Book Title: Dwayashray Mahakavya Part 02
Author(s): Hemchandracharya, Abhaytilak Gani
Publisher: Wav Jain S M P Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वयाश्रयमहाकाव्यम् द्वितीय खन्ड प्रकाशक: श्री साचोर (सत्यपूर) जैनष्यताम्बर मूर्तिपूजकसम साबोर, जि. जालोर, राजस्थान ३४३०४१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22630 17-02 कलिकालसर्वज्ञ आचार्यभगवत् श्री हेमचन्द्रसूरि विरचितम् छ्याश्रयमहाकाव्यम् द्वितीय खन्ड श्री अभयतिलकगणिविरचितया टोकया समेतम् सर्गा : ११-२० आशीर्वचनम् पूज्ययादाचार्यदेव श्रीमद् विजयॐकारसूरीश्वरा : प्रकाशक : श्री सांचोर (सत्यपूर) जैनश्वताम्बर मूर्तिपूजक सङ्घः सांचोर, जि. जालोर, राजस्थान ३४३०४१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान सरस्वती पुस्तक भंडार रतनपोळ, हाथीखाना, अमदावाद १ सेवंतीलाल वी. जैन २० महाजन गली, १ ले माळे, झवेरी बजार, मुंबई - २ मोतीलाल बनारसीदास 40 UA बंगलो रोड, दील्ही ७ मेघराज पुस्तक भंडार २१९ A कीका स्ट्रीट, गोडीजी चाल, मुंबई-२ पार्श्व प्रकाशन निशापोलना नाके झवेरीवाड अमदावाद-१ चौखम्बा संस्कृत सीरिझ ओफिस वाराणसी वि. सं. २०४३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DVYÄS'RAYA MAHĀKĀVYAM By Acharya Shri HEMCHANDRASŪRI PART-II With Commentary By Shri ABHAYATILAKAGANI Cantos 11 to 20 BLESSINGS FROM HIS HOLINESS PUJYA-ACHARYADEV MAHARAJA SHRIMAD-VIJAY OMKARSURISWARJI Published By SHRI SANCHORE SWETAMBAR MOORTIPOOJAK JAIN SANGH SANCHORE, Dis. JALORE (RAJASTHAN) PIN : 343041 III Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Copies Available from Saraswati Pustak Bhandar Hatikhana, Ratanpole Ahmedabad 1 Sevantilal V. Jain 20, Mahajan Galli Zaveri Bazar Bombay 400002 Motilal Banarasidas 40UA Bungalow Road, Jawaharnagar Delhi-7 Meghraj Pustak Bhandar 212, A-Kika Street Godiji Chawl Bombay-400002 Parswa Prakasan Nisha Pole Zaverivad Ahmadabad-1 Chowkhamba Sunskrit Series office Varanasi Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री विजय भद्र सूरीश्वरेभ्यो नमः) जयउ वीर सच्चउरी मंडण पूज्यपाद मिदि-विनय-भद्रविशाल-ॐकारसूरीश्वरे भ्यो नमः વિજય ૐ કાર સૂરિ Acharya Vijay Omkar soori आशीर्वचन परमाराध्य महामनिषी पूर्वाधार्य भगपन्नों का विपुल दान है यह ग्रन्धराशि ! से ग्रन्थों के पठन-पाठनकी अनवरत परंपरा सदा प्रवाहमान रहे इसलिए आयश्यक है ऐसे ग्रन्योका संशाधन-सम्पादन, पृका. शन एवं पुनः प्रकाशनकी, जो कि अन्धों को सदा प्राप्य बना रस्थे ; स्वाध्यायकी परंपराको अक्षुण्ण बनाये रस्के । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव श्रीमविनय हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महारानके व्याश्रयमहाकाव्य (भा.२)का पुन: प्रकाशन कर के श्री सांचोर अन धे.म.पू. संघने 'पुत्थयलिहणं' के शास्त्रबोधित कर्तव्यको सुचारु रूपसे अदा किया है। मुनिप्रवर श्री जिनचन्द्रविनयभी, मुनिश्री, मुनिचन्द्रविजयजी, एवं मुनिश्री भाग्येशविनयमीकी प्रेरणासे प्रकाशित यह अन्धरत्न विद्वानों के पयमें कलिकालसर्वज्ञकी वाणीको अनुगुंजिन करे । यही शुभ कामना | आचार्य विजय ॐकारभि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( श्री विजय भद्र सूरीश्वरेभ्यो नमः) पूज्यपाद सिध्दि - विनय भद्रविशाल - ॐकारसूरीश्वरेभ्यो नमः प्रास्ताविकम् संस्कृत वाङ्‌मय के अनूठे इस रत्न द्वयाश्रयमहाकाव्यम्-को विद्वानों के करकमल में समर्पित करते आनन्द होता है कलिकालसर्वज्ञ आचार्य देव श्रीमद्‌ द्विजय हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा की इस कृति में चालुक्यवंश के प्रमुख शासक मूलराज से परमार्हत् कुमारपाल महाराजा तक के गुर्जरराष्ट्र के प्रशासकों का इतिहास सुचारु रूप से गुंफित किया गया है ; :- काव्यात्मकढंग से सिद्ध हे मव्याकरण के उदाहरणों को चर्चित करते हुए । इसीलिए तो इसे 'द्वयाश्रय महाकाव्यम्' नाम से सम्बोधित कर दिया कृतिकार महर्षिने । प्रस्तुत ग्रन्थ सन १९१५ एवं सन १९२१ में दो खण्डों में t VI बोम्बे संस्कृत एण्ड ६९ व १६ में प्रका प्राकृत सीरीज़' में क्रमा शित हुआ था I कई वर्षों से दुर्लभ इस महाकाव्य को पुनः संशोधित / सम्पादित करके प्रकाशित कर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वानेके आशय से पाटण (गुजरात) स्थित श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानभण्डार से प्राचीनतम ताडपत्रीय हस्तपून प्राप्त करके ११ सर्ग तकके पाहमेद उल्लिखित किए, लेकिन अनुमवसे ज्ञात हुआ कि आ पाठभेद उपलब्ध हो रहे हैं वे श्रीकाधवटे महोदय द्वारा सम्पादित प्राचीन संस्करण में उपलब्ध पाठभेद से प्रायः समान ही है । मुद्रण भी संतोषकारक था उक्त संस्करण का, सो शीघ्रातिशीघ्र मुद्रण ठो सके इसलिए Photo- zetox पद्धति से मुद्रण करवाने का निर्णय हुआ। सन १९८३ में श्रीमनफरा जैनसंघ 4 श्रीवावअनसंघ द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम अण्ड(सर्ग १-१०) का प्रकाशन हुआ है, और अब श्रीसांचौरजैनसंघ द्वारा यह दूसर। खण्ड प्रकाशित किया जा रहा है,आ सचमुच बडे आनन्द की बात है। मुद्रण आदि की सुचारु व्यवस्था करके श्री मोहनलाल अमनादास शाह ने अपनी शुनभक्ति का अच्छा परिचय दिया है। महाकाव्य में आये ठुझे विशिष्ट नामों की अकारादि सार्थ सूचि व इन्दों की सूचि परिशिष्ट में दी है। पूज्यपाद आचार्य व श्रीमद्विजय भास्श्वरजी के शियरल मोर १-पार मुनिराज श्री जनधन विजय शिघ्याण ानपंचमी मुनि मुनिचंद्र विजय वि.सं.२०५३ VII Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि....ष....या....नु........मः एकादशः सर्गः । ख. २, पृ. १-६१ मयणल्लाया गर्भधारणम् । दशमे मासि जयसिंहनाम्नः पुत्रस्य जन्म । बाल्यवर्णनम् । जयसिंहस्य राज्याभिषेकः । कर्णस्य स्वर्गगमनम् । देवप्रसादस्य स्वपुत्रं त्रिभुवनपालं जयसिंहहस्ते समl चिताप्रवेशः॥ द्वादशः सर्गः । ख. २, पृ. ६२-११४ राक्षसकृतोपद्रवकथनाय ऋषीणामागमनम् । राक्षसवधाय जयसिंहस्य प्रस्थानम् । युद्धवर्णनम् । राक्षसाधिपस्य बर्बरस्य तत्पनी. प्रार्थनया मोचनम् । ततः स्वगृहागमनम् ॥ त्रयोदशः सर्गः । ख. २, पृ. ११५-१६० बबरकृतमुपायनादिभिर्नुपरञ्जनम् । जनश्रुतीः श्रोतुं जयसिंहस्य निशि बहिर्निर्गमनम् । सरस्वतीसरित्तटे नागमिथुनदर्शनम् । कनकचूडो दमनकेन सह संजातं भार्यापणमूषदानेन हुल्लडं प्रति गमनेन वा पणमोचनप्रकारं चाकथयन् । कनकचूडाय कूपादूषण घटीं भृत्वा समर्पणम् । एवं तं संकटान्मोचयित्वा जयसिंहस्य स्वपुराभिगमनम् ॥ चतुर्दशः सर्गः । ख. २, पृ. १६१-२०३ अन्येास्तथैव निशि चरतो जयसिंहस्य योगिन्या सह संभाषणम् । यशोवर्मनृपं मित्रं कृत्वा कालिकाद्या योगिनीरर्चयान्यथोजयिनी त्वया गन्तुमशक्येति योगिन्या नृपं प्रत्युक्तिः । यशोवर्मनृपश्चेजीवनाशं न नश्यति मम स गुप्तिबन्धं बन्ध्यो युष्मामिस्तु रक्ष्यश्वेच्छ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। क्यत इति योगिनी प्रति राज्ञ उक्तिः । ससैन्यस्य राज्ञः प्रस्थानम् । योगिनीर्विजित्य यशोवर्मनृपं गृहीत्वा च तं गुप्ताव:प्सीत् । सीमनृपतींश्वाबनात् ।। पञ्चदशः सर्गः । ख. २, पृ. २०४-२६१ स्वपुरी निवृत्य जयसिंहो हार्दिक्यसाम्राज्यानन्यांश्च भूपजाल्मान विजित्याशिक्षयत् । सोमनाथयात्रायै गमनम् । पूजया प्रीतः शंभुखिभुवनपालपुत्रः कुमारपालस्त्वदन्ते मां धरिष्यतीति नृपमुक्त्वान्तर्दधौ । यात्राक्रतुदेवायतनस्थापनादिवर्णनम् । जयसिंहस्य स्वर्गगमनं च ॥ षोडशः सर्गः। ख. २, पृ. २६२-३३२ कुमारपालस्य राज्याभिषेकः । कुमारपालमसमर्थ मन्यमानोऽन्यैनॅपैः समेत आन्नोऽनेन सह व्यरुद्ध । कुमारपालस्यार्बुदगिरिं प्रत्यागमनम् । अर्बुदाद्रिवर्णनम् । सर्वर्तुवर्णनम् ॥ सप्तदशः सर्गः । ख. २, पृ. ३३३-४१६ वीणां पुष्पोच्चयार्थ वल्लभैः सहगमनम् । वर्णासानद्यां जलक्रीडावर्णनम् । निशावर्णनम् । सुरतवर्णनम् । सूर्योदयवर्णनम् ॥ अष्टादशः सर्गः । ख. २, पृ. ४१७-४९० कुमारपालानयोर्युद्धवर्णनम् । आन्नस्य पराभवः ॥ एकोनविंशः सर्गः। ख. २, पृ. ४९१-५५९ आनो जहणां नाम स्वकन्यां कुमारपालायं प्रददौ । विवाहवर्णनम् । कुमारपालविरोधिनो बल्लालस्य कुमारपालसेनानीकृतपराभववर्णनम् । कुमारपालोऽन्यानप्यरीन्विजित्य वसुधां न्यायेनाशात् ॥ विश सर्गः । ख. २, पृ. ५६०-६४२ कुमारपालस्य खाटिकशालायां विक्रेतुं पशूक्रयता केनचिद्वाम्यनरेण संवादः । तत आत्मनो राज्येऽधिकारिणामार्याघोपणामचीकरत् । IX Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। अन्यदा कुमारपालो निशीथ आखिरं श्रुत्वा परिहितनीलवासास्तत्परिज्ञानाय बहिर्जगाम । तरोरधो रुदतीं पतिपुत्ररहितां राजकृतधनापहा. रभीतां कांचिद्धनवती स्त्रियं दृष्ट्वा एष राजा न ग्रहीष्यति तव धनं पतिपुत्राभ्यां पयो दातुं स्थेया इति तां सान्त्वयित्वा वधोद्यमात्तां न्यवर्तयत् । गृहमागम्य चासूनोः परासोर्वित्तं न ग्राह्यमित्यमात्यान् न्यदिक्षत् । अपरेाः केदारहवें खसराजभग्नं चारमुखाच्छ्रुत्वा खसराजं संतयं तदुद्धाराय सोमेशवेश्मनश्वोद्धाराय मत्रिणमादिदेश । आहेतैर्दत्ताशीर्वादोऽणहिलपुरे श्रीदेवपत्तनतले च पार्श्वचैत्ये अकारयत् । स्वप्ने शंभुनादिष्टः कुमारपालोऽणहिलपुरे कुमारपालेश्वराख्यायतनमकारयत् । अन्ते ऋषीणामाशीर्वचनम् ॥ प्रथमखण्डस्य शुद्धिपत्रकम् पृष्ठे पङ्क्तौ २५ १६ ३९ ६ ४० २ ४१ २ ४२४ ४७ १३ ५६ १७ ५७ ४/८ १८३ ११ १८३ शुद्धपाठ: स्वेनोटा० कण्ठ इ परपुंस्थु० मान्धाते० संस्स्कत मन्दं ०रान रणात द्यो ३त्र "डित्यन्त" समुन्मि० ३७४ ३७६ MOCC ० याधि, निन्युः परी. ०जे कृत्वान्वाजे ०दिपं इत्यत्र Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खन्ड : व्याश्रयमहाकाव्ये एकादशः सर्गः । उपभुक्तऋतुं देवीमुपभुक्तोथ भूपतिः । जैग्धे जग्धं तदैकस्मिन्नुद्यानान्तर्यया सह ॥ १ ॥ १. अथ सौधगमनानन्तरं भूपतिः कर्णो देवीं मयणल्लामुपभुक्तो रमितवान् । किंभूतां सतीम् । उपभुक्तोतिक्रान्त ऋतुः पुष्पकालो यया ताम् । ऋतुस्नातामित्यर्थः । यया देव्या सहोद्यानान्तलोपवनमध्ये तदोपभोगकाल एकस्मिन्नभिन्ने द्यतेस्मिन्निति जग्धं भोजनपात्रं तत्र जग्धं कर्णेन भुक्तम् । एतेन विशिष्टगर्भाधानहेतुर्मिथोनुरागाति शय उक्तः तयोर्ववृत एकत्र पीतं पीतेशितेशितम् । आसिते चासितं सृप्तं सृप्ते च प्रीतियोगतः ॥ २ ॥ २. तयोर्दम्पत्योः प्रीर्तियोगतो मिथोनुरागसंबन्धादेकत्राभिन्ने पीते पानपात्रे पीतं जलादिपानं ववृते संजातम् । तथैकत्राशिते भोजनपात्रे - शितं भोजनं तथैकत्रासित आसन आसितं चावस्थानं च तथैकत्र सृप्ते गमनस्थाने सृप्तं च गमनं च ॥ १ रु. २ए जग्धै न०. ३ए मां स. १ ए सी डी न्तः पु०. २ ए सी 'न्तलीलो. ३ एन्यते. ४ सी भु० ५ सी डी 'थो रा° ६ ए °योगितो. ७ ए सी डी नं प्रव° ८ ए त्रासिते. ९ ए तथेक° १० ए आसित आसितं पाव, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] रौप्यभुक्तोज्ज्वलमुखी गर्भ देवी ततो दधी ! विदित्वायतत त्रातुं ध्यायं ध्यायं स भीमजः ॥ ३ ॥ ३. ततो देवी गर्भ दधौ । कीदृक्सती । गर्भवशाद्रौप्यं रूप्यस्य विकारो यद्भुक्तं पात्रं तद्वदुज्वलं श्वेतं मुखं यस्याः सा । ततो भीमज: कों विदित्वा गर्भ ज्ञात्वा ध्यायं ध्यायं रक्षोपायान्विचिन्त्य विचिन्त्य त्रातुं गर्भ रेक्षितुमयतत ॥ भीष्मवायुवलोपृच्छदाशातन्तुप्रवर्धनीम् । देवीं दोहदकार्याणि नन्दनोत्कः स नन्दकः ॥४॥ ४. भीष्मवाय्वोर्गाङ्गेयवातयोरिव बलं सामर्थ्य यस्य स तथा नन्दको जगदाह्रादकः स कर्णो देवी दोहदकार्याण्यपृच्छत् । यतो नन्दनोत्कः पुत्र उत्कण्ठितः। किंभूतां देवीम् । आशैव पुत्रमनोरथ एव सन्तानपटहेतुत्वाति॑न्तुः सूत्रं तस्य प्रवर्धनी वर्धिकाम् ।। वाक्येन तसास्तु समवसन्यः पाणिसंय॑या । दिवोपि कृष्टै रेज्ज्वेव वाप्याव्यैश्च वस्तुभिः ॥५॥ डेप्ययाव्यैर्जलासाव्यै राप्यालाप्यरसाश्चितैः । आचाम्यैर्युध्यनानाम्यः स दोहदमपूरयत् ॥ ६ ॥ ५, ६. स कर्णो दोहदं गर्भानुभावजनितां श्रद्धां देव्या अपूरयत्। १ बी °यं च भी. २५ °सग्यया. ३ ए रज्ज्वैव. ४ डी °साथै रा. . १ए क्षोमायान्विचित्र विचित्य त्रा. २ बी रक्षयितु. ३ ए °क्षितुं म°. ४ए °वायोर्गा'. ५ए 'यं तस्य. ६ डी नोत्को नन्दने पु. ७सी कः स नन्दकपु. ८५ °चन्तुर. ९ए सी डी "स्स .. १०९ । कौकै. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.१.११] एकादशः सर्गः। कैः कैरित्याह । वाप्यैर्वस्तुभिर्द्राक्षाफलादिभिर्लाव्यैश्वावश्यं छेद्यैश्च वस्तुभिर्जातिपुष्पादिभिः । तानि हि नोप्यन्तेवश्यं त्रोट्यन्ते च। तथा डेप्ययाव्यैर्डेप्यैः प्रेर्यैः किंकरादिभिर्याव्यैश्चात्मना सह संबन्धनीयैः प्रियसख्यादिभिः स्वाङ्गेन संबन्धनीयैर्वस्त्राभरणादिभिर्वा । तथा जलासाव्यैर्जल आसाव्यानि भावेत्र ध्यण् । तैस्तीर्थस्नानैरित्यर्थः । तथाचाम्यैर्भक्ष्यैः परमान्नादिभिः । किंभूतैः।राप्यालाप्यरसाञ्चितै राप्या माधुर्यादिगुणोपेता अमी इति सामान्येन वक्तुं शक्या अलाप्याश्चैतावन्मात्रमाधुर्यादिगुणा अमी इति विशेषतो वक्तुमशक्याश्च ये रसा माधुर्यादयः । उक्कं च । इक्षुक्षीरगुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथापि ने तदाख्यातुं सरस्वत्यापि पार्यते ॥ १ ॥ तैरञ्चितैर्युक्तैः । सर्वैरप्येतैः कीदृशैः । तस्यास्तु देव्याः पुनर्वाक्येनामुकस्मिन्फलादौ ममेच्छेति वाचा समवसन्युर्मेलनीयैः । तथा दिवोपि स्वर्गादपि पाणिभ्यां सृज्यते क्रियते पाणिसा तया रज्ज्वेव कृष्टैराकृटैरतिदुःप्रा(दुष्प्रा)पैरपीत्यर्थः । नन्वनेनैषां दिवोप्याकृष्टिः कुत इत्याह । यतो युध्यनानाम्यो देवैरपि नमयितुं जेतुमशक्यः ॥ नापत्राप्यं त्वया दाभ्यो नेच्छयात्मेति तां ब्रुवन् । अमावास्यायमेवामावस्येन्दुमपृणन्नृपः ॥७॥ १ बी °वश्येन्दु'. १५ करोदि. २ ए यैवस्त्रा'. ३ ए सी डी सार्ज'. ४ ए सी डी 'साधानि. ५ ए सी डी चान्यैर्भ. ६ ए रापाला. ७ ए सी डी क्या आला. ८ सीत् । तदा. ९ ए नदा त०. १० ए °तुं रसस्व. ११ ए °तिदुप्रा०, १२ सी डी नन्वेषां. १३ ए वोथा कृ. १४ ए °ह । अतो.. १५ सी नमिथितुं, ए °मथितुं. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याभयमहाकावे [कर्मराजः ७. स कर्णस्तां देवीमपृणदोहदपूरणेनापोषयत् । कीहक्सन् । तां ब्रुवन् । कथमित्याह । त्वया नापत्राप्यं न लजनीयमिच्छया श्रद्धया कृत्वात्मा त्वया न दाभ्यो न वश्य इति । यथामावस्येन्दुममावास्यार्यमा घृणोति । अमावास्यायां हि रवेः सुखमणाख्यकिरणं लब्ध्वा चन्द्रो वर्धत इति प्रसिद्धिः ॥ अपभुक्कैः उपभुक्तऋतुम् । अत्र “गत्यर्थः" [33] इत्यादिना वा क्तः कर्तरि॥ जेग्धे जग्धम् । अशिते अशितम् । सृते सप्तम् । आसिते आसितम् । पीते पीतम् । भुक्त उपभुक्तः उपभुकतुम् । अत्र "अद्यर्थाचाधारे" [१२] इत्याधारे को वा ॥ विदित्वा । त्रातुम् । ध्यायं ध्यायम् । अत्र "क्रवा०" [१३] इत्यादिना क्रवातुममो भावे ज्ञेयाः ॥ भीम । भीष्म । इत्येतौ "भीम" [१४] इत्यादिनापादाने साधू ॥ वायु । तन्तु । इत्यत्र "संप्र०" [१५] इत्यादिना संप्रदानापादानाभ्यामन्यघोणादयः॥ __ नन्दन नन्दकः । अत्र “असरूप०"[१६] इत्यादिनापवादविषय औत्सर्गिकः प्रत्ययो वा । असरूप इति किम् । ध्यणि यो न स्यात् । कार्याणि ॥ प्राक् केरिति किम् । प्रवर्धतेनया प्रवर्धनी । अनैष्टिषये न तिः । आशायते तनूक्रियते लाभादसावित्याशा । "उपसर्गादातः" [५.३.११०] इत्यविषये न किः ॥ कार्याणि । वाक्येन । इत्यत्र "ऋवर्ण०" [१७] इत्यादिना ध्यण् । १ए सीति xxxx प्रसि०. २ डी पृणाति. ३ एकतम् ।. सी ककत् । अ°. डी °क्त°. ४ ए ना कः. ५ ए जग्धौ ज०. ६ सी डी म् । उ°. ७ए °भुक्तक. ८ डी धार तो. ९सी न्दकः. १० ए अस्वरू. ११ ए °र्गिकप्र. १२ ए अस्वरू. १३ ए नटुविष. बी 'नटविष. १४ ए त्यद्विष. सी डी त्यङविष. १५ एत्र कर्ण. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.१.२१] एकादशः सर्गः । पाणिसर्ग्यया । समवसम्यैः । अत्र " पाणि०" [१८] इत्यादिना यणं ॥ ः । अत्र “उवर्णात् ०" [१९] इत्यादिना ध्यण ॥ । जलासाम्यैः । माब्यैः । वाप्यैः। रौप्य । भलाप्य । अपत्राप्यम् । डेप्य । वैभ्यः । आचाम्यैः पैः । आनाम्यः । अत्र “आसुयु० " [२०] इत्यादिना ध्यण् ॥ अमावस्यामावास्याशब्दौ "वाधारेमावस्या" [२१] इति साधू ॥ लाब्यैः ऊचे च तुकुण्डपाय्यसंचाय्यराजसूयकृत् । निकाय्योपाय्यपुण्यानां भावी विश्वाप्रणाय्यकः ॥ ८ ॥ देवि द्रष्टुमैच्छस्त्वं धाय्यासान्नाय्यपावितान् । परिचाय्योपचाय्यानाय्यसमूह्यान्सेंचित्यकान् ॥ ९ ॥ ८, ९. राजोचे । किमित्याह । हे देवि यद्यस्मात्त्वं परिचाय्योपचाय्यानाय्यसमूह्यानग्निभेदान्द्रष्टुमैच्छः । किंभूतान् । धाय्या रूढिशब्दत्वाकाश्विदेव ऋचः । सान्नाय्यं हविः । द्वन्द्वे तैः पवितान् । तथा सचित्यकांश्चित्येनाग्निविशेषेण युक्तान् । तस्मात्तु तव पुत्रो भावी भविष्यति । कीदृक् । कुण्डपाय्यसंचाय्यराजसूयकृत्कुण्डपाय्यादियागविशेषकारकः । तथापाय्यपुण्यानामपाय्यान। मविद्यमानमानानां पुण्यानां निकाय्यो निवासः । तथा विश्वाप्रणाय्यको विश्वसंमतो विजिगीषुत्वाद्विश्वाभिलाषुको वेत्यर्थः ॥ १ ए बी तुतुण्ड. २ एषुमं ३ ए स्त्वं ध्यायासा° ४ ए सजो. *°. १ प सी डी ण् ॥ जलासा. २ ए 'न्यैः । व्याप्यैः ३ बी राप्या । लाप्या । ४ बी सी दाभ्य । आ ५ ए सी डी 'मावास्या ६ सी डी 'मावस्या". ७ सी डी 'मावास्या. ११ सी डी पाचिता. १० बी "श्विदेव". ८ पु साधूः ॥ ९मित्या. १२ ए सी डी 'स्मात्तव तुक् पु. १३ सी "माना". Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः गर्भविघ्नच्छिदेभूवन्मुव्यनानाय्यगोदुहः । संवाह्यानौ च याज्याभिर्यष्टव्यमृषयोयजन् ॥ १० ॥ १०. गर्भविघ्नच्छिदे गर्भापायच्छेदाय ऋषयो भुव्यनानाय्यगोदुहो नित्यगोदोहका अभूवन । गोषु हि भुवि दुग्धासु विना विलीयन्त इति श्रुतिः । तथा संवाह्याख्याग्निभेदे याज्याभिर्दानऋग्भिः कृत्वा यष्टव्यं हव्यमृषयोयजंश्चाजुहदुः॥ करणीयेष्वहेयेष्वशेयैः शक्येष्टसिद्धिभिः । प्रशस्यं यत्यमारेभे यज्यैर्भज्यैः पुरोहितैः ॥ ११ ॥ ११. प्रशस्यं शसू हिंसायाम् । धातूनामनेकार्थत्वात्स्तुतावपि तेने स्तुत्यं यद्वा प्रगतं शस्यं हिंसा यस्य तत्प्रशस्यं यत्यं गर्भशान्तिकर्मविषयो यत्नः पुरोहितैरारेभे । यतः किंभूतैः । अहेयेषु धर्महेतुत्वेनात्याज्येषु करणीयेषु विघ्नच्छेदादिकर्मसु विषये शेयैर्जागरूकैस्तथा महामात्रिकत्वाच्छक्या शकिः स्वभावाद्धास्वन्तरार्थानुसंहित एवं प्रयुज्यते ततः कर्तु शक्येष्टसिद्धियस्तैरत एव यज्यैः पूज्यैर्भज्यैः सेव्यैः ।। असह्यतक्यतप्योयं याज्यश्चत्यो विजन्यताम् । गर्भः क्षेमेण भाग्यैर्न इति दध्यौ गुरुस्तदा ॥ १२ ॥ १२. गुरू राजाचार्यस्तदा गर्भवृद्धिकाले ध्यौ । किमित्याह । अयं गर्भो नोस्माकं भाग्यैः पुण्यैः क्षेमेण विजन्यतामुत्पद्यताम् । कीदृक् । १ ए सी नामाय्य°. २ ए शेयै श०.. १बी नविच्छेदे. २ ए सी डी न् । सं'. ३ ए सी डी त्वा त्सुता . ४ सी "न सुत्यं. ५ बी यस्मात्तत्प्र. ६ एस्य त्वत्प्र. ७ एममु द्विष. ८ ए सी डी °च्छक्याः श. ९ ए मुसंपहि. १० बी संहसित. ११ वी भज्य से. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ५.१.२९.] एकादशः सर्गः। विशेषणकर्मधारये नन्समासे च असह्य तक्यतप्यो महाप्रतापित्वाच्छत्रुभिरनभिभाव्योनुपहास्योसंताप्यश्च । तथा याज्यः पूज्यस्तथा चत्यो दानेश्वरत्वाद्याचकर्याच्य इति ॥ संञ्चाय्यकुण्डपाय्यराजसूयाः "संचाय्य." [२२] इत्यादिना निपात्याः ॥ प्रणाय्य । इति "प्रणाख्यः" [२३] इत्यादिना निपात्यते ॥ धायया । पारय । सान्नास्य । निकाय्य । एते "धाय्या०" [२४] इत्यादिना निपात्याः ॥ परिचाय्योपचारयानाय्यसमूह्यान् । चित्यै । इत्येते "परिचाय्यः" [२५] इ. त्यादिना निपात्याः ॥ केचिदानाय्येत्यग्निविशेषादन्यत्राप्यनित्यविशेष इच्छन्ति । अनानाय्यगोदुहः ॥ अन्ये संपूर्वादूहेरनावेवेति नियमार्थ घ्यणं निपातयन्ति । अग्नेरन्यत्र समूहितव्यमित्येव । वहेस्तु तन्मतेमावपि संवायेति स्यात् ॥ याज्याभिः । इति "याज्या दानर्चि" [२६] इति निपात्यम् ॥ यष्टव्यम् । करणीयेषु । इत्यत्र "तव्यानीयौ" [२७] इति तव्यानीयौ ॥ अशेयैः । अहेयेषु । इत्यत्र “य एञ्चातः" [२८] इति य आतश्चैत् ॥ शक्य । तक्य । चत्यः । यत्यम् । प्रशस्यम् । असह्य । यज्यैः । भैज्यैः ॥ पवर्ग । तप्यः । अत्र "शकितकि." [२९] इत्यादिना यः॥ यजिभजिभ्यां नेच्छ. न्त्येके । याज्यः । भाग्यैः ॥ मन्दं गद्यं श्लथं यम्या नीवी मद्यं न च त्वया । गतिर्नियम्या नायाम्यौ चरणावप्रमाद्यया ॥ १३ ॥ - १ए यम्यां नी. २५ °द्ययाः ।।. १५ ह्यसक्य. २ बी 'त्य । एते. ३ ए हः । शेप सं. ४ बी न्ये तु सं. ५ए अन्येर. ६ ए नीयैः ॥ अ. ७ ए इयोत्पात. ८ बी "तियोन्त्यात. ९बी चत्य । .१०.ए सी डी 'त्य । प्र. ११ए भन्तैः ॥ प. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये न निगाद्यं न वा चर्य मद्यपाचर्यभूमिषु । नोपसर्यान्तिके चैतां वर्याचार्यस्त्रियोशिषन् ॥ १३ ॥ १३, १४. वर्या आप्तत्वेनोपेया या आचार्यस्त्रियो राजगुरुभायीस्ता एतां देवीमशिषन्नशिक्षयन् । कथमित्याह । देवि त्वयाविद्यमानं प्रमाद्यं प्रमादो यस्यास्तयाप्रमाद्यया सत्या मन्दं नीचैर्गद्यं वाच्यं तथा नीव्यधोवस्त्रग्रन्थिः श्रथं शिथिलं यम्या बन्ध्या तथा न च मद्यं मद्यपानादिनों न क्षीबीभाव्यं तथा गतिर्यानं नियम्या नियतीकार्या । अल्पं गम्यमित्यर्थः । तथा चरणौ नायाम्यौ न प्रसार्यो । तथा मद्यपी - चर्यभूमिषु मद्यपैर्मद्यपानार्थं सेव्यासु भूमिषु नै निगाद्यं न वाच्यं न वाचर्यं भ्रमणीयं तथोपसर्यान्तिके च ऋतुमतीसमीपे च न निगाद्यं न वाचर्यमिति । उच्चैर्गदनादौ हि गर्भाबाधा मत्ततादौ च छलच्छिद्राद्यनेकदोषसंभव इत्येतानि निषिध्यन्ते ॥ । 93 नीत्वानवद्य सामासान्पुण्यपण्यपदं नव । ब्रह्मक्षत्रर्यशूद्राणामर्यं प्रासूत नन्दनम् ॥ १५ ॥ १५. अनवद्यो निष्पापा सा देवी नव मासान्नीत्वातिक्रम्य नन्दनं पुत्रं प्रसूत । कीशम् । पुण्यपण्यपदं धर्मक्रयाणकस्थानमत एव ब्रह्मक्षत्रार्यशूद्राणामैर्य स्वामिनम् ॥ २ एतां चर्या. २ ए 'शिष्य'. ३ ए ६ सी डी 'पाचार्य.. १० ए सी डी तथाप. निः पापा. १३ सी दृश्यम्. १४ ए धर्म क्र. १ सूया. १ वीनशि'. ५ ए 'सायो । त चाच.. ९ एणीत [ कर्णराजः ] ३ ए द्या मा० . ४ बी सी 'सूद्रा. माद्यो य'. ७ए न न गा. ११ ए निषेध्य १५ ए "मर्थ स्वा". ४ए नाम क्षी. ८ डी न १२ बी द्या Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.. ५.१.३४. एकादशः सर्गः। यम्या । मद्यम् । गद्यम् । अत्र "यममद० (यमिमदि०?)" [३०] इत्यादिना यः ॥ अनुपसर्गादिति किम् । आयाम्यौ । अप्रमाद्यया। निगाद्यम् ॥ बहुलवचनान्माद्यन्त्यनेन मद्यं करणेपि । नियम्य । इत्यत्र सोपसर्गादपि ॥ चर्यम् । आंचर्य। इत्यत्र "चरे०" [३१] इत्यादिना यः। अगुराविति किम् । आचार्य ॥ वर्याचार्यस्त्रियः ॥ उपसर्या । अनवद्या। पण्य । इत्येते "वर्य०" [३२] इ. त्यादिना निपात्याः ॥ वर्षेति स्त्रीलिङ्गनिर्देशात्पुंसि न स्यात् ॥ अन्यस्तु पुंस्यपी. च्छति । सामान्य निर्देशात्तदपि संगृहीतम् ॥ तदा वर्याश्च त आचार्याश्च वर्याचा. स्तेिषां स्त्रिय एवमपि समासः स्यात् ॥ अर्यम् । अर्य । इत्येतौ "स्वामि०" [३३] इत्यादिना निपात्यौ । वरेित्य ततो ब्रह्मोद्यानुवाद्यैर्नृपाज्ञया । सुसत्यवद्यैर्दैवज्ञभूयं प्राप्तैरितीरितम् ॥ १६ ॥ १६. ततः पुत्रजन्मानन्तरं दैवज्ञभूयं ज्ञानिकत्वं प्राप्तैर्दैवज्ञैरिति वक्ष्यमाणमीरितमुक्तम् । किं कृत्वा । नृपाज्ञया वखैरश्वादिवाहनैः कृत्वैत्यागत्य । कीदृशैः । शोभनं सत्यवयं सत्यवदनं येषां तैस्तथैकेनोदितेन्येन तस्यैव वदनमनुवाद्यं ब्रह्मोद्यं ज्ञानभणनमनुवाद्यमिदमित्यमित्यन्यैरनुवाच्यं येषां तैर्मिथः संवादं कृत्वेत्यर्थः ॥ एषोरिकीर्तिहत्याकृत्वप्रतापाग्निचित्यया । उत्खेयद्वीपभूपालो निर्मूषोद्यो भविष्यति ॥ १७ ॥ १ ए धैर्दिव. २ ए सी भूयप्रा. ३ ए °लोनिनिषो. १ ए सी चमान्मा. २ बी आचार्य. ३ ए सी डी 'चार्या । व. ४ए अनाव° ५ ए सी °द्या । पाण। इ°. ६ ए सी अर्या । अ०. ७ ए सी डी ना वा नि०. ८ ए कृत्वेत्या . ९बी सलं . . २ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाब्ये [कर्णराज] १७. एष पुत्रो भविष्यति । कीदृक् । स्वप्रताप एवाग्निचित्यामेश्व. येनं तयोत्लेयद्वीपभूपाल उत्पाट्यद्वीपनृपः प्रतापेनैवाब्धिमध्यमपि साधयितेत्यर्थः । अत एवारिकीर्तिहत्याकृच्छत्रुयशोविनाशकस्तथा धामिकत्वानिर्मषोद्यो मृषोद्यादसत्यवचनानिष्क्रान्तः ॥ वयैः । इति “वरं करणे" [३४] इति निपात्यम् ॥ ब्रह्मोद्य । सुसत्यवद्यैः । अत्र "नाम्नो वदः क्यप् च" [३५] इति क्यप्यश्च । नान्न इति किम् । अनुवाद्यैः ॥ कीर्तिहत्या । दैवज्ञभूयम् । इत्येतो "हत्या." [३६] इत्यादिना निपात्यौ । अग्निचित्यया । इति “अग्निचित्या" [३०] इति निपात्यम् ॥ उत्खेय । मृषोद्यः । इत्येतौ “खेय" [३८] इत्यादिना निपात्यौ ॥ सर्वार्थसाधने पुष्योतिसिध्यो वैष भास्यति । भिद्योद्ध्यस्नातयुग्योयं दिग्भ्योकुप्यं हरिष्यति ॥ १८॥ १८. एष पुत्रो भास्यति । कीहक्सन् । सर्वार्थसाधने पुष्यः पुष्यनक्षत्रतुल्योतिसिध्यो वा पुष्यादप्यधिको वा । तथा दिग्भ्योकुप्यं कुप्यं रूप्यस्वर्णाभ्यामन्यत्कांस्यादि न तथाकुप्यं स्वर्ण रूप्यं च हरिष्यत्यानेष्यति । कीहक्सन् । भिद्योड्यौ हृदविशेषौ तयोः स्नातानि युग्यानि वाहनानि यस्य स तथा । भिद्योड्यौ यावगतसैन्य इत्यर्थः ॥ १५ वैषा मा . २ डी लातेयु. १ ए °यमं त°. २ बी पालं उ°. ३ ए पोव्याद° ४ बी निकान्तः, ५ बी मोद्यः । सु.सी डी मोद्या सु. ६ ए नामोव ७ ए क्यप्रयश्च, सीडी क्यप्रत्ययश्च. ८ सी चित्येति नि°. ९ ए °त्ययेत्यग्निचित्यया । ३°..१० ए सी डी खेयः । मृ. ११ ए यमक्ष°. १२ ए रूपख°. सी रूपास्व. १३ ए यो हृद, १४ डी स . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.५.१.४१] एकादशः सर्गः। सूर्योयं राक्षसांज्यानां प्रजायास्तिष्यवत्प्रेियः। स्तुत्यः प्रात्य आदृत्यो जुष्यश्च भविता नृपैः ॥ १९ ॥ १९. अयं पुत्रो भविता भविष्यति । कीदृक् । राक्षसाज्यानां रा. क्षसघृतानां सूर्यो विलीनयितेत्यर्थः । तथा प्रजायास्तिष्यवप्रियः पुष्य इव पोषकत्वादभीष्टस्तथा नृपैः स्तुत्यः प्रात्यः परिवार्य आदृत्य आदरणीयो जुष्यश्च ।। इत्योधीत्यः सुरैः कृच्छध्येयोपेयश्व पत्रगैः।। यो विश्वामित्रशिष्योभूद्देवः सोत्रावतीर्णवान् ॥ २० ॥ २०. स देवो रामचन्द्रोत्र पुत्रेवतीर्णवानवतारं चक्रे यो विश्वामित्रशिष्योभूत् । कीदृशः । यः कृच्छ्र आपदि सुरैरधीत्या शरणाय स्मर्य इत्योभिगम्यश्च । तथा पन्नगैरध्येयश्चासावुपेयश्च सेव्यश्चाध्येयोपेयश्च ।। कुंप्यम् । मियोद्ध्य । सिध्यः । तिध्य । पुष्यः । युग्यः । आज्यानाम् । सूर्यः । इत्येते "कुंप्य०" [३९] इत्यादिना निपात्याः ॥ आहत्यः । प्रावृत्यः । स्तुत्यैः । जुष्यः ॥ एनीति इणिकोहणम् । इत्यः । अधीत्यः । शिष्यः । अत्र "हेदृग्०" [४०] इत्यादिना क्यप् ॥ इणिकोहणादपतेरिकन न स्यात् । उपेयः । अध्येयः ॥ अासंकल्प्यवृत्योसौ चारिः शंस्यकृत्यवित् । दानवय॑जगच्छस्यं सुरकार्य करिष्यति ॥ २१ ॥ १५ °साय्यानां प्रयाया'. २ ए प्रिया स्तु°. ३ बी त्यश्चादृ. ४ ए°कृच्छोध्ये'. ५ ए बी सी कल्पवृ. ६ ए सी डी °ारिशं. ७ ए सी रिस्यति. १५ जायस्ति. २ बी यवत्पोष°. ३ ए वृत्या प०. सी वृत्य प. ४सी डी रिचायं. ५५ चकेः यो. ६ ए कुष्यम् । भिवयोद्धय. ७ ए तिप्यः । पु. ही तिष्यः । पु. ८सी युग्मं । आ. ९ ए कुष्य . १० एलः । जष्यः ॥ एवीति हणि°. ११ ए दृष्टग, १२ ए क्या ॥ १०. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] २१. असौ पुत्रः शस्यं श्लाघ्यं सुरकार्य दैत्यवधादि करिष्यति । कीहक्सन् । अयं धर्म्यत्वेन पूज्यमसंकल्प्यं महत्तमत्वेन केनाप्यसाध्यत्वादचिन्त्यं वृत्यं वर्तनं यस्य सः । तथा चा हिंस्या अरयो येन सः। तथा शंस्यकृत्यवित् प्रशस्यकार्यज्ञस्तथा दानेन वयं सेक्यं जगद्येन सः॥ नीत्या वृष्या च मृन्या च दुह्या चानेन गौरियम् । ब्रह्मजाप्यकृतां जप्ये मार्ये विघ्नं हरिष्यते ॥ २२ ॥ २२. अनेन पुत्रेण क; नीत्या न्यायेन कृत्वेयं गौः पृथ्वी वृष्या च सेक्या न्यायेन प्रवर्तयिष्यत इत्यर्थः । अत एवं मृज्या च नि. पापीकरिष्यत इत्यर्थः । अत एव दुह्या च रत्नानि क्षारयितव्या च । न्यायपूतौ हि पृथ्वी महर्युपचितत्वाद्रत्नानि प्रसूते । तथा ब्रह्मजाप्यकृतां ब्रह्मणः परमध्येयस्य जाप्यं जपनं ध्यानं कुर्वतां योगिनां मार्ये रागद्वेषादिमलापनयनेन संशोध्ये जप्ये ध्याने विनं दैत्याद्युपद्रवोनेन हरिष्यते ॥ ज्ञानगुह्यमिति ख्यातवत्सु तेष्वनिगोह्यमुत् । दोह्या गाः प्रददौ जित्याशतभूमिं च भूमिपः ॥ २३ ॥ २३. इत्येवंरीत्या ज्ञानगुह्यं ज्ञानरहस्यं ख्यातवत्सूक्तवत्सु तेषु दैवज्ञेषु भूमिपः कर्णो ददौ । किमित्याह । दोहा गा धेनूर्जित्याशतभूमि च । जित्या महाहलानि तासां यच्छतं तस्य भूमिं च । महाहल१ ए सी जाप्यं कृ. २ डी विघ्नह°. ३ डी वस्तु ते°. १ सी धर्मात्वे. २ ए सी कल्पं म° ३ ए केनप्य. ४ सी चिन्त्यवृत्य व. ५ ए °ा हिस्या. ६ ए °त् प्रश०. ७ वी सेच्यं ब. ८ ए सी क्यं तग°. ९ए ध्वीन्वृषा च. १०एसी व सुज्या. ११ ए सीता दि पृ. १२ सी डी ध्ये जाप्ये. १३ सीक्त ते. १४ डी त्सु दै. १५९ °लामि ता. सी लामि तांस. १६ डी नि तसा य.. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हैं. ५.१.४.२] एकादशः सर्गः । १३ शतेन यावती भूः कृष्यते तावतीमित्यर्थः । कीदृक्सन् । अनिगोह्यातिबहुत्वात्संवरीतुमशक्या मुद्येन सः ॥ पुत्रे विपूयजन्माभेसिन्कुङ्कुमविनीयकैः । श्रेणिया पुरीगृह्योत्सवं चक्रे प्रगृह्यवाक् ॥ २४ ॥ २४. पुरीगृह्या नगरवा(बा)ह्या श्रेणिः सजातीयशिल्पिसंघः कुङ्कुमविनीयकैः कुङ्कुमानां कल्कैः कुङ्कमद्रवैरित्यर्थः । उत्सवं सर्वत्र छटादानैर्महं चके । क । विपूये मुजे शरवणे जन्म यस्य स विपूयजन्मा स्कैन्दः । तेजस्वितादिगुणैस्तत्तुल्ये स्मिन्पुत्रे । पुत्रजन्मविषयमित्यर्थः । कीटशी सती । गृह्या हर्षोत्कर्षेण मद्यपानोत्थमत्ततया वास्वतत्रा । तथा प्रगृह्या स्वरसन्धिरहिता वाक्पटू एतौ कुङ्कुमक्षेपकावित्यादिका वाणी यस्याः सा । एतेनास्या अन्योन्यमुत्साहनं पाण्डित्यं चोक्तम् ॥ गुणगृह्याः कर्णसूनोः शक्रभृत्याः सभार्यकाः। संभृत्यभूमेः संभार्यदिवः खे मङ्गलं जगुः ॥ २५ ॥ २५. सभार्यका देवीयुक्ताः शक्रभृत्या इन्द्रपोष्या देवाः खे मङ्गलं जगुः । किंभूताः सन्तः । कर्णसूनोर्गुणगुंह्या गुणानां पक्षपातिनः । यतः किंभूतस्य । संभृत्यभूमेः पोष्यपृथ्वीकस्य । तथा संभार्यदिवो दैत्यन्यका(का)रादिना पोष्यस्वर्गस्य ॥ वृत्यः । अत्र "ऋ" [१] इत्यादिना क्यप् ॥ अकृषिचतच इति किम् । असंकल्प्य । चर्त्य । अयं ॥ १ सी डी दिवाःखे. २ए वः एव म. १ सीमानां वि०. २ ए वगो ज'. ३ ए स्कन्द ते° ४ ए तापिदि'. ५ बी ' ज. ६ ए वाश्वत ७ सी हन पा. ८बी देवा खे. ९सी गुंया. १० ए कागदि. ११ ए इन्यादि. १२ ए पिवृद. १३ सी डी 'कल्पा। च. · १४ एल्प्य । वर्त्य । अर्ध्या ॥ कृ. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाचे [कर्णराजः] कृत्य कार्यम् । वृष्या वर्ण्य । मृज्या माये । शस्यं शंस्य । गुह्यं निगोह्य । दुह्या दोह्याः । जप्ये जाप्य । इत्यत्र "वृषि०" [४२] इत्यादिना क्यप् वा ॥ जित्या । विपूय । विनीयकैः । अत्र "जिवि." [१३] इत्यादिना क्यप् ॥ प्रेगृह्मवाक् ॥ अस्वैरिणि । गृह्या। वा(बा)द्यायाम् । पुरीगृह्या ॥ पंक्षे । पुणगृह्याः । अत्र "पद." [४४] इत्यादिना क्यप् ॥ भृत्याः । अत्र "मृगोसंज्ञायाम्" [४५] इति क्यप् ॥ असंज्ञायामिति किम् । संभार्यकाः ॥ संभृत्य संमार्य । इत्यत्र "समो वा" [४६] इति वा क्यप् ॥ हरः श्रीनायको धाता लेहाः सर्वेमृतस्य च । दैत्यान्भटब्रुवाजेनुः कर्णनन्दनजन्मनि ॥ २६ ॥ २६. कर्णनन्दनजन्मनि सति हरः श्रीनायको विष्णुर्धाता सर्वेमृवस्य लेहाश्चास्वादका देवाश्च दैत्यान्भटब्रुवान्निन्द्यभटाअजुर्मेनिरे ॥ मदनोगान्तरग्राही स्थायी पुण्ये बुधान्वये । किरो गिरो विपक्षाणां ज्ञप्रियोलक्षि कर्णभूः ॥ २७ ॥ .२७. पुण्ये बुधान्वये सोमसुतवंशे स्थायी वर्तमानः कर्णभूः कर्णपुत्रोङ्गान्तरमाही शरीरान्तरग्रहीता मदनोलक्षि । तथा विपक्षाणां किरो विक्षेपको गिरः संहारकश्चालक्षि । तथा झप्रियो विद्वज्जनवल्लभ - १ए त्यान्भुडब्रु. २ ए अज्ञः क. ३ ए सातर'. १५ या वृj. २ ए मार्गे । श'. ३ सी ग्यें । शंस्यं शस्यं । गु. ४ डी शंस्यं । गु. ५ सी बी दोह्य । ज. डी दोहा । ज. ६ सी जप्य । ई. ७ए कृषि ८ सी क्यस्तप्वा ॥ जि. ९ए प्रसूझ. १० डी पक्ष्य । गु. ११५ 'रग्राही १२ए पक्षकाणां, ११ ए सी विपके गि'. १४ ए सी वा. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.५१.५७.] वापसा मनः। चालक्षि । तथाविधाकृतिविशेषेणात्यन्तं रूपी शूरो विवांना भविष्यतीति जनैः संभावित इत्यर्थः ।। नायकः । धाता । अत्र “णकतृचौ" [१८] इति गैकतृचौ ॥ हरः । अत्र “अच्" [४९] इत्यच् ॥ लेहाः । अत्र “लिहादिभ्यः" [५०] इत्यच् ॥ बुवान् । इति "ब्रुवः" [५१] इति निपात्यम् ॥ नन्दनः(न)। मदनः । अत्र “नेन्द्यादिभ्योनः" [५२] ॥ ग्राही । स्थायी । इत्यत्र "ग्रहादिभ्यो णिन्" [५३] । धुंध । प्रियः । किरः । गिरैः । ज्ञ । इत्यत्र “नामि" [५४] इत्यादिना कः । राजव्याघ्रगृहे प्रहा निष्प्रतिश्यायकण्ठकाः । एयुश्छात्राः प्रफुल्लाघ्राः पठन्तः सूत्रमालकाम् ॥ २८ ॥ २८. छात्राः सोपाध्यायाश्चट्टा राजव्याघ्रगृहे राजव्याघ्रस्य कर्णस्य सौध एयुः । कीदृशाः सन्तः । प्रह्ला विनीतत्वानम्रास्तथा निष्प्रतिश्यायः प्रतिश्यायाच्छेष्मणो निर्गतः कण्ठो ध्वनिर्येषां ते त्या तारस्वरास्तथा सूत्रमातृकां पुत्रजन्मोत्सवोचितं पाठविशेष पठन्तोत एव प्रफुल्लाघ्रा उच्चसितनासिकाः ॥ गृहे । अत्र "गेहे ग्रहः" [५५] इति कः । प्रहाः । अत्र "उपसर्गाद" [५६] इत्यादिना डः ॥ अश्य इति किम् । प्रतिश्याय ॥ १बी निःप्रति'. ३ ए सी 'श्यामक'. ३ ए युग्छत्राः प्रपुछापाः प. ४ बी सूतमा.. १ सी डी 'त्यन्त रू. २ ए डी पक् तृ. ३ ए नन्दादिभ्योतः ॥ ग्रा'. ४ बी बुधः । प्रि. ५ एरः । न । इ. ६ सीना यक ॥. ७ बी निप्प्रति. ८ डी याश्लेष्माणो. ९ ए सी च्छेष्माणो. १० बी सूतमा . ११ बी मोचि. २२ ए सी सिxxx सौ. डी "सिका ॥ गृ. १३ डी श्यायः ॥ व्या. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराषः] व्याघ्र । आघ्राः । एतौ "व्याघ्र०" [५७] इत्यादिना निपात्यौ । माल्यजिघ्राः शङ्खधमा उत्पश्यत्वान्नभःपिवाः। सुधाधयसमाः संगीतकं चक्रुः कलाविदः ॥ २९ ॥ २९. कलाविदो गायनादयो विद्यावन्तः संगीतकं प्रेक्षणं चक्रुः । किंविधाः । शङ्खधमाः केचिच्छङ्क्षान्वादयन्तस्तथा केचिद्गायनादय उत्पश्यत्वाद्गानादावूर्ध्व प्रेक्षमाणत्वान्नभःपिबो व्योनो लेहा इव । गानादि कुर्वन्तो हि गायनादयः स्वभावादूवं पश्यन्तो व्योमचुम्बिन इव लक्ष्यन्ते । सर्वेपि चैते माल्यजिघ्राः पुष्पाणि जिघ्रन्तो भोगलिङ्गा इत्यर्थः । अत एव सुधाधयसमा गन्धर्वदेवैः समाः ॥ माल्यजिघ्राः । शङ्खधमाः। नभःपिबाः। सुधाधय । उत्पश्य । इत्यत्र "प्राध्मा० [५८] इत्यादिना शः ॥ मित्रैर्मुचेतयैरेतजन्मवेदयसातयः। विलम्बासाहयैरेये व्यापारान्तरपारयैः ॥ ३० ॥ ३०. मित्रैरेये कर्णसौध आगतम् । कीदृशैः । एतजन्मनः कर्णपुत्रजन्मनो वेदयानां ज्ञापकानां पुत्रजन्मवर्धापकानां सातवैर्महादानेन सुखोत्पादकैः। सात् सौत्रो धातुः सुखार्थे । ततः साततः सुखविषयीभवतो मित्राणि प्रयुजते णिम् । अतश्च पुत्रजन्मज्ञानान्मुञ्चेतयैहर्षस्यानुभवितृभिरत एव विलम्बासाहयैः कालक्षेपमसहमानैरत एव व्यापारान्तरपारयैरन्यन्यापारसमापकैः कार्यान्तरं मुक्त्वेत्यर्थः ॥ १ ए धायसमसं° सी धायसुमाः. १ए यतस्त. २ ए बी प्रेक्ष्यमा'. ३ ए 'क्ष्यते । स. ४ बी एवं मु. ५ ए सी डी समा ॥ मा. ६.५ °नां जाप. ७ सी दामेन. ८ बीत: मु. .डीयुद्धाते. १० एम्बासहः ये का.सी मासह. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ५,१.५९.] एकादशः सर्गः। अंश्चलोदेजयैः स्वैणैरक्षतामत्रधारयैः । उत्साहयितृभिः कान्त्या व्योमलिम्पैरुपस्थितम् ॥३१॥ ३१. स्त्रैणैरुपस्थितं कर्णान्तिकेवस्थितम् । कीदृशैः। अक्षतामत्रधारयैरक्षतपात्रधारिभिः । तथोत्साहयितृभिरन्योन्यस्योत्साहकैस्तथा कान्याङ्गालंकारादिद्युत्या व्योमलिम्पैर्नभो व्याप्नुवद्भिरित्यर्थः । तथाञ्चलोदेजयैः कर्णस्य निरुञ्छनाय वस्त्रप्रान्तस्य चालकैः । निलिम्पगोविन्दसमैमुद्विन्दस्यारविन्दकैः । तद्वेश्माभाञ्चलाचालैबन्धुभिर्बलभूषणैः ॥ ३२ ॥ ३२. तद्वेश्म कर्णसौधं बन्धुभिराभात् । कीदृशैः । मुदः पुत्रजन्मोत्थहर्षस्य विन्दानि लब्धण्यास्यारविन्दानि मुखपद्मानि येषां तैस्तथा ज्वलभूषणैर्दीप्यमानालंकारैरत एव निलिम्पगोविन्दसमैनिलिम्पैर्देवभेदैगोविन्देन विष्णुना च तुल्यैस्तथा चलाचालैः कैश्चिञ्चलैः कैश्चिदचलैः। द्विषद्दवज्वालदावः पुण्यभावो भवोपमः । सर्वेपामुचितं चक्रे रॉज्ञा नायो ग्रहशरुक् ॥ ३३ ॥ ३३. राज्ञां नायो नायकः कर्णः सर्वेषां छात्रादीनामुचितं वस्त्रदानादि चक्रे । कीदृक्सन् । ग्रहेरुिक् सूर्योष्णतेजाः । अत एव द्विषन्त एव दवा वनानि तेषु ज्वालदावो ज्वलद्दावानलस्तथा पुण्य औदार्यादिगुणैः पवित्रो भावोभिप्रायो यस्य सः । अत एवं भवोपमः शंभुतुल्यः ॥ १५ अनचलो'. २ ए मैमुद्धि'. ३ ए 'दाक पु. ४ ए °ण्यपुण्यभावोप'. ५ ए रायां तायो. ६ ए सी हेरुशक्. १ए न्योपलिन'. २ सी लिपैन'. ३ ए न्यागुव'. ४ सी नि xxx भात् । की. ५ ए दीपमा०. ६ ए चलैचलः. ७ सी लाचले कै. डी लाचलै:. ८ एषां स्थात्रा. ९एशक्. १० एषत एत द. ११ ए वो लदावा, १२ ए व भावो. १३ ए सी तुल्यं ॥ ग्रा. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ व्याश्रयमहाकाव्ये ग्राहाणामप्यमारिं स धान्यस्रावो धनास्रवः । प्रावर्तयद्धर्मनयो हर्षसंस्रावलोचनः ॥ ३४ ॥ २ ३४. स कर्णो प्राहाणामपि न केवलं स्थलचराणां जलचराणामपि मत्स्यादीनामप्यमारिं प्रावर्तयत् । कीदृक्सन् । हर्षेण पुत्रजन्मोत्थानन्देन संस्रावे जलं क्षरन्ती लोचने यस्य सः । तथा धर्मनयो धर्मस्य नाय - कोतिधार्मिक इत्यर्थः । अत एव धान्यस्रावो मात्सिकादिषु धान्यानां दाता । तथा धनास्रवो द्रव्यदाता च ॥ 3 [ कर्णराज: ] अवहारालयागाधः सोवसायोपि सागसाम् । हर्षाश्रुंसंस्रवोत्तानशी गुप्तिजुषोमुचत् ।। ३५ ।। ३५. अवहाराणां जलचराणामालयोब्धिस्तद्वद्गाधो गम्भीरः स कर्णो गुप्तिजुषः काराक्षिप्तान्नरानमुचत् । कीदृक् । सागसामपराधि - नामवसायोपि क्षयकारोपि । कीदृशान् । अस्माकमधुना मोक्षो भावीति हर्षाणां संस्रवाः क्षरित्र्य उत्ताना आगामिमोचकनर दिदृक्षयोर्ध्वभूता दृशो येषां तान् ॥ I आश्वासाम्लायहरिणीप्रमोदाकर्णितं नृपः । निरन्तरायमभयं व्याधभूष्वप्यघोषयत् ॥ ३६ ॥ ३६. नृपः कर्णो व्याधभूष्वप्याखेटकस्थानेष्वपीत्यर्थः । अभयं मरणभयाभावमघोषयत् । कीदृशम् । औश्वासाः स्वाभयश्रवणादुज्जीव I १ ए सी न्याम्रावो. २ ए संश्राव ं. ३ ए बी संश्रवो ४ ए शो मुक्ति". १ एमपि मा बी 'ममा. 'न्याश्रावो. ५ए नाश्रवो. ८ बी संश्रवाः. सी संधवाः ११ ए ईशा | आस्वासाः, २९ संश्रावे. ३ बी को धा ४ प् ६ बी "व्यस्य दा. ७ सीता xxx तथागाधो. ९ ए सी डी योई भू. १० बी 'ष्वप्यरण्येष्वपी'. १२ सी आस्वासा स्वा. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1है० ५.१.६५.] एकादशः सर्गः । न्योत एवाम्लाया हृष्टा या हरिण्यस्ताभिः प्रमोदेनाकर्णितं तथा निरन्तरांयमन्तरेत्यन्तरायो विघ्नस्तस्मानिर्गतं प्रचण्डशासनत्वेन केनाप्यनुल्लङ्घयमित्यर्थः ॥ साहयैः । सातयः । वेदय । उदेजयैः । चेतयैः । धारयैः । पारयैः । भत्र "साहि." [५९] इत्यादिना शः॥ अनुपसर्गादिति किम् ॥ उत्साहयितृमिः ॥ लिम्पैः । विन्द । इत्यत्र "लिम्पविन्दः" [ ६० ] इति शः । निलिम्प । गोविन्द । अरविन्द । इत्यत्र "निगवादेर्नाग्नि" [६] इति शः॥ ज्वल ज्वाल । चलाचालैः। दव दावः । नयः नायः। भव भावः । प्रह प्राहाणाम् । आस्रवः आस्तावः । अत्र "वा ज्वलादि०" [६२] इत्यादिना वा गः ॥ अवहोर । अवसायः । संस्राव । इत्यत्र "अवहृ०" [६३] इत्यादिना नः ॥ संसवेत्यपि कश्चित् ॥ उत्तान । व्याध । अन्तरायम् । आश्वास। अम्लाय । इत्यत्र "तन्न्यधि०"[६४] इत्यादिना णः ॥ नर्तकीर्गाथिकाः कान्त्या रजकीनभसोदिशत् । सोहःखनक्याः श्रीदेव्या महाय सह गायनैः ॥३७॥ ३७. स कर्णोहःखनक्या अंहसि निष्पुत्रत्वादिके पापे खनक्या विदारणशिल्पस्त्रीतुल्यायाः श्रीदेव्या महायोत्सवार्थमदिशदाज्ञापयत् । १ सी गथिकाः. २ ए कान्त्याः र. ३ ए त् । सांह: . सीत् । साहः'. १ ए रायांम. सी डी रायम. २ ५ प्यमुड'. ३ ए यैः । सोतयैः । वद'. ४ ए लिपैः । वि. ५ ए सी डी लिम्पा । गों. ६ ए नाम्नाति'. ७ ए सी डी दाव । न. ८ बी सी डी नय ना. ९ सी म् । स्र. १० ए आश्रवः. ११ डी वः । म. १२ ए सी डी हारः । *. १३ ए संश्रये . डी संश्रावे. १४ ए व्याधः । अ. १५ ए इतत्र. १६५ निप्पुत्र. १७ बी शिल्पित्री'. १८ ए दिवादा. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कर्णराजः] का इत्याह । गायनैर्गीतशिल्पैर्नरैः सह नर्तकीर्तनशिल्पा गाथिका गानशिल्पाश्च विलासिनीः । कीदृशीः । कान्त्याङ्गाभरणादिद्युत्या नभसो रजकीर्वस्त्रस्येव निर्मलीकारकत्वान्नानारागोत्पादनाद्वा रजकस्त्रीतुल्याः ॥ नर्तकीः । खनक्याः । रजकोः । भत्रे "नृत्खन्०" [६५] इत्यादिनाकट् ॥ गायिकाः । अत्र "गस्थकः" [६६ ] इति थकः ॥ गायनैः । अत्र "टनण्" [ ६७ ] इति टनण् ॥ प्रवकैः सरकेरापल्लवकै राजवल्लभैः। पुत्रनाम्युद्यतः सोभाद्धायनैर्नु सुहायनः ॥ ३८ ॥ ३८. स कर्णः पुत्रनाम्नि पुत्रनामकरण उद्यतः सन् राजवल्लभैरन्तरङ्गपार्षद्यैः सहितोभात् । कीदृशैः । प्रवकैः पुत्रनामकरणोत्सवहर्षेण साधु प्रवमाणैस्तथा संरकैः सविलासं गच्छद्भिस्तथापल्लवकैर्हितत्वादापदां साधु छेदकैः । यथा सुहायनोखिलसस्यनिष्पत्तिहेतुत्वेन शोभनः संवत्सरः प्रवकैः साधूदच्छद्भिः सरकैः प्रसृमरैरापल्लवकैर्दुष्कालोच्छेत्तृभी राज्ञां वल्लभैर्हायनैलॊहिभिर्भाति । हायनः । हायनैः । अत्र "ह:." [ ६८ ] इत्यादिना टनण् ॥ प्रवकैः । सरकैः । लवकैः । अत्र "घुस."[६९] इत्यादिनाकः ॥ गायन्त्यो वीरभूरन्तिवंदसौ नन्दकोस्त्विति । नाम वृद्धाः कुमारस्य जयसिंहेत्यथ व्यधुः ॥ ३९ ॥ ३९. अथ वृद्धाः कुलस्थविराः कुमारस्य जयसिंहेति नाम व्यधुः। १ सी यन्यो वी. २ बी रतिव'. ३ डी वदंसौ. १ए 'दृशी। का. २५ त्र भृत्व'. ३ ए अव र्ग'. ४ ए सी लतैर०. ५ ए रकै स. ६५ सी टी शस्य'. ७५ भनासं. ८ ए छवोकेई. ९बी कैदुष्का १० वी च्छेतृमी. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.१.७२. ] एकादशः सर्गः ः । २१ किंभूताः सत्यः । गायन्त्यः । कथमित्याह । वीरो भूयाद्वीरभू रंसीष्ट रेन्तिः । द्वन्द्वे वीरभूरन्ती महाराजविशेषौ । तद्वैन्नन्दको नन्दताद्वर्धतामित्याशास्यमानस्त्विति । जयसिंहे तीत्यत्रानुकार्यानुकरणयोः स्याद्वादाश्रयणेनाभेदविवक्षायामर्थवत्त्वाभावान्न नामसंज्ञेति न विभक्तिः ॥ ४ नन्दकः । अत्र “आशिष्य कन्” [ ७० ] इत्यन् ॥ रन्ति । वीरैभू । अत्र “तिकृतौ नाम्नि ” [ ७१ ] इति तिकृच्च ॥ I शिरोलाववदाकम्पकारं तन्नाम शुश्रुवुः । दुर्गाण्यमण्डयंश्वारिभूमिपाला भयद्रुताः ।। ४० ।। ४०. स्पष्टः । किं तु शिरोलाववद्यथा शिरश्छेदकस्य नामाकम्पकार्र भयजनकम् । तन्नाम जयसिंहेत्याख्याम् । दुर्गाणि कोट्टानमण्डयन्नरचयन् ॥ रक्षामरचयत्सूनोः शेषभक्षैर्नृभिर्नृपः । धर्मशीलैर्यशः कामैः शुभाचारैर्बहुक्षमैः ॥ ४१ ॥ १० १५ ४१. नृपः कर्णः शेषं बालभोजनादुद्धरितं भक्षयन्ति तैः शेषभक्षनृभिर्बालहारैः कर्तृभिः सूनो रक्षौमरचयदकारयत् । किंभूतैः । यशःकामैरेकान्तेन स्वस्वामिभक्तों एत इत्यादियशोवादाभिलाषिभिरत एव धर्मं शीलयन्त्यभ्यस्यन्ति ये तैर्धर्मशीलैर्धार्मिकैरत एव शुभाचारैः स्वस्वामिनोनुकूलमेवाचरद्भिस्तथा बहु क्षाम्यन्ति ये तैर्बहुक्षमैः ॥ E १ बीरं तंना २ ए नामं शु. ३ ए सी 'नो शे · १० १ बी डी सन्त्यो गा. २ ए रन्तिदेवी. ३ सी इम्रानन्दता. ४ बी "र्थत्वा'. ५ ए सी डी 'रभू: । अ° ६ सी तिकृत्यौ ना. ७ ए 'ति'. ८ बीरं तथाकम्पकार भ.. ९ सी डी ख्या । दु. ११ ए 'दुच्चर'. १२ ए 'भिबाल'. १३ ए 'क्षानर'. १५ ए 'क्ता इत्याभिय'. सी डी 'क्ता इत्यादि. १६ ए मिस्त १८ ए बहुं क्षा, १९ एम्यति तै एसी र्ण शे. १४ बी "मैरका". शीलिधार्मि. १७ सी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] सुखप्रतीक्षा धात्री तं वज्रसंगायसामगी। कुमारं रमयामासासुरापी शीधुपीवियुक् ॥ ४२ ॥ ४२. धात्र्युपमाता तं कुमारं रमयामास । कीहक्सती । असुराप्यमद्यपा । तथा शीधुपीवियुक् । मद्यपासङ्गरहिता । तथा सुखप्रतीक्षा यावत्कुमारस्य सुखमुत्पद्यते तावत्प्रतीक्षमाणा । तथा कुमारस्य सुखोत्पादनाय वक्र गीतविशेष संगायति वक्रसंगायी या सामगी मधुरं गायन्ती सा ।। निर्वया॑त् । आकम्पकारम् ॥ विकार्यात् । शिरोलाव ॥ प्राप्यात् । भूमिपालाः । अत्र “कर्मणोण ॥" [७२ ] इत्यण् ॥ तन्नाम शुश्रुवुः । इत्यत्र प्राप्याकर्मणोनमिधानानस्यात् । तथा बाहुलकानिर्वयविकार्याभ्यामपि कचिन्न स्यात् । रक्षामरचयत् । दुर्गाण्यमण्डयन् ॥ धर्मशीलः । यशःकामैः । शेषभक्षैः । शुभाचारैः । सुखप्रतीक्षौ । बहुक्षमैः । अत्र "शीलिकामि०" [३] इत्यादिना णः ॥ सामगी । इत्यत्र “गायः०" [७४ } इत्यादिना टक् ॥ अनुपसर्गादिति किम् । वक्रसंगाय॥ सुरापी । शीधुपी । इत्यत्र "सुरा०" [७५] इत्यादिना टक् ॥ स भूपपुत्रो ववृधे वीरहायः पराभवन् । तन्तुवायधान्यमाया निवोवीशदासकान् ॥४३॥ १सी रोमाशुसा. २ बी पी सीधु. ३ ए हायप. ४ ए नित्पोवी. सी डी निवाधीश. १एमयांनसे । की. २ ए बी सी था सीधु'. ३ ए था मुख. ४ ए सी 'स्य xx मुखो'. ५ वी तीक्ष्यमा'. ६ ए बी स्व मुखो. ७ बीगीतिवि'. ८ ए शेषसं. ९ बी सी र्वत्यात्. १० एमणाण. ११ ए बी र्वत्यवि'. १२ एचिभूस्यात् । पक्षामपच दु. १३ बी यन् । दु. १४ ए यत् ॥ ध. १५५ क्षा । . १६ ए ना दक्. १७ ए पी । साधु, वी सी पी । सीधु'. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.१.८०. ] एकादशः सर्गः । २३ ४३. स भूपपुत्रो ववृधे । कीदृक्सन् । वीरह्नायो बालकयुद्धाय सुभटद।रकान्सस्पर्धमाकारयंस्तथा तन्तुवायधान्यमायार्भानिव कुविन्दव • णिग्बालकानिवोर्वीशदारकान्पराभवन् । भूप । इत्यत्र “भात ०" [ ७६ ] इत्यादिना है: । अह्वावाम इति किम् । वीरायः । तन्तुवाय । धान्यमाय ॥ हरिगसंख्यदायादो गोप्याख्यो बाह्यभूमिषु । यथा तथैको रेमे स पथिप्रज्ञोरिभीप्रदः ॥ ४४ ॥ ४४. सं कुमारो बाह्यभूमिषु सरस्वतीतटादिष्वेको रेमे । यथा गोसंख्या गोपाला दायादा गोत्रिणो यस्य सः । तथा गोपीराख्यात्याचष्टे वा गोप्याख्यो गोपावस्थाः सन्नित्यर्थः । हरिर्बाह्यभूमिषु यमुनातटादिवेको रेमे । यतः कीदृक्स हरिश्च । पथिप्रज्ञः । प्राज्ञत्वान्मार्गज्ञस्तथारिमीप्रदः शत्रुभयप्रदोतिपराक्रमीत्यर्थः ॥ । 97 १२ 1 १४ गोसंख्य । इत्यत्र “समः ख्यः” [ ७७ ] इति डः ॥ दायादः । गोप्याख्यः । अत्र “दश्चाङः” [ ७८ ] इति डः ॥ पथिप्रज्ञः । भीप्रदः । अत्र " प्रौद् ज्ञश्व" [ ७९ ] इति डः ॥ क्रोशहः सोरिहोक्रीडत्क्लेशा पहतमोपहे । कुमारघाती गान्धार्या इव सारखे तटे ॥ ४५ ॥ 93 १ एरिस्यैसं. २ ए दाय: दो. ३ ए क्रोह:. ४ए वीर्गाधायां ह ं. ५ ए स्वमे त. १ए यो...यु. २ बी मार्यार्भा ३ ए णित्पाल'. ४ सी डी 'निवाधीश'. ६ ए बी हाय । त ७ ए • ५ बीडः ॥ आहा. सी डी ड: ॥ हा ं. “मायः ॥ ८ ए स क्रुमा ९ सी गोघृता दा क. १२ ए रिश्वाप. १३ ए रिसीप्र. १५ ए बी सी प्राश. १० ए तदादि. ११ एमे । येन १४ ए समाख्यः इति ज्ञः ॥ दाग्मदः . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जयसिंहः ] 9 ४५. स जयसिंहः क्लेशापहतमोपहे महातीर्थत्वेने रागद्वेषाभिनिवेशानामपहन्तर्यज्ञानस्यापद्दैन्तरि च सारखते तटेक्रीडत् । यथा गान्धार्याः कौरवमातुः कुमारघाती कुमाराणां दुर्योधनादीनां हन्ता भीमः सारस्वते तटे रेमे । मीमो हि कौमारे कुरुक्षेत्रस्थायाः सरस्वत्यास्तटे बहुधा क्रीडितवान् । कीदृक्स मीमश्च । किंचिद्वाल्यातिक्रमेण प्रौढत्वाकोश हन्ति गच्छति क्रोशहोत एवारीन् वध्यादित्याशास्यमानोरिहः ॥ शीर्षघाती पादघातः शर्तभ्यादि समैः सह । I 90 सोभ्यास्यदरिषु क्षेतुं पतिनीमिव कन्यकाम् ॥ ४६ ॥ २४ स्वाश्रयमहाकाव्ये 93 ४६. यथा कश्चित्पतिघ्नीमपलक्षणयुक्तामित्यर्थः । कन्यकामरिषु क्षिपति विवाहेन न्यस्यति तथा स कुमारः शतध्यादिशक्तिप्रमुखं शस्त्रजातमरिषु क्षेप्तुमभ्यास्यत् । कैः सह । समैः सवयोभटैः । कीदृक्सन् । शीर्षघाती पादघातश्चाभ्यासचिकीर्षया काष्ठमयशतत्र्यादिशस्त्रेण वयस्यानामेव "शीर्षाणि पादश्च नन् ॥ 1 सोकृतभैरजायाभैरब्रह्मघ्न्नैर्नरैः समम् । बाहुमोरः कपाटमो हस्तिनो मल्लतां ययौ ॥ ४७ ॥ ४७. हस्तिघ्नो बलिष्ठत्वाद्धस्तिनमपि हन्तुं शक्तः स कुमारो मलतां ययौ मल्लविद्याकुशलो भूदित्यर्थः । कीदृक्सन् । बाहुघ्नोरः कपाटघ्नो बाहु २ प सी 'तयादि ३ए समै सं ४क्षेप. १ बी 'तः सत. ५ एभैरह्ममैर्न'. 8 ७ ए १ ए "सिंह के. २ ए ंन................नि ं. ३ ए हत. ए हतरि अशानस्यापहंतरि च. ४ ए न्याय कौ. ५ ए हय भी ६ ए सी हि कुमा.. 'स्थाया स ८ ए स्वदे . ९ सी डी ल्यादिक१० एक्रोश. ११ ए च्छन्ति को १२ एणमुक्ता. १३ ए 'हेव न्य १४ ए समै सेवयोमेदैः । १५ सी डी शीर्षकाणि. १६ सी डी 'दांश्चान्न'. 1o. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.१.८७. ] एकादशः सर्गः । २५ मुरः कपाटं च हन्तुं शक्तो बाहुयुद्धमुरोयुद्धं च कर्तुं शक्त इत्यर्थः । कैः 1 १ । सह । नरैः सवयोभटैः समम् । किंभूतैः । अकृतन्नैः सज्जनत्वात्कृतज्ञैस्तथाजायान्नैः पुण्यपुरुषत्वाच्छुभ लक्षणोपेतैरित्यर्थः । तथाब्रह्मन्नैधर्मिकत्वाद्ब्राह्मणानघ्नद्भिः ।। शापकज्ञापिता विधयो ह्यनित्या इत्युरः कपाटमेत्यत्र कपाटान्तादपि परस्य हन्तेष्टक् ॥ अरिहः । अत्र “आशिषि हनः " [ ८० ] इति डः ॥ गतावपीति कश्चित् । क्रोशहः : u ८ क्लेशापहर्तमोपहे । अत्र "क्लेश ० " [ १ ] इत्यादिना डः ॥ कुमारघाती । शीर्षघाती । इर्त्यत्र “कुमार०" [ ८२ ] इत्यादिना णिन् ॥ शतघ्नी । इत्यत्र “अचित्ते टक्" [ ८३ ] इति टक् ॥ पादघातः ॥ अचित्त इति किम् । अजायानैः यः । पतिनीम् । अत्र “ जाया ० " [ ८४ ] इत्यादिना टक् ॥ अब्रह्मन्नैः । अकृतनैः । अत्र " ब्रह्मादिभ्यः " [ ८५ ] इति टक् ॥ • हस्तिनः । बाहुन । उरः कपाटन (नः) । इत्यत्र " हस्ति० " [ ८६ ] इत्या दिना टं ॥ व्यालान्नगरघातान्सोदमयंत्रस्तमीक्षितः । राजधैर्नगरमैर्द्विप्रेष्यैः पाणिघताडयैः ॥ ४८ ॥ ४८. स जयसिंहो नगरघातान्मदोन्मत्तत्वेन नगरोपद्रवकारिणो २ एसी क्षित | रा. १ बी 'यत्रस्त'. ४ सी डी 'रि ५ बी मैट्"ि ६ ए 'द्विज्येष्टे पा'. १ए 'रै: सह स è'. ५ एतनोप". ९ बी सी हुन्नः । उ° ०. ૪ ३ बी 'जन' सी 'जन. ४ ए शब्दः ॥ २ ए "मैधार्मि". ३ ए 'शिमिह". ६ ए 'त्यत्रः कु ७ एकाया. • डी अकृ. १० ए क् ॥ व्योला. ११ ए नघर° १२ बी 'दोत्कटत्वे'. o Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] व्यालान्दुष्टगजानदमयत्खेदनादिना वशीचक्रे । कीदृक्सन् । द्विट्प्रेष्यैः शत्रुचरैखस्तमेवंविक्रमोसावस्मत्स्वामिनो नूनं पराभविष्यतीति समयमीक्षितः । किंभूतैः । राजधैर्नृपानं नद्भिर्नगरनैः पुराणि विनाशयद्भिश्वरकर्मणि निपुणैरित्यर्थः । एतैर्हि गुप्तचरप्रयोगेण राजानो नगराणि च विश्वस्तान्यज्ञातं घात्यन्ते तथा पाणिघताडघैरात्मगोपनाय पाणिघताडघशिल्पिविशेषवेषधारिभिः ॥ नगरनैः । अत्र "नगरादगंजे" [ ८७ ] इति टक् ॥ अगज इति किम् । नगरघातान् ॥ राजधैः । इति "राजधः" [ ८८ ] इति निपात्यम् ॥ पाणिघताडौः । अत्र "पाणिध." [८९] इत्यादिना पाणिताडाभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेष्टक् धादेशश्च निपात्यः ॥ पाणिनों ताडेन हन्तीति करणादपि केचित् ॥ रोदैःकुक्षिभरिः कीर्त्या दानैर्दीनोदरंभरिः। अनात्मभरितां भेजे पूजाही कर्णनन्दनः ॥ ४९ ॥ ४९. कर्णनन्दनः पूजाही सर्वलोकप्रशस्यामनात्मभरितां भेजे । अनेकलोकाधारोभूदित्यर्थः । कीडक्सन् । दानैर्दीनोदरंभरियाधिदौर्गत्याद्युपद्रुतानामुदरपूरकोत एव कीर्त्या रोदःकुक्षिभरिः ॥ १ए रोदकु. २ बी भरतां. ३ एरिता भे. ४ ए जार्हा क. १ ए सी द्विघेव्यैः. २ ए मेव विक्रमोभाव ३ ए मिना नू. ४ एन् घद्भि. ५ ए °णि वि. सी डी °णि विश्ववि. ६ ए सी डी स्तानाशा. ७ ए सीत्मनोप. ८ ए ताडिघ. ९ ए गरजे. १० सी °णिभय ई. डी °णि ता. ११ ए इद्यादि. १२ ए °णितोडा १३ बी सी भ्यां प०. १४ सी 'ना बाडे'. १५ ए जार्हा स. १६ ए भरतां. १७ ए भरग्याषि'. १८ बी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.१.९२. ] कुक्षिंभरिः । अनात्मंभरिताम् । उदरंभरिः । अत्र "कुक्षि" [९०] इत्या दिना खिः ॥ : पूजार्हाम् । अत्र “अर्होच्” [९१] इत्यच् ॥ एकादशः सर्गः ः । लाङ्गलग्रहतुल्ये स्मिन्पूर्णाकर्षघटग्रहे । धनुर्ग्रहे धनुग्रहः को भूदृष्टिग्रहश्च कः ॥ ५० ॥ ५०. अस्मिन्कुमारे धनुग्रहे सति को धनुर्ग्राहोभूत्कश्च ऋटिग्रहैः खड्गग्राह्यभून्न कोपीत्यर्थः । कीदृशे । लाङ्गलग्रहतुल्ये महाबलत्वाद्बलभद्रसमे । अत एवाकृष्यतेने नाकर्षो धन्वाभ्यासयत्रं यत्र भूतघटादिना संबद्धप्रान्ता रज्जुरांकृष्यते पूर्णेनाकर्णान्तं प्राप्तगुणेनाकर्षेण घटग्रहस्तस्मिन् । धनुर्धरा हि स्थापित पूर्वी दययर्थं कोदण्डचतुर्भुजाख्यधनुर्वेदोक्तस्वरूपन्तःशुषिरस्तम्भयत्रच्छिद्रस्थां लालितर्पूर्वी दाद्यर्थं वैररुचिधनुर्वेदोक्तस्वरूपोष्ट्रपृष्ठाकार काष्ठयत्रच्छिद्रस्थां च रज्जुबद्धग्रीववालुकादिमृतघटादिना संबद्धप्रैौन्तां रज्जुमाकर्णान्तमाकर्षन्ति यावद्वटादि वामहस्तनिकटं स्यात् ॥ २० यष्टिग्रहः शक्तिग्रहः सोसिधेनुत्से रुग्रहः । तोमरग्रह आसीत्पत्रिंशद्दण्डग्रहोपि वा ॥ ५१ ॥ २७ १ डी 'त्सरा'. २ ए सी ग्रहाः ।. ५ १ सी डी 'नात्मभ' २ बी 'नुग्राहो. ३ बी 'हः षज्ञ. ४ श्रं यंत्र. यदादि सी 'तयः दादि ६ ए बद्धप्रा. ७ए राष्य. ८ सी र्णान्तप्रा. १० ए बी दाढ्याद्य'. ११ डी 'नुर्भुजाख्यधनुर्वे. १२ ए' दोकुरू ं, १३ सी डी 'रू. १४ ए पाम्भः शु. १५ ए "बिरंस्तभय'. ९ ए सी डी पूर्वा दा १६ ए 'पूर्वाढ्या' सी 'पूर्वाद्य' डी 'पूर्वादा'. १९ ए 'स्तां च रुणुज्जु . १८ ए वर:रु°. “प्रान्तार्’. १७ सी ' तरुरुचिर्धनु. २१ ए सी २० बी 'श्रीवावा'. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्व्याश्रयमहाकाव्ये (जयसिंहः] ५१. स्पष्टः । किं तु यष्टिर्दण्डः । सबै मुष्टिं गृह्णाति त्सरग्रहः । असिधेनोः खड्गस्य समग्रहोसिधेनुत्सरुग्रहः । तोमरं शवला । वा यद्वा किं बहुनोक्ने नेत्यर्थः । पदत्रिंशदण्डग्रहोप्यासीन् । दण्डानायुधानि गृह्णाति सामान्येन वाक्यं कृत्वा ततो विशेषेण षट्त्रिंशता दण्डैदण्डग्रहः स्वपोपं पुष्णातीतिवन् । पत्रिंशद्दण्डश्चैिते । चक्र १ धनुः २ वा ३ खग ४ क्षुरिका ५ तोमर ६ कुन्त ७ त्रिशूल ८ शक्ति ९ परशुं १० मक्षिका ११ भल्लि १२ भिन्दिमाल १३ मुष्टि १४ लुण्ठि १५ शङ्कु १६ पाश १७ पट्टिश १८ ऋष्टि १९ कणय २० कम्पन २१ हल २२ मुशल २३ गुलिका २४ कर्तरी २५ करपत्र २६ तरवारि २७ कुद्दाल २८ दुस्फोट २९ गोफणि ३० डाह ३१ डस ३२ मुंदर ३३ गदा ३४ घन ३५ करवालिका ३६ इति ।।। शिक्षासूत्रग्रहो व्याले तथासीत्सोङ्कुशग्रहः । यथा शशधरास्या न त्रेसुरम्भोघटीग्रहाः ॥ ५२ ॥ ५२. स जयसिंहो व्याले दुष्टगजेपि तथा गाढमर्मतोदनादिवशीकारप्रकारेणाङ्कुशग्रह आसीद्यथाम्भोघटीग्रहाः पानीयहारिकाः शशधरास्या नायिका न त्रेसुः । यतः कीदृशैः । सूत्रं गृह्णाति पाठार्थाव - १ ए सीसोङ्क. १ ए °ण्डः । सरुमु. २ ए सिवेनो ख. ३ बी र सर्वरा। वा. डी र सर्वला. ४ बी ण्डानां बुद्वानि गृह्णातीति. ५ बी "शेषणं । ५. सी शेषण. ६ ए °ण्डाश्चतो । च. ७ सी धनु २. ८ ए कुम्भ ७. ९ सी डी शु १० गक्षि. १० सी डी लि १२ कुद्दाल १३ मि. ११ सी लुटि १६ श. १२ सी °रि २८ दुस्पोट. डी रि २८ दुःस्पोट. १३ सी मुडर. १४ वी मनोद. १५ ए आशीद्याभोघ. बी आशीद्य. १६ सी डी नायका. १७ बी दृक । सू. १८ बी वातीति. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ हैं. ५.१.९३] एकादशः सर्गः । गमाभ्यसमादत्ते सूत्रग्रह : शिक्षायाः पोलकाप्यादिगजशिक्षाशास्त्रस्य सूत्रप्रहः ॥ धनुर्धरो दण्डधारः कर्णधारस्तरीमिव । दुष्टाश्वान्कवचहरोवा हयत्स मनोहरः ।। ५३ ।। ५३. स्पष्टः । किं तु दण्डधारः कशायष्टिं धारयन्सन्नवाहयद्वाह्यालिकायामभ्रमयत्। कवचहरस्तरुण इत्यर्थः । अत एव मनोहरः । यथा चौराद्युपद्रवरक्षार्थं धनुर्धरः कवचहरश्च कर्णधारो निर्यामको दण्डधार: कूपस्तम्भधारी संस्तरीं वेडां समुद्रे वाहयति ॥ स विद्यांशहरः पुष्पाहराणां समदर्शयत् । दृप्तेस्त्रहारे शक्तिं स्वां सर्पे विपहरीमिव ॥ ५४ ॥ ५४. स कुमारोस्त्रहारे वरुणादिदैवतशस्त्रधरेत एव हप्ते दर्पिष्ठे शत्रौ विषये स्वां शक्तिं प्रतिपक्षेदैवतास्त्रप्रेरणरूपं विद्याबलं समदर्शयत् । यथा सर्पे विषये विषहरी विषहरीति यथार्थाभिधानां मणि स समदर्शयत् । यतः स पुष्पाहराणां पुष्पाहरणशीलानां विद्याधराणां विद्यांशहरो विद्यया कृत्वांशहरो गोत्री || 3 धनुर्प्रहे। दण्डग्रहः । त्सरुग्रहः । लाङ्गलग्रहः (ह) । अङ्कुशग्रहः । ऋष्टिग्रहः । यष्टिग्रहः । शक्तिग्रहः । तोमरग्रहः । घटग्रहे । "नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्” [न्या० १६. ] इति घटीग्रहाः । अत्र “धनुर्०” [ ९२] इत्यादिनाच् ॥ अणपीत्येके धनुर्ग्राह इति चोदाहरन्ति ॥ १ डी 'तेस्यहा". ४ डी "रे वारु. १ ए सी 'भ्यासद'. बी भ्यासाद . २ बी डी पालिका . ए चनु. ६ ए. र: कप'. ७ वी १० सी षयं विषहरांति. २९ ९ बी 'देव'. १२ बी पुष्पाहारा°. १३ ए ह: । शरग्र. ३ ए "शिप्यासा". बेडां. ८ बी ११ ए 'हराति य०. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० व्याश्रयमहाकाव्ये सूत्रप्रहः । अत्र " सूत्राद्धारणे” [९३] इत्यच् ॥ धनुर्धरः । अत्र " आयुध०" [ ९४] इत्यादिनाच् ॥ आदिग्रहणात् शशधर ॥ अदण्डादेरिति किम् । दण्डधारः । कर्णधारः ॥ वयसि । कवचरः ॥ अनुद्यमे । अंशहरः । मनोहर (रः) । अत्र "हंगः ” [९५] इत्यादिनाच् ॥ संज्ञायां टोपीति कश्चित् । विषहरीम् । वयोनुद्यम इति किम् । अनहारे ॥ पुष्पाहराणाम् । अत्र “अंङः शीले" [९६ ] इत्यच् ॥ संरेभे नाल्पसारे स सागस्यपि महामनाः । हरिर्नाथ हरिर्न ह्युत्पतेतिहरौ शुनि ॥ ५५ ॥ १२ ५५. स कुमारो महामना महेच्छः सन्सागस्यपि सापराधेप्यल्पसारे स्तोकवले शत्रौ ने संरेभे नाभिषेणनाद्याटोपं चक्रे । दृष्टान्तमाह । हि यस्मन्नाथं प्रभुं समर्थं गजदिं हरति विदार्यात्मसमीपं प्रापयति नाथहरिर्हरिः सिंहो दृतिहरौ खल्लस्यापहर्तरि शुनि विषये नोत्प तेन्न विदारणाय फालां दद्यात् ॥ 914 १६ • दृतिहरौ । नाथहरिः । अन्त्र " इति ०" [९७] इत्यादिना - इः ॥ अमलग्रहिचेताः स गुरुपादरजोग्रहिः । सेवनीयः सतां जज्ञे फलेग्रहिरिव द्रुमः ॥ ५६ ॥ १ ए शुनिः ॥ . [ जयसिंहः ] २ एनीय स. ३ ए ग्रहेरिव द्रुमा || २ बीरः । अ ं. असह'. ६ ए सी हर । म'. ९°यां येपी डी 'यांमपी'. १२ बी सी डी हिर्यस्मा'. हरि सिं०. १६ बी 'वे. ए अ. १ बी सूत्रद्धा". ५ए °मे । ८ डी हृगेत्या°. ११ ए न सरे. ' जादि ह. १५ ३ ए अडाडादे'. ४ बी 'हरं । ७ बी 'हरं । अ' . १० ए सी आडाशी". १३ ए प्रभुस.. १४ ए सी १७ ए°रौ । माथ°. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.१.९९ ] एकादशः सर्गः । ३१ ५६. फलेग्रहिर्दुम इव फलिततरुरिव स सतां सेवनीयो जज्ञे । कीदृक् । न मैलग्रहि पापपङ्किलं चेतो यस्यै सोतँ एव गुरुपादरजोग्रहिविनीतत्वात्प्रणामकाले पूज्यानां पादधूलिं गृह्णन् ॥ रजोग्रहिः । फलेग्रहिः । मलग्रहि । इत्यत्र " रजः ०" [९८] इत्यादिना-इः ॥ मुनिर्देवापिवातापिजिच्छरत्समये यथा । यथा स्तम्बकरिव्रीहिः सं तदासीत्तथोदयी ॥ ५७ ॥ ५७. स जयसिंहस्तदा तस्मिन्यौवनकाल उदय्युदित आसीत् । यथा देवापिवातापिजिद्दैत्यत्वाज्जिगीषया देवानाप्नोति देवापिर्यो वातापिरेवनामा दैत्यस्तज्जेता मुनिरगस्त्यः । यदि पुनर्देवापिरप्यगस्त्येन जितः कश्चिद्दैत्योभूत्स मम न प्रसिद्धः । यथ स्तम्बकरिस्थुडकृद्रीहिश्च शरत्समय उदय्युद्गतः स्यात् ॥ अगस्त्येन हि विप्रोपद्रवकारी वातापि - दैत्यः संस्कृतपशुरूपः श्राद्धे भक्षयित्वा निर्जरित इति प्रसिद्धिः ॥ यथा॑ शकृत्करिं बाला वत्सं स्वच्छन्दचारिणम् । यत्करं तत्करं वा तमन्वयुः किंकरास्तथा ॥ ५८ ॥ ५८. किं कुत्सितं कर्म कुर्वन्ति किंकराः सेवकास्तं कुमारं तथान्व - 13 93 १४ युर्यथा शकृत्करिं विष्ठाकारिणं वत्सं बालाः कौतुकेनानुयान्ति । कीदृशं सन्त॑म् । ` तं वत्सं स्वच्छन्दचारिणमत एव यत्स्वमनोभीप्सितं करोति यस्तं १० १ ए सत्तदा . २ एथा द्वाकुक्करिं बी 'धा सक्र'. १ एदुई सी ग्रहिदुई ३ ए मलिग्र ४ सी डी पापं प°ि डी स्य सन तथा गु. ७ए त व १० सी ० व्रीहिश्व. 'त्करं वि.. १४. ए ३. डी 'करिबला. २ सी ' सन् । मूल° डी 'क् सन् । म. ५ ए °ङ्किले चे'. ६ सी °स्य सन् तथा गु. ८ ए सी 'गस्येन क. ९ ए 'था करिस्तुङ ' . ११ ए करणहाका. दृशसतं तव १२ ए द्वा श. १३ सी डी १५ बी म् । व°. १६ ए यस्वमनाभी'. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जयसिंहः ] ३२ २ यत्करं तदन्याभीप्सितं करोति यस्तं तत्करं वा । यद्रोचते तत्कुर्वाण मित्यर्थः ॥ व्याश्रयमहाकाव्ये कीर्तेर्बहुकरो यच्छन्स्वमसंख्याकरोर्थिषु । त्रिभूत्मर्थेषु तेजसा सोत्यहस्करः ।। ५९ ।। ५९. स जयसिंहस्त्रीन्करोति त्रिकरोभून् । केषु विषये । त्रिकर इति विशेषाकाङ्क्षायां पुमर्थेषु धर्मार्थकामेषु । धर्मार्थकामांस्त्रीनपि यथावसरं सिषेत्र इत्यर्थः । कीदृशः । असंख्याकरो मया कियद्दत्तमिति गणनामकुर्वन्सन्नर्थिर्पु स्वं द्रव्यं यच्छंस्तथा तेजसा कृत्वात्यहस्करोत एव कीर्तेर्बहुकरः । बहुशब्दोत्र गुणवचनो गुणिवचनश्च । बहुत्वं ह्रीं वा भूतां कुर्वन् ॥ निशाँकरकुलोत्तंसः सोतिभास्करजः सदा । प्रभाकरोदये तातं दिवाकरमिवार्नमत् ॥ ६० ॥ ६०. स्पैष्टः । किं त्वतिभास्करजो भास्करजो मनुः कर्णो वा न्यायदानादिगुणैस्तावतिक्रान्तोत एव निशाकरकुलोत्तंसः ॥ स्ववंशादिक प्रीत क्षपाकर विभाकरौ । एष भक्तिकरोकार्षीच्चित्रकर्या गुणश्रिया ।। ६१ ॥ १ सी डी कीर्तिबहु . २ ए त्पुनर्थे ३ सी शावरकलो.. ५ सी 'द ता'. डी 'दषे तां दि°. ६ ए 'नसत्. હ बी कार्या. ४ ए रोवये. १ सी डी यस्तत्क°. २ ए स्तं यत्करं तन्याभीप्सितं करोति यस्तं तत्करं वा ।. ६ ए सी डी धु १० ए स्पष्टा किं. ३ एच. ४ ए त्रिकारोभूष्केषु. ५ एनडिपु. स्वद्र° ७ सी डी कीर्तिबहु ८ वी हु बहुत्वं. ९ए प्रसूतां ११ सी 'रकलो.. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [है०. ५.१.९९.] एकादशः सर्गः। ६१. एष जयसिंहः पूज्येषु भक्तिकरः संश्चित्रकर्याश्चर्यकारिण्या गुणश्रिया कृत्वा क्षपाकरविभाकरौ प्रीतावकार्षीत् । किंभूतौ । स्ववंशादिकरांवात्मीयवंशस्यादिकरावात्मीयप्रथमजन्मकर्तारौ । इलो नाम राजा सूर्यवंश्यः स च मृगयार्थमुमावनं प्रविष्टः सन्नुमाशापात्स्त्रीत्वं प्राप । सा च स्त्री बुधेन सोमवंश्येनोढा । ततो यावान्वंश उत्पन्नस्तावतः सर्वस्य द्वावपि सोमसूर्यावादिकरौ घटेते ॥ अन्तकरे कर्तृकरे क्षणदाकरशेखरे । अभूद्धलिकरो नान्दीकरः कारकरश्च सः ॥ ६२ ॥ ६२. स जयसिंहः क्षणदाकरशेखरे शंभौ विषयेभूत् । कीदृग् । बलिकरः पूजोपहारकारको नान्दीकरो द्वादशविधतूर्यवादक इत्यर्थः । कारकरश्च कारस्य नमस्कारादिक्रियायाः कर्ता च । कीदृशे । अन्तकरे जगत्संहारकारके तथा कर्तारं क्रियाकारकं पुरुषं करोति कर्तृकरस्तस्मिन् । ईश्वरेण हि कर्ता क्रियते । यदुक्तम् । अन्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ इति । एतेनास्य जगत्सृष्टिरपि सूचिता । मृत्योर्लिपिकरः पत्रं तस्याकाण्डेप्युदक्षिपत् । यस्मिन्बाहुकरः सोभूदरुष्करधनुष्करः ॥ ६३ ॥ १ए शेपरे. २९ °कर का. . १५ °यकरि . २ ए रादात्मी०. ३ बी स्यादिः प्र. ४ए करप्र. ५ सी रादात्मी०. ६ ए श्येवोढा. ७५ करो घ. ८ ए शेषरे. ९ए कर घू. १० ए कतां च. ११ ए व.. ति ॥. डी व च ॥ . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ६३. स जयसिंहो यस्मिन् शत्रौ विषयेभूत् । कीदृक् । बाहुकरो बाहुमुपचाराद्वाहुकार्य शौर्य कर्ता । तथारुष्करोखत्रणकर्ता यो धनुष्करो धनुग्रहीतेत्यर्थः । सोरुष्करधनुष्करश्च तस्य पत्रममुकोद्यात्रानेय इति वर्णोपेतं पत्रं पर्ण मृत्योर्लिपिकरः पारिग्रहिकश्चित्रगुप्तोकाण्डेप्युदक्षिपदु. स्पैटति स्मासमयेपि स मृत इत्यर्थः ॥ रणे क्षेत्रकराञ्जङ्घाकरान्कुर्वन्नभूच सः । नानो लिविकरो दोषाकरे दिनकरोपमः ॥६४॥ ६४. स जयसिंहो दोषाकरे चन्द्र आधारे नानो लिबिकरो लेखकोभूच । कलङ्कव्याजेन चन्द्रप्रशस्तिपट्टिकायां स्वनाम लिलेखेत्यर्थः । यावच्चन्द्रस्तावदसौ जगत्रयेपि प्रसिद्धनामाभूदिति परमार्थः । यतः कीदृक् । रणे युद्धार्थ · क्षेत्रकरोंत्रणभूमिरचकान्दोबलावलेपात्सनामारम्भिणः परानित्यर्थः । जङ्घाकरान्पराजयोजङ्घाकर्मणः पलायनस्य कर्तृन्कुर्वस्तथा दिनकरोपमः प्रतापादिना ॥ कर्णः क्ष्मादिवसकरस्तं नेत्ररजनीकरम् । अन्येधुराजुहावाथ भक्त्यनन्तकरं सुतम् ॥ ६५॥ ६५. स्पष्टः । किं तु दिवसकरः सूर्यः । अनन्तामपर्यवसानां करोयनन्तकरो भक्तेरनन्तकरो #क्तयनन्तकरस्तम् ॥ 'देवापि । वातापि । इत्यत्र "देव." [९९] इत्यादिना-इः ॥ १ए ण क्ष्मा'. १ सी नुर्गृही. २ बी डी नुगृही. ३ ए ° मनुकोत्राद्यावाने. ४ सी पेतपण. ५ए पणं. डी पत्रं मृ. ६ ए त्योलिपि०. ७ बी °रः परिग्राहि° ८ डी पठति. ९ ए °मयोपि. १० ए र्थ क्षत्र. ११ डी रानृण. १२ ए °याजघाक. १३ ए सी पम प्र. १४ बी 'त्यत्रन्त. १५डी मक्य. १६ ए भक्तान'. सी भक्ष्यन. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६० ५.१.१०३.] एकादशः सर्गः । ३५ शकृत्केरिं वत्सम् । स्तम्बकरिव्रीहिः । अत्र “शकृत्०" [१००] इत्यादिना-इः ॥ किंकराः । यत्करम् । तत्करम् । बहुकरः । भन्न " किं० [१०१] इत्यादिना-अः ॥ संख्याकरः । त्रिकरः । अहस्करः । दिवाकरम् । विभाकरौ । निशाकर । प्रभाकर । भास्कर्तुं । चित्रकर्या । कर्तृकरे । आदिकरौ । अन्तकरे । अनन्तकरम् । कारकरः । बाहुकरः । अरुप्कर । धनुष्करः । नान्दीकरः । लिपिकरः । लिबिकरः । बलिकरः । भक्तिकरः । क्षेत्रकरान् । जङ्घाकरान् । क्षपार्केर । क्षणदाकर । रजनीकरंम् । दोषाकरे । दिनकर । दिवसकरः । अत्र “ संख्या ०" [ १०२ ] इत्यादिना टः ॥ १२ आज्ञाकरो हर्षर्करः कुमारोपि पितुस्ततः । भेजे सेवाकरः पादान्समस्या श्लोककारैवत् ।। ६६ । १५ १५ ६६. ततः कुमारोपि पितुः पादान्भेजे समस्या लोककारवत् । समस्यते मील्यते पदै: “शिक्यास्य ० " ( ? ) इत्यादिना ये समस्या । अपरिपूर्णच्छन्दः पूरणायैकपादाद्युच्चारणम् । तथा लोककारोनुष्टुप्कर्ता यथा पादान् श्लोकचतुर्थांशान्सेवते समस्यापूरणायाश्रयति । कीदृक्सन् । पितुः सेवाकरः सेवाकरणशीलो विनीत इत्यर्थः । तथाज्ञाकर आदेशकरणेनुकूलोत एव र्षकरः प्रमोदकरणे हेतुः ॥ २१ सूत्रकारावैरकारैर्मत्रकारैः स संवदन् । स्माहाकलहकारं तं राजेति पदकारवा ॥ ६७ ॥ १ एसी कर कु. २ बी करं पा° ३ ए रत्. १ ए सी डी त्करि व २ ए सी रिव्रीहिः . सी शत्. ४ ए अस्क ०.५ ए सीडी रः । वि. ६ बी °र । श्चित्र. ७ बी सी डी ष्करः । ध. ८ ए नादीक ९ ए बी डी लिविक १० सी डी करः । क्ष° ११ ए र । दो. १२ सी दिव १३ बी 'करे दि° डी 'कर: दि. १४ ए 'जे सेनस्या'. १५ ए डी ° ते पदैः . १६ सी पादै शि. १७ सी कपूर्णपा बी 'कपदा १८ ए सी 'ष्टुष्कर्ता. १९ 'तुर्थशा. डी 'तुर्खाशा' २० डी हर्षक २१ सी डी 'रणहे'. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ६७. स राजा कर्णोकलहकारं कलिवर्जितं तं कुमारमिति वक्ष्यमाणरीत्याह स्म । कीहक्सन् । पदकारस्येव वैयाकरणस्येव वाग् यस्य स वाग्मी तथा मन्त्रकारैर्मत्रिभिः सह संवदंस्तदनुमतिं गृह्णन्नित्यर्थः । यतः किंभूतैः । सूत्रकारैर्नीतिसूत्रकारिभिः शुक्रादिभिः संहावैरकारेस्तत्कृतनीतिसूत्रपाठान्न कलहायमानैर्नीतिज्ञैरित्यर्थः ॥ गाथाकारैः शब्दकारेरचाटुकारवृत्तिभिः । मुनिभिर्भूभद्रकारक्षेमकारप्रियंकरैः ॥ ६८ ॥ क्षेमंकरा भद्रंकरा प्रियकारी च कीर्तिता । वृत्तिः कर्मकरीभूतद्विषां मत्पूर्वजन्मनाम् ॥ ६९ ॥ तेषां तु मद्रकाराणां यथा मद्रकरोभवम् । पूर्वतीर्थंकरपथेनान्यतीर्थकरो यथा ॥ ७० ॥ ६८-७०. हे कुमार कर्मकरीभूतद्विषां मत्पूर्वजन्मनां मदीयपूर्वजानां वृत्तिायेन पृथ्वीपालनादिरूप आचारो मुनिभिः कीर्तिता प्रशंसिता । यतः किंभूता । क्षेमंकरा बाशिरीरस्य धनकनकादे रक्षा क्षेमं तत्की ती भद्रंकरान्तरस्याङ्गस्य रक्षा भद्रं तत्की तथा प्रियकारी च सर्वलोकवाञ्छितानां की च । किंभूनैः । गाथाकारैः कविभिस्तथा शब्दकारवैयाकरणैस्तथा न चाटुकारी वृत्ति]पां तैनिःस्पृहेरपीत्यर्थः । तथा भूभद्रकारक्षेमकारप्रियंकरैः सर्वथा पृथ्व्या हितैरित्यर्थः । १ ए °द्रकराणां मथा. २ सी मद्रक'. १ए कलेव. बी कलहव. २ ए °कारास्ये वै०. ३ ए त्यथं । य'. ४ ए रैनीति०.५ सी डी सह वै०.६ डी नैर्निति°. ७ ए °त्तिन्याये. ८ ए 'ह्यस्य श०. ९ प रकक्षा. १० डी था भद्रं . ११ एङ्गस्यं रक्ष भ°. १२ एरवेंयाकरणःस्त. १३ ए 'त्यर्थ तथभूतभ. १४ ए व्या हतै'. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ है० ५.१.१.३.] एकादशः सर्गः । मत्पूर्वजा महामुनीनामपि श्लाघ्या अभूवन्नित्यर्थः । मद्रकाराणों क्षेमकाराणां तेषां पूर्वजन्मनां यथा तु पृथ्वीन्यायपालनादिरूपमार्गेण कृत्वा पुनरहमपि मद्रंकरः सर्वलोककल्याणकार्यभवं यथा पूर्वतीर्थंकरपंथेन प्रथमाईदुपदिष्टदयामूर्लमार्गेणान्यतीर्थकरोपरोहन्मद्रंकरः स्यात् ।। अथ विधेयमाह ॥ तीर्थकारव्रती मेघंकरों नु भयंकरे। मुक्ताहारविहारोहमृतिंकराभयंकरः ॥ ७१ ॥ प्रयते मुक्तये चेत्त्वं प्रियंवद वशंवदः । द्विपंतपमिदं राज्यं तद्गृहाण परंतपः ॥ ७२ ॥ ७१,७२. हे प्रियंवदानुकूलवादिन् कुमार चेत्त्वं वशंवदो वशं वदसि यदहं वच्मि यदि तन्मन्यस इत्यर्थः । तदा त्वं द्विषंतपमिदं राज्यं गृहाण । यतः परंतपोतिप्रतापित्वाच्छत्रुसंतापको राज्यधुराधरणक्षम इत्यर्थः । अहं तु मुक्तये प्रयत उद्यच्छामि । कीहक्सन् । ति स्थण्डिले गति सत्यतां वा करोमि ऋतिकरो योभयंकरः सर्वजीवानां मृत्युभयाभावस्य कर्ता सः । तथा मुक्ताहारविहारस्त्यक्तभोजनविचरणः । यथा तीर्थकारव्रत्याहतो मुनितिकराभयंकरोत एव भयंकरे महावृष्टयों मीषणे मेघंकरों वर्षाकालेनेकजीववधाशङ्कया मुक्ताहारविहारः सन्मुक्तये प्रयतते ॥ १ सी तीर्थकर. २ सी डी करा" नु. ३ ए रतों न. ३ ए रोय. ४ सी मृतक. डी मृतंक. . १ ए सी श्लाघा अ°. २ डी णां ते. ३ ए सी डी °था नु पृ. ४ सी तीर्थक. ५ ए सी डी पदेन. ६ बी लधर्मरूपमा'. ७ ए मारे चे'. ८ सीडी 'मि त'. ९ ए दातुं दि. १० सी ऋत स्थ. डी ऋतं स्थ°. ११ सी ऋतक. डी ऋतंक°. १२ ए मृत्यभ. ए निरति . १३ बी निऋतिं. सी निकतंक. १४ डी ब्रतंकरो भ. १५ सी ट्यादिनी . डी 'टयादिमी. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] हेतौ । हर्षकरः । तच्छीले । सेवाकरः । अनुकूले । आज्ञाकरः । 1 अ " हेतु ० " [१०३] इत्यादिना टः ॥ शब्दादिनिषेधः किम् । शब्दकारैः । श्लोककौर । कलहकारम् । गाथाकारैः । वैरकारैः । चाटुकार । सूत्रकार । मन्त्रकारैः । । पदकार ॥ ε कर्मकरी । इत्यत्र “भृतौ कर्मणः " [ १०४ ] इति टः ॥ क्षेमंकरा । क्षेमकार । प्रियंकरैः । प्रियकारी । महकेरः । मैंद्रकाराणाम् । भद्रकैरा | भद्रकार । इत्यंत्र " क्षेम ० " [१०५ ] इत्यादिना खाणौ ॥ एभ्य इति 93 १४ किम् | तीर्थकरः । हेत्वादिपु टः ॥ तीर्थंकर तीर्थकार इत्यपि कश्चित् ॥ मेघंकर । ऋतिंकर | भयंकरे । अभयंकरः । अत्र " मेघर्ति ० " [१०६ ] इत्यादिना खः ॥ प्रियंवद | वशंवदः । अत्र “प्रिय ०" [ १०७ ] इत्यादिना खः ॥ द्विषंतपम् । परंतपः । इत्येतौ " द्विपंतप०" [१०८] इत्यादिनों निपात्यौ ॥ १८ जयेन्कुमारः शान्त्यर्षीनल्पं पचमितंपचान् । नखंपचयवागूं नु वाचमूचे रुजाछिदम् ॥ ७३ ॥ २३ २२ २३ ७३. कुमारो नखंपचयवागूं नु अत्युष्णश्राणामिव रुजाछिदं कष्टनिःस्पृहतान्तरङ्गभक्तियुक्तिबन्धुरतयाह्नदिकामित्यर्थः च्छेदिनीं १ "कुमा. · I १ ए डी हर्षक २ ए 'दिनेषे ०. ३ सी डी 'कारः । क° ४ ए डी रैः । चा'. सी रै | चा ५ ए कारः । सूँ. ६ डी मैकारी. ७ ए 'कराः । क्षे. ८ ए क्षेमंकरः । प्रि. सी डी क्षेमंकर. ९ ए सी डी कर । म १० एसी मद्रका'. डी मद्रंकरा. ११ डी कर । भ° १२ ए त्रक्षम. १३ सी तीर्थक". १४ सी तीर्थक ं . १५ सी डी ऋतंक १६ सी अत्र. १७ ए सी डी 'वदः । व'. १८ बी 'त्येतो द्वि° १९ ए 'ना न नि° २० ए रुचाछि. २१ बी 'छिद्रं क. २२ सी च्छेदनी निस्पृ. २३ ए दिनी नि: ° २४ बी "ल्हादका', Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.१.१११.] एकादशः सर्गः । ३९ वाचमूचे । नखपंचयवागूरपि पथ्यत्वाद्रोगच्छित्स्यात् । यतः कीदृक् । शान्त्येन्द्रियेजयेनाल्पंपचमितंपचान् । अल्पशब्दोत्र परिमाणविशेषवाचकः । अल्पं पंचतो मितं स्तोकं पचतश्च गाढतपोनिष्ठानपीत्यर्थः । ऋषीञ् जयन् ॥ अल्पंपच । मितंपचान् । नखंपच । इत्यत्र " परिमाण ० ' " दिना खः ॥ कूलंक पेशगम्भीर वक्तुं नाहं त्वयीश्वरः । न करीषकेषा वात्या प्रभुरभ्रंक गिरौ ॥ ७४ ॥ ७४. हे कूलंकपेशगम्भीर समुद्रवदलब्धमध्य त्वयि विषये नाहं वक्तुमीश्वरः समुद्रगम्भीरत्वात्तव । दृष्टान्तमाह । अभ्रंकषेत्युचैस्त्वव्योस्पृशि गिरौ विषये करीषंकषा वात्याल्पत्वाच्छागण (?) रजउंच्छालिका वात्या वातौघ न प्रभुचालनाद्यर्थं न समर्थः स्यात् ॥ कूलंकषा । अभ्रंकषे । करीषंकषा । इत्यत्र " कूलाभ्र० " [ ११० ] इत्यादिना खः ॥ को मां सर्वकषः प्राहाभक्तं विश्वंभरापते । सर्वंसहोपि यत्त्वं भूवलिंद मैवमादिशः ।। ७५ ।। [१०९] इत्या । । ७५. स्पष्टः । किं तु सर्वंकषः खलः । हे भूबलिंदम भूमौ पालकत्वाद्विष्णो । एवं राज्यं गृहाणेति दुष्टादेशप्रकारेण ॥ शत्रुंतपशत्रुंसहधनंजयसमः स्वयम् । करोतु राज्यं तातोर्थिप्रदत्ताब्धिपतिंवरः ॥ ७६ ॥ १ ए त्वमीश्व° २ ए सी कथा वा ०. १ बी पाय. २ एसी नये. ५ सी डी 'मस्पर्श गि.. ६ बी 'पाल्प'. ९ किंतुः स. ३ ए कष प्रा. ३ ए पचितो. ७° उत्सालि'. ४ ए 'स्त्वाव्योमस्पशि. ८ सी घो नु प्र. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ___ ७६. अर्थिभ्यो याचकेभ्यः प्रदत्ताब्धेः पतिंवरा कन्या लक्ष्मीर्येन स तथा संस्तातः स्वयं राज्यं करोतु । यतः शत्रुतपशव॒सही कौचिनृपौ धनंजयोर्जुनस्तैः समः । बलप्रतापादिप्रकर्षणाद्यापि राज्यधुराधरणक्षम इत्यर्थः ।। रथंतरकलालाप वसुंधरापुरंदर । ब्रूहि तन्मे यदागस्त्वां भगंदर इवादुनोत् ॥ ७७॥ ७७. स्पष्टः । किं तु हे रथंतरकैलालाप रथं तरत्युल्लङ्घते रथेन वा तरत्युल्लङ्घते पाठकं रथस्थैर्य न पठ्यत इत्यर्थः । रथंतरं साम तद्वन्मधुरध्वने । आगोपराधः । भगंदरो रोगविशेषः ॥ [सर्वकषः । सर्वसहः । अत्र “सर्वात्सहश्च" [१११] इति खः ॥ विश्वंभरा । पतिंवरा । धनंजय । रथंतर । शतप । बलिंदम । शत्रुसह । इत्यत्र "भृव०" [११२] इत्यादिना खः ॥ केचित्तु रथेन तरति रथंतरं सामेत्यकर्मणोपीच्छन्ति ॥ वसुंधरा । इत्यत्र "धारेर्धर्च" [१३] इति खः-धर(र) इत्यादेशश्च ॥ पुरंदरभगंदरशब्दौ "पुरंदर०" [११४] इत्यादिना निपात्यो । योग्यमानी ममायोग्यंमन्यस्य स्नेहतोसि चेत् । राजवाचंयम तथापीत्याज्ञा मेङ्गमेजया ॥ ७८ ॥ ७८. राजा सन्वाचंयम ऋषिस्तदा मनसा ऋषीभूतत्वात् । हे राजवाचंयमासि त्वं स्नेहतोपत्यस्नेहाच्चेद्यद्यप्ययोग्यमन्यस्य राज्यानहमात्मानं मन्यमानस्य मम योग्यमानी मां राज्ययोग्यं मन्यसे तथापी १ए सी करालाप. २ ए सी डी दरः. ३ डी गस्त्वा भ. ४ ए राजा वा'. १५ °तपःसर्बुसहै कौ. सी तपःसg. २ सी °मः धनाप्र. डी मः धनप्र. ३ बी सी करालाप. ४ ए सर्वोत्स'. ५ ए जयः ।.६ ए सी 'त्य वृवृ०. ७ बी वृत्या. ८ ए च इ. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०५.१.११९. ] ४१ त्याज्ञा राज्यं गृहाणेत्यादेशो मेङ्गमेजया शरीरं कम्पयित्री राज्यधुराधरणक्षमेणापि पित्रास्मै भयाद्राज्यं दत्तमित्यादिलोकापवादव श्रपातहेतुत्वेन मयि महाभयोत्पादयित्रीत्वात् ॥ एकादशः सर्गः : । 33 वाचंयम । इति "वाचं० [११५] इत्यादिना निपात्यम् ॥ " योग्यमानी । इत्यत्र “मन्याण्णिन् ” [ ११६ ] इति णिन् ॥ अयोग्यंमन्यस्य । इत्यत्र " कर्तुः खश्” [११७] इति खश् ॥ , अङ्गमेजया । इत्यत्रै “ऐजेः” [११८] इति खश् ॥ " मुधैवास्यंधी दृष्ट्या माता तत्र स्तनंधये । पुष्पंधयचलः सीमोज्झेद्यः कूलंघयौघवत् ।। ७९ ।। ७९. तत्र स्तनंधये माता पुत्रस्य प्रसादेन वयं सुखिनो भविष्याम इत्यनुरागाद्दृष्ट्या मुधास्यंधयी मुखपायिका मुखालोकिकेत्यर्थः । यः पुष्पंधयचलो भ्रमरवच्चपलस्वभावः सन् कूलंघयौघवत्कूलघातकप्रवाह इव सीम मर्यादां पितरि सति राज्याग्रहणरूपामुज्झेद्यः पितरि सति राज्यं गृह्णीयादित्यर्थः ॥ शुनिंधया मुधया ये वरं तेपि न न्वहम् । वचो नाडिंधमं नाडिंधयं श्रोतेति तापकृत् ॥ ८० ॥ ९ ८०. ये शुनिंधयाः कुंकु (कु) रास्तथा ये मुखं तृणविशेषं धयन्ति पिबन्ति खादैन्तीत्यर्थः । मुञ्जंधया मृगास्तेपि वरं श्रेष्ठा अहं न्वहं १ बी डी में माडिं'. १ सी 'ति णन . डी 'ति पन्. २ बी 'जय इ० ३ एत्र परिरिति ४ सी एरिति ५ बी ये पुत्रे मा० . ६ सी डी 'स्य प्र०. ७ सी डी पायका. ८ डी पुस्तके समामे- उज्झेदित्यत्र दोंच् छेदने सप्तमी यात् इति लिखितम्. ९ सी डी ज्झेद्यदि प. १० ए सी डी कुकुरा ०. ११ बी 'दयन्ती.. ६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] पुनरिति पूर्वोक्तं राज्यं गृहाणेति वचः श्रोता सन्न वरं न श्रेष्ठः । यतः कीदृशम् । तापकृदसुखकरमत एव नाडिंधमं शिराणां संतापकं तथा नाडिंधयं संतापातिरेकोत्पादेन शिराणां ग्रासकम् । एतद्धि वच:श्रवणं पितर्यभक्तिसूचकं तेच्चाहं कुर्वाणः श्वादिभ्योपि निकृष्टस्तेपि हि स्वमातापित्रोभक्ताः स्युरित्यर्थः ।। घटिंधममुष्टिंधमनासिकंधमनिस्त्रपाः । लुभ्यन्ति पितृराज्येतिवातंधयखरिंधयाः ।। ८१ ॥ ८१. पितृराज्ये लुभ्यन्ति । के क इत्याह । घटिंधमा दर्दरवादका मुष्टिंधमा मुष्टिवादका भण्डविशेषा एवं नासिकंधमा अपि तद्वन्नित्रपा निर्लज्जा नरास्तथा निर्विवेकताद्यतिशयेन वातंधयान्सर्पान्मृगान्वा खरिंधयांश्च गर्दभानतिक्रान्ताश्च ।। नासिकंधयमुष्टिंधयांम्बास्तनघटिंधयः ।। अहं तेद्यापि शिष्योमि नैतद्वातंधमं वचः ॥ ८२ ॥ ८२. हे ताताद्याप्यहं ते शिष्योनुशास्यः शिक्षणीयोस्मि वर्ते यतो नासिकंधयी स्नेहातिरेकान्मदीयनासाचुम्बिनी मुष्टिंधयी मन्मुष्टिचुम्बिनी याम्बा माता तस्या यो स्तनौ ताभ्यां घटिंधयो घटतुल्यस्तनपायीत्यर्थः । क्षीरकण्ठ इति वाक्यार्थः । क्षीरकण्ठो हि शिक्षणीयः स्यात् । एतद्वचः शिष्योस्मीति वचनं वात इव वातः फल्गुरर्थस्तं धमति वक्ति वातंधमं नास्ति सत्यमेवेदं वच इत्यर्थः ॥ १ए पाः । तुल्यन्ति. २ ए वातिध. ३ ए बी सी धया । पि. ४ ए नाशिकं. ५ ए सी प्यान्धास्त°. ६ बी धयाः । १ए सी कम. २ ए सी तन्वाहं. ३ बी पि स्व०. ४ ए मात्रापि°. ५ सी भक्त्या स्यु. ६ डी के ई. ७ ए नाशिकं. ८ सी धयाअ ग° डी धयाश्च. ९ ए यांअ ग'. १० ए °न्मुष्टिं वुविनी. सी डी 'न्मुष्टिं चु०. ११ बी पानीत्य. १२ डी कण्ठो हि. १३ सी डी गीय स्या. १४ ए वाप्त इ०. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.१.११९.] एकादशः सर्गः। खरिंधमो नु दुग्धार्थी पश्चात्तापरकरंधमः । भुवः करंधयः सन्यां त्वयि पाणिंधयः सति ॥ ८३ ॥ ८३. त्वयि सति राज्यधुराधौरेये विद्यमानेपि पाणिंधयो बालकः सन् यदि भुवः करंधयो राजग्राह्यभागग्राही राजाहं स्यां तदा पश्चात्तापाद्राज्यप्रतिपालनानलंभूष्णुत्वाद्युत्थाकि मया तदा पिता प्रव्रजन्न निवारित इति रूपात्करंधमो हस्तयोर्मर्दकः स्यां यथा दुग्धार्थी दुग्धपानमिच्छन्नरः खरिंधमो गर्दभी दुहन्सन पश्चात्तापात्करौ मृद्गाति महाकष्टदोह्यत्वादोहनेपि दुग्धस्यातिविरसत्वेनापेयत्वात् ॥ पाणिधर्महामात्रैः कुञ्जरैः कूलमुद्रुजैः । कूलमुद्वहसिन्धर्मिरयैर्गोभिर्वहलिहैः ॥ ८४ ॥ रथैरभ्रंलिहेहेमाबहुंतुदयुगैरपि । द्विपामरंतुदै त्यैस्तिलानां नु तिलंतुदैः ॥ ८५ ॥ तैर्ललाटंतपैः शत्रोर्यशोविधुविधुंतुदैः। शर्धजहानसंपुष्टैर्वेगवातमजैर्हयैः ॥ ८६ ॥ दारैरसूर्यपश्यैश्चेरंमदद्युतिभूषणैः । अनुग्रंपश्य किं मे चेन्न पश्येयं तवाननम् ॥ ८७॥ ८४-८७. अनुग्रंपश्य सौम्यविलोकक चेत्तवाननमहं न पश्येयं १ सी डी पाकर'. २ ए करिंध'. ३ ए धममहा. ४ ए वहलि'. ५ ए द्विषां म. ६ सीतुदैः । ते'. ७ ए डी स्तिलांनां. ८ सी डी धुभू. ९ए सी डी 'नुग्रप. . १बी ये त्वयि वि. २ ए तानव'. ३ बी इत्यरू. ४ ए मैदकः. ५ ए सी डी भी दु. ६ सी डी होहितेपि. ७ ए अमुग्रं. ८ सी डी ग्रं सौ'. ९ डी नम. