काले स्नातो यावत् सर्वालङ्कारविभूषितो हस्तिस्कन्धगतः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण त्रियमाणेन श्वेतवरचामरैरुद्यमानैश्व युक्तो हयगजरथपदातिसमूहेन परिवृतः सर्वदर्या यावत् - रवेण काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यमध्येन मध्येभूत्वा निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव स्वयंवरमण्डपो यत्रैव वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानस्तडीवो पागच्छति, उपागत्य तेपां वासुदेवमुखाणां करतलपरिगृहीतदशनखं चिति) इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा दूसरे दिन जब रात्रि समाप्त हो चुकी प्रातः काल हो गया-सूर्य उदित हो चुका तब स्नान यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर, हाथियों पर चढे हुए त्रियमाण कोरंट पुष्पों की माला से विराजिन छत्र से युक्त होते हुए उद्धूयमान श्वेत वरचामरों से वीज्यमान होते हुए एवं हय, गज यावत् रथपदाति समूह से परिवृत्त होते हुए अपनी राज विभूति के अनुसार यावत् शंख पत्र पटह आदि के साथ २ जहां यह स्वयंवर मंडप था वहां आये। वहां आकर वे सब उसके भीतर प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर बे प्रत्येक जन अपने २ नाम से अंकित आसनों पर पृथक २. बैठ गये और राजवर कन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। (नएणं से पंडुए राधा कलं पहाए जाव विभूसिए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरं मज्झ मज्झेणं निगच्छंति- जेणेव सयंवरमंडवे जेमेव वासुदेव पानु क्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेव पडिवालेमाणा २ चिति )
1
ત્યારપછી વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજા બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પસાર થઈ ગઈ અને સવાર થતાં સૂર્યઉથ પામ્યા ત્યારે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પોતાના શરીરને બધા આભૂષણે થી શણગારીને, હુ થીએ ઉપર સવાર થઈને, સુગ ંધિત કેરટ પુષ્પોની માળાએથી શેભિત અને છત્રથી યુક્ત થઈ. ઉત્તમ વેત ચામરેથી વીજયમાન થતા તેમજ ઘોડા, હાથી યાવત્ રથ પદાતિ સમૂહથી પરિવ્રુત થતા પોતાના રાજ્ય વૈભવ અનુસાર યાવત્ શખ પણવ પટા વગેરે વાજાઓની સાથે જ્યાં સ્વયંવર મંડપ હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તે બધા મંડપમાં પ્રવિષ્ટ થયા અને પ્રવિષ્ટ થઈને તેએ પેાત. પોતાના નામાંકિત જુદા જુદા આસનેા ઉપર બેસી ગયા અને રાજવર કન્યા દ્રૌપદીની પ્રતીક્ષા કરવા લાગ્યા.
को
( तरणं से पंडुए राया कल्लं व्हाए जात्र विभूसिए हर ट० हय गय० सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेव पासुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणे
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अमगार धामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् शिर आवत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्षयित्म कृष्णस्य वासुदेवस्य श्वेतवरचामरं गृहीचा ' उनवीयमाणे ' उपवीजयन् चामराद्धृननेन सेबमान. स्तिष्ठति ॥ ०२१ ॥ पामुक्खाणं कर यल बद्धावित्ता कण्हस्म वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिति) इस के बाद पांडु नामक राजा प्रातः काल स्नान से निबट कर और समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने पट्ट गजराज पर चढ कर कांपिल्य पुर नगर के बीच से होते हुए उस स्वयंवर मंडप में आये। जथ ये गजराज पर चढे हुए आरहे थे उस समय इन के ऊपर कोरंट पुष्पों की माला से विरजित छत्र, छत्रधारियों ने तान रखा था। चामर ढोरने वाले शुभ्र चामर ढोर रहे थे। हय, गज, रथ एक पदादि समृहरूप चतुरंगिणी सेना इनके माथ चल रही थी। राजसी ढाटाट से ये सुसज्जित थे। विविध राजे साथ में यजते हुएआरहे थे। मंडप में आकर ये जहां वासुदेव प्रमुग्व हजारों राजा बैठे हुए थे-वहांगये। यहां जाकर उन्होंने उन वमुदेव प्रमुग्व हजारों राजाओं को दोनों हाथ जोड कर बडी नम्रता के साथ नमस्कार किया। जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी। वधाई देकर फिर ये कृष्ण बाप्लुदेव के ऊपर श्वेलचामर लेकर ढोरते हुए वहां बैठ गये ।। १० २० ॥ उवागच्छइ, उपगच्छित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाणं करयल०वद्धावेत्ता कण्हस्स वासुदेवस से यवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठति )
ત્યારપછી પાંડુ નામક રાજા સવારે સ્નાનથી પરવારીને સમસ્ત અલંકારથી પોતાના શરીરને શણગારીને અને પોતાના મુખ્ય ગજરાજ ઉપર સવાર થઈને કાંપિલ્યપુર નગરની વચ્ચેથી પસાર થઈને સ્વયંવર મંડપમાં આવ્યા. જ્યારે તેઓ ગજરાજ ઉપર બેસીને આવતા હતા ત્યારે કરંટ પુપની માળાઓથી શોભિત છત્ર છત્રધારીઓએ તાણેલું હતું. ચામર ઢેળનારા વેત ચામર ઢળી રહ્યા હતા, ઘોડા, હાથી, રથ અને પદાતિ સમૂહ રૂપ ચતુરગિણું સેના તેમની સાથે સાથે ચાલી રહી હતી રાજસી ઠાઠથી તેઓ સુસજિત હતા, અનેક જાતના વાજા વાગી રહ્યાં હતાં મંડપમાં આવીને તેઓ જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓ બેઠેલા હતા ત્યાં ગયા. જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓ બેઠેલા હતા ત્યાં તેમની પાસે જઈને તેઓએ વાસુદેવ પ્રમુખ સર્વ રાજાઓને ખૂબ જ નમ્રપણે બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યો. જય વિજય શબ્દથી તેઓને અભિનંદિત ક્ય, અભિનંદિત કર્યા બાદ તેઓ કૃષ્ણ વાસુદેવની ઉપર ત ચામર ઢળતા ત્યાં બેસી ગયા. એ સૂત્ર ૨૦ છે
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् एणं सा दोवइ रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगललाई वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करिता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ ॥ सू० २१ ॥
टीका -' तरणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं सा द्रौपदी राजवरकन्या नमज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्नाता ' कयवलिकम्मा ' कृतबलिकर्मा अन्नादिषु वायसादिप्राणिनां संविभागो बलिकर्म तत् कृतं यया सा तथा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता 'सुद्धप्पावेसाई' ' शुद्ध प्रवेश्यानि शुद्धानि स्वच्छानि प्रवेश्यानि सभायां प्रवेष्टुं योग्यानि, यत्परिधानेन सभायां लोकाः प्रवेष्टुमर्हन्तीत्यर्थः, मङ्गलानि=शुभानि वस्त्राणि ' पवरपरिडिय ' प्रवरपरिहिता - पवरविधिना वरेण शोभाकारेण विधिना परिहिता = परिधानेन घृतवती आपत्वात् कर्तरिक्तः,
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'तएण सा दोबई रायवर कन्ना' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तपणं) इस के बाद (सा दोवई रायवर कन्न) वह गजवर कन्या दौपदी (जेणेवं मज्जणघरे) जहां स्नान घर था (तेणेव उवागच्छइ) उस ओर गई ( उवागच्छित्ता व्हाया कययलिकम्मा कयको उयमंगल पायच्छित्ता) वहां जाकर २ उसने स्नानघर में स्नान किया, नहाकर फिर उसने काक पक्षि आदि को अन्नादि का भाग देने रूप बलि कर्म किया कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किये। (सुद्धप्पावेसाई मंगलाई बत्थाई पवर परिहिया) सभा में प्रवेश के योग्य ५ शुद्ध स्वच्छ मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह विधि के अनुसार पहिरी हुई (जिणपरिमाणं अचणं करेइ ) ' तरणं सा दोवईरायवरकन्ना' इत्यादि
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टीअर्थ - (तरण) त्य२पछी (सा दोवई रायवर कन्ना) ते १२ उन्या द्वीपही ( जेणेत्र मज्जणवरे ) यां स्नानघर हेतु ( तेणेत्र उबागच्छ इ ) त्यां ग ( आगच्छिता 'व्हाया कयवलिकम्मा कय कोउयमंगलपायच्छिता) त्यां धने તેણે સ્નાનઘરમાં સ્નાન કર્યું. સ્નાન કર્યાં બાદ તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન વગેરેના ભાગ અર્પીને લિકમ કર્યું કૌતુક મગળ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યો. (सुद्धपालाई मंगललाई पत्याइ पारपरिहिया मज्जणबराओ पडिनिक्खमइ) સલામાં પ્રશેશવા ચેાગ્ય સ્વચ્છ માંગલિક વો તેશે સરસ રીતે પહેર્યાં, त्यारपछी ते स्नानघरथी महार नीडजी ( जिण डिमाण' अच्चण' करेइ ) न.
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mantrannaणी टी० अ० १६ द्रौपदी चर्चा
वस्त्राणि परिधाय ' जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ ' जिनप्रतिमानां, कामदेव प्रतिमानindi करोति विवाहविधि निर्विघ्न संपन्नार्थ मिति भाव: ' करिता ' कृत्वा ' जेणेव अंते अरे तेणेव उवागच्छड ' यत्रैवान्तःपुरं तत्रैवो- पागच्छति ॥सू०२१॥ द्रौपदीचर्चा
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यत्तु - " जिणपडिमाणं अणं करे " इति पाठं समाश्रित्य भगवतोऽर्हतः पूजन जैनधर्मानुयायिभिः कर्तव्यमित्याहुस्तन्मिथ्यात्वविलसितम् अस्य पाठस्य चरितानुवादरूपत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधिवाक्यं हि जिनाज्ञाया बोधक स्वेन विधायकं भवति, यथा- भगवता विधेयतयोपदिष्टं षड्विधावश्यकं चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विघ्न विवाहकार्य के लिये अर्चन करती है अर्चन कर के फिर वह ( जेणेव अंते उरे तेणेव उषागच्छइ ) जहाँ अतःपुर था वहां चली गई । सू० २१ ॥ द्रौपदी चर्चा
मापूजन
जो "जिणपडिमाणं अक्षण करेह" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिकी उपयोगिता कहते हुए यह कहते हैं, कि " अर्हत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पालकों को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यों कि यह " जिनपरिमाणं " इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है अतः ऐसे वाक्य किसी मुख्य अर्थ के विधायक नहीं हुआ करते हैं । चारितानुवाद से तो सिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार षट् પ્રતિમાનું કામદેવની પ્રતિમાનું નિવિધ્ન વિવાહકાય સ્ર ́પન્ન થવાના હેતુથી मर्थन पुरे छे, अर्यन पुरीने ( जेणेव अतेउरे तेणेव उवागच्छइ ) જ્યાં રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી. !! સૂત્ર ૨૧ ૫
દ્રૌપદી ચર્ચા
પ્રમાણે કહે કરનારાઓએ
,,
डेंटला " जिण डिमाणं अच्चणं करेइ" मा પાઠના આધારે પ્રતિમા પૂજનની ઉપયેાગિતા સિદ્ધ કરતાં આ છે કે “ અંત ભગવાનની પ્રતિમાનું પૂજન જૈનધમ પાલન કરવું જોઈએ ” તેમનું આ કથન સત્યથી ખહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે. કેમકે આ " जिनपडिमाणं ” वगेरें वाध्य यस्तिना ४ अनुवाद छे भेटला भाटे એવાં વચન કઈ વિશેષ અને સ્પષ્ટ કરનારાં હાતા નથી. ચિરતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માસે જે તે આચરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનું જ જ્ઞાન થાય તેમ છે, શાઅવિહિત ભાગને ખતાવનારા તે વિધિ વાચે જ થાય છે. જેવી રીતે
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हाताधर्मकथा संघस्य कर्तव्यं भवति ।
तथा चोक्तम्-समणेण सावएण य अवस्सकायचयं हवइ जम्हा।
अंतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ।। १ ।। इति (अनुयोगद्वा०) छाया-श्रमणेन श्रावकेण च अवश्यकर्त्तव्यकं भवति यस्मात् ।
अन्तेऽहर्निशस्य च तस्माद् आवश्यकं नाम ॥ १॥ "जं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा ।
तच्चित्ते तम्मणे जाव उभओकालं छन्विहं आवस्सयं करेंति (अनु०) छाया-यदिदं श्रमणो वा श्रमणी वा श्रावको वा श्राविका वा ।
तचित्तः तन्मना यावद् उभयकालं पविधमावश्यकं नाम ॥२॥ आवश्यक कार्यों को प्रतिपादन करने वाले वाक्य जिन प्रभु की आज्ञा के निर्देशक होने से साधु साध्वी श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध संघ को उपादेय माने जाते हैं । शास्त्र में भी यही बात कही गई है
'समणे ण सावएणय' इत्यादि . शास्त्र विहित षटू आवश्यक कर्तव्य चतुर्विध श्रीसंघ को रात्री एवं दिनके अंतिमभागमें अवश्य करन चोहिये । उनके किये विना मुनि का मुनिपन नहीं और श्रावकका श्रावकपन नहीं । अतः षटू आवश्यक कार्य अवश्य करने योग्य होनेसे आवश्यक रूप से प्रतिपादित हुए हैं। __ "जं इमं समणे वा समणी वा सोवए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे वा जाव उभओ कालं" इत्यादि।
इसलिये जब ये आवश्यक हैं तब चाहे साधु हो या साध्वी हो श्रावक हो यो श्राविका हो कोई भी क्यों न हो उसका यह कर्तव्य हो છ આવશ્યક કાર્યોમાં પ્રતિપાદન કરનારાં વાકયે જીન પ્રભુની આજ્ઞાનો નિર્દેશક હોવાને કારણે સાધુ સાધવી શ્રાવક શ્રાવિકા રૂ૫ ચતુર્વિધ સંઘના માટે ગ્ય ગણાય છે. શાસ્ત્રમાં પણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે –
“समणेण सावएण य ' इत्यादि શાસ્ત્રવિહિત છ પ્રકારના આવશ્યક કર્તવ્યો ચતુર્વિધ સંઘને રાત્રિ તેમજ દિવસના અંતિમ ભાગમાં ચોક્કસ પણે આચરવાં જોઈએ. તેનાં આચરણ વગર મુનિનું નિપણું નથી અને શ્રાવકનું શ્રાવકપણું નથી. એટલા માટે છે આવશ્યક કાર્ય ચોકકસ કરવા લાગ્યા હોવાથી આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યા છે.
"ज इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे जाव उभओ कालं इत्यादि-मा प्रमाणे न्यारे ते 'मावश्य' छे, त्या मते સાધુ હોય કે સાધવી હોય તેમજ શ્રાવક હોય કે શ્રાવિકા હોય ગમે તે કેમ
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
चारितानुवादवचनस्य विधायकत्वाङ्गीकारे सूर्याभदेवचरिते शस्त्रादिवस्तूनामर्चनस्य श्रूयमाणतया तन्मते तदपि विधेयं स्यात् ।
द्रौपद्यऽपि तत्र खलु प्रतिमायां भगवतोऽहंतः पूजनं न कृतम् , जैनप्रवचने प्रतिमापूजनस्य विधानाभावात् , प्रतिमापूजनस्य षट्कायजीवहिंसासाध्यतया जैनधर्मत्त्वाभावाच । । तथाहि-प्रतिमापूजाऽङ्गीकारे तदर्थ षट्कायहिंसाऽवश्यंभाविनी, एवं च जाता है कि वह उन्हीं में चित्त लगाकर और मन को तन्मय करके इसे उभय काल में अवश्य करें।
चरित के अनुवादक कथन करने वोले-वाक्य को यदि विधेय रूप से स्वीकार किया जाय तो सूर्याभदेवके चरित में सड़गादि शस्त्र आदि वस्तुओं की भी पूजा सुनी जाती है-अतः उनमें भी पूज्यता आजानी चाहिये और इस प्रकार से पूजन के पक्षपातियों को उनका पूजन भी विधेय कोटि में मानलेना चाहिये ।
द्रौपदी ने भी वहां प्रतिमा में जो भगवान अर्हत की पूजन, नहीं को उसका कारण यह है कि एक तो जैन प्रवचन में प्रतिमा पूजन के विधान का अभाव है और दूसरे-यह प्रतिमा पूजन षट् काय के जीवों की विराधना द्वारा साध्य होती है, इसलिये इस प्रतिमा पूजन में जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित-धर्म आत्मकल्यणसोधकरूप सम्यग्दर्शनादिक का अभाव है । षटू काय के जीवों की विराधना से जो साध्य हुआ करता है वहां सच्चे धर्म के दर्शन तक भी दुर्लभ हैं अतः प्रतिमा पूजन ન હોય તેની એ ફરજ થઈ પડે છે કે તે તેમાં જ પિતાનું ચિત્ત પરવીને મનને તલ્લીન કરીને તેને બંને કાળમાં અવશ્ય આચરે.
ચરિતને અનુવાદક રૂપે બતાવનાર વાજ્યને જે વિધેય રૂપમાં સ્વીકારવામાં આવે તે સૂર્યાભદેવના ચરિતમાં શસ્ત્ર વગેરે વસ્તુઓની પણ પૂજાની વાત સાંભળવામાં આવે છે. એથી તેમનામાં પણ પૂજ્યતા આવી જવી જોઈએ અને આ રીતે પૂજનના પક્ષપાતીઓએ તેમની પૂજા પણ વિધેયના રૂપમાં માન્ય કરવી જોઈએ.
દ્રૌપદીએ પણ ત્યાં પ્રતિમામાં ભગવાન અહંતનું પૂજન કર્યું નથી તેનું કારણ એ છે કે પ્રથમ તે જૈન પ્રવચનમાં પ્રતિમા–પૂજનનું વિધાન નથી અને બીજું આ પ્રતિમા પૂજન ષકાયના જીવોની વિરાધના દ્વારા સંપન્ન હોય છે, તેથી આ પ્રતિમા પૂજનમાં જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત ધર્મ–આત્મકલ્યાણ સાધક રૂપ સમ્યગ્ન-દર્શન વગેરેને અભાવ છે. કાયના જીવોની વિરાધનાથી
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३००
पाताधर्मकथा पाणातिपातविरमणवतिनां मुनीनां प्रतिमापूजोपदेशे स्वधर्मस्य मूलोच्छेदः स्यादेव । अत एव-जिनप्रणीतागमे प्रतिमापूजायाविधि!पलभ्यते । प्रतिमास्थापनार्थ अंगीकार करने में उस पूजन के समय में षट् काय के जीवों की विराधना जप अवश्यंभावी है तय भला! हम इसे विधेय मार्ग कैसे मान सकते हैं, और कैसे यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस पूजन का कर्ता सच्चे धर्म का उपासक है तथा प्रतिमापूजन को धर्म माना जावे तो एक बड़ा भारी दोष यह भी आकर उपस्थित होता है कि सर्व प्रकार के हिंसादिक पापों से सर्वथा विरक्त महाव्रती मुनिजन जब इस प्रतिमापूजनरूप धर्म का उपदेश करेंगे तब वे भी कारितादिरूप कराने आदि रूप से इसके कर्ता होने के कारण अपने मुनिधर्म के मूलतः ही विध्वंसक माने जायेंगे। मुनिजन हिंसादिक सावध व्यापारों के कृत, कारित एवं अनुमोदना इन तीन करण एवं तीन योग से त्यागी हुआ करते हैं। जब ये प्रतिमापूजन रूप धर्म का गृहस्थों के लिये व्याख्यान देंगे तब उनके व्याख्यान से प्रेरित हो गृहस्थ जन उस ओर अपनी प्रवृत्ति चालू करने वाले होंगें, और उस प्रकार के उनके व्यवहार से इस कार्य में षट्काय के जीवों की विराधना होने से उस विराधना જે સાથે થાય છે તેમાં તે સાચા ધર્મના દર્શન સુદ્ધાં દુર્લભ છે. એટલા માટે પ્રતિમા–પૂજન સ્વીકારવામાં તે પૂજન કરતી વખતે પકાયના જીવની વિરાધના જ્યારે ચોક્કસપણે થવાની છે ત્યારે અમે તેને વિધેય માર્ગ કયા આધારે માન્ય કરીએ. અને એની સાથે સાથે અમે એ પણ કેવી રીતે સ્વીકાર કરીએ કે આ જાતનું પૂજન કરનાર સાચા ધર્મને ઉપાસક છે? જે પ્રતિમા પૂજનને ધર્મ રૂપે સ્વીકારીએ તે એમાં એક ભારે દેષ એ છે કે સર્વ પ્રકારનાં હિંસા વગેરે પાપોથી સર્વથા વિરક્ત મહાવતી મુનિજને જ્યારે આ પ્રતિમા પૂજન રૂપ ધમને ઉપદેશ આપશે ત્યારે તેઓ પણ કારિતાદિ રૂપ કરાવવા વગેરે રૂપથી એના કર્તા રૂપે હોવા બદલ પોતાના મુનિ ધર્મના મૂલતઃ વિવંસક ગણાશે. મુનિજને હિંસા વગેરે સાવધ વ્યાપારના કૃત, કારિત અને અનુમોદના આ ત્રણે કરણ અને ત્રણ યુગના ત્યાગી હોય છે. જ્યારે તેઓ પ્રતિમાપૂજન રૂપ ધર્મનું ગૃહસ્થને માટે વ્યાખ્યાન આપશે ત્યારે તેમનાં વ્યાખ્યાનથી પ્રેરાઈને ગૃહસ્થ તે પ્રમાણે આચરશે જ અને આ જાતનાં તેમનાં આચરણથી આ કામમાં બટુકાય જીવોની વિરાધના હોવાથી તે વિરાધનાને કરાવનારા આ ઉપદેશક મુનિઓ જ ગણશે ત્યારે એમના અહિંસા વગેરે મહાબતે વિગ અને ત્રિકરણ વિશુદ્ધ રૂપે કેવી રીતે રહી શકશે ? એથી યમલાભને ઈચ્છતાં પણ તેઓ આ જાતના વિચારોની ભૂલમાં જ મેટી ભૂલ કરી
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गतवर्षी टीका अ० १६ द्रौपदीची
ફેબ देवायतन प्रतिमाऽऽरामकूपादिकरणे तदुपदेशदाने च पृथिवीकाय हिंसाया अबश्यम्भावः । देवायतनादिकरणे पूजाङ्गतयास्नान प्रतिमास्नपनवस्त्रक्षालनादिकरणे च तदुपदेशदाने चाकायविराधनमपि तथा पूजाङ्गधूपदीपारात्रिकसम्पा दनं चाग्निकाविराधना विना न संभवति, वायुकायहिंसनं तु धूपदीपारात्रिकाके कराने वाले ये उपदेशक मुनिजन माने जायेंगे -तब इनके अहिंसादि महाव्रत त्रियोग और त्रिकरण विशुद्ध कैसे रह सकेंगे ? अतः लाभ की चाहना में इन विचारों की भूल में ही बड़ी भारी भूल होने से ये अपने धर्म के सच्चे आराधक नहीं माने जा सकेंगे । इसलिये यह बात अवश्य माननी चाहिये कि जिन प्रणीत आगम में प्रतिमापूजन की विधि नहीं पाई जाती है ।
इसी प्रकार प्रतिमा स्थापन, प्रतिमा प्रतिष्ठा करवाना, मंदिर वगैरह बनवाना एवं उस प्रतिमा की पूजा निमित्त वगीचा तथा कुआ आदि का करवाना ये बातें पृथिवी कायिक जीवों की हिंसा के कारण हैं अतः त्याज्य हैं। इनके बनवाने आदि का जो उपदेश करते हैं वे भी पृथिवीकायिक जीवों की हिंसा से मुक्त नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार पूजन का अंग होने से स्नान, प्रतिमा के अभिषेक तथा पूजन के वस्त्रों के धोने साफ करने में और उसके उपदेश देने में अकाय के जीवों की विराधना होती है, धूपखेना, दीपक जलाना, आरती उतारना ये सब बातें अग्निकायिक जीवों की विराधना के बिना नहीं हो सकती है अर्थात् इनमें अग्निकायिक जीवों की विराधना अवश्यंभाविनी है । બેસશે અને તેએ પોતાના ધર્મના સાચા આરાધક ગણાશે નહિ. એટલા માટે આ વાત ચેાક્કસપણે માની જ લેવી જોઇએ કે ‘ જીન પ્રણીત ’આગમમાં પ્રતિમા–પૂજનની વિધિ મળતી નથી.
या प्रमाणे प्रतिभा-स्थापन, प्रतिभा-प्रतिष्ठा शववी, भंहिर वगेरे બનાવવાં અને તે પ્રતિમાની પૂજા માટે ઉદ્યાન તેમજ વાવ વગેરે તૈયાર કરાવવાં એ પૃથ્વિ કાયિક જીવની હિંસાના કારણ છે—એટલા માટે ત્યાજય છે. તેને બનાવવા માટે જે લેાકેા ઉપદેશ આપે છે તે પણ પૃથ્વિ−કાયિક જીવાની હિંસાથી મુક્ત થઈ શકતા નથી. આ રીતે જ પૂજનને માટે સ્નાન, પ્રતિમાને અભિષેક તેમજ પૂજનના વસ્ત્રોને ધાવામાં અને તેના ઉપદેશમાં પણ અસૂકાયના જીવેાની વિરાધના હોય છે. ધૂપ કરવા, દીપક કરવા, આરતી ઉતારવી આ બધી વિધિઓ અગ્નિકાયિક જીવની વિરાધના વગર સંભવી શકે તેમ નથી એટલે કે તેમાં અગ્નિ-કાયિક છવાની વિરાધના ચાક્કસપણે
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होताधर्मकथासूत्र दिभिश्वामरादिवीजनैर्नृत्यगीतवादित्रैश्च सविशदं भवति, वनस्पतिकायविराधनं च प्रतिमापूनानिमित्त केऽनन्तकायकोमलविविधफलपुष्पपत्रसंग्रहे नियतं भवति । पृथिवीकायायाश्रिता बहुविधनिरपराधहीनदीनदुर्बलप्रकृतिभीरुसंगोपितशरीरा द्वीन्द्रियादि पश्चेन्द्रियान्तास्त्रमा जीवा अपि छेदनभेदनस्वाश्रयविनाशजनितानन्तदुःखस्तीव्रतरवेदनामुपलभ्येतस्ततः स्खलितपतिता म्रियन्ते । धूपकेधुआ से, दीप तथा आरती की ज्योति से चमर आदि के ढोरने से, नृत्य करने से, गीत गाते समय मुख से निकले हुए गर्म वायु से, एवं वाजों के बजाने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती हुई स्पष्ट मालूम देती है । वनस्पति कायिक जीवों की विराधना भी इस समय इस प्रकार से होती है, कि-मूर्ति पूजन के लिये उसके पूजक अनन्त कायिक ऐसे कोमल अनेक प्रकार के फल, पुष्प और पत्रों का संग्रह जो करता है इस प्रकार इस पूजन में षट्कायिक जीवों को हिंसा का आरंभ स्पष्ट देखा जाता है । तथा त्रस कायिक जीवों का भी इसके निमित्तहनन होता है और वह इस प्रकार से-कि जब पृथिवीकायिकादि जीवों का आरंभ प्रतिमा आदि के निर्माण में या देव आयतन (मन्दिर) आदि के कराने में किया जाता है तो उस समय उसके आश्रित जो बहुत से अनेक जाति के निरपराधी, हीन, दीन, दुर्वल, प्रकृति से भयशील तथा संगोपित शरीरवाले ऐसे द्वीन्द्रियादिकसे लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी उस जीव रहते हैं वे सब के सब छेदन, भेदन, एवं स्वाश्रय के विनाश जनित अनंत दुःखों से संतप्त होकर થવાની જ છે. ધૂપના ધૂમાડાથી દીપક અને આરતીની તથા ચમર વગેરેને કેળવાથી તેમજ વાજાઓ વગાડવાથી વાયુકાયિક જીવની વિરાધના થાય છે તેની દરેકને સ્પષ્ટ પ્રતીતિ થતી જ રહે છે. વનસ્પતિ-કાયિક જીવોની વિરાપના પણ તે વખતે આ પ્રમાણે થાય છે કે મૂતિ-પૂજન માટે પૂજા કરનારાઓ અનંત-કાયિક એવા કમળ ઘણી જાતનાં ફળે, પુપે અને પત્રોને એકઠાં કરે છે. આમ આ પૂજામાં ષડૂ-કાયિક જીવોની હિંસા સ્પષ્ટપણે દેખાય છે. વસ-કાયિક ઓનું પણ તેને લીધે હનન હેય છે. જેમકે જ્યારે પૃથ્વિ-કાયિક વગેરે અને આરંભ પ્રતિમા વગેરેના નિર્માણમાં અથવા તે દેવ–આયતન (મંદિર) વગેરે બનાવવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે તેના આશ્રિત જે ઘણા અનેક જાતના નિરપરાધિ, હીન, દીન, દુબલ, પ્રકૃતિથી બીકણ તેમજ સંગે પિત શરીરવાળા એવા દ્વીન્દ્રિયાદિકથી માંડીને પંચેન્દ્રિય સુધીના જેટલાં વસ જી રહે છે તે સર્વે છેદન, ભેદન અને હવાશ્રયના વિનાશથી અનંત
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ममगारधामृतवार्षिणी १० अ० १६ प्रौपदीची
धर्मस्य लक्षणं हि-जिनाज्ञाम योज्यप्रवृत्तिकत्वम् , " आणाए मामगं धम्म" इति भगवद्वचनात् , किं च-अगारानगारभेदेन धर्मस्य द्वैविध्यमभिधाय-भगवता-" अणगारधम्मो ताव" इत्यादिना सर्वप्राणातिपातविरमणादि-रात्रिभोअनान्तान् अनगारधर्मानुपदिश्य तदनन्तरमिदं कथितम्
'अयमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयरस धम्मस्स सिक्खाए उव. दिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणा ए आराहए भवई' (औपपातिसूत्रम्)
अयमायुष्मन् ! अनगारसामायिका अनगारसिद्धान्तविषयः, धर्मः प्रज्ञप्तः । एतस्य धर्मस्य ' शिक्षायामुपस्थितः '=आराधकः, निग्रंथो वा निग्रंथी वा विहरऔर वहां से गिर पड़कर अन्त में मर जाते हैं।
जिनेन्द्र की आज्ञा में प्रवृति करना यही धर्म का लक्षण है। भगवान का भी आचारागसूत्र अ-६ उ. २ सू- ८ में यही कथन है " ओणाए मामगं धम्म” इति । प्रभु ने जिस समय धर्म का उपदेश दिया उस समय उन्होंने इस धर्मके दो भेद कहे हैं इनमें एक१ सागारी गृहस्थका धर्म और दूसरा अनगार-मुनिका धर्म । " अनगार धम्मो ताव" इत्यादि सूत्र से समस्त जीवों की विराधना आदि से विरक्त होना यहां से लगाकर रात्रिभोजन का सर्वथा परिहार करना यहां तक जो कुछ कहा है वह सब अनगार धर्म को लेकर कहा गया है उसके बाद उन्होंने औपपातिक सूत्र में यह कहा है कि " अयमाउसो अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए, उवहिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" हे आयुष्मन ! यह अनगारसामायिक-मुनियों का सिद्धान्त विषयक દુખેથી સંતપ્ત થઈને અને ત્યાંથી પડી જઈને, ભ્રષ્ટ થઈને અને મૃત્યુને ભેટે છે.
જીનેન્દ્રની આજ્ઞા પ્રમાણે અનુસરવું એ જ ધર્મનું લક્ષણ છે. આચારાંગ सूत्र 4-6, 6-२, सू-८ मा ५ भावाने 24 प्रमाणे ह्यु छ है “ आणाए मामगं धम्म इति" प्रभुसे यारे धर्म वि पढेश पायो त्यारे तमगे આ ધર્મના બે ભેદ બતાવ્યા છે ૧ સાગાર-ગૃહસ્થને ધર્મ અને ૨ અનગાર मुनिन। . “ अनगारधम्मो ताव " मेरे सूत्रथा समस्त ७वोनी विशધના વગેરેથી વિરક્ત થવું અહીંથી માંડી રાત્રિ-જનને સંપૂર્ણપણે ત્યાગ કર અહીં સુધી જે કંઈ કહ્યું છે તે બધું અવગાર ધર્મને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવ્યું છે. ત્યારપછી ઔપપાતિક સૂત્રમાં તેઓશ્રીએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે – ( अयमाउसो अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए, उदिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ) 3 मायुभन् !
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भाताधर्मकथा
माण आज्ञाया आराधको भवति । एतस्य धर्मस्याराधक एवाज्ञाया आराधक इत्युक्त्वाऽऽज्ञैव धर्मस्य प्रकाशकतया मूलमिति बोषितम् । तदनन्तरं च भगवता
_ " अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खः । तं जहा-पंच अणुव्वयाई, तिष्णिगुणब्बयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" इत्यादिना द्वादशविधं धर्म निरूप्य कथितम् ।
'अयमाउसो ! अगारसामइए धम्मे पण्णत्ते ' एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" इति। धर्म कहा गया है-अर्थात् मुनियों का यह धर्म कहा गया है। इस धर्म की शिक्षा में जो उपस्थित होता है अर्थात् जो इस धर्म कीआराधना करते हैं- चाहे वे साधु हों चाहे साध्वी हों कोइ भी हो ये जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के आराधक होते हैं । इस धर्म की आराधना करनेवाला जीव ही जिनेन्द्र की आज्ञा का आराधक माना गया है इस कथन से " जिस बात में भगवान की आज्ञा हो वही धर्म का मूल है अन्य आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति है " यह बात समझाई गई है इस के बाद भगवान ने “अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ तं जहा-पंच अणुव्वयाई, तिण्णिगुणव्वयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" इस सूत्र से यह प्रकट किया है कि गृहस्थ का धर्म १२ प्रकार का है ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत । इस प्रकार से कथन कर " अयमाउसो अगारसामइए धम्मे पण्णत्ते एयस्त धमस्स सिक्खाए, उवहिए, समणोवासर वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ" इति-हे આ અગાર સામાયિક મુનિને સિદ્ધાન્ત વિષયક ધર્મ કહેવામાં આવ્યું છે એટલે કે આ મુનિઓને ધર્મ કહેવામાં આવ્યું છે. આ ધર્મની શિક્ષામાં જે ઉપસ્થિત હોય છે એટલે કે આ ધર્મની આરાધના કરે છે-ભલે તેઓ સાધુ હોય કે સાધ્વીઓ ગમે તે કેમ ન હોય તેઓ જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધકે હોય છે આ ધર્મની આરાધના કરનારો જીવ જ જીનેન્દ્રના આરાધક ગણાય છે. આ કથનથી એ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે જે વાતમાં ભગવાનની આજ્ઞા હોય તે જ ધર્મ છે, આજ્ઞા વિરૂદ્ધ બીજું આચરણ અધર્મ छ. त्या२५छी लगवान " अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ त जहा पंच अणुव्वयाई,तिण्णि गुणधयाइं चत्तारि सिक्खावयाई" मा सूत्र द्वारा से स्पष्ट કરવામાં આવ્યું છે કે ગૃહસ્થને ધર્મ ૧૨ પ્રકારને છે–પ આણુવ્રત, ૩ ગુણવ્રત भने ४ शिक्षाबत. 240 रीते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मरस सिक्खाप अबदिए, खमणोवासए का समणोवालिया वा विहरमाणे
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अनारधामृतषिणी ० ० १६ द्रौपदीचर्या
छाया-अयमायुष्मन् ! अगारसामयिको धर्मः प्रज्ञप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः'आराधका श्रमणोपासको वा श्रमणोपासिका वा विहरमाणा आज्ञाया आराधको भवति । इति !
अत्रापि एतस्य द्वादशविधस्य धर्मस्याराधक एव श्रमणोपासक आज्ञाया आराधक इति बोधयताऽऽझैव धर्मस्य मूलमिति बोधितम् ।
आचारागसूत्रेऽपि प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशे भगवताऽभिहितम्-" जाए सद्धाए णिक्वंते तमेवमणुपालिज्जा-विजहिता विसोत्तियं पुवसंजोगं । पणया वीरा महावीहिं । लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।" इति आयुष्यमन् ! यह गृहस्थ का धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित-श्रमणोपासक-मुनिजनों के भक्त ऐसे श्रावकजन अथवा श्राविकाजन तीर्थकर प्रभु की आज्ञा के आराधक माने जाते हैं। इस सूत्र में भी यही प्रकट किया गया है कि इस १२ प्रकार के धर्म का ओराधक ही श्रमणोपासक-श्रावक, श्राविका तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक है इस प्रकार समझानेवाले श्री जिनेन्द्र देव ने आज्ञा ही धर्म का मूल है यह समझाया है । ____ आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशे में भगवान ने यह कहा है “जोए सद्धाए णिक्खंते तमेव मणुपालिज्जा विज. हित्ता विसोत्तियं पुश्वसंजोगं । पणया वीरा महावीहिं लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं कि जिस श्रद्धा उत्साह से "अहंत प्रभु द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्ग है या नहीं है" इस प्रकार सर्व आणाए आराहए भवइ" आयु०भन्त ! 40 28२५ धम मतापामा माव्या છે. આ ધર્મની શિક્ષામાં ઉપસ્થિત શ્રમણે પાસક મુનિઓના ભક્તજન-શ્રાવકે અથવા તે શ્રાવિકાઓ તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક ગણાય છે. આ સૂત્રમાં પણ આ પ્રમાણે જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે કે ૧૨ પ્રકારના ધર્મને આરાધક જ શ્રમણે પાસક શ્રાવક શ્રાવિકા તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાને આરાધકે છે. આ રીતે સમજાવનારા શ્રી જીતેન્દ્રદેવે આજ્ઞા જ ધર્મનું મૂળ છે આમ સમજાવ્યું છે.
આચારાંગ સૂત્રના પહેલા અધ્યયનના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં ભગવાને આ પ્રમાણે ४युं छ-" जाए सद्धाए णिक्खंते तमेवमणुपालिज्जा विजहिता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं। पणया वीरा महावीहि लोगं च आणाए अभिसमेन्वा अकुतोभयं " ! જે શ્રદ્ધા-ઉત્સાહથી “અહંત પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત સમ્યગ દર્શન વગેરે મોક્ષના માર્ગો છે કે નહિ ” આ રીતે સર્વ આગમ વિષયક સર્વ શંકા તેમજ
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माताधर्मकथा यया श्रद्धया-सम्यक्त्वेन ' विसोत्तियं ' विस्रोतसिकांशङ्का-सर्वशङ्कां देशशङ्कां चेत्यर्थः, यथा-'किमाहतो मोक्षमार्गोऽस्ति न वा ' इति सर्वागमविषयिका शङ्का सर्वशङ्का, तथा-" किमप्कायादयो जीवाः सन्ति न वा” इति देशशङ्का । तथा 'पुव्वसंजोगं ' पूर्वसंयोग मातापित्रादिसम्बन्धं धनधान्यस्वजनादिसम्बन्धं वा, इदमुपलक्षणं-तेन पश्चात्संयोगमपि श्वशुरादिकृतं, 'विजहिता' विहाय परिस्यज्य ‘णिक्खंत्ते' निष्क्रान्तः प्रबजितः । 'तं' तां श्रद्धाम् : ' अणुपालिज्जा एव' अनुपालयेदेव-निरतिचारं रक्षेदित्यर्थः ।। ___ अथ-'परिशीलितमार्गोऽनुगम्यते' इति लोकरीत्या शिष्यश्रद्धादृढ़ीकरणाय पूर्वमहापुरुषाचरितोऽयं मार्ग इति ।।
वीराः-भाववीराः संयमानुष्ठाने वीर्यवन्तः 'महावी हिं' महावीथि महावीथिः-सम्यग्दर्शनादिलक्षणो महामार्गः महापुरुषसे वितत्वात् , तां महावीथिं आगम विषयक सर्वशंका का तथा “ अपू कायिकादिक जीव हैं या नहीं" इस प्रकार की देशशंका और माता पिता आदि के साथ के संबंधरूप पूर्व संयोग एवं धन, धान्य, स्वजन आदि संबंध, उपलक्षण से श्वशुर आदिरूप प्रश्चात् संयोग का परित्याग कर यह जीव संसार आदि पदार्थी को हेय समझ उनसे सर्वथा विरक्त हो जाता है उस श्रद्धा का अतिचार आदि कों से रक्षा करनी चाहिये-उस श्रद्धा का अतिचार रहिक होकर मुनि को पालन करना चाहिये ! जो मार्ग परिशीलित होता है उस पर अनेक प्राणी चलते हैं यह लौकिकरीति है। इसीरीति के अनुसार शिष्यों की श्रद्धा को दृढ करने के लिये " यह मार्ग पूर्व में महापुरुषों द्वारा सेवित किया गया है " हमें समझाने के लिये सूत्रकार " पणया वीरा महावीहिं" इस अंश का कथन करते हैं છે અષ્કાયિક વગેરે જીવે છે કે નથી” આ જાતની દેશ શંકા અને માતા પિતા વગેરેની સાથેના સંબંધ રૂપ પૂર્વ સંગ અને ધન, ધાન્ય, સ્વજન વગેરે સંબંધ ઉપલક્ષણથી “શ્વસુર ” વગેરે રૂપ પશ્ચાત્ સંગને પરિત્યાગ કરીને આ જીવ સંસાર વગેરે પદાર્થોને હેય સમજીને તેમના તરફ સંપૂર્ણપણે વિરક્ત થઈ જાય છે તે શ્રદ્ધાની અતિચાર વગેરેથી રક્ષા કરવી જોઈએ. તે શ્રદ્ધાનું પાલન મુનિએ અતિચાર વગર થઈને કરવું જોઈએ જે માર્ગ પરિ. શીલિત હોય છે તે તરફ ઘણાં પ્રાણીઓ જાય છે, આ લૌકિક પ્રથા છે. આ પ્રથા પ્રમાણે શિષ્યની શ્રદ્ધાને મજબૂત બનાવવા માટે “ આ માર્ગ મહા પુરૂષ વડે સેવવામાં આવ્યું છે. ” આ વાત સમજાવવા માટે સૂત્રકાર " पणया वीरा महावीहि " ॥ पयनने 3 छे. वार मे ५४२॥ हाय छ
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अनंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीच
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पणया' प्रणताः = प्राप्ताः कठिनतरतपः संयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्यर्थः । अयमेव मार्गे मोक्षावाप्तिकरोऽशेपसंयमि से वितत्वात् तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितवन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणां श्रद्धापूर्वकं प्रवृत्तिर्यथा स्यादितिभावः । कश्चिन्मन्दधीः
शिष्योऽनेकदृष्टान्तैर्बोध्यमानोऽपि अपकायादिजीवेषु न श्रद्दधातीति तमुद्दिश्य कथयति - हे शिष्य ! तत्र मतिर्यद्यपि अप्कायजीवविषये न
1
वीर दो प्रकार के होते हैं ? द्रव्यवीर और दूसरे भाववीर । संयम के अनुष्ठान करने में जो शक्तिसंपन्न हैं वे भाववीर हैं । ये जीव सम्यग्दर्शन आदि लक्षणरूप इस महाविस्तृतमार्ग को कि जो महापुरुषों द्वारा सेवित हुआ है कठिनतर तप और संयम की आराधना से प्राप्त कर लिया करते हैं । कहने का सार यही है कि भाववीर यही अपने चित्तमें विचार किया करते हैं कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्र और सम्यग्वरूप ही मार्ग है क्यों कि इसी से मुक्ति की प्राप्ती होती हैइसीलिये इस मार्गका समस्त संयमीजीवोंने पूर्व में सेवन किया है और तो क्या स्वयं तीर्थकर प्रभु ने भी इसी मार्ग की परिशीलना की है । इसलिये इस मार्ग में प्रवृत्ति सर्वहित विधायी है इस प्रकार यह मार्ग विश्वास योग्य होने से शिष्यजन भी श्रद्धापूर्वक इसमें प्रवृत्ति करें । कोई मन्दबुद्धिवाला शिष्य अनेक दृष्टान्तो द्वारा समझाये जाने पर भी यदि अकाय आदि जीवों की श्रद्धा से रहित होता है तो उसे
૧ દ્રવ્ય-વીર, ૨ ભાવ–વીર. સંયમના અનુષ્ઠાનમાં જે શક્તિશાળી છે તે ભાવ વીર છે. આ બધા જીવા સસ્યાગ્-દશન વગેરે લક્ષણુ રૂપ આ વિસ્તૃતમાને કે જે મહાપુરૂષા વડે સેવવામાં આવ્યું છે-કઠણ તપ અને સંયમની આરા ધનાથી મેળવી લે છે. કહેવાની મતલબ એ છે કે ભાવ-વીરે પાતાના મનમાં આ પ્રમાણે જ વિચાર કરતા રહે છે કે ખરી રીતે સમ્યગ્ જ્ઞાન, સમ્યગ્ દર્શન, સમ્યગ્ ચારિત્ર રૂપ જ માગ છે કેમકે મુક્તિની પ્રાપ્તિ એનાથી જ થાય છે. એટલા માટે જ પહેલાં થઈ ગયેલા બધા જીવે એ આ માગતું જ અનુસરણુ કર્યું હતું. તીથ કર પ્રભુએ જાતે પણ આ માર્ગની જ પરશીલતા કરી છે, એથી આ માર્ગોમાં પ્રવૃત્ત થવું તે બધી રીતે હિતાવહ છે. આ પ્રમાણે આ માર્ગ વિશ્વસનીય હેાવા અદ્દલ શિષ્યા પણ શ્રદ્ધા રાખીને તેમાં પ્રવૃત્ત થાય. કોઇક મંદ બુદ્ધિ ધરાવનાર શિષ્ય ઘણા દૃષ્ટાંત વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવવા છતાં પણ જો અપ્લાય વગેરે જીવાની શ્રદ્ધાથી રહિત ડાય છે તે
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वाताधकथा परिस्फुरति, तद्विषये विशेषज्ञानाभावात् , तथापि भगवदाज्ञया श्रद्धा नितरां विधेयेत्याशयेनाह-" लोगं च आणाए अभिसमेचा अकुतोभयं " इति ।
" लोगं" लोकम् अत्र लोकशब्देन प्रकरणबशादप्काय लोक एव गृह्यते, तमपुकायलोकं, च शब्देन अन्यांचा कायाश्रितान् जीवान् " आणाए" आज्ञया तीर्थकर वचनेन “ अभिसमेच्चा" अभिसमेत्य आभिमुख्येन सम्यग्ज्ञात्या, अप्कायादयो जीवाः सन्तीत्येवमवबुध्येत्यर्थः, " अकुतोभयं " नास्ति कुतश्वित् समझाने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्य ! तुम्हारी घुद्धि अप्का यिक आदि जीवोंकी श्रद्धा करने में उन विषयक विशेषज्ञानके अभावसे यदि समर्थ नहीं है, तो भी भगवान की आज्ञा से तुम्हें उनके विषय में अपनी श्रद्धा को दूषित नहीं होने देना चाहिये-अर्थात् भगवान की आज्ञा प्रमाण मानकर तुम्हें उनके विषय में अपनी अतिशय श्रद्धा जाग्रत करनी चाहिये । सूत्रकार इसी अभिप्राय से कहते हैं कि " लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुताभयं " इति । अप्काय रूप लोक को तथा "च" शब्द से अन्य अप्काय के अश्रित जीवों को तीर्थकर प्रभु की आज्ञा से अच्छी तरह जानकर उनकी आज्ञानुसार उनका अस्तित्व मानकर आत्मकल्याण के अभिलाषी मुनियों को संयम का पालन करना चाहिये। सूत्रस्थलोक शब्द यहां प्रकरण के वश से अपू. काय का बोधक है। "च" शब्द से तदाधित अन्य जीवों का ग्रहण हुआ है। "अकुतोभयं" शब्द का अर्थ संयम है कहीं से भी किसी તેને સમજાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિષ્ય! તમારી બુદ્ધિ અષ્કાયિક વગેરે જેવેની શ્રદ્ધા કરવામાં તેમના વિષે સવિશેષ જ્ઞાનના અભાવના લીધે જે સમર્થ નથી તે પણ ભગવાનની આજ્ઞાથી તે પ્રત્યે તમે પિતાની શ્રદ્ધાને દૂષિત થવા દેશે નહિ એટલે કે ભગવાનની આજ્ઞા પ્રમાણ માનીને મંદ બુદ્ધિવાળા શિષ્યએ તેમના પ્રત્યે પોતાની વધારેમાં વધારે શ્રદ્ધા MIत ४२वी नये. सूत्रा२ मा प्रयोजनका ४ छ । “लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं " इति । सय ३५ ४ने तमा 'च' थी બીજા અષ્કાયાશ્રિત જીને તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાથી સારી પેઠે સમજીને તેમની આજ્ઞા મુજબ તેમનું અસ્તિત્વ માનીને આત્મકલ્યાણને ઇચ્છનારા મુનિઓએ સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. સૂત્રમાં આવેલ “લેક” શબ્દ અહીં પ્રકરણ વશાત અષ્કાયને વાચક છે. “ર” શબ્દથી તદાશ્રિત બીજા જીનું अ५ थ\ छ. '' अकुतोभयं " नी म सयम छ. ध प नयाએથી કોઈ પણ રીતે જીવને જેનાથી ભય હેતું નથી તે અકુભય-સંયમ
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १६ द्रौपदीचेच
૬૦૨
केनापि प्रकारेण प्राणिनां भयं यस्मात् सोऽकुतोभयः-संयमस्तम्, "अणुपालिज्जा" अनुपालयेत् इति पूर्वोक्तेन सम्बन्धः । सर्वदा जीवाभिरक्षणरूपसंयमानुपालने सावधानतया यत्नः कार्यः इत्यर्थः ।
"
अत्र जाए सद्वाए गिक्ते तमेवमणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं पुत्रसंजोगं " इत्यनेन श्रद्धाया आराध्यत्वे जिनाज्ञायाः सद्भावात् श्रद्धाया धर्मश्वं सिद्धम् ।
earest of पि च धर्मस्तदर्थं " पणया वीरा महावोहिं " इति भगवदुपदेशस्य सद्भावात् ।
" लोगं च आणाए अभिसमेच्चा " इत्यनेनाज्ञायाः षट्कायजीवतत्त्वज्ञानहेतुत्वेन वर्णनात् तत्वज्ञानस्य धर्मत्वम् ।
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भी प्रकार से जीवों को जिससे भय नहीं होता है वह अकुतोभयसंयम है भाव इसका यही है कि आत्म कल्याण के इच्छुक मुनियों को जीवों के संरक्षण रूप संयम की आराधना करने में सावधानता पूर्वक प्रयत्नशील रहना चाहिये। यहां “जाए सद्धाए निक्खते तमेवमणुपालिना, विजहिता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं " इस सूत्रांश से यह बात समझाई गई है कि श्रद्धा की आराधना में जिनेन्द्र की आज्ञा का सद्भाव है अतः वह धर्म है । अपि च श्रद्धा की दृढता करना यह भी धर्म है । इसी निमित्त " पणया वीरा महावाहिं " यह भगवान का उपदेश है ।
" लोगं च अणाए अभिसमेचा " इस सूत्रांश से यह प्रकट होता है कि जब जिनेन्द्र की आज्ञा षट् कायिक जीवों के वास्तविक ज्ञान होने में हेतुरूप से वर्णित हुई है तो इस स्थिति में तत्वज्ञान धर्म है ।
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છે. મતલષ એ છે કે આત્મકલ્યાણ ઇચ્છનારા મુનિઓને જીવાની રક્ષા રૂપ સયમની આરાધના કરવામાં સાવધાન થઈને પ્રયત્ન કરતાં રહેવું જોઇએ. અહીં जाए सद्धाए निक्खते तमेवमणुपालिज्जा, विजहित्ता विसोत्तियं पुव्वसंजोगं " આ સૂત્રાંશ વડે આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે શ્રદ્ધાની આરાધનામાં જીનેન્દ્રની આજ્ઞાના સદ્ભાવ છે એટલા માટે તેજ મજબૂત મનાવવી તે પણ ધર્મ છે. આ
ધમ છે. અને શ્રદ્ધાને
નિમિત્તે જ
पण या वीरा महावीहिं
આ ભગવાનના ઉપદેશ છે.
""
लोगंच आणाए अभिसमेच्चा " मा सूत्रांश वडे या वात स्पष्ट थाय છે કે જ્યારે જીનેન્દ્રની આજ્ઞા ષટ્કાયિક જીવા વિષે વાસ્તવિક જ્ઞાન કરાવવા માટે જ કરવામાં આવી છે ત્યારે આવી પરિસ્થિતિમાં તત્વજ્ઞાન ધમ છે,
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जाताधर्मकथानमत्र 'अकुतोभयं' इत्यस्य-" अणुपालिज्जा" इत्यनेनान्वयाद् अकुतोभयंसंयमम् अनुपालयेदित्यपि भगवदाज्ञैव, तथा च संयमस्याऽऽराध्यतया विधानात् संयमस्य धर्मत्वं बोध्यम् । ____ अपरं च-उत्तराध्ययनमूत्रो-"धम्माण कासवो मुहं " इत्युक्तम् " धम्माणं" धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्रधर्माणां च " कासको" काश्यपः काश्यपगोत्रीयः श्रीमहावीरवर्धमानस्वामी " मुई " मुखं वक्ता वर्तते । __ अहिंसादौ खलु भगवतोऽईत आज्ञा वर्तते, पश्यागमेषु । यथा-आचाराङ्गसूत्रे
" से बेमि-जे य अतीता, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमिस्सा अरहता भगवंतो, ते सव्वेवि एवमाइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवेति'अक्रतोभयं' इस पद का “ अणुपालिजा" इस क्रियापद के साथ अन्वय करने से यह अर्थ होता है कि अकुतोभयरूप संयम का पालन करना चाहिये, यह भी जय भगवान को आज्ञा ही है तो इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान को आज्ञा से संयम आराधन करने लायक होने से धर्म रूप है। अपरं च-उत्तराध्ययन सूत्र में “ धम्माणं कासबो मुहं " यह कहा है इसका भाव यह है कि श्रुत एवं चारित्र धर्मों के मुख-वक्ता-काश्यय गोत्रीय श्री महावीर वर्धमान स्वामी हैं । देखो उन्हों ने आगमों में अहिंसादिक महाव्रतों के पालने का मुमुक्षुओं मोक्षाभिलाषियों के लिये इस प्रकार आज्ञा प्रदान की है " से बेमि-जे य अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे वि एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परुति" सम्वे
अकुतोभयं '' मा ५४नो ' अणुपालिज्जा' मालियापनी साथै अन्य ४२વાથી આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે કે અકુભય રૂપ સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. આ પણ ભગવાનની જ આજ્ઞા છે તે એનાથી આ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે કે ભગવાનની આજ્ઞાથી સંયમ” આરધવા ગ્ય હોવાથી ધર્મરૂપ छ. अन जी उत्तराध्ययन सूत्र'मा “धम्माणं कासवो मुहं" मा प्रमा.
ને ઉલ્લેખ છે. એને અર્થ એમ થાય છે કે કુત અને ચારિત્ર ધર્મોના મુખ્ય-વકતા-કાશ્યપ ગોત્રીય શ્રી મહાવીર વર્ધમાન સ્વામી છે. તેઓશ્રીએ
અહિંસા વગેરે મહાવ્રતના પાલન કરનારા મેક્ષ ઈચ્છનારા લોકોને માટે આગમિમાં આ જાતની આજ્ઞા કરી છે કે –
"से बेमि-जे य अतीता जे य पडुवन्ना जे य आगमिस्सा अरहता भगवतो “ सम्वे वि एषमाइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेति सम्वे
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीयो
सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्चे सत्ता न ईतन्वा न अज्जावेयच्या, न किलायव्वा, न उद्दवेयब्वा ।
एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए, समेच्चा लोयं खेयन्नेहिं पवेइए।
आईतधर्मएव श्रद्धेय इति बोधयितु श्रीसुधर्मास्वामीमाह-" से बेमि" इत्यादि । तीर्थकरैः स्वस्वशिष्येभ्यो यत् सम्यक्त्वमुक्तं तदहं प्रवीमि । यद्वा'से' इत्यस्य 'स' इतिच्छाया । येन मया भगवतः श्री वर्धमानरचामिनस्तीथकरम्य सकाशे तद्वचनतस्तत्वज्ञानं लब्धं, सोऽहं ब्रवीमि ।- भगदुक्तार्थमेव कथयामि, तस्मान्मम वाक्यं श्रद्धेयमितिभावः । पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेये. व्वा, न परिघेत्तव्वा, न परितावेयव्वा न किलामेयच्या, न उद्दवेयवा। एस धम्मे सुद्धे णितिए समेच्चा लोयं खेयन्नेहिं पवेइए" (आ. सू० अ. ४ उ. १ सू० १) श्री सुधर्मा स्वामी इस सूत्र द्वारा जम्बूस्वामी को यह समझाते हैं कि अर्हतप्रभु द्वारा प्रतिपादित धर्म ही श्रद्धा करने योग्य हैं-वे इसमें कहते हैं कि तिथंकर देवों ने अपने २ शिष्यों के लिये जिस सम्यक्त्व का कथन किया है वही तत्व उन तीर्थकर प्रभुके वचनों द्वारा श्रवण कर मैं तुम्हें समझाता हूँ अर्थात् मैं अपनी निजी कल्पना से इस विषय में कुछ भी न कह कर जो कुछ तुम्हें समझाउँगा वह तीर्थकर प्रभु की मान्यतानुसार ही समझाऊँगा अतःइस में संदेह के लिये घोड़ी सी भी जगह नहीं है इसलिये इस मेरे कथन का मूलस्रोत जय श्री तीर्थंकर प्रभु का उपदेशश्रवण है तब यह श्रद्धेय-श्रद्धा करने योग्य आवश्य है भगवान का यह आदेश है-कि जितने भी • पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हतव्या, न अज्जावेयव्या, न परिधेत्तव्बा, न परितावेयव्या, न किलामेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णितिए सभेच्चा लोय खेयने हि पवेइए" ( आ. सू. अ. ४ उ. १ सू. १) શ્રી સુધર્મા સ્વામી આ સૂત્ર વડે શ્રી અંબૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે કે અહત પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત ધર્મ જ શ્રદ્ધેય છે, તેઓ આ સૂત્રમાં કહે છે કે તીર્થકર દે એ પોતપોતાના શિષ્ય માટે જે સમ્યકત્વનું નિરૂપણ કર્યું છે તે જ તત્વ તીર્થંકર પ્રભુના મુખથી શ્રવણ કર્યા બાદ હું તમને સમજાવી રહ્યો છું. એટલે કે હું પિતાની મેળે આમાં કંઈ પણ ઉમેર્યા વગર તીર્થકર પ્રભુની માન્યતા મુજબ જ તમને સમજાવીશ. એવી અ માં શંકાને માટે સહેજ પણ સ્થાન નથી. આ પ્રમાણે જ્યારે મારા કથનને મૂળ સ્રોત શ્રી તીર્થ કર પ્રભુનું ઉપદેશ શ્રવણુ છે ત્યારે તે ય જ છે. ભગવાનની આ પ્રમાણે આશા છે કે
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१३
पाताधर्मकथागत ___ भगवदुक्तार्थमाह-" जे य अतीता" इत्यादि । ये च अतीता अतीतकालिकाः, ये च पड्डुप्पमा ' प्रत्युत्पन्नाः वर्तमानकालिकाः पञ्चभरतेषु पञ्चैरवतेषु पञ्चमहाविदेहेषु वर्तमानाः, ये च " आगमिस्सा" आगामिनः-भविष्यत्कालभाविनः, ते सर्वेऽपि अर्हन्तो भगवन्तः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण “आइवखंति" आख्यान्ति-परप्रश्नावसरे कथयन्ति । अत्र वर्तमानग्रहणमुपलक्षणं तेनातीतानागभूतकाल में तीर्थकर हुए हैं, वर्तमान काल में भी पांच भरत, पांच ऐरवत तथा पांच महाविदेह सम्बन्धी जितने भी तीर्थंकर हैं और भविष्यत काल में जो तीर्थकर होंगे उन सब ने जब उनसे किसी ने प्रश्न किया, तो एक यही उत्तर दिया है देव एवं मनुष्यों की सभा में अपनी सर्वभाषा में परिणमित हुई अर्धमागधीरूप दिव्यध्वनि द्वारा उन्हों ने समस्त जीवों को यही समझाया है, और हेतु, दृष्टान्तों द्वारा इसी बात की पुष्टि की है। वक्तव्य विषय के भेद और प्रभेदों को प्रकट करते हुए उन्हों ने अच्छी तरह से यही प्ररूपणा की है कि समस्त प्राणी पृथिवी आदिक एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से लेकर द्वीन्द्रियादिक पंचेन्द्रिय जीव पर्यन्त प्रस जीव, चतुर्दश भूतग्रामरूप समस्त भूत, नरकगति, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति के समस्त जीव, एवं अपने द्वारा किये गये कर्मों के उदय के फल स्वरूप सुख दुःख आदि का अनुभव करने वाले समस्त सत्व दण्ड आदि द्वारा कभी भी ताडन करने गेग्य, घात करने योग्य, ये मेरे आधीन हैं ऐसा ख्याल ભૂતકાળમાં જેટલા તીર્થંકર થયા છે, વર્તમાનકાળમાં પણ પાંચ ભરત, પાંચ ઐરવત તથા પાંચ મહાવિદેહ સંબંધી જેટલા તીર્થ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં જેટલા તીર્થંકરો થશે તે બધામાંથી જ્યારે કેઈએ પ્રશ્ન કર્યો ત્યારે એક જ ઉત્તર આપે છે, દેવ અને માણસોની સભામાં પિતાની સર્વ ભાષામાં પરિ. સુમિત થયેલી અર્ધમાગધી રૂપ દિવ્યધ્વનિમાં તેઓએ બધા ને એજ વાત સમજાવી છે અને હેતુ તેમજ દૃષ્ટાંત વડે આ વાતનું જ સમર્થન કર્યું છે. વક્તવ્ય વિષયને ભેદ અને પ્રભેદેને સ્પષ્ટ કરતાં તેઓએ સરસ રીતે એજ પ્રરૂપણ કરી છે કે સમસ્ત પ્રાણીઓ પૃથ્વિ વગેરે એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીથી માંડીને દ્વીદ્રિય વગેરે પંચેન્દ્રિય જીવ સુધીના ત્રસ જીવ, ચતુર્દશ ભૂતગ્રામ રૂપ સમસ્ત ભૂત, નરક ગતિ, તિર્યંચ ગતિ, મનુષ્ય ગતિ અને દેવ ગતિના બધા છે, અને પિતાના વડે કરવામાં આવેલાં કર્મોના ઉદયના ફળ સ્વરૂપ સુખ દુઃખ વગેરેને અનુભવતા બધા સવૅ દંડ વગેરેથી કોઈ પણ વખત તાડન કરવા યોગ્ય કે ઘાત કરેવા ગ્ય, કે એ મારા આધીન છે
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी डी० अ० १६ द्रौपदीचच
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तयोरपि ग्रहणम्, तथा च- ' एवमाचख्युः, एवमाख्यास्यन्ति ' इत्यपि योजनीयम् । एवं सर्वासु क्रियासु योजनीयम् । तथा एवं " भासंति " भाषन्ते सुरनरपरिषदि सर्वजीवानां स्वस्वभाषापरिणामिन्याऽर्धमागध्या भाषया ब्रुवन्ति । तथा - एवं" पण्णवेंति " मज्ञापयन्ति = हेतुदृष्टान्तादिना प्रकर्षेण बोधयन्ति । तथाएवं परूवेंति ' प्ररूपयन्ति ततद्भेदं प्रदश्य प्रकर्षेण निर्णयन्ति ।
(
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ननु सर्वेऽप्यर्हन्तो भगवन्तः - किमाख्यान्तीत्यादिजिज्ञासायामाह -' सब्वेपाणा ' इत्यादि । सर्वे - निरवशेषाः प्राणाः = प्राणिनः पृथिव्यादयः स्थावरा
"
कर परिग्रह रूप से संग्रह करने योग्य, अन्न, पान आदि के निरोध एवं गर्मीसर्दी आदिमें रखने से कभी भी पीडा पहुँचाने योग्य और विषप्र दान एवं शस्त्र के आघात से विनाश करने योग्य नहीं हैं ।
सूत्र में " आइक्वंति - आख्यान्ति " यह वर्तमानकालिक - क्रिया पद अतीत और अनागतकालिक क्रियापद का उपलक्षक है । अतः इस से यह अर्थ प्रतीत होता है कि उन तीर्थंकर प्रभुओं ने वर्तमान में जैसा कहा है वैसा ही उन्हों ने या अन्य भूत कालिक तीर्थंकरों ने भूत काल में भी कहा है एवं आगामी कालमें भी वे वैसा ही कहेंगे । इसी प्रकार "भासंति, पण्णवेंति" इत्यादि क्रियापदों के साथ भी अतीत और अनागत कालिक क्रियादोंका संबंध कर लेना चाहिये। इस कथन से सूत्रकार ने उनके कथन में परस्पर में विरुद्ध अर्थकी प्ररूपणा का अभाव प्रदर्शित किया है जो कुछ उन्हों ने कहा है । वह भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में से किसी भी काल में किसी भी
એવું સમજીને પરિગ્રહ રૂપથી સંગ્રહ કરવા ચેાગ્ય, કે અન્ન, પાન વગેરેના નિરોધ અને ગર્મી, ઠંડી વગેરેમાં રાખીને કાઇ પણુ વખતે પીડિત કરવા ચેાગ્ય અને વિષ આપીને તેમજ શસ્રના આઘાતથી વિનાશ કરવા ચાગ્ય નથી.
सूत्रमां " भाइक्खति आख्यान्ति " या वर्तमानावि द्वियायः अतीत તેમજ અનાગત કાલિક ક્રિયાપદનું ઉપલક્ષક છે. એથી એના વડે આ જાતના અર્થની પ્રતીતિ થાય છે કે તે તીર્થંકર પ્રભુએએ વર્તમાનકાળમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે પ્રમાણે જ તેએએ અથવા તેા ખીજા ભૂતકાલિક તીથ કરીએ ભૂતકાળમાં પણ કહ્યું છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તેઓ તે પ્રમાણે જ કહેશે. આ रीते "भासंति, पण्णवेंति " वगेरे हियापहोनी साथै पशु व्यतीत भने मना ગત કાલિક ક્રિયાપદોના સબંધ જોડવા જોઇએ. આ કથનથી સૂત્રકારે તેમના કથનમાં પરસ્પરમાં વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણાના અભાવ બતાવ્યા છે. તેમણે જે
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हाताधर्मकथानक्षत्रे द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तात्रसाश्चेत्यर्थः, इन्द्रियादिप्राणानां यथासम्भवंधारणात् तेषु प्राणिस्वमस्तीति भावः । तथा-सर्वे ' भूया' भूताः भवन्ति भविष्यन्त्य भूवन्निति भूताः-चतुर्दशभूतग्रामरूपाः, तथा-सर्वे जीवाः जीवन्ति जीविध्यन्त्यजीविषु रिति जीवाः-नारकतिर्यमनुष्यदेवाः, तथा-सर्वे “सत्ता" सत्त्वाः= प्रमाण द्वारा बाधित नहीं हो सकने से पूर्वापर विरोध रहित ही कहा है। "प्राण' शब्द से सूत्रकार ने ब्रस और स्थावर प्रणियों का ग्रहण किया है । क्यों कि १० द्रव्य प्राणों में से इनको अपने २ योग्य प्राणो का सद्भाव पाया जाता है। अतः इनके सद्भाव से ही ये प्राणी कहे जाते हैं । " भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन "यह भूत शब्द की व्युत्पत्ति है । इसका भाव यही है कि जो वर्तमान में सत्ता विशिष्ट हैं, आगामी काल में सत्ता विशिष्ट रहेंगे एवं भूतकाल में भी जो सत्ता विशिष्ट थे । इस व्युत्पत्ति से सूत्रकार ने यह प्रदर्शित किया हैं कि प्रत्येक जीवादिक पदार्थ किसी भी काल में उत्पाद
और व्यय धर्म विशिष्ट होते हुए भी अपनी २ सत्ता से रहित नहीं होते हैं। क्यों कि द्रव्य का “ उत्पादव्ययध्रौव्यं सत्" उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य ये स्वभाव है । इससे यह बात निश्चित कोटि में आता है कि किसी भी नवीन पदार्थ का उत्पाद नहीं होता है और न सत् पदार्थ का विनाश ही होता है। "सतो विनाशः असतश्चोत्पादोन" " जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषु" यह जीव शब्द की व्युत्पत्ति है । કંઈ કહ્યું છે તે ભૂત ભવિષ્યત અને વર્તમાનકાળમાંથી કોઈ પણ કાળમાં ગમે તે પ્રમાણ દ્વારા બાધિત નહિ હેવા બદલ પૂર્વાપર વિરોધ રહિત જ કહ્યું છે, "प्राण" शण्ट 3 सूत्रारे त्रस भने स्था१२ प्राणीमान अहण थु छे. કેમકે ૧૦ દ્રવ્ય પ્રાણોમાંથી એમનામાં પિતાપિતાને પ્રાણને સદ્ભાવ भने छ. मेथी समना सहभावथी तसा प्राणी वाय छे. “ भवन्ति, भविष्यन्ति, अभूवन् ” मा भूत शनी व्युत्पत्ति छ. मेनी मथ 20 प्रभार છે કે વર્તમાનકાળમાં જેઓ સત્તા વિશિષ્ટ છે, તેઓ ભવિષ્યકાળમાં સત્તા વિશિષ્ટ રહેશે અને ભૂતકાળમાં પણ જેઓ સત્તા વિશિષ્ટ હતા. આ વ્યુત્પત્તિ વડે સૂત્રકારે એ બતાવ્યું છે કે દરેકે દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ કઈ પણ કાળમાં ઉત્પાદ અને વ્યયધમ વિશિષ્ટ હોવા છતાંએ પોતપોતાની સત્તાથી રહિત હતા. नथी. भ द्र०यन “ उत्पादव्ययध्रौव्य सत् " उत्पाद, व्यय मने प्रीव्य સ્વભાવ છે. એથી એ વાત ચોક્કસ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે કઈ પણ નવીન પદાર્થને ઉત્પાદ થતું નથી અને સત્ પદાર્થનો વિનાશ પણ થતું નથી. " सतो विनाशः असतश्चोत्पादो न ” “ जोवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषु" मा
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचचा स्वकृतकर्मजन्यमुखदुःखानुभविनः । अत्र सर्वाणिषु पुनः पुनर्दयाकरणाय पर्यायशब्दप्रयोगः। ___'न तव्या' न हन्तव्याः दण्डादिभिर्न ताडयितव्याः इत्यर्थः, "न अज्जावेयया" नाज्ञापयितव्या-न घातयितव्या इत्यर्थः, “ न परिघेत्तव्या" न परिग्रहीतव्याः इमे ममायत्ता इति कृत्वा परिग्रहरूपेण न स्वोकर्तव्याः, " न परिताजो जीते हैं, जीवेंगे और जिये है, इस कथन से सूत्रकार ने जीव में त्रिकाल में भी जीवनत्व धर्म का अभाव नहीं होता है यह प्रदर्शित किया है चाहे जीव एक इन्द्रिय अवस्थावाला भी हो तो भी वह जीवन अवस्था से रहित नहीं होता है इससे वृक्षादिकों में अचेतनता मानने वाले घौद्ध आदिकों का मन्तव्य खंडित होता है।
सूत्र में प्राणी, भूत, और सत्व इन एकार्थक पर्यायवाची शब्दों का जो सूत्रकार ने प्रयोग किया है उनका मुख्य प्रयोजन "समस्त जीवों में पारंवार दया करनी चाहिये " है।
यह वीतरागप्रभु द्वारा प्रतिपादित प्राणातिपातविरमणरूप धर्मशुद्ध पापानुबन्ध रहित हैं । इस कथन से सूत्रकार ने इस बात की पुष्टि की है जो अवीतराग-शाक्य आदि द्वारा धर्मरूप से प्रतिपादित हुआ है तथा जिसे उन्होंने धर्मरूप से स्वीकार किया है वह वास्तविक धर्म नहीं है। कारण कि इनमें हिंसादिक दोषों का सद्भाव पाया जाता है इनके
જીવ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. જેમાં જીવે છે, જીવશે અને જીવ્યા છે આ કથન વડે સૂત્રકારે જીવમાં ત્રિકાળમાં પણ જીવનત્વ ધર્મને અભાવ તે નથી આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે. ભલે તે જીવ એક ઈન્દ્રિય અવસ્થાવાળા હોય છતાંએ તે જીવન અવસ્થાથી રહિત થતું નથી. આ કથનથી વૃક્ષ વગેરેમાં અનતા માનનારા બૌદ્ધ વગેરેના મતનું ખંડન થઈ જાય છે.
સૂત્રકારે સૂત્રમાં જે પ્રાણી, ભૂત અને સત્વ આ બધા કાર્થક પર્યાય. વાચી શબ્દોને જે પ્રયાગ કર્યો છે તેનું ખાસ કારણ “બધા જીવેમાં વારંવાર सय २ " ते छे.
વીતરાગ પ્રભુ વડે પ્રતિપાદિત પ્રાણાતિપાત વિરમણ રૂપ આ ધર્મ શુદ્ધ પાપાનબન્ધ રહિત છે આ કથનથી સૂત્રકારે એ વાતને પુષ્ટ કરી છે કે જે અવીતરાગ-શાકય વગેરે દ્વારા ધર્મ-રૂપથી પ્રતિપાદિત થયે છે તેમજ તેમણે જેને ધર્મ-રૂપથી સ્વીકાર્યો છે તે ખરેખર ધર્મ નથી. કેમકે તેમાં હિંસા વગેરે દેને સદ્ભાવ છે. અસર્વજ્ઞ તથા રોગયુક્ત લેકે દ્વારા પ્રતિપાદિત હેવાને
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जाताधर्मकथाको वेयव्वा' न परितापयितव्याः अन्नपानाधवरोधनेन ग्रीष्मातपादौ स्थापनेन च न पीडनीयाः, " न किलामेयव्या" न क्लामयितव्या=न खेदयितव्याःम्न विषशस्त्रादिना मारयितव्याः।।
एषः अनन्तरोक्तः सर्वाईद्भगवत्मरूपितः, धर्मः सर्वप्राणिप्राणातिपातविरमणरूपः, शुद्धः निर्मल:-पापानुबन्धरहित-इत्यर्थः । आईतधर्मादन्यस्तु धर्मत्वेन- यः शाक्यादेरभिमतः स खलु असर्वज्ञसरागोपदिष्टत्वेन हिंसादिदोषसद्भावेन च न शुद्ध इति भावः । अत एव-एष नित्यः अविनाशी, सर्वदा पञ्चसु महाविदेहेषु सद्भाव का कारण उसमें असर्वज्ञ और सरागियों द्वारा प्रणीतता ही है पूर्ण ज्ञानीयों द्वारा प्रदर्शित मार्ग ही शुद्ध होता हैं इसका कारण उनमें राग द्वेष का सर्वथा अभाव ही होता है । असर्वज्ञ या रागद्वेषकलुषितचित्तवालों द्वारा प्रदर्शित मार्ग इसलिये शुद्ध नहीं होता है कि वे एक तो उस विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते, दूसरी अपनी रागद्वेषमयी प्रवृ. त्ति को पुष्ट करने के लिये उसकी अन्यथा भी प्ररूपणा कर देते हैं। ऐसा धर्म शाश्चतिक नित्य नहीं होता है क्यों कि ऐसा धर्मका विशिष्ट ज्ञानियों-केवलज्ञानियों द्वारा जीवों का कल्याण की कामना से निराकरण कर दिया जाता है। वीतरागप्रतिपादित धर्म ही अविनाशी रहता है, और उसीसे जीवों का सदा कल्याण होता रहता है। इसमें अन्य थाप्ररूपणाके लिये थोड़ी सी भी जगह नहीं मिलती है । पंच महाविदेह क्षेत्रोंमें अब भी इस शुद्धधर्मका सद्भाव है । इसी अपेक्षा इसे सूत्रकारने नित्य-अविनाशी कहा है । शाश्वतगतिरूप मुक्ति का कारण होने से લીધે જ તેમાં હિંસા વગેરે સદેષતા છે. પૂર્ણજ્ઞાનીઓ વડે પ્રદર્શિત માર્ગે જ શુદ્ધ હોય છે. કેમકે તેઓમાં સંપૂર્ણપણે રાગદ્વેષને અભાવ જ હોય છે. અસર્વજ્ઞ કે રાગદ્વેષ કલુષિત ચિત્તવાળા લકે વડે પ્રતિપાદિત માર્ગ શુદ્ધ એટલા માટે હું નથી કે તેઓ પ્રથમ તે તે વિષયને સંપૂર્ણપણે જાણતા નથી અને બીજું તેઓ પોતાની રાગદ્વેષમયી પ્રવૃત્તિને પુષ્ટ કરવા માટે તેની અન્યથા પ્રરૂપણા પણ કરી બેસે છે. એ ધર્મ શાશ્વતિક-નિત્ય હેતે નથી કેમકે એવા ધર્મનું વિશિષ્ટ જ્ઞાનીઓ-કેવળજ્ઞાનીઓ-વડે જીવની કલ્યાણ કામનાથી પ્રેરાઈને નિરાકરણ કરવામાં આવે છે. વીતરાગ પ્રતિપાદિત ધર્મ જ અવિનાશી રહે છે, અને તેથી સર્વદા જીવનું કલ્યાણ થતું રહે છે. આમાં અન્યથા પ્રરૂપણું માટે અવકાશ જ નથી. અત્યારે પણ પંચવિદેહ ક્ષેત્રમાં આ શુદ્ધ ધર્મને સદભાવ છે. આ ધમને આ દૃષ્ટિથી જ સૂત્રકારે નિત્ય-અવિનાશી કહે છે. શાશ્વત ગતિ ૫ મુકિતને કારણ હોવાથી આ ધર્મ શાશ્વત માન
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विगो टीका० ० १६ द्रौपदीची सद्भावात् । तथा-शाश्वतः शाश्वतगतिकारणत्वात् । यद्वा-यतो नित्यस्तस्माच्छाश्वत हति । अयमेव धर्मः श्रद्धेयो ग्राह्यश्चेत्यत्र हेतुं प्रदर्शयन् विशेषणान्तरमाहसमेत्य इत्यादि । लोकं षट् जीवनिकायं दुःस्वदावानलान्तःपतितं, समेत्य केवलज्ञानेन प्रत्यक्षतया विज्ञान, खेदज्ञैः सर्वप्राणिदुःखाभिहस्तीर्थकरैः प्रवेदितः= आदिष्टः । 'प्रवेदितः' इत्यनेन धर्मोऽयं मया न स्वमनीषया कल्पितः' इति च सुधर्मस्वामिना शिष्यमुद्दिष्य सूचितम् । अनुयोगद्वारेयह शाश्वत माना गया है अथवा हेतु हेतुमद्भाव से भी यों कह सकते हैं कि जिस कारण से यह नित्य है इसी कारण से यह शाश्वत माना गया है । अतः प्रत्येक मुमुक्षु जीवों द्वारा यह धर्म श्रद्धेय श्रद्धा करने योग्य एवं ग्राह्य-आराधन करने योग्य है इस विषय में पूर्वोक्तरूप से सूत्रकार हेतु को कथन कर उस धर्म की प्ररूपणा करने के कारण का प्रदर्शन करते हुए " समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः" कहते हैं कि समस्त प्राणीयों के दुःखों के वेत्ता केवलज्ञानी प्रभु ने इस षट्जीव निकायरूप लोक को प्रत्यक्षरूप से साक्षात् दुःखरूपी दावानल से जलता हुआ देखकर इस शुद्ध, शाश्वतिक धर्म का कथन किया है।
भावार्थ-अनंत सांसारिक दुःखो से संतप्त समस्त संसारी जीवों को साक्षात् हस्तामलकवत् देखकर दुःखों से उनके उद्धार के निमित्त वीतराग केवलज्ञानियोंने ही इस धर्म की प्ररूपणा की है। मैं ने अपनी
ओर से इसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बुस्वामी को समझाते हैं। વામાં આવ્યું છે. અથવા હેતુ-હેતુ મભાવથી પણ એમ કહી શકાય છે કે જે કારણને લઈને આ નિત્ય છે તે કારણથી જ આ શાશ્વત માનવામાં આવે છે. એથી દરેક મેક્ષને ઈચ્છનારા છ વડે આ ધમ શ્રદ્ધય-શ્રદ્ધા કરવા
ગ્ય અને ગ્રાહ્ય આરાધવા લાગ્યા છે. આ વિષે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત રૂપે હેતુનું ४यन 30 ते धर्मनी ५३५ ४२ai " समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः " : છે કે બધા પ્રાણીઓનાં દુઃખને જાણનારા કેવળજ્ઞાની પ્રભુએ આ ષજીવનિકાય રૂપ લેકને પ્રત્યક્ષ રૂપમાં સાક્ષાત્ દુખ રૂપી દાવાનળમાં સળગતા જોઈને શુદ્ધ, શાશ્વતિક ધર્મનું કથન કર્યું છે–
ભાવાર્થ-સંસારના બધા જીવોને અનંત સાંસારિક દુખેથી હસ્તામલકાવત્ સંતપ્ત જોઈને તેમના ઉદ્ધાર માટે વીતરાગ કેવળજ્ઞાનીઓ એ જ આ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે. મેં પિતાની મેળે આ કથન કર્યું નથી. શ્રી સુધર્મા સ્વામી પિતાના શિષ્ય જંબૂ સ્વામીને આ પ્રમાણે સમજાવે છે.
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माताधर्म कथाङ्गले "जह मम ण पियं दुक्खं जाणियं एमेव सजीवाणं ।
न हणइ न हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो । इति" छाया-यथा मम न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् ।
न हन्ति न घातयन्ति च समम् अणति तेन स समणः ।।
च शब्दात् घ्नतश्चान्यान्न समणुजानीत इत्यनेन प्रकारेण 'सममणति' त्ति सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थः ।
'एस धम्मे मुद्धे' इत्यनेन आईत धर्मस्य हिंसादि दोषाभावाद्भगवता शुद्धस्वमुक्तम् । शुद्धधर्मबोधकत्वाच्च द्वादशाझ्याः प्रवचनत्वमागमत्वं सर्वोत्कृष्टत्वं च सिध्यति । प्रवचनस्य स्वरूपं माहात्म्यं चाऽऽगमेषु भगवताऽभिहितम् ।
अनुयोगद्वार मेंजह मम ण पियं दुःखं जाणियं एमेव सव्यजीवाणं ।
न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणो ॥ इति । जिस प्रकार दुःख मुझे इष्ट नहीं है, उसी तरह वह दुःख किसी भी संसारी जीवों को इष्ट नहीं है ऐसा समझ कर जो जीवों की विराधना स्वयं नहीं करता और न दूसरों से करवाता है तथा समस्त जीवों में तुल्यता की भावना रखता है वही श्रमण है। श्रमण होने में ये पूर्वोक्त बाते हेतु-कारण हैं। ___" एस धम्मे सुद्धे " इस सूत्रांश से श्री सुधर्मास्वामी ने तीर्थकर कथिन धर्म में हिंसादिक दोषों के अभाव से शुद्धता का कथन किया है । इप्त शुद्ध धर्म का बोधक-घोध करानेवाली होने से ही द्वादशांगी में प्रवचनता, आगमता एवं सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है । भगवान ने मनुयोगदा२मां-जह मम ण पिय' दुःखं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणे ॥ इति । જેમ મને દુઃખ ગમતું નથી તેમજ તે દુખ સંસારના કેઈ પણ જીવને ગમે જ નહિ. આમ સમજીને જેઓ જીવેની વિરાધના પિતે કરતા નથી અને બીજાઓથી કરાવતા નથી તેમજ બધા છમાં તુલ્યતા (સમાનતા) ની દષ્ટિ રાખે છે તેઓ જ “શ્રમણ છે. આ ઉપરની વાત શ્રમણ થવા માટેનું કારણ છે.
__“ एस धम्मे सुद्धे " या सूत्रांशथी श्री सुधा स्वामी तीय ४२ अथित ધર્મમાં હિંસા વગેરે દેશના અભાવથી શુદ્ધતાનું કથન કર્યું છે. આ શુદ્ધ ધર્મને બેધક બેધ કરાવનારી હેવાથી જ દ્વાદશાંગીમાં પ્રવચનતા આગમતા અને સર્વેલૂણતા સિદ્ધ થાય છે. ભગવાને આગમાં પ્રવચનનું સ્વરૂપ અને તેને પ્રભાવિત્ર
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अनारधर्मामृतवर्षिणी डोका अ० १६ द्रौपदीच च
यथा भगवतीसुत्रे -
"
पवयणं भंते ! पवयणं, पात्रयणी पवयणं ? । “ गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी । पवयणं पुण दुवालसँगे गणिपिडगे । तं जहा - आयारो० जाव दिि वाओ । इति, ( श० २० उ०८ )
भंते! हे भदन्त ! " पवयणं " प्रवचनं किं प्रवचनं, उत - " पावयणी " प्रवचनी प्रवचनम् ? | " गोयमा ! " हे गौतम ! ' अरहा ' अन् ' ताव ' तावत् नियमात्प्रवचनी । प्रवचनं पुनः ' दुवालसंगे ' द्वादशाङ्गी " गणिपिडगे " गणिपिटकम् । तद् यथा - " आयारो जात्र दिट्टिवाओ " आचाराङ्गादि यावत् दृष्टिवादः । इति,
पुनस्तत्रैव " से नृणं भंते । तमेव सच्चं नीसकं जं जिणेहिं पवेड़यं १ । प्रवचन का स्वरूप और उसका प्रभाव - माहत्म्य आगमों में कहा है । जैसे भगवती सूत्र में " पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी पवयणं ? गोयमा ! अरहा तावणियमा पावयणी । पवयणं पुण दुवालसँगे गणिपिडगे । तं जहो - आयारे जाव दिट्टिवाओ । इति ( श० २० उ०८ )
भावार्थ- गौतमस्वामी पूछते हैं हे भगवन् ! प्रवचन प्रवचन है-या प्रवचनी प्रवचन है ? इस अंश का समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं - हे गौतम! गणिपिटक जो आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक द्वादशांग आगम है वह समस्त प्रवचन है। इस प्रवचन को अर्थतः प्रकट करनेवाले श्री तीर्थकर प्रभु प्रवचनी हैं। उसी भगवती सूत्र में और भी यह कहा है कि- " से नृणं भंते ! तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ! हंता गोयमा ! तमेव सच्चं से नूणं भंते । एवं मणे
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१९
भाहात्भ्य उद्यो छे. नेम भगवती सूत्रमां " पवयण भंते! पवयण पावयणी पवयण' ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा पावयणी ! पवयण ं पुण दुवासंगे गणि पिडगे ! तं जहा - आयारो जाव दिट्टिवाओ । इति ( श. २० उ. ८ )
ભાવા—ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે હું ભગવન્ ! પ્રવચન પ્રવચન છે કે પ્રવચની પ્રવચન છે ? આ શંકાનું સમાધાન કરતાં ભગવાન કહે છે કે હુ ગૌતમ ! ગણિપિટક -કે જે આચારાંગથી માંડીને દૃષ્ટિવાદ સુધી દ્વાદશાંગ આગળ છે તે સમસ્ત પ્રવચન છે. અત: આ પ્રવચનને પ્રકટ કરનારા શ્રી તીર્થંકર પ્રભુ પ્રવચની છે. તે ભગવતી સૂત્રમાં જ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે( से नूणं भंते तमेव सच्चं नीसक' ज' जिणेहिं पवेइय ! हंता गोयमा ! तमेवं सच्च से नूणं भंते! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आराहप
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३२०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
हंता गोयमा ! तमेव सच्चं । से नूणं भंते ! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणा आहए भवइ ? । हंता गोयमा ! तं चैव " त्ति ।
छाया - अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निश्शङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितम् ? | हन्त गौतम ! तदेव सत्यम् । अथ नूनं भदन्त १ एवं मनसि धारयन् एवं प्रकुर्वन् आज्ञाया आराधको भवति । हन्त गौतम । तदेव " इति ।
आवश्य सूत्रेऽपि - " इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुन नेयाज्यं संसुद्धं सलगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जानमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं । इत्थं ठिया जीवा सिज्झति बुज्झति मुच्चेति परिणिव्वाएंति सव्वदुःखाणमंत करंति ।
धारेमाणे एवं पकरेमाणे आणाए आरोहए भवइ ! हंता गोयमा ! तं चेव इति " इस सूत्र का भावार्थ यह है कि प्रत्येक मुमुक्षु ( मोक्षाभिलाषी ) जन को अपने हृदय में इस बात का पूर्णदृढ विश्वास रखना चाहिये कि जो जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादित किया है वही वास्तविक तत्व है उसमें किसी भी प्रकार की शंका के लिये स्थान नहीं है इस प्रकार के द्दढ विश्वास से उसे अपने मन में धारण करनेवाला और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति करनेवाला मोक्षाभिलाषीजन तीर्थंकरप्रभुकी आज्ञाका आराधक होता है आवश्यक सूत्र में भी यही बात कही गई है।
" इणमेव निरथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुन्नं नेयाउयं संसुद्धं सलगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमगं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं । इत्थं ठिया जीवा सिज्यंति बुज्झति मुच्चेति परिणि बाएंति सव्वदुःखाणमंतं करंति ।
भवइ ! हंता गोयमा ! त चेव इति ) मा सूत्र भावार्थ या प्रमाणे हे દરેક મેક્ષ ઇચ્છનારી વ્યક્તિને પેાતાના હૃદયમાં સપૂર્ણ પણે આ વાતની ખાતરી થવી જોઈએ કે જે જીનેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદિત કર્યું છે તે જ વાસ્તવિક તત્વ છે તેમાં લગીરે શકા નથી. આ જાતના દેઢ વિશ્વાસથી તેને પેાતાના મનમાં કરનાર અને તે મુજબ જ આચરણ કરનારી મેાક્ષને ઈચ્છનારી વ્યક્તિ પ્રભુની આજ્ઞાની આરાધક હોય છે. આવશ્યક સૂત્રમાં પણ એ જ વાત કહેવામાં આવી छे- ( इणमेव निग्गंथ पावयण सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुन नेयाज्यं संसुद्ध सलगत्तणं सिद्धिमग्ग' मुत्तिमगं णिज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितमस दिद्ध ! इत्थठिया जीवा सिवसति बुज्ांति मुहचति परिशिवाएंति सब्ब दुःखाणमतं करति ।
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मनगारधामृतवषिणी २० म० १६ द्रौपदीची
छाया-इदमेव निर्ग्रन्थं प्रवचनं सत्यम् अनुत्तरं, कैवलिकं, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्माणमार्गः, निर्वाणमार्गः, अवितथम् , असन्दिग्धम् , अत्र स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्व दुःखानामन्तं कुर्वन्ति ।
अन्यच्च-इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं" इति (प्रश्न- संवर०)
छाया- इदं च खलु सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्याय प्रवचनं भगवता मुकथितम्' इति । धर्मध्यानस्याऽऽज्ञाविचयादि भेदेन चातुर्विध्यं प्रदर्शयता भगवता-पाधान्यादाज्ञाविचयः प्राथम्येन प्रोक्तः।।
भावार्थ-इस का स्पष्ट है। इसमें सूत्रकार ने मुख्यरूप से यही बात प्रकट की है कि इस निर्ग्रन्थ प्रवचन मार्ग में स्थित जीव अष्ट केमोका विनाश कर सिद्धदशासंपन्न हो जाते हैं। इसे अवस्थाकी प्राप्ति होना ही जीयों के समस्त दुःखों का विनाश है। __ अन्यच्च-इमं च णं संव्यजगंजीवरक्खणहयाए पावैयण भगवया सुकहियं" इति-(प्रश्न. संवर०)
इस प्रवंचने की प्ररूपणा करने का श्री तीर्थकर प्रभु का यही एक उद्देश रहा है कि समस्त संसारीजन इस प्रवचन के अभ्यास से सर्व जगत के जीवों की रक्षा करें और उनकी दया पालें।
ध्यान का वर्णन करते हुए भगवान ने उस ध्यान के ४ भेद कहे हैं। उनमें धर्मध्यान के आज्ञाविचय आदि जो ४ पाये प्रकट किये
આ કથનને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. આમાં ખાસ કરીને સૂત્રકારે એ જ વાત સ્પષ્ટ રીતે બતાવી છે કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન માગમાં સ્થિત જીવે અષ્ટ કનો વિનાશ કરીને સિદ્ધિ દશા સંપન્ન થઈ જાય છે. આ અવસ્થા મેળ વવી એ જ છેના સઘળા દુઃખનો વિનાશ છે. __अन्यञ्च-इम च ण सव्व जगजीवरक्षणदयद्वयाए पावयण भगवया सुकहीयं "इति-(प्रश्न संवर०)
શ્રી તીર્થંકર પ્રભુને આ પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરવાને એ જ ઉદ્દેશ રહ્યો છે કે બધા સંસારીજન આ પ્રવચનના અભ્યાસથી જગતના સર્વે જીવેની રક્ષા કરે અને તેમની દયા પાળે.
ધ્યાનનું વર્ણન કરતાં ભગવાને તેને ચાર ભેદ વર્ણવ્યા છે. તેઓમાં ધર્મધ્યાનના આજ્ઞા-વિચય વગેરે ચાર ઉપભેદે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે
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हाताधर्मकथा यथा भगवती सूत्र--(श० २५ उ० ७)
" धम्मे झाणे चउम्चिहे पण्णत्ते, सं जहा-आणाविचए" अवायविचए, विवागविचए, संठाणविचए ॥
छाया-धर्मध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । तद् यथा-आज्ञाविचयः, अपायविचयः, विपाकविचयः, संस्थानविचयः।
अत्र प्रसङ्गवशाद् आज्ञाविचय एव व्याख्यायते
आज्ञाविचयश्च-आज्ञायाः पर्यालोचनं, आज्ञा-सर्वज्ञप्रणीत आगमः, तामाज्ञामित्थं विचिनुयात् पर्यालोचयेत् - पूर्वापरविशुद्धमतिनिपुणामशेषजीवकाहिता हैं उन में सर्व प्रथम आज्ञाविचय को जो कहा है उसका कारण यही है कि शेष तीन पायों ( भेदों ) में प्रधान है। भगवती सूत्र श. २५ उ७ में देखो यह वर्णन इस प्रकार से हुआ है-धम्मे झाणे चउन्विहे पण्ण से, तं जहा-आणाविचए, अवायविचए, विवागविचए, संठाणविचए ।
अर्थ-धर्मध्यान ४ प्रकार का है (१) अज्ञाविचय (२) अपायविचय (३) विपाकविचय (४) संस्थानविचय।। - प्रसंगवश यहां आज्ञाविचय पर विवेचन किया जाता है-तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का विचय-पर्यालोचन-विचार करना सो आज्ञाविषय है सर्वज्ञ कथित आगम का नाम आज्ञा है । उस आगमरूप आज्ञा का इस प्रकार से विचार करना चाहिये-यह प्रभु प्रतिपादित आगम पूर्वापर विरोध रहित होने से विशुद्ध है, प्रत्येक सूक्ष्म अन्तरित और दरार्थ के प्रतिपादन करने में अतिनिपुण है, प्रत्येक जीवों का यह हितकारी તેઓમાં સૌ પ્રથમ આજ્ઞા વિચયને જે ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યો છે તેનું કારણ એ જ છે કે બાકી રહેલા ત્રણ ઉપભેદેમાં તે મુખ્ય છે. ભગવતી સૂત્ર શ. ૨૫ ઉ. ૭ માં એના માટે જવું જોઈએ. ત્યાં આનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું छे-धम्मे झाणे चउविहे पण्णत्ते, त जहा-आणाविचए, अवायविचए, विवाग विचए, सठाणविचए ॥
अर्थ-यमध्यानना या२ २ छ. (१) माझा-वियय, (२) अपाय वियय, (3) वि वियय, (४) संस्थान पिय.
પ્રસંગવશ અહીં આજ્ઞાવિચય વિષે વર્ણન કરવામાં આવે છે. તીર્થકર પ્રભુની આજ્ઞાને વિચય–પર્કોચન-વિચાર કરે તે આજ્ઞાવિચય છે. સર્વજ્ઞકથિત આગમનું નામ આજ્ઞા છે. તે આગમરૂપ આજ્ઞાને આ રીતે વિચાર કર જોઈએ કે આ પ્રભુ પ્રતિપાદિત આગામ પૂર્વાપર વિરોધ રહિત હોવા બદલ વિશુદ્ધ છે, દરેક સૂક્ષ્મ અંતરિત અને ધરાર્થના પ્રતિપાદન કરવામાં
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मनगरमा मृतपणी टी० मं० १६ द्रौपदी चर्चा
ગર है, अनवद्य है, इस में प्रत्येक जीवादिक पदार्थ का विवेचन बहुत ही अच्छी तरह से किया गया है अतः यह महार्थ है इसका प्रभाव भी अद्वितीय है इसकी छत्रछाया में आने से प्रत्येक भव्य जीव आत्मकल्याण के अपने अन्तिम लक्ष्य की सिद्धि कर लिया करते हैं । इस में प्रतिपादित तत्व सामान्यजन नहीं ज्ञात कर सकते हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयरूप दो दृष्टियां जिनके पास हैं - वे ही इसमें प्रतिपादित विषय को अच्छी तरह ज्ञात कर सकते हैं। इसमें जो भी कुछ कथन सर्वज्ञ भगवान् ने किया है वह इन्हीं दो दृष्टियों को सामने रखकर किया गया है यदि एक दृष्टि को ही प्रधान रखकर इसके तत्व को समझने की चेष्टा को जाय तो वह प्रतिपाद्य विषय ठीक २ नहीं समझा जा सकता है। तथा इस प्रकार की प्ररूपणा अन्यथा भी ज्ञात होने लगती है इसलिये दूसरी दृष्टि को सामने रखकर ही वह विषय ठीक २ रीति से समझ में आ सकता है, अतः इसी अभिप्रायसे इसे निपुण जनवेद्य कहा है तथा इस में प्रत्येक पदार्थ को उत्पादन व्यय और श्रीव्य आत्मक कहा गया है - वह भी द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से ही कहा गया है द्रव्य की अपेक्षा से प्रत्येक जीवादिक पदार्थ श्रौव्यरूप
અતીવકુશળ છે. દરેકે દરેક જીવા ના આ હીતકારી છે. અનવદ્ય છે, એમાં દરેકે દરેક છત્ર વગેરે પદાર્થનું વિવેચન બહુજ સૂક્ષ્મતા પૂર્વક કરવામાં આવ્યું છે એથી આ મહાથ છે. આના પ્રભાવ પણ અદ્વિતીય છે, આની છત્ર છાયામાં આવવાથી દરેક ભવ્યજીવ આત્મકલ્યાણુ વિષયક પેાતાની અંતિમ લક્ષ્યની સિદ્ધિ પ્રાપ્તકરી લે છે. આમાં પ્રતિપાદિત તત્ત્વ સામાન્ય ઢાકા જાણી શકતા નથી. દ્રષ્યાર્થિક તેમજ પર્યાયાર્થિક નયરૂપ એ દૃષ્ટિએ જેની પાસે છે. તેએ જ આમાં પ્રતિપાદિત વિષયને સારી પેઠે સમજી શકે છે. સજ્ઞ ભગવાને આમાં જે કંઈ કહ્યું છે તે બધુ આ પૂર્વે કત બંને દૃષ્ટિ ને પેાતાની સામે રાખીને જ કહ્યું છે. જો એક-દૃષ્ટિને જ પ્રધાન સમજીને તેના તત્ત્વને જાણવાની ચેષ્ટા કરવામાં આવે તે તે પ્રતિપાદ્ય વિષય યથાવત્ સમજી શકાય જ નહિ, તેમજ
આ જાતની પ્રરૂપણા અન્યથા પણ માલુમ થવા માંડે છે એથી બીજી દષ્ટિને પેાતાની સામે રાખીને જ વિચાર કરીએ તેા વિષય સરસ રીતે સમજી શકાય તેમ છે. આ પ્રયેાજનથી જ આને ‘નિપુણુજન-વેધ' કહેવામાં આવ્યા છે તેમજ ખામાં જો દરેક પદાર્થને ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય આત્મક કહેવામાં આવ્યે છે તે પણ દ્રવ્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાથી જ કહેવામાં આવ્યા છે. દુષ્મની
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पाताधर्मकथामने मनवधां महाथों महानुभाग निपुर्णजनविज्ञेयां द्रव्यपर्यायमपञ्चवतीमनायनिधनाम् । अस्य प्रवचनस्याऽऽधन्तरहितत्वं च भगवता नन्दीमूत्रे निगदितम्
" इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगन कयाइ णासी ॥"
इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं न कदापि नासीत् ।। इत्यादि। है और पर्याय की अपेक्षा से उत्पादन व्ययरूप है, इसलिये भी जिन प्रतिपादित आगमरूप आज्ञा स्वयं द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली है। अथवा जीवादिक ममस्त ६ द्रव्यों की त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायें इसमें प्रतिपादित हुई हैं, अथवा कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय रहित नहीं हो सकता है-स्वभाव पर्यायें और व्यञ्जन पर्यायें, विभाव पर्यायें और अर्थपर्यायें प्रत्येकक्षण में समस्तद्रव्यों में होती रहती हैं, इत्यादिरूप से द्रव्य और पर्यायों का प्रतिपादन इस आज्ञा में भगवान ने प्रदर्शित किया है इस अपेक्षा भी यह द्रव्य और पर्याय के विस्तार वाली मानी गई है तथा यह अनादि अनन्त है न कभी इस आज्ञा की आदि हुई है और न कभी इसका विनाश होगा। नंदीसूत्र में भी प्रवचन की अनादि अनन्तता के विषय में " इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडिगं न कयाइनासी" यही कहा है-ऐसा कोई सा भी काल नहीं था कि जिस काल में इस द्वादशांगरूप गणिपिटकका सद्भाव नहीं था। અપેક્ષાથી દરેક જીવ વગેરે પદાર્થ ધ્રૌવ્યરૂપ છે. અને પર્યાયની અપેક્ષાથી ઉત્પાદ વ્યયરૂપ છે. એટલા માટે પણ જિન પ્રતિપાદિત આગામરૂપ આજ્ઞા પિતે દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપંચ (વિસ્તાર) વાળી છે. અથવા તે જીવ વગેરે બધા ૬ દ્રવ્યના ત્રિકાલ વર્મા સમસ્ત પર્યાયે આમાં પ્રતિપાદિત થયા છે, અથવા કઈ પણ દ્રવ્ય કેઈ પણ દિવસે પર્યાય રહિત થઈ શકતું નથી. સ્વભાવ પર્યા અને વ્યંજન પર્યા, વિભાવ પર્યાયે અને અર્થ પર્યાયે દરેક ક્ષણમાં બધા દ્રામાં થતી રહે છે. ઈત્યાદિ રૂપથી દ્રવ્ય અને પર્યાયોનું પ્રતિપાદન આ આજ્ઞામાં ભગવાને બતાવ્યું છે. આ અપેક્ષાથી પણ આ દ્રવ્ય અને પર્યાયના પ્રપંચ (વિસ્તાર) વાળી માનવામાં આવી છે. તેમજ આ અનાદિ અનંત છે. કેઈ દિવસ આજ્ઞાની આદિ થઈ નથી અને કઈ પણ દિવસે આને વિનાશ थरी नहि. नदीसूत्रमा ५ अवयननी मनाहि मानतता सती (इच्चे इय दुवालसंग गणिपिडग न कयाइनानी) मे पात सेवामा भावी छे. એ કઈ પણ કાળ હતું નહિ કે તે કાળે આ દ્વાદશાંગ રૂપ ગણિપિટકનો સદભાવ હતે નહિ. આ રીતે આ આગમની મહત્તા અથવા તે એના મહા
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माधर्मामृतवर्षिणी टो० ५० १६ द्रौपदीचर्चा
કરેલ
इत्थं चागममाहात्म्यपर्यालोचनरूपस्य धर्मध्यानस्याऽऽ - ईताऽऽज्ञाविषयत्वाद धर्मध्यानस्य धर्मस्वं सिद्धम् । तथा हिंसादि- दोषलेशेनाप्यसंपृक्तस्य शुद्धधर्मस्य बोधकत्वादहिंसाप्रधानस्य प्रवचनस्य श्रद्धेयत्वं च सिद्धम् ।
अहिंसायामfतो भगवत आज्ञा प्रदर्शिता, एवं संयमेपि तदाज्ञा वर्तते । यथा -ज्ञाताधर्मकथासूत्रे - ( प्रथमाध्ययने )
" तरणं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावे, जाव सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खर एवं खलु देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिट्ठियन्वं णिसीइयन्वं इस प्रकार इस आगम की महत्ता अथवा उसके महात्म्य का विचार करना यही आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान का प्रथम भेद है । इस ध्यान में प्रभु की आज्ञा का ही विचार होता है अतः इस ध्यान में उन की आज्ञा का विषय करनेवाला होने से धर्मरूपता सिद्ध है तथा हिंसादिक दोष के छेश से भी रहित ऐसे शुद्ध धर्म का बोधक होने से अहिंसाप्रधान इस प्रवचन में श्रद्धेयता सिद्ध होती है ।
इस पूर्वोक्त प्रकार से अहिंसा में अर्हत भगवान् की आज्ञा का प्रदर्शन कर अब संयम में भी उनकी आज्ञा इसी प्रकार को है यह प्रकट करने के लिये सर्वप्रथम ज्ञातोधकवाङ्ग सूत्र से इस विषय की पुष्टि करते हुए सूत्रकार कहते हैं ।
""
तणं समणे भगवं महोवीरे मेहंकुमारं सयमेव पव्वावेइ, जाव धम्म माइक्खर, एवं खलु देवाणुपिया ! गंतव्वं चिट्ठियन्वं णिसीત્મ્યને લગતા વિચાર કરવા એ જ આજ્ઞા-વિચય નામક ધર્મધ્યાનને પ્રથમ ભેદ છે. આ ધ્યાનમાં અર્હષ્કૃત પ્રભુની આજ્ઞા વિષેજ વિચાર હેાય છે. તેથી આ ધ્યાનમાં તેમની આજ્ઞાના વિષય પ્રતિપાદિત થયા છે માટે આમાં ધમ રૂપતા સિદ્ધ છે તેમજ હિંસા વગેરે દોષોથી પણ રહિત શુદ્ધ કર્મીના ધક હોવાને કારણે અહિંસા પ્રધાન આ પ્રવચનમાં શ્રદ્ધેયતા સિદ્ધ થાય છે.
આ પ્રમાણે પૂર્વાક્ત રીતે અર્હત ભગવાનની અહિંસાના વિષે આજ્ઞા બતાવીને હવે આગળ સૂત્રકાર સયમ માટે પણ તેએશ્રીની આજ્ઞા આ રીતે જ છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૌ પ્રથમ જ્ઞાતા-ધ કથાનૢ સૂત્રથી આ વિષયની પુષ્ટિ કરતાં કહે છે.
८८
तए र्ण सम भगव महावीरे मेहकुमार सयमेव पव्वावेइ, जाव सयमैव आयार जाव भ्रम्ममाइकखइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! गंतव्बं चिट्टि -
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३२६
शताधर्मकथा
तुयट्टियन्नं भुंजियव्वं भासियव्वं, एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूयेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियन्त्र, अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएयध्वं " इति ।
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो मेघं कुमारं स्वयमेव प्रव्राजयति यावत् स्वयमेव आचार यावद् धर्ममाख्याति एवं खल्ल हे देवानुप्रिय ! गन्तव्यं, स्थातव्यं ' निषत्तव्यं, त्वग्वर्तयितव्यं भोक्तव्यं भाषितव्यत्, एवमुत्थाय उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सर्वेषु संयमेन संयन्तव्यम् अस्मिश्च खल अर्थे नो प्रमादयितव्यम् । इति,
दशवैकालिक सूत्रे ऽपि
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" जयं चरे जयं चिट्ठे ज़यमासे जय सए । जयं भुंजतो भासतो पावकम्मं न बंधई ॥
97
इयव्वं तुट्टियन्वं भुंजियव्वं भासियन्वं एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूयेहि जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियन्वं अस्सिच णं अड्डे णो पमायव्वं"
श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं अपने ही हाथों से मेघकुमारको जब भागवती दीक्षा प्रदान की उसके लिये मुनि विषयक आचार ओदि का जब उन्होंने उपदेश दिया तब उन्होंने उसे यही समझाया कि हे देवानुप्रिय ! चलते, ठहरते, बैठते, लेटते, आहारकरते और बातचित करते समय प्राणियों, भूतों, जीवों, और सत्वों में सदा संयम से ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। मुनि का यही कर्तव्य है कि वह प्रत्येक शारीरिक एवं वाचनिक क्रियाओं में, संयमित प्रवृत्ति करें । इस प्रकार की प्रवृत्तिशोल होने से ही मुनि द्वारा अपने संयम की रक्षा होतो है इस विषय में मुनि को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । दशवैकालिक सूत्र में भी यही कहा है-" जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं
or णिसीइयव्व' तुयट्टियन्त्र भुजियव्वं, भासियव्व एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूयेहि जीवेहि संतहि संजमेण संजमियव्व' अस्सि चणं अट्ठे णो पमाएयव्व " શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે જાતે પોતાના હાથથી જ મેઘકુમારને જ્યારે ભાગવતી દીક્ષા આપી અને તેને સુનિવિષયક આચાર વગેરેને લગતા ઉપદેશ આપ્યા ત્યારે તેઓશ્રીએ તેને ઉપદેશમાં એ જ વાત સમજાવી કે હે દેવાનુ પ્રિય ! ચાલતાં ઊભા રહેતાં, બેસતાં, સૂઈ જતાં, આહાર કરતાં અને વાતચીત કરતાં પ્રાણીઓ, ભૂતા, જીવા અને સર્વોામાં હુંમેશા સંયમથી જ પ્રવૃત્તિ કરતાં રહેવું જોઇએ. મુનિની એ જ ફરજ છે કે તે દરેક શારીરિક અને વાચનિક ક્રિયાઆમાં સયમિત પ્રવૃત્તિ કરે. આ રીતે પ્રવૃત્તિશીલ થઈને રહેવાથી જ મુનિએ પડે સચમની રક્ષા થાય છે. . આ ખાખતમાં મુનિએ કાઈ પણ દિવસે પ્રમાદ કરવા જોઈએ નહિ. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં પણ એજ વાત કહેવામાં આવી છે. (जय चरे जथं बिट्टे जयमासे जयखप, जय' सुजतो भास तो पावकम्मं न बंधई)
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१२७
मनगारधर्मामृतापणी टोका १० १६ द्रौपदीचा
छाया-यत चरेत् यतं तिष्ठेत्, यतमासीत यतं शयीत । यतं भुञ्जानो भाषमानः पापकर्म न बध्नाति ॥ १ ॥ इति । तत्रैव-' संजमं निहुओ चर" इत्यादि । छाया-संयमं निभृतश्चर' इति ।
संयमे तीर्थकरस्याज्ञा प्रदर्शिता, इदानीं तपसि तदाज्ञा प्रदश्यते । यथा-दशवैकालिक सूत्रे-(द्वितीयाध्ययने ) ___"आयावयाही चय सोगमल्लं" इति । " आयावयाही" आतापय आता. पनारूपतपोधर्माराधनेन तनुं शोषय, “सोगमल्लं " सौकुमार्य " चय" त्यजपरिहर । सए, जयं भुजतो भासंतो पावकम्मं न पंधई" सकल संयमियों को पूर्ण सावधान तापूर्वक ही चलना चाहिये और पूर्ण सावधानतापूर्वक ही बैठना चाहिये । उठने बैठने में तथा आहारादि क्रिया करने और बोलने चालने में सदा उसे अपनी यानाचारमय प्रवृति पर ही लक्ष्य रखना चहिये। इस प्रकार की प्रवृत्ति करने से वह साधु पापकर्म का बंध नहीं करतो है। इसलिये हे मेघकुमार ! तुम "संयम निभृतश्चर" इस सफल संयम की अच्छी तरह से-यत्नाचारमय प्रवृत्ति से रक्षा करो-पालन करो। इस प्रकार से संयम की आराधना में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का प्रदर्शन सूत्रकार ने किया है । अब तप के आराधन करने में उनकी क्या आज्ञा है-वे यह स्पष्ट करते हैं " आयावयाही चय सोगमल्लं" (दशवैकालिक द्वितीय अध्ययन ) 'हे मुने! सुकुमालपने को छोड़ आतापनाले' आतापनारूप तपधर्म की आराधना से मुनि को चाहिये બધા સંયમી લેકોએ સંપૂર્ણપણે સાવધાન થઈનેજ ચાલવું જોઈએ અને પૂર્ણ સાવધાન થઈને જ બેસવું જોઈએ. ઉઠવા બેસવામાં તેમજ આહાર વગેરે ક્રિયા કરવામાં અને બોલવા ચાલવામાં હંમેશા તેને પોતાની પત્રાચારમય પ્રવૃત્તિ ઉપર જ લક્ષ્ય આપવું જોઈએ. આ રીતે પ્રવૃત્તિ કરવાથી તે સાધુ પાપ-કર્મનો म ४२ते। नथी. मेथी भेधभार ! तमे " संयमं निभूतश्चर" मा सद સંયમની સારી રીતે યત્નાચારમયી પ્રવૃત્તિ વડે રક્ષા કરો-આનું પાલન કરો. આ રીતે સૂત્રકારે સંયમની આરાધના વિષે પ્રભુની આજ્ઞાનું પ્રદર્શન કર્યું છે. હવે તપની આરાધના કરવામાં તેઓશ્રીની આજ્ઞા શી છે? તે સૂત્રકાર અહીં २५ट २ छ-" आयावयाही चय सोगमल्लं" ( दशवकालिक द्वितीय अध्ययन) હે મુનિ ! સુકમળતાને ત્યજીને આતાપના સ્વીકારે. આતાપના રૂપ તપધર્મની આરાધનાથી મુનિ પિતાના શરીરને કુશ (દુર્બળ) બનાવે અને શારીરિક
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३२८
शांताधर्मकथास
किंच श्रमणस्य क्षान्त्यादिदशविधे धर्मे तपसः पाठो वर्तते तस्मात् तपोधर्म
इति विज्ञायते । तथाचोक्तं समवायाऽङ्गसूत्रे - ( समवाय १० )
66
दस व समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा - (१) खंती, (२) मुत्ती (३) अज्जवे ( ४ ) महवे ( ५ ) लाघवे (६) सच्चे (७) संज मे ( ८ ) तवे ( ९ ) चियाए (१०) बंभचेरवासे ।
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अहिंसादीनां जिनाज्ञाप्रयोज्यप्रवृत्तिकस्वरूपस्य धर्मलक्षणस्य सद्भावाद् धर्मत्वं सिद्धं ।
उक्तं धर्मस्य लक्षणं, लक्ष्या अहिंसादयश्च मोक्ताः, तत्राहिंसासंयमतपोरूपो धर्म उत्कृष्टं मङ्गलं बोध्यम् ।
तथाचोक्तं दशवैकालिकसूत्रे - (म० अ० १ )
" धम्मो मंगलमुकिटं अहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ||
""
कि वह अपने शरीर को कृश करें एवं शारीरिक सुकुमारता का मोह छोड़े । उत्तम क्षमा आदिक जो श्रमणों के दशप्रकार के धर्म कहे गये हैं, उनमें तप का भी कथन आया है, अतः तप में धर्मरूपता सिद्ध ही होती है। समवायांग सूत्र में श्रमण के दश प्रकार के धर्मों का कथन करते हुए सूत्रकार ने यही कहा है- " दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा - खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए बंभचेरवासे ।
इन अहिंसादिक महाव्रतों में धर्मरूपता इसलिये सिद्ध होती है कि वहां पर जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा प्रयोज्य प्रवृत्तिरूप धर्म के लक्षण का सद्भाव पाया जाता है इस प्रकार धर्म का लक्षण और उसके लक्ष्यभूत अहिंसादिकों का कथन है। ये अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही
સુકુમારતાના મેહ ત્યજી દે. ઉત્તમ ક્ષમા વગેરે શ્રમણાના દશ પ્રકારના ધર્મ કહેવામાં આવ્યાં છે તેઓમાં તપનું કથન છે. એથી તપમાં ધર્મરૂપતા સિદ્ધ થાય જ છે. સૂત્રકારે સમવાયાંગ સૂત્રમાં શ્રમણુના દશ પ્રકારના ધર્મોનું કથન કરતાં આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે—
66
विहे समणधम्मे पण्णत्तेत जहा खंत्ती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे' संजमे, तवे चियाए बंभचेरवासे । ”
આ અહિંસા વગેરે મહાવ્રતામાં ધમરૂપતા એટલા માટે સિદ્ધ થાય છે કે તેમાં જીનેન્દ્ર પ્રભુની આજ્ઞા પ્રત્યેાજ્ય પ્રવૃત્તિ રૂપ ધર્મના લક્ષણના સદ્ભાવ છે. આ રીતે ધનું લક્ષણ અને તેના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વગેરેનું કથન છે. અહિંસા, સંચમ અને તપ રૂપ ધર્મ જ ઉત્કૃષ્ટ મગળ રૂપ છે, દશવૈકાલિક
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदी चर्चा
छाया - धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टम् अहिंसा संयमस्तपः । देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥ नन्वहिंसा - संयम - तपो - रूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाज्ञासिद्धम् आहोस्विद युक्तिसिद्धमपि १
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अत्रोच्यते — उभयसिद्धमपि तथाहि - जिनवचनत्वा - दाज्ञासिद्धम् अनुमानमयत्रवर्तते -' अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् इति प्रतिज्ञा, 'देवादि: उत्कृष्ट मंगलरूप हैं दशवैकालिकसूत्र में यही कहा है “धम्मो मंगलमुट्ठि अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नम॑सति जस्स धम्मे सयामणो " धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा संयम और तप ये ही धर्म हैं । जिसका अन्तः करण इस धर्म से सदा युक्त रहता है उसके लिये देव भी नमस्कार करते हैं ।
शंका-अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म में जो उत्कृष्ट मंगलरूपता कही है वह आज्ञासिद्ध है इसलिये कही है कि युक्ति से सिद्ध है इसलिये कही है ? भावार्थ - अहिंसादिकों में उत्कृष्टमंगलता किस प्रमाण से सिद्ध है ? आगम से या अनुमान से ?
उत्तर- इनमें उत्कृष्ट मंगलरूपता आगम और युक्ति दोनों से सिद्ध है । जिनेन्द्र के वचन होने से इनमें आज्ञासिद्धता है तथा अनुमान से प्रसिद्ध होने से युक्ति सिद्धता है। " धम्मो मंगलमुकिहं " इत्यादि गाथा द्वारा इनमें जिनेन्द्रवचनरूप आगमता पूर्व में ही प्रदर्शित की जा चुकी है अनुमान प्रसिद्धता इस प्रकार है-अनुमान के पांच अंग होते सूत्रभां मेवात वामां आवी छे - " धम्मो मंगलमुक्किट्ठे - अहिंसा सजमो तव । देवा वितं नम स ति जस्स धम्मे सया मणो " धर्म उत्सृष्ट भांगण છે. અહિંસા સંયમ અને તપ એ જ ધર્મ છે. જેનુ અન્તઃકરણ આ ધર્મથી સદા યુક્ત રહે છે તેને દેવા પણ નમન કરે છે,
શકા—અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધર્મોને જે ઉત્કૃષ્ટ મંગળ રૂપ કહેવામાં આવ્યા છે તે આજ્ઞાસિદ્ધ છે. માટે કહેવામાં આવેલ છે કે યુતિથી સિદ્ધ છે એટલા માટે કહેવામાં આવે છે ? ભાવાથ-અહિંસા વગેરેમાં ઉત્કૃષ્ટ મગળતા કયા પ્રમાણથી સિદ્ધ છે ? આગમથી કે અનુમાનથી ?
३१९
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ઉત્તર-મામાં ઉત્કૃષ્ટ મ ́ગલરૂપતા આગમ અને યુતિ ખ'નેથી સિદ્ધ છે. જિનેન્દ્રનાવચને હાવાથી આમાં આજ્ઞા સિદ્ધતા છે તેમજ અનુમાનથી પ્રસિદ્ધ होवा महल युक्ति सिद्धता छे " धम्मो मंगलमुक्किट्ठ " वगेरे गाथा वडे આમાં જિનેન્દ્ર પ્રવચનરૂપ આગમતા પહેલાં ખતાવવામાં આવી જ છે અને અનુ
वा ४२
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no
ज्ञाता धर्मकथासूत्रे
मान्यत्वात् इति हेतुः । अर्हदादिवत् इति दृष्टान्तः इह यो यो देवादिमान्यः स स उत्कृष्टं मङ्गलं यथाऽर्हदादयः, ' तथा चायं धर्मः ' इत्युपनयः, तस्माद् देवादि - मान्यत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति निगमनम् ।
वस्तुतस्तु धर्माधर्मस्वरूपं
मत्वाच्वस्थैर्दुर्ज्ञेयं, केवलं सर्वज्ञेन रागादिदोष र हितेन पञ्चत्रिंशद्वचनातिशयसंपः नेन केवलिना तीर्थंकरेण केवलालोकेन सुज्ञेयं भवति । छद्मस्थानां तु भगवद्वचनमेत्र नियामकं तथाचोक्तम्
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- १ प्रतिज्ञा, २ हेतु, ३ दृष्टान्त, उपनय ४ और ५ निगमन । अर्हत भगवान की तरह देवादिकों द्वारा मान्य होने से अहिंसा, तप और मरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल हैं ।
66
""
इस अनुमान वाक्य में " अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृ मंगल है " यह प्रतिज्ञा है " देवादिकों द्वारा मान्य होने से " यह तु है । अर्हन्त की तरह यह दृष्टान्त है पक्ष में हेतु के दुहराने से उपनय और प्रतिज्ञा के दुहराने से निगमन सिद्ध हैं जैसे -" जो जो देवादिकों द्वारा मान्य होता है वह २ उत्कृष्ट मंगल होता है जैसे अर्ह - त प्रभु-ये भी देवादिकों द्वारा मान्य हैं। इस प्रकार पक्ष में हेतु के दुहराने रूप उपनय है इसलिये "वे भी उत्कृष्ट मंगल स्वरूप हैं " इस प्रकार प्रतिज्ञा के दुहराने रूप निगमनवाक्य है ।
वास्तव में तो धर्म और अधर्म का स्वरूप सूक्ष्म होने से हम छद्मस्थों के लिये अत्यंत परोक्ष है - इस लिये हम उसे सिर्फ अनुमान या
માન પ્રસિદ્ધતા આ પ્રમાણે સમજવી જોઇએ. અનુમાનના પાંચ અંગે! હાય 'छे- प्रतिज्ञा' १, हेतु २, दृष्टांत 3, उपनय ४, मने निगमन 4,
અદ્ભુત ભગવાનની જેમ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય હોવા બદલ અહિંસા, તપ અને સયમ રૂપ ધ ઉત્કૃષ્ટ-માગલ છે.
આ અનુમાન વાકયમાં “ અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ छे. " मा प्रतिज्ञा छे. " हेव वगेरे द्वारा मान्य होवाथी या हेतु छे. अह તની જેમ ” આ દૃષ્ટાંત છે. પક્ષમાં હેતુને બેવડાવવાથી ઉપનય અને પ્રતિજ્ઞાને એવડાવવાથી નિગમન સિદ્ધ છે. જેમકે “ દેવ વગેરે દ્વારા જે જે માન્ય હાય છે તે તે ઉત્કૃષ્ટ-મંગલ હાય છે જેમ અ`ત પ્રભુ પણ દેવ વગેરે દ્વારા માન્ય છે. આરીતે પક્ષમાં હેતુને બેવડાવવાથી ઉપનય છે, માટે “ તેએ પણ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ સ્વરૂપ છે ” આરીતે પ્રતિજ્ઞાને બેવડાવવા રૂપ નિગમન વાકય છે.
વસ્તુતઃ ધમ તેમજ અધર્મનું સ્વરૂપ સૂક્ષ્મ હેાવાથી અમારા જેવા છદ્મસ્થા માટે તે અતીવ પરાક્ષ છે એથી અમે ફક્ત તેને અનુમાન કે આગમથી
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गरधर्मामृतfort टीका अ० १६ द्रौपदीच " धर्माधर्मव्यवस्थायाः, शास्त्रमेव नियामकम् । तदुक्ताssसेवनाद् धर्मस्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात् ॥ " इति,
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३३१
आगम से ही ज्ञात कर सकते हैं। घटपटादिकों की तरह उसे स्पष्ट रूप से देखनहीं सकते हैं। इसीलिये वह दुर्ज्ञेय है। जो अनुमान और आगम से गम्य होता है वह अग्नि आदि की तरह किसी न किसी के प्रत्यक्ष होता है यह स्पष्ट सिद्धान्त है। तीर्थकर प्रभु ने कि जो राग और द्वेष से सर्वथा रहित हैं, त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जो हस्तामलकवत् स्पष्ट जानते हैं, ३५ वाणी के अतिशय से जो युक्त हैं अपने केवलज्ञान रूपी आलोक से उसे विशदरूप से जान लिया है। हम छद्मस्थों के लिये इनके वचनों के सिवाय इस विषय का नियामक और कुछ नहीं है । अतः उनके कथनानुसार ही धर्म और अधर्म का स्वरूप हम संसारी जीव जान सकते हैं या जानते हैं । " धर्माधर्मव्यवस्थायाः शास्त्रमेव नियामकं तदुक्ता सेवनात् धर्मस्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात् " धर्म और अधर्म के स्वरूप की व्यवस्था करने वाले केवल सर्वज्ञभगवान् के वचन स्वरूप आगम ही हैं। अतः उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का सेवन करना धर्म और उससे विपरीत मार्ग का सेवन करना अधर्म है
भावार्थ - जीवों को धर्मकी प्राप्ति सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रदर्शित मार्ग
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સમજી શકીયે છીએ. ઘટ પટ • વગેરેની જેમ તેને સ્પષ્ટ પણે જોઈ શકતા નથી એથી જ તે દુજ્ઞેય છે. જે અનુમાન અને આગમથી ગમ્ય હોય છે તે અગ્નિ વગેરેની જેમ કાઇને કોઇને પ્રત્યક્ષ હાય છે આ એક સ્પષ્ટ સિદ્ધાંત છે. રાગ અને દ્વેષથી સંપૂર્ણ પણે રહિત એવા તીથ કર પ્રભુએ-કે જેઆ ત્રિકાળવતી બધા પદાર્થા ને હસ્તામલકત્રત સ્પષ્ટ રીતે જાણે છે, ૩૫ વાણીના અતિશયથી જેઓ યુકત છે પેાતાના કેવળજ્ઞાન રૂપી આલેાકથી તેને વિશદ રૂપથી જાણી લીધુ છે. અમારા જેવા છદ્મસ્થાને માટે એમનાં વચને સિવાય આ વિષયના નિયામક ખીજે કાઈ નથી. એથી અમે તેમના કહ્યા મુજબ જ धर्म' ने अधर्म स्व३५ - लागी शडीये छीमे " धर्माधर्म - व्यस्थायाः शास्त्रमेव नियामक, तदुक्तासेवनात् धर्मस्त्वधर्म सद्विपर्ययात् " धर्म भने अधर्मना સ્વરૂપની વ્યવસ્થા કરનાર ફ્કત સજ્ઞ ભગવાનના વચન સ્વરૂપ આગામે જ છે. એથી તેમના વડે દર્શાવવામા આવેલા માર્ગનું સેવન કરવુ` એજ ધમ અને તેથી વિરુદ્ધ માગતું સેવન કરવુ' યમ છે. લાવા સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વાશ
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माताधर्मकथा पर चलनेसे ही हो सकती है, इससे विपरीत मार्ग पर चलने से नहीं। अतः जो जीव धर्म को साक्षात्कार करना चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि वे सर्वज्ञ भगवन द्वारा कथित मार्ग का सेवन करें और उस से भिन्न मार्ग का परित्याग करें। इस प्रकार की प्रवृत्ति से वे धर्म और अधर्म के स्वरूप के ज्ञाता बन जाते हैं। इस कथन से शंकाकार की इस आशंकाका यहाँ परिहार किया गया है कि जो उसमें पहिले यह प्रश्न किया कि अहिंसादिकों में जो उत्कृष्ट मंगलरूपता है वह किस प्रमाण से है। सूत्रकारने आगम और अनुमान दोनों प्रमाणों से उनमें उत्कृष्ट मंगलता सिद्ध की है इस कथन से एक बात और हमें यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त की जांच के लिथे जबतक तर्क का जोर चलता रहे बुद्धिमान तबतक अपनी तर्कणा की कसौटी पर उसे कसता रहे-पर जब तर्क की समाप्ति हो जावे-तर्कणा शक्ति कुंठित हो जावेतो उस व्यक्ति का कर्तव्य है वह आगम प्रमाण से ही उस सिद्धान्त का अनुसरण करें। फिर उसे उस विषय में तर्क करने की आवश्यकता नहीं है क्यों कि सूक्ष्मादिक पदार्थ सर्वज्ञ के सिवाय छनस्थों के પ્રદર્શિત માર્ગ ઉપર ચાલવાથી જ છે ને ધર્મની પ્રાપ્તિ થઈ શકે તેમ છે. એનાથી વિરુદ્ધ માર્ગના સેવન થી નહિ. એથી જે છ ધર્મનું પ્રત્યક્ષ દર્શન ઈચ્છતા હોય તેમની ફરજ છે કે તેઓ સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કથિત માર્ગનું સેવન કરે અને તેના વિરુદ્ધ માર્ગને ત્યાગ કરે આ જાતની પ્રવૃત્તિથી તેઓ ધર્મ અને અધર્મના સ્વરૂપને જાણનારા થઈ જાય છે. આ કથનથી શંકાકારની એ આશંકાને અહીં પરિહાર કરવામાં આવ્યું છે કે જે તેમાં પહેલાં આ પન્ન કરવામાં આવ્યું છે કે અહિંસા વગેરે માં જે ઉત્કૃષ્ટ મંગળ રૂપતા છે તે કથા પ્રમાણના આધારે છે? સૂત્રકારે આગમ તેમજ અનુમાન બને-પ્રમાણે થી તેઓમાં ઉત્કૃષ્ટ મંગળતા સિદ્ધ કરી છે. એ કથન વડે બીજી આ વાતનું પણ જ્ઞાન થાય છે કે સર્વજ્ઞ–કથિત સિદ્ધાન્તની પરીક્ષા માટે જ્યાં સુધી તકની શક્તિ કાયમ રહે બુદ્ધિમાને ત્યાં સુધી પોતાની તર્કણાની કસોટી ઉપર કસતા રહે–પણ જ્યારે તર્કની શકિત મંદ થઈ જાય-તર્ક શક્તિ કુંઠિત થઈ જાય ત્યારે તે વ્યક્તિ ની ફરજ છે કે તે આગળ પ્રમાણથી જ તે સિદ્ધાન્ત નું અનુ. સરણ કરે. પછી તે વિષયમાં જ તેને મીનમેખ કરવી જોઈએ નહિ કેમ કે સૂમ વગેરે પદાર્થો સર્વજ્ઞ સિવાય છાના માટે સ્પષ્ટ રૂપથી જાણી શકાય
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नगारयामृतवषिणी टीका मे०१६ द्रौपदीची
स्वयमेव भगवता-अहिंसासंयमतपसां धर्मत्वं,तथा – तेषामुत्कृष्टमङ्गलस्वरूपत्वेन प्राधान्यं च वर्णितं, तत्राप्यहिंसायाः-सर्वधर्ममूलत्वेन प्राधान्यात् प्रथमं स्थानं प्रदत्तम् । तस्य सर्वप्रधानस्याऽहिंसाधर्मस्य षट्कायोपमर्दनसाध्ये मूर्तिपूजने मूलतः समुच्छेदं केवलालोकेन साक्षात् पश्यन् भगवानहन् मूर्तिपूजनार्थमाज्ञां प्रदद्यादित्याकाशकुसुममिवात्यन्तमसदेव बोध्यम् । स्पष्ट रूप से ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं । अतः ऐसे विषयों में सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाण कोटि में अंगीकार करना चाहिये।
भगवान ने स्वयं ही अहिंसा, संयम और तप में धर्मरूपता तथा उत्कृष्ट मंगलरूप होने से प्रधानता कही है । अहिंसा में जो प्रधान रूपता कही गई है उसका मुख्य कारण यह है कि वह समस्तधर्मों का मूल है और इसीलिये उसे उन्हों ने सर्वप्रथमस्थान दिया है जय यह बात है तो विचारना चाहिये कि भगवा मूर्तिपूजा की आज्ञा कैसे दे सकते हैं। क्यों कि वह पूजा षटू काय के जीवों की विराधना से साध्य होती है। इस विराधना में अहिंसा धर्म को मूलतः ही अभाव समाया हुआ है। अर्थात् मूर्तिपूजा में उस प्रभुप्रतिपादित अहिंसा धर्म का सर्वथा उच्छेद हो हो जाता है-मूर्तिपूजा करने वाला पूजक अहिंसा धर्म का रक्षक नहीं हो सकता है-प्रत्युत उसे हिंसा का ही दोष लगता है इस प्रकार स्वयं भगवान जब अपने केवल ज्ञान से इस बात को તેમ નથી. એથી એવી બાબતમાં સર્વજ્ઞ નાં વચનો જ પ્રમાણ રૂપમાં સ્વીકા२वां नये.
ભગવાનને પોતે જ અહિંસા, સંયમ અને તપમાં ધર્મરૂપતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ મંગળરૂપ હોવાથી પ્રધાનતા બતાવી છે. અહિંસામાં જે પ્રધાન રૂપતા દર્શાવવામાં આવી છે, મુખ્યત્વે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે બધા ધર્મોનું મૂળ છે અને એથી તેને સૌએ સૌ પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે. જ્યારે એવી વાત છે ત્યારે આપણે વિચારવું જોઈએ કે ભગવાન મૂર્તિપૂજાની આજ્ઞા કેવી રીતે આપી શકે તેમ છે ? કેમ કે તે પૂજા તે પકાયના જીવોની વિરાધનાથી સાધ્ય હોય છે. આ વિરાધનામાં અહિંસા ધર્મતે મુખ્યત્વે અભાવને જ સમાવેશ થયે છે તેમ કહી શકાય છે. એટલે કે મૂર્તિપૂજામાં તે પ્રભુ પ્રતિપાદિત અહિંસા ધર્મને સંપૂર્ણ પણે ઉચછેદ જ થઈ જાય છે. મૂર્તિપૂજા કરનાર પૂજારી અહિંસા ધર્મને રક્ષક થઈ શકતો નથી અને બીજી રીતે તે તેને હિંસાને દેષ જ ઓઢવ પડે છે. આ રીતે જ્યારે પોતે ભગવાન પિતાના કેવલજ્ઞાનથી આ
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हाताधर्मकथा एवं लक्ष्याः समालोचिताः, इदानीमलक्ष्या उच्यन्ते-हिंसादौ जिनाज्ञाविरुद्धा प्रवृत्तिर्भवति लोकानां तस्मादधर्मा हिंसादय एव तस्य धर्मलक्षणस्यालक्ष्या भवन्ति। - धर्माधर्मस्वरूपबोधनार्थ हि भगवताऽऽवश्यके नाम-स्थापनाद्रव्यभावभेदेन चतुर्विधो निक्षेपः प्रदर्शितः । तत्र भावावश्यके एव तीर्थकराज्ञायाः सद्भावाद् साक्षात् जानते हैं तो फिर वे ही मूर्तिपूजा करने की आज्ञा देंगे यह मान्यता आकाशपुष्पकी तरह सर्वथा असत्य ही है यह स्वयं समझने जैसी बात है जहाँ हिंसा है वहां धर्म नहीं है अहिंसामें ही सच्चाधर्म है।
इस प्रकार धर्म के लक्ष्यभूत अहिंसा आदि का यहां तक विचार किया। अब उससे विपरीत हिंसादिकों का विचार करते हैं
हिंसा आदि पाप हैं-इन में प्रवृत्ति कने की आज्ञा जिन भगवान ने नहीं दी है फिर भी जो प्रवृत्ति करते हैं वे उस आज्ञा से बहिर्भूत हैं। अतः जिनाज्ञा से विरुद्ध प्रवृत्ति होने से जीवों के लिये धर्म प्राप्ति के बदले इनसे अधर्म की हो प्राप्ति होती है। जिन से जोवों को अधर्म की प्राप्ति होती हो, वे स्वयं अधर्म हैं । हिंसादिक पापों में अधर्मता होने का कारण उनमें धर्म के लक्षण का अभाव है। इसीलिये ये धर्म के लक्षण के अलक्ष्य हुए हैं। इस धर्म और अधर्म के स्वरूप को समझाने के लिये भगवान ने आवश्यकसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव વાતને સ્પષ્ટપણે પ્રત્યક્ષરૂપમાં જાણે છે તે પછી તેઓ જ મૂર્તિપૂજા કરવાની આજ્ઞા આપે એવી માન્યતા આકાશ પુષ્પની જેમ સંપૂર્ણ પણે અસત્ય જ સિદ્ધ થાય છે. આપણે પોતે પણ આ વાત સમજી શકીએ તેમ છીએ. કે જ્યાં હિંસા છે ત્યાં ધર્મ નથી. અહિંસામાં જ સાચો ધર્મ છે.
આ રીતે ધર્મના લક્ષ્યભૂત અહિંસા વગેરે ને માટે અહીં સુધી વિચાર કરવામાં આવ્યો છે. હવે આગળ તેથી વિરુદ્ધ હિંસા વગેરેની બાબતમાં વિચાર २पामा भाव छ
હિંસા વગેરે પાપ છે–આમાં પ્રવૃત્ત થવાની આજ્ઞા જિન ભગવાનને કેઈને પણ આપી નથી છતાં જેઓ તેમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેઓ તે આજ્ઞાથી બહિર્ભત છે. એથી જિનાજ્ઞાની પ્રતિકૂળ પ્રવૃત્તિ હેવાથી જીવેને ધર્મ પ્રાપ્તિના સ્થાને એમનાથી અધર્મની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. અને જેનાથી અધર્મની પ્રાપ્તિ થાય છે તે પોતે અધર્મ છે હિંસા વગેરે પાપમાં અધમતા હોવાને લીધે તેઓમાં ધર્મના લક્ષણને અભાવ છે. એટલા માટે જ તેઓ ધર્મના લક્ષણથી અલક્ષ્ય થયા છે. આ ધર્મ અને અધર્મના સ્વરૂપને સમજાવવા માટે ભગવાને
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यमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचच
धर्मत्वम्, अन्यविधेष्वावश्यकेषु रागद्वेषहिंसादिदोषसद्भावेन मोक्षमार्गोपदेशे प्रवृत्तस्य तीर्थंकरस्य चाऽऽज्ञाया अभावेन न तत्र धर्मलक्षणं समनुगच्छति, तेषां मोक्षसाधकत्वाभावाज्जैनधर्मपदं लब्धु-मनईत्वात । तथाचोक्तमनुयोगद्वारे --
" से किं तं नामावरस्यं ? । नामावस्सयं जरस णं जीवस्स वा अजीवस्स वा के भेद से ४ चार निक्षेपों का कथन किया है उनमें नाम स्थपना और द्रव्यरूप धर्म निक्षेप के आराधन करने की भगवान ने जीवों को आज्ञा नहीं दी है क्यों कि इनसे जीवों को धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। धर्म की प्राप्ति कराने वाला केवल भाव निक्षेपरूप आवश्यक है। इसकी आराधना से ही जीवों को धर्म प्राप्त हुआ करता है-अतः इस में ही धर्मरूपता प्रकट की गई है बाकी के इसके अतिरिक्त निक्षेपों में-आबइयकों में रागद्वेष और हिंसा आदि दोषों का सद्भाव होने से एवं मोक्ष मार्ग के उपदेशप्रदान करने में प्रवृत्त तीर्थकरों की इनके आराधन करने में आज्ञा का अभाव होने से धर्म के लक्षण का समन्वय ही नहीं होता है। मुक्ति का जो साधक होता है वही जैन-धर्म है। इन ३ निक्षेपरूप आवश्यकों में मुक्ति की साधकता का अभाव है - इसलिये ये जैनधर्म के पदको स्वप्न में भी प्राप्त नहीं कर कते हैं।
अनुयोगद्वार में यही बात कही गई है
से किं तं नामावस्सयं ? नामावस्मयं जस्स णं जीवस्स अजीवरस આવશ્યકસૂત્રમાં નામ, સ્થાપના દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી ચાર નિક્ષેપ નું કથન કર્યુ છે. તેઓમાં નામ, સ્થાપના, અને દ્રવ્યરૂપ ધમ નિક્ષેપને આરાધવાની ભગવાને જીવાને આજ્ઞા આપી નથી કેમ કે એમનાથી જીવાને ધર્મની પ્રાપ્તિ • થતી નથી ધર્મની પ્રાપ્તિ કરાવનારા કેવળ ભાવનિક્ષેપરૂપ આવશ્યક છે. એની આરાધનાથી જ જીવાને ધર્મની પ્રાપ્તિ થાય છે. એથી આમાં જ ધર્મરૂપતા બતાવવામાં આવી છે. એના સિવાયના બીજા નિક્ષેપેામાં-આવશ્યકામાં–રાગદ્વેષ અને હિંસા વગેરે દાષાના સદ્ભાવ હાવાથી અને મેક્ષ માના ઉપદેશ આપવામાં પ્રવૃત્ત તીથ કરેાની એમની આરાધના કરવાની આજ્ઞાના અભાવ હેાવાથી ધર્માંના લક્ષણને સમન્વય જ થતા નથી. મુકિતને જે સાધક હાય છે તે જ જૈન-ધર્મ છે. આ ૩ નિક્ષેપરૂપ આવશ્યકામાં મુકિતની સાધકતાના અભાવ છે માટે એએ જૈન ધર્મના પદને સ્વપ્રમાંયે મેળવી શકે તેમ નથી.
અનુયાગઢરમાં એ જ વાત કહેવામાં આવી છે—
से किं तं नामावस्य ? नामावरसयं जस्स णं जीवरस अजीवस्स वा जीवाण वा
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पाताधर्मकथा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सएत्ति नामं कज्जइ, से तं नामावस्सयं ।
अथ किं तत् नामावश्यक ? नामावश्यक-यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते तदेतनामावश्यकम् । ____ " से किं तं ठवणावस्सयं २ ? जणं कटकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथि मे वा वेदिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा क्राडए वा एगो वा अणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भाक्टवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ, से तं ठवणावस्सयं ।
__ छाया-अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? स्थापनावश्यकं यत् खलु काष्ठकर्म वा पुस्तकम वा चित्रकर्म वा लेप्यकर्म वा ग्रन्थिमं वा वेष्टिमं वा परिमं वा सङ्घातिम वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नामं कन्जड़ से तं नामावस्सयं ।
से कि तं ठवणावरसयं? जणं कट्टकम्मे पापोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संधामे वा अक्खे वा वराहए वा एगो वा सम्भावटवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सए. त्ति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सयं
भावार्थ-जीव, अजीव अथवा तदुभय स्वरूप आदि पदार्थों में " यह आवश्यक है" इस प्रकार नाम संस्कार करना वह जीव अजीव
आदि नाम आवश्यक है इस नाम आवश्यक में आवश्यक के वास्तविक गुणादि कुछ भी नहीं होते हैं-सिर्फ लोक व्यवहार के लिये ही इस प्रकार की वहां पर निक्षेपविधि करली जाती है काष्ठ, पुस्तक चित्र अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नामं कज्जह से तं नामावस्सयं ।
से कितं ठवणावस्सयं ? जण्णं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा सघाइमे वा अवखे वा वराडए वा एगो वा भणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा.आवस्सएत्ति ठवणा ठ विज्जइ, सेतं ठवणावस्सयं।
ભાવાર્થ–જીવ, અજીવ અથવા તદુભય સ્વરૂપ વગેરે પદાર્થોમાં “આ આવશ્યક છે” આ રીતે નામ સંસ્કાર કર ને જીવ અજીવ વગેરે “ નામ આવશ્યક છે આ નામ આવશ્યકમાં આવશ્યક ના વાસ્તવિક ગુણ વગેરે કંઈ જ હોતા નથી ફકત લેકવ્યવહાર ના માટે જ આ જાતની ત્યાં નિક્ષેપવિધિ કરવામાં
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ५० १६ द्रौपदीच
या अक्षं वा वराटकं वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापना वा असद्भावस्थापना वा आवश्यक - मिति स्थापना स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनावश्यकम् ।
"
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३३७
भावावश्यक स्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नामकरणे नाम्नानाममात्रेणावश्यकं नामावश्यकं गोपालदारकादिर्भवति । स्थापनाऽपि भावावश्यक
एवं अक्ष-शतरंज की गोटी आदि में एक अथवा अनेक आवश्यक क्रिया करने वाले श्रावक आदि को तदाकार अथवा अतदाकार लिखित चित्र स्थापना आवश्यक ( निक्षेप ) है यह स्थापना दो प्रकार की है एक सद्भाव स्थापना और २ दूसरी असद्भावस्थापना ! सद्भाव स्थापना में जिसकी स्थापना की जाती है उसकी सर्व आकृति कोतरी रहती है असद्भूत स्थापना में इस प्रकार की आकृति आदि नहीं रहती है वहां पर केवल संकेत ही है जैसे शतरंज की गोटियां में यह प्यादा है यह बजीर है, यह हाथी है इत्यादि सिर्फ कल्पना ही कल्पना रहती है- वहां उनका कोई भी आकार कोतरा नहीं रहता है। नाम निक्षेप में जिस प्रकार भाव आवश्यक शून्यता रहती है उसी प्रकार स्थापना में भी यही बात रहती है किसी गोपाल ( ग्वालिये) के लड़के का 46 आवइयक " इस प्रकार का नाम जिस प्रकार भाव आवश्यक रहित नाम निक्षेप में है उसी प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य स्थापना निक्षेप में भी " यह आवश्यक है " यह स्थापना निक्षेप है ।
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આવે છે, કાષ્ઠ, પુસ્તક, ચિત્ર અને અક્ષ–શતરજ ની સાગઠી વગેરેમાં એક કે અનેક આવશ્યક ક્રિયા કરનાર શ્રાવક વગેરેનુ' તદાકાર કે અતદાકાર લેખિત चित्र-स्थापन यावश्य४ ( निक्षेप ) छे. या स्थापना में अारनी छे, भेड સદૂભાવ સ્થાપના અને ખીજી અસદ્ભાવ સ્થાપના. સદ્ભાવ સ્થાપનામાં જેની સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેની આકૃતિ સ'પૂર્ણપણે કાતરેલ હેાય છે. અસદ્ભૂત સ્થાપનામાં આ જાતની આકૃતિ વગેરે રહેતી નથી ત્યાં ફક્ત સ`કેત જ છે, જેમ શેતરંજની સેાગડીએમાં આ પાયદળ છે, આ વજીર છે, આ હાથી છે વગેરે ફક્ત કોરી કલ્પના જ હાય છે તેમાં તેમની કાઇપણ જાતની આકૃતિ કેાતરેલી હાતી નથી. નામ નિક્ષેપમાં જેમ ભાવ આવશ્યક શૂન્યતા રહે છે તેમજ સ્થાપનામાં પણ એ જ વાત હેય છે. કેાઇ ગેાવાળિયાના શ્યક ' આ જાતનું નામ જેમ ભાવ આવશ્યક રહિત નામ પ્રમાણે જ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય સ્થાપના નિક્ષેપમાં પણ
“ भाव
પુત્રનું નિક્ષેપમાં છે તે
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આવશ્યક છે'' આ સ્થાપના નિક્ષેપ છે.
新
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माताधर्मकथा स्वरूपशून्ये काष्ठकर्मादौ क्रियते । अतो भाशून्ये ब्रियमाणत्वाविशेषादनयो. र्नास्ति कश्चिद् भेद इत्याशयेनाह-- __ "णामढवणाणं को पइविसेसो ?। छाया-नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः । अत्रोत्तरमुच्यते--
'णामं आवकदिअं, ठवणा इत्तरिआ या होज्जा आवकहिआ वा' ॥ छायानाम-यावत्कथिक, स्थापना-इत्वरिका वा भवेद् यारत्कथिका वा।
'णामं आवकहियं ' नाम यावत्कथिक-स्वाश्रयद्रव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्तते इत्यर्थः, स्थापना तु ' इत्तरिया वा' इत्वरिका वा स्वल्पकालस्थायिनी वा ' होज्जा' स्यात् , यावत्कथिका वा, अयं भावः-काचित्-स्थापना स्वाश्रयद्रव्यस्य सद्भावेऽपि, मध्यकाल एव निवर्तते, काचित्तु-तत्सत्तां यावदवतिष्ठते
शंका-जिस प्रकार भाव आवश्यक के स्वरूप से शून्य गापाल के लड़के आदि में " आवश्यक" इस प्रकार का नामनिक्षेपरूप आवश्यक है उसी प्रकार भाव आवश्यकके स्वरूपसे शून्य काष्ठधर्म आदिकों में भी यही बात है । अतः भाव ओवश्यकके स्वरूप की शुन्यताकी अपेक्षा से इन दोनों में कोई भी अन्तर नहीं है। तो फिर इन दोनों में क्या भेद है !
उत्तर-"णामं आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होजा आवकहिओवा" इस प्रकार की शंका ठीक नहीं-क्यों कि नाम यावत्कथित होता है स्थापना इत्वरिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है । अपने आश्रयभूत द्रव्यका जबतक अस्तित्व-सद्भाव रहता है तबतक नामनिक्षेप रहता है ! इत्वरिक शब्द का अर्थ अल्पकालीन है चित्र एवं अक्ष आदिकों में यह स्थापना अल्पकालीन होती है। इस प्रकार नाम और
શંકા–જેમ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય ગોવાળિયાના પુત્ર વગેરેમાં “આવશ્ય” આ જાતનું નામ નિક્ષેપ રૂપ આવશ્યક છે તેમજ ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપથી શૂન્ય કાષ્ટકર્મ વગેરેમાં પણ એ જ વાત છે. એથી ભાવ આવશ્યકના સ્વરૂપની શૂન્યતાની દષ્ટિએ આ બંનેમાં કઈ પણ જાતને તફાવત નથી, ત્યારે આ બંનેમાં ભેદ શું છે ?
उत्तर-(णाम आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिआ वा) શંકા યોગ્ય નથી કેમકે નામ યાવત્ કથિત હોય છે. સ્થાપના ઈત્વરિક અને યાવસ્કથિત બંને પ્રકારની હોય છે. પિતાને આશ્રયભૂત દ્રવ્યનું જ્યાં સુધી સભાવ-અસ્તિત્વ રહે છે ત્યાં લગી નામ નિક્ષેપ રહે છે! ઈત્વરિક શબ્દનો અર્થ અલ્પકાલીન છે. ચિત્ર અને અક્ષ (રમવાના પાસા) વગેરેમાં એ સ્થાપના અલપકાળ માટે હોય છે. આ રીતે નામ અને સ્થાપનામાં ભાવ: નિક્ષેપની
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मेरी टी० अ० १६ द्रौपदीचचां
इति । एवं च नामस्थापनयोर्भाव शून्यत्वेनाधारसाम्येऽपि भेदः स्वस्त्रावस्थानकालकृत एव भगवता प्रदर्शितः । यद्यपि गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरिवर्तनं लोके क्वचिद् दृश्यते, तथा च कालकृतोऽपि भेदो नास्ति, तथापि - बहुशः स्थळे नाम्नो यावत्कथिकत्वमेव दृश्यते, नाम्नः परावर्तनं तु क्वचिद्विरलतयोपलभ्यते । अतोऽल्पस्थलव्यापित्वेन नाम्न इत्वरिकता भगवता न विवक्षिता । नाम्नोऽल्पकालिकताकल्पनेतूत्सूत्रप्ररूपणापत्तिरिति बोध्यम् ।
स्थापना में भावनिक्षेपकी शून्यताकी अपेक्षासे समानता आती है तो भी अपने२ कालकी अपेक्षासे इनमें इस प्रकार भेद अन्तर माना गया है।
शंका- नामनिक्षेप में जो यावत्कथिकता प्रदर्शित की गई है, वह ठीक नहीं है कारण कि हम देखते हैं नामवान द्रव्य-गोपालदारक आदि के विद्यमान रहते हुए भी उस में अनेक नामों का परिवर्तन होता रहता है । कभी उसका " आवश्यक यह नाम होता है, तो इन्द्र " यह नाम रख लिया जाता है । फिर " आवश्यक " इस नाम निक्षेप में यावत्कथिकता कैसे आ सकती है ?
"
46
उत्तर - शंका ठीक है इस प्रकार से विचार करने पर कालंकृत अन्तर यद्यपि उन दोनों में नहीं मालूम होता है तो भी इस बात की यहां पर विवक्षा नहीं है इसका कारण यही है कि यह नामपरिवर्तन अल्पस्थलवर्ती होने से व्याप्य है । यह बात सब जगह नहीं होती । कहीं २ ही होती है यहां सामान्य कथन है- विशेष नहीं । सामान्यरूप से नाम શૂન્યતાની અપેક્ષાથી સમાનતા આવી જાય છે, છતાંયે પાતાતાના કાળની અપેક્ષાથી તેમાં આ જાતના ભેદ અન્તર માનધામાં આન્યા છે.
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6
શકા—નામ નિક્ષેપમાં જે યાવત્કથિકતા બતાવવામાં આવી છે, તે ઉચિત નથી. કારણ કે નામવાળું ગેાપાળદારક વગેરેના વિદ્યમાન રહેતા પણ તેમાં અનેક નામાનું પપિરવત ન થતું રહે છે. કાઈ વખતે તેનું નામ આવશ્યક > રાખવામાં આવે છે તેા કેાઈ વખત इन्द्र' नाम रामवामां आवे छे. तो પછી ‘આવશ્યક ' આ નામ નિક્ષેપમાં યાવકથિત કેવી રીતે આવી શકે છે ? ઉત્તર-શ'કા ઉચિત છે. આ રીતે વિચાર કરવાથી જો કે કાળકૃત તર તે ખનેમાં જણાતું નથી છતાંયે આ વાતની અહીં વિક્ષા નથી. એનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે આ નામ પરિવર્તન અલ્પ-સ્થલવતી હાવાથી વ્યાપ્ય છે, આ વાત અધે સ્થાને હાતી નથી કાઇક કોઇક સ્થાને જ હોય છે. અહીં
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसौ - यत्तु-उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनम्-अपरस्यापि बहुमकारभेदस्य सम्भवात् , इत्युक्तं , तदुत्सूत्रप्ररूपणम् यथोत्सूत्रप्ररूपणभियानामनिक्षेपे इत्वरिकतायाः क्वचित् संभवेऽपि भगवताऽनुक्तत्वादुपलक्षणमिति न स्वीकृतं तथैव स्थापनायां कालातिरिक्तस्य भेदहेतोः कल्पनेऽप्युत्सूत्रप्ररूपणं प्रसज्येत कालान्यकृतयावत्कथिक ही होता है । इसी अपेक्षा को लक्ष्य में रखकर भगवान ने उसमें इत्वरिकता का कथन न कर केवल यावत्कथिकता का ही कथन किया है यदि नाम में जो केवल इत्वरिकता ही मानी जावेगी-तो यह पात सिद्धान्त से बहिर्भूत होने से मानने वाले के लिये उत्सूत्रप्ररूपणा करने की आपत्ति का दोष आवेगा-क्यों कि शास्त्र में भगवान ने नाम निक्षेप में केवल यावद्रव्य भविता ही प्रदर्शित की है। ____ जो व्यक्ति इस शंका का इस प्रकार से समाधान करते हैं कि "काल के भेद से जो नाम और स्थापना में भेद कहा गया है वह केवल उपलक्षण मात्र है-इससे अन्य अनेक प्रकारों से भी इन दोनों में परस्पर भेद है यह बात जानी जोती है" सो उनका यह कथन शास्त्र. मर्यादा के विरुद्ध है जिस प्रकार नाम निक्षेप में कहीं २ इत्वरिकता होने पर भी भगवान द्वारा स्वीकृत न होने से वह उपलक्षगरूप से स्वीकृत नहीं की गई है-उसी प्रकार स्थापना में भी कालकृत भेद के સામાન્ય કથન છે વિશેષ નહિ. સામાન્ય રૂપથી નામ યાવત્ કથિત જ હોય છે. આ વાતને સામે રાખીને જ ભગવાને તેમાં ઈરિકતાનું કથન ન કરતાં ફક્ત યાવત્રુથિકતાનું કથન કર્યું છે. જે નામમાં ફકત ઈત્વરિકતા જ માનવામાં આવશે તે આ વાત સિદ્ધાન્તની બહાર હોવાથી માનનાર માટે ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણ કરવા રૂપ દેષ આવશે. કેમકે શાસ્ત્રમાં ભગવાને નામ નિક્ષેપમાં ફક્ત યાવદુ-દ્રવ્ય-ભાવિતા જ બતાવી છે.
જે માણસે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે કરે છે કે “ કાલના ભેદથી જે નામ અને સ્થાપનામાં તફાવત બતાવવામાં આવ્યું છે તે ફક્ત ઉપલક્ષણ માત્ર છે. એથી બીજા અનેક પ્રકારથી પણ આ બંનેમાં પરસ્પર તફાવત છે આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે. “જેથી તેમનું આ કહેવું શારા-મર્યાદાથી વિપરીત છે. જેમ નામ-નિક્ષેપમાં કઈક કેઈક ઠેકાણે ઈવરિતા હોવા છતાંયે ભગવાન વડે સ્વીકૃત ન હોવાથી તે ઉપલક્ષણ રૂપથી સ્વીકારવામાં આવી નથી. તેમ સ્થાપનામાં પણ કાલકૃત ભેદ સિવાય બીજા વડે અત્તર-ભેદનાનવામાં
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१६ द्रौपदीयों भेदस्य भगवताऽनुक्तत्वात् । एतेन-" यत् कैश्चिदुक्तं यथा प्रतिमारूपस्थापनादशनाद् भावः समुल्लसति नैवं नामश्रवणमात्रादिति नामस्थापनयोर्भेदः, यथा चे. न्द्रादेः प्रतिमारूपस्थापनायां,लोकस्योपयाचितेच्छा पूनापत्ति समोहितलाभादयोदृश्यन्ते,नैव नामेन्द्रादौ, इत्यपि तयोर्भेदः । एवमन्यदपि वाच्यमिति तदुत्सूत्रप्ररूसिवाय अन्य द्वारा अन्तर भेद मानने में उत्सूत्र प्ररूपणा करने का दोष आता है, कारण कि भगवान ने कालकृत भेदके सिवाय स्थापना निक्षेप में अन्य और किसी दूसरी अपेक्षा से भेद का कथन नहीं किया हैं इस प्रकार के कथन से " यह यात भी जो दुसरों ने कही है कि नाम
और स्थापना में इस प्रकार से भी भेद है-कि " जिस प्रकार अर्हत की प्रतिमारूपस्थापना के देखने-दर्शन करने से भावों की जागृति होती है, उस प्रकार नाम निक्षेपरूप अहंत नाम के सुनने से भावों की जागृति नहीं होती है। अथवा-इन्द्रादिक की प्रतिमारूप स्थापना में जिस प्रकार. से लौकिकजनों की उस प्रतिमा से कुछ मांगने की इच्छा उसके पूजन करने की भावना और उस प्रतिमा द्वारा उनके अभिलषितमनोरथों की पूर्ति होती हुई देखी जाती है: उस प्रकार नामरूप इन्द्र में उनकी इस प्रकार की प्रवृत्ति और अभिलषित मनोरथों की पूर्ति होती हई नहीं देखी जाती है। इसी तरह और भी ऐसी कई बातें हैं जो नाम और स्थापना में अन्तर कराती है। यह सब कालकृत भेद के सिवाय
ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણ રૂપ દેષ થઈ જાય છે કારણ કે ભગવાને કાલકૃત ભેદ સિવાય
સ્થાપના નિક્ષેપમાં બીજી કઈ અન્ય દષ્ટિએ ભેદ-કથન કર્યું નથી. આ જાતના કથનથી “આ વાત પણ જે બીજાઓએ કહી છે કે નામ અને સ્થાપનામાં આ રીતે પણ તફાવત છે કે “જેમ અહંતની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનાને જેવા એટલે કે દર્શન કરવાથી ભાવની જાગૃતિ થાય છે, તેમ નામ નિક્ષેપ રૂપ અહંતના નામને સાંભળવાથી પણ ભાવની જાગૃતિ હોતી નથી. અથવા તે ઇન્દ્ર વગેરેની પ્રતિમા રૂપ સ્થાપનામાં જેમ લૌકિક માણસોને તે પ્રતિમાથી કંઈક માગણી કરવાની ઈચ્છા, તેની પૂજા કરવાની ભાવના અને તે પ્રતિમા વડે તેમના અભિલષિત મનેરથોની પૂર્તિ થતી દેખાય છે તેમ નામ રૂપ ઈન્દ્રમાં તેમની આ જાતની પ્રવૃત્તિ અને અભિલષિત મને રથની પૂર્તિ થતી જોવામાં આવતી નથી. આ પ્રમાણે બીજી પણ ઘણી બાબતે છે જે નામ અને સ્થાપ. નામાં અંતર કરાવે છે.
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जाताधर्मकथा पणा जनितानन्तसंसारजनकम् । आगमे यदिदमुपलभ्यते-" तहारूवाणं अरहंतार्ण भगवंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं।" इति, तत्र नास्ति नामनिक्षेपस्य विषयः। " अरहंताणं भगवंताणं " इत्युक्त्या तस्मिन्नर्थे प्रयुक्तस्य नाम्न एव श्रवणेन महा. फलसंभवात् , गोपालदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्नः श्रवणेन तु गोपालदारकाद्यर्थस्यैव बोधादात्मपरिणामशुद्धिहेतुत्वं तस्य नास्तीति । नामनिक्षेपस्थले भगवतोऽईतः स्मरणासंभवः, तस्य भावशून्यत्वात् , अत्र तु नामगोत्राभ्यां भगवदहतः सम्बन्धं षष्ठयन्त पदप्रयोगादेव दर्शयता भगवता नामनिक्षेपो न विवक्षितः । भावजिननाम और स्थापना में भेद कल्पना का कथन उत्सूत्र प्ररूपक होने से अनन्त संसार का जनक है अतः हेय है। "तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं " आगम में जो यह सूत्र लिखा हुआ देखा है उसका अभिमाय नामनिक्षेप परक नहीं है। अर्थात्-इस सूत्र से नाम निक्षेप की पुष्टि नहीं होती है। यदि सूत्रकार को इस सूत्र से जो नामनिक्षेप की पुष्टि करना इष्ट होता तो " अरहंताणं भगवंताणं इस पद् के स्वतन्त्र देने की कोई खास आवश्यकता नहीं थीं। अतः यह यात माननी चाहिये कि अरहंत भगवान के ही नामगोत्र के श्रवण से महाफल होता है। किसी गोपाल के लड़के में निक्षिप्त "अरहंत" इस नाम के सुनने से नहीं। उस में प्रयुक्त भी उस नाम के श्रवण से तो केवल उस गोपाल दारकरूप अर्थ का ही बोध होता है । " अरहंत " यह नाम जिसरूप के संकेत से अरि
આ બધું કાલકૃત ભેદ સિવાય નામ અને સ્થાપનામાં ભેદ કલ્પનાનું કથન ઉસૂત્ર પ્રરૂપક હોવાથી અનંત સંસારનું જનક છે એથી ત્યાજ્ય છે. " तहारुवाण अरहताण भगवंताण' नाम गोयसवणयाए महोफलं " मागममा જે આ સૂત્ર મળે તેને અભિપ્રાય નામનિક્ષેપપરક નથી. એટલે કે આ સૂત્ર પડે નામ નિક્ષેપ-પુષ્ટિ થતી નથી. જે સૂત્રકારને આ સૂત્ર વડે નામ-નિક્ષેપની पुष्टि ४२j UPट तुडत त " अरहताणं भगवंताणं " या पहने स्त न રૂપમાં મૂકવાની કઈ ખાસ આવશ્યકતા હતી નહિ. એથી આ વાત માની લેવી જોઈએ કે અરહંત ભગવાનના નામ ગોત્ર-શ્રવણથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે. કેઈ ગેપાળના પુત્રમાં નિશ્ચિત “અરહંત” આ નામને સાંભળવાથી નહિ. તેમાં પ્રયુક્ત પણ તે નામના શ્રવણથી તે ફક્ત તે ગોપાળના પુત્ર રૂપ અર્થ ना काय हाय छे. " अरहंत " मा नाम २ ३५ना सतिथी मानित પ્રભુમાં સંકેતિત થયું છે તે રૂપના સંકેતથી જ ગેપાળના પુત્રમાં સંકેતિત
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बमगार
मृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचच
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हंत प्रभु में संकेतित हुआ है-उसी रूप से संकेत से गोपाल के पुत्र में संकेतित नहीं हुआ है ! लौकिक व्यवहार के लिये ही केवल "अर हंत" ऐसा उसका नाम कर लिया गया है। नाम निक्षेप में जिसका निक्षेप किया जाता है उस जाति के द्रव्य, गुण और कर्म - क्रिया आदि निमित्त की अनपेक्षा रहती है इस निमित्त के सद्भाव में वह नाम निक्षेप का विषय नहीं माना जाता है। भाव निक्षेप का ही वह विषय होता है अतः यह निश्चित होता है कि अरहंत भगवान के ही नाम गोत्र के श्रवण के महाफल सूत्रकार ने प्रकट किया है यदि नामनिक्षेप से यह फल प्राप्त होने लगता तो फिर भावनिक्षेप की आवश्यकता ही क्या थी । उसके श्रवण मात्र से ही जीवों के आत्मिक भावों में शुद्धिरूप महाफल का लाभ होने लगता । तथा जिसका " अरिहंत " यह नाम है वह स्वयं अरिहंत प्रभु की तरह महापवित्र, ३४ अतिशय सहित ८ प्रातिहार्य आदि विभूति संपन्न हो जाना । परन्तु ऐसा नहीं होता है अतः यह मानना चाहिये कि यह सूत्र भावनिक्षेप की ही पुष्टि विधायक है - नामनिक्षेप का नहीं । नामनिक्षेप से भगवान अरिहंत की स्मृति भी नहीं कराई जाती है कारण कि वह नामनिक्षेप स्वयं उस प्रकार के भावों से शून्य है । अनुभूत पदार्थ की स्मृति हुआ करती
-
થયુ નથી. લૌકિક વ્યવહાર માટે ફક્ત “ અરહુંત 'આવું નામ પાડવામાં નામનિક્ષેપમાં જેના નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે તે જાતિના દ્રવ્ય, ગુણુ અને ક–ક્રિયા વગેરે નિમિત્તની અપેક્ષા રહે છે. આ નિમિત્તના સદ્ભાવમાં તે नाभ- -નિક્ષેપના વિષય માનવામાં આવતા નથી. ભાવ નિક્ષેપને જ તે વિષય હાય છે. એથી એ સિદ્ધ થાય છે કે અરહુત ભગવાનના જ નામ ગેાત્રના શ્રવણથી જ સૂત્રકારે મહાફળ બતાવ્યું છે. જો નામનિક્ષેપથી આ ફળ મળી શકયું હત તેા પછી ભાવનિક્ષેપની આવશ્યકતા જ શી હતી ? તેના શ્રવણુ માત્રથી જ જીવેની આત્મિક ભાવામાં શુદ્ધિ રૂપ મહાફળના લાભ થવા માંડતા. તેમજ જેનુ " अरिहंत ” या नाम छे ते पोते अरिहंत प्रभुनी प्रेम भहाપવિત્ર, ૩૪ અતિશયા સહિત, ૮ પ્રતિહાય વગેરે વિભૂતિઓથી સપન્ન થઈ જાત, પણ આવું થતું નથી એથી એમ સમજી લેવુ જોઇએ કે આ સૂત્રથી ભાવનિક્ષેપની જ પુષ્ટિ થાય છે-નામ નિક્ષેપની નહિ. નામ નિક્ષેપથી ભગવાન અરિહંતની સ્મૃતિ પણ કરવામાં આવતી નથી કારણ કે તે નામ-નિક્ષેપ જાતે તે જાતના ભાવેાથી રાહત છે. અનુભૂત પદાર્થનું સ્મરણ થયા કરે છે જે
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મ
Narainers
है जिसका " अरिहंत " यह नाम रखा गया है उसके देखने से अरिहंत की स्मृति हो भी कैसे सकती है स्मृति तो अरिहंत की जय हो सकती कि जब उसमें उनकी स्मृति के चिह्न होते- वह स्वयं उस प्रकार के हेतु हो सकती है माना कि श्रवण कर्ता शास्त्र आदिकों में अरिहंनप्रभु के गुणों का वर्णन पढकर चित्त में उकेर कर भले ही " अरिहंत " इस नामके श्रवण से उनका स्मरण कर सकता है । परन्तु गोपालदारकादी में कृत नाम से उनका स्मरण उसे नहीं हो सकता उस नाम से तो उसमें ही संकेतित उस शब्द से उस गोपाल दाररूप अर्थ का ही उसे बोध होगा । यदि अरिहंत नाम के सुनने से सुनने वाले को अरिहंत पदार्थ का भान होता हैतो वह नाम निक्षेप का विषय नहीं माना गया है भावनिक्षेत्र का ही वह विषय है। थोड़ा बहुत भी किसी अपेक्षा से सादृश्य होने पर एक पदार्थ को देखकर सदृश दूसरे पदार्थ का स्मरण हो जाता है परन्तु प्रकृत में गोपालदाकरूप अरिहंत नामनिक्षेप में ऐसा कौन सा सादृश्य है जो वह अरिहंत का स्मरण करा सके। अतः नाम और गोत्र के साथ साक्षात् भगवान अरिहंत का संबंध षष्ठी विभक्ति द्वारा प्रदर्शित करने वाले सूत्रकार ने इस सूत्र में नामनिक्षेप का कोई
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અદ્ભુિત ’” આ નામ રાખવામાં આવ્યું છે. તેને જોવાથી અરિહત સ્મૃતિ પણ કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે? સ્મૃતિ તે! અરિહંતની ત્યારે જ થઈ શકે કે જ્યારે તેમાં તેમની સ્મૃતિના ચિહ્નો હાય, તે પાતે આ જાતના ભાવાથી રહિત થયેલા હાય, ત્યારે તે કેવી રીતે તેમની સ્મૃતિનું કારણ થઈ શકે છે આ વાત આપણે સ્વીકારી શકીયે તેમ છીએ કે શ્રવણ-કર્તા શાસ્ત્ર વગેરેમાં અરિહંત પ્રભુના ગુાનુ વર્ણન વાંચીને ચિત્તમાં ધારણ કરીને ભલે ‘અરિહંત' આ નામના શ્રવણથી તેમનુ સ્મરણુ કરી શકે છે. પણ ગેાપાળદારક વગેરેમાં કૃત નામથી તેનુ સ્મરણ થઈ શકતું નથી. તે નામ વડે તે તેમાં જ સંકૃતિત તે શબ્દથી તે ગેપાળદારક રૂપ અર્થના જ તે બેધ થશે. જો અરિહંત નામ શ્રવણથી સાંભળનારને અરિહંત પદાથે નું જ્ઞાન થાય છે ત્યારે તે નામનિક્ષેપના વિષય માનવામાં આવ્યે નથી ભાવનિક્ષેપ જ તે વિષય છે. કાઈ પણ રીતે થેાડુ પણ સરખાપણું હાવાથી એક પટ્ટાને જોઇને તેના સરખા ખીજા પદાર્થનું સ્મરણ થઈ જાય છે પણ પ્રકૃતમાં ગેાપાળદારક રૂપ અરિહંત નામનિક્ષેપમાં એવુ' કઈ જાતનુ' સરખાપણું છે કે જે તે અહિતનું સ્મરણ કરાવી શકે ? એથી નામ અને ગેાત્રની સાથે સાક્ષાત્ ભગવાન અરિહંતને! સંબંધ ષષ્ઠી વિભકિત વડે દર્શાવનારા સૂત્રકારે મા સૂત્રમાં નામનિક્ષેપને કોઈ પશુ વિષય પ્રતિપાદિત કર્યો નથી, ભાવનિક્ષેપ.
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अनगराधामृतवर्षिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचर्चा बोधकस्य नाम्न एव श्राणेन महाफलसंभवः । एवं स्थापनापि भावरूपार्थशून्या, स्थापनया भावरूपार्थस्य नास्ति कोऽपि सम्बन्धः । भावजिनशरीरवर्तिनी याऽऽकृतिरासीत् , तस्या आश्रयाश्रयिमा रूपसम्बन्धो भावजिनेन सह तदानी विद्यमान आसीन् । यथा भावजिनं परास्तदानीं भावोल्लासोऽपि कस्यचित् संजातः, भी विषय प्रतिपादित नहीं किया है। भावनिक्षेप का ही विषय इसमें कहा है इसलिये भावजिन का बोध कराने वाले जिन 'अरिहंत' आदि नामों के सुनने से ही महाफल होता है ऐसा मानना चाहिये।
इसी प्रकार स्थापना निक्षेप भी भावरूप अर्थ से शून्य है कारण कि इसका उसके साथ कोई संबंध नहीं है भावजिन की अवस्था की आकृति पाषाण आदि की मूर्ति में “ यह वही है '' इस प्रकार की कल्पना करने का नाम स्थापना है तीर्थकर प्रकृति के उदयसे समवस. रणादि विभूति सहित आत्मा का नाम भाव जिन है इस भोव जिन के शरीर की जो आकृति है उसका संबंध विचारिये उस पाषाण आदि की प्रतिमा में कैसे आसकता है । क्यों कि इस आकृति का संबंध आश्रय आश्रयी भावसे वे जिन जिसकाल में थे उसी काल में उनके साथ था। उनके नहीं रहने पर पाषाण आदि में इस तरह का आश्रय आश्रयी भाव संबंध मानना उचित कैसे कहा जा सकता है, भावजिन के सद्भाव में जिस प्रकर उनके साक्षात् दर्शन से प्राणियों को एक प्रकार ને જ વિષય તેમાં બતાવ્યું છે એથી જીનને બેધ કરાવનાર જીન “અરિ હંત” વગેરે નામ શ્રવણથી મહાફળ પ્રાપ્ત હોય છે આમ સમજવું જોઈએ.
આ પ્રમાણે સ્થાપના નિક્ષેપ પણ ભાવ રૂપ અર્થથી રહિત છે. કારણ કે આને તેની સાથે કઈ પણ જાતને સંબંધ નથી. ભાવજીનની અવસ્થાની આકૃતિ પથ્થર વગેરેની મૂર્તિમાં “આ તેઓ જ છે ” આ જાતની કલ્પના કરવાનું નામ રથાના છે. તીર્થંકરની પ્રકૃતિના ઉદયથી સમવસરણ વગેરે વિભતિ સહિત આત્માનું નામ ભાવજીન છે. આ ભાવજીનના શરીરની જે આકૃતિ છે તેના વિષે આપણે પણ વિચાર કરીયે કે પથ્થર વગેરેની પ્રતિમામાં તેનો સંબંધ કેવી રીતે આવી શકે છે? કેમકે તે આકૃતિને સંબંધ આશ્રય આશ્રયી ભાવથી તે જીન જે કાળમાં હતા તે કાળમાં જ તેમની સાથે હતે. તેમની ગેરહાજરીમાં પથ્થર વગેરેમાં આ જાતને આશ્રય-આશ્રયી ભાવ સંબંધ માન્ય રાખવે કેવી રીતે ચોગ્ય કહી શકાય તેમ છે ? ભાવજીનના સદુભાવમાં જેમ તેમના સાક્ષાત દર્શનથી પ્રાણીઓમાં એક જાતને ભાલાસ ઉદ્ભવે
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ज्ञाताधर्मकथासू
तथा भक्त्तथा तामाकृति स्मरतो जनस्य भावोल्लासः संभवतु, तदाऽऽकृतेर्भावजिनेन संबन्धात्, परंतु स्थापनाया आश्रयाश्रयिभावसम्बन्धो नास्ति भावजिनेन सह । भावजिनात्मनस्तत्रावाहनं स्थापनंतु जिनाज्ञाबाह्य प्रवचनविरुद्धं कर्तुमशक्यं, कथं तर्हि - भावजिनसम्बन्धाभावे प्रतिमा भावजिनं तद्गुणं वा स्मारयितुं शक्ता भवेत् । का भावोल्लास होता है, उसी प्रकार से भक्ति के आवेश से भी उनकी उस आकृति का उस समय स्मरण करने वाले प्रोणी को उस प्रकार के भावोल्लास का सद्भाव हो सकता है। इसका निषेध नहीं है । क्यों कि स्मृति के आधारभूत जिन परमात्मा उस काल में स्वयं विद्यमान हैं । उन के अभाव में उन्हें नहीं देखने वाले प्राणियों को भी उनकी उस प्रतिमा से उसी प्रकार का भोवोल्लास होता है यह मान्यता केवल एक कल्पना मात्र है वास्तविक नहीं। इसके समाधान के निमित्त जो यह कहा जाता है कि उस पाषाण प्रतिमा में जिन भगवान की आत्मा का मंत्रादिकों द्वारा आह्वान किया जाता है अतः उस प्रतिमा के दर्शन से साक्षात् भाव जिनके ही दर्शन होते हैं सो यह मान्यता सर्वथा असत्य है - कारण कि मोक्ष में प्राप्त आत्माओं का पाषाण आदि प्रतिमाओं में अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिये आह्वान आदि मानना सर्वथा जिन सिद्धान्त से विरुद्ध है मोक्ष प्राप्त आत्माएँ कहीं पर भी किसी भी काल में आह्वान करने से नहीं आती हैं ऐसी जिनशासन की आज्ञा है इस तरह से उस पाषाण आदि की आत्माओं का
છે, તેમ ભક્તિના આવેશથી પણ તેમની એ આકૃતિનું તે સમયે સ્મરણુ કરનાર પ્રાણીને તે જાતના ભાવેાલ્લાસની અનુભૂતિ થઇ શકે છે. આના નિષેધ નથી કેમકે સ્મૃતિમાં તે આકૃતિના આધારભૂત જીન પરમાત્મા તે કાળમાં જાતે વિદ્યમાન છે. તેમના અભાવમાં તેમને નહિ જોનારા પ્રાણીઓને પણ તેમની તે પ્રતિમાથી તે પ્રમાણેના જ ભાવેાલ્લાસ થાય છે, આ માન્યતા ફક્ત એક કૈારી કલ્પના જ છે, વાસ્તવિક નથી. એના સમાધાન માટે જે આમ કહેવામાં આવે છે કે તે પથ્થરની પ્રતિમામાં જીન ભગવાનના આત્માનુ` મા વગેરેથી આવાહન કરવામાં આવે છે, એથી તે પ્રતિમાનાં દર્શીનથી પ્રત્યક્ષ ભાવજીનનાં જ દન થાય છે, તે! આ માન્યતા સાવ અસત્ય છે કારણ કે મેક્ષમાં પ્રાપ્ત આત્માઓનું પથ્થર વગેરે પ્રતિમાએમાં પેાતાની માન્યતા સિદ્ધ કરવા માટે આહ્વાહન વગેરે માનવું તે તેા જીન સિધ્ધાંતથી સાવ વિરૂધ્ધ છે. મેક્ષ પ્રાપ્ત આત્માએ કોઇ પણ સ્થાને અને કઇ પણુ કાળે માવાન કરવાથી આવતા નથી, એવી ન શાસનની આજ્ઞા છે. આ રીતે તે પથ્થર વગેરેની પ્રતિમામાં
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अंमगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा सर्वथा कुमावनिकद्रव्यावश्यकवत् प्रतिमापूजनं कुर्वन्तः कारयन्तश्च मिथ्यादृष्टित्वं प्राप्नुवन्ति न तु सम्यक्त्वमिति ।
द्रव्यावश्यकं-द्विविधं-आगमतो नोआगमतश्च । यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्रं शिक्षितादिगुणोपेतं भवति, स जन्तुस्तत्रावश्यकशास्त्रे शिष्याध्यापनरूपया वाचनया गुरुं प्रतिप्रश्नलक्षणया प्रच्छनया, पुनः पुनः सूत्रार्थाभ्यासरूपया परावर्तनया, तथा अह्वान होने से आना मान लिया जाय तो फिर उस प्रतिमा में सजीवता मानने में क्या दोष है इसलिये यह स्वीकार करना ही चाहीये । कि भावजिन के अभाव में वह प्रतिमा भावजिन एवं उनके गुणों का स्मरण करवाने में सर्वथा समर्थही है । जब यह निश्चित सिद्धान्त है तो फिर इसकी पूजनादि करने कराने से जो मनुष्य समकित की प्राप्ति होना मानते हैं वे उस विधवा कि दशा जैसे हैं जो अपने पति की फोटो या मूर्ति के दर्शन एवं सहवास आदि से सन्तान की उत्पत्ति की कामना करती हो। इसलिये कुमावनिक द्रव्य आवश्यक की तरह यह प्रतिमापूजनादि कर्म करने कराने वाले दोनों ही जन मिथ्यात्वरूप दृष्टि के ही पात्र हैं, सम्यक्त्व के नहीं।
द्रव्य निक्षेपरूप आवश्यक, आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है। उसमें जिस प्राणी के आवश्यक शास्त्र शिक्षितादिगुणों से युक्त है वह प्राणी उस आवश्य शास्त्र में, शिष्यों का पढानेरूप તે આત્માઓનું આવાહન હોવાથી આવવું માની લઈએ તે પછી તે પ્રતિ માને સજીવ માનવામાં શું વાંધો છે? એટલા માટે આપણે આ વાત સ્વીકારવી જ જોઈએ કે ભાવજીનના અભાવમાં તે પ્રતિમા ભાવજીન અને તેમના ગુણેનું સ્મરણ કરાવવામાં સંપૂર્ણ પણે સમર્થ જ છે. જ્યારે આ સિધાન્ત નિશ્ચિત રૂપે માન્ય થયેલ છે ત્યારે તેનું પૂજન વગેરે કરાવવાથી જે લોકો સમક્તિની પ્રાપ્તિ થવી માને છે તેમની તે વિધવા જેવી દશા છે કે જે પિતાના પતિની છબી કે મૂર્તિના દર્શન અને સહવાસ વગેરેથી સંતાન મેળવવાની ઈચ્છા કરતી હાય ! એટલા માટે કુપ્રાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ આ પ્રતિમા પૂજન વગેરે કાર્ય કરનાર તેમજ કરાવનાર બંને માણસો મિથ્યાત્વ રૂપ દૃષ્ટિનાં જ પાત્ર છે, સમ્યકત્વનાં નથી.
દ્રવ્ય નિક્ષેપ રૂપ આવશ્યક આગમ તેમજ ના આગમન ભેદથી બે પ્રકાર છે. તેમાં જે પ્રાણું આવશ્યક શાસ્ત્ર શિક્ષિત વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે તે પ્રાણી તે આવશ્યક શાસ્ત્રમાં શિષ્યોને ભણાવવા રૂપ વાચનાથી, ગુરૂપ્રતિ તદ્
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शाताधर्मकथासूत्र धर्मकथया वर्तमानोप्यनुपयोगे सति आगमतो द्रव्यावश्यकम् , 'अणुवओगो दव्वं' इति वचनात् । अनुपयोगो भावशून्यता। वाचना से, गुरु के प्रति तद्विषयक प्रश्न लक्षणरूप पृच्छना से बार बार सूत्र और अर्थ के अभ्यासरूप परावर्तन से तथा धर्मकथा से वर्तमान होता हुआ भी अनुपयुक्त अवस्थासंपन्न होने से आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है। अनुपयोग का नाम ही द्रव्य है।
भावार्थ-" भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके तद्रव्यम्" यह द्रव्यनिक्षेप का लक्षण है। भूतपर्याय या भविष्यत् पर्याय का जो कारण आधार होता है, वह द्रव्य है जिस प्रकार किसी राजा के युवराज को राजा कह दिया जाता है यद्यपि वह अभी वर्तमान में राजारूपपर्याय से युक्त नहीं है-आगे उसे राजपर्याय प्राप्त होगी, परन्तु फिर भी उसे व्यवहार में लोग राजा कहते हैं। यह भविष्यत् पर्याय की अपेक्षा द्रव्य निक्षेपका विषय है। जोपहिले राजा था-कारण वश जब वह राजागद्दी का परित्याग कर देता है-तब भी लोग उसे राजा कहते हैं। यहां उस राजा में यद्यपि वर्तमान समय में राजपर्याय से युक्तता नहीं है तो भी भूतकाल की अपेक्षा से ही उसे राजा कहा जाता है। यह भूतकाल की अपेक्षा से राजपर्याय का आधार होने के कारण द्रव्यनिक्षेप का विषय है प्रकृत में इस निक्षेप की आयोजना इस प्रकार से વિષયક પ્રશ્ન લક્ષણ રૂપ પૃચ્છનાથી, વારંવાર સૂત્ર અને અર્થના અભ્યાસ રૂપ પરાવર્તનથી તથા ધર્મકથાથી વર્તમાન હોવા છતાંયે અનુપયુક્ત અવસ્થા સંપન્ન હોવાથી આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, અનુપગનું નામ જ દ્રવ્ય છે.
भावार्थ:-" भूतस्य भाविनो वा भावत्य हि कारणं तु यल्लाके तद् द्रव्यम्" આ દ્રવ્ય નિક્ષેપનું લક્ષણ છે. ભૂત-પર્યાય કે ભવિષ્યત પર્યાયને જે કારણ આધાર હોય છે, તે દ્રવ્ય છે. જેમ કે રાજાના યુવરાજને રાજા કહી દેવામાં આવે છે. જો કે તે વર્તમાનમાં રાજા રૂપ પર્યાયથી યુકત નથી. આગળ તેને રાજ પર્યાય પ્રાપ્ત થશે, છતાંયે તેને વ્યવહારમાં લેકે રાજા કહે છે. આ ભવિષ્ય પર્યાયની અપેક્ષા દ્રવ્ય નિક્ષેપને વિષય છે. જે પહેલાં રાજા હત–પણ કઈ કારણસર રાજદિને તે પરિત્યાગ કરી દે છે, ત્યારે પણ લે કે તેને રાજા કહે છે. અહીં તે રાજામાં જે કે વર્તમાન સમયમાં રાજ પર્યાયથી યુક્તતા નથી છતાયે ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે. આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી તેને રાજા કહેવામાં આવે છે. આ ભૂતકાળની અપેક્ષાથી રાજપર્યાયનો આધાર રહેવા બદલ દ્રવ્ય નિક્ષેપને વિષય છે. પ્રકૃતિમાં આ નિક્ષેપની આ
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मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्या
अथ नोआगमतो द्रव्यावश्यकमुच्यते-अत्र नो शब्दः सर्वथा प्रतिषेधे देशतः प्रतिषेधेऽपि च वर्तते । तथा च सर्वथा-आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकं, तथा होती है कि जो वर्तमान में आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नहीं है आगे भविष्यत् काल में उस शास्त्र का ज्ञाता होंगे उसे तथा जो भूतकाल में उस शास्त्र का ज्ञाता था अब वर्तमान काल में उसका ज्ञाता नहीं हैउसे आवश्यक इस प्रकार जानना या कहना यहद्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा आवश्यक है। इसके मूल में दो भेद हैं ? आगम द्रव्य निक्षेप और दूसरा नोआगमद्रव्यनिक्षेप । आवश्यक शास्त्र आदि का जो ज्ञाता हो, शिष्यों को जो उसे पढाता हो, उस विषयक गुरु आदि के निकट जो तात्त्विक चर्चा आदि भी करता हो इस प्रकार वाचना, प्रच्छना-पर्यटना अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेशरूप पांचो प्रकार के स्वाध्याय से जो उसकी पर्यालोचना कर रहा है-परन्तु उसमें उपयोग नहीं है-अनुपयुक्त है वह आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है। इसमें आवश्यक शब्द के अर्थ का ज्ञान ही आगमरूप से विवक्षित है। अतः आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता होता हुआ भी उसमें अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है यह बात निश्चित हुई।
नो आगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक इस प्रकार है-जहां आगम का सर्वथा अभाव या आगम के एक देश का अभाव विवक्षित होता જના એ રીતે હોય છે કે વર્તમાનમાં જે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા નથી. ભવિષ્યકાળમાં તે શાસ્ત્રનો જ્ઞાતા થશે તેને તેમજ જે ભૂતકાળમાં તે શાસ્ત્રનો જ્ઞાતા હતે હમણું વર્તમાનકાળમાં તેને જ્ઞાતા નથી તેને, “આવશ્યક ? આ રીતે જાણવું કે કહેવું આ દ્રવ્યનિક્ષેપની અપેક્ષાએ આવશ્યક છે. એના મળ રૂપે એ ભેદ છે-૧ આગમ દ્રવ્ય નિક્ષેપ અને બીજા ના આગમ દ્રવ્ય નિકોપ. આવશ્યક શાસ્ત્ર વગેરેની જે જ્ઞાતા હોય, જે શિષ્યોને ભણાવતે હોય. તદ. વિષયક ગુરૂ વગેરેની પાસે જઈને જે તાત્વિક ચર્ચા વગેરે પણ કરતે હોયે. આ રીતે વાચના, પ્રચ્છના, પર્યટન, અનુ પ્રેક્ષા અને ધર્મોપદેશ ૩૫ પાંચે જાતના સ્વાધ્યાયથી જે તેની પોલચના કરી રહ્યો છે, પણ તેમાં તેને ઉપયોગ નથી, અનુપયુક્ત છે, તે આગમની અપેક્ષાદ્રવ્ય “આવશ્યક ' છે. એમાં આવશ્યક શબ્દના અર્થોનું જ્ઞાન જ આગમ રૂપથી વિવક્ષિત છે. એથી આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હોવા છતાંયે તેમાં અનુપયુકત આત્મા આગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક છે, આ વાત સિદ્ધ થઈ છે.
નોઆગમની અપેક્ષા દ્રવ્ય આવશ્યક એ પ્રમાણે છે કે જ્યાં આગમનો સંપૂર્ણપણે અભાવ કે આગમના એક દેશને અભાવ વિવક્ષિત હોય છે તે ને
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शाताधर्मकथाजस्त्र देशतः आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकं च-नोआगमतो द्रव्यावश्यकम् । तत्-त्रिवि धम्-ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक,तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यकं चेति। है-वह नो आगम की अपेक्षा से द्रव्य आवश्यक माना गया है । " नो आगम" में नो शब्द सर्वथा आगम के अभाव का अथवा उसके एक देश के अभाव का बोधक है। इसके ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, और तव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक, इस प्रकार तीन भेद हैं। आवश्यक शास्त्र का जो पहिले (भूतकाल में ) ज्ञाता था-तथा दूसरों के लिये इस शास्त्र का उपदेश आदि भी जिसने पहिले दिया है ऐसे जीव का अचेतन शरीर ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक है जो जीव इस समय आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता नहीं है भविष्यत् काल में उसका ज्ञाता बनेगा उसका वह सचेतन शरीर भविष्यत् काल में आवश्यक शास्त्र के ज्ञान का आधार होने की अपेक्षा से, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है। तद्वयतिरिक्तद्रव्यावश्यक लौकिक कुप्रावनिक और लोकोत्तर के भेद से ३ प्रकार का है। लौकिकजनों द्वारा आचरित आवश्यक कर्म लौकिक द्रव्यआवश्यक है। जैसे राजसभा में जाने वाले राजा, युवराज, तलवर (कोहपाल) आदि जन प्रातः काल में उठकर राजसभा में जाने के लिये प्रथम प्राभातिक विधियों से निपटते हैं-मुख धोते हैं, दातों को सामनी अपेक्षाथी द्रव्य मावस्य मानवामां माव्या छ " नोआगम" मां ને શબ્દ આગમના સંપૂર્ણ પણે અભાવને કે તેના એક દેશના અભાવને બાધક છે. તેના જ્ઞશરીર દ્રવ્યાવશ્યક, ભવ્યશરીર દ્રવ્યાવશ્યક અને તદ્દવ્યતિ. રિકત દ્રવ્યાવશ્યક આ પ્રમાણે ત્રણ ભેદે છે. આવશ્યક શાસ્ત્રનો જે પહેલાં (ભૂતકાળમાં ) જ્ઞાતા હતા તેમજ બીજાઓ માટે આ શાસ્ત્રને ઉપદેશ વગેરે પણ જેણે પહેલાં આપે છે એવા જીવનું અચેતન શરીર જ્ઞ શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે. જે જીવ અત્યારે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા નથી, ભવિષ્યકાળમાં તેને જ્ઞાતા થશે તેનું તે સચેતન શરીર ભવિષ્યકાળમાં આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાનને આધાર હેવાને કારણે ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે. તહવ્યતિરિક્ત દ્રવ્યાવશ્યક લૌકિક કુપાવચનિક અને લોકેત્તર એમ ત્રણ પ્રકાર છે. લૌકિક માણસે વડે આચરિત આવશ્યક કર્મ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે જેમાં રાજસભામાં
। २०n, यु१४, aa१२ (४पास ) पोरे दो। सबारे जाने २५. સભામાં જવા માટે પ્રથમ પ્રાભાતિક વિધિથી પરવારે છે, મુખ ધુએ છે,
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अमगारधामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
ज्ञातगनिति-ज्ञः, ज्ञस्य शरीरं-ज्ञशरीरं तदेव द्रव्यावश्यकमिति विग्रहः । जीव परित्यक्तमावश्यकशास्त्रज्ञानवतः शरीरं ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम् । यः कश्चिद् जीवः जन्मकालादारभ्य अनेनैव आत्तेन - गृहीतेन शरीरसमुच्छूयेण, जिनोपदिष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत् पदं शास्त्रं आगामिनि काले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते, तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति । ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यति. रिक्त द्रव्यावश्यकं त्रिविधम्-लौकिक, कुमावनिकं, लोकोत्तरिकं. चेति । ___लौकिकं द्रव्यावश्यकम् “ ये राजेश्वरतलबरादयः प्रभातसमये-मुखधावनदन्तप्रक्षालन-तेल-कङ्कतक-सर्षप-दुर्वा-दर्पण-धूप-पुष्प-माल्य-गन्ध-ताम्बूल -वस्त्रादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति, कृत्वा पश्चाद् राजकुलदेवकुलादौ गच्छन्ति, तत्-तेषां सम्बन्धिमुखधावनादि । . कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यकम् ' ये इमे चरकचीरिकादयः पाषण्डस्थाः, इन्द्रस्कन्द-रुद्र-शिव-वैश्रवण-देव-नाग-यक्ष-भूत-मुकुन्दाऽऽर्या-दुर्गा- कोट्टक्रियाणाम् - उपलेपनसंमार्जनाऽऽवर्षणधूपपुष्पगन्धमाल्यादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति. तेषां तद् इन्द्रस्कन्दादेरुपलेपनादि । कुत्सितं प्रवचनं येषां ते कुप्रवचना स्तेषामिदं कुपावचनिकम् । उपलेपनं चन्दनपङ्केन, संमार्जनं-स्नपनानन्तरं वस्त्रेण जलप्रोञ्छनम् आवर्षणः-गन्धोदकेन, 'गुलाबजल ' इत्यादि भाषापसिद्धेन ।
नामावश्यकम्-आवश्यकनामको गोपालदारकादिः, स्थापनावश्यकम्-आवसाफ करते हैं, स्नान करते हैं। सुगंधित तेल लगाते हैं इत्यादि आवश्यक कार्य करते हैं। पीछे राजसभा में या देवकुल में जाते हैं। उनका यह मुख धावन आदि कार्य लौकिक द्रव्य आवश्यक है। चरक चीरिक आदि पाखंडियों द्वारा जो इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, वैश्रवण, देव, नाग और यक्षादिकों की मूर्तियों का चंदन से लेपन, अभिषेक कराने के बाद वस्त्र से मूर्तिस्थ जल का पोंछना मंदिर में या उन मूर्तियों पर गुलाब जल का छिडकाव आदि करना ये सब कुमावनिक द्रव्यावश्यक है। દાંત સાફ કરે છે, નાન કરે છે, સુગંધિત તેલ લગાવે છે, વગેરે આવશ્યક કાર્યો કરે છે. ત્યારપછી રાજસભામાં અથવા તે દેવકુળમાં જાય છે. તેમનું મુખ દેવું વગેરે કામ લૌકિક-દ્રવ્ય આવશ્યક છે. ચરક ચીરિક વગેરે પાખ ડિઓ વડે જે ઈન્દ્ર, સ્કન્દ, રૂદ્ર, શિવ, વૈશ્રવણ દેવ, નાગ અને યક્ષો વગેરેની મૂર્તિઓનું ચંદનથી અભિષેક કરાવ્યા બાદ વસ્ત્રથી મૂર્તિના પાણીને લૂંછવું, મંદિરમાં કે તે મૂર્તિઓ ઉપર ગુલાબજળનું સિંચન વગેરે કરવું આ બધું કુબાવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક છે. આ પ્રમાણે નામ સ્થાપના અને દ્રવ્યના ભેદથી આ
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साताधर्मकथाजस्त्रे श्यकक्रियावतः कस्यचित् काष्ट कर्मादिपु प्रतिकृतिः, द्रव्यावश्यकं च आवश्यकोपयोगशून्या देहागमक्रियाः, एष्यावश्यकेषु उपयोगाभावेन चरणगुणरहितत्वेन च कर्मनिर्जराजनकत्वामावादाराध्यत्वेन जिनाज्ञा नास्ति, तस्मादेतत् त्रिविधमावश्यकं धर्मपदवाच्यं न भवतीति निश्चयादलक्ष्यमेव । लोकोत्तरिकद्रव्यावश्यकं पवइस प्रकार नाम, स्थापना और द्रव्य के भेद से यह आवश्यक तीन प्रकार का होता है। किसी गोपाल के पुत्र का "आवश्यक" इस प्रकार का कृतनाम संस्कार नोम आवश्यक है। आवश्यक क्रियाओं से युक्त किसी व्यक्ति की काष्ठ आदि में तदाकार रूप से या अतदाकाररूप से प्रतिकृतिको कल्पना करना या उसे बनाले ना यह स्थापना आवश्यक है। आवश्यक में उपयोग से शुन्य प्राणी की जो भी आगम और नो आगम की अपेक्षा से क्रियाएँ हैं वे सब द्रव्य आवश्यक हैं। इन तीनों आव. इयकों में उपयोग -भावरूप-आवश्यक के अभाव से तथा चारित्रगुण तदनुकूल प्रवृत्ति के आचरण से रहित होने से कर्मों की निर्जरा कराने में साधकपना नहीं है। अतः जिनेन्द्रदेव ने इनके आराधन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है। धर्म को ही आराधन करने की उन्होंने आज्ञा दी है क्यों कि वही कर्मों की निर्जरा कराने में साधक है। इन तीनों में कर्मो की निर्जरा कराने का अभाव होने से धर्मस्वरूपता नहीं है। धर्मपद वाच्य भी ये नहीं हैं । इसीलिये ये तीनों धर्म के लक्षण से शुन्य होने से उसके अलक्ष्य हैं, ऐसा समझना चाहिये । लोकोत्तरिक द्रव्य આવશ્યક ત્રણ પ્રકારનું હોય છે કેઈ ગોપાળના પુત્રનો “ આવશ્યક ” આ રીતે કરેલો સંસ્કાર નામ આવશ્યક છે. આવશ્યક ક્રિયાઓથી યુકત કઈ
વ્યકિતની કાષ્ઠ વગેરેમાં તદાકાર રૂપથી કે અતદાકાર રૂપથી પ્રતિકૃતિની કલ્પના કરવી કે પ્રતિકૃતિનું નિર્માણ કરવું તે સ્થાપના આવશ્યક છે. આવશ્યકમાં ઉપગથી રહિત પ્રાણીની જે કંઇપણ આગમ અને ન આગમની અપેક્ષાથી ક્રિયાઓ છે તે બધી દ્રવ્ય આવશ્યક છે. આ ત્રણે આવશ્યકેમાં ઉપયોગ ભાવ રૂપ આવશ્યકના અભાવથી તેમજ ચારિત્રગુણ તદનુકુળ પ્રવૃત્તિના આચરણ વગર થઈ જવાથી કર્મોની નિર્ધાર કરાવવામાં સાધકપણું નથી. તેથી જીતેન્દ્ર દેવે તેમના આરાધનની આજ્ઞા આપી નથી. ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેઓશ્રીએ આજ્ઞા આપી છે કે- કે ધર્મ જ કર્મોની નિર્જરી કરાવવામાં સાધક છે. આ ત્રણેમાં કર્મોની નિર્જ કરાવવાનો અભાવ હોવાને કારણે ધર્મ સ્વરૂપતા નથી. એ ધમપદ વાચ્ય પણ નથી. તેથી આ ત્રણે ધર્મના લક્ષણથી રહિત હોવાને કારણે તેના અલક્ષ્ય છે એમ સમજવું જોઈએ, સામાયિક વગેરે લેક
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा चनोक्तं सदपि जिनाज्ञावायैः स्वच्छन्दविहारिभिर्मूलोत्तरगुणरहितैः षट्कायनिरनुकम्पैरनुपयोगपूर्वकं क्रियमाणं सामाविकादिकम् तच्च धर्मपदवाच्यं न भवितुमर्हति, तत्रापि निर्जराजनकत्वाभावेन विधेयतया जिनाज्ञाया आभावात् ।। __ एवमेव-नामजिनः स्थापनानिस्तथा द्रव्यजिनश्च निर्जराजनकत्वाभावादाराध्यत्वेन जिनाज्ञाया अभावात् । तदाराधनं धर्मपदवाच्यं न भवितुमर्हति । आवश्यक समायिक आदि हैं इनके करने का विधान यद्यपि प्रवचन शास्त्र में विहित है तो भी इसे जो धर्म का अलक्ष्य बताया गया है उसका कारण यह है कि ये जब जिनदेव की आज्ञा से बहिर्भूत बने हुए, स्वेच्छाचारी, मूलगुण और उत्तर गुणों से रहित एवं षट्काय के जीवों की रक्षा करने में आसावधान मनुष्यों द्वारा अनुपयोगपूर्वक करने में आते हैं तब ये द्रव्य आवश्यकरूप से कहे जाते हैं। और इसीलिये ये धर्मपद के वाच्य नहीं हैं अर्थात् धर्मरूप नहीं हैं। जहां धर्मरूपता नहीं है वहां कर्मों की निर्जरा कारकत्व भी नहीं है। यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है। भगवान ने जो इस अवस्था में इन्हें विधेय नहीं कहा है उसका यही कारण है । अतः जिस प्रकार नाम आवश्यक, स्थापना आवश्यक और द्रव्य ओवश्यक ये तीन निक्षेप आरा. ध्यरूप से तीर्थंकर प्रभु ने अनविधेय कहे हैं, उसी प्रकार से नामजिन स्थापनाजिन तथा द्रव्यजिन भी आराध्य नहीं हैं। इनकी आराधना करने में जो धर्म की प्राप्ति होना कहते हैं या मानते हैं उन्हें जिन ત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે. પ્રવચન શાસ્ત્રમાં એમનાં આચરણનું વિધાન વિહિત છે છતાયે એને જે ધના અલક્ષ્ય રૂપમાં બતાવવામાં આવ્યો છે. તેની મતલબ એ છે કે જ્યારે તે જીનદેવની આજ્ઞાથી બહિભૂર્ત બનેલા સ્વેચ્છાચારી, મૂળગુણ તેમજ ઉત્તર ગુણોથી રહિત અને પટકાય જેની રક્ષા કરવામાં અસાવધાન માણસે વડે અનુપગ પૂર્વક આચરવામાં આવે ત્યારે તે દ્રવ્ય આવશ્યક રૂપમાં કહેવાય છે. એથી તે ધર્મપદ વાગ્યે નથી. એટલે કે ધર્મ રૂપ નથી. જ્યાં ધર્મરૂપતા નથી ત્યાં કર્મોની નિર્જર કારકતા પણ નથી. આ સર્વમાન્ય સિદ્ધાન્ત છે. ભગવાને જે આ અવસ્થામાં એમને વિધેય કહ્યા નથી તેનું કારણ પણ એ જ છે. એટલા માટે જેમ નામ આવશ્યક, સ્થાપના આવશ્યક અને દ્રવ્ય આવશ્યક આ ત્રણ નિક્ષેપને આરાધ્ય રૂપથી તીર્થકર પ્રભુએ અવિધેય કહ્યા છે, તેમજ નામ જિન, સ્થાપના દિન તેમજ દ્રજિન પણ આરાધ્ય નથી. એમની આરાધના કરવામાં જે ધર્મની પ્રાપ્તિ થવી બતાવવામાં આવે છે કે માનવામાં આવે છે, તેમને જિન ભગવાનની
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| মাঘমকথা ___ एवं च प्रतिमापूजनमपि धर्मलक्षणस्य लक्ष्यं न भवति. तत्र धर्मत्वाभावनिश्चयात् । 'मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्' इत्येवमहतो भगवत आज्ञायाः प्रवचनेऽनुपलब्धेः । धर्मविषये सर्वत्र भगवदाज्ञोपलभ्यते-दृश्यते हि आवश्यकाथं भगवभगवान की आज्ञा से बहिर्भूत ही समझना चाहिये । यदि इन निक्षेपों की या स्थापनानिक्षेप की आराधना करने से आरोधक जीवों को धर्म का लाभ होता तो वे उनकी आराधना करने का भव्य जीवों को अव श्य २ उपदेश देते। इस प्रकार की स्वमनः कल्पित प्रवृत्ति से उनकी पूजा आदि करने में षटूकाय के जीवों की कितनी विरोधना होती है यह एक स्वानुभवगम्य बात है। अतः जहां आरंभ है वहां धर्म नहीं है। जहां धर्म नहीं है उसकी आराधना से कर्मों की निर्जरा भी नहीं हो सकती है। इस प्रकार से नाम स्थापना और द्रव्यजिन आदि तीन निक्षेप भी धर्म के लक्षण से शून्य होने से उसके अलक्ष्य माने गये हैं । जय स्थापना जिन ही उसका अलक्ष्यभूत है, तो फिर जिन की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा आदि कार्य भी धर्मलक्षण से शून्य होने से वह भी उसका अलक्ष्य है ऐसा निश्चित हो जाता है भगवान ने इस प्रकार की आज्ञा शास्त्र में कहीं भी नहीं दी है " मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्" कि मुक्ति की अभिलाषा वाला प्राणी जिन प्रतिमा की पूजा करें। धर्मकी आराधना करने की ही उन्हों ने आगम में आज्ञा આજ્ઞાથી બહિબ્રૂત જ સમજવા જોઈએ. આ નિક્ષેપની કે રથાપના નિક્ષેપોની આરાધના કરવાથી આરાધક ને ધર્મને લાભ થતે દેય ત્યારે તે તેઓ તેમની આરાધના કરવા માટે ભવ્ય જીવોને ચેકસ ઉપદેશ આપતા. આ રીતે પોતાના મનથી જ કલ્પના કરીને તેમની પૂજા વગેરે કરવામાં ષટુકાય જીની કેટલી બધી વિરાધના હોય છે. તે જાતે જ અનુભવવા જેવી વાત છે. એટલા માટે જ્યાં આરંભ છે ત્યાં ધર્મ તો નથી જ અને જ્યાં ધર્મ નથી તેની આરાધનાથી કર્મોની નિર્જરા પણ થઈ શકે તેમ નથી. આ રીતે નામ સ્થાપના અને દ્રવ્ય જિન વગેરે ત્રણ નિક્ષેપ પણ ધર્મના લક્ષણથી રહિત હોવા બદલ તેને અલક્ષ્ય માનવામાં આવ્યા છે. જ્યારે સ્થાપના જિન જ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે, ત્યારે જિનની પ્રતિમા બનાવીને તેની પૂજા વગેરે કાર્યો પણ ધર્મલક્ષણથી રહિત હોવાથી તે પણ તેના માટે અલક્ષ્યરૂપ છે આવી ચોક્કસ ખાત્રી થઈ જાય છે. ભગવાને આ જાતની આજ્ઞા શાસ્ત્રમાં કોઈ પણ સ્થાને કરી નથી " मोक्षकामो जिनप्रतिमां पूजयेत्”, मोक्षनी २छ। रामना। प्रा लिन પ્રતિમાનું પૂજન કરે. ધર્મની આરાધના કરવાની જ તેઓશ્રીએ આગમમાં આજ્ઞા
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अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रोपदीयाँ दाज्ञा, दर्शनार्थ ज्ञानार्थं च भगवदाज्ञा पुनरहिंसासंयमतपःसंवरादिविधिरपि शास्त्रे प्रदर्शितः परंतु प्रतिमापूजनार्थमाज्ञा क्वापि नोपलभ्यते शास्त्रेषु, प्रत्युतकुप्रावनिकद्रव्यावश्यकलक्षणाक्रान्तत्वेन प्रतिमापूजनं जैनागमविरुद्धमिति सूचितम् । इन्द्रादिपूजनं हि कुमावचनिकस्य नोआगमतो द्रव्यावश्यकस्योदाहरणतया भगवता प्रदर्शितम् । तेन सर्व प्रतिमापूजनं कुमावनिचकं तादृशद्रव्यावश्यके भगवता निक्षिप्तमिति सुस्पष्टं प्रतीयते । षट्कायहिंसासाध्यायाः पूजाया प्रदान की है जैसे-आवश्यक, दर्शन और ज्ञान की आराधना प्रत्येक मोक्षाभिलाषी भव्य जन को करना चाहिये-इस प्रकार के आवश्यक
आदि की आराधना करने का स्पष्ट उल्लेख आगमों में मिलता है-तथा जिस प्रकार उन्होंने अहिंसा, संयम, तप और संवर आदि की विधि शास्त्रों में प्रदर्शित की है-उस प्रकार न तो उन्होंने प्रतिमा पूजन की कहीं न आज्ञा प्रदान की है और न उस की विधि ही कही है कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक के लक्षण से युक्त होने से प्रत्युत प्रतिमापूजन को जैन आगम से विरुद्ध ही सूचित किया है। कुप्रावनियों द्वारा मान्य इन्द्रादिकों के पूजन को भगवान नो आगम की अपेक्षा से द्रव्य आवश्यक के उदाहरण रूप में प्रकट किया है इससे ही यह यात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने अन्य समस्त प्रतिमा पूजन को भी इसी कुप्रावनिक द्रव्य आवश्यक की तरह द्रव्य आवश्यक में रखा है। प्रवचन में कुत्सितता-खोटापन कुशास्त्रता हिंसादिक सोध्य पूजा आदि कार्यों કરી છે. જેમ આવશ્યક, દર્શન અને જ્ઞાનની આરાધના દરેકે દરેક મોક્ષ ઈચ્છનારા ભવ્ય જનને કરવી ઘટે છે. જેમ આવશ્યક વગેરેની આરાધના કરવા વિષેને ઉલેખ આગમમાં મળે છે. તેમજ જેમ તેમણે અહિંસા, સંયમ, તપ અને સંવર વગેરેની વિધિ શાસ્ત્રોમાં બતાવી છે, તેમ તેમણે કોઈ પણ સ્થાને પ્રતિમા પૂજનની આજ્ઞા કરી નથી અને તેની વિધિ પણ બતાવી નથી. પ્રતિમા પૂજાને કુપાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકના લક્ષણથી યુક્ત હવા બદલ જૈન આગથી વિરૂદ્ધ જ બતાવવામાં આવી છે. કુપ્રાથનીઓ વડે માન્ય ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને ભગવાને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય આવશ્યકના ઉદાહરણ રૂપમાં બતાવ્યું છે. એથી આ વાત સ્પષ્ટ સમજી શકાય તેમ છે કે તેમણે બીજી પણ બધી પ્રતિમા પૂજાને પણ આ કુખાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યકની જેમ દ્રવ્ય આવશ્યકમાં જ સ્થાન આપ્યું છે. પ્રવચનમાં કુત્સિતતા કુશાસ્ત્રતા હિંસા વગેરે સાધ્ય પૂજા વગેરે કાર્યોની પુષ્ટિ કરવાથી જ સંભવે છે. બીજી ચરક
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शाताधर्मकथागपत्र विधायकतया प्रवचनस्य कुत्सितत्वं, तेनैव चन्द्रादिपूजनस्य कुमावचनिकत्वं भवति । एवं ग्ररूपयतो भगनतोऽहंतः प्रतिमायाः पूजनस्य प्रसङ्ग एव तदानीं नासीत्-हिंसामयत्वात्पूजनस्य, तेन प्रवचने भगवता प्रतिमापूजनप्रतिषेधो विशिष्य नोक्तः । प्रतिषेधवाक्यं हि तदैव सार्थकं, यदाप्रतिषेध्यरूपोऽर्थः कथंचित् प्रसक्तो भवति । जिनप्रतिमापूजनं हि न तावल्लौकिकं द्रव्यावश्यक, नापि लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक जिनो हि लोकोत्तरो देवस्तत्पूजनमपि स्याच्चेत् लोकोत्तरिकमेव की पुष्टि करने से ही आती है। अन्य चरक आदि समस्त प्रवचनों में इन्हीं हिंसादिक कर्मों के करने का विधान स्पष्टरूप से पाया जाता है । इसीलिये ये कुप्रवचन माने गये हैं। इनके द्वारा प्रदर्शित इन्द्रादिक पूजन भी इसी निमित्त से कुमावनिक कहा गया है । जैन शास्त्रों में प्रतिमापूजन के निषेध का स्पष्ट उल्लेख जो देखने में नहीं आता है, उसका यह कारण है कि जिस समय प्रभु ने इन्द्रादिक के पूजन का कुप्रावनिक रूप मानकर निषेध किया उस समय उनके समक्ष अहैत की प्रतिमा के पूजन का प्रसंग ही नहीं था, नहीं तो इसका भी वे स्वतन्त्र रूप से निषेध करते-दूसरे-प्रतिमा पूजन कार्य हिंसामय कार्य है-भगवान ने धर्म के लिये भी हिंसा करने का आदेश नहीं दिया है अतः जब वीतराग शास्त्र में हिंसा का विधान ही नहीं है-तब इसका भी विधान कैसे वे करते प्रतिषेध वाक्य उसी समय सार्थक माना जाता है जब प्रतिषेध्यरूप पदार्थ किसी भी रूप से प्रसक्त होता है । ચીરિક વગેરે બધા પ્રવચનમાં એ જ હિંસા વગેરે કર્મોને કરવાનું વિધાન સ્પષ્ટ રૂપ જોવામાં આવે છે. એથી આ બધા કુમાવચનિક માનવામાં આવે છે. એમના વડે પ્રદર્શિત ઈન્દ્ર વગેરેનું પૂજન પણ આ કારણને લીધે જ કુપ્રાચનિક કહેવાય છે. જૈન શાસ્ત્રોમાં પ્રતિમા પૂજનના નિષેધને સ્પષ્ટપણે જે ઉલ્લેખ જેવામાં આવતો નથી તેનું કારણ પણ એ છે કે જ્યારે પ્રભુએ ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનને કુમાવચનિક રૂપ માનીને નિષેધ કર્યો ત્યારે તેમની સામે અહિતની પ્રતિમાના પૂજનની વાત જ ન હતી, નહિતર તેઓશ્રી એ તેને પણ સ્વતંત્ર રૂપથી નિષેધ કર્યો હેત. બીજી વાત એ છે કે પ્રતિમા પૂજનનું કાર્ય હિંસામય છે. ભગવાને ધર્મના માટે પણ હિંસા કરવાની આજ્ઞા કરી નથી. એટલા માટે જ્યારે વીતરાગ શાસ્ત્રમાં હિંસા વિષેનું વિધાન જ નથી ત્યારે આનું વિધાન પણ તેઓ કેવી રીતે કરે. પ્રતિષેધ વાકય ત્યારે જ સાર્થક ગણાય છે જયારે પ્રતિષેધ્યરૂપ પદાર્થ કેઈ પણ રૂપથી પ્રસક્ત હોય છે. આ પ્રતિમા
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अभंगारधर्मामृतवर्षिणी टीको अ० १६ द्रौपदीचर्चा स्यात् लोके तु तस्य समावेशानहतया लौकिकत्वासंभवात् । प्रवचने भगवता यत् सामायिकादि पइविधावश्यक प्ररूपितं तदेव स्वच्छन्दविहारिभिः षट्कायहिसकैर्जिनाज्ञावायैः क्रियमाणं लोकोत्तरिक-द्रव्यावश्यकम् । तत्र षड्विधावश्यके जिनप्रतिमा पूजनस्य प्रवेशात् तस्य लोकोत्तरिकद्रव्यावश्यके समावेशो न संभवति । यह प्रतिमापूजनरूप कार्य न लौकिक द्रव्य अवश्यक है और न लोकोत्तर द्रव्य अवश्यक ही है।
शंका-प्रतिमा पूजन लौकिक द्रव्य आवश्यक नहीं है यह तो आप का कहना ठीक है, क्यों कि यह लौकिक द्रव्य आवश्यकों से सर्वथा भिन्न है। परन्तु इसे लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक मानने में आपको क्या विवाद है । क्यों कि प्रभु स्वयं लोकोत्तर देव माने जाते अतः उनका पूजन भी लोकोत्तरिक ही मानना चाहिये ?
