Book Title: Gandhar Sarddhashatakam
Author(s): Jinduttsuri
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वि. सं. २००१ पुत सुरतस्थ श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड प्रथांक: - ४८ नमः श्रीप्रवचनप्रणेतृभ्यः । उश्वर नवाङ्गीवृत्तिकार - अभयदेवसूरिपट्टालंकार - श्रीमजिनवल्लभसूरीश्वर शिष्यावतंसक - श्रीमद्योगींद्रचूडामणियुगप्रधान - श्रीजिनदत्तसूरीश्वर विरचितम् । श्री गणधर सार्द्ध शतकम् । पंडितप्रवर श्रीपद्ममंदिरगणिविरचित-संक्षिप्तटीकासमलंकृतम् । यंगमयुगप्रधान - भट्टारक - श्रीजिनकृपाचंद्रसूरीश्वराणां शिष्यरत्न उपाध्यायपदालंकृत सुखसागरमुनिवरोपदेशेन बैतुलवा - स्तव्येन श्रीमान्- कस्तुरचंदडागा-श्रेष्ठिवर्य्यस्य धर्मपत्नी श्रीमतिसौभाग्यवति लक्ष्मीबाईनाम्न्या प्रदत्तेन द्रव्यसाहाय्येन जब। लपुरस्थित स्वर्गीय यतिश्री मोतिचंदफंड व्यवस्थापक-श्रीयुतचांदमल बोथरा विहितद्रव्य साहाय्येन च मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । प्रकाशकः — श्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभंडार कार्यवाहक सुरत । प्रत २५० भेट. For Private and Personal Use Only इ. सन् १९४४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % % शा. गुलाबचंद लल्लुभाई श्रीमहोदय प्रेस-भावनगर % % % ज SARASWARORAKAR % E प्राप्तिस्थानश्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभंडार ठे० गोपीपुरा सीतलवाडि, मु. सुरत. (गुजरात) OSAX For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ 00000000000 भूमि का। Procesraeos साहित्य क्या है ? ___मानव जीवन में साहित्य का स्थान अत्यन्त उच्च एवं महत्वपूर्ण है । यह आज किसी भी साहित्यसेवी कों शायद ही बतलाने की आवश्यकता है। साहित्य ही राष्ट्र का प्राण है । साहित्य ही समस्त राष्ट्र को एक सूत्र में बद्ध कर सक्ता है तथा उसमें उत्साह का संचार कर सकता है। साहित्य ही भावी सन्तान का महान् पथ प्रदर्शक है। साथ ही साथ भावी पीढी के मानवों की नसों में सुधा का संचार कर सकता है तथा अपने पूर्वजों की गौरव-मयी स्मृति को सदैव ताजा बनाये रखता है, जो किसी भी समाज की उन्नति में महान सहायक होता है। भूतकाल को वर्तमानकाल में परिणित करने को पूर्व निर्मित साहित्य ही प्रोत्साहित कर सकता है । जिस देश व धर्म का साहित्य जितना निर्दोष, विवेकपूर्ण और प्रौढ होगा वे राष्ट्र तथा धर्म उतने ही नीतिवान् समर्थ विचारवान् व उन्नत होंगे। महाराज भर्तृहरि की निम्न पंक्ति साहित्य की महत्ता समजने को काफी है संगीतसाहित्यकलाविहीन साक्षात् पशु पुच्छविषाणहीनः । हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि पूर्णजी ने क्या ही अच्छा कहा है। %A4% AC%* 45CALCCASHASANCHAR For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर 4% साई शतकम्। at% A अंधकार है वहां जहां आदित्य नहीं है, वह है मुर्दा देश जहां साहित्य नही है। जहां नहीं साहित्य वहां आदर्श कहां है, जहां नहीं आदर्श वहां उत्कर्ष कहां है । संस्कृति और धर्म की रक्षा एक मात्र उस देश के साहित्य पर निर्भर है। जैन साहित्य साहित्य एक ऐसी चीज है जिसका सांप्रदायिक विभाजन कठिन सा प्रतीत होता है, तथापि उसके निर्माता और धर्मभेद के कारण विभाजन की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध हो जाती है। ___भारतीय साहित्य क्षेत्र में जैन साहित्य का स्थान अत्यन्त उच्च है और वह वस्तुतः है भी ठीक । क्योंकि रचयिताओं ने साहित्य का एक भी विषय अछूता न छोड़ा । साहित्य, व्याकरण, कोष, काव्य, अलंकार, नाटक, चम्पू, दर्शन, इतिहास, विज्ञान, शिल्प, पशुविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष व कहानी आदि विषयों पर अनेक विद्वत्तापूर्ण, प्रभावोत्पादक, आलोचनात्मक ग्रन्थ जैन साहित्य में विद्यमान हैं। भारतीय भाषा विज्ञान की अपेक्षा से भी जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यकीय ही नहीं प्रत्युत अनिवार्य है। प्राकृत अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती, कनाड़ी, हिन्दी, तामील, तेलगू, मराठी आदि आदि प्रान्तीय लोकभाषाओं में भी जैनसाहित्य प्रचूरमात्रा में उपलब्ध होता है जिनमें तत्कालिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक तथा सांस्कृतिक चित्र खींचा गया है । अन्य धर्मवालोंने प्रान्तीय लोकभाषा पर उतना ध्यान नहीं दिया है, क्योंकि वे तो विद्वभोग्य भाषा में ही साहित्य रचना में व्यस्थ थे । लोक For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाषा में रचना करने में अपना अपमान समझते थे । फल यह हुआ कि प्रान्तीय साहित्य उनसे सर्वथा अछूता रहा । वस्तुतः किसी भी सिद्धान्तादि के प्रचार के लिये जितनी प्रान्तीय भाषा उपयुक्त हो सकती है उतनी विद्वभोग्य भाषा नहीं । प्रान्तीयभाषा में प्रचारित सिद्धान्त ही सर्वग्राही हो सकते हैं जैसा कि श्रमण भगवान् महावीरने किया था । जैन साहित्यप्रणेताओं ने स्वसाहित्य - निर्माण में ही व्यस्त न रहें; पर अन्य मतावलम्बियों के साहित्य पर भी अपनी विद्वत्ता पूर्ण गंभीर आलोचनात्मक कृतिओ निर्माण कर उसे लोकभोग्य करने का आदरणीय प्रयत्न किया है जो उनकी उदारता का परिचायक है । कई ग्रन्थ ऐसे जटिल और कठिन हैं जिनकी वृत्तियें, यदि जैनाचार्योंने निर्माण न की होतीं तो शायद ही आज कोई समझ पाता । जैसे कि कादम्बरी वृत्ति आदि । जैन साहित्य अभी बहुत कुछ अप्रकाशित अवस्था में पड़ा हुआ है जिसका प्रकाशन भारतीयसंस्कृति की सुरक्षा के लिये अत्यन्त वान्छनीय है, इससे भारतीय गौरव में महान वृद्धि होगी, अत्यल्प प्रकाशित जैन साहित्य पर से विद्वज्जन इस अभिप्राय पर पहुंचे है कि भारतीय में से यदि जैन संस्कृत अपभ्रंश प्राकृतादि भाषा का साहित्य अलग कर दिया जाय तो न जाणे भारतीय साहित्य की क्या गति होगी ? योरोपीय भारतीयादि विद्वान् पुरातन हस्तलिखित पुस्तकशोध विषयक रिपोर्टस में जैन साहित्य पर मुग्ध है इतना ही नहीं परंतु जैन साहित्य के किसी एक विषय पर महान् निबंध लिख यूरोपीय विश्वविद्यालयों से Di Litt. P. H. D. आदि विद्वत्ता सूचक उपाधि प्राप्त की है जिनमें से ये प्रमुख है, डॉ ओटो स्टाइन, P. H. D. प्रो. हेलमारुथ P. H. D. ग्लाजेनप्प आदि । भारतीय साहित्य की बहुत ऐसी उलझनें है जो बिना जैन साहित्य अध्ययन के कदापि नहीं सुलझायी जा सकती जैसे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर शतकम् । %A4 कि " वेदाङ्ग ज्योतिष् " अत्यन्त कठिन प्राचीन व संकेतमय ग्रन्थ है, जिसे एतद्विषयक विद्वान डॉ थीबो, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, शं. वा. दीक्षित, लोकमान्य तिलकादि विद्वानों ने इसे समझने के लिये शत प्रयत्न किये पर सर्व विफल !|-अंत में यह जटिल समस्या महामहोपाध्याय डॉ आर, शामशास्त्रीने जैन साहित्य-सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिप्करंडक काललोकप्रकाश से सुलझा कर ग्रन्थ को सर्वथा सरल बना डाला । साथ ही साथ यह सिद्ध कर दिया कि जैनागम साहित्य मात्र धार्मिक दृष्टियों से ही महत्व का नहीं है परन्तु तात्कालिक दार्शनिक ऐतिहासिक एवं व्यवहारिक आदि अनेक अपेक्षाओं से महत्वपूर्ण है, खेद मात्र इतना ही है कि वैज्ञानिक दृष्टि से अभी यथोचित अध्ययन नहीं हुआ । सौभाग्य की बात है कि शिक्षितों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ: जैन साहित्य में चरितानुवाद का स्थान आवश्यक समझा गया है, अन्य भारतीय साहित्य में इस विषय पर अत्यल्प ध्यान दिया गया है । उपरोक्त चरितानुवाद मात्र पूजनीय एवं अनुकरणीय ही नहीं प्रत्युत सूक्ष्मता से वर्णित है। इस श्रेणि में परमोपकारी पूज्य तीर्थंकर भगवान के गणधरोद्वारा रचित सूत्रों के विषयीभूत साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं एवं आचार्यों तथा जैन शासन को सुशोभित करनेवाले-प्रभावनाकारक-राजामहाराजा मंत्री आदि के जीवनचरित्र सुविस्तृत प्रभावोत्पादक शैली में गद्य पद्यात्मक रूपेण उपलब्ध होते ऐसे जीवनचरित्रों से भारतीय इतिहास पर नूतन प्रकाश पड़ता है । इतिहास की उलझने दूर करते हैं। प्रकृत ग्रन्थ जो आपके करकमलों में विराजित है—वह भी स्तुत्यात्मक चरितानुवाद की ही श्रेणि में आता है, यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ आचार्यों को छोड़कर शेष आचार्यों का स्मरण मात्र ही किया गया है, तथापि यह ग्रन्थ अपने ढंग का सर्व प्रथम प्रयल % 95 ॥३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org है। यह प्रेरणा आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजीको कैसे, कहां से मिली इसका उल्लेख कहीं वृत्ति में नहीं है, परंतु हम अनुमान लगाते हैं। कि संभवतः चैत्यवासी शीलांकाचार्यविनर्मित “महापुरुषचरित्र" से ही प्राप्त हुई होगी, क्योंकि उसमें सबके चरित्र है तब पूज्य आचार्यवर्य ने प्रथम तीर्थंकर ऋषमदेव से भगवान महावीर [ आदि तीर्थंकरो का नाम निर्देश न कर आदि शब्द से सबका ग्रहण किया गया है ] और यहां से जिनवल्लभसूरिजी तक के पूज्य गणधर आचार्य मुनियों का अत्यन्त संक्षिप्त रूप से उल्लेख कर सबका स्मरण किया गया है । यद्यपि उपरोक्त ग्रन्थ में कालकाचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, पादलिप्तसूरि, मानदेवसूरि, मानतुंगसूरि आदि कई महाप्रभाविक विद्वान आचार्यों का उल्लेख नहीं ऐसा क्यों किया गया होगा ? कहना कठिन है तथापि यह लघु ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व का है १५० प्राकृत गाथाओं में अति संक्षिप्त रूप से जैन इतिहास संकलित हैं जो जिनदत्तसूरिजी के इतिहासप्रेम का परिचायक है। जैन मुनियो को इतिहास बड़ा प्रेम रहा है, एतद्विषयक साहित्य भी अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है जिनमें तो कई ग्रन्थ से महत्वपूर्ण जो भारतीय साहित्य ग्रन्थ अपना स्थान स्वतंत्र रखते हैं, जो आर्यावर्त के पुरातन गौरव पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं, प्रकृत ग्रन्थ में यदि प्रत्येक आचार्य का क्रमानुसार रूपवान सार परिचय दिया होता तो ग्रन्थ की ऐतिहासिक महत्ता और भी बढ़ जाती, नामकरणः- प्रकृत ग्रन्थ का नाम " गणधर सार्द्धशतक " मूल ग्रन्थकार का दिया हुआ है या अन्य किसी का ? यह एक प्रश्न है । संपूर्ण ग्रंथावलोकन अनंतर कहीं पर भी नाम निर्देशात्मक उल्लेख नहीं मिलता, परंतु नामार्थ पर ध्यान देने से जरुर मालूम होता है कि गणधरशब्द की व्युत्पत्ति “गणं धारयतीति गणधरः " इस प्रकार है। गच्छनायक मालिक, अधिपति, आचार्य आदि गणधर के पर्याय For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shirikissagarsur Gyarmandie साई गणधर- &ावाची शब्द हैं और प्रस्तुतः ग्रन्थ में इन्हीं का स्तुत्यात्मक वर्णन १५० प्राकृत गाथाओं में किया गया है अतः नाम सुसंगत प्रतीत होता है। इसकी वृत्तियों में नामनिर्देश साफ तौर से पाया जाता है। शतकम् ।। उद्देशः॥४॥ यह तो एक सर्वमान्य नियम है कि विश्व का कोई भी कार्य बिना किसी उद्देश से हो ही नहीं सकता। प्रश्न उपस्थित होता हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थनिर्माण कार्य में रचयिता का कौनसा उद्देश्य था ! हमें तो विदित होता है कि पूर्वजों-गणधरों और अपने परमोपकारी आचार्य मुनिगण के स्तुतिरूप से स्मरण कर उनके प्रति अपना कृतज्ञताभाव प्रदर्शित करने और पूर्व महापुरुषों की अक्षय कीर्तिलता का तात्कालिक समाज का ज्ञान कराने उनको प्रमुदित करने के हेतु से ही प्रकृत ग्रन्थ निर्माण किया गया है। अतिरिक्त और कोई हेतु होने की संभावना नहीं प्रतीत होती है। भाषा: उक्त ग्रन्थ की भाषा शुद्ध प्राकृत है। भाषा का सौंदर्य तथा प्रवाह अत्यन्त सुंदर बहाया गया है। भाषा वैविध्यता से विदित होता है कि, ग्रन्थाकार का इस पर विशेष प्रभुत्व था। माधुर्यता प्राकृतभाषा का प्रमुख गुण है, फिर समर्थ उपयोक्ता मिलने से स्वर्ण में सुगंधी आ गई। उपयोक्ता के गुरुजी भी प्राकृतभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे, यह लघु ग्रन्थ पर ४ टीकाएं आजतक उपलब्ध हुई हैं जो ग्रन्थ की उपयोगिता और महत्ता को प्रदर्शित करती हैं। CASRAMORE5%BCCEOCOCK %3D For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir REC- बृहद्वृत्तिः यह वृत्ति उपलब्ध-वृत्तियों में सबसे प्राचीन और बड़ी है । श्लोकसंख्या १२००० हजार है। आचार्यवर्या-श्रीजिनपतिसूरिजी के | विद्वान् प्रतिभासंपन्न शिष्य श्रीसुमतिगणिने वि. सं. १२९५ में इसे स्तंभतीर्थ से प्रारंभ कर क्रमशः प्रामानुग्राम विचरण करते करते मंडूप दुर्ग-मांडवगढ में समाप्त की, प्रथमादर्श श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य कनकचंदने लिखा, यह अत्यन्त वृत्ति विहार में ही निर्माण हुई का है वह भी ऐसी अवस्था में जबकि एक ही स्थान पर सर्व प्रकार का साहित्य अनुपलब्ध था । यह इनकी बहुमुखीप्रतिभा का ही सुफल है, वर्ना इतना उत्कृष्ट काव्यालंकार युक्त ग्रन्थ निर्माण होना असंभव था । उपरोक्त वृत्ति में १५० गाथाओं का अत्यन्त सुन्दर रीति से विस्तृत विवेचन किया गया है । कहीं कहीं टीकाकार श्रीसुमतिगणिने नूतन ज्ञातव्यनिर्दिष्ट किये है जो विषय को समझने में सहायता करते हैं, यद्यपि वृत्ति गिर्वाण गिरा में गुम्फित है तथापि प्रसंगानुसार उसमें संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं के १ प्रारब्धा श्रीस्तंभतीर्थे वेलाकूले कुले श्रियाम् मंण्डपद, विबुधैः खर्गे चेयर्थिता ॥६॥ प्रथमादर्श लिखिता, वृत्तिरियं श्रीजिनेश्वरगुरूणाम् ॥ अस्मद्गुरु गुरू पट्टप्रतिष्ठिताना, प्रभावताम् शिष्येण परोकते, तपसिचवरोधडेन ॥ ७ ॥ कायोत्सर्गेऽतन्द्रेण, साधुना कनकचन्द्रेण ॥ ८ ॥ RECAR 646456k शरनिधिदिनकरे (१२९५) संख्ये, विक्रमवसे गुरौ द्वितीयायाम् राधे पूर्णाभूता वृत्तिरियं नन्दतात्सुचिरम ॥ गणधरसार्द्धशतकवृहद्वृतिप्रशस्ति । For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir गणधर सार्द्ध शतकम् । 964451 अनेक पद्य उद्धृत किये हैं जो तत्कालीन भाषा का अध्ययन प्रस्तुत करते हैं। बहुत से प्रभावकों के जीवन विवेचन प्राकृत पद्यों में किया गया है, जैसे कि कोई नियुक्ति ही हो, भाषा का प्रवाह इस भांति प्रवाहित हुआ है कि, मानो एक ही बैठक में लिखा गया हो, कहीं पर भी छिन्नभिन्नता के दर्शन नहीं होते, अनुप्रास तो इसकी प्रधान संपत्ति है, अलंकारों का बाहुल्य है, एतद्विषयप्रतिपादनार्थ अनेक साहित्यिक विद्वानों के-जैसे कि रुद्रट, मम्मट, अमरसिंहादि-मूल अभिमंतव्य संग्रहीत किये हैं, व्याकरणाचार्यो के भी अभिमत निर्दिष्ट है, इसमें "शब्दरत्नप्रदीप" नामक कोशग्रन्थ के अनेक उदाहरण दिये हैं, यह कोश आज संभवतः अनुपलब्ध है, यदि इस वृत्ति को संस्कृत गद्य का एक उत्कृष्ट नमूना कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, इसके वाक्य कादंबरी और गद्य चिंतामणि का स्मृति कराते हैं, इतना होते हुस भी ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्व कम नहीं, गूजरात के इतिहास की साधनसामग्री इसमें विस्तृत रूपेण उपलब्ध होती है, अणहिलपुरपत्तन का वर्णन इसमें खूब विस्तृत और मनोरंजनात्मक ढंग से दिया है, नाटक के १० लक्षणों से तुलना कर कविने अपनी विद्वत्ता का सुपरिचय दिया है । प्रत्येक व्यक्ति को अनेक विषयों पर लिखना सहज है या एक ही विद्वान अनेक विषयों पर लिखना सहज है या एक ही विद्वान अनेक विषयों पर लिख सक्ता है या आत्मविचार प्रदर्शित कर सक्ता है, पर एक ही विषय विस्तृत विवेचनात्मक दृष्टि से लिखना अत्यन्त कठीन कार्य है, ऐसे कठीनतम कार्य में श्रीसुमतिगणिने अद्वितीय सफलता प्राप्त की है, यह उनके अध्यवसाय के अतिरिक्त और क्या हो सकता है, इनकी यह वृत्ति एक भाष्य को सुशोभित करे ऐसी मननात्मक टीका है, जहां पर जिस विषय पर उल्लेख आया वहीं पर प्रणेताने उस विषय को अनेक शास्त्रीय प्रमाणों से बड़ी ही योग्यता व अकाट्य युक्तियों से समार्थत किया है, कही २ जैनागमों चूर्णियों के %AAAACHECE KEECH For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19OHAGARAM मूल अवतरण कहीं साहित्य के, व्याकरण के, व्योरा के अनेक धर्मावलंबीयों के उल्लेख उद्धृत कर बहुमुखी प्रतिभा का परिचय कराया है, संक्षिप्तमें कहा जाय तो विषय अत्यल्पही क्यों न हो पर यदि योग्य समालोचक व विवेचक विचार करने बैठे तो कितने सुंदर व आकर्षक ढंगसे विचार कर सकता है इसका उदाहरण प्रस्तुत वृत्ति है इस महत्वपूर्ण वृत्ति के प्रकाशनार्थ मेरे पूज्य गुरुवर्य्य श्री १००८ श्री श्री श्री उपाध्याय मुनिसुखसागरजी म. प्रयत्नशील है पुरातन ८-१० हस्तलिखित प्रतियों परसे प्रेस कापी तैयार करा ली गई है। लघुवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति उपरोक्त वृत्ति का ही अति संक्षिप्तरूप मात्र है, इसमें रचयिता ने अपनी ओर से कुछ नूतन ज्ञातव्य पर प्रकाश नहीं डाला । वृत्ति निर्माता श्रीजिनेश्वरसूरिजी [श्रीजनपतिआर्यसूरि शिष्य ] के शिष्य हैं, और इन्होंने ज प्रबुद्ध समृद्धि गणिन्नी की अभ्यर्थना से ही प्रस्तुत संक्षिप्त रूप निर्मित किया, पंडित पद्मकीर्तिगणिने इसका संशोधन किया। स्मरण रखना चाहिये श्रीजिनपतिसूरिजी स्वयं और उनका सारा समुदाय विद्वत्ता के लिये सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध था, सूरिजी पृथ्वीराज चौहाण की सभामें शास्त्रार्थ में विजयी हुवे सूरप्रभने, स्तंभतीर्थ में वादि दिगम्बर यमदंड को पराजित किया, संक्षिप्त कहा जाय तो आपके ऐसे बहुत १ इतिश्री युगप्रवरगम श्रीजिनदत्तसूरि विरचितस्य गणधरसार्द्धशतकस्य प्रकरणस्य पंडित सुमतिगणिकृत विवरणानुसारतः संक्षिप्त रूचिसत्वानुग्रहाय श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्येण वाचकसर्वराजगणिना प्रबुद्धसमृद्धिगणिन्ययंथनया संक्षेपेण विवरणमिदं कृतं पंडितपनकीर्तिगणिना शोधित प्रबुद्ध समृद्धि गणिन्यभ्यर्थनया । " सर्वराजीयवृत्ति " प्रशस्ति । C%%ACRECIRCROCOCCC For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir गणधर सार्द्ध शतकम्। ॥६॥ &ा अल्प शिष्य होंगे जिनके रचित ग्रन्थ उपलब्ध न होते हों। गणधरसाईशतकान्तर्गत प्रकरण । ___उपरोक्त वृत्ति खास कर इसी लिये निर्माण की गई होंगी कि संक्षिप्तरूप में खरतरगच्छीय मुनियों को अपने पूर्वजों का ज्ञान हो क्योंकि सब मुनि इतने विद्वान न होते थे जो वृहद्वृत्ति का अध्ययन कर सके, इसमें आचार्य वर्द्धमानसूरिजी से आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजी तक का विवरण उद्धृत किया है, वह भी अति संक्षिप्त रूप से, इस वृत्ति के संक्षिप्त रूप प्रदायक मुनिश्री चरित्रसिंह थे जो उस समय के उत्तम श्रेणि के ग्रन्थकार थे। आपके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध है जो आपकी प्रतिभा के परिचायक हैं। चतुःशरण प्रकीर्णका, सन्धि गा. ६९ (संवत १६३९ जैसलमेर ) सम्यक्त्वविचारस्तवमाला० [१६३३ झर्झरपुर ] कातंत्रविप्रभावचूर्णि [सं. १६३५ धवलकपुर ] मुनि मालिक [१६३६ रिणी में ] रूपकमालावृत्ति, शाश्वत चैत्य स्त० गा. २० खरतरगच्छ गुर्वावलि गा. २० आल्या बहूत्वस्तव. आदि आदि । उपरोक्त प्रकरण हमारी [जिनदत्त सूरि ] ग्रन्थमालासे पूर्वप्रकाशित हो चुका है। | प्रस्तुत वृत्ति इस वृत्ति का उल्लेख अन्यत्र कहीं पर दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः यह सर्वप्रथम श्रीजिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फंडद्वारा साहित्यविलासी भाई बहिनों के करकमलों के समर्पित करने का मुझे जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है वह मेरे लिये अतीव आनंद का विषय है। इसके प्रणेता श्रीसागरचंदसूरि-देवतिलकोपाध्याय के शिष्य मुनिश्री पद्ममंदिर हैं, इन्होंने वि. सं. १६७६ पौष शुक्ला ७ C For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org को इस महत्त्वपूर्ण वृत्ति का निर्माण किया. जैसा कि अंतिम प्रशस्ति से सूचित होता है। उपरोक्त वृत्ति यद्यपि वृहद्वृति का रूपान्तर मात्र है, तथापि इसमें मौलिकता का आनंदानुभव होता हैं । प्रणेता ने प्रसंगानुसार अपनी प्रासादिकता का परिचय बडी ही उत्त रीति से दिया है, इतने १२००० हजार ग्रन्थ को अति संक्षिप्त कर [ २३६९ श्लोक में ] प्रवाह को तथाविधि सुरक्षित रखना कोई साधारण कार्य नहीं, पर एक महान कठिन और अध्यवसायी विद्वान ही पूर्णकर सकता है । हर्ष की बात है कि मुनिजी सागर को गागर में भरने के कठीन कार्य में सफल हुए। हमने इस वृति का अध्ययन किया, तब विदित हुआ कि सचमुच में प्रणेता की प्रतिभा अद्वितीय थी । इतिहास विषयक प्रस्तुत टीका में बहुसंख्यक ऐसे उल्लेख हैं. जो जैन इतिहास में बडा महत्त्व रखते है, और कई ऐसे कवि हैं. जिनके सुभाषितों का संग्रह किया गया हैं परंतु उनकी ग्रन्थादि साहित्यिक सम्पत्ति अद्यावधि अनुपलब्ध है, मालूम होता है काल की गति में विलीन हो गयी होंगी। पृ० ६७ में " मोक्षराज " नामक कवि का एक पद्य उद्धृत किया गया है, पर जांच पड़ताल करने पर विदित हुआ कि इस कवि का उल्लेख अन्य कहीं पर नहीं हुआ । इनके जन्म-कार्य, अध्ययन, साहित्य - प्रगति आदि ऐतिहासिक बातें जानने के साधन नहीं, काव्याभ्यासी प्रेमियों से निवेदन करेंगें कि वे इस विषय पर खोजकर नूतन प्रकाश डालें, हम भी इस विषय में प्रयत्नशील हैं। सर्वदेव गणि-जो मूल ग्रन्थकार के पाठक थे—के विषय में प्रस्तुत वृत्ति में कहा गया है कि, " आपका स्तूप स्तंभतीर्थ निकटवर्ति " शाखीय ग्राम" में अवस्थित है, जिसे मिध्यादृष्टि भी बड़े आदर से पूजते हैं. अभी विद्यमान है " (पृ. ३८ ) इससे विदित होता है कि सर्वदेव गणि का स्वर्गवास वहां पर हुआ होगा । परन्तु वह स्तूप वर्त्तमान में वहां पर है या नहीं ? यदि हैं. तो किस अवस्था में ? और वह नगर अभी किस हालत में है २ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir II गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ७॥ ROCE%ARCH विदित नहीं, पर निकटवर्ति भाइयों को चाहिये कि वे इस विषय पर खोज कर प्रकाश में लावें। जैन साहित्य में प्रतिष्ठा विषयक विधानात्मक कई ग्रन्थ पाये जाते हैं, पर प्रस्तुतः वृति में १ नवीन प्रतिष्ठाकल्प का उल्लेख आया है. जिसके रचयिता आर्य समुद्राचार्य हैं। (पृ. ५६) प्रस्तुतः पुस्तक के पृ. ५८ में जो नेत्रांजन विधान उल्लिखित है. उसे कई अनुभवी चिकित्सकोंने महत्वपूर्ण नेत्र | गुणकारक बतलाया है। वृत्ति निर्माता: श्री पद्ममंदिर श्री देवतिलक उपाध्याय के शिष्य थे, जैसा कि अंतिम उल्लेख से विदित होता है। उपाध्यायजी ने ८ वर्ष की वय में सं. १५४१ में दीक्षा अंगीकार की, अतः इनका जन्म १५३३ में हुआ होगा। जैनादि सिद्धान्तों का अध्ययन कर वि. सं. १५६२ में वे उपाध्याय पद से विभूषित हुए। इनके द्वारा रचित कोई ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । मात्र इनकी लिखित २ प्रशस्तिये बाबू पूर्णचंदजी नाहर के लेख संग्रह में [जैन लेख संग्रह भा. ३ पृ० ३५-४०] उपलब्ध होती है. जो जिन माणिक्यचंदसूरि के राज्यमें लिखी गई थीं। आपका देहावसान वि. सं. १६०३ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को जैसलमेर में अनशन आराधनापूर्वक हुआ, अग्मिदाह के स्थान पर स्तूप बनवाकर आपके चरणकमलों की स्थापना हुई। आपका शिष्य परिवार विद्वान था। श्री पद्ममंदिर का जन्मादि ऐतिहासिक परिचय अनुपलब्ध है "प्रवचनसारोद्धार बालावबोध ( सं. १६५१ ) और श्री देवतिलक उपाध्याय के गीत और प्रस्तुत वृत्ति ये ही आपकी कृतिये अभी तक उपलब्ध हुई है, जो आचार्य ACCRACROCOCK ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * 4%256 HAMROCCASIC भी जिनचंद्रमुरिजी के समय में निर्माण हुई हैं। प्रस्तुतः प्रकाशन: प्रस्तुतः वृत्ति आजतक अंधकार में थी. किसीको पता नहीं था कि. यह श्री पद्ममंदिर ने भी गणधरसार्धशतक पर वृत्ति लिखी है. पर हमारे परम पूज्य गुरुदेव श्री १००८ मुनि उपाध्याय सुखसागरजी महाराज वृद्धृति की हस्तलिखित पुरातन प्रतियों की खोज में थे, चारों ओर से अनेक पुरातन प्रतियें प्राप्त की, और सुंदर प्रेस कापी बनाई, इसी प्रेसकापिका से अन्य हस्तलिखित प्रतियों द्वारा संशोधन किया, जिसमें जैपुर ज्ञानभंडार से प्राप्त इस लघुवृत्ति से अवलोकन के पूर्व वृहद्वृत्ति, समझी गयी थी, पर देखने से वह सर्वथा नूतन कृति मालूम हुई, इसे देखने से मालूम हुआ कि यह संभवतः ग्रन्थप्रणेता के समय में ही लिखि गई है. क्यों कि, स्थान स्थान पर नूतन वाक्य, कहीं कहीं तो कई पंक्तिये नूतन उल्लिखित है, क्या ही अच्छा होता यदि इसमें 2 लेखनकाल भी निर्दिष्ट होता, प्रति लेखनशैली को देखते हुए यह १७ वीं शताब्दी की अवश्य होनी चाहिये । ग्रन्थान्तर्गत महापुरुषों का ऐतिहासिक परिचय: हम ऊपर लिख चुके हैं कि प्रस्तुतः ग्रन्थ यद्यपि धार्मिकवृत्ति पोषणार्थ लिखा गया है, तथापि इसमें ऐतिहासिक तत्त्व काफी रूप से उपलब्ध होता है, जिसके परिचय कराने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । आशा है कि पुरातत्त्वान्वेषी भाइ बहनों को पथप्रदर्शक सिद्ध होगा। सर्वप्रथम मूल ग्रन्थकार महाराजा युगादिदेवादि २४ तीर्थंकरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर अत्यन्त I भक्ति के साथ नमस्कार करते है, पुंडरीक गणधर का भी उल्लेख है। For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर सार्द शतकम्। ॐECRECA भ्रमणभगवान महावीर: मानवसंसार का शायद ही कोई ऐसा पुरातत्वज्ञ होगा जिसे परोपकारी भगवान महावीरस्वामी के परिचय देने की आवश्यकता हो । विश्व का कोई दार्शनिक ऐसा न होगा जो भगवान के दिव्य सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हो । आपका उपदेश मानव मात्र के लिये था, आप के अमूल्य सिद्धान्त विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाते है, हमारा विश्वास है कि यदि श्रमण भगवान महावीर के समस्त उपदेशामृतों का पूर्ण रुपसे प्रचार किया जाय तो, जैन धर्म संसार-विश्व धर्म हो सकता है, क्योंकि इस में वैज्ञानिकता भरी हुई है। भगवान् कथित बातें आज हमको साक्षात देखने को मिलती है। संक्षिप्त में कहेंगे कि-संसार के | ही समस्त वैज्ञानिकों ने ऐसी कोई नूतन खोज नहीं की जो प्रभु महावीर के कथनों में न हो, अर्थात् आज के विज्ञान ने मात्र इतना ही कार्य किया है कि पूर्व लिखित संशोधित बातों को क्रियात्मक रूप दिया। प्रभु महावीर ऐतिहासिक व्यक्ति थे। आपका जन्म ईस्वीसन पूर्व ५९९ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को क्षत्रियकुंड ग्राम निवासी महाराजा सिद्धार्थ की सुशीला धर्मपत्नी त्रिशलादेवी की रत्नकुक्षी से हुआ था। वह युग भारत के लिये सुवर्ण का था। आपके जन्म से ब्राह्मण समाज द्वारा जो यज्ञादि क्रियाओं में मूक पशु जो सहस्रों की संख्या में मौत के घाट उतारे जाते थे, उन्हे अभयदान मिला, समस्त संसारने अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव किया। आपने तीस वर्ष के बाद मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को राजवैभवों का सर्वथा परित्याग कर दीक्षा ली, अब आप निम्रन्थ हुए, तदनंतर आपने अनेकों ऐसे २ महान भीषण उपसर्ग सहे, जिन्हें श्रवणकर वज्र का हृदय भी पानी हुए विना न रहेगा । क्रमशः तपश्चर्या कर १ 45 5 - 4 For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | केवळज्ञान प्राप्त कर सर्व ७२ वर्ष का आयु पूर्ण कर इस्वीसन् पूर्व ५२६ कार्तिक कृष्णा अमावस्या को अपापापुरी-पावापुरी में मोक्ष गये। आप जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं प्रत्युत प्रचारक थे। कई लोग प्रवर्तक मानते है। पं. जवाहरलाल नहेरु जैसे विचारक भी इसी भ्रांति में हैं। गौतमादि गणधरः भगवान महावीर के एकादश गणधरों में गौतमस्वामी सबसे बड़े थे, सर्वानुसार ये भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। इ. स. पूर्व ५२६ में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और इ. स. ५१४ में वैमारगिरि पर्वत पर मोक्ष गये । सुधर्मास्वामी: पांचसो विप्र पुत्रों के पाठक थे। भगवान के पास इन्होंने ५०० शिष्यों-छात्रों सहित ५० वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की और इ. स. पूर्व ५०६ में वैमारगिरि पर्वत पर मोक्ष गये। जम्बूस्वामीः आपका जन्म राजग्रही नगरी में ऋषमदत्त ब्राह्मण की धर्मपत्नी धारिणी देवी की रत्नकुक्षी से हुआ, आपने पंचशत चौर ८ ३. हिन्दुस्तन में बुद्ध और महावीर हुए । महाबीर ने आजकल का प्रचलित जैन धर्म चलाया, इनका असली नाम वर्द्धमान था । विश्व इतिहास की झलक पृ० ५८ ४ कल्पसूत्र-कल्पलत्ता वृत्ति में इन्हें वणिक बताया गया है. पुनः जम्बू कुमारों वणिक् जातित्वात् महालोभो यतो मुक्तिनगेर प्रविश्य......पृ० २१८ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर सार्द्ध शतकम्।। Ak%COM कन्याएं, उनके मातापिता आदि के साथ १६ वर्ष की लघु अवस्था में सुधर्मास्वामी के पार्श्व दीक्षा अंगीकार की । इस्वी पूर्व ४६२ में आप मोक्ष गये। पञ्चमकाल के आप अंतिम मोक्षगामी है। आप के निर्वाण बाद ये दश वस्तुएं विच्छेद हुई-मनःपर्यवज्ञान, परमावधिज्ञान पुलाकलब्धि, आहारक शरीर, क्षपकश्रेणि, जिनकल्पि मार्ग, परिहारविशुद्धि चरित्र, सूक्ष्मसंपराय चरित्र, यथाख्यात चरित्र, ये तीन संयम, केवलज्ञान, मोक्षगमन । बृहद्वृत्ति में इनका जीवन अत्यन्त विस्तृत रूप से मनोरंजनात्मक ढंग से दिया हुआ है। प्रभवस्वामी: वे कात्यायन गोत्रीय राजा जयसेन के वहां जन्में थे। पिताने राज्य लघु बंधु को दे दिया, यह व्यवहार आप पर गजब का असर कर गया। आपने तत्काल राज्य का त्याग कर विदेश परिभ्रमणार्थ निकल गये, और ४९९ चौरों के स्वामी हुए, उपरोक्त जम्बूकुमार के वहां पर आप चोरी करने गये थे, पर अंततः आप का दिल जंबूकुमार ने चुरा लिया, और खुद के साथ दीक्षा अंगीकार करवाई । क्रमशः गणाधिपति हुए। आप ८६ वर्षका सम्पूर्ण आयु पालकर इ० स० पू० ४५१ वर्षे स्वर्ग गये, आपने उपयोग दिया कि संघ में ऐसा कौन प्रतिभासंपन्न व्यक्ति है, जिसे मैं आत्मपद पर अधिष्ठित करु ! अंततः विदित हुआ कि शय्यंभव भट्ट को ही उत्तरदायित्व पूर्ण पदप्रदान किया जाय, वे भट्टजी उस समय यज्ञ करा रहे थे, वहां पर जैन मुनियों को भेजकर प्रतिबोध दे मुनि दीक्षा अंगीकार करवाई। SACARSACROCES For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शय्यम्भवसूरिः आप के माता पिता के नाम अप्राप्य है । आप यजुर्वेदीय; वक्षस, गोत्रीय थे, जब आपने दीक्षा अंगीकार की थी, तब आपकी अद्धोगिनी गर्भवती थी। क्रमशः पुत्र उत्पन्न हुआ, मनक नाम दिया । मनक ने जन्मते ही सुना कि मेरे पिताने श्वेतांबर दीक्षा ग्रहण 18 की है। क्रमशः मनक ने भी आकर दीक्षा ग्रहण की, परंतु आचार्यश्रीने अपना पिता पुत्र का संबंध किसी से ज्ञापित न किया, I क्योंकि ऐसा करने से अन्य मुनि इनसे सेवा न लेंगे। बिना सेवा वैयावृत्य किये भवसमुद्र से निस्तार कैसे होगा ! यह लघु शिष्य का अल्पायु जान कर गुरुजीने इनके लिये सिद्धान्त से मुन्योचित धर्म प्रतिपादनात्मक विषय उद्धृत कर "दशवकालिक" सूत्र की रचना कर पुत्र को पढ़ाया। छह मास के बाद बाळक स्वर्ग गया, तदनंतर सूरिजी उक्त नूतन सूत्र पुनः सिद्धान्त में सम्मिलित PI करने लगे, पर श्री संघ के रोकने पर शामिल न किया। शय्यंभव सूरिजी सर्व ६२ वर्ष का आयु पाल इ० पूर्व ४२८ में स्वर्ग गये । यशोभद्र सूरिःहै। इनका विस्तृत परिचय अलभ्य है। उपरोक्त उल्लेखों में आपने देखा एक आचार्य के पद पर एक ही आचार्य आते थे, पर इनके बाद एक पद पर दो आचार्य अधिष्ठित पाये गये। कई स्थान में दोनो को भिन्न २ गिन संख्या में वृद्धि की हैं। आप सर्व 8| ८६ वर्ष का आयु पाल ३७८ इ० पूर्व स्वर्गवासी हुए। है|संभूतिविजय और भद्रबाहुसूरि: संभूतिविजयसूरिजी का परिचय अप्राप्य है । आप ९० वर्ष की अवस्था में ३७० इ० पू० में स्वर्गवासी हुए । CACANCHAARCARTOONtos For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघर साई शतकम् । ॥ १० ॥ www.kobatirth.org भद्रबाहुस्वामी का स्थान जैन इतिहास में अत्यन्त पूज्यनीय व महोच्च माना जाता हैं, भारतीय राजनैतिक इतिहास में भी ये अनुपेक्षणीय नही । आप का सम्पर्क चन्द्रगुप्त मौर्य से बतलाया जाता है, जिस पर आगे विचार किया जायगा । आपका जन्म प्रतिष्ठानपुर (पैठण) ब्राह्मण जाति प्राचीन गोत्र में हुआ था। कहा जाता है कि इनका बराहमिहिर नामक कनिष्ठ बंधु भी था, इन दोनों ने उपरोक्त यशोभद्रसूरिजी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। लघु बंधु का स्वाभाव अत्युग्र था । अतः आचार्य पद उनको न दे कर भद्रबाहुस्वामी को प्रदान किया, इससे उनका क्रोध यहां तक बढ़ा कि उसने जैन धर्म का त्याग कर राज्याश्रय लिया, क्रमशः मृत्यु पाकर जैन संघ पर विविध उपद्रव करने लगा, जिनकी उपशांति के लिये भद्रबाहुस्वामी ने उपसर्गहर स्तोत्र की रचना कर श्रावकों को दिया, जिसके पठन मात्र से उपद्रव शांत हो गया । आपने अध्यात्मविद्या में ( प्राणायाम में ) महान् उन्नति की थी, तदर्थ आपने नैपाल देश को उपयुक्त चुना था। वहां पर जब ध्यान में मन थे तब भी आपने अपना अमूल्य समय देकर गुरु बंधु शिष्य श्री स्थूलिभद्रादि ५०० मुनियों को वांचना दी थी। आप १४ पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली थे, चंद्रगुप्त मौर्य सम्राटने भद्रबाहु के पास जैनमुनि दीक्षा अंगीकार करने के विषय में कुछ उल्लेख दिग० जैन साहित्य में दृष्टिगोचर होते है। इन में कितनी सत्यता है निम्न प्रमाणों से स्पष्ट हो जायगा इस में कोई शक नहीं कि चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयायी था, परंतु इसने जैन दीक्षा अंगीकार कर श्रवणबेल्गुला में अनशन स्वर्गवास प्राप्त किया, यह प्रश्न अत्यन्त विचारणीय है, दिगं० प्रन्थो में ऐतद्विषयक विसंवाद पाया जाता है । भद्रबाहु को आचार्यपद इस्वी० पूर्व ३९४-९५ तक माना आता है, जब मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त का शासनकाल इस्वी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १० ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir 4% FEARSANERICA पूर्व ३२२-२९८ तक का निश्चित किया गया है। इन दोनों के मध्य में ६७ वर्ष का मेहदंतर हैं, इसी से सिद्ध हो जाता है कि दीक्षा विषय कपोलकल्पित है, दिगंबर साहित्य स्वयं इसकी पुष्टि करता है। चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामि का देहावसान इ० पूर्व ३५६ में हुआ। इस में कोई सन्देह नहीं कि भद्रबाहु स्वामी उद्भवट तत्त्ववेत्ता थे, उनके द्वारा विनिर्मित साहित्य जैन साहित्य को महान् गोरव प्रदान करता है । जैनागम साहित्य को परमालंकृत करनेवाली नियुक्तियें देख विद्वज्जन आनंद के सागर में हिलोरे मारने लगते हैं। आप ही एक ऐसे महान् जैनाचार्य है जिन्हें श्वे. दि. दोनो सम्प्रदायवाले बडे आदर के साथ मानते हैं, संप्रदाय द्वय द्वारा कुछ हेरफेरके साथ निर्मित आप का जीवन भी उपलब्ध होता है। अब यहां पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, भद्रबाहु नामक जैन समाज में कितने आचार्य हुए ! क्यों कि पुरातन जैन साहित्य में तो दो होने के उल्लेख कही पर भी दृष्टिगोचर नहीं हुए। पूर्वकालीन ग्रन्थकार भी पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी को एक व्यक्ति मानकर नमस्कार करते है, परंतु इतिहास में ऐसे अनेक उल्लेख दृष्टिगोचर हो चुके है, जिनका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने से विदित होता है कि, एक ही नाम के दो आचार्य जैन धर्म में हुए हैं। एक तो उपरोक्त चतुर्दश पूर्वधर और दूसरे नियुक्तिकार जो वराहमिहिर के बंधु थे । यदि प्रथम भद्रबाहु नियुक्ति के रचयिता होते तो कलिकालसर्वज्ञ हेमचंदसूरि उनका उल्लेख अपने ५ स्थानाभाव से यहां पर विस्तृत विवेचन न कर जिज्ञासु पाठकों को निवेदन करेंगे कि श्री जैन सत्यप्रकाश का ३७-३८ क्रमांक देखें पृ० ५५-६, ११.-१६. 946464 For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सार्द्ध गणधर- ग्रन्थो में बडे आदर के साथ करते, पर वे इस विषय में मौन हैं। वराहमिहिर भद्रबाहुस्वामी के बंधु थे, जैसा कि उपरोक्त लेखों से सुस्पष्ट है, यही हमें इस और संकेत करता है कि शतकम् । द्वितीय भद्रबाहु नामक कोई व्यक्ति जैन समाज में हुई है, जिन्होने नियुक्तयें रची, पर वे किंनके शिष्य थे, कहना असंभव है। ___ मुनि श्री चतुरविजयजी और मुनि श्री पुण्यविजयजीने अपने निबंधो में अनेक शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा ऐसी अकाट्य युक्तिये ॥११॥ II दी है, जिनसे साफ साफ विदित हो जाता है कि, पञ्चम श्रुतकेवली और नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी दो प्रथक् पृथक् आचार्य भिन्न २ समय में हुए हैं। संघतिलक सूरिजी सम्यक्त्वसप्ततिका श्री जिनप्रभकृत उपसग्गहर स्तोत्रवृत्ति, प्रबंधचिंतामणि आदि श्वेतांबरीय मान्य ग्रन्थ भद्रबाहुस्वामी को प्रखर ज्योतिषी वराहमिहिर के बंधु गिनाते हैं। वराह मिहिर के चार ग्रन्थ आज तक उपलब्ध हुए है जो अपने ढंग के बडे उत्तम है जो इस प्रकार है: बृहत् संहिता (१८६४-६२ Bibiothica Indica में प्रो० कन ने प्रसिद्ध की ही भाषांतर Journal of Asiatic Society में प्रकट हुआ है) ६. आत्मानंद जन्म शताब्दी स्मारक ग्रन्थ गु० वि० पृ. २०-२६. ७. महावीर जैन विद्यालय रजत महोत्सव ग्रन्थ पृ० १८५-२०१ ८. तत्थ य. चउदस विजा ठाण पारगो छयम्मम्म पवईए भइओ भद्रबाहुनाम माइणो हुत्या तस्स य परम पिम्म सरसिरहमिहरो वराहमिहरो सदोयरो SAHASRKARIGARABAR ॐॐॐCC For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हौरा शास्त्र ( जिसका अनुवाद मद्रास के. सी. आयरने १८८५ में किया ) लघुजातक ( जिसके कुछ भाग का अनुवाद प्रो० वेवर और डॉ. याकोबी ने १८७२ में किया है । पंञ्च सिद्धान्तिका बनारसवाले महामहोपाध्याय श्री सुधाकर द्विवेदी तथा थीवो ने इसे १८८९ में प्रकट किया है और बहुत से हिस्से का अनुवाद भी किया है। वराहमिहिर का जन्म शक ४१२ (वि. ५५९ ) और मृत्यु समय ५०९ ( वि० सं० ६४४ ) में माना जाता हैं। भद्रबाहु स्वामी को भी ज्योतिष का उच्च ज्ञान था । आप के द्वारा रचित निम्न ग्रन्थ हैं- आचारांग निर्युक्ति, सूत्रकृतांग नि०, दशवैकालिक नि०, उत्तराध्ययन नि०, आवश्यक नि०, सूर्यप्रज्ञप्ति, ऋषिभाषित निर्युक्ति, ओघनियुक्ति संसक्त नि० मूल ग्रन्थ ये है बृहत्कल्प व्यवहार, दशा, मद्रसहिता, गृहशांति स्तोक, द्वादशभाव जन्म मदीप, बसुदेव हिन्दी इनके उपरोक्त समग्र ग्रन्थो में जन्मदीक्षादि कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं । ९ सप्ताश्विवेदसंख्यं शक काल मयास्य चैत्रशुक्लादौ, अर्धास्तिमिते मानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाद्ये, १० वर्तमान में पर्युषण पर्व में जो कल्पसूत्र वाचन होता है वह प्रस्तुतः सूत्र का आठवां अध्ययन बतलाया जाता है। ११ प्रकाशित संहिता से वे भिन्न है । १२ वंदामि भद्रबाहु जेणय अकर, सिध बहुकद्दा कलिये कसबा लक्खं चरित्रं वसदेवरायस्स For Private and Personal Use Only "शांतिनाथ चरित्रं" मंगलाचार• Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर N साई शतकम् । ॥१२॥ स्थूलीभद्र: पाटलीपुत्र पटना के ब्राह्मण जातीय गौतमगोत्रीय शकडाल उस समय नंद राजा के प्रधान मंत्री थे । स्थूलीभद्रने १२ वर्ष कोशा वेश्या के घरं व्यतीत किये थे। पिताजी राज्यकार्य देखते थे. पर किसी कारण से पिता की मृत्यु हो जाने से इन्हें राज्य कार्यभार लेने को प्रोत्साहित किया, पर आपको राज्य के षड्यंत्र से कतई प्रेम न था, अतः आपके लघु बंधु पितृस्थान पर नियुक्त किये और अपने मुनि दीक्षा अंगीकार की। पूर्व परिचिता कोशा के वहां चित्रशाला में चतुर्मास रहे। वेश्या पूर्व विगत बातों की स्मृति दिलाकर अनेक ऐसे हावभाव दिखाने लगी जिससे वे पूर्ववत होकर रई, पर वह महान् आत्मा को उन कामोत्तेजक वैभवों का लेश RI मात्र भी असर नहीं हुआ । प्रत्युतः उसी को प्रबोध देकर जैन धर्मानुयायिनी बनाई। आपके अस्तित्व समय में विश्वविख्यात कौटिल्य अर्थशास्त्र निर्माता चाणक्य ने नवनंद का नाश कर मौर्य साम्राज्य प्रस्थापित कर चंद्रगुप्त का राज्यभिषेक किया । इ० पू० ३११ में स्थूलीभद्र का स्वर्गवास हुआ । आर्य महागिरि, आर्य सुहस्तिः प्रथम का परिचय अत्यल्प ऊपलब्ध हैं। आप जिन कल्प की तुलना करते थे। इ० पूर्व २८१ में आप स्वर्गासीन हुए, आर्य सुहस्तिका अत्यन्त अल्प वृतांत उपलब्ध है, बाल्यावस्था में आप १ जैन श्रमणिका द्वारा पालित रक्षित थे । आपने महाराजा संम्प्रति मौर्य को प्रतिबोध देकर जैन धर्मानुयायी किया, और जैन धर्म के प्रचारार्थ अनेक प्रयत्न किये । भारत से बाहर भी | पचार किया । यूनान में आज भी एक ऐसी जाति है. जो अपने को समनिया श्रमणिया कहती हैं। उनका आचरण बिल्कुल जैन AGAREKAR %3D For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मानुसार है। ये लोग अभक्ष्य भक्षण अपेय पान कदापि किसी अवस्था में नहीं करते । हो सकता है सम्पति द्वारा प्रचारित जैन धर्मके वे ही जैन अवशेष हों, इस विषय पर हम विस्तृत अध्ययन कर रहे हैं । इस्वी पूर्व २३५ में सुहस्तिसूरि का स्वर्गवास हुआ। आप ही अपने बृहत्गुरु बन्धु के समय में गच्छाधिपति थे। इस समय बहुत सी ऐतिहासिक घटनाएं घटी. जिनका संबंध जैन MI धर्म से है पर उन्हें व्यक्त करने का यह स्थान नहीं। आर्य समुद्र मंगु सुधर्माः नंदी गुर्वावली से विदित होता है कि आर्य मंगु आर्य समुद्र के शिष्य थे। इनका उल्लेख विविध तीर्थकल्प में मिलता हैं"। इन तीनों का विस्तृित परिचय अन्यत्र अनुपलब्ध है। बृहत् वृत्तिकार ने "एतेसां त्रयाणामपि चरित्रं विशिष्टं वापि न दृष्ट" साफ लिखा है। भद्रगुप्तः इनके विस्तृित परिचय के लिये बृहदृवृत्तिकार मौन है, आपने बज्रस्वामी को ११ अंग की वाचना उज्जयिनी में दी थी। "संभवतः इ० स०७ में इनका देहान्त हुआ। १३. तौ हि यक्षार्थया बाल्यादपि मात्रेव पालिती, इत्यार्योपपदी जाती, महागिरिसुइस्तिनौ ॥ पर्व १०, लो० ३७ । १४. इत्थ अज्ज मंगु सुभसागरपारगो इहिरसमायगारबेहिं जक्सवत्तमुवागम्म, जीहापसारणेण साहूणं अप्पमायकरणथं पडिबोहमकासी । वि० ती० क० पृ. १९ । १५. ततो वनस्वामीना दशपुरात् उज्जयिन्यां गत्वा गुर्वाजजया श्रीभद्रगुप्ताचार्यसमीपे दशपूर्वाणि अधितानि ॥ कल्पसूत्रकल्पलता पृ० २२६ । AAAAAAAAAAX For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघर साई शतकम् । ॥ १३ ॥ www.kobatirth.org वज्रस्वामी: - इनका वृत्तांत वृहद्वृत्ति एवं परिशिष्ट पर्व में अत्यन्त विस्तृत रूपेणोपलब्ध होता । आप वैश्य जातीय धनगिरिपत्नी सुनंदा के पुत्र थे । आपने जगन्नाथपुरी के बौद्ध राजा को प्रतिबोधित कर जैन बनाया। राजा का नाम ज्ञात नहीं। आप कई विद्याओं के धारक प्रभावक आचार्य, तथा दश पूर्वधर थे। आपकी जीवन घटना से विदित होता है कि उस समय चैत्यवासियों का प्राबल्य था । इ० स० ५८ में आपको देहोत्सर्ग हुआ । आर्थरक्षितः ये मालवदेशीय दशपुर - मन्दसौर के निवासी थे। आप जाति से विप्र, धर्म से जैन थे। आपने पाटलीपुत्रका अध्ययन किया था । उपरोक्त भद्रगुप्ताचार्य पास आपने जैन साहित्य के चार अनुयोग प्रथक् प्रथक् किये । उमास्वाति वाचक: ये आर्यमहागिरि के शिष्य बलिस्सह के शिष्य थे । इसे दि० उमास्वामी कहते हैं"। जैन साहित्य में इनका स्थान अत्यन्त - - पटना में १४ विधाओं १६. अज्ञानि ६ चत्वारो वेदा ४, मीमांसा - ११ न्यायविस्तरः ७२ पुराणं १३ धर्मशास्त्र १४ च विद्या एतचतुर्दशः ॥ १ ॥ १७. आर्यमहागिरेस्तु शिष्यौ बहुलबलिस्हौ यमलभ्रातरौ तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः स्वातिः तत्वार्थादयो प्रन्यास्तु तत्कृता एवं सम्भाव्यन्ते धर्मसागरीय पट्टावली । १८. यह नाम उपयुक्त नही मालूम होता: इनके मातापिता का नाम उमा, स्वाति, क्रमशः था। अतः इन्होंने मातापिताकी स्मृतिरूप में भी यदि नाम रखा हो तो भी उमास्वाति ही अधिकः युक्तिसंगत मालूम होता है जैसे कि बप्पभट्टीसूरि । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका । ॥ १३ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पवित्र व उच्च है । आप ही एक ऐसे जैन मुनि है कि साहित्यिक रचना में सफलतापूर्वक । जैन दर्शन का निचोड़ आपने तस्वार्थ सूत्र के दश अध्यायों में किया । इनकी यह कृति श्वेतांबर दिगंबर उभय सम्प्रदायवाले बहूत आदर के हेमचंद्रसूरि आपको संग्रहकार मानते है" । संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम उपयोग किया, वह भी भर दिया हैं। ये ग्रन्थ पाटलीपुत्र-पटना में निर्माण साथ मानते हैं. और अध्ययन करते है । आचार्य प्रशमरति प्रकरण, श्रावक प्रज्ञप्ति, पूजा प्रकरण, प्रतिष्ठाकल्प ( प्रकृत वृति पृ० ५६ ) आदि ग्रन्थ आप के विनिर्मित है, जो जैन साहित्य को गौरव प्रदान करते है । कहा जाता है आपने पंञ्चशत प्रकरणात्मक ग्रन्थों की रचना की थी" । आपका विस्तृत परिचय सुप्रसिद्ध विद्वान् श्रीसुखलालजी ने नूतन प्रकाशित हिन्दी तत्त्वार्थ सूत्र में दिया है जो अत्यन्त उपयोगी और मनन योग्य हैं। हरिभद्रसूरि : ऐसा कौन भारतीय साहित्यान्वेषी होगा जो आचार्यवर्य्य श्रीमान हरिभद्रसूरि जैसे अद्वितीय प्रतिभासंपन्न जैनाचार्य के पुण्य नाम से अनिभिज्ञ हो । विश्व का ऐसा कौन फिलासफर होगा जिसे आचार्यश्री के दर्शनशास्त्रों का ज्ञान न हो, आप साहित्य के १९. उपोमास्वातिं संग्रहीतारः । सिद्धम २-२-३९ । २०. उमास्वाति वाचकश्च कौमिषणणिगोत्रः पञ्चशत=संस्कृत = प्रकरण प्रसिद्धस्तत्रैव तत्वार्थाधिगं सभाप्य व्यरचयत् चतुरशीतिवादशालाश्च तत्रैव विदुषां परितोषाय पर्येणंसिषुः । विविध तीर्थकल्प पृ० ६९ । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10-% Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर भूमिका। सार्द्ध शतकम्। ॥१४॥ प्रत्येक अंग के धुरंधर विद्वान ही न थे पर के साथ ही साथ उत्तम कोटि के अन्य रचयिता भी थे। आप को अपनी असाधारण विद्वत्ता पर परिपूर्ण विश्वास था, अतः नियम कर लिया था कि जो मुझे पराजित करेगा उसी का मैं शिष्यत्व स्वीकृत करुंगा। एक प्राकृत भाषा की गाथा का अर्थ आप को न आने से जैनाचार्य जिनदत्तसूरिजी या श्री जिनमेंटसूरिजी के पास जैन दीक्षा अंगीकार की। आप के अस्तित्व समय में विद्वान् लोगों में मतैक्य नही है, कई इन्हें वि० छठवीं या सातवीं सदी और कई ९ वीं सदी में होने का | मानते हैं, तत्त्वं तु केवली गम्यं । संसार के इतिहास में आप का नाम स्वर्णाक्षरों से लिखा जाना चाहिये । जर्मन विद्वान डॉ. याकोबी आप के अन्थों पर मुग्ध थे। यहां हम एक बात पर विशेष रूप से जोर देकर कहेंगे कि उक्त आचार्यश्री ने अपनी बहूसंख्यक कृतिये २१-२२. हरिभद्रसूरिजी के गुरु कौन थे ! यह भी एक प्रश्न है। कुछ समय पूर्व विद्वजन जिनभटरिजी को गुरू मानते थे, पर अब प्रमाण मिले हैं कि जो जिनदत्तसूरिजी को इनके गुरु मानने को प्रोत्साहित करते हैं। वे प्रमाण इस प्रकार हैं-आचार्य स्वयं लिखते हैं-" समाप्ता चेय ला शिष्यहिता नामावश्यकटीका सिताम्बराचार्य जिनभटनिगदानुसारिणा विद्याधरकुलतिलकाचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी महत्तरा सूनोरल्पमतराचार्य हरिभद्रस्य" यै प्रशस्ति जिनदत्तसूरि गुरु प्रदर्शित करती है । आप ही ने अन्य टीकायें लिखे है ॥ __ आचार्य जिनभटस्य हि सुसाधुजनसेवितस्य शिष्य, जिनवचन भावितमतैर्वृत वतस्तत्प्रसादेन किंचित् पक्षेप संस्कारद्वारेणैव कृता स्फुटा आचार्य हरिभद्रेण टीका प्रज्ञायनाश्रया ॥ इससे जिनभटरि गुरु मालूम होते है । संभव है दीक्षाप्रदायक जिनदत्तसूरि गुरु हों ओर जिनभटसूरि उनके ही आज्ञाकारी हो । निश्चिततया राय | देने के साधन नहीं है। *ॐ%AA ॥१४॥ AE For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie %95 % संस्कृत भाषा में गुम्फित की है, कारण कि उस समय इसी भाषा का प्राबल्य था। ठीक उसी प्रकार आज कल हिन्दी-जो भारत की राष्ट्रभाषा होने जा रही हैं-का प्राबल्य है, अतः जितना प्रचार इस भाषाद्वारा हो सकेगा, उतना अन्य कोई भाषा द्वारा होना असंभव नही तो कठिन अवश्य है । मेरे बहुसंख्यक जैनेतर परिचित जैनसाहित्यानुरागी विद्वान हैं, पर हिन्दी भाषा में जैन साहित्य अनुवादित न होने से वे ऐसे महत्व के लाभ से सदा के लिये वंचित से रह जाते है । कहने का मतलब यही कि जैन साहित्य का प्रचार हिन्दी द्वारा होना चाहिये। आचार्य शीलांक: आप भी स्वसमय के उद्भट विद्वान् और वृत्तिकार थे। द्वादशाङ्गपर पूर्व आपने वृतिये निर्माण करने का कहा जाता है । वि० स० ९२५ में आपने १०००० सहस्त्र श्लोक प्रमाण में प्राकृत भाषा में महापुरुष चरित्र की रचना की, जिस में ५४ महापुरुषों का जीवन है, जो हेमचन्द्रसूरि के त्रिशष्ठिशलाकापुरुषचरित्र का मूळाधार है । ये आचार्य कोन थे? किनके शिष्य थे। ये जानने के साधन नही। गणधरसार्धशतक वृहद्वृत्ति से विदित होता है कि, वे संभवतः चैत्यवासी थे। अतः ग्रन्थकारने नमस्कार न करते हुए स्मरण मात्र ही किया है, जैसा कि बृहदवृत्ति से सूचित होर्ती है। २३. नन्वेष शीलांकश्चैत्यवासीत्यस्माभिः श्रुतम् । एष सद्वृत्ति विधानेन लोके प्रतिष्ठापात्र ज्ञानाधिकत्वेन प्रभावकच “ नाणाहिमओ बरतरं हीणोवि | हु पबयणं प्रभावितो" इत्याप्त वचनप्रामण्या देतस्यादि प्रशंसामात्रमुचितमवे वंदनंतु नोचितम्" । गण०० वृत्ति । ला गण बृ० वृत्ति जब निर्माण हुई थी कर्ता और इनके गुरु जिनपतिसूरि चैत्यवासियों के संडन के व्यस्त थे। संभव है इसी मनोवृत्ति का प्रभाव प्रकृत वृत्ति पर भी पड़ा हो । KROACCACAREACCESC For Private and Personal use only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर भूमिका। सार्द्ध शतकम्। ॥१५॥ % A देवाचार्य:____ इसके विषय में अधिक जानने के साधनों का सर्वथा अभाव है । सुमतिगणिजी स्वयं मौन है, नेमीचंद्रसूरि का भी विस्तृत परिचय अप्राप्य है। उद्योतनसूरिः इनका ऐतहासिक परिचय अनुपलब्ध है, मात्र इतना ही ज्ञात है कि. आप का विहारक्षेत्र पूर्व देश था, सम्मेदशिखरजी की ५ वार यात्रा की थी, वहां आपने आबू का महत्व सुना और यात्रार्थ इस ओर प्रस्थान कर क्रमशः अर्बुदगिरि पधारे, शुभ मुहूर्त देखकर तत्समीपवर्ति ढेली ग्राम में ८ महानुभावों को आचार्यपद से विभूषित किये, कहीं पर इस के विपरीत उल्लेख मिलता है कि ८४ शिष्यों २५. युगाङ्क नन्द प्रमिते ९९४ गतेऽशब्दे, श्रीविक्रमार्कोत्सह संघलोकैः, पूर्वावनितो विहरन् धरायामु;-द्योतनः सूरिरथार्बुदाद्यः ॥ १८ ॥ आगत्य टेलीपुरसीतसंस्थ, पद्य समासन्न वृहद्बटाघः, शूभे मुहूर्ते स्वपदेशऽष्टमूरि, नतिष्ठि पस्तौवकुलोदयाय ॥ १९ ॥ पट्टावलीसमुच्चय पृ. २७ । २६. अथ उद्योतनसूरिखयशीति (८३) शिष्यपरिवृती मालवकदेशात् संधेन सार्ध शत्रुजये गत्वा ऋषभजिनेश्वर-मभिवंद्य पश्चात् वलमानो रात्रौ सिद्धवडस्याधो भागेस्थितः तत्र मध्यरात्रिसमये आकाशे शकटमध्ये बृहस्पति प्रवेशं विलोक्य एवमुक्तवान् “ साम्प्रतमीदशी वेला वर्तते यतो यस्य मस्तके हस्तः क्रियते स प्रसिद्धमान् भवति" अधैतत् श्रुत्वा त्रयशीत्याऽपि शिष्यरुक्तम् “स्वामिन् ! वयं भवता शिष्या स्मः यूयमस्माकं विद्यागुरवः ततो अस्मदुपरिकृपां विधाय हस्तः क्रियाताम्" ततो “गुरुभिरुक्तम् वासचूर्णमानीयताम् । तदा तैः शिष्यैः कारच्छगणादिचूर्ण कृत्वा गुरुभ्य आनीय दत्तं | गुरुभिरपि तच्चूर्ण मन्त्रयित्वा त्रयशितः शिष्याणां मस्तके निक्षिप्तम् ततः प्रभाते गुरुभिः स्वस्य अल्पायुर्ज्ञात्वा तत्रैव अनशनं कृत्वा स्वर्गः गतिः प्राप्ता...एव चतुरशीति-गच्छाः संजाता । खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह पृ. २० । 5 % 8 ॥१५॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C AAॐॐॐॐ को आचार्य पदसे चौराशी गच्छों की स्थापना की, यह उल्लेख युक्ति संगत प्रतीत होता है । उद्योतनसूरि का अपर नाम दाक्षिण्याङ्कसूरि बतलाया जा रहा है जो " कुवलयमाळा कथा" के रचयिता थे, यह कथा प्राकृत भाषा का रत्न है। रचना चम्पू से मिलती जुलती है, रचना से उच्च व काव्य चमत्कृति साफ मालूम होती है, तत्कालिक प्रान्तीय लोकभाषा का अध्ययन इस के विना अपूर्ण रहेगा। रचनाकाल सं. ८३४ (श. ६९९) है । इनका १ संवत् ९३७ का लेख भी पाया जाता है। श्री वर्द्धमानसूरिः उद्योतनसूरिजी के प्रमुख शिष्य थे। आप पूर्व कूर्चपुरी ८४ चैत्यगृह के अधिपति थे, पर शास्त्रोंका वास्तविक ज्ञान होने से चैत्यवास का सर्वथा त्यागकर सुविहित मार्ग अंगीकार कर विचरण करने लगे। आपने अर्बुदाचल पर्वतोपरि कठिन तपश्चर्याकर सूरिमंत्र की शुद्धि की, और वहां पर जैन मंदिर बनवाने को गूर्जरेश्वर भीमदेव चौलुक्य के ( वि० सं. ११७८-१९८०) दंडनायक प्रागवाट विमलमंत्री २७. सगकाले यो लोणे, वरिसाण सएहिंसत्तहि गएहि, एग दिणेणूणेहिं रइया अबरण्ड वेलाए । .२८. (१) ॥ ॐ ॥ नवसु शतेष्वन्दानां सप्ततूं (त्रि)शदधिकश्वतीतेषु श्रीवच्छलांगलीभ्यां ज्येष्ठर्याभ्यां । (२) परम भक्त्या ॥ नाभेय जिनस्यैषा प्रतिमा-ऽषाडार्द्धमास निष्पन्नाश्रीम(३) तोरण कलिता मोक्षार्थ करिता ताभ्यो ॥ ज्येष्ठाय पदं प्राप्तो द्वावपि । (1) जिनधर्म वच्छलौ ख्याती उद्योतनसूरेस्तौ शिष्यौ श्रीवच्छलबलदैवौ ॥ (५) सं० ९३७ आषाढाढ़ें ॥ Jain inscription P. II P. 164 %%ERRAKESCRICK For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघर सार्द्ध शतकम्। ॥ १६ ॥ www.kobatirth.org को प्रोत्साहित किया । क्रमशः विमलवसही" नामक वृहत्तर जैन मंदिर निर्माण हुआ, जो भारतीय कला का एक उत्कृष्ट नमूना है । इसी मंदिर में १०८८ में आचार्य वर्द्धमानसूरिजीने प्रतिष्ठा की, ऐसा अनेक पुरातन ऐतिहासिक पट्टावलीओं से सूचित होता है, यद्यपि इस विषय के लोगों ने मतभेद खड़ा कर रखा है, पर वह निःसार है। जिस विषय को पुरातन ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध कर रहे हैं, उसमें शंका करना कदाग्रह नहीं तो और क्या हो सकता है ? १०८८ तक सूरिजी की विद्यमानता में शंका की जा रही है, परंतु वाचको को निम्न वृतान्त से विदित हो जायगा कि, तब सूरिजी विद्यमान थे । दूर्लभ के समय में चैत्यवासीओं के शास्त्रार्थ में आप भी थे, आप का स्वर्गवास आबू में ही हुआ। वर्द्धमानसूरिजी जैसे उत्कृष्ट कृयापात्र थे, वैसे ही उच्च कोटिं के विद्वान ग्रन्थकार मी थे । आपने विक्रम संवत् १०५५ में हरिभद्रसूरि विरचित, " उपदेशपद पर वृत्ति" निर्माण की, और " उपमिति भवप्रपञ्च नाम समुच्चय “ उपदेश भाषा बृहद्वृत्ति" आप ही की शुभ कृतियें हैं। आप का प्रतिमालेख सं. १०४५ का कटिग्राम उपलब्ध होता है । " २९. दक्षिण भारतीय कनाडी भाषा के शिलालेखों और ग्रन्थों में बसदि या वसति शब्द का प्रचार विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। वसति शब्द संस्कृत तत्सम (वस्ती) का तद्भवरूप मात्र है, वसती शब्द भी वसति का ही योतक है। खासकर यह शब्द जैन मंदिरों के लिये प्रयुक्त देखा गया है, ऐसा इ० स० १५५० बोम्मरस विरचित चतुरास्य निघण्टु " से फलित होता है। वसहि शब्द का पुरातन उल्लेख इ० स० ११८१ के श्रवणबेलगोला के शिलालेख में मिलता है, प्राकृतभाषा के कोषों में वस या वसदि शब्द पाये जाते हैं । Ex " ३०. " ततो वर्द्धमानसूरिः सिद्धासविधिना श्रीअर्बुदशिखरतीर्थे देवत्वं गतः जिनपालोपाध्याय रचित गुर्वावली " पुरातन खरतर गच्छ पट्टावली " " ३१. पीटर्सन रिपोर्ट वॉ. 3. P. 4. प्रभावक चरित्रादि " अनेक प्रन्थों से इनका १०८८ में रहना सिद्ध हैं । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका । ॥ १६ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्य जिनेश्वरसूरि ओर बुद्धिसागररि: जैन साहित्य के रचयिता और प्रभावक आचार्यों में इन दोनों बन्धु आचार्यों का स्थान अत्यन्त उच्च व महत्वपूर्ण है । यह आपही का परमोपकार है कि-जैन मुनिगण आज वसति में दिखाइ दे रहे है । पूर्वकाल में तो जैन मुनियों को अन्य की भांति अरण्यवास करना पडता था, क्यों कि नगरों में चैत्यवासीयों का प्राबल्य था, इस का अर्थ पाठक यह न करें कि बहुत पुरातन समय से ही चैत्यैवास चला आ रहा था. पर बीच में इनका प्रभाव जैन समाज पर अधिक हो गया था । बढते बढते यहां तक बढ़ा था कि, कई नगरों में तो जैन सुविहित मुनियों को निवासार्थ स्थान तक मिलना असंभव सा हो गया, जिस समय का हाल पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है, वह समय गुजरात के लिये अत्यन्त चिन्तनीय था, क्यों कि उसकी राजधानी भारतप्रसिद्ध ३२. चैत्यवासोत्पत्ति की निश्चित तिथि बतलाने के साधन नहीं है, परंतु वज्रस्वामीजी के समय में इसका अस्तित्व पाया जाता है । पादलिप्त सूरिजी के समय में भी कुछ आभास मिलता है। धर्मसागर अपनी पट्टावली में इसका उत्पत्ति काल सूचित करते है, पर इतः पूर्व इस की प्रसिद्धि सार्वत्रिक हो चुकी थी। आचार्य महाराज श्रीहरिभद्रसूरिजीने इस पर अनेक भीषण शाब्दिक प्रहार " संबोध प्रकरण " में किये है, जो इसका महान् प्रचार सूचक है । तदनंतर आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजीने इन्हें दुर्लभराज की सभा समक्ष शास्त्रार्थ कर पराजित कर "खरतर विरुद" लिया। इनके बाद आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनपतिसूरि आदि खरतर गच्छीय विद्वानोंने ही इन लोगों के सामने महान् आंदोलन चलाया, बड़ी बड़ी सभाओं में जाकर शास्त्रार्थ किये और इनकी मान्यताओं के विरुद्ध अनेक ग्रन्थ निर्माण किये, जो आज तक उस समय की, विषम समस्या के परिचायक है। आज का यतिसमाज चैत्यवासीयों का अवशेष मात्र है । हम यहां इस विषय पर अधिक न लिख कर पाठकों से निवेदन करेंगे कि वे "जैन साहित्य और इतिहास" पू. ३४७ - नामक ग्रन्थ देखे । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir गणधरसार्द्धशतकम्। ॥१७॥ अणहिलपुर पाटन चैत्यवासीयों से अत्यन्त प्रभावित थी, यहां तक कि वे सुविहित जैन मुनियों को ठहरने स्थान तक न देते थे, दभूमिका। और न किसी से दिलवाते थे। देनेवालों को भी बहुत कष्ट देकर खाली करवाने के षडयंत्र रचे जाते थे। ऐसी विकट परिस्थिति उनके समस्त विचारों का आमूल परिवर्तन करना बड़ा कठिन था, वे तो अपने से विरुद्ध कोई बात सुनना ही न चाहते थे। उनके आगे न दलिल न वकील न कोई अपील ही थी; क्यों कि राजवर्ग का उन्हें पूर्ण आश्वासन प्राप्त था। वर्द्धमानमूरिजी मालवे में विचरते थे। आप के जिनेश्वर और बुद्धिसागरसूरि अत्यन्त प्रतिभासंपन्न विद्वान शिष्य थे। आपने | गुजरात में विचरण करने की आज्ञा मांगी, इस पर आचार्य श्री वर्द्धमानसूरिजीने तत्कालिक गुजरात प्रान्तकी विषमता इनके आगे कही। इस पर दोनों विद्वान् आचार्य और वर्द्धमानसूरि आदि मुनिवर्य पृथ्वी पर विचरण करते करते भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए गुजरात की राजधानी अणहिलपुर पाटन पधारे, पर वहां सुविहित मुनियों को ठहरने को स्थान कहां?, आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि स्वयं स्थान निरीक्षणार्थ नगर में भ्रमण करने लगे। फिरते हुए राजपुरोहित के वहां पहुंचे। वहां आपने अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रौढ प्रतिभा से उसे रंजित कर प्रभावित किया । सूरिजी-पूर्व ब्राह्मण होने से-वेदविद्याविशारद तो थे ही, पुरोहितादि विद्वानोंने अनेक प्रौढ़ विषयों के प्रश्न किये, पर सूरिजीने सभी के प्रश्नों के उत्तर बडी सावधानी व विद्वत्ता से दिये । पुरोहित कोमल शब्दों में बोलाहे पूज्य ! आप को वेद पढने का अधिकार है क्या ? शूद्रों को वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये, (स्त्री शूद्रो नाऽधीयताम् ) सूरिजीने CONOCOCCAUSAMACHAR ३३. प्रश्नोत्तरों के जानने के लिये गण. सा. वृवृत्ति का निरीक्षण आवश्यक है । ॥१७॥ BAI For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AE+%A4 %AE%E5 %AE%ES &ा कहा हम ब्राह्मण हैं, और चार वेदों का अध्ययन किया हैं। इस से पुरोहित की प्रीति और भी दृढ हो गइ । I जब चैत्यवासीयों को विदित हुआ कि, सुविहित मुनि अपनी राजधानी में आये है, और ठहरे हैं भी राजपुरोहित के वहां !। तब उनके द्वारा इन मुनियों को यहां से अतिशीघ्र प्रस्थान करवाने के प्रयत्न सोचे जाने लगे। यहां तक नौबत आ गई कि, चैत्यवासीयों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया “ आप शीघ्र नगर का परित्याग कर बाहर चले जाइये क्यों कि चैत्यबाह्य श्वेतांबरो को है यहां स्थान नही है, परंतु मुनियोंने कुछ प्रत्युत्तर न दिया । पुरोहितने ही उन्हें शान्ति से समझा वापिस लौटा दिये, तब चैत्यवासीगण महाराज दुर्लभराज चौलुक्य (राज्यकाल वि० सं० १०६६-७८) के पास जा कर अपना सार्वभौमिक इतिहास उपस्थित किया । बात यह थी कि अणहिलपुर पाटन के प्रस्थापक महाराज बनराज चावड़े का बाल्यकाल में पालनपोषण चैत्यवासी शीलगुणसूरि और देवचन्द्रसूरिने किया था। राज्याभिषेक भी उन्हीं ने किया था, इस के प्रत्युपकार के समय में और सम्प्रदाय विरोध के भय से पाटन में मात्र चैत्यवासी मुनि हीं रह सकते हैं, जैन श्वेतांबर मुनि नहीं, ऐसा लेख वनराज ने इन लोगों को लिख दिया था, यही महाराजा दूर्लभ के सामने पेश किया, और उन लोगों ने उपदेश दिया कि पूर्वपुरुषों का कथन आप को मान्य रखना चाहिये। ३४. तपसा तापसो शेयो, ब्रह्मचर्य ब्राह्मण। पापानि परिहरंव, परिबाजोऽभिधीयते गण० बृहद्वृति ॥ ३५. ऊचुश्च ते झटित्येव, गम्यतां नगराद् बहिः । अस्मिन्न लभ्यते स्थातुं, चैत्यबाह्यसितांबरैः ॥ ६४ ॥ ३६. चैत्यगच्छ यतिवात, सम्मतो वसतान्मुनिः, । नगरे मुनिभित्रि वस्तव्य तदसम्मतैः ॥ ६ ॥ प्रभावक चरित्र पृ. १६३ । SADSOCTOMORRORRECR For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir गणधर भूमिका। सार्द्ध शतकम्। महाराजा दूर्लभ बहुत चिंता में पड़े क्या करना चाहिये !, न्याय भी ऐसा होना चाहिये किसी को भी अन्याय न हो । बहुत विचार करने के बाद राजा ने निश्चित किया कि, सिवाय शास्त्रार्थ के कोई ऐसा तरिका नहीं है जिससे दोनों संतुष्ट हो सकें। अतः शास्त्रार्थ का दिन निश्चित किया गया, दोनो पक्षों के लिये शास्त्रार्थ का उपयुक्त स्थान “ पञ्चासरा पार्श्वनाथ " चुना गया, और अध्यक्ष का भार चौलुक्यवंशीय महाराज दुर्लभ ने स्वयं ग्रहण किया। शास्त्रार्थ के दिन चैत्यवासीयों की ओर से सूरौंचार्य प्रभृति विद्वान आये और सुविहित मुनियों की ओर से वर्द्धमानसूरिजी अपने दोनो विद्वान शिष्यों सहित सभामें पधारे। महाराजा दुर्लभ मी अपनी विद्वत् परिषद् युक्त पधार कर अध्यक्षासन ग्रहण किया। शास्त्रार्थ का मुख्य विषय था जैन मुनियों का आचार कैसा होना चाहिये ? (इस के अंतर्गत कई प्रश्न हुए) श्री जिनेश्वरसूरिजी ने प्रतिपादन किया कि, हमारे लिये तो पूर्व गणधर प्रदर्शित मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है, एतद्विषय निर्णयार्थ राज ज्ञानभंडार से मुनिमार्गप्रदर्शक दशवैकालिक सूत्र मंगवा कर सिद्ध कर दिया कि, वर्तमान में जैसा चैत्यवासियों का आचरण है, वह वास्तविक रीत्या जैन मुनियों के आचार से अत्यन्त पतित है । राजाने सुन कहा तमे खरा को-आप सच्चे है ऐसा कह कर महाराजा दुर्लभ ने चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त कर वसति मार्ग सिद्ध करने पर श्री जिनेश्वरमूरिजी को खरतर विरुद अर्पित किया उनकी संतति खरतर गच्छ के नाम से ३७. सुराचार्य भी कम विद्वान न थे । आपने विद्वत्ता के बल पर भोज की सभा को पराजित किया था । शब्द और प्रमाण शास्त्र के आप अद्वितीय विद्वान थे । वि० सं० १०९० में आपने ऋषभदेव नेमिनाथ दो तीर्थकरों के चमत्कारिक द्विसंधान काव्य अपद्यगद्यात्मक निर्माण किया । ॥१८॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir %CROCHAC%AC% प्रसिद्ध हुई । प्रभावक चरित्र में शास्त्रार्थ विषयक उल्लेख को न देख कर, कई सम्प्रदायवादीओं ने फैसला दे दिया कि जिनेश्वररिजी और चैत्यवासियों का सभा में शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं, प्रत्युत महाराजा दुर्लभ ने ही उनके गुणों पर मुग्ध हो कर निवास की आज्ञा दे दी, यह कथन सर्वथा प्रान्त है, क्यों कि सुमतिगणि ने बृहवृत्ति में साफ साफ शास्त्रार्थ का विवरणात्मक उल्लेख कर दिया है। १० जना आई। वह है भी सं० १२९५ का, और प्रभावक चरित्र सं. १३३९ का बना हुआ है। यद्यपि बहु संख्यक ऐतिहासिक विद्वान जैसे कि आचार्य म, श्री सागरानंदसूरिजी, मुनि फैल्याणविजयजी, आदि कों का 11 मन्तव्य है कि चौदहवीं शताब्दि के पूर्व खरतर शब्द का उल्लेख शिलालेख और ग्रन्थों में देखने में नहीं आता, उनके कथन में जरा भी सत्यता नहीं है । इतने बडे भारी विद्वान हो कर बिना खोज किये ही, किसी भी विषय पर अंतिम निर्णय देना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है, खरतर शब्द बारहवीं शताब्दी के कतिपय ग्रन्थों में उपलब्ध होता है पर गच्छव्यामोह से न दिखता हो तो हम कुछ नहीं कह सकते। खरतर शब्द पुरातन साहित्य में बहुत जगह पर व्यवहृत पाया गया है, जिनमे से कुछ का उल्लेख पाठकों के सम्मुख उपस्थित करने का लोभ संवरण नहीं कर सकते। ४१ बालुचरना कृत्रिम लेखने बाद करतां कोई प्रतिमाजी आदिना लेखमा १२०४ पहेला तो शुं ! पण १४ मी सीमा खरतर विरुदनी बात होय तो लखवी. सिद्धचक ०४, अं २१, पृ. ४८९ ४२ " उसी टौका में (गणधरसार्द्धशतक) सुमतिगणिने श्री जिनदत्तरि का भी सविस्तार चरित्र दिया है पर कही भी “ खरतर गच्छ" अथवा “खरतर" शब्द का सूचन नहीं मिलता । इन बातों से हमने जो कुछ सोचा और समझा उसका सार यही है कि चौदहवी सदी के पहिले के शिलालेखों और प्रन्थों में "गच्छ" शब्द के पूर्व में "खरतर" शब्द का प्रयोग नहीं हुआ।" श्री जनसत्यप्रकाश व. ५०, अं..,पृ. २६८ FACHECCALCAGACHAR For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandie * मणधर सार्द्ध शतकम्। ॥१९॥ * * ** श्री जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर श्री जिनचंदसूरि शिष्य प्रसन्नचंद्रसूरि शिष्य सुमतिवाचक के शिष्य मुनि गुणचंद्र ने अपने विभूमिका। सं. ११३९ निर्मित प्राकृत महावीर चरित्र में, निम्नोक्त उल्लेख किया है जिसके खरयर-खरतर-शब्द स्पष्ट रूप से किया है। चोहित्थोग्य सिरिसूर जिणेसरो पैढमो। गुरुसाराओ धवलाओ खरयर साहू संतह जाया । आचार्य देवभद्रसूरिजी ने भी अपने पार्श्वनाथ चरित्र में (रचना काल सं. ११६८) खरतर शब्द का उल्लेख किया है। आयरिय जिणेसर बुद्धिसागर खरयरा गाया बि. सं. ११७० लिखित यल्ह कवि विरचित गुर्वावली में निम्नोल्लेख स्पष्ट है: देवमूरि पहु नेमिचन्दु बहु गुणिहि पसिद्धउ । उज्जोयणुं तह बद्धमाणु खरतर वर लउ॥ उपरोक्त प्रबट्टावली में खरतर शब्द श्री वर्द्धमानसूरिजी के प्रसंग में आया है, इस से कोई खास बात में अंतर नहीं पडता, क्योंकि शास्त्रार्थ में वे भी थे। आचार्य भगवान श्रीमान् महाराजश्री जिनदत्तसूरिजी ने भी अपनी कृत्ति में खरतर शब्द का उल्लेख किया है। "तुम्हह इहुयहु चाहिली दसिउ, हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ" इस पर बडौदा सरकार के मान्य पंडित लालचंदभाईने अपना * नोट लिखकर विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है। उपरोक्त उदाहरण मूल ग्रन्थों के है, पर टीकाओं भी खरतर बिरुद प्राप्ति के साफ उल्लेख मिलते हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बडे महत्व के हैं, लोगों का ख्याल रहा है कि गणधरसार्द्धशतक की वृहद्वृति में खरतर ४३ पीटर्सन रिपोर्ट ३, १८८४-८६ पृ. ३.५ । ४४ जैसलमेर ज्ञानभंडार ताडपत्रीय प्रन्यांक २९६ । ४५ अपभ्रंश काव्यत्रयी G.0.S. No.XXXVII पृ. ११० । ४६ अपभ्रंश काव्यत्रयी GOSNo.XXXVII पृ. ७६ __४७ " उपर्युकामेव गाथायां " बहुत्तु खरऊ" पदं प्रयुज्य ग्रन्थ कत्रो निजाभिमतस्य विधिपथस्य " खरतर " इति गच्छ संज्ञा ध्वनिता वितळते विधि पथस्यैव तस्य कालक्रमेण प्रचलिता “ खरतर गच्छ " " इत्याभिधाऽद्यावधि विद्यते " खरतर गच्छ" " इत्याभिधाऽयावधि विद्यते" उक्त पुस्तकस्य भूमिका पृ. ११६ ॥१९॥ RASAINABCASHASAAS * * * For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बिरुद का कोई उल्लेख नहीं है, परंतु अभी हमने इस प्रति का पूर्ण रुप से अध्ययन किया, तब विदित हुआ कि, इस कृति में खरतर शब्द दो बार आया है, एक ग्रन्थादि भाग में और दूसरा बिरुद वाची, ये उल्लेख इस प्रकार है- “तत्र प्रवचनप्रभावनापासादोत्तुंगशिखरखरतर मरुत्तरंगरंग चारु चामीकरोहद दंडनिर्धौ पूतप्रबलकलकलाविद्राणरणत्किङ्किणी काण पट पटायमान धवलध्वजपटायमानः " । बिरुदवाचीः–“ कि बहुनेत्थं वादं कृत्वा विपक्षान्निर्वित्य राजामात्यश्रेष्ठिसार्थवाहप्रभृतिपुरप्रधानपुरुषैः सह भट्ट घट्टेषु वसतिमार्ग | प्रकाशन यशः पताकाय मान काव्यबन्धान् दूर्जनजनकर्णशूलान् साटोयं पठत्सुसत्सु प्रतिष्ठावसतौ प्राप्त खरतरविरुदा भगवन्तः श्रीजि - नेश्वरसूरयः एवं गूर्जरत्रा देशे श्रीजिनेश्वरसूरिणा प्रथमं चक्रे वक्त मूर्द्धसु पादमारोप्य वसति स्थापनेति " " वृहत् वृत्ति " उपरोक्त सभी खरतर बिरुद प्राप्ति विषयक पुरातन उद्धरण दिये हुए है, और भी अनेक ऐसे महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो इस पर नूतन प्रकाश डालते हैं, इन उल्लेखों को देखकर पाठक विचारेंगे किं चौदहवीं शती पूर्व कोई उल्लेख नहीं मिलता जिसके गच्छ के पूर्व खरतर शब्द हो" कथन कहां तक युक्तिसंगत है ?, इसकी पुष्टि में और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं । खरतर बिरुद प्राप्ति से श्रीजिनेश्वरसूरिजी की यशःपताका सारे देशमें फहराने लगी, आजतक कोई ऐसा विद्वान् नहीं हुआ जिसने चैत्यवासियों के सामने शास्त्रार्थ कर अपना मत प्रतिपादन कर उन्हें परास्त किये हों, क्यों कि वे लोग भी कम विद्वान न थे, पर चारित्रिक सम्पत्ति से वे सर्वथा विमुख थे। जिनेश्वरसूरिजीने हरिभद्रजीके- अष्टक पर वृत्ति - ( वि० सं० १०८०) पञ्चलिंगी प्रकरण - वीर चरित्र-निर्वाण लीलावंती कथा(सं० १०९५)-कथा कोश - ( आशापल्ली सं० २०८२ - ९५ बीच ) - प्रमाणलक्षण सवृत्ति-पट् स्थानक आदि अनेक ग्रन्थ निर्माण कर बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है, आपका मुनि समाज पर जो उपकार है उसे हम कदापि नहीं भूल सकते। आपका शिष्यपरिवार For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका। गणधरसार्द्धशतकम्। ॥२०॥ SORREARCH विस्तृत और विद्वान् था, जिनचंद्रसूरि, अभयदेवसूरि, श्रीधनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचंद्रसूरि, धर्मदेवोपाध्याय, सहदेव गणि आदि, इनमें से कई तो उत्तम श्रेणिके ग्रन्थ रचयिता थे। सुरसुंदरी कहा धनेश्वरसूरि रचित उत्तम कोटि की कथा है, जो बोम्बे युनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है, प्रस्तुतः ग्रन्थ, इस ग्रन्थ के रचयिता जिनभद्ररचित सूचित करते हैं। बुद्धिसागरसूरिजी भी कम विद्वान् न थे। आपने वि० सं०१०८० में स्वाभिधान बुद्धिसागर अपरनाम पश्चग्रन्थी व्याकरण गद्य पद्यात्मक १००० श्लोक में निर्माण किया, आप ही जैनों के आद्य व्याकरणकार माने जाते हैं, वृहद्वृति से मालूम होता है कि जिनेश्वरसूरिजी का अवसान पाटन में ही हुआ था । जिनभद्रः-इनका परिचय मात्र इतना ही प्राप्त है कि वे जिनेश्वरसूरिके शिष्य थे। श्री अभयदेवसूरि:-आपका जन्म धारानगरी में वि० सं०१०७२ में हुआ था। भारत में उस समय शिक्षा और कला की अपेक्षा से धारा का स्थान बहूत ऊंचा था, आपने अल्प वय में दीक्षा ग्रहण कर सर्व शास्त्रों के अध्ययन में उत्तीर्ण हो कर १६ वर्ष की अल्प वय में आचार्य पद प्राप्त किया था । किसी कारण आपको कुष्ट रोग हो गया, निवारणार्थ स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा वि०१११९ में प्रकट कर उसे दूर किया, नवांग पर नूतन वृत्तियें निर्माण की। प्रभावक चरित्रकार का सूचन है कि शीलांकाचार्यने पूर्व वृत्तिये निर्माण की थीं, पर अभयदेवसूरिजी स्वयं अपनी टीका में इसका विरोध करते हैं। आपने बहुत टीकाएं पाटन में रह कर बनाई थीं, और चैत्यवासी द्रोणाचार्यने संशोधनादि कार्य में पूर्ण सहायता प्रदान की थी। समवायांग वृत्ति (११२० । स्थानांग (११२०), उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्रों पर विद्वत्तापूर्ण वृत्तिये निर्माण कर जैनागमाभ्यास सुकर किया, षट् स्थानक पर भाष्य, हारिभद्रीय पश्चाशक पर वृत्ति, आराधना कुलक, महावीर स्तोत्र, जयतिहूअण स्तोत्र, नव तत्त्व, भाष्यादि आपके उत्कृष्ट विद्वत्ता RECAKACCORMER For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूचक ग्रन्थ है । आपका स्वर्गवास वि० सं० ११३५-३७ में गुजरात कपडवंज नगर में हुआ। आज भी वहां आपके चरण विराजमान हैं । अशोकचंद्र, धर्मदेव, हरिसिंह, सर्वदेव इन सभी का परिचय श्री जिनदत्तसूरिजी के प्रसंग में स्वयं आ जाता हैं । देवभद्राचार्यः - आपका जन्म किस ज्ञाति में ? कब ? कहां हुआ ? आदि ऐतिहासिक परिचय सर्वथा अनुपलब्ध है, मात्र इतना ही विदित है कि, आप श्री सुमतिवाचक के शिष्य थे, और आचार्य पद पूर्व का नाम गुणचंद्र था, (महावीरचरित्र में यही नाम आता है) आप बारहवीं सदी के विद्वान् आचार्य थे, आपकी दार्शनिक प्रतिभा आपके ग्रन्थों से स्पष्ट झलकती है, आपने कई ग्रन्थों की रचना की, तथा अन्य विनिर्मित ग्रन्थों का संशोधन किया, आपकी साहित्यिक सम्पत्ति इस प्रकार है, महावीरचरित्र. पार्श्वनाथचरित्र, कथारत्न कोश, प्रमाणप्रकाश, अनन्तनाथ स्तोत्र, स्तंभनक पार्श्वनाथ स्तोत्र, वीतराग स्तवः । प्राकृत भाषा पर आपका अपूर्व प्रभुत्व था, आपकी कविता में रसमाधुर्यता है, जो अन्यत्र शायद ही मिले, धारावाहिता तो आपका प्रमुख गुण है, आप न मात्र उच्चश्रेणिके साहित्यकार ही थे पर साथ ही कुशल गच्छ सञ्चालक भी थे। यहां पर प्रश्न उपस्थित यह होता है कि वे किस गच्छके थे ? यद्यपि उन्हों ने आत्म ग्रन्थों में स्पष्ट रूपेण किसी गच्छ के होने के उल्लेख नहीं किये, पर परंपरा को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि आप खरतरगच्छ के थे, अशोकचंद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरिजी को आपने ही आचार्य पद से सुशोभित किये थे, ऐसा खरतरगच्छ पट्टावली और गण० बृहत् वृत्ति से जाना जाता। यहां पर स्मरण रखना चाहिये कि अन्य किसी गच्छ के आचार्यों से इनका सम्बंध नही मिलता । जैसलमेर स्थित पार्श्वनाथ चरित्र में “ खरयर " शब्दोल्लेख होने का सुना जाता है, परंतु मुनिश्री पुण्यविजयजी कथारत्न कोश की प्रस्तावना ( पृ०९) में लिखते हैं कि यह शब्द बादमें किसीने सम्मिलित किया है, जिसका कारण आपने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir गणधर- सार्द्धशतकम्। ॥२१॥ GRESCk CAMERACK गच्छ व्यामोह बतलाया है। हम यहां पर आदरणीय मुनिजी से इतना ही कहना उचित समझते हैं कि, उपरोक्त शब्द आपने स्वयं देखे भूमिका। या किसी के कथन से आपने लिखा है। यदि सत्य में शब्द परिवर्तित किया होता तो मुनिजी को पूरे पत्र का फोटू देना था जिसकी लिपि पर से भी अनुमान लगाया जा सकता कि मूलकी लिपिमें और प्रक्षिप्त शब्द की लिपि कितना परिवर्तन है। हम नहीं समझ सकते कि ऐसा क्यों किया होगा, देवभद्रसूरि किसी और गच्छ के होते तब तो ऐसा करना भी ठीक था, पर वे तो खरतर गच्छ के ही थे, जैसा कि उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है। यहां खरयर शब्द जोडने की बात ही उपस्थित नहीं होती। मुनिजी और भी आगे सूचित करते हैं कि "जैसलमेरमां एवी घणी प्राचीन प्रतियों छे, जेमांनी प्रशस्ति अने पुष्पिकाओना पाठोने गच्छ व्यामोहने आधीन थई बगाडीने ते ते ठेकाणे “ खरतर" शब्द लखी नांखवामां आव्यो छे, जे घणुंज अनुचित कार्य छे" हम यहां मान्यवर मुनिजी से यही कहेंगे कि वे जिन ग्रन्थों में शब्द परिवर्तित किये गये हैं। उनकी सचित्र प्रतिकृति उपस्थित करें या सूचि पेश करें, हम आपके बहूत आभारी होंगे। देवभद्रसूरिजी के समय में लेखन कार्य में काष्ठका भी प्रयोग होता था, आप के " पार्श्वनाथ महावीर चरित्रादि" ग्रन्थ काष्ठ पर खुदवा कर श्री जिनदत्तसूरिजी को अर्पित किये थे । पुरातन भारतीय साहित्य में ऐसे बहुत से उल्लेख मिलते है, जिन से विदित होता है कि, प्राचीन समय लेखन कार्य में काष्ठ का प्रयोग होता था, "ललित विस्तर" (अ०१० पृ.१८१-८५ इंग्लीश आवृत्ति) “कटाहक" जातक इसके प्रमाण स्वरूप है, स्वयं गौतम बुद्धने अक्षरारंभ करते समय चंदन के काष्ठका उपयोग किया था, १० मी शताब्दी में गुजरात प्रान्त में भी काष्ठको विशेष उच्चत्व प्राप्त था, सोमनाथ का सुप्रसिद्ध मंदिर पूर्व काष्ठ का ही बना था, पर परमार्हत् कुमारपालने जीर्णोद्धार कर पाषाण का बनवाया, जैसलमेर में २ काष्ठपट्टिकाएं ऐसी है जिन पर जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरिजी के सुंदर IP॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandie COCCASCORRORESAR चित्र बने हुए है और भी कई काष्ठ पट्टिकाएं प्राप्त है जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। ब्रम्ह देशमें आज भी इसका विशेष प्रचार पाया जाता है। बोडलियन पुस्तक संग्रह में बहुसंख्यक ग्रन्थ काष्ठ पर सुंदर लिखित व चित्रित है। मेरे संग्रह में भी कुछ काष्ठचित्रितावस्था में है, बहूत जैन मंदिरो में भी काष्ठ पर सुंदर शिल्प के दृश्य देखने को मिलते है, इन सभी उदाहरणों से निष्कर्ष यही निकलता है कि पुरातन भारतीय लेखन एवं शिल्पादि कार्य में काष्ठका प्रयोग भी बडी सफलता के साथ करते थे, पर जैन ग्रन्थ काष्ठ पर खुदवाने का यह प्रथम ही उल्लेख हमारे दृष्टिगोचर हुआ। अमरावती (बरार) में १ खरतर गच्छीय उपाश्रय में वि० सं० १९२१ का १ काष्ठोत्कीर्ण लेख मिला है, चित्र हमारे संग्रह में है । वि० देखें "भारत में लेखन एवं शिल्पकला में काष्ठका उपयोग" नामक निबंध । श्री जिनवल्लभसूरिः-१२ वीं सदी के विद्वान् क्रियापात्र जैनाचार्यों में आपका स्थान अत्युच्च है। उस समय आपही ने जैन धर्म को खतरे से बचाया । आप सरीके पक्के सत्याग्रही उस समय न होते तो आज भी चैत्यवास उसी रूप में दिखता जैसा पूर्व था। आपने उनके सामने भयंकर आंदोलन चलाया था, और सत्य के ही बल पर आपकी विजय हुई, एतद्विषयक आपने एकाधिक खंडनात्मक ग्रन्थ निर्मित किये। आप आसिका दुर्ग निवासी कर्चपुरीय जिनेश्वरीचार्य के शिक्षणालय में पढ़ते थे । जनक नहीं थे, जननी अकिंचन थीं, ५०० दम्म दे कर इन्हें दीक्षित किये । आपकी मेधा अत्यन्त सूक्ष्म थीं । एकदा आपने पुस्तक में पढ़ा मुनियों को ४२ दोष रहित आहार करना ४८. आचार्य सागरानंदसूरिजीने ये जिनेश्वराचार्य और वसति मार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसूरि को एक ही मानकर यह प्रश्न किया है “सं० ११३०३४ में अभयदेवसूरिजी महाराज स्वर्गवासी हुए...(और)...११६८ में जिनवालभ कूर्चपुरीय जिनेश्वर को अपने गुरु बताते हैं यह विचारणीय है" जिनेश्वरसरि चल्यवासी थे जिनके मठ में पूर्व इन्होंने अध्ययन किया था, इस अवस्था के गुरु को अपेक्षा से उनका लिखा है । बर्द्धमान के पाट पर तो श्री जिनेश्वरसूरिजी थे ही, बात बिल्कुल साफ है, न जाने सागरजी महाराज को क्यों कर शंका हो गई। ALGAOSAMACASSESARK For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्धशतकम् । ॥ २२ ॥ www.kobatirth.org चाहिये, इसी समय आप जैन सिद्धान्त वाचना ग्रहणार्थ अभयदेवसूरिजीके पास पाटन आये, बड़े प्रेमसे वांचना दी। आप भी पर्याप्त प्रभावित हुए, और चैत्यवास विषतुल्य भाषित होने लगा । आपने अभयदेवसूरि के पास विधिमार्ग अंगीकार किया, दीक्षा ली, आपको जैनादि षट् दर्शनों का ज्ञान था ही पर ज्योतिष में भी आपकी विशेष प्रगति थी। ऐसा आपके एक ज्योतिषज्ञ के साथ विवाद से विदित होता है। आपने चित्तोड़ में चंडिका देवी को प्रतिबोध दिया, वहां विधि चैत्य की स्थापना कर अपना संघपट्टक महावीर चैत्यालय में खुदवाया । यहां आपको चैत्यवासीयों ने अत्यन्त कष्ट दिया । ५८० लठैतों मारने के लिये आये थे. पर जहां सत्य का सूर्य चमकता है वहां पर मिथ्यावादी - उल्लू कहां ठहर सकते हैं ? । आपने अपनी समस्या पूर्ति के बलसे धाराधीश नरवर्म्म को प्रसन्न कर चित्तौड़ के जिन मंदिर के लिये दो लक्ष मंडपीका दान दिलवाईं । वागड़ देश में १०००० मनुष्यों को जैनी बनाये, आपने मरोट में उपदेशमाला की १ गाथा पर छ मास विवेचन किया पर फिर भी पूर्ण न हुआ, इसीसे प्रकांड विद्वत्ता और महोच्च वाग्मिता का सूचन होता है। नागोर में आपका विशेष प्रभाव था। आपका भक्त श्रावक पद्मानंद भी विद्वान् ग्रन्थकार था, सं० ११६७ कार्तिक वदि १२ को आपका देहावसान चित्तौड़ में ही हुआ । आचार्यवर्य जैसे क्रियापात्र थे, वैसे ही उत्तम विद्वान् थे। सूक्ष्मार्थ विचारसार - पड्शीति- कर्मग्रन्थ-संघपट्टक- पौषधविधि प्रकरण-धर्मशिक्षा-द्वादश कुलक- प्रश्नोत्तरशतक - प्रतिक्रमण सामाचारी- अष्टसप्ततिका शृंगारशतक-स्वप्नाष्टक विचार-धर्मशिक्षा- पिंड विशुद्धि प्रकरण भिन्न २ प्रकार के चित्र काव्यादि स्तोत्र निर्माण कर आपने अपनी प्रकांड विद्वत्ता ज्ञापित की है। आपकी रचनाएँ बड़ी मृदु कर्णमधुर है, संस्कृत ४९. प्रस्तुतः कृति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अनेक विद्वानो ने इस पर कई वृत्तियें निर्माण कर इसे गौरवान्वित किया, सर्वप्राय बनाया। विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दि में शुभविजय संग्रहीत " प्रश्नोत्तररत्नाकर " पृ. ४ में सोमविजयगणिने शंका उठाई है कि " पिण्डविशुद्धिनिर्माता जिनवल्लभगणिखरतर थे या अन्य ? उत्तर दिया गया ये खरतर गच्छके संभावित नहीं होते, " यह उत्तर कितना असत्यता से परिपूर्ण है और देनेवाले भी मृषावाद के For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका । ॥ २२ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % %A5 RECORRECACC -156154543+%E ki साहित्य में प्रत्युक्त छंदों में आपने पाकृत भाषा के उत्तम पद्यों की रचना की है। आप जैसे उत्कृष्ट प्राकृत कवि अत्यल्प हुए हैं। आपके ग्रन्थ इतने गहन विषय के है. जिन पर मलयगिरि और जिनपतिसूरि जैसे प्रौढ़ विद्वानों ने वृत्तिये निर्माण कर, सरल बनायें हैं। प्रस्तुतः ग्रन्थ में आपका वर्णन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उक्तियों अलंकारों से किया गया है और आप थे भी उस वर्णन के सर्वथा योग्य ।। । मूल ग्रन्थकार परिचय:-आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी का जन्म वि० सं० ११३२ गुर्जर प्रान्तान्तर्गत धन्धका नगर में मंत्री श्री बाच्छिग की धर्मपत्नी वाहडदेव की रत्नकुक्षी से हुआ था। बाल्यकाल में इनके लक्षण बड़े ऊंचे थे, श्री जिनेश्वरसूरि शिष्य धर्मदेवोपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी साध्वीयें चातुर्मास रहीं। इनके लक्षण पूज्य उपाध्यायजी को सूचित किये, उपाध्यायजी ने क्रमशः पधार मातापिता को समझाकर सं०११४२ में इन्हें दीक्षित कर सोमचंद नाम रखा और अपने बड़े बंधु सर्वदेव गणि को परिपालनार्थ, MI अध्ययनार्थ अर्पित किया। आपने अत्यन्त बाल्यावस्था में न्याय, काव्य, साहित्य, दर्शन, अलंकार, ज्योतिष स्वपर मत का पूर्ण अध्ययन कर हरिसिंहाचार्य पास जैनागम सिद्धान्त की वाचना ग्रहण की, आपने प्रसन्नता से इनको मंत्र पुस्तिका अर्पित की। देवभद्राचार्य आप पर बहुत प्रसन्न रहा करते थे, उन्होंने अपने पार्श्वनाथ चरित्र महावीर चरित्रादि १ काष्ठोत्कीर्ण कथा ग्रन्थ अर्पण किये, ये अभी त्यागी, फिर भी असत्यता का प्रतिपादन क्यों किया गया? मैं नहीं कह सकता इसमें क्या रहस्य है ! पुरातन और आधुनिक ग्रन्थकार एक स्वरसे कहते है कि जिनवल्लभगणि खरतरगच्छीय ही थे, उस समय दूसरे गणि होने का उल्लेख कहीं पुरातनादि साहित्य में देखनेको नहीं मिला, फिर भी सत्खता में व्यर्थ शंका करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है । समकालिन एक ही नाम के दो महापुरुष हुए हो तब तो ठीक था, यहां पर शंकाकार की सांप्रदायिक मनोवृति व्यक्त होती है, उत्तर दाता भी साफ साफ निर्णयात्मक जबाब न दे कर और प्रश्नको संदिग्ध बनाते है वे तो स्वयं संदिग्ध मालूम होते है, उनसे उत्तर की आशा ही क्या कि जा सकती है, यह शंकाकार धर्मसागरीय सम्प्रदाय के प्रभावसे प्रभावित हो तो कोई विस्मयकी बात नहीं । बडौदाके पंडित लालचंदभाई ने इस विषय निम्न नोट लिख उदारताका परिचय दिया है । “कित्वेतत् सुदीर्घदृष्ट्या चिंततेन न समीचीनं प्रतिभाति"। ORDCASH For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका। सार्द्ध गणधर-पदा कहां है पता नहीं, इनका उल्लेख भी कहीं नहीं मिलता सिवाय वृहदवृत्ति के। उपर आप देख चुके हैं कि जिनवल्लभसूरिजी के स्वर्गवास से जैन संघको भारी क्षति पहुंची, उनके पद को सुशोभित कर सके और उनकी क्षतिका अनुभव न हो, ऐसे योग्य पुरुष की प्रतीक्षा शतकम्।। की जाने लगी। देवभद्राचार्य को आप इस उत्तरदायित्व पूर्ण पद योग्य मालूम हुए और वि० सं०११६८ वैशाख वदि ६ को चित्तौड़ नगरी में विधि चैत्य महावीरस्वामी के मंदिर में श्री संघ के सम्मुख आपको आचार्य पद से विभूषित कर जिनदत्तसूरि नाम बोधित किये। ॥