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] तदा मे पाणिंधमैर्ह स्तिनामुपशा(सा)न्त्वनाद्यर्थं पृष्ठाघातेन पाणिं वादयद्भिः। हस्तिशिक्षानिए॒णैरपीत्यर्थः । महामात्रैर्ह स्तिपकैः किं न किंचिदित्यर्थः । तथा फूलमुद्रुजैर्मदोन्मत्तत्वान्नदीतटोत्पाटकैः कुञ्जरैः किम् । तथा गोभिवृपैः किम् । किंभूतैः । कूलमुहाया नद्या आकूलं जलपूर्णत्वेन तटस्पर्शिन्यो याः सिन्धूर्मयो नदीकल्लोलास्त द्वद्रयो वेगो येषां तैः । तथा वहलिहैर्जातिस्वभावाजिह्वया स्कन्धान्स्पृशद्भिः । तथा रथैरपि किम् । किंभूतैः । अभ्रंलिहैरुच्चैस्त्वाद्व्योम स्पृशद्भिः । तथा हैमानि स्वर्णमयानि यान्यबहुंतुदानि मृदुत्वात्स्थूलत्वादिगुणोपेतत्वान्न बह्वतिशयेने तुदन्ति वृषाश्वादिस्कन्धान्पीडैयन्ति युगानि येषां तैहैंमाबहुंतुदयुगैः । तथा भृत्यैः किम् । किंभूतैः । तिलानां तिलंतुदैर्नु यथा तिलंतुदो घञ्चिकाः काका वा तिलानामरंतुीः पीडाः स्युरेवं द्विपामरुंतुदैर्मर्माविद्भिः । तथा हयैः किम् । कीदृशैः । तैः सुजात्यत्वादिना प्रसिद्धस्तथा शत्रोररिजोतेर्ललाटंतपैः प्रतापित्वात्संतापकैरत एव शत्रोर्यशोविधुविधुतुदैः कीर्तिचन्द्रे राहुभिः । तथा शर्धजहा माँषा यान्यन्नानि भक्ष्याणि तैः पुष्टैस्तथा वेगवातमजैवेगेन वातमजैर्मगैरिव । तथा दारैः किम् । किदृशैः । असूर्यपश्यैरतिगुप्तस्थानस्थत्वात्सूर्यमप्यपश्यद्भिस्तथेरया जलेन माद्यतीरंमदो विद्युत्तस्येव द्युतिर्येषां तानि भूषणानि येषां तैः ॥ २३ २ . १ए मेहस्ति. २ डी शान्तना'. ३ ए स्तिनि शि. ४ ए पुणैः र'. ५ ए किंचदि. ६ ए लवुद्रु. ७ बी "त्पादकैः. ८ बी सी मिवृषैः. ९ ए सी डी हा नद्या. १० ए द्भिः । स्त. ११ बी 'न तुंद'. १२ ए डन्ति. १३ डी तैहेमा . १४ ए बहुतु. १५ ए °दा चञ्चि. १६ डी मरुतु. १७ सी दाः स्यु'. १८ ए काः स्फुरेव द्वि'. १९ ए ममावि . २० डी हयै कि. २१ सी था वेगतमजैमूंगैरिव ।. २२ बी जातिल'. २३ ए मिः । स्त. २४ डी माषयोन्य. २५ ए भक्षाणि. २६ डी जैर्मु. २७ ए 'इयैरिति', २८ डी चुततस्ये'. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०५.१.१२८.] ४५ 1 शुनिंधयाः । स्तनंधये । मुञ्जयाः । कृलंधैय । भास्यंधयी । पुष्पंधय । इत्यत्रं “शुनीस्तन०” [११९] इत्यादिना खन् ॥ डकारोङयर्थः । आस्यंधयी ॥ नाडिंर्धमम् । नाडिंधयम् । घटिंघम । घधियः । खरिंर्धमः । खरिंधंयाः । मुष्टिंघम । मुष्टिधय । नासिकंधम । नासिकंधय । वातंर्धमम् । वातंधय । इत्यत्र “नाडी०” [१२०] इत्यादिना खश् ॥ 1 पाणिधमैः । कैरंधमः । अत्र “ पाणिकरात् " [ १२१ ] इति खेश ॥ पाणिकरा (द्र)देरपीति कश्चित् । पाणिधयः । करंधेयः ॥ 1 1 ܪܢ एकादशः सर्गः ः । 3: कूलमुदुजै: । कूलमुद्वह । इत्यत्र “कूलाद्र्०” [१२२] इत्यादिना खश् ॥ बहलिहैः । अत्रं लिहैः । अत्र "वह ०" [१२३] इत्यादिना खश् ॥ बहुतुद । विधुंतुदैः । भरुंतुदैः । तिलंतुदैः । अत्र " बहु ० " [ १२४ ] इत्यादिना खश् ॥ : ललाटंतपैः । वातमजैः । शधजह । इत्यत्र " ललाट०" [१२५] इत्यादिना खश् ॥ असूर्यपैश्यैः । अनुग्रंपश्य । इत्यत्र “असूर्य ०" [१२६] इत्यादिनां खश् ॥ इरंमद । इत्ययम् “इरंमदः " [१२७] इति निपात्यः ॥ : प्रियंभविष्णुर्योन्यो वाढ्यंभविष्णुर्वदेदिति । अप्रियं भावुकोनाढ्यंभावुकः सोपि मे मतः ॥ ८८ ॥ ८८. अन्यस्त्वत्त इतरः । त्वं तु पितृत्वाद्येदपि तदपि वदन्मम पूज्य एवेति भावार्थ: । अपरस्तु य इति पितृराज्यं गृहाणेति वदेत् । २२ १ सी 'विष्णुं वदे". २ ए डी 'ष्णुवदे'. ३ डी ममतः. १ ए 'निक्या: २ सी 'धया । कू'. डी 'धयोः । कृ. ३ ए धयः । आ. सी डी 'या । आ. ४ सी डी ' नी'. ५ ए सी डी 'धयम् । घ°. ६ सी धरयः । मु ं. ७ ए सी डी 'धयः । मु. ८ ए सी डी 'धमः । मुष्टियः । ना'. ९ ए सी धयः । बा ं. १० ए 'धमः । वा' सी 'धमम् । नासिकंधय । वा'. डी धय । इ. ११ ए करिंथ १२ सी 'धम । अ. १४ सी 'धयम् । कृ. १५ डी 'जै: । कूलमुद्रः । कृ. अलि. १८ बी बहेत्या. १९ सी डी पश्ये । अ'. २१ ए सी द्यद्यपि डी 'द्यपि . २२ बी थेः । प. १३ सी डी खश । पा. १६ ए कूलदू. १७ डी २० सी डी 'ना इ. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] 1 कीदृक्सन् । प्रियंभविष्णुर्वलभीभवन्नाढ्यंभविष्णुर्वेश्वरीभवन्वा । सोपि स्वमनसा प्रियीभवन्नप्यायीभवन्नपि वा पुमान्ने न प्रियोप्रियो भवेत्यप्रियंभावुकोनाढ्यंभावुको दरिद्रीभवंश्च मतस्तस्यामप्रसन्नः सर्वस्वापहारकश्च स्यामित्यर्थः ॥ पलितंभावुकः स्थूलंभावुकान्धंभविष्णुधीः । कर्मैतदनुमेने को भावुकनिन्दितः ॥ ८९ ॥ I ८९. कोमात्यादि रेतत्कर्म मयि राज्यदानरूपां क्रियामनुमेने । कीटक्सन् । पलितंभावुकः पलित मंस्यास्ति । अभ्रादित्वादः [ ७.२.४६] अपलितः पलितो भर्वन्नतिवृद्धोत एव स्थूलंभावुको (का) तीक्ष्णा सूक्ष्मार्थानभिज्ञात एवान्धंभविष्णुः कार्याकार्यविचाराशक्तत्वादन्धीभवन्तीव धीर्यस्य स तथात एव च नमंभावुकनिन्दितो बालकैरपि जुगुप्सितः || १० अन्धंभावुकपलितंभविष्णुरपि कः सुतम् । प्रौढमप्येककं मुञ्चेननंभविष्णुबालवत् ॥ ९० ॥ ९०. स्पष्टः । किं त्वैन्धं भावुकपलितंभविष्णुरपि विशेषणकर्मधारये अतिवृद्धोपि । प्रौढमपि वयसा गुणैश्च समर्थमप्येककमेकाकिनं १४ सुतं कः पिता मुश्चेत् । यथा ननंभविष्णुमतिलघुत्वेन वस्त्रापरिधायकत्वान्नमीभवन्तं बालं न कोपि मुवति ॥ १६ १ एक. २ डी नग्नभा'. ३ ए सुतीम्. सन्न स. १ डीपी'. २ ए सी प्यायीभ ३ डी मान्म न. ४ डी 'यो भ. ५ ए सी डी 'वन्प्रियं . ६ ए बी "न्निति. ९ वार्दीभ १० बी त्वन्धेभा'. डी त्वधं भा°. १३ सी डी १५ सी डी 'भवं बा. १६ ए पि वञ्च ं. न्ती घी ० बुक : प. ७ए मन्यास्ति. ८ ए ११ डी बालुकै. १२ सी १४ सीडी तं कपि. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.१.१२८.] एकादशः सर्गः। सुभगंभावुकः स्थूलभविष्णू राज्यसंपदम् । सुभगंकरणी स्थूलंकरणीमपि नार्थये ॥ ९१ ॥ ९१. अहं राज्यसंपदं नार्थये नेच्छामि । कीदृशीम् । असुभगः सुभगः क्रियतेनया तां सुभगंकरणीमपि । अपिरत्रापि योज्यः । सौभाग्यहेतुमपि तथा स्थूलंकरणीमपि यथेच्छभोज्यसंपत्त्योपचयहेतुमपि यतोहं सुभगंभावुकः पूज्यपादप्रसादात्सर्वलोकानां वल्लभीभवंस्तथा स्थूलंभविष्णुरुपचितीभवंश्च । यद्यस्य न स्यात्स तत्प्रार्थयते । अहं तु युष्मैत्पादप्रसादेन राज्यसंपदं विनापि सुभंगः स्थूलश्चतीमां नेच्छामीत्यर्थः ॥ ऊचे स्मितेन सुभगंभविष्णु द्योतयनमः । आढ्यीभवितबुद्धिं तं प्रियंकरणवॉग्नृपः ॥ ९२ ॥ ९२. नृपः कर्ण आढ्यीभवितवुद्धिं स्फीतीभवन्मतिं कुमारं सुभगं. भविष्णु युक्तियुक्तत्वान्मधुरत्वाच मनोहारि यथा स्यादेवमूचे । कीदृक्सन् । स्मितेन पुत्रसद्भक्तिवाक्यश्रवणोत्थानन्दोद्भवेन हास्येन नभो द्योतयंस्तथा प्रियंकरणवागाह्रर्दिकवाणीकः ॥ यथोचे तथाह ॥ पलितंकरणी नगंकरण्यन्धंकरण्यथ । अनाढ्यंकरणी बुद्धे राप्यङ्गं ग्रसिय॒ते ॥ ९३ ॥ १ डी विष्णु न. २ सी डी रणीस्थ्'. २ डी वितुबु. ४ ए तृषुद्धि त प्रिं. ५ ए वानृपः. ६ बी ध्यति । हे. १ डी गः कि. २ए णीयम. ३ बीमत्प्रसा. ४ ए भगस्थूल श्रे. ५ सी बोतंस्त. ६ ए बी हादिकावा'. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयासेंहः] ९३. हे कुमार जराप्यङ्गं प्रसिष्यते । कीहक्सती । पलितंकरणी पलितहेतुस्तथा नमंकरण्यचैतन्यस्योत्पादयित्रीत्वात्परिधानासंग्राहहेतुरथ तथान्धी(न्धं)करण्यान्ध्यहेतुस्तथा बुद्धेः कर्मणोनाढ्यंकरणी क्षयहेतुः ।। तया नग्नीकरण्या तत्स्वं ज्ञो नग्नीकरोतु कः । आंशितंभवमात्रा कश्वेच्छेदाशितंभवम् ॥ ९४ ॥ ९४. तत्तस्माद्धतोर्नग्नीकरण्या तया जरया कृत्वा ज्ञः पण्डितः सन्कः स्वं नग्नीकरोतुं । ननु ज्ञातमेवेदं य॑जरा नमीकरोति । परमेवंविधा राज्यश्रीः कथं मुच्यत इत्याह । आशितंभवौशितस्य भवनं तृप्ति कश्वेच्छेन् । कयाकृत्वार्शितस्तृप्तो भवत्यनेनाशितंभवं तदेवाशितंभवमात्रं स्वर्गापवर्गश्रीणामपेक्षयातितुच्छत्वेन भोजनमात्रतुल्या या ऋद्धी राज्यश्रीस्तया । तस्मादहं स्वर्गापवर्गों साधयिष्यामीत्यर्थः ।। नग्नंभविष्णु । नग्नंभावुकः(क) । पलितंभविष्णुः । पलितंभावुकः । प्रियंभविष्णुः । अप्रियंभावुकः । अन्धंभविष्णु । अन्धभावुकः(क)। स्थूलं भविष्णुः । स्थूलंभावुकः(क)। सुभगंभविष्णुः (प्णु)। सुभगंभावुकः । आत्यंभविष्णुः। अनाढ्यंभावुकः । अत्र "नन" [१२८ ] इत्यादिना खिष्णुखुकनौ। अच्वेरिति किम् । मान्यीभवितृ । नग्नकरणी। पलितंकरणी । प्रियंकरण । अन्धकरणी । स्थूलंकरणीम् । १ सी आसितं. डी आसितं'. १ए 'रापायं प्रसिप्पगे । की'. २ ए 'तुतथा. ३ ए सी डी संगाह. ४ सी डी तुरेव त'. ५ ए रव त. ६ ए थान्त्वकरणीयं आन्ध्य. सी डी थाधक. ७ ए त्तसमझे. ८ डी था कृ. ९ डी तु । शा. १० डी यज्ञरा. ११ ए राज्य क. सी डी राज्या कथमु'. . १२ ए ह । अशि'. १३ सी मात्र स्य. २४ सी डी या त्वा. १५ ए ततृप्तो. १६ ए राजश्री. १७ ए विष्णुः । नममा'. सी डी 'विष्णुः । पलितंभा'. १८ ए विष्णु । प्रियभा. सी विष्णुं प्रि. डी विष्णुः । प्रि. १९ डी वुक । अ. सी बुकः । सम्. २० ए बी सी "विष्णुः । अ. २१ सी डी 'बुक । अ. २२ सी रण । म. २३ डीणी । पलितंकरण । प्रि. ३३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ५.१.१३२.] एकादशः सर्गः । ४९ सुभगंकरणीम् । अनाढ्यं करणी । इत्यत्र “कृगः०" [ १२९] इत्यादिना खनद ॥ अवेरिति किम् ॥ नग्नीकरोतु तया कः ॥ केचित्रव्यन्तपूर्वादपि खनटमिछन्ति । नग्नीकरण्या तया ॥ आशितंभवम् । आशितंभव । इत्यत्र “भावे च० " [१३०] इत्यादिना खः ॥ भुजंगमेशोरुभुजं देवं भुजगतल्पगम् । भुजंगजिद्विहंगाङ्क विहगेन्द्रप्रभाम्बरम् ।। ९५ ॥ सुगीकृतस्वर्गदुर्ग तावंद्यातुं क्षणो मम । न जरोरंगमी यावद्दशेदात्मविहंगमम् ॥ ९६ ॥ ९५,९६. यावजरोरंगमी जरैव मृत्युहेतुत्वात्सर्पिण्यात्म विहंगममात्मानमेवानियताSयित्वादिना पक्षिणं न दशेन्न खादेत्तावदेवं हरिं ध्यातुं मम क्षणोवसरः । किंभूतम् । भुजंगमेशोरभुजं शेषराजवत्प्रलम्बबाहुं तथा भुंजगतल्पगं भुजगः शेषो यत्तल्पं तत्र शयानं तथा भुजंगजिद्यो विहंगः पक्षी गईः सोङ्कश्चिद्रं यस्य तं तथा विहगेन्द्रप्रभाम्बरं गडंवत्स्वर्णवर्णवस्त्रं तथा सुगीकृतं रागादिचरटोच्छेदेन सुगमीकृतं स्वर्ग एव दुःखेन गम्यत्वाद्दुर्ग विषमभूमिर्येन तम् ॥ खइ । भुजंग । विहंग ॥ ड । भुजंग । विहग ॥ ख । भुजंगम । विहंगमम् । अत्र "नाम्नः०" [१३१] इत्यादिना खड्डखाः ॥ विहायसूशब्दस्य घ विहा. देशः ॥ उरंगमीत्यपि कश्चित् ॥ १ डी “मेशार. २ बी गद्विद्वि'. ३ ए द्विहगा'. ४ सी डी भावर'. ५ सी डी ‘वद्यात् क्ष'. ६ डी रोरग”. ७ ए शेन्नात्म. सी डी शेनात्म. १ डीणी । अं. २ सी खट्र. ३ बी रित्येव । न. ४ ए व्यङ्गतपू. ५ सी डी 'न्ति । अन'. ६ सी. डी आसितं. ७ ए सी डी वेत्या'. ८ बी श्रयत्वा. ९ डी गमशशेष. १० सी मेशशेप. ११ ए 'शोमभु. १२ ए 'भुजंग'. १३ ए सी डी विहगः. १४ डी डः शोङ्क. १५ सी विहंगे'. १६ सी डी दृश्च स्वर्ण. १७ ए भुजग. १८ ए ग। खो भु. सी डी गम । विहं. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये सुंगी । दुर्गम् । इत्येतौ "सुग०" [ १३२ ] इत्यादिना निपात्यैौ ॥ स्वर्गनिर्गोचितं कुर्यात्किं हि शम्बरस्तदा । आर्त्या पार्श्वशयः पृष्ठशयोत्तानशयो यदा ॥ ९७ ॥ ५० [ जयसिंहः ] ९७. तदा पुमानकिंचित्करत्वादनुकम्प्यत्वाच शम्बर इव मृगभेद इव | पुंशम्बरो हि स्फुटं स्वर्गनिर्गोचितं स्वर्गदेशयोग्यं सद्धर्मानुष्ठानं किं कुर्यान्न किमपि यार्सा जरापीडया पार्श्वशयः पृष्ठशय उत्तानशयः पाश्वभ्यां पृष्ठेनोत्तानश्च शेते ॥ योगेनोर्ध्वशया धन्या भिक्षाचरवनेचराः । अहृच्छया अनादायचराः स्वं साधयन्ति ये ॥ ९८ ॥ ९८. ते भिक्षाचरवनेचरास्तापसा धन्याः श्राध्याः । किंभूताः । योगेन ध्यानेन कृत्वा न तु निद्रयोर्ध्वशया ऊर्ध्वा एव शयाना ऊर्ध्वस्था एव सन्तो योगपरमकाष्ठयां शयानवनिश्वेष्टा इत्यर्थः । ये स्वं साधयन्ति । कीदृशाः सन्तः । अहृच्छया निष्कामास्तथानादायचरा अनादानं कृत्वा चरन्तो निष्परिग्रहा इत्यर्थः ॥ 1 सेनाचराग्रेसरैस्त्वं वृतो धुर्यपुरःसरः । धेहि तद्भूधुरां येन स्यां विवेक्यग्रतः सरः ।। ९९ । ९९. तत्तस्माद्धेतोस्त्वं भूधुरां धेहि धारय । कीदृक्सन् । सेनया चरन्ति गच्छन्ति सेनाचराः सैनिका स्तेपामग्रेसरैर्मुख्यैर्वृतस्तथा धुर्यपुर: १ बी पुंसंवर २ ए बी सी 'नोश' ३ डी 'राः । आहृ. ४ए 'राः स्वसा. ५ ए स्त्वं धृतो. ६ डी 'तः । त' १ बी सी डी मुग । दु. २ सी डी 'यः पा° ३ बी 'तानाश'. ४ सी डी 'पसाः ५ एसा हा ६ ए गेनाध्या. ७ ए र्ध्वाश ए. ८ ए सी ऊर्द्धस्था. ९ सी डी याश्रयान् व. १० ए थेः । समाच. ११ बी रां पृथ्वीभारं घे. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ५.१.१४३.] एकादशः सर्गः। सरः कार्यधुराधरणक्षमेपु प्रष्ठः । येन यथाहं विवेक्यप्रतःसरो मुनिषु मुख्यः स्याम् ॥ निर्ग । इत्ययं “निर्गो देशे" [ १३३ ] इति निपात्यः ॥ शम्बरः । अत्र "शमो नान्यः" [१३४ ] इत्यः । पार्श्वशयः । पृष्ठशयः(य)। अत्र "पाश्र्वादिभ्यः शीङः" [१३५] इत्यः ॥ ऊर्ध्वयाः । उत्तानशयः । अत्र "ऊर्ध्वादिभ्यः कर्तुः" [ १३६] इत्यः ॥ हृच्छयाः । अत्र “आधारात्" [१३७] इत्यः ॥ वनेचराः । अत्र "चरेष्टः" [१३८ ] इति टः ॥ भिक्षाचर । सेनाचर । अनादायचराः । अत्र "भिक्षा." [१३९] इत्यादि ना टः॥ पुरःसरः । अंग्रतःसरः । अग्रेसरैः । अत्र "पुरः०" [१४० ] इत्यादिना टः ॥ सातपत्रे द्विपारूढे राज्ञां पूर्वसरे त्वयि । भवं तरामि योगस्थो नदीष्ण इव निम्नगाम् ॥ १० ॥ १००. स्पष्टः । किंतु नदीष्णो नदीतरणकुशलः ॥ पूर्वसरे । अत्र “पूर्वोत्कर्तुः" [१४] इति टः ॥ योगस्थः । द्विप । नदीष्णः । सातपत्रे । अत्र "स्थापा." [१४२] इत्या. दिना कः ॥ कथं स शोकापनुदः पुत्रः स्तम्बेरमोर्गपि । अप्यतुन्दपरिमृजस्त्यक्तकणेजपोपि च ॥१०१॥ १ए निन्नगा'. २ बी डी पुत्रस्त'. ३ बी तुदंप. ४ डी मृज्यस्य. १ डीभ्यः क्रीङः. २ ए शीइ ई. ३ ए शयः । उ॰. डी शय । उ'. ४ ए दिभ्यकेतुः ई. ५ सी डी चरः। से. ६ ए सी डी चर । अं. ७ बी भिक्ष्येत्या. ८ सी डी अग्रे. ९ सी डी किर्तुः. १० सी डी दी सा. ए दीते। सा. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः आज्ञाधूमूलविभुजनेत्रपङ्केरुहे गुरौ । भवेत्कामदुधा भक्तिः पादभाजोपि यस्सं न ॥ १०२॥ १०१,१०२. स पुत्रः कथं शोकापनुद आनन्दकरः स्यात् । कीदृशः । स्तम्वेरमोर्गपि गजवदलिप्ठोपि । अतुन्दपरिमृजोपि निरालस्योपि । त्यक्तकर्णेजपोपि सत्सङ्गरतत्वात्त्यक्तदुर्जनोपि । यस्य पुत्रस्य पादभाजोप्यास्तां यो दुर्विनीतत्वेन समीपेपि नायाति किं त्वतिविनीतत्वेन पादसेवकस्यापि सतः कामदुघा मनोरथपूरिका भक्तिराज्ञापालनरूपा न भवेत् । क विषये । गुरौ पितरि । किंभूते । आज्ञायै भ्रुवोः सम्बन्धित्वेन मूलविभुजे मूल आदौ विभुजन्ती कुटिलीभवन्ती नेत्रपङ्केरुहे यस्य तस्मिंश्चालितभ्रूमूलनेत्रसंज्ञयाज्ञां ददान इत्यर्थः । आज्ञापालनमेव हि गुरौ भक्तिस्तंञ्चेत्त्वं मयि सत्यं भक्तस्तदा राज्यं गृहाणेत्यर्थः ॥ शोकापनुदः । सुन्दपरिमृजः । स्तम्बरम । कर्णेजपः । इत्येते "शोका." [१४३] इत्यादिना निपात्याः ॥ मूलविभुज । पकेरुहे । इत्यादयो “मूल०" [१४४] इत्यादिना निपात्याः ॥ कामदुधा । इत्यत्र "दुहेर्दुघः" [१४५] इति दुघः ॥ पादमाजः । अत्र “भजो विण्" [१४६] इति विश् ॥ अग्रेगावा शुभंयां सोथाश्वत्थामोपमं सुतम् । दोष्णि धीवा सुधीवोा जागहेमासने न्यधात् ॥१०३॥ १ ए सी डी स्य सः ॥ स. २ सी 'श्वस्थामो'. १ बीन्दकः स्या. ए न्दकर स्या. २ ए सी मोगेपि. ३ सी डी पि जगद. ४ डी पिपि स° ५ बी "पि का° ६ सी विभंज°. डी विभंजन्ती कु. ७डी नेत्रे सं. ८९°स्तचेत्त्वं. सी 'स्तच्चेत्रत्त्वं. ९ए°हेईघ इति डुघः. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ५.१.१४८.] एकादशः सर्गः। ५३ १०३. अथ स कर्णोश्वत्थामोपमं बलवीर्यादिना द्रोणपुत्रसमं सुतं जयसिंह हेमासने सिंहासने न्यधाद्पावेशयन् । कीदृक्सन । शुभंयां श्रेयःकर्मकारिणां मध्येणेगावाग्रेसरस्तथोाः सुधीवा मुष्ट पोपकस्तथा जागैरिहलोकपरलोकहितेषु सर्वकार्येषु जागरूकोत एव दोषि(हिण) वाही धीवा पुत्रस्य धारको बलाद्राज्ये निवेशनाय पुत्रं बाहौ गृहीत्वेत्यर्थः ।। मन् । अश्वत्थाम । क्वचिद्रहणात्केवलादपि । हेम ॥ वन् । अग्रेगावा ॥ क्वनिप् । सुधीवा ॥ केवलादपि । धीवा ॥ विच् । शुभंयाम् ॥ केवलादपि । जागः । अत्र “मन्वन्०" [१४७] इत्यादिना मन्वन्क्वनिविचः ॥ सोभिषेकचिकीः सूनोः कीरपां दिविषत्समः । पुण्यमूकुम्भहस्तोभाजिष्णुर्विष्णोर्नु गोदुहः ॥ १०४ ॥ १०४. स कर्णोभात् । कीटक्सन् । दिविषत्समस्तदानीं होकपद्वेपविशेषाञ्च देवतुल्यस्तथा सूनोरभिषेकचिकी राज्याभिषेकं चिकीपुरत एव पुण्यसूर्मङ्गल्यत्वात्कल्याणानां जनयिता कुम्भो हेमकलशो हस्ते यस्य सः। तथात एव चापां जलानां कीः क्षेप्ता । यथा गोदुहो गोपरूपधारिणो विष्णोरभिषेकचिकीः पुण्यसूकुम्भहस्तोपां कीः सञ् जिष्णुरिन्द्रोभात् । विष्णोहि गोपस्य राज्याभिषेकमिन्द्रश्चकारेति पुराणम् ॥ . अघभित्कृत्य विद्विइजित्स प्रत्यूहच्छिदंद्रुहः । सेनानीवाजियुग्मुख्यान्सम्राट् सूनावनामयत् ॥ १०५ ॥ १ ए 'दग्रहः. १ ए सी डी अत्र स. २ सी डी स्विम्यामो'. ३ बी दुपत्रे'. ४ बी °ग इह. ५ सी श्वस्थाम. डी 'श्वस्थाने । क. ६ सी डी पांदेप. ७ ए सी डी जय . ८ ए सी डी शो य. ९ सी 'स्य स त ए'. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः) १०५. स्पष्टः । किं तु स कर्णः। अद्रुह आभिजात्यादिगुणैरजिघांसून् । सेनान्यो दण्डनायकान् । वाजियुग्मुख्यांश्चाश्ववारप्रवरान्साधनाधिपान् ॥ ऋत्विग्धुर्यस्ततः सम्यगुप्णिग्दधृक्पुरोहितः । शङ्कस्पृगुदकस्पर्शो मत्रस्पृग्मगलं व्यधात् ॥ १०६ ॥ १०६. ततो राज्याभिषेकानन्तरमृत्विग्धुर्यों यायजूकश्रेष्ठः पुरोहितः सम्यक् शास्त्रोक्तविधिना मङ्गलं मन्त्रपूतोदकाक्षतादिन्यासरूपां मङ्गलक्रिया व्यधात् । कीडक्सन् । उष्णिग्दधृगुष्णिहि छन्दोविशेषे प्रगल्भस्तथा शङ्खस्मृगुदकस्पर्शः शङ्खस्थमुदकं स्पृशन् । तथा मन्त्रस्पृग्मत्रेण कुमारं स्पृशंश्च ।। अभिषेकचिकीः । केवलादपि । कीः । अत्र “क्विप्" [३४८] इति क्वि । सदिसूद्विपद्रुहदुहयुजविदमिदछिदजिनीराजिभ्यश्च । दिविषत् । पुण्यसू । द्विद । अद्रुहः । गोर्दुहः । वाजियुक् । कृत्यवित् । अघमित् । प्रत्यूहच्छित् । द्विजित् । सेनानी । सम्राट् । अञ्जः । सम्यक् । तथा ऋत्विक् । दश्क् । उष्णिम् ॥ शङ्खपृग् । मन्त्रस्टग् । इत्यत्रं "स्पृशोनुदकात्" [३४९] इति क्विम् । कर्मोपपदादेवेच्छन्त्यन्ये । तन्मते मन्त्रस्मृगिति न स्यात् । अनुदकादिति किम् । उदकस्पर्शः॥ एषोन्नादानिव व्याऋन्यादानपि शात्रवान् । त्यादृशानसदृग्जेष्यत्येवं वागभवदिवि ॥ १०७ ।। --- - १बी द्रुहः अभि'. २ सी डी °ना विपा'. ३ ए धिमान्. ४ सी डी 'दिनाऽस'. ५ सी डी कम्ध. ६ सी 'पि। चिकी ।. डी 'पि । चिकी:. ७ ए 'त्र कविति किच् । स. ८ सी डी ‘दुह । वा. ९ डी त् । प्र. १. डी'त्र स्मृगित्यत्र स्मृ. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.१:१५०.] एकादशः सर्गः। १०७. वाग् दैवी वाणी दिव्याकाशेभवत् । कथमित्याह । असदृक् प्रतापादिगुणैर्निरुपम एष जयसिंहस्त्यादृशान्दुर्जेयत्वेन प्रसिद्धान् क्रव्याक्रव्यादानप्याममांसभक्षान्पकमांसभक्षांश्चापि शात्रवान् शत्रून राक्षसानपीत्यर्थः । अन्नादानिव मनुष्यानिव हेलयैवेत्यर्थो जेध्यत्येवम् ।। त्यादृक्षमङ्गलैस्तादृग्वाचा दृष्टोथ तादृशम् । तमनन्यादृशं साह कर्णस्ताक्षया गिरा ॥ १०८ ॥ १०८. अथ कर्णस्तं जयसिंह तादृश्या तत्कालोचितया गिरा शिक्षाप्रधानवाण्याह स्म । कीदृशम् । तादृशं राज्याभिषेकश्रीसमलंकृतं तानन्यादृशं शोभातिशयेन निरुपमम् । कीहक्सन् । त्यादृक्षमङ्गलैः पुरोहितकृताभिषेकोचितमङ्गलकर्मभिस्तादृक्षवा(दृग्वा)चा च दिव्यवाण्या च हृष्टः ॥ नान्यादृक्षां सदृक्षी किं त्वाद्यानामुद्वहन्स्थितिम् । मित्रभाषी स्निग्धदर्शी विप्रादीन रक्षिता भव ॥ १०९ ॥ १०९. हे वत्स त्वं विप्रादीन्वर्णचतुष्टयी रक्षिता पालनशीलो भव । कीहक्सन् । नान्यादृक्षां पूर्वपुरुषस्थितिसकाशान्न विपरीतां किंतु सदृक्षीमाद्यपुरुषस्थितेः सदृशीमाद्यानां पूर्वजानां स्थितिं व्यवस्थामुद्वहंस्तथा मित्रभाषी सखेवालपन स्निग्धदर्शी सानुरागं दर्शनशीलः ।। भूया मद्भातृजे देवप्रसादे वानुयायिनि । साधुकारी चारुदायी सर्वदा च प्रसादवान् ॥ ११०॥ १ ए डी दृशां त. २ ए तरान'. ३ ए 'दृक्षी स. ४ सी न् वर्ण'. १वी थे,ज्येष्य २ ए सी डी व ॥. ३ ए ‘ण्यामाह स्स । की. सीडी ‘ण्यास्माह । की. ४ ए थामन्या'. सी डी ‘था अन्या. ५ डी निरूप'. ६ ए सी डी 'न् अनन्या. ७ सी रागद. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ११०. स्पष्टः । किंतु अनुयायिनि तवात्यन्तं भक्त इत्यर्थः । चारुदायी चारु यथा स्यादेवं पुरादि ददत् ।। "अदोनन्नात्" [१५०] इत्यस्य आमात् इत्यादि प्रवृत्त्युदाहरणम् अन्नादान इति व्यावृत्युदाहरणोपदर्शनेनैव दर्शितं ज्ञेयं प्रवृत्तिमन्तरेण व्यावृत्तेरभावात् ॥ क्रव्यांक्रव्यादशब्दौ "क्रव्यात्' [१५१] इत्यादिना साधू ॥ त्यदादि । त्यादृशान् । त्यादृक्ष । तादृशम् । तादृक्षया । तादृक् ॥ अन्य । अनन्यादृशम् । अन्यादृक्षाम् । अनन्यादृशम् ॥ समानः(न)। सदृक् । इत्यत्र "त्यदादि०" [१५२] इत्यादिना टक्सको क्विच । केचित्सकमपि टितं मन्यन्ते । सहक्षीम् ॥ मित्रभाषी । इत्यत्र “कर्तुणिन्" [१५३] इति णिन् ॥ स्निग्धदर्शी । इत्यत्र "अजातेः शीले' [ १५४ ] इति णिन् । अजातेरिति प्रसज्यप्रतिषेधादसत्त्ववाचिनोप्युपसर्गाद्भवति । अनुयायिनि । अजातेरिति किम् । विप्रादीन् रक्षिता ॥ साधुकारी । चारुदायी । इत्यत्र “साधौ” [१५५] इति णिन् । ब्रह्मवादी हरिस्मारी भूत्वा स्थण्डिलवय॑थो। प्रापाग्निष्टोमयाजीव स पुरी जम्भविद्विपः ॥ १११ ॥ १११. अथो स कर्णो जम्भविद्विष इन्द्रस्य पुरीं प्रापाग्निष्टोमयाजीव यथाग्निष्टोमेन स्वर्गफलेन यागविशेषेणेष्टवान्यजमानो जम्भविद्विपः पुरीं प्राप्नोति । कीहक्सन्सः । स्थण्डिलवर्ती स्थण्डिले मुनियोग्ये भूविशेषे व्रतादू वर्तमानो भूत्वा ब्रह्मवादी परमतत्वं वेदान्वा ब्राह्मणान्वा वदंस्तथा हरिस्मार्यभीक्ष्णं हरिं स्मरन् । १ ए सी डी पुरी ज'. १ए सी डी "देव पु. २ ए सी डी °दा इ. ३ बी व्याक्रव्या. ४ सी डी इना. ५ ए दृशन्. ६ सी डी °न् । तादृ. ७ ए 'दृशां ता°. ८ ए दृक्षम्. ९ वी अन्या. १० बी 'मानं स. ११ ए सी डी न्यते । स. १२ ए सी डी क्षी॥. १३ ए जातो शी०. १४ सी पुरी प्रा. १५ डी ण्डिले व°. १६ सी डी वा प. १७ ए सी डी क्ष्णं म. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० ५.१.१५९.] एकादशः सर्गः । ब्रह्मवादी । इत्यत्र "ब्रह्मणो वदः" [१५६] इति णिन् । स्थण्डिलवर्ती । हरिमारी । इत्यत्र "व्रत." [१५७] इत्यादिना णिन् ॥ अग्निष्टोमयाजी । इत्यत्र “करणाद्" [१५८] इत्यादिना णिन् ॥ स सोमविक्रयिभ्रूणहब्रह्महात्मघातिनः । वर्जयञ् जयसिंहोथ पितृकार्येपृणद्विजान् ॥ ११२ ॥ ११२. स्पष्टः । परं सोमं सोमवल्लीरसं विक्रीतवन्तः सोमविक्रयिण एवमादिद्विजान्महापापिष्ठत्वाद्वर्जयनन्यान्द्विजानपृणद्भोजनादिदानैरतर्पयत् ॥ भूवृत्रमोथ सुकृतः श्रुत्वा तां पुण्यकृद्गतिम् । देवप्रसादः पदकृत्तमूचे दर्शयन्सुतम् ॥ ११३ ॥ ११३. अथ सुकृतः कृतपुण्यस्य भूवृत्रघ्नो महीन्द्रस्य॑ कर्णस्य तां गति स्वर्गप्राप्तिलक्षणां श्रुत्वा देवप्रसादस्तं जयसिंहमूचे । कीदृक्सन् । पुण्यकृत्कृतधर्मात एव पदकृदुपार्जितस्वर्गरूपस्थानस्तथा सुतमात्मीयं पुत्रं जयसिंहस्य दर्शयन् ।। यदूचे तदाह । अपापकृत्रिभुवनपाल एषोस्तु ते सुतः। कर्मकृन्मत्रकृच्छाध्यस्तीर्थकृत्सोमसुत्प्रियः ॥ ११४ ॥ ११४. एष प्रत्यक्षो मत्पुत्रस्त्रिभुवनपालनामा ते सुतोस्तु । पुत्रवदयं त्वया पालनीय इत्यर्थः । कीदृग् । अपापकृदत एवं कर्मकृन्मत्र १ए पुण. बी प्रिण'. २ ए सी ति ।. ३ ए सी डी साद प°. ४ ए न्सुताम्. ५ ए °ध्यकृस्ती'. ६ ए मस्युत्प्रि. डी °मस्तुत्प्रि. १सी दिनानै'. . २ डी °तःपु०. ३ बी महेन्द्र. ४ ए °स्य तां. ५ ए सी डी धात. ६ बी डी °त्मीयपु. ७बी °मा सु. ८बी पाल्य इ. ९९ व अक. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः) कृच्छाध्यः सेवकैः कृतमत्रैर्मुनिभिश्च प्रशस्यस्तथा सर्वदर्शनभक्तत्वात्तीर्थकृतोर्हन्तः सोमसुतश्च सोमं सुतवन्तो यज्वानश्च प्रिया यस्य स तथा । सोमविक्रयी । इत्यत्र “निन्द्ये." [१५९] इत्यादिना-इन् । आस्मघातिनः । अत्र "हनो णिन्” [१६०] इति णिन् । ब्रह्मह । भ्रूणह । वृत्रैनः । अत्र "ब्रह्म०" [१६] इत्यादिना किम् ॥ सुकृतः । पुण्यकृत् । अपापकृत् । कर्मकृत् । मन्त्रकृत् । पदकृत् । इत्यत्र "कृगः सु०" [१६२] इत्यादिना क्किए । एभ्य एव भूते कृगः क्विषिति धातुनियमो नेष्यते । तेन तीर्थकृत् ॥ सोमसुत् । इत्यत्र “सोमात्सुगः" [१६३] इति किम् ॥ इत्युक्त्वैत्य नदी ब्राह्मीं सोग्निचित्कङ्कचिचिताम् । स्वर्गदृश्वाभवत्कर्णसहकृत्वेव भक्तिमान् ॥ ११५ ॥ ११५. सं देवप्रसादः कर्णे भक्तिमान्सन्स्वर्गदृश्वा चिताप्रवेशेन स्वर्ग दृष्टवानभवत् । किं कृत्वा । इति पूर्वोक्तमुक्त्वा तथा ब्राह्मीं नदी सरस्वतीमेत्य कालकरणायागत्य । किंभूताम् । अग्निचिदग्निं चितवती देवप्रसादार्थमग्निसंभृतेत्यर्थः । कङ्कचित्कङ्काख्यपक्षिभेदवच्चिता कङ्काकारेण रचितेत्यर्थः । चिता यस्यां ताम् । अतश्च तत्क्षणमेव स्वर्गगमनरूपैककार्यकरणादुत्प्रेक्ष्यते । कर्णसँहकृत्वेव कर्णसहकारीव ॥ १ए चिन्वितम्. १ए त्रैमुनि'. २ बी निन्दे इ. ३ बी सहः । भ्रू. ४ सी त्रघ्न । अ°. ५ सी डी । पु. ६ ए 'कृत । पु. ७ सी डी त् । म°. ८ डी सन्स्व. ९ बी 'मान्स्व. १० ए ककाख्य. ११ ए चिन्ता य. १२५ सी डी प्रेक्षते. १३ बी सकृ. १४ बी र्णस्य स. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.१.१६४.] एकादशः सर्गः। ५९ राजंकृत्वा राजयुध्वा सहयुध्वानमाहवे। आत्मानुजमिवापश्यत्सोजदृग्भ्रातृजं नृपः ॥ ११६ ॥ ११६. स नृपो जयसिंहो भ्रातृ त्रिभुवनपालमात्मानुजमिवात्मानमनु जातं लघुसोदरमिवापश्यदज्ञासीत् । कीडक्सन् । अब्जदृक् प्रसन्नत्वात्पद्माक्षस्तथा राजकृत्वा त्रिभुवनपालं राजानं कृतवान् । कीदृशम् । आहवे सहयुध्वानं सह जयसिंहस्य सहायीभूय युद्धवन्तम् । ननु जयसिंहो युद्धकृदेव न भविष्यति तत्कथमसौ सहयुध्वेत्याह । राजयुध्वा राज्ञो युद्धवान् । अन्तर्भूतगयर्थत्वात् योधितवान् । द्विजाजातान्क्षत्रियजान्सोन्यानप्यनुजानिव । अब्रह्मज्यो जनान्मित्रहकीर्तिपटहोन्वशात् ॥ ११७ ॥ ११७. स्पष्टः । किंत्वन्यानपि वैश्यशूद्रान् । अब्रह्मज्यो न ब्रह्मणि परमज्ञाने जीनवान हीनवान् । मित्रहो मित्राण्याकारयन्कीर्तिपटहो यस्य सः॥ स मां पयोधिपरिखां धरणीवरांहः पुंसानुजो नु भपतेर्नुपराजवार्चः। खानां जयादतिजरन्मखयज्व(त्वा दोष्णोनतेन धृतवान्विजितारिवर्गः ॥ ११८ ॥ ११८. स जयसिंह उन्नतेन शत्रुविजयात्सर्वोत्तमेन दोष्णा १ए जत्वा रा'. २ ए सी डीपः ॥ नृ. ३ ए °टशोन्व. ४ ए सी 'राह ०. ५ एर्चः । खनां. ६ ए सुत्व दो'. १ डी राजो यु. २ डी ज्ञानजी'. ३ एन् । मि. ४ बी मित्राहो. ५ ए सी डी यकीर्ति°. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] बाहुना कृत्वा पयोधिपरिखामब्धिपर्यन्तां क्ष्मां धृतवान्पालितवानित्यर्थः । कीहक्सन् । धरणीवराहो भूभारवहनक्षमत्वात्पृथ्व्यामादिशूकरतुल्यस्तथा सौम्यत्वादिना भपतेरिन्दोः पुंसानुजो नु पुंसा करणेनानु पश्चाजातः पुंसानुजोनन्तरोनुज इवेन्दुतुल्य इत्यर्थः । भ्राता हि सदृशो भवति । तथा नृपराजवाओं नृपेषु राजहंसतुल्यस्तथा खानामिन्द्रियाणां जयादशीकारादतिजरन् वृद्धमतिकान्तस्तथा मखेषु यागेषु यज्वनामत्विजां सुत्वा यजमानो यागानां कारयितेत्यर्थः । तथा विजितारिवर्गः।। अनिचित् । इत्येत्र "अग्नेश्वेः" [१६५] इति क्विप् ॥ कङ्कचित् । इत्यत्र "कर्मणि" [१६५] इत्यादिना किम् ॥ स्वर्गदृश्वा । इत्यत्र "दृशः क्वनिप्" [१६६] इति क्वनिप् ॥ सहकृत्वा । सहयुवानम् । राजकृत्वा । राजयुध्वा । इत्यत्र “सह." [१६७] इत्यादिना क्वनिप् ॥ आस्मानुजम् । अत्र "अनो०" [१६८] इत्यादिना डः ॥ अख । इत्यत्र "सप्तम्याः " [१६९] इति डः ॥ भ्रातृजम् । अत्र "अजातेः पञ्चम्याः" [१७०] इति डः ॥ अजातेरिति किम् । द्विजाजातान् ॥ उक्कान्नान्नोन्यतोपि । द्विर्जातान्द्विजान् ॥ अकर्मणोपि। अनुजान ॥ जातेरपि । क्षत्रियजान् ॥ उक्ताद्धातोरन्यतोपि । ब्रह्मणि जीनवान्ब्रह्मज्यः । उक्तानाम्नो धातो. १५ घिस्वाम'. २ बी दिसूक. ३ ए °तिरजन्. ४ बी यजना. ५. सी डी 'त्य अ. ६ ए सी डी स्वर्भदृ. ७५ ध्वान । रा'. ८ वी °ज । अ. ९ डी जाजाता. १० ए सी डी °न् । उ. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.१.१७४.] एकादशः सर्गः । I 1 श्चान्यतोपि । वरमाहतवान् वराहः ॥ उक्तानाम्नो धातोः कारकाच्चान्यतोप परिखाम् ॥ नामधातुकालान्यत्वे । मित्रं ह्वयति मित्रह्नः । अणोपवादो डः ॥ धातुकारकान्यत्वे । पटे हन्यते स्म पटहः ॥ धातुकालान्यत्वे । वोरि चरति घार्चः ॥ नामकारकान्यत्वे । पुंसानु जातः पुंसानुजः ॥ नामाभाव उक्तधातुकालान्यत्वे च । भान्ति भानि नक्षत्राणि ॥ नामाभाव उक्तधातुकालकारकान्यत्वे च । खन्यमनानां खानाम् । एतेषु सर्वेषु " क्वचित्" [ १७१] इति ङः ॥ सुत्वा । यज्व । इत्यत्र “सु०” [१७२] इत्यादिना ङ्कनिप् ॥ जरन् । इत्यत्र “जृषोतृः” [१७३] इत्यतृः ॥ विजित | उन्नतेन । धृतवान् । इत्यत्र " क्त ०" [ १७४] इत्यादिना क्तक्तवत् । वसन्ततिलका छन्दः ॥ सप्तदशः पादः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनव्याश्रयवृत्तावेकादशः सर्गः ॥ १ बी पि । परिखातां प ० . मानां. ६१ २ डी बाविर". ३डी न्ति नं. ५ ए डी 'तृः । वि सी तृ । वि. ६ बी °ति जि. • ४. ए Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये द्वादशः सर्गः । स्मृतिमेष शुश्राव यशोशृणोत्वं निषसाद नीतौ व्यषदन्न जातु । शममध्युवासोपगुरु न्यवात्सी दपथं बभज्वान्पपुराणशक्तिः ॥१॥ १. एष जयसिंहः पपुराणाः पूरिताः पालिता वा शक्तयः प्रभुत्वोत्साहमत्रशक्तयो येन स तथा सन्नुपगुर्वाचार्यसमीपे न्यवात्सीद्धर्मशुश्रूषयोपाविक्षत् । अत एव स्मृतिं धर्मशास्त्रं शुश्राव । अत एव च नीतौ निषसाद तस्थौ । तथा न जातु व्यषदन्महाव्यसनसंभवेपि न विषण्णोभूत् । तथा शममध्युवासाश्रितवान् । तथापथं कुमार्ग बभज्वानिर्लोठिवान् । अत एवं स्वं यशो लोकैरुद्गीयमानमशृणोत् ॥ शुश्राव । निषसाद । अध्युवास । इत्यत्र "श्रुसद." [1] इत्यादिना परोक्षा । वाँवचनाद्यथास्वकालमद्यतनी शस्तनी च । अशृणोत् । व्यपदत् । न्यवात्सीत् ॥ बभज्वान् । पपुराण । इत्यत्र "तत्र." [२] इत्यादिना कसुकानौ । सर्गेसिन्केकिरवं छन्दः । स्यौ स्यौ केकिरवम् ॥ १ ए °घसीद. २ एतौ विष. सी तौ वर्ष. डी तौ वयष. ३ ए मध्यवा. १ ए एच. २ ए पि निविषिण्णो'. ३ प ण भ. ४ ए डी चानत. ५५ °व स्वयं य. ६ ए सी नं । शु. ७ ए वाच. ८९ राण्य । ६०. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.२.४.] द्वादशः सर्गः। ६३ स तथेयुषेनाशुष आश्वदत्त द्रविणान्यनूचानकुलाय वीरः। न यथाभ्यगाद्याचितुमन्ववग्वा न यथा यर्थी नाश तदन्यगेहे २ २. वीरो दानवीरः स जयसिंहोनूचानकुलायानूचानाः साङ्गे प्रवचनेधीतिनस्तेषां वृन्दाय तथा बाहुल्येनाशु यात्रायाः प्रागेव द्रविणान्यदत्त । यतोनाशुषे व्रतनिष्ठत्वाद्यत्र तत्रं शूद्रादिगृहेभुक्तवते निस्वत्वाद्भोजनरहिताय वा । तथेयुपे याचितुं दूरदेशादागताय । यथा तदनूचानकुलमन्यगेहे जयसिंहगेहादन्यस्मिनं गेहे याचितुं नाभ्यगात् । यथान्यगेहे याचितुं नान्ववग्वा देहीति नावोचच्च यथान्यगेहे नाश वो नाभुक्त च ॥ ईयुषे । अनाशुषे । अनूचान । इत्येते "वेयिवदू." [३] इत्यादिना वा निपात्याः ॥ वावचनात्पक्षेद्यतन्यादयोपि । अभ्यगात् । नाश । अन्ववक् ॥ ऋषयोन्यदाभ्येत्य तमित्यवोचनगमाम या यासु पयांस्यपाम । निरभुक्ष्महि ह्योद्य च यातुधाना उपर्दुद्रुवुस्तास्तव सत्रशालाः॥३॥ ३. अन्यदा ऋषयस्तं जयसिंहमभ्येत्येतीदमवोचैन् । यथा राजस्ताः सत्रशालाः सत्राय सदादानाय गृहाणि यातुधाना राक्षसा उपदुद्रुवुर्बभर्या वयमगमाम तथा यासु वयं पयांसि दुग्धान्यपाम १एनांशु. २ डी वीराः । न. ३ ए मन्नव. डी मन्वेव. ४ डी था श्र त°. ५ ए नाच त°. सी नाशु त?. ६ बी निरुभु. ७ सी दुदुवु. ८ ए सी डी त्रसाला:. १ ए सी डी र: ज. २ ए °लाद्यानूनाचाना सा. ३ सी नूचामासा. डी नूनावा सा. ४ बी याञ्चायाः. ५ बी व सूद्रा०. ६ बी निश्वत्वा. ७ ए तथोयु. ८ डी दूरेदे. ९ बी °न् गृहे . १० ए नाशिवानाभु० ११ डी शचाशवन्वाभु. १२ सी वान्नाभु. १३ डी °चत् । य०. १४ ए सी डी सालाः. १५ ए दुदुई०. सी दुदुवु. १६ ए वर्ष प०. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] पीतवन्तस्तथा यासु ह्योद्य च चो वार्थो ह्य इत्यतो ज्ञेयः। अद्य कल्पे वा निरभुक्ष्महि निश्चितं भुक्ताः ॥ अवोचन् । इत्यत्र "अद्यतनी" [५] इत्यद्यतनी ॥ अगमाम याः। पयांस्यपाम । व्यामिश्रे । अद्य ह्यश्च निरभुक्ष्महि । इत्यत्र "विशेषा." [५] इत्यादिनाद्यतनी ॥ भयवानिहावात्समिहावसं चैत्यवदन्मिथः प्रश्न उषावशेषे । अविषुप्तसुप्ता बटवो यदेषामरुणत्क्षपाटाधिपतिः प्रचारम् ॥ ४ ॥ ४. यद्यस्माद्ये(दे)षां बटूनां प्रचार प्रसरं क्षपाटाधिपती राक्षसेश्वरोरुणटुंद्धवांस्तस्माद्धेतोरुषावशेषे रात्रेश्चतुर्थे यामेविषुमसुमा द्वन्द्वे अवस्कन्दभयेन केचिदविषुप्ता अतिनिद्रालुत्वाच केचित्सुमा बटवो मिथः प्रश्ने । क भवानुषित इति पृच्छायां सत्यवदन् । क्रिमित्याह । भयवान्क्षपाटेभ्यो भीतः सन्नहमिह स्थानेवात्समुषितस्तथाहमिहावसं चेति । अविषुप्ता इहावात्समित्यवदन्सुप्तास्त्विहावसमित्यवंदन्नित्यर्थः । एतेनैषां वैयाकरणरूपतोक्ता । एतद्रोधे च क्षपाटाधिपतेर्महापापिता सूचिता। बटूनां बहुत्वेपि भयवानिहावात्समित्यादावेकवचनमेकैकस्य वासापेक्षया ॥ इहावात्सम् । अत्र "रात्री०" [६] इत्यादिनाद्यतनी ॥ राज्यन्तयामे तु मुहूर्तमपि स्वापे हास्तन्येव । इहावसम् ॥ अवदन् । इत्यत्र "अनद्यतने बस्तनी" [७] ॥ इति शस्तनी ॥ १ ए °त्समहा॰. २ बी त्यदवन्मि... ३ ए °वचन्मि. १ ए यास्तु ह्मोद्य. २ डी सु त्वौद्य. ३ ए यों ह्म इ. ४ ए व्यानिमि. ५ बी निरुभु. ६ ए द्रुहवां. ७ सी डी °वांसतस्मा. ८ ए न्दचये. ९ डी हमह. १०९ °वनि. ११ ए °द्रोध च. १२ ए सी डी नी ॥ अ°. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है.५.२.११.] — द्वादशः सर्गः। ६५ अरुणरक्षपोटाधिपतिः प्रचारम् । इत्यत्र "ख्याते दृश्ये" [८] इति यस्तनी ॥ स्मरसीश यस्मिन्विहरिष्यसि त्वं स्मरसीदमारायदखेल एणैः । स्मरसीदमर्चिष्यसि यच्च विप्रान्यदु दास्यसे तनिरभञ्जि तीर्थम् ५ ५. उ हे ईश स्मरसि यस्मिंस्तीर्थे विह रिष्यसि वाल्ये क्रीडाथ विचरितवांस्तथा यस्मिंस्त्वमेणैः सहारान्नैकट्येन निकटीकृत्येत्यर्थः । यदखेलो वाल्येक्रीड इदं स्मरसि तथा यस्मिंस्त्वं यञ्च विप्रानर्चिष्यसि पादप्रक्षालनादिना पूजितवान् यद्दास्यसे च विप्रेभ्यो दानं दत्तवांश्चेदं स्मरसि तत्तीर्थ श्रीस्थलपुराख्यं संप्रति सिद्धपुरेत्याख्यया प्रसिद्ध निरभजि ॥ स्मरसीश यस्मिन्विहरिप्यसि । इत्यत्र "अयदि." [९] इत्यादिना भविप्यन्ती ॥ अयदीति किम् । स्मरसीदं यस्मिन्यदखेल एणैः ॥ स्मरसीदं यस्मिन्नयिसि । यच्च विप्रान्य हास्यसे । अत्र "वाकाङ्क्षायाम्" [१०] इति भविष्यन्ती वा ॥ अत्रार्चा लक्षणं दानं लक्ष्यमिति लक्ष्यलक्षणसंबन्धे प्रयोक्तुराकाङ्क्षा स्यात् । पक्षोदाहरणं ज्ञेयम् ॥ न विभो कलिङ्गाञ्जगमानृतं तद्विललाप सुप्तो यदिति बुवाणः । स परीक्षितो यत्र निशि त्वया प्राक्तदुपाचरैरायतनं विकीर्णम् ६ १ए सी डी स्यते त°. २ डी गमोनृ. ३ ए सी डी नं प्रकी. १ए णक्षपा. २ सी डी पायधि०. ३ ए तिति ह्यौं. ४ बी विचारि. ५ ए सी डी था तस्मि०. ६ ए काट्ये. ७ डी सि तंथा, ८ डी प्राभचिं. ९ ए सी डी क्षालादि०. १० सी डी यददास्य. ११ डी रा. ख्यन्संप्र: १२ ए ख्यं प्र. १३ ए सी डी °ष्यसीति । य. १४ ए सी डी काझ्या . १५ ए न्दी ॥ अ. १६ बी दानलक्षमि. १७ ए त् । यक्षो. सी डी त् । व्यक्षो. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] 9 ६. तदायतनं स्वयंभूरुद्रमहा कालदेवगृहं संप्रति लोके रुद्रमहालयेति नाम्ना प्रसिद्धर्मुषाचरै राक्षसैर्विकीर्णं भग्नं यत्र स कश्चिद्विवक्षितैस्तवास्माकं च पूर्वत्वेन प्रसिद्धो द्विजो निशि प्राक् प्राचि काले त्वया परीक्षितः । कीदृक्सन् । ब्रुवाणः । किमित्याह । न विभो कलिङ्गाञ्जगमेति । अहो द्विज त्वया कलिङ्गेषु द्विजो हत इति त्वयोर्त्तंः । किल कलिङ्गेषु हि गतमात्रोपि द्विजति निन्द्यत्वाच्चण्डाल इव द्विजपङ्क्तेर्बाह्यः स्यात्किं पुनर्मत्सदृशो ब्राह्मणघातीत्यतितरां निन्दाभयात्कलिङ्गगमनमप्यपह्नुत्रान आह । हे विभो नाहं कलिङ्गान् ब्राह्मणीभूतचण्डालकान्देशभेदाञ् जगम गत एव न । एवं च त्रह्महत्या दूरापास्तैव । ननु मया कलिङ्गेषु ब्राह्मणो हत इति त्वया सुप्तेन प्रलपितं तत्कथमिदमुच्यत इत्याह । सुप्तोहं यत्कलिङ्गेषु त्रा ह्मणस्य हननं विललाप तदनृतमिति ॥ तो यद्विललाप । न कंलिङ्गाञ्जगम । इत्यत्र " कृत ० " [११] इत्यादिना परोक्षा ॥ निचकार विप्रांन्ह जघाने शश्वदुभुजे स यद्वलवणो यथा वा । इतिहन्यहञ्शश्वदभुत लोकान्स खरस्तथा किं न विवेदिथैनम् ७ ७. तथा तादृशं द्विजाल्लोकांच घ्नन्तं भुञ्जानं चैनं क्षपाटाधिपं किं त्वं न विवेदिथ नाज्ञासीर्यद्वद्यथा स प्रसिद्धो लवणो नाम दानवो विप्रान्निचकार पराभूतवान् । ह इति संबोधने हनन क्रियायां १डी कारं वि'. २ ए प्रान्जघा'. ३ डीन व ४ ए लोखान्स. १ सी डी ति प्र . २ ए 'मुखाच°. ३ डी 'तत्त्वा". ४ बी च स पू. ५ ए 'ति त्रयो° ६ बी 'क्तः । क. ७ बी पि आते. ८ ए जो इति ९ ए सी कलङ्गा.. १० ए भुजानं. ११ डी प्रद्धो. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ५.२.१४.] द्वादशः सर्गः। क्षेपेद्योतको वा। जघान च तथा शश्वद्रुभुजे भक्षितवांश्च । यथा वा स प्रसिद्धः खरो नाम राक्षसः । इतिहेति निपातसमुदायः प्रवादपारम्पर्ये । लोकान्यहञ् शश्वदभुत च ॥ किमवेवमेतत्स्मरसीश यस्यामितिहापठामोपगुरु त्रिवेदीम् । सरसीह शश्वव्यवसाम यस्यां रजनीचरैयापि सरस्वती सा॥८॥ ८. हे ईश एतत्त्वं किमवेदज्ञासीः । यत्सा सरस्वती नदी रजनीचरैर्व्यापि । स्मरसि यस्यामुपगुरूपाध्यायसमीपे त्रिवेदी त्रीन्वेदानितिह गुर्वाम्नायेनापठाम त्वं वयं चाधीतवन्तस्तथा स्मरसि यस्यामिह गुरुसमीपे शश्वव्यवसामोषिताः ॥ निचकार विप्रालवणः । अत्र "परोक्ष" [१२] इति परोक्षा ॥ इतिह न्यहन् । ह जघान । शश्वदभुत । शश्वहुभुजे ॥ प्रच्छये । किमवे. त्वमेतत् । किं न विवेदिथैनम् । अत्र "हशश्वद्" [१३] इत्यादिना ह्य. स्तनी ॥ परोक्षे वेत्येव कृते भूतान/तनमात्रभाविन्या हस्तन्याः पक्षे सिद्धौ हस्तनी विधान स्मृत्यर्थयोगेपि हस्तन्येव यथा स्याच भविष्यन्त्येवमर्थम् । तेन सरसीश यस्यामितिहापठाम । सरसीहे शश्वव्यवसाम ॥ अवसच दुर्वासऋषिः स यस्मिन्स पुरा न्यवात्सीदथ मण्डुमूनुः । अवसन्पुरान्येप्यषयो वनं तदलितं तदा कश्वन न हरक्षीत् ॥९॥ ९. स्पष्टम् । किं तु तद्वनं सरस्वतीतटस्थ आश्रमविशेषः। तदा दलनकाले ॥ १ ए पयोद्यो'. २ डी सिद्धो ख. ३ ए °तिनिपा. ४ डी पारः पर्ये. ५ डी कानन्यह. ६ डी किवमेद. ७ बी क्षेति. ८ डी ह ज. ९ए डी जे ॥ प्राच्य । कि. १० ए सी डी घनतमा . ११ डी विना घ. १२ सी डी स्तनीवि'. १३ ए °नं सत्य. १४ सी डीह सव'. १५ सी डी स्पष्टः ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] न ररक्ष नः कोपि तदा तदा च रजनीचरों घ्नन्ति तुदन्ति च स्म । किमकद्दमीशं ननु कुर्महे भो इति वादिभिः सार्धमुपस्थितास्त्वाम् 11 2 0 11 १०. तदा वनदलनकाले नोस्मान्न कोपि ररक्ष । अत एव तदा च रजनीचरा नो घ्नन्ति जन्नुरित्यर्थः । तुदन्ति स्म चापीडयन्नत एव त्वामुपस्थिताः शरणायोपांगताः । कैः सह । इति वादिभिर्मनसा त्वामीशं कृत्वैवंवदनशीलैर्बटुभिः सार्धम् । तदेवाह । अहो यूयं किमीशं रक्षकमकृढुं कृतवन्त इति प्रश्ने । ननु कुर्महे भोः । नन्विति पृष्टस्य प्रतिवचने । हे पृच्छका वयमीशं कृतवन्त एवेत्यर्थ इति ॥ अवसदुर्वासऋषिः । अत्र “अविवक्षिते " [१४] इति ह्यस्तनी ॥ । न्यवात्सीत्पुरा । अवसन्पुरा । तदा न ह्यरक्षीत् । तदा न ररक्ष । इत्यत्र “वाद्यतनी०” [ १५ ] इत्यादिनाद्यतनी वा ॥ तुदन्ति स्म । तदा मन्ति । इत्यत्र "स्मे च०" [१६] इत्यादिना वर्तमानौ ॥ किमकृडूमीशं ननु कुर्महै भोः । अत्र "ननौ ०" [१७] इत्यादिना वर्तमाना ॥ समिधोच्छिदः किं बत नच्छिनत्रि कुशमच्छिदः किं भृशमच्छिदं न । किमदर्श आः क्रव्यभुजो नु पश्याम्युटजेषु नो वागिति नादुनोत्कम् 3 ॥ ११ ॥ ११. नोस्माकमुटजेषु वाग्दीनत्वात्कं नादुनोन्नादुःखयत् । कीदृशी । बतेत्यामन्त्रणे । हे मुने त्वं किं समिधोच्छिद इति प्रश्ने । आह । नच्छिनद्म नच्छिन्नवान् । तथा त्वं कुशं दर्भजाति सी डी 'राघन्ति २ सी 'शे यः क्र° डी 'शेयाः क्र. • १ए राति तु ० . ३ डी °ति नोमा १क्षीत । . २ ए सी वा ॥ मुद° ३ ए ना ॥ कम ४ए हेतोः । अ°. ५ सी 'त्वा ना° डी 'त्वा किं ना°. ६ डी 'वा तं कु. ७ ए सी था तं कु.. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.२.१८.] द्वादशः सर्गः। किमच्छिद इति प्रों । आह । भृशमत्यर्थं नाच्छिदमहं समिधः कुशांश्च । यत्त्वं नाच्छिदस्तत्किमाः कष्ट क्रव्यभुजो राक्षसांस्त्वमदर्श इति प्रश्ने। आह । नु इति पृष्टप्रतिवचने । पश्याम्यदर्शमित्येवंविधा ।। किमदर्श उच्चररुणं न्वदर्शमुदयन्नसावस्ति विराजमानः । समुदेष्यद्रर्काग्र इति बुवाणाः क्षणदां क्षपामः क्षणदाचराताः १२ १२. वयं क्षणदां रात्रि क्षपामः । किंभूताः सन्तः । त्रुवाणाः । किमित्याह । अहो त्वं किमरुणं सूर्यसारथिमरुणोदयमदर्श इति प्रश्ने। आह । न्वदर्शम । कासावमग इत्याह । समुदेष्यदर्काग्र उदेष्यतो रखेः प्रथमं विराजमानोरुणिम्ना शोभमानोसौ प्रत्यक्षोरुण उदयन्नस्तीति । यतः क्षणदाचरार्ताः । रात्रिंचरा हि रात्रा उपद्रवन्तीत्यरुणोदयं काङ्क्षन्त इत्यर्थः ॥ वयमत्स्यमाना रजनीचरैश्चेदिह माश्रयन्तो वत मा स्तुवानाः । यदि नीतिविद्वान्समयं विदंस्तान्यजमानहन्याः पवमानजीजाः १३ १३. चेद्यदि वयं रजनीचरैरत्स्यमाना ग्रसिष्यामहे तदा बतेति खेदे । इह त्वय्याधारे वयं माश्रयन्तो माश्रयणं कुर्वन्तस्तथा मा स्तुवाना मा स्तवनं कुर्वन्तस्तदा तवाश्रयणं स्तवनं च निष्फलमित्यर्थः । तस्माद्यदि त्वं नीतिविद्वान् नीतिशास्त्रेपु कोविदः समयं सिद्धान्तं विदंश्च जाननसि तदा हे यजमान यज्ञस्वामिस्तान् रजनीचरान्हन्याः । यतः पवमानजौजा हनूमानिव बलिष्ठः ॥ समिधोच्छिदः किं नच्छिनदि । कुशमंच्छिदः किमच्छिदं न । किमदर्शः १बी ‘मच्छद. २ ए सी डी क्षमास्त्व'. ३ सी डी र्श यति. ४ ए विधाः ॥. ५ बी "त्रि क्षिपा. ६ ए सी °दये का. डी दयो का. ७सी हत इ. ८ वी श्रयं कु. ९ सी तथाश्र. १० सी डी मच्छदः. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] क्रव्यभुजो नु पश्यामि । किमदर्शीरुणं न्वदर्शम् । अत्र "नन्वोर्वा" [१८] इति वा वर्तमाना॥ अस्ति । क्षपामः । अत्र “सति" [१९] इति वर्तमाना । उदयन् । विराजमानः । ब्रुवाणाः । समुदेष्यत् । अत्स्यमानाः । अत्र "शतृ." [२०] इत्यादिना शत्रानशौ भविष्यन्तीविषयेर्थे च स्यसंहितौ ॥ माश्रयन्तः । मा स्तुवानाः । अत्र "तौ०" [२१] इत्यादिना शनानशौ ॥ विद्वान् । विदन् । इत्यत्र "वा वेत्तेः कसुः" [२२] इति वा क्वसुः ॥ पवमान । यजमान । इत्यत्र "पू." [२३] इत्यादिना शानः ॥ चुलुकेषु चूलां वहमान ऐभं दलमान आत्मानमर्शसमानः । इह धारयन्क्ष्मावलयं स को यः स न पाति सिद्धान्तमधीयतोमान् ॥१४॥ १४. सिद्धान्तमधीयतोकृच्छ्रेण पठतोस्मान्यो न पाति स्म न ररक्ष स इह पृथ्व्यां चुलुकेपु मध्ये चूलां शिखां वहमानोपि । अपिरध्याहार्यः । वोढुंबया अपि बालोपि कः । चौलुक्यो बालोप्यस्मान् ररक्षेत्यर्थः। कीहक्सन् । महापुरुषत्वादात्मानमशंसमानोश्लाघनशीलस्तथातिविक्रान्तत्वादैभं गजौघं दलमानो विदारयितुं शक्तोत एव क्ष्मावलयं धारयन्नकृच्छ्रेण पालयन्नित्यर्थः । यदधीयतेमूनपि धारयन्ति बत कृच्छ्रतोमी नृप सुन्वदर्हन् । अनयं द्विषंस्ताननयं विधातृन्मनुजानशितॄन्भव तन्निहन्ता ॥१५॥ १५. बत हे नृप सुन्वदर्हन् सुन्वत्सु यजमानेष्वहन श्रेष्ठत्वेन पूजाई यद्यस्मादमी अस्मल्लक्षणा जनाः कृच्छ्रतो राक्षसभयात्कप्टेना १ वी स्ति । क्षिपा. २ बी ‘ष्यन् । अ. ३ ए डी कसु । ५. सी कसुः प०. ४ ए यस्मा. सी डी यदयस्मा'. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.२.२८. ] द्वादशः सर्गः । घीर्यते पठन्त्यसुनपि प्राणानपि कृच्छ्रतो धारयन्ति तत्तस्मादनयं विधातृन्करणशीलांस्तान्मनुजान शितैन्भक्षणधर्मात्राभसान्निहन्ता साधु हिंसिता भव यतस्त्वमनयं द्विषन् । मनुजानशितृनिति पाठस्थानेशितृन्मनुष्यानिति मनुजाशितुंस्त्वमिति वा पाठो यदि स्यात्तदा छन्दोभङ्गो न स्यात् । यावद्दृष्टप्रतिषु च मनुजानशितृनित्येव पाठः ॥ चूलां वहमानः । ऐभं दलमानः । आत्मानमशंसमानः । अत्र "वैयः ० " [ २४ ] इत्यादिना शानः ॥ 'वारयन् । अधीयतः । अत्र "धारी ०" [२५] इत्यादिनातृश ॥ भकृच्छ्र इति किम् । कृछ्रतो धारयन्ति । कृच्छ्रतोधीयते ॥ सुन्वत् । द्विषन् । अर्हन् । इत्यत्र “सुग्०" [२६] इत्यादिनातृश् ॥ विधातृन् । मनुजानशितॄन् । निहन्ता । इत्यत्र "तृन् ० " [२७] इत्यादिना तृन् ॥ ७१ प्रजनिष्णुरोचिष्णुरदप्रभाभिः खमलंकरिष्णुः क्षितिपोसहिष्णुः । प्रचरिष्णुरक्षांसि निराकरिष्णुर्निजगाद भ्राजिष्णुरपत्रपिष्णुः १६ १६. क्षितिपो जयसिंहो मुनीनिजगाद । कीदृक्सन् । अपत्रपिष्णुर्मुनिवचः श्रवणालज्जालुरत एव प्रचरिष्णुरक्षांसि प्रसृमरान्राक्षसानसहिष्णुरत एव निराकरिष्णुस्तथा प्रजनिष्णुरोचिष्णुरदप्रभाभिरुद्धविष्णुदीप्रदन्तकान्तिभिः कृत्वा खमलंकरिष्णुरत एव भ्राजिष्णुः || ननु शान्तिवर्तिष्णुभिरुत्पदिष्णुः प्रभविष्णुवर्धिष्णुबलोन्मदिष्णुः । जगदुत्पचिष्णुर्वियदुत्पतिष्णुर्मयि जिष्णुभूष्णौ किमुपैक्षिं सर्वैः १७ १७. जिष्णुभूष्णौ जिष्णोरिन्द्राद्भूष्णु रर्जुनस्तत्तुल्ये मयि सति न१ ए 'राधार'. २ ए° क्षित सर्वोः ॥ . १ बी यन्ते प ० . २. ३ बी 'जासितुं. ४ सी डी व इ. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः न्वित्यक्षमायाम् । शान्तिवर्तिणुभिः क्षमायां स्थास्नुभिः सद्भिः सवैरपि भवद्भिः क्षपाटाधिपः किमुपैझ्युपेक्षितः । इयन्ति दिनानि ममाग्रेसौ किमिति नोक्त इत्यर्थः । कीदृक्सन् । प्रभविष्णुवर्धिष्णुबलोन्मदिष्णुरत एव वियद्व्योमोत्पतिष्णुरुत्प्लवनशीलस्तथा जगदुत्पचिष्णुः संतापनशीलः सन्नत्पदिष्णुरुद्भवनशीलः ।। भ्राजिष्णुः । अलंकरिष्णुः । निराकरिष्णुः । प्रभविष्णुः(प्णु) । असहिष्णुः । रोचिष्णु । वर्तिष्णुभिः । वर्धिष्णु । प्रचरिष्णु । प्रजनिष्णु । अपत्रपिष्णुः । अत्र "भ्राजि०" [२८] इत्यादिना-इष्णुः ॥ उत्पचिष्णुः । उत्पतिष्णुः । उत्पदिष्णुः । उन्मदिष्णुः । अत्र "उदः पत्रि." [२९] इत्यादिना-इष्णुः ॥ भूष्णौ । जिष्णुः(प्णु)। अत्र "भूजेः प्णुक्” [३०] इति प्णुक् ॥ परिमाणुभिः स्थाष्णु(स्नु)मनोभिरग्ला स्नुभिरात्मना पक्ष्णुतया भवद्भिः। स्थितमापदि म्लानुभिरद्य याव द्धिगधि(धृ)ष्णुकं क्षेष्णुवलं ततो माम् ॥ १८ ॥ १८. ततस्तस्माद्धेतोर्मा धिक् । किंभूतं सन्तम् । अधृष्णुकं कुत्सिताप्रगल्भमप्रचण्डमित्यर्थः। तथा क्षेष्णुबलं क्षयणशीलपराक्रमम् । - १ए सी डी °माक्ष्णुभिः. २ सी डी स्थितिमा . १ बी स्थाष्णुभिः. २ ए सी डी bणुः । अ°. ३ ए सी डी विष्णुः । 4. ४ ए सी डी बिष्णुः । प्र. ५ ए सी डी रिष्णुः । प्र०. ६ ए सी. डी निष्णुः । अ°. ७ ए बी पिष्णु । अ°. ८ बी सी °त्पदि०. ९ए Oणुः । अ. १० ए सी सतम्. ११ ए अधूष्णु. बी अघिष्णु'. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.२.३१.] द्वादशः सर्गः। ७३ यस्माद्भवद्भिः स्थास्नुमनोभिः स्थिरचित्तैः सद्भिरद्य यावन्म्लास्नुभिर्धर्मानुष्ठानविनात्परिम्लानमुखैः सद्भिरापदि कष्टे स्थितम् । किंभूतैः । परिमाणुभिस्तीर्थजलेषु स्नानेनात्मनो विशोधकैः। तथात्मना पक्ष्णुतया स्वयंपाकितयाग्लास्नुभिर्धर्मार्थित्वेन हर्षात्स्वयंपाकिभिरित्यर्थः । यद्यहं प्रचण्डोक्षीणबलश्चाभविष्यं तदा यूयं नैवमापद्यपतिष्यत । तस्मान्मे धिक्कारोस्त्वित्यर्थः ॥ निदिदिक्षवः क्षिप्णव आशु नो यत्तदु विन्दवस्त्रस्नुकगृभुकं माम् । यश इच्छुराशंखशरारुभिक्षूननु वोमि वन्दारुरसद्बुदारुः ॥१९॥ १९. उ हे मुनयो यद्यूयमाशु मां नो निदिदिक्षवः क्षपाचरवधाय नाज्ञापयितुमिच्छवोभवत । न च क्षिप्णवः प्रेरणशीला अभवत तन्मन्ये मां त्रस्नुकगृनुकं विशेषणकर्मधारये कुत्सितंभीरं(रु ?) कुत्सितलोभिनं च यूयं विन्दवो ज्ञातारोभवत । न च वाच्यं वयमिदं सत्यं विन्दव इति । यतो नन्वित्यामत्रणेनुनये वा । अस्म्यहं यश इच्छुः सन्वो युष्मान् वन्दारुरभिवादकः । एतेन स्वस्यागृध्रुतोक्ता । तथासद्रुरखिद्यमानः सन्दारुः पालयिता च । एतेन चात्रस्नुतोक्ता । यतः किंभूतान्वः । आशंसवो धर्मविद्यार्नुपघातादिमिच्छवोशरारवः स्वयमहिंसनशीलाश्च ये भिक्षवो भिक्षाचरास्तान् ।। जनधारुसेरुः स्वयमेष शद्रुः पतयालुको दीर्घतरं शयालुः । इति वा भवद्भिः स उपैक्षि धर्मगृहयालुश्रद्धालँदयालुचितैः ॥२०॥ १ ए सी डी रुशेरुः. २ सी डी 'गृहालु'. ३ डी लुचि. १ सी डी स्थाष्णुम'. २ ए सी डी 'वन्माष्णुमि'. ३ डी 'माष्णुभि. ४ बी ततस्तस्मा. ५ ए बी सी धिक्कारो०. ६ ए सी डी धेः । मिदि. ७ ए सी डी नो मिदि. ८प °लुकं गृ. ९बी तलों. १० ए बी नुका . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] २०. एष क्षपाटेशः स्वयमेव शगुः स्वपापैरेव क्षयं यास्यति तथा पत्तयालुरु(लुक उ)च्चपदात्पतिष्यति तथा दीर्घतरं शयालुमरिष्यति च । "सत्सामीप्ये सद्वद्वा" [५. ४. १.] इति भविष्यत्यपि प्रत्ययाः । कीहक्सन् । जनधारुसेरुर्जनान्भक्षयन्बध्नंश्च । इति वेति हेतो स क्षपाटाधिपो भवद्भिरुपैझ्युपेक्षितः । यतः किंभूतैः । धर्म गृहयालूनि ग्रहणशीलानि श्रद्धालूनि श्रद्धाशीलानि दयालूनि च चित्तानि येषां तैः ॥ मृगयाल्वनिद्रालुचरैरतन्द्रालुभिरस्तु नो यैरिदमप्यबोधि । धिग्वावहिः श्रीस्पृहयाल्वहं दोर्यदु सासहिचाचलिपॉपतिं तम् ॥२१॥ २१. अतन्द्रालुभिर्निरालस्यैगयाल्वनिद्रालुचरैर्मृगयालवः सकलपृथ्व्याचरणान्वेषणशीला अत एवानिद्रालवो जागरूका ये चरास्तैरस्तु सृतम् । यैश्चरैरिदमपि राक्षसकृतं युष्माकमुपद्रवणमपि नो अबोधि मम न ज्ञापितम् । अथैतस्य दोषस्य मूलकारणं स्वमेव निन्दति । उ हे मुनयोहमेव धिकृतः । कीडक्सन् । श्रीस्पृहयालु विजयलक्ष्म्या अभिलाषुकं दोर्बाहुं वावहिरत्यर्थं धारयिता । यद्यस्मादहं तं क्षपाटाधिपं सासहिरशिक्षणेनात्यन्तं सहनशीलोभवम् । किंभूतं तम् । चाचलिपापतिं युष्माकमुपद्रवायात्यर्थं चलनशीलं धाट्यात्यर्थं पातुकं च ॥ १ ए यालुनि. २ ए सी डी वहि श्री . ३ ए पाति त. १ ए षिष्यपि. सी डी 'विष्येपि. २ सी क्षन्वधशं । ई. डी क्षन्वधंश । ई. ३ ए यन्वधंश्च ।. ४ सी डी गृहालू. ५ सी नि द. ६ ए एव, नि?. ७ सीम शा. ८ बी हं क्ष. ९ए सी डी क्षणान्नात्य. १० सी °तं चा. ११ सी 'यं पातु. डी थं पा. १२ बी पातकं. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०५.२.३९] द्वादशः सर्गः। स्थास्नु । अग्लास्नुमिः । म्लामुमिः । पक्ष्णु । परिमाणुमिः । क्षेष्णु । अत्र "स्थाग्ला." [३१] इत्यादिना सुः ॥ त्रमुक । गृभुकम् । अष्णुकम् । क्षिप्णवः । अत्र "सि." [३२] इत्यादिना क्ः ॥ निदिदिक्षवः । र्भिक्षून् । आशंसु । इत्यत्र “सन्” [३३] इत्यादिना-उः ॥ विन्दवः । इच्छुः । इत्येतो "विन्द्विच्छू” [३४] इति निपात्यौ । शरारु । वन्दारु(रुः) । इत्यत्रं "शृ०" [३५] इत्यादिना-आरुः ॥ दारुः । धारु । सेरुः । शगुः । असदुः(दु) । अत्र "दाधा (धे०)" [३६] इत्यादिना रुः ॥ शयालुः । श्रद्धालु । निद्रालु । अतन्द्रालुभिः । दयालु । पतयालुकः । गृहयाँलु । स्पृहयालु । इत्यत्र "शीङ्” [ ३७ ] इत्यादिना-आलुः ॥ सासहिः । वाहिः । चाचलि । पाँपतिम् । एते "डौ० (डौ ?)" [३८] इत्यादिना निपात्याः ॥ विनयं दधौ नेम्युपचक्रिसस्रौ क्षितिभृद्गणे यन्न हि जन्यधिज्यम् । शरवर्षकं तन्मम धन्व तस्मिन्नभिभावुकस्थायुकघातुकेस्तु ॥२२॥ २२. तद्धन्व तस्मिन्क्षपाटाधिपे शरवर्षकमस्तु । यनः किंभूते । अभिभावुको मुन्यादीनामभिभवनशीलो यः स्थायुकेषु रोगादिनाजङ्गमेषु घातुकस्तस्मिन् । यन्मम धन्व क्षितिभृद्गणे नृपौघविषये न हि १ए जज्ञधि. १ सी डी ‘माक्ष्णुभिः. २ डी स्थाम्ला ई. ३ ए सी डी नाम्नुः । अत्र. ४ सी डी अध्वष्णु. ५ बी कुः । नदि. ६ ए भिक्ष्णून्. सी डी भिक्ष्णुन्. ७ डी'त्र शी. ८ ए आरु । दारः । धा. ९ ए सी सेरु । श. १० बी दाधित्या. ११ ए द्रालुः । अं. १२ सी गृहालु. १३ ए 'यालुः । सृ. १४ ए सी वहि । चा. १५ ए पत । ए'. सी डी पति । ए'. १६ ए स्थायु:के. बी स्थायिके. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] नैवाधिज्यं जज्ञि भवनशीलं यतो मम विनयमभ्युत्थानादि दधौ कर्तरि तथा नेम्युपचक्रिसस्रौ नेसौ नन्तर्युपचक्रावुर्पकर्तरि सस्रो गन्तरि मां सेवितरीत्यर्थः ॥ रिपुशारुको मे जयलक्ष्मिकार्मुक्यभिलाषुकोसावुपपादुकोसिः । अभिगामुकोत्पातुकराक्षसास्त्रैः क्षितिमण्डनो मद्भुजभूषणोस्तु ॥२३॥ ___२३. असौ मद्भुजभूषणोसिरभिगामुका बलावलेपात्संमुखागामिन उत्पातुका उत्पतनशीला ये राक्षसास्तेषामौ रक्तैः कृत्वा क्षितिमण्डनोस्तु गलद्भिः शोणितविन्दुभिर्भूमि भूषयत्वित्यर्थः । कीदक्सन् । मे जयलक्ष्मिकामुक्यभिलापुको जयश्रीकामिन्या इच्छुरत एव रिपुशारुकः शत्रूणां हिंस्रोत एव चोपपादुको युक्तः श्रेष्ठ इत्यर्थः ॥ न न कोपनः क्रोधन एव तेषु न न गर्धनः संलपणो जयस्य । सरणोमि तस्मिञ्जवनेहयरित्यभिधाय सोतिज्वलनोभ्युदस्थात् ॥२४॥ २४. अतिज्वलनः कोपेन प्रतापेन वातिदीप्रः सन्स नृपोभ्युदस्थात् । किं कृत्वा । अभिधाय । किमित्याह । अस्म्यहं जवनैवेगवद्भिहयैः कृत्वा तस्मिन् राक्षसेशविपये सरणः साधु गन्ता । कीहक्सन् । जयस्य न न गर्धनो लिप्सुः किं तु संलषणो लितुरेवात एव तेषु राक्षसेपु न न कोपनः किं तु क्रोधन एवेति ॥ १ ए सी डी मुकामि'. २ ए पाटुको'. ३ डी रिचय. __ १ ए तो सम वि. २ ए सी डी पधाक. ३ ए सी डी उजीवन'. ४ ए सी डी 'न् । विज'. ५ ए सी डी मुकोमि'. ६ बी शारकः. ७ ए रा-श. सी डी राक्षसवि'. ८ गन्तः । की. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.२.४२.] द्वादशः सर्गः। अविशोचनैरापतनैः समं तैश्चलनः स लीलापदनः प्रतस्थे । अविकम्पनः सजितशब्दनेभान् वणाश्वमैन्यान्वदिता चम्पान् ॥२५॥ २५. स नृपः प्रतस्थे । कीडक्सन् । निर्भीकत्वादविकम्पनोत एव लीलापदनो लीलायाः सेविता सविलास इत्यर्थः । तथाविशोचनैर्नृपेणाश्वासितत्वाच्छोकरहितैरापतनै राक्षसान्दर्शयितुं साध्वागच्छद्भिस्तैस्तापसैः समं रक्षोवधाय चलनोत एव चमूपान्वदिताकारयिता । किंभूतान् । सजिताः प्रगुणीकृताः शब्दना जयसूचकत्वालैंहितकरणशीला इभा यैस्तान् । तथा रवणं जयसूचित्वाद्धेषणशीलमश्वसैन्यं येषां तान् । सस्रौ । उपचक्रि । दधौ । जज्ञि । नेमि । इत्येते "सनि." [३९] इत्या. दिना निपात्याः ॥ शारुकः । कामुकी । अमिगामुक । धातुकः(के)। वर्षकम् । अभिभावुक । स्थायुक । इत्यत्रे "शकम०" [४०] इत्यादिनोकण ॥ अमिलाषुकः । उत्पातुक । उपपादुकः । इत्यत्र "लष०" [४१] इत्यादिनो. कम् ॥ भूषणः । मण्डनः । क्रोधनः । कोपनः । जवनैः । सरणः । गर्धनः । ज्व. लनः । अविशोचनैः । संलषणः । आपतनैः । पैदेरिदित्वादुत्तरेणैव सिद्धे सक मैकार्थ वचनम् । लीलापदनः । अत्र "भूषा." [१२] इत्यादिना-अनः ॥ १ ए शब्दिता ज. डी शब्दिना जं. २ डी रणाशी'. ३ सी मुका । अ. ४ बी सी वुकः । स्था'. ५ ची 'त्र सूक. ६ ए पाटुके । ई. सी डी 'पादुके । इ. ७ बी विशौच. ८ सी डी परि . ९ डी रेणेव, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ध्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] चलनः । अविकम्पनः । शब्दन । रवण । इत्यत्र "चाल." [१३] इत्यादिना-अनः ॥ अकर्मकादिति किम् । चम्पान्वदिता ॥ अनिवर्तनस्पर्धनचेतना द्रागर्जुगुप्सना भावयितार आजौ । अभिमूदितयितदीपितारो रणदीक्षितारोस्य बभुश्चमूपाः ॥२६॥ २६. अस्य राज्ञश्चमूपाः सेनान्यो बभुः । किंभूताः सन्तः । अनिवर्तनाः कुलीनत्वाच्छूरत्वाच्च रणान्न निवर्तनशीलाः स्पर्धनाः शत्रुभिः सह स्पर्धनशीलाश्चेतना ज्ञातारः कलाकुशला इत्यर्थः। एषां विशेषणकर्मधारयः । अत एव रणदीक्षितारो रणोस्माभिः कार्य एवेति रणविषये गृहीतव्रता अत एवाजावजुगुप्सनाः श्लाघनाः सन्तो द्राग्भावयितारः प्रापणशीला अत एव चाभिसूदितारः शत्रून्हिसितारः कूयितारः सिंहनादं कर्तारो दीपितारस्तेजसा दीपाश्च ॥ स्पर्धन । अनिवर्तन । इत्यत्र “इङित." [४४] इत्यादिना-अर्नेः ॥ णेरतश्च विषय एव लोपे व्यञ्जनान्तत्वादिहापि स्यात् । चितिण् । चेतनाः । अजुगु प्सनाः ॥ भावयितारः । क्लूयित । सूदितृ । दीपितारः । दीक्षितारः । अत्र "न णित्य." [५५] इत्यादिना नानः ॥ बलपृष्ठभूचङ्कमणा भयेन भवंदाश्रमोहन्द्रमणः क सोध । क नु यायजूकेषु स दन्दशूकः क नु जञ्जपूकेषु स दन्दहूकः २७ अनिजागंदूकेष्वपि तापसोधेष्विति वावदूका रिपुपम्पशूकाः । अभिपापयूका युदनानशूका जयजागरूकाः सुभटा ववल्गुः २८ १ ए 'जुगप्स. २ ए डी °वताश्र.. ३ ए बी क न या. ४ ए सी डी गड़के. १ ए डी 'त्र भाल. २ ए एवजा. बी एव चाजा'. ३ सी 'नान । णे. डी नान णोरित. ४ बी नः । गैर०. ५ ए सी डी णित्या. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.२.४९.] द्वादशः सर्गः। २८. सुभटा ववल्गुयुद्धाय ननृतुः । कीदृशाः सन्तः । अनिजार्गदूकेष्वपि रक्षोभयादत्यर्थमवदनशीलेष्वपि तापसौंधेषु विषय इतीदं वावदूका अत्यर्थं वक्तारो यथा भयेन रक्षोभीत्या हे बलपृष्ठभूचङ्क्रमणाः सैन्यात्पश्चाद्भूभागे कुटिलं गन्तारो भवदाश्रमोहन्द्रमणो युष्मदाश्रमेपूप्राबल्येन विनाशनेच्छया कुटिलं गमनशीलः स क्षपाटेशोद्य कास्ति । तथा यायजूकेषु विषये दन्दशूको मृत्युहेतुत्वादिनाहितुल्यः स के नु । तथा जञ्जपूकेषु रक्षोभयाद्गर्हितं जपत्सु योगिषु विषये दन्दहूको निर्दयं दहन गर्दा दहनशील: स क न्विति । तथा जयजागरूका विजय उद्यमिनोत एव युदनानशूका रणादनंष्टारोत एव च रिपुपम्पशूकाः शत्रूणामत्यर्थं बाधनशीला अत एव चाभिपापयूका अयिवयिपयीत्यादिदण्डकधातुः । कुटिलं संमुखं गन्तारः । उद्दन्द्रमणः । चंक्रमणाः । अत्र "दम०" [ ४६] इत्यादिना-अनः ॥ यायजूकेषु । जनपूकेषु । दन्दशूकः । वावदूकाः । अत्र “यजि०" [ ४७ ] इत्यादिनोकः ॥ अन्येभ्योपीति केचित् । दन्दहूकः । अभिपापयूकाः । अनिजागेंदूकेषु । अनानशूर्कोः । पम्पशूकाः ॥ जागरूकाः । अत्र “जागुः" [ ४८ ] इत्यूकः ॥ शमिदम्यनुन्मादिषु योगिषूच्चैर्न तमी क्लमी श्रम्यजनि भ्रमी वा । क्षमिभागिणि त्यागिनि रागिणि माभुजि वीक्ष्य तं द्वेषिवधाय यत्नम् ॥२९॥ --- -- १बी गुर्यद्वाय. २ ए सी डी गडूके'. ३ ए सी डी एच. ४ डी याजग्जूके. ५ डी क त°. ६ बी 'र्दयदहनाद्गह्य . ७ ए सी डी ल: क. ८ बी न्द्रमाण:. ९ डी चक्रम. १० डी याजग्जूके. ११ सी कः । . १२ डी अनिपा. १३ ए सी डी गडूके. १४ सी डी काः । जा. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ____२९. शमिपु जितेन्द्रियेषु दमिषु तपःक्लेशसहेष्वनुन्मादिषु निरहंकारेषु योगिऍ मुनिषु मध्ये कोपि नाजनि । कीदृक् । तमी रक्षोभयेन मनःपीडावान् । क्लमी धात्वपचयवान् । श्रमी खेदवान् । भ्रमी वा मूर्छावान्वा । किं कृत्वा । क्ष्माभुजि जयसिंहे द्वेषिवधाय तं यत्नमादरं वीक्ष्य । किंभूते । क्षमिभागिणि क्षमिणो मुनीनायितरि तथा त्यागिनि दातरि तथा रागिणि मुनिष्वनुरागिणि ।। अथ दोपिणां द्रोह्यवनेः स भोगी यमुना नु दोही हरिरापगांताम् । भृशमापदाक्रीड्युपतीर्थमामोष्यभिसर्पदभ्यादिकघात्युपाटाम् ३० ३०. यथा दोही दोहनशीलो गोपवेषधारी हरिविष्णुर्यमुनामापत्तथावनेोगी रक्षिता स जयसिंहस्तां राक्षसाक्रान्तत्वेनोक्तामापगां भृशमापत् । कीदृक्सन् । दोषिणामन्यायिनां रक्षसां द्रोही जिघांसुरत एवोपतीर्थमवतारसमीप आक्रीडी रन्ता सरस्व-स्तीथे प्रापेत्यर्थः । किंभूताम् । आमोषिणश्चौरा अभिसर्पन्तोभिमुखं गच्छन्तोभ्यादिकघातिनोभ्याघातिनोभिमुखमाहन्तार उषाटा राक्षसा यस्यां ताम् ॥ शमि । दमि। तमी। श्रमी । भ्रमी । क्षमि । अनुन्मादिषु । लमी । इत्यन्न "शम." [५९ ] इत्यादिना घिनण् ॥ १ए दिघात्युषष्टाम्. १ सी पु म. २ सी डी मी स्वेद'. ३ बी 'स्तां रक्ष. ४ ए मीपी आ°. सी डी मीपं आ. ५ सी स्वत्यां तीथे. डी स्वत्यां तीर्थ प्रा० ६ ए त्या तीथें. ७ए "रा आमि'. ८ डी नोभ्याघातिनोभि'. ९ए उटाटा. १. ए यस्या ता, बी यस्याम् ॥. ११ए बी पिनिण्. सी घिनेण्. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.२.५२.] द्वादशः सर्गः। ८१ योगिषु । भोगी । भागिणि । त्यागिनि । रागिणि । द्वेपि । दोषिणाम्। द्रोही। दोही । अभ्याघाती । इत्यत्र "युजभुज.” [ ५० ] इत्यादिना घिनण् ॥ ___ आक्रोडी। आमोषि । इत्यत्र "आङः" [५१ ] इत्यादिना घिनण् ॥ न्यवसत्स आयामिभुजः प्रयामी शमिनामनायासिबलोप्रयासी । द्विषतां प्रमाथी रभसप्रलापिव्यपशङ्कविद्राविबटौ तटेस्याः॥३१॥ ३१. स जयसिंहोस्याः सरस्वत्यास्तटे न्यवसत् । कीदृक् । आयामिभुजो दीर्घबाहुस्तथा शमिनां यतीनामपि मध्ये प्रयामी प्रकर्षण संयमी तथानायासिबलोखिलसैन्योचितभक्ष्यपेयोपेतभूभागत्वेनाखि. द्यमानसैन्योत एवाप्रयास्यखिद्यमानोत एवं च द्विषतां प्रमाथी । कीशे तटे । रभसेन हर्षादौत्सुक्येन प्रलापिनो वदनशीला व्यपशङ्का निर्भया अत एव विद्राविणो विचरिष्णवो बटवो यत्र तस्मिन् ॥ . तदुदेक्ष्यप्रद्रावि बलं प्रसारि परिसारिनागालि विसारिवाहम् । मुनिन्दसंपकि निशाचरैः संत्वरिभिः क्रुधा संज्वरिमिःक्षणेन ३२ __३२. स्पष्टम् । किं त्वप्रद्रावि स्थास्नु । प्रसारि प्रसृमरम् । क्षणेन शीघ्र क्रुधा संज्वरिभिरात्मानं संतापयद्भिरत एव संत्वरिभिर्युद्धायास्मानं संत्वरैयितृभिः ॥ परिवादि संज्वारि विसर्गिसंसर्यनुवादि संवादि विवादि चोचैः। कथितं प्रवादि क्षणदाचरेस्तैरथ तदनं बैरकाय नेत्रे ॥ ३३ ॥ १ एनाया. २ ए गिंपूस . डी र्गिस्वंस. ३ डी वर. ४ बी का. १ए ही । वाही. २ ए घिनिण. ३ ए बी घिनिण. ४ ए सी डी न्यवाविशत्. ५ ए मानो. ६ बी व द्वि'. ७ डी दृशिं त°. ८ डी रसे'. ९ए शीलोप्यप. १० ए बी या त°. ११ डीन् ॥ यदु. १२. सी डी टः ।. १३ ए रय. ११ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ३३. अथ तद्बलं ते राक्षसैबर्बरकाख्याय नेत्रे स्वस्वामिने कथितम् । किंभूतम् । परिवादि रक्षसां दूषणशीलं संज्वारि कोपेन संतपनशीलं तथा विसर्गिसंसर्गि त्यागिभिर्युक्तम् । एतेन वृत्त्यविच्छेदभणनेन स्वामिकार्य एव तत्परत्वं सूचितम् । तथानुवाद्येकत्र स्थान एवमेवं राक्षसा हनिष्यन्त इत्यादौ कैश्चिद्भटैरुक्तेनु पश्चाद्वदनशीलमेकत्र च स्थाने संवादि रक्षोवधायुपायविषये मिथः संवदनशीलं कुत्रापि चोचैरत्यन्तं विवादि चाहो भवद्भिः कथमुक्त राक्षसा हन्तुं न शैक्यन्ते यतस्ते ममाग्रे क इत्यादिविवदनशीलं कुत्रापि प्रवादि दर्यात्प्रकर्षेण वदनशीलं सिंहनादं कत्रित्यर्थः ॥ प्रयामी । भायामि । अप्रयासी । अनायासि । इत्यत्र "प्राञ्च०" [५२] इत्यादिना धिनि(न) ॥ प्रमाथी । प्रलापि । इत्यत्र "मथेलपः" [५३] इति घिनण् ॥ विद्रावि। प्रद्रावि । इत्यत्र "वेश्च द्रोः" [५४ ] इति धिनि(न) ॥ विसार । परिसारि । प्रसारि । इत्यत्र “विपरि०" [५५ ] इत्यादिना धिनि(न) ॥ संपर्कि । संज्वारि । इत्यत्रं "समः" [५६ ] इत्यादिना घिनि(न) ॥ केचिण्ण्यन्तादपीच्छन्ति । संज्वरिमिः ॥ त्वरयतेरपि कश्चित् । संत्वरिमिः ॥ संसर्गि । विसर्गि । इत्यत्र "संवेः सृजः" [५७ ] इति धिनण् ॥ संवादि । परिवादि । अनुवादि । विवादि । प्रवादि । इत्यत्र “संपरि०" [५८ ] इत्यादिना घिनि(न) ॥ १ ए सी डी घेदेक°. २ ए °श्चिद्भाटैरक्ते'. सी °श्चिद्भाटै'. ३ बी श. क्ष्यन्ते. ४ बी दि व. ५ ए सी डी थयपः. ६ ए सी डी घिनिण । वि. ७ डी वि । इ. ८ डी रि । प्र. ९सी रि । ई. १० सी डी'त्र मथयप इति ना. ११ ए डी धिनिण. सी घिण्. १२ सी दि° । अ°. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.२.५९.] द्वादशः सर्गः । अविवेकिधुर्योथ स तान्विकत्थी प्रविकासिविश्रम्भिंविलासिनीयुक् । प्रविकापिद्रष्ट्रो न्यदिशद्विघाती समितेर्विलाषी नृपलापलापी ॥ ३४ ॥ ३४. प्रविकासिन्यो रूपादिना साधु शोभमाना विश्रम्भिण्यो विश्वासस्थानं या विलासिन्यः सातिशयविलासा नायिकास्ताभिर्युग् युक्तोकुतोभयत्वादतिसुखावगाढ इत्यर्थः । नृपलापलापी नरमांसाभिलाषी राक्षसः स बर्बरकोथागतंबलश्रवणानन्तरं ताम्राक्षसान्यदिशद्रणायाज्ञापयत् । कीटक्सन् । अविवेकिधुर्योत एव विकत्थ्यात्मबहुमानीत्यर्थः । तथा विघाती शत्रून्हन्तात एव समिते रणस्य विलाषीच्छुरत एव कोपावेशात्प्रविकापिण्यो मिथो घर्षणशीला दंष्ट्रा यस्य स तथा ॥ समराभिलापी सरितीह संवास्थयमस्तुराण्मृत्युपथप्रवासी । इतिवादिनस्ते दधिरेतिचार्यव्यभिचारिसंचार्यपचारिणोत्रम् ३५ ३५. ते बर्बरादिष्टा राक्षसा अस्त्रं दधिरे । कीदृशाः । अतिचारिणो हिंसादिपापकर्मकारिणोव्यभिचारिणः स्वामिन्यद्रोहिणः संचारिणश्च मिथः प्रीतत्वात्सहचारिणो येपचारिणोपकृष्टमुनिवधाद्यनुष्ठानास्ते तथा । तथेतिवादिनः । तथा हि समराभिलाष्यत एवेह सरिति १ डी विस्तम्भि'. २ ए ‘म्भिला. ३ ए °लापला. १बी काशिन्यो. २ बी विस्रम्भि. ३ ए °नं पा वि. सी नं थोपा वि. डी नं षोषा वि. ४ ए सी डी नायका'. ५ बी र्युक्तो'. ६ ए सी डी सानादि. ७ डी रणेस्य. ८ ए °च्छुः स ए. सी डी च्छु स ए. ९ए °दृशाति'. सी दृशौति . डी 'दृशोति'. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] सरस्वत्यां संवासी स्थातायं राड् जयसिंहो मृत्युपथप्रवासी यममार्गावस्थाय्यस्त्विति ॥ अभिचारिणो विश्वविरोधिसंरोध्यवरोधिनः खाम्यनुरोधिनस्ते । परिदाहिवकाग्निविदाहिनो द्राक्परिमोद्यपिस्तीपरिदेविनोमुः ३६ ३६. ते राक्षसा द्रागंभिचारिणो रणायाभिमुखमागन्तारः स. न्तोभुः । किंभूताः । विश्वविरोधिनां समस्तवैरिणां ये संरोधिनोति. बलिष्ठत्वात्प्रतिबन्धकास्तेषामप्यवरोधिनः प्रतिबन्धकास्तथा स्वाम्यनुरोधिनः स्वामिन्यनुकूलास्तथा दिव्यशक्त्युपेतत्वात्परिदाहिना सामस्त्या. दहनशीलेन वकाग्निना मुखानिःसरता वह्निना विदाहिनस्तथा परिमोहिन्यः स्वभर्तृस्नेहला या ऋषिखियस्तासां परिदेविनस्तत्पतिवधेन विलापयितारः ॥ अविवेकि । विकत्थी । विन(श्र)म्भि । प्रविकाषि । प्रविकासि । विला. सिनी । विघाती । इत्यत्र "वेर्विच." [५९ ] इत्यादिना घिनण् ॥ विलाषी । अपलाषी। अमिलाषी । इत्यत्र "व्यप०" [६० ] इत्यादिना घिनण् ॥ संवासी । प्रवासी । इत्यत्रं "संप्राद्वसात्" [६] इति घिनण् । संचारि । अतिचारि । अपचारिणः । अमिचारिणः । अव्यभिचारि । इत्यत्र "समति०" [६२ ] इत्यादिना धिनण् ॥ १ए °ध्यविरों'. १ ए सी न्तार स° डी 'न्तारं स'. २ एशियपे'. ३ सी टी स्यादह. ४ ए सरिता. ५ ए डी सम्भिः । प्र. ६ सी कासि । वि. ७ ए बी पिनिण. एबी घिनिण. ९एत्र वेर्विचेत्यादिना घिनिण् । संवासी । प्रवासी । इत्यत्र संप्रा. १० ए बी घिनिण्. ११ए अप'. १२ ए घिनिण. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ५.२.६६.] द्वादशः सर्गः। ८५ संरोधि । अनुरोधिनः । विरोधि । अवरोधिनः । अत्र "समनु०" ३] इत्यादिना घिनण् ॥ विदाहिनः । अत्र “वेर्दहः" [६४ ] इति चिनण् ॥ परिदेविनः । परिमोहि । परिदाहि । इत्यत्र "परे०" [ ६५ ] इत्यादिना घिनण् ॥ रजसा परिक्षेप्यनिलो द्रुपणैः परिराटिभिर्दाक्परिराटकोथ । परिवादको द्योर्वयसां परिक्षेपकहिंसकक्लेशकैखादकोभूत् ॥ ३७॥ ३७. अथ राक्षसानां रणायाभिमुखगमनानन्तरमनिलो वायु गभूत् । कीदृक् । रजसा परिक्षेपी तीव्रत्वेन सर्वतः क्षेप्ता । तथा परिराटिभिस्तीबवातवशेन खरस्वरत्वाद्रक्षसां राटिं ददानैरिव द्रुपणैः कृत्वा परिराटको राटिदानशील इव तथा चोर्योम्नः परिवादको वंनयिता तथा वयसां पक्षिणां परिक्षेपकहिंसकक्लेशकखादकः । रक्षसामरिष्टसूचको वायुर्वात इत्यर्थः ।। प्रचुर्लुम्पकास्यकनिन्दकव्यादिकभापकैस्तीर्थविनाशकैर्भूः। परिदेवकाक्रोशकयुद्धकण्डूयितृभिर्निशाटैरचलचलद्भिः ॥ ३८ ॥ ___३८. निशाटैश्चलद्भिः सद्भिर्भूरचलच्चकम्पे । कीदृशैः । प्रचुलुम्पका मुनीनामुच्छेदिनोसूयका मत्सरिणो निन्दकाश्च ये व्यादिकभाषका व्याभाषका विरुद्धवादिनस्तैः । तथा तीर्थविनाशकैस्तथा परिदेवकानां हा देवाधुना कथं भविष्याम इति विलापिनां भीरूणामित्यर्थः। आक्रो१ डी कस्वाद. २ ए लुपका'. ३ ए डी स्तीर्थवि. १ ए बी घिनिण. २ ए बी घिनिण. ३ ए बी घिनिण. ४ डी राटिं दा. ५ ए सी डी द्योन्योम्नः. ६ डी ध्वनियि'. ७ बी भाषिका. ८ डी °था प०. ९ए डी वानाधु. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] शका आक्षेप्तारो ये युद्धकण्डूयितारो रणे कण्डूयावन्तो रणेच्छव इत्य र्थस्तैः : । रक्षसामरिष्टसूची भूमिकम्पोभूदित्यर्थः ॥ परिक्षेपी । परिराटिभिः । अत्रे " क्षिपरटः " [ ६६ ] इति धन‍ 1 I 11 ४ परिवादकः । परिक्षेपकः (क) । परिराटकः । अत्र "वादेश्व णकः " [ ६७ ] इति कः ॥ निन्दक । हिंसैक। क्लेशक । खादकः । विनाशकैः । व्याभाषकैः । असूयँक | प्रचुलुम्पक । इत्यत्र " निन्दहिंस० " [ ६८ ] इत्यादिना णकः ॥ अनेकस्वरत्वादेव सिद्धेसूयग्रहणं कण्ड्वादिनिवृत्यर्थम् । तेन कण्डूयितृभिः ॥ देवृ । देवीति दीव्यतेर्देवतेर्वा ण्यन्तस्य च । परिदेवेक । आक्रोशक । इत्यत्र “उपसर्गाद्०” [ ६९ ] इत्यादिना णकः ॥ १२ क नु सोस्ति जल्पाकवराकभिक्षाकसखोद्य लुण्टाक इति ब्रुवाणैः । निरवर्षि कुट्टाकभुजैस्तदा तैः प्रसविप्रजन्यत्ययिभिः शिलौघः ३९ ३९. तदा तै राक्षसैः शिलौघो निरवर्षि । किंभूतैः सद्भिः । ब्रुवाणैः । किमित्याह । जल्पाका वाचाला वराका अकिंचित्करा ये मिक्षाका मुनयस्तेषां सखा स जयसिंहो लुण्टाकरोद्य कन्वस्ति । अद्य न जीवत्येवेत्यर्थं इति । तथा कुट्टाकभुजैस्तथा प्रसविनः शि १ डी वाणः । नि°. २ डी "व्यत्येयि'. ३ ए यिनिः शिलोघः . २ ए सी डी ' क्षप° ३ ए बी घिनिण्. ४ डी "रिरा'. सखादयकः. ६ ए °शकः । स्वाद' सी 'शकः । सखाद'. डी शकः । ७ डी 'यकः । प्र'. ८ डी "देक सि°. ९ए देवी. डी 'वेदोव'. ११ ए सी डी 'वका । आ. १२ डी गदिना. -- बराका कि. सी डी वाला. वा १ एण्डूया. ५ डी 'सकः । के ' • • १५ १० ए १३ ए १४ बी 'खा ज°. १५ ए रोट्ट क न्व. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.२.७४.] द्वादशः सर्गः। लादिप्रेरणशीलान्प्रजविनश्च वेगवतश्च भटानतियन्त्यतिप्रेरकत्वादतिवेगवत्वाच्चातिशेरत इतिशीला ये तैः ॥ परिभव्यनादर्यसमाक्षयित्विड्वमिवक्रजय्यभ्यमिघरैस्तैः । पिशिता रैरव्यथिभिद्रुपैण्डं सृमरैः सरिद्विश्रयि चात्र मुक्तम् ॥४०॥ ४०. तैः पिशिता रैसिभक्षकै राक्षसैः सरिद्विश्रयि सरस्वतीतटस्थं द्रुपैंण्डं वृक्षौघोत्र जयसिंहबलोपरि मुक्तम् । किंभूतैः सद्भिः । परिभविष्वरिष्वनादरिणोवज्ञापरा असमाक्षयिणोक्षीणबला अस्थानवो वा त्विड्वमिवक्राश्वाग्निज्वालामोचिमुखाश्च ये जय्यभ्यमिघस्मरा जयिनो जिष्णूनप्यभ्यमन्ति जयाय साध्वभिमुखं गच्छन्ति ये तेषामपि घस्मरा अतिबलिष्ठत्वात्क्षयं नेतारस्तैरत एवाव्यथिभिः शत्रुभ्योभीरुभिरत एव च सृमरैः प्रसरणशीलैः ॥ वराक । भिक्षाक । लुण्टोकः । जल्पाक । कुट्टाक । अत्र "वृद्धि(शि?). क्षि." [ ७० ] इत्यादिना टाकः ॥ प्रसवि । प्रजवि । इत्यत्रं "प्रात्सूजोरिन्" [१] इतीन् ॥ जयि । अत्ययिभिः । अनादरि ॥ क्षीति क्षिक्षितोर्ग्रहणम् । असमाक्षयि । विश्रयि । परिभवि । वमि । अभ्यमि । अव्यथिभिः । अत्र "जीण्डक्षि०" [७२ ] इत्यादिना-इन् । सृमरैः । घस्मरैः । अनरैः । अत्र "सृघसि." [ ७३ ] इत्यादिना मरक् ॥ अविभङ्गुरान्भासुरमेदुराङ्गा विदुश्छलानां नृभटान्निशाटाः । भिदुरेतरानच्छिदुरा अभीरूनविभीलुका भीरुकतामनैषुः॥४१॥ १ ए मिविक्र. २ ए स्मरोस्तः । पि°. सी डी स्मरौस्तेः । पि०. ३ बी सी डी रास्थला'. * बी पुस्तके समासे 'ख' इति प्रदर्शितं तदेव युक्तम् । १५ °तिप्रेरकत्वादतिवे'. २ ए च ज ये. ३ ए सी डी टाक । ज. ४ पत्र पूत्सजो. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ४१. निशाटा नृभटान्नरो ये भटास्तान भीरुकतां भयमनैषुः प्रापयन् । किंभूताः । भासुरमेदुराङ्गास्तेजस्विस्थूलकाया बलिष्ठा इत्यर्थः । तथाच्छिदुरा मिथो विच्छेदरहिताः संहता इत्यर्थः । यद्वा शस्त्रविद्यानैपुणेन शस्त्राणामागच्छतां वञ्चकत्वाच्छस्कृतच्छेदरहिता इत्यर्थः । तथाविभीलुका निर्भीकाः । नृभटानपि किंभूतान् । अविभङ्गुरान् न स्वयं भङ्गशीलाञ् शूरत्वेन रणादनंष्ट्रन् बलिष्ठत्वेन न जीर्णकाष्ठवनिःसारान्वा तथा भिदुरेतरान्स्वयं भेदनशीलेभ्योन्यान् मिथः संहतान्प्रहारवञ्चकान्वेत्यर्थः । तथापीरून् । नन्वेवं समानगुणत्वानृभटा निशाटैः कथं भीतिं प्रापिता इत्याह । यतश्छलानां मायाप्रयोगाणां विदुरा ज्ञातारः ।। अविभङ्गुरान् । भासुर । मेदुर । इत्यत्र "भञ्जि०" [७४ ] इत्यादिना धुरः॥ विदुराः । अच्छिदुराः । मिदुर । इत्यत्र "वेत्ति०" [७५ ] इत्यादिना किदुरः॥ अभीरून् । भीरुकताम् । अविभीलुकाः । अत्र "भिय." [७६ ] इत्यादिना रुरुकलुकाः ॥ अभिसृत्वरैर्जित्वरहिंस्रदीप्रैरविकम्रकम्प्रेत्वरनश्वरास्तैः । नृभटा यशः मेरमजस्रपुष्टं परिगत्वरं नागणयन्विनम्राः ॥४२॥ ४२. नृभटाः स्मेरं विकस्वरमजस्रपुष्टं नानावदातैः सदा पोषितं यशा(शः) परिगत्वरं विनश्वरं सन्नागणयन् । किंभूताः सन्तः । १ए हिता संहिता. सी डी हिता ई. २ बी पुण्येन. ३ ए अभ. ४ सी भङ्गनशी. डी भङ्गेनशी. ५ बी ञ् सूर°. ६ सी डी तस्थला. ७ बी यशो ग. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.२.८०. ] द्वादशः सर्गः । ८९ अविकम्रममनोज्ञं कम्प्रं भयेन संकम्पं च यथा स्यादेवमित्वरा गमनशीला ये नश्वरा नंष्ट्रारस्ते तथा । कैः कृत्वा । तै राक्षसैः । किंभूतैः । जित्वराणां जिष्णूनां हिंस्रा अत एव दीप्रास्तेजस्विनस्तैरत एवाभिसृत्वरैः प्रसृमरैरत एव किंभूता विनम्रा लज्जयाधोमुखाः || अभिसृत्वरैः : । जित्वर । इत्वर । नश्वराः । भन्त्र “सृजि०” [ ७७ ] इत्यादिना कित् द्वरप् ॥ परिगत्वरम् । इति "गत्वरः " [ ७८ ] इति निपात्यते । स्मेरम् | अजस्र । हिंस्र । दीप्रैः । कम्प्र | अविकम्र । विनम्राः । अत्र "स्म्यजस० [ ७९ ] इत्यादिना रः ॥ "" असुतृष्णजः स्वमगधृष्णजः स्वेश्वरभास्वरस्थावरकी र्तिकार्ये । अविकस्वराः पेखरकं प्रमद्वरतया न वासोपि दधुर्नृवीराः ॥ ४३ ॥ ४३. नृवीराः प्रमद्वरतया प्रमादितया भयाकुलत्वेनेत्यर्थः । पेखरकमज्ञातं पातुकं सद्वासोप्यधोवस्त्रमपि न दधुः नावाष्टनन् । एवं नामात्यैौत्सुक्येन नेशुर्यावता वस्त्रमपि पतद्धर्तुं न शेकुरित्यर्थः । किंभूताः सन्तः । असुतृष्णजः प्राणेषु साभिलाषा अत एव स्वस्यात्मीयस्येश्वरस्य प्रभोर्जयसिंहस्य भास्वरामला स्थावरा स्थिरा या कीर्तिर्विजयोत्थं यशस्तद्रूपं यत्कार्यं तत्र स्वप्नगवृष्णजः स्वजः शयालवो येधृष्णजोप्रगल्भा असमर्था इत्यर्थस्ते तथात एवाविकस्वरा म्लानमुखाः ॥ - तृष्णजः । अधृष्णजः । स्वमग् । इत्यत्र " तृषि० " [ ८० ] इत्यादिना नजि ॥ १ ए सी डी 'कीर्तका'. १ ए सी डी सर्पकं च. २ ए 'जस्रं । हिं', सी डी ज हिं. ३ ए सी डी 'यौलुक्ये". ४ बी 'प्नगः श. १२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] स्थावर । ईश्वर । भास्वर । पेस्वरकम् । अविकस्वराः । अत्र "स्थेश." [८१] इत्यादिना वरः ॥ प्रमदेरपीति कश्चित् । प्रमद्वरतया ॥ तदुदीक्ष्य यायावरमाशु सैन्यं त्रिजगद्ददृद्दिद्युदुषाचरेभ्यः । अजुहूरवाक्प्राडपज़रधीश्रीरभवत्परिव्राइजन आयतस्तूः ॥४४॥ ____४४. आयतं स्तोत्यायतस्तूर्यायजूकः परिबाड्जनो मुनिलोकोभवत् । कीहक् । अजुहूर्भयातिरेकेण जुहूनां पाताज्जुहूभिः सुन्भिर्यज्ञोपकरणभेदै रहितस्तथावाक्प्राडवाक्सन्पृच्छकोतिभयाद्धस्तादिसंज्ञया किमभूदिति प्रष्टेत्यर्थः । तथापकृष्टं जानुदन्तभङ्गादिना निन्दितं यथा स्यादेवं जवति धावत्यपजूस्तथाधीश्रीवुद्धिशोभारहितः किंकर्तव्यतामूढो दीनश्चेत्यर्थः । किं कृत्वा । तत्सैन्यं जयसिंहकटकमुदीक्ष्य । किंभूतम् । त्रिजगतो ददृतो विदारणशीला दिद्युतो विजयेन द्योतनशीला य उषाचरा राक्षसास्तेभ्य आशु यायावरं नैश्यदित्यर्थः ।। करिणां कटपूर्न मदो द्रुवां सूस्तदनूर्गविभ्राविभु बृंहितं न । अपतन्पवित्रासुरभित्स्वयंभुप्रभुशंभुसभुस्मरणाश्च योधाः ॥ ४५ ॥ ४५. द्रुवां नश्यतां करिणां मदो न खून स्रवति भयेन मदः शुष्क इत्यर्थः । कीटक् । कटेभ्यो गण्डेभ्यः प्रवते निर्गच्छति कटप्रूः पूर्व प्रवाहेण वहन्नपीत्यर्थः । तथा करिणां तद्यत्पूर्वमूर्जस्खलं तारं च सद्वित्वा(?)सीत्तदपीत्यर्थः । बृंहितं शब्दितं न विभु न व्यापकमभून् । कीटक्सत् । अनूभयेनानूर्जस्वलमत एवाविभ्राडतारम् । तथा योधा अपतंश्च भूमौ पतिताः । किंभूताः सन्तः । पवित्रो भगवानहन १ए सी डी रच्छित्स्व'. १ ए बी ति पृष्टं. २ बी श्रीबुद्धि'. ३ ए सी डी तो वः नम्यदि. ५ बी ने प्रब. ६ बी द्वित्तासी'. ४ बी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.२.८६.] द्वादशः सर्गः। ९१ असुरद्विति(भिद्वि?)ष्णुः स्वयंभुर्ब्रह्मा प्रभुशंभुः स्वामिशंकरः संभवो मातापितरो द्वन्द्वे एतान्स्मरन्ति ये रम्यादित्वादनः [५. ३. १२६] । ते तथा ॥ यायावरम् । इति "यायावरः" [ ८२] इति निपात्यम् ॥ दिद्युत् । दहत् । जगत् । जुहूः । वाक् । प्राट् । घी । श्रीः । दुवाम् । स्रः । अपजूः । आयतस्तूः । कटः । परिवाद । भ्राजादि । अविभ्राट् । अनूगे । इत्येते “दिद्युद्" [ ८३ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ शंभु । संभु । स्वयंभु । विभु । प्रभु । इत्यत्र “शंसं०" [ ८४ ] इत्या. दिना डुः ॥ पवित्र । इत्यत्र “पुव०" [ ८५ ] इत्यादिना-इत्रः ॥ विविशुः पवित्रेष्वृषयः पवित्राः सुसहित्रचारित्रजुषोथ केचित् । सुसवित्रकारित्रधुवित्रदण्डैरपरे वहित्रैः सलिलेब्धवित्रैः ॥ ४६ ॥ ४६. अथ तथा केचिदृषयः पवित्रेषु दर्भेषु विविशुर्भयेनान्तहिताः । किंभूताः । सुष्टु सह्यते क्षम्यतेनेन सुसहितं यच्चारित्रं चरित्रमेव प्रज्ञाद्यण् [ ७. २. १६५] । वृत्तं तज्जुषोत एव पवित्रा नैर्मल्यहेतवः । तथापर ऋषयो वहित्रैर्यानपात्रैः कृत्वा सलिले सरस्वतीजले विविशुः । किंभूतैः । पूत्प्रेरणे । सूयते प्रेर्यते जलमेभिः सवित्राण्यज्ञानानि सवित्राणि सवित्रकाणि यान्यरित्राणि कोटिपात्राणि सवित्रकारित्राणि तथा धूयत इतस्ततः क्षिप्यते जलमेभिधुवित्रा १ बी रे बाहे'. २ सी डी लेष्ववि'. १बी यंभू'. २ बी तरौ द. ३ ए जुहू | वा. सी डी जुह । वा. ४ ए श्री । दु. ५ वी शंभुः । सं. डी शंभु । स्व. ६ ए योर्वहि . बी यो बहि'. ७ ए सी डी लेषु स. ८ ए सी डी °लेषु वि. ९ डी इत्यतः. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ये दण्डा हस्तग्राह्ये मध्यभागे सूक्ष्मा उभयोश्चान्तयोः पृथुला वरच्छीति नाम्ना प्रसिद्धा यष्टिभेदास्ते धुवित्रदण्डा द्वन्द्वे शोभनाः सवित्रकारिवधुवित्रदण्डा येषु तैस्तथान्धवित्रैर्जलक्षेपणैः ॥ शिरसां लवित्रैर्वपुषां खनिर्भयनेत्रयोत्रैः क्षणदाटशस्त्रैः । अतितोत्रसेत्रालघुयोक्रनद्रिस्रविमेढ़काः पत्रहयाः प्रणेशुः ॥४७॥ ४७. क्षणदाटशौहेतुभिः पत्रहया रथा अश्वाश्च प्रणेशुः । यतः शिरसां लवित्रैर्वपुषां खनित्रैरत एव भयनेत्रयोत्रैर्भयस्य नेत्रैः प्राप. गैयौत्रेश्च संयोजनेश्च । किंभूताः सन्तः । तोत्रसेत्राणि प्राजनरइनितिक्रान्ता भयेनातिपलायनादवज्ञातवन्तोतितोत्रसेत्रास्तथालघवोतिशीनं पलायनेन बन्धानां शिथिलीभावात्प्रलम्बमाना योक्राणां योत्राणां नद्भयो ध्रिका येपु ते तथा। बाहुलकात्समासान्तविधेरनित्यत्वावा कजभावे ह्रस्वोत्र । तथा स्रवो भयेन मूत्रमस्त्येषां स्रवीणि मेदाणि लिङ्गानि येषां ते तथा । एषु विशेषणकर्मधारयः ॥ अतिदानदंष्ट्ररतिपोत्रवः पिशिताशनैः स्तोत्रवलैवलेषु । अनुधात्रि नष्टेषु नृपश्चकोप विजयकपात्रं शरसेऋधन्वा ॥४८॥ ४८. शराणां सेकं अरणं धनुर्यस्य॑ स तथा महाधनुर्धर इत्यर्थः । अत एव विजयैकपात्रं नृपो जयसिंहो वलेषु विषये चुकोप । यतोनुधान्यामलकीतरूणां समीपे नष्टेषु । कैर्हेतुभिः । पिशिताशनै राक्षसैः ! किंभूतैः । अतिदात्रा दात्रेभ्योपि वक्रा द्रष्ट्या येषां तैस्त १ बी 'रीति. २ बी ‘दा धु'. ३ ए सी डी धास्ववि. ४ ए सी डी 'नराशन. ५ बी इमीरति°. ६ बी वधिका. ७ डी द्वाज. ८ बी त्रणम. ९ वी °णि मेंदा. १० ए °स्य त. ११ ए सी डी षां ते तथा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.२.९२.] द्वादशः सर्गः। थातिपोत्राणि पोत्राणि हलमुखानि शूकरमुखानि वातिक्रान्तानि वक्राणि येषां तैस्तथा स्तूयतेत्मानेन स्तोत्रमात्मस्तुतिकारणं बलं येषां तैः ॥ पवित्रा ऋषयः । पवित्रेषु । इत्यत्र "ऋषि.'' [ ८६ ] इत्यादिना-इत्रः ॥ लवित्रैः । धुवित्र । सवित्रक । खनित्रैः । चारित्र । सुसहित्र । अरित्र । इत्यत्र "लूधू०" [ ८७ ] इत्यादिना-इत्रः ॥ धूनोतेरपि कश्चित् । धवित्रैः ॥ वहेरपि कश्चित् । वहित्रैः ॥ नेत्र । दात्र । शस्त्रैः । योत्रैः । योक । स्तोत्र । तोत्र । सेत्राः । सेक। मेढ़काः । पत्र । पात्रम् । नदि । इत्यत्र "नीदाव्(प?)." [८८] इत्यादिना ब्रद ॥ पोत्र । इत्यत्र “हल०" [ ८९ ] इत्यादिना त्रद ॥ दंष्ट्रैः। अत्र "दशेस्वः' [ ९० ] इति त्रः ॥ धात्रि । इति "धात्री" [ ९१ ] इत्यनेन निपात्यम् ॥ द्युसदामपि ज्ञातमतार्चितो राड्विदितेष्टसंपूजितमाददेवम् । तृषितः स की? रुषितः स्वसैन्ये चिरशीलिते वायुबलो भवामः ॥४९॥ ४९. स राड् जयसिंहोत्रमाददे । कीटक्सन् । वायुबलो वातवदलिष्ठोत्त एव भवाभो हरतुल्योत एव द्युसदामपि ज्ञातः प्रसिद्धो मतोभीष्टोर्चितः पूजितश्च । तथा कीतौं तृषितः स्पृहयालुस्तथा चिरशीलिते कुलक्रमागतत्वात्सदा परिचिते स्वसैन्ये रुषितः क्रुध्यंश्च । १ बी संख्येजि०. २ ए सी डी तौ ऋषि. १ ए सी डी °णि हौं. २ ए सी डी नि ष्टक'. ३ बी त्मनस्तु ४ बीत्र । ख°. ५ सी डी धूनेर. ६ ए डी दात्रं । श. सी दात्रः । श. ७ बी योकः । स्तो'. ८ सी डा स्पृहालु. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः कीदृशमस्त्रम् । विदितेष्टसंपूजितं विदितं नानाजयश्रीहेतुत्वेन सर्वत्र प्रसिद्धमत एवेष्टं वल्लभमत एव च [सं]पूजितं पुष्पोपहारादिनार्चितम् ॥ ज्ञानार्थ । ज्ञात । विदित ॥ इच्छार्थ । इष्ट । मत ॥ अर्चार्थ । अर्चितः । पूजितम् ॥ नीत् । तृपितः ॥ शील्यादि । शीलिते । रुषितः । अत्र "ज्ञान." [ ९२ ] इत्यादिना सत्यर्थे क्तः । वायु । भव । चिर । इत्यत्र "उणादयः" [ ९३ ] इति सत्यर्थ उणादयः ॥ अष्टादशः पादः ॥ समरंगमी त्वं प्रतिरोध्यथो चेद्विशिखैश्च वृष्टो विजयश्च जातः । प्रजनिष्यते कीर्तिरितीरितोसौ मुनिभिः सकष्टै रथमारुरोह ॥५०॥ ५०. असौ जयसिंहो रथमारुरोह । कीटक्सन् । सकष्टैः सदुःखैर्मुनिभिरीरित उक्तः । कथमित्याह । हे राजस्त्वं चेद्यदि समरंगमी गमिष्यस्यथो तथा चेत्त्वं प्रतिरोधी शत्रून् रोत्स्यसि तथा त्वं चेद्विशिखैर्बाणैर्वृष्टश्च वर्षिष्यसि तदा विजयो जातो जनिष्यते कीर्तिश्च प्रजनिष्यत इति ॥ कैपितद्विषोस्याह भटान्म वेत्री क गमिष्यथ श्वोपि यमः प्रहर्ता । न मरिष्यथ श्वोद्य कदाजिपारं व्रजितास्थ पादानिति यनिधत्थ ॥५१॥ ५१.. कषितद्विपोस्य जयसिंहस्य वेत्री भटानाह स्म । यथा रे भटा यूयं क गमिष्यथ मृत्युभयेन नंष्ट्वा क यास्यथ । यतः श्वोपि कल्यपि युष्मान्यमः प्रहर्ता ततश्चाद्य श्वो वा न मरिष्यथ किं त्वद्य १९ °श्च पृष्टो. डी कथित'. १ ए °द । मृषि०. २ ए सी डी ते । ऋषि०. ३ बी मिरितीरि . ४ ए 'न नष्का क या . ५ ए सी डी हरति त. - - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.३.७.] द्वादशः सर्गः। कल्ये वा मरिष्यथैव । तथा यूयं कदाजिपारं रणपर्यन्तं ब्रजितास्थ यास्यथ । यदिति रणपृष्ठदानप्रकारेण पादान्निधत्थ निक्षिपथ ॥ गमी । प्रतिरोधी । इत्येतो "वस्य॑ति०" [.] इत्यादिना भविष्यति साधू ॥ विशिखैर्वृष्टश्चेद्विजयो जातः कीर्तिः प्रजनिष्यते । अत्र "वा हेतु." [२] इत्यादिना भविष्यति वा क्तः ॥ कष्टैः । अत्र "कपोनिटः" [३] इति भविष्यति क्तः । सत्यपि कश्चित् ॥ अनिट इति किम् । कषित । कृच्छ्रगहनयोरभावात्सेट्त्वमत्र ॥ गमिष्यथ । इत्यत्र "भविष्यन्ती" [ ४ ] इति भविष्यन्ती ॥ श्वोपि प्रहता । इत्यत्र “अनद्यतने श्वस्तनी" [५] इति श्वस्तनी ॥ अनद्यतन इति बहुव्रीहिः किम् । व्यामिश्रे मा भूत् । मरिष्यथ श्वोध ॥ कदाजिपारं व्रजितास्थ पादानिति यन्निधस्थ । इत्यत्र “परिदेवने" [१] इति श्वस्तनी ॥ अयशः पुरा वोस्त्यपयाथ यावत्समयः कदा वा भवतीदृशो वः। भविता कदा चेतननिक्रयो वाथ कदा भविष्यत्युचितं कुलस्य ॥५२॥ ५२. यावद्यावत्कालमपयाथ रणानड्यथ तावत्कालं वो युष्माकमयशः पुरास्ति भविष्यति । वा यद्वा वो युष्माकमीदृशः समयो यत्रायं रणोस्ति से प्रस्तावः कदा भवति भविष्यति । शिष्टं स्पष्टम् ॥ युधि कर्हि यामोरिषु कहि भातास उ तोषयिष्याम इनं च कहि । कतमो ददात्याजिमु दास्यति स्वः सुयशश्व दातेत्युदितानि धिग्वः ॥५३॥ १एडीस ततो. १ डी षितं । कृ. २ ए सी डी 'हन्ता । ३०. ३ वी र प्रव. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] ५३. वो युष्माकमुदितानि वचनानि धिग्गामहे । कानीत्याह । युधि कहिँ कस्मिन्ननद्यतने काले वयं यामो यास्यामस्तथारिपु मध्ये कर्हि भातास्मो विजयेन शोभिष्यामहेत एव उ इति संवोधने । कहीनं स्वामिनं तोषयिष्यामस्तथा उ हे भटाः कतमो भटोस्माकमाजि ददाति दास्यति तथा कतमः स्वर्दास्यति । रणे हि मृताः स्वर्ग यान्तीति रणे निपात्यास्माकं स्वर्ग दास्यत्यत एव कतमः सुयशश्च दातेति ॥ पुरास्ति । यावदपयाथ । इत्यत्र “पुरा." [७] इत्यादिना वर्तमाना भविष्यति ॥ कदा भविष्यति । कदा भविता । कर्हि यामः । कर्हि तोषयिष्यामः । कहि भातास्मः । अत्र "कदा." [ ८ ] इत्यादिना भविष्यति वा वर्तमाना । पक्षे भविष्यन्तीश्वस्तम्यौ ॥ कतमो ददात्याजिम् । दास्यति स्वः । सुयशो दाता । इत्यत्र “किं." [९] इत्यादिना वा वर्तमाना॥ अभयं प्रदत्ते शरणं प्रदाता विधुरेषु यो दास्यति चासुभिक्षाम् । श्रयति श्रियं द्यां श्रयिता श्रयिष्यत्यमृतं स एवं वदथाद्य किंतु ॥५४॥ ५४. स्पष्टम् । किंतु प्रदत्ते दास्यति । विधुरेषु सकप्टेष्वादस्मासु विषये । असुभिक्षामसवः प्राणास्त एव भिक्षा तां जीवितव्यम् । श्रयति श्रयिष्यति । अमृतं मोक्षम् ॥ योभयं प्रदत्ते । असुमिक्षां दास्यति । शरणं प्रदाता । स श्रियं श्रयति । अमृतं श्रयिष्यति । धां श्रयिता । इत्यत्र “लिप्स्यसिद्धौ” [१०] इति वा वर्तमाना॥ १ बी षु क. २ ए डी सी विता. ३ सी डी ना व. ४ बीएः । किं. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.३.१३. ] द्वादशः सर्गः । यदि मृत्युरेत्यत्स्यति हिंसिता मा बत नश्यताथोर्ध्वमरीन्मुहूर्तात् । अभियाति चेत्संप्रहरेत हन्ता परिजेष्यतीशः सुदृढास्तदाध्वम् ५५ ___५५. यदि मृत्युर्यमोपि युष्मानेत्यागमिष्यति तथात्स्यति भक्षयिध्यति तथा हिंसिता हनिष्यति । अथ तस्माद्वत हे भटा मा नश्यत । तथा मुहूर्ताद्धटिकाद्वयादूज़ चेद्यदीशो जयसिंह एवारीनभियात्यभिमुखं यास्यति तथा संप्रहरेत प्रहरिष्यति हन्ता हनिष्यति परिजेज्यति च । तत्तस्मात्सुदृढाः सुस्थाः सन्तो यूयमाध्वं तिष्ठत ।। __ यदि मृत्युरेति । अत्स्यति । हिंसिता । अथ मा नश्यत । इत्यत्र “पञ्चमी." [११] इत्यादिना भविष्यति वा वर्तमाना। अत्र भाविमृत्स्वागमनादि नाशाभावविषयस्य प्रेषस्यातिसर्गस्य प्राप्तकालतायाश्च हेतुर्भवति ॥ ऊवं मुहूर्तादीशश्वेत्संप्रहरेत । अभियाति । परिजेष्यति । हन्ता । सुदृढास्तदाध्वम् । इत्यत्र "सप्तमी च." [१२] इत्यादिना सप्तमी वर्तमाना च वा ॥ अभियोद्धमाघातक एष जेष्यन् व्रजति प्रभुो रिपुशान्तिकारः। शुभमापको धर्ममथोद्धरिष्य इति दोर्युगं पश्यति कीर्तये च ५६ ५६. एष प्रत्यक्षो वो युष्माकं प्रभुर्ब्रजति । किमर्थमित्याह । अभियोद्धं शत्रुभिः सहाभियोत्स्य इति । तथाघातकोरीन्ह निष्यामीति । तथा जेष्यन्नरीजेष्यामीति । तथा रिपुशान्तिकारो जित्वा रिपूणां शान्ति करिष्य इति । अथ तथा दोर्युगं पश्यति । किमर्थमित्याह । दोर्युगेनामुना शुभं शत्रुजयोत्थं कल्याणमापक आप्स्यामीति । अथ तथा धर्ममुद्धरिष्य इति । कीर्तये च कीर्तयिष्ये स्वस्य कीर्तिमुत्पादयिष्य इति च ॥ १ सी डी ति यत्सं०. १ सी डी हरि०. १३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] अमियोद्धम् । आघातकः । जेप्यन्बजति । इत्यत्र "क्रियायां." [१३] इत्यादिना भविष्यति तुम्-गकच्-भविप्यन्त्यः । सस्यस्य शतुर्भविष्यन्त्या तुल्याथतया भविष्यन्तीग्रहणेन ग्रहणाजेप्यचिति भविष्यन्त्युदाहरणं ज्ञेयम् ॥ रिपुशान्तिकारः । अत्र “कर्मणोण्" [१४] इति भविष्यत्यण् ॥ बहुलाधिकाराण्णकच्भविष्यन्त्यावपि । शुभमापको धर्ममुद्धरिप्य इति दोर्युगं पश्यति॥ कीर्तये दोर्युगं पश्यति । इत्यत्र “भाववचनाः'' [१५] इति भविष्यति क्तिः॥ इति वेशवद्युध्यपपादसङ्गमिह सारवजल्पति कार्यसारम् । अतिसारकिस्पर्शसरोगवच्च स्वमथाभिनिन्दन्ववले भटौघः ॥५७॥ ५७. इत्येवंप्रकारेणेह वेत्रिणि कार्यसारं कार्यस्य स्थिरमर्थ युद्धाभिमुखवलनरूपं कार्यरहस्यं सारवद्वलयुक्तं यथा स्यादेवं जल्पत्यथानन्तरं भटौघो युधि यद्धार्थ ववले । कथम् । अतिशीघ्रं वलनादपगतः पादसङ्गो भूम्या संहांहिसंबन्धो यत्र तद्यथा स्याद्वेशवद्यथा वेशे वेश्यापाटकविषये सहर्पत्वादपपादसङ्ग वलते । कीहक्सन् । आत्मानमभिनिन्दन् । अतिसारकिस्पर्शसरोगवद्यथातिसारक्यतिसाररोगवान् स्पर्शेन व्याधिविशेषेण सरोगो व्याधितश्चातिदुःखितत्वादात्मानं निन्दतः ॥ अभजद्विसारालयवन्नरेन्द्रमथ वाहिनी वैरिपचप्रतापम् । द्विषि दायभीः प्रासभृदुज्झिताध्यायतपस्व्युपाध्याय्यभिनन्धमाना ॥५८॥ १ सी डी ङ्गमति सा. २ ए सी डी °न्दच्चचले. १ बी सी डी खचल'. २ सी ल्पति तथा. डी ल्पन्ति तथा. ३ डी ०र्थ चचले. ४ ए सी डी सस्यादि. ५ डी वेश्या०. ६ ए सी डी चल. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ है. ५.३.१९.] द्वादशः सर्गः। ५८. अथ वैरिणः पचति सन्तापयति । लिहायचि [५. १. ५०.] वैरिपचः प्रतापो यस्य तं नरेन्द्र जयसिंहं वाहिनी सेनाभजत् । कीहक्सती । प्रासभृत्कुन्वधारिण्यत एव द्विष्यरिजातौ दाया दातव्या भीर्यया सात एवोज्झिताध्याया भयान्मुक्तपाठा यास्तपस्व्युपाध्याय्यस्तपस्विनश्चोपाध्याय्यश्च ताभिरभिनन्द्यमाना विसारालयवद्यथा विसाराणां मत्स्यानामालयमब्धि वाहिनी नदी भजति ॥ पृतनाज्युपाध्याय ऋतं दिशन्ती दिवि शारनीशारमिास्त्रभाभिः। नृपमन्वगादुद्यतमाशु शारोग्रनिशाटनिष्पावदलाभिलावे ॥ ५९॥ ५९. शारो वायुस्तद्वदुग्रा ये निशाटास्त एवोगत्वान्निष्पावदलानि वल्लपत्राणि तेषामभिलावे छेद उद्यतं नृपं पृतना सेनाश्वन्वगात् । कीदृक्सती । आज्युपाध्याया रणेतिप्रवीणा वाखभाभिः कृत्व ऋतं सत्यं यथा स्यादेवं शारः कय्रवर्णो यो नीशारः प्रावरणं तमिव दिव्याकाशे दिशन्ती ददती नानारत्नस्वर्णखचितत्वेन नानावर्णकान्ती. न्यायुधानि बिभ्रतीत्यर्थः ॥ पाद । रोग। वेश । स्पर्श । इत्यत्र "पदरुज." [१६] इत्यादिना घञ् ॥ स्थिरे । सारम् ॥ व्याध्यादौ । अतिसार । सारवत् । विसार । इत्यत्र "सतेः." [ १७ ] इत्यादिना घन् ॥ वाहिनीत्यत्र वाहे । प्रतापम् । इत्यत्रं च "भावाकोंः " [१०] इति घम् ॥ असंज्ञायामपि । दाय ॥ उज्झित । इत्यत्र बहुलाधिकाराच स्यात् ॥ मावाकोरिति किम् । वैरिपच ॥ १ ए सी डी वास्वभा. १ए सिंहिं वा. २ ए डी भिनिन्ध. सी मिनेन्ध. ३ सी निनल. ४ सी उचंतं. ५ ए सी डी थास्वभा०. ६बी नीसारः, ७बी व भा'. ८ वी 'यामिति । दा. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ढ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] अध्याय । उपाध्यायी। उपाध्याया। इत्यत्र "इङः" [१९] इत्यादिना घञ् ॥ टिद्विधानसामर्थ्यात्नियां क्तिर्बाध्यते ॥ शारे । शार । नीशार । इत्यत्र "श्रो वायु०" [२०] इत्यादिना घञ् ॥ निष्पाव । अमिलावे । भत्र “निरभेः पूल्वः" [ २१ ] इति घन् ॥ करभाभिरावेभरवाश्वरावप्रभवेन शत्रुप्रघसं श्रयन्ती। क्षितिपप्रभावाश्रयतोथ सामुग्निघसामिपन्यादकृतोभितस्थौ॥६॥ ६०. अथ क्षितिपैप्रभावाश्रयतो जयसिंहप्रतापाश्रयणात्सा सेनासृग्निघसामिषन्यादकृतो रक्तपानमांसभक्षणकारिणो राक्षसानभितस्थावभिमुखं डुढौके । कीदृक्सती । करभाभिरावेभरवाश्वरावप्रभवेनोष्ट्रशन्दगजशब्दाश्वशब्दानामुत्पत्त्या कृत्वा शत्रुप्रघसं शत्रूणां भक्षणमिव श्रयन्त्यतिदुःखकृत् ॥ अभिराव । इत्यत्र "रो०" [ २२ ] इत्यादिना घञ् ॥ उपसर्गादिति किम् । रव ॥ राव । इत्यत्र बाहुलकाद्वञ् ॥ प्रभवेन । आश्रयतः । प्रघसम् । अत्र "भूभ्यदोल" [२३] इत्यत् ॥ बाहुलकात्प्रभाव ॥ न्याद । इत्ययं "न्यादो न वा" [२४] इति वा निपात्यः ॥ पक्षे । निघस ॥ वियमी वियामे नियमी नियामेथ यथा च संयाम्युरुसंयमे वा । नृप उद्यतः कीऍपयाम एवं विजयश्रियश्चोपयमे वभासे ॥६१॥ __६१. नृपो बभासे । कीदृक्सन् । कीर्युपयामे विजयोत्थकीर्ति १बी 'मेऽवभा'. १ए र । नी. २ बी नीसार. ३ ए पत्रप्र. ४ बी खकत्वात्. ५ बी घसः ॥ वि. ६ वी पोऽवभा. ७ ए सी डी कीर्ति'. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.३.२६ ] द्वादशः सर्गः । १०१ वध्वाः पाणिग्रहण उद्यतोत एवैवमुक्तरीत्या विजयश्रियश्चोपयम उद्यतः । उपमानान्याह । अहिंसा सस्यमस्तेयं ब्रह्माकिंचनता यमाः । त एव विशिष्टा वियमास्तद्वान्वियमी यथा वियामे विशिष्टयमेध्वथाथ वा यथा नियमी । स्नानमौनोपवासेज्यास्वाध्यायोपस्थितिग्रहाः। नियमा गुरुशुश्रूषा शौचाचारक्षमा दश ।। यद्वा नियमाः शौचसंतोषः(पौ ?) स्वाध्यायतपसी अपि । देवताप्रणिधानं च । इति । तद्वान्यथा नियामे वाथ वा यथा च संयामी पञ्चास्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः चण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदस्तद्वांश्चोरुसंयम उद्यतः स्यात् ।। संयमे संयामी । नियमी नियामे । वियमी वियामे । उपयमे उपयामे । अत्र “संनिवि०" [२५] इत्यादिनाल्वा ॥ धनुषां निनादैनिनदैरिषूणां निगदैर्नृणां क्रव्यभुजां निगादैः। रथनिखनैस्तत्प्रतिनिकणैश्च जगदेकनिकाणमयं तदाभूत् ॥६२॥ ६२. स्पष्टम् । किं तु तत्प्रतिनिकणैस्तेषां धनुर्निनादादीनां व्यो. मादिषु प्रतिशब्दैः ॥ अथ चारणा विकणिवल्लकीका अतिवैणविकाणनिपाठयुक्ताः । निपठैः सुनिखानचयैश्च सूताः स्तवमादरान्निर्ममिरे भटानाम्६३ १ बी रिपूणां. २ बी निश्वनै०. ३ ए ममरे. १ बी स्थितन. २ ए बी डी शौचं सं°. ३ बी चावा. ४ बी यः दण्ड. ५ ए यमे । उ०. ६ ए संत्या. ७ सी डी 'नित्या. ८ डी नादी. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ६३. अथ चारणा बन्दिविशेषा भवानां स्तवमादरान्निर्ममिरे । किंभूताः सन्तः । विक्कणिवल्लकीकाः शब्दायमानवीणाः । चारणा हि वीणा वादयन्ति । तथा वैणो वीणायां भवो यो विवाणैस्तं माधुर्यादिनातिक्रान्तो यो निपाठः काव्यपठनं तेन युक्ताः । तथा सूताश्च भटाश्च सुनिस्वानचयैर्मधुरशब्दसंतानैर्निपठैः काव्यपठनैः कृत्वा भटानां स्तवं निर्ममिरे ॥ १०२ T नृवरै रणे चारुधनुर्ग्रहैस्तैः शरवर्षभाग्भिर्विवशो भयार्तः । रजनीचरौघोपगमो बभूव समजः पशूनां नु वृकोदजेन ॥ ६४ ॥ ६४. नृवरैर्महाभटनृपैः कृत्वा रजनीचरौघो बभूव । कीदृक् । भयातत एवापगमो गतिरहितोत एव च विगतो वशः प्रभुत्वं यस्मात्स विवशो निःसहः । यतः किंभूतैः । चारुधनुर्ग्रहैर्निःप्र (निष्प्र)कम्पधनुर्ग्रहणैस्तथा शरवर्षभाग्भिः । यथा वृंकोदजेन वृकाणां प्रेरणेन पशूनां समजश्छागौघो भयार्तोपगमो विवशश्च स्यात् ॥ ११ निनदैः निनादैः। निगदैः निगादैः । निपठैः निपीठ । निस्वनैः निस्वान | निक्कणैः निवाण । इत्यत्र " नेर्नद० " [ २६ ] इत्यादिना वाल ॥ विक्कणिवल्लकीकाः वैणविकण । अत्र "वैणे वणः [ २७ ] इति वा "" ॥ चयैः । स्तवम् । चैरैः । आदरात् । विवशः । रणे । अपगमः ॥ शृ । शर । . - ग्रहैः । भत्र “युवर्ण ० [ २८ ] इत्यादिना ॥ 39 १ कृ. वा. २ सी डी हि वा. ५ एठै: कृ. ६ ए र्ममरे. ९ए वृक्षोद. १० ए डी वृक्षाणां. १२ बी निःपा. १३ सी वान् । वयौ- सर्वावरै ... वशः . वयौ सवावरै... .... वशः. ४ सी डी निपाठैः . ८ डी 'तिसहि". सी डी निपाठे नि.. 'काण: । अ १५ ए वयौ सर्वावारे... वश:. डी । ३ एणमा. ७ ए सी डी नृपं ११ ए निपा पाठे । नि'. १४ बी १६ सी ल् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.३.३४.] वर्ष । भय । इत्येतौ “वर्षादयः क्लीचे" [ २९ ] इति निपात्यैौ ॥ समजः पशूनाम् । वृकोदजेन । इत्यत्र “समुदोजः पशौ" [३०] इत्यल ॥ कितवो ग्लहं नूदधदत्रमागावनिपातिताप्तोपसरोदरोथ । प्रमदाढ्यनृञ्शाकपणं नु भोक्तुं युधि बर्बरः संमदकृन्निजानाम् ६५ द्वादशः सर्गः : । 3 ६५. अथ प्रमदाद्व्यनृन्विजयेन सहर्षोन्नरभटान् शाकमुष्टिमिव भोक्तुं बर्बरो नाम राक्षसाधिपो युध्यागात् । कीदृक्सन् । अस्त्रमुद्दधदुत्पाटयन् यथा कितवो द्यूतकारो ग्लहमक्षाणां गृहीतान्पाशकानित्यर्थः । द्यूतफलके पातनाय तस्मादुद्दधाति । तथोपसरो गर्भग्रहणार्थं स्त्रीपु प्रथमं सरणम् । अत्र चोपचारात्तदुत्पाद्यो गर्भ उच्यते । आप्तः प्राप्त उपसरो यकाभिस्ता गर्भिण्यो ध्वनिना सिंहनादेन पातितानि भयातिरेकोत्पादेन भ्रंशितान्याप्तोपसंराणामुंदराण्युपचारादुदरस्था गर्भा येन स तथात एव निजानां रक्षसां संमदकृत् ॥ उपेंसर । ग्लहम् । अन्त्र " सृग्लहः ० " [ ३१ ] इत्यादिना ॥ शाकपणम् । अत्र “पणेर्माने " [ ३२ ] इत्यल ॥ I संमद । प्रेमद । इत्येतौ “संमद०" [ ३३ ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ यमभीष्मवेश्मप्रघणे मुखेन्तर्घणराजमन्तर्धनपानुजं च । निदधत्सह प्राट रणप्रघाणे नृभुगुद्धसंघैः स निघोनांसैः ॥६६॥ १ ए निदप्रघा. १ प सी डी र्षानु शा° २ ए सी डी 'त्पादय° ५ ए सी डी पाशिका. ४ बीणां ग्रही. ७ सी डी सिता सी डी 'पसंत्या. ८ ए सी डी सरणा. ११ बी प्रमाद. १०३ ९ ६ ३ सी डी कि... गृही .. सी डी मः ... निना. मुदारण्यप १० ए Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ६६. स नृभुपाक्षसो वर्वरो रणप्रघाणे रण एव कातरबालैर्दुलध्यत्वात्प्रघाणो द्वारालिन्दकस्तत्र प्राट वभ्राम । कीदृक् । यमस्य यद्धीष्म रौद्रं वेश्म तस्य प्रघणे द्वारालिन्दकतुल्ये मुखे वक्रेन्तर्घणराजमन्तर्घणाख्यदेशभेदनृपमन्तर्घनपानुजं चान्तर्घनदेशराजलघुभ्रातरं च निदधन्निक्षिपस्तथोद्धसंघैरुद्धानां प्रशस्यानां महाभटानां संधैः समूहैः सह सहितः । कीदृशैः । निविशेषेण हन्यन्ते ज्ञायन्ते निघास्तुल्यारोहपरिणाहास्तथोद्धन्यन्त एष्वित्युद्धना यत्रच्छेदनाय कुट्टनार्थं वा काष्ठान्याधीयन्ते तत्तुल्या अतिवलिष्ठा अनेकशस्त्रघाताङ्किताश्चेत्यर्थः । अंसाः स्कन्धा येषां तैः ॥ अगमन्नृपोपघ्नमथाभिगर्जन्स घनं घनोच्चापघनो घनो नु । ' विधनैः खगैः सूचितदुर्निमित्तो दुघनोग्रदंष्ट्रोरमयोधनांसः॥६७।। ६७. अथ द्रुघनोग्रदंष्ट्रः कुठाररौद्रदाढस्तथायोघनो घनस्तद्वन्निबिडावंसौ स्कन्धौ यस्य स तथा स बर्बरो नृपोपन्नं जयसिंहसमीपमरं शीघ्रमगमत् । कीदृक्सन् । वयः पक्षिणो हन्यन्ते यैस्तैर्विघनैः खगैगंध्रादिपक्षिभिः सूचितदुर्निमित्त उपरिभ्रमणेन ज्ञापितारिष्टः । तथा घनो नु मेघ इव घना निविडा उच्चा उत्प्लवनेनोन्नता अपघना अगावयवा यस्य सः । तथा घनं निरन्तरमभिगर्जन् ॥ अन्तर्घन । अन्तर्घण । इत्येतो "हनः" [३४] इत्यादिना निपात्यौ । प्रघणे । प्रघाणे । इत्येतौ "प्रघण." [३५] इत्यादिना निपात्यौ ॥ १ डी नोधनस्तद. १ बी सी डी 'खे स्वव. २ ए सी डी 'नदे'. ३ सी डी निर्विशे'. ४ बी अंशाः स्क'. ५ सी डी यैवि. ६ बी नं बहुतरम . ७बी त्यौ । निघ । उ. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.३.४..] द्वादशः सर्गः । निघ । उद्ध । संधैः । उद्धन । अपघनः । उपन्नम् । इत्येते "निघोद्ध." [३६] इत्यादिना निपात्याः ।। घने । घनम् । धनः । एते "मूर्ति०" [ ३७ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ विधनैः । अयोधन । दुधन । इत्येते "व्ययः" [३०] इत्यादिना निपात्याः ॥ निजघान स स्तम्बपरनमुष्टी रथवाजिनः स्तम्बहनन्य ऋथ्या । असिमग्रहीत्स्तम्बघनं नु मुष्ट्या नृप उत्तरंस्तम्बपदादिहेत्या ६८ ६८. स्तम्बः स्थुडं हन्यतेनेन स्तम्बघ्नो मतान्तरे तु स्तम्बना मुष्टिर्यस्य स स्तम्बपरनमुष्टिर्महाबलः सन्स बर्बरः स्तम्बहनन्या ऋष्ट्या खङ्गेन कृत्वा रथवाजिनो जयसिंहरथाश्वान्निजघान । ततश्चोत्तरत्रथादवरोहन्नृपः स्तम्बपदादिहेत्या स्तम्बो हन्यते यया तया स्तम्बहेत्या मुष्ट्या कृत्वासिमग्रहीत् । कीदृशम् । महाभरत्वात्स्तम्बधनं नु प्रचण्डदण्डमिव ॥ स्तम्बंन । स्तम्बंधनम् । एतौ "स्तम्बाद् घनश्च" [३९] इति निपात्यौ। स्त्रियां तु परत्वादनडेव । स्तम्बहनन्या ॥ केचित्तु कप्रत्यये निपातनं कृत्वा स्त्रियामपि स्तम्बना इतीच्छन्ति । तदपि स्तम्बपरनमुष्टिरित्यत्र वाक्यकाले प्रकटि. तम् ॥ अन्ये तु स्तम्बपूर्वस्यापि हन्तेः सातिहेतीति निपातनात्स्तम्बहेत्येती. च्छन्ति ॥ परिषद्धजो बर्बरकाहयेनं विहवोन्मुखः सोपहवेन तेन । निहवोन्मुखश्वाभिहवोन्मुखेन स समाह्वये त्वाहवमूमंदीव्यत् ६९ १ ए सी डी न निह'. २ एन । विह°. सी डी °न । वह°. १ बी त्याः । विघनैः. २ ए °नम्. ३ ए वा ज°. सी डी श्वान्जघा'. ४ ए °ते त. ५ बी हाभार. ६ सी डी °म्बनं नु. ७ डी म्बघ्नं । स्त°. ८ सी डी म्बघ्नं । ए. १४ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] ६९. समाहूयन्ते प्राणिनोत्रेति समाह्वयः कुक्कुटादियुद्धद्यूतं कौतुकार्थिलोकमेलापकहेतुत्वादङ्गाङ्गमहायुद्धहेतुत्वाच्च तत्तुल्य आहवमूर्ध्नि रणमस्तके स नृपो बर्बरकाह्वयेन सहादीव्ययुद्धक्रीडयाक्रीडत् । कीदृक् । परिघन्तावर्गले इवाचरन्तौ भुजौ यस्य स तथा । तथा विहवोन्मुखः स्पर्धायामभिमुखो निहवोन्मुखश्च सिंहनादाभिमुखश्च सन् । कीदृशा सता । सोपहवेन सस्पर्धेनाभिहवोन्मुखेन च सिंहनादेच्छुना च ॥ परिघ । इत्ययं "परेघः' [ ४० ] इति निपात्यः ॥ समाह्वये । आह्वयेन । इत्येतो "हः." [ ४१ ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ निहव । अभिहव । उपहवेन । विहव । इत्यत्र "न्यभि०" [१२] इत्या. दिनाल । वाशब्दश्चोकारः स्यात् ॥ आहव । इत्यत्र “आडो युद्धे" [ ४३ ] इत्यल । वाशब्दश्वोकारः ॥ जपकृयधाहावसदृग्रदालेर्हवक राहायकृदुन्मदस्य । गतयामतुर्ये यमवद्वधेच्छुर्नृपतिळधान्मूय॑सिनास्य घातम् ॥७०॥ ७०. नृपतिरस्य बर्बरस्य मू_सिना घातं व्यधात् । कीहक्सन् । आह्वायकृत्स्पर्धावांस्तथास्य वधेच्छुर्यथा गतयामस्य यातयामस्य वृद्धस्य तुर्ये वृद्धावस्थायाश्चतुर्थे भागे यमो वृद्धस्य वधेच्छुः स्यात् । यतः कीदृशस्यास्य । जपकृतां मुनीनां व्यधो हिंसा यतः सा तथाहावसहक्काहावो निपानं यस्य पार्श्वभागे जलावष्टम्भाय काष्ठानि पाषाणा वा बध्यन्ते तद्वत्स्थूलोन्नता च रदालिदन्तपतिर्यस्य तस्य तथोन्मदस्य बलाद्यवलेपेन मत्तस्यात एव हवकर्तुः स्पर्धाकृतः ॥ - १ ए सी डी धेन्नु . १ ए न्मुखेन च. २ सी डी श्च सन्. ३ बी स्य मू. ४ बी धयंस्त. ५ सी डी तथो०. स्प Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.३.४४.] द्वादशः सर्गः। हसकृत्त्विषा हासकृतोस्य मूर्ध्नि कणवानसिः काणवति द्विधाभूत् । नृप उत्स्वनः स्वानकृताथ तेन युयुधे भुजाभ्यां विहितारवाभ्याम् ॥७१ ॥ ___ ७१. त्विषा कान्त्या कृत्वा हसकृद्धसन्निवासिर्जयसिंहखगोस्य बर्बरस्य काणवति खड्गघातेन सशब्दे मूर्ध्नि कणवान् शिलातुल्ये मूास्फ(स्फा?)लनाद्भङ्गाच सशब्दः सन्द्विधा द्विखण्डो बभूव । "विचाले च" [७. २. १०५] इनि धा । अत एव कीदृशोस्य । हासकृत उपहासकारिणः । अथासिभङ्गानन्तरं नृप उत्स्वन उद्गतसिंहनादः सन्स्वानकृता तेन बर्बरेण सह विहितारवाभ्यां मिथःसंघटेन कृतशब्दाभ्यां भुजाभ्यां कृत्वा युयुधे ।। नृभुजस्तदाराव्यसृगाप्लवं सोजनयद्भुजप्रंग्रहबन्धमूढात् । नृपतिर्जलाप्लावमवग्रहास्तं जलदादवग्राहजयी ग्रहो नु ॥ ७२ ॥ ७२. तदा नृपतिर्नूभुजो बर्बरादारावी संभारेण पातात्सशब्दो योसृगाप्लवो रक्तौघस्तमजनयदुदपादयत् । यतः किंभूतात् । भुजावेव वन्धहेतुत्वात्प्रग्रहो रज्जुस्तुलासूत्रं वा तेन गो बन्धस्तेन मूढान्मूर्छितात् । यथावग्रहास्तं वृष्टिप्रतिबन्धेन रुद्धं जलाप्लावं वृष्टिमवग्राहजयी वृष्टिंप्रतिबन्धस्य जेता ग्रहः सूर्यादिर्जलदाजनयति ॥ प्रयाहवान्प्रावरदस्रधारोच्छ्रायस्य तस्य प्रवरत्प्रभौषः । प्रावारवद्राग्भुजयोः समुच्छ्रय्युद्यावमुद्रावकरोकरोद्राट् ॥७३॥ १ ए सी डी ताव ते°. २ ए °प्रगृह°. १ सी डी ङ्गात् स. २ ए बी भूवे खण्डे ब. ३ सी कृभुजाभ्यां स. शब्दाभ्या कृत्वा. डी कृभुजाभ्या सशब्दाभ्यां कृत्वा. ४ ए सी डी तिर्भूभु. ५ बी प्रब. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ७३. समुच्छ्रयी महापुरुषत्वादुन्नतस्तथा प्रवरेन्बाहुल्येनाङ्गस्याच्छादकत्वशोभाहेतुत्वादिना वस्त्रविशेष इवाचरन्प्रभौघस्तेजःपूरो यस्य स तथा राड् जयसिंहस्तस्य बर्बरस्य भुजयोरुद्यावं मीलनं बन्धं द्रागकरोत् । कीडक्सन् । प्रमाहवान्बर्बरबन्धनाय गृहीतरज्जुस्तथो येते बन्धनायो/क्रियेते उद्रावौ करौ पाणी येन सः । किंभूतस्य तस्य । प्रावरन् रक्तत्वात्संततीभूतत्वाच्च वस्त्रभेदवदाचरन्नस्रधारो. च्छ्रायो रक्तप्रवाहौनत्यं यस्य तस्य । प्रावारवदिति । यथा प्रवाहवांस्तुलासूत्रवान्वणिक्प्रावारस्य वस्त्रस्योद्यावं मीलनं करोति । कीटक्सन् । भुजयोः समुच्छ्रयी वस्त्रस्य भूमिलगने मलिनत्वस्य भयेन बाहोरौनत्यवानुद्रावकरश्च ॥ निग्राहस्ते स्तादवग्राह इत्युदाहं स्वसिन्वियनुत्पाव सत्यम् । मुक्प्राहेणाटदार्थद्विजानां राज्ञेत्युक्त्वाबन्धि संग्राहवत्सः॥७४॥ ७४. स बर्बरः संग्राहवन्मुष्टिरिव राज्ञाबन्धि बद्धः । किं कृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । रे अनुत्पावापवित्र सुक्प्रप्राहेण दक्षिणादिलिप्सया यज्ञोपकरणाङ्गीकारेणाटदर्थिद्विजानां चरतां याचकानां ब्राह्मणानामुद्राहं भणनं शापमित्यर्थः । स्वस्मिन्सत्यं मयैवं बन्धनादवितथं विद्धि जानीहि । किंभूतमुद्राहम् । रे बर्बरावग्राहोरात्यादेः सकाशात्पराभवस्तथा निप्राहस्तीत्रदण्डश्च ते स्तादित्येवंविधमिति ॥ आहाव । इत्ययम् “आहावो निपानम्" [ ४४ ] इति निपात्यः । हब । इस्यत्र "भावे." [१५] इत्यादिनाल ॥ अनुपसर्गादिति किम् । भाड़ाय ॥ - १बी सुक्प्राग्रा. १बी रत्वावाहु. २ ए सी डी रत्प्रभौ'. ३ बी तत्वीभू. ४ सी ही रयस्य. ५ बी यैव ब. ६ सी डी विधिमि. ७बी ते । अहा. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.३.५९.] द्वादशः सर्गः । वध धातम् । अत्र "हनो वा वध् च" [४६ ] इत्यल वा तत्संनियोगे च वधादेशोस्य ॥ व्यध । जप । उन्मदस्य । इत्यत्र "व्यध०" [ ४७ ] इत्यादिनाल । कण काण । यम याम । हस हास । उत्स्वनः स्वान । इत्यत्र "न वा कण." [ ४८ ] इत्यादिना वाल् ॥ आरवाभ्याम् आरावि । आप्लवम् आप्लावम् । अत्र "आडो रुप्लोः" [ ४९] इति वाल् ॥ अवग्रह अवग्राह । इत्यत्र "वर्ष." [५० ] इत्यादिना वाल् ॥ प्रग्रह प्रवाहवान् । इत्यत्र "प्रादश्मि०" [५१] इत्यादिना वाल ॥ प्रवरत् प्रावारवत् । इत्यत्र "वृगो वने" [५२ ] इति वाल । “धन्यु. पसर्गस्य बहुलम्" [ ३. २. ८६ ] इति प्रस्य दीर्घः ॥ अन्ये तु प्रापर्व एव वृणोतिः स्वभावाद्वस्त्र विशेषे वर्तते । तेन वारवत् प्रावरत् इति स्यात् ॥ समुच्छ्रयी उच्छ्रायस्य । इत्यत्र "उदः श्रेः [५३ ] इति वाल ॥ उद्यावम् । अनुत्पाव । उद्राव । इत्यत्र “युपूदीर्घ" [ ५४ ] इति घञ् ॥ उद्दाहम् । अत्र "ग्रहः" [ ५५ ] इति घञ् ॥ निग्रहः । अवग्राहस्ते स्तात् । इत्यत्र "न्यवाच्छापे" [५६ ] इति घम् ॥ मुक्प्रग्राहेण । इत्यत्र "प्रालिप्सायाम्" [५७ ] इति धज् ॥ संग्राहवत् । इत्यत्र "समो मुष्टौ" [५८ ] इति घन ॥ शालिनी छन्दः ॥ दोःसंयावादावसंदावमाप्तेसिन्क्रव्यादा दावसंद्रावयावात् । नेशुश्वाहृष्यंश्च विप्राः सुराज्ञस्तेजोनायानिद्रवा निर्दवास्ते ॥७५॥ १ सी डी संद्राव. १ बी °स । स्वन । स्वा. २ ए सी डी आरवि. ३ ए सी डी वर्षे ई. ४ ए सी डी प्राङ्यपूर्व. ५ ए सी डी प्रावर. ६ सी डी व । अ°. ७ ए ञ् । शालि'. ८ ए सी ह । अ. ९९ ग्राह । अ. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जयसिंहः ] द्धेतोः 1 ७५. दावसंद्रावयावात्पराभवोत्थकष्टेन संतापस्वेदयोः संबन्धा: क्रव्यादा शुश्च । व सति । अस्मिन्बर्बरे । कीदृशे । दो: संयावाद्वाह्वोर्बन्धनाद्रावसंदावं द्रावमायासजं स्वेदं संदावं संतापं चाप्ते | तथा सुराज्ञः कर्तरि षष्ठी । पूजितनृपेण जयसिंहेन यस्तेजोनायो विजयोत्थप्रतापप्राप्तिस्तस्माद्धेतोस्ते पूर्वोक्ता विप्रा अहृष्यंश्च । किंभूताः सन्तः । निर्द्रवाः खेदाभावान्निःस्वेदा निर्दवा निःसंतापाश्च ॥ भयो यर्वात्पिङ्गलिकास्य पत्नी कृताञ्चलोन्नायनयोन्नयोचे । जितस्त्वयासौ स्वभुजावनायाद् द्यूतीव शारीपरिणायघातात् ७६ ११० व्याश्रयमहाकाव्ये ७६. अस्य बर्बरस्य पिङ्गलिकाख्या पत्नी भियो भर्तृमृत्युभयस्य यवात्संबन्धाद्धेतो राज्ञोम ऊचे । कीदृक्सती । कृताञ्चलोन्नायेन निरुञ्छनाय वस्त्रप्रान्तोच्छ्रायेण नयस्य स्त्रीजैनोचितस्य भक्त्युपचाररूपन्यायस्योन्नय उच्छ्रायो यया सा तथा । यदूचे तदाह । हे राजन्नसौ बर्बरस्त्वया स्वभुजावनायात्स्वभुजाभ्यां कर्तृभ्यां योवनायो बर्त्ररस्य बन्धनं तस्माज्जितः । यथा शारीणां परिणायेन समन्तान्नयनेन हननाती द्यूतकारो जीयते ॥ संयावात् । संदावैम् । संद्राव । इत्यत्र "युदुद्रोः " [ ५९ ] इति घञ् ॥ नय नायात् । यवात् यावात् । निर्दवाः दाव । निर्द्रवाः द्वाव । इत्यत्र "नियश्व०" [ ६० ] इत्यादिना वा घञ् ॥ उन्नाय उच्चया । इत्यत्र "वोदः " [ ६१] इति घञ् वा ॥ १ 'वात्पलि सी डी 'वात्पन्न'. १ ए सी डी 'दावसं. डी पथाति'. ६ ए सी भत्त्य'. २ ए सी डी ४ ए सी डी प्रा आहे. ७ सी डी व । सं ३ ए सी पथास्तिस्त. योनुप्र.. ५ए 'जनेचि. सी डी 'जनेचत'. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है.५.३.६४] द्वादशः सर्गः। अवनायात् । इत्यत्र "भवात्" [१२] इति घम् ॥ शारीपरिणाय । इत्यत्र “परे ते" [ ६३ ] इति घम् ॥ उपजानिश्छन्दः ॥ संस्तावपरिग्राहभागृषीणामपरिभवः परिभावमेष चक्रे । तत्क्षान्त्वासौ मुच्यतां पतिर्मे प्रस्तावे ते पत्तितां हि कता ७७ ७७. एष बर्वरो न विद्यते शत्रुभ्यः परिभवो यस्य स तथा सन् परिभावं न्यक्कारं चक्रे। केषाम् । समेत्य स्तुवन्ति यस्मिन्देशे छन्दोगाः स यज्ञदेशः संस्तावस्तस्य यः परिग्राहः स्वीकारस्तं यद्वा संस्तावं च परिग्राहं च वेदेर्यज्ञाङ्गभूताया प्रहणविशेष भजन्ते य ऋषयनेषाम् । तदृषीणां परिभवरूपं कुकर्म । शिष्टं स्पष्टम् ॥ औपछन्दसिकापरान्तिका छन्दः ॥ अप्रद्रावाः प्रस्तारभाजः सहाज्यप्रेस्रावैर्वहिष्प्रस्तरैश्चात्र तीरे । राजविस्तारे सल्लताविस्तरेद्य द्राकुर्वन्त्वेते यज्ञमृग्विस्तरेण ॥७८ ॥ ७८. अद्य सांप्रतमत्र सारस्वते तीर एत ऋत्विज ऋग्विस्तरेण ऋचां मत्रविशेषाणां विस्तीर्णतया द्राग्यज्ञं कुर्वन्तु । किंभूते । सहाज्यप्रस्रावैर्हव्यघृतक्षरणयुक्तैः ख़ुग्भ्यः क्षरितेन घृतेन युक्तरित्यर्थः । बर्हिष्णस्तरैर्दर्भसंस्तरणैः कृत्वा राजद्विस्तारे शोभमानविस्तीर्णत्वे तथा सन्तः शोभना लतानां विस्तराश्छादनानि यस्मिंस्तत्र लतामण्डपोपेते । किंभूताः सन्तः । अप्रद्रावा भयाभावात्पलायनरहितास्तथा प्रस्ता १ ए अपद्रा'. २ ए सी डी प्रस्तावै. १बी तिच्छन्दः. २ ए सी डी 'रिभावो. ३ ए सी डी 'वसुरुप्रयः. ४ सी डी वं प. ५ बी रिग्रहं. ६ ए °च्छदःसका. सी डी °च्छन्दसका. ७ ए सी डी तीरे त. ८ ए सी डी प्रस्तावै . ९ए स्रुप्यः क्ष०. सी सुप्य क्ष. डी सुप्यक्षारि०. १०बी रैर्भवमं० ११ए सी डी विस्तारा'. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] रभाजः प्रस्तारं सामगणनाङ्गभूतानामुदुम्बरकाष्ठकुशानां रचनाविशेष भजन्तः ॥ परिभावं परिभवः । अत्र "भुवोवज्ञाने वा" [ ६४ ] इति वा धम् ॥ परिग्राह । इत्यत्र “यज्ञे ग्रहः'' [ ६५] इति घञ् ॥ संस्ताव । इत्यत्र "संम्नोः" [ ६६ ] इनि घञ् ॥ प्रेस्रावैः । अप्रद्रावाः । प्रस्तावे । अत्र "प्रात्स्रुद्रुस्तोः' [ ६७ ] इति घञ् ॥ प्रस्तार । इत्यत्र "अयज्ञे स्वः” [ ६८ ] इति घञ् । प्रस्तारो हि सामर्गणनाङ्गं न तु यज्ञाङ्गमिति घञ् ॥ अयज्ञ इति किम् । बेहि प्रस्तरैः ॥ विस्तारे । अत्र "वे०" [ ६९] इत्यादिना घञ् ॥ प्रथन इति किम् । लताविस्तरे ॥ अशब्द इति किम् । ऋग्विस्तरेण ॥ वैश्वदेवी छन्दः ॥ विप्रा विष्टारास्तारपङ्मयादिगीतेर्विश्रावोद्गारान्कुर्वतां निर्निगाराः । नीवारोत्काराच्यामकानां निकारांचोचैर्विक्षावा निर्भया निर्खनन्तु ॥७९ ॥ ७९. विप्रा निर्निगारा निगाराद्रक्षोभक्षणानिर्गताः सन्तो विश्रावोद्गारान् विश्रावान्विविधश्रवणान्युद्गारांश्वोच्चारणानि च कुर्वतां कुर्वन्तु । कस्याः । विष्टारास्तारपङ्क्त्यादिगीतेर्विष्टारास्ताराभ्यां परे ये पक्षी ते आदी यस्याः सा या गीतिश्छन्दस्तस्या विष्टारपत्याख्यस्यास्तारपक्याख्यस्य च छन्दस इत्यर्थः । यद्वा । यस्या आदौ विष्टारपङ्किरास्तारपङ्क्तिश्वच्छन्दोविशेषौ स्तस्तस्या गीतेः सामविशेपस्येत्यर्थः । तथा नीवारोत्कारान्वनव्रीहिसमूहाञ् श्यामकानामारण्यकधान्यभेदानां च निकारांश्च राशींश्च निर्गुनन्तु । किंभूताः सन्तः । निर्भया रक्षोभयरहिता अत एवोच्चैरुदात्तो विक्षावैश्छिक्का येषां ते ॥ १ ए सी डी गणाना. २ ए सी डी रिभावः. ३ ए सी डी प्रस्तावैः. vडी गणाना. ५ ए सी बहिष्प्र. ६ बी भयानि. ७ सी डी वस्थिक्का. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.३.७५.] द्वादशः सर्गः। विष्टारपति । इत्यत्र “छन्दोनाम्नि" [७] इति घन ॥ केचित्तु वेरन्यतोपीच्छन्ति । भास्तारपति॥ विश्राव । विक्षावाः । अत्र "क्षुश्रोः"[१] इति घम् ॥ निगाराः । उद्गारान् । इत्यत्र "न्युदो ग्रः" [ ७२ ] इति घम् ॥ श्यामकानां निकारान् । नीवारोत्कारान् । इत्यत्र “किरो धाम्ये" [३] इति घञ् ॥ नीवार । इत्यत्र “नेषुः" [७४ ] इति घञ् ॥ न्यायं श्रयिष्यति न तु न्ययमस्य नन्तुं पर्याय आश्रमविशाय इहावनाय । राजोपशायवदितीह परिब्रुवत्यां रक्षःपतिं तममुचजयसिंहदेवः ॥ ८०॥ ८०. जयसिंहदेवस्तं रक्षःपतिमैमुचत् । कस्यां सत्याम् । इह पिङ्गलिकायां परिश्रुवत्याम् । किमित्याह । हे राजन्बर्बरो न्यायं नीति श्रयिष्यति न तु न्ययं निकृष्टमयनं न्ययोन्यायस्तं न श्रयिष्यति । यतोस्य बर्बरस्य नन्तुं त्वां मुनींश्च प्रणन्तुं पर्यायोवसरस्तथास्येह नदीतीरेवनाय मुनीनां रक्षार्थमाश्रमविशाय आश्रमेषु मुनिस्थानेषु क्रमप्राप्तं पर्यायसाध्यं शयनं राजोपशायवद्यथास्य राज्ञोवैनाय राजनि जयसिंह उपशायः समीपे शयितुं पर्यायः। यतोसौ त्वां मुनींश्च नस्यति रक्षार्थ समीपावंस्थानेन सेविष्यते चातो युष्माकं शिक्षयान्यायमसौ न करिज्यतीत्यर्थ इति ॥ १ बी गार । उ॰. २९ नेर्वपरिरिति. सी नेपरिनिति. डी नेर्तुपरिति. ३ डी ममुंच. ४ सी डी स्तंश्र. ५ ए सी डी मुश्चि. ६ ए सी डी यनी रा. ७ ए बनीय. ८ ए सी डी ते वातो. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] न्यायम् । अत्र "इणोपे" [७५] इति घञ् ॥ अभेष इति किम् । न्ययम् ॥ पर्यायः । अत्र "परेः कमे" [ ७६ ] इति घञ् ॥ अस्थाश्रमविशायः । राजोपशाय । अत्र "न्युपाच्छीङः" [ ७७ ] इति पञ् ॥ वसन्ततिलका छन्दः ॥ पुष्पावचायसुफलोच्चयपल्लवाद्यो ञ्चायैरचार्यकुसुमावचये वने तैः। आकायचिद्भिऋषिभिर्विहितातिथयः स्थित्वा नृपो निजनिकायमगात्सुकायः ॥ ८१ ॥ १. सुकायः शोभनमूर्तिर्नृपो निजनिकायं स्वावासमगात् । किं कृत्वा । चौराणामुच्छेदादविद्यमानश्चौर्येण कुसुमानामवचयस्रोटनं यत्र तस्मिन्वने स्थित्वोषित्वा । यत आकायं यज्ञाग्निभेदं चिन्वन्त्याहुतिभिरुपचितीकुर्वन्ति ये तैर्यायजूकैरित्यर्थः । तैः प्रसिद्धैषिभिर्विहितातिथेयः कृतातिथ्यः । कैः कृत्वा । पुष्पावचायसुफलोच्चयपल्लवाद्योच्चायैर्भावानयने द्रव्यानयनमित्यवचीयमानैः पुष्पैरुच्चीयमानैः सुफलैरुच्चीयमानैः पल्लवाद्यैः पल्लवपत्रादिभिश्चेत्यर्थः ॥ पुष्पावचाय । पल्लवाद्योच्चायैः । अत्र "हस्त.” [ ७८] इत्यादिना घञ् ॥ उदो नेच्छन्त्यन्ये । फलोचय । अस्तेय इति किम् । अंचौर्यकुसुमावचये ॥ भाकाय । सुकायः । निकायम् । अत्र "चिति." [७९] इत्यादिना घम् । आदेः कश्च ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा. भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ द्वादशः सर्गः समर्थितः ॥ १बी द्भिऋषि'. २ बी थेय स्थि'. १एम् । न्याय. २ बी शायः । अ. सी डी शायः । इत्यत्र. ३ ए सी रुषि'. बी दैऋषि'. ४ डी लवप. ५बी चयः । .डी चयं । . ६ए अचोर्य. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याश्रयमहाकाव्ये त्रयोदशः सर्गः । राज्ञो रक्षोनिकायेशो रैनिकायानपूरयत् ।। माणिक्यनिक(च)यांश्चैकदृषन्निश्चायलीलया ॥१॥ १. रक्षोनिकायेशो राक्षसौघस्वामी बर्बरो रैनिकायान्स्वर्णानामुपर्युपरि राशीकरणानि माणिक्यनिचयांश्च प्रभूतान्मणिभेदांश्च राज्ञोपूरयद्ददौ । कया । एको दृषदा यो निश्चायो मानविशेषस्तस्य लीलया सुखेनेत्यर्थः ॥ अनिच्छुरन्नसंग्राहेप्यविघ्नं पत्तिसंस्थया । स नन्दधुकृते भूपमकृत्रिममसेवत ॥२॥ २. स बर्बरो नन्दथुकृते राज्ञ आह्लादनायाविघ्नं सदेत्यर्थः । अकृत्रिमं सद्भावेनेत्यर्थः । भूपमसेवत । कया। पत्तिसंस्थया । पदातिव्यवस्थया । कीहक्सन् । अन्नसंग्राहेपि धान्यमुष्टावप्यनिच्छुभोजनमात्रमप्यवाञ्छन्नित्यर्थः॥ यज्ञरक्ष्णे सयनोभूत्स्वप्नेप्यप्रश्नयाचथुः। राक्षसो यत्प्रसादं राट् तेनायाचित्रिमं व्यधात् ॥ ३ ॥ ३. यद्यस्माद्राक्षसो बर्बरो यज्ञरक्ष्णे यागरक्षायां सयत्न आदतोभूत् । कीहक्सन् । स्वप्नेपि चित्तेपीत्यर्थः । न विद्यते प्रश्नस्य किं १ए निश्चयांनैकवर्षम्नश्चा. सी 'निश्चयांनैकर्षन्नि. डी निश्चयांनैकवर्षन्नि'. १डी रैनिका. . सी दो । ए°. ३ ए डी दौ । ए०. ४ ए खेनने. ५सीत् । स्व. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] यक्षरक्षां करोमि न वेति कथं वा करोमीत्यादिपृच्छाया याचथुर्याचा यस्य स तथा स्वयमेवेत्यर्थः । तेन हेतुना राड् जयसिंहोयाचित्रिमं याब्र्यानिर्वृत्तं स्वाभाविकं प्रसादं बर्बरस्य व्यैधात् ।। रैंनिकायान् । इत्यत्र “चिति०" [ ७९ ] इत्यादिना घञ् । आदेश्व कः ॥ रक्षोनिकाय । इत्यत्र “संघेनूर्ध्व" [ ८० ] इति घञ् कश्वादेः ॥ संघ इनि किम् । माणिक्यनिचयान् । बहुत्वमात्रमत्र विवक्षितं न संघ इति व्यावृत्तिः ॥ 1 एकदृषन्निश्चाय । अश्व संग्राह ( है ) । इत्यत्र " माने” [ १ ] इति घञ् ॥ संस्थया । अविघ्नम् । इत्यत्र " स्थादिभ्यः कः " [ ८२ ] इति कः ॥ नन्दथु । इत्यत्र “द्वितोथुः " [ ८३ ] इत्यथुः ॥ अकृत्रिमम् । अयाचित्रिमम् । अत्र “जितः ०" [ ८४ ] इत्यादिना त्रिमकू ॥ विद्याचिरिति कश्चित् । याचथुः ॥ यज्ञ । स्वमे । रणे । यत्रः । प्रश्न । इत्यत्र " यजिस्वपि ० " [ ८५] इत्यादिना नः ॥ स विश्वविधिनान्ध्यादावपि सान्तधिराज्ञया । त्यक्तसंकुटनोसांकोटिनं नृपमरञ्जयत् ॥ ४ ॥ ४. स बर्बरोध्यादावपि समुद्रनद्यादावपि विश्नविधिना प्रवेशकरणेन हेतुनासांकोटिनमकुटिलं नृपमरञ्जयत् । कीदृक्सन् । त्यक्तसंकुटनो सुँक्तकौटिल्यात एवाज्ञया नृपादेशेन सान्तर्धिर्मत्रादि शक्त्यादृश्यः ॥ १ ए °या । रक्त'. १ए दिनापृ. २ बी 'निवृत्तं . तो: । अ. ५ ए बी यशः डी मुकुटक ३ ए व्यवधा'. ४ सी तोथः । अ° । स्व. ६ सी डी 'संकट'. ७ एसी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ [ है. ५.३.९३.] त्रयोदशः सर्गः। विश्न । इत्यत्र “विच्छो न" [ ८६ ] इति नङ् ॥ आदौ । विधिना । इत्यत्र “उपसर्गादः किः" [८७ ] इति किः ॥ अब्धि । इत्यत्र "व्याप्यादाधारे" [ ८८ ] इति किः ॥ अन्तर्धिः । “अन्तर्षिः" [ ८९ ] इति निपात्यते ॥ संकुटनः । असांकोटिनम् । अत्र "अमि०" [ ९० ] इत्यादिनानजिनौ ॥ नीतिप्रतिश्रुता श्रोतुं राजैकाकी जनश्रुतीः । सातीनां चार्दिको हत् कदाचिनिरगानिशि ॥५॥ ५. कदाचिदेकाकी सत्राजा निशि निगरात् । किं कर्तुम् । जनश्रुतीर्लोकवार्ताः श्रोतुम् । कया हेतुना । नीतिप्रतिश्रुता । राजा लोकचराचरितपरिज्ञानाय प्रच्छन्न एकाकी रात्रौ चरेदिति राजनीतेरङ्गीकारेण । तथा सार्तीनां रोगपराभवादिना पीडितानामदिकां पीडां हर्तुं च ॥ नीति । इत्यत्र "स्त्रियां तिः" [ ९१ ] इति क्तिः ॥ श्रुतीः । सार्तीनाम् । इत्यत्र "श्वादिभ्यः" [ ९२ ] इति क्तिः ॥ वक्ष्यमाणैः विवादिमिः सह समावेशार्थ वचनम् । तेन प्रतिश्रुता । अर्दिकाम् । इत्याद्यपि स्यात् ॥ सासुतीनां मिथो यूत्या जूत्या वाक्समितिं नृपः । भावज्ञप्त्यै काप्यपश्यत्कीर्तीप्मुतिसातिमान् ॥६॥ ६. नृपः कापि स्थाने सासुतीनामासुत्या मद्येनान्वितानां मद्यपानां भावज्ञप्त्या अभिप्रायं ज्ञातुं तेषां मिथो वाक्समिति वाग्युद्धमपश्यत् । कया कृत्वा । मिथो यूत्या जूत्या मिथो यूत्या संपर्केण १ ए सी डी कीर्तिप्सु°. १ सी डी सं ट. २ ए सी डी वार्ताश्रो. ३ ए सी डी राजलो'. ४ ए सी डी श्रुतीना. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः या जूतिर्गतिस्तया सासुतिभिः सह मिलित्वा गमनेनेत्यर्थः । कीदृक् । कीर्तीप्सुस्तथा हेतीनामस्त्राणां सातिः पिंगु बन्धने। सीयते सातिः संबंन्धस्तद्वान् । संपीत्या मत्तसंगीतौ कचित्स्वगुणकीर्तनाम् । शृण्वन्ननास्थया चक्रे नानपक्तिमवस्थितिम् ॥ ७ ॥ ७. संपीत्या सहपानेन कृत्वा मत्तानां मद्यपानां संगीतिः सह. गानं यत्र तस्मिन्मत्तसंगीतो कचित्स्थानेन्नपक्तिं यावता कालेनानपाकः स्यात्तावन्तमपि कालमवस्थिति राजा न चक्रे । कीहक्सन् । स्वगुणकीर्तनां शृण्वन् । कया नास्थात् । अनास्थया महापुरुषत्वेन स्वगुणेष्ववहेलया ॥ समितिम् । सासुतीनाम् । अत्र "सम्०" [ ९३ ] इत्यादिना क्तिः ॥ साति । हेति । यूत्या । जूत्या । जय । कीर्ति । इत्येते "साति." [ ९४ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ कीर्तनाम् । इत्यपि कश्चित् ॥ संगीतौ । संपीत्या । पक्तिम् । अत्र "गापा०" [ ९५] इत्यादिना क्तिः ॥ अवस्थितिम् । अनास्थया । अत्र “स्थो वा" [ ९६ ] इति वा क्तिः ।। प्रव्रज्येज्याजुषामास्यासमज्याखड्यया च सः । विद्याभृत्यान् कचित्पश्यन्मेने चर्याफलं महत् ॥ ८ ॥ ८. स राजा चर्याफलं महन्मने । कीहक्सन् । कचिद्विद्यैव भृत्या वेतनं येषां तान्विद्याभृत्यान्यज्ञविद्योपजीविनो महायाज्ञिकानित्यर्थः । पश्यन् । कया । अट्यया भ्रमणेन । कासु । प्रव्रज्येज्याजुषां प्रव्रज्यां दीक्षाविशेषमिज्यां च यागं च सेवमानानां यज्ञोपाध्या १ ए सी डी तिः पिगृ. २ सी डी बद्धस्त. ३.सी डी पावकः. ४ सी डी गं से'. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.३.१००.] त्रयोदशः सर्गः। यानामास्यासमज्यास्वास्यायायुपवेशनाय समज्यासु सभासु यज्ञपाटकेस्वित्यर्थः । यदीदृशाः पुण्यात्मानो विद्याभृत्या मया दृष्टास्तेन च. र्यायाः फलं महजज्ञ इत्यज्ञासीदित्यर्थः । निपद्यायां निषद्यानिपत्याशय्याजुषश्वरान् । सोज्ञासीच्छद्मसुत्योपः स्थिरमन्येत्यया कचित् ॥ ९॥ ९. कचित्स नृपश्चरान् शत्रुहेरिकानज्ञासीत् । किंभूतान् । निपद्यायां राजमार्गे निषद्या हट्टास्ता एवात्युच्चत्वान्निपत्या भैरवपातभूमयस्तासां शय्या रचनाविशेषास्तजुषः । तथा छद्मना किल वयं यागार्थ सुत्याविक्रायिणो द्विजा इति व्याजेन सुत्यां सोमाधानपात्रं पान्ति ये तांश्छद्मना वल्लीरसपात्रधारकानित्यर्थः । एवंविधानपि कथमज्ञासीदित्याह । स्थिरमन्येत्यया स्थिरा मन्या कन्धरा यत्र सा येत्या गतिस्तया कृत्वा । तान् क्षुद्रतया जनानां राजवार्ता कुर्वतां सावधानत्वानिश्चलग्रीवया श्रावं श्रावं गच्छतो दृष्ट्वा । चरा एत इति राजाज्ञासी दित्यर्थः॥ आस्या । अव्यया । प्रवज्या । इज्या । इत्यत्र "आस्यटि०" [ ९७ ] इत्यादिना क्यप् ॥ भृत्यान् । अत्र "भृगो नाम्नि" [ ९८ ] इति क्यप् ॥ समज्यासु । निपत्या । निपद्यायाम् । निषद्या । शठया । सुत्या । विद्या। चर्या । मन्या । इत्यया । इत्यत्र "समज." [ ९९ ] इत्यादिना क्यप् ॥ जनेच्छाकृत्ये जिज्ञासुः कापि गूढाकृतिक्रियः । तृष्णां याञ्चां कृपां श्रद्धा भान्तर्धा च स निर्ममे ॥१०॥ १ सी डी त्याप स्थि. २ बी 'द्धां चान्त. १ ए सी डी 'त्रुहरि . २ सी डी निपद्या. ३ डी क्षुप्रत. ४ ए सी डी वानिय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः) १०. स्पष्टः । किं तु जनेच्छाकृत्ये लोकानामभिप्रायं चेष्टां च । गूढे आकृतिक्रिये आकारगमनादिचेष्टे यस्य स तथा भान्तर्धा भाया राज्यशोभाया अन्तर्धा गोपनं च ॥ मृगयापरिसर्येच्छुरिवच्छन्नपदः कचित् । परिचर्याकृतोटाट्यां जज्ञेटाटां परस्य च ॥ ११ ॥ ११. कचिच्च राजा परिचर्याकृतो भक्तस्याटाट्यां गतिं जज्ञे निःशङ्कत्वादिगुणैातवान् । परस्य च शत्रोश्चाटाटां गतिं साशङ्कत्वादिना जज्ञे । कीदृक्सन् । छन्नावलक्षितौ पादौ पादन्यासौ यस्य सोज्ञात इत्यर्थः । मृगयाखेटेस्तदर्थं परिसर्या परिगमनं तदिच्छुर्लुब्धको यथा छन्नपदः स्यात् ॥ क्रियः कृत्ये । अत्र "कृगः श च वा" [१०] इति शो वा चकाराक्यप् च ॥ पक्षे । आकृति । मृगया । इच्छा । यात्राम् । तृष्णाम् । कृपाम् । भा। श्रद्धाम् । अन्तर्धाम् । एते "मृगयेच्छा." [१०] इत्यादिना निपात्याः ॥ . परिसर्या । परिचर्या । इत्यत्र "परेः०" [ १०२ ] इत्यादिना मः ॥ अटाट्याम् । अटाटाम् । अत्र "वाटाट्यात्" [१०३ ] इति वा यः ॥ जागर्यया निशार्धस्य ज्ञात्वेहां जागरावताम् । प्रशंसां च जुगुप्सां च कुर्वन्स निरगात्पुरात् ॥ १२ ॥ १२. स्पष्टः । किं तु प्रशंसां विद्याभृत्यादेः । जुगुप्सां चच्छअवतां चरादीनाम् ।। - जागर्यया । जागरा । इस्यन्न "जागुरश्च" [१०४ ] इति । यश्च ॥ .१ए त्वारिगु. २ बी टकस्त°. ३ ए गुरुश्च. सी डी गुरेश्च. ४ बी अः । अश्व. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ५.३.१०७.] त्रयोदशः सर्गः। १२१ प्रशंसाम् । जुगुप्साम् । अत्र "शंसि." [१०५] इत्यादिना-अः ।। ईहाम् । अत्र “केटः०" [ १०६ ] इत्यादिना-अः ॥ क्षमां भिदाच्छिदाभीपां सोसिभूपो व्यलङ्घयत् । पूर्वाद्भुतकथाचिन्ताचर्चापूजास्पृहापरः ॥ १३ ॥ १३. स नृपो भिदाच्छिदाभीषां पशुमत्स्यादिविदारणद्विधाकरण रौद्रां क्षमा पूर्वाह्यचण्डालमात्सिकादिसंबन्धिभूमि व्यलङ्घयत् । कीदृक् । असिना भूषा यस्य सोसिभूपस्तथा पूर्वेषां रामादीनामद्भुता याः कथास्तासां या चिन्ता स्मरणं चर्चा मनसि विचारः पूजा वहुमानः स्पृहेच्छा तत्परः ॥ अदोलातोलचित्तः सोप्रमाः कुम्बाश्च लङ्घयन् । चित्रकामनया प्राप नदी ब्राह्मीमवेदनः ॥ १४ ॥ १४. स राजा चित्रकामनयाश्चर्याभिलाषेण ब्राह्मीं नदी सरस्वती प्राप । कीहक्सन् । न दोलायाः प्रेङ्खायास्तोला साम्यं यस्य तचित्तं यस्य सः । सात्विकत्वान्निश्चलचित्तोत एवावेदनो भयोत्थदुःखरहितोत एवाप्रमाः प्रमाणरहिता असंख्याः कुम्बाश्च न केवलं भिदाच्छिदाभीषां क्षमा सुगहना यज्ञवृत्ती(ती?)श्च लङ्घयन् ।। वन्दनोपासने कृत्वा सोञ्जलिग्रन्थनादिभिः । पादाभिघट्टनोदुर्मिश्रन्थनामुत्ततार ताम् ॥ १५ ॥ १५. स राजाञ्जलिग्रन्थनादिभिरञ्जलिरचनास्नानादिभिः कृत्वा १ ए त्वा तां नदी. १ ए पो सिदा. २ बी 'रणाद्वि'. ३ डी रणे सै०. ४ बी मात्स्यका'. ५ ए सी डी भूमिमभ्यल'. ६ बी °स्य सः. ७ डीन् । चन्द. ८ डी 'त्वा चन्द'. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] वन्दनोपासने कृत्वा तां नदीमुत्ततार । किंभूताम् । पादाभिघट्टनया पादाक्रमणेनोदुच्छलन्त्यूमिश्रन्थना कल्लोलरचना यस्यां ताम् ।। क्षमाम् । अत्र "षितोइ" [ १०७ ] इत्यङ् ॥ भिदाच्छिदे । “भिदादयः" [ १०८ ] इति साधू ॥ भीपाम् । भूषः । चिन्ता । पूजा। कथा । कुम्बाः । चर्चा । स्पृहा । तोल । दोला । इत्यत्र "भीषि०" [ १०९] इत्यादिनाङ् ॥ अप्रमाः । अत्र "उपसर्गादातः” [ ११० ] इत्यङ् ॥ कामनया । अवेदनः । उपासने । अन्यनाम् । अभिघटना । वन्दना । इत्यत्र "णिवेत्ति” [ १११] इत्यादिनानः ॥ ग्रन्थेरपीत्यन्ये । ग्रन्थना ॥ आश्चर्यान्वैपणेष्ट्या चार्तपर्येषणया च सः । परीष्ट्याध्येपणाभाजां चाटत्तीरेनधीष्टिकृत् ॥ १६ ॥ १६. स राजा तीरे नदीतट आटदभ्राम्यत् । कैर्हेतुभिः । आश्चर्यान्वेषणेश्या चाश्चर्यविलोकनेच्छया चार्तपर्येषणया च पीडितानां विलोकनेन च । तथाध्येषणाभाजां सत्कारपूर्वो व्यापारोध्येषणा । तद्भाजां मुनीनां परीष्टया च शुश्रूषणया च । न च वाच्यमसौ द्रव्येच्छया कस्यापिच्छलं वीक्षितुमत्राटद्यतो नाधीष्टिं यानां करोत्यनधीष्टिकृनिर्लोभत्वात्कस्यापि किमप्यगृह्णन्नित्यर्थः ॥ अन्वेषणा । इत्यत्र "इयोनिच्छायाम्" [ ११२ ] इत्यनः ॥ अनिच्छायामिति किम् । इष्टया ॥ १ डी चाश्चर्यवि. १ ए भूष । चि०. २ बी कथाः । कु. डी कथां । कु. ३ सी डी कुम्बा । च. ४ वी 'न्थनं । अ. ५ ए सी डी 'ना । वेदना. ६ वी °षणाय च. ७ डी घ्या अध्ये. ८ एम् । इष्टया. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.३.११५. ] त्रयोदशः सर्गः । १२३ पर्येषणया । परीष्ट्या । अध्येषणा । अनधीष्टि । इत्यत्र "पर्यधेर्वा" [ ११३] 1 1 इति वानः ॥ क्रुधा काकयुदुद्धूके कुञ्जेथाभीः स भीतिदे | समसंपद्विपद्भूप इति दीनं वचोशृणोत् ॥ १७ ॥ १७. अथ स राजा कुले वनगहनमध्य इति वक्ष्यमाणं दीनमार्तं वचोशृणोत् । कीदृक्सन् । समे तुल्ये संपद्विपदौ यस्य स तथा महापुरुपत्वात्संपद्यहृष्यन्विपदि चाविपादीत्यर्थः । अत एवाभीः । किंभूते कुजे । भीतिदे भयप्रदेपि । यतः कुधा हेतुना काकयुधि काकैः : सह रण उदुद्यता घूका यत्र तस्मिन् ॥ । यद्वचोशृणोत्तदाह । नाथोज्झसि किमीम हीनं त्यक्त्वा मया कृताम् | व्यावभाषीं व्यतीहां च व्यतीक्षां चास्मरनिव ॥ १८ ॥ १८. हे नाथाविद्यमाना ह्रीर्मत्यागविषया लज्जा यस्य सोही: संस्त्वं ह्रीतिं लज्जां त्यक्त्वा मां किमित्युज्झसि । कीदृगिव । अस्मरन्निव । काम् । मया कृतां व्यावभाषी विनिमयेन प्रेमालापं तथा व्यतीहां विनिमयेन नखक्षतादिस्मरचेष्टा च तथा व्यतीक्षां च विनिमयेन कटाक्षैरीक्षणं च । एकान्तानुरक्तां स्वप्रेयसीं मामजानन्निवेत्यर्थः ॥ क्रुध । युत् । संपत् । विपत् । इत्यत्र “ॐत् ० " [ ११४ ] इत्यादिना क्विप् ॥ १ ए सी डी 'हीमां ही २ प सी डी 'तीक्षा च. १ए अध्यैष. २ ए सी डी 'लापां त'. ३ बीष्टांत. ४ सी डी ५ ए सी डी 'धा । यत्. 'रक्तास्व'. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] अभीः नीति । अतः हीतिम् । अत्र "भ्यादिभ्यो वा" [१५] इनि वा विप् ॥ घ्यावभापीम् । अत्र "व्यतिहारे." [ १९६] इत्यादिना नः ॥ अनीहा. दिभ्य इति किम् । व्यतीहाम् । व्यतीक्षाम् ॥ अद्यैवाजीवनिमेस्तु यावद्वीक्षे वराक्यहम् । ग्लानिहानी न ते नाथ म्लानिज्यानी कुलस्य च ॥१९॥ १९. हे नाथाहं वराकी कृपापात्रं यावत्ते ग्लानिहानी हर्षक्षयाङ्गक्षयौ कुलस्य तव वंशस्य म्लानिज्यानी त्वन्मृत्युना मालिन्यं क्षयं च न वीक्षे तावन्मेद्येवाजीवनिर्मृत्युरस्तु ॥ अजीवनिः । अत्र "नमोनिः शापे" [ ११७ ] इत्यनिः ॥ ग्लानिहानी । ज्यानी । अत्र "ग्लाहाज्यः" [११८] इत्यनिः ॥ म्लानि । इत्यपि कश्चित् ॥ का कारिः कान्त कर्पूरे कस्तूर्या का च कारिका । का कृतिश्चन्दने कृत्या कागरी सक्षु का क्रिया ॥ २० ॥ इति पृष्टस्य प्रत्येकं सर्वेत्युक्तं पुरा तव ।। स्मरन्याम्यहं वह्निवेशिकां कासिकाद्य मे ॥ २१ ॥ २०, २१. अहं वह्निवेशिकामग्नौ प्रवेशमर्हामि । कासिकाद्य मे कोद्य ममावस्थातुं पर्यायः । कीहक्सत्यहम् । स्मरन्ती । किमित्याह । हे कान्त कपरे । निमित्तसप्तमीयम् । यथा शरदि पुष्पैन्ति(?) । आतपे क्लाम्यतीति । कर्पूरनिमित्ता कपूरहेतुका या कारिविलेपनमण्डन १ सी डी कागुरो. १बी नि । अ. २ बी वीक्ष्ये ता... ३ ए हानि । का. ४ ए सी डी पन्ते । आ. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.२.११९. ] त्रयोदशः सर्गः । १२५. केशवस्त्रगृहवासनादिका क्रिया सा का। कोर्थः । कर्पूरहेतुकं किं विलेपनं क्रियते मण्डनं वा केशादिवासना वेत्यादिः । एवं कस्तूर्यां का च कारिका । चन्दने का कृतिस्तथागरौ का कृत्या क्रिया तथा स्रक्षु पुष्पमालासु च का क्रियेत्येवंप्रकारेण पुरा पूर्वं मया पृष्टस्य तव प्रत्येकमेकं कर्पूरादि प्रति सर्वा विलेपनादिका समस्त कारि(रिः) कारिका कृति: कृत्या क्रिया चेत्येवंविधं प्रेमातिशयोत्थमुक्तं वचनम् ॥ ५ मोक्षको त्पेदे धारयामीक्षुभक्षिकाम् । 3 ८ यां ते तां मुञ्च मेन्ताय यत्त्वदापद्विषूचिका ॥ २२ ॥ २२. यद्यस्मात्त्वदापद्विपूचिका तवापदेव विपूचिका मरणान्त उदरमहारोगस्त्वज्जीविताया मेन्ताय मृत्युहेतुरस्ति तस्मान्ममैधोभक्षिका काष्ठभक्षणमुत्पेदेवश्यकर्तव्यतया संपन्नेत्यर्थः । मृत्युतावुपस्थिते हि सत्त्वाधिकाः काष्ठभक्षणादि कुर्वन्ति । तस्माद्यामिक्षुभक्षिकामिक्षुभक्षणं ते तुभ्यं धारयामि तां मुञ्च । अनृणीभूयैव हि काष्ठभक्षणं क्रियत इति स्थितिः ॥ अरोचकः कारिकायां जीविते भाषणे च मे । पयःपानं सुखं प्रेत्य करिष्यामि त्वया सह ॥ २३ ॥ २३. मे मम कारिकायां भोजनादिक्रियायां जीविते भाषणे च विषये न रोचतेत्रारोचको रोगविशेषोरुचिरित्यर्थः । तस्मात्प्रेत्य भ १ ए ममेधो. २ ए सी डी यांत तां. ३ सी डी मेताय. ४ बी 'द्विशूचि.. १ बी केसव". २ बी सी डी 'त्यादि । ४ ए सी डी तत्र प्र° ५ बी सी डी °रिका कृ. विशुचि .. ८ ए सी डी मेताय. बीन्ममेोभ. . ३ सी डी यागुरौ. ६ बी 'द्विशूचि. ७ बी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] पान्तरं गत्वा त्वया सह सुखं त्वयाविरहितत्वेनैव सुखकारि पयःपानं दुग्धपानं करिष्यामि । एषा हि नागभार्या । नागानां च दुग्धमेव प्रियमित्युक्तं पयःपानं करिष्यामीति ।। राजाच्छादनवस्त्रा प्राग्नन्दनी रमणीषु या । प्रसादकारणात्ते सा यायां प्रपतनं न वा ॥ २४ ॥ २४. याहं प्राक्प्राचि काले ते तव प्रसादकारणात्प्रसादाद्धेतो रमन्ते कान्तेषु रमण्यस्तास्वन्यभार्यासु मध्ये नन्दनी समृद्धा मुख्येत्यर्थः । अभूवम् । कीटक्सती । राजाच्छादनानि राजभिः परिधेयान्यतिश्रेष्ठानीत्यर्थः । वस्त्राणि यस्याः सा साहं ते प्रपतनं झम्पादानस्थानं न वा यायां काका किं तु यातुमर्हामि । “शकाहे कृत्याश्च" [५. ४. ३५ ] इत्यहें सप्तमी। त्वया सहास्म्यपि झम्पां दास्यामीत्यर्थः ॥ भोजनाच्छादने लुब्धा प्राप्ते प्रस्कन्दनं त्वयि । इध्मत्रश्चनगोदोहनीभृत्स्थास्यामि किं वहम् ॥ २५ ॥ २५. त्वयि प्रस्कन्दनं कूपे पतनाय तत्तटं प्राप्ते सति भोजनाच्छादने भोजने वस्त्रे च लुब्धा सती किं न्वहं स्थास्यामि । कीदृशी । इध्मव्रश्चनगोदोहनीभृत्काष्ठभारानयनाय गवां दोहनाय च परशुपारिकाधारिणी । इदमुक्तं स्यात्पतिं विना हि र्खिया भोजनायाच्छादनाय च काष्ठभारानयनगोदोहनादिनीचकर्माण्येव कार्याणि तान्यहं पतिमनुगच्छन्ती नैव करिष्यामीत्यर्थः । १ वी नां हि दु. २ ए सादाद्धे. ३ ए समुद्रा मुखेत्य. सी डी समुद्रा मु. ४ बीद्धा सुग्वेत्य. ५ बी साहं. ६ डी स्त्रियो भो'. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ [ है० ५.३.१३०.] त्रयोदशः सर्गः। का कारिः । का कारिका । का क्रिया। का कृत्या । का कृतिः ॥ आख्याने। सर्वा कारिः । सर्वा कारिका । सर्वा क्रिया। सर्वा कृत्या । सर्वा कृतिः । अत्र "प्रश्न." [११९] इत्यादिना वेञ् ॥ कासिका। अग्नि(वति?)वैशिकामामि । इक्षुभक्षिका ते धारयामि । ममैधोभक्षिकोत्पेदे ॥ प्रश्ने । का कारिका ॥ आख्याने । सर्वा कारिका । इत्यत्र "पर्याय." [ १२० ] इत्यादिना णकः ॥ विपूचिका । अरोचकः । अत्र "नाम्नि पुंसि च" [ १२१] इति णकः ॥ कारिकायाम् । अत्र "भावे" [ १२२ ] इति णकः ॥ जीविते । अत्र "क्लीबे क्तः" [ १२३ ] इति क्तः ॥ भाषणे । अत्र "अनट्" [ १२४ ] इत्यनद ॥ पयःपानं सुखम् । राजाच्छादनवस्वा । इत्यत्र “यत्कर्म " [१२५] इत्यादिनानद ॥ रमणीषु । नन्दनी । इत्यत्र रम्यादित्वादनद [ १२६ ] ॥ कारणात् । इति "कारणम्" [ १२७ ] इति साधु ॥ भोजनाच्छादने । प्रपतनम् । प्रस्कन्दनम् । अत्र "भुजि०" [२८] इत्यादिनानद ॥ इध्मवश्चन । गोदोहनी । इत्यत्र “करणाधारे" [ १२९ ] इत्यनट् ॥ ऊषाकरे प्लवान£संचरेगोचरव्यजे। वहाभस्कन्धवज्रास्यमक्षिकावजसंकुले ॥ २६ ॥ खलस्य मृत्योर्निगमे कूपेस्सिन्नापदापणे । त्वं वेक्ष्यस्यहमीक्षिष्ये धिक् स्त्रियो बकचेष्टिताः ॥ २७ ॥ १ ए सी डी हारुस्क. १ डी कारिका. २ सी डी श्वेशका. ३ बी विशूचि. ४ बी साधुः ॥ भो°. ५ डी तनीम्. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ द्व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः २६, २७. अस्मिन्कूपे त्वं वेक्ष्यसि प्रवेक्ष्यस्यहमीक्षिष्येतश्च बकचेष्टिता बकवृत्तीः स्त्रियो धिग्गहें । यदि खियो बकवन्मायाविन्यो नाभविष्यंस्तदाहं स्त्री तव प्राणेभ्योप्यतिप्रिया त्वत्पुर एव कूपे प्रा. वेक्ष्यमित्यर्थः । किंभूतेस्मिन् । ऊषाकरे द्रवरूपक्षारद्रव्यविशेपस्य स्थाने तथा प्लवानहें तिसंकीर्णत्वात्प्लवेनोडुपेन तरीतुमशक्य इत्यर्थः । तथा नास्ति संचरः प्रवेशमार्गो यत्र तस्मिंस्तथातिनिम्नत्वादत्यन्धकारवत्त्वान्मक्षिकातिव्याप्तत्वाच्चागोचरोविषयोदृश्य इत्यर्थः । व्यज ऊपाकर्षणाय रज्जुबद्धघट्यादीनां निक्षेपमार्गो यत्र तस्मिंस्तथा वहाभा गोस्कन्धदेशतुल्याः स्कन्धा यासां तास्तथा वज्रास्या वज्रवत्तीक्ष्णप्रचण्डवक्रा या मक्षिकास्तासां व्रजेन समूहेन संकुले व्याप्तेत एवापदापणे क्रयाणकवत्सुप्राप्यत्वाद्विपदा हटेत एव च खलस्य मृत्योर्निगमे मार्गतुल्ये पत्तनतुल्ये वा ॥ सत्त्वाकपो धीनिकषो ममासौ कुलयोः कषः । सुभगोपस्थितापचे ज्वलनिपकदारुणा ॥२८॥ २८. हे सुभग निपचन्त्यनेन निकः कुलालभाण्डपाकस्थानम् । ज्वलन्योसौ निपकस्तद्वदारुणा संतापिकासौ प्रत्यक्षा ते तवोपस्थितापन्मम सत्त्वाकपः सत्त्वस्य परीक्षोपलस्तथा धीनिकषो बुद्धिपरीक्षोपलस्तथा कुलयोर्मातापितृपक्षयोः श्वशुरपितृपक्षयोर्वा कपः । अस्यां विपदि त्वदनुगमनेन नियूंढाया मम सत्त्वादीनि प्रमाणीभविष्यन्तीति भावः ॥ १ ए सी डी वेशानि. २ डी पाकारे. ३ बी थानि'. ४ ए त्वागो'. सी डी त्वादगो. ५ ए सी डी वज्रा. ६ डी °ल्ये वा. ७ डीग विप. ८ डी °न विप. ९ ए डी पकस्त. सी पङ्कस्त°. १० वी श्वसुर . ११ ए ०३: । कार. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.३.१३३.] त्रयोदशः सर्गः । १२९ करणे । प्लव ॥ आधारे । आकरे । अत्र "नाम्नि घः" [१३० ] इति घः॥ गोचर । संचरे । वह । बज । व्यजे । खलस्य । भापणे । निगमे । बक । सुभग । कषः । आकैपः । निकपः । एते "गोचर०" [१३१] इत्यादिना निपात्याः ॥ निपक । इत्यपि कश्चित् ॥ दशावतार्या आरामान्नद्युत्तारेवतारभाई। चेष्ट्यवस्तारयुग्मा गाद्विघ्नः कोपीत्यथोच्चल ॥ २९ ॥ २९. अथाथ वा किं बहूक्तेनेत्यर्थः । उच्चल मया सह कूपे प्रवेशाय शीघ्रं प्रचल । कस्मात् । इति हेतोः । तमेवाह । अवतरति विष्णुरेष्वित्यवतारा मत्स्यादय एषां पूजार्थं प्रतिकृतयोप्यवतारा मत्स्यादीनां प्रतिमाः । दशावताराः समाहृता दशावतारी तदर्थं भवनमप्युपचारादशावतारी तस्या दशावतारीभवनस्य संवद्धात्सरस्वतीनिकटवर्तिन आरामादुद्यानात्सकाशान्नात्तारे नद्यास्तीर्थेवतारभागवतरन्कोपि नरो मा गान्मा यासीत् । कीदृक् । चेप्टेंन्तेनेन चेष्टो बलमस्यास्ति चेष्टी तथावस्तृणन्यनेनावस्तारः पटभेदस्तेन युग्युक्तश्च सन् । विघ्नो बलेन ग्रहणाद्वस्त्रेण वन्धनाच्च त्वामनुगच्छन्त्या मम कूपप्रवेशेन्तरायहेतुः॥ करणे । चेष्टी ॥ आधारे । आरामात् । इत्यत्र "व्यञ्जनाद्र" [ १३२ ] इति घर्ष ॥ १ ए सी डी क् । वेष्टय. २ ए डी चलः । अ. १ डी रे । अ. २ ए सी कष । आ°. ३ ए कष । नि०. सी कथ । नि. ४ सी डी रीम'. ५ डी टतेने'. ६ सी ञ् । ब°. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] अवतार्याः । अवस्तार । इत्यत्र "अवात्तृस्तृभ्याम्" [१३३ ] इति घन् ॥ बहुलाधिकारादसंज्ञायामपि । अवतार । भावेत्र घञ् । उत्पूर्वादपि । उत्तारे ॥ शुक्संहारः कृपाधारो गुणावायोथ भूपतिः । वचः कुञ्ज लतोद्यावे श्रुत्वेत्यभिससर्प सः ॥३०॥ ३०. अथ स भूपतिर्जयसिंह इति पूर्वोक्तं वचः श्रुत्वा लतोद्याव उद्यूयन्ते तिलादयोस्मिन्नुद्यावो यज्ञपात्रं लतानामुद्याव इव वल्लीनामाधार इत्यर्थः । कुञ्ज वनगहनेभिससाभिमुखं ययौ । यतः कीदृक् । शुचः शोकस्य संहारो मधुरवचनादिना प्रलयकालतुल्यस्तथा कृपाधारः कृपालुः । कृपाधारोपि यदि शौर्यादिगुणहीनः स्यात्तदा तत्र गन्तुं न शक्नुयादित्याह । गुणावाय एत्य वयन्त्यत्रावायेस्तन्तुवायशाला गुणाः शौर्यादय एव गुणास्तन्तवस्तेषामावाय इव ॥ तत्र खदारसंतुष्टो न्यायाध्यायो ददर्श सः । अजारचेष्टितं द्वन्द्वमवहारालयोपमः ॥ ३१ ॥ ३१. अवहारालयो ग्राहाकरोब्धिस्तेनोपमा यस्य स तथाब्धिगम्भीरः स राजा तत्र कुजे द्वन्द्वं स्त्रीपुरुषमिथुनं ददर्श । कीदृशम् । न जाराणां चेष्टितं चौर्यरतव्यञ्जिका व्याकुलत्वादिचेष्टा यस्य तत् । न च वाच्यमसौ कामवासनया स्त्रीदर्शनाभिलाषेणेतद्ददर्श । यतः स्वदारसंतुष्टः । एतदपि कुत इत्याह । न्यायाध्यायो न्यायस्याध्याय इव मूर्त नीतिशास्त्रमिवेत्यर्थः ॥ न्यायं । आवायः । अध्यायः । उद्यावे । संहारः । अवहार । भाधारः । दार । जार । इत्येते "न्याय." [१३४ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ १ए वात्तुस्त . बी वातृस्तृभ्या . २ सी यशा'. ३ ए सी डी गुणा शौ'. ४ बी णाः सौर्या'. ५ बी न्यायध्या'. ६ बी य । अवा. ७ सी डी °ध्याय । उ. ८ ए बी सी हारः । आ. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.३.१३५.] त्रयोदशः सर्गः। ऊचे शुष्काखरानायगतमीनातुरं नरम् । क्षरत्सुधोदकरसोपममितभृताखनः ॥ ३२ ॥ ३२. राजा नरमूचे । कीदृक्सन । सुधोदच्यतेनेन सुधोदकस्तस्य रसः सुधैव क्षरन्यः सुधोदकरसस्तेनात्याह्लादकत्वादुपमा यस्य तत्तथा यस्मितमीषद्धास्यं तेन भृता आखनाः खानकानि येन स तथा । किंभूतं नरम् । शुष्काखरः शुष्काखानकमानायो जालं द्वन्द्वे तयोर्गतः पतितो यो मीनस्तद्वदातुरमाकुलम् ।। यदूचे तदाह । उदकोदश्चनी कस्त्वमत्राख विषमे तटे । स्वभासाखनिकवकान् व्योमाखानं च पूरयन् ॥ ३३ ॥ ३३. आखविषमे खानकैर्विषमेत्र तटे कूपतीरे कस्त्वम् । कीदृक् । स्वभासा स्वकान्त्याखनिकवकान्खानकानि व्योमाखानं चाकाशमेव खानकं च पूरयंस्तथोदकोदञ्चन्युदकोदञ्चनयुक्तः ।। सुलभापदि देशेमिन्महाखनिकदुर्गमे । शुचिम्लायतिखेदीनां विषयः का न्वियं च ते ॥ ३४ ॥ ३४. अस्मिन्देशे प्रदेशे ते तव संबन्धिनीयं प्रत्यक्षा स्त्री च का नु का । किंभूते । महासनिकैर्दुर्गमं दुःखेन गमनं यत्र तस्मिन्नत एव सुलभेन सुखप्राप्त्या प्रधाना आपदो यत्र तस्मिन् । किंभूतेयम् । शुचिम्लायतिखेदीनां शुचीति म्लायतीति खेदीति शब्दानां विषयः शुच्-म्ला-खिद्-धातूनां शोचति म्लायति खिद्यत इत्यादिप्रयोगेषु क१ बी हाखानि'. २ बी चिप्लाक्य. १ सी डी धोदुच्य. २ ए सी डी शुष्कख'. ३ ए सी डी शुष्कखा. ४ डी कानि. सी कान्वन. ५ ए सी डी नी प्र. ६ सी चते म्ला. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] त्रीत्वेन गोचर इत्यर्थः । यद्वा शुचिः शोको म्लायतिर्लानिः खेदिदैन्यं धात्वर्थास्तेषामाधारत्वेन विषयः ॥ यच्चानीपत्करं कृत्यं तत्रापीषद्वचं त्वया । सुवचं दुर्वचमपि सजनैर्हि सतां पुरः ॥ ३५ ॥ ३५. अनीषत्करं च न केवलं सुखसाध्यं दुःखसाध्यं च यत्कृत्यमास्ते तत्रापि विषये त्वयेषद्वचमनायासेन वक्तव्यं दुःसाध्यमपि निःशङ्कमुच्यतामित्यर्थः । हि यस्मादुर्वचैमपि कष्टहेतुत्वादुःखेन वाच्यमपि सतां साधूनां पुरः सज्जनैः सुवचमुभयेषामपि साधुत्वेनैक्यात् ॥ ईषन्मलानंभवं स्वातैभवं वा दुःस्थिरंभवम् । कसात्त्वया त्वदा, यदीपदाकरोस्म्यहम् ॥ ३६ ॥ ३६. यद्यस्मात्त्वदाा काहमीषदाईकरोनायासेनार्द्रचित्तीक्रियेतिपीड्य इत्यर्थः । तस्मादहो नर त्वं वदेतिगम्यते । कस्माद्धेतोस्त्वयेषन्म्लानंभवमीषदनायासेन म्लानीभूयते स्वार्तभवं वा सुखेनार्तीभूयते च । दुःस्थिरंभवं वा विमनस्कत्वेनात्र दुःखेन स्थिरीभूयते च॥ सुविक्लवंकरः कच्चिदसिदुर्विक्लवंकरैः। द्विद्भिदुःशासनैर्दुर्योधनैर्दुर्दर्शनैरथ ॥ ३७॥ ३७. कच्चिदिष्टपरिप्रश्ने । असि त्वं द्विडिः शत्रुभिरथ किं सुविक्लवकरः सुखेन विक्लवीक्रियसे परिभूयस इत्यर्थः । किंभूतैः । दुर्द १ ए सी डी ध्यं च. २ डी येष°. ३ ए सी डी 'चनम०. ४ बी सी डी दाद्रक. ५ ए सी डी स्वातांभ. ६ ए सी डी च । दुस्थि. ७ए सी डी से भू. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ५.३.१३७.] त्रयोदशः सर्गः । १३३ शनैरतितेजस्वित्वाद्दुःखेनावलोक्यैस्तथा दुःशासनैर्बलिष्टत्वाद्दुःखेन शिक्षणीयैरत एव दुर्योधनैरन्तर्भूतणिगर्धत्वेन दुःखेन योधनीयैरत एव च दुःखेनाविकुंवा विक्लवाः क्रियन्ते ये तैर्दुरभिभवनीयैरित्यर्थः ॥ अनीषच्छासनो दुर्धर्षणो दुर्मर्पणोपि च । मया सुशासनस्तेरिर्दुरुत्थानं न तत्त्वया ।। ३८ ।। ३८. तेरिर्मया सुशासनः सुखेन शिक्षणीयः । किंभूतोपि । अनीबच्छासनोपि तथा दुर्धर्षणो दुरभिभवनीयोपि दुर्मर्पणोपि च दुःसह्यपि च । तत्तस्मात्त्वया न दुरुत्थानं किं तु सुखेन त्वयोदेतव्यमित्यर्थः ॥ 3 ईषदानं मयानीषदानेपि त्वत्कृते सखे । सुयानमसुयानेपि दुर्ज्ञानं तद्वदेहितम् ॥ ३९ ॥ ३९. हे सखेनीषद्दाने दुःखेन देयेपि वस्तुनि विपये त्वत्कृते त्वदर्थं मयेषदानं सुखेन दीयते तथासुयानेपि महाकूपादौ सुयानं सुखेन गम्यते तत्तस्माद्दुर्ज्ञानं दुर्ज्ञेयमीहितं स्वाभिप्रायं वद । तेजोदुर्दर्शदुर्धर्षमूचे सोपीति भूपतिम् । शृणु दुःशास दुर्योध दुर्मर्षाशेषमावयोः ॥ ४० ॥ ४०. स्पष्टः । किं त्वावयोः संबन्ध्यशेषं समस्तमर्थाद्वृत्तान्तम् ॥ उदङ्क । इति ‘“उदङ्कोतोये” [ १३५ ] इति निपात्यम् ॥ अतोय इति किम् । उदकोदञ्चनी ॥ आनाय । इति "आनायो जालम् " [ १३६ ] इति निपात्यम् ॥ २ सी णो नं. डी गोपि. ३ डी ते सुखे. १ प दुर्म. हिनां । हे. १ ए सी डी हवाः क्रि, २ डी 'गोपि च. ४ डी ३ सी नी । अना.. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] भाख । भाखर । आखनिक । आखनिकवकान् । आखनः। भाखानम् । अत्र "खनो १०" [ १३७ ] इत्यादिना ड-डर-इक-इकवक-घ-घञ्-प्रत्ययाः ॥ खेदीनाम् । शुचि । म्लायति । इत्यत्र "इकि." [१३८] इत्यादिनाइंकिस्तिवः ॥ भावे । दुर्गमे । सुलभ । ईषद्वचं त्वया ॥ कर्मणि । दुर्वचम् । सुवचम् । अनीषत्करम् । अत्र “दुःसु." [ १३९ ] इत्यादिना खल् ॥ दुःस्थिरंभवम् । स्वातंभवम् । ईषन्म्लानंभवम् । दुर्विक्लवं कैरः । सुविक्लवं]करः । इंपदादंकरः। अत्र "रच्यर्थे." [ १४० ] इत्यादिना खल् ॥ दुःशासनैः। सुशासनः । अनीषच्छासनः । दुर्योधनैः। दुर्दर्शनैः । दुर्धर्षणः । दुर्मर्षणः ॥ आदन्त । भावे । दुरुत्थानम् । सुयानम् । ईषद्दानम् ॥ कर्मणि । दुर्ज्ञानम् । असुयाने । अनीषदाने । अत्र "शास(सू? )युधि०" [१४१] इत्यादिनानः ॥ आदन्तवर्जितेभ्यः केचिद्विकल्पमिच्छन्ति । तन्मते दुःशास । दुर्योधः(ध) । दुर्दर्श । दुर्धर्ष[म् । दुर्मर्ष । इति ॥ एकोनविंशः पादः ॥ मर्त्यलोकात्कदायात एष आयामि नन्वहम् । गमिष्यसि कदा तत्र गच्छाम्ययमहं ननु ॥४१॥ आयान्तं पश्य यान्तं मामित्यन्योन्योक्तिशालिभिः। नागे रम्यास्ति पाताले नाम्ना भोगवती पुरी ॥ ४२ ॥ ४१, ४२. अहो त्वं मर्त्यलोकात्कदायात आगम इति प्रश्ने । एकः कश्चित्प्रत्याह । नन्विति प्रतिवचने । एष आयाम्यधुनवागा १ ए म्यहं. २ ए डी 'त्यन्योक्ति". १ डी खरनिक । आखानिक । आ. २ बी आखानः. ३ ए इति किश्तिवः. ४५ वरं । ई. ५ डीम् । ई. ६ डी दुर्म'. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०५.४.२.] त्रयोदशः सर्गः। १३५ मित्यर्थः । अपरस्त्वाह । आयान्तं पश्याधुनैवागतं जानीहीत्यर्थः । तथाहो तत्र मर्त्यलोके कदा त्वं गमिष्यसीति प्रश्न एकः प्रत्याह । नन्वयमहं गच्छाम्यधुनैव गमिष्यामीत्यर्थः । अपरस्त्वाह । यान्तं मां पश्याधुनैव गमिष्यन्तं जानीहीत्यर्थः । इत्येवंविधा या अन्योन्यमुक्तयस्तच्छालिभिः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ कदागा अयमागां कष्यस्येष्याम्यसौ विभो । इतीशालापवास्तत्र रत्नचूडोस्ति नागराट् ॥ ४३ ॥ ४३. तत्र भोगा(ग)वत्यां रत्नचूडो नाम नागराडस्ति । कीदृक् । ईशस्य वासुकेरालापः संभाषणा तद्वान् । आलापमेवाह । अहो कदागाः सेवार्थ मत्पार्श्वे कस्यां वेलायामायासीरिति प्रश्ने प्रत्याह] । हे विभो अयमागां तवा(था)हो कहें (पे)ष्यसि । अधुना मस्पाद्गितः पुनः कदागमिष्यसीति प्रश्न आह । असावेष्यामीति । अतिमान्यस्वाद्वासुकित्वकण (किस्तं क्षण?)मपि सु(स्व?)पार्धान्मोक्तुं नेच्छतीत्यर्थः॥ कदायातः । एष आयामि । आयान्तं पश्य । कदा गमिष्यसि । अयं गच्छामि । यान्तं पश्य । इत्यत्र "सत्" [१] इत्यादिना वर्तमानावत्प्रत्ययाः । वावचनाद्यथाप्राप्तं च । कदागा अयमागाम् । कद्देष्यसि एप्याम्यसौ ॥ शङ्खपालकुलोत्तंस त्वमायासी रणे यदि । दैत्यानजैषमित्यूचे स्वयं वासुकिनापि यः॥४४॥ ४४. स्पष्टः । किं तु । आयासीरागमिष्यसि । अजैषं जेष्यामि । यो रत्नचूडः । एतेनास्यातिविक्रान्तत्वोक्तिः ॥ १ए कहेंष्यस्येष्या . २ एनजीष. १ सी अजेषं. २५ °स्या वि०. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] यद्यधीपे प्रहष्याम इति नित्यं प्रशासितुः। नाना कनकचूडोहं पुत्रस्तस्य महौजसः ॥ ४५ ॥ ४५. स्पष्टः । किं तु हे पुत्र यदि त्वमधीषे पठिष्यसि तदा वयं प्रहृष्यामो हर्षिष्याम इत्येवंप्रकारेण प्रशासितुः शिक्षयितुः । तस्य रत्नचूडस्य ॥ यद्येष्यति गुरुश्छन्दोध्येष्ये चेच्छोरमेष्यति । श्वोध्येष्ये तर्कमप्याश्वित्युक्त्या तातमर्षयः(महर्षयम् ?)४६ ४६. स्पष्टः । किं तु गुरुरुपाध्यायः । छन्दश्छन्दःशास्त्रम् । चेच्वः कल्ये । गुरुररं शीघ्रमेष्यति । तदाहं तर्कमपि न केवलं छन्दः ॥ यद्यादेक्ष्यस्यथाशंसेधीयीय मि(नि)खिलागमान् । त्वं चेत्प्रसन्नः सिद्धा मे विद्येति गुरुमस्तवम् ॥४७॥ ४७. अहं गुरुमुपाध्यायमस्तवम् । कथमित्याह । हे गुरो त्वं यद्यादेक्ष्यस्याज्ञापयिष्यसि । अथानन्तरं तदेत्यर्थः । अहमाशंसे संभावये निखिलागमानधीयीय पठिष्यामीत्यर्थः । यतस्त्वं चेत्प्रसन्नो मयि प्रसन्नीभविष्यसि तदा मे विद्या सिद्धा सेत्स्यतीति । रणे यदि त्वमायासीदैत्यानजैषम् । यवधी प्रहृष्यामः । अत्र "भूतवच्चाशंस्ये वा" [२] इति भूतवत्सद्वच प्रत्ययाः ॥ पक्षे यद्येष्यति गुरुश्छन्दोध्येष्ये ॥ क्षिप्रार्थे । चेच्छोरमेष्यति । श्वोध्येष्ये तर्कमप्याशु ॥ आशंसाथै । यद्यादेक्ष्यस्यथाशंसेधीयीय निखिलागमान् । इत्यत्र "क्षिप्र." [३] इत्यादिना भविष्यन्तीसप्तम्यौ ॥ क्षिप्रार्थते न(र्थ एते नेति ?) वक्तव्ये भविष्यन्तीवचनं ख(श्व)स्तनीविषयेपि भविष्यन्ती यथा स्यादित्येवमर्थम् ॥ १ सी डी यसि । श्वो'. २ ए 'त्युक्ततो । तम'. ३ सी तातेम. १ सी डी सन्न. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.७.] त्रयोदशः सर्गः। १३७ त्वं चेत्प्रसन्नः सिद्धा में विद्या । इत्यत्र "संभावने सिद्धवत्" [४] इति सिद्धवत्प्रत्ययाः ॥ अद्य यावद्धृशमदा यावजीवं च दास्यति(सि)। प्रीतिं ममेति संतुष्टो गुरुमा पर्यपाठयत् ॥ ४८॥ ४८. कीडक्सन । संतुष्टः संतोषवाक्यं भणन्नित्यर्थः । कथमित्याह । अद्य यावदद्यतनं दिनं यावद्भशमत्यर्थ मम प्रीति विनयादिना प्रमोदमदास्तथा यावजीवं च दास्यसि । यावज्जीवसि तावदास्यसि चेति ॥ अतीता याष्टमी तस्यामनि(न)ध्यायोजनिष्ट यत् । यापि चागामिनी तस्यामनि(न)ध्यायो भविष्यति ॥४९॥ तद्न्तावा य आवेश्मास्यावरार्धपि संहिताम् । गुणयिष्यामि तातैवं ब्रुवन् गुरुमरञ्जयम् ॥ ५० ॥ ४९, ५०. स्पष्टौ । किं तु तत्तस्मादनध्यायस्य भूतत्वाद्भविष्यत्वाच्च हेतोरावेश्म वेश्म यावद्योध्वा मार्गो गन्ता(न्ता) मया यास्यते कर्मणि श्वस्तनी । अस्याध्वनोवरार्धेयर्वाग्भागेपि संहिता सप्तशतप्रमाणं ग्रन्थभेदं गुणयिष्याम्यनध्यायद्वयेगुणनेन शास्त्राणां विस्मरणभयाद्यथा सर्वेषां शास्त्राणां गुणनं स्यादिति संहितां प्रयन्मे (ने)न शीघ्रं गुणयिध्यामीत्यर्थः । हे तात गुरो ॥ अद्य यावदृशं प्रती(प्रीति)मदाः। यावजीवं प्रीतिं दास्यसि ॥ आसत्तौ । अतीता याष्टमी तस्यामनध्यायोजनि[८] । यापि चागामिनी तस्यामनध्यायो भविष्यति । इत्यत्र “नानद्यतनः०" [५] इत्यादिना ह्यस्तनीस्व(व) स्तन्यौ न । गन्तावा य आवेश्मास्यावराधेपि संहितां गुणयिष्यामि । इत्यत्र "एष्यति." [६] इत्यादिना श्वस्तनी न । १ सी डी नं या'. २ सी डी श्म या०. ३ ए यम्नेन. ४ बी 'ना स्वस्त'. १८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] योयं हेमन्त आगाम्याग्रहायण्यास्ततोवरे | पुष्पिष्यन्ति ममोद्याने लवल्यः सर्वतोपि हि ॥ ५१ ॥ आगामी पौषमासो यो दशरात्रस्य योवरः । तत्र कर्तास्महे युक्ता मित्रैरुद्यां निकोत्सवम् ॥ ५२ ॥ त्रिंशद्रात्रो य आगाम्यवरे तस्यार्धमासि तु । श्रोतास्मि द्विगुरोर्व्याख्यां पृथग्व्याख्या हिं तन्मम ॥ ५३ ॥ त्रिंशद्रात्रो य उक्तोस्यावरे पञ्चदशाह के | नं स्वप्तास्मीति दमनः सहाध्याय्याब्रवीन्मम ॥ ५४ ॥ २. ५१-५४. मम सहाध्यायी दमनो नाम नागकुमारो ममाग्रेब्रवीत् । किमित्याह । योयमित्यादि । स्पष्टम् । किं तु । अयमैषमस्तनः ः । ततस्तत्र हेमन्ते । आग्रहायण्या मार्गशीर्ष्याः सकाशादवरेर्वाग्भागे । लवत्यो लताविशेषाः । दशानां रात्रीणां समाहारो दशरात्रोवरोर्वाग्भागरूपः । उद्यानं विषयतयास्त (स्त्य ? ) स्याः क्रीडाया उद्यानिका तस्या उत्सवं कर्तास्महे लवलीपुष्पोच्चयनाद्यर्थं करिष्यामः । तथा त्रिंशद्रात्रस्त्रिंशद्रात्रसमाहाररूपो मासोर्थात्कार्तिक आगामी तस्यावरेबग्भागवर्तिन्यर्धमासि त्वर्धमासे पुनरहं गुरोरुपाध्यायात् । द्वौ वारावस्या द्विर्व्याख्यां श्रोतास्मि । पौपाद्यदशरात्रे ह्युद्यानिकोत्सवेन व्याख्याभङ्गो भावीत्यत्र द्वे व्याख्याने भणिष्यामीत्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोहिं स्फुटं मम पृथगन्यसहाध्यायिभ्यो भिन्ना व्याख्या भविष्यति । । त्रि. ३ ए सी डी १ ए सी डी 'द्यानको . न सुप्ता १ ए सी डी धासिका. डी 'द्रात्र ४ सी मासे. २ सी डी हि तान्मनः २ . तासाहे व सी डी 'साहे. ५ बी वस्यां द्वि०, ३ ए सी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.७.] प्रयोदशः सर्गः। १३९ तथा यस्त्रिंशद्रात्रः कार्तिक उक्तः पूर्वमागामितया भणितस्तस्यावरे पञ्चदशाहकेर्वाग्भागवर्तिषु पञ्चदर्शसु दिनेष्वहं न स्वप्तास्मि व्याख्याद्वयभणनचिन्तनव्यापृतत्वेन स्वापवेलाया अभावान्न शयिष्य इति । अयमागामिमासस्य परतः पर्ववासरात् । पठित्वा भविता सिद्धो लवलीदर्शयिष्यति ॥ ५५ ॥ अदर्शयिष्यो लवलीस्त्वं तक्षककुलाग्य चेत् । अत्याश्चर्य न कस्योदपादयिष्यः सचेतसः ॥ ५६ ॥ दृष्टस्त्वं कुहकस्यार्थी तदातान्यश्च भिक्षुकः । अप्यद्रक्ष्यत्स चेदप्याम्नास्यदृष्टो न तु त्वम् ॥ ५७ ॥ प्रत्यष्ठास्यः कथं मिथ्यैतद्विगर्हामहे वयम् । कथं प्रतीयाच्छ्रद्धत्तेन्योपि चेति तम (ब)वम् ॥५४॥ ५५-५८. इत्येवमुपहासप्रकारेणासत्यवादित्वप्रकारेण च तं दमनकमहमब्रु(ब)वम् । प्रकारमाह । अहो अयं दमनक आगामिमासस्य कार्तिकस्य संबन्धिनः पर्ववासरात्पूर्णिमादिनात्परतः पश्चात्पठित्वानेकविद्या अधीत्य सिद्धो विद्यासिद्धो भविता भविष्यति । ततो विद्याप्रभावेन लवलीदर्शयिष्यति । तथा हे तक्षककुलाग्य चेत्त्वं लवलीरदर्शयिष्यस्तदा कस्य सचेतसोत्याश्चर्य नोदपादयिष्यो हेमन्ते लवल्यो न पुष्पन्त्येवेति । तत्र लवलीः पुष्पिता न दर्शयिष्यसि न च कस्याप्याश्चर्य करिष्यसीत्यर्थः । हेमन्ते लवल्यः पुष्पन्त्येव परमसौ हेमन्ते लवल्यो न पुष्पन्येवेति भ्रान्त्या जाननेवं वक्ति । तथा उ हे दमनक मया त्वं कुहकस्येन्द्रजालाश्चर्यस्यार्थीदष्टस्तदाता कुहकस्य __ १ डी विक्षो ल. २ ए सी डी ब्रुवाम् १ ए उक्तं पू. २ बी शदि०, ३ सी डी याद्यधी'. ४ बी सी 'विष्य'. ५ सी या तु कु०. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] 3 दातान्यश्च भिक्षुको दृष्टः । परं स भिक्षुकश्चेत्त्वमप्यक्ष्यद्वाढं दृष्टवानभविष्यत्तदा त्वामान्नास्यत्कुहक विद्यामपाठयिष्यत् । न तु त्वं भिक्षुकेण दृष्टस्तस्मादसतीलवलीस्त्वं दर्शयितुं नालं भविष्यसीत्यर्थः । अतश्चैतद्धेमन्ते लवलीनां पुष्पोद्भवनं मिथ्यालीकं कथं त्वं प्रत्यष्ठास्यः स्थापितवान्न कथमपीत्यर्थः । वा यद्वा यदि त्वं मिथ्यैतत्प्रतिष्ठितवां - स्तदा प्रतितिष्ठ परमित्यर्थः । अन्योपि न केवलमहमपरोपि जनः कथमलीकमेतत्प्रतीयात्प्रतीतवांस्तथा कथं श्रद्धत्ते संभावितवान्न कथमपीत्यर्थः । तस्मादेतद्विस्फुटं गमह इति ॥ योयं हेमन्त आगाम्याग्रहायण्यास्ततोवरे पुष्पिष्यन्ति लवल्यः । अत्र “कालस्य०” [ ७ ] इत्यादिना न श्वस्तनी ॥ अनहोरात्राणामिति किम् । आगामी पौषमासो यो दशरात्रोस्य योवरस्तत्र कर्तास्मह उद्या निकोत्सवम् । त्रिंशद्वात्रो य आगाम्यवरे तस्यार्धमासि श्रोतास्मि व्याख्याम् । त्रिंशद्वात्रो य उक्तोस्यावरे पञ्चदशाह के न स्वतःस्मि । इति त्रिविधेप्यहोरात्रे मा भूत् ॥ अयमागामिमासस्य परतः पर्ववासरालवलीर्दर्शयिष्यति । भविता सिद्धः । अत्र "परे वा” [ ८ ] इति न श्वस्तनी वा ॥ चेल्लवलीरदर्शयिष्योत्याश्वर्यं कस्य नोदपादयिष्यः । अत्र “ सप्तम्यर्थे ० " [ ९ ] इत्यादिना क्रियातिपत्तिः ॥ लवलीदर्शनं हेतुराश्चर्योत्पादनं फलं चात्र सप्तम्यर्थः ॥ दृष्टस्वं कुहकस्यार्थी तद्दातान्यश्च मिक्षुकः । अप्यक्ष्यत्स चेप्यान्नास्यदृष्टो न तु खम् । अत्र “भूते” [ १० ] इति क्रियातिपत्तिः ॥ १ बी द्रक्षद्वा'. २ ए त्वान्नाम्ना° सी त्वानाम्ना डी त्वाम्ना ३ बी "भं प्र'. ४ सी 'नाव'. ५ बी द्रक्षत्स. ६ डी 'दस्य. ८ ए ते क्रिया इ बी 'ते क्रि'. ७८ यान्नास्य.. • Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०५.४.११.] त्रयोदशः सर्गः। १४१ प्रत्यष्ठास्यः कथं मिथ्यैतद्र्हामहे वयम् । अत्र "वोतानाक्" [1] इति वा क्रियातिपत्तिः ॥ वावचनाद्यथाप्राप्तं च । कथं प्रतीयात् । कथं श्रद्धत्ते गर्हामहे । सोपि मामब्रवीदेवं जातु त्वं दुर्जनायसे । अपि त्वं विब्रवीष्यमानहो गहोमहे वयम् ॥ ५९॥ ५९. स्पष्टः । किं तु जात्वपी क्षेपद्योतकौ ॥ अपि त्वं विब्रवीप्यमान् । जातु त्वं दुर्जनायसे । अत्र "क्षेपेपि." [१२] इत्यादिना कालत्रयेपि वर्तमाना ॥ निन्दसि । निन्देिष्यसि । निन्दितवान् । दुर्जनायसे । दुर्जनायिष्यसे । दुजर्नायितवान् । एवमन्यत्रापि भावना कार्या ॥ कथं हसेन्यकुरुषे मर्मास्पाक्षीरुपारुजः । परित्यक्ष्यसि साधुत्वं दौर्जन्यं श्रयितासि धिक् ॥ ६०॥ ६०. कथं किमिति त्वं हसेर्मामुपहसेस्तथा कथं त्वं न्यक्कुरुष उपहासेन मां पराभवसि । कालत्रये प्रयोगाविमौ । तथा कथं मर्मास्पाक्षीदृष्टस्त्वं कुहकस्यार्थीत्यादिना मम मर्मोदघट्टयस्तथा कथमुपा जो मर्मोद्बट्टनेन मामपीडयोत एव कथं त्वं साधुत्वं शिष्टतां परित्यक्ष्यसि । अत एव च कथं दौर्जन्यं श्रयितासि । अत एव च त्वं धिग्धिक्कृतः ॥ कथं हसेः । कथं न्यकुरुषे धिक् । इत्यत्र “कथमि." [१३] इत्यादिना सर्वकालेषु सप्तमीवर्तमाने ॥ वावचनाद्यथाप्राप्तं च । मर्मास्पाक्षीः । उपारुजः। श्रयितासि । परित्यक्ष्यसि धिक् ॥ १ बी °देव जा. २ ए सी डी क्षीरपारुजा । प. १ डी त्माप्तं. २ ए सी डी °न्दित'. ३ ए सी डी यित°. ४ डी सेस्त°. ५ ए सी डी विधौ । त. ६ ए सी डी रुजा म. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] भुजंगमः स को नाम योमान्द्विष्याद्धसिष्यति । न श्रद्दधे न क्षमे वास्मान्वि(वा वि?)रोत्स्यति मिषेच यः ॥६१॥ ६१. नामेत्याक्षेपे । कः स भुजंगमो योस्मान्द्विष्यात्तथा योस्मान्हसिष्यति । तथा न श्रद्दधे न वा क्षमे यद्योस्मान्विरोत्स्यति विग्रहीष्यति । तथा योस्मान्मिप्रेच स्पर्धेत । कालत्रयेप्यमी प्रयोगाः । सर्वेपि भुजङ्गा अस्मत्तो हीना इति कीदृगेकस्त्वं य एवमस्मासु द्वेषोपहासविरोधस्पर्धाः करोषीत्यर्थः । स्पर्धमानः स कृष्णमित्यादाविवासान्मिदित्यत्र सकर्मकत्वम् ॥ न श्रद्दधे न क्षमे वा पुराहमपि दुर्मते । किं भवानेवमस्सासु ब्रूयाच्चेष्टिष्यतेथ वा ॥ ६२ ॥ ६२. हे दुर्मते कुटिलाशय किं भवानेवमुपहासादिप्रकारेणास्मासु विषये ब्रूयाद्भाषेत । अथ वैवमुपहासादि चेष्टिष्यते चक्षुर्भूविक्षेपविशेषादिना करिष्यति । कालत्रये प्रयोगाविमौ । इदमहं पुरा पूर्व न श्रद्दधेपि न क्षमेपि वा । "पुरायावतोर्वर्तमाना" [५. ३. ७.] इत्यतीते वर्तमाना । तव मायिनत्रिकालविषये एवं वचनचेष्टे परैरुक्ते अप्यहं सरलाशयत्वात्पुरा न संभावितवानपि न च सोढवानपीत्यर्थः ॥ भुजंगमः स को नाम योमान्दिष्यासिष्यति । इत्यत्र "किंवृत्ते." [१४] इत्यादिना सप्तमीभविष्यन्त्यौ ॥ न श्रद्दधे न क्षमे वा योसानिमद्विरोत्स्यति च ॥ किंवृत्तेपि । न श्रद्दधे न १बी घ्यसि । न. १ए सी डी प्यास्सा. २ सी. दुर्गते. ३ ए सी डी रिति. ४ सी डी घेषि वा. ५ डी प्यतेथ. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.१७.] त्रयोदशः सर्गः। १४३ क्षमे वा पुरा किं भवानेवमस्मासु ब्रूयाचेष्टिप्यतेथ वा । इत्यत्र "अश्रद्धा." [१५] इत्यादिना सप्तमीभविष्यन्त्यौ ॥ न श्रद्दधे न च सहे लवलीदर्शयिष्यति । हेमन्ते किंकिलेत्युक्तिदोर्जन्यव्यञ्जिका तव ॥ ६३॥ ६३. अहो कनकचूडेत्येवंविधा तवोक्तिदीजन्यव्यञ्जिका । के. त्याह । न श्रद्दधे न च सहे यदहो दमनक । किंकिलेति वाक्यालंकारे प्रसिद्धिद्योतने वा । पुष्पितत्वेन लोके प्रसिद्धाः पुष्पिता इत्यर्थः । लवलीहेमन्ते भवान्दर्शयिष्यति कालत्रये प्रयोगोयं न कदापि दर्शितवान्न च दर्शयिष्यति न च दर्शयतीत्यर्थ इति ॥ भार्या मेत्र पणो यन्न श्रद्दधे न क्षमेप्यहम् । अस्ति लोके स यो मां हि विवादेन विजेष्यते ॥ ६४ ॥ ६४. अत्र लवलीपुष्पादर्शने भार्या मे पणो यदि हेमन्ते पुष्पिता लवलीन दर्शयामि तदा भार्यां हारयामीत्यर्थः । यद्यस्माद्धेतोहि स्फुटं यो मां विवादेन विजेष्यते जितवाजेष्यति जयति वा स लोके जगत्यस्तीदमहं न श्रद्दधे नापि क्षमे न कोप्यस्तीत्यर्थः ॥ न श्रद्दधे न च सहे लवलीदर्शयिष्यति हेमन्ते किंकिल । न श्रद्दधे न क्षमेप्यहमस्ति लोके स यो मां विजेप्यते । अत्र "किंकिल." [१६] इत्यादिना भविष्यन्ती ॥ अथाहमबु(ब)वं चैवं न श्रद्दधे न च क्षमे । मिषेत्कोपि मया जातु गवी वा विवदेत यत् ॥ ६५ ॥ १ सी डी न क्ष. १ सी डी न किं. २ ए सी डी °ली हेम'. ३ डी भार्या हा. ४ वी °ति स. ५ सी डी मे नैको. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] भवेयदि विवादी त्वं हारयेयमहं यदा । तदङ्गीकृत एवायं त्वत्पणेन पणो मया ॥६६॥ ६५, ६६. अथ दमनस्यैवंभणनानन्तरमहं चाहमप्येवमन्त्रु(ब)धम् । यथाहं न श्रद्दधे न क्षमे च यत्कोपि कश्चिदपि गर्वी गर्विष्ठः सञ्जातु कदाचिदपि मया सह मिषेद्विवदेत वा । परं यदि त्वं विवादी भवेस्तथा यदाहं हारयेयं हरन्तं पणं प्राप्नुवन्तं त्वामनुकूलाचरणेन प्रयुञ्जीय । कालत्रयेमी प्रयोगाः । तत्तदा त्वत्पणेन कृत्वायमेव भार्यालक्षण एव पणो मयाङ्गीकृतः । भवेहारयेयमित्यत्रापि न श्रद्दधे न च क्षम इति योज्यम् । यतोसौ दमनस्यापि वादित्वं खस्य हारकत्वं चाश्रद्दधानोक्षाम्यंश्वाह ॥ न श्रद्दधे न क्षमे मिषेत्कोपि मया जातु । गर्वी वा विवदेत यत् । हारयेयमहं यदा । भवेर्यदि विवादी स्वम् । इत्यत्र "जातु०" [१७] इत्यादिना सप्तमी॥ धिग्यत्रेत्याक्षिपेनस्त्वं तर्जेर्वा यच्च यत्र वा । प्रगल्भेथा जयेर्यच्च न क्षमे श्रद्दधे न तत् ॥ ६७ ॥ ६७. हे दमन यत्र निमित्तसप्तम्यर्थे तत्र पू(भू?)तोयमों येनासत्यलवलीपुष्पसमर्थनरूपेण निमित्तेन नोस्मानिति जातु त्वं दुर्जनायस इत्यादिप्रकारेणाक्षिपेनिन्देस्तथा यञ्च तर्जेर्वा । यच्चेति क्रियाविशेषणं भार्या मैत्र पण इति यद्दण्डमाविष्कुर्याश्च तद्धिग्निन्दामस्तथा यत्र वा यस्मिंश्च हैमनलवलीपुष्पदर्शनविषये त्वं प्रगल्भेया धार्श्व १ ए सी डी हं चाह. १ सी डी तत्वदा त्वत्पण्येन. २ ए थेत्रत्र. ३ सी डी मे प°. ४ सी डी न हे दमन ल'. ५ डी गल्भपा. ६ ए सी डी °था नक्षमे न अद्दधे तत् । इत्य'. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.२०.] त्रयोदशः सर्गः। १४५ कुर्या यच्च जयेस्तन्न क्षमे न श्रद्दधे चालीकत्वात् । कालत्रयेमी प्रयोगाः ॥ धिग्यच्च तर्जेः । यत्रेत्याक्षिपेनस्त्वम् । यच्च जयेः । यत्र प्रगल्भेयाः । न क्षमे न श्रद्दधे तत् । इत्यत्र "क्षेपेपि(च!)." [ १८ ] इत्यादिना सप्तमी ॥ चित्रं यत्रैवं जल्पेस्त्वं कुप्येयचेतिवादिभिः । खैनिषिद्धौ कलेरावां प्रतिज्ञाय पणं स्थितौ ॥ ६८ ॥ ६८. आवां पणं भार्यापणं प्रतिज्ञाय स्थितौ वाकलहानिवृत्तौ । यतः खैः स्वजनैः कलेर्वाक्कलहानिषिद्धौ । किंभूतैः सद्भिः । इतिवादिमिः । यथा चित्रमाश्चर्यं यत्र देशे काले प्रयोजने वा त्वमप्येवं साध्वनुचितं जल्पेर्यञ्च त्वमपि कुप्येः । कालत्रये प्रयोगाविति ॥ चित्रं यच्चैवं कुप्येस्त्वम् । यत्रैवं जल्पेः । अत्र "चित्रे" [१९] इति सप्तमी ॥ चित्रमन्धोद्रिमारोक्ष्यत्ययं यदि जयेद्धि नः । एवमावां प्रजल्पन्तौ ततो निजगृहं गतौ ॥ ६९॥ ६९. ततोनन्तरमावां निजगृहं गतौ । किंभूतौ सन्तौ । हि स्फुटं चित्रमाश्चर्यं यद्ययं नोस्माञ्जयेत्तदा चित्रमन्धोद्रिमारोक्ष्यति । कालत्रये प्रयोगौ । एवं जल्पन्तौ ॥ चित्रमन्धोगिमारोक्ष्यति । इत्यत्र "शेषे." [ २० ] इत्यादिना भविष्यन्ती। अयदाविति किम् । चित्रमयं यदि जयेद्धि नः । अत्राश्रद्धाप्यस्तीति "जातुबबदायदौ सप्तमी" [१७] इति सप्तमी ॥ १ सी त्रैव ज. १ सी डी स्वैः क. चवमा०. २ ए सी डी ति ॥ य. ३ बी भूतो हि. .४ डी १९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ व्याश्रयमहाकाव्ये एषोपि हारयेनोत हारयेयं मृशन्निति । तेनाहूतोन्यदोद्याने लवलीर्द्रष्टुमभ्यगाम् ॥ ७० ॥ ७०. अहमन्यदा हेमन्ते तेन दमनेनाहूत उद्याने लवलीर्द्रष्टुमभ्यगाम् । कीदृक्सन् । मृशंश्चिन्तयन् । किमित्याह । एष दमनोपि वाढं हारयेत्तथत बाढमहं न हारयेयं दमनोग्रेपि वाढं हारितवान् हारयत्यतोधुनापि हारयिष्यति । नाहं त्वेवमित्यर्थ इति ॥ [ जयसिंहः ] उत हारयेयम् । अपि हारयेत् । इत्यत्र "सप्तमी ०" [२१] इत्यादिना सप्तमी ॥ लवल्याः प्रेक्ष्य पुष्पाणीत्यध्यायं हन्त माय्यसौ । प्रदर्शयेदपि फलान्यपि कल्पद्रुमानयेत् ॥ ७१ ॥ करिष्यत्यन्यदप्येष शक्तो दमनकश्छलम् । संभावयामि याचेत पेणं म्लानिं च दास्यति ॥ ७२ ॥ ७१, ७२. लवल्याः पुष्पाणि प्रेक्ष्येत्यध्यायमचिन्तयं यथा मायी कुहक विद्यया दाम्भिकोसौ दमनोपि लबैलानि लवलीफलान्यपि दर्शयेत्तथापि कल्पद्रुमानयेत् । मायाबलेनासौ त्रिकालविपयेपि लवलानामपि दर्शने कल्पद्रोरप्यानयने शक्तः संभाव्यत इत्यर्थः । तथैष दर्मेनकोन्यदप्यत्यसंभाव्यमपरमपिच्छलं मायां करिष्यति । यत: शतश्छले समर्थीत एव संभावयामि पणमपि याचेत शक्तोयमधुना पण १ डी 'वल्यो : प्रे'. २ ए सी डी पणम्ला'. * अनया व्याख्यया 'दर्श १ ए बाढम'. २ ए प्रेत्य.. ३ ए दाभिको. येदपि लवलान्यपि कल्पद्रुमानयेत्' इति मूलेन भाव्यमिति भाति. ४ ए सी डी 'मनोन्य. ५ बी लेन स. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.४.२४.] त्रयोदशः सर्गः। १४७ मपि याचिष्यते याचते याचितवानेवेति संभावयामीत्यर्थः । अत एवं च संभावयामि शक्तोसौ म्लानिमपि दास्यति । अथोचे दमनः संभावयामि लवलानि यत् । पश्येर्दातुं पणं चेच्छेन मां निन्दितुमिच्छसि ॥ ७३ ॥ ७३. स्पष्टः । किं तु लवलानि लवलीपुष्पाणि पश्येः शक्तस्त्वं पश्यसि द्रक्ष(क्ष्य)स्यपश्यश्चेत्यर्थः ॥ तथाहीन्साह कोप्येत्य यात्रां वाञ्छति हुल्लडः । वाञ्छेदागमनं वोत्र यस्य वारः स गच्छतु ॥ ७४ ॥ ७४. स्पष्टः । परं यात्रां पूजाविशेषम् । हुल्लडो नाम फणी । वो युष्माकं स्वपार्श्व आगमनं वाञ्छति । अत्रैतेषु युष्मासु मध्ये यस्य वारो गमनपर्यायः ॥ शक्यसंभावने । अपि फलानि प्रदर्शयेत् ॥ अशक्यसंभावने । अपि कल्पद्रुमानयेत् । अत्र “संभावने." [२२] इत्यादिना सप्तमी ॥ तदर्थानुक्ताविति किम् । करिष्यत्यन्यदप्येष शक्तः ॥ संभावयामि याचेत पणम् । अत्र “अयदि०" [२३] इत्या दिना वा सप्तमी। पक्षे यथाप्राप्तम् । म्लानिं दास्यति ॥ ददाति । अदात् । इति स्वयं ज्ञेयम् ॥ अयदीति किम् । संभावयामि लवलानि यत्पश्येः । पूर्वेण नित्य सप्तमी ॥ इच्छेः । इच्छसि । वाञ्छेत् । वाञ्छति । इत्यत्र "सतीच्छार्थात्" [२] इति वा सप्तमी ॥ १ बी इयेदातुप०. २ ए °नं चोत्र. सी नं वात्र. डीनं चात्र. १ ए सी डी याचिते. २ ए नेववे. ३ सी डी व सं. ४ सी डी ने इत्या. ५ डी इच्छ°. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ व्याश्रयमहाकाव्ये नागैर्दमन आहूयाथोचे वारस्तवैषमः । यदि गच्छेद्भवांस्तत्र जीवेन्नागकुलं ततः ।। ७५ ।। [ जयसिंहः ] ७५. स्पष्टः । किं त्वैषमस्मिन्वर्षे । तत्र हुल्लड़पार्श्वे यदि भवान गच्छेद्यास्यति । ततस्तदा नागकुलं जीवेज्जीविष्यति । यद्वा कालत्रये प्रयोगावेतौ ॥ मां सोप्यचेत्र चेत्रं यास्यसि मोक्षा ( क्ष्या) मि ते पणम् । हिमनं वानयस्यूषं चेत्ततोपि त्यजाम्यहम् ।। ७६ ।। ७६. स्पष्टः । किं तु सोपि दमनश्च । अत्र हुल्लडपार्श्वे ॥ चेन्नाजैषीर्न मादिक्षस्तन्मे श्रद्धानयम् | ऊषं कच्चित्पणं मुञ्चस्युक्त्वेत्यत्राहमागमम् ॥ ७७ ॥ G ७७. अत्र स्थानेहमागमम् । किं कृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । उ हे दमन चेत्त्वं मां नाजैषीस्तदा मा मां नादिलो हुल्लडयात्रायामूषानयने वा नाज्ञापयस्तत्तस्माच्छ्रद्धाभिलाषो म ऊपमहमानयेयमधुनानेष्याम्यानयाम्यानीतवानेवं चेत्यर्थः । परं कञ्चिदिष्टपरिप्रश्ने । त्वं पणं मुञ्चसीति ॥ यदि गच्छेद्भवांस्तत्र । जीवेन्नागकुलं ततः । अत्र "वर्त्स्यति ०" [ २५ ] इत्यादिना वा सप्तमी ॥ पक्षे । चेत्वं यास्यसि । मोक्ष्यामि ते पणम् ॥ केचित्तु सर्वेषु कालेषु सर्वविभक्त्यपवाद वा सप्तमीं मन्यन्ते । तेन पक्षे आनयस्यूषं चेचतोपि त्यजामि | चेन्नाजैषीर्न मादिक्ष इत्यपि ॥ 1 १ ए सी 'नामकु. २ ए लं सतः. ३ एषीमदि° सी डी 'धर्मदि. १ डी 'मिष्याम्या'. २ ए सी त्त्वं मा ना° ३ बी 'दा मां. ४ बी षो ऊ०. ५ ए सी 'हममा ६ ए सी डी व देत्य'. ७ बी वर्त्सति. ८ सी डी ना स ९ बी मोक्षामि. १० ए पदं स°. डी 'पदं. ११ बी सी 'दं स°. • Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.४.२८.] त्रयोदशः सर्गः। १४९ श्रद्धानयेयम् । अत्र "काम." [२६] इत्यादिना सप्तमी ॥ अकचितीति किम् । कञ्चित्पणं मुञ्चसि ॥ तदिच्छाम्यनुमन्येथाः प्रार्थये गच्छ संप्रति । अत्रोषार्थ प्रवेक्ष्यामि कूपे वज्रास्यमक्षिके ॥ ७८ ॥ ७८. तत्तस्मादिच्छाम्यहं हे पुरुष वमनुमन्येथाः कूपप्रवेशेनुमतिं दद्यास्तथाहं प्रार्थये त्वं संप्रति स्वस्थानं गच्छ । शिष्टं स्पष्टम् ।। __ इच्छाम्यनुमन्येथाः । प्रार्थये गच्छ । इत्यत्र "इच्छार्थे." [२७ ] इत्यादिना सप्तमीपञ्चम्यौ ॥ सहैव नय मां कुर्याः प्रसादमितिवादिनी। कूपप्रवेशविघ्नोयं वल्लभा मे सुलोचना ॥ ७९ ॥ ७९. नाना सुलोचना । शिष्टं स्पष्टम् ।। संध्यामर्चत्विनं चाचेदिहासीताथ गच्छतु । राज्यन्तेस्सिन्भवान्कि मे चिन्तया हि मुमूर्षतः ॥ ८० ॥ ८०. अस्मिन्निदानींतने रोच्यन्ते रात्रिपर्यवसाने भवान्संध्यां प्रभातसंध्यामर्चत्विनं चादित्यं चार्चेत्तथेहास्मिन्स्थान आसीत तिष्ठेदथाथ वा गच्छतु । हि यस्मान्मुमूर्षतो मे चिन्तया किं न किंचित् । मैच्चिन्तां मुक्त्वा त्वं संध्यार्चनादिस्वार्थं कुर्वित्यर्थः ॥ अथ भूपस्तमित्यूचे रक्षेः खं रक्ष च प्रियाम् । कुर्यां हुल्लडयात्रां किमुतोषं तेर्पयाण्यहम् ।। ८१ ॥ ८१. स्पष्टः । किं तूताथ वा । ते तुभ्यम् ॥ आख्याहि हुल्लडः कोयं ब्रूयास्तस्य च चेष्टितम् । धेहि स्वास्थ्यं न भीधैया दध्याश्वानुमतो मुदम् ॥ ८२ ॥ १ ए सी डी स्वास्थां न. १ डी मन्ये . २ ए डी रात्रान्ते. ३ बी मम चिन्तां. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५० ध्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ८२. पूर्वाध स्पष्टम् । त्वया भीर्दमनाद्भीतिर्न धेया न धार्या किं तु स्वास्थ्यं धेहि । त्वं हि प्रेषितोनुज्ञातस्तवावसरश्च भियोधारणे स्व. स्थताधारणे च । तथानुमतो मयानुज्ञातः संस्त्वं मुदं दध्याश्च ।। विधौ । प्रसादं कुर्याः नय माम् ॥ निमन्त्रणे । इन चार्चेत्संध्यामर्चतु ॥ आमत्रणे। इहासीताथ गच्छतु ॥ अधीष्टौ। रक्षेः स्वं रक्ष च प्रियाम् ॥ संप्रश्ने । कुयां हुल्लडयात्रां किमुतोपं तेर्पयाणि ॥ प्रार्थने । ब्रूयाश्चेष्टितमाख्याहि हुलडः कोयम् । इत्यत्र "विधि०" [२८] इत्यादिना सप्तमीपञ्चम्यौ ॥ भीर्न धेया धेहि स्वास्थ्यम् । अत्र "प्रैष०" [२९] इत्यादिना कृत्यपचम्यौ । अनुज्ञायां सप्तमीमपि केचिदाहुः । दध्याश्वानुमतो मुदम् ॥ ऊर्च मुहूर्तान्मद्दत्तं प्राप्नुयास्त्वं स्वमीप्सितम् । गच्छ स्ववेश्म द्रष्टव्यः स्खलोकस्तं स नन्दय ॥ ८३ ॥ ८३. स्पष्टः । किं तूर्ध्व मुहूर्ताद्धटिकाद्वयानन्तरं महत्तं स्वमात्मी. यमीप्सितमूषं तथा स्मः प्राकट्ये । उत्सवेन प्रकटं यथा स्यादेवं तं वलोकं नन्दय । त्वं हि प्रेषितोनुज्ञातस्तवावसरश्च खेप्सितप्राप्तौ खवेश्मगमने स्वलोकदर्शननन्दनयोश्च ॥ अध्वं मुहूर्तादीप्सितं प्राप्नुयाः । स्खलोको द्रष्टव्यः । स्ववेश्म गच्छ । इत्यत्र "सप्तमी च०" [३०] इत्यादिना सप्तमी कृत्याः पञ्चमी च ॥ ऊर्ध्व मुहूर्तात्तं स नन्दय । इत्यत्र "स्मे पञ्चमी" [३१] इति पञ्चमी ॥ नागोथोचे स्मै शृण्वेतत्कालो मे शंसितुं त्वयि । यथाभूत्समयो गन्तुं नागानां हुल्लडं प्रति ॥ ८४ ॥ ७ १ सी डी लोकं तं स्म. २ ए °न्दयः । स्प. सी °न्दयं । स्प'. ३ वी स्म सृण्वे. १सी °स्तथाव. २ ए सी डी णे च. ३ ए सी डी दिकृ. ४ सी न्दयं । त्वं. ५ डी पितानुजातस्तथाव. ६ सी डी मी कृ. ७ ए सी डी त्त्विं स्म. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.३५.] त्रयोदशः सर्गः। १५१ ८४. अथ नागः कनकचूड ऊचे । यथा । अहो महापुरुष त्वयि विषये मम शंसितुं वक्तुं कालः प्रस्तावस्तस्माद्यथा हुल्लडं प्रति गन्तुं नागानां समयोभूत्तथा शृणु स्म प्रकटमाकर्णय ॥ नागान्प्लावयितुं वेला जयस्येति विचिन्तयन् । प्रचेतोवरदृप्तोगात्पातालं हुल्लडः फणी ॥ ८५ ॥ ८५. हुल्लडः फणी पातालमगात् । कीहक्सन् । प्रचेतोवरदृप्तो वरुणदत्तप्लावनविषयप्रसाददर्पिष्ठोत एव नागान्लावयितुं मम वेला जयस्य च नागपराभवस्य च वेलेति विचिन्तयन् ।। शृणु म । इत्यत्र “अधीष्टौ" [ ३२ ] इति पञ्चमी ॥ कालः शंसितुम् । प्लावयितुं वेला । समयो गन्तुम् । अत्र "काल." [३३] इत्यादिना तुम् ॥ वावचनाद्यथाप्राप्तं च । वेला जयस्य ॥ ऊचुनर्नागास्तमेत्येति कालोयं यजयेद्भवान् । समयो यदवेनश्च न वेला यनिमजयेत् ॥ ८६ ॥ ८६. स्पष्टः ॥ कालोयं यजयेगवान् । न वेला यनिमजयेत् । समयो यदवेत् । इत्यत्र "सप्तमी यदि" [३४ ] इति सप्तमी ॥ त्वमेवाहश्च शक्तश्च भारो वाह्यस्त्वयैव नः । त्वमेवाज्ञापयेरमांस्तदादिश कृतं क्रुधा ॥ ८७ ॥ ८७. हे हुल्लड त्वमेवाहश्च शक्तश्चास्माकं भारवहन आज्ञापने च योग्यः समर्थश्च । तस्मान्नोस्माकं भारः कार्यप्राग्भारस्त्वयैव वाह्यस्त १ ए सी डी वाहंश्च. १ सी डी ति चि. २ बी °न् । वे'. ३ डी मेवाहंश्च. ४ ए सी 'वाहंश्च. ५ सी डी माकं. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] था त्वमेवास्मानाज्ञापयेरादिशेस्त्वकिकरा वयमित्यर्थः । तत्तस्मादादिश कृतं सृतं क्षुधा ॥ त्वयैव भारो वाह्यः । त्वमेवाज्ञापयेः । त्वमेवाहश्च शक्तश्च । इत्यत्र "शक्त." [३५] इत्यादिना कृत्याः सप्तमी च ॥ हुल्लडः माह कश्मीरेष्ववश्यं स्थायिनो मम । उत्तरायणमहे गाम्या दाय्यनुहायनम् ॥ ८८ ॥ अवश्यगेयो गाथानां गीतेर्गेयश्च भक्तिमान् । वारेणैकोस्तु वो नो चेत्प्लावयिष्ये रसातलम् ॥ ८९ ॥ ८८, ८९. हे नागा ममोत्तरायणमहे गाम्यवश्यं गन्तानुहायनं प्रतिसंवत्सरमा दायी ऋणादाता च वो युष्माकं मध्य एको नागो वारेणास्तु । कीदृशस्य । कश्मीरेषु देशेष्ववैश्यं स्थायिनस्तिष्ठतः । कीहक्सन् । भक्तिमांस्तथा गाथानां मवर्णनाप्रधानार्याणामवश्यगेयो निश्चयेन गायंस्तथा गीतेश्छन्दोविशेषस्य गेयश्चाधमाद्गायं. श्व । नो चेद्यद्येवं न तदा रसातलं प्लावयिष्ये ॥ आवश्यके । अवश्यं स्थायिनः । अवश्यगेयः ॥ आधमर्ये । अची दायी। गीतेर्गेयः । अत्र “णिन् च." [३६] इत्यादिना णिन् कृत्याश्च ॥ वोढा त्वमसदर्चाया जीया जीवेतिवादिनः । हुल्लडस्तान्विसृज्यागात्कश्मीरान्हिमदुर्गमान् ॥९० ॥ १ सी गीतेगें. २ बी सी डी वारणैः. ३ डी 'नः । फुल'. ४ बी 'त्कस्मीरा. १ सी कृत क्रु. डी कृतं कु. २ ए सी डी वाहंश्च. ३ ए सी डी 'ताथ वो. ४सी वश्यस्था°. ५ सी डी नानाम. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.४१.] त्रयोदशः सर्गः। २५३ ९०. हे हुल्लड त्वमस्मदर्चाया अस्मत्कर्तृकपूजायाः कर्मणो वोढा वोदुमर्हः सञ्जीया जीवेतिवादिनस्तान्नागान्विसृज्य मुत्कलयित्वा । शिष्टं स्पष्टम् ।। क्ष्मामप्युत्पाटयांमैवंवादिनो ये पुराहयः। मा कुपद्धुल्लड इति भीता वारेषु तेप्ययुः ॥ ९१ ॥ ९१. स्पष्टः ॥ वोढास्मदर्चायाः । अत्र “अहें तृच्" [ ३७ ] इति तृच् ॥ जीयाः । जीव । इत्यत्र "आशिषि" [३८] इत्यादिनाशीःपञ्चम्यौ ॥ कश्चित्तु समर्थनायां पञ्चमीमिच्छति । क्ष्मामप्युत्पाटयाम ॥ मा कुपत् । इत्यत्र "माङयद्यतनी" [ ३९ ] इत्यद्यतनी ॥ मा सधाक्षीद्धिमं मेति हिमनोषाय मादिशत् । दमनो मा म गृह्णान्मे दारानित्यागमं त्विह ॥९२ ॥ ९२. हिमं मा स्म मा मां धाक्षीदहदिति हेतोर्दमनो हिमघ्नोपाय मामादिशदहं तु मे दारान्दमनो मा स्म गृह्णादिति हेतोरिह स्थान आगमम् ॥ मा स गृह्णात् । मा म धाक्षीत् । इत्यत्र "ससे ह्यस्तनी च" [४०] इति ह्यम्तन्यद्यतन्यौ ॥ तत्पतित्वात्र कूपेहमप्राप्तोषोपि चान्तरा । वज्रास्यमक्षिकाक्षुण्णो भविष्यामि सुखी क्षणात् ॥ ९३ ॥ ९३. स्पष्टः ॥ मक्षिकाक्षुण्णो भविष्यामि । इत्यत्र "धातो:." [४१] इत्यादिना क्षु१ बी प्युताट', २ सी डी यामेवं. ३ ए सी डी मनौषा'. ४ ए सी डी गमत्वि. १ ए सी डी मनीषा'. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] पणेति भूतकालः प्रत्ययो भविष्यामीति भविष्यत्कालेन प्रत्ययेनामिसंबध्यमानो यथाकालमपि साधुः । बहुवचनादधात्वधिकारविहिता भपि तद्धिता धातु. संबन्धे सति कालभेदे साधवः स्युः । सुखी भविष्यामि ॥ तवोपं देहि देहीति ददामीति वदन्नथ । धेहि धेहीति तमधान्नृपतिः पाणिना भुजे ॥ ९४ ॥ ९४. अथ हे नाग तवोषं देहि देहीति ददामि भृशमभीक्ष्णं वा ददामीत्यर्थः । इति वदन्नृपतिस्तं नागं भुजे पाणिना घेहि धेहीत्यधात्कूपे पतन्तं भृशमभीक्ष्णं वा दधार ।। याहि याहीति यास्यन्ति मक्षिका ध्वनिनेत्यथ । राज्ञा हन्यस्व हन्यस्वेति जघ्ने तटवेतसः ॥ ९५ ॥ ९५. ध्वनिना वेतसाघातशब्देन मक्षिका भृशमभीक्ष्णं वा यास्यन्तीति हेतोरथ राज्ञा तटवेतसः कूपतटस्थवेतसवृक्षो भृशमभीक्ष्णं वा हतः ॥ नश्यत नश्यतेत्येव नश्यथेतीव तद्धनौ । उड्डयस्खोड्डयस्वेत्युड्डयन्ते साथ मक्षिकाः ॥ ९६ ॥ ९६. भृशमभीक्ष्णं वा यूयं पलायध्वमितीवेदृश इव तद्धनौ वे. तसाघातर्शव्दे सत्यथ मक्षिका भृशमभीक्ष्णं वोडीनाः ।। तिष्ठत तिष्ठत यूयं स्थेयास्तेत्युरगं ब्रुवन् । अत्रान्तरेकरोज्झम्पा कूपे निर्मक्षिके नृपः ॥ ९७ ॥ ९७. स्पष्टः । किं तु तिष्ठत तिष्ठतेत्यत्रेतिशब्दो वाक्यसंबन्धाया१ डी "णिनो मु. २ डी 'न्यस्वे . ३ सी डी श्यते'. १ए यं पालय'. २ डी शमभी'. ३ ए सी "त्यपि म. ४ ए डीनः । ति. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.४२.] त्रयोदशः सर्गः। १५५ ध्याहार्यः । भृशमभीक्ष्णं वा यूयमत्रैव तिष्ठतेत्येवंप्रकारेणोरगं त्रुवन् । यूयमित्यत्र युष्मदर्थस्य पूज्यत्वविवक्षया बहुवचनम् ॥ विभृध्वं विभृध्वमिति विश्रीध्वमितिवादिनीम् । भृत्वोषेण घंटी भूपो झगित्युदपतत्ततः ॥ ९८॥ ९८. स्पष्टः । किं तु विभृध्वं विभृध्वमिति विभ्रीध्वमितिवादि. नीम् । अत्रेवोवसेयः । भरणकाले बुडबुडारवकरणमिषेण भृशमभीक्ष्णं वा मामूषेण यूयं पूरयतेत्येवंप्रकारेण नृपं भाषमाणामिव घटीमूषेण भृत्वा । ततः कूपात् ॥ आदत्स्वादत्व इत्येवमाददीध्वमिति ब्रुवन् । नागायोषघटीं सोदात्समं तेनान्यतो ययौ ॥ ९९ ॥ ९९. स्पष्टः । किं तु हे नाग यूयं भृशमभीक्ष्णं वोषघटीं गृह्णीध्वमिति ब्रुवन् । आदत्स्व इतीत्यत्र विरामविवक्षया न संधिः । इत्ये. वमिति निपातसमुदाय इत्यर्थे । देहि देहीति ददामि । धेहि धेहीत्यधात् । याहि याहीति यास्यन्ति । उड्डयखोडयस्वेत्युडयन्ते । एवं भावकर्मणोरपि । हन्यस्व हन्यखेति जघ्ने तटवेतसः । तध्वमौ च तद्युष्मदि । नइयत नश्यतेत्येव नश्यथ । चकारात्प्रसक्तस्य हेः प्र. योगः स्वयं ज्ञेयः । बिभृध्वं बिभृध्वमिति बिभ्रीध्वम् । आदत्स्वादत्स्व इत्येव. माददीध्वम् । एवमन्यास्वपि विभक्तिषु । तिष्ठत तिष्ठतेति स्थेयास्त । अत्र "भृश." [ ४२ ] इत्यादिना सर्वविभक्तिसर्ववचनविषये हिस्त्रौ । तद्युष्मदि १ ए सी घटीभू. १ सी डी तिवा. २ बी डाराव'. ३ ए नृपभा. ४ सी माणमि. ५ सी ति यास्यति या. ६ ए °यस्वे. ७ बी °मौ चैत°. ८ ए सी डी मादिदी. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] बहुत्वविशिष्टे च युष्मंदभिधेये तध्वमौ हिस्वौ च । देहि देहीत्यादिग्वितिशब्दः संबन्धोपादौनार्थोन्यथासत्त्वभूतार्थवाचिनोराख्यातयोमिथः संबन्धो नाव. गम्येत ॥ व्योमाटाट तिरः कूपमटेत्याटुश्च मक्षिकाः । पतोत्पत रसेत्युच्चैरयतन्तोषरक्षिकाः ॥ १०॥ १००. मक्षिकाश्च व्योमाटाट तिरः कूपमटेत्याटुर्योमाटुस्तिरस्तिरश्चीनमाटुः कूपमाटुरित्येवंप्रकारेणाटुंधेमुस्तथा मक्षिका ऊषरक्षिका ऊषं रैक्षितुमुच्चैरत्यन्तं पतोत्पत रसेत्ययतन्तापतन्नुदपतनरसन्नध्वनन्निति प्रयत्नं चक्रुः ॥ अथाह नागो राजानं जगन्जयसि रक्षसि । शास्सीत्यधिकरोषि त्वं प्रसीदेहि रसातलम् ॥ १०१॥ १०१. नागो राजानमथाह बभाषे । अथशब्दस्य पुरादौ पाठादतीते वर्तमाना । हे राजंस्त्वं जगद्विश्वत्रयं जयसि रक्षसि शास्सि शिक्षयसि चेत्येवंप्रकारेण जगर्दधिकरोषि नियुझे सकलजगत्स्वामीत्यर्थः । तस्माप्रसीद रसातलमेहि ।। प्रसीदेहीत्यत्र "ओमीडि" [ १. २. १८] इत्यल्लुक् ॥ संगच्छस्व प्रमोदस्व श्लाघवेत्युच्छसिष्यति । नागलोकः समग्रोपि नेत्रेन्दौ त्वय्युपागते ॥ १०२॥ १०२. स्पष्टः । किं तु संगच्छख प्रमोदख श्लाघस्वेत्युच्कृसि१ए ब्योगाटा'. २ ए सी डी शास्मीत्य. १५ सी डी मद्यमि०. २ बी दानों. ३ बी गम्यते । व्यो. ४ए 'उमेमु ५ ए रहितु. ६ डी नस'. ७ सी शास्मि शि०. ८ ए सी डी 'दविक'. ९ए डी युक्ते स. सी युक्ते स. १० ए सी डी 'माहि ई. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.४३.] त्रयोदशः सर्गः। १५७ ध्यति त्वया सह संगस्यते । त्वदर्शनात्प्रमोदिष्यते । त्वां श्लाघियते । इत्येवंप्रकारेण हर्षातिरेकादुल्लसिष्यति । उपागते पातालमायाते ।। आहते भिन्त उच्छिन्त इति वर्मनि बाधते । ऊपार्थ यदि मे कोपि सापि हानिस्तवैव हि ॥ १०३ ॥ १०३. स्पष्टः । तस्मान्मार्गे रक्षार्थमपि त्वं मया सह पातालमागच्छेत्यर्थः । आहते । अत्र "आडो यमहनः स्वा(स्वे!)ङ्गे च" [ ३. ३. ८६. ] इत्यात्मनेपदम् । म इत्यस्य हननादिक्रियाभिव्याप्यत्वेपि संबन्धमात्रविवक्षया पष्ठी ॥ राजाथेत्यवदयूयं यात सिध्यत नन्दत । इतीहध्वे यद्रक्षार्थ तत्रादेक्ष्यामि रक्षकान् ॥ १०४ ॥ १०४. अथ राजावदत् । किमित्याह । तत्र वर्मनि रक्षार्थ रक्षकानरानहमादेक्ष्यामि । यद्यस्माद्यूयं यात सिध्यत नन्दतेतीहध्वे पातालं गच्छथ दमनायोषदानेन सिद्धकार्या भवथ लक्ष्मीकी|दिना वर्धध्व एवंप्रकारेण चेष्ट्रध्व इति ।। आगृहीथोपरुन्धावरुन्द्धति प्रयतध्व उ । किं मयीति वदव्रक्षार्थ दिदेशेति राक्षसान् ॥ १०५ ॥ १०५. राजा रक्षार्थमिति वक्ष्यमाणरीत्या राक्षसान्यवरादीन्दिदेशाज्ञापयत् । कीहक्सन । वदन् । किमित्याह । उ हे नाग यूयं मयि १५ ते । अत्र. २ बी °च्छित्त ई. ३ सी दि ने को". डी दि नो कोपि सोपि हानिस्तथैव. १ बी उपग'. २ ए सी डी स्वाङ्ग च. ३ ए सी डी म् । इम. ४ बी सी डी मियांप्य. ५ ए °द्यद्यस्मायूयं. बी द्यथा यूयं. ६ ए राजर'. ७ बी न् । उ. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] विषये किमित्यागृहीथाग्रहं कुरुथोपरुन्द्ध दाक्षिण्ये पातयथावरुद्ध पादादिग्रहणं कुरुथेत्येवंप्रकारेण प्रयतध्वे पाताले नयनायात्यादरं कुरुथेति ॥ संगच्छध्वं निषेवध्वमयध्वं च पुरः पथि । इतीहध्वे मयि यथा यूयं बर्बरकादयः ॥१०६॥ संगच्छध्वं निवेध्वमयेध्वं च पुरोध्वनि । इतीहेवं तथैवासिन्मित्रे मे प्राणवल्लभे ॥ १०७ ॥ १०६, १०७. हे राक्षसा यथा यूयं मयि विषये संगच्छध्वं निषेवध्वं पथि पुरोयध्वं चेतीहध्वे सेवार्थ संबद्धीभवथ तथा सेवध्वे तथा मार्गेग्रतो गच्छथ चैवंप्रकारेण चेष्ठध्वे तथैवास्मिन्मम प्राणवल्लभे मित्रे नागविषये संगच्छेध्वं निषेवेध्वमध्वनि पुरोयेध्वं गच्छेत चेतीहेध्वम् ॥ स्वतः समुच्चये । पतोत्पत रसेत्ययतन्त । पक्षे । जगजयसि रक्षसि शास्सीत्यधिकरोषि ॥ साधनभेदेन समुच्चये । व्योमार्ट तिरोट कूपमटेत्याटुः । अस्य च पक्षोदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ तथा संगच्छस्व प्रमोदस्व श्लाघस्वेत्युच्छसिष्यति । पक्षे । आहते मिन्त उच्छिन्त इति बाधते ॥ तध्वमौ च तद्युष्मदि । यूयं यात सिध्यत नन्दतेतीहध्चे । पक्षे । आगृह्णीथोपरुन्दावरुन्द्धति प्रयतध्वे । संगच्छध्वं निषेवध्वमयध्वं च पुरः पथीतीहध्वे । पक्षे । संगच्छेध्वं निषेवेव. १बी पुराव'. १ए °क्षिण्योपेत. २ बी रद्ध पा. ३ ए सी डी गच्छे". ४ सी "सि शा. ५ ए सी डी शा मीत्य. ६ डीटय ति°. ७ ए सी डी रुचे प्र. ८ ए सी डी च्छध्वे नि'. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.४.४५.] त्रयोदशः सर्गः । १५९ मयेध्वं च पुरोध्वनीतीहेध्वम् । अत्र "प्रचये." [ ४३ ] इत्यादिना हिस्वी वा तध्वमौ च तद्युष्मदि वा ॥ खलु क्षुभित्वा भीत्वालमित्यालापाः क्षपाचराः । परिहत्य सभायें तं पातालं प्राविशन्नथ ॥ १०८ ॥ १०८. स्पष्टः । किं तु क्षुभित्वा खलु क्षोभेण सृतं भीत्वालं भयेन मृतमितीदृगालापो येषां ते तथा ॥ अमिनलं विहरणेन खलु स्थितेना तिक्रम्य यद्गगनमिन्दुरनाप्य चास्तम् । आरादहं सरिदतिक्रमणेन चेति ___ध्यात्वा नृपः पुरमभि त्वरितः प्रतस्थे ॥ १०९ ॥ १०९. नृपः पुरमभि त्वरितः प्रतस्थे । किं कृत्वा । ध्यात्वा । किमित्याह । यद्यस्माद्धेतोर्गगनमतिक्रम्योल्लवयास्तमस्ताचलमनाप्य चालब्ध्वा चेन्दुर्वर्तते गगनात्परेणास्ताच्चावरेणेन्दुरस्तीत्यर्थः । तस्माद्यस्मादहं च सरिदतिक्रमणेन सरस्वत्या उल्लङ्घनेनाराहूरं वर्ते सरितः परस्तादूरप्रदेशेहमस्मीत्यर्थः । यस्माद्रात्रिशेषोभूदहं च पुराहरं वर्त इति तात्पर्यार्थः । तस्मादलक्ष्यपुरप्रवेशस्य विघ्नभूतत्वेनास्मिन्नरण्ये विहरणेन विचरणेनालं सृतं तथास्मिंस्थितेनावस्थानेन खलु मृतमिति ।। भीत्वालम् । विहरणेनालम् । खलु क्षुभित्वा । खलु स्थितेन । इत्यत्र “निषेधेलंखल्वोः क्त्वा" [ ४४ ] इति वा क्त्वा ॥ अतिक्रम्य गगनमिन्दुः । अवरे । अस्तमनाप्येन्दुः । अत्र “परावरे" [५] इति क्त्वा वा ॥ पक्षे । सरिदतिक्रमणेन । १ ए °रिदिति'. सी डी रिति'.. १ सी डी किं क्षु. २ सी डी रदे'. ३ बी ति वा क्त्वा प. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ध्यात्वा । इत्यत्र ‘“प्राक्काले” [ ४७ ] इति क्त्वा | अर्थानुलोम्यात्सूक्रम भङ्गेनेदमुदाहरणम् । वसन्ततिलका छन्दः ॥ I नेत्रे निमील्य हसतां वदतां प्रकाश्य दन्तांश्च मूलकपणाद्यपमाय याताम् । मौग्ध्योद्यमौ नरपतिः पथि कच्छियूनां पश्यन्ययौं निजमलक्षित एव हर्म्यम् ॥ ११० ॥ ११०. अलक्षित एव नृपतिर्निजं हर्म्यं ययौ । कीदृक्सन् । कच्छियूनां कच्छोनूपप्रायो देशविशेषोस्त्येषां ते कच्छिनैः काच्छिका ये युवानस्तेषां मौग्ध्योद्यमौ मौग्ध्यं नेत्रनिमीलने हसनरूपं दन्तप्रकाशने वचनरूपं च मौर्यमुद्यमं च तावत्यां वेलायां मूलकपणादिप्रतिदानाय यानं पथि पश्यन् । यतो नेत्रे निमील्याज्ञत्वेन हास्यातिरेकाल्लोचनसंकोचने सति हसतां तथाज्ञत्वादेव दन्तांश्च प्रकाश्य दन्तोद्घाटने सति वदतां वार्तयतां तथात्युद्यमित्वेन मूलकपणादि मूलकमुष्टयादि । अत्रादिपदात्पत्रपुष्पफलाद्यपमाय प्रतिदातुमन्यत्र यातां गच्छताम् ॥ नेत्रे निमील्य हसताम् । दन्तान्प्रकाश्य वदताम् । अपमाय याताम् । अत्र " निमील्यादि ० " [ ४६ ] इत्यादिना क्त्वा वा ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्ध हेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ त्रयोदशः सर्गः ॥ १ एक पथि. २ बी 'लकश्छन्दः . ३ सी 'नः वातं यथा तथा° सी वातं यथा तत्यु ५ बी 'णाद्यत्रा'. आदि. ७ए दिप कच्छि'. ४ ए डी ६ सी डी ट्या Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये चतुर्दशः सर्गः । इत्याटमाट निशि कर्म कृत्वा कृत्वाद्भुतं वेश्मनि पूर्वमायम् । स रात्रितुर्ये प्रथमं प्रबोधमानचं देवान् गुरुमग्र आसम् ॥ १ ॥ j १. स नृपो देवान्गुरुं चानर्च । किं किं कृत्वा । इत्युक्तनीत्या नि I श्याटमाटमभीक्ष्णं विचर्य तथाद्भुतं कर्म नागाय तथोपदानरूपमवदातं कृत्वा कृत्वाभीक्ष्णं विधायें तथा वेश्मनि पूर्वं लोकजागरणाप्रथममायमागत्य तथा रात्रितुर्ये रात्रेश्चतुर्थे यामे लोकप्रवोधात्प्रथमं प्रबोधं जागरित्वा तथाग्र आसं देवानां गुरोश्च पुरः स्थित्वा ॥ सर्गेस्मिन्नुपजातिश्छन्दः ।। गजं प्रभाते प्रथमं प्रपद्य पूर्वं समारुह्य हयं कदाचित् । अग्रेधिरुह्याथ वशामटन्स नाज्ञाय्युपासंचरितो जनेन ॥ २ ॥ २. स नृप उषासंचरितो रात्रौ चर्यया भ्रान्तो जनेन नाज्ञायि । यतः कीदृशः । प्रभातेटन् राजपाटिकया भ्राम्यन् । किं कृत्वा । प्रथममन्यक्रियाभ्यः पूर्वं गजं प्रपद्यारुह्य कदाचित्पूर्वं हयं समारुह्याथ तथा कदाचिच्चाग्रे पूर्वं वंशां हस्तिनीमारुह्य । प्रभाते स्वाहि रात्रौ जागर्या शक्यतेयं तु जागरूकत्वात्प्रातरेवोत्थाय राजपीटिकायामगमत्तेनास्य रात्रौ चर्या न ज्ञातेत्यर्थः ॥ १ ए माट नि.. १ सी किं कृ. २ ए डी थोपदा. ३ सी 'वानी. ५ ए 'तु या. ६ बी 'तिच्छन्दः सी तिच्छदं । ग. ८ बी 'टिकायां भ्रा. ९ सी यां ह १० २१ यथा. π°. ४ बी सी य ७ सी 'रिता पादिका. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] माटमाटम् । कृत्वा कृत्वा । इत्यत्र "रणम्च०" [१८] इत्यादिना रणम् क्त्वा च ॥ पूर्वमायम् । अन आसम् । प्रथमं प्रबोधम् । इत्यत्र "पूर्व०" [ ४९ ] इत्यादिना एणम् वा ॥ पक्षे । पूर्व समारुह्य । अग्रेधिरुह्य । प्रथमं प्रपद्य ॥ वेत्त्यन्यथाकारमशेयमेवंकारं कथंकारमिदं रहो नः । तत्कोपि विद्याधर एप इत्थंकारं जनै रात्रिविहार्यतर्कि ॥ ३ ॥ ३. एष राजा रात्रिविहारी प्रच्छन्नं रात्रौ चरन्सन्नतर्कि शङ्कितः । कथमित्याह । अन्यथाकारमन्यथा यदि विद्याधरो न स्यात्तदा कथंकारं कथं नाम नोस्माकमिदं प्रत्यक्षमनेनोच्यमानमशेषं रहः प्रच्छन्नवृतमेवंकारमनेन यथावृत्तभणनप्रकारेण वेत्ति जानाति तत्तस्मादेप जयसिंहः कोप्यज्ञातो विद्याधरः । विद्याधैरो हि विद्याबलेनाज्ञायमानश्चरत्रहोपि जानातीत्थंकारमनेन प्रकारेण ॥ जनोन्यथाकृत्व ऋजूक्तिरेवंकृत्वा कथंकृत्व ऋतं सुखी स्यात् । छलोन्मुखं शाकिनिकाद्यपीत्थंकृत्वा नृपो मन्त्रकृदन्वशात्सः ॥४॥ ४. स नृपश्छलोन्मुखं शांकिनिकाद्यपि कुत्सितशाकिनीभूताद्यप्यास्तामन्यायिजनादीत्यप्यर्थः । इत्थंकृत्वानेन रात्री चारूपेण प्रकारेणान्वशान्मत्रैरशिक्षयत् । यतो मत्रान्कृतवान्साधितवान्मनकन्मात्रिकः । हेतुमाह । अन्यथाकृत्वान्यथा यदि शाकिन्याद्यहं नानु १ सी डी कृत्वा . २ सी डी खं स्याकि. ३ डी पो यत्र. १ए ख्णम इ'. २ सी डी रात्रवि. ३ सी तक्कि शंकितं क. डी 'तक्कि शंक्वेतं की. ४ डी था य'. ५ ए °नोन्यमा०. ६ सी त्तसेवां का. ७ ए °णवित्ति०. ८ डी त्ति । त. ९ सी डी तोपि वि०. १० डी धरा हि. ११ सी शानि. डी शाकमिका. १२ डी चोरू. १३ बी शिष्यय. १४ डी दि पाकि. १५ सी डी बदहं. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.५२] चतुर्दशः सर्गः। १६३ शासिष्यामि तदेत्यर्थः । एवंकृत्वा एवं रात्रौ चर्यया स्वयं दृष्टप्रकारेण ऋजूक्तिः सरलवचनो जन ऋतं सत्यं यथा स्यादेवं कथं. कृत्वा कथं सुखी स्यादिति । ऋजूक्ती जनान्वचनच्छलेनच्छलकं शाकिन्यादि मा स्मच्छलयदिति रात्रौ प्रच्छन्नचर्यया तज्ज्ञात्वा मत्रध्यानेनाशिक्षयदित्यर्थः ॥ ___ अन्यथाकारम् । एवंकारम् । कथंकारम् । इत्थंकारम् । अत्र "अन्यथा०" [५० ] इत्यादिना ख्णम्वा ॥ पक्षे । अन्यथाकृत्वा । एवं कृत्वा । कथंकरवा । इत्थंकृत्वा ॥ योगिन्यवन्त्या अपरेयुरेका योगिन्यशङ्कं तमवोचदेवम् । वयं यथाकारमहो तथाकारमप्यटामस्तव किं त्वनेन ॥ ५ ॥ ५. अन्ये (रवन्त्या मालवदेशसंबन्धिन्येका योगिनी योगिन्यशवं योगिनीषु विषयेशकं निर्भयं सन्तं तं नृपमेवमोचन् । यथा यूयं कथमटथेत्येवं पृष्टासूयया तं प्रत्याह । वयमित्यादि स्पष्टम् ।। यथाकारमहो तथाकारमप्यटामम्तव किंत्वनेन । इत्यत्र “यथा." [५.] इत्यादिना रुणम्वा ॥ किं शाकिनिकारसु नः शैपेः स्वादुकारमत्तासि न भोज्यमत्र । न भोक्ष्यसे भोगमथेह मृष्टंकारं मुधायस्यसि चर्चया नः ॥६॥ १ए परद्य°. २ सी डी मुनेः श°. ३ ए शपे स्वा. ४ सी स्थिति घ. ५ ए चर्यया. १बी त्वा रा. २ बी क्तिमिः स. ३ ए सतं य . ४ डीवं कृ. ५ बी शिष्यदि. ६ बी सी डी र । ए'. ७ ए °म् । अ°. ८ सी डी अनेद्यरवन्त्यां मानादवासं. ९ ए °देशं ब. १० बी चयत्. ११ सी डी किं कृत्व. १२ डी नेत्य'. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] ६. उ हे नृप किं किमिति नोस्माञ् शाक्रिनिंकारं शपेः शाकिनीशव्दमुच्चार्याक्रोशसि शाकिन्यो यूयमित्याक्रोशसीत्यर्थः । तथा किमित्यत्र पृथ्व्यां भोज्यं भक्ष्यं स्वादुंकारं रुच्यं कृत्वा नात्तासि न भोक्ष्यसे । अथ तथा भोगं वैषयिकं सुखं मृष्टंकारं रुच्यं कृत्वेह जगति किमिति न भोक्ष्यसे । तथा नोस्माकं चर्चया विचारेण किं मुधा निरर्थकमायस्यसि खिद्यसे । विलासिनीनां पिनसीह मृष्टां कृत्वा न किं गीतसुधां हताश । किं योगिनीदर्शमिह व्यराध्यस्त्वं वैरिणीवेदमिवातिमूढ ॥७॥ ७. पूर्वार्धं स्पष्टम् । हेतिमूढेह पृथ्व्यां योगिनीदर्श यां यां योगिनीमपश्यस्तो तां वैरिणीवेदमिव वैरिणी ज्ञात्वेव लब्ध्वेव विचार्येव वा किमिति त्वं व्यराध्योभ्यभवः ॥ __ शाकिनिंकारं शपेः । अत्र “शापे व्याप्यात्" [५२ ] इति ख्णम्वा ॥ स्वादुंकारम् । मृष्टंकारम् । अत्र "स्वादु०" [५३ ] इत्यादिना वा ख्णम् ॥ भदीर्घादिति किम् । मृष्टां कृत्वा ॥ वैरिणीवेदम् । योगिनीदर्शम् । अत्र "विदृग्भ्यः०" [५४] इत्यादिना णम्वा ॥ यदीच्छसि स्वस्य सुखानि यावजीवं चिरायोदरपूरमाशु । तच्चर्मपूरं ननु देहि यावद्वदं बलिं नः परिखादिनीभ्यः ॥८॥ १ डी °ह प्यरा'. १ बी भक्षं स्वा'. २ बी कारं कृष्यं कृ. ३ डी कार कृत्वां कृ०. सी कारं कृस्त्व्यं कृ. ४ वी टं कृत्वा रु. एकार रु. ५ ए "ति ना भो. ६ सी डी यां यो'. ७सी स्तां वै०. ८ बी °णी वैरिणी झा. ९ डी °ति श्वं विरा'. १० सी त्वं विरा. ११ डी किनी का. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ५.४.५९.] चतुर्दशः सर्गः । १६५ ८. ननु हे राजन्नाशूदरपूर मिष्टभोज्यैरुदरं पूरयित्वा यावजीवं यावज्जीवसि तावञ्चिराय चिरकालं स्वस्य यदि सुखानीच्छसि तत्तदा यावद्वेदं यावल्लभामहे तावत्परिखादिनीभ्यो भक्षिकाभ्यो नोस्मभ्यं चर्मपूरं कडिनं पूरयित्वा बलिं देहि ।। यावद्वेदम् । यावजीवम् । अत्र “यावतः०" [ ५५ ] इत्यादिना गम् ॥ चर्मपूरम् । उदरपूरम् । अत्र “चर्म०' [ ५६ ] इत्यादिना णम् ॥ रुष्टासु चासास्वभिवर्षिताब्दो न सिन्धुपूरं न च गोष्पदप्रम् । न कम्बलकोपमहो न चेलकोपं च देशे तव राजजाल्म ॥९॥ ९. अहो राजजाल्म नृपाधमास्मासु रुष्टासु सतीषु तव देशे यावता सिन्धुनंदी गोष्पदं च पूर्यते तावत्किंबहुना यावता कम्बलचेले येते आभिवतस्तावदप्यब्दो मेघो न वर्पिता न वषिष्यति ।। गोष्पदप्रम् । सिन्धुपूरम् । अत्र "वृष्टि." [५७ ] इत्यादिना गैम्बी । ऊकारस्य लुक्च वा ॥ चेलनोपम् । कम्बलक्नोपम् । अत्र “चेल." [५८ ] इत्यादिना णम् ॥ मेघे च गात्रात्पुरुषात्परस्थस्नायं वृष्टे स्वदनाय पिंपन् । कः शुष्कपेषं क उ रूक्षपेषं कश्चूर्णपेषं च भवेन गाः ॥१०॥ १०. उ हे राजन् हि स्फुटं स्वदनाय धान्याभावेन बुभुक्षया म्रियमाणत्वादत्यन्तं भोजनाय को नरः शुष्कपेषं पिंपञ् शुष्कं बद १ सी डी गोस्पद. २ ए च गोत्रा'. ३ सी डी त्रापुरुषापर'. १ए जीवसि. २ बी रिवादि'. ३ ए “म् । अहो. ४ सी डी गोस्पदं. ५ डी मेघामवकर्षि'. ६ सी चोमेवकर्षि०. ७ सी डी वयिष्य . ८ डी 'ति । मास्पद. ९ सी गोस्पद°. १० सी णस्ता । ओका. डी णम्या । ऊ. ११ ए म्वा । ओका. १२ बी सी डी को वरः. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ व्याश्रयमहाव्ये [ जयसिंहः ] I रीफलादि पिंपकश्व रूक्षपेषं रूक्षमस्नेहं कैण्टकादि पिंषन्कश्च चूर्णपेषं चूर्ण तुषबुसादि पिंषन्सन्गर्यो निन्द्यो न भवेत् । क सति । मेघे । किंभूते । गात्रस्नायं पुरुषस्नायं चावृष्टे यावता गात्रं पुरुषश्च स्नप्येते तावत्यवृष्टे ॥ गात्रस्नायम् । पुरुषस्नायम् । अत्र “ गात्र०" [ ५९ ] इत्यादिना णम् ॥ शुष्कपेषम् | चूर्णपेपम् । रूक्षपेषं पिंषन् । इत्यत्र “शुल्क ०" [ ६० ] इत्यादिना णम् ॥ करोष्यदश्वाकृतकारमुच्चैर्निमूलकाषं कषसीह यन्नः । मूढ जीवग्राहं न गृह्णन्ति यथा हि तास्त्वाम् ॥ ११ ॥ ११. हे राजन् यदिति क्रियाविशेषणम् । यत्वं नोस्मान्नु (नु ) चै - रिह निमूलकाषं कषसि मन्त्रैर्निर्मूलं कषसि निःसन्तानाः करोषीत्यर्थः । अद् एतदकृतकारं करोष्यकृतमकृत्यं करोषि परिणामे कटुविपाकत्वात्तेवेदं कर्तुं न युक्तमित्यर्थः । तत्तस्माद्धेतो रे मूढ योगिनीस्तोषय मानयेत्यर्थः । यथा हि स्फुटं ता योगिन्यस्त्वां जीवग्राहं न गृह्णन्ति योगप्रभावबन्धैर्बद्धा जीवन्तं न गृह्णन्तीत्यर्थः ॥ 1 अकृतकारं करोषि । जीवग्राहं गृह्णन्ति । इत्यत्र " [ ग्] ग्रहः ० " [ ६१] इत्यादिना णम् ॥ निमूलकाषं कषसि । इत्यत्र " निमूलात्कषः " [ ६२ ] इति णम् ॥ तद्योगिनी स्तोषय १ ए गिनी: स्तो'. २ एहं निगृहन्ति. १ ए सी डी कण्टिकादि पिं. ४ सी डी 'श्व स्नाप्ये. "मास्तु चै". ८ सी डी सि निस ५ ए २ ए किं ते । गोत्र. ३ एता गोत्रं. 1 गोत्र.. ६ एत्र गोत्र. ७ सी डी ९ एतदेवं क. १० बी कृतय. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ०५.४.६२.] चतुर्दशः सर्गः। १६७ समूलका कषितुं समूलघातं निहन्तुं द्विषतोसिघातम् । क्षमं यशोवर्मनृपं स्वपोषं पुष्टं च योगिन्यनुदत्तशक्तिम् ॥ १२ ॥ त्वं मित्रयित्वार्चय कालिकाद्या एत्योजयिन्यां पुरि भक्तियुक्तः । यद्यात्मपोषं धनपोषमश्वपोषं पुपुक्षस्यथ बन्धुपोषम् ॥ १३ ।। १२, १३. हे राजंस्त्वमात्मना शरीरेण धनेनाश्वैरुपलक्षणत्वासैन्यैर्वन्धुभिश्व यद्यात्मानं पुष्टं कर्तुमिच्छसीत्यर्थः । तदा त्वं भक्तियुक्तः सन्नायिन्यां पुर्येत्य कालिकाद्या योगिनीरर्चय । किं कृत्वा । यशोवर्मनृपं मित्रयित्वा मित्रं कृत्वा । अन्यथा ह्युजयिनी त्वया गन्तुमशक्येत्यर्थः । किंभूतम् । योगिनीभिरन्वनुरूपं दत्ता शक्तिर्विद्याबलं यस्य तं तथा स्वपोषं पुष्टं च पराक्रमादिगुणविशिष्टेनात्मना समर्थ चेत्यर्थः । अत एव क्षमं समर्थम् । किं कर्तुम् । द्विषतः समूलकाषं कषितुं सान्वयात्राज्यादुन्मूलयितुमसिघातं च निहन्तुं खड्रेन हिंसितुं समूलघातं निहन्तुं सान्वयान्हिसितुं चेत्यर्थः । अन्यथात्मना श्रिया सैन्यैबन्धुभिश्च सह विनयसीत्यर्थः । तां साह राजेत्युदपेपमाज्यपेषं नु पिंपन्स गिराथ मृया। काली करग्राहमथ स्वहस्तग्राहं यशोवर्मनृपं जिघृक्षुः ॥ १४ ॥ १४. अथ स राजा जयसिंहस्तां योगिनीमिति वक्ष्यमाणरीत्याह स्म । यतः कालीमथ तथा यशोवर्मनृपं च बद्ध्वा स्वपाणिना ग्रही १ सी डी °म् । क्षेमं. २ सी डी कालका°. ३ ए जयन्यां. ४ ए सी डी राज्येत्यु. १ सी च्छतीत्य'. डी च्छन्तीत्य. २ ए जयन्यां. सी डी जन्यां. ३ ए नाय. ४ सी डी त्वा । येशो'. ५ ए सी डी 'तं नि. ६ सी डी विनक्षसी'. ७ए 'नक्षसी. ८ ए राजज'. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ .. व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] तुमिच्छुरित्यर्थः । कीहक्सन्नाह स्म । मृद्ध्या श्रूयमाणकोमलयार्थतस्तु कठोरया गिरा कृत्वोदपेपमाज्यपेषं पिंषन्नुदकेन घृतेन वा वर्तयन्निव ॥ यो वर्तयन्त्रः करवतमा गन्धाढ्यचर्चामथ हस्तवर्तम् । हुं वर्तते वः किल हस्तव रक्ष्यः स युप्माभिरवन्तिनाथः ॥१५॥ १५. हुमित्यम । सोवन्तिनाथो युष्माभी रक्ष्यः । किलेति सत्ये । यो वो युग्माकं हस्तवत वर्तते हस्तेन वर्तते यो युष्माकं वश्य इत्यर्थः । कीटक्सन् । वो युष्मदर्थम मर्चार्थमुपचाराचन्दनाद्यप्यर्चा तां करवत वर्तयन्करेण वर्तयम्भक्त्यतिरेकाजलादिना सह स्वयं घर्षयन्नित्यर्थः । अथ तथा गन्धाट्यचर्चा सौरभोत्कटं विलेपनार्थकर्पूरादि च हस्तवर्त वर्तयन् ॥ समूलघातं निहन्तुम् । समूलकापं कषितुम् । अत्र "हनश्च०" [६३] इत्यादिना णम् ॥ असिघातं निहन्तुम् । इत्यत्र “करणेभ्यः' [ ६४ ] इति णम् ।। स्वपोषं पुष्टम् । आत्मपोषम् । अश्वपोषम् । बन्धुपोपम् । धनपोषं पुर्पु. क्षति(मि) ॥ स्नेहनार्थात् । उदपेपम् । आज्यपेषं पिंपन् । इत्यत्र "स्व." [६५] इत्यादिना णम् ॥ हस्तग्राहम् । करग्राहं जिघृक्षुः । हस्तवर्तम् । करवतं वर्तयन् । हस्तवतं वर्तते । अत्र “हस्तार्थात्." [ ६६ ] इत्यादिना णम् ॥ १ ए 'रमतंवचा. १ सी डी वर्चय. २ ए वर्त'. ५ डी म् । पु. ६ बी पुक्ष्यति. ३ सी डी ते यु. ४ डी म् । ब°. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.७०.] चतुर्दशः सर्गः । १६९ स क्रौञ्चबन्धं मम गुप्तिबन्धं बन्ध्यो न चेनश्यति जीवनाशम् । प्रेष्यः स वैः पूरुषवाहमाज्ञां वोढा वृथा तं हि न यद्यवेत ॥१६॥ १६. स यशोवर्मनृपश्चेद्यदि न जीवनाशं ननयति जीवन पलायिष्यत इत्यर्थः । तदा स मम मया क्रौञ्चबन्धं बन्ध्यः क्रौञ्चाकारेण बन्धविशेषेण बन्धनीयस्तथा गुप्रिबन्धं बन्ध्यो गुप्तौ कारायां बन्धनीयस्ततश्च हि स्फुटं तं यशोवर्मनृपं यदि यूयं 'नावेत मया बध्यमानं न रक्षेत तदा स नृपो युष्माकं प्रेष्यो दासः सन्वृथा निरर्थकं युष्माकमाज्ञां पूरुषवाहं वोढा पूरुषस्य कर्तुर्वहनं यथा स्यादेवं धारयति पुरुषः सन्प्रेष्यो भूत्वा वृथा युष्मदाज्ञां वह तीत्यर्थः॥ क्रौञ्चबन्धं बन्ध्यः । अत्र “बन्धेर्नाम्नि" [ ६७ ] इति णम् ॥ गुप्तिबन्धं बन्ध्यः । अत्र “आधारात्" [ ६८ ] इति णम् ॥ जीवनाशं नश्यति । पूरुषवाहं वोढा । इत्यत्र “कर्तुर्०" [६९] इत्यादिना णम् ॥ मया स पूरिष्यत ऊर्ध्वपूरं रणे न शुष्येद्यदि चोर्ध्वशोषम् । मंसे तदा वो महिमोरु पूज्यास्तदा च यूयं मम मातृपूजम् ॥१७॥ १७. सोवन्तीशो यदि रणे मया सहोर्ध्वपूरं पूरिष्यत ऊर्ध्वस्य सतः पूरणं यथा स्यादेवं पूरणीभविष्यति । ऊर्ध्वः स्थास्यतीत्यर्थः । १ ए बी नक्षति. २ ए वः पुरु'. ३ सी डी मान्यां वो°. ४ ए धचेतः । य. १ए वो नृ. २ ए शं तक्षति. ३ ए °ष्यति इ. ४ एन्धंक्रौ. ५ ए धनी. ६ सी डी टं य०. ७ए प्रेक्षो दा. ८ सी डी °मान्यां पुरु°. ९ बी सी डी 'ढा पुरु°. १० ए 'न्प्रेक्ष्यो भू°. ११ ए °ति । पौरु. सी 'ति । पुरु. १२ सी डी वंशोपं. १३ बी पूर्णीभ. १२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ढ्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] तथा मया सह रणे सति यदि स उर्वशोषं न शुष्येच्च मदाणैः पीतरक्तो यचूर्ध्व एव न शुष्ये दित्यर्थः । तदा वो युष्माकमुरु महन्महिम माहात्म्यं मंस्ये ज्ञास्यामि । महिमशब्दो नपुंसकोपि । तदा च यूयं मम मातृपूजं पूज्या मातृवत्पूजनीया इत्यर्थः ।। तद्गच्छ तत्राहमसांवुपैमि यूयं न चेनस्यथ काकनाशम् । . लूयादुपस्कारमसावसिर्वस्तदा नसः श्रुत्युपदंशमत्तुम् ॥ १८ ॥ १८. यदि यूयं काकवन्न पलायिष्यध्वे तदासौ प्रत्यक्षोसिर्वो युज्माकं नसो नासिका अत्तुं भक्षयितुमुपस्कारं विक्षिप्य लूयाच्छिद्यात् । किं कृत्वा । अत्तुं श्रुत्युपदंशं श्रुतिभिः कर्णैरुपदश्योपदंशं कृत्वा केवलानां नासिकानां भक्षणादरुचौ रुचिविशेषोत्पादनायान्तरान्तरा श्रुतीरपि जग्धे(ग्ध्वे?)त्यर्थः । शिष्टं स्पष्टम ॥ श्रुत्योपदश्यात्स्यति नो नसोसिरसिप्रहारं च विजेष्यसेस्मान् । सहासमुक्तैवेति रदोपपीडमोष्ठं दशन्ती दिवि सोत्पपात ॥१९॥ १९. स्पष्टः । किं तु तवासि!स्माकं नसो नासिकाः श्रुत्या श्रवणजात्योपदश्य रोचकं कृत्वात्स्यति त्वं चास्मानसिप्रहारं खङ्गेन प्रेहृत्य विजेष्यसे रदोपपीड कोपादन्तैर्दन्तेषु वोपपीयौष्ठं दशन्ती ॥ चित्तोपरोधं विमृशन्विधेयं गृह्णन्नृपोसिं स्वकरोपकर्षम् । ग्रामानुरोधं पुरसीमरोधं द्राग्मेलयन्सैन्यमथ प्रतस्थे ॥ २० ॥ १ ए °साधुपै. सी डी °सामुपैति यू. २ सी नक्षयका. डी नक्षयकारक'. ३ सी डी क्त्वेपि र. ४ सी डी द्राग्मैल. १ सी डी स्कारविवक्षि. २ सी डी नाशिका. ३ सीणादिरुचि. डी णादिरु. ४सी डी नाशिका श्रु'. ५ डी प्रपद्यप वि. ६ ए सी पीड्योष्ठं. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.७०.] चतुर्दशः सर्गः। १७१ २०. अथ नृपो जयासिंहो द्राक्प्रतस्थे । कीदृक्सन् । विधेयं रणं चित्तोपरोधं चित्तेन चित्ते वोपरुध्य संस्थाप्य विमृशंस्तथासिं स्वकरोपकर्ष स्वकरेण स्वकरे वोपकृष्य समीप आनीय गृहंस्तथा ग्रामानुरोधं ग्रामेण ग्रामे वान्यसैन्यमेलनायानुकूलं स्थापयित्वैवं पुरसीमरोधं च सैन्यं मेलयन् ॥ शैलान्चलैफ्र्युपपीडमस्यन्कुर्वन्नृपाञ् शासनकर्षमग्रे । क्रोशाष्टकोत्कर्षमहन्यहन्यच्छिनत्स पन्थानमनूनशक्तिः ॥२१॥ २१. स राजाहन्यहनि पन्थानं क्रोशाष्टकोत्कर्ष क्रोशाष्टकेन क्रोशाटके वोत्कृष्य परिच्छिद्याच्छिद(न?)ललो । कीदृक्सन् । अनूनशक्तिः शक्तित्रयोपेतोत एव नृपाञ् शासनकर्षमाज्ञयाकृष्याग्रे कुर्वन्नत एव च शैलान्बलैरुपपीडं पीडयित्वा मूर्ध्नि शृङ्गेषूपपीडमस्यन्नितस्ततः क्षिपन् ।। आरोहिणोंसेष्वथ केशपतया ग्राहं भटा अत्वरयंस्तांश्वान् । क्रोशे यथा कोशयुगेन वा व्योम्युत्कर्षमिद्धोधिरुरोह रेणुः ॥२२॥ २२. अंसेषु ग्राहं स्कन्धेषु गृहीत्वाथाथ वा केशपतथा ग्राहं स्कन्धस्थवालपतथा गृहीत्वारोहिणोश्वानारोहन्तो भटा अश्ववारा अश्वांस्तथा वेगेनात्वरयन्यथेद्धः स्फीतो रेणुयोग्यधिरुरोह । किं कृत्वा । क्रोशे कोशयुगेन वोत्कर्षमुत्कृष्य परिच्छिद्य क्रोश कोशौ वा यावदित्यर्थः ।। १सी "हिणोशेद्यथे के. डी हिणोशेद्यथ. २ डी थास्यात् । क्रो'. ३ सी रेणः । अशेषु . डी रेणः । अरोषु. १ ए धेयर. २ सी डी टके वोकृष्य. ३ ए बी अंशेषु. ४ डी त्वाग्र्येण वा. ५ए सी डी रोहणो°. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ घ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] ऊर्ध्वपूरं पूरिष्यते । ऊर्वशोपं शुष्येत् । इत्यत्र "ऊर्वात्पू: शुषः" [७० ] इति णम् ॥ मातृपूजं पूज्याः ॥ कर्तुः । काकनाशं नङ्ग्यथ । अत्र "व्याप्याच्चेवात्" [१] इति णम् ॥ उपस्कारं लूयात् । इत्यत्र "उपात्" [ ७२ ] इत्यादिना णम् ॥ श्रुत्युपदंशमत्तुम् । श्रुत्योपदश्य । इत्यत्र “दशेस्तृतीयया" [७३] इति णम्वा ॥ असिप्रहारम् । अत्र "हिंसा." [७४ ] इत्यादिना गम्वा ॥ पक्षे । असिना प्रहृत्येति स्वयं ज्ञेयम् ॥ बलैरुपपीडम् । मूर्युपपीडम् । चित्तोपरोधम् । स्वकरोपकर्षम् । अत्र "उपपीड०" [७५ ] इत्यादिना णम्वा ॥ पक्षोदाहरणानि ज्ञेयानि ॥ अन्ये तूपपूर्वादेव पीडेरिच्छन्ति । रुधकर्षाभ्यां तु कामचारेण । तेन पुरसीमरोधम् । उपपूर्वादपि । चित्तोपरोधम् । अन्योपसर्गपूर्वादपि । ग्रामानुरोधम् । एवं शासनर्षकम् । प्रमाणे । कोशयुगेनोत्कर्षम् । क्रोश उत्कर्षम् । कोशाष्टकोत्कर्षम् ॥ समा.. सत्तौ । केशपतया ग्राहम् । अंसेषु ग्राहम् । अत्र "प्रमाण." [ ७६ ] इत्या. दिना णम्वा । पक्षोदाहरणानि ज्ञेयानि ॥ शय्यात उत्थायमयुः किराता यत्किं च नारोहमुपासितुं तम् । नृपोपि पथ्या(भक्या?)लपति स तान्भ्रूविक्षेपमुत्क्षिप्य शिरः प्रसन्नः ॥ २३ ॥ १ ए तमुत्था . २ ए °लपितस्मा ता'. ३ सी डी प्रपन्न:. . १ ए सी डी नक्षथ. १ ए अशनि प्र. ३ सी डीम् असे. ४ बी अंशेषु. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ ४ [है० ५.४.८०.] चतुर्दशः सर्गः। २३. तं नृपमुपासितुं किराताः शय्यात उत्थाय शयनात्त्वरयोस्थाय तथा यत्किं च न गर्दभादिकमप्यारोहमयुरेवं नाम नृपसेवार्थमत्वरन्त यावता प्राभातिकमवश्यकृत्यमश्वादि वाहनं च नापेक्षन्ते स्मेत्यर्थः । नृपोपि [भक्त्या?] भक्तिसूचकतत्संभ्रमातिरेकागमनेन प्रसन्नः संस्तान्किरातानालपति स्म । किं कृत्वा । शिर उत्क्षिप्योकृित्य भ्रूविक्षेपं ध्रुवौ तत्संमुखं क्षिप्त्वा च ॥ शण्यात उत्थार्यम् । अत्र “पञ्चम्या०" [७७ ] इत्यादिना गम्वा । यत्किंचनारोहम् । अत्र "द्वितीयया" [ ७८ ] इति णम्बा ॥ भ्रूविक्षेपम् । अत्र "स्वाङ्गेनाध्रुवेण" [ ७९] इति गम्वा । [अ] ध्रुवेणेति किम् । शिर उत्क्षिप्य ॥ हृत्पेषमायद्भिरगान्प्रवेशं प्रवेशमुच्चैर्विषमप्रवेशम् । वनं वनं वेशमरण्यपातमापातमापातमथापगाच ॥ २४ ॥ सरस्सरः पातमपश्च पादं पादं प्रपादं च तटं तटं द्राक् । द्रुमं द्रुमं स्कन्दमनध्वपादमास्कन्दमास्कन्दमनापतन्तम् ॥२५॥ फलाद्यवस्कन्दमलं क्षणासं मुहूर्तमौसमथोत्फलद्भिः। यामप्रतर्ष दृतिवाः पिबद्भिः स तै हर्ष प्लवगैर्नु रामः ॥ २६ ॥ ___ २४-२६. स नृपो राम इव तैः किरातैः पूवगैर्नु कपिभिरिव कृत्वा जहर्ष । यत आयद्भिः सहागच्छद्भिः । किं किं कृत्वेत्याह । १ सी वेश्मम°. डी वेश्यम. २ सी मातापम. डी °मापम'. ३ एम् । पला. ४ ए त्याशम. १९ नायत्त्व. २ सी ता प्रभा'. ३ ए °नं चा ना. ४ सी डी पेक्ष्यन्ते. ५ एनालिपित स. ६ प य । अ. सी डी यम् । तत्र. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] हृत्पेषमतिबंहीयस्त्वेनान्योन्यं संघर्षावृदयानि पिष्ट्वा तथागाब् शैलान्प्रवेशं प्रवेशं पर्वतवासित्वेन तदारोहकुशलत्वादभीक्ष्णं प्रविश्य तथोचैर्विषमप्रवेशं कौतुकादिना विषमं विषमं वनगह्वरादि प्रविश्य विषमं प्रविश्य प्रविश्यं वा तथा वनं वनं तरुखण्डं तहखण्डं वेशं फलादिलिप्सया प्रविश्याथ तथारण्यपातमारण्यपशुवधाद्यर्थमरण्यमरण्यं पतित्वारण्यं पतित्वा पतित्वा वापगाश्च नदीश्चापातमापातं तथा सरः सरः पातमपश्च जलानि च पादं पादं पानाद्यर्थमभीक्ष्णं गत्वा तथा द्राक् नद्यादीनां तटं तटं प्रपादं विश्रामाद्यर्थमाश्रित्य तथा द्रुमं द्रुमं स्कन्दं छायादिसुखलिप्सया गत्वा तथानध्वपादं मार्गस्य सैन्यैः संकीर्णत्वेन दुःसंचरत्वादमार्गममार्ग गत्वामार्ग गत्वा गत्वा वा तथानापतन्तं श्रान्तत्वेनानागच्छन्तं जनमास्कन्दमास्कन्दमश्रान्तत्वेन शीघ्रगत्वादुल्लङ्घयोलङ्घय तथालमत्यर्थं फलाद्यवस्कन्दं फलपुष्पादि फलपुष्पादि मुषित्वा फलादि मुषित्वा मुषित्वा वा तथोत्फलद्भिरुल्ललद्भिः । किं कृत्वा । क्षणासं क्षणमिति सूक्ष्म कालभेदमतिक्रम्य तथा मुहूर्तं द्विघटीमत्यासमतिक्रम्योत्प्लुत्य क्षणं मुहूर्त वा स्थित्वा पुनरुत्प्लवमानैरित्यर्थः । तथा यामप्रतर्ष प्रहरं प्रतृष्य इतिवाः खल्लस्थं जलं पिबद्भिश्च । वाःशब्द क्लीबेपि केचित् ॥ १ सी "श प. २ ए मं व. ३ बी सी डी 'रुषण्डं. ४ बी सी डी 'रुषण्डं. ५ सी डी °ण्डं च वे'. ६ ए °रः पा. ७ सी गत्वां दमार्गममार्ग गत्वा गत्वा वां तथा ना. ८ डी मार्गममार्ग गत्वा गत्वा वा. ९ए सी डी शीघं ग. १० ए दुर्लङ्घयोल'. ११ ए °दि मु. १२ ए त्वा वा. १३ सी डी त्वा वा. १४ ए सी डी थोत्पलवद्भिरुद्भिः . १५ ए °ण म°. १६ ए दिर्घटा. १७ ए प्रकृष्य. १८ ए त् । वर्ष. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ५.४.८३.] चतुर्दशः सर्गः। १७५ तर्ष च यामावपरेह्नि नामग्राहं मिथोहायिभिरग्रसैन्यैः । सिप्रापयोपीयत मङ्घ नामादेसं(शं) समा वासभुवो गृहीताः २७ २७. अपरेह्नि यामौ प्रहरद्वयं तर्प तर्षित्वाग्रसैन्यैः सिप्रापय उजयिनीसमीपस्थसिप्रानदीजलमपीयत । किंभूतैः सद्भिः । नामग्राहं मिथोह्वायिभिः । तथा मङ्क नामादेशमियं जयसिंहस्येयं समरसिंहस्येति नामान्युच्चार्येत्यर्थः । समाः समस्ता वासभुव आवासस्थानानि गृहीताः ॥ हृत्पेषमायद्भिः । अत्र “परिक्लेश्येन" [ ८० ] इनि णम्वा ॥ वनं वनं वेशम् । विपमप्रवेशम् ॥ अगान्प्रवेशं प्रवेशम् । विषमप्रवेशम् ॥ सरः सरः पातम् । अरण्यपातम् ॥ आपगा आपातमापातम् । अरण्यपातम् ॥ तटं तटं प्रपादम् । अनध्वपादम् ॥ अपः पादं पादम्। अनध्वपादम् ॥ द्रुमं दुमं स्कन्दम् । फलाद्यवस्कन्दम् ॥ अनापतन्तमास्कन्दमास्कन्दम् । फलाद्यवस्क. न्दम् । अत्र "विशपत." [ ८१] इत्यादिना णम्वा ॥ वनं वनं प्रविश्य । वनं प्रविश्य प्रविश्य । इत्यादी नि पक्षोदाहरणानि स्वयं ज्ञेयानि ॥ यामौ तर्ष पयोपीयत । यामतर्ष पिबद्भिः । मुहूर्तमत्यासम् । क्षणोसमुत्फ लद्भिः । अत्र “कालेन." [ ८२ ] इत्यादिना गम्वा ॥ नामग्राहम् । नामादेशम् । अत्र “नाम्ना०" [ ८३ ] इत्यादिना णम्वा ॥ १बी मैन्यः । सि'. १ डी 'यं वेपतेषि. २ ए °हीतानि ॥ ह. ३ एम् । प्रवेशम् । अं. ४ डी शं । वि०. ५ सी डी अध्वनपा. ६ डी अध्वनपा. ७ ए नं प्र°. ८ सी डी श्य । प्रविश्य । इ. ९ सी डी यामो त°. १० सी डी °मकर्ष. ११ डी त्यासमु. १२ ए णात् समुप्तल'. १३ सी डी मग्रहणम्. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] प्राप्ताग्रगैरुजयिनीत्यनुच्चैःकारं शनैः कृत्य किमात्थ तर्हि । रुद्धा च सा तैर्ननु कश्चिदुच्चैः कृत्वेत्यथ प्रत्यवदन्नृपाग्रे ॥ २८ ॥ २८. यद्यग्रगैरुज्जयिनी प्राप्ता तीति प्राप्ताग्रगैरुजयिनीत्येतत्कि किमित्यनुचैःकारमनुदात्तस्वरेण तथा शनैःकृत्य मन्दमात्थ भणसि । उच्चै म प्रियमाख्येयमिति राज्ञोक्ते नन्विति पृष्टोक्तौ ननु सोजयिनी तैरग्रगै रुद्धा चेत्येवंप्रकारेणोच्चैः कृत्वा कश्चिद्वर्धापको नृपाने जयसिंहाने प्रत्यवदत् ॥ प्राप्ताग्रगैरुजयिनीत्यनुचैःकारम् । शनैःकृत्य किमात्थ तर्हि । इत्यत्र "कृगः” [ ८४ ] इत्यादिना क्त्वाणमौ ॥ अनिष्टोक्ताविति किम् । रुद्धा ध सा तैरित्युच्चैः कृत्वा प्रत्यवदत् ॥ द्राक्पृष्ठतःकृत्य पयांसि तिर्यकारं समावासमथो नियुक्ताः। ते पार्श्वतःकारमिभांश्च तिर्यकृत्वाश्वशाला जगदुपाय ॥ २९ ॥ ___ २९. अथो नियुक्ता नृपाय जगदुरावासादि कृतमस्तीत्यूचुः । किं कृत्वा । पयांसि नद्यादिस्थजलानि द्राक्पृष्ठतःकृत्य पृष्ठे कृत्वा तथा समावासमावासनिकां तिर्यकारं समाप्य रचयित्वेत्यर्थः । तथेभान्पार्श्वत:कारमावासपार्श्वभागे कृत्वा तथाश्वशालास्तियकृत्य(त्वा?) समाप्य च ॥ स्राक्पावतोभावमुपेत्य नानाभूयाङ्कतोभूय च वारवध्वः । आवासमभ्यापततोस नानाभावं स्थितश्रीवदभानुपास्त्यै।। ३०॥ १ ए "कृतकि. २ ए डी कृत्येत्य'. ३ ए पास्तौ । वा. १ डी रुज्जायि०. २ सी डी भणिसि. ३ बी सी डी तेन न. ४ बी डीत् । आप्ता. ५ ए सी डी सनि. ६ बीच । श्राक्पा'. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०५.४.८५. ] चतुर्दशः सर्गः । १७७ ३०. वारवध्वो नानाभावं स्थित श्रीवन्नानाभावमनेकरूपीभूय स्थिता याः श्रियो लक्ष्म्यस्ता इवाभान् । किं कृत्वा । आवासमभ्यापततोभिमुखमागच्छतोस्य जयसिंहस्योपास्त्यै सेवायै स्रागुपेत्यागत्य तथा पार्श्वतोभावं राज्ञः पार्श्वयोर्भूत्वा तथा नानाभूय वेपावस्थानादिविच्छित्तिभिरनेकप्रकारीभूय तथाङ्कतोभूय च सकलपरिच्छदस्य मध्ये भूत्वा च ॥ भीरून्विनाकृत्य बलानि नानाकारं विनाकारंमथान्यकार्यम् । क्षान्तेर्विनाभूय नृपः स नानाकृत्यादिशद्भङ्कुमवन्तिवेप्रम् ३१ ३१. अथ नृपोवन्तिवप्रमुज्जयिनीकोट्टं भङ्क्तुं नानाकृत्यानेकप्रकारमादिशत् । किं कृत्वा । अन्यकार्य विनाकारं मुक्त्वा तथा क्षातेर्विनाभूयै क्रुद्धीभूयेत्यर्थः । तथा भीरून्कातरान्विनाकृत्य मुक्त्वा तथा बलानि सैन्यानि नानाकारमनेकीकृत्य ॥ सैन्याद्विनाभावमथ द्विधाभूय च द्विधाकृत्य च केपि यत्रम् । ग्राव्णो द्विधाकार मिहायतन्त मङ्क्ष्वद्विधाभाव मधीशभक्तौ ३२ ३२. अथ केपि भटा इह वप्रभङ्गविषये ममयतन्त । किं कृत्वा । अधीशभक्तौ विषये द्विधाभूयै (धाभावमे ?) की भूय स्वामिभक्त्यैकचित्तीभूयेत्यर्थः । तथा सैन्याद्विनाभावं कटकं मुक्त्वा द्विधाभूय च द्वाभ्यां भागाभ्यां स्थित्वा च तथा शिलाः क्षेप्तुं यत्रं जातावेकवचनं यत्राणि द्विधाकृत्य च भागद्वयेन कृत्वा चे ग्राव्णः शिला द्विधाकारं च ॥ ३ ए 'धाकृ. ४ ए म् । ग्ला १ एरमादिशत् ।. वाद्वि. २ सी डी 'वप्रुम्. १ डी पास्य से. २ ए भूयावे. च द्वा. ५ डी च । तिर्यक्कारम् । तत्र. डी २३ ३ सी 'त्वा वा । भी०. ४ सी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] तिर्यकृत्वा । तिर्यकारम् । अत्र "तिर्यचा." [ ८५] इत्यादिना क्त्वाणमौ ॥ अङ्कतोभूय । पार्श्वतोभावम् । पृष्ठतःकृत्य । पार्श्वतःकारम् । नानाभूय । नानाभावम् । नानाकृत्य । नानाकारम् । विनाभूय । विनाभावम् । विनाकृत्य । विनाकारम् । द्विधाभूय । अद्विधाभावम् । द्विधाकृत्यै । द्विधाकारम् । अत्र “स्वाङ्ग." [ ८६ ] इत्यादिना क्त्वाणमौ ॥ चख्नुस्तथाज्ञामनु केपि तूष्णींभावं कुशीपाणय आशु वप्रम् । तस्थौ यथा द्वेपिजनोपि तूष्णीभूयैव तत्साहसदर्शनेन ॥ ३३ ॥ ___३३. कुशीपाणयः सन्तः केपि भटा आज्ञामनु नृपादेशेन हेतुना तूष्णींभावं वप्रभङ्गप्रच्छन्नताथ मौनेन स्थित्वाशु तथा वप्रं चख्नुर्व्यदारयन् । यथा तत्साहसदर्शनेन तेषां भटानां दुष्करकर्मालोकनेन द्वेषिजनोपि तूष्णीभूयैव तस्थौ । तत्साहसदर्शनोत्थविस्मयातिरेकाद्यथा क्षणं निर्वचनक्रियोभूदित्यर्थः ॥ तूष्णीभूय । तूष्णींभावम् । अत्र "तूष्णीमा" [ ८७ ] इति क्त्वाणमौ ॥ केप्येकशोपि प्रभुकार्यमन्वग्भावं विदध्याम समेपिणोयुः । अमूनवेमेत्यभिकाशिणोन्वग्भूयान्वसर्पन्नपरे च तूर्णम् ॥३४॥ ३४. केपि भटा अयुर्वप्रभङ्गाय गताः । किंभूताः सन्तः । समेषिण इच्छन्तः । किमित्याह । वयमेकशोप्येकाकिनोप्यन्वम्भावं प्रभावनुकूलीभूय प्रभुकार्य वप्रभङ्गं विदध्याम कुर्यामेति । इतिरत्र ज्ञेयः । तथापरे च भटा अन्वग्भूयानुकूलीभूय तूर्णमन्वसर्पन्वप्रभ१ सी डी कुवप्रं चख्नु°. २ बी समिषि'. १ डी 'नाका'. २ ए सी डी °य । द्वि'. ३ सी डी त्य । अं. ४ डी भूयेव. ५ ए शमात्तवि'. ६ सी डी नक्षयों. ७ सी डी °ा आयु. ८ ए भावानु. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ५.४.९०.] चतुर्दशः सर्गः । ङ्गाय गतानेकाकिनो भटाननुजग्मुः । यतो वैयममून्वप्रभङ्गायैकाकिनो गतान्भटानवेम साहाय्येन रक्षेमेत्यभिकाङ्क्षिणः ॥ अन्वग्भूय । अन्वग्भावम् । अत्र “आनुलोम्येन्वचा" । [ ८८ ] इति क्त्वा मौ ॥ विदध्याम समेषिणः । अवेमेत्यभिकाङ्क्षिणः । अत्र “इच्छार्थे० " [८९ ] इत्यादिना सप्तमी ॥ १७९ जज्ञेशकत्प्रारभताभ्यधृष्णोदासीद्विषे जघटेर्हति स्म । मिथो विलेभे खनितुं समर्थो व भेटौघो न मनाक जग्लौ ॥ ३५ ॥ ३५. भेटौघो वप्रं खनितुं जज्ञे कोट्टखनन विद्या निपुणत्वाज्ज्ञातवान् । तथा वप्रं खनितुं समर्थो वलिष्ठत्वात्प्रभुरत एव खनितुमभ्यधृष्णोदुदयच्छत् । ततः खनितुमर्हति स्म खनितुं शक्यानां वप्रप्रदेशानां प्राप्त्या खननसामग्री संपत्त्या च योग्योभूत् । ततः खनितुं . मिथो विलेभेन्योन्यं विभागेन स्थापितवांस्ततश्च खनितुं प्रारभत ततश्च खनितुं जघटे संबद्धो भूत्संततं चखानेत्यर्थः । तथा खनितुंमासीत्स्थितः कोट्टान्निपतदस्त्रभयेन नैं नष्ट इत्यर्थः । तथा खनितुं विषेहे खननं सोढवान्न खननेन श्रान्त इत्यर्थः । अत एव खनितुं मनाक्स्तोकमपि न जग्लौ न क्षीणहर्षोभूदत एव खनितुमशकत्खननं समाप्तवानित्यर्थः ॥ १ डी भटोघो. १ ए वचनमूत्थप्र'. "ग्रीप. ५ सी डी 'तुमश ४ २ सी डी भटोघो. ६ ए नष्ट.. ३ डी क्यामां चप्रदे'. ४ डी ७ एखने.. ८ बी ने श्रा. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० व्याश्रयमहाव्ये [जयसिंहः) अपारयत्प्रक्रिमताध्यवास्यदविद्यतालं क्षमते स चाप्नोत् । ऐषीदवेदीयुयुजेविदच्च संभाषितुं तं नृपतिर्न मम्लौ ॥३६॥ ३६. नृपतिर्जयसिंहस्तं भटौघं संभाषितुं सस्नेहमालपितुमवेदीदज्ञासीत्तथा संभाषितुमलं समर्थोत एव संभाषितुमैषीदभ्यलषदत एव संभाषितुमध्यवास्यदुदयच्छदत एवं च संभाष्यभटसामीप्यप्राप्त्या संभाषितुमानोत्संभाषणं भाषणमर्हति स्म । अत एवं च संभाषितुं प्राक्रमत प्रारेभे । तथा संभाषितुं युयुजे संबद्धोभूत्संततं संबभाष इत्यर्थः । तथा संभाषितुमविदच्च लेभे न केनापि निषिद्ध इत्यर्थः । तथा संभाषितुमविद्यतासीनिपतदत्रादिभयं मुक्त्वा संभाषणे स्थिरोभूदित्यर्थः । तथा संभाषितुं क्षमते स्म संभाषणं सोढवान्संभाषणेन न श्रान्त इत्यर्थः । अत एव संभाषितुं न मम्लौ संभाषणेन न म्लानवानित्यर्थः । अत एव च संभाषितुमपारयत्संभाषणं परिपूर्णीचक्रे ॥ खनितुमशकत् । अभ्यष्णोत् । जज्ञे । प्रारभत । विलेभे । विषेहे । अर्हति । जग्लौ । जघटे । आसीत् । समर्थः ॥ संभाषितुमपारयत् । अध्यवास्यत् । भवेदीत् । प्राक्रमंत । अविदत् । क्षमते । आमोत् । मम्लौ। युयुजे । अविद्यत । अलम् । इच्छार्थेषु । ए(ऐ)षीत् । इत्यत्र "शकएष०" [ ९० ] इत्यादिना तुम् ॥ विंशः पादः॥ १बी प्राकृम. सी त्माकम. डी पाचमवाध्य. २ सी डी ३ बी पितुं नृ. सी डी °षि तं. । एषी. १ डी टौघे सं°. २ ए डी "षितुमै'. सी षितुंमै'. ३ सी डी वास. ४ बी सी डी व सं. ५ सी डी षणम. ६ सी डी व सं. ७सी डी तुं क्षम. ८ ए भाषिणं. ९ डी त्यर्थात ए. १० सी पे एवं संभावितुं अ. ११ ए मत् । अ°, १२ बीते । प्रामो'. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ [है० ६.१.१२.] चतुर्दशः सर्गः। . तत्तद्धितं कर्तृभिरात्मभर्तुः समेत्य वृद्धैर्युवभिः क्षणाद्वा । दुःस्थैरथावन्तिभटैः स वप्रोध्यारोह्यभीतै रणतूर्यवाद्यात् ॥ ३७॥ ___३७. अथावन्तिभटैर्मालवभटैर्युवभिर्वृद्धैर्वा क्षणात्समेत्य मिलित्वा स वप्रोध्यारोहि रक्षार्थमध्यारूढः । किंभूतैः सद्भिः । आत्मभर्तुस्तत्प्रसिद्धं विजयादिकं हितमनुकूलं कर्तृभिर्भक्तत्वात्साधु कुर्वद्भिस्तथा दुःस्थैर्वप्रखननादिनारिभिराक्रान्तत्वादुर्दशैस्तथा रणतूर्यवाद्याद्रणतूर्याणां वाधं शत्रुभिर्वादनं तस्मादभीतैश्च शूरत्वादक्षुब्धैश्च ॥ तद्धितमित्यनेन "तद्धितोणादिः" [ 1 ] इति तद्धितसंज्ञा वृद्धरित्यनेन "पौत्रादि वृद्धम् " [२] इति वृद्धसंज्ञा युवमिरित्यनेन "वश्य." [३-५] इत्यादिसूत्रेषुक्ता युवसंज्ञा दुःस्थैरित्यनेन “संज्ञा दुर्वा" [ ६-१०] इत्यादिसूत्रोक्ता दुसंज्ञा वाद्यादित्यनेन “वाद्यात्" [११] इति सूत्रं चासूचि ॥ ते प्रेरिताः पैङ्गलकाण्वजैह्वाँकातादिभिर्दारितकातयुक्तैः । त्रातुं पुरी धानपतींनु राष्ट्रपतीं ततः सौपगवाः प्रज॑हुः ॥ ३८ ॥ ३८. ततोनन्तरं सौपगवा औपगवैर्भटभेदैर्युक्तास्तेवन्तिभटा राष्ट्रपती राष्ट्रपतेर्देशपतेर्यशोवर्मण इमां पुरीमुजयिनी त्रातुं प्रजह्वः शत्रुभिः सह युयुधिरे । यतो धानपती नु धनपतेर्धनदस्येयं धानपत्यलका महधिकत्वादिना तत्तुल्याम् । किंभूताः सन्तः । प्रेरिताः । कैः पैङ्गल. काण्वाः पिङ्गलस्य काव्यस्यर्षेश्छात्रा जैह्वाकाताश्च जिह्वाचपलस्य १ सी पैगलाकात्वजै. २ बी डी गलिका'. ३ बी हाकांतादिदिमि', ४ ए जहः । त'. __१ ए °था दुस्यै . २ ए बी वंश इ. ३ ए का दुःसं. ४ ए सी पते'. ५ ए जयनीं. ६ ए जहुः श. ७ ए °ती भुवन'. ८ सी तेर्न धन'. ९ए काव्य. १० बी सी डी काण्वस्य. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] कात्यर्षेश्छात्रास्तदादिभिः पण्डितेति नाम्ना प्रसिद्धैः प्रधानैः । कीहशैः । हा(ह?)रितकात्यस्येमे छात्रा हारितकातास्तद्युक्तैः ॥ यथा काव्यस्येमे काण्वा इत्यत्र "शकलादेर्यजः" [ ६. ३. २७.] इत्यन् । तथा पैङ्गलकाण्वा इत्यत्र “गोत्रोत्तर०" [१२] इत्यादिनाञ् ॥ अजिह्नाकाय॑हरितकात्यादिति किम् । यथेहेयो भवति कात्यस्य छात्राः कातीयास्तथेह न । जैह्वाकात हारितकात ॥ औपगवाः । इत्यत्र “प्राग्जितादण्" [१३] इत्यण् ॥ धानपतीम् । राष्ट्रपतीम् । अत्र “धनादेः पत्युः" [१५] इत्यण ॥ अत्रान्तरे दैत्यभिदस्तमामोदादित्य [आदित्य]मयुत कर्म । विधातुमादित्य्यसमः सबार्हस्पत्यो नृपो वारितयाम्यकर्मा ॥३९॥ __३९. अत्रान्तरे दैत्यभिदादित्योदित्याख्यमातुरपत्यं सूर्योस्तमाप्रोत् । ततश्च नृपो जयसिंह आदित्यमादित्यदैवतं कर्म संध्यावन्दनादिक्रियां विधातुमयुत संबद्धोभून् । कीदृक्सन् । सह बार्हस्पत्येन बृहस्पतेरपत्येन बृहस्पतिदेवतेन वा पुरोहितेनाभिगाख्येन सह यः स तथा । तथा निवारितं याम्यं यमदैवतं कर्म प्राणिवधाद्यशुभक्रिया येन स तथा । ननु तादृशि युद्धसंरम्भेन्यो नृपजन आदित्यं कर्म स्मरत्यपि न तत्कथमसौ तत्कृतवानित्याह । यत आदित्य्यसमोदितिर्देव १ ए सी "स्पतो नृ. १बी काण्वस्ये . सी काण्वास्ये'. २ ए त्यथ शंक'. ३ बी व सक. सी 'त्र सवला. ४ ए यञ् इत्यस्तथा पिङ्ग. ५ सी त्यस्तथा. त्यापै. ६ सी त्यहारि. ७ बी सी थेयो. ८ ए न । जेहा. सी न । जिह्वाकातहरि . ९ बी हितनामगा'. १० सी तेन पिगोख्ये'. ११ सी °दित्यासौमेदिति देव. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है०६.१.१५. ] चतुर्दशः सर्गः। १८३ तास्य मातृत्वेन ज्ये आदित्यः सूर्यस्तस्यापत्यं पुनर्व्य आपत्यत्वाभावायलोपा. भावे आदित्यो(त्य्यो ?) मनुस्तेन धार्मिकत्वादिगुणैः समः ।। अथादितीयेस्तमयेत्र वानस्पत्यादिवोत्पत्य तमोग्रसिष्ट । अबाह्यबाहीकपदार्थसार्थ याम्यो नु कालेयमथो नु किं तत् ॥४०॥ ४०. अथ तथादितीयेर्कसक्तेस्तैमयेस्तगमने सति तमोबाह्यबाहीकपदार्थसार्थमबाह्यानां बाह्यानां च सर्वेषामित्यर्थः । पदार्थानां समूहमासिष्टादृश्यकारित्वाद्स्तवानि(वदि?)व । किं कृत्वा । अत्र वानस्पत्यादिवोत्पत्यात्र जगति यो वनस्पतीनां समूहस्तस्माद्वनगहनेभ्य इत्यर्थः । उत्प्लुत्येव । दिने हि तद्वननिकुञ्जष्वासीदित्येवमाशङ्का । उत्प्रेक्षते । नैतत्तमः किं तर्हि याम्यो नु यमस्यापत्यमिवाथो अथवा किं कालेयं नु कलिकालस्यापत्यमिव कलेरागतमिव वा । किल यमो मृत्युभावेन कलिश्च कलिभावेन सर्व वस्तुजातं ग्रसेते तमोपि सर्व अस्तवंदतो ज्ञायते यमकल्योरपत्यमिव पितुरनुहर्तृत्वात्पुत्रस्येत्यर्थः । यद्वातिकृष्णत्वादेवमाशङ्का । कालेयमित्यत्र मतभेदेन क्लीबत्वम् ॥ आग्नेयरुग्राडथ पार्थिवामप्यपार्थिवीं न्वीक्षितुमुज्जयिन्याः । बहिर्निवेशश्रियमङ्गरक्षावौत्सौदपानावपि वर्जितागात् ॥ ४१ ॥ ४१. अथ राड् जयसिंह उज्जयिन्या बहिर्निवेशश्रियं बाह्यप्रदेशलक्ष्मीमीक्षितुमगात् । यतः पार्थिवामपि पृथिव्यां भवां जातां १ बी वेशेश्रि. २ सी श्रियं बाह्य. १ सी ज्यं अप. २ बी आपात्य'. ३ सी दितिगुणैस. ४ ए °स्तग°. ५ बी दार्थे सा. ६ बी ने ह त°. ७ सी शक्य उ. ८ बी सी वत्ततो. ९ बी देशे ल'. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] पृथिव्या इमामपत्यमपि वा । एवं यथासंभवमन्यत्राप्यर्था अभ्यूह्याः । अपार्थिवीं न्वत्युत्कृष्टत्वात्स्वर्गभवामिव । कीहक्सन् । औत्सौदपानावपि सदा सहचरावुत्सोदपानाख्यदेशयोर्भवौ जातौ वा । यद्वोत्सोदपानदेशराजयोरपत्ये अङ्गरक्षावपि वर्जिता त्यजनशील एकाकीत्यर्थः। यत आमेयरुग् निर्भीकतादिगुणैः कार्तिकेयसमः ॥ दैत्यः(त्य) । आदित्यः । आदित्यम् । याम्य ॥ पत्युत्तरपद । बार्हस्पत्यः ॥ अणपवादे च । आदिस्य्य । याम्यः । वानस्पत्यात् । इत्यत्र "अनिदमि०" [१५] इत्यादिना न्यः ॥ अनिदमीति किम् । आदितीये । बाहीक । भवाह्य । इत्यत्र "बहिषष्टीकण्च" [१६] इति टीकण न्यश्च ॥ कालेयम् । आग्नेय । इत्यत्र "कलि." [१७] इत्यादिनैयण ॥ पार्थिवाम् । अपार्थिवीम् । अत्र "पृथिव्या जा" [१८] इति प्रात्रौ ॥ औत्सौदपानौ । इत्यत्र "उत्सादेरज्" [१९] इत्यञ् ॥ दैवीं स सौवष्कयिवाष्कयाश्वत्थामोड(ड)लोमैरुपयुक्ततीर्थाम् । सिप्रां ययौ दैवमसिं दधानः श्रियं च दैव्यां महिमापि दैव्यम् ॥४२॥ ४२. स राजा सिमां ययौ । कीहक्सन् । दैवं देवैरधिष्ठितत्वाद्देवानामिममसिं दैव्यां देवसंबन्धिनीं श्रियं चाङ्गलक्ष्मी च दैव्यं महिमापि प्रभावमपि दधानः । किंभूतां सिताम् । दैवी देवैरधिष्ठितत्वेन देवसंबन्धिनीम् । तथा सौवष्कयिवाष्कयाश्वत्थामोडुलोमैः सुवष्कयवष्कयाश्वत्थामोडुलोम्नामृषीणामपत्यैरुपयुक्ततीर्थी संयुक्तावताराम् ॥ १ ए सी त्वात्सर्ग'. २ ए औत्सोद'. सी औसौद'. ३ ए दोत्सौद'. ४ सी स्पतः । अ०. ५ सी "दे यः । आ. ६ ए °दित्य । या .बी दित्य्यः । या . ७ ए 'त्यादिना. ८ एम् । अदि. ९सी हीकः । *. १० ए 'वं दैव. ११ एम् । देवीं. १२ ए सी 'कयवा. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.१.२४.j चतुर्दशः सर्गः । १८५ वाकय । इत्यत्र “वष्कयाद्०" [२०] इत्यादिनाञ् ॥ असमास इति किम् । सौवष्कयि ॥ दैव्यम् । दैवम् । इत्यत्र "देवाद्यञ्च" [२१] इति यजनौ ॥ यमन्तादजन्ता. चड्यां दैवीम् । यजन्ता व्यायनीत्यपि स्यात् ॥ केचित्तुं न्यप्रत्ययमपीच्छन्ति । दैव्याम् ॥ अश्वत्थाम । इत्यत्र "भः स्थानः" [२२] इति-अः ॥ उडुलोमैः । अत्र “लोग्नोपत्येषु" [ २३ ] इति-अः ॥ पाण्मातुराभो द्विरथर्षभांसस्त्रिवेदवन्द्यां तटिनीमटन्सः । स्त्रैणं बलिं पाश्चकपालमाखादयत्ततोपश्यदंपौंस्नमारात् ॥ ४३ ॥ ४३. ततः स नृप आरान्निकटे स्त्रैणं स्त्रीसमूहमपश्यत् । कीहक् । द्वयो रथयोढिरथ्या वा वोढा द्विरथो य ऋषभस्तस्येवातिबलिष्ठावंसौ स्कन्धौ यस्य स तथात एव पाण्मातुराभः षण्णां मातृणां कृत्तिकानामपत्यं पाण्मातुरः स्कन्दस्तत्तुल्यस्तथा त्रिवेदेखीन्वेदान्विद्वद्भिरधीयानैर्वा तीर्थत्वाद्वन्द्यां तटिनी नदीमटन्सन् । किंभूतं खैणम् । अपौस्त्रं पुरुषौधरहितं तथा पाञ्चकपालं पञ्चकपालस्य पञ्चसु कपालेषु संस्कृतस्य हविरादेरिमं बलिमास्वादयद्भक्षयत्सत् ॥ द्विरथ । इत्यत्र यप्रत्ययस्य त्रिवेद । इत्यत्राणश्च "द्विगो०" [ २४ ] इत्या १ए °वद्यां त°. २ ए दपोस्न. १५ सी यजाजौ. २ ए ड्या देवी'. ३५ °न्ताद्देव्या° सी न्तादैवायिनी. ४ बी देवाय'. ५ ए तु न. ६ बी सी दैव्यम्. ७सी अः । षण्मा . . ८ ए यो द्विरश्या वा. ९ए सी. न्दतत्तु. १० ए सी अपैलं. ११ ए रुषोघ. १२ ए सी था पञ्च'. १३ ए °रिव संय'. २४ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ध्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] दिना लुप् ॥ अनपत्य इति किम् । पाण्मातुर ॥ अद्विरिति किम् । पञ्चसु कपालेषु संस्कृतं पञ्चकपालं तस्येमं पाञ्चकपालम् ॥ स्त्रैणम् । अपौनम् । इत्यत्र० "स्त्री०" [ २५ ] इत्यादिना नसत्रौ ॥ स्त्रीत्वेपि चौग्यादतिलय पुंस्तास्त्रैणे मिथो जल्पति तत्र राजा । तद्योगिनीवृन्दमिति व्यबुद्धाशृणोद्गिरं चेत्यनवद्यपौंस्नः ॥४४॥ ४४. स्पष्टम् । किं तु स्त्रीत्वेपि च नारीत्वेप्यौग्र्यात्प्रचण्डिना पुस्तास्त्रैणे पुरुषत्वस्त्रीत्वे अतिलङ्घय खीपुंसावतिक्रान्तं प्रागल्भ्यमाश्रित्येत्यर्थः । तत्र स्त्रीसमूहे । अनवद्यौस्लो निष्कलङ्कपौरुषः ।। स्त्रैणे स्त्रीत्वे । पौनः पुंस्ता । इत्यत्र "वे वा" [ २६ ] इति वा नन्ननौ ॥ गव्ये पुरो दर्भमयं चुलुक्यं कृत्वा तथा कीलय लोहकीलैः । द्रौग्गायेगाायणदाक्षिाहव्यौदश्चिमत्रैर्न यथैष रक्ष्यः ॥४५॥ ४५. स्पष्टः । किं तु हे गये गोः पुत्रि गोदेवते वा। लोहकीलैः स्तम्भनमत्रानुविद्धलोहमयकीलकैः । गर्गस्यापत्यं पौत्रादि गाग्र्यो गार्गेरपि गार्यो गार्यस्यापि गार्यो गाायणस्यापि गार्यस्तथा गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्यस्तस्यापत्यं युवा गाायण एवमादय ऋषयः॥ गन्ये । अत्र "गोः स्वरे यः" [२७] इति यः ॥ औपगवाः । दैत्य । औत्स । एषु "सोपत्ये" [२८] इति यथामिहितम. णादयः ॥ १सी दर्कम. २ बी सी द्राग्जार्य. ३ ए यंगग्या . ४ सी बा. हिन्यौद. १ ए सी तुरः । अ०. २ ए अपोंस्तम्. ३ सी 'व्ये गोपु. ४ सी गार्या. ५ बी २ ई. ६ सी दैत्यः । औ.. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.१.३३.] चतुर्दशः सर्गः। १८७ गार्थ । इत्यत्र "आचात्" [२९] इत्यपत्येणादय माद्यात्परमप्रकृतेरेव ॥ गाायण । इत्यत्र “वृद्धाधुनि" [३०] इति यून्यपत्ये विवक्षिते यः प्रत्ययः स आद्यादृद्धप्रत्ययान्तात्स्यात् ॥ दाक्षि । इत्यत्र “अत इञ्" [३१] इति इम् ॥ वाहवि । औदञ्चि । इत्यत्र "बादादिभ्यो गोत्रे" [१२] इति-इन् ॥ त्वं सैन्द्रवमि सह चाक्रवर्मणेनाजवा(बा)कादिकधेनविभ्याम् । पातासि चेदुजयिनीपति तत्काणि क्षिप ब्राह्मणधेनविग्रः ॥४६॥ ४६. हे ब्राह्मणघेनविग्रो ब्राह्मणधेनवेर्मुनिभेदस्य प्रासिके सैन्द्रवर्मिमिन्द्रवर्मणोपत्येन राजभेदेन सहितमुज्जयिनीपतिं चेत्पातासि रक्षिष्यसि । कैः सह । चाक्रवर्मणेन नृपविशेषेण तथाजवाष्कादिकघेनविभ्यामाजधेनविवाष्कधेनविभ्यां प्रधानाभ्यां च सह । तत्तदा काणि जयसिंहं क्षिप निरस्य । न खल्वयं ब्राह्मणधेनवाम्भी सांभूयिभौयी न च नामितौजिः। नौदिन शालङ्किरथो ने पाडिवैयासकिर्नापि न वावलिवा ॥४७॥ न बैम्बकिर्वारुट (ड)किन सौधातकिर्न नैषाद किरेष नापि । किं तु प्रतापी जयसिंह एष हन्तुं यतध्वं तदिहोगमत्रैः ॥४८॥ ४७, ४८. ब्राह्मणघेनवाम्भी सांभूयिभौयी औदिः शालङ्किाग्वद(ड्वल ?)स्यापत्यं वाड्वलिः सौधातकिर्नैषादकिश्च ऋषयः । आमितौजिवैव(बैम्ब ?)किश्च नेपौ । तथा प्रसिद्धानां षण्णां पूर्वजानाम। १ सी त्वं सेन्द्रर्वानेस. २ सी न खाडिवैया'. ३ ए डिविया . बी डि. वैया. १ सी इव्यपत्योणा. २ सी स्य ग्रसिके सेद्रवमिमिद्रवर्म'. ३ बी मिद्रवं. ४ सी बी भ्यां च. ५ बी नृपः । त'. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] पत्यं षाडि ः पुरुषविशेषः । यद्वा षण्णां कृत्तिकानामपत्यं पाडि : कार्तिकेयः । पाडिरिवाने कशक्तियुक्तत्वात्पाडिः कश्चिन्नृपः । तथा व्यासस्यापत्यं वैयास किऋषिः पाण्डववंश्यः कश्चिद्राजा वा । तथा वैरुटस्य गञ्छकस्यापत्यं वारुटकिः । एते सर्वेपि महामन्त्रशक्त्याद्युपेता अपि युष्माभिइछलिताः । एष तु राजा नैतत्सदृशः किं तु प्रतापी जयसिंहस्तत्तस्मादिह जयसिंहविषय उग्रमन्त्रैः प्रचण्डैरभिचारमन्त्रैः कृत्वा हन्तुं यतध्वमित्यर्थः ॥ चाण्डालकिं चण्डि यथाथ कार्मारकिं सवैयाघ्रकिमाशिथ प्राक् । विभज्य पौनर्भवमाग्निशर्म क्युदार नानान्द्रमथो यथा वा ॥ ४९ ॥ भीमस्य पौत्रं जयकेशिनश्च दौहित्रमेनं न तथात्सि किं तु । हतप्रभावा पवमानपार स्त्रैणेयसुनोवि मन्त्रजातैः ॥ ५० ॥ ४९, ५०. हे चण्डि चण्डिकाख्ययोगिनि यथा प्राकू चाण्डालकिं चण्डालापत्यं महामात्रिकमाशिथाखादोथाथ वा यथा सवैयाकिं व्याघ्राख्यनरभेदापत्ययुक्तं कार्मारकिं महामात्रिकं लोहकारापत्यमाशिथाथो वाथ वा यथा पौनर्भवं पुनः पुनरूढाया अनन्तरमपत्यमाग्निशर्मक्युदारनानान्द्रमाभिशर्मक्या अग्निशर्माह्वब्राह्मणपुत्र्याः संबन्धिनमुदारं मन्त्रबलेनोद्भटं ननान्दुरपत्यं विभज्यान्ययोगिनीभिः सह विभागेन कृत्वाशिथ । तथा भीमस्य पौत्रं जयकेशिनश्च मयलापितुदौहित्रमेनं जयसिंहं किं तु किमिति नात्सि न खादसि । कीदृक्सती । हतप्रभावेव । कैर्मन्त्रजातैर्मन्त्रौघैः । कस्य पवमानपारस्त्रैणेयसूनोः परस्य स्त्री परस्त्री तस्या अपत्यं पारखैणेयः । पवमानस्य ४ बी न्तुं प्रय". १ एत्यं पु. ५ सी 'किं चाण्डा'. २ए तक. ६ ए घास्य न. ३ ए वरूढछक°. ७ ए मंत्रोघैः . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.१.३७.] चतुर्दशः सर्गः। १८९ वायोः पारस्त्रैणेयो यः सूनुस्तस्य हनूमतः । हनूमान्य जनामर्कट्यां परयोषिति वायुना मर्कटरूपेण सङ्गे सति जात इति लोकोक्तिः । हनुमदैवतमत्रैर्हि भूतशाकिन्यादिप्रभावा हन्यन्ते ।। सार्या हि नः पारशवा वि(बि ?)दास्ते सगार्यवात्स्याश्छलिताः पुरा ये। यद्रूप और्वाग्निरिव प्रतापी संस्पृश्यमानोपि दहत्यसौ नः ॥५१॥ ५१. स्पष्टः । किं तु नै इत्यत्र “कृत्यस्य वा" [ २. २. ८८. ] इति कर्तरि षष्ठी। अस्माभिरित्यर्थः । पारशवाः पराः पुरुषाद्भिन्नवर्णाः त्रियः परस्रियस्तासामपत्यानि । विदा विर्घ्यपत्यानि । यद्यस्माद्धेतोः ॥ सैन्द्रवर्मिम् । इत्यत्र "वर्मणोचकात्" [३३] इतीज् ॥ अचक्रादिति किम् । चाक्रवर्मणेन ॥ आजधेनविवाष्कधेनविभ्याम् । अत्र "अजादिभ्यो धेनोः"[३४] इतीज् ॥ ब्राह्मणधेनवि ब्राह्मणधेनव । इत्यत्र "ब्राह्मणाद्वा" [३५] इति वा-इञ् ॥ भौयी । सांभूयि । आम्भी। आमितौजिः । अत्र "भूयः" [३६] इत्यादिने सस्य लोपश्चैषाम् ॥ शालकिः । औदिः । षाडिः । वाइलिः । इत्येते . "शालकि" [३७॥ इत्यादिनेजन्ता निपात्याः ॥ १ए वियस्त संगा. २ सी लिता परा. १ सी भूतिशा. २ ए न्ते । मायां हि. ३ ए न रूपेणत्य. ४५ 'तितक. ५ ए स्त्रियास्ता. ६ ए दीप. ७ बी आम्भीः । आ. ८ ए सी लिः । एते. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० व्याश्रयमहाकाव्वे (जयसिंहः] वैयासकिः । वाल्टकिः । सौधातकिः । नैषादकिः । बैम्बकिः । चाण्डाल. किम् । अत्र "न्यास.” [३८] इत्यादिनेन् । अक् इत्यन्तादेशश्चैषाम् ॥ कारव्याघ्राग्निशर्मभ्योपीच्छन्त्येके । कार्मारकिम् । वैयाघ्रकिम् । आग्निशर्मकी ॥ पौनर्भवम् । पौत्रम् । दौहित्रम् । नानान्द्रम् । अत्र "पुनर्भू." [३९] इत्यादिना-अञ् ॥ पारशवाः । भत्र “पर०" [४०] इत्यादिनाञ् परस्त्रीशब्दस्य परशुभा. वश्च ॥ असावर्ण्य इति किम् । पारस्त्रैणेय । सङ्गकाले पवमानस्य मर्कटरूपत्वादसावाभावः ॥ विदाः । और्व । इत्यत्र "विदादे "[ ४१ ] इत्यम् ॥ गार्यवात्स्याः । भन्न "गर्गादेर्य" [ ४२ ] इति यज् ॥ सहैव माधव्यककाप्यबौध्यबाभ्रव्यवातण्ड्यवतण्ड्यपत्यैः । श्वोसौ यशोवर्मनृपं ग्रहीताधुना न चेच्छनुथ हन्तुमेनम् ॥५२॥ ५२. स्पष्टः । किं तु मधोरपत्यं वृद्धं ब्राह्मणो माधव्यो राज्ञेखाणासमर्थत्वात्कुत्सितो माधव्यो माधव्यक एवमाद्यैः प्रधानैस्तथा वतण्डस्यापत्यं वृद्धं स्च्याङ्गिरसी वतण्डी तस्या अपत्यं वतण्ड्यपत्यं तेन च प्रधानेन सहैव । असौ जयसिंहः ॥ माधव्य । बाभ्रव्य । इत्यत्र "मधु०" [ ४३ ] इत्यादिना यञ् ॥ काप्य । बौध्य । इत्यत्र "कपि." [ ४४ ] इत्यादिना यज् ॥ १ बी ड्यचतन्द्रप. २ ए बी सी पं गृही. १ए 'किः । चम्ब. बी किः । बेम्ब. २ बी म् । अग्नि. ३ ए शवः । अं. ४ ए राजस्ला'. ५ बी शस्त्रीणा'. ६ सी धव्यः । बा. ७ सी प्य । बोध्य. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.१.४७.] चतुर्दशः सर्गः। १९२ १९१ · वातण्ड्य । इत्यत्र "वतण्डात्" [५५] इति यन् ॥ वतण्डी । इत्यत्र "स्त्रियां लुप्" [ ४६ ] इति यनो लुप् ॥ कौञ्जादिगाणादिकयन्यकौञ्जायन्यादयः कष्टमहो अमूभिः । तटेत्र सन्तीति मृशन्समक्षीभूयेत्यथाह्वास्त स ताथुलुक्यः ॥५३॥ ___५३. अथ स चुलुक्यः समक्षीभूय प्रत्यक्षीभूय ता योगिनीरिति वक्ष्यमाणप्रकारेणाद्वास्त सस्पर्धमाकारयत् । कीदृक्सन् । मृशंश्चिन्तयन् । किमित्याह । अत्र तटेमूभिर्योगिनीभिहेतुभिः कोजादिगा. णादिकयन्यकौ जायन्यादयः कौञ्जायन्यग(गा ?)णायन्यकौ जायनीप्रभृतय ऋषय ऋष्यश्चाहो आश्चर्य कष्टं दुःखेन सन्तीति । आश्चर्य चानेकशक्तियुक्तानामृषीणामप्येतासां छलनभयेन कष्टमवस्थानात् ॥ कौञ्जायनानां श्रयथाद्यवेषं गाणायनानामथ मायया चेत् । शाङ्खायनाश्वायनतों च याथ ज्ञात्वा निगृह्णामि ततोप्यहं वः ॥५४॥ ५४. स्पष्टः । किं तु माययालक्ष्यतार्थ छद्मना। शाङ्खायनावा. यनतां चे याथ शाङ्खायनाश्वायनमुनिवेषा वा भवथेत्यर्थः । ततोपि तदापि ज्ञात्वा योगिन्य एता इति बुद्धिप्रयोगेणावगम्य ॥ कौञ्जायन्य । गाणायन्य । इत्यत्र “कुनादेयिन्यः" [ ४७ ] इति मायन्यः ॥ १ बी सी कोजादि. २ सी कौजाय. ३ सी कौजाय'. ४ बी सी °षं गणा'. ५ एतां य या. १ सी वक्षमा'. २ सी कोजादि'. ३ बी दिय'. ४ ए श्वानयतां. सी 'श्वामततां यथा शा. ५ बी च यथा शा. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः कौञ्जायनी । कौञ्जायनानाम् । गाणायनानाम् । इत्यत्र "स्त्री." [ ४८ ] इत्यादिना-आयनन् । आश्वायनताम् । शाङ्खायन । इत्यत्र "अश्वादेः" [ ४९ ] इत्यायनञ् ॥ वित्रस्तशापायनबन्धुभारद्वाजायनाद्याश्रममारसन्त्यः । भार्गायणाद्युद्भयमुत्पतन्त्यो योगिन्य एयुस्तमास्वहस्ताः ॥५५॥ ५५. योगिन्यस्तं जयसिंहमेयुः । किंभूताः सत्यः । विस्ता भीताः शापायनस्यबन्धूनां भारद्वाजायनाद्यानामृषीणामाश्रमा उपचारादाश्रमस्था ऋषये ऋष्यश्च यत्रं तद्यथा स्यादेवमारसन्न्यो रौद्रं शब्दायमानास्तथा भार्गायणादीनामृषीणामुदुद्गतं भयं यत्र तद्यथा स्यादेवमुत्पतन्य उच्छलन्त्यस्तथास्वहस्ताः ।। शापायन । भारद्वाजायन । इत्यत्र “शप." [ ५० ] इत्यादिनायनम् ॥ भार्गायण । इत्यत्र “भर्गात्" [५१] इत्यादिनायनञ् ॥ नाडायनैरप्यवितर्जिता आत्रेयायणैरप्यहतास्तपद्भिः। चारायणैरप्यविचारिताश्च गाायणैरप्यविवाधिता नः ॥ ५६ ॥ अन्यैश्च दाक्षायणहारितायनाद्यैरनुन्नास्तुदसीति वत्र्यः । कौष्टायनाास्तरसाथ ताः कैदासायनेड्याः क्षितिपे प्रजहुः ॥५७ ॥ ५६, ५७. स्पष्टे । किं तु । तपद्भिस्तपस्यद्भिः । अनेनैषां तप १ सी सत्यः । भा'. २ बी यात्रह. सी थाव ह. ३ बी विवर्जि°. ४ बी ताः कौंदा. सी ताः कैंदा. १बी म् । गणा. २ सी °णाथाय'. ३ ए त्यस्त्राप्तगदेना. ४ सी त्रस्ताः शा. ५ सी 'यत्र. ६ बी ‘त्र यथा त°. ७ए ततघ. ८ सी स्वह°. ९पथावह. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.१.५२.] चतुर्दशः सर्गः। १९३ श्चरणोत्था अनेकाः शक्तय उक्ताः । तद्युक्तैरपि नाडायनादिमहर्षिभिरकृततर्जनाहननाद्या नोस्मांस्तुदीति वत्र्यः । ईड्याः स्तुत्याः । ता योगिन्यः ॥ दार्भायणैरप्युदितं स्मृतं शालङ्कायनश्चेति यदागसि स्त्रीम् । प्रशासंतो नांह इति सरनप्युच्छूकमाशु प्रजहार भूपः ॥ ५८ ॥ ५८. भूपं उच्छूकं स्त्रीषु प्रहरणं नोचितमिति चिन्तयोद्गतघृणं यथा स्यादेवमाशु योगिनीषु प्रजहार । कीहक्सन् । स्मरन्नपि जाननपि । किमित्याह । आगस्यपराधे सति स्त्री प्रशासतो येनांहः स्त्रीहत्योत्थं पापं न स्यादित्येतद्दार्भायणैरपि मुनिभेदैरप्युदितं शालङ्कायनैश्च स्मृतमिति ॥ कार्णायनीव क्षुभितानिशर्मा यणीव राणायनिकेव किं वा। असीति जल्पन्त्यथ ता निनक्षुः कोपादुदस्थात्किल तत्र काली ॥ ५९ ॥ ५९. अथ किलेति सत्ये । तत्र योगिनीषु मध्ये काली पीठस्वामिनी कोपादुदस्थायुद्धायोदयच्छन् । कीदृक्सती । ता योगिनीनिन धुनष्टुमिच्छू: प्रत्येकं जल्पन्ती । कथमित्याह । यथा कार्णायन्याद्या ऋषिपुत्र्यः कातरत्वाक्षुभ्यन्येवं त्वं किमिति क्षुभितासीति ।। किं शौनकायन्यहमस्मि शारद्वतायनी पार्वतिपत्न्यथो किम् । किं पार्वतायन्युत शंस जैवन्तायन्यथो सेति जहास भूपम् ॥६०॥ १ए यनैर. २ बी तो नाह. ३ ए सी वा । आसी. ४ बी भूपः । स्प. सी भूप । स्प. १बी चितयो'. २ बी सी यन्नाहः. ३ ए °नमून'. २५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४. ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] ६०. स्पष्टः । किं तु शौनकायन्याद्या ऋषिपुत्र्यः । अस्मि वर्ते । पार्वतिपत्नी पार्वतेच्नेर्भार्या । शंस हे राजन् कथय । सा काली ॥ जैवन्तिवद्रौणिवदद्य तिष्ठ तिष्ठेति वत्र्याविरनेकरूपा । चौलुक्य राजस्तरसातिशैवद्रोणायनं सापिदधेस्त्रवर्षेः ॥ ६१ ॥ ६१. स्पष्टः । किं तु हे राजजैवन्तिवज्जीवन्तापत्यराजवद्रौणिवदश्वत्थामनृपवदद्य तिष्ठं तिष्ठ मा नेश इत्यर्थः । इति सा काली । अतिशैवद्रोणायनं शौर्यादिगुणै(गः) कार्तिकेयाश्वत्थामावतिक्रान्तम् ॥ काकुस्थ(स्थ)वच्छऋजिता क्षणं राड्वासिष्ठवद्गाधिसुतेन चोचैः । भैमेन कानीन इवावधूतः श्वाफल्कदाशार्हसमस्तथा(या?)