उत्तर-प्रवचन में भगवान जो सामायिक आदि छह प्रकार के आवश्य कों का वर्णन किया है-वे जय जिन आज्ञा बाह्य-स्वच्छन्दविहारी और षट्काय की विराधना करने में निरत अनुपयुक्त पुरुषों द्वारा करने में आते हैं लोकोतरिक द्रव्य आसश्यक रूप से प्रतिपादित किये गये हैं । इन षट्प्रकार के आवश्यकों में प्रतिमापूजन का कोई अधिकार ही नहीं है । अतः इसे कैसे लोकोत्तरिक आवश्यक माना जा सकता है। પૂજનરૂપ કાર્ય માટે ન તે લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને ન તે લોકેત્તર દ્રવ્ય આવશ્યક છે.
શંકા–પ્રતિમા પૂજન લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યક નથી. તમારી આ વાત તે ઉચિત છે. કેમ કે આ લૌકિક દ્રવ્ય આવશ્યકોથી સંપૂર્ણપણે ભિન્ન છે. પણ એને લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક માનવામાં તમને શું વાંધો છે ? કેમકે પ્રભુ જાતે લેકોત્તર દેવ મનાય છે. ત્યારે તેમનું પૂજન પણ લકત્તરિક જ માનવું જોઈએ?
ઉત્તર-પ્રવચનમાં ભગવાને જે સામાયિક વગેરે છ જાતના આવશ્યકેનું વર્ણન કર્યું છે તેઓ જ્યારે જિન-આજ્ઞા બાહ્ય સ્વચ્છેદ વિહારી અને ષ કાયની વિરાધના કરવામાં નિરત અનુપયુકત પુરુષો વડે આચરવામાં આવે છે. લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક રૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે. આ છ જાતના આવશ્યકેમાં પ્રતિમા પૂજનને કેઈ અધિકાર જ નથી. એટલા માટે કેરિક આવશ્યક કેવી રીતે માની શકાય ?
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शीताधर्मकथासूत्र ___ कुप्रवचनेऽईतः पूजाविधानं विशिष्य नोक तथापि कामपूरकमृतमनुष्यपूजनवत् तस्य पूजा प्रतिमायां क्रियमाणा कुप्रावनिकीति वक्तुं शक्यते । तस्मिन् कुपवचने हि पूजाधारनिर्णयावसरे सामान्यतः पूज्यस्य सर्वस्यापि पूजाधारः प्रतिमा
भावार्थ-शंकाकार ने प्रतिमापूजन को लोकोत्तरिक आवश्यक मानकर द्रव्य आवश्यक में जो उसका समावेश करना चाहा है सो उसकी इस आशंका का समाधान करते हुए सूत्रकारने यह कहा है कि जिन आज्ञा बाह्य एवं सामायिक आदि में अनुपयुक्त पुरुषों द्वारा किये गये सामायिक आदि षट् विध आवश्यक कार्य ही लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में परिगणित किये गये हैं। इनमें प्रतिमा पूजा को कोई संबंध ही नहीं है-प्रतिमा पूजा षटू विध आवश्यक कार्यों में परिगणित ही नहीं हुई है। अतः उसका वहां पर किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होने से उसे लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक में नहीं गिना जा सकता है अतः इसका समावेश केवल कुप्रावचनिक द्रव्य आवश्यक में ही हुआ है ऐसा मानना चाहिये। - शंका-कुप्रवचन में इन्द्रादिकों की पूजा करने के विधान की तरह प्रतिमा पूजा का विधान तो पाया नहीं जाता है फिर आप इसे कुप्रा. वचननिक में अन्तर्भूत कैसे कह सकते हैं ?
ભાવાર્થ – શંકાકારે પ્રતિમા પૂજનને લોકોત્તરિક આવશ્યક માનીને દ્રવ્ય આવશ્યકમાં તેને સમાવેશ કરવાની જે ઈચ્છા બતાવી છે. તેની તે શંકાનું સમાધાન કરતાં સૂત્રકારે આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે જિન આજ્ઞા બાહ્ય અને સામાયિક વગેરેમાં અનુપયુક્ત પુરુ વડે કરવામાં આવેલા સામાયિક વગેરે છે. જાતના આવશ્યક કાર્યો જ લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમાં પરિગણિત કરવામાં આવ્યાં છે. એનાથી પ્રતિમા પૂજાને કઈ સંબંધ જ નથી. પ્રતિમા પૂજા ષવિધ આવશ્યક કાર્યોમાં પગિણિત જ થઈ નથી. એટલા માટે ત્યાં તેને કેઈ પણ રીતે સંબંધ નહિ હોવાથી લેકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકમાં તેની ગણના થઈ શકે તેમ નથી. એથી ફક્ત દ્રવ્ય આવશ્યકમાં જ થાય છે આમ भानी से नये.
શંકા-કુપ્રવચનમાં ઈદ્ર વગેરેની પૂજા કરવાના વિધાનની જેમ પ્રતિમા પૂજાનું વિધાન તે મળતું નથી ત્યારે તમે એને કુપવાચનિકમાં કેવી રીતે સમાવિષ્ટ કરી શકે?
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा चित्रादय इति प्ररूपितम् । एवं च जिनपूजन-कुपावच निकं-नोआगमतो द्रव्यावश्यक प्रतिमायां क्रियमाणत्वात् , इन्द्रादिपूजनबत् ,इत्यनुमानेनापि कुमावनिक द्रव्यावश्यकतया धर्मपदवाच्यं न भवतीति । . उत्तर-यद्यपि कुप्रवचन में प्रतिमा पूजा का विधान स्वतन्त्ररूप से नहीं किया गया है, तो भी कामपूरक प्रणियों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले-मनुष्य के मृत-निर्जीव देह की पूजा की तरह प्रतिमा में होती हुई पूजा भी कुप्रावचननि की है।
इस प्रकार हम अनुमानसे कह सकते हैं । उसमें प्रवचन में पूजाके आधार का निर्णय करते समय सामान्यरूप से पूजा के आधारभूत जितने भी प्रतिमा चित्र आदि पूज्य हैं वे सब गृहीत हुए हैं। इस प्रकार प्रतिमा की सर्व पूजा का आधार प्रतिमा और चित्र आदि है। इसलिये वह कुप्रावचनिक है । इस प्रकार हम कहते हैं। इस कथन से यह व्याप्ति सिद्ध होती है कि इन्द्रादिक पूजन की तरह प्रतिमा में जो जो पूजाएँ की जाती हैं वे सब कुप्रावनिकी हैं। अतः जिन पूजन भी प्रतिमा में किये जाने पर नोआगम की अपेक्षा से कुप्रावनिक द्रव्य आवश्यक ही है, और इसीलिये वह धर्मपद का वाच्य नहीं है यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो जाती है इसमें अनुमान प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिए।
ઉત્તરઃ—જે કે કુપ્રવચનમાં પ્રતિમા પૂજનનું વિધાન સ્વતંત્ર રૂપમાં કરવામાં આવ્યું નથી છતાંય માનવીના મનોરથોને પૂર્ણ કરનારા-માણસના મૃત નિજીવ શરીરની પૂજાની જેમજ પ્રતિમાની કરવામાં આવેલી પૂજા પણ કુકાવચનિકી છે. આમ અમે અનુમાનથી કહી શકીએ છીએ. તે કુપ્રવચનમાં પૂજાના આધારને નિર્ણય કરતી વખતે સામાન્ય રૂપથી પૂજાના આધારભૂત જેટલા પ્રતિમા ચિત્ર વગેરે પૂજ્ય છે તે સર્વેનું ગ્રહણ થયું છે.
આ રીતે પ્રતિમાની સર્વ પૂજાને આધાર પ્રતિમા અને ચિત્ર વગેરે છે. એટલા માટે તે કુપાવચનિક છે આમ અમે કહી શકીએ છીએ. આ કથનથી એ વ્યપ્રિસિદ્ધ થાય છે કે ઈન્દ્ર વગેરેના પૂજનની જેમ પ્રતિમાઓમાં જે જે પૂજા કરવામાં આવે છે તેઓ સર્વે કુપાવચનિકી છે. એટલા માટે જિન પૂજા પણ પ્રતિમામાં આવતી હોવાથી આગમની અપેક્ષાથી કુપાવચનિક દ્રવ્ય આવશ્યક છે અને એથી તે ધર્મપદવાણ્ય નથી. આ વાત સ્પષ્ટપણે સિદ્ધ થઈ જાય છે. આમાં અનુમાનપગ આ પ્રમાણે કહી શકાય તેમ છે.
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हाताधर्मकथाजसूत्र अथ भावावश्यकमुच्यते-विवक्षितक्रियानुभवयुक्तो योऽर्थः स भावः, भाव तद्वतोरभेदोपचाराद् भावः । यथा-ऐश्वर्यरूपायाइन्दनक्रियाया अनुभवात् इन्द्रो भाव उच्यते । भावश्चासौ आवश्यक च, भावमाश्रित्य वा आवश्यक भावावश्यकम् । ___ " जिनपूजनं नो आगमतो कुप्रावचनि कं द्रव्यावश्यकं प्रतिमायां क्रियमाणत्वात् इन्द्रादिपूजनवत्" । अतः इस समस्त पूर्वोक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह प्रतिमापूजन कार्य लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक रूप से भी प्रसक्त होता तो भगवान् इसका अवश्य प्रति षेध करते। __अथ भावावश्यकमुच्यते - अब भाव आवश्यक क्या है इसका कथन मूत्रकार करते हैं-वर्तमान समय में उस विवक्षितरूप पर्याय से युक्त द्रव्य का नाम भाव है । भाव यद्यपि वर्तमान क्रिया रूप माना गया है, फिर भी यहां पर उस क्रिया से युक्त द्रव्य को जो भाव कहा है उसका कारण द्रव्य और पर्याय का अभेद संबंध है। भगवान द्रव्य के विना नहीं रह सकता है । भाव द्रव्य को एक पर्याय है, वह निराश्रय होती नहीं है-अतः जिस द्रव्य के आश्रय वह रहेगी उन दोनों में अभेोपचार से उस पर्याय से उपलक्षित उस द्रव्य को ही भाव कह दिया है। जिस प्रकार ऐश्वर्यरूप इंदन (देदीप्यमान होना) ___" जिनपूजनं नो आगमतो कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं प्रतिमायां क्रियमाणत्वात् इन्द्रादिपूजनवत् ”
એટલા માટે આ પૂર્વોકત કથનથી આ વાત ઉપષ્ટ થાય છે કે તે પ્રતિમા પૂજન કાર્ય લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યક પણ નથી. જે તે લકત્તરિક દ્રવ્ય આવશ્યકરૂપે પણ પ્રસક્ત હોત તો ભગવાન તેને ચોક્કસ પ્રતિષેધ કરત..
' अथ भावावश्यकमुच्यते :-७३ मा१श्य शुछ मेनु २५०टी४२८ સત્રકાર કરે છે વર્તમાન સમયમાં તે વિવક્ષિત રૂપ પર્યાયથી યુકત દ્રવ્યનું નામ ભાવ છે. જો કે ભાવ વર્તમાન ક્રિયારૂપ માનવામાં આવ્યો છે, છતાંય અહીં તે ક્રિયાથી યુક્ત દ્રવ્યને જ ભાવ બતાવ્યું છે તેનું કારણ દ્રવ્ય અને પર્યાયને અભેદ સંબંધ છે. ભાવ ભગવાન દ્રવ્ય વગર રહી શકતો નથી ભાવ દ્રવ્યની એક પર્યાય છે, તે નિરાશ્રય હતી જ નથી. એથી જે દ્રવ્યના આશ્રયે તે રહેશે તેઓ બંનેમાં અભેદેપચારથી તે પર્યાયથી ઉપલક્ષિત તે દ્રવ્યને જ ભાવ કહી દીધું છે. જેમ અશ્વર્ય ઇદન (દેદીપ્યમાન થવું) ક્રિયાના અનુભ
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मनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीची
३६१ तद् द्विविधम्- (१) आगमतः आगममाश्रित्य, (२) नोआगमतः आगमाभावमाश्रित्य ।
आगमतो भावावश्यकमाह__" से कितं आगमओ भावासयं ? आगमी भावावस्सयं जाणए उपउत्ते, से तं आगमो भावावस्सयं"। ( अनुयोग०)
अथ किं तदागमतो भारावश्यकम् ?, उत्तरमाह-"ज्ञायक उपयुक्त" आगमतो भावावश्यकम् । ____ अयमर्थः-आवश्यक पदार्थज्ञस्तजनितसंवेगेन विशुध्यमानपरिणामस्तत्र चो पयुक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् , अनावश्यकार्थज्ञानरूपस्यागमस्यात्र क्रिया के अनुभव से उपलक्षित शचीपति भाव इन्द्र कहा जाता है। इसी प्रकार जो आवश्यक रूप क्रिया के अनुभवसे युक्त है वही आत्मा भावावश्यक कहलाता है । भावरूप जो आवश्यक है वह, अथवा भाव को आश्रय करके जो आवश्यक है वह भावावश्यक है।
यह भाव आवश्यक भी दो प्रकार का है-१ आगम की अपेक्षा भाव ओवश्यक और दूसरा नो आगम की अपेक्षा भाव आवश्यक । इनमें " ज्ञायकः उपर्युक्तः आगमतो भावावश्यकं " ज्ञायक उपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक माना गया है। आवश्यकरूप पदार्थ का जो ज्ञाता है उसका नाम ज्ञायक है । आवश्यकरूप पदार्थ के ज्ञान से जनित संवेग द्वारा विशुद्ध हुए परिणामों को नाम उपयोग है । इस उपयोग से विशिष्ट जो साधु आदि जन हैं वे आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक हैं । क्यों कि इनमें आवश्यकरूप पदार्थ વથી ઉપલક્ષિત શચીપતિ ભાવ ઇન્દ્ર કહેવાય છે તેમજ જે આવશ્યકરૂપ ક્રિયાના અનુભવથી યુક્ત છે તે આત્મા ભાવાવશ્યક કહેવાય છે. ભાવરૂપ જે આવશ્યક છે તે અથવા ભાવને આશ્રય કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવાવશ્યક છે.
આ ભાવ આવશ્યક પણ બે પ્રકાર છે-૧, આગમનની અપેક્ષા ભાવ मावश्य भने २, ने। सागमननी अपेक्षा भाव मा१श्य समानामा "ज्ञायकः उपयुक्तः आगमतो भावावश्यकं" ज्ञाय: उपयुक्त मात्मा मागभनी अपेक्षाथी ભાવ આવશ્યક માનવામાં આવ્યા છે. આવશ્યકરૂપ પદાર્થને જે જ્ઞાતા છે તેનું નામ જ્ઞાયક છે આવશ્યકરૂપ પદાર્થના જ્ઞાનથી જનિત સંવેગવડે વિશુદ્ધિ પામેલા પરિણામે નું નામ ઉપગ છે. આ ઉપયોગથી વિશિષ્ટ જે સાધુ વગેરે લોકો છે તેઓ આગમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે. કેમકે તેઓમાં આવ
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३६२
andreferrer
सत्वात् भावावश्यकता चात्रावश्यकार्थज्ञानजनितोपयोग परिणामवत्त्वाद्भा - मावश्यकमिति व्युत्पत्तेः । इदमुक्तं भवति आवश्यकार्थज्ञस्य आवश्यकोपयोगपरिणाम आगमतो भावावश्यक, साध्वादिस्तु तादृशपरिणामवत्त्वादागमतो भावावश्यमुच्यते । इदमावश्य कोपयोगपरिणामरूपं भावश्यक धर्मपदवाच्यं, श्रुतधर्मान्तर्गतत्वात् अत्र जिनाज्ञायाः सच्चात् ।
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नो भागमतो भावावश्यक त्रिविधं लौकिक, कुप्राचचनिक, लोकोत्तरिक चेति लौकिकं भावावश्यकं पूर्व भारतस्य वाचनं श्रवणं वा अपराह्णे रामायणस्य
के ज्ञानरूप आगम का सद्भाव पाया जाता है । इसलिये साधु आदि जनों में आगम की अपेक्षा से आवश्यकता और इस आवश्यक के अर्थ ज्ञान से जनित उपयोगरूप परिणामों की विशिष्टता होने से भाव रूपता आती है | अतः भाव को आश्रित करके जो आवश्यक है वह भीव आवश्यक है " यह कथन सुसंगत हो जाता है
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भावार्थ- "आवश्यक" इस पद के अर्थज्ञान से विशिष्ट तथा तदनुकूल उपयोग परिणति संपन्न आत्मा ही आगम की अपेक्षा से भावावश्यक कहा गया है । ये भावावश्यक साधु आदि हैं। क्यों कि ये ही उस प्रकार की परिणति वाले होते हैं। अतः श्रुतधर्म के अन्तर्गत होने से यह भावावश्यक ही धर्म पद का वाच्य कहा गया है और ऐसे ही धर्म की आराधना करने की भगवानने आज्ञा प्रदान की है ।
नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक तीन प्रकार का माना गया है। (१) लौकिक (२) कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । पूर्वाह्न में
શ્યકરૂપ પદાર્થના જ્ઞાનરૂપ આગમના સદ્દભાવ મળે છે. એટલા માટે સાધુ વગેરે લેાકેામાં આગમની અપેક્ષાથી આવશ્યકતા અને આ આવશ્યકતાના અ જ્ઞાનથી જનિત ઉપયાગરૂપ પરિણામોની વિશિષ્ટતા હેાવાથી ભાવરૂપતા આવે છે. એટલા માટે “ ભાવને આશ્રિત કરીને જે આવશ્યક છે તે ભાવ આવશ્યક छे. " या इथ सुसंगत थ पडे छे.
लावार्थः–“ श्यावश्य" मा पहना अर्थ ज्ञानथी विशिष्ट तेभन तह
નુકૂળ ઉપયાગ પરિણતિ સાંપન્ન આત્મા જ આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યક સાધુ વગેરે છે કેમકે એ લેાકેા જ આ જાતની પરિણતિવાળા હેાય છે. એથી શ્રુતધમના અંતર્ગત હોવા બદલ આ ભાવાવસ્યક જ ધર્મપદવાચ્ય કહેવામાં આવ્યા છે અને આ જાતના ધર્મની આરાધના કરવાની ભગવાને પશુ આજ્ઞા કરી છે. ના આગમની અપેક્ષાએ ભાવ આવશ્યકના ત્રણ પ્રકારે છેઃ-(૧) લૌકિક (ર) કુત્રાવચનિક (૩) અને લેાકેાત્તકિ પૂર્વજ્ઞમાં ભારતનું વાંચન અથવા શ્રવણુ
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मगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १६ द्रौपदीचर्चा
वाचनं श्रवणं वा । लोके हि भारतस्य वाचनं श्रवणं पूर्वा एव क्रियमाणं दृश्यते, तथा रामायणस्य वाचनं श्रवणमपराह्न एव क्रियमाणं दृश्यते, वैपरीत्ये दोषदर्शनात् । ततश्वेत्थं लोकेऽवश्यकरणीयतयाऽऽवश्यकत्वं तद्वाचकस्य श्रोतुश्च तदर्थोंपयोग परिणामसत्त्वाद् भावत्वं, तद्वाचकः पुस्तकपत्रादिपरावर्तनरूपया इस्ताभिनयरूपया च क्रियया युक्तो भवति, श्रोतापि च गात्रसंयतत्व - करसंपुटीकरणादि
भारत का वांचना अथवा सुनना, अपराह्न में रामायण का वांचना या सुनना ये सब लौकिक भाव आवश्यक हैं। लोक में भारत का वांचना अथवा सुनना पूर्वाह्न में ही किया जाता है । रामायणका वांचन और श्रवण अपराह्न में ही होता हुआ देखा जाता है। इससे विरुद्ध प्रवृत्ति करने से अनेक प्रकार के दोषों का भोजन बनना पडता है, इस प्रकार लोक में भारतादिक ग्रन्थों का वांचना आदि कार्य नियमित समय में अवश्य करने योग्य होने की वजह से आवश्यक रूपमें माना गया है । अतः इसमें इस प्रकार से आवश्यकपना आ जाता है । तथा इनके वांचने वालो में या सुनने वालों में उनके अर्थ के प्रति उपयो गात्मक परिणाम के सद्भाव से भावरूपता आती है। क्यों कि जबतक उनके वांचने वाले में उनके अर्थ के प्रति उपयोगात्मक परिणाम की जागृति नहीं होगी. तब तक वे उन पुस्तकों के पत्रों आदि का परावर्तन करने रूप क्रिया और श्रोताओं को अनेक अर्थ की संगति बैठाने के लिये हम आदि के संचालनरूप अभिनय क्रिया का उपयोग ही
અપરામાં રામાયણનું વાચન કે શ્રવણ આ બધું લૌકિક ભાવ આવશ્ય છે. લેાકમાં ભારતનું વાંચન અથવા તે। શ્રવણ પૂર્વાદ્ઘમાં જ કરવામાં આવે છે. રામાયણનું વાંચન અને શ્રવણુ અપરાદ્ઘમાં જ થતું જોવામાં આવે છે. એથી વિરુદ્ધ આચરણ કરવાથી માણુસ ઘણી જાતના દોષાને પાત્ર થઇ પડે છે. આ પ્રમાણે ભારત વગેરે ગ્ર'થાનું વાંચન વગેરે કાર્યં નિયમિત સમયમાં આવશ્યક ક૨વા યોગ્ય હાવા ખદલ આવસ્યક રૂપમાં માનવામાં આવે છે. એથી આમાં આ રીતે આવશ્યકપણું આવી જાય છે. તેમજ એમનું વાંચન કરનારાઓમાં તેમના તરફ્ ઉપયાગાત્મક પરિણામના સદ્ભાવથી ભાવરૂપતા આવે છે. કેમકે જ્યાંસુધી તેમનુ વાંચન કરનારાઓમાં તેમના અથ પ્રત્યે ઉપયાગાત્મક પરિણામની જાગૃતિ થશે નહિ, ત્યાં સુધી તેએ તે પુસ્તકના પત્રા વગેરેના પરાવર્તન કરવારૂપ ક્રિયા અને શ્રાતાના માટે અનેક જાતના અર્થની સંગતિ બેસાડવા માટે હાથ વગેરેના હલનચલનરૂપ અભિનય ક્રિયા ઉપયાગ જ કેવી રીતે કરી શકે,
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शाताधर्मकथासूत्रे
क्रियावान् भवति, एवं तयोः क्रियावत्वेन नोआगमत्वं, “किरियाऽऽगमो नहोइ " इति वचनात् । क्रियारूपे देशे आगमाभावाद् नोआगमत्वमपि, अत्र नो शब्दस्य देशनिषेधबोधकत्वात् । लोके भारतादावागमत्वं व्यवहियते, तस्माद्देशत आगमोऽस्त्यपि । तस्मादपूर्वाऽपराधे यथानिर्दिष्टकाले भारताद्युपयुक्तो यदवश्यं भारतादि वाचयति शृणोति वा, तद् वाचनं श्रवणं च लौकिकं भावावश्ययमिति बोध्यम् । कैसे कर सकते हैं | परन्तु उस समय इस प्रकार की ये समस्त क्रियाएँ उनमें प्रत्यक्ष ही देखने में आती हैं। इसी प्रकार श्रोताजन भी अटल होकर उनके सुनने में तन्मय हो जाते हैं । समय २ पर हाथ जोड़ने रूप क्रियाएँ भी करते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ से युक्त होने से उन सुनने वांचने वालों में नो आगमता भी है क्यों कि " किरिया आगमो न होइ " क्रिया आगम नहीं मानी जाती है ऐसा सिद्धान्त का कथन है। नो आगम में नो शब्द आगम के एक देश का वाचक है । इसलिये क्रियारूप एक देश में पूर्णरूप से आगम का अभाव होने से आगम की एक देशता उसमें मानने में आती है | भारतादिक पुस्तकों में आगमता का कथन लोक की अपेक्षा से ही किया गया जानना चाहिये । क्यों कि लोक में अन्य व्यवहारी जन इनमें आगमता का व्यवहार करते हुए देखे जाते हैं । इस प्रकार पूर्वाह्न या अपराह्न में किसी भी निर्दिष्ट समय में भारतादिक ग्रन्थों का ज्ञाता उनमें उपर्युक्त होकर जो उनका वांचना आदि कार्य करता है-या जो श्रोताजन उप
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પણ
પણ તે વખતે આ ાતની આ બધી ક્રિયાએ તેમાં પ્રત્યક્ષરૂપે જોવામાં આવે છે. આ રીતે શ્રોતાએ પણ તલ્લીન થઇને સાંભળવા માંડે છે. ચેાગ્ય સમયે તેએ હાથ જોડવારૂપ ક્રિયાઓ પણ કરે છે. આ જાતની ક્રિયાએથી યુક્ત હાવા બદલ તે વાંચનારા તેમજ સાંભળનારાઓમાં ના આગમતા छ. उभडे " किरिया आगमो न होइ " प्रिया आगम मानवामां आवती नथी या सिद्धान्तनुं कथन छे. " नो आगम " मां नो शब्द आगमना खेड हेशने। વાચક છે. એટલા માટે ક્રિયારૂપ એકદેશમાં આગમના સપૂર્ણ પણે અભાવ હાવાથી તેમાં આગમની એકદેશતા માનવામાં આવે છે. ભારત વગેરે ગ્રંથામાં આગમતાનું કથન લેાકની અપેક્ષાથી જ કરવામાં આવ્યુ છે કેમકે લોકમાં ખીજી વ્યવહારી લેાકેા પણ એમાં આગમતારૂપ વ્યવહાર કરતાં જોવાય છે. આ રીતે પૂર્વા કે અપરાદ્ધમાં કોઇ પણ નિર્દિષ્ટ સમયમાં ભારત વગેરે ગ્રંથો ના જ્ઞાતા તેઓમાં ઉપયુક્ત થઇને જે તેમનું વાંચન વગેરે કાર્યો કરે છે અથવા તે
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मैनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीया
कुपावचनिकंभावावश्यकमुच्यते-ये इमे चरकचीरिकादयो यावत् पाषण्डस्था उपयुक्तो यथावसरं यद्वश्यम्-ईज्याञ्जलि-होम-जपो-न्दुरुक्कनमस्कारादिकं भावरूपमावश्यकं कुर्वन्ति तेषां तत् कुप्रावचनिकं भावावश्यकम् ।
तत्र-इज्या-सन्ध्योपासनम् , अञ्जलि:-जलाञ्जलिः सूर्याय दीयते, होमःनित्यहवनम् , जपा-गायत्र्याः, उन्दुरुक-अयं देशीयः शब्दः धूपार्थकः, नमस्कारः बन्दनम् , एतेषां चरकादिभिः पाषण्डस्थैरवश्यं क्रियमाणत्वादावश्यकत्वम् । तदर्थोपयोगश्रद्धादिपरिणामसद्भावात् भावत्वम् । चरकादीनां तदर्थोपयुक्त होकर उन्हें सुनते हैं वह सब वाचना सुनना आदि कार्य नो आगम की अपेक्षा से लौकिक भाव आवश्यक है।
जो चरक चीरिकादि जन उपयुक्त होकर अपने आवश्यक कार्य स्वरूप इज्या, अंजलि, होम जप, उन्दुरुक, और नमस्कार आदि भाव: रूप आवश्यक करते हैं, उनके ये सब कार्य कुमावर्चानक भाव आव. इयक हैं संध्या की उपासना करना इज्या है, सूर्य के लिये जलकी अंजलि देना अञ्जलि है, नित्ल हवन करना होम, गोयत्री का पाठ करना जब, धूप का खेना उन्दुरुक और नमस्कार करना वन्दना कर्म हैं। ये सब कार्य चरकादि जनों द्वारा प्रतिदिन अवश्य करने योग्य होते हैं-अतः इनमें उन्हीं की मान्यतानुसार आवश्यकपना कहा गया है इनके करने में उनके अन्तः कारण में उनके अर्थ के प्रति उपयोग एवं श्रद्धा ओदिरूप परिणति का सद्भाव पाया जाता है। इस જે શ્રોતાઓ ઉપયુકત થઈને તેમનું શ્રવણ કરે છે તે બધું વાંચન શ્રવણ વગેરે કાર્ય ને આગમની અપેક્ષાએ લૌકિક ભાવ આવશ્યક છે.
- જે ચરક ચરિક વગેરે લોકે ઉપયુકત થઈને આવશ્યક કાર્યસ્વરૂપ ઈજ્યા, અંજલિ, હમ, જપ, ઉદુરુકક અને નમસ્કાર વગેરે ભાવરૂપ આવશ્યક કરે છે, તેઓના આ બધા કાર્યો કુબાવચનિકભાવ આવશ્યક છે. સંધ્યાની ઉપાસના કરવી એ ઈજ્યા છે, સૂર્યને માટે પાણીની અંજલિ આપવી તે અંજલી છે, દરરોજ હવન કરવો તે હોમ, ગાયત્રી પાઠ કરવો તે જ૫ અને ધૂપ કરે તે ઉદુરુક અને નમસ્કાર એ વંદના કર્મ છે. આ બધા કાર્યો ચરક વગેરે લેકે વડે હમેશાંઅવશ્ય કરવાગ્ય હોય છે. એટલા માટે આમાં તેમની માન્યતા મુજબ જ આવશ્યકપણું કહેવામાં આવ્યું છે. એમના આચરણથી તેમના હૃદયમાં તેના અર્થ પ્રત્યે ઉપગ અને શ્રદ્ધા વગેરે ૩૫ પરિણતિ ને સદુભાવ મળે છે. આ અપેક્ષાએ ત્યાં ભાવતા અને
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माताधर्मकथा योगरूपो देश आगमः, करशिरः संयोगादिक्रियारूपो देशस्तु नोआगमः, तथा च दैशिकागमाभावमाश्रित्य नो आगमत्वमपि, नौशब्दस्यात्रापि देशनिषे. धपरत्वात् ।
लौकिक कुमावनिक च नोआगमतो भावावश्यक न धर्मपदवाच्यम् , तत्र जिनाज्ञाया अभावादिति बोध्यम् ।
अथ किं लोकोत्तरिक नोआगमतो भावावश्यकम् ? उच्यते अनुयोगद्वारे ।
" जण्णं इमे समणे वा समणी वा सायो वा साविया वा तचित्ते तम्मणे अपेक्षा से वहीं भावता और एकदेश से आगमता भी है। क्यों कि हाथों का जोड़ना नमस्कार करना आदि रूप जो भी क्रियाएँ हैं वे सय नो आगम हैं । इस अपेक्षा इनमें पूर्णरूप से आगमपनो न होकर आगम की एक देशता ही है चरक चोरीकादि द्वारा मान्य ग्रन्थों की निर्दिष्ट क्रियाओं का ही वहां सद्भाव है और उन्हीं के अर्थ में उनका उपयोगादिरूप परिणाम है। इसलिये ये सब चरक चीरीकादि की क्रियाएँ नो आगम की अपेक्षा से भाव आवश्यक हैं। यहां पर भी नो शब्द देश निषेध परक है अर्थात् आगम के एक देश का वाचक है ये लौकिक और कुप्रावनिक जिन्हें नो आगम को अपेक्षा से भावावश्यकरूप में प्रकट किया गया है धर्मपद के वाच्य नहीं हैं। क्यों कि इन की आराधना से जीवों के कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। अतः हीकर प्रभु ने इनके आराधन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की है।
नो आगम को अपेक्षो से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक इस प्रकार એકદેશથી આગમતા પણ છે. કેમકે હાથ જોડવા, નમસ્કાર કરવા વગેરે રૂપ જે કિયાઓ છે તે સર્વે ને આગમ છે. આ દષ્ટિએ એમનામાં આગમતા સંપૂર્ણ પણે નથી ફકત આગમન એકદેશના જ છે. ચરક ચીરિક વગેરે વડે માન્ય ગ્રંથોની નિષ્ટિ કિયાઓનો જ ત્યાં સદૂભાવ છે અને તેમના જ અર્થ માં તેમનો ઉપયોગ વગેરે રૂપ પરિણામ છે. એટલા માટે આ બધા ચરક ચરિકા વગેરેની ક્રિયાઓ ને આમની અપેક્ષાથી ભાવ આવશ્યક છે. અહીં પણ ન શબ્દ દેશનિષેધ પરક છે એટલે કે આગમના એકદેશને વાચક છે. આ લૌકિક અને પ્રાચનિકો જેમને ન આગમની દૃષ્ટિએ ભાવાવશ્યક રૂપમાં પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે—ધર્મપદના વાચ્ય નથી. કેમકે એમની આરાધનાથી જીવોના કમની નિર્જરા થતી નથી, એટલા માટે તીર્થકર પ્રભુએ એમને આરાધવાની આજ્ઞા કરી નથી.
ને આગમની અપેક્ષાએ લોકોત્તરિક ભાવ આવશ્યક આ પ્રમાણે છે – जणं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा तल्लेसे तदझवसिए तत्तिव्यज्झासाणे तदवोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावगाभाविए अण्णत्थ कत्था मणं अकरेमाणे उभभोकालं आवस्मयं करेइ, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं, से तं नोआगमतो भावावस्सयं, से तं भावावसयं ॥"
छाया-यत्वलु श्रमणो वा श्रमणी वा श्रारको वा श्राविका वा तचित्तस्तन्मनस्कस्तल्लेश्य स्तदध्यवसितस्तत्नीत्राध्यवसायस्तदर्थोपयुक्तस्तदस्तिकरणस्तद्भावनाभावित अन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन उभयकालं यत् आवश्यक सामायिकादि करोति तेषां तल्लोकोत्तरिक भारावश्यम् । तेषां तद् नोआगमतो भावावश्यकम् तदेतद्भावावश्यकम् ।
अत्राप्यवश्यं करणी रत्वादावश्यावं, तदर्थोपयोगश्रद्रादिपरिगामस्य सद्भावाद् भावत्वम् , रजोहरणपमानि काव्यापारयथारात्निकवन्दनकरणानन्तरं सविधि है-जण्णं इमे समणे वा ममणी दा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झमिए तत्तिब झवसाणे तदहोप उत्ते तदपिअ. करणे तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थाइ मणं अकरेमाणे उभाओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं, से तं नो आगमतो भावावस्मयं से तं भावावस्मयं (अनुयोगद्वार )
श्रमण अथवा श्रमणी श्रावक अथवा श्राविका जो सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं को तचित होकर ( उनमें ही चित्त लगाकर ) तन्नन होकर उनमें ही अन्तःकरणको एकाग्रकर इत्यादि सूत्र में कथित विधिक अनुमार दोनों कालों में करते हैं वह उनको कार्य नो आगम की अपेक्षा से लोकोत्तरिक भाव आवश्यक हैं। ये सामायिक आदि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है। कर्ता का उनके अर्थ में उपयोग रूप एवं श्रद्धा आदि रूप परिणाम का सद्भाव होने से उनमें तदन्झवसिए तत्तिबज्झवसाणे तदट्ठोपउत्ते तदप्पिअकरणे तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभोकालं आवस्मयं करेंति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सय, से तं नो आगमतो भावावस्मयं, से तं भावावस्मयं (अनुयोगद्वार) ।
શ્રમણ અથવા શ્રમણી શ્રાવક અથવા શ્રાવિકા જે સામાજિક વગેરે આવશ્યક ક્રિયાઓને તચિત્ત થઈને (તેમનામાં મન પરોવીને તલીન થઈને તેમનામાં જ મન લગાવીને વગેરે સૂત્રમાં કથિત વિધિ મુજબ બંને વખત કરે છે તેમનું તે કાર્ય ના આગમની અપેક્ષાએ લેકે રૂરિક ભાવ આવશ્યક છે. આ સામાયિક વગેરે કિયાએ અવશ્ય કરવા યોગ્ય હોવાથી આવશ્યક છે. કર્તાને તેમના અર્થ માં ઉપગરૂપ પરિણામને સદ્ભાવ હોવાથી તેમનામાં ભાવતા પણ છે. રજોહરણથી ભૂમિ વગેરેનું પ્રમાર્જન કરવું, વંદના વગેરે કૃતિ
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साताधर्मकथासूत्रे षविधावश्यककरणरूपायाः क्रियायाः अनागमत्वात् नोआगमत्वं बोध्यम् , अत्रापि
नो-शब्दम्य देशतः प्रतिषेधपरत्वात् । इदम् लोकोतरिक नो आगमतो भावावश्यक धर्मपदवाच्यम् नत्र विधेयतया भगवतोऽर्हत आज्ञायाः सद्भावात् । अन्येऽपि धर्मलक्षणमेवमाहुः
" वचनादविरुद्धाद्य-दनुष्ठानं यथोदितम् ।
मैव्यादिभावसंमिश्रं तद्धमें इति कीर्त्यते" ॥ १॥ भावता भी है रजोहरण से भूमि आदि का प्रमार्जन करना, वंदना आदि कृति कर्म करना आदि विधि पूर्वक जो षट् विध आवश्यक करने रूप क्रियाएँ हैं वे सब "किरिया आगमो न होइ" इस नियम के अनुमार आगम नहीं हैं। अतः इन में आगम के एक देश अभाव की अपेक्षा से नो आगमता है। यहां पर भी नो शब्द सम्पूर्ण रूप से आगमका प्रतिषेध परक न होकर उसके एक देश का ही प्रतिषेधक है। अतः ये सामायिक आदि षटूविध आवश्यक नोआगम की अपेक्षा से लोकोत्तरीक भाव आवश्यक है' और इनके ही आराधन करने की जिनेन्द्र देवने भव्य जीवों को आज्ञा दी है। कारण कि ये धर्मपद के वाच्य है इनकी आराधना से भव्यजीवों के कर्मों की निर्जरा होती है। दूसरों ने भी इस प्रकार धर्म का लक्षण कहा है
वाचनादविरुद्धाद्यतनुष्टानं यथोदितम् ।
मैयादिभावसंमिश्रं तद्धर्म इति कीर्त्य ते ॥ કર્મ આચ વાં વગેરે વિધિપૂર્વક જે ષવિધ આવશ્યક કરવારૂપ ક્રિયાઓ છે ते मे। सवे "किरिया आगमो न होइ" मा नियम भु४५ मागम नथी. मेटा માટે એમનામાં આગમના એકદેશ અભાવની અપેક્ષાથી ને આગમતા છે. અહીં પણ ન શબ્દ સંપૂર્ણ રૂપથી આગમને પ્રતિષેધ પરક નથી પણ તેના એકદેશને જ પ્રતિષેધક છે. એટલા માટે સામાયિક વગેરે આ ષવિધ આવશ્યક ને આગમની અપેક્ષા એ લેકોત્તરિક ભાવ આવશ્યક છે અને જિનેન્દ્ર દેવે એમની આરાધના કરવાની જ ભવ્ય જીવોને આજ્ઞા કરી છે. કેમકે આ બધા ધર્મપદના વાગ્યા છે. એમની આરાધનાથી ભવ્ય જીના કર્મોની नि । थ.य . બીજાઓએ પણ આ રીતે ધર્મનું લક્ષણ બતાવ્યું છે –
वाचनादविरुद्धाद्यदनुष्ठान यथोदितम् । मैत्र्यादि भावसंमिश्र तद्धर्म इति कोय॑ते ।।
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३६९
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीय
अस्यव्याख्या वचनादिति ल्यबलोपे पञ्चमी, वचनमनुसृत्येत्यर्थः । वचनम्= अमागः। कीदृशाद वचनादित्याह- अविरुद्धात्-कषच्छेदतापेषु अविघटमानात् , तत्र विधिप्रतिषेधयोर्वाहुल्येनोपवर्णन पशुद्धिः, पदे पदे तद्योगक्षेमकारिक्रियोपदशेनं छेदशुद्धि., विधिप्रतिषेधतद्विषयाणां जीवादिपदार्थानां च स्याद्वादपरीक्षया याथात्म्येन समर्थ तापशुद्धिः । तच्चाविरुद्धं वचनं जिनप्रणीतमेव, निमित्तशुद्धः . अविरुद्ध आगम से यथं दित एवं मैत्री आदि भावनाओं से मिश्रित जो अनुष्ठान है वह धर्म है । स्पष्टोर्थ-वचन शब्द का अर्थ आगम है। आगम में अविर गुना कष, ताप, और छेद द्वारा परीक्षित होने पर ही आती है। जिस प्रकार सुवर्ण की परीक्षा कष-कसोटी पर करने से ताप-अग्नि में तपाने से और छेद-छैनी वगैरह द्वारा काटने से होती है, उसी प्रकार आगम की शुद्धि की परीक्षा भी इन तीन उपायों द्वारा की जाती है। विधि और प्रतिषेध का बहुलता से जिस शास्त्र में वर्णन है, वह शास्त्रकष से शुद्ध कहा जाता है। पद पद पर जिस शास्त्र में इनके योग और क्षेमकरि क्रियाओं का कथन किया गया मिलता है वह शास्त्र छेदसे शुद्धमाना जाता है। विधि एवं प्रतिषेध तथा इन के विषयभूत जीवादिक पदार्थों का स्याहाद ढंग से जहां पर यथार्थ समर्थन किया जातो है सप्तभंगी द्वारा जहां पर इनका सुन्दर शैली से विवेचन करने में आता है वह शास्त्र तप उपायद्वारा शुद्ध माना जाता
અવિરુદ્ધ આગમથી યાદિત અને મિત્રી વગેરે ભાવનાઓથી મિશ્રિત જે અનુષ્ઠાન છે તે ધર્મ છે. સ્પષ્ટાર્થ–વચન શબ્દનો અર્થ આગમ છે. આગમમાં અવિરુદ્ધતા, કષ, તપ અને છેદ વડે પરીક્ષિત થયા પછી જ આવે છે. જેમ સોનાની પરીક્ષા કષ-કસોટી ઉપર કસવાથી તાપ અગ્નિ ઉપર તપાવવાથી અને છેદ-છીણી વગેરેથી કાપવાથી હોય છે, તેમજ આગમની શુદ્ધિની પરીક્ષા પણ આ ત્રણે ઉપાય વડે કરવામાં આવે છે. વિધિ અને પ્રતિષેધનું મોટા પ્રમાણમાં જે શાસ્ત્રમાં વર્ણન છે, તે શાસ્ત્ર કષથી શુદ્ધ કહેવાય છે. ડગલે ને પગલે જે શાસ્ત્રણ એમના યોગ અને ક્ષેમકરિ ક્રિયાઓનું કથન કરવામાં આવ્યું છે તે શાસ્ત્ર છેદથી શુદ્ધ માનવામાં આવે છે. વિધિ અને પ્રતિષેધ તેમજ એમના વિષયભૂત છવ વગેરે પદાર્થોને સ્વાદુવાદના રૂપથી જ્યાં યથાર્થ વર્ણન કરવામાં આવે છે, સપ્તભંગી વડે જ્યાં સુંદર શૈલીમાં એમનું વિવેચન કરવામાં આવે છે, તે શાસ્ત્ર તપ ઉપાયવડે શુદ્ધ માનવામાં આવે છે. આ ત્રણે
ज्ञा ४७
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शाताधर्मकथाजस्त्रे वचनस्य हि वक्ता निमित्तमन्तरङ्गम् , तस्य च रागद्वेषमोहपारतन्त्र्यमशुद्धिः, तेभ्यो वितथवचनप्रवृत्तेः, न चैषाऽशुद्धिजिने भगवति, जिनत्वविरोधात् , जयति रागद्वेषमोहरूपान्तरङ्गान् रिपूनिति शब्दार्थानुपपत्तेः तपनदहनादिशब्दवत् , अन्वर्थतया चास्याभ्युपगमात् , निमित्तशुद्धयभावाद् नाजिनप्रणीतवचनमविरुद्धम् । यतःहै। इन तीनों उपायों से परीक्षित आगम ही परिशुद्ध कहा गया है। अविरुद्ध वचन का नाम ही आगम है। __इन कषादिकों से जो आगम में शुद्धता आती है उसका कारण निमित्त की शुद्धि है। निमित्त शुद्ध जिन प्रणीत वचन ही हैं। अन्य प्रणीत वचन नहीं। निमित्त में भी शुद्धि का कारण राग, द्वेष और मोह का अभाव है। वचने का अन्तरंग कारण वक्ता ही हुआ करता है वक्ता की प्रमाणता से ही वचन-ओगम में प्रमाणता आती है इसीलिये राग द्वेष आदि से कलुषित व्यक्तियों के वचन प्रमाण कोटि में नहीं आते हैं। क्यों कि राग द्वेष आदिक सद्भाव में वचनों में परस्पर विरुद्ध अर्थ की प्ररूपकता स्वयं ही आ जाती है अतः यह निश्चित सिद्धान्त है कि जहां पर इनका सर्वथा अभाव है वही सच्चा आगम का प्रणेता हो सकता है। और उसी आगम में अविरुद्धता है। ऐसा अविरुद्ध आगम जिन प्रणीत ही हो सकता है क्यों कि उनमें पूर्वोक्त रागद्वेष आदि द्वारा अशुद्धि का सर्वथा अभाव हो चुका है इस के सर्वथा दूर होने से ही वे " जिन" इस प्रकार की संज्ञा वाले हुए हैं। “जयति ઉપાયથી પરીક્ષિત આગમ જ પરિશુદ્ધ કહેવામાં આવે છે. અવિરુદ્ધ વચનનું નામ જ આગમ છે. કષ વગેરેથી આગમમાં જે શુદ્ધતા આવે છે તેનું કારણ નિમિત્તની શુદ્ધિ છે. જિન પ્રણીત વચને જ નિમિત્તશુદ્ધ છે. બીજાઓ વડે પ્રણેત વચન નહિ. નિમિત્તમાં પણ શુદ્ધિનું કારણ રાગ, દ્વેષ અને મહિનો અભાવ છે. વચનનું અંતરંગ કોણ બોલનાર જ હોય છે. બેલનાર (વક્તા) ની પ્રમાણુતાથી જ વચન-આગમમાં પ્રમાણુતા આવે છે. એટલા માટે જ રાગ છેષ વગેરેથી કલુષિત માણસના વચને પ્રમાણ કટિમાં આવતાં નથી. કેમકે રાગદ્વેષ વગેરે સદ્ભાવ વચમાં પરસ્પર વિરુદ્ધ અર્થની પ્રરૂપકતા જાતે જ આવી જાય છે. એટલા માટે આ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે કે જ્યાં એમને સંપૂર્ણ અભાવ છે તે જ સાચા આગમને પ્રણેતા થઈ શકે છે અને તે આગમમાંજ અવિરુદ્ધતા છે. એવું અવિરુદ્ધ આગમ જિનપ્રણીત જ થઈ શકે છે કેમકે તેમનામાં પૂર્વોક્ત રાગદ્વેષ વગેરે વડે અશુદ્ધિને સંપૂર્ણપણે અભાવ થઈ ચૂક્યો છે અશુદ્ધિ સર્વે રીતે મટી જવાથી તેઓ “જિન” સંજ્ઞાવાળા થયા છે.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचच
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कारणस्वरूपानुविधायि कार्य, तन्न दुष्टकारणाऽऽरब्धं कार्यमदुष्टं भवितुमर्हति निम्बवीजादिक्षु यष्टिरिवेति । अन्यथा - कारणव्यवस्थोपरमप्रसङ्गात् ।
यच्च - यदृच्छाप्रणयनमवृत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागादिमत्स्वपि घुणाक्षरोत्किरण रागद्वेषमोहरूपान् अन्तरंगरिपून् इति जिन: " राग द्वेष आदिक जो अन्तरंग शत्रु हैं इन पर जिसने विजय पायी है वे ही जिन कहलाते है जिस प्रकार तपन (सूर्य) दहन (अग्नि) आदि शब्द यथानाम तथा गुण वाले हुआ करते हैं, इसी प्रकार " जिन " यह नाम भी यथा नाम तथा गुण वाला है यथा नाम तथा गुण का होना ही नाम की सार्थकता है । जिन्हों ने इन अन्तरंग शत्रुओं को परास्त नहीं किया उनके वचनों में परस्पर अविरुद्धार्थता नहीं आसकती है क्यों कि वहां पर निमित्त की शुद्धि नहिं हैं । इसीलिये अजिन प्रणीत वचन अविरूद्ध नहीं होते हैं । लोक में भी जिस प्रकार नीम के बीज से इक्षु की उत्पत्ति देखने में नहीं आती उसी प्रकार सदोष कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी निर्दोष नहीं होता है। कार्य में निर्दोषता कारण कि निर्दोषता पर आधार रखती है । न्याय शास्त्र का भी यही सिद्धान्त है " कोरण स्वरूपानुविधायि कार्य " कि कार्य, कारण के स्वरूप का अनुविधायक होता है । यदि इस प्रकार की व्यवस्था न मानी जावे तो फिर कार्यकारण भाव की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है । हर एक पदार्थ “जयति रागद्वेषमोहरूपान् अन्तररंगरिपून् इति जिनः " रागद्वेष वगेरे ने અંતરંગ શત્રુએ છે તેમના ઉપર જેમણે વિજય મેળવ્યે છે તેએ જ જિન अडेवाय छे, नेम तयन ( सूर्य ) छडन ( अग्नि ) वगेरे शब्दो नाभ लेवा ४ ગુણવાળા હોય છે, તે પ્રમાણે જ "बिन" या नाम पशु नाम प्रमाणे ગુણવાળુ' છે. જેવું નામ તેવા ગુ! હાવા એ જ નામની સાથેંકતા છે. જેમણે આ અંતર'ગ શત્રુઓને હરાવ્યા નથી તેમના વચનામાં પરસ્પર અવિરુદ્ધાથ તા આવી શકતી નથી કેમ કે ત્યાં નિમિત્તની શુદ્ધિ નથી, એટલા માટે અજિન પ્રણીત વચને અવિરુદ્ધ હાતા નથી. લેાકમાં પણ જેમ લીમડાના બીજથી શેરડીની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવતી નથી તેમજ સદોષ કારણથી ઉત્પન્ન થયેલું કાય પણ નિર્દોષ હાતું નથી. કા માં નિર્દોષતા કારણની નિર્દોષતા ઉપર આધારિત હૈાય છે. न्यायशास्त्रते। पशु खेन सिद्धांत छे, " कारणस्त्ररूपानुविधायिकार्यं " } अर्थ - ગુના સ્વરૂપના અનુવિધાતા હૈાય છે. જો આ જાતની વ્યવસ્થા માનવામાં આવે
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१७२
शांताधर्मकथासूत्रे
व्यवहारेण क्वचित् किंचिदविरुद्धमपि वचनमुपलभ्यते, मार्गानुसारिबुद्धौ वा प्राणिनि क्वचित् तदपि जिनप्रणीतमेव, तन्मूलकत्वात् तस्य ।
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हर एक का कार्य और कारण हो जायगा । अतः आगमरूप कार्य की शुद्धि के लिये निमित्त रूप कारण शुद्धि का होना अवश्य आवश्यकीय माना गया है ।
प्रश्न- आपने जो कहा कि आगम में अविरुद्धता उसके कारणभूत प्रणेता के अधीन है - सो यह बात हमें मान्य हैं । परन्तु इससे यह बात तो सिद्ध नहीं होती है कि वे अविरुद्ध वचन जिन भगवान के ही है' अन्य के नहीं - कारण कि अन्य सिद्धान्तकारों के वचनों में भी किसी अंशसे अविरुद्धार्थता देखी जाती है । अतः उन्हें सदोष मान कर आप जो उनमें अनाप्तता सिद्ध करते हैं सो यह बात कैसे मान्य हो सकती है ?
उत्तर - शंका तो ठीक है - परन्तु विचार करने से इसका उत्तर भी सहजरूप में मिल जाता है । अन्य सिद्धान्तकारों ने जो कुछ रचनाएँ की हैं - वे सब उन्हों ने अपनी इच्छानुसार ही की हैं। अपनी निज कल्पना में जो कुछ उन्हें सूझा वही उन्हों ने लिखा है। उनकी रचनाओं में पूर्वापर विरोध स्पष्ट प्रतीत होता है इससे उनमें रागादिक दोषों का अस्तित्व सिद्ध होता है । अब रही उनके वचनों में घुणाक्षर નહિ તા કાય કારણ ભાવની વ્યવસ્થા બની શકે તેમ નથી. દરેક પદાર્થ દરે. કનુ કાર્યાં અને કારણ થઈ જશે. એટલા માટે આગમરૂપ કાર્યની શુદ્ધિ માટે નિમિત્તરૂપ કારણ શુદ્ધિ થવી ચાક્કસપણે આવશ્યકીય માનવામાં આવી છે.
પ્રશ્નઃ—તમે કહ્યું કે આગમમાં અવિરુદ્ધતા તેના કારણભૂત પ્રણેતાના આધીન છે—એ વાત એમને માન્ય છે. પણ એનાથી આ વાત તા સિદ્ધ થતી નથી કે તે અવિરુદ્ધ વચનેા જિન ભગવાનના જ છે, ખીજાઓના નહિ. કેમકે બીજા સિદ્ધાંતકારીના વચનામાં પણ કાઇ પણ અંશે અવિરુદ્ધાતા જોવામાં આવે છે. એટલા માટે તેમને દોષયુક્ત માનીને તમે જો તેમનામાં અનાપ્તતા સિદ્ધ કરી છો આ વાત કેવી રીતે માન્ય થઇ શકે તેમ છે !
ઉત્તરઃ—શકા તા ઠીક છે, પણ વિચાર કરવાથી આના જવાબ પણ સરળ રીતે મળી શકે તેમ છે. બીજા સિદ્ધાન્તકારાએ જે રચના કરી છે તે બધી તેમણે પેાતાની ઈચ્છા મુજબ જ કરી છે. પેાતાની કલ્પનાથી જે કંઇ તેમને ચેાગ્ય લાગ્યું તે તેમણે લખ્યુ છે. તેમની રચનાઓમાં પૂર્વાપર વિરાધ સ્પષ્ટ રીતે દેખાઈ આવે છે. એનાથી તેમાં રાગ વગેરે ઢોષો છે એવી વાત સિદ્ધ થાય છે. હવે જીાક્ષર ન્યાયથી કાઇક કાઇક સ્થાને તેમના વચનામાં અવિરુદ્ધ
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D
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचचर्चा
कीदृशमनुष्ठानं धर्मः? इत्याह- यथोदितम् ' यथा येन प्रकारेण कालाधाराधनानुसाररूपेण-उदित-प्रतिपादितं, तत्रैवाविरुद्धवचने इति गम्यम् । अन्यच्च
जो जहवायं न कुणइ, मिच्छादिट्ठी तओ उ को अन्नो ।
वड्इ मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥ इति । छाया-यो यथावादं न करोति, मिथ्यादृष्टिस्ततस्तु कोऽन्यः । वर्धयति मिथ्यात्वं, परस्य शङ्काजनयन् ।। इति ।
पुनरपि कीदृशमित्याह-' मैत्र्यादिभावसंमिश्रम् ' इति । मैच्यादया मैत्री मुदिता करुणा माध्यस्थलक्षणा ये भावा: अन्तःकरणपरिणामाः, तत्पूर्वकाश्च न्याय से कही २ अविरुद्ध अर्थ प्रतिपादकता सो वह उनकी निज की घर की वस्तु नहीं है-उसका मूल स्रोत अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक जिन प्रणित आगम ही है । यही बात मार्गानुसारी बुद्धिवाले व्यक्ति में भी समझ लेनो चाहये । वह जो कुछ भी सत्यार्थ कहता है उसका मूल कारण जिनप्रणीत आगम का सहारा ही है। श्लोक कथित "यथोदित" पद इस बात का समर्थन करता है कि देश काल आदि की आराधना के अनुसार जो आचार-अनुष्ठान प्रतिपादित किया गया है। उससे जो अविरुद्ध कहा गया है-वही धर्म है इससे विपरीत नहीं। • मैन्यादिभाव संमिश्रम्” इस पद द्वारा सूत्रकार यह प्रतिपादित करते हैं कि वह अनष्ठान मैत्री, मुदिता, करुणा और माध्यस्थ इन चार लक्षणों से युक्त होता है । ये धर्म के बाह्य चिह्न हैं । इनके सद्भाव से आत्मा में અર્થ પ્રતિપાદક્તા પણ છે તે તેમની પોતાની વસ્તુ તે નથી જ કેમકે તેનાં મળિયાં તો અવિરુદ્ધ અર્થના પ્રરૂપક જિનપ્રણીત આગમમાં જ છે. એ જ વાત માર્ગાનુસારી બુદ્ધિવાળી વ્યક્તિમાં પણ સમજી લેવી જોઈએ. તે જે કંઈ પણ ગયાઈ કહે છે તેનું મૂળ કારણ જિન પ્રણેત આગમ જ છે. લોક કથિત
યદિત છે પદ આ વાત ને સ્પષ્ટ કરે છે કે દેશકાળ વગેરેની આરાધના અજબ જે આચાર-અનુષ્ઠાન-પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યાં છે, તેનાથી જે અविरद्ध वाम माव्यु छे ते य छे. सनाथी विपरीत नहि. “ मैञ्यादि भावसंमिश्रम्" ॥ ५४॥ सूत्रा२ मा पात स्पष्ट रे छते मानहानમિત્રી, મુદિતા, કરુણું અને માધ્યસ્થ આ ચાર લક્ષણોથી યુક્ત હોય છે. આ બધા ધર્મના બાહા ચિન્હો છે. એમના સદ્દભાવથી આત્મામાં ધર્મનું અસ્તિત્વ
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शीताधर्मकथासूत्रे
,
बाहयचेष्टाविशेषाः, तैः संमिश्र = संयुक्तं मैत्र्यादिभावानां निःश्रेयसाभ्युदयधर्ममूलत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात् । तदेवंविधमनुष्ठानं धर्म इति कीर्त्यते शब्द्यते सुधीभिरिति ।
,
नन्वेवं वचनानुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं तथा च प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानेष्वव्याप्तिरिति चेन्न - इह तु वचनादित्यत्र वेदात् प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वार्थिका धर्म का अस्तित्व जाना जाता है अन्य सिद्धान्तकारों ने भी इन्हें निः श्रेयस और स्वर्ग के कारणभूत धर्म का मूल कहा है । अतः जो आगम से अविरुद्ध है, काल आदि की आराधना के अनुसार जो आराधित होता है और जो मैत्री आदि चार : भावनाओं से गर्भित है ऐसा अनुष्ठान ही धर्म है । ऐसे ही धर्म की आराधना करने का गणधर आदि का आदेश है ।
च
भावार्थ - तीर्थंकर कथित आगम के अनुसार होने वाले अनुष्ठान का नाम धर्म है। इसका फलितार्थ यही है कि जिस अनुष्ठान में तीर्थंकर प्रभु द्वारा कथित आगम से विरोध नहीं आता है वही धर्म है । तथा - प्रीति भक्ति और असंग रूप अनुष्ठानों में इस लक्षण की अप्राप्ति नहीं होती है क्योंकि वहां पर भी इस लक्षण का सद्भाव पाया जाता है " वाचनानुष्टानं धर्मः " इस प्रकार के कथन में " वेदात् प्रवृत्तिः " की तरह प्रयोज्य अर्थ में पंचमी विभक्ति हुई है अतः जिस प्रवृत्ति का प्रयोज्य वचन है वह धर्म है । ( वचनानुष्ठानं धर्मः ) यहां से लेकर ( प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान इत्यादि तक ) लिखने की आवश्यकता
જાણવામાં આવે છે. ખીજા સિદ્ધાંતકારાએ પણ આ બધાંને નિઃશ્રેયસ અને સ્વર્ગના કારણભૂત ધમ'નું મૂળ બતાવ્યું છે. એથી જે આગમથી વિરુદ્ધ છે કાળ વગેરેની આરાધના મુજમ જે આરાધિત હાય છે અને જે મૈત્રી વગેરે ચાર ભાવનાઓથી યુક્ત છે એવું અનુષ્ઠાન જ ધમ છે. એવા જ ધર્મની આરાધના કરવા માટે ગણધર વગેરેના આદેશ છે.
ભાવાર્થ:—તીર્થંકર કથિત આગમમુજબ આચરાયેલા અનુષ્ઠાનનુ નામ ધર્મ છે. એના અથ આ પ્રમાણે ફલિત થયા છે કે જે અનુષ્ઠાનમાં તીર્થંકર પ્રભુ વડે કથિત આગમથી વિરાધ જણાતા નથી તે જ ધર્મ છે, તેમજ પ્રીતિ, ભક્તિ અને અસંગ રૂપ અનુષ્ઠાનામાં આ લક્ષણુની અપ્રાપ્તિ પણ હાતી નથી કેમકે ત્યાં પણ આ લક્ષણને સદ્ભાવ મળે છે. “ वाचनानुष्ठान' धर्मः " म लतना अथनभां " वेदात प्रवृत्तिः "नी प्रेम प्रयोन्य अर्थमा पयभी विलति था छे, पेटला भाटे ने अवृत्तिनु प्रयोन्य पयन छे ते धर्म छे. ( वचनानुष्ठान' धर्मः ) अडींथी भांडीने प्रीति भक्ति असंगानुष्ठान वगेरे सुधी समवानी
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अमगारधामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा पश्चमी, तथा च-वचनप्रयोज्यप्रवृत्तिकत्वं लक्षणमिति न कुत्राप्यव्याप्तिदोषावकाशः प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानानामपि वचनप्रयोज्यत्वाऽनपायादिति । ___किं च--हिंसादिपापपरिहारो धर्मसिद्धेलिङ्गमित्याईताः स्वीकुर्वन्ति । तथा चोक्तम्
औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः।
लिङ्गानि धर्मसिः , प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥ इति । पापजुगुप्सा-पापपरिहारः।
षट्कायवधसाध्यं प्रतिमापूजनं कुर्वतां धर्मसिद्धिः कथं स्यादिति विचारयन्तु मुधियः । अपरं च --- प्रतीत नहीं होता है क्यों कि वचनानुष्ठान धर्म का अर्थ वचन के अनुसार होने वाला अनुष्ठान धर्म है इसमें कोई जातका दोष नहीं आता है।"
किंच-हिंसादिक पांच पापों का परित्याग धर्म सिद्धि का चिह्न है इस प्रकार की मान्यता जैनियों की है। शास्त्रान्तर में यही बात प्रकट की गई है
औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः । लिङ्गोनि धर्मसिद्धेः प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥ (षोडश-ग्रंथ ४ प्रकरण)
उदारता-हृदय की विषालता, दाक्षिण्य-सर्व जीवों के अनुकूल प्रवृत्ति, पापजुगुप्सा-पाप का परित्याग, निर्मलबोध-तत्त्वज्ञान, और जन प्रियत्व ये ५ धर्मसिद्धि के लक्षण हैं। अब यहां पर विचारने की बात यह है कि जब पाप का परिहार करना यह धर्मसिद्धि का लक्षण આવશ્યકતા જણાતી નથી કેમકે વચનાનુષ્ઠાન ધર્મને અર્થ વચન મુજબ થનાર અનુષ્ઠાન ધર્મ છે. આમાં કોઈ પણ જાતને દેષ નથી.
કિચ–હિંસા વગેરે પાંચ પાપને પરિત્યાગ ધર્મસિદ્ધિનું ચિહ્ન છે. આ જાતની માન્યતા જૈનીઓની છે. શાસ્ત્રાતરમાં પણ એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે –
औदार्य दाक्षिण्यं पापजुगुप्साऽथ निम लो बोधः । लिङ्गानि धर्मसिद्धेः प्रायेण जिनप्रियत्व च ॥ ( षोडशग्रंथ ४ प्रकरण)
ઉદારતા–હદયની વિશાળતા, દાક્ષિણ્ય-બધા જીવોને અનુકૂળ થઈ પડે તેવી પ્રવૃત્તિ, પાપ જુગુપ્સા–પાપને ત્યાગ, નિર્મળ બોધ - તત્ત્વજ્ઞાન, અને જિનપ્રિયત્વ આ પાંચે ધર્મસિદ્ધિનાં લક્ષણ છે, હવે આપણી સામે આ વાત વિચાર કરવાગ્ય છે કે જ્યારે પાપને પરિહાર કરે એ ધર્મસિદ્ધિનું લક્ષણ
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নায়ক एकेन्द्रियादिषड्जीवनिकायजीवानां रक्षणं धर्मस्य मूलमिति वदतामह तां षट्कायविराधनासाध्यायाः प्रतिमापूजायाः अङ्गीकारे जैनत्वमेव नश्यति, जैन धर्मस्य मूलतस्तत्र समुच्छेदात् । तथा चोक्तम्-जीवदयसच्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च ।
खती पंचिंदयनि-ग्गहो य धम्मस्स मूलाई । दर्शनशुद्धि-२ तत्व) है तो प्रति मा का पूजन करने वाले के इसका परिहार कैसे हो सकता है । क्यों कि यह पहिले ही प्रकट किया जा चुका है कि यह प्रतिमापूजन कार्य षट् काय के आरंभ के विना साध्य हो ही नहीं सकता। अतः प्रतिमापूजन वाले को धर्मसिद्धि का लाभ मानना यह एक मनग ढंत कल्पना ही है-शशास्त्रीय कल्पना नहीं । शास्त्र में तो यही जिनेन्द्र देव की आज्ञा है कि एकेन्द्रिय आदि षट् निकाय के जीवों की रक्षा करना ही प्रत्येक जैन मात्र का कर्तव्य है, और यही धर्म का मूल है जब इस प्रकार की वीतराग प्रभु की आज्ञा है-तो फिर यह तो सोचो की निकाय की विराधना से साध्य इस प्रतिमापूजन की मान्यता में जैनत्व का रक्षण ही कसे हो सकता है। प्रत्युत जैनधर्म का इस प्रकार की मान्यता में समूलतः नाश ही हो जाता हैं।
जी पदयसच्चवयणं परधनपरिवजणं सुसोलंच ।
खती पंचिंदिय निग्गहोय धम्मस्स मूलाई ॥ (दर्शन शु२ तत्व) છે ત્યારે પ્રતિમાની પૂજા કરનારાઓ માટે આને પરિહાર કેવી રીતે થઈ શકે તેમ છે, કેમકે આ વાત પહેલાં જ પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે આ પ્રતિમા પૂજન કાર્ય ષકાયના આરંભ વગર સાધ્ય થઈ શકે તેમ નથી. એથી પ્રતિમા પૂજનવાળા માટે ધર્મસિદ્ધિને લાભ સમજી લેવું આ એક બેટી કલ્પના માત્ર છે. શાસ્ત્રીય કલ્પના નથી. શાસ્ત્રમાં તે જિનેન્દ્રદેવની એ જ આજ્ઞા છે કે એકેન્દ્રિય વગેરે ષટ્કાયના જીવોની રક્ષા કરવી જ દરેકે દરેક જૈનનું કર્તવ્ય છે અને એ જ ધર્મનું મૂળ છે. જ્યારે આ જાતની વીતરાગ પ્રભુની આજ્ઞા છે ત્યારે આ વાત ઉપર તે વિચાર કરીએ કે ષકાય નિકાયની વિરાધનાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનની માન્યતામાં જૈનત્વનું રક્ષણ જ કેવી રીતે થઈ શકે છે. આ જાતની માન્યતાથી તે જૈન ધર્મને મૂળરૂપે વિનાશ જ થઈ જાય છે.
जीवदयसच्चवयणं परधनपरिवज्जणं सुसील च । खंती पंचिंदियनिग्गहोय धम्मस्स मूलोई ॥ ( दर्शन शु० २ तत्त्व )
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मनगारधर्मामृतवषिणा टीका अ० १६ द्रौपदीची
जीवाश्चेतनादिलिङ्गव्यङ्गया एकेन्द्रियादयः तेषां दया रक्षणं जीवदयेति । इस्वत्वं प्राकृतप्रभवम् । धर्ममूलं भवतीति सर्वत्र क्रियाऽध्याहारः कार्यः ।
प्रतिमापूजनं विशुद्धपरिणामजनकत्वादुपादेयमितिकथनं निर्मूलम्--
धर्माङ्गेषु दयायाः प्राधान्यात् प्राथभ्यं वर्तते । हिंसासाध्यायां प्रतिमापूजायां दयाया अभावाद् धर्माङ्गत्वं न सिध्यति । तथा च विशुद्धात्मपरिणामरूपं धर्म पति कारणत्वं प्रतिमापूजनस्य न संभवति । अन्यच्च ---
इस लोक में यही बात कही गई है। जीवों की दया करना सत्य बोलना, पर धन के हरण करने का त्याग करना, कुशील का त्यागना, क्षमाभाव रखना, पांचों इद्रियों को वश में रखना ये सब धर्म के मूल हैं । जिस प्रकार विना मूल-जड़ के वृक्ष की स्थिति आदि नहीं हो सकती है-उसी प्रकार उनके विना भी धर्मरूपी महावृक्ष की जीवात्मा
ओं में स्थिरता नहीं हो सकती है जो व्यक्ति “प्रतिमा के पूजने से विशुद्ध परिणामों की आत्मा में जागृति होती है " इस बात का समर्थन करते हुए उपयोगिता सिद्ध करते हैं उनका यह कथन बिलकुल ही निर्मूल है क्यों कि धर्म में सर्वप्रथम स्थान दया को ही दिया गया है जीवों की हिंसा से साध्य इस प्रतिमापूजन में उस दया का संरक्षण ही नहीं होता है-इसलिये इसे धर्म का अंग कैसे माना जा सकता है जो धर्म का ही अंग नहीं बनता है उससे कैसे परिणामों में विशुद्धता की जागृति हो सकती है अतः यह प्रतिमापूजन धर्म प्राप्ति में कारण नहीं है ऐसा मानना चाहिये।
આ લેકમાં એ જ વાત બતાવવામાં આવી છે કે જીવ ઉપર દયા કરવી, સત્ય બોલવું, પારકાના ધનને લઈ લેવાની વૃત્તિને દૂર કરવી, કુશીલને ત્યાગ કરે, ક્ષમાભાવ રાખ, પાંચ ઇન્દ્રિયને વશમાં રાખવી આ બધાં ધર્મનાં મૂળ છે. જેમ મૂળ-જડ વગરનાં વૃક્ષની સ્થિતિ વગેરે જ થઈ શકે તેમ નથી તેમજ એમના વગર પણ ધર્મરૂપી મહાવૃક્ષની જીવાત્માઓમાં સ્થિરતા થઈ શકે તેમ નથી. જે વ્યક્તિ “પ્રતિમાના પૂજનથી વિશુદ્ધ પરિણામેની આત્મામાં જાગૃતિ થાય છે.” આ વાતને યોગ્ય માનીને આની ઉપગિતા સિદ્ધ કરે છે, તેમનું આ કથન સાવ નિમૂળ-વ્યર્થ છે. કેમકે ધર્મમાં સો પ્રથમ સ્થાન દયાને જ આપવામાં આવે છે. જેની હિંસાથી સાધ્ય આ પ્રતિમા પૂજનમાં તે દયાની રક્ષા જ થતી નથી. એટલા માટે આને ધર્મનું અંગ કેવી રીતે માની શકીયે. અને જે ધર્મનું જ અંગ થઈ શકતું નથી તેનાથી કેવી રીતે પરિણામમાં વિશુદ્ધતાની જાગૃતિ થઈ શકે. એટલા માટે આ પ્રતિમાપૂજન ધર્મપ્રાપ્તિમાં કારણ નથી આમ માની લેવું જોઈએ,
क्षा ४८
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जाताधर्मकथाजस्त्रे धर्मालम्बनानि स्थानाङ्गसूत्रे भगवता प्रज्ञप्तानि-- "धम्म णं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता । तं जहा-छक्काया, गणो, राया, गिहवई, सरीरं" ॥ इति ।
भगवता धर्मालम्बनानि पञ्चैव कथितानि । तत्र " छक्काया" इत्युक्त्या गणराजादीनामपि संग्रहे सत्यपि पुनस्तेषां विशिष्योपन्यासः प्राधान्यख्योपनार्थः
अन्यच्च-"धम्मं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता-तंजहा-छकाया, गणो, राया, गिहवई, सरीरं" इति-भगवान ने धर्म के छहकाय, गण, राजा, गाथापति और शरीर इस प्रकार ये छह आलम्बन स्थान स्थानाङ्गसूत्र में कहे हैं। इनमें जिन प्रतिमा का कथन नहीं किया है-इससे यह भलीभांति विदित हो जाता है कि जिन प्रतिमा और उसका पूजन धर्म का अवलम्बन रूप नहीं है यदि जिन प्रतिमा का पूजन कार्य धर्म का अवलम्बनरूप सिद्धान्तकारों की दृष्टि में मान्य होता तो वे अवश्य इन स्थानों के कथन करते-जिस प्रकार छहकाय, गण, राजा इत्यादि का कथन किया है । यद्यपि “छहकाय" इस एक पद से हीगण, राजा आदि का स्वतः कथन सिद्ध हो जाता है, क्यों की इन सबका समावेश उसी एक पद में हो जाता है। फिर भी इनका भिन्न २ रूप से जो नाम निर्देष किया है उसका कारण ये धर्म के प्रधान आलम्बन रूप हैं इस बात को प्रकट करने के लिये ही किया गया है। इसी प्रकार
सने मी ५५ धुंछ है “धम्मं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता-त जहा काया, गणो, राया, गिहवई, सरीर " इति, भगवान मन छ ।य, ગણ, રાજા, ગાથાપતિ અને શરીર આ રીતે છ આલંબનસ્થાને સ્થાનાંગ સૂત્રમાં કહ્યાં છે. આ બધામાં જિન પ્રતિમાનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી. એનાથી આ સ્પષ્ટ રીતે જણાય છે કે જિનપ્રતિમા અને તેનું પૂજન ધર્મનું અવલંબન નથી. જે સિદ્ધાન્તકાની દષ્ટિમાં જિન પ્રતિમાના પૂજનનું કાર્ય ધર્મના અવલંબન રૂપમાં માન્ય હોત તે તેઓ ચેકસ આ સ્થાનના કથનની સાથે સાથે તેમનું પણ કથન જેમ છે કાય, ગણુ રાજા વગેરેનું કથન કર્યું છે તેમ કહ્યું હતા. જો કે “ષકાય ” આ એક પદથી જ ગણ, રાજા વગેરેનું સ્વતઃ કથન સિદ્ધ થઈ જાય છે, કેમકે આ બધાને સમાવેશ તે એક પદમાં જ થઈ જાય છે, છતાંય આ બધાને સ્વતંત્ર રૂપમાં જે નામ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ આ છે કે તે સર્વે ધર્મના પ્રધાન આલંબનરૂપ છે, આ વાતને પ્રગટ કરવા માટે જ કરવામાં આવ્યો છે. આ પ્રમાણે જે જિનપ્રતિમા પણ
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धर्मावर्षी टीका अ० १६ द्रौपदीच
दर्शन वन्दनपूजनादिना
जिनमतिमायाः सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वाऽष्टकर्मक्षयहेतुत्व स्वीकारे तु अस्य अपि निश्रास्थानत्वेन निश्रास्थानेषु विशिष्य तदुपन्यासमकृत्वा " पंच निस्साठाणा पण्णत्ता " इति कथनं विरुध्यते । तस्मात् जिनप्रतिमाया निश्रास्थानेष्वनभिधानात् प्रतिमायां धर्मालम्बनत्वं न सिध्यति । एवं च तत्पूजनं कुशलात्मपरिणामविशेषस्य धर्मस्य कारणं नास्तीति विश्वसनीयम् ।
प्रतिमापूजायामारम्भः परिग्रहवावश्यं भावी । ताभ्यां बिना पूजाया असंभवात् तथाऽपि प्रतिमापूजोपदेशकाः एवं वदन्ति-
હર
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यदि जिन प्रतिमा भी दर्शनवन्दना और पूजादिक द्वारा सम्यक्त्वशुद्धि एवं अष्टकर्मों के क्षय का कारण होती तो उसका भी धर्म का आलम्बनरूप होने से यहां पर विशेषरूप से शास्त्रकार को कथन करना चाहिये था ! परन्तु ऐसा तो सूत्रकार ने किया नहीं है । फिर भी यदि उसे धर्म का अवलम्बनरूप स्वीकार किया जाय तो इस सूत्र में प्रतिपादित ' पांच ही निश्रास्थान हैं " इस कथन से विरोध आता है कारण कि उन स्थानों से अतिरिक्त एक और जिनप्रतिमापूजन धर्म का आलम्बन रूप स्थान बढ जाता है अतः ' पंच निस्साठाणा पण्णत्ता ' इस सूत्र प्रदर्शित उपन्यास से यह बात पुष्ट होती है कि जिन प्रतिमा धर्म को आलम्बन स्थान नहीं है । यह तो उस के पक्षपातियों के ही दिमाग की एक उटपटांग सूझ है यह जानते हुए भी कि जिनप्रतिमापूजन में आरंभ और परिग्रह अवश्यंभावी है, इनके विना वह कथमपि साध्य हो नहीं सकती है, तो भी जिनपूजा के उपदेशक खेद है कि जनता को દન વન્દના અને પૂજા વગેરે વડે સમ્યકત્વ શુદ્ધિ અને અષ્ટ કર્મીના ક્ષયનું કારણ હોત તેા ધર્મના આલેખનરૂપ હાવા બદલ અહીં વિશેષરૂપમાં શાસ્ત્રકારા વડે તેનુ કથન કરવું જોઈએ. પણ સૂત્રકારે આવું કંઇ કર્યું” નથી. છતાંય જો તેને ધર્મના અવલ અનરૂપે સ્વીકારીયે તે આ સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત “ પાંચ જ નિશ્રાસ્થાને છે ... આ કથનથી વિરાધ ઊભા થાય છે. કેમકે તે સ્થાનાથી અતિરિક્ત એક ખીજા જિનપ્રતિમા પૂજન ધર્મના આલબનરૂપ स्थाननी वृद्धि य लय छे. मेथी "पंच निस्साठाणा पण्णत्ता "" આ સૂત્ર પ્રદર્શિત ઉપન્યાસથી આ વાત પુષ્ટ થાય છે કે જિનપ્રતિમા ધર્મનું આલેખન સ્થાન નથી. આ તે ફક્ત તેના તરફદારીઓના મસ્તિષ્કની જ વ્યની કલ્પના છે. જિનપ્રતિમા પૂજનમાં આરંભ અને પરિગ્રહ અવસ્ય ભાવી છે. એના વગર તે કોઈ પણ સંજોગે સાધ્ય થઈ શકે તેમ નથી આવું જાણવા છતાં મહુ दुः साथै डेवुं पडे हे डेभिन पूलना उपदेश । समाने " पूयाए काय.
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লাঘর্মকাথায় अपि च-" पूयाए कायवहो, पडिकुट्ठो सो उ किं तु जिणपूया।
सम्मत्तमुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिरवज्जा" ॥१॥ छाया-पूजायां कायवधः प्रतिकुष्ठः सतु किन्तु जिनपूजा । सम्यक्त्वशुद्धिहेतु-रिति भावनीया तु निरवद्या ॥१॥ सर्वमेतदुत्सूत्रमरूपणम्--श्रूयतां प्रवचनं तावत्--
दो हाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए । तं जहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव । दोहाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलं बोहिं बुज्झिज्जा । तं जहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव ॥ (स्था. २ ठा. १उ.)इति " पूयाए कायवहो पडिकुट्टो सो उ किं तु जिणपूया। सम्मत्तसुद्धिहेडं, त्ति भावणीया उणिरवजा ॥ १ ॥ इस प्रकार की उत्सूत्र प्ररूपणा द्वारा भ्रम में ही डालते रहते हैं। हमें तो बुद्धि पर तरस आता है कि वे क्यों नहीं इस सिद्धान्त को समझने की चेष्टा करते हैं कि-"दोहाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए । तं जहाआरंभे चेव परिगाहे चेव । दोहाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलबोधिं घुज्झिज्जा तं जहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव (स्था. २ ठा. १ उ.) ये दो धनधान्य आदि रूप परिग्रह और प्राणातिपात आदि रूप आरंभ स्थान अनर्थ के कारण है। जब तक आत्मा ज्ञ परिज्ञा से इन्हें जान कर
और प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका परित्याग नहीं कर देती है तब वह ब्रह्मदत्त की तरह केवलि द्वारा कथित धर्म के सुननेका अधिकारी नहीं हो सकती है और न इन दोनों के त्याग किये विना वक्र सम्यक्त्व को वहो पडिकुट्टो सोउ किं तु जिणपूया । सम्मत्तसुद्धिहेउ, त्ति भावणीया उ णिरवज्जा ॥ १ ॥ 24 onनी उत्सूत्र ५३५४। १3 भ्रममा नाभी से छे. અમને તે તેમની બુદ્ધિ ઉપર દયા આવે છે કે તેઓ આ સિદ્ધાંતને સમ
पानी उशिश भ न ४२त। डाय ? म “ दो ट्राणाई अपरियाणिचा आयाणो केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए । तं जहा-आरभे चेव परिग्गहे चेव । दो द्वाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिबोधि बुज्झिज्जा त जहाआरभे चेव परिग्गहे चेव ( स्था० २ ठा० १ उ० ) । मे धन धान्य कोरे રૂપ પરિગ્રહ અને પ્રાણાતિપાત વગેરે રૂપ આરંભ સ્થાન અનર્થના કારણ છે.
જ્યાં સુધી આત્મા જ્ઞ પરિજ્ઞા વડે એમને જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાવડે એમને પરિત્યાગ કરતી નથી ત્યાં સુધી તે બ્રહ્મદત્તની જેમ કેવલિવડે કથિત ધમને સાંભળવા માટે અધિકારી (યોગ્ય પાત્ર) ગણાઈ શકે તેમ નથી. અને તે બંનેને જ્યાં સુધી ત્યાગ કરે નહિ ત્યાં સુધી તે સમ્યકત્વ મેળવવા ગ્ય
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अंमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
८९ 'दो द्वाणाई' द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी ' अपरियाणित्ता' अपरिज्ञाय=ज्ञपरिज्ञया 'एतावारम्भपरिग्रहावनाय ' इत्यविज्ञाय अलं ममाभ्यामिति परिहाराभिमुख्य. द्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तपत् तयोः प्रवृत्तः, 'आया' आत्मा जीवः, नो केवलि प्रज्ञप्त-जिनोक्तं धर्म लभेत श्रवणतया- श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः । जैनधर्मश्रवणानह) भवतीति भावः । तद् यथा आरम्भः-प्राणातिपातादिरूपः, पापस्थानम् परिग्रहः-धनधान्यादिसंग्रहः । - द्वे स्थाने अपरिज्ञाय - ज्ञपरिज्ञयाऽनर्थकारणमज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च तत्र प्रतः 'आया' आत्मा-जीवः केवलं बोधि अर्थात् सम्यक्त्वं न बुध्येत=न प्राप्नुयादित्यर्थः । पाने के भी योग्य बन सकती है " यह सूत्र हमें यह शिक्षा देता है कि भलो जिस परिग्रह और आरंभयुक्त आत्मामें केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनने तक की भी योग्यता नहीं है और न जिसमें सम्यक्त्व का अनुभव है, है उस आत्मा में " वह प्रतिमा सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण होता " इस प्रकार की मान्यता आकाश के फूल के समान एक कल्पना मात्र ही है । अतः यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि इस प्रतिमापूजन में न तो धर्म के कोई मौलिकतत्व का समावेश है और न धर्म का कोई अंग ही है । यह न तो धर्म का आलम्बनरूप है और न धर्म के लक्षण से ही युक्त है । फिर भी इसे धर्म पद का वाच्य मानना केवल स्पष्ट रूप से उत्सूत्र प्ररूपणामात्र है इस प्रकार शास्त्रीयमर्यादा के विरुद्ध इस प्रतिमा पूजन का उपदेश देने वाले तथा प्रतिमापूजन कराने वाले उप
બની શકે તેમ નથી. “આ સૂત્ર અમને આ જાતની ભલામણ કરે છે કે જે પરિગ્રહ અને આરંભયુક્ત આત્મામાં કેવલિ પ્રજ્ઞત્વ ધર્મ સાંભળવા સુધીની પણ ગ્યતા નથી અને જેમાં સમ્યક્ત્વની અનુભૂતિ પણ નથી તે આત્મામાં
તે પ્રતિમા સમ્યક્ત્વની શુદ્ધિનું કારણ હોય છે. આ જાતની માન્યતા આકાશના પુરુષની જેમ એક બેટી કલ્પના માત્ર જ નથી તે બીજું શું છે ? એટલા માટે એ સિદ્ધાન્ત નિશ્ચિત થાય છે કે આ પ્રતિમાપૂજનમાં ધર્મના ન કેઈ મૌલિક તત્ત્વોનો સમાવેશ છે અને તે તે ધર્મનું કઈ પણ એક અંગ છે. આ ધર્મનું આલંબનરૂપ નથી અને ધર્મના લક્ષણથી યુક્ત પણ નથી. છતાં ય તેને ધમપદવાણ્ય માનવું તે સ્પષ્ટ રીતે ઉસૂત્ર પ્રરૂપણ માત્ર છે. આ રીતે શાસ્ત્રની મર્યાદાથી વિપરીત આ પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ આપનારાઓ તેમજ પ્રતિમા
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३८२
जाताधर्मकथासूत्र ___ यत्र केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्य श्रवणायापि योग्यता न भवति, सम्यक्त्वस्य च नानु. भवः, तत्र सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वं गगनकुसुमवन्मनोविकल्पमात्रम् । यस्य प्रतिमापूजनस्य नास्ति धर्ममूलत्वं न चास्ति धर्माङ्गत्वं, नापि धर्मालम्बनत्वं, न चापि धर्मलक्षणसमन्वितं, तस्य धर्मपदवाच्यत्वकल्पने - सुस्पष्टमेवोत्सूत्रमरूपणम् । भगवताऽर्हता-प्रवचने अनुपदिष्टस्य प्रतिमापूजनस्योपदेशकरणेन भ्रान्ति जनयतां प्रतिमापूजन कारयतांच का गतिः स्यादिवि समालोचनीयं सुधीभिः। अपरं च__ दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए तं जहा खएण चेव उवसमेण चेव एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा तं जहा-खएण चेव उवसमेण चेव । ( स्था० २ ठा० ४ उ० ) ___ "खएण चेव ” इति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदयप्राप्तस्य क्षयेण, अनुदितस्य चोपशमेन=क्षयोपशमेनेत्यर्थः । अत्र पदद्वयेन क्षयोपशमरूपोऽर्थों गृह्यते । यावत् करणात्-"केवलं बोहिं बुज्झेज्जा।"
केवलिपज्ञप्तधर्मस्य श्रवणं तथा सम्यक्त्वं च ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः क्षयोपशमादेव लभ्यते इति भगवता प्रतिबोधितम् । इदमत्रबोध्यम् नहि रुधिरलिप्तवस्त्रस्य रुधिरेण प्रक्षालने शुद्धिर्भवति प्रत्युत मलिनतरत्वमेव, देशक तथा प्रेरक की वास्तविक वस्तुस्थिति से जनता को अंधकार में रखने के कारण क्या गति होगी यह स्वयं बुद्धिमानों को विचार ने जैसी बात है। ___ अपरं च-दोहिं ठाणेहिं आयाके वलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए-तं जहा इत्यादि सूत्र
इसका भावार्थ यह है-जीव केवलियों द्वारा प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण तथा सम्यक्त्व का लाभ ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय
और क्षयोपशम से ही करता है प्रतिमापूजन से नहीं। जिस प्रकार रुधिर से मैले वस्त्र की सफाई रुधिर में ही धोने से नहीं होती, उसी પૂજન કરાવનારા ઉપદેશકે પ્રેરકરૂપ થઈને યથાર્થ વસ્તુસ્થિતિથી સમાજને અંધારામાં રાખે છે તે બદલ તેમની શી દશા થશે તે વિદ્વાને સમજી શકે છે.
मन मा ५५ है-दोहि ठाणेहिं ओया केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए-तं जहा-त्यादि सूत्र
આને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે કેલિઓ વડે પ્રજ્ઞમ ધર્મનું શ્રવણ તેમજ સમ્યક્ત્વને લાભ જીવ જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શન મેહનીય કર્યના ક્ષય અને ક્ષોપશમથી કરે છે. પ્રતિમાપૂજનથી નહિ. જેમ લેહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રની સાફસૂફી લેહી વડે ધોવાથી થતી નથી તેમ જ સમ્યક્ત્વની શુદ્ધિ અથવા તે કમેને વિનાશ પ્રતિમાપૂજનથી થતું નથી બલકે જેમ તે લેહીથી
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भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा तथा-सम्यक्त्वशुद्धयर्थ कर्मक्षयार्थ च प्रतिमापूजने प्रवृत्तस्य जीवस्य षट्कायो. पमर्दनसाध्यपूजया ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो वृदौ सत्यां सम्यक्त्वस्य केवलि प्रज्ञप्तधर्मस्याऽपि प्राप्तिःकालत्रयेऽपि न संभवति किं पुनः कर्मक्षयाशा
सम्यक्त्वमात्मनः क्षायोपशमिको भावः । प्रतिमा तु न क्षयोपशमस्वरूपा, न चापि क्षयोपशमहेतुः, ज्ञानावरणीयदर्शनमोहनीयकर्मनिर्जराजनकत्वाभावात् , देशतः कर्मक्षयो हि निर्जरा तां प्रति तपस एव कारणत्वात् । उक्तं चोत्तराध्ययनसूत्रेप्रकार सम्यक्त्व की शुद्धि अथवा कर्मों का विनाश प्रतिमापूजनसे नहीं होता है, प्रत्युत जिस प्रकार वह रुधिरयुक्त वस्त्ररुधिर से साफ किये जाने पर अधिक मलिन हो जाता है उसी प्रकार षटकाय की विराधना साध्य इस प्रतिमापूजन में लवलीन जीव भी ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म की वृद्धि करता हुआ अधिकाधिक मलिन होता रहता है वह कभी भी इनकी वृद्धि में सम्यक्त्व और केवलि प्रज्ञप्त धर्म का पाने वाला नहीं बन सकता है । इसलिये कमों के क्षय करने की आशा से प्रतिमापूजन में लवलीन मनुष्य अपने कर्मों का इस कार्यसे क्षय करता है यह एक दुराशामात्र है अरे ! जब इस कार्य से जीव सम्यक्त्व और केवलिप्रज्ञप्त धर्म तक के भी लाभ से सदा वंचित रहता है तो उससे फिर कर्म क्षय मानना यह कोरी कल्पना मात्र ही है। सम्यक्त्व यह जीव का क्षायोपशमिक भाव है । प्रतिमा न क्षयोपशम स्वरूप है और न उस क्षयोपशम में कारण रूप ही है । कारण कि इस से ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म की निर्जरा नहीं होती है । कर्मों का ખરડાયેલું વસ્ત્ર લેહીવડે સાફ કરવાથી મલિન થઈ જાય છે તેમજ કાયની વિરાધના સાધ્ય આ પ્રતિમાપૂજનમાં તલ્લીન થયેલે જીવ પણ જ્ઞાનાવરણીય દર્શન મોહનીય કર્મની વૃદ્ધિ કરતે કરતે વધારે વધારે મલિન થતું જાય છે. તે કઈ પણ સમયે એમની વૃદ્ધિમાં સમ્યક્ત્વ અને કેવલિપ્રજ્ઞસ ધર્મને મેળવી શકનાર થઈ શકતું નથી. એટલા માટે કર્મોને ક્ષય કરવાની આશાથી પ્રતિમા પૂજનમાં તકલીન માણસ પોતાના કર્મોને આ કાર્ય (પ્રતિમાપૂજન) થી ક્ષય કરવા માંગે છે તે ફકત દુરાશા માત્ર છે. જ્યારે આ કાર્યથી જીવ સમ્યક્ત્વ અને કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મના લાભથી પણ સદા દૂર રહે છે ત્યારે તેનાથી કમ ક્ષયની આશા રાખવી તે બેટી કલ્પના માત્ર જ છે. સમ્યક્ત્વ જીવને ક્ષપથમિક ભાવ છે. હવે ન તે પ્રતિમા ક્ષપશમ સ્વરૂપ છે અને ન તે ક્ષપશમમાં કારણ રૂપે છે. કેમકે એનાથી જ્ઞાનાવરણીય અને દર્શનમોહનીય
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३८४
বাঘমকথা "भक्कोडीसंचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ।” (अ ३०, गा ६) तत्त्वार्थसूत्रेऽपि
" तपसा निर्जरा च" (अ० ९ मु० ४ ।
अत्र चकारः संवरसमुच्चयार्थः । समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयचारित्रैः संवरो भवति, तपसा तु निर्जरा संवरोऽपि चेति भावः सम्यक्त्वं नाम सम्यग्दर्शनं, तच्च स्थानागमूत्रम्- (स्था० २उ० १) द्विविधं प्रोक्तं । निसर्गसम्यग्दर्शनम् अभिगमसम्यग्दर्शनं चेति । निसर्गतः स्वभावतः-न परोपदेशतो यदुत्पद्यते, तनिसर्गसम्यग्दर्शनम् । अभिगमात् - सद्गुरूपदेशतो यदुत्पद्यते, तदभिगम. सम्यगदर्शनम् । एक देश क्षय होना निर्जरा है । इस निर्जरा के प्रति कारणता तो तप में बतलाई गई है । देखो उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात कही है___भवकोडी संचियं कम्मं तपसा निज्जरिज्जइ" करोडों भवों में संचित कर्मों की जीव तप से निर्जरा कर देता है । तत्त्वार्थ सूत्र में भी " तपसा निर्जरा च" इस सूत्र द्वारा यही बात कही गई है-तप से निर्जरा और संवर दोनों होते हैं। सूत्रस्थ "" शब्द से संवर का ग्रहण हुआ है। ___ भावार्थ-इसका यही है कि पांच समिति, ३ गुप्ति, १० यतिधर्म १२, अनुपेक्षा, २२ परोषहों का जीतना एवं ५ प्रकार का चारित्र पालनाइनसे संवर होता है और नप से संवर एवं निर्जरा दोनों ही होते हैं। स्थानाङ्गमूत्र में सम्मग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-१ निसर्ग કર્મની નિર્જરા થઈ શકે તેમ નથી. કર્મોના એકદેશનો ક્ષય થવે તે નિર્જર પ્રત્યે કારણતા તે તપમાં બતાવવામાં આવી છે, જુઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ જ વાત સ્પષ્ટ કરી છે –
“भवकोडी संचियं कम्मं तपसा निजरिज्जइ” ४031 मामा सथित भानी नि। तपथी ४ नांगेले. तत्वाथ सूत्रमा ५५ " तपसा निर्जग च" या सूत्र से बात अपामा मापी छ ? तपथी नि। तभा संप२ मने थाय छे. “ सूत्रमा मा “च " शपथी सव२र्नु अर्ड કરવામાં આવ્યું છે.
ભાવાર્થ-આને આ પ્રમાણે છે કે પાંચ સમિતિ, ૩ ગુપ્તિ, ૧૦ યતિધર્મ, ૧૨ અનુપ્રેક્ષા, ૨૨ પરીષહોને જીતવા અને ૫ પ્રકારના ચારિત્રનું પાલન કરવું આ બધા થી સંવર થાય છે. અને તપથી સંવર અને નિરા બંને થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં સમ્યગ્દર્શન બે પ્રકારનું બતાવવામાં આવું
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवर्धा
केचित्तु--अत्राभिगमशब्दार्थों निमित्तमपि, तच्च प्रतिमादि इति वदन्ति, तन्मोहनीयकर्मोदयविलसितम् -- अभिगमसम्यग्दर्शने हि प्रतिमानिमित्तकत्वं न संभवति श्रवणादिना क्षयोपशमहेतोरेव सद्गुरूपदेशस्यात्राभिगमन
और दूसरा अभिगम । जो सम्यग्दर्शन जीवों को स्वभाव से ही होता है। सद्गुरु के उपदेश से जो जीव को प्राप्त होता है वह अभिगम सम्यग्दर्शन है । निसर्ग और अभिगम में अन्तरंग कारणदर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि समान हैं परन्तु इसके होने पर भी जो जीव को सद्गुरु के उपदेश से प्राप्त होता है वह अभिगम और जो इसके विना प्राप्त होता है वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है कोई २ व्यक्ति अभिगम शब्द का अर्थ निमित्त परक भी करते हैं और वह निमित्त "प्रतिमा आदि हैं" ऐसा मानते हैं। परन्तु यह उनका कथन केवल मोह कर्म का ही विलास है क्यों कि अभिगम सम्यग्दर्शन में प्रतिमा रूप निमित्त कला संभवित नहीं होती है-वहां तो श्रवण आदि से दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम के कारणरूप सद्गुण के उपदेश का ही अभिगम शब्द से ग्रहण हुआ है। यदि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में वह कारण होता तो उस का ग्रहण निमित्तरूप से होता परन्तु ऐसा तो होता नहीं है-कारण कि वह अचेतन है उस से प्रवचन के अर्थ का उपदेश होता नहीं है। प्रवचन के अर्थ के उपदेश सुनेविना श्रोताओं को प्रवचन का अर्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ? अर्थज्ञान हुए विना છે. ૧ નિસર્ગ અને ૨ અભિગમ. સદગુરુના ઉપદેશથી નહિ પણ બને સ્વભાવથી જ જે સમ્યગ્દર્શન થાય છે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દર્શન છે. સદ્દગુરુના ઉપદેશથી જે જીવને સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત થાય છે તે અભિગમ સમ્યગ્દર્શન છે. નિસર્ગ અને અભિગમમાં અંતરંગ કારણ દર્શનમેહનીય કમને ક્ષોપશમ વગેરે સમાન જ છે પણ એના હોવા છતાંય જીવને જે સદ્ગુરુના ઉપદેશથી મળે છે તે અભિગમ અને જે એના વગર મળે તે નિસર્ગ સમ્યગ્દર્શન છે. કેટલીક વ્યક્તિઓ અભિગમ શબ્દનો અર્થ નિમિત્ત પરક પણ કરે છે અને તે નિમિત્ત “પ્રતિમા વગેરે છે” એવું માને છે. પણ આવું કથન તેમના ફક્ત મેહ કર્મને જ વિલાસ છે કેમકે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં પ્રતિમા રૂપ નિમિરક્તા સંભવિત થઈ શકે તેમ નથી. ત્યાં તે શ્રવણુ વગેરેથી દર્શનમોહનીય કર્મના પશમના કારણરૂપ સગુણના ઉપદેશનું જ અભિગમ શબ્દથી ગ્રહણ થયું છે. જે સમ્યગ્દશનની ઉત્પત્તિ માં તે કારણ હેત તે તેનું ગ્રહણ નિમિત્ત રૂપથી થાત પણ આવું થતું નથી કેમકે તે અચેતન છે તેનાથી પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ થઈ શકતું નથી, પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના
वा ४९
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे.
शब्देन ग्रहणात् सम्यक्त्वं हि तस्वार्थश्रद्वानरूपं तच्च प्रवचनार्थज्ञानादेव, पवचनार्थज्ञानं च निर्जरामूलकं, निर्जरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारणं, न तु प्रतिमा । सा हि सद्गुरुवत् प्रवचनार्थपदेष्टुमसमर्था, तस्या जडत्वात् । नापि सा निर्जराहेतुः, विनयादित पोरूपकर्मा की निर्जरा नहीं हो सकती है। निर्जरा के अभाव में दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय उपशम आदि रूप सम्यक्त्व की उत्पत्ति संभवित नहीं है। अतः अभिगम सम्यग्दर्शन में सद्गुरु का उपदेश ही निमित्त माना गया है और उसीका ग्रहण वहां पर उस शब्द से हुआ है प्रतिमा का नहीं - इसी का खुलाशा " सम्यक्त्वं हि तत्वार्थश्रद्धानरूपं, तच्च प्रवचनार्थज्ञानादेव, प्रवचनार्थज्ञानं च निर्जरामूलक - निर्जरा च विनय वैयावृत्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारणं न तु प्रतिमा " अर्थ इन पंक्तियों में लिखा गया है । तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । वह श्रद्धान प्रवचन के अर्थज्ञान से ही होता है और उस अर्थज्ञानका मूल कारण निर्जरा मानी गई है अपना प्रतिपक्षी कर्मों की निर्जरा हुए विना तत्त्वज्ञान हो ही नहीं सकता है विनय, वैयावृत्य, स्वाध्यायरूपतप विशेष निर्जरा के कारण हैं तप की आरा धना में सद्गुरू का उपदेश कारण है इस प्रकार परम्परा संबंध से अभिगम सम्यग्दर्शन में सद्गुरु का उपदेश ही निमित्तरूप से गृहीत हुआ है प्रतिमा नहीं - कारण वह सद्गुरु के उपदेश की तरह प्रवचन
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શ્રોતાઓને પ્રવચનનું અજ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે? અર્થજ્ઞાન વગર કર્મોની નિર્જરા પણ થઇ શકતી નથી. નિર્જરા વિના દનમેહનીય કર્મના ક્ષય ઉપશમ વગેરે રૂપ સમ્યક્ત્વની ઉત્પત્તિ સભવિત નથી એટલા માટે અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં સદૃગુરુના ઉપદેશ જ નિમિત્તરૂપે માનવામાં આવ્યે છે. અને તે શબ્દથી તેનું જ ગ્રહણ થયું છે પ્રતિમાનું નહિ. આનું જ સ્પષ્ટીકરણ " सम्यक्त्वं हि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूपं तच्च प्रवचनार्थ ज्ञानादेव, प्रवचनार्थ 'ज्ञान' निर्जरा लक निर्जरा च विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायरूपतपोविशेषेभ्यः, तत्र च सद्गुरूपदेशः कारणं न तु प्रतिमा " मानो मर्थ या प्रमाणे छे, ते તત્ત્વા નુ શ્રદ્ધાન કરવું તે સમ્યક્ત્વ છે. તે શ્રદ્ધાન પ્રવચના અજ્ઞાનનું મૂળ કારણુ નિર્જરા જ માનવામાં આવે છે. પેાતાના પ્રતિપક્ષી કર્મોની નિરા થયા વગર તત્ત્વજ્ઞાન થઈ જ શકતું નથી. વિનય, વૈયાનૃત્ય, સ્વાધ્યાય રૂપ તપ વિશેષ નિર્જરાના કારણ છે. તપની આરાધનામાં સદ્ગુરુના ઉપદેશ કારણુ છે. આ રીતે પરપરા સબધથી અભિગમ સમ્યગ્દર્શનમાં સદ્ગુરુને ઉપદેશ જ નિમિત્ત રૂપમાં ગૃહીત થયે છે. નહિં કે પ્રતિમા, કેમકે તે સદૂગુરુના ઉપદેશની જેમ
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भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा त्वाभावात् , कथं तहि सम्यक्त्वं प्रतिमायाः संभवति ? कथमपि नहि । अत एवो. पदेशस्य सम्यक्त्वं प्रति कारणत्वं प्रदर्शयन भगवानवादी-उत्तराध्ययनसूत्रे(अ. २८ गा० १५)
" तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं ।
भावेणं सदहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ इति । छाया-तथ्यानां तु भावानां सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥
जीवाजीवादिपदार्थानां सद्भावे यद् उपदेशनं गुरोरुपदेशः, तद् भावेनअन्तःकरणेन श्रद्दधतः मोहनीयकर्मणः क्षयेण क्षयोपशमेन वा याऽभिरुचिरुत्पद्यते, तत् सम्यक्त्व तीर्थकरैर्व्याख्यातम् । के अर्थ का उपदेश करने में अचेतन होने से सर्वथा असमर्थ है कौं की निर्जरा में भी वह हेतु रूप नही होती है-कारण कि कर्मों की निर्जरा के हेतु तो विनयादिक तप ही माने गये हैं, प्रतिमा विनयादि तप स्वरूप नहीं है। अतः प्रतिमा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारणता किसी भी प्रकार संभवित नहीं होती है-उत्तराध्ययन सूत्र में सद्गुरु के उपदेश को सम्यक्त्व के प्रति कारण प्रकट करते हुए सिद्धान्तकार कहते हैं कि-तहियाणं तु भावा णं सम्भावे उवएसणं ।
भावेणं सहहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ इति ॥
जीव और अजीव आदि पदार्थों का सद्गुरु ने जो यथावस्थित स्वरूप प्रकट किया है, उसका उसीरूप से अन्तः करण से श्रद्धान करने वाले प्राणी के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम પ્રવચનના અર્થને ઉપદેશ કરવામાં અચેતન લેવા બદલ સંપૂર્ણ પણે અસમર્થ છે. કારણ કે કર્મોની નિર્જરાના હેતુ તો વિનય વગેરે તપ જ માનવામાં આવ્યા છે. પ્રતિમા વિનય વગેરે તપ સ્વરૂપ નથી, એટલા માટે પ્રતિમામાં સમ્યકત્વની ઉત્પત્તિમાં કારણતા કેઈ પણ રીતે સંભવી શકે તેમ નથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં સદ્દગુરૂના ઉપદેશને સમ્યકત્વના પ્રતિ કારણ બતાવતાં સિદ્ધાન્તકાર કહે છે–
तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं । भावेणं सहतस्स सम्मत्तं त वियाहिय ॥ इति ॥
જીવ અને અજીવ વગેરે પદાર્થોનું જે યથાવસ્થિત સ્વરૂપ સદૂગુરૂએ પ્રકટ કર્યું છે તેનું તે રૂપથી અંતઃકરણથી શ્રદ્ધા ન કરનારા પ્રાણીના દર્શન મેહનીય કર્મના ક્ષય કે પશમથી જે રૂચિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ જ
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ચૂંટ
शांताधर्म कथासूत्रे
यदि प्रतिमाऽपि सम्यक्त्वलाभे निमित्तं स्यात्तर्हि भगवता स्थानाङ्गमूत्रे प्रतिमानिमित्तकत्वेन सम्यग्रदर्शनस्य तृतीयभेदोऽपि वाच्यः, तस्यानुक्तत्वात् प्रतिमायाः सम्यक्त्वलाभे निमित्तत्वं नास्तीति बोध्यम् । किं च
प्राणातिपातसाध्यायाः प्रतिमापूजायाः सम्यक्त्वशुद्धिहेतुत्वं वदन्तः स्वदुर्गतिं न पश्यन्ति मोहान्धाः, स्थानाङ्गसूत्रे हि प्राणातिपातस्य दुर्गतिहेतुत्वं प्रदर्शितम् -
पंचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गई गच्छति । तं तहा-पाणाश्वापणं, मुसावाएणं, अदिन्नादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गहेणं " इति । (स्था. ५ ठा. १ उ. )
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से जो रुचि उत्पन्न होती है उसी का नाम सम्यग्दर्शन है ऐसा तीर्थकर प्रभु ने कहा है यदि सम्यक्त्व की प्राप्ति में प्रतिमा निमित्त होती तो स्थानाङ्ग सूत्र में जो " दोहिं ठाणेहिं आया केवल पन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए " ऐसा कहा है वहां यदि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा भी निमित्त होती तो उसके निमित्त होने से दो स्थानों की जगह सम्यक्त्व की प्राप्ति में तीन स्थानों का कथन सूत्रकार को करना चाहिये था परन्तु वहां दो स्थानों के अतिरिक्त तृतीयस्थान का कथन हुआ नहीं है, अतः इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि सम्यक्त्व के लाभ में प्रतिमा निमित्त नहीं है । फिर भी प्राणातिपात द्वारा साध्य प्रतिमा पूजन को मोह के आवेश से ऊंधे हुए व्यक्ति सम्यक्त्व की शुद्धि का कारण बतलाते हुए अपनी दुर्गति का कुछ भी ख्याल नहीं करते हैं यही एक बड़े आश्चर्य की बात है देखो प्राणातिपात को स्थानाङ्ग सूत्र में दुर्गति
دو
સમ્યગ્દર્શન છે, આમ તીર્થંકર પ્રભુએ કહ્યું છે. જો સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં निभित्त ३ये होत तो स्थानांग - सूत्रमां ? “ दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए આ પ્રમાણે કહ્યુ છે, ત્યાં જો સમ્યકત્વના લાભમાં પ્રતિમા પણ નિમિત્ત થઈ શકત તે તેને નિમિત્ત રૂપે થવા બદલ બે સ્થાનાની જગ્યાએ સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિમાં ત્રણ સ્થાનાનું કથન સૂત્રકારે કરવું જોઇતું હતું, પણ ત્યાં તે બે સ્થાને સિવાય ત્રીજા સ્થાનનું કથન થયું જ નથી. એથી આ સિદ્ધાન્તની ખાત્રી થાય છે કે સમ્યકત્વના લાભમાં પ્રતિમા નિમિત્ત નથી. છતાં ચે પ્રાણાતિપાત વડે સાધ્ય પ્રતિમા પૂજનને અજ્ઞાનની નિદ્રામાં પડેલી વ્યક્તિએ સમ્યકત્વની શુદ્ધિનું કારણુ ખતાવતી પોતાની દુરવસ્થા તરફ સહેજ પણ જેતી નથી તે એક બહુ નવાઇ જેવી વાત છે. જુએ પ્રાણાતિપાતને સ્થાનાંગસૂત્રમાં દુર્ગતિનું જ आरशु मताववाभां यान्युं छे - ( पंचहि ठाणेहि
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अगरधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
ફેર
किं च यथा लोके मुग्धानां सुवर्णमात्रसाम्येना शुद्धसुवर्णेऽपि प्रवृत्तिमवलोक्य शुद्धाशुद्धपरीक्षणाय विचक्षणैः कषच्छेदतापा आद्रियन्ते तथाऽत्रापि परीक्षणीये श्रुतचारित्रलक्षणे धर्मे कषादयः समादरणीया भवन्ति ।
पाणिधादीनां पापस्थानानां यस्तु शास्त्रे प्रतिषेधः, तथा स्वाध्यायध्यानादीनां यश्व तत्र विधिः स धर्मषः । प्राणिवध संपर्कवति पूजने तु धर्मत्वबुद्धिर्मोहवशादेव भवति, शास्त्रे प्राणिवस्य प्रतिषेधात् । अतस्तत्र नास्ति कषशुद्धिः ।
का ही कारण कहा है " पंचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गदं गच्छति-तं जहा - पाणीइवाएणं, मुनाबाएणं, अदिन्नादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गहेणं इति । (स्था ५ ठा- १ उ.) इन पांचो स्थानों से जीव दुर्गति के पात्र बनते हैं - प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्तादान से मैथुन से और परिग्रह से । किञ्च - लोक में जिस में जिस प्रकार भोलेभाले व्यक्तियों की सुवर्णमात्र की समानता से अशुद्ध स्वर्ण में भी यह सच्चा सुवर्ण है इस प्रकारकी प्रवृत्ति को देखकर सुवर्णपरीक्षक जन उसके सम्यक्त्व और असम्यत्क्व परीक्षाके लिये कष छेद और तप रूप उपायों का अवलम्बन करते हैं उसी प्रकार परीक्षणीय इस श्रुतचारित्ररूप धर्म की परीक्षा के लिये सूत्रकारों ने कषादिक परीक्षा के साधनों का उपयोग किया है प्राणिवधादिक पापस्थानों का शास्त्र में जो निषेध का विधान हुआ है तथा स्वाध्याय एवं अध्ययन आदि का जो वहां पर विधान किया गया है यही धर्म का कष है पूजन में यह धर्म कष नहीं है क्यों कि वह प्राणि वध के संपर्क से दूषित है अतः फिर भी जो उसमें धर्म
"
जीवा दुग्गइ गच्छंति - तं जहा - पाणाइवाएण, मुसावारण, अदिन्नादाणेण मेहुणेण परिग्गहेण इति ) ( स्था. ५, ठा. १ उ. ) मा यांचे स्थानाथी हुर्गતિને ચેાગ્ય ઠરે છે-પ્રાણાતિપાતથી, મૃષાવાદથી, અદત્તાદાનથી, મૈથુનથી અને પરિગ્રહથી. અને બીજું પણ કે લેાકમાં જેમ ભેાળા માણસાની સુવર્ણ માત્રની સમાનતાથી અશુદ્ધ સુવર્ણમાં પણ આ સેાનું ખરૂં છે, ' આ જાતની પ્રવૃત્તિ જોઈને સુવણુ પરીક્ષકા તેના ખરા-ખાટાની પરીક્ષા માટે કષ‚ છેદ અને તાપ રૂપ ઉપાયાના આસરો લે છે તેમજ પરીક્ષણીય આ શ્રુતચરિત્ર રૂપ ધર્માંની પરીક્ષા માટે સૂત્રકારોએ કષ વગેરે પરીક્ષાના સાધનાને ઉચેાગ કર્યાં છે. પાણિ વધ વગેરે પાપસ્થાનનું શાસ્ત્રમાં જે નિષેધ રૂપ વિધાન થયું છે તેમજ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરેનું જે ત્યાં વિધાન કરવામાં આવ્યું છે તે જ ધર્માંની કસેાટી-કષ છે. પૂજનમાં આ ધમ ક નથી કેમકે તે પ્રાણિવધના સપર્કથી દૂષિત છે. છતાં ય તેમાં ધત્વની બુદ્ધિ રાખવામાં આવે છે તે મૂક્ત
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शांतीधर्मकथासूत्रे
यत्र विधिः प्रतिषेधवेति द्वयं कदाचित् स्वरूपतो वैपरीत्यं न याति अर्थात् - स्वाध्यायध्यानादौ नियमतः प्रवृत्या विधिपरिशुद्धिः, तथा हिंसादौ नियमतो निवृत्त्या प्रतिषेधपरिशुद्धिर्भवति, स धर्मच्छेद उच्यते । प्रतिमापूजायां तु नास्ति च्छेदशुद्धिः, तस्याः षट्कायोपमर्दनसाध्यत्वेन प्रतिषेधपरिशुद्धयभावात् ।
प्रवचने जीवाजीवादीनां तत्त्वानां यथावस्थितस्वरूपनिरूपणं मोक्षसाधक मित्येवं निश्चयस्ता पशुद्धिः । यथा वह्नौ तापनेन सुवर्णस्य यथावस्थितस्वरूपाविर्भावः तथा प्रवचनोक्ततत्त्वानुसन्धानेन धर्मस्य स्वरूपमाविर्भवति । अत्र प्रतिमापूजायां प्रवचनोक्तंसंवरनिर्जरातच्चलक्षणानाक्रान्तत्वान्नास्ति तापशुद्धिः । स्वकी बुद्धि होती है वह केवल मोहका ही आवेश है। प्राणिवध शास्त्र से निषिद्ध है। जहां पर विधि और प्रतिषेध ये दोनों कभी भी अपने स्वरूप से विपरीतपने को प्राप्त नहीं होते हैं वहां पर छेद से शुद्धि मानी जाती है जिस प्रकार स्वाध्याय और अध्ययन आदि शुभ कार्यों में नियम से शास्त्र में प्रवृत्ति प्रदर्शित की गई है और हिंसादि कार्यों से उसमें नियम से निवृत्ति कही गई है । प्रतिमा पूजन में यह छेद शुद्धि नहीं है। क्योंकि इसमें प्रतिषेध से परिशुद्धि का अभाव है इस को कारण यह है कि वह षट्काय के जीवों के घात से साध्यकार्य है । प्रवचन में जीव और अजीव आदि तत्वों के यथावस्थित स्वरूप का वर्णन ही मोक्षका साधक है इस प्रकार का निश्चय ही ताप शुद्धि है । जिस प्रकार अग्नि में तपाने से स्वर्ण का यथावस्थित स्वरूप प्रकट होता है । उसी प्रकार प्रवचन कथित तत्त्वों के अनुसन्धान से धर्म के स्वरूप का अविर्भाव होता है इस प्रतिमापूजन में धर्मतस्वके अविर्भाव करने અજ્ઞાનના જ ઊંભરા છે. પ્રાણિ વધ શાસ્ત્રનિષિદ્ધ છે. જ્યાં વિધિ અને પ્રતિષેધ આ બન્ને કોઇ પણ વખતે પેાતાના સ્વરૂપથી વિપરીતાવસ્થામાં પરિવર્તિત થતા નથી ત્યાં છેદથી શુદ્ધિ માનવામાં આવે છે જેમ સ્વાધ્યાય અને અધ્યયન વગેરે શુભ કાર્યમાં નિયમથી શાસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ ખતાવવામાં આવી છે અને હિંસા વગેરે કાર્યોથી તેમાં નિયમથી નિવૃત્તિ બતાવવામાં આવી છે. પ્રતિમા પૂજનમાં આ છેઃ શુદ્ધિ નથી કેમકે આમાં પ્રતિષેધથી પરિશુદ્ધિના અભાવ છે. આનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તે ષટ્કાયના જીવાના ઘાતથી સાધ્ય કાય છે, પ્રવચનમાં જીવ અને અજીવ વગેરે તત્ત્વાના યથાવસ્થિત સ્વરૂપનું વર્ણન જ મેાક્ષનું સાધક છે. આ જાતના નિશ્ચય જ તાપ શુદ્ધિ છે. જેમ અગ્નિમાં તાવવાથી સાનાનું યથાવસ્થિત સ્વરૂપ પ્રગટ થાય છે તેમજ પ્રવચન કથિત તત્ત્વાના અનુસંધાનથી ધર્મીના સ્વરૂપના આવિર્ભાવ થાય છે. આ પ્રતિમા પૂજનમાં ધમ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
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एभिः कषादिभिः परिशुद्धस्यैव धर्मत्वं संभवति तादृशस्यैव धर्मफलजनकत्वात् ।
यथा-आधाकर्मादिदोषदूषिताहारादिदाने धर्मबुद्धया क्रियमाणे धर्मव्याघातः, यथा वा इन्द्रादिपूजादौ धर्म व्याघातः, तथैव धर्म बुद्ध्या प्रतिमापूजनेऽपि धर्मव्याघातः स्यात् तस्य जीवोपघात हेतुत्वात् ।
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"
प्रतिमापूजा - धर्म व्याघातवती, आगमोक्तन्यायनिराकृतत्वात्, अयोग्यज्यादानवत् इन्द्रादिपूजावद् वा " इत्याद्यनुमानेनापि प्रतिमापूजायां धर्मव्याघातो भवतीति विश्वसनीयम् । उक्तं च-
,
की योग्यता तक भी नहीं है । कारण कि यह प्रवचन कथित संवर और निर्जरा तत्व के लक्षण से युक्त नहीं है-अतः इसमें ताप शुद्धि भी नहीं है। इन कषादिकों द्वारा परिशुद्ध हुई वस्तु में ही धर्मना आती है और वही यथार्थ में धर्म के फलका प्रदाता होता है। प्रतिमापूजन में यह बात नहीं है - अतः वह धर्मरूप नहीं है ।
किंच - धर्मबुद्धि से बनाये गये, परन्तु आधाकर्म आदिदोषों से दूषित ऐसे आहार के दान में तथा इन्द्र आदिकों का पूजन करने में जिस प्रकार धर्म का व्याघात माना गया है, उसी प्रकार धर्मबुद्धि से की गई प्रतिमा का पूजन में भी जीवों का घात होने से धर्म का व्याघात होता है । इसलिये आगम कथित सिद्धान्त के अनुसार यह प्रतिमापूजन उपोदेव कोटि में नहीं आता है। फिर भी जो इसे करते हैं - कराते हैं - वे आगम कथित सिद्धान्त से सर्वथा बाह्य हैं- और धर्म का व्याघात कर
તત્ત્વને આવિર્ભૂત કરવા સુધીની પણ ક્ષમતા નથી, કેમકે આ પ્રવચન કથિત સવર અને નિર્જરા તત્ત્વનાં લક્ષણથી યુક્ત નથી. એટલા માટે આમાં તાપ શુદ્ધિ પણ નથી. આ કષ વગેરે વડે પરિશુદ્ધ થયેલી વસ્તુમાં જ ધર્માંતા આવે છે અને તે જ સાચા સ્વરૂપમાં ધર્મના ફળને આપનાર છે. પ્રતિમા પૂજનમાં આ વાત નથી એથી તે ધર્મ રૂપ નથી.
ધમ બુદ્ધિથી તૈયાર કરવામાં આવેલા, પણ આધાકમ વગેરે દોષો વડે દૂષિત એવા આહારના દાનમાં તેમજ ઇન્દ્ર વગેરેની પૂજા કરવામાં જેમ ધન વ્યાઘાત માનવામાં આવ્યેા છે, તેમ જ ધબુદ્ધિ રાખીને કરવામાં આવેલા પ્રતિમા પૂજનમાં પણ જીવાના ઘાત હાવાથી ધર્મના વ્યાઘાત હેાય છે. એટલા માટે આગમ કથિત સિદ્ધાન્ત મુજબ આ પ્રતિમા પૂજન ઉપાદેય કેાટિમાં આવતું નથી. છતાં ચે જે આને કરે છે, કરાવે છે તેએ આગમ કથિત સિદ્ધાંતુથી સર્વથા ખાદ્ઘ છે અને ધર્મના વ્યાઘાતક છે એથી અયેાગ્યને આપેલી
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साताधर्मकथासो
" प्रव्रज्यादिविधाने च, शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ।।
द्रव्यादि भेदतो ज्ञेयो, धर्म व्याघात एव हि "। हारिभद्राष्टकम् यत्तु-जिनपतिमाया दर्शनं वन्दनं चावश्यकमेव साधूनामिति वन्दनाद्यकृत्वा भक्तपानं न कल्पते तेषामित्याहुस्तभिमूलम्
अहोरात्रकृत्येषु साधुकल्पेषु जिनप्रतिमादर्शनादेरनुक्तत्वात् । शृणु तावदहोरात्रकृत्यं साधूनाम्नेवाले हैं अतः अयोग्य को दीक्षा दान की तरह अथवा इन्द्रादिक के पूजन की तरह यह प्रतिमापूजन आगमोक्त न्याय से निराकृत होने से धर्म का व्याघात करनेवाला है ऐमा विश्वास करना चाहिये । तथा च अनुमानप्रयोगोऽयं-प्रतिमापूजा धर्मव्याघातवती आगमोक्तन्याय निराकृ. तत्वात् अयोग्यप्रव्रज्यादोनवत् इन्द्रादिपूजनवहा । इस अनुमान में दिया गया हेतु असिद्ध नहीं है क्यों कि "प्रव्रज्यादिविधाने च शस्त्रोक्तन्या. यबाधिते - द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि" दृष्टान्त में इस हेतु का इस श्लोक द्वारा कथित प्रकार से सद्भाव पोया ही जाता है।
जो यह कहा जाता है कि जिनप्रतिमा के दर्शन वन्दन किये विना साधुओं को आहार पानी करना कल्पनीय नहीं है-अतः उसका दर्शन वन्दन करना साधुओं के लिये आवश्यक है वह बिलकुल निर्मूल हैकारण कि दिनरात संबंधी जितने भी साधुओं के कल्प हैं उन में इस बात का कहीं भी कथन किया हुआ नहीं मिलता है-दिनरात संबंधी साधुओं के ये कृत्य हैंદીક્ષાની જેમ અથવા તે ઈન્દ્ર વગેરેની પૂજાની જેમ આ પ્રતિમાપૂજન આગમ કથિત ન્યાયથી નિરાકૃત લેવા બદલ ધર્મને નાશ કરનારું છે. આમ માની જ खेबु . " तथा च अनुमानप्रयोगोऽय प्रतिमापूजा धर्मव्याधातवती आगमोक्तन्यायनिराकृतत्वात् अयोग्य -प्रव्रज्यादानवत् इन्द्रादिपूजनवद्वा । 21 अनुमानमा मापस तु मसिद्ध नथी, ४.२४५ -प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायपाधिते -द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि । दृष्टांतभा मा तुना मा Ras વડે જે કથિત પ્રકાર છે તેને સદુભાવ મળે છે.
જે એમ કહેવામાં આવે છે કે જન પ્રતિમાના દર્શન કર્યા વગર સાધુએને આહાર પણ કરવું યોગ્ય નથી. એથી તેના દર્શન વન્દન કરવા સાધુ એના માટે આવશ્યક છે તે સાવ ખોટી વાત છે. કેમકે દિવસ અને રાત્રિને લગતા સાધુઓને માટે જેટલા કલ્પ છે તેમાં આ વાતનું કથન કયાંયે નથી. દિવસ અને રાત્રિના સાધુઓના આ નીચે લખ્યા મુજબ કૃ છે–
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ममगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
पढमं पोरिसि सज्झायं, बीए झाणं झियायए। तइयाए भिक्स्वायरियं, चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ पढम पोरिसि सज्झायं, बीए झाणं झियायए। तइयाए निदमोक्खं च, चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥ इति,
(उत्तराध्ययनसूत्रे २६ अ.) किं च-सामायिकाद्यावश्यकेष्वपि प्रतिमादर्शनादेरनुक्तत्वाद् जिनाज्ञाया एव च धर्ममूलत्वात्तस्य धर्मत्वं न सिध्यति । ___ यत्तु-पुष्पादिसमभ्यर्चनलक्षणो द्रव्यस्तवः साधुना हेय एव श्रावकेण तु उपादेयोऽपि तथा चाह-भाष्यकार:
अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो।
संसारपयणुकरणो दव्वत्थए कूवदिटुंतो ( भाष्यकारः ४२ ) पढमं पोरिसि सज्झायं बीए झाणं झियायए । तझ्याए भिक्खायरियं चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ।। पढमं पोरिसि सज्झायं बीए झार्ण झियायए । तइयाए निद्दमोक्खं च चउत्थीए पुणो वि सज्झायं ॥
(उतरा-सूत्र २६ अ.) अर्थस्पष्ट है । इसी प्रकार साधुओं के जो सामायिक आदि आवश्यक कृत्य हैं, उनमें भी प्रतिमा के दर्शन आदि करना नहीं कहा है। धर्म का मूल तो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा की आरोधना करने में है इसलिये दर्शन वगैरह ये धर्म के मूल नहीं हैं। भाष्यकारने जो इस गाथा द्वारा “ अकसिण पवत्तगाणं विरयोविरयाण एस खलु जुत्तो। संसार पयणुकरणो दम्वत्थए कूवदिटुंतो" (भाष्यकार ४२) यह कहा है कि
पढमे पारिसि सज्झायं बीए झाण झियायए । तइयाए भिक्खायरिय चथिए पुणो वि सज्ज्ञाय । पढमे पोरिसि सज्झाय बीए झाण झियायए । तइयाए निदमोक्खच चउन्थिए पुणो वि सज्झाय। (उत्तरा-सूत्र-२६ अ.)
અર્થ સરળ જ છે. આ રીતે સાધુઓના જે સામાયિક વગેરે આવશ્યક કૃત્ય છે, તેમનામાં પણ પ્રતિમાના દર્શન વગેરે કરવાની વાત કહી નથી. ધર્મનું મૂળ તે જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને આરાધવામાં આવે છે માટે દર્શન वगैरे मा मधा घना भूण नथी. भाप्यारे २ ॥ ॥ 43-( अकसिण पवत्तगाण' विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणो दव्वत्थए
का ५०
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शाताधर्मकथाजस्त्रे अकृत्स्नप्रवर्तकानां अकृत्स्नसंयमप्रवृत्तिमतां विरताविरतानां देशविरतीनां श्रावकाणाम् एप द्रव्यस्तवः खलु युक्त एव । किंभूतोऽयमिस्याह-संसार प्रतनुः करण: संसारक्षयकारकः इत्यर्थः । ननु व्यस्तवो हेयः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणां युक्तः ? । इत्याशङ्क्याह-कूपदृष्टान्त इति___ यथा लोके केऽपि जलाभावतस्तृष्णाकुलाः पिपासापनोदनाद्यर्थ कूपं खनन्ति ते कूपखनका मृत्तिकाकर्दमादिभिश्च मलिना भवन्ति, पश्चात् तदुद्भवेन जलेन तेषां तृष्णायास्तथा मृत्कर्दममलस्य च नाशो भवति तदनन्तरमपि ते तदन्ये च श्रवणों के लिये उपादेय भी पुष्प आदिकों द्वारा भगवान की पूजा स्वरूप द्रव्यस्तव साधुओं के लिये हेय ही है । क्यों कि साधु सर्व आरंभ और परिग्रह के सर्वथा त्यागी हैं-श्रावक नहीं वे देश विरति संपन्न हैं। अतः उनके लिये द्रव्यस्तव संसार का क्षय कारक माना गया है कूप का दृष्टान्त देकर भाष्यकार ने इस शंका का परिहार किया है कि जिस प्रकार जल के अभाव से पिपासा को दूर करने के लिये कोई २ मनुष्य कूप को खोदते हैं और उसे खोदते समय मिट्टी और कीचड़ से मलिन भी हो जाते हैं परन्तु पश्चात् उस कूप में निकले हुए जल से वे उस कीचड़ और लगी हुई मिट्टी को साफ कर देते हैं और समय २ पर अपनी पिपासा की भी शांति करते रहते हैं। दूसरे और भी लोक उससे लोभ उठाते हैं। इस प्रकार उस जलयुक्त कुएँ से खोदने वाले व्यक्तियों को तथा और भी अन्यजनों को समय २ पर अनेक प्रकार से लाभ होता रहता है। ठीक इसी तरह इस द्रव्यस्तव में जो कि संयम
कूवदिटुंतो।) (भाष्यकार ४२ ) २मा प्रमाणे :युं छे श्राने माटे 61. દેય હોવા છતાં પુષ્પ વગેરે વડે ભગવાનની પૂજા સ્વરૂપ દ્રવ્યતવ સાધુઓના માટે તે ત્યાજ્ય જ છે, કેમકે સાધુ સર્વ આરંભ અને પરિગ્રહના સંપૂર્ણપણે ત્યાગી હોય છે. શ્રાવક નથી, તેઓ દેશ વિરતિ સંપન્ન છે. એટલા માટે તેમને સામે રાખીને વિચાર કરીએ તો દ્રવ્યસ્તવ સંસારને ક્ષય કરનાર માનવામાં આવ્યો છે. કૂપનું દૃષ્ટાંત આપીને ભાગ્યકારે આ શંકાને દૂર કરી છે કે જેમ પાણીના અભાવને લીધે પીડાઈને તરસ મટાડવા માટે કેટલાંક માણસો વાવ
દે છે અને તે વખતે તેઓ માટી અને કાદવથી ખરડાઈ જાય છે પણ ત્યાર પછી વાવમાંથી નીકળતા પાણીથી જ તેઓ કીચડ તેમજ શરીરે ચટેલી માટીને સાફ કરી નાખે છે અને વખતો વખત પોતાની તરસ પણ મટાડે છે. બીજા પણ કેટલાક લોકે તેનાથી લાભ મેળવે છે. આ રીતે તે પાણી ભરેલી વાવથી
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचचर्चा लोका जलेन मुखिनो भवन्ति एवं द्रव्यस्तवे यद्यप्यसंयमो भवति तथापि तत एव सा परिणामशुद्धिर्भवति, या तद् असंयमोपार्जितमन्यच्च निरवशेष क्षपयति इति ।
" तस्माद्विरताविरतैः श्रावकैरेप द्रव्यस्तवः कर्तव्यः ।
शुभानुवन्धी प्रभूतनिर्जराफल इति कृता” इत्युक्तम्तदसत्-अत्र हि कूपदृष्टान्तो न संघटते कूपखननेन जलमुत्पद्यते इति सकल लोकप्रत्यक्षं, किन्तु पट्कायवधं कुर्वतः कारयतश्च धर्म मूलभूताया दयाया एव की रक्षा नहीं होती है, तो भी यह कर्त्ता को परिणामों में शुद्धि का हेतु होता है। इससे कर्ता उस द्रव्यस्तव के करने में उद्भूत असंयम द्वारा उपार्जित पापों का सम्पूर्णरूप से विनाश कर देता है। इसलिये विरताविरत (एकदेश संयम की आराधना करनेवाले पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकों द्वारा यह द्रव्यस्तव कर्तव्य कोटि में आने से उपादेय है। कारण कि यह उनके लिये शुभानुबंधी और कर्मों की अधिक निर्जरा. रूप फल का प्रदाता होता है" यह सब भाष्यकार का कथन ठीक नहीं है। कारण कि उन्हों ने जो कूप का दृष्टान्त देकर इस विषय की पुष्टि करनी चाहिये, उससे प्रकृत विषय की वास्तविक पुष्टि नहीं होती है। यह तो प्रत्येक लौकिक जन के प्रत्यक्ष अनुभव में आने जैसी बात है कि कूप के खोदने से जल निकलता है इस में तो विवाद की कोई जरूरत ही नहीं है, किन्तु प्रतिमा की पूजा करने और करानेवालों से षट्
છેદનાર લોકોને તેમજ બીજા પણ ઘણું માણસોને વખતો વખત ઘણી રીતે લાભ થતા રહે છે. ઠીક આ પ્રમાણે જ દ્રવ્યસ્તવમાં જે કે સંયમની રક્ષા થતી નથી, છતાં ય તે કર્તાના માટે પરિણામમાં શુદ્ધિનું કારણ હોય છે. તેનાથી કર્તા તે દ્રવ્યસ્તવના કરવામાં ઉદ્ભૂત અસંયમ વડે મેળવેલા પાપને સંપૂર્ણ પણે વિનાશ કરી નાખે છે. એથી વિરતાવિરત (એકદેશ સંયમની આરાધના કરનાર પંચમ ગુણસ્થાનવતી ) શ્રાવકે વડે આ દ્રવ્યસ્તવ કર્તવ્ય કોટિમાં આવવાથી ઉપાદેય છે. કારણ કે તે તેમના માટે શુભાનુબંધી અને કર્મોની વધારે નિર્જરા ફળને આપનાર છે. ભાષ્યકારનું આ બધું કથન યોગ્ય નથી, કારણ કે તેઓએ જે વાવનું દૃષ્ટાંત આપીને આ વિષયની પુષ્ટિ કરવા પ્રયત્ન કર્યો છે, તેનાથી પ્રકૃત વિષયની વાસ્તવિક રૂપમાં પુષ્ટિ થતી જોવામાં આવતી નથી. દરેકે દરેક માણસના માટે આ તે એક પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરી શકાય તેવી હકીકત છે કે વાવ દવાથી પાણી નીકળે છે, આમાં તે ચર્ચાની કોઈ વાત જ ઊભી થતી નથી, પણ પ્રતિમાની પૂજા કરનાર અને કરાવનારાઓથી
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पाताधर्मकथाहस्से काय के जीवों की रक्षा नहीं हो सकती है-उनसे उनकी विराधना होती है। ऐसी परिस्थिति में धर्म के मूलभूत सिद्धान्त का ही जब वहां अभाव है तब उस पूजन कार्य के उनके परिणामों में शुद्धि मानना यह कथन शास्त्र से विरुद्ध और प्रत्यक्ष आदि समस्त प्रमाणों से पाधित होता हुआ किसी भी समझदार व्यक्ति को मान्य नहीं हो सकता है प्रतिमा पूजनके पक्षपाती जो इस प्रकार अपने पक्षमें तर्क करते हैं कि
सम्यक स्नात्वोचिते काले संस्नाप्यच जिनान् क्रमात् । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च पूजयेदिति तद्विधिः॥
तथा-जिनप्रभसूरिकृतपूजाविधौ-सरससुरहिचंदणेणं........ अंगेसु पूअं काऊण पंचगकुसुमेहिं गंधवासेहिं च पूएइ सद्वर्णैः सुगंधिभिः सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहितदलैः प्रत्यग्रैश्च प्रकीर्णे नाप्रकारग्रधितैर्वा पुष्पैः पूजयेत्" इति-तथा-कुसुमक्खयगंधपईवधूयनेवेजफलजलेहिं पुणो अट्ठविहकम्मदलनी अठ्ठयारा हवइ पूया" इति किञ्चजिनभवनं जिनबिम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् ।
तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ કાય છની રક્ષા થઈ શકતી નથી, તે કાર્યથી તે તેમની વિરાધના જ હોય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ધર્મના મૂળભૂત સિદ્ધાન્તને જ જ્યારે અભાવ છે ત્યારે તે પૂજા રૂપ કાર્યથી તેમના પરિણામોમાં શુદ્ધિ માનવી આ વાત શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ અને પ્રત્યક્ષ વગેરે બીજા બધા પ્રમાણેથી બાધિત થતી કઈ પણ સમજુ માણસના માટે તે માન્ય થઈ શકે તેમ નથી. પ્રતિમા પૂજનની તરફદારી કરનારાઓ પિતાની વાતને પુષ્ટ કરવા માટે જે આ જાતની બેટી દલીલ સામે મૂકે છે કે –
सम्यक् स्नात्वोचिते काले संस्नाप्य च जिनान् क्रमातू । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च पूजयेदिति तद्विधिः ॥
तथा-जिनप्रभृसूरिकृतपूजाविधौ-सरस-सुरहिचदणेण अगेसु पूअ काउण पंचगकुसुमेहिं गंधवासेहिं य पूएइ सद्वर्णैः सुगंधिभिः सरसैरभूपतितैर्विकाशिभिरसहित. दलैः प्रत्यप्रैश्च प्रकीर्णैर्नानाप्रकारप्रथितैर्वा पुष्पैः पूजयेत् । इति तथा कुसुमक्खयगंधपईवधूयनेवेज्जफलजलेहि पूणो अविहकम्मदलनी अटुवयारा हवइ पूया" इति किञ्च
जिनभवनं जिनबिम्ब जिनपूजां जिनमत'च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥
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मनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा समुच्छेदात् परिणामशुद्धिरत्पद्यत इति प्रवचनविरुद्धं कल्पनं सर्वप्रमाणबाधितं कस्यानुमतं भवेत् । अपि तु न कस्यापि ।
(आचारागसूत्रे भगवताऽभिहितम् ( अ. १ उ. १) " इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव पुढविसत्यं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ,
भावार्थ-पूजक उचित समय में अच्छी तरह स्नान करके जिनेन्द्र का अभिषेक कर पुष्प आदिकों से उन की पूजा करें। जिनप्रभसूरि द्वारा विरचित पूजाविधि में भी पूजा के विषय में यही विधि प्रदर्शित की गई है सरस सुगंधित चंदन से भगवान के नव अंगो में तिलकरूप पूजन कर पूजक सुगंधित, जमीन पर नहीं गिरे हुए, पत्र विनाके ताजे पंच जाति ते पुष्पों द्वारा प्रभु की पूजा करें। पुष्प, अक्षत, गंध, प्रदीप, धूप, नैवेद्य फल और जल इन आठ द्रव्यों से आठ कर्मों को नाश करनेवाली अष्टप्रकारी पूजा होती है । जिनमंदिर, जिनप्रतिमा जिनपूजो
और जिनमत को जो करता है, उस मनुष्य के हाथ में मनुष्यगति देवगति और मोक्ष के सुख आ जाते हैं-अर्थात् वह मनुष्य इन गतियों के सर्वोत्तम सुख भोग कर मोक्षसुख का भोक्ता बन जाता है-सो इस प्रकार का यह पूजन विषयक समस्त कथन प्रवचन सिद्ध ही है क्योंकी आचारांगसूत्र में भगवान ने "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदग माणण. पूयणाए जाइमरणमोयणोए दुक्खपरिघायहे से सयमेव पुढविस
ભાવાર્થ–પૂજા કરનાર ગ્ય સમયે સારી રીતે સ્નાન કરીને જીનેન્દ્રને અભિષેક કરે તેમજ પુષ્પ વગેરેથી તેમની પૂજા કરે. જીનપ્રભસૂરિ વડે વિરચિત પૂજાવિધિમાં પણ પૂજાના વિષયમાં આ વિધિ જ બતાવવામાં આવી છે. સરસ સુગંધિત ચંદનથી ભગવાનનાં નવ અંગોમાં તિલક રૂપ પૂજન કરી પૂજા કરનાર સુવાસયુકત, જમીન ઉપર પડેલાં નહિ, પત્ર વગરનાં તાજાં, પાંચ જાતિનાં યુપથી પ્રભુની પૂજા કરે. પુષ્પ, અક્ષત, ગંધ, પ્રદીપ, ધૂપ, નૈવૈદ્ય, ફળ અને પાછું આ આઠ દ્રવ્યોથી આઠ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અષ્ટ પ્રકારની પૂજા હોય છે. જીન મંદિર, જીન પ્રતિમા, જીન પૂજા અને જીન મતને જે કરે છે, તે માણસની પાસે મનુષ્ય ગતિ, દેવગતિ અને મોક્ષનાં સુખો આવી જાય છે. એટલે કે તે માણસ આ ગતિઓનાં સર્વોત્તમ સુખ ભોગવીને મોક્ષ સુખને ભેગવનાર બની જાય છે, માટે આ જાતનું આ પૂજનને લગતું બધું કથન अपयन सिद्ध छ, म माया सूत्रमा मापाने-(इमस्स चेव जीवि. पस्स परिवदणं माणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपरिषायहेउं से
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C
ज्ञाताधर्मकथासू
to वा. पुढविस समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहीए । " इति जीवः कस्मै प्रयोजनाय पृथिवीकायस्य समारम्भं करोतीत्याह -" इमस्स चेत्र " इत्यादि । अस्यैव = क्षणभङ्गुरस्य, “ जीवियस्स" जीवनस्य - जीवनस्यार्थे, तथा परिवन्दनमाननपूजनाय= परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थे यथाऽऽश्वर्यगृहादिकरणे, माननं=सत्कारः तदर्थ, यथा - कीर्तिस्तम्भादिकरणे, पूजनं स्वपूजनं प्रतिमापूजनं च, तत्र स्वपूजनं - वस्त्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थं, तथा - प्रतिमापूजनार्थं च प्रतिमादिरचने तथा - जातिमरणमोचनाय तथा दुःखप्रतिघातहेतुं - दुःखविध्वंसार्थं ।
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त्थं समारंभह, अण्णेहिं वा पुढविसत्यं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहिए " इति - इस सूत्र में " जीव किस प्रयोजन के लिये पृथिवीकाय का समारंभ करता है " इस प्रश्न को उत्तर देते हुए यह कहा है कि यह जीव इस क्षणभंगुर जीवन के लिये परिवन्दन-प्रशंसा के लिये आश्चर्योत्पादक गृह आदि बनवा न दें मान- सत्कार के लिये कीर्तिस्तंभ आदि कराने में, अपनी प्रतिष्ठा के लिये वस्त्र रत्नकम्बल आदि पुरस्कार में तथा प्रतिमापूजन के लिये प्रतिमादि धनवाने में तथा जाति-परलोक में सुखके लिये देवमन्दिर आदिके बनवाने में, मरण- जिनकी मृत्यु हो चुकी है ऐसे अपने पिता आदि की स्मृति के लिये स्तूप आदि की रचना कराने ने में, मोचन-मुक्ति प्राप्ति के लिये देव प्रतिमा आदि बनवाने में अथवा अनेक प्रकार के दुःखोंके विनाश के लिये वर्तमानकालमें स्वयं भी पृथिवी
66
सममेव पुढवित्थं समारभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णेत्रा पुढविसत्यं समारंभते समणुजाणइ त से अहियार त से अवोहिए ) इति - જીવ શા માટે પૃથ્વિીકાયના સમારંભ કરે છે” એ સવાલના જવામ આપતાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે આ જીવ આ ક્ષણભ’ગુર જીવન માટે પરિવંદન–પ્રશંસા માટે આશ્ચર્યંત્પાદક ઘર વગેરે બનાવવામાં, માન-સત્કાર માટે કીર્તિસ્ત ંભે વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, પાતાની પ્રતિષ્ઠા માટે વસ્ત્ર, રત્ન, કામળ વગેરે રૂપ પુરસ્કાર તેમજ પ્રતિમા પૂજન માટે પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં જાતિ પરલેાકમાં સુખ પ્રાપ્તિ થાય તેના માટે દેવ-મઢિ વગેરે તૈયાર કરાવવામાં, મરણ–જેએ મરણ પામ્યા છે તેવા પેાતાના પિતા વગેરેની યાદમાં સ્તૂપ, સમાધિ વગેરે બનાવવામાં, મેચન-મુકિત મેળવવા માટે દેવ- પ્રતિમા વગેરે બનાવવામાં અથવા તે ઘણી જાતનાં દુ:ખાના વિનાશ માટે વમાન કાળમાં પોતે પણ પૃથ્વિીકાયના વિનાશ સ્વરૂપ દ્રવ્યભાવ શસ્ત્રને વ્યાપાર
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्या
सः जीवनपरिवन्दनमाननपूजनाद्यर्थ जनः स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते पृथिव्युपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्रं व्यापारयति । अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति -उद्योजयति । पृथिवी शस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् समनुजानाति अनुमोदयति । एवमतीतानागताभ्यां, तथा मनोवाकायैश्च पृथिवीशस्त्रसमारम्भभेदा अवगन्तव्याः। पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः किं फलं प्राप्नोतीत्याह-" तं से अहियाए" इत्यादि । "तं " तत्-पृथिवीकायसमारम्भणं, " से" तस्य-पृथिवीशस्त्रं समारभमाणस्य " अहियाए” अहिताय-अकल्याणाय भवतीति शेषः। ' तं' तत् = तदेव च पृथिवीकायसमारम्भणमेव च "से" तस्य पृथिवीशस्त्रं समारभमाणस्य " अबोहीए " अवोधये सम्यक्त्वालाभाय जिनधर्मप्राप्त्यभावाय च भवति ।
पृथिवीकायसमारम्भणं हि-कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधम् , तस्यातीतकाय के विनाशस्वरूप द्रव्य भाव शस्त्रका ब्यापार करता है, दूसरों से कराता है और इस शस्त्र का प्रयोग करने वाले प्राणियोंकी अनुमोदना करता है इसी प्रकार भूत और भविष्यत काल में मनवचन और काय से(त्रियोग और त्रिकरणके संबंधसे) यह जीव पृथिवी कायका समारम्भ करने वाला हुआ है और होगा। अतः जिस प्रकार वर्तमान में त्रियोग
और त्रिकरण के संबंध से इस पृथिवी काय समारंभ के भेद होते हैं उसी प्रकार भूत और भविष्यत काल में भी उनके संबंध इसके भेद जानलेना चाहिये। यह पृथिवी काय का समारंभरूप शस्त्रका प्रयोग प्रयोक्ता जीवको कभी भी कल्याण एवं सम्यक्त्व के लाभ जिनधर्म की प्राप्ति की प्राप्ति कराने वाला नहीं होता है।
भावार्थ-पृथिवीकाय का समारम्भ कृत, कारित और अनुमोदना ( કાર્ય ) કરે છે, બીજાઓ પાસે કરાવે છે અને આ શસ્ત્રને પ્રયોગ કરનાર પ્રાણીઓની અનુમોદના કરે છે. આ પ્રમાણે ભૂત અને ભવિષ્યકાળમાં મન, વચન અને કાયથી (ત્રિયોગ અને ત્રિકરણના સંબંધથી ) આ જીવ પૃથ્વિ. કાય સમારંભ કરનાર થયો છે અને થશે. એટલા માટે જેમ વર્તમાનકાળમાં ત્રિગ અને ત્રિકરણના સંબંધથી આ પૃથ્વિકાય સમારંભના ભેદ (પ્રકાર) હોય છે તેમજ ભૂત અને ભવિષ્યત કાળમાં પણ તેમના સંબંધ તેમજ ભેદ જાણું લેવા જોઈએ. આ પૃથ્વિકાયના સમારંભ રૂપ શાસ્ત્રને પ્રગ પ્રકતા જીવન માટે કદાપિ કલ્યાણ સમ્યકત્વને લાભ તેમજ જીન ધર્મની પ્રાપ્તિ કરાવનાર થતું નથી.
ભાવાર્થ–પૃથ્વિકાય સમારંભ કૃત, કારિત અને અનુમોદનાના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર છે. અતીત અને અનાગત કાળના ભેદથી તેના બીજા ત્રણ ત્રણ
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बाताधर्मकथा वर्तमानानागतभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये नवधा भवति । नवविधस्यापि पृथिवीकायसमारम्भणस्य मनोवाकाययोगभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये सप्तविंशतिभङ्गा भवन्ति । एवं विधपृथिवीकायसमारम्भप्रवृत्तः खलु षट्कायारम्भसंपातजन्यघोरतरदुरितार्जनेन दुरन्तसंसारदावानलज्वालान्तःपातं पाप्यानन्तनरकनिगोदादिदुःखमनुभवन् न कदाचित् कल्याणं शाश्वतसुखप्रदं मोक्षमार्ग प्रामोतीतिभावः ॥
भगवता प्रथिवीकायसमारम्भणवदपूकायादिसमारम्भणमप्यहितायाबोधये च भवतीत्यपि तत्रैव परूपितम् । यत्रैकस्य पृथिवीकायस्य समारम्भणे सम्यक्त्वके भेद से तीन प्रकार का है-इसके अतीत और अनागत काल के भेद से तोन ३ प्रकार का और हो जाते हैं इस प्रकार यह तीनों कालों की अपेक्षा से ९ प्रकार का है। इन नव प्रकारों के साथ-मन वचन और काय इन तीनों का गुणा करने से यह २७ प्रकार का माना गया है इस प्रकार त्रिकरण और त्रियोग के संबंध से २७ प्रकार के इस पृथिवीकाय के समारंभ में प्रवृत्त जीव षट्काय के आरंभ के संपात जन्य घोरतर पापों के अर्जन से दुरन्त संसार रूपी दावानल की ज्वाला के मध्य में निमग्न बन अन्त में अनन्त नरक निगोदादिकों के दुःखो का अनुभव करता हुआ कभी भी निज कल्याण का भोक्ता एवं शाश्वत सुख को प्रदान करने वाले मोक्ष के मार्ग का पथिक नहीं बन सकता है पृथिवीकाय के समारम्भ की तरह अपुकाय आदि का समारंभ भी इस जीवात्मा को सदो अहितकारी और अबोध का दाता है यह बात भी वहाँ पर (आचारांग सूत्र में ) भगवान ने कही है अब विचारिए-जब ભેદ થઈ જાય છે. આ રીતે આ ત્રણે કાળની અપેક્ષાએ નવ પ્રકારનો છે. આ નવ પ્રકારોની સાથે મન, વચન અને કાર્યો અને ત્રણેને ગુણાકાર કરવાથી આ ૨૭ પ્રકારનું માનવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે ત્રિકરણ અને ત્રિગના સંબંધથી ૨૭ પ્રકારના આ પૃવિકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્ત જીવ ષટકાયના આરંભના સંપાત જન્મ ઘોરતર ( ભયંકર) પાપાને કારણે દુરંત સંસાર રૂપી દાવાનલના અગ્નિમાં પડીને છેવટે અનંત નરક નિગોદ વગેરે દુઃખને અનુભવતે કદાપિ પિતાના કલ્યાણને ભોકતા થઈને અને શાશ્વત-સુખને આપનાર મોક્ષ માન પથિક (વટેમાર્ગ) બની શકતો નથી. પૃવિકાયના સમારંભની જેમ અમુકાય વગેરેને સમારંભ પણ આ જીવાત્મા માટે હમેશાં અહિતકારી અને અબોધ (અજ્ઞાન) આપનારો છે. આ વાત પણ આચારાંગ સૂત્રમાં ભગવાને કહી છે. હવે આટલું તે આપણે પણ સમજી શકીએ છીએ કે જ્યારે જીવન માટે ફક્ત પૃવિકાય સમારંભ જ જ્યારે અહિત કરનાર અને મોક્ષના
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
४०१ मलभ्यं, किं पुनस्तत्र पट्कायसमारम्भणे स्वर्गापवर्गलाभस्य संभवः । परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थ च ये जीवाः पृथिवीकायादिसमारम्भं कुर्वन्ति, ते तत्फलं विपरीतमेव लभन्ते यतोऽसौ समारम्भः अबोधिमहितं चोत्पादयतीत्युक्तं भगवता । परंतु तत्र प्रतिमापूजकाः शास्त्रविरुद्धमेवं कथयन्तिप्रतिमापूजायां स्वाभ्युदयमोक्षार्थ क्रियमाणः षट्कायसमारम्भः खलु अवोधिमजीष के लिये यह अकेला पृथिवीकाय का समारंभ ही अहित का कर्त्ता
और मोक्ष के मार्ग से वंचित रखनेवाला कहा गया है तो भला किस कार्य में षटूकाय के जीवों को समारंभ होता है, उस कार्य से अथवा उस प्रकार के समारंभ से जीवों को स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) का लाभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् किसी तरह नहीं हो सकता।
जो मनुष्य परिवंदन मानन और पूजन के निमित्त तथा जाति और मरण के मोचन के निमित्त एवं दुःखो के विनाश करने के निमित्त पृथिवीकाय आदि को समारंभ करते हैं, वे उसका विपरीत ही फल भोगते हैं यह बात अच्छी तरह से प्रकट की जा चुकी है। क्यों कि प्रतिमापूजा बोध एवं हित प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर के ही की जाती है -परन्तु इस लक्ष्य की सिद्धि न होकर उससे उल्टा कर्ता जीव अबोध एवं अहित का प्रापक ही होता है ऐसा श्री महावीर प्रभु का कथन है। फिर भी इसके पक्षपाती जन इस बात पर ध्यान न देकर शास्त्र विरुद्ध ही कथन करते हैं-वे यह कहते हैं " कि इस प्रतिमापूजन में माना कि માર્ગથી દૂર ફેંકી દેનાર બતાવવામાં આવ્યો છે ત્યારે કયા કાર્યમાં ષકાયના જીવન સમારંભ હોય છે, તે કાર્યથી અથવા તે તે જાતના સમારંભથી જીવને સ્વર્ગ અને અપવર્ગ (મોક્ષ) ને લાભ કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? એટલે કે કોઈ પણ કાળે જીવને આ કાયથી સ્વર્ગ કે મોક્ષને લાભ થઈ શકતો નથી.
જે માણસ પરિવંદન, મનન અને પૂજનના માટે તેમજ જાતિ અને મરણના મેચન માટે અને દુઃખના વિનાશ માટે પૃથ્વિકાય વગેરેને સમારંભ કરે છે, તેઓ તેનું ઉલટું ફળ ભેગવે છે આ વાત સારી રીતે સમજાવવામાં આવી છે, કેમકે પ્રતિમા પૂજા બેધ તેમજ હિત પ્રાપ્તિના લક્ષ્યને લઈને જ કરવામાં આવે છે. પણ આ લક્ષ્યની સિદ્ધિ ન થતાં તેનાથી સાવ વિપરીત કર્તા જીવ અબોધ અને અહિતને મેળવે છે એવું જ શ્રી મહાવીર પ્રભુએ કહ્યું છે. છતાં ય પ્રતિમા પૂજાના કેટલાક તરફદારીઓ આ વાતને લક્ષ્યમાં ન રાખતાં શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધ જ કથનને વળગી રહે છે. તેઓ આ પ્રમાણે કહે છે
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४०२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
हितं नोत्पादयति, प्रत्युत बोधि नरामरशिव सुखरूपं हितं च सम्यग् जनयतीति, तदेतत् साक्षात् प्रवचनविरुद्धमिति ।
किं च आचाराङ्गसूत्रे पृथिवीकायसमारम्भस्य फलमुक्त्वा भगवता पुनरभिहितम् -' एस खलु गंथे, एस खलु मोहे एस खलु मारे, एस खलु णिरये, इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसंभारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । ' ( आ० १ अ० २ उ० )
छाया - एष खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं षट्काय का समारंभ होता है परन्तु यह समारंभ स्वाभ्युदय एवं मुक्ति प्राप्ति के निमित्त ही किया जाता है-अतः यह कर्त्ता जीवों को न अहित काही उत्पादक होता है और न बोधि के लाभ से वंचित रखता है प्रत्युत यह उन्हें बोधि एवं नर अमर और मोक्ष के सुख स्वरूप हित का प्रदान करने वाला ही होता है " सो इस प्रकार का उनका यह कथन साक्षात् शास्त्र से विरुद्ध ही है-यह बात आचारांग सूत्र से भली भांति पुष्ट होती है उसमें पूर्वोक्तरीति से पृथिवीकाय के समारंभ का फल कहकर फिर यह कहा गया है- एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरये, एच्चत्थं गड्डिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थे हिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरुवे पाणे विहिंसह " ( आ- १ अ २ उ ) यह पृथिवीकाय का समारंभरूप शस्त्र निश्चय से जीवों को अष्टप्रकार के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध
"
કે-આપણે થાડા વખત માટે આમ પણુ માની લઈએ કે આ પ્રતિમા પૂજ નમાં ષટ્કાયના સમારંભ થાય છે-પણ આ સમારંભ સ્વાભ્યુદય અને મુકિતની પ્રાપ્તિ માટે જ કરવામાં આવે છે. એટલા માટે આ કર્તા જીવેાના માટે અહિતનેા ઉત્પાદક પણ હાતા નથી અને મેધિના લાભથી પણ તેએ ને વરંચિત રાખતે નથી. આ તે તેમને એધિ અને નર અમર અને મેાક્ષના સુખ સ્વરૂપ હિતને આપનાર જ હેાય છે. પણ તેમનું આ કથન પ્રત્યક્ષ રૂપમાં શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ જ છે. આ વાત આચારાંગ સૂત્રથી સારી પેઠે પુષ્ટ થઈ જાય છે. તેમાં પૂર્વોક્ત રીતથી પૃથ્વિકાયના સમારંભનું ફળ મતાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું છે—
" एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु नरये, एच्चत्थं गडूंढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहि सत्येहि पुढविकम्म समारभेणं पुढविसत्थ समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ " ( आ. १ अ. २ उ. )
આ પૃથ્વિકાયનું સમારંભ રૂપ શત્રુ ચાક્કસ જીવેના માટે આઠ પ્રકારના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । एषः पृथिवीशस्त्रसमारम्भः खलु निश्चयेन ग्रन्थः अथ्यते बध्यते जीवोऽनेनेति ग्रन्थः, अष्टविधकर्मबन्धः, बन्धजनकत्वाद् ग्रन्थ इत्युच्यते । तथा-एष मोहः विपर्यासः वीपरीत ज्ञानरूप इत्यर्थः तथा-एप मार: निगोदादिमरणरूपः। तथा-एष खलु नरकः-नारक जीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम्-एतदर्थ कर्मबन्ध-मोह मरण-नरकरूपं घोरं दुःखफलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोकः अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धः-लिप्सुरस्ति । यद्यपि विषयभोगासक्तो लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थ परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थ च पृथिवीशस्त्रसमारम्भं करोति, तथापि तत्फलं कर्मबन्धमोहमरणनरकरूपमेव लभते, अतः पृथिवीकर्मसमारम्भस्य तदेव फलं भवतीति भावः । तदेवं प्रवचनविरुद्धप्ररूपणकराने वाला होने से ग्रन्थस्वरूप, विपरीत ज्ञान का जनक होने से मोहरूप, निगोदादि जीवों का इस में मरण होता है-इसलिये मार स्वरूप तथा नारकियों की दश प्रकार की यातनो का हेतु होने से यह नरकरूप माना गया है। इस प्रकार यह जीव इस पृथिवीकाय के समारंभरूप शस्त्र के फलस्वरूप कर्मबन्ध, मरण और नरकरूप घोरतर दुःखों को भोगता हुआ भी अज्ञान के आधीन होकर उसी शस्त्र के प्रयोग करने का फिर भी अभिलाषी हो रहा है। यद्यपि विषय भोगों में आसक्त बना हुआ यह जीव शरीर आदि की पुष्टि परिवंदन, मानन, पूजन एवं जाति और मरण के मोचन के लिये तथा दुःखो के विनाश के लिये पृथिवीकाय के समारंभरूप शस्त्र का प्रयोग करता है-परन्तु फिर भी इसका वह कर्मबन्ध, मोह, मरण, नरकरूप फल का ही भोक्ता बनता જ્ઞાનાવરણીય વગેરે કર્મોને બંધ કરાવનાર હોવા બદલ ગ્રન્થ સ્વરૂપ, વિરુદ્ધ જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરનારું હોવાથી મોહ રૂપ, નિગોદ વગેરે જીવનું આમાં મરણ થાય છે માટે માર સ્વરૂપ તેમજ નારકીઓની દશ પ્રકારની યાતનાનું કારણ રૂપ હોવાથી આ નરક રૂપ માનવામાં આવ્યું છે. આ રીતે આ જીવ આ પૃવિકાયના સમારંભ રૂપ શસ્ત્રના ફળ સ્વરૂપ કર્મબંધ, મરણ અને નરક રૂપ ઘેરતા દુઃખને ભેગવવા છતાં પણ અજ્ઞાનવશ થઈને તે જ શસ્ત્રને પ્રયોગ કરવા માટે ફરી તૈિયાર થઈ રહ્યો છે. જે તે વિષય ભોગોમાં આસક્ત બનેલા આ જીવ શરીર વગેરેની પુષ્ટિ પરિવંદન, માનન, પૂજન અને જાતિ મરણના મોચન માટે તેમજ દુઃખને દૂર કરવા માટે પૃથ્વિકાયના સમારંભ રૂપ શસ્ત્રને પ્રયોગ કરે છે પણ છતાં યે તે કર્મબન્ધ, મોહ, મરણ અને નરક રૂપ ફળને ભેગવનાર જ બને છે. એટલા માટે આપણે ચોક્કસ કહી શકીએ તેમ છીએ
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हाताधर्मकथासूत्र पराः सर्वदोषनिर्मुक्तं शुद्धमद्वितीयमनवचं जैनधर्म सावधपूजोपदेशेन कुमावचनिकोपमेयं कुर्वन्तः संसारदावानले जनान् पातयन्तः स्वयं च मोहनीयकर्मोदयवशादन्धा इव सन्मार्गतो निपतन्तः स्वात्मानमहितेन मिथ्यात्वेन च पुनः पुनः संयोजयन्ति । यदि मृगतृष्णाऽपि केषांचित् पिपासाकुलानां स्वच्छजलधारावाहिनी भवेत् , तदा प्रतिमापूजापि तेषां द्रव्यलिङ्गिनां परिणामशुद्धि संपादिनी अष्टविधर्मदलनी नरामरशिवमुखविधायिनी भवेदिति बोध्यम् ! है। अतः प्रतिमापूजन का उपदेश निश्चित है कि प्रवचनमार्ग से विरुद्ध है। इस विरुद्ध प्ररूपणा करने में तत्पर मनुष्य सर्व दोषों से रहित, शुद्ध
और अद्वितीय एवं अनवद्य इस जैनधर्म को सावद्य पूजा के उपदेश से कुप्रावनिक की तरह कलंकित-सदोष कर संसाररूपी दावानल में भोले भाले प्राणियों को डाल रहे हैं और स्वयं भी मोहनीय कर्म के उदय से अन्ध की तरह बन कर सन्मार्ग से विमुख होते हुए अपनी आत्मा को अहित और मिथ्यात्व के कलंक से कलुषित कर रहे हैं। अरे-कहीं मृगतृष्णा से भी प्यासे व्यक्तियों की प्यास बुझती हैं ? यदि नहीं, फिर मृगतृष्णा तुल्य इस प्रतिमा पूजन से कर्त्ता की सम्यक्त्व
और हित की प्राप्ति होने रूप प्यास कैसे घुस सकती है-सोचो। हां! यदि ऐसा होता कि मृगतृष्णा स्वच्छ जल की धारा बहाकर प्यासे प्राणियों की तृषा को शांत करती-तो यह प्रतिमा पूजन भी द्रव्यलिङ्गि यों के परिणामों में शुद्धि करती हुई उनके अष्टकर्मों कों दलने वाली और उन्हें नर, अमर एवं शिवसुख प्रदान करने वाली भी हो सकती। કે પ્રતિમા પૂજનને ઉપદેશ પ્રવચન માર્ગથી વિરૂદ્ધ છે આ જાતની વિરૂદ્ધ પ્રરૂપણ કરવામાં તત્પર માણસ બધા દેથી રહિત, શુદ્ધ. અદ્વિતીય અને અનવદ્ય આ જૈન ધર્મને સાવદ્ય પૂજાના ઉપદેશથી કુપાવચનિકની જેમ કલંકિત દેવયુક્ત બનાવીને સંસાર રૂપી દાવાનલમાં ભેળા પ્રાણીઓને નાખી રહ્યો છે અને જાતે પણ મેહનીય કર્મના ઉદયથી આંધળાની જેમ થઈને સન્માગથી દૂર થતાં પિતાના આત્માને અહિત અને મિથ્યાત્વના કલંકથી કલુષિત કરી રહ્યો છે. મૃગજળથી પણ કઈ દિવસે તરસ્યા માણસની તરસ મટી શકી છે? જે આવું નથી તે પછી મૃગજળ જેવી આ પ્રતિમા પૂજનથી કર્તાની સમ્યકત્વ અને હિતની પ્રાપ્તિ થવા રૂપ તરસ કેવી રીતે મટી શકે તેમ છે. મૃગજળ નિર્મળ પાણીને ઝરો થઈને તરસ્યાં પ્રાણીઓની તરસ મટાડી શકત તે આ પ્રતિમા પૂજા પણ દ્રવ્યલિંગિઓના પરિણામમાં શુદ્ધિ કરનારી તેમના આઠ કર્મોને નષ્ટ કરનારી અને નર, અમર અને શિવ-સુખ આપનારી પણ થઈ શકત?
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४०५
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १६ द्रौपदीचर्चा
यत्तु-ब्राह्मीलिपिरिव प्रतिमा वन्द्या, 'नमो बंभीए लिबीए " इतिपदं यद् व्याख्याप्रज्ञप्तेरादावुपन्यस्तं. तत्र ब्राह्मीलिपिरक्षरविन्यासः, सा यदि श्रुतज्ञानस्याऽऽ कारस्थापना, तदा तद्वन्द्यत्वे साकारस्थापनाया भगवत्प्रतिमायाः स्पष्टमेव वन्द्यत्वम् तुल्यन्यायादित्युक्तं, तन्मोहनीयकर्मोदयविलसितम्
श्रुतज्ञानरूपस्य भावश्रुतस्य स्थापना-श्रुतज्ञानवतः श्रुतपठनादिक्रियावतः साध्वादेश्चित्रादिकं भवति, श्रुततद्वतोरभेदोपचारात् साध्वादिः श्रुतमुच्यते । स्थापनावश्यकस्य स्थापनाश्रुतस्य च तथैवानुयोगद्वारे भगवता वर्णनात् । यदेवं लिपिः श्रुतज्ञानस्य स्थापनारूपत्वं न प्रामोति । तस्मात् प्रतिमायां ब्राह्मीलिपिदृष्टान्त प्रदर्शनमुत्सूत्रप्ररूपणम् ।
किश्च-प्रतिमापूजन की पुष्टि के लिये " नमो बंभीए लिवीए" व्याख्याप्रज्ञप्ति की आदि में लिखे हुए इस सूत्र के बल पर जो उसके पक्षपाती जन यह कहते हैं-" कि अक्षर विन्यासरूप ब्राह्मीलिपि जिस प्रकार श्रुतज्ञान के आकार की स्थानपारूप होकर वन्द्य-वन्दनीय मानी गई है उसी प्रकार साकार स्थापनारूप भगवान की प्रतिमा में भी वन्दनीयता स्पष्ट ही है" सो यह कथन विचार करने पर ठीक नहीं बैठता है।
तथाहि- श्रुतज्ञानरूप भावश्रुत की स्थापना-श्रुतज्ञानसंपन्न, और श्रुत के पठन की क्रिया विशिष्ट ऐसे जो साधु आदिजन हैं उनके चित्र आदि स्वरूप पड़ती है अर्थात् श्रुतज्ञानी सोधु आदि के चित्रस्वरूप ही श्रुतज्ञानरूप भावश्रुतकी स्थापना होती है । ब्राह्मीलिपि अक्षर विन्यास है। वह श्रुतज्ञान की स्थापना है । यहाँ श्रुतज्ञानी साधु आदि को जो
भने भाग ५ -प्रतिभा पुराननी पुष्टि माटे “ नमो बंभीए-लिबीए " વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિની શરૂઆતમાં આવેલા આ સૂત્ર મુજબ જે તેની તરફદારી કરનાર માણસો આમ કહે છે કે “અક્ષર વિન્યાસ રૂપ બ્રાહિમ લિપિ જેમ શ્રતજ્ઞાનના આકારની સ્થાપના રૂપ થઈને વન્ય-વંદનીય માનવામાં આવી છે, તેમજ આકાર-થાપના રૂપ ભગવાનની પ્રતિમામાં પણ વંદનીયતા સ્પષ્ટ દેખીતી વાત જ છે પરંતુ આ કથનને પણ વિચાર કર્યા બાદ એગ્ય લાગતું નથી. તેમજ શ્રુતજ્ઞાન રૂ૫ ભાવકૃતની સ્થાપના-શ્રુતજ્ઞાન સંપન્ન અને શ્રતના પઠનની કિયા વિશિષ્ટ એવા જે સાધુ વગેરે લકે છે તેમના ચિત્ર વગેરે સ્વરૂપ હોય છે. એટલે કે શ્રતજ્ઞાની સાધુ વગેરેના સ્વરૂપ જ શ્રુતજ્ઞાન રૂપ ભાવકૃતની સ્થાપના હોય છે. બ્રાદ્ધિ-લિપિ અક્ષર વિન્યાસ છે. તે શ્રુતજ્ઞાનની સ્થાપના છે. અહીં શ્રતનાની સાધુ વગેરેને જે ભાવભૃત રૂપ કહેવામાં આવ્યા છે તે શ્રુતજ્ઞાન
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शाताधर्मकथासूत्र ___ यत्तु-अभयदेवीयवृत्तौ संज्ञाक्षररूपं द्रव्यं श्रुतं नमस्कुर्वन्नाह- णमो बंभीए लिबीए ' इत्युक्तं तद् भ्रान्तिमूलकम् पुस्तकवर्तिन्या अकारादिवर्णसंकेतरूपाया लिपेद्रव्यश्रुतत्वं न संभवति यतः श्रुतं नाम द्वादशाङ्गीरूपमहत्पवचनं शास्त्रं यस्य कस्यचिज्जीवस्य शिक्षितं स्थितं जितं यावद् वाचनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचनापच्छनादिभिर्वर्तमानोऽपि श्रुतोपयोगाभावादागममाश्रित्य द्रव्यश्रुतम् , आ भावश्रुतरूप कहा गया है-वह श्रुतज्ञान और श्रुतवान में अभेद के उपचार से ही कहा गया समझाना चाहिये । इसी रूप से ही भगवान ने अनुयोग द्वार में स्थापना आवश्यक और स्थापन। श्रुत का कथन किया है। अतः लिपि में भावश्रुत की कल्पना से श्रुतज्ञान की स्थापना मानना कथमपि युक्ति संगत नहीं है। इसी प्रकार लिपि में द्रव्यश्रुतता भी नहीं आती है। क्यों कि द्वादशांगीरूप अर्हत प्रवचन का नाम श्रुत है। श्रुतज्ञान का ज्ञाता जब उसमें अनुपयुक्त अवस्थानवाला है। तब वही आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत कहा जाता है। संज्ञा अक्षर रूप आकृति को द्रव्यश्रुत नहीं कहा है । इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि-अभयदेव विरचित वृत्ति में " णमो बंभीए लिबीए" इस पद का अर्थ संज्ञो अक्षररूप द्रव्यश्रुत परक मानकर जो नमस्कार किया गया है -वह भ्रान्तिमूलक है, क्यों कि पुस्तक में रही हुई संकेतित अकार आदि वर्ण की आकृति में द्रव्यश्रुतता संभवित नहीं होती है। वाचना, पृच्छना आदि से अधिगत श्रुत में अनुपयुक्तज्ञाता ही द्रव्यश्रुत है इसी અને કૃતવાનમાં અભેદે પચારથી જ કહેવાયેલે સમજ જોઈએ. આ રૂપથીજ ભગવાને અનુગદ્વારમાં સ્થાપના આવશ્યક અને સ્થાપના શ્રતનું કથન કર્યું છે. એટલા માટે લિપિમાં ભાવથતની કલ્પનાથી શ્રુતજ્ઞાનની સ્થાપના માનવી કઈ પણ રીતે યોગ્ય નથી આ પ્રમાણે જ લિપિમાં દ્રવ્યતતા પણ આવતી નથી. કેમકે દ્વાદશાંગી રૂપ અહંત પ્રવચનનું નામ શ્રત છે. આ કૃતજ્ઞાનને જ્ઞાતા જ્યારે તેમાં અનુપયુકત અવસ્થાવાળે હેાય છે ત્યારે તે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યશ્રત કહેવાય છે. સંજ્ઞા અક્ષર રૂપ આકૃતિને દ્રવ્યશત કહી નથી. मा ४थनथी । वातनी पुष्टी थाय छे मलयहे। वि२थित वृत्तिमा " णमो बभीए लियीए " 21 ५ने। म सज्ञा १३२ ३५ द्रव्य श्रुत५२४ भानीन જે નમસ્કાર કરવામાં આવ્યા છે તે બ્રાંતિમય છે, કેમકે પુસ્તકમાં રહેલી સંકેતિત અકાર વગેરે વર્ણની આકૃતિમાં દ્રવ્યશ્રુતતા સંભવિત નથી હોતી. વાચના, પુચ્છના વગેરેથી અગિત શ્રતમાં અનુપયુકત જ્ઞાતા જ દ્રવ્યશ્રત છે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचच
चाराङ्गादिकं मतिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविमुक्तं पठितवतः साध्वादेस्तदर्थज्ञानाभावे सति द्रव्यत्वं भवति, तथैवानुयोगद्वारे द्रव्यश्रुतस्य वर्णनात् । वर्णसंकेतरूपा लिपिस्तु न शब्दात्मिका, यतो वर्णस्यैवोच्चारणमुपपद्यते, न तु तत्संकेतस्य लिपिमतः पुस्तकादेस्तु श्रुतं शिक्षितं यावद् वाचनोपगतं न भवितुमर्हति अतस्तस्य द्रव्यत्वं न संगति कथं पुनस्तद्गतलिपेस्तत्संभवः ? कथमपि नहि ।
किं च - द्रव्यश्रुतस्य वन्यत्वमेव नास्ति, अनुपयुक्तत्वाच्चरणगुणशून्यत्वाच्च, तस्माद् भावतस्यैव वन्यत्वपाप्तौ द्रव्यश्रुतनमस्कारकल्पनं भ्रान्तिमूलकमेव | 'नमो बंभीर लिपीए' अस्थायमर्थः- वर्णात्मकभाषासं केतरूपा लिपिब्रह्मी लिपि:
४०७
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प्रकार द्रव्यश्रुत का वर्णन अनुयोगद्वार में किया गया मिलता है। अकार आदि वर्णरूप से संकेतित लिपि में शब्दात्मकता आभी नही सकती है- क्योंकि वर्ण का ही उच्चारण होता है उसके संकेत का नहीं । लिपियुक्त पुस्तकादि में भी वाचना आदि कुछ नहीं होता है । क्यों कि वह जड़ है - चेतन में ही ये वाचना पृच्छना आदि होते हैं। अतः उस में द्रव्यश्रुतता मानना सर्वथा अयुक्त है इसलिये यह निश्चित होता है कि अकार आदि वर्णरूप से संकेतित लिपि में और इस लिपि विशिष्ट पुस्तकादिक में द्रव्यश्रुतता किंचित मात्र भी संभवित नहीं है ।
किच- अनुपयुक्त होने से और चरणगुण शून्य होने से द्रव्यश्रुत में बंधता आ ही नहीं सकती है। भावश्रुत में ही उपयोग सहित और चरणगुण युक्तता होने से वंदता आती है अतः द्रव्यश्रुत में नमस्कार करने की कल्पना करना केवल भ्रान्तिमूलक ही है “नमो बंभीए
આ રીતે દ્રવ્યશ્રુતનું વર્ણન અનુયાગ દ્વારમાં કરવામાં આવ્યું છે. અકાર વગેરે વણુ રૂપથી સ`કેતિત લિપિમાં શબ્દાત્મકતા આવી શકે તેમ નથી. કેમકે ઉચ્ચારણ તે દ્રવ્યનું જ થાય છે, તેના સંકેતનું નહિ. લિપિ યુકત પુસ્તક વગેરેમાં પણ વાચના વગેરે કંઇ જ હાતુ નથી. કેમકે તે જડ છે, ચેતનમાં જ વાચના પૃચ્છના વગેરે થાય છે. એથી તેમાં દ્રવ્યશ્રુતતા માનવી સાવ અયેાગ્ય છે. એથી એ વાત ચાક્કસ થાય છે કે અકાર વગેરે વર્ણ રૂપથી સ`કેતિત લિપિમાં અને આ લિપિ વિશિષ્ટ પુસ્તક વગેરેમાં દ્રવ્યશ્રુતતા થેડી પણ સંભવિત નથી.
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અને ખીજું પણ કે-અનુયુકત હેાવાથી અને ચરણુગુણ શૂન્ય હોવાથી દ્રષ્યશ્રુતમાં ખધતા આવી જ શકતી નથી. ભાવતમાં જ ઉપયાગ સહિત અને ચરણગુણ યુક્તતા હોવાથી વદતા આવે છે. એટલા માટે દ્રષ્યશ્રુતમાં નમસ્કાર पुरवानी उदयना १२वी भ्रांतिभूस छे. " नमो बंभीए लिवीए " मानो अर्थ
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हाताधर्मकथासूत्रे ब्राह्मीशब्दस्य भाषार्थकत्वात् , उक्तं चामरकोशे-'ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती' इति । यद्वा-अष्टादशपकारा लिपिः श्रीमन्नाभेयजिनेन ब्राह्मीनामिका स्वमुतां प्रदर्शिता तस्मात् सा लिपिाह्मीत्युच्यते । लिपिज्ञानस्य श्रुतज्ञानोपयोगितया भावश्रुतहेतुं लिपिज्ञानरूपं भावलिपि वन्दमानः श्रीमुधर्मा स्वामी पाह-'नमो बभीए लिबीए' इति । श्रुतज्ञानं प्रति लिपिज्ञानं कारणं, यतो लिपिज्ञानेन तत्संकेतितशब्दस्मरणं, ततस्तदर्थज्ञानं जायते । तस्माद् भगवदुक्तार्थस्य प्रतिबोधनाय तन्दोधकशब्दजातरूपं श्रुतं लिपिबद्धं कर्तुकामः श्रुतबोधिकां लिवीए" इसका अर्थ इस प्रकारसे संगत बैठती है-अकार आदि वर्णात्मक भाषा के संकेतरूप लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है-ब्राह्मी शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अमर कोष में भी यही बात कही है-" ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग् वाणी सरस्वती"। अथश-श्री आदिनाथ प्रभु ने अपनी ब्राह्मी नाम की पुत्री को १८ प्रकार की लिपि कही थी इसलिये भी उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि इस प्रकार से पड़ गया है। श्रुतज्ञान में उपयोगी होने से इस लिपि के ज्ञान को भावथुन का कारण माना है। इसलिये लिपि ज्ञानरूप भाव लिपि को वन्दन करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं " नमो बंभीए लिवीए"। श्रुतज्ञान के प्रति लिपि ज्ञान कारण है- क्यों कि लिपि के ज्ञान से अकारादि वर्णास्मक लिपि रूप से संकेतित उस उस शब्द का स्मरण होता है और उससे उसके अर्थ का ज्ञान होता है। अतः भगवान द्वारा प्रतिपादित अर्थ को समझाने के लिये उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्दों के
આ પ્રમાણે સુસંગત બેસી શકે છે કે-અકાર વગેરે વર્ણાત્મક ભાષાના સંકેત રૂપ લિપિનું નામ બ્રાહ્મી લિપિ છે. બ્રાહ્મી શબ્દ “ભાષા ” આ અર્થમાં પ્રયુકત थयो छ सभा२शमा ५९] मे ४ वात ४उवाभां मावी छ है " ब्रह्मी तु भारती भाषा गीर्वागवाणी सरस्वती " अथवा तो श्री माहिनाथ प्रभुये पोताना બ્રાહ્મી નામની પુત્રીને અઢાર પ્રકારની લિપિઓ બતાવી હતી. એટલા માટે પણ આ લિપિનું નામ બ્રાહ્મી લિપિ પડી ગયું છે. શ્રુતજ્ઞાનમાં ઉપયોગી હોવાથી આ લિપિના જ્ઞાનને ભાવતનું કારણ માનવામાં આવ્યું છે. એથી લિપિજ્ઞાન ३५ भापतिपिने वाहन ४२di श्रीसुधारवामी ४ छ है "नमो बभीए लिवीए" શ્રતજ્ઞાનનાં પ્રતિ લિપિજ્ઞાન કારણ છે કેમકે લિપિના જ્ઞાનથી અકાર વગેરે વર્ણાત્મક લિપિ રૂપથી સંકેતિત તે શબ્દનું સ્મરણ થાય છે. અને તેનાથી તેના અર્થનું જ્ઞાન થાય છે એટલા માટે ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત અને સમજાવવા માટે તે અર્થનું
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मनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १६ द्रोपदीया
"४०९ भावलिपि प्रति समुपजातभक्तिः श्रीसुधर्मा स्वामी लिपिज्ञानस्य माहात्म्यं प्रकटयन् भावश्रुतं प्रति भावलिपे! कारणतयाऽभ्यर्हितत्वेन ततः पूर्व भावलिपिवन्दनं कृतवान् , तत्पश्चाद् भावश्रुतं नमस्कुर्वन्नवादीत् ‘नमः सुयस्स' इति ।
यत्तु-अभयदेवमूरिणा स्वकृतटीकायामुक्तम् ' जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ' त्ति एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते । वाचनान्तरे तु-'हाया जाव सव्वालंकारविभूसिय मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडि निक्खमित्ता जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ २ ता, जिणपडिमाणं समूहरूप श्रुत को लिपिबद्ध करने की इच्छा से श्री सुधर्मास्वामी कि जिन की भक्ति श्रुतयोधक भावलिपि के प्रति जागृत हुई है लिपिज्ञान के माहात्म्य को प्रकट करते हुए भावश्रुत को नमस्कार करने के पहिले भावलिपि को ही नमस्कार करते हैं क्यों कि भावश्रुत के प्रति भाव. लिपि को ही कारणता है, और इसी निमित्त से यह उसकी अपेक्षा पूज्य मानी गई है भावलिपि को नमस्कार करने के पश्चात् ही उन्हों ने " नमः-सुयस्स" भावश्रुत को नमस्कार इस सूत्र द्वारा किया है। "जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ" इस पाठ को लेकर जो टीकोकार अभयदेव लूरि ने जिनप्रतिमा कि पूजन करने की बात कही है-सो ठीक नहीं हैं। क्यों कि मालूम होता है, कि उन्हें मूल पाठ का निश्चय ही नहीं हुआ है-कारण कि एक वाचना में तो यही पाठ मिलता है-तब कि दूसरी वाचना में "हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमई, २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छइ, २ પ્રતિપાદન કરનારા શબ્દોના સમૂહરૂપ શ્રુતને લિપિબદ્ધ કરવાની ઈચ્છાથી શ્રી સુધર્મા સ્વામી-કે જેમની કૃતબેધક ભાવલિપિ પ્રત્યે ભક્તિ ઉત્પન્ન થઈ છે-લિપિ જ્ઞાનના માહાભ્યને પ્રગટ કરતાં ભાવશ્રતને નમસ્કાર કરતાં પહેલાં ભાવલિપિ. ને જ નમસ્કાર કર્યા છે. કેમકે ભાવકૃત પ્રત્યે ભાવલિપિ જ કારણતા છે અને આ કારણથી જ આ તેના કરતાં પૂજ્ય માનવામાં આવી છે. ભાવલિપિને નમઃ २७१२ ४ा माह तेभरे " नमः सुयस्स" मा सूत्र 43 माश्रतने नभ२४१२ ४ा छ. “जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ” मा ५४ना साधारे २ 21કાર અભવદેવસૂરિએ જીનપ્રતિમાની પૂજાની વાત કહી છે તે યોગ્ય નથી કેમકે તેમને મૂળ પાઠને નિશ્ચય જ થયો નથી એમ જણાઈ આવે છે કારણ કે એક વાચનામાં તે એ જ પાઠ મળે છે. ત્યારે બીજી વાચનામાં –
(हाया जाव सव्वालकारविभूसिया मज्जण घराओ पडिनिक्खमई, २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छई, २ जिणधरं अणुपविसइ, जिणपडिमाणं आलोए १५२
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हाताधर्मकथागसूत्रे आलोए पणाम करेइ २ त्ता, लोमहत्थयं परामुसइ २ ता, एवं जहा भूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ ' त्ति । तेन मूलपाठस्य निश्चयस्तस्य नाभूदिति विज्ञायते ।।
अतः परं च-वामं जाणुं अंचेइ दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २' इति प्रतिमापूजकैः स्वीकृतो मूलपाठस्तत्र वर्तते, टीकाकारस्तु-'दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि निह? ' इति पाठं टीकायां विलिख्य निगदति-'निहटु' निहत्य स्थापयित्वेत्यर्थः, णिवेसेइ ' इत्यत्र-'निहट्टु ' इति पाठभेदः कृतः। तेना. प्येतद् विदितं भवति-यस्य यादृशं मनस्यभिरुचितं स तादृशमिह मूलपाठं प्रक. ल्पयति स्म इति । जिणघरं अणुपविसह जिणपडिमाणं आलोए पगामं करेइ, २ लोमहत्वयं परामुसइ, २ एवं जहानूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेह तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ"त्ति यह पाठ मिलता है। इसके बाद " वामं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेइ २" ऐसा पाठ मिलता है और यही पाठ प्रतिमा पूजकों को संमत है । परन्तु टीकाकार श्री अभयसूरि ने " दाहिणं जाणुं धरणीतलंसी निहटूटु' ऐसा पाठ टीकामें रखकर 'निहट्ट' इस पद की टीका " स्थापना करके " ऐसी की है। इस प्रकार " णिवेले" की जगह 'निहटूटु' ऐसा पाठ भेद किया गया है। इसी प्रकार प्रतिमा पूजकों द्वारा स्वीकृत “तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलंसि नमेइ" इस मूल पाठ में भी परिवर्तन “नमेइ" क्रिया पद में “निवेशयति" इस रूप से कर दिया है। इससे यह बात निश्चित होती है कि जिस के मन पणामं करेइ, २ लोमहत्थयं परामुखइ, २ एवं जहा सूरियाभो जिनपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्व जाव धूव डहइ ) त्ति,
मा ५४ भजे छ त्या२५छ। “वामं जाणु धरणियल सि णिवेसेड २” આ જાતનો પાઠ મળે છે અને એ જ પાઠ પ્રતિમા પૂજાના તરફદારીઓને માટે सभत ३५ छ. ५५ १२श्री मलयवसूरिये “ दाहिण जाणु धरणीतलसी निहट" या तनी ५४ मां री “ निहल” मा पनी 11स्थापना ४शन २प्रभारी छ. मा शत “णि वेसेइ " नस्थान " निहटु " म जतन 48 ४२वामा माव्य। छे.
प्रतिमा पूजना त२३वारीमा १३ स्वीकृत (तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणीतल सि नमेइ ) मा भूगमा ५ "नमेइ" यापम “निवेशयति " 21 जतनु परि. વર્તન કરી નાખ્યું છે. આથી આ વાતની ખાત્રી થાય છે કે જેના મનમાં જે પાઠ ગમે તેણે તે પ્રમાણે જ ફાવે તેમ પિતાની કલ્પનાથી મૂળ પાઠમાં
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अंगराधामृतवषिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचर्या
तदनन्तरं पुनः प्रतिमापूजकैः स्वीकृते-मूलपाठे-'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेइ ' इति दृश्यते, 'नमेइ' इत्यत्र टीकाकार:-'निवेसेइ' इतिलिखित्वा निवेशयतीत्यर्थ उक्तः, तेनात्र-मूलपाठस्य स्वस्वकपोलकल्पितत्वं सिध्यति, द्रौपद्याश्चरिते टीकाकृताऽभयदेवमरिणा पुनरीदृशः पाठो लब्धः
'ईसिं पच्चुन्नमति २त्ता, करयल०जाव कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ२ जिणघराओ पडिनिक्खमइ ' इति इमं पाठं टीकायां विलिख्य टीकाकारः प्राह___'तत्र वन्दते चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन,नमस्यति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः । न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनममिहितं सूत्रे इति सूत्रमें जैसा पाठ रुचा है उसने उसी प्रकार मूल पाठ में जिन कल्पना का पाठ प्रक्षिप्त करके पाठ भेद कर दिया है। अतः स्वकपोलकल्पित होने से असली मूल पाठ का निश्चय ही नहीं होता है, द्रौपदी के चरित में टीकोकार अभयदेवसूरि को इस प्रकार को पाठ उपलब्ध हुआ-ईसिं पच्चुन्नमति २, करयल० जाव कट्टु एवं क्यासी-नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ, नमसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति" पाठ को लिखकर उन्हों ने टीका की। वन्दते-नमस्यति पद के अर्थ का खुलाशा करते हुए वे कहते हैं कि प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधि के अनुसार नमन करना वंदना और इसके बाद प्रणिधान आदि के योग से नमस्कार करना नमन है ऐसा सिद्धान्त वृद्धों का है। सूत्र में जब द्रौपदी का प्रणिपात दृण्डक मात्र चैत्यवंदन कहो है-अर्थात् दण्ड की तरह प्रणाम करने रूप चैत्यवंदन कहा गया है-तो इसी से यह કંઈક ઉમેરે કરીને પાઠ ભેદ કરી નાખે છે. એટલા માટે સ્વપલકલ્પિત હવા બદલ અસલ મૂળપાઠને નિશ્ચય જ થઈ શકે તેમ નથી. દ્રૌપદી ચરિતમાં A२ समयवसूनि। At तो पाठ भन्या छ -( ईसिं पच्चुन्नमत्ति २, करयल० जाब कटु एवं वयासी-नमोत्थुणं अरिहताण भगवंताण जाव संपचाणं वदइ, नमसइ २, जिणधराओ पडिनिक्खमइ इति ) मा याने समान तभरे 1 3 . 'वन्दते ' ‘नमस्यति' ५४॥ मनु २५४२६ ४२di તેઓ કહે છે કે પ્રસિદ્ધ ચૈત્ય વંદન વિધિ મુજબ નમન કરવું. વંદના અને ત્યારપછી પ્રણિધાન વગેરેના વેગથી નમસ્કાર કરે નમન છે, વૃદ્ધોને આ જાતને સિદ્ધાન્ત છે. સૂત્રમાં જ્યારે પ્રણિપાત દંડક માત્ર ચિત્યવંદન કર્યું છે ત્યારે એનાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે બીજા શ્રાવકને પણ આ
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४१२
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र प्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपत्वादस्य, इति । न चेत्यस्य मन्तव्यमित्यत्रान्वयः। द्रौपदी प्रणिपातदण्डकमात्रं-दण्डवत्मणाममात्ररूपं चैत्यवन्दनं-प्रतिमावन्दनं कृतवतीत्यथै बुद्ध्वाऽन्योपि श्रावक एतत्सूत्रं प्रमाणमाश्रित्य तावदेव तत् प्रणिपातदण्डकमात्रं वन्दनं कुर्यादिति न मन्तव्यम् , तत्र कारणमाह ' चरितानुवादरूपत्वादस्य ' इति । अस्य एतत्मूत्रस्य चरितानुवादरूपत्वात् ज्ञातप्रदर्शकतया यथावृत्तस्य तत्तच्चरितस्यानुवादरूपत्वात् , न तु भगवता ' जयं चरे जयं चिट्टे' इत्यादिवत् कचिदाज्ञा प्रदत्ता।
तस्मादस्य विधिनिषेधबोधकत्वं न संभवतीत्याह -' न च चरितानुवादवच. पात भी सिद्ध हो जाती है कि अन्य श्रावकों को भी इसी प्रकार वन्दन नमन करना चाहिये-सो इस प्रकार का कथन ठीक नहीं है। कारण कि यह चरितानुवाद रूप है।। ____ भावार्थ-कोई अन्य श्रावक जन ऐसा समझकर कि सूत्र में जब द्रौपदी ने दण्डकी तरह होकर,चैत्यवंदन किया है तो इसी सूत्रकी प्रमाणता लेकर हमें भी इसी तरहसे प्रणाम करना चाहिये सो इस प्रकार की मान्यता उनकी ठीक नहीं है कारण कि यह चरित का ही अनुवादक है। चरितका अनुवादक वाक्य विधेयरूप से मान्य नहीं होता है । यह सूत्र चरित का अनुवादक रूप है-इसका यह भाव है कि यह वाक्य ज्ञात अर्थ का प्रदर्शक होने से पहिले जो जो बातें २ जिस २ रूपमें हो चुकी हैं उन सब का अनुवादक रूप है। " जयं चरे जयं चिट्टे" इत्यदि सूत्र की तरह यह विधि वाक्य नहीं है । इसीलिये भगवान ने प्रतिमा के पूजन और वंदना, नमन करने आदि की आज्ञा कहीं भी सूत्र में नहीं दी પ્રમાણે જ વંદન નમન કરવો જોઈએ. તે આ જાતનું કથન એગ્ય નથી, કેમકે આ ચરિતાનુવાદ રૂપ છે. - ભાવાર્થ–ગમે તે શ્રાવક આમ સમજીને કે સૂત્રમાં જ્યારે દ્રોપદીએ દંડાકારે થઈને ચૈત્ય વંદન કર્યું છે તે આ સૂત્રને જ પ્રમાણ સ્વરૂપ માનીને અમારે પણ આ પ્રમાણે જ પ્રણામ કરવા જોઈએ. તે તેમની આ વાત પણ ઠીક કહી શકાય તેમ નથી, કેમકે આ ચરિતને જ અનુવાદક છે. ચરિતનું અનુવાદક વાક્ય વિધેય રૂપમાં માન્ય હેતું નથી. આ સૂત્ર ચરિતને અનુવાદક રૂપ છે. આને ભાવ એ છે કે આ વાકય જ્ઞાત અર્થને પ્રદર્શક હવાથી જે જે વાતે જે રૂપમાં થઈ ચૂકી છે તે બધાનું અનુવાદક રૂપ છે"जय चरे जयं चि?” त्या सूत्रनी रेभसा विधिपाय नथी. मेटा માટે ભગવાને પ્રતિમાના પૂજન અને વંદન, નમન કરવા વગેરેની આજ્ઞા સૂત્રમાં
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अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा नानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति अन्यथा सूर्यादेवादिवक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति तदपि विधेयं स्यात् ।।
अत्रेदं बोध्यम्-' न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्ड कमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्र इत्यादि वाक्यसन्दर्भेण टीकाकारेणाभयदेवमूरिणा द्रौपद्या वन्दनमेव कृतं न तु पूजनादिकमिति बोधयता तावानेव पाठः स्वीकृत इति । तस्माद् विधिरूपेण प्रति मापूजनाय भगवतोऽर्हत आज्ञा न लभ्यते इति वादस्तावदास्ताम् , चरितानुवादरूपेणापि शास्त्रे भगवताऽहत्प्रतिमापूजनं कापि नोक्तमिति सिद्धम् । एवं चायमेहै चरितानुवादरूप वाक्य में विधि और निषेध बोधकता संभवित नहीं होती है इसी ध्येय से " न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति " ऐसा माना जाता है नहीं तो फिर, सूर्याभदेव द्वारा जिस प्रकार बहुत शस्त्र आदि वस्तुओं का पूजन करना सुना जाता है उसी प्रकार प्रतिमा पूजकों के लिये भी इनका पूजन विधेय मान लेना चाहिये।
भावार्थ-" न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवंदनमभिहितं सूत्रे" इत्यादि वाक्य के द्वारा टीकाकार अभयसूरि ने इतना ही पाठ स्वीकृत किया है कि द्रौपदी ने सिर्फ वंदना ही की है, प्रतिमापूजन नहीं इसलिये इससे यह बात सिद्ध हो जाती है जय चरितानुवाद रूप से भी शास्त्र में कहीं भी भगवान ने अहंन की प्रतिमा का पूजन नहीं कहा है। तव विधिरूप से प्रतिमा पूजन के लिये भगवान अहत की आज्ञा है ऐसी मान्यता कोरी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार स्थानक કઈ પણ સ્થાને કરી નથી. ચરિતાનુવાદ રૂપ વાકયમાં વિધિ અને નિષેધ मांधाता समवित थती नथी. 2. ध्येयथी (न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाघकानि भवन्ति) सेभ भानवामां आवे छे. नडितर पछी सूर्यालय વડે જેમ ઘણુ શસ્ત્રો વગેરે વસ્તુઓની પૂજા કરેલી વાત સંભળાય છે તેમજ પ્રતિમા પૂજકોને માટે પણ એમની પૂજા વિધેય રૂપમાં માની લેવી જોઈએ.
