Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं -मुनि त्रिलोक For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छाचार प्रकीर्णकम् [संशोधित मूल सरल हिन्दी अनुवाद परिष्कृत ] संस्कृतछाया समन्वितम् लक जैनागमरत्नाकर, सारत्न जैनकचाएं पूज्य श्री आत्मा राम जी ज के सुशिष्य प्रसिद्ध वक्ता युगपुरुष स्वर्गवासी गुरुदेव श्रीस्वामी खजानचन्द जी महाराज तुच्छिष्य मुनि श्री त्रिलोक चन्द जी महाराज प्रकाशक रामजी दास किशोर चन्द जैन मानसा मण्डी पेप्लू For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकलाला किशोर चन्द जैन मानसा मण्डी वीर सम्वत् २४७७ ई. १६५१ प्रथमवार १००० प्रति मुद्रकमु० ओम राय प्रोप्राइटर रारज आर्ट प्रेस कूचा लालूमल लुधियाना For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।। नमोऽत्युणं समरणम्स भगवो महावीरस्स ।। अथ गच्छाचार प्रकीर्णकम् (हिन्दी अनुवाद सहितम) नमिऊण महावीरं, तिमिदनममियं महाभागं । गच्छायारं किंची, उदरिमो सुअममुद्दामो ॥१॥ देवताओं के राजा इन्द्र भी जिसे नमस्कार करते हैं, उस महाभाग्यवान भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार करके, श्रुतसमुद्र से निकले, गच्छ के आचार रूपी कुछ मोतियों का वर्णन करता हूँ। Rai नत्वा महावीरं, त्रिदशन्द्रनमस्यितं महाभागम् । गटाचार किश्चिद्, उद्धरामः श्रुतसमुद्रात् ।। १॥ 'नमिकरण' 'कत्वस्तुमत्तुणतुप्राणाः ॥ ८२१४६।। हे. इति सूत्रेण क्त्वाप्रत्यस्य तूण श्रादेशः, 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-बां प्रायो नुक्' ।।८।१७७ । हे० ।। इति सूत्रेण तकारस्य लुक् ; 'एच्च कत्वा-तुम-तव्य-भविष्यत्सु' ।।८।३। १५७ ।। हे० ॥ इति सूत्रेण इकारादेश । नमिउरण ।। ___“ति प्रसिद" त्रिदशेन्द्र 'सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे' ॥२७॥ हे । इति सूत्रेण त्रिशदस्य रस्य लुक् , 'अनादौ शेषादेशयोxि. त्वम्' ।। ८ १८६॥ ६० इति सूत्रेण अनाद्यभावान्न द्वित्वम् ; 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक' ।।१।१७७ ।। हे० ॥ इति For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणय अत्थेगे गोयमा ! पाणी, जे उम्मग्गपइदिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥२॥ __ हे गोतम ! उन्मार्गगामी गच्छ में रह कर उस के फलस्वरूप कई एक प्राणी संचारचक्र में घूम रहे हैं। ___ अतः संसार से मुक्त अर्थात् जन्मजरामरण, शारोरिक एवं मानसिक कष्टों से बचने के लिये सन्मार्गगानी गच्छ में ही रहना चाहिये । ऐसे गच्छ में रहने से क्या लाभ होता है इसका अब वर्णन करते हैंबामद-जाम-दिण-पक्रवं, मासं संवच्छंरपि वा । संमग्गपटिठए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा ! ॥३॥ सूत्रेण दशशब्दस्य दकारस्य लुक् , 'श-पोः सः' ||८१।२६० ।। हे०॥ इति सूत्रेण शकारस्य सकारः तथा 'लुक्' ।।८।१०।। हे० ।। इति सूत्रेण सकारे अकारस्य लुक ; 'ट-अ-गण-नो व्यजने' ।८।१।२५।। इति सूत्रेण नकारस्य अनुस्वारः ।। ति असिंद ।। "नमंसियं" शब्दे तकारस्य "गच्छायार" शब्दे चकारस्य च 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक' ।।८।१।१७७ । इति सूत्रेण लुक् , 'अवों याति:' ।।८१।१८०।। इति सूत्रेण यकारः ।। १ ।। सन्त्येके गौतम ! प्राणिनः, ये उन्मार्गप्रतिष्ठिो । गच्छे संवस्य, भ्रान्त भवपरम्पराम ॥२॥ मामार्द्ध-याम-दिन-पक्षं, मासं संवत्सरमपि वा । सन्मार्गप्रस्थिते गच्छे, संवसमानस्य गोतम ! ॥ ३ ।। For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुगच्छवासफलम् लीलाअलममाणस्स, निरुच्छाहस्म वीमणं । पक्खाविक्वीइ अन्नेसि , महाणुभागाण साहूणं ॥ ४ ॥ उज्जमं सव्वथामेसु, घोरवीरतवाइअं । लज्ज संकं अइक्कम्म, तस्स वीरित्रं समुच्छले ।। ५ ।। हे गौतम ! आधपहर, पहर, पक्ष, मास तथा वर्षभर अथवा इस से भी अधिक समय के लिये सन्मार्गगामी गन्छ में रहने से यह लाभ होता है कि यदि किसी को आलस्य आजाये, धर्मक्रियाएं करते हुए उसका उत्साह भंग हो जाए और मन चिन्न हो जाए तो ऐसी अवस्था में वह गच्छ में अन्य धर्मक्रियारत महाभाग्यवान साधुओं को देख कर तप आदि सर्वक्रियाओं में घोर उद्यम करने लग जाता है और इस प्रकार उद्यम करता हुआ, उसके मन में कार्य करने की जो लज्जा और पुरुषार्थ न करने की जो हिचकचाहट होती है उस को तिलाञ्जलि दे देता है और उन को आत्मा में वीरता का संचार हो जाता है ।। लीलालसायमानस्य. तिरुत्साहज्य विमनस्कस्य । पश्यतः अन्येषां महानुभागानां साधूनाम् ॥४॥ उद्यमं सर्वस्थामसु, घोरवीरतपादिकम । लज्जां शङ्कामतिक्रम्य, तस्य वीर्य सा छलेत ॥ ५॥ _ 'महानुभागाण" "साहूण" शब्दयोः क्त्वा स्यादेणस्वोर्वा' ।।८।१।२७।। इति सूत्रेण विकल्पना स्वारः । "वीरिअं" 'स्याद -भव्य-सत्व-चाय सोप यात्' ।।२।१०। इति सूत्रेण यात् पूर्व इकारः, 'क-ग-च-ज-त-द-५-य-वां' इति सूत्रेण यकारस्य तुक । For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं वीरिएणं त जीवस्स, समुच्छलिएणं गोयमा! । जम्मतरकए पावे, पाणी मुहुत्तण निदहे ॥६॥ हे गौतम ! जिस समय इस जीव में वीरता का सञ्चार होता है तो यह जीव जन्मजन्मान्तर के पापों को एक मुहूर्त भर में धो डालता है। तम्हा निउणं निहालेउ, गच्छं सम्मग्गपटिठयं । वमिज्ज तत्थ आजम्म, गोयमा ! संजए मुणी ।।७।। ___ इस लिये जो गच्छ सन्मार्ग पर चल रहा है, उस को भली प्रकार देख भाल कर संयत मुनि उस में श्राजीवन रहे ।। अब प्रश्न होता है कि कैसे पता चले कि यह गच्छ सन्मार्ग पर चल रहा है अथवा उन्मार्ग पर ? इस बात का पता लगाने के लिये कि अमुक संस्था कैसी है तो सर्व प्रथम उस वीर्येण तु जीवस्य, समुच्छलितेन गौतम ! । जन्मान्तरकृतानि पापानि, प्राणी मुहूर्तन निदहेन ।।६।। तस्मान्निपुणं निभाल्य, गच्छ सन्मार्गस्थितम् । वसेत्तत्र आजन्म, गौतम ! संयतो मुनिः ॥ ७ ॥ "निउणं' 'क-ग-च-जः' इति सूत्रेण पकारस्य लुक् ।। "निहालेउ' 'कत्वस्तुमत्तूण-तुप्राणा;' ॥८२५४६।। इति सूत्रेण क्त्वाप्रत्यय तुमादेशः, 'क-ग-च-ज' इति सूत्रेण तकारस्य लुक, “एच्च क्त्वा-तुम-तव्य भविष्यत्यु' । ८३।१५.७।। इति सूत्रेण एकारादेशः ॥ “वलिः ' 'वर्तमाना-वा यन्त्योध जना वा' ।।८३॥ १७७ ॥ इति सूत्रण विध्यर्थे प्रत्ययस्य 'ज' आदेशः, ॥ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्यस्वरूपनिरूपण संस्था के प्रमुख के आचार विचार प्रकृति स्वभाव अनुशासन शक्ति आदि गुणों पर दृष्टि डालनी पड़ती है क्योंकि जो गुणदोष प्रमुख में होते हैं वे प्रायः उस के अनुयायियों में आ ही जाते हैं । अतः निष्कर्ष यह निकला कि गच्छ के अच्छे बुरे का दारोमदार प्रायः उस गच्छ के आचार्य पर हैं इस लिये ग्रन्थकार सर्व प्रथम गच्छ के आचार्य के सम्बन्ध में ही कहते हैं | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेढी तंव खंभं दिठी जाणं सुउत्तिमं । सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ॥ = ॥ जो गच्छ का मेढी प्रमाण अर्थात् गच्छ के सब कार्य जिस के चारों ओर चक्र काट रहे हैं, जो गच्छ का आधार है, जो गच्छ के सब साधु साध्वियों को संगठित रूप में रख रहा है, जो सब को दृष्टि सदृश हिताहित दिखाने वाला और यान सदृश संसार समुद्र से पार उतार वाला है, उत्तम गुणों से युक्त हैं ऐसे गच्छ के प्राचार्य की सर्वप्रथम परीक्षा करे । इत्वम् ॥ मेढी - खलयान का स्तम्भ, जिस के चारों ओर बैल मेथिरालम्बनं स्तम्भः, दृष्टिर्यानं सुत्तमम् । सूरिर्यस्माद् भवति गच्छस्य, तस्मात्तं तु (एव) परीक्षेत ||८|| "मेढी" "मेथि- शिथिर - शिथिल प्रथमे थस्य ढः ॥१२१५|| इति सूत्रेण थस्य ढः ।। " सुउत्तिमं " 'इः स्वप्नादौ ||| १ |४६|| इति सूत्रेण अकारस्य For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ गच्छायार पइएणयं घूमते हैं । इसी प्रकार आचार्य गच्छ की सब प्रवृत्तियों का केन्द्र होता है । पालम्बन-गिरते हुओं को सहारा देने वाला, ख-जो गिरे तो नहीं परन्तु गिरने वाले हैं उन को गिरने से पहले ही सम्भालने वाला ॥ भयवं ! केहिं लिंगेहिं सूरिं उम्मग्गपटिठयं ।। वियाणिज्जा छउमत्थ ?, मुणी तं मे निसामय ॥ ६ ॥ शिष्य गुरु से प्रश्न करता है, हे भगवन् ! एक छद्मस्थ मुनि को कैसे पता चले कि इन २ कारणों से यह आचार्य उन्मार्ग पर जा रहे हैं ? गुरु उत्तर देने हैं कि उन कारणों को तुम मेरे से सुनो। सच्छंदयारि दुस्सीलं, श्रारंभेसु पबत्त्यं । पीठयाइपडिबद्धं आउकायविहिंसग ॥१०॥ मूलुत्तरगुणभट्ट, सोमायारीविराहधे । अदिनालोअणं निच्च , निच्च विगहपरायणं ॥ ११ ॥ भगवन् ! कैर्लिङ्गः, सूरिमुन्मार्गस्थितम् । विजानीयात् छद्मस्थः ?, मुने ! तन्मे निशामय || ६ || “वियाणिज्जा" 'वर्तमान-भविष्यन्त्योश्च न जा वा ॥८.३।१७७॥ इति सूत्रेण विध्यर्थे जा श्रादेशः ॥ स्वच्छन्दचारिणं दुःशील-मारम्भेषु प्रवर्तकम् । पीठकादिप्रतिबद्धं , अकार्यावहिंसकम् ॥ १० ॥ मूलोत्तरगुणभ्रष्ट, सामाचारीविराधकम् । अदत्तालोचनं नित्यं, नित्यं विकथापरायणम् ॥ ११ ॥ "पडिबद्धं" 'प्रत्यादौ डः' ।।१।२०६|| इति सूत्रेण तस्य डः ॥ "मूलुतर" 'लुक' ।।१।१०।। इति सूत्रेण लस्य अकारस्य For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यस्वरूपनिरूपण जो आचाई स्वच्छंदना का आचरण करता हो, अपनी पनि से विरुद्ध कार्य करते हुए अाभ में प्रवृत्ति करता हो, तथा पीठ फलक आदि में आसक्त हो, अपकाय की हिंसा तक कर जाए। वह अपने मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगादे और समाचारी की विराधना कर डाले फिर भी इन दोषों की आलोचना न करता हो और नित्य विकथा में ही लगा रहे वह आचार्य उन्मार्गगामी है ।। छत्तीमगुणसमन्नागएण, तेण वि अवस्स कायव्वा । परमविश्वा विसोही, सुटठुवि ववहारकुसलेण ॥१२॥ छत्तीस गुणों से युक्त आचार्य को भी दूसरे की साक्षी से अपने दोषों की आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिये और ____ "भट्ठ" 'सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे' ।।८।२६।। इति सूत्रण 'ध्र' इत्यस्य रकारस्य लुक, 'समासे वा' ।८२.६७।। इति सूत्रेण भस्य द्वत्वम्, 'द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः' ।।८ २१६०॥ इति सूत्रेण चतुर्थस्योपरि तृतीयः, अस्य फलस्वरूपेण पूर्वस्य भकारस्य बकारः ।। 'स्यानुट्रष्टासंदष्टे' । २/३४|| इति सूत्रेण प्रस्य ठः, अनादा शेषादेशयोद्वित्वम्'। सारा| इति सूत्रेण द्वित्वम् , 'द्वितीयतुर्यचोरुपरि पूर्व' ।।८२२६०।। इति सत्रेण पूर्वस्य ठकारस्य टकारः ।। "विराहअं" ख-घ-थ-ध-भाम' ।।१।१८७॥ इति सूत्रेण घस्य हः । 'निच्च" त्याचैत्ये' ।।२।१३|| इति सूत्रेण त्यस्य चः. 