ौः ॥६२॥ ६२. श्वफल्कस्यापत्यं श्वाफल्कोन्धकक्षत्रियभेदो दशार्हाणामपत्यं दाशार्हो विष्णुईन्द्वे ताभ्यां समो राड् जयसिंहस्तया काल्यास्त्रैः क्षणमवधूतः क्षिप्तः । यथा काकुस्थः (त्स्थः) ककुस्थ(स्थ)स्यापत्यं काकुस्थो(स्थो) रामो लक्ष्मणो वा शक्रजिता रावणपुत्रेण यथा च वासिष्ठः कामधेनुप्रत्याहरणव्यतिकरे वसिष्ठर्षिणोत्पादितत्वावसिष्ठस्थापत्यं परमारादि(पराशरादि ?)पुरुषो गाधिसुतेन विश्वामित्रेण यथा च कानीनः कन्याया अपत्यं कर्णो भैमेन भीमस्य पाण्डोरपत्येन घटोत्कचेनोच्चैः क्षणमखैरवधूतः । एतैरुपमानैर्जयसिंहकर्तृकः काल्या भावी पराभवोसूचि । काकुत्स्थादिभिः पश्चाच्छकजिदादीनां विजयात् ॥ १ए सी तेमुनेभाया. २ ए सी श्वस्थाम. ३ सी °ष्ठ मा. ४ ए °शाहणा. ५५ था क. ६ बी पत्यं रा.सी पत्य रा. ७ ए सी था वा वशिष्ठः. ८ एसी वशिष्ठ. ९एबी दशिष्ठ. १० बी कुस्थादि°. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हे. ६.१.६०.] चतुर्दशः सर्गः। १९५ यत्रैवणच्छागलशोङ्गवैकर्णायैः स्वयं वैश्रवणेन चापि । सुदुर्लभं रावणजित्समौजा मायाप्नमस्त्रं स्मरति स्म तत्सः॥६३ ॥ ६३. रावणजिसमौजा रामचन्द्रतुल्यबलः स जयसिंहस्तन्मायानमनेकरूपकरणादिच्छापहार्यस्त्रं स्मरति स्म । यन्महाप्रभावत्वात्रैवणच्छागलेशौङ्गवैकर्णाद्यैर्मुनिभेदैः स्वयं वैश्रवणेन चापि धनदेनापि सुदुर्लभम् ।। आत्रेयायणैः । अत्र "आत्रेयाद्" [५२ ] इत्यादिनायनञ् ॥ नाडायनैः । चारायणैः । इत्यत्र “नडादिभ्य भायनण्" [५३ ] इत्यायनण् ॥ गाायणैः । दाक्षायन(ग) । अत्र “यजिमः" [५४ ] इत्यायनण् ॥ हारितायन । कैदासायन । इत्यत्र "हरितादेरजः" [५५ ] इत्यायनम् ॥ कौष्टायन । शालङ्कायनैः । अत्र "क्रोष्ट." [५६] इत्यादिनायनण् । तयोश्वान्तस्य लुक् ॥ दार्भायणैः । कार्णायनी । आग्निशर्मायणी । राणायनिका । शारद्वतायनी । शौनकायनी । इत्यत्र “दर्भकृष्ण." [५७ ] इत्यादिनायनण् ॥ जैवन्तायनी जैवन्तिवत् । पार्वतायनी पार्वति । इत्यत्र "जीवन्त." [५८] इत्यादिनायनण्वा ॥ दौणायनम् द्रो(दो)णि । इत्यत्र "द्रोणाद्वा" [५९ ] इति वायने । शैव । काकुस्थ(स्थ) । इत्यत्र "शिवादेरण्" [ ६० ] इत्यम् ॥ १ ए °णश्छाग'. सी °णस्थाग'. २ ए सी शौगवै. ३ बी न वापि. १सी त्समो राजा. २ एल: ज. ३ सी णस्थाग°. ४ ए °लशोग.. ५ सी शौगवै'. ६ बीन । कैंदा. ७बी'न । ह'. ८ बी सी नी। अमि. ९ एति . १० बी ण् । शिव. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ऋषि । वासिष्ठ ॥ वृष्णि । दाशाह ॥ अन्धक । वाफलक ॥ कुरु । भैमेन । इत्यत्र "ऋषि०" [ ६१ ] इत्यादिनाण् ॥ कानीनः । त्रैवण । इत्यत्र "कन्या." [ ६२] इत्यादिनाण । कनीनत्रिवत्यादेशौ च ॥ शौङ्ग । इत्यत्र "शुङ्गाभ्या०" [ ६३ ] इत्यादिनाम् ॥ वैकर्ण । छागल । इत्यत्र "विकर्ण०" [ ६४ ] इत्यादिना ॥ वैश्रवणेन । रावण । इत्यत्र "णश्च०" [ ६५ ] इत्यादिनाण तत्संनियोगे पश्चान्तादेशः । णसं नियोगे विशशब्दलोपश्चास्य वा ॥ द्वैमातुरारातिसमोपि कोपात्सांमातुरत्वेन दयां दधानः । सोस्त्रेण तनापहतान्यरूपामेकाकिनी मित्यवदत्सितास्यः ॥ ६४॥ ६४. उत्तरार्धं स्पष्टम् । कोपाद्वैमातुरारातिसमोपि जरासंधपित्रा देवतावितीर्णायाः पुत्रोत्पत्तिहेतोरेकस्या गुटिकाया महाभारते तु स्वयमाम्रवृक्षान्नृपकरे पतितस्य चण्डकौशिकर्षिणा पुत्रहेतुत्वेनोपादिष्टस्यैकस्य परिपक्कस्याम्रफलस्यार्धमध विभज्यातिवल्लभयोर्द्वयोर्भार्ययोर्दानेनार्धस्यार्धस्य पुत्रस्य जन्मतो जराराक्षस्यावसंधानाहयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरो जरासंधस्तम्यारिविष्णुस्तस्य समोपि । अतिकोप्यपीत्यर्थः । सांमातुरत्वेन सर्वैर्दयालुत्वादिभिर्मातगुणैः संगता माता संमाता म. यणल्ला तदपत्यत्वेन दयां दधानः ।। त्वं भाद्रमातुर्यबलासि ततिक कुर्या(याँ) त्रपानार्मदमग्न एषः । पूर्वाश्च शाकुन्तलजागवेयादींस्त्रीवधाकि बत लज्जयामि ॥६५॥ ६५. हे भाद्रमातुरि भद्रा प्रशस्या भद्रस्य वा या माता तस्याः १बी वाशिष्ठ. सी वाशिष्ठः । १०. २ सी ण । त्या . ३ ए हेत्वे'. ४ बी शस्य मो. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.१.६६.] चतुर्दशः सर्गः । १९७ पुत्रि त्वमबला रूयसि वर्तसे । तत्तस्मादेषोहं जयसिंहः किं कुर्याम् । यतस्त्रपैवागाधत्वान्नार्मदो नर्मदीया नद्या अपत्यं नीलाख्यो हृदस्तत्र निमग्नः । तथा शाकुन्तलो भरतश्चक्री जालवेयो गाङ्गेयस्तत्प्रभृतीन्पू. वांश्च सोमवंशान्पूर्वजांश्च स्त्रीवधारिक लजयामि । सोमवंश्यनृपत्वात्त्वां स्त्रियं न हन्मीत्यर्थः ।। ऊचे च सा मेरमुखीति जाम्बवतेय पित्रंशं यथा हि गीतः । पैलेयपैलीपतिसाल्वमित्रसालवेयमाण्डूकमुखैस्तथासि ॥ ६६ ॥ ६६. स्पष्टः । किं तु हे जाम्बवतेयपित्रंश जम्बवत्या अपत्यं जाम्बवतेयः शा(सा)म्बकुमारस्तस्य पिता विष्णुस्तस्यांश जयसिंह पैलेयादिमुनिभिर्यथा यादृग्गुणस्त्वं गीतस्तथा तादृशोसि ।। ध्यायन्ति माण्डूकिमुखाश्च माण्डूकेयोपमा यं मुनयोपरपि । तस्यासि दैतेयभिदे ससौपर्णेयस्य देत्यद्विषतोवतारः ॥ ६७ ॥ ६७. पूर्वार्धं स्पष्टम् । तस्य ससौपर्ण यस्य गरुडासनत्वाद्गरुडान्वितस्य दैत्यद्विषतो विष्णोरसि त्वं दैतेयभिदे दानवविनाशायावतारो मूर्तिः ॥ धैर्येण सत्त्वेन च तेमि हृष्टा न यौवतेयः सदृशस्तवास्ति । त्वं कांद्रवेयानिव वैनतेयो दानेयसैप्रादिनृपान्प्रजीयाः ॥ ६८ ॥ ६८. हे राजस्ते तव धैर्येण चित्तावष्टम्भेन सत्त्वेन च साहसेन च हृष्टा । यतस्तव सदृशो धैर्यादिगुणैस्तुल्यो यौवतेयो युवतेरपत्यं ए च साह. १ए यपुत्रं'. २ सी °श जम्बवत्या. ३ ए °नयोः प०. ५ बी सी कावे. १ ए गान्धत्वा. २ बी दान'. ३ ए श्च स्त्री'. ४ बी सिंहः पै. ५ सी ह पोले'. ६ बी सी तोर्विष्णो. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंह नास्ति । अत एव च यथा त्वं दात्तेयसैप्रादिनृपान् दात्तेयो दत्ताख्यायाः कस्याश्चिद्राच्या अपत्यं सिप्राया नद्या अपत्यं सैप्रो यशोवर्मनृपः। सिप्रा हि तस्य जलैः कृत्वा पोषणवपुःक्षालनाद्युपचारेण मातृतुल्या द्वन्द्वे तत्प्रभृतीनृपान्प्रजीयाः । यथा काद्रवेयान्नागान्वैनतेयो गरुडो जयति ॥ तद्वैनतेयोपम सैप्रकामण्डलेयदात्तेयनृपाञ्जय त्वमिति पाठान्तरं स्पष्टम् । किं तु हे वैनतेयोपम कमण्डल्वा अपत्यं कामण्डलेयो नृपः ॥ द्वैमातुर । सामातुरः(र)। भाद्रमातुरि । इत्यत्र "संख्या०" [ ६६ ] इत्यादिनाण मातुश्च मातुरादेशः ॥ नार्मद । शाकुन्तल । इत्यत्र "अदोनदी." [६७] इत्यादिनाण ॥ अदोरिति किम् । जाहवेय । जाम्बवतेय ॥ पैली पैलेय । साल्व साल्वेय । माण्डूक माण्डूकि । अत्र "पीला." [६८] इत्यादिना वाण ॥ दैतेय दैत्य । माण्डुकेय माण्डूकि । इत्यत्र "दितेश्चैयण्वा" [६९ ] इत्ये.. यण्वा ॥ सौपर्णेयस्य । वैनतेयः । यौवतेयः । कामण्डलेय । कौवेयान् । भत्र "ड्यायूङः' [ ७० ] इत्ययण ॥ दात्तेय । इत्यत्र "द्विस्वरादनद्याः" [७१] इत्येयण ॥ अनद्या इति किम् । सैप्र॥ १ बी'द्वाज्ञा अ. २ ए न्यं सिप्रो. ३ बी मेप्रेयो य'. ४ सी नाद्यप. ५ ए सी कावे. ६ वी सी तुरः । सां. ७ ए सी 'म्बते'. ८ ए ल्वे । मा०. ९ एण्डकः माइकिः । अ. १० बी दितिश्चैवय”. ११ सी. लेयः । काद. १२ वी कादवया'. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.१.७६.] चतुर्दशः सर्गः। १९९ आत्रेयदाक्षायणशाकलेयशौभ्रेयशस्यां हरसिद्धिमुख्याः। कीर्ति प्रगास्यन्ति तवेत्युदित्वा तिरोदधे सा सह योगिनीभिः ॥ ६९ ॥ ६९. स्पष्टः । किं त्वात्रेयादिमुनिभिः प्रशस्याम् । हरसिद्धिनाम्नी सर्वयोगिनीपीठस्वामिनी तदाद्या योगिन्यः । सा काली ।। आत्रेय । इत्यत्र "इतोनिनः" [२] इत्येयण ॥ अनिन इति किम् । दाक्षायण ॥ शौभ्रेय । शाकलेय । इत्यत्र “शुभ्रादिभ्यः' [ ७३ ] इत्येयम् ॥ कौषीतकेयादथ लाक्षणेयाच्छयामेयतो निश्यपि तन्निशम्य । धारां यशोवर्मनृपः सवैकर्णेयः सुदुर्ग तदगात्तदैव ॥ ७० ॥ ७०. यशोवर्मनृपस्तदैव निश्येव तत्प्रसिद्धं सुदुर्ग शोभनं दुर्ग स्थानमगात् । किं तदित्याह । धारा धाराख्यां पुरीम् । कीदृक् । सवैकर्णेयः वैकर्णेयैर्विकर्णरपत्यैः प्रधानैः सहितः । किं कृत्वा । कौषीतकेयादिमुनिभ्यो निश्यपि तद्योगिनीजयरूपं वृत्तान्तं निशम्य ।। श्यामेयतः । लाक्षणेयात् । इत्यत्र “श्याम०" [ ७४ ] इत्यादिनैयणं ॥ वैकर्णेयः । कौषीतकेयात् । इत्यत्र “विकर्ण०" [ ७५ ] इत्यादिनैयण ॥ भ्रौवेयमुख्यैरपि गीतकीर्तिः काल्याणिनेयः शिबिरं स्वमेत्य । सौभागिनेयैः सभटैरकौलटेयैरुषस्युजयिनीमभासीत् ॥ ७१ ॥ ७१. स जयसिंहः स्वं शिविरं सैन्यमेत्योषसि प्रभाते भेटैरु१ बी सी यः सदु. २ ए °रकोल°. ३ सी जयनी'. १ बी श्रेयः । शा. २ सी भनदुर्गस्था. ३ बी दुर्गस्था. ४ सी धाराख्यं पु. ५ ए सी °म्य । शामे'. ६ बी व शाम°.. ७ बी ण् । विक. कौपीतायाः वैकर्णेयैर्विकर्णपधारा धाराख्या Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रय महाकाव्ये [ जयसिंहः ] 3 ज्जयिनीमभाङ्क्षीत् । कीदृक् । श्रौवेयमुख्यैरपि ब्रह्मणो भ्रुवोर्पत्यं श्रौवेयो महर्षिस्तदाद्यैर्महर्षिभिरास्तांमन्यः सामान्यर्षित्रज इत्यप्यर्थः । गीतकीर्तिः संकीर्तित योगिनी विजयोत्थयशास्तथा काल्याणिनेयः कल्याण्या भद्राया मयणलाया अपत्यम् । किंभूतैर्भटैः । सौभागिनेयैः । सुभगाया अपत्यैः । एतेन शस्त्रादिकलाश्रयतोक्ता । सौभागिनेया एव हि पितृभिर्वाभ्याच्छत्रकलादि शिक्ष्यन्ते । तथा कौलटेयैर्महर्द्धिकक्षत्रिय सतीमतल्लिकासु जातत्वान्न कुलटानां भिक्षुकसतीनामपत्यैः । प्रतिज्ञातनिर्वाहकै रित्यर्थः । इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ धाराप्रविष्टमथ कौलटिनेयबुद्ध्या द्राक्चाटकैरमिव तं चटकारिपक्षी । २०० जग्राह मालवपतिं युधि नर्तिता सि नाटेरकः सपुलकभुंलुकप्रवीरः ॥ ७२ ॥ ७२. अथ चुलुकप्रवीरो द्राक् तं मालवपतिं जग्राह । यथा चटकारिपक्षी चकस्य चटकाया वापत्यस्य स्त्रियोर (या अरि ?)र्य: पक्षी इयेनः । स चाटकैरं चटकस्य चटकाया वापत्यं गृह्णाति । कीदृक्सन् । सपुलको वीर्योत्कर्षाद्रोमाञ्चितोत एव युधि रणाय नर्तितोसिरेव नर्तनी - यत्वान्नाटेरको नट्या अपत्यं नाटकिको येन सः । किंभूतम् । तं कौलटिने बुद्धयां कुलाटापत्यबुद्ध्या धाराप्रविष्टं धारायां दुर्गे स्थितम् । भिक्षुक सत्यपत्यस्यैव हि नीच कुलत्वान्नंष्ट्वा दुर्गे प्रवेशनादिविषया नीचा बुद्धि: स्यात् । वसन्ततिर्लका छन्दः ॥ १ सी कौशलिने.. २ एक ३ सी वीणः । अ°. १ बी सी 'पि ब्राह्म २ सी 'पत्यकिं भूवैयो. ३ ए सी 'मह'. सी ल्याणा भ ५ सी 'लाशय". ६ सी "का". युधे र. सी युधर.. ९ सी या धोरायां दुर्गस्थि.. ७ बी 'या' १० बी लकछ'. ४ ए ८ ए Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.१.८०.] चतुर्दशः सर्गः। २०२ काणेराम्बावक्रौर्यभा चुलुक्यो गुप्ताव:प्सीत्तं यशोवर्मभूपम् । तां काणेयाम्बाकाणदृष्टिं न्वकान्ति धारां नाटेयत्कीर्तिराश्वासयच ॥७३॥ ७३. चुलुक्यस्तं यशोवर्मभूपं गुप्ताव:प्सीत् । यतः क्रौर्यभाज जयसिंहं प्रति द्रोहाभिप्रायेण क्षुद्रचित्ततां भजन्तम् । काणेराम्बावद्यथा काणेरस्य काणाया अपत्यस्याम्बा माता काणा क्रौर्यभान क्रौर्य क्षुद्रतामेकाक्षतया हीनाङ्गत्वं भजते तथा । चुलुक्यस्तां धारामाश्वासयञ्चावन्तिदेशमासयच्चेत्यर्थः । कीदृक्सन । नाटेयन्ती नट्यपत्यमिवाचरन्ती सकलेपि विश्वे नृत्यन्तीत्यर्थः । कीर्तिर्यस्य सः। किंभूतां धाराम् । अकान्ति निःश्रीकां काणेयाम्बाकाणदृष्टिं नु काणेयाम्बायाः काणाया यासौ काणा दृष्टिस्तामिव ।। भौवेय । इत्यत्र "भ्रुवो भ्रन्च' [७६] इति-एयण ध्रुवादेशश्च ॥ काल्याणि नेयः । सौभागिनेयः । अत्र "कल्याण्यादे०" [७७ ] इत्यादिनाएयण् इन्-चान्तादेशः ॥ कौलटिनेय अकौलटेयैः । अत्र “कुलटाया वा" [७०] इत्येयण् इन्-चान्तादेशः ॥ चाटकैरम् । चटका । इत्यत्र "चटकाद्" [७९] इत्यादिना गैरः स्त्रियां तु गैरस्य लुप् ॥ काणेर । काणेय । नाटेर । नाटेयत् । इत्यत्र "क्षुद्राभ्य एरण्वा" [ ८०.] इति वा-एरण् । वैश्वदेवी छन्दः ॥ १ए वक्षेप्सी'. २ बी सी दृष्टि न्व. ३ ए °यनु । चु. १ए बी वक्षेप्सी. २ बी सी वाशय'. ३ ए नेयः । अ. ४ ए ल्याणादे'. ५ एशः । कोल'. ६ सी नेयः अ. ७ बी सी म् । चाट'. ८ सी बी 'न्दः । गोधा. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] गौधारदृढमुष्टिकार्मुकभृतो गौधेरदुष्टाशयां प(पा)क्षारानपि तत्र सीमनृपतीजाण्टारपाण्टारवत् । सोबभादुत सौरभेयवदुताहो वाडवेयोङ्य(याव?)व दृप्तान रैवतिकाश्वपालिकसखान् गार्टेयहार्टेयधीः ॥७४॥ ७४. स जयसिंहस्तत्र धारासमीपे सीमनृपतीनबध्नात् । यतो गोधाया अपत्यं दुष्टं गौधेरो योहिना गोधायां जन्यते । एवं गौधारोपि । तस्येव जिघांसया दुष्ट आशयो येषां ताजिघांसूनित्यर्थः । किंवदबध्नात् । जाण्टारपाण्टारवजण्टर्पेण्टयोः पक्षिविशेषयोरपत्ये पक्षिभेदाविवाथा(वोता?)थ वा सौरभेयवद्वृषभानिवोताहो अथ वा वाडवेयोदय(याश्व?)वद्वडवानां बीजसेचकान(न्?) वर्धितानश्वानिव । कांश्चित्पक्षिवत्काष्ठपञ्जरेषु कांश्विञ्च वृषभानिव लोहशृङ्खलाभिर्गलेषु कांश्विचाश्वानिव लोह निगडैः पादेषु बबन्धेत्यर्थः। किंभूतान् । गौधारन्ति सुदृढत्वेन गौधारा इवाचरन्ति दृढमुष्टीनि बलिष्ठमुष्टिकानि कार्मुकाणि बिभ्रति ये तानपि युद्धायात्तास्त्रानपीत्यर्थः । एतेनैते न च्छलाद्वद्धा इत्युक्तम् । तथा पाक्षारानपि पक्षस्य वर्गस्य महासन्तानस्यापत्यान्यपि वपक्षसहितानपीत्यर्थः। तथा दृप्तानपि स्वबलाद्यवलेपेन दर्पिष्ठानपि नाकिंचित्करानित्यर्थः। तथा रैवतिकाश्वपालिकसखानपि रैवतिकाव. पालिकौ रेवत्या अश्वपाल्याश्चापये कौचिन्नपौ तयोः सहायानपि " ड १ सी यानक्षा. २ ए आचार'. १बी यन्मे गो'. २ ए 'त्यं गोधरो. बी "त्यं गौ'. ३ बी तान्निघांशून्नित्य'. ४ बी सी पन्तयोः ५ बी त्ये पकृतिशेषयोरपत्ये प. ६ ए सेनका. ७ सी कानां व. ८ बी हग . ९ सी मुखीनिव . १० सी पक्ष्यस्य. ११ ए °स्य म. १२ सी त्यानपि. १३ बी योः साहा. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.१.८६.] चतुर्दशः सर्गः। २०३ साहाय्यार्थागतमित्रैर्युक्तानपीत्यर्थः । नन्वेवंविधानपि नृपान्केन बलेनासौ बबन्धेत्याह । यतो गार्टेयहाटेंयौ मुनिभेदी तयोरिव धीर्यस्य सः । सर्वबलोत्कृष्टबुद्धिबलोपेतत्वादित्यर्थः ॥ गौधार । गौधेर । इत्यत्र "गोधाया" [८] इत्यादिना णार एरण्च ॥ जाण्टार । पाण्टार । इत्यत्र "जण्टपण्टात्" [ ८२] इति णारः ॥ केचित्तु पाक्षारानित्यपीच्छन्ति ॥ सौरभेय । इत्यत्र "चतुष्पान्य एयञ्" [८३] इत्येयन् ॥ गार्टेय । हार्टेय । इत्यत्र "गृष्टयादेः" [८४] इत्येयञ् ॥ वाडवेय । इत्यत्र "वाडवेयो वृषे" [८५] इति-एयञ् एयण वा निपात्यः ॥ रैवतिकाश्वपालिक । इत्यत्र "रेवत्यादेरिकण्" [८६] इतीकण् ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ चतुर्दशः सर्गः ॥ १ ए °ण्ट पंचाटात्. २ सी °डितछ. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याश्रयमहाकाव्ये पञ्चदशः सर्गः। भ्रातृव्यान्सोतिगार्गास्तानथ गार्गिकमत्रिणः । सभ्रात्रीयान्सस्वस्त्रीयान्धृत्वा निववृते ततः॥१॥ १. अथ स जयसिंहस्ततो मालवदेशान्निववृते । किं कृत्वा । सभ्रात्रीयान्सस्वस्रीयान्भ्रात्रपत्यभगिन्यपत्यसहितानुपलक्षणत्वात्सबान्धवानित्यर्थः । तथा भ्रातृव्यान्भ्रातुरपत्यानि भ्रातृव्या एकद्रव्याभिलापित्वाद्भातृव्या इव भ्रातृव्यास्तान महाशत्रूनित्यर्थः । तान् यशोवर्मादिनृपान्धृत्वा गुप्तौ क्षित्वा । किंभूतान्सतः । गार्गिका गार्या अपत्यानि स्वामिने स्रीजनोचितकुमन्त्रदानेनाज्ञेयपितृकत्वान्निन्द्या युवानो मत्रिणो येषां तानत एवातिगार्गाने राज्याझंशेन स्वपूर्वजनानोपि हारणेतिनिन्द्यत्वाद्गार्या अपत्यं निन्धं युवानमतिकान्तान् । गार्गान् । गार्गिक । इत्यत्र "वृद्ध" [८७ ] इत्यादिना णेकणौ ॥ भ्रातृव्यान् । इत्यत्र "भ्रातुर्व्यः" [ ८८ ] इति व्यः ॥ भात्रीयान् । स्वस्त्रीयान् । इत्यत्र “ईयः स्वसुश्च" [ ८९ ] इतीयः ॥ मार्गेभात्तैः समातृष्वस्रीयपैतृष्वसेयकैः । पैतृष्वस्रीयो नु हरेः सोतिमातृष्वसेय कः ॥२॥ २. स जयसिंहः समातृष्वस्रीयपैतृष्वसेयकैर्मातृभगिनीनां पितृ१५ सीनिया यु. २ बी वागार्याने'. ३ ए °णे इनि.सी णेपि नि. ४ बी गार्यान्. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ६.१.९४.] पञ्चदशः सर्गः । २०५ भगिनीनामपत्यैः सहितैस्तैः शत्रुभिः कृत्वा मार्गेभान् । कीदृक् । अतिमातृष्वसेयको मातुःष्वसुरपत्यं शिशुपालं करग्रहणेनातिक्रान्तो यो हरेर्विष्णोः पैतृष्वस्रीयः पितुःष्वसुरपत्यं भीमः स इव बलिष्ठत्वादिगुणैर्भीमतुल्यः । हरेः पिता वसुदेवस्तद्भगिन्या अपत्यं भीम इति हरेः पैतृष्वस्त्रीयो भीममातुश्च शिशुपालमाता भगिनीति भीमस्य शिशुपालो मातृष्वसेयः ॥ ४ 1 मातृष्वसेय । मातृष्वस्त्रीय । पैतृष्वसेय । पैतृष्वस्त्रीयः । अत्र "मातृ०" [ ९० ] इत्यादिना रे(डे)यणीयणौ ॥ श्वशुर्थीभूय राजन्यैः स पथि क्षत्रियाग्रणीः । अमानुषो मनुष्येषु कैर्न भेजेतिमाणवैः ॥ ३ ॥ ८ ३. अतिमानवैः पुरुषेषु श्रेष्ठत्वान्माणवान्मनोरपत्यानि कुत्सितानि मूढान्यतिक्रान्तैः कै राजन्यै राज्ञामपत्यैः क्षत्रियजात्या स नृपः पथि न भेजे । किं कृत्वा । श्वशुर्थीभूय स्वभगिनीदानेन श्वशुरापत्यीभूर्य श्यालीभूयेत्यर्थः । यतः कीदृक् । क्षत्रियाणी: । एतेन सर्वगुणसंपद्राज्यसंपदोरतिशय उक्तः । तथा मनुष्येषु मनोरपत्येषु नरेषु मध्येमानुषोमत्यों देवः । एतेन रूपातिशयोक्तिः ॥ श्वशुर्यभूय । इत्यत्र “श्वशुराद्यः " [ ९१ ] इति यः ॥ राजन्यैः । इत्यत्र “जातौ राज्ञः” [१२] इति यः ॥ क्षत्रिय । इत्यत्र " क्षत्रादियः " [ ९३ ] इतीयः ॥ मनुष्येषु । मानुषः । इत्यत्र " मनोर् ०" [ ९४ ] इत्यादिनों याणौ षश्चान्तः ॥ १ बी ग्रहेणाति'. २ ए 'तुःस्वसु'. ३ बी 'नीष्वभी'. ५ ए 'स्त्रीयः । पैतृष्वस्त्री '. ६ सी 'सेयः । पै'. बीदित्याय ८ए त्रिया जात्याः स. ९ सीय शाली'. १० बी ग्रणी । ए. सी 'ग्रणी । ते'. ११ सीन स्वरूपादिति'. १२ सीना उक्तस्त या.. माँ. ४ ए सी 'सेय । दिना य". • ७ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] माणवैः । इति "माणवः कुत्सायाम्" [९५] इत्यनेन निपात्यते ॥ त्यक्त्वा बहुकुलीनांश्वाकुलीनांश्च तदा द्विपान् । राज्ञां भद्रकुलीनान्स जग्राहोपायनीकृतान् ॥ ४॥ ४. तदा पथि गमनकाले स नृप उपायनीकृतान्ढौकनीकृतान्भद्रकुलीनान्भद्रजातीयेभेन्द्रकुलस्यापत्यानि राज्ञां द्विपाजग्राह । किं कृत्वा । त्यक्त्वा । कान् । बहुकुलीनांश्च मन्दजातित्वेनेषदसंपूर्णकुलापत्यानि तथाकुलीनांश्च मृगजातिमिश्रजातित्वान्न कुलस्यापत्यानि ॥ कौलेयकानामाचानां तेनेभानां पुरो बभौ । बहुकुल्यो न्वकुल्यो नु शङ्के शऋद्विपोपि सः ॥५॥ ५. शङ्के सर्वगजोत्कृष्टतया प्रसिद्धः शक्रद्विपोप्यैरावणोपि तेन राज्ञात्तानां राजभ्यो गृहीतानां कौलेयकानां भद्रजातीयानामिभानां पुरो बभौ । कीदृग् । बहुकुल्यो न्वीषदसमाप्तकुलापत्यमिवाकुल्यो न्वकुलीन इव वा । केषांचित्तेषामपेक्षया ही गुणत्वात्केषांचिच्च हीनतमगुणत्वात् ॥ प्रेक्ष्य जिष्णुं तमायान्तं ग्राम्यै हुकुलेयकैः। दौष्कुलेयैदुष्कुलीननिम्नैश्चात्मा कृतार्थितः ॥६॥ ६. स्पष्टः । किंतु कैश्चिद्धाहुकुलेयकैः किंचिद्धीनकुलापत्यैः । कैश्चिञ्च दौष्कुलेयैर्दुष्कुलस्यापत्यैः। कैश्चिहुष्कुलीननिम्नश्च दुष्कुलापत्येभ्योऽपि नीचैरतिनीचकुलैश्चेत्यर्थः । आत्मा कृतार्थितोदृष्टपूर्वताहग्नृपदर्शनात्स्वजन्म सफलितमित्यर्थः ॥ १ ए 'न्स प्रा. २९ कानां मत्ता. बीकानामत्ता'. ३ बी 'ष्णु त्वमा ४ सी कुलः स्या'. १५ पानीय'. २ बी येनकु. ३ बी यामि . ४ सी नकुलत्वा. ५५ वाद. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.१.१००.] पञ्चदशः सर्गः। २०७ अकुलीनान् । बहुकुलीनान् । भद्रकुलीनान् । इत्यत्र “कुलादीनः" [९६] इतीनः ॥ अकुल्यः । कौलेयकानाम् । बहुकुल्यः । बाहुकुलेयकैः । अत्र “यैय." [९७] इत्यादिना वा यैयकनौ ॥ पक्षे। अकुलीनान् । बहुकुलीनान् ॥ असमास इति किम् । भद्रकुलीनान् ॥ दौष्कुलेयैः दुष्कुलीन । इत्यत्र “दुष्कुलादेयण्वा" [९८] इति-एयण्वा ॥ सोथ माहाकुलो माहाकुलीनपरिवारितः । पुरीं महाकुलीनस्वीकृतार्थः प्राविशत्स्वकाम् ॥ ७॥ ७. स्पष्टः ।। माहाकुलः । माहाकुलीन । महाकुलीन । इत्यत्र "महा." [९९] इत्या. दिनाजीनजौ वा ॥ सोशाद् हार्दिक्यसाम्राज्यान्कौरव्यमत्रिभिर्युतान् । भैमसेनिपितृव्यो नु भैमसेन्यपितेव वा ॥ ८ ॥ ८. स जयसिंहो हार्दिक्यसाम्राज्यान्हृदिकस्य सम्राजश्च राज्ञोरपत्यानि क्षत्रियानन्वशाद्विजित्याशिक्षयत् । किंभूतान् । कौरव्यैः कुरोब्राह्मणस्यापत्यैर्मत्रिभिर्युतान् । यथा भैमसेनिपितृव्यो भीमापत्यस्य घटोत्कचस्य पितृव्यो युधिष्ठिरो भैमसेन्यपितेव वा यथा वा भीमः । पाण्डवैर्हि कौरवयुद्धे हार्दिक्यसाम्राज्या जिताः ॥ वार्द्धक्यरिसमं भूपास्तं लाक्ष्मण्यबला न के । पितृव्यं लाक्ष्मणेर्नीलवार्द्धक्याद्या इवाभजन् ।॥९॥ १ बी °थ महाकुलो महाकुली'. २ बी नु भौम'. ३ बी व्यं लक्ष्मणे नील'. ४ बी ईकाद्या. १ बी सी वा येय. २ सी ष्टः । महा. ३ ए लीनः । म. सी लीन ई. ४ए सेनपि'. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] ९. यथा नीलवार्द्धक्याद्या नीलो नाम वानरो वार्द्धक्यचे बर्द्धकेरपत्यं वृत्रभ्राता नलाख्यो वानरस्तदाद्याः कपयो लाक्ष्मणेर्लक्ष्मणापत्यस्याङ्गदस्य चन्द्रकेतोर्वा पितृव्यं राममभजंस्तथा तं जयसिंहं के भूपा नाभजन् । किंभूताः । लाक्षमण्यवला लक्ष्मणापयतुल्यौ जसोपि । यतः किंभूतम् । वार्द्धक्यरिसमं वर्द्धकेरपत्यं बार्द्धकर्वृत्रस्तस्यारिरिन्द्रस्तत्तुल्यम् ॥ कौरव्यैः । हार्दिक्य । इत्यत्र "कुर्वादेः " [ १०० ] इति ज्यः ॥ साम्राज्याम् (न्) । इत्यत्र "सम्राजः क्षत्रिये” [ १०१] इति ज्यः ॥ भैमसेनि भैमसेन्य | वार्द्धकि वार्द्धक्य । लाक्ष्मणे ( णेः ) लाक्ष्मण्य । इत्यत्र “सेनान्त०" [ १०२ ] इत्यादिना इञ् ज्यश्व ॥ सौयामायनिफाण्टाहृतायनी मैमतायनिः । तमप्रीणन्फाण्टाहृतमैमतेभ्यः परेपि ये ॥ १० ॥ १०. सौयामायन्यादयो नृपाः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सौयामायनि । इत्यत्र " सुयाम्नः ० " [ १०३] इत्यादिना - आयनिञ् ॥ फाण्टाहृत फाण्टाहृतायनी ॥ मैमतेभ्यः मैमतायनिः । अत्र "फाण्टा हृति ०" [ १०४ ] इत्यादिना ण आयनिञ्च ॥ भागवित्तायनं शा (सा?) कशा पेयितार्ण बिन्द विम् । तार्णविन्द विकं शा (साई) केशापेयिकमथापरम् ॥ ११ ॥ 3 सेवाययणियामुन्दायनीयं भागवित्तिकम् । सौयामार्येनिकं यामुन्दायनिकयुतं तथा ॥ १२ ॥ २ ए सी सत्वाय'. ३ ए सी त्तिकिम्. १ सी 'कस्यायक'. "यनीय'. १ ए सी च वार्द्ध'. ५ ए 'यनि । अ'. २ ए 'तुल्यो'. ३ वी 'क्ष्मण्य. ६ सी 'ना आ. ४ सी ४ सीतायनिः. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.१,१०७.] पञ्चदशः सर्गः । २०९ सौयामायनियामुन्दायनिवार्ष्यायणीयकान् । वार्ष्यायणिकसौयामायनीयौ च मिथःश्रितौ ॥ १३ ॥ तैकायनीयमुख्यांश्च भूपजाल्मान्मशिष्य सः। वर्म केदारदेवस्य सुस्थं चक्रे महाभुजः ॥ १४ ॥ ११-१४. स्पष्टाः । किं तु भूपजाल्मान् यात्रिकोपद्रवकारित्वेन निन्द्यनृपान् । प्रशिष्योच्छिद्य । सुस्थं निरुपद्रवम् ।। भागवित्तिकम् भागवित्तायनम् । तार्णबिन्द विकम् ताणबिन्दविम् । आकशा. पेयिकम् आकशापेयि । इत्यत्र "भागवित्ति०' [ १०५] इत्यादिना वेकण ॥ पक्षे । भागवित्तेः “यजिनः" [ ६. १. ५४ ] इत्यायनॅण् ॥ शेपयोरिन् । सौयामायनीयौ । सौयामायनिकम् । सौयामायनि । यामुन्दायनीयम् । यामुन्दायनिक । यामुन्दायनि । वाायणीयकान् । वार्ष्यायणिक । वार्यायणि । इत्यत्र "सौयामायनि०" [ १०६ ] इत्यादिना वा-ईयेकणौ ॥ पक्षे "जिदार्षाद. णिजोः" [६. १. १४० ] इत्यणो लुप् ॥ कश्चित्वन्यभ्योपीच्छति । तैकायनीय । कैतवायनितकायन्यर्हे सिद्धपुरेथ सः। प्राच्यास्तीरे सरस्वत्याश्चके रुद्रमहालयम् ॥ १५ ॥ १५. स्पष्टः । किं तु महातीर्थत्वात्कैतवायनितैकायनिमुनीनामहे वासयोग्ये चक्रे । केचित्त्वीगितो धातोर्णिगर्थ एवात्मनेपदमिच्छन्ति । तन्मतेनाकारयदित्यर्थः ॥ १बी नियया . २ बी वार्षावणि'. ३ बी न्यहसि'. १ बी सी प्योच्छेद्य. २ ए त्तिकिम्. ३ बी म् । तर्ण०. ४ ए 'विकिम् । आ०. ५ बी आकाश. सी आकाशापेयक. ६ बी सी आकाशा. ७ सी नञ् । शे०. ८ सी मायानि'. ९ बी नि । यामु. १० ए नीम् . ११ सीणि । वर्षाय'. १२ बी क । वर्षाय. १३ ए ाणी ३०. १४ बी तोर्धातो. २७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] तैकायनि । कैतवायनि । इत्यत्र " तिक० " [ १०७ ] इत्यादिनायनिञ् ॥ दागव्यायनिकौशल्यायनिच्छाग्यायनीन्पथि । २१० स्थापयन्विदधे चैत्यं तत्रैवान्त्यस्य सोर्हतः ॥ १६॥ १६. स जयसिंहस्तत्रैव सिद्धपुरेन्त्यस्यार्हतः श्रीमहावीरस्य चैत्यं विदधेकारयत् । कीदृक्सन् । दागव्यायन्यादीन्ब्राह्मणभेदान्पथ्यर्हचैत्यमननरूपे न्यायमार्गे स्थापयन् ॥ स वायणिकार्मार्याणि कात्रणीनपि । संबोध्यार्हतसंघस्य भक्त्याकारयदर्हणाम् ॥ १७ ॥ 3 १७. स राजार्हत संघस्य जैनस्य साधुसाध्वीश्रावकश्रा विकासमुदायस्यार्हणां वस्त्रादिभिः पूजां भक्त्याकारयत् । किं कृत्वा । वार्ष्यायण्यादीनपिशब्दादा (द्दा) गव्यायन्यादींश्च ब्राह्मणविशेषान्संबोध्यार्हतसंघपूँजन ईर्ष्यतः सान्त्वयित्वा ॥ 1 I दागन्यायनि । कौशल्यायनि । कार्मार्याणि । छाग्यायनीन् । वार्ष्यायणि । इत्यत्रं "दगु०” [ १०८ ] इत्यादिना यकारादिरायनिञ् ॥ कीर्त्रायणीन् । इत्यत्र “द्विस्वर । दणः” [ १०९] इत्याय निञ् ॥ पाञ्चालीपतिवत्पार्श्वालायन्याद्यैर्वृतोथं सः । सोमनाथं प्रत्यचालीत्पद्भ्यां दाक्षायणार्थितः ॥ १८ ॥ १८. स राजा सोमनाथं प्रति यात्रार्थ पद्भ्यां भक्त्युत्कर्षात्पादचा १ सी "निकोश'. २ ए च्छागाय ं. ३ ए सी 'वान्तस्य. सी 'कात्रा . ५ ए सी 'र्हणम्. ६ सी चालयन्यादैवृतोप्य सः . १ बी रेन्तस्या' सी 'रेत्यस्या'. ५ सी पूज्यान ई०. ४ सी 'दाय. ८ बी कात्राय.. · २ मा. ६ ए छागाय'. ४ ए 'कात्रीय'. ३ सी संस्थस्य धु० . ७ ए बी 'त्र दिगु Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.१.११०. ] २११ रेणाचालीत् । कीदृक्सन । पाञ्चालायन्याद्यैः पाञ्चालानां राजा पाञ्चालस्तस्यापत्यं पाञ्चाला यनिस्तदादिभिर्नृपैर्वृतस्तथा दाक्षायणार्थितो दाक्षेरपत्यैर्युवभिऋ(ऋ)षिभिर्माङ्गलिक्याय प्रस्थाने कृतार्थः । पाञ्चालीपतिवत् । यथा पाश्चाल्या द्रौपद्याः पतियु (यु) धिष्ठिरः सोमनाथं प्रति पद्भ्यामचालीत्सोपि पाश्वालायन्याद्यैर्धृष्टद्युम्नायैः श्यालकैर्वृतो दाक्षायणार्थितश्च ॥ पाञ्चालयनि । पाञ्चाली । इत्यत्र “अवृद्धादोर्न वा " [१०] इत्यायनिज्वा ॥ अवृद्धादिति किम् । दाक्षायण ॥ गार्गीपुत्रायणि गार्गीपुत्रिश्रर्मिणवत्तदा । पञ्चदशः सर्गः : । चार्मिकायणिवच्चापि वार्मिणं वार्मिकार्याणिः ॥ १९ ॥ काट्यायनवद्गारेटिं च गारेटकायनिः । काककायनिवत्कार्कट्यं (ट्यिं) च कार्कट्यकायनिः ॥ २० ॥ काविच्चापि लाङ्केयं लाङ्काकायनिरुत्सुकः । लाङ्ककायनिवद्वा किनिं च वाकिनकायनिः ॥ २१ ॥ स्वानमतीक्षमाणास्तं संभ्रमाद्यान्तमन्वयुः । लाङ्किगार्गी पुत्रकायण्यादिमार्गाश्रयान्तरे ॥ २२ ॥ १९-२२. तदा राज्ञो गमनकाले यथा गार्गीपुत्रायणि चार्मिण ऋषिरन्वयात्तथा गार्गीपुत्रिऋपिर्जयसिंहमन्वयात् । एवं सर्वत्र संबन्धः कार्यः I विनीतत्वादनुज्येष्ठमृपीननुव्रजन्तो राज्ञोनुयानैस्युत्कण्ठितत्वान्निजानप्यृषीनप्रतीक्षमाणाश्च सन्तः सर्वेपि गार्गी १ बी 'श्वामणिव'. १ बी सी 'न् । पञ्चा° २ बी सी ५ बी धृष्टद्यु. ६ बी 'चैः शाल'. ९ बी चाम्मिण. १० सी ने उत्क° पैवृत. ३ सी कृत्यार्थः ४ ए पि पञ्चा'. ७ बी नि । पञ्चा'.. ८ यणः । गा. ११ बी 'त्वानिजा' १२ सी तीक्ष्यमा ०. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] पुच्याद्या ऋषय आदराजयसिंहमनुजग्मुरित्यर्थः । यतः किंभूतं तम् । लाङ्किगार्गीपुत्रकायण्यादिमार्गाश्रयान्तरे पूर्वोक्तानां लायादिऋषीणां ये मार्ग आश्रया आश्रमास्तेषां यदन्तरं मध्यं तत्र यान्तम् ॥ गार्गीपुत्रायणिम् गार्गीपुत्रिः । अत्र "पुत्रान्तात्" [21] इति वायनिञ् ॥ चार्मिकार्यणि । वार्मिकायणिः । गारेटकायनिः । कार्कव्यकायनिः । काकका. यनि । लाङ्काकायनिः । वाकिनकायनिः ॥ पुत्रान्ताहोः । गार्गीपुत्रकायणि । इत्यत्र "चर्मिवर्मि०" [११२] इत्यादिना-आयनिचा । अन्त्यस्वरात्परः कान्त. श्वेषाम् ॥ पक्षे । चार्मिण । वार्मिणम् । गारेटिम् । कार्कव्यायन ॥ यदा त्वन्यु. त्पन्नः कार्कट्यशब्दस्तदा पक्ष इनेव । कार्कट्यिम् ॥ काकिवत् । लाङ्केयम् । वाकिनिम् । गार्गीपुत्रिः ॥ लङ्कशब्दं केचिदकारान्तमिच्छन्ति । तन्मते लाङ्ककायनि । लाङ्कि॥ ग्लुचुकायनिरग्रेगाद् ग्लौचुक्यवरजोपि च । हस्तालम्ब सवैदेहो रामदत्तायनिर्ददौ ॥ २३ ॥ २३. स्पष्टः । किं तु ग्लुचुकायनिपविशेषः । विदेहानां राष्ट्रस्य राजा विदेहस्य राज्ञोपत्यं वा वैदेहस्तेन युक्तो रामदत्तायनिः पिता पुत्रश्च नृपभदौ । हस्तालम्बं जयसिंहस्य वाहिकां पर्यायेण ददुः ॥ ग्लुचुकायनिः ग्लौचुकि । इत्यत्र "भदौ०" [११३] इत्यादिनायनिर्वा ॥ भदोरिति किम् । रामदत्तायनिः ॥ आयनिजन्तादणो लुप् ॥ वैदेहः । अत्र "राष्ट्र." [१५] इत्यादिना ॥ १ ए चुकाव'. १५ बी पुत्राद्या. २ सी वास्त: ३ बी यणि गा'. ४ए यणिः । गा'. ५ बी सी यनिः । ला. ६ सी निः । काविनिकायनि । पु. ७बी 'ण । काम्मिण. ८ बी कार्काट्यम्. ९.ए नि । गा. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.१.११८.] पञ्चदशः सर्गः। २१३ अस्य गान्धारसाल्वेयौ वागः पौरवमागधौ । सौरमसः कालिङ्गश्च पद्भयां दक्षिणतो ययुः ॥ २४ ॥ २४. गान्धारादयो नृपाः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ गान्धारसाल्वेयौ । इत्यत्र "गान्धारि०" [१५] इत्यादिना ॥ पौरवमागधौ । कालिङ्गः । सौरमसः ॥ द्विस्वर । वामः । अत्र "पुरु०" [१६] इत्यादिना ॥ औदुम्बरिः कालकूटिः संप्रात्याथिरीश्मकिः । नैषध्याम्बष्ठयकौरव्यावन्त्यं वामे च पर्यगात् ॥२५॥ २५. स्पष्टः । किं तु नैषध्याम्बष्ठयकौरव्यावन्त्यमित्यत्र समाहारः ।। ययुः कौशल्य आजाद्यः सपाण्ड्यो यवनः शकः। कुन्त्यवन्तीकुंरूभर्तुः पृष्ठे तसांहिचारिणः ॥ २६ ॥ २६. स्पष्टः । किं तु कुन्त्यवन्तीकुरूभर्तुः कुन्त्यादिराज्ञीनां प्रियस्य तस्य जयसिंहस्य ॥ कौरव्यायण्यथो शूरसेनी मद्री च सासुरी । मागध्यौशीनरी भार्गी चेति राज्यस्तमन्वयुः ॥ २७ ॥ २७. स्पष्टः। औदुम्बरिः । प्रात्यप्रथिः । कालकूटिः । आश्मकिः । अत्र "सावांश" [१७] इत्यादिने ॥ दु । आम्बट्य ॥ नादि । नैषध्य ॥ कुरु । कौरव्य ॥ इत् । आवन्त्यम् । कौशल्य । भाजायः । अत्र "दुनादि." [१८] इत्यादिना न्यः ॥ १ सी अर्थ गा. २ बी °सः कलि'. ३ ए लकुटि:. ४ सी प्रातिवि'. ५ बी राश्मिकः । नै. ६ ए मेष प. ७ए कुरुभ'. १ बी र । याङ्गः. २ ए सी कुरुभ'. ३ ए °स्य सिं. ४ सी त्यग्रंथि:. ५ ए एम् । आ°. सी इञ् । आ, ६ बी सी शल्यः । आ. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयाह पाण्ड्यः । अत्र "पाण्डोय" [१९] इति व्यण ॥ शकः । यवनः । अत्र "शकादिभ्यो ट्रेलु" [१२०] इति २ः प्रत्ययस्य लुप् ॥ कुन्त्यवन्ती । इत्यत्र "कुन्ति" [२१] इत्यादिना न्यस्य ट्रेलु ॥ कुरू कौरव्याणी । इत्यत्र "कुरोर्वा" [१२२] इति द्रेयस्य लुब्वा ॥ अञ् । शूरसेनी ॥ भण् । मद्री। इत्यत्र "ट्रे०" [१२३] इत्यादिनाअषणो देल्प् ॥ द्रावनुवर्तमाने पुनर्दिग्रहणं भिन्नप्रकरणस्यापि देलबर्थम् । असुरी । असुरस्यापत्यं स्त्री । “राष्ट्र." [६. १. ११४] इत्यादिनाञ् । शका. दित्वाल्लोपः । "जाते." [२. ४. ५४] इत्यादिना डीः ॥ सैव शस्त्रजीवि. संघः स्त्रीत्व विशिष्टो विवक्षितः । स्वार्थे "पादेरण" [७.३.६६ ] तस्यापि "खियाम्" [ ६. १. ४६ ] अनेन लुप् । अप्राच्यभर्गादेरिति किम् । मागधी । मगधः प्राच्यो राष्ट्रस्वरूपः क्षत्रियः । भर्गादि । भार्गी । औशीनरी ॥ पश्चालाः पाञ्चाल्यो लौहध्वज्या लोहध्वजा अपि । यस्का लह्या विदागर्गास्तस्यांग्रे चर्चरी गुः ॥ २८ ॥ २८. पञ्चाला नृपाः । पाञ्चाल्यो राझ्यः । लोहध्वजा एव "पूगादमुख्यकाङ्यो दिः" [७.३.६०] इति न्ये लौहध्वज्या अर्थकामप्रधाना नानाजातीयाः स्त्रीपूगाः । लोहध्वजा नरपूगाः । यस्कादयो मुनिभेदाः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सश्यापर्णा गौपवनाः सागस्तीया अगस्तयः । कुण्डिनाश्च पृथासूनोस्तीर्थयात्राकथा व्यधुः ॥ २९ ॥ १ एल्यो लोह. २ ए °स्या चर्चरी जगुः. १ बी सी ति द्रे प्र. २ ए सी कुरु को'. ३ बी लुग्वा । अ. ४ ए सी 'पः क्षित्रि. ५ ए शीनारी. ६ए न्ये लोह'. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ६.१.१२८ ] पश्चदशः सर्गः । २१५ २९. सागस्तीया अगस्ती नामभिश्छान्त्रैर्युक्ता अगस्त योगस्त (स्त्य ? )स्यापत्यान्यृषय एवं श्यापर्णादयोप्यृषयः । पृथासूनोर्युधिष्ठिरस्य । शिष्टं स्पष्टम् ॥ पञ्चालाः । लोहध्वजाः । इत्यत्र "बहुष्वस्त्रियाम्" [ १२४] इति द्वेर्लुप् ॥ अस्त्रियामिति किम् । पाञ्चाल्यः । लौहध्वज्याः ॥ यस्काः । लह्याः । अत्र “यस्कादेर्गोत्रे [ १२५ ] इति प्रत्ययस्य लुप् ॥ गर्गाः । विदाः । अत्र “यनि (ञ) ञ:०” [ १२६ ] इत्यादिना यत्रत्रोर्लुप् ॥ अश्या पर्णान्तगोपवना देरिति किम् । गौपचनाः । इयापर्णाः ॥ कुण्डिनाः । अगस्तयः । अत्र “कौडिन्य०” [ १२७ ] इत्यादिना यत्र ऋष्यणश्च लुप् कुण्डिन्य ( ना ? ) गस्त ( स्त्य ? ) योश्च कुण्डिन अगस्ति - आदेशौ । प्रत्ययलुपं कृत्वा देशकरणमागस्तीया एवमर्थम् । प्रत्ययान्तादेशे हि कृतेगस्त्यशब्दस्यादेराकाराभावाद् " वृद्धिर्यस्य ०" [ ६.१८] इत्यादिना दुसंज्ञा न स्यात्तदभावे " दोरीयः " [ ६. ३. ३२] इतीयोपि न स्यात् । यदा तु प्रत्ययस्य लुब्विधीयते तदा स्वरादावीयप्रत्यये भाविनि "न प्राग्०" [ ६.१. • १३५ ] इत्यादिना प्रतिषेधात्प्रत्ययस्य लुन्न । तथा च सति दुसंज्ञत्वादीयः सिद्धः स्यात् ॥ - वसिष्ठा गोतमाः कुत्सा भृगवोङ्गिरसोत्रयः । शंसन्तस्तीर्थमाहात्म्यं राज्ञोर्ध्या अभवन्भृशम् ॥ ३० ॥ ३०. स्पैष्टः ॥ भृगवः । अङ्गिरसः । कुत्साः । वशि (सि ) ष्ठाः । गोतमाः । अत्राणः । अश्रयः । इत्यत्रैयणश्च "भृगु० " [ १२८ ] इत्यादिना लुप् ॥ १ ए सी वसिष्ठा. १ सी या आग". अस्याप'. ५ सी स्पष्टम् । भृ २ एसी 'नामेभि° ३ ए प् । य° ४ बी सी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] भक्त्या युधिष्ठिराः क्षीरकलम्भा भागवित्तयः । चारार्जुनयवाग्रे पथि कण्टकशोधनम् ॥ ३१ ॥ ३१ स्पष्टः । किं तु युधिष्ठिराद्या नृपभेदाः ॥ क्षीरकलम्भाः । अत्रात इनः । भरत । युधिष्ठिराः। अत्र बाहादीतः "प्राग्भरते." [ १२९] इत्यादिना लुप् ॥ अपरे त्याहुः । प्राग्ग्रहणं भरतविशेषणम् । क्षीरकलम्भादयो वैश्याः प्राग्भरताः । युधिष्ठिरादयो राजान उदग्भरताः । तत्र प्राग्ग्रहणादुदीच्यभरतेषु राजसु लुन्न भवति । आर्जुनयः । भरतग्रहणाच प्राच्येषु राजसु न स्याद् भागवित्तयः ॥ उपकैर्लमका लामकायनरौपकायनाः । रासकांस्तिककितवैस्तथोजककुभा ददुः ॥ ३२ ॥ ३२. स्पष्टः ।। उपकैः । लमकाः । अत्र नडाद्यायनणो "वोपकादेः" [१३०] इति वा लुप् ॥ पक्षे । औपकायनाः । लामकायनैः ॥ तैकायनेयश्च कैतवाय यश्च तैस्तिककितवैः । इत्यत्र निकाद्यायनिन औब्जयश्च काकुभानोब्जककुभाः । अत्रोब्जादिनः ककुभाच्छिवाद्यणश्च "तिक०" [१३] इत्यादिना लुप् ॥ वृकलोहध्वजकुण्डीदृशा वङ्गाङ्गसँगकाः । तामक्लेशगतिं राज्ञः पश्यन्तो विस्मयं ययुः ॥ ३३॥ . ३३. Kष्टः ॥ १ ए सी "ष्ठिरा क्षी: २ ए कलिभा भा०. सी कलम्भशापवि. ३ सी °ण्डीवृशा. ४ ए सुब्रह्म'. ५ बी लकः । ता. सी मगा। ता. ६ए गतं रा. १सी लभादयो रा . २ ए सी पकै । ल'. ३ ए सी 'नश्च. ४ ए सी'नश्च. ५५ नि औ औं. ६ सी स्पष्टम् । . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.१.१३४. पश्चदशः सर्गः। वृकाः शम्राजीविसंघो "वृकाट्टेण्यण" [७. ३. ६४] इति टेण्यणि वाकेण्यः । लोहध्वजाः पुंगाः । “पूगाद्" [७. ३. ६० ] इत्यादिना म्ये लो(लौ)हध्वज्यः । कुण्डीदृशा वाहीकेषु शस्त्रजीविसंघो “वाहीकेषु०" [७. ३. ६३] इत्यादिना व्यटि कौण्डीदृश्यो द्वन्द्वे वृकलोहध्वज कुण्डीदृशाः । इत्यत्र टेण्यणादेः वङ्गाङ्गसुह्मकाः । अत्र च द्विस्वरलक्षणाणश्च "द्रयादेस्तथा" [ १३२ ] इति लुप् ॥ सोमेशः संमुखं न्वेति राजा वा शीघ्र इत्यभूत् । वादोङ्गवङ्गदाक्षीणां सहाङ्गवाङ्गदाक्षिभिः ॥ ३४ ॥ ३४. अचिराद्देवपत्तनसमीपे राज्ञ आगमनादित्येवंविधो वाद उक्तिरभूत् । शिष्टं स्पष्टम् ॥ अङ्गवङ्गदाक्षीणाम् आङ्गवाङ्गदाक्षिमिः । अत्र 'वान्येन"[ १३३ ] इति द्विखरलक्षणस्थाणो लुप (ब्बा)॥ राजा गर्गकुलाद्वैदकुलं विदकुलादथ । ज्ञाता. गार्यकुलं चेति दानं गच्छन्विवेक्यदात् ॥ ३५ ॥ ३५. इति पूर्वोक्तप्रकारेण यात्रार्थ गच्छन्सनाजा दानमदाद्गर्गकुलविदकु योरेव । किं कृत्वा । गर्गकुलाद्नार्यस्य गार्ययोर्वा कुलाद्वैदकुलं वैदस्य वैदयोर्वा कुलं ज्ञात्वाथ तथा विदकुलाद्गार्यकुलं च ज्ञात्वा । यतो विवेकी ॥ गर्गकुलात् गार्यकुलम् । विदकुलात् वैदकुलम् । अत्र "दे(ये)केषु." [१३४] इत्यादिना लुप्वा(वा) ॥ १ए गाग्र्ये चे. १ए पूगः । पू. २ बी सी ण्डीवृशा. ३ बी °ण्डीवृश्यो. सी डी. वृशोद. ४ बी °ण्डीवृशाः. ५ सी दृश्याः। . ६ सी च्छना'. ७ बी 'न्स राजा. ८सीजा वासम. ९एदार्गस. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ २१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [अयसिंहः] भृग्वङ्गिरसिकागर्गभार्गविकाविवोन्मुदः। गार्गीयाः सह फाण्टाहतैर्गाीयैश्च मङ्ख्युः ॥ ३६ ॥ ३६. गार्गीया गर्गाणां छात्रा उन्मुदो हृष्टाः सन्तो राज्ञा सह मड्युः । कैः सह । फाण्टाहृतस्यापत्यं वृद्ध फाण्टाहृतिस्तस्यापत्यं युवा फाण्टाहृतः “फाण्टाहृति." [ ६. १. १०४] इत्यादिना णस्तस्यच्छात्रा इति प्राग्जितीये स्वरादौ चिकीर्षिते णस्य लुप्तत इअन्ताद् "वृद्धजः" [ ६.३. २८ ] इत्यजि फाण्टाहृतास्तैर्गाीयैश्च गार्यायणच्छात्रैश्च भृग्वि(ग्व)ङ्गिरसिकागर्गभार्गविकास्विव । यथा भृगूणामङ्गिरसां च विवाहेषु गर्गाणां भृगूणां च विवाहेषु चोन्मुदः सन्तो गच्छन्ति ।।। गाायणीयों (हौ)त्रीयैरतिहो(हौ)त्रायणीयकैः । छात्रैः प्राध्ययनं प्राप भूपतिर्देवपत्तनम् ॥ ३७॥ ३७. भूपतिर्देवपत्तनं प्राप । किंभूतम् । प्राध्ययनं प्रारब्धवेदादिपाठम्। कैः । छात्रैः । किंभूतैः। गाायणीयैर्गाायणसंबन्धिभिस्तथा कैश्चिद्धो (द्धौ)त्रीयैर्होत्रस्यापत्यं युवा "द्विस्वरादणः" [ ६. १. १०८] इत्य(त्या)यनिनि हौत्रायणिस्तत्संबन्धिभिस्तथा कैश्चिञ्चातिहो(हौ)त्रायणीयकैर्गुणाधिक्येन हो(हौ)त्रायणीयकानतिक्रान्तैश्च ॥ गार्गीयाः । भत्र "न प्राग्" [ १३५] इत्यादिना गोत्रोत्पत्रस्य लुन्न । भृग्वगिरसिका ॥ इत्यत्र कस्मानिषेधो न स्यादुच्यते । प्रत्यासत्तेर्यस्य प्रत्ययस्य १ए विरिसि. २९ "हृतस्या. १सी उन्मदो. २ए त्यं यु. सी 'त्यं फा'. ३ बी तित्तस्या. ४ सी 'देश्य . ५ ए गिरिसि. ६ए सां विवाहेषु च ग. ७ सीधु चों' ८ ए णां वि. ९बी सी चोन्मदः. १० एम् । प्रध्य. ११ ए सी पीयकेगा. १२५ यणिसं. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.१.१३९.] पञ्चदशः सर्गः। २१९ लुप्प्रतिविध्यते तल्लोपिप्रत्ययान्तादेव विघीयमाने स्वरादौ प्रतिविध्यते । अत्र द्वन्द्वाद्विधीयते नै लोपप्रत्ययान्तादिति न प्रतिषेधः । “गर्गभार्गविका" इत्युत्तरसूत्रं वा नियमार्थ व्याख्यास्यते । गर्गभार्गविकाया अन्यत्र द्वन्द्वे वृद्धे यूनि वा प्रतिषेधो न स्यात् ॥ गर्गभार्गविका । इत्यत्र "गर्गमार्गविका" [१३६ ] इत्यणो लुप्रतिषेधो निपात्यते ॥ फाण्टाहृतैः । इत्यत्र यूनि विहितस्य गस्य लुप् [ १३७ ] ॥ गार्गीयैः गार्यायणीयैः । हौत्रीयैः हौत्रायणीयकैः । अत्र "वायनण्" [१३८ ] इत्यादिना यूनि विहितस्यायनण आयनिजश्च लुब्वा ॥ औदुम्बरिः पुराध्यक्षस्ततः सौदुम्बरायणः । सहतैकायनिस्तैकायनिश्चाभिमुखोभ्यगात् ॥ ३८॥ ३८. ततः पुराध्यक्षो नगरस्य रक्षार्थमधिकृत औदुम्बरिरुदुम्बरस्यापत्यं “साल्वांश०" [ ६. १. ११७ ] इत्यादिनेजि औदुम्बरिस्तस्यापत्यं युव ऋषिर्गण्डेति नाम्ना तत्र प्रसिद्धो नृपस्याभिमुखोभ्यगात् । कीहक्सन् । सौदुम्बरायण औदुम्बरेरपत्येन यूना । स्वभ्रात्रेत्यर्थः । युक्तस्तथा तैकायनिश्च तिकस्यापत्यं वृद्धमार्येति नाम्ना तत्र प्रसिद्ध ऋषिश्चोपलक्षणत्वादन्योप्यायौंघोभिमुखोभ्यगात् । कीहक्सन् । सहतैकायनिस्तैकायनेरपत्येन यूना युतः सपुत्र इत्यर्थः । उपलक्षणत्वात्स्वजनादिपरिवारोपेतः ॥ १ बी सी लोपप्र. २ ए न तोपिप्र. ३ ए न्ढे यू. ४ बी सी यैः होत्री. ५ बी यैः होता. सी यैः हात्रा. ६ ए म्बर. ७ ए पस्तस्या. ८ ए खोभ्यागा'. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये आर्याग्रणीर्वासिष्टश्च वासिष्ठेन सहोत्सुकः । अवासुदेवं तं वासुदेवं वाहातुमाययौ ॥ ३९ ॥ ३९. आर्याप्रणीरार्येष्वारिये (ष्वायें ?) त्याख्यया तत्र प्रसिद्धेष्वप्रणीः श्रेष्ठो वासिष्ठो र्वसिष्ठस्यापत्यं वृद्धमृषिर्वासिष्ठेन वासिष्ठस्यापत्येन यूना सह सपुत्र इत्यर्थस्तं नृपमाह्वातुं स्वमहासौघेवस्थानायामन्त्रयितुमाययौ । कीदृक्सन । उत्सुकोन्येभ्यः पूर्वमाह्वातुमतित्व रावान् । किंभूतं तम् । वासुदेवं 'नु रूपवत्त्वपराक्रमित्वादिगुणैर्वसुदेवस्य वृद्धमपत्यमिव काममिवेत्यर्थः । किंभूतं वासुदेवम् । अवासुदेवं वासुदेवस्य कामस्यापत्यं युवा वासुदेवोनिरुद्धस्तेन रहितम् । एतेन राज्ञो निष्पुत्रत्वोक्तिः ॥ I २२० औदुम्बरि: औदुम्बरायणः । भन्न "द्रीञो वा” [ १३९ ] इति यून्यायनणो लुब्वा ॥ ञितः । तैकायनिः । सहतैकायनिः । अत्रौत्सर्गिकाणः ॥ भषत् । वासिष्ठः । वासिष्टेन । इत्यत्रात इञश्च "जिद्ο" [ १४० ] इत्यादिना युवप्रत्ययस्य लुप् ॥ वासुदेवम् । अवासुदेवम् । इत्यत्र “अब्राह्मणात् " [ १४१ ] इति युवप्रत्ययस्यात इञो लुप् ॥ पैलः सपैलः शालङ्किः सशालङ्किस्त्वरान्वितैः । पान्नागारिः सँपान्नागारिर भूपतेर्ददौ ॥ ४० ॥ ४०. सपैलः पुत्रयुक्तः पैल आर्य एवमपि । अर्घ भूपतेर्ददौ । चन्दनपुष्पाक्षतजलाद्यर्घमर्घमुपलक्षणत्वात्पाद्याचमनीयमधुपर्काद्यपि राज्ञोदान् । गुरुनृपादयः षडर्ष्या इति हि स्मृतिः ॥ शिष्टं स्पष्टम् ॥ १ बी सी णीश्च वासिष्टो वा . सीतः । पन्ना . ४ बी सपन्ना . [ जयसिंहः ] १ सीं वशिष्ठ.. ५ सी आश्चर्य. २ ए ंङ्किस्वरा'. ३ बी 'ङ्कि रा. ३ बी सी सपन्नगा ३ एवं स्वरू'. २ बी सी वाशिष्ठ'. ४ बी अत्रोत्स.. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.२.१. ] पश्चदशः सर्गः । तौल्वलिं वैल्वलिं तौल्वलायनं तैल्वलायनम् । महत्तरान्पुरस्कृत्य सौमेशं वेश्म सोविशत् ॥ ४१ ॥ ४१. स्पष्टः । किं तु महत्तरान्प्रधानानि ॥ " 9. पैलः । सपैलः । भन्न “ द्विस्वरादणः” [ ६. १०९ ] इत्याय निनः शालङ्किः हः । सशालङ्किः । अत्र “यत्रिञैः " [ ६.१.५४ ] इत्यायनणश्च "पैलादेः” [ १४२ ] इति युवप्रत्ययस्य लुप् ॥ 1 पान्नागारिः । सैपान्नागारिः । अत्र “ यञिञः [ ६. १. ५४ ] इत्यायनणः “प्राच्येञः ०” [ १४३ ] इत्यादिना लुप् ॥ तौल्वल्यादिवर्जनं किम् । तौल्वलिं पितरम् । तौल्वलायनं पुत्रम् । तैल्वलिं पितरम् । तैल्वलायनं पुत्रम् ॥ 1 २२१ एकविंशः पादैः ॥ कौसुम्भं विद्रुमैः सोथ पद्मरागैश्च लाक्षिकम् । वज्र रौचनिकं कार्दमिकं मरकतोत्करैः ॥ ४२ ॥ कार्दमं च महानीलैर्मिश्रैः शाकलिकं च तैः । रुचोलो (लो) चं नु तन्वानैः पयित्वेशमार्चिचत् ॥ ४३ ॥ ४२-४३. अथ जयसिंह ईशं सोमनाथं नपयित्वार्चिचत् । कैः । विद्रुमैः प्रवालैः । किंभूतैः । रुचा पीतकान्त्या कृत्वा कौसुम्भं कुसुम्भेन रक्तमुल्लोचं नु चन्द्रोदयमिव तन्वानैः कुर्वद्भिः । एवं सर्वत्र योजना कार्या । पद्मरागैर्लोहित कैर्मणिभिर्लाक्षिकं लाक्षया रक्तं वत्रैधृतवर्णैर्हीरकै रौचनिकं गोरोचनया रक्तं मरकतोत्करैः कृष्णवर्णैरश्म१ बी सुभं वि. २ बी वज्रे रौ.. : १ए 'नाने । पैलः । अ 'रिः । अँ. ५ बी सपन्ना'. < «°à à°‚ । २ सी पैल्यः । स°. ६ ए ञिञ अत्राय ं. ३ ए 'ञः अत्राय'. ४ सी ७ बी 'दः समाप्तः । कौ. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] गर्भरत्नौघैः कार्दमिकं कर्दमेन कृष्णेन मृद्विशेषकाटद्रव्येण रक्तं महानीलैरिन्द्रनीलैः कार्दमं च कविमार्गे कृष्णनीलवर्णयोरैक्येन वर्ण्यत्वात्कर्दमेन रक्तं मिश्रैः संकीर्णैस्तै विद्रुमादिभिः शाकलिकं च शकलेन नानावर्णेन रागद्रव्यभेदेन रक्तम् ॥ शाकलैः पीतकैनीलैरेनीलैरपरैरपि । तं क्षौमैरार्चयद्भूपः कर्पूरीगुरुधूपितैः ॥ ४४ ॥ ४४. स्पष्टः । किं तु पीतकैः पीतेन कुसुम्भप्रथमनिर्यासेन रक्तैः । नीलैनीलेन रागविशेषेण रक्तैः । अनीलैर्नीलीरक्तक्षौमवर्जितैरपरैरपि क्षौमैः । नील्या रक्तानि हि क्षौमाणि लोके पवित्राणि ॥ कौसुम्भम् । अत्र "रागाट्टो रक्ते” [ १ ] इत्यण् ॥ स्वाक्षिकम् । रौचनिकम् । अत्र “ लाक्षा०" [ २ ] इत्यादिना इकण् ॥ शाकलिकम् शाकलैः । कार्दमिकम् कार्दमम् । अत्र “शकल." । इत्यादिना वेकण् ॥ नीलैः । पीतकैः । अत्र " नील० " [ ४ ] इत्यादिना - भकश्च (अकौ ?) ॥ लिङ्गविशिष्टग्रहणादनीलैः ॥ पौषोन्दोसौ निशा पौषी पुष्योद्यापीति शंसिनः । द्विजान्विसृज्य सोन्यांश्च समाधाव विशद्रहः ॥ ४५ ॥ ४५. स जयसिंहो रह एकान्ते समाधौ ध्यानार्थमविशत् । किं कृत्वा । द्विजानन्यांश्च भट्टादियाचकान्विसृज्य दानसन्मानादिना मुँत्क• लयित्वा । किंभूतान् । इति शंसिनो वदतस्तदेवाह । असौ यत्र राजा सोमनाथस्य यात्रां चकार सोब्दः संवत्सरः पौषः पुष्येणोदितगुरुणा I १ ए सीरप . [ 2 ] २ सी 'रागरु'. १ सी रक्तमि . २ए थन सी प्रवनि'. 'नीलर'. ५ बी कौशुम्भ.. ६ सी मुत्काल .. ३ ए ले रा. ४ ए सी ७ बी सी पौष पु. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ [है. ६.२.८.] पञ्चदशः सर्गः। युक्तस्तथासावनन्तरागामिनी निशा पौषी पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्ता तथाद्यास्मिन्यात्राहे पुष्योपि पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालोपि । अयं संवत्सरोहोरात्रश्च सर्वकार्यसिद्धिकर इत्यर्थ इति ॥ पौषोन्दः । अत्र "उदित." [५] इत्यादिना ॥ पौषी निशा । इत्यत्र "चन्द्रयुक्तात्" [६] इत्यादिनाण् । लुस्वप्रयुक्त पुष्योच ॥ निशां राधानुराधीयां ध्यानस्तिमितदृष्टिना । जपन्किमपि चौलुक्यो व्यडम्बयन्मुखेन्दुना ॥ ४६ ॥ ४६. चौलुक्यः किमेप्यज्ञेयं रहस्यं जपन्ध्यायन्सन् निशा व्यडम्बयदन्वकरोत् । कीदृशीम् । राधानुराधीयां राधानुराधाभिर्विशाखानुराधा. भिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ताम् । केन कृत्वा। ध्यानस्तिमितदृष्टिना समाधिनिश्चलाक्षेण मुखेन्दुना वऋश्रेष्ठेन । इन्दुशब्दोत्र व्याघ्रादिशब्दवत्प्रशंसावचनः । एतेन राज्ञि समाधेः प्रकर्ष उक्तः । चन्द्रोदयोज्वलनिशातुल्यो राजा। राधानुराधायुक्तचन्द्रतुल्यो राज्ञो ध्यानस्तिमितदृष्टिमुखेन्दुः। यदा हि विशाखानुराधयोश्चन्द्रः स्यात्तदा तयोर्मध्यस्थत्वाञ्चन्द्रस्यैवमुपमा । राधानुराधीयां निशाम् । अत्र "द्वन्द्वादीयः" [ 0] इतीयः ॥ कण्ठप्रभानवाम्भोदैः श्रवणां दर्शयन्निव । अङ्गज्योत्स्नाभिरश्वत्थां चाविरासीदथेश्वरैः ॥४७॥ ४७. अथेश्वर आविरासीत्प्रत्यक्षोभूत् । कीहक्सन् । कण्ठप्रभानवाम्भोदैः कण्ठकान्तिभिरेव नीलत्वात्प्रावृषेण्यमेधैः कृत्वा श्रवणामिव १बी सी क्यो वि. २ सी श्वस्यां चा'. ३ ए °रः । ईश्व'. १ बी न्तरगा . २ सी युक्तः का'. ३ बी प्रत्युक्ते. ४ ए युक्तेः पु. ५ सी मपि में. ६ वी सी शां विड'. ७बी विशेषानु. ८बी शापा. १९न्तिरे. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ध्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] श्रवणेन चन्द्रयुक्तेन युक्तां पूर्णिमामिव श्रावणपूर्णिमामिव दर्शयन् । तथाङ्गज्योत्स्नाभिरङ्गमेवातिश्वेतत्वाज्योत्स्नास्ताभिः कृत्वाश्वत्थामिवाश्वस्थेनाश्विनीभिश्चन्द्रयुक्तेन युक्तां पूर्णिमामिवाश्विनपूर्णिमामि च द. र्शयन् ॥ श्रवणाम् । अश्वत्थाम् । अत्र "श्रवण." [ ८ ] इत्यादिना-अः ॥ इत्यूचे तं हरः स्थित्यानया जयसि तापसम् । भैक्षभुग्यौवतानीहं जेतः क्षौद्रकमालवीम् ॥ ४८ ॥ ४८. हरस्तमित्यूचे । यथा क्षुद्रकाणां मालवानां च समूहः क्षुद्रकमालव्येवंनामा(नी?) काचित्सेना तां जेतर्जिष्णो हे जयसिंहानया स्थित्या योगिजनोचितावस्थानेन तासं तापसौ.जयसि । किंभूतम् । भैक्षभुग्निःसङ्गत्वाद्भिक्षासमूह भुञ्जानं तथा यौवतानीहं जितेन्द्रियत्वाावतिसमूहानभिलाषि ॥ तापसम् । अत्र “षष्ठ्याः समूहे" [९] इत्यण ॥ भैक्ष । यौवत । इत्यत्र "मिक्षादेः" [१०] इत्यण् ॥ क्षौद्रकमालवीम् । इत्यत्र "क्षुद्रक०" [११] इत्यादिनाण् ॥ वात्सकैरोक्षकैः प्रागप्याजकौरभ्रकौष्ट्रकैः । श्रितो मानुष्यकैश्वासि वार्धकैश्चातिगार्गकैः ॥ ४९ ॥ भक्तै राजन्यकै राजपुत्रकैरतिराजकः । मानृण्यायाधुना खसिद्ध्या त्वं भव सिद्धिराट् ॥५०॥ १बी भक्ष्यभु. सी भैक्षाभु. २ सी चातिगा'. ३ ए °कैरा. ४ बी सिद्धरा. १ सी श्वस्थामि'. २ बी श्वत्थावि. सी वस्थेमोवि. ३ बी व द. ४ सी पसौ. ५ बी मिलषि. ६ बीण् । मिक्ष. ७सी भैक्ष्य । यौ'. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.२.१३.] पञ्चदशः सर्गः। २२५ ४९-५०. स्पष्टौ । किं त्वतिगार्गकैर्जितेन्द्रियत्वादिना गर्गर्पिसमूहानतिक्रान्तर्वार्धकैश्च वृद्धसमूहैश्च श्रितस्तथा भक्तै राजेन्यकै राजपुत्रकैश्च राजन्यानां राजपुत्राणां च समूहैः कृत्वातिराजको विजयेन रोजौघमतिक्रान्तश्च वर्तसे हे सिद्धिराड् जयसिंह ।। गोत्र । गार्गकैः। औक्षकैः। वात्सकैः । औष्ट्रकैः । वार्धकैः । आजक । औरभ्रंक । मानुष्यकैः । राजकः । राजन्यकैः । राजपुत्रकैः । अत्र “गोत्र०" [१२ ] इत्यादिनाकञ् ॥ नृपो भक्क्यम्बुकदार्य गुणकदारकं स तम् । सिद्धिकैदारिकं साहाहाकावचिकहास्तिकम् ॥५१॥ ५१. स नृपस्तं सोमनाथमाह स्म । किंभूतम् । गुणकैदोरकं यथा कैदोरकं क्षेत्रौघोनेकधान्यानां जन्मभूमिरेवमनेकगुणानामुत्पत्तिभूमिमित्यर्थः । तथाहांसि पापान्येव कावचिक कवचिनां महाभटानां समूहस्तत्र हास्तिकं हस्तिनां हस्तिनीनां वा समूह पापचूर्णकमित्यर्थः । अत एव सिद्धिकैदारिकमणिमादिसिद्धीनामुत्पत्तिभूमिमत एवं च भक्तय एव कठोरस्यापि भेदकत्वादम्बूनि तेषां कैदार्यमिव यथाम्बुभिः केदारौघः सिच्यते तथासंख्यभक्तिभिः सेक्यमाराध्यमित्यर्थः ।। १८ १ बी पो भुक्त्य. २५ °द्धिकेदारकं. १ ए स्पष्टे । किं. २ बी सी कैजितै'. ३ बी हैश्चाश्रि. ४ ए जपु. ५ ए राजोघ. ६ सीतते हे. ७ बी सी सिद्धरा. ८ ए कैः । वा. ९ सी भ्रकः । मा. १० सी थस्यमा. ११ सी गुणाकेदा. १२ बीणकेदा. १३ ए दारिकं. १४ ए दारिकं. १५ बी सी क्षेत्रोयो'. १६ ए बी 'मूह: पा. १७ बी सी व भ. १८ ए दभूमि तेषां केदा. सी दज्ञानि. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ द्व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] आपूपिकैर्नु माणव्यमाधैनवं नु धैनुकैः । ब्राह्मण्यमिव निर्वाहृष्टोसि त्वत्प्रसादतः ॥५२॥ ५२. त्वत्प्रसादतः स्वर्णसिद्धिदानरूपात्त्वत्प्रसादादरम्यहं हृष्टः यथापूपिकैः पूपिकौघैर्माणव्यं बटुकौघो हृष्यति यथा वा धेनुकैर्धेन्वोपैराधैनवं न धेनवो येषां तेघेनवस्तेषामोघो हृष्यति यथा वा निर्वापैः पितृतर्पणैाह्मण्यं द्विजौघो हृष्यति ॥ आवाडव्यान्महीमागाणिक्याद्विद्ध्यनृणां कृताम् । न्यस्य यत्र विमां साधयामि खं देहि तं सुतम् ॥ ५३ ॥ ५३. स्पष्टः । किं त्वावाडव्याहिजौघादारभ्यागाणिक्यागणिकौघं च यावदुत्तमं जनमारभ्य हीनं च यावदित्यर्थः । स्वमात्मानम् ॥ कैदार्यम् । कैदारकम् । इत्यत्र "केदारापण्यश्च" [१३] इति प्योकञ्च ॥ कावचिक । हास्तिकम् ॥ अचित्चात् । आपूपिकैः ॥ केदारात् । कैदारिकम् । भत्र "कवचि." [१४] इत्यादिनेकण् ॥ धेनुकैः । अत्र “धेनोरनमः" [१५] इतीकण् ॥ भना इति किम् । भाधैनवम् । उत्साद्यन् । अनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धिः [७. ४. २७ ] ॥ मारण्यम् । माणव्यम् । वाडव्यात् । इत्यत्र "ब्राह्मण" [१६] इत्यादिना यः॥ गाणिक्याद् । इत्यत्र "गणिकाया ण्यः" [१७] इति ण्यः ॥ मृर्ध्नि कैश्यं स्पृशञ् शंभुः पाणिना प्रत्युवाच तम् । भूभारं कैशिकमिवोचितारयिषुरागमः ॥ ५४॥ १ बी नृणीं कृ. २ एम् । नामा य. १५ पिको. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.२.२१.] पञ्चदशः सर्गः। २२७ ५४. शंभुर्मूर्ध्नि कैश्यं केशौघं पाणिना स्पृशन्नाहादनार्यच्छुपन्संस्तं नृपं प्रत्युवाच । हे राजंस्त्वं भूभारमुत्तितारयिषुः स्वपुत्रे न्यसनेन स्वत उत्तारयितुमिच्छुरागमः । कैशिकमिव यथा केशौघमुत्तितारयिपुस्त्वमागमः । सोमनाथयात्रायां हि यात्रिकैः केशा उत्तार्यन्ते ।। कैश्यम् । कैशिकम् । अत्र "केशाद्वा" [ 10 ] इति वा ण्यः । त्वद्धात्रीयत्रिभुवनपालपुत्रोस्ति धूःक्षमः । कुमारपालः साश्वीयस्त्वदन्ते क्ष्मां धरिष्यति ॥ ५५ ॥ ५५. स्पष्टः । किं तु धूःक्षमो भूमिप्राग्भारधरणक्षमः । साधीयोश्वौधेन सहितः॥ इत्युक्त्वान्तर्हिते शंभौ यावदाचैर्नृपोचलत् । वेत्यादिष्टो नमन्पाचे तावदागाद्विभीषणः ॥ ५६ ॥ ५६. स्पष्टः । किं त्वाश्वैरश्वौधैः वेत्र्यादिष्टः प्रतीहारेण कथितो नमन् सन् विभीषणो रावणभ्राता पार्श्वे राज्ञः समीपे लङ्कात आगात् । विभीषणो हि लोकैरविनश्वर उच्यते । सावीर्यः आचैः । अत्र "वाश्चादीयः" [१९] इतीयो वा ॥ पार्थे । अत्र "पर्धा इण्" [२०] इति ड्ण् । ऊचे सोहीनपृष्ठयेषु गोत्राप्रीणितकाठक । विद्धि द्विट्तूलवातूल भृत्यं मां पूर्वजन्मनः ॥ ५७ ॥ ५७. स विभीषण ऊचे । यथाहीनपृष्ठयेषु । अह्नां समूहा अहीनाः पृष्ठानां समूहाः पृष्ठ्याः । द्वन्द्वे तेषु यागभेदेपु हे गोत्राप्रीणितकाठक गोसमू१ बी नपुष्पेषु. . १एनाइद. २ ए यन्नुप'. ३ सी ताहिते । के. ४ बीन् । केश्य. ५५ रबोधैः. ६ बीयः अधैः. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ व्याश्रयमहाकाव्ये (जयसिंहः हाहादितकठौघ हे कठेभ्यो दत्तगोसहस्रेत्यर्थः । तथा हे द्विट्तूलवातूल शत्रुष्वेवार्कतूलेषु वातौघ पूर्वजन्मनो रामचन्द्ररूपस्य पूर्वभवस्य भृत्यं मां विद्धि । रथकड्यां(व्यां?) लसत्पाश्यागन्यां मुक्त्वांहिचारिणम् । त्वामत्रायान्तमाकोरेथ्यो वात्यावदागमम् ॥५८॥ ५८. अरथ्यो थौधरहितो वात्यावदतिशीघ्रत्वाद्वातौघ इवात्राहमागमम् । किं कृत्वा । त्वामाकर्ण्य । किंभूतम् । अहिचारिणं सन्तमत्रायान्तं यात्रार्थमागच्छन्तम् । किं कृत्वा । रथकड्या (व्यां ?) रथौधं मुक्त्वा । किंभूताम् । लसन्ती स्वर्णपृष्टा(ष्ठा)दिना विच्छरितत्वाद्देदीप्यमाना पाश्या पाशानां योत्राणां समूहो यस्याः सा तथा गव्या वृषाघो यस्यां ताम् ।। · तदादिश सदाण्डं मां सेनाग्रे रक्षितुं विभो । महाखल्यो यथा शौवमूकिनीखलिनीमुखे ॥ ५९॥ ५९. तत्तस्माद्धेतोहें विभो सदाण्डं दण्डिनां दण्डप्रहरणवतां समूहेनान्वितं मां सेनाप्रे रक्षितुमादिश । यासु भूमिषु धान्यानि वृषादिमिर्विगायन्त उत्पूयन्ते च ताः खलानि तेषां समूहः खल्या । महती खल्या यस्य स महाखल्यो गृहपतिर्यथोकिनीखलिनीमुख ऊकानां समूह ऊकिनी धान्यराशिस्तस्या या खलिनी खलानां समूहस्तस्या मुखे क्षेत्रद्वारदेशे रक्षितुं चोरादिभ्यो रक्षार्थ शौवं कुक्कुरोधमादिशति व्यापारयति ॥ १ बी पाश्यग'. सी पास्याग'. २ ए रथो वा'. सी रथो न्योत्या. १ सी 'कठे. २ बीस्य भ'. ३ ए सी रयोघ. ४ ए सतमाया'. ५ बी सी पिष्टादि . ६ए 'मूहा य'. ७५ विघाम'. ८ वी सी क्षेत्रे दा. ९सी क्षितु दोरा ए क्षितुं चौरा. १० वी कु. Page #240 --------------------------------------------------------------------------  Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंह ६२. पौलस्त्यो विभीषणो राज्ञः पुरो भूत्वा भूपमिदं वक्ष्यमा रैवतकतीर्थस्वरूपमब्रवीत् । कीदृक्सन् । पौरुषेयात्पुरुषसंबन्धिनो वधाद्धिंसाया विकाराच्च हस्ताद्यवयवच्छेदादेश्च सकाशात्स्वकान्राक्षसाव्रक्षन्निषेधन यतो भावविद्राज्ञोभिप्रायज्ञः । राज्ञो हि राक्षसानामन्यायानिषेधनं रैवतकतीर्थस्वरूपज्ञानं चाभिप्रेतम् ॥ __ ग्रामता । जनताम् । बन्धुताम् । गजता । सहायता । इत्यत्र "ग्राम०" [२८] इत्यादिना तल ॥ अपौरुषेयम् । पौरुषेयः । पौरुषेयावधाद्विकाराच्च । पौरुषेय । इत्यत्र "पुरुषात्कृत." [२९] इत्यादिनैयन् ॥ असावाश्मोपि वन्द्योगिर्नेमिस्तेपे तपोत्र यत् । छागेभ्यः सक्थिमांसेभ्य इवोद्वाहाजुगुप्सितः ॥ ६३ ॥ ६३. स्पष्टः । किं त्वाश्मोश्मविकारः । नेमिाविंशो जिनः । तपः सर्वसावंद्यविरतिरूपम् । छागेभ्यश्छागानामवयवविकारेभ्यः । जुगुप्सितो विरक्तचित्ततया छागसक्थिमांसेभ्यो राजीमतीविवाहाच्च जुगुप्सित्वा निवृत्त इत्यर्थः रजोप्यस्य गिरेः पुंसामंहश्छेदाय जायते । कारीरं चैत्रकं काण्डे भस्म वासक्छिदे यथा ॥ ६४ ॥ ६४. स्पष्टः । किं तु करीरस्य चित्रकोषधेश्व काण्डं हि जलादिना १ ए गिरे पुं. २ बी सी पुंसां मं. ३ बी ‘देर्यथा. १ए शाद्राक्ष. सी शास्वका. २ सी सान्या'. ३ बी मतां । ज. ४ एम् । राज. सीम् । जगता. ५ ए पेत्य. ६ए । आसा. ७ सी हा जु. ८ बीप्सितत्वा. ९बी थैः । राजो'. १० ए रक.स्य. ११ सी हितं ज. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.१.३४.] पञ्चदशः सर्गः। २३१ घर्षिता प्रणादौ दत्तं रुधिरच्छेदाय स्याद्भस्म वानप्रहारादौ दत्तं रक्तनिवृत्तये स्यात् ॥ भारमः । अन्न "विकारे" [३०] इत्यम् ॥ प्राणिभ्यः । छागेभ्यः । सक्थिमांसेभ्यः ॥ औषधिभ्यः । चैत्रक काण्डम् । चैत्रकं भस्म ॥ वृक्षेभ्यः । कारीरं काण्डम् । कारीरं भस्म । अत्र "प्राणि." [३१] इत्यादिना-अण् ॥ धन्वानाकर्षतां तालं व्याधाना तीर्थतेजसा । हिंसा गलन्त्यभिप्राया जातुपत्रापुपा इव ॥६५॥ ६५. अत्रादौ तालं तालवृक्षविकारं धन्व मृगव्यापादनाभिप्रायेण(णा)कर्षतां व्याधानामाखेटिकानामपि तीर्थतेजसा तीर्थप्रभावेण हिंस्रा हिंसनस्वभावा अभिप्राया गलन्ति विलीयन्ते । अत एवोलेक्ष्यन्ते जातुषत्रापुषा इव । जतुनो लाक्षायास्त्रपुणो वावयवा इव विकारा इव वी । ते ह्यग्निसङ्गेन विलीयन्ते ।। तालं धन्व । इत्यत्र “तालाद्धनुपि" [३२] इत्यण् ॥ वापुषाः । जानुष । इत्यत्र "त्रपु०" [३३ ] इत्यादिना पान्तश्च ॥ स्याद्रव्यपृष्टशामीलयष्टेरनिरिवामुतः। धीरौष्ट्रकपयस्योपजीविनामपि पावनी ॥६६॥ - १ए वास्तुतः. बी वासुतः. २ ए पि थाविनी. ३ वी पाविनी. १ ए त्वा दौ. २ बी पिरेच्छे'. ३ ए म चास्त्र. बी स वस्त्रे प्र. ४ ए आमः । अ. ५ ए भ्यः । स. ६ ए सी ‘भ्यः । करी. ७ए म् । करी'. ८ ए माखिटि'. ९ सी प्र. १० सी क्ष्यते जा. ११ सी वा । रा. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] ६६. औष्ट्रकपयस्योपजीविनामप्युष्ट्या विकार औष्ट्रकं यत्पयस्यं पयसो दुग्धस्य विकारो वित्रुटितदुग्धादि तदुपजीविनामप्युष्टपालानामपि । ते हि निर्दया निर्धर्माश्च स्युस्तेषामप्य॑मुतो गिरेः सकाशाद् गम्ययबपेक्षया पञ्चम्याममुं प्राप्य वा पावनी दयादिना पवित्रा धीः स्यात् । यथा दोर्दारुणो विकारः काष्ठखण्डं द्रव्यं तेन घृष्टा या शामीला शमीवृक्षावयवो यष्टिस्तस्याः सकाशात्तां प्राप्य वाग्निः स्यात् ॥ शामील । इत्यत्र "शम्या लः" [३४] इति लः ॥ पयस्य । द्रव्य । इत्यत्र “पयोद्रोर्यः" [३५] इति यः ॥ औष्ट्रक । इत्यत्र "उष्वादकञ्" [ ३६ ] इत्यकञ् ॥ सोथामुच्यौमकं वासः पौलस्त्येनौमवाससा । दत्तहस्तोद्रिमध्यास्त दर्शिताध्वौर्णकाम्बरैः ॥ ६७ ॥ ६७. स्पष्टः। किं त्वौमकमुमाया अतस्या विकारं वासो वस्त्रं धौतवस्त्रिकामित्यर्थः । आमुच्य परिधीय दत्तहस्तो दत्तवाहिकः । एतेन पादचारेणारोहकथनम् । और्णकमाया विकारोम्बरं येषां तैः सौराष्ट्रः । ते घूर्णवस्त्रं परिदधति ॥ औDणेयत्वक्पटानां कौशेयान्यध्वदर्शिनाम् । मुक्तपारशैवास्त्राणां दत्वा चैत्ये नृपोविशत् ॥ ६८ ॥ १ बी सी औणेणे'. २ ए णणय'. ३ बी 'शवस्त्रा'. ४ ए शयत्. १ सीना उष्ट्या. २ ए रो त्रु'. ३ बी मपि । ते. ४ सी प्यमतो. ५ बी पाठनी. ६ बी द्रो इ. ७बी "स्त्रिकमि. ८ सी धैः । अमु. ९ए धायाद. १० सी दत्तावा. ११ बी और्णमू. १२ सी ट्रैः। झू. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.४१.] पञ्चदशः सर्गः। २३३ ६८. नृपश्चैत्ये श्रीनेमिनाथप्रासादेविशन् । किं कृत्वा । कौशेयानि कोशस्य विकारान्पटांशुकानि दत्त्वा । केपाम् । और्णा ऊर्णाया विकारा ऐणेयत्वचश्च मृग्यवयवत्वचः पटा येषां तेपामार्णपटानां सौराष्ट्राणामैणेयत्वक्पटानां च पार्वतिकानाम् । कीदृशाम् । अध्वदर्शिनाम् । तथा परशव इदं परशयम "उवर्णयुगादेयः" [ ७. १. ३० ] इति यः । तस्यायसो विकारः पारशवानि मुक्तानि चैत्यद्वारदेशप्राप्तत्वात्त्यक्तानि पारशवान्यस्त्राणि परशव एव यैस्तेषाम् ।। औमकम् औम । और्णकम्(क) और्ण । इत्यत्र “उमोर्णाद्वा" [ ३७ ] इति वाकञ् ॥ ऐणेयत्वक् । इत्यत्र “एण्या एयञ्' [३८] इत्येयञ् ॥ कौशेयानि । इति "कौशेयम्" [३९ ] इत्यनेन निपात्यम् ॥ पारशव । इत्यत्र "परशव्याद्यलुक्च' [ ४० ] इत्यण यस्य च लुक् ॥ केपि द्रुवयमानाभाः कांसढका अवादयन् । घटिता हाटकेनिष्कः काहलाः केप्यपूरयन् ॥ ६९ ॥ ६९. केपि कांस्यढक्का मजनारम्भेवादयन् । कीदृशीः । द्रुवयमानाभा द्रोर्दारुणो विकारो द्रुवयं यन्मानमष्टसेतिकाप्रमाणं हाराख्यं तदाभाः पृथुलवर्तुलमुखाः । तथा केपि काहला अपूरयन्मुखवातेन पूरितवन्तोवादयन्नित्यर्थः । कीदृशीः । हाटकैः स्वर्णस्य विकारैनिष्कः पलशतैर्घटिता निर्मिताः ।। १बी काश्यढ. २ ए सी कैनिष्कैः. १एसी मिप्रसा. २ बीरा एणे'. ३ सी व्यर्ण'. ४ वी सी ।। एणे. ५ एण्या येय'. ६ए नेनेति नि?. ७ बी काश्यद'. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] कांस्य । इत्यत्र “कसीयायः" [ ४१] इति न्यः ॥ हाटकैनिप्कैः । अत्र "हेम." [ ४२] इत्यादिना ॥ दुवय । इत्यत्र "द्रोर्वयः" [ ४३ ] इति वयः ॥ शतिकान्द्विशतान्हमात्राजतानपि केचन । सुवर्णमयपद्मार्चान्पूर्णकुम्भानसजयन् ॥ ७० ॥ ७०. केपि नृपा हैमान्स्वर्णविकारांस्तथा राजतानपि रूप्यमयांश्च पूर्णकुम्भानिक्षुरसघृतदुग्धदधिसुरभिवारिसंपूर्णकलेशानसज्जयन् । किंभूतान् । शतिकान्द्विशतांचं हेनो रजतस्य वा संबन्धिनः । शतस्य द्वयोः शतयोर्वा विकारांस्तथा सुवर्णमयानि सुवर्णस्य विकारा यानि पानि तेरा पूजा येपुं तान् । सर्वानपि स्वर्णपद्मः पिहितानित्यर्थः ।। सौवर्ण पट्टके कपि धातकासवाससः । अमण्डयन्वहिं मौद्रं त्यक्त्वा तालमयं धनुः ॥ ७१ ॥ ७१. स्पष्टः । किं त्वमण्डयन्विच्छित्त्यारचयन् । उपशान्तचित्तत्वात्तालमयं तालतरोविकारं धनुस्यक्त्वा । शतिकान् । इत्यत्र "मानाक्रीतवत्" [ ४४ ] इति क्रीतवद्विकारे प्रत्यय. विधिः ॥ वेत्सर्वविधिसादृश्यार्थः । तेन लैबादिकस्याप्यतिदेशः स्यात् । द्विशतान् ॥ हैमान् । राजतान् । इत्यत्र "हेमादिभ्यो" [ ४५ ] इत्यन् ॥ १ सी वर्णपटके. २ सी सवि । अ. ३ सी यलम्ब'. १बी यामः इति त्रः । हा'. २ बी लसान. ३ बी भून्. ४ ए 'श्च हैम्नोः ५सी द्वयोवा. ६ बी 'नि स्वर्ण'. ७सी पु । स. ८ बी कारोप्र. ९बी विधेः । व. सी विधि । यत्म. १० ए वत्संबन्धि सा. ११ ए लुदिवालक. १२ बी ञ् । स्वर्ण'. सी ञ् । सौवर्ण. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.२.४७.] पभ्वदशः सर्गः । २३५ सुवर्णमय । सौवर्णे । अत्र "अभक्ष्य ० " [ ४६ ] इत्यादिना मयड्वा ॥ अभ क्ष्याच्छादन इति किम् । मौनं बलिम् । कार्पासवाससः ॥ भैक्ष्याच्छादनयोर्मयडभावपक्षे च " तालाद्धनुषि " [ ६. २.३२ ] इत्यादिको विधिः । सावकाशोर्य च सुवर्णमय इत्यादौ । तत्रोभयप्राप्तौ परत्वादनेन मयट् स्यात् । तालमयं धनुः ॥ केचिच्छरमयीदर्भमयी स्तृणमयीः कुटीः । कूंदीमयीश्च गत्वाह्नन्नाचार्यां श्वेतवाससः ॥ ७२ ॥ । ७२. स्पष्टः । किं र्तुं कूदीमयीश्व तृणविशेषविकारान् । कुटीरुटजानि । आह्वन् स्नानदर्शनायाकारयन् । गिरौ हि प्रायेण शरमय्याद्या एव कुट्यः सुलभाः स्युरित्युक्तं शरमयी रित्यादि ॥ द्राग्वैल्व जमयात्सोममयाच्च गन्धवेश्मनः । पात्रैः केचिन्मृन्मयाद्यैरानिन्युश्चन्दनादिकम् ॥ ७३ ॥ ७३. केचिन्मृन्मयाद्यैर्मृद्विकारस्वर्णविकारादिभिः पात्रैर्भाजनैः कृत्वा गन्धवेश्मनो गन्धप्रधानीपणाद्राक्चन्दनादिकमानिन्युः । किंभूतात् । वैल्वजमयात्सोममयाच सुलभत्वेन वैल्वजसोमाख्यतृणविशेषाणां विकारात् ॥ १ बी कूटीम . २ बी सी ' स्वेत'. ३ सी 'ग्वल्बज', २ एभक्षेत्या बी 'भक्षत्या', ४ एससा । भ. बी 'सवः । भ ं. ७ सी स्पष्टं किं. डाम्वत्व'. ११ बी १३ ए वल्कन'. सी 'वर्ण्य । अ. १ एवणेत्यत्र' सी 'लि । का. 1 · ३ बी 'लि: । का' ५ बी सी भक्षाच्छा.. ६ बी 'यं सु ं. ९ एर्शनयोः का. १० दि । 'नामाणद्रागचन्द'. १२ ए वल्कन'. ८ए तु कृदी. नापाणा सी Page #247 --------------------------------------------------------------------------  Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०६.२.५३.] पञ्चदशः सर्गः । गोमय । इत्यत्र "गोः पुरीषे" [ ५० ] इति मयट् ॥ व्रीहिमयान् । इत्यत्र "व्रीहेः ० " [ ५१ ] इत्यादिना मयद ॥ कुम्भैर्यवमयोत्पेषगौरैश्चत्रैरिवाबभौ । नेमिस्तिलमयक्षोदस्निग्ध ओघो नु यामुनः ॥ ७६ ॥ 9 ७६. तिलमयक्षोदस्निग्धस्तिलवर्तिवदरूक्षकालिमगुणो नेमिः कुम्भैः स्वर्णकलशैः कृत्वाबभौ । किंभूतैः । यवानां विकारो यवमयं यवपिष्टं तेन य उत्पेष उज्ज्वालनं तेन गौरैर्निर्मलैः । यथा तिलमयक्षोदस्निग्धो यामुन ओघः प्रवाहो गौरैः स्वर्णवर्णैश्वश्चक्रवाकैर्भाति ॥ पुजा पिष्टमयैर्गन्धैर्याव गौरैरतैलया । उद्वर्तितः पिष्टिकया सोस्तहैयङ्गवीनया ॥ ७७ ॥ ७७. पिष्टिकया दलिता मुद्गादयः पिष्टं तद्विकारेणातिसूक्ष्मेण पिष्ठेन कृत्वा स श्रीनेमिनाथ उद्वर्तितो राज्ञोज्वालितः । कीदृश्या । गन्धैः कुष्ठादिभिर्गन्धद्रव्यैर्युजा युक्तया । किंभूतैः । यवस्य लाक्षाया विकारो यावोलक्तकस्तद्वगौरैः पीतवर्णैस्तथा पिष्टमयैः कुष्ठादयः किंचिचूर्णिताः पिष्टं तस्य विकारैरतिश्लक्ष्णपिष्टरूपैरित्यर्थः । तथातैलया तिलविकारेण स्नेहेन रहितयात एवातिरूक्षत्वादस्तं क्षिप्तं हैयङ्गवीनं ह्योगोदोहस्य विकारः प्रतिमालम्नं स्नानघृतं यया तया ॥ तिलमय । यवमय । इत्यन्न “तिल० " [ ५२ ] इत्यादिना मयद ॥ अनानीति किम् । अतैलया । याव ॥ १ ए यामनुः । ति १ बी यं पि. ५ एतं हेयं. त्यत्र. २३७ २ सी उत्प्रेक्ष्य उ°. ६ बी 'तं तया त'. ३ ए सी चिचूर्णि ४ सी त Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ व्याश्रयमहाकाव्ये पिष्टमयैः । अत्र “पिष्टात्" [ ५३ ] इति मयद पिष्टिकया । अत्र "नाम्नि कः " [ ५४ ] इति कः ॥ हैयङ्गवीनया । इत्यत्र “ह्यः ०" [ ५५ ] इत्यादिना-ईनञ् प्रकृतेर्हियङ्ग्वादेशः ॥ १ आप्यैः स्नातोर्चितो राज्ञा हारैः सोम्मयेमौक्तिकैः । मल्लिकाभिरथान्यैश्च पुष्पैर्मुस्तासुगन्धिभिः ॥ ७८ ॥ २ ७८. अथ स श्रीनेमिराप्यैर्जलानां विकारै: कुङ्कुमादि सुगन्धिद्रव्यमिश्रजलविशेषैः स्नातः सन् राज्ञा हारैरुपलक्षणत्वादन्यैरप्याभरणैरर्चितः : । किंभूतैः । अम्मयानि स्वातिवृष्टमेघजलकणविकारा मौक्तिकानि येषु तैः । तथा मल्लिकाभिर्मल्लिकाया विचकिलस्य विकारैरवयवैर्वा पुष्पैरन्यैश्चम्पकादिभिश्च पुष्पैरर्चितः । किंभूतैः । मुस्ताया विकारावयवो वा मूलं मुस्ता तद्वत्सुरभिभिः ॥ ५ शैरीपैर्वाणैः पूजां हैवेरैश्वाप्य मण्डयत् । श्वासान्रुन्धन्स हीवेरशिरीष सुरभीनपि ॥ ७९ ॥ [ जयसिंह ] I ७९. स राजा शैरीषैः शिरीषपुष्पैर्वारणैर्व रणवृक्षभेद्पुष्पै हैं वे रैरपि बालकमूलैरपि नेमेः पूजाममण्डयद्विच्छित्त्यारचयत् । कीदृक्सन । श्वासान्मुखनिश्वासान्रुन्धन्नाशातना ( ? ) भयेन मुखंकोशकरणान्निवारयं । शिष्टं स्पष्टम् ॥ ९ १ सी सोमयेमोक्ति'. "ध्यमुडय.. २ ए 'यमोक्ति', ५ एत् । स्वासा. ३ ए सी र पू ४ बी • १ सी मानद. २ बी सी 'निश्चाति'. ३ ए काया. ४ए विचिकि.. सी विचिकल .. ५ ए 'पै चम्प'. ६ ए 'स्तास्तद्व'. ७ बी सी 'हैवरे. ८ ए बी न् । स्वासा. निस्वासा' सी 'निश्वमा". १० सी खशो ९ ककः • ११ बी न् । शेषं स्प Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.५८.] पञ्चदशः सर्गः। २३९ अथ सोस्तौदिति स्वामिन्यः शमिच्छेत्त्वदन्यतः। विहाय बदरी मूलैर्धन्वैरण्डैः करोति सः॥ ८०॥ ८०. स्पष्टः । किं तु त्वदन्यतस्त्वत्तोन्यस्माद्देवात्सकाशाच्छं स्वर्गापवर्गादिसुखं यो देवबुद्ध्याश्रयणेनेच्छेत् । बदरी महासारत्वेन धनुदण्डयोग्यं बदरस्य विकारं वृक्षम् । यथासारत्वादेरण्डविकारैर्मूलैधनुर्न स्यात्तथा त्वत्तोन्यस्माद्देवाच्छं न स्याद्रागद्वेषकलुषात्मत्वेनेतरजनतुल्यतया स्वर्गापवर्गसुखदानेसमर्थत्वादित्यर्थः ॥ भाप्यै(प्यैः ) । अश्म(म्म )य । इत्यत्र "अपो यन्वा" [५६ ] इति वा यम् ॥ मल्लिकाभिः । मुस्ता । इत्यत्र "अभक्ष्य.” [ ६. २. ५६ ] इत्यादिना कृतस्थाणो मयटो वा "लुब्०" [५७ ] इत्यादिना लुप् ॥ क्वचिन्न स्यात् । धारणैः । ऐरण्डैः ॥ क्वचिद्विकल्पः । शिरीष शैरोषैः । होवेर हैचेरैः । क्वचित्पुप्पमूलाभ्यामन्यत्रापि । बदरीम्॥ त्वां जम्बूश्याम पश्यन्तं करामलकवजगत् । निन्दतां धिग्वतं प्लाक्षाश्वत्थजाम्बवभोजिनाम् ॥ ८१ ॥ ८१. हे जम्बूश्याम जम्बूतरुफलवत्कृष्णाङ्ग नेमे प्लाक्षाश्वत्थजाम्बवभोजिनां महातपस्वित्वेन धान्यानाहारकत्वात्प्लक्षपिप्पलजम्बूवृक्षफलभोजिनां वनेवासितापसानां व्रतं धान्याभोजनादिरूपं दुष्करं नियम १ बी सी न्यः समि'. २ ए लैध्वनैर'. १ बी त्वाद्देर. २ बी यः । अप्यै. ३ बी सी असाय. ४ सी भक्षेत्या. ५ ए सी णैः । एर. ६ ए सी 'रीषः शै'. ७ ५ वेरी हीवे. ८ बी र हीवे. ९ सी शाम. १० ए वनिवा. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये जयसिंहः ] घिग्निष्फलत्वाद्गर्हामहे यतस्त्वामदेवबुद्ध्या निन्दताम् । किंभूतम् । अपि करामलकवत्करस्थामलकीफलमिव जगत्केवलज्ञानेन पश्यन्तम् ॥ २४०. भामलक । इत्यत्र “फले" [ ५८ ] इत्यणो मयटो वा लुप् ॥ प्लाक्षाश्वत्थ । इत्यत्र "लक्षादेरण” [ ५९ ] इत्यण् ॥ जाम्बव जम्बू । अत्र "जम्ब्वा वा " [ ६० ] इति वाण् । पक्षे लुप् ॥ त्वयि भक्तस्तद्धित॑वद्भूयोप्यङ्गविकारतः । भवेन्न हि भवे जन्तुर्जगदेकदयानिधे ॥ ८२ ॥ ४ ८२. हे जगदेकदयानिधे त्रिभुवनमध्ये दयाया एकस्थान श्रीनेमे त्वयि भक्तो जन्तुरङ्गविकारतोङ्गमेव योसौ विकार आत्मनोविभिन्नत्वेन विकृतिस्तेन आयादित्वात्तसु । [७२.८४ ] शरीररूपेण विकारेण भूयोपि भवे न हि भवेत् त्वद्भक्त्यापुनर्भवावाप्तेः पुनः संसारे न जायेतेत्यर्थः । तद्धितवदिति । अङ्केति कोमलामन्त्रणे । यथा विकारतो विकारेर्थे कपोतस्य विकारोवयवो वा कापोतः । कापोतस्य विकारोवयवो वेत्यादौ पुनरपि तद्धितो “दोरप्राणिनः” [ ६. २. ४९. ] इत्यादिना मयडादिस्तद्धितप्रत्ययो “न द्विरदुवय०" [ ६.२.६१ ] इत्यादिना निषेधान्न स्यात् ॥ त्वदाकृष्यान्यतश्वेतो नयेद्यः स कुधीः क्षिपेत् । कापित्थं द्रौवयात्पात्राद्रसं भस्मनि गोमये ॥ ८३ ॥ १ बी 'तभूयो' सी 'तद्भू २ ए 'योग्यङ्ग ं. ३ बी सी 'नि गौम १ सी निन्दिता. २ बी 'श्यन्ताम् . ३ सी वायोप्यंगविकारित .. ४ सी श्रीभूयेपि. ५ए नेमि त्व'. ६ बी सी जायतेत्य'. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.६४.] पञ्चदशः सर्गः। २४१ ८३. यो नरस्त्वत्त आकृष्यान्यतोन्यस्मिन्देवे चेतो नयेत्प्रापयेत्स कुधीर्दुर्बुद्धिद्रौवयाद् द्रोर्दारुणो विकारो द्रुवयं मानं तस्यापि विकारात्तद्भक्त्वा कृतात्पात्रात्काष्ठभाजनात्कापित्थं कपित्थस्य विकारः फलं कपित्थम् अण् । “फले" [ ६. २. ५८ ] लुप् । तस्य विकारं रसमाकृष्य गोमये गोमयविकारे भस्मनि क्षिपेत् । सत्पात्रे त्वयि न्यस्तं मनः कापित्थरसवद्वाञ्छितकार्यसिद्धये स्यात् । भस्मतुल्येपु तु कुपात्रेवन्यदेवेष्वात्मानमपि कुवासनया विनाशयतीत्यर्थः ।। तद्धितवद्भूयोपि विकारतो न भवेदित्यनेन “न द्विः '' [ ६१ ] इत्यादिसूत्रोक्तो निषेधो ज्ञापितः ॥ अद्रुवयगोमयफलादीति किम् ॥ द्रौवयात्पात्राद्गोमये भस्मनि कापित्थं रसम् ॥ पितृव्या मातुला वृद्धा मातामहपितामहाः। हेतवो बन्धनस्यैव त्वं तु मोक्षस्य कारणम् ॥ ८४ ॥ ८४. स्पष्टः । किं तु बन्धनस्य रागद्वेषादिरूपस्य भावबन्धनस्य ।। पितृव्याः । मातुलाः । अत्र “पितृ." [ ६२ ] इत्यादिना व्यो डुलश्च ॥ पितामहाः । मातामह । इत्यत्र “पित्रो महद" [ ६३ ] इति डामहट् ॥ संत्यज्याविमरीसानि देव त्वां द्रष्टुमागताः । प्रियाविसोढा आभीरा नाविसं किलासरन् ॥ ८५ ॥ ८५. हे देवाविमरीसान्यजादुग्धानि संत्यज्य त्वां द्रष्टुमागता आभीरा अजापालाद्याः। त्वद्रूपामृतास्वादतृप्तत्वादविदूसमजादुग्धं किलेति सत्ये नास्मरन् । कीदृशाः। प्रियाविसोढी अपि । अपिरत्र ज्ञेयः । अजादुग्धाहारत्वादभीष्टाजादुग्धा अपि ॥ १एन्यस्मि.२ ए सी कृत्यत्पा. ३ ए सी कारफ. ४ ए सी म. ५ए सी 'ष्य गौम. ६ ए सीत् । यत्पा. ७ बीतकर्मसि. ८ ए सी तु पा. ९ ए बी °न द्विः. १० ए सीतृ त्या . ११ ए ग्धं ति कि.१२ए ढापिर. सीढा अपिर'. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः] __ अविसोढाः । अविदूसम् । अविमरीसानि । इत्यत्र "अवे०" [ ६४ ] इत्यादिना सोढदूसमरीसाः ॥ शैवे(वे?) राष्ट्रेथ वङ्गानामङ्गानामाङ्गवाङ्गयोः । परतोपि स्फुरेदाज्ञा तस्य यस्त्वयि भक्तिमान् ॥ ८६ ॥ ८६. हे देवं यस्त्वयि भक्तिमांस्तस्याज्ञा शैवे शिवीनां राज्ञां सक्ते राष्ट्र देशे तथा वङ्गानामङ्गानां च राज्ञां राष्ट्रे तथाङ्गवाङ्गयोः परतोप्यङ्गवङ्गराष्ट्राभ्यां परस्मिन्नपि राष्ट्रे स्फुरेन् । स सार्वभौमः स्यादित्यर्थः ।। शैवे(?) राष्ट्रे । अत्र “राष्ट्रे०" [ ६५ ] इत्यादिनाण् ॥ अनङ्गादिभ्य इति किम् । अङ्गानां राष्ट्र। वङ्गानां राष्ट्र ॥ केचित्त्वङ्गादिप्रतिषेधं नेच्छन्ति । आङ्गवाङ्गयोः ॥ देवयातवके राजन्यके वासातकेपि च । वासातस्य परस्ताच शासनं जयतीश ते ॥ ८७ ॥ ८७. हे ईश तव शासनमाज्ञा देवयातवानां राजन्यानां वसातीनां च राज्ञां राष्ट्रेपु वासातस्य परस्ताच्च जयति । सर्वेष्वपि देशेषु नृपा लोकाश्च तवाज्ञां कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ राजन्यके । देवयातवके । अत्र “राजन्य." [ ६६ ] इत्यादिनाकञ् ॥ वासातके वासातस्य । इत्यत्र “वसातेर्वा" [ ६७ ] इति वाकञ् ॥ नेमि स्तुत्वेति पौलस्त्यं विसृज्यावातरत्समम् । स ताक्ष्यायणभक्तपुकारिभक्तादिपार्थिवैः ॥ ८८ ।। १ए दे गंगानामाङ्ग. २ ए तो स्फु. ३ ए बी ताक्षायणभक्तेपु. १ सी विदू. २ बीमाः । शौवे. ३ बी वस्त्व. ४ वी गवङ्ग. ५५ सी यः । शौवे. ६ बी ई. ७ए सी । के. ८ बीजन ई. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.२.७०.] पञ्चदशः सर्गः । २४३ ८८. स्पष्टः । किं तु ताायणस्य राज्ञो राष्ट्रं ताायणभक्तमे (मै)पुकारीणां राष्ट्रमैषुकारिभक्तं द्वन्द्वे तदादीनां राष्ट्राणां पार्थिवैः समं सह ॥ से भौरिकिविधं भौलिकिविध शैवे(?)वैदिशे । भोक्तृभिः सह धर्मज्ञैल्पञ्शत्रुञ्जयं ययौ ॥ ८९ ।। ८९. स्पष्टः । किं तु भौरिकीणां राज्ञां राष्ट्रं भौरिकि विधमेवं भौलिकिविधं शिवीनां शिवानां वा राज्ञां निवासः शैवो देशो विदिशाया अदूरभवं वैदिशं नगरं द्वन्द्वे ते च भोक्तृभिर्नु पैः सह जल्पन्धमकथां कुर्वन् यतो धर्मज्ञैः ॥ भौरिकिविधम् । भौलिकिविधम् । ऐषुकारिभक्त । ताायणभक्त । इत्यत्र "भौरिकि०" [ ६८ ] इत्यादिना यथासंख्यं विधभक्तौ प्रत्ययौ ।। शैव(ब?) । वैदिशे । अत्र “निवास०" [ ६९ ] इत्यादिनाण् ॥ सहौदुम्बरकौशाम्बीदुमतीमधुमन्नृपः । सोध्यास्त विसवन्नाथदत्तहस्तोथ तं गिरिम् ॥ ९० ॥ ९०. उदुम्बरा वृक्षा अत्र सन्त्यौदुम्बरं पुरम् । कुशाम्बेनर्पिणा निर्वृत्ता कौशाम्बी पुरी । द्रुमती नदी । मधून्यत्र सन्ति मधुमान्देशो द्वन्द्वे एषां नृपैः सह स जयसिंहस्तं गिरिमध्यास्त । कीदृक्सन् । विसवान्देशस्तन्नाथेन राज्ञा दत्तहस्तः ॥ १ बी स भैरि'. २ बी ववेदि. ३बी द्रुमंती'. ४ ए रि । उ. सी "रि । औदु. १ए तार्थाय . २ सी °णसक्तं रा'. ३ ए ताशेय. ४ सी जैः । भूरिकवि'. ५ वी रिकवि'. ६ बी लिकवि'. ७५ शाम्बीपुरद्ध. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये औदुम्बर । इत्यत्र " तदत्रास्ति” [ ७० ] इत्यण् ॥ कौशाम्बी । इत्यत्र “तेन० " [ ७१ ] इत्यादिना ॥ दुमती । इत्यत्र " नद्यां मतुः " [ ७२ ] इति चातुरर्थिको मतुः ॥ मधुमत् । विसवत् । इत्यत्र "मध्वादेः " [ ७३ ] इति चातुरर्थिको मतुः ॥ नवत्कुमुद्वद्वेतख च्छाद्वलिन्यद्रिमूर्धनि । नाभेय चैत्यं सोपश्यद तिमाहिष्मतीपतिः ।। ९१ ॥ २४४ ९१. स राजाद्रिमूर्धनि नाभेयचैत्यं श्री ( श्रि ? ) ऋषभदेवभवनमपश्यत् । किंभूते । नवन्तो नडाख्यतृणभेदयुक्ताः कुमुद्वन्तः कैरवयुता वेतस्वन्तो वेतसवृक्षयुक्ताः शाङ्क (द्व) ला शादः पकैः सस्यं वा तद्युक्ताश्च प्रदेशा अत्र सन्ति तस्मिन् । कीदृक्सः । अतिमाहिष्मतीपतिर्महिष्मान्देशस्तस्यादूरभवा पुरी माहिष्मती तस्याः पतिः सहस्रार्जुनस्तं बलादिनातिक्रान्तः ॥ सोविशत्तत्र रत्नांशुनवलायित भूतले । द्वारि मुञ्चपं कशिखावलमहीपती ।। ९२ ॥ [ जयसिंहः ] ε 1 ९२. स राजा तत्र नाभेय चैत्येविशत् । किंभूते । रत्नांशुभिः कृत्वा नवलायितं नडाख्यतृणभेदान्वितप्रदेशतुल्यं भूतलं यत्र तस्मिन् । कीदृक्सन् । द्वारि चैत्यसिंहद्वारे जिघांसया शत्रूणां छलेन प्रवेशस्य रक्षार्थं शैरीषको ग्रामः शिखावलं पुरं तयोर्महीपती मुञ्चस्थापयन् ॥ १ बी इयदिति'. २ बी शि. ३. बी 'खाबल'. १ व कौशम्बी. सादः . ५ बी कः शस्यं. " पतीर्मुचन्स्था. सी पति मु. ६ २ एसी भेयं चै'. ३ ए बी युक्ता कु .. बी सी चैत्ये सिं. ९ ए सी न् । शरी°. ७ सी 'क्षार्थशै. → ४ ए श्व ८ बी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ~ [है. ६.२.७५.] पञ्चदशः सर्गः । २४५ शिरीषिकेशहस्तेन रत्नैः शार्करिकेङ्गणे । शार्करादागतः शर्करीयेदं पुष्पाण्यथार्पयत् ॥ ९३ ॥ ९३. शर्करीयेट शर्कराः क्षुद्रपाषाणास्तद्वतो देशस्य स्वामी शिरीषिकेशहस्तेन शिरीषिकदेशराजपाणिना कृत्वा पुष्पाणि श्रीनाभेयपूजार्थं जयसिंहायार्पयत् । कीदृक् । अङ्गणे देवगृहाङ्गणे वर्तमानः । किंभूते । रत्नैः कृत्वा शार्करिके शर्करावद्देश इव कर्करैरिवं रुल्लल(वोल्लस?)द्भिमणिभिराकीर्ण इत्यर्थः । तथा शार्कराच्छर्करावद्देशादागतः ॥ पुष्पांद्युपायनं दैवान्येपि शर्करिकेशवत् । गहरे भूभुजस्तस्थुरद्रेः शार्करकाश्मरे ॥ ९४ ॥ ९४. शर्करिकेशवद्यथा शर्करावद्देशस्वामी नाभेयपूजार्थं पुष्पाद्यादिपदादाभरणादि जयसिंहस्य ददावेवमन्येपि भूभुजः पुष्पादि पूजार्थ दत्वाद्रेः शत्रुञ्जयस्य गहरे गह्वा दुरवगाहाः प्रदेशा अत्र सन्ति गह्वरं वनगहनं तत्र तस्थुर्जयसिंहं प्रतीक्षमाणाः स्थिताः। किंभूते । शार्करकाश्मरे शर्करायुक्ते पाषाणयुक्ते च ।। नड्वत् । कुमुद्वत् । वेतस्वत् । माहिष्मती । इत्यत्र “नड०" [७४ ] इत्या. दिनों डिन्मतुः ॥ नड्वल । शाद्वलिनि । इत्यत्र “नड." [७५] इत्यादिनी डिद्वलः ॥ १ सी ट् शर्कराः. २ ए पाद्यपा. २ ए दत्तान्ये'. ४ सी त्वा द्रेः शत्रु. १ सी °षाणस्त. २ बी °णात'. ३ ए रीषेके'. ४ बी सी केसह. ५ ए षिके दे'. सी षिकिदे'. ६ ए सिंह स्यार्प. ७ ए °व सलद्भि'. सी धरुल्लद्भिः. ८ ए शाग . ९ बी सिंहप्रतीक्ष्यमा'. १० ए तीक्ष्यमा . ११ ए 'करिका. १२ सी क्ते च. १३ सी ना इकण्-ईय-अण्. १४ ए बी शाङ्कलि'. १५ ए सी ना डुलः. .. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] शिखावल । इत्यत्र "शिखायाः" [७६] इति वलः ॥ शिरीषिक । शरीषक । अत्र "शिरीषाद्" [७७ ] इत्यादिनेककणौ ॥ शार्करिके । शर्करीय । शार्करात् । शरिक । शार्करक । इत्यत्र "शर्करायाः०" [७८ ] इत्यादिना-इकण्-ईय-अण् चकारादिककणौ ॥ अश्मरे । गह्वरे । अत्र "रोश्मादेः" [७९ ] इति रः॥ फलकिपेक्षितणसानदसाकाशिलाधिपः। समं जिनेन्द्रमर्चित्वा चौलुक्योरेरवातरत् ॥ ९५ ॥ ९५. स्पष्टः । किं तु फलकया प्रेक्षया च निवृ()त्तौ फलकिप्रेक्षिणौ देशौ । तृणसानदसे नद्यौ । काशा अत्र सन्ति काशिलं नगरम् ॥ सोन्वद्रिं वाशिलारीहणकखाण्डवकागतान् । मत्राशीर्वादमुखरान्काञ्चनैरायद्विजान् ॥ ९६ ॥ ९६. स्पष्टः । किं तु वाशाः पक्षिणोरीहणा अरिकर्तारः पुरुषाः 'खण्डवो भेदका वृक्षा वैषु सन्ति वाशिलारीहणकखाण्डवका देशा. स्तेभ्योन्वद्रिं शत्रुअयं लक्ष्यीकृत्यागतान् । प्रेक्षि । फलकि । इत्यत्र "प्रेक्षादेरिन्” [ ८० ] इतीन् ॥ तृणसौ । नदसा । इत्यत्र "तृणादेः सल" [१] इति सल ॥ १ सी सारनंद'. १ बी सी षकं । अं. २ ए पादिने'. ३ ए त् । शार्क'. ४ ए बी करिक. ५ बी सी रोस्मादे:. ६ बी सी प्रेक्षणी. ७सी तु वशाः. ८ ए पाः खाण्ड' सी पा षण्ड'. ९ वी क्षा वेषु. सीक्षा बेषु. १० ए न्वद्रिश. ११ ए सी अयल'. १२ ए बी लक्षीक. १३ बी सी सा। दनसा. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ६.२.८६.] पञ्चदशः सर्गः। .२४७ काशिल । वाशिल । इत्यत्र "काशादेरिलः" [ ८२] इतीलः ।। भारीहणकं । खाण्डवक । इत्यत्र “अरीहण." [ ८३ ] इत्यादिना-अकण् । सोत्र सौपन्थ्यसांकाश्यसौतङ्गमिपुरोपमम् । स्थानं सिंहपुरं चक्रे द्विजानां मौनिचित्तिजित् ॥ ९७॥ ९७. स जयसिंहोत्र शत्रुञ्जयसमीपे सिंहपुरं नाम द्विजानां स्थानं चक्रेकारयत् । यद्द्विजानां निमित्तं पुरादिकं क्रियते दीयते वा तत्स्थानमित्युच्यते । कीदृशम् । शोभनाः पन्थानोत्र सन्ति गणपाठान्मा(ना? )गमे सौपन्ध्यं संकाशेन सुतङ्गमेन चर्षिणा निवृत्तं सांकाश्यं सौतङ्गमि च द्वन्द्वे एतैः पुरैर्महर्द्धिकत्वादुपमा यस्य तत् । कीहक्सः । मौनिचित्तिं मुनिचित्तेन निर्वृत्तं देशं जयति तत्स्वामिजयेन स्ववशीकरोति मौनिचित्तिजित् ॥ . सौन्थ्य । सांकाश्य । इत्यत्र “सुपन्था(न्थ्या?)देयः" [८५] इति न्यः । सौतङ्गमि । मौनिचित्ति । इत्यत्र "सुतङ्गमादेरिज्" [८५] इतीम् ॥ बल्यचुल्याह्नसाखेयसाखिदत्तेयसंपदः।। स स्थानाय ददौ ग्रामान् लौमपान्थायनोपमान् ॥९८॥ ९८. स राजा स्थानाय ग्रामान्ददौ सिंहपुरप्रतिबद्धाननेकान्प्रामांश्वकारेत्यर्थः । किंभूतान् । बलेन निर्वृत्तं बल्यं चुलानां निमकानां निवासो चुल्यमह्ना निवृ(१)त्तमाह्रमेतानि पुराणि । सौखेयसाखिद १एन्थ्यका. २ बी काश्यंसौ. ३ ए 'पुरे च. १ सी क । खण्ड'. २ ए केवका. ३ सी पावान्मामो सौ. ४ सी निवृत्तं. ५ बी मिकं च. ६ ए सी चित्तं मु. ७बी निवृत्तं. सी निवृक्षं दे'. ८ सी मिनज'. ९ए पथ्यं । कांश्य. सी पन्ध्यं । सां. १०सी निवृत्तं. ११ सीजनका. १२ ए साख्येय. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] त्तेयौ प्रामौ । द्वन्द्वे एतत्तुल्यश्रीकान् । तथा लोमान्यत्र सन्ति लौमं पुरं पंथां निवासः पान्थायनो ग्रामस्तयोस्तुल्यांश्च ॥ स पाक्षायणवासिष्ठायनिकायनिद्विजैः । दत्ताशीः प्रास्थित स्थानात्संकरीयोत्करीयभात् ॥ ९९ ॥ ९९. स जयसिंहः स्थानात्सिंहपुराँत्प्रास्थित । कीहक्सन् । पाक्षायणादिदेशविशेषाणां द्विजैर्दत्ताशीः । किंभूतात्स्थानात् । संकरेणोत्करेण च निवृत्तौ संकरीयोत्करीयौ पुरभेदौ तद्वच्छ्रिया भाति यत् "क्वचिद्" [५.१. १७१ ] इति डः। तस्मात् ।। बल्य । चुल्य । इत्यत्र "वलादेर्यः" [ ८६ ] इति यः ॥ आह्न । लौम । इत्यत्र "महरादिभ्योज्" [ ८७ ] इत्यञ् ॥ साखेय । साखिदत्तेय । इत्यत्र "सख्यादेस्यण्" [ ८८ ] इत्येयण् ॥ पान्थायन । पाक्षायण । इत्यत्र “पन्ध्यादेरायनण्" [ ८९] इत्यायनण् ॥ कार्णायनि । वासिष्ठायनि । इत्यत्र “कर्णादेरायनिन्" [ ९० ] इत्यायनिञ् ॥ उत्करीय । संकरीय । इत्यत्र “उत्करादेरीयः" [ ९१] इतीयः ॥ नडकीयप्लक्षकीयकाश्विीयपुरेश्वरैः । सोन्वीयमानः स्वपुरी प्रापारिष्टीयसंपदम् ॥ १०० ॥ १००. स्पष्टः । किं तु कृशाश्वेन राज्ञा निर्वृत्तं काश्विीयम् । आरिष्टीयसंपदमरिष्टा निम्बाः फेनिलवृक्षा वात्र सन्त्यारिष्टीयं पुरं तत्तुल्यर्द्धिका स्वपुरी पत्तनम् ।। १ए पन्था.नि. २ ए वासाः पन्था'. ३ ए मस्तु. ४ सी रात्स प्रास्थि. ५ ए स्थितः । की. ६ बी सी निवृत्तौ. ७सी रीयौ. ८ बी त्। वुल्य. ९ बी आहः । लो. १० बी पन्थादे'. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.९९.] पञ्चदशः सर्गः । २४९ नडकीय । प्लक्षकीय । इत्यत्र "नडादेः कीयः" [ ९२ ] इति कीयः ॥ कार्शाश्वीय । आरिष्टीय । इत्यत्र “कृश०” [ ९३ ] इत्यादिनेय ॥ ऋश्यकादश्मकाद्वाराहकात्पालाशकादपि । देशात्कुमुदिकादिक्कटिकादाश्वथिकाच्च ये ॥ १०१॥ एत्य कौमुदिकादन्यदेशाद्वातं ययाचिरे। अदारिद्यान्स तांश्चके वर्षनाषाढवन्नृपः॥१०२॥ १०१, १०२. स्पष्टौ । किं त्विक्कटिकादिक्कटॉः शूराः पुरुषा वृक्षभेदा वान सेन्तीकटिकं देशः पुरं वा तस्मात् । वर्षन्नाषाढवदाषाढाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता पौर्णमास्याषाढी सा पौर्णमास्यस्या(ढो मासो यथा जलं वर्षत्येवं द्रव्यं वर्षन्द॑ददित्यर्थः । आषाढे हि वर्षासांनिध्यान्मेघा वर्षन्ति तत्संबन्धादाषाढोपि वर्षन्नुच्यते ॥ ऋश्यकात् । अश्मकात् । इत्यत्रं "ऋश्यादेः कः' [ ९४ ] इति कः ॥ वाराहकात् । पालाशकात् । इत्यत्र “वराहादेः कण्" [ ९५ ] इति कण् ॥ कुमुदिकात् । इक्कटिकात् । इत्यत्र “कुमुदादेरिकः" [ ९६ ] इतीकः ॥ आश्वस्थिकात् । कौमुदिकात् । अत्र “अश्वत्थादेरिकण्" [ ९७ ] इतीकण् ॥ आषाढ । इत्यत्र “सास्य." [ ९८ ] इत्यादिनाण् ॥ चैत्रकार्तिकिकाश्वत्थिकेन्दुवत्तीणतो जगत् । आग्रहायणिकोषेव तस्स कीर्तिरवर्धत ॥ १०३ ॥ १ १ए दस्सका'. २ एपि। दशा.३ ए कात्त ये. ४ ए तिकका' सीर्तिकाका. १ एकीयः । प्ल. २.सी वीयः । आपिष्टी'. ३ ए ग् । कश्य. ४ बी 'राः सूराः. ५ सी सन्ति क. ६ ए पाढे मा. ७ ए वर्षात्य. ८ एन्ददि. ९ सी पंचमुच्य. १० ए "ते कश्य. ११ बी अस्सका. १२ ए सी °त्र कश्या. ३२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० व्याश्रयमहाकान्ये [जयसिंहः] १०३. स्पष्टः । किं त्वश्वत्थाश्वत्थेनाश्विन्या चन्द्रयुक्तेन युक्ता पौर्णमास्यस्याश्वत्थिक आश्विनमासः । आग्रहायणिकोषेवाग्रहायणी मार्गशीर्षी पौर्णमास्यस्याग्रहायणिको मार्गशीर्षस्तस्योषा रात्रिर्यथा वर्धते ।। चैत्रिको ज्ञान्यपुष्टानां श्रावणो बन्दिकेकिनाम् । स ददत्कार्तिकेन्द्राभोभाद्वा:श्रावणिकत्करः ॥ १०४ ॥ १०४. स्पष्टः । किं तु ज्ञान्यपुष्टानों पण्डितकोकिलानाम् । कार्तिकेन्द्वाभो दानोत्थया हर्बन्दिभिश्वोत्कीर्तितया की. कार्तिकचन्द्रतुल्यैः । वाःश्रावणिकत्करो वारा निरन्तरं दानजलेन कृत्वा श्रावणिकञ् श्रावणमास इवाचरन् करः पाणिर्यस्य सः ॥ गते फाल्गुनिके विश्वदारिद्यदलफाल्गुनः । हविभिरैन्द्रपैङ्गाक्षीपुत्रीयैः सोकरोत्तून् ॥ १०५॥ १०५. फाल्गुंनिके फाल्गुनमासे गते वसन्त इत्यर्थः । स राजा हविभिघृतादिभिर्हव्यैः क्रतूनकरोत् । किंभूतैः । ऐन्द्रपैङ्गाक्षीपुत्रीयैरिन्द्रदेवतैः पैङ्गाक्षीपुत्रदेवतैश्च । कीदृग् । विश्वदारिद्यदलफाल्गुनो यथा फाल्गुनः पत्राणि पातयत्येवं विश्वस्यापि दारिद्याणां पातक इत्यर्थः ॥ १ सी चैत्रको. २ बी को न्यान्य. ३५ भादाश्रा'. ४ ए ककरः. ५ बी ल्गुके. ६ बीन्द्रपौङ्गाक्षी. १बी पौर्णिमा . २ बी त्थिका आ. ३ सी नां खण्डि'. ४ बी सी ल्यः । वाश्रा. ५ ए कक्करो. बी कक्षरो. ६ बी °णिवञ्. ७ बी ल्गुनके. ८ ए बी विभिघु. ९ ए सीन्ददैव. १० वी तैः पिङ्गा'. ११ ए त्रदैव. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.९९.] पञ्चदशः सर्गः। २५१ हव्यैस्तार्णबिन्दवीयैः शुक्रियैः शतरुद्रियैः । तत्रातिशतरुद्रीयापांनप्त्रीयैश्च सोयजत् ॥ १०६ ॥ १०६. स राजा हव्यैः कृत्वा तत्र ऋतुध्वयजदजुहोत् । किंभूतैः । तार्णबिन्दवीयैस्तार्णविन्दवदेवतैः शुक्रियैः शुक्रदेवतैः । शतरुद्रियै रुद्रशर्तदेवतैः । अतिशतरुद्रीयापानप्वीयैश्चातिशतरुद्रीयाणि शतरुद्रदेवत. हव्येभ्योतिशायीनि यान्यपानप्त्रीयाण्यपानपाद्देवविशेषदेवतानि तैश्च ॥ अपोनप्त्रीयकैः सूक्तैः साध्वपोनप्त्रियं द्विजैः । महेन्द्रियं महेन्द्रीयैर्यज्ञेय जुहुवे हविः ॥ १०७ ॥ १०७. अस्य जयसिंहस्य यज्ञे द्विजैर्यज्वभिरपोनप्वियमपोनपादेवविशेषदेवतं हविः साधु विधिवजुहुवेनौ हुतम् । कैः कृत्वा । अपोनप्वीयकैरपोनपादधिष्ठार्तृदेवतैः सूक्तैर्मत्रैः । तथा महेन्द्रियं महेन्द्रदैवतं हविर्महेन्द्रीयैर्महेन्द्राधिष्ठातृदेवतैः सूक्तैर्जुहुवे ॥ अपांनप्त्रियमाहेन्द्रकायसौम्येषु कर्मसु । द्विजानां संशयं जातं सुधीः स स्वयमच्छिनत् ॥ १०८ ।। १०८. स्पष्टः । किं त्वपांनप्वियमाहेन्द्रकायसौम्येषु कः प्रजापतिः सोमश्चन्दुर्देवता येषां तानि कायानि सौम्यानि च ततश्वतुष्पदे विशेषणद्वन्दे तेषु । अपांनपादादीनुद्दिश्योक्तेष्वित्यर्थः । कर्मसु यागक्रियासु विषये जातं संशयम् । यतः सुधीः सर्वशास्त्रज्ञः ।। ___ आग्रहायणिक । आश्वस्थिक । इत्यत्र “आग्रहायणी०" [ ९९] इत्यादिनेकण ॥ १ सी सोजयत्. १बी वजयाद. सी वजयद. २ ए तदैव'. ३ ए नपोनप्तीयकैः. ४ बी सी तृदैव. ५ सी हेहवैवं. ६ बीन्द्रवैव. ७ ए सी श्चेदुर्दे'. ८ सी कण्वा । ऐ', Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ द्व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] चैत्रिकः चैत्र । कार्तिकिक कार्तिक । फाल्गुनिके फाल्गुनः । श्रावणिकत् श्रावणः । अत्र "चैत्री." [ १०० ] इत्यादिनेकण्वा ॥ ऐन्द्र । इत्यत्र "देवता" [ १०१ ] इत्यणे ॥ पैङ्गाक्षीपुत्रीयैः । तार्णबिन्दवीयैः । अन्न “पैङ्गाक्षी०" [१०२] इत्यादिनेयः ॥ शुक्रियैः । अत्र “शुक्रादियः" [ १०३ ] इतीयः ॥ शतरुद्रीय । शतरुद्रियः । अत्र "शत." [ १०४ ] इत्यादिना-ईय-इयौ ॥ अपोनप्तीयकैः । अपोनप्तियम् । अपांनप्त्रीयैः । अपांनप्लियम् । अत्र "अपोनप(पा)द्" [ १०५] इत्यादिना-ईय-ई(इ)यौ ॥ महेन्द्रीयैः । महेन्द्रियम् । अत्र "महेन्द्राद्वा" [ १०६] इति वा-ईय-इयौ । पक्षेण् । माहेन्द्र ॥ काय । सौम्येषु । इत्यत्र "कसोमायण" [ १०७ ] इति व्यण् ॥ स द्यावापृथिवीयो नु द्यावापृथिव्यकर्मणि । अग्नीषोम्ये विधावग्नीषोमीयो नूद्यतोभवत् ॥ १०९॥ १०९. द्यावापृथिवीयो नु द्यावापृथिवीदेवतपुरुष इव स राजा द्यावापृथिव्यकर्मणि द्यावापृथिव्यौ देवते उद्दिश्योक्तायां क्रियायां विषय उद्यतोभूत् । एवमुत्तरार्धमपि व्याख्येयम् ॥ शुनासीर्याणि सूक्तानि शुनासीरीयवच्च सः। तथा वास्तोष्पतीयानि वास्तोष्पत्य इवाशृणोत् ॥ ११०॥ १ ए यो भू. २ बी यो मूर्य'. १एल्गुनिनः. २ सीण् ॥ सद्या'. ३ ए पिङ्गा'. ४ ए द्रीयः । दश. ५ एप्निय । अ. ६एनप . ७ए ययौ. ८ वी यईयौ. ९सी मिल्यो. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.२.१०९.] पञ्चदशः सर्गः । २५३ ११०. शुनो वायुः सीर आदित्यस्तौ देवते एषां तानि शुनोसीर्याणि सूक्तानि मत्रान् यथा शुनासीरीयो वाय्वादित्यदेवतपुरुषः शृणोत्येवं स राजाशृणोत् । वास्तोष्पतिर्वास्तुदेवता देवता येषां तानि वास्तोष्पतीयानि । शिष्टं स्पष्टम् ॥ 3 कर्माणि गृहमेध्यानि गृहमेधीयवन्मुदा । नृपो मरुत्वतीयानि मरुत्वत्य इवातनोत् ॥ १११ ॥ १११. गृहमेध्यानि गृहमेधं वास्तुदेवतामुद्दिश्योक्तानीत्यर्थः । मरुत्वानेकोनपञ्चाशन्मरुद्युक्तः शक्रो देवता येषां तानि मरुत्वतीयानि । शिष्टं स्पष्टम् ॥ 1 द्यावापृथिवीयः । द्यावापृथिव्य । शुनासीरीय । शुनासीर्याणि । अग्नीषोमीयः । अग्नीषोम्ये । मरुत्वतीयानि । मरुत्वत्यः । वास्तोष्पतीयानि । वास्तोष्पत्यः । गृहमेधीय । गृहमेध्यानि । इत्यत्र " द्यावा. [ १०८ ] इत्यादिनाईययौ ॥ "" वायव्यर्तव्यपित्र्योषस्यमौष्ठपदिकादिभिः । तं माहाराजिकैचौक्षन्मन्त्रैरवभृथे द्विजाः ॥ ११२ ॥ ११२. अवभृथे यज्ञान्ते द्विजा यज्वानो मत्रैस्तमौक्षन्मन्त्रपूतं स्नानं तस्य चक्रुरित्यर्थः । किंभूतैः । वायव्या वायुदेवता ऋतव्या ऋतुदेवताः पितृव्याः पितृदेवता उषस्याः प्रातः संध्यादेवताः प्रौष्ठपदिकाः प्रोष्ठपदाः पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा देवता येषां ते तथा विशेषणद्वन्द्वे तदादिभिस्तथा माहाराजिकैश्च महाराजदेवविशेषदेवतैश्व ॥ १ बी सी कैश्वोक्ष'. २ सी त्रैरिवभृते द्वि'. ३ ए भृते द्वि'. १ एयुः शीर. २ बी सी 'नाशीर्या . ३ बी सी 'तिवास्तु. "स्तुदैवतदेवता ये'. ५ सीता ये. ६ बी 'नाशीर्या'. ७ मृते . ४ बी सी 'दा दे'. ९. . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः] वायव्य । ऋतव्य । पित्र्य । उषस्य । इत्यत्र “वातु०" [ १०९] इत्यादिना यः ॥ म(मा)हाराजिकैः । प्रौष्ठपदिक । इत्यत्र "महाराज." [१०] इ. त्यादिनेकण् ॥ सूक्तपाङ्गप्रगाथेभ्यः प्रावृषेण्यत्करोम्भसा । सोदाद्भारतनेतेव द्विजेभ्यस्तत्र दक्षिणाः ॥ ११३ ॥ ११३. तत्र यज्ञान्तस्नीने सति स राजा द्विजेभ्यो दक्षिणा अदात् । कीडक्सन् । अम्भसा कृत्वा प्रावृड्देवतास्य प्रावृषेण्यो वर्षामेघस्तद्वदाचरन्करः पाणिर्यस्य सः। कीदृग्भ्यो द्विजेभ्यः । सूक्तपाङ्कप्रगाथेभ्यः पतिर्दशाक्षेरच्छन्दोजातिरादिरेषां पाता यत्र द्वे ऋचौ प्रपॅन्थनेन प्रकर्षगानेन वा तिस्रः क्रियन्ते ते मनविशेषाः प्रगाथाः सूक्ताः सुष्टु भणिताः पाङ्गाः प्रगाथा यैस्तेभ्यः । भारतनेतेव भरता भरतगोत्रोद्भवा योद्धारोस्य युद्धस्य भारतं युद्धं तस्य नेतेव युधिष्ठिर इव । पाण्डवा हि भरतगोत्रोद्भवाः । यथा युधिष्ठिरो यज्ञान्ते द्विजेभ्यो दक्षिणा ददौ ॥ अतीत्य मैथिलं युद्धं राघवो नु कृतक्रतुः । प्रापातेतरतिथ्यां स पूर्त चक्रे महासरः ॥ ११४ ॥ ११४. स राजा सहस्रलिङ्गाख्यं महासरः पूर्त चक्रेकारयत् । वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । आरामानप्रदानानि पूर्तमाः प्रचक्षते ॥ १बी तुः । प्रपातेर. १बी पितृव्य । उषस । ई. सी पित्र्यः । उ. २ बी सी वृत्या. ३ बी कैः । प्रोष्ठ'. सी कैः । पोष्ट'. ४ ए बी लाते स. ५ बी क्षरंछ. ६ सी ग्रन्थ्यने. ७बी गादि दे'. ८ बी चक्ष्यते. - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.११५.] पञ्चदशः सर्गः। के । प्रापातेतरतिभ्यां प्रपातो व्यतीपातो हानिस्त्यिस्यों प्रापाता तदितरस्यां तिथौ व्यतीपातदुष्टयोगरहितायां प्रवर्धमानायां वा तिथौ शुभतिथावित्यर्थः । कीहक्सन् । कृतऋतुर्यथा मैथिली सीता प्रयोजनमस्य तन्मैथिलं युद्ध रावणेन सह रणमतीत्य समाप्य राघवो रामः कृतक्रतुरभूत् ॥ प्रावृषेण्यत् । इत्यत्र “कालागववत्" [११] इत्यतिदेशात् "प्रावृष एण्यः" [ ६. ३. ९२ ] इत्येण्यः ॥ पाङ्गप्रगाथेभ्यः । इत्यत्र "आदेः" [११२] इत्यादिना यथाविहित उ. स्साद्यञ् ॥ भारत । मैथिलं युद्धम् । अत्र “योदृ०" [ ११३] इत्यादिनाण् ॥ प्रापातेतरतिभ्याम् । अत्र "भाव." [ ११४] इत्यादिना णः ॥ पापकाककुलश्यैनंपात्मयां तत्तटीभुवि । सत्रशाला नृपश्चके तैलंपातक्रियाजुषाम् ॥ ११५॥ ११५. नृपस्तैलंपातक्रियाजुषां तिलानां पातोम्यादौ यस्यां क्रियायां यज्ञादिकायां सा तथा तत्से विनां विप्राणां संबन्धिनीः सत्रशाला दानशालाश्चक्रेकारयत् । क । तत्तटीभुवि सरस्तीरप्रदेशे । कीदृश्याम् । पापमेव काककुलं तत्र श्यैनंपातः श्येनपातोस्यां वर्तते श्यैनंपाता तिथि: क्रियाभूमिः क्रीडा वा तस्यां धर्मार्थत्वेन पापोच्छेदिकायामित्यर्थः ॥ श्यैनंपातायाम् । तैलंपात । इत्यत्र "श्यैनंपाता." [१५] इत्यादिना मोन्तो निपात्यः । प्रत्ययस्तु पूर्वेणैव सिद्धः ॥ १ बी सीलस्यैनं. १बी क । प्रपा. २ ए प्रापते. ३ ए सी स्तिस्यां. ४ बी सी स्यां प्रपा ५ सी पातेदु. ६ बी पातेम्या. ७ सी दानाच'. ८ सी माथित्ते. ९ ए पात्याः । प्रो. बी पात्यं । प्र. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ व्याश्रयमहाकाव्ये [जयसिंहः ] पादां मिथोंहिसंघट्टैः सरन्ति सहढौकिनः । तासु छान्दसनैमित्तमौहूर्ता भोज्यलिप्सवः ॥ ११६ ॥ ११६. छान्दसनैमित्तमौहूर्ताश्छन्दो वेदं निमित्तं शकुनशास्त्रादि मुहूर्त मुहूर्तवाचकज्योतिःशास्त्रं च विदन्तोधीयाना वा द्विजास्तासु सत्रशालासु मिथोंहिसंघट्टैर्गाढसंमर्दैन पादश्लेषैः कृत्वा पादां पादप्रहरणां क्रीडां स्मरन्ति । यतः सहढौकिनोहमहमिकया युगपदागच्छन्तः । एतदपि कुत इत्याह । यतो भोज्यलिप्सवः ।। चक्रे नैमित्तिको मौहर्तिको नैयायिकश्च सः । शंभोः सहस्रमष्टौ चायतनानि सरस्तटे ॥ ११७ ॥ ११७. स्पष्टः । किं तु नैमित्तिको मौहूर्तिको नैयायिक इति विशेषणैः शुभे निमित्ते शुभे मुहूर्त आयतनकरणव्ययितप्रभूतद्रव्योत्पादनाय लोकानां गाढदण्डपातनरूपस्यान्यायस्याकरणे चैषामायतनानां करणमुक्तमेवं चैषामतिस्थिरता सूचिता ॥ पौराणिकानुपदिकोत्रानुला(ल?)क्षणिकोकृत । स देवीनां शतं साग्रं प्रासादान्मातृकल्पिकः ॥११८ ॥ ११८. स राजात्र सरस्तटे देवीनां चण्डिकादीनां सामं शतमष्टोत्तरं शतं प्रासादानकृताकारयत् । कीदृक् । पुराणं पञ्चलक्षणं पदान्यनुगतमनुपदं पदनिष्पादकं निरुक्तिशास्त्रमनुरूपं लक्षणमनुलक्षणं शब्दानुशासनं मातृकल्पं मातृविधिप्रतिपादकं शास्त्रं च विदन्नधीयानो वा ॥ १बी सी मिथोहि. १ बी मर्दन. सी मर्दनेन. २ सी पातानुरू. ३ बी सी मिति'. ४ सी कानां. ५ प णश. ६ बी सी वा । अग्नि'. मेव चैषा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है ० ६.२.१२०.] पञ्चदशः सर्गः। २५७ आग्निष्टोमिकयावक्रीतिकवासवदत्तिकैः । दशावतारी प्रकृतव्याख्यामत्र व्यधत्त सः ॥ ११९ ॥ ११९. स राजात्र सरस्तटे दशावतारी नारायणदशावतारप्रतिमाप्रासादं व्यधत्ताकारयन् । किंभूताम् । प्रकृतव्याख्यां प्रारब्धव्याख्यानाम् । कैरित्याहै। आग्निष्टोमिकयावक्रीतिकवासवदत्तिकैरग्निष्टो. ममग्निष्टोमक्रतुप्रतिपादकं ग्रन्थं यवक्रीतं गायता पठता चैकन गोविन्देनैव प्रन्थिकेनाभिनेयमाख्यानं वासवदत्तामाख्यायिकां च विद्वद्भिरधीयानैर्वा व्यासादिभिः ॥ पादाम् । अत्र “प्रहरणात्" [ ११६] इत्यादिना णः ॥ मौहूर्ताः । नैमित्त । छान्दस । इत्यत्र "तद्वेत्त्यधीते" [११७ ] इत्यण् । केचित्तु मुहूर्तनिमित्तशब्दो न्यायादौ पठन्ति तन्मते । मौहूतिकः । नैमित्तिकः ॥ नैयायिकः । पौराणिक । अत्र "न्यायादेरिकण्" [११८] इतीकण् ॥ पदान्त । आनुपदिकः ॥ कल्पान्त । मातृकल्पिकः ॥ लक्षणान्तः(न्त)। आनुलक्षणिकः ॥ ऋतु । आग्निष्टोमिक ॥ आख्यान । यावक्रीतिक ॥ आख्यायिका । वासवदत्तिकैः । अत्र “पदकल्प." [ ११९ ] इत्यादिना-इकण् ॥ स वार्त्तिमूत्रिकान्काल्पमूत्रानागमविधिकान् । सांसर्गविद्यास्त्रविद्यानाङ्गविद्यांश्च कोविदान् ॥ १२० ॥ क्षात्रविद्यान्धार्मविद्यालो(लो)कायि(य)तिकविद्विपः । याज्ञिकानौक्थिकांश्चात्र चक्रे प्रीणयितुं मठान् ॥ १२१ ॥ १२०, १२१. स राजा कोविदान्प्रीणयितुमाश्रयदानेनाहादयितु१ बी 'यितक. १ बी सी ह । अग्नि. २ ए सी देनेव. ३ बी सी °णा इ. ४ ए 'णिकः । अं. ५ बी सी नुलाक्ष. बी सी तु अग्नि'. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] मत्र सरस्तटे मठांश्छात्रादिनिलयांश्चक्रेकारयत् । किंभूतान्को विदान् । वार्त्तिसूत्रिकान्वृत्तिं सूत्रं च विदतोधीयानान्वा तथा काल्पसूत्रान् । सिद्धरूपः प्रयोगो यैः कर्मणामवगम्यते । ते कल्पा लक्षणार्थानि सूत्राणीति प्रचक्षते ॥ कल्पान्सूत्राणि च विदतोधीयानान्वा । तथागमविद्यौं तथा संसविद्यां संसर्गेणौषधसंपर्केण विद्यां सुवर्णसिद्ध्यादिविद्यां तथा व्यवयवां विद्यां त्रिविद्यां वार्तात्रयीदण्डनीतीस्तथाङ्गविद्यामङ्गानां षण्णां शिक्षादीनां विद्यां यद्वाङ्गस्य शरीरस्य विद्यां शरीरलक्षणज्ञानं तथा क्षत्रविद्यां दण्डनीतिं तथा धर्मविद्यां स्मृतिं च विदतोधीयानान्वा तथा लो (लो) कायतिकविद्विषो लोकायि (य) तं चार्वाकशास्त्रं विदन्त्यधीयते वा लोकायतिकास्तेपां विद्विपो निराकर्तन् । तथा याज्ञिकान्यज्ञं यज्ञप्रतिपादकं शास्त्रं याज्ञिक्यं वा याज्ञिकानामाम्नायं विदतोधीयानान्वा तथौक्थिकांञ्चोक्थानि कानिचित्सामान्यौक्थिक्यं वौक्थिकानामाम्नायं विदतोधीयानान्वा ॥ वार्त्तिसूत्रिकान् । इत्यत्र "अकल्पात्सूत्रात्" [ १२० ] इतीकण् ॥ अकल्पादिति किम् । काल्पसूत्रान् ॥ आगमविद्यिकान् । इत्यत्र "अधर्मक्षे (क्ष) त्र०" [ १२१ ] इत्यादिना इण् ॥ अधर्मादेरिति किम् । धार्मविद्यान् । क्षात्रविद्यान् । त्रैविद्यान् । सांसर्गविधान् । आङ्गविद्यानंं ॥ १२ याज्ञिकान् । औक्धिकान्' । लौकायि (य) तिक । इत्येते "याज्ञिक ० " इत्यादिना निपात्याः ॥ २ बी सी 'चक्ष्यते. १ए पत्रा'. ५ ए द्यां वातात्र'. ६ ए कायिति'. बी ८ ए सी 'कायिति. एन् । यज्ञि. 'न् । लोका'. १२ बी "यतक'. [१२२] ३ सी द्यां यद्वा ४ ए 'थात्राव. कातिक'. ७ ए बी 'ते लोका'. १० सी याचकान् । लोका. ११ ए 1 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.२.१२३.] पञ्चदशः सर्गः। अनुब्राह्मण्याढ्यैः सशतपथिकैः पष्टिपथिकैः ___ कृताध्यायान्याशूत्तरपदिकयुक्पूर्वपदिकैः। द्विपद्धूवाके(क्ये)भ्यः पदिक इव निर्धार्य स पदा न्युरून्कीर्तिस्तम्भानिव सुरगृहाणि व्यरचयत् ॥ १२२ ॥ १२२. स राजा सुरगृहाणि प्रासादान महाकीर्तिहेतुत्वेनोरून्महतः कीर्तिस्तम्भानिवाशु व्यरचयदकारयत् । किं कृत्वा । यथा पदिको वैयाकरणो वाक्येभ्यः सकाशात्पदानि विभक्त्यन्तादीनि निर्धारयति तथा द्विषद्भूवाक्येभ्यो द्विषद्भुवः शत्रुभूमय एव पदसमूहात्मकत्वाद्वाक्यानि तेभ्यः सकाशात्पदानि देवगृहस्थानानि निर्धायेषु स्थानेषु देवगृहाणि विधास्यन्त इति पृथकृत्य शत्रुदेशेष्वपि देवगृहाण्यकारयदित्यर्थः । किंभूतानि। कृताध्यायानि विहितपाठानि । कैः । षष्टिपथिकैः षष्टिः पन्थानो यस्य स षष्टिपथो वेदाध्यायविशेषस्तं विदन्त्यधीयते वा तैर्द्विजैस्तथोत्तरपदिकयुक्पूर्वपदिकैः समासोत्तरपदविद्युक्तैः समासपूर्वपदविद्भिश्च लाक्षणिकैश्च । किंभूतैः । अनुब्राह्मण्याढ्यैब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो ब्राह्मणं तत्सदृशो ग्रन्थोनुब्राह्मणं सहगर्थेव्ययीभावः । तद्विदन्त्यधीयते वानुब्राह्मणिनस्तैराव्यैर्युक्तैस्तथा सशतपथिकैः शतपथवेदाध्यायविशेषविद्युक्तैः ॥ शिखरिणी छन्दः ॥ लसत्पदोत्तरपदिकैः ससामकैः सहाश्रमैस्तव तदपत्यमत्यये । कुमारपाल उ अविता महीमितीशवाक्स्मृतेरयतत स खसिद्धये ॥१२३ ॥ १ ए सी कैः कृ. २ बी कृतध्या'. . १ ए बी °णि प्रसा. सी "णि विधास्यन्त इति पृथक्कृत्य श प्रा. २ बी "तुत्वानारू'. ३ ए नोन्म'. ४ सी वाकेभ्यः. ५ सी नि दे'. ६ए वाकेभ्यो. ७ ए °युत्पूर्व'. ८ बी सी ट्यैाह्म'. ९एबी शिखिरणी. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ जयसिंहः ] १२३. स जयसिंहः स्वसिद्धयेयतत परलोकसाधनायानशनाद्यैन्त्यक्रियां चकारेत्यर्थः । कुत इतीशवाक्स्मृतेरेवंविधसोमनाथवचःस्मरणमवलम्ब्य । का वागित्याह । उ हे जयसिंह तवात्यये तदपत्यं तस्य त्रिभुवनपालस्यापत्यं कुमारपालो महीमविता पालयिष्यति । कैः। सहाश्रमैर्ब्रह्मचारिमुख्यैः । किंभूतैः । लसन्तः सम्यग्ज्ञानेन देदीप्यमानाः पदोत्तरपदिकाः पदं चोत्तरपदं च विदन्तोधीयाना वा वैयाकरणा येषु तैस्तथा ससामकैः सामवेदज्ञयुक्तैः ॥ रुचिरा छन्दः ॥ २६० उपनिषदेकशिक्षकेषु मीमांसकपर्दकक्रमकेष्वथापरेद्युः । जनितशुगवनीपतिर्मघोनः पुरमगमत्परमेष्ठिनः स्मरन्सः ॥ १२४ ॥ १२४. अथापरेद्युः सोवनीपतिर्जयसिंहो मघोनः पुरमगमद्दिवं गत इत्यर्थः । कीदृक्सन् । जनितशुग्विहितशोकः । केषु विषये । उपनिषदक शिक्षकेपूपनिषदं योगशास्त्रं शिक्षां वर्णोत्पत्तिस्थानप्रतिपादकं ग्रन्थं विदत्स्वधीयानेषु वा । तथा मीमांसकपर्दकक्रमकेषु मीमांसां विचारणाशास्त्रं पदक्रमौ च वेदपाठभेदौ विदत्स्वधीयानेषु वा द्विजेषु तथा परमेष्ठिनोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायें सुसाधून्हरिहरब्रह्मणश्च स्मरन् । भनुब्राह्मणि । इत्यत्र “अनु०” [ १२३ ] इत्यादिनेन् ॥ शतपथिकैः । षष्टिपथिकैः । अत्र “शत०” [ १२४ ] इत्यादिना इकट् ॥ । १ बी शि". २ ए बी 'द'. १ बी सिंह स्व. सो. ५ सी 'दक'. ● क्रमेषु. ९ विधत्स्व . ९ २ बी 'लोके सा'. ६ बी सी वाथ त १० सी वसा. ३ बी सी 'द्यन्तक्रि'. ४ बी 'विधं ७ वी सी क्र. ८ सी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.२.१२६. ] पञ्चदशः सर्गः । २६१ पूर्वपदिकैः । उत्तरपदिक । पदिकः । पदोत्तरपदिकैः । अत्र "पदोसर " [ १२५ ] इत्यादिनेकः ॥ 33 । इत्यत्र " पदक्रम ० ' पदेके । क्रमक । शिक्षकेषु । मीमांसक । सामकैः [ १२६ ] इत्यादिनाकः ॥ उपनिपच्छब्दादपीच्छति कश्चित् । उपनिषदक ॥ औपच्छन्दसकं छन्दः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभय तिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्ध हेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनद्व्यायवृत्तौ पञ्चदशः सर्गः ॥ १ बी दिकः । प २ एकः । क्र. बी द क . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये षोडशः सर्गः । सवार्त्तिकैरष्टकसर्वतत्रैः सगौतमैरेत्य कुमारपालः । अथाभिषिक्तः कठताण्डिमुख्यैः पैतामहं राज्यमलंचकार ॥ १ ॥ १. अथ कुमारपालः पैतामहं कुमारपालपिता हि त्रिभुवनपालो जयसिंहस्य भ्रातृजत्वात्पुत्रतुल्य इति जयसिंह: कुमारपालस्य पितामहस्तत्संबेन्धि राज्यमलंचकार । कीदृक्सन् । कठताण्डिमुख्यैः कठेन प्रोक्तं वेदं ताण्ड्येन प्रोक्तं ब्राह्मणं च विदन्त्यधीयते वा ये तत्प्रभृतिभिः पुरोहितामात्याद्यैरेत्याभिषिक्तः कृतराज्याभिषेकः । किंभूतैः । सवार्त्तिकैर्वृत्तिरेव विनयादित्वादिकणि [ ७. २. १६९ ] वार्त्तिकं तेन सह सवार्तिकं सूत्रं विदन्त्यधीयते वा तैस्तथाष्टकसर्वतत्रैरष्टकी अष्टकमष्टाध्यायमानं पाणिनीयं सूत्रं विदन्तोधीयाना वा ये सर्वतत्राः सर्वतन्त्राणि सर्वदर्शन सिद्धान्तान्विदन्तोधीयाना वा तैस्तथा सगौतमैर्गोतमर्षिप्रोक्तवेदवित्सहितैः ॥ O सवार्त्तिकैः । सर्वतन्त्रैः प्रः । अत्र " ससर्व ० " [ १२७ ] इत्यादिनाणो लुप् ॥ अष्टक । अन्न “संख्या०" [ १२८ ] इत्यादिनाणो लुप् ॥ गौतमैः । अत्र “प्रोक्तात्” [ १२९ ] इत्यणो लुप् ॥ वेद । कठ ॥ इन्ब्राह्मण । ताण्डि । इत्येतौ "वेदेन्० " [ १३० ] इत्यादिना बेत्यधीत एतद्विषय एव प्रयुज्येते ॥ सर्गेस्मिन्नुपजातिश्छन्दः ॥ १ बी पालं पि. २ सी 'बन्धरा. ३ सी ताण्डेन. ४ बी काष्ट.. ५ एतत्रा'. ६ बी मैगत. ७ बी सी युज्यते. ८ ए 'पज्ञाति ९ बी सी 'तिच्छन्दः'. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ० ६.२.१३१.] पोडशः सर्गः। २६३ स्थानेभ्य आगत्य च वास्त्रपाण्डुकम्बल्युपारोहिण आशु विप्राः। क्रौञ्चौपगप्राग्वकवामदेव्यौशनोद्गिरो मङ्गलमय चक्रुः ॥ २ ॥ २. द्विजा अस्य कुमारपालस्य मङ्गलं मत्रपूतचन्दनाक्षतादीनां मूर्धन्यारोपेण माङ्गलिक्यं चक्रुः । किंभूताः सन्तः। क्रौञ्चो(चौ)पगप्राग्वकवामदेव्यौशनोगिरः क्रौञ्चेनर्षिणौपगवेनर्षिणा वामदेवेनर्षिणोशनसा च शुक्रेण दृष्टानि सामानि क्रौञ्चौपगवकवामदेव्यौशनानि तदुद्रिस्तान्युच्चारयन्तः । किं कृत्वा । स्थानेभ्यो द्विजसंबन्धिपुरमामादिभ्य आश्वेत्यागत्य । यतो वस्त्रेणच्छन्ना रथा वास्त्राः पाण्डुकम्बलेनच्छन्ना रैथाः पाण्डुकम्बलिनो द्वन्द्वे तेपूपारोहिणो महर्द्धिकत्वेनारोहणशीलाः ॥ औशेष्वधीतोशनसो नु शातंभिपो नु ना शातभिषज्य आसीत् । प्रगल्भधी तिपथे गुणैश्च दुर्धर्षताद्यैरतिशातभः सः ॥३॥ ३. स राजा नीतिपथे राजनीतिमार्गविषये प्रगल्भधीरासीत् । यथौशेषूशनसा दृष्टेषु सामसु विषयेधीतमौशनसं साम येन सोधीतौशनसो ना नरः प्रगल्भधीः स्याद्यथा वा शातभिपः शतभिषजि नक्षत्रे जातो नरः शातभिषज्ये शतभिषग्जातकर्मणि रौद्रक्रियादौ विषये प्रगल्भधीः स्यात् । तथा स दुर्धर्पताद्यैर्दुरभिभवनीयतादिभिर्गुणैः कृत्वातिशातभश्च शतभिषग्जातनरमतिक्रान्तश्वासीत् । शतभिषजि १ ए क्रौञ्चोप. २ बी देव्योश. ३ बी गिरा म. ४ बी नसा नु. सी नशो नु. १ बी सी रोपण. २ ए °सा शु. ३ ए बी क्रौञ्चोप. ४ सी मदो. व्योश. ५ ए देव्योश. ६५ लेच्छ'. ७ ए सी रथा पा. ८ सी राजनी'. ९बी नीयादि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] जातो हि नरो दुर्धर्षतादिगुणोपेतः स्यात् । नीतिज्ञो विक्रान्तश्चार्य राजाभूदित्यर्थः ॥ वास्त्र । हत्यत्र "तेन." [ १३.] इत्यादिनाण् ॥ पाण्डकम्बलि । इत्यत्र "पाण्डु०" [ १३२ ] इत्यादिनेन् ॥ क्रौञ्च । इत्यत्र "दृष्टे साग्नि नाग्नि" [ १३३ ] इत्यण् ॥ औपगवक । इत्यंत्र "गोत्रादकंवत्" [१३४ ] इत्यतिदेशादङ्केथै "गोत्रादएण्ड०" [ ६. ३. १६९ ] इत्यादिना योकञ् विहितः स स्यात् ॥ बामदेव(व्य) । इत्यत्र “वाम०" [ १३५ ] इत्यादिना यः ॥ औशन । इत्यत्र योण विहितः स "डिद्वाण" [ १३६ ] इति वा डित् ॥ पक्षे । औशनसः ॥ शातभिषः । शातभिषेज्ये । अत्र "वा जाते द्विः" [१३७ ] इति जातेथे पुनर्विहितोण वा डित् ॥ केचित्तु द्विर्डित्त्वमिच्छन्ति । तन्मते द्विर्डित्वाविर• त्यस्वरादिलोपे शातभः । एवं पूर्वसूत्रेपि । औशेषु । एवं च योगद्वयेपि त्रैरूप्यं सिद्धम् ॥ लोकात्सदा न्याय्यकराभितुष्ट इयेप नैपोपनयेन वित्तम् । किं स्थाण्डिलः कार्परमाल्लकोख्यभ्राष्ट्रानभुक्कासति शूल्यभिक्षाम् ४ ४. एष राजा लोकात्सकाशादपनयेनोन्यायेन सदा वित्तं द्रव्यं नेयेष यतो न्याय्यो न्यायादनपेतो यः करो राजग्राह्यो भागस्तेनाभितुष्टः । अर्थान्तरन्यासमाह । स्थाण्डिलः स्थण्डिल एव शयनवतो मिक्षुः शूल्यमिक्षां शूल्यस्य शूले संस्कृतस्य मांसस्य भिक्षां किं काति निन्द्यत्वान्नैवेत्यर्थः । यतः कर्पर उद्धृतं कार्परं मल्लके शराव उद्धृतं १ सीत्र योण्. २ बी पजे । अ. ३ ए वा दितः । के. ४ ए तेर्डि'. सीते द्विडित्वा'. ५ ए ना स. ६ सी कर उ. ७ सी तं मा. ८ बी के सरा. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.२.१५.] षोडशः सर्गः। २६५ माल्लकमुखायां स्थाल्यां संस्कृतमुख्यं भ्राष्ट्रे संस्कृतं भ्राष्ट्रं च यदन्नं तस्यै भुग्भोक्ता ॥ मालक । कार्पर । इत्यत्र "तत्र." [१३८ ] इत्यादिनाण ॥ स्थाण्डिलः । अत्र "स्थण्डिलाच्छेते व्रती" [ १३९] इत्यण् । भ्राष्ट्र । इत्यत्र "संस्कृते भक्ष्ये" [ १४० ] इत्यण् ॥ शूल्य । उख्य । इत्यत्र "शूलोखायः" [1] इति यः ॥ असाधुरौदश्वितरुच्यनीश्चित्तेस्य नो साधुतया न्यवात्सीत् । क्षैरेयता दाधिकतां च नौदश्वित्कं भजेद्रासनवेदिनो हि ॥५॥ ५. अस्य राज्ञश्चित्तेसाधुः साधुतया न न्यवात्सीत् । यत उदश्विति तके संस्कृतं "संस्कृते भक्ष्ये" [ ६.२. १४० ] इत्यणि औदश्वितं प्रलेहस्तदिव रुच्याभिप्रेता नीतिायो यस्य तस्य । युक्तं चैतत् । हि यस्माद्रासनवेदिनो रोगादिनाप्रतिहतरसनेन्द्रियत्वाद्रसनाग्राह्यमाधुर्यादिरससंवेदिनः पुंस औदश्वित्कमुदश्विति संस्कृतमोदनादि क्षी(झै)रेयतां क्षीरे संस्कृतत्वं परमानतां दाधिकतां च दनि संस्कृतत्वं दधिसंस्कृतौदनतां वा न भजेत् ।। झरेय । इत्यत्र "क्षीरादेयण" [ १४२ ] इत्येयण् ॥ दाधिकताम् । अत्र "दनः" [१३] इति(त्यादिना)-इकण् ॥ औदश्चिकम् औदश्वित । इत्यत्र "वोदश्वितः" [१४४ ] इतीकग्वा । रासन । इत्यत्र "कचित्" [१५] इत्यण् । द्वाविंशः पादः ॥ १ बी 'स्य भोक्ता. २ एलका . ३ बी शूल्योखा. ४ सी °स्य । अथोत्त. षष्ठश्लोकसमाप्तिपर्यन्तं न वर्तते. ५ ए °या न्य. ६ ए स्कृतं भ. ७ वी 'नो रागा. ८ बी तमौद'. ९५ "श्चित. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ब्याभयमहाकाव्ये [ कुमारपाल:] नादेयपूराभवलः स कृत्यशेषेपि नाशेत यतस्ततोमुम् । माहेयराड्राष्ट्रियराजमुख्या भूपा अदूरेत्यभुवोभजन्त ॥ ६ ॥ ६. यतो यस्माद्धेतोः स राजा कृत्यशेषेपि स्तोकेपि कार्ये नाशेत नालस्यभूत् । कीदृक्सन् । नादेयपूराभबलो नदीभवप्रवाहतुल्यबलः । तस्मान्महोत्साहरूपाद्धेतोर्मयां भवा माहेया महियडा इति प्रसिद्धाः क्षत्रियभेदास्तेषां रागोद्रहदेशाधिपस्तथा राष्ट्रे भवा राष्ट्रियाः क्षत्रियभेदास्तेषां राजा राष्ट्रियराजो द्वन्द्वे तदादयो भूपा अमुमभजन्त । किंभूताः सन्तः । अदूरेत्याः समीपभवा भुवो येषां ते तथा निकटस्था इत्यर्थः ॥ शेषे । इत्यनेन "शेषे" [ 1 ] इति सूत्रं सूचितम् ॥ नादेय । माहेय । इत्यत्र “नद्यादेरेयण" [२] इत्येयण् ॥ राष्ट्रिय । इत्यत्र "राष्ट्रादियः" [३] इतीयः ॥ दूरेत्य । इस्यत्र "दूरादेत्यः" [ " ] इत्येत्यः ॥ अथो(थौ)त्तराहाखिलशैवहारावारीणपारीणनृपैः सहैव । आनो नृपोसिन्मदतोतिपारावारीणनागः सहसा व्यरुद्ध॥७॥ ७. अथान्नो नृपः सपादलक्षदेशाधिपोस्मिन्कुमारपालविषये सहसातर्कितमेव व्यरुद्ध । जयसिंहे स्वर्गते नवराजत्वेन कुमारपालमसमर्थ मन्यमानो विरोधकारणाभावेप्यतर्कितं तेन सह विरोधं चकारेत्यर्थः । कीहक्सन् । सहैव सहित एव । कैरित्याह । औत्तराहा उत्तरस्यां दिश्युत्तरस्मिन्देशे वा भवास्तथाखिला ये शैवहाराः शिव १बी व । अन्नो. १ ए रागोद्र. २ सी रवि'. ३ बी सिंहस्व. ४ ए विधं. 'त्याहोत्त. ६ सीधा पागणाः. ५ ए Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ६.३.५.] षोडशः सर्गः। २६७ हारानदीसंबन्धिनस्ते तथावारीणम अवारे प्रस्तावाच्छिवहारानद्या अर्वाक्तटे भवास्तथा पारीणाः पारे शिवहारायाः परतटे भवा विशेषणद्वन्द्वे एते ये नृपास्तैः । यतो मदतो बलाधवलेपादतिपारावारीणनागः पारावारेब्धौ भवं जातं वा नागमैरावणमतिक्रान्तः ॥ प्राच्यं च व(ब?)ल्लालमयुक्त पारातोवारपारीणनृपैरपाच्यैः । प्रतीच्यराट्पाणिनिपीडनार्थमुदीच्यराण्नीत्यतिदिव्यमत्री॥८॥ ८. उदीच्यराडुदीच्यानामुत्तरदिग्भवानां सपादलक्षादिदेशनृणां राजान्नः प्रतीच्यानां गूर्जरत्रादिपश्चिमदेशभवानां नृणां राट् कुमारपालस्तस्य यः पाणिः पश्चाद्भागदेशस्तस्य निपीडनार्थमुपद्रवणार्थं प्राच्यमवन्तिदेशाधिपं बल्लालं बल्लालदेवाख्यं नृपं पारातोवन्तिदेशस्थपारानद्याः सकाशादयुत च । कैः सह । अपाच्यैर्दाक्षिणात्यैरवारपारीणनृपैरवारपारेब्धौ भवैर्नृपैः । यदा कुमारपालो मया सह युध्यते तदा युष्माभिरेतस्य पश्चाद्देशो भजनीय इत्येवं मैत्रीदानसन्मानादिकरणेन प्रेरितवानित्यर्थः । यतो नीत्यतिदिव्यमत्री नीती राजनीतिविषये दिव्यमत्रिणं बृहस्पतिमप्यतिक्रान्तः । गूर्जरत्रापेक्षया सपादलक्षदेश उत्तरः। सपा. दलक्षापेक्षयों च गूर्जरत्रौ पश्चिमा । गूर्जरत्रासपादलक्षापेक्षया चावन्तयः पूर्वा इत्यन्योन्यापेक्षयावन्त्यादिदेशानां प्राग्देशत्वादिव्यवहारः । यद्वेशानतो नैऋ()ति गच्छन्त्याः शरावतीनद्या अपेक्षयावन्त्यादिदेशानां प्राग्देशत्वादिव्यवहारः । तथा च वैयाकरणाः । कः पुनः प्राग्देशो १ बी राणीत्य'. १ सी लेपतोति'. २ सी ददे'. ३ ए रवादि'. ४ सी देशानां भ. ५ ए भवां नृ. ६ बी नृपाणां. ७ सी राजा कु. ८ ए श्चारादे'. ९ ए लालादे'. १० बी सी वैर्भूपैः, ११ सी तिविदि. १२ सी या चा. . १३ बी त्रास'. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] यः शरावत्याः सरितः पूर्वोत्तरेण वहन्त्याः पूर्वतो दक्षिणतो वा भवति यस्तु पश्चिमेत उत्तरतो वा स उदगिति । ततश्च तत्तद्देशाधिपानां बल्लालादीनां प्राच्यत्वाद्युक्तिरुपपन्नेति ॥ औत्तराह । इत्यत्र "उत्तरादाह" [५] इत्याहज् ॥ पारावारीण । इत्यत्र "पार०" [६] इत्यादिनेनः ॥ पारीण । अवारीणे । अवारपारीण । इत्यत्र "व्यस्त." [.] इत्यादिनेनः ॥ दिव्य । प्राच्यम् । अपाच्यैः । उदीच्य । प्रतीच्य । इत्यत्र "धुप्राग्०" [.] इत्यादिना यः ॥ ग्रामेयकाग्राम्यवचःप्रवीणैः कात्रेयकैराहत राजचक्रम् । ग्रामीणकोलेयकवत्सकौण्डेयकं सकौणेयकमेष दूतैः ॥९॥ - ९. ग्रामीणो ग्रामे भवो यः कुले शुद्धान्वये भवो जातो वा कौलयको जात्यश्वा प्रचण्डबलशौर्यादिगुणैस्तत्तुल्य एष आनो दूतैर्नृपचक्रमावताकारयत् । किंभूतम् । सकौण्डेयकं सकौणेयकं च कुण्ड्या कुण्या च नगयौं ग्रामौ वा । कुण्ड्यान्ध्रदेशे नदीत्येके । तत्र भवैर्जातैर्वा नृपैः सहितम् । किंर्भूतैर्दूतैः । कात्रेयकैः कुत्सितास्त्रयो धर्मादयो यत्र तंत्र कत्रो देशे भवैर्जातैर्वा । तथा प्रामेयकमसभ्यमग्राम्यं च संभ्यं च यद्वचो यद्वा ग्रामेयकाणां मूर्खाणामग्राम्याणां च विदुषां च यद्वचस्तत्र प्रवीणैः सर्वभाषानिपुणैरित्यर्थः ॥ १बी कोलीय. १सी ति प. २ ए मतो उ. ३ सी तई. ४ सी ण ।. ५ए दिव्यः। प्रा. ६ सी ले सिद्धा. ७ए भवे जाते वा. बीभवे जातौ वा. ८ बीकं सकौण्डे. यकं स. ९ए ण्ड्या च. १० सी भूतैः का. ११ सीत्र कात्रे दे'. १२५ 'सत्यम. १३ ए सत्यं च. १४ बी सी भ्यं य. १५ बी सी षां य. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ [है. ६.३.९.] षोडशः सर्गः। अवेयकी प्रास्थित दीप्रकौक्षेयकः स गर्वादतिदाक्षिणात्यः । पौरस्त्यपाश्चात्यचमूनियुक्तवाहायनौर्दायनसैन्यपालः ॥१०॥ १०. स आनः प्रास्थित प्रस्थानं चक्रे । कीदृक्सन् । अवेयकी मङ्गल्याय ग्रीवालङ्कारवानुपलक्षणत्वात्परिहितसर्वालंकारस्तथा दीप उत्ते. जितः कौक्षेयकः कङ्ककुक्षिनिर्जीर्णेनायसा कृतोसियस्य स गृहीतासिरित्यर्थः । तथा गर्वादतिदाक्षिणात्यो दाक्षिणात्यं दक्षिणस्यां दिशि भवं रावणमतिकान्तस्तथा पौरस्त्यातनी पाश्चात्या च पश्चाद्भागभवा ये चम्वौ तयोश्छलकप्रतिद्विषदादिकृतोपद्रवाभावाय नियुक्तौ वाहायनो वहिपु देशे भवो राजौर्दायनश्चोदी क्रीडायां कुशल उ(ऊ?)र्दिदेशे भवो वा राजा सैन्यपालौ येन स तथा ॥ स कापिशायन्यरुणेक्षणः सपार्दायनः पश्चिमभूमिमिच्छन् । गर्जन्ययौ गौरिव रावो शङ्कवायणीं गां दुरमात्यवर्गः ॥११॥ ११ से आनो ययौ पश्चिमभूमि प्रत्यचालीत् । कीदृक्सन् । सपार्दायनः । पर्दिदेशभवेन राज्ञा सहितस्तथा कुमन्त्रकृत्त्वाद्दुष्टोमात्यवर्गो यस्य स तथात एव पश्चिमभूमि गूर्जरत्रामिच्छन्नत एव च कापिश्यां नगर्या नद्यां वा भवा कापिशायनी द्राक्षा तद्वगुर्जरत्राधिपोपरि कोपाटोपेनारुणे ईक्षणे यस्य स तथा गर्जन सिंहनादं मुञ्चन् । यथा राङ्कयो रङ्कदेशे भवो गौवृषभो गर्जन वाट्कुर्वन्सन्राङ्कवायणीं गां घेर्नु कामातुरतया याति ॥ १ बी नौदाय'. २ बी राट्कवा'. १सी निजीणेना'. २ बी वादिति . ३ बी सी 'त्यो द. ४ बी रस्त्योग्रे०.५ बी त्या चा प. ६ सी लकः प्र. ७बी "नश्चादी. ८ ए श्चोदौ की. ९ ए सी पालो ये . १० बी स अनो. ११ बी देशे भ. १२ ए बी शायिनी. १३ सी भवा गौ . १४ सी र्जन्सन्राकवा'. १५ बी न् वाट्कुन्स'. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कत्यस्ततस्त्यो न्वसि नामि तत्रत्यः किं त्वहं नित्यमिहत्य एवम् । तदीय निट्यानभिवश्य कश्चिदाविष्ट्य आगात्प्रणिधिश्चुलुक्यम्॥१२॥ १२. कश्चित्प्रणिधिश्वर आविः प्राकाश्ये भव आविष्टयः प्रकटः संथुलुक्यमागात् । किं कृत्वा । तदीयनिष्टयानान्नसंबन्धिनश्चण्डालानभिवश्यच्छलयित्वा । कथमित्याह । अहो नरासि त्वं कत्यः कस्मिन्देशे पुरे वा भवो नु । शङ्कामहे । ततयोसि तस्मात्पश्चिमदेशादागतस्त्वं कुमारपालचरस्त्वमित्यर्थः । इत्युक्ते प्रत्युक्तिर्यथा । नास्मि तत्रत्यो नाहं तस्मिन्पश्चिमदेशे भवः किं स्वहं नित्य मिहत्योस्मिन्सपादलक्षदेशे भव एवंप्रकारेण ॥ ग्रामीण । ग्राम्य । इत्यत्र “प्रामादीनञ्च" [९] इतीनञ् यश्च ॥ कात्रेयकैः । प्रामेयक । इत्यत्र “कत्रि० [१०] इत्यादिनैयकन् । कौण्डेयकम् । कोणेयकम् । अत्र "कुण्ड्या ." [1] इत्यादिना-एयकञ् यल्लुक ॥ कौलेयक । कौक्षेयकः । प्रैवेयकी । इत्यत्र "कुल." [१२] इत्यादिनाएयकर्ज ॥ दाक्षिणात्यः । पाश्चात्य । पौरस्त(स्त्य)। इत्यत्र "दक्षिणा." [१३] इत्यादिना त्यण् ॥ वाहायनौयन । पार्दायनः । कापिशायनी । इत्यत्र "वह्निः" [१५] इत्यादिना टायनण् ॥ १बी प्रणघि'. १बी विः प्रका. २ बी 'नश्चाण्डा'. ३ ए सी हो निरा'. ४ ए सी नन् यं. ५ ए सी क । कौ". ६ पुस्तकत्रयेपि 'कुण्डेत्यादिना' इति वर्तते. ७ बी सी यकः । कौ. ८ सी ञ् । राङ्क ९ बी यनैर्दा. १० बी यनः । का. ११ ए य । का'. १२ ए शायिनी. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.१९.] षोडशः सर्गः । २७१ राङ्कवायणीं गाम् राङ्कवो गौः । अत्र "रकोः प्राणिनि वा" [१५] इनि वा रायनम् ॥ कत्यः । इहत्यः । अमात्य। तत्रत्यः । ततस्त्यः । अत्र "केह." [१६] इत्यादिना त्यच् ॥ आविःशब्दादपि कश्चित् । आविष्ट्यः ॥ . नित्यम् । अत्र "नेवुवे" [१७] इति त्यच् ॥ निष्ट्यान् । इत्यत्र “निसो गते” [ १८ ] इति त्यच् ॥ ऊचे स नत्वेति तवैषमस्त्योप्यनैषमस्तन्य इवारिरानः। दिनेचलद् ह्यस्तन एष्यति श्वस्तने च नूनं तव देशसीमाम्॥१३॥ १३. स प्रणिधिनत्वेत्यूचे । यथा हे राजन्नान्नो हस्तनेतीते कल्यदिनेचलत्तवाभिषेणनायाचालीत् । तथा नूनं श्वस्तने दिने भाविकल्यदिवसे तव देशसीमामेष्यति । र्यंत ए(ऐ)पमस्त्योप्यस्मिन्संवत्सरे भवोपि नास्त्यैषमस्तन्यमिदंसंवत्संरभवतास्य सोनैषमस्तन्य इवातिप्ररूढवैरेण चिरकालीन इव तवारिः ।। हस्ते(स्त्ये) दिने कान्थिककान्थकारण्यशैवरूप्येट् च सपौर्वशालः। भिन्नस्तव श्वस्त्यदिनेभिगन्ता तं चाहडो हस्त्यधिरोहणेन्द्रः॥१४॥ ११. हे राजंस्तव संबन्धी कान्थिककान्थकारण्यशैवरूप्ये च कान्थिकाः कन्थायां ग्रामविशेषे भवा नराः कान्थका वर्णाख्यहदसमीपस्थकन्थाग्रामभवा नरा आरण्या अरण्ये भवाः पशुवृक्षादयः शैवरूं. प्याः शिवरूप्ये देशभेदे भवा नरा द्वन्द्वे तेषामीट् च राजा स्त्येि दिनेतीते १ सी 'मात्यः । त'. २ बी त्रत्य । त°. ३ सी के इ. ४ ए बी प्रणधि'. ५ सी दिने त'. ६ बी यतो एष. ७ए नास्त्येष. ८ ए त्सरे भ°. ९ बी सी ता यस्य सौन'. १० ए रि: । हस्ते दि. ११ बी रूपदे'. सी रूपे दे. १२ ए जा हस्त्ये. १३ सी ह्यस्ते दि०. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] कल्ये भिन्नस्त्वत्तो भेदं गत आनं श्रित इत्यर्थः । कीदृक् । सपौर्वशालस्तव पूर्वस्यां शालायां भवैः सुभटाश्वादिभिर्युतः । तथा तव संवन्धी हस्त्यधिरोहणेन्द्रो हक्का (का?)मात्रेण हस्तिनां वित्रासकत्वाद्धस्त्यधिरोहणेषु सादिषु(?) स्वामी चाहडः श्वस्त्यदिने तमान्नमभिगन्ता श्रयिष्यति । तं पौर्वमद्रेडपरेपुकामशमोभजद्गौमततैकगो(गौ)ठाः । वाहीकराड्रीमकराट् च याकृल्लोमोथ पाटच्चरशौरसेनौ ॥१५॥ १५. पू(पौ)र्वमद्रेट् पूर्वेषु मद्रेषु देशेषु भवानां नृणां राजा तमाममभजत्तथापरेषुकामशमश्चापरेपुकामशमीग्रामस्य राजाचाभजतथा गौमततैकगो(गौ)ष्ठा गोमत्या नद्या राजा तैक्या गोष्ठयाश्च वाहीकेषु प्रामयोनॅपौ द्वन्दे ते चाभजस्तथा वाहीकरौड्रोमकराट् च वाहीके देशे रोमके प्राग्देशप्रामे च भवानां नृणां नॅपौ याकृल्लोमश्च यकृल्लोयुदग्नामे भवो राजा चाथ तथा पाटचरंशौरसेनौ पटञ्चरे प्राग्ग्रामे शूरसेनेषु देशेषु च भवौ नृपौ चाभजन ॥ नैकेतयुक्शाकलकाण्वदाक्षचैङ्कीयकाशीयमुखैः स वेत्ति । भावत्कवृत्तिं भवदीयपुर्यां चरैर्वसद्भिर्जनकीयवृत्या ॥ १६ ॥ १६. एष आन्नो नैकेती वाहीकग्रामस्तत्र भवा नैकेतास्तैर्युजो युक्ता ये शाकलकादयः शकलस्य कण्वस्य दक्षस्य चर्षेश्चिङ्कस्य प्राच्य १ ए बी तं पूर्व. २ ए सी परैपु. ३ बी रसौर. ४ सी 'शं चौरै'. १ ए विवास. २ सी गौतमतै'. ३ बी राडोम. ४ ए देशो रो". ५ सी ग्देशे ग्रा'. ६ ए नृपौ. ७ बी सी नृपो या . ८ वी लोम्न्यु. ९ सी था पट°. १० बी रसौर. . ११ बी °मे सूर'. १२ बी °घ अन्नो. १३ ए आनौ नै". १४ एती याहैक. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.२१.] षोडशः सर्गः । २७३ ५ गोत्रस्यं काशस्य भरतगोत्रस्य क्षत्रियस्यापत्यानि वृद्धानि शार्कल्यकाण्व्यदाक्षिचैङ्किकाशयस्तेषामिमे चरास्तत्प्रमुखैश्वरैः कृत्वा भावकवृत्तिं त्वदीयवृत्तान्तं वेत्ति । यतः किंभूतैः । जनकीया लोकसंबन्धिनी या वृत्तिर्वाणिज्यादिव्यापारस्तया कृत्वा भवदीयपुर्यां वसद्भिः । एतेनास्य विजयः सुलभ इत्युक्तम् ॥ अराजकी योजनि सोपि गोर्नदयोस्य बुद्ध्या परकीयदृत्तिः । तदुष्णकालीय इवातपस्ते तं गच्छतो वैक्ष्यति पाणिभागम् १७ १७. हे राजन्स त्वत्सेवकत्वेन प्रसिद्धो गोनर्दीयोपि गोनर्दे गोर्णदेत्याख्यया लोके प्रसिद्धेवन्तिदेशमध्यस्थे पत्तने भवो बल्लालोपि राज्ञः कुमारपालस्यायं राजकीयो न तथाराजकीयोजनि । यतोस्यान्नस्य बुद्ध्या परकीया त्वच्छत्रोरान्नस्य संबन्धिनी वृत्तिर्जीविका यस्य सः । तत्तस्माद्धेतोस्ते तव तमान्नं गच्छतोभिपेणयतः सतस्ते पाणिभागं पाश्चात्यदेशमसौ र्धक्ष्यत्यग्निदानेन भस्मसात्करिष्यति यथोष्णकालीयो प्रीष्मसंबन्ध्यातपो गच्छतो नरस्य पाणिभागं पादपश्चाद्भागं दहति ॥ ऐषमस्त्यः अनैषमस्तंन्यः । ह्यस्ते ( स्त्ये) ह्यस्तने । वेस्त्य श्वस्तने । अत्र "ऐषमः ०" [१९] इत्यादिना त्यच् वा ॥ कान्थिक । इत्यत्र "कन्थाया इकण्" [ २० ] इतीकण् ॥ कान्थक । इत्यत्र “वर्णावकञ्” [ २१ ] इत्यकञ् ॥ १ नदीयो. १ सी स्य भ. ५ ए 'कीयलो'. सी 'स्तन्य । . ३५ २ सी लीन इ. १३ बी क्षति. २ सी 'कलकाण्वदा ६ सी 'दत्ताख्य'. १० सी स्तन्ये । श्र° ११ बी वस्त्यः श्र’ ३ बी काण्वादा. ४ बी "कतृवृ. ७ सी तवानं. ८ बी धक्षम ९ ए Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] शैवरूप्य । भारण्य । इत्यत्र "प्य." [२२] इत्यादिना णः ॥ पौर्वशालः । अत्र "दिक्पूर्वादनाम्नः" [२३] इति णः । अनान्न इति किम् । अपरेषुकामशमः॥ पौर्वमद । इत्यत्र "मद्रावम्" [२४] इत्यम् ॥ याकृलोमः । अत्र "उदग्०" [२५] इत्यादिना ॥ गौष्ठाः । तैक । नैकेत । गौमत । शौरसेनौ । वाहीक । रौमक । पाटचर । इत्यत्र “गोष्टी०" [२६] इत्यादिनाञ् ॥ शाकल । काण्व । इत्यत्र "शकलादेर्यमः" [ २७ ] इत्यञ् ॥ दाक्ष । इत्यत्र "वृद्धेनः" [२८] इत्यम् ॥ प्राचः । चैकीय । भरतात् । काशीय । इत्यत्र "न द्वि०" [२९] इत्या. दिना नाञ् ॥ भावत्क । भवदीय । इत्यत्र "भवतो." [३०] इत्यादिना-इकणीयसौ ॥ परकीय । जनकीय । राजकीयः । अत्र "परजन०" [३] इत्यादिना कीयः॥ गोनर्दीयः । भत्र "दोरीयः" [३२] इतीयः ॥ उष्णकालीय । इत्यत्र "उष्णादिभ्यः कालात्" [३३] इतीयः ॥ वैकालिकीमप्यथ तामवैकालिका नु तद्वृत्तिमवेत्य भूपः । बुद्ध्येति तात्कालिकयालुलोचे तात्कालिकी कुद्विकृति विजित्य ॥१८॥ १बी ति तत्का. १५ सी रूपेत्या . २ ए परेषु. ३ बी "त्यम. ४ सी ५ सीकीय । म, ६ सी नदीयः. देन्यः १. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ६.३.३५.] षोडशः सर्गः। २७५ १८. अथैवं चरोक्त्यनन्तरं भूपस्तात्कालिकया तत्कालोद्भवया बुद्धयेति वक्ष्यमाणमालुलोचेचिन्तयत् । किं कृत्वा । तां विरोधरूपां तद्वृत्तिं तस्यान्नस्य व्यापार वैकालिकीमपि कुमारपालस्य तदैव राज्येभिषिक्तत्वेनासमयोत्पन्नामपि महाविक्रान्तत्वेनावकालिकां नु समयोत्पन्नामिवावेत्य ज्ञात्वा तथा तात्कालिकी तत्कालोद्भवां ऋद्विकृति कोपविकारं विजित्य ॥ वैकालिकाम् । वैकालिकीम् । तात्कालिकया । तात्कालिकीम् । अत्र "व्या. दिभ्यः" [३४] इत्यादिना णिकेकणौ ॥ स काशिकी तर्हि कलां विदन्न प्या वश्चितः काशिकया निकृत्या । तां चैदिकी दर्शयताशु भक्ति मचैदिकौमद्य च तेन तातः ॥ १९ ॥ १९. स सर्वत्र प्रसिद्धस्तातो जयसिंह आः खेदे । तेनान्नेन वञ्चितः । किंभूतेन सता । तर्हि तस्मिन्ननद्यतने जयसिंहकालेसमर्थत्वात्काशिकया निकृत्या । काशिदेशे हि माया बहु विजृम्भतेत एव महादाम्भिकं प्रति वाराणसिकोयं बक इति लोकैरुच्यते । इति वाराणसीसंबन्धिन्या मायया कृत्वा तां सर्वलोकप्रसिद्धां चैदिकी भक्ति चेदिदेशलोको हि प्रायो विनीतः सरलस्वभावश्च स्यादिति चेदिदेशसंबन्धिनी विनयप्रतिपत्ति सरलखभावतां च दर्शयताद्य चाधुना मम समये त्वाशु शीघ्रमचेदिकां भक्तिं दुर्विनीतत्वं दर्शयता । १५ र्शयिता. २ सी भक्तम', ३ एकाच. १५ तथान. २ ए ' नावै'. ३ बी न. ४ बी यं ठक. ५ वी बाणारसी'. ६ बी लोके प्र. ७ सी मचैदि. ८ ए नीतित्वं. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कीटकातः । काशिकी कलां मायां विदन्नप्ययं नरो मायावीत्याकत्यादिना जाननपि । यद्यसौ तदा तातं तथा नाच्छलयिष्यत्तदामुं तातस्तदैवोदच्छेदयिष्यदित्यर्थः ।। काशिकया । काशिकीम् । चैदिकाम् । चैदिकीम् । अत्र] "काश्यादेः" [३५] इति णिकेकणौ ॥ सिद्धेशि कारन्तपिकाह्वजालिकीवत्स भूत्वात्तनवौर्णवासाः । उन्मृष्टकारन्तपिकीरदाच्छं किं तद्यशोमय्यपि हर्तुमिच्छेत् ॥२०॥ २०. स आन्नस्तद्यशो नवौर्णवासःपरिधानोत्यां सिद्धेशकीर्ति मय्यपि मयि सत्यपि मामप्यनादृत्य चैवं विरोधकरणेन किं हर्तुमिच्छेत् । किंर्भूतम् । उन्मृष्टा दन्तपवनेन निर्मलीकृता ये कारन्तपिक्याः कारन्तपे वाहीकग्रामे भवाया नार्या रदा दन्तास्तद्वदच्छं निर्मलम् । किं कृत्वा । सिद्धेशि जयसिंहसमीप आत्तनवौर्णवासाः स्वस्य किंकरत्वैव्याख्यापनाय परिहितनव्यकम्बलवस्त्रो भूत्वा । यथा कारन्तपिकाह्वजालिकी च कारन्तपे वाहीकग्राम आह्वजाल उशीनरग्रामे भवे खियौ नवौर्णवाससौ भवतः । कारन्तपौदिषु हि ऊर्णवासांसि परिघीयन्ते ॥ तस्यास्म्यपत्यं कथमाबजालिकामं पुनश्चेत्प्रकरोमि नैनम् । सहैव भूपैजिकाह्वजालीयमद्रकै पितवास्तुकैश्च ॥ २१ ॥ १सी द्धेशका . २ बी काहं पु. १बी विन्दन्न'. २ बी या जा'. ३ बी सी वोच्छे'. ४ ए °ति किं । णि. ५सी कीर्तिः म. ६ सी भूताम्. ७ बी वायो नायों र. ८ ए मलं हैं. ९सी देश नं. १० ए किंकिरन्या. ११ सी 'वख्या'. १२ बी हजले शी. १३ ए पाविच्छ हि. १४ सी हि और्ण'. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ६.२.४०.] षोडशः सर्गः । २१. यथैकवेलं मत्पितैनं विजित्याहजालिकाभमात्तौर्णवा[स] सं चक्रे तथा चेदहं पुनः प्रकर्षेण न करोमि तदाहं तस्य जयसिंहस्य कथमपत्यमित्यर्थः : । कथम् । सदैव सहितमेव । कै: । भूपैः । किंभूतैः । वृजिकाह्वजालीयमद्रकैर्वृजिषु देश आह्वजाले प्रामे मद्रेषु च देशेषु भवैस्तथा नापितवास्तुकैश्च नापितवास्तौ वाहीकग्रामे प्राग्ग्रामे च भवैश्च ॥ २७७ काकन्दकैः पाटलिपुत्रकैर्माल्लवास्तवैर्जम्बुकवन्मिलित्वा । बल्लाल आरब्ध स जागरं यत्क्षमोस्मि तत्राप्युचितं विधातुम् ॥२२॥ २२. तत्रापि विषय उचितं योग्यं विधातुं क्षमोस्मि । यत्स बल्लालो नृपैः सह जम्बुकवदल्प सारत्वाच्छ्रगाल इव मिलित्वा जागरं मत्पाश्चात्यदेशभञ्जनायोद्यममारब्ध । कैः कैर्नृपैरित्याह । काकन्दकैः पाटलिपुत्रकैश्च काकन्यां पाटलिपुत्रे च प्राक्पुर्योर्भवैः । तथा मालवास्तवैर्मल्लवास्तौ प्राग्ग्रामे भवैश्च ॥ कारन्तपिका । कारन्तपिकी । इत्यत्र " वाहीकेषु ग्रामात्" [ ३६ ] इति णिकणौ ॥ भाह्वजालिका । भ्राह्वजालिकी । इत्यत्र "वोशीनरेषु" [३७] इति णिकेकणौ वा ॥ पक्षे । आह्नजालीय ॥ वृजिक | मँद्रकैः । अत्र “ वृजि०" [ ३८ ] इत्यादिना कः ॥ नापितवास्तुकैः । भ्रत्र " उवर्णादिकण्” [ ३९ ] इतीकण् ॥ यदा तु नापितवास्तुः प्राग्ग्रामस्तदा "दोरेव प्राच: " [ ४० ] इतीकण् । पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् । तेनेह न स्यात् । माल्लवास्तवैः ॥ १ सी 'लं मिलित्वैनं. २ सी भूतैः ३ सी देशेषु आ. ४ए योगं वि.. ५ सी 'जालकी. ६ए मद्रकैः Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल: काकन्दकैः । अत्र "इतोकन्" [11] इत्यकञ् ॥ पाटलिपुत्रकैः । अत्र "रोपान्त्यात्" [ ४२ ] इत्यकम् ॥ सहैव सांकाश्यकफाल्गुनीवहकैश्च नान्दीपुरकैश्च भृत्यैः । भूपोपि बल्लालमथो सवातानुप्रस्थकं दण्डपति न्यदिक्षत् ॥ २३॥ २३. स्पष्टः । किं तु सांकाश्ये[क]फाल्गुनीवहकैः सांकाश्ये पुरे फाल्गुनीवहे देशे भवैर्नान्दीपुरकैश्च नान्दीपुरे भवैश्च भृत्यैः सेवकनृपैरित्यर्थः । सवातानुप्रस्थकं वातानुप्रस्थे पुरे भवेन नृपेण सहितं दण्डपतिं काकाख्यं द्विजं सेनापतिम् ।। स्वयं स ऐरावतकाभिसारकदार्वकैः स्थालकधौमकैयुङ् । गर्तकै राजभिराभिसाराधगतकैश्चारिमभि प्रतस्थे ॥ २४ ॥ २४. स कुमारपालोरिमान्नमभिलक्ष्यीकृत्य स्वयं प्रतस्थे । कीदृशः। ऐरावत आभिसारे दर्वेषु स्थल्यां धूमे त्रिगर्तेष्वाभिसारगर्ने च देशेषु भवैर्जातैर्वा राजभिर्युङ युक्तः ।। प्रस्थान्त । वातानुप्रस्थकम् ॥ पुरान्त । नान्दीपुरकैः ॥ वहान्त । फाल्गुनी. वहकैः ॥ योपान्त्य । सांकाश्यके(क) ॥ धन्ववाचि । ऐरावतक । इत्यत्र "प्रस्थ. पुरः" [५३ ] इत्यादिनाकन् ॥ आमिसारक । इत्यत्र "राष्ट्रेभ्यः" [४४ ] इत्यकम् ॥ बहुवचनमकमः प्रकृतिबहुत्वं द्योतयदपवादविषयेपि प्रापणार्थम् । तेनेहापि भवति । आमिसारगर्तकैः । अत्र गर्वोत्तरपदलक्षण ईयो न स्यात् ॥ १ ए पोवि ब.सी पोघि ब. २५ °दिक्षित्. ए राधाग'. १ए रोपादित्य. सी रोपत्यादित्य. २ बी श्यसफा'. सी श्यमा'. ३ सी सहतं. ४ सी रिमनुल'. ५ वी निर्मि'. ६ वी सी 'वृक् । . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.४९. ] षोडशः सर्गः । दार्वकैः : । अत्र " बहु०" [ ४५] इत्यादिनाकञ् ॥ बहुवचनमपवादवि षयेपि प्रापणार्थम् | त्रैगर्तकैः । अत्र गर्तोत्तरपदलक्षण ईयो बाध्यते ॥ धौमकैः । स्थालक । इत्यत्र " धूमादेः " [ ४६ ] इत्यकञ् ॥ चौलुक्यमन्वीर्युरथेरयन्तस्तुरङ्गमान्कौलकसादिवर्याः । सामुद्रिका नाव इवाशु सामुद्रकाः कशादण्डभृतः समन्तात् ||२५|| २५. अथ कौलकसादिवर्याः कूलं नाम सौवीरग्रामस्तत्र भवा अश्ववारश्रेष्ठाः समन्ताच्चौलुक्य मन्वीयुरनुजग्मुः । किंभूताः सन्तः । कशादण्डभृतः कशायष्टिधारिणोत एवाशु तुरङ्गमानीरयन्तः कशाघातेन प्रेरयन्तः । यथा कशादण्डभृतः कशाकारारित्रदण्डधारिणः सामुद्रकाः समुद्रे भवा जाताः समुद्रकर्मणि कुशला वा नराः सामुद्रिकाः समुद्रे भवा नावस्तेरीः समन्तादाश्वरित्रैः प्रेरयन्ति ॥ २७९ कौलक । इत्यत्र “सौवीरेषु कूलात् " [ ४७ ] इत्यकञ् ॥ सामुद्रका नराः । सामुद्रिका नावः । अत्र "समुद्रान्नृनावो: " [ ४८ ] इत्यकम् ॥ न तस्य धीनागरकस्य मायितया चरैर्नागरकैः परेषाम् । काण्डानकैः पैप्पलकच्छकै वे () न्दुवक्रकैव (नौ) ह्यत यानहेतुः ॥ २६ ॥ २६. काण्डानौ पिप्पलकच्छ इन्दुवक्रे च देशेषु भवैस्तेभ्य आगतैर्वा परेषां चरैर्द्विषां हेरिकैस्तस्य राज्ञो यानहेतुर्यात्रायाः कारणं नौत न ज्ञात इत्यर्थः । किंभूतैः । मायितया नागरकैर्नगरभव १ सी "युरिवेर २ ए सी 'कैर्वोझ'. २ ए सी स्तरी स°. १ बी सी 'रेल'. हेरकै. ५ सीणं नोश. ३ ए मुद्रका. ४ सी षां Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ख्याश्रयमहाकाव्ये कुमारपालः] नरतुल्यैरपि । नागरि(र?)का हि प्रायो मायिनः स्युरिति यानहेतुज्ञानकारणमायाप्रयोगचतुरैरपीत्यर्थः । तर्हि कथं नौटंत इत्याह । यतो धीनागरकस्य बुद्ध्या कृत्वा नगरभवनरतुल्यस्य । नागरको हि प्रा. योतिबुद्धिमान्स्यात् । यतोतिधीमत्त्वेनातिगूढमत्रस्येति भावार्थः ॥ सचाक्रवर्तक्यधृतातपत्र आरण्यके सोध्वनि सेव्यते स । आरण्यकन्यायविहारद:रारण्यकैः प्राज्यबलैर्गजैर्नु ॥ २७ ॥ २७. स राजारण्यके वन्येध्वन्यारण्यकैररण्ये भवैनरैः शरैः सेव्यते स्म । कीटक्सन् । चक्रवर्ते देशे भवो राजा चाक्रवर्तकस्तस्य भावश्चाक्रवर्तक्यं सह तेन यः स सचाक्रवर्तक्यश्चाक्रवर्तको राजैव तेन धृतमातपत्रं यस्य सः । किंभूतैः । आरण्यकन्यायविहारदक्षैररण्ये भवयोर्नीतिविचरणयोर्विषये प्रवीणैस्तथारण्यकैर्गजैर्नु वन्यहस्तिभिरिव प्राज्यबलैर्महाप्राणैः ॥ आरण्य आरण्यकविद्भिरध्वन्यसौ द्विडारण्यकगोमयाग्निः । गच्छन्नधारण्यकरीषदावैरानन्द्यताशीर्वचनैर्मुनीन्द्रः ॥ २८ ॥ २८. आरण्येध्वनि गच्छन्सन्नसौ राजा मुनीन्द्रैः कर्तृभिराशीवादैः कृत्वानन्द्यत । किंभूतैः । आरण्यकविद्भिरात्मनोखिलेन्द्रियवि. पर्यग्रामाद्या निवृत्तिः सा वनं वारण्यमिति श्रुतिस्तत्स्वरूपस्य वर्णकत्वात्तस्यायं तत्र विषये भवो वारण्यकोध्यायभेदो वेदान्तस्तं जानद्भिः। १ बी सीन्द्रैः ॥ अर'. १ सी 'नकर'. २ ए °थं नोझ. सी °थं मोद्य. ३ ए सी ह्यतेत्या. ४ बी रैः से'. ५ सी वत्तिक. ६ सी वत्तिक्यं. ७ सी वत्तिक्य'. ८ सी वत्तिको. ९ वी °च्छन्न. १० सी नन्दितः किं. ११ए ययामा. १२ बी ति स्रुतिस्त्वत्स्व. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.४९.] षोडशः सर्गः । २८१ एतेन ज्ञानितोक्तिः । तथाघारण्यकरीषदावैः पापेष्वेव वन्यच्छगणे. चूर्णेषु वनवह्नितुल्यैर्महातपस्वितया दग्धपापैरित्यर्थः । अनेन क्रियापरतोक्तिः । नन्वेवंविधैरप्यसौ किमित्याशीर्भिरानन्द्यत इत्याह । यतो द्विषो धर्मान्तराया आन्तराः कामादयो बाह्याश्च दैत्यादयोरयस्त एवासारत्वादारण्यकगोमयानि तेष्वग्निर्विजिगीपुर्नृप इत्यर्थः । अथ च य आरण्यकगोमयानामग्निः स्यात्स देवतात्वान्मुनीन्द्रराशिषानन्द्यत इत्युक्तिलेशः ॥ बालाभिरारण्यवशाभिरारंण्यिका करेणुर्नु भृशं प्रगल्भो । यौगंधरैः कौरवकैश्च सैन्यैः सेना मिलद्भिः पथि तस्य रेजे ॥२९॥ २९. तस्य राज्ञः प्रगल्भा प्रौढा सेना पथि मिलदियौगंधरैः कौरवकैश्च युगंधरेषु कुरुधुं च देशेषु भवैः सैन्यैः कृत्वा भृशमत्यर्थं रेजे । यथारेण्यिका वन्या प्रगल्भा करेणुहस्तिनी बालाभिः शिशुभिरारण्यवशाभिर्वन्यहस्तिनीभिः कृत्वा भृशं राजते ॥ . साल्वाः सयौगंधरकाः पदाताः सकौरवाश्वा अभवन्मुदेस्य । द्राक्साल्वकैः साल्वकगोयवानवृत्त्या मनुष्यैः परिवार्यमाणाः ३० ३०. सकौरवाश्वाः कुरुदेशजैरश्वैर्युक्ताः सयौगंधरको युगंधरदेशसंबन्धिपदातियुक्ताः साल्वाः पदाताः साल्वदेशस्य पत्तयोस्य राज्ञो मुदेभवन् । यतः साल्वकैः साल्वदेशे भवैर्मनुष्यैर्गोपालैः पाचकैश्च नरैद्राक्परिवार्यमाणाः । किंभूतैः । उपलक्षितैः । कया। साल्व १ सी रण्यका. २ ए °ल्मा । योग'. ३ सी सयोग'. १ ए पदवी पा. २ ए णतूणे. ३ ए °या विश्वपा. सी या वन्यपा. ४ ए रत्वोक्तिः. ५ए या अन्त. ६ ए बी धुनृप. ७ ए द्भिर्योगं'. ८ सीपु दे'. ९ए सी °रण्यका. १० ए स्तिभिः. ११ सी का यौगं. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ढ्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कगोयवागूवृत्त्या साल्वे देशे भवा या गावो घेनवो या च यवागूरुपलक्षणत्वाद्रसवती तासां या वृत्तिर्व्यापारस्तया साल्विकगोवृत्त्या रक्षणचारणादिकया साल्विकयवागूवृत्त्या च पाकादिकया । यौगंधरका: साल्वाश्च पदातयः स्वभावेनैवात्मोपयोगिसकलपरिवारपरिकलिता एव देशान्तरेषु यान्तीति तान्दासधेन्वादिसकल परिवारेण सश्रीकान्गच्छतो दृष्ट्वा राजा जहर्षेत्यर्थः ॥ मायितया नागरकैः । धीनागरकस्य । इत्यत्र "नगरात्०" [ ४९ ] इ. त्यादिनाकञ् ॥ पैप्पलकच्छकैः ॥ अग्नि । काण्डाग्नकैः ॥ वक्र । ऐन्दुवकैः ॥ वर्त । चाक्रवर्तक । इत्यत्र “कच्छाग्नि." [५० ] इत्यादिनाकञ् ॥ आरण्यकेध्वनि । आरण्यकन्याय । आरण्यकविद्भिः । आरण्यकैर्गजैः । आरण्यकैः । आरण्यकविहार । इत्यत्र "अरण्यात्०" [५१] इत्यादिनाकञ् ॥ आरण्यकगोमय आरण्यकरीष । इत्यत्र “गोमये वा" [५२ ] इति वाकम् ॥ केचित्तु हस्तिन्यामपि विकल्प मिच्छन्ति । आइण्यिका करेणुः आरण्यवशाभिः ॥ केचित्तु नरवज पूर्वसूत्रेपि विकल्पमाहुः । आरण्यके आरण्येध्वनि ॥ कौरवकैः कौरवं । यौगन्धरकोः यौगंधरैः । इत्यत्र "कुरु०" [५३ ] इत्यादिनी वाकम् ॥ साल्वकगोयवागू:(गू) । साल्वकर्मनुष्यैः । अत्र “साल्वाद" [५४ ] इत्यादिनाकन् ॥ गोयवाग्वपत्ताविति किम् । साल्वाः पदाताः ॥ १ सी साल्वदे'. २ बी गिकस'. ३ बी वतिक्य । इ. ४ ए त । ई. ५ सी ण्यकन्या . ६ ए सी 'रण्यका. ७ वी व । योग'. ८ ए रकः यौ'. ९ बी काः योग". १० एनाक. ११ वी सी वागूप. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.५५.] षोडशः सर्गः। २८३ न काच्छके सैन्धवका विमर्दे न काच्छकोः सैन्धवकेप्यकुप्यन् । तैः सैन्धवैर्वाजिभिरुखैभिश्च काच्छैस्तदाज्ञायमिता वजन्तः ॥३१॥ ३१. सैन्धवकाः सिन्धुनराः काच्छके कच्छदेशवासिनरसंबन्धिनि विमर्दै बाहुल्यात्संघर्षे सति नाकुप्यन् । किंभूताः सन्तः । व्रजन्तः । कैः कृत्वा । तैः सुजात्यत्वादिना प्रसिद्धैः सैन्धवैः सिन्धुदेशे जातैर्वाजिभिः । एतेन सिन्धौ सुजात्याः प्रभूताश्चाश्वाः स्युरित्युक्तम् । तथा काच्छकाः कच्छदेशनराः सैन्धवकेपि सिन्धुदेशनरसंबन्धिन्यपि विमर्दे सति नाकुप्यन् । किंभूताः ‘सन्तः । व्रजन्तः । कैः कृत्वा । तैः सुजात्यत्वादिना प्रसिद्धैः काच्छैः कच्छदेशभवैरुक्षभिर्वृषभैः । एतेन कच्छेषु सुजात्याः प्रभूताश्चोक्षाणः स्युरित्युक्तम् । यतस्त दाज्ञायमिताः कुमारपालाज्ञानियन्त्रिताः ॥ अपूर्यतैक्ष्वाकशृगालगीयाश्वस्थिकीयैः कटवर्तकीयैः । दाक्षिदीयैः सहदाक्षिकन्थीयायामुखीयैर्नृपतेरनीकम् ॥ ३२ ॥ ३२. नृपतेः कुमारपालस्यानीकमपूर्यत । कैः कैरित्याह । इक्ष्वाकुषु शृगालगत आश्वथिके कटवर्तके च देशेषु दाक्षिहदे च वाहीकग्रामे भवैस्तथा सहदाक्षिकन्थीया दाक्षिकन्थायां वाहीकमामे भवैभेटैः सहिता ये आयामुखीया आयामुखे वाहीकप्रामे भवास्तैश्च महाभटैः ॥ १ ए के सेन्ध . २ ए काः सेन्ध'. ३ एन् । सै'. ४ सी क्षकैश्च केछै'. ५ ए तेक्ष्वा'. १ ए वाजिसि. २ सी नि बा'. ३ ए 'हुदल्या. ४ बी देशजा. ५ सी 'श्चाश्वोक्षाणः स्यु. ६बी देशे न. ७ सी केषु सि. ८ सी आयोमु. ९ सी आयो. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] दाक्षेः परस्तानगरीयभूपैामीयभृत्यैः पलदीययोधैः । सपर्वतीयैश्च सपर्वतीयवेषैर्युतोथार्बुदमाससाद ॥ ३३ ॥ ३३. अथ स राजार्बुद गिरिमाससाद । कीदृग् । युतैः । कैः कैरित्याह । दाक्षेः परस्तानगरीयभूपैर्दाक्षिनगरे प्राग्देशे भवैर्नृपैस्तथा दाक्षेः परस्तावामीयभृत्यैर्दाक्षिणामे वाहीकग्रामे भवै सैस्तथा दाक्षेः परस्तात्पलदीययोधैर्दाक्षिपलदे वाहीकमामे भवैर्भटैस्तथा सह पर्वतीयेन पर्वतसंबन्धिना वेषेण मृगाजिनोर्णादिकेन वर्तन्ते ये तैः सपर्वतीयवेषैः पर्वतीयैश्च पर्वते भवैः शबरादिभिश्च ॥ तां पार्वती मां कृकणीयपर्णी यशोभमानामवितेत्यथोचे । पत्तिः खकीयो नृपतेर्गहीयपदातियुग्विक्रमसिंहनामा ॥३४॥ ३४. अथ विक्रमसिंहनामा राजेति वक्ष्यमाणमूचे । कीदृक् । कृकीयपर्णीयशोभमानां कृकणे पणे च भारद्वाजदेशयोर्भवैर्लोकः शोभमानां वास्तव्यानेकदेशान्तरीयलोकामित्यर्थः । तां सर्वर्तुमण्डितंवनादिलक्ष्म्यातिरम्यत्वात्प्रसिद्धां पार्वतीमवुदे भवां क्ष्मामविता र. क्षिता । तथा नृपतेः कुमारपालस्य स्वकीयः पतिः सेवकस्तथा गही. यपदातियुग्गहे जालंधरदेशसमीपस्थे देशविशेषे भवा ये पदातयस्तै. युक्तः ॥ काग्छकाः । काच्छके विमर्दे । सैन्धवकाः । सैन्धवके विमर्दै । अत्र "कछादे०" [५५] इत्यादिनाकन् ॥ नृनृस्थ इति किम् । काच्छैरुक्षभिः । सैन्धवैवाजिमिः। भमानां वास्तसिद्धां पार्वताति : सेवकस्तथा ॥ १५ सी र्वतीक्ष्मां. २ ए पत्तेः स्व. १ए बुंदगि'. २ सीतः । कैरि'. ३ ए क्षेः पुर'. ४ बी °३ मृ. ५ सी जिनौर्णादिना वर्तते ये. ६ ए 'ते ये. ७ बी वक्षमा . ८ बी यशों. १५ तल'. १.पसी पते कु. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ६.३.६४.] षोडशः सर्गः। २८५ कोपान्त्य । ऐश्वाक । कच्छादि । काच्छैः । सैन्धवैः । अत्र "कोपान्त्याचाण्" [५६ ] इत्यण् ॥ शृगालगीय । इत्यत्र "गर्त०" [५७ ] इत्यादिना-ईयः ॥ कटवर्तकीयैः । अत्र “कट०" [ ५८ ] इत्यादिना-ईयः ॥ आश्वस्थिकीय(यः) । भयामुखीयैः । दाक्षिकन्यीयः(य) । दाक्षिपलदीय । दाक्षिनगरीय । दाक्षिग्रामीय । दाक्षिदीयैः । इत्यत्र "कखोपान्त्य." [५९] इत्यादिना-ईयः॥ पर्वतीयैः । अत्र "पर्वतात्" [ ६० ] इतीयः ॥ पर्वतीयवेषैः । पार्वती क्ष्माम् । अर्ब "अनरे वा" [६] इति वेयः ॥ पर्णीय कृणीय । इत्यत्र “पर्ण०" [६२ ] इत्यादिनेयः ॥ गहीय । स्वकीयः । अत्र "गहाविम्या" [ ६३ ] इतीयः ॥ अध्यासितो माध्यममध्यमीयैः संवैणुकीयैर्गिरिरौत्तरीयः। आमाकवंशप्रभवोपि यौष्माकीणप्रसादादयमस्मदीयः ॥ ३५ ॥ ३५. अयं गिरिर्बुद आस्माकवंशप्रभवोपि नन्द(न्दि)नीहेतुके विश्वामित्रेण सह विरोधे तच्छिनार्थं वसिष्ठेन परमारादिपुरुषो ह्यबुंद उत्पादित इति यद्यप्यस्माकं वंशस्य परमारान्वयस्योत्पत्तिस्थानं तथापि यौष्माकीणप्रसादादस्मदीयोयं युष्मकिंकरत्वादस्माकम् । कीदृशोयम् । औत्तरीय उत्तरे प्रशंस्यदेशे भवोत एव सवैणुकीयैर्वेणुके १ए सवेणु. २ बी यः । अस्मा. १ सी °य । आ. २ बी टपर्वतकी'. ३ बी न्यीयं । दा. ४ बी रीयः । दा. ५ ए सी र्वती मा. ६ बी 'त्र गिरे. सी पनगरे. ७सी कण । ई. ८ सी हीयः । स्व. ९ बी °द अस्मा. १० सी वशिष्ठे'. ११ सी ति अद्याप्य. १२ सी शस्ये दे'. १३ ए बी सवीणु . १४ ए यैविणु. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] देशे भवा ये मुनिनरादयस्तद्युक्तैर्माध्यममध्यमीयैः पृथिवीमध्यं निवास एषां माध्यमाश्चरणाः पृथिवीमध्ये जाता भवा वा मध्यमीया नरा द्वन्द्वे तैरध्यासितः ॥ यौष्माकवंशे नु शरण्य आस्माकीनादिमानामिह किंपुरुष्यः । अयुष्मदीया अपि तावकीना इवाभिगायन्ति यशस्त्वदीयम् ॥३६॥ ३६. इहार्बुदे वर्तमानाः किंपुरुष्यः किंनर्योयुष्मदीया अप्यन्यदीया अपि तावकीना इव त्वदीयं यशोभिगायन्ति । कीदृशीह । आस्माकीनादिमानामस्माकमादिमानामादौ भवानां पूर्वजानां शरण्ये महादुर्गत्वाद्रक्षाहेती यौष्माकवंशे नु यथा युष्माकं वंशश्चौलुक्यान्वयोस्मत्पूर्वजानां सदा स्वामित्वेन शरण्यः ॥ न मामकीना न च तावका ये द्वैप्याः किलामामकवादिनस्ते । आख्यन्नमुं सोदरमीश्वरस्यााया मदीयोचितभक्तितुष्टाः ॥३७॥ ३७. ये द्रुप्या द्वीपे समुद्रसमीपस्थदेशे भवा मुनयो न मामकीना न च तावका (काः) सन्ति । यतः । किलेति सत्ये। अमामकवादिनो ममेदं मामकं न तथामामकं तद्वदनशीला निर्ममत्वा इत्यर्थः । ते मुनयोमुमबुंदाद्रिमीश्वरस्य शंभोराया अर्धे शरीरार्धभागे भवाया गौर्याः सोदरं भ्रातरमाख्यन्नर्थान्ममाने । अर्बुदो हि हिमाद्रेः पुत्र १ बी रुषाः । अं. २ बी रस्या . ३ ए टाः ॥ द्वी'. १ सी वा म. २ ए °रुषाः किनार्यायु. ३ बी किंनायों. ४ बी दशाह । अस्मा . ५ सी शी । आ. ६ ए नामादौ. ७ बी नादौ. ८ ए 'तौ युष्मा. ९ बी सी वकीनाः स. १० बी गौर्यायाः सो'. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.७०.] षोडशः सर्गः। २८७ इति रूढिः । ननु ते यदि निर्ममत्वेन न तावकास्तत्कथं तवाग्र इदमाख्यनित्याह । यतो मदीयोचितभक्तितुष्टाः ॥ मध्यमीयैः । अत्र "पृथिवी." [६५ ] इत्यादिना-ईयो मध्यमादेशश्च ।। माध्यम । इत्यत्र "निवासाचरणेण्" [ ६५ ] इत्यण् ॥ वैणुकीयैः । औत्तरीयः । अत्र "वेणुक०" [१६] इत्यादिना-ईयण् ॥ यौष्माक । यौप्माकीणे । आमाक । आस्माकीन । इत्यत्र "वा युष्मद्" [६७ ] इत्यादिना वाजीनौ युष्माकास्माकादेशौ च । पक्षे त्यदादित्वेन दुसज्ञकत्वादीयः । युष्मदीयाः । अस्मदीयः । एकत्वे तु तवकममको । तावकाः । तावकीनाः । मामक । मामकीनाः ॥ पक्षे । त्वदीयम् । मदीय ॥ द्वैप्याः । अत्र “द्वीपाद्०" [ ६८ ] इत्यादिना ण्यः ॥ अर्ध्यायाः । इत्यत्र “अर्धाद्यः" [ ६९] इति यः ॥ पूर्वा_सानावतिपौष्कराधिकाद्रौ से पौर्वाधिक आश्रमोस्ति । अस्मिन्वसिष्ठस्य मदीयराष्ट्रपावार्धपौर्वाधिकलोकवन्द्यः ॥ ३८ ॥ ३८. अस्मिन्नर्बुदे स महाप्रभावत्वादिना प्रसिद्धो वसिष्ठस्यर्षेराश्रमोस्ति । एतेनास्य महातीर्थत्वोक्तिः । कीदृक् । मदीयराष्ट्रस्याष्टादशशतेत्याख्यया प्रसिद्धस्यार्बुदेति मौलाभिधानस्य मदीयदेशस्य पश्चार्धे पूर्वार्धे च भवो यो लोकस्तेन वन्द्यस्तथा पौर्वाधिकोद्रिपूर्वार्धे भवः । किंभूतेस्मिन् । पूर्वार्ध्यसानावद्रेः पूर्वार्धे भवाः सानवः प्रस्था १ए स पूर्वाधिक. २ सी वशिष्ठ'. ३ ए पौवार्षि'. १ ए सी माकी'. २ बी ण । अस्मा'. ३ ए नानी'. ४ ए 'नाः । प०. ५ बी सी याः। अत्र. ६ सी वशिष्ठ. ७ एशते. ८ बी - ईभ'. ९ बीर्वाद्रिभ. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] यत्र तस्मिंस्तथा पुष्करार्धे पुष्करद्वीपार्धे भवः पौष्करार्धिको योद्रिर्मानुषोत्तरस्तमुच्चैस्त्वेनातिक्रान्ते ॥ पौष्करार्धिक । अत्र "सपूर्वादिक‍" [ ७० ] इतीकण् ॥ 1 पूर्वार्ध्य । पौर्वार्धिकः । अत्र “दिक्पूर्वात्तौ ” [ ७१ ] इति येकणौ ॥ राष्ट्रपाश्चार्धे । पौर्वार्धिक । इत्यत्र " ग्राम० " [ ७२ ] इत्यादिनाणिकणौ ॥ परार्ध्यरत्नांशुभिरुत्तमार्ध्यावरार्ध्यवस्त्रे इव धत्त एषः । लक्ष्म्याधमार्घ्यंकृतशैलजा तोन्तमस्तनूजोनवमो हिमाद्रेः ३९ ३९. एषोर्बुदः परार्थ्यरैनांशुभिः परे प्रकृष्टेर्धे भवानि परार्ध्यानि जात्यानि यानि रत्नानि तेषामंशुभिः कृत्वोत्तमर्ध्यावरार्ध्यवस्त्रे इवोतरीयाधोवसने इव धत्ते । यतो लक्ष्म्या लक्ष्मीदेवतया कृत्वाधमा कृतमधमार्धे भवं कृतमधः कृतं शैलजातं गिरिवृन्दं येन सः । तथा हिमाद्रेर्हिमवतोवोधरस्मिन्देशे भवोवमो न तथानवमः प्रकृष्टोतमश्वरमस्तनूजः । यो हि लक्ष्म्या श्रिया कृत्वा सर्वोत्कृष्टो महतः प्रकृष्टपुत्रेश्च स्यात्स परार्ध्यरत्नांशुभिरुपलक्षिते उत्तमार्ध्यावरीर्ध्यवस्त्रे धत्त इत्युक्तिलेशः ॥ I परार्ध्य । अवरार्ध्य । अधमाकृत । उत्तमार्ध्य । इत्यत्र "परावरο" [ ०३ ] इत्यादिना यः ॥ अन्तमः । अनवमः । अधम । इत्यत्र “अमोन्त ०" [ ७४ ] इत्यादिनामः ॥ ४ बी १ ए °धिकः । अत्र पू. २ ए कि । अ ३ एरलंनुभि:, 'हेर्द्धभ'. ५ बी 'तमर्ध्या'. ६ ए 'मार्थ्य'. ७ बी 'बत्तोबोध'. ८ ए 'न्तश्च ९ए 'दृश्व. १० सी त्रस्या ११ सी लक्ष्यते. १२ बी 'राध्यें व '. १३ सी अतमः . १४ सी वम । म · Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.६.३.७७.] षोडशः सर्गः। २८९ अनन्तिमा तीर्थतयाग्रिमाणामपश्चिमं वोरिनिधेः कलत्रम् । पुनाति पुण्या सरिदादिमा सामन्दाकिनी मध्यमभागमस्य ॥४०॥ ४०. सा प्रसिद्धा मन्दाकिनी गङ्गास्यार्बुदस्य मध्यमभागं पुनाति । की दृक् । पुण्या पावित्र्यहेतुरत एव तीर्थतयाग्रिमाणामपि । अपिरत्राध्याहार्यः । मुख्यानामप्यनन्तिमा मुख्या महातीर्थमित्यर्थः । तथा सरिदादिमा नदीपु मुख्यात एव वारिनिधेरपश्चिममाद्यं कलत्रम् ॥ अपश्चिमम् । आदिमा । अनन्तिमा । अग्रिमाणाम् । अत्र "पैश्चाद्." [७५] इत्यादिना-इमः ॥ मध्यम । इत्यत्र "मध्यान्मः" [ ७६ ] इति मः ॥ मध्योपि चाध्यात्मिकपारलौकिकार्थाविदप्यत्र समागमेन । 'स्थाजन्तुराकस्मिक एव सामानंदेशिको वार्षिकमेघकर्तुः ॥४१॥ ४१. अत्राबुदे समागमेनात्मसाधनार्थमागमनेन कृत्वा जन्तुः स्यात् । किंभूत इत्याह । आकस्मिक एवाकस्माद्भवस्तथाविधधर्मानुष्ठानाभावेनासंभाविततथाविधपदत्वादतर्कितोपनतो. वार्षिकमेघकर्तुरिन्द्रस्य सामानदेशिकः समानर्द्धिकत्वेनेन्द्रसमाने देशे प्रदेशे भव इन्द्रसामानिको देव इत्यर्थः । किंभूतोपि । मध्योपि नात्युत्कृष्टो नाप्यपकृष्टो मध्यपरिणामोपि विशिष्टशुभपरिणामरहितोपीत्यर्थः । तथाध्यात्ममात्मनि भव आध्यात्मिकः परलोकस्यायं हितत्वेन यद्वा परलोके १ए °रिधे:. २ सी नी वारिनिधेः कलत्रम् । सा. ३ सी देशको. १ ए धंया . २ बी रिधे'. ३ एम् । प. ४ बी सी पश्चिमाद्. ५ ए °नात्ससा. ६ सी त्मपावना. ७ ए ह । क. ८ सी तस्तथा'. ९ ए बी °स्य समा. १० सी मान्यदेशकः. ११बी नात्कृ'. १२ ए °णामर. १३ बी सी लोकसु. १3 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ] परलोकसुखक्रियायां कुशलः पारलौकिक आध्यात्मिको यः पारलौकिकः स योर्थो धर्मलक्षणस्तस्याविदन्यज्ञातापि निर्धर्मोपि चेत्यर्थः । एतेनास्य महातीर्थत्वोक्तिः ॥ २९० देच्त्वा द्विजैर्वैहिपलालिकर्णमनैशिकीभूय विधीयते द्राक् । ऐन्द्रो महो मासिके आर्धमासिको वात्र धौतेपरवार्षिकाः ४२ ४२. अपरवार्षिका भ्रैरपरस्यां वर्षायां शरदि भवानि यान्यभ्राणि मेघास्तैधते प्रक्षालिते शरदीत्यर्थः । अत्रार्बुदे द्विजैरैन्द्रो महो विधीयते । कीदृग् । मासिक आर्धमासिको वा मासेर्धमासे वा भवः । किं कृत्वा । हिपलालि कर्णं त्रीहिपलालसहचरितः कालो व्रीहिपलालं शरत् तत्र देयमृणं द्राग् दत्त्वा । तथा निशा सहचरितमध्ययनं निशा तत्र जयी साभ्यासो नैशिको न तथानैशि कश्वावनै (श्चानै ?) शि= कीभूय निशाध्ययनाभ्यासं मुक्त्वेत्यर्थः । सुस्थी भूयै काप्रीभूयं च मासमर्धमासं वा यावद्विजैराश्विनमीसेवेन्द्रमहः क्रियेत इत्यर्थः । एतेनात्र गिरावन्यदेशेभ्यो विशिष्ट इन्द्रमहो भवतीत्युक्तंम् । यतोन्यदेशेष्वष्टावेव दिनानीन्द्रमहः स्यात् । एवं चात्र धान्य संपत्त्युत्कर्षो लोकानामतिप्रक्रीडितत्वप्रमुदितत्वे च सूचितानि । द्विजैरित्युपलक्षणत्वात्क्षत्रियादीनामपि ग्रहणं तेपि हीन्द्रमहं कुर्वन्ति ॥ १४ १ ए दर्शाद्विजौ व्रीहिपलोलि.. २ बी "क अर्ध'. १ एकिकः स. २ सी 'स्तथावि. ३ ए बी 'स्तैधौते. ४ ए बी जैरेन्द्रो. ५ बी वा । व्रीहि. ६ ए कर्ण व्री. ७ बीच का ८ ए पलोलं. ९एको त, १० ए मा ११ए 'मासोत्रे १२ ए 'यवेत्य'. १३ ए " फ्त्सु कत्युत्क १४ ए द्विजैत्यु. सी द्विनेत्यु . · Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.३.८२. ] षोडशः सर्गः । मध्यः । अत्र "मध्ये ०" [ ७७ ] इत्यादिना -अः ॥ आध्यात्मिक । आकस्मिकः । अत्र “अध्यात्मादिभ्य ईकण्” [ ७८ ] इतीकं ॥ 1 सामान देशिकः । पारलौकिक । इत्यत्र “समान० " [ ७९] इत्यादिना - इकण् ॥ वार्षिक । ऋतोप्रत्ययस्तदद्वय वादेऋ (ऋ) ध्वन्तदपि भवत्यभिधानात् ॥ अपरवार्षिक | कालवाचि । मासिकः । आर्धमासिकः । अत्र " वर्षा० " [20] इत्यादिनेकन् ॥ बहुवचनं यथाकथंचित्कालवृत्तिभ्यः प्रत्ययप्रापणार्थम् । अनैशिकी भूये । हिपलालिकर्णम् ॥ 1 २९१ श्राद्धक्रिया शारदिकीह मन्दाकिन्यामविघ्नं क्रियते जनेन । यच्छारदाँ शारदिकेतरौ वा रोगातपो नौषधिवृक्ष योगात् ॥ ४३ ॥ १४ 1 ४३. इहार्बुदे मन्दाकिन्यां जनेन शारदिकी श्राद्धपक्षे भवा श्राद्धक्रिया पिण्डप्रदानादिकाविन्नं निरुपद्रवं क्रियते । यद्यस्मादिहौषधिवृक्ष योगाच्छारौ शरत्काले भव शारदिकेतरौ वान्यर्तुषु भवौ वा रोगातपौ न स्त ओषधियोगाद्रोगो नास्ति वृक्षयोगाच्चातपो नास्ति ॥ शारदिकी श्राद्ध क्रिया । इत्यत्र “शरदः ० " [ ८१ ] इत्यादिनेकण् ॥ शारदिकै शारदौ । इत्यत्र "न वा रोगातपे" [ ८२ ] इति वेकण् ॥ १ 'वा' इत आरभ्य 'केतरौ' इत्यन्तं बी पुस्तके द्विरुक्तम् । १ एत्मिकः । अध्या° २ सी इती. ३ सी ण् । समा° ४ ए बी 'शिक । ५ बी लौक. ६ बी 'न्तावद'. ८ बी सिक । १ ए सी कः । अर्थ'. व्रीहि :: सी 'न्यां मत्रिज. सीकर श आ. ७ ए 'पिंक | का’. १० बी सी सिक । अ १३ ए बी यस्मा'. १४ बी ११ सी य । पधेवृ. १५ ए Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ व्याश्रयमहाकाव्ये प्रादोषिकेत्रानुदितेपि चन्द्रे नैश्यस्त्विषो नैशिकमौ (मो.) पधीनाम् । प्रादोषदीपन्ति तमो हरन्त्येः शौवस्तिकाश्वस्त्यविदाश्रमेषु ॥ ४४ ॥ ४४. अत्रार्बुदे प्रादोषिके रजनीमुखभवे चन्द्रेनुदितेपि नश्यो रात्रौ भवा ओषधीनां त्विषैः प्रादोपदीपन्ति प्रदोषभवदीपवदाचरन्ति । केषु । शौवस्तिकं श्वोभवं भविष्यदश्वस्त्यं च वर्तमानमतीतं च विदन्ति ये तेषां ज्ञानवन्मुनीनामाश्रमेषु । किंभूताः सत्यः । नैशिकं तमो रन्त्यः । एतेनास्य महाप्रभावौषधित्रिकार्लेविन्मुनिनिलयतोता ॥ नैशिकम् नैश्यः । प्रादोषिके । प्रादोष । इत्यत्र " निशा०" [ ८३] इत्यादिनेकण्वा ॥ शौवस्तिक । इत्यत्र “श्वसस्तादिः " [८४ ] इतीकण्वा स च तादिः ॥ पक्षै । “ऐषमोह्यःश्वसो वा " [ ६. ३. १९ ] इति त्यच् । श्व॑स्त्य ॥ भान्तश्चिरत्नेषु चिरंतनन्तस्तथा परुलेषु परुत्तनन्तः । सिद्धाः परानन्त इतः परारितनेषु खेलन्ति विचित्ररूपाः ॥ ४५ ॥ [ कुमारपालः ] ४५. इतोस्मिन्नर्बुदे सिद्धा विद्यासिद्धाः । खेलन्ति बालिका - चितक्रीडाभिः क्रीडन्ति । किंभूताः सन्तः । चिरनेषु चिरकालभवेषु वृद्धेषु मध्ये चिरंतनन्तो विद्याबलेन वृद्धवदाचरन्तस्तथा परु १ बी नैशास्त्वि'. १ए दे दो. २ बी सी वा औष ५ ए बी 'लवन्मु . ६ बी 'स्तादेरिति क श्वस्त्यः । भा॰. ९ सी बालका". २ ए ंन्त्यः शाव ं: : ३ एषः प्रदो'. ७ बी 'क्षे । एष'. १० एद्धयदाचरंस्त'. ४ ए हहर'. ८ ए सी Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.३.८७.] षोडशः सर्गः। २९३ नेपु पूर्वस्मिन्संवत्सरे भवेषु बालेषु परुत्तैनन्तस्तथा परारितनेषु परतरे संवत्सरे भवेषु तरुणेषु परानन्तोत एव विचित्ररूपा अत एव चै भान्तः ॥ हालाः परारितनचूतमध्ये पिबन्परारित्नपरुन्तनीस्ताः । वंश्यान्पुराणांस्तव चारणौधो गायत्यमुष्मिनपुरातनान्नु ॥४६ ॥ ४६. अमुष्मिन्नर्बुदे चारणौघस्तव पुराणांश्चिरकालीनान्वंश्यान्पूर्वजानपुरातनान्चधुनातनानिव गायति । तथा गायति यथेदानींतना इव ते भवन्तीत्यर्थः । कीडक्सन् । हालाः सुराः पिबन् । एतेन शब्दपाटवोक्तिः । क । परारिंतनचूतमध्ये तरुणाम्रतरुवनमध्ये । एतेन हालानामाम्रमञ्जरीपातेनातिसौरभोक्तिः शैत्योक्तिश्च । कीदृशी। परारित्नपरुन्तनीः पुराणाः पुराणतराश्च । एतेन परिपूर्णत्वोक्तिः । अत एव ताः सुखादुत्वादिगुणैः प्रसिद्धाः ॥ चिरत्नेषु चिरंतनन्तः । परुलेषु परुत्तनन्तः । परारित्न परारितनेषु । अत्र "चिर०" [८५] इत्यादिना वा नः ॥ परारेस्त्रे रिलोप इत्येके । परानन्तः ॥ केचित्तु परुत्परार्योस्त व्यन्त्यस्वरात्परं म्वागममिच्छन्ति । परुन्तनीः । परारितन ॥ पुराणान् पुरातनान् । इत्यत्र "पुरो नः" [ ८६ ] इति वा नः ॥ अर्यम्णि पौर्वाह्निक आपराह्निके चोचवृक्षैः स्थगिते मुनीन्द्राः । विदन्ति पूर्वाह्नतेनीमथापरालेतैनी नाडिकयेह संध्याम् ॥४७॥ १ बी सी राणास्त'. २ बी सी तनी तथा'. ३ ए सी तनी ना. १ए रेषु भ'. २ ए त्तनस्त'. ३ ए च च भा'. ४ बी सी जान्पुरा' ५ बी नि गा. ६ बी ति च गायति । त'. ७ सी रुव'. ८ वी सीनत्यन्त्य. ९ ए बी परन्त. १० बी नः । आर्य'. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ४७. स्पष्टः । किं तु मुनीन्द्रा योगीशाः । पूर्वाह्न (?)तनी प्राभातिकीम् । अपराह्तनी प्रादोषिकीम् । नाडिकयोच्छ्वासेने निश्वासेन च कृत्वा विदन्ति । इंडापिङ्गलाद्या नाड्यो नासिकोच्छासनिश्वासरूपास्तासां हि सम्यग्ज्ञाने कालज्ञानं स्यात् ॥ पूर्वाह्नतनीम् । अपरीह्नेतनीम् । अत्र "पूर्वाह्न" [८७ ] इत्यादिना वा सनद ॥ पक्षे । पौर्वाह्निके । अ(आ)पराह्निके । अत्र "वर्षाकालेभ्यः'' [६.३.८०] इतीकण् । प्राड्तनैरेव चिरंतनस्य पूजा प्रगेतन्यचलेश्वरस्य । दोषातनी च क्रियतेत्र सायंतनैर्विनि।विविधप्रसूनैः ॥४८॥ ४८. अत्रार्बुदे चिरंतनस्य चिरकालीनस्याचलेश्वेराख्यशम्भोः प्रगेतनी प्राभातिकी पूजा विविधप्रसूनैः कृत्वा क्रियते । किंभूतैः । प्राहेतनैरेव प्राभातिकैरेवे प्रभात एवोञ्चितैरित्यर्थः । अत एव विनिद्रैविकस्वरैः । तथा दोषातनी च सौंध्या च पूजा सायंतनैरेव विनिद्रैः कुसुमैः क्रियते ॥ सायंतनैः । चिरंतनस्य । प्राहृतनैः । प्रगतनी ॥ अव्यय । दोषातनी। अत्र "सायं." [40] इत्यादिना तनट् ॥ पदं नृणां शाश्वतमिच्छतां तत्सांध्यप्रभाभं विदतां शरीरम् । ग्रैष्माहवद्वृद्धतरोपि पोपो नूपक्रमः सिध्यति शीघ्रमत्र ॥४९॥ ४९. प्रैष्मावद् ग्रीष्मे भवं प्रैष्मं यदहर्दिनं तदिव वृद्धतरोपि बहुकाले फलदत्वेन महत्तरोप्युपक्रमः परमपदप्राप्तिविषयस्तीव्रतपश्चर १ बी दशतां. २ बी पौषा नू. सी पौषस्तपःक्र. ३ एत्र । ग्रीष्मा'. १बी यो उच्छा. २ सी °न च, ३ बी न निश्वासेन च कृ. ४ बी इलापि'. ५ बी लायोना. ६ सी नासि. ७बी नाशिको'. ८ सी निः. स्वास. ९बी वालेत. १०बी रात'. ११ सी श्वरस्य श. १२ ए व प्रामा'. १३ ए सांध्यी च. १४ सी वस्तप. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.३.९०. ] षोडशः सर्गः । २९५ णादिधर्मानुष्ठानोद्यमोत्रार्बुदे नृणां शीघ्रं सिध्यति फलति । उत्प्रेक्ष्यते । पौषो नु पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्ते काले भव इव । पौपो हि कार्यारम्भो वृद्धतरोपि शीघ्रं सिध्यति । पुष्यस्य कार्यसिद्ध टिष्ठत्वात् । कीदृशां सतां नृणाम् । शरीरं सांध्यप्रभाभं संध्यारागवदस्थिरं विदैतां जानताम् । एतेन भववैराग्योक्तिः । अत एव तच्छाश्वतं पदं मोक्षमिच्छताम् । योन्यत्र बहुकालेन फलति स मुक्त्युपायोत्र सिंद्धक्षेत्रे मुमुक्षुभिरारख्धः क्षिप्रं फलतीत्यर्थः ॥ पौषः ॥ ऋतु । प्रैष्म ॥ संध्यादि । सांध्य । शाश्वतम् । अत्र " भर्तुο" [ ८९ ] इत्यादिना ॥ सांवत्सराचफलवाञ्छयेह सांवत्सरे पर्वणि नाभिसूनोः । हैमन्तिकोषागुरुभक्तयः के नायान्ति हैमन्तदिनाल्पिताघाः ॥ ५० ॥ १० ५०. इहार्बुदे नाभिसूनोः श्री ( श्रि ? ) ऋषभनाथस्य सांवत्सरे संवत्सरे भवे पर्वणि चैत्रकृष्णाष्टम्यां जन्मोत्सवे के लोका नायान्ति । कया । सांवत्सराचफलवाञ्छया सांवत्सरं संवत्सरे भवं सकैलसंवत्सरेणोपार्ज्यमतिगुर्वित्यर्थः । यदर्चायाः फलं स्वर्गादिप्राप्तिस्तस्येच्छया । किंभूताः सन्तः । हैमन्तिकी हेमन्ते भवा योषा रात्रिस्तद्वगुर्वी महती भक्तिर्येषां ते तथात एव हैमन्त दिनवदल्पितं लघूकृत मघं पापं यैस्ते । एतेनात्र श्रीनाभेयभवनं महातीर्थमस्तीत्युक्तम् ॥ 93 १ एत्प्रेक्षते. २ बी पौषा नु. सी पौषः पु°. ३ ए बी पौषा हि. ४ ए वृद्धोत .. ५ बी पदिष्ठ'. ६ सी 'दन्तां जां ७ बीता । ए. ८ सी "च्छन्ताम्. ९बी सिद्धि क्षे. १० एसी रेभ. यदाचार्याः फ. १३ ए सी यैस्तै । ए. ११ सी कलं सं. १२ ए Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याज २९६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] वान्प्रादृषेण्यो न्वय हैमनो नु वातोत्र सिंहाजिनरोमकम्पी । सैंहाजिनं प्रावरणं वसानैः सेव्यो रतान्ते शबराङ्गनौधैः ॥५१॥ ५१. अत्रार्बुदे सैंहाजिनं सिंहचर्मण इदं प्रावरणं वस्त्रं वसानैः परिदधानः शबराङ्गनौधै रतान्ते वातो वान् सेव्यते यतः प्रावृषेण्यो न्वथ हैमनो नु गिरेरस्य जलबहुलत्वेन तरुच्छायाबहुलत्वेन च वायोः सदा शीतत्वाज्ज्ञायते प्रावृषि भव इव हेमन्ते भव इव वा । तथा सिंहाजिनरोमकम्पी सिंहाजिने भवानि रोमाणि कम्पयति । एतेन मार्दवोक्तिः ।। न माथुरौत्सं धनपुण्यमश्वत्थामा इहादुष्करदुर्लभार्थे । सुसंभवादुष्क्रयपुण्यकेश्वत्थानोपरे वा ऋषयः सरन्ति ॥ ५२ ॥ ५२. इहार्बुदे वर्तमाना अश्वत्थामा अश्वत्थाम्नो द्रोणाचार्यपुत्रस्य महर्षेः संबन्धिन ऋषयोश्वत्थानोश्वत्थामसंबन्धिन ऋषिसमूहादपरे वा ऋषयो द्विजा न स्मरन्ति । किमित्याह । मथुरायां यागकरणादिना कृतं प्रतिग्रहादिना लब्धं वा माथुरं तथोत्सदेशे तीर्थस्नानपिण्डप्रदानादिरूपमूल्येन क्रीतं रोगाग्रुपद्रवाभावेन संभूतं वौत्सं द्वन्द्वे माथुरौत्सं धनपुण्यं धनं मुनिप्रायोग्यं धन्यगवादि पुण्यं तीर्थस्नानपिण्डप्रदानाद्यद्भवो धर्मो द्वन्द्वे तन्माथुर धनमौत्सं पुण्यं चेत्यर्थः । यतः । कीदृशीह । दुष्करश्चासौ दुर्लभश्च दुष्करदुर्लभो न तथादुष्करदुर्लभोर्चा द्रव्यं यंत्र तस्मिन्ननेकवस्तूनामाकरत्वाददुष्करद्रव्ये वास्तव्येश्व १ए णो न्व. २ एगनोधैः. १सी न वा. २ ए सी वाजाय'. ३ ए सी व वा. ४ ए म्पयिता । ए'. ५ सी यता । एक. ६ सी त्यानो अ. ७ सी स्वर्षे:. ८बी गकार. ९ सीना वा ल'. १० सी धान्यं ग. ११५ थुरध. १२ बी यत् त. १३ बी 'माकारत्वादु'. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.९०.] . षोडशः सर्गः । २९७ रोदारलोकत्वाच्चादुर्लभद्रव्ये चेत्यर्थः । तथा सुसंभवं रोगाद्युपद्रवाभावेन धर्मोपष्टम्भकदानसद्भावेन च सुघटमदुष्क्रयं चानेकपुण्यक्षेत्राद्याधारत्वेन सुखक्रेतव्यं पुण्यं धर्मो यत्र तस्मिन् । इदमुक्तं स्यात् । किलान्यदेशेभ्यो मथुरायां स्वभावेन लोकस्य धार्मिकत्वादीश्वरोदारत्वाञ्च प्रभूर्तयागादिप्रवृत्तिदानप्रवृत्तिभ्यां द्विजा बहु धनमुपार्जयन्ति लभन्ते च। उत्सदेशे चान्यदेशेभ्योतिपुण्यक्षेत्रात्मके द्विजानां प्रभूतस्य पुण्यस्य तीर्थवन्दनादिना क्रयः संभवश्च स्यात् । ताभ्यामपि सकाशादत्र गिरौ बहुतैमयागप्रवृत्तिदानप्रवृत्त्यादिनानेकपुण्यक्षेत्रदर्शनादिना चातिप्रभूतधनोपार्जनालाभाभ्यां प्रभूतपुण्यक्रयसंभवाभ्यां च मथुरायामुपार्जितं लब्धं च धनमुत्से च क्रीतं संभूतं चे पुण्यं न स्मरन्ति । शंसन्ति नादेयमिवाशुनादेया राष्ट्रियं राष्ट्रियवच सम्यक् । ता रत्नखानीः पथकाः किराता इहाश्मकाकर्षकशिल्पिकानाम् ॥