__सावार्थ-" न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवदनमभिहित सूत्रे" વગેરે વાક્ય દ્વારા ટીકાકાર અભયદેવસૂરિએ આટલા પાઠને જ સ્વીકાર કર્યો છે કે દ્રૌપદીએ ફક્ત વંદના જ કરી છે. પ્રતિમા પૂજા નહિ. એથી આ વાત સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જ્યારે ચરિતાનુવાદ રૂપથી પણ શાસ્ત્રમાં કોઈ પણ સ્થાને ભગવાને અર્વતની પ્રતિમાના પૂજન વિષે કહ્યું નથી. ત્યારે વિધિ રૂપથી પ્રતિમા પૂજન માટે ભગવાન અહંતની આજ્ઞા છે એવી માન્યતા ફક્ત કપના માત્ર જ છે. આ પ્રમાણે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયની આ માન્યતા
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४१४
माताधर्मकथाजस्त्र तद्रूपः स्थानकवासिनां सिद्धान्तः शास्त्रानुकूलः सत्य इति निश्चीयताम् । अर्हद्वन्दनमपि द्रौपद्या न कृतमित्यग्रे सप्रमाणं निरूपयिष्यामः ।
किं च-प्रतिमापूजकानां प्रमाणभूते महानिशीथमूत्रेऽपि प्रतिमापूजायाः सावयतया तदर्थ जिनालय विधानं सावधं भवतीति मत्वा द्रव्यलिङ्गिभिः पृष्टेन कुवलयप्रभनाम्नाऽनगारेण निगदितं सावधमिदं नाहं वाङ्मात्रेणापि कुर्वे" इति । तदेवमनेन भणतासता तीर्थकरनामगोत्रं कर्मार्जितम् । एकभवावशेषीकृतश्च भवोदधिः । ततस्तैः सर्वैरेकमतं कृत्वा तस्य सावधाचार्य इति नाम दत्तं प्रसिद्धिनीतं च । इति प्रतिबोधितम् । वासी संप्रदाय की यह मान्यता निर्दोष एवं शास्त्रानुकूल और सत्य है कि अर्हत की प्रतिमा बनाकर पूजना शास्त्र हितमार्ग से विपरीत मार्ग है। अहंत की प्रतिमा की वन्दना भी द्रौपदी ने नहीं की है इस बात को भी हम आगे प्रमाण देकर पुष्ट करेंगे।
किञ्च-प्रतिमापूजकों द्वारा प्रमाणरूप से स्वीकृत महानिशीथ सूत्र में भी यही समझाया गया है कि प्रतिमापूजन स्वयं एक सावद्यकर्म है, उसके निमित्त जनालय आदि बनवाना भी सावधकर्म हैं। ऐसा समझकर-कुवलयप्रभनामक आचार्य ने द्रव्य लिंगियों द्वारा पूछे जाने पर यही उत्तर दिया है कि ये सब सावद्यकर्म हैं, मैं अपने वचनों से भी इस विषय का जरा भी मंडन नहीं कर सकता हूं" इस प्रकार कहने वाले उन कुवलयप्रभनामक आचार्यने तीर्थकर नाम गोत्र कर्म उपार्जन करके एकभवावतारी बने । सावद्यकर्म निषेध करने वाले होने से નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્રાનુકૂલ અને સત્ય છે કે અર્વતની પ્રતિમા બનાવીને પૂજવી શાસ્ત્રવિહિત માર્ગથી ઉલટ માગ છે અર્વતની પ્રતિમાની વંદના પણ દ્રૌપ દીએ કરી નથી, આ વાતને પણ અમે આગળ સપ્રમાણસિદ્ધ કરવા પ્રયત્ન કરીશું.
અને બીજું પણ કે–પ્રતિમા પૂજકે વડે પ્રમાણ રૂપે સ્વીકૃત મહાનિશીથ સૂત્રમાં પણ એ જ વાત સમજાવવામાં આવી છે કે પ્રતિમા પૂજન જાતે એક સાવદ્ય કર્મ છે. તેના નિમિત્ત જીનાલય વગેરે બનાવવા તે પણ સાવદ્ય કર્મ છે. એમ જાણીને જ કુવલયપ્રભ નામના આચાર્ય દ્રવ્યલિંગિઓ વડે પૂછાએલા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે જ કહ્યું છે કે આ બધું સાવદ્યકર્મ છે. હું મારા વચનથી પણ આ વિષયનું જરાય પણ મંડન કરી શકું તેમ નથી. આ રીતે કહેનાર તે કુવલયપ્રભ નામક આચાર્ય તીર્થંકર નામ ગોત્રકમ ઉપાર્જન કરીને એક ભવાવતારી બન્યા. સાવદ્યકમ નિષેધ કરનાર હોવાથી તે ચૈત્યવાસીઓએ
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अमगारघमामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
भगवान् श्री वर्धमानस्वामी गौतमं प्रति कथयति-' अस्या ऋषभादिचतुर्विशतिकायाः प्राक् अतीतकालेन याऽतीता चतुर्विंशतिका, तस्यां मत्सदृशः सप्तहस्ततनुर्धर्मश्रीनामा चरमतीर्थकरो बभूव, तस्मिंश्च तीर्थङ्करे सप्ताश्चर्याणि अभूवन् । असंयतपूजायां प्रवृत्तायामनेके श्राद्धेभ्यो गृहीतद्रव्येण स्वस्वकारितचैत्यनिवासिनोऽभूवन , तत्रैको मरकतच्छविः कुवलयमभनामाऽनगारो महातपस्वी उपविहारी शिष्यगणपरितः समागात् , तैर्वन्दित्वोक्तम् , तदेव तत्रत्यप्रकरणं प्रदर्श्यते, तथा हि--महानिशीथसूत्रे पश्चमाध्ययने___जहा णं भयवं ! जइ तुममिहाइ एगवासारत्तियं चाउम्मासिय पउंनियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालया भवंति नूगं तज्झाणणत्तीए. ता कीरउ अणुग्गहमम्हाणं उन चैत्यवासियों ने मिलकर उनका नाम 'सायद्याचार्य' रख दिया,
और प्रसिद्ध भी कर दिया। जैसे-भगवान् श्री वर्धमानस्वामी गौतम प्रति कहते हैं-इस ऋषभादि चौवीसी के पहले भूतकाल में जो चोवीसी होगई है उस चौवीमीमें मेरे जैसा सात हाथप्रमाग शरीर वाला धर्म श्री नामका अंतिम तीर्थकर हो गया है, उस तीर्थकर के समयमें सात आश्चर्य हुए थे, उनमें "असंयतपूजा" नामका एक आश्च यथा । उस असंयतपूजोकी प्रवृत्ति होनेपर बहुतसे साधु श्रावकों के पैसों से अपने अपने बनवाये हुवे चैत्योंमें निवास करते थे अर्थात् चैत्यवासी हो गये थे, वहां पर एक श्याम कांतिवाले कुवलयप्रभ नाम के मुनि महातपस्वी उपविहारी शिष्यपरिवार सहित पधारे थे, उनको उन चैत्यवासियों ने वंदना कर के जो कहा सो इस प्रकार है । जिस पाठ का यह कथानक है वह पाठ इस प्रकार हैતેમનું નામ “સાવદાચાર્ય” એ પ્રમાણે રાખ્યું અને પ્રસિદ્ધ પણ કર્યું. જેમકે ભગવાન શ્રી વર્ધમાનસ્વામી ગૌતમને કહે છે કે–આ અષભાદિ ચૌવીસીના પહેલા ભૂતકાળમાં જે ચાવીસી થઈ ગઈ છે તે ચોવીસીમાં મારા જેવા સાન હાથ પ્રમાણ શરીરવાળા ધર્મશ્રી નામના છેલ્લા તીર્થકર થઈ ગયા છે. તે તીર્થકરના સમયમાં સાત આશ્ચર્યો થયા હતા, તેમાં “અસંયતપૂજા” નામનું એક આશ્ચર્ય હતું તે અસંયત પૂજાની પ્રવૃત્તિ થઈ ત્યારે અનેક સાધુશ્રાવકોના પૈસાથી પિતપોતાના માટે બનાવરાવેલા ચૈત્યમાં વાસ કરતા હતા અર્થાતુ ત્યવાસી થઇ ગયા હતા. ત્યાં એક શ્યામ વર્ણવાળા કુવલયપ્રભ નામના મુનિ મહારાજ કે જેઓ મહા તપસ્વી, ઉગ્ર વિહારી હતા, તેઓ પિતાના શિષ્ય પરિવાર સહિત ત્યાં પધાર્યા હતા તેમને તે રમૈત્યવાસીઓએ વંદના કરીને જે કહ્યું તે આ પ્રમાણે છે
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हाताधर्मकथासूत्रे इहेव चाउम्मासियं । ताहे भणियं तेण महाणुभागेणं - गोयमा ! जहा भो भो पियंवए ! जड वि जिणालए तहा वि सावज्जमिणं णाई वायामित्तेणं पि आयरिज्जा । एवं च समयसारपरं तत्तं जहद्वियं अविपरीत णीसंकं भणमाणेण तेसि मिच्छद्दिटिलिंगीणं साहुवेसधारीणं मज्झे गोयमा ! आसंकलियं तित्थयरनामकम्मगोयं तेणं कुवलयप्पभेणं, एगभवाव सेसीकओ भवोयही ।। इति ।
छाया-यथा खलु भगवन् ! यदि त्वमिहापि एकवर्षा रात्रिकं चातुर्मासिकं प्रयो. मृणामिच्छया अनेके चैत्यालया भवन्ति नूनं । तद्ध्यानाज्ञप्त्या तस्मात् करोतु अनुग्रहमस्माकम् इहैव चातुर्मासिकम् । तदा भणितं तेन महानुभागेन - गौतम ! यथा भो भो पियवंदाः ! यद्यपि जिनालयः, तथापि सावधमिदं नाहं वाङ्मात्रेणापि आचरामि । एवं च समयसारवरं तत्त्वं यथास्थितम् अविपरीतं निःशङ्क भणता तेषां मिथ्यादृष्टिलिङ्गिनां साधुवेषधारिणां मध्ये गौतम ! आसंकलितं तीर्थकरनाम कमगोत्रं तेन कुवलयपभेण एकभवावशेषीकृतो भवोदधिः ॥ इति ___“जहा णं भयवं ? जइ तुममिहाह एकवासारत्तियं चाउम्मासियं पउंजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालया भवंति नृणं तज्झाण. पत्तीए, ता कीरउ अणुग्गहमम्हाणं इहेव चाउम्मासियं । ताहे भणियं तेण महाणुभागेणं गोयमा! जहा भो भो पियंवए जहवि जिणालए तहा वि सावज्जमिणं णाहं वायामित्तेण पि आयरिजा। एवं च समयसारपरं तत्तं जहट्टियं अविपरीतं णीसंकं भणमाणेण तेसि मिच्छदिहिलिंगीणं साहुवेसधारीणं मज्झे गोयमा! आसंकलियं तित्थयरनामगोतं तेणं कुवलयप्पभेणं एगभवावसेसीको भवोयही। इति (महा. निशीथ पञ्चम अध्ययन ) इस सूत्रका भावार्थ इस प्रकार है
हे भगवन् ! आप यहां एक वर्षारात्रिक चारमहिने ठहरें
" जहा भयव ! जइ तुमभिहाइ एकवासारत्तिय चाउम्मासियं पठं. जिय'ताण मिच्छाए, :अणेगे चेइयालया भवति नूण तज्झाणत्तिए ता कीरउ अणुग्गहम्माण इहेर चाउम्मासिय'। ताहे भणिय तेण महाणुभागेण गोयमा । जहा भो मो पियवए जइवि जिणालए तहावि सावज्जमिण णाहं वायामित्तण पि आयरिज्जा । एवं च समयसारपरतत्तजहद्विय अविपरीत' णीसंके भाणमाणेग तेसि मिच्छदिद्विलिंगीण साहुवेसधारीण' मज्झे गोयमा ? आसकलियं तित्थयरनामगोत्त' तेण कुवलयप्पमेण एगभवावसे सीकओ भवोयही । इति (महानिशीथ पच्चम अध्ययन) मा सूत्री मावार्थ मा प्रमाणे छ ?- गवन !
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भनगारधर्मामृतवषिणी टी० १० ११ द्रौपदीचचर्चा
४१७ हेभगवन् ! इह यदि यथा खलु त्वम् एकवर्षारात्रिकं चातुर्मासिकं तिष्ठसि प्रयोक्तृणाम्=प्रवर्तकानाम् इच्छया-आज्ञया अनेके चैत्यालया न भवन्ति-भविष्यन्ति, तत् तस्माद् निवासार्थमाज्ञामुपादाय इहैव चातुर्मासिकं कुरु तावदस्माकमनुग्रहं कुरु भवदीयाज्ञया बहवश्चैत्यालया भविष्यन्ति । ततश्चास्माकमुपकारः क्रियतामिति भावः । तदा तेषां सावधपूजायां प्रवृत्तानां द्रव्यलिङ्गिनां वचनं श्रुत्वा तेन महानुभावेन कुवलयमभनाम्नाऽनगारेण भणितम्-उक्तम् , यथा-भो भो पियंबदाः । भो देवानुपियाः । यद्यपि जिनालयः, तथापि सावद्यमिदं जिनभवने कृते -अर्थात् यहीं पर चौमासा व्यतीत करें। प्रवर्तकों की आज्ञा से यहां पर अनेक चैत्यालय बन जायेंगे । इस लिये आप यहीं पर चौमासा व्यतीत करने का अनुग्रह करें। हमारे ऊपर आपका बड़ा ही अनुग्रह होगा । आपके उपदेश से निश्चय समझिये अनेक चैत्यालयों का निर्माण हो जायगा। इस प्रकार से उन द्रव्यलिंगियों से प्रार्थित होने पर महानुभाव कुवलयप्रभ आचार्य ने कहा कि हे देवानुप्रिय ! यद्यपि तुम जिनालय के विषय में कहते हो-परन्तु-मैं इस कार्य को करवाने में श्रेय नहीं देखता हूं-कारण कि यह सावधकार्य है जिन भवन बनवोना और उसके बनवाने की प्रेरणा करना इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों में पृथिवीकाय आदि छह प्रकारके जीवों की विराधना होती है इसी प्रकार से पूजन करने में भी षट्काय के जीवनिकायों का आरंभ अवश्यंभावी है। इसलिये अनेक प्रकार के षटूकाय के जीवों के विघात का हेतु होने से पूजन के निमित्त भी जिन भवन का बनवाना सावद्यतर कार्य है ऐसे सावद्यतर कार्य का मैं किसी भी प्रकारसे उपदेश नहीं दंगा । में कभी भीऐसा उपदेश नहीं दंगा कि તમે અહીં એકવર્ષીરાત્રિક-ચાર માસ–રકાઓ-એટલે કે અહીં તમે ચોમાસું પૂરું કરો. પ્રવર્તકેની આજ્ઞાથી અહીં ઘણા ચૌત્યાલ બની જશે. એથી તમે અહીં જ ચિમાસું પૂરું કરવાની કૃપા કરે, અમારા ઉપર તમારે ભારે અનુગ્રહ થશે. તમારા ઉપદેશથી અમને ચેકકસ ખાત્રી છે કે ઘણા ઐત્યાલયનું નિર્માણ થઈ જશે. આ રીતે દ્રવ્ય લિંગિઓની પ્રાર્થના સાંભળીને મહાનુભાવ કુવલયપ્રભ આચાર્યે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! જે કે તમે જીનાલયના વિષે કહે છે, પણ મને આ કામ કરાવવામાં શ્રેય લાગતું નથી, કેમકે આ સાવરકમ છે. જીનભવન બનાવવું અને તેને બનાવવાની પ્રેરણું આપવી આ બંને જાતની પ્રવૃ ત્તિઓમાં પ્રવિકાય વગેરે છ જાતના છની વિરાધના થાય છે આ રીતે પૂજા કરવામાં પણ ષકાયના જીવનિકાને આરંભ અવશ્યભાવી છે. એટલા માટે ઘણી જાતના ષકાયના જીવોના વિઘાતના માટે હેતુરૂપ હોવા બદલ પૂજાના માટે પણ જીનભવન બનાવવું સાવદ્યતર કાર્ય છે. એવા સાવઘતર કાર્ય
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૮
satara neet
कारिते च पृथिवीकायादिषड्जीव निकाय विराधना, तथैव जिनपूजायामपि तस्मात् पूजार्थकत्वाज्जिनभवन विधानं सावधतर, बहुतरपट् कायजीवोपघातहेतुत्वात् नाहं वाङ्मात्रेणाऽपि उपदेशदानरूपेण वाग्योगमात्रैणापि आचरामि = कुर्वे जिनालयं कर्तु - मुपदेशं न करिष्यामीत्यर्थः । एवं च=अनेन प्रकारेण, समयसारपरं शास्त्रसिद्धान्त. साराऽशेवश्रेष्ठं तत्त्वं त्रिकरण त्रियोगैः प्राणातिपातो वर्जनीय इत्यादिरूपं यथास्थितं यथावस्थितस्वरूपं प्रमाणभूतं, अविपरीतं विपर्ययज्ञानाविषयं निश्राङ्कं = संशयवर्जितं वचनं भणता= कथयता, तेषां मिथ्यादृष्टिलिङ्गिनां मिथ्यादृष्टयः कुतीर्थिकास्तद्वज्जीवोपघातकारिणां साधुवेपधारिणां मध्ये हे गौतम! आसंकलितम् =सम्यक् संग्टहीतम् उपार्जितमित्यर्थः । किमुपार्जितमित्याह तीर्थंकर नामगोत्रं तेन कुवलयप्रभेण, एकमवावशेषी कृतो भवोदधिः । सुगममेतत् ।
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3
जिस में जिनालय बनवाने का विधान हो । इस प्रकार प्रवचन सिद्धान्त की सारभूत वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप से विना किसी संकोच के प्रकट करने वाले उन मुनिराज ने उन साधुवेष धारी द्रव्यलिंगियों के बीच कि जो मिथ्यादृष्टियों की तरह जीवों की हिंसा करने में प्रवृत्त थे उनके सामने इस प्रकार शुद्ध प्ररूपणा करनेसे हे गौतम! तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बंध किया और संसार भी उनका एक भव मात्र बाकी रह गया इस उद्धरण से यही समझना चाहिये कि जब प्रतिमा पूजन के लिये भी मंदिर बनवाना सावध कर्म है और इस सावद्यकार्य का उपदेश देना भी साधु के लिये वर्जनीय है-इसी अभिप्राय से कुवलयप्रभ सूरि ने इस कार्य का निषेध किया इस निषेध से उन्हें तीर्थकर नाम - गोत्र कर्म को बंध हुआ और संसार भी उनका एकभव मात्र बाकी बचा तो फिर सर्व प्रकार से सावध कर्मो का परित्याग
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માટે હું કઈ પણ રીતે ઉપદેશ આપવા તૈયાર નથી, હું આ જાતના ઉપદેશ કાઇપણ વખતે આપવા તૈયાર નથી કે જેમાં જીનાલય ખતાવવાનું વિધાન .. સરખુંય હાય. આ રીતે પ્રવચન સિદ્ધાંતની સારભૂત વસ્તુસ્થિતિને સાચા રૂપમાં વગર કેાઈ પણ જાતના સ`કેચે-પ્રગટ કરનારા તે મુનિરાજે તે સાધુ વૈષધારી દ્રવ્ય લિંગિઆની સામે કે જેએ મિથ્યાર્દષ્ટિવાળાઓની જેમ જીવેાની હિંસા કરવામાં પ્રવૃત્ત હતા શુદ્ધ પ્રરૂપણા કરી. આ રીતે શુદ્ધ પ્રરૂપણા કરવાથી હે ગૌતમ ! તીર્થંકર નામ-ગોત્રકમના બંધ કર્યાં અને સંસાર પણ એક ભવ જેટલે જ શેષ રહ્યો. આ ઉદાહરણથી આપણે એજ વાત સમજવી જોઇએ કે જ્યારે પ્રતિમા પૂજન માટે પણ મંદિર મનાવવું સાવદ્યકમ છે અને આ સાવદ્યકાય ના ઉપદેશ કરવા પણ સાધુના માટે ત્યાજ્ય છે. આ હેતુથી જ કુવલયપ્રભસૂરીએ આ કાના નિષેધ કર્યાં છે. આ નિષેધથી તેમને તીર્થંકર
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४९ अत्रेद बोध्यम्-यत्र प्रतिमापूजार्थ क्रियमाणस्य जिनालयस्य वाचोपदेशकरणं सावधमिति जानता तत्परिवर्जने कृते तीर्थकर नामगोत्रं कर्म समुपार्जितं, तत्र सर्वथा सावद्यमार्ग परिवर्जयतां सर्वप्राणिरक्षणार्थमहिंसाधर्म सर्वतः प्रचारयतां प्रवचन-सिद्धान्तसार विजानतां संयममार्गे प्रवृत्तिमतां सम्यक्त्वशुद्धिमतां पतिमापूजामकुर्वतां तनिषेधयतां किं नामात्मनः कल्याणकर कार्यमवशिष्टम् , इति । ___अथ विवाहसमये द्रौपदी सम्यक्त्ववती नासोदिति वर्ण्यते-जैनागमानां विद्वांसः सम्यगिदं वदन्ति-सनिदानस्य जीवस्य निदानफलप्राप्तिर्यावन्न भवति, तावदसौ सम्यक्त्ववञ्चितो जैनधर्माद् दूर एवावतिष्ठते । करने वाले, समस्त प्राणियों को रक्षा के निमित्त अहिंसाधर्म का प्रचार करने वाले, प्रवचन सिद्धान्त के सार को जानने वाले, संयममार्ग में प्रवृत्ति वाले, सम्यक्त्व की शुद्धि से विशिष्ट और प्रतिमा की पूजा नहीं करने वाले एवं उसका निषेध करने वाले ऐसे संयमियों का अब
और कौनसा ऐसा कार्य बाकी रहा है जो उनकी आत्मा के लिये कल्याण का साधन न हो।
अब यहां इस बात का वर्णन किया जाता है कि विवाह के समय द्रौपदी सम्यक्त्ववाली नहीं थी।
जैन आगमों का भलीभाँति परिशीलन करने वाले विद्वान् इस बानको अच्छी तरह जानते हैं कि जिस जीव ने जो निदान किया हैजबतक उसके फल की प्राप्रि उस जीव को नहीं हो जाती-तबतक वह जीव सम्यक्त्व से वंचित रहकर जिनधर्म से दूर ही रहता है। નામ-ગોત્ર કમને બંધ થશે અને સંસાર પણ તેમને માટે એકભવ જેટ લે જ શેષ રહ્યો હતો. તે પછી સર્વ રીતે સાવદ્યકર્મોને પરિત્યાગ કરનારા બધા પ્રાણીઓની રક્ષાના નિમિત્તે અહિંસા ધર્મને પ્રચાર કરનારા પ્રવચન સિદ્ધાંતના સારને જાણનારા, સંયમ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સમ્યકત્વની શુદ્ધિથી વિશિષ્ટ અને પ્રતિમા પૂજા નહિ કરનારા અને તેને નિષેધ કરનારા એવા સંયમીઓનું એવું કયું કામ શેષ રહ્યું છે કે જે તેમના આત્માના કલ્યાણનું સાધનરૂપ ન હોય ?
- હવે અહીં આ વાતનું વર્ણન કરવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે દ્રૌપદા સમ્યકત્વવાળી ન હતી
જૈન આગમને સારી રીતે પરિશીલન કરનારા વિદ્વાને આ વાતને સારી પેઠે જાણે છે કે જે જીવે જે નિદાન કર્યું છે-જ્યાં સુધી તેના ફળની પ્રાપ્તિ તે જીવને થઇ જતી નથી ત્યાં સુધી તે જીવ સમ્યકત્વથી વંચિત રહીને જીનभथी इ२ २३ छे.
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
" पुत्रकय नियायेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्धवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करे, करिता, एवं वयासी - एए णं मए पंच पंडवा वरिया । " इति सूत्रपाठ प्रामाण्याद् विवाहसमये पूर्वकृत निदानाधीनतया सम्यवत्वराहित्यं द्रौपद्या आसीत् अतस्तस्यास्तदानीं श्राविकात्वं न सिध्यति युगपत् पञ्चानां पतीनां वरणेन तस्याः पूर्वसंस्कारोदयवशाद् विपुल सुखभोगलालसाऽपि स्वाभाविकी, अतः सा कौमारे वयसि श्राविका नासीदिति युक्तिसिद्धस्यार्थस्यापलापः केन शक्यते कर्तुम् ।
द्रौपदी कस्य पूजनं कृतवतीति जिज्ञासायां निर्णीयते
" पुव्यकयनिव्वाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेदिय परिवेढियं करेइ । करिता एवं वयासी- एएणं मए पंच पंडवा वरिया " इस प्रकार के इस प्रमाणिक सूत्र पाठ से यह स्पष्टरीति से विदित हो जाता है कि विवाह के समय पूर्वकृत निदान के अधीन होने से द्रौपदी सम्यक्त्व रहित थी इसी लिये उस समय उस में श्राविकापना भी सिद्ध नहीं होता है । तथा एक ही साथ पांच पांडवों को पतिरूप से वरण करने से उसके पूर्व संस्कार के उदय से विपुल सुख भोगने की लालसा भी स्वभाविकी ज्ञोत होती है इसलिये वह कुमार अवस्था में श्राविका नहीं थी इस युक्ति सिद्ध अर्थ का अपलाप कौन कर सकता है !
द्रौपदी ने किस की पूजा की इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर
" पुव्वकयनियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, ते पंच पंडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ | करिता एवं वयासी- एएणं मए पंच पंडवा वरिया "
આ જાતના આ પ્રામાણિક સૂત્રપાઠથી આ સ્પષ્ટ રૂપમાં માલુમ થઈ જાય છે કે લગ્નના વખતે પૂષ્કૃત નિદાનને સ્વાધીન હેાવાને કારણે દ્રૌપદી સમ્યકત્વ રહિત હતી. એટલા માટે તે સમયે તેમાં શ્રાવિકાપણું સિદ્ધ થઈ શકે તેમ નથી તેમજ એકી સાથે પાંચે પાંડવાને પિતરૂપમાં વરણ કરવાથી તેના પૂર્વ સંસ્કારોના ઉદ્દયથી વિપુલ સુખ ભોગવવાની ઇચ્છા પણ સ્વાભાવિકી માલુમ થાય છે. એથી તે કુમાર અવસ્થામાં શ્રાવિકા હતી નહિ, આ યુક્તિ અર્થના પરિદ્વાર કાણ કરી શકે તેમ છે.
દ્રૌપદીએ કોની પૂજા કરી ?
આ જાતની જીજ્ઞાસાને સામે રાખીને ટીકા
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचर्चा
अखण्डसौभाग्यप्रचुरभोगकामनया कामदेवस्यैव पूजनं तदानीमुपपद्यते । कामपूजनं विवाहोत्सवे विस्तरतो भवतीति लोके प्रसिद्धमस्तीति प्रतिमापूजकोऽपि श्री वर्धमानमूरिः प्रोक्तवान् । स्पष्टं चैतत् तद्विरचिते आचारदिनकरे द्वितीयविभागे--" परसमये गणपतिकन्दर्प स्थापनम् । गणपतिकन्दर्पस्थापनं सुगमं लोकमसिद्धम् । ” इति । टीकाकार निर्णय करते हैं__ अखंड सौभाग्य एवं प्रचुर भोग की इच्छा से कामदेव का ही पूजन उस समय द्रौपदी ने किया है-यही बोत संगत बैठती है । लोक में भी यही व्यवहार देखा जाता है कि विवाह के समय अच्छी तरह गाजे बाजे के साथ काम देवका पूजन लोग किया करते हैं। इस बात को वर्धमान सूरि भी जो प्रतिमापूजन के पक्षपाती हैं स्वीकार करते हैं और ऐसा ही कहते हैं। इसी बात का स्पष्टीकरण उन्हों ने स्वनिमित आचारदिनकर के द्वितीय विभाग में किया है-वे लिखते हैं कि
- परसमये गणपतिकंदर्पस्थापनम् । गणपतिकंदर्पस्थापनं सुगम लोकप्रसिद्धम् " इति । ___ लौकिक शास्त्रमें गणपति एवं कंदर्प (कामदेव ) की स्थापना होती है अतः गणपति और कन्दर्पका स्थापन करना सुगम और लोकप्रसिद्ध है। કાર નિર્ણય કરતાં કહે છે કે –
અખંડ સૌભાગ્ય તેમજ પ્રચુર ભેગની ઈચ્છાથી જ તે સમયે દ્રૌપદીએ કામદેવને જ પૂજન કર્યું છે, આ વાત જ એગ્ય લાગે છે. લેકમાં પણ આ જાતને જ વહેવાર જોવામાં આવે છે કે લગ્નના વખતે વાજાંઓની સાથે સારી રીતે કામદેવનું પૂજન લોક કરતા રહે છે. આ વાતને વર્ધમાનસૂરિ પણ કે જેઓ પ્રતિમા પૂજનના તરફદાર છે–સ્વીકાર કરે છે અને આ પ્રમાણે જ કહે છે. આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ તેમણે સ્વનિર્મિત આચાર દિનકરના બીજા વિભાગમાં કર્યું છે. તેઓ લખે છે કે –
" परसमये गणपतिकंदर्पस्थापनम् । गणपतिकंदर्पस्थापन सुगम लोक प्रसिद्धम् ” इति ।
ૌકિક શાસ્ત્રમાં ગણપતિ અને કંદર્પ (કામદેવ) ની સ્થાપના થાય છે. તેથી ગણપતિ કંદર્પની સ્થાપના કરવી તેજ સુગમ અને પ્રસિદ્ધ છે.
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४२२
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
" जिणपडिमा अञ्चर्ण करेइ " अत्र जिनशब्दः कामदेवपरः । जिनशब्दस्य Transर्थाः कोशादौ प्रसिद्धाः सन्ति । यथा
अर्हन्नपि जिनश्चैव, जिनः सामान्य केवली ।
कन्दर्पोsपि निश्चैव, जिनो नारायणो हरिः ॥ इति (हैमी नाममाला) विजयगच्छीयः श्रीगुणसागरसूरिरपि ढालसागरनामके काव्ये षष्ठखण्डे द्रौपद्याः पूज्यदेवं निर्णीतवान् । उक्तं च तेन
करि पूजा कामदेवनी भांखे द्रुपदी नार ।
देव दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥। १
अर्हन् सकलकर्म कषायमोहपरीपहान् जयतीति जिन उच्यते । सामान्य " जिनपडिमाणं अच्चर्ण करेइ " इस सूत्र में जिन शब्द जिनेन्द्र भगवान का वाचक नहीं है, किन्तु कामदेव का वाचक है क्यों कि जिन शब्द के अनेक अर्थ कोषादिक ग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं - यथाअर्हन्नपि जिनश्चैव जिनः सामान्यकेवली ! कंदर्पोऽपि जिनश्चैव जिनो नारायणो हरिः ॥
इति (हैमीय नाममाला
विजय गच्छीय श्री गुणसागर सूरि ने भी " "3 ढालसागर नाम के काव्य में छठवें खंड में द्रौपदी के आराध्य देव का निर्णय किया है । उन्होंने लिखा है
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करि पूजा कामदेव नी भांखे द्रुपदी नार । देव ! दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥ १ ॥ 'जिन' इसलिये कहा गया है
इस सूत्र में अर्हन्त भगवान को
" जिन डिमाणं अच्चणं करेइ "
આ સૂત્રમાં જીન શબ્દ જીનેન્દ્ર ભગવાનને વાચક નથી પણ કામદેવને
વાચક છે કેમકે જીન શબ્દોના ઘણા અર્થ કાષ વગેરે ગ્રન્થમાં પ્રસિદ્ધ છે જેમકેअन्नपि जिनश्चैव जिनः सामान्यकेवली |
6
कदर्षोऽपि निश्चैव जिनो नारायणो हरी ॥ इति ( है मीय नाममाला ) વિજયગચ્છીય શ્રી ગુણુસાગરસૂરિએ પણ છઠ્ઠા ખંડમાં દ્રૌપદીના આરાધ્યદેવને નિર્ણય કરતાં તેમણે કહ્યું છે કે
ઢાલસાગર નામના કાવ્યના
करि पूजा कामदेवनी भांखे द्रुपदिन र ।
देव ! दया करी मुझने भलो देजो भरतार ॥ १ ॥
"
આ સૂત્રમાં અર્હત ભગવાનને જીન
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ܙܕ
• એટલા માટે કહ્યા છે કે તેમણે
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मनगारधर्मामृतवषिणी टोका म० १६ द्रौपदीचर्चा
४२३ केवली घनघातककर्मचतुष्टयं जयतीति जिन उच्यते । विष्णुः स्वभुजबलेन खण्डत्रयं जयतीति जिन उच्यते । जिनशब्दस्य कामदेवोऽर्थश्चापि संगतः, यतः संसारिणां कामदेववशवर्तित्वेन लोकजयकारिवाज्जिनत्वं कामस्योपपद्यते । रूपरहित. स्यापि सिद्धस्य प्रतिमा पूज्यत्वेन शास्त्रानुक्तामपि प्रतिमापूजकाः प्रकल्पयन्ति, तद्वदनङ्गस्यापि कामस्य लौकिकशास्त्रप्रसिद्ध तद्धथानमनुसृत्य प्रतिमा प्रकल्प्यत इति कि उन्हों ने समस्त कषाय, कर्म, मोह और परीषहों को जीता है । सामान्य केवली 'जिन' इसलिये कहे गये हैं कि उन्हों ने चार घनघो. तिया कर्मों को अपनी आत्मा से समूल नष्ट कर दिया है। विष्णु 'जिन' इसलिये कहलाये कि उन्हों ने अपने भुजयल से भरतरखंड के छह खंडों में से तीन खंडों को अपने वश किया है इसी लिये ये अर्द्धचक्री भी कहलाते हैं । कामदेव को 'जिन' इस लिये कहा गया है कि इसके वश समस्त त्रिलोक है त्रिलोक में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं बचा कि जिसे इस ने अपने वश में न किया हो।
शंका-द्रौपदी ने कामदेव की मूर्ति की पूजो की-आप की यह बात उस समय मानी जा सकती-जय कि कामदेव की मूर्ति वन सकती होती ? परन्तु कामदेव की मूर्ति तो बन नहीं सकती क्यों कि वह तो अमूर्तिक-अशरीर-अमङ्ग है। अंगवाले की ही मूर्ति बनती है-अनंग की नहीं। બધા કષાય કર્મ, મેહ અને પરિવહને જીત્યા છે. સામાન્ય કેવલી “જી” એટલા માટે કહેવામાં આવ્યા છે કે તેમણે ચાર ધનપતિઓના કર્મોને પિતાના આત્માથી સમૂળ નષ્ટ કરી નાખ્યા છે વિષ્ણુ “જીન” એટલા માટે કહેવાય છે કે તેમણે પોતાના ભુજ બળથી ભરતખંડના છ ખંડેમાંથી ત્રણ ખડેને પિતાને વશ કર્યા છે એથી તેઓ અદ્ધચક્રી પણ કહેવાય છે. કામદેવને “જીને એટલા માટે કહેવામાં આવ્યો છે કે તેના વશમાં ત્રણે લેકે છે. ત્રણે લોકમાં એવું કઈ પ્રાણું રહ્યું નથી કે જેને કામદેવે પિતાના વશમાં કર્યું ન હોય.
શંકા–દ્વપદીએ કામદેવની મૂર્તિની પૂજા કરી તે તમારી આ વાત ત્યારે જ રોગ્ય કહી શકાય કે જ્યારે કામદેવની મૂર્તિ બની શક્તી હેય? પણ કામદેવની મૂર્તિ તે તૈયાર થઈ શકે તેમ નથી કેમ કે તે તે અમૂર્તિક-અશરીર અનંગ છે. અંગવાળાની જ મૂર્તિ બને છે, અનંગની નહિ.
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થર
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
नास्त्यत्र संशयः । लक्ष्मीगौर्यादिदेव्या अपि स्वाभीष्टपतिप्राप्तिकामनया पूजनं लोके प्रसिद्धमस्ति । लौकिकमन्त्रशास्त्रे मन्त्ररत्नमजूषायां कामदेवाराधनस्याभी ष्टपतिलाभहेतुत्वं निगदितम्
" कन्यामिष्टामवाप्नोति, सापीप्टं पतिमाप्नुयात् ॥” इति । अधुनाऽपि परिणयनसमये कुलदेवपूजनं लोके क्रियमाणं दृश्यते । कामदेवोऽपि
उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है. क्यों कि मूर्ति पूजक जन अनङ्ग -सिद्धों की भी तो मूर्ति बनाकर उसकी पूजा किया करते हैं । यद्यपि सिद्धों की मूर्ति बनाने की आज्ञा शास्त्रों में न कही गई है-तो भी मृतिपूजक जन अपनी कल्पना से उनकी भी मूर्ति बनाकर पूजा करते ही हैंउसी प्रकार लौकिकशास्त्र प्रसिद्ध अनङ्ग कामदेव की भी लोग अपनी कल्पनाप्सुर मूर्ति बनाकर पूजते हैं। इस में आपत्ति की कौनसी बात है। __ लक्ष्मी, गौरी आदि देवियों को भी पूजा लोक में अपने को अभि. लषित पनि प्राप्ति की कामना से स्त्रियों द्वारा की ही जाती है। लौकिक मन्त्र शास्त्र में मंत्ररत्नमंजूषा में कामदेव का आराधन-"कन्यामिष्टा. मवाप्नोति सापीष्टं पतिमाप्नुयात् ' इस श्लोकार्धद्वारा इच्छित पति प्राप्ति का कारण कहा गया है।
वर्तमान समय में भी देखो! विवाह के समय में लोक में कुल देवता का पूजन किया ही जाता है यह कुल देवता का पूजन ही एक | ઉત્તર–આ વાત યોગ્ય નથી, કેમકે મૂર્તિ પૂજા કરનારા લોકો અનંગ સિદ્ધોની મૂર્તિ બનાવીને તેની પૂજા કરતા રહે છે જે કે શાસ્ત્રોમાં સિધોની મર્તિ બનાવવાની આજ્ઞા કરવામાં આવી નથી છતાંય મૂર્તિ પૂજક લેક પિતાની કલ્પનાથી તેમની પણ મૂર્તિ બનાવીને પૂજા કરે જ છે. તેમજ લૌકિક શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ અનંગ કામદેવની પણ લોકે પિતાની કલ્પના મુજબ મૂર્તિ બનાવીને તેને પૂજે છે, આમાં વાંધા જેવી કોઈ વાત નથી.
લયમી, ગૌરી વગેરે દેવીઓની પૂજા લેકમાં પોતાની ઈચ્છા મુજબ પતિ મેળવવાની કામનાથી સ્ત્રીઓ વડે કરવામાં આવે જ છે. લૌકિક મંત્ર શાસ્ત્રમાં भत्र २न भाषामा भवतुं माराधन “ कन्यामिष्टामवाप्नोति साभीष्ट पति माप्नुयात्" । अश्विा४ १४ प्रतिप्रालिनु ४।२६ मतावमा मान्यु छ.
વર્તમાન સમયમાં પણ આપણે જોઈએ તે લગ્નના સમયે લેકમાં કુળ દેવતાનું પૂજન કરવામાં આવે જ છે. આ કુળદેવતાનું પૂજન જ એક રીતે
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४२५
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदी चर्चा रागवतां गृहस्थानां कुलदेवत्वेन व्यवहियमाण आसीत् । द्रौपद्याऽपि स्वकुलदेवः पूजित इति युक्तमुत्पश्यामः ।
अत्र - " नमोsस्थु णं अरिहंताणं " इति पाठस्तु प्रवचनविरुद्ध एव वर्तते, लौकिक कुलदेवप्रतिमाऽचैनप्रकरणे लोकोत्तरस्य भगवतोऽर्हतः प्रसङ्गाभावात् । पूर्वभवकृत निदानवत्याः कामभोगानुरक्त्या द्रौपद्याः कामदेवार्चनसमये कामभोगविरतस्य वीतरागमार्गोपदेशकस्य वीतरागस्य भगवतोऽर्हतो वन्दनं नैव शास्त्रानुकूलम् । अत्र परिणयावसरे कुलदेवपूजनप्रसङ्गे भगवतोऽर्हतः प्रसङ्गएव नास्ति,
तरह से कामदेव का पूजन अनुसरण है। एक समय था कि जब कामदेव ही, रामशाली गृहस्थ जनों के लिये कुल देवता के रूप से वैवाहिक व्यवहार में मान्य होता था। द्रौपदीने भी उस समय जो कुल देवता का पूजन किया- वह कामदेव का ही पूजन किया यहीं युक्ति संगत बैठती है । इस पूजन के प्रकरण में जो " नमोत्थूणं अरिहंताणं " यह पाठ आता है वह प्रवचन विरुद्ध ही है क्यों कि लौकिक कुल देवता की प्रतिमा के अर्बन - प्रकरण में लोकोत्तर अर्हत भगवान के प्रकरण का संबंध ही क्या है । उस समय जब कि वह पूर्व भव में किये गये निदान से युक्त थी और कामभोग में अनुरक्त हृदयवाली थी उस के लिये कामदेवका अन (पूजन करने का समय ही स्पष्टरूपसे ज्ञात होता है कामभोगों से विरत वीतराग मार्ग के उपदेशक वीतरागप्रभु भईत भगवान की पूजन वंदना का नहीं । यही सिद्धान्त शास्त्रनुकूल है-अन्य नहीं । अरे कहीं
કામદેવના પૂજનનું અનુસરણ છે. એક વખત એવા હતા કે જ્યારે કામદેવજ, રાગશાળી ગૃહસ્થ લેાકેાને માટે કુળ દેવતાના રૂપમાં લગ્ન-સંબધી વ્યવહારમાં માન્ય ગણાતા હતા. દ્રૌપદીએ પણ તે સમયે જે કુળ દેવતાનું પૂજન કર્યું. તે કામદેવનું જ પૂજન કર્યું હતું. એ જ વાત ખરાખર લાગે છે. આ પૂજનના પ્રકરણમાં જે " नमोत्थूण अरिहंताणं " આ પાઠ આવે છે તે પ્રવચન વિરૂદ્ધજ છે કેમકે લૌકિક કુળદેવતાની પ્રતિમાના ખચન–પ્રકરણમાં લેાકેાત્તર અર્હત ભગવાનના પ્રકારણના સમધ જ શી રીતે રાગ્ય કહી શકાય. તે વખતે કે જ્યારે તે પૂર્વ ભવમાં કરેલા નિદાનથી યુક્ત હતી અને કામલેાગમાં અનુ રક્ત હૃદયવાળી હતી એવી સ્થિતિમાં તા તેના માટે કામદેવની અર્ચના કર વાના વખત જ સ્પષ્ટ રૂપે જણાઈ આવે છે. કામલાગેાથી વિરત વીતરાગ માગના ઉપદેશક વીતરાગ પ્રભુ અર્હત ભગવાનની પૂજા વતૅના માટે તે વખત વૈશ્ય કહી શકાય નહિ. આ સિધ્ધાંત જ શાનુકૂળ છે ખીને નિહ. યુધ્ધમાં
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BE
शांताधर्मकथासूत्रे
द्रौपद्याः पूर्वभवकृत निदानफलप्राप्यभावेन सम्यक्त्वरहितत्वात् । यस्य पूजनं तस्यैव वन्दनं तु न्यायोपपन्नं भवति, अत्र पूजनं कुलदेवतायाः, वन्दनं तु वीतरागस्याईत इति लोकन्यायविरुद्धम् । तस्माद् द्रौपद्या वीतरागस्याईतो वन्दनमपि तदानीं न कृतमिति सर्वप्रमाणसिद्धम् ।
अत्राभयदेवसूरिणा स्वकृतवृत्तौ यदुक्तम् एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते " जिणपडिमाणं अच्चणं करेड़ " इति ।
वीररसके सिवाय युद्ध में जानेवाले वीर के लिये. मल्हारराग भी आनंददायी हो सकता है ? | कभी नहीं परिणय- विवाह के अवसर में कुलदेवता की ही पूजा करने का प्रसंग होता है-: -न कि भगवान अर्हत की । अतः इस प्रकार का प्रसंग माननो एक मनगढंत कल्पना मात्र ही है ! क्यों कि इस समय द्रौपदी पूर्वभव में किये हुए निदान की फल प्राप्ति के अभाव से सम्यक्त्व रहित थी, फिर उसे उस समय कामदेव की ही इच्छित फल प्राप्ति के लिये पूजा की सूझेगी, या उसके अभाव को करने वाले जिन भगवान की पूजा की। यह स्वयं विचारने जैसी बात है जिस का पूजन किया जाता है उसी की बंदना की जाती है - पूजन तो हो कुलदेवतारूप कामदेव का और वंदना की जाय वीतराग प्रभु श्री अरिहंत देव की । इस प्रकार की मान्यता तो लौकिकरीति से भी विरुद्ध पड़ती है। इसलिये सर्व प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि द्रौपदी ने जिनप्रतिमा का पूजन नहीं किया ।
જનાર લડવૈયા માટે વીર રસ સિવાયને મલ્હાર રાગ પણ શું આનંદ પમા ડનાર થઇ શકે છે ? નહીંજ લગ્નના સમયે તેા ભગવાન અર્હુતની પૂજા કરતાં તે કુળદેવતાની પૂજા કરવાના પ્રસગજ ચેાગ્ય લેખાય છે. એટલા માટે આ જાતના પ્રસંગની વાત માનવી એ મનમાની કલ્પના માત્રજ છે. કેમકે આ સમયે દ્રૌપદી પૂ॰ભવમાં કરેલા નિદાનની ફળ પ્રાપ્તિના અભાવને લીધે સમ્યકત્વથી રહિત હતી અને એવી સ્થિતિમાં ઇચ્છિત ફળ પ્રાપ્તિ માટે તેને કામદેવની પૂજા કરવાની ઈચ્છા થાય કે તેનાથી વિરૂધ્ધ ફળ આપનાર જીન ભગવાનની પૂજાની ? આ જાતે વિચાર કરવા ચેાગ્ય વાત છે. જેની પૂજા કરવામાં આવે છે. તેને જ વંદના કરવામાં આવે છે. પૂજા તે કુળ દેવતારૂપ કામદેવની થાય અને વંદના વીતરાગ પ્રભુ શ્રી અરિહંત દેવની કરવામાં આવે. આ જાતની માન્યતા તા લૌકિક રીતિથી પણ વિરૂધ્ધ છે. આ પ્રમાણે બધી રીતે વિચારતાં આ સિધ્ધ થાય છે કે દ્રૌપદીએ જીન પ્રતિમાનું પૂજન કર્યું” નથી.
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રહે
टीका अं० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
'
वाचनान्तरे तु 'व्हाया इत्यादि तथा द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमा चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति, तदप्यत्र पाठे सिद्धान्तविरुद्ध पाठप्रक्षेप संभावनां प्रद्योतयति । अत्र यद्वाच्यं तस्मागेव निगदितम् ।
मूलम् - तणं तं दोवइरायवरकन्नं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति किं ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइपडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव चाउ - घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, तएणं से धटुज्जुणे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ, तपणं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सयवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवेइ रहाओ पचोरुहs पच्चरु
अभयदेव सूरि ने स्वरचित वृत्ति में जो यह कहा है कि एक वाचना में " जिनपडिमा अवणं करेइ " दूसरी अन्य वाचना में " व्हाया इत्यादि तथा द्रौपद्याः प्रणिपात दण्डकमात्र चे यवंदनमभिहितं सूत्रे इति" सो यह उनका कथन इस बात की संभावना को प्रकट करता है कि इस पाठ में सिद्धान्त से विरुद्ध पाठ का प्रक्षेप हुआ है। इस विषय में जो कुछ हमें समाधान करना था वह हमने पहिले ही कर दिया है । || द्रौपदी पूजाचर्चा समाप्त ॥
દ્રૌપદી પૂજા ચર્ચા સમાપ્ત.
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અભયદેવસૂરિએ સ્વરચિત વૃત્તિમાં જે એ કહ્યું છે કે એક વાચનામાં “ जिन पडिमाणं अच्वर्ग' करेइ " श्रील वायनामां " व्हाया इत्यादि तथा द्रौपद्याः प्रणिपात दण्डकमात्र चैत्यवदनमभिहित सूत्रे इति । " तो तेभनुं या उथन मा વાતને પ્રકટ કરે છે કે આ પાઠમાં સિધ્ધાન્તથી વિરૂધ્ધ એવા પાઠના પ્રક્ષેપ થયા છે. આ વિષે જે કઈ ચેાગ્ય સ્પષ્ટીકરણ કરવાનું હતું તે અમે પહેલાં
हीधु छे.
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हाताधर्मकथा हित्ता किड्डावियाए लोहियाए य सद्धिं सयंवरमंडपं अणुपविसइ अणुपविसित्ता करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ, तएणं सा दोवई रायवर० एगं महं सिरिदामगंडं किं ते ? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धाणिं मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिजं गिण्हइ, तएणं सा किड्डाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकंतबिंबसंदसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसए पवररायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीर महरभणिया सा तेसिं सम्वेसि पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसामत्थगोत्तविकतिकति बहुविह आगममाहप्परूवजावणगुणलावण्णकुलसील जाणिया कित्तणं करेइ, पढमं ताव वहिपुंगवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तुसयसहस्समाणाबमद्दगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूवजोठवणगुणलावन्नकित्तिया कित्तणं करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं,भणइय-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं । जो हु ते होइ हिययदइओ, तएणं सा दोवई रायवरकन्नगा वहणं रायवरसहस्ताणं मझं मज्झेणं समतिच्छमाणी२ पुवकयणियाणेणं चोइज्जमणिी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ते पंचपंडवे तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामणं आवेढियपरिवेढियं करेइ करित्ता एवं वयासीएएणं मए पंच पंडवा वरिया, तपणं तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९ बहुणि रायसहस्साणि महयारसदेणं उग्घोसेमाणार एवं वयंति सुवरियं खलु भो ! दोवइए रायवरकन्नाए २ त्तिक१ सयंवरमंडवाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, तएणं धट्टज्जुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवइं रायवरकण्णं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं मझ मज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसइ, तएणं दुवए राया पंच पंडवं देवइं रायवरकन्नं पट्टयं दुरूहेइ दुरूहित्ता सेया पीएहिं कलसेहिं मजावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोम कारवेइ पचण्हं पंडवाणं दोवईए य पाणिग्गणं करावेइ तएणं से दुवए राया, दोवईए रायवरकण्णयाए इमं एयारूवं पोईदागं दलयइ, तं जहा – अट्ठ हिरण कोडीओ जाव अट्ठ पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलं धणकणग जाव दलयइ तएणं से दुवए राया ताई वासुदेवपामोक्खाणं विउलेणं असण४ कथगंध जाव पडिविसज्जेइ ॥ सू० २१ ॥
टीका-'तएगं तं ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु तां द्रौपदों राजवरकन्या 'अंतेउरियाभो' आन्तः पुरिक्या= अन्तःपुरवर्तिन्यः स्त्रियः सर्वालंकारविभूपितां कुर्वन्ति, ' किं ते ' तत्-तत्सौन्दर्य किं वर्णयामि तद् वाचाऽभिलपितुं न
तए णं तं दोवई रायवरकन्न इत्यादि । टीकार्थ-(तए णं) इसके बाद (तं दोवई रायवरकन) उस राजवर कन्या द्रौपदी को ( अंतेउरियाओ सम्बालंकारविभूसियं करें ति ) अतः पुर की स्त्रियों ने समस्त अलंकारों से विभूषित किया । (किंते ) उस समय
तएणत दोवई रायवरकन्न इत्यादि
टी -तए ण) त्या२५७ी (त दोबई रायबरकन्न) ते २१४५२ न्या द्रौपदीन (अते उरियाओ-मबालकारविभूसियं करें ति) २७॥सनी श्रीमाने સમસ્ત અલંકારથી શરુગારી. (હિં તે) તે સમયના તેના સૌંદર્યનું વર્ણન
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हाताधर्मकथासूत्र
शक्यत इत्यर्थः । ' वरपायपत्तणेउरा' वरपादमाप्तनूपुराचरणस्थापित प्रशस्तनूपुरा यात्- चेडियाचक्कवाळमयहरगविन्दपरिक्खित्ता चेटिकाचक्रवालमहतरक वृन्देन-अनेकदासीमहत्तरसमूहेन परिसिप्ता-परिवृता, अन्तःपुरात् प्रतिनिष्क्रामति -निः सरति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बाबा बहिः प्रदेशस्था ' उवट्ठाणसाला' उपस्थानशाला आस्थानमण्डपः-सभामण्डइत्यर्थः, यत्रैव चातुघण्टोऽश्वरथस्तौवोपागच्छति, उपागस्य किड्डावियाए ' क्रीड़िकया-क्रीड़नधाच्या कीदृश्या कीडिकयाइत्याह 'लेहियाए' इति लेखिकया-राजकुलवंशनामादिपरिचारिकया साध के उसके सौन्दर्य का हम क्या वर्णन करें। वह वाणी द्वारा कहने के योग्य नहीं है अर्थात् वाणी से उसको वर्णन नहीं हो सकता है । (वर पायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कचालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंते उराओ पडिणिक्खमइ) चरणों में स्थापित किये गये हैं-पहिराये गये हैं-प्रशस्तनू पुर जिसको ऐसी वह द्रौपदी यावत् अनेक समझदार दासियों के महोमहिम समूह से परिक्षिप्त होकर-अंतःपुर से बाहिर निकली । (पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहह) बाहिर निकलकर वह जहाँ बाहिर में सभामंडप और उसमें भी जहां चारघंटों वाला अश्वरथ था यहां आई। वहां आकर वह अपनी क्रीडनधात्री के कि जो लेखिका राजकुल, वंश नाम आदि की परिचायिका थी साथ उस चारघंटोंवाले આપણે કેવી રીતે કરી શકીયે. વાણી વડે તેનું વર્ણન અશક્ય છે એટલે કે વાણીમાં એટલી શક્તિ નથી કે તેના સૌંદર્યનું સચોટ વર્ણન કરી શકે.
(घरपायपत्तणेउरी जाव चेडियावक्कवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइ)
પગમાં જેણે સુંદર નપુર પહયો છે એવી તે દ્રૌપદી ઘણું ચતુર દાસીએથી વીંટળાઈને રણવાસથી બહાર નીકળી. (पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबढाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छद, उबागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ )
બહાર નીકળીને તે જ્યાં બહારના સભા-મંડપમાં ચાર ઘંટવાળે અશ્વરથ હતું ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તે પિતાથી ક્રિીડન ધાત્રી-કે જે લેખિકા રાજકુલ, વંશ નામ વગેરેની પરિચારિકા હતી તેની સાથે તે થાર ઘંટવાળા અશ્વરથ ઉપર સવાર થઈ ગઈ.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरुपणम्
४३१
चातुर्घण्टमश्वरथं ' दुरूह ' दूरोहति = आरोहति । ततस्तदनन्तरं धृष्टद्युम्नः कुमारो द्रौपद्याः कन्यायाः ' सारत्थं ' सारथ्यं - सारथिकर्म करोति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या काम्पिल्यपुरस्य नगरस्य मध्यमध्येन यत्रैव स्वयम्वरमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति रथात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवस्ह्य क्रीडिकया लेखिकया च सार्धं स्वयंवरमण्डपम् अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य करतलपरिगृहीत दशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तेषां वासुदेवप्रमुखाणां बहूणं राजवरसह
अश्वरथ में सवार हो गई। (तएणं से धट्ठज्झुण्णे कुमारे दोवईए कनाए सारत्थं करेइ, तरणं सा दोवइ रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव संयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ ) उस के सवार होते ही धृष्टद्युम्न कुमार ने उस द्रौपदी कन्या का सारथ्य किया - उसके रथ पर सारथि का काम किया- द्रौपदी के रथ को हांका । इस तरह धृष्ट घुम्न के द्वारा हांके गये रथ पर बैठी हुई वह राजवर कन्यो द्रौपदी कांपिल्य पुर नगर के बीच से होकर जहां स्वयंवर - मंडप था उस ओर चल दी। (उवागच्छित्ता रहं ठवेइ रहोओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि सयंवरमंडवं अणुपविसद, अणुपविसित्ता करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ) वहां पहुंचकर उसने रथ को खड़ा करवा दिया - रथके खड़े होते ही वह उससे नीचे उतरी, नीचे उतर कर वह उस लेखिका क्रीडन धात्री के साथ स्वयंवर मंडप में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर के उसने अपने दोनों हाथों को जोड कर उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को प्रमाण
( तरणं से धट्टज्जुण्णे कुमारे दोवईए कन्नाए सारत्थं करेइ, तपणं सा दोवइ रायवर कण्णा कंपिल्लपुरं नगरं मज्झ मज्झेर्ण जेणेव सयंवर मंडवे तेणेत्र उपगच्छइ ) જ્યારે તે સવાર થઈ ગઈ ત્યારે કુમાર ધૃષ્ટદ્યુમ્ને તે દ્રૌપદી રાજવર કન્યાના રથ ઉપર બેસીને સારથીનું કામ સંભાળ્યું. આ પ્રમાણે ધૃષ્ટ સ્ન વડે હાંકવામાં આવેલા તે રથ ઉપર સવાર થઈને તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી કાંપિધ્ધપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં સ્વયંવર મંડપ હતા ત્યાં રવાના થઈ.
( उत्रागच्छित्ता रहं ठवेड़ रहाओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेडियार सद्धि सयंवरमंडवं अणुपविसर, अणुवविसित्ता करयल तेसिं वासुदेव पामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ )
ત્યાં પહોંચીને તેણે રથને થેાલાવડાળ્યે, જયારે રથ થાભ્યા ત્યારે તે રથ ઉપરથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે લેખિકા ક્રીડન ધાત્રીની સાથે સ્વયંવર મંડપમાં પ્રવિષ્ટ થઇ, પ્રવિષ્ટ થઈને તેણે વાસુદેવ પ્રમુખ દ્વારા રાજાઓને પેાતાના અને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યાં.
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बाताधर्मकथा स्राणां प्रणामं करोति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या एकं महत् श्रीदामकाण्डं 'किं ते ' किं तत्-तत्सौन्दर्यसौगन्ध्यवर्णनं किं करोमि ? तद् अपूर्वमितिभावः । 'पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहि' पाटलमल्लिकाचम्पक-यावत् सप्तच्छ. दादिभिः 'गंधद्धाणि ' गन्धधाणिं गन्धप्ति 'मुयंत' मुश्चत् ददत् प्रकाशयदित्यर्थः परमसुखस्पर्श दर्शनीयं गृह्णाति । ततः खलु सा क्रीडिका-क्रीडनधात्री यावत्मुरूपा जाव 'वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं' यावत् वामहस्तेन चिल्लगं दर्पणम् अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम्-साभावियघंसं चोदहनणस्स उम्सुयकर विचित्तमणिरयणपदच्छरुहं ' इति । स्वाभाविकघर्ष =स्वाभाविको नैसर्गिको घर्षों घर्षणं यत्र स तथा तं दर्पणमित्यन्वयः । स्वभावादेव चिक्कणमित्यर्थः, तथा-चतुर्दशजनस्यौत्सुक्यकरं= तरुणलोकरय प्रक्षणाभिलाषजनक, तथा-विचित्रमणिरत्नवद्धच्छरूकं-विचित्रर्माणरत्नैर्बद्धः छरुको-मुष्टि ग्रहणस्थानं, यस्य स तथा तं, तथा-'चिल्लगं' देदीप्यमानं, दर्पणं-वामहस्तेन " गहे उण" गृहीत्वा 'सललियं ' सललितं 'दप्पणकिया ' (तए णं सा दोवई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंड किते ? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धाणिं मुयंत परमसुहफास दरिसणिज्जं गेण्ह) इसके बाद उस राजवर कन्या द्रौपदी ने एक षडा विस्तृत श्री दामकांड-जिस की सुन्दरता और सुगंधि का हम क्या वर्णन करें-जो अपूर्व था-पाटक-गुलाब के पुष्पों से, मल्लिका-मोघरा के पुष्पों से यावत् सप्तच्छद वृक्ष के पुष्पों के गूंथा गया था, और जिस में से नासिका को तृप्ति करने वाली गंध निकल रही थी। जिसका स्पर्श परम सुख दायक था-तथा जो दर्शनीय था अपने हाथ में लिया (तएणं सा किड्डाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्थेणं चिल्लगंदप्पणं गहेऊग मललियं दप्पणसंकंतविसंदंसिए य से दाहिणे]
(तए णं सा दोबई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंडं किं ते ! पाडलमरिलय चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धाणिं मुयंत परमसुहफासं दरिसणिज्जं गेण्हइ)
ત્યારપછી તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીએ એક બહુ મોટો ભારે શ્રીદામકાંડને કે જેની સુંદરતાનું વર્ણન થઈ શકે તેમ નથી અને જે અપૂર્વ હત–પાટલ ગુલાબના પુપથી, મલ્લિકામેગના પુષ્પોથી, ચપ્પાના પુષ્પોથી યાવત્ સમચ્છદ વૃક્ષના પુષ્પથી તે તૈયાર કરવામાં આવ્યું હતું અને જેમાંથી નાસિકાને તૃપ્તિ થાય તેવી સુવાસ પ્રસરી રહી હતી જેને સ્પર્શ અત્યંત સુખકારી તેમજ જે દર્શનીય હો-હાથમાં લીધે.
(तएणं सा किड्डा विया जाव मुख्वा जाव वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहे. ॐण सललियं दप्पणसंकंतर्विवसंदंसिए य से दाहिणणं इत्येणं दरिसए, पवर
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी ठोका अ० १६ द्रौपदोवरितनिरूपणम्
४३३
संकेत विवसंदसिए य दर्पण संक्रान्तविम्ब संदर्शितान् = दर्पणे संक्रान्तानि यानि राज्ञां विम्बानि-प्रतिविम्बानि, तैः संदर्शिताः = प्रतिबोधितास्तांश्च प्रवरराजसिंहान् सिंहसदृशान् श्रेष्टनृपान् दक्षिणेन हस्तेन ' से ' तस्याः द्रौपद्याः ' दरिसए ' दर्शयति इह कर्मणः सम्बन्धमात्र विवक्षायां षष्ठी । तथा - ' फुडविसय विसुद्ध-रिभियगंभीर महुरभणिया स्फुटविशद विशुद्धरिभितगम्भीरमधुर भणिता= अर्थतः
,
कुल
हत्येणं दरिसए पवररायसी हे फुडविसय विसुद्ध रिभियगंभीर महुरभणिया सा तेसि सव्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसामत्थगोतविक्कतिकतिबहुविहआगम महपरूवजोव्वणगुणलावणं जाणिया कित्तणं करेइ ) इसके बाद उस क्रीडन धाय ने अपने हाथ में एक चमकता हुआ दर्पण लिया। यहां दर्पण के इन और विशेषणों का यावत् शब्द से ग्रहण हुआ है वे विशेषण ये हैं 'सामावियघंसं चोहणस्स उस्सुकरं विचित्तमणिरयणकद्वछरुहं " इनका अर्थ इस प्रकार है - यह दर्पण स्वभावतः चिकना था । तथा तरुणजनों के चित्त में अपने को देखने की अभिलाषा का जनक था । मुष्टि से पकड़ने का जो इसका स्थान था वह विचित्र मणि - रत्नों से निर्मित था । उस दर्पण में जिन २ सिंह जैसे शूरवीर राजाओं के उस समय प्रतिबिम्ब पड़े हुए थे उन प्रतिविम्बों को लेकर उस धायने उन श्रेष्ठ राजाओं को उस द्रौपदी के लिये अपने दक्षिण हाथ से बतलाया ! बतलाते समय उन्हें दिखाते समय वह पात्री विलकुल अर्थ की अपेक्षा स्फुट एवं वर्ण रायसी फुडविसयविसुद्ध रिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेर्सि सव्वेसिं पस्थिवाणं अम्मापिऊणं वंससत्तसा तत्यगोत्तरिक्कंति के तिबहुविहआगम महापरूबजोरण गुणलावणं कुलजाणिया कित्तणं करे३ )
ત્યારપછી તે ક્રીડનધાત્રીએ પેાતાના હાથમાં એક ચમકતા અરીસા લીધે, અહીં ‘ અરીસા ? માટે ય વત્ શબ્દથી નીચે લખ્યા મુજબ વિશેષણાનું પણ ગ્રહણુ સમજવું જોઇ એ. ( सामोविययसं चोदहजणस्स उम्सुयकरं विचित्तं मणिरयणबद्धछह हं ) मा विशेषणानुं स्पष्टी४२ या प्रमाणे छे-ते भरीसेो સ્વાભાવિક રીતે લીસેા હતેા, તેમજ તરુણ સ્ત્રીએના ચિત્તમાં તેને જોવાની સહજ ભાવે ઈચ્છા જાગ્રત થાય તેવા હતેા. તે અરીસાને હાથે વિચિત્ર મણીરત્નથી જડેલા હતા. તે અરીસામાં સિંહ જેવા શુરવીર જે જે રાજાએ દેખાયા તે ધાત્રીએ તે રાજાઓને પેાતાના જમણા હાથથી સકેત કરીને મતાવ્યા. અતાવતી વખતે અને સમજાવતી વખતે તે ધાય અર્થની અપેક્ષાથી
शा ५५
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पाताधर्मकथाजस्त्र स्फुटं, वर्णतो विशदं स्फुटविशद-शब्दार्थदोषरहितं, रिभितं-स्वरयुक्त गम्भीरंमेघध्वनिवत् , मधुरं-प्रियं श्रवणसुखदं, भणितं भाषितं यस्याः क्रीडिकायाः सा तथा, सा क्रीडिका तेषां सर्वेषां पार्थिवानां ' अम्मापिऊणं' मातापित्रोः 'वंससत्तसामत्थगोत्तविकंतिकतिबहुविहआगममाहप्परूवजोव्वणगुणलावण्णकुलसीलजाणिया' वंशसत्त्वसामर्थ्यगोत्रविक्रान्तिकान्तिबहुविधागममाहात्म्यरूपयौवनगु. णलावण्यकुलशीलज्ञायिका-वंशं-हरिवंशादिक, सत्त्वम्-आपत्सु धैर्यम् सामर्थ्य बलं गोत्र गौतमगोत्रादि, विक्रान्ति-विक्रम, कान्ति-प्रभां, बहुविधागमं अनेकशास्त्रविशारदं, माहात्म्यं-महानुभावतां, तथा-रूपयौवनगुणलावण्यानि च तथाकुलं-वंशस्यावान्तरभेदं, शीलं च-स्वभावं च जानाति या सा 'कित्तणं' कीर्तनं= वंशादिवर्णनं करोति स्म । प्रथमं तावत्- वहिपुंगवाणं' वृष्णिपुगवानां ' दसदसारवीरपुरिसाणं' दशानां दशार्हाणां समुद्रविजयादीनां वीरपुरुषाणां, 'तेलोगबलवगाणं' त्रैलोक्यबलवतां 'सत्तुसयसहस्समाणावमद्दगाणं ' शत्रुशतसहस्रमानावमर्दकानां, तथा-' भवसिद्धियवरपुंडरीयाणं' भवसिद्धिकवरपुण्डरीकाणां-भवतिकी अपेक्षा विशद ऐसी विशुद्ध-शब्दार्थ दोष रहित-स्वर युक्त मेघ ध्वनि समान गंभीर मधुर वाणी से भाषण करती जाती थी। उस भाषण में वह उन सब राजाओं के माता, पिता, वंश, सत्त्व, सामर्थ्य, गोत्र, विक्रम, कांति, अनेक शास्त्रों का ज्ञातृत्व, माहात्म्य, तथा रूप, यौवन गुण, लावण्य, कुल एवं शील की ज्ञाता होने के कारण इन सब का वर्णन करती जाती थी। वंश से हरिवंश आदि का और कुल से वंशके अवान्तर भेदं का कथन होता है। ( पढम ताव वहिपुं गवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेल्लोकबलवगाणं सत्तुसयसहस्समाणाव मद्दगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूवजोव्वणं
એકદમ ફુટ અને વની અપેક્ષાથી વિશદ એવી વિશુદ્ધ એટલે કે શબ્દાર્થ દેષરહિત-સ્વરયુક્ત, મેઘવનિ જેવી ગંભીર મધુરવાણીનું ઉચ્ચારણ કરી રહી હતી. પિતાના ભાષણ વડે તે ધાય બધા રાજાઓના માતા પિતા વંશ, સત્વ, सामथ्य, गोत्र, विभ, zild, ज्ञान, मखान्य तेम ३५, यौवन, गुण, લાવણ્ય, કુળ અને શીલ વગેરેની બાબતમાં જાણકાર હતી એટલે બધું વર્ણન કરતી જતી હતી. વંશથી હરિવંશ વગેરે અને કુળથી વંશને અવાન્તર ભેદનું ४थन थयु छे.
(पढमं ताव वहिपुंगवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलबगाणं सत्तुसयसहस्समाणावमदगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरियरूव
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भनेगारधर्मामृतषिणी टो० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् भाविनी सिद्धिर्येषां, ते भवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुण्डरीकाणीव ये श्रेष्ठास्ते तथा तेषां, तथा 'चिल्लगाणं' तेजसा देदीप्यमानानां 'चिल्लग' इति देशी शब्दः। तथा- 'बलवीरियरूजोवणगुणलावनकित्तिया' बलवीर्यरूपयौवनगुणलावण्य कीर्तिकाबलं-कायिक, वीर्यम्-उत्साहः, रूप-सौन्दर्य, यौवनं-तारुण्यं, गुणान्-औदार्यगाम्भीर्यादीन् , लावण्य-यौवनवयोजन्यं कान्तिविशेष, कीर्तयति या सा तथा, सा क्रीडिकाधात्री कीर्तनं करोति स्मेत्यर्थः । अत्र पूर्वोक्तमपि विशेषणं किंचिद् विशेषबोधनार्थं पुनः कथितम् ।
ततस्तदनन्तरं पुनः सा क्रीडनधात्री — उग्गसेणमाईणं जायवाणं ' उग्रसेनादीनां यादवानां बलवीर्यादि कीर्तनं करोति कृत्वा भणति च-सा धात्री द्रौपदी गुणलावण्ण कित्तियाकित्तणं करेइ ) सबसे पहिले उस क्रोडन धात्री ने वृष्णिवंश के पुंगव समुद्रविजय आदिदश दशाहों के कि जो त्रैलोक्य में भी विशिष्ट बलशाली माने जाते थे, लाखों शत्रुओं के मान को मर्दन करने वाले थे, भवसिद्धिक पुरुषों में जो श्रेष्ठ कमल के जैसे माने गये हैं, और जो अपने स्वाभाविक तेज से सदा दमकते रहते थे बल का, वीर्य का, रूप का, यौवन का, गुणों का, लावण्य का, कीर्तिका होने के कारण कीर्तन-वर्णन किया। शारीरिक शक्तिका नाम यल, उत्साह का नाम वीर्य, सौन्दर्य का नाम रूप तारुण्य का नाम यौवन है । औदार्य गांभीर्य आदि गुण है । यौवन वय से जन्य जो कांति शरीर में आती है वह लावण्य है (तओ पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं भगइ य सोहग्गरूवकलिए वरेहि वर पुरिसगंधहस्थीणं जो हु ते होइ हियय. दइओ, तएणं सा दोबई रायवरकन्नगा बहूर्ण रायवरसहस्साणं मन्झं जोव्वणगुणलावण्णकित्तिया कित्तणं करेइ )
તે કીડન ધાત્રીએ સૌ પહેલાં વૃષ્ણિ વંશમાં પુંગવ (શ્રેષ્ઠ) સમુદ્ર વિજ્ય વગેરે દશ દશાહનું-કે જેઓ ત્રણે લોકમાં પણ વિશિષ્ટ શક્તિશાળી ગણાતા હતા, લાખે શત્રુઓના માનનું મર્દન કરનારા હતા, ભવસિદ્ધિક પુરૂમાં જેઓ કમળની જેમ શ્રેષ્ઠ ગણતા હતા અને જેઓ પિતાના સ્વાભાવિક તેજથી हमेशा शत। २ता Gal, ण, वीर्य, ३५, यौवन, गुणे, साय, डीति વગેરેથી સંપન્ન હતા-વર્ણન કર્યું. શારીરિક શક્તિનું નામ બળ, ઉત્સાહન નામ વીર્ય, સૌન્દર્યનું નામ રૂપ અને તારૂણ્યનું નામ યૌવન છે. ઔદાય ગાંભીર્ય ગણે છે. યુવાવસ્થામાં જે શરીર કાંતિવાળું થાય છે તેને લાવણ્ય કહેવામાં આવે છે.
(तओ पुणो उग्गसेणभाईणं जायवाणं भणइ य सोहागरूवकलिए वरेहि परपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हिययदइओ तएणं तं दोबई रायवरकनगा
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शांताधर्मकथा
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पुनराह - 'सोहग्गरूत्रकलिए ' इत्यादि, एवमत्रान्वयमुखेन व्याख्या -' वरपुरिसंगंधहत्यो ' वीरपुरुषगन्धहस्तिना = हस्तिषु गन्धहस्तिन इव ये विशिष्टगुणसद्धावात् पुरुषेषु सर्वतः श्रेष्ठास्ते वरपुरुषगन्धहस्तिनस्तेषां मध्ये ' सोहग्गस्वकलिए ' सौभाग्यरूपकलितः - अतिशयेन सौभाग्य सौन्दर्य समन्त्रितः यः खलु ते तव हृदयदयितः = हृदयप्रिय: ' होइ ' भवति, तं ' वरेहि ' वरय पतिभावेन स्वीकुरु इत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु द्रौपदी राजवरकन्या बहूनां राजवरसहस्राणां मध्यमध्येन ' समइच्छमाणी २' समतिक्रामन्ती गच्छन्ती पुत्रकयणियाणेणं पूर्वकृतनिदानेन = सुकुमारिकाभवे भर्तृपञ्चकाभिलापरूपं निदानं कृतं तेन, 'चोइज्जमाणी २' प्रेर्यमागा २ यत्रैव पञ्च पाण्डवास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तान् दशार्धवर्णेनपञ्चवर्णेन कुसुमदाम्ना ' आवेदियपरिवेढिए आवेष्टितपरिवेष्टितान् करोति, मज्झेणं समतिच्छमाणी २ पुव्वकयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंचपंडवा तेणेव उवागच्छइ ) इसके बाद उस क्रीडन धाय ने यादव वंशवाले उग्रसेन आदि यादवों के बलवीर्य आदि का वर्णन कियाउसने द्रौपदी से कहा ये जैसे हाथियों में गंधहस्ती श्रेष्ठ होता है उसी तरह ये पुरुषों में विशिष्ट गुणोंके सद्भाव के कारण सर्व प्रकार से श्रेष्ठ हैं - उनके बीच में जो तुझे सौभाग्यरूप संकलित प्रतीत हो और तेरे हृदय को प्यारा लगे उसे तूं पतिरूप से वरले । इसके बाद वह राजवर कन्या द्रौपदी उन हजारों राजाओं के बीच से होती हुई सुकुमारिका के भव में कृत निदान के प्रभाव से बार २ प्रेरित होकर जहां पांच पांडव थे वहां पहुँची - ( उवागच्छिता ते पंच पांडवे तेणं दसवणेणं कुसुमदामेणं आवेदियपरिवेढियं करेइ, करिता एवं वयासी, एएणं मए पंच बहूणं रायवरसहस्साणं मज्झं मज्ज्ञेगं समतिच्छमाणी २ पुव्त्रकयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उपागच्छइ )
ત્યારપછી ક્રીડન ધાત્રીએ ઉગ્રસેન વગેરેનું વર્ણન કર્યું અને કહ્યું કેહાથીઓમાં જેમ ગધ હસ્તી ઉત્તમ ગણુાય છે. તેમજ પુરૂષામાં સિવશેષ ગુણવાન એવા એએ બધી રીતે સારા છે, આ બધામાં તને જે સૌભાગ્યશાળી લાગતા હોય અને તને જેએ ગમતા હાય તેને તું પતિ રૂપમાં સ્વીકારી લે. ત્યારપછી તે રાજગર કન્યા દ્રૌપદી તે હજારા રાજાઓની વચ્ચેથી પસાર થઇને પેાતાના સુકુમારિકાના ભવમાં કરેલા અભિલાષથી પ્રેરાઇને જ્યાં પાંચ પાંડવા હતા ત્યાં પહોંચી.
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( उवागच्छित्ता ते पंच पांडवे तेगं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेदिय परिवेदियं करे, करित्ता एवं वयासी, एएमए पंचपंडवा वरिया, एर्ण
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गारधर्मामृतपणी टी० अ० १६ द्रौपदीरितनिरूपणम्
હ
कृत्वा एवमवादीत् एते खलु पञ्च पाण्डवा मया वृता इति । ततः खलु ' ताई वासुदेवपामोक्खा बहूणि रायसहस्साणि तानि वासुदेवप्रमुखाणि बहूनि राजसहस्रसंख्या वासुदेवप्रमुखा राजान इत्यर्थः । महता २ शब्देनोद्धोषयन्त एवं वदन्ति - सुतं खलु भोः ! द्रौपद्या राजवरकन्यया इति कृत्वा - इत्युक्त्वा स्वयंवर - मण्डपात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, निर्गच्छन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव स्वका स्वका आवा सास्तत्रैवोपागच्छन्ति । ततः खलु धृष्टद्युम्नः कुमारः पञ्च पाण्डवान् द्रौपदीं राजवरकन्यां चातुर्घष्टमश्वरथं ' दुरूहइ ' दुरोहयति = आरोहयति दुरोध काम्पि पंडवा वरिया, तरणं तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं बहणि रायसहस्साणि, महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयंति, सुवरियं खलु भो ! दोबइए रायवरकन्नाए त्ति कट्टु सयंवरमंडवाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवागच्छइ ) वहां पहुंच कर उसने उन पांचो पांडवों को उस पंचवर्णवाली माला से अवेष्टित परिवेष्टित कर दिया । करके फिर वह इस प्रकार कहने लगी- ये पाँच पांडव मैंने पतिरूप से वर लिये हैं। इसके बाद उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं ने बड़े २ जोर के शब्दों से ऐसा कहा इस राजवर कन्या द्रौपदीने बहुत अच्छे वर वरे ऐसा कहकर वे उस स्वयंवर मंडप से बाहर हो गये । बाहिर आकर फिर वे जहां अपने २ आवास स्थान थे वहां चले आये। (उवागच्छिता तरणं धट्टज्जुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवई रायवरकण्णं चाउरघंटं आसरहं दुरूह, दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं बहूणि रायसहस्साणि, महया २ सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयंति, सुवरियं खलु भो ! दोवइए रायवर कन्नाए २ ति कट्टु सयंवरमंड - बाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया२ आवासा तेणेव उवागच्छ)
ત્યાં પહેાંચીને તેણે તે પાંચ પાંડવાને પાંચ વર્ણવાળી માળાથી અવે. તિ, પરિવેષ્ટિત કરી દીધા. ત્યારપછી તેને કહેવા લાગી કે હું પાંચ પાંડવે ! મે તમને પતિ રૂપમાં વરી લીધા છે. ત્યારબાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હુજારા રાજાઓએ બહુ મેટા સાદથી આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ રાજવર કન્યા દ્રૌપદીએ બહુ જ સારા વરા પસદ કર્યાં છે. આમ કહીને તેએ સવે સ્વયંવર મડપમાંથી બહાર નીકળી ગયા, બહાર નીકળીને તેઓ જ્યાં પેાતાના આવાસ સ્થાના હતાં ત્યાં જતા રહ્યા.
( नागच्छित्ता तरणं घट्टज्जुण्णे कुमारे पंचपंडवे दोबई रायवरकण्णं चाउ ग्घंटं आसरहं दुरूह, दुरूहित्ता कंपिल्लपुरं म मज्झे णं जाव सयं भवणं अणु
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शीताधर्मकथासूत्र ल्यपुरस्य मध्यमध्येन यावत् स्वकं भवनमनुपविशति, ततः खलु द्रुपदो राजा पञ्च पाण्डवान् द्रौपदी राजवरकन्यां 'पट्टयं ' पट्टकं पट्टकोपरि दुरूहेइ ' दूरो. इयति आरोहयति, दरोह्य श्वेतपीतैः कलशैः 'मज्जावेइ ' मज्जयति-स्नपयति अग्निहोम विवाहविधिनाऽग्नौ होमं कारयति, पञ्चानां पाण्डवानां द्रौपद्याश्च पाणिग्रहणं कारयति, अत्र पञ्चानां पाण्डवानामिति सम्बन्धसामान्ये षष्ठी । ततः खलु स द्रुपदो राजा द्रौपद्या राजवरकन्यायाः इममेतद्रूपं भीतिदानं यौतुकदानं ददाति, मज्झं मज्झेणं जाव सयंभवणं अणुपविसइ, तएणं दुवए राया पंच पंडवे दोवई रायवरकन्नं पट्टयं दुरूहेइ, दुहित्ता सेयापीएहिं कलसे हिं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोम कारवेह, पंचण्हं पंडवाणं दोवइए य पाणिराहणं करावेइ,) इसके बाद धृष्टद्युम्नकुमार ने उन पांच पांडवो को एवं राजवर कन्या द्रौपदी को चारघंटो से युक्त उस अश्वरथ पर बैठाया-बैठाकर कांपिल्यपुर नगर के बीच से होता हुआ वह जहां अपना भवन धो वहां आया वहां आकर वह उसमें उन सब के साथ प्रविष्ट हुआ। इसके बाद द्रुपद राजा ने उन पांचो पांडवों को और राजवर कन्या उस द्रौपदी को एक पटक पर बैठा दिया-धैठाकर फिर उसने उनका श्वेत पीत कलशों से चांदी सोने के घड़ो से-अभिषेक करवाया अभिषेक करवा कर फिर उसने अग्नि होम करवाया-और उसकी साक्षी पूर्वक पांचो-पांडवो के साथ अपनी कन्या द्रौपदी का पाणि ग्रहण संस्कार करवा दिया। (तएणं से दुवए राया दोवइए रायपविसइ, तएणं दुवए राया पंच पंडवे दोबई रायवरकन्नं पट्टयं दुव्हेइ, दुरूहित्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेइ मज्जावित्ता अग्गिहोम कारवेइ, पंचण्हं पंडवाणं दोवइए य पाणिग्गहणं करावेह)
ત્યારપછી ધષ્ટદ્યુમ્ન કુમારે તે પાંચ પાંડને અને રાજવર કન્યા કપદીને ચાર ઘંટવાળા તે અશ્વરથ ઉપર બેસાડયા અને બેસાડીને કપિસ્યપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં પિતાનું ભવન હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેઓ સર્વે તેમાં પ્રવિણ થયા. ત્યારપછી ૫દ રાજાએ તે પાંચે પાંડને અને રાજવર કન્યા તે દ્રૌપદીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડી દીધા અને બેસાડીને તેણે તેમને સફેદ, અને પીળા કળશથી-એટલે કે ચાંદી અને સેનાના કળશથી અભિષેક કરાવડાવ્યે અભિષેક કરાવીને તેણે અગ્નિહામ કરાવરા અને તેની સાક્ષીમાં પિતાની કન્યા દ્રૌપદીને હસ્તમેળાપ તેઓની સાથે કરાવી દીધો.
(तएणं से दुवए राया दोबदए रायवरकण्णयाए इमं एयारू पीईदाणं
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बनगारधर्मामृतषिणी ० ०० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् तद् यथा-अष्ट हिरण्यकोटीः, यावत् अष्ट रजतकोटी, अष्ट सुवर्णकोटीः, अष्ट 'पेसणकारीओ 'प्रेषणकारिणीः, आज्ञाकारिणी दासचेटीः-दासपुत्रीः, अनच विपुलं धनकनक-यावत् धनं-गणिमादिकं, कनकम् अघटितस्वर्ण, यावच्छन्देनरत्ननि-कर्केतनादीनि, मणयश्चन्द्रकान्तायाः मौक्तिकानि च शखश्च प्रतीत एव शिलामवालानि च विद्युमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि तान्येव सद् विद्यमानं यत् सारं प्रधानं स्वापतेयं द्रव्यं तद् ददाति स्म । ___ ततः खलु स द्रुपदो राजा तान् वासुदेवप्रमुखान् बहुसहस्रसंख्यकान् राज्ञः विपुलेन अशनपानखाद्यस्वायेन भोजयति, भोजयित्वा वस्त्रगन्धादिभिर्यावत् सत्का. रयति संमानयति, सत्कार्य संमान्य प्रतिविसर्जयति ॥ सू०२२ ॥ वरकण्णयाए इमं एयारूवं पीईदाणं दल यइ, तं जहा-अहिरण्ण कोडीओ जाव अट्ठपेसणकारिओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलं. धणकणग जाव दलयह, तएणं से दुवए राया ताई वासुदेव पामोक्खाणं विउलेणं असण४ वत्थगंध जाव पडिविसज्जेह) इसके बाद द्रुपद राजाने राजघर कन्या उस द्रौपदी के लिये इतना इस प्रकार प्रीति दान दिया आठ हिरण्य कोटि-चांदी के बने हुए आठ करोड आभूषण, सुवर्ण के बने हुए आठ करोड आभूषण यावत् आज्ञा कारिणी ८ आठ दासियों
और भी बहुत सा गणिमादिक रूप धन, अघटित सुवर्ण, कर्केतनादि रत्न, चन्द्रकान्त आदि मणि, मौक्तिक, शंख, विद्रुम, पद्मरागादि रक्त रत्न । यह मय सारभूत द्रव्य उसके लिये प्रदान किया। इसके बाद द्रुपदराजा ने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को अशन, पान, खाद्य एवं स्वाधरूप चतुर्विध आहार एवं वस्त्र गंध आदि से सत्कत सन्मानित कर अपने यहां से विदा कर दिया ॥ मू० २२ ॥ दलयइ, तं जहा अट्ठ हिरण्णकोडीओ जाव अट्ठः पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विउलं धणकणग जाव दलयइ, तएणं से दुवए राया ताई वासुदेव पामोक्खाणं विउलेणं असण ४ वरथ गंध जाव पडिविसज्जे)
ત્યારપછી દ્રુપદ રાજાએ રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે પ્રતિદાન આપ્યું કે આઠ હિરણ્ય-કેટિ-ચાંદીના આઠ કરોડ આભૂષણે યાવત્ આજ્ઞા માં રહેનારી આઠ દાસીઓ અને બીજું પણ ઘણું ગણિમ વગેરે રૂ૫. ધન, અઘટિત સુવર્ણ, કર્કેતન વગેરે રત્ન, ચન્દ્રકાંત વગેરે મણિ, મૌક્તિક, શંખ, વિદ્રુપ, પદ્મરાગ વગેરે રત રત્ન આપ્યા. આ બધું સારભૂત ધન દ્રૌપદીને આપ્યું. ત્યારપછી કુપદ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારે રાજાઓને અશન, પાન, ખાદ્ય, અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહાર અને વસ્ત્ર, ગંધ વગેરેથી સત્કૃત સન્માનિત કરીને પિતાના નગરથી વિદાય કર્યો. એ સૂત્ર ૨૨ છે
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४४०
हाताधर्मकथाम मूलम्-तएणं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहणं राय० करयल एवं वयासो- एवं खलु देवाणुप्पिया ! हत्थिगाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवइए य देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह, तएणं वासुदेवपामोक्खा पत्तेयंर जाव पहारेत्थ गमणाए । तएणं से पंडुराया कोडुंबियपुरिसे सदा० २ एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायडिसए कारेह अब्भुग्गयमूसिय वण्णओजाव पडिरूवे,तएणं ते कोडुंबियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेंति, तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवईए देवीए सद्धिं हयगयसंपरिबुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ२ जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागए, तएणं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोडुंबि० सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरस्स नयरस्स बहिया, वासुदेवपामुक्खाणं बहणं रायसहस्साणं आवासे कारेह अणेगखंभसय तहेव जाव पच्चप्पिणंति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागच्छइ, तएणं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता हट्टतुटे पहाए कयवलि जहा दुवए जाव जहारिहं आवासे दलयइ, तएणं ते वासुदेव पा० बहवे रायसहस्सा जेणेव
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मनगारधर्मामृतपषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ४४१ सयाइं२ आवासाइं तेणेव उवा० तहेव जाव विहरांति, तएणं से पंडुराया हत्थिणाउरणयरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता कोडुबिय० सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासी-तुन्भेणं देवाणु. प्पिया ! विउलं असण४ तहेव जाव उवणेति, तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया पहाया कयबलिकम्मा तं विउलं असणं४ तहेव जाव विहरंति, तएणं से पंडुराया पंच पंडवे दोवइं च देविं पट्टयं दुरूहेइ दुरूहित्ता सेयपीएहिं कलसेहिं ण्हावेंति पहावित्ता कल्लाणकारि करेइ करिता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण? पुप्फवस्थेणं सकारेइ सम्माणेइ जावपडिविसज्जेइ, तएणं ताई वासुदेवपामोक्खाइं बहुहिं जाव पडिगयाइं ॥ सू० २३ ॥
टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु पाण्डू राजा तेषां वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणां करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे नगरे पश्चानां पाण्डवानां द्रौपद्याश्च देव्याः कल्याणकरो भविष्यति तत्-तस्मात् यूयं खलु हे देवानु. मियाः मामनुगृह्णन्तः, अकालपरिहीनं कालविलम्बरहितं-शीघ्रं समवसरत-आग
'तएणं से पंडराया ' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से पंडूराया) उस पांडुराजा ने (तेसिं घासुदेव पामोक्खा णं) उन वासुदेव प्रमुख (यहणं राय० करयल एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियो ! हात्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवइए देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम
तएण से पंदुराया इत्यादि
Atथ-( तएण) त्या२५०ी (से पंडराया) ते ५iड २ (सि वासुदेवपामोक्खाण) ते पाव प्रभुम
(बहूणं राय० करयल एवं वयापी-एवं खलु देवाणुप्पिया! हस्थिणाउरे नयरे पंचण्डं पंडवाणे दोषइए, देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! ममं अगिण्इमाणा अकालपरिहणं समोसरह)
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૨
- शाताधर्मकथाजस्त्रे मनं कुरुत । ततः खलु वासुदेवप्रमुखाः प्रत्येकं २ यावत् प्राधारयद् गमनाय= हस्तिनापुर नगरं गन्तुं प्रवृत्ता इत्यर्थः।
ततः खलु स पाप्डुनामको राजा कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे पश्चानां पाण्डवानां पञ्च 'पासायवडिसए ' प्रासादावतंसकान् कारयत । किं भूतानित्याह-' अब्भुगयमूसिय' अभ्युद्गतोच्छ्रितान्-अत्युच्चानित्यर्थः । वर्णकः-प्रथमाध्ययनोक्तअणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह ) हजारों राजाओं से अपने दोनों हाथों की अंजलि करके और उसे शिर पर रखकर के बड़ी नम्रता के साथ नमस्कोर करके इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पांच पांडवों और द्रौपदी देवी का कल्याणकारी उत्सव होगा इसलिये हे देवानुप्रियों! आप सब मेरे ऊपर अनुग्रह करके शीघ्र से शीघ्र पधारें । (तएणं वासुदेवपामोक्खा पत्तेयं २ जाव पहारेत्थ गमणाए ) इम के बाद वे वासुदेव प्रमुख प्रत्येक जन वहाँ हास्तिना पुर जाने के लिये प्रस्थित हो गये। (तएणं से पंडुराया कोडुम्बियपुरिसं सद्दावेइ २ एवं वयासी-गच्छह गंतुन्भे देवाणुप्पिया हथिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पोसायवडिसए कारेह, अब्भुग्गयमुसिय वण्णओ जावपडिरूवे) इतने में पांडुराजा ने कौटुम्बिकपुरुषों को बुलाया ओर बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हस्तिना पुर जाओ वहां जाकर पांचों पांडवों के लिये पांच श्रेष्ठ प्रासाद बनवाओ। ये प्रासाद
હજાર રાજાઓને પિતાના બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને ખૂબ જ નમ્રપણે નમસ્કાર કર્યા અને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! હસ્તિનાપુર નગરમાં પાંચ પાંડે તેમજ દ્રૌપદી દેવીને કલ્યાણકારી ઉત્સવ થશે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ મારા ઉપર કૃપા ४ीने सत्वरे त्यां पधारे।. (तएण वासुदेवपामोक्खी पत्तेयं २ जाव पहारेत्थ गमणाए ) त्या२५छी ते वासुदेव प्रभु५ ४२४ २an त्यांथी हस्तिनापुर ४५५ 54ही गया.
तएणं से पंडुराया कोडं वियपुरिसं सदावेइ २ एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया इरिथणाउरे पंचण्डं पंडवाणं पंच पासायव डिसए कारेह, अन्भुग्गयमुसिय वण्णओ जाव पडिरूवे)
તે વખતે પાંડુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બેલાને તેઓને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે હસ્તિનાપુર જાઓ અને ત્યાં જઈને
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मगारधर्मामृतषिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् मेघकुमार-मासादवद् वर्णनं विज्ञेयम् यावद् अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टान् प्रतिरूपान्-शोभासौन्दर्यसम्पन्नान् । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा:-' तथाऽस्तु ' इत्युक्त्वा प्रतिशृण्वन्ति आज्ञा स्त्रीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य हस्तिनापुरं गत्वा पञ्च प्रासादावतंसकान यावत् कारयन्ति । ततस्तदनन्तरं पाण्डूराना पञ्चभिः पाण्डवै द्रौपद्या देव्या च साध हयगजरथपदातिसंपरितः काम्पिल्पपुरात् पतिनिष्क्रामतिप्रतिनिष्क्रम्य यचैव हस्तिनापुर नगरं तत्रैवोपागतः ।
ततः खलु स पाण्डूराना तेषां वासुदेवप्रमुखाणामागमनं ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! बहुत ऊंचे हो । इन प्रासादों का वर्णन प्रथम अध्ययन में उक्त मेघ कुमार के प्रासादों जैसा जानना चाहिये । यावत् ये प्रासाद अनेक स्तंभशत से युक्त हों-शोभा सौन्दर्य से संपन्न हों। (तएणं ते कोडुम्बिय पुरिसा पडिसुणेति, जा करावेति ) राजा की इस प्रकार की आज्ञा को उन कौटुम्धिक पुरुषों ने मान लिया और हस्तिनापुर जाकर उन्होंने पांच प्रासाद कथित रूपसे बनवा दिये । (तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवइए देवीए सद्धिं हय गय संपरिवुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागए) इसके बाद वे पांडुराजा पांडवों
और द्रौपदी देवी को साथ लेकर हय, गज, आदि चतुरंगिणी सेना के साथ २ कांपिल्यपुर नगर से चल दिये-चलकर जहां हस्तिनापुर नगर था-वहां आये (तएणं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं પાંચે પાંડ માટે પાંચ ઉત્તમ મહેલ બનાવડાવે. મહેલ ઊંચા હોવા જોઈએ. આ મહેલેનું વર્ણન પહેલા અધ્યયનમાં વર્ણવવામાં આવેલા મેઘ કુમારોના મહેલ જેવું જાણી લેવું જોઈએ. યાવત્ આ બધા મહેલે ઘણું સેંકડે થાંભલાमाथी युत तमाशाला तथा सौर्य संपन्न वन मे. (तएण ते कोडुबियपुरिसा पडिसुणे ति जाव करावें ति) मा सतनी सजनी माज्ञान કૌટુંબિક પુરૂષોએ સ્વીકારી લીધી અને હસ્તિનાપુર જઈને તેઓએ કહેવા મુજબ જ પાંચ મહેલે તૈયાર કરાવી દીધા.
(तएणं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवइए देवीए मद्धिं हयगयसंपरिखुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागए )
ત્યારપછી તે પાંડુ રાજા પાંચે પાંડ અને દ્રૌપદી દેવીને લઈને સાથે ઘેડા, હાથી વગેરેની ચતુરંગિણી સેનાની સાથે કાંપિલ્યપુર નગરની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યાં પહોંચ્યા.
(तएणं से पंडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोडुंबिय०
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जाताधर्मकथा हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिः प्रदेशे वासुदेवप्रमुखाणां बहूनां राजसहस्राणामावा. सान् कारयत, कीदृशानावासान् इत्याह-' अणेगखंभ' इत्यादि । अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टान् , तथैव-यथाऽऽवासान् कारयितुं पाण्डुना कथितं, तथैव कारयित्वा कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रत्यर्पयन्ति-राजे निवेदयन्ति स्म । ततः खलु वासुदेवप्रमुखा बहु सहस्रसंख्यका राजानो यौव स्वकाः स्वका आवसास्तौवोपागच्छन्ति, जाणित्ता कोडंविय० सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! हथिणाउरस्स नयरस्स पहिया वासुदेवपामोक्खाणं यहणं रायसहस्साणं आवासे करेह ) वहां आकर उन पांडुराजा ने उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का आगमन जानकर कौडुम्यिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और हस्तिनापुर नगर के बाहिर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को ठहरने के लिये आवासों को बनवाओ (अणेगखंभसय तहेव जाव पच्चप्पिणति, तएण ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागच्छंति) ये आवास अनेक सेंकडोंस्तभों से युक्त हों। इस प्रकार जैसे आवासों को बनवाने के लिये पांडु राजा ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा था-वैसे ही आवास उन कोटुम्बिक पुरुषों ने बनवादिये और बनवाकर पीछे इसकी खयर भी राजा को करदी। इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां हस्तिनापुर सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! इत्थिगाउरस्स नयरस्म बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह )
ત્યાં આવીને તે પાંડુ રાજાએ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજાર રાજાઓને આવી ગયેલા જાણીને પિતાના કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકે જાઓ અને હસ્તિનાપુર નગરની બહાર વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજા બને રહેવા માટે આવાસ બનાવે.
(अणेगखंभसय तहेव जाव पञ्चपिणंति, तए णं ते वासुदेवपामोक्खा वहवे रायसहस्सा जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागच्छंति)
આ બધા આવાસે સેંકડે સ્તથી યુક્ત હોવા જોઈએ. આ રીતે પાંડુ રાજાએ જે જાતના આવાસો બનાવડાવવાને હુકમ કર્યો હતે તે કૌટુંબિક પુરૂએ તે જ જાતના આવાસો બનાવડાવી દીધા અને બનાવડાવીને કામ પૂરું થઈ જવાની રાજાને ખબર આપી. ત્યારપછી તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારો રાજાએ જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યાં આવી ગયા.
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गरी डीका ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
४४५
उपागत्य तथैव यावद विहरन्ति । ततः खलु स पाण्डू राजा हस्तिनापुरं नगरमनुपविशति, अनुपविश्य कौटुम्बिकपुरुषान् शद्वयति, शद्धयित्वा एवमवादीत्यूयं खलु हे देवानुप्रियाः । विपुलम् अशनपानपानखाद्यस्वायं, उपस्कारयत, उपकार्य वासुदेवप्रमुखास्तत्रैवोपनयत । तथैव यावद् उपनयन्ति, ततस्ते कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव विपुलमशनादि चतुर्विधाऽऽद्वारमुपस्कारयन्ति उपस्कार्य यावद् वासुदेवादीनामन्ति के - उपनयन्ति = उपस्थापयन्ति ।
नगर था वहां आगये। (तपणं से पंडुराराया तेसिं वासुदेवपामोक्खा णं आगमणं जाणित्ता हट्ठतुट्ठे पहाए कयबलिकम्मे जहा दुवए जाव जहा रिहं आवासे दलयंति, तएणं ते वासुदेव पो० बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाई तेणेव उवाग० तहेव जाव विहरति ) वासुदेव प्रमुख उन हजारों राजाओं का आगमन जानकर पांडुराजाने हर्षित एवं संतुष्ट होकर स्नान किया वायसादि पक्षियों के लिये अन्नादि का देने रूप बलि कर्म किया - जिस प्रकार दुपद राजाने यथा योग्य आवासस्थान इन्हों के लिये दिये थे उसी तरह पांडुराजा ने भी उन्हें जो जिस के योग्य स्थान था वह आवासस्थान दियो । पश्चात् वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां अपने २ ठहरने के लिये आवासस्थान थे वहां गये वहां जाकर वे उसी तरह से ठहर गये । (तएण से पंडूराया हत्थिणाउरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, कोडुं विय० सहावेह, सद्दावित्ता एवं बयासी तुम्भेण देवाणुप्पिया ! विउलं असणं ४ तहेब जाब जब
( तए से पंडुराया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता हट्टट्ठे हाए कrवलिकम्मे जहा दुवए जात्र जहारिहं आवासे दलयंति, लएणं ते वासुदेव पा० बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाई तेणेव उवाग० तहेव जात्र विहरति )
વાસુદેવ પ્રમુખ તે હજારા રાજાઓનું આગમન સાંભળીને ષિત તેમજ સ'તુષ્ટ થઈને પાંડુ રાજાએ સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરે પક્ષીઓના માટે અન્ન વગેરેના ભાગ અને અલિકમ કર્યાં. દ્રુપદ રાજાએ જેમ તે રાજાને યથા ચૈાગ્ય આવાસ સ્થાનેા રહેવા માટે આપ્યા હતા તેમજ પાંડુ રાજ્યએ પણ તેએ બધાને ઉચિત આવાસા આપ્યા. ત્યારપછી તેઓ વાસુદેવ પ્રમુખ હારે રાજાએ જ્યાં પાતપેાતાના રાકાવાના આવાસા હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં પહોંચીને તેઓ ત્યાં રીકાઈ ગયા.
(तपणं से पांडुराया इत्थिणावर नयर अणुपविसर, अणुपविसित्ता, फोबिय० सहावे, सावित्ता एवं वयासी-तुभेणं देवाणुप्पिया ! त्रिउलं असणं
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श्रोताधर्मकथासूत्रे
ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहवो राजानः स्नाताः कृतबलिकर्माणः:= काकादिजीवेभ्यः कृतानादिसंविभागाः, तद् विपुलम् अशनं पानं खायं स्वाद्यं तथैव - आस्वादयन्तो विस्वादयन्तः परिभुञ्जाना यावद् विहरन्ति = आसतेस्म । ततस्तदनन्तरं स पाण्डुराजा तान् पश्च पाण्डवान् द्रौपदीं च देवीं ' पट्टयं ' पट्टकं = पट्ट्कोपरि ' दुरूहेड़ दोहयन्ति = आरोहयति । आरोह्य श्वेतपीतेः कलशैः स्नपयंति,
"
ति, तणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयबलिकम्मा तं विउलं असणं ४ तहेब जाव विहरंति-तएण से पंडुराया पंचपंडवे दोवई दोवि पट्टयं दुरुहेइ, दुरुहिता सेयपीएहिं व्हावेंति, पहावितो कल्लाण कारि करेइ ) इस के बाद पांडुराजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया प्रवेश कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया घुलाकर उनसे ऐसा कहा है देवानुप्रियो ! तुम लोग विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार बनवाओ बनवाकर फिर उसे जहां वासुदेव प्रमुख राजा ठहरे हुए हैं वहां ले जाओ। इस प्रकार की अपने राजाकी आज्ञानुसार उन्होने वैसा ही किया- चतुर्विध आहारं बनवाया और फिर उसे वासुदेव आदि राजाओं के पास पहुँचा दिया। आहार के पहुँचने पर उन वासुदेव प्रमुख राजाओं ने स्नान किया बलिकर्म किया - काक आदि जीवों के लिये कृत अन्नमें से विभाग देनेरूप कियाकी - बाद में उन्हों ने उस चतुविंध आहार को किया । इसके पश्चात् पांडुराजा ने उन पांचों पांडवों ४ तहेव जाव उवर्णेति तएणं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयवलि कम्मा तं विउलं असणं ४ तहेत्र जाव विहरंति - तरणं से पंडुराया पंच पंडवे दोवई च देवं पट्टयं दुरुहे, दुरुहिता सेयपीएहिं कलसेर्हि व्हावेति पदावित्ता कलाणकारि करे )
ત્યારપછી પાંડુરાજા હસ્તિનાપુર નગરમાં પ્રવિષ્ટ થયા. પ્રવિષ્ટ થઈને તેઓએ કૌટુ'બિક પુરૂષોને ખેલાવ્યા અને મેલાવીને તેએને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેાકેા વિપુલ માત્રામાં અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહાર બનાવડાવે. બનાવડાવીને તમે તે આહારને જ્યાં વાસુદેવ પ્રમુખ રાજા શકાયા છે ત્યાં લઇ જાએ, આ રીતે પેાતાના રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે લેાકેાએ તે પ્રમાણે જ કયું. તેઓએ ચાર જાતના આહાર બના વડાવ્યા અને ત્યારપછી તે આહારાને વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાની પાસે પહેાંચાડી દીધા. આહાર પહેાંચાડી દીધા બાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ રાજાઓએ સ્નાન કસુ" અને કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્ન ભાગ અપીને અલિકમ કર્યું. ત્યાર પછી તેઓએ તે ચાર જાતના આહારને જમ્યા. ત્યારબાદ પાંડુ રાજાએ તે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रोपदीय रितनिरूपणम्
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स्नपयित्वा ' कल्लाणकारि ' कल्याणकारि - शुभकारकं कर्म कारयति, कारयित्वा तान् वासुदेवप्रमुखान् बहुसहस्रसंख्यकान् राज्ञो विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन भोजयति, भोजयित्वा पुष्पवस्त्रादिभिः सत्कारयति, संमानयति, सत्कार्य संमान्य यावत् प्रतिविसर्जयति । ततः खलु ते वासुदेवममुखा बहुसहस्रसंख्यका राजानो यावत् प्रतिगताः ।। ०२३ ॥
मूलम् - तएणं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धि कल्लाकल्लि वारंवारेणं ओरालाई भोगभोगाईं जात्र विहरंति, तएर्ण से पंडू राया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहिं कोंतीए देवीए ar और द्रौपदी देवी को एक पहक पर बैठाया - बैठाकर उन का श्वेत पीत कलशों से चांदी और सोने के घडों से स्नान करवाया स्नान करवाकर फिर उसने उनका शुभकारक कर्म करवाया । (करिता ते वासुदेव पामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण ४ पुष्फवत्थेणं सकारेश् सम्मोह जाव पडिविसज्जेह, तरणं ताइं वासुदेवपामोक्खाई बहूि जाव पडिगयाई) शुभकारक कर्म करवाकर बाद में उन वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं का उस पांडुराज ने विपुल अशन पान आदिरूप चतुर्विध आहार से एवं पुष्प वस्त्रादि से खूष सत्कार किया सन्मान किया । यावत् फिर उन्हें अपने यहांसे अच्छी तरह से बिदा कर दिया । इसके बाद वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजा जहां २ से जो २ आये थे वहां २ चले गये || सू० २३ ॥
પાંચે પાંડવા અને દ્રૌપદી દેવીને એક પટ્ટક ઉપર બેસાડયા અને બેસાડીને સફેદ તેમજ પીળા કળશેાથી એટલે કે ચાંદી અને સાનાના કળશેાથી તેમને સ્નાન કરાવ્યું. સ્નાન કરાવ્યા બાદ તેમણે તેમની પાંસેથી શુભ કર્મો કરાવડાવ્યાં.
( करिता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विउलेणं असण पुष्पवत्थेर्ण सक्कारे, सम्माणे जाव पड़िविसज्जे तरण ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूहि जाव पडिगयाइं )
શુભ કર્મોં કરાવ્યા ખાદ તે વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાઓને તે પાંડુ રાજાએ વિપુલ અશન-પાન વગેરે રૂપ ચતુર્વિધ આહારથી તેમજ પુષ્પ વસ વગેરેથીખૂબ જ સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. યાવત ત્યારપછી તેઓને ત્યાંથી સારી રીતે વિદ્યાય કર્યાં, વાસુદેવ પ્રમુખ હજારા રાજાએ પણ જ્યાંથી આવ્યા हता त्यांन्ता २६६ ॥ त्र २३ ॥
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शाताधर्मकथासूत्रे
दोवइए देवीए यसद्धिं अंतो अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे
सीहासणवरगए यावि विहरह, इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतोर य कलुसहियए मज्झन्थोवत्थिए य अणिसोम पियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्म उत्तरासंगर इयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदितसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंज मेहलवागलघरे हत्थकय कच्छभए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणिओवयणिउप्पयणि लेसणीसु य संकामणिअभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसु य
विज्जाहरी विजासु विस्सुयजसे इट्टे रामस्त य केसवरस य पज्जुनपईवसंबअनिरुद्धणिसढ- उम्मुयसारणगय सुमुह. दुम्मुयहातीण जायवाणं अद्भुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहुसु य समरसयसंपराएस दंसणरए समंतओ कलहंसदक्खणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिस तिलोक्कबलवगाणं आमं तेऊण तं भगवई पक्कमर्णि गगणगमणदच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयतो गामागर नगर निगमखेड कब्बड मडंब दोणमुहपट्टणासमसंवाहमुहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं वसुहं ओलोईतो रम्मं हस्थिणाउरं उबागए पंडुरायभवणंति अइवेगेण समोवइए, तपणं से पंडुराया कच्छुल्लनारयं एजमाणं पासइ पासित्ता पंचहिं पंडवेहि कुंतीए य देवीए सद्धिं आसणाओ अब्भुट्ठेइ अन्भुट्टित्ता कच्छुल्लनारयं सतटुपयाई परचुग्गच्छ पच्चुग्गचिन्ता तिक्लु.
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी रोका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४४९ तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करिता वंदइ णमंसइ महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ,तएणं से कच्छल्लनारए उदगपरिफासियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पंडुरायं रज्जे जाव अंतेउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ,तएणं से पंडूराया कोंतीदेवी पंच य पंडवा कच्छल्लणारयं आढ़ति जाव पज्जुवासंति, तएणं सा दोवई कच्छल्लनारयं असंजय अविरय अपडिहयपचक्खायपावकम्मे तिकटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुहेइ नो पज्जुवासइ ॥ सू० २४ ॥ ___टीका-'तएणं ते' इत्यादि । ततस्तस्तदनन्तरं खलु ते पञ्चपाण्डया द्रौपद्या देव्या सार्थ ' कल्लाकलिं ' कल्याकल्ये प्रतिदिवसं वारंवारेण उदारान् भोगभोगान् यावद् भुनाना विहरन्ति । ततः खलु स पण्डू राजाऽन्यदा कदाचित् पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या देव्या द्रौपद्या देव्या च सार्धं 'अंतो अंतेउरपरियाल'
'तएणं ते पंच पंडवा' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते पंच पंडवा) वे पांचों पांडव (दोवईए देवीए) द्रौपदी देवी के साथ-(कल्लाकल्लिं वारंवारेणं ओरालाई भोग भोगाई जाव विहरंति-तए णं से पंडूराया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहिं कोतीए देवीए दोवईए देवीए य सद्धिं अंतेउरपरियालसद्धिं संपरियुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ ) प्रतिदिन बारी बारी से उदारकाम भोगों को भोगने लगे एक दिन की बात है-कि पांडु राजा किसी एक समय पांचों पांडवों एवं अपनी पत्नी कुन्ती देवी और पुत्रवधू द्रौपदी
Astथ-" तरण ते पंच पंडवा इत्यादि
टी-(तएण) त्या२५०ी (ते पंच पंडवा) ते पांय पांव। (दोवईए देवोए ) द्रौपदी वीनी साथै
(कल्लाकल्लि वारंवारेण ओरालाई भोगभोगाई जाव विहरंति-तएणं से पंडराया अन्नया कयाई पंचहिं पंडवेहि कोतीए देवीए दोवइए देवीए य सद्धिं अंतेउरपरियालसद्धि संपरिखुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ )
દરરોજે વારાફરતી ઉદાર કાભોગ ભોગવવા લાગ્યા. એક દિવસની વાત
२ण ओराला कांतीय बावि विहर - a
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H
४५०
वाताधर्मकथागर अन्तः अन्तःपुरस्य प्रासादमध्ये अन्तःपुरपरिवारेण ' परियाल ' इति लुप्तरतीयान्तं साधं संपरितः सिंहासनवरगतश्चापि विहरति । ' इमं च ' अस्मिन् समये खलु — कच्छुल्लणारए' कच्छुल्लनाम्नाप्रसिद्धो नारदः दर्शनेन 'अइभद्दए' अतिभद्रका भद्रदर्शनः · विणीए' विनीता नम्रो बाह्यतः 'अंतो य' अन्तश्चकलुषहृदयः, 'मज्झत्थोवत्थिए य' माध्यस्थ्योपस्थितः बाह्यतो मध्यस्थभावं प्राप्तः 'अल्लीणसोमपियदंसणे' आलीनसौम्यप्रियदर्शनः आलीनानामाश्रितानां सौम्यम् =आह्वादकं, प्रियं = प्रीतिकारकं दर्शनं यस्य स तथा, मुरूपः - सुन्दराकृतिकः, तथा-'अमहलसगलपरिहिए ' अमलिनसकलपरिहितः अमलिनं सकलम्-अखण्डम् परिहितं-वल्कलवस्त्ररूपं परिधानं यस्य स तथा, 'कालमियचम्मउत्तरासंगके साथ अंतःपुर के प्रासाद के भीतर अन्तःपुरपरिवार के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे-कि (इमंच णं) इसी समय (कच्छुल्लणारए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए दंसणे णं अइभहए, विणीए, अंतोय कलुसहियए मज्झत्थोवत्थिए य, अल्लीणसोमपियदंसणे सुरुवे अमइलसगलपरिहिए) पांडुराजा के भवन में कच्छुल्लनाम से प्रसिद्ध नारद गगन-आकाश-मार्ग से बड़े वेगसे उतर कर आये। नारद देखने में अति भद्र थे। ऊपर से बड़े विनीत थे। परन्तु भीतर में इनका हृदय बहुत अधिक कलुषित था। केवल ऊपर से ये माध्यस्थ भाव संपन्न थे। अपने आश्रित व्यक्तियों को इनका दर्शन आहादक एवं प्रीति कारक होता था। आकृति उनको बड़ी सुन्दर थी। इनका वल्कल रूप परिधान अमलिन-सोफ स्वच्छ और खण्ड रहित था। (कालमिय છે કે તે પાંડુ રાજા કેઈ એક વખતે પાંચ પાંડે, પિતાની પત્ની કુંતી દેવી અને પુત્ર વધુ દ્રૌપદીની સાથે રણવાસના મહેલની અંદર પિતાના પરિવારની साथे सिंहासन ५२ मे ता. (इमं च णं ) ते १मते
(कच्छुल्लणारए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण, समोवइए दंसणे णं अइभदए विणीए अंतोय कलुसहियए मज्झत्थोवत्थिए य, अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए)
પાંડુ રાજાના ભવનમાં કચ્છતલ નામથી પંકાયેલા નારદ ગગન-આકાશ માગથી બહ જ વેગથી ઉતરીને આવ્યા. નારદ દેખાવમાં અત્યંત ભદ્ર હતા. ઉપર ઉપરથી તેઓ એકદમ વિનમ્ર હતા. પણ અંતર તેમનું મન ખૂબ જ કલષિત હતું. ફક્ત ઉપર ઉપરથી જ તેઓ માધ્યસ્થ ભાવ સંપન્ન હતા. આશ્રિત વ્યક્તિઓને તેમનું દર્શન આહ્લાદક અને પ્રતિકારક હતું. તેમની આકૃતિ ખૂબ જ સુંદર હતી. તેમનું વલ્કલ રૂ૫ પરિધાન, એકદમ સ્વચ્છ-નિર્મળ હતું અને અંડરહિત હતું.
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नगारधर्मामृतषिणी टी० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् रइयवच्छे' कालमृगवर्मोत्तरासंगरचितवक्षाः-कृष्णमृगचर्मोत्तरासङ्गेन रचितं शोभित वक्षो यस्य स तथा, कृष्णमृगचर्मोत्तरीयवस्त्रधारकः । तथा-'दंडकमडलुहत्थे' दण्डकमण्डलुहस्त:-'जडामउडदित्तसिरए' जटामुकुटदीप्तशिरस्कः, जग्णोवइयगणेत्तियमुंजमेहलावागलधरे ' यज्ञोपवीतगणेत्रिकामुञ्जमेखलावल्कलधरः-तत्र यज्ञोपवीतं यज्ञमूत्र गणेत्रिका-रुद्राक्ष कृतं कलाचिकाभरणं, मुञ्जमेखला-मुञ्जमयं कटिबन्धनमूत्रं वल्कलं वृक्षत्वक् तेषां धारकः स्कन्धोपरियज्ञसूत्रधारी, करमूले धृतरुद्राक्षमाल:, मुझमयकटिमूत्रधारी, शरीरे परिधृतवल्कल इत्यर्थः ) ' हत्थकयकच्छभीए ' हस्तकृतकच्छपिक:-हस्ते कृता कच्छपिका-वीणा येन स तथा, 'पियगंधवे' प्रियगन्धर्वः-गानप्रियः, 'धरणिगोयरप्पहाणे' धरणिगोचरप्रधानःधरणिगोचराणां-भूमिचारिणां जनानां मध्ये प्रधानस्तस्या काशेऽपि विहरणशीलत्वात् चम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे, जडामउडदित्तसिरए, जन्नो वहयगणेत्तिय मुंजमेहलवागलधरे, हत्थकयकच्छभीए, पियगंधब्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, संवरणावरणिओवयणिउप्पयणी लेसणीसुयसंकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसु य बहुसु विजाहरीसु विज्जासु विस्तृयजसे ) इनका वक्षस्थल काले मृग के चर्म रूप उत्तरासंग से सुशोभित था। दण्ड और कमण्डलु इनके हाथों में था। जटारूपी मुकुट से इनका मस्तक दीप्त हो रहा था। यज्ञसूत्र-जनेऊ, गणेत्रिका कलाई का आभरण रूप रुद्राक्ष की माला, मुञ्जमेखला-मुंज का बना हुआ कटि बन्धन सूत्र, और वृक्ष की छाल इन्हों ने धारण कररक्खी थी। हाथमें कच्छपिका-वीणा ले रखी थी। गान इन्हें बहुत प्रिय था। भूमि गोचरियों के बीच में ये प्रधान थे-क्यों कि ये आकाश में भी विहार
(कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए, जन्नोवइय गणेत्तियमुनमेहलवागलधरे, हत्यकयकच्छभीए पियगंधव्वे, धरणिगोयरप्पहाणे, संवरणावरणिओवयणिउप्पयणिलेसणोसु य संकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसुय बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे )
તેમનું વક્ષસ્થળ કાળા હરણના ચર્મરૂપ ઉત્તરાસંગથી શુભતું હતું. દંડ અને કમંડળ તેમનાં હાથમાં હતા. જટા રૂપી મુકુટથી તેમનું મસ્તક પ્રકાશિત થઈ રહ્યું હતું. યજ્ઞ સૂત્ર-જનેઈ, ગણેત્રિકા-કાંડામાં પહેરવાની આભરણ રૂપ રૂદ્રાક્ષની માળા, મુંજ-મેખલા-મુંજનું બનેલું કેડમાં પહેરવાનું બંધન સૂત્ર અને વૃક્ષની છાલ તેઓએ ધારણ કરેલી હતી. હાથમાં તેઓએ કચ્છ પિકા-વીણ ધારણ કરેલી હતી. સંગીત તેમને ખૂબ જ ગમતું હતું. ભૂમિ ગોચરીઓને વચ્ચે તેઓ પ્રધાન હતા કેમકે તેઓ આકાશમાં વિચરણ કરતા
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ताधर्मकयास "संवरणावरणिओवयणिउप्पयणिलेसणीसु य " संवरण्यावरण्यवपतन्युत्पतनीश्लेषणीषु च ' संवरणी-स्वस्यान्तर्धानकारिणी विद्या, आवरणी-परस्यान्तर्धानकारिणी विद्या, अवपतनीअधोऽवतरणी विद्या, उत्पतनी-ऊर्ध्वगमनकारिणी विद्या, श्लेषणी-वनलेपादिवत् सन्धानकारिणी विद्या, तासु, तथा-' संकामणि अभिओगपण्णत्ति गमणीथंभणीसु य ' संक्रमण्यभियोगप्रज्ञप्तिगमनीस्तम्भनीषु चसंक्रामणी-विद्या-विशेषः यया-परशरीरादौ प्रवेष्टुं शक्नोति, सा विद्या, अभियोगः स्वर्णादिनिर्माणविद्या वशीकरणविद्या च, प्रज्ञप्तिः अविदितार्थबोधिनी गमनी करते थे। संवरणी, आवरणी अवपतनी, उत्पतनी, श्लेषणी इन विद्याओं में तथा संक्रमणी, अभियोग, प्रज्ञप्ति, गमनी स्तम्भिनी इन नाना प्रकार की विद्याधर संबन्धी विद्याओं में इनकी कीर्ति विख्यात थी। जिस विद्या के प्रभाव से अपने आपको अन्तर्धान कर दिया जाता जाता है उसको नाम संवरणी विद्या है। दूसरा जिस विद्या से अन्तर्धान करदिया जाता है उस विद्या का नाम आवरणी विद्या है। जिस विद्या के प्रभाव से ऊपर से नीचे उतरा जाता है उसका नाम अवपतनी और जिसके प्रभाव से उर्ध्व में गमन किया जाता है उसका नोम उत्पतनी विद्या है। वज्रलेप आदि की तरह जो चिपका देती है वह श्लेषणी विद्या है । जिस विद्या के बल से दूसरे के शरीरमें प्रविष्ट होना होता है-ऐसी परशरीरप्रवेशकारिणी विद्याका नाम संक्रमणी विद्या है। स्वर्ण आदि के वनाने की जो निपुणता है-एवं परको
ता. स१२४ी, मा१२०ी, १५तनी, S५तनी, Arjी मा ५ विद्याઓમાં તેમજ સંક્રમણી, અભિયોગ, પ્રજ્ઞપ્તિ, ગમની, સ્તંભની આ અનેક જાતની વિદ્યાધર સંબંધી વિદ્યાઓમાં તેમની કીતિ ચોમેર પ્રસરેલી હતી જે વિદ્યાના પ્રભાવથી પિતાની જાતને અદૃશ્ય કરી શકાય છે તે સંવરણી વિદ્યા છે. જે વિદ્યાથી બીજાને અદશ્ય કરી શકાય છે તે આવરણી કહેવાય છે. જે વિદ્યાના પ્રભાવથી ઉપરથી નીચે ઉતરી શકાય છે તે અવપતની અને જેના પ્રભાવથી ઉદ્ઘ (આકાશ) માં ગમન કરી શકાય છે તે વિદ્યાનું નામ ઉત્પતની છે. વજ લેપ વગેરેની જેમ જે ચૂંટાડી દે છે તે શ્લેષણી વિદ્યા છે. જે વિદ્યાના બળથી બીજાના શરીરમાં પ્રવેશી શકાય એવી પરકાય પ્રવેશ કરણી વિદ્યાનું નામ સંક્રમણ વિદ્યા છે. તેનું વગેરે બનાવવામાં જે નિપુણતા છે અને બીજાને વશવર્તી કરવાની જે શક્તિ છે તે વિદ્યાનું નામ અભિગ
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गारधामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५३ -गमनपकर्षसाधिका-आकाश गामिनी च विद्याविशेषः-स्तम्भनी-स्तम्भनकारिणी विद्या, तासु 'बहुमु विज्जाहरीसु विज्ञासु' बहुषु-नानाविधासु विद्याधरीषु-विद्याघर सम्बन्धिषु विद्यासु 'विस्सुयजसे' विश्रुतयशाः-विद्यासु नैपुण्या-विख्यातकीर्तिः, इष्टः प्रियः, रामस्य बलदेवस्य केशवस्य-कृष्णवासुदेवस्य च पुनः केषां प्रियइत्याह-'पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्धनिसदउस्सुयसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं' प्रद्युम्न प्रतीपशाम्बानिरुद्धनिषधोत्सुकसारणगजमुमुखदुर्मुखादीनां यादवानाम् , प्रद्युम्नादीनां संख्यामाह-प्रद्युम्नः, प्रतीपः, शाम्बः, अनिरुद्धः, निषधः, उत्सुकः, वश में करने कि जो शक्ति है उस विद्या का नाम अभियोग विद्या है। अविदित अर्थ जिस के प्रभाव से विदित हा जावे वह प्रज्ञप्ति विद्या गमन प्रकर्ष की साधक तथा आकाश में गमन कराने वाली विद्या गमनी विद्या स्तम्भन कराने वाली विद्यास्तम्भिनी विद्या है। (इटे रामस्स य केसवस्स य पज्जुनपईयसंव अनिरुद्धणिसढ उम्मय सारण गयसुमुह दुम्मुहातीण जायवाणं अद्भुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संधवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए, भंडणाभिलासी, बहुसु य समर सयसंपराएस्सु दंसणरए, समंतओ कलहंसदकखणं अणुगवेसमाणे, असमाहिकरे दमारवरवीरपुरिसतिलोक्कालवगाणं, आमंतेऊण तं भगवई पक्कमणि गगणगमणदच्छं उप्पडओ गगणमभिलंघयंतो गामागरनगरनिगमखेडकन्यडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं वसुहं आलोइंतोरम्म हथिणाउरं उवागए) बलदेव एवं कृष्ण वासुदेव को ये इष्ट थे तथा साढे तीन करोड, प्रद्युम्न, प्रतीप, साम्ब, अनिरुद्ध निषध उत्सुक, सारण, गज सुकुमाल सुमुख दुर्मुख વિદ્યા છે. અવિદિત અર્થ જેના પ્રભાવથી જાણી શકાય તે પ્રજ્ઞપ્તિ વિદ્યા, ગમન પ્રકર્ષની સાવિકા તેમજ આકાશમાં ગમન કરનારી વિદ્યા ગામની વિદ્યા કહેपाय छे. स्तनन ४२वनारी विद्या स्तमनी विधा छे. ( इवें रामस्स य केस. वत्स य पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्ध णिसढउम्सुयसारणगयसमुहदुम्मुहतीण जायवाणं अधुद्वाणकुमारकोडीग हिययदइए संथवए कलहजुद्धकोलाहलप्पिए, भंडणाभिलासी, बहुसयसमरसयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलसदक्खणं अणुगवेसमाणे अस. माहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोकबलवगाणं, आमतेऊण त भगवई, पक्कमणि गगणगमणदच्छं उप्पइओ गगणमभिलं वय तो गामागारनगरनिगमखेडकब्बडमडंव दोण. महपट्टणासमसंवाहसहरसमडिय थिमिण मेइणीतल वसुह आलोइतो रम्मं हत्थिणार' उवागए) मजवतेभन ए वासुदेवनेते। यता भने
सारे प्रधुम्न, પ્રતીપ, સાખ, અનિરૂધ, નિષધ, ઉત્સક, સારણ, ગજ સુકમાલ, સુમુખ દુખવગેરે વદાય મારેને માટે તેઓ હદયથિત હતા એટલે કે ખૂબ જ પ્રિય હતા. એટલા
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ताधर्मकथा सारणः, गजमुकुमालः, मुमुखः, दुर्मुखः, इत्यादयो यादवकुमारास्तेषां 'अदुवाणं कुमारकोडीणं ' अर्धचतुर्थीना कुमारकोटीनां च सार्वत्रिकोटिप्रमितानां यादवकुमाराणामित्यर्थः 'हिययदइए' हृदयदयितः हृदयप्रियः, 'संथावए ' संस्ता. वका-यादवानां प्रशंसकः, तथा-कलहयुद्धकोलाहलमियः कलहो-विवादः, युद्ध शस्त्रादिभिः प्रहरणं, कोलाहलो जनानां महाध्वनिः, एते प्रियाः प्रमोदजनका यस्य स तथा, 'भंडणाभिलासी' भण्डनाभिलाषी भण्डनं राटिः-कलहः 'राइ' इति भाषायां तस्याभिलाषी तथा-बहुषु च समरशतसंपरायेषु-समरशतसंग्रामेषु दर्शनरत. दर्शनाऽऽसक्तः, 'समंतभो' समन्ततः सर्वप्रकारेग-परस्परं च कलई 'सदक्खणं ' सदाक्षणं सर्वस्मिन् क्षणे — अणुगवेसमाणे' अनुगवेषयन् अन्वेषयन् , ' असमाहिकरे' असमाधिकरः-चित्तविक्षेपकारकः चित्तस्यास्थैर्यकरः केषां चित्तस्य विक्षेपकइत्याह-दसारवरवीरपुरिसतिलोक्कालवगाणं' दशाहवरवीरपुरुषोलोक्यबलवता-दशार्हाः-समुद्रविजयादयो दशसंख्यकाः त एव वराः श्रेष्ठाः इत्यादि यादवकुमारों के लिये ये हृदय दयित थे-अत्यंत प्रिय थे। इसी कारण यादवों के प्रशंसक थे । कलहविवाद युद्ध एवं मनुष्यों का कोलाहल ये सब इन्हें बहुत अधिक अच्छे लगते थे। आनन्द जनक होते थे। रोड् (लडाई) के ये अभिलाषी बने रहते थे। अर्थात् हर एक जगह किसी न किसी रूप में परस्पर में लोगों में तकरार, कजिया कैसे उत्पन्न हो इस बात का इन्हें विशेष ध्यान रहता था। समर शतसंग्राम के देखने में इन्हें विशेष हर्षोल्लास होता था। सय प्रकार से परस्पर में सब समय में ये कलह की गवेषणा करने में ही लगे रहते थे। नेमिनाथ की अपेक्षा त्रैलोक्य में विशिष्ट बलवाली जो श्रेष्ठ वीर पुरुष समुद्र विजयादि दश માટે જ તેઓ યાદનાં વખાણ કરનારા હતા. કલહ-કંકાસ, વિવાદ, યુધ્ધ અને માણસોને શેરબર આ બધું તેમને બહુ જ ગમતું હતું. આ બધાથી તેમને ખૂબ જ મજા પડતી હતી, કજીયે તેમને ખૂબ જ ગમતું હતું એટલે કે દરેક સ્થાને ગમે તે કારણને લીધે વચ્ચે પરસ્પર કલહ-કંકાસ કજીયે કેવી રીતે શરૂ થાય આ વાતની તેઓ તક જતા રહેતા હતા. સેંકડો યુદ્ધોને બીભત્સ દશ્ય જોવામાં તેમને ખૂબ જ આનંદનો અનુભવ થતું હતું. તેઓ બધી રીતે રાત અને દિવસ એકબીજાને લડાવવાની શોધમાં જ ચૂંટી રહેતા હતા. નેમિનાથની અપેક્ષા રૈલોક્યમાં સવિશેષ બળવાન એક વીર પુરૂષ સમુદ્ર વિજય વગેરે દશ દશાહ હતા તેમના ચિત્તને તેઓ કષ્ટ આપનારા હતા,
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बनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये बलवन्तः नेमिनाथापेक्षया तेषाम्, 'आमंतेऊण तं भगवई ' आमन्त्र्य = प्रयुज्यतां भगवतीं विद्यां कीदृशीं विद्यामित्याह - ' पक्कमणि ' प्रक्रमण= प्रकृष्टगमनशक्ति शालिनीं 'गगणगमणदच्छं' गगनगमनदक्षाम् = आकाशे गमने समर्थाम् ' उप्पइओ' उत्पतितः, गगनमभिलङ्घयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्लङ्घयन् 'गामा गर नगर निगमखेड कब्बड मडंवदोण मुहपट्टणासमसंवाह सहस्समंडियं' ग्रामाकरनगरनिगम खेटकर्ब टमंड द्रोण मुखपत्तनाश्रमसंवाह सहस्रमण्डितं, तत्र अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आकरः=स्वर्णाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगरं, निगमं=वणिग्ग्रामं खेटं= धूलीमकारं, कर्बटं = कुत्सितनगरं यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्बं यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां, भाण्डान्यागच्छंति तत् द्रोणमुखं, पत्तनं द्वेधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहंति स संवाह एतैः सहसैर्मण्डितं, स्तिमितमेदिनीतलं, 'सु' वसुधां भूमि ' ओलोईतो ' अवलोकयन् = पश्यन् रम्यं हस्तिनापुरं नगरमुपागतः पाण्डुराजभवनेऽतिवेगेन समुपेतः = गगनादवतीर्ण इत्यर्थः !
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ततः खलु स पाण्डूराजा कच्छुल्लनारयं ' कच्छुल्लनारदम् आगच्छन्तं पश्यति दृष्ट्वा पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या च देव्यासार्धमासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली एवं आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके से आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लंघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर निगम खेट, कर्बट, महंब, द्रोणमुख, पत्सन, संवाह इनके सहस्रों से मंडित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और वहां से गगनमार्ग से होकर फिर ये पांडुराज के भवन में पहुँचे। ऐसा संबंध यहां लगाना (तपूर्ण से पंडूराया कच्छुल्लनार एज्जमार्ण पासइ) इम के योद पांडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जब देखा (पासित्ता) तो
ગમનમાં વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણી વિદ્યાના ખળથી તેએ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા. આ રીતે આ નારદ ગમનથી આકાશને ઓળંગીને સહસ્રો ગ્રામ, આકર. નગર, निगम जेट उट, भडंग, द्रोण, पत्तन, संमाडोथी, मंडित याने स्तिमित પૃથ્વીને જોતા રમણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાંથી આકાશ भार्गभां थाने पांडुरान्ना लवनभां यहांच्या (तएण से पांडुराया कच्छुलनार एज्जमानं पासइ) त्यारमा पांडुरालये इच्छुना रहने न्यारे भावता या (पाक्षिक) त्याने (पहिं वेदि तीप देवीप सद्धि भासणाओ
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बाताधर्मकथा कच्छुल्लनारदं समाष्टपदानि प्रत्युद्गच्छति, नारदाभिमुखमायाति,मत्युद्गत्य'तिक्खुत्तो' त्रिः कृत्वः - त्रिवारं, 'आयाहिणपयाहिणं' आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते, नमस्यति वंदित्वा, नत्वा, महाहण-महतां योग्येन आसनेन उपनिमन्त्रयति । उपवेशनाथ पार्थयति । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः 'उदगपरिफासियाए' उदकपरिस्पृष्टायां जलच्छटेन सिक्तायां ' दभोवरिपञ्चत्थुयाए ' दर्भापरिपत्यवस्तुतायां कुशे पर्यास्तीर्णायां 'भिसियाए ' वृष्यां आसनविशेषे निषीदति-उपविशति, निषध पाण्डु राजानं राज्ये यावदन्तः पुरे च कुशलोदन्तं-कुशलवार्ती पृच्छति, ततः खलु स पाण्डूराजा कुन्ती देवीं पञ्च च पाण्डवा, कच्छुल्लनारदं ' आदति' आद्रियन्ते यावत् पर्युपासते सेवन्ते स्म । ततः खलु सा द्रौपदी कच्छुल्लनारदम् ' असंजयअविरयअपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे तिकटु ' असंयताविरतापतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मेति कृत्वा, तत्र-असंयतः-वर्तमानकालिकसर्वसावधानुष्ठाननिवृत्तः देखकर (पंचहिं पंडवेहि कुंनीए देवीए सद्धिं आसणाओ अम्भुढेह) ये पांचो पांडवो एवं कुन्ती के साथ अपने आसन से उठे। (अब्भुद्वित्ता कच्छुल्लनारयं सत्तटुग्याइं पच्चुग्गच्छइ ) और उठकर सात आठ पैर कच्छुलनारद के सामने स्वागत निमित्त गये (पच्चुग्गच्छित्तो तिक्खु. सो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदह नंमसइ, महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेह तएणं से कच्छुलनारए उदगपरिफासियाए दनभोवरि पच्चत्थुयाए भिसीयाए णिसीयइ, णिसीयित्ता पंडुरायं रज्जे जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं से पंडुराया कोंतीदेवी पंचय पंडवा कच्छल्लनारयं आढ़ति जाव पन्जुवासंति, तएणं सादोवई कच्छुल्ल नारयं असंजयअविरयअपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे त्ति कटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुटेइ, नो पज़्जुवोसइ) जाकर के इन्हों ने अम्भदेह ) पाय पांडवो भने दुतानी साथे पोताना मासन परथी
मा थया. (अन्भुद्वित्ता कच्छुल्लनारय सत्तटुपयाई पच्चुग्गच्छद) मने जा થઈને કલ નારદના સ્વાગત માટે સાત આઠ ડગલાં સામે ગયા.
(पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, महरिहेणं आमणेणं उवणिमंतेइ, तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दभोपरिपच्चस्थुयाए.भिसियाए णिसीयई, णिसीयित्ता पंडुरायं रज्जे जाव अंतेउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ तएणं से पंडुराया कोंतीदेवी पंचय पंडवा कच्छुल्लनारयं आढ़ति जाय, पज्जुवासंति, तएणं सा दोबई कच्छुल्लनारयं असंजयअविरयअयडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे त्ति कटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अन्भुढेइ, नो पज्जुवासइ)
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम्
४५७
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संयतस्तथा विधो न भवति यः सोऽसंयतः = संयमरहित इत्यर्थः, अविरतः =भतीत कालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वकं भविष्यति च संवरपूर्वकमुपरतो निवृत्तो विरतस्तथा विधो न भवति यः सोऽविरतः, विरतिरहितः, अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहतं = वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशितं तथा प्रत्याख्यातं = पूर्वकृतातिउनके लिये तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण किया करके उनको वंदनाकी नमस्कार किया । वंदना नमस्कार करके फिर उन्होंने उनसे महान् पुरुषों के बैठने योग्य आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना की- इस के बाद वे कच्छुल्ल नारद जल के छीटों से सिक्त हुए आसन पर कि जो दर्भ के ऊपर आस्तीर्ण था बैठ गये । बैठकर उन्होंने पांडु राजा से राज्य की यावत् अंतः : पुर की कुशल वर्ता पूछी। उनके पूछने पर पांडु राजाने कुन्ती देवी ने एवं पांचों पांडवों ने उन कच्छुल्ल नारद को खूब आदर किया यावत् अच्छी तरह से उनकी पर्युपासना की । द्रौपदी ने उन्हें असंयत, : अविरत एवं अप्रतिहत प्रत्याख्यतपापकर्मा जानकर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन की अनुमोदना नहीं की और न वह उनके आने पर उठी । वर्तमान कालिक सर्व सावध अनुष्ठान से जो निवृत्त होता है वह संयत है - ऐसा संयत जो नहीं होता है वह असंयत कहलाता है। अतीत काल में हुए पापों से जुगुसापूर्वक और भविष्यत्काल में उनसे संवर पूर्वक जो उपरत होता
સામે જઇને તેમણે ત્રણવાર તેમની ચામેર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરી. ત્યારપછી તેમણે વંદન તેમજ નમન કર્યા. અને પછી તેમને પેાતાના કરતાં મેટા માણસાને એસવા ચેાગ્ય આસન ઉપર બેસવાની વિનંતી કરી. ત્યારબાદ તે કચ્યુલ નારદ પાણીના છાંટાઓથી ભીના પાથરેલા દર્ભના આસન ઉપર એસી ગયા. એસીને તેએાએ પાંડુરાજાને રાજ્યની યાવત્ રણવાસની કુશળવાર્તા પૂછી. પાંડુરાજા, કુંતીદેવી અને પાંચે પાંડવાએ કચ્યુલ નારદને ખૂબજ આદર કર્યાં યાવત્ સારી રીતે તેમની પયુ પાસના કરી. તેમને અસયત, અવિરત અને અપ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાતપાપકર્મો જાણીને દ્રૌપદીએ તેમને આદર કર્યાં નહિ, તેમના આગમનની અનુમાદના કરી નહિ અને જ્યારે તેઓ આવ્યા ત્યારે પણ તે ઊભી થઈ નહિ. વર્તમાનકાલિક સર્વ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી જે નિવૃત્ત હોય છે તે સયત છે, આ વ્યાખ્યા મુજબ જે સયત નથી તે અસ યત કહેવાય છે. ભૂતકાળમાં થઇ ગયેલા પાપકર્મોથી જુગુપ્સાપૂર્વક અને ભવિષ્યહાલમાં તેમનાથી સવરપૂર્વક જે ઉપરત હાય છે તે વિરત છે, એવે જે નથી તે અવિરત છે, એટલે કે વિરતિથી રહિત છે. વર્તમાનકાળમાં જેમાં
घा ५८
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४५८
वाताधर्मकथासूत्रे
"
चारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतम् अनयोः कर्मधारये प्रतिहत प्रत्याख्यातं ततो नस्तत्पुरुषः, न प्रतिहतप्रत्याख्यातम् - अप्रतिहतप्रत्याख्यातं न प्रतिहतं नाषिप्रत्याख्यातं पापकर्म येन सोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, इति कृत्वा - एवं मत्वा 'नो आढाई' नो आद्रियते, नो परिजानाति = नानुमोदयति नो अभ्युत्तिष्ठति नो पर्युपास्ते स्म || सू०२४ ॥
है वह विरत है। ऐसा जो नहीं होता है वह अविरत है - विरति से रहित है। वर्तमान काल में जिसमें पापकर्मों को स्थिति और अनुभाग के हास से नाश कर दिया है, तथा पूर्वकृत अतिचारों की निंदा से भविष्यत् काल में अकरण से जिसने उन्हें निराकृत कर दिया है ऐसा प्राणी प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म कहलाता है । ऐसा जो नहीं करता है - पापकर्मों को न प्रतिहत करता है और न प्रत्याख्यात करता है - वह अप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा है । अष्टादश कर ग्राह्य (करसे युक्त) जो होता है वह ग्राम है। स्वर्ण आदि की उत्पत्तिकी खाने जिसमें हो वह आकर है । जिसमें अठारह तरह का टेक्स कर नहीं लगता है वह नगर है। जहां पर वणिकूजनों का निवास हो वह निगम है। धूली का प्राकार जिसमें होता है-अर्थात् धूलि के परकोटे से जो घिरा होता है वह खेट है । कुत्सित नगर का नाम (कर्बट है- जहां एक अढाई कोस के अन्तराल में ( चारों दिशा से ) ग्राम आदि नहीं पाये जाते हैं वह मडम्ब है। जहां पर स्थलमार्ग से एवं जल मार्ग से भाण्ड ( वस्तु ) आते हैं वह द्रोणमुख है । जल पन्तन और स्थलपत्तन के भेद से पतन दो प्रकार का होता है। जहां तापसलोग निवास करते हों वह
પાપકર્માને સ્થિતિ અને અનુભાગના હાસથી નાશ કર્યો છે તેમજ પૂર્વ કૃત અતિચારાની નિંદાથી ભવિષ્યકાળમાં અકરણથી જેણે તેમને નિરાકૃત કરી દીધા છે એવું પ્રાણી પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્માં કહેવાય છે. એવું જે કરતા નથી એટલે કે જે પાપકમેનેિ પ્રતિહત કરતા નથી અને પ્રત્યાખ્યાત પણ કરતા નથી તે અપ્રતિ હત પાપકમાં છે. જેમાં સામાન્ય માણસેા વસે તે ગ્રામ છે. સેાના વગેરેની ખાણા જ્યાં હાયતે આકર છે. જેમાં કાઇપણ જાતના વેરે નાખવામાં આવતા નથી તે નગર છે. જ્યાં વાણીયાઓને નિવાસ હાય તે નિગમ છે. માટીની ભીંત ચામેર અનાવેલી હાય તે ખેટ છે. કુત્સિત નગરનું નામ કટ છે. જ્યાં અઢિ ગાઉ સુધીમાં ચારે તરફ ગ્રામ વગેરે હાતાં નથી તે મડખ છે. જ્યાં સ્થળ સાથી અને જળ માથી વાહના આવે છે તે દ્રોણુમુખ છે. જલપત્તન
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका ब० १५ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
मूलम्-तएणं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था अहोणं दोवई देवी रूवेणं जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहि अणुबद्धा समाणी ममं णो आढाइ जाव नो पज्जुवासइ तं से यं खलु मम दोवइए देवीए विप्पियं करित्तए तिकडु एवं संपेहेइ संपेहित्ता पंडुयरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पणिं विज्जं आवाहेइ आवाहित्ता ताए उकिटाए जाव विजाहरगईए लवणसमुदं मज्झंमज्झेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं घायइसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणड्ड भरहवासे अमरकंकाणाम रायहाणी होत्था, तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था महया हिमवंत० वगओ, तस्स णं पउमनाभस्त रन्नो सत्त देवोसयाइं ओरोहे होत्था, तस्त णं पउमनाभस्त.रण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यावि होत्था, तएणं से पउमणाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओ. रोहसंपरिबुडे सिंहासगवरगए विहरइ, तएणं से कच्छुल्लगारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ आगच्छित्ता पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्तिं वेगेणं समोवइए, तएणं से पउमनाभे राया कच्छल्लं नारयं आश्रम है जहां पर पर्वत आदि दुर्गम स्थानोंमें मनुष्य धान्य आदि रखते हैं-वह संवाह है अर्थात् नगर के बाहर का प्रदेश जहां आभीर घगेरे लोग निवास करते हो ॥ सूत्र २४ ॥ સ્થલપત્તનની દૃષ્ટિએ પત્તનના બે પ્રકારે છે, જ્યાં પવત વગેરે દુર્ગમ સ્થાને માં માણસ ધાન્ય વગેરેની રાખે છે તે સંવાહ કહેવાય છે. અર્થાત નગરની બહારતે પ્રદેશ કે જ્યાં ભરવાડ વિગેરેને વાસ હોય છે. એ સૂત્ર ૨૪
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पाताधर्मकथा एज्जमाणं पासइ पासित्ता आसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुट्टित्ता अग्घेणं जाव आसणेणं उवणिमंतेइ, तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदंतं आपुच्छइ, तएणं से पउमनाभे राया णियग. ओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासी-तुभं देवाणुप्पिया ! बहुणि गामाणि जाव गेहाई अणुपविससि, तं अस्थि आई ते कहिंचि देवाणुप्पिया ! एरिसए ओरोहे दिटुपुल्वे जारिसए णं मम ओरोहे ?, तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ करित्ता एवं वयासी --सरिसे गं तुमं पउमणाभा! तस्स अगडददुरस्स, के गं देवाणुप्पिया!से अगडदढ्दुरे ?, एवं जहा मल्लिगाए एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूदीवे दीवे भारहेवासे हथिगाउरे दुवयस्स रण्गो धूया चूलगीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूपेण य जाव उकिडसरीरा दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्टयस्त अयं तव ओरोहो सतिमंपि कलं ण अग्यंतित्तिकटु, पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तएणं से पउमणाभे राया कच्छुल्लणारयस्स आतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य३ मुच्छिए ४ दोवइए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव पुत्वसंगइयं देवं एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूदीवे दीवे भारहेवासे हथिणाउरे
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मेनगारपतिषिगी 2० म० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम् जाव सरीरा तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! दोवई देवी इहमाणियं, तएणं पुव्वसंगइए देवीए पउमनाभं एवं वयासी - नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जपणं दोवई देवी पंचपंडवे मोतूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाई जाव विहरिस्सइ, तहा वि य णं अहं तव पियट्टतयाए दोवई देविं इहं हव्यमाणेमितिकडे पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता ताए ऊकिटाए जाव लवणतमुद्दे मज्झमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे गयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिडिल्ले राया दोवईए सद्धिं उपिं आगासतलंसि सुहपसुत्ते याविं होत्था, तएणं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिट्रिले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवआगच्छइ उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ दलित्ता दोवई देवीं गिण्हइ गिणिहत्ता ताए उकिटाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवई देवीं ठावेइ ठावित्ता ओसोवणिं अवहरइ अवहारत्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया मए हत्थिणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया तब असोगवाणियाए चिटुइ, अतो परं तुम जाणसित्तिकद्दु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ सू० २५ ॥
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हाताधर्मकयास्त्र टीका-'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य कच्छुल्लनारदस्य अयमेतदूपः आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत, अहो ! खलु द्रौपदी देवी रूपेण यावत् लावण्येन च पञ्चभिः पाण्डवैरनुवरासती मां नो आद्रियते यावत् नो पर्युपास्ते, तत्=तस्मात् श्रेयः खलु मम द्रौपद्या देव्याः 'विप्पियं करित्तए' विप्रियं कर्तुम् , पाण्डवकृतसत्कारसंमानगर्विता विवेकरहिता जाता
-तएणं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तस्स कच्छुल्लनारयस्स) उन कच्छुल्ल नारदको (इमेयारूवे) यह इस रूप (अज्झस्थिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे समुप्पज्जित्था) आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। (अहो णं दोवईदेवी स्वेणं जाव लावण्णेणं य पंचहिं पंडवेहिं अणुषद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासह तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए त्ति कटु एवं संपेहेह, संपेहिता पंडुरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पयणि विज्जं आवाहेह आवाहित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुदं मज्झं मझेणं पुरत्याभिमुहे वीइवह पयत्ते यावि होत्था) देखो-यह कितने
आश्चर्य की बात है कि द्रौपदी देवी ने रूप यावत् लावण्य से पांचों पांडवों के साथ भोगासक्त बनकर मेरा कोई आदर नहीं किया है यावत् किसी भी प्रकार की पर्युपासना नहीं की है। इसलिये अब मुझे यही उचित-श्रेयस्कर है कि मैं इस द्रौपदी देवी का विप्रिय करूं-अनिष्टकरूँ
वएणं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इत्यादि ।
21-(तएण) त्या२५छ। ( तस्स कच्छुलनारयस्स ) ते ४२७८ ना२४२ ( इमेयारूवे) मा तन (अज्झथिए, चितिए, पथिए, मणोगए, संकप्पे समुपज्जित्था ) माध्यात्मि, यितित, प्रथित, मनात स४८५ मन्ये ,
(अहोणं दोवई देवी रूवेणं जाव लावण्णेणं य पंचहिं पंडवेहिं अणुबद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विपियं करित्तए त्ति कद्दु एवं संपेहेइ, संपेहिता पंडुरायं आपुच्छइ आपुच्छित्ता उप्पयणि विज्ज आवाहेइ आवाहिता तार उक्किठाए जाव विनाहरगई। लयगसमुई मज्झं मज्झेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवइउपयत्ते याविहोत्था )
જીઓ, આ કેવી નવાઈની વાત છે કે દ્રૌપદી દેવીએ રૂપ યાવત્ લાવ. યથી પચે પાંડવોની સાથે ભેગાસક્ત થઈને મારો કેઈ પણ રીતે આદર ઓં નથી યાવત કોઈ પણ જાતની પપાસતા કરી નથી. એથી હવે મને છે એમ જણાય છે કે ગમે તે રીતે દ્રૌપદીનું વિપ્રિય-અહિત-કફ. હમણું
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अनगारपामृतर्षिणी 70 म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् तस्मान्मदापहरणेन अस्याः प्रतिकूलाचरणं श्रेयः इति भावः । इति कृत्वा इति मनसि निधाय एवं संप्रेक्षते पर्यालोचयति, संपेक्ष्य पाण्डु राजानमापृच्छच ' उप्प. यणि विज्जं' उत्पतनीम्-विद्याम् ' आवाहेई' आवाहयति-स्मरति आवाथ, मत्वा सया उत्कृष्टया यावद् विद्याधरगत्या लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन पौरस्त्याभिमुख पूर्वदिगभिमुखः, 'वीइचइउं पयंसे' व्यतिव्रजितुं प्रवृत्तः गमनतत्परश्चाप्यभवत् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'धायईसंडे ' धातकीपण्डे धातकीपण्डनामके, द्वीपे 'पुरथिमद्धदाहिणभरहवासे' पौरस्त्यार्धदक्षिणार्ध-भारतवर्षे पूर्व दिग्वतिनि दक्षिणार्धभरतक्षेत्रे अमरकंका नाम राजधानी आसीत् । ततः खलु अमरकंकायां राजधान्यां पद्मनाभो नाम राजाऽभवत् । स कीदृश इत्याह- महया हिमपंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे ' महा-हिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारः महाहिमवानिव तथा-महामलयमन्दरमहेन्द्रवत् सार-प्रधानः। अन्यनृपापेक्षयाऽधिकमइत्त्वादिगुणविभवैश्वर्यसम्पन्न इत्यर्थः, विस्तरतस्तु व्याख्यानं प्रथमाध्ययने कृतम् , यह इस समय पांडवों द्वारा कृत सत्कार सम्मान से गर्विष्ट बनी हुई है-सो विवेक रहित बन गई है-इसलिये इसके मद को उतारना चाहिये अतः इसके प्रतिकूल आचरण करना यही मुझे श्रेयस्कर है। इस प्रकार मन में रखकर उन्हों ने विचार कियो-विचार करके फिर उन्हों ने पांडु. राज से पूछा हे राजन् हम जाते हैं-पूछकर उन्हों ने उत्पतनी नाम की विद्या का आह्वान किया स्मरण किया-स्मरण कर के उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर संबन्धी गति से वहां से पूर्व दिशा की तरफ मुख कर के वे उड़ने में प्रवृत्त भी हो गये-( तेणं कालेणं तेणं समएणं धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणभरहे वासे अमरकंका णाम रायहाणी होत्था-तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था, महया हिमयंत. તે આ પાંડવો વડે સસ્કૃત તેમજ સન્માનીત થઈને ગર્વિષ્ઠા બની ગઈ છે તેથી તે અવિવેકી થઈ પડી છે, એથી હવે એના મદને ઉતારે જોઈએ, એના વિરૂદ્ધ આચરવું જોઈએ, આ પ્રમાણે તેઓએ મનમાં વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને તેમણે પાંડુરાયને પૂછયું કે હે રાજન ! અમે જઈએ, એ પ્રમાણે પૂછીને તેઓએ ઉત્પતની નામની વિદ્યાનું આહાન કર્યું, સ્મરણ કર્યું. સ્મરણ કરીને તે ઉત્કૃષ્ટ યાવતુ વિદ્યાધર સંબંધી ગતિથી ત્યાંથી પૂર્વ દિશા ભણું મુખ કરીને ઉડવા લાગ્યા.
(तेणं कालेणं तेणं समएणं धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणभरहे वासे अमरकंका णाम रायहाणी होत्था तएणं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणामे णामं राया
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४६४.
ज्ञाताधर्मकथासू
वर्णकःवर्णनं पूर्वोक्तवद् बोध्यम्, तस्य खलु पद्मनाभस्य राज्ञः ' सत्तदेवीसयाई ' सप्तदेवीशतानि देवीनां राज्ञीनां शतानि सप्तशतानिभार्याः ' ओरोहे ' अवरोधे= अन्तः पुरे आसन् तस्य खलु पद्मनाभस्य राज्ञः सुनाभो नाम पुत्रो युवराजश्वाप्यभवत् । ततः खलु स पद्मनाभो राजा अन्तः प्रदेशे ' अंतेउरंसि अन्तः पुरे ' आरोह संपरिवुडे' अवरोधसंपरिवृतः - स्त्री परिवार संपरिवृतः, सिंहासनवरगतो विहरति - आस्तेस्म |
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aण्णओ तस्सणं पउमनाभस्स रण्णो सत्तदेवीसयाई ओरोहे होत्था तस्स णं पउमनाभस्स रण्णो सुनाभे नामं पुते जुवराया यावि होत्था तएण से पउमणाने राया अंत अंतेउरंसि ओरोह संपरिबुडे सिंहोसण arre विहरइ ) उस काल और उस समय में धातकी बंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्वर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका नाम की राजधानी थी। उस अमरकंका नाम की राजधानी में पद्मनाभ नाम को रोजा रहता था । यह राजा महा हिमवान् पर्वत की तरह तथा महा मलय, मन्दर एवं माहेन्द्र की तरह अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक महत्वादिगुणों से विभव से एवं ऐश्वर्य से संपन्न था। इन पदों का विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम मेघकुमार अध्ययन में किया जा चुका है। इस राजा का वर्णन पहिले की तरह जानना चाहिये। उस पद्मनाभ राजा के अंतःपुर में ७०० सात सौ रानियां थीं । सुनाभ नाम का पुत्र था जो युवराज था, पद्मनाभ राजा के यहां एक दिन की बात है हत्था, महया हिमवंतवण्णओ, तस्स णं पउमनाभस्स रण्णो सत्तदेवी सयाई ओरोहे होत्या तस्स णं परमनाभस्सरण्णो सुनाभे नामं पुत्ते जुत्रराया यात्रि होत्या तरणं सेपणा राया अंत अंते उरंसि ओरोहसंपरिवुडे सिंहासणवरगए विहरइ ) તે કાળે અને તે સમયે ઘાતકી ષડ નામે દ્વીપમાં પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણ ભરત ક્ષેત્રમાં અમરકકા નામે રાજધાની હતી. તે અમરકંકા નામે રાજધાનીમાં પદ્મનાભ નામે રાજા રહેતા હતા. તે રાજા મહા હિમાચલ પ તની જેમ તેમજ મહામલય, મદર અને મહેન્દ્રની જેમ ખીજા રાજાઓ કરતાં વધારે મહત્વ વગેરે ગુણેાથી, વૈભવથી અને ઐશ્વર્યાંથી સપન્ન હતા. આ પદોનું સવિસ્તાર વર્ણન પ્રથમ મેઘકુમાર અધ્યયનમાં કરવામાં આવ્યું છે. આ રાજાનું વણુન પણ પહેલાંની જેમ જ સમજવું જોઇએ. તે પદ્મનાભ રાજાના રણવાસમાં ૭૦૦ રાણીઓ હતી, સુનાભ નામે તેને પુત્ર હતેા, જે યુવરાજ હતા. એક દિવસની વાત છે કે તે પદ્મનાભ રાજા રણવાસમાં શ્રી પરિવારની સાથે સિદ્ધાસન ઉપર બેઠા હતા.
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम
४३५
अतः पुर
ततः खलु स कच्छुल्लनारदो यत्रैवामरकङ्काराजधानी यत्रैव पद्मनाभस्य भवनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पद्मनाभस्य राज्ञो भवने ' झत्ति ' झटिति वेगेन समोवइए ' सम्मुपेतः=आकाशादवतीर्णः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा कच्छुल्ल नारदं एजमानम् - आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायार्येण यावदासनेन उपनिमन्त्रयति - जलमासनं च ग्रहीतुं प्रार्थयति । ततः खलु स कच्छुल्लकि के भीतर स्त्री परिवार के साथ सिंहासन पर बैठे थे । हुए (तएण से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव पउम नाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स रण्णो भवसि झतिवेगेणं समोवइए, तरणं से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज़्ज़माणं पासह, पासिता आसणाओ अब्भुद्दे, अभुद्वित्ता अग्घेण जाव आसणेणं उवणिमंतेइ, तरणं से कच्छुल्लनारए उद्ग परिफासियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयह जाव कुसलोतं आपुच्छ) वे कच्छुल्ल नारद जहां अमर कंका राजधानी थी, जहां पद्मनाभ का भवन था वहाँ आये। आकर के वे पद्मनाभ राजा के भवन में बहुत शीघ्र वेग से उतरे । पद्मनाभ राजा ने जैसे ही कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा तो देखकर के अपने आसन से उठे और उठकर के उन्हों ने उन्हे अर्ध्य यावत् आसन से आमंत्रित किया ।
( तरणं से कच्छुल्लनारए जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेणेत्र उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परमणाभस्स रण्णो भवणंसि झत्तिवेगेणं समोइए, तरणं से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज्जमाणं पास, पासिता आसणाओ rog, अद्वित्ता अग्धेणं जाव आसणेण उवणिमंते, तरणं से कन्छुल्लनारए उदगपरिफासियाए दब्भोपरिपच्चत्थुयाए मिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदतं आपुच्छर )
તે કચ્યુલ નારદ જ્યાં અમરકકા રાજધાની હતી, જ્યાં પદ્મનાભનું ભવન હતું ત્યાં આવ્યા, આવીને તે પદ્મનાક્ષ રાજાના ભવનમાં શીઘ્ર વેગથી ઉતર્યાં. પદ્મનામ રાજાએ જ્યારે કમ્બુલ નારદને આવતા જોયા ત્યારે તેઓ પેાતાના આસન ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઈને તેમણે તેને અધ્ય યાવતુ
घा ५९
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माताधर्मकथा नारदः उदकपरिस्पृष्टायां-जलाभिषिक्तायां दर्भापरि प्रत्यवस्तृतायां वृष्याम् आसनशेषे निपीदति, यावत् कुशलोदन्तं कुशलवार्ताम् आपृच्छति-मुखोपविष्टं तं कच्छुल्लनारदं पद्मनाभः कुशलवाती पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स पद्मनाभो राजानिजकावरोधे स्त्रीपरिवारे जातविस्मयः समुत्पन्नगः, करछुल्लनारदम् एवंवक्ष्यमाणक्रमेण, अवादी-हे देवानुपिय ! त्वं बहून् ग्रामान् यावत् गृहाणि अनुपविशति, तत्-तस्माद् अस्ति 'आई' इति वाक्यालङ्कारे ते त्वया कुत्रचिद् हे इसके बाद वे कच्छुल्लनारद जल के छींटो से सिंचित आसन पर जो दर्भ के ऊपर बिछा हुआ था बैठ गये-बैठकर उन्हों ने पद्मनाभ राजा से कुशलवार्ता पूछा। पद्मनाभ राजा ने भी सुख पूर्वक बैठे हुए उन कच्छुल्ल नारद से उन के कुशल समाचार पूछे। (तएणं से पउमनाभे राया णियगओरो हे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं क्यासी-तुम्भं देवाणुप्पिया! बहूणि गामाणि जीव गेहाइं अणुपविससि तं अस्थि आई तेकहिं चि देवाणुप्पिया ! एरिसए ओरोहे दिट्ठपुब्वे, जारिसए णं मम आरोहे ?तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रन्ना एवं बुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-सरिसेणं तुमं पउमणाभा! तस्स अगड दद्दुरस्स, केणं देवाणुप्पिया! से अगडदद्दुरे! एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवाणुप्पिया!) इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपने अतःपुर में विस्मित घनकर कच्छुल्लनारद से इस प्रकार આસન ઉપર બેસવા માટે વિનંતી કરી. ત્યારપછી તે કચ્છલ નારદ પાણીના છાંટાઓથી સિંચિત દર્ભના ઉપર પાથરેલા આસન ઉપર બેસીને પદ્મનાભ રાજાને તેઓના પરિવારની કુશળતાના સમાચારો પૂછ્યા. પદ્મનાભ રાજાએ પણ આસન ઉપર સુખેથી બેઠેલા તે કચ્છલનારદને કુશળ સમાચાર પૂછયા. _(तएणं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लाणारयं एवं वयासी-तुब्भं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाणि जाव गेहाई अणुपविससि, तं अत्थि आई ते कहिं चि देवाणुप्पिया! एरिसए ओरोहे दिवपूच्चे जारिसए णं मम ओरोहे ? तएणं से कच्छुल्लणारए पउमनाभेणं रना एवं वुत्ते समाणे ईसि विहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-सरिसेणं तुमं पउमणामा ! तस्स अगडददुरस्स केणं देवाणुप्पिया!:से अगडदद्दुरे? एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवाणुप्पिाया!)
ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ પોતાના રણવાસના વૈભવને જોઈને આશ્ચર્ય થઈને કચ્છલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે ઘણા ગ્રામ યાવતુ ઘરમાં આવજા કરતા રહે છે તે હે દેવાનુપ્રિય ! શું તમે પહેલાં
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गारमानुसारिणी टी० म० १६ द्रौपदीबरितनिरूपणम् देवानुपिय ! ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वी यादृशः खलु ममावरोधः ? ममान्तः पुरे यादृश्यः स्त्रियो वर्तन्ते, तादृश्यः स्त्रियः कुत्रापि भवता दृष्टा इति पृच्छतीत्यर्थः । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः पद्मनाभेन राज्ञा एवमुक्तः सन् 'ईषद् विहसितं' मन्दहासं करोति, कृत्वा एवमवादीत्-हे पद्मनाभ ! सदृशस्त्वं खलु तस्य 'अगडददुरस्स' आइददुरस्य कूपमण्डूकस्य यथा कूपमण्डकः कूपाद् बहिः प्रदेशे विद्यमानं नकिमपि जानाति, तद्वत् त्वमपि स्वभवनाद् बहिरन्यत्रावस्थितं किमपि वस्तु न वेत्सीति भावः । कच्छुल्लनारदस्य वचनं श्रुत्वा पद्मनाभः कच्छुल्लनारदं पृच्छति-'के णं देवाणुपिया! से अगडदद्दुरे' इति। हे देवानुप्रिय ! कः खलु सोऽगडदर्दुरः ? एवं पद्मनाभेन राज्ञा पृष्टः सन् कच्छुल्लनारदः प्राह-' एवं यथा मल्लिगाए' यथा मल्लिज्ञाते वर्णितमेवमत्र बोध्यम् समुद्रदर्दुरकूपदर्दुरयोः परस्परवार्तालापो यथा संभातस्तथा कच्छुल्लनारदेन कथित इत्यर्थः । पुनः कच्छुल्लकहा-हे देवानुप्रिय ! तुम अनेक ग्राम यावत् से घरों में आते जाते रहते हो तो क्या हे देवानुप्रिय ! तुमने कहीं पर क्या ऐसा अंतः पुर पहिले कभी देखा है-जैसा मेरा अन्तः पुर है ? पद्मनाभ राजा के द्वारा इस प्रकार पूछे गये वे कच्छुल्ल नारद कुछ हँसने लगेहँसकर तब उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा-हे पद्मनाभ ! तुम उस कूपमं डूक के समान हो-जो अपने निवासस्थान भूत कुंए से बाहिरी प्रदेश में विद्यमान कुछ भी नहीं जानते हो । कच्छुल्ल नारद के वचन सुनकर के पद्मनाभ ने उन कच्छुल्ल नारद से पूछा-देवानुप्रिय! वह अगडदुर्दुर का आख्यान कैसा है ? तब नारद ने उनसे कहा-मल्लि नाम के अध्ययन में कूपमंडूक और समुद्र मंडूक के परस्पर में वार्तालाप के रूप में यह आख्यान वर्णित किया हुआ है-सो नारद ने यह आख्यान जैसे का तैसा उन्हें सुना दिया- पुनः कच्छुल्ल नारद उनसे કઈ પણ સ્થાને અને કોઈ પણ દિવસે આ મારા જે રણવાસ જે છે? પદ્મનાભ રાજા વડે આ રીતે પ્રશ્ન પૂછાએલા તે કરસ્થલ નારદ હસવા લાગ્યા, હસીને તેઓએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પદ્મનાભ ! તમે તે કૃપ મંડૂક જેવા છે કે જે પોતાના નિવાસસ્થાન કૂપથી બહારના પ્રદેશ વિષે થોડું પણ જ્ઞાન ધરાવતું નથી. કચ્છલ નારદના વચન સાંભળીને પદ્મનાભે તે કચ્છલ નારદને પૂછ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તે અગડ દરકનું આખ્યાન કેવી રીતે છે? ત્યારે નારદે તેમને મહિલ નામે અધ્યયનમાં વર્ણવવામાં આવેલા કૂપમંડૂક અને સમુદ્ર મંકને વાર્તાલાપ રૂપે તે સંપૂર્ણ આખ્યાન તેમને કહી સંભળાવ્યું
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आताधर्मकथासून नारदोवदति-एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण खलु हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरे नगरे द्रुपदस्य राज्ञो दुहिता चूलन्या देव्या आत्मना पाण्डोः स्नुषा पञ्चानां पाण्डवानां भार्या द्रौपदी देवी रूपेण च यावद् उत्कृष्ट शरीरा वर्तते द्रौपद्याः खलु देव्याश्छिन्नस्यापि पादाङ्गुष्ठकस्यायं तवावरोधः तवान्तःपुरवर्तिनी काचिदपि देवी 'सयतमंपि कलं' शततमामपि कलां नाईति, इति कृत्वा एवं ज्ञात्वा कथयोमि-द्रौपदीसदृशी नास्ति काचिदपीति । ततः कच्छुल्लनारदोगन्तुकामः कहते हैं कि हे देवानुप्रिय। सुनो-बात इस प्रकार है-(जंबू द्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे दुवयस्स रण्णो धूया, चलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुहा, पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी स्वेण य जाव उकिट सरीरा, दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्टयस्स अयं तव अवरोहोसय. नमपिकलं ण अग्घई त्तिकटु पउमणाभं आपुच्छइ आपुच्छित्ता जावपडिगए, तएणं से पउमणाभे रोया कच्छुल्लणारयस्स अंतिए एयमé सोच्चा णिसम्म दोवइए, देवीए रूवे य च्छिए४ दोवईए अजोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ) जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप (मध्य जंबुद्वीप में ) में भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नाम के नगर में ग्रुपद रोजा की पुत्री घुलनी देवी की आत्मजा, पांडु राजा की स्नुषा-पुत्रवधू-पांच पांडवों की भार्या द्रौपदी देवी है । यह रूप से यावत् उस्कृष्ट शरीर है। तुम्हारा यह अंतःपुर उसके कटे हुए पैर के अंगूठे के सौवें अंश के बराबर અને ત્યારપછી કચ્છલ તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય! સાંભળે, વાત એવી છે કે
(जंबू द्दीवे दीवे मारहेवासे हथिगाउरे दुवयस्स रणो धूया, चूलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स मुण्डा, पंचहं पंडवाणं भारिया दोबई देवी रूवेण य जाव उक्किट्ठसरीरा, दोवईए पं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुढयस्स अयं तव अवरोहो सयन्नमपि कलं ण अग्घई ति कडु पउमगा पापुच्छइ, आपुच्छित्ता जाव पडिगए, तएणं से पउमणाभे राया कच्छुल्लगारयस्स अंतिए एयम; सोचा णिसम्म दोवईए, देवीए रूवेय मुच्छिए १ दोरईए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ )
- જંબૂ દ્વીપ નામના પ્રથમ દ્વિીપમાં ભારત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નામે નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી ચૂલની દેવીની આત્મજા, પાંડુ રાજાની અનુષા-પુત્રવધુ પાંચ પાંડવોની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે. તે રૂપથી યાવત્ ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે. તમારે આ રણવાસ તેના કપાયેલા અંગૂઠાના સમા ભાગની બરોબર પણ કે નથી, આ બધું હું વિચાપૂર્વક કહી રહ્યો છે. દ્રૌપદી જેવી નારી કોઈ પણ
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नगारधामृतषिणी २० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणन् .. पभनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पद्मनाभेन राज्ञा सत्कारं पाप्य प्रतिगतः-उत्पतनी विद्यया गगनमुद्ययन् प्रतिगत इत्यर्थः।
ततः खलु स पद्मनाभो राजा कच्छुल्लनारदस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वाआकर्ण्य निशम्य हयवधार्य द्रौपद्या देव्या रूपे च यौवने च लावण्ये च मूच्छितः= आसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथित: निबद्धचित्तः, अध्युपपन्नः = एकाग्रचित्तः सन् यत्रैव पौषधशाला तवोपागच्छति, उपागत्य पौषधशालां प्रमायं यावदष्टमभक्तं कृत्वा ' पूर्वसंगतिकं ' पूर्वमित्रं देवम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आदीत्-एवं खलु हे देवानुपिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रौपदी देवी यावत्-उत्कृष्टशरीरा वर्तते, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे देवानुपिय ! भी नहीं है। ऐसा मैं जानकर ही कह रहा हूँ। द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है। इस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहां से चलने के लिये अभिलाषी बन गये-तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पूछा पूछकर यावत् वे वहां से पद्मनाभ राजा से सत्कृत होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एवं लावण्य में मूच्छित ४ बन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया। इस तरह होकर, वे जहां पौषधशाला थी वहां गये । ( उवगच्छित्सा पोमहसालं जाव पुन्वसंगइयं देवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! નથી. આ પ્રમાણે કહીને તે કચ્છલ્લ નારદ ત્યાંથી ચાલવા માટે તિરયા થઈ ગયા. તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછયું, પૂછીને યાવત ત્યાંથી તેઓ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સત્કૃત થઈને ઉ૫તની વિદ્યાના પ્રભાવથી આકાશને ઓળંગતા જતા રહ્યા. ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કચ્છલ નારદના મુખથી આ સમાચારને સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને દ્રૌપદી, દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂછિત ૪ થઈ ગયા, થાવત્ તેમનું મન તેમાં એકદમ ચેંટી ગયું. આ સ્થિતિમાં તેઓ જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા.
(उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव पुव्वसंगइयं देवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबू दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि गं देवाणुणिया ! दोबई देवी इस्माणियं तरणे पुम्बसंगदए देवे पउमनाभं एवं
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वाताधर्मकथासूत्रे
दौपदीं देवीम् ' इह माणियं ' इहानेतुम् । ततः खलु पूर्वसंगतिको देवः पद्मनाभं नृपम् एवमवादीत् हे देवानुप्रिय ! नो खलु एतद् भूतं वा भवद् वा भविष्यद् वा, यत् खलु द्रौपदी देवी पञ्च पाण्डवान् मुक्त्वाऽन्येन पुरुषेण सार्थमुदारान् भोगान् यावद् विहरति, तथापि च खलु अहं तत्र मीत्यर्थं द्रौपदीं देवीमिह हव्यमानयामीति दोवई देवों इहमाणियं तएणं पुव्वसंगइए देवे पउमनाभं एवं वयासी-नो खलु देवाणुपिया ! एवं भूयं वा भवं वा भविस्तं वा जगणं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्ता अन्ने पुरिसेणं सद्धि ओरालाई जाब बिहरिस्तर ) वहां जाकर उन्हों ने उस पोषव शाला को रजोहरण से साफ किया यावत् अष्टम भक्त कर के पूर्व संगति देव का आवाहन किया देवों के आनेपर पूर्व संगतिक देव से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष में हस्तिनापुर नगर में पांडवो की भार्या द्रौपदी देवी है । यह यावत् उत्कृष्ट शरीर है। इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं उस द्रौपदी देवी को तुमसे यहां ले आने के लिये चाहता हूँ । पद्मनाभ की इस बात को सुनकर पूर्वभव के मित्र उस देव ने उस से तब ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! ऐसी बात द्रौपदी के साथ न पहिले हुई है, न आगे होगी और न अब वर्तमान में हो सकती है, जो द्रौपदी देवी पांच पांडवो को छोड़कर अन्य किसी दूसरे पुरुष के साथ उद्दार यावत् मनुष्य भव सबन्धी काम सुखों को भोगे ( तहाविबयासीनो खडु देवाणुनिया ! एवं भूयं वा भव्यं वा भविसंवा जगं दोबई देवो पंच पंडवे मोत्तम अग्ने पुरिसे गं सद्धिं ओरालाई जाव, विहरिस्सर )
ત્યાં જઈને તેમણે તે પૌષધશાળાને રજોહરણથી સાદ્દે કરી યાવત્ અષ્ટમ ભકત કરીને પૂર્વ સતિ દેવનું આવાહન કર્યું. દેવ યારે આવી ગયા ત્યારે તેમણે પૂર્વસંગતિક દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જ`બૂદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભરત વર્ષમાં હસ્તિનાપુર નગરમાં પાંડવાની પત્ની દ્રૌપદીદેવી છે, તે યાવત ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તે દ્રૌપઢી દેવીને તમે અહીં લઈ આવેા એવી મારી ઇચ્છા છે. પદ્મનાભની આ વાતને સાંભળીને પૂર્વભવના મિત્ર તે દેવે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! દ્રૌપદી દેવીની સાથે આ જાતનું આચરણ ન પહેલાં થયું છે ન ભવિષ્યમાં થશે અને ન વમાનમાં થવાની શકયતા છે. દ્રૌપદી દેવી પાંચે પાંડવા સિવાય બીજા કોઈ પુરૂષની સાથે ઉદાર યાવત્ મનુષ્યભવ સંબંધી કામસુખા ભાગવે આ માત તદ્ન અસંભવિત છે.
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भनगरापामृतषिणी टीका म. १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम कृत्वा-उक्त्वा पानाभम् आपृच्छति आपृच्छय तया उत्कृष्टया देवसम्बन्धिन्या गत्या यावत् लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन-उपरिभागेन गगनमार्गेण, यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं तत्रैव प्राधारयद गमनाय । · तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरो राजा द्रोपद्या सार्धमुपरि आकाशतले पासादाट्टालिकोपरि सुखप्रसुप्तश्चाप्यासीत् , ततः खलु स पूर्वसंगतिको देवो यौव युधिष्ठिरो राजा यौव द्रौपदीदेवी तौवोपागच्छति, उपागस्य द्रौपधै यणं अहं तव पियट्टतयाए दोवई देवीं इहं हव्वमाणेमि त्तिकट्टु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव लवणसमुदं मझ मज्झेणं जेणेव हथिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) फिर भी मैं तुम्हारी प्रीति के निमित्त द्रौपदी देवी को यहां शीघ्र लेकर आता हूँ। ऐसा कहकर उसने जाने के लिये उन पमनाभ से पूछा, पूछकर फिर वह उस उत्कृष्ट देवभवसंबन्धी गति से यावत् लवर्ण समुद्र के बीच से होकर जहां हस्तिनापुर नगर था उस और चल दिया ! (तेणं कालेणं तेणं समएणं हस्थिणाउरे जुहिहिले राया,दोवईए सद्धि उपि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था, तएणं से पुत्वसंगइए देवे जेणेव जुहिडिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ ) उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नगरमें युधिष्ठिर राजाके साथ द्रौपदी आकाशतलमें-प्रासाद की अट्टालिका के ऊपर सोये हुए थे। वह पूर्व संगतिक देव जहां वे युधिष्ठिर राजा और जहां वह द्रौपदी देवी थी वहां आया-(उवोगच्छित्ता
(तहावि य णं अहं तव पियट्टतयाए दोवई देवीं इह हव्वमाणेमि त्ति कटु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव लवणसमुदं मझं मज्झेणं जेणेव हथिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए)
છતાંએ તમને ખુશ કરવા માટે હું દ્રૌપદી દેવીને શીધ્ર અહીં લઈ આવું છું. આમ કહીને તેણે જવા માટે પદ્મનાભ રાજાને પૂછ્યું, પૂછીને તે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સંબંધી ગતિથી યાવત લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું તે તરફ રવાના થશે.
( तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिट्टिले राया, देवईए सद्धिं उप्पि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था तएणं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिढिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ)
તે કાળે અને તે સમયે હસ્તિનાપુર નગરમાં યુધિષ્ઠિર રાજા અને દ્રૌપદી દેવી મહેલની અગાશી ઉપર સૂતા હતા. તે પૂર્વ સંગતિક દેવ જ્યાં તે યુધિઝિર રાજા અને જ્યાં તે દ્રૌપદી દેવી હતી ત્યાં આવ્યું.
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जाताधर्मकथाहरने देव्यै 'आसोवणियं ' अवस्वापनी निद्रां 'दलयइ' ददाति सुखमसुप्तां द्रौपदी गानिद्रयाऽऽक्रान्तां कृतवानित्यर्थः । दत्वा-गादनिद्रावतीं कृत्वा द्रौपदी देवी गृहीत्वा तया उत्कृष्टया देवसम्बन्धिन्यागत्या यावत् यौवामरकंका राजधानी यौव पचनामस्य भवनं तौवोपागच्छति, उपागत्य पद्मनाभस्य भवने ' असोगवणियाए ' अशोकवनिकायाम् अशोकवाटिकायां द्रौपदी देवी स्थापयति, स्थापयित्वा · आसोवणि अवहरइ ' अवस्वापनी निद्रामपहरति, अपहत्य दोधईए देवीए ओसोबणियं दलयह, दलित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिण्हत्ता सीए उक्किट्ठाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवइ देवी ठवेइ ठावित्ता ओसोवणि अवहरइ, अवहरित्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्सा एवं वयासी-एस णं देवाणुपिया !मए हथिणाउराओ दोवई इह हव्वमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठइ, अतोपुरं तुम जाणिसि तिकटूटुजामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए) वहां आकर उसने द्रौपदी देवी को गाढ निद्रा में सुला दिया, सुलाकर फिर उसने उस द्रौपदी को वहां से उठाया-और उठा. कर फिर वह उस उस्कृष्ट देवभवसंबन्धी गति से चलकर यावत् जहां अमरकंका नगरी और जहां पद्मनाभ राजा का भवन था वहां आयावहां आकर के उसने पद्मनाभ के भवन में अशोकवाटिका में द्रौपदी देवी को रखदिया। रखकर के फिर उसने उसे गाढ निद्रा से रहित कर ___ (उवागच्छित्ता दोवईए दीवीए ओसोवणियं दलयइ, दलित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे-तेणेव उपागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए, दोवई देवीं ठवेइ ठावित्ता ओसोवणिं अवहरइ, अवहरित्ता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया मए हथिणाउराओ दोवई इह हव्यमाणीया, तब असोगवणियाए चिट्ठइ, अतोपुरं तुमं जाणिसित्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)
ત્યાં આવીને તેણે દ્રૌપદીને ગાઢ નિદ્રામાં સૂવાડી દીધી, સુવાડીને તેણે તે દ્રૌપદીને ત્યાંથી ઉઠાવી અને ઉડાવીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવભવ સંબંધી ગતિથી ચાલીને વાવત્ જ્યાં અમરકંકા નગરી અને જ્યાં પદ્મનાભ રાજાનું કામવન હતું ત્યાં આવ્યો. ત્યાં આવીને તેણે પનાભના ભવનમાં અશોકવાટિકામાં દ્રૌપદી - દેવીને મૂકી દીધી, મૂકીને તેણે ગાઢ નિદ્રા દૂર કરી દીધી, ગાઢ નિદ્રા દૂર
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अनगारधर्मामृतपरिणी का ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ॥ यौव पद्मनाभस्तौवोपागच्छति, उपागत्य एवमवादी-एषा खलु हे देवानुप्रिय ! मया हस्तिनापुराद् द्रौपदी इह हव्यमानीता तवाशोकवनिकायां तिष्ठति, अतः परं त्वं जानासि ' इति कृत्वा-उक्सा, यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ मू०२५ ॥
मूलम्-तएणं सा दोवई देवी तओ मुहत्तरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं वयासी-नो खलु अम्हं एसे सए भवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णजइ णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेणं वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अन्नस्स रपणो असोगवणियं साहरियत्तिकट्ट ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ, तएणं से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकार विभूसिए अंतेउरपरियालं संपरिवुडे जेणेव असोगवणियाजेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवई देवीं
ओहय० जाव झियायमाणीं पासइ पासित्ता एवं वयासीकिण्णं तुम देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियाहि, एवं दिया-गाढ निद्रा से रहित कर फिर वह वहाँ से जहां पद्मनाभ राजा थे वहां गया-वहां जाकर उसने उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर नगर से द्रौपदी को यहां ले आया हूँ। वह तुम्हारी अशोक वाटिका में ठहरी है, अतः अब तुम जानो। ऐसा कहकर वह देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था-उसी दिशा की और वापिसचला गयो। सू-२५ કરીને તે જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં ગયો. ત્યાં જઈને તેણે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! હસ્તિનાપુર નગરથી દ્રૌપદી દેવીને હું અહીં લઈ આવ્યો છું. તે તમારી અશોકવાટિકામાં છે, એથી હવે તમે જાણે. આ પ્રમાણે કહીને તે દેવ જે દિશા તરફથી પ્રકટ થયા હતા તે જ દિશા તરફ પાછે તે રહ્યો. મેં સૂત્ર ૨૫ /
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पाताधर्मकथा खलु तुमं देवाणुप्पिया! मम पुत्वसंगइएणं देवेणं जंबूद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिटि. लस्स रण्णो भवणाओ साहरिया तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहय० जाव झियाहि, तुम मए सद्धिं विपुलाइं भोगभोगाई जाव विहराहि, तएणं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं वयासी. -एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसइ, तं गं से छण्हं मासाणं मम कूवं नो हव्वमागच्छइ तएणं अहं देवाणुप्पिया! जं तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिदेसे चिहि. स्सामि, तएणं से पउमे दोवईए एयमद्रं पडिसुणित्ता२ दोवई देविं कण्णंतेउरे ठवेइ, तएणं सा दोवई देवी छटुं छट्रेणं अनिविखत्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणंतवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू० २६ ॥
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा द्रौपदी देवी ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धा-जागरिता सती तद् भवनम् अशोकवनिकां च ' अपञ्चभिजाणमाणी' अप्रत्यभिजानन्ती भवनादिकमपरिचितं जानन्ती एवमवादी-नो खलु अरमाक
__-तएणं सा दोवई देवी इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा दोवईदेवी) वह द्रौपदीदेवी (ताओ मुहत्तंतरस्स पडिघुद्धा समाणी) १ मुहूर्त के बाद जगी सो जग कर उसने ( तं भवणं असोगवणियं च अपञ्चभिजाणमाणी एवं वयासी) उस भवन को एवं उस अशोकवाटिका को अपरिचित जानकर अपने मन में ऐसा विचार किया-(नो खलु अम्हं एसे सएभवणे, णो खलु
तएण सा दावई देवी इत्यादि ॥
साथ-(तएण) त्या२पछी (सा दोवई देवी) ते द्रौपदी हेवा (ताओ मुहुत्तरस्स पडिबुद्धा ममाणी) मे भुत पछी भी मने तीन ते ( त भवण असोगवाणिय च अपञ्चभिजाणमाणी एव वयासी) ते मन भने त अशी વાટિકાને અપરિચિત જાણુને પિતાના મનમાં આ જાતને વિચાર કર્યો કે–
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narration डोका म० १६ द्रौपदी बरितनिरूपणम्
४७५
मेतद् भवनं नो खलु एषाऽस्माकं ' सगा ' स्वका स्वकीया, अशोकवनिका, तद् न ज्ञायते खलु - अहं केनापि देवेन वा दानवेन वा किं पुरुषेण वा किंनरेण वा महोरगेण वा गन्ध वा अन्यस्य राज्ञोऽशोकवनिकायां ' साहरिया' संहता - आनीताऽस्मि ' इति कृत्वा = इति विचार्य, अपहतमनः संकल्पा = अनिष्टयोगेन भग्नमनोरथा विषादपगतेत्यर्थः यावद् ध्यायति-आर्तध्यानं करोति ।
ततः खलु पद्मनाभो राजा स्नातो यावत् सर्वालंकारविभूषितोऽन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतो यत्रैवाशोकवनिका यत्रैव द्रौपदी देवी, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य एसो अहं सगा असोगवणिया, तं ण णज्जइ, णं अहं केणई देवेणवा दाणवेण वा किं पुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अन्नस्त रण्णो असोगवणियं साहरियत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ ) यह मेरा निज का भवन नहीं है, यह मेरी निज की अशोक वाटिका नहीं है। तो पता नहीं पड़ता क्या मैं किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में किसी देव, दानव, किंपुरुष, किन्नर महोरंग अथवा, गंधर्व के द्वारा हरण कर लाई गई हूँ । इस प्रकार के विचार से उस का मनः संकल्प अपहत हो गया-अनिष्ट के योग से उस का मनोरथ भग्न हो गया और वह खेदखिन्न हो गई यावत् आर्तध्यान करने लगी । (तरण से पउमणाभे राया व्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अतेउरपरियालं संपपिवुडे, जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवई देवीं ओहय० जाव झिया( नो खलु भई एसे सएमवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण नणं अहं केणई देवेग वा दाणवेग वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेग वा गंधव्त्रेण वा अन्नस्सरण्णो अलोगवणियं साहरियत्ति कट्टु ओहयमण संकप्पा जाव झियाय )
આ મારૂં ભવન નથી, આ મારી અશાક વાટિકા નથી. કંઈ ખખર પડતી નથી, શું હું ખીજા કોઈ રાજાની અશેાક વાટિકામાં કોઈ દેવ, દાનવ, કિંપુરુષ કિન્નર, મહેારગ અથવા તેા ગધ વડે અપહૃત થઇને લઇ જવામાં આવી છું. આ જાતના વિચારાથી તેનું મન ઉદાસ થઇ ગયું, અનિષ્ટના ચેાગથી તેના મનારથ ભગ્ન થઈ ગયા અને તે ખેઢ-ખિન્ન થઇ ગઇ યાવતુ આ ધ્યાન ४२वा सागी.
