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मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्रविरचित
श्री गौतमचरित्र | (मूल संस्कृत व भाषाटीका)
हिंदी टीकाकारश्री० धर्मरत्न
• पं० लालारामजी शास्त्री ।
प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापडिया, सूरत |
मूल्य १-४-०
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श्रीवीतरागाय नमः ।
मंडलाचार्य श्री धर्मचंद्र विरचित -
श्रीगौतमचरित्र | (मूल संस्कृत व भाषाटीका सहित)
हिंदी टीकाकार
श्री० धर्मरत्न पं० लालारामजी शास्त्री, चावली (आगरा) नि ० आदिपुराण, उत्तरपुराण, सागारधर्मामृत, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, शांतिनाथपुराण, धर्मप्रश्नोत्तर, चारित्रसार आदि अनेक ग्रन्थोंके हिन्दी टीकाकार)
प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया दिगंबर जैन पुस्तकालय, चन्दावाडी-स्वं
" जैनविजय " प्रि० प्रेस - सूरत में मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया ।
वीर सं० २४५३
मूल्य १-४-०
प्रथमावृत्ति ]
[ प्रति १०००
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0 प्रस्तावना। दिगंबर जैन समाजमें आजतक तीर्थकर व महापुरुषों के अनेक चरित्र, पुराण, कथाकोष, तात्विक ग्रन्थ आदि प्रकट होगये हैं, परंतु हमारे अंतिम तीर्थकर श्री महावीरस्वामीके मुख्य गणधर-श्री गौतमत्वामीका चरित्र जो अतीव जानने, मनन करने व स्वाध्याय करनेयोग्य है, आजतक प्रकट नहीं हुआ था व हम इसी खोनमें थे कि कहींसे गौतमचरित्रकी प्राप्ति होनाय तो उसका अवश्य २ प्रकाशन करें, इतने में हमें मालूम हुआ कि आदिपुराणादि अनेक धर्मग्रन्थोंके संपादन करनेवाले सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री. धर्मरत्न पं० लालारामजी शास्त्रीको देहलीके एक मंदिरसे गौतमचरित्र (संस्कृत भाषा ) की प्राप्ति हुई है और वे इसका हिन्दी अनुवाद लिख रहे हैं। यह जानकर हमें अतीव हर्ष हुआ और तुर्त ही पंडितनीसे इसका अनुवाद पूर्ण करवाया जो करीब दो वर्षोसे हमारे पास आया हा था परन्तु आपका ही अनुवादित एक और बड़ा ग्रन्थरत्न-श्री प्रश्नो. तर श्रावकाचार हम छपा रहे थे इससे इसके प्रकाशनमें विलंब हो गया था परन्तु अब तो यह ग्रंथ छपकर प्रकाशनमें आ रहा है।
इस ग्रन्थके रचयिता श्रीमान् मंडलाचार्य श्री धर्मचंद्रनी (भट्टारक) हैं जिन्होंने इस ग्रन्थको विक्रम संवत् १७२६में रघुनाथ महारानके राज्यशासनमें महाराष्ट्र नामक छोटे नगरके रुषभदेवके मंदिरमें बैठकर रचा था। इस ग्रन्थके अंतमें आपने अपना परिचय कराया है इससे मालूम होता है कि आप मूलसंघमें बलात्कारगण
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ब भारती गच्छके एक दैदीप्यमान सूर्य थे व आपके पट्टमें श्री नेमिचंद्र, श्री यश-कीर्ति, श्री भानुकीर्ति व श्रीभूषण भट्टारक हो गये थे व उनके पट्टपर आप ( श्रीधर्मचन्द्रनी ) अठारहवें सैके में विसनमान थे व आपने परमोपकारक श्री गौतमस्वामीकी भक्तिवश इस गौतमचरित्रकी सरल संस्कृत भाषामें रचना की थी उसीका यह सरल हिन्दी अनुवाद है । ग्रन्थका महत्व व विद्वान आचार्यकी कृति कायम रहे इसलिये मूल संस्कृत श्लोक भी हिन्दी टीकाके साथ २ रख दिये गये हैं जो संस्कृतज्ञोंको बहुत उपयोगी होंगे क्योंकि इसमें अनेक ऐसी २ उपयोगी बातें जैसे कि-स्त्रियां पूजन अभिषेक कर सकती हैं, आदि विषयोंका खासा निरूपण है । हमें आशा है इस ग्रन्थरत्नके पठनपाठनसे नैन समाजमें व्रतोंके धारण करनेकी अधिकाधिक रुचिहोगी क्योंकि श्रीगौतमस्वामीकाजीव अंतिम भवमें एक शुद्र कन्याके रूपमें था तब उसने अनेक कुकर्म किये व श्रीअंगभूषण मुनिपर घोर उपसर्ग किये थे, परन्तु धर्मोपदेशसे अंतमें उन्होंने लब्धिविधान व्रत विधिपूर्वक किया जिससे स्त्रीलिंग छेदकर यह जीव पांचवे ब्रह्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ व वहांसे चयकर ब्राह्मणनगरमें ब्राह्मण (वेदधर्मी)का पुत्र गौतम हुआ जिसने पीछे भगवान महावीरके मुख्य गणधरका पद प्राप्त करके अंतमें केवलज्ञान प्राप्त किया था।इस चरित्रके पठनपाठनसे विशेष लाभ यह भी होगा कि इसमें गौतमचरित्रके साथ २ महाराज श्रेणिक, भगवान महावीर आदिका संक्षिप्त वर्णन है तथा अंतिम अधिकार में तो भगवान महावीर क गौतम गणधरकी दिव्य ध्वनि (वाणी)का उपदेश इस ढंगसे लिखा गया है कि इससे सरल भाषामें सारे जैनसिद्धांतों-खासकर कर्म
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प्रकृतिका दिग्दर्शन होजाता है। इससे हमें पूर्ण आशा है कि इस नवीन ग्रन्थका जैन समाजमें विशेष आदर होगा व शीघ्र ही हमें इसकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनेका मौका प्राप्त होगा। इसके अनुवाद व प्रकाशनमें कोई त्रुटि रह गई हो तो उसकी सूचना कोई भाई हमें करेंगे तो उसपर अवश्य लक्ष दिया जायगा ।
श्री वीरनिर्वाण
सं. २४५३ . फाल्गुन सुदी ११ ।
ता० १३-३-२७ )
जैनसमाज सेवकमूलचंद किसनदास कापड़िया,
प्रकाशक।
* विषयसूची । *
प्रथम अधिकार ।
विषय... मंगलाचरण ... ... . ... ... २. जम्बूद्वीप तथा राजगृहनगरका वर्णन ... ३. महाराज श्रेणिक व रानी चेलनीका वर्णन ... ४. भगवान महावीरका विपुलाचलपर आगमन ...
५. महाराज श्रेणिकका वन्दनार्थ गमन च स्तुति... ... ... ६. भगवान महावीरका धर्मोपदेश ... ... ___७. महाराज श्रेणिककी गौतम गणधरके भवान्तर जाननेकी जिज्ञासा २३
द्वितीय अधिकार । ८. अवन्ती देश व राजा महीचन्द्रका वर्णन ... ... २४ । ९. अंगभूषण मुनिका आगमन व राजा महीचंद्रका वन्दनार्थ गमन २७ १०. तीन शूद्र कन्याओंका आगमन व मुनिराजका धर्मोपदेश ... २८
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११. राजा व शूद्र कन्याओंका पूर्व भवान्तर वर्णन..., ... ' ३३ १२. कन्याओं द्वारा मुनिराजको उपसर्ग... . ... १३. मुनिराजके घोर उपसर्ग सहनका कारुण दृश्य... १४. मुनिराजका संसारकी असारताका चिंतवन ... ... ६६ १५. उपसर्ग करनेसे कुटम्बी कन्याओंकी दुर्गतिका वर्णन ...
तृतीय अधिकार।
१६. शूद्र कन्याओंकी कर्म-नाश करनेके उपायकी जिज्ञासा .... . ७६ १७. कर्मनाशार्थ लब्धिविधान व्रत करनेका उपदेश व उसकी विधि ८. १८. लब्धिविधान व्रतके पालनसे तीनों कन्याओंकी सुगति ... १९. राजा महीचन्द्रका दीक्षाग्रहण ... ... ... २०. ब्राह्मण नगर व गौतमस्वामीके मातपिताका वर्णन . ... २१. एक शूद्र कन्याके जीवका स्वर्गसे चयकर गौतम ब्राह्मण होना२३, गौतम-जन्म-महोत्सष वर्णन ... ... २२. शेष दो कन्याओंके जीवका भी उन्हीके घर जन्म २४. गौतमब्राह्मणका विद्यामद.. ... ... ... ९७
चतुर्थ आधिकार। २५. भगवान महावीरका संक्षिप्त चरित्र ... ... ... ९९ २६. समवशरणका वर्णन ... ... ... ... १११ २७. भगवानकी दिव्यध्वनिका नहीं खिरना
... ११२ २८. गौतमको समवशरणमें लानेके लिये इन्द्रका वृद्धके रूपमें जाना ११३ २९. एक श्लोकका अर्थ गौतमसे पूछना ... ... ११४ ३०. गौतमब्राह्मणका समवशरणमें जाना व मान गलित होना ११७ ३१. गौतमका दीक्षा ग्रहण करना व गणधरपद प्राप्ति- ... ११० ३२. भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि खिरना ... ... ३३. धर्म-श्रवण करनेकी महाराज श्रेणिककी जिज्ञासा ...
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३४. पंच महाव्रतोंका वर्णन ३५. तपश्चरणकी महिमा ३६. देवका स्वरूप व उसकी पूजाका महत्व
...
३७: गुरुका स्वरूप...
३८. जिनवाणीका स्वरूप ३९. सम्यग्दर्शनकी महिमा
४०. मिथ्यादर्शनका स्वरूप व उसका फल
४.१. पात्रदानादिका फळ
४२. रात्रिभोजन त्यागकी आवश्यकता ४३. गौतमस्वामीका तपश्चरण ... ४४. गौतमस्वामीको केवलज्ञान-प्राप्ति
...
...
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( ६ )
...
...
५१. स्त्रात नरक व उनमें लेश्यादिका ५२. देवगतिका वर्णन
...
पंचम अधिकार ।
....
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...
५३. गौतमस्वामीको मोक्षप्राप्ति
५४. गौतमस्वामीके पूर्वभवोंका संक्षिप्त वर्णम
. ५५५ ५६. ग्रन्थकारका परिचय
⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀
...
...
४५. गौतमगणधरकी वार्णी खिरना ४६, जीवादि सप्त तत्त्वोंका वर्णन ४७. अष्टकर्म व उनके भेदप्रभेद
४८० कर्मों की स्थिति व कर्मबंधके विशेष कारण
४९. भोगभूमिका स्वरूप, कुलकर, तीर्थङ्गर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, रुद्र, नारद, कामदेव आदिकी उत्पत्ति, समय, जन्मस्थान, आयु व षट् काल आदिका विशेष वर्णन ५०. पांचवे (वर्तमान) दुःखमकालका वर्णन
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का गुणगान व ग्रन्थकारकी लघुता
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मंडलाचार्यश्रीधर्मचन्द्रविरचितश्रीगौतमचरित्र। (भाषाटीका सहित) प्रथम अधिकार।
अर्हन्तं नौम्यहं नित्यं, मुक्तिलक्ष्मीप्रदायकम् ।
विबुधनरनागेंद्रसेव्यमानं सुपत्कनम् ॥ १ ॥ __ अर्थ-जो भगवान् अरहंतदेव मोक्षरूपी लक्ष्मीके देनेवाले हैं और जिनके चरणकमलोंकी सेवा इंद्र, नरेंद्र, नागेंद्र, सब करते हैं ऐसे भगवान् अरहंतदेवको मैं सदा नमस्कार करता हूँ॥१॥ जो सिद्ध भगवान् कर्मरूपी शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं, आठों कर्मोके निाश होनेसे प्रगट हुए सम्यक्त्व आदि आठों गुणोंसे सुशोभित हैं, जो लोकशिखरपर विराजमान हैं और जो सदा उसी मुक्त अवस्थामें बने रहते हैं
श्रीगौतमचरित्रम् । अर्हतं नौम्यहं नित्यं मुक्तिलक्ष्मीप्रदायकम् । विबुधनरनागेंद्रसेव्यमानसुपत्कजम् ॥१॥ सिद्धा नः सिद्धये संतु कारातिप्रणाशकाः।
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गौतमचरित्र। ऐसे वे भगवान सिद्धपरमेष्ठी हम लोगोंके समस्त कार्योंकी सिद्धि करें ॥ २॥ जो जिनेंद्रदेव महावीरस्वामी महाधीर, वीर और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं तथा महावीर, वर्द्धमान, वीर, सन्मति आदि जिनके नाम हैं, ऐसे जिनराज श्रीमहावीरस्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ३ ॥ जो भगवान् महावीरस्वामी इच्छानुसार फल प्रदान करनेवाले हैं, मोहरूपी महायोद्धाको जीतनेवाले हैं और मुक्तिरूपी मुन्दरीके स्वामी हैं ऐसे वे भगवान् हमें सद्बुद्धि देवें ॥ ४॥ जो भव्य रूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाली है और संसारके समस्त पदार्थों को दिखानेवाली है ऐसी भगवान् जिनेन्द्रदेवसे प्रगट होनेवाली सरस्वतीदेवी सूर्यकी प्रभाके समान संसारके समस्त जीवोंका अज्ञानांधकार दूर करो ॥५॥ श्री सर्वज्ञदेवके मुखसे उत्पन्न होनेवाली जो सरस्वतीदेवी सरस कामधेनुके समान सेवकोंका सदा हित करनेवाली है, वह श्री सरस्वतीदेवी हम लोगोंके इच्छानुसार कार्योकी सिद्धि करो ॥६॥ जो सज्जनोत्तम मुनिराज सद्धर्मरूपी अमृतके समूहमे तृप्त रहते हैं और जो परोपकार करनेमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे मुनिराज मुझपर सम्यक्त्वादिगुणोपेता नित्या लोकाग्रवासिनः ॥२॥ महावीरं महाधीर वईमानं जिनेश्वरम् । वीरं निर्वाणदातारं वंदे श्रीसन्मतिं जिनम् ॥३॥ क्रियान्मे सन्मतिं वीर ! ईहितार्थप्रदायकः । मोहसुभटमज्जेता मुक्तिमीमं तिनीवरः ॥४॥ भव्यांभोजविकासंती विश्वपदार्थदर्शिका । तमो हरतु लोकानां रविमेव सरस्वती ॥५॥ देयान्मद्वांच्छितां सिद्धिं श्रीसर्वज्ञमुखोद्भवा । सरसा कामधेनुर्वा सेवकहितकारिका ॥ ६ ॥
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प्रथम अधिकार। सदा प्रसन्न रहें ॥७॥ जो मुनिराज कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथीको जीतनेवाले हैं, जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि अन्तरङ्ग शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं और जो संसाररूपी महासागरके डरसे सदा भयभीत रहते हैं ऐसे मुनिराजके चरणकमलोंको मैं सदा नमस्कार करता हूं ॥८॥जो सज्जन दुष्ट पुरुषोंके बचन रूपी सोसे कभी विकारको प्राप्त नहीं होते हैं
और जो सदा दूसरोंके हितकी ही इच्छा करते रहते हैं ऐसे सज्जनोंको भी मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥जो दूसरोंके कार्योंमें सदा विघ्न करनेवाले हैं, जिनका हृदय सदा कुटिल रहता है
और जो सर्पके समान सदा निंदनीय हैं ऐसे दुष्ट पुरुषोंको मैं उनके डरसे नमस्कार करता हूं॥१०॥पहिलेके महा ऋषियोंके मुंहसे सुनकर और शेष सज्जनोंसे पूछकर मैं श्रीगौतमस्वामीका अत्यंत सुख उत्पन्न करनेवाला चरित्र कहता हूं ॥ ११ ॥ न्याय, सिद्धांत, काव्य, छंद, अलंकार, उपमा, व्याकरण, पुराण आदि शास्त्रोंको मैं सर्वथा नहीं जानता, तथा सद्धर्मामृतसंदोहप्रीणितसज्जना मम । प्रसन्ना यतयः संतु परोपकृतितत्पराः ॥७॥ कामकरींद्रजेनुंश्च मोहक्रोधादिनाशकान् । यतिनाथान् सदा वंदे भवाब्धिभयभीतिकान् ॥ ८ ॥ विकृतिं यांति नो ये हि दुर्जनबचनाहिभिः । सज्जनांस्तान्नहं नौमि परेषां हितकांक्षिणः। दुर्ननान् भयतो वंदे परप्रत्यूहकारिणः । कुटिलहृदयान् संपीलोकविनिदितान्निव ॥ १० ॥ पूर्वर्षिवदनाच्छ्रत्वा शेषानाएच्छय सज्जनान् । . गौतमस्वामिनो वक्ष्ये चरितं सुसुखाकरम् ॥११॥ न्यायसिद्धांतसत्काव्यछंदोऽलंकाररूपकम् । व्याकरणपुराणादिशास्त्रौषं च न वेदम्यहम्
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गौतमचरित्र |
यह शास्त्र जो मैं बना रहा हूं वह भी संधि, वर्ण, शब्द, अर्थ, धातु, हेतु आदि सबसे रहित है इसलिये विद्वान पुरुषोंको यह मेरा अपराध सदा क्षमा करते रहना चाहिये ॥१२- १३ ॥ जिसप्रकार जल कमलों को उत्पन्न करता है परंतु उनकी airat सब ओर वायु ही फैलाता है उसीप्रकार कविलोग काव्य-रचना करते रहते हैं परन्तु सज्जन लोग उसे सदा शुद्ध करते रहते हैं । ( यह सदाकी रीति है ) ॥ १४ ॥ जिसप्रकार आमकी मंजरी कोकिलोंको बोलने के लिये बाध्य करती है उसीप्रकार श्रीगौतमस्वामीकी भक्ति ही उनके जीवनचरित्रकी रचना करनेके लिये मेरे मनमें उत्साह दिलाती है । भावार्थ - उनकी भक्तिसे ही मैं यह चरित्र लिखता हूं || १५ || जिसप्रकार किसी ऊंचे पर्वतपर चढ़ने की इच्छा करनेवाले लंगड़े मनुष्यकी सब लोग हँसी उड़ाते हैं उसीप्रकार अति अल्पबुद्धिको धारण करता हुआ मैं भी इस चरित्रको लिखनेकी इच्छा करता हूं इसलिये मैं भी अच्छे कवियोंकी दृष्टिमें अवश्य ही हँसीका पात्र समझा जाऊंगा ।। १६ ।। ॥ १२ ॥ सत्संधिवर्णशब्दार्थधातु हेतुविवर्जितम् । क्रियते यन्मया
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सर्वं तत्तज्ज्ञैः क्षम्यते सदा ॥ १३ ॥ कुर्वन्ति कवयः काव्यं सन्तः शुध्यन्ति तत्सदा । सुवते वारि पद्मानि गंध तन्वन्ति वायवः ॥ १४ ॥ अस्य भक्तिः करोत्येव मां हि सोद्यममानसम् । मंजरी सहकारस्य मौखर्य कोकिलं यथा ॥ १५ ॥ अल्पमतिः कवीनां हि लप्स्यामि हास्यमंदिरम् । चिकीर्षुश्चरितं खंजो गिर्यारोहमना इव ॥१६॥ जंबूद्वीपोऽथ संभाति जंबूवृक्षोपलक्षितः । लवणवार्धिनाविष्टो लक्षयोज
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प्रथम अधिकार। अथानन्तर-इस मध्यलोकके मध्यभागमें जम्बूटक्षसे सुशोभित, लवणसमुद्रसे घिरा हुआ और एक लाख योजन चौड़ा जम्बूद्वीप शोभायमान है॥१७॥ उस जम्बूदीपके मध्यमें सुदर्शन नामका मेरु पर्वत है जो कि देवोंका स्थान है तथा उसी जम्बूद्वीपमें सोने चांदीके अनादि कालसे चले आए
और सदा रहनेवाले छह कुलाचल पर्वत हैं ॥१८॥ उस मेरु पर्वतके पूर्व पश्चिमकी ओर बत्तीस विदेह हैं जहांसे भव्यजीव सदा मोक्ष प्राप्त करते रहते हैं ॥१९॥ उसी मेरुपर्वतके दक्षिण उत्तरकी ओर छह भोगभूमियां हैं जहाँके स्त्री पुरुष मरकर सदा पहले और दूसरे स्वर्गमें ही उत्पन्न होते रहते हैं ॥२०॥ उन भोगभूमियोंके दक्षिण उत्तरकी ओर भरत और ऐरावत नामके दो क्षेत्र हैं जिनके मध्यमें रूपामय विजयाई पर्वत पड़े हुए हैं और उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके छह छह काल जिनमें सदा घूमा करते हैं ॥ २१ ॥ उनमेंसे भरतक्षेत्रकी चौड़ाई पांचसौ छव्वीस योजन छह कला (५२६ योजन) है तथा विजयार्द्ध पर्वत और गंगा, सिंधु नामकी दो नदियोंके नविस्तृतः ॥ १७ ॥ मध्ये सुदर्शनो नाम गिरीद्रोऽस्ति सुरालयः । षभिकुलाचलैर्युक्तः स्वर्णरूपमयै(वै ः ॥ १८ ॥ पूर्वपश्चिमदिग्भागे द्वात्रिंशच्च विदेहकाः । मेरोर्यत्र जना भव्याः मुक्तिं यांति निरंतरम् ॥ १९ ॥ दक्षिणोत्तरयोस्तस्य षड्भोगभूमयो मताः । तत्रत्या मानवा नार्यों यांति कल्पद्वयं सदा ॥२०॥ तद्दक्षिणोत्तरे भागे भारतैरावताभिधे । क्षेत्रे षट्कालसंयुक्ते स्तो रूप्याद्रिसमाकुले ॥२१॥ षड्विंशत्यधिकं पंचशतयोजनविस्तृतम् । भारतं तत्र सत्क्षेत्रं स षट्कलं
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गौतमचरित्र ।
द्वारा उस भरतक्षेत्रके छह भाग हो गये हैं जो कि छह देश कहलाते हैं ॥ २२ ॥ उसी भरतक्षेत्रमें एक मगध नामका देश है जो कि पृथिवीके तिलकके समान शोभायमान है, अनेक महा उत्सवोंसे सुशोभित है और अनेक धर्मात्मा सज्जनोंसे भरपूर है || २३ || इसके सिवाय मटम्ब, कर्वट, गांव, खेट, पत्तन, नगर, वाहन, द्रोण आदि सब बातों से वह देश सुशोभित है ।। २४ ।। उस देशके वृक्ष बडे ऊंचे हैं, सुंदर हैं, सुख देनेवाले हैं, घनी छाया और फल फूलों से सुशोभित हैं तथा ठीक कल्पवृक्षोंके समान जान पड़ते हैं || २५ | उस देशके खेतों में मनोहर धान्य सदा उत्पन्न होते रहते हैं और समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाली औषधियां भी खूब उत्पन्न होती हैं ॥ २६ ॥ वहांके सरोवर श्रेष्ठ कवियोंके वचनोंके समान शोभायमान हैं, क्योंकि जिसप्रकार श्रेष्ठ कवियोंके बचन गंभीर होते हैं उसीप्रकार वे सरोवर भी गंभीर (गहरे ) थे, कवियोंके बचन जैसे निर्मल होते हैं उसीप्रकार वे सरोवर भी निर्मल थे, कवियोंके बचन जैसे सरस (वीर, करुणा आदि नौ रसोंसे भरपूर ) होते हैं सदेशकम् ||२२|| धर्मिष्ठसज्जनाकीर्णो नानामहोत्सवैर्युतः । मगधस्तत्र देशोऽस्ति टथिवीतिलकोपमः ॥ २३ ॥ मटंबकर्वटग्रामखेटपत्तनभासितः। नगरवाहनद्रोणपुरस्सरसमावृतः ॥ २४ ॥ ( युग्मम् ) ॥ यत्र महीरुहा भांति सफलाः प्रोन्नता वराः । सुखदाः सघनच्छायाः सुरवृक्षा इवापराः ॥२५॥ यत्र क्षेत्रेषु सस्यानि प्रोत्पद्यन्ते निरंतरम् | कांतानि विश्व - जन्तूनां सज्जीवौषधानि च ॥ २६ ॥ सरांसि यत्र भासते निम्नानि
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प्रथम अधिकार |
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उसीप्रकार वे सरोवर भी सरस वा जलसे भरपूर थे और कवियों के बचन जैसे पद्मबंध ( कमलके आकार में बने हुए श्लोक ) होते हैं उसीप्रकार वे सरोवर भी पद्मबंध अर्थात् कमलोंसे सुशोभित थे || २७ ॥ उस देशके पर्वतों की गुफाओंमें किन्नर जातिके देव अपनी अपनी देवांगनाओंके साथ क्रीड़ा करते हुए और चंद्रमाके वाहक देवोंको निश्चल करते हुए सदा गाते रहते हैं ।। २८ ।। वहांके बनोंकी शोभाको देखकर देव लोगोंके हृदय भी कामदेव के वशीभूत होजाते हैं और वे अपनी अपनी देवांगनाओंके साथ वहींपर क्रीड़ा करने लग जाते हैं ॥ २९ ॥ उस देशमें पद पदपर ग्वालोंकी स्त्रियां गायें चराती थीं और वे ऐसी सुन्दर थीं कि उनके रूपपर मोहित होकर पथिक लोग भी अपना अपना मार्ग चलना भूल जाते थे ॥ ३० ॥ वहांकी जनता धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थीको सेवन करती हुई शोभायमान थी, जिनधके पालन करने में भारी उत्साह रखती थी और शीलव्रत से सदा विभूषित रहती थी ॥ ३१ ॥ वहांपर श्री जिनेन्द्रदेवके विमलानि च । सरसानि सपद्मानि बचनानीव सत्कवेः ॥ २७ ॥ कंदरेषु गिरींद्राणां गायंति यत्र किन्नराः । स्वस्त्रीभिः क्रीडया युक्ताः स्थिरीकृतेंदुवाहनाः || २८ ॥ अमरा यत्र दीव्यन्ति स्ववधूभिः समं पराः । वनशोभां समालोक्य कामनिर्जितचेतसः ॥ २९ ॥ पथिका यत्र पंथानं नाक्रामति पदे पदे । गोपसीमंतिनी रूपसंसक्तमानसा ध्रुवम् ॥ ३० ॥ शोभते जनता यत्र त्रिवर्गेषु परायणा | जिनधर्ममहोत्साहा सुशीलवतभूषिता ॥ ३१ ॥ यत्र वसुमती जाता भूमी रत्नादिसद्धनम् ।
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८]
गौतमचरित्र। गर्भ कल्याणकके समय जो रत्नोंकी वर्षा होती थी उस श्रेष्ठ धनको धारण करती हुई वहांकी पृथ्वी वास्तवमें वसुमती (धनको धारण करनेवाली) होगई थी ॥ ३२॥ उसी मगध देशमें अनेक प्रकारके पदार्थोसे भरपूर, मनुष्य और देवोंसे सुशोभित तथा स्वर्ग लोकके समान सुन्दर राजगृह नामका नगर शोभायमान है ॥ ३३ ॥ उस नगरके चारों ओर बहुत ही ऊँचा कोट शोभायमान था। वह कोट बहुत ही सुन्दर था, पक्षी और विद्याधरोंके मार्गको रोकता था और शत्रुओंके लिये भय उत्पन्न करता था ॥३४॥ उस कोटके चारों ओर मनोहर खाई थी जो कि निर्मल जलसे भरी हुई थी और प्रफुल्लित हुए कमलोंकी सुगन्धिके लोभसे अनेक भ्रमरोंको इकट्ठा करनेवाली थी॥३५॥ उस राजगृह नगरमें चंद्रमाके समान श्वेत वर्णके अनेक जिनालय शोभायमान थे और वे अपनी शिखरपर उड़नेवाली पताकाओंसे आकाशको छू रहे थे ॥ ३६॥ वहांके उत्तम मनुष्य जल, चंदन आदि आठों द्रव्योंसे भगवान श्री जिनेंद्रदेवके चरणकमलोंकी पूजा करते थे और उनके चरणदधाना श्रीजिनेन्द्राणां गर्भकल्याणसंभवम् ॥३२॥ अनेकवस्तुसंपूर्ण देवनरसमाश्रितम् । राजगृहं पुरं तत्र भातीव नाकपत्तनम् ॥३३॥ यन्नगरबहिर्भागे शालस्तुंगोऽस्ति सुन्दरः । संरुद्धखगनिर्याणो वैरिवर्गभयप्रदः ॥ ३४ ॥ प्राकारखातिका रम्या दधाति विमलं जलम् । पद्मसुगंधिलोभेन प्राप्तभ्रमरसंचयम् ॥ ३५ ॥ यत्र श्रीजिनचैत्यानि मांति चंद्रसितानि हि । शिखरस्थपताकाग्रप्रस्टशितांवराणि बै ॥३६॥ यत्र जलादिभिर्द्रव्यैरर्चा कुर्वति सन्नराः । जिनेन्द्रपादयुग्मस्य दर्शनाद
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प्रथम अधिकार। कमलोंके दर्शन कर बहुत ही प्रसन्न होते थे ॥३७॥ वहांके धर्मात्मा पुरुष मांगनेवालोंके लिये उनकी इच्छासे भी अधिक दान देते थे और इसप्रकार चिरकालसे धनका संग्रह करनेवाले कुबेरको भी लज्जित करते थे ॥ ३८ ॥ वहांके तरुण पुरुष अपनी अपनी स्त्रियोंको सुख पहुंचा रहे थे और वे स्त्रियां भी अपने हाव, भाव, विलास आदिके द्वारा देवांगना
ओंको भी लज्जित कर रही थीं ॥३९॥ उस नगरके घरोंकी पंक्तियां बड़ी ही ऊंची थीं, बड़ी ही सुंदर थीं और बहुत ही अच्छी जान पडती थीं तथा वे अपनी सफेदीकी मुंदर शोभासे चंद्रमंडलको भी हंस रही थीं ॥४०॥ वहांके बाजारोंकी पंक्तियां बहुत ही सुंदर थीं, उनकी दीवाले मणियोंसे मुशोभित थीं और सोना, वस्त्र, धान्य आदि अनेक पदार्थोका लेन देन उनमें हो रहा था ॥ ४१ ॥ उस नगरमें श्रेणिक नामके राजा राज्य करते थे। उनका हृदय सम्यग्दर्शनसे अत्यंत दृढ़ था और नमस्कार करते हुए समस्त सामंतों के मुकुटसे उनके चरणकमल ददीप्यमान हो रहे थे ॥ ४२ ॥ हृष्टचेतसः ॥ ३७ ॥ धर्मिष्ठा यत्र सद्दानं ददतेऽर्थीच्छयाधिकम् । लज्जयंत इव श्रीदं चिरसंचितवित्तकम् ॥ ३८ ॥ तरुणा यत्र कुर्वति कामिनी सुखसंगताम् । हावभावविलासाद्यैस्ताडितामरसुन्दरीम् ॥३९॥ गृहाली रानते यत्र प्रोत्तुंगा सुन्दराकृतिः । चंद्रबिंब हसंतीव श्वेतसुधांसुशोभया ॥ ४० ॥ यहट्टराजयो भांति मणिरंजितभित्तयः । सुवर्णवस्त्रधान्यादिक्रियाणकप्रमंडिताः ॥४१॥ नमिताशेषसामंतमुकुटदीपितपत्कजः । भूपोऽभूच्छ्रेणिकस्तत्र सम्यक्त्वदृढचित्तकः ॥४२॥
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१०]
गौतमचरित्र। उनके राज्यमें समस्त प्रजा धर्म-साधन करनेमें सदा तत्पर रहती थी और भय, मानसिक वेदना, शारीरिक वेदना, संताप, दुःख, दरिद्रता आदि सब क्लेशोंसे अलग रहती थी ॥४३॥ वे महाराज श्रेणिक अपने रूपसे कामदेवको भी लज्जित करते थे, अपने तेजसे सूर्यको भी जीतते थे और याचकोंके लिये उनका कल्याण करनेवाला दान देकर कुबेरको भी नीचा दिखाते थे॥ ४४॥ विधाताने समुद्रसे गम्भीरता लेकर, चन्द्रमासे सुन्दरता लेकर, पर्वतसे निश्चलता लेकर और इन्द्रके गुरु बृहस्पतिसे बुद्धि लेकर उन राजा श्रेणिकमें गम्भीरता, सुन्दरता, निश्चलता और बुद्धिमत्ता आदि गुण निर्माण किये थे ॥४५॥ वे महाराज श्रेणिक तीनों प्रकारकी शक्तियां धारण करते थे, संधि, विग्रह आदि छहों गुणोंको धारण करते थे, धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थोको सदा सिद्ध करते रहते थे और समस्त इंद्रियोंको अपने वशमें रखते थे ॥ ४६॥ पूर्ण चन्द्रमाके समान उनकी निर्मल कीर्ति चारों दिशाओंमें घूम रही थी। यदि ऐसा न होता तो यस्मिन् सति प्रजाः सर्वा बभूवुर्वृषतत्पराः । भयाधिव्याधिसन्तापदुःखदारिद्यवर्जिताः ॥४३॥ रूपेण तर्निताऽनंगस्तेजसा जितभास्करः। निगाय राजरानं स याचके हितदानतः ॥४४॥ गांभीर्य जलधेः सौम्य चन्द्रस्य स्थिरतां गिरेः। मतिं सुरगुरोर्लात्वा धात्रास्मिन्निर्मिता गुणाः ॥४५॥ शक्तित्रयं दधानो यो बभूव षड्गुणान्वितः । त्रिवर्ग साधयन्नित्यं वशीलताक्षवर्गकः ॥४६॥ सुकीर्तिर्यस्य विभ्राम दिक्षु पूर्णेदुनिर्मला । अन्यथा सुरसुन्दर्यः कथं गायति तद्गुणान् ॥ ४७॥
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प्रथम अधिकार।
[११
देवांगनाएँ प्रत्येक स्थानपर उनके गुणोंका किसप्रकार गान कर सकती थीं ? भावार्थ-देवांगनाएं सब जगह उनके गुण गाती थीं इसीसे मालूम होता था कि उनकी कीर्ति सब ओर फैली हुई है ॥ ४७ ॥ उनके शत्रुओंका समुदाय व्याकुल हो गया था, क्षणभंगुर वा क्षणमें ही नाश होनेवाला होगया था
और द्वितीयाके चन्द्रमाकी कलाके समान असन्त क्षीण होगया था ॥ ४८ ॥ उनकी बुद्धि मूर्यकी प्रभाके समान स्वभावसे ही प्रतापयुक्त थी और इसीलिये वह चारों प्रकारकी राजविद्याओंको प्रकाशित करती थी ॥४९॥ जिसप्रकार कामदेवके रति है और इंद्रके इंद्राणी है उसीप्रकार उन महाराज श्रेणिकके कांति और गुणोंसे मुशोभित चेलना नामकी रानी थी ॥ ५० ॥ उस रानीके नेत्र हिरणीके समान थे, उसका मुख चंद्रमाके समान सुंदर था, उसके केश श्याम थे, कटि क्षीण थी, कुच कठिन और बड़े थे, वह बहुत ही मनोहर थी, उसका माथा विस्तीर्ण था, नाक तोतेके समान थी, भोहें सुंदर थीं; बचन मीठे थे, उसका गमन मदोन्मत्त हाथीके समान यद्वैरिसंहतिर्जाता विकला क्षणभंगुरा । अभूरिमंडलाक्रांतिढितीयेंदुतनुर्यथा ॥४८॥ चतस्रो रानविद्या हि प्रद्योततेस्म यन्मतिः । निसर्गजा प्रतापाढ्या काष्ठाभेव त्विषांपतेः ॥४९॥ तस्याभूच्चेलना रामा सुकांतिगुणगौरवा । कामस्य रतिदेवीव शचीवापि दिवस्पतेः ॥१०॥ मृगेक्षणा च सोमास्या श्यामकेशा कृशोदरी। पीतपयोधरा रम्या विस्तीर्णभालपट्टिका ॥५१॥ कीरगंधवहा सुभ्रूःसुवाक् मत्तेभगामिनी। सुनाभिः सुकुमारांगी सुनखी गुणपूरिता ॥ १२॥ सदा तुष्टा पवि
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१२ ]
गौतमचरित्र ।
था, उसकी नाभि सुंदर थी, अंग प्रत्यंग सब सुकुमार थे, नख सुंदर थे, गुणों से वह भरपूर थी, वह सदा संतुष्ट रहती थी, उसका आत्मा पवित्र थी, बुद्धि अच्छी तीक्ष्ण थी, वह शुद्धवंश उत्पन्न हुई थी, हाव, भाव, विलास आदि गुणों से सुशोभित थी, स्त्रियोंमें प्रधान थी, पतिव्रता थी, याचकोंके लिये हित करनेवाला श्रेष्ठ दान देनेवाली थी, शील और व्रतों से विभूषित थी, उसका हृदय सम्यग्दर्शनसे भरपूर था, और वह जिनधर्मके सेवन करनेमें सदा तत्पर रहती थी ॥ ५१-५४ ॥ अनेक देशोंके स्वामी, चारों प्रकारकी सेनासे सुशोभित और बडे समृद्धिशाली राजा श्रेणिक उस चेलना रानीके साथ अनेक प्रकारके भोग भोगते हुए निवास करते थे ॥ ५५ ॥
अथानंतर अंतिम तीर्थंकर भगवान् श्रीमहावीरस्वामी अनेक देशों में विहार करते हुए विपुलाचल पर्वतके मस्तकपर समवसरणके साथ आ विराजमान हुए || ५६ || वे भगवान् महावीरस्वामी तीन छत्रोंसे सुशोभित थे और भव्य जीवोंको धर्मोपदेशरूपी अमृता पान कराकर उनके पापरूपी विषको त्रात्मा सुमतिः शुद्धवंशजा । हावभावविलासाढ्या मतल्लिका पतिव्रता ॥९३॥ याचकहितसद्दात्री सुशीलवतभूषिता । सम्यक्त्वनिर्भर स्वंता जिनधर्मरता सदा ॥५४॥ ( पंचभिः कुलकम् ) || भुजन् भोगान् तया सार्द्ध संतस्थे श्रेणिको नृपः । समृद्धो देशसंयुक्तश्चतुरंगबलान्वितः ॥ ५५ ॥ अथ तीर्थंकरो वीरो विपुलाचलमस्तके । आगतो विहरन् देशान् समवसृतिराजितः ||१६|| धर्मोपदेशपीयूषपानतो भव्यदेहि
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प्रथम अधिकार।
[१३ दूर करते थे ॥ ५७॥ उन भगवान् महावीरस्वामीके साथ गौतम गणधर आदि अनेक मुनियोंका समुदाय था और सुरेन्द्र, नरेन्द्र, खगेन्द्र आदि सब उनके चरणकमलोंकी सेवा करते थे ।। ५८ ।। उन भगवान् महावीरस्वामीके पुण्यके माहात्म्यसे सिंह, हाथी, चूहे, बिल्ली आदि जातिविरोधी जीव भी अपना अपना वैर छोड़कर परस्पर प्रेम करने लगगये थे ॥५९ ॥ भगवानके पधारनेके साथ ही सब वृक्ष फलफूलोंसे सुशोभित होगये थे, सब वृक्षोंसे सुगन्ध छूटने लगी थी और वे सब कल्पवृक्षोंके समान असन्त सुन्दर दिखाई देने लगगये थे ॥३०॥ इसप्रकार भगवान् महावीरस्वामीको देखकर मालीके हृदयमें बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उसने हाथ जोड़कर भगवानको नमस्कार किया ॥ ६१॥ तदनंतर उसने सब ऋतुओंके फल फूल लिये और फिर वह प्रसन्नमुख होकर महाराज श्रेणिकके राजभवनके द्वारपर जा पहुंचा ॥ १२ ॥ मालीने वहां जाकर द्वारपालसे कहा कि तू महारानाम् । पापविषं हरन् स्वामी छत्रत्रयविभूषितः॥१७॥ श्रीगौतमगणेद्रादिमुनिवृन्दसमाश्रितः।सुरासुरनराधीशसेव्यमानक्रमाम्बुजः॥१८॥ (त्रिभिः कुलकम् ) ॥ यत्पुण्यस्य सुमाहात्म्यादभूवन्मुक्तवैरिणः । सिंहनागविडालाखुप्रमुखाः प्रीतिमंडिताः ॥ ५९ ॥ यदागमाद्रुमाः सर्वेऽभूवन् सत्फलिताः शुभाः । सपुष्पाः कल्पवृक्षा वा सुरभिगंधसंयुताः ॥६०॥ एवं विधं जिन वीरं दृष्ट्वा साश्चर्यमानसः । बनमाली ननामासौ संयोजितकरांजलिः ॥ ६१ ॥ सर्वत्ज फलं पुष्पं गृहीत्वा बनमालिकः । भूपतिमंदिरद्वारे संस्थितो विकचाननः ॥६२॥ तेनोक्तं
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१४]
गौतमचरित्र। जको खबर कर दे कि माली आपके समीप आना चाहता है ॥ ६३ ॥ द्वारपालने जाकर महाराजसे निवेदन किया कि हे महाराज ! माली आया है और यहां आनेके लिये आपकी आज्ञा मांगरहा है॥६४॥ महाराजने द्वारपालको आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही उसे यहां लेआओ। तदनन्तर वह माली उस द्वारपालकी आज्ञासे महाराजके समीप पहुंचा।। ६५ ।। उस राजसभामें सिंहासनपर विराजमान हुए महाराज श्रेणिकको देखकर उस मालीने हाथ जोड़े और फिर लाये हुए फल पुष्प समर्पण कर नमस्कार किया ॥६६॥ असमयमें उत्पन्न हुए और असंत आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले उन मनोहर फल पुष्पोंको देखकर महाराज श्रेणिक अपने हृदयमें बहुत ही प्रसन्न हुए ॥ ६७ ॥ तथा उन्होंने उस मालीसे पूछा कि तू कल्याण करनेवाले इन फल पुष्पोंको कहांसे लाया है ? इसके उत्तरमें मालीने महाराजसे मीठे वचनोंमें कहा कि हे महाराज! विपुलाचल पर्वतके मस्तकपर तीनों लोकोंके इंद्रोंके द्वारा पूज्य ऐसे द्वारपालेति राजानं त्वं समादिश । बनपालः समायातुमिच्छति भवदंतिकम् ॥ ६३ ॥ बनाधिपः समायातस्तवादेशं स वांच्छते । सोपि तत्र ततो गत्वा जगादेति क्षितीश्वरम् ॥६४॥ राजावादीद्वचो द्वाःस्थ तेनात्रागम्यतां द्रुतम्। बनमाली तदादेशाजगाम नृपसन्निधिम् ॥६५॥ सिंहासने समासीनं पार्थिव वीक्ष्य संसदि । सोऽपि पुष्पफलं दत्वा प्रणनाम कृतांजलिः ॥६६॥ अकालसंभवं कांतं भूरिविस्मयकारणम् । पुष्पफलादिकं दृष्ट्वा जहर्ष श्रेणिको हृदि ॥६५॥ आनीतानि त्वया कस्मादिमानि शर्मदानि वै । सोऽब्रवीदिति तां सूक्तिं बल्लभां बन
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प्रथम अधिकार ।
[१५ भगवान् श्रीमहावीरस्वामी पधारे हैं॥६८-६९॥ हे महाराज ! उन्हींके प्रभावसे इच्छानुसार फलको देनेवाले और अत्यंत आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले ये सब प्रकारके फल पुष्प प्रगट हुए हैं ॥ ७० ॥ यह सुनते ही महाराज उठे और जिस दिशाकी ओर विपुलाचल पर्वत था उस दिशाकी ओर सात पेंड़ चलकर बड़ी भक्तिके साथ भगवान महावीरस्वामीको नमस्कार किया । तदनंतर फिर वे अपने सिंहानपर आ विराजमान हुए ॥७१।। महाराजने प्रसन्न होकर, वस्त्र आभूषण देकर उस मालीका आदर सत्कार किया, सो ठीक ही है क्योंकि प्रिय मुनिराजके पधारनेपर कौनसा जीव संतुष्ट नहीं होता है भावार्थ-सभी जीव संतुष्ट होते हैं ॥७२॥ महाराजने दर्शनार्थ सबको चलनेके लिये भव्य जीवोंको प्रसन्न करनेवाली भेरी बजाई । उसे सुनकर सबलोग चलनेके लिये तैयार होगये ॥ ७३ ॥ महाराज श्रेणिक अपनी रानी चेलनाके साथ, नगर निवासियोंके साथ और सेनाके साथ हाथी पालकः ॥६८॥ स तं जगाद भूपेंद्र ! विपुलाचलमस्तके । महावीरः समायातस्त्रिभुवनेंद्रप्रपूजितः ॥६९।। अतिविस्मयकारीणि विश्वपुष्पफलानि वै । तत्प्रभावान्नृपाभूवन् मनोवांच्छितदानि हि ॥ ७० ॥ सप्तपदावलीं गत्वा संनम्य तद्दिशं नृपः । भक्तिभारेण संयुक्तः सिंहासने स्थितो वरः ॥७१॥ हृष्टः स पूनयित्वा तं वस्त्राभरणदानतः । को न तुष्यति सज्जंतुः प्रिये समागते मुनौ ॥७२॥ स भेरी दापयामास भव्यहर्षप्रदायिकाम् । तदा लोका हि तां श्रुत्वा बभूवुर्गमनोत्सुकाः ॥७३॥ सप्रियो नागरैः साई ससेनो हर्षिताननः। वीरासन्नं
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गौतमचरित्र। सवार होकर बड़ी प्रसन्नतासे भगवान महावीरस्वामीके दर्शनके लिये चले ॥७४॥ सबके साथ श्री महावीरस्वामीके शुभ समवसरणमें पहुंचकर महाराज श्रेणिकने मोक्षके अनन्त मुख देनेवाली भगवानकी स्तुति करना प्रारम्भ की ॥७॥ हे भगवन् ! संसारमें आप परम पात्र हैं इसलिये आपकी जय हो, आप संसारसागरसे पार करनेवाले हैं इसलिये आपकी जय हो, आप सबका हित करनेवाले हैं इसलिये आपकी जय हो और आप मुखके समुद्र हैं इसलिये आपकी जय हो ॥५६॥ आप संसारी जीवोंके परम मित्र हैं इसलिये हे परमेष्ठिन् ! आपके लिये नमस्कार हो, आप संसाररूपी महासागरसे पार होनेके लिये जहाज हैं इसलिये हे मोक्ष प्राप्त करा नेवाले भगवन् ! आपको नमस्कार हो ॥७७। आप गुणोंकी खानि हैं और संसारसे असन्त भयभीत हैं इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कर्मरूपी शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं और विषयरूपी विषको दूर करनेवाले हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ॥७८॥ हे गुणोंके समुद्र ! हे स्वामिन् ! हे मुनियों में श्रेष्ठ! चचालासौ समारुह्य सुहस्तिनम् ॥७४॥ स समासाद्य वीरस्य समवसरणं शुभम् । स्तुतिं कर्तुं समारेभे निर्वाणसुखदायिकाम् ॥७॥ जय परमपात्र त्वं! जय संसारपारग! । जय सुहितकर्तस्त्वं जय त्वं ! सुखसागर ! ॥७६॥ जगत्परममित्राय परमेष्ठिन्नमोऽस्तु ते । भवाब्धितरपोताय शिवदायिन्नमोऽस्तु ते ॥७७॥ संसारभयभीताय नमस्तुभ्यं गुणाकर! । विषापह नमस्तुभ्यं कर्मशत्रुविनाशिने॥७८॥ गुणसरित्पते! स्वामिन् ! मुनिपुंगव भो निन! । कस्ते क्षमो गुणान् वक्तुं कविवाचा
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प्रथम अधिकार।
[१७ हे जिनराज ! आपके गुण कवियोंके बचनोंके भी अगोचर हैं अतएव आपके गुणोंका वर्णन करनेके लिये इस संसारमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ७९ ॥ इसप्रकार भगवान महावीरस्वामीकी स्तुतिकर और गौतम आदि समस्त मुनिराजोंको नमस्कार कर वे महाराज श्रेणिक मनुष्योंके कोठे में जाकर बैठ गये ॥८॥ तदनंतर भगवान महावीरस्वामीने भव्य जीवोंको प्रबुद्ध करनेके लिये उन्हें समझानेके लिये परम आनंद उत्पन्न करनेवाला मनोहर धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया ॥ ८१ ॥ मुनि और श्रावकोंके भेदसे धर्म दो प्रकारका है। उनमेंसे मुनिधर्मसे मोक्षकी सिद्धि होती है और श्रावकधर्मसे स्वर्गसुखकी सिद्धि होती है ।। ८२ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचानित के भेदसे वह मोक्षमार्ग तीन प्रकारका है ( तीनोंका समुदाय ती मोक्षमार्ग है ) उनमेंसे जीव, अजीव आदि सातों तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥ ८३ ॥ वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है। एक निसर्गसे (उपदेशादिकके विना) उत्पन्न होनेवाला निसर्गज और दूसरा मगोचरान् ॥७९॥ इति स्तुति विधायसौ महावीरस्य सत्प्रभोः । गौतमादीन्मुनीन्नत्योपविटो नरकोष्ठ ।। ८० ॥ ततो वीरो वचोऽ वादीत्परमाह्लादकारणम् । धर्मोपदेशकं कांतं भव्यसंबोधहेतवे ॥८॥ यतिश्रावकभेदेन धर्मस्तु द्विविधो मतः। मुक्तिराधेन संसाध्या द्वितीयेन सुरालयः ॥ ८२ ॥ स सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदतस्त्रिधा । तत्त्वार्थश्रद्दधानं यत्तत्सम्यग्दर्शनं मतम् ॥८३॥ तच्चापि द्विविधं ज्ञेयं निसर्गाधिगमात्पुनः । एकैकशस्त्रयो भेदाः कथिताः श्रीजिनेश्वरैः
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गातमा
गौतमचरित्र। अधिगम वा उपदेशादिकसे होनेवाला अधिगमज । इन दोनोंके औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिकके भेदसे तीन तीन भेद श्री जिनेंद्रदेवने कहे हैं ॥८४॥ अनंतानुंवधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व इन सातों प्रकृतियोंके उपशम होनेसे औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इन सातों प्रकृतियोंके क्षय होनेसे सायिक सम्यग्दर्शन होता है और पहिलेकी छह प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय होनेसे तथा उन्हीं सत्तावस्थित प्रकृतियोंके उपशम होनेसे तथा देशघाती सम्यक्झकृतिमिथ्यात्वके उदय होनेसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है ॥ ८५ ॥ पदार्थो के सच्चे ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। वह सम्यग्ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे पांच प्रकारका कहा जाता है ॥८६॥ जैन शास्त्रोंमें पापरूप क्रियाओं के साग करनेको सम्यकचारित्र कहते हैं। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिके भेदसे वह चारित्र तेरह प्रकारका गिना जाता है।।८७॥ अठारह दोषोंसे रहित सर्वज्ञ देवमें श्रद्धान करना, अहिंसा रूप धर्ममें श्रद्धान करना और परिग्रह रहित गुरुमें श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है ।।८८॥ संवेग, निर्वेद, निंदा, ॥८४॥ सप्तानां प्रकृतीनां वै शमादुपशमं क्षयात् । क्षायिक मिश्रकं पष्टशमादेकोदयात्पुनः ॥८६॥ प्रबोधो यत्पदार्थानां सम्यग्ज्ञान तदुच्यते । तच्च पंचविधं ज्ञेयं मतिश्रुतादिभेदतः ॥ ८६ ॥ पापक्रियानिवृत्तियत्तच्चारित्रं जिनागमे । महाव्रतादिभेदेन त्रयोदशविधं मतम् ॥ ७ ॥ दोषैर्मुक्ते च सर्वज्ञे धर्म हिंसादिवनिते । निःसंगे सुगुरौ
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प्रथम अधिकार।
[१६ गर्दा, शम, भक्ति, वात्सल्य और कृपा ये आठ सम्यग्दर्शनके. गुण कहलाते हैं ॥ ८९ ॥ भूख, प्यास, बुढ़ापा, द्वेष, निद्रा, भय, क्रोध, राग, आश्चर्य, मद, विषाद, पसीना, जन्म, मरण, खेद, मोह, चिंता, रति ये अठारह दोष कहलाते हैं । (सर्वज्ञ देव इन्हीं अठारह दोषोंसे रहित होते हैं ) ॥१०॥ आठ मद, तीन मूढता, छह अनायतन, और शंका, कांक्षा आदि आठ दोष इसप्रकार सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष कहलाते हैं ॥९१॥ बृत (जुआ), मांस, मद्य, वेश्या, परस्त्री, चोरी और शिकार ये सात व्यसन कहलाते हैं । बुद्धिमानोंको इन सातों व्यसनोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ९२ ॥ जाति, कुल, धन, रूप, ज्ञान, तप, बल, बड़प्पन, इन आठोंका अभिमान करना आठ मद कहलाते हैं । विद्वानोंको इन आठों मदोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ९३ ।। मद्य, मांस, मधुका साग और पांचों उदंबरोंका साग ये आठ मूलगुण कहलाते हैं। प्रत्येक गृहस्थको इन आठों मूलगुणोंका पालन अवश्य करना चाहिये श्रद्धा या सम्यक्त्वं मतं हि तत् ॥ ८८ ॥ संवेगश्चापि निर्वेदो निंदा गर्दा तथा शमः । सम्यक्त्वेऽष्टौ गुणाः संति भक्तिर्वात्सल्यकं कृपा. ॥८९॥क्षुत्तट्जरारतिनिद्रा भीरुट रागोद्भुतं स्मयः। विषादस्वेदजन्मांताः खेदमोहौ स्मृतिर्हिषः ॥९०॥ अष्टौ मदास्त्रयो मूढास्तथानायतनानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चापि दृष्टिदोषाः बुधैर्मताः॥ ९१ ॥ द्यूतं मांस सुरापानं वेश्यान्यदारसेवने । चौयं च मृगया सप्त व्यसनानि त्यजेसुधीः ॥ ९२ ॥ जातिः महाकुलो लक्ष्मीः रूपं ज्ञानं तपो बलम् । शिल्पिरितिमदाश्चाष्टौ कर्तव्या नहि कोविदैः ॥९३॥ मद्यमांसमधु
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२० . ]
गौतमचरित्र ।
॥ ९४ ॥ मद्यका त्याग करनेवालोंको दूध छाछ मिले हुए, दो दिन रक्खे हुए दही, छाछ, कांजी और चलितरस अन्न इन सब चीजों का साग कर देना चाहिये || १५ || इसीप्रकार मांसका साग करनेवालों को चमड़ेमें रक्खा हुआ घो, दूध, तैल, पुष्प, शाक, मक्खन, कंदमूल, और वीधा (घुना ) अन्न कभी नहीं खाना चाहिये ॥ ९६ ॥ धर्मात्मा लोगोंको वेंगन, सूरण, हींग, अदरक, और विना छना पानी वा दूध कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥९७॥ रमास, उड़द, मूंग, सुपारी आदि फलोंको विना तोड़े नहीं खाना चाहिये तथा अज्ञात फलोंका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये || ९८ || इसीप्रकार बुद्धिमान लोगों को शहतका भी सर्वथा साग कर देना चाहिये। क्योंकि शतके निकालने में अनेक जीवोंका घात होता है, अनेक मक्खियोंका रुचिर उसमें मिला रहता है और इसीलिये वह लोकमें भी अत्यंत निंदनीय गिना जाता है ॥ ९९ ॥ इनके सिवाय देशव्रती श्रावकों को दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोत्यागैः सहोदुंबर पंचकैः । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ताः पाल्यं ते गृहमेधिभिः ॥९४॥ दुग्धतकपरिक्षिना दधितकं दिनद्वयम् । कांजिक विरसं चान्न न ग्राह्यं मद्यवभिः || ९५ ॥ चर्मघृतपयस्तैलं पुप्पशाकं नवाज्यकम् | कंदमूलं च विद्वान्नं न सेव्यं मांसवर्जितैः ॥ ९६ ॥ वृत्ताक सूरणं चैव हिंगुकं शृंगवेरकम् । अगालितपयःपानं हीयते धर्मबुद्धिभिः ॥९७॥ कौशिकामा मुद्रादेः फलमज्ञातनामकम् । अनि फल्पूगादिफलं सद्भिन गृह्यने ॥ ९ ८ || जीवनिधनसंभूतं मक्षिका रुधिरान्तिम् ।
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प्रथम अधिकार।