'अनादी शेषादेशयाद्धित्वस' इति त्रण द्वित्वम् ।। पनिशद्गुणसभन्वागतेन, तेनापि अवश्यं कर्तव्या। परसातिका विशाधिः, सु ल्वपि व्यवहारकुशजेन ।। १२ । For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५ www.kobatirth.org गच्छायार पइएन अपनी व्यवहारकुशलता का एक भव्य आदर्श उपस्थित करना चाहिये ।। अव अन्यकार इस बात को एक दृष्टान्त द्वारा भली प्रकार स्पष्ट करते हैं | जइ कुवि विज्जो, अन्नस्स कहे श्रत्तणो वाहि । विज्जुवएवं सुच्चा, पच्छा स। कम्ममायर ।। १३ ।। जिगर एक वैद्य चिकित्मा में कुराल होता हुआ भी अपनी बीमारी को किसी दूसरे वैद्य के पास कहता है और जैसा वह कहे वैसा आचरण करता है इसी प्रकार व्यवहारकुशल की साक्षी से अपने दोषों की शुद्धि करते हैं और समाचारी का स्वयं दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए अन्य साधुओं के समक्ष आदर्श उपस्थित करते हैं ।। इस के अतिरिक्त गच्छ के आचार्य को और क्या करना चाहिये इसका वर्णन करते हैं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथा शलोऽपि वैद्यो ऽन्यस्य कथयति आत्मनो व्याधिम । वैवापदशं श्रुत्वा, पश्चात् स कर्म आचरति ।। १३ । "विज्जो " 'ब-य्य-य जः' | २४|| इति सूत्रेण द्यस्य जः, अवाद' इति सूत्रेण द्वित्वम् । स्वः संयोगे । इते सूत्रेण ऐवारस्य इकारः || い 'सु' 'त्व-श्व- द्व-ध्वां च छ ज झाः कचित् ॥१ इति सूत्रेय त्वस्य चः, 'अनादौ -' इति सूत्रेण द्वित्वम् || पन्छा" "हस्वात् थ्य - श्चत्स प्सामनिचले' | २|२१|| इति सस्था 'अनादो' इति सूत्रेण द्वित्वम 'द्वितीयतुयोरुपरि पूर्वः' इति सूत्रेण छस्य चः || For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राचार्यस्वरूप निपरण देसंखितं त जाणित्ता, वत्थं प उवस्मयं । संग माहूरच, सुनत्थं च निहालई ॥ १४ ॥ गच्छ का आचार्य श्रागमों का चिन्तन मनन तथा उस के अनुसार आचरण करता हुआ साधुवर्ग का संग्रह करता है और देशकालानुसार उनके लिये वस्त्र पात्र तथा योग्य उपाश्रय ( वसति) आदि का ध्यान रखता है | जो आचार्य अपने शिष्यों की सार संभाल नहीं करता अव उस के विषय में कहते हैं संग विहिणा, न करेइ अ जो गणी | समति दिक्खित्चा, सामायारिं न पाए। १५।। चालाण जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिपए । न सम्ममग्न गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिओ ।। २६ । जो आचार्य साधुओं का विधिपूर्वक संग्रह और उनकी रक्षा नहीं करता है । साधु साध्वियों को दीक्षा तो दे देता है परन्तु उनको साधुओं के नियमोपनियमों का पालन नहीं करवाता देशं क्षेत्रं तु ज्ञात्वा वस्त्रं पात्र-पाश्रयम् । संग्रहीत साधुवर्ग च, सूत्रार्थं च निभालयति ॥ १४ ॥ विधिना न करोति च यो गणी । श्रम श्रमणी तु दाक्षित्वा, सामाचारिं न ग्राहयेत् ॥ २२ ॥ , बालानां यस्तु शिष्याणां जिह्वया उपलिम्पेत् । न सम्यगमार्ग प्राहयति, स सूरिर्जानीहि वैरी ॥ १६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org गच्छायार पइराट और समाचारी नहीं सिखाता तथा नवदाचित शिष्यों की लाड प्यार में रखता है उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करता है ऐसा आचार्य अपने शिष्यों का गुरु नहीं अपितु शत्रु है, उन का अति करने वाला है । जीहार विलिहितो, न भओ सारणा जहिं नत्थि । इंटेवि ताडतो, समग्र सारणा जत्थ ॥ १७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिल्हा के द्वारा मीठे मीठे वचन बोलता हुआ जो आचार्य अपने के आचार की रक्षा नहीं कर सकता वह आचार्य अपने गच्छ का कल्याणकर्ता नहीं माना जाता, इस के विपरीत मीठे मीठे वचन न भी बोलकर अपि दण्ड-यष्टि से भी आचार्य अपने शिष्यों को तोड़ता है और उस से गच्छ की रक्षा होती है, तो वह आचार्य कल्याणरूप है | गुरु के प्रमाद करने पर शिष्य का भी क्या कर्तव्य है इस विषय में कहते है - सीसोऽविवेरिओ सोउ, जो गुरुं न विबोहए. पमायमइरावत्थं, सामायारीविराहयं ।। १८ । , जिह्वया विलिहन, न भद्रकः सारणा ( स्माररणा ) यत्र नास्ति । दण्डेनापि ताडयन, सुभद्रकः सारणा यत्र ॥ १७ ॥ " डंडे " दशन-दष्ट- दग्ध- दोला-दण्ड-दर-दम्भ-दर्भ- कदनदोहदे दो वाडः ||११२१७॥ इति सूत्रेण दकारस्य वा डकारः. 'वर्गेन्त्यो वा ॥६३॥ इति सूत्रेण टवर्गस्यान्त्यो वा ॥ शिष्योऽपि वैरी सतु, यो गुरु न विबोधयति । प्रमादमदिराग्रस्तं सामाचारीविराधकम् ॥ ८ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राचायस्वरूपनिरूपण यदि गुरु किप्ती सनय प्रमाद के वशीभूत हो जाए और गच्छ के नियमोपनियमरूप समाचारी का यथाविधि पालन न करे तब वह शिष्य जो अपने गुरु को सावधान नहीं करता बह भी अपने गुरु का शत्रु माना जाता है ।। उपरोक्त अवस्था में शिष्य अपने गुरु को किन शब्दों में सावधान करे अब इस विषय का वर्णन करते हैं - तुम्हा रसादि मुणिवर !, पमायवमगा हवंति जइ पुरिमा । तेणऽनो को अहं १ , आलम्बन हुज संसारे।।६।। हे मुनित्रों में प्रधान ! गुरुदेव !! यदि आप जैसे समर्थ महापुरुष भी प्रमाद के वशीभूत हो जाएंगे, तो आप को छोड़ कर हमें इस संसार में किस का सहारा रहेगा ? __ आ पुनः गाणी के विषय में वर्णन करते हैंनाणंमि दंसणम्मि अ, चरणमि य तिसुवि समयमारेसु । चोएइ जा ठवे. गणमप्पाण च सा अ गणी ॥ २० ।। जिनवाणी का सार ज्ञान, दर्शन और चरित्र है जो अपनी आत्मा को तथा समस्त गण को इन तीनों गुणों में स्थापन करने के लिये प्रेरणा करता रहता है वही वास्तव में गच्छ के खामी आचार्य महाराज है। युष्मादृशा आपे मुनिवर :, प्रनाइवरागा भवन्ति यदि पुरुषाः । तेनाऽन्यः कोऽस्माकमा-लम्बनं भविष्यात संसारे ? ।। १६ ।। ज्ञाने दर्शने चरणे च, त्रिवपि समयसारंपु । नोदयति यः स्थापयितुं, गणमात्मानं च स च गणी ।। २८ ।। १. 'तो को अन्नो अम्ह' इात पाठान्तरम् For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गम्छायार पइसायं पिंडं उवहिं च मिज्ज, उग्गम उप्पारणेसणासुद्धं । चारित्तरवणहा. माहितो होइ स चारित्ती ।।२१।। भोजन वस्त्र मकान तथा अन्य संयम सहायक सामग्री के उद्गमण श्रादि दोषों को बर्जता हुआ जो अपने चारित्र की रक्षा करता है वास्तव में वह चारित्री हैं । अप्परिस्सावि सम्म, समपासी चेव होइ कज्जेसु । सा रक्वइ चक्खु पिव, मवालबुड्ढाउलं गच्छ ॥ २२॥ उपरोक्त गुणयुक्त आचार्य जो गच्छ के नानाविध कार्यों को समभावपूर्वक करता हुआ अपनी भावनाओं में तनिक भी मलिनता नहीं आने देता, वह श्राचाय गच्छ के छोटे से लेकर बड़े तक सब सदस्यों की अपनी चक्षु के सदृश रक्षा करता है ।। सीआवेइ विहारं, सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धिभो । सो नवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥ २३ ॥ __ जो अज्ञानी आरामतलबी में पड़कर विहार करने में दुःख मानता है वह संयमसार से रहित केवल वेषधारी है ।। पिण्डमुपधि शय्यां, उद्गमोत्पादनेषणाशुद्धम् । चारित्ररक्षणार्थ, शोधयन् भवति स चारित्री ।। २१ ।। अपरिश्रावी सभ्यक , समदर्शी चैव भवति कार्येषु । स रक्षतिक्षुिरिन सबालवृद्धाकुलं गच्छम् ।। २२ ।। सीदयति विहारं, सुखशीलगुणैर्योऽबुद्धिकः । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः ॥ २३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राचायस्वरूपनिरूपण कुलगामनगररज्ज पयहिअ जो तेप्नु कुणई हु मम । सो नवरि लिंगधारी, सजिमजोएण निस्सारी ॥२४॥ कुल, ग्राम, नगर अथवा किसी राज्य में जाकर तथा वहां रह कर जो उस पर ममत्वभाव रखता है वह संयमसार से रहित केवल वेषधारी है। विहिणा जी उच'एइ, मुत्तं अत्थं च गाहई । मो धरणो सो अ पुएणो य, स बधू मुक्खदायगो ॥२५ । ___ जो प्राचार्य शिष्यसमुदाय को आत्मोत्थान की प्रेरणा करता रहता है उन्हें सूत्रों का अर्थ और उनका मर्म समझाता रहता है, वह आचार्य मुमुक्षुओं को मोक्ष में पहुँचाने वाला उन का परम बन्धु है और वह अति पुण्यवान आचार्य संसार के लिये धन्य है। स एव भव्वसचाण, चक्खुभूय विश्राहिए । दंसेइ जा जिणुदिटटं, अणुटठाणं जहटिठअं ।। २६॥ जो प्राचार्य भव्यप्राणियों को वीतराग भगवान् का यथार्थ कुलग्रामनगरराज्यं, प्रहाय यस्तेषु करोति हु ममत्वम् । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः ।। २४ ।। विधिना यस्तु नोदयति, सूत्रमथं च प्राहयति । स च धन्यः स च पुण्यश्च, स बन्धुर्मोक्षदायकः ॥ २५ ॥ स एव भव्यसत्त्वानां, चतुर्भूतो व्याहृतः । दर्शयति यो जिनोद्दिष्ट-मनुष्ठाणं यथास्थितम् ॥ २६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणय मार्ग दिखाता है वह उन के लिये चतुभूत होता है ऐसा ज्ञानियों का कथन है।। नित्थयरसमा सूरी, सम्म जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो सो, कापुरिसो न सप्पुरिसो । २७ ॥ __ जो आचार्य वीतराग भगवान के सच्चे मार्ग का संसार में सर्वव्यापी प्रचार करता है वह तीर्थंकर के सदृश माना जाता है और जो आचार्य भगवान की आज्ञा का न तो स्वयं सन्यक्नया पालन करता है और न हि यथार्थरूपेण वान करता है, वह सत्पुरुषों की कोटि में नहीं गिना जा सकता ॥ भट्टायारो सूरी, भट्टायाराणुविवखश्रो सूरी उम्मग्गठिो सूरी, तिन्निवि मग्गं पणासति ॥ - || लीन प्रकार के प्राचार्य, भगवान् के मार्ग को दूषित व.रते हैं (१) वह आचार्य जो स्वयं आचारभ्रष्ट है। (२) वह आचार्य जो स्वयं तो आचारभ्रष्ट नहीं परन्तु अापने गच्छ के प्राचारभ्रष्टों की उपेक्षा करता है अर्थात उन का सुधार नहीं करना । (३) जो प्राचार्य भगवान् की श्राज्ञा के विरुद्ध प्ररूपण तथा आचरण करता है। तीर्थकरसमः सूरिः, सम्यग् यो जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिक्राम्यन स, कापुरुषो न सत्पुरुषः ।। २७ ।। भ्रष्टाचारः सूरि-भ्रष्टाचाराणामुपेक्षकः सूरिः। उन्मार्गस्थितः सूरि-स्त्रयोऽपि मार्ग प्रणाशयन्ति ।। २८ ।। For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यस्वरूपनिरूपण उम्मम्ममठिए सम्मग्ग-नासए जो उ सेवए सूरी । निश्रमेणं सो गोयम !, अप्पं पाडेह संसारे ॥ २६ ॥ जो आचार्य उन्मार्गगामी है और सम्यग् मार्ग का लोप कर रहा है ऐसे आचार्य की सेवा करने वाला शिष्य निश्चय से संसार में गोते खाता है || समुद्र उम्मग्गठियों इक्काऽवि, नासए भव्वसत्तसंघाए । तं मग्गमणुसंरते, जह कुतारो नरो होइ ।। ३० ।। जिस को भली प्रकार तैरना नहीं आता जैसे वह स्वयं डूबता है और साथ में अपने साथियों को भी ले डूबता है इसी प्रकार उलटे मार्ग पर चलता हुआ एक व्यक्ति भी कई एक को ले डूबता है । उन्मग्गमग्गसंपद्विप्राण, साहू गोयमा ! गुणं । संसारो यतो, हाइ य सम्मग्गनासी ॥ ३१ ॥ १५ सत्य मार्ग का लोप करके उलटे मार्ग पर चलने वाले आचार्य निश्चय ही अनंत संसार के चक्र में पड़ जाते हैं । उन्मार्गस्थितान सन्मार्ग - नाशकान् यस्तु सेवते सूरीन् । नियमेन्द स गौतम !, श्रात्मानं पातयति संसारे ॥ २६ ॥ उन्मार्गस्थित एकोऽपि नाशयति भव्यसत्त्वसङ्घातान् । तं मार्गमनुसरतोः, यथा कुतारो नरो भवति ॥ ३० ॥ उन्मार्गमार्गसम्प्रस्थितानां साधूनां गौतम ! नूनम् । संसारश्चानन्तो भवति सन्मार्गनाशिनाम् ॥ ३१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं सुदं सुसाहुमग्गं, कहमाणों ठवइ तइयपक्वमि । अप्पाणं इयरो पुण, गिहत्थधम्माओ चुक्कैति ।। ३२॥ भगवान् के वास्तविक शुद्ध धर्म का प्ररूपण करते हुए यदि कोई सम्यग्दर्शन का आराधक होजाए तो वह तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर सकता है और दूसरी ओर बड़े से बड़ा प्राचारवान भी यदि भगवान के धर्म का लोप कर रहा हो तो वह गृहस्थ धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है; क्योंकि वह गृहस्थ अपने गृहस्थ धर्म का बास्तविक पालन करते हुए सम्यगदर्शन से तो युक्त है परन्तु उस जिनमार्गलोपी साधु के पास तो सम्यग्दर्शन भी नहीं रहता । और विना दर्शन के सच्चा आचार कहां ? जइवि न सक्कं काउं, सम्म जिणभासिनं अणुद्वाणं । तो सम्म भासिज्जा, जह भणिखीणरागेहि ।। ३३ ।। भोसन्नोऽवि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलभबोही श्र। चरणकरण विसुद्धं, उववृहितो परूवितो ॥ ३४ ।। यदि तू भगवान के कथनानुसार आचरण नहीं कर सकता तो कम से कम जैसा वीतराग भगवान् ने प्रतिपादन किया है वैसा शुद्धं सुसाधुमार्ग, कथयन् स्थापयति तृतीयपक्षे। मात्मानमितरः पुनः, गृहस्थधर्माद् भ्रश्यति ।। ३ ।। यद्यपि न शक्यं कर्तु, सम्यग् जिनभाषितमनुष्ठानम् । ततः सम्यग् भाषेत, यथा भणितं क्षीणरागैः ॥ ३३ ।। भवसन्नोऽपि विहारे, कर्म शोधयति सुलभबोधिश्च । घरणकरणं विशुद्ध, उपद्व्हयन प्ररूपयन् ॥ ३४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यस्वरूपनिरूपण तो तुझे कथन करना ही चाहिये क्योंकि कोई एक व्यक्ति अावरण की दृष्टि से शिथिलावारी होते हुए भी यदि वह भगवान् के विशुद्ध मार्ग का यथार्थरूपेण बलपूर्वक वर्णन करता है तो वह अपने कर्मो को क्षय रहा है उस की आत्मा विशुद्ध हो रही है और वह आगे के लिये सुलभबोधी बन जाता है। सम्मग्गमग्गसंपद्विाण, माहूण कुणइ वच्छल्लं । सिहभेसज्जेहि य, सयमन्नेणं तु कारेइ ॥३५ ।। जो साधक आत्माएं प्रशस्तमार्गास्ट हैं उनसे अधिक प्रेम करना चाहिये तथा उन की औषध आदि से स्वयं सेवा करनी तथा अन्य से करवानी चाहिये। भूए अत्थि भविस्सति, केइ तेलक्कनमिअकमजुअला । जेमि परहिअकरणेक-बद्धलक्खाण वालिही कालो ॥३६॥ ऐसे महापुरुष पीछे हुए हैं, अब हैं और आगे होते रहेंगे जिन की आयु का एक क क्षण धूसरों का भला करने में व्यतीत हुमा और जिन के चरण कमलों में तीनों लोकों के प्राणी नमस्कार करते सन्मार्गमार्गसम्प्रस्थितानां, साधूनां करोति वात्सल्यम् । औषधभैषजैश्च, स्वयं अन्येन तु कारयति ॥ ३५ ॥ भूताः सन्ति भविष्यन्ति, केचित् त्रैलोक्यनतक्रमयुगलाः । येषां परहितकरणैक-बद्धलक्षाणां जगाम कालः ॥ ३६ ।। "वोलिही' 'गमेरई०' ८४।१६२।। इति सुत्रेण गमधातोबोलादेशः । For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८ गच्छायार पइय तीणामयकाले, केई होहिंति गोश्रमा ! सूरी | जेसि नामरगहणेवि, हुज नियमेण पच्छित्तं ॥ ३७ ॥ हे गौतम! तीनों कालों में ऐसे भी आचार्य होते रहते हैं जिन के केवल नामोच्चारणमात्र से प्रायश्चित आता है। टिप्पण -हर समय अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के व्यक्ति होते हैं अतः साधक आत्मा को सतर्कता से प्रमश होकर विचरण करना चाहिये । जओ-सयरी भवंति अणविक्खयाइ, जह भिच्च वाहणालाए । पडिपुच्छसीहिचोश्रणा. तम्हा उ गुरू सया भयइ ॥ ३= ॥ जैसे संसार में घोड़ा, बैल तथा नौकर आदि अपने स्वामी की देख भाल न होने पर स्वच्छन्द होकर कार्य बिगाड़ देते हैं, इसी प्रकार विना पूछ ताछ और देख भाल तथा प्रेरणा के शिष्य भी स्वछन्द होकर अपनी तथा दूसरों की हानि कर बैठते हैं इस लिये गुरु शिष्य को सदैव शिक्षा देता रहता है || जो उ पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव ये । सीसवग्गं न चोएह, तेण श्राणा विराहिया । ३६ ॥ जो प्राचार्य आलस्य प्रमाद तथा अन्य किसी दोष के कारण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतीतानागतकाले, केचिद् भविष्यन्ति गौतम ! सूरयः । येषां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन प्रायश्चित्तम् ॥ ३७ ॥ यतः - खैरीणि भवन्ति अनपेक्षया, यथा भृत्यवाइनानि लोके । प्रिच्छाशोधिचोदनादिभिः (विना शिष्याः), तस्मात्तु गुरुः सदा भजते यस्तु प्रमाददोषेण, आलस्येन तथैव च । शिष्यवर्ग न प्रेरयति तेनाज्ञा विराधिता ॥ ३६ ॥ 3 For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण .१६ संयम मे विपरीत मार्ग पर जाते हुए शिष्यसमुदाय को रोकता नहीं है तो वह आचार्य तीर्थङ्कर महाराज की श्राज्ञा का विराधक संखेवेणं मए सोम्म !, परिणअं गुरुलक्षणं । गच्छस्स लखणं धीर!, संखेवेणं निसामय ।। ४०।। ___ गुरु अपने शिष्य से कहता है कि अयि ! सौम्य शिष्य !! यह मैंने आचार्य का संक्षेप में वर्णन किया है । हे धैयवान ज्ञानगुणनिधे! अब तुम गच्छ के क्या लक्षण हैं वह मेरे से संक्षेप में सुनो। ... यहां आचार्य स्वरूपनिरूपण नाम का प्रथम अधिकार समाप्त होता है और साबुस्वरूप निरूपण नामक दूसरा अधिकार प्रारम्भ होता है-- गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालसी दढव्वए । अवलियचरित सययं, रागद्दीसविवज्जए ॥ ४१ ॥ गच्छ, वास्तव में वहीं गच्छ है जिस के साधु गीतार्थ हैं अर्थात् जिन्हें शास्त्रों का सम्यग् बोध है जो मोक्षार्थी अपनी श्रात्मा को उत्तरोत्तर शुद्ध बना रहे हैं। आलस्य जिन के समीप तक नहीं फटकता । अपने व्रतों का दृढ़तापूर्वक जो पालन कर रहे हैं और जो सदैव रागद्वेष को छोड़ते जा रहे हैं। संक्षेपेण मया सौम्य !, वर्णितं गुरुलक्षणम् ॥ गच्छस्य लक्षणं धीर !, संक्षेपेण निशामय ॥ ४० ॥ गीतार्थो यः सुसंविग्नः, अनालस्यी दृढव्रतः। . अस्खलितचारित्रः सततं, रागद्वेषविवर्जितः ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २० गच्छायार पइएयं गच्छ में रहते हुए अनेकों के संसर्ग में श्राना पड़ता है अतः किन के सहवास में रहना चाहिये इस का वर्णन करते हुए सहवास का महत्त्व भी बताने हैं - निविग्रहमयठाणे, सुसिकसाए जिदिए । विहरिज्ज ते सद्धिं तु छउमत्थेवि केवली ॥ ४२ ॥ केवलज्ञानयुक्त केवली भी ऐसे झाथों के साथ रहे, जिन्हों ने आठों प्रकार के मद अपनी आत्मा से पृथक कर दिये हैं कषायों को बहुत पतला कर दिया है और जो इन्द्रियों तथा मन को अपने वश में किये हुए हैं ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टिप्पण - जब केवली के लिये भी शुद्ध सहवास में रहना कहा है तो स्थ को जिसका आत्मा के साथ मोहनीय कर्म लगा हुआ है उसे तो अवश्य अतिशुद्ध सहवास में ही रहना चाहये || संग किस का छोड़ देना चाहिये अब इस विषय का वर्णन करते हैं जे हिपरमत्थे, गोत्रमा ! संजया भवे । तुम्हा तेवि विवज्जिज्जा, दोग्गड़पंथदायगे || ४३ ॥ जो साधु तो बने हुए हैं परन्तु परमार्थ से अनभिज्ञ हैं उन का सहवास दुर्गति पथ में डालने वाला है इस लिये हे गौतम! उन निष्ठापिताष्टमदस्थानः शोषितकपायो जितेन्द्रियः । वित् तेन साद्ध तु छद्मस्थेनापि केवली ॥ ४२ ॥ येऽनधीतपरमार्था, गौतम ! संयताः भवन्ति । तस्मात्तानपि विवर्जयेत्, दुर्गतिपथदायकान || ४३ || · For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण अगीतार्थों के साधु होने पर भी उन का संग छोड़ देना चाहिये। ___ अब गीतार्थ की महना का वर्णन करते हैंगीअत्थस्स वयणेणं, विसं हालाहलं पिबे । निचिकप्पो य भक्खिजा, तक्खणे जं समुद्दवे ॥ ४४ ।। परमत्थो विसंगो तं, अमयरसायणं खु तं । निविग्धं जं न तं मारे, मोवि अमयस्समो ॥ ४५ ॥ गीतार्थ = सूत्रार्थ के मर्मज्ञाता के वचन, भले ही वे हालाहल विष के समान प्रतीत होते हों और उन वचनों से उस का मरण भी क्यों न होता हो परन्तु फिर भी साधक आत्मा जन वचनों को विना संकोच सहर्ष स्वीकार करे। क्योंकि ये वचन परमार्थ में = वास्तव में विष नहीं हैं अपितु विघ्न-बाधा से रहित अमृततुल्य हैं। यदि उन गीतार्थो के वचनों को मान्य रखते हुए उस की उस समय मृत्यु भी क्यों न होजाए फिर भी वे वचन अन्त में उस को अजर अमर बना देने वाले हैं। अगीअत्थस्स वयणेणं, अमयपि न घुटए । जेण नो तं भवे अमयं, जं अगायत्थदेसियं ।।४६ ॥ गीतार्थस्य वचनेन, विषं हालाहलं पिबेत् । निर्विकल्पश्च भक्षयेत्, तत्क्षणे यत् समुद्रावयेत् ॥४४॥ परमार्थतो विषं न तद-मृतरसायनं खलु तत् । निर्विघ्नं यद् न तद् मारयति, मृतोऽपि अमृतसमः ॥ ४५ ।। अगीतार्थस्य वचनेन, अमृतमपि न पिबेत् । येन न तद् भवेदमृतं, यदगीतार्थदेशितम् ॥ ४६॥ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ गच्छायार पइरणयं परमत्थो न तं अमयं, विसं हालाहलं खु तं । न ते अजरामरो हुजा, तक्खणा निहणं वए || ४७ ॥ सूत्रार्थ से जो अनभिज्ञ है उस के वचनों द्वारा कही हुई अमृततुल्य बात भी ग्रहण न करे क्योंकि अगीतार्थ की कही हुई बात अमृतरूप नहीं होती। भले ही वह ऊपर से अमृतसमान प्रतीत होती हो परन्तु वह वास्तव में अमृत नहीं वह हालाहल जीवननाशक एक उत्कट विष है । उस के पान करने से जीव मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी जन्ममरण के चक्कर से नहीं निकल सकता ॥ श्रगीयत्थकुसीलेहिं, संगं तिविहेण वोसिरे । मुक्रखमग्गसिमे विग्धे, पहंमि तेणगे जहा ॥ ४८ ॥ परमार्थ को न जानने वाले, जिनका कुत्सित आचार है उनके सहवास को तीन करण तीन योग से त्याग दे अर्थात् मन से भी उनके साथ न रहे और वचन आदि के द्वारा उन से प्रीति न बढ़ावे उन से हर समय बचने का, अपनी आत्म को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करे उन को अपनी मोक्षसाधना में विघ्नरूप समझे; जिस प्रकार एक पथिक को मार्ग के चोर एवं लुटेरों से सावधान होकर चलना पड़ता है इसी प्रकार मोक्षाभिलाषी को इन गीतार्थ तथा कुत्सित आचरण वालों से सावधान एवं अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिये । परमार्थतो न तदमृतं विषं हालाहलं खलु तत् । न तेनाजरामरो भवेत्, तत्क्षणात् निधनं व्रजेत् ॥ ४७ ॥ अगीतार्थकुशीलैः सङ्ग' त्रिविधेन व्युत्सृजेत् । " मोक्षमार्गस्येमे विघ्नाः पथि स्तेनकाः यथा ॥ ४८ ॥ " For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण पञ्जलि हुयवहं दठु, निस्संको तत्थ पविसिउ । अत्ताणं निद्दहिजाहि नो कुसीलस्स लिए ॥ ४६ ॥ २३ जलती हुई अग्नि में निशङ्करूप से प्रविष्ट होकर अपने को भस्म कर देना अच्छा है परन्तु कुत्सित आचार वाले के साथ रहना अच्छा नहीं || पञ्जलंति जत्थ धगधगस्स, गुरुणावि चोइए सीसा | रागदोसे व अणु-सथ तं गोयम ! न गच्छं || ५०|| गुरु के समझाने पर, यदि शिष्यगण की क्रोधाग्नि भड़क उठ और अपनी भूल स्वीकार न करे उलटा शिक्षा देने वाले के ही अवगुण निकालना शुरू कर दे इस प्रकार समझाने पर जो कलह को बढ़ाता है। और यदि गुरुजन अधिक जोर देकर समझाते हैं तो वह दुःख मानता है और पश्चाताप करने लगता है कि 'मैं यों हि दीक्षा ली' । इस प्रकार के जहां शिज्यों के मन में विचार उठते हों. हे गौतम! वह वास्तव में गच्छ नहीं है । इस प्रकार क्रुद्ध होकर यदि कोई शिष्य गच्छ से बाहर जा रहा हो उसे उपदेश देते हुए ग्रन्थकार कहते हैंगच्छो महानुभावो, तत्थ वसंताणं निज्जरा विउला । सारणवारण चोप्रा- माईहिं न दोसपविची ॥ ५१ ॥ For Private And Personal Use Only प्रज्वलितं हुतवहं दृष्ट्वा निःशङ्कस्तत्र प्रविश्य । आत्मानं निर्दहेत, न कुशीलमालीयेत् ॥ ४६ ॥ प्रज्वलन्ति यत्र धगधगायमानं, गुरुणापि नोदिताः शिष्याः । रागद्वेषाभ्यां व्यनु-शयेन स गौतम ! न गच्छः ॥ ५० ॥ गच्छ महानुभाव - स्तत्र वसतां निर्जरा विपुला । स्मरणावरणाचोदना - दिभिर्न दोषप्रतिपत्तिः ॥ ५१ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ गछायार पइएणयं ___ गच्छ में रहने का बड़ा फल यह है कि गच्छ में अन्य साधुओं के साथ रहने से वह अधिकाधिक निर्जरा कर सकता है और हर समय सारणा वारणा तथा प्रेरण होते रहने से उस में दोष नहीं आने पाते और गच्छ से बाहिर चले जाने से उस में स्वछन्दता आने का भय है और दोषोत्पत्ति की प्रबल सम्भावना है। अतः क्रोधादि के वशीभूत होकर उसे गच्छ से बाहिर नहीं जाना चाहिये ।। किन २ साधुओं के साथ रहने से एक साधक आत्मा विपुल निर्जरा करता है अब उन का वर्णन करते हैंगुरुणो छंदणुवत्ती, सुविणीए जिअपरीसहे धीरे । नवि थद्धे न वि लद्ध, न वि गारविए विगहसीले ।।५२॥ जो विनयपूर्वक गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता है और जो परीषह आएं उन्हें धैर्य के साथ सहन करता है। अपने को अभिमान में न डुबोते हुए लोभ के जाल में नहीं फंसता है, जो लोलुपता रहित है तथा चार प्रकार की विकथाओं को छोड़ कर तीन गौरवों से पृथक रहता है । खते दंते गुत्ते, मुत्ते वेरग्गमग्गमल्लीणे । दसविहसोमायारी, ओवस्सगसंजमुज्जुत्ते ॥ ५३॥ __क्षमा को धारण करके अपनी इन्द्रियों पर जो नियन्त्रण रखता है तथा सदा अत्मगुप्त रहता है अनेक प्रकार के आने वाले गुरोः छन्दानुवातनः , सुविनीताः जितपरीषहाः धीराः । नापि स्तब्धाः नापि लुब्धाः, नापि गौरविता विकथाशीलाः ॥५२ क्षान्ताः दान्ताः गुप्ताः, मुक्ताः वैराग्यमार्गालीनाः । दशविधसामाचारी-आवश्यकसंयमोद्यताः ॥ ५३ ।। For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ साधुस्वरूपनिरूपण प्रलोभनों को छोड़ कर वैराग्यमार्ग पर आरूढ है तथा दश प्रकार की समाचारी का पालन करता है और अपनी आत्मा को प्रातःएवं सायं आवश्यक क्रिया करते हुए संयमयोग में लगाए रखता है ।। खरफरुसककमाए, अपिटठदुट्ठाइ निठुरगिराए । निभच्छणनिद्धाडण-माईहिं न जे पउस्मति ॥५४॥ जे अन अकिचिजाए, नाजसजणए नाकज्जकारी । न परयगुडडाहकरे, कंठग्गयपाणसेसे वि ।। ५५|| गुरु के कठोर शब्दों में शिक्षा देने पर यहां तक कि कठोर उपालम्भ देते हुए यदि गुरुजन अपने से अलग भी करते हों फिर भी, जो शिष्यगण द्वेषयुक्त नहीं होता हो और प्राणों के कण्ठ में आजाने पर भी अर्थात् मृत्यु समीप हो तब भी अपनी तथा भगवान के शासन की निन्दा कराने वाला कोई अकार्य न करता हो ऐसे साधुगण के बीच रहने वाला साधक अधिकाधिक निर्जरा करता है। गुरुणा कज्जमकज्जे, खरककसदुनिठुरगिराए । भरिए तहत्ति सीसा, भणंति तं गोयमा ! गच्छम् ।।५६॥ खरपपकर्कशया , अनिष्टदुष्ट्या निष्ठुरगिरा। निर्भर्त्सननिर्घाटना-दिभिः न ये प्रद्विषन्ति ॥ ५४ ॥ ये च नाकीर्तिजनकाः, नायशोजनकाः नाकार्यकारिणश्च । न प्रवचनोड्डाहकराः , कण्ठगतप्राणशेषेऽपि ॥ ५५ ॥ गुरुणा कार्याकार्ये , खरकर्कशदुष्टनिष्ठुरगिरा। भणिते तथेति शिष्याः, भणन्ति स गौतम ! गच्छः ।। ५६ ।। "तहत्ति" 'वाव्ययोत्खातादावदातः' ॥१॥६७। इति सूत्रेण 'तहा' शब्दस्य आकारस्य अकारः,'इतेः स्वरात् तश्च द्विः' ।।६।११४२।। इति सूत्रेण इतेरिकारस्य लुक , तकारस्य द्वित्वञ्च । तहत्ति ॥ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्छायार पइएणयं ___ करने योग्य अथवा न करने योग्य कार्यों के सम्बन्ध में गुरुजनों के कठोर शब्दों के कहने पर भी जो शिष्यसमुदाय 'तहत्ति' ऐसा कह कर अपने गुरुजनों का आदर सम्मान करता है, है गौतम ! वास्तव में ऐसे साधुसमुदाय का नाम ही गच्छ है ।। दूरझियपत्ताइसु ममाए निप्पिहे सरीरे वि । जायमजायाहारे वयालीसेसणाकुसले ॥ ५७ ॥ वस्त्रपात्रादि की ममता से रहित जो शरीर की आसक्ति से रहित है तथा आहार का अवसर लगने पर अथवा न लगने पर जो आहार के बयालीस दोषों को टालने में समर्थ है ॥ तंपि न रूवरसत्थं, न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं, अक्खोवगं व वहणत्थम् ॥ ५८ ॥ उपरोक्त शुद्ध एवं निर्दोष आहार भी, रूप तथा रस के लिये नहीं और न हि शरीर की कान्ति बढ़ाने तथा इन्द्रियों को पुष्ट करने के लिये, अपितु गाड़ी की धुरा के उपांग (बांगने) के समान चारित्र के भार को वहन करने के लिये ही ग्रहण करता है । दूरोज्झितपात्रादिषु ममत्वो निःस्पृहः शरीरेऽपि ।, जाताजाताहारे द्विचत्वारिंशदेषणाकुशलः ॥ ५७ ॥ तमपि न रूपरसार्थं , न च वर्णार्थं न चैव दार्थम् । संयमभारवहनार्थ , अक्षोपाङ्गमिव वहनार्थम् ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण वेगवेयवच्च, इरिअटठाए य संजमटटाए । तह पाणवतियाए, छटठं पुण धम्मचिंताए ।।५६|| ___ साधु छह कारणों से हार ग्रहण करता है. १. नुधावेदनीय को शान्त करने के लिये, २. गुरु, ग्लान, तथा बाल,वृद्व एवं तपस्वी आदि की सेवा के लिये ३. ईर्यासमिति की शुद्धि के लिये ४. संयमनिर्वाह ५. प्राणधारण ६ स्वाध्याय तथा चिन्तन और मनन के लिये ॥ जत्थ य जिट्ठकणिट्ठो, जाणिज्जइ जिवयणबहुमाणो । दिवसेण वि जो जिठो, न य हीलिज्जइ स गोत्रमा ! गच्छो जिस गच्छ में छोटे बड़े का लिहाज़ है । जो एक दिन भी दीक्षा में बड़ा है वह ज्ये ठ है, रत्नाकर है । जहां रत्नाकर की हीलना नहीं होती अपितु, उस के वचनों का आदर एवं बहुमान होता है, हे गौतम ! वही वास्तव में गच्छ है ।। ____साधु को साध्वियों से अधिक परिचय न बढ़ाना चाहिये अब इस विषय का वर्णन करते हैं वेदनावैयावृत्येार्थ च संयमार्थम् ॥ . तथा प्राणवृत्त्यर्थम्, षष्ठं पुनो धर्मचिन्तार्थम् ।। ५६ ॥ "तह" 'वाव्ययोत्खातादावदातः' ।।८।१।६७॥ इति सूत्रेण आतो अत् ।। यत्र च ज्येष्ठकनिष्ठी, ज्ञायेते ज्येष्ठवचनबहुमानः । दिवसेनापि यो ज्येष्ठः, न च हील्यते स गौतम ! गच्छः ॥६० For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं जत्थ य अज्जाकप्पो, पाणच्चाए वि रोरदुभिक्खे । न य परिभुज्जइ सहसो, गोयम ! गच्छं तयं भणियम ६१ भयंकर दुष्काल होने पर यदि प्राणत्याग का कष्ट भी क्यों न आन पड़े फिर भी जिस गच्छ के साधु विना विचारे सध्वियों का लाया हुआ आहार पाणी ग्रहण नहीं करते, हे गौतम ! वास्तव में वही गच्छ है ॥ जत्थ य अजाहिं सम, थेरा वि न उलयंति गयदसणा। न य झायंति थीणं, अगोवंगाइ तं गच्छम् ।। ६२ ।। जिस गच्छ के स्थविर, जिन के दान्त निकल गए हैं, इतने वृद्ध होने पर भी जो साधियों से व्यर्थ वार्तालाप नहीं करते और उन के अंगोपांग को सराग दृष्टि से नहीं देखते वही वास्तव में गच्छ है ॥ वज्जेह अपमत्ता!, अज्जासंसग्गि अग्गिविससरिस । अज्जाणुचरो साहू, लहइ अकित्ति खु अचिरेण ।। ६३ ।। हे अप्रमत्त मुनिवरो ! साध्वियों के संसर्ग को अग्नि तथा विष के सदृश समझो। जो इन का संसर्ग करता है वह शीत्र ही निन्दा का पात्र बनता है। यत्र चार्याकल्पः, प्राणात्ययेऽपि रौद्रदुर्भिक्षे। न च परिभुज्यते सहसा, गौतम ! गच्छः सको भरिणतः ॥६१ ।। यत्र चार्याभिः समं, स्थविरा अपि नोल्लपन्ति गतदशना । न च ध्यायन्ति स्त्रीणा-मङ्गोपाङ्गानि स गच्छः ॥ ६ ॥ वर्जयत अप्रमत्ताः, आर्यास सर्ग अग्निविषसहशं । आर्यानुचरः साधुः, लभते अकीर्ति खलु अचिरेण ।। ६३ ।। For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण थेरस्स तवस्सिस्स व, बहुस्सुअस्स व पमाणभूयस्स । अजासंसग्गीए, जणजंपणयं हविज्जाहि ॥ ६४ ॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुअो अ, न य वि हु विगिट्टतवचरणो अज्जासंसग्गीए, जणपणयं न पाविज्जा ? ॥ ६५ ।। ___ जो वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया है, तथा सदा कुछ न कुछ तप भी करना रहता है और बहुश्रुत है तथा उस के जीवन में प्रमाणिकता है अर्थात् जनता में सर्वमान्य है, यदि वह भी साध्वियों का संसर्ग करता है तो वह लोगों में निन्दा का पात्र बनना है; फिर वह साधु जो अवस्था से युवान हैं आगमरहस्य से रहित है और न ही विकृष्ट (तेला उपरान्त) तप करता है, भला यदि वह साध्वियों का संसर्ग करता है तो क्या उस की निन्दा न होगी? अर्थात् अवश्य होगी। जइवि सयं थिरचित्तो, तहवि संसम्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवे व घयं, विलिज्ज चित्तं खु अज्जाए ॥ ६६ ॥ यदि कोई साधु स्थिरमन वाला है फिर भी जिस प्रकार अग्नि के समीप ही होने पर घृत पिघल जाता है इसी प्रकार आर्यका के संसर्ग से उस के मन में विकृति आने की प्रबल सम्भावना है । स्थविरस्य तपस्विनो वा, बहुश्रुतस्य वा प्रमाणभूतस्य । आर्यासंसा , जनवचनीयता भवेत् ॥ ६४ ।। किं पुनस्तरुणोऽबहुश्रुतश्च, न चापि हु विकृष्टतपश्चरणः । आर्यासंसा , ननवचनीयतां न प्राप्नुयात् ? ।। ६५ ॥ यद्यपि स्वयं स्थिरचित्तः, तथापि संसर्गलब्धप्रसरया। अग्निसमीपे इव घृतं, विलीयते चित्तं खलु आर्यायाः ॥६६॥ For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० गच्छायार पइरणयं सव्वत्थ इत्थवमि, अप्पमत्तो सया वीसत्थो । || नित्थरह बंभचेरं, तव्विवरीओ न नित्थर || ६७ ॥ सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो । सोहो वसो, अज्जाणं अणुचरंतो उ ॥ ६८ ॥ खेतपमिप्पाणं, न तरह जह मच्छित्रा विमोएउ | जाणुचरो साहू, न तर अप्पं विमोउ || ६ स्त्री वर्ग में जो सदा अप्रमत्त होकर रहता है और उन का विश्वास नहीं करता, वह ही पूर्ण शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है अन्यथा नहीं। ऐसा साधक सब पदार्थों से अपनी आसक्ति घटा सकता है और वह निज आत्मा को अपने वश में कर लेता है । इसके विपरीत जो साध्वियों के पाश में बंध जाता है अर्थात् उन के कथनानुसार कार्य करता है तो वह अपनी आत्माकी स्वतन्त्रता को खोकर, परतन्त्र बन जाता है । जिस प्रकार श्लेष्म में पड़ी मक्षिका अपने आप को नहीं छुड़ा सकती इसी प्रकार साध्वी अर्थात् स्त्री के बन्धन में फंसा हुआ साधु संसार समुद्र से पार नहीं हो सकता । सर्वत्र स्त्रीवर्गे, अप्रमत्तः सदा अविश्वस्तः । निस्तरति ब्रह्मचर्यं तद्विपरीतो न निस्तरति ॥ ६७ ॥ सर्वार्थेषु विमुक्तः, साधुः सर्वत्र भवति आत्मवशः । सभवति श्रनात्मवशः, आर्याणामनुचरन् तु ||६|| श्रष्मपतितमात्मानं न शक्नोति यथा मक्षिका विमोचयितुम् । आर्यानुचरः साधुः, न शक्नोति आत्मानं विमोचयितुम् ॥६६॥ "तरइ" ' शकेश्चय - तर - तीर - पाराः ||८|४|८६॥ इति सूत्रेण शकधातोस्तरादेशः ॥ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण साहुस्स नत्थि लोए, अज्जासरिसी हु बंधणे उवमा । धम्मेण सह ठवतो, न य सरिसो जाण असिलेसो ||७०॥ साधु के लिये इस संसार में साध्वी के सदृश और कोई बंधन नहीं और धर्म से पतित होती हुई किसी साधक आत्मा को पुनः धर्म में स्थापन करने जैसी निर्जरा नहीं। वायामित्तण वि जत्थ, भहचरित्तस्स निग्गहं विहिणा। बहुलद्धिजुअस्मावि, कीरइ गुरुणा तयं गच्छम् ।७१ ॥ जो वचनमात्र से चारित्रभ्रष्ट हो गया है भले ही वह बहुलब्धियुक्त है, जहां उस का भी विधिपूर्वक निग्रह किया जाता है अर्थात् उसे प्रायश्चित दिया जाता है, वह सदाचारी गच्छ है । जत्थ य संनिहिउक्खड-आहडमाईण नामगहणे वि। पूईकम्मा भीआ, आउत्ता कप्पतिप्पेसु ॥ ७२ ।।. मउए निहुअसहावे, हासदवविवज्जिए विगहमुक्के । असमंजसमकरते, गोअरभूमह विहरति ।। ७३ ।। साधो स्ति लोके, आर्यासदृशी हु बन्धने उपमा । धर्मेण सह स्थापयन्, न च सहशो जानीयात् अश्लेशः ।।७०॥ वाङमात्रेणापि यत्र, भ्रष्टचारित्रस्य निग्रहं विधिना। बहुलब्धियुक्तस्यापि, क्रियते गुरुणा सको गच्छः ॥७१।। यत्र च सनिधि-उपस्मृत-श्राहृतादीनां नामग्रहणेऽपि । पूतिकर्मणो भीताः, आयुक्ताः कल्पत्रेपेषु ।। ७२ ॥ मृदुकाः निभृतस्वभावाः, हास्यद्रवविवर्जिता विग्रहमुक्ताः । असमञ्जसमकुर्वन्तः, गोचरभूम्यर्थ विहरन्ति ॥ ७३ ।। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२. गच्छायार पइएायं मुणिं नायाभिग्गह, - दुक्करपच्छित्तमणुचरंताणं | जायइ चित्तचमक्क, देविदाणं वि तं गच्छम् ॥ ७४ ॥ जिस गच्छ के साधु रात्रि में अशन आदि रखना संनिधि दोष के तथा औद्दे शिक और अभ्याहत आदि दोषों के नाममात्र से अर्थात् स्पर्शमात्र से भय खाते हों, आहार निहार की क्रियाओं में उपयोगवान हो, विनयवान, निश्चल स्वभाव वाले, हंसी-मस्करी के न करने वाले, उतावलेपन से रहित, चारों विकथाओं से दूर रहते वाले, विना विचारे कोई कार्य न करने वाले तथा गोचरी कलिये योग्य भूमि में ही परिभ्रमण करने वाले हों। तथा नाना प्रकार के अभिग्रह एवं दुष्कर प्रायश्चित के अनुमानों को करते हुए साधुओं को देख कर देवों के स्वामी इन्द्र भी जहां चकित रह जाएं, वास्तव में गच्छ तो वही है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुढविदगगणिमारु- वास्सइतसारा विविहाणं । मरणंतेवि न पीडा, कीरड़ मणमा तयं गच्छम् ॥७५॥ पृथ्वी काय अप काय, ते काय वायु तथा वनस्पात काय एवं इन्द्रिय दिवस काय के जीवों को स्वयं की मृत्यु सामने होने पर भी जहां मन के द्वारा भी पीड़ा न पहुँचाई जाती हो अर्थात सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझा जाता हो, वह वस्तुतः गच्छ है || मुनीन् नानाभिग्रह - दुष्कर प्रायश्चितमनुचरतः (दृष्ट्रा ) । जायते चित्तचमत्कारो, देवेन्द्राणामपि स गच्छः ॥ ७४ ॥ पृथिवीदकाग्निमारुत - वनस्पतिन्त्रसानां विविधानाम् । मरणान्तेऽपि न पीडा, क्रियते मनसा सको गच्छः ॥७५|| For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org साधुस्वरूपनिरूपण खज्जूरिपत्तमुजेख, जो पमज्जे उवस्सयम् । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोमा ! || ७६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो साधु खजूर के पत्तों अथवा मुंज की बनी हुई बुहारी से उपाश्रय की प्रमार्जना करता है तो हे गौतम! उस साधु के दिल में दया का भाव है || जत्थ य बाहिरपाणि - विदुमित्तंपि गिम्हमाईसु । तरहासोसिश्रपाणा, मरणे वि मणी न गिरहंति ॥७७॥ ३३ ग्रीष्मादिक ऋतु में प्यास के मारे कण्ठ सूखा जारहा हो, प्राण निकले चाहते हों, मृत्यु सामने नृत्य कर रही हो ऐसी अवस्था में भी जो साधु कूप, तडाग, बावड़ी आदि के सचित्त जल की बिन्दुमात्र भी न प्रहण करता हो ऐसे दृढप्रतिज्ञ साधुओं से युक्त गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । 1 इच्छिज्जइ जत्थ सया, बीयपणावि फासूर्य उदयम! आगमविहिणा निउणं, गोत्रम ! गच्छं तयं भणियम् ॥७८॥ जिस गच्छ के साधु अपवाद मार्ग में भी अच्छी तरह खर्जूर पत्रेन मुब्जेन, यः प्रमार्जयति उपाश्रयम् । न दया तस्य जीवेषु सम्यग् जानीहि गौतम ! ॥ ७६ ॥ For Private And Personal Use Only यत्र च बाह्यपानीय - बिन्दुमात्रमपि प्रीष्मादिषु । तृष्णाशोषितप्राणा मरणेऽपि मुनयो न गृह्णन्ति ॥ ७७ ॥ इष्यते यत्र सदा, द्वितीयपदेनापि प्रासुकमुदकम् । आगमविधिमा निपुणं, गौतम ! गच्छः सको भगितः ॥७८॥ | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ गच्छायार पइरणयं ऊहापोह के पश्चात् सदा शास्त्रानुसार ही प्रासुक जल ग्रहण करने की इच्छा करते हैं, हे गौतम ! वह वास्तविक गच्छ है ॥ अत्थ य सूलविसूय, अन्नयरे वा विचिनमायके | उप्पराणे जलगुज्जालणाइ, कीरइ न मुणि ! तयं गच्छम् ॥ ७६ ॥ शूल, विशूचिका तथा अन्य कोई सद्यप्राणघातक व्याधि के उत्पन्न हो जाने पर भी जहां अग्निकाय का आरम्भ नहीं किया जाता, हे गौतममुने ! वह वास्तव में गच्छ है । बीयपणं सारुविगाड़ - सड्ढाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए, गोयम ! गच्छं तयं भणियम ॥ ८० ॥ 1 अपवादरूप में जहां कोई अवश्यक प्रसंग आजाए उस समय भी जिस गच्छ के साधु यत्नापूर्वक अग्नि का आरम्भ साधुवेषधारी सारूपिक से इस के अभाव में सिद्धपुत्र से इस के अभाव में चारित्रयुक्त पश्चात्कृत से इस के न मिलने पर व्रतधारी श्रावक से तथा इस के भी न मिलने पर भद्रिकपरिणामी अन्य दर्शनीय गृहस्थ से ही करावे । हे गौतम ! वह सही अर्थों में गच्छ कहलाता है ॥ यत्र च शूले विशुचिकायां, अन्यतरस्मिन् वा विचित्रातङ्क । उत्पन्ने ज्वलनोज्ज्वालनादि, क्रियते न मुने ! सको गच्छः ॥७६॥ द्वितीयपदेन सारूपिकादि - श्राद्धादिश्रादिभिश्व | कारयन्ति यतनया, गौतम ! गच्छः सको भणितः ॥ ८० ॥ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण पुष्फाणं बीयाणं, तयमाईणं च विविहदवाणं । संघट्टणपरिश्रावण, जत्थ न कुजा तयं गच्छम् ।।८१॥ __पुष्प, बीज तथा वृक्ष आदि के मूल, पत्र, अंकुर, फल और छाल आदि का संघट्टा तथा परिताप जिस गच्छ के मुनि न करते हों वह वास्तविक गच्छ है ।। हासं खेडडा कंदप्प, नाहियवायं न कीरए जत्थ । धावणडेवणलंघण, ममकारावण्ण उच्चरणम || ८२ ॥ जिस गच्छ में हांसी मखोल, बालक्रीड़ा कामकथादिक कुचेष्टा न की जाती हों, तथा नास्तिकवाद के वचन न बोले जाते हों और विना प्रयोजन इधर उधर शोवतया गमानागमन करना, वेग से किसी खाई आदि को पार करना एवं उछल कर किसी चीज़ को पार करना, वस्त्र पात्र आदि पर ममत्व भाव रखना तथा पूजनीय गुरुजनों का अवर्णवाद बोलना ये सब जिस गच्छ में न हों वही वस्तुतः गच्छ है । जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरियं कारणे वि उप्पन्ने । दिडिविसदित्तम्गी, विसं व वजिज्जए गच्छे ।।८३॥ पुष्पानां बीजानां, त्वगादीनाञ्च विविधद्रव्याणाम् । सङ्घट्टनपरितापनं, यत्र न कुर्यात् सको गच्छः ।। ८१ ॥ हास्य क्रीडा कन्दर्पो, नास्तिकवादो न क्रियते यत्र । धावनं डेपनलङ्घनं, ममकारोऽवर्णोच्चारणम् ॥२॥ यत्र स्त्रीकरस्पर्श, अन्तरिते कारणेऽपि उत्पन्ने । दृष्टिविषदिप्ताग्नि-विषमिव वर्जयेत् (स) गच्छः ॥२३॥ For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं बालाए बुड्ढाए, नत्तुअदुहियोइ अहव भइणीए । न य करीइ तणुफरिसं, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ।।८४॥ जिस गच्छ में, विशेष कारण उत्पन्न होने पर भी स्त्री के हाथ के स्पर्श को दृष्टिविष सर्प, प्रज्ज्वलिताग्नि एवं हालाहल विष समझा जाता है वह सही गच्छ है तथा बालकुमारी एवं वृद्धा,पुत्री, पौत्री एवं बहिन से भी जहां स्पर्श नहीं किया जाता, वह गच्छ जत्थित्थीकरफरिस, लिंगी अरिहों वी सयमवि करिज्जा। तं निच्छयो गोयम ! जाणिज्जा मूलगुणे भट्ठम ||८|| कीरइ बीअपएणं, सुचममणि ननत्थ विहिए। उ । उप्पन्ने पुण कज्जे, दिक्खाायकमाईए ॥ ८६॥ ____ साधुवेष युक्त यदि कोई एक पूज्य आचार्य भी स्वयं स्त्री के हाथ का स्पर्श करे, तो हे गौतम ! निश्चय ही वह मूलगुणों से भ्रष्ट है । और जिस गच्छ में अपवाद रूप से भी स्त्री के हाथ आदि का स्पर्श नहीं किया जाता क्योंकि शास्त्र में अपवाद अवस्था में भी स्त्रीस्पर्श वर्जनीय है कारण कि चतुर्थ महाव्रत का अपवाद बालाया वृद्धाया, नप्तृकाया दुहितुकाया अथवा भगिन्याः । न च क्रियते तनुस्पर्शः, गौतम ! गच्छः सको भणितः ।।८४॥ यत्र स्त्रीकरस्पर्श, लिङ्गी अर्होऽपि स्वयंमपि (स्वयमेव) कुर्यात् । तं निश्चयतो गौतम !, जानीयान् मूलगुणभ्रष्टम् ॥ ८५ ॥ क्रियते द्वितीयपदेन, सूत्राणितं न यत्र विधिना तु । उत्पन्ने पुनः कार्ये, दीक्षाऽऽतकादिके ॥८६॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण जिनशासन में नहीं है फिर भी दीक्षा पर्याय के नाश होने का अवसर अथवा आतङ्क आदि उत्कृष्ट कारण आ पड़ने पर जैसे कि श्री वृहत्कल्पसूत्र के छ? उद्देश्य में वर्णन आया है इस प्रकार के किसी बहुत बड़े कारण के उपस्थित होने पर, जो गीतार्थ मुनि आगम के रहस्य को समज्ञने वाले हां परमार्थदर्शी हों वेह। आगमविधि अनुसार जहां ऐसा करते हों वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है।। मूलगुणेहिं विमुक्क, बहुगुणकलियं पि लद्धिसंपन्नम् । उत्तमकुले वि जायं, निद्धाडिज्जइ तयं गच्छम् ।।८७॥ ___ अनेकगुणों से युक्त तथा लन्धिसम्पन्न चाहे किसी उत्तमकुल में उत्पन्न हुआ ही क्यों न हो उस के मूलगुणों से भ्रष्ट हो जाने पर यदि वह गच्छ से बाहर कर दिया जाता है तो वह गच्छ वास्तविक गच्छ है॥ जत्थ हिरएणसुवरणे, धणधण्णे कंसतंबफलिहाणं । सयणाण आसणाण य, झुसिराणं चेव परिमोगो ||८८|| जत्थ य वारडियाणं, तचडिआणं च नह य परिभोगो। मत्सुक्किलवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ||८६ ॥ मूलगुणैर्मुक्त, बहुगुणकलितमपि लब्धिसम्पन्नम् । उत्तमकुलेऽपि जातं, निर्घाटयत्ति सको गच्छः ।। ८७ ।। यत्र हिरण्यसुवर्णयोः, धनधान्ययोः कांस्यताम्रस्फटिकानाम् । शयनानामासनानाञ्च, शुपिराणाञ्चैव परिभोगः ॥ ८ ॥ यत्र च रक्तवस्त्राणां, नीलपीतादिरङ्गितवस्त्राणं चैव परिभोगः । मुक्त्वा शुक्लवस्त्रं, का मर्यादा तत्र गच्छे ? || ८६ | For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं जिस गच्छ के मुनिगण, सोना चान्दी, धन धान्य तथा कांसी ताम्बा एवं स्फटिकरत्नमय भाजन और कुर्सी पलंग चारपाई तथा छिद्रों वाली चौकी एवं फट्ट का परिभोग करते हों और श्वेतवर्ण के वस्त्रों को छोड़ कर लाल नीले पीले वस्त्र पहनते हों तो उस गच्छ की क्या मर्यादा रह जाती है ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन जत्थ हिरएणसुवण्णं, हत्थेण परागपि नो छिप्पे । कारणसमप्पियं पि हु, निमिसखण, पित्तं गच्छम् ।।१०।। कोई गृहस्य किसी भय के कारण अथवा स्नेह के वशीभूत होकर साधु को अपना सोना चान्दी समर्पण करे जिस गच्छ के साधु उस सोने चांदी को, पर का ही समझ कर अर्धानमेषमात्र अर्थात् क्षणभर के लिये भी उसे हाथ से स्पर्श तक नहीं करते वह वास्तविक गच्छ है ।। जत्थ य अज्जालद्धं, पडिगहमाईवि विविहमुवगरणम् । परिभुज्जइ साहूहि, तं गोयम ! केरिस गच्छम् ? ॥११॥ । जहां पात्र आदि उपकरण विना कारणविशेष, आर्यकाओं से लेकर साधु अपने उपभोग में लाते हैं, हे गौतम ! वह कैसा विचित्र गच्छ है ? अर्थात् वह वास्तविक गच्छ नहीं है ।। यत्र हिरण्यसुवर्णं, हस्तेन परकीयमपि न स्पृशेत् । कारणसमर्पितेऽपि हु, निमेषक्षणार्द्ध मपि स गच्छः ॥ ६ ॥ यत्र चार्यालब्ध, पतग्रहाद्यपि विविधमुपकरणम् । परिभुज्यते साधुभिः, स गौतम ! कीदृशो गच्छः ? ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण इदुल्लाहसज्जं, बलबुद्धिविवपि पुट्टिकरम् । अज्जालद्धं भज्जर, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ॥६२॥ शारीरिक बल तथा बुद्धि बल को बढ़ाने वाली एवं पुष्ट करने वाली अति दुर्लभ औषध, यदि श्रार्यकाओं से प्राप्त करके सेवन की जाती है तो उस गच्छ की क्या मर्यादा है ? अर्थात् वह गच्छ अपनी मर्यादाओं का उल्लङ्घन कर रहा है । और वास्तविक गुणां से दूर होता जा रहा है ।। गच्छ ३६ एगो एगिथिए सद्धि, जत्थ चिटिठज्ज गोथमा ! । संजइए विसेसेणं, निम्मेरं तं तु भासिमो || ६३ ॥ जहां अकेला साधु अकेली स्त्री से और विशेषकर अकेली श्रार्यका से बातचीत करता है तो हे गौतम ! वह गच्छ अपनी मर्यादा से बाहर समझना चाहिये || उपरोक्त गाथा में अकेली आर्यका से संलापमात्र का सर्वथा निषेध किया है इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिये प्रन्थकार कहते है अतिदुर्लभभैषज्यं, बलबुद्धिविवर्धनमपि पुष्करम् । अर्यालब्धं भुज्यते, का मर्यादा तत्र गच्छे ॥ ६२ ॥ एक एकस्त्रिया साद्ध, यत्र तिष्ठेत् गौतम ! | संयत्या विशेषेण, निर्मर्यादं तं तु भाषामहे ।। ६३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्छाग्रार पइएणयं दढचारिनं मुनं, प्राइज मयाइहरं च गुणरासि इक्को अज्झावेई, तमणायारं न त गच्छम् ।। १४ ॥ ___ जो चारित्र में दृढ, निर्लोभात्मा, आदेय वचन वाली अर्थात जो जनता में आदर प्राप्त है,ऐसी महामति वाली गुणों की खान जो सर्व साध्वियों की स्वामिनी है, उस को एकाकी साधु पढ़ाता है तो वह पढ़ाने वाला साधु और पढ़ने वाली आर्य का दोनों अनाचार का सेवन करते हैं। घणगजियहयकुहए-विज्जूदुग्गिज्जगूढहिययाओ। अजा अवारियाओ, इत्थीरजं न तं गच्छम् ॥ ६५!! बादल के गर्जने, घोड़े के पेट की वायु एवं बिजली के चमकारे का जैसे पता नहीं चलता इसी प्रकार कूट कपटयुक्त हृदय वाली आर्यका जहां स्वच्छन्दाचारिणी हो और अपनी मनमानी करती हो,—उसे उलटे मार्ग से कोई रोकने वाला न हो, तो समझना चाहिये कि वहां स्त्रीराज्य है, वस्ततुः वह गच्छ नहीं टिप्पणी-यहां कपट तथा स्वच्छन्दता की अपेक्षा ने स्त्रीराज्य नाम दिया गया है । इसी प्रकार जहां साधु स्वच्छन्दाचारी हों दृढचारित्रां मुक्तां, आदेयां महत्तरां (मतिगृह) च गुणराशिम् । ' एकाकी अभ्यापयति, सोऽनाचारः न स गच्छः ॥ ६४ ॥ "मइहरं" 'गृहस्य घरोपतौः' ।।८।२।१४४।। इति सूत्रेण गृहस्य घरादेशः, 'ख-घ-थ-भाम्' ।।८।१।१८७|| इति सूत्रेण घस्यः ह ।। घनगर्जितहयकुहक-विटा दुह्यगूढहृदयाः । प्रार्या अवारिताः, स्त्रीराज्यं न स गच्छः ।। ६५ ।। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण अपने दुष्ट स्वभावानुसार आचरण करते हुए किसी के राकने पर भी न सकते हो तो उसे खीराज्य के समान दुष्टराज्य नाम भी दिया जा सकता है। जत्य ममुद्द सकाले, साहणं मंड नीइ अञ्जानो। गोयम ! ठयंती पाए, इत्थारज्जन तं गच्छम ॥१६॥ भोजन के समय साधुआ की मण्डली में यदी कोई साध्वी वहां अपना कदम रखती है तो हे गौतम ! वह वास्तविक गच्छ नहीं, अपितु उसे स्त्री राज्य अर्थात् दुष्ट राज्य समझना चाहिये । जत्थ मुणोण कमाया, जगडिज्जंता वि परकसाएहिं । नेच्छंति समुह उ. सुनिविटठो पंगुलो चेव ।। ६७ ॥ ___ जैसे कोई हाथ पांव से लाचार पङ्ग उठा रहता है ऐसे ही दूसरों के क्रोधद्वारा अपना उठता हुआ क्रोध पङ्ग, के सदृश नहीं उठ पाता अथात् दूसरों के क्रोध करने पर जो क्रोध नहीं करता ऐसे मुनियों से युक्त गच्छ ही वास्तव में गच्छ है। . धम्मतरायभीए, भीए संसारगम्भव सहीण । न उदीरन्ति कमाए, मुणी मुणीणं तयं गच्छम् ।। ६८ ॥ यत्र समुद्दे शकाले, साधूनां मण्डल्यां आर्याः। गौतम ! स्थापयन्ति पादो, स्त्रीराज्यं न स गच्छधः ॥ ६६ ॥ यत्र सुनीनां कषायाः, उदीयमाणा अपि परकषायैः । नेच्छन्ति समुत्थातु, सुनिविष्टः पङ्गुलः चेव ।। १७ ।। धर्मान्तरायभीताः, भीता संसारभवसतिभ्यः । नोदीरयन्ति कषायान, मनयो मुनीनां सको गच्छः ॥१८॥ For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं सर्वज्ञकथित भगवान के धर्म में विन्न न पड़े इस से डरते हुए तथा संसारभ्रमण अर्थात् जन्ममरण के भय के कारण जिस गच्छ के साधु दूसरों के क्रोध को नहीं जगाते, सदा सद्व्यवहार से पेश आते हैं, ऐसे साधुओं के समुदाय का नाम गच्छ है। कारणमकाणेणं अह, कहवि मुणीण उहहिं कसाए । उदय वि जत्थ रु भहि, खामिजइ जत्य तं गच्छम ||BHI __गुरु अथवा ग्लान आदि की वैयावञ्च आदि के मुख्य कारण अथवा किसी अन्य गौण कारण से यदि कषाय उदय में आते हों तो उन्हें मुनि रोकते हैं अर्थात् उदय में नहीं आने देते यदि इस प्रकार का प्रयत्न करने पर भी कषाय उदय में आ ही जाएं तो तुरन्त उसकी क्षमायाचना करते हैं। हे गौतम ! एसे मुनियों के सम्दाय का नाम ही गच्छ है ॥ सीलतपदाणभाषण, चउविहधम्मतरायभयभीए । जत्थ बहू गीअत्थे, गोश्रम ! गच्छं तयं भणिअम् ॥१०॥ दान,शील तप और भावनारूप चार प्रकार के धर्म में किसी प्रकार की अन्तराय-विन बाधा न पड़े. इस बात को सदैव ध्यान में रखने वाले जिस गच्छ में बहुत से गीतार्थ मुनि हों, हे गौतम ! उसी को वास्तव में गच्छ कहना चाहिये। कारणेनाकारणेन अथ, कथमपि मुनीनामुत्थिताः कषायाः । उदयेऽपि यत्र रुन्धन्ति, क्षमयन्ति यत्र स गच्छः ॥ ६ ॥ "कहवि" मासादेर्वा' ।।१।२६ इति सूत्रेण अनुस्वारस्य लुक, पदादपेर्वा, ॥८॥१॥४३॥ इति सूत्रेण अपेरकारस्य लुक ।। शीलतपदानभावना - चतुर्विधधर्मान्तरायभयभीताः । यत्र बहवो गीतार्थाः, गौतम ! गच्छः सको भणितः ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण जत्थ य गोयमा ! पंचएह, कहवि सूणाण इक्कमपि हुञ्जा। तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिअ वइज अन्नत्थ ।। १०१ ।। __ हे गौतम ! जिस गच्छ के मुनि आहार शरीर एवं उपधि आदि में आसक्त होकर गृहस्थोचित चक्की,चुल्हा, प्रमार्जनी, ऊखल तथा जलकुम्भ आदि में से एक का भी आरम्भ समाराम्भ करते हैं, तो उस गच्छ में काया से तो क्या, मन से भी रहने का सङ्कल्प न करे ,तीन करण तीन योग से उस गच्छ को छोड़ कर किसी और सद्गुणी गच्छ में चला जावे ॥ सूरणारंभपवत्तं, गच्छ वेसुजलं न सेविजा । जं चरित्तगुणेहि, तु उज्जलं तं तु सेविज्जो ॥ १०२॥ । जिस गच्छ के साधु आरम्भप्रवृत्ति में लगे हुए हैं और बगुले समान श्वेतवस्त्रधारी केवल ऊपर से उज्ज्वल बन कर रहते हैं किन्तु अपने चारित्र के गुणों से जिन की आत्मा उज्ज्वल नहीं हो पाई है, अपितु काली ही है तो उन के साथ नहीं रहना चाहिये । तथा जिन की आत्मा साधना पथ पर आरूढ है और जिन में आत्मिक उज्ज्वलता वेग से नहीं, तो धीरे धीरे ही आरही है उन के सहवास में रहना उचित है। यत्र च गौतम ! पञ्चाना, कथमपि सूनानामेकमपि भवेत् । तं गच्छं त्रिविधेन, व्युत्सृज्य व्रजेत् अन्यत्र ।। १०१ ॥ सूनारम्भप्रवृत्तं, गच्छं वेषोज्ज्वलं न सेवेत्। यश्चारित्रगुणैः, तूज्ज्वलस्तं तु सेवेत् ॥ १०२ ।। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमछायार 'पइएणयं जत्थ य मुणिणो, कयविकमाई कुवंति संजमुभटठा । तं गच्छं गुणसायर ! विसं व दूरं परिहरिन्जा ।।१०३॥ __जिस गच्छ के मुनिगण वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि के क्रयविश्य में फंस कर सयम मे भ्रष्ट हो चुके हैं । हे गुणों के सागर गौतम ! उस गच्छ को विष समान समझ कर दूर से ही छोड़ देना चाहिये। आरंभेसु पसत्ता. सिद्धतपरंमुहा विसयगिद्धो । मुत्तमुणिणो गोयम !, वसिज्ज मज्झे सुविहियाणम् ॥१०४ जो साधु प्रारम्भ समारम्भ के कार्यों में आसक्त हैं और वे उन को छोड़ने के लिये तय्यार नहीं हैं । सिद्वान्त से विपरीत मार्ग पर जा रहे हों और काम भोगों में गृद्धित हों, हे गौतम ! ऐसे दुष्ट स्वभाव वाले साधुओं को छोड़ कर सुविहित आत्मा=अल्मार्थी साधुओं के समुदाय में रहना चाहिये ।। तम्हा सम्मं निहालेउ, गच्छं सम्मग्गपटिठयम । वसिज्ज पक्खमासं वा, जावज्जीवं तु गोयमा !!१०५|| इस लिये हे गौतम ! जो गच्छ सन्मार्ग पर प्रतिष्ठित है, ऐसे --........ -------------- यत्र च मुनयः, क्रयविक्रयादि कुर्वन्ति संयमोभ्रष्टाः । तं गच्छ गुण सागर ! विषमिव दूरतः परिहरेत् ।। १०३ ।। आरम्भेषु प्रसक्तान् , सिद्धान्तपराङ्मुखान् विषयगृद्धान् । मुक्त्वा मुनीन् गौतम !, वसेत् मध्ये सुविहितानाम् । ॥१०४।। तस्मात् सम्यक निभाल्य, गच्छ सन्मार्गस्थितम् । बसेत् पक्षो मासं वा, यावज्जीवं तु गौतम ! ॥ १०५ ।। For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण ४५ गच्छ को भली प्रकार देख भाल कर उसी में एक पक्ष के लिये या मास के लिये अथवा सम्पूर्ण जीवन भर रहना चाहिये || खुड्डो वा अहवा सेहो, जत्थ रक्खे उबस्सयम | तरुणो वा जत्थ एगागी, का मेरा तत्थ भासियो ॥ १०६ ॥ जहां छोटी आयुवाला अथवा नवदीक्षित अथवा युवावस्था वाला साधु उपाश्रय का एकाधिकारी बना हुआ हो अर्थात् उस उपाश्रय में जितने साधु रहते हैं जिन में कि स्थविर भी हैं उन सब पर अपना आदेश चलाता हो और उन के कहने की कुछ भी परवाह न करके मनमाने कार्य करता हो तो उस गच्छ में मर्यादाओं का पालन कहाँ हो सकता है ? अर्थात् वह गछ अपनी मर्यादाओं का उल्लङ्घन करने वाला है । यहां साधुस्वरूपनिरूपण नाम का दूसरा अधिकार समाप्त होता है और साध्वीस्वरूपनिरूपण नामक तीसरा अधिकार आरम्भ होता है जत्थ य एगा खुड्डी, एगो तरुणी उ रक्खए वसहिं । गोयम ! तत्थ विहारे, का सुद्धी बंभचेरस्स १ || १०७/ इसी प्रकार छोटी उमर वाली अथवा अल्प दीक्षा वाली तथा युवा अवस्था वाली साध्वी उपाश्रय में अकेली रहती हो तो वहां क्षुल्लको बाथबा शैक्षो, यत्र रक्षेत् उपाश्रयम् । तरुणो वा यत्र एकाकी, का मर्यादा तत्र भाषामहे ! ||१०६ || यत्र चैका क्षुल्लिका, एका तरुणी तु रक्षति वसतिं । गौतम । तत्र विहारे, का शुद्धि ह्यचर्यस्य ? ॥ १०७ ॥ ! For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं ब्रह्मचर्य की निर्मलता कैसे टिक सकती है ? अर्थात् नहीं टिक सकती। जत्थ य उवस्सयानो, बाहिं गच्छे दुहत्थमिपि । एगा रति समणी, का मेरा तत्थ गच्छस्स ॥१०॥ जिस गच्छ के रहने वाली साध्वी रात्रि के समय मात्रा आदि के कारण उपाश्रय के बाहर दो कदम भी अकेली जाती है, तो उस गच्छ में क्या मर्यादा रही ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाविहीन है। जत्थ य एगा समणी, एगो समणो य जंपए सोम्म!। निप्रबंधुणावि सदि, तं गच्छं गच्छगुणहीणं ।। १०६ ।। हे सौम्य गौतम ! जिस गच्छ में अकेली साध्वी अपना सगा भाई, जो कि साधु बना हुआ है उस से और इसी प्रकार अकेला साधु अपनी बहिन जो कि साध्वी बनी हुई है उस से वार्तालाप करता है तो वह गच्छ, गच्छ के गुणों से रहित है। यत्र चोपाश्रयात् , बहिर्गच्छेत् द्विहस्तमात्रमपि। एकाकिनी रात्रौ श्रमणी, का मर्यादा तत्र गच्छे ॥ १०८ ॥ "रति" 'सप्तम्या द्वितीया' ॥१३॥१३७॥ इति सूत्रेण सप्तम्याः स्थाने द्वितीया॥ यत्र चैका श्रमणी, एकः श्रमणश्च जल्पते सौम्य !। निजबन्धुनाऽपि साद्ध, स गच्छः गच्छगुणहीनः ॥ १०६ ।। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण जत्य जयारमयारं, ममणी जंपड गिहत्थपञ्चक्खम् । पञ्चक्ख संसारे, अज्जा पक्खिवह अप्पाणं । ११०॥ ___ जो साध्विएं परस्पर में गृहस्थों के समक्ष जकार मकार आदि असभ्य वचनों का प्रयोग करती हैं तो वह चतुर्गति संसार समुद्र में अपनी प्रात्मा को अवश्य गिरा देती हैं। जत्थ य गिहत्थभासाहि, भासए अज्जित्रा सुरुठठावि ।। तं गच्छं गुणसायर!, समणगुणविवज्जिनं जाण ॥१११५ जिस गच्छ की आर्यकाएं अत्यन्त क्रोधावेश में आकर गृहस्थों के सदृश सावध भाषा बोलें, क्लेश करे, हे गुणों के सागर गौतम ! वह गच्छ साधुता के गुणों से रहित समझना चाहिये ।। गणिगोअम ! जा उचिरं, सेश्वत्थं विवज्जिउ । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा विवाहिया ॥११२॥ हे गौतम ! साध्वी योग्य प्रमाणोपेत उचित जो श्वेत वस्त्र होते हैं, उन को छोड़ कर नाना प्रकार के रंगदार वस्त्र जो आर्यकाएं पहनती हैं, वे जिन शासन में आर्यकाएं नहीं कही जा सकती। यत्र जकारमकार, श्रमणी जल्पते गृहस्थप्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षं संसारे, आर्या प्रक्षिपात आत्मानम् ।। ११० ।। यत्र च गृहस्थभाषाभिः, भाषते आर्यका सुरुष्टाऽपि । तं गच्छं गुणसागर !, श्रमणगुणविवजितं जानीयात् ॥१११।। गणिगौतम ! या उचितं, श्वेतवस्त्रं विवर्य । सेवते चित्ररूपाणि, न सा आर्या व्याहृता । ११२ ।। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइयं सीवणं तुन्नणं मरणं. गिहत्थाणं तु जा करे | तिलउन्चदृशं वा वि, अप्पणी अ परस्स य || १४३ ।। जो साध्वी अपने पीछे लगी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अथवा गृहस्थों से स्नेह होने के कारण उन के कपड़ों को सीती है फटे हुए कपड़ों को ठीक करती है रजाई आदि में रुई भरती है (अथवा अन्य कोई भरने का काम करती है) अपने शरीर पर अथवा अपने स्नेही गृहस्थों के बालकों के शरीर पर वैलमर्दन करती है तो उसे आर्यका न समझना चाहिये ॥ गच्छ सविलासगड़, सयणीयं तुलिश्रं सविब्वोयं । उबट्टई सरीरं. सियाणमाईसि जा कुणइ ॥ ११४ ॥ जो साध्वी विलासयुक्त गति से इधर उधर भ्रमण करती है, रुई आदि से भरी हुई तलैया पर नरम तथा मुलायम सिराहने के साथ शयन करती है, तैल आदि का मर्दन करके जो स्नान आदि से अपने शरीर की सजावट में लगी हुई है ॥ णे गेहेसु निहत्थाणं, गंतूण कहो कहे काहीचा | तरुणाई आहिवडते. अणुजा सा इ पडियो || ११ ५ । खीवनं तुन्नणं भरणं, गृहस्थानां तु या करोति । तैलोद्वर्तनं वाऽपि श्रात्मनः परस्य च ॥ ११३ ॥ गच्छति सविलासगतिः, शयनीयं तूलिकां सचिब्बो काम् । उद्वर्तयति शरीरं, स्नानादी नि या करोति ॥ ११४ ॥ गृहेषु गृहस्थानां, गत्वा कथां कथयत काथिका । तरुणादीन् अभिपततः, अनुजानीयात् सा इ प्रत्यनीका ||११५ | "इ" 'इ-जे-रा: पादपूरणे' || २२१७|| For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण तथा गृहस्यों के घरों में जाकर अथवा उपाश्रय में ही हर समय कथा में--गृहस्थों से वातालाप में लगी रहती है, और युवान पुरुषों के वार बार आने का जो अनुमोदन करती है, तो वह सावी के भेष में जिनशासन की शत्रु है ।। टिप्पण - इसी प्रकार जो साधु हर समय गृहस्थों से वार्तालाप ही करते रहते हैं और स्वाध्याय प्रतिलेखना गुरु ग्लान आदि की सेवा भक्ति तथा अध्ययन अध्यापन में उपेक्षा भाव रखते हैं और युवितयां से बातें करने में अधिक रुचि रखते हैं तथा उन के वार वार आने की अनुमोदना करते हैं वे भी साधु वेष में जिन शासन के शत्रु हैं। वुडहाणं तरुणाणं, रतिं अज्जा कहेइ जा धम्म । मा गणिणी गुणमागर !, पडिणीमा होइ गच्छस्स॥११॥ हे गणो के सागर गौतम ! यदि मुख्य साध्वी भी रात्रि के समय वृद्धों तथा तरुणो के बीच धर्मकथा करती है तो वह साध्वी गच्छ की वैरण है। जत्थ य समणीणम-संखडाइं गच्छम्मि नेव जायंति ।। तं गच्छं गच्छवरं, गिहत्थभास। उ नो जत्थ ।।११७।। जिस गच्छ की साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता तथा वृद्वानां तरुणानां, रात्रौ आर्या कथयति या धर्मम् । सा गणिनी गुणसागर !. प्रत्यनीका भवति गच्छस्य ।।११६।। "रति" 'सप्तम्या द्वितीया' इति सूत्रेण द्वितीया ॥ यत्र च श्रमणीनाम-संस्कृतानि गच्छे नैव जायन्ते । म गच्छो गच्छवरः गइस्थभाषास्तु न यत्र ।। ११७ ।। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएण्यं गृहस्थों के सदृश सावद्य एवं खुशामदभरे वाक्य नहीं बोले जाते ऐसी साधिए ही गन्छ की शामा का बढ़ाता है और वहीं श्रेष्ठ गच्छ है॥ जो जत्तो वा जानो, नालोअइ दिवपक्विनं वावि । सच्छंदा ममणीयो, मयहरिआए न ठायति ॥ ११८॥ . स्वच्छन्दाचारिणी आर्यकाएं जो अतिचार जहां और जैसे लगे है, उन दैवतिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक अतिचारों की आलोचना नहीं करतीं और अपनी मुख्य साध्वी की आशा में नहीं रहती हैं । विटलिपाणि पउति, गिलार सेहणी नेव तिप्पंति । अणगाढे आगाढं, करेंति आगाढि अणगार्ड ।। ११६॥ वे स्वच्छन्दाचारिणी आर्यकाएं यन्त्र मन्त्र तथा अष्टांग निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं और म्लान तथा नवदीक्षिता आदि की आहार पानी तथा औषध आदि से सेवा सुश्रूषा यो यतो वा जातः, नालोचयन्ति देवसिकं पाक्षिकं वापि । स्वच्छन्दाः श्रमण्यः, महत्तरिकाया न तिष्ठन्ति ।। ११८ ॥ "जत्तो' 'जो दो तसो वा' ||१६०॥ इति सूत्रेण तसः प्रत्ययस्य स्थाने 'तो' प्रादेशः ॥ विएटलिकानि प्रयुञ्जते, ग्लानशैक्ष्यान् न तर्पयन्ति । अनागाढे आगाद, कुर्वन्ति आगाढे अनागाढम् ॥११६।। "गिलानसेहीण" 'कचिद् द्वितीयादेः' ।। ८।३।१३४ ॥ इति सूत्रेण द्वितीयस्य स्थाने पाठी। For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण नहीं कर पातीं। जो कार्य प्रथम अवश्य करणीय स्वाध्याय प्रतिलेखना प्रतिक्रमण आदि हैं उन को करती नहीं और जो इतने आवश्यक नहीं उन के करने में अपना समय लगाती रहती अजयणाए पकुवति, पाहुणगाण अवच्छला । चित्त नयाणि असेवंते, चित्ता रयहरणे तहा ॥१२०॥ वे प्रत्येक मंयमक्रिया अयन-अविवेकपूर्वक करती हैं. अन्य ग्राम आदि से आई हुई सध्वियों की आहार पानी आदि से यथायोग्य आदर सत्कार नहीं करतीं, वे नाना प्रकार के रंगविरंगे वस्त्र तथा विचित्र रचना वाला रजोहरण रखती हैं। गइ विब्भमाइएहि, ओगारविगार तह पगासति । जह वुडहाणवि मोहो, समुईरइ किं नु तरुणाणं १ ॥१२१॥ उन की गति में तथा उठने बैठने आदि में विलासता की बू आती है और वे इस प्रकार के हावभाव दिखलाती है कि बड़ी आयु वाले वृद्धपुरुषों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाए और युवानों का तो कहना ही क्या ? ॥ प्रयतनया प्रकुर्वन्ति, प्राधूर्णिकानां अवत्सला। चित्रलानि च सेवन्ते, चित्राणि रजोहरणानि तथा ॥१२०।। गतिविभ्रमादिभिः, आकारविकार तथा प्रकाशयन्ति । यथा वृद्धानां मोहः, समुदीर्यते किं नु तरुणानाम् ॥ ॥१२॥ For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएर बहु पो उच्छोलिती, मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ । गिण्हेइ रागमंडल, भोइति तह य कब? ॥१२२।। __वे वार वार अपने हाथ मह आंख पांव तथा कक्षाओं को धोती हैं नाना प्रकार की राणियों को सीखती हैं तथा गृहस्थों के बच्चों में रमण करती हैं उन्हें खाने की वस्तुएं देती हैं और अपना दिल बहलाती हैं। इन दोषां से युक्त आर्या, आर्या नहीं अपितु अनार्या हैं तथा स्व छन्दाचारिणी हैं। जत्थ य थेरी तरुणी, थेरी तरुणी अ अन्तरे सुबह । गोश्रम ! तं गच्छवरं, वरनाणचरित्ताहारं ॥१२३।। जिस गच्छ में शयन करते समय यह क्रम ध्यान में रखा जाता है कि पहले स्थविरा (वृद्धा) साध्वी इस के पश्चात् युवावस्था वाली साध्वी उस के पश्चात् फिर वृद्धा और उस के पश्चात् पुनः तरुण-साध्वी, इस क्रम से अन्तर के साथ जहां तरुण साध्विएं सोती हैं, हे गौतम ! वह गच्छ श्रेष्ठ है और ऐसा गच्छ साधक आत्माओं के ज्ञान एव चारित्र का आधार होता बहुशः प्रक्षालयन्ति, मुखनयनानि हस्तपादकक्षाश्च । गृह्णन्ति रागमंडलं, भोजयन्ति तथा च कल्पस्थान् ॥१२२॥ यत्र च स्थविरा तरुणी, स्थविरा तरुणी चान्तरे स्वपिति । गौतम ! स गच्छवरः, वरज्ञानचारित्राधारः ॥ १२३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण धोयंति कठिाश्री, पोअंति तह य दिति पोत्ताणि । गिहिकअचिंतगाओ, न हु अञ्जा गोश्रमा ! ताओ ।।