(तए से पउमणाभे राया हाए जाव सव्यालंकारविभूसिए अंते उरपरियालं संपरिवडे, जेणे असोगणिया जेयेन दोवई देवरी, तेजैव उआगच्छ, उबाग
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जाताधर्मकाजस्व द्रौपदी देवीमपहतमनःसंकल्पां यावद् ध्यायन्ती आर्तध्यानं कुर्वती पश्यति दृष्ट्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रिये ! कि खलु व 'ओहय० जाव झियाहि ' अपहतमनः संकल्पा यावद् ध्यायसि-विषीदसि एवं खलु त्वं हे देवानुभिये ! मम पूर्वसंगतिकेन देवेन जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद् भारताद् वर्षाद् हस्तिनापुराद् नगराद् युधिष्ठिरस्य राज्ञो भवनात् संहृता अपहताऽसि, ततस्तस्माद् मा यमाणी पासइ, पासित्ता एवं क्यासी, किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पुव्वसंगइएणं देवेणं जंबूद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापु. राओ नयराओ जुहिडिल्लस्स रणो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुम देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव झियाहि तुमं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं जाव विहराहि ) इसके बाद वह पानोभ राजा नहा धोकर यावत् सर्वालंकारो से विभूषित हो अपने अंतःपुर परिवार से संपरिवृत होकर जहां वह अशोक वाटिका थी-और उसमें भी जहां वह द्रौपदी देवी बैठी थी-वहां आया-वहां आकर के उसने द्रौपदी देवी से अपहत मनः संकल्पवाली यावत् आतध्यान करती हुई देखकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये ! तुम क्यों अपहत मनः संकल्प होकर यावत् आर्तध्यान कर रही हो-खेद खिन्न हो रही हो तुम यहां हे देवानुप्रिय ! मेरे पूर्व भव के मित्र देव के द्वारा जंबूद्वीप नाम के द्वीप से भारतवर्ष के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से हरण कर ले आई च्छित्ता दोबई देवों ओहय० जाव झियायमाणी पासइ, पासित्ता एवं वयासी किणं तुम देवाणुप्पिया ! ममपुब्धसंगइएणं देवेणं जंबूदिवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयरोओ जुहिडिल्लस्स रण्णो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव ज्ञियाहि तुमं मए सद्धि विपुलाई भोगभोगाइं जाव विहराहि)
ત્યારપછી તે પદ્મનાભરાજા સ્નાન કરીને યાવત્ સર્વાલંકારથી વિભૂષિત થઈને પિતાના રણવાસ-પરિવારને સાથે લઈને જ્યાં અશોક વાટિકા હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે દ્રૌપદી દેવી બેઠી હતી ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે દ્રૌપદી દેવીને અપહતમનઃ સંકલ્પવાળી યાવત્ આર્તધ્યાન કરતી જોઈને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે શા માટે અપહતમનઃ સંકલ્પ થઈને થાવત્ આધ્યાન કરી રહી છે? ખેદ-ખિન્ન થઈ રહ્યા છો ? હે દેવાનુપ્રિયે ! મારા પૂર્વભવના મિત્ર દેવ વડે તમે જંબૂઢીપ નામના દ્વીપના, ભારત વર્ષના હસ્તિનાપુર નગરના યુધિષ્ઠિર રાજાના ભવનથી અપહૃત થઈને અહીં લાવવામાં
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- मनगारमामृतांधणी वै० म० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! अपहतमनःसंकल्पा यावद् ध्याय, आर्तध्यानं मा कुरु त्वं मया साधं विपुलान् भोगभोगान् यावद् भुञ्जाना विहर-मदीयमासादे तिष्ठ' इति ।
ततः खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे द्वारवत्यां नगर्यां कृष्णो नाम वासुदेवो मम मियभातृका= ममप्रियस्य भत्ता परिवसति, तद् यदि खलु स षण्णां मासानां मध्ये 'मम' मां 'कूवं ' देशीशब्दोऽयम् , अन्वेषयितुं ग्रहीतुवा नो शीघ्रमागच्छति-ततः खलु गई हो। इमलिये हे देवानुप्रिये ! तुम आपहतमनःसंकल्प बनकर यावत् आर्तध्यान मत करो। तुम तो अब मेरे साथ विपुल कामभोगों को भोगती हुई मेरे प्रासाद में रहो । (तएणं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसइ, तं जहणं से छण्हं मासाणं मम कूवं णो हव्व मागच्छइ, तएणं अहं देवाणुप्पिया। जं तुमं वदसिं तस्त आणाओवायवयणणिद्देसे चिट्टिस्सामि तएणं से पउमे दोवईए एयमé पडिसुणेइ २ दोवई देवीं कण्णंतेउरे ठवे: तएणं सा दोवई देवी छटुं छटेणं अणिरिखत्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह) इसके बाद उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! सुनो-जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारतवर्ष में द्वारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव मेरे प्रिय पतिके भ्राता रहते है । वे यदि छह मासके भीतर मुझे अन्वेषण करने के लिये या આવી છો એથી હે દેવાનુપ્રિયે! તમે અપહતમનઃ સંકલ્પ થઈને યાવત આર્તધ્યાન ન કરે તમે મનુષ્યભવ સંબંધી કામ ભેગે ભોગતાં મારા મહેલમાં રહે,
(तएणं सा दोवई देवो पउमणाभं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबू हीवे दीवे, भारहे वासे बारवइए णयरीए कण्णे णामं वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, तं जहणं से छण्डं मासाणं मम कूवं णो हब्ध मागच्छइ, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिद्देसे चिहिस्सामि तएणं से पउमे दोबईए एयमé पडिमुणित्ता २ दोवई देवीं कण्णंतेउरे ठवेइ, तएणं सा दोवई देवी छ8 छटेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावे माणे विहरह)
ત્યારપછી દ્રૌપદી દેવીએ પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે દેવાનુપ્રિય! સાંભળે, જંબદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં દ્વારાવતી નગરીમાં કણવાસુદેવ મારા પ્રિય પતિના ભાઈ રહે છે. તેઓ છ મહીનાની અંદર મારી તપાસ
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हाताधर्मकथा अहं हे देवानुप्रिय ! यत् त्वं वदसि-वदिष्यसि ' तस्स ' तत्र ‘आणाओवायवयणणिद्देसे ' आज्ञावपातवचननिर्देशे स्थास्यामि, तवाज्ञाकारिणी वशवर्तिनी भविप्यामीत्यर्थः, आज्ञा-अवश्यं विधेयतया आदेशः, उपपातववनं सेवावचनं, निर्देशःकार्याणि प्रति प्रश्नेकृते यनिपतार्थमुत्तरम् , एषां समाहारद्वन्द्वः तत्र, ततः खलु स पद्मनाभो राजा द्रौपचा एतमथ प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य द्रौपदी देवीं ' कण्णतेउरे' कन्यान्तः पुरे स्थापयति, ततः खलु सा द्रौपदीदेवी 'छ छटेणं ' षष्ठषष्ठेन पष्ठभक्तानन्तरं पुनः षष्ठभक्तेन, 'अनिकि वत्तेणं' अनिक्षिप्तेन-विरामरहितेन अन्तररहितेनेत्यर्थः, ' आयंबिलपरिग्गहिएणं' आयंबिलपरिगृहीतेन तपः कर्मणा आत्मानं भावयन्ती विहरति ॥ मू०२६ ॥
मूलम्-तएणं से जुहाढिल्ले राया तओ मुहुत्तरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देविपासे अपासमाणो सयणिजाओ उठेइ उहित्ता दोवईए देवीए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पति वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंडुरायं एवंवयासी एवं-खलु ताओ ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्त पासाओ लेने के लिये यहां जल्दी से नहीं आयेंगे तो उसके बाद हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम कहोगे वैसा मैं करूँगी-तुम्हारी आज्ञा कारिणी वशवर्तिनी बन जाऊँगी। ऐसा अर्थ “आणाओवायवयणणिद्देसे" इन पदो का निकलता है। इसके बाद पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी के इस कथन को स्वीकार करके उसे कन्या के अन्तः पुर में रखदिया। वहां वह द्रौपदी देवी आयंबिल परिगृहीत छह छह की अन्तर रहित तपस्या से अपने आप को भावित करती हुई रहने लगी। सू० २६ કરતાં કરતાં અહીં નહિ આવી શકે તે ત્યારપછી હે દેવાનુપ્રિય! તમે જેમ डशी तभ शश, ईतभारी मारिए शर्तिनी मनी ४४२. " आणा ओवायवयणाणिदेसे " AL ५४थी l and! म नाणे छे. त्या२५छ। પાનાભ રાજાએ દ્રૌપદીના તે કથનને સ્વીકારી લીધું અને તેને કન્યાના અન્તઃ પુરમાં મૂકી દીધી. ત્યાં તે દ્રોપદી દેવી આયંબિલ પરિગ્રહીત છઠ્ઠ છની અન્તર રહિત તપસ્યાથી પિતાની જાતને ભાવિત કરતી રહેવા લાગી. તે સૂવ ૨૬ છે
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अनगारधर्मामृतवाणी डो० भ० १६ द्रौपदीबरितनिरूपणम् दोवइ देवी ण णज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा ?, इच्छामि णं ताओ ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं कथं, तरणं से पंडुराया कोडुंबिय पुरिसे सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हस्थिणाउरे नयरे सिंघाडगतिय चउक्कचच्चर महापहपहेसु महया सणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिट्टिलस्सरण्णो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा तं जो णं देवाणुप्पिया ! दोवइए देवीए सुई वा जाव पवित्तिं वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयइ तिकट्टु घासणं घोसावेहर एयमाणत्तियं पञ्चपिणह, तरणं ते कोडुंबिय पुरिसा जाव पच्चपिणंति, तण से पंडूराया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंती देवी सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाप्पिया ! बारवई णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमहूं णिवेदेहि कण्ह णं परं वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसणं करेज्जा अन्नहा न नज्जइ दोवइए देवीए सुतीं वा खुतीं वा पवतीं वा उवलभेज्जा, तपणं सा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं बुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ पडिणित्ता पहाया कयबलिकम्मा हत्थिखंध
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४८०
पाताधर्मकथा वरगया हस्थिणाउरं मञ्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता कुरुजणवये मज्झंमज्झेणं जेणेव सुरटुजणवए जेणेव बारवई गयरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जेणेव बारवई णयरी तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल० एवं वयह-एवं खलु सामी! तुभं पिउच्छा कोंती देवी हस्थिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया तुभं दसणं कंखइ, तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव कहेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए सोच्चा णिसम्म हत्थिखंधवरगए हयगय बारवईए य मज्झमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ताहत्थिखंधाओ पच्चोरुह पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवाए पायग्गहणं करेइ करित्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखंधं दुरूहइ दुरुहित्ता बारावइए णयरीए मज्झमझेणं जेणेवसए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुपविसइ। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंती देविं पहायं कयबलिकम्मं जिमियभुत्त्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ?, तएणं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! हथिणाउरे णयरे जुहिटिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजइ केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता ! दोवईए
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ममनारथमतिपचिणी डी० ५० १६ द्रौपदी चरित निरूपणम् देवीए मग्गणगवेसणं करितए, तरणं से कण्हे वासुदेवे कोंती पिउच्छि एवं वयासी - जं णवरं पिउच्छा ! दोवइए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वासमंतओ दोवई साहस्थि उवणेमित्तिकद्दु कोंतीं पिउत्थि सक्कारेइ संमाणेइ जाव पडिविसजेइ, तरणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसिं पडिगया ॥ सू० २५ ॥
"
टीका - तणं से ' इत्यादि । ततः खलु स युधिष्ठिरो राजा ततो मुहूर्तान्तरे प्रतिबुद्धः सन् द्रौपदीं देवीं पार्श्वे 'अपासमागो' अपश्यन्=अनवलोकयन् शयनीयादुत्तिष्ठति, उत्थाय द्रौपद्या देव्याः सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं करोति, कृत्वा द्रोपद्या देव्या ' कत्थइ ' कुत्रापि ' मुह ' श्रुतिं सामान्यवृत्तान्तं वा, ' खुइ ' क्षुतिं ठिकादि शब्दं वा ' पवत्तिं ' प्रवृत्तिं वा विशेषवृत्तान्तं अलभमानो
,
तएण से जुहिट्ठिल्ले राया इत्यादि ॥
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद (से जुहिट्ठिल्ले राया) वे युधिष्ठिर राजा (तओ मुहततरस्स) एक मुहूर्त्त के बाद (पडिबुद्धे समाणे ) जगे - और जगकर उन्होंने (दोवई देवीं) द्रौपदी देवी को (पासे अपासमाणो सयणि. जाओ उट्ठेह, उट्ठसा दोवईए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ ) अपने पास जब नहीं देखा तो वे अपनी शय्या से उठे और उठकर द्रौपदी देवीकी सबओर से उन्होंने मार्गणा गवेषणाकी (करिता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुई वा पवन्ति वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया 'तरण' से जुहिट्ठिल्ले राया ' इत्यादि ॥
,
टीडार्थ - (तएण ) त्यारपछी ( से जुहिट्ठिल्ले राया ) ते युधिष्ठिर शब्न ( तओ मुहुत्त तररस ) मे भुहूर्त माह ( पडिबुद्धे समाणे ) लग्या रमने लगीने तेम (दोवई देवी ) द्रौपदी देवीने,
( पासे अपासमाणो सयणिज्जाओ उट्ठे, उट्ठित्ता दोवईए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करे )
જ્યારે પેાતાની પાસે જોઈ નહિ ત્યારે પેાતાની શય્યા ઉપરથી ઊભા થયા અને ઊભા થઈને દ્રૌપદી દેવીની ચામેર માણા ગવેષણા કરી. ( करिता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुई वा पवर्त्ति वा अलभमाणे
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माताधर्मकथा यौव पाण्डराजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पाण्डु राजानमेवमवादीत-हे तात ! एवं खलु ममाकाशतले प्रासादाबालिकोपरि ' मुहपसुत्तस्स' सुखममुप्तस्य पार्थाद् द्रौपदी देवी ' ण णज्जइ' न ज्ञायते केनापि देवेन वा दानवेन वा किन्नरेण वा किंपुरुषेण वा गन्धर्वेण वा हृता वा नीता अन्यत्र प्रापिता वा अवक्षिप्ता वा-? कूपगर्तादौ कुचित् पातिता वा इत्यर्थः, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे तातः ! द्रौपद्या देव्याः सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कर्तुम् । तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी एवं खलु ताओ ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजह, केणइ देवेण वा दाणवेण वा किनरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा) मार्गणा गवेषणा करके जब उसने द्रौपदी देवी की कहीं भी शोध, सामान्य खबर को उस के चिह्नस्वरूप छिक्का आदि के शब्द को, अथवा प्रवृत्ति-विशेष वृत्तान्त को नहीं पाया तब वे जहां पांडुराजा थे वहां गये-वहां जाकर के उन्होंने पांडुराजा से इस प्रकार कहा-हे तात ! जय मैं प्रासाद की अट्टालिकाके ऊपर सुखसे सो रहा था-तब मेरे पाससे न मालूम द्रौपदी देवी को किसी देवने, दानवने, किभरने, किंपुरुषने, महोरगने, गंधर्वने हरण कर कहां रख दिया है।-या उसे किसी कुंए में या खड़े में डाल दिया है (इच्छामिणं ताओ दोवईए देवीए सत्वओ समंता मग्गण गवेसणं कयं ) इस लिए हे तात! मैं द्रौपदी देवी की सप तरफ से जेणेव पंडराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी एवं खल ताओ ममं आगासतलगंसि सुष्पसुत्तरस पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा णीया वा अवक्खित्ता वा)
માર્ગણ ગષણ કર્યા બાદ પણ જ્યારે તેમણે દ્રૌપદી દેવીની કોઈપણ રીતે, સામાન્ય ખબર અને ચિહ્ન સ્વરૂપ છીંક વગેરે શબ્દને અથવા તે પ્રવૃત્તિ વિશેષ વૃત્તાંત–ની પણ જાણ થઈ નહિ ત્યારે તેઓ ત્યાં પાંડુરાજા હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે પાંડુરાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત! જ્યારે હું મહેલની અગાશીમાં સૂઈ રહ્યો હતો ત્યારે મારી પાસે ન જાણે કોણે દ્રૌપદી દેવીનું કેઈ દેવ, દાનવે કે કિન્નરે કે જિંપુરુષે કે મહોરગે કે ગધ હરણ કર્યું છે. અથવા તે દ્રોપદી દેવીને કઈયે કૂવામાં કે ખાડામાં नाभी सीधी छे. (इच्छामि ण ताओ दोवईए देवीए सव्वओ समतो ममाण
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मेनगारपानृतवाणी का म०१५ द्रौपदीचरितनिरूपणम् et
ततः खलु स पाण्डुराजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु महता महता शब्देनोद्धोषयन्तः एवं वदत-एवं खलु हे देवानुमियाः ! युधिष्ठिरस्य राज्ञ आकाशतलके सुखप्रसुप्तस्य पार्थाद् द्रौपदी देवी न शायते केनापि देवेन वा दानवेन वा किं पुरुषेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा
और सब प्रकार से मार्गणा और गवेषणा करना चाहता हूँ। (तए णं से पंडुराया कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सदावित्ता एवं वयासी गच्छहाणं तुम्भे देवाणुपिया! हस्थि गाउरे नयरे, सिंघाडगतीय चउक्कचच्चर महा पहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमीणा २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिडिल्लस रणो ओगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजद, केणह, देवेण वा दानवेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा) इस बात को सुनकर के उन पांडुराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया
और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हस्तिनापुर नगर में जाओ-और वहां के शृंगाटक, त्रिक चतुष्क, चत्वर, महापथ इन समस्त मागों में बड़े जोर २ से ऐसी घोषणा बार २ करो कि हे देवाणुप्रियों! सुनो प्रासादकी अट्टालिका पर सुखपूर्वक सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से न मालूम किसी देवने, या दानवने, किसी, किन्नरने, गवेषण कय ) 21 भाटे 3 da ! ई यो२ मधी शत द्रौपदी वीना માગણા અને ગષણ કરવા ઈચ્છું છું. (तए णं से पंडुराया कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! हस्थिणाउरे नयरे, सिंघाडगतोयचउक्कचचरमहापहपहेसु महया २ सदेगं उग्यो से माणा २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिल्लिस्स रणो आगासतलांसि सुहपमुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ, केणइ देवेग वा दानवेर वा किंवरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेग वा गंधवेग वा हिया वा नीया वा अवविखता वा)
આ વાતને સાંભળીને પાંડુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયો ! તમે લોકે હસ્તિનાપુર નગરમાં જાઓ અને ત્યાંના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહાપથ આ બધા માર્ગોમાં મેટા સાદે આ જાતની ઘોષણા કરે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, મહેલની અગાશી ઉપર સુખેથી સૂતા યુધિષ્ઠિર રાજાની પાસેથી ન જાણે કે
કે દાનવે અથવા તે કઈ કિનારે કે કિપરુપે અથવા કોઈ મહારગે કે
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पाताधर्मकथा गन्धर्वेण वा हता वा नीता वा अवक्षिप्ता वा, तत्-तस्माद् यः खलु हे देवानुप्रियाः ! द्रौपद्या देव्याः श्रुतिं वा क्षुति वा प्रवृत्तिं वा परिकथयति, तस्य खलु पाण्डू राजा विपुलमर्थसंपदानं दानं ददाति इति कृत्वा-इत्युक्त्वा घोषणां घोषयत, घोषयित्वा एतामज्ञप्तिको प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषास्तथैव घोषणां कृत्वा यावदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति हे स्वामिन् ! भवदाज्ञया घोषणा कृताऽस्माभिरिति निवेदयन्ति । या किसी किंपुरुष ने या किसी महोरग ने या किसी गंधर्व ने द्रौपदी देवी को हरण कर लिया है-या हरणकर उसे कहीं रख दिया है अथवा किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है (तं जो णं देवाणुप्पिया ! दोवईए देवीए सुई वा जाव पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयइ, त्ति कटु घोसणं घोसावेह २ एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा जाव पच्चप्पिणंति-तएणं से पंडराया दोवईए देवीए कत्थइ सुइंवा जाव अलभमाणे कोंती देवी सदावेइ) तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य द्रौपदी देवी की शोध करेगा यावत् उसके विशेषवृत्तान्त को लाकर देगा-हम से आकर कहेगा, उसको पांडुराजा बहुत अधिक मात्रा में अर्थ संप्रदान-दानदेगा। इस प्रकार की तुम घोसषणा करो, और घोषणा कर के फिर हमें इसकी पीछे खबर दो। इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इसो प्रकारकी घोषणा करके इस की खबर राजाके ગંધ દ્રૌપદી દેવીનું અપહરણ કર્યું છે કે હરણ કરીને તેને ક્યાંક મૂકી દીધી છે કે કેઈ કૂવામાં અથવા તે ખાડામાં નાખી દીધી છે. •
(तं जो णं देवाणुप्पिया ! दोवईए देवीर सुई वा जाव पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्सणं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयइ, त्ति कह घोसणं घोसावेह २ हयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तएणं ते कौडुंबियपुरिसा जाव पचप्पिगंति-तएणं से पंडुराया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंती देवों सदावेइ)
તે હે દેવાનુપ્રિયે! જે કોઈ પણ માણસ દ્રૌપદી દેવીની શોધ કરશે યાવત તેના વિષે સવિશેષ સમાચાર જાણીને અમને ખબર આપશે, અમને કહેશે, તેને પાંડુ રાજા ખૂબ જ દ્રવ્ય-ધન આપશે. આ રીતે તમે ઘેષણ કરે અને ઘોષણા થઈ જવાની અમને ખબર પણ આપે. આ રીતે રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરૂએ આ પ્રમાણે જ ઘેષણ કરીને તેની ખબર રાજાને આપી. ત્યારપછી જ્યારે પાંડુ રાજાએ દ્રૌપદી દેવીની કેઈપણ સ્થાને
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भनगारधामृतषिणी टीका #० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुति वा यावत् प्रवृत्तिम् अलभमानः कुन्ती देवीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिये ! द्वारवती नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमर्थ निवेदय-सुखप्रसुप्ता द्रौपदी केनापि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूपं वृत्तान्तं कथय, कृष्णः खलु परं वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगवेषणं कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रौपद्या देव्याः श्रति वा प्रवृत्तिं वा क्षुत्तिं वा उपलभेत । पास भेजदी ! इसके बाद जब पांडुराजा ने द्रौपदी देवी की कहीं पर भी श्रुती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तब उन्हों ने कुंति देवी को बुलाया(सद्दावि०ए०वयासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहो-(गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया ! वारवइं नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमह्र णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसणं करेजा--अन्नहा न नजई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पवत्ती वा उवल भेजा ) हे देवानुप्रियो ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ-और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हरलिया है। हरण कर उसे कहीं पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है। पता नहीं पड़ता है। वे कृष्ण वासुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी को मार्गणा गवेषणा करेंगे। नहीं तो द्रौपदी देवी को श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी-यह नहीं कहा जा सकता है। श्रुति यावत प्रवृत्ति मेजवी नडि त्यारे तमधे ती वीर मातापी. ( सहा वि० ए० वयासी ) भने मोवीन तेमने 24 प्रमाणे यु
(गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमg णिवेदेहि, कण्हेणं परं वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसणं करेज्जा अन्नहा न नज्जई, दोवईए देवीए मुती वा खुती वा पबत्ती वा उवलभेज्जा)
હે દેવાનુપ્રિયે! તમે કારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરે કે સુખથી સુતેલી દ્રૌપદીનું કેઈએ હરણ કરી લીધું છે. હરણ કરીને તેને કયાંક મૂકી દીધી છે અથવા તે કઈ કરવામાં કે ખાડામાં નાખી દીધી છે. ન જાણે શું થઈ ગયું છે ? કૃષ્ણવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચોકકસ દ્રૌપદી દેવીની માર્ગણ ગષણા કરશે નહિંતરદ્રૌપદી દેવીની પ્રતિ, સુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શકયતા જણાતી નથી,
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पाताधर्मकथा ततः खलु सा कुन्ती देवी पाण्डुना राज्ञा एवमुक्ता सती यावत् प्रतिश्रृणोतिपाण्डु नृपस्याज्ञां स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य स्नाता कृतवलिकर्मा हस्तिस्कन्ध. वरगता हस्तिनापुरस्य मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य कुरुजनपदस्य=कुरुनामकस्य देशस्य मध्यध्येन यत्रैव सौराष्टजनपदः, यौव द्वारवती नगरी, यौवाग्रो. द्यानं यत्रान्यस्थानादागतानां स्थित्यर्थमावासो विद्यते तादृशं बहिः प्रदेशवयुपवनम् , तत्रौत्रोपागच्छति, उपआगत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति-प्रत्यवतरति, प्रत्यवरुह्य कौटुम्घिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीद-गच्छत खलु यूयं हे (तएणं सा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, पहाया कपलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हत्यिणाउरं मग्झं मज्झेणं णिगच्छइ णिगच्छित्ता कुरुजणवयं मज्झ मज्झेणं जेणेव सुरह जणवए जेणेव बारवई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवा. गच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता कोडंपियपुरिसे सद्दा. वेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी) इस के बाद पांडुराजा द्वारा इस प्रकार कही गई कुंती देवी ने पांडुराजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया और स्वीकार कर के उसने स्नान किया-काक आदि पक्षियों के लिये अन्नदेने रूप बलि कर्म किया। बाद में वह हाथी के ऊपर बैठकर हस्तिनापुर नगर के बीच से होकर निकली -निकलकर वह कुरुदेश के बीच से होती हुई जहाँ सौराष्ट जनपद था और उसमें भी जहां द्वारावती नगरी थी-वहां पर भी जहां वह अग्रउद्यान था कि जिसमें बाहरसे आये हुए पथिक विश्राम के लिये ठहर जाते थे-वहां गई। वहां जाकर (तए ण सा कोतो देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, पहाया कयवलिकम्मा हथिखंधवरगया हत्थिणार मज्झं मझेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता. कुरुजाणवय मझ मज्झेण जेणेव सुरजणवए जेणेव बारवई णयरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छद, उबागच्छित्ता हथिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सदावित्ता एवं वयासी) ત્યારપછી પાંડુરાજા વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલી કુંતી દેવીએ પાંડુરાજાની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેણે સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન્નભાગ અપને બલિકર્મ કર્યું ત્યારપછી તે હાથી ઉપર સવાર થઈને હસ્તિનાપુર નગરની વચ્ચે થઈને નીકળી. નીકળીને તે કુરૂદેશની વચ્ચે થઈને જ્યાં સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું અને તેમાં પણ જ્યાં અગ્ર ઉદ્યાન હતું કે જેમાં બહારથી આવનારા પથિકે વિશ્રામ માટે રોકાતા હતા તેમાં
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बारामृतवाणी री० अ० १६ प्रौपदीचरितनिरूपणम् ४७ देवानुपियाः ! यौव द्वारवती नगरी तौवानुमविशत, अनुप्रविश्य कृष्णं वासुदेवं करतलपरिगृहीतदशनखं शिर आवतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वदत एवं खलु हे स्वामिन् ! युष्माकं पितृष्वसा कुन्ती देवी हस्तिनापुराद् नगराद् इह हव्यमागता युष्माकं दर्शनं काडूक्षति । ततः खलु ते कौटुम्विकपुरुषा यावत् कथयन्ति-कृष्णवासुदेवस्य समीपे कुन्तीकथितं वचनं निवेदयन्तीत्यर्थः । ततः खलु कृष्णो वासुवह हाथी से नीचे उतरी और उतर कर के उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया- बुलाकर उनसे इस प्रकर कहा-(गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! जेणेव पारवईणयरी, तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल० एवं वयह, एवं खलु सामी ! तुम्भं पिउच्छा कोंती देवी हस्थिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया,-तुभ दसणं कंखइ, तएणं ते कोडुंबिय पुरिसाणं अंतिए सोच्चा णिसम्म हथिखंधवरगए हयगययारवईए यमझ मज्झेणं जेणेव कांती देवी-तेणेव उवागच्छह) हे देवानुप्रियों ! तुम द्वारावती नगरी में जाओ-वहां जाकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथोंकी अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर शिर झुकाते हुए नमस्कार करना-बादमें उनसे ऐसा कहना-कि हे स्वामिन् ! आपकी पितृष्वसा-भुआ-कुंती देवी हस्तिनापुर नगर से यहां अभी -आई है-वे आपके दर्शन करना चाहती हैं। उन कोटुम्यिक पुरुषोंने कुंती देवी की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री कृष्ण રોકાઈ. ત્યાં જઈને તે હાથી ઉપરથી નીચે ઉતરી અને ઉતરીને તેણે કૌટુંબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! जेणेव बारवई णयरी, तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल० एवं वयह एवं खलु स:मी ! तुब्भं पिउच्छा कोंती देवी हत्यिपाउराओ नयराओ इह हव्वमागया, तुम दसण कंखइ, तए ण ते कोडुबियपुरिसा जाव कहे ति, तएणं कण्हे वासुदेवे कोडंपिय पुरिसाण' अंतिए सोच्चा णिसम्म हस्थिखंधवरगए हयगय चारवईए य मज्ज्ञ मज्झेण जेणेव कोंती देवी-तेणेव उवागच्छइ)
હે દેવાનુપ્રિયે! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં જાઓ, ત્યાં જઈને કૃષ્ણવાસુદેવને બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને માથું નીચે નમાવીને નમસ્કાર કરશે ત્યાર પછી તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરજો કે હે સ્વામિન ! તમારી પિતૃષ્પસા-ફાઈ કુંતી દેવી હસ્તિનાપુર નગરથી અત્યારે અહીં આવ્યા છે તે તમને જોવા માગે છે. તે કૌટુંબિક પુરૂએ કુંતી દેવીની આ આજ્ઞાને સ્વીકારીને શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવને આ સમાચારની ખબર આપી
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देव: कौटुम्बिक पुरुषाणामन्तिके श्रुत्वा निशम्य हस्तिस्कन्धवरगतो हयगजरथपदातिसंपरिवृतोद्वारवत्या नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव कुन्ती देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य कुन्त्या देव्याः पादग्रहणं करोति, कृत्वा कुन्त्या देव्या सार्धं इस्तिस्कन्धं 'दुरुहइ 'दूरोहति-आरोहतीत्यर्थः । दूरुह्य द्वारवत्या नगर्या मध्मध्येन यचैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्वकं गृहमनुप्रविशति ।
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ज्ञाताधर्मकथा
वासुदेव के लिये इस समाचार की खयर करदी कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से इस समाचार को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हाथी पर बैठ, हयगज, रथ एवं पदातियों के साथ २ द्वारा वती नगरी के बींच से होते हुए जहाँ कुंतीदेवी थी वहां आये। (उवागच्छत्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहिता कतीए देवीए पायगहण करे, करिता कोंतीए देवीए सद्धि हत्थिसंधं दुरूह, दुरूहिसा बारवईए णयरीए मज्झ मज्झेणं जेणेव सरगिहे तेणेव उवागच्छद्द, वागच्छत्ता सयंहिं अणुपविसइ, तरणं से कण्हे वासुदेवे कोंतीदेवीं पहायं कयवलिकम्मं जिमियत्तत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी) वहां आकर वे हाथी पर से नीचे उतरे और उतरकर कुंती देवी के चरणों में नमन किया-चरण स्पर्श करके कुंती देवी के साथ २ हाथी पर बैठ गये- बैठ कर के द्वारावती नगरी के ठीक भीतर से होकर जहां अपना गृह-प्रासाद-था वहाँ आये वहां आकर प्रासाद के भीतर
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દીધી. કૃષ્ણવાસુદેવે કૌટુંબિક પુરૂષાની પાંસેથી આ સમાચાર સાંભળીને તેને हृध्यमां धारण अर्शने, हाथी पर सवार थर्धने, घोडा, हाथी, २थ मने पाय દળેાની સાથે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં કુંતી દેવી હતાં ત્યાં આવ્યા. ( उवागच्छित्ता हत्थिधाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहि कोंतीए देवीए पायग्गहण करे, करिता कोंतीए देवीए सद्धि हस्थिसंधं दुरुहइ, दुरुहित्ता बारवईए णयरीए मज्झ मज्झेण जेणेव सए गिहे वेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता, सयौं गिद्द अणुपविस, तणसे कहे वासुदेवे कोंती देवी व्हायं कयबलिकम्मं जिमियभुत्तुसरागयं जाव सिहासणवरगय एवं वयासी)
ત્યાં પહોંચીને તે હાથી ઉપરથી નીચે ઉતર્યો અને ઉતરીને કુંતી દેવીને પગે લાગ્યા અને પગે લાગીને કુંતી દેવીની સાથે હાથી ઉપર સવાર થયા. સવાર થઇને જ્યાં પેાતાનું ભવન હતું ત્યાં આવ્યા, ત્યાં આવીને ભવનની
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
४८५ ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्ती देवीं स्नातां कृतबलिर्माणं काकादिभ्यः कृतान्नसंविभागा जिमित्तभुक्तोत्तरागतां जिमिता-भोजनं कृतवती भुक्तोत्तरामता. भुक्तोत्तरकालं-भोजनोत्तरकालम्-आगता, तां तथा, यावत् सुखासनवरगता-मुखपूर्वकं विशिष्टासनोपविष्टाम् एवमवादी-हे पितृष्वसः ! संदिशन्तु किमागमनप्रयोजनम् ?, ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे पुत्र ! हस्तिनापुरे नगरे युधिष्ठिरस्याकाशतले सुखप्रसुप्तस्य पार्थाद द्रौपदी देवी न ज्ञायते केनापि अाहता यावद् अवक्षिप्ता वा, तत् तस्माद् इच्छामि खलु हे पुत्र ! चले गये । कुंती ने वहां जाकर स्नान किया वलिकर्म किया। बाद में चतुर्विध आहार को जीमकर जब वे सुखपूर्वक बैठ गई तब कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा ( संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! हस्थि णाउरे जुहिडिल्लस्स अगासतले सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णजद, केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा तं इच्छामिणं पुत्सा! दोवई ए देवीए मग्गणगवेसणं करित्तए ) हे भुआजी ! कहिये-किस कारण से आप यहां पधारी हैं ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर उस कुंतीने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहो-पुत्र ! सुनो-आने का कारण इस प्रकार है-हस्तिनापुर नगरमें प्रासाद की अहालिका के ऊपर सुखके साथ सोये हुए युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी न मालूम किसीने हरण करली है-यावत् किसी कुंए मे या खड्डे में डाल दी है।
અંદર ગયા. કુંતીએ ત્યાં પહોંચીને સ્નાન કર્યું અને બલિકર્મ કર્યું. ત્યાર પછી ચાર જાતના આહારે જમીને જ્યારે તે સુખેથી સ્વસ્થ થઈને બેસી ગયા ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે તેમને કહ્યું કે –
(संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा को ती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! हस्थिणोउरे णयरे जुहिडिल्लस्स भागासतले सुइपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवीण णज्जइ, केणइ अवहिया जाव अवक्खित्ता वा त इच्छामि ण पुत्ता ! दोवईए मग्गणगवेसणं करित्तए)
કહે, શા કારણથી તમે અહીં આવ્યા છે ? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાંભળીને કુંતી દેવીએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર! સાંભળે, હું એટલા માટે અહીં આવી છું કે હસ્તિનાપુર નગરમાં મહેલની અગાશી ઉપરથી સુખેથી સૂતેલા યુધિષ્ઠિરની પાસેથી ન જાણે કોણે દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરી લીધું છે યાવત કેઈ કૂવામાં એ કે ખાડામાં નાખી દીધી છે. એથી હે પુત્ર ! હું ઈચ્છું છું કેન્દ્રૌપદી દેવીની શોધખોળ થવી જોઈએ.
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पाताधर्मकथाजस्त्रे द्रौपद्या देव्या मार्गणगवेषणं ‘करित्तए' कर्तुम् इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्तीं ' पिउच्छि' पितृष्वसारमेवमवादीत्-यत् नवरं हे पितृष्वसः । यदि द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुतिं वा क्षुति वा प्रवृत्तिं वा यावत् लभे, ' तो णं' तर्हि खलु, अहं पातालाद् भवनाद् वा अर्धभरताद् वा-खण्डत्रयमध्यात् समन्तात् सर्वतः स्थानाद् , द्रौपदी देवीं 'साहत्थि' स्वहस्तेन ' उवणेमि' उपनयामि, इति कृला==इत्युक्त्वा कुन्तीं 'पिउत्थि' पितृष्वसारं सत्कायति समानयति, सत्कार्य
.............इस लिये हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदी की मार्गणा एवं गवेषणा होनी चाहिये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे कोती पिउच्छि एवं वयासीजणवरं पिउच्छी दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाव लभामि तोणं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वा, समंतओ दोवई साहत्थि उवणेमि त्ति कटूटु कोती पिउच्छि सक्कारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जियो, समा. णी जामेव दिसि पाउ० तामेवदिसिं पडिगया) तब कृष्ण वासुदेव ने अपनी भुआ कुंती देवी से इस प्रकार कहा-हे भुआ ! मैं और अधिक तो क्या कहूँ-द्रौपदी देवी की यदि मैं कहीं पर भी श्रुतिक्षुति, और प्रवृत्ति पा लेता हूँ तो मैं चाहे वह पाताल में हो, या किसीके भवन में हो, या अर्ध भरत क्षेत्र में से कहीं पर भी क्यों न हो-उस द्रौपदी देवी को सब जगह से अपने हाथों से ला कर दूँगा। इस प्रकार कहकर उन कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृष्वसा कुंती देवी का सत्कार किया,
(तएणं से कण्हे वासुदेवे कोत पिउच्छिं एवं वयासी जं णवर पिउण्छा दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाव लभामि तो णं अह पायालाओ वा भवणाओ अद्ध भरहाओ वा, समंतओ दोवई साहस्थि उवणेमित्ति कटु को ती पिउच्छि सकारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोती देवो कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविमज्जिया समाणी जामेव दिनि पाउ० तामेव दिसि पडिगया )
ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના ફેઈ કુંતી દેવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કઈ! હું વધારે શું કહું, દ્રૌપદી દેવીની જે હું કઈ પણ સ્થાને તિ, ક્ષતિ અને પ્રવૃત્તિ મેળવી લઈશ તે ભલે તે પાતાળમાં હોય, કેઈના ભવનમાં હોય કે અધ ભરત ક્ષેત્રમાં ગમે ત્યાં કેમ ન હોય તે દ્રૌપદી દેવીને ગમે ત્યાંથી હું લાવી આપને આપીશ તેમ છું. આ પ્રમાણે કહીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવે પોતાના ફેઈ પિતશ્વસા-કુતીદેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન
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अमगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् । संमान्य यावत्-पतिविसर्जयति । ततः खलु सा कुन्ती देवी कृष्णेन वासुदेवेन प्रतिविसर्जिता सती यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगिता ।।मू०२७॥
मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! बारवइं एवं जहा-पंडू तहा घोसणं घोसावेंति जाव पञ्चप्पिणंति, पंडुस्स जहा तएणं से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमं च णं कच्छुल्लए जाव समोवइए जाव णिसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे कच्छल्लं एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामा जाव अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कहिं वि दोवइए देवीए सुती वाजाव उवलद्धा ?, तएणं से कच्छुल्ले कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया कयाइं धायईसंडे दीवे पुरथिमद्धं दाहिण
भरहवासं अवरकंकारायहाणि गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि दोवई देवी जारिसिया दिट्रपुव्वा यावि होत्था तएणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासी-तुभं चेव णं देवाणुप्पिया ! एवं पुत्वकम्म, तएणं से कच्छल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणिं विजं सन्मान किया, सत्कार सन्मान कर यावत् उन्हें प्रति विसर्जित कर दिया। इसके बाद वे कुंती देवी वहां से प्रतिविसर्जित होकर जिस दिशा से प्रकट हुई थीं-उसी दिशा की और चली गई। सू०२७॥ કરીને તેમને વિદાય કર્યા, ત્યારપછી તે કુંતીદેવી ત્યાંથી વિદાય મેળવીને જે દિશા તરફથી આવ્યાં હતાં તે જ તરફ પાછાં રવાના થયાં. એ સૂત્ર ૨૭ છે
तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥ सूत्र २८ ॥
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जाताधर्मकथास्ने आवाहेइ आवाहित्ता जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए, तएणं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरंपंडुस्स रन्नो एयमढे निवेदेहि एवं खलु देवाणुप्पिया ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरकंकाए रायहाणीएपउमणाभभवणंसि दोवइए देवीए पउत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरस्थिमवेयालाए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु, तएणं से दूए जाव भणइ, पडिवालेमाणा चिहह ते वि जाव चिट्ठति, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सन्नाहियं भेरिताडेह, ते वि -तालेति, तएणं तेसिं सण्णोहियाए भेरीए सदं सोचा समुदविजयपामोक्खा दसदसारा जाव छप्पण्णं बलवयसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सु. हम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेंति, तएणं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर० हयगय० महया भडचडगरपहकरेणं बारवईए णयरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, जेणेव पुरथिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागछित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगयओमिलित्ता खंधावारणिवेसं करेइ
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धर्मामृतवर्षिणी टीका मं० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम्
करिता पोसहसालं अणुपविसइ अणुपविसित्ता सुट्ठियं देवं मणसि करेमाणै२ चिट्ठइ, तरणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्टिओ आगओ, भणदेवाणुपिया ! जं मए कायव्वं, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी जाव पउमनाभस्त भवणंसि साहरिया तण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम पंचहिं पंडवेहिं सद्धि अप्पछट्टस्स छण्द्दं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जण्णं अहं अमरकंकारायहाणा दोवईए कूवं गच्छामि, तरणं से सुट्टिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासीकिण्हं देवाणुपिया ! जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुव्वसंगएणं देवेणं दोवई जाव संहरिया तहा चेव दोवई देविं धायइडाओ दीवाओ भारहाओ जाव हत्थिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?, तरणं कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं वयासी -माणं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि तुमं णं देवापिया ! लवणसमुद्दे अप्पछट्टस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि, सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तणं से सुट्ठिए देवे कहं वासुदेवं एवं वयासी एवं होउ, पंचहिं पंडवेहिं अपछट्टुस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरs, तएण से कहे वासुदेवे चाउरंगिणसिणं पडिविसजेइ - पडिवि - सजित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छहिं रहेहिं लवणसमुद्द
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पीताधर्मकथा मज्झंमज्झेणं वीइवयइ वीइवइत्ता जेणेव अमरकंका राय. हाणी जेणेव अमरकंकाए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता दारुयं सारहिं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहि२ पउमणाभस्स रणो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलियं भिउडि णिडाले साहट्ट आसुरुत्ते रुदै कुद्धे कुविए चंडिकिए एवं वयासी-हं भो पउमणाहा ! अपस्थियपस्थिया दुरंतपंतलक्खणा हीणपुन्नचाउद्दसा सिरी हिरिधी परिवज्जिया अज्ज ण भवसि किन्नं तुमंण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसज्जे जिग्गच्छाहि एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहि अप्पछट्टे दोवई देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्टे जाव पडिसुणेइ पडिसुणित्ता अमरकंका रायहाणिं अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी--एस णं सामी ! मम विणयपडिवित्ती इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्तित्तिकद्दु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुकमइ अणुकमित्ता कोतग्गेणं लेहं पणामइ पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए, तएणं से पउमणाभे दारुणेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते त्तिवलिं भिउडिं निडाले साहह एवं वयासी-णो अप्पिणामि णं अहं देवाणुप्पिया ! कण्हस्स
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arraigent डी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुज्झसज्जो णिग्गच्छामि तिकडु दारुयं सारहिं एवं वयासी - केवलं भो ! रायसत्थेसु दूये अवझे तिकट्टु असकारिय असम्माणिय अवद्दारेणं निच्छुभावइ, तरणं से दारुए सारही पउमणाभेणं असकारिय जाव णिच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एवं वयासी -- एवं खलु अहं सामी ! तुब्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ ॥ सू० २८ ॥
टीका- 'तपणं से' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रिय ! द्वारant नगरीम्, 'एवं यथा पाण्डुस्तथा घोषणां घोषयत ' - यथा पाण्डू राजा हस्तिनापुरे घोषणां कारितवान् तद्वदित्यर्थः । तेऽपि कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव घोषणां
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४९५
- एर्ण से कहे वासुदेवे इत्यादि ।
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (कोबियपुर से सहावे ) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सद्दावित्ता) बुलाकर ( एवं वयासी) उन से ऐसा कहा (गच्छह णं तुग्भे देवाणुप्पिया बारवt) हे देवानुप्रियों । तुम द्वारावती नगर में जाओ ( एवं जहा पंडु तहा घोसणं घोसावेंति जाव पच्चष्पिणंति पंडुस्स जहा ) वहां पांडु राजाकी तरह घोषणा करो-अर्थात् पांडु राजाने जिस प्रकार द्रौपदी की खबर लानेवाले के लिये अर्थ प्रदान का घोषणा अपने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हस्तिनापुर नगर में करवाई थी - इसी प्रकार की घोषणा करने के ' तप से कण्हे वासुदेवे ' इत्यादि.
,
टीअर्थ - (तएणं) त्यारपछी ( से कण्हे वासुदेवे ) ते दृष्य वासुदेवे (कोडु बिय ghà agiàs) âg'ías yaala Mo (agıfaar) Aadla ( gai बयासी ) तेभने या प्रभा उ है - ( गच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया बारबई ) हे देवानुप्रियो ! तभे द्वारवती नगरीमां लो ( एवं जहा पंडु तहा घोसण घोसावेत जाव पञ्चविणंति पंडुस्स्र जहा ) त्यां पांडु रान्ननी प्रेम घोषणा કરો એટલે કે પાંડુ રાજાએ જેમ દ્રૌપદીની શેાધ કરવા માટેની દ્રવ્ય આપનાની ઘેાષણા હસ્તિનાપુર નગરમાં કરાવી હતી તે પ્રમાણે જ ઘાણા કરવા
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पाताधर्मकथा कृत्वा 'जाव पच्चप्पिणंति' यावत् प्रत्यर्पयन्ति-घोषणां कृत्वा-कृष्णस्य वासुदेवस्यान्तिके ते कौटुम्विकपुरुषा निवेदयन्ति-द्वारवत्यां नगर्या सर्वत्र घोषणाकता. ऽस्माभिरिति । 'पंडुस्स जहा' पाण्डोर्यथा यथा पाण्डो पस्य वर्णकस्तथाऽत्रापि बोध्यः । यथा पाण्डूराजा द्रौपद्याः श्रुतिं यावत् प्रवृत्तिं न लब्धवान्, तथा कृष्णवासुदेवोऽपि द्रौपद्याः श्रुत्यादिकं न प्राप्तवानिति भावः । ततः ख कृष्णो वासुदेवः अन्यदा-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये 'अंतो' अन्तः-स्वपासादे अन्तःपुरगतोऽबरोधे यावद् विहरति । 'इमं च णं' अस्मिन् समये च खलु 'कच्छुल्लए' कच्छुलको नारदो यावत् समवसृतः= गगनतलादवतरन् कृष्णसद्मनि समागतः यावत् निषध-उपविश्य गगनतलादवतरन् कृष्णसमनि समागतः, यावत् निषध-उपविश्य लिये कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया कि वे भी द्वारावती में इसी तरह की घोषणा करें। अपने राजा की आज्ञानुसार उन्हों ने छारावती में घोषणा करदी और इस की खबर पीछे कृष्ण वासुदेव को कर दी। यहां अवशिष्ट वर्णन पांडु राजा के जैसा वर्णन है वैसा ही जानना चाहिये । अर्थात् घोषणा कराने पर भी द्रौपदी की किसी भी प्रकार की खबर वगैरह का कोई भी समाचार पांडु राजा को नहीं मिला वैसा कृष्ण वासुदेव को भी नहीं मिला (तएणं) तब (से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अतेउरगए ओरोहे जाव विहरह इमं च णं कच्छुल्लए जाव समोसरए) वे कृष्ण वासुदेव एक दिन की बात है कि अपने अन्तः पुर के प्रासाद के भीतर अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ बैठे हुए थे कि इसी समय वे कच्छुल्ल नाम के नारद आकाश मार्ग से માટે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના કૌટુંબિક પુરુષને આજ્ઞા કરી કે તેઓ પણ દ્વારાવતી નગરીમાં આ પ્રમાણે જ ઘેષણ કરે. પોતાના રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે તે લેકેએ દ્વારવતી નગરીમાં ઘોષણા કરી અને ઘોષણાનું કામ થઈ ગયું છે તેની ખબર પણ કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે પહોંચાડી દીધી. અહીં અવશિષ્ટ વર્ણન પાંડુ રાજાનું જેવું છે તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. એટલે કે ઘેષણ કર્યા પછી પણ પાંડુ રાજાને દ્રૌપદી દેવીની કોઈ પણ જાતની ખબર કે સમાચાર મળ્યા નહિ તે પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવને પણ કઈ પણ સમાચારે ઘોષણ माह भन्या नहि. (तएण) त्यारे ( से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो असे. सरगए ओरोहे जाव विहरइ, इमंच णं कच्छुल्लए जाव समोसरए ) से हवसनी વાત છે કે તે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના મહેલની અંદર રણવાસની સ્ત્રીઓની સાથે બેઠા હતા તે વખતે કચ્છલ નામે નારદ આકાશ માર્ગથી ઉતરીને ત્યાં
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्णं वासुदेवं कुशलोदन्तं कुशलवार्ता पृच्छति, तत. खलु स कृष्णो वासुदेवः कच्छुल्ल नारदमेवमवादीत्-हे देवानुप्रिय ! त्वं खलु बहूनि ग्रामाकरादीनि परिभ्राम्यसि, तत्र बहूनि गृहाणि यावदनुपविशसि. तत् तस्मादस्ति 'आई' इति वाक्यालंकारे ते त्वया यदि कुत्रचिद् द्रौपद्यादेव्याः श्रुतिर्वा यावद् उपलब्धा ज्ञाता ? तहिं कथय' इति भावः । ततः खलु स कच्छुल्लनारदः कृष्ण वासुदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुपियाः अहमन्यदाकदाचिदू धातकीपण्डे द्वीपे पौरस्त्या=पूर्वदिग्भागववर्तिनि, दक्षिणार्धभरतवर्षे-अमरकंकानाम्नी राजधानीं गतः। तत्र खलु मया उत्तरकर वहां आये-(जाव णिसी इत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छह, तएणं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासी-तुमं गं देवाणुप्पिया! यहूणि गामागर जाव अणुपविससि तं अस्थि आई ते कहिं वि दोवईए देवीए सुतींवा जाव उवलद्धा तएणं से कच्छुल्ले कण्हं वासुदेवं एवं वयासी) यावत् बैठकर उन्हों ने कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछा -कृष्णवासुदेव ने तब कच्छुल्ल नारद से ऐसा कहो-हे देवानुप्रिय! तुम अनेक ग्राम आकर आदिस्थानों में परिभ्रमण करते रहते हो-अनेक गृहादिकों में आते जाते रहते हो तो कहो-कहीं पर क्या तुम्हें द्रौपदी देवी की श्रुति उपलब्ध हुई है-उसकी तुम्हें किसी प्रकार की कोई खबर मिली है-उसका किसी भी प्रकार का कोई चिन्ह उपलब्ध हुआ है ? इस प्रकार कृष्ण वासुदेव के पूछने पर कच्छुल्ल नारद ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-(एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया कयाई भाव्या. (जाव णिसीइत्ता कण्ह वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं से कण्हे वासदेवे कच्छल्लं एवं वयासी, तुमं णं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव अणुपविमसि त अत्थि भाई ते कहिं वि दोवईए देवीए सुती वा जाव उवलद्धातपणं से कच्छुल्ले कण्हं वासुदेवं एव वयासी) त्यां मावीर मेमन मेसीन તેમણે કૃષ્ણ વાસુદેવને કુશળ વાર્તા પૂછી. વાસુદેવે ત્યારે કચ્છલ નારદને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે ઘણુ ગ્રામ, આકર વગેરે સ્થાન માં પરિ. ભ્રમણ કરતા રહે છે, ઘણા ઘરે વગેરેમાં આવજા કરતા રહે છે તે કહે, કઈ પણ સ્થાને તમને દ્રૌપદી દેવીની કૃતિ મળી છે-તેના તમને કઈ પણ જાતના સમાચાર મળ્યા છે, તેનું કઈ પણ જાતનું ચિહ્ન તમને મળ્યું છે? આ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવના પ્રશ્નને સાંભળીને કચ્છલ નારદે તે કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે –
(एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया कयाई धायईसंडे दीवे पुरन्थिमद्धं
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४८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
पद्मनाभस्य राज्ञो भवने द्रौपदीदेवी यादृशी दृष्टपूर्वा चाप्यभवत्, अयं भावःकाचिद्रौपदीसदृशी देवी पद्मनाभस्य राज्ञोभवने दृष्टा किंतु सा मया न सम्यगज्ञाता नापि सम्यग्परिचिता, इति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कच्छुल्लनारदमेवमवादीत् - हे देवानुभियाः युष्माकमेव खलु ' एवम् इदृशं ' पुन्त्रकम्मं ' पूर्वकर्म - पूर्वकृतं कर्म, युष्माभिरेवेदृशं कर्म पूर्व कृतमित्यर्थः । ततः खलु स कच्छु नारदः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्तः सन् उत्पतनीं विद्यामावाहयति । आवाह्य यस्याः एवदिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो दतं शब्दयति =
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ܕ
धाई संडे दीवे पुर स्थिमद्धं दाहिणद्ध भरहवासं अमरकंका रायहाणि गए तत्थ णं मए पउमनाभस्स रण्णो भवणंसि दोवई देवी जारिसिया दिट्ठपुव्वा यावि होत्या, तरणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासी तुन्भं चेव णं देवाणुप्पिया ! एवं पुत्र्वकम्मं तरणं से कच्छुलनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे उप्पयणि विज्जं आवाहेर, आवाहिता जामेव दिसि पाउम्भुए तामेव दिसि पडिगए) सुनो में तुम्हें बताता हूँ - हे देवाणुप्रिय ! मैं किसी एक समय द्वितीय धातकी खंड द्वीप में पूर्व दिग्भागवत दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नाम की राजधानी में गया हुआ था वहां मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी एक नारी देखी थी - परन्तु मैं उसे अच्छी तरह नहीं जान सका और न उससे परिचित ही हो सका। नारद की ऐसी बात सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उनसे कहा हे देवानुप्रिय ! आपने ही ऐसा कार्य सब से पहिले किया है - इसके बाद उन कच्छुल्ल नारदने कृष्ण वासुदेवके द्वारा
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दाहिणभर हवासं अमरकंका रायहाणिं गए, तत्थणं मए पउमनाभस्व रण्णो भवसि दोषई देवी, जारिसिया दिट्ठनुव्वा यावि होत्या, तरणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासी तुब्भं चेवणं देवाणुपिया ! एवं पुत्र कम्मं - तपणं से कच्छुल्ल नारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उत्पयणि विज्जं आवाहेइ, आवाहिता जामेव दिसि पाउब्भुए तामेव दिखि पडिगए )
સાંભળેા, તમને હું બધી વિગત ખતાવું છું. હે દેવાનુપ્રિય ! કોઈ એક વખતે હું ધાતકી ષદ્વીપમાં, પૂર્વ દિશા તરફના દક્ષિણાધ ભરત ક્ષેત્રમાં, અમરકંકા નામે રાજધાનીમાં ગયા હતા. ત્યાં મે* પદ્મનાભ રાજાના ભવનમાં દ્રૌપદી દેવી જેવી એક નારી જોઈ હતી. પણ હું તેને સારી પેઠે ઓળખી શકયા નહિ અને ન તેનાથી પરિચિત થઇ શકયા. નારદની આ વાત સાંભળીને કૃષ્ણુવાસુદેવે તેમને કહ્યું કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! સૌ પહેલાં તમે જ આ કામ કર્યુ છે. ત્યારપછી તે કચ્યુલ્લનારદે કૃષ્ણ વાસુદેવની આ વાત સાંભળીને પોતાની ઉત્પતની
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अनंगरोधामृतवषिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् आहयति, शब्दयित्वा-एवमवादीत-गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुरं पाण्डोराज्ञ एतमर्थ निवेदय-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! धातकीपण्डे द्वीपे 'पुरस्थिमद्धे ' पौरस्त्यार्धे पूर्वदिग्भागवर्तिनि अमरकंकायां राजधान्यां पद्मनाभभवने द्रौपद्या देव्याः प्रवृत्तिरुपलब्धा, तत्-तस्मात् गच्छन्तु पश्च पाण्डवाश्चतुरङ्गिण्या सेनया साधु संपरिहता 'पुरथिमवेयालीए' 'पौरस्त्यवेलायां-पूर्वदिग्वतिनि लवणसमुद्रे मां 'पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा स्तिष्ठन्तु, ततस्तदनन्तरं स दूतो यावत् पाण्डोरग्रे गत्वा कृष्णवासुदेवोक्तं वचनं भणति कथयति= 'पग्विालेमाणा चिट्ठह ' अयं भावः- धातकीपण्डे द्वीपे पूर्वदिग्भागवर्तिनि अमरकंकायां रानधान्यां पद्मनाभभवने द्रौपद्याः प्रवृत्तिरुपलब्धा, तस्मात् पञ्च पाण्डइस प्रकार कहे जाने पर अपनी उत्पतनीविद्याका स्मरण किया। स्मरण करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की और चले गये। (तएणं से कण्हे वासुदेवे दूयं सदावह सदावित्ता एवं वयासी गच्छणं तुमं देवाणुप्पिया ! हस्थिणारं पंडुस्त रणो एयमढे निवेदेहि) इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया-धुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ-वहां पांडु राजा से ऐसा कहना-( एवं खलु देवाणुप्पिया! घायइसंडे दीवे पुरिस्थिमद्धे अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभभवणंसि दोवईए देवीए पउती उवलद्धा-तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरियुडा पुरथिमवेयालीए ममं पडियालेमाणा चिटुंतु)हे देवानुप्रिय ! वह वक्तव्य विषय यह है-धातकी षंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्भागवर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र मे वर्तमान अमरकंका नाम की राजधानी में पद्मनाभ राजा વિદ્યાનું સ્મરણ કર્યું સ્મરણ કરીને પછી તેઓ જે દિશા તરફથી આવ્યા डता ते त२५ ५।७। २१ान25 गया. ( तएणं से कण्हे वासुदेवे यं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया ! हथिणाउर पंडुस्स रणो एयमटुं निवेदेहि ) त्या२५छी ते पासुहेवे इतने माराव्या भने બેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે હસ્તિનાપુર નગરમાં જાઓ-અને ત્યાં પાંડુ રાજાને આ પ્રમાણે કહે કે
(एवं खलु देवाणुप्पिया! धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे अमरकंकाए राय हाणीए पउमणाभा भवणंसि दोषईए देवीए पउत्ती उवलद्धा-त' गच्छंतु पंच पंडवा चाउर गिणोए सेणाए सद्धि संपरिवुडा पुरथिमवेयालीए ममं पडिवाले माणा चिदंतु ) पानुप्रिय ! घातली नामे द्वीपमा पूर्व हिशा त२५॥ इक्षिा ભરત ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન અમરકંકા નામની રાજધાનીમાં પદ્મનાભ રાજાના ભવ.
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ताधर्मकथाङ्गो वाश्चतुरङ्गिण्या सेनया साध संपरितृताः पौरस्त्यवेलायां मां प्रतिपालयन्तस्तिछन्तु ' इति । एवं दूतमुखात् कृष्णवासुदेवोक्त वचनं श्रुत्वा तेऽपिपश्च पाण्डवा यावत् तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, के भवन में द्रौपदी देवी की खबर मिली है-इसलिये पांचो पांडव चतुरंगिणी सेना के साथ युक्त होकर लवण समुद्र की पूर्व दिग्भागवर्तिनी बेला पर जाकर वहाँ मेरी प्रतीक्षा करें। (तएणं से दूए जाव भणइ, पडिवालेमाणा चिट्ठह, ते वि जाव चिट्ठति, तएणं से कण्हे वासु. देवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेह सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया! सन्नाहियं भेरि ताडेह ते वि ता.ति, तएणं तीसे सण्णाहियाए भेरिए सई सोच्चा विजयपामोक्खा, दस दसारा जाव छप्पण्णं पलवयसाहस्सीओ सन्नद्धवद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगड्या हयगया, गयगया, जाव वग्गुरा परिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ ) इस प्रकार अपने राजा कृष्णवासु. देव की आज्ञा लेकर वह दूत हस्तिनापुर गया वहाँ जाकर उसने इस समाचार को पांडुराजा से कह दिया। वे पांचों पांडव इस समाचार को दूत के मुख से सुनकर चतुरंगिणी सेना के साथ लवण समुद्र के पूर्व दिग्भागवर्ती तट पर जाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा में ठहर गये। इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर નમાં દ્રૌપદી દેવીના વાવડ મળ્યા છે તે હવે પાંચે પાંડે ચતુરંગિણ સેનાની સાથે પ્રયાણ કરીને લવણ સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપર પહોંચીને મારી પ્રતીક્ષા કરે.
(तएणं से दूर जाव भणइ, पडिबाले माणा चिह ते वि जाव चिति, तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबिय पुरिसे सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुब्भे देवोणुपिया! सन्नाहिय भेरिं ताडेह ते वि ता.ति, तएण' से सण्णाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुद्दविजयपामोक्खा, दस दसारा जाव छप्पणं बल वय साहस्सीओ सन्नद्धबद्धजाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया, गयगया, जाव वगुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेगेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उबागच्छइ)
આ રીતે પિતાના રાજા કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞા મેળવીને તે દૂત હસ્તિનાપુર તરફ રવાના થયે. ત્યાં પહોંચીને તેણે પાંડુ રાજાને બધા સમાચાર કહી સંભળાવ્યા. પાંચે પાંડ દૂતના મુખથી આ સમાચાર સાંભળીને પિતાની ચતરંગિણી સેના સાથે ત્યાંથી પ્રયાણ કરીને લવણું સમુદ્રના પૂર્વ કિનારા ઉપર પહોંચીને ત્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઈ ગયા. ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું
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गारधर्मामृर्षण ढोका मं० २६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५०१
शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत खलु यूयं हे देवानुमियाः सांनाहिकीं सैनिकानां सज्जीभवनार्थं नादो यस्यास्तां भेरीं ताडयत तेऽपि ताडयन्ति, ततः खलु तस्याः सांनाहिया भेर्याः शब्दं श्रुत्वा समुद्रविजयप्रमुखा दश दशाह यावत् 'छप्पण्णं बळवयसाहसीओ ' षट् पञ्चाशद् बलवत्साहस्रयाः = पट्पञ्चाशत्सहस्रप्रमिता बलवन्त इत्यर्थः ' सन्नद्धबद्ध - जाव गाहियाउहपहरणा ' अत्र यावच्छब्देनैवं द्रष्टव्यम्सन्नद्धवद्भवर्मितकवचा उत्पीडितशरासनपट्टकाः पिनद्धग्रैवेयक बद्धाविद्धविमल वरचिह्नपटाः गृहीतायुधप्रहरणा इति । व्याख्याऽस्मिन्नेवाध्ययने पूर्वमुक्ता अप्येकिकाः = केचिद् हयगताः केचिद् गजगताः यावद् वागुरापरिक्षिप्ताः = मनुष्यवृन्दैः परिवृताः, यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य करतल० यावद् जयेन विजयेन वर्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवो हस्तिस्कन्धवरगतः सको
उनसे ऐसा कहा - हे देवानुप्रियों । तुम सुधर्मा सभा में जाओ वहाँ जाकर तुम सांनाहिकी भेरी बजाओ | कौटुम्बिक पुरुषोंने ऐसा ही किया सुधर्मा सभामें जाकर उस सांनाहिकी भेरीको बजाया। इस सांनाहि की मेरीकी गर्जनाको सुनकर समुद्रविजय आदि दश दशार्ह यावत् ५६, हजार प्रमित बलवीर पुरुष सन्नद्ध बद्धमिवतकवच होकर, यावत् आयुध ग्रहरणों को लेकर तैयार सुसज्जित हो गये । यहाँ यावत् शब्द से उत्पीडितशरासन पट्टकाः, " पिनद्धायैवेयकबद्ध विद्धविमलवर चिह्नपट्टा " इस पाठ का संग्रह हुआ है । इन शब्दों की व्याख्या इसी अध्ययन में पहिले की जा चुकी है। इनमें कितनेक घोड़ों पर कितनेक हाथियों पर, बैठकर अन्य मनुष्यों के समूह से परिवृत्त हो जहां वह सुधर्मा सभा और जहां वे कृष्णवासुदेव थे वहाँ आये । ( उवागच्छित्ता करयल जाव
કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સુધર્માં સભામાં જાઓ, ત્યાં જઇને તમે સાંનાહિકી બ્રેરી વગાડા, તે કૌટુંબિક પુરુષાએ પણ તે પ્રમાણે જ આજ્ઞાનું પાલન કર્યુ”. સુધર્માં સભામાં જઈને તેઓએ સાંનાડિકી ભેરી વગાડી. સાંનાહિકી ભેરીને અવાજ સાંભળીને સમુદ્રવિજય વગેરે દશ દશાહોં યાવતુ ૫૬ હજાર પ્રમિત અળવીર પુરૂષા કવચા વગેરેથી સુસજ્જ થઈને યાવત્ આયુધ પ્રહરણેાને લઇને तैयार थह गया. खर्डी यावत शब्दथी " उत्पीडितशरासनपट्टकाः, पिनद्ध ग्रैवेयकषद्धाबिद्धविमलवरचिह्नपट्टा: " आ चाहना सग्रड थयो छे. या शब्होनी व्याख्या
આ અધ્યયનમાં જ પહેલાં કરવામાં આવી છે. આમાં કેટલાક ઘેાડાઓ ઉપર, કેટલાક હાથીએ ઉપર બેસીને તેમજ કેટલાક માણુસાના સમૂહોથી પરિવ્રુત થઇને જયાં તે સુષમાં, સભા અને જયાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા.
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५०२
श्रीधर्मकथासूत्रे
रण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण धार्यमाणेन श्वेतवरचामरैरुध्यमानैः, हयगजरथपदाति संपरिवृतो महाभटचटकरप्रकरेण द्वारवत्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, यत्रैव पौरस्त्यवेला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य पञ्चभिः पाण्डवैः सह ' एगयओ ' वृद्धावेति, तरणं कण्हे वासुदेवे हस्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदा मेणं छतेणं० सेयवर० हयगय० महया भडचडगरपहकरेणं धारवईए णयरीए मज्झं मज्झेणं णिगच्छह, जेणेव पुरत्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहि पंडवेंहि सद्धि एगयओ मिलह, मिलित्ता खंधावा - रणिवेस करेइ, करिता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुट्ठियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठह, तरणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुडिओ आगओ भण देवाणुपिया ! जं मए कायव्यं ) वहां आकर उन सबने कृष्णवासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर बड़े विनय के साथ नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा बधाई दी। इसके बोद वे कृष्णवासुदेव हाथी पर सवार हुए। सवार होते ही छत्र धारियों ने उन पर कोरंट पुष्पों की माला से विराजित छत्र ताना, चोमर ढोरने वालों ने उनपर श्वेत चामर ढोरना प्रारंभ करदिया । इस प्रकार हय, गज, रथ, एवं पैदल सेना से घिरे हुए वे कृष्णवासुदेव महाभटों के समूह के साथ २ द्वारावती नगरी के बीच से होकर निकले, निकलकर जहां वह लवणसमुद्र की पूर्व दिग्भागवर्तिनी वेला थी वहां पहुँचे ।
( उवागच्छित्ता करयल जाव वृद्धावेति, तरणं कण्हे वासुदेवे हत्थि खंधवरगए सकारेंटमल्लदामेगं छत्तेगं० सेयवर हयगय महया भडचडगरपढ़करेणं बारबई णयरी मज्झं मज्ज्ञेणं णिगच्छइ जेणेव पुरस्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उनागच्छित्ता पंचर्हि पंडवेंहि सद्धिं एगयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावारणिवेसे करे, करिता पोसहसालं अणुपविसद अणुपविसित्ता, सुट्टियं देवं मगसिं करेमाणे २ चि तणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्टमभत्तंसि परिणममाणंसि सुडिओ आगओ भणदेवाणुपिया ! जं मए कायव्वं )
ત્યાં પહોંચીને તે બધાએ ખંને હાથ જોડીને બહુ જ વિનમ્રતાથી નમસ્કાર કરતાં જયવિજય શબ્દોથી તેમને વધામણી આપી. ત્યારપછી તે કૃષ્ણ. વાસુદેવ હાથી ઉપર સવાર થયા. સવાર થતાં જ છત્રધારીઓએ તેમની ઉપર કારટ પુષ્પોની માળાથી શૈાલતું છત્ર તાણ્યું તેમજ ચામર ઢાળનારાએએ ચામર ઢાળવાની શરૂઆત કરી. આ પ્રમાણે ઘેાડા, હાથી, રથ અને પાયદળથી પરિવૃત્ત થયેલા તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ મહાભટાના સમૂહની સાથે સાથે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે થઈને પસાર થયા અને જ્યાં તે લવણુ સમુદ્રના પૂર્વી કિનારા
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भनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५० एकतः एकस्मिन् स्थाने मिलति, मिलित्वा स्कन्धावारनिवेश सैनिकानामावास करोति कृत्वा पौषधशालामनुप्रविशति, अनुपविश्य " मुट्ठियं देवं " मुस्थितंसुस्थितनामानं देवं लवणसमुद्राधिष्ठितं मनसि कुर्वन् स्मरन् तिष्ठति, ततः खलु कृष्णस्य वासुदेवस्याष्टमभक्ते परिणममाणे सुस्थितो देव आगतः, आगत्य वदतिहे देवानुप्रियाः ! भणन्तु कथयन्तु यन्मया कर्तव्यमिति ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थितदेवमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभस्य भवने संहता, तत्-तस्मात् खलु त्वं हे देवानुपिय ! मम पञ्चभि: पाण्डवैः सार्धं ' अप्पछट्ठस्स ' आत्मषष्ठस्य-आत्मा-अहं पष्ठो यत्र तस्य समुदायस्य-अस्माकं पण्णामित्यर्थः, पण्णां स्थानां लवणसमुद्रे माग वितर-देहि, येनाह ममरकां राजधानी द्रौपद्या देव्याः ‘कुवं ' प्रत्यानयनकर्तुं गच्छामि । वहां पहुंचकर वे पांच पांडवों के साथ एक स्थान पर संमिलित हुए। संमिलित होकर उन्होंने अपनी सेना को ठहर ने का स्थान नियत किया-स्थान नियतकर के फिर वे पौषधशाला में प्रविष्ट हो गये वहां प्रविष्ट होकर उन्हों ने लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव का स्मरण किया। इसके बाद जब कृष्णवासुदेव का अष्टमभक्त समाप्त हो रहा था-तष वह सुस्थित देव उनके पास आयो-और कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! कहिये-मेरे लायक क्या काम है ? (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! दोवई देवी, जाव पउमनाभस्स भवणंसि साहरिया, तएणं तुमं देवाणुप्पिया मम पंचहि पंडवेहि सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जणं अहं अमरकंकारायहाणी दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से सुटिए देवे कण्हं હતા ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પોંચીને તેઓ પાંચે પાંડની સાથે એક સ્થાને એકત્ર થયા. એકત્ર થઈને તેમણે પોતાના સૈન્યના પડાવનું સ્થાન નક્કી કર્યું. સ્થાન નક્કી કરીને તેઓ પૌષધશાળામાં પ્રવિણ થયા. ત્યાં જઈને તેઓએ લવણ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવનું સ્મરણ કર્યું. ત્યારબાદ જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવને અષ્ટમ ભક્ત પૂરો થઈ રહ્યો હતો, ત્યારે તે સુસ્થિત દેવ તેમની પાસે આવ્યું અને કહેવા લાગ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! બેલે, મારા લાયક શું કામ છે? . (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया। दोवईदेवी, जाव पउमनाभस्स भवर्णसि साहरिया, तएणं तुमं देवाणुप्पिया मम पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जण्णं अहं अमरकंका रायहाणी दोवईए कूवं गच्छामि, तएणं से मुटिए देवे कण्हं
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हाताधर्मकथा ततः खलु स मुस्थितो देवः कृष्णं वासुदेवमेवमवादी-हे देवानुप्रिय ! किं खल्लु यथैव पद्मनाभस्य राज्ञः पूर्वसंगतिकेन देवेन द्रौपदी यावत् संहृता, तथैव द्रौपदी देवों धातकीपण्डाद् द्वीपाद् भारताद् यावद् हस्तिनापुर संहरामि । ' उदाहु' उताहो ! =अथवा, कथय, पद्मनाभं राजानं सपुरबलवाइन-नगरसैनिकवाहनसहितं लवणसमुद्रे प्रक्षिपामि ? ततः खलु कृष्णो वासुदेवः सुस्थित देवम् एषवासुदेवं एवं वयासी किण्हं देवाणुप्पिया ! जहा चेव पउमणामस्स रनो पुव्वसंगइएणं देवेणं दोवई जाव संहरिया, तहा चेव दोवईदेवि धायईसं. डाओ दीवाओ भारहाओ जाव हथिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाम रायंसपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?) तब कृष्णवासुदेव ने उस सुस्थित देव से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! सुनो-द्रौपदी देवी योवत् पद्मनाभ के भवन में हरण कर रखी गई है इसलिये हे देवानुप्रिय । तुम आत्मषष्ठ मेरे पांच पांडवो के साथ छहीं रथों को लवण समुद्र में मार्ग प्रदान करो। अर्थात् पांच पांडवों के और छठे मेरे इस प्रकार हमारे छह रथों को जाने के लिये रास्ता दो-कि जिससे मैं अमरकंका राजधानी में द्रौपदीदेवी को वापिस ले आने के लिये जा सकू। तष सुस्थित देव ने उन कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देवने द्रौपदीदेवी का यावत् हरण किया है, उसी तरह मैं भी द्रौपदी देवी को धातकी खंड द्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् हस्तिनापुर में हरणकर ला सकता हूँवासुदेवं एवं वयासी किण्हं देवाणुप्पिया ! जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुन्वसंगइएणं देवेणं दोबई जाव संहरिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडामो दीवाओ भारहाओ जाव हथिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरवलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?)
ત્યારે કૃષ્ણ-વાસુદેવે તે સુસ્થિત દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! સાંભળો, દ્રૌપદી દેવી યાવત પદ્મનાભના ભવનમાં હરણ કરાઈને રાખ. વામાં આવી છે. એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિય! તમે “આત્મષણ' મારા તેમજ પાંચે પાંડના છ રને લવણ સમુદ્રમાં થઈને પસાર થવા માટે માર્ગ આપે. એટલે કે પાંચે પાંડના અને છઠ્ઠા મા આમ છએ રથને પસાર થવા માટે રસ્તે આપે. જેથી હું દ્રૌપદી દેવીને પાછા લાવવા માટે અમરકંકા રાજધાનીમાં જઈ શકું. ત્યારે સુસ્થિત દેવે તે કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનપ્રિય! પદ્મનાભ રાજાના પૂર્વ સંગતિક દેવે જેમ દ્રૌપદી દેવીનું થાવત્ હરણ કર્યું છે, તેમજ હું પણ દ્રૌપદી દેવીને ધાતકી ખંડદ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાંથી યાવત હસ્તિનાપુરમાં હરણ કરીને લાવી શકું તેમ છું અને જે
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अंगारघमृतवर्षिणी डी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
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मवादीत् - मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! यावत् संहर, एवं खलु हे देवानुप्रिय ! लवणसमुद्रे आत्मपष्ठस्य षण्णां रथानां मागं 'वियराहि ' वितर = देहि, स्वयमेव खल्वहं द्रौपद्या देव्याः ' कूवं प्रत्यानयनकर्तुं गच्छामि, ततः खलु स सुस्थितो
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अथवा आपकी आज्ञा हो तो नगर, सैनिक, और वाहन सहित पद्मनाभ राजो को लवण समुद्र में डुबा दे सकता हूँ ( तरणं कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी) जब कृष्णवासुदेव ने उस स्वस्तिक देव से इस प्रकार कहा - ( माणं तुमं देवाणुपिया ! जाब साहराहि तुमं णं देवाणुपिया ! लवणसमुद्दे अप्पछस्स छण्हें रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियराहि सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तणं से सुट्ठिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी, एवं होड, पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछस्स छहं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियर तरणं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीसेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहि पंडवेहिं सद्धि अप्पछडे छहि रहेहिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयइ, वीइवइत्ता जेणेव अमर कंको रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ ) हे देवानुप्रिय ! तुम ऐसा मत करो अर्थात् पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी देवी को हरण मत करो, और न पद्मनाभ राजा को नगर, सैनिक एवं वाहन सहित लवणसमुद्र में प्रक्षिप्त करो, तुम तो केवल हे देवानुप्रिय ! हमारे छहों रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दे दो। मैं
-
તમારી આજ્ઞા હોય તેા નગર, સૈનિક અને વાહન સહિત પદ્મનાભ રાજાને सवाशुसमुद्रमां डुमाडी शङ्कु तेभ छु . ( तरणं कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी ) त्यारे ष्णु-वासुदेवे ते स्वस्ति देवने या प्रमाणे धु
( माणं तुमं देवाणुपिया | जाव साहराहि तुमं णं देवाणुपिया ! लवणसमुड़े अप्पछस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियराहि सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि, तणं से सुट्टिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी, एवं होउ, पंच पंडवेहिं सद्धिं पछस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियर, तरणं से कहे वासुदेवे चाउरंगिणी सेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहि पंडवेर्हि सद्धि अपछडे छहिं रहेहिं लवणसमुद्द मञ्ज्ञं मज्झेण वीइवयर, वीरवइत्ता जेणेव अमरकंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छङ )
હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમે આ પ્રમાણે કરવાની તસ્દી લે! નહિ એટલે કે પદ્મનાભના ભવનમાંથી દ્રૌપદી દેવીનું હરણ કરો નહિ તેમજ પદ્મનાભ રાજાને નગર, સૈનિક અને વાહન સહિત લવણ સમુદ્રમાં ફેંકા પણ નહિ. તમે તે હૈ દેવાનુપ્રિય ! ફક્ત અમારા છએ રથા માટે લવણુ સમુદ્રમાં માગ આપે.
श ६४
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५०६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
देवः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत् एवं भवतु इति, ततोऽसौ पञ्चभिः पाण्डवैः सार्धम् आत्मषष्ठस्य षण्णां रथानां लवणसमुद्रे मार्गे वितरति ततः खलु स कृष्णो वासुदेवश्चतुरङ्गिणीं सेनां प्रतिविसर्जयति, प्रतिविसर्ज्य पञ्चभिः पाण्डवैः सार्धमात्मषष्ठः षड्भीरथैर्लवणसमुद्रं मध्मध्येन ' बीइवयइ' व्यतिव्रजति - गच्छति, व्यति व्रज्य यत्रैवामरकङ्का राजधानी, यत्रैवामरकङ्काया अग्रोद्यानं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा दारुकं सारथिं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् — गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! अमरकङ्काराजधानीमनुप्रविश, अनु
स्वयं ही द्रौपदी देवी को वहां से वापिस ले आऊँगा । अथवा मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को लेने के लिये जाऊँगा तब उस सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-अच्छा ऐसा ही हो इस प्रकार कह कर उसने आत्म षष्ठ के छहों रथों को लवणसमुद्र में मार्ग वितरित कर दिया। तब कृष्णवासुदेव ने अपनी चतुरंगिणी सेना को वहां से वापिस कर दिया वापिस कर फिर वे पांच पांडवों के साथ छहीं रथों को - १ एक अपने रथको और पांच पांडवोंके रथों को लेकर लवणसमुद्रके भीतर से होकर चलने लगे। चलते २ वे जहां अमरकंका राजधानी थींऔर उसमें भी जहां वह अग्रोधान था वहां पहुँचे । ( उवाग्गच्छित्ता रह ठवेइ) वहां पहुँच कर उन्होंने अपने रथ को रोक दिया- (ठवित्ता दारुयं सारहिं सदावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुपिया ! अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहि२, पउमणाभस्स रण्णो वामेण पाएणं
-
ત્યાં જઈને હું જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને ત્યાંથી પાછી લઈ આવીશ. એટલે કે હું જાતે જ દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે જઇશ. ત્યારે તે સુસ્થિત દેવે કૃષ્ણુવાસુદેવને કહ્યું કે સારૂં, આમ જ કરો. આ પ્રમાણે કહીને તેણે આત્મષષ્ટના છએ રથાને લવણુ સમુદ્રમાં રસ્તા આપ્યા. ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે પેાતાની ચતુર’ગિણી સેનાને ત્યાંથી પાછી વળાવી દીધી અને પાછી વળાવીને તેએ પાંચે પાંડવાની સાથે છએ રથાને-એક પેાતાના રથને અને પાંચ પાંડવાના સ્થાનેલઈને લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઇને પસાર થવા લાગ્યા. આમ પસાર થતાં તેઓ જ્યાં અમરકકા રાજધાની અને તેમાં પણ જ્યાં તે અગ્રોદ્યાન હતુ ત્યાં પહેાંચ્યા. ( उवागच्छित्ता रह ठवेइ ) त्यां पयाने ते भये पोताना स्थने अलेो राज्यो.
(ठवित्ता दारुयं सारहिं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी, गच्छह णं तुमं बेवाणु पिया ! अमरकंका रायहाणीं अणुपविसाहि २ परमणाभस्स रण्णो वामेणं
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अनगारधामृतषषणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपण
५०७ पविश्य पद्मनाभस्य राज्ञो वामेन पादेन 'पायपीढं ' पादपीठम् सिंहासनसंलग्नसोपानम् आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेख प्रत्रिकां' पणामेहि' अर्पय देहि अर्पयित्वा 'तिवलियं ' त्रिवलिका रेखात्रययुक्तां 'भिउडि ' भ्रूकुटि-णिडाले' ललाटे 'साइटु ' संहृत्य-उन्नीय ' आसुरुत्ते' आशुरुप्तः शीघ्रं क्रोधाविष्टः ' रुटुं' रुष्टः ' कुद्धे ' क्रुद्धः 'कुविए ' कुपितः चंडिक्किए' चाण्डिक्यितः-रोषयुक्तः, एवमवादीत्-हं भो ! पद्मनाभ ! 'आत्थियपत्थिया' अमार्थितमाथित !-मरणवाञ्छक ! 'दुरंतपतलक्खण !' दुरन्तप्रान्तलक्षण ! पूर्व व्याख्यातमेतत् , पायपीढं अक्कमित्ता कुत्तग्गेणं लेहं पणामेहि, तिवलियं भिउडि पिडाले साहटु आसुरुत्ते रुठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वयासी हंभोपउमणाहा अपत्थियपत्थिया ! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरिहिरि धो परिवजिया! अज ण भवसि किन्न तुमं ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्स अहवणं जुद्धसज्जे णिगच्छाहि) रथ को रोककर वहां स्थापित कर-दारुक सारथि को बुलाया बुलाकर के उससे ऐसा कहाहे देवानुप्रिय तुम जाओ-अमरकंका राजधानी में जाओ वहां जाकर पद्मनाभ राजाके पादपीठको वाम पादसे आक्रमित कर कुन्त (भाला)के अग्रभाग से उसे पत्रिका दो देकर के अपनी भ्रुकुटी को भालपर चढाकर, इकदम गुस्से में आकर, रुष्ट, कुपित एवं क्रुद्ध होकर क्रोध के आवेश से तम तमाते हुए तुम उससे ऐसा कहों-अरे ओ पद्मनाभ ! अप्रार्थित प्रार्थित ! मरणवान्छक- दुरंतप्रान्त लक्षण ! मोलुम होता है पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंत्तग्गेणं लेहं पणामेहि, तिवलियं भिउडि गिडाले साहटु आसुरुत्ते रुटे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं क्यासी हं भो पउमणाहा! अपत्थियपत्थिया ! दुरंतांतलवखणा ! हीणपुण्णचाउद्दसा ! सिरि हिरिधी परिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि किन तुम ण याणासि, कण्हस्स वासुदेवस्स अहवणं जुद्रसज्जे णिगच्छादि)
રથને ઊભું રાખીને, ત્યાં જ રથને મૂકીને દારૂક સારથિને બોલાવ્યો. અને બેલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે અમરકંકા રાજધાનીમાં જાઓ અને ત્યાં જઈને પદ્મનાભ રાજાના પાદપીઠને ડાબા પગથી આકમિત કરીને કુંતના અગ્ર ભાગથી તેને પત્રિકા આપ. પત્રિકા આપીને તમે પિતાની ભમ્મરે ચઢાવીને, એકદમ લાલચોળ થઈને રૂ, કુપિત અને કૃદ્ધ થઈને ક્રોધના આવેશમાં આવીને તેને આ પ્રમાણે કહો કે અરે એ પદ્મનાભ ! અપ્રાર્થિત પ્રાર્થિત! મરણ વાંક ! દુરંત પ્રાંત લક્ષણ! (નીચ
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शाताधर्मकथासूत्र हीणपुनचाउद्दसा !' हीनपुण्यचातुर्दशिकः - अलब्धपुण्यचातुर्दशिकजन्मा, चतुर्दशीजातो हि भाग्यवान् भवति । तथा-' सिरी हिरि धी परिवज्जिया!' श्री हो धी परिवर्जित! लक्ष्मी लज्जा बुद्धि रहित !, अद्य न भवसि, किं खलु त्वं न जानासि, कृष्णस्य वासुदेवस्य भगिनी द्रौपदी देवीमिह ' हवं आणमाणे' हव्यमानयत् , 'त' तत्-तस्मात् 'एयमपि ' एतामपि आनीतामपि आङ् पूर्वकाद् इण्गतौ ' इत्यस्मात् क्त प्रत्ययः, ' अहव ' अथवा खलु ‘जुद्ध सज्जे ' युद्धसज्जः-युद्धाय सज्जःसन्नद्धः सन् ‘णिग्गच्छाहि' निर्गच्छ-बहिनिःसर एष खलु कृष्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सह ' अप्पछ?' आत्मपष्ठः आत्मा षष्ठो यत्र स समूहे, द्रौपदी देव्याः 'कूवं' प्रत्योनयनं कर्तुं हव्यमागतः ।
तू अलब्ध पुण्य चातुर्दशिक जन्म वाला है-तूं-चतुर्दशी में उत्पन्न हुआ नहीं हैं-क्यों कि चतुर्दशी के दिन उत्पन्न हुआ व्यक्ति भाग्यशाली होता है किन्तु तूं ऐसा नहीं है अर्थात् अभागा है तूं श्री ही, बुद्धि से रहित है। याद रख-या तो आज तू नही है या मैं नहीं हूं तुझे यह ख्याल नहीं है-कि यह द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव की बहिन है जिसे तूंने यहां हरण करवा कर मंगवाई है । अतः यदि अपनी कुशल चाहता है, तो तू इस हरण करवा कर अपने यहां मंगवाई गई द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव के पास जाकर पीछे वापिस पहुँचा दे। नहीं तो युद्ध के लिये सज्जित होकर घर से बाहिर निकल आ । (एसणं कण्हे वासुदेवे ) ये कृष्ण वासुदेव (पंचहिं पंडवेहिं अप्पछडे दोवई देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं से दारुए सारही कण्हे णं वासुदेवे णं एवं धुत्ते
વિચારે તેમજ નીચ લક્ષણે યુક્ત) અમને એમ લાગે છે કે તુ અલબ્ધ પુણ્ય ચાતુર્દશિક જન્મવાળે છે, એટલે કે તું ચૌદશને દિવસે જમ્યો નથી કેમકે ચૌદશને દિવસે ઉત્પન્ન થનારી વ્યક્તિ ભાગ્યશાળી હોય છે. તે શ્રી, શ્રી અને બુદ્ધિ વગરને છે. બરાબર સાંભળી લે કે આજે કાં તે તું નહિ કે કાં હું નહિ. તને એટલી પણ ખબર નથી કે આ દ્રૌપદી દેવી કૃષ્ણ-વાસુદેવની બહેન છે-કે જેને તે હરણ કરાવીને અહીં મંગાવી છે. હવે જે તે પિતાનું ભલું ઈચ્છતે હેય તે તું આ હરણ કરાવીને પિતાને ત્યાં રોકી રાખેલી દ્રપદી દેવીને કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જઈને પાછી મેંપી દે. નહિતર યુદ્ધના માટે
तयार ने मा२ मेहानमा भावी .(एस णं कण्हे वासुदेवे) ॥ वासुदेव ... (पंचहि पंडवेहि अप्पछठे दोवई देवीए कूवं इन्व मागए, तएणं से दारुए
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अनगारधामृतवर्षिणी का अं० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५०९
ततः खलु स दारुकः सारथिः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो यावत् प्रतिशृणोति ' तथाऽस्तु' इति कृत्वाऽऽज्ञा स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य-अमरकङ्काराजधानीमनुपविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव पद्मनाभस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा यावद् वर्धयति-जयेन विजयेन चाभिनन्दयति । वर्धयित्त्वा-अमिनन्ध एवमवादी-एषा खलु हे स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्तिः इयमन्या मम स्वामिनो विनयप्रतिपत्तिः, " समु. समाणे हहतुढे जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, अमरकंका रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता, करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एसणं सामी मम विणयपडिवित्ती, इमो अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कट्टु असुरुत्ते नाम पाएणं पायपीढं अणुक्कमइ ) पांच पांडवों के साथ आत्म षष्ठ होकर द्रौपदी देवी को लेने के लिये अभी अभी आये हुए हैं । इस प्रकार कृष्णवासुदेव के द्वारा कहे गये उस दोरुक सारथि ने हृष्ट तुष्ट होकर कृष्णवासुदेव की आज्ञा स्वीकार करली। स्वीकार कर के फिर वह अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया वहां प्रवेश कर वह वहां पहुँचा जहां पद्मनाभ राजा थे। उनके समीप जाकर उस ने पहिले उन्हें दोनों हाथों की अंजलि बना कर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-जय विजय शब्दों से उन्हें बँधाया-बाद में उसने इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-हे स्वामिन् ! यह तो मेरी विनय प्रतिपत्ति है-दूत सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे हतुढे जाव पडिसुणेइ पडिसणित्ता, अमरकंका रायहाणि अणुपविसइ. अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता,करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एस णं सामी मम विणयपडिवित्ती, इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुक्कमइ)
પંચે પાંડેની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવી ગયા છે. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ-વાસુદેવ વડે કહેવામાં આવેલાં વચન સાંભળીને હષ્ટ-તુષ્ટ થઈને તે દારુક સારથીએ તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. સ્વીકારીને તે અમરકંકા રાજધાનીમાં પ્રવિણ થયે. પ્રવિષ્ટ થઈને તે જ્યાં પ નાભ રાજા હતા તેમની પાસે જઈને સૌ પહેલાં તેણે બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યો અને જય વિજય શબ્દોથી રાજાને વધામણી આપી. ત્યારપછી તેણે આ પ્રમાણે કહેવાની શરૂઆત કરી કે હે સ્વામી ! આ તે મારી વિનય પ્રતિપત્તિ છે. દૂતની ફરજ બજાવતાં મેં
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
हाणत्ति " स्वमुखाज्ञप्तिः - स्वमुखेन कथिता आज्ञप्तिः- आज्ञा' इति कृस्वा 'आसु रुते ' आशुरुप्तः शीघ्रं क्रोधाविष्टः वामपादेन पादपीठं ' अणुकमइ ' अनुक्रामति, अनुक्रम्य कुन्तायेण लेख - पत्रिकां ' पणामह ' अर्पयति । अर्पयित्वा यावत्
,
6
,
कूवं ' प्रत्यानयनं कर्तुं हव्यमागतः । ततः खलु स पद्मनाभो दारुकेण सारथिना एवमुक्तः सन् अशुरुप्तः = शीघ्रः क्रोधाक्रान्तं त्रिवलिकां रेखात्रययुक्तां भ्रुकुटि ' निडाले ' ललाटे - भालप्रदेशे 'साइड' संहत्य - उन्नीय, एवमवादीत्नो अर्पयामि खलु अहं हे देवानुमिय कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदीम् एष खलु अहं स्वयमेव युद्धसज्जो निर्गच्छामि = अधुनैव युद्धार्थ बहिर्निःसरामि इतिकृत्वा
,
के कर्तव्य अनुसार मैंने यह आपको नमस्कार किया है जय विजय आदि शब्दों द्वारा वधाई दी है परन्तु मेरे स्वामीकी उनके मुखसे आपके लिये जो आज्ञा दी गई है वह दूसरी है और वह इस प्रकार है - इस प्रकार अपने मुख से कहकर वह शीघ्र क्रोध से भर गया, और वामपाद से उसके पादपीठ पर चढ गया । (अवक्कमित्ता) चढकर फिर ( कतग्गेणं लेहं पणामइ ) फिर उसने उसके लिये कुन्त के अग्रभाग से पत्रिका अर्पित की। ( पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए ) पत्रिका अर्पित करके यावत् कृष्णवासुदेव पांचों पांडवों के साथ यहां द्रौपदी देवी को वापिस लेने के लिये हव्व-अभी अभी-आये हैं यह सब समाचार उसे सुनादिया । (तएण से पउमणाभे दारुणं सारहिणा एवंबुत्ते समाणे आसु रुते तिबलि भिउडि निडाले साहद्दु एवं वयासी णो अप्पिणामि, णं अहं देवाणुपिया ! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई, एस णं अहं सयमेव
વિનયેાપચાર માટે નમસ્કાર કર્યાં છે તેમજ જય વિજય વિજય શબ્દો દ્વારા તમને વધામણી આપી છે. પરંતુ મારા સ્વામીએ તેમના મુખથી તમારે માટે જે કઈ આજ્ઞા આપી છે તે કંઇક બીજી જ છે અને તે આ પ્રમાણે છે કેદ્ભુત આમ કહીને એકદમ ક્રોધમાં લાલચેાળ થઈ ગયા અને ડાખા પગથી तेना पाहासन पर थढी गये. ( अवक्कमित्ता ) यदीने ( कौतगोणं लेहं पणा मइ ) तेथे रामने त ( लासा ) ना अश्रलागथी पत्रिअ साथी. (पणामित्ता जाव कूप हव्बमागए ) पत्रिअ साथीने यावत डृष्णु-वासुदेव यांचे पांडवानी સાથે અહીં દ્રૌપદી દેવીને લેવા માટે અત્યારે આવ્યા છે. આ જાતના બધા સમાચાર તેને કહી સભળાવ્યા.
(तरण से पउमणाभे दारुयेणं सारहिणा एवं वृत्ते समाणे आमुरुते चि बलि भिउडि निडाले साइड एवं वयासी-गो अपिणामि, णं अहं देवाणुपिया !
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अनगारधामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदचरितनिरूपणम् दारुकं सारथिमेवमवादीकेवलं भोः ! ' रायसत्थेसु ' राजशास्त्रेषु-राजनीतिषु दृतः ' अवज्झे' अवध्यः न हन्तव्यः, इत्युक्तमस्ति तस्मात् त्वां मुश्चामि इति कृत्वा इत्युक्त्वा तं दृतम् असत्कार्य, असम्मान्य अपद्वारेण ' णिच्छुभावेइ' निक्षोभयति-निष्कासयति, ततः खलु म दारुकः सारथिः पद्मनाभेनासत्कार्य यावत्-‘णिच्छुढ़े' निक्षोभितःनिःसारितः ' समाणे ' सन् , यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तौवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा कृष्णं यावद् एवमवादीतजुद्धसज्जो णिगच्छामि,त्ति कटु दारुयं सारयं एवं वयासी-केवलं भो रायसत्थेसु ये अवज्झे त्ति कटु असक्कारिय असम्माणिय अवहारेणं णिच्छुभावेइ ) तब वह पद्मनाभ जब दारुक सारथि ने इस प्रकार कहा तो इकदम क्रोधित होकर त्रिवलि युक्त भृकुटि को माथे पर चढा कर इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिय ! मैं द्रौपदी को कृष्णवासुदेव के लिये अर्पित नहीं करता हूं-पीछी नहीं देता हूँ। इसके लिये मैं अभी स्वयं ही युद्ध करने को तैयार हूँ-। इस प्रकार कहकर फिर उसने उस दारुक सारथि से ऐसा कहा अरे ! राजनीति के शास्त्रों में दूत अवध्य कहा गया है-इस लिये तुझे छोड़ देता हूँ। इस तरह कहकर उसने दूत को असत्कृत और असमानित कर पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया ! (तएणं दारुए सारही पउमणाभे णं असक्कारिय जाव णिच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेब उवा कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई, एसणं अहं सयमेव जुद्धसज्जो णिगच्छामि त्ति कटु दारुयं सारहिं एवं वयासी-केवलं भो ! रायसत्थेमु दूये अबज्झे त्ति कटु असकारिय असम्माणिय अवदारेणं णिच्छुभावेइ)
દારુક સારથિના આ પ્રમાણે વચને સાંભળીને પદ્મનાભ એકદમ ક્રોધમાં લાલચોળ થઈ ગયો. અને ભમ્મરે ચઢાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યો કે હે દેવાનુપ્રિય! હું કૃષ્ણ-વાસુદેવને દ્રૌપદી કઈપણ સ્થિતિમાં સેંપવા તૈયાર નથી. એના માટે હું અત્યારે પણ યુદ્ધ કરવા તૈયાર છું. આ પ્રમાણે કહીને તેણે દારુક સાથીને કહ્યું કે અરે! રાજનીતિના શાસ્ત્રોમાં દ્રત અવધ્ય કહેવામાં આવ્યું છે એથી તને જ કરું છું. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તને અસત્કૃત અને અસંમાનિત કરીને પાછલા બારણેથી બહાર કઢાવી મૂકે.
(तएणं दारुए सारही पउमणाभेणं असक्कारिय जाब णिच्छुढे समाणे जेणेव कण्णे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एवं
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हाताधर्मकथास्त्र एवं खलु अहं हे स्वामिन् ! युष्माकं वचनेन यावत् — णिच्छुभावेइ ' निक्षोभयति= पद्मनाभः क्रोधाविष्टः सन् द्रौपदी न दास्यामीत्युक्त्वा दूतो न हन्तव्य इति कृत्वा मामसत्कार्य, असंमान्यापद्वारेण निःसारयति स्म ' इत्यर्थः ॥ २८ ॥ ___ मूलम्-तएणं से पउमणाभे बलवाउयं सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। आभिसेकं हस्थिरयणं पडिकप्पेह, तयाणंतरं च णं से बलवाउए छेयायरियउवदेसमइविकप्पणा विगप्पेहिं निउणेहिं जाव उवणेइ, तएणं से पउमनाहे सन्नद्ध० अभिसेयं दूरुहइ दूरहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासु. देवे पउमणाभं रायाणं एजमाणं पासइ पासित्ता तं पंच पंडवे
गच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० कण्हं जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं सामी ? तुम्भं क्यणेणं जाव णिच्छुभावेइ) इस प्रकार जब वह दारुक सारथि पद्मनाभ के द्वारा असत्कृत यावत् होकर बाहिर निलवा दिया, तय वह वहां से चलकर जहां कृष्णवासुदेव थे वहां आया। वहां आकर उसने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ? मैंने पद्मनाभ राजा से आपके वचन जैसे ही कहे वैसे ही उसने "क्रोध में आकर" मैं नहीं दूगा दूतमारने योग्य नहीं होता है-इत्यादि कहकर मुझे असत्कृत एवं असमानित कर अपने यहां से पीछे के दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया है। सूत्र २८ ॥
वयासी-एवं खलु अहं सामी ! तुम्मं वयणेणं जाव णिच्छुमावेइ )
આ પ્રમાણે જ્યારે તે દારુક સારથિ પદ્મનાભ રાજા વડે અસત્કૃત યાવત અસંમાનિત થઈને બહાર કઢાવી મૂકાયે ત્યારે તે ત્યાંથી બહાર આવીને જ્યાં કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે બંને હાથોથી અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી! પા નાભ રાજાને મેં જ્યારે તમારો સંદેશ કહી સંભળાવ્યો. ત્યારે સાંભળતાંની સાથે જ તે ક્રોધમાં ભરાઈને “હું દ્રૌપદી દેવી પછી આપીશ નહિ, યાવત દ્વત અવધ્ય હોય છે.” વગેરે વચનેથી અસત્કૃત તેમજ અસંમાનિત કરીને મને તેણે પિતાના ભવનના પાછલા બારણેથી બહાર કઢાવી મૂકે છે. જે સૂ. ૨૮ છે
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम् एवं वयासी - हं भो दारगा ! किन्नं तुब्भे पउमनाभेणं सद्धि जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह ?, तएणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - अम्हे णं सामी ! जुज्झामो तुव्भे पेच्छह तएणं पंच पंडवे सण्णद्ध जाव पहरणा रहे दुरुहंति दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी- अम्हे वा पउमणाभे वा रायतिकट्टु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तरणं से पउमनाभे राया तं पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहिय पवर निवडिय चिन्धद्भूयपडागा जाव दिसोदिसिं पडिसेइत्ति, तणं ते पंच पंडवा पउमनाभेणं रन्ना हयमहियपवरनिवडिय जाव पडिसेहिया समाणा अत्थामा जाव आधारणिज्जत्तिकट्टु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तणं से कहे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी -- कहणणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! पउमणाभेणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा ?, तणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिया ! अम्हे तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरुहामो२ जेणेव पउमनाभे जाव पडिसेहेइ, तरणं से
हे वासुदेवे तं पंच पंडवे एवं वयासी-जइ णं तुब्भे देवाणुपिया ! एवं वयंता अम्हे णो पउमणाभे रायत्तिकटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गं ताओ णं तुब्भे णो पउमणाहे हयमहियपवर जाव पडिसेहते, तं पेच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अहं नो उमणाभे यत्तिकट्टु पउनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि रह
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शाताधर्मकथासूत्रे
दुरुहइ दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलं तणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदुसन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजणं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपुरियं करेइ, तपणं तस्स पउमणाहस्स तेणं संखसद्देणं बलइभाए हयजाव पडिसेहिए, तरणं से कण्हे वासुदेवे धणुं परामुसइ वेढो धणुं पूरेइ पूरित्ता धणुसद्द करेइ, तणं तस्स पउमनाभस्स दोचे बलइभाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए, तएण से पउमणाभेराया तिभागबलाव से अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिजत्तिकद्दु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं अणुपविसइ अणुपविसित्ता दाराई पिइ पिहित्ता रोहसज्जे चिट्टइ, तरणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रहं ठवे ठविता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता वेउव्वियसमु घाणं समोहण, एवं महं णरसीहरूवं विउव्वइ विउठिवत्ता महया महया सद्देणं पाददद्दरयं करेइ, तपणं से कपहेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पाददद्दरएणं करणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुराट्टालय श्वरिय तोरणपल्हत्थिय पवरभवणसिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया, तरणं से पउमणाभे राया अमरकंकं रायहाणि संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवईए देवीए सरणं उवेश तपर्ण सा
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अगारधर्मामृतवर्षिणी टी० मं० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् दोवईदेवी पउमनाभं रायं एवं क्यासी- किण्णं तुमं देवाशुप्पिया ! न जाणसि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तम पुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इहं हव्वमाणेसि, तं एवमवि गए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! पहाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेंउरपरियाल संपरिवुडे अग्गाई वराई रयणाई गहाय ममं पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला णं देवाणुपिया ! उत्तमपुरिसा, तएणं से पउमनाभे, दोवइए देवीए एयमहं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उइ उवित्ता करयल० एवं वयासी - दिवाणं देवाप्पियाणं इड्डी जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणुपिया ! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुज्जोर एवं करणयाएत्तिकहु पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई देवि साहित्थि उवणे, तणं से कहे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी - हं भो पउमणाभा ! अप्पत्थियपत्थिया४ किण्णं तुमं ण जाणसि मम भगिणिं दोवईदेवीं इह हव्वमाणमाणे तं एवमवि गए णत्थि ते ममाहिंतो इयाणि भयमस्थि त्तिकट्टु पउमणाभं पडिविसजेइ पडिविसज्जित्ता दोवई देवि गिन्हइ गिण्हित्ता रहं दुरुहेइ दुरुहिता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छर्इ उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देवि साहित्थि उवणेइ, तपणं से कण्हे पंचहि पंडवेहि सद्धि अप्पछट्टे छहिं रहेहिं लवणसमुहं मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबूदीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २९ ॥
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शाताधर्मकथाजस्त्र टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततः खलु स पद्मनाभः 'बलवाउयं ' बलव्यापृतं-सैन्यनायकं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! ' आभिसेक ' आभिषेक्यं प्रधानं हस्तिरत्नं ' पडिकप्पेह' प्रतिकल्पय सुसज्जितं कुरु, तदनन्तरं च स बलव्यापृतः खलु " छेयायरियउवदेसमइविकप्पणाविगप्पेहि ” छेकाचार्योपदेशमतिविकल्पनाविकल्पैः-तत्र छकः-निपुणः, आचार्य:-कलाशिक्षकः, तस्योपदेशाद या मति द्विस्तस्या विकल्पना-विचारणा, तज्जनितो विकल्पः-विशिष्ट रचनाशक्तिर्येषां तः, 'जाव उवणेइ ' यावद् उपत
___-तएणं से पउमणाभे इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से पउमणाभे) उन पद्मनाभ राजा ने (बलवाउयं सद्दावेह ) अपने सैन्य नायक को बुलाया (सद्दावित्ता) और धुलाकर फिर उससे ( एवं वयासी ) इस प्रकार कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह ) हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही प्रधान हस्तिरत्न को सुसज्जित करो। (तयाणंतरं च णं से बलवाउए छेयायरिय उवदेसमइ विकप्पणा विगप्पेहिं निउणेहिं जाव उवणेइ) इसके बाद उस सैन्य नायक ने निपुणकला शिक्षक के उपदेश से प्राप्त बुद्धि की कल्पना से उत्पन्न हुई है विशिष्ट रचना की शक्ति जिन्हों को ऐसे मनुष्य से कि जो शोभा करने में अत्यन्त निपुण थे उस हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाया। जब उन्हों ने उस हस्तिरत्न को चम. कीले निर्मल वेष से शीघ्र परिवस्त्रित-करदिया । वस्त्राच्छादन द्वारा
तपणं से पउमणाभे इत्यादि
साथ-(तएणं) त्या२५छी (से पउमणाभे) ते पनाम २१ मे (बलवाउय सद्दावेइ) पोताना सैन्य नायने याताया. ( सदावित्ता ) भने मासावीन तेने ( एवं वयासी) मा प्रमाणे ४युं है (जिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह ) . देवानुप्रिय! तमे सत्परे प्रधान स्तिरत्नने सुस २१. ( तयाण'तर च ण से बलवाउए छेयायरियउबदेसमइविकप्पणा विगप्पेहि निउणेहिं जाव उवणेइ ) त्या२५छी ते सैन्य नाय निपुY शिक्ष. કના ઉપદેશથી જેમણે વિશિષ્ટ રચના માટે બુદ્ધિ તેમજ કલ્પના શક્તિ મેળવી છે, તેમજ શ્રૃંગાર કલામાં જેઓ અતીવ ચતુર છે તેવા માણસે વડે હસ્તિનને સુસજિજત કરાવ્યું. જ્યારે સત્વરે તેમણે તે હસ્તિરત્નને ચમકતા નિર્મળ વેષથી પરિવત્રિત કરી દીધા-વાછાદન વડે આછાદિત કરીને સુશે
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५७ यति-अत्र यावच्छन्देनैवं बोध्यम्-मुनिउणेहि नहिं हत्थिरयणं परिकप्पेइ, उज्जलनेवत्थ इबपरिवत्यियं सुसज्ज इत्यादि परिकप्पित्ता' इति सुनिपुणैः शोभाकरणचतुरैः, नरैर्हस्तिरत्नं परिकल्पयति-शोभयति किं भूतं हस्तिरत्नं-उज्ज्वलनेपथ्यहव्यपरिवस्त्रितं उज्ज्वलनेपथ्येन-द्युतिमनिर्मलवेषेण शीध्र परिवस्त्रितः वस्त्राच्छादनसुशोभितः, तथा-सुसज्ज-घण्टाभरणादिभिः समलङ्कृतं, एवं परिकल्प्य सबलव्यापृतः पद्मनाभनृपस्यान्ति के तं हस्तिरत्नमुपनयति, आनयति । ततः खलु स पद्मनाभः सन्नद्धबद्धवर्मितकवचः - आभिषेक्यं हस्तिरत्नं दृरोहतिआरोहति दुरूह्य हयगजरथ पदातिपरिवृतः यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैव माधारयद् गमनाय।
ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभं राजानम् एजमानम् आगच्छन्तं पश्यति । दृष्ट्वा च तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवदत-हं भो ! दारकाः भो वत्साः ! आच्छादित कर सुशोभित करदिया-अर्थात्-झूल वगैरह डालकर उसे बहुत अच्छी तरह सजा दिया, तथा घंटा आभरण आदि से उसे अलंकृत करदिया, तब वह सन्य नायक उस हस्ति रत्न को लेकर पद्मनाभ रोजा के पास पहुँचा (तएणं से पउमणामे सन्नद्ध० अभिसेय० दूरुहह, दूरहित्तो हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाणं एजमाणं पोसइ पासित्ता ते पंच पंडवे एवं क्यासी) इसके बाद वह एद्मनाभ राजा सन्नद्ध, बद्ध, वर्मित कवच वाला होकर उस प्रधान हस्तिरत्न पर आरूढ हो गया और आरूढ होकर हय, गज, रथ, एवं पैदल सैन्य को साथ लेकर जहां कृष्णवासुदेव थे उस और चल दिया। जब कृष्णवासुदेव ने पद्मनाभ राजा को आता हुआ देखा तो देखकर उन्हों ने पांच पांडवो से ऐसा कहा-(हं भो ભિત કરી દીધું એટલે કે લ વગેરે નાખીને બહુ જ સરસ રીતે સુસજિજત કરી દીધે તેમજ ઘંટ, આભરણે વગેરેથી તેને અલંકૃત કરી દીધું. ત્યારે તે સૈન્ય નાયક તે હસ્તિનને લઈને પદ્મનાભ રાજાની પાસે ગયે.
(तएणं से पउमणाभे सन्नद्ध० अभिसेय० दुरुहइ दुहित्ता हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभरायाणं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं क्यासी)
ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કવચ તેમજ બીજા શસ્ત્રોથી સજ્જ થઈને તે પ્રધાન હસ્તિન ઉપર સવાર થઈ ગયો અને સવાર થઈને ઘોડા, હાથી, રથ અને પાયદળ સેનાને સાથે લઈને કૃષ્ણ-વાસુદેવ હતા તે તરફ રવાના થયે, કૃષ્ણ-વાસુદેવે જ્યારે પદ્મનાભ રાજાને આવતો જોયે ત્યારે તેને જોઈને પાસે
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शीताधर्मकथागते किं खलु यूयं पद्मनाभेन साधं ' जुज्झिहिह ' युध्यथ ! ' उयाहु ' उताहो-अथवा 'पेच्छिहिह ' प्रेक्षध्वे, ? ततः खलु ते पश्च पाण्डवा कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-वयं खलु हे स्वामिन् ! युध्यामः, यूयं प्रेक्षध्वम् । ततः खलु पश्च पाण्डवाः सन्नद्धवद्धवर्मितकवचा यावद् गृहीतायुधप्रहरणाः रथान=स्व स्व रथोपरि दोहन्ति आरोहन्ति दूरोह्य यचैव पद्मनाभो राजा तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवदन्-'अम्हे वा पउमणाभे वा राया' वयं वा भवामः पद्मनाभो वा राजा, इति दारगा! किन्नं तुम्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उयाह पेच्छिहिह ? तएणं ते पंडवा कण्णं वासुदेवं एवं वयासी) हे वत्सो! क्या तुमलोग पद्मनाभ के साथ युद्ध करोगे-या युद्ध को देखोगे? तब उन पांडवो ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-(अम्हेणं सामी ! जुज्झामो, तुम्भे पेच्छह, तएणं पंच पंडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरुहंति, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छंति उवागञ्छित्ता एवं वयासी, अम्ह वा पउमणाभे वा रायत्ति कटूटु पउमणाभेणं सद्धि संपलग्गा यावि होत्था) हे स्वामिन् ! हम तो युद्ध करेंगे-आप उस का निरीक्षण करें। इसके बाद वे पांचो पांडव सन्नद्धवद्धवर्मित कवचवाले होकर यावत् आयुध प्रहरणों को ले २ कर अपने २ रथों पर सवार हो गये। सबार होकर फिर वे जहां पद्मनाभ रोजा थे-उस और गये-वहां जाकर उन्हों ने पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा-या तो आज हम नहीं या पद्मvisan L प्रमाणे ४थु-(ह भो दारगा ! किन्नं तुब्भे पउमनाभेण सद्धि जयिहिह उयाहु पेच्छिहिह ? तएणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेव एवं वयासी) હે વત્સ! શું તમે પદ્મનાભ રાજાની સાથે મેદાને ઉતરશે ? કે ફક્ત યુદ્ધને જોશો ? ત્યારે તે પાંડેએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે –
( अम्हेणं सामी ! जुज्झामो, तुम्भे पेच्छह, तएणं पंच पंडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरूदंति, दुरूहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी, अम्हे वा पउमणाभे वा रायत्ति कट्टु पउमणाभेणं सद्धि संपलगा यावि होत्था)
હે સ્વામી! અમે તે યુદ્ધ ખેડીશું, તમે અમારા યુદ્ધને જુઓ. ત્યાર પછી તે પચે પાંડ કવચથી સુસજજ થઈને આયુધ પ્રહરને લઈને પોતપિતાના રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા. સવાર થઈને તેઓ પદ્મનાભ રાજા તરફ રવાના થયા. પદ્મનાભ રાજાની પાસે પહોંચીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે- આજે કાં તે અમે નહિં અને કાં પદ્મનાભ નહિં.” આમ કહીને તેઓ * પંઘનાભે રાજાની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
५१९
"
4
कृत्वा = इत्युक्त्वा - पद्मनाभेन सार्धं योद्धुं संघलग्नाचाप्यभवन्, ततः खलु स पननाभो राजा तान् पञ्च पाण्डवान् क्षिप्रमेव 'हयमहिय पवनिवडियचिन्धद्धयपड़ागा' हयमथितमवर निपतितचिह्नध्वजपताकान् तत्र हयाः - अश्वा मथिताः- पीडिताः, प्रवराः - प्रशस्ताः, चिह्नध्वजपताका निपातिता येषां तान्, शस्त्रास्त्रप्रहारजनित प्राप्तान् इत्यर्थः यावद् दिशो दिशं सर्वतः ' पडिसेहेइ' प्रतिषेधयति=प्रतिनिवर्तयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पद्मनाभेन राज्ञा हयमथितमवरनिपतित यावत् प्रतिषेधिताः सन्तः अत्थामा' अस्थामान:- वलरहिताः, जाव अधारणिज्जा ' अत्र यावच्छन्देन -' अबला अवीर्या ' इत्यनयोः संग्रहः | अबलाःनाभ राजा ही नहीं " ऐसा कहकर वे पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करने में संलग्न हो गये । (तएण से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहियपवर निवडिय जाय पडिसेहिया, समाणा, अत्थामा जाव अधारणिज्ज ति कट्टु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा, तरणं से वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी कहणं तुभे देवाणुपिया ! पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा ? तरणं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया | अम्हे तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमणाभे जाव पडिसेहेइ ) तब पद्मनाभ राजा ने उन पांचो पांडवों को बहुत जल्दी पीडित घोडों वाला एवं निपातित प्रशस्त चिह्नध्वज पताका वाला कर दिया। यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा में जाने से भी उन्हें रोक दिया अथवा एक दिशा से दूसरी दिशा में खदेड दिया । इस तरह वे पांचो पांडव पद्मनाम राजा के द्वारा पीडित घोडोवाले, एवं निपातित प्रशस्त चिह्न ध्वज पताका वाले जब बन गये और एक दिशा से दूसरी दिशा में जाने से रोक दिये गये - अथवा खदेड़ दिये गये तब बलरहित बनकर यावत्
( तरणं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहियपवरं नित्रडिय जावू पडिसेहिया समाणा, अत्थामा जात्र अधारणिज्ज चि कटूड जेणेव कहे वासुदेवे तेणेव उवा०, तरणं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं क्यासी कण्णं तुभे देवाणुपिया ! पउमनाभेणं रन्ना सर्द्धि संपलग्गा ? तरणं ते पंचपंडवा कन्दं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुम्भेहिं अन्भणुनाया समाणा सन्नद्ध० रहे दुरूहामो २ जेणेत्र पउमणाभे जान पडिसेहे )
-
ત્યારપછી પદ્મનાભ રાજાએ તે પાંચે પાંડવેાને ઘેાડા વખતમાં જ પીડિત ઘેાડાઓવાળા તેમજ નિપાતિત પ્રશસ્ત ચિત્તુધ્વજ પતાકાવાળા બનાવી દીધા યાવત એક દિશામાંથી બીજી દિશા તરફ જઈ શકે નહિ તેમ તેઓએ રસ્તા રાકી લીધા. અથવા તે એક દિશામાંથી ખીજી દિશા તરફ ભગાડી મૂકયા. આવી
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माताधर्मकथासूत्रे
सन्यहीनाः अवीर्याः - आन्तरिकशक्तिरहिताः, उत्साहहीना इत्यर्थः, तथा - अधा रणीयाः = आत्मानं रणभूमौ धारयितुमशक्ताः इति कृत्वा - इति विचार्य, यौः कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तान् पञ्च पाण्डवान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् -' कहणं ' कथं खलु यूयं हे देवानु भियाः ! पद्मनाभेन राज्ञा सार्धं योद्धुं संमग्नाः १, ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत् एवं खलु हे देवानुमियाः ! वयं युष्माभिरभ्यनुज्ञाताः सन्तः सन्नद्धवद्भवतिकवचाः स्थान् 'दुरुदामो ' दूरोहामः - आरोहामः आरुढीः: आरुह्य यत्रैव पद्मनाभस्तत्रैव गत्वा युद्धाय संपलग्नाः ततः पराजयं प्राप्ता यावत प्रतिषेधिता ' इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवारणभूमि में अपने आपको टीका ने में भी असमर्थ जानकर जहां कृष्णवासुदेव थे वहां आये | वहां पहुँच तेही कृष्णवासुदेवने उनसे उन पांचो पांडवों से इस प्रकार कहा- जब आपलोग पराजित हो गये तो पद्मनाम राजा के साथ युद्धरत हुए-लड़े-तब उन पांचो पांडवो ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा, हे देवानुप्रिय ! हमलोगो ने आप से अभ्यनुज्ञात होकर ही कवच आदि से सुसज्जित हो रथों पर आरोहण किया, और आरोहण कर जहां पद्मनाभ राजा था वहां हमलोग पहुँचे । वहां पहुँचकर हमलोग उनके साथ युद्धरत हो गये। बाद में पराजित हो गये । और पराजित होकर फिर ऐसे बन गये जो उसने हमें एक दिशा से दूसरी दिशा में खदेड दिया या जाने से रोक दिया । (तएणं से कण्हे वासुदेवे ते पं पं . ) तब कृष्णवासुदेव ने उन पांचो पांडवो से પરિસ્થિતિમાં લાચાર થઈને યાવત્ યુદ્ધભૂમિમાં પેાતાની જાતને ટકાવી શકવામાં પણ અસમર્થ જાણીને પાંચે પાંડવા જ્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં પહાંચતાં જ કૃષ્ણ-વાસુદેવે પાંચે પાંડવાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તમે લેકે પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધરત થઇને પરાજીત થઇ ગયા છે ? ત્યારે તે પાંચે પાંડવાએ કૃષ્ણ-વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! અમે બધા આપની આજ્ઞા મેળવીને કાચ વગેરેથી સુસજ્જિત થઈને રથ ઉપર સવાર થયા. સવાર થઈને અમે જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં પહાંચીને અમે બધા તેની સાથે યુદ્ધ કરવા લાગ્યા અને તેને પરિણામે અમે હારી ગયા છીએ. હાર પામીને અમે એવી ભય કર પરિસ્થિતિમાં સપડાઇ ગયા હતા કે જેથી એક દિશા તરફથી બીજી દિશા તરફ્ જવામાં પણ અસ થઈ ગયા અથા તે તેણે અમને એક દિશામાંથી ખીજી દિશા તરફે ભગાડી भूम्या छे. (तरण से कण्हे वासुदेवे ते पं. पं. ) त्यारे दृष्य - वासुदेवे ते पांय પાંડવાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
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अनगारधर्मामृतषिणी री०म० १९ प्रौपदीचरितनिरूपणम् ५९१ दी-यदि खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! पूर्वमेवं वक्तारो भवत, 'अम्हे, 'गो पउनाभे राया' इति 'वयं भवामः, नो पद्मनाभो राजा' इति " वयमेवजेष्यामो न तु पद्मनाभो राजा' इत्यर्थः. तथा-यदि पूर्वम्-इति कृत्वा-इत्येवं निश्चयं मनसि निधाय, पद्मनाभेन साधं ' संपलग्गंता ' युद्धाय संपलग्ना भवत, ' तो णं तहि खलु 'तुम्भे, णो पउमणाहे' यूयं नो पद्मनाभः यूयमेव जेतारो भवेत, न त पद्मनाभः, तथा यूयं तं हयमथितप्रवरनिपतित चिहध्वजपताकं यावत्-पद्मनाभ 'पडिसेहते ' प्रतिषेधयेत-प्रतिनिवर्तयेत । तत्-तस्मात् 'पेच्छह ' प्रेक्षध्वं, खल इस प्रकार कहा-(जइणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंता अम्हे णो पर. मणाभे राय त्ति कटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गंताओ ण तुम्भे णो पउमणाहे, हय-महिय-पवर-जाव पडिसेहंते, तं पेच्छह णं तुम्भे देवा णुप्पिया! अहंणो पउमणाभे राय त्ति कटूटु पउमनाभेणं रन्ना सद्धि जुज्झामि, रहं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवाग च्छह उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलंतणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदु सन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकर पंचजण्ण संख परामुसइ) हे देवोनुप्रिय ! तुम तो पहिले ऐसा कहते थे कि हम जीतेंगे, पद्मनाभ राजा नहीं जीतेगा-और ऐसा ही मन में विचार कर-निश्चय कर-तुमलोगों ने पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करना प्रारंभ किया-तो तुमलोगों को ही जीतना चाहिये था। पद्मनाभ राज को नहीं और तुम्हीं लोग उसे पीडित घोडों वाला एवं निपातितप्रश
(जइणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंता अम्हे णो पउमणाभे राय रि कटु पउमनाभेणं सद्धि संपलग्गं ताओणं तुन्भे णो पउमणाहे, हयमहियपवर जा पडिसेइंते, तं पेच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! अहं णो पउमणाभे रायत्ति कह पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि, रहं दुरूहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमणाभे राय तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहारधवलंतणसोल्लियसिंदुवार कुंदेंद सनिगासं निययवलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजण्णं संखं परामुसइ
હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તે પહેલેથી જ આ પ્રમાણે કહેતા હતા કે અમેજ જીતીશ, પદ્મનાભ રાજા છતશે નહિ. અને આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જ તમે લેઓએ પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધની શરૂઆત કરી હતી, આવી પરિસ્થિમાં તો તમારે જીત મેળવવી જોઈએ. પદ્મનાભ રાજાની જીત નહિ થવી જોઈએ તમે લોકે તેને પીડિત ઘેડાવાળ બનાવત, તમને તે નહિ પણ આ બધી તમારી મનની ઈચ્છા સફળ થઈ શકી નહિ. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! હવે જુઓ,
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झानाधर्मकथा यूयं हे देवानुप्रियाः ! ' अहं नो पउमणाभे राया ' ' अहं नो पद्मनाभो राजा' अहमेव जेता भवामि, न तु पद्मनाभी राजा, इति कृत्वा पद्मनाभेन राज्ञा साधं युध्यामि, इत्युक्त्वा रथं ' दुरूहइ ' दुरोहति-आरोहति-स कृष्ण वासुदेवः पद्मनाभेन सह योद्धु रथमारूढवान् इत्यर्थः । आरूह्य यत्रैव पद्मनाभो राजा तौवो पागच्छति, उपागत्य ' सेयं ' श्वेतं-गोलीरहारधवलं -गोदुग्धवत्-हारवच धवलं शुक्लं ' तणसोल्लियसिंदुबारकुंदेंदुसनिगासं । 'तणसोल्लिया' मल्लिका अयं देशीयः शब्दः सिन्दुवारो-निर्गुण्डी, कुन्द-कुन्दनाम्ना प्रसिद्धः श्वेतपुष्पविशेषः, इन्दुश्चन्द्रस्तद्वत् संनिकाशः-प्रभा यस्य स तं, निययबलस्स' निजकालस्य स्वकीयसेनाय 'हरिसजण्णं' हर्षजननं -हर्षोत्पादकं, 'रिउसेण्ण विणासकरं' रिपुसैन्य विनाशकरं शत्रुसैन्यबलहारकं पाश्चजन्यं शङ्ख पाञ्चजन्यनामकं शङ्ख परामुमई परामृशति हस्ते गृह्णाति, परामृश्य 'मुहवायपूरियं करेई' मुखपातपूरितं मुखवातेन ध्मातं करोति-वादयतीत्यर्थः । ततः खलु तस्य पद्मनाभस्य तेन शङ्खशब्देन 'बलस्त चिह्नध्वज पताका वाला बनाते-वह तुम्हें ऐसा नहीं बनाता-परन्तु ऐसा तुम लोगों का मन में धारा विचार सफली भृत नहीं हआ अतः देवानुप्रियो ! अब देखो-मैं उसके साथ युद्धरत होता हूँ इसमें मैं ही जीतूंगा पद्मनाभ राजा नहीं । ऐसा कहकर वे कृष्णवासुदेव रथपर सवार हो गये। और सवार होकर वे वहां पहुंचे जहां पद्मनाभ राजा था। वहाँ पहुँच कर उन्हों ने अपने पांचजन्य श्वेतशंख को जो अपनी सेनाको हर्ष का जनक एवं शत्रु सेना का संहारक था एवं गोक्षीर तथा हार के जैसा धवल वर्णवाला था उठाया । इसकी प्रभा मल्लिका निर्गुठी कंदपुष्प एवं चन्द्रमाके जैसी उज्ज्वल थी।(परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ) उसे उठाकर उन्हों ने मुँह से बजाया-(तएणं तस्स पउमणाहस्त तेणं संखसरेणं बलइभाए हय जाव पडिसेहिए ) तय उस पद्मनाभ की सेना તેની સાથે હું હવે મેદાને પડું છું. આમાં વિજય મને જ પ્રાપ્ત થશે, પદ્ય નાભ રાજાને નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ-વાસુદેવ રથ ઉપર સવાર થઈ ગયા અને સવાર થઈને જ્યાં પદ્મનાભ રાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે પિતાના પાંચજન્ય સફેદ શંખને-કે જે તેમની સેના માટે હત્પાદક તેમજ શત્રુઓની સેના માટે સંહાર રૂપ હ તથા ગાયના દૂધ અને હારના જે સફેદ હો-હાથમાં લીધે. તે શંખની કાંતિ મહિલકા નિર્ગઠી કુંદ પુષ્પ भने यन्द्र की ती. (परामुसित्ता मुहवायपरिष करेइ ) साधने तम भुमयी वाया. (तएण तस्स पउमणाहस्स तेण संखसरेण बलहभाए हय जाव पडिसेहिए) ते १मते ते पानास रानी सेनानी निमा मना
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गरधर्मामृतवर्षिणी टी० मं० १६ द्रौपदोषरितनिरूपणम्
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तिभाए हते ' बलत्रिभागो इतः - सैन्यस्य तृतीयांशो हतमथित यावत् दिशो दिशं प्रतिषेधितः - प्रतिनिवृत्तः पलायित इत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु स कृष्णो वासु देवो धनुः परामृशति गृह्णाति परामृश्य ' वेढो ' वेष्टः वर्णकः धनुविषयकं वर्णनं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तितो विज्ञेयमित्यर्थः ' धणुं पूरेइ ' धनुः पूरयति धनुषि गुणमारो पयति पूरयित्वा धनुः शब्दं करोति ततः खलु तस्य पद्मनाभस्य द्वितीयवारं 'बल तिभाए ' बलत्रिभाग बलस्य सैन्यस्य तृतीयो भागस्तेन धनुः शब्देन ' हयमहिय पवरनिवडिय चिन्धद्धयपडागे ' इयमथितप्रवरनिपतितचिह्नध्वजपताको यावद का त्रिभाग उस शंख के शब्द से हत हो गया मथित हो गया यावत एक दिशो से दूसरी दिशा की तरफ भाग गया । तएणं से कण्हे वासु देवे धणुं परासह, वेढोधणुं पूरेइ, पूरित्ता धणुसद्द करेइ ) इसके बाद कृष्ण वासुदेवने धनुष को उठाया। इस धनुष को वर्णन जंबूद्वीप प्रज्ञ प्ति में किया गया है। सो वहां से जानना चाहिये उठाकर उन्होंने उस पर ज्या का आरोपण किया फिर उसे चढाया-सो उससे शब्द हुआ (तरणं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बलइभाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए, तरणं से पउमणाभे राया तिभागबलावसे से अस्था मे अबले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिजत्ति कट्टु सिग्घं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छ३ ) तब उस पद्मनाभ राजा की सैन्य का तृतीयभाग उस धनुष के शब्द से हत हो गया, मथित हो गया, उस की प्रवर चिन्ह स्वरूप ध्वजापताकाएँ सब गिर गईं यावत
શબ્દથી જ હત થઈ ગયા, થિત થઈ ગયા યાવત્ એક દિશા તરફથી બીજી दिशा तर नाशी गये. (तएण से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसइ, वेढो धणु पूरेइ, पूरित्ता धणुसद्द करेइ ) त्यारपछी सॄष्णु-वासुदेवे धनुष उठाव्यं. मा ધનુષનું વર્ણન જ ખૂદ્રીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં કરવામાં આવ્યું છે. જિજ્ઞાસુએએ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઇએ. ઉઠાવીને તેઓએ તેની ઉપર પ્રત્ય`ચા ચઢાવી. ત્યારપછી ધનુષને ચઢાવ્યું અને તેનાથી શબ્દ થયે
( तणं तस्स उमनाभस्स दोच्चे बलइभाए तेणं धणुसदेणं इयमहिय जाव पडिमेहिए, तरणं से पउमणाभे राया तिभागवलासे से अस्थामे अबळे, अरिए अपुरिसक्कार रक्कमे अधारणिज्जत्ति कट्टु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छर )
તે પદ્મનાભ રાજાની સેનાના ત્રીજો ભાગ તે ધનુષના શબ્દથી જ હેત થઈ ગયા, મથિત થઈ ગયા, તેની પ્રત્રર ચિહ્ન-સ્વરૂપ ધ્વજા પતાકાઓ અધી પડી
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हाताधर्मकथा दिशो दिशं प्रतिषेधितः, ततः खलु स पद्मनाभो राजा 'तिभागबलावसेसे' त्रिभागबलावशेषः तृतीयांशावशिष्टसैन्यवान् सन् अस्थामा, अबला, अवीर्यः, अस्थामेत्यादि प्राण्याख्यातम् अपुरुषकारपराक्रमः-पौरुषपराक्रमरहितः, अधारणीयः-प्राणान् धारायितुमशक्तः, इति कृत्वा-इति विचार्य शीघ्र त्वरितं यत्रैवा मरकंका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अमरकंकां राजधानीमनुप्रविशति, अनुपविश्य द्वाराणि 'पिहेइ ' पिधत्ते, रोधसज्जा=दुर्ग निरुध्य तिष्ठति, ततः खलु स कृष्णो वह एकदिशा से दूसरी दिशा में भाग गया अथवा भागने में असमर्थ पन गया । इस के बाद तृतीयांशावशिष्ट सेना वाला होकर वह पद्मनाभराजा बल रहित हो गया, पर्याप्त सैन्य रहित हो गया एवं अन्तरिक शक्ति-उत्साह हीन हो गया। अतः वह पौरुष पराक्रम से रहित होने के कारण रणभूमि में ठहरने के योग्य नहीं रहा। अथवा प्राणों को धारण करने में भी असमर्थ बन गया। इसलिये वह वहां से शीघ्र बड़ी उतावली से जहां अमरकंको नगरी थी वहां आ गया। ( उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणि अणुपविसह, अणुपविसित्ता दाराई पिहेइ पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तएणं से कण्हे वासुदेवे, जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ ) वहां आकर वह अमरकंका राजधानी में गया। जाकर उसने दरवाजोंको बंद करवा दिया। बंद करवाकर फिर वह अपने दुर्ग (किल्ला) की रक्षा करता हुआ वहां ठहरा। इसके बादकृष्णवासुदेव ગઈ યાવત્ તે સેનાને ભાગ એક દિશા તરફથી બીજીદિશા તરફ નાશી ગયે. અથવા તે તે નાશી જવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયો. ત્યારપછી ત્રીજા ભાગ જેટલી સેના જ જેની પાસે રહી છે એ તે પદ્મનાભ રાજા સાવ નિર્બળ થઈ ગયે, પર્યાપ્ત સન્ય રહિત થઈ ગયા અને આંતરિક શક્તિ–ઉત્સાહ રહિત થઈ ગયો. તે પરૂષ પરાક્રમ વગરને થઈ તે રણભૂમિમાં ટકી શકે તેમ પણ રહ્યો નહિ અથવા તો તે પ્રાણેને ધારણ કરવામાં પણ અસમર્થ થઈ ગયે. એથી તે સત્વરે જ્યાં અમરકંકા નગરી હતી ત્યાં આવી ગયે.
(उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता-दाराई पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे, जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ)
ત્યાં આવીને તે અમરકંકા રાજધાનીમાં ગયે, ત્યાં જઈને તેણે દરવાજાઓને બંધ કરાવી દીધા. બંધ કરાવીને તે પિતાના દુર્ગની રક્ષા કરતાં ત્યાં જ રાકારો. ત્યારપછી કૃષ્ણ-વાસુદેવ જ્યાં તે અમરકંકા નામે નગરી હતી ત્યાં
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वासुदेवो यत्रैवामकङ्का तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य रथं स्थापयति, स्थात् प्रत्यत्र रोहति प्रत्यवरुह्य, ' वेउव्वियसमुग्धाएणं ' वैक्रियसमुद्घातेन वैक्रियशरीरं निर्मा मारुमप्रदेशानां बहिर्निःसारणेन खलु ' समोहणइ ' समुद्धातं करोति समुहन्ति एकं महत् । णरसीहरूवं ' नरसिंहरूपं ' बिउव्वह' विकुर्वते दिव्यसामर्थ्यन करोति विकु महता २ शब्देन ' पाददद्दरयं पाददद्देरकं = भूमौ चरणाघात करोति, ततः खलु स कृष्णेन वासुदेवेन महता २ शब्देन पाददर्दरकेण = भूमों चरणाघातेन कृतेन सता अमरकङ्काराजधानी 'संभग्गपागारगो पुराहालय वरिय तोरणपल्aत्थिय पत्ररभवणसिरिधरा' सम्भग्नप्राकार गोपुराहालकच रिकातोरणपर्य स्तितपत्ररभवनश्रीगृहा=तत्र संभग्नानि - माकारच गोपुराणि च अहालकाच चरिका जहां वह अमरकंका थी वहां गये ( उवा० ) वहां जाकर के ( रहं ठवेइ, ठविता रहाआ पचोरुहइ, पच्चारुहित्ता वेउव्वियसमुग्धारणं समोह rs) उन्होंने अपने रथको खड़ा किया-खड़ा करके फिर वे उससे नीचे उतरे । नीचे उतर कर वैक्रिय समुद्घात किया । वैक्रियशरीरको निर्माण करने के लिये जो आत्मप्रदेशों का बाहिर निकालना होता है उसका नम वैक्रिय समुद्घात है । ( एगं महं णरसिहरूवं विश्व विवित्ता महया २ सद्देणं पाददद्दरएणं करणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्ग पागार गोपुराहाल चरिथतोरणं पल्हस्थियपवरभवणसिरिघरा सरस्स र धरणियले संन्निवइया) इस समुद्घातके द्वरा उन्होंने एक विशाल काय नरसिंहरूप की विकुर्वणा की नरसिंहरूप की विकुर्वणा करके अपनी भयंकर गर्जना से भूमि पर चरणों द्वारा आघात किया । इस तरह गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से अमरकंका राजधानी की गया. (उत्रा० 10 ) त्यां ४६ने ( रद्द ठवेइ, ठत्रित्ता रहाओ पञ्चोरुहइ, पचोरुहित्ता वे व्वियसमुग्धाएण समोहणइ ) तेभो पोताना स्थने अलेो राज्यो, जले। રાખીને તેઓ તેમાંથી નીચે ઉતર્યાં, નીચે ઉતરીને તેમણે વૈક્રિય સમુદ્ઘાત કર્યાં. વૈક્રિય શરીરને બનાવવા માટે .જે આત્મપ્રદેશને બહાર કાઢવામાં આવે છે તે વૈક્રિય સમુદ્દાત કહેવાય છે.
( एवं महं नरसिहरूवं विउन्न, विउब्वित्ता महया २ सदेणं पाददद्दरण कर्ण समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुराट्टालयचरियतोरणं पल्हत्थिय पत्ररभवणसिरिधरा सरस्तरस्त धरणियले संभिवइया )
આ સમુદ્દાત વડે તેમણે એક વિશાળ કાય નરસિંહ રૂપની વિણા કરી. નરસિંહ રૂપની વિકુણા કરીને પોતાની ભયંકર ગર્જનાથી ભૂમિ ઉપર ચરણ્ણાના આઘાત કર્યો. આ રીતે ગર્જનાપૂર્વક કરાયેલા ચરણાઘાતથી અમર
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
च तोरणानि च यस्यां सा तथा, तत्र गोपुराणि -मतोल्यः अट्टालकाः - प्राकारो परिस्थान विशेषाः, चरिका- नगरमाकारान्तरेऽष्टहस्तोमार्गः । तथा-पर्यस्तितानिसर्वतः क्षिप्तानि प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि भण्डागाराणि कोशागाराणि च यस्यां स तथा, ततो द्विपदः कर्मधारयः । कृष्णवासुदेवेन भूमौ चरणाघातशब्देन अमर कंकाराजधान्याः प्राकारगोपुरादिकं विध्वंसितमित्यर्थः तथा सरस्सरस्स अनुकरणशब्दोऽयम् निपतनक्रियाविशेषणं धरणितले संनिपतिता=अमरकंका राजधानी सरस्सरस्सेति शब्दं कुर्वाणा भूभौ पतितेत्यर्थः । ततः खलु स पद्मनाभो राजा अमरकंकां राजधानीं संभग्नप्राकारादिकां यावत् - धरणितले संनिपतितां दृष्ट्वा भीतः त्रस्तः, उद्विग्नः संजातभयः, द्रौपद्या देव्याः शरणमुपैति प्राप्नोति ततः खलु सा द्रौपदी देवी पद्मनाभं राजानमेवमवादीत् किं खलु स्वं हे देवानु प्रिय ! न जानासि कृष्णस्य वासुदेवस्योत्तमपुरुषस्य विप्रियं कुर्वन् मामिह अत्र गलियों को अटारियों को, चरिकाओं को, श्री गृहों को कोशागारों को श्री कृष्ण ने ध्वंस कर दिया । तथा वह अमरकंका राजधानी भी सरसर शब्द करती हुई उस गर्जना पूर्वक किये गये चरणाघात से जमीन पर गिर पड़ी । (तएण से पउमणाभे राया, अमरकंका रायहाणि संभग्ग जाब पासित्ता, भीए दोवईए देवीए सरणं उवेह ) तब पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को प्राकार गोपुर आदि की ध्वस्त अवस्थावाली देखकर अत्यंन्त भीत हुआ त्रस्त हुआ, उद्विग्न हुआ । और संजात. भय संपन्न होकर द्रौपदी देवी की शरण में पहुँचा । (तएणं सा दोवई देवी, पउमनाभं रायं एवं वयासी) तब उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा - ( किण्णं तुझं देवाणुप्पिया ! न जाणासि कण्ह हुंडा राजधानीनी शेरीगोने, मटारीगोने, यरिप्रभोने, श्रीगृहोते, अशाગારાને શ્રીકૃષ્ણે નષ્ટ કરી નાખ્યા તેમજ તે અમરકકા રાજધાની પણ સરસર શબ્દ કરતી ગર્જનાપૂર્વક કરવામાં આવેલા ચરણાઘાતથી જમીનદોસ્ત થઈ ગઈ.
(तरण से पमणाभे राया, अमरकंका रायदाणि संभग्ग जाव पासित्ता, भी दोई देवीए सरणं उवेइ )
પદ્મનાભ રાજા અમરકકા રાજધાનીના પ્રાકાર, ગાપુર વગેરેને વિનાશ જોઈને ખૂબ જ ભયભીત થઈ ગયા, ત્રસ્ત થઈ ગયા તેમજ ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયા अने संभतलय संपन्न थाने द्रौपट्टी हेवीनी शरणे पडेभ्यो. ( तरणं सा दावई देवी पउमनाभं रायं एवं वयासी ) त्यारे ते द्रौपदी देवी पद्मनाभ શાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે~
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी सरीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२७ हव्यं-शीघ्रम् आनयसि-आनीतवानसि तत्-तस्मात्-' एवमवि गए ' एवमपि गते-इत्थंममापहरणे कृतेऽपि, गच्छ खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! स्नातः ‘उल्ल पडसाडए' आर्द्र पट्टसाटकः स्नानेनाऽऽीकृतोत्तरीयपरिधानवस्त्रधारी ' अवचूलगवत्थणियन्थे ' अवचूलकवस्त्रणियत्था=अवचूलकम्-अधोमुख नीचैलम्बमानं चलंवस्त्राञ्चलं-वस्त्रप्राप्तं यथा भवति तथा 'णियत्थं' परिहितं वस्त्रं येन स तथा-स्त्रीणां परिधानमिव चरणपर्यन्तलम्बितवस्त्रान्तं यथास्यात्तथा परिहितवस्त्र इत्यर्थः । 'अंतेउरपरियालसंपरिखुडे' अन्तःपुरपरिवारसंपरितृतः स्त्री परिवारेण सहितः, 'अग्गाई' अग्र्याणि वराणि रत्नानि गृहीत्वा मां पुरतः ' काउं' कृत्वा कृष्णं स्स वा सुदेवस्स उत्तमपुरिसस्म विप्पि यं करे माणे ममं इह हव्यमाणेसि) हे देवोनुप्रिय ! क्या तुम उत्तम पुरुष कृष्णवासुदेव को नहीं जानते हो जो उनको अनिष्ट कर तुम मुझे यहां ले आये हो । (तं एव. मविगए गच्छणं तुमं देवावुप्पिया! पहाए उल्लपडसाडए अव चलगवस्थाणियत्थे अंते उरपरियालसं परिवुडे, अग्गइं वराई रयणाई गहाय, ममं पुरओ, काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि) खैर अय इस यात को जाने दो-हे देवानुप्रिय ! तुम स्नान करो, और गीले वस्त्र पहिने हुए ही श्री कृष्णवासुदेव की शरण में जाओ । जाते समय तुम स्त्रीयों के परिधान के समान चरण पर्यन्त लटकते हुए वस्त्र पहिनकर जाना । अकेले मत जाना किन्तु अपने अंतःपुर की समस्त स्त्रियों को साथ में ले जाना। रीते हाथ भी मत जानो किन्तु भेट निमित्त वेश कीमती रत्नों को लेकर और मुझे आगे करके चलना ।
(किणं तुम देवाणुप्पिया ! न जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हबमाणेसि)
હે દેવાનુપ્રિય ! શું તમે ઉત્તમ પુરૂષ કણ-વાસુદેવને ઓળખતા નથી. મને અહીં લાવીને તમે તેમનું જ અનિષ્ટ કર્યું છે.
(तं एवमविगए गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! हाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे, अग्गाई वराई रयणाई गहाय, ममं पुरतो, काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि )
ખેર, છેડો એ વાતને. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હવે સ્નાન કરો અને ભીના વસ્ત્રોથી જ શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવની શરણમાં જાઓ. જતી વખતે તમે સ્ત્રીઓના પરિધાન ( ચણિયા) ની જેમજ પગ સુધી લટકતા વસ્ત્રો પહેરજે. તમે એકલા જતા નહિ પરંતુ રણવાસની બધી સ્ત્રીઓને સાથે લઈને જજે. તમે ખાલી હાથે તેમની પાસે જતા નહિ પણ કંઈક ભેટ સ્વરૂપ કિંમતી વઓને લઈને
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এখনকখা वासुदेवं 'करयलपायपडिए ' करतलपादपतित:-संयोजितकरतलद्वयः, पादयोः पतितः सन् शरणं उपहि-त्रायस्वमामितिबदन् उपगतो भवेत्यर्थः । हे देवानु. प्रिय ! — पणिनइयवच्छला' प्रणिपतितवत्सला-चरणोपरिनिपतितानां वत्सलाः स्नेहवन्तः खलु उत्तमपुरुषाः भवन्ति प्रणाममाण महापुरुषाः प्रसीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं स प्रद्मनाभो राजा द्रौपद्या देव्या एतमर्थ उक्तकथनरूपमर्थ पतिश्रृगोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्नातो यावत् शरणमुपैति द्रौपदीवचनमनुसृत्य पद्मनाभो राजा कृष्ण गसुदेवस्य शरणमुपगत इत्यर्थः। उपेत्य करतलपरिगृहीतदशनवं शिर आवत मस्त केऽजलिं कृत्वा एअक्ष्यमागप्रकारेण, आदीद्-दृष्ट्वा वहां पहुँच कर तुम दोनों हाथ जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पणिवइयवच्छलो ण देवाणुप्पियो उत्तमपुरिसो तएणं से पउमनामे दोवईए देवोए एयमढे पडिणेइ, पडिसुणित्ता पहाए जाव सरणं उवेइ, उवित्ता, करयल०एवं वयासी दिट्ठाणं देवानुप्पियाणं इडी, जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणुप्पिया।) हे देवाणुप्रिय ! उत्तम पुरुष जो हुआ करते हैं वे प्रणिपतितवत्सल हुआ करते हैं-प्रणाममात्रसे महापुरुष प्रसन्न हो जाया करते हैं-अर्थात् नमन करनेवालेको वे नहीं मारते तय पद्मनाम राजाने द्रौपदी देवीके इस शिक्षाप्रद कथनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर बाद में उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरण में पहुंच गया। शरण में पहुंच कर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर अंजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण करके उसे शिरपर रखा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मैंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલજો. ત્યાં પહોંચીને તમે બંને હાથ જોડીને તેમના પગે પડજે.
(पणिवइय वच्छलाणं देवाणुप्यिो उत्तमपुरिसा, तएणं से पउमनामे दोवइए देवीए एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ, उवित्ता करयल एवं वयासी,दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं इड्री जाव परक्कमे तं खामेमि णं देवाणु प्पिया!
હે દેવાનુપ્રિય! ઉત્તમ પુરૂષે તેમની સામે વિનમ્ર થયેલા માણસો પ્રત્યે એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે. ફક્ત નમસ્કાર કરવાથીજ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જાય છે. આ બધું સાંભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રોપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન રૂ૫ અર્થને સ્વીકારી લીધું. સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યું યાવત્ તે દ્રૌપદીના કહ્યા મુજબ જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની શરણમાં ગયે. શરણમાં જઈને તેણે પિતાના બંને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને તેના માથા ઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે-દેવાનુપ્રિય ! તમારી
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५२९ खलु देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिर्यावत् पराक्रमः-तत्=तस्मात् क्षमयामि खलु हे देवानुप्रियाः ! यावत् क्षमन्तु खलु यावत् नाहं भूयो भूयः एवं करणतया पुनरेवं न करिष्यामि, इति कृत्वा-इत्युक्त्वा-' पंजलिवुडे ' पाञ्जलिपुटः-संयोजितकरतलद्वयः पादपतितः कृष्णस्य वासुदेवस्य द्रौपदी ' साहत्थि ' स्वहस्तेन, उपनयति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मनाभमेवमवादीत्-हं भोः ! पद्मनाभ ! अप्रार्थितप्रार्थित ! हे मरणवाञ्छक ! ४ किं खलु त्वं न जानासि मम भगिनीं द्रौपदी देवीमिहहव्यमानयन् , ' तं' तत्-तस्मात् 'एवमवि गए ' एवमपिगते अनेन प्रकारेण शरणं प्राप्ते सति, नास्ति ते तव मद्यमिदानीमिति कृत्वा प्रतिविसर्जयति । प्रतिविमृज्य द्रौपदों देवीं गृह्णाति, गृहीत्वा रथं दूरोहति आरोहयति देखली, यावत् पराक्रम देख लिया। हे देवानुप्रिय ! मैं अपने अपराध की क्षमा मांगता हूँ। (जाव खमंतु) यावत् आप मुझे क्षमा दें। (णं जाव णा हं भुज्जो २ एवं करणाए ) अब मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा। (त्ति कटूटु पंजलिचुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइं देवि सा हत्थि उवणेइ) इस प्रकार कहकर वह दोनों हाथ जोड उन कृष्णवासुदेव के पैरों पर गिर पड़ा और अपने हाथ से ही उसने फिर उनके लिये द्रौपदी सौंपदी। (तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी -हं भो ! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया ४ किण्णं तुमं ण जाणासि मम भगिणि दोबई देविं इह हव्व माणमाणे तं एवमविगए, णत्थि ते ममाहितो इयाणिं भयमस्थि त्ति कटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ, पडि विसज्जित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिण्हित्ता रहं दुरूहेइ, दुरूहित्ता जेणेव મેં ઋદ્ધિ જોઈ લીધી છે, યાવત્ તમારું પરાક્રમ પણ મેં જોઈ લીધું છે. તે हेवानुप्रिय ! ई भा२। अ५२॥ स क्षमा मांशु छु' (जाव खमंतु ) यावत् तभे भने क्षमा ४२१. (ण जाव णाह भुज्जो २ एवं करणाए) वेश हुँ या हापि नहि ४३ (त्ति कटु पंजलिवुडे पायव डिए कण्हस्व वासुदेवरस दोवइं देवि साहत्थि उवणेइ ) मा प्रभारी डीन ते माने नान કૃષ્ણ-વાસુદેવના પગમાં આળોટી ગયો અને ત્યારપછી તેણે પોતાના હાથથીજ દ્રૌપદી તેમને સેંપી દીધી.
(तएणं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी-हं भो ! पउभणामा ! अपत्थियपत्थिया ४ किण्णं तुम ण जागासि मम भगिणिं दोवइं देवि इह, इन्च माणमाणे त एवमपि गए, णस्थि ते ममाहितो इयाणि भयमत्थि त्तिकटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ पडिविसज्जित्ता दोवई देवि गिण्हद, गिण्हित्ता रहं दुरूहेइ, . ७
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५५०
पाताधर्मकथा आरोह्य यौव पञ्च पाण्डवास्तौवोपागच्छति, उपागत्य पश्चानां पाण्डवानां द्रौपदी देवीं ' साहत्थिं ' स्वहस्तेन, उपनयति ददाति । ततः खलु स कृष्णः पञ्चभिः पाण्डवैः मार्धमात्मषष्ठः षडभीरथैलवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन यौव जम्बूद्वीपो द्वीपः, यौव भारतं वर्ष तौव माधारयद् गमनाय गन्तुं प्रतः ॥ सू०२९।। पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवह देवि साहत्थि उवणेइ) तष कृष्णवोसुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा अरे ओ पद्मनाभ ! तुम इस तरह से अकाल में ही मरण के अभिलाषी क्यों बने ४क्यातुझे यह पता नहीं था कि द्रौपदी मेरी बहिन है । क्यों तूं इस को यहां ले आया! खैर-जय तू इस रूप में मेरी शरण में आचुका है-तो अब तुझे किसी भी प्रकार का मेरी तरफ से भय नहीं रहा-ऐसा कहकर कृष्णवासुदेव ने उसे विसर्जित कर दिया-अपने स्थान पर उसे जाने की आज्ञा देदी-। याद में द्रौपदी को साथ में लिया और लेकर वे रथ पर आरूढ हुए। आरूढ होकर फिर वे, वहां आये-जहां पांचों पांडव थे वहां आकर उन्हों ने द्रौपदी को अपने हाथों से पांचो पांडवों के सुपुर्द कर दिया। (तएणं कण्हे पंचेहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छह रहेहिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इसके बाद वे कृष्णवासुदेव पांचों पांडवों के साथ आत्मषष्ठ होकर छहों रथों को ले लवण समुद्र से बीचो दुरूहित्ता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छ। उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवइ देवि साहत्थिं उवणेइ)
ત્યારે કૃષ્ણ-વાસુદેવે પનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે અરે ! પદ્મનાભ! તમે આ પ્રમાણે અસમયમાં જ મરણના અભિલાષી કેમ બની ગયા છો?, શું તમને ખબર નહોતી કે દ્રોપદી મારી બહેન છે તું એને અહીં શા માટે લઈ આક? ખેર, તું જ્યારે આ સ્થિતિમાં મારી પાસે આવ્યો છે તે હવે તારે મારા તરફથી કઈ પણ જાતને ભય રાખવો જોઈએ નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેને વિદાય કર્યો. ત્યારપછી દ્રૌપદીને સાથે લઈને તેઓ રથ ઉપર સવાર થયા. સવાર થઈને તેઓ જ્યાં પાંચે પાંડે હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પિતાના હાથથી દ્રૌપદીને પાંચ પાંડવોને સેંપી દીધી.
(तएणं से कण्हे पंचेहि पंडवेहिं सद्धि अप्प छट्टे छहिं रहेहिं लवणसमुह मझ मज्ज्ञेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे जेणेव भारहेवासे तेणेब पहारेत्थ गमणाए।
ત્યારબાદ તે કૃષ્ણ-વાસુદેવ પાંચે પાંડવોની સાથે આત્મષણ થઈને છાએ
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जीटी० ५० १६ द्रौपदी चरितनिरूपणम्
५३१
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरस्थि - मिद्धे भारहे वासे चंपा णामं णयरी होत्था, पुण्णभद्दे घेइए, तत्थ णं चंपाए नयtए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महिया हिमवंत० वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं मुनिसुव्वए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्मं सुणेइ तणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयस्स अरहओ धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्त संखसद्दं सुणेइ, तरणं तस्स कवि - लस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था - किं म धाइडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसद्दे ममंपित्र मुहवाय पूरिए वीयं भवइ, तपर्ण मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी - से णूणं ते कविला वासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसदं आकण्णित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए किं मन्ने जाव वीयं भवइ, से
A
कविला वासुदेवा ! अयमट्टे' समट्ठे ? हंता ! अस्थि, नो कविला ! एवं भूयं वा३ जन्नं एगे खेत्ते एगे जुगे समए दुवे अरहंता वा चक्की वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिंसु उप्पज्जिति उप्पज्जिस्संति वा, एवं खलु वासुदेवा ! जंबूद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्थिणाउरणयराओ पंडुस्स रण्णो पुव्व
बीच हो जहां जंबूद्वीप नाम का द्वीप, जहां भरतक्षेत्र नाम का क्षेत्र था उस ओर चल दिये ॥ सू०२९ ॥
રથાને લઇને લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જ્યાં જબુદ્વીપ નામે દ્વીપ, અને તેમાં પણ જ્યાં ભારતવષ નામે ક્ષેત્ર હતું તે તરફ રવાના થયા. ડા સૂત્ર ૨૯ ॥
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कथाक्र
संगइएणं देवेणं अमरकंकाणयरिं साहरिया, तरणं से कण्हे वासुदेवे पंचाहि पंडवेहिं सद्वि अप्पछडे छहिं रहेहि अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए, तएणं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रण्णा सद्धि संगामे संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इव वीइं भवइ, तरणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ२ एवं वयासी - गच्छामि णं अहं भंते! कण्हे वासुदेवे उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि, तरणं मुनिसुव्वए अरहा कविले वासुदेवे एवं वयासी - नो खलु देवाशुप्पिया ! एवं भूयं वा३ जण्णं अरहंतो वा अरहंत पासइ anant वा चक्कवहिं पासइ बलदेवा वा बलदेवं पासइ वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ, तहविय णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुहं मज्झंमज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासिहिंसि, तणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्त्रयं वंदइ नमसइ वंदित्ता न मंसित्ता हत्थिखंधं दुरूहइ दुरूहित्ता सिग्घं२ जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झमज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासइ पासित्ता एवं वयइ-एसणं मम सरिस पुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयइत्तिकट्टु पंचजन्नं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ, तपणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसद्दं आयन्नेइ आयन्नित्ता पंचजन्नं जाव पूरियं करेइ, तपणं दोवि वासुदेवा संखसदसा
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका ८० १६ द्रौपदीचरित निरूपणम्
५३३
मायारिं करेइ, तएण से कविले वासुदेवे जेणेत्र अमरकंका तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अमरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं जाव पासइ पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी - किन्नं देवाणुप्पिया ! एसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवइया ?, तरणं से पउमनाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु सामी ! जंबूद्दी - वाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुब्भे परिभृए अमरकंका जाव सन्निवाडिया, तरणं से कविले वासुदेवे पमणाहस्स अंतिए एयम सोच्चा पउमनाहं एवं वयासी हं भो ! पउमणाभा ! अपत्थियपत्थिया किन्नं तुमं न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ?, आसुरुते जाव पउमणाहं णिव्विसयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्ते अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव पडिगए ॥ सू० ३० ॥
"
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टीका - तेणं कालेणं ' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धातकी - षण्डे द्वीपे पौरस्त्यार्थे भारते वर्षे चम्पा नाम नगरी आसीत् । तस्या बहिर्भागे पूर्णभद्र नाम चैत्यम् = उद्यानम् आसीत् । तत्र तस्यां खलु चम्पानगर्यां
' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि ॥
टीकार्थ- (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस कालमें और उस समय में ( धायइसंडे दीवे, पुर स्थिमद्धे भारहेवासे चंपा णामं णयरी होत्था, पुण्ण He are ) घातकी षंड द्वीप मे पूर्व दिग्भागवत भरत क्षेत्र में चंपा
' तेर्ण कालेणं वेण समएणं ' इत्यादि -
टीडार्थ' - (तेणं काळेणं तेणं समएणं) ते ठाणे भने ते समये (घायइ स डे दीवे, पुर स्थिमद्धे भारहेवासे चंपा णामं णयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए) घातडी ષ'ડદ્વીપમાં પૂર્વ દિભાગવત્ ભરતક્ષેત્રમાં ચંપા નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતું.
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વર્ષ
छाताधर्मकथासूत्रे
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कवि णाम' कपिलो नाम वासुदेवो राजाऽऽसीत् 'महया हिमवंत ० ' वण्णओ ' महाहिमवानित्यादि वर्णकः वर्णनं पूर्वोक्तवद् बोध्यम् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुनिसुव्रतोऽईन् चम्पायां नगर्यां पूर्णभद्रे नाम्नि चैत्ये समत्रसृतः । तस्य समीपे कपिलो नाम वासुदेवो धर्मं श्रृणोति । ततः खलु स कपिलो वासुदेवः मुनिसुव्रतस्यार्हतोऽन्तिके धर्म शृण्वन् कृष्णस्य वासुदेवस्य शङ्खशब्दं शृणोति ततः खड्ड तस्य कपिलस्य वासुदेवस्य अयमेतद्रूप := वक्ष्यमाणस्वरूपः, ' अज्झत्थिए ' आध्यात्मिकः = आत्मगतः संकल्पो= विचारः, यावद् समुदपद्यत - किम्-अन्यो घातकीपण्डे द्वीपे भारते वर्षे द्वितीयो वासुदेवः नामकी नगरी थी । उसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था । ( तत्थणं चंपा नयरीए कपिले नाम वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहो, चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे ) उस चंपानगरी में कपिल नाम के वासुदेव राज्य करते थे । ये महा हिमवान् पर्वत जैसे गुणों से पूर्ण थे । पहिले जैसा वर्णन राजाओंका भिन्न २ जगह किया गया है वैसा ही वर्णन इसका भी जानना चाहिये । उस काल और उस समय में मुनि सुव्रत तीर्थंकर चंपा नगरी में इस पूर्ण भद्र उद्यान में आये हुए थे ( कविले वासुदेवे धम्मं सुणेह, तरण से कविले वासुदेवे मुणिस्रुव्वयस्स अरहाओ धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसदं सुणेइ, तएण तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयावे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था - किं मण्णे, धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुपपणे ? जस्स णं अयं संखसद्दे ममपिव मुहवायपूरिए बीयं
( तत्थणं चंपा नयरी कपिले नाम वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं मुनिसुव्त्रए अरहा, चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे ) તે ચંપા નગરીમાં કપિલ નામે વાસુદેવ રાજ કરતા હતા. તેએ મહા હિમવાન વગેરે જેવા મળવાન હતા. પહેલાં જુદા જુદા રાજાઓનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે આ રાજાનું પણ વર્ષોંન જાણી લેવું જોઇએ. તે કાળે અને તે સમયે મુનિસુવ્રત તીર્થંકર ચંપા નગરીમાં તે પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધાર્યા હતા.
( कविले वासुदेवे धम्मं सुणेइ, तरणं से कविले वासुदेवे मुणि सुव्वयस्त अरहाओ धम्मं सुणेमाणे, कण्हस्स वासुदेवस्स संखसदं सुणेइ, तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जिस्था- किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारदेवासे दोच्ये वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसद्दे ममं पित्र मुहवायपूरिए वीयं भवइ )
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी डी० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५३५
1
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समुत्पन्नः ? यस्य वासुदेवस्य खलु अयं शङ्खशब्दो ममेव मुखवात पूरितः - मद्वादितशङ्खध्वनिरिवेत्यर्थः, ' बीयं भवइ ' द्वितीयो भवति । ततः खलु मुनिसुव्रतोऽर्हन् कपिलं वासुदेवम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् -' से णूणं इत्यादि - ' से ' नूनं ते तव हे कपिल वासुदेव ! ममान्तिके धर्म 'णिसामेमाणस्स' निशामयतः= शृण्वतः शङ्खशब्दम् ' आकण्णित्ता' आकर्ण्य= श्रुखा 'इमेयारूवे ' अयमेतदूपः आध्यात्मिकः संकल्पो विचारः समुदपद्यत - किमन्यो वासुदेवः समुत्पन्नः, यस्यायं शत्रुशब्दो यावद् द्वितीयो भवति ' से ' अथ नूनं हे कपिलवासुदेव ! अयमर्थः समर्थः = किं सत्यः ?, कपिल वासुदेवः प्राह - हंता ! अस्थि इति हन्त ! हे प्रभो ! अयमर्थः सत्योऽस्ति | मुनिसुव्रतो भगवानाह हे कपिल वासुदेव ! नो ख्लु एवम्= ईदृशं, ' भूयं वा ' भूतं वा = अतीतं वा भवद् वा = वर्तमानं वा भविष्यद् वा अनागतं वा कालत्रयेऽप्येवं न भवतीत्यर्थः, 9 जन्न यत् खलु एकस्मिन् क्षेत्रे, एकभवइ) उनके पास वे कपिल वासुदेव धर्मका उपदेश सुन रहे थे । सो उस कपिल वासुदेवने मुनिसुव्रतप्रभुके पास धर्मका उपदेश सुनते हुए कृष्ण वासुदेवकी शंखध्वनि सुनि । तब उस कपिल वासुदेवको इम प्रकार आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ- क्या धातकीषंड नामके द्वीपमें वर्तमान भरतक्षेत्र में कोई और दूसरो वासुदेव उत्पन्न हुआ है ? कि जिसके शंखका यह शब्द मेरे द्वारा बजाये गये शंखके शब्द जैसा हुआ है ? (तएण मुणि सुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-से णूणं ते कविला वासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसद्द आकण्णित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए कि मण्णे जाव वीयं भवड़ से णूणं कविला वासुदेव ! अयमट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि, नो खलु कविला एयं भूयं वा३ जन्नं
તેમની પાસે તે કપિલ વાસુદેવ ધર્મોપદેશ સાંભળી રહ્યા હતા. તે કપિલ વાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુની પાસે ધર્મોપદેશ સંભળતાં જ કૃષ્ણવાસુદેવના શંખના ધ્વનિ સંભળ્યેા. ત્યારે તે કપિલ વાસુદેવને આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મનેાગત સોંકલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે શું ઘાતકી ષડ નામના દ્વીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રમાં કાઈ ખીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયેા છે ? કેમકે તેના શંખના આ ધ્વનિ મારા વડે વગાડવામાં આવેલા શખના ધ્વનિ જેવા જ છે.
(तणं मुणि सुत्र अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी - से णूणं ते कविलावासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसद्दं आकण्णित्ता इमेयारूवे अस्थिर किं मण्णे जाव वीयं भवइ, से णूणं कविळा वासुदेवा । अयमट्टे समट्ठे ? हंता, अस्थि, नो खलु कविला एयं भूयं वा ३ जन्नं एगखेते एगे जुगे
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५३६
बाताधर्मकथासू
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स्मिन् युगे, एकस्मिन् समये द्वावईन्तौ वा चक्रवर्तिनौ वा बलदेवौ वा वासुदेव वा ' उपज्जिसु ' उदपद्येताम् ' उपज्जिति ' उत्पयेते ' उपज्जिस्संति ' उत्पत्स्येते वा, एवं खलु हे वासुदेव ! जम्बूद्वीपाद् भारताद् वर्षाद् हस्तिनापुरनगरात् पाण्डो राज्ञः ' सुण्डा ' स्नुषा-पुत्रवधूः, पञ्चानां पाण्डवानां भार्या द्रौपदी देवी तव पद्म एगे खेत्ते एगे जुगे एगे समए दुवे अरहंता वा, चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा व उपजिल, उपजिति, उपज्जिस्संति वा, ) तब मुनिसुव्रत तीर्थंकर प्रभुने उन कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा हे कपिल वासुदेव ! मेरे पास धर्म को सुनते समय तुम्हें शंख शब्द श्रवण कर इस प्रकार का यह आध्यात्मिक संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ है, कि क्या कोई दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है - जिसके शंख का शब्द मुझे सुनाई दिया है । कहो कपिल वासुदेव ! यही बात है न ? तब कपिल वासुदेवने कहा- हां प्रभो । यही बात है ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ है - तब मुनिसुव्रत भगवान्ने कपिल वासुदेवसे कहा- हे कपिल वासुदेव ऐसी बात न भूतकाल में हुई है और न भविष्यकाल में होगी - न वर्तमान् में होती है कि जो एक ही क्षेत्रमें एक ही युगमें एक ही समय में दो अर्हत प्रभु, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव, दो वासुदेव, उत्पन्न हो रहे हों, उत्पन्न हुए हों और आगे उत्पन्न हों ! ( एवं खलु वासुदेवा ! जंबूदीवाओ भारहाओ वासाओ हत्थिणाउरणयराओ, पंडुस्सरणो सुम्हा एगे समय दुवे अरहंता वा चक्कवट्टो वा वासुदेवा वा उपज्जिसु, उपजिति, उपज्जिस्संति वा )
ત્યારે મુનિસુવ્રત તીર્થંકર પ્રભુએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હૈં કપિલવાસુદેવ મારી પાસે ધને સાંભળતાં શખ–શબ્દ સાંભળીને તમને આ જાતના આધ્યાત્મિક સંકલ્પ-વિચાર ઉત્પન્ન થયા છે કે, શુ કાઈ ખીજે વાસુદેવ ઉત્પન્ન થયા છે-જેના શાખના દિને મને સભળાઇ રહ્યો છે. ખેલે, કિરેલ વાસુદેવે કહ્યું કે હા, પ્રભુ ! એ જ વાત છે. મારા મનમાં એ જ જાતને વિચાર ઉદ્દભવ્યેા છે. ત્યારે મુનિસુવ્રત ભગવાને કપિલ વાસુદેવને કહ્યું કે હું કપિલ વાસુદેવ! આવી વાત ભૂતકાળમાં થઈ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં થશે નહિં અને વર્તમાનકાળમાં સ`ભવી શકે તેમ પણ નથી કે જે એક જ ક્ષેત્રમાં, शोऊ ४ युगभां, भे ४ समयभां मे अईत प्रभु, मे यवर्ती, मे भगदेव, मे वासु દેવ ઉત્પન્ન થયા રાય, ઉત્પન્ન થઇ રહ્યા હોય અને આગળ ઉત્પન્ન થવાના હોય.
( एवं खलु वासुदेवा ! जंबू दीवाओ भारहाओ वासाओ इत्थिणाउरणयाराओ, पंडुस्सरणो, सुन्हा पंचन्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी तत्र पउमनाभस्स
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पारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
नामस्य राज्ञः पूर्वसंगतिकेन देवेनामरकङ्कानगरी ' साहरिया' संहृता=आनीता, ततः खलु सः कृष्णो वासुदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सधैं आत्मषष्ठः षड्भीरथैरमरini राजधानी द्रौपद्या देव्याः ' कूवं ' देशी शब्दोयं प्रत्यानयनार्थकः प्रत्यानयनं कर्तु हव्यमागतः, ततः खलु तस्य कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मनाभेन राज्ञा सार्धं ' संगामं ' संग्रामं युद्धं ' संगामेमाणस्स ' युध्यत, अयं शङ्खशब्दस्तवमुखवातपूरित इव द्वितीयो भवति । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनिसुव्रतं बन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् गच्छामि खलु अहं हे पंच पंडवाणं भारिया दोवईदेवी तव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगई - एवं देवेणं अमरका नयरिं साहरिया, तरणं से कण्हे वासुदेवे पंच पंडवेहिं सद्धि अप्प छहिं रहेहिं अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हव्हमा गए, तएणं तस्स कण्णस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रण्णा सद्धि संगामं, संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इवबीयं भवइ ) सुनो बात इस प्रकार है जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वर्तमान हस्तिनापुर नगर से पांडुराजा की पुत्रवधू पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पूर्व भवीय मित्र कोई देव हरण कर अमरकंका नगरी में ले आया । तब भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण पांच पांडवों के साथ आत्मषष्ठ होकर छह रथों से उस अमरकंका नगरी में द्रौपदी देवी को वापिस ले जाने के लिये बहुत जल्दी आये । तब उन कृष्ण वासुदेव के, पद्मनाभ राजा के साथ युद्ध करते समय शंख का यह शब्द तुम्हारे शंख के शब्द जैसा हुआ है । (तएणं से कविले वासुदेवे मुनिसुव्वयं वदति, २ एवं वयासी गच्छामि णं रणो पुoantri देणं अमरकंका नयरिं साहरिया तरणं से कण्हे वासुदेवे पंच पंडसिद्धिं अपछट्टे छर्दि रहेहिं अमरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूर्व हव्यमागर, तरणं तस्स कण्णस्स वासुदेवस्य पउमणाभेण रण्णा सद्धिं संगामं, संगामे माणस्स अयं संखसद्दे तब मुहवाया० इव बीयं भवइ )
સાંભળેા, વિગત એવી છે કે જબુદ્વીપના ભરતક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન ડેસ્તિનાપુર નગરથી પાંડુરાજાની પુત્રવધૂ પાંચે પાંડવાની પત્ની દ્રૌપદી દેવીને તમારા પદ્મનાભ રાજાના પૂર્વભવના મિત્ર કોઈ દેવ હરીને અમરકંકા નગરીમાં લઈ આન્યા હતા. ત્યારપછી ભરતક્ષેત્રના વાસુદેવ કૃષ્ણ પાંચે પાંડવાની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને છ રથા ઉપર સવાર થયા અને સત્વરે દ્રૌપદી દેવીને પાછાં મેળ વવા માટે ત્યાં પહાંચી ગયા. પદ્મનાભ રાજાની સાથે યુદ્ધ કરતાં કૃષ્ણવાસુદેવે જે શખધ્વનિ કર્યો છે તે તમારા શખના ધ્વનિ જેવા છે.
( त से कविले वासुदेवे मुणि सुव्वयं वदति, २ एवं वयासी, गच्छामि
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ज्ञाताधर्मकथा
भदन्त ! कृष्णं वासुदेवमुत्तमपुरुष पश्यामि ततः खलु मुनिसुव्रतोऽर्द्दन् कपि वासुदेवम् एवमवादीत्-नो खल हे देवानुप्रिय ! एवं भूतं वा भवति वा भविष्यति यत् खलु अर्छन् अर्हन्तं पश्यति, चक्रवर्ती वा चक्रवर्तिनं पश्यति बलदेव वा बलदेवं पश्यति वासुदेवो वा वासुदेवं पश्यति, तथा ऽपि च खलु त्वं अह भंते ! कन्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ) इस प्रकार सुनकर उस कपिल वासुदेव ने मुनि सुव्रत प्रभु को वंदना की - नमस्कार किया वंदना नमस्कार करके फिर उनसे इस प्रकार कहा - हे भदंत ! मैं जाता हूँ और उत्तम पुरुष उन कृष्णवासुदेव से कि जो मेरे जैसे पुरुष हैं - वासुदेव पद के धारक हैं - जाकर मिलता हूँ । (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी) तब मुनि सुव्रत प्रभु ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा - ( नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा ६ जण्णं अरहंतो, वा अरहंतं पासह, चकवट्टी वा चक्कवहिं पाम, बलदेवो वा, बलदेवं पासह, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ) हे देवानुप्रिय ! ऐसी बात न हुई है, वर्तमान में न होती है और न भवियत्काल में होनेवाली है कि जो एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर से मिलें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती से मिले, एक बलदेव दूसरे बलदेव से मिलें, एक वासुदेव दूसरे वासुदेव से मिलें । ऐसा सिद्धान्त का नियम है कि एक तीर्थकर का दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिलाप नहीं होता है ।
अहते ! कन्दं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि )
આ પ્રમાણે સાંભળીને તે કપિલવાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુને વંદન તેમજ નમન કર્યાં. વદન અને નમન કરીને તેમની સામે આ પ્રમાણે વિનતી કરતાં કહ્યું કે હે ભદંત! હું જાઉ છું અને જઇને મારા જેવા તે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ वासुदेव ! यो वासुदेव पहने शोलावे हे- तेभने भजु छु. ( तरणं मुणि सुव्वए भरा कबिल' वासुदेव एवं वयासी) त्यारे भुनिसुव्रत असे ते उचित વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा ३ जष्णं अरहंतो वा अरहंतं पासइ, arrant वा चक्कवर्हि पासर, बलदेवो वा बलदेवं पासर, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ)
હૈ દેવાનુપ્રિય ! એવી વાત કાઈ પણ દિવસે સંભવી નથી, વત માનમાં પણ સ'ભવી શકે તેમ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં પશુ સભવી શકશે નહિ કે એક તીર્થંકર ખીજા તીર્થંકરને મળે, એક ચક્રવર્તી ખીજા ચક્રવર્તીને મળે, એક બળદેવ બીજા મળદેવને મળે. આ જાતના સિદ્ધાન્તના નિયમ છે કે એક
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गतवर्षिणी टी० मं० २६ द्रौपदीचरितनिरूपण में
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कृष्णस्य वासुदेवस्य लचणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजतः श्वेतपीतानि - ध्वजाप्राणि ' पासिहिसि ' द्रक्ष्यसि । ततः खलु स कपिलो वासुदेवो मुनि सुत्रतं वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा हस्तिस्कन्धं दूरोहति = आरोहति आरुह्य शीघ्र २ यत्रैव ' बेलाउळे ' वेलाकुलं समुद्रवेला तटं वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कृष्णस्य वसुदेवस्य लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' वीइवयमाणस्स ' व्यतिव्रजतः = गच्छतः, श्वेतपीतानि ध्वजाग्राणि पश्यति, दृष्ट्वा एवं वदति एसणं मम सदृशपुरुषः उत्तमपुरुषः कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन ' बीइवयइ ' व्यतिव्रजति = गच्छति, इति कृत्वा पाञ्चजन्यं शङ्खं परामृशति गृह्णाति गृहीत्वा मुखवात पूरितं करोति = क पिलवासुदेवः स्वशङ्ख वादयति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कपिचक्रवर्ती का दूसरे और चक्रवर्ती से बलदेव का दूसरे और किसी बलदेव से, वासुदेव का दूसरे और वासुदेव से कभी भी मिलाप नहीं होता है । (तह वियणं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्दे मज्झं मज्झेणं attaयमाणस्स सेया पीयाई धयग्गाई पासिहिसिं) हां, इतना हो सकता हैं कि जब वे कृष्णवासुदेव लवण समुद्र के बीच से होकर जा रहे होवें तब तु मउनकी श्वेत पीत ध्वजाओंके अग्र भाग को देख सकते हा । (तरणं से कवि वासुदेवे मुणि सुव्वधं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता, हस्थि - खंधं दुरूह, दुरुहित्ता सिग्धं २ जेणेव वेलाउले, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्दे मज्झं मज्झेणं वीइवयमाणस्स सेापाधियग्गा पासह, पासिसा एवं वय - एसणं मम सरिस पुरिसे उत्तमपुर से कहे वासुदेवे लवण समुद्दं मज्झं मज्झेणं वीइवयइत्ति कटु
તીર્થંકરની સાથે બીજા તીર્થંકરને મેળાપ કોઇ પણ સ’જોગામાં થતુ નથી. એક ચક્રવર્તીના ખીજા ચક્રવર્તીની સાથે, એક ખળદેવના ખીજા ખળદેવની સાથે તેમજ એક વાસુદેવના ખીજા કેઈ પણ વાસુદેવની સાથે કદાપિ મેળાપ થતા नथी. (तह वियण' तुमं कणदस्स वासुदेवस्स लवण समुदं मज्झं मज्झेणं वीइ. वयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पालिहिसि ) हा, खेम था शडे छे } क्यारे તે કૃષ્ણવાસુદેવ લવણુ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા હોય ત્યારે તમે તેમની सई:, पीजी ध्वनयोना अथभागने लेह शो छो. ( तएण से ) कविले वासुदेवे मुणिसुब्वयं वंदर, नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता हत्थिखंधं दुरूहर, दुरूहित्ता सिंग्धं२ जेणेव वेलाउले, तेणेत्र उवागच्छ, उवागच्छित्ता कण्हस्स बासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झे मज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाहि धयग्गाई पास पासिता एवं पर, एसणं मम सरिसबुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे
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होताधर्मकथाजस्त्रे लस्य वासुदेवस्य शङ्खशब्दम् ' आयन्नेह' आकर्णयति शृणोति, आकर्ण्य पाचजन्यं यावत् मुखवातपूरितं करोति-कृष्णो वासुदेवः स्वकीयं शङ्ख वादयति, ततः खलु द्वावपि वासुदेवौ ' संखसदसामायारि ' शशब्दसामाचारिं-शङ्कशब्देन परस्परमिलनं कुरुतः। पंचयन संख परामुसह, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ) इस प्रकार प्रभु का आदेश सुनकर उन कपिलवासुदेव ने उन प्रभु मुनिसुव्रत भगवंत को वंदना की, नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर वे अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ हुए। और आरूढ होकर शीघ्र जहाँ लवणसमुद्र का वेलातट था -वहां पहुंचे। वहां पहुँचकर उन्होंने लवणसमुद्र के बीच से होकर जाते हुए कृष्णवासुदेव की श्वेत पीत ध्वजाओं के अग्रभाग को देखा देखकर तय मनमें विचार-किया ये ही मेरे जैसे उत्तम पुरुष कृष्णवासुदेव लवणसमुद्र के बीच से होकर जारहे हैंऐसा विचार कर उन्होंने अपने पांचजन्य शंख को उठाया और उठा. कर उसे अपने मुख की वायु से पूरित किया (तएणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेइ, आयन्नित्ता, पंचजन्ने, जाव पूरियं करेइ, तएणं दो वि वासुदेवा संखसद्दसामायारि करेइ, तएणं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयइत्ति कडे पंचजन्नं संखं परामुसइ परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ)
આ રીતે પ્રભુની આજ્ઞા સાંભળીને તે કપિલ વાસુદેવે તે પ્રભુ મુનિસુવ્રત ભગવંતને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમરકાર કરીને તેઓ પિતાના પ્રધાન હાથી ઉપર સવાર થયા અને સવાર થઈને જલદી જ્યાં લવણ સમુદ્રને કિનારો હતો ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે લવણસમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થતા કૃષ્ણ વાસુદેવની સફેદ-પીળી દવાઓના અગ્રભાગને જે અને જોઈને મનમાં વિચાર કર્યો કે મારા જેવા ઉત્તમ પુરુષ કૃષ્ણ વાસુદેવ એ જ છે કે જેઓ લવણ-સમુદ્રની વચ્ચે થઈને પસાર થઈ રહ્યા છે. આમ વિચાર કરીને તેમણે પાંચ જન્ય શંખને ઉઠાવ્ય અને ઉઠાવીને પિતાના મુખના પવનથી તેને પૂરિત કર્યો.
(तएणं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसहं आयन्नेइ, आयभित्ता, पंचजन्नं जाव पूरियं करेइ तएणं दो वि वासुदेवा संखसई सामायारि 'करेइ, तएणं से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता
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अनगारचे ममृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
५४१
ततस्तदनन्तरं स कपिलो वासुदेवो यत्रैवामरकङ्काराजधानी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यामरकङ्क राजधानीं संभग्नतोरणां यावत् पश्यति, दृष्ट्वा पद्मनाभमेवमवादीत् किं कस्मात् खलु हे देवानुप्रिय । एषा अमरकंकां संभग्नतोरणा यावत्सन्निपतिता ? ततः खलु स पद्मनामः कपिलं वासुदेवमेवमवादीत् एवं खलु हे स्वामिन् ! जम्बूद्वीपाद् द्वीपाद् भारताद् वर्षाद् इह हव्यमागत्य कृष्णेन वासुदेवेन ' तुम्भे परिभूए ' युष्मान् परिभूय = अनादृत्य कपिलवासुदेवेन मम काऽपि हानिर्न शक्यते कर्तुमिति मनसि निधायेत्यर्थः, अमरकङ्का यावत् संनिपतिता ।
से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिता अमरकंकं रायहाणि संभग्गतोरणं जाव पासइ, पासिता पउमणाभं एवं वयासी) तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख शब्द को सुना सुनकर उन्हों ने भी पांचजन्य शंख को अपने मुख की वायु से पूरित किया - बजाया - इस तरह वे दोनों वासुदेव साक्षात् रूप में न मिलकर शंख के शब्द से परस्पर में मिले । अब वे कपिल वासुदेव जहां वह अमरकंका नगरी थी वहाँ आये । वहां आकर उन्होंने अमरकंका राजधानी को संभग्न तोरण आदि वाला देखा । देखकर तब पद्मनाम राजा से इस प्रकार कहा - ( किण्णं देवाणुपिया ! एसा अमरकंका संभग जाव सन्निवइया ? तरणं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु सामी ? जंबूदीबाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्यमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूए अमरकंका जाव निवाडिया ) हे देवानुप्रिय ! यह अमरकंका नगरी क्या कारण है- जो अमरकं कारायहाणि संभग्गतोरणं जाव पासइ, पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी ) જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે કપિલ વાસુદેવના શ ́ખનેા ધ્વનિ સાંભળ્યે ત્યારે તેમણે પણ પેતાના પાંચજન્ય શખને મુખના પવનથી પૂતિ કર્યાં અને વગાડયા. આ રીતે તેઓ મને વાસુદેવ પ્રત્યક્ષ રીતે નહિ પણ શંખના ધ્વનિથી પરસ્પર મળ્યા. ત્યારપછી તે કપિલ વાસુદેવ જ્યાં તે અમરકકા નગરી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે અમરકકા રાજધાનીને ધજાએ વગે રેથી નષ્ટ થયેલી જોઇ, જોઈને તેમણે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
--
( किण्णं देवाशुप्पिया ऐसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवइया ? तरणं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु सामी ! जंबूदीबाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्यमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुभे परिभूए अमरकंका जाव सन्निवाडिया )
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
ततः खलु स कपिलो वासुदेवः पद्मनाभस्थान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा पद्मनाभम् एवं वक्ष्यमाणमकारेण, अवादीत्-हं भो ! पद्मनाभ ! अप्रार्थित प्रार्थित ! = मरणवाञ्छक !, किं खलु खं न जानासि मम सदृशपुरुषस्य वासुदेवस्य विभियं= विरुद्धं कुर्वत् !, इत्युक्त्वा आशुरुप्तः = शीघ्रं क्रोधाऽऽक्रान्तः, यावत् पद्मनाभं ' णिन्त्रिसयं ' निर्विषयं विषयात् स्वराज्याद् निर्गतं निष्कासितं कर्तुम् ' आणवेइ ' आज्ञापयति पद्मनामस्य पुत्रममरकङ्काराजधान्यां महता महता राज्याभिषेकेण अभिषिञ्चति, संभन तोरण आदि वाली होकर भूमिसार हो गई है। तब पद्मनाभ राजा ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा- हे स्वामिन् । इसका कारण इस प्रकार है - जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप से भरतक्षेत्र से यहाँ बहुत ही शीघ्र आकर कृष्ण वासुदेव ने आपकी कुछ भी परवाह न करके - कपिल वासुदेव हमारी कुछ भी हानि नहीं कर सकते हैं - ऐसा अपने मन में समझ करके - अमरकंका में आकर उसे पहिले संभग्न तोरण वोली किया और बाद में विध्वस्त कर दिया । (तरणं से कविले वासुदेवे परमणाहस्स अंतिए एयमहं सोच्चा पउमणाहं एवं वयासी) तब पद्मनाभ राजा के मुख से इस समाचार को सुनकर के उस कपिल वासुदेव ने उस पद्मनाभ राजा से इस प्रकार कहा - ( हं भो ! पमणाभा ! अपत्थियपत्थिया ! किन्नं तुमं न जाणासि मम सरिसपुरिसइस कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ? असुरूत्ते जाव पमणाहं णिग्विसेयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंका रायहाणीए महया ધજાએ વગેર ત્યારે પદ્મનાભ વાત એવી છે જલ્દી આવીને
-
હૈ દેવાનુપ્રિય ! શા કારણુથી આ અમરકંકા નગરીની પણ તૂટી ગઈ છે અને સપૂર્ણ નગરી વિનષ્ટ થઈ ગઈ છે! રાજાએ તે કપિલ વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ત્રાસી ! કે જમૂદ્રીપ નામના પ્રથમ દ્વીપના ભરતક્ષેત્રથી અહીં બહુ જ કૂષ્ણુવાસુદેવે તમારી જરાએ દરકાર કર્યાં વગર “ કપિલ વાસુદેત્ર અમારૂં કંઈજ કરી શકશે નહિ ’. આ જાતના પાતાના મનમાં વિચાર કરીને પહેલાં તે અમરકંકાના તારા નષ્ટ કર્યો. અને ત્યારપછી આ નગરીને પણુ જમીનદોસ્ત श्री नाभी छे. (तएण से कविले वासुदेवे परमणाहस्स अतिए एयमट्ठे सोच्चा पनाह एवं बयासी ) त्यारे पद्मनाल राजना भुमश्री या अधी विगत सांभ ળીને તે કપિલવાસુદેવે તે પદ્મનાભ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
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(हं भो ! पउमणामा ! अपत्थियपस्थिया ! किन्नं तुमं न जाणासि मम सरिस पुरिसस कण्हरस वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ? आसुरुते जात्र पउमणादं णिपि
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
५४३
यावत् प्रतिगतः = पद्मनाभस्य पुत्रं राज्येऽभिषिच्य कपिलवासुदेवो यस्यादिशः प्रादुर्भूतस्तां दिशं प्रतिगत इति भावः ॥ सू० ३० ॥
मूलम् - तए से कहे वासुदेवे लवणसमुहं मज्झं मज्झेणं वीsaas, तं पंच पंडवे एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया ! गंगामहानई उत्तरह जाव ताव अहं सुट्रियं लवणाहिवई पासामि, तए णं तं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा जेणेव गंगामहानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति करिता एगहियाए नावाए गंगामहानई उत्तरंति उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति - पहू णं देवाणुपिया ! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणई बाहाहिं उत्तस्तिए उदाहु णो पभू उत्तरित्तपत्ति कट्टु एगट्ठियाओ नावाओ महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव पडिगए) अरेओ मरणवाञ्छक पद्मनाभ ! मेरे जैसे पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय-अनिष्ट करते हुए तुमने मेरा कुछभी ख्याल नहीं किया ? इस प्रकार कह कर वे उस पर बहुत अधिक कुपित हो गये । यावत् उस पद्मनाभ राजा को उन्हों ने अपने देश से बाहिर भी निकाल दिया । तथा उसका जो पुत्र सुनाभ था । उस को बड़े भारी उत्सव के साथ राज्य में अभिषिक्त किया । इस प्रकार पद्मनाभ के पुत्र को राज्य में अभिषिक्त करके वे कपिल वासुदेव जिस दिशा से आये थे उस दिशाकी ओर वापिस चले गये । स ३० ॥
सयं आणवे, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंका रायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंच, जाव पडिगए )
અરે, આ મૃત્યુને ઇચ્છનાર પદ્મનાભ! મારા જેવા પુરુષ કૃષ્ણવાસુદેવનું ભુરૂં કરતાં તે મારી પણ દરકાર કરી નહિ ? આ પ્રમાણે કહીને તેએ ખૂબજ ક્રોધિત થઈ ગયા. યાવતુ તે પદ્મનાભ રાજાને પેાતાના દેશથી બહાર પશુ નસાડી મૂકયેા. ત્યારપછી તેના પુત્ર સુનાલના ભારે ઉત્સવની સાથે રાજ્યાભિષેક કર્યો.
આ રીતે પદ્મનાભના પુત્રને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને કપિલ વાસુદેવ જે દિશા તરફથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ્ પાછા જતા રહ્યા. ॥ સૂત્ર ૩૦ ॥
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माताधर्मकथासूत्रे णूमेति मित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणार चिटुंति, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई पासइ पासित्ता जेणेव गंगामहाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगट्रियाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता एगट्रियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिंगेण्हइ एगाए बाहाए गंगं महाणई बासडिं जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिउ पयत्ते यावि होत्था, तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगामहाणईए बहुमज्झदेसभागं संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेएजाए यावि होत्था तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अब्झथिए जाव समुप्पज्जित्था अहो णं पंच पंडवा महाबलवगा जेहिं गंगामहाणई वासद्धिं जोयणाइं अद्धजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा, इत्थंभूएहिं णं पंचहिं पंडवेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए, तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वितरइ, तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहुर्ततरं समासासइ समासासित्ता गंगामहाणइं बावर्टि जाव उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेवपंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी-अहो णं तुब्भे देवाणुप्पिया! महाबलवगा जेणं तुन्भेहिं गंगामहाणई बासहि जाव उत्तिण्णा, इत्थं भूएहिं तुब्भेहिं पउमं जाव णो पडिसेहिए, तएणं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुब्भेहिं विसजिया समाणा
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जनगारधर्मामृतषिणी टी० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् १४५ जेणेव महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एगढियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव णूममोतुब्भे पडिवालेमाणा चिट्टामो तएणं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पांडवाणं एयम, सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिवालयं एवं वयासी-अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिण्णं वोइवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहित्ताअमरकंका संभग्गन्दोवई साहत्थिं उवणीया तया णं तुन्भेहिं मम महप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सहत्तिकट्टु लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ चूरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रह मद्दणे णामं कोड्डे णिविटे, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था, तएणं से कण्हे वासुदेवेजेणेव बारवई णयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसइ ॥सू०३१॥ ____टीका-'तएणं से इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स कृष्णो वासुदेवो लवणसमुद्रस्य मध्यमध्येन व्यतित्रजति-गच्छति व्यतिव्रज्य तान् पञ्च पाण्डवान् एव. मवादीत-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत्त-उतीर्णा भवत,
तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्णवासुदेवने (लवगसमुई) जब लवण समुद्र में (माझं मझेणं वीइवयइ ) वीच से होकर वे चले जा रहे थे। (ते पंच पंडवे एवं वयासी ) तब पांच पांडवों से ऐसा कहा-(गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगामहानइं उत्तरह जाव
तपणं से कण्णे वासुदेवे इत्यादि
Astथ-(तएण) त्या२५७। (से कण्हे वासुोने) ते वासुदेवे (लवणसमुई। , न्यारे तो सपथ समुद्रनी ( मज्झ मज्झेणं वीइवयह ) १२ये ५४ने पसार यता उता त्यारे (ते पंच पंडवे एवं वयासी) पांच पांडवान मा प्रमाणे ४छु (गच्छहणं तुन्भे देवाणुपिया! गंगा महानदि उत्तरह जाव ताव अहसुद्रिय
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५४६
ज्ञाताधर्मकथासमे
,
यावत् तावदहं सुस्थितं देवं लवणाधिपतिं पश्यामि सुस्थितेन देवेन सह मिलित्वा तमापृच्छयागच्छामि, ततः खलु ते पञ्चपाण्डवा कृष्णेन वासुदेवेन एवमुक्ताः सन्तो यत्रैव गङ्गामहानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' एगट्टियाए ' एकार्थकायाः = महानौकासमानकार्यकारिण्याः ' णावाए ' नावः-नौकाया मार्गणगवेषणं कुर्वन्ति । कृत्वा = मार्गणगवेषणं कृत्वा नौकायामारुह्य ते पञ्च पाण्डवा एकार्थकया नावा गङ्गामहानदी सुत्तरन्ति उत्तीर्य अन्योन्यम् = परस्परमेवं वदन्ति - ' पहू' प्रभुः समर्थः, खलु हे देवानुप्रियाः । कृष्णो वासुदेवो गङ्गामहानदीं ' बाहाहिं बाहुभ्यां= भुजाभ्याम् ' उत्तरितए ' उत्तरीतुम् ' उदाहु ' उताहो अथवा नो ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवई पासामि) हे देवानुप्रियाँ ! तुमलोग जाओ और गंगानदी को पार करो तबतक में लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से मिलकर और उनकी आज्ञा लेकर आता हूँ । (तरणं ते पंच पंडवा कण्हेणं वसुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए गंगामहानहं उत्तरंति ) इस तरह कृष्ण वासुदेव द्वारा कहे गये वे पांचों पांडव जहां गंगा महानदी थी वहां आये । वहां आकर के उन्होंने एकार्थिक- महानौका से जैसी कार्य साधक-नौका मार्गणा एवं गवेषणा की, मार्गणा गवेषणा कर के वे पांचों पांडव नौका पर चढ गंगा महानदी से पार हो गये । (उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति पहूणं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगा महानई बाहाहिं उत्तर
लवणाद्दिवई पासामि ) हे देवानुप्रियो ! तमे लोभ हुवे भयो भने गजा નદીને ઓળંગા ત્યાંસુધી હું લવણુ સમુદ્રના અષિપતિ સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને આવું છું.
(तरणं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा, जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए नावाए गंगा महानई उत्तरंति )
આ રીતે કૃષ્ણવાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા તે પાંચે પાંડવે જ્યાં ગંગા મહા નદી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે એકાર્થિક મહાનૌકા જેવી કામમાં આવી શકે તેવી નૌકાની માગણુા તેમજ ગવેષણા કરી. માગણુા તેમજ ગવેષણા કરીને તે પાંચે પાંડવો નૌકા ઉપર સવાર થઈને ગંગા મહા નદીને પાર ઉતરી ગયા.
( उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति पहूणं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगा
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मैगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० १६ द्रौपदीरितनिरूपणम्
લો
9
7
"
मञ्जुः = समर्थ उत्तरीतुम् इति कृत्वा गङ्गामहानथा बाहुभ्यामुत्तरणे कृष्णवासुवदेस्य सामर्थ्यमस्ति नास्ति वा तद् विजानामीति विचार्य एकार्थिकां नावं= नौकां ' शूर्मेति गोपयन्ति । गोपयित्वा कृष्णं वासुदेवं ' पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः = प्रतीक्षमाणाः तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थितं देवं लवणाधिपतिं पश्यति=सुस्थितेन साकं मिलति दृष्ट्वा तमापृच्छय यत्रैव गङ्गामहानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य एकार्थिकाया नावः = नौकाया मार्गणगवेषणं करोति, कृत्वा, एकार्थकां नावमपश्यन् एकेन बाहुना रथं सतुरगं = सहाश्व, तर उदाहृणो पभू उत्तरिक्तए तिकट्टु एगट्ठियाओ णावाओ शूर्मेति, मित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवाले माणा २ चिठ्ठति, तरणं से कण्हे वासु देवे सुट्ठियं लवणाविई, पासइ, पासिता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवोगच्छइ ) जब पार होकर वे तट पर पहुँच चुके-तब परस्पर में उन्हों ने ऐसा विचार किया हे देवानुप्रियों ! देखो कृष्ण वासुदेव गंगो महानदी को हाथों से तैरकर पार करने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं ? इस प्रकार विचार करके उन्हों ने उस एकार्थि नौका को कृष्ण वासुदेव के आने के लिये वापिस उस पार भेजा नहीं वहीं पर छिपा दिया । और छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते वे वहीं ठहरे रहे । उधर - कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से जाकर मिले और उसकी आज्ञा लेकर जहां गंगा नदी थी वहां आये । (उवागच्छित्ता एगट्टियाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेई, करिता एगट्टियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेव्हह महानई बाहार्दि उत्तरित्तए, उदाहु णो पभू उत्तरितए तिकट्टु एगट्टियाओ णावाओ णूमेंति, भूमित्ता कण्हं वासुदेव पडिवालेमाणा२ चिद्वंति, तए णं से कहे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई, पास, पासित्ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ )
પાર ઉતરીને જ્યારે તેઓ કિનારે પહાંચી ગયા ત્યારે તેમણે પરસ્પર વિચાર કર્યાં કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! કૃષ્ણવાસુદેવ ગંગા મહાનદીને હાથા વડે તરીને પાર કરી શકે કે નહિ ? આમ વિચાર કરીને તેમણે તે ‘એકાર્થિ’ નૌકાને કૃષ્ણવાસુદેવને લાવવા માટે પાછી મેકલી નહિ પશુ ત્યાંજ છુપાવી દીધી. અને છુપાવીને તેએ ત્યાંજ કૃષ્ણવાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રેકાઈ ગયા. કૃષ્ણુવાસુદેવ લવણુ સમુદ્રાધિપતિ સુસ્થિતદેવને મળ્યા અને તેની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને જ્યાં ગંગા નદી હતી ત્યાં આવ્યું.
( उवागच्छित्ता एगट्टियाए समय समंता मग्गगगवेसणं करे, करिता एगट्ठयं अपासनाणे एगाए बाहाए रहे सतुरंग ससारहिं गेव्ह, एगाए बाहाए
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५८
माताधर्मकथासूत्र ससारथिं गृह्णाति एकेन बाहुना गङ्गां महानदी · बासद्धि' द्वापष्टिं योजनानि अर्धयोजनं च 'वित्थिन्न' विस्तीर्णाम् , उत्तरितुं प्रवृत्तश्चाप्यभवत् , ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो गङ्गामहानद्या बहुमध्यदेशभागं संप्राप्तः सन् ‘संते ' श्रान्ता श्रमंप्राप्तः, 'तंते ' तान्तः खिन्नः ‘परितंते' परितान्तः सर्वथा खिन्नः ' बद्धसेए ' संप्राप्तस्वेदः, जातश्चाप्यभवत् । ____ततः खलु कृष्णस्य वासुदेवस्यायमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् मनोगत संकल्पः समुदपद्यत-अहो खलु पश्च पाण्डवा महाबलवन्तः, यैर्गङ्गामहानदी द्वाषष्ठि योजनानि अर्धयोजनं च वित्थिना-विस्तीर्णा बाहुभ्यामुत्तीर्णा, ' इत्थंभूएहिं ' इत्थंभूतैः-ईदृशपराक्रमशालिभिः खलु पञ्चभिः पाण्डवैः पमनाभो राजा यावत् नो एगाए याहाए गंग:महाणई वासहि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्त रिपयत्ते यावि होत्था) वहां आकर के उन्हों ने एकाधिक नौका की सब तरफ सब प्रकारसे मार्गगा गवेषणा की 'मार्गणागवेषण करके जब उनके देखने में एकार्थिक नौका नहीं आई, तब सारथि और घोडों से युक्त रथ को उन्हों ने एक हाथ से पकड़ा और एक हाथ से ६२॥, साढे वासठ, योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार करना प्रारंभ किया। (तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगा महाणईए यहुमज्झदेसभागं संपत्ते समाणे संते, तंते, परितंते, पद्धसेए जाए यावि होत्था, तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयाख्वे अज्झथिए जाव समुप्पवित्था -अहोणं पंच पंडवा महोवलवगा, जेहिं गंगामहाणई वासहि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिण्णा पाहाहिं उत्तिण्णा इत्थंभूएहिं णं पंचहिं पंड.
गंगं महाणई वासदि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिपयत्ते यावि होत्था)
ત્યાં આવીને તેમણે “એકાથિક” નૌકાની ચોમેર બધી રીતે માણુ ગવેષણ કરી. માર્ગણ તેમજ ગવેષણ કરીને જ્યારે “એકાર્ષિક” નૌકા તેમના જોવામાં આવી નહિ ત્યારે સારથિ અને ઘોડાથી યુક્ત રથને તેમણે એક હાથમાં ઉપાડ અને એક હાથ વડે ૬૨” જન વિસ્તીર્ણ તે ગંગા મહા નદીને તરીને પાર કરવા લાગ્યા. __ (तएणं से कण्हे वासुदेवे गंगा महाणईए बहुमज्झदेस भागं संपत्ते समाणे संते, तंते, परितंते, बद्ध सेए जाए यावि होत्था, तएणं कण्हस्स वासुदे वस्स इमे एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-अहोणं पंच पंडवा महाबलवगाजेहि गंगा महाणई वासढि जोयणाई अद्धजोयणं च विच्छिष्णा बाहाहि उत्तिण्णा इत्यं
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%ERE
मैनगारधर्मामृतवषिणी टी० ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
५४९ प्रतिषेधितानो पराजितः, इदमाश्चर्यम् , ततः खलु गङ्गादेवी कृष्णस्य वासुदेवस्य इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं यावत् मनोगतं संकल्प ज्ञात्वा 'थाहं ' स्ताघ-गाधंवितरति, ददाति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मुहूर्तान्तरे ' समासासइ' समाश्व सिति-विश्रामं प्राप्नोति समाश्वस्य गङ्गामहानदी द्वापष्ठिं यावद् उत्तरति, उत्तीर्य वेहिं पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अज्झथिए जाव जाणित्ता थाहं वितरह ) तैरते २ जब वे कृष्णवासुदेव गंगा महानदी के ठीक मज्झ-मध्य भाग में आये-तब वहां तक आते २ वे श्रम प्राप्त हो गये, खेदखिन्न बन गये, और सर्वथा थक गये। यहां तक कि उनके शरीर भर में थकावट की बजह से पसीना २ हो गया। तब उन कृष्णवासुदेव को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। देखो-ये पांचो पांडव बड़े बलिष्ट है-जिन्हों ने ६२॥, योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को हाथों से तैरकर पार कर दिया परन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात हैं-कि ऐसे पराक्रम से युक्त होते हुए भी इन पांडवों से वह पद्मनाभ राजा प्रतिषेधित नहीं हो सका-जीता नहीं जा सका। इस प्रकार के उन कृष्णवासुदेव के इस रूप इस आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प को गंगादेवी ने जानकर उन्हें थाह दे दी ( अधार दिया)। (तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहुतंत्तरं समासासइ) थाह प्राप्त कर कृष्णवासुदेव ने वहां भूएहिं णं पंचहि पंडवेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए-तएणं गंगादेवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अज्झस्थिए जाव जाणित्ता थाहं वितरइ)
તરતાં તરતાં જ્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવ ગંગા મહાનદીના એકદમ મધ્યમાં આવ્યા-ત્યાંસુધી આવતાં આવતાં તે તેઓ થાકી ગયા, ખેદખિન્ન થઈ ગયા, અને એકદમ થાકી ગયા. થાકને લીધે તેમનું સંપૂર્ણ શરીર પરસેવાથી તરબળ થઈ ગયું. ત્યારે તે કૃષ્ણવાસુદેવને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત મને ગત સંકલ્પ ઉદભવ્યું કે જુએ આ પાંચ પાંડવ કેટલા બધા બલિષ્ટ છે કે જેમણે ૬૨ જન વિસ્તીર્ણ આ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી છે પણ એની સાથે આ પણ એક નવાઈ જેવી વાત છે કે એવા પરાક્રમી હેવા છતાંએ આ પાંડવોથી તે પદ્મનાભ રાજા યાવત્ પરાજીત કરી શકાય નહિ. કૃષ્ણ વાસુદેવના ગંગા મહાનદીએ આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મને ગત स४८५ यान तमना भाट थाड माथी. (तएणं से कण्हे वासुदेवे मुहुतंत्तरं समासासइ) था भगवान वासुदेव थापार त्या विश्राम य (समासा०) વિશ્રામ કર્યા બાદ તેમણે
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५५०
पाताधर्मको यव पञ्च पाण्डवास्तवोपागच्छति, उपागत्य पञ्च पाण्डवान् एवमवादीअहो खलु यूयं हे देवानुमियाः ! महाबलवन्तः येन युष्माभिर्गङ्गा महानदी द्वापष्टि योजनानि अर्धयोजनं च विस्तीर्णा यावद् उत्तीर्णा, इत्थंभूतैर्युष्माभिः पद्मनाभो यावत् नो प्रतिषेधितः पराजयं न प्रापितः, ततः खलु ते पश्च पाण्डवाः थोड़ी देर तकविश्राम किया (समासा०)विश्राम करके फिर उन्होंने (गंगा महाणइंधावडिंजाव उत्तरइ,उत्तरित्ता जेणेव पंचपंडवातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तो पंच पंडवे एवं वयासी-अहोणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! महापलवगा जेणं तुम्भेहिं गंगा महाणई वासहि जाव उत्तिण्णा, इत्थंभूएहिं सुन्:हिं पउम जोव णो पडिसेहिए, तएणं ते पंचपंडवा कण्हे णं वासु देवेणं एवं कुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव गुमेमो तुम्भे पडिवाले माणा चिट्टामो) साढे पासठ योजन विस्तीर्ण उस गंगा महानदी को तैरकर पार कर दिया। पार करके फिर वे वहां आये-जहाँ ये पांचो पांडव थे ! वहां आकर उन्हों ने उन पांचो पांडवों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों! तुमलोग बहुत ही अधिक बलशाली हो जो तुमलोगों ने ६२॥ योजन विस्तीर्ण इस गंगा महानदी को बाहुओं से तैरकर पार कर दिया। परन्तु यह आश्चर्य की बात हैं कि इतने पलशाली होकर भी जो तुम से पद्मनाभ राजा पराजित नहीं हो सका।
(गंगा महाणइं बावडिं जात्र उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं क्यासी-अहोणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा जेणं तुन्भेहिं गंगा महाणई वासर्टि जाव उत्तिण्णा इत्थं भूएहि तुम्भेहिं पउमं जाव णो पडिसेहिए, तएणं ते पंच पंडवा कण्हे ण वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खल्लु देवाणुप्पिया! अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगद्वियाए मग्गण गवेसणं तं चेव जाव 'मेमो तुम्भे पडिवाले माणा चिट्ठामो)
| દર યોજન વિસ્તીર્ણ તે ગંગા મહાનદીને તરીને પાર પહોંચી ગયા પાર પહોંચીને તેઓ જ્યાં પાંચ પાંડવો હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પાંચ પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે બહુ જ બળવાન છે કેમકે તમે લેકેએ ૬૨” જન વિસ્તીર્ણ આ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી છે. પણ એની સાથે આ એક નવાઈ જેવી વાત છે કે તમે આટલા બધા બળવાન હોવા છતાં પણ પદ્મનાભ રાજાને હરાવી શક્યા નહિ.
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गमगारधामृतवषिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तः कृष्णं वासुदेवमेवमवादी-एवं खलु हे देवानुपियाः ! वयं युष्माभिर्विसर्जिताः सन्तो यचैव गङ्गा महानदी तत्रैवोपागच्छामः, उपागत्य ' एगट्ठियाए ' एकाथि काया नावो मार्गणगवेषणं कृत्वा 'तं चेव जाव मेमो' तदेव यदुक्तं पूर्व तदेवात्र बोध्यमित्यर्थः-तां नावमधिरुह्य वयं गङ्गामहानदोमुत्तीर्णाः, ततः खलु हे देवानुप्रियाः ! गङ्गां महानदी बाहुभ्यामुत्तरितुं भवन्तः शक्नुवन्ति नवा, इति ज्ञातुं वयमेकाथिकां नौका यावद् 'शूमेमो' गोपयामः, युष्मान 'पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा वयं तिष्ठामः। ___ ततः खलु स कृष्णो वासुदेवस्तेषां पञ्चानां पाण्डवानाम् एतमर्थ श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य हृद्यवधार्य आशुरुताः-शीघ्रं संजातकोपः, यावत् त्रिवलिकां रेखाइस प्रकार जय कृष्णवासुदेवने उन पांचो पांडवों से कहा तब उन्हों ने कृष्णवासुदेव से ऐसा कहा हे देवानुप्रिय ! सुनिये-यात इस प्रकार है जब हमलोगों को आपने वहां से विसर्जित कर दिया-तष हमलोग जहां गंगा महानदी थी-वहाँ आये-वहां आकर हमलोगों ने एकार्थिक नौका की मार्गणा गवेषणा की-नाव के मिलते ही हमलोग उसपर चढकर यहां गंगा नदी को पार कर आये हैं। हमलोगों ने यहां आकर फिर हे देवानुप्रिय ! ऐसा विचार किया - कि - कृष्णवासुदेव गंगा महानदी को हाथों से पार कर सकते है या नहीं-इसी बात को जानने के लिये हमलोगों ने उस एकार्थिक नौका को यहीं छिपा कर रख दिया है। और आपकी प्रतीक्षा में यहां ठहरे हुए हैं। (तएणं से कण्हे वासु. देवे तेति पंचण्हं पांडवाणं एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिव. આ રીતે જ્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે તે પાંચે પાંડવોને કહ્યું ત્યારે તેમણે કૃષ્ણવાસુ દેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! સાંભળો, વાત એવી છે કે અમને બધાને તમે જ્યારે વિદાય કર્યા ત્યારે અમે લોકો ત્યાં ગંગા મહાનતી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને બધાએ એકથક નૌકાની માગણા ગષણા કરી. નૌકા પ્રાપ્ત થતાં જ અમે બધા તેમાં બેસીને ગંગા મહાનદીને પાર કરીને આ તરફ આવી ગયા. આ તરફ આવીને હે દેવાનુપ્રિય ! અમે લેકેએ આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે-કૃષ્ણ વાસુદેવ ગંગા મહાનદીને હાથ વડે તરીને પાર કરી શકશે કે કેમ? આ વાત જાણવા માટે જ અમે લેકેએ તે એકાર્થિક નૌકાને છુપાવીને તમારી પ્રતીક્ષા કરતાં અમે અહીં જ બેસી રહ્યાં હતા.
(तए णं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्डं पांडवाणं एयमढें सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाब तिवलियं एवं वयासी-अहोणं जया मए लवणसमई दुवे जोयण
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माताधर्मकथा त्रयुक्तां भृकुटि ललाटे उन्नीय प्रदर्य, एवमवादीत-अहो-आश्चर्य खलु ' जया यदा-यस्मिन् समये, मया लवणसमुद्रं 'दुवे जोयणसयमहस्सा वित्थिणं ' द्वियोजनशतसहस्रविस्तीर्ण द्विलक्षयोजनपरिमितं विस्तीर्ण 'वीइवहत्ता' व्यतिव्रज्यसमुल्लध्य, पद्मनाभं राजानं ' हयमहिय-जाव पडिसेहिता' इतमथित-यावत् लियं एवं वयासी-अहोणं जया मए लवणसमुहं दुवे जोयणसयसहस्सा. विच्छिन्नं वीइवइत्ता पउमणाभ हयमहिय जाव पडिसेहिता अमरकंका संभग्ग० दोवई साहन्धि उवणीया तया णं तुम्भेहिं मम माहप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सह, त्ति कटूटु लोहदंड परामुसइ, पंचण्हं पंड. घाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिन्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रहमद्दणे णामं कोडूडे गिवेढे,तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धि अभिसममो. गए यावि होत्था, से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवईए गयरी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्तो अणुपविसइ) उन पांचो पांडवों के मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे अपने हृदय में अवधारित कर उन कृष्णवासुदेव को इकदम क्रोध आ गया। त्रिवलियुक्त उनकी दोनों भृकुटियां ललाटतट पर चढ गई। उसी समय उन्हों ने उन पांडवों से कहा यह बड़े आश्चर्य की बात है-जिस समय मैंने २ दो लाख योजन विस्तारवाले लवणसमुद्र को उल्लंघन कर पद्मनाभ राजा को संग्राम मे जीता-उस की सेना को हत मथित किया-राजचिन्हस्वरूप उसकी सयसहस्सा विछिन्नं वीइवइत्ता पउमणामं हय महिय जाव पडिसेहिता अमरकंका संभग्ग० दोवई साहत्थि उवणीया तयाणं तुब्मेहिं मम माइप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सह, त्तिकट्टु लोहदंदं परामुसह, पंचण्डं पंडवाणं रहे चूरेइ, चूरिता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थणं रहमदणे णामं कोड्डे णिवेढे, तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सरणं खंधा वारेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव वारवइ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ)
તે પચે પાંડવોના મુખથી આ કથનરૂપ અર્થને સાંભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં અવધારિત કરીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવ એકદમ ક્રોધાવિષ્ટ થઈ ગયા. ત્રિવલિયુક્ત તેમના બંને ભમ્મર વક થઈ ગયા. તેમણે તે જ સમયે પાંડવોને આ પ્રમાણે કહ્યું કે આ ખરેખર નવાઈ જેવી વાત છે કે જ્યારે મેં ૨ લાખ
જન વિસ્તીર્ણ લવણ સમુદ્રને ઓળંગીને પદ્મનાભ રાજાને યુદ્ધમાં જ, તેની સેનાને મથી નાખી, રાજચિહ્ન સ્વરૂપ તેની પ્રશસ્ત ધ્વજા પતાકાઓને
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भनगारधामृतवर्षिणी०म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् पतिषेध्य-हतमथितप्रवरवीरघातितनिपतितचिहध्वजपताकं यावत् प्रतिषेध्य = संग्रामात् प्रतिनिवर्त्य-पद्मनाभं विजित्येत्यर्थः, अमरकंका राजधानी संभग्नतोरणा यावद् विनिपातिता-विध्वंसिता,तथा-द्रौपदी स्वहस्तेनोपनीता भवद्भयः प्रदत्ताः, 'तयाणं ' तदा तस्मिन् समये खलु युष्माभिर्मम 'माहप्पं ' माहात्म्यं महत्त्वं चलं, ' ण विणाय ' न विज्ञातम् ‘इयाणि ' इदानीम्-अस्मिन् समये 'जाणिस्सह ' ज्ञास्यथ, इति कृत्वा-इत्युक्त्वा, लोहदण्डं 'परामुसइ' परामशति-गृह्णाति पश्चानां पाण्डवानां रथान् चूर्णयति, चूर्णयित्वा ' णिनिसए आणवेइ' निर्विषयान् आज्ञापयति-विषयात स्वदेशतो निर्गताः बहिर्याता इति निर्विषयास्तान् , यूयं मम देशात् निर्विगच्छत, इत्याज्ञापयति स्म' इत्यर्थः । आज्ञाप्य तत्र खलु ' रहमद्दणे णामं कोटे णिविटे' रथमर्दननामा कोष्ठो निविष्टः-रथमर्दनपुरं नाम नगरं स्थापितम् ।
ततस्तदनन्तरं स कृष्णो वासुदेवो यत्रैत्र स्वकः निजः, ' खंधावारे ' स्कन्धावारः-सेनानिवेशस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य स्वकेन स्कन्धावारेण-सोपकरणसैनिकेन सार्धम् अभिसमन्वागतः मिलितश्चाप्यभवत् । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो यत्रैव द्वारवती नगरी, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, अनुपविशति ॥०३१॥ प्रशस्त ध्वजा पताकाओं को जमीन में मिलादिया-उस की राजधानी अमरकंका नगरी को ध्वस्त कर दिया, तथा उससे द्रौपदी को अपने हाथ से लाकर तुमलोगों को दिया उस समय तुमलोगों ने मेरे बल को नहीं जाना ? जो अब जानोगे-ऐसा कहकर उन वासुदेव कृष्ण ने लोह दंडे को उठाया और उससे पांचों पांडवों के रथों को चूर २ कर दिया। चर २ कर के फिर उन्हें देश से बाहिर हो जाने की आज्ञा देदी । आज्ञा देकर उन कृष्ण वासुदेव ने वहीं पर एक रथमर्दन नाम का नगर वसा दिया । इस के बाद वे कृष्ण वासुदेव जहां अपना स्कंधावार था वहां જમીનદોસ્ત કરી નાખી તેની રાજધાની અમરકંકા નગરીને નષ્ટ કરી નાખી અને તેની પાસેથી દ્રૌપદીને લાવીને તમને સેંપી દીધી તે વખતે તમે લોકો મારા બળને જાણી શક્યા નહિ તો હવે મારા બળને તમે જુઓ–આમ કહીને તે કૃષ્ણવાસુદેવે લેહદંડને હાથમાં લીધું અને તેનાથી તેમણે પાંચ પાંડવોના રથના ભૂકેબકા ઉડાવી દીધા. રથને નષ્ટ કરીને તેમણે પાંચે પાંડવોને દેશી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી. આજ્ઞા આપીને તે કુણુવાસુદેવે ઉક એક રથમર્દન નામે નગર વસાવ્યું. ત્યારપછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ જ્યાં પિતાના સિન્યની છાવણી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ પોતાના સિનિકોને
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गताधर्मकथागरने मूलम्-तएणं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जेणेव पंड तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल एवं वयासी-एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता, तएणं पंडुराया तेपंच पंडवे एवं वयासीकहाणं पुत्ता ! तुम्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिविसया आणत्ता?, तएणं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं वयासी-एवं खल्लु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियत्ता लवणसमुदं दोन्नि जोयणसयसहस्साई वीइवइत्ता तएणं से कण्हं अम्हे एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! गंगामहाणइं उत्तरह जाव चिहह ताव अहं एवं तहेव जाव घिटामो, तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई दट्टण तं घेव सव्वं नवरं कण्हस्स चिंता ण जुजइ जाव अम्हे णिव्विसए आणवेइ,तएणं से पंडुराया ते पंचपंडवे एवं वयासा-दुट्टणं पुत्ता!कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमा
हिं, तएणं से पंडुराया कोंतिं देवि सदावेइ सदावि त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! बारवई कण्हस्स वासुदेवस्स णिवेदेहि-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम्हे पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता तुमं च नं देवाणुप्पिया! दाहिणभरहस्स सामी तं संदिसंतुणं देवाणुप्पिया पंच पंडवा कयर दिसि वा विदिसं आये। यहां आकर वे अपने सैनिकों के साथ मिले। बाद में जहां मारावती नगरी थी उस ओर चल दिये वहाँ पहुँच कर वे द्वारावती नगरी में प्रविष्ट हुए ॥ स०३१॥ મળ્યા, ત્યારબાદ તેઓ જે તરફ દ્વારાવતી નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહોંચીને તેઓ દ્વારાવતી નગરીમાં પ્રવિણ થયા. એ સૂત્ર ૩૧ છે
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६६५
मैगारधर्माती टीका मं० १६ प्रोपदीरितनिरूपणम्
वा गच्छंतु ?, तरणं सा कोंती पंडुणा एवं वृत्ता समाणी हत्थि - खंधं दुरूहइ दुरूहित्ता जहा हेट्ठा जाव संदिसंतु णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं ?, तरणं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु पुत्ता ! तुमं पंच पंडवा णिव्विसया आणता तुमं च णं दाहिणड्डूभरह जात्र विदिसं वा० गच्छंतु ?, तरणं से कहे वासुदेवे कोंतिं देविं एवं वयासी - अपूईवयणाणं पिउस्था ! उत्तमेपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवही तं गच्छंतु णं देवाणुपिया ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु तिकट्टु कोंतिं देविं सकारेइ सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ, तरणं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमहं णिवेदेइ, तपणं पंडू पंच पंडवे सदावेइ सावित्ता एवं वयासी - गच्छहणं तुभे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थ र्ण तुम्भे पंडुमडुरं णिवेसेह, तएर्ण पंच पंडवा पंडुस्स रण्णो जाव तहत्ति पडिसुर्णेति सबलवाहणा हयगय हत्थिणाउराओ पडि णिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिले वेयाली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरिं निवेसेंति निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमिति समण्णागया यावि होत्था ॥ सू० ३२ ॥
टीका - तणं ते इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु ते पञ्च पाण्डवा यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यचैव पाण्डू राजा तत्रैवोपागच्छन्ति, -: एणं ते पंच पंडवा इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद (ते पंच पंडवा) वे पांचों पांडव (जेणेव हथिणा उरे) जहां हस्तिनापुर नगर था ( तेणेव उवागच्छंति ) वहां
तएण ते पंच पंडवा इत्यादि
टीडार्थ - (तरणं) त्यारपछी (वे पंच पंडवा) ते पांये पांडवों (जेणेव इस्थिणा उरे) यां हस्तिनापुर नगर तुं ( तेणेव उपागच्छति ) त्यां भाव्या. ( उवा
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५५६
सीताधर्मकथासू
उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवं त्रक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादिषुः- एवं खलु हे तात ! वयं कृष्णेन निर्विषयाः = विषयाद मम देशाद् बहिर्निर्गताः आज्ञप्ताः = कृष्णोऽस्मान् देशाद् बहि निगन्तुमाज्ञप्तवानि - त्यर्थः । ततः खलु पाण्डू राजा तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवादीत् -' कहण्णं' कथंकेन कारणेन खल हे पुत्र ! यूयं कृष्णेन निर्विषया आज्ञप्ताः ? ततः खलु पञ्च पाण्डवाः पाण्डुं राजानम् एवमवदन् - एवं खलु हे तात ! त्रयममरकङ्कातः प्रतिनिवृत्ता लवणसमुद्र' दोनिजोयणस्यं सहस्साई 'द्वियोजनशतसहस्राणि द्विलक्षयोजनपरिमितं ' वीइवइत्ता' व्यतिव्रजिताः - उल्लङ्घिताः । ततः खलु स कष्णोआगए (उवांगच्छता) वहां आकर के ( जेणेव पंडू ) वे जहां पांडु राजा थे ( तेणैव उवागच्छंति) वहां गये ( उवागच्छित्ता) वहां जाकर ( करयल एवं वयासी) उन्हों ने अपने २ दोंनों हाथों कों जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा - ( एवं खलु ताओ !) हे पिताजी ! सुनो- (अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता ) हमलोगों को कृष्ण वासुदेव ने देश से निकल जने को कहा है (तरणं पंडुराया पंच पंडवे एवं वयासी) तब पांडु राजा ने उन पांचों पांडवों से इस प्रकार कहा - ( कहण्णं पुत्ता तुम्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिन्विसया आणत्ता) हे पुत्रो ! किस कारण को लेकर कृष्ण वासुदेव ने तुमलोगों को देश से बाहिर निकल जाने को कहा है (नएणं ते पंच पंडवा पंडुराया एवं वयासी) तब उन पांचों पांडवों ने पांडु राजा से इस प्रकार कहा - ( एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियन्ता लवणसमुहं दोन्नि जोयणसयसहस्साइं बीइवइसा) हे तात !