[२१ पवास, सचित्तसाग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओंका पालन करना चाहिये ।।१००-१०२।। अहिंसा अणुव्रत, सत्य अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत, 'परिग्रहपरिमाण अणुव्रत ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं। श्रावकोंको इनका भी पालन करना चाहिये ॥ १०३ ॥ दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदंडविरतिव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। श्रावकाचारको अच्छी तरह जाननेवाले श्रावकोंको इनका भी प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये ॥ १०४ ॥ छहों कायके जीवोंपर कृपा करना, पांचों इंद्रियोंको तथा मनको वशमें करना, तथा रौद्रध्यान और आर्तध्यानका त्याग कर देना सामायिक कहलाता है। यह सामायिक श्रावकोंको नियत समयपर अवश्य करना चाहिये ॥१.०५॥ अष्टमी चतुर्दशीके मधुं लोकविनिंद्यं च कः सुधीः पातुमिच्छति ॥९९॥ आद्यं सुदर्शनं ज्ञेयं व्रतं सामायिक तथा । सुप्रोषधोपवासोऽथ सचित्तवस्तुवर्ननम् । ॥ १०॥ रात्रिभुक्तिपरित्यागो ब्रह्मचर्यसुपालनम् । आरम्भरहितश्चापि परिग्रहप्रमाणकः॥१०१॥ अननुमोदनं चैवमुपदेशविवर्जितम्। एकादश च पाल्यंते प्रतिमा देशव्रतिभिः ॥ १०२ ॥ जीवदया च सत्यं चास्तेयं च ब्रह्मचर्यता । परिग्रहप्रमाणं चाणुव्रतपंचकं मतम् ॥१०३॥ दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिर्या गुणव्रतम् । श्रावकाचारपारीणैः पालनीयं प्रयत्नतः ॥१०४॥ कृपा षड्जीवकायेषु पंचाक्षचित्तरोधनम् । रौद्रार्तध्यानसंत्यागो यस्तत्सामायिकं मतम् ॥ १०५ ॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं व्रतमाचरेत् । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन
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२२]
गौतमचरित्र। दिन प्रोषधोपवास करना चाहिये । वह प्रोषधोपवास उत्तम मध्यम, जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका माना जाता है ॥१०॥ चंदन केशर आदि पदार्थोका लगाना भोग कहलाता है तथा वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थ उपभोग कहलाते हैं । इन दोनों प्रकारके पदार्थोकी संख्या नियत कर लेनी चाहिये । इसको भोगोपभोगपरिमाणवत कहते हैं। श्रावकोंको इसका भी पालन करना अत्यावश्यक है ॥ १०७ ॥ ज्ञानदान, औषधदान, अभयदान और आहारदानके भेदसे दान चार प्रकारका कहलाता है । यह चारों प्रकारका दान अपनी शक्तिके अनुसार गृहत्यागी मुनियोंके लिये देना चाहिये । इसको अतिथिसंविभागवत कहते हैं ॥१०८॥ बाह्य और आभ्यंतरके भेदसे दो प्रकारका शुद्ध तपश्चरण कहलाता है । यह दोनों प्रकारका तपश्चरण तत्त्वज्ञानियोंको अपने कर्म नष्ट करनेके लिये अवश्य धारण करना चाहिये ॥१०९॥ इसप्रकार महाराज श्रेणिक मुनिधर्म और श्रावकधर्म, दोनों प्रकारके धर्मोको सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए सो ठीक ही है, भरे अमृतके घड़ेको पाकर कौन संतुष्ट नहीं होता? अर्थात् सभी संतुष्ट होते हैं ।।११०।। तत्त्रिधा मतम् ॥ १०६ ॥ घनचंदनलेपाद्या वस्त्रविभूषणादयः । क्रमात्संख्या विधातव्या भोगोपभोगयोस्तयोः ॥१०७॥ ज्ञानौषधाभयाहारभेदादानं चतुर्विधम् । स्वशक्त्यातिथये देयं प्रोक्तोऽतिथिविभागकः ॥१०८॥ द्विविधं सुतपः शुद्धं बाह्याभ्यंतरभेदतः। तत्तत्त्ववेदिभिह्य कर्मनाशनहेतवे॥१०९॥इत्यादिकं द्विधाधर्म श्रुत्वा मनसि भूपतिः । जहर्ष स सुधाकुम्भं प्राप्य को नहि तुष्यति ॥ ११० ॥
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प्रथम अधिकार।
[२३ तदन्तर महाराज श्रेणिकने गणघरोंके स्वामी सर्वज्ञदेव भगवान् महावीरस्वामीको नमस्कार किया और फिर हाथ जोड़कर वे भगवान गौतम गणधरके पूर्व वृत्तांत पूछने लगे ॥११॥ हे प्रभो ! हे जिनेंद्रदेव ! ये गौतमस्वामी कौन हैं, किस पर्यायसे आकर यहां जन्म लिया है और किस धर्मसे इन्हें लब्धियां प्राप्त हुई हैं ? हे प्रभो ! ये सब बातें बतलाइये॥१.१२॥ हे जिनेन्द्रदेव ! क्या आपके निर्मल बचनोंसे किसीके मनमें संदेह रह सकता है ? क्या सूर्यकी किरणोंसे भी कहीं अंधकारका समूह ठहर सकता है ? ॥११३॥ धर्मके प्रभावसे उच्चकुलकी प्राप्ति होती है, मिष्ट बचनोंकी प्राप्ति होती हैं, सबका प्रेम प्रगट होता है, राज्य प्राप्त होता है, सौभाग्यशाली बनता है, सबसे उत्तम पद पाता है, सर्वांग सुंदर स्त्रियां प्राप्त होती हैं, संसारका नाश होता है, स्वर्गकी प्राप्ति होती है, अच्छी बुद्धि प्राप्त होती है, उत्तम यश मिलता है, उत्तम लक्ष्मी प्राप्त होती है और अन्तमें मोक्षरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है । इसलिये हे श्रेणिक ! तू सदा जैनधर्ममें ही अपनी सुबुद्धिको लगा ॥ ११४ ॥ इसप्रकार मंडलाचार्यश्रीधर्मचंद्र विरचित गौतमचरित्रमें श्रेणिकके
प्रश्नको वर्णन करनेवाला यह पहला अधिकार समाप्त हुआ। ततो नत्वा महावीरं सर्वशं गणनायकम् । गौतमपूर्ववृत्तांतं पप्रच्छ स कृतांजलिः॥ १११ ॥ कोऽयं कस्मात्समायातो गौतमः केन धर्मणा। संजाता लब्धिरस्येयं कथयेति निनप्रभो ! ॥ ११२ ॥ जिनेन्द्र तक सवाक्यैः केषां मनसि संशयः । संतिष्ठते तम्रोव्रातः किंवादित्यमरीचिभिः ॥११३॥ धर्मादुच्चकुलं सुवाक् प्रियतरो राज्यं च सौभा
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गौतमचरित्र |
अथ दूसरा अधिकार |
अथानंतर - भगवान् जिनेंद्रदेव दांतोंरूपी चंद्रमा की किररूपी जल से समस्त संसार के मलको प्रक्षालन करते हुए शुभ वचन कहने लगे ॥ १ ॥ हे राजा श्रेणिक ! तू मनको निश्वलकर सुन, मैं अब पाप पुण्य दोनोंसे प्रगट होनेवाले taarata पूर्व भवको कहता हूं || २ || अनेक देशों से शोभायमान इसी भरतक्षेत्रमें अनेक नगरोंसे सुशोभित एक अवंती नामका देश है || ३ || उस देशमें श्वेतवर्णके ऊंचे जिनालय ऐसे शोभायमान होते थे मानों मुनिराजोंके द्वारा इकट्ठे किये हुए मूर्तिमंत यशके समूह ही हों || ४ || उस देश में यता, धर्माद्रूपमनुत्तरं वरवधूः संसारविच्छेदता । धर्मात्स्वर्गफलं सुधीर्वरयशो लक्ष्मी मुक्तिप्रिया, तस्माच्छ्रेणिक ! धर्मएव सुमतिं जैने कुरु त्वं सदा ॥ ११४ ॥
इतिश्री गौतमचरिते श्रीश्रेणिकप्रश्नवर्णनं नाम प्रथमोऽधिकारः ।
२४]
अथ द्वितीयोऽधिकारः ।
अथ श्रीमज्जिनो देवोsवादीद्वचः शुभाकरम् । दंतचंद्रांशुनीरेण क्षालयन् जगतां मलम् ॥ १ ॥ मनो निश्चलमाधाय शृणु श्रेणिक भूपते ! | गौतमभवसंबंधं ब्रवीमि पापपुण्यजम् ॥२॥ इहैव भारते क्षेत्र नानादेशसमन्विते । अवन्तीविषयो भाति भूरिपत्तनराजितः ॥ ३ ॥ यत्र श्रीजिनसद्मानि भासते धवलानि वै । मूर्तिमंति यशांसीव मुनिनांचितानि च ॥ ४ ॥ यत्र पथिषु राजते पादपानां सुपंक्तयः ।
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दूसरा अधिकार।
[२५ पथिक लोगोंको इच्छानुसार फल, फूल देनेवाली वृक्षोंकी पंक्तियां सब मार्गों में शोभायमान हो रहीं थीं ॥५॥ उस देशमें सुकालके मेघोंसे सींची हुई किसानोंकी खेती सब तरहकी प्रशंसनीय संपत्तिसे फली फूली हुई दिखाई देती थी॥६॥ उस देशमें एक पुष्पपुर नामका नगर था जोकि बहुत ऊंचे कोटसे घिरा हुआ था तथा अपने बाग बगीचोंकी शोभासे वह नंदनवनको भी जीतता था ॥ ७॥ वहांके देवमंदिर (जिनालय) और ऊंचे ऊंचे राजभवन पूर्णचंद्रमाकी किरणोंके समान सफेद थे और वे अपनी शोभासे मानों हँस रहे ही हों ऐसे जान पड़ते थे ॥ ८॥ वहांके निवासी लोग सब जैनधर्ममें तत्पर थे, धर्म, अर्थ, काम, तीनों पुरुषार्थीको सिद्ध करनेवाले थे, मनोहर थे, दानी थे और बड़े यशस्वी थे ॥९॥ वहांकी स्त्रियां शीलवती, पुत्रवती, सुंदर, मुख देनेवाली, चतुर, सौभाग्यवती और उत्तम थीं तथा इसलिये वे कल्पलताओंके समान सुशोभित होती थीं ॥१०॥ उस नगरमें दूसरे चंद्रमाके पथिकमानववृन्दानां मनोवांच्छितदायिकाः ॥५॥ यत्र फलवती जाता कार्युकानां कृषिः सदा । समस्तशस्तसंपत्या सुकालमेघसंचिताः ॥६॥ तत्र पुष्पपुरं भाति तुंगप्राकारसंवृतम् । तद्वाटी पुष्पवारेण जयति नंदनं वनम् ॥७॥ देवसद्मानि यत्रत्यास्तुंगप्रासादपंक्तयः। खशोभया हसंतीव पूर्णचंद्राशुपांडुराः ॥ ८॥ तत्रत्या हि जनताऽभूजिनधर्मपरायणा । त्रिवर्गसाधिका कम्रा सत्यागा सुयशोधरा ॥९॥ रानंते यत्र कामिन्यः सशीलाः सफला वराः । सरसाः कल्पबल्यो वा सकांताः कामदाः पराः ॥१०॥ तत्राऽभूत् महीचंद्रो भूपश्चंद्र इवापरः । जनपार्थिवसंदोहैः
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२६] . गौतमचरित्र। समान महीचंद्र नामका राजा राज्य करता था । वह बहुत सुंदर था और अनेक राजा तथा जनसमुदाय उसकी सेवा करते थे ॥ ११ ॥ वह राजा अपने हृदयमें भगवान अरहंतदेवका स्मरण करता था। वह धनका भोक्ता, दाता, शुभ कार्योंका करनेवाला, नीतिवान् और अनेक गुणोंको धारण करनेवाला था तथा इसीलिये वह महाराज भरतके समान जान पड़ता था ॥ १२ ॥ वह राजा महीचंद्र दुष्ट पुरुषोंका निग्रह करनेवाला तथा सज्जन पुरुषोंका पालन करनेवाला था, राजविद्यामें निपुण था और चारों प्रकारकी सेनासे सुशोभित था ॥ १३ ॥ उस राजाके सुंदरी नामकी रानी थी जो कि बहुत ही गुणवती, रूपवती, सुंदरी, सौभाग्यवती, दान देनेवाली और पतिव्रता थी तथा और भी अनेक गुणोंसे मुशोभित थी ॥ १४ ॥ इसप्रकार वह राजा राज्य करता हुआ, अपनी रानीके साथ मुख सेवन करता हुआ और देव, गुरु आदि परमेष्ठियोंको नमस्कार आदि करता हुआ आनंदसे काल व्यतीत कर रहा था ॥ १५॥ संसेव्यो दिव्यमूर्तिकः ॥ ११ ॥ श्रीनिननामसचेता भोक्ता दाता शुभाकरः । सोऽभूद्भरततुल्यो हि सन्नयी सद्गुणाग्रणीः ॥ १२ ॥ चतुरंगबलोपेतो दुष्टनिग्रहकारकः । शिष्टप्रपालको योऽभूद्राजविद्यासुपंडितः ॥ १३ ॥ तस्याभूद्वल्लभा नाम्ना सुंदरी गुणसुंदरी । रूपसौभाग्यसदानपतिव्रताद्यलंकृता ॥ १४ ॥ इति राज्यं प्रकुर्वाणः कालं निनाय भूपतिः । भुंजन भोगान् तया साकं देवगुर्वादिसन्नतिः ॥१५॥ अथांगभूषणो नाम्ना समागत्य मुनीश्वरः । आम्रतले शिला
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दूसरा अधिकार |
[ २७
किसी दिन उस नगरके बाहर अंगभूषण नामके मुनिराज पधारे और वे नगरके बाहर आमके पेड़के नीचे एक शिलापर विराजमान होगये ॥ १६ ॥ वे मुनिराज चार महीनेका योग धारण करनेके लिये पर्वतके समान आकर विराजमान होगये थे, चारों प्रकारका संघ उनके साथ था, निर्मल सम्यग्दर्शनसे वे विभूषित थे, पूर्ण अवधिज्ञानको धारण करनेवाले थे, सम्यक् चारित्रके आचरण करनेमें सदा तत्पर थे, कामदेवरूपी प्रबल राजाका मर्दन करनेवाले थे, तपश्चरणसे उनका शरीर क्षीण हो गया था, क्रोध, मान आदि कषायरूपी महा पर्वतको चूर चूर करनेके लिये वे वज्र के समान थे, मोहरूपी मदोन्मत्त हाथीको विदारण करनेके लिये सिंहके समान थे, पांचों इंद्रियरूपी मल्लोंको जीतनेवाले थे, परीषहोंको जीतनेवाले थे, सर्वोत्तम थे, छहों आवश्यकोंसे सुशोभित थे, तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंको धारण करनेवाले थे | १७ - २० ॥ उन मुनिराजका आगमन सुनकर राजा महीचंद्र अपनी रानी एवं नगरनिवासियोंके - पीठे तत्पुरोपवने स्थितः ॥ १६ ॥ चातुर्मासिकयोगस्य स्थिती क.. क्षमाधरः । चतुर्विधसुसंघाढ्यः सत्सम्यक्त्वविभूषितः ॥ १७ ॥ संपूर्णावधिसन्नेत्रश्चारित्राचरणोद्यतः । मदनभूपतिसंमर्दस्तपसाक्षीणविग्रहः ॥ १८ ॥ क्रोधमानादिशैलेंद्रध्वंसवज्ञसमानकः । मोहमहागजेंद्राणां प्रविदारणकेसरी ॥ १९ ॥ पंचाक्षमल्लसज्जेता परीषहजयी परः । षडावश्यक संपन्नो मूलोत्तरगुणाधरः ॥ २० ॥ (पंचभिः कुलकम्) । तस्य चागमनं श्रुत्वा महीचंद्रश्चचाल सः । सप्रियो नागरैः सार्द्ध सैन्यगण
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२८ ]
गौतमचरित्र |
-साथ, और अपनी सब सेनाके साथ मुनिराज के दर्शन करनेके लिये चला || २१ || वहां जाकर राजाने जल, चंदन आदि आठों द्रव्योंसे मुनिराजके चरणकमलोंकी पूजा की, उनकी स्तुति की, उन्हें नमस्कार किया और फिर उनसे धर्मवृद्धि रूप आशीर्वाद पाकर उनके समीप बैठ गया ||२२|| उस बनमें जो लोगोंका बहुतसा समुदाय इकट्ठा हुआ था उसे 'देखकर अत्यंत कुरूपा तीन शूद्रको कन्याएं शीघ्रता से आकर वहां बैठ गई ।। २३ ॥ तदनंतर उन मुनिराजने राजा और उस जनता के लिये, भगवान जिनेंद्र देवके मुखसे उत्पन्न हुआ और अत्यंत सुख देनेवाला धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया ||२४|| वे कहने लगे कि " देव, शास्त्र, गुरुकी सेवा करनेसे धर्म उत्पन्न होता है । एकेंद्रिय, दो इंद्रिय आदि समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेसे धर्म उत्पन्न होता है, जीवोंका उपकार करनेसे धर्म उत्पन्न होता है, धर्मके मार्गोंको प्रकाशित करनेसे सर्वोत्तम धर्म प्रगट होता है, मन बचन कायकी शुद्धतापूर्वक सम्यग्दर्शन के पालन करने से और व्रतोंके धारण करनेसे धर्म समन्वितः ॥ २१ ॥ सलिलाद्यष्टधा द्रव्यैः कृत्वा पादार्चनं मुनेः । तद्धर्मवृद्धिमालब्ध्वा स्तुत्वा नत्वोपविष्टवान् ||२२|| बने जनवनं दृष्ट्वा कुरूपा शूद्रकन्यकाः । ततः तिस्रः समागत्य तरसा यत्र संस्थिताः ॥२३॥ स मुनींद्रोऽपि तं भूपं जगौ धर्मोपदेशकम् । जिनमुखात्समुद्भूतं भूरिसुखप्रदायकम् ॥ २४ ॥ देवशास्त्रगुरूणां हि सेवनाज्जायते वृषः । एकेंद्रियादिजीवानां रक्षणादुपकारतः ॥ २५ ॥ धर्ममार्गप्रकाशेन महत्तरो वृषो भवेत् । सम्यक्त्वादिव्रतानां वै त्रिशुद्धया ग्रहणात्तथा
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दूसरा अधिकार।
[२६ प्रगट होता है । मद्य, मांस, मधुके त्याग करने, सचित्त पदायौँका साग करने, पांचों इंद्रिय तथा मनको वश करने और अपनी शक्तिके अनुसार दान देनेसे धर्म उत्पन्न होता है ॥ २५-२७ ॥ इसप्रकार और भी बहुतसे उपाय हैं जिनसे जैनधर्मकी वृद्धि होती है तथा उससे प्राणियोंको इस लोकमें और परलोक दोनों लोकोंमें उत्तम सुख प्राप्त होता है . ॥ २८ ॥ उत्तम धर्मके प्रभावसे मनुष्योंको शुद्ध रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है और रत्नत्रयकी प्राप्ति होनेसे उन्हें शीघ्र ही मुक्तिरूपी सुंदरीकी प्राप्रि होजाती है ॥ २९ ॥ यह उत्तम धर्मरूपी कल्पवृक्ष हर्ष उत्पन्न करनेवाला है, इच्छानुसार फल देनेवाला है, सौभाग्यशाली बनानेवाला है, उत्तम पदार्थोकी प्राशिला है तथा यश और कांति देनेवाला है।॥३०॥ मनुष्योका पुण्यके प्रभावसे भरतक्षेत्रके छहों खंडोंकी भूमि, नवनिधि, चौदह रत्न, और अनेक राजाओंसे सुशोभित ऐसी चक्रवर्तीकी विभूति प्राप्त होती है ॥ ३१ ॥ पुण्यके प्रभावसे मनुष्य देवांगनाओंके समान सुंदर, पातिव्रत आदि ॥ २६ ॥ मद्यमांसमधुत्यागात्सचित्तवर्जनासथा। पंचाक्षचित्तरोधेन स्वशक्त्या दानतो वृषः ॥२७॥ इत्यादि बहुल द जैनो धर्मः प्रजायते। तेनेहामुत्र सत्सौख्यं प्राणिनामुपजायते ॥२८॥ सद्रत्नत्रयसंपत्तिनिमला जायते नृणाम् । सद्धर्मतस्तया शीघ्रं मुक्तिप्रिया समाप्यते ॥२९॥ हर्षदः कामदश्चापि सौभाग्यदः सुवस्त्रदः । यशोदः कांतिदश्चैब सहमकल्पपादपः ॥ ३० ॥ प्राप्यते पुण्यतो मत्यैश्चक्रवादिभूतयः । भरतभूमिसद्रत्ननिधिसुभटसंयुताः ॥३१॥ देवांगनासमाकाराः पति
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३० ]
गौतमचरित्र ।
अनेक गुणोंसे सुशोभित और गुणवती ऐसी अनेक स्त्रियोंका उपभोग करते हैं ।। ३२ । विद्वान, सुंदर, माता पिताकी भक्ति से भरपूर, रूपवान् और सौभाग्यशाली पुत्र पुण्यके ही प्रभावसे प्राप्त होते हैं || ३३ ॥ राजा महाराजा आदि चड़े पुरुष जो सोनेके पात्रोंमें असंत स्वादिष्ट और मनोहर भोजन करते हैं वह सब पुण्यके ही प्रभाव से समझना चाहिये ॥ ३४ ॥ हे राजन् ! शरीरका नीरोग रहना, उत्तम कुलमें जन्म लेना, बड़ी आयुका पाना और सुंदर रूपका मिलना आदि सब उत्तम धर्मका ही फल समझना चाहिये || ३५ ॥ देव, शास्त्र, गुरुकी निंदा करनेसे पाप उत्पन्न होता है और सम्यग्दर्शन, व्रत आदिकोंके नियम भंग करनेसे भारी पाप होता है || ३६ || सातों व्यसनोंका सेवन करने से पाप होता है और पांचों इंद्रियोंके विषयोंको सेवन करने से अतिशय पाप उत्पन्न होता है ||३७|| क्रोध, मान, माया, लोभ आदि
तादिभूपिताः । भुजंते पुण्यतो मर्त्याः सुगुणाढ्याः सुयोषितः ॥ ३२ ॥ सुविधा: शोभनाचाराः पितृभक्ति भरावहाः । रूपसौभाग्यसंपन्नाः पुत्राः भवति पुण्यतः ||३३|| खाद्यस्वाद्यादिरम्यं यद्भोजनं क्रियते नरैः । - तत्पुण्ययोगतो नित्यं सुवर्णभाजनसंस्थितम् ॥ ३४ ॥ नीरोगता कुले जन्म दीर्घायुश्च सरूपता । इत्यादिकं विजानीहि भूपते ! वृष सत्फलम् ।। ३५ ।। सर्वज्ञगुरुशास्त्राणां निंदनात्कलुषं भवेत् । सम्यक्त्वसुव्रतादीनां नियमभंजनाद् दृढम् ॥ ३६ ॥ सप्तव्यसनसंग्रा ह्यात्पापं प्रजायते भुवि । पंचाक्षविषयाणां हि सेवनात्पापमद्भुतम् ॥ ३७ ॥ क्रोधमानादिसंयोगात्परपीडारतादपि । अकृत्याचरणेनापि
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दूसरा अधिकार।
। ३१
कषायोंके संयोगसे, अन्य जीवोंको पीड़ा पहुंचानेसे और 'निंद्य आचरणोंके धारण करनेसे पाप उत्पन्न होता है ॥३८॥ परस्त्रियोंके सेवन करनेसे, दूसरेका धन हरण करनेसे, दूसरोंके दोष प्रगट करनेसे और किसीकी धरोहर मार लेनेसे महा पाप उत्पन्न होता है ॥ ३९ ॥ जीवोंकी हिंसा करने, झूठ बोलने, अधिक परिग्रहकी लालसा रखने और किसीके दानमें विघ्न कर देनेसे पाप उत्पन्न होता है ॥ ४० ॥ मद्य, मांस, मधुके भक्षण करनेसे पाप होता है और हरे कंदमूल आदि सचित्त पदार्थोके स्पर्श करने मात्रसे भी पाप होता है ॥ ४१ ॥ विना छाना हुआ पानी पीनेसे बहुत ही पाप होता है। बिल्ली आदि दुष्ट जीवोंके पालन पोषण करनेसे तथा मिथ्यादृष्टियोंकी सेवा करनेसे भी पाप ही उत्पन्न होता है ॥ ४२ ॥ पापकर्मके उदयसे ये जीव कुरूप, लंगडे, काने, टोटे, बौने, अँधे, थोड़ी आयुवाले, अङ्ग, उपाङ्ग रहित और मूर्ख उत्पन्न होते हैं ॥ ४३ ॥ पापकर्मके ही उदयसे दरिद्री कल्पषमुपजायते ॥ ३८ ॥ परसीमंतिनीभोगैरन्यस्वहरणादपि । परदोषकथाभ्यासान्न्यासप्रहरणादवम् ॥ ३९ ॥ शरीरिणां बधात्पापमसत्यबचनादपि । परिग्रहग्रहेणैव दानविघ्नकरादपि ॥ ४० ॥ मधुपिशितहालानां प्रभक्षणादधं भवेत् । आर्द्रककंदमूलादिसचित्तस्पर्शनादपि ॥४१॥ अगालितनलपानाद्भूयिष्ठ कल्मषं भवेत् । दुष्टानां प्राणिनां पोषान्मिथ्यादृष्टिप्रसेवया ॥ ४२ ॥ कुरूपाः पंगवः काणाः खंना विकलवामनाः । अंधा अल्पायुषो मृढा जायते पापतो नराः ॥४३॥ दरिद्रोपहता नीचाः क्लेशविषादकुष्टिताः । आधिव्याधिसमा
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३२ ]
गौतमचरित्र ।
नीच, कोढ़ी, चिंतित, दुःखी, मानसिक तथा शारीरिक अनेक: व्याधियोंसे पीड़ित और अनेक दुःखोंसे दुःखी उत्पन्न होते हैं ॥ ४४ ॥ पापकर्मके उदयसे ही जीवोंके अपयश बढ़ानेवाले दुराचारी, सदा कलह करनेवाले और अयन्त दुःख देनेवाले कुपुत्र उत्पन्न होते हैं ॥ ४५ ॥ पापकर्मके उदयसे ही गृहस्थियोंको काले रंगकी, लम्बे शरीरकी, टेढ़ी नाकवाली, दुर्वचन कहनेवाली और भयङ्कर स्त्रियाँ प्राप्त होती हैं || ४६ ॥ पापकर्मके उदयसे ही मनुष्यों को भीख मांग मांगकर प्राप्त हुआ, स्वाद रहित, नीरस और मिट्टी के बर्तनमें रक्खा हुआ कुभोजन खानेके लिये मिलता है || ४७|| हे राजन् ! इस संसार में जो कुछ बुरा और दुःख देनेवाला है वह सब पापरूपी वृक्षों का ही फल समझना चाहिये ॥ ४८ ॥ इसप्रकार पाप, धर्म और उन दोनोंके फलों को सुनकर राजा महीचन्द्र अपने चित्तमें बहुत संतुष्ट हुआ ।। ४९ ।। इधर राजाने कुटम्बकी बैठी हुई तीन कन्याएं देखीं जो कि दुष्ट स्वभावकी थीं, सदा दीन थीं, तीव्र दुःख से दुख थीं, काले रंग की थीं, दया रहित थीं और माता युक्ता दुःखिताः पापतो ध्रुवम् ॥ ४४ ॥ कुयशसो दुराचारा नित्यं कलहकारिणः । पापोदयात्प्रजायते कुतनयाः प्रदुःखदाः ॥ ४५ ॥ श्यामवर्णाश्व दीर्घाग्यो वक्रनामाः भयानकाः । दुर्वचनाः स्त्रियो नृणां नायंते पापतो गृहे ॥ ४६ ॥ विरसं याचनाप्राप्तं मृत्तिकाभाजन स्थितम् । स्वादहीनं सदा भोज्यं भुंजन्ते पापतो नराः ॥ ४७ ॥ इत्यादिकं हि यत्किंचिदशोभनं प्रदुःखदम् । तत्सर्वं विद्धि भूमीश ! पापमहीरुहां फलम् ॥ ४८ ॥ इतिपापवृष स्तोमफलमुत्पत्तिसंयुतम् । समाकर्ण्य
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दुसरा अधिकार।
[३३ पिता, भाई, बंधु आदिसे रहित थीं। उन्हें देखकर राजाके नेत्र प्रफुल्लित हो गये तथा मुख और मन आनंदित होगया ॥५०-५१ ॥ तदनंतर राजाने उन मुनिराजको नमस्कार किया, उनकी स्तुति की और फिर पूछा कि इन कन्याओंको देखकर मेरे हृदयमें प्रेम क्यों उत्पन्न हो आया है ? ॥१२॥ इसके उत्तर में वे मुनिराज कहने लगे कि इनके साथ तेरा प्रेम उत्पन्न होनेका कारण पहिले भवमें उत्पन्न हुआ है । वह मैं कहता हूं तू सुन ॥ ५३॥
इसी भरतक्षेत्रमें एक काशी देश है जो कि बहुत बड़ा है, तीर्थकर परमदेवके पंचकल्याणकोंसे सुशोभित है, अनेक नगर, गांव और पत्तन आदिसे शोभायमान है, रत्नोंकी खानिसे भरपूर है और अनेक प्रकारकी शोभासे सुशोभित है ॥ ५४-५५ ॥ उसी काशी देशमें एक बनारस नामका नगर है जो कि बहुत ही सुंदर है और ऐसा मालूम होता है निजे चित्ते महीचंद्रस्तुतोष सः ॥ ४९ ॥ इतः महीपतिर्दृष्ट्वा तिस्रः कन्याः कुटंबिनः । बभूव विकसन्नेत्रो हर्षिताननमानसः ॥ १० ॥ दुष्टशीलाः सदा दीनास्तीव्रदुःखेन पीडिताः । श्यामवर्णा दयाहीनाः पितृबांधववर्जिताः ॥५१॥ (युग्मम्)। पप्रच्छेति नृपो नत्वा स्तुत्वा तं मुनिपुंगवम् । इमाः कन्याः समालोक्य स्नेहो जातः कथं मम ॥१२॥ प्रोवाचेति मुनिभूपमाभिस्ते स्नेह कारणम् । पूर्वभवांतरे जातं शृणु त्वं च गदाम्यहम् ॥५३॥ इहैव भारते क्षेत्रे काशी देशोऽस्ति विस्तृतः। सत्तीर्थकरदेवानां पंचकल्याणभूषितः॥५४॥ अनेकनगरग्रामपत्तनादिविराजितः । रत्नखनि समाकीर्णः नानाशोभासमन्वितः ॥५५॥ तत्र
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३४]
गौतमचरित्र। मानो विधाताने स्वर्गकी अलका नगरीको जीतनेके लिये ही यह नगर बनाया हो ॥५६॥ उसके चारों ओर एक कोट था जोकि उंचाईसे आकाशको छूता था और फैलावमें बादलोंके समान था तथा इसीलिये उसने मानों अपने क्रोधसे हो सूर्यका तेज भी रोक रक्खा था ॥ ५७॥ उस कोटके चारों ओर एक खाई थी जोकि शत्रुओंको भय उत्पन्न करनेवाली थी, असन्त निर्मल, मनोहर गंभीर और सरस (रस वा जलसे भरी हुई ) थी तथा इसीलिये वह अच्छे कविकी कविताके समान सुशोभित होती थी॥ ५८ ॥ कुदोंके पुष्पोंके समान श्वेत-उज्वल ऐसे वहांके जिनालय वायुसे फहराती हुई अपने शिखरकी ध्वजारूपी हाथोंसे मानों दूरसे ही भव्य जीवोंको बुला रहे थे॥५९॥ वहांके मकानोंकी पंक्तियां बड़ी ही ऊंची थीं, उनके चारों ओर चित्र बने हुए थे, वे वरफ और चंद्रमाके समान श्वेत थीं और इसीलिये ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानों कीर्तिकी सुन्दर मूर्ति ही बनी हो ॥ ६० ॥ वहां के मनुष्य अच्छे दानी थे, भगवान जिनेन्द्रदेवके चरणवाणारसी नाम पुरमस्ति सुशोभनम् । अलका नगरं जेतुं विधात्रा निर्मितं वरम् ॥५६॥ प्राकारोरानते यत्र तुंगतास्टशितांबरः । येनारुद्धं रस्ते नो रोपादिवाभ्रविस्तृतम् ॥ ५७ ॥ यत्खातिका परा भाति वैरिवर्गभयप्रदा । निर्मला सरमा रम्या गंभीरेव कवेः सुगीः ॥१८॥ यति जिनगेहानि यत्र च भव्यजन्मिनः । कुंदोज्वलानि बातेन चलत्सद्ध्वजपाणिना ॥१९॥ सचित्रा यत्र राते प्रोतुंगाः सौधराजयः । तुषारचन्द्रमाश्वेताः परा वा कीर्तिमूर्तयः ॥ ६० ॥ सत्यामाः
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दूसरा अधिकार |
[ ३५
कमलों की पूजा करनेमें सदा तत्पर रहते थे, परोपकारी थे, सुंदर थे और उनके आचरण बहुत ही अच्छे थे ॥ ६१ ॥ वहां की स्त्रियां अपने रूपसे देवांगनाओं को भी जीतती थीं, बड़ी गुणवती थीं, सौभाग्यशालिनी थीं और पतिप्रेममें सदा तत्पर थीं ||३२|| वहां वजारोंकी दुकानोंकी पंक्तियां बड़ी अच्छी जान पड़ती थीं, रत्न, सोना, चांदी आदिसे वे भर रही थीं, सब तरहके धान्यों से शोभायमान थीं और वस्त्रोंके व्यवसायसे भरपूर थीं ॥ ६३ ॥ रात्रिमें जब वहांकी स्त्रियां अपने मधुर स्वरसे गाती थीं और उस समय कदाचित चंद्रमा उस नगरके ऊपर आ जाता था तो उसके चलानेवाले देव उस गानको सुनकर वहीं ठहर जाते थे और इस प्रकार वह चंद्रमा भी आगे नहीं बढ़ सकता था ।। ६४ ।। रात्रिमें अपने नियत स्थानपर जाने की इच्छा करनेवालीं और श्याम रंग के वस्त्रों से सुशोभित ऐसी वहांकी वेश्याएं लहर लेती हुई नदी के समान बहुत ही अच्छी जान पड़ती थीं ॥ ३५ ॥ वहांकी बावडियों के निर्मल जलमें जल भरनेवालीं पनिहारियां क्रीडा शोभना चारा जिनपादार्चने रताः । बभूवुर्मानवा यत्र परोपकृतिनः शुभाः ॥ ६१ ॥ जयंति योषिता यत्र स्वरूपेण सुरांगनाः । सुगुणाढ्याः ससौभाग्या धवस्नेहपरायणाः ॥ ६२ ॥ हट्टश्रेणिः परा भाति रत्नस्वर्णादिसंभृता । अशेषलस्यसद्राशिः सवसनक्रियाणका ॥६३॥ गंतु शशाक रात्रौ न यत्रोपरि गतो विधुः । कामिनीकंठसंजातगीत संरुद्धवाहनः ॥ ६४ ॥ यत्र पण्यागता रेजुर्निशीथे गमनोत्सुकाः । श्यामवस्त्रधराः कांता नद्य इव सविभ्रमाः ||६९ || क्रीडंति
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३६ ]
गौतमचरित्र |
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करती थीं और ब्रह्मपर खिले हुए कमलोंकी सुगंध से भ्रमण करते हुए भौंरे उन्हें दुखी कर रहे थे ॥ ६६ ॥ उन स्त्रियोंकी जलक्रीडासे जो उनके शरीर से केशर धुलकर निकल रही थी उससे वहां सुगंधित कमल भी पीले हो गये थे और उन्हीं सरोवरों में कामी पुरुष अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीडा कर रहे थे ।। ६७ ।। उस नगरके बाहर खलियानों में अनाजोंकी राशियां शोभायमान थीं । वे राशियां गोल थीं, ऊंची थीं, शुद्ध थीं और किसानोंको आनंद देनेवालीं थीं ।। ६८ ।। वहांके खेतों में सब तरहके धान्य सदा उत्पन्न होते रहते थे । वे धान्य सुकालके मेघोंसे सींचे हुए थे और बड़े ही उत्तम थे ॥६९॥ उस शहर की सड़कोंपर पेड़ोंकी पंक्तियां लगी हुई थीं, जो कि परोपकार करनेमें तत्पर थीं, सघन उनकी छाया थी और फलके भारसे वे नम्र थीं ॥७०॥ उस नगरके चारों ओर बगीचे थे उनकी लताएं पुष्प और फलोंसे सुशोभित थीं, मनोहर थीं, सरस थीं और गुणवती थीं तथा विलासवती स्त्रियोंके समान शोभायमान थीं ॥ ७१ ॥ जलहारिण्यो यत्र सद्वापिकाजले । पद्मगंधभ्रमद्भृङ्गताडिता अतिनिर्मले ॥ ६६ ॥ जलधौतांगरागेण पीते सुगंधवा रिजे । दीव्यंते निजनारीभिस्तडागे यत्र कामिनः ॥ ६७ ॥ यद्वनखलवृंदेषु शोभते सस्यराशयः । वर्तुलाः प्रोन्नताः शुद्धाः कार्षुकानन्ददायिकाः ॥ ६८ ॥ यत्क्षेत्रेऽशेषसस्यानि प्रोत्पद्यते हि संततम् । सुकालभवमेघौघसिंचितानि शुभानि वै ॥ ६९ ॥ यत्पथि पादपाराजिः परोपकृतितत्परा । बभूव सघनच्छाया फलभारेण सन्नता ॥ ७० ॥ यदंते बाटिकावल्यः
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दूसरा अधिकार |
[ ३७
वहां पर सरोग राजहंस ही थे अर्थात् राजहंस ही सरोग अर्थात सरोवरोंपर रहनेवाले थे अन्य कोई सरोग अर्थात रोगी नहीं था, ताडन कपासका ही होता था, कपासकी ही रुई निकाली जाती थी और किसीका ताडन नहीं होता था। वहांपरं पतन वृक्षोंके पत्तों का ही होता था वे ही ऊपर से नीचे गिरते थे और किसीका पतन नहीं होता था तथा बंधन केशपाशोंका ही होता था, केशपाश ही बांधे जाते थे और किसीका बंधन नहीं होता था । ७२ || वहांपर दंड ध्वजाओं में ही था और किसीको दंड नहीं दिया जाता था, भंग कवियोंके रचे हुए छंदों में ही था और किसीका भंग नहीं होता था, हरण स्त्रियोंके हृदयमें ही था, स्त्रियोंके हृदय ही पुरुषोंके मनको हरण करते थे और किसीका हरण नहीं होता था और भयसे उत्पन्न हुआ शब्द नवोढा स्त्रियों में ही था और कोई भयभीत नहीं था || ७३ || उस नगर में राजा विश्वलोचन राज्य करता था । वह राजा शत्रुओंके समुदायरूपी हिरणोंके लिये केसरी था और अपनी कांतिसे सूर्यको भी जीतता था ॥ ७४ ॥ वह राजा याचकोंके लिये इच्छासे भी अधिक दान देता था और सपुष्पाः भांति सत्फलाः । गुणाढ्याः सरसाः कम्रा नार्य इव सविभ्रमाः ॥७१॥ सरोगा राजहंसाः स्युः कार्पासे यत्र ताडनम् । पतनं वृक्षपत्रेषु केशपाशेषु बंधनम् ॥ ७२ ॥ यत्र ध्वजेषु दंडोऽपि भंगो वृत्तेषु दृश्यते । हरणं वनिता चित्ते प्रमदासु भयारवः ॥ ७३ ॥ तदीश्वरो महाराजो वरोऽभूद्विश्वलोचनः । वैरिकुलैणपंचास्यः स्वकांत्या जितभास्करः ॥ ७४ ॥ ददौ कांक्षाधिकं दानं याचकेभ्योऽनिशं नृपः । कल्पवृक्षं
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३८]
गौतमचरित्र। इसीलिये वह मनकी अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षोंको भी सदा जीतता रहता था ॥ ७५ ॥ विधाताने मानों इंद्रसे प्रभुत्व लेकर, कुबेरसे धन लेकर, यमसे क्रोध लेकर, अग्निसे तेज लेकर और चंद्रमासे सुंदरता तथा शीतलता लेकर ही उसके अंग प्रसंग बनाये हों ऐसा मालूम होता था ॥ ७६ ॥ जिस प्रकार सिंहके भयसे हरिण अपने जीवनके लिये बनको छोड़ देते हैं उसी प्रकार उसके प्रतापको सुनकर शत्रु लोग भी अपने जीवनके लिये देशका भी साग कर देते थे ॥ ७७ ॥ उसका ललाट बहुत ही विस्तीर्ण और मनोहर था और ऐसा मालूम होता था मानों विधाताने अपने लिखनेके लिये ही वह ललाट बनाया हो ॥ ७८ ॥ उसके भुजारूपी दंड बड़े ही मनोहर थे, जंघातक लंबे थे
और ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके समुदायको जीतनेके लिये नागपाश ही हों ॥ ७९ ॥ उसका वक्षःस्थल बहुत ही बड़ा था, बहुत ही सुन्दर था, देवांगनाओंके भी मनको मोहित करता था और लक्ष्मीके क्रीड़ा करनेके घरके समान ही जान ..जिगायातो मनोभिलाषदायकम् ॥७९॥ इंद्रात्प्रभुत्वमादाय श्रीदाद्वित्तं
यमाद्रुषम् । यस्यांगं निर्मितं धात्रा तेनोग्नेः सौम्यतां विधोः ॥७६॥ यत्प्रतापं समाकर्ण्य रिपवो देशहायिनः । बभूवुर्नीवितार्थाय सिंहमयान्मृगा इव ॥७७॥ मनोहरां च योऽधत्त विस्तीर्णी भालपट्टिकां । निर्मितेव विधात्रा या लेखा) मेदिनीप्रभोः ॥७८॥ धत्ते यो बाहुसंइंडौ कातौ जानुप्रमाणकौ । वैरिकदंबकं जेतुं नागपाशाविव ध्रुवम् ॥७९॥ वक्षोऽतिविस्तृतं यस्य शुशुभे चातिसुंदरम् । रंजकं विबुध
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दूसरा अधिकार।
[३६ पड़ता था ॥८०॥ जिसप्रकार पृथ्वी समुद्रोंको धारण करती है उसीप्रकार गंभीर, निर्मल और मनोहर उसकी बुद्धि चारों राजविद्याओंको धारण करती थी ॥ ८१॥ कुंदके पुष्पोंके समान असंत उज्वल और निर्मल उसकी कीर्ति समस्त संसारमें व्याप्त हो रही थी और निर्मल किरणोंकी उत्तम मूर्तिके समान जान पड़ती थी॥८२॥ उस राजाके पास प्रधान, मंत्री, अच्छे अच्छे देश, किले, खजाना और सेना आदि सब कुछ था, प्रभाव उत्साह आदि तीनों शक्तियां थीं, संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वेधा, आश्रय आदि छहों गुण थे और इसीलिये वह राजा शत्रुओंके लिये अजेय होरहा था॥८३॥वह राजा संसारके समस्त राजाओंमें मुख्य था, नीतिमें निपुण था, रूपवान् था, सुन्दर था, मधुरभाषी था और प्रजाको प्रसन्न करने में सदा तत्पर रहता था॥८४॥ उसके राज्यसिंहासनपर बैठनेपर सब प्रजा सुखी, धर्मात्मा, दानी, आनंदी और परोपकार कर
तत्पर हो गई थी॥८६॥ उस राजाके विशालाक्षी (दीर्घ स्त्रीणां लक्ष्मीकीडनसद्गृहम् ॥८॥राजविद्या चतस्रोपि दधार यस्य सन्मतिः । गंभीरा निर्मला कांता धरित्री वारिधीन्निव ॥ ८१ ॥ सत्कीर्तिर्यस्य वभ्राम निर्मला भुवनोदरे । सन्मूर्तिरिव शुभ्रांशोः कुंदपुष्पसमुज्वला ॥ ८२ ॥ प्रधानामात्यसदेशदुर्गकोशवलाधरः । त्रिशक्तिः षड़गुणोऽनय्यो भूपोऽभूदरिसंहतेः ॥८३॥ विश्वभूपतिमुख्योऽभूद्यः सुवाक् नीतिकोविदः। सुरूपः सुंदराकारः प्रजारञ्जनतत्परः ॥८४॥ यस्मिन् पाति जनाः सर्वे बभूवुः सुखिनः सदा । धर्मिणो दानिनः कांताः परोपकृतितत्पराः ॥ ८६ ॥ तस्य प्रिया विशालाक्षी
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४०]
गौतमचरित्र। नेत्रोंवाली) नामकी रानी थी जोकि प्रेमसे भरपूर थी और इंद्राणी, रतिदेवी, नागस्त्री अथवा देवांगनाके समान सुन्दर जान पड़ती थी ॥८६॥ वह रानी अपने लीलापूर्वक गमन करनेमें मदोन्मत्त हाथियोंकी उत्तम गतिको भी जीतती थी। इसीलिये मानों वे हाथी अपने शरीरपर धूलिक समूहको फेंक रहे थे ॥ ८७ ॥ उसकी उंगलियोंमें वीसों नख बहुत अच्छे शोभायमान थे, वे द्वितीयाके चंद्रमाके समान थे और रुधिरकी लालिमासे बड़े ही मनोहर जान पड़ते थे ।।८८॥ उसके जंघा बड़े ही सुन्दर और मनोहर थे, वे केलेके खम्भेके समान थे
और उद्दीपक थे॥८९॥ वह रानी अपनी मनोहर कटिशोभासे सिंहकी कटिशोभाको भी जीतती थी। यदि ऐसा न होता तो फिर सिंह पर्वतोंकी गुफाओंमें ही क्यों पड़ा रहता ? ॥१०॥ उसकी नाभि गम्भीर, गोल और मनोहर थी तथा कामके विलास करनेके लिये रससे भरी हुई (जलसे भरी हुई) छोटी सरोवरीके समान थी ॥९१॥ उसके उन्नत कुच विल्वबभूव प्रीतिमंडिता । शचीव रतिदेवीव नागस्त्री किं सुरांगना ॥८६॥ निजगमनलीलाभिः सा जयतिस्म सद्गतिम् । अतस्ते स्वतनौ नागाः क्षिपंति पांशुसंचयम् ॥८७॥ यदंगुलीषु भासते नखरा विंशतिप्रमाः । द्वितीयेंदुसमाकाराः शोणप्रभा मनोहराः ॥८६॥ यस्याः शुशुभतु जंधे शुभाकारे मनोहरे । कदलीस्तंभतुल्ये हि मदनशमधी यथा ॥८९॥ सा हरत्तत्कटीशोभा कशकच्या सुकांतया । अन्यथा स कथं सिंहो गिरिगुहासु तिष्ठति ॥९०॥ यस्या नाभिः सुगंभीरा वर्तुलाऽभून्मनोहरा । पंचशरविलासार्थ सरोवरीव सद्रसा ॥ ९१ ॥ विल्वफलसमौ
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दूसरा अधिकार।
[४१ फलके समान कठोर थे मनोहर थे और कामियोंके हृदयको जीतनेवाले थे ॥९२॥ उसके दोनों कुचोंके मध्यभागमें रहनेवाली कोमल रोमराजी ऐसी अच्छी जान पड़ती थी मानों कुचरूपी दोनों राजाओंका विरोध दूर करनेके लिये मध्यमें सी ही नियत कर दी हो॥९॥ उसके दोनों हाथोंकी हथेलियां लाल, कोमल, मनोहर, छोटी और सुन्दर थीं तथा उनपर मछली, ध्वजा आदि, अनेक सुन्दर चिह्न थे ॥१४॥ वह रानी अपने मुखरूपी चन्द्रमासे आकाशके चन्द्रमाकी शोभाको भी जीतती थी और इसीलिये तभीसे यह चंद्रमा उसके डरसेही मानों महादेवकी सेवा करने लग गया है ॥९॥ उस रानीने अपनी नाकसे तोतोंकी चोंचकी शोभा भी जीत ली थी इसीलिये मानों वे सब तोते लज्जासे व्याकुल होकर बनमें चले गये हैं ॥ ९६ ॥ उसने अपनी वाणीसे आमकी कलीकी मधुर गंधसे उत्पन्न होनेवाली कोयलकी वाणी भी जीत ली थी इसीलिये कोयल मानो उसी समयसे श्याम वर्णकी होगई है ॥९७॥ पीनावुन्नतौ सुमनोहरौ । कामिहृदयजेतारौ या धत्तेस्म पयोधरौ ॥१२॥ रोमरानिरभाद्यस्याः कोमला मध्यवर्तिनी । सीमेव स्तनभूपत्योर्विरोधशमनाय वै ॥ ९३ ॥ दधौ करतले या च मीनध्वनादिलक्ष्मके । रोहिते मृदुले सूक्ष्मे शुभाकारे मनोहरे ॥९४॥ स्वबदनेंदुना व्योमचंद्रशोभा जहार या । तदा प्रभृति भूतेशसेवां चक्रे सा तद्भिया॥१५॥ स्वघाणेन जिगायासौ तस्य घोणारमा शुभाम् । तदा बनं गता कीरा लज्जयेव सविह्वलाः ॥९६॥ वाचा जिगाय तद्वाणी या चाम्रकलिकोद्भवाम् । कांतया कोकिला जाताः श्यामवर्णाश्रितास्तदा ॥ ९७ ॥
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४२]
गौतमचरित्र। उस रानीने अपने चंचल और विशाल नेत्रोंसे हिरणोंके नेत्रोंकी शोभा भी जीत ली थी इसीलिये मानों हिरण भयभीत होकर बड़ी शीघ्रतासे बनमें जा बसे हैं ॥ ९८ ॥ उसके दोनों कान कोमल थे, मनोहर थे, सुंदर थे और सुंदर कर्णभूषणोंसे असन्त मुशोभित हो रहे थे ॥ ९९ ॥ उसकी दोनों भौंहें टेढ़ी थीं, चंचल थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानों कामीरूपी योद्धाओंको जीतनेके लिये बाणोंसे सजे हुए दोनों धनुष ही हों ॥१००॥ उस रानीका श्याम और सुगंधित पुष्पोंसे गठा हुआ केशपाश ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानों उसके मुखकी सुगंधिके लोभसे सर्प ही आ गया हो ॥१०१॥ वह रानीहाव, भाव विलास आदि गुणोंसे भरपूर थी, लावण्य आदि गुणोंसे सुशोभित थी और समस्त गुणोंकी खानि थी। उसमें इतने गुण थे कि उनको कहने के लिये भी कोई समर्थ नहीं है ॥ १०२ ॥ वह रानी बड़ी ही सुंदरी थी
और पतिके मनको वश करनेके लिये परम औषधिके समान येषां नेत्ररमां जहे दृशा चंचलया च या । अतो मृगाः भयत्रस्ताः शीघं इव बनं गताः ॥९८॥ शब्दग्रहौ दधातिस्म कोमलौ सुमनोहरौ। शुभाकारौ च या कांतौ कर्णाभरणभूषितौ ॥ ९९ ॥ भातःस्म सुभ्रुवौ यस्याः प्रकुंचिते सविभ्रमे । कामिसुभटसंजेतुं धनुषीव गुणांचिते ॥१००॥ रराज केशपाशोऽस्याः श्यामः सुपुष्पगुंठितः। तद्वगंधलोभेन भुजंगम इवागतः ॥ १०१ ॥ हावभावविलासाव्या लावण्यगुणसंयुता । सर्वगुणखनिर्याभूहक्तुं कस्तद्गुणान् क्षमः ॥ १०२॥ तया समं सुखं भुंजन् कालं निनाय भूपतिः । भर्तृमनोवशीकर्तुं पसै
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दूसरा अधिकार।
[४३. थी, उसके साथ सुख भोगता हुआ राजा अपना काल व्यतीत कर रहा था ॥ १०३ ॥ जिस प्रकार तिदेवी कामदेवके मनको वश कर लेती है, रोहिणी चन्द्रमाके मनको वश कर लेती है उसीप्रकार उस रानीने अपने स्नेहरूपी पाशसे अपने पतिका मन बांध लिया था-अर्थात् वशमें कर लिया था ॥१०४॥ वह राजा विश्वलोचन उस विशालाक्षी रानीके साथ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दसे होनेवाले पंचेंद्रियोंके सुखोंका अनुभव करता था ॥ १०५॥ इसप्रकार उस राजाके सुखपूर्वक काल व्यतीत करनेपर शुभ वसंत समय आया । वह वसंत समय तरुण पुरुषोंके हृदयमें कामोद्दीपनका कारण था ॥१०६॥ उस समय सब वृक्षोंपर फल पुष्प आगये थे और सब वृक्षोंपर पक्षीगण निवास करने लग गये थे ॥ १०७॥ उस समय तरुण पुरुष भी उत्सुक होगये थे और स्त्रियां भी अपने संयोगजन्य परस्परके प्रेमसे भरे हुए कामियोंके हृदयमें निवास करने लग गई थीं ॥१०८॥ उस समय षध्या सुकांतया ॥ १०३ ॥ तया धवमनो वद्धं परमस्नेहपाशया । इंदुहृदिव रोहिण्या रतिदेव्येव मन्मथः ॥१०४॥ पंचेंद्रियसुखं भूपो विशालाक्ष्या बुभोज हि । स्पर्शगंधरसालोकगुणश्रवणसंभवम् ॥१०॥ तस्मिन् सुखं प्रकुर्वाणे वसंतसमयः शुभः । प्राप्तस्तरुणचित्तेषु कामोत्पादनहेतुकः ॥ १०६ ॥ तदा सफलवृक्षाणां समुत्पत्तिरजायत । सत्पुष्पफलयुक्तानां विहंगमनिवासिनाम् ॥१०७॥ तदा कामो युवा जातः कामिनीकामिमानसे । निरंतरस्वसंयोगान्योन्यसुप्रेमपूरिते ॥१०८॥ मुनीनां क्षीणगात्राणां चित्तसंक्षोभकारकः । तत्राभूत्काम--
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गौतमचरित्र। कामरूपी योद्धा शील संयम धारण करनेवाले और असन्तु क्षीण शरीरको धारण करनेवाले मुनियोंके हृदयमें भी क्षोभ उत्पन्न करता था ॥ १०९ ।। उस वसंतऋतुके आजानेपर संसारमें ऐसी कोई स्त्री नहीं थी जो अपने पतिके साथ कलह उत्पन्न करती हो अर्थात् उस समय सब अपना मान छोड़ देती थीं ॥ ११० ॥ उस वसंतऋतु वह राजा विश्वलोचन अपनी सेना और नगर निवासियोंके साथ अनेक वृक्ष व लताओंसे भरे हुए बनमें अपनी रानीके साथ क्रीड़ा करनेके लिये गया ॥१११॥ वहां जाकर राजाने वह बन देखा। वह बन बड़ा ही मनोहर था और वायुसे हिलती हुई लताओंके समूहसे तथा चहचहाते हुए पक्षियोंकी आवाजसे ऐसा जान पड़ता था मानों राजाके आनेसे वह बन नृत्य ही कर रहा हो ॥११२॥ उस समय ऐसा मालूम होता था मानों राजा विश्वलोचनके आनेपर वहांका वायु लतारूपी स्त्रीको नृस ही करा रहा हो । वह लतारूपी स्त्री पुष्पोंके समूहसे सुशोभित थी, पत्ते ही उसके केश थे, फल ही उसके स्तन थे, राजहंस आदि पक्षियोंके शब्द ही उसके गीत थे, वनकी शोभाको वह धारण योद्धा वै शीलसंयमधारिणाम् ॥१०९॥ वसंतसमये प्राप्ते सह का विरहस्य के । कलहं निन कांतैश्च का वनिता प्रचक्रिरे ॥११०॥ वसंते कांतया साईमियाय भूपतिर्वनम् । ससेनो नागरैः साकं नानावृक्षादि. संकुलम् ॥१११॥ नृपोऽपश्यदूवनं कांतं नृत्यदिव तदागमे । मारुताधूतसवल्लीसमूहं विहगस्वनम् ॥ ११२॥ भ्रमरीस्वान सद्गीतैः पिकध्वनिमृदंगकैः। शुकनिर्घोषवीणाभिः कीचकारावतालकैः॥११३॥
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दूसरा अधिकार ।
[ ४५
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कर रही थी, पुष्पों के हारसे वह सुशोभित थी और मनुष्योंके चित्तको मोहित करनेवाली थी । उसके नृसके साथ भ्रमरोंके झंकार ही उत्तम गीत थे, कोयलोंकी ध्वनि ही मृदंग थे, तोतोंकी आवाज ही वीणा थी और कीडोंके द्वारा खाये हुए (छिद्र सहित) वांसोंकी आवाज ही तालका काम देरही थी । इसप्रकार वह बन मानों राजाका सत्कार ही कर रहा था ।११३११५ ॥ वहां पर राजाने एक आमके पेड़पर स्त्री पुरुष रूप दो कोयलों को देखा । वे दोनों ही परस्परके प्रेमके समुदाय से एक दूसरेके मुखमें आमकी कलिका देरहे थे ॥ ११६ ॥ संभोग सुख देनेवाला जिनका पति विदेश गया है ऐसी कौनसी स्त्रियां इन कोयलोंकी स्त्रियोंके बचन सहन कर सकती हैं ? भावार्थ को नहीं ॥। ११७ ।। इस प्रकार घूमते फिरते हुए राजाने कहीं तो स्त्रियोंको मोहित करनेवाले, आनंद देनेवाले और अत्यन्त मनोहर ऐसे सारस पक्षियोंके शब्द सुने ॥ ११८ ॥ कहीं पर मालती के मनोहर फूल देखे जिनपर सुगंपुष्पसमूहकोत्तसां पत्रकेशां फलस्तनीम् । राजहंसादिसद्गीता बनलास्यधरां स्फुटम् ॥ ११४ ॥ पुष्पहारसमाक्रांतां मानवचित्तमोहिनीम् । यत्र नृपागमे वायुर्नर्तयति लतावधूम् ॥ ११५ ॥ (त्रिभिः कुलकम् ) । सहकारे ददर्शायं तत्र कोकिलयुग्मकम् । अन्योन्यप्रेमसंदो हैर्दत्तमुखाम्रसत्फलम् ॥ ११६॥ कांतेह पिककांतानां वाचं सोढुं हि का क्षमा । विदेशे भर्तरि प्राप्ते संभोगसुखदायिके ॥ ११७ ॥ क्वचिच्छुश्राव संरावान् सारसपक्षसंभवान् । प्रमोददायकान् कांता प्रमदामोहकारिणः ॥११८॥ क्वचिच्च मालतीपुष्पं लुलोकेह मनोहरं । सुगंध्याकृष्टभृङ्गा
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गौतमचरित्र:घिसे आये हुए भ्रमरोंके समूह झंकार शब्द कर रहे थे ॥११९॥ इसी प्रकार कहींपर मयूरोंका नृस देखा, कहींपर बंदरोंकी क्रीड़ा देखी, कहींपर हिरणोंकी लीला देखी और कहींपर पक्षियोंके समुदाय देखे ॥ १२० ॥ उसने कहींपर मनोहर आमके बन देखे, कहींपर अनारोंके बन देखे, कहींपर सुपारीके बन देखे और कहींपर बिजौरेके फल देखे ॥१२॥ कहींपर कोई स्त्री पतिको मना रही थी, कोई मान कर रही थी, कोई प्रेमसे भरपूर थी, कोई मनोहर थी और कोई स्तन ही दिखा रही थी। कहींपर पृथ्वी हरी घाससे सुशोभित होरही थी, कहीं जलसे भर रही थी और कहींपर चावलोंके पेड़ फलोंसे नम्रीभूत होरहे थे। यह सब शोभा राजाने देखी ॥१२२-१२३॥ तदनन्तर वह राजा दाखोंकी लताओंके मंडपमें गया और हँसी, विलास, चूर्ण आदिके द्वारा अपनी रानी के साथ क्रीडा करने लगा ॥१२४॥ फिर वह राजा लिकृतझंकारसंयुतम् ॥११९॥ क्वचिन्मयूरसंनृत्यं क्वचिन्मर्कटकेलिकाम् । क्वचित्कुरंगसल्लीलां पक्षिणां निवहं क्वचित् ॥ १२० ॥ क्वचिदाम्रबनं कांतं क्वचिदाडिमकाननम् । क्वचिच्च क्रमुकारामं बीजपूरफलं क्वचित् ॥१२१॥ मानयंत क्वचिन्नारी भर्तारं रतकोपिनीम् । सुप्रेमपूरितां कांतां वचिच दर्शितस्तनीम् ॥ १२२ ॥ क्वचिच्च शाड्वलां भूमि सज्जलपूरितां क्वचित् । फलभारनताः शालीः कचिल्लुलोकभूपतिः ।।१२३॥ ( चतुर्भिः कुलकम् ) । द्राक्षासुमंडपे भूपो रमे स्वकांतया समम् । यक्षकईमसच्चूर्णे हास्यवाक्यैर्विलासकैः ॥१२४ भूपस्तां प्रीणयामास सत्कौतूहललीलया । सुरतैः सुरसैः कातैः पंचा