१२४|| ___ जो आर्यकाए विना कोरण अपने कण्ठ आदि अंगो को धोती हैं गृहस्थो के लिये मोतियों की माला परोती हैं और उन के बालकों आदि को वस्त्र देती हैं इस प्रकार जो गृहस्थसम्बन्धी चिन्ताओं तथा उन के कार्यों में अपनी सम्मति मिलाती हैं, हे गौतम ! वास्तव में वे आर्यकार नहीं है ॥ खरघोडाइहाणे, वयंति ते वावि नत्थ बच्चति । वेसत्थीसंसग्गी, उस्सयाओ ममीवमि ।।१२५॥ ___ जहां गोड़े गधे आदि पशु बान्धे जाते हैं अथवा जहां वे उठते बैठते हैं और आपस में कामक्रीड़ाए करते हैं, उन स्थानों पर जो आर्यकाएं वार वार जातो हैं अथवा जहां आयकाएं ठहरी हुए हैं उस स्थान पर वे घोड़े गधे आते जाते हैं, तो जो आर्यकाएं प्रसन्न होती हैं. इस के अतिरिक्त जहां वेश्या का सम्पर्क होता हो अथवा जिन अर्शकाओं के उपाश्रय के पास वेश्या रहती हो तो उन को आर्यका न समझना चाहिये । धोवन्ति कण्ठिकाः, प्रोतयन्ति तथा च ददति वस्त्राणि । गहकार्यचिन्तिकाः, न हु भार्याः गौतम , ताः ।। १२४ ॥ खरघोटकादिस्थाने. व्रजन्ति ते वाऽपि तत्र व्रजन्ति । वेश्यास्त्रीसंसर्गा, उपाश्रयात् समीपे ॥ १२५ ।। "वच्चंति" 'व्रज-नृत-मदां च.॥८४२२५ ।। इति सूत्रेण अजधातोन्त्यस्य द्विरुक्तश्चकारः ।। For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ गच्छायार पइरणयं सज्झायमुक्कजोगा, धम्मका विगह पेसा गिहीणं । गिहिनिसिसज्जं बाहिति, संथवं तह करतीओ ||१२६|| जिन आर्यकाओं ने शास्त्र की स्वाध्याय छोड़ रखी है और धर्मकथा में ही लगी रहती है तथा विकथा करती हैं - गृहस्थों से यहीं बातचीतों में अपना समय व्यतीत करती हैं तथा उनको गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों के करने के लिये प्रेरणा रहती हैं गृहस्थों के घरों में जाकर बैठती हैं और उन से अधिक संस्तव परिचय बढ़ाती हैं, हे गौतम! वे आर्यकाएं केवल अपने पेट को ही भरने वाली है वे वास्तव में आर्यकाएं नहीं हैं ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट – ये सब बातें साधुओं पर भी समान रूप से लागू होती हैं । जो. साधु ऐसा करते हैं वे भी केवल पेटू हैं और जिन शासन में वे साधु नहीं कहला सकते || समा सीसपडिच्छीणं, चोणासु खालसा | गणिणी गुणसंपन्ना, पसत्थपुरिसागा ॥ १२७ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे अ विसोरया ॥ १२८ ॥ स्वाध्याय मुक्तयोगाः, धर्मकथाविकथा प्रेषणं गृहिणाम् । गृहिनिषद्यां वाहयन्ति, संस्तवं तथा कुर्वन्त्यः ॥ १२६ ॥ समा शिव्यप्रतीच्छिकानां, नोदनासु अनलसा । गणिनी गुणसम्पन्ना, प्रशस्तपुरुषानुगता ।। १२७ ।। संविग्ना भीतपरिषत् च, उमदण्डा च कारणे । स्वाध्यायध्यानयुक्ता च संप्रहे च विशाग्दा ॥१२८॥ For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५. साध्वीस्वरूपनिरूपण इन दो गाथाओं में मुख्य-साध्वी कैसो होनी चाहिये यही बताया गया है: जो साध्वी ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से सम्पन्न मोक्षाभिलाषिणी है, जनता के अधिक सम्पर्क से कतराती है एकान्तवास को अधिक महत्त्व देती है किन्तु कारण उपस्थित होने पर जब कि जनता का जोवन पतन को ओर जा रहा हो. और जिनशासन की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो तो ऐसे समय में जो उग्ररूप भी धारण करने वाली हो अर्थात् ऐसे समय में जनता के सम्पर्क में आकर परम साहस से कार्य करने वाली हो । तथा स्वाध्याय और ध्यान में रक्त रहने वाली हो और नवदीक्षिताओं तथा अन्य साध्वियों की भली प्रकार रक्षा करने वाली हो । अपनी शिष्याए तथा अन्य के पास से अध्ययन एवं वैयावञ्च आदि के लिये आई हुई दूसरी शिष्याएं, इन में जो समभाव वर्ताती हो, उन सब को प्रेरणा करने में शिक्षा देने में किसी प्रकार का आलस्य प्रमाद एवं पक्षपात नहीं करती हो । इस प्रकार जो अपने पूर्व प्रशस्त पुरुषों का अनुसरण करती है, वह आर्यका महत्तरिका पद के योग्य होती है। टिप्पण-इसी प्रकार, ये उपरोक्त गुण जिस साधु में हों, वह साधुओं में मुखिया वनने के योग्य है।। जत्युत्तरपडिउत्तर, वडिया अज्जा उ साहुणो सद्धिम् । पलवंति सुरुहावी, गोश्रम ! किं तेण गच्छेण ? ॥१२६।। योत्रत्तरप्रत्युत्तरं, वृद्धा आर्या तु साधना साईम् । प्रलपन्ति सुरुष्टाऽपि, गौतम ! किं तेन गच्छेन ? । १२६।। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायर पइएणयं जहां आर्यका और साधु परस्पर (अथवा साधु साधु आपस में या आर्यका आर्यका एक दूसर से ) उत्तर प्रत्युत्तर में पड़ जावे और बड़े आवेश में आकर एक दूसरे को उत्तर देते चले जावें, हे गौतम ! ऐसे गच्छ से क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है ॥ जत्थ य गच्छे गोयम ! उप्पएणे कारणमि अज्जाओ। गणिणीपिहिटिमाओ, भासंति मउअसण ॥१३०॥ प्रथम तो आर्यका को विना कारण साधु से वार्ताजाप करनी ही नहीं चाहिये, यदि कारण पड़ने पर ऐसा प्रसंग आजाए तो उसे अपने से बड़ी मुल्य साध्वी को आगे करके थोड़े शब्दों में सहज, सरल एवं निविकारता पूर्वक स्थविर अथवा गीतार्थ साधु से ही विनय के साथ बोले ऐसा जहां होता हो उस का नाम गच्छ है। माऊए दुहिआए, सुण्डाए अहव भइणिमाईणम् । जत्थ न प्रज्जा अक्खड़, गुनिविमेयं तयं गच्छम् ।।३१॥ तथा जो साध्वी, अपने संसारी सम्बन्धियों के नाम, यह मेरी माता है यह मेरी लड़की है, यह मेरी स्नुषा है, यह मेरी .--.---- ------- यत्र च गच्छे गौतम !, उत्पन्ने कारणे आर्याः । गणिनीपृष्ठस्थिताः, भाषन्ते मृदुकशब्देन ॥ १३० ॥ मातुः दुहितुः, स्नुषायाः अथवा भगिन्यादीनाम् । यत्र न आर्या श्रार याति, गुप्तिविभेदं सको रच्छः ॥१३।। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण बहन है अथवा मैं इस की माता हू मैं इस की लड़की हूँ आदि वचन विना कारण लोगों में प्रकट न करती हो और उन के मर्मो का उद्घाटन न करती हो, ऐसी वचन-गुप्ति वाली आर्यकाओं के समूह का नाम ही गग्छ है ॥ दंसणियारं कुणई, चरित्तना जणेइ मिच्छतम् । दुहवि वग्गाणज्जो, विहारमेयं करेमाणी ॥१३२।। जो आर्यका दर्शन में अतिचार दोष लगाने वाली और मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली है तथा दोनों पक्षों में अर्थात् अपने तथा साधओं के चारित्र में शैथिल्य लाने वाली है और जिनोक्तमार्ग से भटकाने वाली है, वह वास्तव में आर्यका नहीं है। तम्मूलं सारं, जणेइ अज्जा वि गोयमा ! नूणं । तम्हा धम्मुवएसं, मुत्तुं भन्न न भासिज्जा ॥१३३॥ हे गौतम ! जिनोक्तमार्ग से भटकी हुई पार्यका भी निश्चय रूप से साधु के लिये संसार का कारण बन जाती है इस लिये आर्यकाओं से धर्मोपदेश से अतिरिक्त अन्य वार्तालाप न करनी चाहिये। दर्शनातिचारं करोति, चारित्रनाशं जनयति मिथ्यात्वम् । द्वयोरपि वर्गयोरार्या, विहारभेदं कुर्वाणा ॥ १३२ ।। तन्मूलं संसार, जनयति मार्याऽपि गौतम ! नूनम् । तस्माद् धर्मोपदेश, मुक्त्वा अन्यत् न भाषेन ।। १३३ ।। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं मासे मासे उ जा अज्जा, एगमित्येण पारए । कलहइ गिहत्थासाहि, सव्वं तीए निरस्थयं ॥१३४॥ जो आर्यका एक एक मास की तपस्या कर रही है और पारणा भी केवल ग्रास मात्र से करती है यदि वह आर्यका दृसरों से ऐसे कलह करती है, जैसे गृहस्थ असभ्य शब्दों में किया करते हैं तो उस आर्यका की सब तपस्या निष्फल हो जाती है। टिप्पणी-इन उपरोक्त दो गाथाओं में जो विषय वर्णन किया गया है वह साधुओं के सम्बन्ध में भी समान रूप से लागू होता है जैसे कि जो साधु जिनोक्त मार्ग की आज्ञा का उल्लंघन करके वीतरागमार्ग से भटका हुआ है वह साध्वी के लिये संसार-परिभ्रमण का कारण हो सकता है इस लिये आर्यका साधुओं से धार्मिक वार्तालाप के अतिरिक्त अन्य संभाषण न करें। इसी प्रकार जो साधु तपस्या आदि शुभ कार्य तो करता है परन्तु हीन वचन एवं तुच्छ बचनों को बोलते हुए, क्लेश से बाज नहीं आता, उस के तपस्या आदि शुभ कार्य निष्फल होते हैं ।।। इस गाथा के साथ साध्वीस्वरूपनिरूपण नाम का तीसरा अधिकार समाप्त होता है इस अधिकार में जो साध्वियों के सम्बन्ध में कहा गया है वह उपरोक्त विधि से यथास्थान साधुओं के सम्बन्ध में भी मासे मासे तु या आर्या, एकसिक्थेन पारयेत् । कलहयेत् गृहस्थभाषाभिः, सर्व तस्याः निरर्थकम् ॥१३४।। "मासे मासे" "क्रियामध्येवकाले पञ्चमी च' ।। २।२।११० ॥ इति सूत्रेण सप्तमी विभक्तिः ॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५६ www.kobatirth.org उपसंहार साम्बीस्वरूपनिरूपण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समझ लेना चाहिये और साधुस्वरूपनिरूपण नाम के दूसरे अधिकार में जो विषय वर्णन किया गया वह भी यथा योग्य रूप से साध्वियों के सम्बन्ध में जान लेना चाहिये। यहां जो अलग अलग वर्णन किया गया है वह मुख्यता की दृष्टि से किया गया है। कोई बात साधुओं में मुख्यता से होती है तो कोइ साध्वियों में, जैसे कि यह अन्तिम गाथा जिस में असभ्य शब्दों में क्लेश का वर्णन किया गया है, इस विषय की स्त्रीजाति में प्रधानना हैं और पुरुष जाति में गौणता, इस लिये यह गाथा पुरुषाधिकार में न देकर स्त्री अधिकार में दी गई है परन्तु लागू होती है स्त्री और पुरुष दोनों पर समान रूप से || अअ ग्रन्थकार ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए कहते हैंमहा निसीहकप्पा, ववहाराओ तहेव य । साहुसाहुबिठाए, गच्छायारं समुद्धियं ।। १३५|| महा निशीप, वृहत्कल्प, व्यवहार तथा निशीथ आदि सूत्रों से साधु साध्वियों के लिये यह " गच्छाचारप्रकीकि" नामक ग्रन्थ, समुद्धृत किया है ।। परंतु सोहुणो एयं, असज्झायं विवज्जिउ । उत्तमं सुनिदिं गच्छाया रं सु उत्तमम् ।। १३६ ॥ इस लिये साधु साध्वियां, श्रुत के निचोड़-तत्त्वसाररूप महानिशीथकल्पात् व्यवहारात् तथैव च । साधुसाध्ठ्यर्थाय, गच्छाचारः समुद्धृतः ।। १३५ ।। पठन्तु साधव एतद्, अस्वाध्यायं विवर्ज्य | उत्तमं श्रुतनिस्यन्दं, गच्छाचारं सूत्तमम् ॥१३६|| For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएण्य इस उत्तम संकलन गच्छाचारप्रकीर्णक को अस्वाध्यायकाल छोड़ कर पढ़े और इस का चिन्तन एवं मनन करें॥ गच्छायारं सुणिचाणं, पढिता भिक्खु भिक्खणी । कुणंतु जं जहा भणियं, इच्छन्ता हियमप्पणो ||१३७।। ___ साधु और साध्वियां जो अपनी आत्मा का हित साधना चाहती हैं इस "गच्छाचार प्रकीर्णक" को स्वयं पढ़ कर या दूसरे से सुन कर, उसी प्रकार करें जैसा कि इस में कहा है, ऐसा करने से उन की आत्मा का कल्याण होगा। इति गच्छाचारप्रकीर्णकं समाप्तम् ..."itawr गच्छाचारं श्रुत्वा, पठित्वा भिक्षवो भिक्षुण्यः । कुर्वन्तु यद्यथा भणितं, इच्छन्तो हितमात्मनः ॥१३७।। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only