गच्छित्ता ) त्यां भावीने ( जेणेव पंडू ) तेथेो नयां पांडु शन्न हता ( तेणेव उवागच्छति ) त्यां गया. ( उत्रागच्छित्ता ) त्यां धने ( करयल० एवं वयासी) તેમણે પાતપેતાના બંને હાથો જોડીને તેમને આ પ્રમાણે વિન'તી કરી કે ( एवं खलु ताओ) हे पिता ! सांलणे, ( अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता )
युवासुदेवे अभने देशथी महारता रहेवानी आज्ञा आायी छे. (तएणं पंडु राया पंच पंडवे एवं वयासी) त्यारे पांडु रान्नये पांये पांडवोने या प्रमाणे धुं
- ( कहणं पुत्ता तुम्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया आणत्ता ) हे पुत्रो ! કૃષ્ણવાસુદેવે શા કારણથી તમને દેશમાંથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી छे ? ( तणं ते पंच पंडवा पंडुराया एवं वयासी ) त्याने ते पांथे पांडवो पांडु शलने या प्रमाणे धुं है - ( एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिणियत्ता लवण समुहं दोन्नि जोयणसय सहस्साइं वोइवइला ) हे पिता ! सांलो,
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अनगारधर्मामृतषिणा टौका म0 १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५७ ऽस्मान् एवमवादीत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत, यावत् तिष्ठत । ताव अहं एवं तहेव 'जाव चिट्ठामो' एवं यथा कृष्णवासुदेवस्य वाक्यं पूर्व मुक्त तथैवात्र बोध्यम्-तावदहं सुस्थितं लवणाधिपतिं पश्यामीति । 'जाव चिट्ठामो' यावत्तिष्ठामः-अत्र यावच्छब्देनैवं योजनीयम्-ततः खलु वयं कृष्णवासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो नौकया गङ्गामहानदीमुत्तीर्य, कृष्णो बाहुभ्यां गङ्गामहानदीमुत्तरितुं समर्थों न वेति विज्ञातुं तां नौकां संगोपितवन्तः, ततः कृष्णं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठाम इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थितं लवणाधिपति दृष्ट्वा, ' तं चेव सव्वं ' तदेव सर्व-गगामहानधास्तटे समागत्य, एकाथिकां नावसुनो-बात इस प्रकार है-जय हमलोग अमरकंका नगरी से पीछे आकर २, दो लाख योजन विस्तार वाले लवणसमुद्र को पार कर चुके (तएणं) तय (से कण्हे अम्हं एवं वयासी) उन कृष्ण वासुदेव ने हमलोगों से इस प्रकार कहा-(गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगा महाणई उत्सरह जाव चिट्ठह-ताव-अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चलो और गंगा महानदी को पारकरो-तब तक मैं सुस्थित देव से मिलकर और आज्ञा प्राप्तकर आता हूँ। कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आज्ञप्त हुए हमलोगों ने नौका से गंगा महानदी को पार करके वहीं पर उस नौका को छुपा दिया-इस अभिप्रायसे कि देखें कृष्ण वासुदेव अपने हाथों से तैर कर इस गंगा महानदी को पार कर ने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं । नौका को छिपाकर हमलोग वहीं पर उनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई વાત આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે અમે અમરકંકા નગરીથી પાછા વળતાં ૨ લાખ योन २८ विस्तार वY समुद्रन पा२ री यूच्या (तएणं) त्यारे ( से कण्हे अम्हं एवं वयासी) ते वासुहेव मभने म प्रमाणे ह्यु :(गच्छदणं तुन्भे देवाणुप्पिया ! गंगा महाणइ उत्तर ह जाव चिह-ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो) ७ वानुप्रियो ! तमे लस। अने ॥ भडानहीने पार કરો તેટલામાં હું સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને આવું છું. આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા અમે તૈકા વડે ગંગા મહાનદીને પાર કરીને ત્યાં જ તે નોકાને છુપાવી દીધી. નૌકાને છુપાવવા પાછળ અમારે એ જાતને આશય હતું કે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના હાથથી
તરીને ગંગા મહાનદીને પાર કરી શકે છે કે નહિ ? નૌકાને છુપાવીને અમે . त्यां मनी प्रतीक्षा ४२di २।१७ गया. (तएणं से कण्हे वासुदेवे सुद्वियं
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हाताधर्मकथा मदृष्ट्वा एकेन वाहुना रथं सतुरगं ससारथिं गृहीत्वा, एकेन बाहुना गङ्गामहानदी मुत्तीर्य, समागतः । ' नवरं कण्हस्स चिंता न बुज्झइ' नवरं कृष्णस्य चिन्ता न बुध्यते नवरं-विशेषस्तु हे तात ! नौकायां संगोपितायां सत्यां कृष्णः केनोपायेन गङ्गामहानदीं तरिष्यति इति चिन्ताऽस्माभिर्न बुध्यते-न क्रियतेस्म, अनेनापराधेन ' जाव अम्हे णिधिसए आणवेइ ' यावत्-रथांचूर्णीकृत्याऽस्मान् निर्विषयान् आज्ञापयति । ततस्तदनन्तरं स पाण्डू राजा तान् पञ्चपाण्डवानेवमवादी'दुठ्ठणं' दुष्ठु-अशोभनं खलु हे पुत्राः ! तं युष्माभिः कृष्णस्य वासुदेवस्य विप्पियं ' विप्रियम्-अनिष्टम् कुर्वद्भिः, ततः खलु स पाण्डू राजा कुन्ती देवी शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवादी-गच्छ खलु स्वं हे देवानुप्रिये ! द्वारवती दटूढुण तंचेव सव्वं-नवरं कण्हस्स चित्तो न जुज्जति जाव अम्हे णिवि. सये आणवेइ ) बाद में कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से मिलकर ज्यों ही गंगा महानदी के तट पर आये-तो उन्हें वह नौका नहीं मिली इस कारण वे १ एक हाथ से तुरग एवं सारथि युक्त रथ को ले दूसरे हाथ से गंगा महानदी को तैर कर जहां हमलोग थे-वहां आ गये । “कृष्णजी किस तरह गंगा महानदी को पार करेंगे" यह विचार हमवोगों ने नौका को छिपाते समय नहीं किया। इसी अपराध से उन्हों ने हमारे रथों को चकना चूर कर देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञा दी है । (तएणं से पंडुराया ते पंच पंडवा एवं वयासीदुटुगं पुत्ता ! कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विपियं करेमाणेहि-तएणं से पंडराया कोंतिं देवि सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम लवणाहिाई ठुण तं चे सव्वं-नवर कण्इस्स चित्ता न जुज्जति जाव अम्हे णिव्विसये आणवेइ) त्या२५छी वासुदेव any समुद्रमा मधिपति सुस्थित. દેવને મળીને જ્યારે ગંગા મહાનદીના કિનારા ઉપર આવ્યા ત્યારે તેમને નૌકા જડી નહિ. ત્યારે તેઓ એક હાથમાં ઘેડા અને સારથિ સહિત રથને ઉચકીને બીજા હાથથી ગંગા મહાનદીને તરીને જ્યાં અમે હતા ત્યાં આવી ગયા.
કૃષ્ણવાસુદેવ કેવી રીતે ગંગા મહાનદીને પાર કરશે” નૌકાને છુપાવતાં અમે આ વિષે વિચાર જ કર્યો નહોતે. આ અપરાધથી તેમણે અમારા રથને નષ્ટ કરી નાખ્યા અને અમને દેશની બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા કરી છે.
(तएणं से पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासी-दुवणं पुत्ता ! कयं कण्हहस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहि-तएणं से पंडुराया कोतिं देविं सहावेइ, सहा.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी डीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
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नगरी, कृष्णस्य वासुदेवस्य निवेदय, एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! युष्माभिः पञ्च पाण्डवा निर्विषयाः देशनिष्कासिताः आज्ञप्ताः, यूयं च खलु हे देवानुप्रियाः ! दक्षिणार्ध भरतस्य स्वामिनः । तं तत् तस्मात् संदिशन्तु = कथयन्तु हे देवानुप्रियाः ! ते पञ्च पाण्डवाः कतरां दिशं विदिशं वा गच्छन्तु ? भवतामेव सर्वे देशा:, तर्हि इमे कुत्र गमिष्यन्तीति कथयन्तु भवन्तः । ततः खलु सा कुन्ती पाण्डुना राज्ञैवमुक्ता सती इस्तिस्कन्धं दूरोहति-आरोहयति दूरुहा ' जहाहेडा ' देवाप्पिया ! वारवई कण्हस्स वासुदेवस्स निवेदेहिं एवं खलु देवाणुपिया ! तुम्हे पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! दाहिणडुमरहस्स सामी, तं संदिसंतुणं देवाणुपिया ! ते पंच पंडवा कर दिसिं वा विदिसं वा गच्छंतु ? ) तब पांडु राजा ने उन पांचों पांडवों से इस प्रकार कहा तुम लोगों ने यह सुन्दर काम नहीं किया जो इस प्रकार से कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया उन्हें नहीं रुचने वाला काम किया इस प्रकार कहकर पांडु राजा ने उसी समय कुंती देवी को बुलाया - बुलाकर उससे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वासुदेव के पास जाओ और उनसे निवेदन करो - कि आपने पांच पांडवों को देश से बाहिर निकल जानेके लिये आज्ञा दी है - सो हेदेवानुप्रिय ! आप दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के अधिपति हैंअतः कहें कि वे कौनसी दिशा अथवा विदिशा की ओर जावें । जब आपके ही सर्व देश हैं तो ये कहाँ जावें आप कहें। (तएणं सा कती
वित्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुमं देवाणुपिया ! बारव कण्हस्स वासुदेवस्स निवेदेहिं एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे पंच पंडवा णिन्त्रिसया आणता, तुमं चणं देवाणुपिया ! दाहिणड्रमरहस्स सामी, तं संदिसंतु णं देवाणुपिया ! ते पंच पंडवा करं दिसिं वा विदिसं वा गच्छंतु ? )
ત્યારે પાંડુ રાજાએ તે પાંચે પાંડવાને આ પ્રમાણે કહ્યુ કે તમે લેાકેાએ કૃષ્ણવાસુદેવનું જીરૂં કરીને સારૂ કર્યું" નથી તેમને અણુગમતું કામ તમે કર્યુ છે. આ પ્રમાણે કહીને પાંડુરાજાએ તે જ વખતે કુંતી દેવીને ખેલાવી. ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણવાસુદેવની પાંસે જાએ અને તેમને વિનંતી કરે કે તમે પાંચે પાંડવોને દેશથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી છે. હે દેવાનુપ્રિય ! તમે દક્ષિણાધ ભરતક્ષેત્રના અધિપતિ છે. તા બતાવા કે તેઓ કઇ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય. જ્યારે બધા દેશે! તમારા જ છે ત્યારે બતાવે કે આ લેાકેા કયાં જાય ?
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বাক্ষর यथा अधः, यथापूर्व द्वारवतीमागता तथाऽत्रापि बोध्यम् यावत् संदिशन्तु-अत्र यावदित्यनेनैवं बोध्यम्-द्वारवतों नगरीमागत्य कृष्णेन सत्कृता स्नाता कृतभोजना. सुखासनवरगताऽभवत् इति, ततस्तां कृष्णः पृच्छति संदिशन्तु-कथयन्तु खलु हे पंडुणा एवं वुत्ता समाणी, हस्थिखधं दुरूहइ, दुरूहित्ता जहा हेट्ठा जीव संदिसंतु णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं ? तएणं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता! तुमे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता, तुमं च णं दाहिणभरह जाव विदिसं वो गच्छंतु ? तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंतीदेविं एवं वयासी अपूईवयणा णं पिउत्था ! उत्तम पुरिसा वासुदेवा, बलदेवा, चक्कवट्टी तं गच्छंतु णं देवाणुपिया ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाउलं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिट्टसेवगा भवंतु त्ति कटु कोंतीदेविं सकोरेइ, सम्माणेइ, जाव पडिक्सिज्जेइ ) पांडु के द्वारा इस प्रकार कही गई वह देवी हाथी पर चढी और चढ कर जिस प्रकार पहिले यह द्वारवती आई थी उसी तरह अब भी यह वहां पहुंची। यहां यावत् शब्द से इस प्रकार पाठका संबन्ध लगा लेना चाहिये-जब कुंती द्वारावती नगरी में आई-तष कृष्ण वासुदेवने उनका खूब मनमाना सत्कार कियो। बडे ठाट घाट से उनका प्रवेशोत्सव मनाया-1 कुंतीने स्नान आदि दैनिक कार्यों से निषट कर आनंद के साथ चतुर्विध आहार किया बाद में विश्राम के निमित्त सुखासन पर
(तएणं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणि, इत्थिखधं दुरुहइ, दुरूहित्ता जहा हेढा जाव संदिसंतु णं पिउत्था ! किमोगमणपओयणं ? तएणं सा कौती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमे पंच पंडवा णिबिसया आणत्ता, तुम च णं दाहिण भरह जाव विदिसं वा गच्छंतु ? तएणं से कण्हे वासुदेवे कौती देवि एवं वयासी-अपूई वयणा णं पिउत्था उत्तमपुरिसा देवा, बलदेवा, चकवट्ठी तं गच्छंतु णं देवाणुप्पिया! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेलाउल्लं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु ममं अदिदुसेवगा भवंतु त्ति कटु कौती देवि सकारेइ, सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ)
આ પ્રમાણે પાંડુ વડે આજ્ઞાપિત થયેલી કુંતી દેવી હાથી ઉપર સવાર થઈ અને સવાર થઈને પહેલાં જેમ તે દ્વારાવતી નગરી ગઈ હતી તેમજ અત્યારે પણ પહોંચી. અહીં યાવત્ શબ્દથી આ જાતને પાઠ સમજ જોઈએ કે જ્યારે કુંતી દ્વારાવતી નગરીમાં આવી ત્યારે કૃષ્ણવાસુદેવે તેમને ખૂબ જ સત્કાર કર્યો. બહુ જ ઠાઠથી તેમને પ્રવેશન્સવ ઉજજો. કુંતીએ પણ નાન વગેરે નિત્યકર્મથી પરવારીને સુખેથી ચતુવિધ આહાર કર્યો. ત્યારપછી વિશ્રામ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम्
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पितृष्वसः ! किमागमनप्रयोजनम्, ततः खलु सा कुन्ती कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत् — एवं खल हे पुत्र ! स्वया पञ्च पाण्डवा निर्विषया आज्ञप्ताः त्वं च खलु दक्षिणार्ध भरतस्य यावत् स्वामी, तत् कथय ते पञ्च पाण्डवाः कतरां दिशं विदिर्श वा गच्छन्तु ? । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्तीं देवीमेत्रमवादीत् - ' अपूइवयणा णं ' अपूतिवचनाः=सकृद्वचनाः खलु हे पितृष्वसः ! उत्तमपुरुषाः वासुदेवा बलदेवाश्चक्रवर्तिनः, ' तं ' तत् तस्मात् गच्छन्तु खलु हे देवानुप्रिये ! पञ्च पाण्डवा: ' दाहिणिल्लं' वेलाऊलं ' दाक्षिणात्यं वेला कूलं - दक्षिणसमुद्रतटम्, तत्र पंडुमहुरं पाण्डुमथुरां नगरीं ' णिवेसंतु ' निवेशयन्तु ममादृष्टसेवका भवन्तु, उन्होंने आराम किया । इतने में कृष्ण वासुदेव ने जब वे विश्राम कर चुकीं उन से पूछा- कहिये भुआ जी ! किस प्रयोजन को लेकर यहां आपका आगमन हुआ है तब कुंती ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा हे पुत्र ! आनेका प्रयोजन इस प्रकार है-तुमने जो पांचों पांडवों को अपने देश से बाहर निकल जाने की आज्ञा दी है - सो इस विषय में यह पूछना है कि तुम तो दक्षिणार्ध भरत के अधिपति हो अतः हमें समझाइये कौनसी दिशा या विदिशा में जावें ? इस प्रकार कुंतीदेवीके मुखसे सुनकर कृष्ण वासुदेव ने उससे ऐसा कहा - हे भुआ जी - उत्तम पुरुष, वासुदेव, बलदेव, एवं चक्रवर्ती ये सब अपूतिवचन वाले होते हैं- जो कुछ कहते हैं वह एक ही बार कहते हैं उसमें परिवर्तन नहीं होता है - इसलिये हे देवानुप्रिय ! पांचों पांडव दक्षिण समुद्र पर जावें और वहां पांडु मथुरा नगरी को बसावें स्थापित करें और मेरे अदृष्ट सेवक માટે તેમણે સુખાસાન ઉપર આરામ કર્યાં, જ્યારે તેઓ સારી રીતે વિશ્રામ કરી ચૂકયા ત્યારે તેમને કૃણુવાસુદેવે પૂછ્યું કે મેલી, ફાઇમા, શા કારણથી તમે અહીં પધાર્યાં છે ! ત્યારે કુંતીએ કૃષ્ણવસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું પુત્ર ! હું એટલા માટે આવી ' કે તમે પાંચે પાંડવાને પેાતાના દેશમાંથી બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા કરી છે તે આ વિષે મારે આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવું છે કે તમે તે દક્ષિણા ભરતના અધિપતિ છે, તે આવી પરિ સ્થિતિમાં તમે જ અમને મતાવા કે તેઓ કઇ દિશા કે વિદિશા તરફ જાય ? આ પ્રમાણે કુંતી દેવીના મુખથી બધી વાત સાંભળીને કૃષ્ણવાસુદેવે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ફાઈ ! વાસુદેવ, ખળદેવ અને ચક્રવર્તી આ બધા ઉત્તમ પુરૂષ અપૂતિ વચનવાળા હાય છે તે જે કઈ પણ કહે છે તે એકજ વાર કહે છે તેમાં કાઈ પણ જાતના ફેરફાર થઈ શકતા નથી. એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! પાંચે પાંડવા દક્ષિણ સમુદ્ર તરફ જાય અને ત્યાં પાંડુ મથુરા
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माताधर्मकथा इति कृत्वा कुन्ती देवी सत्कारयति संमानयति. सत्कार्य, संमान्य यावद् विसर्ज यति । ततः खलु सा कुन्ती देवी हस्तिनं समारुह्य हस्तिनापुरमागता यावत् पाण्डो राज्ञ एतमर्थ निवेदयति । ततः खलु पाण्डू राजा पश्च पाण्डवान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ न खलु यूयं हे पुत्राः ! 'दाहिणिलं वेलाऊलं ' दाक्षि. णात्यवेलाकूलं-दक्षिणसमुद्रतटं, तत्र खलु यूयं पाण्डुमथुरा नगरी निवेशयत । होकर रहें । इस प्रकार कहकर उन्हों ने कुतीदेवी का सत्कार किया सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उन्हें अपने यहां से विदा दिया। (तएणं सा कोंती देवी जाब पंडुस्स एयमटुं निवेदेह, तएणं पंडू पंच पंडवे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं क्यासी-गच्छह णं तुम्भे पुत्ता ! दाहिजिल्लं वेलाउलं तत्थणं तुझे पंडुमहुरं णिवेसेह तएणं पंच पंडवा पंडुस्स रणो जाव तहत्ति पडिसुणेति, सबलवाहणा हय गज० हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति,पडिणिक्खमित्ताजेणेव दक्विणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरि णिवेसेंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विउलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था) वहां से हाथी के ऊपर बैठ कर कुंतीदेवी हस्तिनापुर में आगई, यावत् पांडुराजासे कृष्णवासुदेव के कथितआदेश को उन्हों ने सुना दिया। इसके बाद पांडु राजा ने पांचों पांडवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे पुत्रों-तुम यहां से दक्षिण दिग्वी समद्र तट पर जाओ और वहां पांडु मथुरा નગરીને વસાવે અને મારા અદષ્ટ સેવકે થઈને ત્યાં નિવાસ કરે. આ પ્રમાણે કહીને તેમણે કુંતી દેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમણે કુંતીદેવીને ત્યાંથી વિદાય કર્યા.
(तएणं सा कोती देवी जाव पंडुस्स एयमढे निवेदेइ, तएणं पंडू पंच पंडवे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेलाऊलं तत्थणं तुम्भे पंडुमहुरं णिवे सेह तएणं पंच पंडवा पंडुरस रणो जाव तहत्ति पडि सुणति, सबलवाइणा हय गय० हत्थिणाउराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दविश्वणिल्ले वेयाली तेणेव आगच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नगरि णिवेसेंति निवेसित्ता, तत्थणं ते विउलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था) ત્યાંથી હાથી ઉપર સવાર થઈને કુંતીદેવી હસ્તિનાપુર આવી ગયાં. યાવત કચ્છવાસદેવની જે કંઈ આજ્ઞા હતી તે પાંડુ રાજાને કહી સંભળાવી. ત્યારપછી પાંડુ રાજાએ પાંચે પાંડેને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પુત્ર ! તમે અહીંથી દક્ષિણ દિશા તરફના સમુદ્રના કિનારા ઉપર જાઓ અને ત્યાં પાંડુ-મથુરા નગરીને વસા, પિતા પાંડુ રાજાની આ પ્રમાણે
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गरधर्षणी डोका अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम्
५६३
ततः खलु पञ्च पाण्डवाः पाण्डो राज्ञो वचनं यावत् -' तहत्ति ' तथाऽस्तु ' इति कृत्वा प्रतिकृण्वन्ति = स्त्रीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य सबलवाहनाः - सैन्ययानसहिताः, इयगजरथपदातिसंपरिवृताः, हस्तिनापुरात् प्रतिनिष्क्रामन्ति प्रनिनिष्क्रम्य यत्रैव ' दाहिणिल्लं वेलाऊलं ' दाक्षिणात्यं वेलाकूलं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य पाण्डुमथुरां नगरीं निवेशयन्ति निवेश्य तत्र खलु ते विपुलभोगसमिति समत्वागताश्चाप्यभवन् ।। सू०३२ ॥
मूलम् तपणं सा दोवई देवी अन्नया कयाई विष्णसत्ता जाया यावि होत्था, तरणं सा दोवई देवी णवण्हं मासाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालणिव्वत्तबार साहस्स इमं एयारुवं गुणनिष्पन्नं नामधिज्जं करेंति जम्हाणं अम्हं एस दारए पंच पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं - इमस्स दारगस्स णमधेज्जं पंडुसेणे, तपणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्जं करेति पंडुसेणत्ति, बावन्तरिं कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ, थेरा समोसढा परिसा निग्गया पंडवा निग्गया धम्मं सोच्चा एवं जं वरं देवाशुपिया ! दोवई देविं आपुच्छामो पंडुसेणं च
नगरी को बसाओ । पिता पांडु राजा की इस आज्ञा को उन पांचों पांडवों ने "तहत्ति " कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर वे हय, गज, रथ, एवं पदातिरूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर हस्तिनापुर नगर से निकले और निकलकर जहां दाक्षिणात्य वेलोकूल था वहां आये वहां आकर उन्हों ने पांडु मथुरा नगरी को बसाया । बसाकर वहां के विपुल भोगों को भोगते हुए रहने लगे || सू०३२ ॥
આજ્ઞાને તે પાંચે પાંડવાએ “ તત્તિ ” કહીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કરીને તેએ ઘેાડા, હાથી, રથ અને પાયદળવાળી ચતુર ગિણી સેનાની સાથે હસ્તિનાપુર નગરથી બહાર નીકળ્યા-અને નીકળીને જ્યાં દક્ષિણ દિશાને સમુદ્રના કિનારા હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં પહેાંચીને તેમણે પાંડુ-મથુરા નગરી વસાવી. વસાવીને તેઓ ત્યાં પુષ્કળ કામભેગા ભાગવતાં રહેવા લાગ્યા. ॥ સૂત્ર ૩૨ વા
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शाताधर्म कथासूत्रे
कुमारं रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवाणुप्पिया ! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो, अहासुहं देवाणुप्पिया !, तएर्ण ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता दोवई देविं सदावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हेहिं थेराणं अंतिए धम्मेणिसंते जाव पव्वयामो तुमं देवाणुप्पिए ! किं करेसि ?, तरणं सा दोवई देवी ते पंच पंडवे एवं वयासी-जइणं तुभे देवाणुप्पिया ! संसारभउठिवग्गा पव्वयह ममं के अपणे आलंबे वा जाव भविस्सइ ?, अहंपि य णं संसारभउव्विग्गा देवापिएहिं सद्धिं पव्वइस्सामि, तरणं ते पंच पंडवा पंडुसेणस्स अभिसेओ राया जाए जाव रज्जे पसाहेमाणे विहरइ, तणं ते पंच पंडवा दोवई य देवी अन्नया कयाई पंडुसेर्ण रायाणं आपुच्छंति, तणं से पंडुसेणं राया को हुंबिय पुरिसे सहावे सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! निक्खमणाभिसेयं जाव उवटुवेह पुरिससहस्वाहिणीओ सिबियाओ जाव पच्चोरुहंति पच्चोरुहित्ता जेणेव थेरा तेणेव० आलित्ते णं जाव समणा जाया चोहस्स पुव्वाई अहिज्जंति अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहति ॥सू०३२॥
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ममगारधामृतषिणी ० ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् । ५६५
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा द्रौपदीदेवी अन्यदा कदाचित् 'आवण्णसत्ता' आपन्नसत्त्वा गर्भवती जाता चाप्यभवत् । ततः खलु सा द्रौपदीदेवी नवसु मासेषु संपूर्णेषु सार्धाष्टमदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु यावत् सुरूपं सुन्दरं दारक-बालकं ' पयाया' प्रजाता=प्रजनितवती, किं भूतं दारकंसुमाल सुकुमारपाणिपाद, ' णिवत्तवारसाहस्स ' निर्वृत्तद्वादशाहस्स-संप्राप्त द्वादशदिवसस्य दारकस्य इदमेतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुर्वन्ति यस्मात् खलु अस्माकमेष दारकः पश्चानां पाण्डवानां पुत्रो द्रौपद्या आत्मनः, 'त' तत्-तस्माद्
-तएणं सा दोवई देवी इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सादोवई देवी) वह द्रौपदी देवी (अन्नया कयाइं) किसी एक समय (आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था ) गर्भावस्थासे संपन्न हुई । (तएणं सा दोवई देवी णवण्हं मासाणं जाव सुरुवं दारगं पयाया) जब गर्भ ९ नौमास ७॥ दिन का हो गया तब उस द्रौपदी देवी ने पुत्र को जन्म दिया। यह बालक बहुत ही अधिक सुन्दर था । (सूमालणिवत्तयारसाहस्सइमं एयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करेति जम्हाणं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्जं पंडुसेणे) इसके करच. रण आदि अवयव सब ही अधिक सुकुमार थे। जब बारहवां दिन लगा -तब माता पिताओं ने इस पुत्र का गुणनिष्पन्न होने से यह नाम रक्खा यस्मात्-यह पुत्र हम पांचो पांडवों का है तथा द्रौपदी की कुक्षि से
तरण सा दोबई देवी इत्यादि
12 -(तएण) त्या२५छी (सा दोवई देवी) ते द्रोपही हेवी (अन्नया कयाई) मे मते (आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था) सगमा ७. (तएण सा दोवई देवी णवण्हं मासाण जाव सुरूवं दारगं पयाया ) न्यारे न માસ આ દિવસને થઈ ગયે ત્યારે તે દ્રૌપદી દેવીએ પુત્રને જન્મ આપે, તે બાળક ખૂબ જ સુન્દર હતુ.
(सूमालणिव्यत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गुणनिष्फन्नं नामधिज्ज करेंति, जम्हाणं अम्हं एसदारए पंचण्डं पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्जे पंडुसेणे)
તેને હાથ પગ વગેરે બધા અવયવે ખૂબ જ સુકોમળ હતા. જ્યારે બારમે દિવસ આવ્યું ત્યારે માતા-પિતાએ તે પુત્રનું નામ તેના ગુણે વિષે વિચાર કરતાં આ પ્રમાણે રાખ્યું કે આ પુત્ર અમારા પાંચ પાંડવેને છે,
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५६६
हाताधर्मकथासूत्रे
द्वास
भवतु अस्माकमस्य दारकस्य नामधेयं ' पाण्डुसेन ' इति । ततः खलु तस्य दारकारी नामधेयं कुर्वन्ति - 'पाण्डुसेन ' इति । ' बावतारं कलाओ ' पूर्ति कलाः शिक्षिताः, यावद् भोगसमर्थौ जातः, राजकन्यां परिणीय युवराजो यावत् मानुष्यकान् भोगान् भुञ्जानो विहरति - ओस्ते ।
उत्पन्न हुआ है - अतः हमारे इस पुत्र का नाम पांडुसेन होना चाहिये (तपणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पंडुसेणन्ति ) इस ख्याल से उन्हों ने उस नवजात पुत्र का नाम पांडुसेन रख दिया । ( बावन्तरि कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरइ थेरा समोसा, परिसा निग्गया, पंडवा निग्गया, धम्मं सोच्चा एवं वयासी जं वरं देवानुप्पिया ! दोवई देवि आपुच्छामो पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो तओ पच्छा देवानुपिया ! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो) पांडुसेन कुमार को ७२ कलाओं में निपुण बनाने के लिये माता पिताने उसे कलाचार्य के पास भेज दिया। धीरे २ वह ७२, कलाओं में निष्णात बन गया । यावत् भोग भोगने के लायक अवस्था संपन्न भी हो गया । राजकन्याओं के साथ इसका वैवाहिक संबन्ध कर के पिताओं ने इसे युवराज पद प्रदान भी कर दिया - यावत् यह मनुष्यभव संबन्धी काम सुखों को अनुभव करता हुआ अपने समय को आनन्द के साथ તેમજ દ્રૌપદી દેવીના ગર્ભથી તેના જન્મ થયેા છે, એટલા માટે અમારા આ પુત્રનું નામ પાંડુસેન હેાવું જોઈએ.
( तरणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पंडुसेणत्ति ) આ વિચારથી તેમણે તે નવજાન પુત્રનું નામ પાંડુસેન રાખ્યું.
( बावतारं कलाओ जान भोगतमत्थे जाए जुवराया जाय विहरइ, थेरा समोढा, परिसा निग्गया, पंडवा निग्गया, धम्मं सोचा एवं बयासी जं वरं देवापिया ! दोवई देवि आपुच्छामो पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो तभोषच्छा देवापिया ! अंतिए मुंडे भविता जाव पव्वयामो )
પાંડુસેન કુમારને ૭૨ કળાઓમાં નિપુણ અનાવવા માટે માતાપિતાએ • કલાચા ની પાસે એકયેા. આમ ધીમે ધીમે તે ૭૨ કળાઓમાં નિષ્ણાત બની ગયા. યાવત્ તે સ’સારના ભેગા ભાગવવા ચાગ્ય અવસ્થાવાળા પશુ થઇ ગયે. રાજકન્યાઓની સાથે લગ્નો કરાવીને પિતાએએ તેને યુવરાજ પદ્મ પણ સાંપી દીધું. યાવત્ તે મનુષ્ય-ભવ સમધી કામસુખાને અનુભવતા પોતાના વખતને સુખેથી પસાર કરવા લાગ્યા. એક વખતની વાત છે કે પાંડુ-મથુરા નગરીમાં
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'अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीच रित निरूपणम्
अथ कदाचित् तत्र - ' थेरा समोसा स्थविराः समत्रसृताः, परिपन्निर्गता, पाण्डवा अपि स्थविराणां वन्दनार्थं निर्गताः, धर्म श्रुत्वा ते पाण्डवाः प्रतिबुद्धाः सन्त एवमदन्यत् नवरं हे देवानुप्रियाः द्रौपदीं देवीमापृच्छामः पाण्डुसेनं च कुमारं राज्ये स्थापयामः, ततः पश्चात् देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डाभूत्वा यावत् प्रव्रजामः प्रवज्यां गृह्णीमः, तदा स्थविरा ऊचुः - ' अहासुहं देवानुप्पिया ! ' हे देवानुप्रियाः यथासुखं सुखं यथा भवति तथा कुरुत, अलं विलम्बेन, इति भावः । ततः खलु ते पश्च पाण्डवा यत्र स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य द्रौपदों देवीं शब्दयन्ति शब्दयित्वा, एवमवदन् - एवं खलु हे देवानुप्रिये ! वयं स्थविरा - व्यतीत करने लगा । एक समय की बात है कि पांडु मथुरा नगरी में स्थविरों का आगमन हुआ । स्थविरों का आगमन सुनकर नगरी का समस्त जन उनकी वंदना एवं धर्मोपदेश सुनने के निमित्त अपने २ घर से निकले पांचों पांडव भी निकले परिषद को आयी हुई देवकर स्थविरों ने उसे धर्म का उपदेश दिया । उपदेश श्रवण कर परिषद पीछे चली गई। पांडव लोग उस धर्म के उपदेश का पानकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गये - उसी समय उन्हों ने उन स्थविरों से कहा- हे देवानुप्रियों ! हमलोग द्रौपदी देवी को पूछकर और पांडुसेन कुमार को राज्य में स्थापित कर आप देवानुप्रियों के समीपमुंडित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहते हैं । पांडवों की इस प्रकार हार्दिक भावना देखकर उन स्थविरों ने पांडवों से इस प्रकार कहा - ( अहासुहं देवाणुपिया ! तएणं ते पंच पंडवा जेणेव सएगिहे, तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता दोवहं देवि सहावेति, सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु देव णुपिया ! વિરા પધાર્યાં. વિરાના આગમનની જાણ થતાં નગરીના બધા લેકે તેમની વ'ના તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે પાતપાતાના ઘેરથી નિકળ્યા, પાંચે પાંડવા પણ ત્યાં પહેાંચ્યા. પરિષદને આવેલી જોઇને સ્થવિરાએ ધમના ઉપદેશ આપ્યા. ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ જતી રહી પાંડવે તે ધના ઉપદેશ સાંભળીને પ્રતિબેાધિત થઇ ગયા. તેમણે તે જ સમયે સ્થવિરીને વિનંતી કરતાં કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ! અમે દ્રૌપદી દેવીને પૂછી તેમજ પાંડુસેન કુમારને રાજ્યાસને અભિષિક્ત કરીને તમારી પાસે મુક્તિ થઈને ચાવતું પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરવાની અભિલાષા રાખીએ છીએ. પાંડવેની આ જાતની હાર્દિક ઈચ્છા જાણીને તે સ્થવિરાએ તે પાંચે પાંડવેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( अहासु देवाणुप्पिया ! तणं ते पंच पंडवा जेणेत्र सए गिहे, तेणेत्र उवागच्छछ, उवागच्छिता दोवई देविं सद्दार्वेति, सद्दावित्ता एवं क्यासी, एवं
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हाताधर्मकथा णामन्तिके धर्म श्रुतवन्तो यावत् प्रव्रजामः, त्वं हे देवानुप्रिये ! किं करोषि किं करिष्यसि ? । ततः खलु सा द्रौपदी तान् पञ्च पाण्डवान् एवमवादीत्-यदि खलु यूयं हे देगनुप्रिया ! संसारभयोद्विग्नाः जन्ममरणादि दुःखाद् भीताः सन्तो यावत् प्रव्र नथ, मम कोऽन्य आलम्बो वा यावद् भविष्यति ?, अहमपि च खलु संसारमयोद्विग्ना देवानुप्रियैः साध प्रजिष्यामि, ततः खलु ते पञ्च पाण्डवाः पाण्डुसेनस्य अभिषे राज्याभिषेकं कृत्वा स्वराज्ये स्थापितवन्तः, यावद् राजा जातः, यावद् राज्यं प्रमाधयन्=पालयन् विहरति आस्तेस्म । अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयोमो-तुम देवाणुप्पिए! किं करेसि) हे देवानुप्रियों ! जिस प्रकार तुम्हें सुख मिले वैमा तुम को अच्छे काम में विलम्य मत करो। इसके बाद-वे पांचों पांडव जहां अपना घर था वहां आये- वहां आकर के उन्हों ने द्रौपदी देवी को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये ! सुनो बात इस प्रकार है-हमलोगों ने स्थविरोंके पाम धर्मका श्रवण किया है । अतः हमलोगों की भावना मुंडित होकर उनके पास प्रवजित होने की है। अय-तुम्हारी भावना क्या है-हे देवानुपिये कहो तुम हमारे बाद क्या करोगी-(तएणं सा दोवई देवा ते पंच पंडवे एवं वयासी-जइ णं तुम्भे देवाणुपिया ! संसारभउव्यिगा पव्वयह ममं के अण्णे आलंये वो जाव भविस्सह ? अहं पि य णं संमार भउव्विगा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पव्वइस्सामि, तएणं ते पंच पंडवा पंडुप्लेणस्म अभिमे ओ जाव राया जाए, जाव रज्जं पसाहे खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्ययामो तुम देवाणुप्पिए ! किं करेसि)
હે દેવાનુપ્રિયે! જેમ તમને સુખ મળે તેમ કરે, સારા કામમાં મોડું કરે નહિ ત્યારપછી તેઓ પાંચે પાંડવો જ્યાં પિતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે દ્રૌપદી દેવીને બોલાવી. બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળે, વાત એવી છે કે અમોએ સ્થવિરોની પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કર્યું છે, એટલા માટે અમારી ઇચ્છા મુંડિત થઈને તેમની પાસેથી પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરવાની છે. હવે તમારી શી ઈચ્છા છે? હે દેવાનપ્રિયે ! અમને કહે. અમે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરી લઈશું ત્યારબાદ તમે શું કરશો?
(तएणं सा दोबई देवी ते पंच पडवे एवं वयासी-जइणं तुम्भे देवाणुप्पिया! संसारभउम्बिग्गा पन्वयह, ममं के अण्णे आलंबे वा जाव भविस्सह? अहं पि यण संसारभउबिग्गा, देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पन्चहस्सामि, तएणं ते पंच पंडवा पडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए, जाव रज्ज पसाहेमाणे विहरइ)
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भनगारपर्मामृतवर्षिणी री० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
ततः खलु ते पञ्च पाण्डवा द्रौपदी च देवी अन्यदा कदाचित् पाण्डुसेन राजा. मापृच्छन्ति, ततः खलु स पाण्डुसेनो राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयेत्वा, एवमवादीत-क्षिप्रमेव भो ! देवानुप्रियाः! निष्क्रमणाभिषेकं-दीक्षोपयोग स्तूिनि यावद् उपस्थापयत, पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका उपस्थापयत, यावद त्यवरोहन्ति अत्र यावच्छब्देनेदं बोध्यम् , ततः पाण्डुसेनस्य राज्ञोवचनमाकर्ण्य ते गणे विहरह) इस प्रकार पांडवो का कहना सुनकर द्रौपदी देवी ने इन पांचो पांडवों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों! तुमलोग यदि संसार भय से उद्विग्न होकर प्रवजित होना चाहते हो, तो फिर मेरे लये आप के सिवाय और कौन दूसरा आलंबन अथवा आधार होगा। मतः मैंभी आप देवानुनियों के साथ संसार भय से उद्विग्न होकर शिक्षित होऊँगी। इस प्रकार द्रौपदी देवी का कथन सुनकर उन पांचो ांडवों ने पांडुसेन कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज्यपद में स्थापत किया। इस तरह पांडुकुमार राजा हो गया। यावत् राज्य का वह मच्छी तरह पालन करने लगा। (तएणं ते पंच पंडवा दोवईय देवी मन्नया कयाइं पंडुसेणरायाणं आपुच्छंति, तएणं से पंडुसेणे राया कोडं. पेय पुरिसे सहावेइ, सदायित्ता, एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पया ! निक्खमणाभिसेयं जाव उवट्ठवेह, पुरिससहस्सवाहणीओ सेवियाओ उवट्ठवेह, जाव पच्चोरूहति, पच्चोखहित्तो जेणेव थेरा उवा( આ પ્રમાણે પાંડનું કથન સાંભળીને દ્રૌપદી દેવીએ તે પાંચ પાંડેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જ્યારે સંસારભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છે છે ત્યારે તમારા વગર મારા માટે આ સંસારમાં બીજું કયું આલંબન અથવા તે બીજે કયો આધાર થશે ? એટલા માટે હું પણ તમારી સાથે સંસારમયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. આ પ્રમાણે દ્રૌપદી દેવીનું કથન સાંભળીને તે પાંચ પાંડેએ પાંડુસેન કુમારને રાજ્યાભિષેક કરીને તેને રાજ્યસને બેસાડી દીધા. આ પ્રમાણે પાંડુસેન કુમાર રાજા થઈ ગયો યાવત તે રાજ્યનું સારી રીતે રક્ષણ કરવા લાગ્યો.
(तएणं ते पंच पंडवा दोवईय देवी अन्नया कयाइं पंडसेणरायाणं आपुच्छंति, एणं से पंडुसेणे राया कोड बियपुरिसे सद्दावेद, सदावित्ता एवं वयासी, खिप्पामेव सो देवाणुप्पिया। निक्खमाणाभिसेयं जाव उवट्ठवेह, पुरिससहस्सवाहणीओ सेवियाओ उवट्ठवेह, जाव पचोरुहंति, पचोरुहिता जेणेव थेरा तेणेव उवाग० मालित्तेणं जाव समणा जाया, चोइस्सपुवाई. अहिज्जति, अहिज्जित्ता बहूणि
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५७०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे.
कौटुम्बिकपुरुषास्तथास्तु' इत्युक्त्वा तथैव यावदुपस्थापयन्ति, तदा ते पञ्च पाण्डवाः पुरुषसहस्रवाहिनीः शिबिका आरुह्य, पाण्डुमथुराया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शिविकाभ्यः प्रत्यवरोहन्ति = प्रत्यवतरन्ति । प्रत्यवरुहा, 'जेणेव' यत्रै स्थविरास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवादिषुः - ' आलिते गं जाव समणा
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गच्छर आलित्तेणं जाव समणा जाया, चोहसपुव्वाई अहिज्जंति, अहिजित्ता, बहूणि बासाई छट्टमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखम
-
हि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ) इसके बाद पांचों पांडवों ने और द्रौपदी देवी ने किसी एक समय पांडुसेन राजा से दीक्षित होने के लिये पूछा। तब पांडुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उनसे ऐसा कहा - भो देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही दीक्षा में उपयोग आनेवाली वस्तुओं को लाकर उपस्थित करो तथा पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं को भी उपस्थित करो - इस प्रकार पांडुसेन राजा के बचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने “तथास्तु " कहकर उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लिया और दीक्षा में उपयोगी समस्त सामग्री को एवं पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं को लाकर उपस्थित कर दिया। तब वे पांचो पांडव उन पुरुष सहस्रवाहिनी शिबिकाओं पर आरूढ होकर पांडु मथुरा नगरी के बीच से होकर निकले। वहां से निकलकर वे जहां स्थ विर ठहरे हुए थे - वहां आये वहां आकर सबके सब शिविकाओं से बासाई छहमदसमदुवाल सेहिं मासमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ) ત્યારપછી પાંચે પાંડવોએ અને દ્રૌપદી દેવીએ કાઈ એક વખતે પાંડુસેન રાજાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પૂછ્યું. ત્યારે પાંડુસેન રાજાએ કૌટુંખિક પુરુ શ્વાને ખેલાવ્યા ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ઢાકા દીક્ષા વખતે ઉપયેાગમાં આવનારી ખધી વસ્તુ જલ્દી લઈ આવા તેમજ પુરુષ સહસ્રવાહિની પાલખી પશુ લઈ આવે. આ પ્રમાણે પાંડુસેન રાજાના વચન સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ તથાસ્તુ' કહીને તેમની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી અને દીક્ષા માટે ઉપયાગી એવી ખધી વસ્તુઓ તેમજ પુરુષ--સહસ્રવાહિની પાલખી લઈ આવ્યા. ત્યારપછી તે પાંચે પાંડવો તે પુરુષ સહસ્રવાહિની પાલખીઓ ઉપર સવાર થઈને પાંડુ-મથુરા નગરીની વચ્ચે થઈને નીકળ્યા. ત્યાંથી નીકળીને તે જ્યાં સ્થવિર હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં પહાંચીને તે બધા પાલખીઓમાંથી નીચે ઉતર્યાં, નીચે ઉતરીને સ્થવિાની
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मैराधर्मामृतवर्षिणी टीका० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
जाया ' आदीप्तोऽयं लोकः खलु इत्यादि । यावद् श्रमणाः जाताः, चतुर्दशपूर्वाणि अधीयते स्म, अधीत्य बहूनि वर्षाणि षष्ठाष्टमदशम द्वादशैर्मासार्धमा सक्षपणैस्तपोभिरात्मानं भावयन्तो विहरन्ति ॥ ९ ३३ ॥
मूलम् - तणं सा दोवई देवी सोयाओ पञ्चारुहइ जाव पव्वइया सुव्वयाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए दलयइ, इक्कारस अंगाई अहिज्जइ बहूणि वासाणि छट्ठट्टमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ ॥ सू० ३४ ॥
टीका - तणं सा ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु सा द्रौपदी देवी शिबिकातः प्रत्यत्ररोहति प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य यावत् प्रब्रजिता-दीक्षां गृहीतवती । सुन्याए ' सुव्रतायै सुव्रतानामधेयायै ' अज्जाए ' आर्यायै 'सिस्सिगीयत्ताए'
"
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नीचे उतरे । नीचे उतरकर स्थविरों के पास पहुँचे। वहां पहुँचकर उन्हों स्थविरों से इस प्रकार कहा - हे भदंत ! यह समस्त लोक आदीप्त- हो रहा है इत्यादिरूप से अपनी भावना प्रदर्शित कर यावत् वे श्रमण हो गये । चौदह पूर्वो का उन्हों ने अध्ययन किया । अध्ययन करके अनेक वर्षो तक षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मास अर्धमास की तपस्याओं को वे करते हुए विचरने लगे ॥ सू० ३३ ॥
'तणं सा दोवई' इत्यादि ।
6
टीकार्थ - (तए) इसके बाद (दोवई देवी) द्रौपदी देवी (सीयाओ पच्चोoes ) अपनी शिबिका से नीचे उतरी - ( जा पव्वइया, सुब्वयाए अज्जाए सिस्सिणीयता दलयइ, इक्कार सअंगाई अहिज्जइ, बहूनि बासाइं
પાસે પહેાંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે સ્થવિરેશને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદન્ત ! આ સપૂર્ણ જગત સળગી રહ્યું વગેરે રૂપથી પેાતાની ભાવના પ્રકટ કરીને યાવત તે શ્રમણ થઈ ગયા. ચૌદ પૂર્વીનું તેમણે અધ્યयन यु ं, अध्ययन उरीने धयां वर्षो सुधी तेथे षष्ठ, अष्टम हशम, द्वहिश, માસ અમાસની તપસ્યાઓ કરતા રહ્યા. !! સૂત્ર ૩૩ ૫
aणं सा दोवई इत्यादि -
Asie-(agor') cuzun (tak tat) Âludl kal (eftaren qstage ) પાતાની પાલખીમાં નીચે ઉતરી.
(जा पब्बइया, सुन्याए अज्जार सिस्सिणीयत्ताए दलय, इक्कारसअंगाई
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બહ
श्रीधर्मकथा
शिष्यातया ददाति पाण्डुसेनो राजा द्रौपदीं सुव्रतायै शिष्यारूपेण दत्तवानितिभावः । एकादशाङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि पष्ठाऽष्टमदशमद्वादशैस्तपोभिर्याव दात्मानं भावयन्ती विहरति ॥ ०३४ ||
मूलम् - तरणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंडुमहुराओ णयरीओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिटृनेमी जेणेव सुरट्ठाजणवए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तरणं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ० - एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अरिट्ठनेमी सुरट्ठाजणवए जाव वि०, तरणं ते जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोच्चा अन्नमन्नं सहावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणु० जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं वंदणाए गमित्तए छट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ ) नीचे उतरकर यावत् वह भी प्रब्रजित हो गई। पांडुसेन राजा ने उसे द्रौपदी को सुव्रता नाम की साध्वी के शिष्यारूप से प्रदान किया । द्रौपदी आर्या ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बाद में अनेक वर्षों तक छट्ठ अष्टम, दशम, द्वादश तपस्याओं से अपने आपको उसने भावित किया || सू०३४ ॥ अहिज्जर, बहूणि बासाई छमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ )
નીચે ઉતરીને યાવત્ તે પણ પ્રત્રજિત થઈ ગઇ. પાંડુસેન રાજાએ દ્રૌપદીને સુત્રતા નામની સાધ્વીને શિષ્યાના રૂપમાં અર્પિત કરી. દ્રૌપદી આર્યોએ અગિયાર અંગોનુ અધ્યયન કર્યું. ત્યારપછી ઘણાં વર્ષો સુધી છઠ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ તપસ્યાથી પાતાના આત્માને તેણે ભાવિત કર્યાં. ॥ સૂ. ૩૪ ll
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ममगारधर्मामृतषिणी है० म० १॥ द्रौपदीचरितनिरूपणम् अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थेरं भगवंतं वंदति णमंसंति वंदित्ताणमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुम्भेहिं अब्भणुनाया संमाणा अरहं अरिहनेमिं जाव गमित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारो थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुन्नाया समाणा। थेरे भगवते वंदइ णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गा. माणुगामं दुईजमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हथिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति, तएणं ते जुहिडिलवज्जा पत्तारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी णवरं जुहिटिलं आपुच्छति जाव अडमाणा बहुजणसई णिसामेति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी उजितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धि कालगए जाव पहीणे, तएणं ते जुहिडिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा हस्थिकप्पाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ताजेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिट्ठिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिकमंति पडि
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५७४
धर्मक
कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदति पडिदसित्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! जाव कालगए तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुवगहियं भत्तपाणं परिद्ववेत्ता से त्तुंजं पव्त्रयं सणियं सनियं दुरूहित्तए 'संलेहणा सणा झुसियाणं' कालं अणवकंखमाणाणं विहरितपत्तिक अण्णमण्णस्स एयमहं पडिसुर्णेति पडिसुणित्ता तं पुव्वगाहियं भत्तपाणं एते परिटुवेंति परिवित्ता जेणेव सेतुंजे पव्वए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सेत्तुजं पव्वयं दुरुहंति दुरूहित्ता जाव कालं अणवकखमाणा विहरति । तपणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाई चोइसपु०वाई० बहूणि वासाणि० दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्साए कीरइणग्गभावे जाव तमट्ठमारार्हेति तमट्ठमाराहित्ता अनंते जाव केवलवरणाणदंसणे समुपपन्ने जाव सिद्धा ॥ सू० ३३ ॥
टीका-' तरणं थेरा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स्थविरा भगवन्तोऽ न्यदाकदाचित् पाण्डुमथुरातो नगरीतो सहस्राम्रवणादुद्यानात् प्रतिनिष्क्रामन्ति = निर्गच्छन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य निर्गस्य, बहिर्जन पद विहारं विहरन्ति ।
-: एणं थेरा भगवंता इत्यादि ।
टीकार्थ - (ए) इसके बाद (थेरा भगवंतो) उन स्थविर भगवंतोने ( अन्नया काई ) किसी एक समय ( पंडुमहुराओ ) पांडु मथुरा (णयओ) नगरी से ( सहसंबवणाओ) सहस्राम्रवन नाम के ( उज्जा
तएण थेरा भगवंता इत्यादि
टी अर्थ - (तरण) त्यारमाह (धेरा भगवतो) ते स्थविर लगवतोसे (अनया काई ) ते ( पंडु महुराओ ) पांडु भथुरा ( जयरीओ ) नगरीथी
( सहस्रं बबणाओ ) सहसाभ्रवन
नामना (उज्जाणाओ ) उद्यानमा ( पडि
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी दीका म० १६ द्रौपदीपरितनिरूपणम् ५७५
तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हन अरिष्टनेमियत्रैव सौराष्ट्रजनपदस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सौराष्ट्रजनपदे संयमेन तपसाऽऽस्मानं भावयन् विहरति । ततः खल्लु बहुजनोऽन्योन्यमेवमाख्याति-क्ति, एवं भाषते, एवं प्ररूपयति एवं प्रज्ञापयति-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! अर्हन् अरिष्टनेमिः सौराष्ट्रजनपदे यावद् विहरति । ततः खलु ते युधिष्टिरप्रमुखाः पश्चानगारा बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वाज्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा. एवमवदन् ,एवं खलु हे देवानुप्रिय! अर्हन् अरिष्टनेमिः पूर्वाणाओ) उद्यान से (पडिणिक्खमंति) विहार किया (पडिणिक्खमित्ता) विहार करके (यहिया जणवयविहारं विहरंति) बाहिर के जनपदों में विचरने लगे (तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठा जणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तएणं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ) उस काल में और उस समय में अहंत अरिष्टनेमि प्रभु विहार करते हुए जहां सौराष्ट्र जनपद था-वहां आये वहां आकर के वे उस सौराष्ट्र जनपद में संयम और तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। जब वहां के अनेक लोगों को इसकी खबर हुई तब वे परस्पर में इस प्रकार कहने लगे ( एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा। अरिहनेमी सुरट्ठा जणवए जोव वि० तएणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचो अन्नणिक्खमति ) विहार थी. ( पडिणिक्खमित्ता) बा२ रीन त। (पहिया जणवयविहार विहरति) मारना नहोम विडार ४२१॥ साया. .
( तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहा जणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठा जणवयंसि संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे एवमाइक्खड़)
તે કાળે અને તે સમયે અહત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ વિહાર કરતાં કરતાં ત્યાં સૌરાષ્ટ્ર જનપદ હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ તે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતાં વિચરણ કરવા લાગ્યા.
જ્યારે ત્યાંના ઘણા લોકોને આ વાતની જાણ થઈ ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યો કે
(एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अदिट्ठनेमी सुरद्वाजणवए जाव वि० तएणं ते जुडिहिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमहूँ सोच्चा अनम सहावेति, सहावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिहनेमी
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पाताधर्मकथा नुपूर्व्या-तीर्थकराणां मर्यादया यावद् विहरति, 'त' तत्-तस्माद् 'सेयं श्रेयः खलु अस्माकं यत् स्थविरान् आपृच्छयार्हन्तमरिष्टनेमि वन्दनायै गन्तुम् । अन्योन्यस्य =परस्परस्यैतमर्थ सर्वे पश्चानगाराः प्रतिशृण्वन्ति, स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य यत्रत्र स्थविरा भगवन्तस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तान् स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति च वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषुः-इच्छामः खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता: सन्तोऽहंन्तमरिष्टनेमि यावद् गन्तुम् । स्थविरा ऊचुः यथासुखं हे देवानुप्रिया ! मन्नं सदाति, सहावित्ता एवं धयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणु जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरष्टिनेमि वंदणाए गमित्तए) हे देवानुप्रियों ! सुनो-अहंत अरिष्टनेमि प्रभु तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए यावत् सौराष्ट्र जनपद में आये हुए हैं। लोगों के मुख से इस बात को उन पांच युधिष्ठिर आदि अनगारो ने सुना-तष आपस में एक दूसरे को-बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! सौराष्ट्र जनपद में तीर्थकर परम्परा के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि विहार कर रहे हैं-अतः हमलोगों को स्थविरों की आज्ञा लेकर अहंत अरिष्टनेमि को वंदना करने के लिये चलना बहुत अच्छा है-उचित है-(अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव घेरा भगवंतो, तेणेष उवागच्छह, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति मंसंति, वंदित्सा णमंसित्ता एवं क्यासी-इच्छामो णं पुव्वाणु० जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छित्ता अरहं अरिहनेमि वंदणाए गमित्तए)
હે દેવાનપ્રિયે! સાંભળો, અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ તિર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં ચાવતું સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં પધારેલા છે. તેના મુખથી આ વાતને તે પાંચે યુધિષ્ઠિર વગેરે અનગારોએ સાંભળી. ત્યારે તેઓએ પરસ્પર એક બીજાઓને બોલાવ્યા અને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે દેવાનુપ્રિયે ! સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં તીર્થંકર પરંપરા મુજબ ભગવાન અરિષ્ટનેમિ વિહાર કરી રહ્યા છે એથી સ્થવિરાની આજ્ઞા મેળવીને અરિષ્ટનેમિને વંદન કરવા માટે અમારે જવું જોઈએ.
( अनमन्नस्स एयमढें पडिसणेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो, तेणेव उवागराइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदति णमंसंति, वंदित्ता गमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामो णं तुम्भेहि अन्भणुमाया समाणा अरहं अरिष्टनेमि जाव गमित्तए
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५७७
ततः खलु ते युधिष्ठिरममुखाः पञ्चानगाराः स्थविरैर्भगवद्भिरभ्यनुज्ञाताः सन्तः स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा स्थविराणामन्तिकात प्रतिनिष्क्रामन्ति, मास-मासेन 'अणिक्खित्तेणं' अनिक्षिप्तेन = अन्तररहितेन तपः तुन्भेहिं अभुणुन्नाया समाणा अरहं अरिनेमि जाव गमितए अहासु देवापिया ! तणं ते जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं भगतेहिं अब्भणुन्नाया समोणा थेरे भगवंते वंदह णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, मासं मासेणं अणिक्खिते णं त कम्मेणं गामाणुगामं दूईज्जमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवा० हत्थिकप्पस्स पहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति-तरणं ते जुहिडिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा मासखमगपारए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति, बीयाए जहा गोयमसामी, णवरं जुहिट्टिलं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसद्दं णिसामेति ) इस प्रकार का परस्पर का यह विचार उन्हों ने स्वीकार कर लिया- स्वीकार करके फिर वे जहां स्थविर भगवंत थे - वहां गये वहां जाकर उन्हों ने उन स्थविर भगवंतों को वंदना की नमस्कार किया । वंदना नमस्कार कर फिर उनसे इस प्रकार कहा हमलोग आप भगवंतों से आज्ञा प्राप्त कर अर्हत नेमिनाथ प्रभु को वंदना करने के लिये सौराष्ट्र जनपद जाना चाहते हैं । तब उन स्थविर भगवंतों ने उनसे कहा हे देवानुप्रियों ! यथासुखम् - तुम्हें जैसे सुख हो - वैसा करो इस प्रकार उनस्थविर भग अहासु देवाणु पिया ! तरणं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अगगारा, थेरेहिं भगतेहि अन्भणुन्नाया समाणा थेरे भगवंते वंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, मासमासेणं अणिक्खेत्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्माणा जात्र जेणेव इत्थिकप्पे नयरे तेणेत्र उवा० हत्यिकप्पस बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जात्र विहरंति तरणं ते जुहिट्ठिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा मास खमणपारणए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति, बीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिट्ठिलं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसद्दं णिसार्मेति )
આ રીતે તેઓએ એકબીજાના વિચારાને સ્વીકારી લીધા, સ્વીકારીને તેઓ જ્યાં સ્થવિર ભગવંત હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તે સ્થવિર ભગવાને વદન અને નમસ્કાર કર્યા. વજ્જૈન અને નમસ્કાર કરીને તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે અમે આપ ભગવંતની આજ્ઞા મેળવીને અહત નેમિ. નાથ પ્રભુના વંદન માટે સૌરાષ્ટ્ર જનપદમાં જવા ઇચ્છીએ છીએ. ત્યારે તે સ્થવિર ભગતાએ તેમને આ પ્રમાણે આજ્ઞા કરી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! सुखम् ' तभने ? अभमां आनंद प्राप्त थाय ते श. या प्रभावे ते स्थविर
यथा
हा ७३
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५७८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
कर्मणा ग्रामानुग्रामं ' दुइज्जमाणा' द्रवन्तः गच्छन्तः, यावत् यत्रैव ' हत्यिकप्पे नरे' हस्तकल्पं नगरं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य हस्तिकल्पस्य बहिः सहस्रा - aaणे उद्याने यावद विहरन्ति । ततः खलु ते युधिष्ठिरबञ्जश्वत्वारोऽनगारा मास क्षपणपारण के प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं कुर्वन्ति, 'बीयाए ' द्वितीयायां पौरुयां ध्यानं ध्यायन्ति तृतीयायां पौरुष्यामत्वरितमचपलमसंभ्रान्त स दोरकमुखत्रिकां प्रतिलेखयन्ति, भाजनवत्राणि मतिले ववयन्ति, भाजनानि च पात्राणि प्रमार्जयन्ति, भाजनान्यवगृहन्ति, गृहीत्वा एवं यथा गौतमस्वामी श्रमणं महावीरमापृच्छति नवरं - अयमत्र विशेषः अत्र चत्वारोऽनगाराः युधिष्ठिरमापृच्छन्ति यावत् वंतों से आज्ञा प्राप्त कर वे युधिष्ठिर प्रमुख पांच अनगार उन स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार करके उनके पास से चले आये और निरन्तर मास मास खमण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में बिहार करने लगे । इस तरह ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे पांचों अनगार जहाँ हस्तिकल्पनाम का नगर था वहां आये। वहां आकर वे हस्तिकल्प नगर के बाहिर सहस्राम्रवन उद्यान में जाकर ठहर गये। इसके बाद वे युधिष्ठिर के सिवाय चारों अनगार मासक्षपण के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते, द्वितीय पौरुषी में ध्यान करते, और तृतीय पौरुषी में अत्वरित, अचपल एवं असंभ्रान्त होकर सदोरक मुखवस्त्रिकाकी प्रतिलेखना करते, भाजन और वस्त्रोंकी प्रतिलेखना करते - फिर उन्हें उठातेऔर लेकर जिस प्रकार गौतम स्वामी श्रमण महावीर स्वामी से पूछकर गोचरी के लिये निकलते उसी प्रकार ये भी युधिष्ठिर से पूछ कर हस्ति
ભગવાની આજ્ઞા મેળવીને તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પાંચે અનગારા તે સ્થવિર ભગવતાને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી આવતા રહ્યા અને સતત માસ ખમણુ કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવા લાગ્યા. આ રીતે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતાં તે પાંચે અનગારા જ્યાં હસ્તિ૫ નામે નગર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ હસ્તિકલ્પ નગરની બહાર સહસ્રામ્રવન ઉદ્યાનમાં જઈને મુકામ કર્યાં. ત્યારબાદ તે યુધિષ્ઠિર સિવાયના ચારે અનગારી માસક્ષપણુ પારણાના દિવસે પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરતા, દ્વિતીય પૌરૂષીમાં ધ્યાન કરતા અને તૃતીય પૌરૂષીમાં ગોચરી માટે નીકળતી વખતે પણ અચપળ અસંખ્રાત થઈને સદોરકમુખવસ્ત્રિકાની પ્રતિલેખના કરતા, ભાજન અને વસ્ત્રોની પ્રતિલેખના કરતા, ત્યારબાદ તેમને ઉપાડતા અને ઉપાડીને જેમ ગૌતમ સ્વામી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને ગોચરી માટે નીકળતા તેમજ તેઓ પણ યુધિષ્ઠિરની આજ્ઞા મેળવીને હસ્તિકલ્પ નગરમાં ઉચ્ચ, નીચ,
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गारधर्मामृणि टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
५७९
"
हस्तिकल्पे नगरे उच्चनीचमध्यमकुलानि ' अडमाणा ' अटन्तः बहुजनशब्द निशामयन्ति - शृण्वन्ति = कि शृण्वन्तीत्याह - ' एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अर्हन् अरिष्टनेमिः ' उज्जित सेलसिहरे उज्जयन्तशैलशिखरे - गिरनारपर्वतोपरिभागे मासिकेन भक्तेन भक्त वत्याख्यानेन पानकेन - पानीयरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थः ' पञ्चहिं छत्तीसेर्हि अणगारसहिं ' पञ्चभिः पट्त्रिंशताऽनगारशतैः=शत्रिशदधिकपञ्चशतसंख्यकैरनगारैः सार्धं कालगतो यावत्-सिद्धोबुद्धः परिनिर्वृतः सर्वदुःखमीणो जातः ।
तणं ' ति ' ततः खलु ते युधिष्ठिरवचत्वरोऽनगारा बहुजनस्यान्ति के एतमर्थं श्रुत्वा हस्तिकल्पाद् नगरात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सहस्राकल्प नगर में उच्च नीच एवं मध्यम कुलों में गोचरी के लिये आये । उस समय इन्हों ने अनेक मनुष्यों के मुख से इस प्रकार समाचार सुने ( एवं देवाणुप्पिया ! अरहा अरिदुनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएणं भन्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तः सेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाव पहीणे, तणं ते जुहिडिल्लवजा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा हत्यिकप्पाओ पडिणिक्खमंति) देवानुप्रियों ! अर्हत अरिष्टनेमि ऊर्जयंतशैल शिखर पर - गिरनार पर्वत के ऊपर एक मास के चतुरविध आहार के परित्यागरूप भक्तप्रत्याख्यान से ५३६ अनगारों के साथ कालगत यावत् सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत हो कर सर्व दुःखों से रहित हो गये हैं। इस प्रकार अनेक मनुष्यों के मुख से इस समाचार को सुनकर वे युधिष्ठिर वर्ज चारों अनगार उस हस्तिकल्पनगर से निकले (पनिक्खभित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव અને મધ્યમ કુલેામાં ગોચરી માટે આવ્યા, તે સમયે તેમણે ઘણા માણુસેના સુખથી એ જાતના સમાચાર સાંભળ્યા કે
( एवं देवाणुपिया ! अरहा अरिट्ठनेमी उज्जित सेल सिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहि छत्तीसेहि अणगारसहिं सद्धिं कालगए जाब पहीणे, तरणं ते जुहिल्लिवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोच्चा हत्यिकप्पाओ पडिणिक्खमंति )
હૈ દેવાનુપ્રિયે ! અહુત અરિષ્ટનેમિઊજયત શૈલશિખર ઉપર–ગિરનાર પર્યંત ઉ૫૨-એક માસના ચારે જાતના આહારના પરિત્યાગ રૂપ ભક્ત પ્રત્યા ખ્યાનથી ૫૩૬ અનગારાની સાથે કાળમત યાવત્ સિદ્ધ, બુદ્ધ, પરિનિવૃત થઇને સર્વ દુ:ખાથી મુક્ત થઈ ગયા છે. આ પ્રમાણે ઘણા માણસેાના મુખથી આ જાતના સમાચાર સાંભળીને તે યુધિષ્ઠિર વગરના ચારે અનગારા તે હસ્તિપ્ નગરથી નીકળ્યા.
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५८०
माताधर्मकथासूत्र म्रवणमुद्यानं यत्रैव युधिष्ठिरोऽनगारस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य भक्तपानं 'पच्चक्खंति ' प्रत्याख्यान्ति-प्रत्याख्याय ' गमनागमनस्स ' गमनागमन प्रतिक्रामन्ति ईपिथिकी कुर्वन्ति प्रतिक्रम्य ' एसणमणेसणं' एषणामनेषणाम् आलोचयन्ति, आलोच्य भक्तपानं-प्रतिदर्शयन्ति-युधिष्ठिरस्य पुरोऽवस्थाप्य प्रतिदर्शयन्ति, प्रति. दर्य एवमवादिषुः-एवं खलु हे देवानुपिय ! यावत् कालगतः अर्हन् अरिष्टनेमि मोक्षप्राप्तः, 'तं ' तस्मात् श्रेयः खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! इमं पूर्वगृहीतं जुहिडिल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति, पच्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमति पडिक्कमित्ता एसणमनेसणं आलोऍति, आलोहत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति पडिदंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! जाव कालगए तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इमं पुव्वगहियं भत्तपाणं परिहवेत्ता सेत्तुंज पव्वयं सणियं सणियं दुरुहित्तए) निकलकर वे जहां सहस्त्राम्रवन नाम का उद्यान था
और उस में भी जहां युधिष्ठिर अनगार विराजमान थे, वहां आये। वहां आकर उन्हों ने उनकी साक्षी से भक्त प्रत्याख्यान करदिया और भक्त प्रत्याख्यान करके फिर उन्हों ने ईर्यापथ शुद्धि की । शुद्धि करके एषणा अनेषणा की आलोचना करके फिर उन्होंने लाये हुए उस
आहार को युधिष्ठिर अनगार के समक्ष रख कर दिखलाया। दिखलाकर फिर वे इस प्रकार कहने लगे। हे देवानुप्रिय ! अहेन् अरिष्टनेमि मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं-इसलिये हे देवानुप्रिय ! हमको अब यही उचित
(पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिद्विल्ले अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भत्तपाणं पञ्चक्रांति पञ्चक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमनेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिर्सेति पडिदंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए तं सेयं खल अम्हें देवाणुप्पिया! इमं पुव्वगहियंभत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेत्तुं पब्वयं सणियं सणियं दुरूहितए)
નીકળીને તેઓ જ્યાં સહસ્સામ્રવન નામે ઉદ્યાન હતું અને તેમાં પણ જ્યાં યુધિષ્ઠિર અનગાર હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે તેમની સામે ભક્ત પાનનું પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધું. પ્રત્યાખ્યાન કરીને તેમણે ઈર્યાપથની શુદ્ધિ કરી. શદ્ધિ કરીને એષણ અને અનેષણ કરી, આલેચના કરી. આચના કરીને તેમણે લઈ આવેલા તે આહારને યુધિષ્ઠિર અનગારની સામે મૂકીને બતાવ્યું. બતાવ્યા બાદ તેઓ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિય! અહત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુએ મુક્તિ મેળવી છે એટલા માટે હે દેવાનપ્રિયા
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अनारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५८ भक्तपानं परिष्ठाप्य ' सेत्तुंनं ' शत्रुजयं-शत्रुनयनामकं पर्वतं शनैः शनैरोहितुम्
आरोहितुम् , तथा-' संलेहणाझूसणाझूसियाणं ' संलेखना जोषणाजुष्टानां संलेखनायां कषायशरीरकृषीकरणे या जोषणा-प्रीतिः सेवा वा तया जुष्टाः-सेवितास्तेषां संलेखनातपःकारिणामित्यर्थः-कालम्-अनवकाङ्क्षमाणानाम् - अनिछताम् विहर्तुम् , इति कृत्वाऽन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तद् पूर्वगृहीतं भक्तपानम् एकान्ते मासु के स्थाने परिष्ठापयन्ति, परिष्ठाप्य यत्रैव शत्रुजयः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य शत्रुजयं पर्वतं शनैः शनैरोहन्ति आरोहन्ति, दूरूह्य यावत्-कालमनवकाङ्क्षमाणा विहरन्ति । है कि हम इस पूर्व गृहीत भक्त पान का परिष्ठापन कर शत्रुजय नामके पर्वत पर धीरे धीरे चढें (संलेहणा झूसणा झुसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए त्तिकटूटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगंते परिवेति, परिद्ववित्ता जेणेव सेत्तुंज पव्वए तेणेव उवागच्छंति ) और वहाँ काय और कषाय को कृश करनेवाली संलेखना मरणाशंसा से रहित होकर प्रीति पूर्वक धारण करें इस प्रकार विचार करके उन्हों ने परस्पर के इस विचार रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उस पूर्व गृहीत भक्त पान को उन्होंने एकान्त स्थान में परिष्ठापित कर दिया और परिष्ठापित करके वे सब जहां शत्रुजय पर्वत था वहां चले गये ( उवागच्छित्ता) वहां जाकर के (सेज पव्वयं दुरुहंति, दुरूहित्ता जाव कालं अणवહવે અમને એ જ વાત એગ્ય લાગે છે કે અમે આ પૂર્વહિત ભકતપનનું પરિઝાપન કરીને શત્રુજ્ય નામના પર્વત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીએ.
(संलेहणा झूसणा झूसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरितए तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयम पडिसुणेति, पडिमुणित्ता तं पुवगहियं भत्तपाणं एगंते परिट्ठति, परिद्ववित्ता जेणेव सेत्तुंजं पब्बए तेणेव उवागच्छंति )
અને ત્યાં કાય અને કષાયને કુશ કરનારી સંલેખનાને મરણાશંસાથી રહિત થઈને પ્રેમપૂર્વક ધારણ કરીએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના આ વિચાર રૂપ અર્થને સ્વીકારી લીધું. સ્વીકાર કરીને તેમણે તે પૂર્વગૃહીત ભાપાનને એકાંત સ્થાને પરિષ્ઠાપિત કરી દીધું. અને પરિષ્ઠાપિત
शतमा सवे या शत्रुनय पति तो त्यां याया गया. (उवागच्छित्ता) त्याने
(सेत्तुंनं पन्चयं दुरूहति, दुरूहिचा जाव काले अणवकंत्रमाणा विहरति,
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हाताधर्मकथा ततः खलु ते युधिष्ठिरप्रमुखाः पश्चानगाराः 'सामाइयमाझ्याई' सामायि कादीनि चतुर्दशपूर्वाणि अधीत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा षष्ठाष्ठमादितपः कृत्वा द्विमासिकया संलेखनयाऽऽत्मानं 'झोसित्ता' जुष्टवा सेवित्वा यस्यार्थाय क्रियते नग्नभावो-निग्रन्थभावः यावत् तमर्थमाराधयन्ति, आराध्य अनन्तम् अनन्तार्थविषयकं यावत् केवलवरणाणदंसणे ' केवलवरज्ञानदर्शनं समु. त्पन्नं यावत् सिद्धाः सिद्धिगति प्राप्ता इत्यर्थः ॥ मू०३५॥ कंखमाणा विहरंति, तएणं ते जुहिटिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाई चोद्दसपुज्वाइं बहूणि वासामि० दो मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सहाए कीरइ, जग्गभावे जाव तमट्टमारोहंति, तमट्ठमाराहित्ता अणंते जाव केवलवरणादसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धो) वे शत्रुजय पर्वत पर चढे चढकर के उन्होंने मरणाशंसा से रहित होकर संलेखना धारण करली । इस तरह उन युधिष्ठिर प्रमुख पंच अनगारोंने सामायिक आदिचतुर्दश पूर्वोका अध्ययन करके अनेक वर्षों तक श्रीमण्य पर्याय का पालन करके तथा षष्ठ, अष्टम, आदि तपस्याओं को करके अन्त में दो मास की संलेखना से अपने आप की प्रीति पूर्वक सेवित किया और जिस निमित्त नग्न भाव-निग्रंथ अवस्था धारण की थी उस अर्थ को उन्हों ने सिद्ध कर लिया। सिद्ध करके-आरोधित कर
अनंत अर्थ को विषय करने वाले केवलवरज्ञानदर्शन को उत्पनकर यावत् वे सिद्धि गति को प्राप्त हो गये। सूत्र ३५॥ तएणं ते जुहिटिल्लपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाई चोदसपुयाइं० बहणि वासाणि० दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणे झोसित्ता जस्सट्टाए कीरइ. जग्गभावे जाय तममारोहंति, तमट्ठमाराहित्ता अणंते जाव केवलवरणाण दसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा)
તેઓ શત્રુંજય પર્વત ઉપર ચઢયા અને ચઢીને તેમણે મરણશંસાથી રહિત થઈને સંલેખન ધારણ કરી લીધી આ પ્રમાણે તે યુધિષ્ઠિર પ્રમુખ પચે અનગારે એ સામાયિક વગેરે ચતુર્દશ પૂર્વોનું અધ્યયન કરીને ઘણાં વર્ષો બધી શામય-પર્યાયનું પાલન કરીને તેમજ ષષ્ઠ, અષ્ટમ વગેરે તપસ્યાઓને કરીને છેવટે બે માસની સંખનાથી પ્રેમપૂર્વક પિતાની જાતને સેવિત કરી અને જે નિમિત્તને લઈને નગ્નભાવ-નિગ્રંથ અવસ્થા ધારણ કરી હતી તે અર્થને તેમણે સિદ્ધ કરી લીધું. સિદ્ધ કરીને આરાધિત કરીને અનંત અર્થને વિષયરૂપ બનાવનાર કેવળજ્ઞાન દર્શનને ઉત્પન્ન કરીને યાવત તેઓએ સિદ્ધગતિ મેળવી લીધી. એ સૂત્ર ૩૫
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५३
मूलम्-तएणं सा दोवई अजा सुव्वयाणं अजियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारसअंगाई अहिज्जइ अहिजित्ता बहूणि वासाणि० मासियाए संलेहणाए० आलोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाण दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता, से णं भंते ! दुवए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ जाव काहिइ। एवं खलु जंबू ! सम. णेणं जाव संपत्तेणं सोलमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिबेमि ॥ सू० ३४ ॥ सोलसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ १६ ॥
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु सा द्रौपदी आर्या साध्वी सुव्रतानामाथिकाणामन्ति के सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्षा संलेखनया आलोचित. प्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा 'बंभलोए' पंचमे ब्रह्मलोके देवत्वेन ' उववन्ना'
'तएणं सा दोवई ' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा दोवई अज्जा) उस द्रौपदी आर्याने (सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ ) सुव्रता आर्या के पास सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया (अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि० मामियाए संलेहणाए० आलोय. पडिकंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना) अध्ययन करके अनेक वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना
तएण सा दोवई इत्यादि
ट - (तएण) त्या२५छी (सा दोवई अज्जा) ते द्रौपदी भार्या (सुव्व. याणं अज्जियाण अतिए सामाइयमाइयाइं एकारसअंगाई अहिज्जह) सुव्रता આર્યાની પાસે સામાયિક વગેરે ૧૧ અંગોનું અધ્યયન કર્યું.
( अहिन्जित्ता बहूणि वासाणि० मासियाए संलेहणाए. आलोईय पडिस्कतां कालमासे कालंकिच्चा बंभलोए उववन्ना)
અધ્યયન કરીને ઘણું વર્ષો સુધી શ્રામણ પર્યાયનું પાલન કર્યું. ત્યાર
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भाताधर्मकथा उत्पन्ना, तत्र तस्मिन् देवलोके-खलु अस्त्येकेषां केषांचिद्दवानाम् दशसागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु द्रौपदेवस्यस्य दशसागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता तत्र खलु गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! स खलु द्रौपदो देव आयुर्भवस्थितिक्षयेण 'ताओ' तस्माद् देवलोकाच्च्युत्वा कुत्रगमिष्यति कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवान् पाह-जाव' इति यावन्महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, यावत सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । से आलोचित प्रतिक्रान्त बन वे काल अवसर काल कर के पांचवें ब्रह्म लोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई। (तत्थ णं अत्थे गइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरो. वमाइं ठिई पण्णत्ता, सेणं भंते ! दुवए देवे ताओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ, जाव काहिह । एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स गायझयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि) उस देवलोक में कितनेक देवों की दश सागर की स्थिति प्रज्ञप्त हुई है। सो वहां द्रौपदी देव की दश सागर की स्थिति हुई। अब गौतम पूछते हैं हे भदंत ! वह द्रौपदी देव आयु एवं भवस्थिति के क्षय होने पर वहां से चव कर कहां जावेगा-कहां उत्पन्न होगा? उत्तर में भगवान कहते हैं-हे गौतम! वह द्रौपदी देव वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और वहीं से सिद्ध बनेगा यावत् समस्त दुःखों का अंत करेगा। પછી એક માસની સંલેખનાથી આચિત પ્રતિક્રાંત બનીને તેઓ કાળ અવ. સરે કાળ કરીને પાંચમા બ્રહ્મકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામી.
(तत्थ णं अत्यंगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता, तत्थ णं दुवयस्स देवस्स दस सागरोवमाइंटिई पण्णत्ता, सेणं मंते ! दुवर देवे तामओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झइ, जाव काहिइ । एवं खलु जंबू! 'समणेणं जाव संपत्तेणं सोलमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि )
તે દેવલોકમાં કેટલાક દેવેની દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રજ્ઞપ્ત થઈ છે. આ પ્રમાણે દ્રૌપદી દેવીની ત્યાં દશ સાગરની સ્થિતિ પ્રજ્ઞપ્ત થઈ.
હવે ગૌતમ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદન્ત ! તે દ્રૌપદી દેવીની આ અને ભવસ્થિતિ પૂરી થયા બાદ ચવીને કયાં જશે? ક્યાં ઉત્પન્ન થશે ?
તેના ઉત્તરમાં ભગવાન કહેવા લાગ્યા કે હે ગૌતમ ! તે દ્રૌપદી દેવ ત્યાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધ બનશે. યાવત્ તેઓ પિતાના સમસ્ત દુઓને અંત કરશે.
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भनगारधामृतवषिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम्
मुधर्मास्वामी कथयति-' एवं खलु ' इत्यादि । एवं खलु हे जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन पोडशस्य ज्ञाता. ध्ययनस्यायं-पूर्वकथितः अर्थः द्रौपदीदृष्टान्तरूपो भावः प्रज्ञप्तः, प्ररूपितः, इति ब्रवीमि व्याख्यापूर्ववत् ॥ ३४ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-धादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजपदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालअतिविरचितायां ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्या, नगारधर्मामृतवर्षि
ण्याख्यायां व्याख्यायां पोडशमध्ययनं समाप्तं ॥ १६॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने जो सिद्धि गतिनामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस षोडश ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त द्रौपदी दृष्टान्त रूप भाव अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा मैं उन्हीं श्रमण भगवान महावीर के द्वारा कहे श्रुत उपदेश के अनुसार कहता हूँ ॥ सूत्र ३६ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका
सोलहवां अध्ययन समाप्त ॥ १६ ॥
સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેઓ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચૂકયા છે. આ સેળમાં જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વે વર્ણવેલે દ્રૌપદી દૃષ્ટાંત રૂપ ભાવ અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર વડે કહેવાએલા કૃત ઉપદેશ મુજબ જ તમને હું કહીહ્યો છું. સૂદા શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અગારધર્મામૃતવર્ષિણી
___व्याभ्यानुसभु अध्ययन सभात ॥ १६ ॥
का ७४
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॥ अथ सप्तदशाध्ययनम् ॥
व्याख्यातं षोडशाध्ययनम्, साम्प्रतं सप्तदशं व्याख्यायते । पूर्वस्मिन्नध्ययने द्रौपद्या नागश्रीभवे कुत्सितदानेन तस्या एव सुकुमारिकाभवे निदानेन चानर्थः प्रोक्तः, साम्प्रतमवशेन्द्रियत्वेनानर्थो भवतीत्युच्यते इति सम्बन्धेन सम्बद्धस्यास्याध्ययनस्येदमादिमंसूत्रम् -' जइणं भंते!' इत्यादि ।
मूलम् - जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते सत्तरसमस्त णं भंते! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते के अहे पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेगं कालेणं तेणं
सत्रहवां अध्ययन का प्रारंभ
-: आकीर्ण-जातिमान् घोड़े का सत्रहवां अध्ययन प्रारंभ:
सोलहवाँ अध्ययन संपूर्ण हुआ- अब सत्रहवां अध्ययन कहा जाता है । पूर्व अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि द्रौपदी ने नागश्री के भव में कुत्सित दान दिया था-कडवे तुबेका आहार मुनिराज को दिया था तथा जब वह सुकुमारिका के भव में उत्पन्न हुई थी तो उसने निदानबंध किया था इससे उसे महान् अनर्थ की प्राप्ति हुई । अब इस अध्ययन में यह विषय स्पष्ट किया जावेगा कि जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखते हैं - वे अनर्थ के भागी होते हैं । इसी संबंध से सम्बन्धित हुए इस अध्ययन का यह आदिम सूत्र है
સત્તરમા અધ્યયનનો પ્રાર‘ભ
-: भाडी लतिभान घोडानु सत्तरभुं अध्ययन आरंभ :સેાળખું અધ્યયન પૂરૂં થઈ ગયું છે, હવે સત્તરમાં અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. સેાળમા અધ્યયનમાં એ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે કે દ્રૌપદીએ નાગશ્રીના ભવમાં કુત્સિત ( ખાટુ') દાન કર્યું હતું. કડવા તુંખાના આહાર મુનિરાજને આપ્યા હતા. તેમજ જ્યારે તે સુકુમારિકાના ભવમાં ઉત્પન્ન થઈ હતી ત્યારે તેણે નિદાન ખધ કર્યાં હતા. તેથી તેને મહાન અનથની પ્રાપ્તિ થઇ હતી. હવે આ સત્તરમા અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે કે જે પેાતાની ઇન્દ્રિયાને વશમાં રાખતા નથી તેએ અનથ ભાગવે છે. એ જ વાતને સ્પષ્ટ કરતું સત્તરમાં અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે.
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गरधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ नौकाबणिग्वर्णनम्
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समएणं हत्थिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ णं कणगकेऊ णामं या होत्था, वण्णओ, तत्थणं हत्थिसीसे पायरे बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था, तरणं तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया एगयओ जहा अरहण्णओ जाव लवणसमुद्द अणेगाई जो यणसयाई ओगाढा यावि होत्था तएणं तेसिं जाव बहूणि उपाइयसयाइं जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिए, तरणं सा णावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्ज - माणी२, संचालिज्जमाणी२, संखोहिज्जमानीर, तत्थेव परिभमइ, तएण से णिज्जामए णट्टमइए पट्टसुइए णट्टसपणे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, ण जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्तिकट्टु ओहयमणसंकष्पे जाव झियाय, तरणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भिलगा य संजत्ताणावावाणियगा य जेणेव से णिजामए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी - किन्नं तुमं देवा - णुपिया ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह ?, तरणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! मइए जाव अवहिए ि कट्टु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि, तरणं ते कुच्छिधाराय ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म भीया ४ पहाया कयबलिकम्मा करयल बहूणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लि
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शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
नाए जाव उवायमाणार चिति, तएण से णिज्जामए तओ मुहुत्तरस्स लद्धमइए३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, तएण से णिजामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! लद्धमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे णं देवाप्पिया ! कालियदीवे तेणं संवूढा एसणं कालियदीवे आलोक्कड़, तएणं ते कुच्छिधारा य४ तस्स णिज्जामगस्स अंतिए एयमट्ठे सोच्चा हट्टतुट्टा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पोयवहणं लवेंति लवित्ता एगट्टियाहिं कालियदीवं उत्तरंति, तत्थ णं ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तरणं ते आसा ते वाणियए पासंति पासित्ता तेसिं गंधं अग्घायंति अग्घायित्ता भीया तत्था उब्विग्गमणा तओ अणेगाई उन्भमंति, तेणं तत्थ पउरतणपाणिया निव्भया निरुव्विग्गा सुहं सुणं विहरति ॥ सू० १ ॥
टीका - जम्बूस्वामी पृच्छति यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावी रेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेन पोडशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः=
-: जइणं भंते! इत्यादि ।
टीकार्थ - (भंते! हे भदंत ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं) यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जो सिद्धिगति नामकस्थान को प्राप्तकर चुके हैं (सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते सत्तर
जइण भते ! इत्यादि -
टीडार्थ - ( भौंते ! ) डे लहन्त ! ( जइण' समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण ) ले श्रम लगवान महावीरे - भेथे सिद्धगति नामना स्थानने મેળવી ચૂકયા છે.
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अमगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १७ नौकावणिग्वर्णनम् पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीप्राह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिशीर्ष नाम नगरमासीत् । 'वण्णो ' वर्णकः= ऋद्धे ' त्यादिनगरवर्णनम् पूर्ववद् विज्ञेयम् । तत्र खलु कनककेतुर्नाम राजाऽऽसीत् ‘वणओ' वर्णकः-' महयाहिमवंते ' त्यादि राजवर्णनं पूर्ववद् बोध्यम् । तत्र खलु हस्तिशीर्षे मस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपसेणं के अटे पण्णत्ते) सोलहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोतरूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए उन्हों श्रमण भगवान् महावीर ने सत्रहवे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है (एवं खलु जंबू ! ) इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर सुधमी स्वामी अब उन्हें समझाते हैं-वे कहते हैं हे जंत्रु ! तुम्हारे प्रश्न का उत्सर इस प्रकार है:__ (तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ, णं कणगकेऊणामं राया होत्था, वण्णओ, तत्थ, णं हस्थिसीसे णयरे बहवे संजत्ता णावा वाणिगया परिवसति, अडा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था) उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नाम का नगर था। "ऋद्ध" इत्यादि रूपसे पूर्व अध्ययनों में वर्णित पाठ की तरह इस नगर का वर्णन जानना चाहिये । उस नगर में कनक केतु नामका राजा रहता था। इसका भी वर्णन " महया हिमवंत " इत्यादिरूप से पहिले के अध्ययनोंमें वर्णित राजाओंके वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। उस
( सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पणत्ते सत्तरमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं के अटे पण्णत्ते )
- સોળમા જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે ત્યારે સિદ્ધગતિ સ્થાનને મેળવી ચુકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સત્તરમાં જ્ઞાતાધ્યયનને શું અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે.
एवं खलु जंबू ) मा शत भूना प्रश्नाने सामणीने तमने समतi સુધર્મા સ્વામી કહેવા લાગ્યા કે હે જબૂ! તમારા પ્રશ્નને જવાબ આ प्रमाणे छ :
( तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थणं कणगकेऊणामं राया होत्था, वण्णओ, तत्थणं हत्थिसीसे णयरे बहवे संजत्ता णावा वाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था) ।
तेणे अनेते समये स्तिशीष नामे नगर तु. “ ऋद्ध " वगैरे રૂપમાં પહેલાંના અધ્યયનેમાં વર્ણન કરવામાં આવેલા પાઠની જેમ આ નગરના વર્ણન પણ જાણી લેવું જોઈએ. તે નગરમાં કનકકેતુ નામે રાજા રહેતા હતા.
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शांतधर्मकथासूत्रे
संजत्ताणावावाणियगा ' संयात्रानौकावाणिजकाः = सं=सङ्गता
नगरे बहवः यात्रा = देशान्तरगमनं संयात्रा, तत्प्रधाना नौकावाणिजकाः = पोतवणिजः - संयात्रानौका वाणिजकाः परिवसन्ति कीदृशाः ? इत्याह- आठ्या यावत् ' बहुजणस्स बहुजनस्य सम्बन्धसामान्ये पष्ठीजनसमुदायेनेत्यर्थः ' अपरिभूया ' अपरिभूता:= पराभवरहिता चाप्यासन् । ततः खलु तेषां संयात्रानौका वाणिजकानाम् अन्यदा = अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये ' एगयओ ' एकत: एकत्रमिलित्वा 'जहा अरहण्णओ' यथा अन्नकः = अत्रैवाष्टमाध्ययनोक्तानकवत् यावत् लवणसमुद्रमनेकानि योजनशतानि ' ओगाढा ' अवगाढाः = उत्तीर्णाश्चप्यासन् । ततः = तत्र खलु तेषां यावत् बहूनि ' उप्पाइयसयाई ' औत्पातिकशतानि = आकस्मिकोत्पात शतानि यथा माकन्दिकदारकयोः - जिनरक्षित जिनपालितयोः संजातानि तथैवास्यापि यावत् 'कालियवाए ' कालिकवातः प्रलयकालिकवत्मचण्डवातश्च तत्र समुत्थितः । ततः = तइनन्तरं खलु सा नौका तेन कालिकवातेन 'आघोलिज्जमाणी २' आघूर्ण्यमाना २ पुनः पुनर्भ्राम्यन्ती ' संचालिज्जमाणी २ ' संचाल्यमाना २ पुनः पुनश्चाल्य हस्तिशीर्ष नगर में अनेक पोत वणिक (नावसे व्यापार करने वाले ) रहते थे । ये एक साथ मिलकर ही परदेश में जाकर व्यापार किया करते थे । इनकी उस नगर में अच्छी प्रतिष्ठा थी - कारण ये सब के सब लक्ष्मीदेवी के विशेष रूप से कृपापात्र थे । (तएणं तेसिं संजत्ता गोवा वाणियगाणं अन्नया एगयाओ जहा अरहरणाओ जाव लवणसमुद्द अनेगाई जोयणसाई ओगाढा याच होत्था, तएणं तेसिं जाव बहूणि उप्पादयसयाई जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिए, तरणं सा तेणं कलियवाएणं आघोलिजमाणी २ संचालिज़माणी २ संखोहिजमाणी આ રાજાનું વર્ણન પણ महा ि ” વગેરે રૂપમાં પહેલાંના અધ્ય યનામાં વિણત રાજાઓના વર્ગુન જેવુ જ જાણી લેવુ જોઇએ. તે હસ્તિશીષ નગરમાં ઘણા પાતણિકા (વહાણુ વડે વેપાર કરનારા ) રહેતા હતા તેએ સર્વે એકી સાથે મળીને પરદેશમાં જતા અને ત્યાં વેપાર કરતા હતા. તે નગરમાં તેમની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી. કેમકે ખાસ કરીને તેઓ સવે લક્ષ્મીના કૃપાપાત્ર હતા.
( तरणं तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया एगयाओ जहा अरण्णओ जाव लवणसमुद्दे अगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्या, तरणं तेर्सि जात्र बहूणि उपपाइयसयाई जहा मार्गदियदारगाणं जाव कालियवार य तत्थ समुथिए तरणं सा णावा तेणं कलियत्राएणं आघोलिज्जमाणी २ संचालिज्जमाणी
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मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १७ निर्यामकस्यदिङ्मूढत्वम् माना ' संखोहिज्जमाणी २ ' संक्षोभ्यमाणा २ पुनः पुनः क्षोभं प्राप्यमाणा सती तत्रैव एकस्थान एवेतस्ततः परिभ्राम्यति किन्तु ततः परं गन्तुं न मभरतीति भावः। ततः खलु स निर्यामका नाविकः ‘णटमइए' नष्टमतिकः-मतिज्ञानरहितः 'गट्ठसुइए' नष्टश्रुतिकः-विस्मृतनिर्यामकशास्त्रः दिग्निर्णयं कर्तुमशक्तत्वात् णहसण्णे ' नष्टसज्ञः-मार्गज्ञानरहितः 'मूढदिसाभाए' मूढदिग्भागः पूर्वादि. दिग्विभागज्ञानरहितः जातश्चप्यासीत् , पुनश्च स न जानाति यत् कतर कं देशं २ तस्थेव परिभमइ, तएणं से णिज्जामए णट्टमइए णट्ट सुइए णट्ट सण्णे मूढ़दिसभाए जाए यावि होत्था) एक दिनकी बात है कि जब ये सांया. त्रिक पोत वणिक एक जगह मिलकर बैठे हुए थे तब अष्टम अध्ययन में वणित अरहनक सेठ की तरह इनका लवण समुद्रसे होकर परदेश में व्यापर निमित्त जाने का विचार हुआ। विचार स्थिर होते ही ये जय नौका द्वारा लवण समुद्र में सैकडों योजन तक निकल चुके तब इनके लिये जिन रक्षित और जिनपालितकी तरह आकस्मिक अनेक उत्पातशत (सैंकडों)हुए। उस समय प्रलय कालकी तरह प्रचण्ड वायु उठी। उससे उनकी नौका बार २ डगमगा ने लगी इधर से उधर फिर ने लगी। घार २ चञ्चल होकर बोर २ क्षुभित होकर एक ही स्थान पर नीची ऊँची होने लगी-उससे आगे वह नहीं बढी। इससे निर्यामिक-नाविकमतिज्ञान से रहित हो गया। दिशाओं का निर्णय करने का ज्ञान उसका जाता रहा। वह मार्ग ज्ञान रहित होकर दिग्मूढ बन गया। (ण जोणइ २ संखोहिज्जमाणी १ तत्थे वपरिभमइ, तएणं से णिज्जामए णट्ठमइए णट्ठसुइए गट्टसण्णे मूढ दिसाभाए जाए यावि होत्था )
એક દિવસની વાત છે કે જ્યારે તેઓ સર્વે સાંયાત્રિક પિતવણિકે એક સ્થાને એકત્ર થઈને બેઠા હતા ત્યારે આઠમાં અધ્યયનમાં વર્ણિત અરડનક શેઠની જેમ તેમને પણ લવણ સમુદ્રમાં થઈને પરદેશમાં વેપાર માટે જવાને વિચાર થયો. વિચાર સ્થિર થતાં જ તેઓ જ્યારે નૌકા વડે લવણ સમુદ્રમાં સેંકડો જન સુધી પહોંચી ગયા ત્યારે જીનપાલિત અને જનરક્ષિતની જેમજ તેમના માટે પણ સેંકડે ઓચિંતા ઉપદ્ર ઉત્પન્ન થયા. તે વખતે પ્રલય કાળના જે પ્રચંડ વાયુ કુંકાવા લાગ્યા. તેથી તેમની નૌકા વારંવાર ડગમગવા લાગી, આમથી તેમ ફરવા લાગી. વારેઘડીએ ચંચળ થઈને, વારંવાર ભુજિત થઈને એક જ સ્થાન ઉપર નીચે ઉપર થવા લાગી, તેનાથી આગળ વધી નહિ. તેથી નિયમિક-નાવિક મતિજ્ઞાનથી રહિત થઈ ગયે. દિશાએને જાણવાનું તેનું જ્ઞાન જતું રહ્યું. માર્ગજ્ઞાનથી રહિત થઈને દિમૂઢ બની
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जाताधर्मकथासूत्र वा दिशं वा विदिशं वा प्रति मे पोतवहनम् नौकायानं ' अवहिए' अपहतम् महा वातेन नीतम् , इति । इति कृत्वा-इतिमनसि निधाय अपहतमनः संकल्पो यावद ध्यायति आर्तध्यानं करोति । ततः खलु ते वहवः कुक्षिधाराश्च पार्थ तो नौका चालकाः कर्णधाराश्च नाविकाः । 'गभिल्लगाय' गार्भेयकाश्च नौमध्ये यथावसर कर्मकराः, संयात्रानौका वाणिनका:=भाण्डपतयश्च यौव स निर्यामकः-नौकाधिपतिरतौवोपागच्छन्ति, उपागत्य एवमवादिषुः-किं खलु यूयं हे देवानुपियाः! अपहतमनःसंकल्पाः निरुत्साहमनस्काः यावत् 'झियायह ' ध्यायथ आर्तध्यानं कुरुथ, आदरार्थे बहुवचनम् । ततः खलु स निर्यामकस्तान् बहून् कुक्षिधारांश्च ४ कयरं देमं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटूटु) अतः जब उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं रहा कि यह महावीत मेरी नौका को किस दिशा अथवा विदिशा की ओर ले गया है-तब इस प्रकार मन में विचार कर के वह ( ओहयमाणसंकप्पे जाव झियायह ) अपहत मनः संकल्पवाला बनकर यावत् आतध्यान करने लगा। (तएणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ता णावो वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेव उवागच्छइ ) इतने में अनेक कुक्षि. धर-पार्श्व में बैठकर नौका चलाने वाले कर्णधार-नाविक, गार्मेयक-नौका के भीतर यथावसर काम करने वाले और सांयात्रिक पोत वणिक जहां वह निर्यात्रिक था-वहां आये। ( उवोगच्छित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम देवाणुपिया ओहयमणसंकप्पो जाव झियायह-तएणं से णिज्जामए गया. ( ण जाण'इ कयर देसं वा दिसंवा विदिसं वा पोयवहणे अवहिएत्ति कटु) એથી જ્યારે તેને આ વાતની પણ ખબર રહી નહિ કે આ મહાવાત અમારી નૌકાને કઈ દિશા અથવા તે વિદિશા તરફ લઈ ગયે છે. ત્યારે મનમાં આ
तन विया२ ४२ ते ( ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ) अपडतमनः સંકલ્પવાળે થઈને યાવત્ આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યો.
(तएणं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ता णावा वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेण उबागच्छइ )
એટલા માં ઘણા કુક્ષિધર-પાર્ષમાં બેસીને નૌકા ચલાવનારા, કર્ણધાર નાવિક, ગાયક-નકામાં યથા સમય કામ કરનારા અને સાંયાત્રિકો-તિવણિકે જ્યાં તે નિર્ધામક હતો ત્યાં ગયા.
(उवागच्छित्ता एवं वयासी-किन्नं तुमं देवाणुप्पिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह-तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी
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अनजारामृतषिणी टी० अ० १७ नियामकस्यदिङमूढस्वय एवमवादीत् एवं खलु हे देवानुपियाः ! अहं नष्टमतिकः यावत् न ज्ञायते कं देशं वा दिशं वा विदिशं वा प्रतिपोतवहनम् ' अवहिए ' अपहतं-महावातेन नीतम् ? इति कृत्वा इति विचार्य ततः तस्मात्कारणात् अपहतमनःसङ्कल्पो यावत् ध्यायामि आर्तध्यानं करोति । ततः खलु ते कुक्षिधाराश्व४ सर्वे तस्य निर्यामक स्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य भीताः, त्रस्ताः, त्रसिताः, उद्विग्नाः, सातभयाः सनाः स्नाताः कृतबलिकर्माणः 'करयल०' करतल परिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा बहूनां इन्द्राणां च स्कन्दानां च यथा मल्लिज्ञाते तथैव यावत्-बहूनां रुद्रादीनां देवानां देवीनां च-उपयाचितशतानि अनेकविधते यहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गट्ठमइए जाव अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि) वहां आकर के उन्हों ने उस से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! क्या कारण है जो तुम अपहनमनःसंकल्प यावत् होकर आतध्यान कर रहे हो। उन सब को ऐसी बात सुनकर उस निर्यामक ने उन अनेक कुक्षि. धार ४ आदिकों से इस प्रकार कहा-सुनो बात इस प्रकार है-मैं इस समय नष्ट मतिज्ञान आदि वाला हो रहाहूँ-मुझे यह पता नहीं पड रहा है कि मेरी यह नौकामहावानके द्वारा किस देशमें और किस दिशाअथवा विदिशा में ले आई गई है-इस कारण मैं इस समय निरुत्साह मनवाला आदि बन रहा हूँ। (तएणं ते कुच्छिधारी य ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयम मोच्चा जिसम्म भीया ५ पहाया कयपलिकम्मा करयल बढणं इंदाण य ग्बंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवोयमाणा २ एवं खलु देवाणुप्पिया णट्टमइए जाव अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि )
ત્યાં જઈને તેમણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! શા કારણથી તમે અપહતમનઃ સંકલપવાળા થઈને આર્તધ્યાન કરી રહ્યા છે. તેઓ સર્વેની આ વાત સાંભળીને નિયામકે તે ઘણા કુક્ષિધાર ૪ વગેરે બધા ને આ પ્રમાણે કહ્યું કે સાંભળો, વાત એવી છે કે અત્યારે હું નઈ મતિજ્ઞાનવાળો થઈ ગયે છું. મને એ જાતની પણ સમજ પડતી નથી કે આ મારી નૌકા મહાવાત વડે પ્રેરાઈને ક્યા દેશમાં અને કઈ દિશા અથવા તે વિદિશામાં તણાઈ આવી છે. એટલા માટે હું અત્યારે નિરાશ મનવાળે થઈ ગયે છું.
(तएण ते कुच्छिधारा य ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म भीया ५ पहाया कयवलिकम्मा करयलबहूणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवायमागा २ चिट्ठति, तएणं से णिज्जामए तो मुहुर्ततरस्स
शा ७५
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माताधर्मकथागसूत्रे मान्यताशतानि ' उव्वीयमाणा २' उपयाचमानाः २ पुनः पुनः कुर्वाणा:-तत्तत्प्रसादनार्थमनेकविधां प्रतिज्ञां कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति, ततः खलु स निर्यामकः ततोमुहूर्तान्तरातू-मुहूर्त्तानन्तरं लब्धमतिकः लब्धश्रुतिकः, लब्धसज्ञः, अमूढदिग्भागः सर्वथा समुपलब्धसंज्ञ इत्यर्थः जातश्चाप्यासीत् । ततः खलु स निर्यामकस्तान बहून् चिटुंति तएणं से णिज्जामए तो मुहत्तरस्म लाइए ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था) इस तरह वे कुक्षिधार वगैरह उस निर्यामक के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर और उन्हें हृदय में अव. धारण कर भीत, प्रस्त, त्रसित उद्विग्न एवं उत्पन्न भयनाले हो गये। उन्हों ने उसी समय स्नान एवं वायसादि पक्षियों को अन्नादि देने रूप बलिकर्म करके अपने २ हाथों की अंजलि बनाई और उसे मस्तक पर रखकर अनेक इन्द्रों की स्कन्दों की, अनेक रुद्रादिक देवताओं की अनेक देवियों की जैसा कि मल्लिनामक अध्ययन में कहा है-सैकडों तरह की धार २ मनौती की, उनके प्रसाद के लिये अनेक प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की। इस के बाद उस निर्यामक की मति ठिकाने आ गई। वह दिशाओं के ज्ञान करने में समर्थ बन गया। मार्ग का ज्ञान उसे हो गया। तथा यह पूर्व दिशा है यह पश्चिम दिशो है इत्यादि रूप से उसे दिशाओं के विभाग का भी ज्ञान हो गया। (तएणं से णिज्जामए ते यहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया : लद्धमइए लद्धमइए ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था )
તે કુક્ષિધાર વગેરે લેખકોએ નિયમકના મુખથી આ પ્રમાણે વચને. સાંભળીને અને તેમને હૃદયમાં ધારણ કરીને ભીત, ત્રસ્ત, ઉદ્ધિ અને ઉત્પન્ન ભયવાળા થઈ ગયા. તેઓએ તત્કાળ સ્નાન તેમજ કાગડા વગેરે પક્ષીએને અન્નભાગ વગેરે આપીને બલિકર્મ કર્યું અને ત્યારપછી તેઓએ પિતાના હાથની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને ઘણા ઇન્દ્રોની, ઘણું રૂદ્ર વગેરે દેવતાઓની ઘણું દેવીઓની–મલ્લી નામક અધ્યયનમાં જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તે પ્રમાણે સેંકડો જાતની વારંવાર માનતા માની, તેમને પ્રસાદ ચઢાવવાની અનેક જાતની પ્રતિજ્ઞા કરી. ત્યારપછી તે નિર્યા. મકની વિવેક શક્તિ જાગ્રત થઈ ગઈ. તેને દિશાઓનું જ્ઞાન થવા લાગ્યું. માર્ગનું જ્ઞાન તેને થઈ ગયું તેમજ આ પૂર્વ દિશા છે, આ પશ્ચિમ દિશા છે, વગેરે રૂપથી પણ તેને દિશાઓના વિભાગનું જ્ઞાન થઈ ગયું. __ (तएणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य ४ एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! लद्धमइए जाव अमूढदिसाभाए जाए-अम्हेणं देवाणुप्पिया !
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपे हिरण्यादीनांवर्णनम् ५९५ कुक्षिधारांश्च ४ एवमवादीत्-एवं खलु अहं हे देवानुपियाः ! अधुना लब्धमतिको यावद् अमूढदिग्भागो जातोऽस्मि-वयं खलु हे देवानुप्रियाः ! — कालियदीवंतेणं' कालिकद्वीपान्ते कालिकद्वीपसमीपे खलु — संबूढा' संव्यूढाः संप्राप्ताः, एषः अग्रे वर्तमानोऽयं खलु कालिकद्वीपः 'आलोक' आलोक्य ते दृश्यते । ततः खलु ते कुक्षिधाराश्च ५ सर्वे तस्य निर्यामकस्यान्तिक एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्टाः प्रदक्षिणानुकूलेन=पृष्टप्रदेशागमनशीलत्वात्सानुकूलेन वातेन यत्रैव कालिकद्वीपस्त
वोपागच्छन्ति,उपागत्य पोतवहनं लंबेति-लम्बयन्ति शृङ्खलाभिर्बध्नन्ति स्थिरी कुर्वन्ति-इत्यर्थः, लम्बयित्वा ' एगद्वियाहि ' एकाथिकाभिः-एका-समानः प्रवजाव अमूढदिसाभाए जाए-अम्हेणं देवाणुपिया ! कालियदीवंतेणं संबूढा, एसणं कालियदीवे आलोकह, तरणं ते कुच्छिधारा ४ य तस्स णिज्जामगरस अंतिए एयमढे सोच्चा हट्टतुट्ठा पायक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छंति) इस के बाद उस निर्यामक ने उन अनेक कुक्षिधार आदिकों से ऐसा कहा हे देवानुप्रियो ! मैं लब्धमतिवाला हो गया हूँ मेरी बुद्धि ठिकाने आ गई है। यावत् अब मैं पूर्वादि दिशाओं का विभाग कर सकता हूँ। इस समय हमलोग कालिक द्वीप के पास आ गये हैं। देखों यह सामने कालिक द्वीप ही दिखलाई दे रहा है । इस तरह उस निर्यामक के मुख से सुनकर वे सब कुच्छिधार
आदि बड़े प्रसन्न हुए, उन्हें बड़ा अधिक संतोष हुआ। इसी समय अनुकूल वायु ने उन सब को जहां वह कालिक द्वीप था वहां पहुंचा दिया। (उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता एगट्टियाहिं कालियकालियदीवं तेणं संबूढा, एसणं कालियदीवे आलोक्कइ, तएणं ते कुच्छिधारा ४ य तस्स णिज्जामगस्स अंतिए एयमट्ठसोचा हट्ट तुट्ठा पायक्खिणाणुकूलेणं वागणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छंति ) - ત્યારબાદ તે નિર્યામકે તે ઘણા કુક્ષિધાર વગેરે લેકેને આ પ્રમાણે કહ્યું : કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી બુદ્ધિ શક્તિ ફરી જાગ્રત થઈ ગઈ છે. મારી બુદ્ધિ વ્યવસ્થિત થઈ ગઈ છે. યાવતુ હવે પૂર્વ વગેરે દિશાઓનું વિભાજન પણ સમજી શકું છું. અત્યારે અમે કાલિક દ્વીપની પાસે આવી ગયા છીએ. જુઓ આ સામે કાલિક દ્વીપજ દેખાઈ રહ્યો છે. આ પ્રમાણે તે નિર્ધામકના મુખથી સાંભળીને તે બધા કુક્ષિધાર વગેરે લોકો ખૂબ જ પ્રસન્ન થયા, તેઓને ખૂબજ સંતોષ થયે. એ જ વખતે અનુકૂળ પવને તેઓને જ્યાં કાલિકા દ્વીપ હતે. ત્યાં પહોંચાડી દીધા. (उवागच्छित्ता पोयवहणं लंवंति, लंबित्ता एगडियाहिं कालियदीवं उत्त
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ताधर्मकथासूत्र
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हणतुल्यः अर्थः = प्रयोजनं यासां तास्तथा, ताभिः = सहायिकाभिर्लघुनौकाभिः कालिकद्वीपम् उत्तरन्ति स्म । तत्र खलु ते बहून् हिरण्याकरान् = रजताकरान् सुवर्णाकरांव, रत्नाकरांच, वज्राकरान् = वज्राख्यरत्नखनी रित्यर्थः तथा बहून् तत्राश्वांश्च पश्यन्ति, किं ते= किम्भूतास्ते ? इत्याह- हरिरेणुसोणिमुत्तगा ' हरिद्रेणुशोणिमुत्रकाः = हरिद्वर्णधूलिकृतकटिसूत्राः 'आइण्णवेढा ' आकीर्णवेष्टःवर्णनग्रन्थो - अत्र वाच्यः - ' हरिरेणुसोणिसुत्तगा' इत्यादिरूपं वर्णनं सर्वमत्र कथनी यमित्यर्थः । ततः खलु तेऽश्वास्तान् पश्यन्ति दृष्ट्वा तेषां गन्धम् ' अग्घायंति आजिघ्रन्ति, आघ्राय भीताः =भयं प्राप्ताः, त्रस्ताः = त्रासं प्राप्ताः त्रसिताः = विशेषदीवं उत्तरंति, तत्थणं ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णा गरे य रयणागरे य वहरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगाआइण्णवेढा, तरणं ते आसा ते वाणियए पासंति पांसित्ता तेसि गंध अग्धायति, अग्धायित्ता भीया तत्था उच्चिरगा उव्विगमणा तओ अगाई जोयणाई उम्भमंति) वहां पहुँच कर उन्होंने लंगर डालदिया। अर्थात् जहाज को साँकलों से बांधकर वहां स्थिर कर दिया। बाद में वे एकाfर्थक-समान प्रयोजन साधक-छोटी २ नौकाओं से उस कालिक द्वीप में उतरे । वहां पर उन्होंने अनेक हिरण्य की खानों को सुवर्ण की खानों को, रत्न की खानों को, हीरे की खानोंको तथा अनेक घोड़ों को देखा । उन पर कटिसूत्र हरिद्वर्ण वाली धूलि से रचा गया था । ये सब जात्यश्व थे । उन जात्यश्वों ने उन पोतवणिकों को देखा। उनकी गंध को उन्होंने सूंघा । ध कर वे सब के सब भयभीत हो गये । त्रस्त हो रंति, तत्थणं ते बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य स्वणागरे व वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगा आइण्णवेढा, तरणं ते आसा ते वाणियए पासंति, पासित्ता तेसिं गंध अग्यायंति, अग्यायित्ता भीया तस्था उन्ग्गिा उच्चगमणा तओ अणेगाई जोयणाई उन्नमंति )
ત્યાં પહોંચીને તેમણે લગર નાખ્યું. એટલે કે વહાણને સાંકળેા વડે ખાંધીને ત્યાં ઊભું રાખ્યું. ત્યારપછી તેએ એકાર્થિક નાની નાની નૌકાઓ વડે તે કાલિક દ્વીપમાં ઉતર્યાં. ત્યાં તેમણે ઘણી હિરણ્યના ખાણા, સુવણૅની ખાણા તેમજ ઘણા ઘેાડાઓને જોયા, ઘેાડાઓ ઉપર કિટસૂત્ર લીલા રંગની માટી વડે મનાવવામાં આવ્યું હતું. આ મધા જાત્યો હતા. તે જાત્યાન્ધોએ તે પાતવાણિકાને જોયા. તેમણે તેમની ગંધને સૂધી. સૂધીને તેએ બધા ભયભીત થઈ ગયા. ત્રસ્ત થઇ ગયા. વિશેષરૂપથી તેમના ચિત્તમાં ભયનું સંચરણુ
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मंनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ०१७ कालिकद्वीपे हिरण्यादिना पोतभरणम् ५९७ तस्त्रासं प्राप्ताः,उद्विग्ना:-उद्वेगं प्राप्ताः उद्विग्नमनसः व्याकुलमानसः सन्तः ततः= तस्मात्स्थानात् अनेकानि योजनानि-अनेकयोजनदरम् , 'उगमंति' उद्माम्यन्ति-पलायन्ते स्म । ते अश्वाः खलु तत्र बने 'पउरगोयरा' प्रचुरगोचरा:प्रचुरःबहुल: गोचरः संचरणभूमिमागो येषां ते तथा, स तु तृगजलरहितोऽपि भवतीत्याह-' पउरतगपाणिया' प्रचुरतृणपानीयाः-प्रचुराणिप्रभूतानि तृणानि पानीयानि च येषु ते तथा, निर्भया: श्वापदादिभयरहिताः, अतएव 'णिरुबिग्गा' निरुद्विग्नाः मनः क्षोभरहिताः सन्तः सुखं सुखेन विहरन्ति । मु०१ ।।
मूलम्-तएणं ते संजत्तानावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी-किपणं अम्हं देवाणुप्पिया ! आसहिं ?, इमे गं बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा य रयणागरा य वइरागरा य तं सेयं खल्लु अम्हं हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए त्तिकद्द अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणित्ता हिरण्णस्स य सुवण्णस्त य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कटुस्स य पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति गये। विशेषरूप से उनके चित्त में भय का संचार हो गया। उनका मन उद्विग्न हो गया। इस तरह होकर वे सब वहां से अनेक योजन दूरतक वन में भाग गये। (तण तत्थ पउरगोयरा पउरतणेपाणिया निन्भया, निरुचिग्गा सुहं सुहेणं विहरंति) वहां वन में उनको विचरण करने के लिये बहुत अधिक विस्तृत भूमिभाग था तृण जल की वहां सर्व प्रकार से प्रचुरता थी। अतः वे उस वन में श्वापद आदि के भय से निर्मुक्त होकर बिना किसी मनः क्षोभ के आनन्द के साथ विचरण करने लगे। सूत्र १॥
થઈ ગયું. તેમનું મન ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયું. આ પ્રમાણે તેઓ બધા ત્યાંથી ઘણું योना ६२ सुधी वनमा नासी गया. ( तेण' तत्थ पउरगोयरा परतणपाणिया निब्भया, निरुव्विग्गा सुहं सुहेण विहरति ) त्यां वनमा विय२९५ ४२१॥ માટે બહુ જ વિસ્તૃત ભૂમિભાગ હતો. ઘાસ, પાણીની ત્યાં બધી રીતે સરસ સગવડ હતી. એટલા માટે તેઓ વનમાં હિંસક પ્રાણીઓના ભયથી મુક્ત થઈને શેભરહિત થઈને સુખેથી વિચરણ કરવા લાગ્યા. એ સૂત્ર ૧
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५९८
वाताधर्मकथासूत्रे
भरिता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पोयवहणं लंवेंति लम्बित्ता सगडीसागडं सज्ञेति सजित्ता तं हिरवणं जाव वरं च एगट्टियाहिं पोयवणाओ संचारेति संचारिता सगडीसागडं भरेंति भरित्ता संजोईति संजोइता जेणेव हस्थितीसए नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हत्थिसिीसयस्स नवरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्याणिवेकरेंति करिता सगडीसागडं मोएंति माइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेव्हंति गेव्हित्ता हत्थि सीसं नगरं अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव उवति ॥ सू० २ ॥
टीका- ' तरगं ते संजता ' इत्यादि । ततः खलु ते संयात्रानौकावाणिजका अन्योन्यमेवमादिबुः किं खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! अः - इमे खल arat हिरण्यकराच, सुवर्णाकराथ, रत्नाकराच वज्राकराश्च सन्ति, तत् श्रेयः खलु अस्माकं हिरण्यस्य च सुवर्णस्य च रत्नस्य च वज्रस्य च पोतवहन भत्तुम् इति
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तएण ते संजत्ता नावा वाणियगा' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण) इसके बाद (ते संजत्ता नावावाणियगा ) उन सांयात्रिक नौका वणिक जनों ने ( अण्णमण्णं एवं वधासी) परस्पर में इस प्रकार से विचार किया - (किष्ण अम्हं देवाणुपिया ! आसेहिं ? इमे गं बहवे हिरण्णागरा य सुचण्णागरा य रयणागरा य वइरागरा य तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्त य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स व पोयवहणं
तएण ते संजत्ता नावा वाणियगा, इत्यादि -
टीडार्थ - ( तरणं) त्या२पछी ( ते संजत्ता नावा वाणियता ) ते सांयात्रि नौ वशिनोसे ( अण्णमण्णं एवं वयासी) से मीलनी साथे या प्रमाणे વિચાર કર્યો કે—
( किणं अहं देवाणुपिया ! आसेहिं ? इमेणं वदवे हिरण्णागरा य सुवनागरा य रथनागरा य इरागरा य तं सेयं खलु अहं हिरण्णस्य सुवणस्स
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अनगारधर्मामृतवषिणी टी०म०१७ कालिक द्वीपे हिरण्यादिना पातभरणम् ५९९ कृत्वा इति विचार्य अन्योन्यस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य हिरण्यस्य च सुवर्णस्य च रत्नस्य च वनस्य च तृणस्य च अन्नस्य च काटस्य च पानीयस्य च पोतवदनं भरन्ति, भृत्वा प्रदक्षिणानुकूलेन-पृष्ठतः समागच्छताऽनुकूलेन वातेन यौव 'गंभीरपोयपट्टणे' गम्भीरपोतपत्तेनं गोतावतरणस्थानं वर्तते तौंवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोताहनं ' लंबेति' लम्बयन्ति-श्रृङ्खलापातादिना स्थापयन्ति, लम्बयित्वा स्थापयित्वा शकटीशाकटं सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तं ' तद् हिरण्यं यावद् वज्रं च 'एगटियाहिं ' एकाथिकाभिः लघुनौकाभिः पोतवहनात् 'संचारेति' संचारयन्ति=हिरण्यादिकमवतारयन्ति, संवार्य अवतार्य तैः शकटीभरित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्ल एयमढे पडिसुति पडिसु० हिरण्णस्स रयणस्स य वइरस्स य तणस्म य अण्णस्त य कस्म य पाणियस्स पोय. वहण भरेंति ) हे देवानुप्रियों ! हमें इन अश्वों से क्या तात्पर्य है। ये जो हिरण्य की खानें हैं, सुवर्ण की खाने हैं, रत्न की खाने हैं वज्र की खाने हैं उनमें से हिरण्य, सुवर्ण, रत्न एवं वनों को लेकर पोत भर लेने में आनंद है इस प्रकार विचार कर उन्होंने एक दूसरेको इस बात को मान लिया। मान करके फिर उन्होंने हिरण्य को सुवर्ण को रत्न को वज्र को तृण को अनाज को काष्ठ लकड़ी-और पानीको जहाज में भर लिया। (भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वारण जेणेव गंभिर पोयपट्ट णे तेणेव उवागच्छति, उवोच्छित्ता पोयवहणं लंबे ति, रित्तो, सगडीसागडं सज्जेंति सज्जित्ता तं हिरण जाव वहरं च एगद्वियाहिं य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए त्ति कटु अन्नमन्नम्स एयमद्वं पडि. सुर्णेति पडिसु० हीरण्णस्स रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्ठस्स य पाणियस्स पोयवहणं भरेंति )
હે દેવાનુપ્રિયે ! આ ઘોડાઓથી અમારે શી નિસ્બત છે ? આજે હિર શ્યની ખાણો છે, સુવર્ણથી ખાણ છે, રત્નની ખાણે છે, વજીની ખાણો છે. તે એમાંથી હિરણ્ય, સુવર્ણ, રત્ન, અને વજને લઈને વહાણને ભરી લેવામાં જ આનંદ છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાની વાતને स्वी सीधी. २वीरीन तेभरे डि२९य, सु१, २रना, १०it, तृ], मना२४, કા-લાકડાંઓ, અને પાણીને વહાણમાં ભરી લીધાં.
(भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीर पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता, सगडीमागडं सज्जेंनि सजित्ता तं हिरणं जाव वरं च एगडियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति, संचारित्ता सगडी
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. সামগ্র शाक्टं भरन्ति, भृत्वा शकटीशाकटं संयोजयन्ति संयोज्य यत्रैव हस्तिशीर्षकं नगर तौयोपागच्छन्ति, उपागत्य हस्तिशीर्षकस्य नगरस्य बहिः ‘अग्गुज्जाणे' अयोधाने-आगन्तुक निवासोद्याने सार्थनिवेशं कुर्वन्ति, कृत्वा शकटीशाकटं मोच. यन्ति, मोचयित्वा, महाथै यावत् प्राभृतं गृह्णन्ति, गृहीत्वा हस्तिशीर्ष नगरमनु पोयवहणाभो संचारैति, संचारित्ता सगडीसागड़ भरेंति, भरित्ता संजो. इंति, संजोइत्ता जेणेव हथिसीसए णयरे तेणेव उवागच्छंलि) भरकर के फिर वे लोग अपने पृष्ठ भाग से होकर आनेवाली अनुकूल वायु की महायता से जहां पोन के ठहरने का स्थान बंदरगाह-था वहां आ. ये। वहाँ आकर के उन्होंने अपने पोत को लंगर डालकर ठहरा दिया। पोत ठहग करके फिर उन्होंने शकटी-गाड़ी और शकटो-गाडों को सज्जित किया-रस्सी आदि बांध कर उन्हें तैयार किया। जब वे अच्छी ताह लुमन्जित हो चुके-तब बाद में उन लोगों ते छोटी २ नौकाओं से उस पोत-नाव पर रक्खे हुए हिरण्य आदि वन पर्यन के समस्त सामान को उतार लिया और उतार कर उन शकटी-गोड़ी शाकटोंगाडों में उसे भर दिया। भरने के बाद फिर उन्होंने उन शकटी शाकटों को जोत दिया-जोतकर फिर वे जहां हस्तिशीर्ष नगर था वहां आये (उवागच्छित्ता हत्यिसी मयस्ल नयास्म यहिया अग्गुङजाणे सत्थणिवेसं करेंति, करित्तो सगडी सागड मोएंति, मोइत्तो महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति, गेण्हित्ता हथिसीस नगरं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव सागडं, भरेंति, भरित्ता संजोइंति, संजोइता जेणेव हस्थिसीसए णयरे तेणेव उवागच्छइ )
ભરીને તેઓ બધા પિતાની પીઠ તરફથી વહેતા અનુકૂળ પવનની સહાયતાથી જ્યાં વહાણ ઊભું રાખવાનું સ્થાન-બંદર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પિતાના વહાણને લંગર નાખીને લાંગર્યું. વહાણને લાંગરી તેમણે શકટી–ગાડી, અને શકટ-ગા ઓને સુસજજ કર્યા. દેરી વગેરેથી બાંધીને તેમને તૈયાર કર્યા. જ્યારે તે સારી રીતે સુસજજ થઈ ગયાં ત્યારે તે લેકેએ નાની નાની નૌકાઓથી તે વહણમાં મૂકેલા હિરણ્યથી માંડીને વજી સુધીના બધા સામાનને ઉતારી લીધે, અને ઉતારીને તે શકટી-ગાડી અને શકટોગાડાઓમાં ભરી દે . ભર્યા પછી તેમણે તે શકટી-ગાડી અને શકટ-ગાડાંએને જોતર્યા અને જેતરીને તેઓ જ્યાં હસ્તિ શીર્ષ નગર હતું ત્યાં ગયા.
( उवागच्छित्ता हथिसीसयस्स नयरस्स बहिया अगुज्जाणे सत्यणिवेसं करेंति, करित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पहुडं गेहंति गेण्हित्ता
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बनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०१ प्रविशन्ति, अनुप्रविश्य यचैव कनककेतू राजा तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् तत्माभृतम् ' उवर्णेति ' उपनयन्ति भूपसमीपे स्थापयन्ति ।। सू०२ ।।
मूलम् तपणं से कणगकेऊ राया तेसिं संजत्ताणावावाणि यगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छर पडिच्छित्ता तं संजत्ताणावावाणियगा एवं वयासी तुब्भेणं देवाशुप्पियां ! गामागार जाव अहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं२ पोयवहणेणं ओगाहह तं अस्थि आई केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुवे ?, तरणं ते संजत्ताणावावणियगा कणगके ऊं एवं वयासी एवं खलु अम्हे देवाप्पिया ! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चैव जाव कालियदीवं तेणं संवूढा, तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य जाव
कणके राया तेणेव उवागच्छन्, , उवागच्छित्ता जाव उववेंति ) वहाँ आकर के वे लोग उस हस्तिशीर्ष नगर के बाहर के प्रधान उद्यान में ठहर गये वहां ठहर उन्हों ने वहीं पर शकटी - गाड़ी शाकटो-गाड़ों की ढील - ठहरा दिया । ढीलकर के बाद में महार्थ - महाप्रयोजन साधक भूत - यावत् प्राभृत भेंट को उन्हों ने अपने २ हाथों में लिया और लेकर के वे हस्तिशीर्ष नगर में प्रविष्ट हुए नगर में प्रविष्ट होकर वे जहाँ कनक केतु राजा थे वहां पहुँचे। वहां पहुंचक उन्हों ने उस महाप्रयोजन साधक भूत प्राभृत को राजा के पास रख दिया ।। सू०२ ॥
हत्थिसीसं नगरं अणुपविसंति, अणुविसित्ता, जेणेव कणगकेक राया तेणेव उवा गच्छर, उवागच्छित्ता जाव उबवेंति )
ત્યાં આવીને તે બધા તે હસ્તિશીષ નગરની બહારના મુખ્ય ઉદ્યાનમાં શકાઈ ગયા, ત્યાં રોકાઇને તેમણે ત્યાં જ શકટી-ગાડી અને શાકટાગાડાંઓને છેાડી મૂકયાં. ત્યારબાદ તેમણે મહા-મહાપ્રયાજન સાધક ભૂત યાવત્ લેટને પાતપેાતાના હાથામાં લીધી અને લઇને તેઓ હસ્તિશીષ નગમાં પ્રવિષ્ટ થયા. નગરમાં પ્રવિષ્ટ થઇને તે જ્યાં કનકકેતુ રાજા હતા ત્યાં પહેાંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે તે મહાપ્રયેાજન સાધક રૂપ ભેટને રાજાની સામે મૂકી દીધી. ।। સૂત્ર ૨૭
शा ७६
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६०२
वाताधर्मकथासूत्रे
बहवे तत्थ आसा किं ते ? हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाई उब्भमंति, तणं सामी अम्हेहिं कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिव्वे, तणं से कणगकेऊ राया तेसि संजत्तगाणं अंतिए एयम सोच्चा ते संजत्तए एवं वयासी- गच्छहणं तुब्भे देवाप्पिया मम कोडुंबिय पुरिसेहि सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आह, तरणं ते संजत्ताणावावाणियगा कणगकेऊ रायं एवं वयासी एवं सामि त्तिकद्दु आणाए पडिसुर्णेति, तणं कणगकेऊ राया कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया ! संजत्तिएहिं सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुर्णेति, तराणं ते कोडुंबिय० सगडी सागडं सर्जेति सजित्ता तत्थ णं बहूणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य भंभाण य छब्भामरीणय वित्तवीणाण य अन्नेसिं च बहूणं सोतिंदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति भरिता बहूणं किण्हाण य जाव सुकिलाणं य कटुकम्माण य ४ गंथिमाण य ४ जाव संघाइमाण य अन्नेसिं च बहूणं चक्खिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति बहूणं कोट्टपुडाण य केयईपुडाण य जाव अन्नेसिं च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागड भरेंति बहुस्स खंडस्त य गुलस्स य सक्कराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर पउमुत्तराण य अन्नेसिं च जिब्भिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति । बहूणं कोयवियाण य कंबलाण
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अंगारी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगतआकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०३
य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसूराण य सिलावहाण य जाव हंसगब्भाण य अन्नेसिं च फासिंदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति भरिता सगडीसागडं जोएंति जोइता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति मोइत्ता पोयवहणं सज्जेंति सज्जित्ता तेसिं उकिद्वाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं कटुस्स य तणस्स य पाणिस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं
बहूणं पयवहणपाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति भरिता दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीत्रे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता पोयवहणं लंबेति लंबित्ता ताई उक्किट्ठाई सद्दफरिसरसरूवगंधाई एगट्टियाहिं कालियदीवे उत्तारेंति । जहिं २ चणं ते आसा आसायंति वा सयंति वा चिति वा तुयद्वंति वा तहिं २ च णं ते कोटुंबिय पुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइंदियपाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिति तेसिं परिपरंतेणं पासए ठवेंति ठवित्ता णिच्चला णिष्कंदा तुसिणीया चिति, जत्थर ते आसा आसयंति वा जाव तुयहंति वा तत्थ तत्थ णं ते कोडुंबियपुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कटुकम्माणि य जाव संघाइमाणि य अन्नाणि
बहूणिं चक्खिदिपाउग्गाणि य दव्वाणि ठवेंति तेसिं परिपेरतेणं पास ठवेंति ठवित्ता णिच्चला णिष्कंदा तुसिणीया चिट्ठति जत्थ २ ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ णं तेसि बहूणं
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.६०४
शाताधर्मकथाजस्त्र कोटपुडाण य जाव अन्नेसि च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाणं पुंजे य णियरे य करेंति करित्ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिटुंति जत्थ २ णं ते आला आसयंति ४ तत्थ २ णं गुलस्स जाव अन्नोसं च बहणं जिभिदियपाउग्गायं दवाणं पुंजे य निकरे य करेंति करित्ता वियरए खणति खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स जाव अन्नेसिं च बहूणं पाणगाणं वियरे भरेंति भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिटुंति, जहिं २ च णं ते आसा आस० तहिं २ च णं ते बहवे कोयविया य जाव हंसगब्भा य अण्णाणि य बहूणि फासिदिय पाउग्गाई अस्थुयपञ्चत्थुयाइं ठवेंति ठवित्ता तेसि परिपेरंतेणंजाव चिट्ठति, तएणं ते आसा जेणेव एते उक्किठा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तत्थणं अत्थेगइया आसा अपुव्वा णं इमे सदफरिसरसरूवगंधा इतिकटु तेसु उक्किटेसु सदफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ तेसिं उकिटाणं सद्द जाव गंधाणं दूरंदूरेणं अवकमंति, तेणं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिन्भया णिरुव्विग्गा सुहं सुहेणं विहरंति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सदफरिसरसरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रज्जइ णो गिज्झइ, णो मुज्झइ णो अज्झोववजेइ से णं इहलोए चेव बहूगं समणाणं ४ अच्चणिजे जाव वीडवइस्सइ ॥ सू० ३॥
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भनारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६०५ ___टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कनक केतू राजा तेषां संयात्रनौकावाणिजकानां तन्महार्थ यावत् प्राभृतं 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-स्वीकरोति प्रतीष्य तान् संयात्रनौकावाणिजकान् एवमवादी-यूयं खलु हे देवानुप्रियाः ! 'गामागर जाव अहिंडह ' ग्रानाकर यावत् - ग्रामाकरनगरादिषु आहिण्डथ= गच्छत, लवणसमुद्रच अभीक्ष्णं २ पोतबहनेन अवगाहध्वे 'तं' तत्-तर्हि अस्ति 'आई' इतिवाक्यालङ्कारे किमपि 'भे ' युष्माभिः ' कहिंचि' कुत्रचिद 'अच्छे(ए' आश्चर्य कर्म=आश्चर्यजनकवस्तु 'दिट्ठपुव्वे ' दृष्टपूर्वम् ? यदि दृष्टमस्ति तर्हि कथयतेतिभावः । ततः खलु ते संयात्रनौकावाणिजकाः कनककेतुमेवमय
-तएणं से कणगकेऊ राया इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कणगकेऊराया) उस कनककेतु राजा ने (तेसिं संजत्ता जावा वाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ता-ते संजत्ता णावा वाणियगा एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! गामगर जाव आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणेणं
ओगाहह तं अस्थिआई केई भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ?) उन सांयात्रिक पोतवणिक जनों की उस महार्थसाधक भेंट को स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके फिर उन सांयात्रिक पोतवणिक जनों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियों तुमलोग अनेक ग्राम आकर नगर आदि स्थानों में जाते रहते हो और बार २ पोनवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते रहते हो तो कहो कहीं पर तुम ने यदि कोई आश्चर्य कारी वस्तु देखी हो तो कहो-तएणं ते संजत्ता णावा वाणियगा कण
तएणं से कणगकेऊ राया इत्यादि
2014-(तएणं ) त्या२५छ। (से कणगके ऊ राया) ते नतु २०१२ . (तेसि संजत्ता णावा वाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ, पहिच्छित्ताते संजात्ता णावा वाणियगा एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! गामागर जात्र भाहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणेणं ओगाहह तं अत्धि आई केई भे कहिचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ?)
તે સાંયાત્રિક પિતવણિક જનની તે મહાર્થ સાધક ભેટને સ્વીકારી લીધી. અને સ્વીકારીને તે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનું પ્રિયે! તમે લે કે ઘણાં ગામ, આકર, નગર વગેરે સ્થાનમાં આવજા કરતા રહે છે અને વહાણ વડે લવણું સમુદ્રની વારંવાર યાત્રા કરતા રહે છે તે અમને કહે કે તમે કેઈ નવાઈ પમાડે તેવી અદ્દભુત વસ્તુ જોઈ છે?
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६०६
शांताधर्मकथासूत्रे
दन एवं खलु वयं हे देवानुप्रियाः । इत्र हस्तिशीर्षे नगरे परिवसामः, ' तंचेव ' तदेव पूर्वोक्तवर्णनं सर्वमत्र वाच्यम् ' जाव' यावत् कालिकद्वीपान्ते = कालिक द्वीपसमीपे खलु ' संवृढा ' संव्यूढा:- प्राप्ताः, तत्र खलु बहवो हिरण्याकराश्च यावद् बहवस्तत्राश्वाः सन्ति, किते किम्भूतास्ते ? इत्याह- हरिरेणु जाव' हरिद्रेणु शोणिसूत्रकाः यावद् - तेऽस्मद्गन्धमाघ्राय भीताः सन्तः अनेकानि योजनानि दूरम् 'उम्भमंति' उभ्रमन्ति पलायन्ते स्म ततः खलु हे स्वामिन् ! अस्माभिः " कालिकद्वीपे तेऽश्वाः सन्ति " तदेव ' अच्छेरए ' आश्चर्यकं दृष्टपूर्वमिति । ततः खलु स गऊं एवं वयामी एवं खलु अम्हे देवाणुपिया ! इहेव हरिथसीसे नयरे वसामो तं चैव जाव कालियदीवं तेणं संवृदा तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा
जाव बहवे तत्थ आसा किंते ? हरिणेणु जाव अणेगाई जोगणाई उन्भमंति-तणं सामी अम्हें हि कोलियदीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ) इस प्रकार राजा की बात सुनकर उन सांयात्रिक पोतवणिग्जनों ने उन कनककेतु राजा से कहा हे देवानुप्रिय ! हमलोग इसी हस्तिशीर्ष नगर में रहते हैं । हमलोग यहां से लवणसमुद्र में होकर व्यापार के निमित्त बाहर परदेश गये हुए थे । मार्ग में हमलोगों को अनेक प्रकार के सैंकडों उपद्रव हुए उनसे जिस किसी तरह सुरक्षित हो हमलोग कालिकद्वीप के समीप पहुँच गये। वहां हमने अनेक हिरण्य आदि की खानों को एवं अनेक अश्वों को कि जिनका कटिभाग हरिद्वर्णवाली धूलि. से रचित कटिसूत्र से चिन्हित था देखा, वे हमलोगों की गंध को सूंघ
( तरणं ते संजताणावा वाणियगा कगगकेऊ एवं व्यासी एवं खलु अम्हे देवाशुपिया ! इहेव इत्थिसीसे नयरे वसामो तं चेत्र जात्र, कालिभ दीव णं संवूढा, तत्थ णं हवे हिरण्णागरा य जाव बहवे तत्थ आसा कि ते ? हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाई उब्भमंति-तरणं सामी अम्हेंहि कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठपुब्वे )
આ પ્રમાણે રાજાની વાત સાંભળીને તે સયાત્રિક પાતવણિક નાએ તે કનકકેતુ રાજાને કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિય ! અમે બધા આ હસ્તિશી નગરમાં જ રહીએ છીએ. અમે બધા વ્યાપાર ખેડવા માટે અહીંથી લવણુ સમુદ્રમાં થઇને બહાર પરદેશમાં ગયા હતા. રસ્તામાં ઘણી જાતના સેકડા ઉપદ્રવે થયા. છેવટે ગમે તેમ કરીને સુરક્ષિત રૂપમાં અમે બધા કાલિકટ્વીપની પાસે ગયા. ત્યાં અમેએ ઘણી હિરણ્ય વગેરની ખાણેાને અને ઘણા અશ્વોને-કે જેમના કિટભાગે લીલા રંગની માટીથી અનાવેલા કટિસૂત્રથી ચિહ્નિત હતા— જોયા. અમારી ગંધને સૂધીને તે અશ્વો ત્યાંથી કેટલાક ચાજને દૂર સુધી
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मनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ कालिकद्वीपगत आफीश्विवक्तव्यता ६९७ कनक केतू राजा तेषां 'संजत्तिगाणं' सांयात्रिकाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा तान् सांयात्रिकान् एवमवदत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! मम कौटुम्बिकपुरुषैः साई कालिकद्वीपात्तानश्वानानयत । ततः खलु ते संयात्रानौकावाणिजकाः कनककेतुं राजानमेवमवादिषुः हे स्वामिन् ! एवमस्तु 'त्ति कटु' इति कृत्या इत्युक्त्वा ' आणाए ' आज्ञाया: आज्ञामित्यर्पक' पडिसुणेति' प्रतिशृण्वन्ति= कर वहांसे कई योजन दूरतक जंगल में भाग गये । अनः हे देवानुप्रिय "कालिकद्वीप में हमलोगों ने उन घोडों रूपी आश्चर्य को देखा है। (तएणं से कणगकेऊ रामा तेसिं संजत्तगाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा ते संजत्तए एवं बयासी-गच्छह णे तुभे देवाणुप्पिया! मम कोडंपिय पुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह तएणं ते संजत्ता णावा वाणिगया कणगकेऊ रायं एवं वयासी एवं सामित्ति कटूटु आणाए पडिसुणेति, तएणं कणगके गया कोडुंबियपुरिसे सहावे, सदायित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! संजत्तिएहिं सद्धिं कालिय. दीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति ) इसके बाद कनक केतु राजा ने उन सांयात्रिक पोतवणिक्जनों के मुख से इस अर्थ को सुनकर उन सांयात्रिकों से इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! तुमलोग जाओ
और मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ कालिकद्वीप से उन अश्वों को लाओ। इस प्रकार सुनकर पोतवणिक् जनों ने कनक केतु राजा से ऐसा कहा વનમાં નાસી ગયા. હે દેવાનુપ્રિય! અમેએ કાલિક દ્વીપમાં તે અશ્વ રૂપી અદ્ભુત વસ્તુને જોઈ છે.
(तएणं से कणग केऊ राया तेसिं संजत्तिगाणं अंतिए एयमढे सोच्चा ते संजत्तए एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! मम कोडुंबियपुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, तएणं ते संजत्ता णावा वाणियगा कणगके रायं एवं व्यासी एवं सामी त्ति कटु आणाए पडिमुणेति, तएणं कणगके ऊ राया कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! संजत्तिएहिं सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह, ते वि पडिसुणेति)
ત્યારબાદ કનકકેત રાજાએ તે સાંયાત્રિક પિતવણિકજનોના મુખથી આ વાતને સાંભળીને તે સાંયાત્રિકને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકે મારા કૌટુંબિક પુરુષોની સાથે કાલિક દ્વીપમાં જાઓ અને ત્યાંથી તે અશ્વોને લાવે. આ પ્રમાણે કનકકેતુની આજ્ઞા સાંભળીને તે પોતવણિકજનોએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી! તમારી આજ્ઞા અમારા માટે પ્રમાણુ સ્વરૂપ છે. આમ કહીને તેમણે કનકકેતુ રાજની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. ત્યાર
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६०८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु कनककेतू राजा कौटुम्बिक पुरून् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं हे देवानुभियाः । सांयात्रिकैः सार्द्ध कालिकद्वीपात् मह्यम् अश्वानानयत । तेऽपि = कौटुम्बिकपुरुषाः 'पड़िमुणेति' प्रतिशृण्वन्ति 'तथास्तु' इत्युक्त्वा राजाज्ञां स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः शकटीशाकटं 'सज्जेति' सज्जयन्ति = कालिकद्वीपे गमनार्थं सज्जीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा तत्र खलु शकटीशाकटे बहूनां च बल्लकीनां च भ्रमेरीगां च 'कच्छमीण य' कच्छमीनां च'कच्छभी' इति कच्छपाकारवीणाविशेषः, भंभानां भेरीणां च, पड्भ्रामरीणां च,
हे - स्वामिन् ! हमें आपकी आज्ञा प्रमाण है-ऐसा कहकर उन्हों ने कनक केतु राजा की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। इसके बाद कनक केतु राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा- हे देवानुप्रियों ! तुम सांयात्रिक पोतवणिक् जनों के साथ जाओ - और कालिकद्वीप से मेरे लिये घोड़ों को ले आओ । राजा की इस आज्ञा को उन लोगों ने भी स्वीकार कर लिया । (तपणं ते कोटुंबियपुरिसा सगडी सागड सज्जैति, मज्जित्ता तत्थणं बहूणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छ भीण य भंभाण य छभामरोण य वित्तवीणाण
अन्नेति च बहूणं सोइंदिय पाउरगाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति, भरिता बहूणं किण्हाणं य जाव संघाइमाण य अन्नेसिं च बहूणं चक्खिदिपाउगाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेनि ) इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ी और गाड़ों को सज्जित किया-सज्जित कर के उनमें उन्हों ने अनेक वीणाओं को, वल्लकियों को, भ्रमरियों को, कच्छप
બાદ કનકેતુ રાજાએ પોતાના કૌટુબિક પુરુષાને ખેલાવ્યા અને ખેાલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમે સાંયાત્રિક પાતકણિકનેાની સાથે જાએ અને કાલક દ્વીપમાંથી મારા માટે ઘેડાઓને લાવેા. રાજાની આ આજ્ઞાને તે લોકોએ પણ સ્વીકારી લીધી.
( तरणं ते कोईवियपुरिसा सगडीसागडं सज्जेति, सज्जित्ता तत्थणं बहूणं वीणय वल्लकीण य भामरीणय कच्छभीणय भंभाग य छन्भामरीण य विवाण य अन्नेसिं च बहूणं सोइदियपउगाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति, भरिता बहूणं कण्हाणं य जाव संघाइमाण य अन्नेमिं च बहूणं चक्खिदिपाउगाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति )
ત્યારપછી તે કૌટુંબિક પુરુષાએ ગાડી અને ગાડાંઓને જોતર્યા. જોતરીને તેમાં તેમણે ઘણી વીણાઓ,વલકીએ ભ્રામરી, કાચનાના આકાર
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी २० अ० १७ कालिकढीपगत आकीणाश्ववक्तव्यता ६०५. 'वित्तवीणाणय' वृत्तवीणानां गोलाकार वीणानां च-अन्येषां च बहूनां नानाविधानां 'सोइंदियपाउग्गाणं' श्रोत्रोन्द्रिय प्रायोग्याणां-कर्णेन्द्रियमुखजनकानां द्रव्याणां तन्यादिरूपाणां शकटीशाकटं भरन्ति तैवींणादिभिरित्यर्थः, भृत्वा बहूनां किण्हाणय जाव मुक्काणय ' कृष्णानां यावत्-नीलानां पीतानां रक्तानां शुक्लानां च कृष्णादिपञ्चवर्णयुक्तानां ' कटकम्माण य' काष्ठकर्मणां-काष्ठनिर्मितपुत्तलिकादीनाम् , ' पोत्थकम्माणय' पुस्तषु कर्मगां-पुस्तेषु वस्त्रताडपत्रकलादिषु कर्माणि= लेखनकर्माणि, तेषाम् , 'चित्तकम्माण य' चित्रकर्मणां-पट्टकादिषु चित्ररूपाणाम् , ' लेप्पकम्माणय' लेप्पकर्मणां मृत्तिकासे टिकादिना वल्ल्याद्याकाररचना विशेषरूपाणाम् , तथा-' गंथिमाण य ' ग्रन्थिमानां कौशलातिशयेन ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितानाम्-यावत्-'वेढिमाण य' वेष्टिमानां लतादि वेष्टनतो निष्पादितानाम् , ' पूरिमाण य' पूरिमाणां-कनकादिषु पुतलिकावत् छिद्रादिपूरणेन के आकार जैसी वीणाओं को, भंभाओं भेरियों-को, षड् भ्रामरियों को -गोलाकार वीणाओं को, तथा और भी अनेक विधश्रोत्रेन्द्रिय सुखजनक तंत्री आदिरूप द्रव्यों को, भरा-भर करके फिर नीले, पीले, रक्त, शुक्ल और कृष्ण रंग से रंगे हुए काठ के बने हुए खिलौनों को, पुस्तकर्मों को-वस्त्र, ताडपत्र एवं कागज आदि पर लिखे विविध प्रकार के लेखों को, निबन्धों को उपदेश पूर्ण-दोहे चौपाइ आदि में लिखी हुई कविता आदि कों को-चित्रकों को-पटिया आदि पर उकेरे गये विविध चित्रों को-लेप्यकर्मों को-मृत्तिका सेटिका आदि से बल्ली आदि रूप में घनाये गये चित्रों को, ग्रंथिमों को विशेष चतुराई के साथ गांठों से बनाये गये खिलौनों को, लताओं आदि द्वारा वेष्टित करके २ रची गई चीजों को,-टोपियों को, हाथों की पैरों की अंगुलियों में पहिरने योग्य
२वी पाणी, ममामा-लेरीमा ( नाराय।) ष-प्रामारीमा, गो मा१२. વાળી વણાઓ તેમજ બીજા પણ ઘણું કન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા તંત્રી વગેરે સાધનને ભર્યા. ભરીને લીલા, પીળા, શતા, સફેદ અને કાળા રંગેથી રંગાએલાં લાકડાના બનેલાં રમકડાંને, પુસ્તકર્મોને વસ્ત્ર તાડપત્ર અને કાગળ વગેરે ઉપર લખાએલા જાતજાતના લેખોને, નિબંધને, હા, ચોપાઈ વગેરેમાં લખાએલી ઉપદેશક કવિતાઓ વગેરેને, ચિત્ર કર્મોને-ફલક વગેરે ઉપર ચિત્રિત કરતાં ઘણું ચિત્રને લેખ કર્મોને, માટી સેટિક વગેરેથી લતા વગેરે રૂપમાં બનાવવામાં આવેલા ચિત્રોને, ગ્રંથિમેને-વિશેષ ચાતુર્યથી ગાંઠેથી બનાવવામાં આવેલાં રમકડાંને, લતાઓ વગેરે વડે વેષ્ટિત કરીને બનાવવામાં આવેલી વક્ત
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हाताधर्मकथासूत्र निष्पादितानाम् , 'संघाइमाण य' सङ्घातिमानां लोहकाष्ठादिभी स्थादिवद् वस्तुसमूहै निष्पादितानाम् , तथा अन्येषां च वहूनां ' चक्खिदियपाउग्गाणं ' चक्षुरिन्द्रियपायोग्याणां-नयनानन्दजनकानां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा बहूनां · कोट्ठपुडाण य' कोष्टपुटानां = सुगन्धिद्रव्यविशेषाणां च केतकीपुटानां च यावत्-एलापुटानां च, कुङ्कुमपुटानां च, उशीरपुटानां= खस ' इतिभाषा प्रसिद्धसुगन्धिद्रव्याणां च, लवङ्गपुटानां चेत्यादि । अन्येषां च बहूनां घाणेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा बहोः खण्डस्य च गुडस्य च शर्करायाश्च 'मिसरी' इति भाषा प्रसिद्धायाः ' मच्छंडियाए य' मत्स्यण्डिकायाः 'कालपीमिसरी' इति भाषा प्रसिद्धायाः, पुष्पोत्तर-पनोत्तराणां-गुलकन्द ' इति प्रसिद्धानां च, अन्येषां च जिह वेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति । तथा बहूनां 'कोयवियाण य' कोयविकानां = रूतपूरितमावरणविशेषाणां 'रजाई - इति प्रसिद्धानाम् , कम्बलानां रत्नकम्बलानाम् , प्रावरणानां शाटिकानां 'चद्दर' इति प्रसिद्धानाम् , ' नवतयाण य' नवतकानाम् ऊर्णामयपर्याणानां आभूषण आदि कों को-पुत्तलिका की तरह जो सुवर्ण आदि के पतरों पर कृत छिद्रादिकों के पूरने से चित्र बनाये जाते हैं वे पूरिम हैं इन पूरिमों को और संघातिमों को-लोहकाष्ट आदि की तरह अनेक वस्तुओं के समुदाय से निष्पादित चित्रों को तथा और भी नेत्र इन्द्रिय को सुहावने लगने वाले द्रव्यों को भरा । (बहणं कोट्ठपुडाण य, केयई पुडाण य जाव अन्नेसि च बहूणं घाणिदियपाउंग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति, बहुस्स खंडस्स य गुलस्स सकराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर पंउमुत्तराणय अन्नेसिं च जिभिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति बहणं कोयवियोण य केवलाणय पावरणोण य नवतयाण य એને-પીને, હાથ, પગે અને આંગળીઓમાં પહેરવાનાં આભૂષણ વગે. ને પૂતળીની જેમ જે સુવર્ણ વગેરેનાં પતરાં ઉપર કાણાં પાડીને તેમને પૂરીને બનાવવામાં આવેલા ચિત્રો એટલે કે પૂરિમાને અને સંઘાતિને લેખંડ, કાષ્ઠ વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા રથ વગેરેની જેમ ઘણી વસ્તુઓને એકત્રિત કરીને તેમના વડે બનાવવામાં આવેલા ચિત્રને તેમજ બીજા પણ ઘણું નેત્ર ઈન્દ્રિયને ગમે તેવા દ્રવ્યોને ભર્યા.
(वहूर्ण कोट्टपुडाण य, केयई पुडाण य जाव अन्नेसिं च बहूणं घाणिदिय पाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति, बहुस्म खंडस्स य गुलस्स सक्कराए य मच्छडियाए य पुप्फुत्तरपउमुत्तराण य अन्नेसिं च जिभिदियपाउग्गाणं दवाणं संगीसागडं भरेंति बहूणं कोयवियाण य केवलाण य पावरणाण य नवतयाण
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वर्ष
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० अ० १७ कालिकद्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१२ जीन ' इति प्रसिद्धानाम्, मलयानां च मलय देशोत्पन्न वस्त्रविशेषाणाम्, 'मसू राण य' मसूरकाणां वस्त्रादिनिर्मित वृत्ताकारासन विशेषाणाम्, 'सिलावहाण य शिलापट्टानां= पट्टाकारचिकणशिलानां यावत् हंसगर्भाणां हंसः चतुरिन्द्रियकृमि विशेषः, गर्भः = तन्निर्वर्तित कोसि कारोरूतरूपः, तन्मय वस्त्राण्यपि हंसगर्भाणीत्यु
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मलयाण य मसूराण य सिलावट्टाण य जीव हंसगभाण य अन्नेसिं च फासिंदियाउ गाणं दुव्वोणं सगड़ीसागडं भरे ति) इसी तरह अनेक कोष्टपुटों को सुगंधित द्रव्य विशेषों को केतकीपुटों को सुगंधित पुष्पों यावत् एलापुटों को इलायचियों को, उखीरपुटों को, खश के समुदाय को- कुंकुमपुटों को तथा और भी अनेक, घ्राणेन्द्रिय को तृप्ति कारक द्रव्यों को उन लोगों ने गाडी और गांडों में भरा। बहुत सी खांड, बहुत से गुड़ बहुत सी शर्करा मिसरी बहुत सी मत्स्यण्डी - कालपी मिसरी बहुत से गुलकंद, बहुतसे पद्मपाक को तथा और भी जिह्वाइन्द्रिय को तृप्ति करने वाले द्रव्यों को उन लोगों ने गाड़ी और गाडों में भरा। इसी तरह स्पर्शन इन्द्रिय को आनंददेने वाले कोपविकों को रुई कपास - से भरे हुए प्रावरण विशेषों को रजाइयों को - कम्बलों को - रत्न कम्बलों को प्रावरणों को चहरों को नवलकों को ऊन के बने हुए पलेंचों को जीनों को मलयदेश के बने हुए वस्त्रों को, मसूरकों को वस्त्रों से बनाये हुए गोलाकार आसनों को शिलापट्टों को पट्टाकार चिकनी
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मलयाणय मनूराणय सिलावहाण य जाव हंसगव्माण य अन्नेसि च फांसि दिपाउरगाणं दव्वाणं सगडी लागडं भरेंति )
આ પ્રમાણે ઘણા કષ્ટ પુટકાને-સુગધિત દ્રવ્ય-વિશેષાને, કેતકી પુટને કેવડાનાં પુષ્પાને યાવત્ એલાપુટાને, એલચીઓને, શીર પુટાને-ખશના समुदायाने, भुङ्कुम युटोने तेमन जी पशु धा धावेन्द्रिय ( नाऊ ) ने तृति પમાડનારા દ્રબ્યાને. તેઓએ ગાડી અને ગાડાંઓમાં ભર્યાં. બહુ જ પુષ્કળ प्रभाणुभां भांडे, गोण, साम्र-मिश्री, भत्त्यांडी-मासयी मिश्री, (उंची लवनी सा४२) ગુલક૪, પદ્મપાકા તેમજ ખીજા પશુ ઘણા જીહ્વા ઇન્દ્રિય (જીભ) ને તૃપ્તિ આપનાર દ્રવ્યેાને તે લેાકેાએ ગાડી અને ગાાએમાં ભર્યાં, આ પ્રમાણે સ્પર્શેન્દ્રિયને સુખ આપનારી કાયવિકાને રૂથી ભરેલા પ્રાવરણુ શેષાને-રજાઇએને, કામजोने, रत्न अभगोने, प्रावरणाने, याहरीने, नवसोने, अनथी मनाववाभां આવેલાં પઢેચાઓને જીનાને-મલય દેશના વોને, મસૂરકે ને-વસ્ત્રો વડે બનાવવામાં આવેલા શેઠળ આકાર આસનાને, શિલાપટ્ટાને-પટ્ટના આકારની
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११५
भाताधर्मकथाजस्त्र ध्यन्ते, तेषां कौशेयवस्त्राणां ' रेशमीवस्त्र' इति भाषा पसिद्धानां च, तथाअन्येषां च स्पर्शेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्याणां शकटीशाकटं भरन्ति, भृत्वा शकटीशाकटं योजयन्ति, योजयित्वा यौव गम्भीरक-गम्भीरनामकं पोतस्थानं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य शकटीशाकटं मोचयन्ति, मोचयित्वा 'पोयवहणं' पोतवहनं-नौका सज्जयन्ति, सज्जयित्वा तेषाम् ' उकिटाणं' उत्कृष्टानां श्रेष्ठानां शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां काष्ठस्य च पानीयस्य च तन्दुलानां च 'सामियस्स य' समीतस्य शिलाओं को, हंस गर्भो को-रेशमी वस्त्रों को, तथा और भी स्पर्शन इन्द्रिय को आनन्द देने वाली वस्तुओं को उन लोगों ने गाडी और गाडों में भरा। (भरित्ता सगडीसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव गंभीरए पोयहाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता पोयवहणे सज्जेंति, सजित्ता तेसि उकिट्ठाणं सद्दफरिसरसख्वगंधाणं कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाणय समियरस य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूण पोयवहणपाउग्गा ण पोयवहणं भति) भरकर के फिर उन लोगों ने गाडी और गाडों को जोत दिया। जोतकर के फिर वे वहाँ आये-जहां गंभीर नाम का पोतस्थान था-चंदरगाह था। वहां आकर के उन लोगों ने गाड़ी और गाड़ों को ढील-रोक दिया। और फिर नौकाओंको सजाया-तैयार किया । और तैयार करके बादमें उन्होंने उन श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, एवं गंधोंको काष्ठको तृण को पानीय द्रव्य को तंदलों को, गेहुँ के आटे को, गोरस घृतादिक-को લીસી શિલાઓને, હંસ ગર્ભોને રેશમી વસ્ત્રોને તેમજ બીજી પણ ઘણું સ્પશે ન્દ્રિયને સુખ પમાડે તેવી ઘણી વસ્તુઓને તે લેકએ ગાડી અને ગાડાઓમાં ભરી.
(भरित्ता सगडीसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति मोइत्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता तेसि उक्किट्ठाणं सद्दफरिसरसरूपगंधाणं कठुस्स य तणस्स य पाणियस्म य तंदुलाण य समियस्स य गोरमस्स य जाव अन्नेसिं च बहूणं पोयवहण पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति )
ભરીને તે એ ગાડી અને ગાડએને જોતર્યા. જોતરીને તેઓ ત્યાંથી જ્યાં ગંભીર નામે પિતસ્થાન (બંદર) હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તે લોકોએ ગાડી અને ગાડાંઓને છેડી મૂકયા. અને ત્યારપછી નૌકાઓને સુસજિત કરી. સુસજિત કર્યા બાદ તેમણે તે ઉત્તમ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, ३५ भने अपाने, आ४ने, घासने, elumn द्रव्याने, तga ( 20 ) ने,
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मैनेगारधर्मामृतवर्षिणी डी० म० १७ कालिकद्वीपगत आकोणाश्ववक्तव्यता ६१३ गोधूमादीनामस्य ' आटा ' इति प्रसिद्धस्य, ' गोरसस्स य ' गोरसस्प= घृतादिकस्य च यावत् अन्येषां च बहूनां पोतवहनप्रायोग्याणां द्रव्याणां पोतवहनं भरन्ति भृत्वा 'दविखणाणुकूलेणं ' दक्षिणानुकूलेन सानुकूलेन वातेन यत्रैत्र कालिकद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तत्र पोतवहनं ' लंबेंति ' लम्बयन्ति = तीरस्थापित बनन्ति, बद्ध्वा तान् = नौकास्थितान् उत्कृष्टान् = उत्तमोत्तनान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान् ' एगडियाहिं' एकार्थिकाभिः = लघुनौकाभिः 'कालिय'दी' कालिकद्वीपे ' उत्तारेति ' उत्तारयन्ति नौकातो निस्साये भूमौ स्थापयन्ति ।
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यावत् और अनेक पोतवहन प्रायोग्य द्रव्यों को उस नौका में भरदिया । (भरिता दक्खिणाणुकूलेण वाएण जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता ताई किट्टाई सफरिसरस रूपगंधाई एडियहि कालियदीवे उत्तारेंति । जहिं २ च णं ते आसा आसायंति वा सयंति वा चिति वा तुयहंति वा तर्हि२ चणं ते कोडुं बियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वित्तवीणाओ य अन्नाणि य बहुणि से इंदिय पाउग्गाणि समुदीरेमाणा चिति) भर करके फिर ये लोग जब पीछे से आनेवाला अनुकूल वायु वहा तब वहां से चलकर जहां कालिक द्वीप था वहां आये वहां आकर के इन लोगों ने लंगर डाल दिया - लंगर डालकर पोत में से शब्द के साधन भूत वीणा आदिकों को अच्छे स्पर्श के साधनभूत रूई से भरे हुए रजाई आदि वस्त्रों को रसनाइन्द्रिय को सुहावने लगनेवाले खांड आदि पदार्थों को ઘઉંના લેટને, ગારસ ધી વગેરેને યાવત્ ખીજાપણુ ઘણુા વહાણુ યાત્રામાં કામ લાગે તેવાં દ્રવ્યાને તે નૌકામાં ભર્યાં.
( भरिता दक्खिणाणुकूले णं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता ताई उक्किट्ठाई सदफरिसर सरूपगंधाई एगट्टियाहि कालिपदीवे उत्तारेति । जहिं २ च णं ते आसा आसायंति वा संयंति वा चिद्वंति वा तुयति वा तहिं २ च णं ते कोडुबियपुरिसा ताभो Satara य जात्र वित्तविणाओ य अन्नाणि य बहूणि सोइंदिय पाउरगाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा चिट्ठति )
ભરીને તે બધા જ્યારે પાછળથી વહેતા અનુકૂળ પવન વહેવા લાગ્યા ત્યારે ત્યાંથી રવાના થઈને જ્યાં કાલિક દ્વીપ હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તે લેાકેાએ લંગર નાખ્યું. લંગર નાખીને વહાણુમાંથી શબ્દના સાધન રૂપ વીણા વગેરેને, કામળ સ્પશના સાધનભૂત રૂથી ભરેલા રજાઈ વગેરે વસ્રોને, રસના ( જીભ ) ઇન્દ્રિયને ગમતા ખાંડ વગેરે પદાર્થોને, નેત્ર ઇન્દ્રિયને આન
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जाताधर्मकथा _ 'जहिं २ च णं' यत्र यत्र च वने खलु ते 'आसा' अवाः जात्या अश्वाः — आसयंति वा' आसते उपविशन्ति 'सयंति वा' शेरतेस्पन्ति वा चिटुंति वा' तिष्ठन्ति वा, 'तुयदृति वा ' त्वग्वतयन्ति-शरीरं प्रसार्य स्वपन्ति वा ' तहिं २ तत्र तत्र च खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः ‘ताओ' ताः हरितशीर्ष नगरादानीता वीणाश्च यावत्-वृत्तवीणाश्च, तथा अन्यानि च बनि श्रोगेन्द्रियप्रायोग्याणि च द्रव्याणि 'समुदीरेमाणा' समुदीरयन्तः मधुरध्वनिना वादयन्तः तिष्ठन्ति, तेषामश्वानां परिपेरतेणं' परिपर्यन्तेन=सर्वतः समन्तात् चतुर्दिक्षु इत्यर्थः ‘पासए' पार्श्वे समीपे वीणादीनि स्थापयन्ति, स्थापयित्वा ते पुरुषाः 'निच्चला' निश्चलाः चलनक्रियारहिताः ‘णिप्फंदा' निः स्पन्दाः हस्ताद्यवयवसंचाररहिताः 'तुसिणीया' वचन व्यापाररहिताः 'चिट्ठति ' तिष्ठन्ति ।
तथा-यत्र यत्र तेऽश्वाः आसते वा यावत् त्वगत्तयन्ति लुठन्ति तत्र तत्र खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः बहूनि कृष्णानि च ५-कृष्णनीलपीतरक्तशुक्ल पर्णानि काष्ठनेत्र इन्द्रिय को आनंद देनेवाले नीले पीले आदि रंगवाले चित्रों को एवं घाणइन्द्रियों को सुखकारक काष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यों को छोटी २ नौकाओं द्वारा पोत में से उतार कर कालिक होप में रख दिया। पाद में जहां २ वे जाति अश्व बैठते थे सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां २ वे कौटुम्यिक पुरुष उन हस्तिशीर्ष नगर से लाये हुए वीणा से लेकर वृत्तवीणा पर्यन्त के साधनो को तथा और भी श्रोत्र इन्द्रिय को सुहाधनी लगनेवाली साधन सामग्री को मधुर ध्वनि से बजाते हुए ठहर गये। और (तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति, ठवित्ता णिच्चला, गिफंदा, तुसिणीया चिटुंति, जस्थ २ ते आसा ओसयंति वा जाव तुयद्वंति वा तत्य २ णं ते कोडुंबिय पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कट्टकम्माणि य પમાડનાર નીલા, પીળા વગેરે રંગના ચિત્રને અને ઘણુ (નાક) ઈન્દ્રિયને સુખ આપે તેવા કાકપુર વગેરે સુગંધિત દ્રવ્યોને વહાણમાંથી નાની નાની હેડીઓમાં મૂકીને કાલિક દ્વીપ ઉપર મૂકી દીધી. ત્યારપછી જ્યાં તે જાતિ અશ્વો બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં તે કૌટુંબિક પુરુષે તે હસ્તિ શીર્ષ નગરથી લઈ આવેલી વીણાથી માંડીને વૃત્ત. વીણ સુધીના સાધનને તેમજ બીજા પણ શ્રોત્ર (કાન) ઈન્દ્રિયને ગમે તેવી સાધન સામગ્રીને મધુર ધ્વનિથી વગાડતાં ત્યાં રોકાઈ ગયા અને–
(तेसि परिपेरंतेणं पासए ठति, ठवित्ता णिच्चला, गिफंदा, तुसिमीया चिट्ठति, जत्य २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयति वा तत्थ २णं ते कोड
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१७ कालिकद्वीपगत आकोश्विवक्तव्यता ११५ कर्माणि यावत् संघातिमानि च. अन्यानि च बहूनि चक्षुरिन्द्रियपायोग्याणि च द्रव्याणि स्थापयन्ति-एकत्री कुर्वन्ति, तेषामश्वानां परिपर्यन्तेन=सर्वतः समन्तात् पार्थे स्थापयन्ति च, स्थापयित्वा ते निश्चलाः, निस्पन्दाः, तूष्णीकास्तिष्ठतिर ।
तथा-यत्र यत्र तेऽश्वा आसते स्वपन्ति तिष्ठन्ति त्वग्वर्त्तयन्ति च तत्र तत्र खलु तेषां बहूनां कोष्ठपृटानां च यावद् अन्येषां च बहूना घ्राणेन्द्रियप्रायोग्याणां जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य पहूणि चविखदिय पाउग्गाणि यदव्याणि ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पाप्लए ठवेंति, ठवित्ता णिचल्ला णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति) उस के चारों तरफ चारों दिशाओं मेंवीणा आदिकों को स्थापित करते रहे। स्थापित करके फिर वे वहीं पर निश्चल-चलन क्रिया से रहित होकर हस्तादि अवयव को कंपित किये विना ही चुपचाप बैठ गये। - इस तरह-जिस२ वनमें वे अश्व बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस आनीत बहुतसी कृष्ण, नील, पीत, रक्त, शुक्ल वर्णवाली काष्टकर्म आदि संघातिम पर्यत की सामग्री को जो चाइन्द्रिय को आनन्दप्रद थी, तथा और भी चक्षुइन्द्रि को सुहा. बनी लगनेवाली जो वस्तुएँ थीं उन को एकत्रित किया और उन्हें उन अश्वो की चारों दिशाओं में रख दिया। रखकर के फिर वे निश्चल, निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये। (जत्थ २ ते आसा आसयंति ४ तत्य बिय पुरिसा बहूणि किण्हाणि य ५ कट्ठकम्माणिय जाव संधाइमाणि य अन्नाणि य बहणि चविखदिय पाउग्गाणि य दव्याणि ठति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति ठवित्ता णिच्चला, णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति )
તેમની ચેમેર, ચાર ચાર દિશાઓમાં વિણાઓ વગેરે મૂકી. મૂકીને તેઓ તલાં જ નિશ્ચલ-હલન ચલનની ક્રિયાથી રહિત થઈને અંગેને હલાવ્યા વગર ચુપચાપ ત્યાં બેસી ગયા. આ પ્રમાણે જે જે વનમાં અશ્વો ઘોડાઓ) બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા તે તે વનમાં તે કૌટુંબિક પુરુષોએ સાથે લાવેલી ઘણી કાળી, નીલી, પીળી રાતી, સફેદ રંગની કાષ્ટકમ વગેરે સંઘાતિમ સુધીની બધી વસ્તુઓને કે જેઓ ચક્ષુ (આંખ) ઈન્દ્રિયને સુખ આપનારી હતી તેમજ બીજી પણ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને સુખ આપનારી જેટલી સારી વસ્તુઓ હતી તેમને ભેગી કરી અને અધોની ચોમેર તેમને ગોઠવી દીધી. ગોઠવીને તેઓ ત્યાં જ નિશ્ચલ, નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ ત્યાં જ બેસી ગયા.
( जत्थ २ ते आसा आसयति ४ तत्थ २ णं तेसिं बहूर्ण फोटपडाणं य जाव अन्नेसि च बहूणं धाणिदियपाउग्गाणं दवाणं पुजेय पियरे य करेंति,
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माताधर्मकथा द्रव्याणां पुत्रांश्च एकवस्तुसमूहरूपान निकरांश्च नानाविधवस्तुराशिरूपान् कुर्वन्ति, कृत्वा तेषामश्वानां परिपर्यन्तेन सर्वादिक्षु यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ३ ।
. यत्र यत्र च खलु तेऽश्वा आसते ४ तत्र तत्र खलु गुडस्य यावद् अन्येषां च बहूनां निहवेन्द्रियप्रायोग्याणां द्रव्यणां पुजांच निकरांश्च कुर्वन्ति. कृत्वा — विय२ णं तेसि बहूण फोहपुडाणं य जाव अन्नेमि च यहणं घाणि दिय पाउग्गाणं दव्वाणं पुंजेय णियरे य करेंति करिता तेसि परिपेरंतेणं जाव चिटुंति, जत्थ जत्थ णं ते आमा आमयंति ४ तत्थ २ गुलस्स जाव अन्नेसि च बहूर्ण जिभिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं पुंजे य णियरे य करेंति, करित्ता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्त जाव अन्नेसि च बहणं पाणगाणं वियरे भरेंति-भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिट्ठति जहिं २ च णं ते आसा आस० तहिं २ णं ते बहवे कोयविया य जाव गन्भाय अण्णाणि य बहणि फासिदियपाउग्गाई अत्थुय पच्चत्थुयाइं ठवेंति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति ) जहां जहां वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहाँ २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अनेक कोष्ठ पुटों के यावत् अन्य और घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्य द्रव्यों, के पुंजों को निकरो को एकात्रित कर दिया और करके फिर वे उन अश्दों की चारों दिशाओं में यावत् चुपचाप बैठ गये। जहां वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, लेटते थे, वहां उन कौटुम्बिक पुरुषों ने गुड़ के यावत् दूसरे और रसनेन्द्रिय आल्हादक करिता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति, जत्थ जत्थ गंते आसा आसयति ४ तत्थ २णं गुलस्स जाव अन्नेसिं च बहूर्ण जिभिदिय पाउग्गाणं दव्याणं पुजे य णियरे य कति, करिता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स जाय अन्नेसिं च बहणं पाणगाणं वियरे भरेंति-भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठति जाव चिट्ठति जहिं २ च णं ते आसा आस० तहिं २ च णं ते बहवे कोय. विया य जाव गम्भाय अण्णाणि य बहूणि फासिदिय पउग्गाई अत्थुयपच्चत्थुयाई ठति, वित्ता तेर्सि परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति )
જ્યાં જ્યાં તે ઘડાઓ બેસતા હતા, સૂતા હતા. રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટુંબિક પુરુષોએ તે ઘણું કે છ પુટને યાવત્ બીજી પણ ઘણી ઘાણેન્દ્રિય (નાક) ને સુખ પમાડે તેવી વસ્તુઓને પુષ્કળ પ્રમા ત્રમાં ત્યાં ગોઠવી દીધી, એકઠી કરી દીધી અને એકઠી કરીને તેઓ તે ઘોડાશાને ચારે તરફ યાવત ચુપચાપ થઈને બેસી ગયા. તે ઘડાએ જ્યાં જ્યાં બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા, આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટું
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मगारधर्मामृतवर्षिणी डो० अ० १७ कालिक द्वीपगत आकीर्णाश्ववक्तव्यता ६१७
रए ' विवराणि गर्त्तानि खनन्ति, खनित्वा गुडपानकस्य खण्डपानकस्य यावद् अन्येषां च बहूनां पानकानां विवराणि भरन्ति भृत्वा तेषां परिपर्यन्तेन पार्श्वे स्थापयन्ति यावत् तूष्णीका स्तिष्ठन्ति ४ ।
यत्र यत्र च खलु तेऽश्वा आसते ४ तत्र तत्र च खलु ते= कौटुम्बिकपुरुषाः बहून् कोयविकान् =ख्तपूरितमावरणविशेषान् यावत् हंसगर्भान्= कौशेयवस्त्रविशेषान् अन्यानि च बहूनि स्पर्शेन्द्रियमायोग्याणि वस्त्रादीनि ' अत्थु पञ्चत्थुयाई ' आस्तृतप्रत्यवस्तृतानि= श्लक्ष्णप्रावरणप्रावृतानि कृत्वा स्थापयन्ति, स्थापयित्वा तेषां परिपर्यन्तेन यावत् तूष्णीकास्तिष्ठन्ति ५ ।
ततः खलु तेऽश्वा यत्रैव एते उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तत्रैवोपागच्छन्ति, द्रव्योंके पुंज एवं निकर लगाकर खडे कर दिये । एक ही वस्तुओंकी जो राशि होती है उसका नाम पुंज तथा भिन्न वस्तुओं की राशि का नाम निकर है। बाद में वहीं पर उन्हों ने अनेक गर्त खड्डे किये । गर्त करके उनमें गुडपानक खंडपानक यावत् और भी अनेक पानक भर दिये । बाद में वहां पर उनकी चारो दिशाओं में निश्चल - निस्पन्द होकर चुपचाप बैठ गये। इसी तरह जिन २ वनो में वे घोडे बैठते थे, सोते थे, ठहरते थे, एवं लेटते थे, वहां २ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने अनेक रुई के भरे हुए प्रावरणों को यावत् हंसगर्भी को - रेशमी वस्त्रों को तथा - और भी अनेक स्पर्शनइन्द्रिय को सुखदायक वस्त्रों को चिकने प्रावरणों से ढककर रख दिया। बाद में वे उनके चारों ओर यावत् चुपचाप बैठ गये (तएणं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्दफरिसरसख्वगंधा तेणेव उवा
મિક પુરુષાએ ગાળના યાવત્ ખીજાં ઘણાં રસનેન્દ્રિય (જીભ) ને સુખ પમાડે તેવાં દ્રવ્યાના પુો અને નિકરી લગાવીને ખડકી દીધાં. એક જ વસ્તુના ઢગલાને પુંજ તેમજ જુદી જુદી વસ્તુએના ઢગલાઓને નિકર કહે છે. ત્યારપછી તે લેાકાએ ત્યાં જ ઘણા ખાડાઓ તૈયાર કર્યાં. તે ખાડાઓમાં તેઓએ ગાળ પાનક, ખાંડપાનક, ચાવત ખીજા પણ ઘણી જાતના પાના ભરી દીધાં. ત્યાર ખાદ્ય તેઓ ત્યાં જ તેમની ચારે તરફ નિશ્ચલ-નિસ્પદ થઈને ચુપચાપ બેસી ગયા. આ પ્રમાણે જે જે વનેામાં તે ઘેાડાએ બેસતા હતા, સૂતા હતા, રહેતા હતા અને આરામ કરતા હતા ત્યાં ત્યાં તે કૌટુ'ખિક પુરુષાએ ઘણાં રૂના પ્રાવણાને યાવત્ હંસગાંને, રેશમી વસ્રાને તેમજ ખીજા પણ ઘણાં સ્પર્શે - ન્દ્રિયને સુખ આપે તેવાં વસ્ત્રોને લીસાં પ્રાવરાથી આચ્છાદિત કરી દીધાં. ત્યારપછી તેઓ બધા ચુપચાપ તેની ચારે તરફ બેસી ગયા.
( तरणं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवाग
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भाताधर्मकथा उपागत्य तत्र खलु-'अत्थेगइया' अस्त्येके केचिद् अश्वाः-' अपूर्वा अदृष्टपूर्वा खलु इमे शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाः सन्ति' इति कृत्वा इति विचिन्त्य तेषु उत्कृष्टेषुआकर्ष केषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु — अमुच्छिया' अमूञ्छिताः मूर्छारहिताः माप्तहेयोपादेयविवेकाः अगृद्धा असक्तिरहिताः, अग्रथिता लोभतन्तुभिरबद्धाः, अनध्युपपन्नाः तदेकाग्रतारहिताः किश्चिन्मात्रमपि तेष्वासक्तिमकुर्वाणाः सन्तः तेषामुत्कृष्टानां ' सद्द जाव गंधाणं' शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां दूरंदरेण अतिद्रत एवं ' अवकमंति ' अपक्रामन्ति पलायन्ते स्म । ते च खलु तत्र प्रचुरगोचरा प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरतृणपानीयाः, निर्भयाः, निरुद्विग्नाः ' मुहं सुहेणं' सुखसुखेनन्सुखपूर्वकं विहरन्ति । गच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं अत्थे गइया आसा अपुव्वा णं इमे सहफरिसरसरूवगंधाई त्ति कटु तेसु उक्किडेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया४ तेसि उक्किट्ठाणं सद्द जाव गंधाणं दूरं दूरेणं अवक्कमंति) बादमें वे अश्व जहां ये पूर्वोक्त उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप गंध और स्पर्शवाले पदार्थ थे वहां पर आये वहां आकर के इनमें कितनेक अश्व "ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध अदृष्टपूर्व है " ऐसा विचार कर उन आकर्षक शब्द रूप, रस, स्पर्श एवं गंधो में-उन पदार्थों में-मूच्छित नहीं बने । हेय उपादेय के विवेक से युक्त बने हुए वे कितनेक अश्व उन में आसक्ति से रहित ही रहे लोभरूपतन्तु से बन्धे नहीं। तथा किश्चिमात्र भी उनमें आसक्ति नहीं करते हुए वे उन शब्द, स्पर्श रूप, और गंधों को बहुत ही दूर से छोड़कर चल दिये। (तेणं तत्थ पउरगोयरा छंति, उवागच्छित्ता तत्थणं अत्थेमा आसा अपुमा णं इमे सदफरिसरसरूव. त्ति कह तेसु उक्किमुसु सदफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ ते सि उक्किट्ठाणं सब नाव गंधाणं दूरं दुरेणं अवक्कमति )
ત્યારપછી તે ઘડાએ આ બધા પૂર્વે મૂકેલા ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ રૂપ અને ગંધવાળા પદાર્થો હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમાંથી કેટAI घो । " 240 शण्ड, २५श, २स, ३५ मने गध मष्टपू छ. " भाम વિચાર કરીને તે આકર્ષક શબ્દ, રૂપ, રસ, સ્પર્શ અને ગધેવાળા તે પદાથેંમાં મૂછિત (મેહધ-લેલુપ) થયા નહિ. હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી સાવ બનેલા કેટલાક ઘેડાએ તે પદાર્થોમાં નિરાસક્ત જ રહ્યા. તેઓ લેભ રૂપી દોરીથી બંધાયા નહિ. થોડી પણ આસક્તિ બતાવ્યા વગર તેઓ તે શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધવાળા પદાર્થોને ખૂબ દૂરથી જ છોડીને જતા २द्या. ( तेण तत्थ पउरगोयस पउरत्तणराणिया णिन्मया णिरुव्विग्गा सुह
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मनगराधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्रीपगत आकोर्णाश्ववक्तव्यता ६९६
अथोपनयं प्रदर्शयति,–'एवामेव' एवमेव-शब्दायमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योंपा. ध्यायानामन्ति के प्रत्रजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु 'नो सज्जइ 'नो सज्जते= आसक्तिमान् न भवति · नो रज्जइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृध्यति, न वाञ्छति, नो मुह्यति=न मूर्छति, नो अध्युपपद्यतेन तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणादीनां चतुर्विधसङ्घस्य अर्चनीयासंमाननीयः यावत् चातुरन्तसंसारकांन्तारं 'बीइइस्सइ ' व्यतित्रजिष्यति उल्लङ्घयिष्यति-पारं गमिष्यतीत्यर्थः ।। मू०३ ॥ पउरत्तणपाणिया णिन्भया णिविग्गा सुहं सुहेणं विहरंति ) और जंगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिसमें अधिक से अधिक मात्रा में तृण और पानी भरा हुआ रहता था उसमें ही निर्भय, निरुविग्न होकर सुखपूर्वक रहे । अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है- (एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं णिग्गयो वा णिग्गंथी वा जाव सह परिसरसरूवगंधेलु णो सजह णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवहस्सइ) हे आयु मंत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एवं निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपाध्यय के पास प्रवजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयो में आसक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चाहता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक में ही अनेक सुहेण विहरति ) अ वनमा प्रयु२ २२पानी भीन ती, ज्यां पधारेभा વધારે ઘાસ અને પાણુ હતાં ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા. હવે આ દષ્ટાન્તને ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે –
( एवामेत्र समणाउसो जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सदफरिस. रसरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अम्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ)
હે આયુમંત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ કે નિગ્રંથ સાધ્વીઓ આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઈન્દ્રિયોના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી, અનુરક્ત થતા નથી, તેમને ઈચ્છતા નથી, તેમાં મૂછિત થતા નથી
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साताधर्म कथा मूलम्-तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उकिटा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तेसु उकिटेसु सदफरिसे ५ मुच्छिया जाव अज्झोपवण्णा आसेविउं पयत्ता यावि होत्था, तएणं ते आसा ते उकिट्ठ सद्द ५आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बझंति, तएणं ते कोडुबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति गिणिहत्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारोंत संचारित्ता तणस्स कट्रस्त जाव भरेंति, तएणं ते संजत्तानावावाणियगा दक्खिणाणु. कूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयट्टणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबत लंबित्ता ते आसे उत्तारेंति उत्तारित्ता जेणेव हथिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धाति बद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणगकेऊ तेसिं संजत्ताणावावाणियगाणं उस्सुक्कं वियरइ वियरित्ता सकारेंति सम्माणति सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसजेइ, तएणं से कणगकेऊ कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सदावित्ता सक्कारेंति० पडिविसजेइ, तएणं से कणगकेऊ राया आसमदए सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-तुन्भेणं देवाणुप्पिया ! मम आसे विणश्रमण आदि जनोंका तथा चतुर्विध संघका संमाननीय होता है । यावत् वह इस चतुर्गति संसार कान्तारको पार कर देने वाला होताहै ।सू०३।। તે આ લેકમાં જ ઘણા શ્રમણ વગેરેથી તેમજ ચતુર્વિધ સંઘથી સન્માન પ્રાપ્ત કરે છે. યાવત તે આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારને પાર કરનાર થઈ જાય છે. એ સૂત્ર ૩ છે
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अनगारधर्मामृतर्वाधणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टान्तिकयोजना ६३१ एह, तएणं ते आसमांगा तहत्ति पडिसुगंति पडिसुणित्ता ते आसे बहहिं मुहबंधेहि य कण्णबंधहि य णासाबंधेहि य खुरबंधेहि य खलिणबंधहि य अहिलाणेहि य पडियाणेहिय अंकणाहि य वित्तप्पहारेहि य लयप्पहारेहि य कसप्पहारहिय छिवप्पहारेहि य विणयंति विणयित्ता कणगके उस्स रनो उवणेति । तएणं से कणगकेऊ राया ते आसमदए सका. रेइ सकारित्ता पडिविसज्जेइ, तएणं ते आसा बहुहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहुणि सारीरमाणसाणि दुक्खाइं पावेंति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पवइए समाणे इवेसु सदफरिसरसरूवगंधेसु य सजइ रजइ गिज्जइ मुज्झइ अज्झोववजह से णं इहलोए चेव बहणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणुपरियटिस्सइ ॥ सू० ४ ॥
टीका- .' तत्थ णं' इत्यादि । तत्र खलु — अत्थेगइया' अस्त्येके केचित् अश्वा यत्रैव उत्कृष्टाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तेषु उत्कृष्टेषु-शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु मूच्छिताः यावत्-अध्युपपन्नाः तत्तद्विषयेषु एकाग्रतां प्राप्ताः सन्तस्तान् आसेवितुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन् । ततः खलु तेऽश्वा एतान् उत्कृष्टान्
'तस्थणं अत्थे गइया' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तत्थणं अस्थेगइया आसाजेणेव उक्किट्ठो सदफरिसरसरूव. गंधातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसु उकिटेसु सद्दफरिसे५ मुंच्छिया जाव अज्झोचवण्या आसे विउं पयत्ता याविहोत्था ) उस जंगल में उन
तत्थणं अत्थेगइया इत्यादि
टीकार्थ-( तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठासहफरिसरसख्वगंधा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसु उक्किठेस सदफरिसे ५ मुच्छिया जाव अज्झोबवण्णा आसेविउं पयत्ता यावि होत्था)
તે વનમાં તે ઘડાઓમાં કેટલાક ઘેડાએ એવા પણ હતા કે જેઓ
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এনামমতাজ शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान ' आसेवमाणा' आसेवमानाः तत्सुखानुभवं कुणाः तैहुभिः कूटैश्च बन्धनविशेषैः, पाशैश्च रज्ज्वादिरूपैः गलएषु गलेषु कण्ठेषु पादेषु च 'बझंति' बध्यन्ते-ते कौटुम्बिकपुरुषास्तानश्वान् बध्नन्ति स्मेत्त्यर्थः । ततः घोड़ों में से कितनेक घोड़ें ऐसे भी थे जो जहां वे उत्कृष्ट शब्द स्पर्श रस, रूप एवं गंध ये पांचों इन्द्रियों के आकर्षक विषय थे वहां आकर उन उत्कृष्ट शब्द स्पर्श आदि विषयों में मूर्छित यावत् तल्लीन बनगये।
और उन्हें सेवन करने में प्रवृत्त भी हो गये। (तएणं ते आसा ते उकिटे सह ५ आसेवमाणा तेसिं बहहिं कूडेहि य पासेहि य गलए य पाएप्सु य बझंति, तएणं ते कोडंबियपुरिसा ते आसे:गिण्हंति गिपिहत्ता एगट्टियाहिं य पोयवहणे संचारैति, संचारित्ता तणस्स कट्ठस्स जाव भरेंति, तएणं ते संजत्ता णावा वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वारणं जेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छद,उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेतिलंबित्ता ते आसे उत्तारेंति ) इसके बाद वे घोड़े उन उत्कृष्ट शब्द स्पर्श रस, रूप, एवं गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयों को सेवन करते हुए रज्वादिरूपवन्धन विशेषों द्वारा कंठों और पैरों में बांध लिये गये । अर्थात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इन घोड़ों को उस समय रस्सियों द्वारा बांध लिया। बांध करके फिर उन कौटुम्धिक पुरुषोंने उन्हें पकडालिया पकड
જ્યાં તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાંચે ઈન્દ્રિના આકર્ષક વિષયે હતા ત્યાં આવીને તે ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ વગેરે વિષયમાં મૂછિત (આસકત) યાવત તલ્લીન થઈ ગયા અને તેમના સેવનમાં પ્રવૃત્ત પણ થઈ ગયા.
(तएणं ते आसा ते उक्किडे सह ५ आसेवमाणा तेसि बहूहिं कूडे हिं य पासेहिय गलएसु य पाएमु य वति, तएणं ते कोडुबियपुरिसा ते आसे गिण्हति गिण्हिता एगट्ठियाहिं य पोयवहणे संचारेति, संचारित्ता तणस्स कट्ठस्स जाव भरेंति, तएणं ते संजत्ता णावा वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपणे तेणे। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पीयवहणं लंबेति-लंबित्ता ते आसे उत्तारेति )
ત્યારપછી તે ઘડાઓ ઉત્કૃષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઇન્દ્રિયના વિષયોનું સેવન કરતાં દેરડાઓ વગેરે રૂપ બંધન વિશેષથી
કે અને પગમાં બંધાઈ ગયા. એટલે કે તે કૌટુંબિક પુરુષએ તે ઘડા એને દોરડાથી બાંધી લીધા. બાંધીને તે કૌટુંબિક પુરુષએ તે ઘડાઓને
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जनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ० १७ आकोणाश्वदाष्टातिक योजना १२३ खलु ते कौटुम्बिकपुरुषास्तानश्वान् गृहन्ति, गृहीत्वा एगट्ठियाहि एकाथिकाभिः लघुनौकाभिः पोतवहने बृहन्नौकायां संचारेति' सञ्चारयन्ति=आरोहयन्ति सञ्चार्य तृणस्य काष्ठस्य च यावत् पोतवहनं भरन्ति तृणकाष्ठादिभिरितिभावः । ततः खलु ते संयात्रनौकावाणिजकाः दक्षिणानुकूलेन=स्वानुकूलेन वातेन यौव गम्भीरपोतपत्तनं-पोतलम्बनस्थानं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहनं लंबेति' लम्बयन्ति-शंकुषु बद्धा स्थापयन्ति, लम्बयित्वा तान् अश्वान् — उत्तारेति' उत्तारयन्ति, उत्तार्य यौव हस्तिशीर्ष नगरं यत्रा कनककेतू राजा तौवोपागच्छन्ति, उपागत्य ' करयल जाव' करतलपरिगृहीतं शिरआवत्तं दशनखं मस्तकेकर फिर उन्हें छोटी २ नौकाओं द्वारा लाकर बडी नौका में चढायाचढा करके फिर उसमें तृण और काष्ट आदि को भरा। इसके बाद वे सांयात्रिक पोतवणिक् दक्षिणानुकूल वायु के चलने पर जहां गंभीर नामका पोतपट्टण (चन्दरगाह) था वहां आये। वहां आकर के उन्हों ने अपने पोत को लंगर डालकर ठहरा दिया। ठहरा कर उन अश्चों को उस पोत से फिर उन्हों ने नीचे उतार लियो। (उत्तारित्तो जेणेव हेथिसीसे गयरे जेणेव कणगके राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेंति, बद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणकेऊ तेसिं संजत्ता णावावाणियगाणं उस्तुक्कं विपरह, वियरित्ता सकारेइ संमाणेइ सकारिता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ ) उतार कर फिर वे वहाँ उन्हें ले गये जहां हस्तिशीर्ष नगर और उसमें भी પકડી લીધા. પકડીને તેમણે નાની નાની હોડીઓ વડે મોટા વહાણમાં ચઢાવ્યા. ચઢાવ્યા બાદ તેઓએ તેમાં ઘાસ એને કાઇ ભર્યા. ત્યારપછી તે સાંયાત્રિક પિતવણિકે દક્ષિણને અનુકૂળ પવન વહેવા લાગે ત્યારે ત્યાંથી રવાના થઈને
જ્યાં ગંભીર નામે પિતપટ્ટણ (બંદર) હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે પિતાના વહાણને લંગર નાખીને કર્યું. ત્યારબાદ તેમણે ઘોડાઓને વહાણમાંથી નીચે ઉતાર્યા.
(उत्तारित्ता जेणेव हत्थिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धाति, बद्धावित्ता ते आसे उवणेति, तएणं से कणगकेऊ तेसिं संजत्ता णावा वाणियगाणं उस्सुक्कं वियरह, वियरित्ता सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्करित्ता, संमाणित्ता पडिविसज्जेइ)
નીચે ઉતારીને તેઓ તે ઘોડાઓને હસ્તિશીષ નગરમાં જ્યાં કનકકેત રાજા હતું ત્યાં લઈ ગયા. ત્યાં જઈને પહેલાં તેમણે બંને હાથ જોડીને રાજા
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জালাখাল ऽञ्जलिं कृत्वा बद्धावेंति' वर्द्धयन्ति जयविजयशब्देनाभिनन्दन्ति, वर्दयित्वा तान् अश्वान् राज्ञः समीपे ' उवणेति' उपनयन्ति । ततः खलु स कनककेतू राजा तेषां संयात्रनौकावाणिजकानाम् ' उस्सुक्क · उच्छुकम्=' एभ्यः केनापिकरो न ग्राह्यः । इत्येवंरूपमाज्ञापत्र वितरति ददाति, वितीर्य सत्करोति-मधुरवचनादिभिः, संमानयति-वस्त्रादिभिः, सत्कार्य सम्मान्य प्रतिविसर्जयति ।
ततः खलु स कनककेतू राजा · आसमझए ' अश्वमर्दकान्=अश्वशिक्षकान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यूयं खलु हे देवानुप्रियाः ! ममाश्वान — विण एह ' विनयत=शिक्षयत-गत्यादिकलाकुशलान् कुरुतेत्यर्थः । ततः खलु तेऽश्व मर्दकाः · तहत्ति ' तथेति तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा प्रतिश्रृण्वन्ति नृपाज्ञां स्वीकुर्वन्ति, जहां कनककेतु गजा थे। वहां जाकर उन्होंने पहिले दोनों हाथ जोड कर राजा कनककेतु को नमस्कार किया-जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें घधाई दी-बधाई देकर याद में उन घोडों को उनके समक्ष उपस्थित करदिया इसके बाद कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिक पोतवणिक्जनों के लिये निःशुल्क (कररहित ) अवस्था वितरित की इन्हों से कोई भी राज्यकर्मचारी टेक्स न लेवें इस प्रकार का आज्ञापत्र उन्हे लिखकर दे दिया । आज्ञापत्र लिखकर देने के बाद राजाने उनका मधुर वचनों द्वारा सत्कार किया। वस्त्रादि प्रदान पूर्वक उनका सम्मान किया। फिर सत्कार सन्मान करके उन्हें विसर्जित कर दिया। (तएणं से कणककेऊ कोडुयियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता सक्कारेंति० पडिविसज्जेइ, तएणं से कणगके आया आसमद्दए सहावेह सदावित्ता एवं वयासी तुम्भेणं देवानुप्पिया ! मम आसे विणएह ) इस के बाद कनककेतु राजाने कौटुકનકકેતુને નમસ્કાર કર્યા અને જય-વિજય શબ્દ વડે તેમને વધામણી આપી. વધામણી આપીને તેમણે તે બધા ઘડાઓને તેમની સામે ઉપસ્થિત કર્યા ત્યારપછી કનકકેતુ રાજાએ તે સાંયાત્રિક પિતવણિકોને માટે કર માફી કરી આપી તેમની પાસેથી કોઈ પણ રાજ્ય કર્મચારી કર (ટેકસ) લે નહિ તેવું આજ્ઞા પત્ર તેમને લખી આપ્યું આજ્ઞાપત્ર આપીને રાજાએ તેમને મધુર વચને વડે સત્કાર કર્યો અને વસ્ત્રો વગેરે આપીને તેમનું સન્માન કર્યું. ત્યારપછી તેમને વિદાય કર્યા.
(तरणं से कणगकेऊ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता सक्कारेति० पडिविसज्जेइ, तपणं से कणगकेऊ राया आसमदए सद्दावेइ सदायित्ता एवं वयासी तुभेणं देवाणुप्पिया ! मम आसे विणएह)
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भनगारधर्मामृतषषिणी टीका अ० १७ भाकीणश्विदान्तिक योजना १२५ प्रतिश्रुत्य तान् अश्वान् बहुभिर्मुखबन्धैश्च कर्णबन्धैश्च नासाबन्धैश्च बालबन्धैश्च केशवन्धैरित्यर्थः खुरबन्धैश्च 'खलिणबंधेहि य ' खलीनबन्धैः ' लगाम ' इति प्रसिद्धवन्धनैः, 'अहिलाणेहि य ' अभिलानः= जीन ' इति प्रसिद्धैः, पडियाणेहि ' पर्याणका=' तंग ' इति प्रसिद्धैश्चर्ममयैरश्वीपकरणविशेषैः, 'अंकणाहि य' अङ्कनाभिः=तप्तलोहशलाकादिभिरङ्कनकरणैश्च — वित्तप्पहारेहि य ' वेत्रप्रहारैश्च म्पिक पुरुषों को बुलाया, घुलाकर उनका आदर सत्कार किया। फिर उन्हें विसर्जित कर दिया। इसके पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वशिक्षकों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों ! तुम इन हमारे इन घोड़ों को शिक्षित बनाओ-गत्यादिकला में निपुण करो। (तएणं ते आसमद्दगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिप्लुणित्ता ते आसे बहूहिं मुह बंधेहि य कण्णबंधेहि णासा बंधेहि य बालबंधेहि य खुरबंधेहि य खलिणबंधेहि य अहिलाणेहि य पडियाणेहि य अंकणाहि य वित्तप्पहारेहि य कसप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति ) राजा कनककेतु की इस आज्ञा को उन अश्वमर्दकों ने "तहत्ति" कहकर स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके फिर उन्हों ने अनेकविध मुख बंधनों से, कर्णबंधनों से नामाबंधनों से लगामरूप बंधनों से अभिलानों से-पलेचाओं से-पर्या. णकों से तंगों के कसने से-अंकनों से-तप्त हुई लोहकी शलाकाओं द्वारा डाम लगाने से वेत्र के प्रहारों से, लनाओं के प्रहारोंसे, चाबुकों के
ત્યારપછી કનકકેતુ રાજાએ કૌટુંબિક પુરુષને બતાવ્યા, બોલાવીને તેમનો સત્કાર કર્યો અને પછી તેમને વિદાય કર્યા. ત્યારબાદ કનકકેતુ રાજાએ અશ્વશિક્ષકોને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે તમે અમારા આ ઘોડાઓને શિક્ષિત બનાવે, દેડવા વગેરેની કળાએમાં નિપુણ બનાવે.
(तएणं ते आसमद्दगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते आसे बह हिं मह बंधेहि य कण्ण बंधेहिं णासा बंधेहि य बालबंधेहि य खुर बंधेहि य खलिण बंधेहि य अहि लाणेहि य पडियाणेहि य अंकणाहि य वित्तप्पहारेहिय लयप्पहारेहिय करूप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति )
રાજા કનકકેતુની આજ્ઞાને તે અધમર્દકે એ “તહત્તિ” કહીને સ્વીકારી લીધી. સ્વીકાર કરીને તેમણે ઘણી જાતના મુખ્ય બંધનોથી, કણ બંધનોથી, નાસા બંધનથી, વાળ બંધનેથી, ખુર બંધનથી, લગામ રૂપ બંધનેથી, मालितानाथी, पयामाथी, पर्याथी, तभाने साथी, मनाथी, तपाવવામાં આવેલી લેખંડની સળીઓ વડે ડામવાથી, વંતોના આઘાતથી લતા
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ज्ञाताधम कथासूत्रे
J
लयप्पहारेहि य ' लताप्रहारैश्व, 'कसप्पहारेहि य' कशाप्रहारैव ' कशा चाबुक ' इति भाषायाम्, ' छिवष्पहारेहि य' छिवा महारैः = चर्ममयचिकणकशामहारैश्च ' विणर्यंत 'विनयन्ति = शिक्षयन्ति, विनीय = शिक्षयित्वा कनककेतो राज्ञ उपनयन्ति । ततः खलु सः कनककेतू राजा तान् अश्वमर्दकान् सत्करोति सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य प्रतिविसर्जयति । ततः खलु तेऽश्वाः बहुभिर्मुखबन्धैश्व यावत्- छिवामहारैश्च बहूनि शारीरमानसानि दुःखानि प्राप्नुवन्ति ।
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एवामेव ' एवमेव = शब्दादिविषय मूर्च्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके मत्रजितः सन् इष्टेषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु ' सज्जइ ' सज्जते = आसक्तो प्रहारों से, छिपा - चर्म की बनी हुईं चिकनी कशाओं के प्रहारों से उन घोडों को शिक्षित बना दिया। (विणयित्ता कणगकेऊस्स रण्णो उवर्णेति तणं से कणग के ऊराया ते आसमद्दए सक्कारेइ सक्कारिता पडिविस जेइ, तरणं ते आसा बहूहि मुहबंधेहिं जाव छिवष्पहारेहिय बहूणि सारीरमानसाणी दुखाई पावेंति ) शिक्षित बनाकर फिर वे उन घोड़ों को कनककेतु राजा के पास ले गये। बाद में राजा कनककेतु ने उन अश्वमर्दों का सत्कार सन्मान किया । सत्कार सन्मान करके फिर उन्हें विसर्जित कर दिया । वे घोडे लेकर अनेक विध उन मुख बंधनों से यावत् चर्म चिक्कणकशाओं के प्रहारों से नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुखों को पाने लगे । ( एवमेव समणाउसेा ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पव्वइए समाणे इट्टेल सदफरिसरस
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એના પ્રહારાથી, ચાબુકના પ્રહારધી, છિપા ચામડાના બનેલા લીસા ચાબુકાના પ્રહારાથી તે ઘેાડાઓને કેળવ્યા.
( विणयित्ता कणगऊ राया ते आसमदए सक्कारेश, सक्कारिता पडिविसजेतपणं ते आसा बहूहिं मुह बंधेहिं जाव छिवष्पहारेहिं य वहूणि सारीरमानसाणि दुखाई पार्वेति )
કેળવીને શિક્ષિત મનાવીને તે ઘેાડાઓને તેમે કનકેતુ રાજા પાસે લઈ ગયા. ત્યારપછી કનકકેતુએ તે અશ્વમદ કાના સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું". સત્કાર અને સન્માન કરીને તેમને વિસર્જિત કર્યાં. તે ઘેાડાએ ઘણા મુખ બંધનાથી યાવત્ ચામડાના લીસા ચાક્ષુકાના પ્રહારોથી અનેક જાતના શારીરિક અને માનસિક દુઃખા ભાગવા લાગ્યા.