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दूसरा अधिकार
[४७
पांचों इंद्रियोंको तृप्त करनेवाले मनोहर सरस कामभोगके द्वारा लीलापूर्वक रानीको साथ प्रसन्न करने लगा॥१२५॥ तदनंतर वह राजा प्रसन्न होकर कामभोगसे उत्पन्न हुए खेदको दूर करनेके लिये रानीके साथ जलक्रीड़ा करने लगा। १२६॥ उस जलक्रीड़ासे सरोवर चलायमान होगया, शर रकी केसर धुल जानेसे सरोवर सब पीला होगया और कमलोंकी सुगन्धीसे सब सुगंधित होगया ॥ १२७ ॥ जलक्रीड़ा करनेके बाद वह राजा तुरईके वाजोंके साथ, स्त्रियोंके गीतोंके साथ और बड़े भारी उत्सवके साथ अपने घरको आया ॥ १२८ ॥ ___अथानन्तर-शाम हुई, जिन कामियोंके हृदय स्त्रियोंने ग्रहण कर रक्खे थे उन कामियोंपर दया करके ही क्या मानों मूर्य अस्त होने लगा और समस्त आकाशमें लाली ही लाली छागई ॥१२९॥ संध्याकाल होगया, आकाशकी कांति लाल हो गई, चारोंओर पक्षियोंके कोलाहल होनेलगे और सूर्यकी कांति छिप गई ।। १३० ॥ तदनंतर अ.काशमें पूर्ण चंद्रमाका उदय क्षपीडनक्षमैः ॥ १२५ ॥ ततो बभूव स भूपो जलक्रीडारतस्तया । सुरतोद्भवसत्खेदहानये प्रीतिमानसः ॥१२६॥ तत्क्रीडाभिश्चलद्वारि दधार प्रीततां सरः। जलधौतांगरागेण पद्मसुगंधिवासितम् ॥१२॥ जलक्रीडां विधायासौ स्वगृहं आययौ द्रुतम् । तूर्यसंदोहनिर्घोष : वधूगीतैर्मनोहरैः ॥१२८॥ अथास्तमित आदित्योऽनुकंपयेव कामिनाम् । योषदगृहीतचित्तानां निर्भरारुणितप्रभः ॥१२९॥ सांध्यकालस्तदा जातः कृतापरारुणछविः। पक्षिकोलाहलाकीर्ण आच्छादितरविद्युतिः ॥१३०॥ ततो नभलि संजातश्चन्द्रोदयः सुविस्तृतः। कृतकुमुदसंकाशः
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४८]
गौतमचरित्र हुआ। उसके उदयसे कुमुदिनी प्रफुल्लित होगई और संयोगिनी स्त्रियां. सुखी होगई ॥१३१॥ राजा राजमहलमें आकर फिर उस रानीके साथ आसक्त हो गया सो ठीक ही है स्त्रियां चित्तको मोहित करनेवाली होती ही हैं, यदि वे बहुत ही रूपवती हों तो फिर क्या पूछना है ॥१३२॥ इस प्रकार बहुतसा समय बीत जानेपर भी गजाको मालूम नहीं हुआ। सो ठीक ही है क्योंकि सुखमें एक महीना भी एक दिनके समान वीत जाता है और दुःखमें एक दिन भी एक महीनेके बराबर बीतता है ॥ १३३ ॥
किसी एक दिन वह विशालाक्षी रानी प्रसन्नचित्त होकर चामरी और रंगिका नामकी दो दासियोंके साथ राजमहलके झरोखोंमें खड़ी थी। उस समय किसी नाटकको देखकर उसका मन चंचल हो गया था। वह नाटक आनंद उत्पन्न करनेवाला था, मनोहर था, रससे भरपूर था, अनेक प्रकारके पात्रोंसे सुशोभित था, भेरी, मृदंग, ताल, वीणा, वंशी, डमरू, झांझ आदि अनेक बाजे उसमें बज रहे थे, स्त्रीपुरुषोंसे वह भर रहा था, ताल और लयोंसे वह सुंदर था, स्त्रीभेषको संयोगिनीसुखाकरः ॥१३१॥ मंदिरमेत्यभूपोऽभूत्तदासक्तमानसः । स्त्रियो हि चित्तमोहिन्यः सर्वा रूपयुताः किमु ॥१३२॥ गतं कालं विवेदासौ न विश्वलोचनः सुखे । मासो हि दिनतुल्यः स्यादःखे माससमं दिनम् ॥१३३॥ अथैकदा विशालाक्षी सौधगवाक्षके स्थिता । चामरी रंगिका दासी युता संहृष्टमानसा ॥१३४॥ तदा नाटकमालोक्य सा नाता चलमानसा । प्रमोदकारणं कांतं बहुरूपं रसाकुलम् ॥१३५॥
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दूसरा अधिकार।
[४९ धारण करनेवाले पुरुषोंके नृससे सुशोभित था, उसमें अनेक अभिनय (खेल वा दृश्य) दिखाये जा रहे थे, पात्रलोग अंगविक्षेप कर रहे थे, स्त्रियोंके गीत हो रहे थे और वह नाटक समस्त स्त्रीपुरुषोंके मनको मोहित कर रहा था। इस प्रकारके नाटकको देखकर उस रानीका मन चंचल हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि अपूर्व नाटकको देखकर किसके ह्रदयमें विकार उत्पन्न नहीं होता है॥१३४-१३८॥उसी समयसे वह रानी अपने हृदयमें चिंतवन करने लगी कि इस राज्यसुखसे मुझे क्या लाभ है, मैं तो एक अपराधीकी तरह बंदीखाने में पड़ी हुई हूं ॥१३९॥ संसारमें वे ही स्त्रियां धन्य हैं जो अपनी इच्छानुसार चाहे जहां घूमती फिरती हैं। परन्तु पहले पापकर्मोंके उदयसे मुझे वह इच्छानुसार घूमने फिरनेका मुख प्राप्त नहीं हुआ है ।।१४०॥ इसलिये अब मैं इच्छानुसार घूमने फिरनेरूप संसारके फलको शीघ्र और सदाके लिये देखना चाहती हूं। इस विषयमें लज्जा मेरा क्या करेगी ? ॥१४॥ भेरीमृदंगसत्तालवीणावंशादिनादकम् । डमरुझझेरारावं नरनारीसमाकुलम् ॥१३६॥ सतालं सलयं चारु भ्रकुंशलास्यसंयुतम् । अभिनयांगविक्षेपं कामिनीगीतसंकुलम् ॥१३७॥ अशेषनरनारीणां मनोमोहनकारणम् । अपूर्वनाटकं दृष्ट्वा विकृतिं यांति के न हि ॥१३८॥ (पंचभिः कुलकम् ) । तदा प्रभृति सा राज्ञी चिंतयामास मानसे । किमहं राज्यसौख्येन बंदिस्थाने न योजिता ॥१३९॥ ता धन्याः संति कामिन्यः स्वेच्छाभ्रमं प्रकुर्वते । संसारे तच्च नो लेभे पूर्वपापविपाकतः ॥१४०॥ संसारस्य फलं शीघ्रं द्रक्षाम्यहं निरंतरम् । स्वैरिता भ्रमणे
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५० ]
गौतमचरित्र वह रानी इस प्रकार चिंता करने लगी परन्तु वह अपने मनोरथोंको पूर्ण न कर सकी इसलिये उसने कपट करनेमें असन्त चतुर ऐसी अपनी दासियोंसे कहा ॥१४२॥ कि हे दासियो ! इच्छानुसार घूमना फिरना मनुष्यभवको सफल करनेवाला है और काम भोगादिको देनेवाला है इसलिये हम सबको यहांसे निकल कर इच्छानुसार घूमना चाहिये ॥१४३॥ इसके उत्तरमें वे दासियां कहने लगी कि आपने यह विचार बहुत अच्छा किया। संसारमें मनुष्यजन्मका फल ही यही बतलाया है ॥१४४॥ तदनन्तर कामवाणसे पीड़ित, कामसे अन्धी, अत्यन्त विह्वल, दुष्ट हृदयवाली, अपने कुलाचारसे रहित और दुर्बुद्धिको धारण करनेवाली वह रानी अपने पहलेके पापकर्मके उदयसे उन दोनों दासियोंके साथ घरसे निकलने का उपाय करने लगी ॥१४५-१४६।। झूठ बोलना, दुर्बुद्धि होना, कुटिल हृदय होना, छल कपट करना
और मूर्ख होना ये स्त्रियों के स्वाभाविक गुण होते हैं ॥१४७॥ नैव लज्जा मे किं करिष्यति ॥१४ १॥ इति चिंता समाप्यासावसंपूर्णमनोरथा । अकथय द्रुतं दास्यौ भूरिकापन्यपंडिते॥१४२॥ स्वेच्छागमनकं चेट्यो करिप्यामो वयं द्रुतम् । मानुष्यभवप्सहेतु कामभोगा. दिदायकम् ॥ १४३ ॥ तदा जगदतुस्ते तां सखीति भवता वरम् । विचारितं नरत्वस्य फलमेतत्प्रकीर्तितम् ॥१४४॥ सोपायं साधयामाप्त निर्गमनस्य सत्वरम् । दासीद्वयसमायुक्ता स्वकुलाचारवनिता।।१४५॥ पीडिता कामबाणेन मारांधा चातिविह्वला । पूर्वपापविशकेन दुर्मतिदुष्टमानसा ॥१४६॥ असत्यं दुर्मतिश्चैव कुटिलहृदयं तथा । माया
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दूसरा अधिकार। इन्हीं गुणोंके कारण उस रानीने रात होते ही हुई भरकर एक स्त्रीका पुतला बनाया और उसे कपड़ोंसे खूब सुशोभित किया ॥ १४८॥ उस रानीने उस पुतलेकी कमरमें करधनी पहनाई, पैरोंमें विछुआ पहनाये, माथेपर तिलक लगाया, समस्त शरीरको चन्दनसे लिप्त किया, केशोंको फूलोंसे गुंठित किया, स्तनोंपर कंचुकी (चोली) पहनाई, मुखपर पानकी लाली लगाई और मोतियोंसे जड़ी हुई नाकमें नथ पहनाई ॥ १४९-१५० ॥ तदनन्तर वह रानी उस पुतलेके रूपको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई, क्योंकि उस पुतलेका बना हुआ शरीर बहुत ही सुशोभित होरहा था और ठीक रानीके रूपके समान ही जान पड़ता था ॥ १५१ ॥ फिर उस रानीने मणि तथा मोतियोंसे जड़े हुए अनेक रेशमी वस्त्रोंसे मुशोभित और अनेक प्रकारके सुगन्धित द्रव्योंसे सुगंधित ऐसे पलंगपर उस पुतलेको सुला दिया ॥१५२॥ तदनन्तर उस रानी विशालाक्षीने राजा विश्वलोचनके द्वारपाल आदि सब सेवशौचं च मूर्खत्वं स्त्रीणां दोषा निसर्गजाः ॥ १४७ ॥ निशागमे विशालाक्ष्या शोभनं तूलिकामयम् । प्रकल्पितं वधूरूपं दुकूलपरिभूषितम् ॥१४८॥ कटिमेखलया युक्तं नूपुरशोभितक्रमम् । तिलकाकीर्णसद्भालं चंदनैर्लिप्तविग्रहम् ॥१४९॥ पुष्पैठितसत्केशं कंचुकाच्छाद्यतस्तनम् । तांबूलारक्तसहकं नासिकाधृतमौक्तिकम् ॥ १५० ॥ ततस्तद्रूपमालोक्य राज्ञी सानंदलोचना। आतीच्छोभितसद्दात्रं निनरूपमिवापरम् ॥१५१॥ मणिमुक्ताफलाकीर्णे नानासुक्षौमवेष्टिते। स्थापितं तत्तया तल्पे सुगंधिद्रव्यवासिते ॥१५२॥ ततो द्वाःस्थादयः
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गौतमचरित्र। कोंको वस्त्र, आभूषण और धन देकर अपने वशमें कर लिया ॥ १५३ ॥ फिर वह रानी अपने पूर्व पापकर्मके उदयसे उन दोनों दासियोंको साथ लेकर किसी देवीकी पूजाके बहानेसे आधी रातके समय उस राजमहलसे बाहर निकल गई ॥१५४॥ उन तीनों स्त्रियोंने सुन्दर वस्त्राभूषण आदि राज्यके चिह्नोंका साग कर दिया और गेरूके रंगे हुए वस्त्रोंसे अपने शरीरको ढककर जोगिनीका रूप धारण कर लिया ॥१५॥ वनमें जाकर उन तीनोंका राजभवनमें मिलनेवाला सुन्दर भोजन तो छूट गया और भूख मिटानेके लिये वे तीनों वनके वृक्षोंके फल खाने लगीं॥१५६॥ देखो, कहां तो राजाकी महा संपत्ति और कहां जोगिनीका रूप ? पापकर्मके उदयसे इस संसारमें जीवोंको किस किस अशुभकी प्राप्ति नहीं होती है ? भावार्थ-समस्त अशुभ कर्मोकी प्राप्ति होती है ॥१५७॥
इस घटनाके एक दिन बाद ही कामसे पीड़ित हुआ वह राजा रात्रिके समय मणियोंसे सजाये हुए रानीके शुभ्र सर्वे विश्वलोचनदासकाः । वस्त्राभरणरौप्येण विशालाक्ष्या वशीकृताः ॥१५३॥ निशीथसमये जाते देवीपूजामिषाद द्रुतम् । दासीढययुता राज्ञी निःसृता पूर्वपापतः ॥१५४॥ ता राज्यलक्षणं मुक्त्वा योगिनीरूपमादधुः । गैरिकारक्तसहस्त्रपिधानितशरीरकम् ॥ १५५ ॥ कानने ताश्च योगिन्यो हित्वा राजाईभोजनम् । बुभुजुर्बनवृक्षाणां फलानि क्षुद्विहानये ॥१५६॥ क्व भूमिपतिसंपत्तियोंगिनीरूपकं क च । पापोदयो न किं कुर्यादशुभं भुवि देहिनाम् ॥१५७॥ एकस्मिन्नंतरे भूपो रात्रौ जगाम तद्गृहम् । मणिविचित्रितं शुभ्रं मदन
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दूसरा अधिकार |
[ ५३
( सफेद ) महल में पहुंचा ॥ १५८ ॥ राजाने परिवारके लोगोंको तो बाहर ही छोड़ दिया और कपूर, कस्तूरी, चंदन, पुष्प आदि अनेक पदार्थोंसे सुगंधित होनेवाले राजमहलके मध्य भागमें जा पहुंचा ॥ १५२ ॥ वह राजा रानीके उस सुन्दर पलंगको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ और प्रेमसे उसका मन भर रहा था और मुँह तथा नेत्र प्रफुल्लित होरहे थे ॥ १६० ।। उस समय वह अपने मनमें विचार कर रहा था कि मैं इंद्र हूं, यह रानी शची है, यह राजभवन वैजयंत ( इन्द्रभवन ) है और यह सुन्दर पलङ्ग इन्द्रकी ही शय्या है ।। १६१ ।। तदनन्तर राजा मनमें फिर विचार करने लगा कि यह रानी आज मेरा आदर सत्कार क्यों नहीं करती है, मालूम नहीं आज इसका क्या कारण है ।। १६२ ॥ क्या इसके शरीरमें कोई रोग होगया है अथवा कोई मानसिक दुःख है अथवा मेरा अनिष्ट करनेवाले किसीसे रूठ गई है || १६३ || इस प्रकारकी चिंता से व्याकुल हुआ वह राजा उस रानीसे बाणपीडितः ॥ ११८ ॥ परिवारं बहिर्मुक्त्वा सौधमध्यं गतो नृपः । कर्पूरधन कस्तूरी चंदनपुष्पवासितम् ॥ ११९ ॥ स जहर्ष समालोक्य महिषीशयनं शुभम् । विकचदवसन्नेत्रः स्नेहपूरितमानसः ॥ १६० एवं विचारयामास सोऽहं शक्र इयं शची । वैजयंतमिदं वेश्म तच्छयनमिदं शुभम् ॥ १६९ ॥ राजेत्यचिंतयच्चित्तेऽभ्युत्थानं किमियं मम । संप्रति कुरुते नैव न जाने किमु कारणम् ॥ १६२ ॥ शरीरेऽस्याः किमु व्याधिः किमु का मानसी व्यथा । किं च केनापि संरुष्टा मदनिष्टप्रकारिणा ॥ १६३ ॥ इति चित्राकुलो भूपो बचो जगाद
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गौतमचरित्र। कहने लगा कि हे कांते ! हे रानी ! आज न उठनेका क्या कारण है, मेरे सामने कह ॥ १६४ ॥ तदनन्तर उस राजाने उस पलङ्गपर बैठकर उसका स्पर्श किया तथापि उस अचेतन विशालाक्षीने कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ १६५ ॥ तब राजाने अपने मनमें समझा कि दोनों दासियोंसे रहित यह मायामयी रानी है इसलिये स्त्रियां जिसप्रकार विनय करती हैं उससे रहित हैं और पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित हैं। रतिके समान रूपको धारण करनेवाली वह रानी तो किसी पापीने हरण कर ली है। यही समझकर वह राजा बेहोश होकर भूमिपर गिर पड़ा ॥ १६६-१६७ ॥ कस्तूरी, चन्दन आदि शीतोपचारोंसे सेवकोंने उसे सावधान किया, फिर जिसका चित्त हरा गया है ऐसा वह राजा उस रानीके लिये विलाप करने लगा। वह कहने लगा कि हे हंसकीसी चाल चलनेवाली ! हे सुन्दरी ! हे हिरणकेसे नेत्रवाली ! हे वाले ! तू कहां है, जल्दी कह ॥६८-१६९॥ हे गुणोंकी गौरवताको तां प्रति । राज्ञि! किं कारणं कांते ! ममाग्रे त्वं निरूपय ॥१६॥ ततस्तच्छयने स्थित्वा तेन तत्स्पर्शनं कृतम् । तथापि किमु नो ब्रूते विशालाक्षी विचेतना ॥१६५॥ राज्ञी मायामयी जाता दासीढयेनवनिता । योषिद्विनयसंहीना पंचाक्षविषयच्युता ॥१६६॥ततो मनसि संज्ञात्वा राज्ञीयं केन पापिना । हृतेति रतिरूपाढ्या भूमौ पपात भूपतिः ॥१६७॥ कस्तूरी घनसारादिशीतोपचारतस्तदा। प्रबोधं सेवकैर्नीतो भूपतिर्हतमानसः ॥१६८॥ विलापमिति चक्रेऽसौ हा ! मरालगते ! -वरे!। हा! मृगलोचने वाले कुत्रासि त्वं वद द्रुतम् ॥१६९॥ हा गुण
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दूसरा अधिकार |
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वाली ! taid ! हे मेरे हृदयरूपी धनको चुरानेवाली ! गुणोंकी आधार ! हे विलासिनी ! तू कहां है, शीघ्र कह ॥ १७० ॥ हे चंद्रवदनी ! हे सुन्दरी ! हे रतिके भी मानको मर्दन करनेवाली ! हे पंचेन्द्रियों को सुख देनेवाली ! हे चित्तको मोहित करनेवाली ! तू कहां गई, शीघ्र बतला । १७१ ॥ हे सुन्दरी ! तेरी रक्षा करनेवाली दोनों दासियां कहां गई तथा मुझमें होनेवाला तेरा बहुतसा प्रेम इस समय कहां चला गया ? ॥ १७२ ॥ | यह सब मायामयी दृश्य मुझे मनोहर नहीं जान पड़ता । प्यारी ! इस महलमें कोई आ भी नहीं सकता फिर किस उपायसे तुझे हरण कर लिया ॥ १७३ ॥ अथवा हे कुलाचार से रहित दुष्ट ! तू अपने आप नष्ट होगई है ? नीच मनुष्योंकी संगति से सज्जन पुरुष भी नष्ट हो जाते हैं ॥१७४॥ स्त्री किसी अन्य पुरुषको बुलाती है, हृदयमें किसी अन्य पुरुषको धारण करती है, नियत किया हुआ स्थान किसी अन्यको बतलाती है और किसी अन्यके साथ क्रीड़ा गौर कांते मच्चित्तवित्ततस्करि । निर्दये ! हा ! गुणाधारे कुत्रासि हा विलासिनि ॥ १७० ॥ हा ! चंद्रवदने वामे हा ! रतिमानमर्दने । पंचाक्षसुखदे कुत्र गतासि चित्त मोहिनि ॥ १७१ ॥ सुंदरि रक्षपालास्ते क्व गतं चेटिकाद्वयम् । भूरिमद्विषये प्रीतिस्तव कुत्राधुना गता ॥ १७२ ॥ इदं मायामयं सर्वं दृश्यते न मनोहरी । कस्याप्यागमनं नात्र कस्मादुपायतो हृता ॥ १७३ ॥ दुष्टे ! किं वा स्वयं नष्टा कुलाचार विवर्जिते ! कुमानवप्रसंगेन नाश यांति हि सज्जनाः ॥ १७४ ॥ अन्यमाह्वयते नारी विधत्तेऽन्यं नरं हृदि ।
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५६ ]
गौतमचरित्र ।
करती है | स्त्री ये सब काम एक साथ करती है । स्त्री जैसी भीतर से दिखाई देती है वैसी बाहरसे दिखाई नहीं देती और जैसी बाहर से दिखाई देती है वैसे कार्य नहीं करती । स्त्रियोंके चारित्रको भला कौन जान सकता है ।। १७५ - १७६ ।। कुटिल हृदयवाली स्त्रियोंकी जैसी चेष्टा होती है वैसी वे स्वयं नहीं होतीं । इस प्रकार शोकरूपी अग्निसे जिसका हृदय संतप्त होरहा है ऐसा वह राजा अपने हृदयमें बारबार चितवन करने लगा || १७७ ॥ वक्रोक्ति (जिस अभिप्रायसे कोई बात कही गई है उसका अर्थ बदलकर उत्तर देना), वक्र दृष्टि (तिरछी चितवन ), पहेलियोंको पढ़ानेवाली, बुरी संगति और सदा एकांत में बातचीत करते रहना ये सब बातें स्त्रियोंको नष्ट कर देती हैं || १७८ | उस रानीको मैंने कभी अप्रसन्न नहीं किया था, उसे पट्टरानी के पदपर विराजमान किया था और सब रणवासमें वह पूज्य मानी जाती थी । तो भी वह रानी क्यों रुष्ट होगई ।। १७९ || समस्त गुणोंको दत्तेऽन्यं वचनस्थानं रमतेऽन्येन वै समम् ॥ १७५ ॥ यादृशी दृश्यते मध्ये तादृशी न बहिर्वधूः । यद्वाह्येन करोत्येव वेत्ति स्त्रीचरितं हि कः ॥ १७६ ॥ कुटिलचेतसां स्त्रीणां चेष्टा या नास्ति सा नहि । पार्थिवोऽचिंतयश्चित्त शोकाग्नितप्तमानसः ॥ १७७॥ वक्रोक्ति वक्रदृष्टि पहेलीपाठिका तथा । कुसंगती रहोवार्ता स्त्रीरेताभिर्विनश्यति ॥१७८॥ कृतोऽस्या नाप्रसादोपि मया सा महिषीपदे । धृतावरोधसंपूज्या राज्ञी रुष्टा किमप्यसौ ॥ १७९ ॥ यस्याः सर्वगुणाधारो दशवर्षीय आत्मजः । प्रजानां पालने दक्षः सा सुंदरी कथं गता
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दूसरा अधिकार। धारण करनेवाला और प्रजाको पालन करने में चतुर ऐसा जिसका दश वर्षका पुत्र है वह सुंदरी उसे छोड़कर कैसे चली गई ? ॥ १८० ॥ मनको हरण करनेवाली वह रानी नीच दासियोंकी संगतिसे नष्ट होगई। जिस खेतकी वाड़ ( खेतोंके चारों ओरकी कांटोंकी दीवाल ) ही उस खेतको खाने लग जाती है उसकी रक्षा फिर भला कौन कर सकता है ? ॥ १८१॥ अपने कुलाचारको पालन करनेवाला भी ऐसा कौन पुरुष है जो कुसंगतिसे नष्ट न हुआ हो ? क्या अग्निसे लाल हुए लोहेके गोलेकी संगतिसे जल नष्ट नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है ॥ १८२ ॥ इसप्रकारकी चिंतासे दुःखी होता हुआ वह राजा बहुत दिन बीत जानेपर भी राज्यको नहीं संभालता था। वह राज्य उसे अत्यन्त दुःखदायी जान पड़ता था ॥ १८३ ॥ अनेक राजाओंके द्वारा समझानेपर भी वह राजा क्षणभरके लिये भी उस शोकको नहीं छोडता था । क्योंकि उसके मनको रानी पहले हीसे हरण कर ले गई थी ॥१८४॥ इसके बाद उस रानीके ॥ १८० ॥ कुदासिका प्रसंगेन विनष्टा सा मनोहरी । वृत्तिरस्यति चेत्क्षेत्रं तद्रक्षां कः करोति हि ॥ १८१ ॥ कुसंगात को विनष्टो न स्वकुलाचारतत्परः । तप्तायःपिंडसंगेन नलं नश्यति किं न हि ॥१८२॥ भूपो राज्यं न पातिस्म भूरिघस्रगते सति । इति चिंतादरिद्रेण दुःखसंदोहभाजनम् ॥ १८३ ॥ नरपार्थिवसंदोहैः प्रबोधितोऽपि भूपतिः । न त्यजति क्षणं शोकं कांतया हृतमानसः ॥१८४॥ ततः स निधनं प्राप्तस्तद्वियोगप्रपीडितः । स्त्रीवियोगविषबाधा केषां
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गौतमचरित्र। वियोगसे दुःखी होकर वह राजा मर गया सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रीके वियोगरूपी विषकी बाधा किसको नहीं मार डालती है ? भावार्थ-सबको मार डालती है ॥१८॥राजाके मर जानेपर सब मंत्रियोंने मिलकर समस्त ऐश्वर्योसे भरपूर वह राज्य, अनेक राजा जिसकी सेवा करते हैं ऐसे उसके पुत्रके लिये दे दिया ॥ १८६॥ उस राजाके जीवने इस अनादि अनन्त संसारमें अनेकवार जन्म मरण किया और फिर किसी एक वार बहुत ऊँचा हाथी हुआ ॥ १८७॥ उस हाथीके नेत्र क्रोधसे लाल होरहे थे, वह बड़ा ही तेजस्वी था
और बड़ा ही मदोन्मत्त था। वह बनमें सब स्त्री पुरुषोंको मार गिराता था ॥ १८८ ॥ महा शरीरको धारण करनेवाले उस हाथीने उस भवमें बड़ा भारी पाप उपार्जन किया । क्योंकि प्राणियोंका घात करना भव भवमें महादुःख देता है ।। २.८९ ॥ उस हाथीके किसी पुण्यकर्मके उदयसे उस वनमें एक मुनिराज पधारे। वे मुनिराज अवधिज्ञानी थे
और भव्य जीवोंके लिये अच्छे धर्मोपदेशक थे ॥ १९०॥ भवेन्न मृत्युदा ॥१८॥ तदा पुत्राय सदत्तं राज्यं संमिल्य मंत्रिभिः। विश्वसमृद्धिसंपन्नं समस्तभूपसेविने ॥१८६॥ अथानाद्यतसंसारे मृतो जातः पुनः पुनः । आसाद्य भवमेकं त्वं दंती चासीन्महोच्छ्रितः ॥१८७॥ स बने ताडयामास नरसीमंतिनीगणान् । मदोडतो महातेजाः कोपारुणितलोचनः ॥१८८॥ तद्भवे स महत्पापमुपार्जयन्महातनुः। घातो हि प्राणिनां गाढं प्रदुःखदो भवे भवे ॥ १८९ ॥ केनचित्पुण्ययोगेन मुनिरेकः समागतः। अवधिज्ञानचच्चक्षुर्भव्यजीव
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दूसरा अधिकार। उन्होंने उस हाथीको धर्मोपदेश दिया, उसे सुनकर हाथीने श्रावकके व्रत धारण कर लिये। फिर उस हाथीने सचित्त फल पुष्प आदि कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं किये ॥१९॥ अन्त समयमें उसने समाधिमरण धारण किया, चारों प्रकारके आहारका त्यागकर दिया और भगवान अरहंतदेवकी स्तुति सुननेमें चित्त लगाया जिससे वह मरकर पहले स्वर्गमें देव हुआ ॥ १९२ ॥ हे राजन् ! वहांसे चयकर तू उत्तम राजा हुआ है । हे राजेन्द्र ! आगे चलकर तू मुक्त होगा ( मोक्षमें जायगा ) ॥ १९३ ॥ हे राजा महीचंद्र ! अव तू उन तीनों स्त्रियोंकी कथा सुन । वे तीनों स्त्रियां बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रत्येक देशमें अपनी इच्छानुसार भ्रमण करने लगीं ॥१९४॥ घूमती फिरती वे अवन्ती देशमें जा पहुंचीं। उनके पास कंथा था, खड़ाम थीं, दंड था और साथमें बहुतसी योगिनी थीं ॥१९५॥ वे तीनों ही स्त्रियां लोगोंसे भीख मांग मांगकर पेट भरती थीं सो ठीक ही है-भूखे मनुष्योंकी लज्जा अवश्य ही प्रबोधकः ॥ १९० ॥ तेन संबोधितो हस्ती श्रावकव्रतमग्रहीत् । सचित्तफलपुष्पादिहरितं तत्र नाचरेत् ॥१९१॥ सोऽपि सन्यासमादाय चतुराहारवर्जनम् । मृत्वाद्य दिवि देवोऽभूदर्हतां नुतिकर्णनात ॥ १९२ ॥ ततोऽवतीर्य भूपस्त्वं जातोऽत्र नृपपुंगवः । कालांतरेण राजेंद्र! मुक्तिगामी भविष्यसि ॥१९॥ अथ शृणु महीचंद्र! तिसणां हि कथानकम् । ताः स्वेच्छाभ्रमणं चक्रुर्देशे देशे मुदान्विताः॥१९४॥ ततोऽनुक्रमतः प्रापुरवंतीविषयं च ताः । सुकंथापादुकादंडयोगिनीगणसंयुताः॥१९५॥ जनेषु प्रार्थनां कृत्वा जठरं पूरयंति ताः । मानुषाणां
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गौतमचरित्र। नष्ट होजाती है ॥ १९६ ॥ वे योगिनियां सदा प्रमाद उत्पन्न करनेवाली मद्य पीती थीं और शरीरको पुष्ट करनेवाला मांस खाती थीं ॥१९७॥ वे प्रतिदिन शहत खाती थीं और अनेक जीवोंसे भरे हुए तथा महापाप उत्पन्न करनेवाले पांचों उदंबर भक्षण करती थीं ॥ १९८ ॥ वे तीनों स्त्रियां कामसेवनकी इच्छासे प्रसन्नचित्त होकर उत्तम वा जघन्य जैसा मिला उसी मनुष्यका सेवन करती थीं ॥ १९९ ॥ वे योगिनियां लोगोंके सामने ही रागसे भरे हुए और योगी लोगोंको भी काम उत्पन्न करनेवाले गीत सदा गाया करती थीं ॥२०॥ वे लोगोंको सदा यही विचित्र बात कहा करती थीं कि योग धारण किये हम लोगोंको सौ वर्ष गीत गये हैं ॥२०१॥ __अथानंतर किसी एक दिन धर्माचार्य नामके मुनि आहारके लिये पधारे । वे मुनि मौन धारण करने में पर्वतके समान निश्चल थे, पांचों इंद्रियोंको वश करनेवाले थे, मनरूपी क्षुधार्तानां लज्जा नश्यति निश्चितम् ॥१९६॥ प्रमादजननं मद्य पिबंति ता निरंतरम् । पुष्टकर्तृणि मांसानि खादयंति पुनः पुनः ॥ १९७॥ प्रत्यहं मधु भक्षति सहोदुंबरपंचकैः । जीवसंदोहसद्गुहं भूरिकिल्विषकारणम् ॥ १९८ ॥ उत्कृष्टं वा जघन्यं वा सेवंते मानुषं सदा । मदनबांच्छया कांता हर्षिताननलोचनाः ॥ १९९ ॥ गीतं गायंति कामिन्यो लोकानामग्रतोऽनिशम् । सरागं योगिनां चापि कामोत्पादनकारणम् ॥२००॥ लोकेभ्य इति जल्पंति नियतमद्भुतावहम् । अस्माकं योगयुक्तानां गतं वर्षशतप्रमम्॥२०१॥ अथ मौनाचलारूढं कृतपंचाक्षनिग्रहम् । वशीकृतमनोभूपं शरीरेऽपि गतस्टहम् ॥२०२॥
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राजाको वश करनेवाले थे और उन्होंने अपने अरीरसे भी ममत्व छोड़ दिया था, तपश्चस्पांसे उनका सुंदर शरीर क्षीण होरहा था, शील और संयमको वे धारण कररहे थे, चारित्र पालन करने में वे सदा तत्पर रहते थे, कषायोंको नाश करनेमें वे समर्थ थे, धर्मोपदेश रूपी अमृतकी वे वर्षा किया करते थे, क्षमाके पर्वत थे, संसारके सर्व जीवोंपर दया धारण करते थे, दोपहरके समयमें भी वे योग धारण करते थे, चोरी झूठ आदि पापरूपी वृक्षोंको काट डालनेके लिये वे कुठारके समान थे, समस्त परिग्रहके वे त्यागी थे और उस समय वे ईर्यापथ शुद्धिसे गमन कर रहे थे। उन गमन करनेवाले श्रेष्ठ मुनिको देखकर वे तीनों स्त्रियां क्रोधसे लाल लाल आंखें निकालकर कहने लगीं॥२०२-६॥ कि अरे नग्न फिरनेवाले ! तू मान मोह आदि सबसे रहित है। हमारे घरसे निकलते ही तू किस पापकर्मके उदयसे हमारे सामने आगया ॥२०७॥ उज्जयनी महा नगरीका राजा शत्रुओंकी सेनाको तपसा क्षीणसद्गात्रं शीलसंयमसंयुतम् । चारित्राचरणोद्यतं कषायनाशनक्षमम् ॥२०३॥ धर्मोपदेशपीयूषं वर्षतं सत्क्षमाधरम् । विश्वनीवदयापात्रं मध्याह्ने योगधारकम् ॥२०४॥ ईर्यापथविलोकंतमाहारार्थ समागतम् । असत्यस्तेयसवृक्षप्रच्छेदनकुठारकम् ॥२०५॥ विश्वपरिग्रहत्यागं धर्माचार्याभिधानकम् । प्रोचुस्ताः सन्मुनिं दृष्ट्वा कोपारुणितलोचनाः ॥२०६॥ ( पंचभिः कुलकम् )॥ ___ अहो ! नग्नाट निष्क्रांते मानमोहविवर्मितः। केन पापोदयेन त्वं कृतोऽस्मदृष्टिगोचरे ॥२०७॥ उज्जयिन्यां महापुर्या यो वैरिबलभमनः।
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गौतमचरित्र |
नाश करनेवाला है, समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाला है और बहुत ही दान देनेवाला है, उसीके पास धन मागनेके लिये हम लोग जा रहीं थीं कि तूने अपना नग्न रूप हमें -दिखला दिया || २०८ - २०९ ।। तेरा दर्शन होना भी मिथ्या वा बुरा है और तेरा शासन भी मिथ्या है। जो मनुष्य तेरी स्तुति करता है वह मिथ्यादृष्टी है और पापी है ।। २१० ॥ अरे निर्लज्ज ! अरे दुराचारी ! क्या तूने अपनी लज्जा बेच दी है ? तू कुलस्त्रियोंमें भी नंगा क्यों फिरता है ? ।। २११ ॥ अरे मूर्ख योगी ! तूने हमारे लिये अपशकुन कर दिया है । इसलिये अब हमारे कार्यकी सिद्धि तो कभी हो ही नहीं सकती || २१२ ।। अभी तो दिन है । दिनमें सब पदार्थ अच्छी तरह दिखलाई देते हैं इसलिये इस अपशकुनका फल तुझे हम रातको देंगी ।। २१३ ।। इसप्रकार उन स्त्रियोंके दुष्ट बचन सुनकर भी मुनिराजने अपने हृदयमें क्रोध नहीं किया अभून्नृपो महात्यागी प्राणिनां सुकृपापरः ॥ २०८ ॥ वयं प्रचलिता यावत्तस्मै याचयितुं धनम् । त्वया नोऽभिमुखीभूय रूपं तावत्प्रदशितम् ॥ २०९ ॥ त्वदीयं दर्शनं मिथ्या मिथ्या हि तव शासनम् । मिथ्यादृष्टिर्नरो यस्त्वां स्तौति स पातकी भवेत् ॥ २९० ॥ रे निर्लज्ज दुराचारिन् ! विक्रीता किं त्वया त्रपा । कथं भ्रमसि नग्नस्त्वं मध्ये हि कुलयोषिताम् ॥ २१९ ॥ अस्मभ्यं शठ रे योगिन् ! त्वयापशकुनं कृतम् । अतोऽस्माकं कृते सिद्धिर्निश्चितं न भविष्यति ॥ २१२ ॥ संप्रति वर्तते घस्रः पदार्थदर्शनप्रदः । क्षपायां दर्शयिष्यामस्तुभ्यं तस्य फलं वयम् ॥२१३॥ इति तासां वचो दुष्टं श्रुत्वा कोपं मुनीश्वरः ।
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दूसरा अधिकार। क्योंकि वे मुनिराज समुद्रके समान महागम्भीर थे ॥२१४॥ वे मुनिराज इस घटनाको अन्तराय समझकर लौटकर वनमें चले गये और वनमें जाकर योग धारणकर मेरुपर्वतके समान अचल आसनसे बिराजमान होगये ॥ २१५ ॥ जिसप्रकार जलसे भरी हुई पृथ्वीपर जलती हुई अग्नि कुछ काम नहीं कर सकती उसीप्रकार क्षमा धारण करनेवाले पुरुषके लिये दुष्टोंके बचन कुछ नहीं कर सकते हैं।।२१६॥ जिसप्रकार काले पत्थरका मध्यभाग पानीसे नरम नहीं होता उसीप्रकार योगियोंका निर्मल हृदय क्रोधरूपी अग्निसे कभी नहीं जलता है ॥२१७॥ तदनंतर वे तीनों ही महा नीच स्त्रियां रात्रिके समय मुनिराजके समीप
आई और क्रोधित होकर अनेक उपद्रव करने लगीं ॥२१८॥ एकने आकर मुनिराजके समीप ही रोना प्रारंभ किया, दूसरी कामसे पीडित होकर उनके शरीरसे लिपट गई और तीसरीने धुआं कर मुनिराजको बहुत ही दुःख दिया। सो ठीक ही हैकामसे पीडित हुआ मनुष्य कौन कौनसे बुरे काम नहीं दधौ चित्ते न गंभीरः सरित्पतेरिवापरः ॥२१४॥ अंतरायं मुनिः कृत्वा व्याघुन्य कानने शुभे । गत्या योगं समादाय स्वर्णाचल इव स्थितः ॥ २१५ ॥ क्षमायुक्तस्य मर्त्यस्य दुर्जनवाक् करोति किम् । सलिलार्द्रकमेदिन्या ज्वलद्धनंजयो यथा ॥ २१६ ॥ योगिनो निर्मल चित्तं कोपाग्निना न दह्यते ॥ कृगपाषाणमध्यं हि यथा न भिद्यतेंऽभसा ॥२१७॥ ततस्तिस्रो मुनींदांते समागत्य महाधमाः । त्रियामासमये कोपादुपद्रवान् प्रचक्रिरे ॥२१८॥ महामुनिसमासन्ने पूत्कार एकया कृतः । तदंगे परया लिप्ता मदनातुरचित्तया ॥ २१९ ॥
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गौतमचरित्र। करता है ? अर्थात् वह सभी बुरे काम कर डालता है। ॥२१९-२२०॥ उन स्त्रियोंके सैकड़ों उपद्रव करनेपर भी वे मुनिराज चलायमान नहीं हुए । क्या प्रलय कालकी वायुसे महान् मेरु पर्वत भी कभी चलायमान होता है ? ॥ २२१ ॥ तदनन्तर वे तीनों ही स्त्रियां विरह रूपी वह्निसे संतप्त होकर अनेक प्रकारके कटाक्ष करती हुई उन मुनिराजके सामने नंगी होकर नाचने लगीं ॥ २२२ ॥ और भोग क्रीडाकी इच्छासे ही राज्यको छोड़कर इच्छानुसार भ्रमण करनेवाली वे स्त्रियां उन मुनिराजसे कहने लगीं ॥२२३॥ कि जो इस लोकमें इच्छानुसार घूमते फिरते हैं उनको परलोकमें भी कोई बंधन नहीं होता । इस लोकमें भोग करनेसे भोगोंकी प्राप्ति होती है और नंगे रहनेसे नंगापन ही मिलता है ॥ २२४ ॥ इसलिये हे मुनिराज! प्रसन्न हो और हमारी इच्छाओंको पूर्ण करो । क्योंकि यह भोगोंकी संपदा चक्रवर्ती, देवेन्द्र और नागेन्दोंसे भी नहीं छूटी है ॥२२॥ संसारमें आनेका फल तृतीयया मुनींद्रोऽपि धूम्रव्याकुरितः कृतः । मदनपीडितः को ना कृत्यं किं किं करोति हि ॥२२०॥ न चचाल मुनिः किंचित्तत्कतोपद्रवैः शतैः। प्रलयकालवातेन किं वा स्वर्णाचलो महान् ॥२२१॥ नग्नीभूत्वा तदा सर्वास्ता ननृतुमुनेः पुरः । विरहवह्निसंतप्ताः कटाक्षक्षेपतत्पराः ॥२२२॥ राज्यस्थानं परित्यज्य भोगक्रीडनवांच्छया । स्वैरिताः भ्रमणे रक्तास्ताः प्रोचुरिति तं प्रति ॥ २२३ ॥ भ्रमंति स्वेच्छया येऽत्राऽमुत्र तेषां न बंधनम् । भोगेन लभते भोग्यं नग्नत्वे नम्रता भवेत् ॥ २२४ ॥ प्रसन्नीभूय योगींद्र ! देहि नो वांच्छित
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दूसरा अधिकार। स्त्रियोंकी प्राप्ति ही है। क्योंकि स्त्रिया पांचों इंद्रियोंको मुख देनेवाली हैं। जिन्हें स्त्रियोंका भोग प्राप्त नहीं होता उनका जन्म ही व्यर्थ समझना चाहिये ॥२२६ ॥ संसारका उत्तम फल द्रव्य है जो अनेक प्रकारके भोगोपभोगोंको देनेवाला है, इसी भोगोपभोगसे प्राणियोंको परलोकमें भी ऐसा ही वैभव प्राप्त होता है ॥ २२७ ॥ इस बातको तू सच समझ कि यदि तू इस समय हमारी इच्छाको पूर्ण न करेगा तो हम तेरे इस शरीरको चण्डीके मुखमें रख देंगे ॥ २२८ ॥ इसप्रकार कहकर और फिर भी उनको निर्विकार देखकर उन तीनों स्त्रियोंने मुनिराजको हाथसे उठाया और चण्डीके सामने लाकर रख दिया ॥२२९॥ तदनन्तर उन्होंने उन मुनिराजपर घोर उपसर्ग किया। पत्थर, लकड़ी, मुक्का, लात, जूता आदिसे ताड़न किया और उन्हें बांध भी लिया ॥२३॥ उस समय वे मुनिराज अपने हृदयमें बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन फलम् । चक्रिदेवेंद्रनागेंद्रनं त्याज्या भोग्यसंपदा ॥२२५॥ संसारस्य फलं योषित पंचाक्षसुखदायिका । स्त्रीभोगरहिता येऽत्र तेषां जन्म निरर्थकम् ॥ २२६ ॥ संसृतेः सत्फलं द्रव्यं भोगोपभोगदायकम् । तेन सुप्राणिनः योप्पल्लभतेऽमुत्र वैभवम् ॥२२७॥ वांच्छितं यदि नः सत्यं न करिष्यस संप्रति । ततो वयं प्रदास्यामस्त्वद्वपुश्चडिकामुखे ॥२२८॥ इत्युक्त्वा निर्विकारं तं ज्ञात्वा चोत्थाय पाणिभिः । ताः सर्वाः स्थापयामासुश्चडिकापुरतस्तदा ॥२२९॥ उपसर्ग मुनौ चक्रुः पाषाणैयष्टिभिस्तथा । मुष्टिमिबंधनैः पादेस्ताडनैः पादरक्षकः ॥२३०॥ अचिंतयन्मुनिश्चित्तेऽनुप्रेक्षा द्वादशात्मिकाः । प्राणिनां तरणे नावो
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गौतमचरित्र ।
करने लगे क्योंकि संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए प्राणियोंको पार होनेके लिये अनुप्रेक्षा ही नावके समान हैं ॥ २३९ ॥ वे चितवन करने लगे कि इस संसार में मनुष्योंका शरीर, यौवन आदि सब क्षणस्थायी हैं, झट नष्ट होजाते हैं, यह जीवन पानीके बुदबुदा के समान है और लक्ष्मी विजलीके समान चंचल है ।। २३२ || जब भरत आदि चक्रवर्तियोंका ही जीवन नष्ट होजाता है तो हे जीव ! तू तो किसी गिनती नहीं है फिर भला अपने कार्य सिद्ध करने में तू कैसे समर्थ हो सकता है ॥ २३३ ॥ जिसप्रकार बिलावके द्वार पकड़े हुए और भयभीत हुए चूहे की कोई रक्षा नहीं कर सकता उसीप्रकार यमरूपी शत्रुके द्वारा पकड़े हुए इस जीवकी कोई रक्षा नहीं कर सकता, कोई नहीं बचा सकता ॥ २३४ ॥ भगवान् तदेव विना इस संसार में प्राणियोंका और 'कोई शरण नहीं है इसलिये हे प्राणिन् ! तू सावधान होकर भगवान् अर्हतदेवका ही स्मरण कर || २३५ ।। हे जीव ! तूने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव इन पांचों प्रकारके संसारमें
भवाकूपारमज्जताम् ॥२३१॥ नृणां लोके क्षणस्थायि शरीरयौवनादिकम् । जीवितं बुदबुदौपम्यं शंपावदिव रा मता ॥ २३२ ॥ चक्रिणां भरतादीनां जीवितं यदि नश्यति । त्वं छिन्नोसि कथं जीव क्षमस्व कामाने || २३३ ॥ रक्षते कैरथं जीवो गृहीतो यमशत्रुभिः । अशरण्यो भयैर्भीतो मार्जारेणेव मूषकः ॥ २३४ ॥ भगवंत चिना नैव शरण्यं कोऽपि देहिनाम् । अतस्तत्स्मरणे प्राणिन् ! सावधानो भव त्वक्रम् || २३९ ॥ पंचविधेऽपि संसारे तो भ्रस्त्वनेकशः ।
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दुसरा अधिकार।
[६७ अनेकवार परिभ्रमण किया है तथा अब भी त्रस स्थावर योनियोंमें तु सदा परिभ्रमण किया करता है ॥ २३६ ॥ हे जीव ! तू इस संसारमें रत्नत्रयको प्राप्त करनेमें असावधान क्यों होरहा है ? अब तू रत्नत्रयको सिद्ध करनेमें ही मनको स्थिर कर क्योंकि इस संसारका नाश रत्नत्रयसे ही होता है ॥ २३७ ॥ हे आत्मन् ! इस संसारमें परिभ्रमण करता हुआ तू अकेला ही कर्मों का कर्ता है और अकेला ही सुख दुःखका भोक्ता है। भाई बन्धु आदि सब तुझसे भिन्न हैं ॥२३८ ॥ हे आत्मन् ! उस स्थावर योनियोंमें तुझे अकेला ही जन्म लेना पड़ता है और अकेला ही मरण करना पड़ता है इसलिये कर्ममल कलङ्कसे रहित ऐसे सिद्ध परमेष्ठीमें ही तू अपने मनको निश्चलकर अर्थात् उन्हींका ध्यान कर ॥२३९॥ इस जीवसे की भिन्न हैं, क्रिया भिन्न है, इंद्रियोंके विषय भिन्न हैं और शरीर भी भिन्न है, फिर भाई बन्धु आदि कुटुम्बी जन तो सर्वथा भिन्न हैं ही ॥ २४० ॥ हे आत्मन् ! तू सांसारिक चीजोंसे तथा शरीरसे सर्वथा भिन्न है। ये सब भ्रमिष्यसि पुनर्नित्यं त्रसस्थावरयोनिषु ॥२३६॥ किं भो मुह्यसि संसारे रत्नत्रयस्य लाभतः । स्थिरीकुरु मनः सिद्धे तेन तन्नाशनं भवेत् ॥ २३७ ॥ भ्रमन् चेतन ! संसार एकः कर्तासि कर्मणाम् । सत्सुखदुःखयोर्भोक्तास्येको भिन्नास्तु बांधवाः ॥२३८॥ त्रसस्थावरयोर्मुत्यौ जन्मन्येकोऽसि चेतन । अतो निरंजने सिद्धे हृदयं त्वं स्थिरीकुरु ॥ २३९ ॥ अन्यत्कर्म क्रिया अन्या इन्द्रियविषयाः परे । जंतुरन्यश्च कायोऽन्यो बांधवाद्याः किमु ततो ॥ २४० ॥ जीवासि
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गौतमचरित्र |
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चीजें जडरूप हैं और तू ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमय है तथा कर्मरहित शुद्ध है इसलिये हे जीव ! तू उसी शुद्ध आत्माका ध्यान कर और उसीका जप कर ॥ २४१ || यह शरीर मांस, हड्डी, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, चमड़ा, वीर्य आदि महा अपवित्र पदार्थों से बना हुआ है इसलिये हे जीव ! तू इसमें व्यर्थ ही क्यों मोहित हो रहा है || २४२ ॥ भगवान् सिद्ध परमेष्ठी कर्मो से रहित हैं, निराकार हैं, सब तरहकी अपवित्रतासे रहित हैं, ज्ञानमय हैं और समस्त दोषोंसे रहित हैं इसलिये हे प्राणिन् ! तू ऐसे सिद्ध परमेष्ठीका स्मरण कर ।। २४३ ॥ जिसप्रकार नावमें छिंद्र होजानेसे उसमें पानी भर जाता है। उसीप्रकार मिथ्यात्व, अविरत कषाय और योगों से जीवोंके कर्मोंका आस्रव होता रहता है ।। २४४ ।। जिसप्रकार नावमें जल भर जाने से वह नाव समुद्र में डूब जाती है उसीप्रकार फर्मोंका आस्रव होने से यह जीव भी संसारमें डूब जाता है सलिये हे जीव ! कमोंके आस्रवसे सर्वथा रहित ऐसे सिद्ध परमेष्ठीका स्मरण कर || २४५ || जिसप्रकार नावका छिद्र सर्वतोऽन्यस्त्वं दृश्चिद्वीर्यसुखात्मकः । आत्मध्यानं जपातस्त्वं कर्मा - तीतो निरंजनः ॥ २४९ ॥ मांसास्थित कुशकृन्मूत्र चर्मगेहमये ध्रुवम् । काये शुक्राससंभूते जंतो ! रंज्यसि किं वृथा ॥ २४२ ॥ कर्मातीतं निराकारं सर्वाशुचिविवर्जितम् । सिद्धं भजस्व भो प्राणिन् ! ज्ञानरूपं निरंजनम् ॥२४३॥ अविरतपायैश्च मिथ्यात्वयोगकैर्भवे । कर्माबोंगिनामव्धौ नावां रंवैर्यथांभसाम् ॥ २४४ ॥ आखवादनूडते जीवः संसारेऽब्धौ च नौवि । जलागमा जातस्त्वं सिद्धमास्रववर्जितम्
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दूसरा अधिकार।
[६६ बन्द कर देनेसे फिर उसमें पानी नहीं आ सकता उसीप्रकार कर्मोके आनेके कारण मिथ्यात्व, अविरत, आदिका साग कर देने और ध्यान चारित्र आदिको धारण करनेसे आते हुए कर्म रुक जाते हैं । इसीको संवर कहते हैं ॥२४६॥ संवरके होनेसे ही यह जीव मोक्षस्थानमें जा बिराजमान होता है इसलिये हे जीव ! तू अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माका स्मरण किये विना केवल अपने शरीरमें ही क्यों मोहित होता है ? ॥२४७ मै तप और ध्यानसे जो पहलेके इकट्ठे किये हुए कर्मोका नाश करना है उसे निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकारकी है-एक भावनिर्जरा और दूसरी द्रव्यनिर्जरा तथा वे दोनों ही निर्जराएं सविपाक और अविपाकके भेदसे दो दो प्रकारकी हैं ॥ २४८ ॥ जिसप्रकार नावमें भरे हुए पानीके निकल जानेसे नाव ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कर्मोके नाश हो जानेसे यह जीव ऊपर जाकर मोक्षस्थानमें ही जा विराजमान होता है इसलिये हे चेतन ! तुझे सदा कर्मोकी निर्जरा करते रहना चाहिये ॥२४९ ॥ जिस प्रकार ॥२४॥ निरोधः संवरस्तेषां ध्यानचारित्रसट्ठलैः । अब्धौ नौछिद्र बंधाद्वा जलागमं भवेन्न हि ॥२४६॥ सति तस्मिन्नयं जन्मी स्वेष्टां गतिं प्रयाति वै । मुह्यस्यतः कथं स्वांगे चिद्रूपस्मरणं विना ॥२४॥ तपोध्यानबलेनापि पूर्वसंबद्धकर्मणाम् । या निर्जरा द्विधा सापि सविपाकाविपाकतः ॥ २४८ ॥ कर्मणां संक्षयात्स्वेष्टं पदं यास्यसि चेतन !। पूर्ववारिक्षयान्नौर्वा त्वमतः कुरु निराम् ॥२४९॥ ऊर्ध्वनरः कटौ हस्तः प्रसृताहिर्विमस्तकः । ईदृग्विधः स्थितो लोकः सोऽक
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गौतमचरित्र। कोई मनुष्य खड़ा हो जाय, वह अपने दोनों पैर फैला ले
और दोनों हाथ कमरपर रखले तथा उसका मस्तक न हो उस समय उसका जैसा आकार होता है ठीक वैसा ही आकार इस लोकका है। यह लोक अकृत्रिम है, किसीका बनाया हुआ नहीं है ॥ २५० ॥ यह लोक चौदह रज्जू ऊंचा है और तीनसौ तेतालीस रज्जू घनाकार है। हे जीव ! इस लोकमें तू व्यर्थ ही क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? ॥२५१॥ इस संसारमें भव्य होना असन्त कठिन है फिर मनुष्य होना, आर्यक्षेत्रमें जन्म लेना, मोक्ष जाने योग्य कालमें उत्पन्न होना, अच्छे कुलमें जन्म लेना, अच्छी आयु पाना आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके प्राप्त होते हुए भी रत्नत्रयकी प्राप्ति होना असन्त दुर्लभ है ॥२५२॥ हे जीव ! अपनी इच्छाको पूर्ण करनवाले
और चिंतामणिके समान सुख देनेवाले ऐसे रत्नत्रयको पाकर तू व्यर्थ ही क्यों खो रहा है ? (इसको पाकर शीघ्र ही अपना कल्याण क्यों नहीं करता) ॥ २५३ ॥ यह धर्म अहिंसारूप एक प्रकार है, मुनि श्राक्कके भेदसे दो प्रकार है, क्षमा, मार्दव आदिके भेदसे दश प्रकार है, पांच महाव्रत पांच समिति त्रिमो न कैः कृतः ॥२५०॥ ऊर्ध्वश्चतुर्दशो रज्जुर्घनाकारशतत्रयम् । त्रिचत्वारिंशता साई तत्र भ्रमसि किं मुधा ॥ २५१ ॥ भव्यत्वं नृत्वसत्क्षेत्रं कालोच्चजन्मसुस्थितिः। दुर्लभं ते क्रमात्सत्सुबोधं तेष्वपि दुर्लभम् ॥२५२॥ बोधं प्राप्य कथं जंतो! त्वं गमयसि वै वृथा । वांछितं सुखदातारं चिंतामणिमिवापरम् ॥२५३॥ एकविधो वृक्षो जैनो द्विविधो दशधा मतः । त्रयोदशविधश्चापि बहुधा व्रतभेदतः
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दूसरा अधिकार। तीन गुप्तिके भेदसे तेरह प्रकार है और व्रतोंके भेदसे अनेक प्रकार है॥२५॥धर्मके प्रसादसे आत्माके परिणाम शुद्ध होते हैं, शुद्ध होनेसे आत्मा प्रबुद्ध होता है और प्रबुद्ध होनेपर रत्नत्रयरूप शुद्ध आत्मामें स्थिर हो जाता है ॥२५॥ वे मुनिराज इसप्रकार बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन करने लगे और असन्त दुःख देनेवाले उन स्त्रियोंके किये हुए उपद्रवको उन्होंने कुछ भी नहीं माना ॥ २५६ ॥ सबेरा होते ही उस उपद्रवको व्यर्थ समझकर और जानेवाले लोगोंके डरसे वे तीनों ही स्त्रियां भाग गई ॥२५७॥ कर्मोको क्षय करनेवाले वे भव्य मुनिराज मनको निश्चल कर और आत्मध्यानमें तत्पर होकर उसीप्रकार वहीं विराजमान रहे ॥२५८॥ तदनंतर वहांपर बहुतसे भव्य श्रावक आगये और उन सबने मन वचन कायको शुद्धतापूर्वक जल चंदन आदि आठों द्रव्योंसे उन मुनिराजकी पूजा की ॥२५९।। उन मुनिराजका शरीर तो क्षीण हो ही रहा था परन्तु उपद्रवके कारण उनके सब शरीरमें घाव हो रहे थे ॥२५४॥ धर्मात्पुसो विशुद्धिः स्यात्तस्याश्चात्मप्रबोधनम् । तस्माददृग्वीर्यचिद्रूपे स्वात्मरूपे स्थिरीभव ॥२९५॥ मुश्चित्ते त्वनुप्रेक्षा द्वादश भावयन्न हि । उपद्रवं मनुतेरणा ... दुःखदायकम् ॥२५६॥ प्रत्यूषेऽथ नाकीर्णे नष्टास्तिस्रोपि योषितः । मानवभयतो ज्ञात्वा निरर्थकमुपद्रवम् ॥ २९७ ॥ योगी तथैव संतस्थे स्वात्मध्यानेषु तत्परः । निश्चलमानसो भव्यः कर्मणां क्षयकारकः ॥ २५८ ॥ ततो भव्यननाः सर्व समागत्य मुनीश्वरम्। त्रिशुद्धया पूजयामासुरष्टद्रव्यैनलादिभिः ॥२५९॥ ते चित्त ज्ञापयामासुरुपद्रवितयोगितम् । अण--
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गौतमचरित्र। और वे मौन धारण कर रहे थे । इन्हीं सब कारणोंसे उन भव्य जीवोंने अपने हृदयमें उन मुनिराजका उपद्रव समझ लिया था ॥ २६० ॥ सज्जन पुरुष स्त्रियोंके कटाक्षोंसे कभी चलायमान नहीं होते हैं। क्या मेरुपर्वत प्रलयकालकी वायुसे चलायमान हो सकता है ? कभी नहीं ॥२६१॥ संसारमें मदोन्मत हाथियोंको बांधनेवाले भी बहुत हैं और सिंहके मारनेवाले भी बहुत हैं परन्तु जिनका मन स्त्रियोंमें नहीं विका है ऐसे पुरुष संसारमें बहुत थोड़े हैं ॥ २६२ ।। उन स्त्रियोंने उन मुनिराजपर जो घोर उपसर्ग किया था वह असन्त दुःखदायी था और उससे महापापका बंध हुआ था । उसी पापकर्मके उदयसे उन तीनों स्त्रियोंको कोढ़ हो गया था ॥ २६३ ॥ उन तीनोंकी ही बुद्धि कुबुद्धि होगई थी, वे सदा पापकर्ममें ही लगी रहती थीं, सब लोग उनकी निंदा करते थे