२३॥ आपने अजयमेरु-अजमेर के अर्णोराज को त्रिभुवनगिरि के कुमारपालादि ४ राजाओं को प्रतिबोध दिया और उक्त नगरों में एकाधिक प्रतिष्ठाएं करवाई। बागड़ देश में आपने व्याघ्रपुरीय चैत्यवासी जयदेवाचार्य को प्रतिबोध दे सुविहित मार्ग अंगीकार कराया। जिनरक्षित, शीलभद्र, स्थिरचंदादि आपके शिष्य एवं श्रीमती जिनमतिपूर्ण श्री प्रमुख शिष्याएं थीं, इनको भी आपने वाचनाचार्य महत्तरादि पदों से विभूषित किये । आप बड़े चमत्कारी युगपुरुष थे, ६४ योगिनी बावन वीरादि देव देवीयें आज्ञा में थे । यह सर्व आपके उत्कृष्ट चरित्र का ही सुप्रभाव था । आज भी आपका भक्त शायद ही कष्ट में हो। आपने अपने जीवन में सबसे बड़ा अत्यन्त प्रशंसनीय यह कार्य किया कि १३००००० एक लक्ष तीस सहस्त्र राजपूतों को जैन धर्मानुयायी बना जैन धर्म व ओसवाल जाति में अभूतपूर्व वृद्धि की। जैन समाज में आज तक कोई आचार्य ऐसे नहीं हुए जिनने एक साथ इतनी महान वृद्धि की हो। कहा जाता है कि रत्नप्रभसूरिजीने वीर निर्वाण ७० में ओसिया में ओसवाल जाति की स्थापना की, पर इसकी पुष्टि के लिये ऐतिहासिक ग्रन्थस्थ या शिलालेख एक भीप्रमाण नहीं है, मात्र किन्वदन्त्यात्मक पट्टावलीयों के आधारपर ही मुनि श्री ज्ञानसुंदरजीने इसघटना को इतना भारी महत्व देखा है जैसे की कोई बड़ी ऐतिहासिक घटना हो, यद्यपि आजतक कई लोग इसी बात को सत्य मानते आ रहे थे, परंतु अनेक दृष्टियों से विचारने से इसकी +SECSACACASSAGAR SARKARSA OCTOR ॥२३॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4% A A सत्यता में भारी संदेह हो जाता है । बाबू पूर्णचंदजी नाहार जैसे पुरातत्वान्वेषी इससे सहमत नहीं, (देखें प्रबंधावली पृ० १३३) आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजीने औसवाल समाज पर सर्वप्रथम जो उपकार किया उसे कौन स्वाभिमानी ओसवाल जैन भूल सकता है। आचार्य महाराज आगामी संतान के लिये अपनी महान् साहित्यिक सम्पत्ति छोड़ गये हैं, जो इस प्रकार है । गणधरसाई शतक-आपके करकमलों में विराजित है, संदेहदोलावली-योगिनीस्तोत्र-गणधरसप्तति-उत्सूत्रपदोद्धाटन कुलक-सर्वाधिष्ठाई स्तोत्र चैत्यवंदन कुलक-अवस्थाकुलक-गुरुपारतंत्र्य-विघ्नविनाशी स्तोत्र-विंशीका-श्रुतस्तब-अध्यात्म गीतानि-वीर स्तुति-अजितशांति | स्तोत्र-पार्श्वनाथ मंत्रगर्भित स्तोत्र-चक्रेश्वरी स्तोत्र-उपदेश धर्म रसायन-कालस्वरूप चर्चरी-पद स्थापना विधि-आदि आदि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशादि भाषा में अनेक ग्रन्थरत्न निर्माण कर भारतीय साहित्य में स्तुत्य वृद्धि की है। अपभ्रंश-जो किसी समय भारत की राजभाषा थी इस-भाषा पर आपका बहूत प्रभुत्व था । विद्वान् लोग आपकी साहित्यक सम्पत्ति पर मुग्ध हैं, आपकी वर्णन व ग्रन्थरचना शैली उच्च कोटि की विद्वत्ता परिचायक थी। संवत् ११६२ में वीरचंद्रसूरि शिष्य देवसूरिने प्राकृत गाथा में जीवानुशासन स्वोपज्ञात्मक निर्माण किया और श्री जिनदत्तसूरिजीने संशोधन कर निर्दोष किया, इसमें आचार्यवयं का " सप्तगृह-निवासी " विशेषण आकर्षक और सर्वथा सार्थक है, इसीसे आपके विस्तृत परिवार का पता लगता है। (पी० प, २२) आपके बहुत से ग्रन्थ अप्रकाशित दशा में पडे है, यदि समय अनुकूल रहा तो आपके समस्त ग्रन्थों का समीक्षात्मक परिचय पाठकों के करकमलों में समर्पित किया जायगा। ___उपरोक्त विवचन में भगवान् महावीर से लगा कर आचार्य श्रीजिनदत्तरिजी तक के प्रसिद्ध २ महापुरुषों का संक्षिप्त ऐतिहसिक परिचय आ जाता है, जिससे विदित होता है कि जैन धर्म की रक्षा में उन आचार्योंने महान् सहायता की, लोकोपकारार्थ अनेक विषयक साहित्य %A5 For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir गणधर भूमिका। सार्द्ध शतकम्। ॥२४॥ निर्माण कर भारतीयों को गौरवान्वित किया, उनका जीवन हमें नूतन स्फूर्ति प्रदान करता है, और आत्मकर्तव्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है, ऐसा कौन स्वाभिमानी भारतीय होगा जो उनके उपकारों को याद कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित न करेगा। यहां पर हम इस बात पर जोर देंगें कि भगवान के बाद शासन उन्नायकों में त्यागी ही थे, और आज का समय भी त्यागीयों का ही है. त्यागीयों के पद को त्यागी ही सुशोभित कर सकते है। आभार:-यहां पर हम सर्व प्रथम पंडितवर्य उपाध्याय मुनिराज श्रीमणिसागरजी महाराज-(अब आचार्य)का अत्यन्त आभार मानते हैं, कि जिनकी उदार कृपासे प्रस्तुतः लघुवृत्ति की प्राप्ति हुई। हम आशा करता हैं कि भविष्य में भी आप साहित्यिक सहायता द्वारा हमें उपकृत करेंगे, उपर बतलाया जा चुका है कि, प्रस्तुत वृत्ति की १ ही प्रति० उपलब्ध हुई थीं, अतः उसी पर से संशोधित होकर प्रकाश में आ रही है। इसके संशोधन कार्य में मेरे पूजनीय गुरुवर्य १००८ श्रीश्रीश्री उपाध्याय मुनिश्री सुखसागरजी महाराजने बहूत परिश्रम किया है । कहना चाहिये उन्हीं के प्रयत्न से यह ग्रन्थ प्रकट हो रहा है, इसके के संशोधन समय कई शंकायें उपस्थित हुई, पर उन सभी को बृहद्वृत्ति के सहारे ठीक करने का प्रयास किया गया है, तथापि छद्मस्थावस्था में इसमें कोई प्रकार की स्खलना रह गई हो तोपाठकगण उसे सुधार कर पढ़ें। द्रव्य सहायक:-बैतुल निवासी श्रीमान् कस्तुरचंदजी डागाकी धर्मपत्नी | अ० सौ० श्राविका लक्ष्मीबाई एवं जबलपुरनिवासी स्वर्गस्थ यति श्री मोतीलालजी फंड के व्यवस्थापक श्रीमान् चांदमलजी बुधमलजी बोथरा ने उक्त फंड में से प्रस्तुतः प्रकाशन के लिये जो सहायता की है वे तदर्थ धन्यवाद के पात्र है। क्षमायाचना:-सर्व प्रथम हम उन ग्रन्थ रचयिता और प्रकाशकों को धन्यवाद देना अपना परम कर्तव्य समझते हैं जिन से हमने प्रस्तुतः भूमिका लिखने में बहुत सहायता ली है। उपरोक्त भूमिकामें कोई प्रकार की यदि स्खलना रह गई हों तो पाठक सूचित करेंगे ऐसी आशा है। महासमुंद C. P. ता. २२-७-४४. -मुनि कांतिसागर CIRCARROCARSA P॥२४॥ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अहम् ॥ श्रीनवाङ्गीवृत्तिकाराभयदेवसूरिशिष्यमहाकविश्रीमज्जिनवल्लभसूरिशिष्यश्रीमजिनदत्तसूरिविरचितम् । गणधरसार्द्धशतकम् । %A4 % AAAAAAE श्रीपद्ममन्दिरगणिकृतलघुवृत्तिसमलङ्कतम् । ।नमः प्रवचनप्रणेतृभ्यः । श्रीजिनदत्तमूरि रिभव्य-नव्य-नव्यतर-श्रद्धालुतावितानतानवोच्छेददक्षनिर्विपक्षविवेकविमलजलासेकप्रख्यं गणधरसार्द्धशताभिख्यं प्रकरणं चिकीर्षुरादित एवं समस्तप्रत्यूहव्यूहापोहाय शिष्टसमयपरिपालनाय चाभिमतगुरुदेवतानमस्कार४ा रूपमत्यर्थप्रदातृत्वाव्यभिचारभावमङ्गलमभिधेयादि च श्रोतजनप्रवृत्तिहेतवे प्रतिपादयन्त्रिमा गाथामाह गुणमणिरोहणगिरिणो, रिसहजिणिदस्स पढममुणिवइणो । सिरिउसहसेणगणहारिणोऽणहे पणिवयामि पए ॥१॥ व्याख्या-श्रीरिषमसेनगणधारिणः पदानि प्रणिपतामीति सम्बन्धः। तत्र गणो-गच्छस्तं धारयति दुर्वहपञ्चमहाव्रताखी %ACCASE For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मणघरसा शतकम् | ॥ १ ॥ www.kobatirth.org पर्वतोतुङ्गशृङ्गाल्लुठन्तमवस्थापयति = मर्यादया वर्त्तयतीति यावत् तच्छीलो गणधारी । सहेनेन = स्वामिना वर्त्तते इति सेनो, रिषभेण = युगादिदेवेन कृत्वा सेनः = सनाथो रिषभसेनः, स चासौ गणधारी तस्य पादान् = चरणान्, गुरोः पूज्यत्वाद् बहुवचनं, प्रणिपतामि-प्रणमामि प्रशब्दः प्रकर्षार्थद्योतकस्तेन प्रकर्षेण त्रिकरणविशुद्ध्या, न तूपहाससाध्वसोल्लासादिपूर्वम्, यत उपहासपरोऽपि नमस्कारः संभवति यथा " नमस्यं तत्सखिप्रेम, घण्टारसितसोदरम् । क्रमक्रशिमनिःसार, - मारम्भगुरुडम्बरम् ॥ १ ॥ " इति । कीदृशान् पादान् ? इत्याह- अनघान् - निष्पापान् निर्दूषणान् सकल निर्मलशतपत्र- छत्रचामर - मकर- द्वीप-सामुद्रादिसल्लक्षणोपलक्षितानित्यर्थः कीदृक्षस्य श्रीरिषभसेनगणधारिणः ? प्रथममुनिपतेः कस्य सम्बन्धिनः प्रथममुनिपतेः १, तत्राह - रिषभजिनेन्द्रस्य, रिषभो वृषभस्तदङ्कयोगान्मातुस्तदादिस्वमचतुर्दशकदर्शनाद्वा रिषभनामा सप्तमकुलकराङ्गजः । जिना:रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गाष्टप्रकार कर्म्मजेतृत्वात् ते च सामान्यकेवलिनोऽपि भवेयुः = तद्द्व्यवच्छेदायै = तत्स्वाम्यसंसूचनाय च इन्द्रग्रहणं, ततश्च रिषभश्वासौ जिनेन्द्रश्चेति कर्म्मधारयः, तस्य रिषभजिनेन्द्रस्य । पुनः किंविशिष्टस्य श्रीरिषभसेनगणधारिणः ? गुणमणिरोहणगिरेः=गुण्यन्ते=अभ्यस्यन्ते स्वीक्रियन्त ऐहिकामुष्मिक सुखजिघृक्षुभिर्मुमुक्षुभिरिति गुणा:= ज्ञान-दर्शन- चारित्राणि, एतत्ग्रहणे च शेषाणां गणधर गुणपत्रिंशिकानव कोक्तानामपि परिग्रहोत्र ज्ञेयः, गुणा एव मणय: = पर्वतोद्भवानि रत्नानि गुणमणयस्तेषां रोहणागिरिः- रत्नभूधरस्तस्य गुणमणिरोहणगिरेः । यदिवा - औदार्य - गाम्भीर्य - स्थैर्यधैर्य - सौजन्यशालिन्य-कौलीन्यादि - क्षमा मार्दवाऽऽर्जव - मुक्ति तपः- संयम - सत्य - शौचा-ऽऽकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्यादयो गुणा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री ऋषभसेना परनाम पुण्डरीक गणधरः ॥ ॥ १ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4515 स्तेषां रत्नाचला, अयमर्थः-यथा रोहणगिरि नाप्रकारदारियापहार-दुःखन्यक्कार-दौर्भाग्यतिरस्कार-विपत्सम्भारवैमुख्यकार-श्वासकाशप्रकाशाङ्गहासज्वरभगन्दराऽशोऽतीसारादि-रोगातङ्कनिःशङ्कप्रचारप्रदार-प्रमुखसुखसन्दोहप्ररोहद्गुणनिधानप्रधानानणुमणीनामाकरः, तथा ज्ञानदर्शनचारित्रव्रतषद्कादि षट्त्रिंशिकानवक-देश-कुल-जातिरूप-चातुर्यौदार्य-धैर्यादि क्षमा-मार्दवाद्यखिलविमलगुणकलापस्य भगवान् श्रीऋषभसेनगणधरः प्रादुर्भावस्थानमिति । ___अथ 'गुणमणिरोहणगिरेः 'प्रथममुनिपतेः' इति-विशेषणद्वयं कथं श्रीनाभिकुलकरकुलकमलमार्तण्डमण्डलस्य प्रणम्रकम्रम्रदीयस्तरविस्तरोल्लासविलासस्फारतारहारप्रकटमुकुटकुण्डलाद्यखण्डालङ्कारमण्डिताखण्डलस्य भूरिभूरितरनव्यनव्यतरभव्यभव्यतरजनमनश्वारुवचश्चातुरीरोचिष्णुचन्द्रिकाचोरचकोरताराधिपस्य भगवतः श्रीप्रथमजिनाधिपस्य न संगच्छते ?, सत्यम् , अत्यन्तपवित्रामृतकरकरनिकरमित्रचित्रचित्तचमत्कृतिकृद्विचित्रानन्तगुणरत्नरत्नाकरस्य, अश्यामाश्यामतरप्रवरप्रचुरौषधिमन्त्रादिमाहात्म्यतारतम्याश्वाशुतरग्रसनग्रसननिष्णातातुच्छ मूर्छन्मोहाविरलगरललहरीसमुद्रावसप्पिणीकालकलाकलिता समपरीक्षदीक्षज्ञानदिवाकरस्य भगवतः किं नाम न संगच्छते, किन्तु भगवच्छिष्यस्य तादृग्विशेषणविशिष्टत्वे भगवतः समस्तप्रकृष्टान्तपरमकाष्ठनिष्ठत्वं प्रतिष्ठितं स्यात् । तथा च तात्कालिककालिकाकलङ्कविकलविमलसुधाकरकौमुदीधवलबहलपिच्छिलसुधाधवलितधवलगृहात् पृथुलाशिथिलमणिखण्डमण्डितोण्डदण्डिकाभिरामकामकामिनीरामरूपरम्या ग्राम्यकाम्या कल्पविकल्पाभरणकल्पनाऽप्सरायमाणा तन्द्रायमाणानिष्पुण्यजनदुर्लभवल्लभान्त शोभितभागीरथीतीरतरङ्गभङ्गुरभङ्गीविभ्राजदच्छाच्छपट्टांशुकप्रच्छादनपटाच्छादितपुष्पप्रकरसुरभितसुखस्पर्शसुखासनासीनं भूरिभास्वररत्नमण्डिताखण्डितरुक्मकुण्डलकान्तिलहरी ॐ545CALC For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie गणधरसाईशतकम् । नरीनृत्यमानमण्यादर्शमण्डलकल्पकपोलपीनं पुरः प्रवाद्यमानामन्दानन्दकन्दलिततौर्यिकतूर्यवर्यभृरिभेरीमाङ्कारस्फारधीरगम्भीरनादसंमर्दोद्बोधवधिरीकृतदिग्चक्रवालं निर्मालिन्यस्वाजन्यसौजन्यरङ्गरनितान्तरङ्गसङ्गचङ्गस्वात्मबहिरङ्गबहुजनसमूहपरि- ऋषभसेनावारविशालं बहुविधालप्तिलिप्तवण्ठीकृतकलकण्ठकण्ठाकुण्ठकण्ठकन्दलीघोलनाप्रकारसारसारङ्गीनवनवभङ्गीगीतप्रगीतारोपिततु-18| परनामम्बुरुवरूप्यसरूपाग्रेसरगायनं नितान्ताभ्रान्ताश्रान्तोपयुक्तकर्पूरयुक्तताम्बूलरागरक्ताधरौष्ठपल्लवप्रदत्तविद्रुमदूरदेशान्तरपलायनं पुण्डरीककञ्चनकाञ्चनगौरवर्णवर्ण्यमभ्यर्णे बहिनिर्यान्तं निर्वयं कश्चित्कञ्चन तन्मानवं पप्रच्छ-भो स्वच्छबुद्धे ! विधेहि निष्कौतुकं गणधरः॥ मामकं मनः, कथय क एष निश्शेषपुरुषशिम्शेखरः। स प्राह-अयममुकस्यात्मजः । ततोऽसौ चिन्तयति-अहो! धन्योऽसौ यस्येदृशं पुत्ररत्नमजनि, नूनं स एव श्लाघासंभारचारिमाणमश्चतीत्येवं पुत्रादपि जनकोऽतिप्रकृष्टत्वमश्नुते । एवमत्रापि विनेयविनेयस्यैतद्विशेषणद्वयविशिष्टत्वे प्रतिपादिते सति भगवतोऽतिशयेन प्रकर्षः ख्यापितो भवति, अतो रिषभसेनगणभृत एवैतद्विशेषणद्वयं विधीयमानयुक्तिसीमन्तिनीसीमन्तकरत्नाभरणभूषकत्वतुलामाकलयति । अथैतद्विशेषणद्वयं डमरुकमणिन्यायेनोभयोरपि संबध्यते, यथा-कीदृशस्य रिषभजिनेन्द्रस्य ? प्रथममुनिपतेः आद्यमुनिनायकस्य, तथा कीदृशस्य रिषभसेनगणधारिणः १ गुणमणिरोहणगिरेः, भगवदाद्यमुनिपतेश्चेति, एतच्च प्राक् प्रदर्शितमेव । यदि वा रोहणगिरेरिति रिषभजिनेन्द्रस्य विशेषण विधेयं, प्रथममुनिपतेरिति रिषभसेनगणधारिण इति । अपरस्त्वाह-ननु भो! संविग्नपूर्वमुनिसंविधानकप्रतिपादनरूपं ऋषिमण्डलस्तवमस्त्येव ततः किमनेन पिष्टपेषणकल्पेनापरेण गणधरसार्द्धशतकाभिधानप्रकरणकरणेन?, तदसत् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , तत्र हि सामान्येनैव पूर्वर्षिचरितोत्कीर्तनमात्रमाविश्वके, अत्र तु अनेन भगवता प्रकरणकारेण प्रायेण ||॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरस्तुतिपूर्वकं श्रीयुगप्रवरागमगणधरस्तवनं नव्यानां भव्यानां शुद्धश्रद्धाभिवृद्धये समृद्धये समस्तशान्तिसिद्धये च व्यधायीति सर्व समञ्जसम् । अत्र चाभिमतदेवतानमस्कारो नास्तीति नाशङ्कनीयः, श्रीरिषमसेनगणधरस्यैवाधुना सिद्धस्वरूपतया गुरोरपीष्टदेवतात्वेन विवादास्पदत्वाभावात् , तनमस्कारकरणस्य भावमङ्गलत्वमव्याहतमेव । अभिधेयं चात्र गणधरयुगप्रधानस्तवनद्वारेण तत्स्तुतिलक्षणं साक्षादेवाभिहितम् , अभिधेयस्य च प्रयोजनाविनाभावात्प्रयोजनाक्षेपो निष्प्रयोजनार्थप्रतिपादने सतां सचहानि प्रसङ्गात् , यतः " मुखमस्तीति वक्तव्य-मित्यसम्बद्धभाषिणः । जडाः सन्तस्तु वैयर्थे, वाङ्मुद्रामुद्रिता इव ॥१॥" प्रयोजनं च द्विविधं भवति-अनन्तरं परस्परं च, द्विधापि द्वैधं कर्तृश्रोत मेदात, कर्तुस्तावदन्तरप्रयोजनमेतत्प्रकरणार्थश्रोतृणां भव्यानां नवनवश्रद्धाकरणं, श्रोतुश्चानन्तरप्रयोजनं प्रकरणार्थपरिज्ञानं, परम्परं तु द्वयोरपि निःश्रेयसावाप्तिः । तथा गणधरयुगप्रधाननामस्तवनोत्कीर्तनेन संसूचित एवास्य प्रकरणस्योपायोपेयलक्षणः सम्बन्धस्तथाहि-इदं प्रकरण विवक्षितगणधरयुगप्रधाननामतच्चरिताधिगं उपायः, गणधरनामचरिताधिगमश्चोपेयमिति । अयं च प्रकरणः श्रोतगतः उपायोपेयसम्बन्धः, कर्तृश्रोतगतस्तु भव्यश्रद्धाभिवर्द्धनमुपायः, परमपदावाप्तिस्तूपेयमित्युपायोपेयलक्षणः, सम्बन्धो बोद्धव्यः । अथ कथमेष ऋषभसेनः समभृत् ? इति तच्चरित्रं लिख्यते समुत्पन्नकेवलज्ञानस्य श्रीऋषभस्य पादमूले श्रीऋषभसेनो भरत-तनयो दीक्षामुपादाय गणभृन्नामकर्मोदयावाप्तगणधरपदोऽन्यदा भगवता समादिष्टः SAGAR For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मणधरसाईशतकम् । या श्री ऋषभसेना परनाम|पुण्डरीकगणधरः॥ %A4%95 "पुंडरिअ वच्चसु तुम, सुरछविसयम्मि निययगणसहिओ। महिमहिलामालतिलओ, अस्थि गिरी तत्थ सेत्तुंओ॥१॥ तम्मि समारूढाण, दुञ्जयघणघाइकम्ममुक्काणं । होही खित्तणुभावा, केवलनाणुप्पया तुम्ह ॥२॥ इति निशम्य-विअसिअमुहपुंडरिओ पुंडरिओ कमलपत्तवरनयणो । भरहेसरस्स तणओ, गुणनिलओ भुवणसुपसिद्धो ॥३॥ पंचधणूसियदेहो, पयनयलेहो सगच्छपरियरिओ। पुंडरिअगणहरिंदो, सेत्तुंजाभिमुहमुच्चलिओ॥४॥ गामागरपुरपट्टण-मंडबदोणमुहमंडिअं वसुहं । विहरतो पुंडरिओ, सेत्तुंजमहागिरि पत्तो ॥ ५॥ स चेदृक्-"कत्थ य रुक्खसिलायल-निसन्नकलकंठकिन्नरोग्गीओ। कत्थइ तवणिजामल-सिलाही संछन्नदिसियको ॥६॥ कत्थ य रयणीयरकिरण,-नियरसंवलियसियसरीरेहिं । रयणीए चंदकतेहि, पयडियागालवरिसालो ॥ ७॥ दित्तदिवायरकरनियरतावजलिएहिं सूरकंतेहिं । कत्थ य जत्तियहिययम्मि जणियदावानलासंको॥८॥ पुन्नागनागचंपय-कप्पूरागुरुलवंगरमणीओ । कंकोलकेलिसत्तलि,-अंबयजंबीरसंछन्नो ॥ ९॥ वरनागवल्लि-पुष्फलि,-फणसदुमदक्खमंडवाइन्नो । सारसिरिखंडमंडिय,-कडओ पवहंतनइनिवहो ॥१०॥ देवासुरकिन्नरजक्खसिद्धेहिं सेविओ निच्चं । गिरिकंदरझाणट्ठिय,-विजाहरमुणिगणसणाहो ॥ ११ ॥ अठेव जोयणाई, समृसिओ पवरओसहिसमिद्धो । दसजोयणविस्थिण्णो, सिहरे पत्तेयपन्नासं ॥ १२ ॥ एयारिसो गिरिवरो, दिह्रो पुंडरिअपमुहसमणेहिं । हरिसभरविअसिअच्छा, आरूढा तेवि तं सेलं ॥१३॥ १-प्रकटिताऽकालवृष्टिः । ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अह भणइ पुंडरीओ, साहुगणं जायगरुअसंवेगो। एसो सो विमलगिरी, जो णेग गुणकारणं भणिओ ॥१४॥ मुक्खपहसामिएण, ससुरासुरनरनमंसणिज्जणं | धम्मधुरधवलधम्मेण परमपुरिसेण उसहेण ॥ १५॥ एवं च उसहसेणो, काऊणं विविहपाणिसुवयारं । विहरिअ भूमीवलए, संजुत्तो साहुसंघेण ॥ १६ ॥ चित्तस्स पुण्णिमाए, मासक्खमणेण केवलन्नाणं । उप्पन्नं सबेसि, पढमयरं पुंडरीयस्स ॥ १७ ॥ निट्ठविअट्ठकम्मा, पसवजरामरणबंधणविमुक्का । सित्तुंजयम्मि सेले, पत्ता सब्वेवि परमपयं ॥ १८॥ गुणगरुओ गणहारी, पढमो रिसहेसरस्स पुंडरिओ। ता तप्पडिमासहिअं, भरहेण काराविरं भवणं ।। १९ ॥ तम्मज्झे जगगुरुणो, जुगाइतित्थंकरस्स वरपडिमा । जीवंतसामिणीया, काराविश्रा भरहनाहेण ॥ २० ॥ काऊण परमपूअं भरहो रिसहेसरस्स भत्तीए । भत्तिभरपुलइयंगो, पत्तो सावासभवणम्मि ।। २१॥ ॥ इति लेशतः पुण्डरीकचरितम् ।। अत्र च ऋषभसेनगणभृन्नमस्कारस्योपलक्षणात् , शेषाणामपि व्यशीतिर्गणाधीशानां प्रणामोऽन्तर्वृत्या प्रतिपादितो मन्तव्यः ॥ १॥ आद्याईत्प्रथमगणधरनमस्कारमाविष्कृत्येदानीं शेषतीर्थकृदशेषगणधारिणः स्तुवन्नाहअजिआइजिणिंदाणं, जणिआणंदाण पणयपाणीणं।थुणिमोऽदीणमणोह, गणहारीणं गुणगणोहं ॥२॥ व्याख्या-अहं गणधारिणां गुणगणौघं स्तवै–नुवामि । कीदृशोऽहम् ? अदीनम् अविह्वलं समस्तसुखसन्दोहप्ररोहक For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त अजितनाथात्पार्श्वनाथपर्यन्ता गणधराः॥ गणधरसा-ट द्भक्तिविशेषसंश्लेषतरलितत्वानिदैन्यं सत्वसारं मना=आन्तरो भावो यस्यासौ अदीनमनाः । अजितादिजिनेन्द्राणां जनितानईशतकम् । न्दानां प्रणतप्राणिनाम् । आह-ननु अजितः आदिर्येषां ते अजितादयो जिनेन्द्राः, इत्यत्रादिशब्दस्यानेकार्थत्वात्तथाहि ___सामीप्ये च व्यवस्थायां, प्रकारेऽवयवे तथा । आदिशब्दं तु मेधावी, चतुर्वर्थेषु लक्षयेत् ॥ १ ॥ इति । ॥४॥ | तदिह कस्मिन्नर्थे प्रवर्त्तमानस्य ग्रहणम् ?, उच्यते-(१) न तावत्सामीप्यार्थस्य ग्रहणं, तद्ब्रहणे हि यथा 'ग्रामादौ घोषः' इत्यत्रोपलक्षणीभूतत्वाद्रामस्य ग्रामसमीपो देशः परिगृह्यते, एवमत्रापि सामीप्यार्थादिशब्दोपादाने अजितस्वामिसमीपवर्त्तिनां जिनेन्द्राणां सम्बन्धिनां गणधराणां गुणगणौघं स्तवीमीत्ययमर्थः स्यात् , न चैष घटते, न चैकस्य तीर्थकृतः सन्निधावपरस्य विद्यमानत्वेन सिद्धान्ते प्रतिपादनात् । तथा चाश्चर्यदशकमध्ये "कण्हस्य अवरकंका" इत्यनेन कृष्णस्य द्वीपान्तरगमने दूरादुत्तमपुरुषद्वितयपताकादर्शन-शङ्खशब्दश्रवणमात्रस्यापि महाश्चर्यरूपत्वं प्रतिपाद्यते । आस्तां तावत्-सामीप्यं । (२) व्यवस्थार्थोऽपि नैव, व्यभिचारात् , अजितस्वाम्यादयो हि जिनाः क्रमसिद्धा एव किं तत्र व्यवस्थया? । (३) प्रकारार्थोऽपि न युक्तिसीमन्तिनीसीमन्तकमाणिक्यमालिकाकल्पत्वमुपकल्पयति, तथाहि-प्रकारः सादृश्यं, तच्चाजितसंभवादीनां परस्परं च्यवनविमाननगरीजनकायेकविंशतिस्थानादिस्थानसदृश्यं विभ्राणानां कथं नाम संभवेत् ?, यच्चैकसादृश्यमहतामुपगीयते तच्चतुस्त्रिंशदतिशय-पञ्चत्रिंशद्वचनातिशयशक्त्याद्यपेक्षमवगन्तव्यम् । (४) अवयवार्थे तु आदिशब्दे गृह्यमाणे नास्ति विवादः, अजित एवादिरवयवो येषां जिनेन्द्राणामिति । ननु अत्र पक्षे महान् विसंवादः, नहि जिनानामजितादयोऽवयवा भवितुमर्हन्ति, | अवयवा हि पाणिपादादय एव संगच्छन्ते , सत्यं, 'जिनाना'मित्यन्तवृत्त्या भगवतः सूत्रकारस्य त्रयोविंशतिकाभिप्रेता, | 4-0%ACHAROGRAM ॥ ४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie CREATEGOSAROCHAR तस्याश्च रत्नमालाया इव रत्नान्यजितादयोऽवयवा भवन्त्येव तत्कोव विसंवादः १ अलमतिप्रसङ्गेन । अथवा आदिशब्दो व्यवस्थाओं यथा-"ब्राह्मणादयो वर्णाः ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्ररूपेण व्यवस्थिताः" इति, एवमत्रापि-अजितादयो वीरपर्यन्ताः क्रमेण लब्धव्यवस्थास्तीर्थकृतस्तेषामजितादिजिनेन्द्राणाम् । कीदृशानाम् ? 'जणिआणंदाण पणयपाणीणं' | प्रणतप्राणिनां नम्रभव्यलोकानां जनितः उत्पादितः आनन्दा-प्रमोदो यैस्ते जनितानन्दास्तेषाम् । यदि वा-'जणिआण'ति || जनिर्जन्म तं द्यन्ति खण्डयन्तीति जनिदास्तेषां जनिदानाम् । तथा 'दाणपणयपाणीण'ति, दाने वितरणे प्रणयः प्रीती रसो ययोस्तौ दानप्रणयौ तादृक्षौ पाणी-हस्तौ येषां ते दानप्रणयपाणयस्तेषाम् । यदि हि दानरसिककरा=स्तीर्थकरा न भवेयुस्तदा कथमत्यन्तदीक्षाभिमुखा अपि वर्ष यावदवतिष्ठेयुः ? सकललोकस्य च दानमपि दद्युः, इति । अनेन विशेषणद्वयेन द्वयं प्रतिपादितं भवति, तथाहि-'जनिदाना' इत्यनेन सकलकर्मनिर्मूलनक्षमक्षेमकारिनित्यानन्दज्ञानशक्तिनिधानमोक्षसौख्यप्रापकत्वम् , 'दानप्रणयपाणीनां'-इत्यनेन चैहिकसमग्रसातसम्पत्प्रदत्वमर्हतामावेदितम् । एतेन 'अनन्तगुणरत्नरत्नाकराणां तीर्थकराणां किमर्थमेतद्विशेषणद्वयम्' एतदपि नोचं निरस्तम् । अथ 'थुणिमो' इत्यस्य क्रियापदस्य पश्चानिर्देशप्राप्तावपि यत्पूर्व-| भणनं तत्स्तुतिस्तवनस्य महाफलप्रदर्शनार्थम् । 'स्तवै' इति वर्तमानकालभणनाद्भविष्यत्कालकथने माभृत्प्रमादस्य क्षणमप्यवकाश इत्यभिप्रायः। ननु स्तवनं पदवाक्यैः सद्गुणोत्कीर्तनरूपं, ततः स्तवै' इत्यभिधानस्य स्तवनवचनाप्रतिपादनादाकाश[कृशम् ] कुशेशयकृतशेखरवन्ध्यातनयसाम्यमेव समेति !, मैवम् , स्तवनं हि भावतः श्लाघनरूपं, श्लाघा च मानसिकी वाचिकी कायिकी चेति विधा, सा च त्रैवापि भगवतः सूत्रकारस्य वरीवर्त्तते, तथाहि-प्रथमतो मनोव्यापारसंभवान्मानसिकी तावत्स्फुटै *4054-%ARSHA N For Private and Personal use only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसादेशतकम्। या गावाच्यमच्छिमाओधशदवादः । AGARCASEAXCoter वावगम्यते, मनःप्रेरणापूर्वकत्वाद्वाचः कायचेष्टयोर्वाचिकी-कायिक्यावपि अवगन्तव्यः । दीनं च तन्मनश्च दीनमनः, तद्धन्तीति दीनमनोहस्तम् इति व्युत्पच्या [गणधारिणो] गणधारिगुणगणौघस्य वा विशेषणम् । ननु 'गणौध'-शब्दयोरमर-देव गौतमादयो योरिव पर्यायशब्दत्वात्कथमुभयोपादानम् , न वाच्यमेतत् , अर्थभेदस्योपलब्धेस्तथाहि-गणः-सङ्घः, ओघःप्रवाहस्ततश्चगुणानामौदार्यधैर्यादीनां गणः समूहस्तस्यौधः-प्रवाहोऽनवच्छिन्नसन्तान इति यावत् , तं गुणगणौघम् । अथवा-" ओघो गणधरामा वृन्देऽम्भसा रये” इति (अमर० नाना०) वचनादस्तु वृन्दार्थ ओपशन्दस्तथाप्येकैकस्य गणभृतो गुणगणविवक्षया बहुत्वाद्गुणगणानामोधः समूहस्तम् । यदिवा-'गुरुगुणोहं' इति पाठस्तदा न विसंवादः । इति गाथार्थः ॥२॥ अथ सामान्यतः सत्यामपि नमस्कृतौ श्रीवर्तमानतीर्थाधिपतेर्गणधारिणो विशेषतो गाथात्रयेण नमस्कारमाह-- सिरिवद्धमाण वरनाणचरणदंसणमणीण जलनिहिणो। तिहुअणपहुणो पडिहणिअसत्तुणो सत्तमो सीसो ॥ ३ ॥ है| संखाईए वि भवे, साहितो जो समत्तसुअनाणी। छउमत्थेण न नजइ, एसो न हु केवली होइ ॥४॥ तं तिरिअ-मणुय-दाणव, देविंदनमंसियं महासत्तं। सिरिनाणसिरिनिहाणं, गोयमगणहारिणं वंदे॥५॥ व्याख्या--तं गौतमगणधारिणं वन्दे इति सम्बन्धः । यः कीदृशः ? सत्तमः अतिशोभनः शिष्यः विनेयः। कस्य ? इत्याह-श्रीवर्द्धमानस्य वरज्ञानचरणदर्शनमणीनां जलनिधेरिति, तत्र श्रियोपलक्षितो बर्द्धमानः, वर्द्धते स्फायते मणिरत्न rc ॥ ५॥ +%EOCHDA %AGO For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie सुवर्णादिकं गर्भस्थिते यस्मिन् सिद्धार्थभवने, इति व्युत्पत्त्या यथार्थाभिधानस्तस्य वर्द्धमानस्य, षष्ठीलोपः प्राकृतत्वात् । किं विशिष्टस्य ? बराणि सर्वोत्तमानि यानि ज्ञानचरणदर्शनानि तान्येव मणयो-रत्नानि तेषां जलनिधेः समुद्रस्य, यथा समुद्रः पुष्पकादिचतुर्दशाना लोकप्रसिद्धानां, तथाऽन्येषां वजेन्द्र-नील-मरकतादीनां रत्नानां भवत्युत्पत्तिस्थानम् , एवं वर्द्धमानोऽपि ज्ञानादिप्रभवः, ततोऽन्यत्र सकलज्ञानाद्यसद्भावात् । अत्र च ज्ञानानन्तरं दर्शनस्य क्रमात्पाठे प्राप्ते पश्चात्पाठो गाथाभनभयात् । पुनः किम्भूतस्य ? त्रिभुवनप्रभोः त्रिलोकीनायकस्य । पुनः किं विशिष्टस्य ? प्रतिहतशत्रो समूलकापङ्कषितकर्मवैरिणः । विशेषणत्रितयमध्यादाद्यविशेषणेन ज्ञानादिरत्नैः समुद्रसारूप्येण स्वयमनिष्ठितरत्नाकरत्वेन सेवकलोकरत्नवितरणेन च स्वार्थपरार्थसम्पत्ती दर्शिते भवतः । कश्चित्स्वपरार्थनिरतोऽपि नीचतरमात्रस्याधिपतिनं भवति, मगवतस्तु न तागुरूपत्वमिति द्वितीय विशेषणमाह-'त्रिभुवनप्रभोः' इति, अनेन च जनाराध्यत्वमाह । एवंविधोऽपि कोऽपि निहतान्तरशत्रुर्न भवति तत्राह-' प्रतिहतशत्रोः,' एतेन च तृतीयविशेषणेन मुक्तिकान्ताश्लेषयोग्यत्वमाह । एवं | सर्वोत्कृष्टस्य गुरोः शिष्यभावे श्रीगौतमस्य विशेषनमस्कारार्हतामाचष्टे । ननु यदि 'घृतं सुरभि ' तदा गोमयस्य किमायातम् ?, यदि गुरु नादिपवित्रगुणपात्रं ततश्च किमेतावता स्तब्धत्वादिदोषदुष्टस्य शिष्यस्याराध्यता स्यात् । तद्योपोऽपि तादृशस्तदा कथङ्कारं नमस्कारं न स्वीकुर्यात् , ? मैवं, नहि केवलालोकालोकितसमस्तवस्तुजाताः भगवन्तः अयोग्याय दीक्षा | ददति तस्माचद्धस्तपादीक्षितत्वादवश्यं नमस्कृत्य एवायमिति । किञ्च-कथमेष नमस्करणीयः स्याद् यः समस्तश्रुतपारगश्छन्नस्थस्य स्वात्मनि केवलिनस्तुलामवस्थापयति ? इत्याह- संखाईएवि भवे' इत्यादि, सङ्ख्यातीतानपि-गणनातिक्रान्ता For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधरसाईशतकम् । ॥६ ॥ CRICALCITICSASAROKAROGRoot नपि भवान् जन्मानि साधयन् प्रतिपादयन् यः समस्तश्रुतज्ञानी-सकलश्रुतसागरपारगतो द्वादशाङ्गस्रष्टेत्यर्थः, छबस्थेन श्रीसुधर्ममतिज्ञानाद्यन्तर्वर्तिना न ज्ञायतेन लक्ष्यते यदुत एप केवली न भवति, 'हुः' पूरणे, अयमर्थः-एवं नाम यो भगवान् | गणधरः॥ प्रश्नसमनन्तरमेव त्वरितत्वरितं श्रुतज्ञानबलेन तत्क्षणादुपलभ्यासङ्ख्यातान् भवान् कथयति, येन छद्मस्थैः केवलज्ञानवानेवावगम्यते, न छमस्थ इति । तं 'तिर्यग्मनुज-दानव-देवेन्द्रनमस्कृत 'मिति सुगमम् । महासत्त्वं महावीर्य, श्रीज्ञानश्रीनिधानम् । ननु पूर्व समस्तश्रुतपारगत्वप्रतिपादनेनैव श्रीज्ञानश्रीनिधानत्वमित्यवसितं तस्मात्पुनरुक्तदोषोऽयम् ?, सत्यम् , अस्ति पौनरुक्त्यं न तु दोषः, तस्य शास्त्रान्तरे भूयः सद्भूतगुणोत्कीर्तने अदूषणत्वेन प्रतिपादनात् , तथा चोक्तम् “सज्झायज्झाणतवो, ओसहेसु उवएसथुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणेसुं, न हुंति पुणरुत्तदोसा उ ॥१॥" अथवा-'समस्तश्रुतज्ञानी'-ति विशेषणं भगवतच्छअस्थावस्थस्य, 'श्रीज्ञानश्रीनिधान 'मिति विशेषणं केवलज्ञानावस्थस्येति न पौनरुक्त्यम् । तमेवम्भूतं गौतमगणधारिणं वन्दे नमामीति संक्षेपेण गाथात्रयार्थः। अथ यथायं श्रीवर्द्धमानस्वामिनः शिष्यत्वं प्रतिपन्नस्तच्चरितं शेषगणधरदशकमध्यवर्तित्वेन प्रसिद्धत्वान्न लिखितम् | ॥३॥ ४ ॥५॥ ____ अथ जम्बूखाम्यावशेषगणधरसन्तानस्यादिकारणत्वेन श्रीसुधर्मस्वामिगणधरं नमस्कुर्वन् गाथायुगलमाहजिणवद्धमाणमुणिवइ,-समप्पिआसेसतित्थभरधरणहिण]पडिहयपडिवक्खेणं,जयम्मिधवलाइयंजेणा ४ For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है तं तिहुअणपणयपया-रविंदमुद्दामकामकरिसरहं । अणहं सुहम्मसामि, पंचमठाणट्ठिअं वंदे ॥७॥ | ___व्याख्या-तं सुधर्मस्वामिनं वन्दे नमस्करोमीति सम्बन्धः । येन किम् ?, धवलायितम् , धवलो-वृषभस्तद्वदाचरितम् । | क?, जिनेन रागादिदोषद्वेषिजैत्रेण वर्द्धमानामिधानेन मुनिपतिना=चतुर्दशसहस्रवाचंयमदानदुर्ललितदक्षिणहस्तेन समर्पितो | न्यस्तः अशेषः समस्तो योऽसौ तीर्थस्य सङ्घस्य प्रवचनस्य च भरो-भारः शिरःस्कन्धादिवहनयोग्यः पदार्थ इति यावत् , तस्य धारण मर्यादया व्यवस्थापन सम्यगविच्युत्या हृदयेन बहनं च-जिनवर्द्धमानमुनिपतिसमर्पिताशेषतीर्थभरधरणं, तत्र । अयमभिप्रायः-किल श्रीवर्द्धमानस्वामिना सत्सु श्रीगौतमादिगणभृत्सु योग्येष्वपि आयुर्दाघीयस्त्वादिविशेषयोग्यतामाकलय्य पञ्चमस्थानवर्तिसुधर्मस्वामिनि समग्रसङ्घप्रवचनभारः समारोपितः, तत्र चारोपितप्रवचनसङ्घमाग्भारे धवलधौरेयायितं सुधर्मस्वामिना । तं त्रिभुवनप्रणतपदारविन्द विष्टपत्रयनतक्रमकमलम् । पुनः कीदृक्षम् ? उद्दामा उच्छृङलो यः काम एव%3D मदन एव मदोन्मत्तत्वात्करी हस्ती तत्र सरमः अष्टापदस्तम् । त्रिभुवनप्रणतपदारविन्दत्वे हेतुरिदं विशेषणम् , अतश्च हेतुहेतुमद्भावेनेदं विशेषणद्वयम्-यस्त्रिभुवनप्रणतपदारविन्दः स च उद्दामकामकरिसरभ एव स्यादिति । अथ 'कामकरिसरभम्' | इत्यत्र सत्यपि हर्यक्षे सरभोपादानं तत् कदापि कर्यपि हरिं पातयति परं न सरभमिति तद्ग्रहणम् । पुनः किंविधम् ?, न विद्यते अर्घ-पापं यस्य तम्-अनघम् । अत्र च पापोच्छेदः पुण्योच्छेदस्योपलक्षणं ततश्चोभयक्षये 'अनघ 'मित्यनेन पुण्यापुण्यक्षयान्मुक्तिरिति [घोतितम् ] । अत्रापि हेतुहेतुमद्भावोऽनुसरणीय:-यत एव उद्दामकामकरिसरममत एवान, सकलक्लेशभूरुहमूलत्वाद्रागस्य, ततश्च तन्निर्मूलने सुलभैव निक्लेशलेशपदावाप्तिरतः अनघ-मोक्षपदप्राप्तमित्यर्थः । पुनः For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मणधरसाईशतकम्। श्रीजम्बूस्वामिचरितम् ।। ॥ ७॥ KARANASANCHAR कथम्भूतम् ? पञ्चमस्थानस्थितम् , पञ्चमस्थाने इन्द्रभूत्यादेः स्थितं व्यवस्थितम् । अथवा अनघत्वादेव पश्चमस्थानं पश्चम| गतिस्तत्र स्थितं मुक्तिप्राप्तमिति । एतच्चरितमपि गणधरचरित्रे ज्ञेयं, विशेषस्त्वयम्-" परिनिव्वुआ गणहरा, जीवंते नायए नव जणा उ । इंदभूई सुहम्मो य, रायगिहे निव्वुए वीरे ॥१॥" इति गाथाद्वयार्थः ॥ ६॥ ७॥ अधुना सुधर्मस्वामिपट्टोदयाचलचूलावलम्बिरविबिम्बप्रतिबिम्ब श्रीजम्बूवामिनं(गणधरं) नमस्कुर्वन् गाथात्रितयमाहतारुण्णे विहणो तरलतार-अद्धच्छिपिच्छरीहिंमणो।मणयं पिमुणिअपवयण-सब्भावं भामिअं जस्सा मणपरमोहिप्पमुहाणि, परमपुरपस्थिएण जेण समं । समइकंताणि समग्गभव्व-जणजणिअसुक्खाणि ॥९॥ ६] तं जंबुनामनामं, सुहम्मगणहारिणो गुणसमिद्धं । सीसं सुसीसनिलयं, गणहरपयपालयं वंदे ॥१०॥ ___ व्याख्या-जम्बूनामेति नाम यस्य स जम्बूनामनामा, तं वन्दे प्रणिपतामीति सम्बन्धः । यस्य भगवतस्तारुण्येऽपि3 | यौवनेऽपि आस्तामन्यावस्थायामित्यपि शब्दार्थः, नो नैव तरले यौवनोद्भेदवशोल्लसितमन्मथाभिलाषाच्चटुले तारके-कनीनिके ययोस्ते तरलतारके, ते च ते अर्द्धं च अविकसिते च । एवंविधे ये अक्षिणी-लोचने ताभ्यां प्रेक्षन्ते-विलोकन्ते इत्येवंशीलास्तरलतारकार्दाक्षिप्रेक्षिण्यस्ताभिस्तरलतारकार्दाक्षिप्रेक्षिणीभिर्वधूभिरिति गम्यते मनो हृदयं मनागपि ईषदपि तिलतुषत्रि| भागमात्रमपि आस्तां समस्तमित्यपि शब्दार्थः, भ्रामितं क्षोभितं चालितमित्यर्थः, किमिति ? यतो मुणितप्रवचनसद्भाव | For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 84545CANCEC ज्ञातसिद्धान्ततत्त्वम् । अयमभिप्राय:--येन पुण्यात्मना “विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ १ ॥ अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लविअ पेहिअं। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवणं ॥२॥" इत्यादिसिद्धान्त(दशवैकालिकसूत्र)वचनानां रहस्यं सम्यग् ज्ञातं भवति परिणमितं च, नासौ भवानन्दिभिः स्यादिभिः कथश्चिदपि वश्चयते, अतो मुणितप्रवचनसद्भावमिति हेतुगर्भ विशेषणमवगन्तव्यम् । तथा येन समसाई समतिक्रान्तानि गतानि, कानि ? मनःपरमावधिप्रमुखाणि, तत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'मण' इत्युक्ते मनःपर्यायज्ञानं गृह्यते, तत्र मनःपर्यायज्ञानमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिसञ्जिमनोगतद्रव्यालम्बनम् । 'परमोहि ' त्ति परमावधि:-परमः उत्कृष्टः स चासौ अवधिश्चेति परमावधिः, यत्रान्तर्मुहूर्त्तानन्तरं केवलज्ञानमुत्पद्यते, मनःपरमावधी प्रमुखेआदौ येषां पुलाकलब्ध्याहारकलन्धि-क्षपकश्रेणिप्रमुखाणामुत्तमवस्तूनां तानि मनःपरमावधिप्रमुखाणि, तथा चोक्तमागमे "मण १ परमोहि २ पुलाए ३, आहारग ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७ । संयमतिअ ८ केवल ९ सिज्झणा १० य जंबुम्मि वुच्छिन्ना ॥१॥" अथ पुलाकः, एतदर्थानुवादिनी गाथेयम्"धन्नमसारं भन्नइ, पुलायसदेण तेण जस्स समं । चरणं सो हु पुलाओ, *लद्धीसेवाहि सो य दुहा ॥१॥" तत्र लब्धिपुलाको यथा* लब्ध्यासेवनाभ्याम् । SCIENCESCHECRECRUARGARCANADA %A5 25 For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा र्द्धशतकम् । ॥ ८ ॥ www.kobatirth.org 44 संघाइयाण कजे, चुनिजा चक्कवट्टिमवि जीए । तीए लद्धीए जुओ, 'लद्धिपुलाओ ' मुणेयवो ॥ १ ॥ " ( आसेवनापुलाको यथा - ) “ आसेवणापुलाओ, पंचविहो नाणदंसणचरिते । लिंगम्मि अहासुहुमे, य होइ आसेवणानिरओ || २ || " इति । एतलब्धिश्च । अथाहारकम् - आहियते - चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकर स्फीतिदर्शनादिक - तथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिलब्धिवशान्निर्वर्त्यते इत्याहारकं, यदुक्तम् " तित्थयर रिद्धिसंदंसणत्थमत्थावगमणहेउं वा । संसयवुच्छेअत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि ॥ १ ॥ " क्षपक श्रेण्युपशमश्रेणी प्रसिद्धे । ' कप्पे' ति जिनकल्पः । तथा 'संयमतिअ' त्ति संयमत्रिकं =परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराय - यथाख्यातलक्षणम्, एतत्स्वरूपं शास्त्रान्तरादवगन्तव्यम् । 'केवल' ति केवलम् = एकं मत्यादिज्ञानरहितत्वात्, शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कापगमात्, सकलं वा केवलं तत्प्रथमतयैव शेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं चा केवलम् अनन्यसदृशत्वात्, अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासि ज्ञानम् । तथा 'सिज्झण' त्ति सिद्धिः सकलकर्म्मक्षयेण परमपदावाप्तिः । ततश्चादिशब्दावरुद्धान्येतानि स्थानानि । येन कीदृशेन १ इत्याह- 'परमपुरपत्थिएणं' - ति परमपुरमत्र प्रस्तावात्सिद्धिपुरं तत्र प्रस्थितेन = प्रचलितेन । कीदृशानि मनःपरमावधिप्रमु खाणि १ समग्रभव्यजनजनितसौख्यानि - समग्रभव्यजनानां निःशेषासन्न सिद्धिकभविकलोकानां जनितम् = उत्पादितं सौख्यं - शर्मभावो यैस्तानि तथा । कीदृशं जम्बूनामानम् १ इत्याह- शिष्यं विनेयं कस्य १ सुधर्मगणधारिणः = श्री सुधर्माभिधान For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजम्बूस्वामिच रितं लब्धि विच्छेद विचारः ॥ ॥ ८ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | गणभृतः । कीदृग्विधं शिष्यम् ? इत्याह-गुणसमृद्धम्-गुणैः अनुवर्तकत्व-विनीतत्व-बहुक्षमत्व-नित्यगुरुकुलवासित्व-गुरुजनामोचित्व-सुशीलत्व-प्रज्ञापनीयत्व--श्रद्धापरत्व-मधुरभाषित्व-निभृतस्वभावत्व-विकथामुक्तत्व-गुरुगुणानुरागित्व-क्रियापरत्वप्रभृतिभिः समृद्धं-स्फीतं ऋद्धिमन्तमित्यर्थः । अयमभिप्रायः-सन्तो हि सुधीमत्व-क्षमित्व-विनयत्व-जितेन्द्रियत्वविवेकित्व-कृतज्ञत्व-सलज्जत्व-सदयत्व-सौम्यत्व-परोपकृतिकर्मठत्वा-न्तरवैरिवारपराजयपरत्व-कुकर्मभीरुत्व-परावर्णवादमूकत्व-परपीडापरिहारत्वा- क्षुद्रत्वा-ऽशठत्व-दाक्षिण्यमहोदधित्व-सरलस्वभावत्व-धैर्यत्व-स्थैर्यत्व-गाम्भीर्यत्वौ-दार्यत्वगुरुशुश्रूषालाम्पठ्य-सततसाधुनैकट्या-मोत्कर्षत्यागित्व-परपराभववैमुख्य-पर िदर्शनसौमुख्य-दृढसौहृदत्व-सत्यभाषित्वाद्रोहकत्व-मध्यस्थत्व-गुणानुरागित्व-सुदीर्घदर्शित्व-विशेषज्ञत्व-भावलक्षित्व-विद्याव्यसनित्व-स्वयोषिद्रतत्व-लोकापवादसभयत्वा-ऽसत्सङ्गविरतत्व-धार्मिमकलोकसुबन्धुबुद्धित्व-हास्यभाषित्वा-ऽनुत्तानत्व-शुचिशीलत्व-सर्वकार्यानुत्सुकत्व-सन्तोपसारत्वन्यायसुन्दरत्व-पूर्वसत्पुरुषानुसारिप्रवृत्तिमत्व-प्रमुखगुणानामेव समृद्धिं स्पृहयन्ति, न त्वमात्य-दण्डनायक-युवराजमहाराज-सार्वभौम-चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-देवेन्द्रादि-हस्त्यश्व-रथ-प्रदातिलक्षणलक्षकोटिसंख्याप्रोत्तुङ्गचतुरङ्गसैन्यविजितसुराङ्गनारूपसरूपसहस्रप्रमाणान्तःपुर-पुर-पत्तन-निगम-ग्राम-नगराकरखेडकर्बटमडम्बद्रोणमुखाद्यधिष्ठानद्वात्रिंशन्मुकुटबद्धराजसहस्राधिपत्य-धन-धान्य-द्विपद-चतुष्पद-मणि-रत्न-रजत-सुवर्णादिप्रचुरद्रव्यसम्भारसमृद्धिम् , तथा चोक्तम् " इक्के लहुअसहावा, गुणेहि लहिउं महंति धणरिद्धिं । अन्ने विशुद्धचरिआ, विहवेहिं गुणे हिं] वि मग्गंति ॥ १॥" ततश्चानुवर्तकत्वादिगुणकलापमुक्ताकलापालङ्कृतगात्रलतिका एव विनेयाः सर्वत्र श्लाघां लभन्ते । ये तु न पूर्वोदित For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसा ईशतकम् । ॥ ९ ॥ गुणकदम्बकसंवृत्ताङ्गाः किं तर्हि ? स्तब्धाः स्वगुरुच्छिद्रप्रेक्षिणो गुर्ववर्णवादग्राहकाः स्वेच्छाविहाराहारकारिणश्चपलचित्ता श्रीजम्बूवक्रोक्तिवाक्यरचनाचातुरीधुरीणा,हेतुयुक्तिक्वचितशिक्षोल्लापमात्रेऽपि क्रोधाध्मातचेतोवृत्तयोऽपृष्टोत्तरदायिनः सोल्लुण्ठभाषिणो स्वामी गुरोरकिश्चित्कारिणः, किंबहुना-प्रागुक्तानुक्तगुणजातवैपरीत्यभाजो दौर्गत्यायशःकीर्त्यादिकमश्नुवते कुशिष्याः। तदेतस्य श्रीप्रभव| पुनर्भगवतो जम्बूनामनाम्नो विदितसारसिद्धान्तरहस्यस्य संविग्नशिरोमणेश्वरमशरीरिणः समस्तशिष्यगुणसमृद्धौ किं वक्तव्य- स्वामीच॥ मस्तीति । पुनः कीदृशम् ? सुशिष्याणां शोभन विनेयानां निलयम्=आश्रयम् आधारं जलानामिव समुद्रम् । पाठान्तरे ('सुसीसतिलयं' ति ) सुशिष्याणां तिलक-पुणमिव । पुनः किं विधम् ? गणधरपदस्यगणभृत्पदव्याः पालक-रक्षकमिति गाथात्रयस्यार्थः॥ ८॥९॥१०॥ अथ प्रभवस्वामिनं नमस्कुर्वन्नाहसंपत्तवरविवेयं, वयस्थिगिहिजंबुनामवयणाओ। पालिअजुगपवरपयं, पभवायरिअंसया वंदे ॥११॥ व्याख्या-प्रभवाचार्य सदा वन्दे शिरसा नमस्करोमि । कीदृशम् ? संप्राप्तो लब्धो बरो-विशिष्टतरो विवेको हेयानांप्राणातिपाता-नृतभाषणा-दत्तग्रहण-मैथुन-परद्रोह-परस्त्रीगमन-मातापितृस्वामिगुरुवश्चन-विषा-हि-वृश्चिक-कण्टक-वैरिदावानलसिंह-व्याघ्र-कुमित्र-कुकलत्रादीनां, स्त्री-गन्ध-माल्य-मणि-रत्न-भूषण-राज्य-साम्राज्य-प्राज्या-ज्यान्धः-पान| स्नान-शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाख्यविषयोपभोगादीनां च संसारकारणानाम् , उपादेयानां च-क्षमा-मार्द-वार्जव-मुक्तितपा-संयम-सत्य-शौचा-किश्चन्य-ब्रह्मचर्य-गुरुवचनाराधनादीनां परिज्ञानं येन स तं संप्राप्तवरविवेकम् । कुत एवं विधम् ? IN For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्याह-व्रतार्थिगृहिजम्बूनामवचनात् , व्रतार्थी प्रातःक्षण एव दीक्षां जिघृक्षुर्यो जम्बूनामा तस्य प्रबोधकं यद्वचनंबाक्यं तस्मात् । पुनः किं विशिष्टम् ? पालितं युगप्रवरस्य जम्बुनाम्नः स्वगुरोः पदं येन स तथा तमिति गाथार्थः ।। ११॥ "आत्तं पश्चाशदब्देन, सुधर्मस्वामिना व्रतम् । त्रिंशदब्दीमथाकारि, शुश्रूषाचारमर्हतः ॥ १॥ मोक्षं गते महावीरे, सुधा गणभृद्वरः । छद्मस्थो द्वादशाब्दानि, तस्थौ तीर्थ प्रवर्तयन् ॥ २॥ ततश्च द्वानव(९२)त्यब्दी,-प्रान्ते संप्राप्तकेवलः । अष्टाब्दी विजहारोा, भव्यसत्त्वान् प्रबोधयन् ॥ ३ ॥ प्राप्ते निर्वाणसमये, पूर्णवर्षशतायुषा । सुधर्मस्वामिनाऽस्थापि, जम्बूस्वामी गणाधिपः ॥४॥ तप्यमानस्तपस्तीव्र, जम्बूखाम्यपि केवलम् । आसाद्य सदयो भव्य-भविकान् प्रत्यबूबुधत् ॥ ५॥ श्रीवीरमोक्षगमनादपि हायनानि, चत्वारि षष्ठिमपि च व्यतिगम्य जम्बूः। . कात्यायनं प्रभवमात्मपदे निवेश्य, कर्मक्षयेण पदमव्ययमाससाद ॥६॥" एतत्कथानकषोडशकानुस्मरणार्थ चेमे गाथे "करिसग १ हथिकडेवर २, वानर ३ इंगालदाहग ४ सियाले ५। विजाहरे ६ य धमए ७, सिलाजऊ ८ दोय थेरीओ ९॥१॥ आसे १० गामउडसुए ११, वडवा १२ तह चेव मुद्धसउणे १३ य । तिमि अ मित्ता १४ माहणसुआ १५ य ललिअंगए १६ चरमे ॥२॥" For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie गणधरसा ईशतकम्। ॥१०॥ नवनवइकणयकोडी, चइऊणं तह य अट्ठ रमणीओ । गहिऊण संजमं जंबु-सामिणा साहि कजं ॥३॥ है श्रीशय्यंभ॥ इति संक्षेपतश्चरितम् ॥ वाचार्यः॥ अथ क्रमायातं श्रीशय्यम्भवाचार्य नमस्यन्नाहकट्टमहो! परमेयं, तत्तं न मुणिजइत्तिसोऊणं । सिजंभवं भवाओ, विरत्तचित्तं नमसामि ॥१२॥ व्याख्या-'अहो' इति परेषां सम्बोधनम् , कष्टं दुःखं-पर-प्रकृष्टम् एतत् , यत्किम् ? इत्याह-तत्त्वं परमार्थो 'न मुणिजइ' तिन ज्ञायते, इति वचनं श्रुत्वा आकर्ण्य भवाद् विरक्तचित्तं वैराग्यपरवशमानसं श्रीशय्यम्भवाचार्य नमस्यामि= नमस्करोमीति गाथार्थः ॥ १२॥ एतच्चरितमेवम् एकदा हि श्रीप्रभवस्वामिना पश्चिमरात्रौ स्वाध्यायश्रमसुप्ते साधुवर्गे योगनिद्रास्थेन चिन्तितम्-मदनु को भविता गणधरः, इति विचिन्त्य स्वगणे सङ्घ चोपयोगे दत्ते तादृशमपश्यन् परदर्शने दत्तोपयोगो राजगृहे वत्सकुलोद्भवं यजन्तं द्विजं शय्यम्भवं प्रवचनधुराधवलधौरेयं दृष्ट्वा तत्रायातो भगवान् , आदिष्टौ सुनी-यातं युवां यज्ञपाटके, अदित्सावादिभिर्द्विजादिभिः प्रस्थाप्यमानाभ्यां युवाभ्यां वाच्यमीदृशम्-"अहो ! कष्टमहो ! कष्टं तवं विज्ञायते नहि"। पुनरेवम् । इत्यादिष्टौ प्रविष्टौ मुनी || भिक्षाग्रहणकाले यज्ञपाटके । तत्र श्रमणद्वेषिभिर्भिक्षामदित्सुभिर्भट्टच :-'अरे ! श्वेतपटौ ! कुत्रात्र प्रविष्टौ, निर्गच्छतं न कोऽपि दास्यति युवयोर्भिक्षाम् ' इति विसृष्टौ स्वगुरूपदिष्टमचतुः-" अहो ! कष्टं तत्त्वं-न ज्ञायते " । इति तद्वचो द्वारस्थेन शय्य CALCASTARAASARONGS ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org म्भवेनाकर्ण्य चिन्तितम् -'अहो ! अमी उपशमप्रधाना महात्मानो न मृषावादिनः, तत्वे संदेग्धि मे मनः' इति विचिन्त्यागत्योपाध्यायः पृष्टः । सोऽपि 'वेदास्तत्त्वम्' इत्युक्ते शय्यम्भवोऽभ्यधात्-प्रतारयसि दक्षिणालोमेन, वीतरागा मुनयो न वदन्ति वितथं, न गुरुस्त्वं यथावस्थितमाख्याहि तच्त्वं नो चेच्छेत्स्यामि ते शिरः " न हत्या दुष्टनिग्रहे " इति भणश्च कर्षासिं कोशात् । उपाध्यायोsपि दध्यौ - मिमारयिषुरेष मां तत्त्वकथनसमयः, यतः - " कथ्यं यथातथं तवं शिरच्छेदे हि नान्यथा । " इति विचिन्त्याचक्षावुपाध्यायः - ' अमुष्य यूपस्याधः प्रतिमाऽर्हतस्तत्प्रभावान्निर्विघ्नं यज्ञकर्म्म ' इति श्रुत्वा, दवा च स्वर्णभाजनादि यज्ञस्योपकरणान्युपाध्यायाय, स्वयं तु महर्षी गवेषयन् तत्पदैरेव गतः प्रभवस्वामिपादान्ते, वन्दित्वा क्ति- ब्रूत मोक्षकारणम् । गुरुभिरपि साधुधर्म्म श्रावितः प्रव्राजितश्च क्रमेण गुरुशुश्रूषां कुर्वाणि जातश्चतुर्दशपूर्वी । अथ - " श्रुतज्ञानादिना तुल्यं, रूपान्तरमिवात्मना । प्रभवस्तं पदे न्यस्य, परलोकमसाधयत् ॥ १ ॥ " अथ यदा शय्यम्भव दीक्षामग्रहीत्तदा लोकस्तद्भार्यामपृच्छत् किं तवोदरे गर्भसंभावनाऽस्ति ?, साऽवदत् मनागिति । क्रमेण सुते प्रसूते प्राकृतभाषया 'मणय' इति भणनात् 'मणक' इति नामाभूत् । स चान्यदा मातरमविधवावेषेण पश्यन् पप्रच्छ - ' क्क मे पिता ?, ' मात्रोक्तम्- ' त्वय्युदरस्थे श्वेताम्बरोऽभूत् मयैव त्वं पालित इयन्ति वर्षाणि ' इति वचो निशम्य पितृदर्शनोत्कः स्वमातरं वञ्चयित्वा निर्गतो गेहात् । तदा च शय्यम्भवाचार्यश्वम्पायां विहरति स्म । मणकोऽपि पुण्याकृष्ट इव तत्राययौ, कायचिन्तादिना सूरिः पुरीपरिसरे व्रजन् बालं ददर्श, सोऽपि सूरिं संमुखायातम् । बाल पप्रच्छ सूरि :कस्त्वं कस्य पुत्रः कुतोऽत्रायातः १ तेनापि कथितम् - राजगृहात् सूनुः शय्यम्भवस्य पितृगवेषणार्थं पुरात्पुरं बम्भ्रमीमि, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा दशतकम् । ॥ ११ ॥ www.kobatirth.org यदि पूज्यपादाः जानते तदा कथयन्तु क्व सोऽस्तीति, 'यदि कथञ्चिनिजपितरं पश्यामि तदा तत्समीपे प्रव्रजामी' ति भणिते सूरिराह - ' आयुष्मन् ! तव पिता मत्सुहृत्, शरीरेणाप्यभिन्नः त्वं प्रव्रज ममान्तिके न कोऽपि भेदः पितृपितृव्ययोः ' इति भणित्वा दीक्षितः । तत उपयोगे षण्मासायुषं विज्ञाय - अहो ! अल्पायुरयं कथं श्रुतधरो भविष्यति ? " अपश्चिमो दशपूर्वी, श्रुतसारं समुद्धरेत् । चतुर्दशपूर्वधरः पुनः केनापि हेतुना ॥ १ ॥ " मणकप्रतिबोधकारणेऽस्मिन्नुपस्थिते तदुद्धराम्यहमपि, इति विचिन्त्य सिद्धान्तसारमुद्धृत्य - " कृतं विकालवेलायां, दशाध्ययन गर्भितम् । 'दशवैकालिक 'मिति, नाम्ना शास्त्रं बभूव तत् ॥ १ ॥ " मणकः पाठितः, षण्मासान्ते सूरिकारिताराधनादिको दिवं गतः । तस्मिन् स्वर्ग गते सूरिमजस्रमश्रुपात कुर्वाणं वीक्ष्य यशोभद्रप्रमुख शिष्यवृन्देन परिहृतान्नपानेनैकान्तपिण्डितेन अत्यन्तदुःखितेन स्वगुरुर्विज्ञप्तो यथा " तुम्हारिसा वि वरपहु !, मोहपिसाएण जइ छलिअंति । ता धीर धीर ! भण धीर धीरिमा कत्थ संभूया १ ॥ १ ॥ " ततः सूरिस्तजन्ममरणावधिसम्बन्धमुवाच शिष्येभ्यो मोहराजमाहात्म्यं च, यथा "कृच्छ्राद्रह्मेन्द्र भूतेरजनि परिगतः स्थूलभद्रो विकारं, मुञ्चत्यश्रूण्यजस्रं मणकमृतिविधौ पश्य शय्यम्भवोऽपि । षण्मासान् स्कन्धदेशे शबमवहदसौ हन्त ! रामोऽपि यस्मा, -दित्थं यश्चित्तभूतो भवति भुवि नमो मोहराजाय तस्मै ॥१॥” शिष्यैरुक्तं यदि पूज्यपादा अस्माकमज्ञापयिष्यन् - ' मणकोऽस्माकं तनूजः ' तदा वयं भवदिव तत्पर्युपासनामकरिष्यामहि । सूरिभिरुक्तं-ज्ञातास्मत्पुत्रसम्बन्धा यूयं मणकान्नोपास्तिं कारयिष्यत, स कथं विनोपास्ति निस्तारितः स्यादिति । अथाल्पायुषः कृते कृतं दशवैकालिकसूत्रं संवृणोमीति भणमाणः सूरि श्रीयशोभद्रादिभिः ससङ्घैर्विज्ञप्तः-' अतः परमल्पमेधसो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीशय्यंभवाचार्यः मुनिमनकथ ॥ ॥ ११ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भविष्यन्ति तेऽपि कृतार्था मणकवद् भवन्तु भवत्प्रसादतः ' इत्युपरोधेन न संवत्रे । समये श्रीयशोभद्रं स्वपदे निवेश्य समाधिना स्वर्गमगात् । श्रीशय्यम्भवाचार्याणां वर्षाण्यष्टाविंशति २८ गृहस्थपर्यायः, एकादश ११ वर्षाणि व्रतपर्यायः, त्रयोविंशति २३ वर्षाणि युगप्रधानपदवी, द्वापष्टि ६२ वर्षाणि मासत्रयं दिनत्रयं च सर्वायुः । ॥ इति श्रीशय्यम्भवाचार्याणां लेशतश्चरितम् ॥ अथ श्रीयशोभद्रचार्य श्रीसंभूति][त]विजयसूरिं चैकगाथयाऽनुसरन्नाह - संजणिअपणयभद्दं, जसभद्दं मुणिगणाहिवं सगुणं । संभूयं सुहसंभूइभायणं सूरिमणुसरिमो ॥१३॥ व्याख्या - यशोभद्र नामानं गणाधिपं = साधुसमूहनायकमहम् अनुसरामि= आश्रयामि । यदिवा अनुस्मरामि = ध्यायामि । कीडशम् ? संजनितप्रणतभद्रं= विहितप्रप्राणिकल्याणम् । तथा सगुणं ज्ञानादिगुणोपेतम् । न केवलं श्रीयशोभद्रसूरिं किन्तु सम्भूत्याचार्यमप्यनुसरामि वा । तमपि कीदृशम् ? सुखसंभूतिभाजनं सुखानि = शातानि तेषां संभूतिः =संभव उत्पत्तिरिति यावत् तस्य भाजनं = स्थानम् आश्रय इति यावत् सुखसंभूतिभाजनम् । अयमभिप्रायः - साधूनां रागद्वेषाभिनिवेशक्लेशलेशैर्दुःखहेतुभिरस्पृष्टचेतसां यत्सुखं तत्कुतः क्रोधेर्ष्याविषादमायालोभाद्यभिभूतानां शक्रादीनामपीति, तदुक्तम् " नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिव साधो - लकव्यापाररहितस्य ॥ १ ॥ निर्जितमदमदनानां वाकायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशाना- मित्र मोक्षः सुविहितानाम् ॥ २ ॥ " For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा र्द्धशतकम् । ॥ १२ ॥ www.kobatirth.org ततस्तस्य भगवतो ज्ञानामृतसागरस्य सुखसंभूतिभाजनत्वे किमस्ति वाच्यमिति गाथार्थः ॥ १३ ॥ श्रीयशभद्राचार्याणां गृहस्थपर्यायो २२ द्वाविंशतिवर्षाणि, व्रतपर्यायश्चतुर्दश १४ वर्षाणि, युगप्रधानपदं ५० पञ्चाशद् वर्षाणि सर्वायुष्कं ८६ षडशीतिवर्षाणि मास ४ दिवस ४ चतुष्कं च । तथा श्रीयशोभद्राचार्यैः स्वर्जग्मुभिः स्वपदे निवेशितौ चतुर्दशपूर्वधरौ श्रीभद्रबाहु - श्रीसंभूतिविजयाचार्यों, तत्र संभूयमितिविजयमर्द्धगाथयाऽनुस्मृत्य श्रीभद्रबाहुस्वामिचतुर्दशपूर्वधरं स्वचेतोगोचरीकुर्वन्नाहसुगुरुतरणीइ जिणसमयसिंधुणो पारगामिणो सम्मं । सिरिभदबाहुगुरुणो, हिअए नामक्खरे धरिमो ॥ व्याख्या - शोभनो ज्ञानदर्शनचारित्रालङ्कृतः, स चासौ गुरुव-धर्माचार्यः, स चात्र भगवान् आर्यसंभूतविजयः स एव तरणी = नौर्यानपात्रमित्यर्थस्तया हेतुभूतया जिनसमयसिन्धोः = अर्हत्प्रवचनार्णवस्य पारगामिनः = पारदृश्वनः साङ्गचतुर्दशपूर्व धारिण इत्यर्थः, सम्यक् = निष्कौटिल्यं शुद्धभावेनेत्यर्थः श्रीभद्रबाहुगुरोर्हृदये = चित्ते नामाक्षराणि= अभिधानवर्णान् धारयामि= आरोपयामि अविच्युत्या स्मरामीति यावदिति गाथार्थः ॥ १४ ॥ अत्र संभूतविजयाचार्याणां द्विचत्वारिंश ४२ द्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, चत्वारिंश ४० द्वर्षाणि व्रतपर्यायः, अष्टौ वर्षाणि ८ युगप्रधानपदं, सर्वायुर्नवति ९० वर्षाणि मास ५ दिन प पञ्चकं च ॥ _der श्री भद्रबाहु स्वामिनः पञ्चचत्वारिंश ४५ द्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, सप्तदश १७ वर्षाणि व्रतपर्यायः, चतुर्दश १४ वर्षाणि माससतकं दिनसप्तकं च । एतयोः सतीर्थ्यत्वादेकत्र सर्वायुर्मणनमिति || For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीयशोभद्राचार्यः श्रीभद्र बाहु:श्रीसंभूति विजयश्व ॥ ॥ १२ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie AHARAS434 अथार्यसंभृतविजयदीक्षितं श्रीभद्रबाहुदत्तपूर्ववाचनं श्रीस्थूलभद्रं गाथापचकेन स्तुवन्नमस्कुर्वश्वाहसो कहं न थूलभद्दो,लहइ सलाहं मुणीण मज्झमि।लीलाइ जेण हणिओ, सरहेण व मयणमयराओ॥ कामपईवसिहाए, कोसाए बहुसिणेहभरियाए । घणदडजणपयंगाए, जीए वि जो झामिओ नेय।१६।। जेण रविणेव विहिए इह,जणगिहे सप्पहं पैयासंती।सययं सकज्जलग्गा,पहयपहा सा सणिद्धा वि॥१७॥ जेणासु साविआ साविआ,कया चरणकरणसहिएणं।सपरेसिं हिअकए सुकयजोगओ जो तमपच्छिमं चउद्दस-पुवीणं चरणनाणसिरिसरणं । सिरिथूलभद्दसमणं, वंदे हं मत्तगयगमणं ॥१९॥ ____एतासां व्याख्या-सा प्रसिद्धः कुमुदकुमुदबान्धवहिमहारशरदभ्रस्वकीर्तिसुधाधवलितब्रह्माण्डमण्डपः कथं केन प्रकारेण स्थूलभद्रः-शकटालविपुलकुलनभस्तलमण्डनाखण्डचण्डगभस्तिः श्रीमदार्यसंभृताचार्यवर्यशिष्योत्तंसः श्रीभद्रबाहुस्वामिमुक्ताफलस्वच्छगच्छधुराधरणधवलधौरेयो न लभते=न प्राप्नोति श्लाघां-वर्णनीयतां प्रशंसामित्यर्थः, मुनीनां साधूनां मध्ये=3 अन्तरे ?, अपि तु लभत एवेत्यर्थः । येन लीलया हेलया अवगणनया हतः परासुतां प्रापितः शरमेणेव अष्टापदतिर्यग्विशेषेणेव मदन एव-कन्दर्प एव मृगराजा पश्चाननः । तथा श्रीस्थूलभद्रश्रमणमहं वन्दे इति सम्बन्धः । कीदृशम् ? मत्तग१ 'पहासंती' इति पाठान्तरम् । 45 For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधरसादेशतकम् । श्रीस्थूल भद्रचरित्रम् ॥ जगमनं मदकलकलभचक्रमणम् । यो नैव ध्यामितः तदङ्गरूपदर्शन-स्पर्शनचिन्तन-तद्गुणोत्कीर्तन-सकामभाषण-केलीकर- णादिना नैव ध्यामलीकृतः नैव कलुषित इत्यर्थः । कया ? कोशया कोशाभिधानवेश्यया । कीदृक्षया ? काम एव प्रदीपो दीपकस्तस्य शिखेव शिखा-ज्वाला तया । अत्रापि कीदृश्या? बहुस्नेहभृतया, तत्र दीपशिखापक्षे स्नेहस्तैलं ततश्च प्रचुरतैलपूरितया, कोशापक्षे च स्नेहश्चेतसि दृढानुरागवन्धस्ततः प्रचुरप्रेमपरिपूर्णया । वेश्या हि प्रायशो निःस्नेहा भवन्ति अर्थानुरागित्वात्तासां पुरुषेषु कृत्रिमस्नेहकारित्वात् , तदुक्तम्“ अत्थस्स कारणट्ठा, मुहाई चुंबति वंकविरसाई । अपावि जाण पेसो, कह ताण पिओ परो हुजा ॥१॥ चोप्पडपडयं मसिमंडिअंपि रामिति अत्थलुद्धाओ । सक्खं चिय संपत्तं, मुहाइ विण्डं पि नेच्छंति ॥२॥" परं तया न तादृश्या । पुनः कीदृश्या ? 'घणदड्डजणपयंगाए 'त्ति दग्धा=प्लुष्टाः ( भैक्षिताः) धनाः प्रभूता जना एव-लोका एव पतङ्गाः शलभा यया सा तया, तथाविधयापि यया यो नैव ध्यामित इति । 'दड्डे' त्यनन्तरं 'घणे' ति पाठप्रसक्तावपि गाथाभङ्गभयात्प्राकृते चादुष्टत्वात्पूर्वनिपातः।१६। तथा येन रविणेव-भास्करेणेव विहिताः कृता इह-जगति जना एव गृहं तत्र जनगृहे लोकभवने 'सप्पहं' ति स्वप्रभां-निजमाहात्म्यं रूपलावण्ययौवनसौभाग्यादितेजः प्रकाशयन्ती-प्रकटयन्ती, 'पहासंती' इति पाठे तु प्रभासयन्ती-उद्दीपयन्ती । यदि वा जनानां लोकानां गृहं जनगृहं तत्र 'अ'स्य लुप्तस्य पाठात् 'असप्पहं' ति असत्पथं वेश्यामद्यमांसाद्यासेवनलक्षणसन्मार्गातिक्रमम् । एवं नाम सा कोशा १ 'उषिताः' इति भार्च दग्धार्थकत्वात् । P॥१३॥ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूपयौवनादिगुणशालिनी, येन तत् व्यामूढो जनो गृहगतः-* यदि कोशासङ्गमः कथञ्चिदेकदापि स्यात्तदा खजीवितसाफल्यं मन्यामहे, धन्यास्ते य एतस्याः कटाक्षलक्षीभूताः, ये चानया साई हसन्ति रमन्ते च ' इत्यादि चिन्तयन् सदाऽवतिष्टेति, सत्पथातिक्रमश्चायम् । दीपशिखापक्षे स्वप्रभा-खदीप्तिम् । सततं सर्वदा खकार्ये=सुरभिलक्षपाकतैलाभ्यङ्गोद्वर्त्तनविलेपननानाभक्तिकर्णाट-लाटा-न्ध्र-द्रविड-टक्क-काश्मीर-जालन्धर-सपादलक्ष-मालव्य-गूर्जरत्रादिनानादेशीयवसनविच्छित्तिपरिधानहारार्द्धहारकटककुण्डलादिरत्नाभरणभूषाकरण-नानाप्रकारसुस्वादुतिक्तशालनकोपयोजनभोजनप्रान्तताम्बूलास्वादन| नानालप्ति-भङ्गीप्रवरगीतकलाचित्रवर्णकविचित्रकलाभ्यसन-बकुल-विचिकिल-मालती-शतपत्रिकादिमालाशीर्षकण्ठारोपणगन्धग्रहण-नर्मचस्तरी विस्तारण--शृङ्गाररसोत्कटनाटिकाकाव्यदोहकश्रवण--पठन--सुरतव्यापारा-दर्शमण्डलमुखावलोकनकेशकलापसमारचन-नखसंस्कारण-केशधूपन-स्वर्णचक्कलकमसूरकाद्युपवेशन-गण्डोपधानगल्लमसरिकोपशोभितसुखपल्यका. रोहण-परचित्तोपलक्षण-पररञ्जन-परद्रव्यापहरणादिलक्षणे लग्ना-दत्तावधाना केवलं तदेकचित्तेत्यर्थः। दीपशिखापक्षे च 'सकन्जलग्ग' ति सकजलं अग्रम्-उपरितनभागो यस्याः सा तथा । कीदृशी कृता? इत्याह-प्रहतप्रभा निर्मथितरूपयौवनसौन्दर्यादिदर्पमाहात्म्या सा सुकोशारूपदीपशिखा स्निग्धापि अत्यन्तस्नेहलापि, दीपशिखापक्षे च अरूक्षा । 'बहुसिणेहभरियाए ' इति पूर्वगाथोदितपदेनैव स्निग्धत्वे प्रतिपादिते यदत्र पुनः 'स्निग्धापि'-इत्यभिधानं तत् , प्रियादिस्नेहस्य प्रतिवन्धकारणत्वप्रख्यापनार्थ, तथा चोक्तम् " भजासिणेहनत्थाए नथिया सयणरज्जुपडिबद्धा । कम्मजुगसमकता, भवारहढे भमंति जिआ ॥ १॥" For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसा. द्धशतकम् । | भद्र ॥१४॥ ... (५) १०) (1 ) AAAAAAAA परं भगवान् स्नेहपाशैन बद्धः, किन्तु सा प्रहतप्रभैव कृतेति । तथा येन-आशु-शीघ्र 'साविआ' श्राविता धर्म-18|श्रीस्थूलमिति गम्यते श्राविका कृता । कीदृशेन ? चरणकरणसहितेन-चरणं च करणं च चरणकरणे ताभ्यां सहितेन=समन्वितेन, तत्र चरणं सप्ततिभेदं तद्यथा ४ चरित्रम् ।। " वय-समणधम्म-संजम,-वेयावच्चं च बंभ-गुत्तीओ । नाणाइति तब-कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥ १॥" क्रमेण पश्च-दश-सप्तदश-दश-नव-त्रिक-द्वादश-चतुर्भेदैः सप्ततिसंख्यम् । करणमपि" पिंडविसोही समिई, भावण पडिमा य इंदिअनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु ॥१॥" इदमपि चतुः-पश्च-द्वादश-द्वादश-पश्च-पञ्चविंशति-त्रि-चतुर्भिः प्रकारैः सप्ततिभेदम् । स्वपरयो आत्मेतरयोहितकृते-गुणाय स्वर्गापवर्गार्थमित्यर्थः । तस्यामेकस्यां प्रतियोधितायां समस्तचतुर्दशरज्वात्मके लोकेऽमारिघोषणाकरणात्स्वर्गापवर्गयोरात्मसात्कृतत्वे आत्मनो हितं संपद्यते । यदा तु रथिकारादेः परस्य सा प्रतिबोधमाधास्यति तदा परहितत्वं संपत्स्यते । एवं तस्या अपि स्वपरहितत्वमवसेयमित्यभिप्रायः। सुकृतयोगतः पुरोपचितपुण्यसंपर्कात् योग्यताम् उचितत्वं दृष्ट्वा-विज्ञायेत्यर्थः । १७ । १८ । तं श्रीस्थूलभद्रश्रमणं वन्दे स्तवीमीति सम्बन्धः । 'अपच्छिमं' ति न विद्यते पश्चिमो यस्मादिति अपश्चिमः । केषाम् ? चतुर्दशपूर्विणाम्-उत्पादपूर्वादि-चतुर्दशपूर्वाणि सूत्रतोऽर्थतश्च कण्ठाग्रे विद्यन्ते । येषां ते चतुर्दशपूर्विणस्तेषाम् । चरणज्ञानश्रीशरणम्-इह श्रीशब्दस्य प्रत्येकाभिसम्बन्धाच्चरणश्रीनिश्रीश्च, तत्राद्या-लोचवि-17 ॥१४॥ -69C%-43006 For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धानानुपानहत्व-धराशयन-प्रहरद्वयरजनीस्वाप-शीतोष्णसहन-षष्ठाष्ठमादिबाह्यतपोऽनुष्ठानाल्पोपकरणधरण-पिण्डविशोधननानाद्रव्याद्यभिग्रहकरण-विकृतिसंत्यागैकसिक्थादिपारणक-मासकल्पविहार-कायोत्सर्गविधानकषायपरिहारादिका संयमश्रीः, अपरा चतुर्दशपूर्वाध्ययना-ध्यापन-सम्यक्तत्त्वालोचना-संख्येयभवकथनानेक मन्यजनबोधनप्रमुखा ज्ञानलक्ष्मीः,तयोश्च चरणज्ञानश्रियो शरणं गृहम् । मत्तगजगमनंम्मदोन्मत्तद्विपगतिमिति गाथापश्चकार्थः ।। १५-१९ ।। श्रीस्थूलभद्रस्य युगप्रवरस्य गृहस्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि० ३०, व्रतपर्यायश्चतुर्विंशतिवर्षाणि २४, युगप्रधानत्वं पञ्चचत्वारिंशद्वत्सराणि ४५, सर्वायुर्नवनवति ९९ वर्षाणि पश्च ५ मासाः पञ्च ५ दिनानि चेति । अथार्यमहागिर्यार्यसुहस्तिनौ श्रीस्थूलभद्रशिष्यो विशेषणविशेष्यद्वारेणानुसरन् गाथाद्वयमाहविहिआ अनिगृहविरिअ-सत्तिणा सत्तमेण संतुलणा। जेणजमहागिरिणा, समइकंते विजिणकप्पे॥ तस्स कणिटुं लटुं, अजसुहत्थि सुहत्थिजणपणयं । अवहत्थिअसंसारं, सारं सूरिं समणुसरिमो॥२१॥ ____ व्याख्या-आर्यसुहस्तिनं गणधरं समनुसरामः सम्यग् एकाग्रचित्ततयाऽनुगच्छामः, सम्यगनुगमनं चाराध्यस्यैव विधीयते न त्वनाराध्यस्य तत आराधयाम इति संटङ्कः । कीदृशम् ? सुखार्थिजनप्रणतं शातैषिलोकप्रणिपतितम् , अथवा शोभना:= भद्रजातीया हस्तिनो-गजा येषां ते सुहस्तिनः, ते च राजानः सम्प्रतिराजप्रमुखाः, जनावराजवर्गपौरजनपदाद्या लोकास्तैः प्रणतम् । यदि वा शुभं श्रेयः पुण्यं धर्ममिति यावत्, तद् अर्थयन्ते ये ते शुभार्थिनो भव्याः सुखार्थिनो वा, तल्लक्षणो For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा ईशतकम् ॥ १५ ॥ www.kobatirth.org जनः = लोकस्तेन प्रणतम् । अपहस्तितो = गलहस्तितः संसारो=भवो येन तं तथा । प्रत्यासन्नमुक्तिगमनत्वात्तादृशं सारम् = उत्कृष्टं सूरिम्=आचार्यम् । पुनः कीदृशम् ? कनिष्ठं=लघीयांसं गुरुभ्रातरमिति गम्यते । कस्य ? इत्याह- तस्य । तस्य कस्य ? इत्याह येन विहिता = चक्रे संतुलना=सम्यक्स्वशक्तिकलना । क्व १ इत्याह- जिनकल्पे= "मणपरमोहिपमुहाणि "इत्यादिपूर्वगाथाव्याख्यातकिश्चित्स्वरूपे । किंविशिष्टे ? समतिक्रान्तेऽपि = अतीतेऽपि श्रीजम्बूस्वामिनि व्यवच्छिन्नेऽपि । अनिगूहिते = अनपते वीर्यशक्ती येन तेन तथा, तत्र वीर्यम् = आन्तरं मानसिकं बलं, शक्तिः = शारीरं बलं यथोत्साहेनेत्यर्थः । केन ? इत्याह- आर्यमहागिरिणा = आर्यमहागिरिनानाऽऽचार्येणेति गाथायुगार्थः ।। २० ।। २१ ।। आर्यमहागिरिनानामाचार्याणां त्रिंशद्वर्षाणि ३० गृहस्थपर्यायः, चत्वारिंशद्वर्षाणि ४० व्रतपर्यायः, त्रिंशद्वर्षाणि ३० यौगप्राधान्यम्, सर्वायुर्वर्षशतं १०० मास ५ दिनपञ्चकं ५ चेति ॥ तथा आर्यसुहस्तिसूरीणां त्रिंशद्वर्षाणि ३० गृहस्थपर्यायः, चतुर्विंशतिवर्षाणि २४ व्रतपर्यायः, पचत्वारिंशद् वर्षाणि ४६ युगप्रधानपदं वर्षशतं १०० मासपङ्कं ६ दिनपङ्कं ६ च सर्वायुरिति ॥ एभ्योऽनन्तर शास्त्रान्तरे श्रुतावतारादौ शतवर्षायुर्गुणसुन्दराचार्यादष्टोत्तरशतवर्षायुष्कस्कन्दिलाचार्यादयोऽन्येऽपि युगप्रवरा यद्यपि प्रतिपादितास्तथापि तेषां तथाप्रसिद्धेरभावादत्र तत्र भगवद्भिस्ते नोपन्यस्ता इति संभाव्यते । अथार्थसमुद्राचार्यार्यमङ्गुसूर्यार्यसुधर्माचार्यान् एकयैव गाथया नमस्कुर्वन्नाह - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री आर्य महागिरि सुहस्तिदृष्टान्तः ॥ ॥ १५ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजसमुदं जणयं, सिरीइ वंदे समुद्दगंभीरं । तह अज्जमंगुसूरिं, अजसुधम्मं च [ सुं] धम्मरयं ॥ २२ व्याख्या – अहम् आर्यसमुद्राचार्यं वन्दे =नमस्करोमि । कीदृशम् ? श्रियो = ज्ञानादिलक्ष्म्या जनकम् = उत्पादकम् । शेषविशेषणपरिहारेण साभिप्रायमेतद्विशेषणं यतः समुद्रः श्रियो = लक्ष्म्याख्यसुतायाः जनक:- पिता भवतीति ध्वन्योऽर्थः । पुनः किम्भूतम् १ समुद्रवद् गम्भीरम्=अलब्धमध्यं, तथा च गाम्भीर्य लक्षणम् " यस्य प्रभावादाकाराः, क्रोधहर्षभयादयः । बहिःस्था नोपलभ्यन्ते, तद्गाम्भीर्यमुदाहृतम् ॥ १ ॥ " तथा आर्यमरिं च= पुनरार्यसुधर्म्म ' वन्दे । किं विशिष्टम् ?' सुधम्मरयं ' शोभनधम्मँ = क्षान्त्यादिदशप्रकारे वृषे रतं= सस्पृहम् । एतद्विशेषणमेतयोर्द्वयोरपि [सु ]धर्म्मरतत्वात्संगतमेवेति गाथार्थः ॥ २२ ॥ एषां त्रयाणां चरितं कापि विशिष्टं न दृष्टम् । आर्यसुधर्माचार्याणामष्टादश १८ वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि ४४ व्रतपर्यायः, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि ४४ युगप्रवरपदं सर्वायुः पटुत्तरं शतं १०६ मासपञ्चकं ५ दिनपञ्चकं ५ चेति ॥ अथ भद्रगुप्तगणनायकमभिवादयन्नाह - मण-वयण कायगुत्तं तं वंदे भद्दगुत्तगणनाहं । जइ जिमइ जई जम्मंडलीए तो मरइ तेहिं समं ॥२३॥ १ सुघम्मरयं इति टीकायां लिखितत्वात् । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 श्रीमद्रगुप्ताचार्यः श्रीवजस्वामी च॥ % पत गणधरसा- व्याख्या-मनसा चित्तेन वचनेनबाचा कायेन वपुषा च गुप्तं निभृतंत्रातं त्रिगुप्तिगुप्तमित्यर्थः, तं वन्दे अभिवादयामि देशतकम् । भद्रगुप्तगणनाथं-भद्रगुप्ताभिधानगणधरम् । यस्य मण्डली यन्मण्डली तस्यां यन्मण्डल्यां, किल सप्त मण्डल्यो भवन्ति सूत्रादिकाः परमत्र प्रस्तावान्मण्डली भोजनमण्डली गृह्यते, यदि जेमति-भुक्ते यतिः-साधुस्ततः तदानीं म्रियते-विपद्यते तैरेव भद्रगुप्ताचार्यैः सम-सा मिति सौभाग्यसुन्दरोक्तिः । एतच्चरितं वैरस्वामिचरितप्रतिबद्धमवसेयम् । | अस्यैकविंशति २१ वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, पञ्चचत्वारिंशद्वर्षाणि ४५ दीक्षापर्यायः, एकोनचत्वारिंशद्वर्षाणि ३९ युगहै। प्रधानपदं, पश्चोत्तरशतं १०५ पश्च मासाः ५ पश्च दिनानि ५ सर्वायुः प्रमाणमिति गाथार्थः ॥ २३ ।। इदानीं किश्चिच्चरितमुत्कीर्तनपूर्व श्रीवज्रस्वामिगणधरं नमस्यन् गाथाचतुर्दशकं प्राहछम्मासिएण सुकयाणुभावओ जायजाइसरणेणं। परिणामओऽणवजा, पवजा जेण पडिवन्ना ॥२४॥ | तुंबवणसन्निवेसे, जाएणं नंदणेण नंदाए । धणगिरिणो तणएणं, तिहुअणपहुपणयचरणेणं ॥२५॥ इक्कारसंगपाढो, कओ दढं जेण साहुणीहिंतो। तस्सज्झायज्झयणुज्जएण वयसा छवरिसेणं ॥ २६ ॥ सिरिअज्जसीहगिरिणा, गुरुणा विहिओ गुणाणुरागेणं। लहुओ वि जो गुरुकओ, नाणदाणाओऽसेससाहणं ॥ २७ ॥ ACHEॐ AREKACHAR ॥१६॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SARAKASAMANARRANA उज्जेणीए गहिअवओ लहू गुज्झगेहिं वरिसंते। जो 'सुजइ' त्ति निमंतिअ, परिक्खिओ पत्ततत्विज्जो ॥ उद्धरिया जेण पयाणुसारिणा गयणगामिणी विजा। सुमहापइन्नपुवाओ सबहा पसमरसिएण ॥२९॥ दुक्कालम्मि दुवालस-वारिसिए सीयमाणसंघम्मि। विजाबलेण माणिअ-मन्नं जेणन्नऽखित्ताओ।३०। सुररायचावविब्भम-भमुहाधणुमुक्कनयणबाणाए।कामग्गिसमीरणविहिअपत्थणावयणघडणाए ॥३१ 8| लटुंगपइट्ठाए, सिट्ठिसुयाए विसिट्ठचिट्ठाए । गुणगणसवणाओ जस्स दंसणुकंठिअमणाए ॥ ३२ ॥ | निअजणयदिन्नधणकणयरयणरासीइ जोन कन्नाए। तुच्छमवि नमुच्छिओ जुब्बणेवि धणिअंगुणड्ढाए। जलणगिहाओ माहेसरीए कुसुमाणि जेणमाणित्ता। तिवन्निआण माणो मलिओ संधुन्नई विहिआ॥ दूरोसारिअवइरो, वइरो नामेण जस्स बहुसीसो। सीसो जाओ जाओ, जयम्मि जायाणुसारिगुणो॥ कुंकुण-विसए सोपारयम्मि सुगुरुवएसओजेण। कहिअसुभिक्खमविग्धं, विहिओ संघो गुणमहग्यो। तमहं दसपुत्वधरं, धम्मधुराधरणसेससमविरिसिरिवइरसामिसूरिं, वंदे थिरयाइ मेरुगिरि ॥३७॥ व्याख्या-तमहं श्रीवैरस्वामिमूरि वन्दे-नमस्यामीति सम्बन्धः । कीदृशम् ? दशपूर्वधरं, धर्मधुराधरणशेषसमवीर्य For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie गणधरसादेशतकम् । धर्मस्य हि आधारः प्रवचनम् , अतः प्रवचनमहामारधारणभुजङ्गराजपराक्रमम् । पुनः किम्भूतम् ? स्थिरतया अक्षोभ्यत्वेन श्रीवज्रमेरुगिरि-सुमेरुमहीधरमिति । विशेषणत्रयम् । एतेन चासाधारणज्ञानादिगुणत्रयालङ्कतत्वं तस्य भगवतो व्यनक्ति-'तथाहि दश- स्वामिगुणपूर्वधर'-मित्यनेन युगान्तवर्तिश्रुतधरशिखामणित्वं, 'धर्मधुराधरणशेषसमवीर्यम्', इत्यनेन त्रैवर्णिकवर्णवक्त्रवैवर्ण्यनिर्वर्णनोत्क-16 स्तुतिः॥ र्णसकर्णाभ्यर्णवरसुश्रद्धापरायणश्राद्धनिकरविलोक्यमानमुखपङ्कजमालोक्य श्रीदेवतावितीर्ण-तत्कालविदीर्ण-सत्पर्ण-सुवर्णपङ्कजसौगन्ध्यावन्ध्यबन्धुरमधुररससंपूर्णबहुपर्णशतपत्रिका-बकुल-विचिकिल-मालती-नवमालिका-मल्लिकादिसारपुष्पसंभारपूरितव्योमतलागच्छद् दूरादाकर्ण्यमानजृम्भकसुरवाद्यमानातोद्यगन्धर्वगीतनादवधिरीकृतदिक्चक्ररत्नचक्रत्वि[विग्]मण्डलारचिताखण्डलचापचक्रप्रतिमानत्रिदशयानाधिरोहणपूर्वकश्रीजिनशासनप्रभावनाकरणेनात्यन्तसम्यग्दर्शननैर्मल्यमभिहितम् भवति । तथा 'स्थिरतया मेरुगिरिम्' इत्यनेन च त्रिपरीक्षाप्रवृत्तभीमाज्ञया प्रदीयमानपुष्पफलामानरसास्वादपूरघृतपूरप्रस्तावप्रस्तुतशैशवावस्थाऽसंभाव्यद्रव्यक्षेत्राद्युपयोगयोगतश्चारित्रिचक्रचक्रवर्त्तित्वमुक्तम् । तं वन्दे ॥ ३७॥ येन पाण्मासिकेन-मासपटूजातेन सुकु-* तानुभावतोजातजातिस्मरणेन समुद्भूतपूर्वभवानुभूतावबोधेन परिणामतः भावतो निश्चयत इति यावत् , अनवद्या-निष्पापा प्रव्रज्या दीक्षा प्रतिपन्ना अङ्गीकृता ॥ २४ ॥ कीदृशेन येन ? तुम्बवनसंनिवेशे-तुम्बवनाख्यपत्तने जातेन नन्दनेन-अङ्गजेन नन्दायाः सुनन्दायाः 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायात् , धनगिरेरिभ्यपुत्रस्य तनयेन-पुत्रेण त्रिभुवनप्रभुप्रणतचरणेन-लोके ये नायकास्तैनमस्कृतक्रमकमलेन ॥ २५ ॥ तथा एकादशाङ्गपाठः-आचाराङ्गपाठ: आचाराङ्गायेकादशाङ्गानां पाठः- ॥१७॥ ॥ 161 For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie अध्ययनं कृतो-विहितः कर्णाहतकेन दृढं निश्चलं वर्षसहस्रेणाप्यविस्मृतेः येन भगवता साध्वीभ्यः संयतीभ्यः सकाशात् । कीदृशेन सता ? ' तस्सज्झायज्झयणुञ्जएणं' ति, तासाम् आर्यिकाणां स्वाध्यायश्च निशीथिन्यादौ गुणनं च, अध्ययनं चपाठश्च, तत्स्वाध्यायाध्ययने, तयोरुद्यतेन-सावधानेन । तथा वयसा-अवस्थया षड्वार्षिकेण-वर्षषटप्रमाणेन । 'वयसा छवरिसेणं' इति वदतोऽस्य प्रकरणकर्तुरयमाम्नायाभिप्रायो लक्ष्यते-यदुत षड्वार्षिक उपाश्रयानिर्गतः, अन्यत्र तूपदेशमालावृत्यादौ | " अदुवरिसो अज्जियापरिस्सयाओ निकालिओ" इति दृश्यते, इत्यत्र तचं बहुश्रुता विदन्तीति । तथा श्रीआर्यसिंहगिरिणा= आराद्यातः पापेभ्य इत्यायः, स चासौ सिंहगिरिश्च तेन, गुरुणा-धर्माचार्येण विहितः कृतो गुणानुरागेण विनयप्रवृत्तित्वप्राज्ञत्व-वापाटवत्व-सुरूपत्व सुभगत्वादिगुणबहुमानिना लघुरपि अल्पवया अपि यो गुरुः वाचनाचार्यों ज्ञानदानतः श्रुतवितरणात् शेषसाधूनाम्-आत्मव्यतिरिक्तमुनीनाम् ।।२७।। तथा उज्जयिन्यां नगर्यां गृहीतव्रतः-उपात्तदीक्षो लघुः बालो गुह्यकापूर्वभववयस्यामरैः वर्षतिजलं मुश्चति धाराधरे इति गम्यते, यः सुयतिरिति-सुसाधुरयमिति वितळ निमन्त्र्य-'भगवन् ! प्रसादं कृत्वाऽस्मदाहारग्रहणेन निस्तारयास्मान् इत्यामन्त्र्य परीक्षितः-पुष्पफलाहारप्रतिषेधे 'सुसाधुरय 'मिति निश्चितस्ततः प्राप्ततद्विद्यः-लब्धजृम्भकामरवितीर्णवैक्रियलब्धिविद्यः ।। २८ ।। तथा उद्धृता-इतस्ततो विक्षिप्ता सती संघटिता येन भगवता, कीदृशेन सता ? पदानुसारिणा-पदानुसारिलब्धिमता, का उद्धृता ? गगनगामिनी-आकाशगामिनी विद्या-देवताधिष्ठिता वर्णपद्धतिः, कस्मा? दित्याह-' सुमहापइन्नपुवाओ' त्ति पूर्वात्-नानाविधातिशयोपेतग्रन्थात् कीदृशी विद्या ? १' कहतकेन '-कान से सुन कर अभ्यास करने से । For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसाईशतकम् । ॥१८॥ सुमहा-सुशोभनं महः-तेजः-अतिशयप्रभावो यस्याः सा सुमहा, 'पइन्न' त्ति प्रकीर्णावर्णव्यतिक्रमेण निक्षिप्ता । | श्रीवजउपदेशमालाऽऽवश्यकवृत्यादौ " महापरिनज्झयणाओ आगासगामिणी विजा उद्धरिआ।" इत्युक्तम् , हेमाचारप्येवमे- स्वामिगुणवोक्तम्-" महापरित्राध्ययनादाचाराङ्गान्तरस्थितात् । विद्योदः भगवता संघस्योपचिकीर्षुणा ॥१॥” इति, परमत्र यत् |8| स्तुतिः॥ " पूर्वात् " इत्युक्तं तत् , अतिशयनिधानं पूर्वाण्येव ततस्तेभ्य एव महापरिज्ञाध्ययने सा पृष्ठतोऽग्रतश्च वर्णान् विधाय पूर्वाचार्यैर्विक्षिप्ता । ततश्च दशपूर्वाणि भगवतैवाधीतानि, पदानुमारिलब्ध्या अग्रेतनपूर्वगतेब सोद्धृता, या च यत्र वर्तते सा तस्मादुद्धृता, इत्यभिप्रायेण, इति वयं मन्यामहे, अन्याभिप्रायं तु श्रुतधरा जानते । कीदृशेन भगवता ? सर्वथा प्रशमरसिकेन=सर्वप्रकारेणोपशमरसास्वादलम्पटेन । यदि हि प्रशमरसिको न स्यात्तदा कथमादितो जन्मकालसमनन्तरमेव भावतः प्रव्रज्यामङ्गीचकारेति ॥ २९ ॥ तथा-दुष्काले दुर्भिक्षे द्वादशवार्षिके द्वादशवर्षप्रमाणे सीदति तथाविधशरीराधारपिण्डाभावेन कृशाङ्गीभवति 'सप्तमीलोपःप्राकृतत्वात् ' सङ्घ श्रमणसमृहे 'सीदत्सङ्घ' इति, समस्तं वा, विद्याया बलं-शक्तिर्विद्याबलं तेन आनीतम् उपढौकितम् , अन्न-पिण्डसमाहारो येन अन्यक्षेत्रात्-दवत्तिदेशान्तरात् ॥ ३० ॥ तथा-यो न मूर्छितो न लोभं गतः न मोहितस्तुच्छमपि=मनागमपि यौवनेऽपि-उदग्रतारुण्येऽपि सति । कया? इत्याह-श्रेष्ठिसुतया सार्थवाहपुत्र्या, कीदृश्या ? सुरराजः शक्रस्तस्य चापः कोदण्डस्तेन विभ्रमः सादृश्यं ययोस्ते सुरराजचापविभ्रमे, तादृशी ये ध्रुवौ% नेत्रोपरि वक्ररोमराजीरचनाविशेषौ, ते एव धनुः शरासनं तेन सुरराजचापविभ्रमभ्रधनुषा मुक्ते नयने एव बाणौ यया सा तथा तया । पुनः कीदृक्षया ? ' कामग्गिसमीरणविहिअपत्थणावयणघडणाए' अत्र विहितशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते मध्ये M For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | निपातः प्राकृतत्वात् ततो विहिता-कृता कामाने: मदनवहरुद्दीपनत्वेन समीरणरूपा-बायुसमाना प्रार्थनावचनानाम्' हे निजरूपनिर्जितकन्दर्परूप ! सौभाग्यनिधे ! लावण्यसमुद्र ! सौन्दर्यनिधान ! प्रसीद परिणय मां, त्वदेकजीविता त्वदेकशरणाऽहम्' इत्यादिरूपाभ्यर्थनावाक्यानां घटना=रचना यस्या सा तथा तया । यदि वा-कामाग्निसमीरणरूपा विहिता तादृकस्नेहस्योचिताऽनुरूपा प्रार्थनावचनघटना यस्या सा तथा तया ।। ३१ ।। तथा लष्टा-मनोहरा अङ्गप्रतिष्ठा=शिरोललाटपट्टनेत्रोःस्थलपयोधरभुजायुगलहस्तनखोरुजङ्घानितम्बस्थलाद्यवयवसंस्थानं यस्याः सा तथा तया। विशिष्टा-उत्कृष्टा चेष्टा लीलालोकितजल्पितस्मितगतभ्रूनर्तितामूयितक्लान्तोत्कम्पितसीत्कृतप्रमुदितश्लिष्टादिव्यापारो यस्याः सा तथा तया । पुन: कथम्भूतया ? यस्य गुणगणश्रवणात्-रूपलावण्यसौभाग्यादिचरितोक्तस्वाङ्गोत्थितधर्मसमूहाकर्णनाद्दर्शनोत्कण्ठितम् अवलोकनोत्सुकं मनो-हृदयं यस्याः सा तथा तया दर्शनोत्कण्ठितमनसा ॥ ३२ ॥ तथा निजजनकेन स्वपित्रा दत्ता-वितीर्णा धनकनकराशि: स्वर्णरत्नादिपुञ्जो यस्याः सा तथा तया, कन्यया कुमार्या, किंबहुना धणि अत्यर्थ गुणाढ्यया-सकलगुणसमृद्ध्या ॥३३॥ तथा ज्वलनगृहात हुताशनभवनात् माहेश्वर्यां नगर्यां कुसुमानि-पुष्पाणि 'जेणमाणित्ता' येन मकारोऽलाक्षणिकः, आनीय-उपढौक्य 'तिवन्नियाण' त्रैवर्णिकाणां शाक्यानां मानो-दो मलितो मर्दितो दलितः, सङ्घोन्नतिः=1 शासनप्रभावना विहिता-चक्रे ॥३४॥ तथा यस्य च भगवतो वैरषेणो नाम्ना शिष्यः अन्तेवासी जाता=समुत्पेदे ! कीदृशः? दूरोत्सारितवैरः विप्रकृष्टाप्रसारितविरोधा, बहुशिष्या प्रभूतनागिलचन्द्रोदेहिकादिविनेयः 'जाओ' जातो-गीतार्थः जगति-लोके जातानुसारिगुणः-जातो गीतार्थस्तस्य चेदं स्वरूपम् SCRECRORSCSC-C404 For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा ईशतकम् । ॥ १९ ॥ www.kobatirth.org " गीयं भन्नइ सुत्तं, अत्थो पुण होइ तस्स वक्खाणं । गीयरस य अत्थस्स य, संजोगा होइ गीयत्थो ॥ १ ॥ " ततश्च जातं = गीतार्थम् अनुसरन्ति = अनुगच्छन्तीत्येवंशीला जातानुसारिणस्तादृशा गुणा यस्य स तथा । अयमभिप्रायःकश्चिद्गीतार्थो भवति परं तदनुसारिगुणो न भवति, तथा च श्रूयते सिद्धान्ते अङ्गारमर्दको नाम द्रव्याचार्यों गीतार्थो न चासौ गीतार्थानुसारिचरित इति ।। ३५ ।। तथा कुङ्कणविषये कुङ्कणाख्ये देशे सोपारके पत्तने सुगुरूपदेशतः श्रीवैरस्वामिनिजधर्माचार्यवाक्यात् येन वज्रसेनक्षुल्लकेन कथयित्वा = निगद्य सुभिक्षम् = अन्नप्राचुर्यं [' अविग्धं ' अविघ्नम् | ] विहितः= कृतः सङ्घो = ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रय पवित्रित साधु साध्वीश्रावक श्राविकारूपों गुणैः- मूलोत्तरलक्षणैर्महाघ- महामूल्यो दुर्लभ इत्यर्थः ॥ ३६ ॥ यस्य च शिष्येण वज्रसेनेनैवं चक्रे तमहं श्रीवस्वामिनं वन्दे । इति गाथा चतुर्दशक संक्षेपार्थः ॥ २४-३७ ॥ “ पंचसु ससु वरिसाणमइगएसुं जिणिंदकालाओ । बइरो सोहग्गनिही, सुनंदगमे समुत्पन्नो ॥ १ ॥ अंगोवंगाई अहिजिऊण विजापभावगो जाओ। सिश्विहरसामिसूरी, जुगपवरो भारहे वासे || २ || " अत्र चरिते वर्षत्रितयमस्य गृहस्थपर्याय उक्तः, शास्त्रान्तरेऽष्टौ ८ वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि ४४ दीक्षा पर्यायः, षट्त्रिंशद्वर्षाणि ३६ युगप्रधानपदम्, अष्टाशीतिवर्षाणि ८८ माससप्तकं ७ दिनसप्तकं ७ च सर्वायुः ॥ अथ तत्पट्टोदयाचलचूलाखण्डमण्ड नचण्डररिंम श्री आर्यरक्षिताचार्यं किञ्चिचरितोत्कीर्त्तनपूर्वकमभिष्टुवन् गाथा दशकमाह For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीवज्रस्वामिनः। ॥ १९ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra +6 এব www.kobatirth.org निअजणणिवयणकरणम्मि उज्जुओ दिट्टिवायपढणत्थं । तोसलिपुत्तंतगओ, ढड्डरसड्डाणुमग्गेण ॥ ३८ ॥ सड्डाणुसारओ विहिअसयलमुणिवंदणो य जो गुरुणा । अकयाणुवंदणो सावगस्स जो एवमिह भणिओ ॥ ३९ ॥ को धम्मगुरू तुम्हाणमित्थ य तेणावि विणयपणएणं । गुरुणो निदसिओ सो, ढड्डरसड्डो विअड्डेण ॥ ४० ॥ अकगुरुनिहवेणं, सूरिसयासम्म जिणमयं सोउं । परिवज्जिअ सावज्जं पव्वज्जगिरिं समारूढो ॥ ४१ ॥ सीहत्ता निक्खंतो, सीहत्ताए य विहरिओ जो उ । साहिअनवपुवसुओ, संपत्तमहंतसूरिपओ ॥ ४२ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6% % Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणघरसाईशतकम्। श्रीआर्यरक्षिताचार्यः॥ ॥२०॥ REAS सुरवरपहुपुढेणं, महाविदेहम्मि तित्थनाहेण । कहिओ निगोयभूयाणं भासओ भारहे जो उ ॥ ४३ ॥ जस्स सयासे सक्को, माहणरूवेण पुच्छए एवं । भयवं ? फुडमन्नेसिअ, मह कित्तिअमाउअं कहसु ॥ ४४ ॥ 'सक्को भवं ' ति भणिओ, मुणिउं जेणाउअप्पमाणेणं । पुढेण निगोयाणं वि वन्नणा जेण निद्दिट्ठा ॥ ४५ ॥ हरिसभरनिब्भरेणं, हरिणा जो संथुओ महासत्तो । जेण सपयम्मि सूरी वि ठाविओ गुणिसु बहुमाणा ॥ ४६ ॥ रक्खिअचरित्तरयणं, पयडिअजिणपवयणं पसंतमणं । तं वंदामि अजरक्खिअ-मलक्खिरं तं खमासमणं ॥ ४७ ॥ ROCROSAG ARL ॥२०॥ For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Si Kailasagarsuri Gyarmandie आसां व्याख्या-तम् आर्यरक्षितक्षमाश्रमणम्-आर्यरक्षिताभिधानक्षान्तितपोधनमहं वन्दामीति संटकः। यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तं वन्दे यः, किम् ? इत्याह-यो निजजनन्याः स्वमातुर्वचनकरणे 'किं त्वं दृष्टिवादमधीत्यागतो येनाहं सन्तुष्यामि ?' | इत्युक्त्योपदिष्टदृष्टिवादादेशविधाने उद्यतः सोद्यमः सादरः सप्रयत्न इति यावत् , दृष्टिवादपठनार्थ-द्वादशाङ्गाध्ययनार्थ तोसलिपुत्राख्यानामाचार्याणामन्ते-समीपे गतः-प्राप्तः । कथं गतः ? ' ढड्डुरसड्ढाणुमग्गेण ' ढड्डरश्राद्धानुमार्गेण ढडराभिधानश्रावकानुवर्मना ॥ ३८ ॥ श्राद्धानुसारतो ढड्डरश्रावकस्यानुकरणेन विहितम् अनुष्ठितं सकलमुनीनां समस्तसाधूनां. वन्दनं पश्चाङ्गप्रणिपतनं येन स तथा । 'चः' समुच्चये, यो गुरुणा-तोसलिपुत्राचार्येण अकृतानुवन्दना=अविहितपश्चाद्वन्दनः श्रावकस्य श्रमणोपासकस्य य एवम् इत्थम् इह-जगति भणितः-प्रतिपादितः ॥ ३९ ॥ यद्भणितस्तदाह-को धर्मगुरुः-धर्माचार्यों युष्माकं-भवताम् अत्रभारते क्षेत्रे ? भूयसामाचार्याणां सम्भवात् , इति पृष्टे 'तेणावि विणयपणएणं' ति, अत्र 'तेणावि ' इति पाठोऽशुद्ध इव लक्ष्यते, 'तं वन्दामी' त्यग्रतस्तच्छब्दार्थसाङ्गत्यात्तदेति तदनन्तरं भूयोऽपि बहुशो यच्छन्दनिर्देशाच्च ततः 'जेणावि ' इति न्याय्यः पाठः । येन च ' अपि' शब्दस्य 'चा'थत्वात् , विनयेन-अहङ्कारपरिहारेण प्रणतो नम्रस्तेन गुरोः=तोसलिपुत्रस्य निदर्शितः-नितरामङ्गुलीभ्रूसज्ज्ञादिना चक्षुर्विषयीकृतः सः पूर्वनिर्दिष्टः, | कोऽसौ ? ढङ्गुरश्राद्धो विदग्धेन-विचक्षणेन ॥ ४० ॥ अत एव कीदृशेन ? अकृतगुरुनिह्ववेन अविहितस्वधर्माचार्यापलापेन, यतो यस्य यस्माद्धाभ्युपगमस्तस्य स एव गुरुः, तथा चोक्तम् " जो जेण सुद्धधम्म-मिठाविओ संजएण गिहिणा वा । सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाणाओ ॥१॥" For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसाशतकम् । ॥ २१ ॥ www.kobatirth.org ' अकगुरुनिह्ववेणं' एतत्पदं पूर्वगाथायां संबध्यते । तथा 'सूरिमयासम्मि जिणमयं सोउं परिवजिअ सावजं पद्मजगिरिं समारूढो' अत्र पूर्वतोऽग्रतो वा समाकृष्य 'यः' इति योज्यते, यः प्रव्रज्यागिरिं प्रव्रज्यैव = अर्हद्दीक्षैव गिरि:- शैलस्तम् । अयमभिप्रायः = यथा दुर्बलगात्रैर्निः सवैर्दृष्टिविकलैः पङ्गुभिः पादभङ्गभीरुभिः पुरुषैम्लेंच्छादित्रासाक्रान्तैरपि न दुर्गपर्वतशिरस्यध्यारोढुं शक्यते, तथा अनिर्जितेन्द्रियैर्विशिष्टमनः प्रणिधानवर्जितैः सम्यग्दर्शनदुरापास्तैः कौतुकनाटकादिनिरीक्षणाक्षिप्तचित्तैः प्राणिभिर्जन्मजरामरणरोगशोक दारिद्रयादिदुः खचक्रावष्टब्धैरपि न स्वर्णाखर्व्वपर्वत दुईहपश्च महाव्रतमहाभारः सम्यग्वोढुं पार्यत इति । समारूढः=अध्यासितः परितः = नामस्त्येन त्रिविधत्रिविधेनेत्यर्थः, वर्जितं त्यक्तं सावद्य= सपापं यजनयाजनवेदाध्ययनाध्यापना- प्रासुकजलस्नान = वीवाह करणकारणक्षेत्र कर्षण - नक्षत्रतिथिसूचन-मृषा भाषणाऽदत्तादान मैथुनसेवनपरिग्रहविधान - रात्रिभोजनाद्यनुष्ठानं यत्र प्रव्रज्याग्रहणे तत्परिवर्जितसावद्यम् एवं यथा भवति । यदि वा परिवर्ज्य - परित्यज्य, किं तत् कर्म्मतापनं १ सावद्यमित्यर्थः सर्वसावद्ययोगपरिवर्जनरूपत्वात्प्रव्रज्यायाः । किं कृत्वा प्रव्रज्यागिरिं समारूढः ? तत्राह - श्रुत्वा = आकर्ण्य, कम् १, जिनमतं =जिनागमं क्व ? सूरिसकाशे = प्रस्तावात्तोसलिपुत्राचार्यसन्निधौ । अयमाशयः - जिना - गमश्रवणमन्तरेण न विशिष्टज्ञानसद्भावः तदभावे च न भवव्रततिपरशुसमान शुभध्यानसमुल्लासः, तदभावे च व्यर्थमेव प्रव्रज्याग्रहणं, यदुक्तम् " मानुष्यं विफलं वदन्ति हृदयं व्यर्थं वृथा श्रोत्रयो- र्निम्र्माणं गुणदोषभेदकलना तेषां न सम्भाविनी । दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्तिं बुधा दुर्लभां, सार्वज्ञः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः ॥ १ ॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only श्री आर्यरक्षिता चार्यः ॥ ॥ २१ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सद्गुरुमुखाजिनागमश्रवणे च प्रव्रज्याशिखरिशिखरारोहः सुतरामसम्मोह इति ॥ ४१ ॥ तथा-'सीहत्ता निक्खंतो सीहत्ता एव विहरिओ जो उ' त्ति, अत्र तुशब्दस्य चार्थत्वात्-यच्च सिंहतया निष्क्रान्तः सिंहतया च विहृत इति, अयमभिप्राय:-किल प्रव्रज्यायां विहारे चत्वारो भङ्गाः सिद्धान्तेऽभिहितास्तद्यथा "सीहत्ताए निक्खंतो सीहत्ताए विहरइ १, सीहत्ताए निक्खतो सियालत्ताए विहरइ २, सियालत्ताए निक्खंतो सीहत्ताए बिहरइ ३, सियालत्ताए निक्खतो सियालत्ताए विहरह।" तत्र ये केचन महासत्वाः स्वरसत एवाविर्भूतवैराग्या निष्कपाया जितेन्द्रिया दुस्सहक्षुत्पिपासादिद्वाविंशतिपरीषहोपसवर्गविसहना दीनवृत्तित्ववितीर्णविस्तीर्णवक्षःस्थलाः स्वच्छत्वसौम्यत्वादिगुणगणालङ्कृतशरीराः सन्तः क्षान्त्यादिभेददशकासेवनरूपां भागवतीं दीक्षामभ्युपेत्य विशिष्टविशिष्टतरचारित्रभावनोल्लासवशीकृतचेतसः स्वजीवितपर्यन्तं यावत्ता निर्वाहय-16 न्ति ते तीर्थकच्चक्रभृन्महापुरुषगणधरप्रमुखाः प्रथमभङ्गके द्रष्टव्याः १। ये च पूर्व 'किमनेनानेकानर्थनिवन्धनेन दुर्गतिपातहेतुना राज्येन ?, निर्विष्णोऽस्म्येतस्माचातुर्गतिकदुःखप्रचुरात् संसाराद् , बहुविधासमञ्जसकुलगृहान् धिग्विषयान्' इत्यादराद्दीक्षां प्रतिपद्य पश्चात्प्रमादवशात्प्रादुर्भवद्विषयाभिलाषोत्कलिकाक KARECRC4-4 4-१० For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसाशतकम्। ॥२२॥ दाग्रहग्रस्तबुद्धयस्ता भगवद्दीक्षां विजहति उत्सूत्राचरणेन कलङ्कयन्ति, ते च कण्डरीकजमालिप्रभृतयो द्वितीयभङ्गकानुपातिनो श्रीआर्यनिश्चयनीयाः । रक्षिताये च केचिद्धात्रादिस्नेहमोहाद्दीक्षा प्रतिपत्य भावनिर्मोक्षाभावात्स्ववचनप्रतिबद्धत्वादिना भावतो दीक्षापराङ्मुखा अपि ||चार्यः ।। दीक्षामातिष्ठन्ते, ते जम्बूस्वामिपूर्वभवान्तरजीवभवदेवचन्द्रावतंसकुलनभस्तलगभस्तिमालिविशांपतिगुण-चन्द्रनरेन्द्र-साधु खलिकारश्रवणोद्भविष्णुप्रबलतरामर्षवशदुतशिक्षार्थसमायातसागरचन्द्रमुनीन्द्र-बलात्कारारोपितचारित्रभारपश्चाजातशुद्धचरणपरिणामपुत्रपराजयप्रतिज्ञाततच्छिष्यभावक्षुल्लकमुखार्णवसमुच्छलदतुच्छनिर्विकल्पविकल्पजल्पलोलदहलकल्लोलमालासंक्षुब्ध. वादिलब्धवर्णचिलातीपुत्रजीवपूर्वभवान्तरयज्ञदेवाभिधद्विजादयः पश्चादुत्पन्नशुद्धचारित्रास्तृतीयभङ्गके निरूपणीयाः ३ । ये च केचन बुभुक्षाक्षामकुक्षयो द्रमका महौदरिका निर्द्धनाः कोपनाः शठा निष्कृपाः, किंबहुना द्यूतवेश्या-चौर्य-पारदार्य-परवञ्चनाद्यनर्थशााखिशाखाप्रवर्द्धनकुल्यासेकतुल्याः केवलं भक्षणार्थमुपाददते दीक्षां, पश्चादपि तथैव चेष्टन्ते ते पापा अगृहीतनामधेया असंख्येयाश्चतुर्थभङ्गकगुप्तौ निक्षेपणीयाः ४, इति । ____ तदेष भगवान् समस्तगुणरत्नरत्नाकरः प्रथमभङ्गकसौधावतसंकशिखरे रत्नकलशवत्समारोहमहतीत्युक्तं भगवता प्रकरणकारेण-'सिंहतया निष्क्रान्तः सिंहत्वेन विहृत' इति ।। ___ दुष्टाष्टकर्मकरिघटाकुट्टाकशौर्यवृत्तियुक्तत्वात्सिंह इव सिंहस्तस्य भावः सिंहता तया निष्क्रान्ता प्रबजितः, सिंहतया १ 'कुट्टाक' छेदन । ॥२२॥ MISCALSCREE NAGAR For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir चोपसर्गपरीषहरागद्वेषादिश्वापदाधृष्यतया च विहृतः सर्वत्र महीमण्डले, अगञ्जितमल्लः परिभ्रान्त इत्यर्थः । 'त्ता' इति द्विर्भावः प्राकृतत्वात् । यदि वा निष्क्रान्तः, कस्मात् ? सिंहत्वाद्धेतोरिति व्याख्येयम् । साधिकानि नव पूर्वाणि श्रुतं यस्य स तथा । संप्राप्तं-लब्धं महद्-युगप्रधानत्वेन गुरुतरं सूरिपदम्-आचार्यपदं येन स तथोक्तः॥ ४२ ॥ तथा सुरवरप्रभुणाशक्रेण पृष्टेनअनुयुक्तेन महाविदेहे क्षेत्रे तीर्थनाथेन-सीमन्धरस्वामिना कथितो भणितो निगोदाभिधानां भूतानां-जीवानां भाषक:उपदेष्टा भारते क्षेत्रे 'जो उ' ति 'तु' शब्द एवकारार्थः, य एव नान्यस्ताहग निगोदजीवानां स्वरूपप्रतिपादकः॥ ४३ ॥ तथा यस्य च सकाशे-समीपे शक्रः इन्द्रो ब्राह्मणरूपेण-विप्राकारेण पृच्छति-अनुयुते एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, तमेवाह'भयवं' इत्यादि, भगवन् ! समग्रैश्वर्यरूपयशः-श्रीधर्मप्रयत्नप्रवणपात्र! स्फुट-प्रकटं निश्चितम् अन्विष्यनिरूप्य मम कियन्मात्रं-किं परिमाणम् आयुः जीवितं ? कथय-आदेशय ॥ ४४ ॥ तथा 'शको भवान् '=इन्द्रस्त्वम् इति भणित:= उक्तो मुणित्वा=ज्ञात्वा आयुषः प्रमाणेन-सागरोपमद्वितयरूपेण पृष्टेन निगोदानामपि वर्णना-स्वरूपसुश्लिष्टप्रतिपादनं येन निर्दिष्टा प्रतिपादिता ॥ ४५ ॥ तथा हर्षभरनिर्भरेण-प्रमोदप्रकरपरिपूरितेन हरिणा-" यमानिलेन्द्रचन्द्रार्क,-विष्णुसिंहांशुवाजिषु । शुकाहिकपिमेकेषु, हरिर्ना कपिले त्रिषु ॥१॥" इत्यभिधानकोशो ( अमर० नानार्थ० १७५) तानेकार्थत्वे. ऽपि प्रस्तावादिह-इन्द्रेण यः संस्तुतः-प्रणुतो महासत्त्वो-महावीर्यः। येन च स्वपदे 'सूरी वि'त्ति मूरिः-दुर्बलिकापुष्प १......हरि,-दिवाकरसमीरयोः ॥४७६॥ यमवासवसिंहांशु, शशाङ्ककपिवाजिघु । पिङ्गवणे हरिद्वणे, भेकोपेन्द्रशुकाहिषु ॥ ४७७ ॥ लोकान्तरे च... ............... ॥ इति हेमानेकार्थसङ्ग्रहः । For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir गणधरसादेशतकम्। श्रीआर्य| रक्षिताचार्यः॥ ॥२३॥ HEARCACANBCN XI मित्रः, अपिशब्दश्चार्थस्तस्य व्यवहितसम्बन्धः स च योजित एव, निजपट्टे स्थापितः-अध्यारोपितः प्रमाणीकृत इति यावत् , कुतः १ गुणिषु बहुमानात्-ज्ञानादिगुणपात्रेषु चित्तानुरागदाात् । महात्मनां हि गुणा एव गौरवस्थानं न चेश्वरपुत्रस्वजनमित्रादयो गुणविकला अपि, उक्तश्च" गुणा गौरवमायान्ति, न महत्योऽपि सम्पदः । पूर्णेन्दुः किं तथा वन्यो,-निष्कलको यथा कृशः॥१॥" ॥ ४६॥ कीदृशमार्यरक्षितम् ? रक्षितचरित्ररत्न-सम्यक्प्रतिपालितचारित्रमणिं, प्रकटितजिनप्रवचन-प्रभावितभगवच्छासनं, प्रशान्तमनसम्-उपशान्तचेतोव्यापारम् , अलक्षितम्-अलब्धमध्यं जलधिगम्भीरमित्यर्थः, वन्दे आर्यरक्षितमिति गाथादशकार्थः ॥ ३८-४७॥ पंचसया चुलसीया (५८४ ), तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अब्बद्धि[वि]आण दिट्ठी दसपुरनयरे समुप्पन्ना ॥१॥" शेषनिह्ववपटूस्वरूपमावश्यकवृत्तेरवसेयमिति ॥ अत्र श्रीआर्यरक्षिताचार्याणां द्वाविंशतिवर्षाणि २२ गृहस्थपर्याय:, चत्वारिंशद्वर्षाणि ४० व्रतपर्याय:, त्रयोदश वर्णाणि १३ यौगप्राधान्यं, पञ्चसप्ततिवर्षाणि ७५ माससप्तकं ७ दिनसप्तकं ७ च सर्वायुरिति ॥ अथ कांश्चिद्भगवतो युगप्रवरागमान् सामान्यध्वनिनैव स्मृतिमानीयाऽऽत्मनः शरणीकुर्वन् गाथायुगलमाह तयणु जुगपवरगुणिणो, जाया जायाण जे सिरोमणिणो । सन्नाण-चरणगुणरयणजलहिणो पत्तसुयनिहिणो ॥४८॥ ॥२३॥ For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परवाइवारवारण, - वियारिणो जे मियारिणो गुरुणो । ते सुगहिअनामाणो, सरणं मह हुंतु जइपहुणो ॥ ४९ ॥ व्याख्या--तदनु=तत्पश्चाद् युगप्रवरा : = युगप्रधानास्ते च ते गुणिनश्च - क्षान्त्यादिगुणयुक्ताश्च युगप्रवरगुणिनो ये जाताःअभूवन् ते मम शरणं त्राणं भवन्तु संपद्यन्तामिति सम्बन्धः । तत्र युगप्रवरस्वरूपमनेनैव भगवता प्रकरणकारेण प्रतिपादितं, तद्यथा " नाणदंसणसंजुत्तो, खित्तकालाणुसारओ । चारिते वट्टमाणो जो, सुद्धधम्मस्स देसओ पासत्थाईभयं जस्स, माणसे नत्थि सङ्घद्दा । सङ्घविजाए तत्तन्नू, खमाइगुणसंगओ अणुसोयचाणं, पडिसोएणं तु बट्टए जो उ। गड्डरिपवाहपडिए, तिविह तिविहेण वजे सव हु करणिजं, करिज सिद्धंतहेउजुत्तीहिं । जं न वि रुज्झइ सिज्झइ, पाएण विणात्रि संदेहं खाइगसम्मद्दिट्ठी, जुगप्पहाणागमं च दुष्पसहं । दसवेयालिअकहगं, जिणं व पुजति अतिअसवई एवं निअनिकाले, जुगप्पहाणो जिणु व दट्ठवो । सुमिणे वि नाणुसोयं, मन्नह पडिसोयगामी य आगम आवरणासम्मएण मग्गेण संपरं च फुडं । जो नेइ सया न य रागदोसमोहाण वसवत्ती १ संपरं कषायम् । For Private and Personal Use Only ॥ १ ॥ ।। २ ।। तथा ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ || 6 || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19666 * 96*36-% *%% %%%% Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा र्द्धशतकम् । ॥ २४ ॥ www.kobatirth.org ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ किंबहुना - ।। १२ ।। सगुणगुरुपारतंत, समुहंतो विहिं परूवेई । विसयं वियाणमाणो, सम्माणइ गुणजुअं संघ गुणिगुरुजणप्पणीयं, पकर्हितो नेय वह परेसिं । जणणीजणगाईणं, सयावि सद्धम्मवजाणं फुडपागडं परूवर, जिणगणहरभासिअं तु सदहह । दहइ कुसामग्गितरुं, तरुणोवि गुणेहि बुड्डो व सोमो महुरालाबी, भयमुको सङ्घहावि निकलंको । निचं परोवयारी, पवयणपरिबुड्डिकारी य पुरओ जस्स ननस्स, जओ हुअ विवाइणो । भवे जुगप्पहाणो सो, सवसुक्खकरो गुरु वारसंगाणि संघो य, वृत्तं पवयणं फुडं । पासायमिव खंभो व, तं धरेइ सयावि सो तदाणा यवतो, संघो भन्नड़ सम्गुणो । विअप्पेण विणा सम्मं, पावए परमं पर्य एतेषां चाराध्यपादपद्मानां श्रीयुगप्रधानाचार्याणां श्रीसुधर्मस्वामिनमारम्य श्रीदुष्प्रमभाचार्यं यावन्महानिशीथसिद्धान्ते एकस्मिन् समये एको भवति युगपतिर्युगप्रवरः एतावत्प्रमाणाश्च अत्र भविष्यन्तीत्यभिहितमस्ति, यथा— “ इत्थं चायरिआणं, पणपन्न हुंति कोडिलक्खा य । कोडिसहस्से कोडी, सए य तह इतिए चैव एएसिं मज्झाओ, एगे निवड गुणगणाइने । सव्युत्तमभंगेणं, तित्थयरस्साणुस रिसगुरू दुप्पसहो जा साहू, होहिंति जुगप्पहाण आयरिआ । अञ्जसुहम्मप्पभिई, चंउरहिआ दुन्नि अ साहस्सा सो चेव गोयमादि-पवयणसूरित्थणो य सेसाई । तं तह आराहिजा, जह तित्थयरे चउद्दी १ " चउरहिआ " इत्यत्र “ चउसहिआ " इति पाठेन भाव्यम्, चतुरधिकसहस्रद्वययुगप्रधानानां प्रसिद्धत्वात् न तु 'चतुरहिताना 'मिति । For Private and Personal Use Only 112 11 118 11 ।। १३ ।। ॥ १४ ॥ " ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीयुगप्र धानाचार्य नमस्कारः तत्स्वरू पश्च ॥ ॥ २४ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कीदृशा जाताः ? इत्याह-जातानां - गीतार्थानां शिरोमणयो=मुकुटकल्पाः । तथा 'सज्ञानचरणगुणरत्नजलधयः 'तत्र ज्ञायते येन वस्तुजातं तज्ज्ञानम् - अवबोधः चर्यते= आसेव्यत इति चरणं = चारित्रं, द्वितयमप्यनेकप्रकारम्, तथा यज्ज्ञानं तत् श्रद्धानं विना न भवति प्रकाश इव तिमिस्राभावमन्तरेण, तथा चारित्रमपि सम्यक्त्वं विना न स्यात् देदीप्यमानमहारनमिवोद्योतमन्तरेण ततश्च सन्ति शोभनानि च तानि ज्ञानचरणानि च तान्येव गुणाः सज्ज्ञानचरणगुणास्त एव रत्नानि - माणिक्यानि तेषां जलधयः = समुद्रास्तदुत्पत्तिस्थानत्वात् सज्ज्ञानचरणगुणरत्नजलधयः । तथा प्राप्तश्रुतनिधयः = लब्धाङ्गोपाङ्गरूपसंवेगमहामाणिक्याकीर्ण परिपूर्णागमसेवधयः (४८) पुनः किम्भूताः ? परवादिनाम् - अक्षपाद - कणाद-सांख्य-सौगतजैमिनीय - बार्हस्पत्यानां वारः = समूहः स एव वारणो हस्ती तस्य विदारणं - करटतटस्फाटनं तत्र ये मृगारयः पञ्चाननाः गुरवः=सूरयः श्रीदुर्बलिकापुष्पमित्राऽऽर्यनन्द्याऽऽर्य नागहस्ति- रेवतक- स्कन्दिल हिमवन्- नागोद्योतनमूरि- गोविन्द - भूतिदिनप्रभृतयो युगप्रधानावलीप्रोक्ताचार्याः, ते सुगृहीतनामान इति, सुष्ठु शोभनं भूत-प्रेत-पिशाच - शाकिनी - योगिनी - चक्रपरचक्रज्वरापस्मारा-कस्मिकातङ्कशङ्काक्षुद्रोपद्रवसमस्त विघ्नापहारिसकलकल्याणकारि पवित्रं गृहीतम् - उच्चारितं सत् नाम= अभिधानं येषां ते तथा, मम शरणं भवन्तु जगत्प्रभवः - त्रिभुवननायका इति गाथाद्वयार्थः ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ अथ संवेगसारप्रशमरत्यादिनानाप्रकारप्रकरणकरणपरमोपकारित्वात् श्रीउमास्वातिवाचकस्य चरणौ नमस्यन् गाथा - युग्ममाह पसमरइपमुहपयरण, - , - पंचसया सक्कया कया जेहिं । पुव्वगयवायगाणं तेसिमुमासाइनामाणं ॥ ५०॥ ५ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SSA श्रीउमावा. | तिवाचकचरित्रम् ॥ गणधरसा पडिहयपडिवक्खाणं, पयडीकयपणयपाणिसुक्खाणं । देशतकम् । पणमामि पायपउमं, विहिणा विणएण निच्छउमं ॥ ५१ ॥ ॥२५॥ व्याख्या-तेषामुमास्वातिनाम्नां पादपद्म=चरणकमलं प्रणमामि नमस्यामीति सम्बन्धः । कथं ? विधिना=पञ्चाङ्गप्रणि पातादिरूपेण, विनयेन-वचनदेहप्रहतया, निश्छद्म-निर्माय भावसारमित्यर्थः। यैः किम् ? इत्याह-प्रशमरतिः प्रमुखम्= आद्यो येषां तानि प्रशमरतिप्रमुखाणि तानि च प्रकरणानि च प्रशमरतिप्रमुखप्रकरणानि तेषां पञ्चशताः (पुमानव्यस्त्रि) प्रशमरतिप्रमुखप्रकरणपञ्चशताः, प्रमुखशब्दात्तवार्थश्रावकज्ञप्त्याचबरोधः, कृताः विदधिरे, कीदृशाः ? संस्कृताः-गीर्वा४ाणवाणीविरचिताः। तेषां कीदृशानाम् ? पूर्वगतवाचकानाम् उत्पादादिपूर्वान्तर्गतवस्तुपाठकानाम् । पुनः किं विधानाम् ? प्रतिहतप्रतिपक्षाणां-प्रतीप: स्याद्वादाविपरीतो वादिनोपन्यस्तः, पक्षमाध्यधर्मविशिष्टो धर्मी प्रतिकूलप्रतिज्ञेत्यर्थः, प्रतिहतः पराभूतः प्रतिपक्षो यैस्ते तथोक्तास्तादृशानाम् । एतावता प्रतिपक्षप्रतिक्षेपणपूर्वक-स्वपक्षप्रतिस्थापनेन वादलब्धिसंपन्नतया यः प्रभावकः स युगप्रवरो भवतीत्याविष्कृतं, तदुक्तम्___ "पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सी य । विजासिद्धो य कई, अद्वैव पभावगा भणिया ॥१॥ अद्रुहं गुणमज्झे, इक्केण गुणेण संघपच्चक्खं । तित्थुन्नतिं कुणंतो, जुगपवरो सो इहं नेओ ॥२॥ १ अवरोधः-अन्तर्भावः ॥ maans ॥२५॥ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिणसासणस्स कब्जे, पभावणं कुणइ लोयमज्झम्मि । चरणकरणेहिं जुत्तो, समयन्नू सो जुगप्पवरो ॥३॥" तथा प्रकटीकृतप्रणतप्राणिसौख्यानां विविधदेशनया प्रादुर्भावितासम्भावितत्रिदिवशिवसातानामिति परार्थसम्पादनेन 12 ४] परमोपकारित्वोक्तिरिति, तेषां पादपद्मं जात्यैकत्वेन विवक्षितं प्रणमामीति गाथाद्वयार्थः ॥ ५० ॥५१॥ स्वपाण्डित्याडम्बरदूरदरतरोत्त्रासितभूरिसूरि श्रीहरिभद्रमूरिं तदवदातचरितोत्कीर्चनपूर्वकं प्रणमन् गाथाष्टकमाहजाइणिमहयरिआवयणसवणओ पत्तपरमनिवेओ। भवकारागाराओ, साहंकाराउ नीहरिओ॥५२॥ सुगुरुसमीवोवगओ, तदुत्तसुत्तोवएसओ जो उ। पडिवन्नसत्वविरई, तत्तरुई तत्थ विहिअरई ॥५३॥18 गुरुपारतंतओ पत्तगणिपओ मुणिअजिणमओ सम्म। मयरहिओ सपरहिअं, काउमणो पयरणे कुणइ॥ चउदससयपयरणगो,निरुद्धदोसो सया हयपओसो। हरिभद्दो हरिअतमो, हरि व जाओ जुगप्पवरो॥ उइयंमि मिहिरि भई, सुदिट्ठिणो होइ मग्गदसणओ। तह हरिभदायरिए, भदायरिअम्मि उदयमिए॥ जं पइ केइ समनामभोलिया भोऽलियाई जंपति। चिइवासि दिक्खिओ सिक्खिओय गीयाण तं न मयं॥ हयकुसमयभडजिणभडसीसो सेसु व धरिअतित्थधरो । जुगवरजिणदत्तपहुत्तसुत्ततत्तत्थरयणसिरो॥ तं संकोइअकुसमयकोसिअकुलममलमुत्तमं वंदे। पणयजणदिन्नभई, हरिभद्दपहुं पहासंतं ॥ ५९॥ For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा शतकम् | ॥ २६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या—याकिनीमहत्तरावचनश्रवणतः प्राप्तपरम निर्वेदः = संजातसुजातभववैराग्यः भवकारागारात् = संसारचारकगृहात् स्वाहङ्कारात् = निजावलेपात् निर्गतः निःसृतः, यतः - " जे जत्तिआ य हेऊ, भवस्स ते चैव तत्तिआ मुक्खे | गणणाईया लोया, दुहवि पुणा भये तुल्ला || १ || " ॥ ५२ ॥ तथा सुगुरोः = जिन भटस्य समीपे उपगतः = प्राप्तः, तदुक्तसूत्रोपदेशतः = जिनभटोक्त सिद्धान्त निर्दिष्टविशिष्टधर्म्मवाक्याकर्णनात्, यश्च 'तुः' पूरणार्थ: प्रतिपन्ना - अङ्गीकृता सर्वविरतिर्येन स तथा । तवेषु = सूत्रोक्तेषु रुचिः = श्रद्धानं यस्य स तस्वरुचिः । तत्रैव=भगवद्वचने विहिता रतिः - अत्यन्तासक्तिर्येन स तत्र विहितरतिः ।। ५३ ।। तथा गुरुपारतन्त्र्यात् = गुरुपारवश्यात्, यदि वा गुरुपारतन्त्र्येण= गुरुपरम्परया प्राप्तं लब्धं गणिपदम् = आचार्यपदं येन स तथा । मुणितं ज्ञातं जिनमतम् = अर्हच्छासनं येन समुणितजिनमतः । सम्यक् = याथातथ्येन 'मयरहिओ' मदरहितः = अहङ्कारप्रमुक्तः स्वपरयोर्हितं कर्त्तुमनाः - आत्म तद्व्यतिरिक्तोपकारकरणावहितचित्तः सन् प्रकरणानि शास्त्राणि करोति विधत्ते, तत्कालापेक्षया वर्त्तमाननिर्देशः ॥ ५४ ॥ तथा चतुर्दशशतसङ्ख्यानां पञ्चवस्तुको -पदेशपद-पञ्चाशका-ष्टक-पोडशक-विंशिका - लोकतन्वनिर्णय-धर्म्मबिन्दु - योगबिन्दु - योगहष्टिसमुच्चय-दर्शनसप्ततिका-नानाचित्रकगृहन्मिथ्यात्वमथनपश्ञ्चसूत्रक-संस्कृतात्मानुशासन- संस्कृतचैत्यवन्दनभाष्या - नेकान्तजयपताका-ऽनेकान्तवादप्रवेशक-परलोकसिद्धि-धर्मलाभसिद्धि - शास्त्रवार्त्तासमुच्चयादिप्रकरणानाम्, तथा आवश्यकवृत्ति-दशवैकालिकबृहद्वृत्ति-लघुवृत्यो- घनिर्युक्तिवृत्ति - पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति - जीवाभिगमवृत्ति-प्रज्ञापनोपाङ्गवृत्ति - चैत्यवन्दनवृत्य-नुयोगद्वारवृत्ति - नन्दिवृत्ति-संग्रहणीवृत्ति - क्षेत्र समासवृत्ति शास्त्रवार्त्तासमुच्चयवृत्य - ईच्छी चूडामणि समरादित्यचरितकथा - कोशादि For Private and Personal Use Only श्रीहरिभद्रसूरि चरित्रम् ॥ ॥ २६ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शास्त्राणां गावो वाण्यस्ताभिर्निरुद्धा: = अवष्टब्धा निषिद्धा दोषाः = राग-क्रोध-मद- मात्सर्य - माया-निद्रा-शोक-प्राणिवधा लीकवचन - परद्रव्यापहारवराङ्गनासङ्ग-परिग्रहाग्रह - द्यूतक्रीडा - मद्यपान- पिशितभक्षण- वेश्या- पापद्धिं प्रसक्तिप्रभृतयो येन स चतुर्दशशतप्रकरणगोनिरुद्धदोषः । सूर्यपक्षे गावः- किरणाः दोषा = रात्रिः । सदा-सर्वदा, हतः = अपास्तः प्रद्वेषः = क्रोधाहङ्कारभावो येन स हतद्वेषः । सूर्यपक्षे च प्रकृष्टा दोपाचौर्यपारदारिकत्वादयः । हरिभद्रः हरिभद्राभिधानाचार्यः, हृततमाः = निरस्ताज्ञानः । सूर्यपक्षे तमः=तमिस्रम् | हरिरिव=सूर्य इव जातः बभूव युगप्रवरः = युग प्रधानः ॥ ५५ ॥ तथा उदिते= उद्गते मिहिरे = सवितरि भद्रं कल्याणं सुदृष्टे := निर्मलचक्षुषः मार्गदर्शनात्=अध्यनिरीक्षणात् भवति, अयमभिप्रायः- सूर्योदये मार्गे चौरचरटाहिकण्टकादयः सुतरां प्रकटीभवन्ति ततः शक्तौ तत्पराजयेन दूरतः पलायनेन वा प्राणिनां कुशलं संपनीपद्यते । तथा एवं हरिभद्राचार्ये भद्राचरिते=कुशलानुष्ठाने उदयम् = अभ्युदयम् औन्नत्यम् इते - प्राप्ते श्रीहरिभद्राचार्ये विजयमाने सम्यग्दृष्टिना=मध्यलोकेन शुद्धबोधविधिमार्गावलोके सति हृषीक चौर-मत्सर-चरट - दुर्वचनकण्टकानां रागद्वेपसिंहव्याघ्रमहामोहभिल्लाधिपतीनां चक्षुद्राणामुपद्रवकारिणां स्वात्मवीर्येण सर्वेषां पराजयं विधायाचिन्त्यचिन्तामणिप्रतिमचारित्रावाप्तिसद्भाव वशीकृतस्वर्गलक्ष्म्यादिकतया परमाभ्युदयश्रीः प्राप्तेति गर्भार्थः || ५६ || तथा यं= भगवन्तं श्रीहरिभद्राचार्यं प्रति, यं, उद्दिश्य केचिदाचार्याः समनाम्ना = ' हरिभद्र' इति सदृशाभिधानेन 'भोलिया' इति भ्रान्ति नीताः ' भो' इति प्रतिपाद्य ' भव्यामन्त्रणम् ' अलीकानि = असत्यानि जल्पन्ति = भाषन्ते कीदृशानि १ इत्याह-" अहो ! अयं श्रीहरिभद्राचार्यः चैत्यवासिभिः = जिन भवनान्त १" स्वर्गेषु पशु-याग्वज्र दिग्-नेत्र घृणि-भू-जले लक्षदृष्टया स्त्रियां पुंसि गौः " ( इत्यमर कोषनानार्थवर्गः ० २५ ) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2৮*%%%%%% * Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobalrmorg Acharya ShiKasiassagarsunityammande AKAR गणधरसाईशतकम् । ॥२७॥ श्रीहरिभद्र सूरिचरितम् ।। र्वेश्मावस्थाथिभिर्दीक्षित: प्रवाजितः शिक्षितश्च-सिद्धान्तादिशास्त्रमध्यापितः, तथा क्रियाकलापाभ्यासं च कारितः 'च' शब्दादाचार्यपदे स्थापितः" इति, परं गीतानां गीतार्थानां तत्-तस्य चैत्यवासिनतग्रहणादिकं न मतं न सम्मतम् । गीतार्था हि तं समग्रसंविग्नाग्रेसर विज्ञातसमस्तसिद्धान्ततच्च सुविहितचक्रचक्रवर्त्तिनं मन्यमानाः कथमिव तद्वचः श्रद्दधीरन् इति ॥ ५७॥ | कुसमया: शैव-पशुपति-शाक्यादिसिद्धान्तास्त एव भटा:-योधाः कुसमयभटाः हताः निर्दलिताः कुसमयभटा येन स हतकुसमयभटः, स चासौ जिनभटश्च, तस्य शिष्यो-विनेयो हतकुसमयभटजिनभटशिष्यः, शेष इव-शेषराज इव । कीदृशः स भगवान् हरिभद्राचार्यः? कीदृशश्च शेषराजः? इति द्वयोर्विशेषणस्य साम्यमाह-धृतं=धारितं सम्यग्व्यवस्थया स्थापितं तीथ= । सङ्घः प्रवचनं च ततस्तीर्थमेव धरा-धरणिर्येन स धृततीर्थधरः । युगवरेण युगप्रधानेन जिनदत्तप्रभुणा उक्ताः प्रतिपादिता ये सूत्रतत्वार्थाः सिद्धान्तरहस्याभिधेयास्त एव रत्नानि तानि शिरसि मुर्द्धनि सम्यक्प्रतिपच्या यस्य स युगवरजिनदत्तप्रभूक्तसूत्रतवार्थरत्नशिरा इति ।।५८॥ एवंविधो यस्तमहं हरिभद्रप्रभु वन्दे नमस्करोमीति संटङ्काः। कीदृशम् ? 'पहासंत' प्रभासमान देदीप्यमानं शशधरकरनिकर-हरहास-हंसावदात-सर्वतः-प्रसृत्वरयशःकीर्तिप्रख्याततया शोभमानमित्यर्थः । अथ च प्रतीयमानतया प्रकृष्टभास्वन्तं ग्रहकल्लोलजलदपटलावृत्तिराहित्येन जाज्वल्यमानमाण्डमण्डलम् । उभयोः साधारण विशेपणचतुष्टयमाह-'संकोइयकुसमयकोसिअकुलं'ति-संकोचितं विहारकक्षादिगिरिगहरान्तः प्रवेशितं कुत्सितः अत्यन्तालीकत्वेन निन्दितः समयः सिद्धान्तो वेषां ते कुसमया: शाक्यौलूक्यसाङ्खचादयस्त एव कौशिका:-धूकाः कुसमयकौशिकास्तेषां कुलं १ "कुलं संघः कुलं गोत्रं, शरीरं कुलमुच्यते ।" इति शब्दरत्नप्रदीपः ॥ ॥२७॥ For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। सङ्को येन तं संकोचितकुसमयकौशिककुलम् । तथा न विद्यते मलं-पापं यस्य तम् अमलम् , सूर्यपक्षे अमलं निष्कलङ्कम् । तथा उत्तम-तत्कालवर्तिसमस्तमूरितिलककल्पत्वेन श्रेष्ठम् , सूर्यपक्षे च उत्-उत्क्रान्तम् अपसृतं तमः अन्धकारं यस्मिन् तम् उत्तमम् । तथा प्रणतजनानां प्रहलोकानां दत्तं वितीण भद्रं कल्याणं येन तं प्रणतजनदत्तभद्रम् , सूर्यपक्षेपि प्रणतजनदत्तभद्रम् , 'आरोग्य भास्करादिच्छे'-दिति लोकापेक्षमेतदिति गाथाष्टकार्थः ॥ ५२-५९ ॥ अथ शीलाङ्कमूरि प्रशंसन्नाहआयारवियारणवयण-चंदिमा[या]दलिअसयलसंतावो। सीलंको हरिणंकु व सहइ कुमुयं वियासंतो॥ ___ व्याख्या-आचारस्य आचाराङ्गस्य विचारण-विवरणं तस्य वचनानि-शब्दास्त एव चन्द्रिका कौमुदी तया दलितः चूर्णितः सकलसन्तापा-पायज्वलनज्वालाऽविकलकवलनं येन स आचारविचारणवचनचन्द्रिकादलितसकलसन्तापः शीलाको हरिणाङ्क इव-मृगलाञ्छन इन को-पृथिव्याःसहृदयगीतार्थसाध्वादिजनस्य मुदम्-आचाराङ्गसम्यग्विवरणतदन्तर्गतसंसारवैराग्यहेतुनानासुभाषितामृत-कर्णाभरणाभ्यां प्रमोदं विकाशयन्-विस्तारयन् शोभते-राजते । नन्वेष शीलाङ्कश्चैत्यवासीत्याकर्णितमेतत् , यद्येवं तर्हि अस्मिन् युगप्रवरगणधरस्तवनरूपे प्रकरणेऽस्य प्रोच्छलदतुच्छच्छविच्छटाभारभासुरविशालाप्रत्नरत्नमालान्तराल इव काचशकलस्य, विशुद्धोभयपक्ष-सच्चरणचङ्गमणदक्ष-पक्षिकुलोत्सश्रीराजहंसांतर इव वा शुक्लत्वमात्रसदृक्षपक्षस्य बकोटस्य प्रक्षेपः कथं सचेतसां चेतसि चारिमाणमश्चति ?, सत्यम् , एप सद्वृत्तिविधानेन लोके प्रतिष्ठापात्रं ज्ञानाधिकत्वेन प्रवचनप्रभावकश्च तत:-"नाणाहिओ वरतरं हीणोवि हु पवयणं पभावितो" इत्याप्त - - ब For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसादेशतकम् । ॥२८॥ | काचार्य| दृष्टान्तः॥ भव्याभव्यलक्षणं च । वचनप्रामाण्यादेतस्यापि प्रशंसामात्रमुचितमेव वन्दनं तु नोचितम् , अत एव 'सीलंको' इति सामान्यनाममात्रोच्चारणपूर्वकं 'सहई' एतावन्मात्रमेवोक्तं प्रकरणकारेण न तु वन्दे, इत्यादीति गाथार्थः ।। ६० ।। अथ श्रीहरिभद्राचार्यानन्तरान् गणधारिणः प्रणिपतन्नाहतयणंतर दुत्तरभव,-समुहमजंतभवसत्ताणं। पोयाण व सूरीणं, जुगपवराणं पणिवयामि ॥ ६१॥ व्याख्या-'तयणंतरत्ति, अनुस्वारलोपः प्राकृतत्वात , तदनन्तरं हरिभद्राचार्यादनन्तरं दुस्तर:-तरीतुमशक्यो यो भव- समुद्रः-हरिभद्राचार्यादनन्तरं दुस्तर:-तरीतुमशक्यो यो भवसमुद्रः संसारसागरस्तत्र मजन्तश्च ब्रुडन्तश्च ते भव्यसवाश्च ते दुस्तरभवसमुद्रमजद्भव्यसवाः । भव्यानां चेदं स्वरूपं तत्प्रसङ्गादभव्यानां च "भवा जिणेहिं भणिया, जे खलु इह मुत्तिगमणजोग्गा उ । ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुंति विन्नेया ॥१॥ विवरीया उ अभवा, न कयाइ भवन्नवस्स जे पारं । गच्छिसु जंति अ तहा, अणाइपरिणामओ चेव ॥२॥" तेषां सम्बन्धिनः पोतानिव-यानपात्राणीव 'ब' शब्दस्योपमानार्थत्वात् , सूरीन् आचार्यान् , कीदृशान् ? युगप्रवरान्= युगप्रधानान् प्रणिपतामीति क्रियासम्बन्धः कृत एवेति सर्वत्र द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतत्वादिति गाथार्थः ।। ६१ ।। ___ अथ कस्कोऽसौ युगप्रवरः ? इति तन्नामनिर्देशं विदधान आहगयराग(दो)सदेवो, देवायरिओ य नेमिचंदगुरू। उज्जोयणसूरी गुरु,-गुणोहगुरुपारतंतगओ ॥६२॥ CA4 C For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie 26LOCACANOCEACROCACIDIOS व्याख्या-अथ रागद्वेषोपलक्षणप्रेमरोषयोरुपादाने एतयोरुपादानकारणं मोहोऽपि परस्परविरुद्धशास्त्रप्ररूपणकुत्सिताचरणादुत्सूत्रादिग्रहणव्यङ्गयं गृहीतमेव, तं विना तयोरसम्भवात् , तत्र च राग-रूयाद्यभिष्वङ्गलक्षणः, रोषश्च-विपक्षतत्पक्षनिर्घात नादिरौद्राध्यवसायतः खड्ग-चक्र-त्रिशूल-कोदण्डादिप्रहरणपरिग्रहानुमेयः, ततो गतौ सर्वथा क्षीणौ रागद्वेषौ समोहौ | यस्य स गतरागरोषस्तादृशो देवो यस्य स गतरागरोषदेवः, तथा चोक्तम् "रागोऽङ्गनासंगमनानुमेयो, द्वेषो द्विषद्दारणहेतिगम्यः। मोहः कुवृत्तागमहेतुसाध्यो, नैतत् त्रयं यस्य स देवदेवः ॥१॥" सरागद्वेषस्य च देवत्वं विवेकिनामुपहासास्पदीभृतमेव, तथा च धाराधिपतिश्रीभोजदेवमहाराज-स्वकारितेश्वरप्रासादघटितकृशाङ्गयष्टिभृङ्गिरिटिसंघटितकरपुटानगरतिव्यावर्णनप्रेरितपञ्चशतप्रमाणप्रामाणिकलब्धवर्णशिखामणि-स्वमनीषाविशेषपरीक्षितश्वेताम्बरसद्गुरुक्रमकमलोपासनाऽपास्तितसमस्तासद्दर्शन-सम्यग्दर्शनचिन्तामणि-श्रीधनपालपण्डितराजस्योपहासोक्तिद्वयं यथा"दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा ? सास्त्रस्य किं भस्मना ?, भस्माथास्य किमङ्गना ?, यदि च सा काम परिद्वेष्टि किम् । इत्यन्योन्यविरुद्धचेष्टितमिदं पश्यन्निजस्वामिनो, भृङ्गी सान्द्रशिरावनद्धपरुषं धत्तेऽस्थिशेषं वपुः॥१॥ से एष भुवनत्रय प्रथितसंयमः शङ्करो, बिभर्ति वपुषाऽधुना विरहकातरः कामिनीम् । अनेन किल निर्जिता वयमिति प्रियायाः कर, करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः ॥२॥" १ ‘स एषः' इदं पृथ्वीछन्दः तलक्षणम्-" जसौ जसयला वसुग्रहपतिश्च पृथ्वीगुरुः" इतिवृत्तरत्ना० वर्णः ॥ ९१ ॥ For Private and Personal use only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 36-24 श्रीनेमिचंदोद्योतनवर्धमानसूरीणां चरित्रम् ॥ गणधरसा यदि वा-गतौ रागरोषौ यस्य स गतरागरोषः, स चासो देवश्च देवरूपत्वात् “साहू य दव्वदेवो" इति वचनाद् द्रव्यईशतकम् । है। देवः, एवंविधो देवाचार्यः, चा=समुच्चये स चोद्योतनसूरिशब्दादग्रे द्रष्टव्यः, तथा नेमिचन्द्रगुरुः, तथा उद्योतनसूरिश्च । की- भदृशः ? गुरुः=महान् गुणौघो-ज्ञानदर्शनक्षान्त्यादिगुणसमुदायो यत्र तादृशे गुरुपारतन्त्र्ये आचार्यसंप्रदाये गतः स्थितः ॥२९॥ गुर्वाम्नाये गतः, रतः आसक्त इति वा पाठ इति गाथार्थः ।। ६२॥ तथासिरिवद्धमाणसूरी, पवइमाणाइरित्तगुणनिलओ।चिइ(य)वासमंसगयमवगीमत्तु वसहीइ जो वसिओ॥ ___व्याख्या-श्रीवर्द्धमानसूरिः, कीदृक्षः प्रवर्द्धमानातिरिक्तगुणनिलयः-प्रकर्षेणैधमानसंविनत्व-शास्त्रनिष्णत्व-परहृदया. वर्जकत्व-जितेन्द्रियत्व-निष्कषायत्व-निरतिचारचारित्रक्रियाकारित्व-प्रभृत्यतिशयितगुणावासः चैत्यवासं जिनभवननिवासम् असङ्गत नियुक्तिकम् अवगम्य-अवेत्य वक्ष्यमाणयुक्तेः वसतौ-परगृहे य उषितः स्थित इत्यर्थः ॥ ६३ ॥ अथ समस्तसुविहितहितगुणावासवसतिवासोद्धारधुरामारधारणधवलधौरेयान् श्रीजिनेश्वररिपुङ्गवांश्चरणाराधनपूर्वकं शरकणीकुर्वन्नवदातगुणोत्कीर्तनपूर्वकं गाथात्रयोदशकमाह तेसिं पयपउमसेवा,-रसिओ भमरो व सबभमरहिओ। ससमय-परसमयपयत्थसस्थवित्थारणसमत्थो ॥ ६४॥ है ॥२९॥ For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - -06 अणहिल्लवाडए नाडए व दंसिअसुपत्तसंदोहे। पउरपए बहुकविदृसए य सन्नायगाणुगए सड्डिअदुल्लहराए, सरसइअंकोवसोहिए सुहए । मज्झे रायसइं पविसिऊण लोयागमाणुमयं नामायरिएहि समं, करिअ वियारं वियाररहिएहिं । वसइहिं निवासो साहूण ठाविओ ठाविओ अप्पा परिहरिअगुरुकमागय,-वरवत्ताए वि गुजरत्ताए। बुद्धिसागरसूरिः-वसहि विहारो (निवासो) जेहिं, कुडीकओ गुजरत्ताए। तिजयगयजीवबंधू , जब्बंधू बुद्धिसागरो सूरी। कयवायरणो वि न जो, विवायरणकारओ जाओ जिनभद्रः-सुगुणजनजणियभद्दो, जिणभद्दो जविणेयगणपढमो। ROHITWIKEscacaoapnNSISE ॥ ६७॥ ॥६८॥ CREASON ॥ ६९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसा र्द्धशतकम् ॥ ३० ॥ www.kobatirth.org सपरेसिं हि सुरसुंदरीकहा जेण परिकहिया जिनचन्द्रः - कुमुयं वियासमाणो, विहडाविअकुमअचक्कवायगणो । उदयमिओ जस्सीसो, जयम्मि चंदु व जिणचंदो संवेगरंगसाला, विसालसालोवमा कया जेण । रागाइवेरिभय भी भवजण रक्खणनिमित्तं अभयदेवः- कयसिवसुहत्थिसेवो, - ऽभयदेवोऽवगयसमयपक्खेवो । जस्सीसो विहिनवंगवित्तिजलधोयजललेवो जेण नवगविवरणं, विहिअं विहिणा समं सिवसिरीए । काउं नवगविवरण, -मुज्झिअ भवजुवइसंजोगं जिनेश्वरसूरिः- जेहिं बहुसीसेहिं सिवपुरपहपत्थिआण भव्वाणं । सरलो सरणी समगं, कहिओ ते जेण जंति तयं For Private and Personal Use Only 11 061 11 ७० ॥ 11 13 11 ॥ ७२ ॥ ॥ ७३ ॥ 11 98 11 ॥ ७५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनेश्वरसूरि स्तुतिः ॥ ॥ ३० ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NACSCER गुणकणमवि परिकहिउँ, न सकई स कई वि जेसिं फुडं । तेसिं जिणेसरसूरीण चरणसरणं पवज्जामि ॥ ७६ ॥ व्याख्या-तेषां जिनेश्वरसूरीणां चरणान् शरणंत्राणं, चरणाः शरणं चरणशरणमिति वा प्रपद्ये अङ्गीकरोमीति सम्बन्धः । यः कीदृशः १ तेषां श्रीवर्द्धमानाचार्याणां पदा एव-क्रमा एव पद्माः कमलानि पदपद्मास्तेषां सेवा पर्युपास्तिः पदपद्मसेवा तस्यां रसिको गाढासक्तः, किंवत् ? इत्याह-भ्रमरवत् मधुकरवत् । 'सबभमरहिओ' त्ति सर्वेषु=व्याकरण-तर्क-नाटका-लङ्कार-च्छन्दः-काव्य-ज्योतिष-वेद-पुराणादिशास्त्रेषु भ्रमो भ्रान्तिः संशयः सर्वभ्रमस्तेन रहितः त्यक्तः,अत एव स्वसमयाः= आत्मसिद्धान्ताः-दशवैकालिकावश्यकौघनियुक्तिपिण्डनियुक्त्युत्तराध्ययनदशाकल्पव्यवहाराचाराद्यङ्गैकादशककालिकश्रुतौपपा. तिकराजप्रश्नीयाद्यकालिकश्रुतसंग्रहणीक्षेत्रसमासशतकसप्ततिकाकर्मप्रकृत्यादयः,परसमया:-बौद्धसांख्यादिसिद्धान्तास्तेषां पदार्थसार्थाः, तत्र पदानि-विभक्त्यन्तानि तेषामर्थाः बाच्याः पदार्थास्तेषां सार्थाः समूहास्तेषां विस्तारणं सविस्तरप्रकाशनं तत्र समर्थः शक्तः स्वसमयपरसमयपदार्थसार्थविस्तारणसमर्थः । अस्यां गाथायामेकवचनान्तत्त्वं विशेषणेषु गुणाधिकबहुवचनयोग्यताप्राप्तावपि सामान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यमिति ! ॥ ६४ ॥ तथा यैरित्यग्रेतनगाथायां वर्तमानं 'डमरुकमणि' न्यायेन ' अणहिल्लवाडए' इत्यस्यामपि गाथायां संवध्यते-यैः श्रीजिनेश्वराचार्यैः अणहिल्पाटके अणहिल्लपाटकाभिधाने पत्तने मध्येराजसमंराजसभाया मध्ये 'परे मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा' इत्यव्ययीभावसमासः (हैम० ३-१-३०), प्रविश्य= For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर साई शतकम् । ॥ ३१ ॥ www.kobatirth.org स्थित्वा लोकश्चागमश्च तयोरनुमतं = सम्मतं यत्र, एवं यथा भवति कृत्वा नामाचार्यैः सह विचारं धर्म्मवादम् यैः कीदृशैः १ इत्याह-' विचाररहिएहिं ' विचाररहितैरिति विरोधः, अथ च विकाररहितैः = निर्विकारैरित्यर्थः । वसतौ निवासः = अवस्थानं साधूनां स्थापितः प्रतिष्ठितः, स्थापितः = स्थिरीकृतः आत्मा । वसतिव्यवस्थापनं चाणहिलपाटकेऽकारि । कीदृशे तस्मिन् । इत्याह- नाटक इव दशरूपक इव नाटकाख्ये । कीदृशे अणहिलपाटके ? कीदृशे च नाटके ? इत्युभयोरपि श्लिष्टं विशेपण सप्तकमाह - ' दंसिअसुपत्तसंदोहे' इति, सुपात्राणां = गौरवर्ण लम्बकर्ण - विशालभाल- विशालान्तर्वक्षःस्थल- विशालकपोलस्थल- पद्मदलाक्ष- लाक्षारसाक्त सुश्लिष्टपाद - मधुरनाद - गन्धर्वकलाविचक्षण- प्रतिदिनप्रवर्त्तितदेव गृहादिक्षणनायकनायिका लक्षणानां सन्दोहः - समूहः सुपात्रसन्दोहः, दर्शितः = चक्षुर्गोचरतां प्रापितः सुपात्रसन्दोहो येन तस्मिन् दर्शितसुपात्रसन्दोहे | यदि वा-मङ्गलघटघटिका मणिककरवकस्थालीप्रमुखाणां राजमानराजतसौवर्णवर्णाढ्य रत्नाढ्यगृह भूपण विशालस्थालकच्चो शुक्तिप्रमुखाणां चापणस्थापितानां सुपात्राणां सद्भाजनानां सन्दोह :=कूटो यत्र तस्मिन् । नाटकपक्षे च रामलक्ष्मणसीता - हनुमत् बालि - सुग्रीव - लङ्केश्वर - विभीषणादीनां सुपात्राणां सन्दोहः, स दर्शितो यत्र तादृशे । 'सुपत्तसंदेहे ' इति पाठे तु पतनपक्षे यदा ताम्बूलरसरञ्जितोष्ठाः सदनुष्ठाननिष्ठादविष्ठाः सुरङ्गनारङ्गकाधिष्ठितचरणाश्चरणाचारचारिमातिक्रान्तोत्सूत्रक्रियोपदेशनिरताः रतासक्तिप्रवृत्ता वाणिज्यकलान्तरद्रविण वितरण संयत्यादिकलत्रीकरणापत्योत्पादन परस्परपाणिग्रहणकारणादिनानाप्रकाराश्रवासमञ्जसचेष्टाविधातारः केचिद् गुरुकर्माणो दरीदृश्यन्ते तत्र ततो भवति विवेकवतां भवभीरूणां भव्यात्मनां मनस्ययं संशयः - यदुत किमस्ति कापि सत्पात्रं न वा १ इत्यत उक्तं दर्शितसुपात्र सन्देहे इति । नाटकपक्षे च For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री |जिनेश्वर४ सूरीणाम् ॥ *6*66% %%% ॥ ३१ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐARCH रामादिसुपात्राणां सं सम्यक समुत्पन्नसामाजिकप्रतीति(क्त)देहा:-शरीराणि १। तथा 'पउरपए 'ति, प्रचुराणिप्रभृतानि प्रतिगृहद्वारकूपिकासहस्रलिङ्गादिमहातडागवाप्यादिसद्भावेन पयांसि अ-12 म्भांसि यत्र तस्मिन् प्रचुरपयसीति अणहिलपाटकपक्षे । नाटकपक्षे च-प्रचुराणि-विस्तीर्णानि प्रलम्बानि पदानि यत्र २। 'बहुकविदूसगेय'त्ति, कवयः काव्यकर्तारः, दृष्याणि-देवाङ्गवस्त्राणि बहूनि-प्राज्यानि कविष्यकाणि यत्र तस्मिन् , यदि वा सप्तमीलोपात्-बहुकविष्यगेये, गेयंगीतमिति पत्तनपक्षे । नाटकपक्षे च-बहुकविदूषके बहब एव बहुका: अभूता विषकाः सहास्यवचनभाषिणो यत्र तथाविधे । विषकलक्षणं रुद्रटालङ्कारे यथा " भक्तः संवृतमत्रो,-नर्मणि निपुणः शुचिः पटुर्वाग्मी । चित्रज्ञः प्रतिभावान् , तस्य भवेन्नर्मसचिवस्तु ॥१॥ त्रिविधः स पीठमर्दः, प्रथमोऽथ विटो विदूषकस्तदनु । नायकगुणयुक्तोऽथ च, तदनुचरः पीठमर्दोत्र ॥२॥ विट एकादशविद्यो, विदूषकः क्रीडनीयकप्रायः । निजगुणयुक्तोमर्षो,-हासकराकारवेषवचाः । इत्यादि नाटकशास्त्रप्रतीते, ततश्च बहुकविदूषके नाटके ३। तथा 'सन्नायगाणुगए ' ति सन्नायकानुगते-पत्तनपक्षे सन्नायकैः शोभनप्रभुभिर्शिष्टमण्डलगृहग्रामादिस्वामिभिरनुगते संबद्धे । नाटकपक्षे च-चतुर्द्धा नायक उक्तः, तथा च तल्लक्षणशास्त्रे यथा " नेता विनीतो मधुर,-स्त्यागी दक्षः प्रियंवदः । रक्तलोकः शुचिर्वाग्ग्मी, रूढवंशः स्थिरो युवा ॥१॥ *" दूष्यं वाससि तद्गृहे । दूषणीये च" इति हैमानेकार्थ संग्रहः (३५४ । ३७५) MARCROSACROCOCISCLOCALCHAR For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ३२ ॥ www.kobatirth.org बुद्धघुत्साहस्मृतिप्रज्ञा, - कलामानसमन्वितः । शूरो दृढव तेजस्वी, शास्त्रचक्षुश्च धार्मिकः मेदैश्चतुर्द्धा ललितं - शान्तोदात्तो- दूतैरैयम् । निश्चिन्तो धीरललितः, कलासक्तः सुखी मृदुः सामान्यगुणयुक्तश्च, धीरशान्तो द्विजादिकः । महासच्चोऽतिगम्भीरः, क्षमावानविकत्थनः स्थिरो निगूढाहङ्कारो धीरोदात्तो दृढव्रतः । दर्पमात्सर्यभूयिष्ठो, मायाछद्मपरायणः धीरोद्धतस्त्वहङ्कारी, चलवण्डो विकत्थनः । स दक्षिणः शठो धृष्टः, पूर्वां प्रत्यन्यया हृतः दक्षिणोऽस्यां सहृदयो, गूढविप्रियकृच्छठः । व्यक्ताङ्गवैकृतो धृष्टोऽनुकूलस्त्वेकनायिकः एवंरूपचतुर्विधनायकानुगते नाटके ४ । ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ 114 11 ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only || 9 || " तथा 'सड्डिअदुलहराए 'ति, ऋद्ध्या = चतुरङ्गचमूरुचिनिचयविरचितचक्रवाल विशालसारतारवजेन्द्रनील - मरकत कर्केतनपद्मराग - मुक्ताफल- शशिकान्त-सूर्यकान्तादि - रत्नमणिभाण्डागारशालि - तन्दुल- गोधूम - मुद्गादिसद्धान्यकोष्ठागार निर्जितरतिरूपप्रतिरूपप्रचुरान्तःपुर सार्द्धपोडशवर्णिक सुवर्णरजतादिमहाविभूत्या वर्त्तत इति सर्द्धिकस्तादृशो दुर्लभराजो महीपतिर्यत्र तस्मिन् सर्द्धिकदुर्लभराजे, इति पत्तनपक्षे । नाटकपक्षे च-सती - शोभना उत्कृष्टा धी-र्बुद्धिर्येषां ते सद्धियस्त एव सद्धीकाः, स्वार्थे 'क' प्रत्ययः, तेषां सद्धीकानां दुर्लभो= दुष्प्रापो रागः = चेतसोऽनुबन्धो यत्र तस्मिन् सद्धीकदुर्लभरागे, धस्य ढत्वं प्राकृतत्वात् । किल ये केचन संसारविषमकान्तारपरिभ्रमण निर्विण्णाः समस्तापायविनिर्मुक्तमुक्तिसौख्याभिलाषुका निरतिचारचारित्र श्रीसमुपगूढविग्रहाः प्रतिहतकुग्रहास्तवविचारचातुरीधुरीणास्त एव तत्त्ववृच्या सुमतय इत्युच्यन्ते, तदुक्तम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनेश्वर सूरि स्तुतिः, नाटक पात्र लक्षणादि ॥ ॥ ३२ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAIRAcribe "बुद्धेः फलं तत्वविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च, अर्थस्य सारं तु सुपात्रदान, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥१॥" ततस्तेषां सुन्दरधिषणानां चेतस्येतदेव सदैव निरर्ति जागर्ति यथा"कान्तेत्युत्पललोचनेति विपुलश्रोणीभरेत्युनतो-न्मीलत्पीनपयोधरेति सुमुखाम्भोजेति सुभ्ररिति । दृष्ट्वा माद्यति मोदतेऽभिरमते प्रस्तौति विद्वानपि, प्रत्यक्षाशुचिपुत्रिका स्त्रियमहो! मोहस्य दुश्चेष्टितम् ॥१॥ यल्लजनीयमतिगोप्यमदर्शनीय, बीभत्समुल्वणमलाविलपूतिगन्धि । तद् याचतेऽङ्गमिह कामिकृमिस्तदेवं, किं वा दुनोति न मनोभव वामता सा ॥२॥ शुक्रशोणितसम्भूतं, नवच्छिद्रं मलोल्वणम् । अस्थिशृङ्खलिकामात्र, हतयोषिच्छरीरकम् ॥३॥ धन्यास्ते वन्दनीयास्ते, तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितम् । यैरेष भुवनक्लेशी, काममल्लो निपातितः सुखी दुःखी रङ्को नृपतिरथ निःस्वो धनपतिः, प्रभुर्दासः शत्रुः प्रियसुहृदबुद्धिविशदधीः । भ्रमत्यभ्यावृत्या चतसृषु गतिष्वेवमसुमान् , हहा ! संसारेऽस्मिन्नट इव महामोहनिहतः इत्यादिमोहनाटकं परिभावयतां सतां सुधियां कुतूहलाद्गीतनृत्यबहुलापरासमञ्जसचेष्टनाटकनिरीक्षणे प्रमादचरिते कथकारं नाम मनागपि मनः प्रादुर्वोभवीति ५। तथा 'सरसइअंकोवसोहिए'त्ति सरस्वती नाम्नी निम्नगा तस्या अङ्क: उत्सङ्गस्तेनोपशोभिते-विराजिते । यदि वा-सर- | १' अर्थस्य सारं किल पात्रदानं ' इति पाठान्तरम् । For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधरसार्द्धशतकम्। RONACSCRACCRECCA स्वत्याः गीर्देवतायाः अङ्क:-चिहं व्याकरणसाहित्यतर्कादिशास्त्रपरिज्ञानं येषु ते सरस्वत्यकाः, ते चासाधारणविशेषणसाम ान्नानाशास्त्रकारः श्रीमदभयदेवमूरिप्रख्याः सूरयस्तैर्विभूषिते । अथवा स्वराः षड्जादयः स्मृतयो-मुनिप्रणीताः, तद्यो- जिनेश्वरगात्तद्विद उच्यन्ते, अङ्कानधीयन्ते 'अणि' अङ्काः, ततः स्वराश्च स्मृतयश्चाङ्काश्च स्वरस्मृत्यङ्काः, तैरुपशोभिते भिन्न प्रदेशव- सूरिशिष्यलिंगान्धर्विकस्मृत्युच्चारकाङ्कावलीपाठकाधिष्ठिते इत्यर्थः । यदि वा-स्वर-शब्दस्तेन च यश उपलक्ष्यते तत्प्रधानाः सत्या गुणगर्मितपतिव्रताः स्त्रियस्तासाम् अङ्क: " अको, भूपारूपकलक्ष्मसु चित्राजौ, नाटकाचंशे, स्थाने क्रोडेऽन्तिकागसोः" इति हैमा स्तवना ॥ नेकार्थवचनात् (२-१७ ) अन्तिकं, तेनोपशोभिते, इति पत्तनपक्षे । नाटकपक्षे किल चतस्रो वृत्तयः, (कै )कौशिकीसात्वत्या-रभटी-भारतीलक्षणाः, यथा" तव्यापारात्मिका वृत्ति,-श्चतुर्दा तत्र (कै )कौशिकी । गीतनृत्यविलासाथै,- दुशृङ्गारचेष्टितैः ॥ १॥ सात्वती- विशोका सात्वती सत्वशौर्यत्यागदयाजवैः । आरभटी पुनः- मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोद्धान्तादिचेष्टितैः । ॥२॥ शृङ्गारे कैशिकी वीरे, सात्वत्यारभटी पुनः । रसे रौद्रे च बीभत्से, वृत्तिः सर्वत्र भारती इत्यादिस्वरूपं नाटकलक्षणादवसेयम् । अत्र सरस्वतीशब्देन भारती बृतिरुपलक्ष्यते, तस्या अङ्को नानाप्रकारार्थसंविधानरसाश्रयः ततश्च सरस्वती च अश्च ताभ्यामुपशोभिते इत्यर्थः ६ । तथा 'सुहए 'त्ति शोभनाः काम्बोजवाल्हीकपारसीकादयः शुक्तिरन्ध्रदेवमणिरोचमानादिप्रशस्तसमस्तलक्षणोपेता उच्चैः-12 1 ॥३३॥ COCCASSOCTer For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवानुकारिणो हया:-तुरगा यत्र तस्मिन् सुहये । यदि वा सुभगे हृदयप्रिये सकलफलपुष्पभक्ष्यवस्त्रतीक्ष्णनागरखण्डनागवल्लीदलसोपारकपूगफलादिनानाप्रकारमनोहरवस्तुरत्नाकरत्वेन विषयिणां मुग्धबुद्धीनां लोचनसाफल्यकारिदर्शने इति, तत्ववृत्त्या पुनः समस्तसौख्यनिधाननिर्वाणदानदुर्ललितानां परमेष्ठिनामेव वर्ण्यमानं सुभगत्वं श्रेष्ठमिति । नाटकपक्षे च मुग्धानां सुखदे-सातावहे इति विशेषणसप्तकार्थः ७ । अमुमेवार्थ पुनः सविशेपमाह-वसहिविहारो' इत्यादि । वसत्या चैत्यगृहवासनिराकरणेन परगृहस्थित्या सह विहार:= समयभाषया भव्यलोकोपकारादिधिया ग्रामनगरादौ विचरणं वसतिविहारः, स यैर्भगवद्भिः स्फुटीकृतः सिद्धान्त शास्त्रान्तः | परिस्फुरन्नपि लघुकर्मणां प्राणिनां पुरः प्रकटीकृतः। कस्याम् ? गूर्जरात्रायां सप्ततिसहस्रप्रमाणमण्डलमध्ये । किं विशिष्टा| याम् ? परिहतगुरुक्रमागतवरवा यामपि, परिहता श्रवणमात्रेणापि अवगणिता गुरुक्रमागता-गुरुपारम्पर्यसमायाता वरसवार्ता विशिष्टशुद्धधर्मवार्ता यया सा तथा तस्याम् , अपिः सम्भावने-नास्ति किमप्यत्रासम्भाव्यं घटत एवैत्यर्थः, परं ताह8 श्यामपि प्रतीयमानार्थपक्षे पुनः गुरु:-पिता "गुरुमहत्याङ्गिरसे, पित्रादौ धर्मदेशके ।" इत्यनेकार्थवचनात् (हैमा०२-४१७), तस्य गुरोः क्रमा-गुरूक्रमः "क्रमः कल्पांहिशक्तिषु परिपाट्याम्" इति (हैमानेकार्थसह० २-३२६ ) वचनात् कल्प: आचारः स्वकन्यकां वराङ्गीकारणलक्षणस्तेन गुरुक्रमेणागता आयाता गुरुक्रमागता, सा चासौ वरवार्ता च, वरो= RI तस्य वार्ता कथा वरवार्ता, परिहृता-त्यक्ता गुरुक्रमागतवरवार्ता यस्यां तन्निवासिलोकेनेति गम्यते, तत्स्थलोकोप चारात्मैव वा व्यपदिश्यते ततः परिहता गुरुक्रमागतवरवार्ता यया सा तथा तस्यामिति समासः, अत एव 'गुजरताए'त्ति RRC-NCCCCCCROCOM For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसार्द्ध शतकम् । ॥ ३४ ॥ www.kobatirth.org गुजो = नटविटादिस्तद्रक्ता - आसक्ता तस्यां गुजरक्तायां स्वपतिं परित्यज्य कृतान्यगृहप्रवेशायामित्यर्थः । अत्र पक्षे अपिर्नि - न्दायाम्, " अपि सम्भावनाशङ्का गर्हणासु समुच्चये । प्रश्ने युक्तपदार्थेषु, कामचारिक्रियासु च ॥ १ ॥” इति ( है मानेका० अव्ययाधिकारे १८०१ ) वचनात् । शिष्टलोका अपि निन्दन्तः पठन्ति यथा " सत्यं नास्ति शुचिर्नास्ति, नास्ति नारी पतिव्रता । तत्र गूर्जरके देशे, एक माता बहुपिता ।। १ ।। जराजर्जरमप्यङ्ग, विभ्रत्यो गूर्जरस्त्रियः । दृढकञ्चुकसन्दानाः, मोहयन्ति महीमपि ॥ २ ॥ " इत्यादि । तथा ' तिजयगय ० ' त्ति त्रिजगद्गतजीवबन्धुः = त्रिविष्टपनिविष्टप्राणिबान्धवः । येषां प्रभ्रूणां बन्धुर्यद्धन्धु: = सहोदरो बुद्धिसागराभिधानः, सूरिः = आचार्यः, कृतवादरणोऽपि = विहितवाद कलहोऽपि न यो विवादरणकारको जातः - संपन्न इति वि रोधः । अथ च कृतस्त्रनामानुरूपव्याकरणोऽपि विवादरणकारको न जात इति विरोधपरिहारार्थः । तथा सगुणजनानां प्रकृतिसौम्या क्रूराशठसदाक्षिण्यविनी तदयापरमध्यस्थगुणानुरागिप्रमुखलोकानां जनितभद्रः = दर्शनमात्रेण देशनामृततरङ्गिणीपय:पूरप्लावितश्रवणपुटतटाङ्कुरितं विवेककन्दलीकन्दलतया वा प्रोल्लासितकल्याणः जिनभद्रनामा सूरिः येषां विनेयगणस्य = अ|न्तेवासिवृन्दस्य मध्ये प्रथमः- मुख्यः स्वपरयोः = आत्मेतरयोर्हिता=अनुकूला सुरसुन्दरीकथा येन परिकथिता = परितः = सामस्त्येन आदित एव निर्मायोपदिष्टा भव्यलोकायेत्यर्थः । तथा येषां शिष्यो विनेयो यच्छिष्यो जगति भुवने उदयम् उन्नतिं, चन्द्रपक्षे उदयं = पर्वतम् इतः = प्राप्तः किंवत् ? चन्द्र इवेत्युपमानम् । किं नामधेय : १ इत्याह- जिनचन्द्रसूरिनामा सुगृहीतनाम १ 'उदयः पर्वतोन्नत्योः " इति हैमानेकार्थवचनात् श्रो०३-१०८१ । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनेश्वर सूरिः श्रीबुद्धि सागरादि सूरयः ॥ ॥ ३४ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धेयः । उभयोरपि साम्यमाह-कोः पृथिव्या मुत्-हर्षः कुमुदं विकाशयन् विस्तारयन् , इति सूरिपक्षे, चन्द्रपक्षे पुनः कुमुदं= कैरवं विकाशयन्-संकुचितं सत् प्रसारयन् । पुनः कीदृशः विघटितो-विश्लेषितो व्यभिचार-विसंवादम् असत्यपक्षतामिति यावत् , प्रापितः कुमतान्येव कणभक्षा-ऽक्षपाद-शाक्य-सांख्यादिकुदर्शनान्येव चक्रवाका:-कोकास्तेषां गण: संघातः कुमतचक्रवाकगणः, विघटितः कुमतचक्रवाकगणो येन स विघटितकुमतचक्रवाकगणः, इत्युभयपक्षेऽपि । यदि वा-विघटितो वियोजितः कुमतचक्रस्य कुदर्शनसमूहस्य वादगणो जल्पसमूहो येन स विघटितकुमतचक्रवादगणः, इति सूरिपक्षे । चन्द्रपक्षे चविघटितः कोः पृथिवीलोकस्य मता-रम्याकारधारित्वेन इष्टा ये चक्रवाकास्तेषां गणो येन स विघटितकुमतचक्रवाकगण इति । तथा तस्यैवासाधारणगुणस्तुतिं कुर्वन्नाह-संवेगरङ्गशाला यथार्थाभिधाना महती कथा, कीदृशी त्याह-विशालशालोपमा-विशाल विस्तीर्णः स चासौ शालश्च प्राकारो विशालशालस्तेनोपमा मादृश्यं यस्याः सा विशालशालोपमा कृता विहिता येन श्रीजिनचन्द्रसूरिणा । किमर्थ ?मित्याह-रागादिवैरिभयभीतभव्यजनरक्षणनिमित्तम्-रागादयो रागद्वेषप्रमादाविरतिमिथ्यात्वाज्ञानमद(न)दुष्टमनोवाक्कायादयस्ते च ते वैरिणश्च-शत्रवो रागादिवैरिणस्तेभ्यो भयं-साध्वसं तेन भीताःजस्ता रागादिवैरिभयभीताः, ते च ते भव्यजनाश्च मुक्तिगामिजन्तवश्च ते तथा, तेषां रक्षणंत्राणं तत्-तस्मै निमित्तं तनिमि-| त्तम् । यथा विशालशालमध्यस्थाः परचक्रचौरचरटपटलकृतकष्टाभावेन धनकनकरत्नसमृद्धाः प्रसिद्धा जना निराबाधाः प्रमोदमनुभवन्ति, एवं यां भृण्वन्तो भव्या निरन्तरं संवेगरङ्गशालमध्यपातिनो रागद्वेषप्रमादादिवैरिभिर्न क्षणमपि पराभूयन्त इत्यभिप्रायः ॥ ७२ ॥ तथा कृतशिवसुखार्थिसेवः विहितमुक्तिसाताभिलाषिपर्युपास्तिः, अभयदेवनामा श्रीयुगप्रवरगणधरः, की-13 For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसार्द्धशतकम् । सूरि: 4% ॥३५॥ % %A5 दृशः ? ' अवगयसमयपयखेवो' ति, सूचनमात्रत्वात्सूत्रस्यात्र क्षेपशब्देन निक्षेपो गृह्यते, ततः-अवगतो-विज्ञातः समयपदाना-सिद्धान्तशब्दानां क्षेपोनिक्षेपो नामादिविन्यासो येन स अवगतसमयपदक्षेपः, नानाविधविशुद्धसिद्धान्तामृतपानरसिको हि भगवानिति भावः तथा च सिद्धान्ते___“ नाम ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भावे य । एसो खलु ओहिस्सा, निक्खेवो होइ सत्तविहो ॥१॥" इत्यवधिपदस्य सप्तधा निक्षेपो भणितः । अथवा सह मदेन-दर्पण वर्तन्त इति समदा साहङ्काराः, पदानि= दि अभयदेवशब्दवाक्यानि, तेषां क्षेपःप्रेरणम् उच्चारणमिति यावत् , समदानां दप्पोद्भुरकन्धराणां वादिनां पदक्षेपः पदवाक्योच्चारणं सूरिश्च ॥ समदपदक्षेपः, ततः अपकृतः तच्चाप्रतिपादकत्वलक्षणप्रतिज्ञाहानिप्रतिज्ञान्तरप्रतिज्ञाविरोधाद्यभिधानद्वाविंशतिनिग्रहस्थानप्रोद्भावनेन बाधितो निरुचरीकृतो निषिद्ध इति यावत् समदपदक्षेपो येन स अपकृतसमदपदक्षेपः-निरन्तरविसृत्वरोद्धरतरगीर्वाणवाणीकपाणीप्रहारदारितदप्पिष्ठदुरूढदुर्वादिवृन्द इत्यर्थः । अपगतो दूरीभूतः समयपदानां सिद्धान्तवाक्यानां 'क्षेपो-निन्दा लङ्घनं वा अतिक्रमण यस्मात्स अपगतसमयपदक्षेप इति वा। यदि वा-समयः सिद्धान्तः १ साध्या १“पदं स्थाने विभक्त्यन्ते, शब्दे वाक्येऽवस्तुनोः ॥२-२४१ ॥ त्राणे पादे पादचिहे व्यवसायापदेशयोः ।" (२-२४२) इति हैमानेकार्थसंग्रहः ॥ २ " ......क्षेपो, गर्ने लखननिन्दयोः ।। २-३०५ ॥ विलम्बे-रण-हेलासु," ( २-३०६) इति हैमानेकार्थसङ्ग्रहः । ३ " समयः-शपथे भाषा -संपदोः काल-संविदोः ॥३-११०९॥ सिद्धान्ता-चार-सङ्केत-नियमा-बसरेषु च। कियाकारे च निर्देशे.".......॥३-१११०॥" #J इति हैमानेकार्थसङ्ग्रहः । ॥३५॥ % % For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चारः २ सङ्केतः ३ अवसरो ४ नियमो ५ वा, पदं स्थानं संयमक्षेत्रासंयमक्षेत्ररूपं क्षेपश्च = समयोचितो विलम्बः, ततः अवगताः=ज्ञाताः समयपदक्षेपा येन स अवगतसमयपदक्षेप इत्यर्थः । यच्छिष्यः ' विहियनवगवित्तिजलधोयजललेवो ' त्ति, अत्र ' जललेवो ' इत्यत्र डलयोरेकत्वात् ' जड ' इति ज्ञेयम्, तत्रापि ' द्रव्यानयने भावानयन - मिति न्यायाज्जाड्यमिति द्रष्टव्यं ततः - विहिता = रचिता स्वयमिति गम्यते विशेषेण मुक्त्यर्थिनां सिद्धान्तशरणानां शुद्धात्मनामेकान्तेनैव हिता - पथ्या मुक्तिमार्गदर्शन दीपिका कल्पत्वेन वा विहिता नवसंख्यानां स्थानाङ्गादीनामङ्गानां वृत्तिः = विवरणं नवाङ्गवृत्तिः, विहिता चासौ नवाङ्गवृत्तिश्व सैव जलं = सलिलं विहितनवाङ्गवृत्तिजलं, तेन धौतः =प्रक्षालितो जाडयलेपः =अज्ञानपङ्कपुटो येन स विहितनवाङ्गवृत्तिजलधौतजललेपः । एतच्च न वाग्देवताप्रसादोल्लसितवाग्विलासानां नवाङ्गीविवरणकरण मत्यद्भुततमं निस्सीमशेमुषीसमुल्लासविलासवासभवनत्वाद्विपश्चितां तदुक्तम् " उदन्वच्छिन्ना भूः स च निधिरपां योजनशतं सदा पान्थः पूषा गगनपरिमाणं कलयति । इति प्रायो भावाः स्फुरदवधिमुद्रा मुकुलिताः सतां प्रज्ञोन्मेषः पुनरयमसीमा विजयते ॥ १ ॥ " इति । अथानन्तरविशेषणार्थमेव भङ्गयन्तरेण स्पष्टयति येन नवाङ्गविवरणं विहितं विधिना - गुरुपदेशानुसारादिना सम= सह शिवश्रिया = सिद्धिलक्ष्म्या कर्त्तुं विधातुं नवम् = अननुभूतपूर्वं नूतनं गवि पृथिव्यां वरणमिव, इव शब्दाध्याहारः कार्यः “ सोपस्काराणि वाक्यानी " त्युक्तेः, वरणकं च- अविधवयुवतीमधुरमङ्गलोच्चारकुमारिका मुखकमलघुसृणमण्डनालङ्कारदानादिपूर्वकः परिणयनसत्यङ्कारदानप्रकारः प्रसिद्ध एव । किं कृत्वा ? उज्झित्वा = त्यक्त्वा भवयुवतीसंयोगं - भवः - संसारः स For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर R श्री साई शतकम् । | जिनेश्वर| सूरि शिष्यनामावलि। ॥३६॥ CACARE एव युवती तस्याः संयोग संघर्ष, वर्तमाने भवे जन्मनि वा युवतीसंयोग-नारीपरिभोगम् , अङ्गीकृतं निरुपचरितचारित्रश्री| समुपगूढत्वाद्भगवत इति । तथा यैर्बहुशिष्यैः-प्रभूतविनेयैः शिवपुरपथप्रस्थितानां निर्वाणनगरमार्ग प्रति प्रचलितानां भव्यानां मोक्षार्थिप्राणिनां सरला अकुटिला सरणिः पद्धतिर्मार्ग इत्यर्थः, कथिता-उक्ता, पुंस्त्वमत्र प्राकृतत्वात् , ते भव्या येन मार्गेण यान्ति गच्छन्ति तक शिवपुरं पूर्वनिर्दिष्टम् ।। ७५॥ तथा गुणकणमपि गुणलेशमपि परिकथयितुंवर्णयितुं न शक्नोति सत्कविरपि-महाविचक्षणोऽपि येषामाराध्यपदाम्भोजानां स्फुटं प्रकटमेतत् , तेषां जिनेश्वरसूरीणां चरणशरणं प्रपद्ये, इति गाथात्रयोदशकार्थः ॥ ६४७६ ।। __इह श्रीजिनेश्वरसूरीणां शिष्यादिपरिवारनाममात्र किञ्चिल्लिख्यते-' दृष्टान्तो व्यासार्थिना वृत्तेरवसेयः'। श्रीजिनेश्वरसूरिभिर्विहारं कुर्वद्भिर्जिनचन्द्रा-भयदेव-धनेश्वर-हरिभद्र-प्रसन्नचन्द्र-धर्मदेव-सहदेव-सुमति-प्रभृतयो | | बहवः शिष्याश्चक्रिरे । पश्चाजिनचन्द्राभयदेवी गुणपात्रं विज्ञाय सूरिपदे निवेशितौ, क्रमेण युगप्रवरौ जातौ । अन्यौ द्वौ सूरी धनेश्वरो जिनभद्रनामा, तृतीयो हरिभद्राचार्यः। तथा धर्मदेव-सुमति-विमल-नामानत्रय उपाध्यायाः कृताः। श्रीधर्म| देवोपाध्यायसहदेवगणी द्वावपि भ्रातरौ, श्रीधर्मदेवोपाध्यायेन हरिसिंह-सर्वदेवगणिभ्रातरौ सोमचन्द्रपण्डितः शिष्या विहिताः । सहदेवगणिना अशोकचन्द्रः शिष्यः कृतः, स चातीववल्लभ आसीत् , स च श्रीजिनचन्द्रमरिणा विशेषेण पाठयित्वा मूरिपदं निवेशितः तेन च स्वपदे हरिसिंहाचार्यों विहितः। अन्यौ द्वौ सूरी प्रसन्नचन्द्र-देवभद्राभिधेयौ । देवभद्रः सुमत्युपाध्यायशिष्यः । प्रसन्नचन्द्राचार्यप्रभृतयश्चत्वारोऽभयदेवमरिणा पाठितास्तर्कादिशास्त्राणि, अत एवोक्तं श्रीचित्रकूट For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सत्क (टीय) प्रशस्तौ श्रीजिनवल्लभसूरिभिः, यथा - " सतर्क न्याय च चर्चित चतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसरिः, सूरिः श्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनिर्देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णव कलशभुवः संचरिष्णूरुकीर्त्तिः स्तम्भायन्तेऽधुनाऽपि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ १ ॥ " श्रीजिनेश्वरसूरय आशापल्यां विहृताः, तत्र च व्याख्याने विचक्षणा उपविशन्ति ततो विदग्धमनः कुमुदचन्द्रिका सहोदरी संनिवैराग्यवर्द्धिनी लीलावत्यभिधाना कथा विदधे । तथा डिंडियाणकग्रामप्राप्तैः पूज्यैः व्याख्यानाय चैत्यवास्याचार्याणां पार्श्वाद्याचितः पुस्तकः, तैः कलुषितहृदयैर्न दत्तः, पश्चिमप्रहरद्वये विरच्यते प्रभाते व्याख्यायते, इत्थं कथानककोशचतुर्मास्यां कृतः । तथा मरुदेवा नाम गणिन्यभूत् तया चानशनं गृहीतम्, चत्वारिंशद्दिनानि स्थिता । श्रीजिनेश्वरसूरिभिः स माधानमुत्पादितं तस्याः, भणिता च यत्रोत्पत्स्यसे तत्स्थानं निवेदनीयम् । तयापि 'एवं भगवन् ! विधास्ये' इति प्रतिपन्नम् । पञ्चपरमेष्ठिनः स्मरन्ती सा स्वर्गं गता, जातो देवो महर्द्धिकः । एवं च तावदेवम् इतश्च श्राद्ध एको युगप्रधान निश्चयार्थ श्री जयन्तगिरौ गत्वा " साधिष्ठायकं सिद्धिक्षेत्र मेतदतोऽम्बिकादिदेवताविशेषो यदि मम युगप्रधानं प्रतिपादयिष्यति ततोऽहं भोक्ष्ये नान्यथा " इति सच्चमालम्व्यावस्थित उपवासान् कर्तुमारब्धः । एतस्मिन्नवसरे महाविदेहे श्रीतीर्थङ्करवन्दनार्थ गतस्य श्रीब्रह्मशान्तेस्तेन आर्यिकाजीवदेवेन संदेशो दत्तः, यथा - ' त्वया श्रीजिनेश्वरसूरीणामग्रे इदं निवेदनीयं ' तथाहि " मरुदेविनाम अजा, गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छम्मि । सग्गम्मि गया पढमे, जाओ देवो महिड्डीओ ॥ १ ॥ टक्कलयम्मि विमाणे, दुसागराऊ सुरो सम्मुप्पन्नो । समणेसस्स जिणेसर, -मूरिस्स इमं कहिआसि ॥ २ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नणधरसार्द्ध टकउरा जिणवंदण,-निमित्तमेवागएण संदिटुं । चरणम्मि उजमो मे, कायवो किं च सेसेहिं ॥३॥" श्रीतेनापि ब्रह्मशान्तिना स्वयं गत्वाऽसौ संदेशकः सूरिपादानां पुरो न प्रकाशितः, किन्तु युगप्रधाननिश्चयार्थप्रारब्धोप |जिनेश्वरवासः श्रावक उत्थापितः, ततस्तस्याश्चले लिखितान्यक्षराणि यथा-'म । ट। ट।' भणितश्च-गच्छ पत्तने यस्थाचार्यस्य हस्तेन सूरेःप्रक्षालितानि यास्यन्त्येतान्यक्षराणि स एवेदानींतनकाले भारते वर्षे युगप्रधानः, ततस्तेन श्रीनेमिजिनं वन्दित्वा कृतपारण- युगकेन पत्तनमागतेन सर्वासु वसतिषु गत्वा दर्शितानि तान्यक्षराणि परं न केनापि बुद्धानि । यदा तु श्रीजिनेश्वरसूरीणां वसतौ प्रधानत्वं ॥ गत्वा दर्शितान्यक्षराणि तदा वाचयित्वा गाथात्रयमेतदिति समुत्पन्नप्रातिभैः चेतसि पर्यालोच्य सूरिभिस्तान्यक्षराणि प्रक्षालितानि । ततस्तेन श्रावकेण चिन्तितं-' युगप्रधान एपः' इति विशेषतो गुरुत्वेन चाङ्गीकृतः । इत्येवं श्रीमहावीरतीर्थकर | दर्शितधर्मप्रभावनां विधाय श्रीजिनेश्वरसूरयो देवलोकं प्राप्ता इति ॥ ____ अथ गाथा प्रस्तुता प्रस्तूयते8| जुगपवरागमजिणचं-दसूरिविहिकहिअसूरिमंतपओ। सूरी असोगचंदो, मह मण-कुमुयं वियासेउ॥७७॥8 व्याख्या-अशोकचन्द्रसूरिः पूर्वनिर्दिष्टः श्रीजिनदत्तगुरुणामुपस्थापनाकर्ता 'ममे त्यनेन प्रकरणकार उपकारं स्मरना| त्मानं निर्दिशति-मन एव=चित्तमेव कुमुदं कैरवं विकाशयतु-विस्फारयतु । न विद्यते शोकः प्रस्तावात् सैहिकेयकृताङ्गव्यथा शोकशब्देनात्रोपलक्ष्यते, स नास्ति यस्य स अशोकः, तादृशस्यैव हि चन्द्रस्य कुमुदविकाशने सामर्थ्यम् , अशोकश्चासौ ३७॥ GACASARAM EARCAMERA For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चन्द्रश्चाशोकचन्द्रः तादृशश्चन्द्रः कुमुदं विकाशयति, इत्यभिप्रायेणोक्तं मनः कुमुदमिति । अशोकचन्द्रसूरेर्विशेषणमाह-श्रीजिनेश्वरसूरीणामनन्तरभाविना युगप्रवरागमेन - युगप्रधान सिद्धान्तेन जिनचन्द्रसूरिणा विधिना=आगमोक्तेन कथितानि श्रोत्रे प्रतिपादितानि सूरिमन्त्रस्य - आचार्यमत्रस्य पदानि वचनानि यस्य स युगप्रवरागमजिनचन्द्रसूरिविधिकथितरिमन्त्रपद इति गाथार्थः ॥ ७७ ॥ अथ दीक्षादायकं स्वकीयं स्मृतिगोचरमानीय प्रसादयन्नाह - कहिअगुरु- धम्मदेवो, य धम्मदेवो गुरू उवज्झाओ। मज्झ वि तेसिं तु दुरंत दुहहरो सो लड्डु होउ ॥७८॥ व्याख्या - गुरुः- आचार्यः धर्मः - अहिंसादिलक्षणः देवश्व - अष्टादशदोपविनिर्मुक्तोऽर्छन्, ततः कथिताः- उपदिष्टा गुरुधर्मदेव येन स कथित गुरुधर्म्मदेवः, 'च' शब्दो भिन्नक्रमः पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, स चाग्रेतनपदेन योज्यते, धर्मदेवश्वउपाध्यायः = उपेत्याधीयते यस्मादिति व्युत्पच्या । कीदृश उपाध्यायोऽपि ? गुरुः - मदीक्षादायकत्वेन आचार्य:, ' अपि '-'तु' शब्दयोवार्थत्वान्मम च तेषां च अशोकचन्द्रसूरीणां सकललोकविख्यातो भवतु - संपद्यताम् । कीदृशः १ दुष्टः, अन्तः = अवसानं येषां तानि दुरन्तानि तानि च तानि दुःखानि च कृच्छ्राणि च दुरन्तदुःखानि तानि हरतु लघु शीघ्रम् । द्वौ ' च 'शब्दौ दुरन्तदुःखहरत्वं प्रति तुल्यकक्षताद्योतकाविति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ अथ तस्यैव शिष्यमनुनयन्नाह - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर श्री. सार्द्ध शतकम् । %A चार्य ॥३८॥ 5 तस्स विणेओ निद्दलिअगुरुगओ जो हरि व हरिसीहो। मज्झ गुरू गुणिपवरो, सो मह मणवंछिअं कुणउ ॥ ७९ ॥ हरिसिंहाव्याख्या-तस्यैव-धर्मदेवोपाध्यायस्य विनेयः अन्तेवासी मम गुरुः सिद्धान्तवाचनादायकत्वेन । तथा गुणिषु= 12 ज्ञानदर्शनचारित्रवत्सु प्रवरा-प्रकृष्टः सः, कः ? हरिसिंहः हरिसिंहाभिधः सूरिः मम मनोवाञ्छितं हृदयाभीष्टं करोतु स्मृतिः॥ विदधातु । यत्तदोनित्याभिसम्बन्धादाह-यो हरिरिव पञ्चवक्त्र इव । उभयोरपि विशेषणसाम्यमाह-'निद्दलिअगुरुगओ' त्ति, मूरिपक्षे-निर्दलिता-ध्वंसिता गुरवो महान्तो गदाः-कासश्वासादयो रोगा येन स निर्दलितगुरुगदः । हरिपक्षे च-निर्दलिताः-विदारिताः गुरुगजा:-अत्युच्चा हस्तिनो येन स तथा, इति गाथार्थः ॥ ७९ ।। तस्यैव ज्येष्ठनातरं स्मरन् स्तौतितेसिं जिट्ठो भाया, भायाणं कारणं सुसीसाणं। गणिसवदेवनामा, न नामिओ केणइ हढेण ॥८॥ ____ व्याख्या-तेषां-धर्मदेवोपाध्यायानां ज्येष्ठो गरिष्ठो भ्राता-सहोदरः सुशिष्याणां शोभनविनेयानां यानि भाग्यानि पुण्यानि तेषां कारण निदानम् । एतावता क्षुल्लकावर-वस्त्र-पात्र-दण्डक-लोचिका-भक्तपानकसंपादन-प्रतिपालनक्रियाकलापशिक्षणैः सम्यग्वैयावृत्त्यकरत्वं तस्य सूचितम् भवति । किं नामधेयोऽसौ ? तबाह-गणिश्चासौ सर्वदेवनामा च गणिसर्वदेवनामा। कीदृशः न नामितः न स्वतेजसा भ्रंशितः पराभूत इति यावत् , केनापि क्षत्रियादिना, केन ? हठेन बलात्कारेण । अद्यापि ॥ ३८॥ % A5 For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यस्य सर्वदेवगणेः स्तम्भतीर्थवेलाकूल-निकटवर्तिशाखिस्थलग्रामक्षेत्रभुवि स्तूपो मिथ्यादृष्टिभिरपि सप्रभावत्वेन रक्ष्यमाणः पूज्यमानो विद्यत इति गाथार्थः ॥ ८॥ अथ श्रीदेवभद्रसूरीणामत्यन्तमुपकारिणामुपकार संस्मरन् कृतघ्नत्वं निराकुवंस्तेभ्यो नमस्कारमाविश्चिकीर्षुर्गाथात्रितयमाहसूर-ससिणोऽविन समा, जेसिं ते कुणंति अस्थमणं।नक्खत्तगता मेसं,मीणं मयरंपि भुंजते॥१॥ जेसिं पसाएण मए, मरण परिवजिअं पयं परमं । निम्मलपत्तं पत्तं, सुहसत्तसमुन्नइनिमित्तं ॥२॥ तेसिं नमो पायाणं, पायाणं जेहिं रक्खिआ अम्हे । सिरिसूरिदेवभदाण सायारं दिन्नभद्दाणं ॥३॥ ___व्याख्या-तेषां श्रीसूरिदेवभद्राणां पादेभ्यो नम इति संटकः । येषां, कि? मित्याह-न समौन तुल्यौ, को ? सूरः अर्यमा शशी-चन्द्रमाः, सूरश्च शशी च सूरशशिनौ आस्तामन्ये अप्रकटोपकारिणः, इत्यपि शब्दार्थः । कथं ताभ्यां सह साम्यम् ? तत्राह-यस्मात्तौ सूरशशिनौ कुरुता विधत्तः,किम् ? 'अत्थमण'ति श्लिष्टं पदमेतत् , तत्र सूर्याचन्द्रमसोः पक्षे अस्तमयम् अस्तम् ,ते | च भगवन्तः श्रीदेवभद्राचार्याः अर्थ-वित्तविषये मनः अर्थमनस्तन्न कुर्वन्ति परित्यक्तस्वजनकनकत्वात्तेषाम् । पुनः कीदृशावेतौ ? इत्याह-क्षत्र-सदाचारं गतौ प्राप्तौ क्षत्रगतौ तादृशौ, न असदाचारावित्यर्थः, एवं नामाऽसदाचारः, येन मेषम् एडकं मीनं पृथुरोमाण मकरमपि जलजन्तुविशेषमपि भुञ्जाते, अत्यन्तमधमा एवैवं कुर्वते, इति प्रतीयमानार्थेन तयोरसाधारणोद्धावनम् । १ पृथुरोमाण-मत्स्यम् । For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधर सार्द्ध शतकम् ।।४ देवभद्रसूरीणाम् ॥ ॥३९॥8 अथ च नक्षत्रगतौ अश्विन्यादिक्रक्षपादनवकसंस्थौ मेषं मीनं मकरं च राशिविशेष समधितिष्ठतः सूर्यचन्द्राविति, तथा च लोको वदति-मेषं भुक्त्वा इदानीं सूर्यो वृषे संक्रान्तः, एवं चन्द्रोऽपि मीनं भुक्त्वा इदानी चंद्रो मेषे स्थित इत्यादि। प्रथमपक्षे च न कदाचिदसदाचार-प्राणिवधानृतभाषणस्तैन्याब्रह्मसेवादिकं गताः आचीर्णवन्तः, नापि मेषमीनमकरोपभोगं मनसावि विदधति ते श्रीपूज्यपादाः ।। ८१ ॥ तथा 'येषां प्रसादेन-अनुग्रहेण मया परमं प्रकृष्टं सर्वपदोत्तमं पदम्-आचार्यपदमित्यर्थः प्राप्त कब्धम् । कीदृशं यत्परमं पदम् ? तत्राह-परिवर्जितं त्यक्तं, केन? मदेन अहङ्कारेण । पुनः कीदृशम् ? निर्मलानि-निर्दूषणानि विनयादिगुणान्वितानि पात्राणि=" पात्रं तु कूलयोर्मध्ये, पणे नृपतिमन्त्रिणि । योग्यभाजनयोर्यज्ञ-भाण्डे नाट्यानुकर्तरि ॥१॥” इति हैमानेकार्थवचनात् (२-४४४), ज्ञानादियोग्यानि यत्र तत्' निर्मलपात्रम् । अनेन च परमपदविशेषणद्वयेनात्मनो निरहंयुता स्वगच्छस्य च पात्ररत्नाकरत्वमावेदितम् भवति । किमर्थ परमं पदं प्राप्तम् ? इत्याहशुभा-धर्मयोग्या ये सचा: जीवास्तेषां समुन्नतिः अभ्युदयस्तन्निमित्त-तद्धेतवे शुभसत्त्वसमुन्नतिनिमित्तम् । अनेन च स्वस्य भावपरोपकृतिकारित्वं सूचितं स्यादिति ॥ ८२ ॥ तथा तेभ्यः पादेभ्यो नमः यैः रक्षिताःचाता वयम् । केभ्यः ? पातेभ्यः-पतनेभ्यः विनाशेभ्य इत्यर्थः युगप्रधानपदपालनादविनाशिपदप्राप्तेरिति भावः । श्रीसूरिदेवभद्राणां, कीदृशानाम् ? सादरं-ससंभ्रमं दत्तं वितीर्ण भद्रं कल्याण यैस्तादृशानां तथाविधोपदेशशास्त्रविरचनेन व्याख्यानेन च भव्यानां कल्याणपदप्राप्तेरित्याकृतमिति गाथात्रयार्थः ॥ ८१-८२-८३ ।। श्रीदेवभद्रमरिभ्यः श्रीजिनवल्लभमरिभ्यश्च यैः मूरिपदं प्रदत्तं तानाह ॥ ३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिपयं दिन्नमसोगचंदसूरीहिं चत्तभूरीहिं । तेर्सि पयं मह पहुणो, दिन्नं जिणवल्लहस्स पुणो॥४॥ व्याख्या-तेसिं' ति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतत्वात् , तेभ्यः श्रीदेवभद्रमुरिभ्यः सूरिपदम्-आचार्यपदं दत्त=वितीर्णम् । ॐ कै ?रित्याह-अशोकचन्द्रसूरिभिः श्रीजिनचन्द्रसूरिप्रसादीकृताचार्यपदैः । तथा च एभिरेव प्रकरणकारिप्रभुभिर्विशिकायामभ्यधायि ____ "अभिषेकवरसहोदर,-सहदेवगणेस्ततोऽभवच्छिष्यः । मूरिस्त्वशोकचन्द्रो-जिनचन्द्राचार्यदत्तपदः ॥१॥" कीदृशैस्तैः ? त्यक्तो-मुक्तो भूरि-काञ्चनं यैस्ते तथा तैः । उक्तश्च तैरेव तत्रैव ।। " सूरिः प्रसन्नचन्द्रो, हरिसिंहो देवभद्रमूरिरपि । सर्वेऽप्येते विहिताः, सूरिपदेऽशोकचन्द्रेण ॥१॥" 'तेसिं'इति पुनरावृत्त्य योज्यते,तत्र तृतीयाथै षष्ठी,ततो यः पुनर्दत्तं,किं तत्पदं मूरिपदमित्यर्थः,कस्य?प्रभोः,स्वामिनः कस्य? मम, किं नामधेयस्य ? तत्राह-जिनवल्लभस्य 'जिनवल्लभः' इति सुगृहीत नामधेयस्य । तथा च विंशिकायामेतदेवोक्तम्___" इत्तोऽप्यमयदेवाख्य,-सूरेः श्रीश्रुतसम्पदम् । समवाप्य ततो मत्वा, चैत्यवासोऽस्ति पापकृत | श्रीमत्कूर्चपुरीय-श्रीसूरेजिनेश्वरस्य शिष्येण | जिनवल्लभेन गणिना, चैत्यनिवासः परित्यक्तः ॥२॥ १- त्य-मुक्तं भूरि-काञ्चनं ' इति भव्यम् , काञ्चनवाचिभूरिशब्दस्य नपुंसकलिङ्गत्वात् । २ ' भूरि स्वर्णे प्रचुरे च' इति हैमानेकार्थसंग्रहः (२-४५२) ३ तत्रैव-विंशिकायाम् । CR For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघर सार्द्ध शतकम् । 1180 11 www.kobatirth.org कृताङ्गिगणभद्रेण, देवभद्रेण सूरिणा । श्रीचित्रकूटदुर्गेऽस्मिन् सोऽपि सूरिपदे कृतः अयं चार्थः समस्तोऽपि पूर्वाचार्याम्नायप्रतिपादनेन पूर्वमेव स्फुटीकृत इति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ ॥ ३ ॥ " अथायं सुगुरुबहुमानवान् भगवान् प्रकरणकारस्तमेव श्रीजिनवल्लभसूरिम् " अत्थगिरिमुवगएसुं " इत्यादिना " तप्पयपरमं पाविअ जाओ जाया जाओहं (१४६) " इत्यन्तेन द्वाषष्टिगाथासमुदायेन स्तुत्वा त्रिषष्टितम गाथा (१४७) पूर्वार्द्धन वन्दमानः प्राह - ' तमणुदिणं दिन्नगुणं, वंदे जिणवल्लहं पहुं पयओ ' । ( १४७ ) ति । अत्थगिरिमुवगएसुं, जिण-जुगपवरागमेसु कालवसा । सूरम्मि व दिट्ठिहरेण, विलसिअं मोहसंतमसा ॥ संसारचारगाओ, निद्विन्नेहिं-पि भवजीवेहिं । इच्छंतेहि वि मुक्खं, दीसह मुक्खारिहो न हो ॥ फुरिअं नक्खत्तेहिं, महागहेहिं तओ समुहसिअं । बुड्ढी रयनिअरेणावि पाविआ पत्तपसरेण ॥८७॥ पासस्थकोसिअकुलं, पयडीहोऊण हंतुमारद्धं । काए कए य-विघाए, भावि भयं जं न तं गणइ ॥८८॥ जग्गति जणा थोवा, स-परेसिं निव्वुई समिच्छता । परमत्थरक्खणत्थं, सर्वं सद्दस्स मेलंता ॥८९॥ नाणा सत्थाणि धरंति ते उ जेहिं वियारिऊण परं । मुसणत्थमागयं परि, हरंति निज्जीवमिह काउं ॥ अविणासिअजीवं ते, धरति धम्मं सुवंसनिप्फन्नं । मुक्खस्स कारणं भय निवारणं पत्तनिवाणं ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरिणां सप्रपंच स्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ || 80 || Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir www.kobatirth.org 3% % धरिअकिवाणा केई,स-परे रक्खंति सुगुरुफरयजुआ। पासत्थचोरविसरो, वियारभीओ न ते मुसइ॥ मग्गम्मग्गा नजति नेय विरलो जण त्थि मग्गण्णाथोवा तदत्तमग्गे, लग्गति न वीससंति घणा॥ अन्ने अन्नत्थीहिं, सम्मं सिवपहमपिच्छिरोहिं पि। सत्था सिवत्थिणो चालिआ वि पडिआ भवारन्ने॥ परमत्थसत्थरहिएसु भवसत्थेसु मोहनिदाए । सुत्तेसु मुसिजतेसु पोढपासत्थ-चोरेहिं ॥९५॥ असमंजसमेयारिस,-मवलोइअ जेण जायकरुणेण। एसा जिणाणमाणा, सुमरिआ सायरं तइया॥ गाथाद्वादशकव्याख्या-"तमणुदिणं दिन्नगुणं वंदे जिणवल्लहं पहुं पयओ (१४७)"त्ति। श्रीजिनवल्लभसूरिं प्रभु-स्वामिनं प्रयत: आदरेण वन्दे-अभिवादयामि । कीदृशम् ? दत्ता-वितीर्णा भव्यप्राणिनां गुणाः-ज्ञानादयो येन तं दत्तगुणम् , यदि वागुणो-रज्जुस्ततश्च दत्ता अवतारितः संसारकूपान्तर्निमजजन्तुजातोद्धरणाय गुणः संवेगरससारद्वादशकुलकादिरूपा रज्जुर्येन, दत्ता वा सवानां जीववीर्योल्लासनेन कारातिनिर्दलनाय शौर्यादयो गुणा येन तं दत्तगुणं, तं वन्दे (१४७) (९६) येन, कि ?मित्याह-स्मृता-हृदि व्यवस्थापिता स्मरणपथमानीतेति यावत् , काऽसौ ? आज्ञा-वचनम् आदेशः, चकारात् कत्तुमवसिता च १ " गुणो ज्या-सूत्र-तन्तुषु ॥ रजौ सत्त्वादौ संध्यादौ, शौर्यादौ भीम इन्द्रिये । रूपादावप्रधाने च, दोषान्यस्मिन् विशेषणे ॥ १॥" ( हेमाने. | कार्थसंग्रहः लो. १५३-१५३) CROCOCCACADAKI % % % % % For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org गणधर सार्द्ध शतकम्। ॥४१॥ SOCIOLOGISTRICROR | श्रीजिनवल्लभसूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि। केषाम् ? जिनानाम्-अर्हताम् , कथं स्मृता ? सादरं तदा तस्मिन् काले, कीदृशी ? एषा-अनन्तरं वक्ष्यमाणा । किं कृत्वा ? अवलोक्य-वीक्ष्य, किम् ? असमञ्जसम् असम्बद्धम् उपप्लवमित्यर्थः। कीदृशम् ? एतादृशम्-एवंविधम् , कथम्भृतेन येन ? असमञ्जसावलोकनाजातकरुणेन समुत्पन्न कृपेण ।। ९६ ॥ कदा कीदृशं चासमञ्जस ?मित्याह-कालवशात्-दुषमासमयायततया जिना तीर्थकरा ऋषभादिवर्द्धमानान्ताः युगप्रवरागमा: सुधर्मस्वामिजम्बूस्वामि-प्रभव-शय्यम्भव-यशोभद्रा-र्यसंभूतविजय-भद्रबाहस्वामि-स्थलभद्रस्वाम्या-य॑महागिर्यायसुहस्ति-शान्तिमूरि-हरिभद्रसूरि-शाण्डिल्यसूर्याय॑समुद्रा-र्यमवार्यधर्म-भद्रगुप्तपरि-श्रीवैरस्वाम्या-यरक्षिता-यनन्द्या-र्यनागहस्ति-रैवतक-स्कन्दिल-हिमव-नागो-द्योतनसूरि-गोविन्दसूरि-भृतिदिन-लौहित्यध्यसू-[मास्वातिवाचक-जिनभद्रसूरि-हरिभद्रसरि-देवसूरि-नेमिचन्द्रो-द्योतनमूरि-वर्द्धमानसूरि-प्रभृतयस्तेषु जिनयुगप्रवरागमेषु अस्तम्-अभावो निर्वाणस्वर्गादिगतिः, तदेव गिरिरामर्त्यलोकापेक्षयाऽत्यन्तोच्चस्थानत्वात शैलस्तम् उपगतेपु-प्राप्तेषु सत्सु सूर्यवत्-अकेवत् , सूर्यपक्षे अस्तगिरिः पश्चिमाचलः, कालवशादिति च चतुर्याम्यतिक्रमे । विलसितम्-उल्लसितं विजम्भितं, विसृतं प्रसृतमित्यर्थः, केन ? मोहसन्तमसा-मोह एव सन्ततं तमस्तेन अज्ञाननिविडान्धकारेण, दृष्टिः मोहपक्षे सम्यक्त्वं, संतमसपक्षे चालोकन, तं हरति अपनयतीति दृष्टिहरं, तेन दृष्टिहरेण ॥ ८५ ॥ ततश्च किं संजातम् ? इत्याह-'संसारचारगाओ' संसार एव-भव एव मूत्रपुरीपनिरोधदत्वेन क्षुत्तृट्पीडाकारित्वेन नानाप्रकारकदर्थनास्पदत्वेन दन्दशूकवृश्चिकगोधेरकककलासाद्याकीर्णत्वेन दुर्गन्धाशुचिपरिपूर्णत्वेनातिबीभत्सत्वेन चित्तवपुःक्लेशकृत्त्वेन विनिद्र(ता)भयावहत्वेन च चारका कारावेश्म तस्मात् निर्विणः धरणीतलपाटन(लुठन)प्रचुरवान्दिकजनविमर्दसंकोच-ब KAROGRA* LAT॥४१॥ For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मारयध्वं सेवयध्वमेतं राजभाण्डागारलूषकम् एतस्य हृदि शिलामारोपयध्वमङ्गुलीदीपान् ददध्वं संदंशकैस्त्रोटयध्वं मुखं धूमेन पूरयध्वम्' इत्यादि साधिक्षेपाला सन्तापवातशीतातपदंशमशकवा धाम्य उद्विग्नैरसुस्थैरत्यन्तमसमाहितैरित्यर्थः । कै? - रित्याह- भविष्यन्ति कल्याणपात्रमिति भव्यास्ते च ते जीवाश्च = सच्चास्तैर्भव्यजीवैः, यत एव संसारचारकान्निर्विण्णैरत एव तस्मात् मोक्षं=मुक्तिम् इच्छद्भिः = अभिलषद्भिरपि तैर्भव्यैर्न दृश्यते = नेक्ष्यते, कोऽसौ ? पन्थाः = मार्गः किम्भूतः १ मोक्षार्हः= मुक्तिविधानक्षमः । तदयमर्थः - जिनादि सूर्यास्तमये मोहान्धकारे समुल्लसिते सति भव्यैः संसारादुद्विग्रचित्तैर्मोक्षार्थिभिरपि मोक्षमार्गो न दृश्यत इति । संतम सोल्लासेऽपि शोभनमार्गादर्शनं स्फुटमेव ॥ ८६ ॥ अन्यच्च किं संपन्नम् इत्याह- 'फुरिअं नक्खत्तेहिं' स्फुरितं=प्रकटीभूतं, न, कैः ? क्षत्रैः =सदाचारैः, किं तर्हि ? चौर्यपारदार्यपर-गुरुवञ्चन-मित्रकलत्र-भगिनी-पापण्डिन्यादिसङ्गम - ब्रह्महत्या - स्त्रीहत्या - गोहत्या - मदिरापान मांसभक्षणप्रापद्धि - द्यूत-वेश्यासक्ति-कपट भाषण - धर्मशठत्व-कषायवर्द्धन - कषायोदीरणा-भ्याख्यानदान-परिवादा- कल्याणमित्रसङ्गत्याद्यसदाचारैः स्पष्टीभूतमित्यर्थः । ततः = तदनन्तरं महान्तो= दुर्निवार्या ये ग्रहाः = " ग्रहो ग्रहणनिबन्धानुग्रहेषु रणोद्यमे । उपरागे पूतनादावादित्यादौ विधुन्तुदे ॥ १ ॥ " इति वचनात् ( मानेकार्थ० २ - ६०१ ) निर्बन्धा अभिनिवेशा: श्रावकसम्यक्त्वारोपण निषेध-श्रावकपश्चदण्डक - चैत्यवन्दननिषेध-पञ्चा मृतस्नात्र - शासनसुरपूजा - श्रावकप्रासुकजलपान - श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र - साधुसाध्वीशक्रस्तव भणन संयती भाविका-स्थापनाचा - प्रतिदिन मुनिजनचैत्यवन्दना - प्रदक्षिणात्रय - लवणजलारात्रिका - माङ्गल्यकरण-द्वया सनकादिप्रत्याख्यान - प्रकरणप्रामाण्यसर्वाचरितप्रामाण्य-चेलाञ्चलवन्दन कदापन- मासिक्य विहारस्थापननिषेधरूपाः कदाग्रहा इत्यर्थः, तैर्महाग्रहैः समुल्लसितं - वह For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर साईशतकम् । ॥ ४२ ॥ www.kobatirth.org लीभूतम् । तथा 'बुड्डीरयणिअरेणावि' ति, प्राप्ता = लब्धा वृद्धि - उपचयः, रजो = बध्यमानं कर्माधर्म्मरूपं तस्य निकरः- समूहस्तेन रजोनिकरेणापि पूर्वापेक्षयाऽपि समुच्चये, प्राप्तप्रसरेण लब्धावकाशेनेति । संतमसोल्लासपक्षे तु नक्षत्रैः = ऋक्षैः स्फुरितं= व्यक्तीभूतं महाग्रहैश्व - गुरुशुक्रादिभिः समुल्लसितम् अतिशयेन दीप्तीभूतम् । वृद्धि:- पुष्टिः रजनिकरेणापि = चन्द्रमसा प्राप्ता प्राप्तप्रसरेण || ८७ ॥ तथा 'पासत्थकोसिअकुलं पयडीहोऊण हंतुमारद्धं काए' ज्ञानादीनां पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, अत्रोपलक्षणत्वादन्येऽप्यवषण्णादयः, त एव कौशिकाः ' कौशिकः शक्रघूकयोः ॥ कोशज्ञे गुग्गुलावाहि तुण्डिके नकुले मुनौ ॥ " इति ( मानेकार्थ० ३ - ६३६) वचनात् इन्द्रा = अधिपतयस्तेषां कुलं "कुलं सङ्घः कुलं गोत्रं, शरीरं कुलमुच्यते " इति (शब्दरत्नप्रदीप ) वचनात् कुलं = सङ्घः कौशिककुलं प्रकटीभूय - प्रत्यक्षीभूय हन्तुं निःशङ्कं विध्वंसयितुं सचित्तपृथिवीमर्दन - सचित्तजलपान - दीपादितेजस्कायविराधन- तालवृन्तादिवीजनादि-प्रकारैः कायान् पड्जीवनिकायान् आरब्धं= प्रवृत्तम् । ननु पट्काय वधादात्मनो भविष्यद्दुर्गतिपाताचे किं न बिभ्यति १, सत्यम्, एतदेवाह - 'एयविधाए' एतेषां कायानां विघाते विनाशे भावि = आगामि यद्भयं = नरकपातादिवासः, तं न गणयति = नावेक्ष्यते पार्श्वस्थ कौशिककुलमिति सम्बन्धः, सान्दृष्टिकफलमात्र प्रतिबद्धा हि गुरुकर्माणः सच्चा नोदर्कफलं पर्यालोचयन्तीति भावः । सन्तमसपक्षे च पार्श्वस्थं निकटवर्त्ति कौशिक कुलम् - उल्लूकवृन्दं प्रकटीभूय = पर्वतगुहादिभ्यो निःसृत्य हन्तुं त्रोटिप्रहारैखोटयितुमारब्धमिति पूर्ववत् । कान् ? इत्याह- 'काए 'ति काकान्वायसान्, यतो यस्माद्धेतोः, तत्-कौशिककुलं माविभयं - काकेभ्यश्चञ्चुचुण्टनादि - भविष्यद्भीतिं न गणयति =न विचारयति मूढत्वादित्यर्थः ॥ ८८ ॥ ' जग्गंति' इत्यादि । विवेकजागरिकया जाग्रति- स्फूर्जन्ति जनाः = लोकाः स्तोकाः = परिमिताः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ४२ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यग्दृष्टिसुसाधुसुश्रावकादय इत्यर्थः, मिथ्यादृशां तु महामोहनिद्रामुद्रितविवेकलोचनानां कौतस्कुती जागरणवार्तेत्यर्थः कीदृशाः ? स्वपरयोः आत्मेरतयोनिवृति “अथ निवृतिः । मोक्षे मृत्यौ सुखे सौस्थ्ये," इति (हैमानेकार्थ० ८६९) पाठान्मोक्षं समिच्छन्तः अभिलषन्तः । पुनः किंविधास्ते स्तोकजनाः ? तत्राह-मेलयन्तः योजयन्तः, कम् ? शब्द-स्वरम् , कस्य ? शब्दस्य-स्वरस्य, किमर्थ ? मित्याह-परमार्थरक्षणार्थमिति, परमः-प्रकृष्टोऽथों वाच्यं यस्य स परमार्थः सिद्धान्तरूप: स्वाध्यायस्तस्य रक्षणार्थम्-अविस्मरणार्थम्, अविच्छिन्नस्वाध्यायकरणेन शब्द शब्देन संबनन्तः । निद्राविकथाप्रमादासेवनेन हि स्वाध्यायाकरणे महाननर्थः साधूनाम् , तदुक्तम् " जागरह जणा! निचं, जागरमाणस्स वड्डए बुद्धी । जो सुबइ न सो सुहिओ, जो जग्गइ सो सया सुहिओ ॥१॥ सुयइ सुयंतस्स सुयं, संकि खलिअं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुयं, थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स ॥२॥ सुयह य अयगरभूओ, सुयंपि से नासई अमयभृयं । होही अयगरभूओ, नटुंमि सुए अमयभूए निहावसगो जीबो, हियमहिअं वा न याणई किंपि । तम्हा तप्परिहारेण धम्मजागरिअया सेया ॥४॥" यदि वा-परमः-अत्यन्तश्रेष्ठः अर्थः-धनं परमार्थः, स च श्रुतमेव तस्य रक्षणार्थ, तद्रक्षणस्यैव हि सकलसुखखानिकल्पत्वात् , तदुक्तम् " नरपतिभिरदण्ड्यं शस्त्रघातैरखण्ड्यं, प्रकटितमपि धार्य नैव चौरापहार्यम् , निखिलसुखनिधायि प्राज्यमीडग्जिनेन्द्रा-गमधनमिह धन्याः केचिदेवार्जयन्ति 545 For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर साई शतकम् । ॥ ४३ ॥ www.kobatirth.org अथवा व्याकरणकलङ्कारछन्दः काव्यादीनां परमार्थस्य = गर्भार्थस्य तात्पर्यार्थस्य रक्षणार्थं शब्दं पदं 'सहस्स' चि तृतीयार्थे षष्ठी ततः शब्देन सह मीलयन्तः = समस्यन्त इत्यर्थः । शास्त्रार्थचिन्तनाभावे हि बठरशेखराः साधवः प्रवचनोन्नतिकारिणो न भवन्ति । सन्तमसपक्षे च स्तोका आरक्षकपुरुषप्रमुखा जनाः स्वपरयोर्निर्वृतिं = सौस्थ्यं समिच्छन्तः कीदृशाः सन्तः ? परमाः=उत्तमाः च ते अर्थाश्च = " अर्थोऽभिधेयरै - वस्तु प्रयोजन-निवृत्तिषु । " इति ( अमर० नानार्थ० ८६ ) । वचनाद् वस्तूनि पदार्थाः = धनधान्यद्विपदचतुष्पदादयस्तेषां रक्षणार्थं शब्दं शब्दस्य मीलयन्तः प्लुतस्वरेण प्राहरिकशब्दं प्राहरिकशब्दस्य संघट्टयन्त इत्यर्थः ॥ ८९ ॥ तथा ' नाणासत्थाणि ' ति, ते तु ते पुनः सम्यग्दृष्टिसुविहितश्रमण श्रावकादयो जना नानाप्रकाराणि दशवैकालिकावश्यको पदेशमालादीनि शास्त्राणि ग्रन्थान् धारयन्ति = व्याख्यानयन्ति चिन्तयन्तीति यावत् । 'जेहिं वियारिऊण परं' इति यैः शास्त्रैः कृत्वा परं पार्श्वस्थादिकमात्मव्यतिरिक्तं मोपणार्थं भक्षणार्थम् - आगतं प्राप्तं विचार्य =" अहो ! औद्देशिकाधाकर्मादिभोजिनः षट्कायोपमर्दकारिणः सकिञ्चना असंयता गृहशरणप्रसक्ताः सचितपुष्पफलोदकोपभोगिनोऽब्रह्मसेवादिकलङ्कपङ्कनिमग्ना एते ' । तच्च सर्व्वमौदेशिकोपभोगादिकमनाचीर्णं मुनीनाम् -" उद्देसिअं कीयगर्ड, निआगमभिहडाणि अ । " इत्यादिना, " आहाकम्मं भुंजड़, छकायपमद्दणो घरं कुणई । पच्चक्खं च जलगए, जो पियइ कहं तु सो साहू || १ | जे घरसरणपसत्ता, छक्कायरिऊ सकिंचणा अजया । नवरं मुत्तूण घरं, घरसंकमणं कयं तेहिं || २ ||" इत्यादिना च सिद्धान्तप्रतिषिद्धत्वात्साधुवेषेणैते पापा लोकमोपणं कुर्वन्ती" ति विमृश्य पार्श्वस्थादिजनं परिहरन्ति = दूरतो वर्जयन्ति तद्वन्दनादिविधानस्य सिद्धान्ते महानर्थहेतुकत्वेन प्रतिपादनात् तथा चोक्तम् For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभसूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ॥ ४३ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %254 " पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेसं एमेव कुणइ तह कम्मबंधं च ॥१॥" किं कृत्वा ते सुविहितश्रावकादयो जागरूकास्तं परिहरन्ती ? त्याह-कृत्वा विधायअवगम्येत्यर्थः, कीदृशम् ? 'नि. जीव ' मिति, जीवशब्देन जीवितमुच्यते ततो निर्गतं जीवितं सत्चमित्यर्थः यस्मात्तादृशं ज्ञात्वा इह-जगति, अयमभिः प्रायः-शिथिलोऽपि कथश्चिद् यदि बुध्यते तदा न परित्यज्यते, परम्-"अवि नाम चक्कवट्टी, चइज सर्वपि चकवट्टिसुहं । न य ओसन्नविहारी, दुहिओ ओसन्नयं चयइ ॥१॥” इति वचनात्सर्वथा निःसत्त्वोऽयमिति परिभाव्य तं वर्जयन्तीति । द्वितीयपक्षे च-नानाशस्त्राणि-कुन्तशक्तिचक्रादीनि आयुधानि धारयन्ति गृह्णन्ति, ते तु=ते पुनः स्तोकजागरूकादयो यैः | शस्त्रैविंदार्य-प्रहृत्य परं मोपणार्थमागतं तस्करादिकं परिहरन्ति परित्यजन्ति मुश्चन्ति निर्जीव-विगतात्मकमिति कृत्वा | ॥ ९० ॥ ' अविणासिअजीवं' इत्यादि, ते=सुविहिताः साधुश्रावकाः स्तोका जागरूका धारयन्ति अनुतिष्ठन्ति, किम् ? धर्मक्षान्त्यादिदशभेदं स्थूलप्राणिवधविरत्यादिद्वादशभेदं च, कीदृशम् ! सु-शोभना शुद्धप्ररूपकत्वसंवेगसारक्रियापरत्वादिगुणोपेतो योऽसौ वंश="वंशः सङ्घऽन्वये पृष्ठावयवे कीचकेऽपि च।" (हैमा० ५५८) इत्यनेकार्थात् अन्वयः= आम्नाय इत्यर्थस्तत्र निष्पन्नम् , अत एवाविनाशिताः विध्वंसमप्रापिता जीवा प्राणिनो यत्र तम् अविनाशितजीव-धर्मम् , अयमर्थः-' यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ॥१॥" इत्यादिकुदृष्टीनामिव न काप्यहम्मे प्राणिघातोपदेश इति । पुनः कीदृशम् ? मोक्षस्य मुक्तेः कारण हेतुः, भयंत्रासं संसारान्नि १ जीवः स्यान् त्रिदशाचार्ये, द्रुमभेदे शरीरिणि । जीवितेऽपि च..." (हैमानेकार्थ ० ५२७) ॥ २ "वंशः संघेन्वये वेणौ पृष्टाद्यवयवेऽपि च" पाटा० ॥ ROAC-SCHOCAC4 For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर श्री सार्द्ध शतकम्। File जिनवल्लभसूरीणां सप्रपंचस्तुतिगर्भचरित्रादि। ॥४४॥ R वारयति-निषेधयतीति भयनिवारणम् । तथा प्राप्तं निर्वाणं-निवृत्तिमव्यसत्त्वैर्यस्मात्तं प्राप्तनिर्वाणम् । अनेन कारणस्यैव निरु| पहतत्वमवश्यं स्वसाध्यसाधकत्वेनोक्तम् । प्रतीयमानार्थपक्षे च-ते स्तोका जागरूकाः धारयन्ति=उपाददते, किम् ? इत्याहधर्म"धर्मो यमो-पमा-पुण्य-स्वभावा-चार-धन्वसु ॥ ३३५ ।। सत्सङ्गे-ऽहत्यहिंसादौ, न्यायो-पनिषदोरपि (३३६)" इति (हैमानेकार्थ० ३३५-६) वचनाद् धनुः, कीदृशम् ? अविनाशिता जीवा मौर्वी यस्य तत् अविनाशितजीवम् । पुनः कीदृक् ? सुशोभनो-नीरन्धोऽलनकीटको यो वंश: वेणुस्तसान्निष्पन्नं कृतं सुवंशनिष्पन्नं मोक्षस्य-विशिखानां मुक्तेर्मोचनस्य कारणम् । न हि ताटकोदण्डमन्तरेण शराणां मोक्षणं स्यादत एव प्राप्ता=आसादिताः निरनिश्चिता बाणा:-शरा येन तत्प्रासनिर्वाणम् । न ह्ययोजितकाण्डं कोदण्डं काण्डमोक्षाय संपद्यते । तादृशं च तत्कीदृशं भवेत् इत्याह-भयनिवारणं-तस्करादिवासप्रतिषेधकम् ॥ ९१ ॥ तथा 'धरियकिवाणा केई ' इत्यादि, केचित्तु सुविहिताः सुश्रावकाच स्वपरान् आत्मेतरान् रक्षन्ति अवन्ति । कीदृशाः सन्तः १ धृता-स्वीकृता कृपा-करुणा तत्प्रधाना आज्ञा-भगवद्वचनं येस्ते धृतकपाज्ञाः । (सैव है| परम्परितरूपकेण कृपाणः खगो यैस्ते गृहीतकपाज्ञाकृपाणाः) आरक्षकपक्षे तु धृतकृपाणा इति व्यक्तम् । तथा सुगुरुरेव शोभनधर्माचार्य एव शासनविपक्षक्षिप्तकदुपन्यासविशिखरक्षकत्वेन स्फरकः-खेटकस्तेन युताः सहिताः । गुरुलक्षणं चेदं तथा " अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्त्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निःस्पृहः । स सेवितव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ॥१॥" OACHERE ॥४४॥ For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इत्यादिगुणकलापालङ्कृतदेहोऽत्यन्तं दुर्लभः सुगुरुस्तदुक्तम् - " तित्थयर गणहरो केवली य पत्तेयबुद्ध पुवधरो । पंचविहायारधरो, दुल्लंभो इत्थ आयरिओ ॥ १ ॥ मग्गंता वि हु धम्मं, संसारसमुदभीरुआ जीवा । पासंडिअमुहपडिआ, भमंति पुणरुत्तसंसारे || २ || धम्मायरिण विणा, अलहंता सिद्धिसाहणोवायं । अस्य व तुंबलग्गा, भमंति संसारचकम्मि || ३ || जह कायमज्झडिअं, वेरूलिअं कोइ जाणओ लेह । सारिच्छयाइनडिओ, अविजं कार्य चिअ गहेइ ॥ ४ ॥ एवं धम्मायरिअं अहमारिआण मज्झ आवडिअं। गिव्हंति लहुयकम्मा, सम्मन्नाणेण जइ विरला || ५ || " एवं तावद् गृहीतकृपाज्ञाक्रपाणान् पुरस्कृत्य सुगुरुविस्तीर्णस्फरकान् पार्श्वस्थाः = कुयतयस्त एव चारित्रधनापहारित्वेन चौरा : = मलिम्लुचाः पार्श्वस्थचौराः तेषां विसरः = समूहः पार्श्वस्थचौरविसरो न मुष्णाति =न लुण्टति यतः 'वियारमीओ'ति, पार्श्वस्थपक्षे विचारः = सिद्धान्तोक्तहेतुयुक्तिदृष्टान्त सन्नद्धधर्म्मवादस्तस्माद्भीत:- त्रस्तो विचारमीत इत्यर्थः । लौकिकस्तोकजागरूकपक्षे च ये केचिद् गृहीतखगाः सुष्ठु =अतिशयेन गुरुः - विशालो यः स्फरकस्तेन युक्तान् पार्श्वस्थोऽपि = प्रत्यासन्नवपि चौरविसरः = तस्करनिकरो न मुष्णाति । कीदृशः सन् १ विदारणं विदारः = खङ्गप्रहारैर्भेदनं तस्माद्भीत इत्यर्थः ।। ९२ ।। ' मग्गुम्मग्गा नअंति नेये 'त्यादि, मार्गों हि द्विधा द्रव्यमार्गों भावमार्गश्च तत्र द्रव्यमार्गे देशान्तरप्रापणरूपः, भावमार्गश्च ज्ञानादिरूपः । सोऽपि द्विधा शुद्धोऽशुद्धश्च । तत्र शुद्धो यत्र विधिचैत्यपूजनम् - अविधिचैत्यवर्जनं, शुभगुरूणामाज्ञाया अखण्डनं, शुभगुरूणां पुरतः प्रत्यहमस्खलितममेलितं द्वानवतिस्थानकवि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ।। ४५ ।। www.kobatirth.org शुद्धवन्दकदानं, साधुसम्भवे प्रतिदिनं साधुसमीपमागत्य देववन्दनक-वन्दनक-सामायिक प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यानपौषधादिविशेषधर्मकृत्याराधनं, सुविहितगीतार्थसंविप्रसाध्यन्ति के उपदेशमाला - देववन्दन-वन्दनक- प्रत्याख्यान -प्रतिक्र - सूत्रार्थरूपचूर्ण्यादिशास्त्रश्रवणं, सुविहितसुसाधुवचनासेवनं, कदध्वप्रतिबद्धलोकमोचनं, कुसिद्धान्तश्रुतिपरिवर्जनं, गड्डरिकाप्रवाहत्यागः, शोभनस्थाननिवसनं, गुरुपारतन्त्र्यात् पठन-स्वपन-ध्यान-विहार-स्वाध्याय - तपः कर्म-भोजन-गमनागमनादौ प्रवर्त्तनम् ॥ तथा यत्र च हरिहरादीनां पूजा तद्गुणग्रहणं, धर्मबुद्ध्या तद्भवनेषु गमनं १, कार्यारम्भे विनायकादीनां नामग्रहणं २, विवाहे विनायकस्थापनं शशिरोहिणीगीतं च ३, पुत्रजन्मादौ षष्ठीपूजनं ४, विवाहादौ मातृणां स्थापनं ५, शुक्ल द्वितीयायां चन्द्रं प्रति दशिकादानं ६, चण्डिकादीनामुपयाचितकरणं ७, तोतलाग्रहादिपूजनं ८, आदित्यचन्द्रग्रहणे विशेषतः स्नानं दानं प्रतिमादेरपि पूजनं ९, होलिकायाः प्रदक्षिणादानं १०, पितॄणां पिण्डप्रदानं ११, शनैश्वरे विशेषतस्तिलतैलादिदानं १२, शुक्लसप्तम्यां वैद्यनाथादेः पूजनमुपवासादिकरणं १३, पुत्रादिजन्मनि मातृशरावाणां रोपणं १४, आदित्यचन्द्रवारयोरेकाशनादितपश्चरणं १५, मिध्यादृष्टिगोत्र देवताभ्यर्चनं १६, रेवन्तपथि - देवतयोः पूजनं १७, क्षेत्रेऽस्याकिरणं १८, बुधाष्टम्यां पूजा १९, अग्निकारिकाकारणं २०, स्वर्णरूप्यरङ्गितवस्त्रचूटक परिधानदिने सोविणि-रूपिणि-रङ्गणि- विशेषपूजालाहणादिदानं २१, गोपुच्छादौ हस्तोत्सेधः २२, पितॄणां सपत्नीनां च मूर्त्तिविधापनं २३, उत्तरायणकरण २४, भूतशरावदानं २५, परतीर्थे यात्रोपयाचितकादिकरणं २६, प्रपादाने २७, जलाञ्जली तिलदर्भदानं २८, मृतकार्थ जलघट१ खेत्ते सीयाइअचणं इति विधिमार्गप्रपा पृ. ३ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभ सूरीणां प्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ।। ४५ ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दानं २९, सार्द्धमासिक - पाण्मासिक-सांवत्सरिक- करणं ३०, मिथ्यादृष्टिगृहेषु लाभनकदानं ३१, कुमारिकाभक्तप्रदानं ३२, कन्याफलग्रहणं ३३, तिथिषु-अकर्त्तनं दध्यविलोडनं च ३४, अमावास्यायां जामातृकप्रभृतीनां भोजनकारणं ३५, धम्र्मार्थं वापीसरः कूपादिखाननं ३६, क्षेत्रादौ गोचरदानं ३७, विवाहे जन्यकागमने सहिँडनकं ३८, मृतकार्थे पण्डवी वाहनं ३९, स्वभोजनात्पितॄणां निमित्तं हतंकारप्रदानं ४०, काकविडालादीनां पिण्डादिप्रदानं ४१, पिप्पलनिम्बादिवृक्षारोपणं ४२, तालाच ब्राह्मणादीनां कथाश्रवणं ४३, गोधनपूजनं ४४, इन्द्रजालदर्शनं ४५, पदातियुद्धदर्शनं ४६, ब्राह्मणतापसादीनां नमनं भक्तिदानं च ४७, ब्राह्मणादिगृहे गमनं भोजनं च ४८, मूलाश्लेषादिजाते बालके ब्राह्मणोक्तक्रियाकरणं ४९, शीतकाले अग्निकाष्ठकदानं ५०, धर्म्मार्थं चैत्रे चचक्रीडनं ५१, वैशाख शुक्लपक्षेऽक्षयतृतीयाकरणं ५२, वासुदेवस्य स्वपने उत्थाने चैकादश्यां तथा फाल्गुनशुक्लपक्षामलक्येकादश्यां तथा ज्येष्ठशुक्लपक्षे निष्पानीयपाण्डवैकादश्यां सर्वमासेषु चैकादश्यामुपवासादिकरणं ५३, चैत्राश्विनमासयोरटमी महानवम्योर्भट्टारिकापूजनं ५४, माघमासे घृतकम्बलदानं ५५, प्रतिमादिपुरतोऽपि स्त्यानघृतभृतस्थालप्रदानं ५६, माघशुक्लतृतीयायां गौरीभक्तकरणं ५७, माघमासे रात्रौ स्नानं ५८, फाल्गुन शुक्लपक्षे नागपञ्चम्यां नागपूजनं ५९, श्रावण शुक्लपक्षे षष्ठीकरणं ६०, भाद्रपदेऽर्कपष्टीकरणं ६१, भाद्रपद कृष्णपक्षे ( चंडी ) अष्टमीपूजनं ६२, भाद्रपद शुक्लदुर्वाष्टम्यां विरुह्कादिकरणं ६३, भाद्रपद कृष्णशुक्लपक्षयोः क्रमेण वत्सद्वादश्योद्वादश्योः करणं ६४, भाद्रपद कृष्ण कजलतीया-भाद्रपदशुक्लहरितालिका तृतीययोः पूजादिकरणं ६५, भाद्रपदकृष्ण (शुक्ल) चतुर्दश्यां पवित्रककरणमनन्तं ६६, माघशुक्लपक्ष्यामादित्यरथपूजनं ६७, फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यां शिवरात्रिजागरणं ६८, आश्विन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- गणधर सार्द्ध शतकम् ।। 18| सूरीणां ॥४६॥ शुक्लपक्षे नवरात्रके नागपूजोपवासादिविधानं ६९, आश्विन शुक्लपक्षे गोमयतृतीयाकरणं ७०, ज्येष्ठशुक्लत्रयोदश्यां शक्तुकादिप्रदान ७१, जैनेषु अप्यनायतनेषु गमनं ७२, शिथिलाचारसाधूनामाज्ञाबाह्यानां निष्कारणं वसतिदानं तद्व्याख्यानश्रवणं जिनवल्लभनमनं तत्समीपगमनं च ७३ इत्यादिमिथ्यात्वस्थानानि दूरतः परिवर्ण्यन्ते । ____ यत्र च चैत्ये नोत्सूत्रभाषकजनक्रमः कुत्रापि चक्षुषाऽपीक्ष्यते । नापि रजन्यां स्नात्रं, प्रतिष्ठा, साधुसाध्वीप्रवेशो, विला- || | सप्रपंच सिनीनाटयं च । न च जातिज्ञातिकदाग्रहः, यो जिनवचनबहुमानी अनिन्दितकर्मकारी धार्मिकलोकसुखावहः शुद्धधर्मदृढ-18 स्तुतिगर्मचित्तः स सर्वोऽपि कृत्याधिकारी । त्रिचतुरसुश्रावकदृष्टिदृष्टश्च द्रव्यव्ययः। नापि रात्रौ नन्दिविधापनपूर्वकं कस्यापि प्रव्रज्या- चरित्रादि। ग्रहणम् । अस्तमिते दिनकरे जिनाग्रतो न बलिधियते । नापि सुप्ते जने तूर्यरवः । नापि रजन्यां रथभ्रमणं कदाचित्कार्यते । नापि जलक्रीडा देवतान्दोलनमाघमालाः क्रियन्ते । न श्रावकप्रतिष्ठाप्रमाणम् । न वा युक्तं जिनगुर्वोरपि गेयगानम् । नापि चतुरशीतिराशातना दृश्यन्ते । नापि कीर्तिनिमित्तं स्वकीयद्रव्यवितरणम् । बह्वाशातनाकारि(री)भिमहेलाभिः कलिहास्यचसूरिप्रियैर्जनैः सह निवार्यते धमीलकः (१) श्रावकशिरसि नावलोक्यते वेष्टनकम् । स्नपनकारजनवज नास्ति विभूषणम् । न गृहचिन्तनम् । मलिनवस्त्राङ्गैन जिनपूजनम् । शुचिभूताया अपि श्राविकाया न बहु मन्यते मूलजिनप्रतिमायाः पूजनम् । एकजिनबिम्बाग्रतोऽवतारितारात्रिकस्य न द्वितीयजिनाग्रतोऽवतारणम् । पुष्पाण्येव निर्माल्यं न त्वक्षतफलमणिमण्डनभूषणनिर्मलचेलानि । न यतीनां ममत्वं न चान्तर्वासः। नास्त्येव गुरुदर्शितायाः स्त्रीपुरुषविम्बवामदक्षिणदिक्संस्थितचैत्यवन्दनकरणादिरूपाया व्यवस्थाया लोपनम् । यत्र चैकोक्तमपि निश्चयतः सगुणं क्रियत एव, समययुक्त्या विघटमानं बहुलोकोक्तमपि न For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहु मन्यते । यत्र च नात्मा वर्ण्यते, परश्च न दृष्यते । यत्र च यः सगुणः स वर्ण्यते विगुणश्चापेक्ष्यते । यत्र च वस्तुविचारणे न कुतोऽपि भयमुत्पद्यते । यत्र च जिनवचनोत्तीर्ण प्राणापहारेऽपि न प्रजल्पते तथा यत्र-(उपदेशरसायनरासे गा० २७-२९) "सावयविहिधम्मह अहिगारिअ, जिज न हुंति दीहसंसारिअ । अविहि करिति न सुहगुरुवारिअ, जिणसंबंधिय-धरहि न दारिअ ॥२७॥ जइ किर फुल्लइ लब्भइ मोल्लिण, तो वाडिय न करहि सहु कूविण । थावर घर-हट्टइ न करावहि, जिणधणु संगहुकरि न वधारहिं ॥ २८॥ जइ किर कु वि मरंतु घर-हट्टइ, देइ त लिजहिं लहणावइ । अह कुवि भत्तिर्हि देह त लिजहि, तब्भाडयधणि जिण पूइजहि ॥२९॥" इत्यादिको विधिः । तथा पण्याङ्गनाननविषये च-(उपदेशरसायनरासे गा०...३२३४)"...जा लहुडी सा नच्चाविज्जइ, बड्डी सुगुरुवयणि आणिज्जइ ॥३२॥ जोवणत्थ जा नच्चइ दारी, सा लग्गइ सावयह वियारी। तिहि निमित्तु सावयसुय फट्टिहि, जंतिहिं दिवसिहि धम्मह फिट्टहिं ॥ ३३ ॥ बहुअ लोय रायंध स पिच्छहिं, जिणमुह-पंकउ विरला बंछहिं । जणु जिणभवणि सुहत्थु जु आयउ, मरइ सु तिक्खकडक्खिहि घायउ SHRSONAGACASSAGE For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर साई श्रीजिनवल्लभ शतकम् । सुरीणां सप्रपंच ॥४७॥ स्तुतिगर्भचरित्रादि। AAMKARANSLCRECTRON इत्यादिकोऽपि यो विधिः । तथा रजस्वलाविषयेऽपि-( उपदेशरसायनरासे गा०६९-७१)" ......तिन्नि चयारि छुत्तिदिण रक्खइ, स जि सरावी लग्गइ लिक्खइ ॥६९॥ हुँति य छुत्ति जल(पब)दृइ सेच्छइ, सा घर धम्मह आवइ निच्छइ । छुत्तिभग्ग घर छड्इं देवय, सासणसुर मिल्लहिं विहिसेवय ॥७०॥ पडिकमणइ वंदणइ आउल्ली, चित्ति धरंति करेइ अभुल्ली । मणह मज्झि नवकारु वि ज्झायइ, तासु सुट्ट सम्मत्तु वि रायइ ॥ ७१॥" इत्यादिकश्चैतत्प्रकरणकाररचितचर्चरीरसायनादिप्रकरणोक्तो यो विधिः स सर्वोऽपि वर्त्तते । तथा श्रावक-श्राविकाविधिविषयेऽपि-(षट्स्थानके गा० १६-१८) "संतलयं परिहाणं, ज्झलंब-चोला(डा) इयं च मज्झिमयं । सुसिलिट्ठमुत्तरीयं, धम्म लच्छि जसं कुणइ ॥१६॥ परिहाणमणुब्भड, चलण-कोडिमज्जायमोसरंतं तु । परिहाणमक्कमंतो, य कंचुओ होइ सुसिलिट्ठो ॥१७॥ पच्छायंतं अंग, सुसिलिटुं उचरिजमणुरूवं । विकियं तविवरीयं, वजइ जिणभवणमाईसु ॥१८॥ इत्यादि वचनविषये च सर्वोऽपि विधिः श्रीजिनेश्वरसूरिकृतषस्थानकोक्तः शुद्धो मार्गः, विपरीतस्त्वशुद्धः । तथा चानेन प्रकरणकारेणोक्तं यथा-तत्राशुद्धः १“ जात-मृत-सूतकदिने रजस्वला-वमन-मूत्र-विष्ठासु । मद्ये चण्डालादौ, स्युः सप्त छुप्तयो लोके ॥१॥" २ उपदेशरसायनरासः । RECROSECRECORDANA ॥४७॥ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " गडरि - पभावपडिएहिं कुगुरुनडिएहिं पारद्धो विहिविसयपारतंतेहिं-बजिओ जोइओऽविवेएणं । निव्बुहपहपडिकूलो, बहुजणगणसेविओ सुकरो ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only ॥ २ ॥ 11 3 11 " अवियारिअरमणिओ, गद्दहलिंड व बाहिरे महो । अंतो तुसभुसभरिओ, पुवावरवयण विहडणओ ततश्चात्र मार्गशब्देन शुद्धमार्गः, उन्मार्गशब्देनाशुद्धमार्गे ज्ञेयस्ततो मार्ग श्रोन्मार्गश्वेति द्वन्द्वस्तौ मोहप्राचुर्यान्नैव ज्ञायेते = नैवं बुध्येते । ननु किं सर्वथैव मार्गोन्मार्गयोरविज्ञानं न, इत्याह- 'विरलो जणोत्थि मग्गण्णू' त्ति विरल :- स्वल्पो यस्तथाविधमोहान्धकारप्रसराऽदूषितनैर्मल्याऽरूपित सातिरेक विवेकचूर्णाञ्जितदृष्टिर्जनः सोऽस्ति = विद्यते कीदृश: ? मार्गज्ञः =पूर्वोदितलक्षणशुद्धमार्गवित् । मार्गज्ञता चात्र श्रद्धानक्रिययोरप्युपलक्षणं, तेन यो मार्ग जानाति श्रद्धत्ते सम्यगनुतिष्ठति च स स्तोक इत्यर्थः । यद्येवं तहिं तस्य स्तोकस्यापि मार्गविदो जनस्य सुविहितसाध्वादिलक्षणस्य वचसि भूयांसो जना लगिष्यन्ति ? नेत्याह-' थोवा तदुत्तमग्गे लग्गति तेन = विरला [ल ] मार्गज्ञेन उक्तः = अभिहितो योऽसौ मार्गस्तदुक्तमार्गस्तस्मिन् तदुक्तमार्गे स्तोका लगति - सजन्ति । भूयस्तरास्तत्र किमिति न लगन्ति ? इत्याह-न विश्वसन्ति न विश्रम्भं यान्ति घनाः भूयिष्ठा गुरुकर्मतया अद्यापि गडरिकाप्रवाहनिमनास्ते-' अहो ! ठका एते मस्तके वासक्षेपेण सकलमपि लोकं ठकयन्ति तस्मान्नैतत्सामीप्येनापि संचरणीयमिति, प्रलपन्तस्तेभ्यो दूरतरं पलायन्त इत्यर्थः । अपरपक्षे च घोरान्धकारावृतत्वेन नैव ज्ञायते मार्ग उन्मार्गों वा । अत्र पक्षे 'एव' शब्दो बहुजनापेक्षया अवधारणार्थः । विरलश्च कश्चिद्गोपालौष्ट्रिका दिर्जनोऽस्ति मार्गज्ञः, • एवौपम्ये परिभवे, ईषदर्थेऽवधारणे इति हेमा नेकार्थ० अव्ययाधिकारे १८१६ । २ अरूषिता = रजःकरणरहिता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधरसाईशतकम् ।। जिनवल्लमसूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि। ॥४८॥ CSCRACTOCOCC स्तोकास्तत्प्रत्ययकारिणस्तदुक्तमार्गे गोपालाद्युपदिष्टे वर्त्मनि लगन्ति, घनाः पुनर्न विश्वसन्ति 'विप्रतारका एते निश्चितमेतन्मार्गे लग्नानामस्माकं सर्वस्वस्यापहारो भविष्यतीति विकल्पादिति ॥९३॥ तथा 'अन्ने अन्नत्थीर्हि' इत्यादि, अन्ये केचित् शिवं मोक्षमर्थयन्ते मृगयन्त इत्येवंशीला: शिवार्थिनः, सार्थाः=" सार्थों वृन्दे वणिग्गणे " इति हैमानेकार्थ० २३४) वचनात् वृन्दानि भव्यानामिति गम्यते, चालिता अपि प्रेरिता अपि, अत्रापि="अपि संभावना-शङ्का-गर्हणासु समुच्चये । प्रश्ने युक्तपदार्थेषु, कामचारक्रियासु च ॥” इति ( हैमानेकार्थक अव्ययाधिकारे १८०१) वचनाद् गर्हणायां-धिक्कारार्हास्ते पापा ये मार्गमजानाना अपि भव्यसार्थान् शिवपुरं प्रति प्रेरयन्ति यदुत-आगच्छत यूयमस्मत्पृष्ठे लगध्वं, न कर्त्तव्यो दानं ददद्भिर्जलधरैरिख युष्माभिस्तुच्छचित्तजनकुविकल्पनाकल्पितः पात्रापात्रविभागः, पारमेश्वरदर्शनधारिषु स्वेच्छाचारिष्वपि तन्निन्द्यतावहा न निवेशनीया मनस्यवन्यता तीर्थकत्पूजनबलिविधानप्रतिष्ठापनादिष्वपि रात्रिन्दिवविभागेन कीदृशी विध्यविधिपरता ?, परमेश्वरस्य परमेश्वरदर्शनग्राहिणां च सर्वथा नमस्कार एव केवलं श्रेयान् , ततः किं बहूक्तेन-अस्मत्पृष्ठलनानां युष्माकं न खलु रे निर्वृतिनितम्बिनीवक्षःस्थलाभोगे विलुलन्मुक्ताकलापसंपर्केण सांसारिकसकलक्लेशसन्तापनिर्वापण"मिति, परं पतिता: परिभ्रष्टाः, क ? भवारण्ये संसाराटव्याम् । अथ कथश्चित्तेऽपि शिवपथप्रकटनप्रवीणा भविष्यन्ति ? इत्याह-सम्यग अवितथं शिवपथं मोक्षमार्गम् , अप्रेक्षमाणैरपि अजानानैरपि तैः। ननु यदि स्वयं शिवपुरपथं न विदन्ति तर्हि किमिति तैस्ते भव्यसार्थाः शिवपुरपथं प्रति प्रवर्तिताः १ तत्राह-' अन्नार्थिभिः अन्नधान्यम् , उपलक्षणत्वाद्वस्त्रपात्रपुस्तककम्बलादि अर्थयन्त इत्येवंशीला अनार्थिनस्तैरनार्थिभिः । दुरात्मानस्त औदरिका एवं चिन्तयन्ति-यद्येते मुग्धा विप्रतार्या ॥४८॥ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आत्मसात्कृता भवन्ति तदाऽस्माकं सुखेन भक्तपानकवस्त्रादिना निर्वाहः स्यात् अविच्छिन्नप्रवाह इति भावः । द्वितीयपक्षे चान्ये केचन शिवार्थिनः = " शिवं तु मोक्षे क्षेमे सुखे जले " इति ( हैमानेकार्थ० ५४२ ) वचनात् क्षेमसुखजलार्थिनः सार्था:= वणिग्जनाः कैश्चिन्निर्दयैरन्नार्थिभिः = स्वोदरभरणमात्राभिलाषुकैः सम्यक् = निश्चितं शिवपथं क्षेमकारि-निरुपद्रवमार्गम् अपेक्षमाणैः=अपश्यद्भिः=अन्धप्रायैः, चालिता अपि = प्रवर्त्तिता अपि पतिताः = परिभ्रान्ताः क्व ? भवारण्ये, “ भवः सत्ता -ऽऽप्तिजन्मसु। रुद्रे श्रेयसि संसारे " इति ( है मानेकार्थ० ५३८ ) पाठात् भवः = श्रेयस्ततोऽकारप्रश्लेषाद् अभवम् = अश्रेयस्करं चौरचरायुपद्रवबहुलं, निर्जलं तच्च तदरण्यं च=अटवी चाभवारण्यं तस्मिन्नभवारण्ये इत्यर्थः ॥ ९४ ॥ ' परमत्थसत्थरहिएसु ' इत्यादि, भव्य सार्थेषु = भव्यानां मुक्तिगामिनां सार्था: - समूहास्तेषु भव्यसार्थेषु । कीदृशेषु सत्सु ? परमार्थो - जिनवचन रहस्यं तदेव शस्त्रं=विपक्षपक्षक्षयकारित्वात्प्रहरणं तेन रहितेषु = विप्रमुक्तेषु । तादृशानामप्यप्रमादिनां कथञ्चिन्मोषणं न संभाव्येत् तत्र आह- सुप्तेषु =शयितेषु सत्सु, कया ? मोहनिद्रया - हेयोपादेयापरिज्ञानप्रमीलया, ततश्च मुष्यमाणेषु = अपह्रियमाणगुणानुराग गुरुपर्युपास्ति सत्पात्रदानादिसारोपस्कारेषु, कैः १ इत्याह-प्रौढपार्श्वस्थचौरैः = वाचालत्व - धृष्टत्व - लकुटच्छुरिकादिग्राहित्वैः प्रौढाः प्रचण्डास्ते च ते पार्श्वस्थाश्च त एव चौरा:=मलिम्लुचास्तैः प्रौढपार्श्वस्थचौरैः । पक्षान्तरे च भव्य सम्र्थेषु = तथाविधविशिष्टसंघातेषु शस्त्ररहितेषु खङ्गशक्ति कुन्ताद्यायुधवर्जितेषु निद्रया घूर्णमानेषु ततो निःशङ्कं प्रौढपार्श्वस्थचौरैः प्रगल्भ प्रत्यासनतस्करैर्मुष्यमाणेषु = लूष्यमाणेषु सत्सु इति गाथाद्वादशकार्थः ॥ ८५ तः ९६ यावत् ।। अथ तामेवाज्ञामाह ९ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधर श्री साद्ध *ॐॐ शतकम् । जिनवल्लभ सूरीणां दासप्रपंच स्तुतिगर्मचरित्रादि॥ ॥४९॥1 CASECREASIC सुहसीलतेणगहिए, भवपल्लिंतेण जगडिअमणाहे। जो कुणइ कूविअत्तं, सो वन्नं कुणइ संघस्स ॥९७॥ ____ व्याख्या-सः कश्चिदनिर्दिष्टनामा, वर्ण="वर्णः स्वर्णे मखे स्तुतौ । दंते द्विजादौ शुक्लादौ, कुथायामक्षरे गुणे ॥ भेदे गीत-क्रमे चित्रे, यशस्तालविशेषयोः अङ्गरागे च" इति (हैमानेकार्थ० १६६) पाठाद् यशः सङ्घस्य-प्रवचनस्य प्रभावनामित्यर्थः, करोति-विधत्ते इति योगः । यः, किम् ? इत्याह-कुरुते, किम् ? 'कूवियत्तं ' ति पूत्कारकल्पं तदुत्पथत्वजल्पनं, क्क सति ? ' जने' इत्यध्याहार्य ततो जने सति, कीदृशे ? ' सुहसीलतेणगहिए ' ति, सुखमेव शीलयन्ति अभ्यस्यन्तीत्येवंशीलाः सुखशीला: सातलम्पटाः पार्श्वस्थादयः, साध्वाभासास्त एव स्तेना:-तस्करास्तैगृहीतेवशीकृते । वशीकृत्य किं क्रियमाणे ? 'नीयमाने' इति पदं गम्यते ततो नीयमाने उत्पथेन प्राप्यमाणे, काम् ? 'भवपल्लिंतेणं 'ति, अत्र 'अन्त'-शब्द: " अन्तः स्वरूपे निकटे, प्रान्ते निश्चयनाशयोः। अवयवेऽपि " इति (हैमानेकार्थ० १७१ ) वचनात्स्वरूपार्थो नैकट्यार्थः प्रान्तार्थो वा, ततो भवः संसारः स एव पल्ली, भवपल्ल्येव भवपल्ल्यन्तं प्राकृतत्वात्तृतीयान्ततानिर्देशः, यदि वा-भवपल्लीप्रान्तेन वा, कीदृशे जने ? 'जगडिअमणाहे' “जा जस्स ठिई जा जस्स संतई पुत्वपुरिसकय मेरा | सोतं अइक्कमंतो, अणंत| संसारिओ मणिओ ॥१॥" इत्यादिसद्गच्छविषयोपपत्त्यभिधानपूर्वकं स्वगच्छस्थितिशृङ्खलाबन्धनादिना विडम्बिते मवो द्भवदुःखलक्षपरित्राण प्रति, अनाथे वनीराजक इव नीयमाने । 'तेणजगडिअमणाहे ' स्तेनाः चौराः प्रस्तुतत्वात्पार्श्वस्थादयस्तैर्विडम्बितानाथे इति वा । ननु 'अहो ! जिनगृहनिवासः, गृहस्थचैत्यभवनधनस्वीकारः, गद्दिकाद्यासनोपवेशनं, यतिनां १ 'यशे' अत्र 'ते' इत्यपि पाठः । २ 'ते' अत्र 'रूपै' इत्यपि पाठः । ॥४९॥ For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवपूजनं, नित्यवासः, श्राद्धानामञ्चलेन वन्दनकदापन, श्राद्धेन प्रतिष्ठाविधापनं, जिनभवने रात्रिस्त्रीप्रवेश-प्रतिष्ठाबलिनन्दि प्रव्रज्यादानादिकं च समस्तमप्युन्मार्ग एष तदनेन यूयं संवरध्वे किं दिग्व्यामोहं प्राप्ताः ? किं वा ठगिताः १ किमुतान्ध४ बधिराः ? भृतादिग्रहाधिष्ठिता वा ?, अद्यापि निवर्तध्वमेतस्मात्कुपथात् , इत्यादि स्वभुजादण्डमूर्कीकृत्य पार्श्वस्थाद्याचरित स्योत्पथत्वजल्पनलक्षणपूत्कारस्तेषां महत्तरसंक्लेशहेतुत्वेन कथं क्रियमाणो युज्यते ? इति चेत्तदसत् , तस्य प्रवचनप्रभावनादिनिमित्ततया, अचिन्त्यपुण्यसम्भारकारणस्यावश्यकर्त्तव्यत्वात् , अत्र चेयमेवार्हत्याज्ञा । इति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ अन्यच्च किं चेतस्यवधारितम् ? इति गाथायुगलेनाहतित्थयरा रायाणो, आयरिआ-रक्खिअवजेहिं कया। पासत्थपमुहचोरो, वरुद्धघणभवसत्थाणं ॥९॥ सिद्धिपुरपत्थियाणं, रक्खट्ठाऽऽयरिअवयणओ सेसा। अहिसेय-वायणायरिअसाहुणोरक्खगा तेसिं।९९ ___ व्याख्या-तीर्थकरा-चतुर्वर्णश्रीसङ्घभट्टारकाः सकलत्रैलोक्यनाथाः, त एव राजानः, तैश्च स्वकीयजैनपुरवास्तव्यानां से पार्श्वस्थप्रमुखाः पार्श्वस्थावपनप्रभृतयश्च ते ज्ञानादिरत्नत्रयसारप्रवचनभाण्डागारलुण्टाकत्वेन चौरा तैरुपरुद्धा अवष्टब्धाः | पार्श्वस्थप्रमुखचौरोपरुद्धाः, ते च ते घनाश्च भूयांसश्च पार्श्वस्थप्रमुखचौरोपरुद्धधनाः, ते च ते भव्यसार्थाश्च, तेषां पार्श्वस्थ| प्रमुखचौरोपरुद्धधनभव्यसार्थानां रक्षणाय अवनाय आचार्याः कृताः। कीदृशाः ? आरक्षका इव-दण्डपाशिका इव कोट्टपाला इत्यर्थः। पार्श्वस्थप्रमुखाणां स्वरूपं शास्त्रेभ्योऽवसातव्यम् । कीदृशानां भव्यसार्थानाम् ? शिवपुरपस्थिताना=निवृतिनगरी CHOCOLOCACADREACT For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie गणधरसाईशतकम् । CA % ॥५०॥ % प्रति चलितानाम् । एवं च तीर्थकरराजभिः सिद्धिपुरपस्थितभव्यमार्थानां रक्षणायाचार्या आरक्षकाः कृताः, तैश्वाचायः &ा श्रीशेषाः स्वभटस्थानीया अभिषेका उपाध्याया वाचनाचार्याः सिद्धान्तवाचनादातारः साधवश्व सन्मुनयस्तेषां भव्यसार्थानां जिनवल्लभरक्षकाश्चक्रिरे-विदधिरे इति गाथाद्वयार्थः ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ ४| मरीणां एवं व्यवस्थिते ममाप्येतन्मध्यवर्तित्वादेतादृशासमञ्जसदर्शनमक्षम्यमाणस्याधुनैतत्कतुं युज्यत इति गाथापूर्वार्द्धनाह-6 सप्रपंचता तित्थयराणाए, मए वि मे हुँति रक्खणिजाओ। स्तुतिगर्भव्याख्या-यत एवं व्यवस्थितं 'ता'-तस्मादेतोस्तीर्थकराज्ञया अर्हनिर्देशन मयाऽपि इमे एते भव्यसार्था रक्षणीयाः= चरित्रादि। पालनीया भवन्तीति गाथापूर्वार्द्धार्थः॥ ___ एतद्विचार्य येन सावष्टम्भं यद्यच्चक्रे तत्तावत्सार्द्धगाथापञ्चकेनाह इय मुणिअ वीरवित्ति, पडिवजिअ सुगुरुसन्नाहं ॥१०॥ करिअखमा-फलयं धरिउमक्खयं कयदुरुत्तसररक्खं तिहुअणसिद्धं तंज,सिद्धतमसिंसमुक्खवि॥१०१२ निवाणठाणमणहं,सगुणं सद्धम्ममविसमं विहिणा। परलोयसाहगं मुक्खकारगंधरिअविप्फुरिअं॥१०॥ जेण तओ पासत्थाइतेणसेणा वि हक्किआ सम्मं । सत्थेहि महत्थेहि, वियारिऊणं च परिचत्ता ॥१०॥ % % CANCHAR % For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसन्नसिद्धिआ भवसत्थिआ सिवपहम्मि संठविआ।निवुइमुर्विति जहते,पडंति नोभीमभवरन्ने॥१०॥ मुद्धाऽणाययणगया, चुक्का मग्गाउ जायसंदेहा। बहुजणपुट्ठिविलग्गा, दुहिणो हुआ समाहूआ ॥१०५॥ ___व्याख्या-येन पार्श्वस्थादिस्तेनसेनापि-पार्श्वस्थादयश्च ते स्तेनाच-चौराश्च तेषां सेनाऽपि सैन्यमपि, न केवलं स्ते-17 नानां त्रयं चतुष्टयं पञ्चकं वेत्यपिशब्दार्थः, 'हकिया सम्म' ति सावष्टम्भं जल्पिता यथा-'भो भो पापाः! किमेवमैहलोकिकमक्तपानकवस्त्रपात्रमात्रादिलिप्सया मुग्धजनानेतान् विप्रतार्य कदध्वे पातयध्वे ? तस्मान्मुञ्चतामृन् , नो चेत् पश्यत यत्करिष्यामि' इति । किं कृत्वा ? तबाह इति–पूर्वोक्तं मुणित्वा स्वचेतसि पर्यालोच्य । ततोऽपि किं कृत्वा ? तत्रा-17 प्याह-वीरवृत्ति प्रतिपद्य, वीरा: प्रचण्डपराक्रमाः साहसकरसिकास्तेषां वृत्तिः व्यापारश्चेष्टेत्यर्थः, तामङ्गीकृत्य । 'वीरो हि कांश्चनाशरणान् शिष्टजनान् कैश्चिनिष्कपैः स्तेनशत्रुभिः पराभूतानभिवीक्ष्य करुणाईचेतास्तैः सह युद्धायोपक्रममाणस्तावनिविडं सन्नाहं विधत्ते, परप्रेरितशरधोरिणीविक्षेपणक्षमं फलकं च हस्ते धारयति, यमजिह्वाकरालं करवालं च दक्षिणकरे करोति, 12 समौर्वीकाण्डं चण्डगाण्डीवं च कलयति, दिक्चक्रप्रतिफलितशब्दां हक्कां ददाति, शस्त्रैः प्रहरति परान् विक्षिपति इत्यादिचेष्टां करोति । तदनेन वीरवृत्तिं प्रतिपद्य कथं सन्नद्धं ? किं फलकीकृतं ? किं मण्डलाग्रीकृतं ? किं च कोदण्डीकृतम् ? इति तस्य वीरवृत्तिमेवाह-सुगुरुसन्नाहं कृत्वा, सुगुरुरेव शोभनधर्माचार्य एव सन्नाहा कङ्कटं तं विधाय, क्षमैव-क्रोधजय एव फलकं, तं धृत्वा, कीदृशम् ? अक्षत परिपूर्णम् । तथा कृता=विहिता दुरुक्तान्येवरे वकचेष्टित ! कपटचेष्टिता सुविहितनामधारक! पश्चे SACRORECACAUSERSA For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir गणधर श्री साई शतकम् ।। न्द्रियमारक! प्रच्छन्नपापकूप ! कुरूप! किमित्यमदूषणानुदोषयसि लोकमध्ये ? किं तूष्णीभूय न तिष्ठसि ? तव तत्करिष्यामो यन्न हदमानस्यापि विस्मरति' इत्यादिदुर्वचनान्येव शराःबाणास्तेभ्यो रक्षा रक्षणं येन तत्तादृशम् , इत्येतदपि फलक- * जिनवल्लभविशेषणम् । ततः समुत्क्षिप्य-उल्लास्य, किम् ? 'सिद्धतमसिं 'ति मकारोऽलाक्षणिकस्ततः सिद्धान्त एव=श्रुतमेवासि= | सूरीणां खड्गस्तं सिद्धान्तासिं, 'त 'मिति लोकोत्तरं यः, कीदृशः ? त्रिभुवनेत्रिजगति सिद्धः-प्रसिद्धः । 'जंत 'मिति नपुंसक 18 सप्रपंचनिर्देशः प्राकृतत्वादित्यर्थः॥ १०१॥ 'निवाणठाण'-मित्यादि । सद्धर्म, सच्छब्दः सत्यार्थः " सत्ये साधौ विद्य स्तुतिगर्भमाने प्रशस्तेऽभ्यर्हिते च सत्" इति ( अमर नानार्थ० ८३ ) वचनात्सत्यप्रधानः शोभनधर्मः पुण्यं सद्धर्मश्चारित्रधर्ममित्यर्थः । ततः परम्परितरूपकेण सद्धर्म एव सद्धर्मः शोभनधर्मस्तं सद्धर्म विधिना सैद्धान्तिकेन धृत्वा गृहीत्वा । सद्धर्म चरित्रादि। स्यैव विशेषणान्याह-निवाणठाण'-मिति, निर्वाण मोक्षस्तल्लक्षणं स्थानं पदं चारित्रधर्मस्य जीवन्मुक्तत्वप्रदत्वात्तदुक्तम् “निर्जित्तमदमदनानां, वाकायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशाना,-मिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ।। १॥" 'अणहं 'ति, न विद्यते अघं पापं यस्मात्तमनघम् । 'सगुणं 'ति सह गुणैः नियमशमदमौचित्यादिभिर्वर्त्तते यस्तं सगुणम् । अविषम-सरलम् अक्षेपेणैव । मोक्षप्रापकत्वात् । परलोकस्य भवान्तरस्य साधक-निष्पादक, चारित्रेण हि परलोकः साध्यते न त्वैहलौकिक राज्यादिकं किश्चिदपीक्ष्यते । मोक्षस्य-परमपदस्य कारकं विधायकम् ? विस्फुरितम् ऊर्जितं समुज्वलमित्यर्थः। धनुःपक्षे च-निश्चितं बाणस्य स्थानं स्थितिप्रदत्वात् , अनघ-सलक्षणं न तु कीटकादिजग्धं, सगुणं १ विना प्रेरणयैवेत्यर्थः । GADGAONOCOCCE For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir सप्रत्यश्चम् , अविषमम् अनृजु, परलोकस्य शत्रुवर्गस्य साधकंवश्यताकर, मोक्षस्य आत्मनो मुक्तेः कारकं विस्फुस्तिम्-उल्लसितमित्यर्थः। 'सत्येहि महत्थेहिं वियारिऊणं च परिचत्त 'ति, शास्त्रैः आगमैः महाथैः गम्भीराभिधेयैर्विचार्य 'चः' समुच्चये परित्यक्ता अवगणिता। वीरवृत्तिपक्षे स्तेनसेना हकिया आक्षिप्ता, शास्त्रैमहाथैर्गुरुमिर्विदार्य परित्यक्तेति पूर्ववत् ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ तथा 'आसन्नसिद्धिया' इत्यादि । आसन्ना एकद्वित्रिभवानन्तरभावित्वेन निकटवर्तिनी सिद्धिः= मुक्तिर्येषां ते आसन्नसिद्धिकाः भवविरक्ताः सङ्घपूजाद्यासक्तित्वादिलक्षणवन्तः, तदुक्तम्___“ संसारचारए चारए व आवीलिअस्स बंधेहिं । उद्विग्गो जस्स मणो, सो किर आसन्नसिद्धिपहो ॥१॥ आसन्नसिद्धिआणं, लिंगमिणं जिणवरेहिं पन्नत् । संघम्मि चेव पूया, सामनेणं गुणनिहिम्मि ॥२॥" भव्यानां सार्थेन चरन्तीति भव्यसार्थिकास्ते शिवपथे-ज्ञानादिरूपे मोक्षमार्गे येन संस्थापिताः प्रतिष्ठिताः प्रवर्तिता इत्यर्थः । कथं संस्थापिताः ? तत्राह-'निव्वुइमुर्विति 'त्ति निवृति-निर्वाणं यथा येन प्रकारेण चारित्रस्थिरीकरणादिरूपेण उपयान्ति-गच्छन्ति चकाराध्याहारात् नोन च पतन्ति न च भ्राम्यन्ति भीमभवारण्ये=भीषणसंसाराटव्यामिति । वीरोऽपि हि आसन्ना-समीपस्था सिद्धिः-गतिश्चरणचङ्कमणशक्तिर्येषां तान् आसन्नसिद्धिकान् , भव्या: भव्याकृतयो वणिकक्षत्रियब्राह्मणादिरूपा ये सार्थिकाः सहगामुकास्तान् शिवपथे-कुशलकारिणि मार्गे संस्थापयति यथा ते निर्वृति-सुखमुपयान्ति नैव पुनरटव्यां पतन्तीत्यर्थः ॥ १०४ ॥ तथा 'मुद्धाणाययण' इत्यादि । येन समाहूताः आकारयाश्चक्रिरे, के ? इत्याहमुग्धा अबा ऋजवः। कीदृशाः सन्तः ? अनायतनगता:-अनायतनप्राप्ताः अनायतनस्वरूपं च अग्रत एव वक्ष्यामः। For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधरसार्द्धशतकम् । ॥ ५२ ॥ www.kobatirth.org किमित्यनायतनगताः १ यतः ' चुक 'त्ति भ्रष्टाः कस्मात् १ मार्गात् = सत्पथात् । एतस्मादपि कस्माद्धंशः ? तत्राह - यतो जातसन्देहाः, जातः = समुत्पन्नः किमयं नित्यवास - वसतिनिरास - स्वगच्छ पाशबन्धनप्रकाशस्वरूपञ्चैत्यवासिनां मार्गः ? उतश्चित्पञ्चामृतस्नात्र- यतिप्रतिष्ठा - सर्वबिम्बस्नात्रनिषेध-- ब्रह्मशान्त्यादिवैयावृश्य करपूजाप्रणामप्रतिषेध-गृहीतपूजोपकरणश्राद्धसाधुवन्दन- देवाग्रतःस्थापनाचार्य स्थापनैर्यापथप्रतिक्रमणस्वरूपः पौर्णमासिकानाम् ? आहो ! चन्दनकर्पूरक्षेपविरतिरूपः सार्द्धपौर्णमासिकानाम् १ किंवा सिवयाश्ञ्चलवन्दनकदापनरूपाः सैवयिकानाम् १, अथवा मलमलिनगात्र दौर्गन्ध्यपात्राश्रावण तन्दुलधावनादिग्राहिणामेका किविहारिणां गुरुकुलवासत्यागिनां तपस्विनाम् ? ' इत्यादिः सन्देहः संशयो येषां ते जातसन्देहाः, अत एव च बहुजनपृष्ठलग्ना:- बहुजनस्य = चैत्यवासि - राकापक्षीय सैवयिकादि- प्रचुरलोकस्य पृष्ठे लग्नाः= पश्चाद्भागे सक्ताः, मुग्धधार्मिकत्वान्मलक्किन्नस्विन्नतत्पुताघ्रायिण इत्यर्थः । एवं चैकैस्मिन्नाधाकम्र्मोपभोग - गुरुकुलवासत्याग - सूतकपिण्ड ग्रहणादिदूषणावेक्षणेनैकत्र मानससन्निवेशवैकल्यात् दुःखिनः सन्तप्तगात्राः भूताः सन्तः समाहूता:-यदुत'भो श्रद्धालवो जनाः ! यूयं किमित्येवमुद्विग्नचित्ताः परिभ्राम्यथ । शृणुत मद्वचन 'मिति । वीरोऽपि दिङ्मुग्धान् -संजातदिङ्मोहान् जनान् अनायतनगतान् - अस्थानप्राप्तान् मार्गाद्धष्टान्, 'किमयं प्राची - अवाची - प्रतीच्यौदीच्यो वा मार्गः १' इत्येवं जातसन्देहान् 'कदाचिदयमयं मार्ग दर्शयिष्यती 'त्य - परापरपृष्ठलमान् अत एव दुःखिनः = कष्टभागिनो भूतान् समाह्वयतीति गाथार्थः ॥ १०५ ॥ समाहूय येन तेषां किं व्यधायि ? इत्याह For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ५२ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S दंसिअमाययणं तेसिं जत्थ विहिणा समं हवइ मेलो। गुरुपारतंतओ समयसुत्तओजस्स निप्फत्ती।१०६।।। ___ व्याख्या-दर्शितम् अवलोकयाञ्चक्रे तेषाम् , किम् ? आयतनं येनेति योगः। अथ किमिदमायतनं ? किं चाऽनायतनम् ? इत्युभयोरपि स्वरूपजिज्ञासायां प्रथमं तावदनायतनस्वरूपमुच्यते,-तथाहि-अनायतनम्-अस्थानं गुणानामिति सामर्थ्या. द्गम्यम् , अथवा ज्ञानाद्यायहानिजननादनायतनम् , यदुक्तमोघनियुक्त्यागमे "सावजमणाययणं, असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी । एगट्ठा हुति पया, एए विवरीय आययणे ॥१॥" तथा" नाणस्स दसणस्स य, चरणस्स य जत्थ होइ वाघाओ । वजिजऽवजभीरू, अणाययणवजओ खिप्पं ॥२॥" अनायतनायतनविचारोऽनेनैव श्रीप्रकरणकारेण भगवता कुलकेऽभ्यधायि, यथा“सम्मत्तमिह निरुत्तं, मूलं सुविसुद्धधम्मगुरुतरुणो । सिवसुहफलस्स तम्हा, तदस्थिणा तत्थ जइयत्वं ॥१॥ तमणाययणच्चारण होइ आययणसेवणेणं तु | तमणाययणं पुण दवभावमेएहिं भणियं तु ॥२॥ दब्वे रुद्दहराई, वेसित्थि दुगुछिए कुतित्थी य । भावम्मि अणाययण, लोइअमिह भन्नए समए लोउत्तरिअं पुण जिणहरं फुडं दव्वओ अणाययणं । जत्थुस्सुत्तपवित्ती, कीरइ अणुसोयगामीहिं ॥४॥ १ देवचन्दनकुलके, आयतनाऽनायतनविचारकुलके च, इति । AGAROSAROKAR For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie गणधरसार्द्धशतकम् । श्रीहै जिनवल्लभ सूरीणां || सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि। ॥५३॥ मूलुत्तरगुणपडिसेविणो जहिं हुंति दव्वजइणोऽमी । तमणाययणं पुण भावओ य नाणाइ हाणिकरं ॥५॥ लोउत्तरं तु विहिचेइयं दवओ तमाययणं । जं नाणाइगुणाणं, तत्थगयाणं हवइ वुड्डी ॥६॥ भावम्मि अ आययणं, पडिसोयपवित्तिकारिणो जइणो। जिणमयकारणरहिआ, कुणंति न कुसीलसंसरिंग ॥७॥ दसवेयालिअ-आवस्स-ओघनिज्जुत्ति-पंचकप्पेसु । अन्नेसु वि नाणापयरणेसु आययणमुत्तमिणं ॥८॥ खणमवि न खमं काउं, अणाययणसेवणं सुविहिआणं । इच्चाइसुत्तवि[व] चाणुसारओ वजणिअमिणं ॥९॥ दसणनाणचरिताण जत्थ लाभो गयाण संभवइ । आययणं तं दुविहंपि सेवाणिजं सैउण्णेहिं ॥१०॥ जत्थ जिणाणं पडिमा, तं सव्वं पूणिज्जमिह बिति । विहिअविहिकयं न मुणिति दसणं तेसि नत्थि धुवं ॥११॥ उस्सुत्तदेसणाकारगाण जे उण करंति बहुमाणं । आणावज्झाणं तेसि होइ सम्मत्तमिह कत्तो ॥१२॥ अणुसोयगामिणो बहुजणा उ पडिसोयगामिणो थोवा । ता नो बहुजणचिन्ने, मुक्खत्थी लग्गए मग्गे ॥ १३ ॥ समणगुणरयणनिहिणो, थोवा सद्धम्मरयणदायारो । सुविसुद्धधम्मरयणत्थिणोस्थि जेणिस्थ थोवयरा ॥१४॥ इय वयणाओ बहुजणमयम्मि मग्गे कहं विवेईहिं । लग्गिजइ लहुकम्मेहिं सव्वहा हासठाणम्मि तथा-(चैत्यवन्दनकुलके गा०६-१३) "आययणमनिस्सकडं विहिचेइयमिह तिहा सिवकरं तु । उस्सग्गओऽववाया, पासत्थोसनसनिकयं ॥६॥ १ 'स-पुण्यैः' इति छाया। १॥५३॥ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CARDCORR आययणं निस्सकडं, पवतिहीसुं च कारणे गमणं । इयराभावे तस्सत्ति भावसुवुवित्थमोसरणं ॥७॥ विहिचेइयम्मि संते पइदिणगमणे य तत्थ पच्छित्तं । समउत्तं साहूण वि, किमंगमवलाण सढाणं मुलुत्तरगुणपडिसेविणो य ते जत्थ संति वसहीसु । तमणाययणं सुत्ते, सम्मत्तहरं फुडं वुत्तं ॥९॥ जत्थ वसंति मढाइसु, चिइदबनिओगनिम्मिएसुं च । साहम्मिणोत्ति लिंगेण सा थली इय पकप्पुत्तं ॥१०॥ तमणाययणं फुडमविहि चेइयं तत्थ गमणपडिसेहो । आवस्सयाइसुत्ते, विहिओ सुस्साहुसवाणं जो उस्सुत्तं भासइ, सद्दहइ करेइ कारवइ अन्नं । अणुमन्नइ कीरंतं, मणसा वायाइ काएणं ॥१२॥ मिच्छद्दिट्ठी निअमा, सो सुविहिअसाहुसावएहिं पि । परहरणिजो जईसणेवि तस्सेह पच्छित्तं तदेवं स्वरूपमनायतनायतनस्वरूपमुक्तम् । यत्र, किम् ?, स्यात् भवति कोऽसौ ? मेला मेलापकः सम्बन्धः, कथम् ? समं सह, केन ? विधिना यथोचितावश्यकृत्येन । तथा गुरुपारतन्त्र्यात्-आचार्यपारम्पर्येण । तथा समयः सिद्धान्त ओपनियुक्त्यावश्यकादिस्तत्र सुष्टु-अतिशयेन उक्तंभणितं समयसूक्तं, तस्मात्समयसूक्ततः। यदि वा-समयश्चासौ सूत्रं च वृत्त्यादिनिरपेक्षं समयसूत्रं तस्मात्समयसूत्रतः यस्य आयतनस्य निष्पत्तिः संसिद्धिः । यदि वा यस्य विधेर्निष्पत्तिर्गुरुपारतन्त्र्यात्समयसूत्राच, “निट्ठीवणादिकरणं, असकहाणुचिअ आसणाई य । " इत्यादिकस्य विधेः निष्पत्तिरिति गाथार्थः ॥ १०६ ॥ अथ कीदृशो विधिर्येन तेषां मुग्धजनानामायतनं दर्शितम् ? इति तमेव प्रपश्चयन् गाथाष्टकमाह AGROCARRACACCAL ORECALL For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर - सार्द्ध शतकम् । ॥ ५४ ॥ www.kobatirth.org दीसइ य वीयराओ, तिलोयनाओ विरायसहिएहिं । सेविजंतो संतो, हरइ हु संसारसंतावं ॥ १०७॥ आसां (पृथक् ) व्याख्या- ' दीसह ' इत्यादि । ' यत्रे 'ति पूर्वगाथाया अनुवर्त्तते तेन चकारः संबध्यते ततो-यत्र |चायतने दृश्यते जनैरिति गम्यम्, वीतरागो भगवान् देवाधिदेवो नष्टरागः, राग इत्यस्याशेषदोषोपलक्षणत्वादष्टादशदोष| विनिर्मुक्तः कीदृश: ? त्रिलोके त्रिभुवने ज्ञातः - द्विरदरदनच्छेदः - कुन्दकुमुदविशद- कीर्त्तिकौमुदीधवलित निखिल ब्रह्माण्डमण्ड - पत्वेन विख्यातस्त्रिलोकज्ञातः । यदि वा सश्रीकनिःश्रीकेतरत्वावस्थितत्रिविधलोकेन ज्ञातः = तद्गतचित्तत्वेन तदेकाग्र दृष्टितया च यथावस्थितगुणो विदितः । कीदृशैर्जनैः १ विरागसहितैः - विरजनं विरागः = संसारवैराग्यं तेन सहितैः समेतैर्विरागसहितैर्न तु रागातुरैः, यो भगवान् सेव्यमानः = आराध्यमानः सन् हरते =अपनयति ' हु: ' पादपूरणे संसारसन्तापं भवदवमित्यर्थः ।। १०७ ।। वाइयमुवगीयं नमवि, सुअं दिट्ठमिट्ठमुत्तिकरं । कीरइ सुसाव एहिं, स-परहियं समुचिअं जत्था १०८ । व्याख्या - ' वाइयमुवगीय ' मित्यादि । यत्र आयतने वादितं शङ्खपटहभेरीमृदङ्गादीनां वादनं क्रियत इति योगः । न केवलं वादितं नाट्यमपि - लास्यमपि कथम् १ उपगीतं गानसमीपे यत् कीदृशं वादितं नाट्यं च ? यथासम्भवं श्रुतम्-आकर्णितं दृष्टम् - अवलोकितम् इष्टा = अभिमता या मुक्ति: = निर्वृतिस्तां करोतीति इष्टमुक्तिकरम् । कैः क्रियते ? इत्याह- सुश्रावकैः = शोभन श्राद्धैः । तदपि वादितं गीतं नाट्यं यत् समुचितं युक्तं न त्वनुचितं, तस्योपहासास्पदत्वादेवोक्तमनेनैव भगवता For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभसूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ॥ ५४ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यथा - " वागविरुद्धा नवि गाइजह" इत्यादि । अत एव स्वपरहितम् - आत्मेतरपथ्यं शुभभाववृद्धिहेतुकत्वादित्यर्थः ॥ १०८ ॥ तथा रागोरगोवि नासइ, , सोउं सुगुरूवएसमंतपए। भवमणो-सालूरं, नासइ दोसो वि जत्थाही ॥१०९॥ व्याख्या – ' रागो० ' इत्यादि । अत्र आयतने रागःयाद्यभिष्वङ्गः स एव उरगः = सर्पः भीमत्वदशनशीलत्वादिभिर्हेतुभिः रागोरगः, सोऽपि नश्यति दूरतः पलायते, अपि संभावनायां संभाव्यते एतद् वक्ष्यमाणप्रकारेण किमत्रा संभाव्यमित्यर्थः । किं कृत्वा ? श्रुत्वा = आकर्ण्य, कानि ! सुगुरूपदेश एव = सद्धर्माचार्यस्य हितवचनान्येव मन्त्रपदानि यत्र आयतने “ ॐ नमः श्रीघोणसेहरे २ बरे २ तरे २ वः २ वल २ लां २ २ रीं २ रौं २ र २ स२" इत्यादिमत्राक्षराणि सुगुरूपदेशमन्त्रपदानि । तथा यत्र आयतने भव्यानाम् = आसन्नसिद्धिकानां मनः = चित्तं भव्यमनस्तदेव सालूरो- दर्दुरस्तं नाश्नाति = नाति । द्वेषः = परगुणासहनं सोऽपि अहिरिव अहिः = भुजङ्गः । द्वेषस्यापि अहित्वं निरूपयता द्वयोरपि रागद्वेषयोः ' यत्र रागस्तत्र द्वेषो, यत्र द्वेषस्तत्र रागः' इत्यन्योन्यानुगतत्वं दर्शयति, तदुक्तम् " रागविसयादभिन्नो, दोसो त विसयगोयराणचे [ ने ] । रागो तम्हा दुन्निवि, अनोन्नगया इमे लोए ॥ १ ॥ " अयमपि सुगुरूपदेश मन्त्रपदप्रभावः, पठ्यते च लोकेऽप्ययमर्थः, तथाहि " सालूरो कसिण अंगमस्स जं दलइ मत्थए पायं । तं मन्ने कस्सवि मंतबाइणो फुरइ मापं ॥ १ ॥ " इति गाथार्थः ॥ १०९ ॥ १० For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ५५ ॥ www.kobatirth.org नत्थुस्तकमोत्थि पहाणं बली पइट्ठा य । जइ जुवइपवेसो वि अ, न विज्जई विज्जइविमुक्का ॥ ११०॥ व्याख्या– 'नो जत्थुस्सुत्तजण कमोत्थि' इत्यादि । नो-नैव यत्र आयतने उत्सूत्रजनक्रमः - सूत्रात्- आगमात् उत्क्रान्तम् उत्सूत्रं तच्च स्थावरप्रायोग्यकूपखननादि चेलाञ्चलवन्दनादिकं तद्भाषणात् ' मञ्चाः क्रोशन्ती ' तिवत्-जना अपि, उत्सूत्राव ते जनाथ उत्सूत्रजनास्तेषां क्रमः = कल्पोऽधिकार इत्यर्थः उत्सूत्रजनक्रमः अस्ति विद्यते । तथास्नानं स्वात्रं बलिः = सुकुमारिकाद्युपहारः प्रतिष्ठा च प्रतिष्ठापनं, 'चः' समुच्चये, यतियुवतिप्रवेशोऽपि च-यतिः - साधुः, युवतिः - अङ्गना तयोः प्रवेशः जिनभवनद्वारकपाटान्तर्भवनं यतियुवतिप्रवेशः, सोऽपि चे 'ति पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, न विद्यते । कीदृशो यतिः ? ' विजइविमुको ' वेतीति वित्-ज्ञानी विवेकीत्यर्थः, स चासौ यतिश्व = अनगारच विद्-यतिस्तेन विमुक्तः परिहृतो विद्-यतिविमुक्तः ॥ ११० ॥ इति सामान्येन प्रतिषेधमस्यां गाथायां प्रतिपाद्याधुना सर्वकालविषयं नियमविशेषमाह - जिणजत्ता- पहाणाई, दोसाणं जं खया य कीरंति । दोसोदयाम्मि कह तेसिं संभवो भवहरो हुज्जा ॥ १११ ॥ व्याख्या—' जिणजत्ताण्हाणाई' इत्यादि । जिनानाम् - अर्हतां यात्राः = अष्टाहिकाद्युत्सवाः, तथा स्नानबलिप्रतिष्ठाःपूर्वप्रतिपादिताः, एते यात्रास्त्रानादयो, दोषाणां रागद्वेषमोहमदमात्सर्यादीनां यस्मात्क्षयाय = विध्वंसाय क्रियन्ते विधीयन्ते, ततश्च दोषोदये - रजनीसंभवे कथं केन प्रकारेण ? तेषां दोपक्षयार्थं क्रियमाणानां यात्रास्त्रात्र बलिप्रतिष्ठापनानां संभवः = सद्भावो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ।। ५५ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AKADCACANCERCOACCORE भवहरः संसारोच्छेदकरो भवेत् स्यात् ? न कथश्चिदित्यर्थः । तथाहि,-रात्रौ जिनमन्दिरे यात्रादिके क्रियमाणे देशान्तरागतस्थानस्थितश्रावकश्राविकामेलापके नटविटादिकुशीलजनसंपर्कवशादनर्थवृद्धिरेव केवलं, न पुण्यवृद्धिः, श्रीजिनवल्लभसूरिभिरपि " इष्टावाप्ति" इत्यादिसङ्घपट्टकवृत्तै( १८ । १९ । २० )स्तथैवोक्तत्वात् । यच मेरुमस्तके चेन्द्रेण स्नात्रे क्रियमाणे सततोद्वरदहलविमलमाणिक्यशिलामरीचिनिचयोद्योतेन सुरमहिम्ना च शश्वद्भास्वरत्वेन रात्रिन्दिवविभागो नास्तीति । | तथा बलिदानमपि रात्रौ संसरजीवसंघातवधजन्यकर्मबन्धात् ?, 'अहोऽमी श्रावकाः स्वयं रात्रिभोजननिषेधेऽपि स्वदेवस्याग्रतो निशि बलिमुपढोकयन्ति अतः कीदृगमीषां रात्रिभोजनविरतिः ?' इति लोकोपहासात् , लौकिकमार्गेऽपि " नैवाहुतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । न दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः ॥१॥" इत्यनेन रात्रौ स्नात्रदेवार्चनादेर्निवारणात् , बलिक्षेपणप्रस्तावे " महिमं च सूरुग्गमणे करिति" इत्यावश्यकचूर्णिवचनप्रामाण्याच्च रजन्यामसंगतमेव । निशि जिनप्रतिमाप्रतिष्ठायामपि मजनोक्तदूषणजातं सकलमवसेयम् । सा च दिनेऽपि सरिणैव कार्या-" रूप्यकञ्चोलकस्थेन, शुचिना मधुसर्पिला । नयनोन्मीलनं कुर्यात् , सरिः स्वर्णशलाकया ॥१॥" इत्युमास्वातिवाचकोक्तप्रतिष्ठाकल्पप्रामाण्यात् , तथा " एवं संनद्धगत्तो, सुइ दक्ख जिइंदिओ य थिरचित्तो । सिअवस्थपाउयंगो, पोसहिओ कुणइ हु पइ8 ॥१॥ वंदित्तु चेहयाई, उस्सग्गो तह य होइ कायवो । आराहणानिमित्तं, पवयणदेवीए संघेण ॥२॥ सदसेण धवलवत्थेण वेढिअं धूवपुप्फवासेहिं । अभिमंतिउं तिवाराउ परिणा सूरिमंतेण ॐARANG For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधरसार्द्धशतकम्।। जिनवल्लम परीणां सप्रपंच * स्तुतिगर्भ चरित्रादि। इअ विहिणा अहिवासेज देवबिंब निसाइ सुद्धमणो । तो उग्गयंमि सूरे, होइ पइट्ठासमारंभो इत्यार्यसमुद्राचार्यप्रतिष्ठाकल्पवचनात् , " नमिविनमिकुलान्वयिभिविद्याधरनाथकालिकाचार्यैः । कासइदाख्ये नगरे, प्रतिष्ठितो जयति जिनवृषभः॥१॥" इति चिरन्तनस्तोत्रपाठाच्च, न तु कदाचिदपि श्रावकेण । एवं नन्दिविधानमपि रात्री महादोषं, तथाहि-दीक्षाद्यर्थ हि नन्दिकरणं, दीक्षा च स्थूलसूक्ष्मप्राणातिपातविरतिलक्षणा, रात्रौ च प्राकाम्यहेतुकप्रज्वालितभूरिप्रदीपतेजस्कायिकजीवानां स्वयं शरीरस्पर्शेन व्यापादनात् कजलध्वजेषु च निरन्तरनिपततां लक्षशः पतङ्गादिजन्तूनां व्यापत्तिनिमितभावात-कीदृशी दीक्षादात्गृहीत्रोः सर्वविरतिः । तथा च 'करेमि भंते ! सामाइयं'-इत्यादिसर्वविरतिसामायिकसूत्रस्यापि तत्क्षणं शिष्येणोच्चार्यमाणस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गः, शिष्यस्य प्रथमक्षणादारभ्य प्राणातिपातप्रवृत्तेः, दीक्षादातुश्च दोषसंख्यापि वक्तुं न शक्यते, तच्छि[बी]क्षया तावजन्तुजातव्याघातप्रवृत्तेः । तथा विमलकेवलालोकेन भगवता तावतां शिष्यलक्षाणां मध्यात्कस्यापि न क्षणदायां दीक्षणमदायि?, 'दिवसाईयं तित्थं च' (१) इति भगवद्वचनं, ततो भगवदाचार भगवदाज्ञां च प्रमाणयतां तत्पथवर्तिनामैदंयुगीनानां तद्विनेयानां कथं निशि तत्कत्तुं युज्यते ? इति एवं चोत्सूत्रजनक्रमस्य सर्वकालविषयः प्रतिषेधः यात्रास्त्रात्रादीनां च निशागोचरः प्रतिपादित इति गाथार्थः ॥ १११ ॥ तथाजारत्ती जारथीणमिह रइंजणइ जिणवरगिहेवि।सारयणी रयणियरस्स हेउ कह नीरयाण मया।११२|| व्याख्या-'जा रत्ती जारत्थीण 'मित्यादि । या रात्रिः निशा जारस्त्रीणाम् उपपतियोषिताम् इह-अत्र जगति रति ॥५६॥ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुरतं जनयति = उत्पादयति जिनवरगृहेऽपि = तीर्थकृद्भवनेऽपि । अपिशब्दो गहीं द्योतयति यथा - अत्यन्तगर्हितमेतद् यद् वीतरागमन्दिरेऽपि सुरताज्ञां जनयति । ' सा रजनी 'ति, 'सा' इत्यनेनैव पूर्वोपात्तायां रात्रावुपलब्धायां पुना रजनी ग्रहणं तस्या विशेषतः सदोषत्वख्यापनार्थम्, यमकानुरोधेन वा रजोनिकरस्य = पातकव्रातस्य हेतु: कारणं कथं केन प्रकारेण नीरजसां=अहः कणेनाप्यस्पृष्टमनसां पुंसां मता = अभिमता संगता यात्रास्त्रात्रप्रतिष्ठाबलिनन्दिविधानादौ स्यात् १ न कथञ्चिदित्यर्थः । तथैतावता स्त्रीप्रवेश निषेधोऽपि 'नो जत्थुस्सुत्तजणक्कमोत्थि ' इति पूर्वगाथोद्दिष्टः सोऽपि समर्थितः । आगमोऽप्यत्रात्समवसरणे — "अजाण साविआण य, अकालचारितदोसभावाओ । ओसरणम्मि न गमणं, दिवसतिजा मे निसि कहं ता १ ॥१॥ इति स्त्रीणां रात्रौ जिनसदनान्तः प्रवेश निषेधकद्वर्त्तते । अत्र च साधुप्रवेशनिषेधस्थापनानन्तरं स्त्रीप्रवेश निषेधव्यव स्थापनं प्राक् स्त्रीप्रवेशस्य सकलानर्थमूलत्वसूचनार्थम् ॥ ११२ ॥ अथ रात्रौ जिनगृहान्तः साधुप्रवेशनिषेधमुद्दिश्याह " साहू सयणासणभोयणाइआसायणं च कुणमाणो । देवह-रएण लिप्पइ, देवहरे जमिह निवसंतो । ११३ | व्याख्या -' साहू सयणासणभोयणाई ' इत्यादि । साधुः =यतिः, शयनं = स्वापम् आसनम् = अवस्थानं, भोजनम् = आहारम् आदिशब्दान्मूत्रपुरीषादिरूपम् आशातनां भगवदवज्ञाजनितज्ञानादिलाभभ्रंशरूपां च शब्दाददेवद्रव्य विहितमठादिसाक्षाद्देवद्रव्योपभोगपरिग्रहः, कुर्वाणः - विदधानः कस्याशातनां कुर्वाणः १ तत्राह - ' देवह 'ति प्राकृतापभ्रंशलक्षणास्त्र षष्ठी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर * प्राप सार्द्धशतकम् । ॥५७॥ SCREADACOCOCAL तेन देवस्य-अर्हतो रजसा-पापेन लिप्यते देवगृहे यदि निवसन् तिष्ठनित्यक्षरार्थः । चैत्यनिवासनिषेधश्च साधूनां प्राक् प्रतिष्ठित इति ॥ ११३॥ जिनवल्लभतंबोलो तं बोलइ,जिणवसहिठिएण जेण सो खद्धो। खद्धे भवदुक्खजले,तरइ विणा नेय सुगुरुतरिं।११४ सूरीणां ___ व्याख्या-तं बोलो तंबोलइ' इत्यादि । ताम्बूलं नागवल्लीदलपूगीफलचूर्णयोगः तं ब्रोडयति, क ? भवदुःखजले= सप्रपंचसंसृतिकृच्छ्रसलिले, कीदृशे ? खट्टे-प्रचुरे, येन किम् ? इत्याह-तत्ताम्बूलं खद्धं-भक्षितम् । कीदृशेन सता ? जिनवसतिस्थि- स्तुतिगर्भतेन-तीर्थकद्भवनान्तर्भूतेन । नन्वसौ जिनभवनताम्बूलभक्षणोद्भूताशातनापातकात् कथश्चित्तरति भवसागरम् ? न इत्याह-नैव चरित्रादि। तरति=नोपप्लवते, कथम् ? विना, काम् ? सुगुरुतरी सद्धर्माचार्यनावमिति गाथाष्टकसंक्षेपार्थः ॥ १०७=११४ ॥ एवं तावजिनभवनरूपमायतनं दर्शयित्वा, येन ज्ञानादित्रयपवित्रगात्रसत्पात्रसाधुरूपमपि तेषां मुग्धश्रद्धालुश्राद्धानां | दर्शितमित्यधुनाऽऽह| तेसिं सुविहिअजइणो य दंसिआजे उ हुंति आययणं। सुगुरुजणपारतंतेण पाविआ जेहिं नाणसिरी।११५ ।। ____ व्याख्या-तेषां सरलश्रावकाणां न केवलं जिनभवनमायातनं दर्शितं किन्तु सुविहितं शोभनं विहितम् अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, सुविहिताश्च ते यतयश्च सुविहितयतयस्ते च दर्शिताः, ये, कि ?मित्याह-भवन्ति, आयतनं ज्ञानादिलाभस्थानं तु शब्दाश्चार्थे भिन्नक्रमश्च ततो यैश्च साधुभिः प्राप्ता आसादिता, काऽसौ ? ज्ञानश्रीः श्रुतज्ञानलक्ष्मीः । किं पार्श्वस्थादि- ॥ ५७॥ CAMERAMA For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MARACCORRRRRRC पारम्पर्येण ? नेत्याह-सुगुरुजनस्य पारवश्येन पारम्पर्येण चेति गाथार्थः ॥ ११५ ॥ ___ अथ तानेव सुविहितसाधून असाधारणगुणैः स्तुवन्नाहसंदेहकारितिमिरेण तरलिअंजेसि दंसणं नेय। निव्वुइपहं पलोयइ, गुरुविज्जुवएसओ सहओ॥११६॥ ___व्याख्या-येषां सुविहितसाधूनां दर्शनं सम्यक्त्वं नैव-तरलितं नैव व्यामूढं, केन ? सन्देहकारि संशयाधायि यत्ति| मिरम्=अन्धकारं तेन चाज्ञानमुपलक्ष्यते तत्रूपत्वात्तस्य, ततः अज्ञानेन=सन्देहकारितिमिरेण। किं तर्हि ? प्रलोकते-पश्यति, किम् ? निवृतिपथं मोक्षमार्गम् । कस्मादेव ? मित्याह-गुरुरेव वैद्यो-भिषक तस्योपदेशः हितकृत्यप्रेरणं तदेवौषधं-तिक्तादिद्रव्यमेलापको गुरुवैद्योपदेशौषधं तस्मात्तथेति, अयमभिप्राय:-यथा दर्शनं " दर्शनं दर्पणे धर्मोपलब्ध्योर्बुद्धिशास्त्रयोः । स्वप्नलोचनयोश्चापि" इति (हैमानेकार्थ० ९८१) वचनात्लोचनं तिमिरेण दृष्टिरोगेण सन्देहकारिणा 'किमयं विष्णुमित्रचैत्रो वे ?' ति संशयोत्पादकेन. गुरुज्येष्ठ परिणतवया इत्यर्थः, तादृशो यो वैद्यः चिकित्सको गुरुवैद्यस्तेनोपदेशः उपदिष्टं यदौषधं=" मुस्ता शिरीषवीज, कपित्थवीजं करञ्जबीजं च । त्रिकटुकसुनागकेसर-मथ वंशत्वक् समै गैः ॥१॥ छायाशुष्का कार्या, गुटिका चनकप्रमाणिका नित्यम् । मधुना घृष्टाञ्जनतस्तिमिरं दूरेण नाशयति ॥ २॥" इत्यादि, तस्मात् न तरलीक्रियते न संदेग्धि किन्तु निर्वृतिहेतुं सुखावहं पथं-मार्ग प्रलोकयतीत्येवमिति प्रतीयमानोऽर्थ इति गाथार्थः ।। ११६ ।। तथा 6 4444444 445 44 44 For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ।। ५८ ।। www.kobatirth.org निष्पच्चवायचरणा, कज्जं साहिति जे उ मुत्तिकरं । मन्नंति कयं तं जं, कयंतसिद्धं तु स -परहिअं ॥११७॥ व्याख्या—' जे उ ' त्ति, तुशब्दश्चार्थस्ततो ये च साधयन्ति = निष्पादयन्ति, किम् ? कार्य = व्यापारं निर्वाणसाधकं प्रतिलेखनाप्रमार्जनाभिक्षाचर्यापथिकाऽऽलोक भोजनादिदशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृतिकमित्यर्थः । कीदृशाः सन्तः १ निष्प्रत्यवायं=निष्प्रायश्चित्तं=निरतिचारं चरणं चारित्रं येषां ते तथाविधाः सन्तः । तथा ये च मन्यन्ते=जानते, किम् ? कृतं, किं तत् ? तपः = कष्टक्रियाप्रासुकोदकादिकं यत् कि ? मित्याह - कृतान्तसिद्धं तु= आगमनिष्पन्नमेव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् श्रुतोक्तताविकलस्य समस्तस्याप्यजागलस्तनकल्पत्वात् । कृतान्तसिद्धक्रियाविधानं । पुनः कीदृशम् १ यतः स्वपरहितम् = आत्मनः परेषां 'च सर्वथा संसारदुस्तरापारपारोत्तारकारकमित्यर्थ इति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ तथा डिसोरण पट्टा, चत्ता अणुसोयगामिणी वट्टी | जणजत्ताए मुक्का, मय-मच्छर-मोहओ चुक्का ॥ ११८ ॥ व्याख्या—— ये च ' इत्यत्रापि संबध्यते, ये च, कीदृशाः १ प्रवृत्ताः = प्रस्थिताः केन : मार्गेणेति शेषः, किं रूपेण ? प्रतिश्रोतसा= संसारनिस्तारकेण गुरुकुलवासकुग्रहनिर्वास - संयमश्रीविलासशुद्धतपो - नुपहासो द्यतविहार- शुभभावनाप्रकार- परोपकारसारत्वादिलक्षणेनेत्यर्थः । तथा ' ये च' इत्यर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति यैश्व त्यक्तं मुक्तं ' वट्टि 'त्ति प्राकृतत्वात्स्त्रीलिङ्गनिर्देशः, वर्त्म=मार्गः कीदृशम् ? अनुश्रोतोगामि-संसारसमुद्रपातकम् “अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो " For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ।। ५८ ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 इत्यागमवचनात् , गडरिकाप्रवाहपन्था यः सर्वथा परिहृता इत्यर्थः, अत एव जनयात्रया लोकव्यवहारेण गृहव्यापारचिन्ता कुटुम्बवार्ता-गृहस्थनिरन्तरसंसर्गादिना मुक्ताम्त्यक्ताः। तथा मदमत्सरमोहतः-मदः अहङ्कारः, मत्सर:=परगुणासहनं, मोहः स्वजनादिस्नेहबन्धस्तेभ्यो मदमत्सरमोहतः चुकाः भ्रष्टास्तद्रहिता इति गाथार्थः ॥ ११८ ॥ तथासुद्धं सिद्धंतकहं, कहंति बीहंति नो परेहितो। वयणं वयंति जत्तो, निव्वुइवयणं धुवं होइ ॥११९॥ व्याख्या-ये च शुद्धां निर्दषणाम्-उत्सूत्रविवर्जितां, सिद्धान्तकथां-धर्मदेशनां कथयन्ति प्रतिपादयन्ति । तां च भाषमाणा न परेभ्यः इतरेभ्यो बिभ्यति-त्रस्यन्ति कालिकाचार्यवत् स्फुटं प्रकटं दिशन्तीत्यर्थः, किंबहुना ये महात्मानो वचनमपि-पदमपि उपशमविवेकादिरूपं तदेव वदन्ति=उच्चारयन्ति यस्मात् निर्वृतिव्रजन मुक्तिगमनं ध्रुव-निश्चितं भवति स्या दिति गाथार्थः ॥ ११९ ॥ अन्यच्च येन तेषां मुग्धश्राद्धानां किमुपदिष्टम् ? तत्राहतविवरीया अन्ने,जइवेसधरा वि इंति नह पुजा। तहसणमवि मिच्छत्तमणुखणंजणइ जीवाणं ॥१२०॥ व्याख्या-भो भो भव्याः! तद्विपरीता:-तेभ्यः सुविहितसाधुम्यो विपरीताः असंविग्नत्वानुपदेशकत्व-सिद्धान्तत| वानभिज्ञत्व-क्षेत्रकालाद्यपेक्षानुष्ठानशून्यत्वोत्सूत्रभाषकत्व-क्रूरत्वा-सहिष्णुत्वा-नार्जवत्व-सतृष्णत्व-निर्दयत्वा-नृतभाषित्व CARRICA For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ५९ ॥ www.kobatirth.org स्तैन्यकृत्वा-ब्रह्मचारित्व-सकिञ्चनत्वा-नुद्यतविहारित्व - तपःक्रियाबाह्यत्व - गुर्वाज्ञाविमुखत्वै का कित्वादिविलक्षणगुणाः अन्ये= अपरे यतिवेषधरा - अपि = सत्साधुनेपथ्यमुद्रामुद्रिता अपि आस्तां तद्विकलाः परं न भवन्ति पूज्याः = आराध्याः । ननु मा भूवन्नाराध्यास्ते, किन्त्वालापसंवासविश्रम्भादिविषयास्तादृशा अपि भविष्यन्ती ? त्याह- भो भो मुग्धाः ! अज्ञात सिद्धान्ततवाः ? शृणुत यत्तदर्शनमपि चक्षुषा निरीक्षणमात्रमपि अनुक्षणं प्रतिमुहूर्त्तं मिथ्यात्वं कुदृष्टित्वं जनयति-विधत्ते जीवानां= भव्यप्राणिनाम्, यत उक्तम् 44 उस्सु भागा जे, ते दुक्करकारगा वि सच्छंदा । ताणं न दंसणं पि हु, कप्पड़ कप्पे जओ भणिअं ॥ १ ॥ जे जिणवयणुत्तिन्नं, वयणं भासंति जे य मन्नंति । [ अहवा ] सम्मद्दिकीणं तदंसणं पि, संसारबुड्ढकरं ||२|| इति गाथार्थः ॥१२०॥ तथा धम्मत्थीणं जेणं, विवेयरयणं विसेसओ ठविअं । चित्तउडे चित्तउडे, ठियाण जं जणइ निव्वाणं १२१ ॥ व्याख्या–धर्म्मार्थिनां=साधारणप्रमुख श्राद्धानां येन विवेकरत्नं हेयोपादेयपरिज्ञानमाणिक्यं चित्तपुटे - हृदयपत्रपात्रे स्थापितं=निहितं चित्रकूटे स्थितानां श्रावकाणां यजनयति निर्वाणं = सुखं मुक्तिं चेति गाथार्थः ॥ १२१ ॥ अन्यच्च येन भगवता किं चक्रे १ तत्राह असहाएणावि विहीय, साहिओ जो न सेससूरीणं । लोयणपहे वि वच्चइ, बुच्चइ पुण जिणमयन्नुहिं ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ॥ ५९ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या-'येने ' ति 'जेण तओ पासत्थाइ (गा.१०३) इत्यतः संबध्यते ततो येन भगवता असहायेनापिएकाकिनापि परकीयसाहायकनिरपेक्षम् अपि-विस्मये अतीवाश्चर्यमेतत् विधिः आगमोक्तः षष्ठकल्याणकप्ररूपणाचैत्यवासिनिरासादिरूपश्चैत्यादिविषयः पूर्वदर्शितश्च प्रकारः 'प्रकर्षेणेदमित्थमेव भवति यात्रार्थेऽसहिष्णुः स वावदीतु' इति स्कन्धास्फालनपूर्वकं साधितः सकललोकप्रत्यक्ष प्रकाशितः। यो न शेषनरीणाम्-अपराचार्याणामज्ञातसिद्धान्तरहस्याणामित्यर्थः, लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्गेऽपि आस्तां । श्रुतिपथे व्रजति-याति,उच्यते पुनर्जिनमत ः भगवत्प्रवचनवेदिभिरिति गाथार्थः ॥ १२२ ।। तथाघणजणपवाहसरिआणुसोयपरिवत्तसंकडे पडिओ।पडिसोएणाणीओ,धवलेण व सुद्धधम्मभरो॥१२३॥ ___ व्याख्या-येनेति पूर्ववत् ततो येन धवलेनेव-'विकटशकटधुराप्राग्भारधारणक्षमः स्वशक्तिसमुचितोत्साहनिर्वाहितसिकतोत्कटदुर्गमार्गनिपतितनानाद्रव्यनिचितशकटो वृषभो 'धवलः' इति लोके गीयते' आनीता आरोपितः अवतारितः संस्थापित इत्यर्थः, कोऽसौ ? शुद्धधर्मभर मिथ्यात्वोत्सूत्रदेशनागड्ढरिप्रवाहरहितः शुद्धधर्मस्तस्य भरः " भरोऽतिशयभारयोः" इति ( हैमानेकार्थ० ४५०) पाठाद् अतिशयः प्राचुर्यमिति यावत् । धवलपक्षे च भर:=भारः, केनातीतः? इत्याह-प्रतिश्रोतसा प्रतीपप्रवाहेण लोकमार्गातिक्रान्तेनेत्यर्थः । किमसौ क्वापि दुर्गस्थाने निपतितोऽभूत् ? एवमित्याह-'धणजणपवाहसरियाणुसोयपरिवत्तसंकडे पडिओ' ति, घनाः प्रभृतास्ते च ते जनाश्च घनजनास्तेषां प्रवाहो-विमर्शशून्यानुष्ठानं स एव सरित-तरङ्गिणी तस्या अनुश्रोत:-प्रवाहमार्गस्तत्र परिवर्त: आवर्तस्तस्य संकटं वैषम्यं धनजनप्रवाहसरिदनुश्रोतः परिवर्त REGARA For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त श्री सार्द्ध जिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंचस्तुतिगर्मचरित्रादि। गणधर संकटं तस्मिंस्तथा, पतितः मनः। स्वयं निरीहेण निर्भयेन सिद्धान्ततत्त्वानुष्ठानाभिनिविष्टचित्तेनात्यन्तशुद्धचारित्रिणा निष्क लङ्कविधिमार्गः समुद्धृत इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ १२३ ॥ शतकम्। ___ इदानीं तमेव पूज्यं जलधरसाम्येन वर्णयन् गाथायुगलमाह 1 कयबहुविजुज्जोओ, विसुद्धलद्धोदओ सुमेहु व । सुगुरुच्छाइयदोसायरप्पहो पहयसंतावो ॥ १२४॥ ॥६०॥ है सवत्थ वि वित्थरिउं, वुट्ठो कयसस्ससंपओ सम्मं । नवि वायहओ न चलो, न गजिओ जो जए पयडो॥ व्याख्या-यश्च भगवान् सुमेध इव-सजलजलधर इव पुष्कलावर्त्त इव । निर्जला ईषजलधराश्च नानारूपास्तोयदा भवन्तीति, तदुक्तम् "हहो! चातक ! सावधानमनसा शिक्षा मिमां श्रूयता,-मम्भोदा बहवोऽपि संति भुवने सर्वेऽपि नैकादृशाः। केचिद्वारिभिरार्द्रयन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद्वृथा, यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा चाटुकारं कृथाः ॥१॥" अतो निर्जलाल्पजलजलधरनिरस्तये सुशब्दोपादानम् , अतश्चोभयोरपि शब्दसाधम्र्येण विशेषणान्याह-'कयबहुविज्जुदोओ' त्ति, कृतो विहितो बहुविद्याभिः नानाविध-छन्द-स्तर्क-नाटका-लकार-सिद्धान्त-ज्योतिष-निमित्तशास्त्र विद्याभिरात्मनस्तत्सम्बन्धाजैनमार्गस्य चोद्योतः प्रकाशो येन स तथा । बहुविद्यानां वा, सहृदयहृदयचमत्कारिव्याख्यानेन भवति हि विद्यानां प्रकाशः । तथा 'विसुद्धलद्धोदओ' त्ति, विशुद्धैःनिर्मलात्मभिः साधारणश्राद्धप्रख्यैलब्धा प्राप्तः 445A5% ॥६. For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उदयः =ऐश्वर्याद्यभ्युदयः कल्याणं यस्मात्स तथा विशुद्धलब्धोदयः । यदि वा विशुद्धाः = निष्कलङ्कास्तेषु मध्ये लब्ध उदयः= औन्नत्यं मूर्द्धाभिषिक्तत्वं येन स । तथा 'सुगुरुच्छाइयदोसायरप्पहो ' त्ति, 'छाइय' पदानन्तरं ' सुगुरुपद ' प्राप्तौ यदेतस्य पूर्वनिपातः [तत्] प्राकृतत्वात् ततश्च छादिता लुप्ता सुष्ठु गुर्वी महती दोषाकराणां चैत्यवासि-द्विजातीनामन्येषां च शुद्ध मार्गप्रत्यनीकानां प्रभा = माहात्म्यं येन स छादितसुगुरुदोषाकरप्रभः । तथा प्रहतसन्ताप इति प्रहतो - विश्वस्तः सन्तापः = आन्तरश्चित्तखेदो भव्यानां येन स प्रहतसन्तापः तथा ।। १२४ ॥ सर्वत्रापि विस्तृत्य वृष्ट इति, सर्वत्रापि=नरवरजाङ्गल-कूप- मरुकोट्ट - नागपुर - चित्रकूट - धारा - प्रमुखस्थानेषु विस्तृत्य = देशान्तरमभिव्याप्य विहृत्येत्यर्थः, वृष्ट इति, यथा ' कच्चो लैर्वर्षति ' इत्यत्र लक्षणया दानशौण्डत्वं लक्ष्यते, एवं 'वृष्टः' इत्यनेनापि ' वितीर्णसुधासारप्रकारः देशनासंभारः ' इत्यर्थो लभ्यते । तथा कृता = विहिता शस्या = श्लाघनीया साधुसाधर्मिकोपकारिणी देवभवनगुरुभक्तिवात्सल्यविस्तारिणी सिद्धान्तपुस्तकोद्धारकारिणी स्वजनस्वोपभोगादिविधानमनोहारिणी संसारनिस्तारणी दुर्गतिनिवारणी सम्पत्-लक्ष्मीर्येन स कृतशस्यसम्पत् सम्यक् = निर्विकल्पम् । सुमेघपक्षे च कृतो बहुविद्युदुद्योतः पुनः पुनः किञ्चित्प्रकाशो येन स तथा । विशुद्वं=निर्मलं लब्धमुदकं येन स तथा । छादिता=अन्तर्हिता सुगुरोः = शोभनबृहस्पतेर्दोषाकरस्य = चन्द्रमसः प्रभा - तेजो येन स तथा । प्रहतसन्तापः=अपहृतमेदिनीधर्म्मः । सर्वत्र विस्तृत्य वृष्टः । कृतसस्यसम्पत् = विहितधान्यवृद्धिरिति ॥ अथ सर्वसाम्यशब्दश्लेषेण प्रतिषेधयन् व्यतिरेकमाह-' नवि वायहओ 'त्ति, नापि वादहतः, नापि नैव स्वपक्षप्रतिष्ठापनं परपक्षविक्षेपणं वादस्तत्र हतः = पराभूतो निर्जितः स्वप्नेऽपि कदाचिदपि । नापि चल: = अस्थिरः संलीनगात्रत्वाद्भगवतः । न गर्जित: ' अहं ११ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ६१ ॥ www.kobatirth.org मौनी अहं ध्यानी अहं शाब्दिकोऽहं तार्किकोऽहं सैद्धान्तिकोऽहं तान्त्रिकोऽहं सकलशास्त्रपरिमलितमतिः किं बहुना ? नास्ति कश्चित् त्रिभुवनेऽपि तुल्यो मया' - इत्याद्यहङ्कारविकारधारकः, जगति लोके प्रकट:- षडशीतिप्रकरण - सार्द्धशतकप्रकरण-पिण्डविशुद्धिकरण - श्रीधर्मशिक्षादि प्रकरण-सकलदिक्चक्रवालरङ्गाङ्गणनरीनृत्यमानकीर्त्ति नर्तकी कः, इति व्यतिरेकः । मेघो हि पवनेन हन्यते, तथा चलोऽस्थिरो भवति, प्रकटो दृश्यमानमूर्त्तिः सन् स गर्जितो भवतीति गाथायुगलार्थः ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ ननु जलधिर्मांस्ततोऽसौ महात्मा तेन समो भविष्यति ? नेत्याह कहमुत्रमिज्जइ जलही, तेण समं जो जडाण कयवुड्डी । तिअसेहिं पि परेहिं, मुयइ सिरिं पि हु महिजंतो ॥ १२६ ॥ व्याख्या - अस्यां गाथायां ' जेण समं ' इति न्याय्यः पाठः । कथमुपमीयते = समीक्रियते जलधिर्येन समं=सार्द्ध यो जडानां = जाड्योपहतानां वठरशेखराणां कृता = विहिता वृद्धिः = ऐश्वर्याद्यभ्युदयप्राप्तिर्येन स तथा तादृशः । एतावता कुपात्रलक्ष्मीवितरणेन गुणागुणविभागानभिज्ञत्वं तस्य लक्ष्यते, पात्रापात्रविचारौचित्यनिक्षिप्तज्ञान श्री सारवासौ भगवान् । यो मुञ्चति-त्यजति श्रियमपि = कमलामपि 'हुः पादपूरणे, कीदृशः सन् १ मध्यमानः = सुरादिभिर्वाध्यमान उपद्रूयमाण इत्यर्थः, कैः १ परैः शत्रुभिः । ननु कथञ्चित्ते शतसहस्रसङ्ख्या भविष्यन्ति ततः शूरोऽपि लक्ष्मीं विहाय स्वप्राणरक्षायै पलायते ?, तनहीत्याह - ' तिअसेहिं पि 'ति, त्रिभिर्दशभिरपि आस्तां शतेन सहस्रेण वेत्यपिशब्दार्थः । एतावता कातरशिरोमणित्वं तस्य For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभसूरीणां प्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ६१ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %A%ARANAWARA व्यज्यते, अयं च भगवान्न तादृशः। किं तर्हि ? द्विषन्मानमर्दन-महेश्वरसुरेश्वरादिदेवताऽखण्डितशासन-श्रीमहामोहराजसम्बन्धिषोडशकषाय-नवनोकषाय-दर्शनत्रिका-टप्रमादादिमाद्यद्विसंकटकष्टकोटीसंटङ्ककारिदुर्वार-सुभटकोटीविक्षिप्तविश्वमण्डलाखण्डन-दुललितोद्दण्डभुजादण्डाकलितललितज्ञानदर्शनचारित्ररत्नसारभाण्डागारमहीमण्डलमण्डनविहारः खल्वसौ संयमश्रीवक्षःस्थलनिस्तुलविलुलन्मुक्ताहारः । अथ च जलधिः 'डलयो' रेकत्वाजलानां वृद्धिं विधत्ते, त्रिदशः सुरैः परै उत्कृष्टैरिन्द्रादिभिर्मथ्यमानो-विलोड्यमानः श्रियं लक्ष्मी दामोदरवल्लभां मुञ्चतीति विरोधश्लेषोक्तिरिति गाथार्थः ॥ १२६ ॥ एवं समुद्रेणाऽसाम्येऽपि यस्य सूर्येण साम्यं विद्यते इति तेन साम्यं गाथाचतुष्टयेनाहसूरेण व जेण समुग्गएण संहरिअमोह-तिमिरेण। सद्दिट्ठीणं सम्म, पयडो निव्वुइपहो हूओ ॥१२७॥ ____ व्याख्या-येन समुद्गतेन=उदयं प्राप्तेन सूर्येणेव-रविणेव, कीदृशेन ? संहृतमोहतिमिरेण=विदलिताऽज्ञानान्धकारेणेति करणे तृतीया । यदि वा सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात्ततो यस्मिन्नम्युदिते, किं जगतः कल्याणमभूत ?, तत्र चाह-सदृष्टीनां सम्यग्दृष्टीनाम्-अर्हत्साधुजिनप्रणीतधम्मैकशरणानां सम्यग् निर्विकल्पः प्रकटः स्फुटो निर्वृतिपथो मोक्षमार्गो भृता-संपन्नः ॥ १२७ ।। तथा वित्थरिअममलपत्तं, कमलं बहुकुमय-कोसिआ खुसिआ । तेयस्सीण वि तेओ,-ऽवगओ विलयं गया दोसा ॥ १२८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri K assagarsur Gyarmander गणधरसार्द्धशतकम् । ॥६२॥ स्तुतिगर्भ *ॐॐॐ व्याख्या-विस्तृतं विस्तारं प्राप्त, किं तत् ? कमलं, कं-मनोविज्ञानं मिथ्यात्व-सम्यक्त्व-कुगुरु-सुगुर्वादिहेयोपादेयविवेक इत्यर्थः, अलम्-अतिशयेन, कीदृशम् ? अमलानि-निर्दषणानि पात्राणि-आधाररूपाणि यस्मादिति ज्ञानविशेषण, नहि जिनवल्लमज्ञानाधारमन्तरेणात्मनः पात्रता बोभवीति । बहूनि-प्रभूतानि च तानि चैत्यवास-रात्रिस्नात्र-रात्रिबलि-रात्रिप्रतिष्ठादीनि सूरीणां बौद्ध-साङ्खथ-नैयायिक-वैशेषिक-मीमांसकदर्शनाख्यानि कुमतानि च विचाराक्षमकदभिनिवेशाः, यदि वा कुत्सितं मतं येषां || सप्रपंचते कुमताः पुरुषाः, बहवश्च ते कुमताश्च बहुकुमताः, एव कौशिका:-धूकाः बहुकुमतकौशिकाः, ते, किमित्याह-'खुसिअ 'त्ति, दर्शनपथातिक्रमेण क्वचिन् नः] संचार-प्रदेशवर्तिशून्यदेवकुलगृहादेरन्तर्निलीय स्थिताः । तथा तेजस्विनामपि-प्र चरित्रादि। भावतामपि तेजःप्रभामाहात्म्यम् अपगतं नष्टम् । तथा विलयं प्रलयं गताः प्राप्ताः दोषाः रागद्वेषादयः, तेषां भस्मच्छबानिरूपतया सत्तामात्रेणावस्थितेः ॥ १२८ ॥ विमलगुण-चक्कवाया, वि सव्वहा विहडिआ वि संघडिआ। भमिरेहिं भमरेहिं पि, पाविओ सुमणसंजोगो ॥ १२९ ॥ भव्वजणेण जग्गिअ,-मवग्गिअं दुट्ठसावयगणेण । जड्डमवि खंडिअं मंडिअं च महिमंडलं सयलं ॥ १३० ।। ॥ ६२॥ For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir DURATARRARO व्याख्या-तथा-विमला: निष्कलङ्का ये गुणाः ज्ञानादिरूपाः शम-दमौ-चित्य-गाम्भीर्य-धैर्य-स्थैर्यादयश्च आत्मधस्ति एव चक्रवाका: कोकास्तेऽपि विघटिता अपि संघटिताः वियुक्ता अपि आत्मनो मिलिताः। तथा 'भमिरेहिति, भ्रमणशीलैः अपरापरदेशविहारिभिः यतिभिरिति गम्यते, प्राप्त आसादितः सुमनसांसुसाधूनां सुमनोभिर्वा संयोगः-संगमः सम्बन्ध इति यावत् सुमनः-संयोगः, नहि प्रपन्ननित्यवासानां स्थानान्तरस्थायिभिः सुसाधुभिः सुगुरुभिर्वा सह मेलापको घटाट्यते ॥१२९॥ व्याख्या-तथा-भव्यजनेन जागरितं मोहनिद्रामुद्राविद्रावणेन, प्रतिबुद्धम् । तथा 'अबग्गियं दुट्ठसावयगणेणं'ति "अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे" इति(व्याकरण)वचनात् न वल्गिन विस्फूर्जितं दुष्टश्रावकगणेन अत्यनीकश्राद्धसङ्घन, यदि वाद्विष्टाः मत्सरिणस्ते च ते शापदाच-आक्रोशदायिनश्च द्विष्टशापदाः, तेषां गणः समूहस्तेन द्विष्टशापदगणेन । तथा जाड्यमपि, पूर्वापेक्षायामपिः समुच्चये, जडत्वं मूर्खत्वं तदपि खण्डितं विध्वस्तम् । स हि भगवान् यस्य शिरसि स्वपद्महस्तं [स्वहस्तपनं] ददाति स जडोऽपि रामदेवगणिरिव वदनकमलावतीर्णभारतीकोऽत्यन्तदुर्बोधसूक्ष्मार्थसारप्रकरणवृत्तिं विरचयति । तथा मण्डितं च-भूषितं च स्वचरणाम्भोजचङ्क्रमणेन महीमण्डलं-पृथ्वीमण्डलं सकलं-सम्पूर्णम् । सूर्यपक्षे च संहृतान्धकारेण सदृष्टीनांकाचकामलाद्यनुपहतलोचनानां सम्यक् निश्चितं प्रकटो निर्वृतिपन्था, निवृत्तिः सुखं तद्धेतुः पन्थाः कीटककण्टकाद्यनाकीर्णमार्ग इत्यर्थः, भूतासंपन्नः । विस्तृत विकशितम् अमलपत्रं निर्मलदलं कमलं पद्मम् । बहुकुमुदकौशिका:-प्रभृतकुत्सिततोषोलूकाः (१) खुसिया-गुहान्तः प्रविष्टाः। तेजस्विनामपि-सप्तार्चि-र्माणिक्य-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-तारक-दीपादीनां तेजः कान्तिः अपगतंबविलीनम् । विलय-क्षयं गता दोषारात्रिः । तथा विमलगुणा: विशुद्धपीतत्वादिवर्णा ये चक्र For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्धशतकम् । ॥ ६३ ॥ www.kobatirth.org वाका 'अपि,' समुच्चयेऽपिशब्दः, सर्वथा = सर्वप्रकारेण विघटिता अपि = वियुक्ता अपि संघटिताश्चक्रवाकाः । रात्रौ वियोगः सूर्योदये च संयोगचक्रवाकचक्रवाक्योः, इयं दैववशात्स्थितिः, तथा चोक्तं केनापि - 46 वदत किमपि दृष्टं स्थानमस्ति श्रुतं वा, व्रजति दिनकरोऽयं यत्र नास्तं कदाचित् । भ्रमति विगसार्थानित्थमापृच्छमानो, - रजनिविरह खिन्नश्चक्रवाको वराकः ॥ १ ॥ " 46 तथा ' भमिरेहिं भमरेहिंपि 'त्ति, भ्रमणशीलैः = नानावनराजिसञ्चारिभिः भ्रमरैः अपि द्विरेफैरपि प्राप्तः सुमनः संयोगः= 'सुमना मालती जातिः " इत्यभिधानकोशपाठान्मालती मेलापकः । मधुकरस्य हि सकलवनराजिमध्येऽत्यन्तं मालत्येव वल्लभा, तथा च पठ्यते " महमहिअं छज्जइ मालतीए एकाए नवरि भुवणम्मि । जीसे गंधालिद्धा, भसलामसलेहिं पिअंति ।। १ ।। लिमिण मणिमिणं, विरसमिणं गंधवजिअमिणं च । मालइरत्तो भसलो, परिहरइ बियारिडं कुसुमं ॥ २ ॥ " भव्यजनेन=वणिक्-क्षत्रियादिलोकेन जागरितं = विबुद्धम् । अवल्गितं = निःशङ्केनोल्लसितं दुष्टश्वापदगणेन सिंह - व्याघ्रगण्डक-तरक्षादिक्षुद्रसच्चसमूहेन जाड्यमपि शैत्यमपि, सर्वे 'अपि' शब्दाः समुच्चयार्थाः खण्डितम् = अपनीतम् च । मण्डितं च=भूषितं च महीमण्डलं सकलं नानारत्न- नानासुवर्णाभरण - नानाक्रयाणक-नाना कणहड्डिका - नानाप्रकारशृङ्गारसारमस्तकारोपितघटभारसं चरिष्णुनरनारीचार- नानाविधजातिगजतुरगपत्ति - प्रचार- जिनभवनवाद्यमानशङ्ख पटह मेरी भाङ्कार- नानास्थानगच्छदागच्छन्मुनिविहार दक्षिण पूर्वदेशोत्तरापथप्रस्थातृसार्थ संचारैर्मण्ड्यत एव हि महीमण्डलमिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ १३० ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंचस्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ॥ ६३ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ननु यथा सूर्येण साम्यं तथा चन्द्रेणापि भविष्यति १, न, इत्याह अत्थमई सकलंको, सया ससंको वि दंसिअप ओसो । दोसोदए पत्तपहो, तेण समो सो कहं हुज्जा ॥१३१॥ व्याख्या - अर्थे द्रविणे मतिर्यस्य सः अर्थमतिः = ' धनं धन ' मित्यापूरितध्यानः । तथा सकलङ्कः=सापवादः । तथा सदा सर्वदा न तु कदाचित् । दर्शितप्रद्वेषः = संभावितमत्सरः । तथा दोषाणां चौर्यपारदार्यादिदूषणानाम् उदये समुल्लासे प्राप्ता वक्त्रसच्छायता-प्रमोदकत्वादिलक्षणा प्रभा येन स दोषोदयप्राप्तप्रभः । शशाङ्कोऽप्येवंविधः । अयं च ( ( आचार्यः ) - " त्वग्भेदच्छेदखेदव्यसनपरिभवाऽप्रीतिभीतिप्रमीति, - क्लेशाविश्वासहेतुं प्रशमदमदयां, वल्लरी धूमकेतुम् । अर्थं निःशेषदोषाङ्कुरभरजनन, - प्रावृषेण्याम्बु धूत्वा, लूत्वा लोभप्ररोहं सुगतिपथरथं धत्त सन्तोषपोषम् ॥ १ ॥ " इत्यादिना दूषयन्नर्थनिचयं वैरस्वामीव हस्तेनापि न स्पृशति निर्ग्रन्थशिरोमणित्वात् । न च कलङ्कलेशेनापि स्पृष्टः । नापि दर्शितप्रद्वेषः गुणिषु बहुमानित्वात्, निर्गुणेषु चोपेक्षाकारित्वात् । नापि दोषाणामुदये प्राप्तप्रभः, तदाधायिनां तन्निग्रहोपायचिन्तकत्वात्तस्य । ततः कथमसौ भगवान् तेन तादृग्गुणेन शशाङ्केन चन्द्रमसा समः = तुल्यो भवेत् ? न कथञ्चिदित्यर्थः । इति वक्रोक्त्या तत्प्रशस्त्यै व्यतिरेक उक्तः । अथ च - अस्तमेति, सकलङ्कः = सलाञ्छनः, दर्शितप्रदोषः रजनीसुखोदयित्वात्, दोषोदये= रजन्युत्थाने प्राप्तज्योत्स्नश्वन्द्र इति मौलोऽर्थः इति गाथार्थः ॥ १३१ ॥ अथ तस्यैव विष्णुदासह साम्यमाह For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणघरसार्द्ध शतकम् । ॥ ६४ ॥ www.kobatirth.org संजणिअविही संपत्तगुरुसिरी जो सया विसेसपयं । विog or किवाणकरो, सुरपणओ धम्मचक्कधरो ॥ १३२ ॥ व्याख्या—यश्च विष्णुरिव कृष्ण इव वर्त्तते इति क्रिया गम्यते । कीदृशः १ संजनितः = विशेषत उत्पादितः प्रकाशित इत्यर्थः, विधिः=देवगृहादिविषयो यथोचिताचारो येन स संजनितविधिः । तथा संप्राप्ता=सम्यगुलब्धा गुरुश्रीः="श्रीर्लक्ष्म्यां | सरलद्रुमे । वेषोपकरणे वेषरचनायां मतौ गिरि । शोभा - त्रिवर्गसंपरयोः " इति ( हैमानेकार्थ० १२ ) पाठाद् आचार्यलक्ष्मीर्येन स संप्राप्तगुरुश्रीः- लब्धयुगप्रधानाचार्यपद इत्यर्थः । यदि वा - गुर्ती=महत्तराश्रीः = शोभा येन । यदि वा गुरोरिववाचस्पतेरिव श्रीः=मतिर्येन गुर्बी दूरदेशव्यापिनी श्री: - गीर्येनेति वा । सदा विशेषपदमिति, ज्ञानविशेष - मन्त्रविशेषतन्त्रविशेष- चारित्र विशेष - विद्याविशेषाणां समस्तानां पदं =स्थानम् । तथा 'किवाणकरो 'त्ति, कृपा करुणा आज्ञा भगवद्वचनं कृपाज्ञे ते करोतीति कृपाज्ञाकरः । सुरैः = चामुण्डादिदेवताभिः प्रणतः = वन्दितः । तथा धर्म्मचक्रधर इति, दुर्गतौ पतन्तं धारयतीति धर्म्मस्तस्यात्र प्रस्तावात्क्षान्त्यादिदशभेदत्वेन चक्रं - समूहस्तं धारयतीति धर्म्मचक्रधरः । यदि वा धर्म्मचक्रं नाम तपो विशेषम् । “धम्र्म्मो यमोपमापुण्यस्वभावाचारधन्वसु । सत्सङ्गेऽर्हत्य हिंसादौ, न्यायोपनिषदोरपि ।। " इति ( हैमानेकार्थ० (३३५) पाठात् धर्मो न्याय उच्यते ततो न्यायचक्रं नाम जैनमन्त्रयन्त्रादिशास्त्रं वा, धर्म्मशब्देनोपमा स चालङ्कारविशेषस्तयोपमया युक्तं चक्रं चक्रबन्ध - चित्रकाव्यविशेषस्तं धारयतीति वा । तथा चानेन भगवता कविचक्रचक्रवर्त्तिना नानारूपाः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + श्रीजिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ६४ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACC RADIOCALCREDCO सालङ्काराश्चक्रवन्धाश्चक्रिरे, तन्मध्यादेकमुपमोपेतं वर्णिकामात्रं चक्रं दर्श्यते- "विभ्राजिष्णुमगर्वमस्मरमनाशादश्रुतोलचने, सज्ज्ञानंद्यमणि जिनं वरवपुः श्रीचन्द्रिकाभेश्वरम् । वन्दे वर्ण्यमनेकधा सुरनरैः शक्रेण चैनछिदं, दम्भारि विदुषां सदा सुवचसाऽनेकान्तरङ्गप्रदम् ॥१॥" " चक्रं माघसमं"। अत्र च 'सज्ज्ञानामणिं जिनं वरवपुःश्रीचन्द्रिकामेश्वरम् ' इत्यत्र रूपकालङ्कारेऽप्युपमाया अन्तर्भावादुपमायुक्तत्वम् । 'जिनवल्लभेन गणिनेदं चक्रे ' इति चात्र बन्धाक्षराणि । विष्णुपक्षे च संजनितः-उत्पादितो विधिः=" विधिब्रह्मविधानयोः । विधिवाक्ये च देवे च, प्रकारे कालकल्पयोः ॥” इति (हैमानेकार्थ० २६१ ) वचनात्ब्रह्मा येन स तथा, नारायणनाभ्यम्भोरुहसंभृतत्वेन तस्य 'पायोनि 'रिति लोके विख्यातत्वात् । संप्राप्ता गुर्वी-बहुमानपात्रं श्री लक्ष्मीर्येन, क्षीरसमुद्रे हि मथिते स्वभाग्यवशात्केनापि किमपि किमपि प्राप्तं ततो लक्ष्मीः केशवेन प्राप्ता, तथा च पठ्यते " विहिविहि चिय लब्भइ, अमयं अमराण महुमहे लच्छी । रयणायरे वि महिए, हरस्स भाए विसं जायं ॥१॥" सदाऽपि सर्वदापि शेषस्य-निद्राकाले शय्यारूपस्य स्वामित्वेन पदंत्राणम् । यदि वा-वेः-पक्षिणो गरुडरूपवाहनस्य शेषस्य च शयनभूतस्य पदंत्राणस्थानम् । कृपाणो-नन्दकाख्यः खड्गः करे हस्ते यस्य स तथा । सुरैः देवैः प्रणतस्तत्पक्षस्थितत्वेन तजयदायित्वात् । धर्मो धनुः शाख्यिं चक्र सुदर्शनाख्यं धरतीति धर्मचक्रधर इति गाथार्थः ॥ १३२ ॥ अथ विरश्चिना साम्यमाह For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर - सार्द्ध शतकम् । ॥ ६५ ॥ www.kobatirth.org दंसिअवयणविसेसो, परमप्पाणं च मुणइ जो सम्मं । पयडविवेओ छच्चरणसम्मओ चउमुहु व्व जए ॥ १३३ ॥ व्याख्या - यश्चतुर्मुख इव = ब्रह्मेव जगति वर्त्तते । किंविशिष्टः १ दर्शितः प्रतिपादितः “ सच्चमघट्टिअमम्मं, सम्मं सहधम्मक स च । हिअमिअम हुरमगवं सवं भासिज मइपुवं ॥ १ ॥ " इत्यादिनोपदेशेन वचनस्य = भाषणस्य विशेषो विशे षणं भेदो- गुणो येन स दर्शितवचनविशेषः । दर्शितः = व्याख्यातः, " लिंगतिअं कालतिअं, वयणतिअं तह परोक्खं पच्चक्खं । वणवण चउके, अज्झत्थं चैव सोलसमं ॥ १॥ इति सिद्धान्तोक्तो वचनस्य विश्लेषो विरोधो येनेति वा । परम् आत्मीयव्यतिरिक्तम् ' अप्पाणं ' चेति प्राकृतत्वादात्मीयं मुणति वेत्ति ' सम्मं ' सम्यक् = निःसन्देहं साधम्मिकवैधम्मिक परिज्ञानेन हि तदनुरूपवात्सल्योपेक्षणोपपत्तिः, अत एव प्रकटः =स्पष्टो विवेकः = कृत्याकृत्यपरिज्ञानं यस्य स तथा । ' छच्चरणसम्मओ ' ति, सामायिक च्छेदोपस्थापनिक - पारिहारिक-सूक्ष्मसंपराय - यथाख्यात - देशविरति-लक्षणं पधिं चरणं चारित्रं पइचरणं तत् सम्मतं यस्य, षट्संख्यानि वा सम्मतानि दानेनासेवनमनोरथेन वेष्टानि यस्य स पचरणसम्मतः, षड्चरणाः = पट्प्रज्ञाविदग्धास्तेषां वा सम्मतः । चतुर्मुखपक्षे च दर्शितवदनविशेषः, चतुर्मुखत्वेनैवावलोकितः शेषलोकेभ्यो वक्त्रविशेषो यस्य स तथा । परमात्मानं प्रकृष्टक्षेत्रज्ञं सम्यक् जानाति परमात्मपदसंस्थितो वर्त्तते ब्रह्मेति लोके प्रख्यातिश्रवणात् । प्रकटाः प्रसिद्धा विवेदाः विशिष्टा ऋग्यजुःसामाथर्वणाख्या वेदा:= छन्दांसि यस्मात्स प्रकटविवेदः । प्रकटः प्रकाशो वेः = प्रस्तावा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरीणां सप्रपंच स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ६५ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org च्ङ्केत गरुन्मतो वेगो = जवो यस्य स तथेति वा, यो हि यमध्यारूढो विहरति तस्य तद्वेगः स्फुट एव भवति । ' छच्चरणसमओ 'त्ति, षड्चरणानां सम्मतः इष्टः, अयमभिप्रायः - मधुकरा हि मकरन्दलम्पटाः, से च पद्मे कदाचिदासीनोऽपि स्यादसौ ततो यो हि यदीयं वस्तूपयुङ्क्ते तस्य तद्वस्तुस्वामी सम्मतो भवत्येवेति न काप्यत्र विप्रतिपत्तिरिति गाथार्थः ॥ १३३ ॥ तस्य तर्हि शम्भुनाऽपि सह साम्यमस्तु नेत्याह- धरइ न कवड्डयं पि हु, कुणइ न बंधं जडाणवि कया वि । दोसायरं च चकं, सिरम्मि न चडावए कह वि ॥ १३४ ॥ संहरइ न जो सत्ते, गोरीए अप्पए न निअमंगं । सो कह तव्विवरीएण संभुणा, सह लहिज्जुवमं ॥ १३५ ॥ व्याख्या -यो हि भगवान् न धारयति=नाङ्गीकुरुते कपर्दकमपि आस्तां रूप्यसुवर्णादिकम् । न करोति=न विधत्ते बन्धं= संग्रह जडानां मूर्खाणां कदाचित् । तथा दोषाकरं दूषणनिधानं चक्रं = मायाविनं न शिरसि = मस्तके चटापयति = आरोपयति कथमपि, प्रत्युत तादृशं ज्ञात्वा कृष्णभुजङ्गमिव दूरतः परिहरति । तथा न संहरति-न विनाशयति सच्चान् प्राणिनः पिपीलिकाया अपि अद्रोहकत्वात् । तथा नार्पयति न ददाति निर्ज=स्वकीयमङ्गम्, कस्याः १ गौर्याः “ गौरी शिवप्रिया देवी, गौरी गोरोचना मता । गौरी स्यादप्रसूता स्त्री, गौरी शुद्धोभयान्वया ॥ १ ॥ " इति शब्दरत्नप्रदीपपाठात् अप्रसूता स्त्री तस्याः । स १] श्वेतगरुन्मान्-श्वेतपक्षी ब्रह्मप्रसङ्गात् 'हंस' इत्यर्थः । २ स च ब्रह्मा । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie साई गणधर-पटकथं 'तविवरीएण 'त्ति तस्माद्भगवतो विरुद्धचरितस्तेन तद्विपरीतेन उपमा साधारण्य तुल्यतां लभेत प्राप्नुयात् यायादि त्यर्थः । केन ? इत्याह-शम्भुना श्रीकण्ठेन ? न कथश्चिदित्यर्थः । तथाहि-असौ कपद धारयति, जडबन्धं विधत्ते, दोषा- जिनवल्लभशतकम् । करं चक्रं शिररि चटापयति, सत्वान् संहरति, गौर्याः स्वकीयमङ्गं समर्पयति, इति विरुद्धचेष्टितत्वं शम्भोः । अथ च-कप- | सूरीणां दोऽस्य जटाजूटस्तं धरति, जटानां लम्बमानानामुपरि कृत्वा बन्धं कुरुते, दोषाकर-चन्द्रमसं चक्र-कलामात्रं शिरसि धार- सप्रपंचयति, प्रलयकाले च सत्वान् संहरतीति पूर्वक एवार्थः, गौर्याश्च-पार्वत्या निजाङ्गं समर्पयति । अत्यन्तरागी बसौ, ततस्तेन स्तुतिगर्मगौर्या सार्द्ध निमेपार्द्धमप्यवियोगमीप्सुना पार्वती वामाङ्गे धारिता तेनासौ लोके ' अर्द्धनारीश्वरः' इति प्रसिद्धः, उक्तश्च चरित्रादि ।। तथाभूतमालोक्य केनचित् "एको रागिषु राजते प्रियतमा-देहार्बुहारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः । दुर्वारस्मरधस्मरोरगविषव्यासङ्गमुग्धो जनः, शेषः कामविडम्बितो न विषयान् भोक्तुं विमोक्तुं क्षमः ॥१॥" इति व्यतिरेक इति गाथार्थः ।। १३४ ॥ १३५ ।। अथातिशयितगुरुभक्तितरलितचेताः समस्तविद्यानिधानं स्वगुरुमुत्प्रेक्ष्य तनिधानत्वे निमित्तं संभावयन् गाथाचतुटयमाहसाइसएसुसग्गं-गएसु जुगपवरसूरिनिअरेसु।सव्वाओ विजाओ, भुवणं भमिऊण संताओ॥१३६॥12॥६६॥ +4460 For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तह वि न पत्तं पत्तं, जुगवं जध्वयणपंकए वासं । करिअ परुष्परमश्चंतं पणयओ हुंति सुहियाओ॥१३७॥ अन्नोन्नविरहविहुरोहतत्तगत्ताउ ताउ तणुईओ । जायाओ पुन्नवसा, वासपयं पि जो पत्तो ॥ १३८ ॥ तं लहिअं वियसियाजो, ताओ तवयणसररुहगयाओ। तुट्ठाओ पुट्ठाओ, समगं जायाउ जिट्ठाओ ॥ १३९ ॥ व्याख्या - पूर्व हि युगप्रवरा : - युग प्रधानाचार्याः श्रीहरिभद्रसूरिप्रमुखाः, सूरीणां " धीमान् सूरिः कृती कृष्टिः "— इत्यमरसिंह (कां. २ वर्ग ६ श्लो. ५ ) वचनात् धीमतां च श्रीधनपालप्रभृतीनां निकरा: = समूहाः सातिशया: = अतिशयविद्यान्विता अभूवन् अधुनातनकाले च ते सर्वे स्वर्गं गताः ततस्तेषु त्रिदिवपदवीं प्राप्तेषु सत्सु व्याकरणान्वीक्षिक्य-लङ्कारच्छन्दो-ज्योतिष्क- चूडामण्य-ध्यात्मागमादिविद्याङ्गना भुवनं भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा श्रान्ताः किमिति । इति चेत् निराश्रयाः | सत्यः । ननु कथं तासां निराधारत्वं यतोऽस्यां बहुरत्नायां वसुन्धरायां सन्त्येव वैयाकरण - तार्किक - सैद्धान्तिका -लङ्कारिका - छान्दस-ज्योतिषिक- नैमित्तिकाश्च बहवस्ततो वैयाकरणाद्यमेव स्वं स्वमाश्रयन्तु ताः किमिति महासत्यः पृथ्वीमण्डलं भ्रमन्त्य आत्मानमायासयन्ति ? सत्यं, सन्ति परमन्धयष्टिकल्पास्ते, तथा चोक्तं कर्पूरपण्डितपृष्टया शारदादेवतयैव, तथाहि कन्ये ! काsसि ?, न वेत्सि मामपि कवे ! कर्पूर ! किं १, भारती, सत्यं किं विधुराऽसि १, वत्स ! मुषिता, केनाम्ब १, दुर्वेधसा १२ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ६७ ॥ www.kobatirth.org 11 किं नीतं वद १, मुख भोजनयनद्वन्द्वं कथं वर्त्तसे १, धत्ते सम्प्रति मेऽन्धयष्टिघटनां श्रीमोक्षराजः कविः ॥ १ ॥ अतस्तैस्तासां न सन्तोषः । किञ्च प्रतिपन्नसखीभावत्वेनैकमेव पात्रं स्वाश्रयायै ता गवेषयन्ति परं अद्यापि तादृग् विद्यापात्रं न प्राप्तमेताभिः, यदीयमुखपद्मे युगपन्निवासं विधाय परस्परात्यन्तप्रीतिमत्यः सुखिताः सुस्थिता भवेयुः, ततोऽन्योन्यविरहवशोद्भूतदुस्सहदुःखपरम्परा तप्तास्तास्तन्वङ्गथः संवृत्ताः, तथापि " व्यवसायः फलति निश्चितम् " इति विचिन्त्य गवेपयन्तीभिः पुण्यवशाद् यो भगवान् स्वावासस्थानमपि संप्राप्तस्ततस्तं लब्ध्वा = प्राप्य विकशिताः = विस्तृता विद्यादेवतास्तदीयवदनारविन्दकृतावस्थानास्तुष्टाः हृष्टाः, पुष्टाः = उपचिताङ्गयः, ज्येष्ठा:=समस्तलोकपूज्यत्वेन गरिष्ठाः संजाताः, इति साभिप्रायगाथाचतुष्टयार्थः ।। १३६-१३७-१३८-१३९ ॥ पुनर्गुरुं प्रति प्रकटितात्यन्तबहुमानसारः प्राह प्रकरणकारः - जाया कइणो के के, न सुमइणो परमिहोवमं तेवि । पावंति न जेण समं, समंतओ सबकवेण ॥१४०॥ व्याख्या–कवयः=व्यास-वाल्मीक - कपिला- त्रेय - बृहस्पति - पाश्चाल - कालिदास-माघ- भारवि - मनु-मार्कण्डि - वाक्पतिराज-प्रभृतयः के के क्षितितलव्याख्यातकीर्त्तयः सुमतयः = लोकापेक्षया किल शोभनधियो नास्यां वसुन्धरायां जाता: = उत्पेदिरे ? परं किन्तु इह =अत्र जगति तेऽपि उपमां तुलां समतां येन प्रभुणा समं=साकं न प्राप्नुवन्ति =न लभन्ते । ननु कियन्तोऽपि तेन सह साम्यं यास्यन्ति ? नेत्याह-' समंतओ 'ति सामस्त्येन ये केचन कवयो जनप्रसिद्धाः । आह— केन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनवल्लभ सूणां बहुमान स्तुतिगर्भ ४ चरित्रादि ॥ ॥ ६७ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %AC-C3CRECORDCRECOR &ा कृत्वा-किं रूपेण कुलेन शीलादिना वा ? न तु सर्वैः प्रकारैः परं कविभिः काव्येनैव साम्यं युज्यते, अत उच्यते-सर्वकाव्येI नसर्व-निखिलं प्राकृतं संस्कृतं समसंस्कृतं मागधभाषया पिशाचभाषया सूरसेनीभाषया[५] नानाचक्रवन्ध-शक्तिबन्ध-शूल| बन्ध-शरबन्ध-मुशलबन्ध-हल-वज्र-खड्ग-धनु-बन्ध-गोमूत्रिकाबन्धादिचित्रवन्धरूपं, तदपि स्रग्धराशार्दूल-मन्दाक्रान्ताशिखरिणी-मालिनी-प्रभृतिनानाछन्दोभेदैः, तत्रापि-उत्प्रेक्षाऽलङ्कारेण, अर्थान्तरन्यासालङ्कारेण, रूपकालङ्कारेण व्यतिरेकालङ्कारेण वक्रोक्त्यलकारेण किं बहूक्तेनान्यैरपि-उपमा-ऽनुप्रास-संशय-दृष्टान्त-यथासंख्यव्याजोक्ति-विषम-विरोधादिभिरलङ्कारः, ततोऽपि शब्दचित्रार्थचित्र-प्रश्नोत्तर-क्रियागुप्त-सव्यङ्गथ-कान्त्योजः-प्रसन्नता-गम्भीरार्थतादिसमस्तगुणोपेतं य. काव्यं निपुणकविकर्म तेन सर्वकाव्येन । ईदृशं च काव्यमस्य भगवतोऽद्य यावद् यो यः पश्यति कोविदः स स क्षुत्पीडित इव द्राक्षाक्षीरखण्डशर्करादिमाधुर्ययुक्त खाद्यमोदकादिपक्कान्नमिव स्वमुखान्न मुञ्चति, अतो व्यासवाल्मीकिप्रमुखाणां रामायणभारतादिशास्त्रकर्तृणां कवीनां वालुकाचर्वणमिव निरास्वादं सर्वापशब्दमयमपशब्दप्रायं काव्यं प्रभुसत्कसदलङ्कारादिपूर्वोक्तगुणविशिष्टस्य काव्यपञ्चजनस्य पादेऽपि बद्धं न शोभते । न चैतञ्चन्दनद्रुम इव निष्फलं स्वगुरुसौरमं, किन्तु तस्य समविषमकाव्यविसृत्वरशेमुपीपराभूतवाचस्पतेः सकलकविचक्रचक्रवर्तित्वं सूपपन्नमिति गाथार्थः ।। १४० ।। ___अथोक्तमेवार्थ पुनर्भङ्गयन्तरेणोदीर्य अर्थान्तरन्यासेन समर्थयन्नाह| उवमिजंते संते, संतोसमुर्विति जम्मिनोसम्म।असमाणगुणो जो होइ कहणु सो पावए उवमं ॥१४१ || FACANCCARECHECCALCCARECHAR For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर - सार्द्ध शतकम् । 112 11 www.kobatirth.org व्याख्या - उपमीयमाने = सदृशीक्रियमाणे यस्मिन् सन्तः - विचक्षणाः, नो= नैव साम्यं समतां समुपयान्ति गच्छन्तीत्यत्र न काऽपि विप्रतिपत्तिरिति । अमुमेवार्थ समर्थ्यार्थान्तरन्यासालङ्कारेण द्रढयति - असमान गुणः = असाधारणधम्मों यो भवति कथं नु स प्राप्नोति उपमां साम्यं ? न कथञ्चिदित्यर्थः, अतो युक्तमेवैतदिति गाथार्थः ॥ १४१ ॥ ननु यावद्गुणोऽसौ त्वया वर्णितस्तावन्त एवास्य गुणाः ? नेत्याह जलहिजलमंजलीहिं, जो मिणइ नहंगणंपि हु पएहिं । परिसक्कइ सो वि न सक्कड़ जग्गुणगणं भणिउं ॥ व्याख्या– ननु जलधिजलं = महासमुद्रसलिलं मातुं संख्यातुमञ्जलिभिः शक्यते ? नहि । अथ को नभोऽङ्गणं पदैः= चरणैः परिष्वष्कते= परिभ्राम्यति तस्यान्तं यायादित्यर्थः, नहि नहि । ननु अस्त्येवं, परं जलधिजलमपि यो मिनोति, नभोऽङ्गणमपि पदैः परिष्वष्कते सोऽपि यद्गुणगणं भणितुं न शक्नोतीत्यतीव दुःशकत्वं भणितं भवतीति गाथार्थः ॥१४२॥ अथ कस्यान्ति तेनागमः कथं शुश्रुवे । तत्राह - जुगपवरगुरुजिणेसर, सीसाणं अभयदेवसूरीणं । तित्थभरधरणधवलाणमंतिए जिणमयं विमयं ॥ १४३॥ व्याख्या - युगप्रवरश्रीजिनेश्वरसूरीणां शिष्याणां श्रीअभयदेवसूरीणाम् कीदृशानाम् ? तीर्थ भरधरणधवलानां प्रवचनघुराभारधारणोद्धुरकन्धरधौरेयाणाम्, अन्तिके=समीपे येन जिनमतम् = अर्हदागमः विमतं विशेषेण सातिशयं मतम् = अस्तित्वेन ज्ञातमिति गाथार्थः ॥ १४३ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूणां सातिशय स्तुतिगर्भचरित्रादि ॥ ॥ ६८ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S [अथ] ज्ञात्वा तत्पार्श्वे सिद्धान्तं ततः किं कृतं तेन ? इति गाथा प्रथमपदेनाह सविणयमिह जेण सुयं, (१४४) व्याख्या-श्रुतम् आकर्णितं येन प्रभुणा । ( यदि ) स्तब्धेन प्रमादिना चेच्छूतं तदा किं तेन ? तत्राह-सविनयं= निरन्तरं गुरुमुखमीक्षमाणेन कृताञ्जलिपुटेन गुरुभावानुवर्तिना पदे पदे शिरो नमयता ' मस्तकेन वन्दे२' इति मृदुमधुरशब्देनोच्चरता च श्रुतं, न तु विकथानिद्राप्रमादोपेताचार्यप्रद्वेषकत्वान्यमनस्कत्वादिदूषणकलापकलुषिते नेति प्रथमपदार्थः(१४४) ननु भवतु सविनयं श्रवणं, परं यदाऽऽचार्यः साभिप्रायं प्रकटितशिष्यस्नेहं सोद्यम ज्ञापनबुद्ध्या ग्रन्थार्थ न प्रतिपादयति ₹ तदा तदपि निष्फलं, तत्र गाथाद्वितीयपदेनाह सप्पणयं तेहिं जस्स परिकहिअं। (१४४) ___ व्याख्या-तैरपि=श्रीअभयदेवाचार्यस्य सप्रणयं=" प्रणयः प्रेमयाञ्चयोः । विश्रम्भे प्रसरे वापि" इति ( हैमानेकार्थ. १०९०) वचनात्सप्रेम सविश्रम्भं च कथितं प्रतिपादितम् । अयमभिप्राय:-निरुपहतकारणं ह्यवश्यं स्वसाध्यं जनयति, कारणं च श्रुतलाभस्य विधिना विनय एव, ततो गुरवः प्रसन्नाः निश्शेषमप्यर्थजातं तस्मै प्रदिशन्ति, भणितं च “विणयुजुयम्मि सीसे, दिति सुयं मूरिणो किमच्छरिअं? को वा न देइ भिक्ख, किं वा सोवनिए थाले? ॥१॥ सेहम्मि दुविणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । नहु दिजइ आहरणं, पलिउंचिअकन्न-हत्थस्स ॥ २॥" AROctik For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणधर सार्द्ध शतकम् । ॥ ६९ ॥ www.kobatirth.org इति गाधाद्वितीयपदार्थ : ( १४४ ) || अथ भवतु शिष्यस्य सविनयं श्रुतग्रहणं, गुरोरपि सप्रश्रयं प्रतिपादनं, तथापि यद्येकस्मिन् कर्णे प्रविष्टं द्वितीये च निर्गतं हृदये न किमपि निविष्टं तत्र गाथोत्तरार्द्धनाह- कहिआणुसारओ सव्वमुवगयं सुमइणा सम्मं ॥ १४४ ॥ व्याख्या – कथितानुसारतः = भणितप्रमाणेन सर्वं समस्तं सम्यक् तेन सुमतिना शोभना च= " शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं, तत्वज्ञानं च धीगुणाः ॥ १ ॥ " इत्यष्टगुणयुक्ता मतिः बुद्धिर्यस्य स सुमतिस्तेन सुमतिना उपगतं ज्ञातं हृदयेऽवस्थितमिति गाथार्थः ॥ १४४ ॥ ननु यदि श्रुतं ज्ञातं हृदयेऽवधारितं तथापि किं यदि भव्यलोकानां पुरतो यथोचितदेशनया न प्रकाश्यते ? तत्राह - निच्छम्मं भव्वाणं, तंपुरओ पयडिअं पयत्तेण । अकय सुकयगिदुल्लाह, - जिणवल्लह सूरिणा जेण ॥१४५॥ व्याख्या – निश्छद्म-निर्मायं भव्यानां पुरतस्तत् = जैनश्रुतं येन प्रकटितं = प्रकाशितम् । किमवहेलयैव ? नेत्याह-प्रयत्नेन = आदरेण 'कथमेते भव्यसच्चाः संसारसागरं लङ्घयित्वा निर्वृतिसौधमधिरोक्ष्यन्ती १ ' तिबुद्ध्या, येन केन ? इत्याहअकृतं सुकृतं यैस्ते अकृत-सुकृता: = निष्पुण्यास्ते च ते अङ्गिनश्च = प्राणिनः अकृतसुकृताङ्गिनस्तेषां दुर्लभ एवंविधो यो जिन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनवल्लभ सूरीणां प्रपंचस्तुतिगर्भ चरित्रादि ॥ ॥ ६९ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RCROCEX वल्लभो भगवान् श्रीजिनवल्लभमूरिस्तेन अकृतसुकृताङ्गिदुर्लभजिनवल्लभमूरिणा । अत्र च 'अकृतसुकृताङ्गिदुर्लभ' इतिविशेषणेन गुरावतिशयितस्नेहानुबन्धं ज्ञापयतीति गाथार्थः ।। १४५ ।। ननु तेन सहास्ति भवतः कश्चिदत्र सम्बन्धस्तत्र येनैवं प्रतिबन्धोऽप्यतीव महान् ? इत्याह सो मह सुहविहिसद्धम्मदायगो तित्थनायगो य गुरू । तप्पयपउमं पाविअ, जाओ जायाणुजाओ हं ॥ १४६ ॥ व्याख्या-किं ब्रूमहे ! स भगवान् मम शुभविधिसद्धर्मदायकः-शुभः प्रशस्यो विधिः-ज्ञानचारित्रादिविषयः सङ्घव्यवस्थाविषयश्च प्रकारो यस्मिन्नसौ शुभविधिः, स चासौ शोभनार्थसच्छब्दविशिष्टो धर्मश्च, असौ शुभविधिसद्धर्म: तस्य दायकः । तथा तीर्थस्य-धीरस्वामिनो नायका-तत्तुल्यतयाऽधिपतिस्तीर्थनायकः । तथा गुरुः श्रीअभयदेवसूरीणां पट्टोद्योतकत्वेन ममापि तत्पट्टोपविष्टत्वेन च । तत्पदपद्मं प्राप्य जातः-संपन्नोऽहं, जाता: समयभाषया गीतार्थास्तेषाम् अनुजातः= पश्चादुत्पन्नः, गीतार्था वा अनुयाताः अनुगताः सूत्रानुसारिक्रियाप्रवर्तकत्वेन येन स जातानुजातो जातानुयातो वा । भवत्येव हि सदाश्रयवशान्मालिन्योन्मुक्तशुक्तिकासंपुटसंटङ्काजडस्यापि मुक्तामणित्वमिति गाथार्थः ॥ १४६ ॥ ___ यत एवासौ शुद्धसद्धर्मदायकस्तीर्थनायकः प्रभावक उपकारकः संसारनिस्तारकोऽतः* तमणुदिणं दिन्नगुणं, वंदे जिणवल्लहं पहुं पयओ। सरिजिणेसरसीसो, य वायगो धम्मदेवो जो ॥१४७॥ । SACSCRIGARCALCCAL R For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणधर SC-05- 0 श्रीग्रन्थकर्तु सार्द्ध शतकम्। ॥७ ॥ गुरौभक्तिविवेका नमस्कारश्च ॥ CCReccMOCIRCR सूरी असोगचंदो, हरिसीहो सबदेव[सवएव]गणिप्पवरो।सत्वे वितविणेया,तेसिसवसिं सीसोहं॥१४॥ ते मह सवे परमोवयारिणो बंदणारिहा गुरुणो। कयसिवसुहसंपाए, तेसिं पाए सया वंदे ॥१४९॥ ___व्याख्या-तं श्रीजिनवल्लभं प्रभु-स्वामिनम् अनुदिनं दत्तगुणं वन्दे प्रयत इति पूर्वमेव व्याख्यातम् । सोमहसुह(१४६) इत्यादि गाथायां तच्छब्दे सत्यपि विशिष्ट क्रियाभिसम्बन्धात् ' तमणुदिण' मिति गाथासत्कतच्छन्देन पूर्वत्र यच्छब्दस्य सम्बन्धः कृतः । तथा अत्यन्तं कृतज्ञो ह्ययं भगवान् शास्त्रकारोऽत आह-सूरिजिनेश्वरशिष्यश्च वाचको धर्मदेवो यः, तथा सूरिरशोकचन्द्रः, तथा हरिसिंहाचार्यः, तथा सर्वदेवनामा गणिप्रवरः, एते सर्वेऽपि तस्य धर्मदेवोपाध्यायस्य विनेयाः= शिष्यास्तेषां च सर्वेषामप्यहं शिष्यः । कीदृशास्ते महात्मानः ? सर्वेऽपि मम परमोपकारिणः, तत्परमोपकारिता च प्रागेवादर्शिता, अत एव वन्दनारे गुरव आराध्या इत्यर्थः । ततः कृतशिवसुखसंपातान्-विहितमोक्षसातागमान् तेषां पादान् सदा वन्देन्नमस्यामीति गाथात्रयार्थः ।। १४७ ॥ १४८ ॥ १४९ ।। इदानीं भगवानयं ग्रन्थकारो ग्रन्थसंख्याभिधानपूर्वकं भव्यानामिष्टमाशंसन्नाहजिणदत्तगणिगुणसयं, सप्पन्नयं सोमचंदबिंब व । भवेहि भणिज्जतं, भवरविसंतावमवहरउ॥१५॥ ___व्याख्या-जिनैः तीर्थकरैर्भव्येभ्यो भवोपकाराय दत्ता वितीर्णा जिनदत्तास्ते च ते गणिनश्च-गणधरा गच्छाधिपतयो हा जिनदत्तगणिनः, तेषां गुणाः शरीरोत्था धाः शम-दम-गाम्भीर्य-धैर्य-स्थैर्य-संख्यातीतभवसाधकत्व-रागादिबाधक ॥७०॥ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir ACACARACTE है वादयो जिनदत्तगणिगुणाः, तद्हणरूपं शतं गाथानामिति प्रस्तावाद्गम्यते जिनदत्तगणिगुणशतं ' कर्तु,' भव्यानां भवरवि सन्तापं संसारसूर्यधर्मम् अपहरतु अपनयत्विति योगः। अथ किं शतं शतमेव ? नेत्याधिक्यमाह-'सप्पन्न 'ति, सह पञ्चाशता वर्तते सपञ्चाशत् पञ्चाशताऽतिरिक्तमित्यर्थः । यस्य द्विर्भावः प्राकृतत्वात् । नन्वेतद्गणधरगुणस्तुतिरूपं गाथानां शतं सार्द्ध पुस्तकारूढं हृदयान्तर्वति वा भवरविसन्तापापहारकम् ? इत्यत्राह-' भवेहिं भणिजंतं 'ति भव्यैः आसन्नसिद्धिकैभण्यमानं-पख्यमानम् । अयमभिप्रायः यद्यपि पुस्तकाधिरूढं पूज्यमानमेतज्ज्ञानत्वेन ज्ञानावरणकर्मप्रमापणक्षमम् , तथा हृदयान्तःस्थमपि स्मर्यमाणमनार्यतादिप्रत्यूहापोहाय प्रभवति तथापि माधुर्यवर्यस्वरेण भावसारमेकाग्रचित्ततया पापठ्यमानं गुण्यमानं परावय॑मानमात्मनोऽन्येषां च श्रोतृणां मनोमोदकं समस्तविघ्ननोदकं शान्तिकरं कान्तिकरं क्षेमकरमारोग्यकरं धृतिकरं पुष्टिकरं तुष्टिकरं कीर्तिकरं प्रीतिकरं स्फीतिकरं नीतिकरं किंबहुना समस्तकल्याणकरं भवति । एतावता चानेन भगवताऽऽत्मम्भरित्वमपास्तं, परोपकारस्य चावश्यकारित्वमभिहितं, तस्यैव धर्मकल्पपादपबीजकल्पत्वात् , तदुक्तम् " परोपकारः कारुण्य, देवताराधनं शमः । सन्तोषश्चेति धर्मस्य, परं साधनपश्चकम् ॥ १॥" तथाऽसद्गुरुभिरप्यन्योक्तिसूक्तमुक्तं यथा " चिरमयमिह नन्द्यावद्धमूलस्तटिन्या, अधितटमुपजातो यस्तृणस्तम्ब उच्चैः। विलसदनिलदोलल्लोलकल्लोलजाल, प्रपतितजनताया राति हस्तावलम्बम् ॥१॥" For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणघर ग्रन्थकर्तुनामादि । शतकम् । ॥७१॥ ___ अथ यद्रूपकालङ्कारेण संसारस्य भास्करत्वमारोपितं तजनितसन्तापापनुत्तयेऽनुरूपमुपमानमाह-सोमचन्द्रबिम्बवत् , सोम-शीतलस्वभावं नयनाह्लादकं यच्चन्द्रबिम्बम् अमृतकिरणमण्डलं तदिव | यथा किल चन्द्रमण्डलं भीष्मग्रीष्मोष्मसंतप्तं निखिलमपि जगत् क्षीरसमुद्राविसृत्वरक्षीरपरम्परायमाणामृतार्द्रकौमुदीधवलपटलेनाच्छाद्य मूर्छदतुच्छामृतरश्मिच्छटाभिर्निर्वापयति । एवमेतदपि प्रकरणं गणधरगुणस्मृतिपुरस्सरं सुस्वरं संवेगसारं निरुद्धाशुद्धबुद्धिप्रचारं पठ्यमानं समानं भवोद्भवभीमनिस्सीमजन्मजरामरणरोगशोकदारिद्रयदौर्भाग्यादिकृतचित्तखेदविच्छेदमुद्यन्मेदस्विप्रमोदसंपादनेनापनुदतीत्यर्थः । अत्र च 'जिणदत्तगणी 'ति कविना श्लिष्टं स्वनामनिर्दिष्टं, तत्र चायमर्थः-जिनदत्तगणिन् ! जिनदत्ताचार्य ! इत्यात्मसम्बोधनम् । गुणशब्देनादावुपलक्षितं शतं गाथानामिति दृश्यम् । अग्रे तु यः पूर्व प्रतिपादितः स एवार्थ इति गाथार्थः ॥ १५ ॥ GOODCAKACADCOM SACRORECASIA - - - ॥ ७२ For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org । अथ प्रशस्तिः । श्रीमजिनेश्वरगुरोरन्तेपदासीच्च कनकचन्द्रगणिः । शर-निधि-दिन केरवर्षे, पूर्व तेन कृता वृत्तिः ॥ १ ॥ रस- जलधि - षोडशमिते, वर्षे पोषस्य शुद्धसप्तम्याम् । श्रीजिनचन्द्रगणाधिप, राज्ये जेसलसुरधराधे ॥ २ ॥ श्रीमति खरतरगच्छे, श्रीसागरचन्द्रसूरिनामानः । समभूवन्नाचार्या, [र्य] - वर्यास्तेषां सुशाखायाम् ॥ ३ ॥ श्रीदेवतिलकसञ्ज्ञा - स्तिलकसमाः सर्वपाठकानां ये । तेषां शिष्या दक्षाः, श्रीमन्तो विजयराजाह्वाः ॥ ४ ॥ सौभाग्यभाग्यधैर्य, स्थैर्यादिगुणौघरत्न जलनिधयः । अभवन् सदुपाध्याया, स्तदुपाध्यायेन शिष्येण ॥ ५ ॥ तट्टीकादर्शादिह, संक्षिप्य च पद्ममन्दिरेणापि । लिलिखेऽनुग्रहबुद्ध्या, संक्षेपरुचिज्ञजनहेतोः ॥ ६ ॥ श्रीगणधर सार्द्धशतप्रकरणटीकाविधायिनि श्रमणे । श्रीगणधरप्रसादाद्भविकं सह कामितैर्भवतात् ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %%%%% % % Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5- गणधरसाढे शतकम्। | टीकाकार प्रशस्तिः ४ मंगलं च ॥ ॥७२॥ ॥ इतिश्रीगणधरसार्द्धशतकप्रकरणवृत्तिः संपूर्णा ॥ ॥ ग्रन्थानम् २३७९ ॥ श्री|भोतु ॥ % % % % ॥७२॥ For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स चक्रबन्धोऽयम्-- " जिनवडभेन गणिनेदं चके" इतिबन्धाक्षराणि । गा० १३२ **** * ******* +4+५+KAKARANWERENCERTRENARESS ** For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *% स चक्रबन्धोऽयम्-- “जिनवल्लभेन गणिनेदं चक्रे" इतिबन्धाक्षराणि । गा० १३२ % % % दुषां % % %A भारि 4.42 4-% A For Private anderal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradan d ra N a mamukeerth.or Acharya lassagarsuri Gyanmandir चसाऽ का For Private and Personal Use Only