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( एवामेव समणाउसो ! जो अहं निधो वा निगंधी वा पव्वइए समाणे इस सफरिसर सरूवगंधेसु य सज्जइ, रज्जइ, गिज्याइ, मुज्झर, असोज,
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ફર
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बी टीका अ० १७ आकोर्णाश्वदान्तिक योजना भवति, 'रज्जइ ' रज्यते = अनुरक्तो भवति, ' गिज्झइ ' गृध्यति तद्वाच्छासको भवति, 'मुज्झइ ' मुह्यति = मूर्छितो भवति, ' अज्झोववज्जइ ' अध्युपपद्यते - सर्वथा तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणानां च यावत् श्रमणीनां श्रावकाणां श्रात्रिकाणां च ' होलणिज्जे ' हीलनीयः यावत् चातुरन्त संसारकान्तारम् 'अणुपरिस्सिइ ' अनुपर्यटिष्यति = भ्रमिष्यतीति भावः ॥ ०४ || मूलम् - कलरिभियमहुर तंतीतलतालवं सकउहाभिरामेसु । सद्देसु राणा रमंति सोइंदिया ॥ १ ॥ सोइंदियदुद्दन्तत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो | दीविरुयमसहंसो वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥ २॥ टीका- अथेन्द्रियासंवरणदोषान् गाथाभिः प्रदर्शयति- ' कलरिभिय० ' इत्यादि कलरिमितमधुरतन्त्री तल तालवंसककुदाभिरामेषु । रूवगंधे य सज्जइ, रज्जइ, गिज्झइ, मुज्झइ, अज्जेोववज्जइ, सेणं इहला हे चेव बहूणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणुपरिस्सिइ) इसी प्रकार हे आयुष्मंत श्रमणों ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन अथवा साध्वीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होता हुआ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, अनुरक्त होता है, उनकी चाह से बंधता है, उनमें मूच्छित बनता है, सर्व प्रकार से उनमें तल्लीन होता है वह इस लोक में ही अनेक श्रमणजनों द्वारा श्रमणी श्रावक और श्राविकाओं द्वारा हीलनीय - निन्दा का पात्र होता है यावत् वह चतुर्गतिरूप इस संसार कान्तार में भटकता है | सू०४ ॥ से होए चेव बहूणं समाणाग य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव अणु परियस्ति )
આ પ્રમાણે આયુગ્મત શ્રમણેા ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુજના કે સાધ્વીને! આચાય અથવા ઉપાશ્ચાયની પાસે પ્રજિત થઈને ઈષ્ટ, શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગધ આ પાંચે ઇન્દ્રિયાના વિષયેામાં આસક્ત હોય છે, અનુરકત હાય છે, તેમની ઈચ્છા કરીને તેએામાં બંધાઈ જાય છે, તેઓમાં મૂતિ બની જાય છે, બધી રીતે તેએમાં તલ્લીન ખની જાય છે. તે આ લાકમાં જ ઘણા શ્રમણેા વડે તેમજ ઘણી શ્રમણી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા વડે હીલનીય–નિન્દનીય-હાય છે યાવત તે ચતુતિ રૂપ આ સ’સાર–કાંતારમાં ભટકતા રહે છે. ૫ સૂત્ર ૪ ૫
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ભરવ
शब्देषु रज्यमाना, रमन्ते श्रोत्रेन्द्रियवशार्त्ताः ॥ १ ॥ श्रोगेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । द्वीपिकारुतमसहमानो, वधवन्धं तित्तिरः प्राप्तः ॥ २॥ श्रोत्रेन्द्रियवशार्त्ताः=कर्णेन्द्रियवशवर्त्तिनः कलाः श्रवणसुखदाः रिभिताः स्वरघोलनाविशेषयुक्ताः मधुराः - प्रियाः कलरिभितमधुरध्वनि जनकत्वात् तद्रूपा ये तन्त्रीतलतालवंशाः - वीणा - करताल-वेणवस्तैः समुद्भावितत्वात् ककुदः - प्रधानाः, अभिरामाः - मनोहरास्तेषु - शब्देषु रज्यमानाः = अनुरक्ताः सन्तः रमन्ते मोदन्ते ॥ १॥ सोइंदिये 'त्यादि । ' सोइंदियदुद्दतत्तणस्स ' श्रोगेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य श्रोत्रेन्द्रियं दुर्दान्तं यस्य स श्रोत्रेन्द्रियदुर्दान्तः श्रोगेन्द्रियस्य जेतुमशक्यतया तद्वशवर्त्तीत्यर्थः, तस्य भावस्तत्त्वं, तस्य, श्रोत्रेन्द्रियाधीनतायाः, 'एत्तिओ ' एतावान् = त्रक्ष्यमाणप्रकारकः दोषो भवति । तं दृष्टान्तं प्रदर्शयति- 'दी विगरुयमसहंतो ' द्वीपिकारूतमसहमान: - द्वीपिका=व्याध पञ्जरस्थतित्तिरः, तस्याः रुतं शब्दम् असहमानः=
G
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
'कलरिभिय' इत्यादि ।
अब सूत्रकार, इन्द्रियों के असंवरण से जो दोष उत्पन्न होते हैं। उन्हें इन गाथाओं द्वारा प्रदर्शित करते हैं - कर्णेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी फल- श्रवण सुखद, रिभित-स्वरों के घोलना विशेष से युक्त ऐसे मधुरप्रिय, तंत्री - वीणा, तलताल - करताल, वंशवासुरी इन से उत्पन्न होने की वजह से ककुद - अत्यन्त, अभिराम मनोहर ऐसे शब्दो में अनुरक्त होते हुए यद्यपि मुदितमन होते हैं परन्तु श्रोत्रेन्द्रिय उनकी दुर्दमन होने के कारण - श्रोत्रेन्द्रिय उनकी जितनेमें अशक्य होने के कारण तद्वशवर्ती बने हुए वे प्राणी जिस तरह व्याघ के पंजर में रही हुई तित्तिरी के शब्द को सुनकर तीतरपक्षी - कामराग के वश से आकृष्ट कलरिभिय' इत्यादि -
સૂત્રકાર હવે ઇન્દ્રિયાના અસવરણથી જે દોષો ઉત્પન્ન થાય છે તેમને આ ગાથાએ વડે પ્રદર્શિત કરે છે. કર્ણેન્દ્રિયના વશમાં થયેલા પ્રાણીએ કલશ્રવણ સુખદ, રિભિત સ્વરોને વિશેષ રૂપમાં મેળવવાથી ઉત્પન્ન થયેલા ધ્વનિ, भडुर-प्रिय, तत्री-वीथा, तलतास - कुरताण, वश-वांसजी खेमनाथी उत्पन्न હાવા બદલ કકુદ-અત્યત, અભિરામ-મનેાહુર એવા શબ્દોમાં અનુરકત થતાં
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ते मुद्दितमन प्रसन्न थाय छे. परंतु तेमनी श्रोत्रेन्द्रिय (अन) हुई - મનીય હાવા બદલ એટલે કે મશ્રોત્રેન્દ્રિય ઉપર કાબુ મેળવવાનું કામ તેમના માટે અશકય હેાવા બદલ તેને વશ થેયેલા પ્રાણીઓ જેમ વ્યાપા–શિકારીના પીંજરામાં સપડાઇ ગયેલી તિત્તિરીના શખ્સને સાંભળીને તીતર પક્ષી કામરાગના
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १७ आकीर्णाश्वदाष्टन्तिक योजना
तित्तिरः वधं मरणं बन्धं पञ्जरादि बन्धनं मामः - प्राप्नोतीत्यर्थः वाक्यालङ्कारे || २ ||
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ज्वलने = अग्नौ | शेषं सुगमम् ॥ ४ ॥
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ફરવું
मूलम्-थणजहणत्रयणकरचरणणयणगव्वियविलासियगईसु ।
रूवेसु रज्जमाणा रमंति चखिदिवसट्टा ॥ ३ ॥ चक्खिदियदुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो । जं जलणंमि जलंते पडइ पयंगो अबुद्धीओ ॥ ४ ॥ टीका - स्तनजघनवदनकरचरणनयगर्वित विलासितगतिषु ।
रूपेषु रज्यमाना, - रमन्ते चक्षुरिन्द्रियवशार्त्ताः ॥ ३ ॥ चक्षुरिन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । यद्ज्वलने ज्वलति, पतति पतङ्गः अबुद्धिकः ॥ ४ ॥ थणेत्यादि । चक्षुरिन्द्रियवशार्त्ताः स्त्रीणां स्तनजघनादि रूपेषु रज्यमानाः =अनुरक्ता रमन्ते || ३ |
अथ
होकर वध और बंधन को पाता है उसी तरह नाना प्रकार के वध बंधनों को पाया करते हैं । गा० १-२ ॥
4
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'थणजहण, चक्खिदिय ' इत्यादि ।
यद्यपि चक्षुन्द्रिय के विषय की प्राप्ति करने में व्याकुल हुए प्राणी उस विषय की प्राप्ति होने पर आनन्दमग्न बन जाया करते हैं वे स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, कर, चरण, नयन, गर्वित विलासयुक्त गमनादिरूप चहन्द्रिय के विषय को बार बार देखकर आसक्त होते हैंपरन्तु यह इन्द्रिय जब दुर्दान्त बन जाया करती है तब ऐसे प्राणी जिस આવેશમાં આવાને મૃત્યુ તેમજ બંધનને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ જ અનેક જાતના वधधन भेजवे छे. " गा. १-२ "
थण जहण चक्खिदिय इत्यादि
જો કે ચક્ષુન્દ્રિયાના વિષયાને મેળવવા માટે અત્યંત ઉત્સુક બનેલા પ્રાણીએ તે વિષયેાની પ્રાપ્તિ થઈ જવા બાદ આનંદમગ્ન થઇ જાય છે-તે खीसोना स्तन, धन, भुख, हाथ, यस्णु, नयन, गर्वित विसास-युक्त गमन વગેરે રૂપ ચક્ષુઇન્દ્રિયાના વિષયાને વારંવાર જોઇને આસક્ત થઈ જાય છે, પરંતુ આ ઇન્દ્રિય જ્યારે દુર્દાત અની જાય છે ત્યારે એવા પ્રાણીઓ અજ્ઞાની પત`ગની
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antaranchalwas कथासू
मूलम - अगुरुवरपवरधूत्रण उउय मल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रजमाणा रमति घाणिदिवसा ॥ ५ ॥ घार्णिदियदुद्दतत्तणस्स अहं एत्तिओ हवइ दोसो । जं ओसहिगंधणं बिलाओ निद्वावइ उरगो ॥ ६ ॥ टीका - अगुरुवरमवरधूपन ऋतुजमाल्यानुलेपनविधिषु ।
गन्धेषु रज्यमाना, - रमन्ते घ्राणेन्द्रियवशार्त्ताः ॥ ५ ॥ नाणेन्द्रिय दुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । यद् औषधिगन्धेन बिलाद् निर्धारति उरगः ॥ ६ ॥ घ्राणेन्द्रियवशार्त्ताः अगुरुवरः = कृष्णागुरुः, प्रवरधूपनं= दशाङ्गादिरूपो धूपः,
4
=
' उनलऋजापानि=उत्तऋतुजानपु पाणि, अनुलेपनानि चन्दनकुङ्कुमादिरूपाणि तेषां विधयः = प्रकारा येषु गन्धेषु तत्र रज्यमानाः = अनुरक्ताः सन्तो रमन्ते ॥ ५ ॥
' ओसहिगंघेणं ' ओषधिगन्धेन = के तक्यादिवनस्पतिसुगन्धानुरागवशेन प्रकार अज्ञानी पतंग अपने प्राणों को अग्नि में डाल देता है उसी प्रकार उसी विषय में अपने प्राणों का नाश करते हैं । गा० ॥ ३-४ ॥
अगुरुवर, घार्णिय इत्यादि ।
घ्राणइन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी अगुरुवर- कृष्णागुरु, प्रवर, धूपन - दशाङ्गादिरूप धूप, ऋतुजमान्य तत्तद्ऋतु के पुष्प, अनुलेपनचन्दन कम आदि के विविध लेप रूप गंध में अनुरक्त होते हुए हर्षित मन होते हैं, परन्तु वे इस इन्द्रिय की दुर्दमनता का कुछ भी विचार नहीं करते हैं। जब यह इन्द्रिय दुर्दमन बन जाती है तब ऐसे प्राणी
---
જેમ પેાતાના પ્રાણાને અગ્નિમાં હામી દે છે, તેમજ તે પણ તે વિષયમાં જ पोताना आणने नष्ट हरी नाचे छे. "गा. ३-४ ”
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अगुरुवर, घाणिदिय इत्यादि ।
ઘ્રાણુઇન્દ્રિયના વશમાં પડેલા પ્રાણીઓ અગુરૂવર-કૃષ્ણાગુરૂ, પ્રવર, ધૂપન દશાંગાદિ રૂપ ગ્રૂપ ઋતુ જ માલ્ય~તત્તનૢ ઋતુના પુષ્પા, અનુલેપન· ચંદન-કુમ વગેરેના જાતજાતના લેપના ગધમાં અનુરક્ત થઇને હિર્ષત થઇ જાય છે, પરંતુ હકીકતમાં તે તેએ તે ઇન્દ્રિયની દુમતા વિષેના કોઇ પણ જાતના વિચાર કરતા જ નથી. જ્યારે તે િિન્દ્રય દ્રુમ ખની જાય છે ત્યારે એવા પ્રાણીઆ
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६३१
अमगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० १७ आकीर्णाश्वदार्शन्तिकयोजना उरगः=सर्पः विलात् 'निधावई ' निर्धावति निस्सरति, ततो वधं बन्धनं च प्राप्नो तीति भावः ! शेषं स्पष्टम् || ६ || मूलम् - तित्तकडुय कसायंबम हुखज्जपेजलेज्झेसु ।
आसासु य गिद्धारमंति जिब्भिदिवसट्टा ॥ ७ ॥ जिभिदिय दुतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । जंगललग्गुक्खित्तो फुरइ थरविरलिओ मच्छो ॥ ८ ॥ छाया—तिक्तकटुकषायाम्लमधुबहु खाद्य पेय लेह्येषु ।
आस्वादेषु च गृद्धा, रमन्ते जिह्वेन्द्रियार्त्ताः ॥ ७ ॥ जिहेन्द्रियदुर्दान्तत्वस्य अथ एतावान् भवति दोषः । यद् गललग्नोत्क्षिप्तः, स्फुरति स्थल वरलितो मत्स्यः ॥ ८ ॥ टीका-जिह्वेन्द्रियवशार्त्ताः- तिक्तं मरीचादिक, कटुकं = कारवेल्लादिकं, कपायः = आमलकादिकम्, अम्लं=काम्बादिकं, मधुरं = मोदकादिकं, बहु = अनेकविधं ' खज्ज ' खाद्यं - कदलीफलादिकं ' पेज्जं पेयं दुग्धादिकं, ' लेज्झं ' लेह्यं दधिशर्करादिकेतकी आदि की गंध से आकृष्ट बनकर जिस प्रकार बिल से निकला सर्प बंधन आदि कष्टों को पाता है वैसे कष्ट पाते है ।। गा० ५-६ ।।
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'तित्तकय जिभिय' इत्यादि ।
जो प्राणी जिह्नाइन्द्रिय के वशवर्ती बना रहता है वह मरीच आदि के जैसे तिक्त स्वाद में करेला के जैसे कटुक स्वाद में, आमल आदि के जैसे कषायरस में करम्यादिके जैसे अम्ल - खट्टे रस में, मोदकादि के जैसे मधुर स्वाद में तथा विविध प्रकार के कइली फलादिक खाद्य पदार्थों में, दुग्धादि पेयपदार्थों में, एवं दधि और शक्कर आदि से निष्पन्न हुए
કેતકી વગેરેની ગંધથી આકૃષ્ટ થઈને જેમ દરમાંથી નીકળેલા સાપ વધબંધન વગેરે કષ્ટોને પ્રાપ્ત કરે છે તેમજ કષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે. ા ગા. ૫-૬ |
तित्तकडुय जिम्मिदिय इत्यादि ।
જે પ્રાણી જીહૂવા ઇન્દ્રિય (જીભ) ને વશ થયેલા હાય છે, તે મરચું વગેરેના જેવા તીખા સ્વાદમાં, કારેલા જેવા કડવા સ્વાદમાં, આમલી વગેરૈના જેવા કષાય રસમાં, કરમાદિના જેવા અમ્લ-ખાટા રસમાં, લાડવા વગેરેના જેવા મધુર સ્વાદમાં તેમજ જાતજાતનાં કેળાં વગેરેના ખાદ્ય પદાર્થાંમાં, દૂધ વગેરે જેવા પેય પદાર્થોમાં, અને દહીં તેમજ ખાંડ વગેરેથી તૈયાર થયેલા
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हाताधकथाम निष्पन्नं श्रीखण्डादिकम् , एतेषां द्वन्द्वः, तेषु आस्वादेषु-आस्वाद्यन्ते इति आस्वादाः रसास्तेषु गृद्धाः आसक्ताः सन्तः रमन्ते ॥ ७ ॥
जिभिदिये ' त्यादि । पूर्व गले मत्स्यवेधने लग्नः, मत्स्यवेधनेन मुखे विद्ध इत्यर्थः, पश्चाद् उत्क्षिप्तः जलादुद्धृतः इति कर्मधारयः, एवंभूतो मत्स्यः स्थलविरल्लितः-स्थले निपातितः सन् स्फुरति व्याकुलो भूत्वा भूमौ लुठति । शेषं स्पष्टम् ।। ८ ॥ मूलम् -उउभयमाणा सुहेसु य पविभवहिययमणनिव्वुइकरेसु ।
फासेसु रज्जमाणा रमंति फासिंदियवसट्टा ॥ ९॥ फासिंदिय दुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥ १० ॥ छाया-ऋतुभज्यमानमुखेषु च, सविभहृदयमनोनितिकरेषु ।
स्पर्शेषु रज्यमाना, रमन्ते स्पर्शेन्द्रियवशार्ताः ॥ ९ ॥ स्पर्शेन्द्रिय दुर्दान्तत्वस्य, अथ एतावान् भाति दोषः ।
यत् ग्वनति मस्तकं कुञ्जरस्य लोहाकु गस्तीक्ष्णः ॥ १० ॥ टोका-'उउभये' त्यादि । स्पर्शेन्द्रियवशार्ताः-'उउभयमाणसुहेनु य' ऋतुभज्यमानसूखेषु ऋतुयु-हेमन्नादिपु भज्यमानानि=सेव्यमानानि सुखानि, येषु ते, श्री खंड ओदि लेह्य पदार्थों में आमक्तमति होकर पड़ा हर्ष मनाया करते हैं । परन्तु जब इनको यह इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब ऐसे प्राणी जैले मत्स्यवेधन से-मछली पकड़ने के कांटे वंशी-से मुख में विद्ध हआ मत्स्य जल में से खींचकर बाहर भूमि र डाल दिया जाता है और वह भूमिपर तड़प् २ कर मर जाता है उस इन्द्रिय के विषय में मकर तडप् २ कर मर जाया करते हैं । गा० ७-८।। શ્રીખંડ વગેરે લેa (ચાટીને ખાઈ શકાય તેવા ) પદાર્થોમાં આસક્ત થઈને ખૂબ જ હર્ષિત થતા રહે છે. પરંતુ જ્યારે તેમની આ ઈન્દ્રિય દર્દીત બની જાય છે, ત્યારે એવા પ્રાણી જેમ મસ્યવેધનથી-માછલી પકડવાના કાંટાથી મુખમાં વિદ્ધ થયેલું માછલું પાણીમાંથી બહાર ખેંચીને બહાર જમીન ઉપર નાખવામાં આવે છે અને તે જમીન ઉપર તડપી તડપીને મૃત્યુ થાય છે. તેમજ તે ઇન્દ્રિયના વિષયમાં ફસાઈને તડપી તડપીને મૃત્યુ थाय . ॥ . ७-८ ।।
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अमगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टान्तिकयोजना ६३३, तेषु तथोक्तेषु तथा सविभवानां-संपत्तिशालिनां हृदयस्य मनसश्च नित्तिकरेषु सुखकरेषु । एवं भूतेषु स्पर्शेषु रज्यमाना=अनुरक्ताः रमन्ते ॥ ९ ॥
फा सिदिये' त्यादि । कुञ्जरस्य-करिणीस्पर्शलुब्धस्य हस्तिनो मस्तकं तीक्ष्णोलोहाङ्कुशः खनति-विदारयति । शेष सुगमम् । १० ॥ ५ ॥ सू० ।। मूलम्-कलरिभिय महुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु ।
सदसु जं न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए ॥ ११ ॥ थणजहणवयणकरचरणनयणगव्वियविलासियगईसु । रूवेसु न रत्ता वसट्टमरणं न ते मरए ॥ १२ ॥ अगुरुवरपवरधूवण उउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १३ ॥ तित्तकडुयकसायंबम हुरबहुखज्जपेज्जलेज्झेसु ।
आसाएसु न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए ॥ १४॥ (उउभयमाणं, फासिदियदुदंत इत्यादि,
टीकार्थ-जो प्राणी स्पर्शन इन्द्रियके वशवर्ती होते हैं वे अपनी स्पर्शनेन्द्रियकी लोलुपतासे हेमन्त आदि प्रत्येक ऋतु संबन्धी सुख भोगते हैं। तथा संपत्तिशालियों के हृदय में और मन सुखकर स्पों में अनुरक्त बने रहते हैं। इस तरह करते २ जब इनकी यह स्पर्शन इन्द्रिय दुर्दान्त बन जाती है तब वे प्राणी जिस प्रकार तीक्ष्ण लोह का अंकुश करिणी ( हस्तिनी ) के स्पर्श करने में लुब्धक बने हुए मत्त गजराज के मस्तक को विदार देता है उसी तरह इस स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा विनष्ट कर दिये जाते हैं। गा० ९-१०॥
उ उ भयमाण, फसि दियदुदंत इत्यादि ।
જે પ્રાણ ઓ સ્પર્શેન્દ્રિયને વશ થાય છે, તે પિતાની સ્પશેન્દ્રિયની લોલુપતાથી હેમંત વગેરે દરેકે દરેક > તુઓના સુખ ભોગવે છે. તેમજ સંપત્તિવાળાઓના હૃદય અને મનસુખદ સ્પશેમાં આસક્ત બનીને રહે છે. આમ કરતાં કરતાં જ્યારે તેમની આ સ્પર્શેન્દ્રિય દુદત બની જાય છે ત્યારે તે પ્રાણું એ (હાથિણી) ને સ્પર્શવામાં ટુબ્ધ બનેલા મત્ત ગજરાજના મસ્તકને વિદીણું કરી નાખે છે તેમજ આ સ્પર્શેન્દ્રિય વડે વિનષ્ટ કરી नाममा सावे छे. ॥ ॥. ८-१० ॥
बा ८०
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६३४
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूबे
उउभयमाणसुहेसु य सविभवाहिययमणनिव्वुइ करेसु ।
फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ टीका - शब्दादिविषयेष्वनासक्तानां वशार्त्तमरणं न भवतीति पञ्चभिर्गा याभिः प्राह - ' कलरिभिय' इत्यादि ।
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कलरिभितमधुरतन्त्रीतलतालवंशककुदा भिरामेषु ।
शब्देषु ये न गृद्धा, वार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ ११ ॥ स्तनजघनवदन करचरणनयन गर्वित विलासितगतिषु । रूपेषु ये न रक्ता, - शार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १२ ॥ अगुरुवरप्रवरधूपन, - ऋतुजमाल्यानुलेपनविधिषु । गन्धेषु ये न गृद्धा, -वशार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १३ ॥ तिक्तकटुककपायाम्ल, मधुबहु खाद्य पेय लेयेषु | आस्वादेषु न गृद्धा, -वशार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १४ ॥ ऋतुभज्यमानसुखेषु च सविभव हृदयमनोनिरृ तिकरेषु । स्पर्शेषु ये न गृद्धा - बशार्त्तमरणं न ते म्रियन्ते ॥ १५ ॥ आसाम् व्याख्या सुगमा ।। १५ ।। ० ६ ॥
( कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, वित्तकय, उउभयमाण, इत्यादि ।
इन गाथाओं द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते हैं कि जो शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयों में आमत नहीं बनते हैं उनका वशार्तमरण नहीं होता है । इन गाधाओं की व्याख्या सुगम है !
Borste
जो प्राणी कर्णइन्द्रिय के विषयभूत शब्द में, चक्षुइन्द्रिय के विष भूत रूप में नासिका इन्द्रिय के विषयभूत गंध में जिह्वाइन्द्रिय के विषयभूत रस में, तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत स्पर्श में आसक्तगृद्ध नहीं होते हैं ।। गा० ११-१५ ।।
कलरिभिय, थणजहण, अगुरुवरपवर, तित कडुय उ उ भयमाण, इत्यादि । આ ગાથાઓ વધુ સૂત્રકાર આ વાત સ્પષ્ટ કરવા માગે છે કે જે શબ્દ વગેરે પાંચ ઇન્દ્રિયાના વિષયામાં આસક્ત થતાં નથી, તેમનું વશા મરણ થતું નથી, આ ગાથાઓની વ્યાખ્યા સરળ છે.
જે પ્રાણી કણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂપમાં, નાસિકા ઇન્દ્રિયના, વિષયભૂત ગંધમાં, જીવા ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત રસમાં તેમજ સ્પેન ઇન્દ્રિયના વિષય ભૂત સ્પર્શીમાં અત્યંત આસક્ત-મૃદ્ધ થતા નથી, તેએ વશામરણને પ્રાપ્ત पुरता नथी. ॥ . ११-१५ ॥
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मेरोसिंगो टो० अ० १७ आकीर्णाश्वदाष्टन्तिकयोजना ६५ मूलम्-सद्देसु य भदयपावएसु सोयविसयं उवागएसु ।
तुटेण व रुटेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १६ ॥ रूवेसुय भइपावएसु चक्खुविसय उवगएसु । तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होयध्वं ॥ १७ ॥ गंधेसु य भद्दपावएसु घाणविसयं उवागएसु । तुद्वेण व स्ट्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ १८॥ रसेसु य भद्दयपावएसु जिब्भविसय उवगएसु । तुटेण व रुटेण व समगेण सया ण होयव्वं ॥ १९ ॥ फासेसु य भद्दयपावएसु कायविसयं उवगएसु ।
तुटेण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥ २०॥ एवं खल्लु जंबू ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्त नायज्झयणस्स अयमटे पन्नत्ते तिबेमि।
॥ सत्तरसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ १७ ॥ टीका-अनुकूल प्रतिकूलशब्दादिषु रागद्वेषवर्जनं पञ्चभिर्गाथाभिः प्रतिबोधः यति- सद्देसु य' इत्यादि।
शब्देषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १६ ॥ सद्देसुय; फासेसुय इत्यादि। .
एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्त. रसमस णायज्झयणस्स अयभट्टे पण्णत्ते तिबेमि ॥
अब सूत्रकार इन पांच गाथाओं द्वारा अनुकूल प्रतिकूल शब्दादि विषयों में श्रमणजन को कभी भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये-इस
सद्देसुय, फासेसुय इत्यादि एवं खलु जंबू ! समणेगं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयमहे पण्णते ति बेमि ॥
સૂત્રકાર હવે આ પાંચ ગાથાઓ વડે એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઈછે છે કે અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ શબ્દાદિ વિષમાં શ્રમણુજનેને કદાપિ રાગ-દ્વેષ નહિ
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ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र रूपेषु च भद्रकपापकेषु, चक्षुर्विषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन बा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १७ ॥ १-भद्रकपापकेषु-अनुकूल-प्रतिकूलेषु । गन्धेषु च भद्रकपापकेषु, घ्राणविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १८ ॥ रसेषु च भद्रकपापकेषु, जिहाविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १९ ॥ स्पर्शेषु च भद्रकपापकेषु, कायविषयमुपगतेषु ।
तुष्टेन वा रुष्टेन वा, श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ २० ॥ विषय को समझाते हैं यहां भद्रक शब्द का अर्थ अनुकूल और पापक शब्द का अर्थ प्रतिकूल है । जय शब्द रूप विषय श्रोत्रेन्द्रिय का हो तो उस समय चाहे वह मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो कैसा ही क्यों न हो उसमें श्रमण-साधु-को कभी भी तुष्ट अधवा रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० ॥१६॥
चक्षुइन्द्रिय का विषयभूतरूप जब उस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने में आवे-तब वह चाहे मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ हो उसमें श्रमण जन को कभी भी हर्ष विषाद-तुष्ट रुष्ट-नहीं होना चाहिये । गा० १७॥ __ मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ गंध जब घाणइन्द्रिय का विषय हो तब साधु को उस विषय में कभी भी तुष्ट रुष्ट नहीं होना चाहिये । गा० १८॥
मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ रस जिह्वाइन्द्रिय का विषय हो-तब उसमें श्रमण जन को कभी भी तुष्ट और मष्ट नहीं होना चाहिये ॥ गा० १९॥ કરે છે. અહીં ભદ્રક શબ્દનો અર્થ અનુકૂળ અને પાપક શબ્દનો અર્થ પ્રતિકૂળ છે. જ્યારે શબ્દરૂપ વિષય શ્રોત્ર ઈદ્ધિને હોય તે ભલે તે મને જ્ઞ હોય કે અમનેશ હય, ગમે તે કેમ ન હોય, તેમાં શ્રમણ-સાધુ-ને કદાપિ તુષ્ટ કે રૂષ્ટ થવું જોઈએ નહિ. છે ગા. ૧૬
ચક્ષુ ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત રૂ૫ જ્યારે તે ઈન્દ્રિય વડે ગ્રહણ કરવામાં આવે ત્યારે તે મનેઝ હોય કે અમને હેય, શ્રમણને કદાપિ તેમાં હર્ષ વિષાદ-તુષ્ટ-રૂટ નહિ થવું જોઈએ ગા. ૧૭ છે
મને અને અમનેશ ગંધ જ્યારે પ્રાણ ઈન્દ્રિયને વિષય હોય ત્યારે સાધુને તે વિષયમાં કદાપિ તુષ્ટ કે કૃષ્ણ નહિ થવું જોઈએ. ૧૮ છે
મનોજ્ઞ અથવા તે અમનેઝ રસ જયારે જીવા ઈન્દ્રિયને વિષય હોય ત્યારે તેમાં શ્રમણ-જનને કદાપિ તુષ્ટ અને રૂષ્ટ થવું જોઈએ નહિ. એ ગા. ૧૯
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अनगारधर्मामृतवषिणो टी० अ० १७ प्राकीणश्विदाष्टान्तिकयोजना ६३७ ' सद्देसु य ' इत्यादि, गाथा पञ्चकं सुगमम् ।।
सुधर्मास्वामी माह-' एवं खलु हे खम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन सप्तदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य असमर्थः पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तःअरूपितः । इति ब्रवीमि-व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०७॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलिनललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुररानगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालचतिविरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गमूत्रस्यानगारधर्मामृ.
तवर्षिण्याख्यायां व्याख्यायां सप्तदशमध्ययनं समाप्तं ॥ १७ ॥ ८ आठ प्रकार का स्पर्श चाहे वह अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल होजब २ स्पर्शन इन्द्रिय का विषय हो उसमें साधु को किसी भी तरह से कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट नहीं होनी चाहिये ।। २० ॥ __इस प्रकार हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं इस सत्रहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा में उन्हीं के कहे अनुसार कह रहा हूँ।
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता धर्मकथाङ्गमूत्र" की अनगार धर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का सत्रहवां
अध्ययन समाप्त ।। १७॥
૮ જાતને સ્પર્શ–ભલે તે અનુકૂળ કે પ્રતિકૂળ ગમે તેવો કેમ ન હોય જ્યારે જ્યારે તે સ્પર્શન ઈન્દ્રિયને વિષય હેય તેમાં સાધુને કોઈ પણ રીતે કદાપિ તુષ્ટ અને રૂટ થવું જોઈએ નહિ ગા. ૨૦ ||
આ પ્રમાણે હે જંબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાન મેળવ્યું છે–આ સત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનનો આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. આવું હું તેમના કહ્યા મુજબ જ તમને કહી રહ્યો છું. શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
व्याच्या सत्तर अध्ययन समास ॥ १७ ॥
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॥ अथाष्टादशमध्ययनम् ॥ अथाष्टादशमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने इन्द्रियवशवर्तिनाम् वशीकृतेन्द्रियाणां च अनौँ प्रोक्तौ, इह तु लोभावि. ष्टानां लोभरहितनां च तावेवोच्येते, इत्येवं पूर्वेण सह संबद्धमिदमध्ययनम् , तस्येदमादिम सूत्रम्-' जइणं भंते' इत्यादि
मूलम्-जइ णं भंते! समणेणंजाव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, अटारमस्स णं भंते ! णायज्झय. णस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंब! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं णाम जयरे होत्था । वण्णओ० । तत्थ णं धणे णामं सत्थवाहे । भदाभारिया तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भदाए अत्तया पंचसत्थवाह
अठारहवां अध्ययन प्रारंभ
सुसमादारिका का वर्णन सन्नहर्वा अध्ययन समाप्त हो चुका हैं। अब १८ वां अध्ययन प्रारंभ होता है। इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबध है-कि पूर्व अध्ययन में इन्द्रियवशवर्ती तथा वशकृत इन्द्रियवाछे जीवों को अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में सूत्रकार यह कहेंगे कि जो लोभ कषापसे युक्त तथा लोभ कषाय से रहित जीव होते हैं वे अनर्थ और अर्थ प्राप्ति से योग्य होते हैं। इस अध्ययन का सर्व प्रथम सूत्र यह है-'जइणं भंते ' इत्यादि।
અઢારમા અધ્યયનને પ્રારંભ
સુંસમાદારિકાનું વર્ણન સત્તરમું અધ્યયન પુરું થયું છે. હવે અઢારમા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. આ અધ્યયનનો પહેલા અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે પહેલા અધ્યયનમાં ઈન્દ્રિય વશવર્તી તેમજ વશીકૃત ઈન્દ્રિયવાળા જીવને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વિશે કહેવામાં આવ્યું છે. સૂત્રકાર હવે આ અધ્યયનમાં આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરશે કે જે આ લેભકષાયથી તેમજ લેભકષાયથી હિત હોય છે. તેઓ અનર્થ અને અર્થ પ્રાપ્તિને લાયક ઠરે છે. આ અધ્યपननु पडे सूत्र मा छे-जइण भते समणेण महावीरेण इत्यादि
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम् दारगाहोत्था,तं जहा-धण्णे धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरक्खिए। तस्स णं धण्णस्त सत्थवाहस्सधूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमाणामं दारिया होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चिलाए नामं दासचेडे होत्था, अहीणपंचिंदियसरीरे मंसोवचिए बालकीलाव. णकुसले यावि होत्था। तएण से चिलाए दासचेडे सुंसुमाएदारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्था । सुसुमं दारियं कडीए गिण्हइ, गिणिहत्ता, बहहिं दारएहि यदारियाहि य बालेहि बालियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं आभिरममाणे२ विहरइ। तएणं से चिलाए दासचेडे तेसि बहूर्ण दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं वदृइ आगेलियाओ, तेंदुसए, पोतुल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालंकारं अवहरइ अप्पेगइए आउस्सइ, एवं अवहसइ निच्छोडेइ, निब्भच्छेइ तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ । तएणं ते बहवे दारगा य ६ जाव रोयमाणा य कंदमाणा य साणं २ अम्मापिऊणं णिवेदेति । तएणं तेसिं बहूणं दारगाणय ६ जाव अम्मापियरो जेणेव धन्ने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धन्ने सत्थवाहे बहहिं खिजणाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणाहिय रुंटमाणाहि य उवलंभमाणा य धण्णस्स एयमटुं णिवेदति ॥ सू० १ ॥
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हाताधर्मकथा टीका-' जइणं भन्ते ! ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावन्मोक्षं संप्राप्तेन सप्तदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः जितेन्द्रियाऽजितेन्द्रियागामानर्थप्राप्तिरूपो भावः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः, अष्टादशस्य तु ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन यावन्मोक्षं सम्पाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामी प्राह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये रानगृहं नाम नगरमासीत् , 'वण्णओ' वर्णका-नगरवर्णनं पूर्ववद् विज्ञेयम् । तत्र खलु धन्यो नाम सार्थवाहः परिवसति । तस्य भद्रा नाम भार्याऽसीत् । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य पुत्राः, भद्राया आत्मजाः पञ्च सार्थवाहदारका आसन् । तेषां नामान्याह-'तं जहा' तद्यथा___टीकार्थ-जंबू स्वामी श्री सुधर्मास्वामीसे पूछते हैं कि- जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तंग सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते अट्ठारसमस्म ण भंते णायन्झयणस्स समणेणं जाव संपत्ते के अठे पण्णते ? ) हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्धिगति नाम क स्थान को प्राप्त कर चुके हैं मत्रहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रज्ञप्त किया है-तो उन्हीं सिद्विगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १८ वें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? ( एवं खलु जंबू ! ) इस प्रकार जंव स्वामी के पूछने पर सुधस्विामी उनसे कहते हैं कि जंबू ! सुनों-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-(तेणं कालेणं तेणं समएणं रागिहे णाम यरे होत्था। वणओ तथणं धणे णामं सत्यवाहे-भद्दाभारिया-तम्सणं घण्णस्स मन्यवाहम्म पुत्ता महाए अत्तया पंच सस्थवाहदारगा होत्था, तं जहा
ટીકાર્ય–જબૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે–
( जण भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तासमस्स णायज्झयणस्स अयमद्वे पण ते भट्ठा समस्स णं भंने गायज्झयणम्म समणेणं नाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते?)
હે ભદન્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે-જે એ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુક્યા છે. સત્તરમા જ્ઞાતાધ્યયનનો આ પૂર્વોક્ત રૂપે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તે જ સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ૧૮ મા સતાધ્યયનને શું અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે?
( एवं खलु ज ! ) मा प्रमाणे भूस्वाभीमे प्रश्न पूछो त्यामा શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જબૂ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નો જવાબ આ પ્રમાણે છે –
( तेणे कालेणं तेणं समएणं गयगिहे णामं णयरे होत्था ! वण्णओ० तत्थणं धण्णे णाम सत्यवाहे-भवा भारिया-तस्स नं धण्गरस सत्यवाहरस ता भदाए
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मनगारधामृतवर्षिणी टी0 80 १८ सुसमादारिकावर्णनम् धनः १ धनपाल २ धनदेवः ३ धनगोपः ४ धनरक्षितः ५ इति । तस्या खल्लु धन्यस्य सार्थवाहस्य दुहिता भद्रायाः सार्थवाह्या आत्मजा धनादीनां पश्चानां पुत्राणाम् ' अणुमग्गजाइया' अनुमार्गजातिका-जाता एव जातिका, अनुमार्ग जातिका अनुमार्गजातिका-पश्चाजाता सुंसुमा नाम दारिका आसीत् । कीदृशी सा ?-'मूमालपाणिपाया' सुकुमार पाणिपादा-कोमलकरचरणा । तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य चिलातो नाम दासचेटा-दासपुत्र आसीत् । योहि 'अहिणधण्णे २- धणपाले-२ धणदेवे ३, धणगोवे-४ धणरक्खिए-५) उस काल और उस समयमें राजगृह नाम का नगर था। इसका वर्णन पहले जैसा ही जानना चाहिये। उस नगर में धन्य नामका सार्थवाह रहता था। इसकी पत्नी का नाम भद्रा था। इस भद्रा भार्या से उत्पन्न हुए धन्य सार्थवाह के ये पांच पुत्र थे-धन-१ धनपाल-२ धनदेव-३ धनगोप-४ और धनरक्षित-५।
(तस्सणं धण्णस्स सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमा णामं दारिया, होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चिलाएणामं दासचेडे होत्था, अहं णं पंचेंदिय सरीरे मंसोवचिए, बालकीलावणकुसले यावि होत्था) इस धन्य सार्थवाह के भद्रा भार्या की कुक्षि से उत्पन्न एक सुंसुमा नामकी पुत्री थीजो धनादिक पांच पुत्रों के पीछे उत्पन्न हुई थी। इसके कर, चरणे बड़े कोमल थे। इस धन्य सार्थवाह का एक दासचेट-दास पुत्र-था-जिस अत्तया पंच सत्यवाहदारगा होत्था, तं जहा-धण्णे १, धणपाले २, धणदेवे ३, घणगोवे-४, धणरक्खिए-५ )
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેનું વર્ણન પહેલાની જેમ સમજી લેવું જોઈએ. તે નગરમાં ધન્ય નામે સાર્થવાહ રહેતું . તેની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતું. તે ભદ્રા ભાર્યાને ગર્ભથી જન્મ પામેલા પાંચ પુત્ર હતા, તેમના नाम मा प्रभारी छे-धन-1,धनास-२,धन-3,धना-४,मने धनःक्षित-५.
(तस्स गंधण्णस्स सत्थवाहस्त घृया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमा णामं दारिया, होत्था, सूमालपाणिपाया, तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए णामं दासवेडे होत्या, अहं णं पंचेंदिय सरीरे मंसोवचिए, बालकीलावणकुसले यावि होत्था)
તે ધન્ય સાર્થવાહની ભદ્રા-ભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ પામેલી સુસુમા નામે એક પુત્રી હતી. તે ધન વગેરે પિતાના ભાઈઓ બાદ ઉત્પન્ન થઈ હતી. તેના હાથ-પગ બહુ જ કોમળ હતા. તે ધન્યસાર્થવાહને એક દાસીપુત્ર હતા. તેનું
भ८१
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કાર
ज्ञाताधर्मकथान सु
"
पचिदियसरीरे ' अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरः=प्रतिपूर्णसर्वेन्द्रिशरीर', 'मंसोचिए ' मांसोपचितः = मांसैरुपचितः पुष्टशरीर इत्यर्थः पुनः बालकीलावणकुसले ' बालक्रीडनकुशलचापि आसीत् । ततः खलु स दासचेटः सुमाया दारिकायाः ' बालग्गाहे ' बालग्राहः यो हि बालक्रीडयितुं नियुक्तो भृत्यः स ' बालग्राहः इत्युच्यते जाताश्वाप्यभवत् । सहि चिलातः सुसुमां दारिकां कटri गृह्णाति, गृहीवा, बहुभिर्दारकै दारिकाभिश्च बालकैश्च बालिका मिश्र, डिम्भकैश्च डिम्भकाfor कुमार कुमारिकाभिव सार्द्धम् = दारकडिभक बालककुमाराणां अल्प, बहु, बहुतर कालकृतभेदो विज्ञेयः, अभिरममाणः २ पुनः पुनः क्रीडन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दासवेटः तेषां बहूनां ' दाराण जाव , दारकाणां यावत् = दारकाणां दारिकाणां डिम्भकानां डिम्भिकानां कुमाराणां कुमारिकाणां का नोम चिलात था । जो प्रमाणोपेत पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाला था। मांसोपचित था पुष्ट देहवाला था । यह बालकों को खिलाने में विशेष कुशल था । (तएण से चिलाए दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए याचि होत्था संसुमदारियं कडीए गिव्हर, गिण्हिता बहूहिं, दारएहिं य दारियाहि य........ विहरह-तेसिं बहूणं दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं वद्दए आडोलियाओ तेंदुए पोतुल्लए साडोल्लए अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालंकारं अवहरह, अप्पेगइयाए आउस्सह, एवं अवहरह, निच्छोडेर, निव्भच्छेइ लज्जेह अप्पेगइए तालेह ) इसलिये वह दासचेट सुंसमा दारिका के खिलाने के लिये नियुक्त हो गया। अतः वह चिलान दास चेटक समादारिका को गोदी में लेकर अनेक दारक दारिकाओं के साथ बालक बालिकाओं के साथ डिंभक डिभिकों के साथ और कुमार कुमारिकों
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નામ ચિલાત હતું. તે સપ્રમાણ પાંચે ઇન્દ્રિયાથી પરિપૂર્ણ શરીરવાળા હતા. તે માંસલ તેમજ પુષ્ટ શરીરવાળા હતા તે માળકાને રમાડવામાં સિવશેષચતુર હતા.
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( तरणं से चिलाए दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गा जाए यावि होत्था सुसुम दारियं कडीए गिoes, गिव्हित्ता बहूहिं, दारएदि य दारियाहि य विहरह तेर्सि बहूणं दारियाण य जाव अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं वह आडोलि - याओ तेंदुए पोल्लए, साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणं मल्ला लंकारं अवहरइ, अप्पेगइए, आउस्सार, एवं अनहसइ, निच्छेडे, निव्भच्छेइ, तज्जेइ, अप्पेगइए तालेह) તેથી તે દાસચેર સુંસમા દારિકાને રમાડવા માટે નિયુક્ત કરવામાં આન્યા. આ પ્રમાણે તે ચિલાત દાસ ચેરક ચુંસમા દારિકાને ખેાળામાં એસાચીને ઘણા દ્વારક દ્વારિકાઓની સાથે બાળક તેમજ માળાએની સાથે ડિલક
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० भ०१८ सुसमादारिकावर्णनम् च मध्ये 'अप्येगइयाणं' अप्येकेषाम् 'खुल्लए' क्षुल्लकान् कपर्दकविशेषान् 'कोडी' इति भाषा प्रसिद्धान अपहरति-चोरयति। एवं 'वट्टए' वर्तकान्-जत्वादिमयगोलकान् 'आडोलियाओ' आडोलिका इति नाम्नापसिद्धान् बाल क्रीडनवस्तुविशेषान् तेंदूसए' देशीशब्दोऽयम्-गेन्दुकान् — पोत्तुल्लए ' वस्त्रमयपुत्तलिकाः, 'साडोल्लए' उत्तरीयवस्त्राणि चोरयति । तथा अप्येकेषाम् आभरणमाल्यालङ्कारान् अपहरति । अनन्तरम् ' अप्पेगइए ' अप्येककान् ‘आउस्सइ ' आक्रुश्यति-निष्ठुरवचनेन ' एवं ' अवहसई' अपहसति-अपशब्दमुच्चार्य हास्यं करोति, “निच्छोडेइ ' निश्छोटयति 'यदि त्वं किमपि वदिष्यसि तदा त्वां बहिनिष्काशयिष्यामीत्यादि शब्दस्तान भीषयति, तथा ‘णिन्भच्छेइ' निर्भसयति तेषां निर्भर्त्सनां करोति, एवं 'तज्जेइ ' तर्जयति · मया कृतं किमपिकार्य यदि स्त्र मातापितृभ्यो यूयं वदिष्यथ के साथ वार २ खेलने में लगा रहता। खेलते २ वह चिलात दासचेटक उन अनेक दारक दारिक, डिम्भका, डिम्भिका, कुमार कुमारिकाओं में से कितनेक बच्चों के खेलने के साधन भूत कपर्दक विशेषों को कौडियों को चुरा लेता कितनेक के जतुके बने हुए चपेटों को, कितनेक के अडोलिक नाम से प्रसिद्ध खिलेोनों को, कितनेक बच्चों की गेंदों को कितनेक बच्चों की वस्त्र के बनी हुई गुडियों को, तथा कितनेक बच्चों के उत्तरीयवस्त्रों-को फरियों को चुरालेता था। कितनेक पच्चों के आभरणों को मालाओं को और अलंकारों को भी चुरालिया करता था कितनेक बच्चों को गाली देता कितनेक बच्चों की वह निष्ठुर पचनों को उच्चारण कर हँसी मजाक करने लग जाता था। यदि तू कुछ कहेगातो मैं तुझे यहाँ से बाहिर निकाल दूंगा इत्यादि शब्दों से कितनेक बच्चों को वह डरा दिया करता था। कितनेक बच्चों को અને ડિભિક સાથે અને કુમાર કુમારિકાઓની સાથે વારંવાર રમવામાં જ ચૂંટી રહેતું હતું. તે ચિલાત દાસર રમતાં રમતાં ઘણાં દારક-દારિક, ડિભક-ડિભિક, કુમાર-કુમારિકાઓમાંથી કેટલાક બાળકનાં રમવાનાં સાધન કપર્દક વિશેને-કેડીઓને ચેરી લેતે, કેટલાકનાં લાખના બનેલા ચપેટાએને, કેટલાકનાં અડલિક નામથી પ્રસિદ્ધ એવા રમકડાંઓને, કેટલાંક બાળકોની દડીએને, કેટલાંક બાળકની વસ્ત્રથી બનેલી ઢીંગલીઓને તેમજ કેટલાંક બાળકોના ઉત્તરીય વને ચારી જતું હતું તે કેટલાંક બાળકના આભરણેને, માળાઓને અને ઘરેણુંઓને પણ ચરી જતો હતે. તે કેટલાંક બાળકોને ગાળો દેતે અને કેટલાંક બાળકોની નિષ્ફર વચને બેલીને ઠઠા-મશ્કરી કરવા લાગતું હતું, “જો તું કંઈ પણ બેલશે તે હું તને અહીંથી બહાર કાઢી
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माताधर्मकथाजस्त्र तदायुष्माकं प्राणान् अपहरिष्यामीत्येवरुपैवाक्यैरङ्गुलिनिर्देशपूर्वकं तेषु भीतिमुत्पादयति । तथा अप्येककान् बालकान् ‘तालेइ' ताडयति चपेटादिभिः । ततः खलु ते बहवो दारकश्च यावत्-कुमारिकाश्च सर्वे वाला ' रोयमाणा य ' रुदन्तश्च ' कंदमाणा य' क्रन्दन्तश्च उच्चैः स्वरेण चीत्कारं कुर्वन्तः ‘साणं २' स्वेषाम् २ 'अम्मापिऊणं ' अम्बापितृभ्य इदमर्थ निवेदयन्ति । ततः खलु तेषां वहूनां दारवह निर्भसित कर देता " मेरा किया हुआ कुछ भी काम यदि तुम. लोग अपने माता पिता से कहोगे तो याद रखना मैं तुम्हारे प्राणों को ले लूंगा-तुम्हें जान से मार डालूंगा” इस तरह कितनेक बालकों को वह अंगुलि दिखा २ कर भयभीत कर दिया करता। कितनेक बालकों को वह थप्पड़ आदि भी मार देना। (तएणं ते बहवे दारगाय जाव रोयमाणा य कंदमाणा य ४ सायं २ अम्मापिऊणं णिवेदेति, तएणं तेसि यहणं दारगाण य ६ जाव अम्मापिउरो जेणेव धण्णे सत्थचाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धण्णं सत्यवाहं यहूहिं खिजणाहिं य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणाय रुंटमाणाय उवलं मेमाणा य धण्णस्स एयमटुं णिवेदेति) इस तरह वे अनेक दारक यावत् कुमारिकाएँ सब ही रो रो कर के आक्रंदन करके-उच्चस्वर से चीत्. कार करके-अपने २ माता पिताओं से उस दासचेटक की इस वर्ताव મૂકીશ વગેરે વચનેથી કેટલાંક બાળકોને તે બીવડાવી દેતે હતે. કેટલાંક બાળકોની તે ભર્સના પણ કરતા હતા–મારી કઈ પણ વાત તમે તમારા માતાપિતાને કહેશો તે યાદ રાખજે હું તમને જીવતા નહિ છોડું. તમને હું જાનથી મારી નાખીશ.” આ પ્રમાણે કેટલાંક બાળકની સામે તે આંગળીઓ ચીપી ચીપીને બીવડાવી દેતો હતો. કેટલાંક બાળકને તે તમારો વગેરે પણ લગાવી દેતે હતે.
(तएण ते बहवे दोरगा य ६ जाब रोयमाणा य कंदमाणा य ४ सायं २ अम्मापिऊण णिवेदेति, तएणतेसि बहूण दोरगाण य ६ जाव अम्मापिउरो जेणेय -धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता धण्ण सत्थवाहं बहूहि खिज्ज णाहिय रुंठणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणा य रुंटमाणा य उबल भेमाणा व धष्णस्स एयमहूँ णिवेदेति )
આ પ્રમાણે તે ઘણાં દારક યાવત્ કુમારિકાઓ રડતાં રડતાં, આ ન કરતાં કરતાં, મોટા સાદે ચીત્કાર કરીને પોતપોતાનાં માતાપિતાને તે દાસટકની ખરાબ વર્તણુક વિષે ફરિયાદ કરવા લાગ્યાં. પિતાનાં બાળકોને
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकावर्णनम्
ફેબ્રુવ
कादीनां अम्बापितरः यचैव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य धन्यं सार्थवाहं बहुभिः ' खिज्जणाहि य ' खेदनाभिश्च = खेदजनकवाग्भिः ' रुंटणाहि य' रोदनाभिः साश्रुरुदितवाग्भिः, 'उपलंभणा हि ' उपालम्भनाभिः = किमेतदुचितम् ? भवाशाम् ? इत्यादि वाग्भिश्व ' खेज्जमाणा ' खेदयन्तः स्वखेदं प्रकाशयन्तः 'टमाणा य रूदन्त उवलंभमाणा य ' उपालम्भयन्तश्च धन्याय सार्थवाहाय एतमर्थ = चिलातकृताऽपराधरूपमर्थं निवेदयन्ति ।। सू० १ ॥
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मूलम् - तणं से धपणे सत्थवाहे चिलायं दासचेडं एय
'
मट्टं भुजो भुजो णिवारे, णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ । तरणं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ । तएणं ते बहवे दारगा य जाव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं जाव णिवेदेति । तपणं ते आसुरुत्ता जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणेव
की शिकायत करने लगे । अपने २ बालकों के मुख से इस प्रकार की दास चेटक थी हरकत सुनकर उन दारक आदि को के माता पिता जहां धन्य सार्थवाह होता था वहां आते और आकर के धन्य सार्थवाह को अनेक खेदजनक वचनों द्वारा रोते २ उपालंभ - उलहना दिया करतेक्या आप जैसे व्यक्तियों को यह उचित है - इस तरह से उससे कहा करते । इस तरह वे खेदजनक तथा अश्रु भरकर कही गई वाणियों द्वारा अपना खेदप्रकाशित करते हुए रोते हुए एवं उलहना देते हुए धन्यसार्थवाह के लिये चिलातकृत अपराध रूप अर्थ की निवेदना करते | सू० १ ॥
મુખેથી આ પ્રમાણે દાસ ચેટકની ખરાખ વર્તણુક વિષેની વિગત સાંભળીને તે દારક વગેનાં માતાપિતા જ્યાં ધન્યસા વાહ હુ ત્યાં આવતા અને આવીને ધન્યસા વાહને ઘણાં કઠોર વચનેાથી રડતાં રડતાં ઠપકો આપતાં રહેતાં હતાં.
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શું તમારી જેવી વ્યક્તિને આ વાત શાલે છે ? ”
આ પ્રમાણે તે કહ્યાં કરતાં હતાં આ પ્રમાણે તેએ ખેદજનક તેમજ અશ્રુભીની હાલતમાં કહેલી વાણીએ વડે પેાતાનું દુઃખ પ્રકટ કરતાં, રડતાં તેમજ ઠપકા આપતાં મુખ્ય સા વાહને ચિલાતે જે કંઈ ખરાબ વર્તણુક કરી હોય તે બદલ ફરિયાદો કરતાં
રહેતાં હતાં. ॥ સૂત્ર ૧ !!
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વ
श्रीताधर्म कथासूत्रे
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूहिं खेज्जणाहिं जाव एयमट्टं णिवेदेति । तएण से घण्णे सत्थवाहे बहूणं दारगाणं ६ अम्मा पिऊणं अंतिए एयमट्टं सोच्चा आसुरुत्ते विलायं दास वेडं उच्चावयाहि आउसणाहिं आउसइ, उद्धंसइ, णिग्भच्छेइ निच्छोडेइ, तजेइ उच्चावयाहि तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभइ । तएण से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जात्र पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जूयखलएसु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहं सुहेणं परिवड्डूइ ॥ सू० २॥
टीका- ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः चिलातं दासचेटम् ' एयम' एतमर्थम् एतस्मादर्थात् दारकादीनां कपर्दकापहरणादिरूपादभूयोभूय निवारयति । नो चैव खलु दासचेट एतस्माद्दुष्कृत्यादुपरमते । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेषां बहूनां ' दारगाण य ' दारकाणां चन्दार
तरण से धणे सत्यवाहे इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरण से घण्णे सत्थवाहे) इसके बाद उस धन्य सार्थवाहने (चिलाय दासचेडं) चिलात दास पुत्र को (एयमहं भुज्जो २ णिवारेह ) बालकों के कपर्दक आदि चुराने रूप अर्थ से बार २ मना किया, परन्तु ( णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ ) वह चिलात दारक उस काम से विरक्त नहीं हुआ । (तएण से दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६
तरण से घण्णे सत्थवाहे इत्यादि --
टीडार्थ - (तएण से घण्णे सत्थव हे) त्यारमा ते धन्य सार्थवाडे (चिलाय दाख बैड ) शिसात हासपुत्रने (एयम भुज्जो २ णिवारेइ) आजओनी अडीयो वगेरेने थोरी ४वा महल वारंवार भनाई उरी, परंतु ( णो खेत्र णं चिलाए दास पैडे उवरमई) ते (यसात द्वार पोतानी भराम वर्तालु छोडीने सुधर्यो नहि. (तएण से चिलाए दासचेडे तेसि बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगइयाण'
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म०१८ सुसमादारिकावर्णनम्
६५७ कादीनां मध्ये अप्येकेषां 'खुल्लए' क्षुल्लकान्=कपर्दकविशेषान् अपहरति 'जाव तालेइ' यावत्ताड़यति-पूर्वोक्तक्रमेण एव कपर्दकाद्यपहरणं यावतर्ननं ताडनं च करोति । ततः खलु बहवो दारकाच दारकादयो रुदन्तश्च यावत् स्वेषां २ अम्बापितृभ्यो निवेदयन्ति । ततः खलु ते आशुरुताः स्व पुत्रवचनं श्रुत्वा झटिति क्रोधाविष्टमानसाः यौव धन्यः सार्थवाहः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य बहूभिः 'खेज्जणाहि जाव एयमट्ठ' खेदनाभिर्यावत् एतमर्थम् खेदसंसूचनाभिर्यावत् उपालम्भनयुक्ताभिर्वाग्भिः चिलातदासचेटक कृताऽपराधलक्षणम् अर्थम् निवेदयन्ति । ततः खलु धन्यः सार्थवाहो बहूनां 'दारगाणं' दारकाणां ६=दारकादीनाम अम्बापितॄणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्त्वा निशम्य आशुरुतः चिलातः दासचेटम् ' उच्चावचाभिः अनेकविधाभिः ' आउमणाहिं ' आक्रोशनाभिः कोपननर्वचनैः 'आउसइ' आक्रुश्यति-आक्षिपति 'उद्धंसइ' उद्धर्ष यति-नामगोत्रादिनाऽधः पातयति-निन्दतीत्यर्थः । नेत्रमुखादि वक्रीकमणेन ‘णिन्भच्छेइ ' निर्भसयति अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ, तएणं ते उहवे दारगा य जाव रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं जाव णिवेदेति) इस तरह समझाने पर भी वह चिलात दासचेट उन अनेक दारकों आदि में से कितनेक दारक आदिकों के कपर्दक (कौड़ी) विशेषों को चुराता रहा यावत् उन्हें ताडित करता रहा-मारता पीटता रहा। और वे बालक आदि भी रोते हुए अपने २ माता पिताओं से उस के अपराध को जा २ कर कह देते रहे । (तएणं ते आतुरुत्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेच उवागच्छा, उवागच्छित्ता, बहूहिं खेज्जाणाहिं जाव एयमटुं णिवेदेति, तएणं से धणे सत्यवाहे बहणं दारगाणं अम्मापिऊणं अंतिए एयमई सोच्चा आसुरूत्ते चिलायदासचेडं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसा उद्धंसइ णिन्भच्छेइ,) इस प्रकार अपने २ बालकों के मुख से पार २ खुस्लप अवहरइ नाव तालेइ, तपण ते बहवे दारगा य जोव रोयमाणा य जाब अम्मापिऊण जाव णिवेदेति)
આ પ્રમાણે સમજાવવા છતાં તે ચિલાત દાસચેટક ઘણા દારકો વગે જેમાં કેટલાક દાર કે વગેરેની કેડીઓને ચેતે જ રહ્યો યાવત તે બ ળકોને તાડિત કરતે રહ્યો, તેમજ મારતે પીટતે રહ્યો. અને તે બાળકો વગેરે પણ રડતાં રડતાં પોતપોતાનાં માતાપિતાને આની ફરિયાદ કરતાં જ રહ્યાં.
(तएणते आसुरुत्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता बहहिं खेज्जणाहि जाव एयमहूँ णिवेदेति, तएण से धण्णे सत्थवाहे बहूण दारगाण अम्मापिऊण तिए एयमढे सोचा आसुरूत्ते चिलायं दासचेड उचावयाहिं भाउसणाहिं माउसइ उद्धंसइ, णिब्भच्छेह)
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हाताधर्मकथास तिरस्करोति, “निच्छोडेइ' नि छोटयति-त्यजति, ‘तज्जेइ' तर्जयति 'निस्सर मम गृहात् नोचेत्त्वां ताडयिष्यामि' इत्यादि ववनेन भर्सयति 'उच्चावयाहिं तालणाहिं' उच्चावचाभिर्यष्टिमुष्टयाघनेकविधाभिस्ताडनाभिः 'तालेइ' ताडयति · साओ गिहाओ ' स्वस्माद् गृहात् .' णिच्छुभइ ' निक्षिपति=निः सारयति । ततः खलु स चिलातो दासचेटः तेन सार्थवाहेन स्वस्माद् गृहात ‘णिच्छूढे ' निक्षिप्तः=निः सारितः सन् राजगृहे नगरे सिंघाडग जाव गहेसु श्रृङ्गाटक यावन्महापथपथेषु चतुष्पयादिषु सर्वत्र स्थलेषु, देवकुलेषु च, सभासु च चिलात दासचेटक की पूर्वोक्त अपराधों को जघ २ वे सुना करते तय वे गुस्से में भर २ कर जहाँ धन्यसार्थवाह होता वहां चले जाते रहे । और वहां जाकर बडे खेद के साथ रोते हुए अपने २ दुःखों को प्रकट करते रहे इस तरह पार २ उन दारक आदि के माता पिताओं के मुंख से इस दासचेटक के दुष्कृत्य को सुनकर वह धन्य सार्थवाह क्रोध में आकर उस दासचेटक चिलात को अनेक विधकोप जनक ऊँचे नीचे शब्दों से धिक्कार ने लगते थे उसका नाम गोत्र आदि की निंदा करने लग जाते थे। नेत्र, मुख, आदि को टेडा करके उसका तिरस्कार भी करते थे। ( णिच्छोडे इ, तज्जेह, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेइ, सामो गिहाओ णिच्छुभह, तएणं से चिलाए दाप्सचेडे साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव पहेतु देवकुले जाव सभासु
આ પ્રમાણે પિતાનાં બાળકને મુખેથી વારંવાર ચિલાત દાસચેટકની ફરિયાદે જ્યારે જ્યારે તેઓ સાંભળતાં ત્યારે ત્યારે તેઓ ગુસ્સે થઈને જ્યાં ધ સાર્થવાહ હતા ત્યાં જતા હતા, અને ત્યાં જઈને તેઓ બહુ જ
ખની સાથે રડતાં રડતાં પિતા પોતાના દુઃખેને પ્રકટ કરતા રહેતા હતા. આ પ્રમાણે વારંવાર તે દારક વગેરેના માતાપિતાના મુખથી તે દાસએટકની ખરાબ વર્તણુક વિષેની વિગત સાંભળીને તે ધન્યસાર્થવાહ ફોધમાં ભરાઈને તે દાસ. ચેટક શિલાતને ઘણું ક્રોધ ઉત્પન્ન કરે તેવા ખરાબ વચનેથી ધિક્કારવા લાગતું હતું તેમજ તેનાં નામ ગેત્ર વગેરેની નિંદા કરવા લાગતો હતે. આંખ, મુખ વગેરે બગાડીને તેને તિરસ્કાર પણ કરતા રહેતા હતા.
(णिच्छोडेइ, तज्जेइ, उच्चावयाहिं तालणाहि तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छभइ, तएणं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छुढे समाणे रायगिहे नयरे सिपाडग ज व पहेसु देवकुलेसु जाव समासु य पवामु य जूय खलएंसु य वेमा घरेसु य पाणधरेसु य सुह मुझेण परिवढइ) .
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अमगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १८ सुंसभादारिकावरितनिरूपणम् ६४९. पपासु-पानीयशालासु च 'जूय खलएसु' द्यूतखलकेषु-द्यूतक्रीडनस्थानेषु च 'वेसाघरेसु ' वेश्यागृहेषु च पाणघरेसु' पानगृहेषु मद्यपानगृहेषु च सुखं सुखेन परिवड्डइ ' परिवर्द्धते वृद्धि प्राप्नोति ॥ सू०२॥
मूलम्-तएणं से चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जप्पसंगीचोजप्पसंगी मंसपसंगी जुयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि य पवासु य जूयखलएस्सु य वेसाघरेसु य पाणघरेसु य सुहंसुहेणं परिवडा) और यहां तक हुआ कि कभी २ वह उसे छोड भी देता रहा और कभी २ तू मेरे घर में से निकल जा नहीं तो मैं तुझे मारूँगा इस तरह के वचनों से उस को तिरस्कार भी कर देते थे। परन्तु जब इस की शिक्षाओं का या भय प्रदर्शक वाक्यों का उस चिलात दासचेटक पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा तब अन्त में धन्य सार्थवाह ने हताश होकर उसे अनेक विध यष्टि मुष्टि आदिकी ताडनाओं से ताडित कर अपने घर से बाहिर निकाल दिया। इस तरह जब धन्य सार्थवाह ने इसे अपने घर से बाहिर निकाल दिया-तब यह राजगृह नगरमें शृंगाटक भादि मागों में अवारा (स्वच्छन्दगामी) फिरने लगा और देवकुलों में सभास्थानों में, पानीय शालाओं में-प्याऊ घरो में, जुआ खेलने के स्थानों में वेश्याओं के घरों में, और शराब पीने की जगहो में घूम फिर कर जिस किसी भी तरह से अपना पालन पोषण करने लगा॥सू०२॥
અને છેવટે આ વાત ત્યાં સુધી પહોંચી કે કોઈ કોઈ વખતે તે તેને બહાર પણ કાઢી મૂકતું હતું, અને કઈ કઈ વખતે તેને આ જાતનાં વચનેથી ઠપકો પણ આપતે રહેતા હતા કે તું મારા ઘરમાંથી નીકળી જા નહિ. તર તને હું મારી નાખીશ. પરંતુ જ્યારે આ જાતની શિક્ષાઓની કે ભય પ્રદર્શનની તે દાસ ચેટક ઉપર કશી અસર થઈ નહિ ત્યારે છેવટે ધન્ય સાથેવાહે હતાશ થઈને તેને લાકડી, મુકીઓ વગેરેથી તાડિત કરીને પિતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂક્યું. આ પ્રમાણે જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહે તેને પિતાના ઘેરથી બહાર કાઢી મૂકે ત્યારે તે રાજગૃહ નગરનાં શૃંગાટક વગેરે રસ્તાઓમાં રખડેલની જેમ ભટકવા લાગ્યા અને દેવકુળમાં, સભાસ્થાનમાં, પરબેમાં, જુગારના અડ્ડાઓમાં, વેશ્યાઓનાં ઘરોમાં અને શરાબખાનાઓમાં ભટકીને જેમ તેમ કરીને પિતાનું પાલન–પિષણ કરવા લાગ્યા સૂત્ર ૨
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१५०
ज्ञाताधर्मकथासू
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होत्था । तपर्ण रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरत्थि मे दिसीभाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था, विसमगिरिकडगकोडं बसंनिविद्या, वंसी कलंकपागारपरिक्खित्ता छिपण सेलविसमप्पवाय फलिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदियजणणिग्गमपवसा अभितरपाणिया सुदुलभजलरंता सुबहुस्स विकुवियबलस्स आयगस्स दुप्पहंसा यावि होत्था । तत्थ सीहगुहाए चोरपलाए विजए णामं घोरणावई परिवसs अहम्मिए जाव अधम्मकेऊ समुट्ठिए बहुगरणिग्गयजसे सूरे दृढप्पहारी साहसिए सद्दवेही । से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्च जाव विहरइ । तपर्ण से विजए तक्करे चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेोयगाण य संधिच्छेयगाण यखत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य विसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्नभिन्नवहिराययाणं कुडेंगे यावि हत्था । तपणं से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरत्थिमे जणवयं बहूहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य खत्तखणणेहि य पंथकुट्टणेहि य उवीलेमाणे २ विद्धं सेमाणे २ णित्थाणं णिद्वणं करेमाणे विहरइ । तएणं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहुहिं अत्थाभि संकीहि य चोजामि
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गनगारामृतवपिगी टी० म० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् र संकोहिय दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूइकरेहि य परब्भवमाणे रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिगच्छित्ता, जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ सू०३ ॥ ___टीका-'तएणं से इत्यादि । ततः खलु स चिलातो दासचेटः ' अगोहट्टिए' अनपघटितः, यो हि दुष्कृतौ प्रवर्तमानं कमपि हस्तौ धृत्वा निवारयति, सोऽपघट्टकः, निवार्यमाणस्तु अपघट्टितः, अयं हि निवारयितुरभावात् अनपघट्टितः= निरङ्कुशः ‘अणिवारिए ' अनिवारितः, हितोपदेशकस्याभावात् अनिवारितः,
'तएणं से चिलाए दासचेडे' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके याद (से चिलाए दासचेडे) वह चिलात दासचे टक (अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जप्पसंगी चोज्जप्पसंगी मंसप्पसंगी, जूयप्पसंगी, वेसापसंगी, परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था ) अनपघहित-निरङ्कुश बन गया-जो दुष्कर्म में प्रवर्तमान किसी को भी हाथ पकडकर उससे निवारित कर देता है उसका नाम अपघटक और जो दूर किया जाता है वह अपघहित कहलाता है। निवारण कर नेवाले का अभाव होने से यह चिलात दासचेटक अनपघट्टित इसी कारण से बन गया। हितोपदेशक कोई उसका रहा नहीं अतः यह कुत्सित काम करने से पीछे नहीं हटता-इसलिये यह अनिवारित होकर जो मन में आता उसे कर डालता-अतः उद्दण्ड बन गया। स्वच्छन्द
तपण' से चिलाए दासचेडे इत्यादि
Atथ-(तएण') त्या२५छ। (से चिलाए दासचेडे ) ते (Aald हास २८४ (अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छदमई, सइरपयारी मज्जप्पसंगी, चोग्जदरसंगी मंसप्पसंगी, जूयप्पसंगी, वेसाासंगी, परदारप्पसंगी, जाए यावि होत्था)
અનપદ્રિત-સ્વછંદ બની ગયે, દુષ્કર્મમાં પડેલા ગમે તેને જે હાથ પકડીને તેમાંથી તેને દૂર કરે છે તેનું નામ અપઘટ્રક અને જે દૂર કરવામાં આવે છે તે અપઘતિ કહેવાય છે. ચિલાત દાસટકને ખોટા કામોથી દૂર લઈ જનાર–તેને નિવારણ કરનાર કોઈ હતું નહિ એથી તે અનપતિ થઈ ગયો હતો. તેને કઈ ડિપદેશક હતે નહિ તેથી તે કુત્સિત કામ કરવામાં પણ પીછેહઠ કરતું ન હતું, ખરાબ કામેથી તેને રોકનાર નહિ હોવાને કારણે તે મનમાં ફાવે તેમ કરતે હતે એથી તે ઉદંડ બની ગયે હતો. તે
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हाताधर्म कथासूत्रे
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' सच्छंदमई' स्वच्छन्दमतिः स्वाभिशयवर्ती उद्दण्डइत्यर्थः, अतएव ' सइरप्पयारी स्वैरमचारी सच्छन्दविहारी ' मज्जप्पसंगी मद्यप्रसङ्गी मद्यपायी, ' चोपसंगी ' चौर्यमसङ्गी= चौर्यकर्मणि परायणः, 'मंसप्पसंगी मांसमसङ्गी= मांसभक्षणशीलः, 'जूयप्यसंगी ' द्यूतमसङ्गी द्यूतक्रीडाप्रसक्तः, 'वेसापसंगी ' doreपटः एवं परदारप्यसंगी' परदारमसङ्गी= परदाररतो जातथापि आसीत् । ततः खलु राजगृहस्य नगरस्य अदुरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे अग्निकोणे सिंहगुहानाम चोरपल्ली आसीत्, या हि पल्ली 'विसमगिरिकडगकोडंबसंनिविट्ठा' विषमगिरिकटककोडम्ब सन्निविष्टा= विषमो निम्नोन्नतो यो गिरिकटक:= पर्वत मध्यभागः, तस्य यः कोडम्बः प्रान्तभागः, तत्र संनिविष्टा=स्थिता आसीत् । पुनः बंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता वंशीकलंकमा कारपरिक्षिप्ता-वंशी कळङ्का वंशजालमयी वृतिः, सैव प्राकारः, तेन परिक्षिप्ता = परिवेष्टिता=वंशनिर्मितजालमयमाकारैः समन्तात् परिवेष्टिता, छिण्ग सेलविसमप्यवायफलिहोवगूढा = छिन्नशैलविषमपात परिखोपगूढा = छिन्नोऽवयवान्तरापेक्षया विभक्तो यः शैलः = पर्वतः तत्सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाता गर्ताः, त एत्र परिखाः तया उपगूढा= आश्लिष्टा परिवेष्टिता विभक्तशैलावयवनिर्गत विपमप्रपातरूपपरिखापरिवेष्टितेत्यर्थः ' एगदुवारा ' एकद्वारा= एकं द्वारं = प्रवेशनिर्गमरूपं यस्याः सा = एकप्रवेशनिर्गमा, 'अणेगखंडी' अनेकखण्डा = अनेकानि खण्डानि विभागा रक्षाहेतोर्यस्यां सा अनेकरखण्डा, यत्र = स्वरक्षार्थ अनेकानि स्थानानि सन्ति, 'विदियजणणिग्गमपवेसा'
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विहारी हो गया - मद्यप्रसंगी हो गया - मदिरा पीने लग गया। मांस खाने लग गया, चोरी करने लगा, जुआ खेलने लगा, वेश्या सेवन करने लगा, और परदार सेवन करने में भी लंपट हो गया । (तएण रायगिहरुम नयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसी भाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकड गकोडंबसनिविट्ठा वंसीकलंक पागारपरिक्खिता छिण्णसेलविसमप्पधायफालिहोवगूहा रग्गदुबारा, अगखंडी, विदियजणणिग्गमपवेसा अग्भितरपाणिया सुदुल्लभजल
સ્વચ્છંદ વિહારી થઈ ગયા હતા, દારૂ પિનારા થઈ ગયા હતા. તે માંસ ખાવાલાગ્યા, ચારી કરવા લાગ્યેા, જુગાર રમવા લાગ્યા, વેશ્યા–સેવન કરવા લાગ્યા અને પરસ્ત્રી સેવનમાં પણ લપષ્ટ થઈ ગયા હતે.
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(तएण रायगिरस नयरस अदूरसामंते दाहिणपुरत्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नामं पल्ली होत्था-विसमगिरिकडगकोडवसन्निविट्ठा वंसीकलंकपगारपरिक्खिता, छिण्णा सेल विखमप्पघायफालिहोवगूढा एगदुवारा, अणेगखंडी, विदियजणणिगगमप वेखा
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भनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १८ सुसुमावारिकाचरितनिरूपणम् १५३ विदितजननिर्गप्रवेशा-विदित जनानामेव-विश्वासवतामेव निर्गमप्रवेशौ यस्यां सा= विश्वस्तजननिर्गमप्रवेशवती ' अभितरपाणिया' अभ्यन्तरपानीया मध्यस्थित
पेरंता, सुषहस्स विकूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा, यावि होत्था तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसई, अहम्मिय जाव अहम्मके ऊसमुट्ठिए बहुगगरणिग्गयजसे, सूरे दढप्पहारी साहसिए सहवेही-सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोर सयाणं आहेवच्चं जाव विहरइ ) उसी राजगृह नगर के न अधिक दूर पर और न अधिक पास में दक्षिण पौरस्त्य दिग्विभाग में-अग्निकोण में-सिंहगुहा नाम की एक चोर पल्ली थी-यह चोरपल्ली विषम गिरिकंटक के प्रान्त भाग में-निम्नोन्नतपर्वत के मध्यभाग के अन्त भाग में स्थित थी। इसके चारों ओर वांसों की बाड़ थी-यह बाड़ ही इसका प्राकार (किला ) था-उससे यह घिरी हुई थी। अवयवान्तरों की अपेक्षा से विभक्त जो पर्वत तत्संबन्धी जो विषम प्रपात खड़ा उन विषम खडेरूप परिखा से यह परिवेष्टित थी। निकलने का और आने का इस में एक ही बार था। इसमें रक्षा के निमित्त चोरोंने अनेक स्थान बना रखे थे। परिचित-विश्वासवाले-व्यक्ति ही इसमें आ जा सकते थे।
अभितरपाणिया, सुदुल्लभजलपेरता, सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा, यावि होत्था तत्थ सहगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावई परिवसई, अह. म्मिय जाव अहम्मकेउ समुट्ठिए बहुणगरणिगयजसे, सूरे दढप्पहारी, साहसिए सहवेही सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाण अहिवञ्च जीव विहरइ )
તે રાજગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણી નજીક પણ નહિ એવી, દક્ષિણ પિરસ્ય દિગવિભાગમાં અગ્નિકેણમાં-સિંહગુહા નામે એક ચારપત્ની હતી તે ચેરપલી ઊંચી નીચી ગિરિમાળાઓના પ્રાંત ભાગમાં નિન્નત પર્વતના મધ્યભાગના અંતભાગમાં આવેલી હતી તેની મેર वांसानी वा हती. ते १७०४ ते ८ (BE) ता. तेनाथी ते धेश. એલી હતી અવયવોતરોની અપેક્ષાએ વિભક્ત જે પર્વત અને સંબંધી જે વિષમ પ્રપાત-ખાડે –તે વિષમ ખાડારૂપી પરિખાથી તે પરિવેષ્ટિત હતી. આવવા અને જવા માટે તેમાં એક જ દરવાજે હતે. ચરોએ પિતાની રક્ષા માટે ઘણાં સ્થાને બનાવેલાં હતાં. પરિચિત વિશ્વાસુ માણસો જ તેમાં આવા કરી શકતા હતા. પાણી માટે તેની વચ્ચે એક જળાશય હતું, તેની બહાર
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शताधर्मकथासूत्रे
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जलाशया 'सुदुल्लभजलरंता' सुदुर्लभजलपर्यन्ता= सुदुर्लभं जलं पर्यन्ते=मान्तभागे = वहिर्भागे यस्याः सा=जलरहितवहिर्भागा ' सुबहुस्स वि' सुबहोरपि कूवियबलस्स ' कूपिकवलस्य = चोरगवेषकसैन्यस्य ' आगयस्स ' आगतस्य 'दुप्प हंसा 'दुपध्वंसा दुर्धर्षणीया चापि आसीत् । तत्र खल्लु सिंहगुहायां चोरपल्ल्यां विजयो नाम चोर सेनापतिः = चोरनायकः परिवसति यो हि ' अहम्मिए जाव अधार्मिको यावत् = अधर्मेण चरति अधार्मिकः अधर्माचरणशीलः-अत्र यावत्पदेनइतआरभ्य ' घायाए वहाए अच्छायणाए ' इत्यन्तः पाठो ग्राह्यः तथाहि - ' अधम्मिट्ठे ' अधर्मिष्ठः सर्वथा धर्मरहितः, अधम्मक्खाई ' अधर्माख्यायी अधर्मक= थकः,' अधम्मागे 'अधर्मानुगः = अधर्मानुगामी ' अधम्मपनोई ' अधर्ममलोकी= अधर्मदर्शी ' अधम्मलज्जणे ' अधर्ममरञ्जनः = अधर्मानुरक्तः, 'अधम्मसीलसम्मुदायारे ' अधर्मशील मुदाचारः = अधर्म एवं शीलं स्वभावः समुदाचारर्थं यस्य सः, पानी के लिये इसमें बीच में एक जलाशय था- इसके बाहिरी भाग में जल नहीं था । अनेक भी चोर गवेषक सेनाजन यहां आजावें तो भी वे इस पल्ली का नाश नहीं कर सकते थे। इस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली में विजय नाम का एक चोर सेनापति रहता था । यह अधार्मि क यावत् अधर्म केतुग्रह जैसा उदित हुआ था। यहां यावत् शब्द से
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घायाए वहाए अच्छायणाए " यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है - इस का खुलाशा भाव इस प्रकार है- अधार्मिक शब्द का अर्थ होता है अधर्माचरणशील - यह विजय नामका चोर अधर्माचरणशील था। अधमिष्ठ था - सर्वथा धर्म से रहित था, अधर्माख्यायी था - अधर्म का कथन करनेवाला था, अधर्मानुग था-अधर्म का अनुगामी था, अधर्मप्रलोकी था
धर्म का ही देखने वाला था-अधर्मप्ररञ्जन था अधर्म में अनुरक्त था પાણી હતું નિહ. ઘણા ચારાની શેાધ કરતા સૈનિકો ત્યાં આવે છતાંએ તે પલ્લીને નાશ કરી શકતા ન હતા. તે સિંહગુડ્ડા નામની ચારપલ્લીમાં વિજય નામે એક ચાર સેનાપતિ રહેતા હતા. તે અધાર્મિક યાત્રતે અધમ કેતુગ્રહની જેમ ઉદય પામ્યા હતા. અહીં યાવત્ શબ્દથી घायाए वहाए अच्छायणाए અહીં સુધીના પાઠ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યે છે. તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છેઃ અધાર્મિક શબ્દને અધર્મો-ચરણુશીલ હાય છે. તે વિજય નામે ચાર અધર્માચરણશીલ હતા, અધર્મિષ્ઠ હતા, સાવ ધ રહિત હતા, અધર્માખ્યાયી હતે, અધમ ની વાત કહેનાર હતા, અધર્માનુરાગી હતા, અધમ ના અનુગામી એટલે કે અધમને અનુસરનાર હતા, અશ્વ પ્રલેાકી હતા, અધમને જ જોનાર હતા, અધમ'પ્રર'જન હતા, અષમમાં આસક્ત હતા, અધમ શીલ સમુદાચારી
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ममगारधामृतषिणी टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितनिरूपणम् ६५५ अधर्म शीलोऽधर्माचरणश्चेत्यर्थः, 'अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पे माणे विहरइ ' अधर्मेणैव वृत्ति कल्पयन् विहरति-अधर्मेणैव सावद्यानुष्ठानेनैव, वृत्ति कल्पयन्-जीविकामुपायन् — विहरइ ' विहरति आस्ते । पुनः ' हणछिदभिंदवियत्तए 'जहिछिन्धि भिन्धि विकतका' हण' जहि-मारय यष्टयादिना 'छिंद ' छिन्धि छेदयखङ्गादिना, ' भिंद ' भिन्धि-भेदय भल्लादिना, इतिशब्दैः स्वानुयायिनः प्रेरयन् पाणिनो विकृन्तति यः सः, जहि छिन्धिभिन्धि विकर्तकः, इति, ' लोहियपाणी' लोहितपाणिः-लोहितौ पाणी यस्य सः, रक्तरञ्जितकरयुगलः 'चंडे' चण्डः उत्कटरोषः 'रुद्दे ' रौद्रः भयानकः 'छुल्ले ' क्षुद्रः क्षुद्रकर्मचारी — उचगवंचणमायानियडिकवडकूडसाइसंपयोगबहुले' उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकपटकूटसाइसंपयोग
अधर्मशील समुदाचारवाला था-अर्थात् इसका स्वभाव और आचरण दोनों अधर्ममय थे-अधर्म ही इस का स्वभाव था और अधर्म ही इस का आचरण था। अतः अपनी जीविका का निर्वाह सावध अनुष्ठानों (अधर्म ) द्वारा ही किया करता था यष्टयादि द्वारा इसे मारो, खङ्गादि द्वारा इसे छेदो भल्लादि द्वारा इसे भेो इस प्रकार के शब्दों से यह अपने अनुयायियों को सदा प्रेरित करता हुआ स्वयं जीवों का छेदन भेद न किया करता था। इसके दोनों हाथ रक्त से रंजित रहते थे। इस का क्रोध बहुत प्रचंड था देखने में यह घडा भयानक दिग्वता था। क्षुद्र कर्मकारी था। " उक्कंचणवंचणमायानियडिकवडडसाइसंपओग पहले" उत्कंचन, वंचन, माया, निकृति, कपट, कूट, साइ, इनका व्यव
હતે-એટલે કે તેને સ્વભાવ અને આચરણ બને અધર્મમય હતાં. અને જ તેને સ્વભાવ હતો અને અધર્મ જ તેનું આચરણું હતું. એથી તે પિતાનું જીવન સાવધ અનુષ્ઠાને વડે એટલે કે અધર્મનું આચરણ કરીને પુરું કરતો હતો. લાકડી વગેરેથી એને મારે, તરવાર વગેરેથી એને કાપી નાખે, ભાલાએ વગેરેથી એને ભેદી નાખે આ જાતના શબ્દથી તે પિતાના અનુયાયીઓને હમેશાં હકમ કરતો રહેતું હતું. તે પોતે પણ જીવનું છેદન-ભેદન કરતા રહેતું હતું. તેના બંને હાથે લેહીથી ખરડાએલા રહેતા હતા. તેને ક્રોધ અત્યંત પ્રચંડ હતો. દેખાવમાં તે ખૂબ જ ભયાનક લાગતું હતું, તે ક્ષુદ્ર કર્મ કરનાર હતે.
(उचणवंचणमायानियडिकवडकूडसाइसंपओगबहुले ) यन, पयन, માયા, નિકૃતિ, કપટ, કૂટ, સાઈ આ બધાને વહેવાર તેના જીવનમાં
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নায়ক बहुलः, तत्र-उत्कञ्चनम् मुग्धजनवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपागतविचक्षणभयात् तत्क्षणेवञ्चनाकरणम् वश्चनं-प्रतारणम् , माया-परवञ्चनबुद्धिः, निकृति: मायापच्छादनार्थ मायान्तरकरणम् , कपटम् वेषादिविपर्ययकरणम् , कूटम्=तुलातोलनकादीनामन्यथाकरणम् , ' साइ' देशी शब्दोऽयम् , विश्वासाभावः, एषां संप्रयोगो व्यवहारः स एव बहुलः प्रचुरो यस्य सः, 'निस्सीले' निःशील! शीलरहितः, 'निव्यए ' नित: अणुव्रतरहितः, 'निग्गुणे' निर्गुणः=गुणवतरहितः, 'निप
चक्खाणपोसहोववासे' निष्प्रत्याख्यान पौषधोपचासः = प्रत्याख्यानपोषधोपवासरहितः 'बहूगं दुपयचउपयमियपसुपक्खिसरीसिवाणं धायाए वहाए उच्छायणाए' बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपतिसरीसृपाणां घाताय, वाय-सामान्य हार इसके पास प्रचुर था। भोलेजनों के वंचन करने में प्रवृत्त हुआ वंचक जन जब पास में आये हुए जनको भय से नहीं उगता है इसका नाम उत्कंचन है। प्रतारण (ठगना) करना इसका नाम वंचन है। दसरों को बंनन करने की बुद्धि का नाम माया है। अपनी मायाचारी को छिपा ने के लिये जो दूसरी मायाचाररूप क्रिया करनी होती है इस का नाम निकृति है । वेष आदि के परिवर्तन करने का नाम कपट है। तराजू एवं तोलने आदि के बांटों को कमती बढती रखना इसका नाम कूट है। "साइ" यह देशीय शन्द है। इसका अर्थ विश्वास का अभाव होता है। यह निःशील थो-शीलरहित था-
नित था-व्रत रहित था, निर्गुण था-गुण रहित था, "प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से वर्जित था " यहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसिवाणं घायाए वहाए उच्छायणाए अधम्म केऊ समुट्टिए" अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, પુષ્કળ પ્રમાણમાં હ. ભેળા માણસના વંચનમાં પ્રવૃત્ત થયેલે વંચક જ્યારે પાસે આવેલા માણસને બીકથી ઠગતે નથી તેનું નામ ઉત્કચન છે. પ્રતારણનું નામ વંચન છે. બીજા માણસને ઠગવાન બુદ્ધિનું નામ માયા છે. પિતાની માયાચારીને છુપાવવા માટે જે બીજી માયાચાર રૂપ ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેનું નામ નિકૃતિ છે. વેશ વગેરે બદલવું તે કપટ કહેવાય છે. ત્રાજવાં તેમજ જોખવાના વજનેને હલકાં અને ભારે કરવાં તેનું નામ ફૂટ છે. “સાઈ” આ દેશીય શબ્દ છે તેને અર્થે વિશ્વાસને અભાવ હોય છે. તે નિશીલ હતે-શીલ રહિત હતા, નિવ્રત વ્રત રહિત હતે. નિર્ગુણ હતે-ગુણ રહિત रतो. प्रत्याभ्यान भने पौषधोपपासथी पति तो. "बहण दुपयच उप्पय. मियपसुपक्विपरीसिवाणं पायाए वहाए - उग्मायणाए अधम्मकेज समुट्ठिए"
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भनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ०१८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् विशेषप्रकारेण नाशाय, उत्सादनाय-द्विपदादिमकलजीवानां सर्वथा नाशाय च, 'अधम्मकेऊ समुट्ठिए ' अधर्मकेतुः समुत्थितः-अधर्मः पापप्रधानो यः केतुः= केतुग्रहः, अधर्म केतुः उत्पातरूपधूमकेतुमहाग्रहः तद्वत् समुत्थितः। बहुणगरणिग्गयजसे ' बहुनगरनिर्गतयशाः, बहुनगरेषु निर्गतं जनमुखानिःसृतं यशः ख्याति यस्य सः, प्रसिद्ध इत्यर्थः, शूरः 'दढप्पहारी' दृढप्रहारी-दृढपहरण शीलः 'साहसिए ' साहसिकः अविमृश्यकारी ' सहवेही' शब्दवेधी-शब्दश्रवणेन लक्ष्यवेधी च आसीत् । ' से ' सः = विजयश्चौरः खलु तत्र सिंहगुहाया चोरपल्ल्यां पञ्चानाम् चोरशतानाम् 'आहेवच्चं जाव' आधिपत्यं यावत् स्वामित्वं कुर्वन् विहरति । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापतिः बहूनां चोराणां च 'पारदारियाणय' पारदारिकाणां-परस्त्रीगामिनां च 'गंठिभेय गाणप' ग्रन्थिभेदकानां संधिच्छेयगाणय ' सन्धिच्छेदकानां भित्तिसंधि छित्त्वा ये धनमपहरन्ति ते संधिच्छेदका उच्यन्ते, तेपाम् , ' खत्तखणगाण य' क्षात्रखनकानां संधिरहितभित्ति खनकानाम् , ' रायाचगारीणय' राजाऽपकारिणांपशु, पक्षी, सरीसृप आदि प्राणियोंके घातके लिये,वध के लिये,तथा उनके सर्वथा विनाशके लिये, यह अधर्मकेतुग्रह जैसा उदित हुआ था। अनेक नगरों में यह कुख्यात होचुका था । बडा शुरवीर था। इसका प्रहार बहुत गहरा होता था। विना विचारे काम करना ही इसका स्वभाव था शब्द श्रवण कर यह अपने लक्ष्य के वेधने में बडा निपुण था। वह विजय चौर सिंहगुफा नाम की उस चोरपल्ली में पांचसौ चोरों का
आधिपत्य यावत् स्वामित्व करता हुआ रहता था। (तएणं से विजय तक्करे चोरसेणावई बहणं चोरोण य पारदारियाण य गंठियगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य, रायावगारीण य अणधारगाण य
घा वि५६, यतुप४, भृग, पशु, पक्षी, सरी२१५ (सा५) मेरे प्राणीमाना ઘાત માટે, વધ માટે તેમજ તેમના સર્વનાશ માટે તે અધર્મ કેતાહની જેમજ ઉદય પામ્યું હતું. ઘણું નગરોમાં તે કુખ્યાત થઈ ચુક્યો હતો. તે ભારે શૂરવીર હતા, તેને પ્રહાર ખૂબ જ ભારે થતું હતું. વગર વિચાર્યા કામ કરવામાં જ તેને સ્વભાવ હતો. શ શ્રવણ કરીને તે પિતાના લક્ષ્યને વીંધી નાખવામાં ખૂબ જ નિપુણ હતે. તે વિજય ચાર સિહ ગુફા નામની તે ચાર પલ્લીમાં પાંચસે ચેરને સ્વામીયાવત્ સ્વામિત્વ ભગવતે રહેતે હતે.
( तएणं से विजयतकरे चोरसेणावई बरण चोराण य पारदारियाण य गठिभेयगाण य संधिच्छेयगोण य खत्तखणगाणय, रायावगारीण य ऊण.
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६५८
हाताधर्मकथा
,
राजद्रोहिणां 'अणधारगाणय ' ऋणधारकाणाम् बालघातकानां 'वीसंमवायगाण य विश्रम्भघातकानां विश्वासघातिनां द्यूतकारकाणां ' खंडक्खाण य ' खण्डरक्षाणां = राजविरोधेन भूमिखण्डधारिणाम् एवम् अन्येषां च बहूनां ' छिन्नभिन्नवहि रायाणं ' छिन्नभिन्नव हिराहतानाम्- छिन्ना=छिन्नहस्तादिकाः, भिन्ना:- भिन्नक र्णनासिकादिकाः, बडिराहता = राजापराधेन देशनिष्काशिताः, एतेषां द्वन्द्वः तेषां च ' कुटुंगे ' कुटङ्कः =कुटङ्कः इव कुटङ्कः वंशवनं रक्षार्थमाश्रयणीयत्वसाम्यात बालधायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अ नेसि बहूणं छिन्नभिन्न बहिरायगाणं कुडंगे याविहोत्था ) वह विजय तस्कर चोर सेनापति अनेक चोरों का अनेक परस्त्री लंपों का ग्रन्थि भेद को का, संधिच्छेदकों का मकान की भीत फोड़कर धनका अपह रण करनेवालों का, क्षात्रखनकों का संधि रहित भीत को फोडकर चोरी करनेवालों का, राजा का अपकार करने वालों का - राजद्रोहियों का, ऋण करने वालों का बाल हत्या करने वालों का विश्वासघात करने वालों का जुआ खेलनेवालों का, राजा की आज्ञा लिये बिना ही कुछ जमीन को अपने अधिकार में करनेवालों का, तथा और भी अनेक छिन्न भिन्न वहिराहत व्यक्तियों का यह कुटंक जैसा था। जिन के हाथ आदि काटदिये गये है ऐसे प्राणी, छिन्न शब्द से जिनकी नाक आदि काट दी गई है ऐसे प्राणी भिन्न शब्द से एवं राजापराध के कारण जो देश से बाहिर निकाल दिये गये हैं ऐसे मनुष्य यहां बहि आहत शब्द बालघायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरकखाण य अन्नेर्सि बहूण छिन्नभिन्न हिराययाण कुडंगे दावि होत्या )
धारगाण य
તે જય તસ્કર ચાર સેનાપતિ ઘણા ચાર।, ઘણા પરસ્ત્રી લપટા, ગ્ર'થિભેદકા, સંધિચ્છેદકા-બાકેારૂં પાડીને ધનનું અપહરણ કરનારાએ, ક્ષાત્ર ખનકે!–સંધિભાગ વગરની ભીતમાં ખારૂં પાડીને ચારી કરનારાએ, રાજાના अपार}|-शद्रोहीगो, ऋणु उरनाशो ( देवाहारी ) माणडत्या अरनाराम, બાળહત્યા કરનારાએ, વિશ્વાસઘાત કરનારાએ, જુગાર રમનારા, રાજાની આજ્ઞા લીધા વગર જ ઘેાડી જમીનને પેાતાના અધિકારમાં લેનારાએ તેમજ ખીજા પણ ઘણા છિન્ન, ભિન્ન બહિરાહત લેાકેાના માટે તે પુરક જેવા હતા. જેમના હાથ પગ વગેરે કાપી નાખવામાં આવ્યા છે એવાં પ્રાણીઓ, છિન્ન શબ્દ વડે જેમનાં નાક વગેરે કાપવામાં આવ્યાં છે એવાં પ્રાણીએ, ભિન્ન શબ્દ વડે અને રાજયાપરાધ બદલ જે દેશમાંથી બહાર કાઢી મૂકવામાં આવ્યા છે એવા માણસા અહીં “ બહિ: આહત શબ્દ વડે સઐધિત કરવામાં આવ્યા
"
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मेनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम् .. ६५२ चापि अभूत् । ततः खलु स विजयस्तस्करः चोरसेनापतिः राजगृहस्य ' दाहिण पुरस्थिमं ' दक्षिणपौरस्त्यं अग्निकोणस्थितं जनपदं बहुभिः — गामघाएहिं ' ग्रामघातैः ग्रामविनाशैश्च, नगरघातैश्च, ‘गोग्गहणेहिय ' गो ग्रहणैः गवां लुण्ठनैः, बंदिग्गहणेहिय' वन्दिग्रहणैः लुण्ठने ये जना गृहीतास्ते चन्दिनउच्यन्ते, तेषां ग्रहणैः स्वकारायां स्थापनैः, ‘खत्तखणणेहिय ' क्षात्रखननैश्च एवं विधैष्दुकृत्यैः से प्रतियोधित किये गये हैं। रक्षणार्थ आश्रयणीय होने की समानता से इसे कुटंक-वंशवन-जैसा कहा गया है। (तएणं से विजए तकरे चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमं जणवयं बहूहिं गामधाएहिं य नगरधाएहिं य गोग्गहणेहि य बंदिगहणेहि य खत्तखणणेहिय, पंथकुहणेहि य उवीले माणे २ विद्धंसणे माणे २ णिस्थाणं, णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तएणं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहहिं अस्थाभिसंकीहि य चोज्जाभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूयकरेहि य पर
भवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिच्छित्तो जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपजित्ताणं विहरइ ) चोरों का सेनापति वह विजय तस्कर राजगृह नगर के अग्निकोण में स्थित जनपदों को, अनेक ग्रामों के विनाश से नगरों के घात से, गायों के लूटने से, लूटते समय पकड़े गये मनुष्य को अपने कारागार में बंद करने से, क्षत्रखनन से-मकानों में खोतदेने
છે. રક્ષણ માટે આશ્રયણીય હોવાના સામ્યથી તેને કુટંક-વાંસનાવનની જેમ બતાવવામાં આવે છે.
(तएण' से विजए तक्को चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमं जणवयं बहूर्हि गामधाए ह य नगरधाएहि य गोग्गहणेहि य बदिग्गहणेहि य खत्तखणणेहि य पथकुद्दणेहि य बोलेमाणे२ विद्धंसणे माणे२ णिस्थाणं, णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तएण से चिलाए पास चेडे रायगिहे बहूहि अत्यामिसंकीहि य चोजाभिसंकी. हि य घणियेहि य जूयकरेहि य परब्भवमाणे २ रायगिहाओ नगराओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छह, उवोगच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपजित्ताणं विहरइ)
ચારોને સેનાપતિ તે વિજય તસ્કર રાજગૃહ નગરના અગ્નિકાણના જનપદેને, ઘણાં ગ્રામેનો વિનાશ કરીને નગરોને ઘાત કરીને ગાયોને લૂંટીને લટતી વખતે પકડી પાડેલા માણસને પિતાના કારાગારમાં પૂરી દઈને, ક્ષત્ર ખનન કરીને, મકાનમાં ખાતર પાડીને અને મુસાફરોને મારીને નિરંતર
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६६०
शाताधर्मकथासूत्रे
"
,
"
' पंथ कुट्टणेहिय ' पान्थकुट्टनैः = पथिकजनमारणैश्च ' उवीलेमाणे २ उत्पीडयन् २ = सन्ततमुत्पीडनं कुर्वन्, 'विद्धंसेमाणे २ ' विध्वंसयन् २ - सर्वदा विध्वंसं कुर्वन्, 'णिस्थानं ' निः स्थानं= गृहरहितं, ' गिद्धणं ' निर्धनम् = धनरहितं कुर्वन् विहरति । ततः खलु स चिलातो दासचेट: राजगृहे बहुभिः ' अत्थाभिस' की हिय' अर्थाभिशङ्किभि=अयं चिलातो. मदीयमर्थं गृहीतवान् ग्रहीष्यति वा इत्यभिशङ्कनशीलैः ' बोज्जाभिसकीहिय ' चौर्याभिशङ्किभिः अयं मम गृहे चौर्य कृतवान् करिष्यति वेस्यभिशङ्कन शीलैश्व ' दाराभिसकीहि ' दाराभिशङ्किभिः = ' अयं मम दारान् दूषितवान् दूषयिष्यति वेत्यभिशङ्कनशीलैः तथा धनिकैश्व द्यूतकरैश्च पराभूयमाणः २= पुनः पुनः पराभवं प्राप्यमाणो राजगृहात् नगराद् बहिः निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव सिंहगुहा चोरपल्ली तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य विजयं चोरसेनापतिम् उपसंपद्य = प्राप्य विहरति ॥ मु०३ ||
से, एवं पथिकजनों के मारने से, निरन्तर पीडित करता विध्वंस करता करता और गृह विहिन करता रहता था । इस के पश्चात् वह दासचेटक चिलात राजगृह नगर में अनेक अर्थाभिशंक- इस चिलात ने हमलोगों के द्रव्य को हरण किया है तथा इसी तरह से यह आगे भी करेगाप्रकार की शंका करने वाले, चौर्याभिशंकी इसने हमलोगों के घर में घुसकर पहिले चोरी की है तथा इसी तरह यह आगे भी करेगा - इ प्रकार की आशंका करने वाले, दाराभिशंकी - इसने पहिले हमारी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया है - इसी तरह से यह आगे भी करेगा इस तरह की अपनी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने की आशंकावाले पुरुषों के द्वारा तथा धनिक व्यक्तियों के द्वारा, जुआ खेलने वाले ज्वारियों के द्वारा पुनः पुनः पराभूत होता हुआ राजगृह नगर से बाहर निकला
-
- इस
પીડિત કરતા, વિધ્વંસ કરતા અને ગૃહવિહીન બનાવી મૂકતા હતા. ત્યારપછી તે દાસચેટક ચિલાતે રાજગૃહ નગરમાં ઘણા અર્થાભિશક-આ ચિલાતે અમારા દ્રવ્યનું હરણ કર્યુ છે. તેમજ આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ હરણ કરશે, આ જાતની શકા કરનારાઓ વડે, ચૌર્યાભિશકી-એણે અમારા ઘરમાં પેસીને પહેલાં ચારી કરી હતી તેમજ ભવિષ્યમાં પણ તે ચેારી કરશે જ-આ જાતની ચારીની આશકા કરતારાએ વડે, દારાભિશકી-એણે પહેલાં અમારી સ્ત્રીએ ઉપર ખલાત્કાર કર્યાં છે, આ પ્રમાણે ભવિષ્યમાં પણ તે ચાક્કસ આવું કર શે જ, આ રીતે પેાતાની સ્ત્રીઓ ઉપર બલાત્કારની આશકાવાળા પુરૂષ વડે તેમજ ધનવાના વડે, જુગાર રમનારા જુગારીઓ વડે, વારવાર પરાભૂત થતા
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अगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० १८ सुसमादारिकाचरितवर्णनम्
६६१
मूलम् - तणं से चिलाए दासचेडे विजयस्त चोरसेणाइस अग्गे असिलग्गाहे जाए यावि होरथा, जाहे त्रियणं से विजए चोरसेणावई गामघायं वा जाव पंथकोहि वा काउं वच्च ताहे वियणं से चिलाए दासचेडे सुबहुपि हु कुवियबलं हयविमहिय जाव पडिसेहेइ । पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणह समग्गे सहिगुहं चोरपल्लि हव्वमागच्छइ । तएणं से विजए चोरसेणावई चिलायं तकरं बहुईओ चोरविजाओ य चोरमंते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ । तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । तणं ताई पंचचोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महयार इड्डीसक्कारसमुदपणं णीहरणं करेंति, करिता बहुई लोइयाई मय कच्चाई करेंति, करिता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था । एणं ताई पंच चोरसयाई अन्नमन्नं सदावेंति, सदावित्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! विजए घोरणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए तकरे विजएणं चोरसेणावइणा बहूईओ चोरविजाओ य जाव सिक्खा - विए, तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया ! चिलायं तक्करं सीहगुहाए चोरपडीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचितए free अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पडिणित्ता चिलाय तीए सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचंति । तएण से चिलाए
"
और निकल कर जहां वह सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी वहां आया वहां आकर वह चार सेनपति के बाद रहने लगा || सूत्र - ३ ॥
રાજગૃહ નગરથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં તે સિંહગુન્હા નામે ચાપલ્લી હતી ત્યાં આવ્યા, ત્યાં આવીને ચાર સેનાપતિની સાથે રહેવા લાગ્યેા. સૂકુ
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शीताधर्मकथाङ्गस्त्र चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव विहरइ। तएणं से चिलाए चोरसेणावई चोराणय जाव कुडंगे यावि होत्था । से णं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमिल्लं जणवयं जाव निस्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरइ ॥ सू० ४॥
टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु स चिलातो दासचेटो विजयस्य चोरसेनापतेरण्या प्रधानः । असिलट्ठग्गाहे ' असियष्टिग्राहः असि: करवालः, यष्टि वंशदण्डः, तौ गृह्णातीति, असियष्टिग्राहः असियष्टयादिप्रचालनचतुरो जातश्चापि अभूत् । ' जाहे वि यणं' यदाऽपि च खलु स विजयश्वोर सेनापतिः'
तएणं से चिलाए दासचेडे इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चिलाए दासचेडे ) वह दासचेटक चिलात (विजयस्स चोरसेणावइस्स) चोर सेनापति उस विजय तस्कर का (अग्गे........यावि हो.) सब से प्रधान असि, यष्टि, ग्रह-तलवार और लाठी के चलाने मे चतुर-बन गया । (जाहे वि य णं से विजए चोरसेणावईगामघायं वो जाव पंथकोटिं वा काउं वच्चइ, ताहे वि य णं से चिलाए दासचेडे सुबहुं पि हु कूवियवलं हयविमहिय जाव पडिसेहेइ, पुणरवि लद्धटे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लि हव्वमाग च्छद) जब वह चोर सेनापति विजय, ग्रामों का घात करने के लिये,
(तरण से चिलाए दासचेडे इत्यादि
2010-(तएण) त्या२५छी (से चिलाए दालचेडे ) ते हास २.४ यिात (विजयस्स चोरसेणावइस्स ) यार सेनापति त यि त४२ना (अग्गे.... यावि हो०) सौकी प्रधान मासि, यष्टि (AII) श्रा, तरवार भने साही ચલાવવામાં ચતુર બની ગયે.
(जाहे वि य णं से यिजए चोरसेणावई गामधायं वा जाव पंथकोट्टि वा का बच्चा, ताहे वियणं से चिलाए दासचेडे सुबहुं पि हूँ कूवियबलं हयविमहिय जाब पडिसेहेइ, पुणरवि लढे कयरुज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लिं हध्वमागच्छद)
જયારે તે ચોર સેનાપતિ વિજય મેના ઘાત માટે વાવત પથિકને લૂંટવા માટે નીકળતું હતું ત્યારે તે દાસ ચેટક ચિલાત ચોરાને પકડવા માટે
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अनगारधर्मामृnefift टीका म०१८ सुंसमादारिकाचरितवर्णनम्
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ग्रामघातं वा यावत् 'पंचकोट्टि ' पान्यकुट्टिम् = पथिकननलुण्टनं वा 'काउं' कर्तुं बच्चइ ' व्रजति = गच्छति ' ताहेवि य' तदाऽपि च खलु स चिलातो दासवेटः सुबहु अपि ' हुं ' इति वाक्यालङ्कारे कूवियवलं ' कूपिकवलं = चोरगवेषक सैन्यं ' हयविमहिय जाव ' हतविमथित यावत् सर्वथा विध्वस्तं कृत्वा ' पडिसेहेइ ' प्रतिषेधयति= निवारयति । पुनरपि ' लद्धट्ठे ' लब्धार्थः = लब्धः प्राप्तः, अर्थः स्वाभिलपितं येन सः = प्राप्तस्वाभिलषितः, अत एव ' कवकज्जे कृतकार्यः कृतं कार्य येन सः कृतनिजकृत्यः ' अणहसमग्गे ' अनघसमग्रः अनयम्-अक्षतम्अन्तराले केनाप्यनपहतं समग्र- समस्तं चौर्याद्यपहृतवस्तुजातं यस्य सः =अलुष्टित सर्वस्वः सिंहगुहां चोर पल्लि ' हव्वं ' शीघ्रमागच्छति । ततः खलु स विजयश्वोर - सेनापतिः चिलावं तस्करं बही: चोरविद्याश्च चोरमन्त्रांश्च चोरमायाश्चोरनिकृतीच मायायाः प्रच्छादनार्थं या माया सा 'निक्रुतिः ' उच्यते ताः सिक्खावेइ यावत् पथिक जनों को लूटने के लिये चलता था तब वह दास चेटक feera भी चोर गवेषक सैन्य को हत. विमथित यावत् सर्वथा विध्वस्त करके पीछे भगा देता था और स्वाभिलषित अर्थ को प्राप्तकर अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लिया करता था। इस तरह वह चोरी में मिले हुए द्रव्य को सुरक्षित रखता हुआ-बीच में किसी के भी द्वारा द्रव्य की छीना झपटी से रहित होता हुआ उस सिंहगुहा नाम के चोरपल्ली में बहुत जल्दी लौट आता था ! (तएण से विजए चोर सेनावई चिलोयं तक्करं बहईओ चोरविजाओ य चोरमंते :य चोर मायाओ चार निगडीओ य सिक्खावेइ ) उस चोर सेनापति विजय तस्कर ने चिलात चोर के अनेक चोर विद्याओं को, अनेक चोरमंत्रों को अनेक विध चोर सम्बन्धी मायाचारी को और मायो को छिपाने के
આવેલા સૈન્યને હત, વિથિત યાવત્ સપૂર્ણ રીતે વિધ્વસ્ત કરીને ભગાડી મૂકતા હતા અને પોતાના ઇચ્છિત અને પ્રાપ્ત કરીને પોતાના કાર્યોંમાં સક્ ળતા મેળવતા હવે!. આ પ્રમાણે તે ચેરીમાં મેળવેલા દ્રવ્યને સુરક્ષિત રાખતા વચ્ચે કાઈ પણ બીજા વડે દ્રવ્યની લૂટ-પાટ ન થાય-તેમ પેાતાની જાતને સુરક્ષિત રાખતા તે શીઘ્ર સિંહગુહા નામે ચારપલ્લીમાં પાછે આવતા રહેતા હતા,
(तरण से विजए चारसेनावई चिलायं तकर बहूईओ चोरविज्जाओ य चोरमंते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ )
તે ચાર સેનાપતિ વિજય તસ્કરે ચિલાત ચારને ઘણી ચાર વિદ્યાઓને, ઘણા ચારમંત્રાને, ઘણી ચાર સંબંધી માયાચારીઓને અને માયાને છુપાવવા માટે બીજી માયાચારીએ શીખવાડી.
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जाताधर्मकथा शिक्षयति । ततः खलु स विनयो चोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् 'कालधम्मुणा' कालधर्मेण मृत्युना संयुक्तश्चापि अभवत् मृतइत्यर्थः । ततः खलु तानि पञ्चचोरशतानि पञ्चशतसंख्यकाश्चौराः, विजयस्य चोरसेनापतेः महता २ इड्रिसकारसमुदएणं' ऋद्धिसत्कारसमुदयेन ‘णीहरणं' निर्हरणं श्मशानभूमिनयनं करेंति' कुर्वन्ति, कुत्वा बहूनि लौकिकानि मृतककृत्यानि कुर्वन्ति, कृत्वा यावत् विगतशोका जाताश्चापि अभवन् । ततः खलु तानि पश्चचोरशतानि अन्योऽन्य शब्दयति शब्दयित्वा एपमवादिषुः-सर्वे मिरित्या परस्परमेवं विचारितवन्तइत्यर्थः एवं लिये दूसरी और माया चारी को सिखला दिया। (तएणं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कारधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्या, तएणं ताई पंचचोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महया २ इड्री सत्कार समुदएणं णीहरणं करेंति करित्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेंति, करित्ता जाव विगयसोया जाया यावि होत्था। तएणं ताई पंच चोर सयाइं अन्नमन्त्र सद्दावेंति, सहावित्ता एवं वयासी) इस से घाद वह चोर सेनापति विजय किसी एक दिन कालधर्मगत हो गया । तप उन पांच सौ चोरों ने चोर सेनापति विजय तस्कर की बड़े टाट बाट के साथ अर्थी-श्मशान यात्रा निकाली बादमें उन्हों ने भृत्यसंबन्धी जितने भी लौकिक कृत्य होते हैं वे सब किये। लौकिक कृत्य करके सबके सब धीरे २ शोक रहित जब बन चूके-तब उन पांच सौ चोरों ने परस्पर में एक दूसरे को बुलायो-और घुलाकर उन से इस प्रकार कहा-विचार
(तएण से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होन्था, तरण ताई पच चोरसयाई विजयस्त चोरसेणावइस महया २ इइढी सक्कारस मुदएणं गीहरणं करेंति करित्ता बहूई लोइयाई मय किंचाई करें ति, करित्ता जाब विगयसोया जाया यावि होत्था । तरण ताई पच चोर सयाई अन्नमन्नं सदावे ति, सदावित्ता एवं वयासी ) ।
ત્યાર પછી તે ચેર સેનાપતિ વિજય કઈ એક દિવસે મૃત્યુ પામે. ત્યારે તે પંચસે ચાર એ ચેર સેનાપતિ વિજય તસ્કરની ભારે ઠાઠથી સ્મશાનયાત્રા કાઢી ત્યારપછી તેમણે તેના મૃત્યુ સંબંધી લૌકિક કૃત્ય કર્યા. લૌકિક કર્યો પૂરા કર્યા બાદ ધીમે ધીમે જ્યારે બધા શેક રહિત થયા ત્યારે તે પાંચ ચેરીએ પરસ્પર એકબીજાને બોલાવ્યા અને એક સ્થાને એકત્ર થઈને તેમણે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે
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अनगाधममृतवर्षिणी टी० म० १८ सुंसुमादारिका बरितवर्णनम्
६३५
खलु अस्माकं हे देनानुमियाः ! विजयश्वोर सेनापतिः कालधर्मेण संयुक्तः मृत इत्यर्थः । अयं च खलु विलातः तस्करो विजयेन चोरसेनापतिना ' बहूईओ चोरविज्जाओ जाव ' बहुव्यः चोरविद्या यावत् चोरविद्यादि चोरनिकृतिपर्यन्तासु सकलचोर शिक्षासु 'सिक्खिए ' शिक्षितः = पारङ्गमितः, ' तं ' तस्मात् कारणात् 'सेयं श्रेयः खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! चिलावं तस्करं सिंहगुहायाश्रीरपल्ल्याश्चोरसेनापतितयाऽभिषिञ्चतुम्, अर्थात् अयं चिलोतः तस्करोऽस्माभिः चोर सेनापतिपदे नियोज्यः, 'चिक्छु ' इति कृत्वा = इति मनसि विधाय ' अन्नमस्स अन्योऽन्यस्य 'एम' एतमर्थम् - चिलातस्य चोर सेनापतिपदे नियोजनरूपमर्थम्
,
"
किया - ( एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! बिजए बोरसेणावई कालधम्मुणा संजुते, अयं च णं चिलाए तक्करे बिजएणं चोरसेणाचरणा बहूईओ चोरविज्जाओ य जाव सिक्खाविए, तं सेयं खलु अभ्हं देवाणुप्पिया! चिलार्य तस्कर सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावहताए अभिसिंचित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पडिणित्ता चिलाये तीसे सीहगुहाए चोरसेणावहस्ताए अभिसिंचंति ) देवानुप्रियो ! देखो - हमारे नायक चोर सेनापति विजय तो अब मर चुके हैं। उन्होंने इस चिलात चोर को अनेक चोर विद्याएँ आदि सब कुछ सिखलाही दिया है। अतः हमलोगों को अब यही उचित है कि हमलोग चिलात चोर को सिंह गुहा नामकी इस चोर पल्ली का चोर सेनापति के रूप में नियुक्त करलें अर्थात् चोर सेनापति के पद पर इस चिलात चोर को नियुक्त करलें इस प्रकार विचार करके उन्होंने एक दूसरे के विचार रूप अर्थ को
( एवं खलु अम्ह देवाणुपिया ! विजए घोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च of चिलाए तकरे विजएणं चोरसेणावद्दणा बहूईओ चोरविज्जाभो यजा सिक्खाविए, त सेयं खलु अम्ह देवाणुपिया ! चिलायें तकर सीह गुहार चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तर तिकट्टु अन्नमन्नस्म एयमट्ठ पडणे'ति, पडिणित्ता, चिलाय तीसे खीहगुहाए चोरसेणावइत्तार अभिसि चति ) હૈ દેવાનુપિયા ! જુઓ, અમારા નાયક ચાર સેનાપતિ વિજય તા હવે મરણ પામ્યા છે. તેમણે આ ચિલાત ચોરને ઘણી ચોર વિદ્યાએ વગેરે બધું શીખવ્યું જ છે. એટલા માટે હવે અમને એ જ ચેાગ્ય લાગે છે કે અમે લેાકેા ચિલાત ચોરને આ સિદ્ધગુહા નામની ચોરપલ્લીને ચોર સેનાપતિ મનાવી લઇએ. એટલે કે ચોર સેનાપતિના સ્થાને આ ચિલાત ચોરની નીમ છુક કરી લઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે એક બીજાના વિચાર રૂપ
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१६६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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! पडिसुर्णेति ' प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य, चिलातं तस्करं चोरसेनापतितया अर्थात् चोर सेनापतिपदे अभिविश्वति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिर्जातः कीदृश: ? इत्याह- अहम्मिए जाय ' अधार्मिको यावत् विजयचोरसेनापतिवदधार्मिको यावदधर्म केतुर्भवन् विहरति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिः ' चोराण य जाव' चोराणां च यावत् = चोरपारदारिकादीनां च ' कुडंगे ' कुडङ्गः आश्रयस्थानं चाऽपि आसीत् । स खलु तत्र सिंहगुहायां चोरपल्ल्यां पञ्चानां चोरशतानां च एवं यथा विजयस्तथैव सर्वं यावत् विजयवत् पश्चशतानां चोराणामुपरि आधिपत्यं कुर्वन् राजगृहस्य दक्षिणपौरस्त्यम् अग्निकोणस्थं
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स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके उस चिलात चोर को अन्त में उस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली का उन्हों ने चोर सेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। (तरणं से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव विहरह तरणं से चोर से० चोराण य जाव कुडंगे यावि होस्था, से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरस्याणं य एवं जहा विजओ तदेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरस्थिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्वणं करेमाणे विहरह) इस तरह वह चिलात चोर सेनापति बन गया । चोरसेनापति बनकर वह विजय चोर सेनापति की तरह अधार्मिक यावत् अधर्मकेतु जैसा हो गया । अतः वह चिलात चोर सेनापति चोरों का यावत् पारदारिक आदिकों का कुडंग की तरह वासों के वन के समान - आश्रयस्थान बन गया और उस सिंहगुहा नामकी पल्ली में पांचसौ चौरों का आधिपत्य करता हुआ विजय तस्कर
અને સ્વીકારી લીધા અને સ્વીકારીને છેવટે તે ચિલાત ચોરને તે સિંહગુહા નામની ચોરપલ્લીને તેમણે ચોર સેનાપતિના રૂપમાં અભિષેક કરી દીધેા.
(तरण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जोव विहर सएणं से चोर से० चोराण य जाव कुङगे यावि होरथा, सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पचन्हं चोरस्याणं य एवं जहा विजओ तद्देव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिणपुरथिमि जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरइ )
આ પ્રમાણે તે ચિલાત ચાર ચાર સેનાપતિ થઇ ગયા. ચાર સેનાપતિ બનીને તે વિજય ચાર સેનાપતિની જેમ અધાર્મિક યાવત્ અધમકેતુ જેવા થઈ ગયા. તેથી તે ચિલાત ચાર સેનાપતિ ચારાને! યાવત્ પારદારિક વગેરેના કુડ'ગની જેમ-ત્રાંસેાના વનની જેમ-આશ્રયસ્થાન બની ગયા અને તે સિંહગુ હા
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गरम मृती ठी० अ० १८ सुसुमादारिका चरितवर्णनम् जनपदं नित्थाणं निदणं ' निस्थानं निर्धनं गृहरहितं धनरहितं च कुर्वन विहरति ॥ सू०४ ॥
मूलम् तपणं से चिलाए चोरसेणावई अन्नया क्याई विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेइ । तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहिं पंचहि चोरसहिं सद्धि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च जाव पसण्णं च आसाएमाणे ४ विहरइ, जिमिय भुतत्तरागए ते पंच चोरस विउलेणं धूवपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाशुप्पिया ! रायगिहे णयरे घण्णे णामं सत्थवाहे अड्डे, तस्स णं धूया, भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुंसुमा णामं दारिया यावि होत्था, अहीण जाव सुरूवा, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुंयामो, तुब्भं विउले धणकणग जाव सिलप्पवाले ममं सुंसुमा दारिया । तएणं ते पंच चोरया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमहं पडिसुर्णेति । तएण से चिलाए चोरसेणावई तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लचम्मं दुरूह, दुरूहित्ता पुव्वावरण्हकालसमयंसि पंचहि चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहिं णिकाहिं असिलट्ठीहिं अंसगएहिं तोणेहिं
की तरह राजगृह नगर के बाहिर के अग्निकोणस्थ जनपदों को गृह रहित और धन रहित करने लग गया। सूत्र ४॥
નામની ચારપલ્લીમાં પાંચસે ચોરીના અધિપતિ થઈને વિજય તસ્કરની જેમ રાજગૃહ નગરની બહારના અગ્નિકાણુ તરફના જનપદોને ગૃહરહિત અને ધનરહિત એટલે કે બરબાદ કરવા લાગ્યા. ૫ સૂત્ર ૪૫
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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राजद्रोहिणां ' अणधारगाणय ' ऋणधारकाणाम् बालघातकानां 'वीसंमघायगाण य विश्रम्भघातकानां विश्वासघातिनां द्यूतकारकाणां ' खंडकखाण य ' खण्डर- क्षाणां = राजविरोधेन भूमिखण्डधारिणाम् एवम् अन्येषां च बहूनां ' छिन्नभिन्न वहिराहयाणं ' छिन्नभिन्नव हिराहतानाम्- छिन्ना=छिन्नहस्तादिकाः भिन्नाः भिन्नक. नासिकादिकाः, चहिराहता = राजापराधेन देशनिष्काशिताः, एतेषां द्वन्द्वः, तेषां च ' कुटुंगे ' कुटङ्कः =कुटङ्कः इव कुटङ्कः वंशवनं रक्षार्थमाश्रयणीयत्वसाम्यात् बालधायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अ न्नेसिं बहूणं छिन्नभिन्न वहिरायमाणं कुडंगे याविहोत्या) वह विजय तस्कर चोर सेनापति अनेक चोरों का अनेक परस्त्री लंपों का ग्रन्थि भेद को का, संधिच्छेदकों का मकान की भीत फोड़कर धनका अपहरण करनेवालों का, क्षात्रखनकों का संधि रहित भीत को फोडकर चोरी करनेवालों का, राजा का अपकार करने वालों का - राजद्रोहियों का, ऋण करने वालों का बाल हत्या करने वालों का विश्वासघात करने वालों का जुआ खेलनेवालों का, राजा की आज्ञा लिये विना ही कुछ जमीन को अपने अधिकार में करनेवालों का, तथा और भी अनेक छिन्न भिन्न पहिराहत व्यक्तियों का यह कुटंक जैसा था। जिन के हाथ आदि काटदिये गये है ऐसे प्राणी, छिन्न शब्द से जिनकी नाक आदि काट दी गई है ऐसे प्राणी भिन्न शब्द से एवं राजापराध के कारण जो देश से बाहिर निकाल दिये गये हैं ऐसे मनुष्य यहाँ बहि आहत शब्द धारगाण य बालघायगाण य वीसंभायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेर्सि बहूण छिन्नभिन्न हिराययार्ण कुडंगे वावि होत्या )
તે જય તસ્કર ચાર સેનાપતિ ઘણા ચે, ઘણા પરસ્ત્રી લ‘પટા, ગ્રંથિભેદકા, સધિચ્છેદકા-મારૂં પાડીને ધનતું અપહરણ કરનારાએ, ક્ષાત્ર ખના-સંધિભાગ વગરની ભીતમાં ખાકેરૂં પાડીને ચારી કરનારાએ, રાજાના अय}ारडे।-राद्रोहीमा, ऋयु हरनारा ( हेवाहारी ) माणडत्या ४२नाराम, ખાળહત્યા કરનારાએ, વિશ્વાસઘાત કરનારાએ, જુગાર રમનારાઓ, રાજાની આજ્ઞા લીધા વગર જ ઘેાડી જમીનને પેાતાના અધિકારમાં લેનારાઓ તેમજ ખીજા પણ ઘણા છિન્ન, ભિન્ન બહિરાહત લેાકેાના માટે તે પુરક જેવે હતા. જેમના હાથ પગ વગેરે કાપી નાખવામાં આવ્યા છે એવાં પ્રાણીઓ, છિન્ન શબ્દ વડે જેમનાં નાક વગેરે કાપવામાં આવ્યાં છે એવાં પ્રાણીઓ, ભિન્ન શબ્દ વડે અને રાજ્યાપરાધ બદલ જે દેશમાંથી બહાર કાઢી મૂકવામાં આવ્યા છે : मेवा माणुसो सहीं " महि: माईत શબ્દ વડે સઐધિત કરવામાં આવ્યા
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अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६६९ अनुत्तरागए' निमितभुक्तोत्तरागतः जिमितः=कृतभोननः भुक्तोत्तरकालमागतः यावत् परमशुचिभूतः सुखासनवरगतः सन् तानि पञ्च चोरशतानि विपुलेन-अत्यथेन 'धूवपुप्फगंधमल्लालंकारेणं 'धूप पुष्पगन्धमाल्यालंकारेण धूपः सुगन्धित द्रव्येण उत्पन्नो धूमः, पुष्पं कुसुमम् , गन्धः चन्दनादि माल्यम्-माला, अलङ्काराणि-आभरणानि, एतेषां च समाहारद्वन्द्वः, तेन सत्करोति, सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य एवम्-अवदत्-एवं खलु हे देवानुमियाः ! राजगृहे नगरे धन्यो
ल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी) विपुल मात्रो में, अशन पान, खादिम एवं स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार बनवा कर उन पांचसो चोरों को आमंत्रित किया। जब वे सब आचुके-तय उस चिलात चोर ने स्नान से निवट कर और वायसादि को अन्नादिका भाग देनेरूपबलिकर्म आदि कर भोजन मंडपमें बैठकर उन पांच सौ चोरों के साथ उस विपुलमात्रा में निष्पन्न हुए अशन, पान, खादिम, एवं स्वादिमरूप चारों प्रकार के आहार को तथा सुरा, यावत् प्रसन्न मदिरा को खूब मनमाने रूप में पिया खाया जब वे सब के सब अच्छी तरह भोजन कर उत्तर काल में परमशुचिभूत होकर आनंद के साथ एक स्थान पर आकर बेठचुके तब उस चिलात चोर सेनापति ने उनका धूप से-सुगंधित द्रव्य से निष्पन्न हुए धूप से, पुष्पों से. चंदन आदि से, मालाओं से, और आभरणों से सत्कार किया सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिर उनसे उसने इस प्रकार
પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ ચારે જાતને આહાર બનાવડાવીને તે પાંચસો ચેરેને આમંત્રિત કર્યા. જ્યારે તેઓ બધા આવી ગયા ત્યારે તે ચિલાત ચેરે સ્નાન કર્યું અને ત્યારપછી તેણે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને અન વગેરેને ભાગ અપને બલિકમ વગેરે કર્યું. ત્યારબાદ તેણે ભજન મંડપમાં બેસીને તે પાંચસો ચોરોની સાથે તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવડાવેલા, અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ રૂપ ચારે પ્રકારના આહારને તેમજ સુર યાવત્ પ્રસન્ન મદિરાને ખૂબ ધરાઈ ધરાઈને ખાધા-પીધાં. જ્યારે તેઓ બધા સારી રીતે જમીને પરમશુચીભૂત થઈને આનંદપૂર્વક એક સ્થાન ઉપર આવીને એકઠા થયા-બેસી ગયા, ત્યારે તે ચિલાત ચેર સેના પતિએ તેમને ધૂપથી, પુખેથી, ચંદન વગેરેથી, માળાઓથી અને આભાર
થી સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
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शांताधर्मकथासूत्र
नाम सार्थवाहः आढ्योऽस्ति । तस्य खलु दुहिता भद्राया आत्मजा पञ्चानां पुत्राणामनुनार्गजातिका=पञ्चानां पुत्राणां जननान्तरं समुत्पन्ना सुसुमा नाम दारिका चापि अस्ति, कीदृशी सा अहीण जात्र सुरूवा ' अहीन यावत् सुरूपा = अहीन पञ्चेन्द्रियशरीरा यावद् सुरूपवती, ' तं ' तत् = तस्माद् गच्छामः खलु हे देवानुमियाः ! धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं विलुम्पामः लुण्ठामः, युष्माकं धनकनक
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कहा - ( एवं खलु देवाणुपिया ! रायगिहे णयरे घण्णे णामं सत्थवाहे अड्डे० तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचन्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया समाणानं दारिया यावि होत्था, अहीण जाव सुरूवा तं गच्छामोणं देवाणुपिया ! घण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं विलुंयामो तुन्भं विउले arara जाव सिलवाले, ममं सुंसुमा दारिया ! तएणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणवईस्स एयमहं पडिसुर्णेति । तएणं सेचिलाए चोरसेणावई तेहिं पंचहिं चोरसहिं सद्धि अल्लचम्मं दुरूह, दुरूहिता पुव्वावरण्हकालसमयंसि पंचहि चोरस एहिं सद्धि ) हे देवानुप्रियो ! सुनो-एक बात कहना है- वह इस प्रकार है - राजगृह नगर में धन्य नाम का एक धनिक एवं सर्वजन मान्य सार्थवाह रहता है । इस की एक लड़की है। जिसका नाम सुंसमा है । यह उसकी पत्नी भद्रा भाव से पांच पुत्रों के बाद उत्पन्न हुई है । यह अहीन पांचों इन्द्रियों से युक्त शरीरवाली है तथा बहुत अधिक सुकुमार एवं सुन्दर है । इसलिये - चलो हे देवानुप्रियों ! हम सब चलें और धन्य सार्थवाह के घर को
( एवं खलु देवाणुपिया ! रायगिहे णयरे घण्णे णामं सत्थवाहे अड्ढे ● तणं धूया भहाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसमा णामं दारिया afe होत्था अहीण जाव सुरूवात गच्छामो णं देवाणुनिया ! धणस सत्थवारस हिं विलुयामो, तुब्भं विउले धणकणग जाव सिलप्पवाले, ममं सुसमा दारिया ! तरणं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमहं पडि सुति । त से चिलाए चोरसेण वई तेहिं पंचहि चारसहि सद्धि अह्न चम्मं दुरूह, दुरूहिता पुव्वावरण्हकालसमयंखि पंचहि चोरसहि सद्धि )
હે દેવાનુપ્રિયે ! સાંભળેા, તમને મારે એક વાત કહેવી છે તે આ પ્રમાણે છે કે રાજગૃહ નગરમાં ધન્ય નામે એક ધનિક અને સજતમાન્ય સાવા રહે છે. તેને એક પુત્રી છે, તેનું નામ સંસમા છે. ધન્યની પત્ની ભદ્રાભાર્યોના ગર્ભથી તે પુત્રી પાંચે ભાઇએ ખાદ જન્મ પામી છે. તે અહીન પાંચે ઇન્દ્રિયાથી યુક્ત શરીરવાળી છે તેમજ ખૂમ જ સુકુમાર અને સુંદર છે,
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मनणारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् १७१ यावत् शिलप्रवालः, मम सुसुमा दारिका-लुण्ठितेषु वस्तुषु मध्ये धनकनकमणिमौक्तिकशिलाप्रबालादि वस्तुनातानि युष्माकं भवन्तु. मम तु एका मुगुमा दारिका भविष्यति । ततः खलु तानि पञ्च चोरशतानि चिलातस्य चोरसेनापतेः एतमर्थ पतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति । ततः खलु स चिलातचोरसेनापतिः तैः पञ्चभिः चोरशतैः साई · अल्लचम्मं ' आर्द्रचर्म दूरोहति, लुण्ठकाहि लुण्ठनप्रस्थानात् पूर्व माङ्गल्यार्थमाद्रचर्मण्यारोहन्तीति तेषांव्यवहारः, दूरुह्य, 'पुलावरोहकालसम. यंसि । पूर्वापराहकालसमये 'दिनस्य चतुर्थप्रहरे पञ्चभिश्वोरशतैः साद्धं 'सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधप्रहरणः सन्नद्धबद्धवर्मितकवचः संनद्धः सज्जीकृतः, बद्धः कशाबन्धनेन संबद्धः, वर्मित: अङ्गे परिहितः कवचो येन स तथोक्तः, 'गृहीतायुधप्रहरणः' गृहीतानि आयुधप्रहरणानि लूटे-जो वस्तु हम तुम लूटेंगे उनमें से तुम्हारी तो धन, कनक, मणि, मौक्तिक शिलाप्रवाल आदि चीजें होगी-और मेरी केवल एवं वह सुंसमादारिका होगी। इस तरह उन पांचसौ चोरों ने अपने सेनापति चिलात चोर की इस बात को मान लिया। इसके बाद यह चोर सेनापति चिलात, उन पांचसौ चोरों के साथ गीले चमडे पर बैठ गया। लुटेरे लूटने के लिये जब प्रस्थान करते है तब वे पहिले गीले चमडे पर शुभ शकुन मानने के निमित्त बैठते है ऐसा उनमें व्यवहार है बैठकर फिर वह दिन के चतुर्थप्रहर में पांचसौ चोरों के साथ (सीगुहाओ चोरपल्लोओ पडिनिक्खमइ) उस सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से निकला । (सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहिं फलएहिं
એટલા માટે ચાલે તૈયાર થાઓ, હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણે બધા ત્યાં જઈએ અને ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને લુંટી લઈએ, જે વસ્તુઓ આપણે બધા લુંટીશું તેમાંથી ધન, કણક, મણિ, મૌક્તિક, શિલાપ્રવાલ વગેરે વસ્તુઓ તમારી થશે અને ફક્ત તે સુંસમાં દારિકા મારી થશે. આ પ્રમાણે તે પાંચસો ચોરોએ પિતાના સેનાપતિ ચિલાત ચોરની આ વાત સ્વીકારી લીધી. ત્યારપછી તે ચોર સેનાપતિ ચિલાત, તે પાંચસે ચોરોની સાથે સાથે ભીના ચામડા ઉપર બેસી ગયે. લુંટારાઓ લુંટવા માટે જ્યારે ઘેરથી નીકળે છે ત્યારે તેઓ પહેલાં શુભ શકુન માટે ભીના ચામડા ઉપર બેસે છે, આ જાતને તેઓમાં રિવાજ છે. ભીના ચામડા ઉપર બેસીને તે દિવસના ચોથા પહેરમાં પાંચસે ચેરોની साथै (सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमइ ) ते सिंह नामना ચોર૫લીમાંથી નીકળે.
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माताधर्मकथासूत्र येन सः, गृहीताऽस्त्रशस्त्रः, 'माइयगोमुहियेहि ' माइकगोमुखितैः = माइकानि= पक्ष्मलानि, गोमुखितानि-गोमुखाकाराणि-माइकानि च तानि गोमुखितानि तैः-उदररक्षार्थ भल्लू करोमारतैर्गोमुखाकारैः ' फलएहि फलकैः पट्टिकेति प्रसिद्धः ‘णिकट्ठाहिं असिलट्ठीहिं ' निष्कृष्टाभिः असियष्टिभिः, कोशबहिष्कृतैः खङ्गा, — अंसगएहिं तोणेहिं ' अंशगतैस्तूणैः स्कन्धस्थितैस्तूणीरैः, 'सजीवेहिं धनूहि' सजीवैधनुभिः कोटयारोपितमत्यश्चैर्धनुभिः, 'समुक्वित्तेहिं सरेहि ' समुत्क्षिप्तः शरैः-तूणीरसकाशान्निष्काशितैर्वाणैः, 'समुल्लालियाहिं दीहाहिं ' समुल्लालिताभिः दीहाभिः समुच्छालितैः शस्त्रविशेषैः 'ओसारियाहिं' अवस्वरिताभिः= नादिताभिः ' उरुघंटियाहिं ' उरुघण्टिकाभिः दिशालघण्टाभिः · छिप्पतूरेहि गिकट्ठाहिं असिलट्ठीहि अंसगएहि तोणेहिं मजीवेहिं धणूहि, समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दीहाहिं, ओसारियाहिं उरुघंटयाहिं छिप्पतूरेहिं वजमाणेहि महयार उक्किट्ठी सीहणाये चोरकलकल रवं समुदरवं भूयं करेमाणे ) चोरपल्ली से वह किस तरह की स्थिति में निकला-यही बात सूत्रकार इन पंक्तियों में कह रहे हैं-वे कहते हैं कि जब वह अपनी चोरपल्ली में से निकला तो उस समय उसने अपने शरीर पर कवच को सन्जित करके कशाबंधन से अच्छी तरह यांध रखा था " गृहीतायुधप्रहरणः" आयुध और प्रहरण उसके दोनों हाथों में थे। रीछ के रोम से युक्त गोमुखाकार पट्टिका से, म्यान से बाहिर खेंची हुई तलवारों से, कंधों पर लटकते हुए भाथोंतूणीरों-से ज्यापर चढे हुए धनुषों से, तूणीर से निकाले गये बाणों से ऊपर उछालेगये शास्त्र विशेषों से,
(सण्णद्ध जाव गहिया उहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहि णिकटाहि असिलट्ठीहि अंसगएहि तोणेहि सजीवेहि धणूहि समुक्खित्तहि सरेहि समुल्लालियाहि दिहाहि ओसारियाहि उरूघरियाहि छिप्पतूरेहि वजमाणेहि महया २ उकिसीहणाये चोरकलकलरवं समुद्दरवं भूयं करेमाणे)
ચોર૫લીમાંથી તેઓ કેવી રીતે બહાર નીકળ્યા એ જ વાત સૂત્રકાર આ પંક્તિઓમાં સ્પષ્ટ કરી રહ્યા છે. તેઓ કહે છે કે જ્યારે તે પિતાની ચરપલીમાંથી નીકળે ત્યારે તેણે પિતાના શરીર ઉપર કવચ ધારણ કરીને तेन शाम धनथी सारी रीत मांधी रायुं तु. “गृहितायुधप्रहरणः " આયુધ અને પ્રહરણ તેના બંને હાથમાં હતાં. રીંછના રેમથી યુક્ત ગેમુખાકાર પટ્ટિકાથી, મ્યાનમાંથી બહાર કાઢેલી તરવારથી, ખંભાઓ ઉપર લટ. કતા તૂણીથી, જયા ઉપર ચઢેલા ધનથી, તૂરમાંથી કાઢવામાં આવેલાં બાથી, ઉપર ફેંકવામાં આવેલાં શસ્ત્ર વિશેષેથી, શબ્દ કરતા-મેટા ઘટેથી
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अनगारधामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६७७ वज्जमाणेहिं ' क्षिप्रत्यः वाद्य रानै द्रुतं पायमानैः तूर्यैः उपलक्षितः सन् — महयामहया उकिसीहणाये चोरकलकलरवं' महामहोत्कृष्टसिंहनादचोरकलकलरवंअत्यन्तोत्कृष्ट सिंहनादचोरकल कलशब्दं समुदरवभूतं-समुद्रवेलावृद्धिसमये ध्वनिमिवकुर्वन् , यद्वा महता महता उत्कृष्टसिहनादेन-' लुप्ततृतीयान्तं पदम् ' स्वकृतोत्कृष्टसिंहनादेनेत्यर्थः, शेषं पूर्ववत् । सिंहगुहातश्चोरपल्लीतः प्रतिनिष्काम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य राजगृहस्य नगरस्य अदूरसामन्ते एक महद् — गहणं ' गहनम् धनम् अनुमविशति, अनुप्रविश्य, दिवसम्=शेषदिवसभागं क्षपयन् व्यतियन् तिष्ठति ।। सू०५ ॥ शब्दायमान-बड़े २ घंटों से जल्दी २ बजते हुए बाजोंसे वह उपलक्षित -युक्त था। तथा उसके निकलने पर जो चोरों का कलकल रव हुआ-वह सिंह की गर्जना के जैसा महान उच्चस्वर था-। तथा जिस समय समुद्र बढ़ता है उस समय जैसा उसका शब्द होता है-वैसा ही वह कल २ रव गंभीर था। (पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स अदूर सामंते एगं महं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ ) चोरपल्ली से निकलकर वह जहां राजगृह नगर था वहां आया-यहां आकर के वह राजगृह नगर के अदरसामंत-न अति दूर न अति समीप रहे हुए एक महान जंगल में छिप रहे वहां छिपकर उसने अपना वह दिवस वहीं पर ठहर कर समाप्त कर दिया। सू०५॥ જલદી જદી વાગતાં વાજાઓથી તે યુક્ત હતા. તેમજ જયારે તે નીકળ્યા ત્યારે ચોરને જે ઘંઘાટ થયે તે સિંહની ગર્જના જે મહા વનિ હતે. તેમજ જ્યારે સમુદ્રમાં ભરતી આવે છે અને ત્યારે જે તેને દવનિ હોય छ, त भएसोनी पनि पy an in neीर sal. ( पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स नयास्स अदरसामंते एगं महौं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ) यो२५८सीमांथी નીકળીને જ્યાં રાજગૃહ નગર હતું ત્યાં તે આવ્યું. ત્યાં આવીને તે રાજગૃહ નગરથી ઘણે દૂર પણ નહિ અને ઘણુ નજીક પણ નહિ એવા એક મોટા વનમાં છુપાઈને રહ્યા ત્યાં છુપાઈને તેણે પિતાને તે દિવસ ત્યાં જ પસાર કરી દીધેસૂપ
क्षा ८५
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६७४
माताधर्मकथाजस्त्र मूलम्-तएणं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयसि निसंत पडिनिसंतंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं माइयगोमुहिएहिं फलएहिं जाव मूइआहिं उरुघंटियाहि जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदगवत्थिं परामुसइ, आयंते चोक्खे सुइभूए तालुग्घाडणिविज्ज आवाहेइ, आवाहित्ता, रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएण अच्छोडेइ, कवाडं विहाडेइ विहाडित्ता रायगिहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, महया२ सदेणं उग्घोसेमाणे२ एवं वयासी -एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! चिलाए णामं चोरसेणावई पंचहिं चोरसएहिं सद्धि सीहगुहाओचोरपल्लीओ इह हव्वमागए धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं घाउकामे, तं जोणं णवियाएमाउयाए दुद्धं पाउकामे से णं णिगच्छउत्तिकटु जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्सगिहं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताधण्णस्त गिहं विहाडेइ। तएणंसे धण्णेचिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहि चोरसएहि सद्धि गिहं घाइज्जमाणं पासइ, पासित्ता भीए तत्थे४ पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि एगंतं अवकमइ । तएणं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं घाएइ घाइत्ता, सुबहु धणकणग जाव सावएज्जं सुसुमं च दारियं गेण्हइ, गेण्हिना,रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव सोहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ०१८ सुसुमावारिकाचरितवर्णनम् ६७५
टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स चिलातश्चोरसेनापतिः 'अद. रत्तकालसमयंमि' अर्धरात्रकालसमये-मध्यरात्रे, कीदृशे 'निसंतपडिनिसंते'निशान्तप्रतिनिशान्ते निशान्तं जनध्वनिरहितं प्रतिनिशान्तं प्रत्येकंगृहं यस्मिन् तस्मिन् , जने प्रसुप्ते सतीत्यर्थः, पञ्चभिश्चोरशतै सार्द्धम् ‘माइयगोमुहिएहिं ' माइकगोमुखितैः, उदररक्षाथै भल्लूकरोमारतैर्गोमुखाकारैः ‘फलएहि' फलकैः पट्टकैः उदरबदकाष्ठफलकैरित्यर्थः, यावत् 'मूइआर्हि उरुघंटियाहिं' मूकिताभिरुरुपंण्टिकाभिः= निः शन्दी कृताभिः विशालघण्टाभिर्युक्तः यौव राजगृहस्य नगरस्य पौरस्त्यं द्वारं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, 'उदगवत्थि' उदकबस्ति-चर्ममयजलपात्रम् , 'मसक' इति प्रसिद्धम् ‘परामुसइ ' परामृशति-गृह्णाति, अनन्तरम् ' आयंते' आचान्तः= कृतमुखादि प्रक्षालनः 'चोक्खे ' चोक्षः स्वच्छः अतएव ' तालग्याडणि विज्ज'
'तएणं से चिलाए गेरसेणावई ' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (चोरसेणावई से चिलाए) चोरसेनापति वह चिलात चोर (निसंतपडिनिसंते अद्धरत्तकालसमयंसि ) जब जन ध्वनिरहित प्रत्येक घर हो गया ऐसे मध्यरात्रिके समय में (पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं) उन पांचसौ चोरों के साथ (माइय गोमुहिएहिं फलएहिं जाव मूहआहिं उरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहस्स नयरस्स पुरस्थिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ ) अपने उदर की रक्षा के निमित्त बद्धभल्लूक के रोमों से आवृत हुए गोमुखाकार काष्टफलकों से यावत् निःशब्दीभूत विशाल घंटिकाओं से युक्त होकर जहां राजगृह नगर का पूर्वदिशा का द्वार था वहां आया। ( उवागच्छित्ता उदगवत्थि परामुसइ, आयंते, चोक्खे, सुइभूए, तालुग्घाडणिविज्ज आवाहेइ, आवाहित्ता रायगिहस्स 'तएण से चिलाए चोरसेणावई' इत्यादि--
-( तएण) त्या२मा चोरसेणावई से चिलाए) यार सेनापति ते विसात या२ (निसंतपडिनिसंते अद्धरत्तकालसमयसि ) न्यारे हरे हरे ઘરમાં માણસને અવાજ એકદમ બંધ થઈ ગયે, એવા તે મધ્યરાત્રિના समये (पचहिं चोरसएहि सद्धि) ते पांयसे। यानी साये
(माइय गोमुहिएहि फलएहि जाव मूइआहि उरुघटियाहि जेणेव राय गिहस्स नयरस्स पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ)
પિતાના પેટની રક્ષા માટે રીંછના રોમેથી આવૃત્ત થયેલા ગેમુખાકાર કાક ફલકથી યાવતું શાંત થઈ ગયેલી મેટી ઘટિકાઓથી યુક્ત થઈને જ્યાં राना , पूर्व दिशानुं द्वा२ तुं त्यां माव्या. ( उवागच्छित्ता उद्गवत्थि परामुसइ आयते चोक्खे सुइभूए, तालुग्धाडणि विज्ज आचाहेइ, आवाहित्ता
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शाताधर्मकथासूत्रे
तालोद्घाटन विधाम् ' आवाहेइ ' आवाहयति= स्मरति ' आवाहित्ता ' आवाह्य= स्मृत्वा राजगृहस्य द्वारकपाटानि उदकेन ' आच्छोडेइ ' आच्छोटयति-अभिषिञ्चति, ' आच्छोडित्ता ' आच्छोटय= अभिषिच्य, कपाटं 'विहाडे ' विघाटयति = उद्घाटयति, विघाट सकलचोरैः सहितः राजगृहमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य महता महता=अतिमहता शब्देन ' उग्घोसमाणे २ ' उद्घोषयन् २= मुहुर्मुहूर्धोषणां कुर्वन् एवमवदत् घोषणाप्रकारमाह एवं खलु अहं हे देवानुमियाः ! चिलातो नाम चोरसेनापतिः पञ्चभिः चोरशतैः सार्द्धम् सिंहगुहातचोरपल्लीत इह 'व्वं ' हव्यं =
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दुबारे कवाडे उद्एणं अच्छोडेइ कवाडं बिहाडेह, विहाडित्ता रायगिहं अणुपविस अणुपविसित्ता महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासी - एवं खलु अहं देवाणुप्पिया चिलाए नामं चोरसेणावेई पंचहि चोरसएहिं सद्धि सिंहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्वमा गए घण्णस्स सत्यवाइस हिं घाउंकामे) वहां आकर के उसने चर्ममय जलपात्र को मसक को - अपने हाथ में लिया और उसके जल से आचमन किया- आचमन करके जब वह शुद्ध परमशुचीभूत हो चुका - तब उसने तालोद्घाटिनी विद्या का आवाहन किया-स्मरण कियो-और स्मरण करके राजगृह द्वार कपाटों को उदक के छीटों से सिञ्चित किया । सिञ्चित करके फिर उसने उन किवाडों को खोला और खोल करके फिर वह समस्त चोरों के साथ राजगृह नगर के भीतर प्रविष्ट हो गया । प्रविष्ट होकर के उसने वहां बड़े२ आवाज से वारंवार घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों ! सुनो-मैं चोरसेनापति चिलात नाम का चोर हूँ अभी २
रायगिस दुवारकवाडे उदरण अच्छोडेर कत्राड विद्दाडे, विहाडिता रायगिह अणुविस, अणुविसित्ता महया २ सद्दे उग्धोसेमाणे २ एवं वयासी एवं खलु अह देवाणुपिया चिलाए नामं चोरसेणावई पंचहि चोरस एहि सद्धि सिंहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्वमागए "धण्णस्स सत्यवाहस्स गिद्द घाउकामे ) ત્યાં આવીને તેણે ચામડાની થેલી-મશક-ને પેાતાના હાથમાં લીધી અને તેના પાણીથી આચમન કર્યું. આચમન કરીને જ્યારે તે શુદ્ધ પરમશુચીભૂત થઈ ચૂકયા ત્યારે તેણે તાાદ્ઘાટિની વિદ્યાનું આવાહન કર્યું સ્મરણ કર્યું, અને સ્મરણ કરીને રાજગૃહના દરવાજાનાં કમાડાને પાણીથી સિંચિત કરીને તેણે તે કમાડાને ઉઘાડયાં. ઉઘાડીને તે બધા ચારાની સાથે રાજગૃહ નગરની અંદર પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા. પ્રવિષ્ટ થઈ ને તેણે ત્યાં મેટા સાદે વારવાર ઘેાષણા કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયા ! સાંભળે, હું ચાર સેનાપતિ
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अगरधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम
"
शीघ्रम् आगतः धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं 'घाउकामे' घातयितुकामः=लुण्ठयितुकामः हे देवानुप्रियाः । यूयं शृणुत, पञ्चशतचौरैः सहाहं चिलातश्चोर सेनापतिरत्रधन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं लुण्ठयितुमागतोऽस्मीति भावः, 'तं ' तत् = तस्मात् कारणात् जो णं ' यः खलु ' णत्रियाए माउआए ' नव्यायाः मातृकायाः 'दुद्धं पाउकामे ' दुग्धं पातुकामः = यः खलु मदीयहस्तान्मृत्युं प्राप्य पुनर्भाविभवभाविन्या नूतनाया मातुर्दुग्धाभिलाषीभवेत् ' सेणं ' स खलु ' णिग्गच्छउ ' निर्गच्छतु मम संमुख मागच्छतु 'त्ति कटु' इति कृत्वा - इत्थमुक्त्वा यचैव धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं तत्रैव पांचसौ चोरों के साथ यहां सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से आया हुआ हूँ। मेरी इच्छा धन्यसार्थवाह के घर को लूटने की है - ( तं ) इसलिये - ( जो णं णचियाए, माउयाए, दुद्धं पाउकामे सेणं णिग्गच्छउ, तिकड जेणेव धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता हिं बिहाडे । तएण से धणे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहि चोरसहि सद्धि हिं घाइजमाणं पासह, पासिता भीए तत्थे ४ पंचहि पुतेहिं सद्धिं एतं अवक्कमह, । तएण से चिलाए चोरसेणावई घण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं घाएर, घाइत्ता सुबहुधणकणग जाव सावएज्जं सुंसमं
दारियं गेण्हइ, गेव्हित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणोए ) जो नवीन माता का दूध पीना चाहता हो मेरे हाथ से मृत्यु को प्राप्त कर पुनः भाविभव में होनेवाली जननी का दुग्ध पान करने का जो अभिलाषी बन रहा हो
૨૭૦
ચિલાત નામે ચાર છું. હમણાં જ હું પાંચસે ચારાની સાથે અહીં સિંહગુહા નામની ચારપલ્લીથી આવ્યે છું. ધન્ય સાવિાહના ઘરને લૂટવાની મારી २छा छे. (त) भाटे
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( जोणं णत्रियाए, माउयाए, दुद्धं पाउकामे सेणं णिग्गच्छउ, त्ति कहु जेणेव धस्स सत्यवास्स गिहे तेणेत्र उवागच्छ, उवागच्छित्ता घण्णस्स हिं विहाडे, तरणं से धणे चिलाएणं चोरसेणावणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं हिं घाइज्जमणं पास, पासित्ता भीए तत्थे४ पंचहिं पुत्तेर्हि सद्धिं गतं अवक्कम । तर से चिलाए चोरसेणावई घण्णस्स सत्यवाहस्स हिं घाएइ, घाइत्ता सुबहु धणकणग जाव सावएज्जं सुंसमं च दारियं गेण्डर, गेव्हित्ता रायगिहाओ पsि. णिक्खमइ, पडिक्खमित्ता जेणेव सीह गुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए )
જે નવી માતાનું દૂધ પીવા ઇચ્છે છે એટલે કે મારા હાથથી મૃત્યુ પામીને ફરી ખીજા ભવમાં થનારી માતાનું દૂધ પીવા જે ઇચ્છતા હોય તે
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‘૭૮
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र उपागच्छति, उपागत्य धन्यस्य गृहं — विहाडेइ ' विघाटयति=उद्घाटयति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः चिलातेन चोरसेनापतिना पञ्चभिः चोरशतैः साद्धं गृहं 'घाइज्जमाणं ' घात्यमानं लुण्ठयमानं पश्यति, दृष्ट्वा, भीत:-भयं प्राप्तः, त्रस्तः त्रासंगतः, त्रसितः विशेषतस्त्रासं प्राप्तः 'उबिग्गे' उद्विग्नः अयमस्माकं सर्वस्वमपहरति अहमस्य किमपि कर्तुं न शक्नोमीति हेतोः परमचिन्तामापनः, पञ्चभिः पुत्रैः सार्धम् ' एगंतं ' एकान्तम्-भयरहितं स्थानम् 'अबक्कमइ ' अपक्राम्यति अपगच्छति । ततः खलु स चिलातः चोरसेनापतिः धन्यस्य सार्थवाहस्य गृहं घातयति-लुण्ठयति घातयित्वा लुण्ठयित्वा सुबहुं 'धणकणग जाव सावएजं' धनकनक यावत् स्वापते यम्-धनकनक मणिमौक्तिकादिकं द्रव्यं सुंसुमां च दारिकां गृह्णाति, गृहीत्वा राजगृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सिंहगुहा तत्रैव प्राधारयद् गमनाय गन्तुमुद्यतोऽभूत् ।। सू०६॥ -वही मेरे सम्मुख आवे-इस प्रकार कहकर वह जहां धन्यसार्थवाह का घर था वहां गया-वहां जाकर उसने धन्यसार्थवाह के घर को खोला जब धन्यसार्थवाह ने पांचसौ चोर के साथ चोरों सेनापति चिलात के द्वारा अपने घर को लुटता हुआ देखा-तो देखकर वह भय को प्राप्त हो गया-और त्रस्त एवं त्रसित-विशेष त्रास को प्राप्त होकर अन्त में वह उद्विग्न बन गया यह हमारा सर्वस्व हरण कर रहा है और मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता हूँ-इस ध्यान से वह चिन्ताकुल हो गया और चिन्ताकुल होकर अपने पांचों पुत्रों के साथ वहां से निर्भय स्थान में चला गया। चोर सेनापति चिलात ने धन्य सार्थवाह को खूब मनमाना लूटा और लूट करके उसमें से बहुत सा धन कनक, मणि, मौक्तिक आदि द्रव्यों को एवं सुसमादारिका को ले लिया- लेकर वह राजगृह नगर से મારી સામે આવે આ પ્રમાણે કહીને તે જ્યાં ધન્ય સાર્થવાહનું ઘર હતું ત્યાં ગયો. ત્યાં જઈને તેણે ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને ઉઘાડયું. જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહ પાંચસો ચોરોની સાથે ચોર સેનાપતિ ચિલાત વડે પિતાના ઘરને લુંટાતું જોયું ત્યારે જોઈને તે ભયભીત થઈ ગયા. અને ત્રસ્ત તેમજ ત્રાસિત (વિશેષ વ્યાસ) પ્રાપ્ત કરીને છેવટે ઉદ્વિગ્ન થઈ ગયા. આ અમારું સર્વસ્વ હરણ કરી રહ્યો છે અને હું એનું કંઈ જ બગાડી શકતા નથી. આ જાતને વિચાર કરીને તે ચિંતાકુળ થઈ ગયે અને ચિંતાકુળ થઈને તે પિતાના પાંચ પુત્રોની સાથે ત્યાંથી નિર્ભય સ્થાનમાં જ રહ્યો. ચેર સેનાપતિ ચિલાતે ધન્ય સાર્થવાહના ઘરને ખૂબ ઈચ્છા મુજબ લૂંટયું અને લૂંટીને તેમાંથી ઘણું ધન, કનક, મણિ, મોતી વગેરે દ્ર તેમજ સંસમાં દારિકાને લઈ લીધી. લઇને તે રાજગૃહ
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिका बरितनिरूपणम्
શ
मूलम् - तणं से धन्ने सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धणकणगं सुंसुमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता, महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं गहाय जेणेव जगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, तं महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं जाव उवर्णेति, उवणित्ता, एवं वयासी - एवं खलु देवाशुपिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं व्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं ममहिं घाएता धणकणगं सुसुमं च दारियं गहाय जाव पडिगए । तं इच्छामो णं देवाप्पिया ! सुसुमा दारियाए कूवं गमित्तए, तुब्भं णं देवाणुप्पिया! से विउले धणकणगे, ममं सुंसुमा दारिया । तएणं ते जगरगुत्तिया धण्णस्स एयमट्टं पडिसुर्णेति, पीडसुणित्ता संनद्ध जाव गहियाउहपहरणा महयार उक्किट्ट० जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाजा रायगिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता, जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गा या होत्था । तएणं ते णगरगुत्तिया चिलायं वोरसेणावई हयमहिय जाव पडिसेहेंति । तएणं ते पंच चोरसया णयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छड्डेमाणाय विप्पकिरेमाणा य सव्वओ
वापिस निकला और निकल करके जहां सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली थी - उस ओर चलने के लिये उद्यत हो गया । सू०६ ॥
નગરમાંથી પાછે બહાર આવ્યા અને આવીને જ્યાં સિંહગુડ્ડા નામે ચારપલ્લી હતી તે તરફ રવાના થવા તૈયાર થઈ ગયા. !! સૂત્ર ૬ ।।
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६८०
शानाधर्मकथासूत्रे
समंता विप्लाइत्था । तएणं ते जगरगुत्तिया ते विउलं धणकri गेव्हंति, गेव्हित्ता जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तएण से चिलाए तं चोरसेणं तेहिं णयरगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीए तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एवं महं अग्गामियं दीहम अडवि अणुपविट्टे । तएणं धण्णे सत्थवाहे सुंसुमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहीरमाणिं पासित्ताणं पंचहिं पुत्तेहि सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्ध० चिलायस्स पद्मग्गवीहि अणुगच्छमाणे अभिज्ञ्जते हक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभितासेमाणे पिट्टओ अणुगच्छइ । तएणं से चिलाए तं धणं सत्थवाहं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछ सन्नद्धबद्ध० समणुगच्छमाणं पास, पासित्ता अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे जाहे णो संचाएइ सुसुमं दारियं णिव्वाहित्तए, ताहे संते तंते परितंते नलिप्पल० असि परामुसइ, परामुसित्ता सुंसुमाए दारियाए उत्तमंगं छिंदइ, छिंदित्ता, तं गहाय तं अग्गामियं अडवि अणुष्पविट्टं । तपणं से चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हुट्ठ दिसाभाए, सहिगुहं चोरपछि असंपत्ते अंतरा चेव कालगए ।
एवमेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओराoियसरीरस्स वंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वण्णहेउं जाव आहारं आहारेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ हिलणिज्जे ३ जाव अणुपरियहिस्सइ, जहा व से चिलाए तक्करे ॥ सू० ७ ॥
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम् १८१
टीका-तएणं से ' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो यत्रैव स्वकं गृहं तगैव उपागच्छति, उपागत्य सुबहुं धनकनकं सुसुमां च दारिकाम् अपहृतां ज्ञात्वा ' महत्थं महग्यं महरिहं ' महाथ महाचं महार्हम्=महानर्थः प्रयोजनं यस्मिन् तत्-महार्थ महाप्रयोजनकम् , बहुमूल्यं पुनः महतां योग्यम् ‘पाहुडं ' प्राभृतं उपायनं गृहीत्वा यत्रौत्र ‘णगरगुत्तिया' नगरगोप्तृकाः नगररक्षकाः कोपालादयः तौव उपागच्छति, उपागत्य तत् महार्थ यावत्-महाघ महाहं प्राभृतम् — उवणेइ ' उपनयति-समर्पयति, उपनीय-समर्प्य एवमवदत्-एवं खलु हे देवानु
'तएणं से धन्ने सत्यवाहे' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से धन्ने सत्यवाहे ) वह धन्य सार्थवाह (जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ ) जहां अपना घर था वहाँ आया ( उवागच्छित्ता सुबहु घणकणगं सुंसमं च दारियं अवहरियं जोणित्ता महत्थं महग्धं महरियं पाहृडं गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छइ ) वहां आकरके उसने अपने घर में से बहुत सा धन कनक एवं सुंसमा दारिका को हरण किया हुआ जब जाना तब वह महार्थ बहुमूल्य एवं महापुरुषों के योग्य भेंट लेकर जहां नगर रक्षक -कोटपाल -आदि थे वहां गया-(उवागच्छित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं पाहुडं जाव उवणेति, उवणित्ता एवं वयासी) वहां जाकर उसने उस महाप्रयोजन साधक भून बहुमूल्य तथा महापुरुषों के योग्य भेंट को उनके समक्ष रखदिया-और रखकर उनसे उसने इस प्रकार कहा-( एवं
'तएणं से धन्ने सत्थवाहे' इत्यादि--
थ-(तएणं ) त्या२५छी ( से धन्ने सत्थवाहे ) ते धन्य सार्थवाड (जेणेव सरगिहे तेणेव उवागच्छइ ) या पोतार्नु ५२ हेतुं त्यो मान्य...
( उवागच्छित्ता सुबहु धणकणगं मुंसमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं महग्धं महरियं पाहुडं गहाय जेणेव नगर गुत्तिया तेणेव उवागच्छइ )
ત્યાં આવીને તેણે પિતાના ઘરમાંથી પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન, કનક અને સંસમાં દરિકાનું હરણ કરવામાં આવેલું જાણીને તે મહાથે, બહુ કિંમતી અને મહાપુરુષને ગ્ય ભેટ લઈને જ્યાં નગર–રક્ષક-કટ્ટપળ-વગેરે હતા ત્યાં गया. ( उवागच्छित्ता त महत्थं महब महरिह पाहुडं जाव उवणे ति, उवणित्ता एवं वयासी ) त्या तेणे ते महायान साभूत महु भिती तमा મહા પુરુષને ચગ્ય ભેટને તેમની સામે મૂકી દીધી અને મૂકીને તેમને તેણે આ પ્રમાણે વિનંતી કરતાં કહ્યું કે
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६८२
साताधर्मकथागसूत्रे प्रियाः ! चिलातश्चोरसेनापतिः सिंहगुहायाचोरपल्याः इह हव्यमागत्य पञ्चभिश्चोरशतैः सार्द्धम् मम गृहं 'घाएत्ता' घातयित्वा-लुण्ठयित्वा सुबहुं धनकनकं सुंसुमां च दारिकां गृहीत्वा 'जाव पडिगए' यावत् पतिगता-पञ्चभिश्चोरशतैः सार्ध सिंहगुहां चोरपल्ली प्रतिनिवृत्त इत्यर्थः, ' तं' तत्=तस्मात् कारणात् इच्छामः खलु हे देवानुप्रियाः ! ' मुंसुमा दारियाए सुसुमा दारिकाया 'कूवं ' प्रत्यानयने 'गमित्तए' गन्तुम् । ' तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! ' युष्माकं खलु हे देवानु प्रियाः ! तत् अपहृतं विपुलं धनकनकम् हे देवानुप्रियाः ! चोराऽपहृतं धनकनादिकं सर्व युष्माकं भवतु, मम सुंसुमा दारिका भवतु । ततः खलु ते नगरगोप्तकाः खलु देवाणुप्पिया:! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं मम गिहं घाएत्ता, सुबहुं धणकणगं सुंसमं च दारियं गहाय जाव पडिगए-तं इच्छामो णं देवाणुपिया ! सुंसमा दारियाए कूवं गमित्तए-तुम्भंणं देवाणुप्पिया! से विउले धणकणगे ममं सुसमा दारिया) हे देवानुप्रिया सुनो चोर सेनापति चिलात चोर ने सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली से यहां शीघ्र आकर पांचसौ चोरों के साथ मेरे घर पर डाका डाला है। उसमें उसने बहुत सा धन, कनक एवं सुसमा दारिका को लूटा है और-लूटकर वह वहां वापिस अपने स्थान पर चला गया है। अतः हे देवानुप्रियो । मैं चाहता हूँ कि आप लोग उस सुंसमा दारिका को लेने के लिये जावें, मिलने पर वह हृत धनकनक आदि सब आपका रहे-और सुसमा दौरिका मेरी
( एवं खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचरि चोरसएहिं सद्धि मम गिहं घाएत्ता, सुबहुं धणकणगं सुंसमं च दारियं गहाय जाव पडिगए तं इच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सुसमा दारियाए कुवं गमित्तए-तुम्भं णं देवाणुप्पिया ! से विउले धणकणगे ममं सुंसमा दारिया)
હે દેવાનપ્રિયે ! સાંભળો, ચોર સેનાપતિ ચિલાત ચોરે સિંહગુહા નામની ચેરપલીથી એકદમ અહીં આવીને પાંચસે ચોરોની સાથે મારા ઘરમાં ધાડ પાડી છે. તેમાં તેણે ઘણું ધન, કનક અને સંસમાં દારિકાની લૂંટ કરી છે. લંટ કરીને તે પાછે પિતાના સ્થાને જ રહ્યો છે એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી ઈચ્છા છે કે તમે સુંસમાં દારિકાને પાછી લેવા માટે જાઓ અને તેને મેળવી લીધા બાદ તે અપહૃત કરાયેલું ધન કનક વગેરે બધું તમે રાખજો અને સંસમાં દારિકાને મને સોંપી દેજે
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गरधर्षणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिकाचरितनिरूपणम्
६८३
पुरुषाः धन्यस्य एतमर्थे प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य 'सनद्ध जाव गहिया उपहरणा ' सन्नद्ध यावत् गृहीतायुधमहणाः = सन्नद्धवद्भवर्मितकवचा यावद् गृहीतायुधमहरणा इत्यस्य व्याख्या पूर्ववद् बोध्या, ' महया २ उकिड जाव समुद्दर भूपिन ' महा महोत्कृष्ट यावत् समुद्ररवभूतमिव वेलावृद्धिसमये समुद्रध्वनिमिव महाध्वनि करेमाणा ' कुर्वन्तो राजगृहात् निर्गच्छन्ति, निर्गत्य
रहे । (तणं ते गरगुत्तिया घण्णस्स सत्यवाहस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पडिणित्ता सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा महया २ उक्कि० जाव समुद्दरवभूयं पिवकरे माणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति णिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे - तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावहा सद्धिं संपलग्गा यानि होत्या तरणं ते णगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावहं हयमहिय जाव पडिसेहेंति, तरणं ते पंच चोरसया णयरगोतिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छडुमाणा य विपरिमाणा य सव्वओ समंता विपलाहस्था ) धन्य सार्थवाह की इस बात को सुनकर उन नगर रक्षकों ने स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके उसी समय उन्हों ने अपने २ शरीरपर कवच को सज्जित करके कशाबंधन से बांध लिया यावत् आयुध और प्रहरणों को ले लिया । वेलावृद्धि के समय में जिस प्रकार समुद्र की ध्वनि होती है उसी प्रकार की महाध्वनि करते हुए फिर वे राजगृह नगर
( तरणं ते जगरगुत्तिया धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पडिसुणिता सन्नद्ध जाव गहियाउहपरणा महया २ उक्किट्ठ० जाव समुद्दरवभूयं पिवक रेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति, णिगच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवागच्छंति, उत्रागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था - तणं ते जगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावरं हयमहिय जान पडि सेहेंति, तणं ते पंच चोरसया णयरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विउलं धणकणगं विच्छड्डेमाणा य विष्पकिरेमाणा य सव्वओ समंता विप्पलाइत्था )
ધન્ય સાવાહની તે વાતને સાંભળીને નગર રક્ષકાએ તેને સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તેમણે તરત જ પોતપાતાના શરીરા ઉપર કત્રંચો પહેરીને કશા ખધનેથી ખાંધ્યાં યાવત્ આયુધ અને પ્રહરણાને સાથે લઇ લીધાં. ભરતીના સમયે જેવા સમુદ્રના ધ્વનિ હાય છે તેવેા જ મહાધ્વનિ કરતાં તે રાજગૃહ નગરમાંથી ખહાર નીકળ્યા અને નીકળીને જ્યાં ચાર સેનાપતિ તે
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জারামখান यत्रैव चिलातश्चोरः, तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य चिलातेन चोरसेनापतिना साध ' संपलग्गा' संप्रलग्नाः युधं कर्तुं प्रवृत्ताश्चापि अभवन् । ततः खलु नगरगोप्तृकाः चिलातं चोरसेनापति — हयमहिय० जाव' हतमथित यावत्-हतमथित प्रवरवीरघातितनिपतितचिह्नध्वजपताक-हताः मारिताः, मथिताः निश्शेषतां प्राप्तिताः, प्रवरवीराः श्रेष्ठवीरा यस्यासौ हतमथितमवरवीरः, घातितः धातः शस्त्रादिप्रहारेण क्षतिः, स संजातोऽस्य घातितः क्षत इत्यर्थः, निपतिता भूमौ पतिता चिह्वध्वज पताकाः यस्याऽसौ, निपतितचिह्नध्वजपताका, एतेषां कर्मधारयः, तम् , यावत् पतिषेधयन्ति-निवारयन्ति । ततः खलु ते 'पंचचोरसया' पञ्चशतचौराः ‘णगरगोत्तिएहिं' नगरगोप्तृकैः नगररक्षकैः पुरुषैः ' हयमहिय जाव पडिसेहिया ' हतमथितयावत्पतिषेधिताः प्रतिषेधिताः सन्तः तत् विपुलं धनकनक-धनकनकमणिमौक्तिकादिकं 'विच्छड्डेमागा' विच्छर्दयन्तः प्रक्षिपन्तः 'विपकिरेमाणा य ' विपकिरन्तश्च-इतस्ततो विकिरणं कुर्वन्तः 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात्-चतुर्दिक्षु 'विप्पलाइत्या' विप्लायन्तः पलायिताः ततः खलु ते से बाहर निकले और निकलकर जहां चोर सेनापति वह चिलात चोर था वहां गये-वहां पहुँचते ही उनका चोर सेनापलि उस चिलात चोर के साथ युद्ध होना प्रारंभ हो गया-उस युद्ध में उन्हों ने उस चिलात के सैन्य को पहिले खूब मारा-पीटा-बाद में उन्हें बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर दिया। कितनेक चोरों को उन्हों ने क्षत किया। उसकी चिब ध्वजपताकाओं को जमीन पर डाल दिया। इस प्रकार उसे हरतरह परास्त कर दिया। जब वे पांचसौ चोर नगररक्षक पुरुषों द्वारा हर प्रकार से हतमथित यावत् प्रतिषेधित हो चुके तय वे उस विपुल धनकनक मणिमौक्तिक
आदिको छोड़कर तथा इधर उधर डालकर सर्व प्रकारसे चारों दिशाओंमें इधर उधर भाग गये। (तएणं ते णयरगुत्तिया तं विउलं धणकणगं ચિલાત ચોર હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં જતાંની સાથે જ ચોર સેનાપતિ ચિલાતની સાથે તેમનું યુદ્ધ શરૂ થઈ ગયું. યુદ્ધમાં તેમણે પહેલાં તે ચિલાતની સેના સાથે ખૂબ માર–પીટ કરી અને ત્યારપછી તેને નષ્ટ–ભ્રષ્ટ કરી નાખી. કેટલાક
ને તે તેમણે ક્ષત (ઘવાયેલા) કર્યા. તેમની ચિહ્નભૂત ધ્વજા પતાકાઓને જમીનદોસ્ત કરી નાખી. આ પ્રમાણે તેને બધી રીતે હરાવી દીધું. જ્યારે તે પાંચસે ચોરે નગર રક્ષક પુરુષો વડે સર્વ રીતે હત, મથિત યાવત્ પ્રતિષધિત થઈ ગયા ત્યારે તેઓ તે પુષ્કળ ધન, કનક, મણી, મેતી વગેરેને ત્યાં જ મૂકીને આમતેમ નાખીને ચારે દિશાઓમાં આમતેમ પલાયન થઈ ગયા.
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अनेगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १८ सुंसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६८५ नगरगोप्तृकाः नगररक्षकाः तं विपुलं धनकनक०=धनकनकादिकं गृह्णन्ति , गृहीत्वा, यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छन्ति । ततः खलु स चिलातः तां चोरसेनां ' हयमहिय जाव' हतमथित यावत्-हतमथितमवरवीरघातितनिपतित चिहध्वजपताकाम् यावद् दृष्ट्वा भीतस्त्रस्तः सुसुमां दारिका गृहीत्वा एकां महतीम् 'अग्गामियं ' अग्रामिकाम् ग्रामरहिताम् ' दीहमद्रु' दीर्घावां-दीर्घमार्गाम् 'अडविं' अटवीम्-अनुपविष्टः । ततः खलु धन्यः सार्थवाहः सुंसुमां दारिकां चिलातेन 'अडवीमुह ' अटवीमुखम् अरण्यसम्मुखम् ' अबहीरमाणि ' अपहिय. माणाम्-नीयमानां ' पासित्ता' दृष्ट्वा पञ्चभिः पुत्रैः सार्द्धम् ' अप्पछ?' आत्मषष्ठः । संनद्धबद्ध ' सन्नद्धबद्धर्मितकवचः चिलातस्य ‘पदमग्गीहिं ' पदगेण्हंति, गेण्हित्ता, जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छति । तएणं से चि. लाए तं चोरसेणं तेहिं जयरगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीए तत्थे सुंसमं दारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमद्धं अडविं अणुप्पविठू) उन नगर रक्षकों ने उस विपुल धन कनक आदिको ले लिया और लेकर राजगृह नगर में वापिस आ गये। इस के बाद वह चिलात चोर अपनी उस सेना को नगर रक्षकों द्वारा हत मथित प्रबल वीरवाली एवं घातित तथा निपतित चिन्ह ध्वज पताका वाली देखकर त्रस्त हो गया और सुसमादारिका को लेकर एक बड़ी भारी ग्रामरहित अटवी में घुस गया (तएणं धपणे सत्यवाहे सुंसमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहिरमाणि पासित्ता णं पंचहिं पुत्तहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्ध चिलायस्स पदमग्गवीहिं अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे ( तएणं ते णयर गुत्तिया तं विउलं धणकणगं गेण्हंति, गेण्हित्ता, जेणेव रायगि तेणेव उवागच्छंति । तएणं से चिलाए तं चोरसेणं तेहिं णयरगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीए तत्थे सुंसमंदारियं गहाय एगं महं अग्गामियं दीहमद अडविं अणुप्पविटे)
તે નગર રક્ષકોએ તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં પડેલાં ધન, કનક વગેરેને લઈ લીધું અને લઈને રાજગૃહ નગરમાં પાછા આવી ગયા. ત્યારપછી તે ચિલાત ચારે પિતાની તે ચોર સેનાને નગર રક્ષક વડે હત, મથિત તેમજ ઘાતિત અને નિપતિત ચિધ્વજ પતાકાઓવાળી જોઈને ત્રસ્ત થઈ ગયો અને સંસમા દારિકાને લઈને એક ભારે મટી ગ્રામરહિત અટવીમાં પેસી ગયે.
(तएणं धण्णे सत्यवाहे सुंसमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहं अवहीरमाणि पासित्ता णं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि अप्पछटे सन्नद्धबद्धचिलायस्स पदमग्गवीहि अणुगच्छमाणे अभिगज्जते हाक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभिहासे
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माताधर्मकथासूत्र मार्गविधि-पदमार्गप्रचारम्-चरणचिह्नम् 'अणुगच्छमाणे' अनुगच्छन्-पृष्ठतो धावन् 'अणुगज्जेमाणे' अनुगर्जन मेघवदगर्जनां कुर्वन् ' हक्कारेमाणे ' ' भो' दुष्ट ! तिष्ठ-तिष्ठ' इत्यादि, वाक्यैः हकारयन् आकारयन् 'पुकारेमाणे ' पूत्कारयन् • तिष्ठ २, नोचेत्त्वां हनिष्यामीत्यादिवाक्यैः तमाहृयन् ' अभितज्जेमाणे' अभितर्जन्= रे निर्लज्ज ' इत्यादि वाक्यस्तर्जनां कुर्वन् , ' अभितासेमाणे ' अभि. त्रासयन् अस्त्रशस्त्रादिदर्शनेन त्रासमुत्पादयन् 'पिट्ठओ' पृष्ठतः चिलातचोरस्य पृष्ठदेशतः अनुगच्छति पश्चाद्धावति । ततः खलु स चिलातः तं धन्यं सार्थवाह पञ्चभिः पुत्रैः सार्धम् 'अप्पछठं' आत्मपष्ठं ' सन्नद्धबद्धवर्मितकाचं यावत् समनुगच्छन्तं पश्चाद्धावन्तं पश्यति, दृष्ट्वा · अत्यामे ४ ' अस्थामा आत्मबलरहितः, अबल: सैन्यरहितः, अवीर्यः = उत्साहरहितः, अपुरुषकारपराक्रमः सन् अभितासेमाणे पिट्ठाओ अणुगच्छइ ) धन्यसार्थवाह ने जब सुसमा दारिका को चिलात चोर द्वारा अटवी के मध्य में हरणकर ले जाई गई जय जाना-तब वह अपने पांचों पुत्रों के साथ आत्मषष्ठ होकर कवच बांध उस चिलात के पीछे २ पद चिह्नों का अनुसरण करता हुआ, मेघ के जैसी गर्जना करता हुआ, अरे ओ दुष्ट ! ठहर ठहर इस प्रकार से कहता हुआ, पुकार करता हुआ ठहर जा ठहर जा-नहीं तो में तुझे मार डालूंगा इस प्रकार के वाक्यों से उसे बुलाता हआ रे निर्लज्ज! इस प्रकार से उसे तर्जित करता हुआ, तथो अस्त्र शस्त्र आदि के दिखाने से उसे त्रास उत्पन्न करता हुआ चला।
(तरणं से चिलाए तं धणं सत्थवाहं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछठं अन्नद्धबद्ध० समणुगच्छमाणं पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले माणे पिट्ठाओ अणुगच्छइ )
જ્યારે ધન્ય સાર્થવાહે સુંસમા દારિકાને ચિલાત ચાર વડે અટવીમાં હરણ કરીને લઈ જવાયેલી જાણી, ત્યારે તે પિતાના પાંચ પુત્રોની સાથે આત્મષષ્ટ થઈને કવચ બાંધીને તે ચિલાત ચેરની પાછળ તેના પદ ચિહ્નોનું અનુस२६५ ४२तो भवनावी पनि ४२॥ " अरे मी दुष्ट ! अनारे, अलारे," આ પ્રમાણે કહેતે “ઊભો રે, ઊભરે, નહિતર મરી ગયેલે જાણજે ” આ प्रभाये ७८ ४२ता, तर मावापतो ' अरे निaar !' मम तमित ४२। તેમજ શસ્ત્ર અસ્ત્ર વગેરેને બતાવીને તેને ત્રસિત કરતે ચાલે.
(तएणं से चिलाए तं धणं सत्थवाहं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अपच्छ8 सन्नद्ध बद्ध० समणुगच्छमाणं पासइ, पासित्ता अस्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितनिरूपणम्
६८७
"
C
पुरुषकारः = पौरुषम्, पराक्रमः = सामर्थ्य, तद्रहितः सन् ' जाहे ' यदा नो शक्नोति सुसुमां दारिका 'णिव्याहित्तए' निर्वाहयितुं बोदुम् ' ताहे ' तदा ' संते ' श्रान्तः = परिश्रमं गतः, तंते ' तान्तः = ग्लानिं प्राप्तः, ' परितंते ' परितान्तः= सर्वतोभावेन खिन्नतामुपगतः, 'नीलुप्पल० ' नीलोत्पल नीलोत्पगंबलगुलिकादि विशेषणविशिष्टमतितीक्ष्णम् असि करवालं 'परामुस ' परामृशति = कोशान्निःसारयति परामृश्य, सुंसुमाया दारिकायाः ' उत्तमंगं ' उत्तमाङ्ग= शिरः अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे जाहे णो संचाण्ड सुसमं दारियं णिव्या हिन्तए, ताहे संते तंते परितंते निलुप्पल असि परामुसह, परापुसित्ता सुसमाए दारियाए उतमंग छिंदह, छिंदित्ता, तं गहाय तं अग्गामियं अडविं अणुपविट्ठे तरणं से, चिलाए तीसे आग्गामियाए अडवीए तहाए अभिभूए समाणे पम्हुहृदिसाभाए सीहं गृहं चोरपलं असंपत्ते अंतराचेव कालगए ) जब चिलात चोर ने उस धन्यसार्थवाह को पांचो पुत्रों के साथ आत्मषष्ठ होकर एवं कवच आदि से सुसज्जित होकर अपने पीछे २ आता हुआ देखा तब वह देख कर आत्मबल रहित हो गया। इस तरह सैन्य रहित, उत्साह रहित तथा पौरुष और पराक्रम रहित बना हुआ वह जब सुंसमा दारिका को अपने पास रखने के लिये शक्तिशाली नहीं हो सका तब उसने श्रान्त, तान्त-ग्लानि युक्त और परितांत सर्वतोभावेन खिन्नता को प्राप्त होकर नीलोत्पल, गवलगुलिका, आदि विशेषणों वाली अपनी तलवार को उठाया - म्यान परक्कमे जाहे णो संचाएइ सुसमं दारियं णिव्वाहित्तए, ताहे संते तंते परितंते नीलुप्पल० अर्सि परासर, परामुसित्ता समाए दारियाए उत्तमंगं छिदह, छिंदित्ता, तं गहाय तं अग्गामियं अडविं अणुपत्रि, तरणं से, चिलाए तीसे आगामियाए अडवीए तव्हाए अभिभूए समाणे पम्हुट्टदिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लि असंपत्ते अंतरा चेत्र काळगए )
જ્યારે ચિલાત ૨ારે તે ધન્ય સાથૅવાહને પાંચે પુત્રાની સાથે આત્મષષ્ટ થઇને તેમજ કવચ વગેરેથી સુસજ્જિત થઈને પેાતાની પાછળ પાછળ આવતા જોયા ત્યારે તે જોઈને આત્મબળ વગરનેા થઈ ગયા. આ પ્રમાણે સેના રહિત ઉત્સાહ રહિત તેમજ પૌરુષ અને પરાક્રમ રહિત થઇ ગયેલા તે જ્યારે સુંસમા દારિકાને પેાતાની પાસે રાખવામાં પણ અસમથ થઈ ગયા ત્યારે તેણે શ્રાંત, તાંત, ગ્લાનિ યુક્ત અને પરિતાંત તેમજ બધી રીતે ખિન્નતા પ્રાપ્ત કરીને નીલેાત્પલ, ગવલ ગુલિકા વગેરે વિશેષણાવાળી પેાતાની તરવારને ઉપાડી અને મ્યાનમાંથી બહાર કાઢી અને બહાર કાઢીને ચુંસમા દારિકાનું માથું કાપી
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६८८
हाताधर्मकथासूत्रे
छिनत्ति, छिखा, ' तं ' तत् उत्तमाङ्गं गृहीत्वा ताम् अग्रामिकाम् = जनावासरहिताम् अटवीमनुपविष्टः =प्रवेशं कृतवान् । ततः खलु चिलातः तस्यामग्रामिकाया - मटव्यां ' तण्हाए ' तृष्णया = पिपासया अभिभूतः सन् 'विम्हुट्ठदिसाभाए ' विस्मृतदिग्भागः = पूर्वादिदिशाविवेकविकलः सन् सिंहगुहां चोरपल्लीम् ' असंपत्ते ' अस म्प्राप्तः ' अंतराचेत्र ' अन्तरा एव = मध्य एव ' कालंगए ' कालंगतः = असौ चोरो मृत्युं तवान् । अस्य शेवचरितं ग्रन्थान्तरादवसेयम्, शास्त्रेतु-उपयोगि चरितं तावन्मात्रं भगवतोपदिष्टम् ।
एवा
अथ चिलातदृष्टान्तेन भगवान् निर्ग्रन्थादीन् संबोध्य प्रतिवोधयति मेव ' एवमेव अनेन प्रकारेणैव ' समणाउसो' आयुक्तः श्रमणाः ! ' जाव पव्वइए समाणे ' यावत् पत्रजितः सन् योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्योंपाध्यायानां समीपे प्रव्रजितः सन् ' इमस्स 6 अस्य ओरालि यसरीरस्स ' औदारिकशरीरस्य वान्तास्रवस्य यावद् विध्वंसनधर्मस्य ' वण्णहेउं ' वर्णहेतुं कान्तिविशेषप्राप्त्यर्थम् यावत्- ' रूपदेउं ' रूपहेतुं सौन्दर्याद्यर्थम् ' बलहेडं '
"
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, =
"
से बाहर किया और उठाकर सुसमा दारिका के मस्तक को काट डाला। उस कटे हुए मस्तक को लेकर फिर निर्जन अटवी में प्रवेश कर गया । उस अटवी में पिपासा से व्याकुल होकर वह पूर्वादि दिशाओं के विवेक से रहित हो गया- इस तरह वह पुनः वहां से पीछे वापिस अपनी सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली में नहीं आ सका और बीच ही में काल कवलित बन गया । इसका अवशिष्ट चरित्र ग्रंथान्तर से जान लेना चाहिये । यहाँ तो भगवान् ने जितना चरित्र इसका उपयोगी जाना उतनाही उपदिष्ट किया है ! - ( एवामेव समणाउसो ! जाव पव्त्रइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वण्णहेउ जाव आहारं आहारेइ से णं इहलोए चेव बहूणं समનાખ્યું, તે કપાએલા માથાને લઈને તે નિજ ન-ભયકર અટવીમાં પેસી ગયે. અટવીમાં તે તરસથી વ્યાકુળ થઈને પૂ વગેરે દિશાઓના વિવેકથી રહિત થઈ ગયા અને આ પ્રમાણે તે ફરી ત્યાંથી તે પેાતાની સિડુગુહા નામની ચારપલ્લીમાં કાઇ પણ દિવસે પાછે. આવી શકયા નહિ અને વચ્ચે જ મૃત્યુ પામ્યા. તેનું ખાકીનું ચરિત્ર ખીજા ગ્રંથમાંથી જાણી લેવું જોઇએ, અહીં તા ભગવાને જેટલું ચરિત્ર તેનું ઉપયુક્ત જાણ્યું તેટલું કહ્યું છે.
( एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस जात्र विद्धंणधम्मस्स वण्णहेउ जाब आहार आहारेह सेणं इहलोए
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकासरितवर्णनम्
દ
घलहेतुं शरीरबलबर्धनार्थम्, ‘वीरियहेउं ' वीर्यहेतुम् = आन्तरिक शक्तिसम्पादनार्थम्, आहारम् आहारयति, स खलु इह लोके एव बहूनां श्रमणानां श्रमणीनां श्रावकाणां श्राविकाणां च ' हीलणिज्जे जाव' हीलनीयो यावत् यावत्पदेन, निन्दनीयः, खिसनीयः गर्हणीयो भवेत् परलोकेऽपि दुःखं प्राप्नोति यावत्चातुरन्त संसारकान्तारम् ' अणुपरियट्टिस्सइ ' अनुपर्यटिष्यति भ्रमिष्यति, यथा स चिलातस्तस्करः - चिलाततस्करवदिति भावः ॥ ०७ ॥
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मूलम् तपणं से धपणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि अप्पछट्टे चिलायं परिधाडेमाणे २ तव्हाए छुहाए य संते तंते परितंते गाणं ४ हीलणिज्जे ३ जाव अणुपरियहिस्सइ जहाव से चिलाए तकरे ) अब प्रभु इस चिलात के दृष्टान्त से निर्ग्रन्थ आदिकों को संबोधित कर प्रतिबोधित करते हैं - हे आयुष्मंत श्रमणों ! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होकर वाताववाले यावत् विध्वंसन धर्मवाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष प्राप्ति के लिये सौन्दर्य आदिरूप विशेष के लिये, बलवधन के लिये तथा आन्तरिक शक्ति वृद्धिके लिये आहार को लेता हैकरता है :- वह इस लोक में अनेक श्रमण श्रमणी श्रावक तथा श्राविका जनों द्वारा हीलनीय यावत् निदंनीय खिंसनीय गर्हणीय तो होता ही है - परन्तु पर भवमें भी वह दुःखों कोही पाता है । यावत् ऐसा जीव इस चतुर्गतिरूप संसार कान्तार में चिलात चोर की तरह परिभ्रमण ही करता रहता है | सूत्र ७ ॥
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चैव बहूणं समणाणं ४ हीलणिज्जे २ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहाव से चिलाए तबकरे ) હવે પ્રભુ તે ચિલાતના દૃષ્ટન્તને સામે રાખીને થિ વગેરેને સ મેધિત કરીને આજ્ઞા કરે છે કે હે આયુષ્મંત શ્રમણા ! આ પ્રમાણે જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા શ્રમણીજન આચાય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને વાન્તાસ્ત્રવવાળા યાવત્ વિધ્વંસન ધમ વાળા આ ઔદારિક શરીરમાં ક્રાંતિ વિશેષની પ્રાપ્તિ માટે, સૌદર્ય વગેરે રૂપ વિશેષના માટે, ખળવધન માટે તેમજ આંતરિક શિકતને વધારવા માટે આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે આ લેાકમાં ઘણા શ્રમણ, શ્રમણી, શ્રાવક તેમજ શ્રાવિકાઓ વડે હીલનીય યાવત્ નિંદનીય, ખિસનીય અને ગર્હણીય તે। હાય જ છે પણ સાથે સાથે તે પરભવમાં પણ દુઃખ જ મેળવે છે. ચાવત એવે જીવ આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારમાં ચિલાત ચારની જેમ ભટકતા જ રહે છે. ૫ સૂત્ર ૭ ॥
भ ८७
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জানাঘল नो संचाएइ चिलायं चोरसेणावई साहत्थि गिणिहत्तए । से णं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सुसुमं दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ, पासित्ता परसुनियत्तेव चंपगवरपायवे धसत्तिधरणियलंसि निवडइ । तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया२ सदेणं कुहूर सुपरुन्ने सुचिरं कालं बाहमोक्खं करेइ। तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता परिघाडेमाणे तण्हाए छुहाए य परिभूए समाणे तसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता संते तंते परितंते, णिविन्ने, तोसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेवणं उदगं आसादेइ । तएणं से धपणे सत्थवाहे अप्पछठे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुंसुमा जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेहें पुत्तं धणदत्तं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तकरं सव्वओ समंता परिधाडेमाणा तहाए छहाए य आभभूया समाणा इमीसे अग्गामियाए अडवीए उदग्गस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसादेमो, तएणं उदगं, अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए, तण्णं
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९१ तुम्हे ममं देवाणुप्पिया ! जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेइ, आहारित्ता, तेणं आहारेणं अबिद्धत्था समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं अडविं णित्थरिहिह, रायगिहं च संपावेहिह, मित्तणाइ० य अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह । तएणं से जेट्रपुत्ते धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे धणं सत्थवाहं वयासीतुब्भे णं ताओ ! अम्हे पिया गुरुजण य देवभूया ठावगा पइ. टावगा संरक्खगा संगोवगा तं कहणणं अम्हे ताओ! तुब्भे जोवियाओ ववरोवेमो, तुम्भे णं मंसं च सोणियं च आहारेमो ? तं तुम्भे णं तातो! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामियं अडविं णित्थरह, तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह । तएणं धणं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं क्यासी-मा णं ताओ! अम्हे जेटं भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भे णं ताओ ! ममं जीवियाओ ववरोवेह जाव आभागी भविस्सह । एवं पंचमे पुत्ते तएणं से धपणे सत्थवाहे पंचण्हं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता, तं पच पुत्ते एवं वयासी-मा णं अम्हे पुत्ता ! एगमावजीवियाओ ववरोवेमो, एसणं सुंसुमाए दारियाए णिप्पाणे णिच्चेठे जाव विप्पजढे, तं सेयं खल पुत्ता ! अम्हे सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए । तएणं अम्हे तेणं आहारेणं अविद्ध; स्थासमाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो। तएणं तं पंच पुत्ता
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हाताधर्मकथासूत्रे
धणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा एयमहं पडिसुर्णेति । तणं धणे सत्थवाहे पंचहिंपुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ, करिता, सरगं च करेइ, करिता, सरपणं अराणं महेइ, महित्ता अरिंगपाडेइ, पाडित्ता, अरिंग संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाई परि क्खेवेइ, परिक्खेवित्ता, अग्गिपज्जालेइ, पज्जालित्ता, सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारोंति । ते णं आहारेण अविद्धत्था समाणा रायगिहं नयरं संपत्ता मित्तणाइ० अभिसमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव आभागी जाया यावि होत्था । तणं से धणे सत्थवाहे सुसुमाए दारियाए बहूई लोइयाई जाव विगयसोए जाए यावि होत्था || सू०८ ॥
टीका- 'तणं से' इत्यादि । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सह आत्मषष्ठः चिलातं ' परिधाडेमाणे २ ' परिधावन् २ = चिलातं ग्रहीतुकामस्तस्पृष्ठतोऽनुधावन् 'तण्हाए छुहाए य ' तृष्णया क्षुधया च ' संते ' श्रान्तः, -मनसा खिन्नः, ' तंते ' तान्तः शरीरेण क्लांतः, 'परितंते' परितान्तः = मनसा शरीरेण च
-: तरणं से धण्णे सत्थवाहे । इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद ( पंचहि पुतेहिं सद्धि अप्पछडे से धणे सत्थवाहे) पांचो पुत्रों के साथ छठा बना हुआ वह धन्यसार्थवाह ( चियं परिधाडेमाणे २) चिलातचोर को पकड़ ने की इच्छा से उस के पीछे २ बार बार दौडता हुआ, (तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाइए चिलायं चोरसेणावई साहित्थि गिहित ) पिपासा और
'तएण से धणे सत्थवाहे' इत्यादि
टीअर्थ – ( तएणं ) त्यारपछी ( पंचहि पुत्तेहिं सद्धिं अपछट्टे से धणे सत्थवाहे ) पांये पुत्रानी साथै छठ्ठो ते धन्य सार्थवाहु ( चिलायं परिघाडेमाणे २ ) ચિલાત ચારની પાછળ પાછળ તેને પક્ડી પાડવા માટે વારંવાર દોડતાં દોડતાં ( तन्हाए छुहाए य संते तंते परितते नो संचाएह चिलायं चोरसेणावई' साहत्थि गिव्हित्तए) तस्स भने लूमाथी श्रांत थ गयो, भिन्न जनी गयो, तांत थ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम्
खिन्नः, 'नो संचाएइ ' नो शक्नोति चिलावं चोरसेनापतिं ' साहित्थि ' स्वहस्तेन ग्रहीतुम् । तदा स खलु ' तओ' ततः - चिलातग्रहणव्यापारात्, 'पडिनियत्तइ ' प्रति निवर्तते, प्रतिनिवृत्य, यत्रैव सा सुंसुमा दारिका चिलातेन जीविताद् ' ववरोविया' व्यपरोपिता = पृथक्कृता = मारिता सती पतिता आसीत् तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य सुसुमां दारिकां चिलातेन जीविताद् व्यपरोषितां पश्यति, दृष्ट्वा ' परसुनियत्तेव ' परशुनिकृत्त इव = परशुच्छिन्नो यथा चम्पकवरपादपस्तद्वत् क्षुधा से श्रान्त हो गया- खिन्न बन गया, तान्त हो गया - शरीर से मुरझा गया - परितान्त हो गया - इकदम उत्साह रहित बन गया- सो वह उसे अपने हाथ से पकड़ने के लिये शक्तिशाली नहीं हो सका - ( सेणं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सो सुंसमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया - तेणेव उवागच्छइ ) अतः वह वहां से लौट आयो-और लौटकर वहाँ गया जहां वह अपनी पुत्री सुंसमा चिलातचोर के द्वारा - जीवन से रहित की गई पड़ी थी । ( उवागच्छित्ता सुंसमा दारियं चिलाएणं जीवियाओ वयरोवियं पासह, पासित्ता परसुनियत्तेव चंपगवरपायवे धसत्ति धरणियलंसि निवडइ-तएर्ण से धण्णे सत्थवाहे पंचहि पुतेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ सद्देणं कुहू २ सुपरुन्ने सुचिरं कालंबाहमोक्खं करेइ ) वहां जाकर उसने संसमा दारिका को चिलातचोर के द्वारा जीवन से रहित की गई देखा। देखते ही वह पुत्रों सहित परशु से काटे गये उत्तम
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ગયે શરીર તેનું ચમડાઇ ગયું. પરિતાંત થઈ ગયા-સાવ નિરૂત્સાહી ખની ગયા. એવી હાલતમાં તે પેાતાના હાથથી તેને પકડી પાડવામાં સમ થઈ राज्यो नहि ( से णं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेत्र सा सुसमा दारिया चिलाएणं जिवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ ) तेथी ते त्यांथी पाछे। ફરી ગયા. અને પાછા ફરીને તે જ્યાં ચિલાત ચાર વડે હણાયેલી પેાતાની પુત્રી સંસમા દારિકા પડી હતી ત્યાં ગયા.
( उवागच्छित्ता सुंसुमा दारियं चिलापणं जीवियाओ ववरोवियं पास पासिता परसुनियत्तेत्र चंपगवरपायवे घसत्ति धरणियलंसि निवड, तरणं से धण्णे सत्थवाहे पंवहिं पुतेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्थे कूयमाणे कंदमाणे विलयमाणे महया २ सदेणं कुहू २ सुपरुन्ने सुचिरं कालं बाहमोक्खं करेइ )
ત્યાં જઈને તેણે સંસમા દ્વારિકાને ચિલાત ચાર વડે હણાયેલી જોઈ. જોતાની સાથે જ તે પુત્રાની સાથે પરશુ વડે કપાએલા ઉત્તમ ચંપક વૃક્ષની
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हाताधर्मकथाको सपुत्रो धन्यः सार्थवाहः · धसत्ति ' धस' इति शब्दपूर्वकं धरणीतले निपतति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः आत्मषष्ठः ' आसत्थे' आश्वस्त-उच्छ्वासं मुश्चन् सचेष्टः सन् ‘कूबमाणे ' कूजन् = अव्यक्तशब्दं कुर्व 'कंदमाणे ' क्रन्दन् उच्चस्वरेण, पुनः ‘विलवमाणे ' विलपन्=विलापं कुर्वन् ' महया महया सद्देणं' महतामहता शब्देन= अत्युच्चैः शब्देन ' कुहू २ सुपरुन्ने ' कूहू २ सुपरुदन-कुहू कुहू इति शब्दमुच्चार्यात्यथै रुदितः सन् सुचिरं कालं-बहकालपर्यन्तं 'वाहमोक्खं' वाष्पमोक्षम् अश्रुमोचनं करोति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सह आत्मषष्ठः चिलातं तस्यामग्रामिकायाम् अटव्यां सर्वतः समन्तात् ' परिधाडे. चंपक वृक्ष के समान " धस" इस शब्द पूर्वक भूमिपर गिर पड़ा। बाद में पांच अपने पुत्रों के साथ आत्मषष्ट बना हुआ वह धन्यसार्थवाह आश्वस्त, उच्छ्वास छोड़ता हुआ सचेष्ट-हो गया सो अव्यक्त शब्द करता हुआ खूब जोर २ से रोने लगा, विलाप करने लगा। एवं बहत ऊँचे २ शब्दों से कुहू कुह करता हुआ-हाय सांसे लेता हुआ-बहुत देरतक रोता रहा-अश्रुमोचन पूर्वक आक्रंदन करता रहा-(तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता परिधाडे माणे तण्हाए छुहाए यपरिभूए समाणे तीसे अग्गामियाए अडवीए सव्वओ समंता उद्गस्स मग्गणगवेसणं करेइ) इसके बाद पांचो पुत्रों के साथ आत्मषष्ठ बना हुआ वह धन्यसा. र्थवाह उस अग्रामवाली अटवी में चिलात चोर के पीछे पीछे बार २ दौड़ता हुआ तृषा और क्षुधा से पीडित होकर उस अग्रामवाली अटवी જેમ “ધમ ” શબ્દની સાથે જમીન ઉપર પડી ગયો. ત્યારપછી પાંચ પુત્ર તેમજ છઠ્ઠો તે ધસાર્થવાહ આશ્વસ્ત–ઉવાસ છોડત-નિસાસા નાખતો સચેષ્ટ થઈ ગયે અને અવ્યક્ત શબ્દ કરતો ધ્રુસકે ધ્રુસકે ખૂબ જોરથી રડવા લા, વિલાપ કરવા લાગે અને બહુ મોટા સાદે ‘કુર્દૂ કુદ્દ” કરતો હોય હાય કરીને શ્વાસ લેતો ઘણીવાર સુધી રડો રહ્યો તેમજ આંસૂ પાડતા આકંદ કરતે રહ્યો.
(तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचर्हि पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछटे चिलायं तीसे अग्गा मियाए अडवीए सव्यओ समंता परिधाडेमाणे तण्हाए छुहाए य परिभूए समाणे तीसे अग्गामियाए अडवीए साओ समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेइ )
ત્યારબાદ પાંચ પુત્રોની સાથે છઠ્ઠો તે ધન્યસાર્થવાહ તે ગામ વગરની નિજન અટવીમાં ચિલાત ચેરની પાછળ પાછળ વારંવાર દેડતે દેખતે તૃષા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० १० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ६९५ माणे ' परिधावन् तृष्णया क्षुधया च ' परिभूए ' परिभूतः सन् तस्यामग्रामिकायामटव्यां सर्वतः समन्तात्-चतुर्दिक्षु ' उदगस्स' उदकस्य जलस्य ' मग्गणगवेसणं ' मार्गणगवेषणम् अन्वेषणं करोति, कृत्वा श्रान्तः, तान्तः, परितान्तः 'णिबिन्ने' निर्विष्णः औदासीन्यं प्राप्तः । तस्यामग्रामिकायामटव्यामुदकस्य मार्गणगवेषणं कुर्वन् नो चैव खलु उदकम् ' आसादेइ ' आसादयति प्राप्नोति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाह आत्मषष्ठः उदकमनासादयन् पानीयमप्राप्नुवन् यत्रैव सुंसुमा जीविताद् व्यपरोपिता मारिता सती पतिताऽऽसीत् तत्रैव उपाग. च्छति, उपागत्य ज्येष्ठ पुत्रं धनदत्तं शब्दयति, शदयिता, एवमवदत्-एवं खलु में चारों दिशाओं में जल की मार्गणा और गवेषणा करने लगा (करिता संते तंते परितंते णिबिन्ने तीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे णो चेव णं उयगं आसाएइ) मार्गणा गवेषणा करके वह श्रान्त, मन से खिन्न, तान्तशरीर से खिन्न और परितान्त-बन गया शरीर एवं मन इन दोनों से खिन्न हो गया इस तरह उस अग्रामवाली अटवी में उदकपानी की मार्गणा और गवेषणा करते हुए भी उसे जल नहीं मिला (तएणं से धण्णे सत्यवाहे अप्पछठे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा दारिया जीवियाओ ववरोविया-तेणेव उवागच्छह ) तव आत्मषष्ठ बना हुआ वह धन्यसार्थवाह उदक प्राप्त नहीं करता हुआ जहाँ सुसुमादारिका का शव पड़ा हुआ-था वहां आया -(उवागच्छित्ता जेडं पुत्तं धणदत्तं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी) અને સુધા ( તરસ અને ભૂખ) થી પીડાઈને તે ગામ વગરની અટવીમાં ચોમેર પાણીની માર્ગણ અને ગવેષણ કરવા લાગ્યો.
(करित्ता संते तंते परितंते णिचिन्ने तीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे णो चेव णं उदगं आसाएइ)
માર્ગણ તેમજ ગવેષણું કરીને તે શ્રાંત, મનથી ખિન્ન, તાંત શરીરથી ખિન્ન અને પરિતાંત બની ગયે. શરીર તેમજ મન આ બંનેથી તે ખિન્ન થઈ ગયે. આ પ્રમાણે તે ગામ વગરની અટવીમાં ઉદક-પાણી–ની માર્ગણ ગવે. ષણા કરતાં તેને પાણી મળ્યું નહિ.
(तएणं से धण्णे सत्थवाहे अप्पछठे उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुंसुमा दारिया जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ )
ત્યારે આત્મષષ્ઠ બનેલે તે ધન્ય સાર્થવાહ પાણી ન મેળવતાં જ્યાં सुंसमा हारिनुं महु ५७युं तु त्यां माव्या. ( उवागच्छित्ता जेद्रं पुत्तं धणदत्तं सहावेई सद्दावित्ता एवं वयासी)
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बाताधर्मकथा हे पुत्राः ! वयं सुंसुमाया दारिकायाः ' अट्ठाए ' अर्थाय=निमित्तं चिलातं तस्करं पति — सयो समता' सर्वतः समन्तात् अटव्यां चतुर्दिक्षु परिधाडेमाणा' परिधावन्तः 'तहाए' तृष्णया=पिपासया, 'छुहाए' क्षुधया च अभिभूतोः सन्तः अस्यामग्रामिकायामटव्यामुदकस्य मार्गणगवेषणं कुर्वन्तो नो चैव खलु उदकमासादयामः, ततः खलु उदकम् अनोसादयन्तः अलभमानाः नो शक्नुमो राजगृहं समाप्तुम् , ' तणं ' तत्खलु तस्मात् कारणात् खलु यूयं माँ हे देवानुः प्रियाः ! जीविताद् व्यपरोपयत, मांसं च शोणितं च ' आहारेह ' आहारयत, आहार्य=भुक्त्वा, · तेणं आहारेणं ' तेन आहारेण · अविद्धत्था ' अविध्वस्ताः= शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तः तृप्ताः सन्तः ' तोपच्छा ' ततः पश्चात् इमामग्रामिकावहां आकर के उसने अपने जेष्ट पुत्र धनदत्त को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-(एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तक्करं सव्वओ समंता परिधाडेमाणी तहाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमी से अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसाएमो-तएणं उदगं अणासा. एमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए) हे पुत्र सुनो अपने लोग सुसमा दारिका के निमित्त चिलातचोर के पीछे २ सब तरफ सब प्रकार से दौड़ते २ प्यास और भूख से दुःखी हो गये हैं हमने इस अग्रामवाली अटवी में पानी की मार्गणा और गवेषणा भी की-परन्तु वह मिला नहीं अतः पानी की प्राप्ति के अभाव में अब रोजगृह नगर में पहुँचने के लिये हम असमर्थ बन चुके हैं। (तएणं तुम्हे ममं देवाणुप्पिया! जीवियाओ ववरोवेह मंसं च सोणियं च आहारेह, आहारित्ता तेणं आहारेणं अविद्वत्था समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामियं अडविं णित्थ
( एवं खलु पुत्ता ! अम्हे सुंसुमाए दारियाए अट्ठाए चिलायं तक्करं सव्वो समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे अग्गामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसाए मो-तएणं उदगं अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए) ।
હે પુત્ર ! સાંભળ, અમે સંસમાં દારિકાને મેળવવા માટે ચિલાત ચેરની પાછળ પાછળ આમતેમ ચારે તરફ ભટકતાં ભટકનાં તરસ અને ભૂખથી દુઃખી થઈ ગયા છીએ. અમેએ આ ગામ વગરની અટવીમાં પાણીની માણા અને ગવેષણ પર કરી છે, પણ અમે હજી મેળવી શક્યા નથી. એથી હવે પાણીના અભાવમાં અમે રાજગૃહ નગરમાં પહોંચી શકીશું તેમ લાગતું નથી.