और वे सदा महा दुःखी रहती थीं ।। २६४ ॥ आयु समाप्त होनेपर वे रौद्रध्यानसे मरी और सब इकट्ठे हुए पापकर्मोके उदयसे वे पांचवें नरकमें पहुंची ॥२६॥ वहांपर उन नारकिसंव्याप्तसर्वांगं मौनिनं क्षीणविग्रहम् ॥ २६० ॥ वधूकटाक्षनुन्नोपि चलते न हि सज्जनः । महान् स्वर्णाचलः किं वा प्रलयकालवायुना ॥२६१॥ मत्तेभबंधने दक्षाः संति सिंहवधेऽपि ना । विक्रियते मनो येषां योषिति विरलास्तके ॥२६२॥ मुनिघोरोपसर्गेण संजातप्रचुरैनसा । ताः कुष्टिन्यः समाजाताः भूरिदुःखप्रदायिना ॥ २६३ ॥ कुधिषणासमाकीर्णाः कुकर्मनिरताः सदा । विश्वननविनिंदिन्यो जातास्ता दुःखपूरिताः ॥२६४॥ ततः आयुक्षये मृत्वा पंचमे नरके
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दूसरा अधिकार।
[७३ योंको पांचों प्रकारके महादुःख भोगने पड़ते थे। उनकी कृष्णलेश्या थी, वे सदा क्रूर रहते थे और क्रोधसे उनका मन सदा जलता ही रहता था ॥२६६॥ बंधन, छेदन, कदर्थन (दुःख देना,)पीडन, तापन और ताडन आदिके दुःख वे नारकी सदा सहन करते रहते थे ॥ २६७ ॥ उष्णवायु वा शीतवायुसे वे सदा पीडित रहते थे और भूख प्याससे सदा दुःखी रहते थे। उनका अवधिज्ञान दो कोस तक था, उनके शरीरकी ऊंचाई एकसोपच्चीस हाथ थी, आयु सत्रह सागरकी थी, वे सब नपुंसक थे, भयानक उनका शरीर था, वे निर्दयी थे, धर्मका लेशमात्र भी उनमें नहीं था, वे सबसे ईर्ष्या करते थे, देखने में बड़े भयंकर थे और मुंहसे सदा मार मार ही कहा करते थे ॥२६८-२७०॥आयु पूर्ण होनेपर वे नारकी वहांसे निकले और अनेक दुःखोंसे भरे हुए तथा परस्पर एक 'दूसरेके साथ विरोध करनेवाले शरीरोंमें उत्पन्न हुए ॥२७॥
गताः । रौद्रध्यानेन तास्तिस्रः सामवायिककर्मणा ॥२६५॥ तत्रापि पंचधा दुःख ते भुंजतेस्म नारकाः । कृष्णलेश्याः सदा क्रूराः क्रोधज्वलितमानसाः ॥२६६॥ वधनं छेदनं खेदं बंधनं च कदर्थनम् । पीडनं तापनं नित्यं सहतेस्म सुताडनम् ॥ २६७ ॥ उष्णशीतलवाताभ्यां पीडयंते ते निरंतराः। क्षुत्पिपासासमाकीर्णाः कोशद्वयावधीक्षणाः ॥२६८॥ सहितं पंचविंशत्या शतहस्तप्रमं वपुः। सप्तदशजलध्यायुर्दध्युस्ते पंडवेदकाः ॥२६९॥ अतिरौद्रा दयाहीना धर्मलवविवर्जिताः । मारमारेति जल्पंति मत्सरिणः कुदर्शनाः ॥ २७० ॥ ततस्ते नारकास्तस्मादायुःक्षये वि निःसृताः । भनेकदुःखसंकीर्णाः
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गौतमचरित्र ।
उन सबने एकसे ही कर्मोका वध किया था इसलिये अनुक्र-मसे वे सब बिल्ली, सुअरी, कुत्ती और मुर्गीकी योनियों में उत्पन्न हुए || २७२ || वहांपर वे रातदिन पाप उत्पन्न करते रहते थे, अनेक प्रकारके दुःख सहन करते रहते थे और अनेक जीवोंकी हिंसा करते थे ||२७३ || वे उच्छिष्ट भोजन करते थे, परस्पर लड़ते थे, घरघर फिरते थे और घरघर मनुष्य उन्हें मारते थे || २७४ ॥ रौद्रध्यानसे जीवोंको नर्कगति होती है, आतंध्यानसे तियंचगति होती है, धर्म्य ध्यान से मनुष्यगति तथा देवगति होती है और शुक्ल ध्यानसे जीवोंको केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । तथा केवलज्ञानसे सदा रहनेवाला प्रकाशमय (ज्ञानमय) मोक्षस्थान प्राप्त होता है ।। २७५ - २७६ ।। जो दुष्ट मनुष्य शांत चित्तको धारण करनेवाले मुनिराजपर क्रोध करते हैं वे नरक जाते हैं फिर भला जो दुष्ट उनपर उपसर्ग करते हैं उनकी तो बात ही परस्परविरोधिनः ॥२७१॥ विडालशूकरश्वानकुर्कुटानां भवावलिम् । अनुक्रमेण ते प्रापुरेकत्र कर्मबंधनात् ॥ २७२ ॥ तत्र तेऽहर्निशं पापमुपार्जयंति निर्भरम् । सहते दुःखसंदोहं कुर्वति जंतुहिंसनम् ॥२७३॥ खादंति चान्नमुच्छिष्टं प्रयुद्धं ते परस्परम् । मानवताडनेनैव संभ्रमंते गृहे गृहे ॥२७४॥ रौद्रध्यानेन जीवानां दुर्गतिर्जायतेऽनिशम् । तिरश्रां गतिरार्तेन नरदेवगतिर्वृषात् ॥ २७९ ॥ प्राप्यते केवलज्ञानं शुक्लध्यानेन जंतुभिः । तस्माद्भवेच्छिवस्थानं ज्योतिर्मयं सनातनम् ॥२७६॥ मुनिभ्यः शांतचित्तेभ्यो ये क्रुध्यंति कुमानवाः । ते नस्के. प्रजायते किसु तदुपसर्गिणः ॥ २७७ ॥ जिनेंद्रगुरुशास्त्राणां निंदा
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दूसरा अधिकार ।
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क्या है || २७७ || विद्वान् लोगों को अरहंत देव, उनके कहे हुए शास्त्र और निग्रंथ गुरुकी कभी निंदा नहीं करनी चाहिये क्योंकि इनकी निंदा करनेवाले मनुष्य नरकमे जाते हैं और स्तुति करनेवाले स्वर्गने जाते हैं || २७८ ॥ तदनंतर हे राजन् ! आयु पूर्ण होनेपर वे तीनों मुर्गियां बड़े कष्टसे मरीं सो ठीक ही है - पूर्व पापकर्मो के उदयसे जीवोंको प्रत्येक भवमें दुःख होता है || २७९ ॥ वे तीनों ही मरकर धर्मस्थानोंसे सुशोभित ऐसे अवंती देशके समीप नीच लोगोंसे बसे हुए किसी ग्राम में कुटंबीके घर पाएं उत्पन्न हुई । उस कुटंबी के घर पिता, जवाई, और पुत्र थे तथा वे सब मुर्गियां पाला करते थे । २८०-२८१ ।। उन कन्याओंके गर्भ में आते ही धन सब नष्ट हो गया था, जन्म होते ही माताएं सब मर गई थीं और कुटंबके सब लोग मर गये थे, केवल पिता रह गया था वही उन्हें पालता था ।। २८२ ।। उन कन्याओं में से एक कानी थी, एक लंगड़ी थी और एक काले रंगकी कार्या न पंडितैः । अधोगा निंदकात्मानो ब्रजेत्यूर्ध्वमनिंदकाः ॥ २७८ ॥ अथ ते कुर्कुटाः भूप ! कष्टादायुः क्षये मृताः । पूर्वपापविपाकेन दुःखिनो हि भवे भवे ॥ २७९ ॥ अवंती नाम सदेशो स्थानविजितः । समीपे तस्य घोषोऽरित नीचजनसमावृतः ॥ २८० ॥ तत्र त्रयः समाजाताः कन्याः कुटंबिनां गृहे । पितृजामातृपुत्राणां कुर्कुटवृंदपालिनाम् || २८१ ॥ तासां गर्भे गतं द्रव्यं मृता जन्मनि मातरः । कुटंबिनां क्षयो जातो वर्द्धते सह पितृभिः ॥ २८२ ॥ एका काणा पूरा खंजा श्यामवर्णा तृतीयका । मुन्युपसर्गजाघेन जावास्सा दुःख
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गौतमचरित्र ।
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थीं । मुनियोंको घोर उपसर्ग करनेके पापसे वे सदा दुःखी रहती थीं ।। २८३ ।। उनकी देह सूखी हुई थी, आखें पीलीं थीं, तालु ओठ जीभ सब नीली थीं, नाक टेड़ी थी, पेट बहुत बड़ा था, दांत दूर दूर थे, पैर मोटे थे, शरीर भी मोटा था, - स्तन विषम थे, हाथ छोटे थे, ओठ लंबे थे, बाल हल्दीके समान पीले थे, आवाज कौए के समान थी, प्रेम उनमें था ही नहीं, उनकी भोंहे मिली हुई थीं, वे सदा झूठ बोला करती थीं, बहुत ही क्रोध करती थीं, अनेक दोषोंसे अंधी (विचार - हीन) हो रही थीं, अनेक रोगोंसे पीडित थीं, उनके नगरमें जाते ही समस्त नगरमें दुर्गंध फैल जाती थी सो ठीक ही हैपापकर्मके उदयसे इस संसार में क्या क्या नहीं होता है । वे तीनों हो उच्छिष्ट भोजनोंसे अपना पेट भरती थीं, चिथडोंसे शरीर ढकती थीं, और दुःखदारिद्रसे सदा पीडित रहती थीं ॥ २८४ - २८८ ।। वे तीनों ही बदसूरत कन्याएं अनुक्रमसे बढ़कर तरुण हुई और उन्हीं दिनों उनके पूर्व पापकर्मके पूरिताः ॥ २८३ ॥ शुष्कदेहाश्र पिंगाक्ष्या नीलतालौष्टजिह्नकाः । वक्रनासो महाउंदा विरलदशनास्तथा ॥ २८४ ॥ स्थूलपादाश्च दीर्घाग्यो विषमस्तनधारिकाः । ह्रस्वहस्ताश्च लंबोष्ट्यो हरिद्राभतनूरुहाः ॥ २८५॥ काकरवा गतस्नेहाः संरूढाः संहति श्रुवः । सत्य - हीना महातीव्रा दोषांधा रोगपीडिताः ॥ २८६ ॥ तासां चरणसंचारे नगरमुद्वसं भवेत् । यन्न पापोदयेऽश्रेयो जायते भुवि तच किम् ॥२८७॥ उच्छिष्टभक्तवृंदेन जठरं पूरयंति ताः । खंडवस्त्र पिधानांग्यो -दुःखदारिद्रपीडिताः ॥ २८८ ॥ अनुक्रमेण तारुण्यं संप्राप्तास्ताः प्रकु
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दूसरा अधिकार |
[ उदयसे उस देशमें दुष्काल पड़ा ॥ २८९ ॥ इसीलिये भूख प्याससे दुःखी हुई, असन्त दुर्बल और दुराचार करनेमें तत्पर ऐसी वे तीनों कन्याएं विदेशके लिये निकलीं ॥ २९० ॥ वे मार्ग में सदा परस्पर लडती हुई चलतीं थीं, साथमें न तो उनके पास कुछ खानेको था और न उन्हें लज्जा अभिमान था ।। २५१ ।। पापकर्म जब अपना फल देने लगता है तब सुख, सुंदरता, घर, धान्य, भोजन आदि सब नष्ट हो जाते हैं ||२९२ || ये तीनों कन्याएं अनेक नगरोंमें भ्रमण करती हुई और लोगों से मांगती खाती हुई अनुक्रमसे इस पुष्पपुर नगरमें आपहुंची है ||२९३ || इस बनमें मुनि और बहुतसे लोगोंको देखकर धन मांगनेके लिये यहां आई हैं ||२९४ || यद्यपि इनका शरीर मलिन है तथापि इन्होंने प्रसन्नचित्त हो मुनिके पास आकर नमस्कार किया है || २९५ || हे राजन ! त्सिताः । तदा हि दुर्भिक्ष जातं पूर्वपापविपाकतः ॥ २८९ ॥ तदा तिस्रोपि संलेपुर्विदेशं क्षीणविग्रहाः । क्षुत्पिपासासमाक्रांता दुराचारेषु तत्पराः ||२९०॥ कलहं पथि कुर्वत्यस्तागच्छंति निरंतरम् | पाथेयलवसंहीना लज्जामानपरिच्युताः ॥ २९९ ॥ विपाकाभिमुखं पापं यदा जंतोः प्रजायते । तदा सुखं स्वरूपं च गेहं धान्यं न भोजनम् ॥ २९२ ॥ कन्याः तिस्रः परिभ्रम्य नगरपुरपत्तनम् । क्रमात्पुष्पपुरं प्रापुर्याचयत्यो जनं जनम् ॥ २९३ ॥ अथारण्ये समालोक्य मुनिमानवसंचयम् । इमाः समागताः राजन् वसुयाचनहेतवे ॥ २९४ ॥ मुनेरंतिकमागत्य नमस्कृत्य परायणाः । बभूवुस्ता मलालिप्ता विकचाननमानसाः ॥२९९॥ अनाद्यतेऽत्र संसारे जननमृत्युसंकुले । कस्मिन्
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गौतमचरित्र। यह संसार अनादि अनंत है, इसमें यह जीव सदा जन्म मरण किया करता है । इसमें भ्रमण करते हुए जीव कर्मोंके उदयसे न जान किस भवमें मिल जाते हैं ॥ २९६॥ हे राजन् ! इस संसारमै पापी जोव चारों गतियोंमें अनेक प्रकारके दुःख भोगते रहते हैं और पुण्यकर्मके उदयसे स्वर्गमोक्षके सदा रहनेवाले सुख भोगते हैं ॥ २९७ ॥ जिसमकार बादलकी गर्जना सुनकर मोर प्रसन्न होते हैं उसीप्रकार मुनिराजके मुखसे अपने भवांतर सुनकर वे तीनों कन्याएं प्रसन्न हुई ॥२९८ हे राजन् ! यह श्रेष्ठ धर्म एक कल्पवृक्षके समान है। सम्यग्दर्शन ही इसकी मोटी जड़ है, भगवान जिनेन्द्रदेवके वचन ही इसकी मोटी पींड है, श्रेष्ठ दान ही इसकी शाखाएं हैं, अहिंसादिक व्रत ही पत्ते हैं, क्षमादिक गुण ही कोंपल वा नये पत्ते हैं, इन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूति ही इसके पुष्प हैं, श्रद्धारूपी बादलोंके समूहसे ही यह सींचा जाता है और भवांतरे जीवा मिति कर्मयोगतः ॥२९६॥ चतुर्गतिभवं दुःख लभते किल्विषानराः । सौख्यं सुकृतपाकाद्धि नित्यं स्वर्गापवर्गयोः॥२९॥ ताः स्वभवांतरं श्रुत्वा मुनिरानमुखात्तदा । जहर्षुः हृदये गाढं केकिन्यो वा घनारवम् ॥२९८॥ सम्यक्त्वस्थूलमूलो मिनवरबचनस्कंधबंधःसुदान, शाखोऽहिंसादिपत्रः सुगुणकिसलयः शक्रचक्रयाप्तिपुष्पः । रुच्यभोवृन्दसेको मुनिवरनिचयद्विजराजप्रसेव्यः, स श्रेयः कल्पशाखी प्रभवतु भवतां मुक्तये भूप ! नित्यम् ॥२९९॥ इतिश्रीमंडलाचार्यश्रीधर्मचंद्रविरचिते श्रीगौतमस्वामिचरिते
कुटविकन्याभवांतरवर्णनं नाम द्वितीयोऽधिकारः ।
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तीसरा अधिकार ।
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अनेक मुनियोंका समुदायरूपी पक्षीगण ही इसकी सेवा करते हैं। ऐसा यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष तुझे सदा मोक्षसुख देनेवाला हो । इसप्रकार मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्र विरचित श्रीगौतमस्वामीचरित्रमें कुटंम्बी कन्याओंके पूर्वभव वर्णन करनेवाला यह दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ।
अथ तीसरा अधिकार |
तदनन्तर संसारसे दुःखोंसे भयभीत हुई वे तीनों ही कन्याएं उन मुनिराजको आनंदके साथ नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर उनसे प्रार्थना करने लगीं ॥ १ ॥ वे कहने लगीं कि हे प्रभो ! हे मुनिराज ! मुनिराजके उपसर्गसे हम मातापिता से रहित हुई और भव भवमें हमने दुःख पाया ॥२॥ हे मुनिराज ! हे स्वामिन ! इस संसाररूपी अपार समुद्र में डूबते हुए समस्त दुःखी प्राणियोंको पार कर देनेके लिये आप जहाजके समान हैं || ३ || हे संसारी जीवोंके परम मित्र ! पहिले भवमें हमने जो महा पाप किया है अब उसके नाश करनेका उपाय बतलाइये || ४ || हे मुनिराज ! जिस व्रतरूपी औष
अथ कुटंबिनां कन्याः प्रोचुरिति मुनीश्वरम् । स्तुत्वा नत्वा च सानंद संसृतिभयकंपिताः ॥ १ ॥ महायोगिन् ! वयं जाता दुःखिन्यो हि भवे भवे । मुनींद्रस्योपसर्गेण मातृपित्रादिवर्जिताः ॥ २ ॥ संसारापारपाथोधिमज्जतां विश्वदेहिनाम् । दुःखिनां तारणायापि पोतायसे मुने ! प्रभो ! || ३ || पूर्वभवांतरेऽस्माभिर्यदधं समुपार्जितम् । उपाय तस्य नाशाय कुरु परममित्र ! भो || ४ || पापविषानि नश्यति येन
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गौतमचरित्र । धिसे यह पापरूपी विष नष्ट होता है उसे आज शीघ्र ही हम लोगोंको बतलाइये ॥ ५ ।। तदनंतर वे मुनिराज उन कन्या
ओंके शुभ बचन सुनकर और उन्हें निकट भव्य समझकर मीठी वाणीसे कहने लगे ॥६॥ कि हे पुत्रियो ! तुम लब्धिविधान व्रत करो, यह व्रत ही कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेवाला है और संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाला है ॥ ७ ॥ इस लब्धिविधान व्रतके पालन करनेसे सब भवोंमें उत्पन्न हुए पाप क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं और मोक्षके अनुषम सुख प्राप्त होते हैं फिर भला इंद्र चक्रवर्ती आदिकी विभूतिकी तो बात ही क्या है ॥८॥मुनिराजके ये वचन सुनकर वे कन्याएं कहने लगी कि हे स्वामिन् ! यह व्रत किसप्रकार किया जाता है, और इसका सुनिश्चित फल पहले किस भव्यने प्राप्त किया है ? ॥९॥ इसके उत्तरमें वे मुनिराज कहने लगे कि हे पुत्रियों ! इस व्रतकी विधि सुनो। उसके सुनने मात्रसे मनुष्योंको उत्तम सुख प्राप्त होता है ॥ १०॥ मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको यह व्रत भादों और व्रतौषधेन वै । अघ तद्रुतमस्माकं कथय भो मुनीश्वर ! ॥५॥ अथ महामुनींद्रोऽसौ जगाद मधुरां गिरम् । तासां शुभं बचः श्रुत्वा ज्ञात्वा चासन्नभव्यताम् ॥ ६ ॥ बालाः कुरुत भो पुत्र्यश्चारु लब्धि. विधानकम् । कर्मारिनाशने दक्षं भवसमुद्रतारणम् ॥७॥ विश्वभवार्जित पापं नश्यते येन तत्क्षणे । प्राप्यते मुक्तिसत्सौख्यं शक्रादीनां तु का कथा ॥ ८॥ इत्याकर्ण्य पुनः प्रोचुः स्वामिन् ! तत्क्रियते कथम् । अस्य फलं पुरा प्राप्तं केन भव्येन निश्चितम् ॥९॥ ततोऽब्रवीत्म
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तीसरा अधिकार ।
[er चैत इन दोनों महीनोंके शुक्लपक्षके अंतके दिनोंमें करना चाहिये ।। ११ ।। उस दिन सब शरीरको शुद्धकर धुले हुए धोती दुपट्टा पहनने चाहिये और मुनिराजके समीप जाकर तीन दिनके लिये शीलव्रत (ब्रह्मचर्य) धारण करना चाहिये ॥ १२ ॥ मन, वचन, कायकी शुद्धतापूर्वक प्रोषधपूर्वक तेली करना चाहिये क्योंकि यह प्रोषधपूर्वक उपवास ही मोक्षफल देनेवाला है और इसीसे समस्त कर्म नष्ट होते हैं ॥ १३ ॥ अथवा यदि शक्ति न हो तो फिर एकांतरसे इस व्रतको करना चाहिये ( १२ का एकाशन १३ को उपवास, १४ को एकाशन १५ को उपवास, पडवाको एकाशन ) क्योंकि जैन विद्वानोंने व्रत ही शीघ्र स्वर्गफल देनेवाला बतलाया है ॥ १४ ॥ यदि इतनी भी शक्ति न हो तो फिर अपनी शक्तिके अनुसार जितना किया जाय उतना ही करना चाहिये क्योंकि शक्तिके निर्वाचं पुत्र्यः शृणुत तद्विधिम् । तस्याकर्णनमात्रेण सत्सुखं जायते नृणाम् ॥ १० ॥ मासे भाद्रपदे चैत्रस्वेतपक्षे पुरा दिने । इदं व्रतं प्रकर्तव्यं भव्यैर्मुक्तियियासुभिः ॥ ११ ॥ विश्वांगं निर्मलीकृत्य धार्य धौतांवरं द्वयम् । संगृहीत्वा मुनेरंते शीलवतदिनत्रयम् ॥ १२ ॥ कर्तव्योऽष्टोपवासो हि मनोवाक्काय शुद्धितः । विश्वकर्मक्षयप्राप्त्यै मुक्तिफलप्रदायकः ॥ १३ ॥ एकांतरेण वा कार्यं व्रतं शक्तिपरिच्युतैः । स्वर्गफलप्रदं शीघ्रं प्रोक्तं जैनविदांवरैः ॥ १४ ॥ स्वशक्त्या क्रियते
१ - सुदी १२के दिन एकाशन, १३-१४-१५ को उपवास और पडवाको फिर एकाशन इसको अष्टोपवास वा आठवारका भोजन त्याग कर देना कहते हैं ।
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गौतमचरित्र। अनुसार किया हुआ व्रत निष्फल कभी नहीं होता। इन तीनों दिनोंतक जिनमंदिरमें ही शयन करना चाहिये ॥ १५॥ श्रीवर्द्धमानस्वामीका प्रतिबिंब स्थापन कर इक्षुरस, दूध, दही, घी और जलसे भरे हुए कुंभोंसे अभिषेक करना चाहिये ॥१६॥ तदनंतर पापोंको नाश करनेके लिये मन वचन कायको स्थिर कर जल, चंदन आदि आठों द्रव्योंसे भगवान् बर्द्धमानस्वामीकी पूजा करनी चाहिये ॥१७॥ फिर कुबुद्धिको नाश करने के लिये श्रीसर्वज्ञदेवके मुखारबिंदसे उत्पन्न हुई श्रीसरस्वतीदेवीकी पूजा भक्तिपूर्वक करनी चाहिये ॥ १८ ॥ तदनंतर मुनिराजके चरणकमलों की सेवा करनी चाहिये क्योंकि गुरुयूजा पापरूपी वृक्षों को नाश करने के लिये कुठार के समान है और संसाररूपी समुद्रमें पड़े हुए जीवों को पार कर देने के लिये लायके समान है ॥१२॥ उन दिनों मनको निश्चलकर भक्तिपूर्वक तीनों समय सामायिक करना चाहिये क्योंकि सामायिक ही आते हुए कर्मोको रोकनेमें समर्थ है यत्तन्निष्फल न हि जायते । यावदिनत्रयं शय्या कर्तव्या निनमंदिरे ॥१५॥ श्रीवीरनाथबिंबस्य स्नपनं क्रियते मुदा । इक्षुसुनसदुग्धदधिवारिभृतैवट: ॥१६॥ ततः पूना प्रकर्तव्या वीरस्य सलिलादिभिः । हृवाकार्य स्थिरीकृत्य दुष्कृतनाशहेतवे ॥१७॥ ततो जैनागमस्याएं क्रियते भक्तिपूर्वकम् । सर्वज्ञवक नातस्य कुमतिनाशहेत वे ॥ १८ ॥ गुरुक्रमांत्रुत सेव्यं पापद्रुमकुठारकम् । भववाढिपततु पमुतारणनौप्तमम् ॥१९॥ सामायिक प्रतिव्यं त्रिसंध्यायां सुनक्त । हृदयं निश्चलीकृत्य कर्मरोवनतस्परम् ॥२०॥ अपरानिमत्रेग प्रनयाष्टो
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[८३ ॥२०॥ शुद्ध लवंगपुष्पोंके द्वारा एकसौ आठवार अपराजित मंत्रका जप करना चाहिये और श्री वर्द्धमानस्वामीकी सेवा करनी चाहिये ॥२१॥ जैन शास्त्रों में महावीर, महाधीर, सन्मति, वर्द्धमान और वीर ये पांच श्री वर्द्धमानस्वामीके नाम कहे गये हैं ॥ २२ ॥ भक्तिपूर्वक इन सब नामोंका उच्चारण कर और तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान महावीरस्वामीके लिये विद्वानोंको महा अर्घ देना चाहिये ॥२३॥ व्रत पालन करनेवाले भव्य जीवोंको उन दिनों जिन भव्य जीवोंने यह व्रत धारण किया था जिन्होंने इसका निरूपण किया था और जिन्होंने यह व्रत पालन कराया था उनकी कथाएं बांचनी चाहिये ॥२४॥ उन दिनों चित्तको स्थिर कर भगवान अरहंतदेवका ध्यान करना चाहिये क्योंकि भगवान अरहंतदेवका ध्यान करनेसे ही त्रेसठ शलाकाओंके पद प्राप्त होते हैं ॥२५॥ इन दिनों विद्वानोंको रात्रिमें पृथ्वीपर ही शयन करना चाहिये और सदा तीर्थकर आदि महापुरुषों की स्तुति करते रहना चाहिये ॥२६॥ जिनधर्मकी प्रभावना करना त्तरं शतम् । शुद्धलवंगपुष्पाणां प्रसेव्यो वईमानकः ॥२१॥ महावीरो महाधीरः सन्मतिर्वईमानकः । वीरश्च पंच नामानि कथितानि निन, गमे ॥२२॥ इमानि वे समुच्चार्य भूयिष्ठभक्तितो द्रुतम् । त्रिसप्रदक्षिणीकृत्य महार्घः क्रियते बुधैः ॥ २३ ॥ येनेदं सुव्रतं चक्रे प्रकथितं च कारितम् । सर्वदा तत्कथाख्यानं श्रोतव्यं व्रतधारिभिः ॥२४॥ एकाग्रेण सुचित्तेन ध्येयं श्रीजिननामकम् । त्रिषष्टिपुरुषादीनां पदं येनाप्यते द्रुतम् ॥२५॥ निशायां एथिवीशय्या प्रकर्तव्या बुधोत्तमैः। तीर्थकरादिमानां गीतं वा गीयतेऽनिशम् ॥२६॥भवार्णव
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८४ ]
गौतमचरित्र ।
चंचल इंद्रियरूपी हिरणोंको बांधनेवाली है और संसाररूपी समुद्र से पार कर देनेके लिये जहाज के समान है इसलिये भव्य जीवोंको इन व्रतोंके दिनोंमें जिनधर्मकी प्रभावना अवश्य करनी चाहिये ||२७|| भव्य जीवोंको इस विधिके अनुसार यह लब्धिविधान व्रत तीन दिनतक बराबर करते रहना चाहिये क्योंकि यह व्रत समस्त कर्मोंका नाश करनेवाला है और इच्छानुसार फल देनेवाला है || २८ ॥ चतुर पुरुषों को इस प्रकार यह व्रत तीन वर्षतक बराबर करते रहना चाहिये और तीन वर्ष पूर्ण होजानेपर इसकी उद्यापन क्रिया करनी चाहिये ||२९| उस उद्यापन क्रियाके लिये एक जिनालय बनवाना चाहिये जो अनेक प्रकारकी शोभासे सुशोभित हो, पापरूपी शत्रुओं के नाश करनेमें चतुर हो और पुण्यराशिका कारण हो ||३०|| उस जिनालय में निर्मल हृदय से श्रीवर्द्धमानस्वामीकी मनोहर प्रतिमा विराजमान करनी चाहिये जो आपत्तिरूपी लताओंको नाश करनेवाली हो ||३१|| तदनंतर बड़ी भक्तिके साथ विधिपूर्वक, शुद्ध मन वचन कायसे मनुष्यों को आनंद महानौका जिनधर्मप्रभावना । भव्यलोकैः सदा कार्या चलाक्षमृगबंधिनी ||२७|| विधिनानेन वै कार्यमिदं भव्यैर्दिनत्रयम् । निःशेषकर्म संहर्तृवांच्छितार्थप्रदायकम् ॥ २८ ॥ वर्षत्रितयपर्यंतं व्रतं कार्यं विचक्षणैः । ततः पूर्णे समाजाते कर्तव्योद्यापन क्रिया ॥ २९ ॥ जिनचैत्यालयं कार्यमनेकशोभयान्वितम् । पापारिध्वंसने दक्षं पुण्यराशिनिबंधनम् ॥ ३० ॥ ततः श्रीवर्द्धमानस्य प्रतिमा सुमनोहरा । विधेयामल चित्तेन व्यापडताप्रणाशिका ॥ ३१ ॥ विधेयं शांतिकं रम्यं जनानंदप्रदायकम् ।
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तासर
तीसरा अधिकार।
[८५ देनेवाला मनोहर शांति विधान करना चाहिये ॥३२॥ उसके लिये चावलोंके एकसौ आठ कमल बनाने चाहिये (चौकीपर वस्त्र बिछाकर उसपर चांवलोंके कमल बनाने चाहिये) और उनके ऊपर मुंदर दीप और फल रखने चाहिये ॥३३ उसी श्रीवर्द्धमानस्वामीके जिनालयमें सुगंधित जलसे भरे हुए दैदीप्यमान सुवर्णके पांच कलश देने चाहिये ॥३४॥ क्षुधारोगको दूर करनेके लिये सोनेके पात्रोंमें रक्खे हुए पांच प्रकारके नैवेद्यसे उन कमलोंकी पूजा करनी चाहिये ॥३६॥ जिसकी मुगंधिसे बहुतसे भ्रमरोंके समूह इकट्ठे होगये हैं ऐसे केसर चंदन आदि सुगंधित द्रव्य भगवान वर्द्धमानस्वामीके उस जिनालयमें समर्पण करने चाहिये ॥३६॥ भगवान अरहंतदेवकी प्रतिमा विराजमान करनेके लिये सुवर्णका बना हुआ मनोहर सिंहासन देना चाहिये जो कि भगवान अरहंत देवके चरणकमलोंके नखोंकी कांतिसे दैदीप्यमान होता रहे ॥३७॥ एक भामंडल देना चाहिये जो अपनी कांतिसे सूर्यमंडलको भी जीतता मनोवाक्कायसंशुबैभक्तितो विधिना सह ॥३२॥ तंदुलानां सुपद्मानि शतान्यष्टोत्तराणि वै । तेषामुपरि धर्त्तव्यं फलदीपप्रभांतिकम् ॥३३॥ कनत्कनकसंभूता दीयंते पंच कुंभकाः । मंदिरे वर्द्धमानस्य सुगंधिजलसंभृताः ॥३४॥ पंचविधैः सुनैवेद्यैः सुवर्णभाजनस्थितैः । तानि पद्मानि पूज्यानि क्षुद्रोगविनिवृत्तये ॥३५॥ निजसुरभिसंहूतमधुकरसमुच्चयम् । प्रदेयं भगवद्गहे काश्मीरचंदनादिकम् ॥ ३६ ॥ सर्वज्ञस्नानपीठानि सुवर्णनानि वै ध्रुवम् । निनां हिनखरयोतिस्तोममनोहराणि च ॥३७॥ भामंडलं निनकांत्या नितमार्तडमंडलम् । प्रभूत
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८६ ]
गौतमचरित्र |
हो, जो बहुत शुद्ध सोनेका बना हुआ हो और उसमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए हों ॥ ३८ ॥ भगवान अरहंतदेव के कहे हुए शुभ शास्त्र लिखाकर समर्पण करने चाहिये जिन्हे पढ़कर लोग कुबुद्धिसे अंधे और बहरे न हो जाय ||३९|| जो मुनिराज सम्यग्दर्शन, सम्यग्झान और सम्यक् चारित्रसे पवित्र हैं, जिन्हें शत्रु मित्र सब समान हैं ऐसे उत्तम पात्रोंको आहारदान देना चाहिये ||४०|| जो देशव्रतको धारण करनेवाले हैं वे मध्यमपात्र कहलाते हैं और जो असंयत सम्यग्दृष्टी हैं वे जघन्यपात्र कहलाते हैं । इनको भोजन कराना चाहिये और पाप दूर करनेके लिये इन्हें दान देना चाहिये जिससे कि भोगभूमिकी संपत्ति सुलभ हो जाय अर्थात् शीघ्र ही प्राप्त हो जाय ॥४१ - ४२ || जिसप्रकार ईखके खेत में दिया हुआ पानी मीठा होजाता है उसी प्रकार पात्रके लिये दिया हुआ अन्नपानी भी अमृतसे भी बढ़कर हो जाता है ||४३|| जो मिथ्यादृष्टी हैं, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्रको धारण मौल्य सद्रत्नसुतपनीय मंडितम् ||३८|| लेखनीयं शुभं शास्त्र जिननाथमुखोद्भवम् । कुमतिमूकतांधत्वं येन संजायते न हि ॥ ३९ ॥ सम्यक्त्वदर्शनज्ञानचारित्रेण पवित्रिताः । ये तदुत्कृष्टपात्रा वै ज्ञेयाः 1 समारिमित्रकाः ॥ ४० ॥ देशव्रतधरा ये ते मध्यमपात्रका ः मताः । असंयतः सम्यग्दृष्टिः भवेज्जवन्यपात्रकः ||४१ || भोज्यं त्रिविधपा
यो दीयते पापहानये । भोगभूमिसु संपत्तिः सुलभा येन जायते ॥ ४२ ॥ इक्षुक्षेत्रे पयो क्षिप्तं यथा मिष्टं प्रजायते । अन्नपानं तथा दत्तं पात्रे ऽमृततरं भवेत् ॥ ४३ ॥ वर्जिताः स्थूलहिंसादेर्मिथ्यादृग्ज्ञान
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तीसरा अधिकार। करनेवाले हैं परन्तु जिन्होंने स्थूल हिंसाका साग करदिया है उन्हें कुपात्र कहते हैं तथा जिन्होंने न तो कोई चारित्र धारण किया है और न कोई व्रत धारण किया है ऐसे हिंसक मिथ्याष्टी जीव अपात्र कहलाते हैं ॥४४॥ जिसप्रकार अयोग्य क्षेत्रमें बोये हुए बीजले थोड़ा और बुरा फल मिलता है उसीप्रकार कुपात्रको दिये हुए दानसे भी कुभोगसूमिकी प्राप्ति होती है ॥४५॥ जिस प्रकार आक और नीमके पेड़में डाला हुआ पानी कड़वा हो जाता है तथा सांपके मुहमें पहुंचा हुआ दूध विष हो जाता है उसी प्रकार अपात्रको दिया हुआ दान भी व्यर्थ ही जाता है अथवा विपरीत फलको ही फलता है ॥ ४६॥ अर्जिकाओंके लिये भक्तिपूर्वक शुद्ध सिद्धांत पुरतकें देनी चाहिये, उनके मनोहर वेष्ठन देने चाहिये, वस्त्र देने चाहिये और पीछी कमंडलु देना चाहिये ॥४७॥ श्रावक श्राविकाओंको बहुतसे आभरण, बहुमूल्य वस्त्र और बहुतसे नारियल देने चाहिये ॥४८॥ जो स्त्री पुरुष दुर्बल हैं, हीन हैं, दीन हैं, वा किसी दुःखसे दुखी हैं उन्हें दयापूर्वक भोजन वृत्तिकाः । कुपात्रमित्यपात्रं तु हिंसका अनिवृत्तिकाः॥४४॥ असत्क्षेत्रे यथा बीज क्षिप्तं अल्पफलं भवेत् । कुपात्रे च यथा दत्तं दानं कुभोगभूमिभाक्॥४५॥ अर्कनिंबद्रुमे क्षिप्त पयः कटुक्तां व्रजेत् । दुग्धं विषं भुज गास्येऽपात्रे दान तथा मतम् ॥४६॥ भक्त्या देयार्यिकाभ्योपि शुद्धसिद्धांतपुस्तिका । आच्छादनानि कांतानि वस्त्रं पिच्छीकमंडलुः॥४७॥ श्रावक श्राविकाभ्योपि प्रभूताभरणानि वै । बहुमूल्यानि वस्त्राणि नालिकेराणि भूरिशः ॥ ४८ ॥ दुर्बला हीनदीनाश्च ये हि दुःखेन
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गौतमचरित्र। देना चाहिये ॥ ४९ ॥ छहों प्रकारके जीवोंको अभयदान देना चाहिये जिससे कि सिंह व्याघ्र आदि किसीका भी भय न रहे ॥२०॥ जो कोढी हैं, अथवा किसी पेटके रोगसे दुःखी हैं अथवा स्वांस, वात, पित्त आदिके रोगोंसे दुःखी हैं उनके लिये विद्वानोंको यथायोग्य शुद्ध औषधि देनी चाहिये ॥५१ ।। जिनके पास उद्यापनके लिये इतनी सामग्री न हो उन्हें केवल भक्ति ही करनी चाहिये और उस व्रतमें किसी प्रकारकी हीनाधिकता नहीं समझनी चाहिये क्योंकि पुण्य सम्पादन करनेके जीवोंके भाव ही कारण होते हैं इसलिये अपने भाव सदा शुद्ध रखने चाहिये ॥५२॥ जिन्हें उद्यापन करनेकी कुछ भी शक्ति न हो उन्हें उतना ही फल प्राप्त करनेके लिये दूने दिनतक अर्थात् छह वर्ष तक यह व्रत करना चाहिये ॥५३ ॥ पहले यह व्रत श्रीषभदेवस्वामीके पुत्र अनंतवीरने किया था उसकी कथा आदिनाथपुराणमें प्रसिद्ध हैं ॥५४॥ इसप्रकार मुनिराजके बचन सुनकर राजाने अनेक पीडिताः । नरा नार्योऽथवा तेभ्यो दयार्थ दीयतेऽशनम् ॥ ४९ ॥ षड्जीवकायवर्गेप्वभयं दानं प्रदीयते । येन व्याघ्रमृगेंद्रादेर्भयं न जायते क्वचित् ॥ ५० ॥ कुष्टोदरव्यथाश्वासवातपित्तादिपीडिताः । यथायोग्यं शुभं तेभ्यो विधेयं भेषनं बुधैः ॥ ५१ ॥ यस्यैतानि न पूर्यते तेन भक्तिर्विधीयते । चिंत्यं हीनाधिकं नैव पुण्यं भावो हि कारणम् ॥५२॥ यस्य प्रोद्यापने शक्ति किंचिच्च प्रजायते । तेनेदं द्विगुणं कार्य तत्प्रमाणफलाप्तये ॥५३॥ वृषभतनयानंतवीरेणेदं कृतं पुरा । आदिनाथपुराणे हि प्रसिद्ध तत्कथानकम् ॥२४॥ मुनिवचः
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तीसरा अधिकार ।.
[ ८६ श्रावक श्राविकाओंके साथ तथा उन तीनों कन्याओंके साथ सुख देनेवाला लब्धिविधान नामका वह व्रत धारण किया ||२५|| सो ठीक ही है क्योंकि जो निकट भव्य हैं, मोक्षप्राप्ति जिनके समीप हैं वे देर नहीं करते हैं । संसारी जीवोंकी जैसी होनहार होती है वैसी ही उनकी बुद्धि हो जाती है ||५६|| मुनिराजके उपदेशके अनुसार श्रावकोंकी सहायतासे उन तीनों कन्याओंने उद्यापन क्रियाके साथ साथ वह लब्धिविधान व्रत किया ||५७|| उन तीनों कन्याओंने श्रावकोंके व्रत धारण किये, उत्तमक्षमा आदि दशधर्म धारण किये और शीलवत धारण किया || ५८ || कुछ काल व्यतीत हो जानेपर उन तीनों कन्याओंने जिन मंदिरमें जाकर मन बचन कायकी शुद्धतापूर्वक भगवान् जिनेंद्रदेवकी बड़ी पूजाकी ॥५९॥ तदनंतर आयु पूर्ण होनेपर उन तीनों कन्याओंने समाधिमरण धारण किया, भगवान अरहंतदेवके बीजाक्षरोंका स्मरण किया और मुनिराज के चरणकमलोंको नमस्कार किया समाकर्ण्य भूपेन नागरैः सह । कन्याभिः श्राविकामिश्र सुखदं जगृहे व्रतम् ॥५५॥ येषां सिद्धिः समासन्ना ते बिलंब न कुर्वते । यादृशी भवतालोके बुद्धिर्भवेद्धि तादृशी ॥ ५६ ॥ तिस्रोपि तदव्रतं चकुरुद्यापन क्रियायुतम् । मुनिराजोपदेशेन श्रावकाणां सहायतः ॥५७॥ श्रावकव्रतसंयुक्ता बभूवुस्ताश्च कन्यकाः । क्षमादिव्रतसंकीर्णाः शीलांपरिभूषिताः ||१८|| कियत्काले गते कन्या आसाद्य जिनमंदिरम् । सपर्या महता चकुर्मनोवाक्कायशुद्धितः ॥ ५९ ॥ ततः आयुक्षये कन्याः कृत्वा समाधिपंचताम् । अहंडीजाक्षरं स्मृत्वा गुरुपादं प्रणम्य च ॥६०॥
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गौतमचरिख। ॥६०॥ मरनेकेबाद उनके जीव पांचवें स्वर्गमें जाकर स्त्रीलिंगछेदकर प्रभावशाली देव हुए तथा उत्पन्न होते ही आनंद और यौवनतासे सुशोभित होगये ॥६१॥ उन देवोंने उत्पन्न होते ही अपने अवधिज्ञानसे समझ लिया कि "हम लब्धिविधान व्रत पालन करनेसे ही यहां स्वर्ग में आकर उत्पन्न हुए हैं ॥३२॥ वे देव देवांगनाओं के साथ अनेक प्रकारके सुख भोगते थे, उनका शरीर पांच हाथ ऊंचा था, दश सागरकी उनकी आयु थी, विक्रिया ऋद्धिसे वे मुशोभित थे, उनके मध्यम पद्मलेश्या थी और तीसरे नरकतक अवधिज्ञान था । जिस प्रकार भ्रमर कमलोंपर लिपटा रहता है उसी प्रकार श्रीसर्वज्ञदेवके चरणकमलोंकी वे सदा सेवा किया करते थे और अनेक देव देवी उनके चरणकमलोंकी सेवा किया करते थे ॥६३-६६॥
भगवान् महावीरस्वामीके समवशरणमें कहा जारहा है कि हे राजा श्रेणिक ! इधर राजा महीचंद्रने संसारकी अनिसता समझकर श्री अंगभूषण मुनिराजके समीप जिनदीक्षा पंचमे दिवि संजाता महादेवाः स्फुरत्प्रभाः । संछित्वा रमणीलिंग सानंदयौवनान्विताः ॥६१॥ चिंतितं विबुधैरेवमवधिज्ञानलोचनैः । लब्धिविधानमाहात्म्याद्वयमत्र समागताः ॥६२॥ भुतेस्म सुरास्तत्र सुखं स्त्रीरूपसंभवम् । पंचहस्तोचसत्कायाः सदशसागरायुषः ॥६३॥ विक्रियाढिसमापन्नाः मध्यमपद्मलेश्यकाः । तृतीयनरकस्यांतावधिज्ञानसमाकुलाः॥६४॥ श्रीसर्वज्ञपदद्वंद्वसेवनैकमधुव्रताः । अनेकदेवदेवीभिः सेवितपदपंकजाः ॥६५॥ अथ जैनेश्वरीं दीक्षां महीचंद्रो नृपो दधौ । अंगभूषण सांनिध्ये ज्ञातसंसारसंस्थितिः ॥६६॥ महातपः करोतिस्म
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तोसरा अधिकार।
[६१ धारण करली ॥६६॥ वे श्रेष्ठ महीचंद्र मुनिराज इंद्रियोंका निग्रह कर महा तपश्चरण करने लगे, समस्त परीषहोंको जीतने लगे और उन्होंने मूलगुण, उत्तरगुण सब धारण कर लिये ॥ ६७॥
हे राजा श्रेणिक ! गौतमस्वामी कहां उत्पन्न हुए, किस प्रकार उन्होंने लब्धि प्राप्त की, किस प्रकार वे गणधर हुए
और किस प्रकार उन्होंने मोक्षफल पाया यह सब तू अब सुन ॥ ६८ ॥ इसी जंबूद्वीपमें मनुष्योंसे भरा हुआ प्रसिद्ध भरतक्षेत्र है। उसमें धर्मात्मा लोगोंसे सुशोभित एक मगध नामका देश है ॥६९॥ इसी मगध देशमें एक ब्राह्मण नामका नगर है जोकि वेदध्वनिले सदा भरपूर रहता है और उसमें बड़े बड़े विद्वान ब्राह्मण निवास करते हैं ॥७०॥ उस नगरमें बहुतसा धन था, बाजारोंकी पंक्तियां बहुत अच्छी थीं, चैस चैयालयोंसे सुशोभित था और सब प्रकारके पदार्थोसे भरा हुआ था ॥ ७१ ॥ कूआ, वावड़ी, तलाव आदि सब तरहके जलाशय थे, अनेक प्रकारके वृक्ष थे, उसमें सब प्रकारके धान्य स कृतेंद्रियनिग्रहः । परीषहजयः श्रेष्ठो मूलोत्तरगुणान्वितः ॥६॥ अथ शृणु महाराज ! तेषामुत्पत्तिकारणम् । पुनमुक्तिफलाकीर्णा लब्धि गणधरादिकाम् ॥६८॥ जंबूद्वीपे जनाकीणे शस्ये च भारताभिधे । मगधो विश्रुतो देशो धर्मिष्ठजनराजितः ॥६९॥ ब्राह्मणं नगरं तत्र सवेदं भाति संततम् । भूरिविद्याप्रयुक्तानां ब्राह्मणानां निवासकम् ॥७०॥ प्रभूतवसुसंपूर्ण हदृश्रेणिविराजितम् । चैत्यमंदिरसंकीर्ण समस्तवस्तुसंभृतम् ॥७१॥ वापीतडागकूपाढ्यं भूरिपादपसंयुतम् ।
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गौतमचरित्र। उत्पन्न होते थे और सब प्रकारके आश्रम थे ॥ ७२ ॥ मकानोंकी पंक्तियां बड़ी ही ऊंची और बड़ी ही अच्छी थीं वे कुंदके फूल और चंद्रमाके समान श्वेत थीं और बड़ी ही मनोहर लगती थीं ॥७३॥ उनमें रहनेवाले मनुष्य भी धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थोका सेवन करते थे, बड़े दानी, सदाचारी, रूपवान और सौभाग्यशाली थे ॥ ७४ ॥ वहांके तरुण पुरुष अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीडा करते थे, वे स्त्रियां भी बड़ी सुंदरी थीं, अपने रूपसे रंभाको भी जीतती थीं और हाव भाव आदिसे सुशोभित थीं ॥ ७५ ॥ उसी नगरमें एक शांडिल्य नामका ब्राह्मण रहता था जो बहुत ही गुणी था, अनेक प्रकारकी विद्याओंसे सुशोभित था और अपने कुलाचारके पालन करनेमें तत्पर था॥७६॥ वह बाह्मण धनी था, ब्राह्मणोंमें मुख्य था, प्रशंसनीय था, मुखी था, दानी था, रूपवान था और तेजस्वी था॥७७॥ उस ब्राह्मणके स्थंडिला समस्तशस्यनिष्पत्तिसंकुलमाश्रमान्वितम् ॥७२॥ मंदिरपंक्तयो यत्र राजते प्रोन्नता वराः । कुंदनिशापतिस्वेताः सुंदराकृतयो ध्रुवम् ॥७३॥ भासते मानवा यत्र त्रिवर्गसाधने पराः । दानिनः शोभनाचारा रूपसौभाग्यसंयुताः ॥७४॥ तरुणा यत्र दीव्यंति स्वस्त्रीभिः सह शोभनाः । स्वरूपजितरम्भाभिर्हावभावादियुक्तिभिः ॥ ७५ ॥ शांडिल्यो नाम तत्राभूब्राह्मणः सुगुणाग्रणीः । सुविद्यास्तोमसत्पात्रः स्वकुलाचारतत्परः ॥ ७६ ॥ लक्ष्मीनिवासको योऽभूद्वाडवमुख्यतां गतः । श्लाघ्यो भोक्ता सदा त्यागी स्वरूपी तेजसा युतः ॥७७॥ स्थंडिला तत्प्रिया जाता रूपसौभाग्यधारिणी। पतिव्रताऽचलारूढा
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तोसरा अधिकार ।
[ ६३ नामकी ब्राह्मणी थी जो रूपवती, सौभाग्यवती, पतिव्रता और स्थिर चित्तवाली थी तथा रंभा और रतिदेवीके समान सुंदर थी ||७८ || वह ब्राह्मणी पवित्र थी, सदा संतुष्ट रहती थी, प्रशंसनीय थी, याचकोंको दान देनेवाली थी, मधुरभाषिणी थी, मनोहर थी, बुद्धिमती थी और अच्छे कुलमें उत्पन्न हुई थी. ॥ ७२ ॥ जिसप्रकार चंद्रमा के रोहिणी है उसी प्रकार उस ब्राह्मणके भी केसरी नामकी दूसरी ब्राह्मणी थी, वह भी स्त्रियों में रहनेवाले सब गुणोंसे सुशोभित थी और पतिके हृदयको प्रसन्न करनेवाली थी ||८०|| किसी एक दिन वह स्थंडिला ब्राह्मणी कोमल शय्यापर सो रही थी कि उसने रात्रि के अंत समय में भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न करनेवाले शुभ स्वप्न देखे || ८१|| उसी दिन सुख संपत्तिको प्रगट करनेवाला मनोहर सबसे बड़ा देव स्वर्गसे चयकर स्थंडिलाके शुभ उदर में आया || ८२|||| उस गर्भावस्था के समय वह स्थंडिला ब्राह्मणी ऐसी सुशोभित होनेलगी थी जैसे रत्नोंसे भरी हुई रंभा वा रतिदेविका ||७८ || पूता तुष्टा सदा श्लाघ्या याचकौचित्य - दायिका | मधुरबचना कांता सुमतिः सुकुलोद्भवा ॥ ७९ ॥ द्वितीया केशरी चाभूद्रोहिणीव विधोः प्रिया । योषिद्गुणसमाकीर्णा प्रियचित्तानुरंजिनी ॥ ८० ॥ अथ निशांत्यमे यामे सुप्ता कोमलतल्पके । सा बधूः सुंदरान् स्वप्नान् ददर्श शुभपुत्रदान् ॥ ८१ ॥ तदा देवालयाच्च्युत्वा स्थंडिला जठरे शुभे । अस्थादबृद्धसुरः कांतसुखसंपत्तिकारकः ॥ ८२ ॥ शुक्तिका मुक्तिमध्येव रत्नगर्भापि वा क्षितिः । तदा सा शुशुभे बाला तुंदांतो जंतुधारिणी ॥ ८३ ॥ अपांडुरं मुखं
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६४]
गौतमचरित्र। पृथ्वी शोभायमान होती है अथवा मोतीसे भरी हुई सीप शोभायमान होती है ॥ ८३॥ हंसके समान गमन करनेवाली उस ब्राह्मणीका मुख कुछ सफेद होगया था और ऐसा जान पड़ता था मानो पुत्ररूपी चंद्रमाका जन्म समस्त पापोंका नाश करनेवाला होगा इसीबातको सूचित कर रहा हो ॥८४॥ जिसका शरीर सब कृश होगया है ऐसी उस स्थंडिला ब्राह्मणीके पुत्रकी उत्पत्तिको सूचित करनेवाले दोनों मनोहर स्तनोंके मुख श्याम पड़ गयेथे॥८५॥ उस समय वह स्थंडिला भगवान जिनद्रदेवकी पूजा करनेमें अपना चित्त लगाती थी
और इंद्राणीके समान जैनधर्ममें तत्पर हो गई थी ॥८॥ उस समय वह स्थंडिला शुद्ध चारित्रको धारण करनेवाले सम्यग्ज्ञानी उत्तम मुनियोंको अनेक पापोंका नाश करनेवाला शुभ आहार देती थी ॥८७॥ सूर्योदयके समय जबकि बुध, शुक्र, बृहस्पति शुभरूपसे केंद्र स्थानमें थे और भी सब ग्रह उच्च स्थानमें थे, उस समय जिसप्रकार श्री ऋषभदेवकी रानी यशस्वतीने श्रीकृषभसेनको उत्पन्न किया था, उसी प्रकार धत्ते सा हंसगमना वरा । वदंतीव सुपुत्रंदुजन्मपापतमोऽपहम् ॥८४॥ हेतुके तनयोत्पत्तेर्मनोहरे स्तनद्वये । कामिनी क्षीणसर्वांगा दधौ श्यामे सुचूचुके ॥ ८५ ॥ श्रीजिनेंद्रपदांभोनसपर्यायां सुमानसा । शचीव सा तदा जाता जैनधर्मपरायणा ॥८६॥ ज्ञानधनाय कांताय शुद्धचारित्रधारिणे । मुनींद्राय शुभाहारं ददौ पापविनाशनम् ॥८॥ मार्तडोदयवेलायामुच्चाहे गते सति । बुधशुक्रसुराचार्यकेंद्रस्थाने शुभे स्थिते ॥८६॥ यशस्वती यथा पूर्व वृषभसेनसंज्ञकम् । असूत
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तीसरा अधिकार ।
[ ६५ उस स्थंडिला ब्राह्मणीने समस्त मनोहर अंगोंको धारण करनेवाले पुत्रको उत्पन्न किया ॥ ८९ ॥ उस समय सब दिशाएं निर्मल होगई थीं, वायु सुगंधित वहने लगी थी और आकाशमें जय जयके शुभ शब्द हो रहे थे ||२०|| उससमय समस्त स्त्री पुरुषोंके हृदयमें आनंद उत्पन्न करनेवाले चारों प्रकारके मनोहर बाजे बज रहे थे ||११|| जिसप्रकार जयंतसे इंद्र इंद्राणी प्रसन्न होते हैं, अथवा जिस प्रकार स्वामिकार्ति - केयसे महादेव पार्वती प्रसन्न होते हैं उसीप्रकार वे ब्राह्मण ब्राह्मणी उस पुत्रसे प्रसन्न हुए थे ||२२|| उस समय उस शांडिल्य ब्राह्मणने मागनेवालोंको मणि, सोना, चांदी, वस्त्र, आभरण आदि इच्छानुसार दान दिया था ॥ ९३ ॥ उससमय बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण तथा तिलकसे शोभायमान होनेवाली स्त्रियां बड़ी प्रसन्नताके साथ शुभ गीत गा रही थीं ॥९४॥ जिसकार निर्धन मनुष्य खजानेको पाकर प्रसन्न होता है तनयं रामा निखिलां गमनोहरम् ॥ ८९ ॥ तदा दिशोऽमला जाता : चवुः सगंधवायवः । दिवि वाणी शुभ चाभूज्जयजयारवान्विता ॥ ९० ॥ तदा चतुर्विध वाद्यं ध्वनतिस्म शुभस्वरम् । विश्वनरादिचित्तेषु प्रमो दभरदायकम् ॥९१॥ जयंतेन शचीशक्रौ स्कंदेनोमामृडौ यथा । तथा तौ दंपती तेन तनयेन ननंदतुः ॥ ९२ ॥ शांडिल्योप्यर्थिने वित्तं ददौ मानसवांच्छितम् । मणिसुवर्णरूप्यादिवसनाभरणादिकम् ||९३॥ कामिन्यः शुभगीतानि गीयतेस्म मुदा युताः । प्रभूतमौल्यसहस्त्रभूषण तिलकान्विताः ॥ ९४ ॥ पिता पुत्रमुखं वीक्ष्य स्वस्यांगे न ममौ मुदा । निस्वो निघानमाप्येव वार्धिः पूर्ण विधुं यथा ॥ ९५ ॥
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गौतमचरित्र। अथवा पूर्ण चंद्रमाको देखकर समुद्र उमड़ता है उसीप्रकार पिता अपने पुत्रका मुख देखकर प्रसन्नतासे अपने शरीरमें भी नहीं समा रहा था ॥९५॥ उसी समय किसी निमित्तज्ञानीने ज्योतिषको देखकर कहा था, कि यह पुत्र श्रीगौतमस्वामीके नामसे प्रसिद्ध होगा और समस्त विद्याओंका स्वामी होगा ॥९६॥ वह ब्राह्मणका पुत्र गौतमस्वामी अपने पहिले पुण्यकर्मके उदयसे लोकोंको आनंद देनेवाला था, अपने रूपसे कामदेवको भी जीतता था और सूर्यके समान तेजस्वी था ॥ ९७ ॥ दूसरा देव भी उस स्वर्गसे चयकर उसी स्थंडिलाके उदरसे गार्ग्य नामका पुत्र हुआ। वह गार्य भी सब कलाओंमें चतुर था ॥१८॥ इसी प्रकार तीसरे देवका जीव भी स्वर्गसे चयकर केसरी नामकी ब्राह्मणीके उदरसे असन्त गुणवान् भार्गव नामका पुत्र हुआ ॥९९ ॥ जिस प्रकार कुंतीके पुत्र पांडवों में परस्पर प्रेम था उसी प्रकार इन तीनों भाइयों में भी इकट्ठे किये हुए पुण्य कर्मके उदयसे परस्पर बड़ा ही अच्छा प्रेम था सुज्योतिष प्रविचार्य दैवज्ञेनेति भाषितम् । श्रीगौतमाभिधः सर्वविद्यास्वामी भविष्यति ॥१६॥ आनंददायको यो भूल्लोकानां पूर्वपुण्यतः । रूपेण नितकंदर्पो विभाकरप्रतापकः ॥ ९७ ॥ द्वितीयो विबुधश्च्युत्वा जातम्तदुरात्ततः । गाय॑नामात्मभू देहो विश्वकलाविचक्षणः ॥९८॥ तृतीयो निर्जरो नाकात्समभेत्य सुतो वरः। केशरीजठरे जातो भार्गवः सुगुणाकरः ॥९९॥ अन्योऽन्येन महाप्रीतिस्तेषां जाता मनोहरा । यथा कुन्तीसुतानां वै सामुदायिकपुण्यतः ॥१०॥
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तासरा अधिकार। ॥१००॥ वे तीनों भाई द्वितीयाके चंद्रमाके समान दिन दिन बढ़ते थे और जैसे जैसे वे बढ़ते जाते थे वैसे ही वैसे उनकी आयु, कांति, गुण, बुद्धि और पराक्रम भी बढ़ता जाता था ॥१०१॥ उन तीनों भाइयोंने व्याकरण, छंद, पुराण, आगम, सामुद्रिक (हाथ देखकर भविष्य बतलाना) और ब्राह्मणोंकी क्रियाएं सब पढ़ डालींथीं।।१०२॥ उन तीनों भाइयों में से सबसे बड़ा गौतम नामका पुत्र ज्योतिःशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, अलंकारशास्त्र और न्यायशास्त्र आदि कितने ही शास्त्रोंमें अधिक प्रशंसनीय था ॥ १०३ ॥ जिस प्रकार देवोंका गुरु बृहस्पति है उसी प्रकार वह गौतम ब्राह्मण भी किसी शुभ ब्रह्मशालामें पांचसौ शिष्योंका उपाध्याय था॥१०४॥"चौदह महाविद्या
ओंका पारगामी मैं ही हूं, मेरे सिवाय और कोई विद्वान नहीं है" इस प्रकारके अहंकारमें वह गौतम ब्राह्मण सदा चूर रहता था ॥ १०५॥ .