( तएणं तुम्हे ममं देवाणुप्पिया ! जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेइ, आहारित्ता तेणं आहारेणं अविद्धत्या समाणा तओ पच्छा इमं अग्गामिय
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रषिणो टी० म० १८ सुसुमादारिका चरितवर्णनम्
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Heat ' णित्थरिहि ' निस्तरिष्यथ = पारङ्गमिष्यथ, राजगृहं च ' संपाविहिह संप्राप्स्यथ मित्तणाई० य' मित्रज्ञातिश्च = मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनान ' अभिसमागच्छहिह ' अभिसमागमिष्यथ मित्रज्ञातिप्रभृतिभिः सह संगता भवि व्यथ, तथा च ' अथस्स ' अर्थस्य धनस्य च धर्मस्य च पुण्यस्य च ' आभागी ' अभागिनो भोक्तारो भविष्यथ । ततः खलु स ज्येष्ठपुत्रो धन्येन सार्थवाहेन एव मुक्तः = अनेन प्रकारेण कथितः सन् धन्यं सार्थवाहमेव मवदत् - हे तात ! यूयं खलु अस्माकं पिता ' गुरुजण देवयभूया ' गुरुजनदैवतभूताः = देवगुरुजनसदृशाः ' ठावका स्थापकाः नीतिधर्मादौ पट्टाबका' प्रतिष्ठापकाः = राजादिसमक्षं स्वपदस्थापनेन प्रतिष्ठाकारकाः तथा 'संरक्खगा' रिहिय रायगिहं च संपावेहिह ) इसलिये हे देवानुप्रियों ! तुम मुझे मारडालो और मेरे माँस और रक्त से तुम अपने प्राणोंकी रक्षाकर शरीर के विनाश होने से बचाकर इस अग्रामिक अटवी से पार हो जाओगे - एवं राजगृह नगर पहुँच जाओगे । ( मिसाणाइ० य अभिसमागच्छहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह, तरणं से जेट्टे पुते) वहां पहुँचकर तुम अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबन्धी परिजनों के साथ मिलोगे तथा धन, धर्म और पुण्य के भोक्ता भी बनोगे- इसके बाद उस ज्येष्ठ पुत्र धनदन्त ने ( घण्णेणं सत्थवाहेणं एवं प्ते समाणे घण्णं सत्यवाहं एवं वयासी ) धन्यसार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन अपने पिता धन्यसार्थवाह से इस प्रकार कहा (तुम्भे णं ताओ ! अम्हं पिया गुरुजणयदेवभूया ठावगा arfi freetee रायगिहं च संपावेहिह )
એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મને મારી નાખા અને મારા માંસ અને રક્તને ખાવા, પીવા ખાધાં -પીધાં પછી તમે શરીરના વિનાશથી ઊગરી જશે અને તૃપ્તિ મેળવીને આ ગામવગરની અટવીને પાર કરી જશેા અને છેવટે રાજગૃહ નગરમાં પાંચી જશેા.
(माणाइ य अभिसमागच्छिहिह अत्थस्स य धम्मस्स य पुष्णस्स य आभागी भविस्सह, तरणं से जेट्टे पुत्ते )
ત્યાં પહેાંચીને તમે પેાતાના મિત્ર,જ્ઞાતિ, સ્વજન,સંબધી પિરજનાની સાથે મળશે તેમજ ધન, ધમ અને પુણ્યાના ઉપભે!ગ કરશેા. ત્યારપછી મેાટા પુત્ર ધનદત્ત ( घण्णेणं सत्थवाहेणं एवे वुत्ते समाणे घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी ધન્ય સાવાડ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયા ખાદ પાતાના પિતા ધન્ય સાવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું કે—
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संरक्षकाः यहच्छापत्तेः । संगोवगा' संगोपका दुश्चरितप्रवृत्तेः, 'त' तत्-तस्मात् कारणात् ' कहण्णं ' कथं खलु केन प्रकारेण खलु हे तात ! वयं युष्मान् जीविताद् व्यपरोपयामा-मारयामः, युष्माकं खलु मांसं च शोणितं च कथम् आहारशामः ? ' तं! तत्-तस्माद् यूयं खलु हे तात! मां धनदत्तनामानं जीविताद् व्यपरोपयत-मारयत मम मांसं च शाणितं च आहारयत, अग्रामिकामटवीं । णित्यपइट्ठावगा संरक्खगा संगोवगा तं कण्णं अम्हे ताओ! तुम्भे जीवियाओ बवरोवेमो तुभ ण मंस च सोणियं च आहारेमो अग्गमियं अडविं णिस्थरह तं चेव सव्वंभणइ आय अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह) हे मात ! आप हमारे पिता है इसलिये आप मेरे लिये देव, गुरुजन के स्थान भूत हैं। नीति धर्म आदि में मुझे स्थापित करते रहते हैं। राज आदि समक्ष आप अपने पद पर मुझे बैठाते है इसलिये आप मेरे लिये स्थापक एवं प्रतिष्ठापक हैं यथेच्छा प्रवृत्ति से आप हमारी सदा रक्षा करते रहते हैं इसलिये आप मेरे संरक्षक हैं, दुश्चरित-प्रवृत्ति से
आप हमे गेकते रहते हैं इसलिये आप मेरे संगोपक हैं, तो कैसे मैं हे तात ! आप को जीवन से रहित कर सकता हूँ। और कैसे आप के शोणित और मांस को खा सकता हूँ। इसलिये हे तात ! आप ही मुझे जीवन से रहित कर दीजीये और मेरे खून और मांस को आप खाइये ताकि आप इस अग्रामिक अटवी को पार कर सके और राजगृह नगर
(तुब्भेणं ताओ ! अम्हं पिया गुरूजणयदेवभूया ठावगा पइट्ठावगा संरक्खगा संगोवगा तं कद्दण्णं अम्हे ताओ ! तुम्भे जीवियाओ ववरोवेमो तुम्भं णं मंसं च सोणियं च आहारेमो अगामियं अडवि णित्थरह तं चेव सव्वं भण जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह) : હે તાત ! તમે અમારા પિતા છે, એથી તમે અમારા દેવ અને ગુરૂના
સ્થાને છે. તમે મને નીતિ ધર્મ વગેરેમાં પ્રવૃત્ત પણ કરતા રહે છે. રાજા વગેરેની સામે તમે પિતાના સ્થાને મને બેસાડે છે એથી તમે મારા સ્થાપક અને પ્રતિષ્ઠાપક છે. યથેચ્છા પ્રવૃત્તિથી તમે મારી રક્ષા કરતા રહે છે એથી તમે મારા સંરક્ષક છે, દુરિત પ્રવૃત્તિથી તમે મને રોક્તા રહે છે, એથી તમે મારા સંગાપક છે. તે આવી પરિસ્થિતિમાં હે તાત ! હું તમને કેવી રીતે જીવન રહિત બનાવી શકે અને કેવી રીતે તમારા શેણિત અને માંસનું ભક્ષણ કરી શકું? એથી હે તાત ! તમે મુજ ધનદત્તને જ જીવન રહિત બનાવી દો અને મારા ખૂન અને માંસનું તમે ભક્ષણ કરો. જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે અને રાજગૃહ નગરમાં પહોંચીને ત્યાં
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मैनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् १९९ रह' निस्तरत-पारंगच्छत, 'तंचेव सव्वं भणह' तदेवसर्व भणति यथा धन्य सार्थवाहो ज्येष्ठं पुत्रमवदत् , तथैवायमपि तदेव सर्वं कथयति, यावत् अर्थस्य धर्मस्य पुण्यस्य च आभागिनो भविष्यथ । ततः खलु धन्यं सार्थवाह ' दोच्चे' द्वि. तीयः पुत्रधनपालनामा एवमवदत्-मा खलु हे तात ! अस्माकं ज्येष्ठं भ्रातरं 'गुरुदेवयं ' गुरुदैवतं-देव-गुरुसदृशम् , जीविताद् व्यपरोपयामा-मारयामः, यूयं खलु हे तात ! ' ममं ' मान्धनपालनामानं जीविताद् व्यपरोपयत यावत् अर्थादिफलभाजो भविष्यथ । ' एवं अनेन प्रकारेण 'जाव पंचमेपुत्ते' यावत् पहुंच कर वहां अपने मित्रादि परिजनों के साथ मिल सके। तथा धन धर्म एवं पुण्य के भोक्ता बन सके। "तं चेव सव्वं भणइ" इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार धन्यसार्थवाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, धनदत्त से कहा-उसी प्रकार धनदत्त ने भी अपने पिता से बैसाही कहा(तएणं धण्णं सत्यवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-माणं ताओ ! अम्हे जेटे भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो-तुम्भेणं ताओ! ममं जीविपाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामियं अडविं णित्यरह तं चेव सव्यं भणइ जाव अस्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भवि. स्सह ) इसके बाद धन्यसार्थवाह से उसके द्वितीय पुत्र ने इस प्रकार कहा-हे तात! आप हमारे गुरु देवतातुल्य ज्येष्ठ भाई को जीवन से रहित मत कीजिये किन्तु आप तो हे तात ! मुझे ही जीवितसे रहितकर दीजिये और मेरे ही रक्त एवं मांस को आप खाईये पीईये-ताकि इस अग्रामिक अठवी से पार हो सके इत्यादि पहिले जैसा ही इसने પિતાના મિત્ર વગેરે પરિજનોની સાથે મળી શકે. તેમજ ધન ધર્મ અને पुयना माता मनी शी. " तव सव्वं भणइ” मान। म माम याय છે કે જેમ ધન્ય સાર્થવાહે પિતાના મોટા પુત્ર ધનદત્તને કહ્યું તેમજ ધનદત્ત પણ પિતાના પિતાને કહ્યું.
(तएणं धणं सत्यवाहं दोच्चे पुत्ते एवं क्यासी-माणं ताओ ! अम्हे जेद्वे भायरं गुरूदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भेणं ताओ ! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अग्गामि यं अडविं णित्थरह तं चेव सव्वं भणइ जाब अस्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह)
. ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહને તેના બીજા પુત્રે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત! તમે અમારા ગુરુદેવતા જેવાં મોટા ભાઈને જીવન રહિત ન કરે પણ હે તાત! તમે મને જ મારી નાખો અને મારા જ લેહી અને માંસને તમે ખાઓ પીઓ, જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે, આમ
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हाताधर्मकथाजस्त्रे पञ्चमः पुत्रः तृतीयो धनदेवश्चतुर्थों धनगोपः, पञ्चमो धनरक्षितश्चाऽप्यवदत् । ततः इत्थं तेषां वचनश्रवणानन्तरं, खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चपुत्राणां 'हियइच्छियं' हृदयेष्टम्-हृदयेप्सितं ज्ञात्वा तान् पुत्रान् एवमवादीत्-मा खलु वयं हे पुत्राः ! एकमपि अस्माकं मध्ये एकमपि जीविताद् व्यपरोपयामः एतत् खलु सुसुमाया दारिकायाः शरीरं ‘णिप्पाणं' निष्प्राण-पाणरहितम् , ' णिच्चेट्ट' निश्चेष्टं चेष्टारहितम् ‘जीवविप्पजढे ' जीवविप्रत्यक्तम् जीवहीनम् , सर्वथा मृतमस्ती. त्यर्थ?, तच्छ्यः उचितं खलु हे पुत्राः ' अम्हं ' अस्माकम् सुसुमाया दारिकाया मांसं च शोणितं च आहर्तुम् , ततः तदनन्तरं च खलु वयं तेन आहारेण 'अ. सब कहा ( एवं पंचमे पुत्ते) इसी तरह उससे तृतीय धनदेवने चतुर्थ धनगोपने एवं पांचवे धनरक्षित ने भी कहा-(तएणं से धण्णे सत्थवाहे पंचण्हं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता तं पंचपुत्ते एवं वयासी) इस के पाद उस धन्यसार्थवाह ने पांचों पुत्रों के अभिप्राय को जानकर उन अपने पांचों ही पुत्रों से इस प्रकार कहा-(माणं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो एसणं सुसमाए दारियाए सरीरए णिप्पाए णिघचेट्ठ जीवविप्पजढे-तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुसमाए दारियाए मंस घ सोणियं च अहारेत्सए) हे मेरे पुत्रों! मैं एक को भी जीवन से रहित नहीं करना चाहता हूँ किन्तु यह सुसमादारिका का शरीर जो कि निष्प्राण, निश्चेष्ट, और जीवन से रहित बन गया है इसलिये हमे उचित है कि हे पुत्रों ! हम इस सुंसमदारिका का मांस एवं शोणित तेथे ५iनी भ० मधु ४धु. (एवं पंचमे पुत्ते ) मा प्रमाणे ४ तेन ત્રીજા ધનદેવે, ચેથા ધનપે અને પાંચમા ધનરક્ષિતે પણ કહ્યું. (तएणं से धण्णे सत्यवाहे पंचण्डं पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता तं पंच पुत्ते एवं वयासी)
ને ત્યારપછી તે ધન્ય સાર્થવાહ પાંચ પુત્રોની હથની અભિલાષા જાણીને પિતાના તે પાંચે પુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું કે–
(माणं अम्हे पुत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो एसणं सुसमाए दारियाए सरीरए णिपाणे णिच्चेटे जीवविष्पजढे-तं सेयं खलु पुत्ता ! अम्हं सुंसमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए )
હે મારા પુત્ર ! તમારામાંથી એકને પણ હું મારવા માગતા નથી. પરંતુ આ સુંસમાં દારિકાનું શરીર કે જે નિાણ, નિચેષ્ટ અને નિર્જીવ બની ગયું છે–એટલા માટે અમારા માટે હે પુત્ર! એ જ યંગ્ય છે કે આપણે આ સુસમાં દારિકાનાં માંસ અને શેણિતને ખાઈએ.
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अगरधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिका बरितवर्णनम्
७०१
4
,
विद्वत्था समाणा ' अविध्वस्ताः = शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तः राजगृहं ' संपाउणि स्लामो ' संप्राप्स्यामः । ततः खलु ते पञ्चपुत्राः धन्येन सार्थवाहेन एवमुक्ताः सन्तः एयमहं ' एतमर्थम् पूर्वोक्तरूपम् ' पडिसुर्णेति प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकु· र्वन्ति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्चभिः पुत्रैः सार्द्धम् ' अरणिं' अरणि यस्मिन् मध्यमानेऽग्निरुत्पद्यते तत्काष्ठम् 'करेई' करोति संगृह्णाति कृत्वा 'सरगं' सरकम् - निर्मन्थनकाष्ठं करोति = आनयति कृत्वा, सरकेण अरणि मध्नाति=घर्षयति मथवा 'अरिंग पाडे' पातयति मन्यनवशादग्निमुत्पादयति' पाडिता' पाठखावें । (तएण अम्हे तेणं आहारणं अविद्धस्था समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो-तणं ते पंच पुत्ता घण्णेणं सत्थवाहेणं एवंवृत्ता समाना एम पडणेति ) इस से हमलोग उस आहार से शरीर नाश को अप्राप्त होकर राजगृह नगर में पहुँच जायेंगे। इस प्रकार धन्यसार्थवाह के द्वारा कहे गये उन पांचों पुत्रों ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को स्वी कार कर लिया । (तएण घण्णे सत्यवाहे पंचहि पुतेहि सद्धि अरणिकरेह, करिता सरगंच करेइ, करिता सरएण अरणि महेह, महित्ता अरिंग पांडे, पाडिता अरिंग, संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाई परिक्खवेइ परिक्खवित्ता अगिंग पज्जालेइ पज्जालित्ता सुंसमाए मंसं च सोणियं च आहारेति ) इस के बाद धन्यसार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ मिलकर अरणिकाष्ठ को एकत्रित किया । एकत्रित कर के फिर वह सरक कष्ट को निर्मथनकाष्ठ को ले आया उसे लेकर के उसने उससे अरणि का घर्षण किया । इस तरह घर्षण से अग्नि उत्पन्न हो गई । अग्नि के
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,
( तरणं अम्हे तेणं आहारेण अविद्धत्था समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो तणं ते पंच पुत्ता धणेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्तासमाणा एयमहं पणिसुर्णेति ) એથી આપણે બધા આ આહારથી શરીર નાશથી ઊગરી જઇને રાજગૃહુ નગરમાં પહોંચી જઇશું. આ પ્રમાણે ધન્ય સાથે વાહ વડે કહેવાયેલા પાંચે પુત્રાએ ધન્ય સાવિાહની તે વાતને સ્વીકારી લીધી.
(तरणं धणे सत्यवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणि करेह, करिता, सरगं च करेइ, करित्ता सरएणं आणि महेश, महित्ता अगि पाडे, पाडिता अरिंग संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुपाई परिक्खवे, परिक्खत्रित्ता अरिंग पज्जालेइ, पज्जालित्ता समाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेति )
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ત્યારપછી ધન્ય સાઈવાડે પાંચે પુત્રાની સાથે મળીને અણુિ કાઇને એકઠુ કર્યું. એક' કરીને તેએ સરક કાષ્ઠને-નિમ થન કાષ્ઠને લઈ આવ્યા. તેને લઈને તેણે તેથી અરણિકા કાષ્ઠનું ઘણું કર્યુ. આ પ્રમાણે ઘણુંથી અગ્નિ
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ॐ
statusथानपत्रे
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यित्वा = उत्पाद्य अग्नि 'संधुकखेइ' संधुक्षयति- उद्दीपयति, संधुक्ष्य उद्दीप्य 'दारुयाई ' दारुकाणि= इन्धनानि तत्र ' परिक्खिवइ ' परिक्षिपति, परिक्षिप्य, अग्नि प्रज्वालयति, प्रज्वालय, सुंसुमाया दारिकाया भर्जितं मांसं च शोणितं च ' आहारेइ' आहारयति । अनन्तरं तेन आहारेण ' अविद्धत्था ' अविध्वस्ताः = शरीरनाशमप्राप्ताः सन्तो राजगृहं नगरं संप्राप्ताः ' मित्तणाई० अभिसमण्णा गया ' मित्रज्ञार्ति= मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनैः सह 'अभिसमण्णा गया' अभिसमन्वागताः= संमिलिताः सन्तः तस्य च विपुलस्य 'धणकणगरयण जाव' धनकनक रत्न यावत् =धनकनकरत्नादिकस्य ' आभागी जाया यात्रि होत्था ' आभागिनो जाताश्वाप्यभत्रन्ं । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः सुसुमाया दारिकाया बहूनि लौकिकानि उत्पन्न होने पर उसने फिर उसे धौंका उद्दीपित किया जब वह उद्दीपित हो चुकी - तब उसने उसमें लकडियों को लगाया। इस तरह की क्रिया से जब अग्नि अच्छी तरह प्रज्वलित हो चुकी-तब उसमें सुंसमा : दारिका के मांस को और खून को भूजा-भूजकर उसे सबने खाया पीया- (ते आहारेण अविद्धस्था समाणा रायगिहं नयरं संपत्ता मित्त. णाइ० अभिसमणागया तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव आभागी - जाया याच होत्या तएण से घण्णे सत्थवाहे सुंसमाए दारिया ए बहूई लोइयाई जाव विगयसोए याविहोत्या) इस प्रकार उस आहार की सहायता से अविश्वस्त शरीर होकर वे वहां से चल कर राजगृह नगर में आ गये। वहां अकार वे अपने मित्रज्ञाति आदि परिजनों से खूब हिले मिले । एवं धनकनक आदि द्रव्य के भोक्ता भी बन गये ।
ઉત્પન્ન થઈ ગયા. અગ્નિ ઉત્પન્ન થયા બાદ તેણે તેને ઉદ્દીપિત કર્યો. જ્યારે તે ઉદ્દીપિત થઇ ગયે! ત્યારે તેણે તેમાં લાકડીએ મૂકી. આ રીતે જ્યારે સારી રીતે અગ્નિ પ્રજ્વલિત થઇ ગયા ત્યારે તેમાં સુંસમા દ્વારિકાના માંસને અને લેાઢીને શેયાં, શેકયા બાદ તેને બધાએ ખાધાં–પીધાં.
( तेणं आहारेणं अविद्धत्था समाणा रायगिहं नयरं संपत्ता, मित्तणा१० अभिसमणा गया, तस् य विउलस्स घणकणगरयण जाव आभागीजाया यात्रि होत्या तरणं से घण्णे सत्यवादे सुंसमाए दारियाए बहूई लोइयाई जाव विगयसीए यात्रि होस्था )
આ પ્રમાણે તે આહારની સહાયતાથી અવિનષ્ટ શરીરવાળા થઇને તેઓ ત્યાંથી રવાના થઈને રાજગૃહ નગરમાં આવી ગયા. ત્યાં આવીને તેએ પાતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનાની સાથે ખૂબ આનંદ-પૂર્વક મળ્યા, અને ધન, નક વગેરે દ્રવ્યોને ભેગવવા લાગ્યા. સંસમા દ્વારિકાના મરણ પછીનાં જેટલાં
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सुसुमादारिकाचरितवर्णनम् ७०३ मृतकृत्यानि कृत्वा कालान्तरे ' विगयसोगे' विगतशोकः मुंसुमामरणजनितशोकरहितो जातश्चास्यभूत् ।। सू० ८॥ ___ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए समोसढे।से णं धण्णे सत्थवाहे सपुत्ते धम्म सोच्चा पवइए, एकारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णो, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। जहा वि य णं जम्बू! धण्णेणं सत्थवाहेणं णो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेडं वा नो विसयहेडं वा सुसुमाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्रयाए। एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सं विप्पजहियव्वस्स वा नो वण्णहेडं वा नो रूवहेडं वा नो बल. हेडं वा नो विसयहेडं वा आहारे आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्रयाए, से णं इहभवे चेव बहणं समणाणं बहूर्ण समणीणं बहणं सावयाणं बहणं सावियाणं अच्चणिजे जाव वीइवइस्सइ।
एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्त णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तिबेमि ॥सू०९॥
॥ अट्ठारसमं अज्झयणं समत्तं ॥
टीका-'तणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो गुणशिल के चैत्ये ' समोसढे' समवसतः तीर्थकरपरम्परया सुसमा दारिका के मरणोत्तर काल में जो भी लौकिक कृत्य कियेजाते -वे सब भी उन्होंने किये और धीरे २ विगत शोक भी हो गए।०८। લૌકિક કૃત્ય કરવાં જોઈએ તે સર્વે તેમણે પતાવ્યાં અને ધીમે ધીમે તેઓ શંકરહિત પણ બની ગયા. એ સૂત્ર ૮ છે
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७०४
शाताधर्मकथासूत्र समागतः । अनन्तरं स धन्यः सार्थवाहः सपुत्रो धर्म श्रुत्वा प्रवजितः, प्रवज्यानन्तरम् ' एकारसंगवी' एकादशाङ्गवित्-एकादशाङ्गाभिज्ञो जातः 'मासियाए' मासिक्या संलेखनया कालं कृत्वा ' सोहम्मे सौधर्मे कल्पे 'उपपन्नः' । पुनः ततच्युतः महाविदेहे वर्षे' सिज्झिहिइ' सेत्स्यति-मुक्ति प्राप्स्यति । सम्प्रति धन्यसार्थवाहदृष्टान्तेन जम्बूस्वामिनं सम्बोध्य श्रीसुधर्मास्वामीप्राह 'जहा वि इत्यादिना
'तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर (गुणसिलए चेहए समोसढे, से णं धणे सत्यवाहे सपुत्ते धम्मं सोचा पव्वइए-एक्का रसंगवी-मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णे, महाविदेहे वासे सिझिहिइ ) गुणशिलक उद्यान में आये। उनसे धर्म का उपदेश सुनकर वह धन्यमार्थवोह अपने पांचों पुत्रों सहित उनके पास प्रवजित हो गया। प्रव्रजित होकर धीरे २ वह एकादशांगों का ज्ञाता भी हो गया। अन्त समय में उसने एक मास की संलेखना धारणकर काल अवसर काल किया-तो उसके प्रभाव से वह सौधर्म कल्प में उत्पन्न हो गया। वहां से चव कर अब वह महाविदेह क्षेत्र में मुक्ति को प्राप्त करेगा। इस धन्यसार्थवाह के दृष्टान्त से जंबू स्वामीको संबोधितकर के श्री
- तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि
Atथ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) ते ॥णे भने ते समय (समणे भगवं महावीरे ) श्रम भगवान महावीर
(गुणसिलए चेइए समोसढे । सेणं धण्णे सत्थवाहे सुपुत्ते धम्मं सोचा पाइए-एक्कारसंगवी-मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उबवण्णे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ )
ગણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને તે ધન્ય સાર્થવાહ પિતાના પાંચ પુત્રની સાથે તેમની પાસે પ્રજિત થઈ ગયો. પ્રવ્રજિત થઈને તે ધીમે ધીમે એકાદશ (અગિયાર) અંગને જ્ઞાતા પણ થઈ ગયે. છેવટે મૃત્યુ સમયે એક માસની સંલેખના ધારણ કરીને કાળ અવ. સરે તેણે કાળ કર્યો. તે તેના પ્રભાવથી સૌધર્મ કલ્પમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયો. ત્યાંથી ચવીને હવે તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે. આ ધન્ય સાથે. વાહના દષ્ટાન્તને સામે રાખીને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ જ બૂ સ્વામીને સંબોધિત
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नमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १८ सुसुमावारिकाचरितवर्णनम् ७५ जहावि यण' यथाऽपि च खलु येन प्रकारेण खलु हे जम्धूः! धन्येन सार्थवाहेन नो वर्णहेतोः = नो रूपहेतोः बलहेतोः-नो विषयहेतो. सुंसुमाया दारिकाया मांसशोणितमाहारितम् , एगाए रायगिहसंपावणट्टयाए' एकस्य राजगृह संप्रापणार्थताया अन्यत्र न, किन्तु-अहं राजगृहं संपाप्नुगम् इति हेतोरेव तेन पुरैः सह तद आहारितमिति भावः।
भगवानाह-'एवामेव ' एवमेव अनेन प्रकारेणैव 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः योऽस्माकं निर्ग्रन्यो वा निर्ग्रन्थी वा अस्य वान्तास्रवस्य पिसा. सुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-(जही वि य जंबु ! धणेण सत्यवाहेण णो वण्ण हेर्ड वा नो रूवहेर्ड वा नो बलहेउं वा नो विसयहे वा सुसुमाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्य एगाए रायगिहं संपावणट्ठयाए-एवामेव सम गाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधीवा इमस्स ओगलियसरीर स्स वंतास वस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासघस्स जाव अवस्सं विप्पजहियवस्स नो घण्णहेउ वा नो रूवहेउं वा नो बलहे वो नो विसयहे आहरं अहारेइ, ननथएगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए) हे जंबू ! जिस तरह धन्यसार्थवाह ने अपने शरीर में कान्ति विशेष चढाने के लिये, बल बढाने के लिये, अथवा विषय सेवन की शक्ति पढाने के लिये सुसुमा दोरिका का मांम एवं शोणित नहीं खाया। किन्तु मैं पुत्रों के सहित राजगृह नगर में पहुँच जाऊँ इसी एक अभि. प्राय से सुसुमा दारिका का अपने पुत्रों महित मांस शोणित सेवन किया-इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमरा निर्ग्रन्थ श्रमण जन अथवा श्रमणी जन है-वह इस वान्तास्रववाले, पित्तानववाले, शुक्रास्रકરીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(जहा वि य णं जंबू!धण्णेणं सस्थवाहेणं णो वण्णहेउं वा नो रूबहेउवा नो बलहेउवा नो बिसय हेउं वा सुंसुमाए मंससोगिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं, संपावणट्टयाए एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पितासवस्स मुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अवस्से विप्पजहियवस्स नो वण्णहेउं वो नो रूवहेउ वा नो बलहेउं वा नो विसय हेउं वा आहारं आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए ) ।
હે જબૂ! જેમ ધન્ય સાર્થવાહે પિતાના શરીરમાં કાંતિ વિશેષની વૃદ્ધિ કરવા માટે બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા વિષય સેવનની શક્તિના વર્ધન માટે
સુમા દારિકાનાં માંસ અને શાણિત નહિ ખાધાં, પણ પુત્રે સહિત હું રાજ ગૃહ નગરમાં પહોંચી જવું આ એક જ મતલબથી પિતાના પુત્રની સાથે સંસુમાં દારિકાના માંસ-શેણિત સેવન કર્યા. આ પ્રમાણે તે આયુમંત શ્રમણે ! જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણજન અથવા શ્રમણીજને છે તેઓ આ વાંતા
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पाताधर्मकथा सवस्य शुकासास्य ' जार आस विषजहियधस्स ' याद् आश्यं विप्रत्याज्यस्य औदारिकशरीरस्य नो वर्णहेतो , नो रूपहेतोर्वा नो वलहेतो, नो विषयहेतो;, आहारमाहरति आहारं करोति, 'एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्ठयाए' एकस्याः सिद्धिगमनसंपापणार्थतायाः 'नन्नत्थ' अन्यत्र न, मोक्षमाप्तिरूपं प्रयोजनं विहाय वर्णादिप्रयोजनेन आहारं नाहरतीति भावः । सःनिर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा खलु · इहभवे चेव ' इहभवे एव अस्मिन् जन्मन्येव बहूनां श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणाम् ' अच्चणिज्जे' अर्चनीयः= आदरणीयः 'जाव वीइवइस्सइ यावद् व्यतिबनिष्यति चातुरन्तसंसारकान्तारमुल्लङ्घयिष्यति-संसारपारं गमिष्यतीत्यर्थः । वाले, यावत् अवश्य परित्याग होने की योग्यतावाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष बढाने के लिये बल बढाने के लिये, अथवा विषय की प्रवृत्ति चालू रखने के लिये आहार नहीं लेता है किन्तु-एककेवल सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने के लिये ही आहार लेता हैं। मोक्ष प्राप्तिरूप प्रयोजन को छोड़कर और किसी कान्ति आदि बढाने के अभिप्राकरूप प्रयोजन से निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणी जन अहार नहीं लिया करते हैं-(सेणं) ऐसे निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणी जन ( इहभवे चेव बहणं समणाणं वहणं समणीणं बहूणं सावयाण यह सावियाण अच्चणिजे जाव वीइवइस्तइ ) इस भव में ही अनेक श्रमण, श्रमणी, जनों द्वारा तथा श्रावक श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय-आदरणीय यावत् इस चतुर्गतिरूप संसार कान्तार को पारकरने वाले होते हैं। (एवं खलु સવવાળા, પિત્તાસવવાળા, શુક્રાસવવાળા યાવત્ ચેક સ ન થનારા આ
દારિક શરીરમાં કાંતિ વિશેષની વૃદ્ધિ માટે, બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા તે વિષયની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખવા માટે આહાર લેતું નથી પણ ફક્ત એક જ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવા માટે જ આહાર ગ્રહણ કરે છે. મેક્ષપ્રાપ્તિ ૩૫ પ્રજન વગર બીજી કઈ કાંતિ વગેરેની વૃદ્ધિની અભિલાષા રાખીને निय-श्रमीशन २ ५७ ४२ता नथी. ( सेणं) मेवा निय श्रम श्रमशीनी
( इहभवे चेव बहूणं समणाणं समगीणं वहूर्ण साक्याणं बहूगं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ)
આ ભવમાં જ ઘણું શમણુ શ્રમણીજને વડે તેમજ શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, આદરણીય યાવત્ આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારને પાર કરી જનારા હોય છે.
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arraanant हो० अ० १८ सुसुमादारिका बरितवर्णनम्
सुधर्मास्वामी प्राह-' एवं ' अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण 'जाव संपत्तेणं ' यावत् संप्राप्तेन=मोक्षगतेन अष्टादशस्य ज्ञाताध्ययनस्य ' अयमडे ' अयमर्थः = पूर्वोक्तरूपोऽर्थः प्रज्ञप्तः = प्ररूपितः, 'त्ति बेमि ' इति ब्रवीमि=अस्य व्याख्या पूर्ववत् ॥ ०.९ ॥
وق
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वलभ-प्रसिद्ध वाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापाळापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहूच्छपतिकोल्हापुर राजमदत्त - 'जैनशास्त्रावार्य ' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकरपूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचितायां - ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्थानगारधर्मामृतवर्षियाख्यायां व्याख्यायामष्टादशमध्ययनं समाप्तं ॥ १८ ॥
जंबू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्ते अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयम पण्णतेत्तिबेमि ) इस प्रकार से हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीरने जो सिद्धि गति नमक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस अठारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ प्ररूपित किया है । ऐसा जो मैंने कहा है वह उन्हीं के श्री मुख निर्गतवाणी को सुनकर ही कहा है- अपनी और से इसमें कुछ भी मिलाकर नहीं कहा है ।। सू० ९ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका अठारहवां अध्ययन समाप्त ॥ १८ ॥
एवं खलु जंबू ! समणेगं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयम पण्णणे तिबेमि )
આ પ્રમાણે હે જમ્મૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકયા છે-આ અઢારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપથી અર્થ પ્રરૂપિત કર્યાં છે. આવું જે મેં કહ્યું છે, તે તેમના જ શ્રીમુખથી નીકળેલી વાણીને સાંભળીને જ કહ્યું છે. પેાતાના તરફથી ઉમેરીને મે' કહ્યું નથી. ॥ સૂત્ર ૯ ૫
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શ્રી જૈનાચાય જૈનનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી બાસીલાલજી મહઃરાજ કુત ‘ જ્ઞાતાધર્મકથા સૂત્ર ” ની અનગારધર્મામૃતષિણી વ્યાખ્યાનું અઢારમું અધ્યયન સમાસ ! ૧૮ ૫
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अथ एकोनविंशतितममध्ययनम्गतमष्टादशमध्ययनम् , साम्पतमेकोनविंशतितम व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सह अयमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन्नध्ययने असंतृतास्र पस्य तदितरस्य च अन
यौँ उक्तौ, इहतु चिरं संहतास्रवोऽपि यः पश्चादन्यथा स्यात्तस्य अल्पकालं संवतात्रवस्य च अनौँ प्रोच्येते, इत्येवं सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिमूत्रम्-'जइणंभंते' इत्यादि।
॥ पुण्डदीक-कण्डरीक नाम का उन्नीसवां अध्ययन प्रारंभ ॥
अठारहवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अब १९ वां अध्ययन प्रारंभ होता है-इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार का संब. न्ध है पूर्व अध्ययन में असंवृतास्रव अथवा संवृतास्रव वाले प्राणी को अर्थ एवं अनर्थ की प्राप्ति होना समर्थित किया गया है-अर्थात् असं. घर वालेको अनर्थ की प्राप्ति होती है और संवरवाले को इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है :। अब इस अध्ययन में सूत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि जिस प्राणी ने चिरकाल से आस्रवको संवृत कर दिया हैपरन्तु यदि वह पीछे से असंवृतास्रव वाला बन जाता है तो उसके अनर्थ की प्राप्ति तथा अल्प काल भी जिसने आस्नत्र को संवृतकर दिया है उसके अर्थ की प्राप्ति होती है। इस संबंध को लेकर प्रारंभ किये गये इस अध्ययन का यह सर्व प्रथम सूत्र है।
પુણ્ડરીક-કડરીક નામે ઓગણીસમું અધ્યયન પ્રારંભ અઢારમું અધ્યયન પુરું થઈ ગયું છે હવે ઓગણીસમું અધ્યયન શરૂ થાય છે. આ અધ્યયનને એના પૂર્વ અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે પૂર્વ અધ્યયનમાં અસંવૃતાસવ અથવા સંવૃતસવવાળા પ્રાણુને અર્થ અને અનર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે વાતનું સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કે અસંવરવાળાઓને અનર્થની પ્રાપ્તિ હોય છે અને સંવરવાળાઓને ઇષ્ટ–અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે. હવે આ અધ્યયનમાં સૂત્રકાર આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરી રહ્યા છે કે જે પ્રાણીઓ ચિરકાળથી એટલે કે બહુ લાંબા વખતથી આમ્રવને સંવૃત કરી દીધો છે, પરંતુ જે તે પાછળથી એટલે કે ભવિષ્યમાં અસંવૃત્તાસવવાળે બની જાય છે તે તેને અનર્થની પ્રાપ્તિ તેમજ થોડા વખત સુધી પણ જેણે આસવને સંવૃત કરી દીધું છે તેને અર્થની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ વાતને લઈને આરંભાએલા આ અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે
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अनगारधामृतवर्षिणी टीका अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७६
मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, एगूण. वीसइमस्स णायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे पुव्वविदेहेवासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्त दाहिणेणं उत्तरिलस्स सीयामुहवणसंडस्स पञ्चस्थिमेणं एगसेलगस्स वक्खारपवयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं पुक्खलावई णामं विजए पन्नत्ते। तत्थ णं पुंडरिगिणी णामं रायहाणी पन्नत्ता णवजोयणवित्थि. पणा दुवालसजोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोगभूया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसेणं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णलिणिवणे णाम उजाणे । तत्थ णं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे गामं राया होत्था, तस्त णं पउमावई णामं देवी होत्था । तस्स णं महापउमस्स रनो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होस्था, तं जहापुंडरीए य कंडरीए य, सुकुमालपाणिपाया० । पुंडरीए जुवराया। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए धम्म सोच्चा, पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पम्वइए पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया, महापउमे अणगारे चोदसपुवाई अहिजइ , तएणं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरति , तएणं से महापउमे बहंणि वासाइं जाव सिद्धे ॥ सू० १॥
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श्राताधर्मकथासूत्रे
"
टीका- ' जइणं भंते ' इत्यादि । यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन अष्टादशस्य ज्ञाताऽध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः, पुनः खलु भदन्त ! एकोनविंशतितमस्य ज्ञाताऽध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? | इति जम्बूस्वामीप्रश्नानन्तरं सुधर्मास्वामी कथयति एवं खलु हे जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये व 'जंबूदीवे दीवे ' जम्बूद्वीपे द्वीपे = मध्यजम्बूद्वीपे 'पुव्वविदेवासे पूर्वविदे वर्षे शीताया महानद्याः ' उत्तरीये = उत्तरदिक् स्थिते कूले= तीरे ' नीलवंतस्स दाहिणेणं' नीलवतो दक्षिणे- नीलवतः पर्वतस्य दक्षिणे भागे ' उत्तरिल्लस्स ' उत्तरीयस्य उत्तरदिक् स्थितस्य ' सीमामुहवणसण्डस्स' सीतामुखचनपण्डस्य = शीताया नद्या यन्मुखमुद्गमस्थानं, तत्र यद् वनषण्डम् तस्य, ' पच्चत्थिमेणं जणं भंते! समणेण भगवया महावीरेण ' इत्यादि ।
6
टीकार्थ :- जंबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (जहण भंते समणेण भगवया महावीरेण जाव संपत्तेण अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयम पण्णत्ते एगूणवीसमस्स णायज्झयणस्स के अड्डे पण्णते ? ) हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीरने कि जो सिद्धि गति नामक मुक्तिस्थान को प्राप्त कर चुके हैं अठारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है तो उन्हीं श्रमण भगवान् महावीरने १९ वे ज्ञाताध्ययन का क्या भाव -अर्थ निरूपित किया है ? ( एवं खलुं जंबू ! तेणं काळेण तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे पुण्यविदेह बासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेणं उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणसंडस्स पच्चस्थिमेगं एगसेलगस्स वक्खारपव्वयस्स
6
'जइण' भ'ते ! समणेण भगवया महावीरेण -
ટીકા જ વ્યૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે :
-DY
( जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स णायझयणस्स अमट्ठे पण ते एगूगवीसइमस्स णायज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते ? )
હું ભઇન્ત ! જો શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે સિદ્ધિગતિ નામક મુક્તિસ્થાનને મેળવી લીધું છે-અઢારમા જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અથ નિરૂપિત કર્યો છે ત્યારે તે જ શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમા જ્ઞાતાધ્યયનના શે। ભાવ-અ નિરૂપિત કર્યાં છે ?
( एवं खलु जंबू | तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबू दीवे दीवे पुत्रविदेहवा से सीयाए महागईए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेणं उत्तरिल्लस्स
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ममगारधामृतषिणी टीका ४० १९ पुंडरीक कंडरीकवचरित्रम ७१ पाश्चात्ये पश्चिमेभागे 'एगसेलगस्स' एकशैलकस्य मध्यजम्बूद्वीपमेरुपर्वतसमीपस्थस्य एक शैलकनामकस्य वखारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये-पूर्वस्यां दिशि ' एस्थणं ' अत्र स्लु पुष्कलावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः । तत्र खलु पुण्डरीविणी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा ‘णवजोयणवित्थिण्णा' नवयोजनविरतीर्णा = नवयोजनविस्तारवती 'दुवालसजोयणायामा ' द्वादशयोजनायामा द्वादशयोजनानि आयामो दैर्ध्व यस्याः सा द्वादशयोजनदीघेत्यर्थः, पुनः 'जाव पच्चक्खं देवलोयभूया यावत् प्रत्यक्षदेवलोकभूता-साक्षात् स्वर्गसदृशापुनः प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रनिरूपा । तस्याः खलु पुण्डरीकिण्याः पुरस्थिीमेण एत्थण पुक्खलाहणाम विजए पणत्त ) इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं-सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल और उस समय में इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्रमें, शीत महानदी के उत्तरदिग्वर्ती तीर पर स्थित नील पर्वत के दक्षिण दिग्भाग में, तथा उत्तर दिग्वर्ती शीतामुखवनषंड के पश्चिम भाग में, तथा एक शैलक नाम वाले वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में पुष्कलावती इस नाम का विजय है । शीतामुखवनषंड का तात्पर्य यह है-कि जहां से शीतानदी नीकली है उस उद्गमस्थान पर एक वनपंड है। मध्य जंबूद्वीप और मेरूपर्वत के समीप में रहा हुआ एक शैलक नाम का वक्षस्कार पर्वत है। (तएण पुंडरिगिणीणामं रायहाणी पन्नत्ता, णवजोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा, जाव पच्च क्खं देयलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा) उस सीयामुहवणसंडस्स पच्चत्थिमेणं एगसेलगस्स वववारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं पुक्खलावइ णामं विजए :पण्णत्ते )
આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધર્મા તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જંબૂ ! સાંભળે, તમારા સવાલને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રમાં, શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિશા તરફના કિનારા ઉપર આવેલા નીલ પર્વતના દક્ષિણ દિગ્રભાગમાં તેમજ ઉત્તર દિશામાં આવેલા સીતા મુખવનણંડના પશ્ચિમ ભાગમાં, તેમજ એક શેલક નામવાળા વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં પુષ્કલાવતી નામે એક વિજય છે. સીતા મુખવન-કંડનો અર્થ આમ સમજ જોઈએ કે જ્યાંથી શીતા નદી નીકળી છે, તે ઉદ્દગમ સ્થાન ઉપર એક વનખંડ છે. મધ્ય જંબૂઢીપ અને મેરૂપર્વતની પાસે આવેલ એકશૈલક નામે વક્ષસ્કાર પર્વત છે.
(तस्थणं पुंडरिगिणीणामं रायहाणी पन्नत्ता, णव जोयणवित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा, जाव पच्चक्खं देवलोयभूया पासाईया, दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा)
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७१२
ज्ञाताधर्मकथान
नगर्यो: उत्तर पौरस्त्ये दिग्भागे नलिनीवनं नाम उद्यानम् । तत्र खल पुण्डरीकियां राजधान्यां महापद्मो नाम राजाऽऽसीत् । तस्य खलु पद्मावती नाम देवी आसीत् । तस्य खलु महापद्मस्य राज्ञः पुत्री पद्मावत्या देव्या आत्मजौ द्वौ कुमारौ आस्ताम् । ' तं जहा ' तद्यथा तयोर्नामरूपे, तदाह - ' पुंडरीए य कंडरीए य सुकुमालपाणिपाया ' पुण्डरीकश्च कण्डरीकश्च सुकुमारपाणिपादौ कोमलकरचरणौ । तयोमध्ये पुण्डरीको युवराजाssसीन् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'थेरागमणं ' पुष्कलावती विजय में पुंडरी किनी नाम राजधानी थी। यह नव योजन विस्तारवाली तथा १२ योजन की लंबी है यह साक्षात स्वर्ग जैसी प्रतीत होती है । प्रासादीयचित्त एवं अन्तःकरण को यह प्रसन्न करने वाली है, दर्शनीय नेत्रों को तृप्ति करने वाली है, अभिरूप असाधारण रचना से युक्त हैं एवं प्रतिरूप है - इसके जैसी और दूसरी कोई नगरी नहीं हैं ऐसी । ( तीसेणं पुंडरिगीणीए णयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए लिणिवणे णामं उज्जोणे तत्थ णं पुंडरिगिणीए रावहाणीए महापउमे णामं राया होत्या तस्सणं परमावईणामं देवी होत्था, तस्स णं महापउमस्स रण्णो पुस्ता पउमावईए देवीए अन्तया दुवे कुमारा होत्था ) उस पुंडरीकिणी नगरी के उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग में नलिनीवन नाम को एक उद्यान था । उस पुंडरीकिणी राजधानी में महापद्मनाम का एक राजा रहता था। उसकी देवी का नाम पद्मावती थो। उस महापद्म राजा के यहां पद्मावती की कुक्षि से उत्पन्न हुए दो कुमार थे ( तं जहा पुंडरीए य, कंडरीए य-सुकुमालपाणि पाया० । पुंडरीए जुवराया तेणं कालेणं
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તે પુષ્કલાવતી વિજયમાં પુડરીકની નામે રાજધાની હતી. તે નવ ચેાજન જેટલા વિસ્તારવાળી તેમજ ખાર ચાજન જેટલી લાંબી છે. તે પ્રત્યક્ષ સ્વગ જેવી જ લાગે છે. તે પ્રાસાદીયચિત્ત અને અન્તઃકરણને તે પ્રસન્ન કરનારી છે, દુનીય–આંખાને તે તૃપ્ત કરનારી છે, અભિરૂપ તે અસાધારણ ( અપૂર્વ ) રચનાવાળી છે, અને પ્રતિરૂપ-એના જેવી ખીજી કેાઈ નગરી નથી એવું છે.
( तीसेणं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरत्थि मे दिसिभाए णलिणिवणे णामं उज्जाणे - उत्थणं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णामं राया होत्या तस्सणं मावईणामं देवी होत्या, तस्सणं महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था )
તે પુંડરીકણી નગરીના ઉત્તર પૌરસ્ત્ય દિવિભાગમાં નિલનીવન નામે એક ઉદ્યાન હતા. તે પુંડરીકણી રાજધાનીમાં મહાપદ્મ નામે એક રાજા રહેતા હતા. તેની ાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. તે મહાપદ્મ રાજાને ત્યાં પદ્મવતી દેવીના ગર્ભથી ઉત્પન્ન થયેલા એ રાજકુમાર હતા.
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम्
७१३
स्थविरागमनं=तस्या राजधान्या नलिनी ने उद्याने स्थविराणामागमनमभूत् । महापद्म राजा धर्म श्रोतुं निर्गतः, धर्म श्रुत्वा संजातवैराग्यः पुण्डरीकं राज्ये स्थापयित्वा मत्रजितः । अनन्तरं पुण्डरीको राजा जातः कण्डरीको युवराजः । महापद्मनगारः चतुर्दशपूणि अधीते । ततः खलु स्थविरा बहिर्जपदविहारं विहरन्ति । ततः खलु स महापद्मो बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा यावद् सिद्धः ||सू० १ ॥
तेणं समएणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए, धम्मं सोचा पोंडरीयं रज्जे वेत्ता पत्रइए । पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया । महापउमे अणगारे चोहसपुव्वाई अहिज्जइ, तरणं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरंति, तएण से महापउमे बहणि वासाई जाव सिद्धे) उनके नाम इस प्रकार है - १ पुंडरीक और दूसरा कंडरीक ये दोनों पुत्र सुकुमार करचणवाले थे । पुंडरीक को पिता ने युवराज पदप्रदान किया था। उस काल में और उस समय में वहां स्थविरों का आगमन हुआ। महापराजा धर्म का व्याख्यान सुनने के लिये अपने महल से निकलकर नलिनीवन उद्यान में आये। वहां धर्म का उपदेश सुनकर उन्हें वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया - सो वे पुंडरीक को राज्य में स्थापितकर दीक्षित हो गये । पुंडरीक राजा बन गया - और कंडरीक युवराज हो गया । महापद्मराजर्षि ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर लिया। इसके बाद वहां से स्थविरों ने
( तं जहा - पुंडरीए य, कंडरीए य- सुकुमालपाणिपाया० । पुंडरीए जुवराया तेणं कालेणं तेणं समरणं थेरागमणं, महापउमे राया णिग्गए, धम्मं सोच्चा पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पच्वइए । पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुत्रराया । महापउमे अणगारे चोस पुण्याई अहिज्जइ, तरणं थेरा बड़िया, जणवयविहारं विहरंति, वर्ण से महापउमे बहूणि वासाई जाव सिद्धे )
તેમનાં ન:મા આ પ્રમાણે છે-૧ પુંડરીક, અને ૨ કડરીક આ મને પુત્રે સુકેામળ હાથ-પગવાળા હતા. રાજાએ પુ'ડરીકને યુવરાજપદ પ્રદાન કર્યું" હતું. તે કાળે અને તે સમયે ત્યાં વિરાનું આગમન થયું. મહાપદ્મ રાજા ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવા માટે પેાતાના મહેલથી નીકળીને નલિનીવન ઉદ્યાનમાં આવ્યે. ત્યાં ધર્મોપદેશ સાંભળીને તેને વૈરાગ્યભાત્ર ઉત્પન્ન થઇ ગયા. છેવટે પુંડરીકને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તેઓ દીક્ષિત ધઇ ગયા. પુંડરીક રાજા થઈ ગયા અને ક'ડરીક યુયરાજ થઇ ગયા. મહાપદ્મ રાષિએ ચૌક પૂર્વોનું અધ્યયન કરી લીધું. ત્યારપછી સ્થવિરે ત્યાંથી બહાર જનપદોમાં વિહાર
क्षा ९०
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शाताधर्मकथाङ्गो मूलम्-तएणं थेरा अन्नया कयाइं पुणरवि पुंडरिगिणीए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा, पोंडरएि राया णिग्गए । कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाबलो जाव पज्जुवासइ । थेरा धम्मं परिकहेंति पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए । तएणं से कंडरीए उठाए उट्टेइ, उट्टाए उट्टित्ता जाव से जहेयं तुब्भे वदह जं णवरं पुण्डरीयं रायं आपुच्छामि, जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! तएणं से कंडरीए जाव थेरे वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउग्धंट आसरहं दुरुहद्द जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छइ करयल जाव पुंडरीयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे जाव अभिरुइए, तण्णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइत्तए । तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया ! इयाणि मुंडे जाव पव्वयाहि, अहं णं तुमं महया२ रायाभिसेएणं अभिसिंचामि। तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स रपणो एयम णो आढाइ णोपरिजाणइ तुसिणीए संचिइ । तएणं पुण्डरीए राया कंडरीयं दोच्चपि तच्चंपि एवं वयासी-जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तएणं पुण्डरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ, बहूहि आघयणाहि बाहिर जनपदों में विहार कर दियो। महापद्म अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालनकर योवत् सिद्धपद को प्राप्त कर लिया ।। सू०१॥
માટે નીકળી પડયા. મહાપદ્મ અનગારે ઘણાં વર્ષો સુધી કામર્થ્ય પર્યાયન પાલન કરીને યાવત્ સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરી લીધું. એ સૂત્ર ૧ છે
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अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१५ य पण्णवणाहि य४ ताहे अकामए चेव एयमद्रं अणुमन्नित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खें दलयइ । पव्वइए अणगारे जाए एगारसंगविऊ । तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाइं पुंडरिगणीओ नयरीओ णलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥ सू० २॥ ___टीका-'तएणं ते ' इत्यादि । ततः खलु ते स्थविरा अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिण्या राजधान्या नलिनीवने उद्याने समबमृताः-समगताः । तेषां समागमनं श्रुत्वा पुण्डरीको राजा तान् वन्दितुं निर्गतः । अनन्तरम्-कण्डरीको ' महाजणसइं' महाजनशब्दं स्थविरान् वन्दितुं कामानां गच्छतां बहूनां जनानां कोलाहलं श्रुत्वा · जहा महाबलो जाव पपज्जुवासइ ' यथामहाबलो यावत्पर्युपास्ते । महाबल इत्र स्थविराणां समीपे गत्वा तान् वन्दित्वा नमस्यित्वा सेवते । स्थविरा धर्म परिकहेंति' परिकथयन्ति उपदिशन्तीत्यर्थः । तैरुपदिष्टं धर्म श्रुवा पुण्डरीकः श्रमणोपासको जातः 'जाव पडिगए' यावत्मतिगतः स्थविरान् वन्दित्त्वा
'तएणं ते थेरा अन्नया कयाई' इत्यादि ।
टीकार्थः-(तएणं) इसके बाद (ते थेरा) वे स्थविर (अन्नया कयाइं किसी एक समय (पुणरवि) फिर से (पुंडरिगीणीए रायहाणीए णलिणिवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए) पुंडरीकिणी राजधानी में आये। वहां वे नलिनीवन उद्यान में ठहरे। पुंडरीक राजा उनका आगमन सुनकर धर्म सुनने की इच्छा से वहां जाने के लिये अपने महल से निकले । (कंडरीए महाजणसई सोचा जहा महन्वलो जाव पज्जुवासइ, थेरा धम्म परिकहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाव
'तएण ते थेरा अन्नया कयाइं ' इत्यादि_ -(तपण) त्या२५छी (ते थेरा) ते स्थविरे। ( अन्नया कयाई)
मे ५मत (पुणरवि) १ (पुडरिगीणीए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा, पोंडरीए रायाणिग्गए ) धुरीणी २४धानीमा माव्या. त्या तमा નલિનીવન ઉદ્યાનમાં રોકાયા. પુંડરીક રાજા તેમનું આગમન સાંભળીને ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળવાની ઈચ્છાથી ત્યાં જવા માટે પિતાના મહેલથી નીકળ્યા. (कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाब्बलो जाव पज्जुवासइ, थेरा धम्म परि
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शीताधर्मकथाpet
नमस्त्विा प्रतिनिवृत्तः । ततः खलु कण्डरीकः ' उट्टाए ' उत्थया = उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय ' जात्र ' यात्रत् स्थविरान् वन्दिला नमस्थित्वा एवमवदत् - ' से जहेयं तुब्भे वदह' तद्यथेदं यूयं वदथ = हे देवानुमियाः ! यूयं यथा यद् वदथ, तत्तथैव, ' जं णवर ' यन्नवर = यो विशेषः सचैत्रम् - यदह पूर्व पुण्डरीकं राजानम् आपृच्छामि । ततः खलु ' जाव पव्वयामि ' पावत् पव्रजामि |
डिगए) इसके बाद कंडरीक युवराज स्थविरों को वंदना करने के लिये जानेवाले अनेक मनुष्यों का कोलाहल सुनकर महाबल राजा की तरह स्थविरों के पास गया वहां जाकर उसने उनकी वंदना की- - नमस्कार किया । वंदना नमस्कार कर फिर उसने उनकी पर्युपासना की । स्थविरों ने धर्म का उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर पुंडरीक श्रमणोपासक बन गया। बाद में वह स्थविरों को वंदना और नमस्कार कर अपने स्थान पर वापिस वहां से लौट आया । (तणं से कंडरीए उडाए उट्ठेह, उट्ठाए उट्ठत्ता जाव से जहेयं तुन्भे वदह, जं णवरं पुंडरीयं रायं आपुच्छामि, तरणं जाव कवयामि - अहासुहं देवाणुप्पिया । तएण से कंडरीए जाव थेरे वंद, नमंसह, वंदित्ता नमसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्as) इसके बाद कंडरीक उत्थानशक्ति से उठा - उत्थानशक्ति - उठने की शक्ति से उठकर उसने स्थविरों को वंदना की - नमस्कार किया । वंदना नमस्कार करके फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा- हे
कहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए) त्यारपछी उंडरी युवराज સ્થવિરાની વંદના કરવા માટે ઉપડેલા અનેક માણસાના ઘાંઘાટ સાંભળીને મહાખલ રાજાની જેમ સ્થવિરાની પાસે ગયા. ત્યાં જઈને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યો. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પયુ પાસના કરી. સ્થવિરાએ ધર્મોપદેશ આપ્યા, તે ઉપદેશને સાંભળીને પુડરીક શ્રમણાપાસક બની ગયે. ત્યારપછી તે સ્થવિાને વંદન તેમજ નમન કરીતે પેાતાના નિવાસસ્થાને પાછે. આવત રહ્યો.
( तपण से कंडरीप उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठित्ता जाव से जहे यं तुभे वदह जं णवर पुंडरीयं राय आपुच्छामि, तरणं जाव पव्वयामि - अहासुहं देवाणुपिया ! तएण से कंडरीए जाव थेरे वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमसित्ता थेराण अतियाओ पडिनिक्खमइ )
ત્યારપછી કડરીક ઉત્થાન શક્તિ વડે ઊભેા થયા, ઉત્થાન શકિત-ઊભા થવાની શક્તિ વડે ઊભા થઈને તેણે સ્થવિરાને વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યાં. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરતાં કહ્યું કે
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अमगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१७ इति तद् वचनं श्रुत्वा ते स्थविराः मोचुः ' अहासुहं देवाणुप्पिया' यथासुखं हे देवानुप्रिया ! हे देवानुप्रिय ! यथा तव सुखकरं भवेत् तथा कुरु । ततः खलु स कण्डरीको यावत् स्थविरान् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा स्थविराणामन्तिकात्-समीपात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य, तमेव 'चाउग्घंटे ' चतुघण्टं-चतस्रो घण्टा यस्मिन् स तम् घण्टा चतुष्टयोपेतम् अश्वरथं दूरोहति, यावत् प्रत्यवरोहति-रथादवतरति । अवतरणानन्तरं यौव पुण्डरीको राजा तत्रैव उपागच्छति, करयल जाव' करतल यावत् करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेजलिं कृत्वा पुण्डरीकमेवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुपिय ! मया स्थविराणामन्तिके यावद्धर्मों निशान्तः श्रुतः, स धर्म स्थविरप्रोक्तो धर्मः यावत् अभिरुचितः । तत् खलु हे देवानुप्रिय ! 'जाव पव्वइत्तए ' यावत् प्रत्रजितुम्हे देवानुप्रियाः ! भवद्भिरभ्यनुज्ञातो स्थविराणामन्ति के प्रबजितुमिच्छामीतिभावः । देवानुप्रियो ! आप जैसा कहते है-वह वैसा ही है-मेरी भावना उसे सुनकर संयम लेने की हो गई है-अतः संयम धारण करने के पहिले मैं पुंडरीक राजा से इस विषय में पूछ आता हूँ उसके बाद संयम धारण करना चाहता हूँ। इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन स्थविरों ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जैसे सुख हो-तुम वैसा करो-इसके बाद कंडरीक ने स्थविरों को वंदना की-नमस्कार किया और वंदना नमस्कारकर वह उनके पास से चला आया (पडिनिक्खमित्ता) आकर के (तमेवचा उग्घंटं आसरहं दुरूहह, जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, करयल जाव पुंडरीयं एवं वयासी एवं खल देवाणप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे जाव अभिरुइए હે દેવાનુપ્રિયે! તમે જેમ કહે છે તે ખરેખર તેમ છે. આ બધું સાંભળીને સંયમ ગ્રહણ કરવાની મારી ઈચ્છા થઈ ગઈ છે. એટલા માટે સંયમ ધારણ કરતાં પહેલાં હું પુંડરીક રાજાને આ વિષે પૂછી આવું છું. ત્યારપછી હું સંયમ ધારણ કરવા ચાહું છું. આ પ્રમાણે તેનાં વચને સાંભળીને તે સ્થવિરેએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમાં સુખ મળે તેમ કરે. ત્યારપછી કંડરીકે
સ્થવિરાને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તે તેમની પાસેથી આવતે રહ્યો. (पडिनिक्खमित्ता) भावान,
(तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, जाव पचोरूहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, करयल पुंडरीयं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे नाव अभिरूइए-तण्णं देवाणुप्पिया!
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७१८
जाताधर्मकथाशास्त्र ततः पुण्डरीकः कण्डरीकमेवमवादीत-मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! भ्रातः इदानीं मुण्डो यावत प्रव्रज अहं खलु त्वां महता २ ‘रायाभिसेएणं' राजाभिषेकेण 'अभिसिंचामिअभिषेचयामि । ततः खलु स कण्डरीको युवराजः पुण्डरीकस्य राज्ञ एतमर्थ नो आद्रियते स्वस्य राज्याभिषेकरूपम) नो मनुते, 'नो परिजाणइ ' नो प्रतिनानाति-न स्वीकरोति 'तुसिणीए संचिठ्ठइ ' तूष्णीकः -तण्णं देवाणुप्पिया! पव्वइत्तए ! तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं वयासी -मोणं तुमं देवाणुप्पियो ! इयाणि मुंडे जाव पव्वयाहि-अहं णं तुमं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचामि ) वह वहां आया-जहां चतुघंटो. पेत अपना अश्वरथ रखा हुआ था। वहां आकर वह उसपर चढ़ गया -चढकर वह जहां पुंडरीक राजा थे वहीं आया-वहां आते ही वह रथ से नीचे उतरा । नीचे उतरकर पुंडरीक राजा के पास गयावहां जाकर उसने पुंडरीक राजा को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया-बाद में इस प्रकार कहने लगा-हे देवानुप्रिय मैंने स्थविरों के पास धर्म का उपदेश सुना है-वह मुझे बहुत रूचा है इसलिये 'हे देवानुप्रिय ! मैं आपसे आज्ञापित होकर उन स्थविरों के पास संयम
लेना चाहता हूँ-इस प्रकार कंडरीक की बात सुनकर पुंडरीकने उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुंडित होकर स्थविरों के पास संयम धारण मतकरो मैं बड़े जोर शोर के उत्सव के साथ तुम्हारा राज्याभिषेक करना चाहता हूँ। (तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स जाव पव्यइत्तए ! तएणं से पुंडरीए कंडरीए एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया। इयाणिमुंडे जाव पब्बयाहि अहं णं तुमं महया२ रायाभिसेएणं अभिसिंचामि)
તે ત્યાં આવ્યું જ્યાં ચતુર્ઘટવાળે પિતાને અધરથ હતું ત્યાં આવીને તે તેમાં બેસી ગયો, અને બેસીને તે જ્યાં પુંડરીક રાજા હતા ત્યાં ગયો. ત્યાં પહોંચતા જ તે રથ ઉપરથી નીચે ઉતર્યો, નીચે ઉતરીને પુંડરીક રાજાની પાસે ગયો. ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથ જોડીને પુંડરીક રાજાને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી તેણે તેમને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! મેં
વિરોની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળ્યો છે તે મને ખૂબ જ ગમી ગયો છે. એથી હે દેવાનુપ્રિય ! હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને સ્થવિરેની પાસેથી સંયમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છું છું. આ પ્રમાણે કંડરીકની વાત સાંભળીને પુંડરીકે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હમણાં મુંડિત થઈને સ્થવિરેની પાસેથી સંયમ ધારણ કરે નહિ. હું મેટા ઉત્સવ સાથે તમારો રાજ્યાભિષેક કરવા ચાહું છું.
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७१९ संतिष्ठते-तमर्थ न स्वीकृतवान् केवलं मौनमवलम्ब्य स्थितः । ततः खलु पुण्डरीको राजा कण्डरीकं भ्रातरं द्वितीयमपि तृतीयमपि वारम् ' एवं 'पूर्वोक्तरूपेण अवादीत्-'जाव तुसिणीए संचिट्ठइ' यावत्-तुष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु पुण्डरीकः कण्डरीकं यदा ‘नो संचाएइ ' नो शक्नोति = न समर्थों भवति बहुभिः ' आघवणाहि य ' आख्यापनाभिश्च-आख्यापनाभिः-प्रव्रज्याविरोधिभिराख्यानः 'पण्णवणाहि य ' प्रज्ञापनाभिश्च ' अहं तव ज्येष्ठभ्राताऽस्मि, तव हितं येन भवति, तदेव कथयामि, इत्यादि रूपैः प्रज्ञापनवाक्यैः एवं 'विण्णवणाहि य' विज्ञापनाभिः विनितमृदुवचनावलिरूपक्यि प्रबन्धैः, तथा 'सणवणाहि य' संज्ञापनाभिः ' प्रव्रज्यायां महान् कष्टो भवति' इत्यादि स्वाभीप्सितसंज्ञापकैर्वाक्यैश्च रणो एयमढे णो आढाइ, णो पजिाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं पुंड
रीए राया कंडरीयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिहुइ, तएणं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएई, बहहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एयमढे अणुमनित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलया) कंडरीक कुमारने पुंडरीक राजा की इस बात को आदर की दृष्टि से नहीं देखा नहीं माना-और न उसे स्वीकार ही किया-केवल चुपचाप ही रहा । पुंडरीक राजा ने जब कंडरीक कुमार को चुपचाप देखा-तष उसने दुबारा और तिघारा भी उससे ऐसा ही कहा-परन्तु उसने इस बात पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया केवल चुपचाप ही रहा-। अतः जब पुंडरीक राजा कंडरीक कुमार को उसके ध्येय से विचलित करने _ (तएणं से कंडरीए पुंडरीयस्स रणो एयमढे णो आढाइ, णो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएई, बहूहि आघवणाहि य पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एयमé अणुमभित्था जाव णिक्रवमणाभिसे एणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ )
કંડરીક કુમારે પંડરીક રાજાની આ વાતનું સન્માન કર્યું નહિ-માની નહિ અને તેને સ્વીકાર પણ કર્યો નહિ, ફક્ત તે મૂગો થઈને બેસી જ રહ્યો. પંડરીક રાજાએ જ્યારે કંડરીક કુમારને મૂંગો મૂંગો બેસી રહેલે જ ત્યારે તેમણે બીજી વાર અને ત્રીજી વાર પણ તેને આ પ્રમાણે જ કહ્યું. પરંતુ તેણે આ વાતની સહજ પણ દરકાર કરી નહી, ફક્ત મૂંગે થઈને બેસી જ રહ્યો. છેવટે જ્યારે પંડરીક રાજા કંડરીક કુમારને તેના ધ્યેયથી મકકમ વિચારથી
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हाताधर्मकथाजस्त्र 'आघवित्तए' आख्यापयितुं ४=सर्वथापतिरोधयितुं न शक्नोतीति पूर्वेण सम्बन्धः, 'ताहे ' तदा 'अकामए चेत्र । अकामक एव-अनिच्छ एवं ' एयमह' एतमथम्-कण्डरीकाभिलषितं प्रव्रज्यारूपम् , ' अणुमन्नित्था ' अन्धमन्यतस्वीकृत वान् , ' जाव णिक्खमणाभिसेएणं' यावत् निष्क्रमणाभिषेकेण ' स्वीकरणानन्तरं निष्क्रमणोपयोगि वस्तुजातमुपनीय सविधि दीक्षाभिषेकेण अभिषिञ्चति, 'जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ' यावत्-स्थविरेभ्यः शिष्यभिक्षाम् अभिषेकानन्तरं स पुण्डरीको राजा कण्डरीकं शिविकायां समुपवेश्य महता समारोहेण सह नलिनीबने उद्याने समायाति, तत्र स्थितेभ्यः स्थविरेभ्यः स्वलघुभ्रातरं शिष्यमिक्षां ददाति । अनन्तरं स कण्डरीकः प्रव्रजितः सन् अनगारो जातः । तथा ' एकारसंगविऊ ' एकादशाङ्गवित्=एकादशाङ्गज्ञानवान् जातः । ततः खलु स्थविरा भग के लिये आख्यापनाओं द्वारा, प्रज्ञापनाओं द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा संज्ञापनाओं द्वारा, समर्थ नहीं हो सके-त्व उन्होंने विना इच्छा के ही कंडरीक कुमार को दीक्षा ग्रहण करने रूप अर्थ की स्वीकृति देने के बाद निष्क्रमणोपयोगी समस्त वस्तुओं को उन्होंने मंगवाया-जब वे आ चुकी-तब उन्होंने उसका सविधि दीक्षाभिषेक से अभिसिंचन किया। अभिषेक के बाद पुंडरीक राजा कंडरीक को शिविका में बैठाकर बडे समारोह के साथ नलिनीवन में आये। वहां आकर उन्होंने स्थविरों के लिये अपने लघुभाई को शिष्य की भिक्षा रूप से प्रदान किया। इसके बाद कंडरीक (पव्वइए अणगारेजाए) प्रव्रजित होकर अनगोरावस्था संपन्न हो गये। ( एगारसंगविऊ, तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरिगिणीओ नयरीओ णलिणीवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमंति,
વિચલિત કરવા માટે આખ્યાનાઓ, પ્રજ્ઞાપનાઓ, વિજ્ઞાપનાઓ, સંજ્ઞાપનાએ વડે પણ સમર્થ થઈ શક્યા નહિ ત્યારે તેમણે ઈચ્છા ન હોવા છતાંએ કંડરીક કુમારને દિક્ષા ગ્રહણ કરવાની સ્વીકૃતિ આપી દીધી. સ્વીકૃતિ આપ્યા બાદ તેમણે નિષ્ક્રમણને લગતી બધી વસ્તુઓ મંગાવી. જ્યારે વસ્તુ ઓ આવી ગઈ ત્યારે તેમણે તેનું વિધિસર દીક્ષાભિષેક વડે અભિસિંચન કર્યું. અભિષેક કર્યા બાદ પુંડરીક રાજા કંડરીકને પાલખીમાં બેસાડીને ભારે સમારોહની સાથે નલિની વનમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે સ્થવિરેને પિતાના નાના ભાઈને शिष्यना ३५i मापी दीपो. त्यारपछी ४ ( पव्वइए अणगारे जाए) પ્રજિત થઈને અનગારાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગયે.
( एगारसंगविऊ-तएणं घेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरिगिणीओ नय
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अनगारधर्मामृतषिणी टीका ० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७२१ वन्तो ऽन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिण्या नगर्या नलिनीवनात् उद्यानात् प्रतिनिष्का म्यन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहार विहरन्ति ॥ मू० २॥
मूलम्-तएणं तस्स कंडरीयस्त अणगारस्स तेहिं अंतेहिं य पंतहि य जहा सेलागस्स जाव दाहवर्कतिए यावि विहरइ। तएणं थेरा अन्नया कयाइं जेणेव पोंडरिगिणी तेणेव उवागच्छइ, उगच्छित्ता, णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए धम्मं सुणेइ । तएणं पोंडरीए राया धम्मं सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं वंदइ णमंसइ वंदित्ताणमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वावाहं सरोयं पासइ, पासित्ता, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, थेरे भगवंते वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-अहण्णं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स अहा पवत्तेहि ओसहभेसजेहिं जाव तेइच्छं आउट्टामि, तं तुब्भे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह। तएणं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, जाव उवसंपजित्ताणं
पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति) धीरे २ वे ग्यारह अंगोंके पाठी भी बनगये इसके बाद उन स्थविर भगवंतों ने किसी एक दिन पुंडरीकिणी नगरी के उस नलिनीवन नामकेउद्यान से विहार किया सो विहार कर वे बाहिर के जनपदों में विचरने लगे। सू० २॥ रीओ णलिणीवणाओ उजाणाश्रो पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति )
ધીમે ધીમે તેમણે અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કરી લીધું. ત્યારબાદ તે સ્થવિર ભગવતેએ કે એક દિવસે પુંડરીકિશું નગરીના તે નલિનીવન નામના ઉદ્યાનથી વિહાર કર્યો, વિહાર કરીને તેઓ બહારના જનપદેમાં વિચરણ કરવા લાગ્યા છેસૂત્ર ૨ |
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हाताधर्मकथा विहरति। तएणं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलागस्स जाव बलियसरीरे जाए । तएणं थेरा भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति । तएणं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णसि असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्जोववण्णे णो संचाएइ पोंडरीयं रायं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारं विहरित्तए । तत्थेव ओसण्णे जाए । तएणं से पोंडरीए इमीसे कहाए लखढे समाणे ण्हाए अंतेउरपरियालसंप. रितुडे राया जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता, एवं वयासीधन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले जे गं तुमं रज्जं च जाव अंतेउरं चावि छड्डयित्ता जाव विगो. वइत्ता जाव पव्वइए । अहणणं अहण्णे अकयपुन्ने रज्जे जाव अन्तेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अझोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए । तं धन्नेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले । तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमहंणो आढाइ जाव संचिटुइ । तएणं कंडरीए पोंडएिणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवस्तवसे लज्जोए गारवेणय पोंडरीयं रायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहि सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ सू०३ ॥
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माधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १९ पुंडरीक-कंडरीक चरित्रम्
७२३
टीका- ' तरणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य अनगारस्य तेः ' अंतेहि य' अन्तैश्च बल्लचणकादिभिः 'पंतेहि य' प्रान्तैश्च = पर्युषितैः, atre: Faraafiaf अशनादिभिः यथा शैलकस्य राजर्षेस्तथा ऽस्याऽपि तथाविधमहारं कुर्वतो यावत्कृतिसुकुमारकस्य सुखोपचितस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, कीदृशीत्याह - उज्ज्वला यावद् दुरधिसा = सोढुमशक्या पुनः सुखलेशरहिता कण्डरीकः ' दाहवकंत्तिए ' दाहव्युत्क्रान्तिकः = दाहस्य शरीरसन्तापरूपरोगस्य व्युत्क्रान्तिः = उत्पत्तिर्यस्यासौ दाहव्युत्क्रान्तिकः = करचरणादिज्वलनवान् चापि विहरति । ततः खलु स्थविरा अन्यदा कदाचित् यचैव पुण्डरीकिणी नगरी तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, नलिनीवने समवसृताः । पुण्डरीकस्तद्दर्शनार्थं स्वभवना
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,
' तरणं तस्स कंडरीयस्स' इत्यादि ।
टीकार्थ - (ari) इसके बाद (तस्स कंडरीयस्स अणगास्स तेहि अंतेहि पंतेहिं य जहासेलगस्स जाव दाहवक्कंतिए यावि विहरइ) उस कंडरीक अनगार के बल्लचणक आदि रूप अन्ताहार करने से तथा पर्युषित अथवा नीरस आहाररूप प्रान्तोहार करने से शैलक राजर्षिकी तरह प्रकृति से सुकुमार सुखोपचित होने के कारण शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। जो उज्ज्वला एवं सोढुमशक्या थी । इस तरह शरीर सन्तापरूप रोग की उत्पति से वे कंडरीक अनगार कर चरण आदि में जलन होने के कारण सुख के लेश से भी वर्जित हो गये । (एणं थेरा अन्नया कयाइं जेणेव पोंडरिगिणी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता णलिणिवणे समोसढा पोंडरीए तपणं तर कंडरीयस्स इत्यादि - Asa-(agoi) uzual,
( तस्स कंडरीयस्स अगगारस्स तेहिं अंतेहिं पंतेहिं य जहा सेलगस्स जाव arrarifar या विरइ )
તે કઇંડરીક અનગારના શરીરમાં ખલ્લચણુક વગેરે રૂપ અતાહાર કરવાથી તેમજ પતુષિત અથવા નીરસ આહાર રૂપ પ્રાન્તાહાર કરવાથી શૈલક રાષિની જેમ પ્રકૃતિથી સુકુમાર અને સુખાચિત હાવા બદલ વેદના ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. તે વેદના અત્યંત ઉગ્ર અને અસહ્ય હતી. આ પ્રમાણે શરીર સંતાપ રૂપ રાગની ઉત્પત્તિથી તે કડરીક અનગાર હાથ પગમાં મળતરાને લીધે થેાડી સુખશાંતિ પણ મેળવી શકયા નહિ.
( तरणं थेरा अन्नया कयाइं जेणेव पोंडरिगिणी तेणेव उवागच्छ, उवाग
. च्छित्ता लिणिवणे समोसढा पौडरीए निगाए धम्मं सुणेइ, तरणं पौंडरीए राया
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૨૦
ज्ञाताधर्मकथासू
निर्गतः तत्र गत्वा धर्म शृणोति । ततः खलु पुण्डरीको राजा धर्म श्रुत्वा कण्डरीकोsनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य, कण्डरीकं वन्दते नमस्यति, वन्दिवा नमस्त्विा कण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरं ' सव्वावादं ' सव्याबाधं = पीडासहित ' सरोयं ' सरोगं = रोगसहित ' पासइ ' पश्यति, दृष्ट्वा यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तचैव उपागच्छति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - ' अण्णं भंते!' अहं खलु हे भदन्त | कण्डरीकस्य निग्गए धम्मं सुणेइ, तरणं पोंडरीए राया धम्मं सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं बंदइ नर्मसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वावाहं सरोयं पासइ) किसी एक समय वे स्थविर पुंडरी किणी नगरी में विहार करते हुए आये। वहां आकर वे नलिनीवन नाम के उद्यान में ठहर गये | आगमन सुनकर पुंडरीक राजा उन को वंदना एवं उनसे धर्मश्रवण करने की भावना से अपने राजमहल से निकलकर उस नलिनीवन उद्यान में आये - स्थविरों ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। धर्म का उपदेश श्रवण कर फिर वे जहां कंडरीक अनगार थे उनके पास आये । वहां आकर उन्हों ने उनकी वंदना की नमस्कार किया | वंदना नमस्कार करके उन्होंने कंडरीक अनगारके शरीर को पीडासहित एवं रोगसहित देखा - ( पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ, वदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- अहण्णं भंते ! धम्मं सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेत्र उबागच्छर, उनागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं वंदनमंस, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वाबाहं सरोयं पास )
કોઇ એક વખતે તે સ્થવિર પુંડરીકણી નગરીમાં વિહાર કરતા કરતા આવ્યા. ત્યાં આવીને તે નિલનીવન નામના ઉદ્યાનમાં રોકાયા. તેમનું આગમન સાંભળીને પુંડરીક રાજા તેમને વંદન કરવા માટે તથા તેમની પાસેથી ધર્મીપદેશ સાંભળવા માટે પેાતાના રાજમહેલથી નીકળીને તે નલિનીવન ઉદ્યાનમાં આવ્યું. સ્થવિરાએ તેમને ધર્મોપદેશ આપ્યા, ધર્મોપદેશ સાંભળીને તેઓ જ્યાં કૉંડરીક અનગાર હતા તેમની પાસે ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે કડરીક અનગારના શરીરને પીડા સહિત અને રાગયુક્ત જોયું.
( पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंद, णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- अण्णं भंते ! कंडरीयस्स अण
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अमेगारधामृतवषिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंडरीकचरित्रम् अनगारस्य ' अहापवत्तेहिं ' यथा प्रवृत्तैः मासुकैरित्यर्थः 'ओसहभेसज्जेहिं ' औपधभैषज्यैः 'जावतेइच्छं' यावत् चिकित्साम् 'आउट्टामि' आवर्तयामि-कारयामि, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् यूयं खलु हे भदन्त ! मम यानशालासु समवसरत= आगच्छत । ततः खलु स्थविरा भगवन्तः पुण्डरीकस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति= एतवचनं स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य यावत्-उपसंपध-यानशालां समाश्रित्य विहरन्ति । ततः खलु पुण्डरीको राजा 'जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए' यथा मण्डूकः शौलकस्य यावद् बलि फशरीरो जातः = कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउट्ठामि-तं तुम्भे णं भंते ! मम जाणसालास्तु समोसरह-तएणं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाव उपसंपजित्ताणं विहरंति ) देखकर जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे-वहां पर वे आये वहां आकर उन्हों ने स्थविर भगवंतों को वंदना एवं नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा हे भदंत ! मैं कंडरीक अनगार की यथा प्रवृत्त-प्राप्सुक औषध, भैषज्यों द्वारा यावत् चिकित्सा करवाऊँगा-अतः हे भदंत ! आपलोग मेरी यानशाला में यहां से विहार कर पधारें-वहीं ठहरें-। इस प्रकार पुंडरीक राजा की प्रार्थना को उन स्थविर भगवंतों ने स्वीकार कर लिया और वहां से विहार कर वे पुंडरीक राजा की यानशाला में आकर ठहर गये। (तएणं पुडरीए राया जहामंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए तएणं थेरा
गारस अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउहामि तं तुम्भेणं भंते मम जाणसालासु समोसरह-तएणं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरंति)
જોઈને તેઓ જ્યાં સ્થવિર ભગવંત વિરાજમાન હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે રવિર ભગવતેને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે ભદન્ત ! હું કંડરીક અનગારની યથાપ્રવૃત્ત-પ્રાસુક-ઔષધ–ભિષ (દવા ) વડે યાવત ચિકિત્સા (ઈલાજ ) કરવા માગું છું. એટલા માટે હે ભદન્ત ! તમે સી અહીંથી વિહાર કરીને મારી યાનશાળામાં આવે અને ત્યાં જ રોકાઓઆ પ્રમાણે પુંડરીક રાજાની વિનંતીને તે સ્થવિર ભગવંતે એ સ્વીકાર કરી લીધે
અને ત્યાંથી વિહાર કરીને તેઓ પુંડરીક રાજાની યાનશાળામાં આવીને રેકાઈ ગયા. (तएणं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए तएण थेरा
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प
हाताधर्मकथाजस्ले यथा मण्डूको राजा शौलकस्य राजर्षेः प्रासुकैरौषधभैषज्यैश्चिकित्सामकारपत् , तथैव पुण्डरीकोऽपि कण्डरीकस्यानगारस्य यथा योग्यैषधभैषज्यैश्चिकितना कारयतिस्म यावत् कतिपयैदिनैः कण्डरीको बलितशरीरः निरामयो जातः। ततः खलु स्थविरा भगवन्तः पुण्डरीकं राजानं आपृच्छन्ति, आपृच्छय बहिर्जनपदवि हारं विहरन्ति । ततः खलु स कण्डरीकः तस्मात् 'रोगायंकाओ' रोगातङ्का विषमुक्तः सन् तस्मिन् ' मनुष्णसि' मनोज्ञे-रमणोये अशनपानखाद्यस्वाये चतुविधे आहारे 'मुच्छिए' मूच्छितः मूर्छां प्राप्तः आसक्त इत्यर्थः, 'गिद्धे 'गृद्धःआकाङ्क्षावान् , 'गढिए ' ग्रन्थितः रसास्वादे निवदमानसः, ' अझोपवण्णे' भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया अणवयविहारं विहरंति, तएणं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णसि असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे णो संचाइए पोंडरीयं रायं आपुच्छित्ता बहियो अन्भुजएणं जणवय. विहारं विहरित्तए ) इसके बाद मंडूक ने जिस प्रकार शैलकराजर्षि की मास्लुक औषध, भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई थी उसी प्रकार पुंडरीक राजा ने भो कंडरीक अनगार की यथायोग्य औषध भैषज्यों द्वारा चिकित्सा करवाई-इस से वे पलितशरीर निरोग हो गये। इसके अमतर उन स्थविर भगवंतो ने वहां से विहार करने के लिये पुंडरीक राजा से पूछा- बाद में वे वहां से वाहिर जनपदों में विहार कर गये । कंड. रीक अनगार कि जो रोगातंकसे निर्मुक्त हो चुके थे मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में इतने अधिक आसक्त हो गये भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणश्यविहारं विहरंति, तएणं से कंडरीए ताओ रोयार्यकाो विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुष्णसि-असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोवण्णे णो संचाएइ पौडरीयं रायं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारं विहरित्तए )
- ત્યારપછી મંકે જેમ શૈલક રાજર્ષિની પ્રાસુક, ઔષધ, અને શ્રેષ વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી હતી તેમજ પુંડરીક રાજાએ પણ કંડરીક અનગારની ઉચિત ઔષધ-ભષ (દવા) વડે ચિકિત્સા કરાવડાવી. તેથી તેઓ નિરોગ-સબળ બની ગયા. ત્યારપછી તે સ્થવિર ભગવંતે એ ત્યાંથી વિહાર કરવા માટે પંડરીક રાજાને પૂછયું. ત્યારબાદ તેઓ બહારના જનપદોમાં વિહાર કરી ગયા ગાતંગોથી નિર્મુક્ત થઈ ગયેલા કંડરીક અનગાર તે મનેણ, અશ4, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ ચાર જાતના આહારમાં એટલા બધા આસકત થઇ ગયા-દ્ધ બની ગયા, ગ્રથિત-રસના આસ્વાદનલાં નિબદ્ધ માન
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arrrraniaafift टी० अ० १९ पुण्डरोक-कंडरीक बरित्रम्
७२७
,
अभ्युपपन्नः = सर्वथा आसक्तः सन् नो शक्नोति पुण्डरीकं राजानमापृच्छ्थ 'बहिया' बहि: ' अभुज्जरणं ' अभ्युद्यतेन=उग्रविहारेण खलु विहर्तुम्, किन्तु 'तरथेव ' तत्रैव=यानशालायामेत्र 'ओसण्णे' अवसन्नः = शिथिलसाधुसमाचारवान् जातः । तत खलु स पुण्डरीको राजा 'इमी से कहाए' अस्या, कथायाः = कण्डरीकोऽनगारोsaसन्नो जातः इतिवृत्तान्तस्य लब्धार्थः सन् स्नातः ' अंतेउरपरियाल संपरिकुडे' अन्तःपुरपरिवारसं परिवृतः यचैव कण्डरीकोऽनगारस्तत्रैव उपागच्छति, उपागस्य, कण्डरीकं त्रिः कृत्व आदक्षिण प्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, afear after एवमवादीत्-धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! यतस्त्वम् कपडे ' कृतार्थः=विहितजीवनकृत्यः ' कयपुन्ने' कृतपुण्यः = विहितप्रव्रजितवेषः । पुनः सुलद्धे ' सुलग्धं = सुष्ठुतया प्राप्तं खलु हे देवानुप्रिय ! ' तत्र 'लया 'माणुस्सए मानुष्यकं = मनुष्यसम्बन्धि, 'जम्मजीवियफले ' जन्मजीवितफलम् - जन्म
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-गृद्ध बन गये प्रथित- रसास्वाद में निषद्धमानसवाले हो गये, और अध्युपपन्न बन गये - अर्थात् सर्वथा आसक्त बन गये कि वहां से बाहिर जय विहार करने के लिये उनका मन ही नहीं हुआ-अतः उन्हों ने पुंडरीक नरेश से विहार करने की कोई बात ही नहीं पूछी किन्तु ( तत्थेव - ओसन्ने जाए) वहीं पर वे रहते २ शिथिल साधुसमाचारीवाले बन गये। (तएण से पोंडरीए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे व्हाए अंतेउरपरियाल संपरिबुडे राया : जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छर, बागच्छत्ता कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो आग्राहिणं पयाहिणं करेइ, करिता बंदह, णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी धन्नेसिणं तुम देवtणुपिया ! कत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे सुलद्वेणं देवाणुपिया ! तव माणुस्सजन्मजीवियफ ले जेणं तुमं रजं च जाव अंतेउरं चावि छडुहन्ता
સવાળા થઇ ગયા અને અધ્યુપપન્ન બની ગયા એટલે કે તેએ એકદમ આસક્ત થઈ ગયા કે ત્યાંથી બહાર ઉગ્ર વિહાર કરવા માટે પણ તેઓ તૈયાર થયા નહિ. એથી તેમણે પુંડરીક રાજાને વિહાર કરવાની ખાખતમાં કંઇજ પૂછ્યુ नहि प ( सत्थेव ओसन्ने जाए ) त्यां न रखेतां रडेतां तेथे। शिथिल साधु સમાચારી થઇ ગયા એટલે કે સાધુએના આચારમાં તેએ શિથિલ થઇ ગયા
( तरणं से पौडरीए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे व्हाए अंतेउरपरियालसंपरिवडे या जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं तिक्त आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदर णमंसर, नंदित्ता गर्मसिता एवं क्यासी धन्नेसि गं तुमं देवगुखिया ! कयत्ये कयपुन्ने कयलक्खणे
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हाताधर्मकथासूत्र मानवयोनौ उत्पत्तिः, जवितम् जीबनम्-माणधारणम् , तयोः फलम्= जन्मजीवि. तफलम-प्रव्रज्याग्रहणमेव मनुष्यजन्मसारः, तदेव स्पष्टयति-यः खलु त्वं राज्यं च यावदन्तः पुरं च छड्डइत्ता' छर्दयित्वा त्यक्त्वा 'विगोवइत्ता' विगोप्य तिरस्कृत्य यावत् प्रवजितः अहं खलु अधन्यः अकृतपुण्यो राज्ये यावत् अन्तः पुरे च मानुष्यकेषु च कामभोगेषु मूछितो यावत् अध्युपपन्नो नो शक्रोमि यावत् प्रवजितुम् = राज्येऽन्तः = पुरे मानुष्य केषु च कामभोगेषु निमग्नमानसोऽहं न शक्कोमि प्रव्रज्यां ग्रहीतुम् इति भावः । 'तं' तत् = तस्मात् विगोयइत्ता जाव पव्वइए ) जय पुंडरीक राजा को "कंडरीक अनगार अवसन्न हो गये है" यह समाचार ज्ञात हुआ-तो वे स्नान कर अपने अन्तःपुर परिवार को साथ लेकर जहां कंडरीक अनगार थे वहाँ आये वहां आकर उन्हों ने कंडरीक अनगार को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण करके वंदना की नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर उनसे वे इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रिय! तुम धन्य हो, तुम कृतार्थ हो, तुम कृतलक्षण हो । हे देवानुप्रिय ! तुमने मनुष्यभव संबंधी जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पालिया है। जो तुम राज्य यावत् अन्तःपुर का परित्याग एवं तिरस्कार कर प्रव्रजित हो गये हो । (अहणणं अहण्णे अकयपुन्ने रज्जे जाव अंतेउरे य माणुस्सएस्सु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वहत्तए । तं धन्नेसि णं तुम सुलद्धेणं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म जीवियफले जेणं तुम रज्जं च जाव अंतेउरं चापि छड्डइत्ता विगोवइत्ता जाव पाइए )
જ્યારે પુંડરીક રાજાને કંડરીક અનગારના અવસાન થઈ જવાના સમા. ચાર મળ્યા ત્યારે તેઓ રનાન કરીને પિતાના રણવાસને પરિવારને સાથે લઈને જ્યાં કંડરીક અનગાર હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેમણે કંડરીક અનગારને ત્રણ વખત આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તેઓ તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે
देवानुप्रिय ! तमे धन्य छ।, कृता छ।, कृत-क्षय छो. वानुप्रिय ! મનખ્ય ભવના જન્મ અને જીવનના ફળને સારી પેઠે મેળવી લીધું છે. કેમકે તમે ખરેખર રાજ્ય યાવત્ રણવાસને ત્યજીને તેને તિરસ્કૃત કરીને પ્રજિત થઈ ગયા છે.
(अहणं अहण्णे अकयपुन्ने रज्जे जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेस मच्छिए जाव अमोववन्ने नो संचाएमि जाव पन्चइत्तए ! तं धन्नेसि गं
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१९ पुण्डरोक-कंडरीकचरित्रम् ७२९ कारणात् खलु ब्रवीमि यत् धन्योऽसि ख हे देवानुप्रिय ! ' जाव सुलब्धं जन्मजीवितफलम् , ततः खलु स कण्डरीकोऽनगारः पुण्डरीकस्य एतमर्थ विहाराभिमायकमर्थ, नो आद्रियते यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते मौनमवलम्ब्य तिष्ठति । ततः खलु कण्डरीकः पुण्डरीकेण द्वितीयमपि तृतीयमपि-द्वित्रिवारम् , एवं पूर्वोक्तप्रकारेण, उक्तः सन् ' अकामए ' अफामकः कामनारहितः ' अवस्सवसे ' अपदेवाणुप्पिया! जाव जीवियफले तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमढे णो आढाइ जाव संचिट्ठइ, तएणं कंडरीए पोंडरीएणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लजाए गारवेण य पोंडरीयं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सदि बहिया जणवयविहारं विहरइ) मैं अधन्य हूँ अकृतपुण्य हूँ। जो राज्य में यावत् अन्तःपुर में तथा मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्छित यावत् अध्युपपन्न बना हुआ है। इसीलिये प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हो रहा हूँ। इसी कारण से मैं यह कह रहा हूँ कि तुम धन्य हो, हे देवानुप्रिय ! तुमने ही जन्म और जीवन का फल जो प्रव्रज्या का ग्रहण करना है-वह अच्छी तरह पा लिया है। पुंडरीक राजा की विहार करने के अभिप्रायवाली इस बात को सुनकर कंडरीक अनगार ने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया-उसे आदर की दृष्टि से नहीं देखा-किन्तु वे उसे सुनकर भी चुपचाप बैठ रहे। कंडरीक अनगार की इस स्थिति को देखकर पुंडरीक ने दूसरी पार और तीसरी तुमं देवाणुपिया ! जाव जीवियफले तएणं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमहं णो आढाइ, जाव संचिट्ठइ, तएणं कंडरीए पौडरीएणं दोच्चंपि तच्चंपि एवंवुत्ते समाणे अामए अस्सवसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीयं राय आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं वहिया जणवयविहार विहरइ ) ।
હું તે અધન્ય અને અકૃત પુણ્ય છું કેમકે હું તે રાજપમાં યાવત્ રણવાસમાં તેમજ મનુષ્યભવના કામોમાં મૂછિત યાવત અષ્ણુપયન બની રૉ છું, એટલા માટે જ પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવામાં અસમર્થ થઈ રહ્યો છું. એથી જ હું આ કહી રહ્યો છું કે તમે ખરેખર ધન્ય છે. હે દેવાનપ્રિય ! તમે જ જન્મ અને જીવનનું ફળ કે જે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા રૂપ છે–તે સારી રીતે મેળવી લીધું છે. તેઓ ત્યાંથી વિહાર કરી જાય તે આશયથી કહેલા તે પુંડરીકના વચન સાંભળીને કંડરીક અનગારે તેની કશી જ દરકાર કરી નહિ. તે વાતને તેમણે સન્માનની દષ્ટિએ સ્વીકારી નહિ. આ બધું સાંભળીને પણ તેઓ ત્યાં જ મૂંગા થઈને બેસી જ રહ્યા. કંડરીક અનગારની આ સ્થિતિ જોઈને
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७१०
নামকথা स्ववश: अपगतस्वातन्त्र्यः सन् ' लज्जाए ' लज्जया, 'गारवेण' गौरवेण= साघुत्वगौरवेण च पुण्डरीकं राजानमापृच्छति, आपृच्छय स्थविरैः साई बहिर्जनपदविहारं विहरति ॥ सू०३॥
मूलम्--तएणं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं किंचिकालं उग्गं उग्गेणं विहरइ । तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणत्तण. णिविण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी, थेराणंअंतियाओ सणियं२ पच्चोसकइ, पच्चोसकित्ता, जेणेक पुंडरिगिणी णयरीजेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयांस णिसीयइ णिसीइत्ता, ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिटूइ । तएणं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयसि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं-वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तव पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवर
बार जब उनसे पूर्वोक्त प्रकारसे कहा-तब उन्हों ने नहीं इच्छा होने पर भी स्ववशताका अभाव होने के कारण लज्जावश होकर साधुत्वके गौरवके ख्याल से-पुंडरीक राजा से विहार करनेकी बात पूछी-पूछकर फिर वे वहां से स्थविरोंके साथ बाहिरके जनपदों में विहार कर गये ॥सू०३ ॥ પુંડરીકે બીજી અને ત્રીજી વાર પણ જ્યારે પહેલાં મુજબ જ વાત કહી ત્યારે તેમણે પિતાની ઈચ્છા નહિ હેવા છતાંએ લાચાર થઈને, લજિત થઈને, સાધુત્વના ગૌરવને લક્ષ્યમાં રાખીને પુંડરીક રાજાને વિહાર કરવાની વાત પૂછી. પૂછીને તેઓ ત્યાંથી સ્થવિરેની સાથે બહારના જનપદે માં વિહાર કરી ગયા. સૂ. ૩
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गारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकमरित्रम्
पावस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमण संकध्ये जाव झियायइ । एणं पोंडरीए अम्मधाईए एयम सोच्चा णिसम्म तव संभंते समाणे उठाए उट्ठेइ, उट्टित्ता, अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पग्राहिणं करेइ करित्ता, एवं वयासी - घण्णेसि णं तुमं देवाप्पिया ! जाव पव्वइए । अहणणं अधपणे३ जाव नो पत्रइत्तए । तं धन्नेसि णं तुमं देवाणुपिया ! जाव जीवियफले । तरणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिंणीए संचिट्ट, दोच्चंपि तच्चपि जाव संचिट्ठइ । तएर्ण पोंडरीए कंडरयिं एवं वयासी - अहो भंते ! भोगेहिं ? हंता अट्ठो तरणं से पोण्डरीए राया कोटुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता, एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवानुष्पिया ! कंडयस महत्थं जाव रायाभिसेअं उवटुवेह जाव रायाभिसेएवं अभिसिंचइ ॥ सू० ४ ॥
टीका- 'तणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कण्डरीकः स्थविरैः सार्धं किंचित् कालम् ' उग्गं उग्गेणं' उग्रोग्रेण - अत्युग्रेण विहारेण विहरति । ततः पश्चात् ' समणत्तणपरितंते ' श्रमणत्त्रपरितान्तः = श्रमणधर्म परिपालने खिन्नः पुनः
३१
'तएण से कंडरीए थेरेहिं सद्धि' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद ( से कंडरीए ) वे कंडरीक ( रेहिं सद्धि) स्थविरों के साथ (किंचिकालं) कुछ काल पर्यन्त (उग्गं उम्मेणं ) अत्युग्रविहार करने में ( विहरइ ) लग गये ( तओपच्छा समणतण
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'root से कंडरी थेरेहिं सद्धि" इत्यादि ।
टीडअर्थ – (तएणं) त्यारपछी ( से कंडरीए ) ते 15 ( थेरेहि सद्धि ) स्थविरोनी साथै ( किं चिकालं ) थोडा वणत सुधी तो ( उग्गंउगेणं) अतीव विहार ४२वामां ( ब्रिहरइ ) अवृत्त थया ( तओ पच्छा समणचण परितंते )
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शाताधर्मकथाजस्त्र समणत्तणनिविण्णे' श्रमणत्वनिर्विणः साधुभावे औदासीन्यं प्राप्तः ‘ समणतणणिभच्छिए ' श्रमणत्वनिर्भसितः श्रमणत्वं निर्भत्सितं येन सः साधुभावानादरपरायणः, अतएव 'समणगुणमुकजोगी' श्रमणगुणमुक्तयोगी श्रमणगुणेभ्योमुक्तः रहितो योगः योगा-मनोवाकायरूपः, सोऽस्यास्तीतित्यक्तश्रमणगुणइत्यर्थः, स्थविराणामन्तिकात् शनैः शनैः प्रत्यवष्वस्कते-पश्चादागच्छति, प्रत्यवष्वस्क्य, यौव पुण्डरी किणी नगरी यौव पुण्डरीकस्य भवनं तशैव उपागच्छति, उपागत्य अशोकवनिकाया: अशोकवाटिकायाः अशोकवरपादपस्य अधः पृथ्वीशिलापट्ट के निषीदति-उपविशति, निषध, 'ओहयमणसंकप्पे ' अवहनमनः संकल्पः अवहतो. मनः संकल्पः मनोव्यापारो यस्य स अपगतमानसिकव्यापारः, 'जाव झियाय-- परितंते ) बाद में बे श्रमणधर्म के परिपालन करने में खिन्न चित्त बन गये (समणत्तणणिविण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसक्का, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरिगिणी णेयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ ) साधुभाव के निर्वाह करने में उदासीनता को प्राप्त हो गये-साधुभाव के प्रति उनमें अनादर भाव आ गया अत एव वे श्रमण गुणों से मुक्त योगवाले बन गये-श्रमण के गुणों का उन्हों ने परित्याग कर दिया। इस तरह वे धीरे २ स्थविरों के पास से खिसककर एक दिन जहाँ पुंडरीकिणी नगरी थी
और उसमें भी जहां पुंडरीक राजा को भवन था वहां पर आ गये। (उवागच्छित्ता असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिला पट्टयंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे ત્યારપછી તેઓ શ્રમણ ધર્મના પાલનમાં ખિન્નચિત્ત-ઉદાસ બની ગયા.
(समणत्तणणिव्विण्णे समणत्तणणिभच्छिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणिय २ पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुडरागिणी णयरी जेणेव पुडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छद)
તેઓ સાધુભાવને નભાવવામાં ઉદાસ બની ગયા. સાધુભાવ પ્રત્યે તેમનામાં અનાદર ભાવ ઉત્પન્ન થઈ ગયે, એથી તેઓ શ્રમણ-ગુણોથી મુક્ત ચોગવાળા બની ગયા એટલે કે શ્રમણના ગુણોને તેમણે ત્યજી દીધા. આ પ્રમાણે તેઓ ધીમે ધીમે સ્થવિરોની પાસેથી ચુપચાપ નીકળીને એક દિવસ જ્યાં પુંડરિકિણી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં પુંડરીક રાજાનું ભવન હતું, ત્યાં આવી ગયા.
(उवागच्छित्ता असोगवणियाए अस्रोगघरपायवस्स अहे पुढविसिलापरयंसि, णिमीयइ, णिसीइत्ता ओहयमणसंकप्पे जाव झिपायमाणे संचिदुइ,. तएणं
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नगारधामृतवषिणी टी० १० १९ पुण्डरीक-कण्डरीकरित्रम् ७३ माणे ' यावद्ध्यायन आर्तध्यानं कुर्वन् संतिष्ठते । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य राज्ञोऽम्बधात्री यत्रैव अशोकवनिका तव उपागच्छति, उपागत्य कण्डरीकमनगारम् अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्ट केऽपहतमनःसंकल्पं यावद् ध्यायन्तं पश्यति, दृष्ट्वा, यौन पुण्डरीको राजा तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य. पुण्डरीकं राजानमेवमवादीत-एवं खलु देवानुप्रिय ! तव 'पिउभाउए' ग्रियभ्राता कण्डरीकोऽनगारोऽशोकवनिकाया अशोकवरपादपस्य अधः पृथ्वीशिलापट्टके अवहतमनः संकल्पो यावद्ध्यायति । ततः खलु पुण्डरीकः अनधाच्या एतमर्थकण्डरीकस्य संचिट्ठइ, तएणं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवर पायस्स अहे पुढविसिलावटयंसि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं वयासी) वहां आकर वे अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे पृथिवीशिला पट्टक पर बैठ गये। बैठकर अपहत मानसिक व्यापारवाले होकर वे यहां आर्तध्यान करने लगे। इनने में पुंडरीक राजा को अम्बधात्री-धायमाता उस अशोक वाटिका में आई-वहां आकर उसने कंडरीक अनगार को अशोक पादप के नीचे पृथिवीशिलो पटक पर चिन्तामग्न देखा-देखकर वह जहां पुंडरीक राजा थे वहां आई-वहां आकर उसने पुंडरीक राजा से इस प्रकार कहो-( एवं खलु देवाणुप्पिया! तव पिउभाउए कंडरीए अणगोरे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ) हे देवानुप्रिय ! तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उबोगच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि ओहयमणसंक पंजाव झियाययाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं वयासी)
ત્યાં આવીને તેઓ અશોક વાટિકામાં અશોક વૃક્ષની નીચે પૃશ્ચિશિલા પક ઉપર બેસી ગયા. ત્યાં બેસીને તેઓ અપહત માનસિક વ્યાપારવાળા (ઉદાસ) થઈને આત્તધ્યાન કરવા લાગ્યા. એટલામાં પુંડરીક રાજાની અંબધાત્રી -ધાયમાતા–અશોક વાટિકામાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે કંડરીક અનગારને અશોક વૃક્ષની નીચે પૃવિશિલા ઉપર આર્તધ્યાન કરતા જોયા. જોઈને તે જ્યાં પુંડરીક રાજા હતા ત્યાં આવીને તેણે પુંડરીક રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणि.. याए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावटे ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय)
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हाताधर्मकथासूत्र अशोकवनिकामध्यगताशोकक्षाधः स्थितस्यातध्यानरूपमर्थ श्रुत्वा निशम्य द्यवधार्य ' तहेव' तथैव यथास्थितस्तथैव — संभंते समाणे ' सम्भ्रान्तः सन्'कथं पुनरसौ समागत ' इति शङ्कितः सन् उत्थाय उत्तिष्ठति झटिति उत्तिष्ठतीत्यर्थः, उत्थाय. अन्तः पुरपरिवारसंपरितः यौर अशोकवनिका यौव कण्डरीकोऽनगारस्तमेव उपागच्छति, उपागत्य ' तिक्खुत्तो' त्रिः कृत्वा वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा एवमवादीत्-'धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइए' धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! यावत् भवजितः । अहं खलु ' अधण्णे ' ३ अधन्यः ३ यावत नो शक्नोमि प्रवजितुम् । 'तं ' तस्मात्कारमा 'धन्नेसि' धन्योऽसि खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! 'जाव जीवियफले' यावत् जीवितफलम् त्वया जन्मजीवितफलं सुलब्धम् इति भावः। ततः खलु कण्डरीकेण एवं प्रशंसापरवचनरुक्तः सन् तूष्णीकः संतिष्ठते, 'दोच्चपि तचंति' द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं पूर्वप्रकारेण उक्तः सन् 'जाव संचिट्ठइ ' यावत् संतिष्ठते मौनमवलम्ब्य स्थित इतिभावः । ततः खलु पुण्डरीकः कण्डरीकमेवमवादीन-अट्ठोसुनिये-तुम्हारे प्रिय भाई कंडरीक अनगार अशोक वाटिका में अशोक वृक्षके नीचे पृथिवीशिलापट्टक पर अपहतमनःसंकल्प होकर यावत् चिन्ता मग्न बैठे हुए हैं (तएणं पोंडरीए अम्मघाईए एयमढे सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उठाए उठेइ, उद्वित्ता अंतेउरपरियालसंपरिघुडे जेणेव असोगवणिया जाच कंडरीयं त्तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता एवं वयासी धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव पन्चहए अहण्णं अधण्णे ३ जाव नो पव्वहत्तए तं धन्नेसि णं तुमं देवाणुपिया! जाव जीवियफले-तएणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, दोच्चपि तच्चपि जाव संचिट्ठइ, तएणं पौंडरीए कंडरीयं एवं घयासी अठ्ठो भंते ! भोगेहिं ! हंता अट्ठो! तएणं से पोंडरीए राया कोडं.
હે દેવાનુપ્રિય! સાંભળે, તમારા પ્રિય ભાઈ કંડરીક અનગાર અશોક વાટિકામાં અશોક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વિશિલા પટ્ટક ઉપર અપહરમન સંકલ્પ થઈને યાવત્ ચિંતામગ્ન થઈને બેસી રહ્યા છે.
(तएणं पोंडरीए अम्मधाईए एयमढे सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उडाए उट्टेइ, उद्वित्ता अतेउरपरिपालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंड. रीयं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता एवं वयासी धणेसि णं तुम देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइए अहण्णं अधण्णे २ जाव नो पाइत्तए तं धन्नेसिणं तमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले तएणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, दोचवि, तच्च वि जाव संचिट्ठइ, तएणं पोंडरीर कंडरीय एवं बयासी, अटो भंते ! भोगेहिं ? हंता अट्ठो! तएणं से पोंडरीए राया कोडुबिय
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी डी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकचरित्रम
७३५
बियपुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी - विप्पामेव भो देवाणुपिया ! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेअं उवट्टवेह, जात्र रायाभिसेएर्ण अभिसिंह ) इस प्रकार अम्बाधाय के मुख से इस बात को सुनकर और उसे चित्त मैं जमाकर जैसे बैठे हुए थे उसी तरह संभ्रान्त होते हुए ये क्यों आये है - इस प्रकार शंकित चित्त होते हुए उत्थानशक्ति से उठे बहुत जल्दी सुनते ही प्रमाण- उठे और उठकर अन्तःपुर के परिवार को साथ लेकर जहां अशोक वनिका थी वहां पर आये वहां आकर कंडरीक अनगार के पास पहुँचे वहां पहुँच कर उन्हों ने उन्हें तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिण किया बाद में वे कहने लगे - हे देवानुप्रिय ! तुम्हें धन्यवाद है - जो तुम राज्य एवं अन्तःपुर का परित्याग कर प्रत्रजित हो गये हो इत्यादि जिस प्रकार पहिले उनसे कहा था इसी प्रकार अब भी कहा मैं अधन्य हूँ - ३ - जो यावत् दीक्षित होने के लिये शक्तिशाली नहीं हो रहा हूँ। इसलिये हे देवानुप्रिय ! आपके लिये धन्यवाद है- आपने जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है। इस तरह प्रशंसा परक वचनों से पुंडरीक राजा द्वारा कहे गये वे कंडरीक अनगार कुछ भी नहीं बोले-किन्तु चुपचाप ही बैठे रहे । जब पुंडरीक राजा ने उनकी इस प्रकार की स्थिति देखी - तब दुबारा तिबारा भी उन्हों ने
पुरिसे सहावे, महावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कडरीयस्स महत्थ जाव रायाभिसेअं उबट्ठवेह, जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ )
આ પ્રમાણે અબાધાયના મુખથી આ વાત સાંભળીને અને તેને મનમાં ધારણ કરીને જેવી સ્થિતિમાં તેઓ બેઠા હતા તેવી જ સ્થિતિમાં સ્તબ્ધ થઇને " तेथे प्रेम माया छे " આ પ્રમાણે શંકાયુક્ત થતાં-ઉત્થાન શક્તિ વડે તે ઊભા થયા અને ઊભા થઈને જલ્દી રણવાસના પિરવારને સાથે લઈને જ્યાં અશોક વાટિકા હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને કઇંડરીક અનગારની પાસે પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેમણે તેમને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કર્યાં ખાદ કહેવા લાગ્યા કે હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમને ખરેખર ધન્યવાદ ઘટે છે કે જો તમે રાજ્ય અને રણવાસના ત્યાગ કરીને પ્રજીત થઈ ગયા છે!, વગેરે જેમ પહેલાં કહ્યું હતું તેમજ તે વખતે પણ કહ્યું. હું તે અધન્ય છુ-૩-જે યાવત્ દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનું પણ સામર્થ્ય ધરાવતા નથી. એથી હું દેવાનુપ્રિય ! તમને ધન્ય છે. તમેએ ખરેખર પેાતાનાં જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે. આ પ્રમાણે પ્રશસાજનક વચનાથી પુડરીક રાજા વડે સમાધિત કરાયેલા તે કુંડરીક અનગાર કંઈપણુ ખાલ્યા નહિ, તે મૂ ́ગા થઇને એસીજ
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हाताधर्मकथासूत्रे भंते ' भोगेहिं ' अर्थों हे भदन्त ! भोगैः किं भोगैः प्रयोजनमस्ति ? इति, कण्डरीकः प्राह-'हंता ! अट्ठो' हन्त ! अर्थः भोगमुपभोक्तुमानसोऽस्मीतिभाः । ततः खलु-कण्डरीकाभिप्रायज्ञानानन्तरमित्यर्थः, स पुण्डरीको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति-प्रायति, शब्दयित्वा, एवमवदत् - क्षिपमेव भो देवानुपियाः ! कण्डरीकस्य महार्थम् अत्यर्थम् ' जाव रायाभिसेयं ' यावत् राजाभिषेकम् ' उबट्टवेइ' उपस्थापयत परिकल्पयत, 'जाव रायाभिसे एण अभिसिंचह' यावत् राज्याभिषेकेण अभिषिञ्चति स पुण्डरीको राजा कण्डरीकं राजपदे स्थापयति ॥ सू० ४ ॥
मूलम्-तएणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्रियं लोयं करेइ, उनसे ऐसा ही कहा परन्तु फिर भी उन्हों ने कुछ नहीं ध्यान दिया केवल मौन धारण कर ही बैठे रहे-तब पुनः पुंडरीकने उन कंडरीक अनगार से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! क्या आप को भोगों से तात्पर्य है ? तब कंडरीक ने कहा हां-मेरा मन भोगों को उपभोग करने के लिये हो रहा है। इस तरह कंडरीक का अभिप्राय जानने के बाद पुंडरीक राजो ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-भो देवानुप्रियो तुम लोग कंडरीक के लिये राज्याभिषेक योग्य सामग्री एकत्रित कर लेआओ पुंडरीक राजा की इस आज्ञा के अनुसार, उनलोगों ने वैसा ही किया-जब राज्याभिषेक सामग्री उपस्थित हो चुकी-तब पुंडरीकने कंडरीक का राज्याभिषेककर दिया-कंडरीक को राजपद में स्थापित कर दिया ॥ सूत्र ४॥ રહ્યા. પુંડરીક રાજાએ તેમની આવી સ્થિતિ જોઈને બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું. પણ તેમણે તેની કંઈ દરકાર કરી નહિ તે ફક્ત મૂંગા થઈને બેસી જ રહ્યા. ત્યારે ફરી પુંડરીકે તે કંડરીક અનગારને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભગવન ! તમને શું હજી બેગ ઉપભેગેની ઈચ્છા છે? ત્યારે કંડરીકે કહ્યું કે હા, ખરેખર મારું મન ભાગ ઉપગમાં પ્રવૃત્ત થવા
છે છે. આ પ્રમાણે કંડરીકની ઈચ્છા જાણને પુંડરીક રાજાએ કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લેકે કંડરીક માટે-રાજ્યાભિષેક ચોગ્ય સામગ્રી ભેગી કરો. પુંડરીક રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા સાંભળીને તે લોકેએ તેમજ કર્યું. જ્યારે રાજ્યા. નિકની બધી વસ્તુઓ એકત્રિત થઈ ગઈ ત્યારે પુંડરીકે કંડરીકને રાજ્યાભિષેક કરી દીધો. એટલે કે કંડરીકને રાજયાસને બેસાડી દીધું. એ સૂત્ર ૪
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १९ पुण्डरीक कण्डरोकचरित्रम्
करिता, सयमेव चाउजामं धम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स संतियं आयारभंडयं गेण्हइ, गेण्हित्ता, इमं एयारुवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ - कप्पइ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउजामं धम्मं उवसंपजित्ताणं तओ पच्छा आहारं आहरितए तिकट्टु, इमं च एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरिगिणीए पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगामं दुइज्ज माणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमनाए ॥ सू०५ ॥
1
टीका- 'तणं पुंडरीए ' इत्यादि । ततः खलु पुण्डरीकः स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति तथा स्वयमेव ' चाउज्जामं ' चातुर्यामं चतुर्महाव्रतलक्षणं धर्मं प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य, 'कंडरीयस्स संतियं ' कण्डरीकस्य सत्कम् = कण्डरीक सम्बन्धि इत्यर्थः, ' आयारभंडयं ' आचारभाण्डकं आचाराय= साधोः पञ्चविधाचारपरिपालनाय यद्भाण्डकं = वस्त्रपात्रसदोकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपम् तद्
७३७
'तणं पुंडरी सयमेव पंचमुट्ठियं इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एणं ) इसके बाद (पुंडरीए ) पुंडरीक ने (सयमेव ) अपने आप (पंचमुट्ठियं लोयं करेइ) अपना पंचमुष्टिक लोंच किया( करिता सयमेव चाउज्जामं धम्मं पडिवजह पडिवज्जिन्त्ता कंडरीयस्स संतियं आधारभंडयं गेहइ ) और लोच करके स्वयं ही उन्होंने-चातु यम - चतुर्महाव्रत रूप धर्म को धारण कर लिया। एवं कंडरीक के अनगार अवस्था संबन्धी आचार भाण्डक को - वस्त्र, पात्र, सदोरक मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदिरूप साधु चिह्नों को ले लिया । (गेव्हित्ता इमं एवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, कप्पड़ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता
'तणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं' इत्यादि ।
टीडार्थ - (तपणं ) त्यास्पछी ( पुंडरीए ) पुंडरी ( सयमेत्र ) पोतानी જાતે જ ( पंचमुट्ठियं लेायं करेइ ) पोतानुं पंचमुष्टि सुन
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( करिता सयभेव चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स संतियं आयारभडयं गेण्ड्इ )
અને લુંચન કરીને જાતે જ તેમણે ચાતુર્યમ-ચતુમ હાવ્રત રૂપધર્મ ને ધારણ કરી લીધેા. અને કડરીકની અનગાર અવસ્થા સંબંધી આચાર ભાંડકા-વસ્ત્ર, પાત્ર, સદરક મુખવસ્તિકા, રોહરણ વગેરે સાધુ ચિહ્નોને લઈ લીધાં,
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७३८
हाताधर्मकथासूत्र गृह्णाति, गृहीत्वा, इममेतद्रूपं वक्ष्यमाणमभिग्रह-प्रतिज्ञाविशेषम् अभिगृह्णाति= करोति अभिग्रहस्वरूपमाह-कल्पते. मे स्थविरान् वन्दित्वा नमस्यित्वा स्थविराणामन्तिके चातुर्यामं धर्मम् ' उपसंपज्जित्ताणं ' उपसंपद्य-स्वीकृत्य, ततः पश्चात्आहारमाहर्तुम् इति कृत्वा निश्चित्य, इमं च एतद्रूपम् अभिग्रहम् , अभिगृह्य खलु पुण्डरीकिण्याः प्रतिनिष्क्राम्यति निस्सरति, प्रतिनिष्क्रम्य 'पुवाणुपुधि ' पूर्वानुपूर्व्या चरन् , ग्रामानुग्राम द्रषन् यत्र स्थविरा भगवन्तस्तत्रौत्र प्राधारय-गमनाय गन्तुं प्रस्थितः ॥ सू०५ ॥ थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्म उवसंपज्जित्ताणं, तओ पच्छा आहार आहरित्तए) बाद में उन्होंने इस प्रकार अभिग्रह धारण किया कि जबतक मैं स्थविर भगवंतो को वंदना नमस्कार कर उनके पाससे चातुर्याम धर्मको धारण नहीं कर लूंगा, तबतक मैं आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा उनके पास चातुर्याम धर्म धारण करके ही आहार ग्रहण करूँगा (त्ति कटु इमंच एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता णं पांडरिगिणीए पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुष्वि चरमाणे गामाणुगामं दहज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) इस प्रकार का यह अभिग्रहण कर वे उस पुंडरीकिणी नगरी से निकले और निकल कर तीर्थंकर परम्परानुसार विहार करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए वे उस ओर प्रस्थित हुए कि जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे ॥ सूत्र ५॥
(नेण्हिता इम एयारूव अभिग्गह अभिगिण्हइ, कापइ, मे थेरे वंदित्ता जमंसित्ता थेगणं अतिए चाउज्जाम धम्म उवसंपज्जित्ताणं, तओपच्छा आहारं आहरित्तए) - ત્યારબાદ તેમણે આ જાતને અભિગ્રહ ધારણ કર્યો કે જ્યાં સુધી હું સ્થવિર ભગવતેને વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પાસેથી ચાતુર્યામ ધર્મને ધારણ નહિ કરું ત્યાં સુધી હું આહાર પાણી ગ્રહણ કરીશ નહિ. તેમની પાસેથી ચાતુર્યામ ધર્મને ધારણ કરીને જ હું આહાર ગ્રહણ કરીશ.
(त्ति कटु इम। एयारूव अभिग्गह अभिगिण्हित्ताणं पोंडरिगिणीए परिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्विं घरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए)
આ પ્રમાણે તે અભિગ્રહને મનમાં ધારણ કરીને તેઓ તે પુંડરીકિણી નગરીની બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં અને આ પ્રમાણે એક ગામથી બીજે ગામ વિચરણ કરતાં કરતાં તેઓએ જ્યાં સ્થવિર ભગવંતે વિરાજમાન હતા તે તરફ પ્રસ્થાન કર્યું. સૂપા
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अभंगारधामृतवर्षिणी टी० म० १९ पुण्डरीक-कंडरीकञ्चरित्रम् ७३९ __मूलम्--तपणं तस्स कंडरीयस्स रपणो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइ भोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ । तएणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरइ । तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रट्टे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अट्टदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकाल दिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववण्णे । एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाए जाव अणुपरियट्टि स्सइ, जहा व से कंडरीए राया ॥ सू०६॥
टीका-'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य राज्ञस्तं "पणीयं ' प्रणीतम् = सरसं गरिष्ठं च पानभोजनम् ' आहारियस्स समाणस्स' आहारितस्य सतः आहारं कुर्वतः सतः ' अइजागरियेण य ' अतिजागरितेन च
टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (तस्स कंडरीयस्स रणो) उस कंड रीक राजा के (तं पणीयं पोणभोयणं आहारीयस्स समाणस्स अतिजागरिएणय अइभोयणप्पसंगणय से आहारे णो सम्नं परिणमइ ) इस प्रणीत-सरस-गरिष्ठ पान भोजन के खाने से तथा विषयों की अधिक आसक्ति के कारण अतिजागरण करने से एवं प्रमाणाधिक भोजन के
'तपणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो' इत्यादि । Asti-(तएणं ) त्या२५छी ( तस्स कंडरीयस्स रण्णो ) ते 30४ २।ने
(तं पणीयं पाणभोयणं ओहारियस समाणस्स अतिजागरिएण य अईभो. यणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ)
તે પ્રણીત-સરસ-ગરિષ્ઠ પાન ભજનના આહારથી તેમજ વિષયમાં વધારે પડતી આસક્તિના લીધે, વધારે જાગરણ કરવાથી, અને પ્રમાણ કરતાં
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ताधर्मकथा विषयासक्तेरतिजागरणया ' अहमोयणप्पसंगेण ' अतिभोजनप्रसङ्गेन-प्रमाणाधिकभोजनेन स आहारो नो सम्यक् परिणमति यथावदाहारस्य परिपाको न भवति । ततः खलु तस्य कण्डरीकस्य राज्ञः ' तंसि' आहारंसि' तस्मिन् आहारे ' अपरिणममाणंसि' अपरिणमति परिपाकमगच्छति सति 'पुन्चरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसममेरामध्यभागे ' सरीरंसि ' शरीरे वेदना प्रादुभूता, कीदृशीवेदना ? उज्ज्वला=मुखलेशरहिता, विपुला विशाला-सर्वशरीरव्याप्ता 'पगाढा' प्रगाढा 'जाव दुरहियासा' यावद् दुरधिसह्या-सोढुमशक्या, पुनः स कण्डरीको राजा पित्तज्जरपरिगयसरीरे' पित्तज्वर परिगतशरीरः पित्तज्वरेण परिगतं व्याप्तं शरीरं यस्य सः पित्तज्वरपरिव्याप्तशरीरः 'दाहवकंतीए' दाहव्युत्क्रान्तिकः दाहज्वरज्वालासमाक्रान्तः चापि विहरति आस्ते । ततः खलु स कण्डरीको राजा राज्ये च राष्ट्रे च अन्तःपुरे च 'जाब अज्झोववन्ने ' यावत् प्रसंग से कृत आहार का परिपाक ठीक २ नहीं होता रहा-(तएणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरसकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भुया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरह) इसलिये एक दिन की बात है कि उन कंडरीक राजा के जब वह कृत सरस गरिष्ठ आहार अच्छी तरह नहीं पचा तब उनके शरीर मे रात्रि के मध्यभागमें वेदना प्रादुर्भूत हुई। जिस वजह से वह वेदना सुख के लेश से वर्जित थी उनके समस्त शरीर भर में व्याप्त हो रही थी बहुत अधिक थी-यावत् वह उन्हें दुरधिसह्य हो रही थी। पित्तज्वर से व्याप्त है शरीर जिन का ऐसे वे कंडरीक राजा दाहज्वर की ज्वाला પણ વધારે ભેજન પ્રસંગમાં કરેલા આહારનું પાચન બરાબર થતું નહોતું.
(तएणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तसि आहार सि अपरिणममाणसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमय सि सरीरंसि वेयणा पाउन्भुया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियामा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरह)
એથી એક દિવસની વાત છે કે તે કંડરીક રાજાને જ્યારે ભજન રૂપમાં લીધેલા તે સરસ અને ગરિષ્ઠ આહારનું સારી રીતે પાચન થયું નહિ ત્યારે રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં તેમના શરીરમાં વેદના થવા માંડી, તેથી તેઓ ખૂબ જ દુઃખી થયા. આ વેદનામાં માત્ર દુઃખ જ થતું હતું, તે વેદના તેમના સંપૂર્ણ શરીરમાં વ્યાપ્ત થઈ રહી હતી. પ્રમાણમાં તે બહુ જ વધારે હતી. યાવતું તે તેમના માટે દુરધિસહા (અસા) થઈ પડી હતી. પિત્તજવરથી વ્યાપ્ત થયેલા શરીરવાળા તે કંડરીક રાજા દાહવરની જવાળાઓથી સળગી ઉઠયા.
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मैनेगारधर्मामृतषिणी रो० अ० १९ पुण्डरीक कंठरोकचरित्रम् ७४१ अध्युपपन्ना-मूच्छितो गृद्धः प्रथितः अध्युपपन्नः राज्यादिषु सर्वथासक्त इत्यर्थः, ' अदृदुहटवसहे' आतंदुःखार्तवशातः तत्र-आता मनसा दुःखितः, दुःखातः= देहदुःखयुक्तः, वशातः राज्यराष्ट्रान्तः पुराधासक्तेन्द्रियवशेन विषयसुखवियोगसम्भावनया पीडितः आर्तध्यानोपगत इत्यर्थः । 'अकामए ' अकामका=अनिच्छकः-मरणवाञ्छारहितः, 'अवस्सवसे' अपस्ववश: अपगतस्वातन्यः परा. धीनः सन् कालमासे कालं कृत्वा ' अहे सत्तमाए' अधः सप्तम्यां पृथिव्याम् तमस्तमः प्रभाख्ये सप्तमे नरके 'उकोसकालहिइयंसि' उत्कृष्ट कालस्थिति के नरके से भी युक्त हो गये । (तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रहे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अट्टदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालठ्ठिइयंसि नरयंसी नेरइयत्ताए उववण्णे) इस तरह दुःखित बने हुए वे कंडरीक राजा राज्य राष्ट्र, एवं अन्तपुर में अध्युपपन्न हो गये इस प्रकार राज्यादिकों में सर्वथा आसक्तिभाव से बंधे हुए वे राजा मन से दुःखित होकर, देह के दुःख से एकक्षण अर्तध्यान में पड़ गये। अन्त में वे, ये नहीं चाहते थे कि मेरी मृत्यु हो जावे-तो भी सांसारिक स्थिति से बन्धे हुए होने के कारण या वेदनाओं से पीडित होने के कारण वे स्ववश नहीं थे परतंत्र थे, इसलिये काल अवसरकाल करके मर कर नीचे तमस्तम प्रभा नाम के सातवें नरक में कि जो उत्कृष्ट काल स्थिति प्रमाण है-अर्थात् ३३ सा
(तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रटे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदृदुहवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए, अक्कोसकालद्विइयंसि नरयसि नेरइयत्ताए उववण्णे)
આ પ્રમાણે દુખિત થયેલા તે કંડરીક રાજા રાજ્ય, રાષ્ટ્ર અને રણવાસમાં અયુપપન્ન થઈ ગયા એટલે કે વધારે પડતા આસક્ત થઈ ગયા. આ પ્રમાણે રાજ્ય વગેરેમાં સંપૂર્ણપણે આસક્ત ભાવથી બંધાયેલા તે રાજા મનથી દુઃખિત થઈને, શારીરિક કષ્ટથી એક ક્ષણ માટે પણ મુક્તિ નહિ થવાને કારણે વિષય સુખના વિયોગની સંભાવના બદલ તેમજ રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, રણવાસ વગેરેમાં આસક્ત ઈન્દ્રિયેના વશમાં હોવાને કારણે આર્તધ્યાનમાં મગ્ન થઈ ગયા. છેવટે તેઓ મૃત્યુને ઈચ્છતા નહોતા છતાંએ સાંસારિક વાતાવરણમાં બંધાયેલા હોવાને કારણે અથવા વેદનાઓથી પીડિત હોવાને કારણે તેઓ સ્વવશ હતા નહિ, પરવશ–પરતંત્ર હતા, એથી કાળ અવસરે કાળ કરીને,અન્ય પામીને-નીચે તમસ્તમપ્રભા નામના સાતમાં નરકમાં કે જે ઉત્કૃષ્ટ કાલ
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७४२
starधर्मकथासूत्र
नैरयिकतया उपपन्नः । एतद् दृष्टान्तेन भगवान् महावीरः साधूनुपदिशति - एवमेव =अने नैवप्रकारेण हे आयुष्मन्तः ! श्रमणाः यः कश्चिदस्माकं श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके यावत्मत्रजितः सन् पुनरपि मानुष्यकान् कामभोगान् आसाएइ ' आस्वादयति । स ' जाव अणुपरियट्टिस्सइ ' यावदनुपर्यटिष्यति - यावत्-चातुरन्त संसारकान्तारं परिभ्रमिष्यति । ' जहेब से कंडरीए राया ' यथैव स कण्डरीको राजा ॥ मु०६ ||
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मूलम् - तएण से पोंडराए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता थेराणं अंतिए दोश्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करिता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता, अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिणियत्तइ,
गर की जहां उत्कृष्ट स्थिति है - नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो गये । इसी बात को दृष्टान्त से श्री भगवान् महावीर प्रभु साधुओं को समझाते है - (एवामेव समणाउसो ! जाव पच्चइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाए जाव अणुपरियहिस्सह, जहा व से कंडरीए राया ) इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणों ! जो कोई हमारा श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास में दीक्षित होकर के पुनः मनुष्य भव संबन्धी कामभोगों को भोगता है वह कंडरीक राजा की तरह यावत् इस चतुर्गति रूप संसार कान्तार में परिभ्रमण कयेगा ||६||
સ્થિતિ પ્રમાણ છે એટલે કે ૩૩ સાગરની જ્યાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છે-નારકીની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા. એ જ વાતને શ્રી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દેષ્ટાંત રૂપમાં સાધુઓને સમજાવે છે કે
एवमेव समणाउसो ! जाव पव्वईए समाणे पुणरवि माणुस्लए कामभोगे आसाए जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कंडरीए राया )
આ પ્રમાણે હું આયુષ્મંત શ્રમણા ! જે કાઇ અમારા શ્રમણુ અથવા શ્રમણીજન આચાય કે ઉપાધ્યાયની પાસે દીક્ષિત થઇને ફરી જે તે મનુષ્ય ભવના કામલેગાને ભાગવે છે, તે કડરીક રાજાની જેમ યાવત્ આ ચતુ તિ રૂપ સસ્રાર કાંતારમાં પરિભ્રમણુ કરશે. ।। સૂત્ર ૬ u
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७४३ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता, थेरेहिभगवंतेहिं अन्भणुनाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणझुववण्णे बिल. मिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिजं असणपाणखाइमसाइमं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ । तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्सतं कालाइकंतं अरसं विसरं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुठवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ । तएणं तस्स पुंडरीस्स अणगारस्स सरीरगसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए विहरइ । तएणं से पुंडरीए अण. गारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एवं वयासी-जमोऽत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुचि पि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइ. वाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छादंसणसल्ले णं पच्चक्खाए जाव आलोइयपडिकंते कालमासे कालं किच्चा सव्वदृसिद्धे उपवन्ने । तओ अणतरं उठवट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ । एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं णो सज्जइ णो रजइ, जाब विप्पडिघायमावजइ, सेणं इहभवे व बहूणं सावगाणं०
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
अच्च णिज्जे बंदणिज्जे पूय णिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिजे कलाणं मंगलं देवयं घेइयं पज्जुवासणिज्जेत्तिकट्टु परलोप वि य णं णो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरंतं संसारकंतारं जाव वीइवइस्सइ जहावसे पोंडरीए अणगारे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरणं जाव सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण जात्र सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं छट्टस्स अंगरस पढमस्स सुयवखंधस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिबेमि ॥ सू० ७ ॥
टीका - ' तरणं से' इत्यादि । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगारो यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा स्थविराणामन्तिके ' दोच्चंपि द्वितीयमपिवारम् चातुर्यामं= चतुर्महावतरूपं धर्मं प्रतिपद्यते । तथा पष्ठक्षपणपारणायां संप्राप्तायां प्रथमायां
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"
तएण से पोंडरीए अणगारे' इत्यादि ।
टीकार्थ :- ( एणं) इसके बाद ( से पोंडरीए अणगारे) वे पुंडरीक अनगार ( जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ ) जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे वहां आ गये । ( उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदह, नमसह, वंदित्ता, नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चपि चाउज्जामं धम्मं
(तएण से पोंडरीए अणगारे ) इत्यादि ।
टीअर्थ - (तएणं) त्यारगाह ( से पेंडरोए अणगारे ) ते पुंडरी अन गार ( जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छा ) ल्यां स्थविर लगव ंत मिराજમાન હતા ત્યાં ગયા.
( उवागच्छित्ता थेरे भगव से बंदर, नमसइ, वंदिता, नमसित्ता थेराणं अंतिए दोपि वा उपजामं, धम्म परिवज्जइ, छटुक्स्वमणपारणगंसि परमाए
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भनगारधामृतवर्षिणी टी० ० १९ पुण्डरीक-कंडरीकचरित्रम् ७४५ पौरुष्याप्रयमे पहरे स्वाध्यायं करोति, कृत्व। 'अडमाणे' यावत् अटन उच्चनीचमध्यमकुलेषु भिक्षार्थ परिभ्राम्यन् “सीयलुक्खं ' शीतरूक्षं-शीतं-पर्युषित, रूक्षं घृतादिरहितं पानं भोजनं प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्य 'अहापज्जतमितिक?' यथापर्याप्तमिति कृत्वा उदरभरणपर्याप्तमिदमन मितिमनसि कृत्य 'पडिणियत्तइ ' प्रतिपडिवज्जइ, छक्खमण पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेह करित्ता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पागभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता अहापज्जत्तमि त्ति कट्टु पडिमियत्तइ-जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुन्नाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अण ज्झुववणे विल. मिव पगगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिज्ज असणपाणखाहम साइमं सरीरकोढगंसि पक्खिवह ) वहाँ आकर के उन्हों ने स्थविर भगवंतों को वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके बाद में उन्हों ने उनसे दुवाराचातुर्याम-चतुर्महाव्रतरूप धर्म को धारण किया। जब षष्ठक्षपण की पारणा का समय आया उस समय वे प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते-और स्वाध्याय करके फिर वे उच्च नीच मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये परिभ्रमण करते उस समय जो उन्हें शीत-पर्युषित, रुक्ष-घृतादिरहित पान भोजन मिलता-वह वे ले लेते-और यह अन्नसामग्री उदरभरण के लिये पर्याप्त है ऐसा मन में विचार कर वहां से पारिसीए सज्जाय करेइ करित्ता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिआहेइ पडिगाहिता अहापज्जत्तमि त्ति कटु पडिनियत्तई-जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता थेरेहिं भगवतेहि, अब्भणुन्नाए समाणे अमुच्छिर अगिद्धे अगढिर अणझुकवण्णे विलमित्र पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं पोसुएसणिज्जं असणपाणखाइमसाइम सरीरकोदगांसि पक्खिवइ)
ત્યાં આવીને તેમણે વિર ભગવતેને વંદના અને નમસ્કાર કર્યો, વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે તેમની પાસેથી બીજીવાર ચાતુર્યામ-ચતુ. મહાવ્રત રૂપ ધર્મને ધારણ કર્યો. જ્યારે ષષ લપણની પારણાને વખત આવ્યું ત્યારે તેઓ પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરતા અને સ્વાધ્યાય કરીને તેઓ ઉચ્ચ, નીચ અને મધ્યમ કુળમાં ભિક્ષા માટે પરિભ્રમણ કરતા તે સમયે તેમને શીત-પર્યાષિત, રૂક્ષ-ઘી વગરને, પાન આહાર મળે તો તેને તેઓ સ્વીકારી લેતા અને “આટલો આહાર ઉદર–પોષણ માટે પૂરત છે ? આ મનમાં વિચાર કરીને ત્યાંથી પાછા ફરી જતા. પાછા આવીને ભિક્ષામાં
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पाताधर्मकथा निवर्तते प्रत्यागच्छति, प्रतिनिवृत्त्य यौव स्थविराभगवन्तस्तौव उपागच्छति, उपागत्य, भक्तपानं पतिदर्शयति, प्रतिदर्य, स्थविरैर्भगवद्भिरभ्यनुज्ञातः सन् अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्ना आसक्तिपरिवर्जित इतिभावः, 'विलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं ' बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना इव यथा पन्नग भूतेन पन्नगभवमागतेन आत्मना जीवेन बिलं प्रविष्यते, तथा तं ' फासुएसणिज्ज' प्रासुकैषणीय द्वाचत्वारिंशद्दोषवर्जितम् अशनं पानं खायं स्वाचं 'सरीरकोटुगंसि' शरीरकोष्ठके-उदरे प्रक्षिपति, यथा भुजङ्गो विलस्य पार्श्वभागद्वयमसंस्पृ. शन् मध्यभागत एवात्मानं बिले प्रवेशयति तथा स मुखस्य पाच द्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं प्रवेश्य आहारयतीति भावः । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य 'कालाइकंतं ' कालातिक्रान्तं कालमतिक्रम्य प्राप्तम्-बुभुक्षावापिस आ जाते-वापिस आकर फिर प्राप्त भिक्षान्न को दिखाने के लिये वे जहां स्थविर भगवंत विराजमान होते वहां आते-यहां आकर प्राप्त भिक्षान्न को उन स्थविर भगवंतों को दिखलाते-दिखालकर जब वे उस
आहार को खाने की आज्ञा देते-तब वे अमूच्छित भाव से अगृद्धचित्तवृत्ति से, एवं आसक्ति रहित परिणति से उस प्राशुक एषणीय-४२ दोषों से रहित अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप-आहार को जिस तरह सर्प-बिल में प्रविष्ट होता है उसी तरह से शरीर कोष्ठक मेंउदर में डाल देते थे। कारण इसका इस प्रकार है-जैसे भुजंग बिल के पार्श्वद्वय नहीं छूता हुआ सीधे मध्यभाग से अपने को बिल में प्रविष्ट कराता है उसी तरह वे मुनिराज मुख के पार्श्वद्रय के स्पर्श से रहित आहार को सीधे कण्ठनाल में धर कर आहार करते थे (तएणं तस्स पुंडरीयस्त अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसविरसं सियलुक्खं पाणપ્રાપ્ત આહારને બતાવવા માટે જ્યાં તે સ્થવિર ભગવંત વિરાજમાન હતા ત્યાં આવતા. ત્યાં આવીને મેળવેલા આહારને તે સ્થવિર ભગવંતને બતાવતા અને બતાવીને જ્યારે તેઓ તે આહારને ગ્રહણ કરવાની આજ્ઞા કરતા ત્યારે તેઓ અમૂછિત–ભાવથી, અમૃદ્ધ-ચિત્તવૃત્તિથી અને આસક્તિ રહિત પરિણતિથી તે પ્રાસુક એષય-૪૨ દેથી રહિત અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ આહારને જેમ સાપ દરમાં પ્રવેશે છે તેમજ શરીર કોષ્ટકમાં-પેટમાં નાખી દેતા હતા. જેમ સાપ દરના બંને પાર્શ્વને સ્પર્શ ન કરતાં સીધે વચ્ચે થઈને પિતાની જાતને દરમાં પ્રવિષ્ટ કરાવી લે છે તેમજ તે મુનિરાજ પણ મુખના બંને પાર્શ્વના સ્પર્શથી રહિત આહારને સીધો કઠનાળમાં મૂકીને ઉદરસ્થ કરતા હતા.
(तएणं तस्म पुरीयस्स अणगारस्स त कालाइक्कत भरसं विरसं मिय
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अनगारंधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कंडरीकचरित्रम् ७७ समयमुल्लङ्थ्य प्राप्तम् , अरसं विरसं शीतरूक्षं पान भोजनम् ' आहारियस्स' आहारितस्य सतः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये 'धम्मजागरियं जागरमाणस्स' धर्म जागारिकां जाग्रतः=धर्मचिन्तनाथ जागरणां कुर्वतः स आहारो नो सम्यक् परिणमति-नो परिपाकं गच्छति । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता — उज्जला जाव दुरहियासा' उज्ज्वला यावत् दुरधिसह्या, एषां व्याख्यापूर्ववत् , तथा स पुण्डरीकोऽनगारः पितज्वरपरिगतशरीरो दाहव्युत्क्रान्तिकः दाहज्वरसमाकुलश्चापि विहरति । ततः खलु स पुण्डरीकोऽनगारः 'अस्थामे' अस्थामा शक्तिरहितः, अबल: शारीरिकबलरहितः, 'अवीरिए' अवीर्यः उत्साहरहितः, अपुरुषकारपराक्रमः-पुरुषार्थपराक्रमरहितः ' करयल जाव' करतल यावत् करतलपरिगृहीतं दशनखं मस्त के अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अईयो यावत्समाप्तेभ्या-मोक्षं गतेभ्यः, नमोस्तु खलु स्थविरेभ्यो भगवद्भ्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि च खलु मया स्थविराणाभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्मं परिणमइ ) इस तरह उन पुंडरीक अनगार का कालातिक्रम से खाया हुआ वह अरस, विरस, शीत, रुक्ष, पानभोजन रात्रि के मध्यभाग में धर्मचिन्तन निमित्त जाग. रण करने के कारण अच्छी तरह से नहीं पचता था (तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए विहरइ, तएणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे, अबले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरिक्कमे करयल जाव, एवं वयासी-णमोत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोचएसयाणं पुटिव पि य णं मए
लुक्ख पाणभोयणं आहारियस समाणस पुव्वरत्तावरत्तकालासमयसि धम्मजाग. रियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म' परिणमइ )
આ પ્રમાણે તે પુંડરીક અનગારને કાળાતિક્રમથી કરેલ તે અરસ, વિરસ, શીત, રૂક્ષ પાન આહારનું રાત્રિના મધ્ય ભાગમાં ધર્મચિંતન માટે કરેલા જાગરણને લીધે સારી રીતે પાચન થતું ન હતું.
(तएण तस्स पुडरीयस्त अणगोरस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकतिए विहरइ, तएणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे, अवले, अवीरिए अपुरिसकारपरिकमे करयल जाव, एवं बयासी-णमोत्थुग अरिहताणं जाव संपत्ताणं थेराणं भगवताणं मम धम्मायरियाणं
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ઉપલે
शाताधर्मकथासूत्रे
मन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं खलु प्रत्याख्यातम् = अष्टादशपापस्थानानि प्रत्याख्यातानि इति भावः, इदानीमपि तेषामेव धेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चकखाए जाव मिच्छादंसण सल्ले णं पच्चखाए जाव आलोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा सव्वट्टसिद्धे उववन्ने ) इस कारण पुंडरीक अनगोर के शरीर में वेदना प्रकट हो गइ | जिसके कारण उन्हें क्षणभर भी शाता नही मिलती। धीरे २ यह समस्त शरीर में भी व्याप्त हो गई। यावत् यह उनके लिये सहन हो सके ऐसी नहीं रही वे उसे बड़ी कठिनता से सहते । दाहज्वर ने भी इनके शरीर पर अपना प्रभाव जमा लिया। इस तरह ये दाहज्वर की ज्वाला से भी आकुल व्याकुल रहने लगे। धीरे २ इनका शरीर शक्ति रहित हो गया । शारीरिक बल भी इनका जाता रहा । उत्साह रहित एवं पुरुषार्थ पराक्रम से विहीन जब ये हो गये तब करतल परिगृहीत दशनखोंवाली अंजलि को इन्हों ने अपने मस्तक पर रखकर इस प्रकार का पाठ बोलना प्रारंभ किया यावत् मुक्ति प्राप्त अर्हत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवंतों के - लिये मेरा नमस्कार हो । मैंने पहिले भी स्थविर भगवंतों के निकट समस्त प्राणातिपात प्रत्याख्यान कर दिया है- यावत् मिथ्यादर्शन शल्य धम्मा पुत्र पि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइत्राए पच्चकखाए जाव मिच्छाद सण सल्लेणं पच्चक्खाए जाव आलोइयपडिक्कते कालमासे काल किच्चा सब सिद्धे उववन्ने )
એથી તે પુડરીક અનગારના શરીરમાં વેદના પ્રકટ થઇ ગઇ તેથી તેમને એક ક્ષણ માટે પણ શાતા મળતી નહેાતી. ધીમે ધીમે આ વેદના સપૂણ્ શરીરમાં પ્રસરી ગઈ યાવત્ તે તેમના માટે અસહ્ય થઈ ગઈ, ભારે મુશ્કેલીથી તેઓ તેને ખમતા હતા. દાહવરે પણ તેમના શરીર ઉપર પેાતાને પ્રભાવ જમાવી લીધા હતા, એથી તેઓ દાહવરની જવાળાઓથી પણ આકુળ-વ્યાકુળ રહેવા લાગ્યા. ધીમે ધીમે તેમનું શરીર અશક્ત થઇ ગયું, શારીરિક મળ પણુ તેમનું નષ્ટ થઈ ગયું હતું. આ પ્રમાણે જ્યારે તેએ ઉત્સાહ રહિત અને પુરૂષા પરાક્રમ વિહીન થઈ ગયા ત્યારે કરતલ-પરિગૃહીત દશ નખાવાળી 'જલિને તેમણે પોતાના મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણેના પાઠ ખેલવા લાગ્યા કે યાવત્ મુક્તિ પ્રાપ્ત અહંત ભગવાને મારા નમસ્કાર છે, મારા ધર્માચાય, ધર્મોપદેશક સ્થવિર ભગવાને મારા નમસ્કાર છે. મે પહેલાં પણ ભગવ'તાની પાસે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત કરી દીધું છે. યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યનું અઢાર
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक - कंडरीकखरित्रम्
७४९
अन्तिके प्राणातिपातं यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि, एवं ' जाव आलोइय पडिकंते ' यावदालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपन्नः । ततोऽनन्तरम्= तत्पश्चात् सर्वार्थसिद्धात् ' उच्चट्टित्ता ' उद्वृत्य= सर्वार्थसिद्धेर्निर्गत्य महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । पुण्डरीकानगारचरितं दृष्टान्तेनोपदश्य श्रमणानुपदिशति भगवान् महावीरः - ' एवामेव ' अनेनैवकारेण हे आयुष्मन्तः श्रमणाः 'जाव पाइए ' यावत्मत्रजितः = योऽस्माकं श्रमणो वा श्रमणी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके प्रत्रजितः सन् मानुष्य केषु कामभोगेषु नो सज्जते नो असक्तिमाश्रयते 'नो रज्जते ' नो रज्यते= नो अनुरागवान् भवति, ' जात्र नो विष्पडिघायमाज्जइ ' यावत् नो विप्रतिघातमापद्यते - संयमनाशं न प्राप्नोति, स खलु इह भवे एव बहूनां श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणाम् अर्चनीयो वन्दनीयः पूजनीयः सत्कारणीयः सम्माननीयो भवति, तथा च स सर्वेषां ' कल्लाणं ' कल्याणं= कल्याणरूपम् ' मंगलं ' मङ्गलम् - मङ्गलरूपम्, देवयं ' दैवतं = धर्म देवरूपः, ' चेइयं चैत्यम् = ज्ञानरूपः पर्युपासनीयश्च भवति 'चिकट्टु ' इति कृस्वा इति का अष्टादश पापस्थानों का, मैंने प्रत्याख्यान कर दिया है। और अब भी उन्हीं के साक्षी से प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ । इस तरह आलोचित प्रतिक्रान्त होकर वे कालअवसर कालकर सर्वार्थ सिद्ध नामके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये । (तओ अनंतरं उच्चट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिह, जाव सव्वदुक्खा णतं काहिह, एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वहुए समाणे माणुस्सएहि कामभोगेहिं णो सज्जह, णो रज्जइ, जाव नो विष्पडिघाय मावज्जइ सेणं इह भवे चैव बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, बंदणिज्जे, पूयणिज्जे, सक्कार णिज्जे सम्माणणिज्जे, कल्लाणं मंगलं देवयं चेहयं पज्जुवास
4
'
પાસ્થાનનું મેં પ્રત્યાખ્યાન કરી દીધુ છે અને હવે તેમની જ સાક્ષીમાં પ્રાણતિપાત યાત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું, આ પ્રમાણે આલાચિત પ્રતિક્રાંત થઇને તેઓ કાળ અવસરે કાળ કરીને સર્વાંČસિદ્ધ નામના અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થઇ ગયા અને ત્યાં તેમની ૩૩ સાગરાપમની સ્થિતિ છે. ( तओ अनंतर उट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव सव्वदुक्खाणमत काहिइ, एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहिं काम भोगेहिं णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विष्वडिघायमावज्जइ से णं इह भवे व बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, वदणिज्जे, पूयणिज्जे, सकारणिज्जे, सम्माण णिउजे, कल्लाणं मंगल देवयं चेइयां पज्जुवासणिज्जे त्ति कट्टु परलोए वि य णं णो
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७५०
जाताधर्मकथाङ्गो हेतोः परलोकेऽपि च खलु सा नो आगच्छति= न प्राप्नोति बहूनि-बहुविधानि दण्डनानि च मुण्डनानि च तर्जनानि च ताडनानि च यावत् चतुरन्तं संसारकान्तरं वीइवइस्सइ' व्यतिव्रजिष्यति-उल्लङ्घयिष्यति, यथा स पुण्डरीकोऽनगारः णिज्जे त्ति कटूटु परलोए वि य णं णो आगच्छइ, बहणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडगाणि य जाव चाउरंतसंसारकनारं जाव वीइवइस्सइ) इसके बाद वे उस सर्वार्थ सिद्ध विमान से चव कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारण कर वहीं से सिद्धपद के भोक्ता यनेंगेयावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। इस तरह पुंडरीक अनगार के चरित्र को दृष्टान्त रूप से कहकर भगवान महावीर प्रभु श्रमणजनों को उपदेश करते हैं कि इसी प्रकार से हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण या श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होकर मनुज्यभव संबंधी कामभोगों में आसक्त नहीं बनता है, रज्जित-अनुराग भाव संपन्न-नहीं होता है, यावत् अपने संयम को नष्ट नहीं करता है, वह इस भव में ही अनेक श्रमण श्रमणी, श्रावक एवं श्राविकाओं द्वारी अर्चनीय वंदनीय पूजनीय सस्करणीय एवं सन्माननीय होता है। तथा जगत के लिये कल्याणरूप, मंगलरूप, धर्म देवरूप, और ज्ञानरूप बन जाता है। लोग उसकी उपासना करते हैं। वह परलोक में भी अनेक प्रकार के दंडनरूप, दाखों को, मुंडनों को तर्जनों को, ताडनाओं
आगच्छइ, बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणिय तज्जगाणि य ताङ गाणि य जाव चाउरतससारकतार जाव वीइवइस्सइ)
ત્યારપછી તેઓ તે સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ ધારણ કરીને ત્યાંથી જ સિદ્ધપદ મેળવશે. યાવત્ સમસ્ત દુદખેનો અંત કરશે. આ રીતે પુંડરીક અનગારના ચરિત્રને દષ્ટાંત રૂપે કહીને મહાવીર પ્રભુ શ્રમજનને ઉપદેશ કરતાં કહે છે કે આ પ્રમાણે જ છે આયુમંત શ્રમણે જે અમારા શ્રમણ કે શ્રમણીજને આચાર્ય ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને મનુષ્ય ભવના કામમાં આસક્ત થતા નથી. રજિજત-અનુરક્ત થતા નથી, થાવત પિતાના સંયમને નષ્ટ કરતા નથી તે આ ભવમાં જ ઘણુ શ્રમણશ્રમણ અને શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, વંદનીય, પૂજનીય, સત્કરણીય અને સન્માનનીય હોય છે. તેમજ જગતના માટે કલ્યાણરૂપ, મંગળરૂપ, ધર્મ દેવરૂપ અને જ્ઞાનરૂપ બની જાય છે. લોકો તેની ઉપાસના કરે છે, તે પરલોકમાં પણું ઘણું જાતના દંડન રૂ૫, દુઃખને, મુંડનેને, તર્જનેને, તાડનાઓને
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १९ पुंडरीक-कंडरीकचरित्रम् ७५१
सुधर्मास्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन एकोनविंशतितमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । ज्ञातश्रुतस्कन्धं समापयन् सुधर्मा पुन: कथययि-एवं खलु हे जम्बू! ! श्रमणेन भगवतां महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन षष्ठस्य अङ्गस्य-षष्ठाङ्गसम्बन्धिनः प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य अयमर्थः-पूर्वोक्तरूपो भावः प्रज्ञप्तः भगवता कथितः । 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि, व्याख्या पूर्ववत् ।। मू०७ ॥ को नहीं पाता है और चतुर्गतिवाले इस संमार कान्तार को पुंडरीक अनगार की तरह पार करनेवाला हो जाता है। ( एवं खलु जंबू ! सममेणं भगवया महावीरे णं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्ध गई नामधेज्जं ठाणं संपत्तणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरे णं जाव सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्ते णं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्ते सिबेमि) अय श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जंबू ! आदिकर तीर्थकर यावत् सिद्धि गति मामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने १९ वे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। इस तरह हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिगति नामक स्थान को अच्छी तरह प्राप्त कर चुके हैं, छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह पूर्वोक्त रूप से भाव प्रतिपादित किया है। ऐसा मैंने प्रभु के कहे अनुसार ही यह हे जंबू ! तुमसे निवेदित किया है। પ્રાપ્ત કરતું નથી અને થતુગતિવાળા આ સંસાર કાંતારને પુંડરીક અનગારની જેમ પાર કરનાર થઈ જાય છે.
( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धगई नामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीस इमस्स नायज्झयणस्स :अयमटे पणत्ते, एवं खलु जंबू ! ममणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेज्ज ठण संपत्तेणं छदूरस अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयम पण्णत्ते तिबेमि)
હવે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે કે હે જંબૂ ! આદિકર તીર્થંકર યાવત સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ઓગણીસમાં જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રીતે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે છે જે બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લીધું છે-છઠ્ઠા અંગના પ્રથમ કૃત–રકંધને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં ભાવ પ્રતિપાદિત કર્યો છે. હે જબૂ! આવું મેં પ્રભુના કહ્યા મુજબ જ તમને કહ્યું છે.
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हाताधर्मकथासूत्र तस्से ' त्यादि, तस्य स्लु प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य एकोनविंशतिरध्ययनानि एगसरगाणि' एकस्वरकानि=समानोच्चारणानि अन्तराले उद्देशरहितानि एकोन विंशति दिवसेषु समाप्यते ॥ मू० ७ '।
मंगलं भगवान् वीरः मंगलं गौतमः प्रभुः।
सुधर्मा मंगलं, जंबूनॆनधर्मश्च मंगलम् ॥ १ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितक.. लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ.
त्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री-घासीलारअतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्याख्यायां व्याख्यायां प्रथमश्रुतस्कंधः समासः ।। इस कथन में मैंने अपनी तरफ से कोई भी कल्पना मिश्रित नहीं की है किन्तु प्रभु के मुख से जैसा मैंने इसे सुना है वैसा ही यह तुम से मैंने कहा है । " तस्से " त्यादि इस प्रथम श्रुतस्कंध के अन्तराल में उद्देश रहित १९ अध्ययन हैं। ये अध्ययन १९ दिनोंमें समाप्त होते हैं ।
टीकार्थ:-सांसरिक समस्त जीवों के लिये यदि मंगलकारी पदार्थ है-तो ये हैं भगवान महावीर प्रभु गौतमगणघर, सुधर्मास्वामी, जंबूस्वामी और जैनधर्म।
__ इस तरह ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रके प्रथम श्रुतस्कंध संपूर्ण । આ કથનમાં મેં મારા તરફથી કઈ પણ જાતની કલ્પના મિશ્રિત કરી નથી, पा प्रभुना भुमयी रे में समन्युं छे ते २४ मे छ. " तस्से " A LE આ પ્રથમ શ્રત–રકંધના અંતરાલમાં ઉદ્દેશ રહિત એગણીસ અ યને છે. આ અધ્યયને ઓગણીસ દિવસોમાં સમાસ હોય છે.
ટકાથ–બધા સાંસારિક જેના માટે જે મંગળકારી પદાર્થો છે તે તે એજ છે-ભગવાન મહાવીર પ્રભુ, ગૌતમ ગણધર, સુધર્મા સ્વામી, રવાની અને જૈન ધર્મ.
"मा प्रभादेशाताधर्म यांगनी ज्ञाता-नामे प्रथम श्रुत४५ समास यया." .
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॥ अथ ज्ञातासूत्र द्वितीयश्रुतस्कन्धाववरणम् ॥
मङ्गलाचरणम्-. . ( वसन्ततिलकात्तम् ) आये श्रुते भगवता रुचिरैरनेकै,
तिरदायि सकलातिहरः सुबोधः । स्कन्धे द्वितीयइह धर्मकथा च साक्षाद् , विज्ञापिता तमनिशं वरदं स्मरामि ॥१॥
( मालिनीछन्दः) गणधरगुणधारं, प्राप्तसंसारपारम् , भविजनहितकारं, दत्तसम्यक्त्वसारम् , । हृतसकलविकारं, भव्यचित्तैकहार, शिवमुखपदधारं, नौमि चारित्रसारम् , ॥ २
-द्वितीयश्रुतस्कंधप्रारंभ:आद्येश्रुते इत्यादिः-प्रथम श्रुतस्कंधमें भगवान् सूत्रकार ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा सकल आर्ति (दुःख) हारक सुबोध प्रदान किया है अब वे इस द्वितीय श्रुतस्कंध में साक्षात् धर्मकथाएँ प्रकट करेंगे-अतः ऐसे भगवान को मैं कि जो भव्यजीवों को कल्याण करनेवाले होते हैं उनको निरन्तर नमस्कार करता हूँ॥१॥
गणधरइत्यादि-जो गणधरों के गुणों को धारण करनेवाले हैं संसार को पार करनेवाले हैं, जो भव्यजनों को हितकारक हैं, सम्यक्त्वरूपी गुणके बोधक हैं-सकल विकारों से रहित है, इसलिये जो भव्यजीवों
દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધ પ્રારંભ __ आद्य श्रुतेत्यादि- प्रथम श्रुत२४ मा मगवान सूत्र घ! सुंदर दृष्टांत વડે સમસ્ત આર્તિ ( દુખ) હારક સુબોધ પ્રદાન કર્યો છે. હવે તેઓ આ બીજા શ્રતસ્કંધમાં સાક્ષાત્ ધર્મકથાઓ પ્રકટ કરશે એટલા માટે એવા ભગ વાનને-કે જેઓ ભવ્ય જીવનું કલ્યાણ કરનારા છે-હું નિરંતર નમસ્કાર કરું છું. ૧
ગણધર ઈત્યાદિ–જેઓ ગણધરના ગુણેને ધારણ કરનારા છે, સંસારને પાર કરનારા છે જેઓ ભવ્યજનના હિતકારક છે, સમ્યકત્વ રૂપી ગુણના બેધક છે, આ બધા વિકારોથી રહિત છે, એટલા માટે જ જેઓ ભવ્ય જીના
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७५४
हाताधर्मकथा व्याख्यातः प्रथमो ज्ञाताख्यः श्रुतस्कन्धः, अथ धर्मकथाख्यो द्वितीयः पारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वस्मिन् श्रुतस्कन्धे उदाहरणप्रदर्शनपूर्वकमाप्तोपालम्भादिना धर्मरूपोऽर्थः प्रतिपादितः, इह तु स एव साक्षाद् धर्मकथाभिः पतिपाद्यते, इत्येवं सम्बन्धेन समायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-' तेणं कालेणं' इत्यादि ।
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स गयरस्स बहिया उत्सरपुरस्थिमे दिसिभाए तत्थ णं गुणसिलए णामं चेइए होत्था वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा. वीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा णाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउद्दसपुवी चउणाणोवगया पंचहि अणगाके चित्त को हरण करनेवाले हैं ऐसे उस सम्यक् चारित्ररूपो सार को धारण करनेवाले मोक्षपद के धारी हैं उसको मैं नमस्कार करता हूँ।
प्रथम ज्ञाता नाम का श्रुतस्कंध व्याख्यात हो चुका अय धर्मकथा नाम का द्वितीय श्रुतस्कंध प्रारंभ किया जाता है । इस श्रुतस्कंध का पूर्व श्रुतस्कंध के साथ इस प्रकार से संबंध है कि पूर्व श्रुतस्कंध में उदाहरण प्रदर्शन पूर्वक आप्त तीर्थकर के उपालंभ आदि द्वारा धर्म रूप अर्थ प्रतिपादित किया गया है। अब इस द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्म रूप अर्थ साक्षात् धर्मकथाओं द्वारा निरूपित किया जावेगा। इस द्वितीय श्रुतस्कंध का यह आदि सूत्र है । तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि ।
ચિત્તને આકર્ષનારા છે, એવા તે સમ્ય-ચારિત્ર રૂપી સારને ધારણ કરનારા મેક્ષપદના ધારી છે, તેને હું નમસ્કાર કરું છું. - પ્રથમ જ્ઞાતા નામને શ્રુતસ્કંધ વ્યાખ્યાત થઈ ચુકયે છે હવે ધર્મકથા નામને બીજે શ્રતસ્કંધ શરૂ કરવામાં આવે છે. આ શ્રતસ્કંધને પહેલા શ્રત સંકધની સાથે આ પ્રમાણે સંબંધ છે કે પૂર્વ શ્રુતસ્કંધમાં ઉદાહરણની સાથે આમ તીર્થંકરના ઉપાલંભ વગેરે દ્વારા ધર્મરૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ બીજા કૃતસકધમાં તે જ ધર્મરૂપ અર્થ સાક્ષાત્ ધર્મકથાઓ વડે નિરૂપવામાં આવશે. આ બીજા શ્રુતસ્કંધનું આ પ્રથમ સૂત્ર છે –
'वेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि
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गारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु. २ व. १ अ. १ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपक्रमः ७५५ रससिद्धि संपरिवुडा पुव्वाणुपुठिंव बरमाणा गामाणुगामं दूइजमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए बेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्टस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स णायाणं अयमट्टे पन्नत्ते दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्ते के अट्टे पन्नत्ते ?, एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्ते धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता, तं जहा अग्गमहिसणं पढमे वग्गे ९ बलिस्स बइरोयणिंदस्स वइरोयरन्नो अग्गमहिसीणं बीओ वग्गोर असुरिंदवज्जियाणं दाहि जिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसोणं तइओ वग्गो ३ उत्तरिल्लाणं असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसणं पंचमो वग्गो५ उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छट्टो वग्गो६ चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमो वग्गो ७ सूरस्त अग्गमहिसणं अट्टमो वग्गोट सक्कस्स अग्गमहिसणं णमो वग्गो९ ईसाणस्स अग्गमहिसणं दसमो वग्गो१० ॥ सू० १ ॥
चमरस्स
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ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
टीका - तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत्, 'वण्णओ ' वर्णकः-नगरवर्णनं सर्वमत्र विज्ञेयम् । तस्य खलु राजगृहस्य नगरस्य वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे तत्र खलु गुणशिलकं नाम चैत्यमासीत्, 'वगओ ' वर्णकः = चैश्यवर्णनप्रकारः सर्वोऽत्र वाच्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीर - स्यान्तेवासिन आर्यधर्माणो नाम स्थविरा भगवन्तः ' जाइसंपन्ना ' जातिसम्पन्नाः=सुविश्वद्धमातृवंशाः, कुलस पन्नाः = विशुद्धपितृवंशाः, 'जाव' यावत्-बलरूप- विनय-ज्ञान-दर्शन- चारित्र - लाघव-सम्पन्नाः, इत्यादि यावत् - चतुर्दशपूर्विणः ' चउणाणोत्रगया' चतुर्ज्ञानोपगताः=मतिश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानयुक्ताः पञ्चभिर
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टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में ( रायगिहे नामं नयरे होत्था ) राजगृह नाम का नगर था। ( वण्णओ) नगर का वर्णन औपपातिक सूत्र में वर्णित चंपा नगरी के समान जानना चाहिये । (तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए तत्थर्ण गुणसिलए णामं चेइए होत्या, वण्णओ) उस राजगृह नगर के बाहिर उत्तर पौरस्त्यदिग्भाग की ओर ( ईशान कोण में ) एक गुणशिलक नाम का चैत्य- उद्यान -था। यहां पर भी सब चैत्यवर्णन औपपातिक सूत्र की तरह जानना चाहिये - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्माणामं थेरा भगवंतो जाइ संपन्ना कुल संपन्ना जाव चउद्दसपुच्ची चडणाणावगया पंचहि अणगारसहिं सद्धि संपरिघुडा पुवाणुपुवि चरमाणा गामाणुगामं दूइ
टीडार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते अणे अने ते समये ( रायगिहे नामं नयरे होत्या ) रामगृह नामे नगर तु. ( वण्णओ) या नगरनुं वर्णन ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલા ચ ́પા નગરીના વનની જેમ જ જાણી લેવુ જોઈએ.
( तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए तत्थणं गुणसिलए णामं चेte होत्था, वण्णओ )
તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઉત્તર પૌરસ્ત્ય દિગ્-ભાગની તરફ એટલે કે ઇશાન કેણુમાં એક ગુણુશિલક નામે ચૈત્ય-ઉદ્યાન-હતા. અહીં ચૈત્ય વિષેનું મધુ વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રની જેમ જાણવુ' જોઇએ.
( तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज हम्माणामं थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउदस पुत्री चडणाणोक्या पंचहि अणगारसहिं सद्धि संपरिवुडा पुचाणुपुवि चरमाणा गामाणुगामं दह
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अंनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु. २ व. १ अ. १ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपक्रमः ७५७ नगारशतैः साई संपरितृताः ‘पुयाणुपुनि' पूर्वानुपूर्व्या-तीर्थङ्करपरम्परया 'चरमाणा' चरन्तः विहरन्तः ग्रामानुग्राम एकनामाव्यवधानेनान्यं ग्रामम् 'दुइज्जमाणा' द्रवन्तः स्पृशन्तः 'सुहं मुहेणं' सुखं सुखेन=सुखपूर्वकं यथावसरमित्यर्थः विहरन्तो यौव राजगृह नगरं यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं यावत्-संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । अत्र आदरार्थ बहुवचनम् । परिपन्निर्गता। धर्मः कथितः । परिषद् यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं पतिगता। तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यमुधर्मणोऽनगारस्यान्तेवासी आर्य जम्बू मानज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेहए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ) उस काल
और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर भगवंत कि जो विशुद्ध मातृवंशवाले थे विशुद्ध पितृवंशवाले थे, यावत् बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं लाघव संपन्न थे, चौदहपूर्व के पाठी थे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्यव ज्ञान इन चारों ज्ञानों के धारक थे-पांचसौ अनगारों के साथ तीर्थंकर परंपरा के अनुसार विहार करते २ एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विना किसी व्यवधानके विचरण करते हुए सुख पूर्वक समय पर-जहां राजगृह नगर और उस में भी जहां वह गुणशिलक चैत्य था आये। वहां वे संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए उतरे (परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगयां, तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंते. ज्जमाणा सुहं सुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति)
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના અંતેવાસી આર્ય સુધર્મા નામના સ્થવિર ભગવંત કે જેઓ વિશુદ્ધ માતૃવંશવાળા હતા–વિશુદ્ધ પિતૃવંશવાળા હતા, યાવત્ બળ, રૂપ, વિનય, જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને લાઘવ-સંપન્ન હતા. ચૌદ પૂર્વના પાઠી હતા, મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મને પર્યાવજ્ઞાન એ ચારે જ્ઞાનના ધારક હતા. પાંચસે અનગારાની સાથે તીર્થકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ કોઈપણ જાતના વ્યવધાન વગર સુખેથી યથા સમય ક્યાં રાજગૃહ નગર અને તેમાં પણ જો તે ગુણશિલક મૈત્ય હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં તેઓ સંયમ અને તપ દ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા રોકાયા.
(परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी
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arate serpe
गारः यावत्- 'पज्जुवासमाणे ' पर्युपासीनः सेवमानः एवमवदत् - यदि खल
"
!
भंते ' भदन्त = हे भगवन् ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् - मोक्षं सम्प्राप्तेन पष्ठस्याङ्गस्य प्रथमस्य श्रुतस्कन्धस्य ' णायाणं' ज्ञातानाम् = उदाहरणानाम् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खलु हे भदन्त ! श्रुतस्कन्धस्य धर्मकथानां श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन=मोक्षं गतेन भगवता कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? | सुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बुः वासी अज्ज जंबूणामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं भंते समणेणं जाव संपत्तेण छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स णायाणं अग्रम पन्नन्ते दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाण समणेणं जाव संपत्तणं के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेर्ण धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता) राजगृह नगर से परिषद वंदन करने के लिये आई । सुधर्मास्वामी धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर परिषद अपने २ स्थान पर पीछे वहां से चली गई । उस काल में और उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी के अंतेवासी आर्य जंबू नामके अनगार ने यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए उनसे इस प्रकार पूछा हे भदंत ! यावत् मुक्तिको प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीरने छटे अंगके ज्ञातासूत्र प्रथम श्रुतस्कंध के उदाहरणों का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया है तो हे भदंत । द्वितीय श्रुतस्कन्धकी धर्मकथाओं का उन्हीं श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं क्या अर्थ निरूपित किया है ? इस प्रकार जंबू के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मा अज्जजंबू णामं अणगारे जात्र पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं भंते समणेणं जात्र संपत्तेणं छस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खधस्स णायाणं अयमट्ठे पन्नत्ते दोच्चस्स णं भंते! सुक्खधस्स धम्मकहाणं समणेण जाव संपत्तेगं के अड्डे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता ) રાજગૃહ નગરથી પરિષદ વદન કરવા માટે ત્યાં આવી. સુધર્મા સ્વામીએ ધમના ઉપદેશ આપ્યા. ઉપદેશ સાંભળીને પરિષદ પેાતાના સ્થાને પાછી જતી રહી. તે કાળે અને તે સમયે અ સુધર્મા સ્વામીના અંતેવાસી ( શિષ્ય ) આ જમ્મૂ નામના અનગારે યાવત્ તેમની પયુ પાસના કરતાં તેમને આ પ્રમાણે પૂછ્યું કે હે ભદન્ત ! યાવત મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા અંગના પ્રથમ શ્રુતસ્કંધના ઉદાહરણાને આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ નિરૂપિત કર્યા છે તેા હે ભદ્દન્ત ! તે જ શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિસ્થાનને મેળવી લીધું છે–દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધની ધર્મકથાઓને શે। અ નિરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે જમૂના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધાં સ્વામીએ
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भनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्रु. २ व. १ अ. १ द्वितीयश्रुतस्कंधस्योपक्रमः ७५९ श्रमणेन यावत्सम्पाप्तेन धर्मकथानां दशवर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तानेर दर्शयति'चमरस्स 'चमरस्य चमरेन्द्रस्य दाक्षिणात्यासुरकुमारेन्द्रस्य अग्रमहिषीणां प्रथमोवर्गः १ । 'बलिस्स' बलिनाम्नः 'वइरोयणिदस्स ' वैरोचनेन्द्रस्य-वि-विविधप्रकारैः रोचन्ते दीप्यन्ते दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यो विशिष्टदीप्तिमत्त्वात् इति विरो. चनाः, त एव वैरोचना: औदीच्यासुरकुमारास्तेषामिन्द्रः वैरोचनेन्द्रस्तस्य 'वहरोयणरनो' वैरोचनराजस्य-वैरोचनाधिपतेः अग्रमहिषीणां द्वितीयो वर्गः २ । असुरेन्द्रवर्जितानां 'दाहिणिल्लाणं' दाक्षिणात्यानां दक्षिण दिक्सम्बन्धिनां भवनवासिनामिद्राणामग्रमहिषीणां तृतीयो वर्गः ३ । ' उत्तरिल्लाणं ' उत्तरीयाणामसु. रेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनामिद्राणामग्रमहिषीणां चतर्था वर्गः ४ । दाक्षिणात्यानां वानव्यन्तराणामिन्द्राणामग्रमहिषीणां पञ्चमो वर्गः ५ । उत्तरीयाणां वानव्यन्तराणामिन्द्राणामग्रमहिषीणां षष्ठो वर्गः ६ । चन्द्रस्याग्रमहिषीणां सप्तमो वर्गः ७ । स्वामी ने उनसे कहा-हे जंबू! सुनो-यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के दश वर्ग प्रज्ञप्त किये हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमेवग्गे ? बलिस्स बहरोयणिदस्स बहरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीओ वग्गो २ अप्सुरिंदवजियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तहओ वग्गो ३ उत्तरिल्लाणं असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं इदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं-इदाणं अग्गमहि. सीणं पंचमो वग्गो, उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छटो बग्गो ६, चंदस्स अग्गमहिमीणं सत्तमो वग्गो, सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्ठमो वग्गो. सक्कस्स अग्गमहिसीणं णवमो वग्गो, ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमो वग्गो) चमरेन्द्र की-दाक्षिणात्य असुरकुमारेन्द्र कीતેમને કહ્યું કે હે જંબૂ ! સાંભળે, યાવત્ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા श्रमण भगवान महावीरे धर्मशासाना ४० वर्ना प्रज्ञा या छ ( तंजहा ) તેઓ આ પ્રમાણે છે–
( चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमेवग्गे बलिस्स बइरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीओ वग्गो २ असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गम हिसीणं तइओ वग्गो ३, उत्तरिल्लाणं असुरिंदन ज्जियाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थो वग्गो ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणंइंदाणं अग्गमहिसीणं पंचमो वग्गो, उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छट्ठो वग्गो ६, चंदस्स अग्गमहिमीणं सत्तमो वग्गो, सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्ठमो वग्गो, सक्कस्स अग्गमहिसीणं णमो वग्गो, ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमो वग्गो)
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हाताधर्मकथा मूरस्समूर्यस्याग्रमहिपीणामष्टमो वर्ग: ८। शक्रस्याग्रमहिषीणां नवमो वर्ग: ९ । ईशानस्याग्रमहिषीणां दशमो वर्गः १० ॥ मृ० १ ॥
मूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अ? पन्नत्त ?, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संप. तेणं पढमस्स वग्गरस पंच अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा-काली अग्रमहिषियों का-पट्टदेवियों का-प्रथम वर्ग, पलि नामक वैरोचनेन्द्र की अग्रमहिषियोंका द्वितीय वर्ग, असुरेन्द्रको छोडकर दक्षिण दिशा संबंधी भवनवासियों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का तृतीय वर्ग, उत्तर दिशा संबंधी भवनवासियों के इन्द्रों की कि जिन में असुरेन्द्र छोड दिये गये हैं अग्रमहिषों का ४ चतुर्थ वर्ग, दक्षिण दिशा संबंधी वानव्यन्तरों के इन्द्रों की अग्रमहिषियोंका पंचम वर्ग, उत्तर दिशा संबंधी व्यानव्यंतरों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का छट्ठा वर्ग, चन्द्र की अग्रमहिषियों का ७ वां वर्ग, सूर्यको अग्रमहिषियोंका आठवां वर्ग, शक्र की अग्रमहिषियों का नवमा वर्ग, और ईशानकी अग्रमहिषियों का दशमां वर्ग। वैरोचन उत्तरदिशाके असुरकुमार हैं। ये दक्षिण दिशासंबंधी असुरकुमारोंकी अपेक्षा विशिष्ट दीप्तिसंपन्न होते हैं इसलिये इन्हें वैरोचन कहा गया है।सू०१॥
અમરેન્દ્રની-દક્ષિણના અસુરકુમારેદ્રની-અગ્રમહિષીઓને-પટ્ટદેવીઓને પહેલે વર્ગ, બલિ નામે વૈરચન્દ્રની અમહિષીઓને બીજો વર્ગ, અસુરેન્દ્રને બાદ કરતાં દક્ષિણ દિશાના ભવનવાસીઓના ઈન્દ્રની અમહિષીઓને ત્રીજો વગ. ઉત્તર દિશા સંબંધી ભવનવાસીઓના ઈકોની કે જેમાંથી અમુરેન્દ્રોને બાદ કરી દીધા છે. અગ્નમહિષીઓને ચોથા વર્ગ, દક્ષિણ દિશા સંબંધી વાનવ્યંતરોના ઈન્દ્રની અગમહિષીઓને પાંચ વર્ગ, ઉત્તર દિશા સંબંધી વાનવ્યંતરોના ઈન્દ્રોની બઝમહિષીઓને સાત વર્ગ, સૂર્યની અમહિલાઓને આઠમે વર્ગ, શકની અગ્રમહીષીઓને નવમે વર્ગ અને ઈશાનની અગ્રમહિને પીને દશમે વર્ગ. વિરેચન ઉત્તર દિશાના અસુરકુમાર છે. એ દક્ષિણ દિશા સંબંધી અસુરકુમારે કરતાં વિશિષ્ટ દીપ્તિ-સંપન્ન હોય છે એથી જ એ રચન કહેવામાં આવ્યા છે. સૂત્ર ૧ છે
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु. २ ५. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ॥ राईरयणी विज्जू महा, जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णता पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए घेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नामं देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालवळिसगभवणे कालंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहि महत्तरियाहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्साहिं अण्णेहि बहएहि य कालवडिंसयभवणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडा महया हय जाव विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी२ पासइ, तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमार्ण पासइ पासित्ता हट्टतुटचित्तमाणंदिया पीइमणा जाव हियया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पचोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ
ओमुइत्ता तित्थगराभिमुहा सत्तटुपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचइ अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहड्ड तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ निवेसिनाईसिं
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वाताधर्मकथासूत्रे पच्चुण्णमइ पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओं साहरइ साहरित्ता करयल जाव कडु एवं वयासी-णमोऽत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थुणं समणस्त भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स वदामि भगवंतं तत्थगयं इह गया पासउ मं भगवं तत्थ गए इह गयत्तिकटु वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा निसपणा, तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पजित्था -सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्तएत्तिकटु एवं संपेहेइं संपेहित्ता आभिओगिए देवे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह करित्ता जाव पच्चपिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवरं जोयण. सहस्सविस्थिणं जाणविमाणं सेसं तहेव, तहेव णामगोयं साहेइ तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया ॥ सू० २ ॥ . टीको—' जइणं भंते' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु 'भंते' भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्संपाप्तेन धर्मकथानां दशवर्गाः प्रज्ञप्ताः,
-जइणं भंते ! इत्यादि।
टीकार्थः-(जहणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तणं धम्मकहाणं दसबग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! वग्गस समणेणं जोव संपत्तणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स) जंबूग्वामी श्री
जइणं भंते ! इत्यादि( जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं मंते ! वग्गस समणेणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबु ! समगेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स० )
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अनगारधर्मामृतवर्षिणो टोका श्रृं. २ व. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६३ प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! वर्गस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मास्वामीपाह-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत्सम्पाप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पञ्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--काली १, रात्रिः २, रजनी ३, विद्युत् ४, मेधा ५ । जम्बूस्सामी पृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य पश्च अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तत्र प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः मज्ञप्तः ? । सुधर्मा स्वामी कथयति____एवं खलु हे जम्बू: ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलकचैत्यम् , श्रेणिको राजा, चेल्लना देवी आसीत् । सामी खामी श्रीमहावीरस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भंते ) हे भदंत ! (जइणं) यदि (सम. णणं जाव संपत्तणं धम्मकहाण दसवग्गा पण्णत्ता) श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि मुक्तिस्थान को प्राप्त हो चुके हैं धर्मकथा के दश वर्ग प्ररूपित किये हैं तो (णं भंते ) हे भदंत ! (समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स के अढे पन्नत्ते ) उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? (एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वागस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जहणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणापण्णत्ता पढमस्स भंते अज्ज्ञयणस्स समणेणं जाव संपत्तर्ण के अढे पण्णते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्ल. णादेवी ) इस प्रकार जंबू स्वामी के प्रश्न को सुनकर सुधर्मास्वामी ने
यू स्वामी श्री सुधर्मा स्वाभीर पूछे छे (भंते ) महन्त ! (जइणं) ( समगेणं जाव संपतेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता) श्रभर ભગવાન મહાવીરે કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે. ધર્મકથાઓના દશ पर्णा प्र३पित र्या छ त। (गं भंते ) महन्त ! (समणेणं जाव संपतेणं पढमस्स वगस्स के अहे पन्नते) ते श्रम लगवान महावीरे २॥ મોક્ષમાં વિરાજમાન થઈ ચૂકયા છે–પહેલા વર્ગને શું અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે?
(एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तेणं पहमस्स वग्गस्स पचे अन्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-काली राई रयणी विज्जू मेहा जइणं भंते ! संमणेणं जाव संपत्तेणे पढमस्स वग्गरस पंचअज्झयणा पणत्ता । पढणस्सगं भंते, अज्झयणस समणेणे भाव संपत्तेणं के अद्वे पण ते ! एवं खलु जंबू ! तेणं कालेगं तेणं समएगं रायगिहे गयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया चेल्लणा देवी)
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सोताधर्मकथासूत्र 'समोसरिए ' समवसृतः समागतवान् । 'परिसा'-परिपत्=राजगृहनगरवास्तव्यो जनसमूहः ‘णिग्गया' निर्गता भगवद्वन्दनार्थ स्व स्वस्थानान्निस्मृता, भगवता धर्मकथा कथिता यावद् परिषद् भगवन्तं 'पज्जुवासइ' पर्युपास्ते= सेवते, तस्मिन् काले तस्मिन् समये काली नाम देवी चमरचञ्चायां राजधान्यां उन्हें उत्तर देने के अभिप्राय से कहा कि ( एवं खलु जंबू!) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है सुनो यावत् संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं वे ये हैंकाली १, रात्रि २, रजनी ३, विद्युत् ४, और मेघा ५। अब पुनः जंबू स्वामी प्रश्न करते हैं कि हे भदंत ! यावत् मुक्तिस्थान को प्रात हुए श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन निरूपित किये हैं तो मैं आपसे पूछना हूं कि भदंत यावत् मोक्ष को संप्राप्त उन्हीं श्रमण भगवान महावीरने प्रथम अध्ययनका क्या अर्थ निरूपित किया है ? इसका उत्तर उन्हें सुधर्मास्वामी इस प्रकार देते हैं-हे जंबू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामकी नगरी थी-उस में गुणशिलक नाम का उद्यान था-नगरी के राजा का नाम श्रेणिक था। उसकी रानी का नाम चेल्लना था। (सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाच परिसा पज्जुवासइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नामं देवी, चमरचंचाए रायहोणीए
આ પ્રમાણે જ બૂ સ્વામી પ્રશ્નને સાંભળીને તેમને ઉત્તર આપવાના देशथी श्री सुधर्मा स्वाभीमे धुं ( एवं खलु जंवू ! ) 3 यू ! तभा२। પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. સાંભળે, યાવત્ સંપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પહેલા વર્ગના પાંચ અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. તેઓ આ પ્રમાણે છે – १ सी, २ त्रि, 3 २४नी, ४ विधुत, मने ५ भा.
- હવે ફરી જંબૂ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદન્ત! યાવત્ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા વર્ગના પાંચ અધ્યયને નિરૂપિત કર્યા છે તે હું તમને ફરી પૂછવા માગુ છું કે હે ભદન્ત ! યાવત મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી ચુકેલા તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યયનનો શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેને ઉત્તર આપતાં કહેવા લાગ્યા કે જંબૂ ! તે કાળે અને તે વખતે રાજગૃહ નામે એક નગરી હતી. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. નગરના રાજાનું નામ શ્રેણિક હતુંતેની રાણીનું નામ ચેલના હતું.
(सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पन्जुवासइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नाम देवी, चमर चंचाए रायहाणीए कालयडिंसंगभवणे
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० थ २ व. १ अ. १ काली देवीवर्णनम् ६५ 'कालबडिंसगभवणे' कालावतंसकभवने काले कालाख्ये सिंहासने चतस्मृभिः सामानिकसाहस्रीभिः, चतसृभिर्मह तरिकाभिः, सपरिवाराभिस्तिसृभिः बाह्याभ्यन्तरमध्यरूपाभिः परिसाहिं । परिषद्भिः पारिवारिकदेवी रूपाभिः, सप्तभिः ' अणिरहिं ' अनीकैः हयगजस्थपदातिपभगन्धर्वनाटयरूपैः, अत्रायं विवेकःकालवडिसगभवणे कालंसि, सीहासणंसि चउहिं सामागियप्ताहस्तीहिं चाहिं महरियाहिं, सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवई हिं सोलप्तहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिं बहुए हिंकालवडिंसगभवणवासिहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहिं य सद्धिं संपरिघुडा महयाय जाव विहरइ ) वहां पर श्री महावीर स्वामी का आगमन हुआ। लोगों को जब इनके आगमन की खबर लगी-तब समस्त राजगृह निवासी जन इन का वंदना करने के अभिप्राय से गुणशिलक उद्यान में आये । भगवान् ने धर्मकथा कही-यावत् परिषदने भगवान् की.पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में काली नाम की देवी चमरचंपा नाम की राजधानी में रहती थी। इसके भवन का नाम कालावतंसक था। जिप्स सिंहोसन पर यह बैठती थी उसका नाम काल था। यह उस भवन में चार हजार सामानिकों की परिषदो के साथ, चार हजार महतरिकाओं के साथ, अपने २ परिवारवालो तीन हजार पारिवारिक देवियों के साथ, सात अनीकोंके-हय, गज, रथ, पदाति, वृषभ, गंधर्व एवं नाटयरूप सैन्य केकालंसि, सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महरियाहिं, सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरवावदेवसाहस्सीहि अण्णेहिं बहूएहिं कालबडिंसयभवणवासीहिं असुमकुमारेहि देवेहिं देवी हिं य सद्धिं सपरिवुडा महयाहय जाव विहरइ )
ત્યાં શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું. જ્યારે લોકોને તેમના આગમનની જાણ થઈ ત્યારે રાજડના બધા લકે તેમને વંદન કરવાના અભિમાયથી ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. ભગવાને ધર્મકથા કહી સંભળાવી. યાવત્ પરિષદે ભગવાનની પર્થપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે કાળી નામની દેવી ચમચંચા નામની રાજધાનીમાં રહેતી હતી. તેના ભવનનું નામ કાલા વત સક હતું. જે સિંહાસન ઉપર તે બેસતી હતી તેનું નામ કાળ હતું. તે ભવનમાં તે ચાર હજાર સામાનિકોની પરિષદાની સાથે, ચાર હજાર મહત્તરિ. કાઓની સાથે, પિતપતાના પરિવારવાળી ત્રણ હજાર પારિવારિક દેવીઓની સાથે સાત અનીકે-ઘેડા, હાથી, રથ, પાયદળ, વૃષભ, ગંધર્વ અને નાટય
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साताधर्मकथाङ्गस्त्र आद्यपश्चकानि सङ्ग्रामाय, गन्धर्वनाट्ये पुनरुप भोगायेति, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, पोडशभिः आत्मरक्षकदेवसाहतीभिः, अन्यैबहुभिश्व कालावतंसकभवनवासिभिरसुरकुमारैर्देवैर्देवीभिश्च साद्धं संपरितृता ' महयाहय जाव विहरइ ' महताहत यावद् विहरति-' महयाऽऽहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पाइयरवेणं' महताऽऽहतनाटयगीतवादित तन्त्रीतल ताल त्रुडित घनमृदङ्गपटुवादितरवेण, तत्र-' महता' रवेणेतिसम्बन्धः, आहतानि-अव्याहतानि यानि नाटयगीतानि, तथा-वादितानि-तन्त्री-वीणा, तलाः हस्ततालाः, ताला: कांस्यतालाः, त्रुडितानि-शेषाणि तूर्या दिवाद्यानि, तथा घन इव मृदङ्गः घनध्वनिसादृश्याद् घनमृदङ्गः स चासौं पटु प्रवादितश्चेति घनमृदङ्गपटुप्रवादितः, ततत्रिपदो द्वन्द्वः, तेषां यो रवस्तेन-उपलक्षितान् दिव्यान् भोगभोगान् शब्दादीन भुञ्जाना विहरति । ' इमं च णं' अस्मिन्नवसरे खलु केवलकल्प-संपूर्णम् जम्बूद्वीपं नाम द्वीपं=मध्यजम्बूद्वीप विपुलेन ' ओहिगा' अधिना=अवधिज्ञानेन 'अभोएमाणी २' अभोगयमाना २ पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोगं ददती सती पश्यति। किं पश्यति ? इत्याह-'तत्थ' तत्र अवधिज्ञानोपयोगे श्रमणं भगवन्तं महावीरं जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगृहेसाथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहुत से कालावतंसक भवन में निवास करनेवाले असुरकुमार देवों के एवं देवियों के साथ परिवृत होकर रहा करती थी। अध्याहत (सतत) नाटयगीतों के एवं वादित तन्त्री, हस्त, ताल, कांस्य ताल, त्रुडित आदि तूर्यादिवाद्यों के एवं मेघ की ध्वनि जैसे अच्छी तरह बजाये गये मृदंगों के सुन्दर २ शब्दों से उपलक्षित दिव्य भोगों को भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करती थी। (इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासइ, तत्थ समणं भगवं महावीरं जबू हीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे રૂપ સિન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે, સેળ હજાર આત્મરક્ષક દેવેની સાથે તેમજ બીજા પણ ઘણું કાલાવતંસક ભવનોમાં નિવાસ કરનારા અસુરકુમારદે અને દેવીઓની સાથે પરિવૃત થઈને રહેતી હતી. તે અચાહત (સતત) નાટય ગીતે, વાદિત તંત્રી, હસ્તતાલ, કાંસ્યતાલ, ગુડિત વગેરે સૂર્ય વગેરે વાઘો, મેઘના વિનિની જેમ સારી પેઠે વગાડવામાં આવેલા મૃદંગેના સુંદર શબ્દથી ઉપલક્ષિત દિવ્ય ભેગેને ઉપલેગ કરતી પિતાના સમયને સુખેથી પસાર કરતી રહેતી હતી.
( इमं च णं केवल कप्पं जंबुद्दीव दीवं विउलेणं ओहेगा आभोएमाणी २ पासइ, तस्थ समणंभग महावीरं जंबुद्दीवे दीवे भारहेासे रायगिहे णयरे
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मनगारामृतवार्षिणी २० भु० २.१० कालीदेवीवर्णनम ७६७ नगरे गुणशिल के चैत्ये यथाप्रतिरूपंन्यथाकल्पम् ' उग्गहं ' अवग्रहं वसतेराज्ञाम् 'उग्गिण्डित्ता' अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता ' पीइमणा' प्रीतिमना प्रसन्नमनस्काः 'जारहियया' यावन्हर्षवशविसर्पहृदया हर्षवंशादुल्लसितह दया रिहासनाद् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय णयरे गुणसिलए चेहए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्टचित्तमाणंदिया पीहमणा जाव हियया सीहालणाओ अन्भुट्टेह, अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहिता पाउपाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुंधरणियलंसि निहटूटु त्तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता......... कट्टु एवं वयासी) इस अवसर में उसने केवल कल्प-सम्पूर्ण-जंबूद्वीप नामके द्वीपको-मध्यजंबूद्वीप को-विपुल अवधिज्ञान के द्वारा वार २ उपयोग देकर देखा। उस समय उसने श्रमण भगवान् महावीर को जंबूद्वीपान्तर्गत भरत क्षेत्र में राजगृह नगर में गुणशिलक चैत्य में यथाकल्प वसति की आज्ञा लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए स्थित देखा। देखकर वह बहुत अधिक हृष्ट एवं तुष्ट हुई । उसका मन प्रीति से भर आया। हर्ष के वश से हृदय उल्लसित हो उठा । वह उसी समय अपने सिंहासन गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे. माणं पासइ, पासित्ता हट-तुट्ठ चित्तमाणंदिया पोइमगा जाव हियया सोहासणाओ अब्भुट्टेइ, अभुट्टित्ता पायपीठाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता, वामजाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिनं जाणु धरणियलंसि निहट्टु त्तिक्खुत्तोमुद्राणं धरणियलंसि निवेसेइ निवेसित्ता.....कटु एवं वयासी)
તે સમયે તેણે કેવલ૯૫–સંપૂર્ણ-જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપને મધ્ય જંબૂ દ્વિીપને વિપુલ અવધિજ્ઞાનના ઉપગથી વારંવાર જે. તે સમયે તેણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને જબૂદ્વીપમાં આવેલા ભરતક્ષેત્રના રાજગૃહ નગરને ગુણ શિલક મૈત્યમાં યથાકલ્પ વસતીની આજ્ઞા લઈને સંયમ અને તપ દ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા રહેતા જોયા જોઈને તે ખૂબ જ દુષ્ટ અને તુષ્ટ થઈ ગઈ. તેનું મન પ્રેમથી તરબોળ થઈ ગયું હર્ષાતિરેકથી હૃદય ઉલ્લાસિત થઈ ગયું. તે તે જ વખતે પિતાના સિંહાસન ઉપરથી ઉઠી અને ઉઠીને તે પાપીઠ
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૭૬૮
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
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पादपीठात् 'पञ्च्चोरुहः प्रत्यवरोहति = अवतरति प्रत्यवरु = अवतीर्य पाउयातो ' पादुके ' ओमुह ' अवमुञ्चति = परित्यजति, मुक्त्वा तीर्थंकराभिमुखी सतीसप्ताष्टपदानि 'अणुगच्छ' अनुगच्छति=सम्मुखं गच्छति अनुगम्य वामं जानुं ' अंचे ' अञ्चति= उर्वीकरोति, अञ्चित्वा = उर्धीकृत्य दक्षिणं जानुं धरणितले ' निहटु' निहत्य = स्थापयित्वा 'तिक्खुत्तो ' त्रिः कृत्वः = त्रिवारम् ' मुद्राणं ' मूर्धानं मस्तकं धरणितले निवेशयति लगयति, निवेश्य 'ईसि पन्चुण्णम ' ईपस्वत्यवनमति=स्तोकं शिरोनामयति, प्रत्यवनम्य 'कडयतुडियथेभियाओ' कटकटित स्तम्भिते कटके करभूषणे तुत्रिते = बाहुभूषणे तैः स्तम्भिते = अवष्टब्धे' भुवाओ भुजे ' साहरइ ' संहरति = एकत्रीकरोति, संहृत्य ' करयल जाव कट्टु ' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत् -' नमोत्थुणं ' इत्यादिनमोऽस्तु खलु अर्हद्भ्यः यावद् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेभ्यः, नमोऽस्तु
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से उठी और उठकर वह पादपीठ से होकर नीचे आई-नीचे आकर उसने दोनों पादुकाओं को पैरों में से उतार दिया। उतार कर फिर वह तीर्थकमधिष्टित दिशा की ओर सात आठ पद आगे गई। वहां आकर उसने अपने वाम जानु को ऊँना किया- ऊँचा कर के फिर दक्षिण जानु को नीचे धरणीतल में रखा रखकर फिर तीन बार अपने मस्तक को नीचे भूमिपर लगाया -लगाकर फिर वह कुछ झुकी - शिर को नीचेनवाया। बाद में कटक और त्रुटित से भूषित भुजाओं को एकत्रित किया - एकत्रित करके फिर उसने उन दोनों हाथोंकी अंजलि बनाई और उसे मस्तक पर आदक्षिण प्रदक्षिण कर इस प्रकार कहो ( नमोत्थूणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ઉપર થઈને નીચે આવી. નીચે આવીને તેણે બંને પાદુકાઓને પગેામાંથી ઉતારી દીધી. ઉતારીને તે તીર્થંકર જે દિશા તરફ વિરાજમાન હતા તે દિશા તરફ સાત-આઠ ડગલાં આગળ ગઇ. ત્યાં જઇને તેણે પોતાના ડાખા ઢીંચણુને ઊંચા કર્ચી. ઊંચા કરીને પછી તેણે જમણા ઢીંચણુને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકથ્થૈ ટેકવીને તેણે ત્રણ વખત પેાતાના મતને નીચે પૃથ્વી ઉપર ટેકવ્યુ, ટેકવીને તે ઘેાડી નમી-મસ્તકને નીચે નમાવ્યું. ત્યારપછી તેણે કટક અને ત્રુટિતથી વિભૂષિત ભુજાઓને ભેગી કરી, ભેગી કરીને તેણે તેએ બંનેની જિલ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણ-પૂર્વ'ક ફેરવીને આ પ્રમાણે કહ્યું.
( नमोत्थुणं अरहंताणं जात्र संपत्ताणं नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीस जाव संपादिकामस्स वंदामि णं भगवंतं तत्थगये रह गया पासउ मं भगवं
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० शु. २ व. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् , ७६१ खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय, वन्दे खलु भगवन्तं ' तत्थगयं ' तत्रगत जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको. धाने समवसृतम् इहगया' इहगता-चमर वश्वाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मां भगवान् तत्रगत इहगतम् , 'त्ति कडु' इति कृत्वा इत्युक्त्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्त्वा नमस्यित्वा सिंहासनारे ‘पुरस्थाभिमुही ' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिशाभिमुखी 'निसण्णा' निपग्णा=उपविष्टा । ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अयमेतजाव संपाविउकामस्म दामिणं भगवंतं तत्थ गयं इह गया पासउ मं भगवं तत्थ गए इह गयं त्तिकटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहामणवरंसि पुरत्थाभिमुही निसण्णा तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुपरज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनावाले श्रमण भगवान महावीर को मैं नमस्कार करती हूँ। जंबूद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मैं इस चमर चंपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हूँ। वहां पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहां पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वंदना की -नमस्कार कियो-वंदना नमस्कार करके फिर वह अपने उत्तम सिंहासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः संकल्प उत्पन्न हुआ(सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्तए त्ति तत्थ गए इह गयं त्ति कटु वंदइ नमस, वंदित्ता, नमंसिता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुही निप्तण्णा-तएणं ती से कालीए देवीए इमेयारूवे जााव समुप्पज्जित्था)
યાવત્ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે. સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમસ્કાર કરું છું. જંબૂ દ્વીપના રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હું આ ચમચંચા નામની રાજ ધોનાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છું. ત્યાં વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તે પોતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ. ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતનો થાવત્ મનઃ સંકલપ ઉત્પન્ન થયો કે–
क्षा ९७
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७७०
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
1
द्रूपः यावत् मनः - सङ्कल्पः समुदपद्यत - श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा यावत् ' वज्जुवासित्तर ' पर्युपासितुम् = सेवितुम् इति कृत्वा = इतिमनसि - निधाय एवम् = उक्तरीत्या ' संपेहेइ' सम्प्रेक्षते = विचारयति सम्प्रेक्ष्य = विचार्य ' आभिभोगिएदेवे ' आभियोगिकान् देवान् भृत्यदेवान् शब्दयति=आह्वयति, शब्दयित्वा = आहूय एवमवदत् - एवं खलु हे देवानुमियाः ! श्रमणो भगवान् महावीरः एवं यथा सूर्याभस्तथैव आज्ञाप्तिकां ददाति यावत् दिव्यं सुरखराभिगमनयोग्यं ' जाणविमाणं ' यानविमानं=यानाय गमनार्थविमानं कुरुत, कृत्वा यावत्ममाज्ञां ' पच्चपिह' प्रत्यर्पयत = मह्यं निवेदयत । तेऽपिदेवाः तथैव कृत्वा यावत्
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कट्टु एवं संपेहेइ संपेहित्ता आभिओगिए देवे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणतिय देह जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं जाणविमाणं करेह, करिता जाव पच्चपिह) मुझे अब यही उचित-श्रेय. स्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वंदना करके यावत् उनकी पर्युपासना करूँ इस प्रकार उसने पूर्वोक्तरूप से विचार किया। विचार करके उसने उसी समय आभियोगिक देवों को बुलाया- -और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियों ! श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में पधारे हुए हैं- मैं उनको वंदना करने के लिये जाना चाहती हूँ-अतः तुमलोग मेरे लिये दिव्य सुरवराभिगमन योग्य एकथान - विमान तैयार करो इस प्रकार की उसने उन्हें सूर्याभ देव की तरह आज्ञा दी । और स्थान में उनसे यह भी कह दिया
( सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाब पज्जुवासित्तए तिकट्टु एवं सपेइ, संपे हित्ता आभियोगिए देवे सहावेर, सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तदेव आपत्तियं देइ जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं जाणत्रिमाणं करेह, करिता जाव पच्चपिह ) મારા માટે હવે એ જ વાત યાગ્ય છે કે હું શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરને વંદના કરીને યાવત્ તેમની પ`પાસના કરૂ, આ પ્રમાણે તેણે વિચાર કર્યાં. વિચાર કરીને તેણે તરત જ આભિયોગિક દેવને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર રાજગૃહ નગરના ગુરુશિલક ઉદ્યાનમાં પધારેલા છે, તેમને વંદન કરવા માટે હુ ત્યાં જવા ઈચ્છું છું. એથી તમે બધા મારા માટે દિષ સુરવરાભિગમન ચેાગ્ય એક યાન–વિમાન તૈયાર કરે. આ પ્રમાણે તે લેાકાને તેણે સૂર્યામદેવની જેમ આજ્ઞા કરી, અને સાથે સાથે તેએને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે જ્યારે
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अंगारधर्मामृतषिणो टी० श्रु. २ ० १ अ०१ कालीदेवीवर्णनम् ७७१ प्रत्यर्पयन्ति तदाज्ञानुसारेण कार्य कृत्वा निवेदयन्ति । ' णवरं ' नवरं-विशेषस्त्वयम्-यत्-मूर्याभस्य यानविमानं योजनशतसहस्रविस्तीर्णमस्ति, अस्यास्तुयोजनसहस्रविस्तीर्ण यानविमानमस्ति, शेषं तथैव विज्ञेयम् । तथैव-मूर्याभदेववदेव काली देवी स्त्रस्य नामगोत्र साधयति-कथयति । तथैव-मूर्याभदेववदेव च नाटयविधिम् उपदर्शयति, उपदय यावत् प्रतिगतान्यन आगता तत्रैव प्रतिनिवृत्ता।।मू०२॥ ____ मूलम-भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता गमंसित्ता एवं वयासी-कालिए णं भंते ! देवीए सा दिव्वा देविड्डी३ कहिं गया० कूडागारसालादिटुंतो, कि जब वह विमान बनकर तैयार हो जावे-तब उसकी पीछे हमें खबर कर देना । सो उन आभियोगिक देवों ने वैसा ही किया-और पीछे इसकी खबर उसे कर दी। इसमें (जोयणमहस्मविस्थिपणं जाणविमाणं सेसं तहेव) विशेषता इतनी रही कि सूर्याभदेव का यान विमान एक लाख योजन का विस्तारवाला था। तब कि इसका यह यान विमान १ हजार योजन का विस्तारवाला था। बाकी सब रचना इसकी उसी सूर्याभ विमान की तरह जाननना चाहिये। (तहेव जामगोयं साहेइ, तहेव नोटयविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया) सूर्याभ देव की तरह काली देवी ने अपने नाम गोत्र का कथन किया और सूर्याभ देव की तरह ही नाट्यविधि को दिखलाया दिखालाकर फिर वह जहां से आई थी वहीं पर पीछे गई सूत्र २॥ વિમાન તૈયાર થઈ જાય ત્યારે તેની મને જાણ કરવામાં આવે. ત્યારપછી તે આભિગિક દેવેએ તેમજ કર્યું. અને વિમાન તૈયાર થઈ જવાની ખબર वीनी पासे मातापी धी विमानमा ( जोयणसहस्सविस्थिणं जाण. विमाणं सेसं तहेव ) विशेषता मासी । उता है न्यारे सूर्याभवतुं यानવિમાન એક લાખ જન જેટલું વિસ્તારવાળું હતું ત્યારે તેનું આ યાન-વિમાન
એક હજાર યોજન જેટલું વિસ્તારવાળું હતું બાકી રચના સંબંધી તેની બધી विशत सूर्यान-विमाननी रेभ २४ anyी नये ( तहेव णामगोयं साहेइ, तहेव नाटयविहिं उपदंसेइ जाव पडिगया ) सूर्यामनी रेभ जी वीमे પિતાના નામ-શેત્રનું કથન કર્યું અને સૂર્યાભદેવની જેમ જ નાટયવિધિ બતાવી અને બતાવીને તે જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં જ પાછી જતી રહી. | સૂત્ર ૨ છે
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७७२
शीताधर्मकथासू
अहो णं भंते! काली देवी महिड्डिया३ कालिए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देवड्डी३ किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमण्णागया ?, एवं जहा सूरियाभस्स जाव एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दोवे भारहे वासे आमलकप्पा णाम जयरी होत्था वण्णओ अंवसालवणे चेइए जियसत्तू राया तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नामं गाहावह होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस णं कालस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णामं दारिया होत्था, बुड्ढा बुड्ढकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडिपुयत्थणी णिव्विन्नवरा वरपरिवज्जिया यावि होत्था, तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वद्धमाणसामी नवरं वहत्थुस्सेहे सोलसहिं समणला हस्तीहि अट्ठत्तीसाए अज्जिया साहस्सीहिं सद्धि संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तरणं सा काली दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहि अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा परिबंध करेहि,
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अनगारधर्मामृतवषिणी टी0 श्रु० २ व० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७३ तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुन्नाया समाणी हट्ट जाव हियया पहाया कयबलिकम्मा कायकोउय मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइ मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहाग्घाभरणालंकियसरीराचेडियाचकवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरं दूरूढा, तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाणपवरं एवं जहा दोवइ जाव पज्जुवासइ, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइ. महालयाए परिसाए धम्मं कहेइ, तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादायिस्म अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि गंभंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भं वयह, जं वरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि, अहासुहं देवाणुप्पिए !, तएणं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पासं अरहं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दूरुहइ दूरुहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिनिखमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव
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૭૪૪
शीताधर्मकथासूत्रे
उवागच्छइ उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरि मज्झमज्झेणं जेणेव वाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ध. म्मियं जाणपवरं ठवेइ ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पराओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० एवं वयासी एवं खलु अम्मयाओ ! मए पास अरहओ अंतिए धम्मं णिसंते सेऽवि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तएणं अहं अम्मयाओ ! संसार भउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि णं तुब्भेहिं अब्भएन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भक्त्तिा अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, अहासुहं देवाशुप्पिया ! मा पडिबंध करेह, तरणं से काले गाहावई विपुलं असणं४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेइ आमंत्तित्ता तओ पच्छा पहाए जाव विपुलेणं पुप्फत्रत्थंगंधमालंकारेण सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरियणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीए हिं कलसेहिं पहावेइ पहावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ करिता पुरिस सहरसवाहिणियं सीयं दुरोहेइ दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसयांसंबंधिपरियणं सद्धिं संपरिवुडे सविडीए जाव खेणं आमलकप्पं नयरिं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ पासित्ता सीयं ठावेइ ठावित्ता
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु० २ ०१ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७५ कालियंदारियं सीयाओ पञ्चोरुहइ तएणं तं कालियंदारियं अम्मा. पियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! काली दारिया अम्हं धूया इट्टा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए ?, एसणं देवाणुप्पिया! संसार. भउठिवगा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पवइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्खं, दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह तएणं काली कुमारी पासं अरहं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवकमइ अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं आमुयइ ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-आलित्ते णं भंते ! लोए एवं जाव सयमेव पवाविया, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ,. तएणं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं दारियं सयमेव पवावेइ, जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तएणं सा काली अज्जा जाया ईरियासभिया जाव गुत्तबंभयारिणी, तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिजइ बहूहि चउत्थ जाव विहरइ॥सू०३॥
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७७६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
“
टीका - काली देवीगमनानन्तरं गौतमः पृच्छति' भंतेति' इत्यादि । भंतेति ' हे भदन्त । इति सम्बोध्य भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - काल्या खलु हे भदन्त ! देव्या साच्या साम्प्रतं दर्शिता सा दिव्या ' देबिडी ' देवर्द्धिः = विमानपरिवारादिरूपा, ' देवज्जुई ' देवद्युतिः- शरीराभरणादीनां दीपिरुपा 'देवणुभावे ' देवानुभावः= शक्तिप्रभावादिरूपः, कुत्रगता ? कुत्र प्रविष्टा ? भगवानाह - शरीरं गता, शरीरमनु
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'भंते त्ति भगवं गोयमे ' इत्यादि ।
टीकार्थ :- कालीदेवी के चले जाने के बाद ( भगवं गोयमे ) भग वान गौतम ने ( भंते त्ति) हे भदंत ! इस प्रकार संबोधित कर (समणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसइ) श्रमण भगवान् को वंदना की- नमस्कार किया ( वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी ) वंदना नमस्कार करके फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार पूछा - (कालिएणं भंते । देवीए सा दिव्या देवडी ३ कहिं गया कूडागारसालादिहंगे, अहोणं भंते! कालीदेवी महड़िया ३, कालिएणं भंते! देवीए सा दिव्वा देविडि ३ किण्णा लद्वा, किण्णा पत्ता, कण्णा अभिसमण्णा गया ? एवं जहा सूरिया भस्स जाव ) हे भदंत ! कालीदेवी ने जो इस समय दिव्य विमान - परिवार आदिरूप ऋद्धि दिखलाई, शरीर, आभरण आदि की दीप्तिरूप जो देवद्युति एवं शक्ति प्रभाव आदिरूप जो देवानुभाव दिखलाया वह सब कहां चला
o
'संतेति भगवं गोयमे' इत्यादि
टीडार्थ - अजी हेवीना ४ता रह्या माह ( भगवं गोयमे ) भगवान गौतभे ( भंतेत्ति ) हे लहन्त ! आमा सोधन उरीने ( समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ ) श्रमण भगवान महावीरने वहन अने नमस्कार अर्या. ( वंदित्ता सिता एवं वयासी ) वहना भने नभस्४२ उरीने ते तेथे श्रीने पूछयुं
(कालिएणं भंते! देवीए सा दिव्या देवडी ३ कहिं गया० कूडागार - सालादिहंतो, अहोणं भंते ! काली देवी महड़िया ३, कालिएणं भंते! देवीए सा दिव्या देवडि ३ किण्णा लढा, किया पत्ता, किष्णा अभिसमण्णा गया ? एवं जहा सूरियाभस्स जान )
હે ભદન્ત ! કાળી દેવીએ ऋद्धि सतावी, शरीर, आभरण પ્રભાવ વગેના જે દેવાનુભાવ કયાં પ્રવિષ્ટ થઇ ગયા ?