हे राजा श्रेणिक ! जो मनुष्य तीर्थकर परमदेवकी द्वितीयाचंद्रवन्नित्यं ववृधुस्ते दिने दिने । यथा तथा वयःकांतिगुणबुद्धिपराक्रमाः ॥ १०१ ॥ व्याकरणं सुच्छंदांसि पुराणं आगमं तथा । पुत्रास्ते सततं पेठुः सामुद्रिकं द्विनक्रियाम् ॥१०२॥ज्योतिवैद्यकशास्त्राद्यलंकारप्रमुखेन वै । तर्कभाषाप्रमाणेन गौतमः श्लाध्यतां गतः ॥१०३॥ शुभायां ब्रह्मशालायामुपाध्यायोऽभवद्विजः । पंचशतसुशिष्याणां निर्जराणां गुर्यथा ॥१०४॥ चतुर्दशमहाविद्यापारगोई न चापरः । इत्यहंकारमापन्नो गौतमोऽभूदाहिमोत्तमः॥१०॥ परोक्षे तीर्थराज तं वंदति यो निरंतरम् । भूरिभक्तिविशेषेण त्रिन
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गौतमचरित्र 1
परोक्षमें भी वंदना करता है वह तीनों लोकोंके द्वारा बड़ी 1. भक्ति के साथ बंदनीय होजाता है || १०६॥ जो मनुष्य श्री तीर्थकर परमदेवकी प्रत्यक्षमें स्तुति करता है वह तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा अवश्य ही पूज्य होजाता है ॥ १०७॥ हे राजा श्रेणिक ! इस व्रतरूपी वृक्षकी सम्यग्दर्शन ही जड़ है, सम्यग्दर्शनका प्रशम गुण (अत्यंत शांत परिणामों का होना) ही स्कंध है, करुणा ही शाखाएं हैं, पवित्र शील ही पत्ते हैं और कीर्ति ही इसके फूल हैं । ऐसा यह व्रतरूपी वृक्ष तुम्हारे लिये मोक्षलक्ष्मीरूपी फल देवे ॥ १०८ ॥ इस उत्तम धर्मके ही प्रभावसे सदा राज्यलक्ष्मी प्राप्त होती है, धर्मके ही प्रभाव से स्वर्ग के भोग प्राप्त होते हैं, धर्मके ही प्रभावसे इन्द्रकी पदवी प्राप्त होती है जिनके दोनों चरणकमलोंकी सेवा समस्त देवगण करते हैं । धर्मके ही भावसे चक्रवर्तीकी ऐसी विभूति प्राप्त होती है जिसका पारावार नहीं है, जो सबसे उत्तम है और देव लोग भी जिसे गद्भिः स बंद्यते ॥ १०६॥ प्रत्यक्षे जिननाथस्य स्तुतिं यः कुरुतेऽनिशम् । त्रिभुवनेश्वरेणैव स कथं न हि पूज्यते ॥ १०७॥ सम्यक्त्वमूलः प्रशमप्रकांडः कारुण्यशाखः शुभशीलपत्रः । कीर्तिप्रसूनस्तवमुक्तिलक्ष्मी, राजन् ! करोतु व्रतपादपोऽयम् ॥ १०८ ॥ सद्धर्माद्राज्यलक्ष्मी प्रभवति सततं धर्मतः स्वर्गभोगो, धर्मादिद्रो द्रुतं स्यात्सकलसुरगणैः सेव्यमानांह्रियुग्मः । सद्धर्माच्चक्रिभूतिः सुरजनमहिता मानहीना प्रकृष्टा, सद्धर्मात्तीर्थरामः कुरु सुवृष यतः श्रेणिक त्वं सदा वै ॥ १०९ ॥ इतिश्रीगौतमस्त्वामिचरिते श्रीगौतमोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽधिकारः ।
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चौथा अधिकार। पूज्य समझते हैं तथा धर्मके ही प्रभावसे तीर्थकरकी सर्वोत्तम पूज्य पदवी प्राप्त होती है। इसलिये हे राजन् ! तू सदा धर्मका सेवन कर ॥ १०९ ॥ इसप्रकार मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्रविरचित श्रीगौतमस्वामीचरित्र में श्रीगौतमस्वामीकी उत्पत्तिको वर्णन करनेवाला यह
तीसरा अधिकार समाप्त हुआ।
अथ चौथा अधिकार । इसी भरतक्षेत्रमें एक विदेह देश है जो कि बहुत ही शुभ है और अनेक नगरोंसे सुशोभित है। उसमें एक कुंडपुर नामका नगर है ॥२॥ वह नगर ऊंचे कोटसे घिरा हुआ है, धर्मात्मा लोगोंसे सुशोभित है, मणि सुवर्ण आदि धनसे भरपूर है और दूसरे स्वर्गके समान सुंदर जान पड़ता है ॥२॥ उस नगरमें राजा सिद्धार्थ राज करते थे जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थीको सिद्ध करनेवाले थे और अनेक राजाओंका समुदाय उनके चरणकमलोंकी सेवा करता था ॥३॥ वे महाराज कामदेवके समान सुंदर थे, शत्रुओंको जीतनेवाले थे, दाता थे, भोक्ता थे, नीतिको जाननेवाले थे
अथेह भरते क्षेत्रे विदेहविषये शुभे । भूरिपुरादिसंयुक्ते भाति कुंडपुरं पुरम् ॥ १॥ तुंगप्राकारसंयुक्तं धर्मिष्ठजनसंकुलम् । मणिस्वर्णादिवित्ताब्यं नाकपुरमिवापरम् ॥ २॥ तत्र रराज सिद्धार्थों राना विश्वार्थसिद्धकः । महाभूमिपतिव्रातः सेवितपदपंकजः ॥ ३ ॥ कामरूपी रिपोनॆता दाता भोक्ता नयी वरः । विश्वगुणाकरो योऽभू
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गौतमचरित्र । और सर्वोत्तम थे। जिसप्रकार कुबेर सब धनका स्वामी है उसी प्रकार वे महाराज सिद्धार्थ भी समस्त गुणोंकी खानि थे ॥ ४ ॥ उनकी महारानीका नाम त्रिशलादेवी था। वह त्रिशलादेवी रूपकी खानि थी, सर्वोत्तम थी, चंद्रमाके समान उसका सुन्दर मुख था, हिरणके समान विशाल नेत्र थे, सुंदर हाथ थे और मूंगेके समान उसके लाल अधर थे ॥५॥ केलेके समान जंघा थे, वह मनोहर थी, उसकी नाभि नीची थी, उदर कृश था, स्तन उन्नत और कठोर थे, भोंहें धनुपके समान थीं, केश सुंदर थे और तोतेके समान सुंदर नाक थी ॥ ६॥ अपनी कीर्तिरूपी चन्द्रमाके द्वारा जिन्होंने समस्त दिशाओंको श्वेत कर दिया है ऐसे वे महाराज उस सुंदरी महारानी के साथ सुख भोगते हुए समय व्यतीत कररहे थे।॥७॥ भगवान महावीर स्वामीके जन्म कल्याणकसे पन्द्रह महीने पहले इन्द्रकी आलाले देव लोग महाराज सिद्धार्थके घर प्रतिदिन रनोंकी वर्षा करते थे ॥ ८॥ इन्द्रकी आज्ञासे आठों दिक कन्याएँ वस्त्र, आभरण धारण करती हुई माताकी सेवा करती द्राजरानो यथा धनी ॥४॥ तत्प्रिया त्रिशलादेवी जाता रूपखनिः पराः । चंद्रवका कुगाक्षी सुहस्ता विद्रुमाधरा ॥ ५॥ कदलीचरणा कांता निम्ननाभिः कृशोदरी । पीनस्तनी धनुःसुश्रुः सुकेशी शुकनासिका ॥६॥ तया समं सुखं भुजन् कालं निनाय भूपतिः । सुसुंदर्या स्वकीर्तीदुधवलीकृतदिक्चयः ॥७॥ इन्द्राज्ञया सुराश्चक्रू रत्नवृष्टिं दिने दिने । सपादं वर्षमेकं प्राग्मिनोत्पत्ते पालये ॥६॥ अष्टौ दिकन्यकाः कांता देव्यः सेवां प्रचक्रिरे । वस्त्राभरणधारिण्यो मघवलब्धशासनाः
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चौथा अधिकार।
[ १०१ थीं तथा और भी मनोहर देवियां माताकी सेवा करती थीं ॥९॥ किसी एक दिन वह महारानी त्रिशलादेवी राजभवनमें कोमल शय्यापर सुखसे सो रही थी उस दिन उसने पुत्रोत्पत्तिको मूचित करनेवाले नीचे लिखे सोलह स्वप्न देखे ॥ १० ॥ १ ऐरावत हाथी, २ सफेद वैल, ३ गरजता हुआ सिंह, ४ शुभ लक्ष्मी, ५ फिरते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित दो मालाएँ, ६ पूर्ण चंद्रमा, ७ उदय होता हुआ सूर्य, ८ सरोवरमें क्रीडा करती हुई दो मछलियां, ९ सुवर्णके दो कलश, १० निर्मल सरोवर, ११ लहर लेता हुआ समुद्र, १२ मनोहर सिंहासन, १३ आकाशमें देवोंका विमान, १४ सुंदर नागभवन, १५ दैदीप्यमान रत्नोंकी राशि, १९ धूम रहित अग्नि । ये सोलह स्वप्न देखे ॥ ११-१३ ॥ प्रभात होते ही वह महादेवी बजते हुए वाजोंके साथ उठी और पूर्ण शंगार कर महाराजके सिंहासनपर जा बिराजमान हुई ॥ १४ ॥ वहां जाकर उसने प्रसन्नचित्त होकर महाराजसे वे सब स्वप्न कहे ॥९॥ सा रात्रिपश्चिमे यामे सौधे कोमलतल्पके । सुखेन शयिता स्वप्नानिमान् ददर्श पुत्रदान् ॥१०॥ ऐद्रं गजं वृषं गर्नत्सिहं शुभां रमाम् । दामयुग्मं भ्रमद्धंगं पूर्णेदुं बालभास्करम् ॥ ११ ॥ मत्स्ययुग्मं सरःकोडं स्वर्णकुंभौ सरोऽमलम् । वार्द्धि तरंगसंयुक्त सिंहासनं मनोहरम् ॥१२॥ सुरविमानमाकाशे नागालयं सुशोभनम् । रत्नपुंज स्फुरत्कांतिं दहनं धूम्रवर्जितम् ॥१३॥ ततो दिनमुखे बुध्वा तूर्यनादेन साद्भुता । विश्वशृंगारमाधाय भर्तृसिंहासने स्थिता ॥१४॥ तान् स्वमान् स्वामिने देवी जगाद हृष्टमानसा । स तत्फलानि तस्यै च
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गौतमचरित्र 1
और उनके उत्तर में महाराज सिद्धार्थ अनुक्रमसे उनके फल कहने लगे || १५ || वे कहने लगे कि हाथी के देखने से होनहार पुत्र तीनों लोकोंका स्वामी होगा, बैलके देखने से धर्मका प्रचार करनेवाला होगा, सिंहके देखनेसे सिंहके समान पराक्रमी होगा ॥ १६ ॥ लक्ष्मीके देखनेसे देवोंके द्वारा मेरुपर्वत पर उसका अभिषेक होगा, मालाओंके देखने से वह असंत यशस्वी होगा, चंद्रमा के देखनेसे मोहनीय कर्मका नाश करनेवाला होगा, सूर्यके देखनेसे भव्यजीवोंको धर्मोपदेश देनेवाला होगा || १७|| दो मछलियों के देखनेसे अत्यंत सुखी होगा, दोनों कलशोंके देखनेसे शरीर के सब लक्षणोंसे सुशोभित होगा, सरोवरके देखनेसे लोगों की तृष्णाको दूर करनेवाला होगा, समुद्रके देखने से केवलज्ञानी होगा, सिंहासन देखनेसे मोक्षपद प्राप्त करनेवाला होगा, देवोंका विमान देखनेसे वह स्वर्गसे आकर अवतार लेगा, नागभवन देखने से वह अनेक तीर्थोंका करनेवाला होगा, रत्नराशि देखने से वह उत्तम गुणोंको धारण करनेवाला क्रमादुवाच सन्मतिः ॥ १५ ॥ त्रिभुवनपतिः पुत्रो दृष्टेभेन भविष्यति । वृषेण वृषकर्ता वै सिंहेन सिंहविक्रमः ॥ १६ ॥ लक्ष्म्या मेरौ सुरैः स्नातः सुदामभ्यां यशोधरः । चंद्रेण मोहसंभेदी सूर्येण भव्यबोधकः ॥ १७ ॥ मत्स्ययुग्मेन सत्सौख्यं घटद्वयेन चाप्स्यति । लक्षणांग सरो लोकाज्जनतृष्णां हनिष्यति ॥ १८॥ वार्द्धिनेष्यति त्रोधं हि विष्टरेण परं पदम् | देवधाम्ना सुरागारादवतरिष्यति ध्रुवम् ॥१९॥ फणींद्रमंदिरेणैव भूरितीर्थं करिष्यति । सुगुणान् रत्नपुंजेन कर्मक्षयं च
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चौथा अधिकार।
[१०३ होगा और अग्निके देखनेसे कर्मोका नाश करनेवाला होगा ॥ १८-२० ॥ अपने पतिके मुखसे उन स्वमोंका इसप्रकार फल सुनकर वह महारानी बहुत ही प्रसन्न हुई और भगवान जिनेंद्रदेवके अवतारकी सूचना पाकर वह अपने जन्मको सफल मानने लगी ॥२१॥ उसी स्वप्नके देखनेके दिन अर्थात् आषाढ शुक्ला षष्ठीके दिन प्राणत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानसे चलकर इंद्रके जीवने त्रिशलाके मुखमें प्रवेश किया ॥२२॥ उसीसमय इंद्रादि देवोंके सिंहासन कंपायमान हुए और अवधिज्ञानसे जानकर वे सब देव आए तथा वस्त्राभरणोंसे माताकी पूजाकर अपने अपने स्थानको चले गये ॥२३॥ चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन जब कि ग्रह सब उच्च स्थानमें थे और लग्न शुभ था उससमय महारानी त्रिशलादेवीने भगवान महावीरस्वामीको जन्म दिया ॥२४॥ उस समय सब दिशाएं निर्मल होगई, सुगधित वायु वहने लगी, आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी और दुंदुभी बाजे बजने लगे ॥२५॥ भगवान महावीरस्वामीके जन्म लेते ही उनके वह्निना ॥ २० ॥ स्वप्नावलीफलं श्रुत्वा प्रियास्यात्सा च पिप्रिये । स्वजन्म सफलं मेने निनावतारसूचनात् ॥२१॥ पुष्पोत्तरात्समुत्तीर्य सुरेशस्त्रिशलामुखम् । स्वप्ने निशि शुचौ शुक्लपक्षे षष्ठयां विवेश च ॥२२॥ तस्मिन् क्षणे सुरेंद्राद्याः स्वसिंहासनकंपनातू । ज्ञात्वैत्य भूषणायैस्तां संपूज्य स्वगृहं ययौ ॥२३॥ चैत्रे सितत्रयोदश्यां राज्ञी जिनमसूत सा । स्वोच्चग”हे दृष्टे शुभलग्ने गते सति ॥ २४ ॥ सर्वाः प्रसेदुराशाश्च ववुः सुगंधिमारुताः । पपात पुष्पवृष्टि नेदुर्दु
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गौतमचरित्र। तीर्थकर नामके महापुण्यके उदयसे सब इंद्रोंके सिंहासन एक साथ कंपायमान होगये ॥२६॥ अवधिज्ञानके द्वारा उन सबने भगवान महावीरस्वामीका जन्म जान लिया और उसीसमय सबइंद्र, और चारों प्रकारके देव अपने अपने गाजोंबाजोंके साथ कुंडपुरमें आये ॥२७॥ राजमहलमें आकर इंद्रादिक सब देवोंने माताके सामने विराजमान भगवानको देखा और भक्तिपूर्वक उनको नमस्कार किया ॥२८॥ इंद्राणीने माताके सामने तो मायामयी बालक रख दिया और उस बालकको गोदीमें लेकर अभिषेक करनेके लिये सौधर्म इंद्रको सोंप दिया ॥२९॥ सौधर्म इंद्रने भी बालक भगवानको एरावत हाथीके कंधेपर विराजमान किया और आकाशमानके द्वारा अनेक चैयालयोंसे मुशोभित मेरुपर्वतपर गमन किया ॥३०॥ उससमय देव सब वाजे बजाने लगे, किन्नर जातिके देव गीत गाने लगे और देवांगनाओंने भंगार, दर्पण, ताल (पंखा) आदि मंगल द्रव्य धारण किये ॥ ३१ ॥ मेरु पर्वतपर पांडुक दुभयस्तदा ॥२९॥ तस्मिन् जिनपतौ जाते समं सिंहासनानि वै । कपं ययुः सुरेंद्राणां तीर्थंकरसुपुण्यतः ॥२६॥ कुंडपुरं ययुः शक्राश्चतुर्विधाः सुरास्तथा। स्वस्ववादित्रनादेन ज्ञात्वा चावधिलोचनैः॥२७॥ राजकुलं समासाद्य मातुः पुरः स्थितं जिनम् । तदा ददृशुरिंद्राद्याः भक्त्या प्रणतमौलयः ॥२८॥ शची मायाकं मातुः पुरो निधाय वेगतः । बालं हृत्वाभिषेकाय सौधर्मेद्राय संददे ॥ २९ ॥ तदा चैरावतस्कंधे शको निधाय तं जिनम् । निन्ये नभोध्वना मेरुं चैत्यालयैः प्रशोभितम् ॥३०॥ सुरास्तूर्यव्रनं नेदुर्नगुर्गीतानि किन्नराः । भुंगाराद
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चौथा अधिकार |
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वनमें पहुंचकर पांडुक शिलाके समीप पहुंचे । वह शिला सौ योजन लंबी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन ऊंची थी । उसपर एक मनोहर सिंहासन था, उसपर देवोंने बालक भगवानको विराजमान किया और फिर वे भक्तिसे नम्रीभूत होकर भगवानका अभिषेक करनेका उत्सव करने लगे ॥३२३३ || मणि और सुवर्णके बने हुए एक हजार आठ कलशोंसे क्षीरोदधि समुद्रका जल लाकर इंद्रादिक देवोंने भगवानका अभिषेक किया ||३४|| इस अभिषेक में मेरु पर्वत कंपायमान होगया परंतु बालक भगवान निश्चल ही बने रहे । उसी समय इन्द्रादिक देवोंको भगवान तीर्थकर परमदेवका स्वाभाविक बल मालूम हुवा ॥ ३५ ॥ तदनंतर इंद्रादिक देवोंने जन्म मरण आदिके दुःख दूर करनेके लिये जल, चंदन आदि आठों शुभ द्रव्योंसे स्वर्ग मोक्षको देनेवाली भगवानकी पूजा की ||३६|| भगवान जिनेंद्रदेवकी पूजा सूर्यकी प्रभाके समान है। जिसप्रकार सूर्यकी प्रभा प्रकाश शेतालादीन दधिरे सुरयोषितः ॥ ३१ ॥ पांडुकबनमासाद्य पाडुकं बलसच्छिलाम् | योजनाष्टोच्छ्रयां पंचाशद्विस्तृतां शतायतिम् ॥३२॥ तस्यां सिंहासने देवास्तं विनिवेश्य बालकम् । उत्सवमभिषेकस्य भक्तिनम्राः प्रचक्रिरे ||३३|| क्षीरोदधेः समानीतैरष्टाधिकसहस्रकैः । मणिकुंभैः सुरेंद्राद्या अभिचित्सुरा जिनम् ॥ ३४ ॥ कंपिते शैलराजेऽस्मिन् घ्राणजलशिशुक्षुता । इंद्रादयस्तदापेतुर्जिनानां सहजं बलम् ॥३५॥ जन्मदाहविनाशाय स्वर्गापवर्गदायिनीं । जलादिभि: शुभद्रव्यैस्तदच चक्रिरे सुराः ॥ ३६ ॥ धर्मोद्योतविकाशंती दुष्कृतध्वांत
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गौतमचरित्र। करती है, अंधेरेका नाश करती है और कमलोंको प्रफुल्लित करती है उसीप्रकार भगवानकी पूजा धर्मरूपी प्रकाशको फैलाती है, पापरूपी अंधेरेका नाश करती है और भव्य जीवोंके मनरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करती है ॥३७॥ इंद्रादिक देवोंने उस बालकका नाम वीर रक्खा । उससमय अनेक अप्सराएं और अनेक देवोंके साथ प्रसन्नता पूर्वक सब इंद्र नृत्य कर रहे थे।॥३८॥ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानोंसे सुशोभित होनेवाले भगवानको बालकोंके योग्य वस्त्राभरणोंसे सुशोभित किया और फिर अपनी इष्ट सिद्धिके लिये उन सब इंद्रादिक देवोंने भगवानकी स्तुति की ॥३९॥ जिस प्रकार सूर्यकी प्रभाके विना कमल प्रफुल्लित नहीं होता उसीप्रकार हे वीर ! यदि आपके बचन न हों तो इस संसारमें प्राणियोंको तत्त्वोंका ज्ञान कभी न हो ॥४०॥ इस प्रकार स्तुतिकर इंद्रादिक देवोंने भगवानको फिर ऐरावत हाथीके कंधेपर विराजमान किया और आकाशमार्गसे शीघ्र ही आकर, हाथीसे उतर कर वे सब नाशिनी । जिना र्कप्रभा भव्यमनोंबुनं व्यकाशयत् ॥३७॥ वीरेति नाम देवेंद्राः कृत्वा तस्याग्रतः समम् । अप्सरोभिः समुचिता ननृ. तुर्निरैः सह ॥ ३८ ॥ सुरा बाल्योचितैर्वस्त्रैराभरणैविभूष्य तम् । तुष्टवुरिष्टसंसिध्यै ज्ञानत्रयविभूषितम् ॥ ३९ ॥ वीर ! यदि वचस्ते न तत्त्वबोधः कुतो भवेत् । प्राणिनां कमलाकोशं सूर्यतेजो विना कथम् ॥ ४० ॥ इति स्तुत्वा गजस्कंधे निवेश्य तं जिन सुराः । तरसाभ्रात्समुत्तीर्य कुंडपुरं समाययुः ॥४१॥ नीत्वा मेरौ भवत्पुत्रं
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चौथा अधिकार।
[१०७. कुंडपुर नगरमें आए ॥ ४१ ॥ "आपके पुत्रको मेरुपर्वतपर अभिषेक कराकर लाए हैं" इसप्रकार कहकर उन इंद्रोंने माता पिताको वे बालक भगवान समर्पण कर दिये ॥२॥ इन्द्रादिक देवोंने दिव्य आभरण और वस्त्रोंसे माता पिताकी पूजा की, उनका नाम और बल निरूपण किया और फिर नृत्यकर वे सब देव अपने अपने स्थानको चले गये ॥४३॥ इसके बाद दिव्य आभरणोंसे विभूषित हुए अत्यन्त सुन्दर बे बालक भगवान महावीरस्वामी इन्द्रकी आज्ञासे आये हुए
और भगवानके समान ही बालक अवस्थाको धारण करने. वाले देवोंके साथ क्रीड़ा करने लगे ॥४४॥ तदनन्तर बालक अवस्थाको उल्लंघन कर वे भगवान यौवन अवस्थाको प्राप्त हुए । उनके शरीरकी कांति सुवर्णके समान थी और शरीरकी उंचाई सात हाथ थी ॥४५॥ उनका शरीर निःखेदता (पसीनेका न आना) आदि जन्मकालसे ही उत्पन्न हुए दश अतिशयोंसे सुशोभित था। ऐसे उन भगवानने कुमारकालके तीस वर्ष व्यतीत किये ॥४६॥ तीस वर्ष बीत जानेपर विना संस्नाप्य पितराविति । आनीतोऽयं सुरेंद्राश्च प्रोक्त्वा ताभ्यां ददुः शिशुम् ॥४२॥ दिव्याभरणवस्त्राद्यैर्दपती पूज्य तहलम् । नाम चावेद्य संनृत्य स्वनिलयं ययुः सुराः ॥ ४३ ॥ ततो निजवयस्तुल्यैर्वीरो रेमे सुरैः समम् । शक्राप्तशासनैः कांतो दिव्याभरणभूषितः ॥ ४४ ॥ अथासौ शैशवं लंध्य प्रपेदे यौवनाश्रियम् । सप्तहस्तप्रमो देहो यस्याभूत्स्वर्णसद्युतिः ॥४५॥ कुमारे वत्सरान् त्रिंशहीरो निनाय संवधत्। दशभिः सहनैर्गानं निःस्वेताद्यैर्गुणैर्युतम् ॥४६॥ अथैकदा विरक्तो
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गौतमचरित्र। किसी कारणके संसारको अनिस समझकर वे बुद्धिमान् भगवान् कर्मोको शांत करनेके लिये विषयोंसे विरक्त हुए ॥ ४७ ॥ जिनका हृदय मोक्षमें लग रहा है ऐसे वे भगवान् अपने निर्मल अवधिज्ञानसे अपने पहले भवोंको जानकर अपने आप प्रतिबोधको प्राप्त हुए अर्थात उन्हें आत्मज्ञान अपने आप हुआ ॥ ४८ ॥ उसी समय लौकांतिक देव आए, उन्होंने आकर भगवानको नमस्कार किया और कहा कि "हे प्रभो! तपश्चरणके द्वारा कर्मोको नाशकर आप शीघ्र ही केवलज्ञानको प्राप्त कीजिये " इसप्रकार निवेदन कर वे लौकांतिक देव अपने स्थानको चले गये ॥ ४९ ॥ भगवानने सब भाई बन्धुओंसे पूछा फिर वे मनोहर पालकीमें सवार हुए। उस पालकीको उठाकर आकाशमार्गके द्वारा इन्द्र ले चले । इस प्रकार वे भगवान नागखण्ड नामके बनमें पहुंचे। वहांपर इन्द्रोंने उन्हें पालकीसे उतारा और एक स्फटिक शिलापर वे भगवान उत्तर दिशाकी ओर मुंह करके विराजमान होगये ॥ ५०-५१ ॥ महाबुद्धिमान उन भगवानने मार्गशीर्ष कृष्णा भूद्विषयेभ्यो जिनः सुधीः। प्रशमाय बहिहेतुं ज्ञातनश्वरसंसृतिः ॥ ४७ ॥ विमलावधिना ज्ञात्वा नाथः पूर्वभवान्निजान् । प्रतिबोधः स्वयं चाभूनिर्वाणदत्तचित्तकः ॥ ४८ ॥ लौकांतिकाः समागत्य नम्येत्युक्त्वा बचो जिन । तपसा कर्म निर्मूल्य केवलं नय संययुः ॥४९॥ बंधुवर्ग समाप्टच्छ्य शिविकामभिरुह्य च । नमसीधृतां कांतां स भगवान् बनं ययौ ॥५०॥ संप्राप्य नागखंडं स निषीदत्स्फटिकोपले। कृत्वोत्तरमुख यानात्सुरेंद्रैरवतारितः ॥ ११ ॥ मार्गशीर्षासिते पक्षे
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चौथा अधिकार।
[ १०६. दशमीके दिन सायंकालके समय जिन दीक्षा धारण की और सबसे प्रथम षष्ठोपवास (तेला) करनेका नियम धारण किया ॥५२॥ उस समय भगवानने जो पंचमुष्टि लोंच किया था उन वालोंको इन्द्रने मणियोंके पात्रमें रक्खा और उसे ले जाकर क्षीरसागरमें पधराया ॥५३॥ जो तपश्चरणरूपी लक्ष्मीसे शोभायमान हैं और चारों ज्ञानोंसे विभूषित हैं ऐसे उन भगवानको इन्द्रादिक सब देव नमस्कार कर अपने अपने स्थानको चले गये ॥५४॥ पारणाके दिन वे बुद्धिमान भगवान दोपहरके समय कुल्य नामके नगरमें कुल्य नामके राजाके घर गये ॥ ५५ ॥ राजाने नवधा भक्ति पूर्वक भगवानको आहार दिया। वे भगवान आहार लेकर और अक्षयदान देकर उस घरसे निकल कर बनको चले गये ॥५६॥ उसी समय उस दानके फलसे ही क्या मानों देवोंने राजाके घर पंच आश्चर्योकी वर्षाकी । (रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, जय जय शब्द, दुंदुभियोंका बजना और दानकी प्रशंला) सो ठीक ही है-पात्रों को दान देनेसे धर्मात्मा लोगोंको लक्ष्मीकी प्राप्ति दशम्यामपराह्नके । स प्रपेदे तपो जैनं कृतषष्ठो महामतिः ॥१२॥ शको जिनस्य केशौघान्निधाय मणिभानने । पंचभिर्मुष्टभिलुप्तान दधौ क्षीरपयोदधौ ॥५३॥ अमरा अभिबंद्य तं प्रतिजग्मुर्निजालयम् । तपःश्रिया समायुक्तं चतुर्ज्ञानविराजितम् ॥५४॥ अन्येद्युः पारणायै हि मध्याह्ने कुल्यपत्तने । कुल्यनाम नृपागारं विवेश भगवान् सुधीः ॥५५॥ त्याद्य नवधा पुण्यं भूपतिस्तमभोनयत् । निनो भुक्त्वाक्षये दानं दत्वागात्तद्गृहाहनम् ॥५६॥तदा दानफलेनैव सुरेभ्योद्भुतपंचकम् ।
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गौतमचरित्र। होती ही है ॥५७॥ वे भमवान किसी एक दिन रात्रिके समय अतिमुक्त नामके श्मशानमें प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे उससमय भव नामके रुद्रने (महादेवने) उनपर बहुतसे उपसर्ग किये परन्तु वह उन्हें जीत न सका ॥५८॥ तब उसने आकर भगवानको नमस्कार किया तथा उनका 'महावीर' नाम रक्खा और फिर अपने घरको चला गया । इसप्रकार तपश्चरण करते हुए भगवानको जव वारह वर्ष बीतगये तव किसी एक दिन ऋजुकूल नामकी नदीके किनारे ज़ुभक नामके गांवमें वे भगवान षष्ठोपवास (तेला) धारण कर शामके समय एक शालवृक्षके नीचे किसी शिलापर विराजमान हुए । उस दिन वैशाख शुक्ला दशमीका दिन था। उसी दिन ध्यानरूपी अग्निसे घालिया कर्मोको नष्टकर उन भगवानने केवलज्ञान प्राप्त किया ॥ ५९-६१ ॥ केवलज्ञान होते ही शरीरकी छायाका न पडना आदि दश अतिशय प्रगट हो गये और चारों प्रकारके इंद्रादिक देवोंने आकर लोक अलोक सबको प्रकाशित करनेवाले उन भगनृपोऽवाप श्रियां हेतुः पात्रदानं हि धर्मिणाम् ॥ १७ ॥ निश्यतिमुक्तकाभिख्ये श्मशाने प्रतिमास्थितम् । तं नाशकद्भवो जेतुं वितन्वनुपसर्गकम् ॥ ५८ ॥ प्रणम्य तं महावीरं नाम कृत्वा निजालयम् । रुद्रो गतः सुदीक्षायां पूर्णद्वादशवत्सरम् ॥,५९ ॥ ऋजुकूलनदीकूले मुंभृकग्राममाप्य सः । शालमूलोपले तिष्ठत्सायं षष्ठोपवासकः ॥६०॥ -राधमास सिते पक्षे दशम्यां ध्यानवह्निना । घातिकर्माणि संदह्य केवलज्ञानमाप सः ॥६१॥अच्छायाधैर्गुणैर्युक्तं दशभिस्तं चतुर्विधाः।
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चौथा अधिकार। [ १११ नको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥ ६२ ॥ उसीसमय इंद्रकी आज्ञासे कुबेरने चारकोश लंबा चौड़ा बहुत सुंदर समवसरण बनाया॥६॥वह समवसरण मानस्तंभ,ध्वजादंड, घंटा, तोरण, जलसे भरी हुई खाई, जलसे भरे हुए सरोवर और पुष्पवाटिकाओंका सुशोभित था, ऊंचे धूलिपाकारसे घिरा हुआ था, नृत्यशालाओंले विभूषितथा, उपवनोंसे मुशोभित था, वेदिका, अंतप्रजा,सुवर्णशाला आदिसे विभूषितथा,सबप्रकारके कल्पक्षोंसे मुशोभित था, और बहुत ही प्रसन्न करनेवाला था॥६४-६६॥ उसमें अनेक मकानोंकी पंक्तियां थीं। वे मकान दैदीप्पमान सुवर्ण और प्रकाशमान मणियोंके बने हुए थे । अनेक स्फटिक माणियों की शालाएं थीं जो गीत और बाजोंसे सुशोभित थीं ॥ ७॥ उस समवसरणके चारों ओर चारों दिशाओंमें चार बड़े दरवाजे थे जिनकी अनेक देवगण सेवा कर रहे थे तथा सुवर्ग और रत्नों बने हुए ऊंचे भवनोंसे वे दरवाजे शोभायमान थे ॥ ६८ ! उसमें बारह सभाएं थीं भक्त्या नेमुः सुरेंद्राद्या लोकालोकप्रकाशकम् ॥६२॥ अथ शक्राज्ञया यक्षः समवशरणं मुदा । जिनल्य सुंदरं चक्रे चतुःक्रोशप्रविस्तृतम् ॥६३॥ मानस्तंभध्वजादंडघंटातोमरामितम् । सजलखातिकावारिभृतकासारसंयुतम् ॥६४ ॥ कुसुमवाटिकातुंगरेणुप्राकारवेष्टितम् । नृत्यशालसमाकीर्णमुपबनादिराजितम् ॥ ६५ ॥ वेदिकांतध्वजाद्याढ्यं सुवर्णशालभंडितम् । विश्वकल्पद्रुमारण्यशोभित हर्षदायकम् ॥६६॥ तप्तहेमस्फुरत्कातिरत्नहावलीयुतम् । स्फाटिकमणिशालाढयं गीतवाद्यप्रणादितम् ॥६७॥ चतुः सद्गोपुरैाप्तममरगणसेवितैः । पंचमुवर्ण
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११२]
गौतमचरित्र। जिनमें मुनि, अजिंका, कल्पवासी देव, ज्योतिषी देव, व्यंतर देव, भवनवासी देव, कल्पवासी देवांगनाएं, ज्योतिषी देवोंकी देवांगनाएं, व्यंतर देवोंकी देवांगनाएं, भवनवासी देवोंकी देवांगनाएं, मनुष्य और पशु बैठे हुए थे ॥६९॥ अशोकक्ष, दाभयोंका बजना, छत्र, भामंडल, सिंहासन, चमर, पुष्पदृष्टि और दिव्यध्वनि इन आठों प्रातिहार्योसे वे भगवान सुशोभित थे ॥७०॥ उस समय वे श्रीवीरनाथ भगवान अठारह दोषोंसे रहित थे, चौतीस अतिशयोंसे सुशोभित थे, और ऊपर लिखी सब विभूतिके साथ विराजमान थे॥७१॥ इसप्रकार भगवान वीरनाथको सिंहासनपर विराजे हुए तीन घंटे बीत गये तथापि उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी ॥७२॥ यह देखकर सौधर्म इंद्रने अपने अवधिज्ञानसे विचार किया कि यदि गौतम आजाय तो भगवानकी दिव्यध्वनि खिरने लग जाय ॥७३॥ गौतमको लानेके लिये इंद्रने बूढे का रूप बनाया जोकि पद पदपर कंप रहा था और फिर वह ब्राह्मण नगरमें जाकर गौतमशालामें पहुंचा ॥७४॥ उससमय लकड़ी रत्नानां तुंगप्रासादमंडितैः ॥६८॥ मुनिस्तथायिकाकल्पज्योतिर्यंतरभावनाः । सुरास्तदंगना भूपाः पशवो द्वादशी सभा ॥६९॥ अशोको दुंदुभिश्च्छत्रं प्रभामंडलमासनम् । पुष्पवृष्टि निर्दिव्यः प्रातिहार्याणि चामरम् ॥७०॥ एतद्विभूतिसंयुक्तो वीरनाथोऽभवज्जिनः । निःशेषदोषनिर्मुक्तश्चतुस्त्रिंशातिशयिकः ॥ ७१ ॥ याममात्रे व्यतिक्रांते सिंहासनप्रसंस्थिते। अथ श्रीवीरनाथस्य नोऽभवदध्वनिनिर्गमः ॥७२॥ चिंचितं प्रथमेंद्रेण स्वावाधलोचनैरिति । चेगौतमागमः स्याद्धि तदास्य
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चौथा अधिकार। [११३ उसके हाथमें थी, मुहमें एक भी दांत नहीं था और बोलते समय पूरे अक्षर भी नहीं निकलते थे। इसप्रकार जाकर उसने कहा कि 'हे ब्राह्मणो! इस पाठशालामें समस्त शास्त्रोंको जाननेवाला और सब प्रश्नोंके उत्तर देनेवाला कौनसा मनुष्य है ॥ ७५-७६ ॥ इस संसारमें ऐसा मनुष्य बहुत ही दुर्लभ है जो मेरे काव्यको विचारकर और उसका यथार्थ अर्थ समझाकर मेरी आत्माको संतुष्ट करे ॥ ७७॥ इस श्लोकका अर्थ समझनेसे मेरे जीवनका उपाय निकल आवेगा । आप धर्मात्मा हैं इसलिये आपको इस श्लोकका अर्थ बतला देना चाहिये ॥७८॥ केवल अपना पेट भरनेवाले मनुष्य संसारमें बहुत हैं परन्तु परोपकार करनेवाले मनुष्य इस पृथ्वीपर बहुत ही थोड़े हैं ॥ ७ ॥ मेरे गुरु इससमय धर्म-कार्यमें लगे हैं, वे इस समय ध्यान कर रहे हैं, मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध कर ध्वनिनिर्गमः ॥ ७३ ॥ वाईकं वपुरादाय कंपमानः पदे पदे । तदा गौतमशालायां स गतो ब्रह्मपत्तने ॥७४॥ तत्क्षणे तेन संप्रोक्तं बचो लुप्ताक्षरैर्युतम् । यष्टिसंधृतहस्तेन दंतहीनमुखेन च ॥ ७५ ॥ अहो बाडव सत्कांत निःशेषशास्त्रकोविदः । नरः कोस्त्यत्र शालायां सत्प्रत्युत्तरदायकः॥७६॥ काव्यं विचार्य मे योऽपि कथयित्वा यथार्थकम् । सुखी करोति मे जीवं लोके स दुर्लभो जनः ॥७७॥ ममापि जीवनोपायः श्लोकार्थेन भविष्यति । अतो धर्मिष्ठमान कथनीयं च तत्त्वया ॥७८॥ संति वै बहवो माः स्वकीयोदरपूरकाः । परोपकतिनो ये हि विरलास्ते धरातले ॥७९॥ गुरुयों मे वृषग्राही ध्यानी सर्वार्थसाधकः । स च मां प्रति नो वक्ति स्वपरकार्यतत्परः ॥८॥
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- ११४] गौतमचरित्र। रहे हैं और इसप्रकार अपना और दूसरोंका उपकार करने में लग रहे हैं इसलिये वे इस समय मुझे कुछ बतला नहीं रहे हैं । ८० ॥ इसी कारण इस काव्यका अर्थ समझनेके लिये मैं आपके पास आया हूं इसलिये आप मेरा उपकार करनेके लिये इस काव्यका यथार्थ अर्थ कहिये ॥ ८१ ॥ इस प्रकार उस बूढेकी बात सुनकर पांचसौ शिष्य और दोनों भाइयोंके द्वारा प्रेरणा किया हुआ गौतम शुभ बचन कहने लगा ।। ८२ ॥ 'कि हे वृद्ध ! क्या तू नहीं जानता है कि इस पृथ्वीपर समस्त शास्त्रोंके अर्थ करनेमें पारङ्गत और अनेक शिष्योंका प्रतिपालन करनेवाला मैं प्रसिद्ध हूँ। मैं तुम्हारे काव्यके अर्थको अवश्य बतलाऊंगा परन्तु तुम अपने काव्यका बड़ा अभिमान करते हो बताओ तो सही कि यदि मैं उस काव्यका अर्थ बतला दूंगा तो तुम मुझे क्या दोगे?॥८३-८४॥ इसके उत्तरमें उस बूढ़े इन्द्रने कहा कि हे ब्राह्मण ! यदि आप मेरे काव्यका अर्थ बतला देंगे तो मैं सब लोगोंके सामने आपका शिष्य हो जाऊंगा ।। ८५ ॥ यदि उस काव्यका अर्थ तेनाहं च समायातः सत्काव्याथ तवांतिके । अतस्त्वं हि याथार्थ्य मदुपकारहेतवे ॥ ८१ ॥ वृद्धवाचं समाकर्ण्य गौतमो बचनं नगौ । पंचशतकशिष्येण भ्रातृभ्यां प्रेरितः शुभम्॥८२॥रे वृद्ध ! त्वं न जानासि विश्रुतोऽस्मिन् महीतले । विश्वशास्त्रार्थपारीणः शिष्याणां प्रतिपालकः ॥८३॥ अहो चेतव काव्याथ तुभ्यं ब्रवीमि निश्चितम् । अहंकारिन् तदा मद्यं किमु वस्तु ददासि हि ॥ ८४ ॥ तेनोक्तं यदि भो विष ! काव्या कथयस्यहो । पुरतो विश्वलोकानां तब शिप्यो भवाम्यहम्
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चौथा अधिकार। [११५ आपसे न बना तो आप बहुतसा अभिमान करनेवाले इन सब विद्यार्थियोंके साथ और अपने दोनों भाइयोंके साथ मेरे -गुरुके शिष्य हो जाना ॥८६॥ बूढेकी बात सुनकर गौतमने कहा कि हां ! यह बात ठीक है, अब इस बातको बदलना मत । सत्य बातको सूचित करनेवाले ये सब लोग इस बातके साक्षी (गवाही) हैं ॥ ८७ ॥ इसप्रकार वह बूढा इन्द्र और गौतम दोनों ही एक दूसरेकी प्रतिज्ञामें बंध गये । सो ठीक ही है-अपने अपने कार्यका अभिमान करनेवाले ऐसे कौनसे मनुष्य हैं जो अकृत्य ( न करनेयोग्य कार्य) को भी न कर डालते हों। भावार्थ-ऐसे मनुष्य न करनेयोग्य कार्योको भी कर डालते हैं ।। ८८ ॥ तदनन्तर उस सौधर्म इन्द्रने गौतमका मान भंग करनेके लिये आगमके अर्थको मूचित करनेचाला और बहुत बड़े अर्थसे भरा हुआ काव्य पढ़ा ।। ८१ । वह काव्य यह था “धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षडद्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः। तत्त्वानि संयमगती सहिता ॥४५॥ नोचेचतो मदीयस्य गुरोः शिष्यो भविष्यसि । सभ्रातृभ्यामिमैः छात्रैः साई गर्वभरावहैः ॥८६॥ गौतमेन बचः प्रोक्तं सत्यमेतन्नचान्यथा । साक्षिणो विश्वलोका हि संति सत्यार्थसूचकाः ॥८॥ प्रतिज्ञातत्परौ तौ द्वावभूतां वृद्धगौतमौ । कार्याभिमानिनौ मावकृत्यं कुरुतो न किम् ॥८६॥ अथ शक्रेण सत्काव्यं पठितं भूरिविस्तृतम् । गौतममानभंगार्थमागमस्यार्थसूचकम् ॥८९॥ धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः। तत्त्वानि संयमगती सहिता पदार्थ, रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायम् ॥९० ॥ इति
प्रतिज्ञातत्परीण विश्वलोका
हिवः प्रोक्तं सत्यो
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११६ ]
गौतमचरित्र ।
पदार्थैरंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायम् । " कौन कौन हैं, तीन प्रकारका काल कौन सब कितने हैं ? छह द्रव्य कौन कौन हैं, उनमें काय सहित कौन कौन द्रव्य हैं, काल किसको कहते हैं, लेश्या कितनी और कौन कौन हैं ? तत्त्व कितने और कौन कौन हैं ? संयम कितने और कौन कौन हैं, गति कितनी और कौन कौन हैं ? पदार्थ कितने और कौन कौन हैं ? श्रुतज्ञानके अङ्ग कितने और कौन कौन हैं ? अनुयोग कितने और कौन कौन हैं और अस्तिकाय कितने और कौन कौन हैं ? इन सबको आप बतलाइये ॥ ९० ॥ इसप्रकार इन्द्रके द्वारा पढ़ा हुआ काव्य बुनकर गौतम कुछ खेदखिन्न हुआ और मनमें विचार करने लगा कि मैं इस काव्यका क्या अर्थ बतलाऊँ ? ॥ ९ १ ॥ अथवा इस बूढ़े ब्राह्मणके साथ बातचीत करनेसे कोई लाभ नहीं इसके गुरु के साथ वादविवाद करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर वह इन्द्रसे कहने लगा सो ठीक ही है क्योंकि अपने अभिमानको भला कौन छोड़ देता है ||१२|| गौतमने इन्द्रसे कहा कि चलरे ब्राह्मण, तू अपने गुरुके पास चल, ariपर तेरे कहनेका निश्चय किया जायगा। इसप्रकार कहकर वे दोनों ही विद्वान सब लोगोंको साथ लेकर चल दिये शक्रवचः श्रुत्वा विखिन्नो भूय गौतमः । चित्त विचारयामास का - व्यार्थं कथयामि किम् ॥९१॥ द्विजस्य गुरुणा सार्द्धं वादं करोम्यनेन किम् । इति चिंत्य जगौ शक्रं गर्व कोऽपि हि मुंचति ॥ ९२ ॥ मच्छ वो गुरुसान्निध्यं तव कृत्वेति निश्चयम् । जग्मतुस्तौ सुविधेशौ
धर्मके दो भेद कौनसा है, कर्म
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चौथा अधिकार |
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॥ ९३ ॥ गौतमने मार्गमें विचार किया कि जब मुझसे इस ब्राह्मणका ही उत्तर नहीं दिया गया है तो फिर इसका गुरु तो बड़ा भारी विद्वान होगा उसका उत्तर किसप्रकार दिया जायगा । ( जब यही वशमें नहीं होसका है तो फिर इसका गुरु किसप्रकार वश किया जायगा ) ॥ ९४ ॥ इसप्रकार वह सौधर्म इंद्र गौतम ब्राह्मणको समवसरण में लेजाकर बहुत ही प्रसन्न हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अपने कार्यकी सिद्धि होजानेपर कौनसा मनुष्य संतुष्ट नहीं होता है अर्थात सभी संतुष्ट होते हैं ।। ९५ ।। जिसने अपनी शोभासे तीनों लोकों में आश्चर्य उत्पन्न कर रक्खा है ऐसे मानस्तंभको देखकर गौतमने अपना सब अभिमान छोड़ दिया ।। ९६ ।। वह मनमें विचार करने लगा कि जिस गुरुकी पृथ्वीभरमें आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली इतनी विभूति है वह क्या किसीसे जीता जा सकता है ? कभी नहीं ।। ९७ ।। तदनंतर भगवान वीरनाथ के दर्शन कर वह गौतम उनकी स्तुति करने लगा | वह कहने लगा कि हे प्रभो ! आप कामरूपी योद्धाको जीतनेवाले विश्वजनसमावृतौ ॥९३॥ चिंतितं तेन मार्गे वै द्विजोऽसाध्योऽभवद्यदा । तदा गुरुर्महान्नस्य कथं साध्यो भविष्यति ॥ ९४ ॥ समवसरणे नीत्वा वृषा वै हर्षितोऽभवत् । कार्ये सिद्धिं समायाते को न तुष्यति मानवः ॥९९॥ मानस्तंभं तमालोक्य मानं तत्याज गौतमः । निजप्रशोभया येन विस्मितं भुवनत्रयम् ॥ ९६ ॥ इति विचिंतितं तेन मही विस्मयकारिका । यस्य गुरोरियं भूतिः स किं केनापि जीयते ॥९७॥ ततो वीरं तमालोक्य शुभां स्तुतिं चकार सः । कामसुभट
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गौतमचरित्र। हैं, भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देनेवाले हैं, अनेक मुनिराजोंका समुदाय आपकी पूजा करता है, आप तीनों लोकोंको तारनेवाले हैं, कर्मरूपी शत्रुको नाश करनेमें चतुर हैं और तीनों लोकोंके इंद्र आपकी सेवा करते हैं। इसप्रकार स्तुति कर मौतमने भगवानके चरणकमलोंको नमस्कार किया और फिर मुक्तिरूपी स्त्रीकी इच्छा रखनेवाला वह गौतम इंद्रियोंके विष. योंसे विरक्त हुआ ॥९८-१०० ॥ इसके बाद ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुए पांचसौ शिष्योंके साथ और अपने दोनों भाइयोंके साथ गौतमने जैनेश्वरी दीक्षा धारण की ॥१०१॥ सो ठीक ही है जो संसारके भयसे भयभीत हैं, मोक्षरूपी लक्ष्मीकी इच्छा रखते हैं और मोक्षकी प्राप्ति जिनके समीप है ऐसे लोग कभी देर नहीं किया करते हैं ॥१०२॥ श्रीवीरनाथ भगवानके समवसरणमें चारों ज्ञानोंसे सुशोभित ऐसे इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए थे ॥१०३॥ जिन्होंने पहले भवमें लब्धिविधान नामका जेतस्त्वं भव्यजीवप्रबोधकः ॥९८॥ मुनींद्रगणपुज्यस्त्वं त्वं लोकत्रयतारकः । कर्मारिध्वंसने दक्षस्त्रिभुवनेंद्रसेवितः ॥ ९९ ॥ इति स्तुति विधायासौ ननाम तत्क्रमौ पुनः । विषयेभ्यो विरक्तोऽभून्मुक्तिप्रियप्रवांच्छकः ॥ १००॥ ततो जैनेश्वरीं दीक्षां भ्रातृभ्यां जग्रहे सह । शिष्यैः पंचशतैः साई ब्राह्मणकुलसंभवैः ॥ १०१ ॥ येषां सिद्धिः समासन्ना ते विलंब न कुर्वते । संसारभयसंत्रस्ताः शिवलक्ष्मीस्टहान्विताः ॥ १०२ ॥ इंद्राग्निवायुभूताद्याः शुभाः एकदशाभवन् । गणिनो वीरनाथस्य चतुर्ज्ञानविराजिताः॥१०३॥ यैश्चरितं व्रतं पूर्व
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चौथा अधिकार |
[ ११६ व्रत किया था वे उस पुण्यके प्रतापसे शीघ्र ही गणधर पदपर पहुंच गये || १०४ || अन्य पुरुष भी जो इस व्रतको करते हैं उन्हें भी संसाररूपी समुद्रसे पारकर देनेवाली ऐसी ही विभूतियां प्राप्त होती हैं || १०५ || तदनन्तर भगवान् वीरनाथकी दिव्यध्वनि खिरने लगी । वह दिव्यध्वनि भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करती थी और मोहरूपी अन्धकारका नाश करती थी || १०६ || भगवान् वीरनाथने जीव, अजीव आदि सात तत्त्व, छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय और जीवोंके भेद आदि लोकाकाशमें जितने पदार्थ थे सबका स्वरूप बतलाया ।। १०७ ।। समस्त परिग्रहों का साग करदेनेवाले मुनिराज गौतमने पहले किये हुए पुण्यकर्मके उदयसे भगवान के समस्त उपदेशको ग्रहण कर लिया ।। १०८ ।। इस जैनधर्मके प्रभावसे सज्जन पुरुषोंकी संगति प्राप्त होती है, अच्छे कल्याण, मधुर बचन, अच्छी बुद्धि और सर्वोत्तम विभूतियां प्राप्त होती हैं ॥ १०९ ॥ लब्धिविधाननामकम् । ते तत्सुकृतमाहात्म्याद्वभूवुर्गणिनो द्रुतम् । १०४। व्रतं येऽन्येपि कुर्वंति तेषां लब्धिर्भविष्यति । एतादृशी कथं नो हि संसारार्णवतारिका ॥ १०५ ॥ ततो वीरस्य सहकान्निरगात्सत्सरस्वती । भव्यपद्मविकासंती मोहतमः प्रणासिनी ॥ १०६ ॥ जीवादिसप्ततत्त्वं च द्रव्यं पंचास्तिकायकम् । जीवभेदं जगौ वीरः पदार्थ लोकसंस्थितम् ॥ १०७ ॥ निखिलं तस्य वाक्यं स जग्राह गौतमो मुनिः । पूर्वपुण्यविपाकेन विश्वत्यक्तपरिग्रहः ॥ १०८ ॥ साधूनां संगतिः श्रेयान् सुवचनं सुबुद्धिता । प्रकटविभवो लोके जायते जैनधर्मतः ॥ १०९ ॥ विनयान्वितपुत्रैश्च प्रसेवितक्रमांबुजाः । पूर्णचंद्र तुषाराम -
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गौतमचरित्र ।
जैनधर्मके ही प्रभाव से विनयवान् पुत्र चरणकमलोंकी सेवा करते हैं, जैनधर्मके ही प्रभाव से चंद्रमा और बरफके समान स्वच्छ और चारों दिशाओं में फैलानेवाली कीर्ति प्राप्त होती है, धर्म ही प्रभाव से बड़ी भारी विभूति प्राप्त होती है, धर्मके ही प्रभाव से अनेक सुंदर स्त्रियां प्राप्त होती हैं और धर्मके ही प्रभावसे सुरेंद्र, नरेंद्र और नागेंद्र पद प्राप्त होते हैं ।। ११०-१११॥
तदनंतर मुनि, देव, मनुष्य आदि सब भव्यजीवोंको प्रसन्न करते हुए राजा श्रेणिक मधुरवाणी से कहने लगे कि हे भगवन् ! हे वीर प्रभो ! जिस धर्मसे स्वर्ग मोक्षके सुख प्राप्त होते हैं उस धर्मको मैं आपके मुखसे विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं ।। ११२ - ११३ ।। इसके उत्तर में वे भगवान अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा कहने लगे कि हे राजन् ! तू मन लगाकर सुन | मैं अब मुनि और गृहस्थ दोनोंके धारण करने योग्य धर्मका स्वरूप कहता हूं ।। ११४ ॥ संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए भव्यजीवोंको निकालकर जो उत्तम पदमें धारण कर दे उसको धर्म कहते हैं । धर्मका यही स्वरूप कीर्तिपूर्णदिगंतराः ॥ ११० ॥ भूरिसंपत्तिसंपन्नाः कामिनीवृंद सेविताः । सुरासुरनराधीशा जायंते धर्मिणः सदा ॥ १११ ॥ मुनींद्रदेव मर्त्यादीन् भव्यौघान् मोदयन् द्रुतम् । अथ श्रेणिकभूपालो जगाद मधुरां गिरम् ॥ ११२ ॥ वीर ! श्रीभगवन् येन स्वर्मुक्तिसुखमाप्यते । तं धर्मं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण तवमुखात् ॥ ११३ ॥ निजमनः समाधाय मुनिगृहस्थगोचरम् । इति बचोऽवदत्स्वामी शृणु वृषं महीपते ॥ ११४ ॥ मज्जतो भवपाथोधौ भव्यौघान्नुच्छ्रिते पदे । धारयतीति यो धर्मः
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चौथा अधिकार।
[१२१ अनादि कालसे जिनंद्रदेव कहते चले आये हैं ॥ ११५ ॥ जीवोंके लिये अहिंसा धर्म सबसे उत्तम धर्म है।इसी अहिंसा धर्मके प्रभावसे प्राणियोंको चक्रवर्तीके सुख प्राप्त होते हैं ॥ ११६ ॥ इसलिये संसारके समस्त जीवोंपर दया करनी चाहिये । यह दया ही अपार सुख देनेवाली है और दुःखरूपी वृक्षोंको काट डालनेके लिये कुठारके समान है ॥११७॥ जुआ मांस आदि सातों व्यसनरूपी अग्निको बुझानेके लिये यह दया ही मेघकी धारा है, यह दया ही स्वर्गको चढ़नेके लिये नसेनी है और दया ही मोक्षरूपी संपत्तिको देनेवाली है ॥११८॥ जो लोग धर्मसाधन करनेके लिये यज्ञमें प्राणियोंकी हिंसा करते हैं वे काले सर्पके मुंहसे अमृतका समूह निकालना चाहते हैं :११.१९॥ यदि जलमें पत्थर तिरने लग जाय, यदि अग्नि ठंडी होजाय तो भी हिंसा करनेसे धर्मकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ॥१२०॥ जो भील लोग धर्म समझकर बड़े बड़े जंगलों में अग्नि लगा देते हैं वे विष खाकर जीवित प्रोक्तोसौ श्रीनिनोत्तमैः ॥११५॥ अहिंसात्परमो धर्मो जायते देहिनां सदा । प्रपद्यते क्षणायेन मानुषैश्चक्रिनं सुखम् ॥११६॥ अतो दया प्रकर्तव्या जीवेषु निखिलेप्वपि । सुखसंदोहकी वै दुःखद्रुमकुठारिका ॥११॥ सप्तव्यसनसप्तार्चिः प्रशमनघनालिका । स्वर्गरोहणनिःश्रेणिमुक्तिसंपद्विधायिका ॥११८॥ यज्ञे प्राणिवधं कुर्युर्ये सुवृषाप्तहेतवे । वांच्छंति ते सुधावृंदं कृष्णभुजंगवक्रतः ॥ ११९ ॥ जले तरंति पाषाणा यद्यग्निः शीततां व्रजेत् । तदपि जायते धर्मो हिसनान कदाचन ॥१२०॥ धर्मबुध्या महारण्ये ये किराता दवानलम् । दुदंति
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गौतमचरित्र ।
रहना चाहते हैं ॥ १२२॥ जो लोलुपी मनुष्य जीवोंको मारकर मांस खाते हैं वे महा दुःख देनेवाली नरक गतिमें ही उत्पन्न होते हैं ॥ १२२॥ जो लोग थोड़े से सुखके लिये जीवोंकी हिंसा करते हैं वे जी मेरुपर्वत के समान महादुःखोंको सदा भोगते रहते हैं || १२३ || इस संसार में न तो छाछसे घी निकलता है, न विना सूर्यके दिन होता है और न लेप कर लेने मात्रसे मनुष्यों की भूख मिटती है उसीप्रकार हिंसा करने से भी कभी सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ १२४ ॥ प्राणियोंपर दया करनेवाले मनुष्य युद्ध में भी निर्भय रहते हैं, निर्जन वनोंमें भी निर्भय रहते हैं, समुद्र नदी और पर्वतोंपर भी निर्भय रहते हैं, वे सब सङ्कटोंमें निर्भय रहते हैं ॥ १२५ ॥ जो जीव जीवोंकी हिंसा करते हैं उनकी आयु थोड़ी ही होती है, वे पेटमें ही मर जाते हैं या उत्पन्न होनेके समय मर जाते हैं, किसी शस्त्रसे मर जाते हैं, समुद्रमें पड़कर मर जाते हैं या किसी बनमें जाकर मर जाते हैं ।। १२६ ।। इसी प्रकार झूट कालकूटात्तेऽभिलषंति स्वजीवितम् ॥ १२१ ॥ जीवाभिघातकं कृत्वा मांसं खादंति लोलुपाः । तेऽघोगतिं प्रपद्यंते भूरिदुःखप्रदायिनीम् ॥१२२॥ अत्यल्पसुखसंप्राप्त्यै कुर्वति जीवहिंसनम् । दुःखं मेरुनिभं मर्त्याः भुंजंति ते निरंतरम् ॥ १२३ ॥ न तक्राज्जायते सर्पिर्न दिन सूर्यवर्जितम् । क्षुन्निवृत्तिर्न चालेपात् सुखप्राप्तिर्न हिंसनात् ॥ १२४ ॥ प्राणिनां रक्षणाज्जीवा भवंति निर्भयारणे । कांतारे दुर्गमे सिंधौ नद्यां पर्वतसंकटे ॥ १२९ ॥ योनि जन्मनि गर्भस्थे शस्त्रैः सिंधौ महाबने । अल्पायुषः प्रम्रियते जन्मिनो जंतुहिंसकाः ॥ १२६ ॥ मृषावचनतो नृणां
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बोलने से भी भारी पाप लगता है और ऐसे पापकर्मों का बंध होता है जिनके उदयसे सदा नरकादिके ही दुःख प्राप्त होते रहते हैं ।। १२७|| संसारमें यशरूपी बन अनेक प्रकारके आनंद देनेवाला है और अनेक प्रकारके उत्तम फल देनेवाला है। वह यशरूपी बन असत्यभाषणरूपी अग्निसे बहुत ही शीघ्र जल जाता है ।। १२८ ।। यह असत्यभाषण सदा अविश्वासका घर है, अनेक विपत्तियोंको देनेवाला है, महापुरुषोंके द्वारा निंदनीय है और मोक्षमार्गको बंद कर देनेवाला है ।। १२९ ॥ यह असत्य भाषण अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करनेवाला है और अससभाषणसे ही राजाके द्वारा मृत्युका दंड प्राप्त होता है इसलिये आत्मज्ञानसे सुशोभित होनेवाले विद्वान पुरुषों को यह असत्यभाषण कभी नहीं करना चाहिये ॥ १३०॥ देवोंका आराधन करनेवाले जो मनुष्य सदा सच बोलते हैं वे इस संसार में ही अनेक प्रकारकी शुभ संपत्तिसे विभूषित होते हैं ॥ १३१ ॥ सत्यभाषण के प्रसादसे विष भी अमृत हो जाता है, शत्रु भी परम मित्र हो जाते हैं और सर्प भी महत्पापं प्रजायते । दुःखं प्रलभ्यते येन नरकादिसमुद्भवम् ॥१२७॥ असत्यदहनस्तो मैर्भस्मीभवेद्यशोवनम् । भूरिप्रमोद संमुख्यनानासत्फलदायकम् ॥ १२८ ॥ अविश्वासगृहं नित्यं विपत्तीनां प्रदायकम् । महद्भिः पुरुषैर्निद्य मुक्तिद्वारकपाटम् ॥ १२९ ॥ असत्यतः प्रबध्यं नरा नृपैरघप्रदात् । अतस्तन्न प्रवक्तव्यं विद्यद्धिर्ज्ञानभास्वरैः ॥ १३० ॥ ये सत्यवाक् प्रजल्पते सुराराधनका नराः + जायंत इह ते लोके मूरिसंपत्प्रदाः शुभाः ॥ १३१ ॥ विषं सुधासमं नित्यं शत्रुः परम
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गौतमचरित्र। मालाके रूपमें परिणत हो जाता है ॥१३२॥ जो मूर्ख मनुष्य असत्यभाषणसे ही सद्धर्मकी प्राप्ति चाहते हैं वे विना ही अंकुरोंके सब प्रकारके धान्य उत्पन्न होनेकी शोभाको चाहते हैं ॥ १३३ ।। बुद्धिमान पुरुषोंको हिंसा और झूठके समान चोरीका भी त्याग कर देना चाहिये क्योंकि चोरी करनेसे भी दूसरोंको सदा दुःख पहुंचता रहता है । यह चोरी पुण्यरूपी पर्वतको चूर करनेके लिये वज्रके समान है और आपत्तिरूपी लताओंको बढ़ानेवाली है ॥ १३४ ॥ चोरी करनेसे नरककी प्राप्ति होती है, वहांपर छेदन, तापन आदि अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त होते हैं। वह नरक दुःखोंका गढा ही है और वहांके नारकी परस्पर एक दूसरेके साथ सदा शत्रुता रखते हैं ॥ १३५ ॥ चोरी करनेवालोंकी सब लोग निंदा करते हैं, राजा भी उन्हें प्राणदंडकी आज्ञा देता है तथा और भी अनेक प्रकारके दुःख उन्हें भोगने पड़ते हैं ॥ १३६ ॥ जो पुरुष चोरी नहीं करता है उसे अनंत सुख देनेवाली और जन्म-मरणको दूर करनेवाली मोक्षरूपी स्त्री मित्रताम् । सर्पोपि माल्यतां याति सत्यवचःप्रसादतः ॥ १३२ ॥ असत्यवाक्यतो मां येऽभिलषंति सदृषम् । समस्तसस्यसंपत्तिर्वालिशास्ते विनांकुरात् ॥ १३३ ॥ स्तेयं बुधैः प्रहर्तव्यं परपीडाकर सदा । सुकृतगिरिदंभोली व्यापलताप्रवर्द्धकम् ॥ १३४ ॥ लभते नरकं स्तेयाच्छेदनतापनप्रदम् । अनेकदुःखगाढ्यं वैरिसंवद्धमानसम् ॥१३१॥ जायते स्तेयतो लोके विश्वजनैः प्रणिंदिता । नरा नृपतिसंवध्या दुःखनिकरभाजकाः ॥१३६॥ अदत्तं यो न गृह्णाति सिद्धि
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चौथा अधिकार।
[१२५. स्वयं स्वीकार कर लेती है ॥ १३७ ॥ चोरीका त्याग कर देनेसे सब प्रकारकी विभूतियां प्राप्त होती हैं, सुंदर स्त्रियां प्राप्त होती हैं, अच्छी उत्तम गति मिलती है, निर्मल कीर्ति प्राप्त होती है और सदा धर्मकी बाद होती है ॥१३८॥ जो मूर्ख चोरी करते हुए भी सुख देनेवाली बहुतसी विभूतियां प्राप्त करना चाहते हैं वे अग्निसे सुंदर कमलोंके बनको उत्पन्न करना चाहते हैं ॥१३९॥ यदि भोजन करनेसे अजीर्ण दूर होजाय, विना मूर्य उदय हुए दिन निकल आवे और बालूको पेलनेसे तेल निकल आवे तो चोरी करनेसे भी धर्मकीप्राप्ति होजाय । भावार्थजैसे ये बातें सब असंभव हैं उसी प्रकार चोरी करनेसे धर्मकी प्राप्ति होना भी असंभव है ॥१४०॥ शीलवत पालन करनेसे सदा चारित्रकी वृद्धि होती रहती है, नरकादिक दुर्गतियोंके मार्ग बंद होजाते हैं और व्रतोंकी रक्षा होती है। यह शीलव्रत अनेक गुणरूपी बनको बढ़ानेके लिये मेघकी धाराके समान है ॥१४॥ यह शीलवत मोक्षरूपी स्त्रीको देनेवाला है और सबसे उत्तम है । जो पुरुष ऐसे इस शीलव्रतका पालन नहीं कांता वृणोति तम् । निखिलसुखमंदात्री पुनरागमवारिका ॥१३॥ समृद्धी रुचिरा योषित्सुगतिः शुभ्रकीर्तयः । धर्मवृद्धिः प्रजायंते नृणामस्तेयतः सदा ॥ १३८ ॥ तस्करकर्मतो मूढा सुखदा भूरिसंपदः । इच्छंति शोभनं ते हि पद्मवनं धनंजयात् ॥१३९॥ अनीर्णनिवृतिलेपात्सूर्यहीनं दिनं यदि । बालुकामथनात्तैलं भवेत्तत्कर्मतो वृषः ॥१४०॥ चारित्रवर्द्धनं नित्यं दुर्गतिहाःकपाटकम् । गुणौघबननीमृतं सुशीलं व्रतरक्षणम् ॥१४१॥ नो पालयति यः शीलं मुक्तिकांताप्रदं
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१२६ ]
गौतमचरित्र। करता है वह तीनों लोकोंमें अपने यशको नष्ट करता है॥१४२।। ब्रह्मचर्यका पालन न करनेसे समस्त संपदाएं नष्ट होजाती हैं, सब प्रकारकी आपत्तियां आजाती हैं और अनेक प्राणियोंकी हिंसा होती है ।। १४३ ।। जो मनुष्य इस शुभ शीलव्रतको पालन करता है वह मोक्षका स्वामी होता है। यह शीलव्रत पापरूपी कीचड़को धोनेके लिये मेघकी धाराके समान है और कुलके समस्त कलंकों को नाश कर देनेवाला है ॥१४४।। जो मनुष्य शीलवत पालन करता है वह स्वर्गमें जाता है और वहांपर सुंदर विलासोंको धारण करनेवाली अनेक देवियां उसकी सेवा करती हैं। १४५ ।। इस शीलव्रतके माहात्म्यसे अग्नि वरफ होजाती है, शत्रु मित्र होजाते हैं और सिंह मृगके समान होजाते हैं ॥ १४६॥ जिसमकार विना लवणके भोजन व्यर्थ है ( स्वादिष्ट नहीं होता) उसी प्रकार विना शील पालन किये गुणोंको बढ़ानेवाले समस्त व्रत व्यर्थ होजाते हैं ॥१४७॥ जिसप्रकार छीके विना भोजन वरम् । सो यशोभानको नित्यं भवेऽत्रैलोक्यमध्यके ॥१४२॥ निःशेषसंपदां हर्तृ मंदिरं सकलापदाम् । हिंसनं प्राणिवर्गाणामस्त्यब्रह्मव्रतं -सदा ॥ १४३ ॥ पालयति शुभं शीलं यः स मुक्तिवरो भवेत् । पापपंकांबुदं श्लाघ्यं कुलकलंकनाशनम् ॥ १४४ ॥ शीलव्रतान्वितो यस्तु लोके स भज्यते दिवि । सुरसीमंतिनीवृंदैश्चारुविभ्रमधारणैः ॥१४५॥ सुशीलव्रतमाहात्म्यादग्निस्तुषारतां व्रजेत् । अरातिर्मित्रतां चापि सिंहादिर्घगतुल्यताम् ॥ १४६॥ सुव्रतानि समस्तानि गुणदानानि वै वृथा। विना शीलेन जायते लेपानिलवणेन वा ॥१४॥
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चौथा अधिकार।
[ १२७ शोभा नहीं देता, ज्ञानके विना तपस्वी शोभा नहीं देता
और पतिके विना सुंदर स्त्री शोभा नहीं देती उसी प्रकार विना शील पालन किये मनुष्य भी शोभा नहीं देता ॥ १४८ ॥ जो मनुष्य शील पालन करते हैं उनके विघ्न भी उत्सवका रूप धारण कर लेते हैं। शीलवतको पालन करनेवाले सेठ सुदर्शनकी पूजा अनेक देवोंने मिलकर की थी॥ ३४९ ॥ परिग्रह पापोंका घर है, परिणामोंमें कलुषता उत्पन्न करनेवाला है और नीति तथा दयाको नाश करनेवाला है। जो इसे धारण करते हैं उनके परिणाम कभी अच्छे नहीं होसकते ॥१५०॥ यह परिग्रह एक प्रकारकी नदीका पूर है। यह पूर क्या क्या अनर्थ नहीं करता है अर्थात् संसारमें जितने अनर्थ होते हैं वे सब परिग्रहसे ही होते हैं। यह पूर धर्मरूपी वृक्षोंको उखाड़ फेंकता है और लोभरूपी समुद्रको बढ़ा देता है ॥१५१॥ यह परिग्रहरूपी पूर मनरूपी हंसोंको भय उत्पन्न करता है, मर्यादारूपी किनारेको तोड़ देता है, रागरूपी मछलियोंसे भर जाता है और तृष्णारूपी तरंगोंसे घृतं विना यथा भोज्यं विना ज्ञानेन तापसः । भ; विना शुभा नारी शीलेनर्ते तथा नरः ॥१४८॥ विघ्नोप्युत्सवतां याति शीलव्रतयुतस्य नुः । पूजितस्य सुरस्तोमैः श्रेष्ठिसुदर्शनस्य वा ॥१४९॥ परिग्रहमघागारं ते गृहंति दुराशयाः । कालुष्योत्पादकं नित्यं नीतिदयाविनाशकम् ॥ १५० ॥ परिग्रहनदीपूरः किं न करोत्यनर्थकम् । पातको धर्मवृक्षाणां लोभसागरवर्द्धकः ॥१५१॥ भयदो चित्तहंसानां मर्यादाकूलभंजकः । रागमत्स्यसमायुक्तस्तृष्णातरंगसंकुलः ॥ १५२ ॥
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१२८]
गौतमचरित्र। लहर लेता रहता है ॥१५२॥ यह परिग्रह क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायोंको उत्पन्न करनेवाला है, मार्दव (कोमलता) रूपी मेघको उड़ानेके लिये वायुके समान है और नयरूपी कमलोंको नाश करनेके लिये तुषारके समान है । ऐसे इस परिग्रहकी भला कौन इच्छा करेगा ॥ १५३ ॥ यह परिग्रह व्यसनोंका घर है। सब पापोंकी खानि है और शुभ ध्यानको नाश करनेवाला है ऐसे इस परिग्रहको कौन बुद्धिमान पुरुष ग्रहण कर सकता है ॥ १५४ ॥ जिसप्रकार अग्नि इंधनसे तृप्त नहीं होती, समुद्र जलसे तृप्त नहीं होता और देर भोगोंसे तृप्त नहीं होते उसी प्रकार यह मनुष्य अपार धनसे भी तृप्त नहीं होता है ॥ १५५ ॥ जो मनुष्य इस परिग्रहसे रहित हैं वे ही इस संसारमें सर्वोत्तम गिने जाते हैं। वे ही पुरुष चतुरताके साथ धर्मरूपी वृक्षको उत्पन्न करते हैं और वे ही पुरुष इस जैनधर्मका प्रकाश करते हैं ॥ १५६ ॥ इसप्रकार अहिंसा, सत्य, अस्त्येय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों व्रतोंको मुनिराज पूर्ण रीतिसे पालन करते हैं
और घरमें रहनेवाले गृहस्थ एक देश वा अणुरूपसे पालन इच्छेत्परिग्रहं को ना क्रोधमानादिकारकम् । मार्दवजलमुग्नातं नयपद्मतुषारकम् ।।१५३॥ केन परिग्रहो ग्राह्यो व्यसननिलयः सदा । खनिः समस्तपापानां शुभध्यानप्रणाशकः ॥१५४॥ नो तृप्यति यथा बहिरिंधनैरंबुधिनलैः । देवगणो यथा भोगैस्तथा बहुधनैर्नरः ॥१५॥ ये हि परिग्रहैहींना उत्तमास्ते प्रकीर्तिताः। धर्मवृक्षार्जने दक्षाःनिनमार्गप्रकाशकाः ॥ १५६ ॥ पंचव्रतानि चैतानि संपूर्णानि मुनीश्वराः ।
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चौथा अधिकार।
[१२६ करते हैं ॥ १५७ ॥ जो मुनिराज शरीरसे भी मोह नहीं करते, जो हिंसा आदि पांचों पापोंसे सदा विरक्त रहते हैं.
और कर्मोको नाश करने में सदा तत्पर रहते हैं उन्हें शीघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति होजाती है ॥ १५८ ॥ जिनमें मन, बचन, कायको वश करनेकी शक्ति है और जिन्होंने इंद्रियोंके विषयोंकी सर्वथा आशा छोड़ दी है ऐसे ही महापुरुष इस संसारमें
मुनि कहलाते हैं ॥ १५९ ॥ जिन्होंने धर्म पुरुषार्थको नाश , करनेवाले और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले मनरूपी घरका
(अन्तरङ्ग परिग्रहोंका ) त्याग कर दिया है उन्हीं महापुरुपोंको मोक्षरूपी स्त्री स्वीकार करती है ॥१६०॥ शुभध्यानमें तत्पर रहनेवाले मुनिराज ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांचों समितियोंको सदा पालन करते रहते हैं और सदा इन्हींके अनुसार चलते रहते हैं ॥१६॥ जिसप्रकार उदय होते हुए सूर्यकी किरणोंसे रात्रिका अंधकार सब क्षणभरमें नष्ट होजाता है उसीप्रकार अन्तरङ्ग बहिरंग दोनों प्रकारके तपश्चरणसे कर्मोका समुदाय शीघ्र ही नष्ट हो पालयति गृहावासादणुमात्राणि गेहिनः ॥ १५७ ॥ येषां देहेऽपि नो वांच्छा कर्मध्वंशनकारिणाम् । हिंसादिपु विरक्तानां तेषां सिद्धिर्भवेदद्रुतम् ॥१५८॥ मनोवचनकायानां वशीकरणशक्तयः । इंद्रियविषयानाशा यतयस्ते प्रकीर्तिताः ॥ १५९ ॥ मनोगृहेण ये मुक्ता भूरिपीडाप्रदायिना। धर्मार्थध्वंसकारेण मुक्तिवधूर्वृणोति तान् ॥१६॥ ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंस्थिताः । गच्छंति मुनयो नित्यं शुभा. त्मध्यानतत्पराः ॥१६१॥ द्वैधेन तपसा शीघं नश्यति कर्मसंचयः ।
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गौतमचरित्र। जाता है ॥ १६२॥ जिस प्रकार वादलोंकी वर्षाके विना धान्योंकी अच्छी उपज नहीं होती उसीप्रकार विना उत्तम तपश्चरणके कर्मों का नाश भी कभी नहीं होता है ॥ १६३ ॥ यह तपश्चरण अशुभकर्मरूपी पर्वतोंके समूहको नाश करनेके लिये वज्रके समान है और कामरूपी धधकती हुई अग्निको शांत करनेके लिये पानीके समान है ॥१६४।। यह तपश्चरण इंद्रियों के विषयोंके समूहरूपी सोको वश करनेके लिये मंत्रके समान है, समस्त विघ्नरूपी हिरणोंके समुदायको रोकनेके लिये जालके समान है और अन्धकारको नाश करनेके लिये दिनके समान है ॥ १६५ ॥ इस तपश्चरणके प्रभावसे देव मनुष्य, भवनवासी आदि देव सब सेवक बन जाते हैं
और सिंह, सर्प, अग्नि, शत्रु, विपत्तियां आदि सब क्षणभरमें नष्ट हो जाती हैं ॥ १६६ ॥ जिसप्रकार धान्योंके विना खेत शोभा नहीं देता, अंगारके विना स्त्री शोभा नहीं देती और विना कमलोंके सरोवर शोभायमान नहीं होता उद्यद्भानुरैनैशं तमोवृंदमिव क्षणात् ॥१६२॥ सुतपसा विना हानिः कर्मणां न हि जायते । विना मेघेन सस्यानामुत्पत्तिन क्वचिद्धना ॥१६३॥ अशुभकर्मशैलौघप्रध्वंसकुलिशोपमम् । तपोऽस्ति कामसप्ताचिज्वलज्ज्वालाशमोदकम् ॥१६४॥ इंद्रियविषयौवा हि वशीकरणमंत्रकम् । विश्वविनकुरंगौघकूटयंत्रं तमो दिनम् ॥ १६५ ॥ जायते किंकरा यम्मात्सुरासुरनरादयः । व्याघव्यालानलामित्रविपदो यांति संक्षयम् ॥१६६॥ सस्यहीनं यथा क्षेत्रं मंडनेन विना बधूः । अपञ न सरो भाति तथा मर्त्यस्तपो विना ॥ १६७ ॥ कर्मगणं समाहर्त्य
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[१३१
चौथा अधिकार। उसीप्रकार यह मनुष्य भी विना तपश्चरणके शोभा नहीं देता ॥१६७॥ मुनिराज इस तपश्चरणके द्वारा दो तीन भवमें ही समस्त कर्मोको नाश कर और केवलज्ञानको पाकर मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त होजाते हैं ॥१६८॥ धर्मोपदेश देनेवाले और देवेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र आदि सबके द्वारा पूज्य ऐसे अरहंतदेव इस तपश्चरणके ही प्रभावसे होते हैं ॥१६९॥ वे भगवान् अरहन्तदेव, श्रीअरहन्तदेवके नामको स्मरण करने तल्लीन रहनेवाले और जैनधर्मके अनुसार पुण्य' सम्पादन करनेवाले भव्यजीवोंको इस संसाररूपी महासागरसे शीघ्र ही पारकर देते हैं ॥१७०॥ जो भूख, प्यास अठारह दोषोंसे रहित हो, रागद्वेषसे रहित हो समवप्तरणकी बारहों सभाका स्वामी हो और संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेके लिये जहाजके समान हो, वह देव कहलाता है ।। १७१ ॥ जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसे अंतदेवके चरणकमलोंकी पूजा रात दिन करते हैं उनके पाप सब क्षणभरमें ही नष्ट होजाते हैं ॥१७२॥ यह भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा, रोग और पापोंको दूर करनेवाली है, शुम केवलज्ञानमाप्यच । तपसा योगिनो द्वित्रिभयांति शिवश्रियम् ॥१६॥ अहंतोऽपि प्रनायंते सुतपप्तः प्रभावतः । धर्मोपदेशकर्तारः सुरासुरेंद्रसंस्तुताः ॥ १६९ ॥ ते तारयंति भव्यौवान् संसारजलवारिधौ। तन्नामस्मरणे सक्तान जैनसुकतधारिणः ॥१७०॥ दोषमुक्तो गणाधारो रागद्वेषादिवर्जितः। भवाब्धितारणे पोतः स देवः कथितो जिनः ॥१७१॥ तत्पदपूजनं प्राज्ञा ये कुर्वति दिवानिशम् । तेषां प्रविलयं पंक प्रयाति क्षणमात्रतः ॥१७२॥ हारिणी रुनपापानां शुभा संपद्वि
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गौतमचरित्र। है, सम्पत्तियोंको बढ़ानेवाली है, पुण्यका संचय करनेवाली है और स्वर्ग मोक्षको देनेवाली है ॥ १७३ ॥ यह भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा संसाररूपी समुद्रसे पार करदेनेवाली है, अत्यन्त मनोहर है तथा यश और सौभाग्यको बढ़ानेवाली है। ऐसी भगवानकी इस पूजाको जो लोग करते हैं उनके घर इन्द्र भी आकर नृत्य करता है ॥१७४॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे संसारमें सबसे गाढ़ स्नेह होता है, आज्ञाकारी पुत्र होते हैं, हाव, भाव, विलास आदिसे सुशोभित सुन्दर स्त्री प्राप्त होती है और समस्त पृथ्वीका राज्य प्राप्त होता है ॥१७॥ यह भगवानके चरणारविंदोंकी पुजा शत्रुओंका नाश करनेवाली है, दुर्गतिरूपी बेलको नाश करने के लिये हथिनी के समान है, इच्छाओंको पूर्ण करनेवाली कामधेनुको उत्पन्न करनेवाली है, बहुत ही मनोहर है और सब प्रकारसे शुभ करनेवाली है ॥१७६। जो पुरुप भगवान जिनेंद्रदेवकी पूजा करता है वह सुमेरुपर्वतके यस्तकपर सब देव, भुवनत्रिक और इन्द्रों के द्वारा पूजा जाता है ॥ १७७ ।। धायिका । नाकमुक्तिं ददात्येव जिनार्चा पुण्यवर्धिनी ॥ १७३ ॥ भवाब्धितारिणी कांतां यशःसौभाग्यकारिणीम् । पूजां ये कुर्वते तेषां शक्रो नृत्यति तद्गृहे ॥१७४॥ वह्वीः प्रीतिः सुपुत्राश्च बधूर्विभ्रमधारिणी । राज्यं निःशेषमेदिन्याः स्युम्तच्चरणसेवनात् ॥१७॥ विपक्षदलनी चार्वी दुर्गतिलतिकाद्विपी। प्रसूतिः कामधेनूनां तदर्चा शुभकारिणी ॥ १७६ ॥ तत्सेवां कुरुते यस्तु त्रिदशेंद्रैः स पूज्यते । सुरासुरौघसंयुक्तैः कनकांचनमस्तके ॥१७७॥ अर्हद्भयो नम इत्युच्चै
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चाथा
चौथा अधिकार।
[१३३ जो मनुष्य "अहद्योनमः " " भगवान अंहतदेवके लिये नमस्कार हो" इसप्रकार ऊँचे शब्दोंसे उच्चारण करते हैं के मनुष्य सबसे उत्तम गिने जाते हैं, प्रशंसनीय माने जाते हैं, यशस्वी होते हैं और इस भवसागरसे पार होजाते हैं ॥१७८॥ परमात्माकी स्तुति करनेसे जो पुण्यका समुदाय उत्पन्न होता है उसका वर्णन करनेके लिये केबली भगवानके सिवाय
और कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है ? अर्थात कोई नहीं ॥ १७२ ॥ जो मनुष्य परमात्माकी निंदा करते हैं वे आठों कर्म और क्रूरजीवोंसे भरे हुए इस संसाररूपी वनमें पाप
और दुःखोंसे असन्त दुःखी होकर सदा परिभ्रमण किया करते हैं ॥१८०॥ नीच मनुष्य, रागद्वेष आदि दोषोंसे भरपूर और लोभरूपी पिशाचसे जकड़े हुए यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आदि कुदेवोंकी सेवा किया करते हैं ।। १८१॥ मिथ्याशास्त्रोंसे ठगे हुए मनुष्य, पुत्र वा धन आदिकी इच्छा करके वड़, पीपल वा कूआ आदिकी पूजा किया करते हैं अथवा कुलदेवियोंकी पूजा किया करते हैं ॥ १८२॥ जो मुनिराज रुच्चरंति नरोत्तमाः । ये ते श्लाघ्या यशोभाजस्तरंति भवसागरम् ॥ १७८ ॥ परमात्मस्तुतेर्जातं यत्सुकृतकदंवकम् । तद्वक्तुं कः समर्थोऽस्ति नरः केवलिना विना ॥१७९॥ कर्माष्टकूरजीवाढये किल्किषक्लेशपूरिताः । प्रभ्रमंते भवारण्ये तन्निंदया नराः सदा ॥ १८० ॥ यक्षभूतपिशाचादीन् रागादिदोषसंयुतान् । देवान् लोभग्रहग्रस्तान् मन्वते मानवाऽधमाः॥१८१॥वटपिप्पलकूपादीन सेवंते कुलदेविकाः। कुशास्त्रवंचिताः माः पुत्रादिधनमिच्छया॥१८२॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः
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१३४]
गौतमचरित्र। सम्यग्दर्शनसे असन्त शुद्ध हैं, सम्यक्चारित्रसे सुशोभित हैं
और अपने आत्माको तथा अन्य सब जीवोंको तारनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं वे मुनिराज ही विद्वानोंके द्वारा गुरु माने जाते हैं ॥१८३॥ जिन गुरुओंसे मिथ्याज्ञानका नाश होता है और जो धर्म, अधर्मका उपदेश देनेवाले हैं, वे ही गुरु भव्य जीवोंको सेवन करने योग्य हैं ॥ १८४ ॥ इस नरकरूपी गढ़ेमं पड़े हुए जीवोंको गुरुके विना माता, पिता, भाई, बंधु
आदि कोई भी नहीं निकाल सकता ॥ १८५ ॥ जो अनेक प्रकारके आरम्भ करते हैं, जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रसे दूषित हैं और जिनका हृदय कामसे व्याकुल रहता है, ऐसे पाखण्डी कभी गुरु नहीं माने जासकते॥१८६॥ जो क्रोध आदि कषायोंसे भरपूर हैं, जो क्रूर हैं, जिनका हृदय मिथ्याशास्त्रों में आसक्त रहता है और जो संसाररूपी महासागरमें स्वयं डूब रहे हैं, वे दूसरे लोगोंको किस तरह तार सकते हैं ॥ १८७ ॥ जो लोग भगवान् जिनेन्द्रदेवकी वाणीको नहीं सुनते हैं, वे देव, अदेव, धर्म, अधर्म, गुरु, सञ्चारित्रविभूषिताः । स्वपरतारणे शक्ताः गुरवस्ते मता बुधैः॥१८॥ कुबोधनाशनं येभ्यो भवति भव्यदेहिभिः । त एव गुरवः सेव्याः प्रोक्तारो वृषपापयोः ॥१८४॥ नरककुहरे जंतून् निपततो गुरोविना। न रक्षितुमलं केचित् मातृपित्रादिबांधवाः॥१८५॥ बहारंभसमायुक्ताः मिथ्याढग्ज्ञानदूषिताः। कामाकुलितचेतस्काः गुरवस्ते कथं मताः।१८६। क्रोधादिपूरिताः क्रूराः कुशास्त्रासक्तचेतसः । ये बुडंति भवाब्धौ ते तारयंति परान् कथम् ॥ १८७ ॥ देवादेवं वृषाधर्म गुरुं चाप्यगुरुं
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चौथा अधिकार।
.[१३५ कुगुरु और हित, अहित आदि कुछ भी नहीं जानते हैं ॥१८८॥ जो लोग अन्यमतके समान ही जैनधर्मको समझते हैं वे लोहेके समान मणिको समझते हैं, पानीके समान अग्निको समझते हैं और अंधकारको दिनके समान समझते हैं ॥१८९॥ जिस पुरुपने अपने कानोंसे भगवान सर्वज्ञदेवके कहे हुए बचन नहीं सुने हैं, उसके जन्मको मुनिराज इस संसारमें व्यर्थ ही समझते हैं ॥ १९० ॥ जिसप्रकार शूकर आदि पशुओंका जन्म व्यर्थ समझा जाता है उसी प्रकार जिस पुरुषने अपने हृदयमें सुख देनेवाले भगवान जिनेंद्रदेवके बचन धारण नहीं किये, उसका जन्म भी व्यर्थ ही समझना चाहिये ॥ १९१ ॥ जिस पुरुषने मोक्षके मुख देनेवाली भगवान जिनेंद्रदेवकी वाणी क्षणभर भी उच्चारण नहीं की उसकी जीभ विधाताने व्यर्थ ही बनाई समझो ॥ १९२ ॥ जिसमें तीनों लोकोंकी स्थितिका वर्णन हो, सात तत्त्व, नौ पदार्थोका वर्णन हो, पांचों महाव्रतोंका वर्णन हो और धर्म, अधर्मका फल बतलाया गया हो वही विद्वानोंके द्वारा जिनवाणी बतलाई जाती है तथा । हिताहितं न जानंति जिनवाग्वनिता नराः॥१८८॥ लोहसमंः मणिं वारि वह्निवदिनवत्तमः । परमतनिभं ये ते मन्वते जिनदर्शनम् ॥ १८९ ॥ कर्णयोर्नश्रुतं येन सर्वज्ञास्योद्भवः वचः । बदंति मुनयो लोके तस्य जन्म निरर्थकम्॥१९०॥ येनापि न धृतं चित्ते जिनवचः सुखास्पदम् । वृथा जन्म गतं तस्य शूकरादिपशोर्यथा ॥ १९१ ॥ क्षणं नोच्चरिता येन जिनवाणी शिवप्रदा। मुधैव निर्मिता तस्या रसना विश्वकर्मणा ॥१९२॥ त्रैलोक्यस्थितितत्त्वार्थसर्वमहाव्रतान्वि
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गौतमचरित्र। अर्थात् उसीको जिनवाणी कहते हैं ॥ १९३ ॥ जिसप्रकार सूर्यके उदय हुए विना संसारके पदार्थ दिखाई नहीं देते उसी प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवके वचनोंके बिना कभी ज्ञान नहीं हो सकता ॥१९.४॥ इसप्रकार कहे हुए देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । यह सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गके लिये पाथेय (टोसा-मार्गमें खाने योग्य पदार्थ) है और नरकादि दुर्गतियोंके द्वार बन्द करनेके लिये मजबूत अर्गल (दरवाजेके भीतर किवाड़ोंके पीछे लगी हुई मोटी लकड़ी) है ॥१९५॥ बुद्धिमान पुरुष बोधि शब्दसे सम्यग्दर्शनरूपी रत्नका ही ग्रहण करते हैं। यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न मूर्यके विंबके समान अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है और मिथ्यानयोंका क्षय करनेवाला है ॥ १९६ ॥ जिसप्रकार ज्योतिके बिना नेत्र शोभायमान नहीं होते, पीके विना भोजन शोभायमान नहीं होता और रात्रि चंद्रमाके बिना शोभायमान नहीं होती उसीप्रकार विना सम्यग्दर्शनके व्रत भी शोभायमान नहीं होते ॥ १९७॥ जिस प्रकार देवोंमें इन्द्र श्रेष्ठ है, तम् । धर्माधर्मफलं यत्र जिनवचो बुधैः स्मृतम् ।।१९३॥ जिनवचो विना बोधो न भवति कदाचन । सूर्योदयं विना लोके यथा पदार्थदर्शनम् ॥ १९४ ॥ एतेषु निश्चयो यत्र तत्सम्यक्त्वमुदीरितम् पाथेयं मुक्तिमार्गस्य दुर्गतिहाईढार्गलम् ॥ १९५ ॥ बोधिद्रव्येण सम्यक्त्वरत्नं गृह्णन्ति सद्धियः । अहंस्तमो रवेःबिंब दुर्नयक्षयकारकम् ॥ १९६ ॥ ज्योतिर्विना यथा नेत्रमघृतं भोजनं यथा । न शोभते निशाऽसोमा सम्यक्त्वेन विना व्रतम् ॥ १९७ ॥ शक्रः श्रेष्ठोऽस्ति
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चौथा अधिकार।
[१३७ समस्त मनुष्योंमें चक्रवर्ती श्रेष्ठ है और समुद्रोंमें क्षीरसागर श्रेष्ठ है उसी प्रकार व्रतोंमें सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है ॥ १९८ ॥ जो मनुष्य सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे सुशोभित है वह चाहे भूखा ही हो (दरिद्री हो) तथापि उसे असन्त धनी समझना चाहिये। यदि सम्यग्दर्शनरूपी धनसे रहित राजा भी हो तथापि उसे निर्धन ही समझना चाहिये ॥ १९९ ॥ इस सम्यग्दर्शनके प्रभावसे मनुष्योंको राज्य-सम्पदा प्राप्त होती है, भोग उपभोगकी बहुतसी सामग्री प्राप्त होती है, उनके रोगादिक सब दुःख नष्ट हो जाते हैं, उनका हृदय सदा धर्ममें तल्लीन रहता है, सब लोग उनकी सेवा करते हैं, उनकी आयु पूर्ण होती है, आज्ञाकारी पुत्र होते हैं, हाथी, घोड़े, बैल आदि सब प्रकारकी सवारियां मिलती हैं, वे असंत धनी होते हैं, बड़े ही विद्वान् होते हैं, वे अपने तेजसे मूर्यको भी जीतते हैं, समस्त संसारमें उनकी कीर्ति फैल जाती है, वे अपने रूपसे कामदेवको भी लज्जित करते हैं, अनेक स्त्रियां उनकी सेवा करती हैं, इंद्र, चक्रवर्ती आदिके उत्तम पद उन्हें प्राप्त होते हैं, देवेषु चक्री यथाखिले जने । क्षीरांबुधिः समुद्रेषु सम्यक्त्वं च तथा व्रते ॥१९८॥ बुभुक्षितोऽस्ति वस्वाट्यः सम्यक्त्वरत्नसंयुतः। नृपोपि दुर्विधःप्रोक्तो दर्शनधनवर्जितः ॥१९९॥ राज्यसंपत्तिसंयुक्ताः प्रचुरभोगधारिणः । रोगक्लेशविनिर्मुक्ता धर्मसंसक्तमानसाः ॥ २० ॥ निखिलजनसंसेव्या दीर्घायुषः सुपुत्रिणः । दंतिवृषतुरंगाड्या धनवंतः सुकोविदाः ॥ २०१॥ तेजसा जितमार्तडा विष्टपव्याप्तकीर्तयः । रूपनिर्मितकंदर्पा कामिनीवृन्दसेविताः ॥२०२॥ इंद्रचक्रिपदारूढा
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१३८]
गौतमचरित्र। वे निधि और रत्नोंके स्वामी होते हैं, अत्यंत मनोहर होते हैं और चारों प्रकारके देव उन्हें नमस्कार करते हैं ॥२००२०३ ॥ इस सम्यग्दर्शनके प्रभावसे मनुष्य तपश्चरणरूपी तलवारसे कर्मरूपी शत्रुओंके समूहको नाशकर, दो तीन भवमें ही मुक्त होजाते हैं ॥२०४॥ जहांपर इन देव, शास्त्र, गुरुकी निंदा की जाती है उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं । इस मिथ्यादर्शनके प्रभावसे मनुष्योंको नरकादि कुयोनियों में पड़ना पड़ता है । २०५ ॥ इस मिथ्यादर्शनके प्रभावसे जीव काने होते है, कुबड़े होते हैं, टेढ़े होते हैं, लंगड़े होते हैं, नकटे होते हैं, बौने होते हैं, बहरे होते हैं, गूंगे होते हैं, कोढ़ आदि अनेक रोगोंसे दुखी होते हैं, थोड़ी आयु पाते हैं, उनसे कोई स्नेह नहीं करता, वे पापी होते हैं, दरिद्री होते हैं, उन्हें बुरी स्त्री मिलती है, उनके पुत्र कुपुत्र होते हैं, वे दीन और दूसरोंके सेवक होते हैं और संसारमें सदा उनकी अपकीर्ति फैलती रहती है । इस मिथ्यादर्शनके ही प्रभावसे भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस आदि नीच व्यतर देव होते हैं, कौवा बिल्ली, सूअर रत्ननिधिसमन्विताः । सुरासुरनताः कांताः स्युः सम्यक्त्वयुताः नराः ॥२०३॥ तपःखड्गेन संहत्य कर्मसपत्नसंचयम् । द्विःत्रिभवैः शिवं यांति दर्शनव्रततो नराः ॥ २०४ ॥ एतेषां गर्हणा यत्र तन्मिथ्यादर्शनं मतम् । पंतति प्राणिनस्तस्मान्नरकादिकुयोनिषु ॥ २०५ ॥ काणाः कुब्नास्तथा वक्राः पंगवो गतनाशिकाः । बामना वधिरा मूकाः कुष्टादिरोगसंयुताः ॥२०६॥ अल्पायुषो गतस्नेहाः पापाढ्या धनवजिताः । कुस्त्रियः कुसुता दीनाः परभृत्या अकीर्तयः ॥ २०७॥
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चौथा अधिकार ।
[ १३६ :
आदि नीच जानवर होते हैं, क्रूर होते हैं और एकेंद्रिय वा निगोद में उत्पन्न होते हैं ।। २०६ - २०८ ॥ जो मनुष्य जिना -- लय ( जिनमंदिर) बनवाते हैं वे मनुष्य इस पृथ्वीपर पूज्य और धन्य माने जाते हैं, सब मनुष्योंमें उत्तम गिने जाते हैं, सुंदर होते हैं और उनकी निर्मल कीर्ति समस्त संसार में फैल जाती है ॥ २०९ ॥ खेत जोतना, कुएसे बहुतसा जल निकालना, जिसमें घोड़ा, बैल आदि जोतने पड़ें ऐसे रथ, गाड़ी आदि बनाना, घर बनाना, कूआ बनाना आदि हिंसा के आरंभ सब अधम पुरुष ही करते हैं ।। २१० ।। जो मनुष्य प्राणियोंकी हिंसा के दोषसे जिनालय बनवाना, भगवानकी पूजा करना आदि पुण्यकार्यों का निषेध करते हैं वे मनुष्य मूर्ख हैं और मरकर निगोदमें निवास करते हैं ।। २११ ।। जिसप्रकार विषकी छोटीसी बूंदसे महासागर दूषित नहीं होता उसीप्रकार मनुष्यको गुण्यकार्योंके करने में कोई दोष नहीं लगता ||२१२|| यदि कोई मनुष्य खेती आदि हिंसा के व्यंतरा भूतयक्षाद्याः काकमार्जारशूकराः । एकेंद्रियादयः क्रूराः स्युर्मिथ्यात्वाच्छरीरिणः ॥ २०८ ॥ विदधते जिनागारान् ये ते पूज्याः महीतले । धन्या नरोत्तमाः कांता विशदकीर्तिधारिणः ॥ २०९ ॥ क्षेत्रोत्कर्ष जलाकरथादिवृषवाहनम् । गृहकूपाद्यमेतेषामारंभं कुरुतेऽधमाः || २१० ॥ जिनपूजा गृहारंभं प्राणिहिंसनदोषतः । ये वर्जयंति ते मूढा नित्येतनिगोदिनः || २११ ॥ पुण्यकृतो मनुष्यस्य नारंभो दोषभाग्भवेत् । विषकणो महासिंधोर्न किंचिदूषको यथा ॥ २१२ ॥ क्षेत्रादिक कृतः पुंस आरंभो दोषभाग्भवेत् । प्रचुरपयसो
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२४०]
गौतमचरित्र ।
काम करता है तो उसे दोष अवश्य लगता है क्योंकि दूध चाहे कितना ही हो तथापि थोडीसी कांजी ही उसे विगाड़ देती है ॥ २१३ ॥ जिसप्रकार सूर्यके उदय होनेसे रात्रिका अन्धकार सब नष्ट हो जाता है उसीप्रकार जो मनुष्य मन, बचन, कायकी शुद्धतापूर्वक तीनों प्रकारके पात्रोंको दान देता है उसके पापसमूह सब नष्ट होजाते हैं ॥२१४॥ पात्रोंको दान देनेसे परिणाम शांत होते हैं, आगमकी दृद्धि होती है, चारित्रकी वृद्धि होती है, सब तरहके कल्याण होते हैं, पुण्यकी प्राप्ति होती है और ज्ञानविनय उत्पन्न होता है ॥२१५ ॥ पात्रोंको दान देनेसे रत्नत्रयादि गुणोंमें प्रेम होता है, लक्ष्मी वा धनकी प्रसिद्धि होती है, सब प्रकारसे आत्माका कल्याण होता है संसारमें सुख प्राप्त होता है और अनुक्रमसे स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥२१६॥ दान देनेसे ज्ञान बढ़ता है, कीर्ति बढ़ती है, सौभाग्य, बल, आयु, बुद्धि, कांति आदि सब गुण बढ़ते हैं, उत्तम स्त्रियां प्राप्त होती हैं और उत्तम सुपुत्रोंकी वृद्धि होती है ॥ २१७ ॥ जिस प्रकार गाय, भैंस आदि दूध देनेवाले पशुओंको घास खिलानेसे दूध उत्पन्न ल्पीयो दोषाय कांनिकं यथा ॥२१३॥ दानं त्रिविधपात्रेभ्यो ददते यो विशुद्धितः । तेषां नश्यति पापौघं सूर्यान्निशातमो यथा ॥२१४॥ प्रशमागमचारित्रवर्द्धनं शुभदायकम् । सुकृतोत्पादनं दानं ज्ञानविनयकारकम् ॥२१५॥ गुणप्रीतिरमाख्यातिहितसंसृतसौख्यकम् | क्रमास्वर्ग च निर्वाणं जायंते पात्रदानतः ॥२१६॥ ज्ञानसुकीर्तिसौभाग्यःबलायुर्बुद्धिकांतयः । वरयोषित्सुपुत्राश्च वर्द्धते दानतो ध्रुवम् ॥२१७॥
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चौथा अधिकार।
[१४१ होता है उसी प्रकार सुपात्रोंको दान देनेसे चक्रवर्ती, इंद्र, नागेंद्र आदिके अपार सुख प्राप्त होते हैं ॥२१८॥ जो दान दीन दुखी पुरुषोंको दयापूर्वक दिया जाता है वह भी भगवान जिनेंद्रदेवने प्रशंसनीय कहा है और उससे भी मनुष्यपर्यायकी प्राप्ति होती है ॥ २१९ ॥ मित्र, शत्रु, राजा, दास, वैद्य, ज्योतिषी, भाट आदि लोगोंको जो कार्यके बदले दान. दिया जाता है उससे कोई पुण्य नहीं होता ।।२२०॥जो कोढ़ी हैं, जिनके पेटमें दर्द है, शूल है, खांसी है, दमा है ऐसे रोगियोंको यथायोग्य रीतिसे औषधदान देना चाहिये ॥२२॥ औषधदान देनेसे प्राणियोंको सुवर्णके समान सुंदर शरीर प्राप्त होता है, वे अपने रूपसे कामदेवको भी लज्जित करते हैं और सदा सब रोगोंसे दूर रहते हैं ।। २२२ ॥ इसीप्रकार जो मनुप्य एकेद्रिय आदि जीवोंको अभयदान देता है उसकी सेवा उत्तम स्त्रियां रात दिन करती रहती हैं ॥ २२३ ॥ इस दत्तं दानं सुपात्रेभ्यो भूयिष्ठसुखदं भवेत् । चक्रिनागेंद्रशक्राण गोमहिप्यादिदुग्धवत् ॥२१८॥ दीनेभ्यो दीयते दानं तच्च दयानिरूपणम् । श्लाव्यं जिनेश्वरैः प्रोक्तं नरभवादिदायकम् ॥२१९॥ मित्रारिभूपदासेयवैद्यदैवज्ञचारणाः । एभ्यो यद्दीयते दानं कार्यार्थ न तु पुण्यभाक् ॥ २२० ॥ कुष्टोदरव्यथाशूलस्वासकासादिरोगिणः । स्युस्तेभ्यो भेषजं दानं प्रदातव्यं यथोचितम् ॥२२१॥ लभंते प्राणिनस्तस्माच्छरीरं कनकोपमम् । रूपनिर्जितकंदर्प सर्वरोगविवर्जितम् ॥२२२॥ एकेंद्रियादिजीवेभ्योऽभयं दानं प्रयच्छति । योऽसौ सीमंतिनीवृंदैः संवियते दिवानिशम् ॥ २२३ ॥ रणांगणे महारण्ये गिरौ
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१४२]
गौतमचरित्र। अभयदानके प्रभावसे युद्धके मैदानमें, गहन वनमें, पर्वतपर, नदियोंमें, समुद्रोंमें और सिंह, सर्प आदि घातक जीवोंमें भी सदा निर्भय रहता है ।।२२४॥जो श्रीसर्वज्ञदेवके वदनारविंदसे प्रगट हुआ हो, जिसमें अहिंसा आदि व्रतोंका वर्णन हो और शिष्योंको धर्मकी शिक्षा देनेवाला हो, वह आर्हतमतमें शास्त्र कहलाता है ॥ २२५ ॥ जो मनुष्य ज्ञान बढ़ानेवाले शास्त्रोंको लिखा लिखाकर पात्रोंको देता है वह सब शास्त्रोंका पारगामी होजाता है ॥ २२६ ॥ अनेक प्रकारके अनर्थ करनेमें तत्पर रहनेवाले जो मनुष्य शस्त्र, लोहा, रस्सी, गाय, भैंस, ऊंट, घोड़ा, पृथ्वी, सोना, चांदी, सोनेकी बनी हुई गाय और स्त्रियां आदि पाप उत्पन्न करनेवाले पदार्थो को दान देते हैं वे महासागरके समान अनेक दुःखोंसे भरी हुई नरकादिक दुर्गतियोंमें पड़ते हैं ॥ २२७-२२८ ॥ शास्त्रदानके श्भावसे जीव इन्द्र होते हैं। वहां वे भगवान तीर्थकर परमदेवके कल्याणकोंमें लीन रहते हैं, अनेक देवियां उनकी सेवा करती हैं और सरिति सागरे । सर्पादौ निर्भया जीवा जायतेऽभयदानतः ॥२२४॥ सर्वज्ञवकसंजातमहिंसादिव्रतान्वितम् । शिष्यसद्धर्मदं यत्तच्छास्त्रं प्रोक्तं दिगंबरैः ॥ २२५ ॥ पात्रेभ्यो ददते शास्त्रं लेखयित्वा नरोत्तमाः। पटुत्वकारकं नित्यं ते स्युः सुशास्त्रपारगाः ॥ २२६ ॥ शस्त्रं लोहं तथा रज्जुर्गोमहिषीमयाहयः । भूमिकनकरूप्याणि स्वर्णनिर्मितगौः स्त्रियः ॥२२७॥ दुःखसागरपूर्णेषु महानर्थरताः सदा । एषां कुर्वति ये दानं ते पतंति कुयोनिषु ॥ २२८ ॥ जिनकल्याणसंरक्ता देवांगनौघसेविताः । नाकेशाः शास्त्रदानात्ते स्युः सागरोपमायुषः ॥२२९॥
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चौथा अधिकार। [१४३ सागरोंकी उनकी आयु होती है ॥२२९॥ वहांसे आकर वे मनुष्यभव पाते हैं । मनुष्यभवमें भी स्त्रियोंके सुख भोगते हैं, बड़े धनी होते हैं, यशस्वी और सौभाग्यशाली होते हैं, भगवान जिनेन्द्रदेवकी सेवामें लीन रहते हैं, पात्रदानमें अपना मन लगाते हैं, अपनी कांतिसे सूर्यको भी लज्जित करते हैं, सदा मधुरभाषण करते हैं, देव लोग भी उनके अनेक उत्सव मनाया करते हैं, दया आदि अनेक व्रतोंको धारण करते हैं, सब मनुष्योंमें उत्तम होते हैं, अंतमें संसार, शरीर भोगोंसे विरक्त होकर जिनदीक्षा धारण करते हैं, मुनि होकर भी वे सदा शास्त्रोंके अभ्यास करनेमें तल्लीन रहते हैं और परोपकार करने में तत्पर रहते हैं। फिर घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, अनेक देशोंमें परिभ्रमण कर भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देते हैं और फिर चौदहवें गुणस्थानमें 'पहुंचकर मुक्त हो जाते हैं ।। २३०-२३४ ॥ इन ऊपर लिखे व्रतोंके समान व्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको रात्रि मनुष्यत्वं पुनः प्राप्य भुंजते रमणीलुखम् । भूरिद्रविणसंयुक्ता यश:सौभाग्यमानिनः ॥२३०॥ जिनसेवासमासक्ताः पात्रदानसुमानसाः । कांतितर्जितमार्तडाः संततं मृदुभाषिणः॥२३१॥ देवैः कृतमहोत्साहा दयादिवतिनो वराः । संसारभोगनिर्विण्णाः निनदीक्षासमाश्रिताः ॥२३२॥ शास्त्राभ्यसनसंसक्ताः परोपकृतितत्पराः । केवलज्ञानिनस्ते स्युः कृत्वा मुदुस्सहं तपः ॥२३३॥ नानादेशान् परिभ्रम्य संबोध्य भव्यसंचयान् । चतुर्दशगुणस्थानं प्राप्य ते यांति निवृतिम् ॥२३४॥ निशाहारः परित्याज्यः श्रावकैव्रतधारिभिः । हिंसांगोंऽहोलतामुलं
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१४४ ]
गौतमचरित्र |
भोजनका भी परियाग कर देना चाहिये क्योंकि रात्रिभोजन भी हिंसाका एक अंग, पापरूपी वेलकी जड़ है और स्वर्गादिक उत्तम गतियों का नाश करनेवाला है || २३५ ॥ रात्रिके समय जीवोंका संचार अधिक होता है इसलिये भोजन में ऐसे छोटे छोटे कीड़े मिल जाते हैं जो नेत्रोंसे देखे भी नहीं जा सकते इसलिये धर्मबुद्धिको धारण करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है जो ऐसा निंद्य रात्रिभोजन करे ।। २३६ ॥ रात्रि - भोजन करनेके पापसे ये जीव सिंह, उल्लू, बिल्ली, कौआ, कुत्ते, गीध और मांसभक्षी भील आदि नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं ||२३७|| जो शास्त्रोंको जाननेवाले विद्वान् पुरुष रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनका त्याग कर देते हैं उन्हें एक महीने में पंद्रह दिन उपवास करनेका फल प्राप्त होता है ॥ २३८ ॥ इसप्रकार मुनि और श्रावकोंके भेदसे बतलाये हुए दोनों प्रकारके धर्मको जो रात दिन धारण करते हैं वे इंद्र, चक्रवर्ती आदि उत्तम पदोंका उपभोग कर अवश्य ही मोक्षके अनुपम सुखको प्राप्त करते हैं ||२३९|| इसप्रकार भगवान महावीर - सद्गतिक्षयकारकः || २३५|| लोचनविषयैर्हीनं कृमिकीटादिसंकुलम् । निशायामशनं केन क्रियते धर्मबुद्धिना ||२३६|| सिंहोल्काखुभुक्काकलोकशुन कगृध्रकाः । मांसाशिनः प्रजायंते पुलिंदा निशिभोजनात् ||२३७|| त्यजति चतुराहारं निशि ये शास्त्रकोविदाः । मासेन जायते तेषां फलं पक्षोपवासभाक् ॥ २३८ ॥ इति द्विविधधर्मं ये प्रकुर्वन्ते दिवानिशम् । ते चक्रयादिपदं भुक्त्वा मोक्षं यास्यति निश्चितम् ॥२३९॥ तदा श्रेणिकभूपाद्याः मानवा जगृहुर्व्रतम् । केचिच्च श्रावका
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चौथा अधिकार। स्वामीके उपदेशको सुनकर श्रेणिक आदि कितने ही राजाओंने और कितने ही मनुष्योंने व्रत धारण किये। कितने ही मनुष्योंने श्रावकोंके व्रत धारण कर लिये और कितने ही मनुष्योंने दीक्षा धारण कर ली॥२४०॥ तदनन्तर संसाररूपी समुद्रसे पार करदेनेके लिये जहाजके समान भगवान् गौतम गणधर श्रीमहावीरस्वामीके उपदेशानुसार भव्यजीवोंको उपदेश देने लगे ॥२४१ ॥ तदनन्तर वे मुनिराज गौतमस्वामी आठों कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेके लिये, कल्याण करनेवाला, कामरूपी अग्निको शांत करनेके लिये जलके समान ऐसा उत्तम तपश्चरण करने लगे ॥ २४२॥ तपश्चरण करते करते किसी एक दिन वे गौतम मुनिराज एकांत प्रामुक स्थानमें विराजमान हुए। उस समय वे निश्चल ध्यानमें लीन थे और कर्मोके नाश करनेका उद्योग कर रहे थे ॥२४३॥ प्रथम ही उन्होंने अधःकरण, अपूर्वकरण, अनि. वृत्तिकरण इन तीनों करणोंके द्वारा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीयकी प्रकृतियां और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय इसप्रकार सम्यग्दर्शनको घात करनेवाली सातों प्रकृजाताः केचिच्च प्रव्रजिता द्रुतम् ॥ २४० ॥ अथ श्रीवीरवाक्येन बोधयामास मानवान् । स गौतमो गणाधीशो भवाब्धितारपोतकः ॥२४१॥ ततो योगी करोतिस्म श्रेयस्करं तपः शुभम् । कर्माष्टशत्रुनाशाय कामाग्निशमनोदकम् ॥ २४२॥ कदाचित्पासुके देशे तस्थौ रहसि गौतमः । ध्यानाचलसमारूढः कर्मक्षयकृतोद्यमः ॥ २४३ ॥
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१४६]
गौतमचरित्र। 'तियोंका नाश किया अर्थात् इनको नाश कर वे क्षपकश्रेणीमें
आरूढ़ हुए ॥२४४॥ फिर वे मुनिराज अपने ध्यानके बलसे तिर्यंच आयु, नरकायु और देवायुको नाशकर शेष कर्मोको नाश करनेके लिये नौवें गुणस्थानमें जा विराजमान हुए ॥२४५॥ वहांपर उन्होंने स्थावर नामकर्म, एकेंद्रिय जाति, द्वींद्रिय जाति, तेइंद्रिय जाति, चौइंद्रिय जाति, तिर्यंचगति, तिर्यंचगसानुपूर्वी, नरकगति, नरकगसानुपूर्वी, साधारण आतप, उद्योत, निद्रानिद्रा, प्रचलामचला, स्त्यानगृद्धि और सूक्ष्म नामकर्म ये सोलह प्रकृतियां नौवें गुणस्थानके पहले अंशमें नष्ट की। फिर अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रसाख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कपायोंको दूसरे अंशमें नष्ट किया, फिर नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुल्लिंग, संज्वलन, क्रोध, मान, माया ये सब प्रकृतियां नष्ट की। उबलन, लोभप्रकृति, मुक्ष्मसापराय नामके दश गुणस्थानमें नष्ट की। निद्रा, प्रचला वारहवें गुणस्थानके उपांत्य सश्यों नष्ट की। दर्शनमोहनीयस्य त्रिःपळतीर्ननाश सः । चतुष्कं च कापायस्य करणत्रययोगतः ॥२४४॥ तिर्यग्नारकदेवायुर्नित्वा ध्यानबलान्मुनिः । नवमे च गुणस्थाने रुरोह क्षपणोद्यतः ॥२४५॥ स्थावरं च चतुर्जातीः सतियेग्नरकद्विकम् । साधारणातपोद्योतास्त्रिनिद्राः सूक्ष्मनामकम् ॥ २४६ ॥ षोडशप्रकृतीस्तत्र संहत्य प्रथमांशकद्वतीयांशे स चिक्षेप कषायमध्यमाष्टकम् ॥ २४७ ॥ क्रमाला। पंडत्वं स्त्रीत्वं हास्यादिषष्ठकम् । नृत्वं क्रोधं मुनेर्मानं मायां संज्यर तथा ॥२४॥
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चौथा अधिकार।
[१४७ इसी बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें पांचों ज्ञानावरण, शेषकी चारों दर्शनावरण और पांचों अन्तराय कर्म नष्ट किये ॥१४६-२४९ ॥ इसप्रकार तिरेसठ प्रकृतियोंको नष्ट कर वे गौतम मुनिराम केवलज्ञानको पाकर तेरहवें गुणस्थानमें जा बिराजमान हुए। वहांपर उन्हें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये चारों अनन्तचतुष्टय प्राप्त हुए ॥२५०॥ उसी समय देवोंने गंधकुटीकी रचना की, उसमें वे केवली भगवान विराजमान हुए और इन्द्रादिक सब देव उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार करने लगे ॥२५॥ सब मुनिराज, गणधर और राजाओंने बड़ी भक्तिसे श्रीगौतमस्वामीकी पूजा की, उन्हें नमस्कार किया और फिर वे सब अपने अपने योग्य स्थानपर बैठ गये ॥२५२।। जिन गौतमस्वामीने अलोक सहित तीनों लोकोंको देखा है, जिन्होंने विषयोंका समुदाय सब नष्ट कर दिया है, जिन्होंने कामदेवको लीलापूर्वक नाश कर डाला है और जो ब्राह्मणवंशको सुशोभित करनेके लिये मणिके समान हैं ऐसे वे केवली भगवान श्रीगौतम-. लोभं संज्वलनं सूक्ष्मे संहत्य द्वादशे गुणे । निद्रायुग्मं तथा विघ्नं सर्वावरणमाक्षिपत्॥२४९॥ क्रमेण केवलज्ञानं प्राप्य त्रयोदशं गुणम्। रुरोह गौतमो योग्यनंतज्ञानादिसंयुतः ॥ २५० ॥ देवनिर्मापितायां वै गंधकुट्यां प्रसंस्थितम् । भक्त्या केवलिन नेमुः शक्राद्या निर्जरास्ततः ॥ २५१ ॥ अर्चयित्वा महाभक्त्या प्रणम्य स्वामिनं जिनम् । मुनीद्राः गणिनो भूपा यथास्थानमुपाविशन् ॥ २५२ ॥ दृष्टं येन जगत्रयं हि तरसा सालोकमुन्मीलितो, येनाहो विषयव्रनो रतिप
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१४८]
गौतमचरित्र। स्वामी तुम लोगोंको शुभ और मोक्ष प्रदान करनेवाला भव्यज्ञान अर्थात् केवलज्ञान सदा देते रहें । इसप्रकार मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्रविरचित श्रीगौतमस्वामी चरित्रमें श्रीगौतमस्वामीके केवलज्ञानकी उत्पत्तिको वर्णन करनेवाला
यह चौथा अधिकार समाप्त हुआ। BEEEEEN
अथ पांचवां अधिकार । तदनन्तर परवादीरूपी हाथियोंके लिये सिंहके समान वे भगवान गौतमस्वामी भव्यजीवोंको आत्मज्ञान उत्पन्न करनेवाली उत्तम सरस्वतीको प्रगट करने लगे अर्थात् उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी ॥१॥ दिव्यध्वनिमें प्रगट हुआ कि श्रीजिनेन्द्रदेवने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा
और मोक्ष ये सात तत्त्व निरूपण किये हैं ॥ २॥ जो अंतरंग और बहिरङ्ग प्राणोंसे पहले भवोंमें जीता था, अब
भी जीता है और आगे भी जीवेगा उसे जीव कहते हैं। "तिव॑सीकतो हेलया । येन ब्राह्मणवंशमंडनमणिर्मुक्तिप्रदं वः शुभं, सोऽयं गौतमकेवली प्रकुरुतां भव्यप्रबोधं सदा ॥२५३॥ इति श्रीगौतमस्वामिचरिते श्रीगौतमकेवलज्ञानोत्पतिवर्णनं
नाम चतुर्थोऽधिकारः ।
अथासौ गौतमो योगी जगौ सरस्वतीं वराम् । परवादीभपंचास्यो भव्यजीवप्रबोधिनीम् ॥१॥जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरास्तथा। मोक्षश्च सप्ततत्त्वानि प्रोक्तानि श्रीजिनेश्वरैः ॥ २ ॥ पूर्वभवांतरे
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पांचवां अधिकार।
[१५६ यह जीव अनादिकालसे स्वयं सिद्ध है ॥ ३ ॥ यह जीव भव्य, अभव्यके भेदसे दो प्रकारका है, अथवा संसारी और सिद्धके भेदसे दो प्रकारका है, अथवा सेनी असेनीके भेदसे दो प्रकारका है अथवा त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ४ ॥ उनमेंसे पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पांच स्थावरोंके भेद हैं और दोइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय, ये चार त्रसोंके भेद हैं ॥५॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और कर्ण ये पांच इंद्रियां हैं तथा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शद्ध ये उन इंद्रियोंके विषय हैं ॥६॥योनियां तीन प्रकारकी हैं, शंखावर्त, पद्मपत्र
और वंशपत्र। इनमेंसे शंखावर्त योनिमें कभी गर्भ नहीं रहता यह बात निश्चित है ॥७॥ पद्मपत्र योनिसे तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र आदि पदवीधर और साधारण पुरुष उत्पन्न होते हैं तथा वंशपत्र योनिसे साधारण मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं ॥८॥ जीवोंके जन्म तीन प्रकारसे जीवद्यो जीविष्यति जीवति । बहिरभ्यंतरैः प्राणैर्जीवः सोऽनादिसिद्धकः ॥ ३ ॥ भव्याभव्यैर्द्विधा जीवः सिद्धाः संसारिणः पुनः । समनस्कामनस्काश्च त्रसस्थावरिणस्तथा ॥ ४ ॥ पंचधा स्थावरास्तत्र पृथ्वीजलाग्निवायवः । बनस्पतिस्तथा ज्ञेयास्त्रसाश्च द्वींद्रियादयः॥१॥ स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्रंद्रियाणि च । स्पर्शरसौ तथा गंधो वर्णः शब्दस्तदर्थकाः ॥६॥ शंखकुमुदवंशानामावर्तभेदतस्त्रिधा । योनयस्तत्र चाद्यायां गर्भो नास्ति विनिश्चितम् ॥७॥ पद्मयोनौ जिनाश्चक्रिकेशवाः प्रतिशत्रवः । हलिनोऽपि प्रजायंते शेषायां विश्वमानवाः॥८॥
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१५.]