અત્યારે જે દિવ્યવિમાન, પરિવાર વગેરેની वगेरेनी हीप्सिनी ने देवधुति. तेमन शक्ति, ખતાબ્યા તે બધો કયાં અદૃશ્ય થઈ ગયા ?
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अनाश्चममृतवर्षिणी टी० ० २ ६०१ ८० १ काल. देवीच निम
७७७
प्रविष्टा, ' कूडागारसालादिहंतो ' अत्र कूटाकारशाला दृष्टान्तो बोद्धव्यः । 'अहो' आश्चर्ये खलु हे भदन्त ! कालीदेवी महर्द्धिका महाद्युतिका महानुभावा वर्त्तते काल्या खलु हे भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवर्द्धि: ३ ' किष्णा ' कथं= केन प्रकारेण ' लद्धा ' लब्धा=अर्जिता, 'किण्णा' कथं केन प्रकारेण ' पता ' प्राप्ता = स्वाधीनीकृता ' किष्णा ' कथं केन प्रकारेण 'अभिसमन्नागया ' अभिसमन्वागता = उपभोगविषयतया समागता ? एवं ' जहासूरियाभस्स जाव ' यथासूर्याभस्य यावत् यथा सूर्याभवविषये गौतमस्वामिना प्रश्नः कृतस्तथैवात्रापि विज्ञेयः । अथ भगवान् कालीदेवी पूर्वभववृत्तान्तं वर्णयति' एवं खलु ' इत्यादि । एवं खलु हे गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहेव अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आमलकल्या नाम नगरी आसीत् । ' वण्णओ ' वर्णकः = नगरीवर्णनग्रन्थऔपपातिसूत्रादवसेयः । तत्र आम्रशालवनं चैत्यं, जितशत्रू राजा गया ? कहां प्रविष्ट हो गया ? इस प्रकार गौतम का प्रश्न सुनकर भगवान् ने उनसे कहा- शरीर में चला गया - शरीर में प्रविष्ट हो गया। इस विषय में कूटाकारशाला का दृष्टान्त जानना चाहिये । हे भदन्त ! कालीदेवी महर्द्धिक, महाद्युतिक एवं महानुभाववाली है। इस कालीदेवी ने वह देवद्धि ३ किस प्रकार प्राप्त की अर्जित की किस प्रकार उसे अपने आधीन किया ? और किस प्रकार से उसने उसे अपने भोग की विष
भूत बनाई ? इस तरह गौतमस्वामी ने सूर्याभदेव के विषय में जिस तरह से प्रश्न किया उसी तरह से यहां पर भी जानना चाहिये | अब भगवान् कालीदेवी के पूर्वभव के वृत्तान्त का वर्णन करते हैं - ( एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं- इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पा णाम णयरी होत्था-वण्णओ-अंधसालवणे चेहए जियसन्त
આ પ્રમાણે ગૌતમને પ્રશ્ન સાંભળીને ભગવાને તેમને કહ્યું કે શરીરમાં પ્રવિષ્ટ થઇ ગયા શરીરમાં જતા રહ્યો. આ વિષે કુટાકાર શાળાનું દૃષ્ટાન્ત જાણવું જોઈએ. હે ભદ્દન્ત ! કાળી દેવી મહદ્ધિક, મહાદ્યુતિક અને મહાનુભાવવાળી છે. આ કાળી દેવીએ તે દેવદ્ધિ ૩ કેવી રીતે પ્રાપ્ત કરી છે, અર્જિત કરી છે, કેવી રીતે સ્વાધીન અનાવી છે, અને તેણે તેને કેવી રીતે પેાતાના ઉપભેાગની વિષયભૂતા મનાવી છે ? આ પ્રમાણે ગૌતમ સ્વામીએ સૂર્યોભદેવના વિષે જેમ પ્રશ્ન કર્યા હતા તેમજ અહીં પણ જાણવા જોઇએ. ભગવાન હવે કાળી દેવીના પૂર્વભવના વૃત્તાન્તનું વણુન કરે છે—
( एवं खलु गोयमा ! तेणं काळेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे अमलकप्पा णाम णयरी होत्था - वण्णओ - अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया
वा ९८
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७७८
धर्मका
6
,
चासीत् । तत्र खलु आमलकल्पाय कालो नाम गाथापतिरासीत् कीदृश: ? इत्याहअड्डे ' आ:- धनधान्यादि समृद्धि - समृद्धः, ' जाव ' यात्रत् ' अपरिभूए ' अपरिभूतः = बहुजनैरपि परामवितुमशक्यः । तस्य खलु कालस्य गाथापतेः कालश्रीर्नाम भार्याssसीत् कीदृशीत्याह - सुकुमारपाणिपादा यात्रत् सुरूपा । तस्य खलु कालस्य गाथापतेर्दुहिता कालश्रियः भार्याया आत्मजा काली नाम दारिका = पुत्री आसीत् । सा कीदृशी ? त्याह-' बुड्ढा वृद्धा बहुवयस्कत्वात्, वृद्धकुमारी = अपरिणीतत्वात्, ' जुण्णा ' जीर्णा=जीर्णशरीरत्वात्, 'जुण्णकुमारी' जीर्णकुमारी - अपरिणीतावस्थायामेव संजातजीर्णशरीरत्वात्, 'पडियपूयत्थणी '
}
राया तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नामं गाहावई होत्था, अड्डे जाव अपरिभूए) वे कहते हैं-गौतम सुनो- तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है- उस काल और उस समय में इसी जंबूद्रीप नामके द्वीप में भारतवर्ष में आमलकल्पा नामकी नगरी थी। नगरीका वर्णन करनेवाला पाठ यहाँ पर औपपातिक सूत्र से योजित कर लेना चाहिये। उस नगरी में उद्यान था जिसका नाम आम्रशालावन था। इस नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था। इस आमलकल्पा नगरी में काल नाम का गाथापति रहता था । यह धन धान्यादिसे विशेष समृद्ध था और लोगों में भी इस की अच्छी प्रतिष्ठा थी । ( तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स णं कालस्त गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अन्तया काली णामं दारिया होत्या बुड्ढा घुडूकुमारी, जुण्णो जुण्णकुमारी, पडियप्रयत्थणी णिविन्नवरा वरपरिवतत्थणं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहावई होत्था अड्डे जाव अपरिभूए) તેઓ કહે છે કે હું ગૌતમ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નોના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે આ જખૂદ્રીપ નામના દ્વીપમાં ભારત વર્ષમાં આમલકલ્પા નામની નગરી હતી. નગરીના વન વિષેને પાડે અહીં ઔપપાતિક સૂત્ર વડે જાણી લેવા જોઇએ તે નગરીમાં એક ઉદ્યાન હતુ. તેનું નામ આમ્રશાલ વન હતું. તે નગરીના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતું. તે આમલકલ્પા નગરીમાં કાલા નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા. તે ધનધાન્ય વગેરેથી સવિશેષ સમૃદ્ધ હતા અને સમાજમાં તેની સારી એવી પ્રતિષ્ઠા હતી.
( तस्स णं कालस्स गादावइस्स कालसिरीणामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स णं कालस्स गाहावइरूस धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली नामं दारिया होत्या बुडा बुडूकुमारी, जुष्णा जुण्ण कुमारी, पडियपूयस्थणी
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मेनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका श्रु० २ १० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७९ पतितपूतस्तनी-अपनतनितम्बस्तनी, 'णिधिन्नवरा' निर्विण्यवरा-वरवरणे विरक्ता, अतएव वरपरिवज्जिया' वरपरिवर्जिता=पतिरहिता चाप्यासीत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयः पुरुषश्रेष्ठः आदिकरः यथा वर्धमान स्वामी तथैव पाचप्रभुरपि ' णवरं' नवरम्-अयं विशेषः-श्रीवर्द्धमानस्वामी सप्तहस्तोच्छ्रेयः, पार्श्वप्रभुः णवहत्थुस्सेहे ' नवहस्तोत्सेधः-नवहस्तपरिमितशरीरावगाहनः, स पोडशभिः श्रमणसाहस्रीभिः, अष्टत्रिंशता आर्यिकाजिया यावि होत्था) इस काल गाथापति की कालश्री नाम भार्या थी। इसके हाथ पैर आदि समस्त अंग उपांग विशेष सुकुमार थे। देखने में यह बड़ी सुन्दर थी काल गाथापति के इस काल श्री की कुक्षि से उत्पन्न हुई एक काली नाम की दारिका भी थी। जो बहुत वयस्का हो चुकी थी-इसका विवाह भी नहीं हुआ था। इसलिये कुमारी अवस्था में ही यह वृद्धा जैसी बहु उमरवाली हो गई थी । शरीर भी बहु अवस्था संपन्न होने के कारण इसका जीर्ण हो चुका था । अतः अपरिणीतावस्था में ही यह जीर्ण कुमारी बन गई थी। इसके नितम्ब और स्तन दोनों ही बिलकुल ढोले हो गये थे नीचे झुक आये थे। वरके वरण करने रूप कार्य से यह विरक्त बन चुकी थी अतः यह वरपरिवर्जित थी-पति से सर्वथा रहित थी। (तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बद्धमाणसामी णवरं णवहस्थुस्से हे सोलसहिं समणसाहस्सोहिं अट्ठत्तीसाए अज्जिया साहस्सीहिं णिविन्नवरा, वरपरिवजिया यात्रि होत्था )
તે કાલ ગાથા પતિની કાલંશ્રી નામે ભાર્યા હતી. તેના હાથ પગ વગેરે અને બધા અંગે તેમજ ઉપાંગે સવિશેષ સુલેમળ હતાં. દેખાવમાં તે બહુ જ સુંદર હતી. કાલ ગાથા પતિની આ કાલશ્રીના ગર્ભથી જન્મ પામેલી એક કાલી નામે દાસ્કિા (પુત્રી) પણ હતી. તે મોટી ઉંમરની થઈ ચૂકી હતી. તેનું લગ્ન પણ થયું નહતું. એથી કુમારિકાની અવસ્થામાં જ તે ડોશી જેવી બહ ઉંમરે પહોંચેલી થઈ ગઈ હતી. બહુ ઉંમરે પહોંચેલી હોવા બદલ તેનું શરીર પણ જીર્ણ થઈ ચૂક્યું હતું. એથી કુમારિકાની અવસ્થામાં જ તે જીર્ણ કુમારિકા બની ગઈ હતી તેના નિતંબ અને સ્તને બંને સાવ ઢીલા થઈ ગયા હતા, નીચે લટકવા લાગ્યા હતા. વરને વરણ કરવા રૂપ કાર્યથી તે વિરક્ત બની ગઈ હતી એથી તે વર પરિવર્જિત હતી. તે એકદમ પતિ વગરની હતી.
( तेणं कालेणं तेणं समरणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बद्धमाणसामी गवरं णवहत्थुस्से हे सोलसहिं समणसाहस्सीहि अटुत्तीसाए अज्जिया
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७.
माताधर्मकथाङ्गसूत्र साहस्रीमिः सादै संपरिसृतः यावत् आम्रशालवने समवसृतः । परिषन्निगता यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु सा काली दारिका अस्याः भगवत्पार्श्वप्रभुसमागमनरूपायाः कथावाचा याः ‘लट्ठा' लब्धार्था भगवानत्रसमवस्तः, इत्येवं. रूपार्थपाप्ता 'हट्ट जाब हियया' हृष्ट यावद्हृदया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता प्रीतमनस्का हर्षवशविसर्पद्हदया सती यौव अम्बापितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'करयल भाव' करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीएवं खलु हे अम्ब तातौ ! पाश्चोऽर्हन् पुरुषादानीयः आदिकरो यावत्-आम्रशालवने चैत्ये यथा-प्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति= आस्ते, तद्गच्छामि खलु हे अम्बतातौ ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्यासद्धि संपरिखुडे जाव अंबलसालवणे समोसढे ) उस काल में और उस समय में पुरुषादानीय पुरुषश्रेष्ठ-आदिकर पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु जो श्री वर्द्धमान स्वामी जैसे थे-सोलह हजार श्रमणों के तथा ३८, हजार आर्यिकाओं के साथ तीर्थकर परंपरानुसार विहार करते हुए उस आम्रशालवन में आये। भगवान महावीर और पार्श्वनाथ प्रभु की शरीरावगाहना में विशेषता केवल इतनी ही थी कि उनका शरीर सात हाथ ऊँया था और पार्श्व प्रभु का शरीर ९ हाथ ऊँचा था। (परिसा णिग्गया, जाव पज्जुवासह, एणं सा दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हड जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेगेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं साहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे जाव अंबसालवणे समोसढे )
તે કાળે અને તે સમયે પુરુષાદાનીય-પુરુષ શ્રેષ્ઠ-આદિકર પાર્શ્વનાથઅહંત પ્રભુ-જેઓ શ્રી વદ્ધમાન સ્વામી જેવા હતા–સેળ હજાર શ્રમણ તેમજ ૩૮ હજાર આયિકાઓની સાથે તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં તે આમ્રશાલ વનમાં આવ્યા. ભગવાન મહાવીર અને પાર્શ્વનાથ પ્રભુની શરી. રાવગાહનામાં વિશેષતા ફક્ત આટલી જ છે કે તેમનું શરીર સાત હાથ જેટલું ઊંચું હતું અને પાર્શ્વ પ્રભુનું શરીર નવ હાથ ઊંચું હતું.
( परिसा णिग्गया, जाव पज्जुवासइ, तएणं सा काली दारिया इमीसे कहाए लघट्टा समाणी हट्ट जाव हियया जेणे अम्मापियरो तेणेव उवागच्छड. उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहि अन्म
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भेनेगारधर्मामृतषिणी टी० अं. २ ५० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७१ हतः पुरुषादानीयस्य पादवन्दिका पादवन्दनाशया गन्तुम् । अम्बापितरौ कथयतः-हे देशानुप्रिरे ! पुत्रि यथा सुखं तथा कुरु किन्तु अस्मिन् शुभकार्य प्रतिबन्ध प्रमादं मा कुरु । ततः खलु सा कालिका दारिका अम्बापितृभ्यामभ्यनुमाता सती हृष्टयावहृदया स्नाता कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्ता शुद्रअन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायबंदियागमित्तए !) लोगों को ज्योंही पार्श्व प्रभु के आम्रशालवन में आने की खयर लगी-त्योंही सब जनता प्रभु को वंदना के लिये अपने २ स्थान से निकलकर उस आम्रशालवन में आने लगी। वहां आकर प्रभु का धार्मिक उपदेश सुन वह प्रभु की पर्युपासना करने लगी। इसके अन. न्तर जब यह समाचार कालो दारिका को मिला तो वह बहुत अधिक हर्षित एवं संतुष्ट चित्त हुई। बाद में वह जहां अपने माता पिता थे वहां पहुँची वहां जाकर उसने माता पिता को दोनों हाथ जोड़कर चरण वंदना की-और इस प्रकार कहा-हे माततात ! पुरुषश्रेष्ठ, आदिकर, ऐसे पार्श्वनाथ अर्हत प्रभु आम्रशालवन में पधारे हुए हैं-इसलिये मैं आपसे आज्ञापित होकर उन पुरुषश्रेष्ठ अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ को वंदना करने के लिये जाना चाहती हूँ। (अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तएणं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अन्मणुन्नाया समाणी हतुटुं जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता गुनाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयम्स पायबंदिया गमित्तए ? )
પાર્શ્વ પ્રભુના આમ્રપાલવનમાં પધારવાની જાણ થતાં જ બધા લોકે પ્રભુને વંદન કરવા માટે પિતાપિતાના સ્થાનેથી નીકળીને તે આમ્રશાલ વનમાં આવવા લાગ્યા, ત્યાં આવીને પ્રભુને ધામિક ઉપદેશ સાંભળીને તે પ્રભુની પણુ પાસના કરવા લાગ્યા. ત્યારબાદ કાલી દારિકાને આ સમાચાર મળ્યા ત્યારે તે ખૂબ જ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ ચિત્તવાળી થઈ ગઈ. ત્યારપછી તે જ્યાં તેના માતા-પિતા હતા ત્યાં પહોંચી. ત્યાં જઈને તેણે માતા-પિતાને બંને હાથ જોડીને ચરણ વંદના કરી અને ત્યારપછી આ પ્રમાણે વિનંતી કરી કે હે માતા પિતા ! પુરુષ શ્રેષ્ઠ, આદિકર એવા પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુ આમ્રશાલ વનમાં પધાર્યા છે. એટલા માટે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે પુરુષ શ્રેષ્ઠ અડતા પ્રભુ પાર્શ્વનાથને વંદન કરવા માટે જવા ઈચ્છું છું.
( अहा सुई, देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तएणं सा कालिया दारियां अम्मापिईहिं अन्भणुमाया समाणी हट्टतुट्ट जाव हियया हाया कयबलिकम्मा कय
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साताधर्मकथागसूत्र प्रवेश्यानि माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिता अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकीर्णा स्वकाद् गृहाद् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बाह्याउपस्थानशाला यचैव धार्मिको यानपवरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यान. प्रवर दुरूढा-आरूढा । ततः खलु सा काली दारिका धार्मिकं यानप्रवरम् , एवं सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकिय सरीरा चेडिया चक्कवालपरिकिणगा साओ गिहाओ पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरुढा, तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाण पवरं जहा दोवई जाव पज्जुवासइ) तय माता पिता ने उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिये ! तुझे जिस प्रकार सुख मिले उस प्रकार तू कर-इस शुभकार्य में प्रतिबंध-प्रमाद मत कर । इस प्रकार माता पितासे अभ्यनुज्ञात हुई उस दारिका ने हृष्ट तुष्ट चित्त होकर स्नान किया वायसादि के लिये अन्नका भागरूप-बलिकर्म किया कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रवेश योग्य, मंगलकारी वस्त्रों को अच्छी तरह पहिरा, और अल्पभार बहुमूल्य आभरणों से अलंकृत शरीर होकर वह चेटिका चक्रवाल से युक्त हो अपने घर से निकली। निकलकर वह वहां गई-जहां बाह्य उपस्थान शाला थी-उसमें जाकर वह जहां धार्मिक यानप्रवर रक्खा था-वहां पहुंची-वहां जाकर कोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेत्र धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा तएणं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पवरं एवं जहा दोबई जाव पज्जुवासइ)
ત્યારે માતાપિતાએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તને જેમ સુખ મળે તેમ તું કર. આ શુભ કાર્યમાં પ્રતિબંધ-પ્રમાદ કર નહિ આ પ્રમાણે માતાપિતા વડે આજ્ઞાપિત થયેલી તે દારિકાએ હષ્ટ-તુષ્ટ ચિત્ત થઈને સ્નાન કર્યું. કાગડા વગેરેને અન્નભાગ આપીને બલિકર્મ કર્યું. કૌતુક, મંગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને શુદ્ધ પ્રવેશ મેગ્ય, મંગળકારી વસ્ત્રોને સારી રીતે પહેર્યા અને વજનમાં હલકા પણ કિંમતમાં બહુ ભારે એવા આભરણેથી શરીરને અલકત કરીને દાસીઓના સમૂહથી પરિવેષ્ટિત થઈને પિતાના ઘેરથી નીકળી. નીકળીને તે ત્યાં પહોંચી જ્યાં બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી. તેમાં જઈને તે જ્યાં ધાર્મિક યાનપ્રવર ઊભું હતું તેમાં આરૂઢ થઈ ગઈઆરૂઢ થઈને તે
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु. २५० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८३ 'जहा दोबई जाव ' यथा द्रौपदी यावत्-द्रौपदीवत् छत्रादीन् तीर्थङ्करातिशयान् दृष्ट्वा धार्मिकाद् यानप्रबरोदवतरति, पश्चाभिगमपूर्वकं भगवत्समीपे गत्वा वन्दित्वा नमस्यित्वा च भगवन्तं 'पज्जुवासइ' पर्युपास्ते । ततः खलु पाचौँऽर्हन पुरुषादानीयः काल्यै दारिकायै तस्यां च महातिमहालयायां पर्षदि धर्म कथयति ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्ट याद् हृदया पार्श्व महन्तं पुरुषादानीयं त्रिकृत्वो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वह उस पर आरूढ हो गई। आरूढ होकर वह वहां से चली। ज्योंही उसने द्रौपदी की तरह तीर्थकरातिशयरूप छत्रादि विभूति को देखा तो वह देखकर उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी। और पञ्च अभिगमन पूर्वक भगवान के पास जाकर उसने उनको वंदना की, उन्हें नमस्कार किया-वंदना नमस्कार करके फिर उसने उनकी पर्युपासना की। (तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालयाए परिसाए धम्मो कहिओ) पुरुषादानीय अहंत प्रभु पार्श्वनाथने उस काली दारिकाको उस विशाल परिषदाके बीचमें धर्मकथा सुनाई। (तएणं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया पास अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदह नमंसइ) पुरुषादानीय उन अर्हत पार्श्वनाथ प्रभु से धर्म को सुनकर और हृदय में अवधारण कर वह काली दारिका बहुत अधिक हर्षित ત્યાંથી રવાના થઈ. દ્રૌપદીની જેમ તેણે જ્યારે તીર્થકરાતિશય રૂ૫ છત્ર વગેરે વિભૂતિને જોઈ કે જોતાંની સાથે જ તે ધાર્મિક યાન-પ્રવરમાંથી નીચે ઉતરી પડી. અને પંચ અભિગમનપૂર્વક ભગવાનની પાસે જઈને તેમને વંદના કરી, તેમને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પયું પાસના કરી. ત્યારપછી
(तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहा. लयाए परिसाए धम्मो कहिओ)
પુરુષાદાનીય અહત પ્રભુ પાર્શ્વનાથે તે કાલી દરિકાને તે વિશાલ પરિ ષદાની સામે ધર્મકથા સંભળાવી.
(तएणं सा काली दारिया पासस्स अरही पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ)
પુરુષાદાનીય તે અહંત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી ધર્મને સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં અવધારિત કરીને તે કાલી દારિકા બહુ જ વધારે હર્ષિત
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७८४
माताधर्मकथा नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु हे भदन्त ! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं यावत् तद् तथैतद् यूयं वदथ नवरं-विशेषोऽयम्-यत्-अहम् अम्बापितरौं आपृच्छामि, ततः= मातापितरौ पृष्ट्वा खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रव्रजामि । भगवानाहयथासुखं हे देवानुप्रिये । । ततः खलु सा काली दारिका पार्श्वन अर्हता पुरुषा: हृदय हुई। उसने उन पुरुषादानीय पार्श्वनाथ अहैत प्रभु को तीन वार वंदना नमस्कार किया। बाद में (वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी सहहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भे वयह, ज णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं देवाणुपियाणं अंतिए जाव पव्वयामि, अहासुहं देवाणुप्पिए ! तएणं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पासं अरहं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरुहइ, दूरहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओपडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी, तेणेव उवागच्छइ ) वंदना नमस्कार करके उसने उन प्रभु से ऐसा कहा-हे भदंत ! मैं आपके द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ प्रवचन को विशेष श्रद्धा की दृष्टि से देखती हूँ आपने जैसा यह प्रतिपादित किया है वह वस्तुतः वैसा ही है । यह मुझे बहुत रुचा है। अतः मैं माता पिता से पूछती हूँ। उनसे पूछकर फिर आप देवानुप्रिय के पास आकर હૃદય થઈ. તેણે તે પુરુષાદાનીય પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુને ત્રણ વાર વંદના અને નમસ્કાર કર્યા. ત્યારબાદ
(वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी सदहामिणं भंते ! जिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जं गवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तरणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि, अहा मुहं देवाणुप्पिए ! तएणं सा काली दारिया पासे णं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पास अरहं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरुहइ दुरूहित्ता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडि निक्खमई, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव उवागच्छइ)
વંદના નમસ્કાર કરીને તેણે તે પ્રભુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદન્ત! તમારા વડે પ્રતિપાદિત નિગ્રંથ પ્રવચનને હું વિશેષ શ્રદ્ધાની દૃષ્ટિએ જોઉં છે. તમે જેવું આ પ્રતિપાદિત કર્યું છે ખરેખર તે તેવું જ છે. મને આ ખૂબ જ ગમી ગયું છે. એથી હું માતાપિતાને પૂછી લઉં છું. તેમને પૂછીને
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अमगारधर्मामृतवर्षिणी डी० भु० २ ० १ ० १ कालीदेवीवर्णनम्
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दानीयेन एवमुक्ता सती हृष्ट यावद् हृदया पार्श्व मर्हन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा तदेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोइति, दुख्य पार्श्व स्थाईतः पुरुषादानीयस्यान्तिकाद् आम्रशालानात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैत्र आमलकल्पा नगरी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आमलकल्पाया नगर्या मध्य-मध्येन eta वाह्या उपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानमवरात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरूह्य यत्रैव अम्बा-पितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' करतल० ' करतळपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं -
S
दीक्षित होना चाहती हूँ । काली दारिका के इस अभिप्राय को सुनकर प्रभुने उससे कहा देवानुप्रिये ! यथासुखम् | इस प्रकार वह काली दारिका पुरुषादानीय उन अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ से अनुमोदित होकर चित्त में बहुत अधिक प्रसन्न हुई । उसने अर्हन्त पार्श्वनाथ प्रभु को वंदना नमस्कार किया और वंदना नमस्कार करके वहां से आकर वह उसी अपने धार्मिक यान पर चढ गई चढकर वह फिर पुरुषादानीय, अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ के पास से और उस आम्रशालवन नामके उद्यान से बाहिर चली आई | बाहिर आकर वह जहां आमलकल्पा नगरी थी - वहां पर आ गई । (उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव बाहिरिया उबडाणसाला - तेणेव उवागच्छइ, वागच्छन्त धम्मियं जाणपवरं वेद, ठवित्ता धम्मियाओ जाणपथराओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कर
આપ દેવાનુપ્રિયની પાસે આવીને દીક્ષિત થવા ચાહું છું. કાલી દારિકાના આ અભિપ્રાયને સાંભળીને પ્રભુએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! ‘ યથાસુખમ્ ' આ પ્રમાણે તે કાલી દારિકા પુરુષાદાનીય તે અંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વડે અનુમા દિત થઈને ચિત્તમાં ખૂબ જ પ્રસન્ન થઈ. તેણે અહુત પાર્શ્વનાથ પ્રભુને વંદના નમસ્કાર કર્યાં અને વંદા નમસ્કાર કરીને ત્યાંથી આવીને તે તેજ પેાતાના ધાર્મિક યાનમાં બેસી ગઇ અને એસીને તે પુરુષાદાનીય અંત પ્રભુ પાર્શ્વ નાથની પાસેથી અને તે આમ્રશાલ વન નામના ઉદ્યાનથી મહાર આવી ગઇ. બહાર આવીને તે જયાં આમલકલ્પા નગરી હતી ત્યાં આવી ગઈ.
( उवागच्छित्ता आमलकप्पं णयरिं मज्झ मज्झेणं जेणेत्र बाहिरिया उवद्वाणसाला- तेणेव उवागच्छङ, उवगच्छिता धम्मियं जागपत्ररं ठवेइ, ठवित्ता धम्मयाओ जाणप्पराओ पचोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, जेणेत्र अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० एवं वयासी - एवं खलु अम्मयाओ ! मंए पासस्स
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जाताधर्मकथाजस्त्रे कृत्वा एवमवादी-एवं खलु हे अम्बतातौ ! मया पार्श्वस्याहतोऽन्तिके धर्मः 'णिसंते' निशान्तः श्रुतः, सोऽपि च धर्मः 'मे' मम ' इच्छिए ' इष्टः= इच्छाविषयीभूतः, 'पडिच्छिए ' प्रतीष्टः पुनः पुनरभिलपितः ' अभिरुइए' अभिरुचितः आस्वाधवस्तुवत्सर्वथापियः, ततः तस्मात् कारणात् खलु अहं हे अम्बतातौ ! संसारभयोद्विग्ना भीता जन्ममरणेभ्योऽतः इच्छामि खलु युष्माभ्यामयल० एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते से वि:य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए-तएणं अहं अम्मयाओ! संसारभउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं-इच्छामि णं तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए) वहां आकर के वह आमलकल्प नगरी के बीचों बीच से होकर जहाँ वह बाह्या उपस्थान शाला थी-वहाँ आई-वहां आकर वह उस धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी-नीचे उतर कर फिर बाद में वह जहां अपने माता पिता थे-वहां गई-वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर उनसे इस प्रकार कहा-हे मात तात ! सुनो मैंने अहंत प्रभु पार्श्वनाथ के मुख से धर्म सुना है-वह धर्म मुझे बहुत अच्छा लगा है, पार बार उस धर्म को सुनने की अभिलाषा हो रही है । जिस प्रकार
आस्वाद्य वस्तु प्रिय लगती है उसी प्रकार वह धर्म मेरे लिये सब प्रकार से प्रिय लगा है। उसके सुनने से मैं हे मात तात ! इस संसार अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिएःअभिरुइए-तएणं अहं अम्मयाओ ! संसारभउचिग्गा भीया जम्मणमरणाणी-हच्छामि णं तुम्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अगगारियं पवइसए) - ત્યાં આવીને તે આમલકલ્પ નગરીની વચ્ચે થઈને જ્યાં તે બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તે તે ધાર્મિક યાન પ્રવરમાંથી નીચે ઉતરી, નીચે ઉતરીને તે જ્યાં તેના માતાપિતા હતાં ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને પિતાના બંને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે માતાપિતા ! સાંભળે, અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથના મુખથી મેં ધર્મનું શ્રવણ કર્યું છે, તે મને બહુ જ ગમી ગયું છે. તે ધર્મને વારંવાર સાંભળવાની ઈચ્છા થઈ રહી છે જેમ આસ્વાદ્ય વસ્તુ પ્રિય લાગે છે તેમજ તે ધર્મ મારા માટે બધી રીતે પ્રિય થઈ પડ્યો છે તે માતાપિતા ! તેના
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मनगारधर्मामृतषिणी टीका थु० २ १० १० १ कालीदेवीवर्णनम् ७८७ भ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्याहतोऽन्तिके मुण्डाभूत्वा आगाराद् अनगारितां प्रबजितुम्= स्वीकर्तुम् । मातापितरौ कथयतः-यथासुखं हे देवानुप्रिये !=यथा रोचते तथाकुरु किन्तु अस्मिन् कार्ये प्रतिबन्धप्रमादं मा कुरु । ततः स्वपुत्र्या दीक्षानिश्चयानन्तरं खलु स कालो गाथापतिर्विपुलम् अशनम् ४ अशनादि चतुर्विधमाहारम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनम् आमन्त्रयति, आमन्त्र्य ततः पश्चात् स्नातः यावत् विपुलेन पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्कृत्य सम्मान्य तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनस्य पुरतः=अग्रे कालिकां दारिका श्वेतपीतैः रजतसुवर्णमयैः कलशैः स्नपयति, स्नपयित्वा सर्वालङ्कारविभूषितां करोति, कृत्वा पुरुषसहस्रवाहिनिकां शिविकां दरोहयति आरोहयति, द्रोह्य मित्रज्ञातिनिजकस्व जनसम्बन्धि परिजनेन सार्द्ध संपरितः सर्वद्धर्या यावत्-वाघके भय से उद्विग्न होकर जन्ममरण से भयभीत हो चुकी हूँ-अतः मैं चाहती हूँ कि मैं आप से आज्ञा प्राप्त कर उन अहैत पार्श्वनाथ प्रभु के समीप मुंडित होकर अगारावस्था से अनगारावस्था स्वीकार कर लू। इस प्रकार अपनी काली दारिका की बात सुनकर माता पिता ने उससे कहा-(अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तएण से काले गाहावई विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियग सयणसंबंधिपरियणं आमंतेइ आमंतित्ता तओ पच्छा बहाए जाव विउलेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणियगसयणसंबंधिरिजणस्स पुरओ कालियं दारियं सेया पीएहिं कलसेहिं पहावेइ पहावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरोहेइ, दुरोहित्ता मित्तणाइणियगसयण શ્રવણથી હું આ સંસારના ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈને જન્મ-મરણથી ભયભીત થઈ ગઈ છું. એથી મારી ઈચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને તે અહત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે મુંડિત થઈને અગારાવસ્થા ત્યજીને અનગારાવસ્થા સ્વીકારી લઉં. આ પ્રમાણે પોતાની કાલી દારિકાની વાત સાંભળીને માતાપિતાએ તેને કહ્યું –
(अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह, तएणं से काले गाहावई विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ, उपकावडावित्ता मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणं आमतेइ आमंतित्तातओ पच्छा हाए जाब विपुलेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइणिय गसयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीरहि कलसेहि व्हावेइ हावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करिता
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७८८
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र मानानेकविधवादित्ररवेण सह आमलकल्पाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यौवाम्रशालवनं चैत्यं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकान् तीर्थकरातिसंबंधिपरियणेणं सद्धिं संपरिबुडे सव्विड्डीए जाव रवेणं आमलकप्पं नयरि मज्झं मज्झेणं णिगच्छइ ) हे देवानुप्रिये ! तुझे जिस तरह अच्छा लगे वैसा तू कर-इस कार्य में प्रमाद न कर । इस तरह उस काल गाथापति ने अपनी पुत्री को दीक्षा ग्रहण करने मे दृढ निश्चयवाली जानकर विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार निष्पन्न करवाया-बाद में मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी परिजनों को आमंत्रित किया. आमंत्रित करके बाद में उसने स्नात होकर विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध माल्य, एवं अलंकारों से सत्कार सन्मान करके उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी, परिजनों के साथ काली दारिका का श्वेत पीत कलशों द्वारा अभिषेक किया-बाद में उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया-फिर पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर उसे चढवाया। चढवाकर फिर उन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन संबन्धी परिजनों से घिरा हुआ होकर वह अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार, वाद्यमान अनेक विध बाजो की ध्वनि के साथ २ आमलकल्पा नगरी के ठीक बीचों बीच से होकर निकला। (गिग्गच्छिता जेगेन अवधालवणे चेइए पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरोहेइ, दुरोहित्ता मित्तणाइ, णिपगसयगसंबंधि परियणेणं सद्धिं संपरिखुडे सबिढीए जाव रवेणं आमलकप्पं नयरिं मज्झं मज्ज्ञेणं णिगच्छइ )
હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જેમ સારું લાગે તેમ કર આ કામમાં પ્રસાદ કરીશ નહિ. આ પ્રમાણે તે કાલગાથાપતિએ પિતાની પુત્રીનો દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને મક્કમ વિચાર જાણીને પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ચાર જાતના આહારે તૈયાર કરાવડાવ્યા. ત્યારબાદ મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી પરિજનેને આમંત્રિત કર્યા. આમંત્રિત કરીને તેણે સ્નાન કરીને પુષ્કળ પુષ્પ, વસ્ત્ર, ગંધ, માલ્ય અને અલંકારો વડે સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી, પરિજનોની સાથે કાલી દારિકાને સફેદ, અને પીળા કળશે વડે અભિષેક કર્યો ત્યારબાદ તેને સમસ્ત અલંકારો વડે વિભૂષિત કરી અને ત્યારપછી પુરુષ સહસવાહિની પાલખી ઉપર તેને ચઢાવી. ચઢાવીને તેણે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન સંબંધી, પરિજનેની સાથે પરિ વેષ્ટિત થઈને પિતાની સમસ્ત કાદ્ધિની સાથે, ઘણાં વાજાંઓના વિનિની સાથે સાથે આમલકલ્પ નગરીની બરાબર વચ્ચે થઈને નીકળે.
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अनगारधामृतवर्षिणी टी० शु० २ व० १ अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ८९ शयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा कालिकां दारिकां शिविकातः प्रत्यत्ररोहयति । ततः खलु तां कालिकां दारिकाम् अम्बापितरौ पुरतः कृत्वा यत्रैव पार्थोऽहन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिष्टाम्-एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! काली दारिका आवयोर्दुहिता इष्टा कान्ता यावत् उदुम्बरपुष्पमिव श्रवणायापि दुर्लभा किमङ्ग ! पुनः तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ) निक लकर वह वहां गया कि जहां वह आम्रशालवन नाम का उद्यान था। वहाँ जाकर उसने तीर्थकर प्रकृति के उदय से होनेवाले छन्त्रादिक अतिशयों को देखा। (पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता कालियदारियं सीधाओ पच्चोरुहह, तएणं त कालीयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पाले अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदह, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ) देखकर उसने उस पुरुष सहस्त्रवाहिनी शिविका को खडी कर दिया। खड़ी करके उसमें से काली दारिका को नीचे उतारा बाद में वे माता पिता उस कालिक दारिका को आगे करके जहां पुरुषादानीय अर्हत प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान थे वहां गये। वहां जाकर उन्हों ने उनको वंदना की-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके पाद में उन्हों ने इस प्रकार प्रभु से कहा-( एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्टा कंता, जाव किमंगपुणपासणयाए ! एस
(णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ)
નીકળીને તે ત્યાં ગયે કે જયાં તે આમ્રશાલ વન નામે ઉદ્યાન હતું ત્યાં જઈને તેણે તીર્થકર પ્રકૃતિના ઉદયથી અસ્તિત્વમાં આવતા છત્ર વગેરે અતિશને જોયા.
(पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता कालियदारियं सीयाओ पच्चोरुहइ, तएणं तं कालियं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसा० तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी)
જોઈને તેણે તે પુરુષ સહસવાહિની પાલખીને રોકી. રોકીને તેમાંથી કાલી દારિકાને નીચે ઉતારી. ત્યારપછી તે માતાપિતા તે કાલીક દારિકાને આગળ કરીને જ્યાં પુરુષદાનીય અહંત પ્રભુ પાર્શ્વનાથ વિરાજમાન હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યા વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમણે પ્રભુને વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(एवं खलु देवाणुप्पिया ! कालीदारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता, जाप किमंग
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,
पासण्या' दर्शनाय ?, एषा खलु हे देवानुप्रियाः । संसारभयोद्विग्ना इच्छति देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डाभूत्वा यावत्मत्रजितुं तद् एतां खलु देवानुप्रियाणां शिष्याभिक्षां दद्मः, 'पडिच्छंतु ' प्रतीच्छन्तु = स्वीकुर्वन्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षाम् । भगवानाह - यथासुखं हे देवानुमियों ! मा प्रतिबन्धं कुरुतम् । ततः खलु काली कुमारी पार्श्वमर्हन्तं कन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा उत्तरपौरस्थं णं देवाणुप्पिया ! संसारभउब्बिग्गा, इच्छह, देवाणुप्पियाणं। अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पञ्चइन्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिमिक्खं दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं ) हे देवानुप्रिय ! यह हमारी काली दारिका नामकी पुत्री है। यह हमें बहुत अधिक इष्टा, कान्ता यावत् उदम्बर पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभा है - तो फिर हे अंग ! इसके दर्शन की तो बात ही क्या कहना है। हे देवानुप्रिय ! यह संसारभय से उद्विग्न हो रही है अतः आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर यावत् संयम लेना चाहती है । इस लिये हम दोनों आपके लिये शिष्या की भिक्षा दे रहे है-आप देवानुप्रिय ! हमारी इस शिष्यारूप भिक्षा को स्वीकार करें (अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह ) इस प्रकार उन दोनों का कथन सुनकर प्रभु ने उनसे कहा हे देवानुप्रियो ! आप को जैसा सुख हो वैसा आप करो इसमें विलम्ब करने से लाभ नहीं हैं । (तएणं) इसके बाद ( काली कुमारी पासं
शाताधमकथा
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MATO
पुण पासणयाए ? एसणं देवाणुपिया ! संसारभउम्बिग्गा, इच्छा, देवाणुष्पि
! अति मुंडा भवित्ता जाव पव्त्रइत्तए, तं एयं णं देवाणुविषाणं सिस्सिणि भिक्खं दलयामो परिच्छंतु णं देवाणुपिया ! सिस्सिणिभिक्खं )
હૈ દેવાનુપ્રિય ! આ અમારી કાલી દ્વારિકા નામે પુત્રી છે. અમારા માટે આ બહુ જ વધારે ઈષ્ટા, કાંતા યાવત્ ઉદુમ્મર પુષ્પની જેમ નામ શ્રવણુમાં પણ દુર્લભા છે. તે પછી એના દર્શનની તે વાત જ શી કરવી ? હું દેવા નુપ્રિય ! આ સંસાર ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈ રહી છે. એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી મુંડિત થઈને યાવત્ સ'યમ ગ્રહણ કરવા ઇચ્છે છે. એથી અમે બંને આપના માટે આશિષ્યાની ભીક્ષા અર્પણ કરીએ છીએ. આપ દેવાનુપ્રિય અમારી या शिष्याइयी लिक्षाना स्वीर . ( अहासुह देवाणुपिया ! मा पडिव ક) આ પ્રમાણે તે ખનેનું કથન સાંભળીને પ્રભુએ તેમને કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરી. આમાં વિલંબ કરવાથી साल नथी. (तपूर्ण ) त्यारपछी
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ व०१ म० १ कालीदेवीवर्णनम् ७१ दिग्भागम् अवकामति, अवक्राम्य स्वयमेव स्वहस्तेनैव आभरणमाल्यालङ्कारम् अवमुश्चति अवतारयति, अवमुच्य स्वयमेव-स्वहस्तेनैव लोचं-केशलुचनं करोति, कृत्वा यत्रैव पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयस्तोवोपागच्छति, उपागत्य पार्श्वमर्हन्तं नि: कृत्वो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत-आदीप्तः खलु हे भदन्त ! लोकः एवम् अनेन प्रकारेण यावत्-एषाऽपि स्वयमेव पार्श्वप्रभुणा प्रताजिता । अरहं बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयह, ओमुइत्ता, सयमेव लोयं करेइ, करित्ता जेणेव पासे अरिहा पुरिसादाजीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदह, नमंसइ, वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ) काली कुमारी ने पार्श्वनाथ अरिहन्त प्रभु को वंदना एवं नमस्कार किया-1 वंदना नमस्कार करके फिर वह उत्तर पौरस्त्य दिग्भाग ईशान कोण की ओर गई। वहां जाकर उसने अपने आप आभरण माल्य एवं अलंकारों को उतार दिया। उतार कर अपने हाथों से उसने बालों का लुंचन किया-खंचन करके फिर वह जहां पुरुषादानीय पार्श्वनाथ प्रभु विराजमान थे वहाँ आईवहाँ आकर उसने पार्श्वनाथ अर्हत को तीन बार वंदन एवं नमस्कार किया और वंदना नमस्कार कर फिर वह उनसे इस प्रकार कहने लगी -(आलित्तणं भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पन्चाविया___ ( काली कुमारी पासं अरहं वंदई, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अबक्कमित्ता, सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करित्ता जेणेव पासे अरिहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी)
કાલી કુમારીએ પાર્શ્વનાથ અરિહંત પ્રભુને વંદના અને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે ઉત્તર પરિત્ય દિગ્ગાગ ઈશાન કેણની તરફ ગઈ. ત્યાં જઈને તેણે પિતાની મેળે જ આભરણ, માલ્ય અને અલંકારોને ઉતાય. ઉતારીને પિતાના હાથ વડે જ તેણે વાળનું લુચન કર્યું. હુંચન કરીને તે જ્યાં પુરુષાદાનીય પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે પાર્શ્વનાથ અહં તને ત્રણ વાર વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરવા લાગી કે –
( आलित्तण भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पव्वाविया-तएणं
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हाताधर्मकथास ततः खलु पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयः काली स्वयमेव पुष्पचूलायै आर्यायै शिष्यात्वेन ददाति । ततः खलु सा पुष्पचूला आर्या काली दारिका स्वयमेव प्रव्राजयति यावत्-सा काली तदाज्ञाम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः सा काली-आर्या जाता, कीदृशी? त्याह-ईर्यासमिता यावत्-गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा काली अर्या पुष्पचूलाया आर्याया अन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फचूलाए अजाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ, तएणं सा पुष्फला अजा कालिं दारियं सयमेव पवावेइ-जाव उपसंपजित्ताणं विहरइ) हे भदंत ! यह लोक आदीप्त हो रहा है-इस प्रकार से पार्श्वनाथ प्रभु के द्वारा स्वयं ही दीक्षित की गई। इसके बाद उन पुरुषादानीय पार्श्व प्रभु ने काली को दीक्षित करके पुष्पचूला आर्या को शिष्याणीरूप से प्रदान कर दिया। पुष्पचूला आर्या ने उसे काली को इस प्रकार दीक्षित करवा कर अपनी शिष्याणीरूप में उसे स्वीकार कर लिया-यावत् वह काली उस आर्या की आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करने लग गई । (तएणं सा काली अजा जाव) इस तरह वह काली अब आर्या हो गई। (ईरिया समिया जाव गुत्तयंभयारिणी तएणं सा काली अजा पुष्कचूलाए अजाए अंतिए
पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फचूलाए अज्जाए सिस्तिणियत्ताए दलयइ, तएणं सा पुष्फचूला अज्जा कालिं दारियं सयमेव पवावेइ-जाव उपसंपज्जित्ताणं विहरइ )
હે ભદન્ત ! આ લેક આદીપ્ત થઈ રહ્યો છે. આ પ્રમાણે આ પણ પાર્શ્વનાથ પ્રભુ વડે જાતે જ દીક્ષિત કરવામાં આવી. ત્યાર પછી તે પુરુષાદાનીય પાર્શ્વ પ્રભુએ કાલીને દીક્ષિત કરીને પુષ્પચુલા આર્યાને શિષ્યાના રૂપમાં આપી દીધી. પુષ્પચૂલા આર્યાએ તે કાલીને આ પ્રમાણે દીક્ષિત કરાવીને પિતાની શિષ્યાના રૂપમાં તેને સ્વીકાર કરી લીધો. યાવત્ તે કાલી તે આર્યાની माज्ञा. भु२४५ पोतानी प्रवृत्ति ४२ an (तएणं सा काली अजा जाव) આ રીતે તે કાલી હવે આ થઈ ગઈ. (ईरिया समिया जाव गुत्तभयारिणी, तएणं सा काली अज्जा पुष्फच्छाए अज्जाए अंतिए समाइयमाझ्याई एककारसअंगाई अहिज्जइ, बहूहि चउत्थ जाव विहरइ)
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बनगारधामृतषिणी टी० ० २ ० १ अ० १ कालीदेवी वर्णनम् ७३ बहुभिः चतुर्थ यावत्-षष्ठाष्टमदशमद्वादशभिस्तपःकर्मभिरात्मानं भावयन्ती विहरति । सू०३ ॥
मूलम्-तएणं सा काली अजा अन्नया कयाइं सरीरबाउ. सिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं२ हत्थे धोवइ पाए धोवइ सीसं धोवइ मुहं धोबइ थणंतराइं धोवइ कक्खं तराणि धोवइ गुज्झंतराइं धोवइ जत्थर वि य णं ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइए तं पुवामेव अब्भुक्खेत्ता तओ पच्छा आसयइ वा सयइ वा, णिसीहइ वा, तएणं सा पुप्फचूला अज कालिं अजं एवं वयासी-नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणीणं णिग्गं थीणं सरीरबाउसियाणं होत्तए तुमं च णं देवाणुप्पिया ! सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं२ हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा तं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि, तएणं साकाली
सामाध्यमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिजइ, पहहिं चउत्थ जाव विहरह) उसका रहन शयन आदि सब व्यवहार नियमित एवं सीमित हो गया। चलती तो वह ईर्या समिति से मार्ग का संशोधन कर चलती। यावत् वह गुप्त ब्रह्मचरिणी बन गई। ९ नौ कोटी से ब्रह्मचर्यव्रत की संरक्षिका हो गई। इसके बाद उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया-और अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम दशम, द्वादश, तपस्याओं की आराधना से अपने आपको भावित किया। सूत्र ३॥
તેનું રહેવું, સૂવું વગેરે બધું કામ નિયમિત અને સીમિત થઈ ગયું. ચાલતી ત્યારે તે ઈર્યા-સમિતિથી માર્ગનું સંશોધન કરીને ચાલતી. યાવત્ તે ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી બની ગઈ ૯ કેટિથી બ્રહ્મચર્ય વ્રતની તે સંરક્ષિકા થઈ ગઈ. ત્યારપછી તે કાલી આર્યાએ પુષ્પચૂલા આર્યાની પાસે સામાયિક વગેરે અગિયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણું ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ તપસ્યાની આરાધનાથી પોતાની જાતને ભાવિત કરી. એ સૂત્ર ૩ છે
व १००
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ज्ञाताधर्मकथा
अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमट्टं नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिgs, तरणं ताओ पुष्पचूलाओ अज्जाओ कालिं अजं अभिक्खणं हीलेंति णिंदंति खिसंति गरिहंति अवमण्णंति अभिक्खणं२ एयम निवारेंति, तएणं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं णिग्गंथीहिं अभिक्खणं२ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्ज माणिए इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्नित्था जया
अहं अगारवास मज्झे वसित्था तया णं अहं सयवसा जप्पिभिड़ं च णं अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिक्का उवस्तयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकट्टु एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जळंते पाडिएक्कं उवस्तयं गिण्हइ, तत्थ णं सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणंर हत्थे धोवइ जाव आसयइ वा सयइ वा, जीसेइ वा, तणं सा काली अज्जा पासत्था पासत्भविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुर्सालविहारी अहाछंदा अहाछंद विहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमसियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ छेइत्ता तस्स ठाणस्स अनालोइय अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंपाए रायहाणीए कालवडिसए भवणे उववायसभाए देवसय णिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलस्सअसंखेज्जइ भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवित्तए उववण्णा,
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु०२ ६०१ अ०१९ कालीदेव वर्णनम्
७९५
तसा कालीदेवी आहुणोत्रवण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामण पज्जतीए । तरणं सा कालीदेवी चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च बहु कालवडेंसगभवणवासणिं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरइ, एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी३ लद्वा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पन्नसा ?, गोयमा ! अड्डाइज्जाई पलिओत्रमाई ठिई पन्ना, काली णं भंते! देवी ताओ देवलोगाओ अनंतरं उव्वट्ठित्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहि, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेर्ण पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तिबेमि । धम्मकहाणं पढमज्झयणं समत्तं ॥ सू० ४ ॥
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टीका- ' तरणं सा ' इत्यादि - ततः खलु सा काली आर्या अन्यदा कदाचित् ' सरीरवाउसिया ' शरीरा वाकुशिका शरीरसंस्करणशीला जाता चाप्यासीत् । अथ सा किं करोती ? त्याह- अभीक्ष्णं २ वारंवारं हस्तौ धावति, पादौ धावति,
"
तणं सा काली अज्जा अन्नया कयाई,' इत्यादि ।
टीकार्थ :- ( तरणं) इसके बाद ( सा काली अज्जा ) वह काली आर्या (अन्नया कयाई) किसी एक समय ( सरीरवा उसिया) शरीर को संस्कारित करने के स्वभाववाली बन गई इसलिये वह (अभिक्खणं २
,
'सरणं सा काष्टी अज्जा अन्नया कयाइ ' इत्यादि
अर्थ -- (तरणं) त्यारपछी ( सा काली अजा) ते असी मार्या ( अन्नया कयाइ ) 3 मे वसते ( खरोरवाउसिया) शरीरने संस्ारित કરવાના સ્વભાવવાળી બની ગઈ, એટલા માટે તે~~~ (train हस्थे धोत्रइ, पाए धोत्रेह खीसं घोवइ, मुहं धोबई, थर्णतराइ घोवर,
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जाताधर्मकथासूत्र शीर्ष धावति, मुखं धावति स्तनान्तराणि धावति, कक्षान्तराणि धावति, गुह्यान्तराणि धावति, यत्र यत्रापि च खलु — ठाणं वा ' स्थानम्-उपवेशनस्थलम् 'सेज्जं वा' शय्यांशयनभूमिम् , “णिसीहियं वा ' नैषेधिकीं-स्वाध्यायभूमिम् 'चेएइ ' चेतयते करोति ' तं' तत्-स्थानादिकं 'पुवामेव ' पूर्वमेव-उपवेशनादि क्रियायाः पूर्व ' आसयइ वा' आस्ते उपविशति, 'सबइ वा ' शेते= शयनं करोति, ‘णिसीहइ वा ' निषेधयति-स्वाध्यायं करोति वा । ततः खलु सा पुष्पचूलाऽऽर्या कालीमार्यामेवमवादी-नो खलु कल्पते हे देवाणुपिये ! श्रमणीनां हत्थे धोवइ पाए धोवर, सीस धोवइ मुहं धोवई थणंतराइं धोवइ, कक्खंतराणि धेोवह, गुज्झंतराइं धोवइ, जत्थर वि य णं ठाणं वा सेज्जं . पाणिसीहियं वा चेइए-तं पुत्वामेव अभुक्खेत्ता तओपच्छा आसयइ, वा सयइ वा णिसीहइवा) पार २ हाथों को धेने लग गई, पैरों को धोने लग गई, शिर को धोने लग गई, मुंह को धोने लग गई, स्तनान्तरों को-स्तनों के मध्यभाग को-धोने लग गई, कक्षान्तरों को-कांखो के मध्यभाग को-धोने लग गई, गुह्यभागों को-गुप्तांगों को धोने लग गई। जहां २ वह बैठने का स्थान, शयन, स्थान, स्वाध्याय करने का स्थान नियत करती उसे पहिले से ही वह पानी से सिंचित कर देती-बाद में वह वहां बैठती शयन करती, स्वाध्याय करती, (तएणं सा पुष्फचूला अज्जा कालिं अज्जं एवं वयासी ) उस काली आर्या की इस स्थिति को देखकर पुप्फचूला आर्या ने उसे इस प्रकार कहा-(नो खलु कप्पइ, कक्खंतराणी धोवइ, गुज्झंतराई धोवइ, जत्थ२ वि य गं ठाण वा सेज वा णिसीहियं वा चेएई तं पुवामेव अब्भुक्खेत्ता तओपच्छा आसयइ, वा सयइ वा णिसोहइ वा)
વારંવાર હાથને છેવા લાગી, પગોને દેવા લાગી, માથાને જોવા લાગી, મુખને જોવા લાગી, સ્તનાક્તરને-સ્તનના વચ્ચેના સ્થાનને ધેવા લાગી, કક્ષાં તરોને-બગલોના મધ્ય ભાગને જોવા લાગી, ગુહ્ય ભાગોને-ગુહ્યાંગને ધોવા લાગી. જ્યાં જ્યાં તેને બેસવાનું સ્થાન, શયનસ્થાન, સ્વાધ્યાય કરવાનું સ્થાન નક્કી કરતી તે તેને પહેલેથી જ તે પાણીથી સિંચિત કરી દેતી, ત્યારપછી તે त्या मेसती, शयन ४२ती, २पाध्याय ४२ती. ( तएणं सा पुप्फचूला अजा कालिं अज्ज एवं वयात्री) जी मानित भी स्थिति निधन भुपयू॥ माया તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
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अनंगारधर्मामृतवर्षिणी री० श्रु..२ ३. अ० १ कालीदेवीवर्णनम् ७७ निग्रन्थीनां शरीरवाकुशिका जाताऽसि, यतस्त्वम्-अभीक्ष्णं २ हस्तौ भावसि यावत् ' आसयाहि वा' आस्से-उपविशसि, 'सयाहि वा ' शेषे-मयनं करोषि ‘णीसीहियाहि वा' निषेधयसि-स्वाध्यायं करोषि, 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् त्वं हे देवानुप्रिये ! एतत् स्थानम्- आलोएहि' आलोचय यावत् पायश्चित्तं प्रतिपद्यस्व । मूले-सम्बन्धसामान्ये षष्ठी । ततः खलु सा काली आर्या देवाणुपिया ! समणी णं णिग्गंथीणं सरीरवाउसियाणं होत्तए-तुमं च णं देवाणुप्पिया! मरीरबाउसिया जाया-अभिक्खणं २ इत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा णिसीहियाहि वा तं तुमं देवाणुप्पियाए ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पाच्छित्तं पडिवज्जाहि) हे देवानुप्रिये ! निर्ग्रन्थ श्रमणियों को शरीरवकुश होना कल्पित नहीं हैं। परन्तु तुम तो हे देवानुप्रिये ! शरीरवकुश बन रही हो। बार २ हाथों को धोती हो यावत् जहां तुम्हें उठना बैठना होता है, शयन करना होता है, स्वाध्याय करना होता है उस स्थान को पहिले से ही सिंचित कर लेती हो तब जाकर वहाँ उठती बैठती हो, शयन करती हो, स्वाध्याय करती हो। इसलिये हे देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो। (तएणं सा काली अज्जा पुष्फचूलाए अज्जाए एयमटुं नो आढाइ, जाव तुसिणीया संचिट्ठइ, तएणं ताओ पुष्फचूलाओ
(नो खलु कप्पड़, देवाणुप्पिया ! समणीणं णिग्गंथीणं सरीरवाउसियाणं होत्तए-तुमं च ण देवाणुप्पिया ! सरीर वाउसिया जाया अभिक्खणं २ हत्थे धोवसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा, णिसीहियाहि वा त तुमं देवाणुपिए ! एयस्स ठाणस्स आलोए हि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि)
હે દેવાનુપ્રિયે ! નિથ શ્રમણુઓને શરીરવકુશ થવું કલ્પિત નથી, પરંતુ તમે તે હે દેવાનુપ્રિયે ! શરીરવકુશ થઈ રહી છે. વારંવાર હાથને ધૂઓ છો યાવત્ જયાં તમારે ઉઠવા બેસવાનું હોય છે, સૂવાનું હોય છે, વાધ્યાય કર હોય છે તે સ્થાનને પહેલાં તમે પાણીથી સિંચિત કરી લે છે, અને ત્યારપછી તમે ત્યાં ઉઠે-બેસે છે, સૂવે છે અને સ્વાધ્યાય કરો છે. એથી હે દેવાનુપ્રિયે! તમે આ સ્થાનની આચના કરે યાવત્ પ્રાયશ્ચિત્ત ગ્રહણ કરે.
(तएणं सा काली अग्जा पुष्फलाए अज्जाए एयम? नो आढाइ जाव मुसिणीया संचिदुई, तएणं ताओ पुष्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अजं अभि
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श्रोताधर्मकथा
पुष्पचूलाया आर्यांया एवमर्थ ' नो आढाइ ' मो आद्रियते = न मन्यते यावत् ' सुसिणीया' तूष्णीका =समौना संतिष्ठते । ततः खलु ताः पुष्पचूला आर्याः कालीमाम् 'अभिकवणं २' अभीक्ष्णं २ =वारं वार' 'हीलेंति' हिलन्ति = जन्मकमद्घाटनपूर्वकं निर्भर्त्सयन्ति 'जिंदंति' निन्दन्ति=कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनाद्रियन्ते, 'खिसंति' विसन्ति = हस्तमुखादिविकारपूर्वकमवमन्यन्ते, अपमानं कुर्वन्तीस्पर्थः ' गरिहंति' मन्ते गुर्वादिसमक्षं दोषाविष्करणपूर्वकं तिरस्कुर्वन्ति, 'भवमण्णंति' अवमन्यन्ते= रूक्षवचनादिभिरपमानं कुर्वन्ति, तथा अभीक्ष्णमभीक्ष्णम् वारंवारं एतमर्थ = शरीरसंस्करणरूपं निवारयन्ति । ततः खलु तस्याः काल्या भार्यायाः भ्रमअज्जाओ कालि अज्जं अभिक्खणं २ छीलेंति, जिंदति, खिंसति, गरिहंति अवमण्णंति, अभिक्खणं २ एयमहं निधारेंति, तएण तासे कालीए अज्जाए समणीहिं णिग्गंधीहिं अभिक्खणं २ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूबे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ) उस काली आर्याने पुष्फला आर्या के इस कथन रूप अर्थको नहीं माना। केवल वह यावत् चुपचाप ही रही। उत्तर में जब उसने उनसे कुछ नहीं कहा - तब उस पुष्पचूला आर्या 'होलंति' काली आर्या की बार२ जन्मकर्म उद्घाटन पूर्वक भर्त्सना (तिरस्कार) करना प्रारंभ कर दिया। 'निंदंति' कुत्सित शब्दोच्चारण पूर्वक दोषोद्घाटन करते हुए वे उसकी बार २ निंदा करने लगीं । खिसंति ' हस्त, मुख, आदि के विकार प्रदर्शन पूर्वक वे उसका अपमान करने लग गई । ' गरिहंति ' गुरु आदिजनों के समक्ष दोषों को प्रकट करके वे उसका तिरस्कार करने लगीं । तथा "अवमण्णंति" रूक्षवचन आदि बोल २ कर उसका अपमान भी करने लग गई।
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क्षणं २ हीले ति णिदति, खिसंति, गरिहति अत्रमण्णंति, अभिक्खणं २ एयमट्ट निवारेति, तएण तीसे कालीए अजाए समणीहि णिग्गंधीहि अभिक्खण २ हीलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूबे अज्झत्थिए जाव समुप्प जित्था )
તે કાલી આર્યાએ પુષ્પચૂલા આર્યોના આ કથન રૂપ અર્થના સ્વીકાર કર્યો નહિ ફક્ત તે મૂ`ગી થઇને જ બેસી રહી. જવાબમાં જ્યારે તેણે તેમને કંઈ જ કહ્યું નહિ ત્યારે પુષ્પચૂલા આર્યાએ કાલી આર્યોની વારવાર જન્મ, ક, ઉદ્ઘાટનપૂર્વક ભસના કરવા માંડી. કુત્સિત શબ્દોચ્ચારણથી દોષાઘાટન કરતો તે તેની વારવાર નિંદા કરવા લાગી, હાથ, સુખ વગેરેને વિકૃત કરીને તે તેમનું અપમાન કરવા લાગી. ગુરૂ વગેરેની સામે ઢાષાને પ્રકટ કરીને તે તેમના તિરસ્કાર કરવા લાગી, તેમજ રૂક્ષ વચના વગેરે આલીને તેનું અપમાન પણ કરવા લાગી અને સાથે સાથે તે આર્યા તેને વારંવાર શરીર-સસ્કાર કરવાની મનાઈ પણ કરતી રહી. આ પ્રમાણે નિગ્રંથ શ્રમણીએ વડે વાર વાય
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ममगारधर्मामृतवर्षिणी शे० . २ व. १ अ० १ काली देवीवर्णनम णीभिः निर्ग्रन्थीभिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हिल्यमानायाः यावत् - वार्यमाणाया अबमेश्र्व: ' अज्झत्थिर ' आध्यात्मिकः = आत्मगतविचारः यावत्-मनोगतः सङ्कल्पः समुदपवत यदा खलु अहम् भगारवासमध्ये ' वसित्था' उषितान्यवसं तथा खलु अहं ' सयंबसा ' स्वयंत्रशा = स्वतन्त्रा आसम् (यत्प्रभृति च खलु अहं मुण्डाभूत्वा भगा रात् अनगारितां प्रत्रजिताऽभवं तत्प्रभृति च खळु अहं परवशा जाताऽस्मि तं' तत् तस्मात् श्रेयः खलु मम कल्ये मादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् सूर्ये ज्व छवि सूर्योदये सति' पाडिकं ' प्रत्येकम् = एकमात्र भिनमित्यर्थः, उपाश्रयमुपसंपद्म खलु विहर्तुम् ' तिकटु' इति कृत्वा = इति मनसि निधाय एवं सम्प्रेक्षते, साथ २ में वे आर्या उसे बार २ शरीर संस्कार करने से मना भी करती रही। इस प्रकार उस काली आर्या के निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा बार २ भसित आदि होने पर तथा शरीर संस्कार करने से निषिद्ध होने पर, उसे यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। (जया णं अहं अगारवा समज्झे वसित्था तया णं अहं सयवसा, अप्पिभिरं च णं अहं मुंडा भविता अगाराओ, अनगारियं पव्वपा तप्पभिई व णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं बाउप्पभाषाए रयणीए जाव जलते पाढिक्का वस्सयं उवसंपजित्ताणं विहरितए सिकट एवं संपइ संपेहिता कल्लं जाव जलते पाडिएवक अवस्सथं गिन्छइ ) जब मैं अपने घर के बीच में रहती थी - उस समय मैं स्वतंत्र थी । परन्तु जिस दिन से मंडित होकर अगार अवस्था से इस अनगार अवस्था में आई हूँ उस दिन से मैं परवश- पराधीन बन चुकी हूँ। अतः मुझे वही श्रेयस्कर है कि मैं दूसरे दिन प्रातः काल होते ही जब सूर्यो સિત વગેરે થવાથી તેમજ શરીર સસ્કારની મનાઇ હાવા બદલ તે કાઢી આર્યોને આ જાતના આધ્યાત્મિક ચાવતુ મનેાગત સંકલ્પ ઉદ્ભભવ્યે કે— ( जयाणं भई अगारवास मज्ज्ञे वखित्था तयाणं अई स्वयवस्ता जप्पभि - चणं अह मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिगं पब्वइया तत्यभिइ चणं अहं परवसा जाया त सेयं खलु मम कलं पउप्पभायाए रयणीए जाव जलते पाडिका स्वयं संपत्ति णं बिइरित्तर तिकट्टु एवं संपेरेइ, संपेहिता कल्लं जाव जल पाडिएकं उबस्सयं गिन्हइ )
જ્યારે હું ઘરમાં રહેતી હતી ત્યારે હું સ્વતંત્ર હતી. પરંતુ જ્યારથી મે મુંડિત થઈને અગાર અવસ્થાને ત્યજીને અનગાર અવસ્થા સ્વીકારી છે ત્યારથી હું પરવસ-પાધીન થઇ ગઇ છું. એથી મારા માટે હવે એ જ શ્રેયસ્કર જણાય છે કે હું બીજે દિસે સવાર થતાં જ જ્યારે સૂર્ય ઉદય પામશે ત્યારે
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वाताधर्मकथासूत्रे
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सम्प्रेक्ष्य कल्ये यावत् सूर्ये ज्वलति 'पाडिएकं ' प्रत्येकम् - उपाश्रयं गृह्णाति । तत्र खलु सा ' अणिवारिया' अनिवारिता-निवारकाभावात् ' अणोहट्टिया ' अनवधट्टिका पच्छा प्रवृत्तिप्रतिरोधकाभावात्, अतएव ' सच्छंदमई' स्वच्छन्दमतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति यावत्-आस्ते वा शेते वा निषेधयति वा । ततः खलु साकाली आर्या 'पासत्था ' पार्श्वस्था - गाढ़कारणंविना नित्य पिण्डभोक्त्री, अतएव पार्श्व स्थविहारिणि, ' ओसण्णा' अवसन्ना समाचारपालनेऽवसी
दय हो जावेगा - दूसरे उपाश्रय में चली जाऊँ । इस प्रकार का उसने अपने मन में विचार किया । विचार करके फिर वह दूसरे दिन प्रातः काल होते ही सूर्योदय होने पर दूसरे उपाश्रय में चली गई । (तत्थणं सा अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोबेइ, जाव आसयह वा सयइ वा णीसेहेइ वा-तणं सा काली अज्जा पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछंदा अहाछंदविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सा माoणपरियागं पाउड) वहाँ वह विना रोक टोक, यदृच्छा प्रवृत्ति करने लग गई । इच्छानुसार बार २ हाथ पैर आदि धोने लग गई। उठने बैठने एवं सोने के स्थान को तथा स्वाध्याय भूमि को पहिले से ही पानी से सिञ्चित कर वहां उठने बैठने एवं स्वाध्याय करने लगी । इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से वह काली आर्या पासस्था - गाढकारण के विना नित्य पिण्ड भोक्त्री बन गई, पार्श्वस्थ विहारिणी हो गई । समाचारी
ખીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહું'. આ પ્રમાણે તેણે મનમાં વિચાર કર્યાં. વિચાર કરીને તે ખીજે દિવસે સવાર થતાં જ સૂર્યોદય થયા બાદ બીજા ઉપાશ્રયમાં જતી રહી.
( तत्थणं सा अणिवारिया अणोहड्डिया स्वच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवेइ, जाव आसयइ वा सयइ वा णीसेद्देइ वा तरणं सा काली अज्जा पासस्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहा 'दा अहाछंदविहारी. संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउण इ ) ત્યાં તે રાક-ટોક વિના સ્વચ્છ થઇને પ્રવૃત્તિ કરવા લાગી. ઈચ્છા મુજખ વારવાર હાથ-પગ ધાવા લાગી, ઉઠવા-બેસવા અને સૂવાના સ્થાનને તેમજ સ્વાધ્યાય ભૂમિને પહેલેથી જ પાણી વડે સિંચિત કરીને ત્યાં ઉઠવા બેસવા તેમજ સ્વાધ્યાય કરવા લાગી. આ જાતની સ્વચ્છન્ત પ્રવૃત્તિથી તે કાલી આર્યો પાસસ્થા—ગાઢ કારણ વગર નિત્ય પિંડ લેાત્રી-બની ગઈ, પાર્શ્વથ
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अनगारधामृतवषिणी टी० श्रु. २ व. १ ० १ कालीदेवीवर्णनम् ८१. दन्ती, अतएव अवसन्नविहारिणी, 'कुसीला ' कुशीला-उत्तरगुणसेवया संज्वलनकषायोदये प्रवृत्ता, अतएव कुशीलविहारिणी, 'अहाच्छंदा' यथाच्छन्दास्वाभिप्रायपूर्वकस्वमति कल्पितमार्गे प्रवृत्ता, अतएव यथा छन्दविहारिणी, 'संसत्ता' संसक्ता गृहस्थादिप्रेमबन्धनेन शिथिलसामाचारीप्रवृत्ता सती बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्द्ध मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं 'झूसेइ ' जोषयति-सेवते, झूसित्ता-जोपयित्वा त्रिंशद् भक्तानि 'अणसणाए ' अनशनया 'छेएइ' छिनत्ति, छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽ प्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा चमरचञ्चायां राजधान्यां कालावतंसके भवने उपपातसभायां देवशयनीये देवदृष्यान्तरिते = देवदूष्यवस्त्राच्छादिते अङ्गुलस्याऽसंख्येयभागमात्रायामवगाहनायां कालीदेवीतया उपपन्ना । ततः खलु सा कालीदेवी अधुनोपालन करने में शिथिलता दिखलाने लगी-अवसन्न विहारिणी हो गई। कुशीला बन गई-संज्वलन कषाय के उदय होने से उत्तरगुणों की विराधना करने लगी-कुशील विहारिणी हो गई और अपनी इच्छानुसार मार्ग की कल्पना कर उसमें प्रवृत्त रहने लग गई-इसलिये वह यथाच्छन्द विहारिणी भी धन गई । गृहस्थ आदि जनों के अधिक परिचयजन्य प्रेमबंधन से अपने आचार पालन में शिथिल बनी हुई उसने इस तरह होकर अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और (पाउणित्ता) पालन कर (अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताण झुसेह, झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेइत्ता, तस्स ठाणस्स अणा. लोइय अपडिक्कंत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालवर्डिएस भवणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलવિહારિણી થઈ ગઈ. સમાચારી પાલન કરવામાં શિથિલતાવાળી બતાવવા લાગીઅવસગ્ન વિહારિણી થઈ ગઈ. કુશીલા થઈ ગઈ, સંજવલન કષાયને ઉદય હોવાથી ઉત્તર ગુણેની વિરાધના કરવા લાગી, કુશિલ વિહારિણી થઈ ગઈ અને પિતાની ઈચ્છા મુજબ માગની કલ્પના કરીને તેમાં પ્રવૃત્ત થવા લાગી, એથી તે યથાસ્કન્દ વિહારિણી પણ બની ગઈ. ગૃહસ્થ વગેરે લેકેના વધારે પડતા પરિચયજન્ય પ્રેમબંધનથી પિતાના આચાર પાલનમાં શિથિલ થઈ ગઈ. તેણે આ પ્રમાણે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય-પર્યાયનું પાલન કર્યું અને (पउणित्ता ) पासन रीन
( अद्धमासियाए संलेहणार अत्ताणं झूसेइ, झूसिवा तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेइत्ता, तस्स ठाणास अणालोइयअपडिव कंत्ता कालमासे कालं किच्चा पमर
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ताधर्मकथाजस्त्र पपन्ना-तत्कालसमुत्पन्नासती पञ्चविधयापर्याप्त्या यथामूर्याभः सूर्याभदेववत् , 'जाव भासामणपज्जत्तीए' भाषामन.पर्याप्स्या-यावत्-आहारपर्याप्त्या १, शरीरपर्याप्त्या २, इन्द्रियपर्याप्त्या ३, आनप्राणपर्याप्त्या ४, भाषामनः पर्याप्त्या ५, पर्याप्तिभावं गच्छति । पर्याप्तिबन्धकाले देवानामाहारशरीरादिपर्याप्तिसमाप्तिकालान्तरापेक्षया भाषामनः पर्याप्त्योः स्तोककालान्तरतया तयोरेकस्वेन विवक्षणात् पर्याप्तीनां पञ्चविधत्वम् । ततः खलु सा काली देवी चतसृणां सामानिकसाहस्त्रीणां यावत्-अन्येषां च बहूनां कालावतंसकमवनवासिनामसुरकुमारणां स्स असंखेजइ, भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवीसए उववण्णा) अर्द्धमास की संलेखना से उसने अपनी आत्मा को युक्त किया। इस प्रकार उसने अनशनों द्वारा ३०भक्तोंका छेदन करने पर भी उस स्थानकी आलोचना नहीं की और न वह उन अतिचारों से पीछे ही हटी-अतः अनालोचित अप्रतिक्रान्त बनकर वह जब उस काल अवसर-काल कर चमरचंपा नाम की राजधानी में, कालावतंसक भवनमें, उपातातसभामें देवदूष्यवस्त्रसे आच्छादितदेवशयनीय शय्या' ऊपर अंगुलके असंख्यातवे मात्र की अवगाहना से काली देवी के रूप में उत्पन्न हो गई (तएणं सा कालीदेवी अहुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पजत्तीए जहा सूरियामो जाव भासामणपज्जत्तीए ०! तएणं सा कालीदेवी चउण्हं समाणि य साहस्सी णं अण्णेसिं च यहण कालवडेंसकभवणवासीणं असुरकुमाराणं
चंचाए रायहाणीए कालवडिसए भवणे उखवायसभाए देवसयणिज्जंत्री देवदूसं. तरिए अंगुलस्स असंखेज्जइ, भागमे साए ओगाहणाए कालीदेवीत्तए उववण्णा)
તેણે અદ્ધમાસની સંખનાથી પિતાના આત્માને યુકત કર્યો. આ પ્રમાણે તેણે અનશને વડે ૩૦ ભક્તોનું છેદન કરીને પણ તે સ્થાનની આલોચના કરી નહિ અને તે અતિચારોના આચરણથી પણ અટકી નહિ. એથી અનાચિત અપ્રતિકાંત થઈને તે જ્યારે કાળ અવસરે કાળ કરીને અમરચંચા નામની રાજધાનીમાં કાલાવતંસક ભવનમાં, ઉપપાત સભામાં દેવદૂષ્ય વાથી આચ્છાદિત દેવશનીય ઉપર આંગળીઓના અસંખ્યાતમાં માત્રની અવગાહનાથી કાલી દેવીના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ ગઈ.
(तएणं सा काली देवी अहुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पज्जतीए जहा सूरियाभो जाव भासमणपज्जत्तीए । तएणं सा काली देवी चउण्ह सामाणिवताहस्सीणं जाव अण्णेसिं च बहूर्ण कालवडें सकभवणवासी णं असुरकुमा. राणं देवाण य देवीणय आहेवचं जाव विहरइ)
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मेनगारधर्मामृतषिणी टी0 श्रु. २ व. १ म० १ कालीदेवावर्णनम् देवानां च देवीनां च ' आहेबच्च' आधिपत्यं स्वामित्वं कुर्वन्तीपालयन्ती यावद् विहरति ।
एवम्-उक्तप्रकारेण खलु हे गौतम ! काल्या देव्या सा दिव्या देवर्द्धिः ३, लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता।
गौतमः पृच्छति-काल्या खलु हे भदन्त ! देव्यास्तत्र ' केवइयं ' कियन्तं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहर इ ) इस प्रकार वह काली देवी अभी अभी उत्पन्न होकर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बनी है। पर्याप्तियां ६ होती हैं परन्तु यहां पर जो वे पांच की संख्या में निर्दिष्ट हुई हैं-उसका कारण यह है कि पर्याप्ति के बंधकाल में देवों के आहार, शरीर आदि पर्याप्तियों के समाप्तिकाल की अपेक्षा भाषा और मनः पर्याय का साथ साथ बंध होता है, इसलिये इन दोनों को एक रूप से यहां विवक्षित किया गया है । वे पर्याप्तियां इस प्रकार है- (१) आहारपर्याप्ति (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रियपर्याप्ति (४) श्वासोच्छ्रवासपर्याप्ति (५) भाषा एवं मनः पर्याप्ति। वह काली देवी चार हजार सामानिक देवोंका यावत् और दूसरे अनेक कालावतंसक भवनवासी असुरकुमार देवों का देवियों का आधिपत्य कर रही है। (एवं खलु गोयमा! कालीए देवीए सा दिव्वा देवड़ी ३ लद्धापत्ता अभिसमण्णा गया,
આ પ્રમાણે તે કાલી દેવી હમણાં જ ઉત્પન્ન થઈને પાંચ પ્રકારની પર્યાસિઓથી પર્યાપ્ત બની છે. પથતિએ છ હોય છે. પણ અહીં જે પાંચની સંખ્યામાં જ બતાવવામાં આવી છે. તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે પર્યાપ્તિના બંધકાલમાં દેવના આહાર, શરીર વગેરે પર્યાપ્તિઓના સમાપ્તિકાળની અપેક્ષા ભાષા અને મનઃ પર્યાતિનું એકી સાથે બંધ હોય છે એથી આ બંનેને અહીં એક રૂપમાં જ બતાવવામાં આવી છે. તે પર્યાપ્તિઓ આ પ્રમાણે છે(१) मा २ पति, (२) शरी२ ५ति , (3) ४न्द्रिय पर्याप्ति, (४) श्वास
વાસ પર્યાપ્તિ, (૫) ભાષા અને મનઃ પર્યાપ્તિ. તે કાલી દેવી ચાર હજાર સામાનિક દેવે ઉપર યથાવત્ બીજા પણ ઘણું કાલાવતંસક ભવનવાસી અસુર કુમાર દેવ, દેવીઓ ઉપર શાસન કરી રહી છે.
( एवं स्खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिया देविड्ढी ३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए गं भवे ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा अवढा इज्जाई पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता )
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माताधर्मकथाङ्गसूत्र कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? भगवानमाह-हे गौतम ! ' अड्राइज्जाई' अर्द्धतृतीये सार्द्ध द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । ___ गौतमः पृच्छति-काली हे भदन्त ! देवी तस्माद्देवलोकाद् अनन्तरम् आयुभवस्थितिक्षयानन्तरं 'उबट्टित्ता' उदृत्य-निस्सृत्य कुत्र गमिष्यति कुत्रउत्पत्स्यते ?।
भगवानाह-हे गौतम ! सा काली देवी देवलोकाच्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे उत्पध सेत्स्यति । कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पगत्ता ? गोयमा अदाइ. जजाई पलिओवमाई ठिईपण्णत्ता) इस तरह से हे गौतम ! काली देवी ने वह दिव्य देवर्द्धि ३, अर्जित की है स्वाधीन की है और उसे अपने उपभोग के योग्य बनाया है। अब गौतम पुनः प्रभु से पूछते हैं-कि हे भदंत ! कालीदेवी की कितनी स्थिति है ? उत्तर में प्रभु ने उनसे कहा-हे गौतम ! कालीदेवी की स्थिति अढाई पल्य की (प्रज्ञप्त हुई ) है (काली णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उवहित्ता कहिं गच्छहिइ, कहिं उववज्जिहिइ, ? गोयमा! महाविदेहेवासे सिन्झिहिइ एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि, धम्मकहाणं पढमज्झयणं समतं) हे भदंत ! कालीदेवी उस देवलोक से आयु एवं भवस्थिति के क्षय के अनन्तर निकलकर कहां जावेगी, कहां उत्पन्न होगी? इस गौतम के प्रश्न का उत्तर प्रभु ने उन्हें इस प्रकार दिया-गौतम ! वह काली देवी देवलोक से चव कर महा
આ પ્રમાણે હે ગૌતમ! કાલી દેવીએ તે દિવ્ય દેવદ્ધિ ૩ પ્રાપ્ત કરી છે. સ્વાધીન બનાવી છે અને તેને પોતાને માટે ઉપગ ગ્ય બનાવી છે. હવે ગૌતમ ફરી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! કાલી દેવીની સ્થિતિ કેટલી જવાબમાં પ્રભુએ તેમને કહ્યું કે હે ગૌતમ! કાલી દેવીની સ્થિતિ અઢી પલ્યની (प्रशस थर्ड) छे.
( कालीणं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतर उअद्वित्ता कहि गच्छि. हिइ, कहि उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्ज्ञि हिइ, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव सपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झ यणस्स अयमद्वे पण्णत्ते त्ति बेमि, धम्मकहाणं पढमज्झयणं समत्तं )
હે ભદન્ત ! કાલી દેવી તે દેવકથી આયુ અને ભવસ્થિતિને પૂરી કરીને કયાં જશે? કયાં ઉત્પન્ન થશે? આ પ્રમાણે ગૌતમના પ્રશ્નને સાંભળીને પ્રભુએ ઉત્તરમાં તેને કહ્યું કે હે ગૌતમ! તે કાલી દેવી દેવકથી ચવીને
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मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका श्रु. २ व. १ अ० १ काली देवीवर्णनम्
८०५
श्रीसुधर्मास्वामी माह एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत् - मोक्षं सम्प्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्य अयमर्थः = पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः । त्तिवेमि ' इति ब्रवीमि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू०४ ॥
॥ धर्मकथानां प्रथमवर्गस्य प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥
विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और वहीं से सिद्ध होगी। अब सुधर्मा स्वामी श्री जंबू ! स्वामी से कहते हैं कि हे जंबू ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रज्ञप्त किया है । ऐसा मैंने उन्हीं के मुख से सुनकर यह तुमसे कहा है | सूत्र ४ ॥
-: प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त:
મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ્ધ થશે. હવે સુધર્માં સ્વામી શ્રી જ'બૂ ! સ્વામીને કહે છે કે હું જબૂ! મુક્તિપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહા વીરે પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યાં છે. આવું હું તેમના શ્રી મુખથી સાંભળીને તમને કહી ગયા છું. ॥ સૂત્ર ૪ ૫ " प्रथम वर्गनुं प्रथम अध्ययन समाप्त. "
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अथ द्वितीयमध्ययनं प्रारभ्यतेमूलम्-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते बिइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवीचमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेव आगया गट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया भंतेत्ति भगवं गोयमा! पुष्वभवपुच्छा, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया राई गाहावई राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समोसरणं राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खंता तहेव सरीरबाउसिया तं चेव सव्वं जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! बिइयज्झयणस्स निक्खेवओ ॥
॥ पढमवग्गस्स बीयज्झयणं समत्तं ॥ सू० ५॥ टीका-'जइणं भंते ' इत्यादि । जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ।
-द्वितीय अध्ययन प्रारंभः-जइणं भंते ! समणेणं इत्यादि ।
टीकार्थः-जंबू स्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि (भंते ) हे भदंत ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं
બીજું અધ્યયન પ્રારંભ जइणं भंते ! समणेणं इत्यादिAt-भू स्वामी श्री सुषमा स्वाभान पूछे छे है (भते) 3 महन्त ! (जइणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स
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मनगारधर्मामृतवषिणी टी० श्रु. २ व. १ ० २ रात्रीदेवीवर्णनम् १०७ श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगतिनाममधेयं स्थानं सम्पाप्तन धर्मकथानां प्रथमस्य वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्थ पूर्वोक्तो भावः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन भगरता महावीरेण यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽर्थः = को भावः प्रज्ञप्तः ? ___ मुधर्मास्वामीमाह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । स्वामी भगवान महावीरः समवसृतः । परिषपढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते विइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गयरे गुणसिलए चेहए सामी समोसढे) यदि श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो चुके हैं धम्मकथाके प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है-तो हे भदंत ! द्वितीय अध्ययन का उन्हीं श्रमण भगवान महावीर ने जो कि मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू! सुनो -तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था। उसमें महावीर स्वामी समवसरे ।-(परिसा निग्गया-जाव पज्जुवासइ, नग्गस्स पढमज्झयणस्त अयमढे पण्णत्ते विइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ? तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे )
જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર–કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે. ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત રૂપમાં અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે તે હે ભદન્ત ! તે જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિસ્થાન મેળવી લીધું છે. બીજા અધ્યયનને શો ભાવ-અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું તેમાં ગુરુશિલક નામે ઉઘાન હતું તેમાં મહાવીર સ્વામી પધાર્યા.
( परिसा निग्गया-जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी
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e
ज्ञाताधर्मकथा
निर्गता यावत् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' राई ' रात्रिःराजिनाम्नी देवी चमरचश्चायां राजधान्याम्, एवं यथा काली तथैव- आगता, नाट्यविधिमुपद प्रतिगता । ' भंते त्ति ' हे भदन्त । इति सम्बोध्य भगवान् गौतमः ' पुण्यभवपुच्छा ' पूर्वभवपृच्छा रात्रि देव्याः पूर्वभवं पृच्छति । भगवान् प्राह - एवं खलु हे गौतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आमलकल्पा नगरी, आम्रशालवनं चैत्यम्, जितशत्रू राजा, रात्रिर्गाथापतिः, रात्रिश्रीर्भार्या तयोः
तेणं काळेणं तेणं समएणं राई देवी चमर चंचाए रायहाणीए एवं जहा काळी - तहेव आ गया नहविहिं उवसेत्ता पडिगया) प्रभु का आगमन सुनकर नगर निवासिनी समस्त जनता उन प्रभु के दर्शन करने और उनसे धर्मोपदेश सुनने के लिये उस गुणशिलक उद्यान में आई ! प्रभु ने सब को धर्म का उपदेश दिया । सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में रात्रिनाम की देवी चमरचंचाराजधानी में रहती थी जैसे वहां काली देवी रहती थी। सो वह भी प्रभु का आगमन सुनकर वहां आई। वहां आकर उसने नाटय विधि दिखलाई और दिखलाकर फिर वह वहां से वापिस अपने स्थान पर चली गई । ( भंते त्ति भगवं गोयमा ! पुग्वभवपुच्छा एवं खलु गोयमा ! तेणं काळेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी अंबसालबणे चेहए - जियसत्तू राया राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली - तदेव आगया नट्टविहिं उनंदसेत्ता पडिगया )
પ્રભુનું આગમન સાંભળીને નગરના બધા નાગરિકજને તે પ્રભુનાં દર્શન કરવા માટે તેમજ તેમની પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે તે ગુણુશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. પ્રભુએ ખધાને ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા. બધાએ પ્રભુની પર્યુંપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે રાત્રિ નામે દેવી ચમરચચા રાજ ધાનીમાં કાલી દેવીની જેમ રહેતી હતી. તે પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તેણે નાટયવિવિધ બતાવી અને ખતાવીને તે ત્યાંથી પાછી જતી રહી.
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( भंते त्ति भगवं गोयमा ! पुत्रभवपृच्छा-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेइए - जियसत्तू : राया - राई गाहावई, रायसिरी भारिया, राई दारिया, पासस्स समोसरणं - राई दारिया
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० श्रु०२ ० १ अ० २ रात्रीदेवीवर्णनम् रात्रिर्दारिकाऽऽसीत् । पार्श्वस्य = पार्श्वप्रभोः समवसरणम् । रात्रिर्दारिका यथैव काली तथैव निष्क्रान्ता तथैव शरीरवाकुशिका, तदेव सर्वं यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति ।
दारिया पासस्स समोसरणं राई दारिया जहेब काली- तर्हेव निक्खता, तदेवसरीर बाउसिया तं चैव सव्वं जाव अंतं काहिह एवं खलु जंबू | विइयज्झयणस्स निक्खेवओ ) उसके चले जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर से गौतम ने रात्रिदेवी का पूर्वभव पूछा- प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा- हे गौतम! उसकाल और उस समय में आमलकल्पा नामकी नगरी थी । उसमें आम्रशालवन नामका उद्यान था। नगरीके राजा का नाम जितशत्रु था। वहां रत्रि नामका एक गाथापति रहता था । उस की भार्या का नाम रात्रिश्री था। इन दोनों के रात्रि नाम की एक पुत्री थी जिस प्रकार काली प्रभु का उपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई थी । - उसी प्रकार पार्श्वनाथ के वहां उद्यान में आने पर भी उनसे धर्मोपदेश सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो गई । अतः वह माता पिता से आज्ञा लेकर काली की तरह बड़े टाउ बाट के साथ शिबिका में बैठाकर प्रभु के समीप माता पिता ले गये। वहां वह दीक्षित हो गइ | धीरे २ वह शरीर बाकुशिका बनगई । जिस प्रकार
जब काली - तव निक्खता, तहेब सरीरबाउसिया तं चैव सव्वं जाव अंतं काहि एवं खलु जंबू ! विश्यज्झयणस्स निक्खेचओ )
તેના ગયા ખાદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમે રાત્રિ દેવીના પૂર્વ ભવની વિગત પૂછી. પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ગૌતમ ! તે કાળે અને તે સમયે આમલકલ્પા નામે નગરી હતી. તેમાં આમ્રશાલવન નામે ઉદ્યાન હતું. નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. ત્યાં રાત્રિ નામે એક ગાથાપતિ રહેતા હતા. તેની પત્નીનું નામ રાત્રિશ્રી હતું. તેએ બંનેને રાત્રિ નામે એક પુત્રી હતી. જેમ કાલી પ્રભુના ઉપદેશ શ્રવણુ કરીને પ્રતિબંધને પ્રાપ્ત થઇ તેમજ ત્યાં ઉદ્યાનમાં પધારેલા પાર્શ્વનાથની પાસેથી ધર્માંપદેશ સાંભળીને તે પણ પ્રતિપ્રેષિત થઇ ગઈ. એથી કાલીની જેમજ તેને પશુ પેાતાના માતાપિતાની પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને ત્યારપછી તેના માતાપિતાએ તેને પાલખીમાં બેસાડીને પ્રભુની પાસે લઈ ગયા, ત્યાં તે દીક્ષિત થઈ ગઈ. ધીમે ધીમે તે પણુ શરીર બાકુશિકા બની ગઇ. જેમ કાલી દારિકા પણ આર્યો થઇને શરીર વાકુશિકા બની ગઈ હતી. ત્યારપછી જેવી સ્થિતિ કાલી આર્યોની
त्र १०२
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'वं खलु जम्बू!' इत्यादि द्वितीयाध्ययनस्य तिक्षेपका उपसंहारः समाप्तिवाक्यप्रबन्धोऽत्र बोध्यः ॥ सू०५ ।। ____ इति प्रथमवर्गस्य द्वितीयाध्ययनं समाप्तम् ॥-१-२ ॥ काली दारिका आर्या होकर शरीर वाकुशिका बनगई थी। इसके बाद जैसी स्थिति काली आर्या की हुई-वहो सब स्थिति इस रात्रि दारिका की भी हुई-इस प्रकार सब संवन्ध यहां पर इसके विषय में लगालेना चाहिये और वह संबन्ध "महाविदेह में उत्पन्न होकर यह समस्त दुःखों का अन्त करेगी “ यहां तक जानना चाहिये । इस प्रकार हे जंबू! यह प्रथमवर्ग के द्वितीय अध्ययन का उपसंहार है ॥ सू०५॥
प्रथमवर्ग का द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ થઈ તેવી જ સ્થિતિ તે રાત્રિદારિકાની પણ થઈ. અહીં આ પ્રમાણે કાલિદારિકાને બધે સંબંધ આના વિષે સમજી લે જોઈએ અને તે સંબંધ “મહાવિદેહમાં ઉત્પન્ન થઈને તે બધા દુઃખને અંત કરશે ” અહીં સુધી સમજ જોઈએ. આ પ્રમાણે છે જબૂ! પ્રથમ વર્ગના બીજા અધ્યયનને આ ઉપસંહાર છે. સૂ. ૫
"प्रथम तुं भी अध्ययन समात"
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अथ तृतीयमध्ययनम्
मूलम् - जइ णं भंते ! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खल जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए वेंइए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावई रयणीसिरी भारियां रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहि ३ । एवं विज्जू वि आमलकप्पा नयरी विज्जुगाहावई विज्जुसिरीभारिया विज्जुदारिया सेसं तहेव । ४ एवं मेहा वि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई मेहसिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तव ५ । एवं खलु जंबू ! समणेर्ण जाव संपत्तेर्ण धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ सू० ६ ॥
टीका-' जणं भंते ' इत्यादि । यदि खलु भदन्त । इत्यादि तृतीयाध्ययनस्य उत्क्षेपकः = जम्बूमनादिरूपः मारम्भवाक्यप्रबन्धोऽत्रवाच्यः । सुधर्मास्वामी कथ ॥ तृतीय अध्ययन प्रारंभ ॥
( जहणं ते! तइयज्झ घणस्स उक्खेवओ) इत्यादि ।
टीकार्थ :- ( जइणं भंते! तहयज्झयणस्स उक्खेवओ) अब जंबू स्वामी पुनः पूछते हैं कि हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने द्वितीय अध्ययन का यह पूर्वोक्तरूप से अर्थ निरूपित किया हैं-तो तृतीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? इस तरह से इस तृतीय अध्ययन का जंबू स्वामी का यह प्रश्न आदिरूप वाक्य प्रबन्ध उत्क्षेपक है-प्रारंभक है - इस प्रश्न का उत्तर श्री सुधर्मा स्वामी ત્રીજું અધ્યયન પ્રારંભઃ
"
जइण भते ! तइयज्झयणस्स उक्खेवओ' इत्यादि -
टीडार्थ - ( जइण भते ! तइयज्ज्ञयणस्स उम्खेवओ ) हवे ४ स्वाभी ફરી પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જો શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ખીજા અધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપે અથ નિરૂપિત કર્યો છે તે ત્રીજા અધ્યયનના તેમણે શે અથ પ્રતિપાહિત કર્યાં છે ? આ પ્રમાણે આ ત્રીજા અધ્યયનના જમ્મૂ સ્વામીના આ પ્રશ્ન વગેરે રૂપ વાકય પ્રમધ ઉત્સેપક છે-પ્રારભ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તર શ્રી સુધર્માવામી આ પ્રમાણે આપે છે કે
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2૧૨
জানাঘাথায় यति-एवं खलु हे जम्बुः ! राजगृहं नगरं, गुणशिलकं चैत्यम् । एवं यथैव रात्रिस्तथैवरजनी अपि, नवरम् आमलाल्पा नगरी, रजनीगाथापतिः, रजनीश्री र्या, रजनी दाारिका । शेषं तथैव । यावत्-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति ।।
॥ इति प्रथमवर्गस्य तृतीयाध्ययनम् ॥ १-३ ॥ इस प्रकार से देते हैं-(एवं खलु जंबू ! रायगिहे जयरे गुणसिलए चेहए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, णवरं आमलकप्पा नयरी, रयणी गाहावई रयणीसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिइ ३ ) जंबू ! सुनो-उस काल में और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसमें गुणशिलक नामका उद्यान था। जिस प्रकार रात्रि प्रभु का आगमन सुनकर गुणशिलक उद्यान में गई थी उसी तरह रजनी भी वहां गई उसने प्रभु के मुख से धर्म का उपदेश सुना। सुनकर संसार शरीर और भोगों से वह विरक्त हो गई । दीक्षा लेने का अपना भाव उसने प्रभु से निवेदित किया। प्रभुने यथासुखं देवानुप्रिये कहकर उसके भाव की सराहना करतेहुए 'शुभस्य शीघ्र' करने की अपनी अनुमति प्रकट की-तब यह घर आई और मातासे अपना दीक्षा लेने का विचार प्रकट किया-इत्यादि सब संबन्ध काली दारिका के कथानक अनुसार रजनी के साथ लगालेना चाहिये । जब रजनी देवी प्रभु को वंदना करनेके लिये गुगशिलक उद्यान में आई और वहां
( एवं खलु जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेव राई तहेव रयणी वि णवरं ओमलकप्पा नयरी, रयणी-गाहावई रथणोसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहि ३ )
હે જબ! સાંભળે, તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉદ્યાન હતું. જેમાં રાત્રિ પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં ગઈ હતી તેમજ રજની પણ ત્યાં ગઈ. તેણે પ્રભુના મુખથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળે. સાંભળીને તે સંસાર, શરીર અને ગોથી વિરકત થઈ ગઈ. તેણે પિતાને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને ભાવ પ્રભુની સામે પ્રકટ કર્યો. પ્રભુએ “યથાસુખમ” દેવાનુપ્રિયે ! કહીને તેના ભાવની સરાહના કરી અને શુભ કાર્યમાં વિલંબ કરો નહિ એવી પિતાની અનુમતી દર્શાવી. ત્યારે તે પિતાને ઘેર આવી અને માતાપિતાની સામે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાને વિચાર પ્રકટ કર્યો–વગેરે બધી વિગત કાલી દારિકાની જેમજ રજનિની સાથે પણ સમજી લેવી જોઈએ. જ્યારે રજનીદેવી પ્રભુને વંદના કરવા માટે ગુણશિક્ષક ઉદ્યાનમાં આવી અને ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું. ત્યારબાદ
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी गेका श्रु. २ व.१ रजनीदारिकादिचरित्रनिरूपणम् ८१३ __ 'एवं विवि ' इत्यादि । एवं विद्युदपि । आमलकल्पा नगरी, विद्युद् गाथापति , विद्युत् श्री र्या, विद्युदारिका । शेषं तथैव ।
इति प्रथमवर्गस्य चतुर्थाध्ययनम् ॥ १-४ ॥ उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया बाद में वह जब वहां से प्रभु की पर्युपासना कर वापिस अपने स्थान पर चली गई-तब प्रभु से गौतम गणधर ने उसके पूर्व भव पूछे तब प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-उस काल और उस समय में आमलक कल्पा नामकी नगरी थी-उसमें रजनी नामका गाथापति रहता था। रजनी श्री उसकी भोर्या का नाम था।इन दोनों के एक पुत्री जिसका नाम रजनी था। इसके विषय का अवशिष्ट कथानक " समस्त दुःखो का यह अन्त करेगी" यहां तक का काली दारिका के जैसा ही जानना चाहिये ॥ सू०६॥
॥प्रथम वर्ग का तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ एवं विज्जूवि आमलकप्पा नयरी विज्जू गाहावई ॥ विज्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेसं तहेव ॥ ४ ॥ एवं मेहावि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई ॥ मेहासिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ॥५॥ (एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं पढमस्स वग्गપ્રભુની પર્યાપાસના કરીને પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી ત્યારે ગૌતમ ગણ ધરે પ્રભુને તેના પૂર્વ પૂગ્યા. ત્યારે પ્રભુએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે તે કાળે અને તે સમયે આમલકલપા નામે નગરી હતી, તેમાં રજની નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો, રજની શ્રી તેની પત્નીનું નામ હતું. તેઓ બંનેને એક પુત્રી હતી–જેનું નામ રજની હતું. એના વિષેની બાકીની બધી વિગત
સમસ્ત દુખોને તે અન્ત કરશે” અહીં સુધીની કાલી દારિકાની જેમજ સમજી લેવી જોઈએ. એ સૂત્ર ૬ છે
" प्रथम वर्नु alag मध्ययन सभात ॥ ( एवं विज्जूवि आमलकप्पा नयरी विज्जु गाहावई । विज्जुसिरीभार्या विज्जुदारिया, सेसं तहेव ॥ ४ ॥ एवं मेहा वि आमलकपाए नयरीए मेहे गाहावई । मेहासिरी भारिया मेहा दारिया सेसं तहेच ॥ ५॥
( एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्पत्ते ६)
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D
भाताधर्मकथा एवं मेहावि ' इत्यादि । एवं मेघाऽपि । आमलकल्पायां नगर्यां मेघो गाथापतिः, मेघश्रीर्भार्या, मेघा दारिका । शेषं तथैव । __श्रीसुधर्मास्वामीमाह-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकथाना प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः ॥ सू०६ ॥
॥ इति प्रथमवर्गस्य पश्चमाध्ययनम् ॥ १-५ ॥ अथ द्वितीयो वर्गः प्रारभ्यते-' जइणं भंते ' इत्यादि।
मूलम् -जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्त वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स स्स अयमढे पण्णत्ते ६) इसी तरह का कथानक विद्युत के विषय में भी जानना चाहिये। आमलकल्पा नगरी विद्युत गाथापति विद्युत् श्री भार्या इन दोनों के यहां विधुत् दारिका। इस तरह नाम आदि में ही परिव. तन हुआ है। अभिधेय विषय में कुछ अन्तर नहीं है। मेघ के विषय में भी यही बात जाननी चाहिये । आमलकल्प- नगरी, मेघ गाथापति, मेघ श्री भार्या, मेघा दारिका-इस प्रकार इस कथानक में इन नामों में परिवर्तन हुआ है-अभिधेय वक्तव्य-विषय में नहीं। इस प्रकार यहां तक प्रथम वर्ग के ५, अध्ययन समाप्त हो जाते हैं । विद्युद्दारिका का अध्ययन ४ चौथा, एवं मेघा दारिका का अध्ययन ५ पंचम है। इस तरह हे जंबू! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो मुक्ति स्थान के अधि पति बन चुके हैं धर्मकथा के प्रथमवर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है ?
આ પ્રમાણેનું જ કથાનક વિદ્યુતના વિષે પણ સમજી લેવું જોઈએ. આમલકા નગરી, વિદ્યુત ગાથા પતિ અને વિદ્યુત શ્રી ભાર્યા. આ બંનેને ત્યાં વિદ્યુત દારિકા, આ પ્રમાણે ફક્ત નામ વગેરેમાં પરિવર્તન થયું છે. અભિધેય વિષયમાં કેઈ પણ જાતને તફાવત નથી. મેઘના વિષે પણ એ જ વાત સમજી લેવી જોઈએ. આમલકપા નગરી, મેઘ ગાથાપતિ, મેઘ શ્રી ભાર્યા, મેઘ દારિકા. આ પ્રમાણે આ કથાનકમાં પણ નામમાં જ પરિવર્તન થયું છે-અભિધેય વક્તવ્ય વિષયમાં નહિ. આ પ્રમાણે અહીં સુધી પ્રથમ વર્ગના પાંચ અધ્યયન પુરા થઈ જાય છે. વિઘુદ્દારિકાનું અધ્યયન ચોથું, અને મેઘ દારિકાનું અધ્યયન પાંયમે છે. આ પ્રમાણે જ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ મુકિત સ્થાનના અધિપતિ થઈ ચૂકયા છે—ધર્મકથાના પ્રથમ વર્ગને આ અર્થ इपित छ ॥ ॥
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अमगारधामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ ३०१ शुभानिशुंभाविदेवीवर्णनम् १५ वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-सुंभा निसुंभा रंभा निरंभा मयणा, जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दोच्चस्त वग्गरस पंच अज्झयणा पण्णता, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?, एवं खल्लु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा जिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सुंभादेवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासणंसि कालीगमएणं जाव णट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगया, पुठवभवपुच्छा, सावत्थी णयरी कोटुए बेइए जियसत्तू राया सुंभेगाहावई सुंभसिरी भारिया सुंभा दारिया सेसं जहा कालीए णवरं अधुटाइं पलिओवमाइं ठिई एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्स एवं सेसावि चत्तारि अज्झयणा सावत्थीए नवरं माया पिया सरिसनामया, एवं खल्लु जंबू ! निक्खेवओ बिईयवग्गस्स२ ॥ सू० ७ ॥
॥बीओ वग्गो समत्तो ॥ टीका-जम्बूस्वामीपृच्छति-यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मास्वामीपाह-एवं खलु हे जम्बूः श्रमणेन यावत्
-दितीयवर्गप्रारंभः'जइणं भंते ! समणेणं' इत्यादि ।
टीकार्थ:-जंबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि (भंते ! जाणं समणेणं जाव संपत्तणं दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ-एवं खलु
भी 4 प्रार' जइण भाते ! समणेण ' इत्यादिટકાથ–બૂ સ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે– ( भंते ! जइणं समयेणं जाव संपत्तेणं दोबस्स वग्मस्स उक्खेरओ-एवं खलु
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I
nition
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हाताधर्मकथा मोक्ष सम्पाप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पश्चाध्ययनानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-शुम्भा १, निशुम्भा २, रम्भा ३, निरम्भा ४, मदना ५, । यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन योवत्सम्प्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्य पञ्च-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयस्य खलु हे भदन्त । वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मास्वामी प्राह-एवं जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता) हे भदंत! मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने द्वितीय वर्ग का उत्क्षेपक प्रारंभ किस रूप से प्ररूपित किया है-तब सुधर्मा स्वामी ने उनसे कहा-हे जंबू! सुनो यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए उन श्रमण भगवान महावीर ने इस द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा मयणा, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तण धम्मकहाणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्जयणा पण्णत्ता, दोचस्सणं भंते वग्गस्स पढमज्झयणस्सके अढे एण्णत्ते? एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवा. सइ) (१) शुम्भा, (२) निशुंभा (३) रम्भा, (४) निरंभा (५) मदना, । अप जंबू स्वामी पुन: सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भदंत ! यदि यावत् मुक्ति स्थान को प्राप्त हुए श्रमग भगवान महावीरने द्वितीयवर्ग जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंचअज्झयणा पणत्ता )
હે ભદન્ત ! મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે બીજા વર્ગને ઉક્ષેપક-પ્રારંભ-કયા રૂપથી પ્રરૂપિત કર્યો છે? ત્યારે સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જંબૂ ! સાંભળે, યાવત્ મુક્તિસ્થાનને વરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ બીજા વર્ગના પાંચ અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે. ( तजहा) ते 40 प्रमाणे छ
(मुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मयणा, जइणं भंते ! समणेणं जात्र संप. तेणं धम्मकहाणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते वग्गस्स पहमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ! एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिद्दे णयरे, गुणसीलए चेइए-सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ)
(१) jal, (२) निशुला, (३) २ मा, (४) नि२ मा, (५) महना. वे જંબૂ સ્વામી ફરી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! જે યાવત્ મુક્તિ
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arrrrधर्मामृतवर्षिणी टी० २ व. २ शुभनिशुंभदिदेवीवर्णनम्
८१७
खल हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् । गुणशिल चैत्यम् । स्वामी = वर्द्धमानस्वामी सनवसृतः । परिषन्निर्गता यावत्पर्युपास्ते । तस्मिन काले तस्मिन् समये शुम्बा देवी बलिचञ्चायां राजधान्यां शुम्भावतंस के भवने शुम्भे सिंहासने 'कालीगमरणं' कालीगमेन = काली देवी सदृशपाठेन यावत्नाटय विधिमुपद यावत् प्रतिगता 'पुत्रभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छा=गौतमस्वामी शुम्भा देव्याः पूर्व पृच्छति । भगवान् कथयति - श्रावस्ती नगरी । कोष्ठकं चैत्यम् | जितशत्रू राजा । शुम्भो गाथापतिः । शुम्भश्रीर्भार्या । शुम्भा दारिका । शेषं यथा area: काली दारिकाया वर्णनं तथात्रापि विज्ञेयम्, नवरं = विशेस्त्वके पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं तो हे भदंत ! द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रतिपादित किया हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सुधर्मा स्वामी उनसे इस प्रकार कहते हैं कि-हे जंबू ! - उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था उसमें गुणशिलक नाम का उद्यान था । उसमें वर्द्धमान स्वामी आये । प्रभु का आगमन सुनकर वहां की समस्त जनता उन्हें वंदन के लिये अपने २ स्थान से चल कर उस गुणशिलक उद्यान में आई । प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया परिषद् उपदेश सुनकर प्रभु की यावत् पर्युपासना की । ( तेणं काले तेणं समर्पणं ) उसी काल और उसी समय में ( सुभादेवी पलिचंचाए रावहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासांसि कालीगमएणं जान नदृविहि उवदंसेत्ता जाव पडिगया पुव्वभव पुच्छा, सावस्थी गयरी, कोइए बेइए जियसत्तू राधा, सुंभे गाहाबई सुंभ
સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા શ્રવણુ ભગવાન મહાવીરે ખીજા વર્ગના પાંચ અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યાં છે. તે હે ભદન્ત ! જા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને તેમણે શે। અર્થ પ્રતિપાદિત કર્યો છે ?
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં શ્રી સુધાં સ્વામી તેમને આ પ્રમાણે કહે છે કે હું જ બૂ ! તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિક નામે ઉદ્યાન હતુ. તેમાં વમાન સ્વામી પધાર્યાં. પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાંના અધા નાગરિકે તેમને વઢના કરવા માટે પાતપેાતાને સ્થાનેથી નીકળીને
ગુરુશિલક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. પ્રભુએ બધાને ધના ઉપદેશ આપ્યું. परिषट्टे धर्मोपदेश सांलीने अलुनी यावत् पर्युपासना उरी. ( तेण कालेन ते समएण ) ते अणे अने ते सभये
(सुंभा देवी वलिवाए रायहाणीए सुंभवडेंसर भरणे सुभंसि सीदासणंसि काली मरणं जाव नह विर्दि उवसेत्ता जान पडिगया, पुव्यभवपुच्छा सावत्थी णयरी, कोए चेइए जियसत्तू राया, सुंभे गाहावई, सुंभसिरी भारिया, सुंभा
शा १०३
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जाताधर्मकयाजवणे यम्-अस्याः शुम्भादेव्याः 'अछुट्टाई' अर्द चतुर्थानि-सार्दत्रयाणि पल्योपमानि स्थितिरस्ति । सुधर्मास्वामीमाह-हे जम्बूः! निक्षेपका-उपहारोऽध्ययनस्य वाच्यः ।।
॥ इति द्वितीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनम् ॥ सिरी भारिया सुंभा दारिया, सेसं जहा कालीए णवरं अछुट्टाइं पलिओवमाई ठिई, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्स एवं सेसा वि चत्ता. रिअज्झयणा सावत्थीए नवरं माया पिया सरिस नामया एवं खलु जंबू । निक्खेवभोबिईयवग्गस्स बीओ वग्गो समत्तो) शुभादेवी जो वलिचंचा नामकी राजधानी में शुभावतंसक नामके भवन में रहती थी और शुभनाम के सिंहासन पर बैठती थी-वह काली देवी के प्रकरण में वर्णित पाठ के अनुसार प्रभु के समीप उनको वंदना करने के लिये आई। वहां उसने नाट्यविधिका प्रदर्शन किया बादमें फिर बह वहां से पीछे अपने स्थान पर चली गई। उसके चले जाने के याद गौतमस्वामी ने प्रभु से उस शुंभादेवी के पूर्वभव की पृच्छा की-तब भगवान ने उन से इस प्रकार कहा-श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उसमें कोष्ठक नामका उद्यान था, । नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था उसमें गाथा पति रहता था। जिसका नाम शुभ था। इसकी शुभ श्री नाम की भार्या थी। दारिका का नाम शुंभा था। इसके बाद का इसका वर्णन दारिया, सेसं जहा कालीए णवरं अट्ठाई, पलिओवमाइं ठिई। एवं खलु जंबू ! निक्खेवभो अज्झयणस्स एवं सेसा वि चत्तारि अज्झयणस्स सावत्थीए नवरं मायापिया सरिसनामया, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ - बिईयवग्गस्स पंच अज्झयणा समत्ता बीओ वग्गो समत्तो)
શુભા દેવી-કે જે બલિચંચા નામે રાજધાનીમાં શુભાવસક નામના ભવનમાં રહેતી હતી અને શુભ નામે સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી-કાલી દેવીના પ્રકરણમાં વર્ણવેલા પાઠ મુજબ પ્રભુની પાસે તેમને વંદના કરવા માટે આવી. ત્યાં તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું. ત્યારબાદ તે ત્યાંથી પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી. તેમને જતા રહ્યા બાદ ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુની શુભા દેવીના પૂર્વ ભવની પૃચ્છા કરી. ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે– શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી, તેમાં કેષ્ટક નામે ઉઘાન હતું. નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. તેમાં શુંભ નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા. શુંભશ્રી નામે તેની પત્ની હતી, તેની પુત્રીનું નામ શુંભા હતું ત્યારપછીનું તેનું શેષ વર્ણન કાલી દેવીની જેમજ સમજી લેવું જોઈએ. તેમાં અને આમાં તફાવત એટ
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गारधर्मामृतवर्षिणी डी० श्रुं. २ व. २ शुभनिशुंभादिदेवीवर्णनम्
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एवं सेसावि ' इत्यादि - एवं शेषाण्यपि - निशुम्भा १ - रम्भा २ - निरम्भा ३- मदना ४ नामकानि चत्वारि अध्ययनानि श्रावस्त्या नगर्या विज्ञेयानि, नवरम् - एतावान् विशेषः - मातरः पितरः सदृशनामानः दारिका सदृशनामानः, तथाहिनिशुम्भाया माता निशुम्भश्रीः, पिता निशुम्भः । रम्भाया माता रम्भश्रीः, पिता रम्भः । निरम्भाया माता निरम्भश्रीः, पिता निरम्भः । मदनाया माता मदनश्रीः पिता मदनः । एते सर्वे गाथापतयः आसन् ।
एवं खलु हे जम्बू : ! निक्षेपको द्वितीयवर्गस्य ॥ ७ ॥
॥ इति धर्मकथानां द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥ २ ॥
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ર
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कालीदेवी का है वैसा ही जानना चाहिये। उसमें और इसमें केवल अन्तर इतना ही है कि कालीदेवी की स्थिति २ ॥ पल्य की थी और इस शुभादेवी की ३||, पल्य की थी। इस प्रकार हे जंबू ! इस द्वितीयबर्ग के प्रथम अध्ययन का यह निक्षेपक है । इसी तरह निशुंभा, रंभा निरम्भा और मदना नाम के चार अध्ययन भी जानना चाहिये । इन में विशेषता केवल इतनी ही हैं कि यहां जो माता पिता हैं वे दारिका सदृश नामवाले हैं- जैसे निशुभा के पिता का नाम निशुंभ, माता का नाम निशुंभ श्री, रंभाके पिता का नाम रम्भ, माताका नाम रम्भश्री, निरंभा के पिता नाम निरंभ माता का नाम निरंभश्री, मदना के पिता का नाम मदन, और माताका नाम मदनश्री । ये सब ही गाथापति हैं। इस तरह यह द्वितीयवर्ग का निक्षेपक- उपसंहार हैं।
॥ द्वितीयवर्ग समाप्त ॥
લેા જ છે કે કાલી દેવીની સ્થિતિ રા પક્ષ્યની હતી અને આ શુભા દેવીની સ્થિતિ ૩ા પલ્પની હતી. આ પ્રમાણે હું જબૂ! આ ખીજા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને આ નિક્ષેપક છે. या प्रमाणे निशुला, रंला, निरंला भने મદના નામના ચાર અયના પણ જાણી લેવાં જોઇએ. એમનામાં વિશેષતા ફક્ત એટલી જ છે કે અહીં જે માતાપિતા છે તે પુત્રીના જેવા જ નામવાળા છે. જેમકે નિશુંભાના પિતાનું નામ નિશુંભ, માતાનું નામ નિશુભશ્રી, ભા ના પિતાનું નામ ર'ભ, માતાનું નામ ર'ભશ્રી નિર'ભાના પિતાનું નામ નિરભ, માતાનું નામ નિરલશ્રી, મદનાના પિતાનુ' નામ મદન અને માતાનું નામ મદનશ્રી, આ બધા ગાથાપતિ છે આ પ્રમાણે બીજા વના નિક્ષેપ ઉપસ‘હાર છે.
जीले वर्ग समाप्त ॥
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शाताघमकथाङ्गसूत्र
अथ तृतीयो वर्गः प्रारभ्यते - ' उक्खेवओ तइयवास्स ' इत्यादि मूलम् - उक्खेवओ तइयवग्गस्स एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयस्स वग्गस्स चउपवणं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा- पढमे अज्झयणे जाव चउपपणइ मे अज्झयणे, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउप्पन्नज्झयणा पण्णत्ता पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेगं के अडे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणासि - लए इए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए रायहाणीए अलावर्डस भवणे अलंसि सीहासांसि एवं कालीगमएणं जाव
विहिं वसेत्ता पडिगया, पुव्वभवपुच्छा, वाणारसी णयरी काममहावणे इए अले गाहावई अलसिरी भारिया अला दारिया सेसं जहा कालीए णवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ साइरेगं अद्धपलिओदमंटिई सेसं तहेव, एवं खलु णिक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं कमा सक्का सतेरा सोयामणी इंदा घणविज्जुयावि सव्वाओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ एवं एते छ अज्झयणा वेणुदेवस्सवि अविसेसिया भाणियव्वा एवं जाव घोसस्सवि एए चैव छ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं उपरणं अज्झवणा भवंति, सव्वाओवि वाणारसीए का ममहावणे चेइए तइयवग्गस्स णिक्खेव ओ॥सू०८ ॥ तइओ वग्गो समत्तो ॥ ३॥
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अनगारधामृतवर्षिणी टी० श्रु०२ १०३ अलादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ॥
टीका- उखेवो' उत्क्षेपका जम्पश्नादिरूपः प्रारम्भवाक्यप्रबन्धः तृतीयवर्गस्यात्रबोध्यः । श्रीसुधर्मास्वामी प्राह-एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मोक्षं सम्प्राप्तेन तृतीयस्य वर्गस्य ' चउप्पणं ' चतुपश्चाशत् अलादीनि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-तानि यथा-प्रथममध्ययनम् अलेति यावत्-चतुष्पश्चाशत्तममध्ययनम् । जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु हे
-तृतीय वर्ग प्रारंभ:'उक्खेवओ तइयवग्गस्स' इत्यादि ।
टीकार्थ-तृतीयवर्ग का प्रारंभवाक्य प्रबन्ध इस प्रकार है-अर्थात् सुधर्मास्वामी से जंबू स्वामी ने प्रश्न किया कि भदंत । श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं इस तृतीयवर्ग के कितने अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-तब सुधर्मा स्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा(एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाप संपत्तेणं तझ्यस्त वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउ. पण्णइमे अज्झयणे जइणं भंते! समणेणं जाव संपसेण धम्मकहाणं सइयस्स वग्गस्स चउप्पन्नज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्तणं भंते ! अज्झ. यणस्त समणेणं जाव संपत्ते णं के अढे पण्णत्ते ?) हे जंबू ! सुनो-उन मुक्ति प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने तृतीयवर्ग के अलादिक चौपन ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं । जंबू स्वामी पुनः पूछते हैं-भदंत ।
बीन व प्राम— उक्वेव ओ तइयवग्गस्स' इत्यादि
ટીકાથે–ત્રીજા વર્ગનું પ્રારંભ વાક્ય પ્રબંધ આ પ્રમાણે છે-એટલે કે સુધર્મા સ્વામીને જંબૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેમણે મુક્તિ મેળવી લીધી છે. આ ત્રીજા વર્ગના કેટલાં અધ્યઅને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે ત્યારે સુધર્મા સ્વામીએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું –
( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नता-तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपणइ मे अज्झयणे जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपन्नज्झययणा पणत्ता, पहमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते ?)
હે જંબૂ! સાંભળે, મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા તે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ત્રીજા વર્ગના અલાદિક ૫૪ અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. જંબૂ વામી ફરી પ્રશ્ન કરે
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हाताधर्मकथा भदन्त ! श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन धर्मकथानां तृतीयस्य वर्गस्य चतुष्पश्चाशद् अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तेषु प्रथमस्य खलु हे भदन ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् मोक्ष सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मस्वामी कथयति___एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् , गुणशिलकं चैत्यम् , स्वामी समक्मृतः, परिषन्निर्गता यावत्-भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अलादेवी-धरणेन्द्रस्याग्रमहिषी धरणायां राजधान्याम् आलावतंसके भवणे अले सिंहासणे, एवं 'कालीगमएणं' कालीगमेन-कालीसदृशपाठेन यावत् नाटयविधमुपदर्य प्रतिगता । ' पुचभवपुच्छा' पूर्वभवपृच्छागौतमस्वामी अलादेव्याः पूर्वभवं पृच्छति, भगवान् कथयति-बागारसी नगरी । काममहावनं चैत्यम् । ' अले' अलनामा गाथापतिः । अलश्रीर्भार्या । अला दारिका । शेषं 'जहाकालीए' यथा काल्याः-कालीदेव्या वर्णनं तथैव अला. देव्या वर्णनं विज्ञेयम् , नवरम्-धरणस्याग्रमहिपीतयाऽस्था उपपातः, सातिरेक= यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के तृतीयवर्ग के ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं तो उनमें से हे भदंत ! उन्हीं यावत् मुक्ति प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? इस प्रश्न के समाधान निमित्त सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि-(एवं खलु जंबू! ) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है। तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए राय हाणीए अलावडंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएणं जाव गढविहिं उवदंसेत्ता पडिगया, पुब्वभवपुच्छा, वाणारसी जयरी, काममहावणे चेइए अलंगाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारियासेसं जहा कालीए णवरं धरणस्त अग्गमाहिसित्ताए उववाओ, साइरेगं છે કે હે ભદન્ત! વાવત મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધર્મકથાના ત્રીજા વર્ગના ૫૪ ચેપન અધ્યયને પ્રાપ્ત કર્યા છે, તે તેઓમાંથી હે ભદત! તે જ યાવત મુક્તિ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા અધ્યયનને શે. અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ પ્રશ્નના સમાધાનમાં શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને
छ ( एवं खलु जंबू ! ) ! तमा। प्रश्न उत्त२ मा प्रमाणे छ ? . (तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणाए रायहाणीए अलावडंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं काली गमएणं जाव गढविहिं उबदंसेत्ता पडिगया, पुन्वभवपुच्छा, वाणारसी गयरी, काममहावणे चेहए, अलं गाहावई, अलासिरी भारिया, अलादारिया सेसं जहा कालीए गवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उव
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अमगारधामृतवर्षिणी टी० श्रु० २ २० २ अलादीदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२३ अद्धपलिओवमं ठिई सेस तहेव, एव खलु णिवखेवओ पढमज्झयणस्स) उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। वहां गुणशिलक नाम का उद्यान था। उसमें तीर्थंकर परंपरानुसार विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर आकर ठहरे हुए थे। नगर की परिषदा प्रभु को वंदना के लिये अपने २ घर से निकलकर उस उद्यान में आई प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। सुनकर लोगों ने यावत् प्रभु की पर्युपासना की। उसी समय वहां पर धरणेन्द्र की अग्रमहिषी अलादेवी जो धरणा राजधानी में अलावतंसक इस नाम के भवन में रहती थीऔर जिसके बैठने के सिंहासन का नाम अला था प्रभु को वंदना आदि करने के निमित्त आई। वहाँ आकर उस ने नाट्यविधि दिखलाई। दिखलाकर वह फिर वहां से पीछे अपने स्थान पर गई। उसके आते ही गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से उसका पूर्वभव पूछा तय भगवान् ने उनसे इस प्रकार कहा वाणारसी नामकी नगरी थी-उसमें काम महावन नाम का उद्यान था। उसमें अलनाम का गाथापति रहता था। उसकी भार्या " अल श्री" इस नामकी थी। इस की एक पुत्री थी जिसका नाम अला था। इसका-अला का शेष कथानक, कालीदेवी का वाओ, साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिई सेसं तहेव, एवं खलु णिक्खेवो पदमज्झयणस्स)
તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃડ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ઉઘાન હતું. તેમાં તીર્થંકર પરંપરા મુજબ હિાર કરતાં પધારીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે મુકામ કર્યો હતો. નગરની પરિષદ પ્રભુને વંદન કરવા માટે પિતપતાને ઘેરથી નીકળીને તે ઉદ્યાનમાં આવી. પ્રભુએ સૌને ધર્મને ઉપદેશ આપે. ઉપદેશ સાંભળીને લેકોએ યાવત પ્રભુની પર્ય પાસના કરી, તે વખતે ત્યાં ધરણેન્દ્રની અગ્રમહિષી (પટરાણી ) અલાદેવી કે જે ધરણે રાજધાનીમાં અલાવવંસક આ નામના ભવનમાં રહેતી હતી, અને જેને બેસવાના સિંહાસનનું નામ અલી હતું-પ્રભુને વંદના કરવા માટે આવી. ત્યાં આવીને તેણે નાટયવિધિનું પ્રદર્શન કર્યું, પ્રદર્શન કરીને તે ત્યાંથી પાછી પિતાના સ્થાને જતી રહી. તેના ગયા પછી તરત જ ગૌતમ સ્વામીએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને તેને પૂર્વભવ છે ત્યારે ભગવાને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું વાણારસી નામે નગરી હતી, તેમાં કામમહાવન નામે ઉદ્યાન હતું, તેમાં અલ નામે ગાથાપતિ રહેતો હતો. તેની ભાર્યાનું નામ અલશ્રી હતું. તેને એક પુત્રી હતી તેનું નામ અલી હતું. અલા વિષેનું શેષ કથાનક પહેલાં
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हाताधर्मकथाजस्त्र साधिकम् अर्द्ध पल्योपमं स्थितिः । शेषं तथैव । एवं खलु निक्षेपकः प्रथमाध्ययनस्य । एवं क्रमात् शक्रा २, सतेरा ३, सौदामनी ४, इन्दा ५, घनविद्युदपि ६ । सर्वा एता धरणस्य-धरणेन्द्रस्य अग्रमहिष्य एव । एतानि षड् अध्ययनानि वेणुदेवस्यापि । ' अविसेसिया' अविशेषितानि=निर्विशेपानि सदृशानि भणितव्यानि । जैसा कथानक पीछे वर्णित किया जा चुका है वैसा ही जानना चाहिये। उसके वर्णन में और इसके वर्णन में केवल अन्तर इतना ही है कि यह धरणेन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में उत्पन्न हुई और इसकी स्थिति १॥ पल्य से कुछ अधिक है। बाकी का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के जैसा ही है। इस तरह यह द्वितीयवर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेपक-उपसंहार-है।-(एवं कमा सक्का, सतेरा, सोयानगी, इंदा, घणविज्जुया वि, सव्वओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ, एवं, एते ६ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसेसिया भाणियव्वा, एवं जाव घोसस्स वि एए चेव । अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं-चउप्पण्णं अज्झयणा भवंति, सबओ वि वाणारसीए काममहावणे चेहए तइयवग्गस्स णिक्खेवओ ८॥ ___ (तइओ वग्गो समत्तो) इसी क्रम से शका २, सतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५, घनविद्युत् ६, ये सब देवियां धरणेन्द्र की ही अग्रमहिषियां थीं। इस तरह के ६ अध्ययन वेणुदेव के भी हैं। और इनका વર્ણવેલા કાલી દેવીના કથાનકની જેમજ સમજી લેવું જોઈએ. તેના અને આના વર્ણનમાં તફાવત ફક્ત એટલે જ છે કે આ ધરણેન્દ્રની અગમહિષીના રૂપમાં ઉત્પન્ન થઈ અને આની સ્થિતિ ના પલ્ય કરતાં કંઈક વધારે છે. આનું બાકીનું વર્ણન કાલી દેવી જેવું જ છે. આ પ્રમાણે આ બીજા વર્ગના પહેલા અધ્યયનને નિક્ષેપક ઉપસંહાર છે.
( एवं कमा सक्का सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणविज्जुया वि, सव्यो एयाओ धरणस्स, अग्गमहिसीओ एवं एते ६ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसे सिया भाणियव्या, एवं जाव घोसस्स वि एए चेव६ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं-चउप्पण्णं अज्झयणा भवंति, सव्वाओ वि वाणारसीए काम महावणे चेइए तइयवग्गस्स णिक्खेवओ ।। ८॥ तइओ वग्गो समत्तो)
। भनुम प्रमाणे २४ २, सते। 3, सौहामनी ४, ४न्द्र। ५, ઘનવિઘત ૬, આ બધી દેવીઓ ધરણેન્દ્રની જ અગ્રમહિષીઓ હતી. આ પ્રમાણે જ ૬ અધ્યયને વેણુ દેવીનાં પણ છે અને એમનું વર્ણન ધરણેન્દ્રના
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० भु०२ १० १ रूपादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२५ एवं यावत् घोषस्यापि धोपेन्द्रस्यापि, एतान्येव षड् अध्ययनानि सन्ति । एषये. तानि दाक्षिणात्यानामिन्द्राणां चतुष्पश्चाशद् अध्ययनानि भवन्ति । सर्वा अपि पूर्वोतादेव्यः पूर्वभवे वाणारस्यां जाताः काममहावने चैत्ये भगवतः पार्श्वस्याहता समीपे प्रत्रजिताः, तृतीयवर्गस्य निक्षेपकः समाप्तिवाक्यप्रबन्धो विज्ञेयः॥ सू०८ ।
॥ इति धर्मकथानां तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ ३ ॥ अथ चतुर्थों वर्गः प्रारभ्यते- चउत्थस्स' इत्यादि ।
मूलम्-घउत्थस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू !समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालणं तेणं समएणं रूया देवी रूयाणंदा रायहाणी रूयगव. वडिसए भवणे रूयगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुत्वभवे चंपाए पुण्णभद्दे घेइए रूयगे गाहावई रूयगसिरी भारिया ज्या दारिया सेसं तहेव, णवरं भूयाणंदअग्गमहिसिवर्णन भी धरणेन्द्र के वर्णन जैसा ही है । घोपेन्द्र के भी ये ही ६ अध्य यन इसी तरह के हैं। इस तरह दक्षिण दिशा संबन्धी इन्द्रों के० ५४ अध्ययन हो जाते हैं। ये सब देवियां पूर्वभवमें वाणारसी में उत्पन्न हुई और काममहावन उद्यान में भगवान् प्रार्श्वनाथ अर्हत प्रभुके समीप दीक्षित हुई। इस तरहसे धर्मकथाका यह " तृतीय वर्ग समाप्त हुआ है।" વર્ણન જેવું જ છે. ઘેન્દ્રના પણ આ જાતનાં જ હું અધ્યયને છે. આ પ્રમાણે દક્ષિણ દિશા સંબંધી ઈન્દ્રોના ૫૪ અધ્યયન થઈ જાય છે. આ બધી દેવીએ પૂર્વભવમાં વાણારસીમાં ઉત્પન્ન થઈ હતી અને કામમહાવન ઉદ્યાનમાં ભગવાન પાર્શ્વનાથ અર્હત પ્રભુની પાસે દીક્ષિત થઈ. આ પ્રમાણે ધર્મકથાને આ ત્રીજો વર્ગ પૂરો થયો છે.
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हाताधर्मकथा ताए उववाओ देसूर्ण पालिओवमं ठिई णिक्खेवओ एवं सुरूयावि रूयंसावि रूयगावईवि रूयकंतावि रूयप्पभावि, एयाओ घेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियवाओ जाव महाघोसस्त, गिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स ॥ सू० ९॥
॥ चउत्थो वग्गो समत्तो ॥ ४ ॥ टीका- चउत्थरस-चतुर्थवर्गस्य 'उक्खेवओ' उत्क्षेपका-प्रारम्भवाक्य. पाठोऽत्रवाच्यः । सुधर्मस्वामी पाह-एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावरसम्माप्तेन धर्मकथानां चतुर्थवर्गस्य चतुष्पश्चाशत् अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा प्रथममध्ययनं यावत्-चतुष्पञ्चाशत्तममध्ययनम् ! तेषु प्रथमस्याध्ययनस्य उत्क्षेपकः । मुधर्मस्वामीपाह-एवं खलु हे जम्बूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे सम.
-चतुर्थ वर्ग प्रारंभ:'चउत्थस्स उवक्खेवओ' इत्यादि।
टोकार्थः-(चउत्थस्स उवक्खेवओ) चतुर्थ वर्ग का प्रारंभ किस तरह से हुआ है-इस प्रकार-जंबूस्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं कि ( एवं खलु जंबू) हे जंबू ! सुनो-(समणेणं जाव संपत्तणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पणं अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णाइ मे अज्झयणे) यावत् मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के चतुर्थ वर्ग के ५४ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-वे प्रथम अध्ययन से लेकर ५४ वें अध्ययन तक हैं-(पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एवं खल जंबू! तेणं कालेणं तेणं
ચોથે વર્ગ પ્રારંભ. . 'उत्थम्स उपरखेवओ' इत्यादि
At-( चउत्थस्स उबक्खेवओ) योया पनी १३मात वी शत થઈ છે. આ જાતને જંબૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યા બાદ શ્રા સુધર્મા સ્વામી तेभने ४ छ है ( एवं खलु जंबू) ! सinो ,
(समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पणं अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे)
થાવત્ મુક્તિસ્થાનને પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ધર્મકથાના ચોથા વર્ગના ૫૪ અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. તેને પહેલા અધ્યયનથી માંડીને ૫૪ મા અધ્યયન સુધી છે.
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मेनगारधामृतषिणी टीका २ ५०४ पदिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२७ वसरण-भगवतः श्री महावीरस्वामिनः समागमनं संजातं, यावत् परिषद् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये रूपादेवी भूतानन्देन्द्रस्याग्रमहिषी रूपकावतंसके भवने रूपके सिंहासने यथा काल्या=कालीदेव्या वर्णनं तथा तद्वत् समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं ख्या देवी, रूयाणंदा रायहाणी रूयगडिसए भवणे ख्यगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुन्वभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेहए रूयगे गाहाबई ख्यगसिरी भारिया, रूया दारिया, सेसं तहेव, णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाभो देसूर्ण पलिओवमं ठिई निक्खेवओ, एवं सुरुवया वि, रूयंसावि, रूयगाहावई वि रूयकता वि रूयप्पभावि, एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ, जाव महाघोसस्स णिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स चउत्थो वग्गो समत्तो)
प्रथम अध्ययन का हे जंबू ! उत्क्षेपक इस प्रकार है-उसकाल में और उस समय में राजगृह नगर में महावीर स्वामी का आगमन हुआ। परिषद प्रभु को वंदना करने के लिये अपने २ स्थान से निकलकर जहां प्रभु विराजमान थे वहाँ आई । प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया। यावत् सबने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल और उस समय में भूतानंद इन्द्र की अग्रदेवी जिसका नाम रूपादेवी था वह प्रभु को वंदना के लिये
(पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवो-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं ख्यादेवी, रूयाणंदा, रायहाणी रूयगवडिंसए भवणे ख्यगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुन्वभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेइए रूपगे गाहावई ख्यगसिरी भारिया, रूया दारिया, सेसं तहेव, णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाओ देमणं पलिओवमं ठिई निक्खेवओ, एवं सुरूवया वि, रूयंसावि, रूयगाहावई, वि रूयकता वि रूयप्पभावि, एयाओ चेत्र उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियन्याभो, जाव महाघोसस्स णिक्खेओ चउत्थवग्गस्स ॥ ९॥ चउत्थो वग्गो समत्तो)
હે જબૂ! પહેલા અધ્યયનને ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે-તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં મહાવીર સ્વામીનું આગમન થયું. પ્રભુને વંદના કરવા માટે પરિષદ તિપિતાને સ્થાનેથી નીકળીને જયાં પ્રભુ વિરાજમાન હતા ત્યાં આવી, પ્રભુએ ધર્મને ઉપદેશ આપે યાવત્ સૌએ પ્રભુની પપાસના કરી, તે કાળે અને તે સમયે ભૂતાનંદ ઈન્દ્રની અગ્રદેવી (પટરાણી) જેને નામ રૂપ દેવી હતું-પ્રભુને વંદના કરવા માટે આવી તેના રહેવાના ભવનનું
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८२८
शिताधर्मकथासूत्रे
रूपादेव्या अपि विज्ञेयम्, नवरं = विशेषोऽत्रायम् - पूर्वभवे चम्पायां नगर्यां पूर्ण - भद्रं चैत्यम्, रूपको गाथापतिः, रूपश्रीर्भार्या, रूपादारिका, शेषं तथैत्र नवरं भूतानन्दाग्रमहिषीतया तस्या उपपातः जन्म । देशोनं पल्योपमं स्थितिः । निक्षेपकः=समाप्तिवाक्यरूपः प्रबन्धोऽत्र विज्ञेयः । एवं सुरूपाऽपि २, रूपांशाऽपि ३, रूपकावत्यपि ४, रूपकान्तापि ५, रूपप्रभाषि ६ । एताचैत्र उत्तरीयाणामिन्द्राणां
आई। इसके रहने के भवन का नाम रूपकावतंसक था । और जिस सिंहासन पर यह बैठती थी उसका नाम रूपक था । पीछे जिस प्रकार का वर्णन कालीदेवी का किया गया है उसी प्रकार का इनका भी वर्णन जानना चाहिये। उसके पूर्वभव का वर्णन इस प्रकार है - यह पूर्वभव में चंपा नामकी नगरी में कि जिसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था और रूपक गाथापति जिस में रहता था उस गाथापति की यह रूपश्री भार्या से " रूपा दारिका" इस नाम से पुत्री उत्पन्न हुई थी। बाद में प्रभु का उपदेश सुनकर यह प्रतिबोध को प्राप्त हो गई और कालीदेवी की तरह यह आर्या बन गई इसके आगे जिस तरह का काली देवी का वृत्तान्त बना इसी तरह से इसका भी जानना चाहिये । जब यह काल अवसर - काल कर गई तब यह भूतानंद इन्द्र की अग्रमहिषीरूप से उत्पन्न हुई । वहाँ इसकी कुछकम १, पल्य की स्थिति है। इस प्रकार रूपा देवी के कथानक का यह निक्षेपक है। इसी तरह से (२) सुरूपा (३) रूपांशा (४) रूपकावती (५) रूपकान्ता और ६ रूपप्रभा का भी वर्णन जानना
નામ રૂપકાવત ́સક હતું' અને જે સિંહાસન ઉપર તે બેસતી હતી તેનુ' નામ રૂપક હતું. જેમ પહેલાં કાલી દેવીનુ વધુ ન કરવામાં આવ્યું છે તેમજ આનુ વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઇએ. તેના પૂર્વભવનું વર્ણન આ પ્રમાણે છે
"
આ પૂર્વભવમાં ચંપા નામની નગરીમાં-કે જેમાં પૂભદ્રા નામે ઉદ્યાન હતું અને રૂપક ગાથાપતિ જેમાં રહેતા હતા. તે ગાથાપતિની આ રૂપશ્રી ભાર્યોથી રૂપાદારિકા ’ આ નામથી પુત્રી રૂપે ઉત્પન્ન થઈ હતી. ત્યારપછી પ્રભુના ઉપદેશ સાંભળીને એ મેષને પ્રાપ્ત થઈ અને કાલી દેવીની જેમ આર્યો થઈ ગઇ, એના પછીની વિગત કાલી દેવીની હતી તેવી જ એની પણ સમજી લેવી જોઈએ, જ્યારે તેણે કાળ અવસરે કાળ કર્યો ત્યારે આ ભૂતાનંદ ઇન્દ્રની અગ્રસહિષી ( પટરાણી ) ના રૂપમાં ઉપ-ન થઇ. ત્યાં તેની ઘેાડી એછી એક પલ્યની સ્થિતિ છે. આ પ્રમાણે રૂપાદેવીના કથાનકના આ નિક્ષેપક છે. या प्रमाणे ४ (२) बु३पा, (३) ३पांशा, (४) ३पावती, (4) ३पता भने
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मगंगारधामृतषिणी टीका श्रु० २ ० ५ कमलादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८२९ मणितव्याः अग्रमहिष्यो वक्तव्याः यावत् महाघोषस्य । महाघोषेन्द्रस्य । निक्षेपकश्चतुर्थवर्गस्य ।। सू०९॥
॥ इति धर्मकथानां चतुर्थों वर्गः समाप्तः॥४॥ अथ पश्चमो वर्गः प्रारभ्यते-पंचमवग्गस्स ' इत्यादि ।
मूलम्-पंचमवग्गस्त उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-कमला१ कमलप्पभार चेव, उप्पला३ य सुदंसणा४। रूववई५ बहुरूवा६, सुरूवा७ सुभगावियः ॥ १॥ पुण्णा९ बहुपुत्तिया१० चेव, उत्तमा११ तारयाविय१२ । पउमा१३ वसुमती१४ चेव, कणगा१५ कणगप्पभा१६ ॥२॥ वडेंसा१७ केउमई १८ चेव, वइरसेणा१९ रइप्पिया२० । रोहिणी२१ नवमिया२२ चेव, हिरी२३ पुप्फवईइय २४ ॥३॥ भुयगा२५ भुयगवई २६ चेव, महाकच्छौंऽपराइया२८ । सुघोसा२९ विमला३० चेव, सुस्तरा३१ यसरसर्वई३२ ॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासई, तेणं कालेणं तेणं समएणं कमलादेवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलसि सीहासणांस सेसं जहा कालीए तहेव गवरं पुत्वभवे नागपुरे नयरे सहसंब. चाहिये। ये देवियां भूतानंद इन्द्र की तरह उत्तरीय इन्द्रों की भी अग्रमहिषियां हैं । और ये ही महाघोषेन्द्र की भी हैं। इस प्रकार यह चतुर्थ वर्ग का निक्षेपक (स्वरूप) है।
॥ चतुर्थवर्ग समाप्त ॥
(૬) રૂપપ્રભાનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ બધી દેવીએ ભૂતાન ઈન્દ્રની જેમ ઉત્તરીય ઈન્દ્રોની પણ અગ્રમહિષીઓ (પટરાણીઓ) છે. અને મહાઘેન્દ્રની પણ તેએજ પટરાણીઓ છે. આ પ્રમાણે આ ચોથા વર્ગને नि५४ छ.
થે વર્ગ સમાસ
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66
८३०
हाताधर्म कथां
वणे उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस्स० अंतिए निक्खता कालस्म पिसायकुमारिंदस्त अग्गमहिसी अद्धपलिओवमं ठिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतररिंदाणं भाणियव्त्राओ सव्वाओ नागपुरे सहस्संबवणे उज्जाणे माया पिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिओवमं ॥ सू० १० ॥ ॥ पंचमो वग्गो समन्तो ॥ ५ ॥
टोका - पंचमत्रग्गस्स ' पञ्चमवर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामी माह एवं खलु जम्बू ! इत्यादि, यावत् द्वात्रिंशद् अध्ययनानि कमलादि नामकानि प्रज्ञतानि तद्यथा - तेषां नामानि गाथा चतुष्टयेन प्राह
,
कमला १ कमलप्रभा २ चैत्र, उत्पला ३ च सुदर्शना ४ ।
रूपवती ५ बहुरूपा ६, सुरूपा ७ सुभगा ८ ऽपि च ॥ १ ॥
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-: पंचम वर्ग प्रारंभः
पंचम वग्गस्स उक्खेवओ ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (पंचमवग्गस्स उवक्खेवओ) हे भदंत ! पांचवें वर्ग का उत्क्षेपक प्रारंभ का स्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने किस प्रकार से प्ररूपित किया है ? इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा - ( एवं खलु जंबू ! ) हे जंबू ! सुनो वह इस तरह से है - ( जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा (१) कमला (२) कमलप्पभा चेव, (३) उप्पला य (४) सुदंसणा । (५) रुबाई (६) बरुवा (७) सुरुवा (८) सुभगाविय, । (९) पुण्णा (१०) बहुपुत्तिया चेव (११) उत्तमा (१२) तारयाविय । (१३) पउमा (१४) वसुमती चैव (१५) कणगा (१६) कणभा (१७) वसा (१८) के उमई चेव (१९) वइरसेणा (२०) रहપાંચમા વર્ગ પ્રારંભ.
'पंचम वग्गस्स उक्खैवओ' इत्यादि
टीडार्थ - ( पंचम वग्गहस उक्खेत्रओ) डे लहन्त ! भावना ઉત્સેપક-પ્રાર’ભ-નું સ્વરૂપ શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર કેવી રીતે પ્રરૂપિત કયુ" છે ? એ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્માં સ્વામીએ તેમને आ प्रभाणे॒ उद्धुं है-( एवं खलु जंबू ! ) हे भू ! सांलो, ते या प्रमाणे छे( जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता- तं जहा (१) कमला (२) कमलप्पभा क्षेत्र, (६) उप्पलाय, (४) सुदंसणा (५) रूववई (६) बहुरुवा (७) सुरूवा (८)
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भनगारधामृतषिणी टी0 श्रु० २ ० ५ कमलादिदेवीनाचरित्रवर्णनम् । पूर्णा ९ बहुपुत्रिका १० चैव, उत्तमा ११ तारका १२ ऽपि च । पमा १३ वसुमती १४ चैव, कनका १५ कनमभा १६ ॥ २॥ अवतंसा १७ केतुमनी १८ चैत्र, वज्रसेना १९ रतिप्रिया २० । रोहिणी २१ नवमिका २२ चैत्र, हीः २३ पुष्पवती २४ ति च ॥ ३ ॥ भुनगा २५ भुजगवती २६ चैत्र, महाकच्छा २७ ऽपराजिता २८ ॥ ,
सुघोषा २९ विमला ३० चैत्र, सुस्वरा ३१ च सरस्वती ३२ ॥ ४ ॥ पिया । (२१) रोहिणी (२२) नवमिया चेव (२३) हिरी (२४) पुप्फबईइय। (२५) भुयगा (२६) भुयावई चेव (२७) महाकच्छा (२८) पराया (२९) सुघोसा (३०) विमला चेव (३१) सुस्सरा (३२) सरसवई) इस पंचम धर्ग के श्रमण भगवान् महावीर ने कमलादि नामवाले ३२ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं। इनके नाम सूत्रकार चार गाथाओं द्वारा इस तरह से प्रकट करते हैं। कमला १, कमलप्रभा २, उत्पला, ३, सुदर्शना ४, रूपवती ५, बहुरूपा, ६, सुरूपा ७, सुभगा ८, पूर्णा ९, बहुपुत्रिक १०, उत्तमा ११ तारका १२, पद्मा १३, वसुमती १४, कनका १५ कनकप्रभा १६, अवतंसा १७, केतुमती, १८, वज्र सेना १९, रतिप्रिया २०, रोहिणी २१, नवमिका २२, ही २३, पुष्पवती, २४, भुजगा,२५, भुजगवती २६, महाकच्छा २७, अपराजिता २८, सुघोषा २९, विमला ३०,। सुस्वरा सुभगाविय, (९) पुण्णा (१०) बहुपुत्तिया चेव (११) उत्तमा (१२) तारयाविय, (१३) पउमा, (१४) वसुमती चेव (१५) कणगा, (१६) कणगप्पभा, (१७) वडेंसा, (१८) केउमइ चेव, (१९) वइससेणा, (२०) रइपिया, (२१) रोहिणी, (२२) नवमिया चेव (२३) हिरी (२४) पुप्फबईइय, (२५) भुयगा (२६) भुय. गवई चेव, (२७) महाकच्छा (२८) पराइया, (२९) सुघोसा (३०) विमला चेव (३१) मुस्सरा, (३२) य सरसबई )
શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પંચમાં વર્ગના કમલા વગેરે નામોવાળા ૩૨ અયયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે. એમનાં નામે સૂત્રકાર ચાર ગાથાઓ વડે એ प्रभारी ४८ ४२ छे-४भा (१), भसमा (२), (3), सुशन! (४), ३५१ती (५), महु३५(६), सु३५(७), सुभा (८), पूरी (6), मईपुत्रिी (१०), उत्तमा (११), ता२४ (१२), ५मा (१३), सुभती (१४), न (१५), ॐनमा (१६), अवता (१७), तुमती (1८), सेना (16), २तिप्रिया, (२०), डिपी (२१), नमिता (२२), ही (13), ०५. १ती (२४) सु४॥ (२५), सुभावती (२६), मा४२छ। (२७), अ५२ (२८), सुधाषा (२८), विभता (३०), सुस्वरा (31), स२पता (३२).
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बताधर्मकया उरक्षेपकः प्रथमाध्ययनस्य । जम्बूस्वामिना पृष्टे सुधर्मास्वामीमाह-एवं खह हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे ' समोसरणं ' समवसरणं-भग ३१, सरस्वती ३२, । ( उक्खेवओ पढमायणस्स एवं खलु जंबू! तेणे कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरर्ण जाव परिसा पज्जुवासइ, तेण कालेणं तेणं समएणं कमला देवी, कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसर भवणे कमलंसि सीहासगंसि सेसं जहा कालीए तहेव णवरं पुव्वभर नागपुरे नयरे सहसंपवणे उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरी भारियाए कमला दारियापासस्स०अंतिए निक्खंता कालस्स पिसायकु. मारिदस्स अग्गमहिसी अद्धपलिओवमं ठिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतरिंदाणं भाणियवाओ, सम्वो णागपुरे सहसं. पवणे उजाणे माया पिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिभोवर्म) इसके बाद जंबूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से पूछा कि इनमें से कमला नामका जो प्रथम अध्ययन है उसका उत्क्षेपक किस तरह से है-इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर उनसे सुधर्मास्वामी ने कहा-कि हे जंबू सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस काल में और उस समय में राजगृह नामका नगर था। उसमें भगवान महावीर का आगमन हुआ। यावत् वहां की परिषद प्रभु को वंदना करने के लिये आई।
(उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसापज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं कमलादेवी कमलाए रायहाणीए कमलपडेंसए भवणे कमलंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहेच णवरं पुत्रभवे नागपुरे नयरे सहसंबवणे उज्जाणे कमलस्स गाहा वइस्स कमलसिरीए भरियाए कमला दारिया पासस्स० अंतिए निक्खंता कालस्स पिसाय कुमारिंदस्स अग्गमहिसी अद्धपलिओवमठिई, एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतरिंदाणं भाणियचाओ, सवाओ णागपुरे सहसंबवणे उज्जाणे मायापिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिओम )
- ત્યારપછી સ્વામીએ શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પૂછ્યું કે આ બધામાં કમલા નામે જે પહેલું અધ્યયન છે તેને ઉક્ષેપક કેવી રીતે છે?
આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યા બાદ તેમને શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું કે હે જબૂ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ભગવાન મહાવીરનું આગમન થયું. યાવતું નગરની પરિષદ તેમને વંદના કરવા માટે આવી. પ્રભુએ સૌને
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मारामवासी टी० श्रु०२ १०५ कमलादिदेवोना बरित्रवर्णनम् l वन् महावीरस्वामी समागमनं संजातं, यावत् परिषद् भगवन्तं पर्युपास्ते । तस्मिन काले तस्मिन् समये कमला देवी कमलायां राजधान्या, कमलावतंसके भवने कमले सिंहासने, शेषं यथा-काल्याः कालीदेवया वर्णनं तथैवाऽस्या अपि, नवरंक विशेषोऽयम्-पूर्वभवे नागपुरं नगरं, सहस्राम्रवनमुद्यानम् , कमलस्य गाथापतेः कमलश्रियो भार्यायाः कमला दारिका पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्य अन्तिके 'निक्खता' निष्क्रान्ता अवजिता, कालस्य पिशाचकुमारेन्द्रस्य अग्रमहिषी । अर्द्धपल्योपमं स्थितिः। एवं शेषाण्यपि कमलप्रभादिनामकान्यपि एकत्रिंशद् अध्यप्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया। परिषद ने प्रभु की पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में कमला नाम की देवी, कमला राजधानी में कमलावतंसक भवन में रहती थी। उस के सिंहासन का नाम कमला था। इसके आगे का समस्त वर्णन कालीदेवी के वर्णन जैसा ही जानना चाहिये । परन्तु इसमें जो विशेषता है वह इस प्रकार है-जब गौतमस्वामी ने उसके-अर्थात् देवी के चले जाने के बाद उसके पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा-तय प्रभु ने उनसे इस प्रकार कहा-पूर्वभव के इसके नगर का नाम नागपुर था-उसमें सहस्राम्रवन नाम का उद्यान भा। उस नगर में कमल नामका गाथापति रहता था। उसकी भार्या का नाम कमला श्री था। इनके एक पुत्री थी जिस का नाम कमला था। वह काललब्धि के आनेपर पुरुषदानीय-पुरुष श्रेष्ठ-पाच नाथ अर्हत प्रभु के समीप प्रवजित हो गई। बाद में मरने पर वह काल नाम के पिशाच कुमारेन्द्र को अग्रमहिषी बनी। वहां इसकी स्थिति अर्धपल्य की है। ધર્મને ઉપદેશ આપ્યો. પરિષદે પ્રભુની પથું પાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે કમલા નામની દેવી, કમલા રાજધાનીમાં કમલાવતંસક ભવનમાં રહેતી હતી. તેના સિંહાસનનું નામ કમલા હતું. એના પછીનું બધું વર્ણન કાલી દેવીના વર્ણનની જેમ જ સમજી લેવું જોઈએ. પરંતુ આમાં જે કંઈ વિશેષતા છે તે એ પ્રમાણે છે કે જ્યારે ગૌતમ સ્વામીએ દેવીના ગયા પછી તેને પૂર્વ ભવ વિશેની વિગત પૂછી ત્યારે પ્રભુએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું-કે આના પૂર્વ ભવન નગરનું નામ નાગપુર હતું. તેમાં સહસ્ત્રાપ્રવન નામે ઉદ્યાન હતું. તે નગરમાં કમલ નામે ગાથાપતિ રહેતે હતે. તેની પત્નીનું નામ કમલા શ્રી હતું. એમને એક દિકરી હતી તેનું નામ કમલા હતું, તે ગ્ય કાળલબ્ધિના અવ. સરે પુરુષાદાનીય-પુરુષ શ્રેષ-પાર્શ્વનાથ અહંત પ્રભુની પાસે પ્રવ્રજિત થઈ ગઈ. ત્યારપછી મૃત્યુ થયા બાદ તે કાલ નામના પિશાચ કુમારેન્દ્રની અગ્ર
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तयार यनानि दाक्षिणात्यानां वानव्यन्तरेन्द्राणामग्रमहिषीणां भणितव्यानि । सर्वाश्चैताः पूर्वभवे नागपुरे नगरे संजाताः, सहस्राब्रवने उद्याने भगवत्पार्श्वप्रभोः समीपे पत्रमिताः। मातापिता दुहिता सदशनामकः । आसां स्थितिरर्दपल्योपमम् ॥०१०॥
॥ इति धर्मकथानां पञ्चमो वर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥ ___ मूलम्-छटोवि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालादोणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुठवभवे सागेयनयरे उत्तरकुरु उजाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव ॥ सू० ११ ॥
॥छट्रो वग्गो समत्तो ॥ ६ ॥ पाको जो ३१, कमलप्रभा नामके अध्ययन हैं वे दक्षिण दिशा संबन्धी वानव्यंतरेन्द्रों की अग्रमहिषियों के हैं ऐसा जानना चाहिये। ये सब ही पूर्वभव में नागपुर नगर में उत्पन्न हुई-और सहस्राब्रवन नामके उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के समीप प्रवजित हुई। इन अध्ययनों में माता पिता तथा पुत्री ये सब एक सरीखे नामथाली है । जैसे कमलप्रभा नामक अध्ययन में माता का नाम कमलप्रभा श्री, पिता का नाम कमलप्रभ एवं पुत्री का नाम कमलप्रभा है-इसी तरह से और अध्ययनों में भी जानना चाहिये। इन सब देवियों की स्थिति अर्घपल्य की है ॥सू१०॥
-पंचमवर्ग समाप्त:મહિષી (પટરાણી) બની. ત્યાં તેની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે. શેષ જે ૩૧ કમલપ્રભા નામના અધ્યયને છે તે દક્ષિણ દિશા સંબધી વાનગંતરેન્દ્રોની અગ્રમહીષીઓ (પટરાણીએ) નાં સમજવાં જઈએ. આ બધી પૂર્વભવમાં નાગપુર નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ અને સહસામ્રવન નામના ઉદ્યાનમાં ભગવાન પાર્શ્વનાથની પાસે પ્રજિત થઈ ગઈ. આ બધાં અધ્યયનેમાં માતાપિતા તેમજ પુત્રી આ સર્વે એક સરખાં નામવાળાં છે. જેમકે કમલપ્રભા નામના અધ્યય. નમાં માતાનું નામ કમલપ્રભાશ્રી, પિતાનું નામ કમલપ્રભ અને પુત્રીનું નામ કમલપ્રભા છે એ પ્રમાણે બીજા અધ્યયને વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ. આ બધી દેવીઓની સ્થિતિ અર્ધપત્યની છે. સૂ૦ ૧૦ છે
પાંચમે વર્ગ સમાપ્ત
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E
मगारंधर्मामृतषिणी ये० श्रु.२ ५.६ कमलादिदेवानां परित्रवर्णनम् ।
टीका-'छटोवि' इत्यादि षष्ठोऽपि वर्गः पञ्चमवर्गसदृशः । नवरम्-एता. वान् विशेषः-अत्र महाकालादीनाम् उत्तरीयाणामिन्द्राणामग्रमहिष्यः । एताः सर्वाः पूर्वभवे साकेंतनगरे उत्तरकुरूद्याने पार्थप्रभुसमीपे मत्रजिताः मातरः पितरो दुहितरः सदृशनामकाः। शेषं तदेव सर्व वाच्यम् ॥ सू० ११ ॥ इति धर्ककथानां षष्ठो वर्गः समाप्तः ॥ ६ ॥
-षष्ठवर्ग प्रारंभः'छटो वि वग्गो पंचमवग्गसरिसो' इत्यादि ।
टीकार्थ:-(छटो वि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालादीणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुन्वभवे सागेयनयरे उत्तरकुरुउ. जाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव ११) छठा वर्ग भी पंचमवर्ग के जैसे ही है। परन्तु इसमें जो उसकी अपेक्षा विशेषता है -वह इस प्रकार है-इस अध्ययन में उत्तर दिशा के इन्द्र महाकाल आदिकों की अग्रमहिषियों का वर्णन है। ये सब अग्रमहिषियां पूर्वभव में साकेत नगर (अयोध्या) में उत्तर कुरु नामके उद्यान में पार्श्वप्रभु के समीप प्रवजित हुई हैं। माता पिता एवं पुत्रियां ये सब एक जैसा नामवाले हैं। बाकी का इनके विषय का समस्त कथन कालीदेवी के वर्णन जैसा जानना चाहिये।
-षष्ठवर्ग समाप्त:
छो गार:'छटो वि वग्गो पंचम वासरिसा' इत्यादि(छटो विवग्गो पंचमबग्गसरिसो, णवरं महाकालादीणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुन्वभवे सागेय नयरे उत्तरकुरु उजाणे मायापिया ध्या सरिस णामया सेसं तं चेव ११)
છઠ્ઠો વર્ગ પણ પાંચમા વર્ગના જેવું જ છે. પરંતુ આમાં જે તેના કરતાં વિશેષતા છે, તે એ પ્રમાણે છે કે આ અધ્યયનમાં ઉત્તર દિશાના ઈન્દ્ર મહાકાલ વગેરે ની અગ્નમહિષીઓ (પટરાણીએ) નું વર્ણન છે. આ બધી અગ્રમહિષીઓ પૂર્વભવમાં સાકેત નગરમાં ઉત્તરકુરૂ નામના ઉદ્યાનમાં પાશ્વ પ્રભુની પાસે પ્રત્રજિત થઈ છે. માતાપિતા અને પુત્રીઓ બધાં એક સરખાં નામવાળાં છે. એમના વિષેનું બાકીનું બધું કથન કાલી દેવીના વર્ણન જે मे.
છો વર્ગ સમાસ
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বােমখাই अथ सप्तमो वर्गः प्रारभ्यते-'सत्तमस्से ' त्यादि ।
मूलम्-सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू । जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-सूरप्पभा आयवा अच्चिमाली पभंकरा, पढमज्झयणस्त उक्खेवओ, एवं खल जंब ! तेणं कालेणं लेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभा देवी सूरंसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए सहाणवरं पुव्वभवे अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहाव. इस्स सूरसिरीए भारियाए सुरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहिं अब्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि सव्वाओ अरक्खुरीए णयरीए ॥ सू० १२ ॥ ॥ सत्तमो वग्गो समत्तो ॥ ७ ॥ ___टीका- सत्तमस्से ' ति-सप्तमस्य वर्गस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामीकथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा तानि
___-सितमवर्ग प्रारंभः'सत्तमस्सवग्गस्स उक्खेषओ' इत्यादि ।
टीकार्थ:--(सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णता) हे भदंत ! सातवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार है ? इस जंबूस्वामी के प्रश्न करने पर गौतमस्वामी उनसे कहते हैं-कि हे जंबू! सुनो, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण
सातभा n प्रा'सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ' इत्यादि
Al-(सत्तमरस वग्गरस उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झथणा पण्णत्ता ) 3 महन्त ! सातमा पनि वी शत छ ? ... તે જ બૂ હવામીના આ પ્રશ્નને સાંભળીને ગૌતમ સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા વર્ગના ચાર અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે.
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tantraमृतवर्षिणी टी० श्रु २ व ७ सूरप्रमादिदेवीनां वरित्रवर्णनम् ८३७ यथासुरममा १, आतपा २, अर्चिर्मालिः ३, प्रभङ्ककरा ४ । प्रथमाध्ययनस्योत्क्षेपकः । सुधर्मस्वामीमाह - एवं खल हे जम्बूः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राज - गृहे समवसरणम् = भगवद्वर्धमानस्वामिसमागमनम् यावत्परिषत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सूरप्रभादेवी, सुरविमाने, सूरप्रभे सिंहासने, शेषं
भगवान महावीर ने इस सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किये हैं - ( तं जहा - सूरपभा, आयवा, अचिमाली, पभंकरा, पढमज्झयणस्स, उक्ओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं व परिसा पज्जुवासह, तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभ्रा देवी, सूरंसि विमाणंसि सूरपभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा) चार अध्ययन इस प्रकार है सूरप्रभा १, आतपा २, अर्चिमाली ३, प्रभङ्करा ४, इनमें प्रथम अध्ययन का उत्क्षेपक हे जंबू ! इस प्रकार हैउस काल और उस समय में राजगृह नाम के नगर में भगवान् वर्धमानस्वामी का आगमन हुआ था-प्रभु का आगमन सुनकर वहां की परिषद उनको वंदना करने के लिये उनके समीप गई प्रभु ने सबको धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सबने प्रभु की पर्युपासना की । उस काल और उस समय में सूरप्रभा नाम की एक देवी जो सूरविमान में रहती थी- और सूरप्रभ सिंहासन पर बैठती थी प्रभु को वंदना करने के लिये आई। इसके बाद का इसका वृत्तान्त जैसा पहिले कालीदेवी
( तं जहा - सूरप्पभा, आयवा, अच्चिमाली, पभंकरा, पढमज्झयणस्स, उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवास, तेणं कालेणं तेणं समर्पणं सूरप्पभादेवी, सुरंसि विमाणंसि सूरप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा )
३, अलङ
તે ચાર અધ્યયના આ પ્રમાણે છેઃ-સૂરપ્રભા ૧, આતપા ૨, અર્ચિમાલી હું જબૂ! આ બધામાં પહેલા અઘ્યયનના ઉત્પ્રેષક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં ભગવાન વધમાન સ્વામીનું આગમન થયું. પ્રભુનું આગમન સાંભળીને ત્યાંની પરિષદ તેમને વંદના કરવા માટે તેમની પાસે ગઇ. પ્રભુએ સૌને ધર્મના ઉપદેશ આપ્યા. ઉપદેશ સાંભળીને સૌએ પ્રભુની પયુ પાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે સૂરપ્રભા નામની એક દેવી-જે સૂર વિમાનમાં રહેતી હતી અને સૂરપ્રભ સિંહાસન ઉપર બેસતી હતી–પ્રભુની વંદના કરવા માટે આવી. એના પછીનુ
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ताधर्मकथाको यथा काल्याः काली देव्या वर्णनं तथा विज्ञेयम् , नवरम् अयं विशेषः पूर्वमवे अरक्षुयों नगयों मुरमभस्य गाथापतेः, सूरश्रियो भार्यायाः सुरममा दारिका, सूरस्य अग्रमहिषी स्थितिरर्द्ध पल्योपमं पश्चभिर्वर्षशतैरभ्यधिकम् । शेषं यथा काल्याः। एवं शेषा अपि-आतपादिकाः देव्यो वाच्याः । सर्वाः पूर्वभवे अरक्षुयाँ नगर्यामासन् । सू०१२॥
॥ इति धर्मकथानां सप्तमो वर्गः समाप्तः ॥७॥ का वृत्तान्त लिखा जा चुका है-वैसा ही हैं। उसमें कुछ अन्तर नहीं है (णवरं ) परन्तु जिन बातों में अन्तर है-वह इस प्रकार है-(पुत्वभवे) यह पूर्वभव में (अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावहस्स सूरसिंरीए भारियाए सूरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहि अभिहियं सेसं जहा कालीए एवं सेसाओ विसव्वाओ अरक्खुरीए गयरीए १२) अरक्षुर नामकी नगरी में निवास करनेवाले सूरप्रभा गाथापति की सूर श्री भार्या की कुक्षि से अवतरी थी। इसका नाम सूरप्रभा था। यह सूर की अग्रमहिषी हुई। इसकी वहां पांचसो वर्ष से अधिक अर्धपल्य की स्थिति है। और इसका इस अवस्था का समस्त वर्णन काली समान ही है। इसी तरह का आतपाआदिक ३ देवियों का भी जीवन वृत्तान्त है। ये ३ तीनों ही देवियां अपने २पूर्वभव में अरक्षुर नगरी में जन्मी थीं। सू०१२ ॥
__-सप्तमवर्ग समाप्त:આનું વર્ણન કાલી દેવીના વર્ણન જેવું જ સમજી લેવું જોઈએ, તેમાં કોઈ ५५ तन तावत नथी. (णवर') ५ २ बातम त छ, ते ॥ प्रभा छे. (पुधभवे ) | पूनम
(अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पमस्त गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए मुरप्पमा दारिया मूरस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिभोवमं पंचहि वाससरहिं अब्भडियं सेसे जहा कालीए, एवं सेसाओ वि सम्बाओ अरक्खुरीए गयरीए १२) :
અરફુરી નામની નગરીમાં રહેનારી સૂપ્રભા ગાથાપતિની સૂરશ્રી ભાર્યાના ગર્ભથી જન્મ પામી હતી, તેનું નામ સૂરજ પ્રભા હતું. તે સૂરની અગ્નમહિષી ( પટરાણી) થઈ તેની ત્યાં પાંચ વર્ષ કરતાં વધારે અર્ધપત્યની સ્થિતિ છે. તેનું આ અવસ્થા વિષેનું બધું વર્ણન કાલીના જેવું જ છે. એ પ્રમાણે જ આતા વગેરે ૩ દેવીઓનું પણુ જીવનવૃત્તાંત છે. આ ત્રણે દેવીઓ પિતપિતાના પૂર્વભવમાં અરશુર નગરમાં જન્મ પામી હતી. સૂ૦૧૨
સાત વર્ગ સમાસ
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मगारामतवर्षिणी टी० ०२ १०८ प्रमादिदेवीनां परिप्रवर्णनम् ॥ अथाष्टमो वर्गः प्रारभ्यते- अट्ठमस्से ' त्यादि। ... मूलम्-अट्ठमस्स उक्खेवओ,एवं खल्लु जम्बू ! जाव चत्तारि
अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उपखेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभा देवी चंदप्पभंसि विमाणंसि चंदप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, गवरं पुव्वभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उजाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया चंदस्स अग्गमहिसी ठिई अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अब्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि महुराए गयरीए मायापियरोवि धूयासरिसणामा ॥ सू० १३ ॥ अहमो वग्गो समत्तो ॥ ८॥ . टोका- अट्ठमस्से ति-अष्टमस्य उत्क्षेपकः । सुधर्मास्वामी माह-एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् चत्वारि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा तानि यथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ । प्रथमस्याध्ययनस्योत्क्षेपकः । एवं
-अष्टमवर्ग प्रारंभ 'अट्ठमस्स उक्खेवभो' इत्यादि।
टीकार्थ-:( अट्ठमस्स उक्खेवभो-एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णसा तं-जहा-चंदप्पभा,दोसिणाभा, अचिमाली, पभंकरा,
આઠ વર્ગ પ્રારંભ 'अट्टमस्त्र उखेवओ , इत्यादि( अट्ठमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ताजहा-चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पमंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उवखे
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साधर्मया खलु हे जाबूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे श्रीमहावीरस्वामिनः समता सरणं, यावत्-परिपत् पयुपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रप्रभा देवी चन्द्रप्रमे विमाने चन्द्रप्रभे सिंहासने शेषं यथा काल्या: कालीदेव्या वर्णनं तद्वद् पढमस्स अज्झयणस्स उखेवओ-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं-जाव परिसा पज्जुवासह, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभादेवी चंदप्पभंसि विमाणसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुत्वभवे महुराए णयरीए भंडीरवडेंसए उज्ञाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया) हे भदंत ! आठवें धर्ग का उत्क्षेपक कैसा है ? इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी ने उनसे कहा-हे जंबु ! सुनो तुम्हाने प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण भगवान महावीर ने इस वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किये है -वे इस प्रकार से हैं-चंद्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अर्चिाली ३, प्रभकरा ४, । इनमें हे जबू! प्रथम चन्द्रप्रभा अध्ययन का उत्क्षेपक इस प्रकार से है-उस काल में और उस समय में राजगृह नामके नगर में श्री महावीर स्वामी का आगमन हुआ था। उनसे धर्म का उपदेश प्राप्त करने के लिये वहां की समस्त धार्मिक जनता उनके पास आई थी प्रभु ने सब के लिये धर्म का उपदेश सुनाया-सुनाकर सबों ने उनकी यावत् पर्युपासना की। उस काल और उस समय में चंन्द्रप्रभा देवी जो कि वो-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं-जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभादेवी चंदप्पमंसि विमाणसि चंदप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुषभवे महुराए णयरीए. भंडीरवडेंसए उज्जाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया)
હે ભદન્ત ! આઠમા વર્ગને ઉલ્લેષક કેવો છે ? /
આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીને પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્મા સ્વામીએ તેમને કહ્યું કે હે જંબૂ ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વર્ગનાં ચાર અધ્યયને પ્રજ્ઞપ્ત કર્યા છે, તે આ પ્રમાણે छ-'द्रप्रभा १, न्योत्स्नामा २, आर्थिभासी 3, प्रम४२॥ ४. इन ! આ ચારેમાં પહેલા ચન્દ્રપ્રભા નામે અધ્યયનને ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને સમયે રાજગૃહ નામના નગરમાં શ્રી મહાવીર સ્વામીનું આગમન • થયું. તેમની પાસેથી ધર્મકથા સાંભળવા માટે ત્યાંની બધી ધામિક જનતા ત્યાં
આવી. પ્રભુએ ધમનો ઉપદેશ સંભળાવ્યો. સાંભળીને બધાએ તેમની યાવત પપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે ચંદ્રપ્રભા દેવી-કે જે ચંદ્રપ્રભા
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अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका २०२०८ चन्द्रप्रभादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४१ विज्ञेयम्, नवरं = विशेषस्थ्ययम् - पूर्वमत्रे मथुरायां नगयी भण्डी रावतंसक मुद्यानम्, चन्द्रभो गायापतिः, चन्द्रश्रीर्मा, चन्द्रममा दारिका, चन्द्रस्याग्रमहिषी, स्थितिरर्द्ध पल्योपमं पञ्चाशद्भिर्वर्षसहस्त्रैरभ्यधिकम् । शेषं यथा काल्याः । एवं चंद्रप्रभ विमान में रहती थी और चंद्रप्रभ सिंहासन पर बैठती थीश्रमण भगवान् महावीर को वंदना करने एवं उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये उनके निकट आई। इसके बाद का इसका वृत्तान्त कालीदेवी के वृत्तान्त जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नही है। जहां अन्तर है - उसका खुलाशा इस प्रकार है- पूर्वभव में यह मथुरा नगरी में जन्मी थी। वहां भंडीरावतंसक उद्यान था। उस नगरी में चंद्रप्रभ नाम का गाथापति रहता था । उसकी भार्या थी जिसका नाम चंद्रश्री था । उनके यहां यह चंद्रप्रभा नामकी पुत्री थी। यह चन्द्र की अग्रमहिषी बनी । (ठिई अपलिओचमं, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहियं 'सेस जहा कालीए एवं सेसाओवि चंदस्स अग्गमहिसी ) पचास हजार वर्ष से अधिक इसकी स्थिति आपल्य की है। इसके बाद का इसका जीवन वृत्तान्त काली दारिका के जीवन वृत्तान्त जैसा ही जानना चाहिये। इसी तरह ज्योत्स्नाभा आदिशेष ३ देवियों के संबन्ध को लेकर जो अध्ययन कहे गये हैं-वे जानना चाहिये ये सब ज्योत्स्नाभा
વિમાનમાં રહેતી હતી અને ચદ્રપ્રભ વિમાનમાં બેસતી હતી-શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરની વદના કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધમને ઉપદેશ સાંભળવા માટે તેમની પાસે આવી. તેના પછીનું તેનું વૃત્તાંત કાલી દેવીના વૃત્તાંત જેવુ જ છે તેમાં કાઇ પણ જાતને તફાવત નથી. જ્યાં તફાવત છે–તેનુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વભવમાં તે મથુરા નગરીમાં જન્મી હતી, ત્યાં ભડીરાવત’સક ઉદ્યાન હતુ. તે નગરીમાં ચંદ્રપ્રભનામે ગાથાપતિ રહેતા હતા. ચંદ્રશ્રી તેની ભાર્યાનું નામ હતું. તેને ચન્દ્રપ્રમા નામે પુત્રી હતી. या यन्द्रनी अश्रमहिषी ( पटाशी ) थ
( ठिई अद्धपलिओनमं, पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहियं सेसं जहा कालीए एवं सेसाओवि चंदस्स अग्गमहिसी )
પચાસ હજાર વર્ષ કરતાં આની સ્થિતિ અડધા પક્ષની છે. એના પછીનું આનું જીવન વિષેતુ વર્ણન કાલી દ્વારિકાના જીવન જેવું જ સમજી લેવુ જોઇએ. આ પ્રમાણે જ્ગ્યાનામા વગેરે બાકી ત્રણ દેવીઓના સમ`ધને લઈને જે અધ્યયના કહેવામાં આવ્યાં છે તેમને પણ સમજી લેવાં જોઇએ. ना २०६
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गताधर्मकथा शेषाः ज्योत्स्नामादि देव्योऽपि विज्ञेयाः । सर्वाः पूर्वभवे मथुरायां नगयों जाताः,पार्थप्रभुसमीपे च प्रवजिताः। मातापितरोऽपि दुहितसदशनामानः ॥सू०१३॥ इति धर्मकथानामाष्टमो वर्गः समाप्तः ॥ ८॥ अथ नवमो वर्ग: प्रारभ्यते-‘णवमस्स ' इत्यादि।
मूलम्-णवमस्त उक्खेव ओ, एवं खलु जंबू ! जाव अटूअज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-पउमा सिवा सई अंजू रोहिणी णवमिया, अचला अच्छरा, पढमञ्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणंसि जहा कालोए एवं अट्रवि अज्झयणा कालीगमएणं नायव्वा, जवरं सावत्थीए दो जणीओ हथिणाउरे दोजणीओ कंपिल्लपुरे दोजणीओ सागेयनयरे दोजणीओ पउमे पियरो विजया मायराओ सव्वाओऽवि पासस्स अंतिए पव्वइयाओ सक्कास अग्गमहिसीओ ठिई सत्त पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं काहिति ॥ सू०१४ ॥
॥णवमो वग्गो समत्तो ॥ ९॥ . आदि देवियां पूर्व भव में ( महुराए णयरीए ) मथुरा नगरी में उत्पन्न हुई और पार्श्वनाथ प्रभु के समीप दीक्षित हुई। (माया पियरो वि० धूया सरिसणामा) इन पुत्रियों का नाम वैसा ही नाम इनके माता पिता का है।
- भष्टमवर्ग समाप्त:A मधी न्योलनाला वगैरे हेवी मम (महुराए णयरीए) भयु। नगरीमा उत्पन्न छ भने पवनाथ प्रभुनी पासेथी दीक्षित 25. ( मायापियरो कि धूया सरिसणामा ) मा पुत्रीमानां नामा २१ तमना मातापिता-मानां નામે પણ છે.
આઠમો વર્ગ સમાપ્ત.
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अमगारधर्मामृतषिणो टी० श्रृं० २ ० ९ पद्मादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४३
टीका-'णवमस्से ' ति-जवमस्य वर्गस्योत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! यावत्-अष्ट-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पद्मा १, शिवा २, शची ३ अजू: ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अचला ७, अप्सराः ८ । एष प्रथमाध्ययनस्योरक्षे
-नवमवर्ग प्रारंभःणवमस्स उक्खेवओ इत्यादि।
टीकार्थः- (णवमस्स उक्खेवो-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झ. यणा पण्णत्ता-तं जहा-पउमा, सिवा, सई, अंजू, रोहणी, णवमिया, अचला, अच्छरा,-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासह, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई, देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि-सीहासणंसि जहा कालीए एवं अट्ठवि अज्झयणा कालीगमएणं नायव्वा) हे भदंत ! नौवें वर्ग का उत्क्षेपक किस प्रकार से है ? इस प्रकार जबू स्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू! सुनो-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस तरह से है-श्रमण भगवान महावीर ने इस वर्ग के यावत् आठ अध्ययन प्रह पित किये-वे इस प्रकार से हैं-पमा १, शिवा, २, शची ३, अंजू ४, रोहिणी ५, नवमिका ६, अचला ७, और अप्सरा । इनमें हे जंबू ! प्रथम
નવમે વર્ગ પ્રારંભ. (णवमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव अट अज्झयगा पण्णत्ता-तं जहा पउमा, सिवा, सई, अंजू, रोहिणी, णवमिया, अचला, अच्छरा, पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू! तेणं कालेगं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जु गासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमाबई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे समाए मुहम्माए पउमंसि-सीहासणंसि जहा कालिए एवं अट्ठ वि अज्झयणा काली गमएणं नायना )।
હે ભદન્ત ! નવમા વર્ગને ઉક્ષેપક કેવી રીતે છે?
આ પ્રમાણે જંબૂ સવામીને પ્રશ્ન કર્યા બાદ સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ વર્ગનાં યાવત્ આઠ અધ્યયને પ્રરૂપિત કર્યા છે, તે मा प्रभारी छ:-५१, शिवा २, शथी 3, मनू ४, शलिली ५, न. મિકા , અચલા ૭ અને અપ્સરા ૮,
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माताधर्मकथा पकः । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे समवसरणम्= भगवतो महावीरस्य समागमनमभूत् , यावत्-परिपत् पर्युपास्ते । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पद्मावती देवी, सौधर्मे कल्पे पद्मावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां पद्मे सिंहासने, यथा काल्याः । एवम् अष्टापि अध्ययनानि कालीगमकेन-कालीदेवीसदृशपाठेन ज्ञातव्यानि, नवरं विशेषस्त्वयम्-पूर्वभवे श्रावस्त्यां नगयाँ 'दोजअध्ययन का उत्क्षेप रु इस प्रकार से है-उस काल में और उस समय में राजगृह नगर में भगवान महावीर का अगमन हुआ था। लोगों को जय इनके शुभागमन की खबर पड़ी तो वे सब के सब उनको वंदना करने के लिये और उनसे धर्मोपदेश को काम लेने के लिये उनके समीप पहुँचे। प्रभु ने आये हुए परिषद को श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनने के बाद उसने प्रभु की यावत् पर्युपासना की। उस काल में और उस समय में पद्मावती देवी जो कि सौधर्मकल्प में पद्मावतंसक विमान मे, सुधर्मा सभामें रहती थी और जिसके सिंहासन का नाम पद्म था श्रमण भगवान महावीर को वंदना करने
और उनसे धर्म का उपदेश सुनने के लिये वहां आई। इसके बाद का सम्बन्ध कालीदेवी का जैसा वर्णन पहिले किया गया है वैसा ही जानना चाहिये । इसी तरह से अवशिष्ट सात अध्ययन भी जानना चाहिये । इन आठों ही अध्ययनों को पाठ जैसा कालीदेवी का पाठ है वैसा ही है । कोई अन्तर नहीं हैं (णवरं ) परन्तु जहां अन्तर है वह
હે જંબૂ! આમાં પહેલા અધ્યયનને ઉક્ષેપક આ પ્રમાણે છે–તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીરનું આગમન થયું. કેને તેમના શુભાગમનની જ્યારે જાણ થઈ ત્યારે તેઓ સર્વે તેમને વંદન કરવા માટે અને તેમની પાસેથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળવા માટે તેમની પાસે ગયા.
એ આવેલા સર્વ લોકોને થતચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ સંભળાવ્યું. હરેશ સાંભળીને લેકેએ પ્રભુની યાવત્ પર્યાપાસના કરી. તે કાળે અને તે સમયે પદ્માવતી દેવી-કે જે સૌધર્મ કલ્પમાં, પદ્માવતંસક વિમાનમાં સુધર્મા સભામાં રહેતી હતી અને જેના સિંહાસનનું નામ પદ્મ હતું-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન કરવા અને તેમની પાસેથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળવા ત્યાં આવી. એના પછીનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવેલા કાલી દેવીના વર્ણનની રસ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે જ બાકીનાં સાત અધ્યયને વિષે પણ જાણી લેવું જોઈએ. એ આઠે આઠ અધ્યયને પાઠ કાલી દેવીના જેવો જ
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अनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु. २ ३० ९ पद्मादिदेवानां चरित्रवर्णनम् ८४५ णीओ ' द्वे जन्यौ पद्मा-शिवाभिधे द्वे दारिके संजाते । एवं हस्तिनापुरे द्वे जन्यौ श्रुतिः-अजूः चेति, काम्पिल्यपुरे द्वे जन्यौ रोहिणीनवमिकानाम्न्यौ, साकेतनगरे द्वे जन्यौ अचला-अप्सरा इति संजाते । सर्वेषाम् ' पउमे' पद्मः पोति नामानः पितरः, विजया-विजयानाम्नो मातर आसन् । सर्वा अपि पार्श्वस्य पार्श्वप्रभोरन्तिके प्रजिताः, शक्रस्याप्रमहिष्यो जाताः । तासां स्थितिः सप्तपल्योपमानि । एताः सर्मा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति यावत्सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ॥सू०१४॥
॥ इति धर्मकथानां नवमो वर्गः समाप्तः ॥९॥ इस प्रकार से है-(सावत्थीए दोजणीओ) पद्मा और शिवा ये दो कन्याएँ पूर्व भवमें श्रावस्ती नगरी में उत्पन्न हुई (हत्थिणाउरे दोजणी
ओ, कम्पिल्लपुरे दी जणीओ सागेयनयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजयाभायराओ सवओवि पासस्स अंतिए पब्वइयाओ सकस अग्गमहिसीओ टिई सत्तपलिओवमाई महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिंति १४' ) श्रुति और अंजू ये दो हस्तिनापुरमें, रोहिणी, नवमिका ये दो काम्पिल्यपुरमें, अचला एवं अप्सरा ये दो साकेत नगर में, उत्पन्न हुई। इन सब कन्याओंके पिता का नाम: पद्म और माता का नाम विजया था। ये सब कन्याएँ पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रवजित हुई हैं। शक की अग्रमहिषियां बनी हैं। इन की स्थिति सातपल्य थी। ये
छ तभ सभ७ सय. तमा पर तनो तशत नथी. ( णवर') ५२ न्यो तपत है-ते मा प्रभा छ (सावत्थीए दोजणीओ) पावती અને શિવા આ બંને કન્યાઓ પૂર્વભવમાં શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઉત્પન્ન થઈ.
( हस्थिणाउरे दो जणीओ, कंपिल्लपुरे दो जणीओ सागेय नयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजया भायराओ सवाओवि पासस्स अंतिए पाइयाओ सक्सस अगमहिसीओ ठिई, सत्त पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिझिर्हिति जाव अंतं काहिति " १४ "।)
શ્રતિ અને અંજ આ બંને હસ્તિનાપુરમાં, રેડિણી અને નામિકા આ બંને કાંપિયપુરમાં, અચલા અને અપ્સરા આ બને સાકેત નગરમાં ઉત્પન્ન થઈ. આ બધી કન્યાઓના પિતાનું નામ પદ્મ અને માતાનું નામ વિજયા હત. આ બધી કન્યાઓ પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે પ્રબજિત થઈ છે અને શકની અગમહિષીઓ (પટરાણુઓ) બની છે. એમની સ્થિતિ સાત પત્ય જેટલી
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अथ दशमो वर्गः प्रारभ्यते - दसमस्स ' इत्यादि । मूलम् - दसमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाव अटू अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा - कण्हा य कण्हराई रामा तहरामरक्खया वसूय । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे ॥१॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हादेवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसर विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए एवं अडवि अज्झयणा कालीगमएणं णेयव्वा णवरं पुव्वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ सावत्थीए नयरीए दो जणीओ कोसंबीए नयरीए दो जणीओ, रामे पिया धम्मा माया सव्वओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुष्फलाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिई णव पलिओ माई महाविदेहे वाले सिज्झिहिंति बुज्जिहिंति मुच्चिहिंति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । एवं खल जंबू ! णिक्खेवओ दसमवग्गल ॥ सू० १५ ॥
॥ दसमो वग्गो समत्तो ॥ १० ॥
છે. આ બધી મહાવિદેહ
मोनो मत ४२
॥
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शाताधर्मकथासूत्र
टीका- --' दसमस्से ' ति दशमस्य उत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! यावत् अष्ट- अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - तानि गाथया प्रदर्श्यन्ते ' कण्हे ' स्यादि ।
सब महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध अवस्था प्राप्त करेंगी - यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगी । सू०१४ ॥
॥ नवमवर्ग समाप्त ॥
નવમા વર્ગ સમાપ્ત.
म
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ક્ષેત્રમાંથી સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે યાવત્ સવ
सूस१४ ॥
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भनगारपामृतवर्षिणी टी० ०२ १०१० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् ८४७
"कृष्णा १ च कृष्णराजिः २, रामा ३ तथा रामरक्षिका ४ वसूश्च ५ वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, वसुन्धरा ८ चैव ईशाने ॥ १॥"
तत्तन्नामभिरध्ययनानि प्रसिद्धानि । तत्र प्रथमाध्ययनस्योत्क्षेपकः । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे भगवतः श्रीमहावीर
॥ दशमवर्ग प्रारंभ ॥ 'दसमस्स उक्खेवओ' इत्यादि० "१५"
टीकार्थ-(दसमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठअज्झयणा पण्णत्ता-तं जहां-कण्हाय कण्हराई, रामा, तह रामरक्खिया वसूय। वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे "१"-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू 1) हे भदन्त श्रमण भगवान महावीर ने दशवें वर्गका उत्क्षेपक किस प्रकार से कहा है ? इस तरह का जंबू ! स्वामी के प्रश्न का समाधान करने के निमित्त सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि हे जंबू ! सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रमण भगपान महावीरने इस दशवें वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किये हैं-वे ये हैं-कृष्णा १, कृष्णराजि २, रामा ३, रामरक्षिका ४, वसू ५, वसुगुप्ता ६, वसुमित्रा ७, और वसुंधरा। इन २ नामों द्वारा इन २ नाम वाले अध्ययन प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें प्रथम अध्ययन का हे जंबू ! उत्क्षेपक
शमे प्रा२'दस्समस्स उक्खेवओ' इत्यादि- . (दसमस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू ! जाव अट्ट अज्झयणा पण्णत्ता-तं जहा-कण्हा य कण्हराई, रामा तह रामरक्खिया वसू य । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव ईसाणे ॥१॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबू) - હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમા વર્ગને ઉક્ષેપક કેવી રીતે કહ્યો છે?
આ પ્રમાણેના જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને તેને સમાધાન માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહે છે કે હે જંબૂ ? સાંભળો, તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ દશમા વર્ગના આઠ અધ્યયને પ્રજ્ઞ, કર્યા છે, તે આ પ્રમાણે છે-કૃષ્ણ ૧, કૃષ્ણરાજિર, રામા .3, रामक्षिा ४, वसू ५, सुगुप्ता , सुमित्रा ७ मने पसुंधर। ८.
આ ઉક્ત જુદા જુદા નામે વડે એ જ નામનાં જુદાં જુદાં અધ્યયને પ્રસિદ્ધ થયાં છે. હે જબૂ! આ બધામાંથી પહેલા અધ્યયનને ઉલ્લેપક
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पाताधर्मकथा स्वामिनः समवसरणं यावत् परिषत् पर्युपास्ते, तस्मिन् काले तस्मिन् समये कृष्णादेवीईशाने कल्पे कृष्णावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां, कृष्ण सिंहासने, शेष इस तरह से हैं-(तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ) उस काल एवं उस समयमें राजगृह नगरमें भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ था। परिषद् उन को वंदना आदि करने के लिये उनके समीप पहुँची। प्रभुने सबके लिये धर्म का उपदेश सुनाया । लोगोंने उपदेश सुनकर प्रभु की पर्युपासना की (तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालिए एवं अविट्ठाअज्झयणा कालीगमएणं णेयव्या, णवरं पुन्वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ, सावस्थीए नयरीए दो जणीओ, को संघीए नयरीए दो जणीओ रामे पिया धम्मा माया सव्वोऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पन्वइयाओ पुप्पाचुलाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओठिई, णवपालिओवमाई, महाविदेहे वासे सिज्झि हिंति, बुझिहिति, मुच्चिहिति, सम्वदुक्खाणं, अंतंकाहिंति, एवं खलु जंबू! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स) उसी काल और उसी समय वहां कृष्णादेवी जो ईशान कल्प में कृष्णावतंसक विमान में रहती थीं-और
सा प्रभार छ. (तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं, जाव परिसा पज्जुवासइ) ते णे भने त समये २०४७ नगरमा मापान महावीरनु શભાગમન થયું. તેમને વંદન કરવા માટે પરિષદ તેમની પાસે પહોંચી. સૌને પ્રભએ ધર્મોપદેશ સંભળાવ્યો. ધર્મોપદેશ સાંભળીને પરિષદે પ્રભુની પર્યપાસના કરી.
( तेणं कालेणं तेणं समएम् कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हेव.सए विमाणे सभाए मुहम्माए कण्हंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए एवं अविद्वा अज्झयणा कालीगमएणं णेयवा, णवरं पु-वभवे वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ, सावत्थीए नयरीए दो जणीभी, कोसंबीए नयरीए दो जणीओ रामे पिया धम्मा माया सम्बओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पन्नइयाओ पुष्फ चूलाए अज्जाए सिस्मिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिई, णवपलि ओवमाई, महाविदेहे वासे सिज्झिर्हिति बुझिहिति, मुच्चिर्हिति, सयदुक्खाणं, अंतं काहिति एवं खलु जंबू ! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स )
તે કાળે અને તે સમયે ત્યાં કૃષ્ણ દેવી-કે જે ઈશાન-ક૯૫માં કૃષ્ણ. વતંસક વિમાનમાં રહેતી હતી અને જેની સભાનું નામ સુધમાં તેમજ સિંહાસનનું નામ કૃષ્ણ હતું–આવી એના પછીને પાઠ કાલી દેવીના
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पारधामृतवर्षिणी टी० भु० २ १० १० कृष्णादिदेवीनां चरित्रवर्णनम् em यथा कारयाः। एवमष्टा कृष्णराजिप्रभृतीनि अध्ययनानि कालीगमकेन-कालीदेवीसशपाठेन ज्ञातव्यानि नवरं-विशेषः यत्-पूर्वभवे वाणारस्यां नगर्या द्वे कृष्ण-कृष्णराजिनाम्न्यौ जन्यौदारिके संजाते । एवं राजगृहे नगरे द्वेवसवमुगुप्ता नाम्न्यौ जन्यौ, कौशाम्ब्यां नगयाँ द्वे-वसुमित्रा-वसुन्धरा नाम्न्यौ जन्यौ-दारिके समुत्पन्ने । सर्वासां रामारामाभिधः पिता, धर्माधर्माऽभिधा माता । सर्वा अपि पार्श्वस्याहतोऽन्तिके प्रव्रजिताः, पुष्पचूलाया आर्यायाः शिष्या. स्वेन पार्श्वपभुणा स्वयं प्रदत्ताः । ईशानस्य ईशानेन्द्रस्य अग्रमहिण्यो जाताः । तत्र तासां स्थिति व पल्योपमानि वर्तते । ततश्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे समुत्पद्य सेत्स्यन्ति, जिसकी सभा का नाम सुधर्म तथा सिंहासन का नाम कृष्ण था आई। इस के आगे का पाठ कालीदेवी के वर्णन में जैसा पाठ कहा गया है वैसा ही है। इसी तरह से कृष्णराजि प्रभृति अध्ययन भी-कालीदेवी वर्णन में पठित पाठ के सदृश ही जानना चाहिये । कालीदेवी के पाठ में और इन आठ अध्ययनोक्त पाठों में जो अन्तर है वह इस प्रकार से है-पूर्वभव में वाणारसी नगरीमें कृष्णा और कृष्णराजि ये दो जनी -उत्पन्न हुई, राजगृहनगर में रामा और रामरक्षिका श्रावस्ती नगरी में वसू, वसुगुप्ता और कौशांबी नगरी में वसुमित्रा एवं, वसुंधरा उत्पन्न हुई। इन सब के पिता का नाम राम और माताओं का नाम धर्मा था। ये सबकी सब पार्श्वनाथ प्रभु के पास प्रवजित हुई। प्रभुने इन सब को दीक्षित करके पुष्पचूला आर्या की शिष्यारूप से दिया। ये सब इस ईशानेन्द्रकी अग्रमहिषी हुई। वहां इनकी स्थिति नौ पल्योपम की है। वहां से चक्कर ये महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और वहीं से વનમાં જે પ્રમાણે પાઠ કહેવાય છે તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે જ કૃષ્ણરાજિ વગેરે અધ્યયને પણ કાલી દેવીના પાઠમાં અને આ ઉક્ત આઠ અધ્યયનના પાઠમાં જે કંઈ તફાવત છે તે આ પ્રમાણે છે-પૂર્વભવમાં વાણારસી નગરીમાં કૃષ્ણ અને કૃણારાજ આ બંને ઉત્પન્ન થઈ રાજગૃહ નગરમાં રામ અને રામરક્ષિકા શ્રાવતી નગરીમાં વસ, વસુગુપ્તા અને કૌશાંબી નગરીમાં વસુમિત્રા અને વસુંધરા ઉત્પન્ન થઈ. એમના પિતાનું નામ રામ અને માતાનું નામ ધર્મા હતું. એ અધીએ પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરી હતી. પ્રભુએ સર્વેને દિક્ષિત કરીને પુષ્પચૂલા આર્યાને શિષ્યાઓના રૂપમાં સોંપી હતી. એ બધી ઈશાનેન્દ્રની અગ્રમહિષીઓ થઈ ત્યાં તેમની સ્થિતિ નવ પલ્યોપમની છે. ત્યાંથી ચવીને એ બધી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને ત્યાંથી જ સિદ
. १०७
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भोत्स्यन्ति, मोक्ष्यन्ति सर्व दुःखानामन्तं करिष्यन्ति । एवं स्खलु हे जम्बू। निशे पको दशमवर्मस्वः ॥ सू०१५ ॥
॥ इति धर्मकयानां दशमो वर्गः समाप्तः ॥१०॥
मूलम्--एवं खल जंब समणेणं भगवया महावीरेणं आदि. मरे सयंसंबुद्धणं पुरिसोत्तमेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं.. अयमट्रे पण्णते॥
॥ धम्मकहासुयक्खंधी समत्तो दसहिं वग्गेहिं ॥
॥णायाधम्मकहाओ. समत्ताओ॥ .. टीका-सुधर्मास्वामी कथयति-' एवं खलुः' इत्यादि । एवं खलु हे जम्मूः। श्रमणेन भमवता महावीरेण प्रादिकरेण तीर्थकरेण स्वयं सम्बुद्धेन पुरुषोत्तमेन सिद्ध पद की भोक्ता बनेंगी केवलज्ञानरूप आलोक से समस्त बराबर पदार्थों की ज्ञाता बनेगी। द्रव्य एवं भावरूप समस्त कर्मों से छुटजावेंगी इस तरह ये वहीं से समस्त दुःखों का अन्त करने वाली होंगी। इस प्रकार हे जंबू! यह दशवेवर्ग का निक्षेपक है।
॥ दसमवर्ग समाप्त ॥ :: एवं खलु जंबू! इत्यादि। ....
टीकार्य-( एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आदि गरण नित्यगणं सर्यसंयुद्धणं पुरिसोसमेणं जाप संपत्तेण धम्मकहाण अयमढे पण्णते).अब जंबूस्वामी से श्री सुधमास्वामी कहते हैं कि પદ મેળવશે એ બધી કેવળજ્ઞાન રૂપ આલોકથી સમસ્ત ચર અને અચર પાનું જ્ઞાન મેળવશે. દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ બધા કર્મોથી મુકત થઈ જશે... આ પ્રમાણે એ બધી ત્યાંથી જ બધા એને અત કરનારી થશે. આ પ્રમાણે હે જબૂ! આ દશમા વર્ગને નિક્ષેપક છે.
tu सभात. एवं खलु जंबू! इत्यादि(एवं खलु जंबू ! समणेणे भगाया महावीरेणं आदिगरेणं तित्यगरेणं सर्व संयुदे पुरिसोतमेणं नाव संपत्तेण धम्म कहाणं अयम पणते)
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anematumn to.२ १० १० रुष्णादिदेवानां परित्रवर्णनम् । यावत् सिदिगतिनामधेयं स्थान समान धर्मकथानामयमर्थः प्रज्ञप्तः ॥
॥ धर्मकथानामको द्वितीया श्रुतस्कम्पा समाप्तः ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जंगबल्लम-प्रसिद्धयाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रपिरागपयनैकग्रन्थनिर्मापक-पादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ. प्राविकोल्हापुरराजमहल- जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोलापुरराजगुरु-पालनमचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यत्री घासीलालप्रतिक्रिविता-माताधर्मकथासूत्रस्यामगारधर्मामतपर्षि
ण्याख्या व्याख्या समाप्ता॥ जंबू। आदिकर, तीर्थङ्कर, स्वयं संबुद्ध पुरुषोसम, यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए ऐसे श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक बितीय श्रुतस्कंध का पूर्वोत्तरूप से अर्थ प्राप्त किया है। (धम्मकहासुरक्खंघों समतो देसहि धग्गेहि ) धर्मकथा नामका यह द्वितीय अंतस्कंध दशवर्गों में समाप्त हुआ है। इस तरह ( णायाधम्मकहाओ ममत्वो ) या सताधकथा सत्र समाप्त हुआ। श्री मनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाताधर्मकथासूत्र "की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या समात ।। ' 'હવે અબૂ સ્વામીને શ્રી સુધમાં સ્વામી કહે છે કે હે જી આહિર તીયકર સ્વય સંબુદ્ધ, પુરૂષોત્તમ ચાવત સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી ચૂકેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ધર્મકથા નામના બીજા કુતરકને yाहत मय प्रषित (धम्मकहा सुयक्वंधो समतो दसहि बम्गेहि ) या नाभने। am wilR श्रुत४५ ४५ कमां पूरी यो 3. प्रभाव (णायाधम्मकाओ समत्ताओ) मा शात ४is a Yuj है. શ્રી જનાચાર્ય જૈન ધર્મ દિવાકર, પૂજન, શ્રી વાસીલાલજી મહારાજ કૃત “જ્ઞાતાધર્મકથાસૂત્ર” ની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યા સમાસ
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शाखमवस्ति:काठियावाडदेशेऽस्ति, राजकोटपुरे शुभे फोठारीहरगोबिन्द काकानाम प्रसिद्धिमान् । तस्यास्तिभार्यापरमा सुधीला, धर्मानुरक्तागृहकार्यदक्षा। शान्तिप्रिया दीनदयामागो, नाम्ना प्रसिद्धा किमरुक्मिणीसा ॥२॥ दिनेशचनस्तनयोऽस्ति यस्य, कुलस्य दीप: सरलतभावः। कन्या सुशीला सरला जितुष-सदा-प्रमोदाय चकास्विपित्रोः ॥३॥ व्याख्यानभवने तस्य, झाताधर्मकथानके । घासीलाछेन मुनिना कुता टीका सतां मुदे ॥४॥ द्विसहस्रचतुः संख्ये, विक्रमाग्दे रवौ दिने ।
माघे शुषले च पश्चम्या, सम्पूर्णा धर्मवर्षिणी ॥५॥ काठियावाडदेश में राजकोट नामका अच्छा नगर है। उस में कोठारी हरगोविन्दकाका रहते हैं। इनका सुशीलभार्याका नाम रुक्मिणी. हैं। यह गृहकार्य में बहुत चतुर है। धर्मात्मा है, शान्ति प्रिया है एवं दीन दुःखियों के ऊपर सदा दया भाव रखती है। काका का कुल दीपक एक दिनेशचन्द्र नाम का पुत्र और जितु नाम की-कन्या है। ये दोनों माता पिता के प्रमोद के स्थान भूत हैं।
मुझ घासीलाल मुनिराज ने उन्ही के व्याख्यान भवन में ठहर कर विक्रम संवत् २००४ दिन रविवार माघशुक्ला पंचमी के दिन ज्ञाता धर्मकथाङ्ग, सूत्र की यह टीका रचकर समाप्त की है।
કાઠિયાવાડ પ્રાંતમાં રાજકેટ નામે એક સરસ રમ્ય નગર છે. તેમાં કોઠારી હરવિંદ કાકા રહે છે. તેમની સુશીલ પત્નીનું નામ રુકિમણી છે. તેઓ ગૃહકાર્યમાં બહુ જ ચતુર છે, ધર્માત્મા તેમજ શાંતિ પ્રિયા પણ છે. તેઓ ગરીબ દુઃખીઓના ઉપર હમેશાં દયાભાવ રાખે છે. કાકાને કુળદીપક એક દિનેશચંદ્ર નામે પુત્ર અને જિતુ નામે એક કન્યા છે. આ અને માતાપિતાનાં પ્રમેહનાં આશ્રયસ્થાને છે.
મેં બાસીલાલ મુનિરાજે તેમના જ વ્યાખ્યાન ભવનમાં રહીને વિકમ સંવત ૨૦૦૪ રવિવાર માઘ શુકલા પંચમીના દિવસે જ્ઞાતાધર્મકથગ સરની આ ટીકા રચીને પૂરી કરી છે.
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