गौतमचरित्र। होते हैं, संमूर्छन गर्भ और उपपाद तथा उनकी योनियां सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संतृत, विकृत, संटतविस्त ये नौ प्रकारकी हैं ॥ ९॥ जिन जीवोंके ऊपर उत्पन्न होते समय जरा आती है, जो अंडेसे उत्पन्न होते हैं और जिनके ऊपर जरा नहीं आती और उत्पन्न होते ही भगने लग जाते हैं वे जरायुज, अंडज और पोत तीनों प्रकारके जीव गर्भसे उत्पन्न होते हैं तथा देव, नारकी उपपादसे उत्पन्न होते हैं और बाकीके सब जीव संमूर्छन उत्पन्न होते हैं ॥ १० ॥ ऊपर योनियोंके जो नौ भेद बतलाये हैं वे जिनागममें संक्षेपसे बतलाये हैं । यदि वे भेद विस्तारके साथ कहे जांय तो चौरासीलाख होते हैं ॥ ११ ॥ निसनिगोद, इतर निगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक और वायुकायिक इनकीसात सात लाख योनियां हैं इनमें जीव सदा परिभ्रमण किया करते हैं ॥ १२ ॥ वनस्पतिकायिक जीवोंकी दसलाख योनियां हैं। दो इंद्रिय, ते इंद्रिय चौ इंद्रिय इनकी दो दो लाख योनियां हैं। इनमें ये जीव प्रसम्मूर्छनगर्भोपपादात्तेषां जनिस्त्रिधा । सचित्तशीतसंवृत्ता योनयो मिश्रसेतराः ॥९॥ जराचंडजपोतानां गर्भस्तथौपपादिकः । अमरनारकाणां च शेषाः सम्मूच्छिनो मताः ॥१०॥ योनयो नवधाः प्रोक्ताः संक्षेपतो जिनागमे । विस्तरेण तथा ज्ञेयाः चतुरशीतिलक्षिकाः॥११॥ नित्येतरनिगोदेषु चतुः स्थावरकेषु च । द्विचत्वारिंशल्लक्षासु जीवो भ्राम्यति नित्यशः ॥ १२ ॥ दशलक्षाः हरित्काये षट् विकलेंद्रियेषु च । जन्ममरणदुःखानि तत्र भुक्ते निरंतरम् ॥ १३ ॥ असुरोक्तांग
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पांचवां अधिकार ।
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सदा जन्ममरणके दुःख भोगा करते हैं ।। १३ ।। नारकियों की चार लाख योनियां हैं, ये परस्पर एक दूसरेको दुःख दिया करते हैं, क्षेत्रसंबंधी शीत और उष्णताके दुःख भोगा करते हैं, मानसिक व शारीरिक दुःख भोगा करते हैं और असुर कुमारदेवों के द्वारा दिये हुए दुःख भोगा करते हैं । इसप्रकार पांच प्रकारके दुःख नारकी सदा भोगा करते हैं ॥ १४ ॥ तिर्यचोंकी चार लाख योनियां हैं ये तिर्यंच भी बांधना, मारना, छेदना, भूख, प्यास, बोझाढोना, आदि अनेक प्रकारके दुःख भोगते हुए इन योनियों में परिभ्रमण किया करते हैं || १५ || मनुष्योंकी चौदह लाख योनियां हैं । इन योनियों में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य भी इष्टवियोग और अनिष्टंसयोगसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके दुःख भोगा करते हैं । ॥ १६ ॥ इसीप्रकार देवोंकी चार लाख योनियां हैं इनमें परिभ्रमण करते हुए देव भी मानसिक दुःख भोगा करते हैं । हे राजन् ! इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है | १७ || गर्भ से उत्पन्न हुए स्त्री पुरुष, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंग तीनों लिंगोंको धारण करनेवाले होते हैं, देव और भोगभूमियां स्त्रीलिंग हृत्क्षेत्रजातं परस्पराहतम् । दुःखं पंचविधं भुंक्ते चतुर्लक्षासु नार ॥ १४ ॥ तिर्यग्गतौ चतुर्लक्षे दुःखं भुक्ते निरंतरम् । बधबंधन छेदोत्थं क्षुत्तृषाभारधारणम् ॥१५॥ इष्ट वियोगतो जातं दुःखमनिष्टयोगतः । स चतुर्दशलक्षासु लभते मानुषे भवे ॥ १६ ॥ देवगतौ चतुर्लक्षे दुःख मानससंभवम् । स महीनाथ ! कुत्रापि नास्ति शातं च संसृतौ ॥१७॥ 'गर्भजा नरतिर्यंच स्त्रि वेदगाच कल्पजाः । भोगभूमिसमुद्भूताः प्रभवंति
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गौतमचरित्र ।
और पुल्लिंग दो ही लिंगोंको धारण करनेवाले होते हैं ।। १८ ।। एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, ते इंद्रिय, चौइंद्रिय, सम्मूर्च्छनपंचेंद्रिय और नारकी ये सब नपुंसकलिंग ही होते हैं ऐसा श्रीसर्वज्ञदेवने कहा है ।। ९९ ।। एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, ते इंद्रिय, चौ इंद्रिय इनके अनेक संस्थान होते हैं और सदा दुःखी रहनेवाले नारकियोंके हुडक संस्थान होता है || २० ॥ देव और भोगभूमियोंके समचतुरस्र संस्थान होता है और बाकी मनुष्य व तिर्यचोंके छहों संस्थान होते हैं ॥ २१ ॥ उत्कृष्ट स्थिति ( सबसे अधिक आयु ) देव नारकियोंकी तीस सागर है, व्यन्तर व ज्योतिषियोंकी एक पल्य है, भवनवासियोंकी एक सागर है ||२२|| प्रत्येक वनस्पतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्ष है और सूक्ष्म वनस्पतियोंकी ( साधारणवनस्पतियोंकी) अन्तर्मुहूर्त है || २३ ॥ पृथ्वीकायिक जीवोंकी बाईस हजार वर्ष है, जलकायिक, जीवोंकी सात हजार वर्ष है, वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार वर्ष है और अग्निकायिक द्विवेदाः ॥ १८ ॥ एकाक्षा हुंडसंस्थाना विकलाक्षा नपुंसकाः । सम्मूर्च्छनाश्र पंचाक्षाः श्रीसर्वज्ञेन भाषिताः ॥ १९॥ एकाक्षा विकलाक्षाश्च बहुसंस्थानधारिणः । नारका हुंडसंस्थाना ज्ञातव्या दुःखिताः सदा ॥२०॥ समेन चतुरस्रेण संस्थानेन युताः सुराः । भोगभूजाश्व तिर्यच षट्संस्थानभृतो नराः ॥ २१ ॥ स्थितिर्नारकदेवानां त्रयस्त्रिशत्पराब्धयः । व्यंतरज्योतिषां पल्यं वार्द्धिर्भवनवासिनाम् ॥ २२ ॥ समा दशसहस्राणि सत्प्रत्येकबनस्पतेः । परा स्थिति सूक्ष्माणामंतमुहूर्त इष्यते ॥ २३ ॥ द्वाविंशतिसहस्राणि सप्त च भूमिवारिणाम् ।
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पांचदां अधिकार।
[ १५३ जीवोंकी तीन दिनकी उत्कृष्ट स्थिति है ॥२४॥ द्वींद्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष है और तेइंद्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति श्रीजिनागममें उनचास दिनकी बतलाई है ॥२५॥ चतुरिंद्रय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति छह महीनेकी है और पंचेंद्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्यकी है तथा इन्हींकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्तकी है ॥ २६ ॥ जिनागममें द्रव्य छह बतलाये हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल । इनमेंसे धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य अजीव भी हैं और काय (वहुप्रदेशी) भी हैं ॥२७॥ इन छहों द्रव्यों मेंसे पुद्गलद्रव्य रूपी है और बाकी सब अरूपी हैं तथा सभी द्रव्य नित्य हैं। जीव और पुगल दो द्रव्य क्रियावाले हैं और बाकी चार द्रव्य क्रिया रहित हैं ॥२८॥ धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं, पुद्गलोंमें संख्यात, असंख्यात और अनंत तीनों प्रकारके प्रदेश हैं, आकाशके अनंत प्रदेश हैं और कालका एक एक प्रदेश है ॥ २९ ॥ दीपकके प्रकाशके समान जीवोंके प्रदेशोंमें भी पवनानां परा त्रीणि स्थितिवन्हेर्दिनत्रयम् ॥ २४ ॥ द्वादशवत्सराः प्रोक्ता द्वींद्रिये च परा स्थितिः । त्र्यक्षे चैकोनपंचाशदिनानि श्रीजिनागमे ॥२५॥ चतुरक्षे च षण्मासा उत्कृष्टायुःस्थितिर्मता । पंचाक्षे त्रीणि पल्यानि जघन्यांतर्मुहूर्तिका ॥२६॥ अजीवकायका धर्माधर्माकाशानि पुद्गलाः। जीवाः द्रव्याणि कालश्च षट् प्रोक्तानि जिनागमे॥२७॥ अरूपाणि च नित्यानि रूपिणः पुद्गलास्तथा । निष्क्रियाणि च चत्वारि क्रियिणौ जीवपुद्गलौ ॥ २८ ॥ धर्माधर्मैकनीवानामसंख्येयाः ।
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गौतमचरित्र। संकोच होने और फैलनेकी शक्ति है । इसीलिये वह छोटे बड़े शरीरमें जाकर शरीरके आकारका होजाता है। शरीर, बचन, मन और श्वासोच्छ्वास पुद्गलके उपकार हैं। पुद्गल इनके द्वारा जीवोंका उपकार करता है ॥ ३० ॥ जिसप्रकार मछलियोंके चलने में जल सहायक होता है उसी प्रकार जीव तथा पुद्गलोंके चललेनेमें धर्मद्रव्य सहायक होता है तथा जिसप्रकार पथिकोंके ठहरनेके लिये छाया सहायक होती है उसी प्रकार जीव व पुदलोंके ठहरनेमें अधर्म द्रव्य सहायक होता है ॥३१॥ द्रव्योंके परिवर्तन होने में जो कारण है उसको काल कहते हैं। वह क्रिया, परिणमन, परत्वापरत्व (छोटा बड़ापन) इनसे जाना जाता है। अर्थात् क्रिया ( हवा वादकोंका चलना ) परिणमन (रूपांतर होना) और परत्वापरत्व (१५ वर्षका बड़ा १० वर्षका छोटा) यह कालका उपकार है । सब द्रव्योंको अवकाश देना आकाशद्रव्यका उपकार है ॥ ३२ ॥ द्रव्यका लक्षण सत् है । जो प्रतिक्षण उत्पन्न होता हो, नष्ट होता हो और ज्योंका सों बना रहता हो उसे सत् कहते हैं। प्रदेशकाः । पुद्गलानां त्रयोऽनंताः स्वस्य कालस्य चैककः ॥ २९ ॥ प्रसंहारविसर्पाभ्यां प्रदेशानां प्रदीपवत् । जीवः शरीरवाञ्चित्तपाणापानाश्च पुद्गले ॥ ३० ॥ धर्माधर्मी गतिस्थित्योर्जीवपुद्गलयोर्मतौ । जलछाये यथा मत्स्यपाथयोः सहकारिणौ ॥३१॥ द्रव्यप्रवर्तनारूपपरत्वापरत्वेन च । अनुमेयश्च कालोऽयमाकाशं चावगाहनम् ॥३२॥ गुणपर्ययवद्ध्रौव्योत्पादव्यययुतं च सत् । तदद्रव्यलक्षणं शुद्धं श्रीसवैज्ञेन भाषितम् ॥३३॥ शरीरवाङ्मनःकर्म योगौ यौ च शुभाशुभौ ।
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पांचवां अधिकार ।
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अथवा जिसमें गुण हों और पर्यायें हों उसको द्रव्य कहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं उन सबकी पर्यायें बदलती रहती हैं । पर्यायोंका बदलना ही उत्पाद व्यय है तथा 1 द्रव्यमें गुण सदा बने रहते हैं इसलिये गुणोंकी अपेक्षासे द्रव्यमें धौव्यपना रहता है । इसप्रकार जिसमें गुण पर्याय हों अथवा उत्पाद, व्यय, धौव्य हों उसको द्रव्य कहते हैं ऐसा श्रीसर्वज्ञदेवने कहा है ॥ ३३ ॥ मन, बचन, शरीरकी क्रियाको योग कहते हैं । वह योग शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है । शुभयोग अर्थात् मन, बचन, कायकी शुभ क्रियाओंको पुण्य कहते हैं और अशुभयोग वा अशुभ क्रियाओंको पाप कहते हैं ||३४|| मिथ्यात्व, अविरत, योग और कषायोंसे जो कर्म आते हैं उसे आस्रव कहते हैं । इनमें से मिथ्यात्व पांच प्रकारका है, अविरत बारह प्रकारका है, योग पंद्रह प्रकारका है और कषायके पच्चीस भेद हैं ||३५|| एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पांच मिथ्यात्व के भेद कहलाते हैं || ३६ || छह प्रकार के जीवोंकी रक्षा न करना और पांचों इंद्रिय तथा मनको वशमें न करना, इंद्रियोंके विषयों में लगे रहना, इसप्रकार असंयमके पुण्यपापास्रवौ ज्ञेयौ तौ सर्वज्ञेन भाषितौ ॥ ३४ ॥ मिथ्यात्वाविरतेर्यो - गात्कषायादास्रवो भवेत्। पंचद्वादशतद्भेदाः सप्ताष्टौ पंचविंशतिः॥३५॥ एकांतो विपरीतश्च विनयः संशयस्तथा । अज्ञानं चेति मिथ्यात्वं पंचविधं प्रकीर्तितम् ॥ ३६ ॥ षड्जी बकायपंचाक्षसनो विषयभेदतः असंयमो जिनाधीशैः संप्रोक्तो द्वादशो विधः ॥ ३७ ॥ सत्यासत्योभयानां
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गौतमचरित्र। वा अविरतके बारह भेद श्रीसर्वज्ञदेवने कहे हैं ॥ ३७॥ ससमनोयोग, असयमनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग ये चार मनोयोगके भेद हैं, सत्यवचनयोग, अससबचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग ये चार बचनयोगके भेद हैं ॥३८॥ औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्माणकाययोग ये सात काययोगके भेद हैं ॥ ३९ ॥ कषायके दो भेद हैं। कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । इनमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रयाख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रयाख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान माया, लोभ ये सोलह भेद कषायवेदनीयके हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग ये नौ नोकपायवेदनीयके भेद हैं । इसप्रकार सब मिलकर पच्चीस भेद कषायके हैं ॥४०-४२॥ जिसप्रकार समुद्रमें पड़ी हुई नावमें चानुभयस्यापि भेदतः । चतुर्विधो मनोयोगो बचोयोगस्तथैव च ॥ ३८ ॥ औदारिकं च सन्मिश्रं वैक्रियिकं च मिश्रकम् । आहारकं द्विकं कार्मकाययोगाश्च सप्तधा ॥३९॥ क्रोधादिमानमायानां लोभस्य च कषायकः। अनंताद्यनुवंध्यप्रत्याख्यानभेदतोऽष्टधा ॥४०॥प्रत्याख्यानात्तथा सूक्ष्मादष्टविधाः प्रकीर्तिताः। कषायवेदनीयस्य भेदाः षोडशधा मताः ॥४१॥ हास्यरतिजुगुप्साश्चारतिशोकभयस्त्रियः । नृपंडौ नोकषायस्य भेदा नवविधाः मताः ॥ ४२ ॥ नावि छिट्टैर्यथा वा धों
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पांचवां अधिकार ।
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छिद्र होजानेसे उसमें पानी भर जाता है उसीप्रकार मिध्यात्व, अविरत आदि द्वारा जीवोंके सदा कर्मोंका आस्रव होता रहता है ॥ ४३ ॥ इस जीवके साथ अनादिका - लसे अनन्त कर्मोंका सम्बन्ध चला आरहा है। उन्हीं कर्मोके उदयसे इस जीवके राग द्वेषरूप भाव होते हैं || ४४ || जिसप्रकार घीसे चिकने हुए वर्तनमें उड़ती हुई धूलि जम जाती है उसीप्रकार रागद्वेष रूप परिणामोंसे नये अनन्त पुद्गल आकर इस जीवके साथ मिल जाते हैं । भावार्थ - रागद्वेष परिणामों की उत्पत्ति कर्मोके उदयसे होती है तथा कर्मोंका बंध रागद्वेष परिणामों से होता है । पहले बंधे हुए कर्मोंके उदयसे रागद्वेष होते हैं और उनसे फिर नये कर्मोका बन्ध होता है. इसप्रकार कर्म व आत्माका सम्बन्ध अनादिकाल से है ॥४५॥ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये बंधके चार भेद जिनागममें कहे हैं || ४६ || उनमें से प्रकृति बंधके आठ भेद हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय । जिसप्रकार किसी प्रतिमाके ऊपर पड़ा भवेच्च सलिलास्रवः । मिथ्यात्वादेस्तथा जीवे कर्मास्रवो भवेनिशम् ॥ ४३ ॥ अस्त्यनादिश्व संबंधो जीवस्य भूरिकर्मणा । रागद्वेषमयो भावस्तस्योदयेन जायते ॥ ४४ ॥ मिलंति तेन जीवे हि परे च बहुपुद्गलाः । घृतपात्रे घृताभ्यक्ते निविडरेणुवृंदवत् ॥ ४५ ॥ प्रकृतेश्व स्थितेश्चाप्यनुभागाच्चप्रदेशतः । बंधश्वतुर्विधो ज्ञेयो जिनसूत्रानुसारतः ॥ ४६ ॥ आवृणोतीति यज्ज्ञानं तज्ज्ञानावरणं मतम् । देवमुखं यथा वस्त्र पंचविधं जिनागमे ॥ ४७ ॥ दर्शनावरणं प्रोक्तं दर्शनमावृणोति
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गौतमचरित्र। हुआ वस्त्र उस प्रतिमाको ढक लेता है उसीप्रकार जो ज्ञानको ढक ले उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। उसके पांच भेद हैं। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण-मनःपर्यय ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ॥४७॥ जिसप्रकार दरवाजे पर रहनेवाला द्वारपाल राजाके दर्शन नहीं होने देता उसी प्रकार आत्माके दर्शन गुणको रोकनेवाले (ढकनेवाले) कर्मको दर्शनावरण करते हैं। वह नौ प्रकारका है । चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ॥४८॥ जिसप्रकार शहत लपेटी तलवारकी धार चाटनेसे सुख दुःख दोनों होते हैं उसीप्रकार जो सुख दुख दोनोंका अनुभव करावे उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । उसके दो भेद हैं-सातावेदनीय, असातावेदनीय ॥ ४९ ॥ जिसप्रकार यद्य वा धतूरा मनुष्यको मोहित कर देता है उसीप्रकार जो आत्माको मोहित कर देवे-स्वरूपको भुला देवे उसको मोहनीय कर्म कहते हैं। उसके अट्ठाईस भेद हैं । अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रयाख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंग, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, यत् । नवविध नृपद्वारे द्वाःस्थितो नृपदर्शनम् ॥४८॥ वेदयति सुख दुःख वेदनीयं मतं च तत् । मधुलिप्तासितुल्यं हि द्विविधं श्रीनिनागमे ॥ ४९ ॥ आत्मानं मोहयत्येव मोहनीयं प्रकीर्तितम् । अष्टा
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पंचवां अधिकार।
[१५६ सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व ॥५०॥ जिसप्रकार सांकलमें बंधा हुआ मनुष्य वहीं रुका रहता है उसीप्रकार जो इस जीवको मनुष्य, तिर्यच आदिके शरीरमें रोक रक्खे उसे आयुर्कम कहते हैं। यह जीव आयुकर्मके उदयसे मनुष्यादि भव धारण करता है । यह आयुकर्म चार प्रकारका है। मनुष्यायु, तिर्यगायु, देवायु, नरकायु ॥५१॥ जिसप्रकार चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है उसी प्रकार जो अनेक प्रकारके शरीरकी रचना करता है उसे नामकर्म कहते हैं। उसके तिरानवे भेद हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरक ये चार गतियां, एकेंद्रिय, दोईद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय ये पांच जाति । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस, कार्मण पांच शरीर, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, आंगोपांग, निर्माण
औदारिक, वैक्रियक, आहारक तैजस, कार्मण पांच बन्धन, ये ही औदारिक आदि पांच लगात, समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्थातिक, कुजक, वान, डंडक ये छह संस्थान, वज्रषभनाराच, वज्रनाराच, साराच, अर्द्धनाराच- कीलक असमासाहपाटिक ये छह संहन. स्पर्श आठ, रस पांच, गन्ध दो, वर्ण पांच, नरक, तिर्यग, मनुष्य, देवगयानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योल, उच्छवास, विहायोगति दो, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थार, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्खर, विंशतिभेदं च मद्यधत्तूरवन्नरम् ॥५०॥ आत्मानं भवमेत्यायुर्यत्तच्चतुविधं मतम् । भवधारणसामर्थ्य श्रृंखलास्थ नरोपमम् ।।५१॥ नानाविधैर्विनिर्माणं करोति नाम तन्मतम् । चित्रकारो यथा चित्र
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गौतमचरित्र। शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पयाप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति, तीर्थंकर ॥१२॥ जिसप्रकार कुंभार छोटे बड़े सब प्रकारके वर्तन बनाता है उसीप्रकार जो ऊंच और नीच गोत्रमें उत्पन्न करे उसे गोत्रकर्म कहते हैं उसके दो भेद हैं। ऊंचगोत्र, नीचगोत्र ॥५३ ॥ जिसप्रकार राजाके दिये हुए धनको खजांची रोक देता है उसी प्रकार जो दान, लाभ आदि लब्धियोंमें विघ्न करे उसे अंतराय कहते हैं । उसके पांच भेद है । दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय ॥५४॥ आगमको जाननेवाले विद्वानोंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरकी बतलाई है ॥ ५५ ॥ मोहनीयकर्मकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, नाम, गोत्रकी वीस कोड़ाकोड़ी सागर और आयुकर्मकी तेतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है ॥५६॥ इन कर्मोकी जघन्य स्थिति वेदनीयकी वारह मुहूर्त है, नाम व गोत्रकी आठ मुहूर्त है और शेष कर्मोकी अंतमुहूर्त है ॥५॥ त्रिनवतिप्रभेदकम् ॥५२॥ नीचोच्चननने दक्षं गोत्रकर्म द्विधा मतम् । कुंभकारो यथा कुंभस्थाल्यादिकं करोति वै ॥ ५३ ॥ भूपतिना धनं दत्तं भांडागारी नरो यथा । निवारयति सल्लब्धीस्तथांतरायपंचकम् ॥१४॥ आदित्रिकांतरायाणां कोटीकोव्यः परा स्थितिः । त्रिंशद्रलाकराणां वै प्रोक्ता आगमकोविदः ॥ ५५ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नामगोत्रयोः । त्रयस्त्रिंशत्पयोराशिरायुषो हि परा स्थितिः ॥ ५६ ॥ मुहूर्ता द्वादश प्रोक्ता वेद्यस्य नामगोत्रयोः । अपराष्टौ च
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पांचवां अधिकार ।
[ १६१ यह जीव अपने शुभ परिणामोंसे पुण्य उत्पन्न करता है और अशुभ परिणामों से पाप उत्पन्न करता है । शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र और सातावेदनीय पुण्य हैं और बाकीके अशुभ आयु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र, असातावेदनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय पाप हैं ।। ५८ ।। पाप प्रकृतियोंका परिपाक नींबू कांजी, विष और हलाहलके समान है तथा पुण्यरूप प्रकृतियोंका परिपाक गुड़, खांड, मिश्री और अमृतके समान है ।। ५९ ।। ज्ञान तथा दर्शनमें दोष लगाना, उत्तम ज्ञानको अज्ञान बतलाना अथवा ज्ञानका घात करना, ज्ञानके कार्यों में विघ्न डालना, ज्ञानकी प्रशंसा नहीं करना, ज्ञानको छिपाना किसीको नहीं बतलाना, ज्ञानियोंके साथ ईर्ष्या करना तथा और भी ज्ञानके विरुद्ध कार्य करना आदि कार्योंसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मो बंध होता है ॥ ६० ॥ समस्त जीवोंपर दया करना, व्रतियोंपर विशेष दया करना, दान देना, रागपूर्वक संयम पालन करना, गुरुसे नम्र रहना, क्षमा धारण करना आदि कार्योंसे सातावेदनीयकर्मका बंध होता है ॥ ६१ ॥ दुःख, शेषाणां स्थितिरंतर्मुहूर्तिका ॥ ५७ ॥ पुण्यपापे भजेज्जन्तुः परिणामः शुभाशुभैः । शुभायुर्नामगोत्राणि सातं पुण्यमघं परम् ॥ ५८ ॥ अप्रशस्ता मता निवुकांजिविषहलाहलैः । समा प्रशस्तका तुल्या गुडखंड सितामृतैः ॥ ५९ ॥ तत्प्रदोषोपघातांतरायासादन निह्नवैः । मात्सर्यप्रत्यनीकैश्च वनात्यावरणद्विकम् ॥ ६०॥ भूतकंपात्रतादानसरागसंयमादिभिः । जीवो वनांति सद्वेद्यं गुरुनम्रः क्षमायुतः ॥ ६१ ॥
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गौतमचरित्र ।
शोक, बध, रोना, बहुत अधिक करुणाजनक रोना और संताप करना, ये सब स्वयं करना, दूसरोंसे कराना अथवा स्वयं भी करना और दूसरोंसे भी कराना इन कार्योंसे असाता वेदनीय कर्मका आस्रव होता है ॥ ६२ ॥ अरहंत भगवानकी निंदा करना, सिद्ध भगवानकी निंदा करना, तपश्चरणकी निंदा करना, संघकी निंदा करना, गुरुकी निंदा करना, शास्त्रोंकी निंदा करना और धर्मकी निंदा करना आदि कार्योंसे दर्शनमोहनीय कर्मका बंध होता है ॥ ६३ ॥ कपायोंके उदयसे जो ऐसे तीव्र परिणाम होते हैं जो द्वेषसे भरपूर होते हैं और चारित्र गुणके घातक होते हैं उससे सकल विकल दोनों प्रकारके चारित्रमोहनीयका बंध होता है ।। ६४ ।। रौद्रभावोंको धारण करनेवाला, अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करने, तीव्र लोभको धारण करनेवाला, शीलवतोंसे रहित और महा आरंभ करनेवाला मिथ्यादृष्टि नरक आयुका बंध करना है ।। ६५ ।। अपने मनकी बातको छिपानेवाला, शीलरित, शल्योंसे भरपूर और जिनमार्गका विरोध करनेवालाचारी जीव तिथेच आयुका बंध करता है ||३६|| दुःख बाद परिदेवनतापनैः । असद्वेद्यस्य बंधः स्यादात्मपरोभयस्थि: ।। ६२ ।। अर्हत्सिद्धतपः संघगुरुसंश्रुतधर्मणां । अपवादेन बनायो दर्शनमोहकम् || ६३ ॥ प्रकषायोदमासीत्रपरिणामो द्विषैये । द्विचारित्रं स बध्नीयाच्चारित्रगुणघातकः || ६४ || मिथ्यादृष्टिनिःशीलस्तीव्रलोभकः । नरकायुः स बध्नाति रौद्रभावो ॥ ६५ ॥ गुप्तमनाश्र मायावी निःशीलः शल्यसंयुतः ।
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पांचवां अधिकार।
[१६३ जो शील संयमसे रहित है परंतु मध्यमगुणोंको धारण करनेवाला है तथा जो दानी और मंदकषायी है वह मनुष्य आयुका बंध करता है ॥ ६७ ॥ देशवती, महाव्रती, अकामनिर्जराको करनेवाला सम्यग्दृष्टी और बालतप करनेवाला जीव देवायुका बंध करता है ॥ ६८॥ जिसके मन, वचन, काय कुटिल हैं और जो महा अभिमानी है वह ऐसा मायाचारी जीव अशुभ नामकर्मका बंध करता है तथा इनसे विपरीत काम करनेवाला अर्थात् मन बचन कायको सरल रखनेवाला, माया और अभिमान न करनेवाला जीव शुभनामकर्मका बंध करता है ॥ ६९ ॥ दूसरेके उत्तम गुणोंका ढकना, बुरे गुणोंको प्रगट करना, दूसरोंकी निंदा करना तथा अपनी प्रशंसा करना आदि कार्योंसे नीच गोत्रका बंध होता है और अच्छे गुणोंको प्रगट करना, बुरे गुणोंको ढकना, अपनी निंदा करना, दूसरोंकी प्रशंसा करना आदि कार्योंसे ऊंच गोत्रका बंध होता है ॥७० ॥ जो हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकार्यों में लीन रहता है और भगवान अरहंतदेवकी पूजा तिर्यमायुः स वध्नाति जिनमार्गविरोधकः ॥ ६६॥ शीलसंयमसंहीनो, मध्यमगुणसंयुतः । स वध्नाति मनुष्यायुर्दानी तनुकषायकः ॥६॥ देवायुष्कं स वनीयाद्देशव्रतमहाव्रतैः । अकामनिर्नरैः सम्यग्दृष्टी बालतपोयुतः ॥६८॥ मनोवाकायसंवक्रो मायावी गर्वसंकुलः । स बनात्यशुभं नाम शुभं तद्विपरीतकः ॥६९॥ प्रसदसद्गुणाच्छादोद्भावने तद्विपर्यये । परात्मगर्हणं शंसे नीचस्योच्चस्य बंधके ॥ ७० ॥ प्राणिहिंसादिसंरक्तो मिनेज्याविघ्नकारकः । अर्जयत्यंतरायं स वांच्छितं येन
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१६४]
गौतमचरित्र। प्रतिष्ठा आदि कार्यों में विघ्न करनेवाला है वह अंतरायकर्मका बंध करता है। उस अंतरायकर्मके उदयसे वह जीव फिर अपने इष्ट पदार्थोको प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ७१ ॥ गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे आश्रय रुक जाता है और महा संवर होता है ॥ ७२ ॥ जिसप्रकार समुद्रमें पड़ी हुई नावका छिद्र बंद कर देनेसे वह नाव फिर डूबती नहीं अपने इष्ट स्थानपर पहुंच जाती है उसीप्रकार यह आत्मा भी संवरके होनेपर फिर संसारमें कभी नहीं डूबता, फिर वह अपने मोक्षरूप इष्ट स्थानको अवश्य पहुंच जाता है ।। ७३ ॥ बारह प्रकारके तपश्चरणसे, धर्मध्यानरूपी उत्तम बलसे और रत्नत्रयरूपी बन्हिसे यह जीव कर्मोकी निर्जरा करता है ॥ ७४ ॥ वह निर्जरा दो प्रकारकी है, सविपाक और अविपाक । सविपाक निर्जरा रोग आदिके द्वारा फल देकर कर्मोंके झड़ जानेसे होती है तथा जिसप्रकार घासमें रखकर आमको जल्दी पका लेते हैं उसीप्रकार तप और ध्यानके द्वारा विना फल दिये जो कर्म नष्ट होजाते हैं उसे अविपाक निर्जरा करते हैं॥७॥ समस्त नो लभेत् ॥७१॥ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षाचारित्रधारणैः । परीषहजयः रोध आस्रवाणां स संवरः ॥ ७२ ॥ नो बुडत्यत्र संसारे संवरे सति चेतनः । स्वेष्टं पदं प्रयातीव सिंधौ नौछिद्रबंधने ॥७३॥ तपोभिर्दादशैर्जन्तुर्धर्म्यध्यानादिसलैः । कर्मणां निरां कुर्याद्रत्नत्रयादिवह्निना ॥ ७४ ॥ सविपाकाविपाकेन सा द्विधा रुजादिभिः । साध्यापर तपोध्यानैः कालैस्तृणै रसालवत् ॥७९॥ विश्वकर्मक्षयान्मोक्षस्तत एरंड
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पांचवां अधिकार।
[ १६५ कर्मोंके क्षय होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुक्त होनेपर यह जीव एरण्डके बीजके समान ऊपरको गमन करता है और जहां तक धर्मास्तिकाय है वहांतक अर्थात् लोकाकाशके अन्ततक ऊपरको जाता है। आगे धर्मास्तिकाय न होनेसे वहीं जाकर ठहर जाता है ॥ ७६ ॥ . ___ अथानन्तर-इसप्रकार सातों तत्त्वोंका स्वरूप सुनकर राजा श्रेणिक अपने दोनों हाथ जोड़कर मस्तकपर रखकर सज्जन पुरुषोंको पार करदेनेके लिये जहाजके समान ऐसे गौतमस्वामीसे प्रार्थना करने लगे ॥ ७७ ॥ वे कहने लगे कि हे प्रभो ! आप संदेहरूपी अन्धकारको दूर करनेकेलिये मूर्यके समान हैं इसलिये मैं आपके श्रीमुखसे अनुक्रमसे छहों कालोंका निर्णय, भोगभूमिका स्वरूप, कुलकरोंकी स्थिति, तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति, उनके उत्पन्न होनेके मध्यका समय, उनके शरीरकी ऊँचाई, शरीरके चिह्न, जन्मके नगर, माता-पिताओंके नाम, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनाराय रुद्र, नारद, कामदेव आदि महापुरुषोंके नाम, नरक, स्वर्गों में बीजवत । आलोकांताव्रजेदूर्ध्व धर्मास्तितत्त्वभावतः ॥७६॥ अथ श्रेणिकभूमीशो जगाद स्वामिनं प्रति । सज्जनतारणे पोतं शिरोन्यस्तकरांजलिः ॥७७॥ संशयतिमिरादित्य श्रोतुमिच्छामि वो मुखात् । षट्कालनिर्णय साई भोगभूमिस्वरूपकैः ॥७८॥ स्थितिं कुलकराणां वे तीर्थकरसमुद्भवम् । स्थित्यंतरालदेहोच्चलक्ष्मपुरादिसंयुतम् ॥७९॥ तन्मातृपितृसच्चक्रिकेशवप्रतिकेशवान् । रुद्रनारदकंदास्तेषां नामानि वै क्रमात ॥८॥ ततो नरकनाकेषु नारकदेवसंस्थितिम् । लेश्योच्चमि
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१६६ ]
गौतमचरित्र |
नारकी और देवोंकी स्थिति, उनकी लेश्या ऊंचाई आदि सब बातें सुनना चाहता हूं । हे प्रभो ! आप इन सब बातोंको बतलाइये ।। ७८- ८१ ॥ इस प्रश्नको सुनकर भगवान् श्रीगौतमस्वामी कहने लगे कि हे राजन् ! तू मनको स्थिर कर सुन, संसारको सुख देनेवाले ये सब विषय मैं कहता हूँ ।। ८२ ।। एक कल्पकाल बीस कोड़ाकोड़ी सागारका होता है, उसमें दस कोड़ाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल और दस कोड़ाकोड़ी सागरका उत्सर्पिणी काल होता है । इन दोनों कालों से प्रत्येकके छह छह भाग होते हैं ॥ ८३ ॥ विद्वानोंने अवसर्पिणी कालके छह भागोंके नाम ये बतलाये हैं । पहिला सुषमासुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमादुःषमा, चौथा दुःषमासुषमा, पांचवा दुःषमा और छठा दुःषमादुःषमा ।। ८४-८५ ।। उत्सर्पिणी कालके भाग इससे उलटे हैं, अर्थात् पहला दुःषमादुःषमा, दूसरा दुःषमा, तीसरा दुःषमासुषमा, चौथा सुषमादुःषमा, पांचवां सुषमा और छठा सुषमासुषमा । इनमेंसे सुषमासुषमा काल चार कोड़ाकोड़ी सागरका है, तिसंयुक्तामित्यादिकं वद प्रभो ॥ ८१ ॥ अथावदज्जगत्स्वामी वचो विश्वसुखाकरम् । स्थिरीकृत्य मनो भूप ! शृणु सर्व गदाम्यहम् ॥ ८२ ॥ कोटी कोट्यो दशाब्धीनां प्रत्येकमवसर्पिणी । उत्सर्पिणी च कालाः षट् प्रत्येकमनयोर्मताः ॥ ८३ ॥ सुषमासुषमाद्या स्याद्वितीया सुषमा समा । सुषमादुःषमा प्रोक्ता तृतीया ज्ञानकोविदैः ॥ ८४ ॥ दुःषमासुषमा तुर्या दुःषमा पंचमी मता । दुःषमादुःषमा षष्ट्यवसर्पिण्यांच षट् समाः ॥ ८५ ॥ उत्सर्पिण्यां च ता एंव प्रतिलोमं मता जिनैः ।
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पांचवां अधिकार ।
[ १६७
दूसरा सुषमा काल तीन कोड़ाकोड़ी सागरका है, तीसरा सुषमादुःषमा काल दो कोड़ाकोड़ी सागरका है, चौथा दुःषमासुषमा काल व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरका है, पांचवां दुःषमा काल इकईस हजार वर्षका है और छठा दुःषमादुःषमा भी इकईस हजार वर्षका है ऐस आगमको जाननेवाले आचार्योंने कहा है ॥८६-८८ || इनमें पहले के तीन कालों में भोगोपभोगकी सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त: होती है इसीलिये चतुर पुरुष इन तीनों कालोंको भोगभूमि कहते हैं ॥ ८९ ॥ इनमें से पहले कालके जीवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्यकी होती है, दूसरे कालके जीवोंकी आयु. दो पल्यकी और तीसरे कालके जीवोंकी आयु एक पल्यकी होती है । यह आयु देवकुरु आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमिके समान ही समझनी चाहिये ||९० ॥ वहांके मनुष्य जुगलिया होते हैं। पहले कालके प्रारम्भमें वहांके मनुष्य छह हजार धनुष, दूसरे कालके प्रारम्भमें चार हजार धनुष और तीसरे कालके प्रारम्भमें दो हजार धनुष, ऊँचे होते हैं ||११|| कोटीकोटयः समुद्राणां चतस्रः प्रथमे मताः ॥ ८६ ॥ द्वितीये ताः प्रमास्तिस्रो द्वे च प्रोक्ते तृतीयके । एका तुर्ये द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दवर्जिता ॥ ८७ ॥ प्रमा पंचमकालस्यैकविंशतिसहस्रिका । ता एव षष्ठमस्यापि प्रोक्ता चागमसूरिभिः ॥ ८८ ॥ आद्येषु त्रिषु कालेषु ददंति कल्पपादपाः । भोगं तेन मता चेयं भोगभूमिर्विचक्षणैः ॥ ८९॥ आयुराद्यत्रये काले त्रीणि हे एककं मतम् । क्रमात् पल्यानि वै देवकुर्वादिभोगभूमिवत् ॥ ९० ॥ युग्मधर्मयुता भूत्वा तेषामादौ च
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गौतमचरित्र। भोगभूमिमें उत्पन्न हुए स्त्री पुरुषोंके शरीरका रंग पहले कालमें उदय होते हुए सूर्यके समान, दूसरे कालमें पूर्ण चन्द्रमाकी प्रभाके समान और तीसरे कालमें नीलवर्णका होता है ॥ ९२ ॥ वहांके स्त्री पुरुष पहले कालमें चौथे दिन वेरके समान भोजन लेते हैं, दूसरे कालमें तीसरे दिन बहेड़ेके समान और तीसरे कालमें दूसरे दिन आंबलेके समान भोजन लेते हैं ॥९३॥तीनों कालोंमें बस्त्रांग, दीपांग, गृहांग, ज्योतिरंग, मालांग, भूषणांग, भोजनांग, भाजनांग, वाद्यांग और मद्यांग जातिके कल्पष्टक्ष सदा सुशोभित रहते हैं ॥९४॥ तीनों कालोंके स्त्री पुरुष, स्त्री पुरुषोंके सुलक्षणोंसे सुशोभित रहते हैं और क्रीडा किया करते हैं तथा वे कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए आहारसे सदा तृप्त रहते हैं । वहांके तिर्यंच भी ऐसे ही होते हैं और सब अनेक कलाओंसे सुशोभित होते हैं ॥९॥ जो मनुष्य तीनों प्रकारके उत्तम पात्रोंको मुख देनेवाला शुभ दान देते हैं वे भोगभूमिमें उत्पन्न होकर इन्द्रके समान सुख भोगते हैं ॥९६॥ जिसप्रकार किसी अच्छे क्षेत्रमें बोया हुआ मानवाः । षट्चतुर्दिसहस्राणि चापानि तुंगविग्रहाः ॥९१॥ उद्यद्भास्करवर्णाभाः पूर्णेदुसदृशप्रभाः । नीलवर्णाः क्रमात्तेषु त्रिषु योषिन्नरा मताः ॥१२॥ क्रमाद् वदरमात्रं च विभीतकाम्लिका समम् । स्त्रीनरा भोजनं कुर्युश्चतुस्त्रिद्विदिनैस्त्रिषु ॥९३॥ वस्त्रदीपगृहज्योतिर्माल्यभूपांगभोननैः । भाननतुर्यमद्यांगैः कल्पवृक्षैरभात्रिषु ॥९४॥ स्त्रीपुंसलक्षणैर्युक्ता रमंते त्रिषु ताः प्रजाः । तृप्ताः कल्पद्रुमाहारैस्तिर्यंचोऽपि कलान्विताः ॥९॥ मानुषस्त्रिविधे पात्रे दानं दत्त्वा शुभाकरम् ।
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पांचवां अधिकार |
[ १६६ बीज बहुतसे फलोंको फलता है उसीप्रकार पात्रोंको दिया हुआ थोड़ासा भी शुभदान अनेकगुणा होकर फल देता है ॥ ९७ ॥ जिसप्रकार ऊसर भूमिमें बोया हुआ बहुतसा बीज भी मूल समेत नष्ट होजाता है उसीप्रकार अपात्र को दिया हुआ दान भी व्यर्थ ही जाता है ।। ९८ ।। इस अवसर्पिणी - कालके अंत में जब पल्यका आठवां भाग बाकी था और जब कल्पवृक्ष नष्ट हो रहे थे उस समय कुलकर उत्पन्न हुए थे ||१९|| उनमें से पहलेका नाम प्रतिश्रुति था, दूसरेका नाम सन्मति, तीसरेका क्षेमंकर, चौथेका क्षेमंधर, पांचवेंका सीमंकर, छठेका सीमंधर, सातवेंका विमलवाहन, आठवेंका चक्षुष्मान्, नौका यशस्वान् दशवेंका अभिचंद्र, ग्यारहवेंका चंद्राभ बारहवेंका मरुदेव, तेरहवेंकां प्रसेनजित और चौदहवें कुलकरका नाम नाभिराय था । इनमेंसे सुख देनेवाले नाभिरायकी आयु एक करोड़ पूर्व थी और उन्होंने बालक उत्पन्न होते भोगभूमौ समुत्पत्य सुखं भुंक्त सुरेंद्रव ॥ ९६ ॥ सुक्षेत्रे क्षिप्तसद्बीजं यथा भूरितरं व्रजेत् । दत्तं पात्रे शुभं दानमल्पं बहुगुणं तथा ॥९७॥ ऊषरक्षेत्र निक्षिप्त बीजं भूरितरं यथा । नश्यति मूलतो दानमपात्रे निष्फलं तथा ॥ ९८ ॥ अथ तृतीयकालस्य शेषे पल्याष्टभागके । स्थिते कुलकरोत्पत्तिः क्षीयमाणे तरौ क्रमात ॥९९॥ प्रतिश्रुतिरभूदाद्य द्वितीयः सन्मतिस्तथा । क्षेमंकरस्तृतीयश्च क्षेमंधरः चतुर्थकः ॥१००॥ सीमंकरस्तथा ज्ञेयः सीमंधरस्तु षष्ठमः । विमलवाहनो नाम चक्षुष्मान्नष्टमो मतः ॥ १०१ ॥ यशस्वी नवमः प्रोक्तोऽभिचंद्रो दशमस्तथा । चंद्राभो मरुदेवश्च प्रसेनजितसंज्ञकः ॥ १०२ ॥ नाभिः
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गौतमचरित्र। समय नाभि काटनेकी विधि बतलाई थी॥१००-१०३॥ ये सब कुलकर अपने अपने नामके अनुसार गुणोंको धारण करनेवाले थे तथा ये सब एक एक पुत्रको उत्पन्न कर और प्रजाको सदबुद्धि देकर स्वर्गको सिधारे थे ॥१०४॥ जिससमय तीसरेकालमें तीन वर्ष साडेआठ महीने अधिक चौरासीलाख पूर्व वाकी रहे थे उससमय युगलियाधर्मको दूर करनेवाले मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानोंसे सुशोभित, समस्त प्रजाके स्वामी और तीनों लोकोंके इंद्रोंके द्वारा पूज्य ऐसे श्रीषभदेव तीर्थकर उत्पन्न हुए थे॥१०५-१०६॥ श्रीषभदेव, अजितनाथ, शंभवनाथ, अभिनंदन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, बासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान ये चौवीस तीर्थंकर चौथे कालमें उत्पन्न हुए हैं। ये सब तीर्थंकर कामदेवको भी जीतनेवाले कुलकरो जातः सः चतुर्दशमः क्रमात् । पूर्वकोटिस्थिति भिच्छेदकत् सुखदायकः ॥ १०३ ॥ एकैकं पुत्रमुत्पाद्य विश्वे कुलकरा गताः । स्वर्ग दत्वा प्रजाबुद्धिं स्वनामगुणधारकाः ॥१०४॥ चतुरशीतिलक्षाणां पूर्वे तस्यावसंस्थिते । शेषे त्र्यव्दाष्टमासाईमाससमा युते तदा ॥१०॥ तीर्थेशो वृषभो जातो युग्मधर्मनिवारकः । ज्ञानत्रयी प्रजाधीशस्त्रिभुवनेंद्रपूजितः॥१०६॥ वृषभोऽजितसंज्ञश्च शंभवश्वाभिनंदनः। सुमतिः पद्मदीप्तिश्च सुपार्श्वश्चंद्रनायकः ॥ १०७ ॥ पुष्पदंताभिधः स्वामी शीतलस्तीर्थकारकः । श्रेयान् श्रीवासुपूज्यश्च विमलोऽनन्तनिजिनः
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पांचवां अधिकार। थे और भव्य जीवोंको संसारसागरसे पार करदेनेके लिये जहाजके समान थे ॥१०७-११०॥ जब तीसरे कालमें तीन वर्ष साडेआठ महीने वाकी रहे थे तब श्रीकृषभदेव मोक्ष पधारे थे और जब चौथे कालमें तीन वर्ष साडेआठ महीने बाकी रहे थे तब श्रीमहावीरस्वामी मोक्ष पधारे थे ॥१.१२॥ श्रीषभदेवकी आयु चौरासीलाख पूर्व थी, श्रीअजितनाथकी बहत्तर लाख पूर्व, श्रीशंभवनाथकी साठलाख पूर्व, श्रीअभिनंदननाथकी पचासलाख पूर्व, श्रीसुमतिनाथकी चालीसलाख पूर्व, श्रीपद्मप्रभुकी तीसलाख पूर्व, श्रीसुपावनाथकी वीसलाख पूर्व, श्रीचंद्रप्रभकी दशलाख पूर्व, श्री पुष्पदंतकी दो लाख पूर्व, श्रीशीतलनाथकी एकलाख पूर्व, श्रीश्रेयांसनाथकी चौरासी लाख वर्ष, श्री वासुपूज्यकी बहत्तरलाख वर्ष, श्रीविमलनाथकी साठलाख वर्ष, श्रीअनंतनाथकी तीसलाख वर्ष, श्रीधर्मनाथकी दशलाख वर्ष, श्रीशांतिनाथकी एक लाख वर्ष, श्रीकुंथुनाथकी पिचानवे ॥१०८॥ धर्मः शांतिस्तथा कुंथुररश्च मल्लिनायकः । सुव्रतेशो नमिनेमिः श्रीपार्थो वईमानकः ॥१०९॥ तीर्थंकराश्चतुर्विंशाश्चतुर्थसमये शुभाः । जाता मदनजेतारों भव्यतारणपोतकाः ॥११०॥ त्र्यब्दसाख्रष्टमासस्थे तृतीयतुर्यकालयोः । शेषे वृषभसन्मत्योर्मुक्तिरभूच्च शास्वती ॥ १११ ॥ चतुरशीति लक्षाणां पूर्वमायुर्वृषेशिनः । ततो द्वासप्ततिः षष्ठिः पंचाशच्च क्रमान्मतम् ॥ ११२ ॥ चत्वारिंशत्तथा त्रिंशदिशतिश्च दश द्विकम् । एकं ततोऽब्दं लक्षा बै-अशीतिकचतुरु-:. . त्तरा ॥११३॥ द्वासप्ततिस्तथा षष्ठिस्त्रिंशदश तथैकको । ततो वर्ष
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१७२]
गौतमचरित्र। हजार वर्ष, श्रीअरनाथकी चौरासीहजार वर्ष, श्रीमल्लिनाथकी पचपन हजार वर्ष, श्रीमुनिसुव्रतनाथकी तीस हजार वर्ष, श्रीनमिनाथकी दश हजार वर्ष, श्रीनेमिनाथकी एक हजार वर्ष, श्रीपार्श्वनाथकी सौ वर्ष और श्रीवर्द्धमानकी बहत्तर वर्षकी आयु थी ॥१.१२-११५॥ श्रीषभदेवके मोक्ष जानेके बाद पचास लाख करोड़ सागर बीत जानेपर श्रीअजितनाथ उत्पन्न हुए थे ॥ ११६ ॥ अजितनाथके मोक्ष जानेके बाद तीस लाख करोड़ सागर वीत मानेपर श्रीशंभवनाथ उत्पन्न हुए थे, इनके मोक्ष जानेके बाद दश लाख करोड़ सागर वीत जानेपर श्री अभिनन्दननाथ उत्पन्न हुए थे, इनके मोक्ष जाने बाद नौ लाख करोड़ सागर वीत जानेपर श्रीसुमतिनाथ उत्पन्न हुए थे, इनके सिद्ध होनेपर नव्वे हजार करोड़ सागर वीत जानेपर श्री पद्मप्रभ उत्पन्न हुए थे ॥ ११७ ॥ इनके मोक्ष जाने बाद नौहजार करोड़ सागर वीत जानेपर श्रीसुपार्श्वनाथ हुए थे, इनके बाद नौ सौ करोड़ सागर वीत जानेपर श्रीचन्द्रप्रभ हुए थे फिर नव्वे करोड़ सागर वीत जानेपर श्रीपुष्पदंत हुए थे और सहस्राणि सपंचनवतिः क्रमात् ॥११४॥ चतुरशीतिकं पंच पंचाशत्रिंशकं दशम् । सहस्रैकं शतं प्रोक्तं श्रीवीरायुढिसप्ततिः ॥ ११५॥ पंचाशल्लक्षकोटीनां समुद्रेषु गतेषु च । सिद्धि प्राप्ते वृषाधीशेऽजितनाथोद्भवोऽभवत् ॥११६॥ त्रिंशच शंभवोत्पत्तिर्दशाभिनंदनो नव । सुमतिः पद्मकांतिश्च सनवतिसहस्रके ॥११५॥ सुपार्थो नव चंद्रेशो नव शतानि वै मता। नवतिः पुष्पदंतश्च कोटयो नव च शीतल:
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पांचवां अधिकार ।
[ १७३. नौ करोड़ सागर बीतने पर श्री शीतलनाथ उत्पन्न हुए थे ।। ११८ ॥ इनके मोक्ष जाने के बाद सौ सागर छ्यासठ लाख छव्वीस हजार वर्ष कम एक करोड़ सागर वीत जानेपर श्रीश्रेयांसनाथ हुए थे ।। ११९ ॥ श्री श्रेयांसनाथके बाद चौअन सागर वीत जाने पर श्रीवासुपूज्य हुए थे, इनके बाद तीस सागर बीत जानेपर विमलनाथ हुए थे । इनके बाद नौ सागर वीत जानेपर श्री अनन्तनाथ हुए थे । इनके मोक्ष जानेके बाद चार सागर । वीत जानेपर श्रीधर्मनाथ हुए थे || १२० || इनके बाद पौन पल्य कम तीन सागर बीत जानेपर श्रीशांतिनाथ हुए थे । इनके बाद आधा पल्य बीत जानेपर श्रीकुंथुनाथ हुए थे, इनके बाद एकहजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पल्य वीत जानेपर श्रीअरनाथ हुए थे । इनके बाद एकहजार करोड़ वर्ष वीत जानेपर श्रीमल्लिनाथ हुए । इनके बाद चौअन लाख वर्ष बीत जानेपर श्रीमुनिसुव्रत हुए । इनके बाद छह लाख वर्ष बीत जानेपर श्रीनमिनाथ हुए थे, इनके बाद पांच लाख वर्ष बीत जानेपर श्रीनेमिनाथ हुए थे । इनके बाद व्यासी ॥ ११८ ॥ शतोने चैक कोट्यश्च षट्षष्टिलक्षवत्सरैः । षडूविंशतिसहस्रोने श्रेयोनाथोऽभवत्ततः ॥ ११९ ॥ चतुःपंचाशद्वाध च वासुपू ज्यजिनोऽभवत् । त्रिंशत्सु विमलोऽनंतो नव धर्मश्वतुर्षु च ॥ १२० ॥ त्रयः शांतिस्त्रिपादोनाः पल्यस्य कुंथुरर्द्धके । एक कोटी सहस्राद्वैहनेऽर पाद पल्यगे ॥ १२१ ॥ एककोटीसहस्रा मल्लीशो मुनिसुव्रतः । चतुः पंचाशल्लक्षाब्दे षट् नमिः पंच नेमिकः ॥ १२२ ॥ त्र्यशीतिषु सहस्रेषु साईसप्तशतेषु च । श्रीपार्श्वो द्विशते सार्द्ध बीरोत्पत्तिः
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गौतमचरित्र। हजार सातसौ पचास वर्ष बीत जानेपर श्रीपार्श्वनाथ हुए थे इनके बाद ढाईसौ वर्ष बीत जानेपर श्रीवर्द्धमानस्वामी हुए थे ।। १२१-१२३ ॥ श्रीषभदेवके शरीरकी उंचाई पांचसौ धनुष थी, श्रीअजितनाथकी चारसौ पचास धनुष, श्रीशंभवनाथकी चारसौ धनुष, श्रीअभिनंदननाथकी तीनसौ पचास धनुष, श्रीसुमतिनाथकी तीनसौ धनुष, श्रीपद्मप्रभकी दोसौपचास धनुष, श्रीसुपार्श्वनाथकी दोसौ धनुष, श्रीचंद्रप्रभकी एकसौ पचास धनुष, श्रीपुष्पदंतकी सौ धनुष, श्रीशीतलनाथकी नव्वे धनुष, श्रीश्रेयांसनाथकी अस्सी धनुष, श्रीवासुपूज्यकी सत्तरि धनुष, श्रीविमलनाथकी साठ धनुष, श्रीअनंतनाथकी पचास धनुष, श्रीधर्मनाथकी पैंतालीस धनुष, श्रीशांतिनाथकी चालीस धनुष, श्री कुंथुनाथकी पेंतीस धनुष, श्रीअरनाथकी तीस धनुष, श्रीमल्लिनाथकी पच्चीस धनुष, श्रीमुनिसुव्रतनाथकी वीस धनुष श्रीनमिनाथकी पंद्रह धनुष, श्रीनेमिनाथकी दश धनुष, श्रीपार्श्वनाथकी नौ हाथ
और श्रीवर्धमानके शरीरकी उंचाई सात हाथ थी॥१२४-१२७॥ इन चौवीस तीर्थंकरोंमें से चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत श्वेत वर्णके क्रमान्मता ॥१२३॥ मानं वृषभदेहस्य धनुः पंचशतानि वै । कथित साईचत्वारि चत्वारि च यथाक्रमम् ॥१२४॥ साढत्रीणि तथा त्रीणि साई द्वे च तथा द्विकः । साईमेकं क्रमाञ्चकं नवतिकं त्वशीतिकम् ॥१२५॥ सप्ततिः षष्ठिः पंचाशत्पंचचत्वारिंशत्क्रमात् । चत्वारिंशत्तथा पंचत्रिंशत्रिंशत्क्रमेण च ॥ १२६ ॥ सपंचविंशतिर्विशः पंचदश दश क्रमात् । नवहस्तं बुधैः सप्त निनदेहप्रमं मतम् ॥१२॥
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[१७५
पांचवां अधिकार। थे, श्रीपद्मप्रभ और श्रीवासुपूज्य लाल वर्णके थे, श्रीनेमिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ श्यामवर्णके थे तथा सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ हरित वर्णके थे और शेषके सोलह तीर्थंकरोंका शरीर तपाये हुए सोनेके समान था॥१२८-१२९॥बैल, हाथी, घोड़ा, बंदर, चकवा, कमल, स्वस्तिक (सांथिया) चंद्रमा, मगर, वृक्ष, गेंडा, भैंसा, शूकर, सेही, वज्र, हिरण, बकरा, मछली, घड़ा, कछवा, नीलकमल, शंख, सर्प और सिंह ये अनुक्रमसे चौवीसों तीर्थंकरोंके चिह्न हैं ॥ १३०-१३१ ॥ अयोध्या, अयोध्या, अयोध्या, अयोध्या, अयोध्या, कौशांबी, काशी, चंद्रपुर, काकंदी, भद्रपुर, सिंहपुर, चंपापुर, कंपिला, अयोध्या, रत्नपुर, हस्तिनापुर, हस्तिनापुर, हस्तिनापुर, मिथिला, राजगृह, मिथिला, सौरीपुर, वाणारसी, कुंडपुर ये अनुक्रमसे चौवीसों तीर्थंकरोंकी जन्मपुरियोंके नाम हैं ॥१.३२-१३४॥ श्रीवासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान चंद्राभपुष्पदंतेशौ श्वेतवर्णौ प्रकीर्तितौ। पद्माभद्वादशौ रक्तौ श्यामलौ मेमिसुव्रतौ ॥ १२८ ॥ सुपार्श्वनाथपार्टी द्वौ हरिद्वर्णौ च षोडशः । तीर्थकरा बुधैर्जेयाः संतप्तकनकप्रभाः ॥१२९॥ वृषो हस्ती हयः कीशः कोकः सरोजस्वस्तिको । चंद्रमा मकरो वृक्षो गंड सैरिभशूकरौ ॥ १३० ॥ श्येनो वजं कुरंगो जो मत्स्वः कुम्भश्च कच्छपः । उत्पलं शंखनागेन्द्रौ सिंहो निनांकका इमे ॥ १३१ ॥ अयोध्यानगरी पंच जिनानामादितो मता । वत्सा काशीदुपुश्चेति काकंदी भद्रिका तथा ॥१३२॥ सिंहनादपुरं चंपा कंपिला च विनीतिकारी रत्नपुरं त्रयाणां वै हस्तिपुर्मिथिला तथा ॥१३३॥ कुशाग्रं मिथिला सौरी बाणारसी
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१७६]
गौतमचरित्र। ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्थामें ही दीक्षित हुए थे अर्थात् ये बालब्रह्मचारी थे तथा बाकीके तीर्थंकर राज्य करके दीक्षित हुए थे ॥ १३५ ॥ श्रीषभदेव, वासुपूज्य और नेमिनाथ ये तीन तीर्थकर पद्मासनसे मोक्ष गये हैं और बाकीके इकईस तीर्थकर खड्गासनसे मोक्ष गये हैं ॥ १३६ ॥ श्री वृषभदेव चौदह दिनतक योग निरोधकर मोक्ष पधारे थे, श्रीवर्द्धमान दो दिनतक योग निरोधकर मोक्ष पधारे थे और बाकीके बाईस तीर्थकर एक एक महीने तक योग निरोधकर (ध्यानरूप तपश्चरण करके) मोक्ष पधारे थे ॥१३७॥ श्रीषभदेव, कैलास पर्वतसे मोक्ष पधारे थे, श्रीवासुपूज्य चंपापुरसे मोक्ष पधारे थे, श्री नेमिनाथ गिरनार पर्वतसे मोक्ष पधारे थे, श्री वर्द्धमानस्वामी पावापुरसे मोक्ष पधारे थे और बाकीके वीस तीर्थंकर भव्यजीवोंको धर्मोपदेश देकर मनोहर सम्मेदशिखरसे मोक्ष पधारे थे ॥ १३८-१३९ ॥ श्रीनाभिराज, जितामित्र, जितारि, संवरराय, मेघप्रभ, धरणस्वामी, च कुंडपुः । जन्मपुर्यः इमा ज्ञेयाः भो श्रेणिक ! त्वयाक्रमात् ॥१३४॥ मल्लीशपार्श्वनेमीशसन्मतिवासुपूज्यकाः । कुमारा दीक्षिता ऐते परे भूत्वा क्षितीश्वराः ॥१३५॥ पत्यकासनतो मुक्तिवृषभवासुपूज्ययोः । नेमेस्तथैकविंशानां कायोत्सर्गेजिनैर्मता ॥ १३६ ॥ वृषश्चतुर्दशाहानि वीरो दिनद्वयं तथा । शेषं मासं तपोध्यानं कृत्वा मुक्तिं गता द्रुतम् ॥१३७॥ कैलाशे वृषभस्वामी चंपायां वासुपूज्यकः । ऊर्जयंतगिरौ नेमिः पावायां वर्द्धमानकः ॥ १३८ ॥ सम्मेदशिखरे कांते विंशतिस्तीर्थकारकाः । मुक्तिपदसमापन्नाः भव्यजीवप्रबोधकाः ॥ १३९ ॥
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[१७७
पांच अधिकार। सुप्रतिष्ठ, महासेन, सुग्रीव, दृढरथ, विष्णुराय, वसुपूज्य, कृतवर्मा, सिंहसेन, भानुराय, विश्वसेन, सूर्यप्रभ, सुदर्शन, कुंभराय, सुमित्रनाथ, विजयरथ, समुद्रविजय, अश्वसेन, सिद्धार्थ ये चौवीस अनुक्रमसे तीर्थंकरोंके पिताओंके नाम हैं ॥ १४०१४२ ॥श्रीमरुदेवी, विजयादेवी, सुसेनादेवी, सिद्धार्थादेवी, मंगलादेवी, सुसीमादेवी, पृथिवीदेवी सुलक्ष्मणादेवी, रामादेवी, सुनन्दादेवी, विमलादेवी, विजयादेवी, श्यामादेवी,सुकीर्तिदेवी, (सर्वयशादेवी), मुव्रतादेवी, ऐरादेवी, रमादेवी (श्रीमतीदेवी), सुमित्रादेवी, ब्राह्मीदेवी, पद्मावतीदेवी, विजयादेवी, शिवादेवी, वामादेवी, त्रिशलादेवी ये चौवीस तीर्थंकरोंकी माताओंके नाम हैं । ये सब अनुक्रमसे मोक्ष पधारेंगी ऐसा श्रीसर्वज्ञदेवने कहा है ॥ १४३-१४५ ॥ भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिषेण, जय, नाभिराजा जितामित्रो जितारिः संवरस्तथा । मेघाभो धरणस्वामीसुप्रतिष्ठो महाचमूः ॥ १४० ॥ सुग्रीवो दृढरथश्च विष्णुश्च वसुपूज्यकः । कृतवर्मा सिंहसेनो भानु ब विश्वसेनकः ॥१४१॥ सूर्यः सुदर्शनः कुंभः सुमित्रो विजयःक्रमात् । अधिनयोऽश्वसेनश्च सिद्धार्थो जिनपितृकाः ॥ १४२ ॥ मरुदेवी विजया च सेना सिद्धार्थमंगले । सुसीमा पृथिवी चापि सुलक्ष्मणाथ रामिका ॥१४३॥ सुनंदा विमला चेति जया श्यामा सुकीर्तिका । सुव्रतैरा रमा मित्रा ब्राह्मी पद्मावती तथा ॥ १४४ ॥ विजयाऽपि शिवा वामा त्रिशला निनमातरः । इमा निर्वाणगामिन्यः क्रमेण कोविदैर्मताः ॥ १४६ ॥ प्रथमो भरतश्चक्री सगरो मघवाभिधः । सनत्कुमारशांती च कुंथुररः सुभूमकः
१०
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१७८ ]]
गौतमचरित्र |
ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्तियों के नाम हैं ।। १४६-१४७ ॥ ये सब चक्रवर्ती भरतक्षेत्रके छहों खंडों के स्वामी होते हैं, नौनिधि और चौदह रत्नोंके स्वामी होते हैं तथा अनेक देव और अनेक राजा उनके चरणकमलोंकी सेवा करते हैं ॥ १४८ ॥ पांडुक, माणत्र, काल, नैःसर्प, शंख, पिंगल, सर्वरत्न, महाकाल और पद्म ये चक्रवर्तियों के यहां रहनेवाली नौ निधियों के नाम हैं ॥ १४९ ॥ चक्र, तलवार, काकिणी, दंड, छत्र, चर्म, पुरोहित, गृहपति, स्थपति, स्त्री, हाथी, मणि, सेनापति, घोड़ा ये चक्रवर्तीके यहां होनेवाले चौदह रत्नों के नाम हैं ।। १५० ।। इन बारह चक्रवर्तियों में से सुभूम और ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती मरकर सातवें नरक में गये हैं, मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती स्वर्ग गये हैं और बाकी आठ चक्रवर्ती मोक्ष पधारे हैं ।। १५५ ॥ इन चक्रवतियों के होनेका अन्तर नीचे लिखे अनुसार है । पहला चक्रवर्ती श्रीवृषभदेव के समयमें हुआ, दूसरा चक्रवर्ती श्री॥ १४६ ॥ यथाक्रमं महापद्मो हरिषेणो जयस्तथा । ब्रह्मदत्त इमे ज्ञेया द्वादश चक्रवर्तिनः ॥ १४७ ॥ षट्खंडभरताधीशा निधिरत्नादिसंयुताः । अनेकदेवभूपालैः सेवितपदपंकजाः ॥ १४८ ॥ पांडको - माणवः कालो नैः सर्पः शंखपिंगलौ । सर्वरत्नो महाकाल: पद्मश्च निधयो नव ॥ १४९ ॥ चक्रासिकाकिणीदंडाः छत्रचर्म पुरोधसः । गृहेशस्थपतिस्त्रीमा मणिसेनाहया मताः ॥ १५० ॥ सुभूमब्रह्मदत्तौ द्वासप्तमनरकं गतौ । कल्पं मघवतुर्येौ द्वौ शेषाः शिवपदाश्रिताः ॥ १५१ ॥ चक्रिणामंतरं विद्धि प्रथमो वृषशासने । द्वितीयोऽजितती
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पांचवां अधिकार।
[१७६ अजितनाथके समयमें हुआ, तीसरा और चौथा ये दो चक्रवर्ती श्रीधर्मनाथ और शांतिनाथके मध्यकालमें हुए, पांचवें चक्रवर्ती शांतिनाथ थे, छठे चक्रवर्ती कुंथुनाथ थे, सातवें चक्रवर्ती अरनाथ थे, आठवां चक्रवर्ती अरनाथ और माल्लिनाथके मध्यकालमें हुआ, नौवां चक्रवर्ती मल्लिनाथ और मुव्रतनाथके मध्यकालमें हुआ, दशवां चक्रवर्ती सुव्रतनाथ और नमिनाथके मध्यकालमें हुआ, ग्यारहवां चक्रवर्ती नमिनाथ और नेमिनाथके मध्यकालमें हुआ और वारहवां चक्रवर्ती नेमिनाथ
और पार्श्वनाथके मध्यकालमें हुआ॥१५२-१५४॥ अश्वग्रीव, तारक, मेरु, निशुंभ, मधुकैटभ, बलि, प्रहरण (प्रल्हाद), रावण, जरासंध ये नौ नारायणोंके नाम हैं ॥१५५॥ त्रिपृष्ट, द्विपृष्ट, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, प्रतापी नरसिंह, पुंडरीक, दत्त, लक्ष्मण, कृष्ण ये नौ प्रतिनारायणोंके नाम हैं। नारायण और प्रतिनारायण दोनों ही अर्द्धचक्रवर्ती होते हैं, निदानसे उत्पन्न होते हैं और इसलिये सब नरकगामी होते हैं ॥ १५६-१५७ ॥ थेऽभूद द्वौ धर्मशांतिमध्यके ॥ १५२ ॥ शांतिकुंथ्वरचक्रांकायष्टमो. मल्ल्यरांतरे । मल्लिसुव्रतयोमध्ये नवमः परिकीर्तितः ॥१५३॥ नमिसुव्रतनाथांते दशमो नमिनेमयोः । एकादशम चक्रेशो नेमिपावतिरेऽतिम ॥१५४॥ अश्वग्रीवस्तारमेरू निशुम्भो मधुकैटभः । बलिः प्रहरणो ज्ञेयो रावणो जरासंधकः ॥१५५॥ त्रिष्टष्टश्च द्विष्टष्टश्च स्वयंभू पुरुषोत्तमः । नरसिंहः प्रतापाढ्यः पुंडरीकश्च दत्तकः ॥१५६॥ नारायणस्तथा कृष्णो नवाईचक्रिणो मताः। अधोगाः केशवाश्चापि निदानात्प्रतिशत्रवः ॥ १५७ ॥ प्रथमो विनयोऽभिख्योऽचलः सुधर्मसुप्रभौ ।
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गौतमचरित्र। विजय, अचल, मुधर्म, सुप्रभ, स्वयंप्रभ, आनन्दी, नन्दिमित्र, रामचन्द्र और बलदेव ये नौ बलभद्रोंके नाम हैं। ये सब विना किसी निदानके होते हैं और इसीलिये जिनदीक्षा धारण करते हैं, मोह और कामदेवको जीतते तथा सब ऊर्ध्वगामी होते हैं। कोई स्वर्ग जाते हैं और कोई मोक्ष जाते हैं ॥१५८१५९।। पहले नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र श्रेयांसनाथके समयमें हुए, दूसरे प्रतिनारायण, बलभद्र, नारायण, वासुपूज्यके समयमें, तीसरे विमलनाथके समयमें, चौथे अनंतनाथके समयमें, पांचवें धर्मनाथके समयमें, छठे अरनाथके समयमें, सातवें मल्लिनाथके समयमें, आठवें मुनिसुव्रतनाथके समयमें और नौवे प्रतिनारायण, नारायण, बलभद्र नेमिनाथके समयमें हुए हैं।।१६०॥ भीमबली, जितशत्रु, रुद्र (महादेव), विश्वानल, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुंडरीक,अजितधर,जितनाभि, पीठ, सासक ये ग्यारह रुद्र वा महादेवके नाम हैं । ये ग्यारह ही महादेव ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरकर मरकर नरकमें ही गये हैं॥१६१-१६२॥ इनमेंसे पहला
और दूसगरुद्र श्रीषभदेव और अजितनाथके मध्यकालमें हुए । स्वयंप्रभस्तथानंदी नंदिमित्राभिधः क्रमात् ॥१५८॥ रामः पद्मो बलाः प्रोक्ता निनदीक्षाप्रधारकाः । मोहमदनजेतारो निर्निदानास्तथोर्ध्वगाः ॥१५९॥ एकादशमतीर्थेशपंचारमलिशासने । सप्त कृष्णाः क्रमाद ज्ञेयाः सुव्रतनेमयोः परौ ॥१६० ॥ भीमबलिर्जितामित्रो रुद्रो विश्वानलस्तथा । सुप्रतिष्ठोऽचलश्चति पुंडरीको जितधरः॥१६१॥ नितनाभिश्च पीठाख्यः सात्यक ईश्वरा इमे। एकादशगुणस्थानान्निपत्याधोगतिं गताः ॥१६२॥ वृषभानितयोः काले द्वौ रुद्रौ नवमादिषु । निनेप्वष्टसु
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पांचवां अधिकार।
[ १८१ तीसरा रुद्र पुष्पदंतकेसमयमें,चौथाशीतलनाथके समयमें,पांचा श्रेयांसनाथके समयमें, छठा वासुपूज्यके समयमें, सातवां विमलनाथके समयमें, आठवां अनंतनाथके समयमें, नौवां धर्मनाथके समयमें,दशवां शांतिनाथके समयमें और ग्यारहवां रुद्र श्रीवर्द्धमानके समयमें हुआ है ॥१६३॥ भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुर्मुख, नरमुख, उन्मुख ये नौ नारदोंके नाम हैं । इनकी आयु नारायणोंके समान कही गई है ॥१६४-१६५॥ बाहुबलि, अमिततेज, श्रीधर, शांतभद्र, प्रसेनजित, चंद्रवर्ण, अग्निमुक्त, सनत्कुमार, वत्सराज, कनकप्रभ, मेघवर्ण, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, विजयराज, श्रीचंद्र, अनल, हनुमान, वली, सुदर्शन (वसुदेव), पद्युम्न, नागकुमार, श्रीपाल (मूक्तिमाघ), जंबूस्वामी ये चौवीस कामदेवोंके नाम हैं।।१६६-१६८ चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र ये तिरेसठ शलाकापुरुष, (मुख्यपुरुष) विज्ञेया अष्टौ वीरेंऽतिमस्तथा ॥ १६३ ॥ आयो भीमो महाभीमो रुद्राभिधो यथाक्रमम् । महारुद्रस्तथा कालो महाकालश्च दुर्मुखः ॥१६४॥ अष्टमो नरवक्रश्चोन्मुखाख्यो नव नारदाः । प्रोक्ता आयुः स्थितिस्तेषां नारायणसमा मताः॥१६५॥बाहुबल्यमिततेनाः श्रीधरः शांतिभद्रकः । प्रसेनेंदुश्च चन्द्रेषुरग्निमुक्ताभिधस्तथा ॥ १६६ ॥ सनत्कुमारो वत्सराट् स्वर्णाभो मेघशांतिकौ । कुंथ्वरौ विजयश्चद्रो नलाख्यो हनुमान् बली ॥१६॥ सुदर्शनः प्रद्युम्नश्च नागकः सूक्तिमाधकः । जंबूस्वामी चतुर्विशाः कामदेवा इमे मताः ॥ १६८ ॥ त्रिषष्ठिपुरुषाः कामा नारदा मिनतातको । कुलकरास्तथा रुद्राः
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१८२] गौतमचरित्र। कहलाते हैं तथा इन्हीमें चौवीस कामदेव, नौ नारद, चौवीस तीर्थंकरोंके पिता, चौवीस तीर्थंकरोंकी माताएं, चौदह कुलकर, ग्यारह रुद्र, ये एकसौ उनहत्तर पुरुष महापुरुष कहलाते हैं ॥१६९॥ इनमेंसे धर्मके प्रभावसे कितने ही तो मोक्षमें पहुंच चुके हैं और कितने ही शीघ्र पहुंचेंगे । हे राजन् ! यह बात सर्वथा सत्य है ॥१७०॥ हे राजा श्रेणिक ! इसप्रकार दुःषममुषमकालका स्वरूप कहा । अब पांचवें दुःषमकालका स्वरूप कहता हूं, तू सुन ॥१७॥ जिसससय श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्ष पधारेंगे और सुरेंद्र, नागेंद्र, नरेंद्र सब उनका कल्याणोत्सव मना. वेंगे उससमय धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति होती रहेगी ॥१७२॥ इसके कुछ दिन बाद जब केवली भगवानका धर्मोपदेश बंदहोजायगा
और देवोंका आना भी बंद हो जायगा उस समय मनुष्य बड़े दुष्ट होंगे और बड़े बड़े अनर्थ करनेवाले होंगे ॥१७३॥ उस समयके राजा अनीति वा अन्यायसे उत्पन्न हुई पदवि. योंमें तल्लीन होंगे, तपश्चरणके भारसे सर्वथा रहित होंगे, क्रूर
शतमेकोनसप्ततिः ॥१६९॥ एषां मध्ये गता मुक्ति केचिद्धर्मप्रभावतः । गमिष्यंति द्रुतं केचित्सत्यं जानीहि पार्थिव ॥१७०॥ दुःषमसुषमाख्यस्य स्वरूपं गदितं मया । अतो दुःषमकालस्य शृणु श्रेणिक सांप्रतम् ॥१७१॥ वईमाने गते मुक्तिं धर्मतीर्थः प्रवर्तते । सुरासुरनराधीशैः कृतकल्याणकोत्सवे ॥ १७२ ॥ सुकेवलिवृषाख्यानहीने देवागमोज्झिते । भविष्यति नरा दुष्टा महानर्थप्रकारिणः ॥१७३॥ अनीतिपदवीरक्तास्तपोभारविवर्जिताः । क्रूरा नृपाः भविष्यंति प्रजा
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पांचवां अधिकार।
[ १८३ होंगे और प्रजाको दुःख देनेवाले होंगे ॥ १७४ । उस समयके मनुष्य अपने पहले जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्मोके उदयसे पापकार्यों में तल्लीन होंगे, अनेक प्रकारके दुःखोंसे भरपूर होंगे, उनका हृदय सम्यग्दर्शनसे शून्य होगा, दूसरोंके ठगनेमें वे तत्पर रहेंगे, एकेंद्रिय आदि जीवोंकी हिंसा करनेमें वे तल्लीन रहेंगे, झूठ बोलेंगे, दूसरोंका धन हरण करलेनेमें बड़े चतुर होंगे, ब्रह्मचर्यव्रतसे सर्वथा रहित होंगे, बहुतसे परिग्रहको धारण करनेवाले होंगे, मूर्ख होंगे, कुछ लोग ही अणुव्रती होंगे, सब लोग अज्ञान और व्याधियोंसे भरपूर होंगे, उनके हृदय मिथ्यात्वसे ही भरपूर रहेंगे, वे बड़े भारी शोकसे सदा संतप्त बने रहेंगे, धर्मरूपी बेलको उखाड़ फेंकनेके लिये मदोन्मत्त हाथीके समान होंगे, कठोर बचन कहनेमें सदा तत्पर रहेंगे, गुरुके लिये वे कभी विनय नहीं करेंगे, बड़े क्रोधी होंगे, सदा धनके लोभमें चूर रहेंगे। मायाचारी, महा अभिमानी, परस्त्रियोंके लोलुपी, परोपकारसे सर्वथा रहित, जैनधर्मके विरोधी, दूसरोंको दुःख दुःखप्रदायिनः ॥ १७४ ॥ पापकर्मसमासक्ता नानाक्लेशप्रपूरिताः । सम्यक्त्वोज्झितचेतस्काः परबंचनतत्पराः ॥१७॥ एकेंद्रियादिजीवानां हिंसारक्ता मृषोदिताः। परस्वहरणे प्राज्ञा ब्रह्मव्रतपरिच्युत्ताः॥१७६॥ भूरिपरिग्रहाः मूढा लेशव्रतसमन्विताः। अज्ञानव्याधिसम्पूर्णा मिथ्यानिर्भरमानसाः ॥ १७७ ॥ भूरिशोकेनसंतप्ता धर्मवल्लीमहागनाः।" निष्ठुरबचनासक्ताः गुरुसु विनयोज्झिताः ॥ १७८॥ महाक्रोधधरा नित्यं धनलोभपरायणाः । मायाविनो महागर्वाः परसीमंतिनीरताः
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१८४]
गौतमचरित्र। देनेमें बड़ा भारी उत्साह दिखलानेवाले, परस्पर एक दूसरोंके साथ वादविवाद करनेवाले, माता पिता आदि वृद्धपुरुषोंकी आज्ञाका भंग करनेवाले, कुदानके देनेवाले, मद्य, मांस, मधुका सेवन करनेवाले, इष्टवियोगी, अनिष्टसंयोगी और कुबुद्धिको धारण करनेवाले होंगे॥१७५-१८२॥ पापकर्मके उदयसे सात प्रकारके युद्ध सदा बने रहेंगे, धान्य बहुत थोड़ा उत्पन्न होगा, सब लोगोंको सदा भय बना रहेगा, गोवध करनेवाले यज्ञोंमें चतुर (बहुतसे पशुओंका होम करनेवाले) कुधर्मोमें लोग सदा लीन रहेंगे, जो लोग स्वयं पतित हुए हैं वे मिथ्या उपदेश दे देकर दुष्ट मनुष्योंको और पतित करते रहेंगे ॥१८३-१८॥ पंचमकालके प्रारंभमें शरीरकी ऊंचाई सात हाथकी होगी फिर घटते घटते अंतमें दो हाथकी रह जायगी॥ १.८५ ॥ प्रारंभमें मनुष्योंकी आयु एकसौवीस वर्षकी होगी फिर घटते घटते ॥१७९॥ अन्योपकृतिभिहीना जैनधर्मविरोधिनः । परपीडामहोत्कंठाः परस्परविवादिनः ॥१८०॥ मातृपित्रादिवृद्धानामाज्ञाभंजनकारिणः । कुत्सितदानकर्तारो मद्यमध्वामिषाशिनः ॥ १८१ ॥ इष्टासंयोगिनोऽनिष्टयोगभाजः कुबुद्धयः । माः प्रवर्तयिष्यंति स्वपूर्वेनोविपाकतः ॥ १८२ ॥ ( अष्टभिः कुलकम् । ) । सप्तेति विग्रहा योगैभविष्यंति कुनेहसः । अत्यल्पसस्यसंपन्नाः सर्वजनभयावहाः ॥१८३॥ गोदंडाध्वरदक्षेषु कुधर्मेषु स्वयं सदा । पतंतः पातयिष्यंति कुजनान् कूपदेशतः ॥ १८४ ॥ आदौ सप्तकरोत्सेधाः प्रपत्स्यते हि मानवाः । ततः क्रमेण हान्या तु युग्महस्तप्रमोच्छ्रिताः ॥१८५॥ विंशाधिकशताब्दाश्च पूर्वआयु नृणां मतम् । दुःषमेतः क्रमाखान्या विंशति
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पांचवां मधिकार।
[१८५ अंतमें वीस वर्षकी रह जायगी ॥१८६॥ दुःषमदुःषम नामके छठे कालमें शरीरकी ऊँचाई एक हाथकी होगी और आयु बारह वर्षकी होगी ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवका कथन है ॥१८७॥ उस समयके मनुष्य सांपकी वृत्ति धारण कर महापाप उत्पन्न करते रहेंगे। न उनके पास घर होगा, न धन होगा, न कोई अन्य पदार्थ होंगे । करुणा वा दया आदि व्रतसे वे सर्वथा रहित होंगे, वे किसी प्रकारका आचरण पालन नहीं करेंगे
और न उनमें विनय गुण ही होगा। वे बड़े क्रोधी होंगे और जिसप्रकार जंगलों में जंगली जानवर रहते हैं उसीप्रकार वे पापी गुफाओंमें रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करेंगे ॥१८८-१८९।। माता, पिता, भाई, बहिन आदि सम्बन्धके ज्ञानसे वे सर्वथा रहित होंगे, उनका हृदय प्रबल मोहसे सदा पीड़ित रहेगा और वे पशुके समान ही रहेंगे ॥१९०॥ धर्म, अर्थ, काम इन पुरुषार्थीको सिद्ध करनेवाले कारणोंसे वे सर्वथा रहित होंगे, पापकार्योंमें सदा लीन होंगे, क्रूर होंगे
और वनस्पति तथा फल आदि खाकर ही जीवननिर्वाह वर्षमात्रकम् ॥ १८६ ॥ दुःषमदुःषमे नृणां उत्सेधो हस्तमात्रकः । द्वादशाब्दमितं चायुर्मिनेन्द्रेण प्रकीर्तितम् ॥१८॥ नरा भुजंगवृत्या ते गमयिष्यंत्यनेहसम् । मंदिरद्रव्यसंपत्तिकारुण्यादिव्रतच्युताः ॥१८८॥ अक्रियाः क्रोधसंयुक्ताः विनयादिगुणोज्झिताः । गुहावसतयः पापाः कांतारप्राणिनो यथा ॥१८९॥ मातृपितृस्वसृभ्रातृसंबंधज्ञानसंच्युताः । पशव इव भूयिष्ठमोहपीडितमानसाः ॥ १९० ॥ धर्मार्थकामसंदोहकारणैः परिवर्जिताः। पापकर्मरताः कूरा वनस्पति
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गौतमचरित्र। करेंगे ॥१९१॥ विवाहके संस्कारसे भी वे रहित होंगे, स्वामी सेवक भाव भी उनमें नहीं होगा, उनका शरीर कुरूप होगा
और उनके सब अङ्ग कुरूप होंगे। छठे कालमें लोग सदा ऐसे ही होंगे ॥१९२॥ जिसप्रकार कृष्णपक्षमें चंद्रमाकी घटती होती रहती है और शुक्लपक्षमें वृद्धि होती रहती है उसीप्रकार इन अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालमें जीवोंकी आयु, शरीरकी ऊँचाई, प्रभाव, ऐश्वर्य आदिकी घटती बढ़ती होती रहती है ॥१९३॥ जिसप्रकार धर्म और उत्सवोंके कार्य रात्रिमें कम होजाते हैं और दिनमें बढ़ जाते हैं उसीप्रकार इन उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालमें भी धार्मिक उत्सवोंकी वृद्धि हानि होती रहती है ॥१९४॥ जिसप्रकार अवसर्पिणी कालमें अनुक्रमसे होनेवाली हानि बतलाई है उसीप्रकार हे राजा श्रेणिक ! उत्सर्पिणीकालमें अनुक्रमसे वृद्धि समझनी चाहिये ॥१९॥ इसप्रकार मुनि और श्रावकोंके भेदसे दो प्रकारका धर्म बतलाया है। इनमेंसे मुनियोंका धर्म मोक्ष देनेवाला है और श्रावकोंका धर्म स्वर्गको देनेवाला है ॥१९६॥ ये दोनों प्रकारके धर्म फलाशिनः ॥ १९१ ॥ विवाहविधिसंत्यक्ता रहिताः स्वामिदासकैः । भविष्यंति नरा नित्यं विरूपनिखिलांगकाः ॥ १९२ ॥ हानिवृद्धी यथेन्दोः स्तः श्यामावदातपक्षयोः। आयुर्वपुः प्रमादीनां विज्ञातव्यौ तथैतयोः ॥ १९३ ॥ धर्ममहोत्सवादीनां हानिवृद्धी यथा मते । निशादिवसयो ये तथानयोरनेहसोः ॥१९४॥ स्थितियथावसर्पियो क्रमेण परिकीर्तिता। तथा चोत्सर्पिणीकाले वृद्धिर्जेया महीपते ॥१९५॥ स धर्मो द्विविधः प्रोक्तो यतिश्रावकभेदतः । प्रथमो मुक्तिदः
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पांचवां अधिकार।
[१८७ सुख देनेवाले हैं। इनका स्वरूप तुम्हारे लिये कहा अब नरक स्वर्गका हाल बतलाते हैं । पापकर्मके उदयसे यह जीव नरक में जाता है और वहांपर पांच प्रकारके दुःख सदा भोगता रहता है ॥१९७॥ अधोलोककी सात पृथिवियोंमें सात नरक हैं उनके नाम ये हैं-धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी, माधवी ॥ १९८ ॥ इन सातों नरकोंमें चौरासीलाख बिले हैं और वे इस क्रमसे हैं । पहिली पृथ्वीमें तीसलाख, दूसरीमें पच्चीसलाख, तीसरीमें पंद्रहलाख, चौथीमें दश लाख, पांचवीमें तीन लाख, छठीमें पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच॥१९९॥पहिली पृथ्वीमें रहनेवाले नारकी जीवोंके जघन्य कापोती लेश्या है, दूसरी पृथ्वीमें रहनेवाले नारकी जीवोंके मध्यम कापोती लेश्या है। तीसरी पृथ्वीके ऊपरी आधे भागमें उत्कृष्ट कापोती लेश्या है, उसी तीसरी पृथ्वीके नीचेके आधे भागमें जघन्य नील लेश्या है, चौथी पृथ्वीके नारकियोंके मध्यम नीललेश्या है, पांचवीं पृथ्वीके ऊपरी भागमें उत्कृष्ट नीललेश्या है, उसी पांचवीं पृथ्वीके नीचेके भागमें जघन्य कांतो द्वितीयो स्वर्गदायकः ॥१९६॥ तौ धर्मों प्रथमं प्रोक्तौ युष्मभ्यं सुखकारिणौ । किल्विषान्नरकं याति पंचधा यत्र दुःखकम् ॥१९॥ धर्मा वंशा तथा मेघांजनारिष्टा यथाक्रमम् । मघवी माधवी ज्ञेया तत्र च सप्त मेदिनी ॥१९८॥ त्रिशत्पंचकृतिः पंचदश दश क्रमात्रिका। लक्षका चाऽपि पंचोना पंच नारकभेदकाः ॥ १९९ ॥ आद्यभूमौ च । जीवानामंत्यकापोतलेश्यकाः । मध्यमा च द्वितीयायां तृतीयोऽढे तमा पराः ॥ २० ॥ तस्यामधो परा नीला चतुर्थ्या मध्यमा तथा ।
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१८८]
गौतमचरित्र । कृष्ण लेश्या है । छठी पृथ्वीके ऊपरी भागके नारकी जीवोंके मध्यम कृष्णलेश्या है, उसी छठी पृथ्वीके नीचेके भागमें परम कृष्णलेश्या है और सातवीं पृथ्वीके नारकियोंके उत्कृष्ट कृष्णलेश्या है ॥ २०१-२०२॥ इन नारकियोंकी आयु इसप्रकार है-पहले नरकमें एक सागरकी, दूसरमें तीन सागरकी, तीसरेमें सात सागरकी, चौथेमें दश सागरकी, पांचवेंम सत्रह सागरकी, छठेमें बाईस सागरकी और सातवें नरकमें तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है । २०३ ।। पहले नरकमें जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है, दूसरेमें एक सागर, तीसरेमें तीन सागर, चौथेमें सात सागर, पांचवेमें दश सागर, छठेमें सत्रह सागर, और सातवेंमें बाईस सागरकी जघन्य आयु है ॥ २०४॥ नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई सातवें नरकमें पांचसौ धनुष है तथा ऊपरके नरकोंमें अनुक्रमसे नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई आधी आधी होती गई है ॥२०५ ॥ पहले नरकमें रहनेवाले नारकियोंका अवधिज्ञान एक योजन तक रहता है फिर प्रत्येक नरकमें आधा आधा उत्कृष्टोपरिपंचम्यामधस्ताकृष्णलेश्यका ॥२०१॥ षष्ठयां च मध्यमा चोर्टमधः परमकृष्णिका । सप्तम्यां कथितोत्कृष्टा कृष्णलेश्या यथाक्रमम् ॥२०२॥ ज्ञेया परा स्थितिस्तेषामेकत्रिसप्त वे दश । सप्तदश द्विविंशस्तु त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः॥२०३॥ प्रथमायां सहस्राणि दशापरास्थितिमता। प्रथमादिषु योत्कृष्टा द्वितीयादिषु सापरा ॥२०४॥ धनुः पंचशतोत्सेधाः सप्तमी भुवि नारकाः । तत ऊोऽर्द्धके तुगैरर्धा अद्धो भवंति वै ॥२०५॥ प्रथमायां च सत्वानामवधिरेकयोजनम् । क्रोशाई
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पांचवां अधिकार।
१८६) कोस घटता जाता है, अर्थात् दूसरेमें साढ़े तीन कोस, तीसरेमें तीन कोस, चौथेमें ढाई कोस, पांचवेंमें दो कोस, छठेमें डेढ़ कोस और सातवेंमें एक कोस तकका अवधिज्ञान होता है ॥ २०६॥
अब आगे देवोंका वर्णन करते हैं। देव चार प्रकारके होते हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी। इनमेंसे भवनबासियोंके दस भेद हैं, व्यन्तरोंके आठ भेद हैं, ज्योतिषियोंके पांच भेद हैं और कल्पवासियोंके बारह भेद हैं । कल्पातीत देवोंमें कोई भेद नहीं है ॥२०७।। असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, अग्निकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, विद्युत्कुमार और वातकुमार ये दश भवनवासियोंके भेद कहे जाते हैं ॥२०८॥ किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच ये आठ व्यन्तरोंके भेद कहलाते हैं ॥२०९॥ सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ये पांच ज्योतिषियोंके भेद हैं । ये सब ज्योतिषी देव मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देते हुए सदा भ्रमण किया करते हैं ॥२१०, सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, तदधोधश्च हीयते नरकं प्रति ॥ २०६॥ चतुर्णिकायका देवास्तेषां क्रमाददशाष्टकाः। पंच द्वादश वै भेदाः कल्पातीतास्तथापरे ॥२०७॥ असुरो हि सुपर्णाख्यो द्वीपाग्निस्तनिताब्धयः।कुमारा दिक् तडिद्वाता मता भवनवासिनः ॥ २०८ ॥ किन्नरयक्षगंधर्वकिंपुरुषमहोरगाः। पिशाचराक्षसौ भूतो व्यंतराः कथिता इमे ॥२०९ ॥ सूर्याचंद्रमसौ चाऽपि ग्रहनक्षत्रतारकाः । ज्योतिर्देवा इमे मेरुप्रदक्षिणानिशं भ्रमाः
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१६०]
गौतमचरित्र। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये सोलह स्वर्ग हैं, इनके ऊपर नवग्रेवेयक हैं, फिर नौ अनुदिश हैं और उनके ऊपर विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच पंचोत्तर हैं । इन देवोंमें ऊपर ऊपरके देवोंमें आयु अधिक है, प्रभाव अधिक है, मुख अधिक है, शरीरकी कांति अधिक है, लेश्याओंकी विशुद्धि अधिक है, इन्द्रियोंका विषय अधिक है और अवधिज्ञानका विषय अधिक है ॥२१५-२१४ ॥ इसी प्रकार ऊपर ऊपरके देवोंमें गति, शरीरकी ऊँचाई, परिग्रह और अभिमान घटता गया है। ग्रैवेयकसे पहले पहले अर्थात् सोलह स्वर्गतकके देव कल्पवासी कहे जाते हैं और आगेके देव कल्पातीत माने जाते हैं ॥२१॥ इन वैमानिक देवोंके विमानोंकी संख्या चौरासी लाख सतानवे हजार तेईस है ॥ २१६ ॥ भवनवासी, व्यंतर ॥२१०॥ आद्य सौधर्म ऐशानः सनत्कुमारकः क्रमात् । माहेंद्रब्रह्मको चाऽपि ब्रह्मोत्तरश्च लांतवः ॥२११॥ कापिष्टशुक्रकौ चैव महाशुक्रसतारको । सहस्रारानतौ प्रोक्तौ सप्राणतारणाच्युताः ॥ २१२ ॥ नवग्रैवेयकाः प्रोक्ता नवानुदिशकास्तथा। विजयवैजयंतौ च जयंतोऽप्यपराजितः॥२१३॥ सर्वार्थसिद्धिकस्तेषु स्थितिप्रभावसौख्यतः । द्युतिलेश्यविशुद्धयक्षावधिविषयतोऽधिकाः ॥२१४॥ गतिगात्राभिमानेभ्यः परिग्रहेण हीनकाः । देवाः प्रोक्ताः निनैः कल्पाः पूर्व ग्रैवेयकात्तथा ॥२१५॥ चतुरशीतिलक्षास्तु विमानानि सुरालये । त्रिविंशत्यधिकाः सप्तसन्नवतिसहस्रकाः ॥ २१६ ॥ ज्योतिर्भावनभौमानां तेनोलेश्या
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[१६१
पांचवां अधिकार । और ज्योतिषी देवोंके कृष्ण, नील, कापोत और जघन्य पीत लेश्या है । उनकी द्रव्यलेश्या भी यही है और भावलेश्या भी यही है ।। २१७॥ पहलेके दो स्वर्गों में मध्यम पीतलेश्या है, तीसरे चौथे स्वर्गमें उत्कृष्ट पीतलेश्या है और जघन्य पद्मलेश्या है। पांचवेंसे दशवें स्वर्गतक मध्यम पद्मलेश्या है । ग्यारहवें बारहवें स्वर्गमें उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ललेश्या है । तेरहवें स्वर्गसे लेकर सोलहवें स्वर्गतक तथा नौ ग्रैवेयकोंमें मध्यम शुक्ललेश्या है । नव अनुदिशोंमें पांचों पंचोत्तरों में उत्कृष्ट शुक्ललेश्या है ॥ २१८-२२० ॥ असुरकुमार देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर है, नागकुमार देवोंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है, सुपर्णकुमारोंकी ढाई पल्य है, द्वीपकुमारोंको दो पल्य है और बाकीके भवनवासियोंकी उत्कृष्ट आयु डेढ़ डेढ़ पल्यकी है। इन्हीं देवोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है ॥२२१-२२२॥ व्यंतर और ज्योतिषी जघन्यका । कृष्णादित्रितयाश्चापि वथिता द्रव्यभावतः ॥ २१७ ॥ आदिद्विस्वर्गदेवानां तेजोलेश्या च मध्यमा । सोत्कृष्टा तु परे युग्मे जघन्यपद्मलेश्यिका ॥ २१८ ॥ परे युग्मत्रये प्रोक्ता पद्मलेश्या च मध्यमा । सोत्कृष्टा चापरे इंटे शुक्ल लेश्या जघन्यका ॥ २१९ ॥ ततो युग्मद्वये स्वर्गे नवग्रैवेयकेषु च । मध्यमा शुक्ललेश्या तु चतुदशसु. सा परा ॥२२०॥ असुराणां स्थितिः प्रोक्ता साधिकः सागरः परा । त्रिप ल्यका तु नागानां साईद्वयं सुपर्णके ॥२२१॥ द्वीपानां युगलं पल्यं शेषाणां पल्यमा भाक् । दशवर्षसहस्राणि जघन्या कथिता स्थितिः ॥२२२॥ भौमानां ज्योतिषां पल्यं साधिकं तु परा स्थितिः।
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१९२]
गौतमचरित्र। देवोंकी उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्यकी है तथा व्यंतरोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है और ज्योतिषी देवोंकी जघन्य आयु एक पल्यका आठवां भाग है ॥२२३॥ भवनवासी देवोंके शरीरकी ऊँचाई पच्चीस धनुष है, व्यंतरोंकी दश धनुष है और ज्योतिषियोंकी सत्रह धनुष है ॥२२४॥ पहले दूसरे स्वर्गमें देवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागर, तीसरे चौथेमें सात सागर, पांचवें छठेमें दश सागर, सातवें आठवेमें चौदह सागर, नौवें दशमें सोलहसागर, ग्यारहवें बारहवें में अठारह सागर, तेरहवें चौदहवेमें वीससागर और पंद्रहवें सोलहवें स्वर्गमें वाईस सागरकी उत्कृष्ट आयु है ॥ २२५ ॥ फिर आगे एक एक सागरकी आयु बढ़ती गई है अर्थात् पहले ग्रैवेयकमें तेईस सागर, दूसरेमें चौवीस, तीसरेमें पच्चीस, चौथेमें छब्बीस, पांचवेंमें सत्ताईस, छठेमें अट्ठाईस, सातवेमें उन्तीस, आठवेंमें तीस, नौवेमें इकतीस सागरकी है। नव अनुदिशोंमें बत्तीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है और विजयादिक पांचों पंचोत्तरों में तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है॥२२६॥ इनकी जघन्य आयु पहलेके दो स्वर्गों में कुछ अधिक दशवर्ष महस्राणि पल्याष्टांशोऽवरा क्रमात् ॥ २२३ ॥ असुराणां च शेषाणां चापानि पंचविंशतिः। दशोत्तुंगः क्रमाद्भौमज्योतिषां दश सप्त च ॥ २२४ ॥ द्विसत दशवाायुः स्थितिः परा चतुर्दश । षोडशष्टादशो विंशो द्वाविंशतिश्च नाकिनाम् ॥२२५॥ नवग्रैवेयकस्थानामेकैकाधिकसागराः । द्वात्रिंशच त्रयस्त्रिंशन्नवसु पंचसु क्रमात्॥ २२६ ॥ अन्यादिद्वयकल्पेषु पल्योपमं च साधिकम् । सौधर्मादिषु
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पांचवां अधिकार |
[ १६३.
एक पल्यकी है और आगेके लिये यह नियम है कि जो आयु नीचेके स्वर्गमें उत्कृष्ट है वह उससे आगेके स्वर्गमें जघन्य होजाती हैं। पहले दूसरेकी उत्कृष्ट आयु तीसरे चौथेमें जघन्य है, तीसरे चौथेकी उत्कृष्ट आयु पांचवें छठे में जघन्य है । यही क्रम ऊपर तक चला गया है || २२७|| पहले दूसरे स्वर्ग देवोंके शरीरकी उँचाई सात हाथ है, तीसरे चौथेमें छह हाथ, पांचवें छठे सातवें आठवें में पांच हाथ, नौवें दशवें ग्यारहवें बारहवें में चार हाथ, तेरहवें चौदहवें में साढ़े तीन हाथ, पंद्रहवें सोलहवें में तीन हाथ, पहले तीन ग्रैवेयकोंमें ढाई हाथ, मध्यकी तीन ग्रैवेयकों में दो हाथ, ऊपर की तीन ग्रैवेयकोंमें और नौ अनुदिशों में डेढ़ हाथ और पांचों अनुत्तरों में एक हाथ उन देवोंके शरीर की उँचाई है || २२८ - २२९ ॥ पहले और दूसरे स्वर्गके देवोंका अवधिज्ञान पहले नरक तक है, तीसरे चौथे स्वर्गके देवोंका अवधिज्ञान दूसरे नरक तक है, पांचवें छठे सातवें आठवें स्वर्गके देवोंका अवधिज्ञान तीसरे नरकतक है, नौवें दशवें ग्यारहवें बारहवें स्वर्गके देवोंका अवधिज्ञान चौथे नरक तक है, तेरहवें चौदहवें पंद्रहवें सोलहवें स्वर्गके देवोंका अवविज्ञान पांचवें नरकतक है, नव ग्रैवेयकके देवोंका अवधिज्ञान योत्कृष्टा तृतीयादिषु सावरा ॥ २२७॥ सप्त हस्तोच्छ्रिता देवा सौधर्मेशानयोस्ततः । षट् युगे पंच तुर्येषु चतुर्षु चतुरः क्रमात् ॥२२८॥ द्विके सार्द्धत्रयो युग्मे त्रयः सार्द्धद्वयं त्रिके । इयं एकोऽर्द्ध एकच चतुर्दशसु वै क्रमात् ॥ २२९ ॥ आदिद्विस्वर्गदेवानां घर्मतं विषयोऽवधेः । वंशांतं परयोश्चासावा मेघायाश्चतुः परे ॥ २३० ॥ चतुष्टयें
१३
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गौतमचरित्र। छठे नरकतक है; नौ अनुदिशके देवोंका अवधिज्ञान सातवें नरकतक है और पांचों अनुत्तर विमानोंके देवोंका अवधिज्ञान लोकनाड़ी तक है। इन सब देवोंका अवधिज्ञान ऊपरकी ओर अपने अपने विमानके शिखरतक है ॥२३०-२३२॥ भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और पहले दो स्वर्गोके देवोंके मनुष्योंके समान शरीरसे भोग होता है, तीसरे चौथे स्वर्गके देव अपनी अपनी देवियोंका स्पर्श करने मात्रसे ही तृप्त हो जाते हैं, पांचवेंसे आठवें स्वर्गके देव अपनी अपनी देवियोंका रूप देखकर ही तृप्त होजाते हैं, नौवेसे लेकर बारहवें स्वर्गतकके देव अपनी देवियों के शब्द सुनकर ही तृप्त होजाते हैं
और तेरहवेंसे लेकर सोलहवें स्वर्गतकके देव अपने अपने मनमें अपनी अपनी देवियोंका संकल्प करने मात्रसे ही तृप्त हो जाते हैं । सोलहवें स्वर्गसे ऊपर ग्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तरविमानवासी देव ब्रह्मचारी हैं, उनके काम बाधा नहीं है इसलिये वे सबसे अधिक सुखी हैं ऐसा आगमके स्वामियोंने कहा है ॥२३३-२३४ ॥ सौधर्म और ईशान स्वर्गमें ही देवियोंके उत्पन्न होनेके उपपाद स्थान हैं। इन देवियोंके जनांतं संपंचम्यंतं चतुः परे । नवग्रैवेयकस्थानामाषष्ठया विषयोऽवधेः ॥२३१॥ नवानुदिशदेवानामासप्तम्याश्च पंचसु । लोकनाडीपु सर्वेषां स्वविमानांतमूईकः ॥२३२॥ देवानामाद्ययोः प्रोक्तं कायभोगं मनुष्यवत । स्पर्शसुख परे द्वंद्वे रूपालोकं चतुषु च ॥२३३॥ शब्दश्चतुष्टये कल्पे मनोनातं चतुः परे । सब्रह्मचारिणः शेषाः मता आगमकोविदः ॥ २३४ ॥ सौव$शानयोः कल्पे योषितामुपपादकः । शुद्धदेवी
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पांचवां अधिकार।
[१६५ विमान पहले स्वर्गमें छह लाख और दूसरेमें चार लाख हैं ॥२३५ ॥ पहले स्वर्गमें उत्पन्न हुई देवियां दक्षिण दिशामें आरण खर्गतक जाती हैं और ईशान स्वर्गमें उत्पन्न हुई देवियां उत्तर दिशाकीओर अच्युत स्वर्गतक जाती हैं ॥२३६॥ सौधर्म स्वर्गमें रहनेवाली देवियोंकी उत्कृष्ट आयु पांच पल्य है फिर बारहवें स्वर्गतक दो दो पल्य बढ़ती गई है अर्थात् दूसरे स्वर्गकी देवियोंकी उत्कृष्ट आयु सात पल्य, तीसरेमें नौ पल्य, चौथेमें ग्यारह पल्य, पांचवेंमें तेरह पल्य, छठेमें पन्द्रह पल्य, सातवेंमें सत्रह पल्य, आठवमें उनईस पल्य, नौवें में इकईस पल्य, दशमें तेईस पल्य, ग्यारहवेमें पच्चीस पल्य और बारहवें स्वर्गमें देवियोंकी आयु सत्ताईस पल्य है । इससे आगे सात सात पल्यकी बढ़ती गई है । अर्थात् तेरहवें स्वर्गमें चौतीस पल्य, चौदहवें स्वर्गमें इकतालीस पल्य, पंद्रहवें स्वर्गमें अडतालीस पल्य और सोलहवें स्वर्गमें देवियोंकी आयु पचपन पल्य है । सोलहवें स्वर्गसे आगे देवियां हैं ही नहीं ॥२३७२३८॥ इस संसारमें जो इन्द्र चक्रवर्ती आदिके सुख प्राप्त होते हैं वह सब पुण्यका फल समझना चाहिये और नरक विमानानि षट् चतुर्लक्षकानि च ॥२३५॥ दक्षिणाशारणांतेषु देव्यो यांत्यादिकल्पनाः । उत्तराशाच्युतांतेप्वैशानजाता निजास्पदम् । ॥२३६॥ सौधर्मे पंच पल्यानि सुरस्त्रीणां परा स्थितिः। ततो यथाक्रमं द्वे द्वे वर्द्धते द्वादशांतकम् ॥ २३७ ॥ आत्रयोदशमस्वर्गाहर्द्धते सप्त सप्त च । अच्युते पंचपंचाशत्परे न संति योषितः ॥२३८।। इंद्रचक्रयादिसत्सौख्यं यत्तत्पुण्यफलं मतम् । नारकतिर्यगादीनां
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१६६ ]
मौतमचरित्र |
तिर्यंचोंके दुःखोंको पापका फल समझना चाहिये ।। २३९ ॥ हे राजा श्रेणिक ! ये पुण्य पाप दोनों ही बंध हैं, इस जीवको दुःख देनेवाले हैं, पुण्य सोनेकी सांकलके समान है और पाप लोहेकी सांकलके समान है। जो जीव इन दोनोंसे रहित हो जाता है वही मुक्त होजाता है || २४० ॥ अनेक देव जिन्हें नमस्कार कर रहे हैं ऐसे वे गौतमस्वामी इसप्रकार धर्मोपदेश देकर चुप होगये । तदनंतर राजा श्रेणिक उनके चरणकमलोको नमस्कार कर अपने घरको चले गये ॥ २४९ ॥
तदनन्तर जिसप्रकार बादल घूमते फिरते हुए बरसते हैं और सबको प्रेम उत्पन्न करते हैं उसीप्रकार उन महामुनिराज श्रीगौतमस्वामीने भी अनेक देशोंमें विहार किया और सब जगह धर्मकी वृद्धि की || २४२ || आयुके अंत समय में ध्यान करते हुए वे चौदहवें गुणस्थानमें पहुँचे । अ इ उ ऋ ऌ इन पांचों ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण करनेमें जितना समय लगता है उतना ही समय चौदहवें गुणस्थानके उपांस ( अंतसमय से एक समय पहले ) समय में वे बाकीके कर्मोंका नाश करने लगे ॥ २४३ ॥ देवगति, देवगसानुपूर्वी, छह संहनन, पांच यद्दुःखं पापनं फलम् ॥ २३९ ॥ अतो जीवस्य तौ बंधौ स्वर्णायः शृंखले इव । तत्ताभ्यां रहितो जंतुर्मुक्तिं याति महीपते ॥ २४० ॥ इत्युक्त्वा गौतमो योगी विरराम सुरैर्नुतः । ततः तच्चरणं नत्वा श्रेणिकः स्वगृहं ययौ ॥ २४१ ॥ अथासौ भूरिदेशेषु विजहार महामुनिः । धर्मवृद्धिं प्रकुर्वाणो मेघवत्प्रीतिदायकः ॥ २४२॥ प्राप्य चतु शिस्थानं पंचलध्वक्षर स्थितिः । उपांतसमये शेषकर्मप्रणाशनोद्यतः ॥ २४३ ॥
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पांचवां अधिकार।
[१६७ शरीर, पांच बंधन, पांच संघात, पांच वर्ण, पांच रस, शुभ, अशुभ, तीन आंगोपांग, सुगंध, दुर्गंध, छह संहनन, आठ स्पर्श, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, उच्छ्वास, परघात, अगुरुलघु, उपघात, अपर्याप्त, अनादेय, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुःस्वर, प्रत्येक, दुर्भग, अयशस्कीर्ति, नीचगोत्र और असातावेदनीय ये बहत्तर प्रकृतियां उन्होंने उपांत्य समयमें ही अपने शुक्लध्यानरूपी तलवारसे नाश कर डालीं ॥२४४-२४७॥ जिन्हें इंद्र भी नमस्कार करता है ऐसे उन मुनिराज गौतमस्वामीने अंतिम समयमें साता वेदनीय, आदेय, पर्याप्त, त्रस, बादर, मनुष्यायु, पंचेंद्रिय जाति, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, ऊँचगोत्र, सुभग, यशस्कीर्ति ये बारह प्रकृतियां नष्ट की। तीर्थङ्कर प्रकृति उनके थी ही नहीं। जिन्हें तीनों लोकोंके जीव नमस्कार करते हैं और जो अनंत चतुष्टयसे सुशोभित हैं ऐसे उन गौतमस्वामीने अंतिम समयमें देवद्विकं च संस्थानषट्कं पंचशरीरकान् । पंच बंधनसंघातवर्णरसान शुभद्विकम् ॥ २४४ ॥ अंगोपांगत्रिका गंधौ तथा संहननानि षट् । स्पर्शाष्टकं च निर्माण नभोगतिद्वयं पुनः ॥२४५॥ उच्छ्वासः परघातं चागुरुलघूपघातकम् । अपर्याप्तमनादेयं स्थिरसुस्वरयुग्मकम् ॥२४६॥ प्रत्येकं दुर्भगाकीर्ती नीचैः कुलानिवेद्यके । द्विसप्ततिः जघानासौ शुक्लध्यानासिना तदा ॥२४७॥ ततोत्यसमयं प्राप्य मुनींद्रः शक्रवंदितः। तत्र सद्वेद्यकादेयं पर्याप्तं त्रसबादरे ॥ २४८ ॥ मनुष्यायुश्च पंचाक्षजातिं तु मानवद्विकम् । उच्चैः कुलं च सौभाग्यं यशस्तीर्थकरं विना ॥२४९॥ स गौतमो जगद्वंद्यो द्वादशप्रतिक्षयम् । नीत्वा मुक्ति
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१६८]
गौतमचरित्र। बारह प्रकृतियोंका नाशकर मुक्तिरूपी स्त्री प्राप्त की॥२४८२५०॥ मोक्ष प्राप्त होनेपर वे सिद्ध अवस्थामें जा विराजमान हुए । उनका विशुद्ध आत्मा अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारका है, आठों कर्मोसे रहित है, सम्यग्दर्शन आदि आठों गुणोंसे सुशोभित है, लोक शिखरपर विराजमान है, नित्य है, उत्पाद व्यय सहित है, चिदानंदमय है, ज्ञानस्वरूप है, और सनातन है ॥ २५१-२५२॥
मोक्ष जानेके साथ ही इंद्रादिक देव आये। उन्होंने मायामयी शरीर बनाकर कपूर, चंदन आदि ईंधनके द्वारा भस्म किया, मोक्षकल्याणक मनाया, वह भस्म अपने माथेपर लगाई व बारबार नमस्कार किया और फिर वे सब अपने स्वर्गको चले गये ॥ २५३-२५४ ॥ इधर श्रीगौतमस्वामीके अग्निभूति और वायुभूति दोनों भाई अपने साथके पांचसौ ब्राह्मणोंके साथ घोर तपश्चरण करने लगे ॥ २५५ ॥ उन दोनों भाइयोंने घातिया कर्मोको नाश कर केवलज्ञान प्राप्त प्रियां वक्रेऽनंतचतुष्टयैर्युतः ॥ २५० ॥ तत्र सिद्धो विभुर्भाति किंचिदूनोंऽत्यदेहतः । सम्यक्त्वादिगुणोपेतः कर्माष्टकविवर्जितः ॥ २५१ ॥ लोकाग्रसंस्थितो नित्यमुत्पादव्ययसंयुतः । चिदानंदैकरूपश्च ज्योतिर्मयः सनातनः॥२५२॥ अथेन्द्राद्याः सुरा एत्य कर्पूरचंदनेधनैः । मायामयं विनिर्माय जुहुवुस्तस्य विग्रहम् ॥२५३॥ मुक्तिकल्याणकं कृत्वा निधाय मूर्ध्नि भस्मकम् । पुनः पुनर्नमस्कृत्वा मुदा जग्मुः सुरालयम् ॥ २५४ ॥ अथ तौ भ्रातरौ यस्य वायुभूत्यग्निभूतिकौ । चक्रतुः सत्तपो घोरं पंचशतदिनैः सह ॥२५५॥ विश्वकर्म
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पांचवां अधिकार।
[१६६ किया और अनेक भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देकर तथा अंतमें शेष कर्मोको नाश कर मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त की ॥ २५६ ॥ उन पांचसौ ब्राह्मणोंमेंसे आयु पूर्ण होनेपर कितने ही तो सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुए और कितने ही अन्य स्वर्गों में उत्पन्न हुए सो ठीक ही है-तपश्चरणसे क्या क्या प्राप्त नहीं होता है ।। २५७॥
भगवान श्रीगौतमस्वामीके निर्मल गुणोंका वर्णन इंद्रका गुरु बृहस्पति भी नहीं कर सकता फिर भला मेरे ऐसा अल्पज्ञानी पुरुष उनके गुणोंका वर्णन कैसे कर सकता है अर्थात् कभी नहीं कर सकता ॥२५८॥ जिन भगवान गौतमस्वामीके धर्मोपदेशको सुनकर अनेक भव्य जीव मुक्त होगये और आगे भी सदा मुक्त होते रहेंगे ऐसे श्रीगौतमस्वामीके लिये मैं बारवार नमस्कार करता हूं ॥२५९॥ भगवान गौतमस्वामीकी स्तुति समस्त कर्मोको नाश करनेवाली है और अनंत सुख देनेवाली है। वह स्तुति मेरे लिये केवल मोक्ष प्राप्त करानेवाली हो-अर्थात् उस स्तुतिके प्रभावसे मुझे मोक्ष प्राप्त हो ॥ २६० ॥ श्रीगौतमस्वामीका जीव पहले विशालाक्षी नामकी क्षयं नीत्वा केवलज्ञानमाप्य च । संबोध्य भव्यसंदोहं प्रापतुस्तौ शिवश्रियम् ॥ २५६ ॥ आयुक्षयेऽथ ते मृत्वा केचित्सर्वार्थसिद्धिकम् । केचित्स्वर्गपदं प्राप्तास्तपसा किं न जायते ॥ २५७ ॥ यस्य शुभ्रान् गुणान् वक्तुं सुराचार्योऽपि न क्षमः । तस्य ज्ञानलवासक्तो मादृशः. क्षमते कथम् ॥२५८॥ यस्य सहचसा मुक्तिं गता भव्यजनाः घनाः। गमिष्यंति पुनर्नित्यं तस्मै नतिं करोम्यहम् ।।२५९॥ यत्स्तुतिर्मुक्ति
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२०० ] ....
गौतमचरित्र। रानीके पर्यायमें उत्पन्न हुआ था, फिर नरकमें गया, वहांसे निकलकर विलाव हुआ, फिर शूकर हुआ, फिर कुत्ता हुआ, फिर मुर्गा हुआ और फिर शूद्रकी कन्यामें जन्म लिया। वहांसे व्रत पालन करनेके प्रभावसे ब्रह्म स्वर्गमें देव हुआ और फिर वहांसे चयकर ब्राह्मणका पुत्र गौतम हुआ तथा उसके पांचसौ शिष्य हुए। सो ठीक ही है-धर्मके प्रभावसे क्या क्या नहीं होता है अर्थात् सब कुछ होता है ॥ २६१ ॥ भगवान् महावीरस्वामीके समवसरणमें मानस्तंभको देखकर गौतम ब्राह्मणका सब अभिमान चूरचूर होगया, वहींपर भगवान महावीरस्वामीके समीप ही उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली, समस्त परिग्रहोंका साग कर दिया और चारों ज्ञानोंको धारण कर वे श्री महावीरस्वामीके प्रसिद्ध और सर्वोत्तम गणधर हुए । तदनन्तर उन्होंने भव्यजीवोंको सुख देनेवाली और पापरूप संतापको नष्टकर देनेवाली धर्मष्टि की (धर्मोपदेश दिया) इसीलिये उन्हें सब इन्द्र नमस्कार करते हैं और सब राजा महाराजा नमस्कार करते हैं ऐसे भगवान् श्री गौतमलाभाय मम भवतु केवलम् । निःशेषकर्मणां हंत्री भूरिसुखप्रदायिका ॥२६०॥ विस्तीर्णाक्षी नृपस्त्री प्रथमसुजननेऽभूत्ततो नारकी च, मार्जारः शूकरो वा शुनक इति ततः कुर्कटः शूद्रकन्या । ब्रह्मे स्वर्गे सुदेवो व्रतननिसुकृतादगौतमो विप्रसूनुः,संजातास्त्वस्य शिष्याः बहुलशतमिता धर्मतः किं हि न स्यात् ॥ २६१ ॥ मानस्तंभ प्रदृष्ट्वा गतनिखिलमदोऽभूच यो योगिराजो, वीरस्यांते प्रसिद्धःप्रवरगणधरस्त्यक्तसर्वप्रसंगः । श्रेयो वृष्टिं ततानः शुभननसुखदां पापतापप्रणाशां,
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पांचवां अधिकार।
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स्वामीको मैं भी नमस्कार करता हूँ॥२६२ ॥ जिन्होंने व्रतरूपी योद्धाओंके समुदायसे कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लिया है, केवलज्ञान पाकर आगमका निरूपण किया है, अपने बचनोंके द्वारा अनेक राजाओं और मनुष्योंको धर्मोपदेश दिया है तथा अन्तमें जो समस्त कर्ममल-कलङ्कसे रहित होकर
और शुद्ध चैतन्य अवस्थाको धारण कर मुक्तिरूपी स्त्रीके स्वामी हुए हैं ऐसे श्रीगौतमस्वामी, तुम संसारी जीवोंके लिये इच्छाके अनुकूल और सदा शास्वत रहनेवाला मोक्षरूप कल्याण करें ॥ २६३॥ श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ यह जैनधर्म इन्द्र, चक्रवर्ती आदिके उत्तम उत्तम पद देनेवाला है, प्रीति उत्पन्न करनेवाला है, इच्छाएँ पूरी करनेवाला है, कामदेवके समान रूप प्रदान करनेवाला है, तेज बुद्धि आदि गुणोंको देनेवाला है, कीर्ति फैलानेवाला है, सौभाग्य देनेवाला है, तीर्थकर आदिकी उत्तम उत्तम विभूतियोंको देनेवाला है, भोगोपभोगकी सामग्री देनेवाला है और स्वर्ग मोक्षको प्रदान वंदेऽहं गौतमं तं सकलनृपनुतं शक्रवृंदप्रवंद्यम् ॥ २६२॥ काराति बिनित्य व्रतसुभटचयैः केवलज्ञानमाप्य, श्रीसिद्धांतं निरूप्य नरनृपतिगणं संप्रबोध्य स्ववाक्यैः । योऽभून्मुक्तिप्रियोशोऽखिलमलरहितः शुद्धचिद्रूपधारी, श्रेयो वो नः स नित्यं ध्रुवमपि कुरुतां वांच्छितं देहभाजाम्, ॥२६३||देवेंद्रानंतचक्रिप्रमुखपदकरं प्रीतिदं कामदं वै, पुष्पेषो रूपतेजो बहुसुमतिकरं कीर्तिसौभाग्यकारं । श्रीमतीर्थकरादेः प्रवरविभवदं भोगदं भव्यमाः , नैनं धर्म कुरुध्वं जिनवरकथितं स्वर्गमुक्तिप्रदातृ ॥ २६४ ॥ गच्छेशो नेमिचंद्रोऽखिलकलुषहरोऽभूयशः
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गौतमचरित्र। करनेवाला है इसलिये भव्यजीवोंको यह जैनधर्म अवश्य धारण करना चाहिये ।। २६४॥
इस मेरे गच्छके स्वामी श्रीनेमिचन्द्र हुए थे जो कि समस्त पापोंको नाश करनेवाले थे, उनके पहपर श्रीयशःकीति विराजमान हुए थे, ये श्रीयश कीर्ति भी पुण्यकी मूर्ति थे, अनेक मुनि, अनेक राजा और समस्त जनसमुदाय उनके चरणकमलकी सेवा करता था। उनके पट्टपर श्री भानुकीर्ति बिराजमान हुए। ये भी सिद्धांतशास्त्रोंके अच्छे जानकार थे, कामदेवरूपी योद्धाको जीतनेवाले थे, गर्मीके मूर्यके समान उनका प्रताप था, तथापि वे असन्त शांत थे, और मान, लोभ आदि कषायोंको जीतनेवाले थे ॥२६॥ उनके पट्टपर श्रीभूषण मुनिराज विराजमान हुए थे। वे मुनिराज न्यायशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र, पुराण, कोश, छन्द, अलंकार आदि अनेक शास्त्रोंके जाननेवाले थे, मिथ्यात्व अविरत आदि संसारके कारणरूपी अन्धकारको नाश करनेके लिये मूर्यके समान थे, वादी रूपी हाथियोंको चूर करनेके लिये सिंहके समान थे, सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान करना, उनको नमस्कार करना, प्रणाम करना आदि कार्योमें सदा लीन रहते थे, क्रोधादि कषायरूपी पर्वतोंको चूर चूर करनेके लिये कीर्तिनामा, तत्पट्टे पुण्यमूर्तिर्मुनिनृपतिगणैः सेव्यमानांहियुग्मः । श्रीसिद्धांतप्रवेत्ता मदनभटजयी ग्रीष्मसूर्यप्रतापः, श्रीमच्छ्रीभानुकीर्तिः प्रशमभरधरो मानलोभादिजेता ॥२६५॥ न्यायाध्यात्मपुराणकोशनिचयालंकारछंदोविदो, मिथ्यात्वादितमोविनाशनरविर्वादीभनाशे
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पांचवां अधिकार।
[२०३. वज्रके समान थे और आचार्योंके समुदायमें मुख्य थे। ऐसे वे श्रीभूषण मुनिराज सदा विजयशील हों॥ २६६ ॥ उनके पट्टपर मुनिराज धर्मचन्द्र विराजमान हुए। ये श्रीधर्मचन्द्र बलात्कार गणमें प्रधान थे, मूलसंघमें विराजमान थे और भारती गच्छके दैदीप्यमान सूर्य थे॥२६७॥ श्रीरघुनाथ नामके महाराजके राज्यशासनमें एक महाराष्ट्र नामका छोटा नगर है। उसमें एक श्रीऋषभदेवका जिनालय शोभायमान है, यह जिनालय बहुत ही शुभ है, बहुत ही सुख देनेवाला है, पूजा पाठ आदि महोत्सवोंसे सदा सुशोभित रहता है, अनेक प्रकारकी शोभाओंसे विभूषित है, सदा आनन्द बढ़ानेवाला है और धर्मात्मा मनुष्य व योगिराज सदा इसकी सेवा करते रहते हैं ॥२६८॥ उसी जिनालयमें बैठकर बिक्रम सम्वत् १७२६ की ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीयाके दिन शुक्रके शुभ स्थानमें रहते हुए अनेक आचार्योंके अधिपति श्रीधर्मचन्द्र मुनिराजने श्रीगौतमस्वामीकी भक्तिके वश होकर यह श्रीगौतमस्वामीका हरिः । सिद्धध्याननुतिप्रणामनिरतः क्रोधादिशैलाशनिः, श्रीमच्छूरिगंणाधिपो विजयतां श्रीभूषणाख्यो मुनिः ॥२६६॥ पट्टे तदीये मुनि धर्मचन्द्रोऽभूच्छीबलात्कारगणे प्रधानः, श्रीमूलसंघे प्रविराजमानः, श्रीभारतीगच्छसुदीप्तिभानुः ॥२६७ ॥ राजच्छ्री रघुनाथनाम नृपतौ ग्रामे महाराष्ट्रके, नाभेयस्य निकेतनं शुभतरं भाति प्रसौख्याकरम् । श्रीपूजादिमहोत्सवव्रनयुतं भूरिप्रशोभास्पदं, सद्धर्मान्विसयोगिमानुषगणैः सेव्यं प्रमोदाकरम् ॥२६८॥ तस्मिन् विक्रमपार्थिवाद्रसयुगाद्रींदुप्रमेवर्षके, ज्येष्ठे मासि सितद्वितीयदिवसे कांतेऽहि
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गौतमचरित्र । शुभ चरित्र निर्माण किया है । यह चरित्र प्राणियोंके लिये सदा कल्याणकारी हो ॥ २६९ ॥ इसप्रकार मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्रविरचित श्रीगौतमस्वामी चरित्रमें श्रीगौतमस्वामीकी मोक्षप्राप्तिका वर्णन करनेवाला यह
पांचवां अधिकार समाप्त हुआ । शुक्रान्विते । श्रीमच्छूरिकदंबकाधिपतिना श्रीधर्मचंद्रेण च, तद्भक्त्या चरितं शुभं कृतमिदं श्रेयस्करं प्राणिनाम् ॥ २६९ ॥ इति श्रीगौतमस्वामिचरिते श्रीगौतमस्वामिमोक्षगमन
___ वर्णनं नाम पंचमोऽधिकारः।
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________________ स्वाध्यायोपयोगी बिलकुल नवीन शास्त्रश्रीमश्नोत्तर-श्रावकाचार। आचार्य श्री सकलकीर्ति कृत मूल संस्कृत श्लोक संख्या 2880 व श्री. पं० लालारामजी शास्त्री कृत हिंदी भाषा टीका / शास्त्राकार खुले पृष्ठ 320, उत्तम छपाई, उत्तम कागज व मूल्य मात्र साडेतीन रुपये। इसके चौवीस सौमें प्रश्नोत्तर रूपमें श्रावकाचारका कुल वर्णन अतीव सरल भाषामें 27 कथाओं सहित किया गया है / इस ढंगका यह शास्त्र प्रथमवार ही सूरतसे प्रकट हुआ है इसलिये स्वाध्यायके लिये अवश्य मगालीजिये। सब प्रकारके जैन ग्रन्थ मिलनेका पतामैनेजर, दि० जैन पुस्तकालय-सूरत /