५३॥ ५३. इहार्बुदे पथकाः पथि कुशलाः किराता अश्मकाकर्षकशिल्पिकानामश्मनि पाषाणकर्मण्याकर्षे रमणे शिल्पे कलाविज्ञाने च कुशलानां सूत्रधारद्यूतकारचित्रकारादीनां पुरतस्ताः प्रसिद्धी रत्नखानीर्जातौ जातौ यान्युत्कृष्टानि तानि रत्नानि तेषां खानीराकरॉन्सम्यगवितथमाशु प्रशंसन्ति । अश्मकानां पुर उत्कृष्टी अश्मखानीयू( )तव्यसने १ सी चा xxx प्रभूतया . २ ए धर्माप. ३ ए 'न लोकस्य. ४ बी 'तयोगा'. ५ सी 'हुधा ध. ६ सी त्रास्तिके. ७ बी तमाया'. ८ ए तं पु. ९ सी च न. १० बी करा. ११ सी °रः स्थाप्र. १२ ए सि. रत्नाखानीपथकाः किराता इहामकाकर्षकशिल्पिकानोर्जा. १३ ए रासम्य'. १४ बी सी धाश्म १५५ 'नीर्जायु. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ व्याश्रयमहाकाव्य [कुमारपालः] नात्यन्तमृणात्वाद्रनाद्यर्थं परिभ्राम्यतामाकर्षकाणां च पुर उत्कृष्टरत्नखानीः शिल्पिकानां च पुर उत्कृष्टधातुखानीरत्रत्या वर्णयन्तीत्यर्थः । यथा नादेया नद्या नदीतरणे कुशला नाविका नादेयं लोकस्य निस्तारणादिना नद्यां कृतं लब्धं क्रीतं संभूतं वा धनं प्रशंसन्ति । यथा वा रा ष्ट्रिया राष्ट्ररक्षणादौ कुशेला भूपादयो रौष्ट्रियं राष्ट्र लोकपालनादिना कृतं लब्धं क्रीतं संभूतं वा द्रव्यं प्रशंसन्ति । सांवत्सरार्चाफल । सांवत्सरे पर्वणि । इत्यत्र "संवत्सरात्" [९०] इ. त्यादिनाण् ॥ हैमनः । हैमन्तैः(न्त)। हैमन्तिक । अत्र "हेमन्ताद्वा तलुक् च" [ ९२ ] इति वाण तत्संनियोगे तलुक् च वा ॥ प्रावृषेण्यः । अत्र "प्रावृष एण्यः" [ ९२ ] इत्येण्यः ॥ अश्वत्थाम्नः । अत्र “अः स्थाम्नः” [ ६.१.२२ ] इत्यप्रत्ययस्य सिंहॉजिन । इत्यत्राणश्च "स्थाम०" [९३ ] इत्यादिना लुब्वा । पक्षे । अश्वामाः ॥ सैंहाजिनम् ॥ माथुरौत्सम् । नादेयम् । राष्ट्रियम् । अत्र "तत्र कृत." [९४] इत्यादिना यथायोगमैणादय एयणादयश्च ॥ नादेयाः । राष्ट्रियवत् । इत्यत्र "कुशले" [९५] इति यथाविहितं प्रत्ययाः ॥ पथकाः । अत्र "पथोकः" [ ९६ ] इत्यकः ॥ अश्मकाकर्षक । इत्यत्र "कोश्मादेः" [ ९७ ] इति कः ॥ - -- १ ए°द्ररत्ना. २ बी म्यतमा . ३ बी खानी शि. ४ ए त्कृष्टं धा'. ५ ए यतीत्य. ६ ए नद्या न. ७सी द्यां त'. ८ बी यां क्रीतं. ९ ए शलभू. १० ए राष्ट्रेयं. ११ ए पालादि. १२ ए न्तः । हेमन्तिकः । . १३ बी योगोत'. १४ ए हाजन. १५ ए लुक् च वा । प. १६ बी 'त्यामा । सैं'. १७ ए मण्याद'. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.१०१.] षोडशः सर्गः । २९९ कालेयवत्स्रौमवधूषु शारदकेष्विव प्रावृषिकाब्दवृष्टिः । ससिन्धुकापात्करिकापकर्या च सैन्धवीहाप्सरसो विभान्ति ॥५४॥ ५४. इहार्बुदेप्सरसो विभान्ति स्वर्गेपि दुर्लभैस्तैस्तैः शाद्वलवनखण्डादिरम्यैः क्रीडास्थानविशेषैविशेषितत्वाच्छोभन्ते । काः कास्तत्राह । ससिन्धुका सिन्धौ जाता सिन्धुका नाम देवी तया युक्तापात्करिकापकरे कचवरे जाताकरिकाख्या देवी तथापकर्यैवंनाच्या देव्या सह सैन्धवी चैवं नानी देवी चेति । यथा स्रौत्रवधूषु सुन्नदेशजातामु स्त्रीषु कलौ जातं कालेयं कुकमं वधूरूपादिविशेषेण विशेषितत्वाद्भाति यथा वा शारदकेषु शरदि जातेषु मुद्गविशेषेषु दर्भेषु वा प्रावृषिकाब्द. वृष्टिर्वर्षाकालजातमेघवृष्टिः फलाापचयविशेषेण विशेषितत्वाद्भाति । एतेनैवं नामायं शैलो रम्यो येनात्र देव्योपि क्रीडन्तीत्युक्तम् । सिन्धुकादीनां देवीनां मिलितानां बहुत्वादप्सरस इत्यत्र बहुवचनम् । यद्वैकस्मिन्नप्यर्थे वांच्येप्सरशब्दः स्वभावेन बहुवचनान्त इति बहुवचनम् ॥ सौन्न । कालेय । इत्यत्र “जाते" [ ९८ ] इति यथाविहितं प्रत्ययाः ॥ प्रावृषिक । इत्यत्र “प्रावृष इंकः" [ ९९] इतीकः ॥ शारंदकेषु । इत्यत्र "नानि." [१०० ] इत्यादिनाकञ् ॥ सिन्धुका । सैन्धवी । अपकरिका । अपैकर्या । इत्यत्र “सिन्धु०" [११] इत्यादिना कोण्च ॥ १ए 'ब्दधृष्टिः. २ए पवार्या. १ बी सी भैः शाडल. २ ए बी °न्ते । का का तत्रा'. ३ ए तत्रायु'. ४ बी पकारि', ५ सी देशेषु मुद्ग. ६ सी षु या प्रा. ७ ए 'न व. ८ सी इती. ९सी दिके. १० बी सी पकार्या. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] पूर्वाह्नकोस्सिन्नपरालकैन प्रदोषकोवस्करकाकाभ्याम् । यक्षरमावास्यकपन्थकामावास्यैः सुरः खेलति मूलकश्च ॥ ५५ ॥ . ५५. स्पष्टः । किं तु पूर्वाह्नकादीनि नामानि । पूर्वाह्ने जात इत्यादिनिरुक्तिः कार्या ॥ पूर्वाह्नकः । अपराह्नकेन । आईकाभ्याम् । मूलकः । प्रदोषकः। अवस्करक । इत्यत्र “पूर्वाह्न." [ १०२] इत्यादिनाकः ॥ पन्थक । इत्यत्र “पथः पन्थ च" [ १०३ ] इत्यकैः पन्थादेशश्च ॥ अमावास्यैः। अमावास्यक । इत्यत्र "अश्व०" [ १०४ ] इत्यादिना-अ-अकौ वा । पसे । भ(आ)मावास्यैः ॥ आषाढ्यषाढं बहुलं श्रविष्ठाषाढीयमन्तस्तरु फल्गुनी च । श्राविष्ठयनूराधमिहामरी श्राविष्ठीय ऋच्छत्यथ फाल्गुनं च ॥५६॥ ५६. इहार्बुदेषाढाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालोषाढास्तासु जाताषाढी नामामरी देव्यषाढमषाढासु जातं देवमन्तस्तर वृक्षखण्डमध्य ऋच्छति क्रीडायै गच्छति । तथा श्रविष्ठा धनिष्ठासु जातामरी बहुलं कृत्तिकासु जातं देवमृच्छति । तथा फल्गुनी च फल्गुन्योर्जाता चामर्याषाढीयं देवमृच्छति । श्राविष्ठी चानूराधमृच्छति । अथ तथा श्राविष्ठीया फाल्गुनं चर्च्छति ॥ १ए विष्ठी'. १बी स्पष्टम् । किं. २ ए दीना ना. ३ सी दिनिरु. ४ सी पन्था'. ५ ए कः पन्थः ५. ६ बी पथादें. ७ बी र्युक्तका. ८सी लोप्यषा'. ९बी देन्याषाढमाषाला. १०बी षण्ड'. ११ सीस. . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.१०५.] षोडशः सर्गः। ३०१ पुष्योत्र स खातिविशाखहस्ताः सैरैवतौ तिष्यपुनर्वम् च । सरौहिणौ रेवतरोहिणौ च चित्रः सचैत्रः खचरा रमन्ते ५७ ५७. स्पष्टम् । किं तु स प्रसिद्धः पुष्यः । पुष्यादीनि नामानि ॥ चित्रा च रेवत्यथ रोहिणी च माघाश्विनौ कृत्तिककार्तिकौ च । गोस्थानगोशालकवत्सशाला नृपा असिध्यन्खरशालयुक्ताः॥५८॥ ५८. स्पष्टम् । किं तु गवां शाला गोशालं "सेनाशाला." इस्यादिना लीवता। तत्र गोशालायां वा देशे जातो गोशालोझातो गोशालो गोशालकः॥ स वात्सशालोमुमुमासमानोदर्य ससोदर्य इयायं गूढः । कलापकाश्वत्थकमासिकं नु श्रीमातुरा क्षितिपःप्रदातुम् ॥५९॥ ५९. संसोदर्यः सहोदरेण युक्तः स प्रसिद्धो वत्सशाले वत्सशालायों वा देशे जातो वात्सशालो नाम क्षितिपो गूढः परराष्ट्रप्रवेशेन शत्रुभयात्प्रच्छन्नः सन्नुमासमानोदर्य गौर्याः सहोदरममुमबुंदमियायाययौ । इण् धातुराडं विनाप्यागमनेर्थे दृश्यते । किं कर्तुम् । श्रीमातुर्लक्ष्मीदेव्या अर्चा प्रदातुम् । उत्प्रेक्ष्यते । कलापकाश्वत्थकमासिकं नु । यस्मिन्काले मयूराः केदारा इक्षवश्व कलापिन: स्युः स कालस्तत्साहचर्याकलापी तत्र देयमृणं कलापकं तथा यस्मिन्कालेश्वत्थाः फलन्ति १ बी शाषह. २ ए सी हस्ता स'. ३ बी सरेव'. ४ सी सरोहिणो रे. ५ बी हिणे रे'. ६ ए तरौहि°. ७ ए सी कृर्तिक. ८ बी पान्ससि. ९ बी 'य गाढः. - १ए सी पुष्य । पु. २ बी पुष्फादी. ३ सीता । त्यल. ४ बी ससौंद. ५ सी यां दे'. ६ एशे तो. सी 'शे वा जा. ७बी र उपरा. ८५°नः मा. ९सी प्रेक्षते. १० वी "त्यकामा ११ सीनः स्युस्त'. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] स कालोश्वत्थफलसहचरितोश्वत्थस्तत्र देयमृणमश्वत्थक तथा मासे देयमृणं मासिकं समाहारद्वन्द्वे तदिव ॥ न ग्रैष्मकं यावबुसक्यवनोमाव्यासकं नैपमकं न चापि । नाप्यावराचं समकं जनानामस्योपकण्ठेखिलधातुखानेः ॥६०॥ ६०. अस्यार्बुदस्योपकण्ठे, समीपे वर्तमानानां जनानी प्रैष्मकं ग्रीष्मे देयमृणं नास्ति । तथा यस्मिन्काले यवानां बुसं स्यात्स कालो यवबुसस्तत्र देयमृणं यवबुसकं तस्य भावो यावबुसक्यं तदस्यास्ति यावबुसक्यवद्यवबुसकमृणमित्यर्थः । नास्ति । तथोमाव्यासकमुमा व्यस्यन्ते यस्मिन्स काल उमाव्यासस्तत्र देयमृणं च नास्ति । न चाध्यैषमकमस्मिन्संवत्सरे देयमृणमस्ति । तथावराद्यं समकमवरा समा संवत्सरोवरसमा समाया अवरत्वमित्यवरसमं वा तत्र देयमृणं नाप्यस्ति। यतः । किंभूतस्य । अखिला धातवः स्वर्णाद्या यासु ताः खानय आकरा यत्र तस्य । अस्तापरप्राक्समकांग्रहायणकाः श्रियो मातुरुपेत्य लोकाः । फलानि सांवत्सरिकाणि दात्र्याः पर्वेह सांवत्सरिक दिशन्ति ६१ ६१. लोका उपेत्य दूरादागत्येहार्बुदे श्रियो मातुः सांवत्सरिक संवत्सरे देयमृणं पर्व यात्रोत्सवं दिशन्ति देति कुर्वन्तीत्यर्थः । यतः । किंभूताः । अस्ते श्रीदेव्यैव क्षिप्त आपरप्राक्समकमपरसमायामपरसमे १ए 'मान्यास'. २ ए °खानो । अ. सी खाने । . ३ बी काग्राहय. ४ बी लाणि सां, __ १ बी मारो दे'. सी मासि दे°. २ बी णं यवबुसकं तस्य. ३ ए °नां ग्रिष्म'. ४ एयबु. ५ ए बी क्यवद्य. ६ ए बी 'स्मिन्काल. ७ सी प्यैक. ८ ए कस्मि'. ९ ए °प्यसि । य. १० ए द्यायाःस. ११ ए °त्ये श्रिी. १२ सी दन्ति कु... १३ ए सी वदीय. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.१०५. ] षोडशः सर्गः । ३०३ वा देयमाग्रहायणकमाग्रहायण्यां मार्गशीर्ष्या देयं च ऋणे येषां ते तथा । यतः । कीदृश्याः श्रियः । फलानि धनधान्यलाभादीनि दात्र्याः । किंभूतानि । सांवत्सरिकाणि लोकैः सांवत्सरिकपर्वणाराधितत्वेन लोकानामवश्यं देयत्वेन संवत्सरे लक्ष्म्या ऋणभूतानि देयानि ॥ फलं च सांवत्सेरकं प्रदायी पर्वेव मेमुं निर्कषैष देशः । द्राक्छारदेनोद्दलिताग्रहायणिको भृशं शालियवेन भाति ॥ ६२ ॥ । ६२. हे राजन्नमुमर्बुदं निकषस्य समीप एष प्रत्यक्षो देशश्व शालियवेन शालिभिर्यवैश्च कृत्वा भृशमत्यर्थं भाति । कीदृशा । शारदेन शरदि पच्यन्ते ते शारदाः शालयस्तथा शरद्युप्ताः शारदा यवाः समाहारद्वन्द्वे . “स्यादावसंख्येयः " [ ३. १. ११९ ] इत्येकशेषे शारदं तेन । कीदृक्सन् । सांवत्सरकं संवत्सरे देयमृणं पर्वेव श्रीदेव्युत्सवमिव फलं लक्षसंख्यराजग्राह्यभागद्रव्यादि मे मम विक्रमसिंहस्य प्रदायी । एतद्देशप्रदत्तेन द्रव्येण हि सांवत्सरकं पर्व श्रीदेव्या मया प्रतिवर्षं क्रियतेतश्च तत्पर्वणोनेन प्रतिवर्षं करणीयत्वादृणभूतं तद्यथासौ ददाति तथा फलमप्यनेकधनधान्यादि दददित्यर्थः । अत एव द्रागुदलितं विनाशिर्तमाग्रहायैणिकमाग्रहायण्यां देयमृणं येनार्थान्मम स तथा ॥ ग्राम्यामी हैमनवाससस्त्वेक्षन्तेनुवासन्ति महर्द्धयोन्नैः । आश्वात्परस्मिन्युजकैश्च वासन्तकैश्च वासन्तविलक्षणैश्च ॥ ६३ ॥ पुष्प (प्य ? ) न्ति प्रस्तावादत्रार्बुदेनुवासन्ति ६३. १ बी सरकं. वसन्ते २ ए बी बैक दे°. ३ ए सी द्राक् शार.. ४ ए ए द्रा° ५ बी १ ए क्रमण'. २सी घास. ३ बी 'त्सरिकं. द्राग्दलि.. ६ बी 'तमग्रेहा'. ७ सी यण्यां.. ८ बी 'माग्राहा. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] वासन्त्यः कुन्दलतास्तासां समीपे वर्तमाना अभी प्रत्यक्षा ग्राम्यास्त्वा त्वामीक्षन्ते कौतुकात्पश्यन्ति । किंभूताः । हैमनानि स्थौल्यनिबिडत्वादिना हेमन्ते साधूनि वासांसि येषां ते तथान्नैर्धान्यैर्महर्द्धयः । किंभूतैः । आश्वात्परस्मिन्युजकैश्वाश्वयुजकैश्वाश्विनीपर्यायोश्वयुगाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता पौर्णमास्याश्वयुजी । यद्यप्यत्र पौर्णमासीत्यस्य साक्षादप्रयुक्तत्वादण्लोपः प्राप्नोति तथापि चैत्रीत्यादिज्ञापकाद् " आश्वयुज्या अकञ्” [ ६. ३. ११९ ] इति ज्ञापकाचे पौर्णमास्यां वाच्यायां लोपो न स्यात् । तस्यामुप्रैश्च तथा वासन्ति (न्त ? ) कैश्च वसन्त उतैश्च । तथा वासन्तविलक्षणैश्च वसन्त उप्तेभ्य इतरैश्व || योग्रैष्मसग्रैष्मकसस्यभूम्योर्विप्रैणयोर्नैशिकयोश्च यो वा । अस्यान्यशैलस्य च तं विशेषं प्रचक्षते राष्ट्रियदिश्यमुख्याः ॥ ६४ ॥ 93 ६४. राष्ट्रियदिश्यमुख्या राष्ट्रियेषु राष्ट्रे देशे भवेषु दिश्येषु च सर्वदिग्भवेषु लोकेषु मध्ये मुख आदौ भवा मुख्याः श्रेष्ठा अस्यार्बुदस्यान्यशैलस्य च तं विशेषं भेदं प्रचक्षते यः शाङ्खलत्वादिकृतो विशेषोप्रैष्मस प्रैष्मकै सस्य भूम्योग्री (प्र) ष्म उप्तानि प्रेष्माणि सस्यानि न विद्यन्ते प्रैष्माण्यत्रामैष्मो विरोधेत्र नम् । तेन प्रीष्मर्तुविरोधी यो वर्षर्तुस्तत्रसस्यान्वितो देशस्तथा प्रैष्मकैः सहास्ति यः स सप्रैष्मको देशोयैष्मंश्च १ एस्य तं. १ ए बी "त्यक्ष्या ग्रा. २ बी 'मीक्ष्यन्ते. ३ एथान्यैर्धा'. श्वाश्वि. ४ बी कै ५ बी पौर्णिमा ६ बी 'दल्लोपः. ७ एत्रीत्यदि. ८ ए च पूर्ण. ११ सी कशस्य'. १२ ए भूम्यो . १५ एन प्रैष्म. १६ सी ९ एसी सन्तिवि १० ए लस्यो च. °. १३ सी 'णि शस्या '. 'त्यदेशान्वि १७ सी मकश्च. १४ बी द्यते • Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.१०५.] षोडशः सर्गः । ३०५ संप्रैष्मकश्चेति सामान्येन द्वन्द्वं कृत्वा ततो विशेषविवक्षया स्त्रीत्वेग्रैष्मसग्रैष्म के ये सस्यभूमी तयोर्वर्षाकालग्रीष्मकालसस्य भूम्योरस्ति यो माधुर्य व्यक्ततादिकृतो विशेषो विप्रैणयोर्द्विजहरिणविशेषयोश्च स्यात् । कीदृशोः सतोः । नैशिकयोर्निशा सहचरितमध्ययनं निशा तत्र जयी साभ्यासो नैशिको द्विजस्तथा निशायां व्याहरति नैशिक एणो र्द्वन्द्वे “स्यादावसंख्येयः” [ ३. १. ११९ ] इत्येकशेषे नैशिकौ । तयोः ॥ गोविन्दपद्येव पुरोस्ति वर्णासैषांनुदक्येव सरिन्निषेव्या । माध्यंदिना सानुमतोस्य मध्यंदिनाम्बुजा माध्यमकैरवा च ॥६५॥ ६५. अस्य सानुमतोर्बुदस्य माध्यंदिना मध्ये भवैषा प्रत्यक्षा वर्णासी वनासेति नाम्ना प्रसिद्धा सरित्पुरोस्ति गोविन्दपद्येव पादे भवा पद्या गोविन्दस्य पद्या गोविन्दपद्या गङ्गा सौ यथा पुरोस्ति । किंभूर्ती । मध्यंदिनानि मध्ये भवान्यम्बुजानि यस्यां सा तथा माध्यमानि मध्ये भवानि कैरवाणि यस्यां सात एवानुदक्येवारजस्वला स्त्रीव निषेव्या लोकैः सेव्या ॥ द्राग्मध्यमीयाश्म चये स्खलन्त्योङ्गुलीयवत्कापि विभान्ति वीच्यः । कचिट्टवर्गीयवदत्र जिह्वामूलीयवत्कापि च वारिवर्ग्यः ॥ ६६ ॥ ६६. अंत्र वर्णासानद्यां वारिवर्ग्य वारिवर्गे जलौघे भवा वीच्यः कल्लोलाः कापि प्रदेशे ङ्गुलीयवन्मुद्रिकाकारा भान्ति कचिच्च टवर्गीय वट्ट २ बी 'षावदुक्ये'. १ एणास्तेषा'. १ बी समग्र . २ एन्ये ६. ३ सी ये शस्य ं. ४ लग्रैष्म ५ बी भूमौरास्ति. ६ ए सी 'स्ति तथा यो. ७ बी 'सतो. सी सतोनिशि ८ ए न सा. ९ वी द्वन्द्वं स्याद्याव १० बी 'शिके । त'. ११ सी सा बना. १२ ए 'नाशेति'. १३ ए सा पु. १४ बीता । माध्यं. १५ ए मध्यदि. १६ बी 'वामुदक्योवा'. १७ बी अव. ३९ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] वर्गे भवाष्टवर्गीयाष्टठडढणास्तदाकारा भान्ति । कापि च जिह्वामूलीयवद्वलाकारवर्णाकारा भान्ति । यतो मध्यमीयाश्मये नदीमध्यभवे शिलौघे द्राक्स्खलन्त्यः ।। सुरेभवर्गीयगजाः सुराश्ववर्गीणवाहाः पृतनास्तटेस्याः । अर्हन्त्यवास्तेयसकालशेयदातेयघोपे तव विश्रमं तत् ॥ ६७ ॥ ६७. तत्तस्माद्धेतोहें राजंस्तव पृतनाः सेना अस्या वर्णासानद्यास्तटे विश्रममर्हन्ति । कीदृश्यः । सुरेभवर्गीया ऐरावणपक्षे भवा ऐरावणतुल्या इत्यर्थः । गजा यासु तोः । तथा सुराश्ववर्गीणा उच्चैःश्रवस्तुल्या वाहा अश्वा यासु ताः। यतः। किंभूते तटे। अविद्यमानं वास्तेयं वस्तौ पुरीषनिर्गमरन्ध्रे भवं पुरीषं यत्र तदवास्तेयम् । एतेनं पावित्र्योक्तिः । अत एव कलश्यां घटे भवः कालशेयस्तथा हतौ खल्ले भवो दार्तेयो द्वन्द्वे कालशेयदातेयौ यौ घोषौ जलभरणोत्थौ शब्दौ ताभ्यां सहास्ति यंत्तत्तथा । एतेन नदीजलैंस्य पेयत्वोक्तिः । विशेषणकर्मधारयेवास्तेयस. कालशेयदातेयघोषं तस्मिन् ॥ आहेयभोगोपमहस्तहस्तित्रैवेयदामप्रतिबन्धपात्रम् । सन्त्वद्रिकौक्षेयमहीरुहः कुम्भास्तेयपङ्कारुणिताग्रशाखाः॥६८॥ ६८. कुक्षौ मध्ये भवाः कौक्षेयो अद्रेर्बुदस्य कौक्षेया ये महीरुहो वृक्षास्ते सन्तु । कथंभूताः । अहौ भव आहेयो यो भोगः कायस्तेनोपमा दीर्घत्ववक्रत्वादिना सादृश्यं येषां ते तथा हस्ताः शुण्डा येषां ते तथा ये हस्तिनस्तेषां प्रैवेयाणि प्रीवासु भवानि यानि दामानि १ ए 'नातटे'. एष्टटगणा. २ ए र्णा भा'. ३ ए च न. ४ ए ऐण. ५ ए सी 'ताः । सु. ६ ए सी यं वास्तौ. ७ ए 'न पवि'. ८ बी तेंययौ. ९ बी यत्र तत्तथा. १० सी लस्या. ११ बी मध्यम .. १२ ए °या आद्रे. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.१०५.1 षोडशः सर्गः। बन्धनशृङ्खलास्तैर्यः प्रतिबन्धस्तस्य पात्रं स्थानम् । किंभूताः सन्तः । अस्ति विद्यमाने मदेनुशप्रहारोत्थेसृजि वा भव आस्तेयो यः पङ्कः स आस्तेयपङ्को रजःपातादिना संजातो मदस्य रक्तस्य वा कर्दमः कुम्भेषु य था(आ)स्तेयपङ्कस्तेनारुणिताः कुम्भकण्डूयनेन रक्तीकृता अग्रशाखाः शाखाग्राणि येषां ते तथा । श्रीग्रेवहाराहरदोस्तु चातुर्मासी नु गाम्भीर्यमनस्क पर्व । अदैव्यबाह्ये त्वयि देव चातुर्मास्यप्रियाणां क्षितिपाञ्चजन्येट् ६९ ६९. हे श्रीप्रैवहार श्रियः साम्राज्यलक्ष्मया अलंकारकत्वाद्रीवाभवहारतुल्य तथा गम्भीरेषु दुरवगाहेषु वस्तुषु भवं गाम्भीर्य मनो यस्य हे गाम्भीर्यमनस्क दुरवगाहत्वेन निश्चेतुमशक्येष्वपि कार्येषु निश्चायिकाबुद्धे तथा चतुर्यु मासेषु भवानि चातुर्मास्यानि यज्ञकर्माणि प्रियाणि येषां ते तेषां चतुर्णामाश्रमाणां देव रक्षकत्वात्स्वामिंस्तथा हे क्षितिपाचजन्येट् पृथिव्यां पालकत्वाद्विष्णुतुल्य त्वयि सत्यदोद्यतनमहर्दिनं पर्वास्तु त्वदावासनिकया महानन्दहेतुत्वान्महोत्सवरूपं भवतु । यतः । किंभूते त्वयि । अदैव्यबाह्ये देवेषु भवा दैव्या देवा एवं तेभ्यो बाह्यो बहिर्भूतो न तथा तस्मिन रूपादिना देवतुल्य इत्यर्थः । चातुर्मासी नु यथा चतुर्यु मासेषु भवा चातुर्मास्याषाढी कार्तिकी फाल्गुनी वा पू. र्णिमा पर्वदिनं भवति ॥ १ए । दैयबा . २ सी दैवबा'. १सी षु था. २ बी ग्रैवेयहा'. ३ बी सी षां तेषां. ४ ए देवा र. ५ बी रक. ६ बी चयझेट. ७ बी सी पृथ्व्यां पा. ८ बी समिक. ९ए 'न्दत्वा'. १० ए भूतैः । त्वद्यदै'. ११ ए धेषु दे'. १२ ए सी एते'. १३ बी 'न् पा. १४ ए स्याखादी. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः श्राविष्ठीया। श्रविष्ठा । आषाढीयम् । अषाढम् । अत्र "श्रविष्टा०" [१०५] इत्यादिना नाम्नीयण अश्च ॥ अणमपीच्छन्त्येके । श्राविष्टी आपाढी ॥ फा(फ)ल्गुनी । इत्यत्र “फल्गुन्याष्टः" [ १०६ ] इति टः ॥ अणमपीच्छ. त्येके । फाल्गुनम् ॥ बहुलम् । अनुराधम् । पुष्यार्थ । पुष्यः तिष्य । पुनर्वसू । हस्ताः। विशाख । स्वाति । इत्यत्र "बहुल." [ ३०७ ] इत्यादिना नाम्नि भाणो लुप् ॥ चित्रा । रेवती । रोहिणी । इत्यत्र "चित्रा०" [ १०८ ] इत्यादिना लुप् ॥ खियामिति किम् । चैत्रः । रैवतौ । रोहिणौ ॥ पुंस्येषां विकल्प इत्येके । चित्रः । रेवत। रोहिणौ ॥ कृत्तिक कार्तिको । अत्र विकल्पेन ॥ अश्विनौ । अत्र नित्यम् । “बहुलमन्येभ्यः" [ १०९ ] इति भाणो बहुलं लुप् ॥ वचित्र स्यात् । माघ ॥ गोस्थान । गोशाल । खरशाल । इत्यत्र "स्थानान्त०" [१०] इत्यादिना प्रत्ययस्य लुप् ॥ वत्सशालाः वात्सशालः । अत्र "वत्सशालाद्वा" [१] इति प्रत्ययस्य लुम्बा ॥ सोदयः । समानोदयम् । एता “ सोदर्य." [११२] इत्यादिना निपात्यौ॥ मासिकम् । अत्र “कालाद्" [११३] इत्यादिना यथाविहितं कालेकण् ॥ कलापकाश्वत्थक । यावत्रुसक्य । उमाव्यासकम् । ऐषमकम् । अत्र "कलापि." [११४] इत्यादिना अकः ॥ प्रैप्मकम् । आवरसमकम् । अत्र "ग्रीष्म" [१५] इत्यादिनाकञ् ॥ भपरसमादपीच्छन्त्येके । आपरसमंकः ॥ सांवत्सरिकाणि फलानि । सांवत्सरिक पर्व । सांवत्सरकं फलं पर्वेव ॥ आग्र - - ए°या। श्रावि . २ ए सीम् । आषा'. ३ बी प्यार्थः । पु. ४ बी वमूः । ह'. ५ बी सी शाष । स्वा. ६ बी यलु. ७ बी सी 'त्र वात्स'. ८ ए बी वा । सौद. ९ ए सी दयं । स. १० ए बी तो सौद. ११ ए सी मकः । सां. १२ ए आग्राहय. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.१२९. ] षोडशः सर्गः । ३०९ हायणिकः । आग्रहायणकाः । अत्र “संवत्सर० " [ ११६ ] इत्यादिना-इकण् अकञ्च ॥ हैमन । वासन्ति । शारदेन शालिना । इत्यत्र " साधु ० " [ ११७ ] इत्यादिना यथाविहितमृत्वण् ॥ शारदेन यवेन । इत्यत्र "उसे" [ ११८ ] इति यथाविहितमृत्वण् ॥ आश्वयुजकैः । भत्र “आश्वयुज्या अकञ् " [ ११९ ] इत्यकं ॥ मेक | अप्रैष्म । वासन्तकैः । वासन्त । इत्यत्रै “ ग्रीष्म० " [ १२० ] इत्यादिना वाकन् ॥ नैशिकयोर्विप्रैणयोः : । अत्र “व्याहरति मृगे” [ १२१ ] इति " जयिनि च " [ १२२ ] इति च यथाविहितं कालेकण् ॥ राष्ट्रिय | ग्राम्याः । इत्यत्र “भवे” [ १२३ ] इति यथाविहितं प्रत्ययाः ॥ दिश्य | मुख्याः ॥ देहांश । पद्या । इत्यत्र “दिगादि ० " [ १२४ ] इत्यादिना यः ॥ उर्दैक्या । इत्यत्र “नाम्नि ० " [ १२५ ] इत्यादिना यः ॥ माध्यंदिना । माध्यमा (म) । मध्यमीय । इत्यत्र "मध्याद् ०" [ १२६] इत्यादिना दिन -- ईयास्तत्संनियोगे मागमश्च ॥ अन्ये तु दिनं णितं नेच्छन्ति । मध्यंदिन ॥ जिह्वामूलीय । अङ्गुलीय । इत्यत्र “जिह्वामूल० " [ १२७] इत्यादिना - ईयः ॥ चानुकष्टस्य मध्यस्येये मैध्यीय इत्युदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ टवर्गीय । इत्यत्र "वर्गान्तात् ” [ १२८ ] इतीयः ॥ 73 सुराश्ववर्गीण । वारिवर्ग्यः । सुरेभवर्गीय । इत्यत्र “ईन०” [१२९] इत्यादिना-ईन-य-ईयाः ॥ अशब्द इति किम् । टवर्गीय ॥ १ एञ् । अ'. २सी मकः । अँ. ३ सी ग्रैष्म. नैशि. ५ मुख्या । दे. ६ दकेत्य. ७ बी 'ध्य । म'. ९ ए ली। अ ं. १० ए मूलीत्यादिना - इयः ११ ए मध्ययेत्यु . ४ बीञ् । ८ बी 'नाण्. १२ ए रेमि Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल:] दार्तेय | कौक्षेय । कोलशेय । वास्तेय । आहेय । इत्यत्र “हति०" [१३० ] इत्यादिना - एयण् ॥ आस्तेय । इति “आस्तेयम्” [ १३१ ] इत्यनेन निपात्यम् ॥ ग्रैवे । ग्रैवेय । इत्यत्र "ग्रीवा तोण्च" [ १३२ ] इति - अणेयणौ ॥ चातुर्मासी । इत्यत्र “चतुर्मासान्नानि ” [ १३३ ] इत्यण् ॥ चातुर्मास्य । इत्यत्र "यज्ञे व्य:" [ १३४ ] इति न्यः ॥ 1 गाम्भीर्य । पाञ्चजन्य । बाह्ये । दैव्य । इत्यत्र “गम्भीर ०" [ १३५ ] इत्यादिना न्यः ॥ अद्यानुपथ्यैर्गिरिपरिमुख्यैर्गृहैरिवान्तःपुरिकैः स्थुलीय्यैः । स्थित्वा प्रयातासि जयाय नः पारिग्रामिकैर्विप्रवरैः कृताशीः ७० ७०. हे राजंस्त्वं जयाय प्रयातासि प्रयास्यसि । कीदृक्सन् । विप्रवरैर्द्विजमुख्यैः कृताशीर्विहितयात्रामङ्गलः । किंभूतैः । पारिश्रामिकैः परिवर्जनार्थो ग्रामेभ्यः परि परिग्रामम् " पर्यपाङ्०” [३. १. ३२ ] इत्यादिनाव्ययीभावः । परिग्रीमे ग्रामवेर्ज नगरादौ भवैः । एतेन सर्व विद्यासु कौशलमुक्तम् । किं कृत्वा प्रयातासि । अद्य नोस्माकं स्थूलाग्र्यैः श्रेष्ठगुप्यद्गुरुभिः (?) करणैः स्थिताः (तः ? ) स्थूलाग्र्येषु स्थित्वेत्यर्थः । किंभूतैः । आनुपध्यैः पथः समीपमनुपथं तत्र भवैस्तथा गिरिपारिमुख्यैः परितः सर्वतो मुखं परिमुखं “परिमुखादेरव्ययीभावात् ” [ ६.३.१३६ ] इति वचनादेवाम्ययीभावो वर्जनार्थो वा परिः । " पर्यपा०” । [३.१.३२] इत्यादिनाव्ययीभावः । परिमुखे भवानि पारिमुख्यानि गिरेर्बुदस्य पा२ बी 'लायैः । स्थि'. ३ ए वा प्रिया". १ बी पारमु'. १ ए कालेश.. ५ बी । देव्य. 'रिमुखे. २ ए ग्रैवं । यै'. ६ बी ܪ ९ सी वर्जन. ३पत्र चातु. ४ ए र्मास । इ. गाम्भी. ७ ए म् । परि परिग्रामम् । प° ८ बी १० सी कं स्थला. ११ ए 'देव्यम्य'. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.३.१३६.] षोडशः सर्गः। ३११ रिमुख्यानि तैरतिबाहुल्येन गिरेः सर्वमुखेषु भवैर्लोकारोहाद्यर्थं गिरिमुखं पद्यां वर्जयित्वा भवैर्वेत्यर्थः । तथान्तःपुरिकैः पुरस्यान्तनगरमध्यभागे भवैगुहैरिव विस्तीर्णत्वस्वर्णकलशोल्लोचचित्रपताकाद्युपेतत्वादिना नगरगर्भस्थधवलगृहतुल्यै रित्यर्थः ॥ अथावसत्तत्र चमू सधान्यानुग्रामिकक्षेत्रभुवोभिरक्षन् । दृशौपकणिक्य ऋजूल्लसन्त्यौपजानुकोद्दामभुजो नरेन्द्रः।।७१॥ ७१. अथ नरेन्द्रस्तत्र वर्णासातदेवसत् । कीदृक् । औपजानुको प्रलम्बत्वाजान्वोः समीपे प्रायेण भवावुद्दामौ भुजौ यस्य सः । तथा सधान्या सस्याव्यानुग्रामिकी ग्रामसमीपे भवा या क्षेत्रभूस्तस्याः सकाशाचरभिरक्षन्धान्यविनाशाभावाय निवर्तयन्सन् । कया कृत्वा । दृशा दृष्ट्या । कीदृशा। औपकर्णिक्यातिविस्तीर्णत्वेन कर्णसमीपे प्रायेण भवया तथा ऋजूल्लसन्त्या कोपादिविकाराभावेनाकुटिलं यथा स्यादेवं रक्षासंज्ञार्थमूभिवन्त्या ॥ रिरंसुमन्तःपुरिकादिलोकमयो(स्यौ)पनीविक्य ऋजुस्रजाथ । ज्ञात्वेव वन्यास्वगकर्णिकाK ललाटिकेवर्तव आविरासन् ॥७२॥ ७२. अथर्तवो वसन्ताद्याः सर्वेप्याविरासन् । कीशः । अगस्यार्बुदस्य विभूपकत्वात्कर्णिकासु कर्णाभरणतुल्यासु वन्यासु वनानां समूहेषु ललाटिकेव शोभाहेतुत्वाल्ललाटमण्डनतुल्याः । ललाटिकापि कर्णिकासु मध्ये शोभाविशेषाप्त्याविर्भवति । किं कृत्वेवाविरासन् । १बी णिक्या क्र. २ बी सन्त्योप. ३ बी रंशुम'. ४ सी सु लाला. ५ ए बी केवात. १बी गिरेमु. २ बी चविचि सी चप'. ३ बीना नाग'. ४ बी यस्या सः. ५ बी मूभि. ६ बी दृष्टयाः । कीदृश्यौप. ७ बी रक्ष्यासं. ८ ए °दृशोस्या'. ९ सी तुल्या । ल. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः अस्य कुमारपालस्यान्तःपुरिकादिलोकमन्तःपुर एकपुरुषपरिग्रहे स्वीसमूह उपचारात्तन्निवासे वा भवा आ(अ)न्तःपुरिका राज्यस्तत्प्रभृतिस्त्रीलोकं ज्ञात्वेव । किंभूतम् । औपनीविक्या नीवीसमीपे प्रायेण भवया ऋजुस्रजा सरलपुष्पमालया रिरंसुम् ॥ पारिमुख्यैः । आनुपथ्यैः । इत्यत्र "परि०" [ १३६ ] इत्यादिना भ्यः ॥ आन्तःपुरिकैः । अत्र “अन्तः०" [ १३७ ] इत्यादिनेकण् ॥ पारिग्रामिकैः । आनुग्रामिक । इत्यत्र “पर्यनो मात्" [ १३८] इनीकण् ॥ औपजानुक । औपनीविक्या । औपकर्णिक (क्या)। इत्यत्र "उपाजानु०" [ १३९] इत्यादिना-इकण् ॥ अन्तःपुरिका । इत्यत्र “रूढौ०" [१४० ] इत्यादिनेकः ॥ कर्णिकासु । ललाटिका । इत्यत्र “कर्ण०" [ १४१ ] इत्यादिना कल् ॥ अथ वसन्तर्तुमारभ्य सर्वनामाविर्भावं वर्णयति । पिकोथ कार्वाचिकपाश्चहोतृकतार्किकाख्यातिकसहितेषु। विघ्नो मुनीनां सहवाजपेयिकेषु व्यकूजन्नवचूतमत्तः ॥ ७३ ॥ ७३. अथ पिको व्यकूजव्यक्तं शब्दमकरोत् । कीदृक्सन् । मुनीनां विन्नः स्मरोद्दीपकत्वेनोन्मनीकारकत्वादन्तरायभूतः । केपु विषये[पु] । कार्तार्चिकपाञ्चहोतृकतार्किकाख्यातिकसाहितेपु कृतां तथा ऋचां मत्रविशेषाणां तथा पञ्चसु होतृषु भव इत्यणो लुपि पञ्चहोता ग्रन्थभेदस्तस्य तथा तर्काख्यातसंहितानां व्याख्यानानि यद्वा कृतादिषु भवानि व्याख्यानानि तेषु । किंभूतेषु । सह वाजपेयिकेषु वाजपेयस्य यज्ञस्य व्याख्यानं तत्र भवं वाजपेयिकं तेन युक्तेषु । यतः कीदृक् । नवचूतमत्तः प्रत्यग्राम्रफैलास्वादनेन मत्तः ॥ १बी जुश्रजा. २ बी रंशुम्. ३ वी 'नोग्रामा'. ४ थी ये कर्ता'. ५ बी कृदादिपु व्या. ६ वी सी स्य व्या'. ७ सी पेयकं. ८ ए °यिकां ते. ९ सी फलस्खा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ६.३.१४५.] षोडशः सर्गः । कार्त । इत्यत्र “तस्य०” [ १४२ ] इत्यादिना यथाविहितमण् ॥ आख्यातिक । इत्यत्र " प्रायः ०" [ १४३ ] इत्यादिनेकण् ॥ प्रायोप्रहणात्कचिन स्यात् । सांहितेषु ॥ ३१३ आर्चिक । ऋकारान्त । पाञ्चहोतृक । द्विस्वर । तार्किक । याग । वाजपेयकेषु । अन्न “ऋगृद्०” [ १४४ ] इत्यादिनेकण् ॥ वासिष्ट(ष्ठि)काध्यायकृते पुरोडा शिंके पुरोडाशकि तिष्ठ टीके । क्षणो मुनिष्वप्ययमात्मयो नेर्वसन्त इत्यूच इवालिनादैः ॥ ७४ ॥ 1 ७४. इतीवेदमिव वसन्तोलिनादेरूचे । तदेवाह । वासिष्ठका - ध्यायकृत उपचारौर्द्वसिष्ठेनोक्तो मन्त्रग्रन्थोपि वसिष्ठस्तस्य व्याख्यानस्तत्र भवो वा योध्यायस्तत्र मध्ये कृते हे पुरोडाशिके पुरोडाशाः पिष्टपिण्डास्तैः सहचरितो मत्रः पुरोडाशस्तस्य व्याख्यानानि तत्र भवे वा टीके निरन्तरव्याख्ये त्वं तिष्ठ । तथा हे पुरोडाशिकि त्वमपि तिष्ठ या वासिष्ठिकव्याख्याध्यायमध्ये कृता पुरोडाशिका टीकास्ति या चान्या केवलैव पुरोडाशिकी टीकास्ति साप्यधुना मुन्यादिलोकानां धर्मकर्मणि व्यापारण रूपोत्स्व व्यापारान्निवर्ततामित्यर्थः । यतो मुनिध्वपि विषय आत्मयोनेः कामस्यायं क्षणः समयोस्ति यतो युष्मदुत्पाद्यधर्मपरिणामोच्छेदकः कामोधुना मुनिष्वपि व्यजृम्भतेत्यर्थः ॥ १० १ सी वाशिष्ट र बी शिक. ३ ए 'नादौ । इतीवेदमिव वसन्तोलिनादैः । इ. ३ सी ऋग् १ ए बी कार्तिकेय'. २ बीषु । अचिक. सी पु । अर्चि'. ३. ४ सी वाशिष्ठका ५ए राद्विसि ६ सी द्वशिष्टेनो ७ ए 'ख्यानेस्त'. ८ए शि. ९ख्यानि १० ए रोशि. ११ बी की टिका १२ सी 'र'. १३ सी पास्वस्या नु कस्मिं. ७७ लोकपर्यन्तं ग्रन्थो नास्ति १४ बी प. १५ बी म्भत इत्य. ४० 97 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये छन्दस्यशैक्षार्गयनान्नं नो पौरोडाशिकं वा जगुरौत्सशिष्याः । पैतृव्यकाचार्य कभीमुचस्तु स्वैरं विजहुर्ब कुलावलोकात् ।। ७५ ।। ३१४ 3 ७५. औत्सशिष्या औत्साः पाठार्थमुत्सदेशादर्बुद आगतीरछात्रा न जगू रागविशेषपूर्वं न पेठुः । कान् । छन्दस्यशैक्षार्गयनान् छन्दसो वेदस्य शिक्षाया वर्णप्रतिपादकग्रन्थस्य ऋगयनस्य वैदिकग्रन्थभेदस्य च व्याख्यानांस्तत्र भवान्वा ग्रन्थान् । पौरोडाशिकं वा पुरोडाशानां पिष्टपिण्डानामयं तत्र भवो वा पौरोडाशस्तत्संस्कारको मन्त्रस्तस्य व्याख्यानस्तत्र भवो वा यो ग्रन्थस्तं वा नो जगुः । यतः । किंभूताः । बकुलावलो - कात्केसरपुष्पेक्षणात्कामपरवशत्वेन पि (वै) तृव्यकाचार्यकभी मुँचः पितृव्यादाचार्याच्चागतां भियं मुञ्चन्ति ये ते तथा । तर्हि किं चक्रुरित्याह । तु किं तु स्वैरं विजहुर्वनादिषु ललनाभिः सह चिक्रीडुः ॥ ५ वासिष्ठिकाध्याय । इत्यत्र "ऋषेरध्याये” [ १४५ ] इतीकण् ॥ पुरोडाशिके । पुरोडाश कि । पौरोडाशिकम् । अत्र " पुरोडाश०" [ १४६ ] . इत्यादिनेकेकटौ ॥ छन्दस्य । इत्यत्र “छन्दसो यः " [ १४७ ] इति यः ॥ [ कुमारपालः ] २ एन पौ. २ बी पौराडा. ६ए मुचापि. शैक्षार्गयनान् । इत्यत्र “शिक्षादेश्वाण" [ १४८ ] इत्यण् ॥ औत्स । इत्यत्र "तत आगते” [ १४९ ] इति यथाविहितोञ् ॥ विद्यासंबन्ध । आचार्यक ॥ योनिसंबन्ध | पैतृव्यक । इत्यत्र “विद्या० " [ १५० ] इत्यादिनाकञ् ॥ १ बी यमत्ते नो. १ बी 'ताछात्रा. ५ बी 'केशर'. ९ बी 'दिना कक. ३ बी पौराडा". ३ ए पिष्टापि . ७ बी किं चि .. · ४ बी पौराडा. ८ बीह । किं. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.१५५.] षोडशः सर्गः। ३१५ वणिग्नु पित्र्यापणिकैर्हिरण्यैर्मर्द्विजः पैतृकहौतकैर्नु । अभादशोकः कुसुमैरनृत्यत्तानिलैः शौण्डिकवच्च सद्यः ॥७६॥ ७६. कुसुमैः कृत्वाशोकोभात् । यथा वणिम् हिरण्यैर्धनैर्भाति । किंभूतैः । पित्र्यापणिकैः पितुरागतैः पित्र्यैः कुलक्रमागतैरापणादागतैराणिकैः स्वयमुपार्जितैश्च । यथा वा मत्रैर्द्विजो भाति । किंभूतैः । पैतृकहौतृकैः पितुझेतुश्च यायजूकादागतैः । तथा सद्योशोकस्तानिलैस्तीर्थान्नद्यवतारादागतैर्वातैः कृत्वानृत्यच्च ननैर्तेव च । शुण्डिकः सुरापणः सुराविक्रयी वा तस्मान्मद्यपानं कृत्वागतः शौण्डिको मद्यपो यथा नृत्यति ॥ पित्र्य । पैतृक । इत्यत्र "पितुर्यों वा" [१५१] इति वा यः ॥ हौतृकैः । पैतृक । अत्र "ऋत इकण्" [१५२] इतीकण् ॥ आपणिकैः । अत्र "भायस्थानात्" [१५३] इतीकण् ॥ शौण्डिक । तैर्थ । इत्यत्र “शुण्डिकादेरण्" [१५४] इत्यण् ॥ द्वैजं च वै(बै?)दं च नयं विमोच्य द्विजान्नयन्त्यद्विजरूप्यकर्म । क नु क्रिया वो द्विजमय्यनिद्रेरितीव माधव्यहसीत्प्रसूनैः ॥ ७७॥ ७७. माधवी कुन्दलतानिदैविकसितैः प्रसूनैः कृत्वा द्विजानहसीदिव । कथमित्याह । हे द्विजा वो युष्माकं द्विजमयी द्विजेभ्य आगता क्रिया ब्रह्मचर्यादिका क नु कस्मिंस्थानेस्तीति । यतः । कीदृशी। माधवी। द्विजान् द्विजेभ्य आगतं द्विजरूप्यं न तथा यत्कर्म तद् ब्राह्मणानुचितां कामचेष्टां नयन्ती । किं कृत्वा । द्वैजं च द्विजेभ्य आगतं च १ बी कहोतृकै'. २ ए कर्म । क. ३ ए व मध्ये न्य'. १ए °णिकैपि. २ बी पणकैः. ३ बी कहोतृ. ४ बीनवर्ते'. ५ बी च । शोण्डिकवत् शु. ६ ए 'ति । पैन्य. ७ बी तैर्थ्य । . ८बी देरित्य. ९ बी मादवी. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] वैदं च विदस्यःरपत्यानि वृद्धानि विदास्तेभ्य आगतं च नयं ब्रह्मचर्यादिधर्मानुष्ठानरूपं न्यायं विमोच्य त्याजयित्वा । माधवी वसन्ते पुष्प. (प्प्य?)ति निकामं मुनीनामपि कामोद्दीपिका च स्यादित्येवमुत्प्रेक्षा ॥ पापीयवत्पापमयान्यपापरूप्याण्यजाननु फलान्यनङ्गः । विभेद यूनां हृदयान्यशङ्कः शक्रद्विपो हैमवतीतटीर्वा ॥७॥ ७८. अनङ्गो यूनां हृदयानि बिभेद शरैरताडयत् । कीडक्सन् । पापमयानि पापाद्धेतोरागतान्यपापरूप्याणि च धर्मादागतानि च फलान्यशुभशुभरूपाणि कार्याण्यजानवमन्यमान इव । पापीयवत्पापाद्धेतुभूतादागतः पापीयः पापिष्ठो नास्तिकादिर्यथा पापमयान्यपापरूप्याणि च फलानि न मन्यते। अत एवाशङ्कः पापभयरहितः । यथा शक्रद्विपोशङ्कः सन्हिमवतः प्रभवति हैमवती गङ्गा तस्यास्तटीस्तटानि भिनत्ति। वाशब्द उपमायाम् ॥ वैदम् । अत्र “गोत्रादकवत्" [१५५] इत्यण ॥ अद्विजरूप्य । द्विजमयी । द्वैजम् ॥ हेतु । अपापरूँप्याणि । पापमयानि । पापीयवत् । इत्यत्र "नृहेतुभ्यः०" [ १५६ ] इत्यादिना वा रूप्यमयटौ ॥ हैमवती । इत्यत्र "प्रभवति" [ १५७ ] इत्यण ॥ ___ अथ निदाघः ॥ वैडूर्यनीलं कदलीगृहं त्यन्मयोनिलस्तन्मयमासनं च । नादेयमम्भो नवमालिकार्तिस्रोग्नी(मी)रदा सेव्यमभून्निदाघे ७९ १ए तिसौग्नी. १५दस्या'. २ सी मर्माधर्मानु. ३ सी का च. ४बी प्रेक्ष्या। पा. ५ बीतानि आपा. ६बी जास्तस्या. ७ बी रूपाणि. ८ सी पापी. ९ए पीव. १० सीण् । . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.३.१६१.] षोडशः सर्गः। ३१७ ७९. निदाघेतिशीतलत्वात्सेव्यमभूत् । किं किमित्याह । वैडूर्यनीलं विडूरात्पर्वतात्प्रभवति वैडूर्यों मणिस्तद्वन्नीलं हरितवर्ण कदलीगृहं तथा त्यन्मयः कदल्याः प्रभवन्ननिलो वायुस्तथा तन्मयं कदल्याः प्रभवदासनं च तथा नादेयं नद्याः सैक्त(त्क?)मम्भस्तथा नवमालिका च सप्तला च । किंभूता । अतिसौग्नी(नी)रदा झुनस्येयं स्रौनी स्त्री तस्या रदान्दन्ताम् शौक्ल्येनातिक्रान्ता ॥ वैडूर्य । इति “वैडूर्यः " [१५] इत्यनेन निपात्यम् ॥ त्यन्मयः । तन्मयम् । अत्र "त्यदादेर्मयट्" [१५९] इति मयः ॥ स्रोग्नी(मी) । नादेयम् । अत्र "तस्येदम्" [१६०] इति यथाविहितं प्रत्ययाः ॥ द्राग्घालिकाः सैरिकपर्षदासीनाः साम(मि)धेनीविदुषो हसन्तः । कथा अकुर्वन्कुरुवृष्णिकाश्वावराहिकाणामिह मल्लिकाघ्राः॥८॥ ८०. इह निदाघे हलस्येमे हालिका हलधराः कुरूणां वृष्णीनां च विवाहाः कुरुवृष्णिकास्तथा शुनां वराहाणां च युद्धानि श्वावराहिका द्वन्द्वे तासां कथा द्वाग्मूर्खत्वेन वचनपल्लवनाशक्तेरविलम्बितं तदा कृषिकर्माभावेन निष्प्रयोजनवादकुर्वन् । किंभूताः । सीराणामिमे सैरिका हलधरास्तेषां परिषत्सभा तत्रासीनास्तथा समिधामाधानी ऋक् साम(मि)धेनी तत्र विदुषो ज्ञान्द्विजान्हसन्तः । केलिप्रियत्वात्स्वरविशेषेणागुलीरचनाविशेपेण च साम(मि)धेनीः पठतो द्विजांस्तदनुकरणेनोपह १बी 'दल्या प्र. २ ए सी दल्या प्र. ३ ए सकम'. ४ ए लुगमस्ये. ५ ए यं सौग्नी स्त्री . ६ सी सौग्नी स्त्री. ७ सी ञ् शैत्येना'. ८ बी 'यः । त्यन्म. ९ए °ट् । सोग्नी. १० बी नां वि. ११ सी नि सावं. १२ ए निष्प्रयो'. बी निःप्रयो'. १३ बी समाधे'. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] सन्त इत्यर्थः । तथा मल्लिकाघ्रास्तदातिसुलभत्वादतिसुरभित्वाच्च विचकिलपुष्पाणि जिवन्तः ॥ वैरं नु दैवासुरमप्रशान्तो राक्षोसुरं वाजनि मन्मथोत्र । झगित्यनाट्यानपि नाट्यमध्यापयन्दधत्पाटलचापयष्टिम् ॥ ८१ ॥ ८१. अत्र ग्रीष्मे झगिति ग्रीष्मर्तुप्रादुर्भावकाल एव मन्मथोप्रशा. न्तः सदोद्दीप्तोजनि । दैवासुरं राक्षोसुरं वा वैरं नु यथा देवानामसुराणां चे रक्षसामसुराणां च संबन्धि वैरं शावतिकवैरत्वात्कदापि न प्रशान्तं स्यात् । कीदृशः सन् । पाटलायाः पुष्पं पाटलं प्रीष्मे हि पाटला पुष्प(ष्प्य?)ति । तदेव चापयष्टिस्तां दधंदत एव नास्ति नाट्यं नटानां धर्म आनायः संघो वा येषां ताननाट्यानपि नाट्यरहितान्मुन्यादीनपि नाट्यं नटानां नृत्तं स्मरोद्रेकोत्थं सविलासभ्रत्क्षेपादिकमध्यापयन् । योपि नाट्योपाध्यायः स्यात्सोपि शिक्षायष्टिं दधदनाट्यान्नाट्यानमिज्ञानाट्यमध्यापयञ् शिक्षाग्राहणायानुपशान्तः स्यादित्युक्तिः ॥ छान्दोग्ययाज्ञिक्यमपास्य बाइच्यौक्थिक्यमाथर्वणकाठकं च । असिन् शिरीषैर्दभुः स्रजो दण्डमाणवा अन्तसदश्च कावाः॥८२॥ ८२. अस्मिन्प्रीष्मे काण्वाः काव्यस्यर्षेरिमे दण्डमाणवा आश्रमिणां रक्षापरिचरणार्थी दण्डप्रधाना माणवा अन्तसदश्चाध्ययनार्थाः शिष्याश्च सुरभित्वादतिशीतत्वाच्च कण्ठादौ न्यासाय शिरीषैः शिरीषवृक्षपुष्पैः सजो दभुनन्ति स्म । ग्रीष्मे हि शिरीषाः पुष्प(ब्य?)न्ति । किं १बी न्तो रक्षो'. २ ए वाक्षनि. ३ ए योनु । झ: १५ सी विचिकि. २ बी पुष्पाणि. ३ सी ग्रीष्म , ४ ए मे रिगि.बी मे दिगि'. ५ सी च सं. ६ सी श्वतवै. ७सी दृक् पा. ८ ए सी लाया पु. ९बी पुष्पं पा. १० बी सी धत. ११ सी 'नां नृस्मरों'. १२ ए धना. १३ सी काण्वस्य'. १४ सी णार्थद. १५ एर्था शि. १६ बी सी शिक्षाश्च. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३० ६.३.१६१.] षोडशः सर्गः । ३१९ कृत्वा । छान्दोग्ययाज्ञिक्यं बाहृच्यौक्थिक्यमाथर्वणकाठकं च छन्दोगानां याज्ञिकानों बह्वृचानामौक्थिकानामाथर्वणिकानां कठानां च धर्ममान्नायं सङ्खं वापास्य ॥ किं दाक्षकं रैवत (ति) कीयगौरग्रीवीयकौपिञ्जलमातिथेयम् । उपस्थितं तच्चुलुकेश्वराय यदस्फुटन्काञ्चनकेतकानि ॥ ८३ ॥ ८३. काञ्चनकेतकानि ग्रीष्मर्तुभवानि स्वर्णवर्णकेतकी पुष्पाणि यदस्फुटन्विकसितानि तत्किं मन्ये चुलुकेश्वराय कुमारपालनिमित्तमातिथेयमातिथ्यमुपस्थितमुपागतम् । किंभूतम् । दक्षिकं रैवत ( ति ? ) कीयगौरग्रीवीय कौपिञ्जलं दाक्षीणां रैवतिकानां गौरीवाणां कौपिञ्जलानां चर्षीणां संबन्धि वनेवासिभिर्दाक्ष्यावृषिभिर्वनेषु विकसितानि काश्चनकेतकानि नृपार्थमातिथ्यमिव प्रगुणीकृतमित्यर्थः । राज्ञो हि कानादिभिर्विशिष्टवस्तुभिरातिथ्यं क्रियते ॥ संघेषु घोपेषु च वै (त्रै ?)दगाँर्गदाक्षेष्वलं हास्तिपदद्विजेषु । अस्मिन्नदृश्यन्त न वै(बै)दर्गोर्गदाक्षाङ्कलक्ष्माण्यतिवात्परागैः॥८४॥ 59 ८४. अस्मिन्ग्रीष्मेतिवान्तो गाढवात्यावानेनात्यन्तं परिभ्राम्यन्तो ये परागाः कुसुमरजांसि तैः कृत्वा वैदगार्गदीक्षा लक्ष्माणि विदोनों गर्गाणां दाक्षीणामृषीणां सत्कान्यङ्काः स्वस्वामिसंबन्धविशेषज्ञापकाः स्वस्तिकादयो लक्ष्माणि च स्वस्यैव ज्ञापकानि शिखादीनि नादृश्यन्त । १ सी दाक्षिकं . २ ए च खेद. ३ सी 'गार्ग्यदाक्ष्येष्व. ४ सी 'गार्ग्यदाक्ष्याङ्क १ बी बाहन्यौक्थि ं. २ सी 'विथकमा'. ३ बीनां वाहू. ४ ए सघं वा.. ५ सी दाक्षिकं . ६ ए ग्रीवीणां. ७ बीणां कोपि ८ सी णां च सं. ९ सी विकासि.. १० बी 'चनकेतकादि . ११ ए बी न्तो ग्राढ.. १२ सी 'दाक्ष्याङ्क'. १३ बी लक्ष्म्याणि. १४ बी 'नां गार्गा'. १५ ए बी क्षीणां स १६ ए कापि अङ्काः. १७ बी लक्ष्म्याणि. १८ सीन शेखा. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] 3 केषु । संघेष्वोघेषु घोषेषु च गोकुलेषु । किंभूतेषु । वैदगीर्गदाक्षेषु विदानां गर्गाणां दाक्षीणामृषीणां संबन्धिषु । तथालं रक्षादौ समर्था हास्तिर्पदस्यर्षेरिमे द्विजा येषु तेषु । ग्रीष्मे हि बहुवात्यावानेन सर्वासु दिक्षु परागा उच्छलन्ति तैश्च लोकदृशामाच्छादितत्वाद्विदानृषिसमूहेषु विदैत्वादिसूचीनि शिखादीनि लक्ष्माणि विदादीनां गोकुलेषु विदादिसत्कत्वसूचिनः स्वस्तिकाद्यां अङ्काश्च लोकैर्नादृश्यन्तेत्यर्थः ॥ 1 हालिकाः । सैरिक । इत्यत्र " हल० " [ १६१ ] इत्यादिनेकण् ॥ सामिधेनी । इत्यत्र “समिधः०" [ १६२ ] इत्यादिना टेन्यण् ॥ कुरुवृष्णिका । इत्यत्र “विवाहे " [ १६३ ] इत्यादिनाकल ॥ श्वावराहिकाणाम् । अत्र “भदेव०" [ १६४ ] इत्यादिनाकल ॥ भदेवासुरादिभ्य इति किम् । दैवासुरं राक्षोसुरं वैरम् ॥ नाव्यम् । अत्र “नटान्नृत्ते न्यः” [ १६५ ] इति न्यः ॥ छान्दोग्य । औक्थिक्यम् । याज्ञिक्यम् । बाहृच्य । अनाव्यान् । इत्यत्र “छन्दोग०” [ १६६ ] इत्यादिना न्यः ॥ १२ आथर्वण । इत्यत्र “आथर्वणिकाद् ० " [१६७ ] ईत्यादिनाण् ईकैलोपश्च ॥ काठकम् । अत्र “चरणादकञ्” [ १६८ ] इत्यकञ्ज् ॥ १६ दाक्षकम् । अन्न “गोत्राद् ०" [ १६९ ] इत्यादिनाकञ् ॥ अदण्डमाणवशिष्य इति किम् । काण्वा दण्डमाणवा अन्तसदश्च । “शकलादेर्यजः " [ ६.३.२७] इयञ् ॥ १ वी 'घेष्वावे". २ सीषु गोकुलेषु च । किं . ३ बी 'गार्गेदा' सी 'गार्ग्यदाक्ष्येषु ४ बी पदाहा पिंपद ५ बी सी मे ब° विदित्वादिशची. ८ बी कैनादृ". सामधे. न्दोग्यः । औ. सी 'न्दोग्यं । औ. १२ १४ वी इक्लो. सी इलो. ६ बी 'त्वाविदा'. ७ बी १०. सी 'हेत्या. ११ ए वणिक । इ'. १३ ए इना १६ बी गोत्रेत्या. १५ एञ् । अ ं. • Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.३.१७३.] षोडशः सर्गः । रैवत(ति?)कीय। गौरग्रीवीय । इत्यत्र “रैवत(ति?)कादेरीयः" [ १७० ] इतीयः ॥ कौपिञ्जलम् । हास्तिपद । इत्यत्र "कौपिञ्जल." [१७१ ] इत्यादिना ॥ वैदगार्गदाक्षेषु संघेषु घोषेषु। वैदगार्गदाक्षाङ्कलक्ष्माणि । इत्यत्र “संघघोष." [१७२] इत्यादिना ॥ अथ वर्षाः ॥ द्राक् शाकलैः शाकलकानु संघघोपानजानन्किल लक्षणाङ्कः । अशाकलाशाकलकेतरैर्नु नीपैरथाग्नीध्रसदोपि वर्षाः ।। ८५ ॥ ८५. अथ ग्रीष्मानन्तरमाग्नीध्रसदोप्यग्निमिन्धतेग्नीध आहिताग्नयस्तेषामिमानि गृहाण्याग्नीध्राणि तद्वासिनोपि नीपैनीपतरुपुष्पैः कृत्वा वर्षाः प्रावृटकालमजानन । किलान्ये लोकास्तथाविधनि विडगृहाभावागृहश्श्योतनायुपद्रवेण वर्षाकालं ज्ञातवन्त एव परं ये सदाग्निज्वालनव्रता अग्निविध्याना(?)भावाय गृहाणामत्यन्ताच्छादितनिबिडत्वेन वर्षाकृतोपद्रवाभावाद्वर्षा न ज्ञातवन्तस्तेनीध्रस्था अपि धाराकदम्बपुष्पाणि दृष्ट्वा प्रावृडाँगतेत्यजानन्नित्यर्थः । किलेति सत्ये । यथा किल शाकलैः शाकल्येनर्षिणा प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा "शकलादेर्यनः" [६.३.२७] इत्यनि शाकलास्तत्संबन्धिभिलक्षणाबैलक्षणैः शिखादिभिरकैश्च स्वस्तिकादिभिः कृत्वा शाकलान्संघघोषाल्लोका जानन्ति यथा वा शाकल. १बी वर्षा । अ. १ए यः । कोपिजल . २ ए सी त्र कोपि. ३ सी गार्ग्यदाक्ष्येपु. ४ सी गाग्यदा'. ५ ए °नो नी. ६ बी वर्षा प्रा. ७ ए प्राट्का'. ८ बी हश्चोत. ९ बीत ए'. १० सी विधाना. ११ बी "कृत्योप. १२ ए 'नीधस्था'. १३ बी स्थापि. १४ ए गत्ये त्य'. १५ बी °नवर्षि°, १६ सी षाशाकलैः शाकलेत्यत्र शाकला दिकञ्च केभ्योन्यै . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] केतरैः शाकैलकेभ्यो लक्षणाङ्केभ्योन्यैरन्यमुनिसत्कैर्लक्षणाकैः कृत्वाशाकलाञ् शाकलेभ्यः संघघोषेभ्योन्यान्संघघोषाञ्जना जानन्ति ।। अशाकलान् । शाकलकान्संघघोषान् । शाकलैः । शाकलैक । इत्यत्र “शाकलादकञ्च" [१७३ ] इत्यण् अकञ्च ॥ आग्नीध्र । इत्यत्र "गृहे." [१४] इत्यादिना रण अन्तर्वं च तृतीयबाधनाथ धादेशः ॥ तत्केतकं रथ्ययुगं नु नव्यं धूर्वय्यरथ्या नवकन्दली च । रथ्यो द्विरथ्यस्त्रिरथो नु वाश्वः पौरस्त्यवातश्च मनोभुवोभूत्॥८६॥ ८६. तत्सौरभश्चैत्यादिगुणैः प्रसिद्ध केतकं केतकीपुष्पं मनोभुवः कामस्य नव्यं रथ्ययुगं रथसत्कयूपमिवाभूत् । तथा नवकन्दली च भूतनाङ्क(?)रजातिवनस्पतिभेदो वा मनोभुवोत्र्यरेथ्याश्यः प्रधानं यो रथस्तदीया धूरिवाभूत् । यथा पौरस्त्यवातश्च पूर्ववायुश्च मनोभुवोश्वो न्वभूत् । कीदृशोश्वः । रथ्यो द्विरथ्यखिरथो वा महाबलत्वेन रथस्य द्वयो रथयोस्त्रयाणां रथानां वा वोढा । वर्षासु हि श्वेतकेतकं नवकन्दली पूर्ववातश्च स्युस्तत्र केतकस्य रथ्ययुगाकारत्वान्नवकन्दल्याश्च धुराकारत्वात्पौरस्त्यवायोश्चाति वेगत्वेनाश्वतुल्यत्वात्सर्वेषां चैषामुद्दीपनविभौवत्वान्मनोमुवाध्यासितस्य जगजनचित्तरंथस्य संक्षोभहेतुत्वाच्चैवमाशङ्का । मनसि प्राणिनां चित्ते भवति तिष्ठति मनोभूस्तस्य मनोभुव १ ए रम्ययु. २ ए वाश्व पौ'. १ बी कलांके'. २ बी कान् । शाकलकान्सं. ३ सील । ई. ४ सी लादिक. ५ ए हेत्या'. ६ बी "स्य तृ. ७ बी रथयु. ८ सी तनांति. ९ बी रथोग्यः. १० ए °धानयो. ११ ए 'त्सवैषां मु. १२ ए °मा सि प्रा. १३ सी रथ्यस्य. १४ सी महसा. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ६.३.१७८.] षोडशः सर्गः। इति साभिप्रायस्मरनामन्यसनेनात्र जगजनमन एव स्मररथत्वेन सूचितमिति स्मररथस्याङ्गिनोत्रानाशङ्कितत्वात्तदङ्गानां युगादीनामाशङ्का न घटत इति न वाच्यम् ॥ रथ्योश्वः । रथ्ययुगम् । सादि । त्रिरथोश्वः । अग्यरथ्यो धूः । अत्र "रथात." [१७५] इत्यादिनेदमयं यः प्रत्ययः स रथस्य वोढरि रथाङ्ग एव च स्यादित्यर्थ. नियमः । “यः" [ १७६ ] इत्यनेन तु यः ॥ त्रिरथः । इत्यत्र तु "द्विगो०" [६. १. २४] इत्यादिना यलुप् ॥ अन्ये तु स्वरादेरेव प्रत्ययस्य लुपमिच्छन्ति । तन्मते द्विरथ्यः ॥ आश्वेष(थ) पथ्याश्वरथाग्रंचक्रोत्थितैर्नु रेजे नवकेतकोत्थैः । आश्वं रथं पल्ययनं च सांवहितं रजोभिः स्थगयद्भिरङ्गम् ॥८७॥ ८७. अथ तथा नवकेतकोत्थैः प्रावृषेण्यकेतकीपुष्पोद्भवै रजोभिः परागै रेजे विस्फुरितम् । किंभूतैः सद्भिः । स्थगयद्भिरतिबाहुल्यान्याप्नुवर्द्विः । किं किमित्याह । आश्वमश्वसत्कं रथं तथाश्वं पल्ययनं च पर्याणं च तथा सांवहिनं संवोदुः सारथेः सत्कमङ्गं च यथाश्वेश्वसत्के पथ्यश्ववाह्या रथा आश्वरथास्तेषामिमान्याश्वरथानि यान्यग्रचक्राणि चक्रामाणि तेभ्य उत्थितैरुच्छलितै रजोभिराश्वरथादिस्थगयद्भिः सद्धी रेजे प्रस्तावात्कुमारपालयात्रायाम् ॥ आश्वस्थानचक्र । इत्यत्र “पत्र." [१७७ ] इत्यादिना ॥ भाश्वं रथम् । अत्र “वाहनात्" [ १७८ ] इत्यञ् ॥ १५ °ग्रवज्रोत्थि. २ बी तैनु रे. ३ ए भिः सग'. १ सी रस्या. २ए °थ्या धुः । . ३ बी नेवम'. ४ए त्यथनि', सीत्यर्थः नि. ५ वी वकैत. ६बी सी द्भिः । कि. ७ सी था प. ८ ए कर्मगं च. ९ बी थास्तथानिमा'. १० ए न्यम्रच'. ११ ए °या । आ°. १२ सी रथ्या. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] आश्वं रथम् । आश्वे पथि । भावं पल्ययनम् । अत्र " वाद्य ०" [ १७९ ] इत्यादिना वाहनाद्यः प्रत्यय उक्तः स बाह्यादावेवेदमर्थे स्यान्नान्यत्रेत्यर्थ नियमः ॥ सौंवहित्रम् । अत्र “वहे : ० " [ १८० ] इत्यादिनाञ् तृशब्दस्य चादिरिकारः ॥ द्राक्पाणिनीयार्थविदो नु मौदा नु जाजला वा कठकर्करा नु । सतैत्तिरीया अथ वारतन्तंत्रीयाँ तु चक्रुः शिखिनः स्वरास्तान् ८८ ८८. शिखिनो मयूरा द्राग् वर्षा प्रादुर्भावसमकालमेव तानुदात्तादिभेदै रागविशेषैश्च पाणिनीयार्थविन्मौदादिपु प्रसिद्धान्स्वरांश्चक्रुः । अतश्चोत्प्रेक्ष्यन्ते पाणिनीयार्थविदो नु पाणिनिना प्रोक्तोयोर्थ उदात्तस्वरादिस्तज्ज्ञा इव । किं वा मोदेन जार्जलिना कठेन कर्करेण तित्तिरिणा वरतन्तुना वर्षिणा प्रोक्तान्वेदान्विदन्यधीयते वा ये ते मौदादय इव ॥ अथ शरत् ॥ ५ शरत्प्रकाशाजनि खाण्डिकीयोखीयैथो वाजसनेयिभिर्नु । प्रणादिभिः शौनकभिर्नु वा छागलेयिभिर्नु स्वरचारु हंसैः ॥८९॥ 93 ८९. स्वरेण चारवो मधुरा ये हंसास्तैः कृत्वा शरत्प्रकाशा प्रकटाजनि । किंभूतैः । प्रणादिभिर्माधुर्यादिना प्रकृष्टुं शब्दायमानैरतश्वोत्प्रेक्ष्यते । खण्डिकेनोखेन वाजसनेयेन शौनकेनच्छगलिनी वर्षिभिः 53 १ बी नु मोदा. २ एन्तथात्री'. ५. ६ बी सी 'नुं । प्राणा'. ३ बी 'या न च'. ४ सी खाण्डकी.. १ बी वाह इ. २ बी 'दावावेद'. ३ ए सांवाहि'. ४ बी 'विन्मोदा'. ५ बी प्रेक्षन्ते. ६ सी 'क्ष्यते पा'. ७ बी 'दायत्त'. ८ बी सी जल्पिना. ९ बी ते मोददाय. १० सी इति । अ. ११ बी सी 'तैः । प्राणा. १२ ए सीत्प्रेक्षते. १३ ए 'ण्डिकेनो', १४ एना चर्षि. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.१८७.] षोडशः सर्गः। ३२५ प्रोक्तान्वेदान्विदन्त्यधीयते वा ये तैः खाण्डिकीयादिभिरिव । खाण्डिकीयादयो हि तत्तद्वेदपाठकाले प्रणदन्ति ॥ पाणिनीय । इत्यत्र "तेन प्रोक्ते" [१८१] इति यथाविहितं दोरीयः ॥ मौदाः । जाजलाः । अत्रै “मौदादिभ्यः" [ १८२ ] इत्यण् । कठकर्कराः । अत्र "कठादिभ्यो वेदे लुप्" [१८३ ] इत्यणो लुप् ॥ तैत्तिरीयाः । वारतन्तवीयाः । खाण्डिकीयौखीयैः । अत्र "तित्तिरि." [१८४ ] इत्यादिना-ईयण ॥ छागलेयिभिः । इत्यत्र “छगलिनो णेयिन्" [ १८५] इति णेयिन् ॥ शौनकिभिः । वाजसनेयिभिः । इत्यत्र "शौनकादिभ्यो णिन्" [१८६] इति णिन् ॥ शैलालिनः काश्यपिनश्च कौशिकिनश्च पाराशरिणश्च भिक्षोः । सत्पैङ्गिकल्पार्थविदश्च वाग्नु सद्योवदाता कुमुदालिराभात् ॥९०॥ ९०. सद्यः शरत्कालप्रादुर्भावक्षण एव कुमुदालिराभाब्यकसदित्यर्थः । कीदृशी। अवदाता निर्मला वाग्नु यथा वाग्वाण्यवदातापशब्दादिदोषमलरहितत्वेन शुद्धा स्यात् । कस्य कस्येत्याह । शिलालिना प्रोक्तं नटसूत्रं काश्यपेन प्रोक्तं पुराणं कल्पं कौशिकेन प्रोक्तं पुराणं कल्पं पारास(श)र्येण प्रोक्तं भिक्षुसूत्रं वेत्त्यधीते वा यस्तस्य शैलालिनः काश्यपिनश्च कौशिकिनश्च पाराशरिणश्च भिक्षोस्तथा पिङ्गेन प्रोतः पुराणेः कल्पः पैङ्गिकल्पः सञ् शोभनो यः पैङ्गिकल्पस्तस्यार्थं वेत्ति यस्तस्य च ॥ १ ए बी सत्पेङ्गि'. १बी त्तथेद. २ बी यः । मोदाः. ३ बी सीत्र मोदा. ४ए अथ की. ५ ए खाडिकी. ६ बी योखी'. ७ सीण् । कर्करा। छा'. ८ ए णेयन्. ९ सी ति णोयन्. १० एयः सर. ११ ए शिकेन. १२ बी °णः पुराणः क. १३ बी यः पि लि. १४ बी स्य स । पै. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ व्याश्रयमहाकाव्ये पैङ्गिकल्प । इत्यत्र “पुराणे कल्पे " [ १८७ ] इति णिन् ॥ काइयपिनः । कौशिकिनः । अने “ काश्यप ० " [ १८८ ] इत्यादिना णिन् ॥ शैलालिनः । पाराशरिणो भिक्षोः । अत्र " शिलालि० " [ १८९ ] इत्यादिना णिनूँ ॥ कार्शाश्वकं वाधिशाश्वि कर्मन्दिनीव कार्मन्दकमर्चनीयम् । सुकापिलेयिष्विव कापिलेयिकाम्नाय आभाच्छरदीह जाती ॥ ९१ ॥ E ९१. इह जगति शरदि जाती मालती पुष्पैमाभात्सौरभाद्युत्कर्षेण रेजे । वोपमायाम् । यथाधिकृशाश्वि कृशाश्वेन प्रोक्तं नटसूत्रं विदत्स्वधीयानेषु वा नटेषु कार्शाश्वकं कृशाश्विनां धर्म आम्नायः संघो वार्चनीयं सद्भाति । यथा वा कर्मन्दिनि कर्मन्देन प्रोक्तं भिक्षुसूत्रं विदत्यधीयाने वा भिक्षौ कार्मन्दकं कर्मन्दिनां धर्म आम्नायः संघोवार्चनीयं सद्भाति यथा वा सुकापिलेयिषु शोभनेषु कापिलेयेन प्रोक्तं नटसूत्रं विदत्स्वधीयानेषु वा नटेषु कापिलेयिका नीयः कापिलेयिनामान्नायो गुरुपरंपर्येणोपदेशो भाति ॥ ११ कृशाश्वि | कर्मन्दिनि । इत्यत्र “कृशाश्व०" [ १९० • ] इत्यादिनेन् ॥ वेदवच्चेत्यतिदेशाद्वेदेण् । ब्राह्मणमात्रे वेति नियमाद्वेदित्रध्येतृ विषयता ॥ “ चरणादकञ्” [ ६. ३. १६८. ] इत्येकञ्च स्यात् । कार्शाश्वकम् । कार्मन्दकम् । नटसूत्रे कापिलेयशब्दादपीच्छन्त्येके । सुकापिलेयिषु । कापिलेयिकानायः ॥ 93 १ ए बी लेयका'. १ सी २ बी जावीः । इ. कस्याप'. २ ए भिक्षो । भ. ५ बी 'ष्पमभात् शौर ६ एत्रं वद. १० ए ‘म्नायका ं. ११ ए सी [ कुमारपालः ] सर. ९ ए 'त्रं वद. १३ बी लेयका". ३ एन् । कर्शा'. ४ एि ७ ए मैदेन. ८ ए सूत्र वि. देन् । बाँ १२ एत्यञ्च. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.३.१९४.] षोडशः सर्गः। अभूष्यताब्जर्जलमत्र वाररुचैः सुवाक्यैरिव पाणिनीयम् । सन्माक्षिकं नु प्रियसारघाणां पेयं नृणां मानसवारितुल्यम् ॥९२॥ ९२. अत्र शरदि जलमब्जैरभूष्यत । कीदृक् । मनसा कृतं मानसं सरस्तस्य यद्वारि तत्तुल्यमगस्त्युदयेनातिनिर्मलमित्यर्थः । अत एव नृणां कर्तरि षष्टी । नरैः पेयं यथा प्रियं सरघाभिर्मधुमक्षिकाभिः कृतं सारघं मधु येषां तेषां सच्छोभनं माक्षिकं मक्षिकाभिः कृतं मधु पेयं स्यात् । यथा मानसवारितुल्यमपशब्दमलरहितत्वेन विशुद्धमत एव नृणां पेयं श्रोतव्यं पाणिनीयं पाणिनेन पाणिनिनावोपज्ञातं व्याकरणं वाररुचैर्वररुचिना कृतैः सुवाक्यैः कर्तृभिरभूष्यत ।। पाणिनीयम् । अत्र "उपज्ञाते" [ १९१ ] इति यथाविहितं दोरीयः ॥ वाररुचैः । मानस । इत्यत्र “कृते" [१९२] इत्यण् ॥ कृते ग्रन्थ एवेच्छन्त्यन्ये । तन्मते तु कृतेर्थे मानसेति न स्यात् ॥ माक्षिकम् । सारघाणाम् । अत्र "नान्नि० " [ १९३ ] इत्यादिना ॥ असावचीणमिवान्यदुज्झन्ती सर्वचर्मीण इवाजकोशे । चिक्षेप लक्ष्मी शरदम्बु कौलालके क्षिपेद्वारुटके न कश्चित् ॥९३॥ ९३. शरदन्यदजकोशादितरत्पुष्पमुझन्ती सती लक्ष्मी सौरभविकाशादिशोभामटजकोशे पद्मकुड्मले चिक्षेप । अन्योपि हि लक्ष्मी कोशे भाण्डागारे क्षिपति । शरदि ह्यन्जकोशेन्यपुष्पेभ्यः सर्वेभ्योप्यतिशयिता श्रीः स्यात् । यथा कोचिन्नायिकासार्वचर्मीणं सर्वश्चर्मणा १ए दुह्यन्ती. ९ ए °क्ष्मी सर'. ३ ए के पे'. १ए । सर. २ ए तं सरपं ये'. ३ ए पेयश्रो'. ४ ए °णिने. ५ सी यः । वेर. ६ बी सी ते कृ. ७ ए घाणम्. ८ ए भवका. ९ बी अमुकुले. १० सी यि श्रीः. ११ सी कापि नायि. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] कृतेः सार्वचमणो न तथासार्वचर्मणस्तं वस्त्रादिकृतं कोल्थेलिकादिमसारत्वेन पाटनभयादुज्झन्ती सती सर्वचमणे दाव (ब?)डीत प्रसिद्धायां चर्ममय्यामाभरणकरण्डिकायां लक्ष्मीमलंकारादिऋद्धिं क्षिपति । युक्तं चैतत् । यतः सर्वोपि कश्चिदम्वु कौलालके कुलालेन कृते घटघटीशरावादिभाण्डे क्षिपेन्न तु कश्चिद्वारुटके वरूटेन कृते सूर्पपिटकपटलिकादौ भाण्डे ॥ कौलालके । वारुटके । अत्र “कुलालादेरकञ्” [ १९४ ] इत्यकञ् ॥ सर्वचमणे । असार्वचर्मीणम् । अत्र “सर्व ० " [ १९५ ] इत्यादिनेन ईनञ् च ॥ अथ हेमन्त शिशिरौ ॥ येनौरसोरस्यविरिञ्चिपुत्राः सौभद्रविज्योतिषवेदिनश्च । तैरप्यतर्क्यप्रभवो हिमर्तुश्छन्दस्यवद्वारि हिमं चकार ॥ ९४ ॥ । ९४. हिमर्तुः शीतकालो हेमन्तः शिशिरश्च वारि हिमं शीतलं चकार । कीदृक् । अतर्क्यप्रभवो कस्मादाविर्भवनेनाज्ञेयोत्पर्त्तिकः । कैः । तैरपि य उरसा कृता औरसा न तथानौरसा मानसाः सनकाद्यास्तथोरस्या उरसा कृताः स्वाङ्गोद्भवाः काश्यपाद्या द्वन्द्वनौरसौ (सो) रस्या ये विरिश्चिपुत्रा विधिपुत्रा मुनयोर्भूवंस्तथा ये सौभद्रविज्योतिपवेदिनश्च सुभद्रामर्जुनपत्नीमधिकृत्य कृतं ग्रन्थं ये विदन्ति ये च ज्योतींष्यधिकृत्य कृतं ग्रन्थं विदन्ति ये महाज्ञानपात्राणीत्यर्थः । छन्दस्यवत् । 97 २ बी च्छन्द. २ सी लकादिकम. ६ सी तिकालः । कैः . १ ए बी 'विरञ्चि', १ सी 'तः सर्व'. स्वर्ष ं. ५ सी प्रभावो . ८.९ भूवस्त' ३ बी 'णे डाव'. सी 'भूवन्ये तथा १० सी . ४ ए ७ ए बी वाः कश्य. न्थं वा ये. ११ सी ये म. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ६.३.२०..] षोडशः सर्गः। ३२९ ओश्रावयेति चतुरक्षरम् । अस्तु औषडिति चतुरक्षरम् । ये यजामह इति पञ्चाक्षरम् । यजेति ब्यक्षरम् । घ्यक्षरो वषट्कारः । एष वै सप्तदशाक्षरेश्छन्दस्यो यज्ञमनुविहितः । अत्र स्वार्थे यः । यथानुष्टुवादिरक्षरसमूहस्तथैषां सप्तदशानामक्षराणां समूह श्छन्दस्य उच्यते । स यथापौरुषेयत्वान्महाज्ञानिभिरप्यतर्यप्रेभवः स्यात् । यद्वा यथा छन्दसेच्छया स्वाभिप्रायेण कृतश्छन्दस्य श्छन्दोनुवर्ती दासः शीतोपचारैर्वारि शीतलं करोति तथा हिमर्तुश्चकार ॥ उरस्य । अनौरस । इत्यत्र "उरसो याणौ” [ १९६ ] इति याणौ ॥ छन्दस्य । इति "छन्दस्यः" [ १९७ ] इत्यनेन निपात्यते ॥ सौभद्र । इत्यत्र "अमोधि०" [१९८ ] इत्यादिनाण् ॥ ज्योतिष । इति "ज्योतिषम्" [ १९९ ] इत्यनेन निपात्यम् ॥ शैशुक्रन्दं यद्वेदीयुः शिशुक्रन्दीयाभिज्ञाः षट्पदाः कुन्दयष्टिम् । उद्गायन्तः किं किरातार्जुनीयं किं वा सीतान्वेषणीयं प्रहृष्टाः ९५ __ ९५. षट्पदाः कुन्दयष्टिं कुन्दपुष्पलतामीयुः श्रिताः । यद्वद्यथा शैशुक्रन्दं शिशुक्रन्दं प्रस्तुत्य कृतं ग्रन्थं बालपुस्तिकाशास्त्रं शिशुक्रन्दीयाभिज्ञा बालपुस्तिकाशास्त्रस्य ज्ञातारः श्रयन्ते । किंभूताः पट्पदाः । प्रहृष्टाः कुन्दसौरभोत्कर्षाघ्राणेन प्रमुदिता अत एवोद्गायन्त उच्चैःस्वरेण १ बी दायुः. २ बी ष्टि । उ'. ३ बी किं करा. ४ बी सी वा शीता. ५ ए °षणी प्र'. १ बी °स्तु स्रौष. सी 'स्तु सौष. २ बी रच्छन्द'. ३ बी सी हच्छदन्द. ४ ए यंभ. ५ सी प्रभावः. ६ सी न्दस्त्रेच्छ. ७ ए वी तच्छन्द'. ८ बी सी स्यच्छन्दों. ९ सीन्दस्येत्य'. १० ए °ति समित्य. ११ बी यति । किं. ४२ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ख्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] शब्दायमानाः । अत एव चोत्प्रेक्ष्यन्ते । किं किरातार्जुनीयं किरातरूपधारी शम्भुः किरातोर्जुनः पार्थो द्वन्दे तावधिकृत्य कृतं ग्रन्थं किं वा सीतान्वेषणीयं सीतान्वेषणमधिकृत्य कृतं ग्रन्थमुद्गायन्तः ॥ शिशुक्रन्दीय । सीतान्वेषणीयम् । अत्र “शिशु०" { २०० ] इत्यादिनेयः ॥ शिशुक्रन्दशब्दान्नेच्छन्ति केचित् । शैशुक्रन्दम् ॥ किरातार्जुनीयम् । अत्र “द्वन्द्वात्प्रायः " [२०१] इतीयः । शालिनी छन्दः ॥ स्रोमा दूतासेवकाः स्रोतमार्गद्वारेघूर्यद्वदर्तवोस्थुः । पुष्पर्माहाराजिकान्प्रीणयन्तः पूपाल्येवापूपिकाः सौपकारान् ९६ __ ९६. स्रुघ्नं पुरं गच्छन्ति स्रौना दृतास्तथा चुनं भजन्ति सौना आसेवका द्वन्दे “स्यादावसंख्येयः" [३.१.११९] इत्येकशेषे स्रौनास्तथा स्रुघ्नं गच्छन्ति स्रौना मार्गास्तथा सुन्नमभिलक्ष्यीकृत्य निष्कामन्ति कन्यकुब्जद्वाराणि स्रौत्रानि द्वन्द्वे "एकार्थ चानेकं च" [३. १. २२ ] इति क्लीबस्य शेषे सौन्नानि तानि च तानि मार्गद्वाराणि च सौनमार्गद्वाराणि तेष्विति विषमपदार्थः। वाक्यार्थस्त्वयम्। अत्रार्बुद ऋतवोस्थुः । यद्वद्यथा स्रौत्राः सुन्नं गच्छन्तो दूताः स्रौत्रेषु सुत्रं गच्छत्सु मार्गेपु तिष्ठन्ति । यथा वा स्रोन्नाः सुन्नं भजन्त आसेवका वास्तव्यलोकाः सौन्नेषु जुन्नं लक्ष्याकृत्य निर्गच्छत्सु द्वारेषु कन्यकुब्जप्रतोलीद्वारेषु सुन्ने वास्तव्यत्वेन सुन्ने गन्तुकामत्वात्तिष्ठन्ति । कीदृशा ऋतवः । पुष्पैः सर्व १ ए°माराद्वा. २ ए कान्प्रणीय. ३ ए पालोवा. १बी कृत्यं ग्र. २ बी यं शीतोन्वे'. ३ सी न्दीयः । सी. ४ बी य । शाता. ५ ए य । भ. ६ ए 'न्ति स्रोना. ७ बी °न्ति स्रोता. ८ बी "न्ति स्रोता. ९ सी नि तानि च मार्गाणि द्वा. १० बी लक्षीक. ११ बी र्गत्सु. १२ बी तित्तिष्ठ. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.३.२०५. ] षोडशः सर्गः । र्तुकुसुमैः कृत्वा महाराजं भेजन्ति माहाराजिकाः कुमारपालसैनिकास्तान्प्रीणयन्तः । यथा सौपकारान्भोजनाय सूपकारान्भजतो लोकाना - पूपिका अपूपान्भजन्तः कान्दविकाः पूपाल्या पोलिकाश्रेण्या कृत्वा प्रीणयन्ति ॥ ऋतुभिः स हैमननिशाविशालधीर्मुमुदेन्तरुत्क वदुपस्थितैर्नृपः । गुरु दाक्षकार्जुनकवासुदेवकं महिमाथ नाकुलकमद्रकं दधत् ॥ ९७॥ ९७. अथ स नृपः कुमारपाल उत्कवद्युगपच्छीघ्रं चोपस्थानादुत्कण्ठितैरिवोपस्थितैरृतुभिः कृत्वान्तश्चित्ते मुमुदे । कीदृक् । हेमन्तं भजति हैमनीया निशा तद्वद्विशालधीरत एव महिम माहात्म्यं दधत् । किंभूतम् । गुरु महत्तथा दाक्षकार्जुनकवासुदेवकं दाक्षिमृषिमर्जुनं वासुदेवं च भजदथ तथा नाकुलकमद्रर्क नकुलं चतुर्थपाण्डवं भजत्तथा मद्राणां देशस्य राजा मद्रस्य राज्ञोपत्यं वा माद्रः " पुरुमगध ० ' [ ६.१. ११६] इत्यादिनाम् । माद्रं माद्रौ मद्रान्वा भजेद्वा दक्ष्यादिसंबन्धीत्यर्थः ॥ 99 स्त्रौघ्नद्वारेषु । इत्यत्र “अभि०" [ २०२ ] इत्यादिनाम् ॥ वनमार्ग । स्रौघ्ना दूताः ॥ अत्र " गच्छति ०” [ २०३ ] इत्यादिना‍ ॥ स्रौघ्ना आसेवकाः । अत्र " भजति” [ २०४ ] इत्यण् ॥ माहाराजिकान् । इत्यत्र “महा०" [ २०५ ] इत्यादिनेकणु ॥ १ सी 'विलासी'. २ एहिनाथ. १ बी भवन्ति. बीतै ऋतु". तुर्थ पा. ८ बीरुष'. सी 'मार्गः । स्रौ. ३३१ २ एस्ताप्रणीय. ३ ए सी था सूप, ४ एतै रुतु. ५ए देवंदा' सी 'देवं कं° कंचन'. ९ ए "जन्वा दा. दाक्षादि . ६ सी १० बी ७ सी ११ बी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ व्याश्रयमहाकाव्ये मारणः मापूपिकान्(काः) । इत्यत्र "अचित्ताद" [२०६] इत्यादिनेकण् । अचित्तादिति किम् । सौपकारान् ॥ अदेशकालादिति किम् । स्रौना आसेवकाः। हैमननिया ॥ वासुदेवकम् । अर्जुनक । इत्यत्र "वासुदेव." [ २०७ ] इत्यादिनाकः ॥ गोत्र । दक्षिक । क्षत्रिय । नाकुलक । इत्यत्र "गोत्र." [ २०८ ] इत्यादिनाकम् ॥ मद्रकम् । अत्र "सपूर्वा(रूपा)द्" [२०९] इत्यादिना प्रकृतिः प्रत्ययश्च राष्ट्रवत् ॥ नन्दिनी छन्दः । स्जौ स्जौ गो नन्दिनी ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ षोडशः सर्गः ॥ १ए कान् २ बी सी न् । आदे'. ३ एम् । आर्जु. ४ ए दाक्षः । ई. बी दाक्षिक'. ५ बी रशि. ६ सीडशस'. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये सप्तदशः सर्गः । सैन्यात्सोदामनीलोला वर्णासातो वनेष्वयुः । नार्योथ पुष्पाण्युच्चेतुमुरस्तःकृत्य वल्लभान् ॥ १॥ १. अथ सर्वर्तुप्रादुर्भवनानन्तरं नार्यः पुष्पाण्युचेतुं सैन्याद्वनेध्वयुः । कीदृक्षु । वर्णासातो वर्णासया नद्यैकदिक्केषु यस्यां दिशि व सा तस्यां सस्वित्यर्थः । किं कृत्वा । वल्लभानुरस्तःकृत्योरसा तुल्यदिशः कृत्वातिवाल्लभ्यादृदयाने कृत्वेत्यर्थः । किंभूताः सत्यः । मुदामाद्रिस्तेनैकदिक् सौदामनी विद्युत्सुदामा नामाद्रियस्यां दिशि नस्यां विद्युत्तेन सा सुदाम्ना सहकदिगुच्यते । तल्लोला वनाभिमुखचलनेन चञ्चलाङ्गयः ।। तत्रोरसीकता वृक्षाः स्रोनीभिः कौचवार्यया । शाण्डिक्यासैन्धवीवार्णवीभिर्वल्लीयुता न्वभान् ॥ २ ॥ २. तत्र वनेषु वृक्षा वल्लीयुता नु वल्लीवेष्टिता इवाभान् । यत उरस्यीकृता उरसैकदिकाः कृता हृदयसंमुखीकृताः पुष्पोच्चयनार्थमारो १२ १ बी दामिनी'. २ बी वर्णसोतो. ३ एर्योव पु. ४ ए ण्युत्वेतु'. बी ‘ण्युच्चैतु. ५ बी वनभा'. ६ ए भातः । अं. ७ सी त्रोत्तर.. ८ ए सी रसीकृ. ९ बीक्षाः । स्रोनी. १बी अत्र सं. २ एण्युच्छेतुं. ३ बी र्णासया नाकादि'. ४ ए नुहस्वःकृ. ५सी कृत्वा. ६ बी तुल्यादि. ७ बी सी दामिनी. ८ ए °मा वामा'. ९ए सी चत्वेन. १० एनेच च. ११ बी °सैकादिकाः कृ. १२ सी दिशि क. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] हविषयीकृता इत्यर्थः । कामिः । स्रौनीभिः सन्नो देशो निवास आभिजनो निवासो वा यासां ताभिस्तथा कौचवार्यया कूचवार आभिजनो निवासो यस्यास्तया च तथा शाण्डिक्यासैन्धवीवार्णवीभिः शण्डिकः सिन्धुर्वर्णश्चाभिजनो निवासो यासां ताभिश्च स्त्रीभिः ॥ सौदामनी । इत्यत्र "टस्तुल्यदिशि" [ २१० ] इत्यण् ॥ वर्णासातः । अत्र "तसिः" [२११] इति तसिः॥ उरस्तःकृत्य । उरस्यीकृताः । अत्र "यश्चोरसः" [२१२] इति यस्तसि ॥ स्रोनीभिः । अत्र “से०" [ २१३ ] इत्यादिना "भामिजनात्" [२१४] इति चाण् ॥ शाण्डिक्या । कौचवार्यया । इत्यत्र "शण्डिकादेयः" [२१५] इति ण्यः॥ सैन्धवीवाणवीमिः । अत्र "सिन्ध्वादेरज्" [ २१६] इत्यने । सालातुरीयास्तौदेय्यो वामतेय्यश्च शस्त्रिभिः । हृद्गोलीयैः कृतारक्षाः कुसुमान्यवचिचियरे ॥३॥ ___३. सालाँतुरस्तूदी वर्मती च देशा आभिजना निवासा आसां ताः सालातुरीयास्तौदेय्यो वामतेय्यश्च नायिकाः कुसुमान्यवचिच्यि १ए देय्यौ वा'. सी देव्यो वा. २ ए तेयश्च. बी तेय॑श्च. ३ ए 'न्यविचि. ४ ए रे । शालातुलस्तू. १ए त्यर्थका'. २ बी 'भिः । स्रोनी. ३ बी या त'. ४ बी मिः शाण्डि'. ५ बी धुवर्ण. ६ बी सी दामिनी. ७ बीत्र स्तु. ८५ कृत्यः । उ. ९ बी सी रसीकृ. १० बी श्च । स्रोनी. ११ वी देर्णः ई. १२ बी सी वीवर्ण. १३ ए ञ्। शाला'. १४ बी लास्तुलस्तू. १५ ए देव्यौ वा. सी देव्यो वा. १६ ए बी तेर्यश्च. १७५ 'न्यविचि. १८ बी चिरे. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.४.३.] सप्तदशः सर्गः। ३३५ रेचुण्टयन् । किंभूताः सत्यः । हृद्ोलो गिरिराभिजनो निवासो येषां तैर्हगोलीयैः शस्त्रिभिः शस्त्राजीवैः कृतारक्षाः ।। सालातुरीयाः । अत्र "सला." [ २१७ ] इत्यादिनेयण ॥ तौदेय्यः । वामतेय्यः । अत्र "तूदी०" [२१८] इत्यादिनैयण् ॥ हृद्गोलीयैः । अत्र "गिरे०" [२१९] इत्यादिनेयः ॥ त्रयोविंशः पादः ॥ आक्षिकी चाक्षिकादाक्षिकं लिप्सुः पुष्पमुच्चतः। काप्युत्क्षिपन्ती दोर्मूलं कौतुकादीक्षिताभ्रिकैः ॥ ४ ॥ ४. कापि कामिन्याभ्रिकैरघ्या तीक्ष्णामया.. काष्ठमय्या कुदालिकया खनद्भिरश्रान्तखननेनातिश्रान्तैरपीत्यर्थः । कौतुकात्साभिलाषमीक्षिता । यतो दोर्मूलं कक्षाप्रदेशमुभिपन्त्यूचं नयन्ती । एतदपि कुत इत्याह । यत उच्चतो वृक्षस्योच्चादुपरिभागात्पुष्पं पुष्पजातिं लिप्सुलव्धुमिच्छुः । यथाक्षिक्यक्षैः पाशकैर्जयन्ती रूयाक्षिकादक्षैभव्यतो द्यूतकारादाक्षिकमर्जितं पणं लिप्सुः स्यात् ॥ आक्षिकम् । आक्षिकी। आक्षिकात् । आनिकैः । अत्र "तेन." [२] इत्यादिना जितादिष्वर्थेषु “इकण्" [ 9 ] इतीकण् ॥ मौद्गदाधिककौलत्थतैन्तिडीकेष्विवोज्झती। कौलस्थमनवं पुष्पं पुष्पेष्वन्यान्येदाददे ॥५॥ १बी ताभ्रकैः. २ बी मौद्गादा'. ३ ए “त्यतेन्ति'. ४ ए सी लत्यम'. ५ सी न्यपाद. १ ए सी देव्यः । वा. २ सी नेति'. ३ प पन्तीमूल. ४ सी पाशै. दीव्य. ५५ कैदीं. ६ सी जितपाणि लि. ७ सी °क्षिकी। अक्षि'. . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ५. अन्या ख्यन्यत्पुराणपुष्पेभ्य इतरनवं पुष्पमाददे। कीहक्सती । पुष्पेषु मध्येनवं पुराणं पुष्पमुज्झती मौद्गदाधिककौलत्यतैन्तिडीकेष्विव यथा मुद्रेर्दना कुलत्थैस्तिन्तिडीकया चाम्लिकया संस्कृतेषु मुद्गयूषरसालाकुलत्थयूषाम्लिकापानकादिषु वस्तुषु मध्ये कोपि कौलत्थं (स्थं) कुलत्थ(स्थ)संस्कृतं वस्तूज्झति मौद्गाद्यपेक्षया कौलत्थ(स्थ)स्य विरसत्वेन परिहेयत्वात् ॥ .. दाधिक । इत्यत्र "संस्कृते" [३] इतीकण् ॥ कौलत्थ । कोपान्त्य । तैन्तिडीकेषु । इत्यत्र “कुलत्थ." [५] इत्यादिना ॥ अन्ये तु कुलत्थ(स्थ)शब्दात्सकाराकान्तथकारादणं मन्यन्ते । कोलस्थम् । अन्ये तु कवर्गोपान्त्यादपीच्छन्ति । मौद्ग ॥ न तो दाधिकौ लवणेथूर्णिोतिकैः । यामीणादलित्रस्ता काचिदालिङ्गनैः प्रियम् ॥६॥ ६. स्पष्टः । किं तु दाधिकैर्दभ्ना संसृष्टैः शालिकरम्बादिमिर्गौद्रेर्मुद्रः संसृष्टैर्मुद्रयुक्तः शाल्यादिभिरित्यर्थः । लवगैर्लवणेन संसृष्टैः शाकादि. भिश्चर्णिघातिकैश्चर्णेन कर्पूरादिक्षोदेन संसृष्टाश्चूर्णिनो मोदकादयस्तथा घृतेनोपसिक्ता घार्तिका घृतपूरा द्वन्द्वे तैश्च सर्वगुणसंपूर्णसरसरसवतीकरणेनेत्यर्थः ॥ दाधिकैः । अत्र "संसृष्टे" [५] इतीकण् ॥ १बी था दधि. २ ए बी घातिकः. ३ बी सी थाप्राणा. १ए 'राणापु. २ ए न्यतिडी'. ३ ए ति मुद्गा. ४ सी 'याकुल'. ५ एन्य । तिन्ति'. ६ ए कुलित्य. ७ ए सरका. ८ ए सी लत्थम्. ९ सी शाका. १० ए भिमौमुद्रः. ११ एवणे. १२ ए बी घातिकै. १३ सी न शकरा. १४ बी सी °णेनापीत्य. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.११.] सप्तदशः सर्गः लवणैः । अत्र "लवणादः" [ ६ ] इत्यः ॥ चूर्णि । मौद्रैः । अत्र "चूर्ण." [ ७ ] इत्यादिना इन् अणौ ॥ धार्तिकैः । अत्र "व्यञ्जनेभ्यः०" [ ८ ] इत्यादिना-इकण ॥ कस्यांचित्प्रेयसो जातपुष्पोच्चयश्रमाम्भसि । अनाविकानौडुवि(पि?)क्यघटिकेव ममज दृक् ॥ ७॥ ७. प्रेयसो दृक्कस्यांचित्स्वप्रेयस्यां ममजाब्रुडचिरमवस्थितेत्यर्थः । यतो जातं संपन्नं पुष्पोच्चयेन श्रमाम्भः खेदजः स्वेदो यस्यां तत्रे स्थूलमुक्ताफलकल्पैः स्वेदविन्दुभिरदृष्टपूर्वी श्रियं प्राप्तायामित्यर्थः । अना. विकानौडुविक्यघटिकेव । इवः प्रत्येकं संबध्यते । यथा नावा तोंडुवेन प्लवेन घटेन चातरती(न्ती) रूयम्भसि मजति ॥ अनौद्यविकी । इत्यत्र “तरति" [ ९ ] इतीकण् ॥ अनाविका । अघटिका । इत्यत्र “नौद्वि." [१०] इत्यादिनेकः ॥ दाधिकेत्याक्षिपन्त्यन्या ययाचे पदिकं पतिम् । उच्चस्थपुष्पं दुष्प्रापं पंर्पिकाश्विकहास्तिकैः ॥८॥ ८. अन्या काचित्पर्पिकाश्विकहास्तिकैः पर्पणोडुपेनाश्वेन हस्तिना च चरद्भिरपि नरैरुच्चतरंदुस्तटीस्थतरुस्थत्वेनात्युन्नततमत्वाद्दुष्प्रापमुच्चस्थपुष्पमुच्चवृक्षशिखरस्थानि पुष्पाणि पतिं ययाचे। यतः पदिकं पादचारिणम् । पदिको हि पादबलेन वैषम्यौनत्योपेतमपि वृक्षमारुह्य १ ए सी विकाघ'. २ ए पपिकांश्वि. बी पथिका'. १ एणि । मुद्रः. २ बी णौ । झुर्ति'. ३ बी यस्यो दृ. ४ सी चि. त्प्रेय. ५ एव मु. ६ बी ल्पैः श्वेद'. ७ बी वा तश्रिी. ८ बी नौडवि'. ९ बी था नवा. १० ए °तरं रूय. ११ ए बी नौडवि. १२ बी तरुदु'. १३ ए तनत्वा. १४ ए मुच्च, १५ बी म् । पादि. १६ ए बी पम्योत्र, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] 1 पुष्पाद्यानेतुं समर्थः । कीदृक्सती । दध्ना चरति भक्षयति यस्तत्संबोधनं हे दाधिकेत्येवंप्रकारेणाक्षिपन्ती पत्युरनभिमतपुष्पप्रदायित्वेन रुषितत्वाद्धे दभ्राघ्राण किमितीदं पुष्पमर्पयसीति तं दाधिकत्वेन निन्दन्तीत्यर्थः ॥ गत्यर्थ । हास्तिकैः । भक्षार्थ । दाधिक । इत्यत्र " चरति " [११] इतीकण् ॥ I । पfर्पकाश्विक । इत्यत्र "पदेरिकट् ” [१२] इतीकद ॥ 3 पदिकम् । “पदिकः " [१३] इति निपात्यते ॥ श्वागणिकज इत्युक्त्वार्पयन्पुष्पं प्रियोन्यया । ऊचे प्रत्या श्वगणिकजावैतनिक इत्यलम् ॥ ९ ॥ ९. अन्यया नत्या नर्मकेल्या ताडयेन्त्या सत्यालमत्यर्थं प्रिय ऊ । कथमित्याह । श्वगणिकजावैतनिक इर्ति श्वगणेन चरति श्वग णिक आखेटिकस्तस्माज्जाता श्वगणिकजा तस्या वेतनेन जीवति वैतनिको भृत्यस्त्वमसीति मम दासस्त्वं तस्मात्स्वाभिमतं त्वया कारयिष्याम्येवेति तात्पर्यार्थ इति । यतः कीदृक् । पुष्पमर्पयेन्। किं कृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । हे वागणिक हे आखेटिकपुत्रि मया सुकुमालेना (रेणा ? ) स्य पुष्पो चयनरूपस्य कष्टकर्मणो विधापनेनात्यन्तं निर्दय इत्यर्थ इति ॥ अवैशिक्यो विलासिन्यो लीलानां पुष्पवल्लिषु । ऋयिका विक्रयिकाः किं क्रयविक्रयिकाः किमु ॥ १० ॥ ३ बी 'ते । स्वाग. ६ सी 'ति स्वर्ग'. ९ ए बी यत् । किं. चिकोत्ये '. १. ए हे "यन्या स २ ए सी भक्ष्यार्थ'. ५ सी ह । स्वर्ग. ८ ए 'ध्यामोवे. बी घ्यामेत्रे'. ११ बी 'न'. ४ ए ७ सी 'ति स्वर्ग'. १० एमिक्याह. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.४.१७.] सप्तदशः सर्गः । ३३९ १०. अवैशिक्यो वेशेन वेश्यागृहेणाजीवन्त्यः कुलाङ्गनाः पुष्पवल्लिषु पुष्पोच्चयार्थ पुष्पाढ्यलतानां समीपे लीलानां विलासानां क्रयिका विक्रयिकाः किं क्रयविक्रयिकाः किमु क्रयेण विक्रयेण क्रयसहितो विक्रयः क्रयविक्रयस्तेन वा जीवन्त्य इवासन् । मूल्येन ग्राहिका इव दायिका इव वा । ग्रहणदाने द्वे अपि कुर्वाणा इव वासन्नित्यर्थः । यतश्चलनादिवैशिष्टयं विलासः सोस्यासां विलासिन्यः । स्त्रीषु लतासु च चलनादिवैशिष्ट्यरूपाणां विलासानां सद्भावादेवमाशङ्का ॥ श्वगणिक श्वागणिक । इत्यत्र "श्वगणाद्वा" [१४] इति वेकट् ॥. वैतनिकः । वैशिक्यः । अत्र "वेतनादेर्जीवति" [१५] इतीकण् ॥ क्रयविक्रयिकाः । कयिकाः । विक्रयिकाः । अत्र "व्यस्ताच्च०" [१६] इत्यादिनेकः ॥ वत्रिकायुधिकानायुधीयत्रातीनदारवत् । किं दून्भ्राम्यसि पत्येति श्रान्तोचे कापि संभ्रमात् ॥११॥ ११. कापि खी श्रान्ता पुष्पोच्चयनार्थमनेकतरुषु भ्रमणात्खिन्ना सती पत्या संभ्रमात्प्रेमातिरेकोत्थादादरादूचे । कथमित्याह । वस्त्रं मूल्यं तेन जीवन्ति वस्निका: कर्मकरास्तथायुधेनोपचारादायुधकर्मणास्त्रकरणादिना जीवन्त्यायुधिका लोहकाराद्या अनायुधीया आयुधकर्मानुपजीवि १ बी त् । कं . १ए वेश्येन. २ सी "यिकाः किं. ३ ए यः वि. ४ ए मूलोन. ५ सी द्वे कु. ६ सी °णा अपि वा. ७ सी ललना. ८ ए शिष्यं वि. ९ ए च वल'. सी च लल'. १० ए °णिकः श्वा. ११ सी क । ई. १२ सी 'नेकेषु त”. १३ बी पत्याः सं. १४ ए °स्तिका क. १५ सीमकारा. १६ ए बी लोहारा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] नश्चर्मकाराद्यास्तथा नानाजातीया अनियतवृत्तयः शरीरायासजीविनः संघा वातास्तत्साहचर्यात्तत्कर्मापि जातं तेन जीवन्ति ब्रातीना भास्महिकादयो द्वन्द्वे तेषां दारा यथा काष्ठतृणादिग्रहणाय दून्भ्राम्यन्ति क्या त्वं किमिति द्रूस्तरून्भ्राम्यसीति ॥ वखिक । इत्यत्र “वनात्" [१७] इतीकः । अनायुधीय । आयुधिक । इत्यत्र “आयुधादीयश्च" [१०] इतीयेकौ ॥ वातीन । इत्यत्रं “वातादीन" [१९] इतीनञ् ॥ सी वैरं किमाक्षयूतिकत्यागिमगातिकम् । आपमित्यकवत्पत्येत्यूचेन्या कुसुमैनती ॥ १२ ॥ १२. अन्या कामिनी केलिवशात्केनापि भर्तृव्यलीकेन रुष्टत्वाद्वा कुसुमैत्रंती सती पत्योचे । कथमित्याह । त्वं किमाक्षयूतिकत्यागिमगातिकमक्षयूतेन त्यागेन गतेन च निवृत्तं वैरं स्म: यत्त्वं पुष्पैमा वाडयसि तत्किं यत्त्वं मया पुराक्षद्यूतेन दानेन गत्या च पराजिता - वैरं स्मरसीत्यर्थः । आपमित्यकवंदपमित्य प्रतिदानेन बुद्धिस्थेन निवृत्तमापमित्यकमुद्धारेण गृहीतं वस्तु कदैतदहं प्रतिदास्यामीति यथा काचित्स्मरतीति ।। काप्ययाचितकप्रेम्णि ताम्यत्यौत्सङ्गिके प्रिये । तिरोभवन्नर्मणाशु पुष्पपैटाकिकी द्रुषु ॥ १३ ॥ १बी मा. २ बी गिनम. ३ ए पतेत्यू. १बी मकरा' २ बी त्तत्तत्क. ३ बी "न्ति व्रती . ४ बी सी माम्महि'. ५ए दार य. ६ बी ति द्रून्भ्रातरून् न्यसी'. ७ वी वीयको. ८ ए येको। वा.' ९ बोत्र व्रतादीन्. १० सी केना. ११ बी यत्तं पु. १२ एन मत्या. १३ सी निवृत्तं. १४ ए ववद. १५ सी निवृत्त. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.४.२४. ] सप्तदशः सर्गः । ३.४१ १३. कापि कामिनी नर्मणा हास्यादाशु झटिति द्रुषु तिरोभवत् । क्व सति । प्रिये ताम्यति "पेष्ठी वाना दरे” [ २. २. १०८ ] इति सप्तमी । प्रियाया अदर्शनात्खिद्यमानं प्रियमना हैत्येत्यर्थः । किंभूते । अयाचिंतकं न याच्ञया निर्वृत्तं स्वाभाविकं प्रेम यस्य तस्मिन्नत एवौत्सङ्गिक उत्सङ्गेन हरति प्रियां नैयति निमेषमात्रमपि प्रियाविरहस्यासहिष्णावित्यर्थः । कीदृक्सती । पुष्पाणां पैटाकिकी पिटाकेन पिटs इति प्रसिद्धेनं वंशभाजनेन हरन्ती पुष्पाहरणार्थं पिटकं वहन्तीत्यर्थः ॥ 93 १४. आक्षद्यूतिक । गातिकम् । अत्र “निर्वृत्तेक्ष०" [२०] इत्यादिनों इकण् ॥ त्यागिम । इत्यत्र “भावादिनः " [ २१ ] इतीमः ॥ अयाचितकेँ । आपमित्यक । इत्यत्र “ याचित०” [२२] इत्यादिनां कण् ॥ औत्सङ्गिके । पैटाकिकी । इत्यत्र “हरति ०" [ २३ ] इत्यादिनेकण् ॥ काचिदौक्षीगृहीत्वाम्बु भस्त्रिकादंशभारिकात् । सखीं श्रान्तां निकुञ्जान्तर्भूत्वा विवैधिकी स्वयम् ॥ १४ ॥ १४. काचिन्निकुञ्जान्तर्वनगहनमध्ये श्रान्तां पुष्पोच्चयेन खिन्नां सखीमौक्षीत्सिषेच । किं कृत्वा । विवधेन मार्गेणं हरति विवधिकी १९ १ एम्बुभुत्रि. २ बी श्रान्ता नि.. دژ ३ ए वकी १ सी षष्ठि प्रि. २ बी 'यमानादृतेत्य ं. ३ ए 'दृनेत्य'. ५ बी निवृत्त. ६ ए प्रियं न. पिटके.. १० बी सी पिउ. 'थे ं । अक्ष'. १४ सी निवृत्ते'. १७ बी "ना-इक'. २० ए॰ण वा ह ै, ७ बी नयाति. ११ बी नवांश'. १५ सी 'ना - अक'. सखीं खिन्नां मौ. १८ एन ४ बी 'चितं न. एपेटा. ९ बी १२ सी पाभर. १३ ए १६ सी तकः । आ. १९ ए बी विविवे'. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ज्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] श्रान्तसख्या वाहिकादानान्मार्गदायिनी स्वयं भूत्वा । तथा भस्त्रिकाद्भस्त्रया दृतिना जलं हरतो भृत्यादेरम्बु गृहीत्वा । किंभूतात् । अंशो भागभूतो भारो जलभारोंशभारस्तेन हरत्यंशभारिकस्तस्माहितीयेन सहाम्बुभारं वहत इत्यर्थः ॥ काप्यवीवधिके कुजे नीत्वा वैवधिकच्छलात् । कांचित्कौटिलिकीभूय प्रियो भ्रमयति प्रियाम् ॥ १५ ॥ १५. कांचित्प्रियां प्रियो भ्रमयति नर्मणेतस्ततो नयति तत्कालापेक्षया वर्तमाना। किंकृत्वा । वैवधिकच्छलान्मार्गेण नेतुश्छलादहमत्र मार्गेण नेतास्मीति व्याजादित्यर्थः । कापि कुजे वनगहने नीत्वा। किंभूते । अत्यन्तं वृक्षादिभिर्गुप्तिलत्वान्नास्ति वीवधिको मार्गेण नेता यत्र तस्मिन् खिल इत्यर्थः । तथा कौटिलिकीभूय कुटिलिकाशब्देनाग्रे 'वक्री लोहादिमय्यङ्गाराकर्षणी यष्टिर्वा कुटिला गतिर्वा पलालोत्क्षेपणोग्रे वक्रो दण्डो वा परिव्राजकोपकरणभेदो वा चौराणां नौगृहाचारोहणार्थ दामाग्रप्रतिबद्ध आयसोर्धाडशो वोच्यते । यथा कर्मारकर्षकपरिव्राजकचौरा अङ्गारपलालपुष्पनावः . कुटिलिकया हरन्त्येवं वैवधिकच्छलेन प्रियाया आकर्षकीभूयेत्यर्थः । यद्वा कुटिलिकया कुटिलगत्या हॉरकीभूय ॥ १ए चित्कोटिकी . २ बी सी कौटलि. १ सी ख्या बाहिं'. २ ए वाहनादा'. ३ बी सी र्गनायि'. ४ बी तो तृत्त्वादे'. सी तो दे'. ५ ए बी तुच्छला. ६ ए °ण नोता. बीण नैता. ७ बी जे ग. ८ बी सी गुपिल'. ९ए °स्मिन्नखि. सी स्मिनखि'. १० सी कोटलि': ११ ए टिकी. १२ सी टिलका. १३ बी वका लो'. १४ ए 'का लेहा'. १५ बी 'कर्षिकी. १६ ए त्यर्थे । य. १७ बी टिलाग'. २८ ए सी हारिकी. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । है. ६.४.२७.] सप्तदशः सर्गः। ३४३ भस्त्रिकात् । अंशभारिकात् । इत्यत्र "भस्रादेरिकट" [ २४ ] इतीकद ॥ विवधिकी । वीवधिके । अत्र "विवध." [२५] इत्यादिनेकड्वा ॥ पक्षे । इकणे। वैवधिक ॥ कौटिलिकीभूय । इत्यत्र "कुटिलिकाया अण्" [२६] इत्यण् ॥ आम्भसिकानौजसिको मरुदप्रातिलोमिकः । अमूः साहसिको भूत्वा समस्माक्षीच्छ्रमश्लथाः ॥१६॥ १६. मरुद्वातः श्रमश्लथाः पुष्पोच्चयोत्थखेदेन निःसहा अमूः कामिनीः समस्पाक्षीत् । कीदृक् । अम्भसा वर्तत आम्भसिकः सजलकणः से चासौ न ओजसा बलेन वर्ततेनौजसिकश्च मृदुः स तथा । तथा न प्रतिलोमं वर्ततेप्रातिलोमिकः पृष्टवाहित्वेनानुकूलः । किं कृत्वास्पृशत् । सहसा वर्तते साहसिकः परदारस्पर्शोत्थस्यायतौ विनिपातस्यानालोचकत्वादविमृश्यकारी पारदारिक इव भूत्वा । साहसिक एव हि स्मरोद्रकोत्थस्वेदेनाम्भसिकोनौजसिकोप्रातिलोमिकश्च सन् परनारीः स्पृशति ॥ गोत्रं पुष्पार्पणे प्रातिकूलिक्या गृह्णतापरा । प्रातीपिक्यानुकूलिक्याज्ञायि प्रौढा पियेण न ॥ १७ ॥ १७. प्रियेणापरा कामिनी प्रतीपं वर्तते प्रातीपिकी प्रतिकूलानुकूलं वर्तत आनुकूलिक्यनुकूला वा नाज्ञायि । कीदृशा । पुष्पार्पणे प्रातिकूलिक्याः प्रतिकूलं वर्तमानायाः सपत्न्या गोत्रं नाम गृह्णतोच्चारयता १ ए बी "कूलक्या. १बी विविधि'. २ बी विविध. ३ सी ण् । कौटलि'. ४ ए क । कैटि'. ५ बी स वाष्णो न. ६ सी °था न. ७ ए "सिकानौ . ८ए पं पर्वते. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] गोत्रस्खलितापराधं कुर्वतापीत्यर्थः । यतः कीटक् । प्रौढा । प्रौढा हि गम्भीराशयत्वेन गूढाकारेङ्गिता स्यात् । यदुक्तम् । लब्धायतिः प्रगल्भा रतिकर्मणि पण्डिता विभुर्दक्षा आक्रान्तनायकमना नियूंढविलासविस्तारा ।। सुरते निराकुलासौ द्रवतामिव याति नायकस्याङ्गे ___ न च तत्र विवेक्तुमलं कोयं काहं किमेतदिति ॥ तत्र कुपितापराधिनि संवृत्याकारमधिकमाद्रियते । कोपमपह्रत्यास्ते धीरी हि रहस्युदासीना ।। इति । अपारिमुखिकी पारिपार्श्विकेन्यानुलोमिके । पत्यौ हासादनान्वीपिक्यक्षिपत्पौष्पिकी स्रजम् ॥ १८ ॥ १८. अन्या पत्यौ हासान्नर्मणा स्रजमक्षिप कण्ठे चिक्षेप । कीहक्सती । अनान्वीपिकी न प्रतिकूलं वर्तमानानुरक्तेत्यर्थः । अत एवापारिमुखिकी । परिर्वजनेत्र । न मुखं वर्जयित्वा वर्तमाना संमुखी. नेत्यर्थः । तथा पुष्पाण्युञ्छति पौष्पिकी पुष्पाण्युच्चिन्वती । पत्यौ च किंभूते । आनुलोमिकेनुकूलं वर्तमानेनुरक्त इत्यर्थः । अत एव पारिपाविके । परिः सर्वतोभावेत्र । यतो यतः प्रियासमीपं ततस्ततो वर्तमाने सदा पार्श्वस्थे । ८४ • १ सीढा हि गभीराश्रय'. २ ए लन्धय'. ३ बी यतिप्र. ४ ए °ममा नि. ५ सी तेन नि. ६ ए नायिक. ७ सी स्यान्ते । न. ८ सी राधनि. ९ सी रापि र. १० एत् कं चि. ११ ए सी एव पा. १२ बी वापर'. १३ बी सी रिवर्ज°. . १४ बी ने च न. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ [है. ६.४.३०.] सप्तदशः सर्गः । पत्या नागरिकेणान्यान्वीयते स वने ह्यसौ । मा भैषीद्भीषणेसिन्पाक्षिकमात्सिकमार्गिकैः ॥१९॥ १९. अन्या नागरिकेण नगरं रक्षता तलारेण पत्या भ; वनेन्वीयते स्मानुगम्यते स्म । हेतुमाह । अस्मिन्वनेसौ · मत्प्रिया मा भैषीत् । यतः पाक्षिकमात्सिकमार्गिकैः पक्षिणो मत्स्यान्मृगांश्च नद्भिलुब्धकधीवरैः कृत्वा भीषण इति ॥ मैनिकः खौगिकोसौ सौकरिकः पारिपन्थिकः । इत्युक्त्वा भेषयन्कान्तोपस्रजा सखजेन्यया ॥२०॥ २०. अन्ययापस्रजा पुष्पोच्चयाकरणात्पुष्पमालारहितयैव सत्या कान्तः सखजे । यतो भेषयन् भेषग् भये णिगन्तः । प्रियामेव भाययन् । किं कृत्वा । उक्त्वा । किमित्याह । हे प्रियेसौ प्रत्यक्षो मीनान्खगान्सूकरांश्च नल्ल(लँ)ब्धकः परिपन्थं पन्थानं वर्जयित्वा तिष्ठति पन्थानमेंभिव्याप्य हन्ति वा पारिपन्थिकश्चोरोस्तीति ॥ अनौजसिकः । साहसिकः । आम्भसिकः। अत्र "ओजः" [२७] इत्यादिनाइकण् ॥ प्रातिलोमिकः । आनुलोमिके । प्रातीपिकी । अनान्वीपिकी । प्रातिकूलिक्याः । आनुकूलिकी । इत्यत्र "तं प्रति०" [२८] इत्यादिनेकण् । पारिमुखिकी । पारिपाश्विके । अत्र "परे' [२९] इत्यादिनेकण् ॥ नागरिकेण । पौष्पिकी । इत्यत्र "रक्षदुल्छतोः" [३०] इतीकण् । १बी न्यानीय'. २ बी स्मिन्माक्षि. ३ बी खानिकोसो सोक'. १बी पसृजा. २ बी सी भापयन्. ३. ए ह । प्रि. ४ बी सी धं परिप. ५ ए मस्तिव्या. ६ए वा परि'. ७ ए कः । आ. ८ ए 'नान्वपि. ९५ पाश्विके. १० सी विकी। . ११बी पौषिकी. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पाक्षिक । मात्सिक । मार्गिकैः । अत्र “पक्षि." [३१] इत्यादिना-इकण् ॥ अर्थग्रहणात्तत्पर्यायेभ्यो विशेषेभ्यश्च स्यात् । खागिकः । मैनिकः । सौकरिकः ॥ पारिपन्थिकः । अत्र "परि०" [ ३२ ] इत्यादिनेकण् ॥ पत्या द्वैगुणिकेनेवान्या पारिपथिकी वजम् । दत्त्वाल्पां प्रार्थ्यतानल्पां वृद्धिं गृह्णाति लोभ्यहो ॥२१॥ २१. पारिपथिकी पन्थानं वर्जयित्वा व्याप्य वा तिष्ठन्त्यन्या पत्यानल्पां महती स्त्र प्रार्थ्यत । किं कृत्वा । अल्पां लैप्वी स्रज दत्त्वा द्विगुणं गृह्णाति द्वैगुणिकस्तेन यथाल्पं दत्त्वाधर्मों बहु याच्यते । युक्तं चैतत् । यस्माल्लोभी वृद्धि कलान्तरं गृह्णाति । अहो इत्यामन्त्रणे ॥ पारिपथिकी । इत्यत्र “परिपथात्" [ ३३ ] इतीकण् ॥ द्वैगुणिकेन । इत्यत्र “अवृद्ध०" [३४] इत्यादिनेकण् ॥ अवृद्धेरिति किम् । वृद्धिं गृह्णातीति वाक्यमेव ॥ दशैकादशिकी नालि दशैकादशिका तु सा । कुसीदिकेति जल्पन्ती पत्ये पुष्पाणि काप्यदात् ॥ २२ ॥ २२. कापि पत्ये पुष्पाण्यदात् । कीहक्सती। जल्पन्ती क्षणमियमीया करोत्विति प्राक्पुष्पाण्यनाददानं शठं पतिं वदन्तीत्यर्थः । कथमित्याह । कुसीदं वृद्धिस्तदर्थं द्रव्यमपि कुसीदं तेद्गृह्णाति यस्तत्संबोधनं हे कुसी. दिक त्वं हि स्वयं कलान्तराजीवी ततो मामप्यात्मसदृशीमाशंय त्वं मत्तः पुष्पाणि नादत्से तत्त्वयुक्तमेवेत्यर्थः । यतोम्यहं न दशैकादशि १बी प्रार्थिता. १ सी °णात्प. २ बी सौरि'. ३ बी लवीश्रजं. ४ बी सी मणे ब'. ५ ए वृद्धिक. ६ ए वृद्धिर्°. ७ ए अत्रवृ. ८.सी ति वाक्पु. ९ए त गृला. १० एशङ्का त्वं. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ६.४.३८.] सप्तदशः सर्गः। ३४७ की दशभिरेकादश दशैकादशास्तान्न गृह्णामि सा तु त्वद्वल्लभा दशैकादशिका सैव त्वत्तोलंकारादि ग्रहीतुं तव पुष्पदानाद्युपचारं करोत्यह त्वकृत्रिमप्रेम्णैव ते पुष्पाणि ददामीत्यभिप्राय इति ॥ कुसी दिक । इत्यत्र "कुसीदादिकंद" [ ३५] इतीकट् ॥ दशैकादशिका । दशैकादशिकी । इत्यत्र “दश०" [३६] इत्यादिनेक इकट् च ॥ आर्थिकी पादिकी चार्धपदिक्यपि च नावदत् । काचिल्लालामिकपातिकण्ठिकाद्वित्रसन्त्यलेः ॥ २३ ॥ २३. काचिन्नावदत् । किंभूता । आर्थिक्यप्यर्थं गृहत्यपि प्रयोजनवत्यप्यत एव पादिक्यपि चार्धपदिक्यपि च पदमर्धपदं वा मनसा गृह्णत्यपि विवक्षुरपीत्यर्थः । तर्हि कुतो नावददित्याह। यतोलेवित्रसन्ती भणने मुखसौरभाकृष्टोयमोष्ठादि मा दशदिति बिभ्यती यतो ललामं तिलकं गृह्णाति लालामिकः स चासौ प्रातिकण्ठिकश्च प्रतिकण्ठं कण्ठं लक्ष्यीकृत्य पुष्पमालादि गृहंस्तस्मात्तिलककण्ठमालादिगन्धलोभेन मुखान्तिके भ्राम्यत इत्यर्थः ॥ आर्थिकी । पादिकी । आर्धपदिकी । लालामिक । प्रातिकण्ठिकात् । इत्यत्र "अर्थ." [ ३७ ] इत्यादिनेकण् ॥ पारदारिक साभदृकिकालं ते सजानया । भूषय प्रतिपथिकां तामितीट् चिक्षिपेन्यया ॥ २४ ॥ १ बी आथिकी'. २ बी च न व. ३ बी यति प्रो. १ सी लाति सा. २ ए सी नादत्युप. ३ एकती. ४ बी गृह्णात्य. ५ एर्धपादि. ६ ए मा दिश. सी मा देश. ७ ए 'ति ललामि'. ८ ए बी लक्षीकृ. ९ए °स्तस्तस्मा'. १० सी 'दिलो'. ११ ए की । अर्ध'. १२ बी र्धपादि. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ध्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] २४. अन्ययेड् भर्ता चिक्षिपे नजं ददन्निरस्तः । कथमित्याह । हे पारदारिक परस्त्रियं गच्छंस्तथा हे साभर्तृकिक सपत्नी गच्छन्ननया ते तव स्रजा ममालं सृतं किं त्वनया सजा कृत्वा प्रतिपथिकी (कां) कुलटात्वेन प्रतिपथं पन्धान पन्थानं प्रति गच्छन्तीं तो स्वप्रियां स्वमनोभीष्टां परदारादिकां भूषयेति ।। मुधास्याक्रन्दि की दाण्डमाथिकी त्वां लताधिया । यत्प्रातिपथिको नालिस्त्यक्तेत्यन्या सखीमशात् ॥ २५ ॥ २५. अन्या सखीमशादवदत् । कथमित्याह । हे सख्यसि त्वमलिभयेन मुधा निरर्थकमाक्रन्दिक्याक्रन्दन्ति यत्र स देश आन्द आक्रन्द्यत इति वाकन्द आर्तायनं शरणमुच्यते । तं धावसि । तथा दाण्डमाथिकी माथशब्दः पथिपर्यायो दण्ड इव माथो दण्डमाथ ऋजुमार्गस्तं च मुधी धावसि । यद्यस्मादलिस्त्वां लतोधियानेकपुष्पमालापरिधानेन पुष्पगन्धोद्धरत्वाल्लतेयमिति बुद्ध्या न त्यक्ता न यक्ष्यतीति । पाद विक्या लतामध्ये स्विन्नाङ्गया नर्मकर्मठः । कस्याश्चिदानुपदिकः पतिः सौनातिकोभवत् ॥ २६ ॥ १ बी थिके ना'. २ ए लिस्तत्केत्य'. ३ सी त् । यतः. १एक स्त्रि. २ बीते नव. ३ ए त्वा पति'. ४ बी सी तिपंथं. ५ सीन्थानी ग'. ६ ए "नं ग. ७ ए सी च्छन्ती तां. ८ बी तां प्रि. ९ए टां पार. १० ए दिकं भू'. ११ ए वत्. १२ बी मभिलये. १३ सीन्दिनी आक्र. १४ ए क्रन्य. १५ सी आता. १६ ए ण्डमाथ. १७ ए जुर्मार्ग०. १८ बी धाव'. १९ बी ताधेया'. २० ए बी त्यक्षति. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.४३.] सप्तदशः सर्गः। ३४९ २६. कस्याश्चिन्नार्याः पतिः सौनातिकः सुनातं पृच्छन्नभवत् । यतः खिन्नाङ्गयाः । कुत एतदित्याह । लतामध्ये पुष्पोचयनार्थ पादविक्याः पदवीं मार्ग धावन्त्याः। कीडक्सन् । नर्मकर्मठो हास्यक्रियायां साधुस्तथानुपदिकोनुपदं पदस्य पश्चाद्धावन्प्रत्यासत्त्या धावन्नित्यर्थः । स्विन्नाङ्गी प्रियां दृष्ट्वा पतिर्दास्येन सुस्नातं पप्रच्छेत्यर्थः ॥ सौखशय्यिक्यभूत्पत्युः शय्यां निर्माय पल्लवैः । प्राभूतिकवैचित्रिकसौवस्तिकस्य काचन ॥ २७ ॥ २७. काचन पल्लवैः शय्यां निर्माय पत्युः सौखशय्यिक्यभूत् । हे भर्तः सुखकारिणी शय्येति प्रपच्छेत्यर्थः । यतः प्राभूतिकवैचित्रिकसौवस्तिकस्य प्रेमातिरेकेणातिवैदग्ध्येन चानेकचाटुकारवकोत्तयादिभाषित्वात्प्रभूतं विचित्रं स्वस्ति च शुभं च ब्रुवाणस्य ।। पारदारिक । साभर्तृकिक । इत्यत्र “पर०" [३८] इत्यादिनेकण् ॥ प्रतिपथिकाम् । प्रातिपथिकः । अत्र "प्रति." [३९] इत्यादिनेकेकणौ ॥ दाण्डमाथिकी । पादविक्याः । आन्दिकी । इत्यत्र "माथ." [४०] इत्यादिनेकण् ॥ आनुपदिकः । अत्र “पश्चाति०" [ ४१] इत्यादिनेकम् ॥ सौखातिकः । सौखशय्यिकी । अत्र "सुनात." [ ४२ ] इत्यादिनेकण् ॥ प्राभूतिक । वैचित्रिक । इत्यत्र “प्रभूत." [ ४३ ] इत्यादिनेकण् ॥ क्रियाविशेषणादयमिष्यते । कचिदंक्रियाविशेषणादपि । सौवस्तिकस्य । '१५ सौख्यशक्य. २ बी य्यिकभू. ३ सी 'त्युः सौख. ४ ए वैः । वयभू. १५ नव. २ बी शय्यक्य . . ३ बी सुखिका. ४ एरियं याति प. ५ बी र्तृक. ६९ सी थिक । अं. ७सी क्रन्दकी. ८ सी ग् । प्रा. ९५ दवि. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] काचिन्माशब्दिकी शाब्दिक्यामप्याल्यां लतान्तरे । नैत्यशब्दिकवाचालसपत्या अंशृणोद्वचः ॥२८॥ २८. काचिल्लतान्तरे लतामध्ये नित्यशब्द इति ब्रूते नैत्यशब्दिको मीमांसकस्तद्वद्वाचाला या सपनी तस्या वचोशृणोत् । किमेपा पत्युरग्रे वक्तीत्याकर्णयन् । कीटक्सती । शाब्दिक्यामपि वैयाकरणीत्वेनाविनष्टं शब्दमुच्चारयन्त्यामप्याल्यां सख्यां विषये माशब्दिकी माशब्द इति ब्रुवाणा मा शब्दः क्रियतामिति त्रुवाणेत्यर्थः ॥ लालाटिकं कौकुटिकं दादरिक्या सह स्थितम् । प्रियं दृष्ट्वा लतान्तः काप्यबध्नाल्लतयैव हि ॥ २९ ॥ २९. कापि कोपातिरेकेण बन्धनान्तरग्रहणे कालक्षेपासहिष्णुत्वाल्लतयैव प्रियमबध्नान् । किं कृत्वा । लतान्तर्दादरिक्या दर्दरो घटो वादित्रं च । तत्र वादित्रं कुर्वत्येवमुच्यते । तया सह स्थितं दृष्ट्वा । यतः कौकुटिकं दाम्भिकचेष्टा कुक्कुटी तामाचरन्तं मायिनं तथा ललाटं पश्यति ललाटदर्शनेन दूरावस्थानं लक्ष्यते तेनं च कार्येष्वनुपस्थानं यः प्रियो दृष्टं प्रियाललाटमिति दूरतो याति न तु तदभिप्रेतकार्य उपतिप्ठते स एवमुच्यते । ललाटमेव वा कोपप्रसादज्ञानाय यः पश्यति स ल(ला)लाटिकस्तम् ॥ माशब्दिकी । नैत्यशब्दिक । इत्यत्र "माशब्द." [ ४४ ] इत्यादिनेकण् ॥ १बी'न्यल्यां. २ वी सी असृणो'. ३ ए के ददारि. ४ बी दादरि. १ ए 'स्तका'. २ वी चोमणो. ३ ए यः । ललाटिं'. ४ सी दरो'. ५ वी 'दरा घटा वा'. ६ सी त्रं कुवित्य . ७ ए चेष्टां कु. ८ सी नं यः. ९ सी 'न का. १० एनं प्रि. ११ सी यादृष्टं प्रियाल. १२ सी ‘दनामा यः. १३ ए °य यत्पश्य'. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ६.४.४९. सप्तदशः सर्गः। ३५१ शाब्दिक्याम् । दादरिक्या । लालाटिकम् । कौकुटिकम् । इत्येते "शाब्दिक." [४५] इत्यादिना निपात्याः ॥ काचित्सामाजिकान्सैन्यान्पारिषद्याश्च सैनिकीः । पार्षद्या रञ्जयामास स्रजं गीतिं च गुम्फती ॥ ३०॥ ३०. काचित्सामाजिकान्समाज समवेतान्सभास्थान्सैन्यान्सेनां समवेतान्सेनानरांस्तथा पारिषेद्याः परिषदं समवेताः सैनिकीश्च सेनां समवेताः स्त्रीश्च रजयामास । कीटक्सती। पर्षदं समवैति पार्पद्या सभायां निषण्णा तथा लज गीतिं च गुम्फती रचयन्ती ॥ सामाजिकान् । इत्यत्र “समूह." [ ४६ ] इत्यादिनेकण् ॥ पार्षद्या । इत्यत्र “पर्षदो ण्यः' [ ४७ ] इति ण्यः ॥ परिषच्छब्दादपीच्छन्त्येके । पारिषद्याः ॥ सैन्यान् । इत्यत्र “सेनाया वा" [ ४८ ] इति वा ण्यः ॥ पक्षे । सैनिकीः ॥ आधर्मिक्या आपणिक्यास्तस्या धार्मिक देह्यदः । ऊचे स्रजोर्पयन्दृष्टकक्षानख इनोन्यया ॥ ३१ ॥ ३१. अन्ययेनो भर्ताद एतत्कर्मोचे । तदेवाह । हे धार्मिक धर्म न्यायं चरन्नुपहासवचनमिदम् । तस्याः स्वप्रियायाः स्रजो देहि । कीदृश्याः । आपणिक्या आपणस्य हट्टस्य धायाः पण्याङ्गनाया अत एवाधर्मिक्या अधर्म पापमाचरन्त्या इति । कुतोयमूचेद इत्याह । यतो १ सी क्या । ललाटि'. २ए पद्याः प. ३ सी निकैश्च. ४ बी वेता स्त्री'. सी वेतांश्च र. ५ ए मवेति. ६ सी द्याः स. ७बी पन्ना त?. सी षण्णाः त. ८ ए दिनाक'. ९ए रिच्छ. १० बी सी निकी । आ. ११ एह । धा. १२ सी धर्म्य न्या. १३ ए °याया स्र. १४ बी वाधार्मि. १५ सी तो हेतोय. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] दृष्टाः कक्षायां नखास्तन्नखक्षतानि यस्य सः । एवंविधोपि कुत इत्याह। यतः स्रजोर्पयन् ॥ धार्मिक । आधर्मिक्याः । अत्र "धर्म" [ ४९ ] इत्यादिनेकण् ॥ आपणिक्याः । अत्र “षष्ठ्या धैर्ये" [५० j इतीकण् ॥ सजानानां पतन्ती च प्रियोन्यामहसीदिति । नावैशस्त्रेपि नारे स्त्री पेटुः शास्त्रे नु माहिपः ॥ ३२ ॥ ३२. प्रियोन्यामहसीत् । कीदृशी सतीम् । गोत्रस्खलिताद्यपरीघिनं प्रियं खजानानां पतन्ती च कोपाटोपेन पत्युर्घाताय प्रयत्नात्स्वयमभिसरणेन पत्यौं च घातभयेन पश्चादपसरति घातेन सह स्खलितत्वादन्तरीले पतन्ती च । कथमहसी दित्याह । रूयवैशस्त्रेपि विशसितुः क्रूरस्य धर्म्य वैशस्त्रं न तथावैशस्त्रं तस्मिन्नपि कोमलेपि नारे नरस्य धये नरोचिते प्रहारादौ विषये न पटुः । यथा महिष्या धैर्यो माहिषः पिण्डारोवैशस्त्रेपि प्रसन्नत्वेन कोमलेपि शास्त्रे शास्तुध(4)यें अन्थे विषये मूर्खत्वान पटुः स्यात्तस्मादमन्यायं कुर्वती त्वं युक्तं पेतिथेत्यर्थ इति ॥ वैभाजित्री मालिकीव सखीनां काप्यदात्स्रजः । गौल्मिकेच्छोर्वक्रयं नु वनस्य ददती श्रियम् ॥३३॥ १ बी सी तन्ती च. २ ए सी पटु शा. ३ सी लिनीव स. ४ ए गौलिके'. १ बी सी दृष्टा की. २एन् । कामिकः । आधार्मिक्या । अ. ३ सी मिका । अं. ४ बी धर्म ई. ५बी गोत्रे स्ख. ६ सीताप. ७बी राधेनं. ८ बीनां ती च. ९बी घाते भ. १० ए रालो प. ११ बी म्ये नारों'. १२ सी धर्मो मा'. १३ ए म्यों महि'. १४ बी शास'. सी शास्त्रवण्ये ग्र. १५ ए ग्रन्थं वि. १६ ए मुन्या'. १७ ए क्तं पतिष्वेत्य. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.५५.] सप्तदशः सर्गः। ३५३ ३३. कापि मालिकीव मालापण्येव मालिनीव वैभाजित्री विभाजयिता विभागकारी तद्धर्मादनपेता विभागकारिणी सती सखीनां स्रजोदात् । किंभूता । वनस्य वक्रयं नु भाटकमिव श्रियं लीलाविहारादिना शोभां ददती । कीदृशस्य । गौल्मिकेच्छोर्गुल्माना लतादिस्तम्बानां गुल्माया वा वनस्य पुष्पायुच्चयेनोप॑भुक्तानामवक्रयो भाटकं गौल्मिकस्तस्येच्छोः ॥ शास्त्रे । नरादि । नारे । माहिषः । इत्यत्र "ऋमरादेरण्" [५] इत्यण् ॥ वैभाजित्री । वैशस्त्रे । अत्र "विभाजयितृ०" [५२ ] इत्यादिनाण् । विभा. जयितुर्णिलुक् । विशतुश्शेड्लुक ॥ गौल्मिक । इत्यत्र "अवक्रये" [५३ ] इतीकण ॥ मालिकी । इत्यत्र "तदस्य पण्यम्" [५३] इतीकण् ॥ शालालुक्यां किशरिकी तगैरिक्या शलालुकी। विलक्षमूचे हन्तैवाः कुसुमैरेव वासिताः ॥ ३४ ॥ ३४. शालालुक्या शलालगन्धद्रव्यपण्यया स्त्रिया किशरिकी किशरगन्धद्रव्यपण्या स्त्री शलाल्वादिगन्धद्रव्याणामवक्रयसंभावनया विलक्षमूचे । एवं तगरिक्या शलालुकी चोचे । किमित्याह । हन्तेति खेदे । एता विलासिन्यः कुसुमैरेव वासिता इति । इतिरत्र ज्ञेयः । किशेरिकी । तगरिक्या । इत्यत्र "किशरादेरिकट" [५५] इतीकट् ॥ १सी क्या तगरकी न. २ बी शरकी. ३ ए बी गरक्या. १सी लिनीव मा. २ बी 'टमि'. ३ बी °च्छोगुल्मा'. ४ सी पभोक्ता'. ५ बी किशारि'. ६ सी 'शरकी. ७ ए "पणा स्त्री. ८ वी स्त्री शाला'. ९५ व्यामविक्र. १० बी मविक'. ११५ °दे । वि. १२५ सी शरकी. १३ एरिका । इ. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] शलालुकी । शालालुक्या । इत्यत्र “शलालनो वा" [५६ ] इतीकड्वा । माड्डुकिक्यो झाझरिक्यः काञ्चीनादैः स्त्रियः अमात् । माड्डकी झाझरी नूर्मिनादैः स्नातुं नदीमयुः ॥ ३५ ॥ ३५. स्त्रियः पुष्पोच्चयोत्थाच्छ्रमाद्धेतोर्नदी वर्णासां स्नातुमयुः । कीदृश्यः सत्यः । गमनवशात्काञ्चीनादैः कृत्वा मड्डकझर्झरौ वाद्यभेदौ तद्वादनं शिल्पं यासां ता माडकिक्य इवं झाझरिक्य इव वा । किंभूताम् । ऊर्मिनादैः कृत्वा माड्डकी नु झाझरी नु ॥ माडकिक्यः । झाझरिक्यः । अत्र "शिल्पम्" [ ५७ ] इतीकण् ॥ माहुकीम् । झाझरीम् । अत्रे " महक." [५] इत्यादिना वाण ॥ पक्षे । माहुकिंक्यः । झाझरिक्यः ॥ ताम्बृलिक्योधरैः सिन्धूसांस्थपद्मदलश्रियाम् । नार्यश्छायो नु चौर्यो नु तूष्णीकैस्तर्किताः प्रियैः ॥ ३६॥ ३६. प्रियैस्तूष्णीकैस्तूष्णींशीलैः सावधानैः सद्भिरित्यर्थः। नार्यस्तर्किताः । कथमित्याह । अधरैः कृत्वा छान्यो नु शिष्या इव चौर्यो नु चुराशीला इव वाँ । कोसाम् । सिन्धौ वर्णासायां संस्था संस्थानं शीलमेषां सांस्थानि स्थास्नूनि यानि पद्मदलानि प्रस्तावाद्रक्तोत्पलपर्णानि तेषां १ बी झाझरि'. २ बी काचीना'. ३ ए अनात् । नाड्ड'. ४ बी झाझरी. ५ ए तामूलि. १बी की। शलालुका । . २ सी लुका । . ३ बी लुमो वा. ४५ 'च्छनादे'. ५९ नंदीव. ६बीनं शल्पं. ७सी व वा। किं. बी व वा झाझरि . ८ सीम् । झझरी'. ९बी झाझरी. १० एरी। म. ११ बी 'त्र माडक्य . १२ ए किक्याः । झा'. १३ एणींशैलैः. १४ सी वा। कस्या सि. १५ बी कासी सि. १६ सी नि प. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.६५.] सप्तदशः सर्गः। ३५५ श्रियां रक्तत्वादिलक्ष्मीणाम् । यतः कीदृश्यः । ताम्बूलिक्यस्ताम्बूलभक्षणशीलास्ताम्बूलिकीत्वात्तासामधरा रक्कोत्पलदललीला इत्येवं वितर्कः ॥ ताम्बूलिक्यः । अत्र "शीलम्" [५९] इतीकण् । सांस्थ । छान्यः । चौर्यः । अत्र "अस्था०" [ ६० ] इत्यादिनाञ् ॥ तूष्णीकैः । इति "तूष्णीकः" [६१ ] इत्यनेन निपात्यते ॥ ताः पारश्वधयाष्टीकास्तरोधःकण्टकां नदीम् । पारश्वधिकशाक्तीककृतरक्षास्ततोविशन् ।। ३७॥. ३७. ततस्ता नार्यो नदीमविशन् । किंभूताः । पारश्वधिकैः पशुप्रहरणैः शाक्तीकैश्च शक्तिप्रहरणैः कृता रक्षा यासां ताः । कीदृशीम् । पारश्वधयाप्टीकास्तरोधःकण्टकां पशुपहरणैर्यष्टिप्रहरणैश्चोरिक्षप्ततटकण्टकाम् ॥ पारश्वधिक । इत्यत्र “प्रहरणम्" [ ६२ ] इतीकण् ॥ पारश्वध । इत्यत्र "परश्वधाद्वाण्" [१३] इति वाण ॥ पक्षे । पारश्वधिक ॥ शाक्तीक । याष्टीक । इत्यत्र “शक्ति" [६४] इत्यादिना टीकण् ॥ ता ऐष्टिकैरिवैष्टीका नास्तिकरिव चास्तिकाः । आम्भसीकैः समं कान्तराम्भसिक्यः प्रजहिरे ॥३८॥ ३८. आम्भसिक्यो जलप्रहरणास्ता नार्य आम्भसीकैर्जलप्रहरणैः कान्तैः सह प्रजहिरे । यथैष्टीका इष्टिरभिचारार्थो याग एव प्रहरणं येषां ते कुत्सितविजे ऐष्टिकैरभिचारार्थयागप्रहरणैः सहेष्टिरूपप्रह१बी रस्वधि'. १ए 'त्येव विता । सा. २ बी यासांः । की. ३ ए सी क। या'. ४ एथों योग. ५ए "ज एष्टि'. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] I रणैरेव कृत्वा प्रहरन्ति । यथा चास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति बै मतिरेषामास्तिका नास्तिकैः सह प्रहरन्ति विरुद्धमतत्वाद्विवादेन युध्यन्ते ॥ दैष्टिकैकान्यिकैकादशान्यिकानैकरूपिकम् । शिष्यं गुरुर्व्वहन्नब्जैर्नाश्येका स्खलितं पतिम् ॥ ३९ ॥ ३९. एका नाम्नि स्खलितं सन्तं पतिमब्जैः कृत्वाहन् । यथा गुरुरुपाध्यायः शिष्यं कम्बया हन्ति । किंभूतं सन्तम् । दिष्टं दैवं पुण्यं तत्प्रमाणं न तु व्यवसाय इति मतिरस्य दैष्टिकैस्तथैकमन्यदपपाठोनुयोगे परीक्षायां वृत्तमस्यैकान्यिकस्तथैकादशान्यान्यपपाठरूपाण्यनुयोगेस्य वृत्तान्येकादशान्यिकस्तथैकं रूपं वारोध्ययने वृत्तमस्यैकरूपिको न तथाने करूपिको तिमन्दप्रज्ञत्वेनासकृद्घोषको विशेषणकर्मधारये तं तथा ॥ हृष्टास्तरङ्गैः कान्ताभ्रूलास्यद्वादशरूपकैः । राजाग्रभोजनिक्येन सैन्यां मौदकिका इव ॥ ४० ॥ ४०. सैन्यास्तरङ्गैर्नदीकल्लोलैः कृत्वा हृष्टाः । यतो द्वादशरूपाणि वारा अध्ययने वृत्तान्येषां द्वादशरूपिकाः कान्ताभ्रूलास्यानां द्वादशरूपिकास्तैः कुटिलत्वेनैं स्वप्रेयसीविलास भ्रूतुल्यैरित्यर्थः । यथा मोदका भैक्ष्यं हितमेभ्यो मौदकिका राजाप्रभोज निक्येनाप्रभोजनमस्मै १न्या मोद. १ ए बी "था वास्ति. "ष्टि के स्त ५ए ८ सी 'पितोति'. feR. १२ ए राम. २ ए सी लोक पु° ३ ए बा मिति ४ सी योगो प ६ बी 'दश्यांन्या'. ७ ए बी पान्यनु. बी 'कास्तिकैः कु. : १० सी 'न सप्रे, ११ बी मक्षं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.७१.] सप्तदशः सर्गः। ३५७ नियुक्तं दीयंत आप्रभोजनिको राज्ञ आप्रभोजनिको राजाप्रभोजनिकस्तस्य भावेन राज्ञोप्रभोजनेन मोदकादिना कृत्वा हृष्यन्ति । ऐटीकाः । ऐष्टिकैः । आम्भसीकैः । भाम्भसिक्यः । अत्र "वेष्टयादिभ्यः" [६] इति वा टीकण् । नास्तिकैः । आस्तिकाः। दैष्टिक । इत्येते "नास्तिक." [६६] इत्या. दिमा निपात्याः ॥ ऐकान्यिक । इत्यत्र “वृत्त." [६०] इत्यादिनेकण् ॥ अन्ये त्वपपाठादन्यत्राप्यध्ययनमात्रे प्रत्ययमिच्छन्ति । अनैकरूपिकम् ।। एकादशान्यिक । इत्यत्र "बहु." [६८] इत्यादिना-इकः । अत्राप्यन्ये पूर्ववदन्यत्रापीच्छन्ति । द्वादशरूपिकैः ॥ मौदकिकाः । अत्रं "भक्ष्यं०" [१९] इत्यादिनेकण् ॥ राजाप्रभोजनिक्येन । इत्यत्र "नियुक्तं दीयते" [७० ] इतीकण् ॥ मांसौदनिकया श्राणिकेव मांसौदनिक्यपि । श्राणिक्येवामिलनार्यः सपत्नीभिर्न वापि ॥४१॥ ४१. नार्यः सपत्नीभिः सह वावपि जलेष्वपि मध्ये नामिलन् । जलेषु होकेन भर्ना सह जलकेलेः क्रियमाणत्वेनात्यासन्नत्वान्मिथोमेलकः सुघटः परं तत्राप्यतालुत्वेन वचनालापसंमुखेक्षणाङ्गस्पर्शादिरक्षयों न मिलिता इत्यर्थः । यथा श्राणा यवागूर्नियुक्तमस्यै दीयते १बी मिनर्वावं. १बी त अग्रेभो. २ए ने मो. ३बी ष्टिकाः । आ. ४ए 'सिकः । . ५बी स्तिका । ३. ६ ए सी वृत्येत्या . ७सी मात्रप्र. ८ए प्यने पू. ९ वी त्र भिक्षं इ. १० ए लेः श्रिय'. ११ सी या मि. १२ बी गूनियु'. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] श्राणिका पथ्याशिनी मांसौदनो मांसमिश्र ओदनो नियुक्तमस्यै दीयते मांसौदनिका तया प्रबलाम्या स्त्रिया सहे विरुद्धधर्मतया न मिलति । यथा च मांसौदनिक्यपि श्राणिक्या सह न मिलति ॥ 3 श्राणिका श्राणिक्या | मांसौदनिकया मांसौदनिकी । इत्यत्र “श्राणा ०" [ ७१] इत्यादिनेको वा ॥ भाक्तास्यभाक्तिको न्वोदनिक्यनौदनिकी च किम् । अनोजस्काम्बुघातेष्वित्यूचे दम्पतिभिर्मिथः ॥ ४२ ॥ I ४२. दम्पतिमिर्मिथो नर्मणोचे । किमित्याह । भक्तमस्मै नियुक्तं दीयते हे भाक्त प्रिय यथासि त्वमभाक्तिको भक्तभोजनरहितः सन्ननोजस्को भवसि । तथाम्बुघातेषु सत्सु किमित्यनोजस्को जलप्रहारविधुरत्वेनँ निस्तेजस्कोसीति । तथैौदनो नियुक्तमस्यै दीयते हे ओदनिकि प्रिये यथा त्वमनौदैनिक्योदनभोजन र हितानो जैस्का भवसि तथाम्बुघातेषु सत्सु किमित्यनोजस्कासीति । अनोजस्काम्बुघातेष्वित्यत्रानोजा . अम्बुधातेष्विति पाठो युक्तः प्रतिभाति । स्त्रीलिङ्गे पुल्लिङ्गे चास्य समानरूपत्वात् । परमैनोर्जेस्काम्बुघातेष्विति पाठः प्रायो दृश्यते । तस्मादनोजस्केत्ययं पुंसि स्त्रीलिङ्गव्यत्ययेन योज्यः ॥ १४ भाक्त । ओदर्निकी(कि) । अत्र “भक्त० " [ ७२ ] इत्यादिनाणिकटौ । पक्षे । अभाक्तिकः । अनौदनिकी ॥ ४ए 'ति । प्राणि. १ए नौ मां. २ सी ह . ३ सी निकापि. ५ सी निकी. ६ बी हे भक्त. ७ सीन रहि . ८ बी 'तस्य दी. ९ बी 'नक्या भो.. १० ए बी 'तानौज ' . ११ बी जस्को भ. १२ ए सी कि. १३ ए ंजसस्का'. १४ सी ङ्गे चास्यमा १५ बी ममोज. १६ ए “जस्कां घा ँ. १७ बी 'ज्यः । भांक्त. १८ ए निकिः । अ. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.७५.] सप्तदशः सर्गः । ३५९ क्ष्मां नावयज्ञिकी पाकयज्ञिकी च द्विजा यथा । अहतेच्छो आतरिकैर्नार्योगाहन्त निम्नगाम् ॥४३॥ ४३. नार्यों निम्नगामगाहन्त व्यलोडयन् । कीदृश्यः सत्यः । आतरिकैरातरे नद्यादितीर्थे नियुक्तैनरैरहतेच्छा अयं नदीप्रवेशोवगाह्य इत्यस्खलिताभिलाषाः । यथा द्विजा ऋत्विजोहतेच्छाः सन्तो यागक्रियाभिः क्ष्मामवगाहन्ते । किंभूताम् । नवयज्ञा नवैरत्नैः साध्या योगा अस्यां वर्तन्ते तां नावयज्ञिकी तथा पाकयज्ञः पाकेन हविर्विशेषेण साध्यो यज्ञोस्यां तां पाकयज्ञिकीम् । नावयज्ञिकीम् । पाकयज्ञिकीम् । अत्र "नवयज्ञ." [७३] इत्यादिनेकण् ॥ आतरिकैः । अत्र "तत्र." [ ७४ ] इत्यादिनेकण् । सरायुधागारिकाणां वारिघातैः सरायुधैः । युवानो मुमुहुस्तासां साध्यिकाशुचिका इव ॥ ४४ ॥ ४४. साध्यिकाशुचिका इव यथा संध्यायामध्यायिनोशुचौ देशेध्यायिनश्चाकालादेशाध्ययनोत्थेन विनेन मुह्यन्ति तथा तासां स्त्रीणां वारिघातैः कृत्वा युवानो मुमुहुर्मूर्छिताः। यतः स्मरायुधैर्विशेष्यार्थानुकूल्येनात्र स्मरायुधशब्देनोपचारात्स्मरायुधधाता उच्यन्ते । तेन कामशरप्रहारतुल्यैः । कीदृशीनाम् । स्मरायुधागारिकाणां स्मरस्यायुधानि जलक्रीडास्तेषामगारं गृहं नदी तत्र नियुक्तानाम् । जलकेलि १बी °च्छा या आ. २ बी सी सांधिक्याशु. ३ ए सी व । य. १५°वीधनि. २ बी सी शोनाव'. ३ ए यागो अ. ४ एशोस्या तो. ५ बी देशोध्या'. ६ ए ‘शेध्ययि". ७ ए बी सरायु'. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपा रूपमायुधं हि स्मरस्यैतदत्तमेव स्यात् । अन्योपि भटः शस्त्रागारनि. युक्ताच्छखं गृहीत्वा शत्रून्प्रहरति ततश्च ते मूर्छन्ति ॥ स्मरायुधागारिकाणाम् । अत्र “भगारान्तादिकः" [५] इतीः । भदेश । आशुचिकाः ॥ अकाल । सायिक । इत्यत्र "अदेश." [७] इत्यादिनेकण् ॥ किं नु नैकैटिकीवासीत्युदित्वा वार्भमूलिकी । सांस्थानिकी सतीर्थ्याम्भस्येकयाकृष्य चिक्षिपे ॥ ४५ ॥ ४५. समानतीर्थे गुरौ वसति सतीर्थ्या सख्येकयाकृष्याम्भसि चिक्षिपे जलक्रीडार्थ क्षिप्ता । कीहक्सती । वृक्षमूले वसति वार्भमूलिकी तथा संस्थानेवयवरचनायां व्यवहेरत्याचरति सांस्थानिकी मयाम्भसि न प्रवेष्टव्यमित्यर्वस्थानविशेषेण तिष्ठन्तीत्यर्थः । किं कृत्वा चिक्षिपे । उदित्वा । किमित्याह । किं नु नैकटिकीवासि निकटे वसति नैकटिक्यारण्यक्या भिक्षुण्या प्रामोत्क्रोशे क्स्तव्यमिति यस्याः शास्त्रितो वासः सैवमुच्यते । यथा सा मिक्षुणी कामविकाररहितत्वाजलकेलिं न करोति तथा त्वं किमिति न करोषीत्यर्थ इति ॥ लौहप्रस्तारिको गौसंस्थानिको वासि किं त्वि(न्विति । प्र(प्रास्तारिक्या कयाप्यूचे दृशोरि क्षिपन्पतिः॥४६॥ १४ १बी सी किं तु नं. २ ए कटकी'. ३ वी टिकावा. ४५ निकी स'. ५ सी को वा. ६ बी रि क्षप'. १सी रसैन्या. २ सी युक्तच्छ. ३ सी तेन मू. ४बी कः । आदें. ५ए बी "देशः । आ. ६ बी ध्यिक्ये तत्र. ७ ए इतत्र. ८ ए चिक्षेप ज. ९एहति आरति सां. १० एव वस्तव्य. ११ बी सी किंतु नै . १२ सीमाव. १३ ए मकेलिर'. १४ एति । रिक्या विशाला. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है• ६.४.७७.] सप्तदशः सर्गः। ३६१ ४६. प्रस्तारो नयनादीनां विस्तारस्तस्मिन्व्यवहरति तया प्रास्तारिक्या विशालाक्ष्येत्यर्थः । कयापि पतिरूचे । कीहक्सन् । दृशोविस्तीर्णत्वेन वारि क्षिपन् । कथमूच इत्याह । त्वं किं नु लोहप्रस्तारे लोहहट्टे व्यवहरति लौहप्रस्तारिकोसि । लोहवणिम् हि स्थूलक्रयाणत्वाल्लोहं यत्र तत्र क्षिपन्स्थूलहस्त एव स्यात् । किं वा गोसंस्थाने व्यवहरति गौसंस्थानिको गवयोसि । स ह्यकिंचिज्ज्ञ एव स्यादिति ।। कापि वांशकठिनिकी वारिहत्याधिका प्रियात् । द्वैचन्द्रायणिकी चान्द्रायणिक्या इव वाभवत् ॥४७॥ ४७. वाशब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया समुच्चये कापीत्यत्र योज्यः । कापि च वंशकठिने वंशस्य कठिने तापसभाजने पीठे वा व्यवहरति वांशकठिनिकी वरुटी वारिहत्या जलाघातेन कृत्वा प्रियात्सकाशादधिकाभवत् । यथा चान्द्रायणिक्याश्चान्द्रायणं तपोभेदं चरन्याः सकाशाद्वैचन्द्रायणिकी द्वे चन्द्रायणे चरन्ती रुयधिका स्यात् । चन्द्रायणं हि तपो द्वधा । तत्रैकं शुक्लपक्ष आरभ्यते द्वितीयं तु कृष्णपक्षे । द्वयमप्येतन्मासप्रमाणम् । तत्राद्ये शुक्लप्रतिपद आरभ्य पूर्णिमां यावदेकैककवलवृद्धिर्यावत्पूर्णिमायां पञ्चदश कवलास्तत एकैकैकवर्लंहानिर्यावदमावास्यायामेकः कवलः । द्वितीये तु चन्द्रायणे कृष्णप्रतिपद १ बी वाचिंह'. २ सी 'रिसत्या'. ३ ए त् । देच'. १ सी या प्रस्ता. २ बी लाक्षेत्य'. ३ ए °मूचेत्या'. ४ बी णकत्वा'. ५ सी स्थानो ग. ६ ए °ठिनता. ७ बी पीठो व्य'. ८ बी सी यासका. ९ बी की दै चौ. १० बी °णे भोजने पीठो वा च. ११ सी °त् । चान्द्रा. १२ ए कव. १३ बी माया प. १४ बी कला तत ए°. १५ ए कव'. १६ सी लवृद्धौ. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ब्बाश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल आरभ्यामावास्यां यावदेकैककवलहानिर्यावदमावास्यायामेककवलस्ततः प्रतिपद्यप्येकः कवलस्तत एकैफेकषलवृद्धौ पूर्णिमायां पञ्चदश कवला इति श्रीजैनाः स्मार्ताश्च ॥ हारं द्विशौपिकं न्यस्यन्बुडंन्ती कोप्यधात्मियाम् । गोदानिकं गौदानिको न्वादित्यवतिकिभः ॥४८॥ ४८. कोपि भर्ता ब्रुडन्तीं प्रियामधाद्धारेणाधारयत् । कीदृक्सन् । द्विशौर्पिकं नु द्वाभ्यां शूर्पाभ्यां क्रीतं द्विशूर्पम् । भत्र "शूर्पाहाम्" [ ६. ४. १३७ ] इत्यञ् । “अनान्यद्विः प्लुप्" [ ६. ४. १४१ ] इति लुप् । द्विशूर्पण क्रीतं द्विशौर्पिकं नु रज्वादिकमिवे प्रेमातिरेकाद्रज्ज्वाद्यवग. णनयेत्यर्थः । हारं न्यस्यन्प्रियाया आधारार्थ जले क्षिपन् । जले हि ब्रुडल्लघुत्वात्तन्तुनापि संधार्यते । यथा गौदानिको वेदपाठविषयायां यथोक्तायां ब्रह्मचर्यसंधायां संपूर्णायामपि यावहिजेभ्यो गोदानं न करोति तावद्ब्रह्मचर्य चर्यमिति यच्छ्रुत्युक्तं ब्रह्मचर्य तद्गोदानमुच्यते । तच्चरनरो गौदानिकं यावद्वां दानं द्विजेभ्यो न करोमि तावद्ब्रह्मचर्यमितिप्रकारं गोदानस्य ब्रह्मचर्य दधाति । कीहक्सन् । आदित्यव्रतानामृचां ब्रह्मचर्यमादित्यवतिकम् । आदित्यत्रतसंज्ञा हि ऋचो ब्रह्मचर्येणाधीयन्ते तदस्यास्तीत्यादित्यवतिकी तेन प्रभा साम्यं यस्य स तथा ॥ नैकटिकी । वार्शमूलिकी । इत्यत्र "निकट." [७] इत्यादिनेकण् ॥ १ ए बी इन्ती को'. २ ए तिकिं पुनः । को'. ३ बी प्रभाः । को'. १ बी मेकः क. २ ए कव. ३ ए °यामेधा'. ४ ए नाम्नादिः. ५ ए सी व प्रेमातिरेकाद्रभ्वादिकमिव प्रे. ६ बी हि बुड. ७ बी सी यां पू. ८ बी वीदा. ९ए °स्तीने आदि'.. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.४.८३.] सप्तदशः सर्गः। सती- । इति "सतीर्यः" [५८ ] इति निपात्यम् ॥ प्रास्तारिक्या । सांस्थानिकी । तदन्त । लौह प्रस्तारिकः । गौसंस्थानिः । वांशकठिनिकी । इत्यत्र "प्रस्तार०" [७९] इत्यादिनेकण् ॥ द्वैचन्द्रायणिकी । इत्यत्र "संख्यादेः०" [८०] इत्यादिना संख्यापूर्वाया अपि वक्ष्यमाणः प्रत्ययः ॥ अलुच इति किम् । द्विशौपिकम् । पुनरपि "शूर्पा. द्वान्' [ ६. ४. १३७ ] इत्यञ् न स्यात् ॥ गौदानिकम् । आदित्यव्रतिकि । इत्यत्र “गोदान." [८] इत्यादिनेकण् । चान्द्रायणिक्याः । गौदानिकः । इत्यत्र "चन्द्रा०" [८२] इत्यादिनेकण् ॥ देवव्रती महावत्यष्टाचत्वारिंशको नु किम् । चातुमासी नु वेत्युक्त्वा तटस्थोद्भिहतोन्यया ॥ ४९ ॥ ४९. तटस्थो नदीतीरस्थः प्रियोन्ययाद्भिर्हतः। किं कृत्वा। उक्त्वा । किमित्याह । हे प्रिय किं देवत्रतमाजन्म ब्रह्मचर्य तथा "यमा एव देशकालसमयानवच्छिन्ना महाव्रतम्" इति पतञ्जलिसूत्रम् । तथा प्रतिवेदं द्वादश वर्षाणि ब्रह्मचर्य क्रियाविधिरित्यष्टाचत्वारिंशद्वर्षसहितं व्रतमष्टाचत्वारिंशत्तच्च तथा चतुर्षु मासेषु भवानि “यज्ञे न्यः" [६. ३.. १३४ ] इति न्ये चातुर्मास्यानि नाम यज्ञास्तत्सहचरितानि चातुर्मास्यानि । तानि च चरनिव किं न्वसि । देवव्रत्यादयो हि १ए रिक्याः । संस्थानिकां । त. सी रिक्याः । सांस्थानिक्यां । त'. २ बी सीन्त । लोह'. ३ बीहप्रास्तारिक्या सांस्थानिकी । तदन्त । लौहप्रस्ता. रिकः । गौ. ४ ए कः । वाश. ५ बी द्वैचान्द्रा. ६ए लुब इ. ७ बी पि सूर्या'. ८सी निकी । आ. ९बी °मा य ए. १० बी ति पात. ११ सी 'शच्च. १२ बी ति जे चतु. १३ ए स्यादि ना. १४ ए च वदन्निव किमन्व'. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ व्याश्रयमहाकारे [कुमारपालः] महाव्रतस्थत्वेन कामविकारहेतुं जलकेलिं न कुर्वन्ति । त्वमप्यकुर्वकिमेवं व्रतीत्यर्थ इति ॥ किं नु चातुर्मासिकैषाष्टाचत्वारिंश्येष किं नु वा । मिथःप्राप्त्यै पयःकेल्या तक्येते सेति कावपि ॥ ५० ॥ ५०. कावपि दम्पती पय:केल्यां जलक्रीडायामपि लोकैस्तयेते • स्म । कथमित्याह । एषा प्रत्यक्षा तरुणी किं नु चातुर्मासिका चातु स्यित्रतचारिणी । वा तथैष युवा किं न्वष्टाचत्वारिंश्यष्टाचत्वारिंशगुप्तचारी किमर्थं मिथःप्राप्त्यै भवान्तरेप्यन्योन्यं संबन्धायेति । चातुर्मासिकाष्टाचत्वारिंशिनौ वतिनौ यथा स्नानाथ नदीजले निम्नगौ जलप्रहाररहितौ च स्यातां तथा कावपि जले निम्नगौ प्रेमकलहादिनाम्बुप्रहाररहितौ चाभूतामित्येवं वितर्कः ॥ देवव्रती । महाव्रती । अत्र "देव." [ ८३ ] इत्यादिना डिन् ॥ अष्टाचत्वारिंशकः । अष्टाचत्वारिंशी । इत्यत्र "डकश्च." [ ८४ ] इत्या. दिना डको डिन् च ॥ चातुर्मासिका । चातुर्मासी । इत्यत्र "चातुर्मास्यं." [ ८५] इत्यादिना उकहिनौ यलोपश्च ॥ * एषा चातुर्मासिकाष्टाचत्वारिंश्येष किं नु वा । इति छन्दोभङ्गाभावाय पठितुं युक्तमिति भाति । १ ए सिकैः पा. तकेंत स्में. २ सी किं युवा. ३ सी 'प्राप्तौ प. ४ बी १ सी वा व्रत्येष. २ सी श्यष्टच. इसी प्राप्तौ म. ४ ए रिशनो प्र. ५ ए रासहितौ स्या'. ६सी अष्टच'. ७५ सिकः । चा. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ६.४.८८. ] सप्तदशः सर्गः । शाद्यौजनाच शतिक्यसौ । नदी यौजनकी आत्मतुल्यतयेवो का सैन्यान्सखञ्ज ऊर्मिभिः ॥ ५१ ॥ ५१. यौजनिकी तीर्थत्वादनेकपद्माद्यद्भुत वस्तुनिधित्वाच योजनादभिमुखगमनमर्हन्ती तथा कौशाद्यौजनाच्च शतिकी कोशशताद्योजन - शताच्चाभिगमनमर्हन्ती नदी सैन्यानूर्मिभिः सस्वजे । उत्प्रेक्ष्यते । आत्मतुल्यतया स्वसादृश्येनो के वोल्कैण्ठितेव । नद्या सह तुल्यता च सैन्यानां यौजनिकीत्यादिनदीविशेषणानां लिङ्गव्यत्यये सैन्यानामपि विशेषणत्वेन शब्दसाम्यात् । तथा हि योजनं क्रोशशतं योजनशतं च दिग्विजयाद्यर्थं यान्ति ये तान्योजनिकान् कौशशतिकान्यौजनशतिकान् । या हि रूपादिगुणोत्कर्षेण यौजनिक्यादिः स्यात्सानुरूपं पतिं भुजाभिराश्लिष्यति ॥ jc 73 १२ कौशशतिकी । यौजनशतिकी । यौजनिकी । इत्यत्र “क्रोश ०" [८६] इत्यादिना-इकण् ॥ भात्मतुल्यतयेतिज्ञापितेषु । कौशशतिकान् । यौजनशतिकान् । यौजनि I कान् । इत्येतेषु “तद्यात्येभ्यः " [ ८७ ] इतीक‍ ॥ श्रान्ताञ्जहसुरश्रान्तास्ते पान्थाः पथिकानिव । युवांनो वारिपथका जाङ्गलपथिकानिव ॥ ५२ ॥ ५२. अश्रान्ता जलकेल्या खिन्नास्ते जले क्रीडन्तो युवानस्तरुणा ३ ए 'तयोर्थोत्का. १ ए सी की कोशा'. 'भिः । योज". : १ 'त्ययसै . 'कान्योज. २ सी 'शायोज'. ५ ए वानौ वा. शाधोज . ६ सीधा यो.. १० ए निकादिः . २ एत्प्रेक्षते ३ ए 'कते. ७ए तान्योज. ११ बी 'ति भुंजा'. ३६५ ४ नां योज • एन्क्रोश'. ४ ए ५ बी ९ ए १२ बी की । योज.. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल : ] स्तरुण्यश्च श्रान्तान् यूनो जहसुः । यथा पान्था नित्यं पन्धानं यान्तो नरा नित्यगमनेन गमनाभ्यासादश्रान्ताः सन्तः पथिकान्पन्थानं यातो नरान्कादाचित्कगमनेनाभ्यासाभावाच्छ्रान्तान्सेतो हसन्ति । यथा वा वारिधिका वारिपथः सजलमार्गस्तेनानीता यान्तो वा नराः शीतलजलपानादिनाश्रान्ताः सन्तो जाङ्गलपथिकान्मरुमार्गेणानीतान्यातो वा नरांस्तृष्णादिनातिश्रान्तान्सतो हसन्ति ॥ प्रावृषीव तदोद्रोधो भूत्स्थाल पथिकं पयः । तदाजपथिकं शाङ्कुपथिकं च विगाहनात् ॥ ५३ ॥ ५३. तदा जलकेलिकाले तत्पयो नदीजलं विगाहनाद्दम्पतिमिर्विलोडनादुद्रोधो रोधसस्तटादुक्रान्तमभूत् । कीटैक्सत् । स्थालपथिकं स्थलपथं यात्तथार्जपथिकं यत्राजाः संचरन्ति तेजपथा दण्डकास्तैर्यात्तथा शङ्कुपथैः कीलकगर्ताभिर्यात् । यथा प्रावृषि स्थालपथिकमाजपथिकं शाङ्कुपथिकं च स्थलपथेनाजेपथेन शङ्कुपथेन चानीतं नदीजलमतिबाहुल्यादुद्रोधः स्यात् ॥ पुरेवौत्तरपथिकी कान्तारपथिकी च सा । मज्जज्जम्पतिभिस्तैस्तैर्नदी रेजे प्रतीपगा ॥ ५४ ॥ ५४. सा नदी रेजे । कीदृक्सती । तैस्तैरनेकैर्मज्जजम्पतिभिः स्नाद्भिर्दम्पतिभिः कृत्वा प्रतीपगा जम्पतीनामतिबाहुल्येन सेतुबन्धेन १ एकीच. २ ए बी 'तैर्न'. १ ए यान्तो न. स्था ५ सी ९ ए 'जलप°. १३ बी प्रदीप.. २ एन्सन्तो ह. ३ सी यातो बा. ६ ए 'जजप'. ७ ए बी कं यात्रा. ११ ए 'कैमब्ज'. १० बी 'लवा". ४ ए कान्गरु". ८ सी स्थैर्या'. १२ बी 'भिः स्त्रद्धि'. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ६.३.३६.] सप्तदशः सर्गः। ३६५ वा नु श्रो(स्रो?)तोमार्गस्य रुद्धत्वात्पश्चान्मुखं वहन्त्यत एव पुरेवं यथा जलकेलेः पूर्वमौत्तरपथिकी कान्तारपथिकी चोत्तरपथेनोत्तरदिग्मार्गेण कान्तारपथेन चारण्यमध्यवाहित्वादरण्यस्थमार्गेण वा नीता। तथा जलकेलिकालेप्युत्तरपथेन कान्तारपथेन च यात्यौत्तरपथिकी कान्तारपथिकी च ॥ पथिकान् । इत्यत्र "पथ इकद" [ ८८ ] इतीकट् ॥ पान्थाः । अत्रे "नित्यं०" [ ८९ ] इत्यादिना णः पन्थादेशश्च ॥ शाकुपथिकम् । औत्तरपथिकी । कान्तारपथिकी। भाजपथिकम् । वारिपथिकाः । स्थालपथिकम् । जाङ्गलपथिकान् । इत्यत्र “शत्तर०" [१०] इत्यादिनेकण् ॥ कान्तनोत्खातपछेषु काप्याच्छिद्याब्जमाददे । मधुके मरिचे स्थालपथे शुल्कं नु शौल्किकः ॥ ५५॥ ५५. कापि कान्तेनोत्खातपछेषु मध्यादब्जमाच्छिद्य नर्मणोहाल्याददे । यथा स्थालपथे स्थलेपथेनाहृते मधुके मधुयष्टिजातौ मरिचे मरिचजातौ च मध्याच्छुल्कं शुल्कशालादेयं भागं शौल्किकः शुल्के नियुक्तो गृह्णाति ॥ स्थालपथे मधुके मरिचे । अत्र "स्थलादे०" [ ९१ ] इत्यादिना ॥ तौरायणिकपारायणिकानां तद्भुवामपि । आसन्सांशयिकान्यजवने वक्राणि सुभ्रुवाम् ॥ ५६ ॥ १ बी जयने. २५ °णि शुभ्रु'. १ सी नु श्रुतो'. २ए °व जथा. ३ ए °रमार्गे'. ४ सी च उत्त. ५ एत्र मित्या. ६ ए "देश्च. ७सीम् । उत्त. ८ सी गोमाल्या. ९ बी लपंथे'. १० बी सी नाहते. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ५६. अब्जवने पद्मखण्डमध्ये सुध्रुवां वाणि सांशयिकानि किमेतानि वक्राण्यन्जानि वेति संशयं प्राप्तान्यासन् । केषाम् । तुरायणं नाम यज्ञस्तं यजन्ते तौरायणिकाः पारायणं वेदग्रन्थमधीयते पारायणिका द्वन्द्वे तेपां मुनीनाम् । कीदृशाम् । सा नदी भूः स्थानं येषां तेषामपि नदीतटवासित्वेन परिचिताजानामपीत्यर्थः । एतेन सुभ्रूवाणामन्जवनस्य च मिथोतिसादृश्यमुक्तम् । तौरायणिक । पारायणिकानाम् । अत्र “तुरायण." [ ९२ ] इत्यादिनेकण् ॥ सांशयिकानि । इत्यत्र “संशयं." [ ९३] इत्यादिना-इकण ॥ यौगिकी पद्ममाला काप्यक्षिपद्दयितोरसि । सांग्रामिकं कार्मुकं नु योग्यं कुसुमधन्वनः ॥ ५७ ॥ ५७. यो(यौ)गिकी प्रौढात्वेन योगायालिङ्गनाय शक्ता कापि दयितोरसि प्रियकण्ठे पद्ममालोमक्षिपन् । किंभूताम् । आरोपिताकृष्टचापाकारत्वाद्धृदयसंक्षोभकारित्वाच्च कुसुमधन्वनः पुष्पचापस्य कार्मुकं नु । किंभूतम् । सांग्रामिकं संग्रामाय शक्तमत एव योगाय शक्तं योग्यं ग्रहीतुमुचितमित्यर्थः ॥ यौगिकी । सांप्रामिकम् । अत्र "तसै योग." [ ९४ ] इत्यादिनेकण् । योग्यम् । कार्मुकम् । अत्र “योग०" [ ९५ ] इत्यादिना योको । १ वी सी सि । संग्रा. १सी ने वनषण्ड. २ बी कान्यजा'. ३ बी 'णिका पा. ४सी मते. ५ वी "णिके द. ६ सी द्वन्द्वं ते'. ७सी म्। सा. ८ ए यण्य .. ९ सीण् । योगि'. १० ए की प्रोढा. ११ सी य सक्ता. १२ बी ला. नक्षि. १३ ए 'कृष्णचा. १४ ए कार्मकं. १५ सी कं अत्र. १६ बी 'चितुमि. १७. ए बी तसौ यो'. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 [ है. ६.४.९९.] सप्तदशः सर्गः । ३६९ *यथाग्निष्टोमिकीमाग्निष्टोमिकैदक्षिणां धनैः। नैशाश्लेषैस्तथा नकत्रस्तान्यादान्मुदं प्रिये ॥ ५८॥ ५८. अन्या नकवस्ता सती नैशाश्लेषैनिशायां दैयैः कार्यैालिङ्गनैः कृत्वा प्रिये मुदमदात् । यथा यजमान आग्निष्टोमिकैरग्निष्टोमे देयैर्धनैः कृत्वाग्निष्टोमिकीमग्निष्टोमसंबन्धिनी दक्षिणां ददाति ॥ आग्निष्टोमिकीम् । अत्र "यज्ञानां०" [९६ ] इत्यादिनेकण् ॥ आग्निष्टोमिकैः । अत्र "तेषु देये" [ ९७ ] इतीकम् ॥ नैश । इत्यत्र “काले०" [ ९८ ] इत्यादिनी भवेर्थ हवाण ॥ प्रियहस्त्याम्बुजोत्तंसेनेत्यवैयुष्टवद्धभौ । याथाकथाचैरप्यन्याकार्णवेष्टकिकानना ॥ ५९ ॥ ५९. अन्या स्त्री प्रियहस्त्याः प्रियस्य हस्तेन देयाः कार्या वा येम्बुजोत्तंसाः पद्मशिरःशेखरास्तैः कृत्वा बभौ। कीदृशी। कर्णवेष्टकाभ्यां न शोभतेकार्णवेष्टकिकमाननं यस्याः सापि । अपिरत्रापि योज्यः । कुण्डलरहितापि । किंभूतैः। याथाकांचैरपि यथाकथाचशब्दोव्ययसमुदायोनादरेणेत्यर्थे वर्तते । अस्या एते तुच्छमित्य * सी पुस्तके श्लोकोयं टीका च नास्ति . १५ कैदक्षि. २ बी नैः । नेशा'. ३ एश्लेषितथा. ४ बी सैनैत्य'. ५ बी वेष्टिकि. १ए अध्या न. २ ए यवालङ्ग. ३ बी दमुदा. ४ ए यज्ञमा . ५ बी मिदे'. ६ ए बन्धेन द. ७ बी ति । अग्नि'. ८ बी की । अ. ९ एण् । निश. १० ए °ना भावे ११ ए 'यसा ह. .१२ बी स्य हास्ते'. १३ ए 'दृशीं । क. १४ ए सी तेकर्ण'. १५ बी किकामा'. १६ सी याच'. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] ५ भिप्रायेणानादरेण शिरसि देयैरपि कार्यैरपि वा विशिष्टरचनारहितैरपीत्यर्थः । परं नैत्यवैयुष्टवन्नित्यं सदा व्युष्टे प्रभाते च देयैरिवं कार्यैरिव वा नैत्यवैयुष्टा ह्यवतंसाः प्रायो विक्रयार्थत्वेनादरेण दीयन्ते क्रियन्ते चेत्यादरेण देयैरिव कार्यैरिव वा विशिष्ट रचनैरिवेत्यर्थः । प्रियहस्त्यत्वेन सर्वसपत्नीषु मध्ये सौभाग्यातिशयस्य ख्यापकत्वात्तेषाम् । यद्वान्या स्त्री कार्णवेष्टकिकाननापि कुण्डलशोभमानवत्रापि सती प्रियहस्त्याम्बुजोत्तंसैरेवं बभौ । किंभूतैः । याथाकथाचैरपि कार्णवेष्टकिकाननश्रीविंशेषालोकनाक्षिप्तचित्तत्वात्प्रियस्य विसंस्थुर्लर चनैरपि नैत्यवैयुष्टवद्विशिष्टरचनैरिव कुण्डलयोः सतोरपि प्रियहस्त्यत्वादम्बुजोत्तंसैरे वाभादित्यर्थः ॥ ३७० वैयुष्ट । नैत्य । इत्यत्र “व्युष्टादिष्वण्” [ ९९ ] इत्यण् ॥ 1 याथाकथाचैः । अत्र "यथा०" [ १०० ] इत्यादिना णः ॥ हेत्य । इत्यत्र " तेन०" [ १०१ ] इत्यादिना यः ॥ कार्णवेष्टकिक । इत्यत्र “ शोभमाने” [ १०२ ] इतीकण् ॥ असमर्थन-स १६ मासोप्यस्मिन्विषये भवति । अकार्णवेष्टकिक ॥ ܕܪ एका वेष्यं पतिं स्नानस्पष्टवेश्यानखत्रणम् | अकर्मण्येति जल्पन्ती कर्मण्या कमलैरहन् ॥ ६०॥ १ बी 'ण्या कामले . १ बी येना. ६ बी १० बी 'तैः २ ए बंप'. । पि वा. ३ एज वा. ७ सी 'ली'. ४. ५ सी 'न्वे चैत्या'. ८ बी ११ सी 'विषयालो. कानाना'. ९ सीव संब १२ सी 'लस्यवच', १३ ए सी प्रिय.. १४ ए सी हस्त । इ. १५ ए नामा°. १६ ए 'किकाः । ए सी किका । ए. यथा . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१०४.] सप्तदशः सर्गः ३७१ ६०. कर्मण्या पतिव्रतानुरूपेण कर्मणा शोभमानैका स्त्री पैति कमलैरहन् । कीदृशम् । वेष्यं वेषेण स्वच्छत्वातिसूक्ष्मत्वादिगुणोपेतेन नेपथ्येन शोभमानम् । यद्वा । मण्डनादीनां जलेनोत्पुंसितत्वाद्वस्त्राणां च क्लिन्नत्वाद्वेषेणाशोभमानम् । कीदृक्सती । रे अकर्मण्य दुराचारेति जल्पन्ती । यतः । किंभूतम् । स्नानेन स्पष्टानि वेश्याया नखव्रणानि नखक्षतानि यस्य तम् ॥ कर्मण्या । वेष्यम् । अत्र "कर्म०" [ १०३ ] इत्यादिना यः ॥ पूर्ववन्नन्समासः स्यात् । अकर्मण्य । अवेष्यम् । केचिद्वेषस्थाने वेशं पठन्ति । वेशो वेश्यागृहं तेन शोभते वेश्या ॥ मासिक्या सेवया मानो यः प्रसादच मासिकः । तमाह्निक्याजयल्लेभेम्भ केल्या कोपि सुभ्रवः ॥६१॥ ६१. सुभ्रुवो यो मानोहंकारोतितीव्रत्वान्मासिक्या मासेन कार्यया मासेन सुकरया वा सेवया कृत्वा मासिको मासेन परिजेतुमुपशमयितुं शक्यस्तथा सुभ्रुवो यः प्रसादश्च प्रसन्नता च मासिक्या सेवया कृत्वा मासिको मासेन लभ्यस्तं मानं कोपि काम्याह्निक्याह्ना निर्वृत्तयाम्भ:केल्या कृत्वाजयदुपांशमयत्। तथा तं प्रसादमाह्निक्याम्भःकेल्या लेभे प्राप ॥ मासिकः । मासिक्या । इत्यत्र "कालात्परि०" [१०४ ] इत्यादिनेकण् ॥ बी हिक्यजियलेमेभः के. २ सीयमें. १बी सी तात्वरू. २ सीमानं यदा. ३ ए पति क. ४ बी स्वस्थत्वातिशुक्ष्म. ५ ए लेत्पुं. ६ ए त्वाद्वेषित्वादे. ७ए °स्य ताम्. ८ बी वेष्टयम्. सी वे चि. ९ए 'नोकारोती. १०बी पासम'. सी पासम ११ सी °ल्या मेदेन प्रा. १२ सी सिका।. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ः । व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] आहिक्या । इत्यत्र “निर्वसे" [ १०५] इतीकण् ॥ संख्यो दास्यश्च मासिक्यो मासिकीर्भूतभाविनीः । क्रीडा निनिन्दुः कस्याश्चित्पयसां क्रीडया तया ॥६२ ॥ ६२. कस्याश्चित्कामिन्याः सख्यो दास्यश्च तयानेककौतुकाद्याधारत्वेन प्रसिद्धया पयसां क्रीडया कृत्वा क्रीडा अन्याः केलीर्निनिन्दुः । कीदृश्यः संख्यः । मासिक्यो मासायाधीष्टा मासं यावन्मत्पार्वे स्थातव्यमित्यादिप्रकारैः सत्कृत्य व्यापारिताः । दास्यश्च मासाय भृता मासं यावत्कर्मणे क्रीता इत्यर्थः । किदशीः । मासिकीभूतभाविनीर्मासं भूता भविष्यन्तीश्च यकाभिः स्वसत्तया मासो व्याप्तो व्याप्स्यते वा ता अपि क्रीडा अस्याः क्रीडातो हीना एवेत्यनिन्दनित्यर्थः। मासिकीरित्यत्रेकण् अन्यस्मिन्नर्थे संभवतीति तद्व्यवच्छेदाय भूतभाविनीरित्युक्तम् ॥ मासिकीः । अत्र "तं भाविभूते" [ १०६ ] इतीकण् ॥ मासिक्यो दास्थः सख्यः । इत्यत्र "तस्मै." [१०७ ] इत्यादिनेकण् ॥ षण्मासिकैमित्रभृत्यैः सखीदासीभिरप्यर्थं । पाण्मास्याभिर्जम्पतीनां प्रतीषिरे जलच्छटाः ॥ ६३ ॥ ६३. जम्पतीनां षण्मासिकैर्मित्रभृत्यैः षभिर्मासैनिवृत्तैः षण्मा १ ए सख्या दा. २ बी सिक्यौासि'. ३ ए सी विनी । की. ४ बी °थ । षण्मा ५ ए जपती'. बी जपन्तीनां. १बी मिन्या स. २ए 'दृशाः स. ३ बी सख्योः मासिक्या मासा. ४ सीत्कृत व्या. ५ सी मासं. ६ एनी मांसं. बीनी मासं. ०बी 'न्ती अय. ८ सी 'डातो. ९सी तद्युक्तच्छे. १० °निवृत्तः. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ६.४.१०८.] सप्तदशः सर्गः। ३७३ सान्भाविभिर्भूतैर्वा। यद्वा षण्मासेभ्योधीष्टैमित्रैः षण्मासेभ्योभृतैर्भूत्यैश्च । अथ तथा पाण्मास्याभिः सखीदासीभिरपि परस्परं जलच्छटा जलाघाताः प्रतीषिरे वाञ्छिताः । पतिसत्कैर्मित्रैर्जायासत्काभिः सखीमिः सह पतिसत्कै त्यैर्जायासत्काभिर्दासीभिश्च सहान्योन्यं जलकेलिश्चक इत्यर्थः । एतेन परिवारस्यापि जलकेलिरुक्ता । समीनमीनत्रस्तान्या षण्मास्यमृगलोलदृक् । द्विसमीना व्यहीना नु लिल्ये संकुच्य भर्तरि ॥ ६४ ॥ ६४. अन्या षण्मासान्भूतः षण्मास्यः शिशुयों मृगस्तद्वल्लोलहक्सती संकुच्य भर्तरि लिल्ये लीना । द्विसमीना ढ्यहीना नु । द्वाभ्यां समाभ्यामहोभ्यां वा निवृत्ता द्वे समे अहनी वा भूता भाविनी वा नु बालिकेवं । किमित्येवं लिल्य इत्याह । यतः समया वर्षेण निवृत्तः समां भूतो भावी वा समीनो यो मीनो मत्स्यस्तस्मात्रस्ता ॥ द्वैयहिकं त्रिरात्रीणं च द्विसंवत्सरीणवत् । व्यसरत्कापि पत्यागोद्भि_समिकशीधुवत् ॥ ६५ ॥ ६५. द्विसंवत्सरीणवद्यथा काचिद्वाभ्यां संवत्सराभ्यां निर्वृत्तं तौ भूतं वागश्चिरकालीनत्वाद्विस्मरति तथा काचित्पत्यागो भर्चपराधमद्भिर्जलकेलिरसातिरेकेणेत्यर्थः । व्यस्मरत् । किंभूतम् । द्वाभ्याम १ सी कसीधु. १बी विभूतै. २ ए °भ्यो त्यै . ३ ए सी °ण्मासाभिः. ४ सी 'लाटाः प्र. ५ बी शुयो मृ. ६ ए योंग मृ. ७ ए नानु द्य. बी 'ना बु द्य. ८ सी निवृत्ता. ९ सी अहिनी.. १० बी °व । लिकि. ११ बी सी निवृत्तः. १२ ए यो नीतो म. १३ सी निवृत्तं. १४ ए भर्वप'. १५ ए केलीर. १६ बी लिसा. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४. व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] होभ्यां तिसभी रात्रिभिश्च निवृत्तं द्वे अहनी तिस्रो रात्रीर्वा भूतं वा द्वैयहिकं त्रिरात्रीणं च । चोप्यर्थ उभयत्रापि योज्यः । नूतनमपीत्यर्थः । द्वैसमिकेशीधुवद्यथा द्वाभ्यां समाभ्यां निवृ()त्तैस्ते भूतैर्वा परिपूर्णनिष्पन्नैरित्यर्थः । शीधुभिर्मद्यैः कृत्वातिमत्तत्वात्पत्यागो विस्मरति ॥ द्विसांवत्सरिकी कापि भार्या प्रेम द्विवार्षिकम् । द्वैरात्रिकमिवात्याक्षीत्पत्यावन्यां जलैनति ।। ६६ ॥ ६६. स्पष्टः । किं तु द्विवार्षिकं चिरप्ररूढमपीत्यर्थः । द्वैरात्रिकमिवाप्ररूढमिव ॥ द्विवर्षीणांत्रिवर्षांश्च पद्मकन्दान्ददत्यलम् । रेमे हंसैविदिमास्यैर्मास्यैश्च काचन ॥६७ ॥ ६७. स्पष्टः । किं तु द्वौ वर्षों द्वौ मासौ मासं च भूतैः॥ मीनान्मासीनषण्मास्यानभि पाण्मासिके बके । छन्नस्थे त्वद्वदेषोस्तीत्येकयोचे शठः पतिः ॥ ६८॥ ६८. एकया शठः पतिरूचे । क सति । पाण्मासिके बके । किभूते । मासीनषण्मास्यांश्च मासं षण्मासांश्च भूतान्मीनानभिलक्ष्यीकृत्य छन्नस्थे मीनभक्षणार्थ मायया छन्नं तिष्ठति । यथोचे तथाह । हे शटैष प्रत्यक्षो बकस्त्वद्वदस्ति यथा त्वं शठत्वान्मामीक्षसेन्यां च ध्यायसि तथैषोप्यन्यदीक्षतेन्यच्च ध्यायतीत्यर्थ इति ॥ १५ लैनति. २ बी द्विवार्षी'. ३ ए द्विमा . बी द्विर्मास्यै . ४ ए 'स्यैश्च. ५ सी षण्मास्या'. ६ सी भिषण्मा. १बी सी निवृत्तं द्वे अह. २ सीकसीधु'. ३ सी त्वासत्तथात्रियागो. ४ए त्वात्या. ५ सी भूतौ । मी'. ६ सी ति । षण्मा. ७ बी 'सिब'. ८ सी सीनान् ष'. ९ए सी °ण्मास्याश्च. १० एण्मासंश्च. ११ बी लक्षीकृ'. १२ सी स्त्वदतस्ति. १३ ए षोन्य', १४ बी सी ते मीनांश्च ध्या'. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१२२.] सप्तदशः सर्गः। ३७७ वैशाखैः । आषाडि । इत्यत्र "विशाखा." [ १२० ] इत्यादिनाम् ॥ उस्थापनीयाः। उपस्थापनीय। इत्यत्र "उत्यापनादेरीयः" [१२१] इनीयः॥ प्रियेच्छापूरणीयाः संवेशनीयास्ततोगमन् । वशाप्रपदनीयाश्वारोहणीयाः स्वधार्म ताः ॥ ७२ ॥ ७२. ततस्ता नार्यः स्वधाम स्वकीयं गृहमगमन् । कीदृश्यः सत्यः । संवेशनं सुरतं प्रयोजनमासां संवेशनीया अत एव प्रियेच्छा. पूरणीयाः प्रियाभिलाषपूरणप्रयोजना अत एवं च शीघ्र जिगमिषया वशामिर्हस्तिनीमिः प्रपदनं गमनमश्वस्यारोहणं च प्रयोजनमासां ताः ॥ अहःसमापनीयोथ प्रतीचीमगमद्रविः । खग्र्यैः काम्यैः स्तुतः स्वस्तिवाचनैः शान्तिवाचनैः ॥७३॥ ७३. अथ रविः प्रतीची पश्चिमामगमत् । कीहक् । अहःसमापनं दिनसमाप्तिः प्रयोजनं यस्य सोहःसमापनीयस्तथा स्वस्तिवाचनैः स्वस्तिवाचनप्रयोजनैर्द्विजैः स्तुतः । कैः कृत्वा । शान्तिवाचनैः शान्तिवाचनप्रयोजनमत्रैः । किंभूतः। उभै(भयै?)रपि । स्वग्र्यैः स्वर्गप्रयोजनैः परलोकप्रयोजनैरित्यर्थः । तथा काम्यैः कामप्रयोजनैरिहलोकप्रयो. जनैश्चेत्यर्थः ॥ संवेशनीयाः। अश्वारोहणीयाः। वशाप्रपदनीया । प्रियेच्छापूरणीयाः। अहःसमापनीयः । अत्र "विशिरुहि०" [ १२२ ] इत्यादिनेयः ॥ १वी णीया व. २ ए म तः । त'. १ सीनीया । उ. २ बी उत्थाप'. ३ सी उपस्थाप. ४ सी 'तीय ॥ ७२ संवेशमापनीत्य प्रतीची. ५ बी व शी. ६५ 'नव. ७ सी नैरित्यर्थः. ८बी दिजै स्तु. ९ए याः। अश्वारोहणीयाः । व. १० ए सी 'नीयाः । प्रि. ११बी विशार. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकावे [कुमारपालः स्वर्गादिः । स्वग्वैः । काम्यैः । स्वस्तिवाचनादि । स्वस्तिवाचनैः । शान्तिवाचनैः । अत्र “स्वर्ग." [ १२३ ] इत्यादिना स्वर्गादिभ्यो यः स्वस्तिवाचनादिभ्य इकणो लु ॥ द्यौः सामयिकरागेण लतेवार्तवपल्लवैः । प्राशित्री तिमिरैः काल्यैरभवत्षट्पदैरिव ॥ ७४ ॥ ७४. समयः कालः प्राप्तोस्य सामा(म)यिको यो रागःसंध्यारागस्तेनोपलक्षिता द्यौव्योमाभूत् । कीदृशीव । तुः प्राप्त एषामातवा ये पल्लवास्तैरुपलक्षिता लतेव । तथा काल्यैः प्राप्तकालैस्तिमिरैः कृत्वा चौः प्राशिता भक्षकः प्राप्तोस्याः प्राशिव्यभूत् । यथा काल्यैः कालप्राप्तैः षट्पदै ङ्गः कृत्वा लता प्राशित्री भवति । यथा सौगन्ध्याकृष्टै लैलता व्याप्यते तथा तिमिरैः किंचिद्व्याप्ता द्यौरभूदित्यर्थः ॥ सामा(म)यिक । इत्यत्र "समयावाप्तः" [१२४] इतीकण् ॥ आर्तव । प्राशित्री । इत्यत्र "ऋत्वादिभ्योण्" [ १२५] इत्यण् ॥ काल्यैः । अत्र "कालाघः" [१२६] इति यः॥ विभ्रतः कालिकं वैरं दैत्यानाकालिकान्ते । विंशकैस्त्रिंशकैः पात्रैरर्कायार्घमदुर्न के ॥ ७५ ॥ १ए सामायि'. २ए काल्वेर. ३५ व । दाम. ४बी कालकं. ५ सी लिका. ६ बी न्नतो। वि. १बी स्वयादिः. २ ए पी स्तिवच: ३ बी प् । यो सा. सी ° । घोः समायक. ४ सीख समा. ५ सी को रा'. ६ए ऋतु प्रा. ७ ए वास्तेरु. ८ ए तेवा । . ९ए "प्तोस्या प्रा. १० ए मगैः कृ. सी भंगे कृ. ११ सी या सोग'. १२ सी लतां व्या'. १३ प चिघाता. १४ सीधः । समा. १५ एभ्योत्स. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ६.४.११४. सप्तदशः सर्गः। ३७५ मासिकं ब्रह्मचर्य ते मासिकब्रह्मचारिवत् । किं पाण्मास्यार्भमुग्धेति तटस्थो जहसेन्यया ॥ ६९ ॥ ६९. तटस्थः पतिरन्यया जहसे । कथमित्याह । रे षाण्मास्याभमुग्ध जलकेलिरसानभिज्ञतया षण्मासान्भूतो योर्भो बालकस्तद्वन्मूर्ख यत्त्वं जलकेलिं न करोषि तत्किं ते मासिकब्रह्मचारिवन्मासोस्य ब्रह्मचारिणो मासिको यो ब्रह्मचारी तस्येव ब्रह्मचर्यमस्ति । कीदृशम् । मासोस्य ब्रह्मचर्यस्य मासिकमिति ॥ पाण्मास्यामिः सखीदासीमिः। षण्मासिकैमित्रभृत्यैः । अत्र "पण्मासाद्" [१०८] इत्यादिना ण्येकौ ॥ अवयंसीति किम् । षण्मास्यमृगें ॥ समीन । इत्यत्र “समाया ईनः" [ १०९] इतीनः ॥ त्रिरात्रीणम् । यहीना। द्विसंवत्सरीण । द्विसमीना । इत्यत्र "रात्रि." [११० ] इत्यादिना वा-ईनः ॥ पक्ष इकण् । द्वैरात्रिकम् । द्वैयह्निकम् । द्विसावत्सरिकी । द्वैसमिक ॥ त्रिवर्षान् । द्विवर्षीणान् । अत्र “वर्षादश्च वा" [ १] इति-अ-ईनश्च वा ॥ पक्षे । द्विवार्षिकम् । इकण् ॥ द्विवहसः । अत्र "प्राणिनि भूते" [११२] इति अः ॥ द्विमास्यहंसः। अत्र "मासाद्" [११३] इत्यादिना यः॥ मासीन । मास्यैर्हसैः । अत्र “ईन" [ ११४ ] इति-ईनन् यश्च । १बीर्य त मा. १बी सामि . २ ए लवास्त°. ३ सी को ब्र. ४ बी तस्यैव. ५ सी र्यस्य मासि. ६ ए ह्मचारस्य'. ७ बी 'ति । षण्मा. ८ बी 'भिः । पाण्मा'. ९ सी यवादिति. १० बी ग। मी'. ११ ए °त्रीणां । ब. १२ सी हीनाः । दि. १३ सी मिकः । त्रि. १४ ए °न् । त्रिव.. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] घण्मास्यान्मीनान् । पाण्मास्याभ। पाण्मासिके बके। अत्र "पण्मासाद्" [१५] इत्यादिना ययणिकणः ॥ मासिकम् । मासिक । इत्यत्र “सोस्य." [ ११६ ] इत्यादिना-इकण् ॥ आभिषेचनिकैस्तोयैः क्लमैकागारिकैदी। एवमानन्दयद्योषाश्चौडश्राद्धैरिवोत्सवैः ॥ ७० ॥ ७०. नदी वर्णासा तोयैः कृत्वैवमुक्तरीत्या योषा आनन्दयत् । यत आभिषेचनिकैरभिषेकप्रयोजनैस्तथा क्लम ऐकागारिकैश्चौरैः खेदोच्छेदकैः । यथा चौडश्राद्धैश्चूडाप्रयोजनैः श्रद्धाप्रयोजनैश्चोत्सवैर्मुण्डनोत्सवैः श्राद्धोत्सवैश्च कृत्वा काचिद्योषा आनन्दयति ॥ आभिषेचनिकैः । अत्र "प्रयोजनम्" [ 10 ] इतीकर्ण ॥ ऐकागारिकैः । अत्र "एक०' [ ११८ ] इत्यादिनेकण् ॥ चौडश्राद्धैः । अत्र "चूडादिभ्योण्" [ ११९ ] इत्यण ॥ दोवैशाखैर्विगाह्याम्भः क्षुभ्यदाषाढिवीक्षिताः। कामोपस्थापनीयोत्थापनीयास्तास्तटीमयुः ॥ ७१ ॥ ७१. ता नार्यस्तटी नदीतीरमयुः । किं कृत्वा । दोर्वैशाखैर्बाहुमन्थानकैः कृत्वाम्भो विगाह्य विलोड्य । कीदृश्यः सत्यः । स्नानेन शोभातिशयात्कामस्योपस्थापनं निकटीकरणमुत्थापनं चोल्लासनं प्रयोजनमासां ताः कामोपस्थापनीयोत्थापनीया अत एव क्षुभ्यन्तो य आषाढिन आषाढो मुनिदण्डस्तद्वन्तो मुनयस्तैरपि वीक्षिताः सकामं दृष्टाः ॥ १ बी वान्सौड'. २ बी सी शापैर्वि'. ३ सी पाढवी. १बी षण्मस्या. २ ए °न् । षण्मा'. ३ बी त्या येषा. एबी 'म एका. ५ सी था खोड'. ६ वी त्सर्वमु. ७ए वैः कृ. ८ बी सी •ण ! एका. ९बी 'दित्यादिभ्यो'. १० बी ण् । दौ. ११ ए त्वा । दौर्विशा. बीत्वा । दौ. १२ सी स्थानं. १३ बी योस्थाप. १४ एंवदन्तो. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.६४.१०. सप्तदशः सर्गः । ३७९ ७५. अर्कायाध पूजां के नानै ददुः। कैः कृत्वा। पात्रैः पुष्पफलअलादिवस्तुसंपूर्णैस्ताम्रभाजनैः । किंभूतैः । विंशकैविंशकैर्विशत्या त्रिंशता वा रूपकादिभिः क्रीतैर्विशतिं त्रिंशतं वाईद्भिर्वा । कीदृशाय । दैत्यान्मन्देहाख्यान्दानवान्नते । किंभूतान् । कालिकं दीर्घकालं वैरं बिभ्रतस्ताकालं समकालं वा भवन्त्याकालिकास्ता जन्मानन्तरमेव रविणा विनाश्यमानत्वादाजन्मकालमेव भवतः । उदीयमान एव हि रविरमून्दैत्यान्हन्तीति स्वरूपविशेषणमेवेदं रवेः ।। कालिकं वैरैम् । अत्र "दीर्घः' [ १२७ ] इतीकण् ॥ आकालिकॉन् । इति "आकालिकम् ” [ १२८] इत्यादिना निपास्वम् । प्रिंशकैः । विंशकैः । अत्र "त्रिंशद्” [ १२९ ] इत्यादिना डकः ॥ त्रिंशत्कं विंशतिकं वा बहुकं कतिकं न्विति । मुग्धाभिस्तर्कितं सांध्यभाकौसुम्भं प्रतीच्यधात् ॥ ७६ ॥ ७६. सांध्यभैव संध्याराग एवं कौसुम्भं कुसुम्भेन रक्तं बलं प्रतीची पश्चिमाधात्परिदधौ । कीदृशम् । मुग्धाभिस्तर्कितमतिरमणीयतया संभावितम् । कथमित्याह । त्रिंशता विंशत्या बहुभिः कतिभिर्वा रूपकादिभिः क्रीतमेतदिति ॥ पाश्चाशत्कं साप्ततिकं षाष्टिकं शतिक क्षणात् । शत्याधिकं च नेपथ्यं दधुर्वासकसज्जिकाः ॥ ७७ ॥ १ बी कौशुम्भं. २ ए तिकषा'. ३ बी सी °त् । सत्या' ४ ए त्याविकं. १ए याघं पू. . २ बी दुनदुः. ३ सी °शकारू. ४ बी सी तैर्विश'. ५ए शति वाहंद्भि. ६ ए° त्यानादेहा'. ७ एवान किं. बी वान्घृते. ८ सी 'या अका. ९बी शेषेण.' १० सी र इति दी. ११ ए कामिति. सी कागिति अका. १२ बी ए कौशुम्भं कुशुम्मेन.. १३ बी भिः कतिमिः क, १४ सी 'ति । पञ्चा. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] ७७. वासकसज्जिकाः सुरतायैष्यति प्रिये हर्षेण स्वं मण्डयन्त्यः स्त्रियः क्षणान्नेपथ्यं वस्त्रालंकारमण्डनादिवेषं दधुः । किंभूतम् । शत्याधिकं शतेन क्रीतादधिकं च । शिष्टं स्पष्टम् ॥ शतकैः स्तूयमानोपि स्तर्वनैः कान्दिशीकवत् । यावैत्कं तावतिकं नु रविरत्यजदंम्बरम् ॥ ७८ ॥ ७८. रविरम्बरं व्योमात्यजत् । कान्दिशीकवदम्बरं नु । यथा कान्दिशीको भयद्रुतोतिभयेनाम्बरं वस्त्रं त्यजति । किंभूतम् । यावत्कं तावतिकं यावता तावता च क्रीतं महार्घमपीत्यर्थः । कीदृक् । शतं लोका मानमेषां शेतकैः स्तवनैः कृत्वा स्तूयमानोपि । अपिर्विरोधे । निग्रहानुग्रहसमर्थो हि लोकैः स्तूयते स च न कान्दिशीकर्वेदम्बरं त्यजतीति विरोधः । परिहारस्तु स्पष्ट एव । अर्थं च यः शतकैस्तवनैः स्तूयते स स्तावकेभ्यो महार्घ्य (र्घ ? ) मप्यम्बरं त्यजति ददाती - त्युक्तिलेशः ॥ संख्या । बहुकम् । उति । कतिकम् । त्रिंशत्कम् | विंशतिकम् । अत्र “संख्या०” [ १३० ] इत्यादिना कः ॥ अशत्तिष्टेरिति किम् । पाञ्चाशत्कम् साप्ततिर्कम् । षाष्टिकम् ॥ 1 शंत्य । शतिकम् । अत्र “शतात् ० " [ १३१] इत्यादिना येकौ ॥ अंतरिम - निति किम् । शतकैः स्तवनैः ॥ १ बी 'तकै स्तू. २ एव कादिशी. ३ ए सी 'वत्क ता. ४ ए "कं तु र ५ ए "दन्तर". १ सी शतेन. २ बी "त्यादिकं . ६ बी वदंत्य". ५ ए सी 'पिविरो°. ९ ए शत्या । श°. बी शति ३ ए सी 'हाव्यम'. बाय:. ७ सी लि. १० बी ४ ए शतिकैः . ८ एक । षा'. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ६.४.१३५. ] - सप्तदशः सर्गः । ३८१ तावतिकम् । यावत्कम् । अत्रे “वातोरिकः " [ १३२ ] इतीको वा ॥ रूप्यस्य प्रतिकी कार्षापणिकी काञ्चनस्य किम् | किमर्धपलिकी मुक्ता तारी तत्युदै द्दिवि ।। ७९ ॥ ७९. तारा नक्षत्रं दिव्युदैन् । कीदृक् । तय । कथमित्याह । किमियं रूप्यस्य रजतस्य प्रतिकी कार्षापणेन कर्षेण मानभेदेन क्रीता मुक्ता मुक्ताफलं किं वा काञ्चनस्य कार्षापैणिकी कार्षापणेन क्रीता मुक्ता किं वा रूप्यस्य काञ्चनस्य वार्धपलिक्यर्धपलेन क्रीता मुक्तेति ॥ अर्धकंसिंक्यर्धकॅर्षिक्यर्धिकी कंसिकीर्भृशम् । साहस्रीः शातमानीश्व दीपिकाश्चक्रिरे स्त्रियः ॥ ८० ॥ ५ ८०. स्त्रियो दीपिका दीपान्भृशमत्यर्थं चक्रिरे । कीदृशीः । अर्धकंसादिभिः क्रीताः । कंसकर्षौ स्वर्णादिमानभेदौ । अर्धो रूपकार्धः । सहस्रं रूपकादीनाम् । शतमानं भूभागविशेषः ॥ I कार्षापणिकी । प्रतिकी । इत्यत्र " कार्षापणाद् ०" [ १३३ ] इत्यादिनेकँद । कार्षापणस्य च प्रतीत्यादेशो वा ॥ 1 अर्धपलिकी । अर्धकंसिकी । अर्धकर्षिकी । इत्यत्र “ अर्धात्पल० " [ १३४ ] इत्यादिनेकट् ॥ कंसिकीः । अर्धिकी । इत्यत्र " कंसार्धात्ο १ सी रूपस्य . ५ बी षिकार्धि. २ ए 'रा तार्केत्यु'. ६ बी 'हस्री शा. 99 [ १३५ ] इतीकद ॥ ३ बी 'सिका'. १ सी त्रवतो'. २ . सी रूपस्य. ३ बी सी पणेन. ५ बी कंशादि'. ६ ए प्रणिकी. ७ बी सीट् । कषां. ९ बी 'कंशिकी | अर्धपलि | अर्थकापिं. १० ए कषिकी. १२ बी अद्विकी. १३ ए इकीक". ४ ए कषिक्य. ४ए पाश. ८ बी 'स्य प्र. ११ बी अधोत्प', : Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ व्याश्रयमहाकाव्ये [रुमारपाल साहलीः । भातमानीः । अत्र "सहन." [३६] इत्यादिना ॥ शौधिकं शौपिकं वासनं वंशतिकं तयो । द्राग्विविंशतिकीनं च सर्वमेक्यकरोत्तमः ॥ ८१॥ ८१. सर्व वस्तु कर्म तमः कक्यकरोद॑भिन्नीचके। कीदृशं वस्तु । शौर्पाधिकं शूर्पण क्रीतादधिकं शौर्पिकं शूर्पण क्रीतं वासनं वसनेन वस्त्रेण क्रीतं वैशतिकं विंशती रूपकादीनि मानमस्य विंशतिकं तेन क्रीतं द्विविंशतिकीनं च द्वाभ्यां विंशतिभ्यां क्रीतं च । यदपि तमोज्ञानं तत्सर्वमपि वस्त्वेकीकरोतीत्युक्तिः ॥ शौर्प । शौर्पिकम् । अत्र “शूपाद्वा" [ १३७ ] इति वान् । चासनम् । इत्यत्र “वसनात्" [ १३०] इत्यम् । वै(वे)शतिकम् । अत्र "वितिकात्" [ १३९] इत्यने । द्विविंशतिकीनम् । अत्र "द्विगोरीनः" [१४० ] इतीनः ॥ द्विशोर्पिकं द्विकंसं द्विषाष्टिकं पाश्चा(च)लोहितिकोन्मेयं तमो नीलमतयंत ॥ ८ ॥ ८२. पञ्च लोहिन्यो मानमस्य "मानम्" [६.४.१६९ ] इतीकषि "जातिश्च मि०" [३.२.५१] इत्यादिना पुंवद्धावे पाञ्चलोहितिक परिमाणभेद १ए में विंश. बी "नं वेशंति'. २ बी था । प्राग्विश'. ३ सी के दिनः । पा. ४बी सी हितको. ५ एय॑तः । प. १बी कतैक्य . २ सी 'दपिनीच'. ३ बी "कं शौणदित्याक्री . ४ बी सीत वैश. ५ वी तिकाभ्यां. सी तिकांभ्यां. ६ वी तं य. ७ वी शापः । शौ. ८ ए ञ् । वैश. ९सी शत्यका. १० ए म् । द्विवि'. ११ बी सी तीन । दि. १२ सी पाञ्चालों. १३ ए बी 'तिकपरिणाममें'. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.६.४.१४२.] सप्तदशः सर्गः। ३८३ स्तेनोन्मेयमतिप्रभूतमित्यर्थः । नीलं कृष्णं तमोतय॑त । किंभूतम्। निशो रात्रिकामिन्या नीलमंशुकम् । किंभूतम् । द्वाभ्यां शूपाभ्यां क्रीतम् । अनो लुपि द्विशूर्प वस्तु तेन क्रीतं द्विशौर्पिकम् । शिष्टं स्पष्टम् ।। द्विकंसम् । अत्र “अनान्नि." [ १४१ ] इत्यादिनेकणः छुप् ॥ अद्विरिति किम् । द्विशौर्पिकम् । अनानीति किम् । पाञ्चलोहितिक ॥ संख्याताद्विगोलपं नेच्छन्त्यन्ये । द्विषाष्टिकम् ॥ द्विसहस्रं त्रिसाहस्रं वाश्वमारुह्य मङ्खयुः । द्विसुवर्णत्रिसौवर्णिकांशुका अभिसारिकाः ॥ ८३ ।। ८३. स्पष्टः । किं तु द्विसहस्रं द्वाभ्यां महस्राभ्यां द्रम्मादिभिः क्रीतम्। सुवर्णो मानं सुवर्णकर्षः । अभिसारिकाः । परपुरुषैः सह रन्तुं संकेतस्थानमभिसरन्त्यः स्त्रियः॥ द्विकार्षापणिकान्पश्चकार्षापणानवर्तयन् । सद्गन्धान्वित्रिबहाद्यनिष्कविस्तांश्च योषितः ॥ ८४ ॥ ८४. स्पष्टः । किं तु कार्षापणः कर्षः षोडशपणा वा । अवर्तयन् विलेपनाद्यर्थ श्लक्ष्णीचक्रुः । सद्गन्धान्कर्पूरादीन् । द्वित्रिबह्वाद्यनिष्कविस्तांश्च द्विनिष्कांखिनिष्कान्बहुनिष्कांश्च द्विबिस्तास्त्रिबिस्तान्बहुबिस्तांश्च । निष्को हेम्रोष्टोत्तरं शतं पलं वा । बिस्तः सुवर्णादीनां परिमाणविशेषः ।। १बी 'तिभू'. २ बी सी भ्यां सूर्पा'. ३ बी सी द्विमूर्प. ४ सी दिसापि'. ५ सी हितक. ६ ए सी नं स्वर्ण'. ७बी र्षः । आभि'. ८ ए वा । आव. १ बी कांन्व. १० सी स्त्रिवस्तांश्च, ११ सी कोये. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] नष्किका बैस्तिका द्वित्रिबहाद्या द्विशता अर्थ । त्रिशत्या रत्नदीपा नु गिरावोषधयोद्युतन् ।। ८५ ॥ ८५. गिरीवर्बुद ओषधयोद्युतन् । उत्प्रेक्ष्यन्ते । रत्नदीपा नु । कीदृशाः । द्वित्रिबहाद्या नैष्किका बैस्तिका द्विनैष्किकाखिनैष्किका बहुनैष्किका द्विबैस्तिकास्त्रिबैस्तिका बहुबैस्तिकाः । शिष्टं स्पष्टम् ।। द्विसहस्रम् । त्रिसाहस्रम् । अत्र "न वाणः" [१२] इत्यणो वा लुप् ॥ द्विसुवर्ण । त्रिसौवर्णिक । पञ्चकार्षापणान् । द्विकार्षापणिकान् । अत्र "सु. वर्ण०" [ १५३] इत्यादिना प्रत्यस्य वा लुप् ॥ द्विनिष्क द्विनष्किकाः। त्रिनिष्क त्रिनैदिककाः । बहुनिष्क बहुनैष्किकाः । द्विबिस्तान् द्विबैस्तिकाः । त्रिविस्तान त्रिबैस्तिकाः । बहुबिस्तान् बहुबैस्तिकाः भत्र "द्वित्रि." [१४४ ] इत्यादिना प्रत्ययस्य लुब्वा ॥ विशत्या(त्याः) । द्विशताः । अत्र “शताधः” [ १४५] इति वा यः। पक्षे संख्यालक्षणः कस्तस्य लुप् ॥ अध्यर्धशाणा द्वैशाणी त्रैशाणी पञ्चऑयिका । महाशाणा नु भास्त्राणां दीपनी यामिनी बभौ ॥ ८६ ॥ ८६. यामिनी रात्रिर्महाशाणा नु महच्छत्रोत्तेजनोपकरणमिव बभौ । यतोभाखाणां नक्षत्रायुधानां दीपन्युज्ज्वालिका। कीडग्महाशाणा। १ ए सी य । त्रिंश'. २ बी नदीपा. ३ बी णी त्रिशा'. ४ बी सी शाणिका. ५ सी दीपिनी. ६ ए नीव ब. •ए भौ ॥ यतो. १ बी 'राक.... २ए दिनेष्किकास्पैनेष्कि. ३ सी किकाः । शि. ४ सी चा इ. ५ एक दैनिष्किकाः । त्रैनै'. ६ एनिष्कः ब. ७ए न् . ८ सी "स्य प्रत्यय ॥ अ. ९ बी त्रिमहा १० सी दीपिन्यु. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१४९.] सप्तदशः सर्गः । ३८५ अध्यर्धेने सार्धेन शाणेन मानभेदेन क्रीताध्यधंशाणा । शिष्टं स्पष्टम् ॥ द्विशाणिनि द्विशाण्यं नु त्रिशाण्यं नु त्रिशाणिनि । तमः खेभाद् व्यादि पण्यं पाद्यं माष्यं नु तद्वति ।। ८७ ॥ ८७. खे तमोभात् । यथा द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतं वस्तु द्विशाणं तदस्यास्ति द्विशाणी पुरुषस्तस्मिन्दिशाण्यं द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतं वस्तु भाति । यथा वा त्रिशाणिनि त्रिशाण्यं भाति । यथा वा तद्वति द्विपण्यादिवस्तुमति नरे द्विपण्यं द्विपाद्यं द्विमाष्यं च वस्तु भाति । पणः कार्षापणः । पादो माषादीनां चतुर्थो भागः । माषः वर्णमानभेदः ॥ __पनायिका अध्यर्धशाणा । इत्यत्र "शाणात्" [१४६] इति वा यः ॥ पक्षे । इकणो लुएं । द्विशाण्यम् । वैशाणी । त्रिशाण्यम् । त्रैशाणी। इत्यत्र "द्विश्यादेयाग्वा" [१४७] इति वो याणी ॥ पक्षे । द्विशाणिनि । त्रिशाणिनि । इकणो लुग् ॥ द्विप॑ण्यम् । द्विपायम् । हिमाष्यम् । अत्र "पण." [१४८] इत्यादिना यः॥ द्विकाकणीकषट्खारीकप्रास्थिकवदन्तरम् । ताराणामविदल्लोको मौगिकक्षेत्रभासि खे ॥ ८८ ॥ ८८. खे ताराणामन्तरं गुरुत्वलघुत्वादिकृतं विशेष लोकोविद१बी शाणि'. २ °बी भादादि. ३ ए र । ता'. १बी न शा. २ बी स्यास्तीति द्वि'. ३ ए स्मिन्दिशा. ४ सी प्यं द्विपापं. ५ ए दिपाण्यं. ६ए °माद्य च. बी मानुष्यं. ७ सी शाणिका. ८ ए इताच शा. ९सी प् । द्विपण्यं । दिपाच. १० बीम् । द्विशा. ११ वी देयावा. १२ ए वा यणौ. १३ ए "पणाम्. १४ ए तारोणा'. १५ ए काऽविदत् । यतो. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ल्लेभे । ज्ञातवानित्यर्थः । विद्लन्ती लाभे । यतो मुद्रानां वापो मौद्रिकं यत्क्षेत्रं तद्वद्भासि तमसातिकृष्ण इत्यर्थः। द्विकाकणीकषट्खारीकप्रास्थिकवत् । यथा द्विकाकण्यादिभिः क्रीतानां वस्तूनां मध्येल्पमहत्त्वादिकृतं विशेष लोको वेत्ति । कपर्दकविंशतिः काकणी ॥ पट्खारीक । द्विकाकणीक । इत्यत्रं “खारी." [ १४९ ] इत्यादिना कच् ॥ प्रास्थिक । इत्यत्र "मूल्यैः क्रीते" [ १५० ] इतीकण् ॥ मौद्रिक । इत्यत्र "तस्य वापे" [१५१ ] इतीकण् ॥ वातिकः पैत्तिकश्वार्थ श्लैष्मिकः सांनिपातिकः । अवियुक्तवियुक्तानां प्रदोषोभूत्प्रियाप्रियः ॥ ८९ ॥ ८९. प्रदोषोवियुक्तानामविरहिणां रतिहेतुतया प्रियोभूत् । कोह. क्सन् । वातिकः पैत्तिकश्चाथ तथा श्लैष्मिकः सांनिपातिको वातपित्तश्लेष्मसंनिपातानां शमनः । प्रदोषो हि स्वभावेन साधारणः कोलः । वियुक्तांनी त्वप्रियोभूत् । यतो रत्यभाँवोत्थदुःखेन सर्वधातूद्रेकहेतुत्वाद्वातपित्तश्लेष्मसंनिपातानां कोपनः ॥ वातिकः । पैत्तिकः । श्लैष्मिकः । सांनिपातिकः । अत्र "वात." [१५२] इत्यादिनेकण् ॥ १ ए बी 4 मि. २ सी भूत्सदामि'. १ सी कं तत्क्षे. २ ए बी तद्भा'. ३ सी दाति त'. ४ ए सी कृष्णेत्य. ५ ए °हत्तादि. ६ ए शेषलो'. ७ सीत्र मू. ८ ए दिनेक. ९ एगिकीत्य'. १० ए°था सेमि. ११एनः । प्रादो. १२ बी कालवि'. सी कालयु. १३ ए नां त्वेप्रि. १४ बी 'भावात्थदुरकेन. १५ बी 'कः । श्लेष्मि. सी कः । टेष्मकिकः. . Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१५३.] सप्तदशः सर्गः। ३८७ मूत्पातमिव पुत्रीयं शत्यमीड्योगमिच्छवः । ससजुः कुलवधोपि पुत्र्यधन्यैषिणो न के ॥ ९० ॥ ९०. कुलवध्वोप्यासतां वेश्याद्यङ्गनाः कुलाङ्गना अपि ससज्जुः संभोगार्हाङ्गभोगादिना प्रगुणीबभूवुः । कीदृश्यः सत्यः । पुत्रीयं पुत्रहेतुं शत्यं सुवर्णा दिशतहेतुं चेड्योगं प्रियसंबन्धमिच्छवो यथा पुत्रीयं शत्यं च सूत्पातं शुभसूचकं महाभूतपरिणाम मिच्छवः स्युः । युक्तं चैतत् । यस्मात्पुत्र्यधन्यैषिणः पुत्रधनहेत्वीड्योगपुत्रधनहेतुसूत्पाताभिलाषिणः के न स्युः ॥ आश्विकौर्णिकखारीकपश्चकानामकांतिणीम् । ईडयोगे ब्रह्मवर्चस्से ददृशुर्दिव्यरुन्धतीम् ॥ ९१ ॥ ९१. अरुधन्ती सप्तर्षिसमीपस्थां वसिष्ठभार्यां दिवि व्योम्नि लोका ददृशुः । किंभूताम् । आश्विकौणिकखारीकपञ्चकानामश्वानामूर्णायाः खार्याः पञ्चानां रूपकादीनां हेतवः संयोगा उत्पाता वा ये तेषामकोटिणीम् । क सति । ब्रह्मणः परमज्ञानस्य वर्चः प्रतापो ब्रह्मवर्चसं तस्य हेतौ ब्रह्मवर्चस्य ईड्योगे पतिसंबन्धे । महासतीत्वात्पतिसंबन्धमेवेच्छन्तीमित्यर्थः ॥ शत्यमील्योग सूत्पातमिव । इत्यत्र "हेतो." [१५३ ] इत्यादिना यथाविहितं यः ॥ १ बी सी यं सत्य. २ सीपि आस'. ३ ए "काहणी. सी काहणी । ई. ४ बीणी । इज्यो . १ए प्यास्तीवे. २ एणीरभू. ३ सी वर्णश. ४ ए 'दित्वात'. ५ सी यं सत्यं. ६ ए शुचर. ७ बी सी पुत्रध'. ८ बी हेतुंसू. ९ ए मीस्थां. १० सी वशिष्ठ'. ११ ए कप'. १२ ए काक्षिणी . १३ सी 'रशा. १४ सी बन्धमे. १५ बी धः। सत्य. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ब्यायमहाकाव्ये [कुमारपालः] पुश्य । पुत्रीयम् । अत्र "पुत्रायेयौ” [ १५४ ] इति येयौ ॥ धन्य । ब्रह्मवर्चस्थे । भत्र "द्विस्वर०" [१५५] इत्यादिना यः ॥ असंख्या. परिमाणाश्चादेरिति किम् । संख्या । पत्रकानाम् ॥ परिमाण । खारीक । अश्वादि। आश्विकौणिक ॥ पार्थिवः सार्वभौमश्च सूत्पातपुण्ययोगवत् । अथेन्दुरुदगाद्वन्द्यः सार्वभौमैः सपार्थिवः ॥ ९२ ॥ ९२. अथानन्तरं सपार्थिवः पृथिव्या ईशः पार्थिवो राजा प्रस्तावादत्र कुमारपालस्तेन सहित इन्दुश्चन्द्र उदगात् । कीटक्सन्निन्दुः पार्थिवश्च । पार्थिवः पृथिव्या ज्ञातः । पृथिव्येकदेशे प्रसिद्धोपि पार्थिव इत्युच्यत इत्याह । सार्वभौमः सर्वभूमेख़तोत एव सार्वभौमैः सर्वभूमेरीशैर्नृपैर्वन्द्यः प्रणम्यः । सूत्पातपुण्ययोगवत् । यथा पार्थिवः सार्वभौमश्च पृथिव्याः सर्वभूमेश्च हेतुः सूत्पातः पुण्ययोगश्च सार्वभौमैर्वन्द्यः श्लाघ्यः स्यात् ।। 'सपार्थिवः । सार्वभौमः । पार्थिवः । सार्वभौमः । भत्र "पृथिवी." [५६] इत्यादिना ॥ न्यधादिन्दुः करं प्राच्यां लोकिक्यां सार्वलोकिकः । अधिकेष्वर्धिक इव पश्चकेष्विव पश्चकः ॥ ९३ ॥ १ एथिवसा. २ बी वभूमैः. १बी त्रादेयो. २ बी संख्यप'. ३९ संख्याः । प. ४ बी राकः । म. ५ बी णिकः । पा. ६ ए 'न्तर स. ७ सी च्या शा. ८ बी क्सनिन्दुः. ९बी पाथिवः. १० वी सी भौमः स. ११ सी श्च हे'. १२ ए सी भौमः । . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ६.४.१५७. ] सप्तदशः सर्गः । ३८९ ४ ९३. सार्वलौकिकः सर्वलोकस्य ज्ञात इन्दुलौकिक्यां लोकस्य ज्ञातायां प्राच्यां दिशि करं किरणं न्यधात्र्यक्षिपत् । अर्ध रूढ्या रूपकार्थं तथा पञ्च द्रम्मादय एषु शतेषु प्रामेषु पटेषु व्यवहारेषु शतेषु वृद्धिरायो लाभ उपदा शुल्कं वा देयमधिकानि पञ्चकानि पञ्चशतादीनि तेषु । तथार्ध पचै वास्मै वृद्धिरायो लाभ उपदा शुल्कं वा देयमर्धिकः । पञ्चकश्च व्यवहारकादिः । यथार्धिकोर्धिकेषु पञ्चकः पञ्चकेषु च द्रम्मशतादिषु करं हस्तं रूपकार्थद्रम्मपञ्चकादिग्रहणाय क्षिपति ॥ षष्ठिकान्पष्टिकस्येवं भाग्यस्येव च भागिकान् । द्रौणिकीभिः समं द्रौणाः परभागं विधोर्ददुः ॥ ९४॥ ९४. द्रौणिकीभिर्द्रोणं पचन्तीभिः स्त्रीभिः समं सह द्रौणाः द्रोणं पंचन्तो नरा विधोरिन्दोः परभागं गुणोत्कर्षं ददुः पाकेन संतप्तत्वात्सन्तापविद्रावकं चन्द्रोदयं प्रशशंसुरित्यर्थः । यथा षष्ठो भागोस्मै वृद्ध्यादीनामन्यतमो देयः षष्ठिको व्यवहारका दिस्तस्याधमर्णाः षष्ठो भागो वृद्ध्यादीनामन्यतमै एषु द्रम्मशतादिषु देयः षष्ठिकास्तान्पष्ठभागदानेन ददति । यद्वा षष्ठिकशब्देनोपचारात्स्वावयवः षष्ठभागोप्युच्यते यथा पटो दग्ध इत्यादौ पटैकदेशेपि पटशब्दस्ततः षष्ठिकान्षष्ठभागाददति । एवं भाग्यस्येव च भागिकान् भागशब्दो रूपकार्थे रूढः ।। १४१५ ४ बी मं १ सी व भोग्य'. ५ ए बी 'दुः । द्रोणि. २ सी भाग्यका ३ ए बी न् । द्रोणि. द्रोणा : . ए 'षु शाते'. ४ ए. 'नि वश'.. ७ ए हस्तरू... ८ बी सी द्रौणा ११ ३ १ए लोक. २ ए दुलोंकि ५ बीच चास्मै. ६ ए 'वहरकादि । यँ द्रो. ९ए पचतो न . १० "वह".. १३ बी म पशु द्र. 'न्दति. १७ बी ग्यस्यैव, १८ ए रूपार्थे. ए विधौरि°. १४ बी 'देशोपि बी प्रशंशंशुरि.. १५ सी . शे प. १२. ए १६ ए Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] लौकिक्याम् । सार्वलौकिकः । अत्र “लोक ० " [१५७] इत्यादिना इकणे ॥ 1 पञ्चकेषु । पञ्चकः । अत्र " तदत्र ० " [ १५८ ] इत्यादिना यथाविहितं कः ॥ षष्ठिकान् । षष्ठिकस्य । अर्धिकेषु । अर्धिकः ॥ अत्र “पूरण० " [ १५९ ] इत्यादिकः ॥ ४ ५ भाग्यस्य । भागिकान् । इत्यत्र “ भागाद्येकौ ” [ १६० ] इति येकौ ॥ द्रौणाः । द्रौणिकीभिः । भन्न "तं." [ १६१ ] इत्यादिना वन् ॥ ३९० ज्योत्स्ना फेनादां ढकी नपात्रिका चितिकैर्जनैः । प्राच्युखोत्प्रेक्षि पात्रीणाचितीनाढकिकी तदा ।। ९५ ।। ९५. तदा चन्द्रोदयकाल आदि (ढ) कीनपात्रिका चिति कैराढकं चतुः प्रस्थी पात्रं पात्रमितमन्नमाचितं मानभेदमितमन्नं च पचद्भिर्जनैः पाचकँलोकैः प्राची पूर्वर्दिगुखा स्थात्युत्प्रेक्ष संभाविता । कुतो ज्योत्स्नाफेनाज्ज्योत्स्नैवातिश्वैत्याद्धान्ये राध्यमाने स्थालीमुखोत्थः फेनस्तस्मात् । कीदृश्खा | पात्रीणा चितीनाढकिकी पात्रमाचितमाढकं वा पचन्ती । यद्वा संभवन्ती प्रमाणानतिरेकेण धारयन्तीत्यर्थः । यद्वावहरन्ती प्रमाणातिरेकेण धारयन्तीत्यर्थः । ज्योत्स्नाया राध्यमान ओदने स्थालीत उत्फर्णेत्फेनकल्पत्वादुत्प्रेक्षकाणां च पाचकत्वेन सुपरिचितस्थालीफेनत्वादेवमुत्प्रेक्षा ॥ ११ 93 १ए दाडिकी. बी दाढिकी'. ४ए नाडकि'. १ए लोक. ५ ए येको । द्रौ°. ९ ए 'खात्थाल्यु. 'णत्पेन'. २ सी 'कैराढकं. १३ बी 'त्प्रेक्ष्यका ३ ए प्राच्यखो'. ३ ए अर्धके.. २ एण् । के°. ४ बी कणः । भा. ६ सी. वाकञ्. ७ बी 'चकलो. ८ बी 'दिग्मुखा. १० बी सी श्युषा । पा. ११ ए न्ती णा . १२ ए बी Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१६४.] सप्तदशः सर्गः । ३९१ आढकिकी । इत्यत्र “संभवद्" [ १६२ ] इत्यादिनेकण् ॥ पात्रीणाचितीना । आढकीन । इत्यत्र “पात्र." [ १६३ ] इत्यादिना वाईनः ॥ पक्षे । पत्रिकाचितिकैः । आढकिकी ॥ याचितैाचितीनोखा द्विपात्रीणैर्द्विपात्रिकी । द्याढकी ब्याढकीनैर्नु ज्योत्स्नाभाजि चकोरकैः ॥ ९६॥ ९६. स्पष्टः । किं तु यथा द्व्याचितैवाचितौ पंचद्भिाचितीना द्वावाचितौ पचन्ती संभवेन्यवहरन्ती वोखा भज्यते ॥ याचितिकी वाढकिकी द्विपात्री द्विकुँलिज्यथ । खेन्वमीयत शीर्णोखा कीर्णैस्तारकतन्दुलैः ॥ ९७ ॥ ९७. कीर्णैरितस्ततो विक्षिप्तैस्तारकतन्दुलैस्तारका एव श्वेतत्वात्त. न्दुला राद्धशालयस्तैः कृत्वोखा तन्दुलस्थाली खे शीर्णा भग्नान्वमीयत यत्खे तारकतन्दुला दृश्यन्ते तस्मादत्र महती तन्दुलस्थाली भनेति लोकैरनुमितमित्यर्थः । किंभूतोखा । अथाथ वा द्विॉलिजी द्वे 'कुलिजे मानभेदौ पचन्ती संभवन्त्यवहरन्ती वा । एवं प्राग्विशेषणार्थोपि ज्ञेयः । महाप्रमाणेत्यर्थः ॥ नवेन्दोदिकुलिजिकैः सबैकुलिजिकीजनैः । नभोद्विकुंलिजीनोखाचूर्णलेखा न्वलक्षि भाः॥ ९८॥ १५ चितिकी'. २ ए द्याढिकी. ३ बी द्याढिकि. ४ ए 'कुलीज्य'. ५ बी लिजाथ. ६ बी !षाकी. ७ ए सी वेदोदि. ८ ए बी कुलजि. ९ बी 'कुली'. १० बी क्षिताः ॥ स. सी 'क्षिभा ॥ स. १५ भवादत्या. बी भवाद्. २ ए पात्राणा'. ३ बी ना ईनः. ४ बी पतद्भि'. ५ ए वत्यथह. ६ ए शालाय. ७ बी त्वोषा त'. ८ ए बी यते य. ९५ °मितिमि . १० बी कुळजी. ११ ए बी कुलजे. १२ ए वत्सह. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ब्याश्रयमहाकान्ये (कुमारपाठः ९८. सद्वैकुलिजिकीजनैढे कुलिजे पचन्तीनां स्त्रीणां जनेन सहितैईिकुलिजिकैट्टै कुलिजे पचद्भिनरैनवेन्दोर्भा अलक्षि ज्ञाता । किदशी । नभ एव कृष्णत्वाहिकुलिजीनोखा द्वे कुलिजे पचन्ती संभवन्त्यवहरन्ती वा स्थाली तस्यां या चूर्णलेखा चूर्णस्य खटिकादिक्षोदस्य रेखा सा नु । स्थाली हि शोभार्थमुपरिभागे खटिकादिश्वेतचूर्णेन मण्ड्यते । बालेन्दुकान्तीनां व्योमपार्श्ववर्तित्वादुत्प्रेक्षकाणां पाचकत्वेन सुपरिचितस्थालीव्यापारत्वाच्चैवमुत्प्रेक्षा ॥ द्विपात्रीणैः । द्विपात्रिकी। याचितीना । ब्याचितिकी । ब्याढकीनैः । व्याढकिकी । अत्र "द्विगो०" [१६४ ] इत्यादिना वेनेकटौ । पक्ष इकण् । तस्य "अनानि." [ ६, ४. १४१ ] इत्यादिना लुप् । द्विपात्री। याचितैः । ब्याढकी ॥ द्विकुलिजीना । द्विकुलिजिकैः । अत्र "कुलिजाद्वा लुक(लुप् च?)" [१६५ ] इनीनेकैटौ वा । पक्ष इकणो लुब्वा । द्विकुलिजी । द्वैकुलिजिकी॥ वांशिकैः कौटिकैाशभारिकैः कौटभारिकैः । द्रव्यकैवस्न (स्नि?)कैः श्रान्तैः सुधांशुददृशे मुः ॥ ९९ ॥ ९९. सुधांशुर्मुदा ददृशे । कैः कैः। वांशिकादिभिरतिस्थूलत्वमहत्त्वादिना भारभूतानल्पान्वंशानेवं भारभूतानल्पान्कुटॉन्घटांस्तथा __१ बी कैः कोटि . २ ए कैः कोट'. ३ ए वन्नकैः. ४ बी न्तैः शुधां'. ५ ए सुधाशु. ६बीदा । शुधां'. १बी कुलजि'. २ बी 'नैर्द्विकु. ३ बी कै कु. ४सी 'गे खाटि'. ५ बी पाचव. ६ बी प्रेक्ष्यका. ७ बी प्रेक्ष्या । द्वि०. सी त्प्रेक्षाः । दि. ८ सी पात्रि. ९ए त्रीणै। द्विपात्रीकी. १० सी तीकी. ११ बी कवी वा. १२ सी लिजि . १३ ए °लत्वा'. १४ पटान्चंटां'. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१६८.] सप्तदशः सर्गः। ३९३ वंशभारं वेण्वोघमेवं कुदभारं तथा द्रव्यं तथा वस्त्रं मूल्यं हेरद्भिर्देशान्तरं प्रापयद्भिर्वहद्भिर्वोत्क्षिप्य धारयद्भिरावह द्भिर्वोत्पादयद्भिर्भूत्यैः । यतः कीदृशैः । श्रान्तै रहरणादिना खिन्नैः। श्रान्ता हि श्रमोत्थसन्तापोच्छेदकं चन्द्रोदयं स्पृहयन्ति । वांशभारिकैः । कौटभारिकैः । वांशिकैः । कौटिकैः । अत्र "वंशादेर " [ १६६ ] इत्यादिना-इकण् ॥ दव्यकः । वन(नि?)कैः । अत्र “द्रव्य." [ १६७ ] इत्यादिना केकौ ।। लसन्ती खेष्टके दिग्भिश्चर्दैवहतैस्तदा । पञ्चकैवष्टकं वासो ज्योत्स्ना द्रौणिक्यकामि न ॥१०॥ १००. तदा तस्मिन्काले ज्योत्स्ना । अपिरत्र ज्ञेयः । विश्वविश्वाहा. दिका चन्द्रिकापि चक्रैश्चक्रवाकैर्नाकामि न वाञ्छिता। यतो दैवह. तैर्निष्पुण्यैः । दैवहतानां हि सर्वानन्दकमपि वस्त्वसुखायैव स्यात् । कीदृशी । द्रोणो मानमस्या द्रौणिक्यतिप्रभूतेत्यर्थः। अत एव दिग्भिः कृत्वाष्टावंशा भागा अस्याष्टकं तत्राष्टके खे लसन्ती दिशो व्योम च ध्याप्नुवतीत्यर्थः । यथा पञ्च द्रम्मा भृतिः कर्ममूल्यं येषां तैः पञ्चकैभृत्यैर्दैवहतैः सद्भिरष्टौ द्रम्मा वस्त्रं मूल्यं यस्य तदष्टकं वासः परिधानार्थ नेष्यते ॥ १ए कैव. २ए कैर्नष्टवा'. ३ ए सी त्ला द्रोणि'. ४ एका. गिना। त'. ५ बी 'मि नः । त. १ बी पकु. २ बी हरिभिर्दे'. ३ बी द्भिभृत्यैः. ४ बी दृश्य । श्रा. ५ एकैः । वंशि. सी कैः । वाशि. ६ ए देक. ७ ए कैः । दस्तकैः. ८ सी का च'. ९सी वाक्यैर्ना'. १० सीता । या दै. ११ बी सी तेनिःपुण्यैः. १२ ए °ण्यैः । देव. १३ ए नदक. १४ बी °खा तं कः. १५ ए द्रोणा मा. १६ ए "त्यैर्देव. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पञ्चकैः । अष्टकं वासः । भष्टके । अत्र "सोस्स० [१६] इत्यादिना यथा. विहितं कः ॥ द्रौणिकी । इत्यत्र "मानम्" [ १६९ ] इतीकण ॥ द्विषाष्टिका वरस्तोत्ररष्टिकाधीतयोष्टकैः । बन॑न्तः पञ्चकान्संघान्द्विजराजं जगुर्द्विजाः ॥ १०१॥ १०१. द्वे षष्टी वर्षाणि जीवितमानमेषां द्विषाष्टिका अतिवृद्धा द्विजो ऋत्विजो द्विजराजं चन्द्रं जगुर्गायन्ति स्म । यो हि येषां राजा स्यात्स तेर्गीयते । कीदृशाः सन्तः । अष्टावृचो मानमेषां तैरष्टकैः ष. निवरस्तोत्रेः सोमस्तुतिरूपषत्रगष्टकमयेन बृहता स्तोमेन कृत्वेत्यर्थः । अष्टौ रूपाणि वारा मानमस्या अष्टिका साधीतिः पाठो येषां ते स्तोत्रंस्वरूपाणि षड्गष्टकान्यष्टौ वारान्पठन्त इत्यर्थः। तथा पञ्चावयवा मानमेषां पञ्चकान्संघानजौघान्बन्धन्तः । किलायुष्टोमयाग आयुवृद्ध्यर्थं परमायुभिरेव यज्वभिः क्रियते तत्र च तैः पूर्णिमाचन्द्रोदय आलम्भाय पञ्चाजान्यूपस्तम्भे बनद्भिरष्टाचत्वारिंशदृग्मयमष्टाचत्वारिंशाख्यं महास्तोममष्टौ वारान्गायद्भिश्च चन्द्रः स्तूयत इति याज्ञिकाः॥ द्विषाष्टिकाः । अत्र “जीवितस्य सन्" [ १७० ] इतीकण् स च सन् ॥ पञ्चकान् । अष्टकैः । अष्टिका । इत्यत्र “संख्यायाः०" [१७१] इत्यादिना कः ॥ १ ए कावीत. २ बी भन्ता प. ३ सीन्संध्यान्द्रि'. १ ए अथकं. २ बी ण् । द्वेषा'. ३ सी जा द्वि'. ४ बी गीयंते. ५ ए सी स्तोत्रै सो . ६ ए सार्वातिः, ७सी त्ररू. ८ एल्युमिः य. बी युभिरिव. ९ बी चन्द्र श्रये ई. सी चंद्र स्तू. १० ए काः । अ. ११ बी कैः । षष्टि. १२ सी अष्टका. . Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१७४.] सप्तदशः सर्गः । ३९५ पञ्चका नु शकुनयः काप्युड्डीय तमांस्ययुः । इन्दौ निदधति व्योनि विंशतिं त्रिंशतं करान् ॥१०२।। १०२. पञ्चेति संख्या मानमेषां पञ्चैवे वा पञ्चका नाम शकुनयः पक्षिणो यथा काप्युड्डीय यान्ति । शिष्टं स्पष्टम् ॥ पञ्चकाः । अत्र "नानि" [१७२ ] इति कः ॥ विंशतिम् । त्रिंशतम् । एतौ "विंशत्यादयः" [ १७३ ] इति निपात्यौ । ब्राह्मणैाह्मणाशचात्वारिंशैरिवानधैः । जहषुर्यज्वनां पत्युरोषधिद्योतिभिः करैः ॥ १०३ ॥ १०३ यज्वनां पत्युरिन्दोः करैः कृत्वा ब्राह्मणा ऋत्विजो जहषुः । यत ओषधिद्योतिभिः सोमवल्ली नाम महौषधी यदेन्दुः क्षीयते तदा प्रतिदिनमेकैकपत्रपातेन क्षीयते । यदा विन्दुर्वर्धते तदासौप्येकैकपत्रवृद्ध्या वर्धते । सा च यागेपु महोपकरणमिति ऋत्विग्भिर्गिरिषु गवेष्यमाणासौ चन्द्रांशुभिः प्रकाश्यत इत्य॒त्विजां हर्ष इत्यर्थः । यथा ब्राह्मणैर्वेदविशेषैः कृत्वा स्वसिद्धान्ततया ब्राह्मणा हृष्यन्ति । किंभूतैः । त्रिंशचत्वारिंशञ्चाध्याया मानमेषां तैस्तथानधैर्निष्पापैः ।। त्रै(?) च्चा(चा!) त्वारिंशैः। एतौ "त्रैश." [१७४] इत्यादिना निपात्यौ । १५ का मु श. २ एयः काप्यु'. ३ ए सी शचत्वा'. ४ बी जहर्षुर्यज्वानां. १ सी चैवं प. २ बी व प. ३ ए °नय प. ४ सी °न्ति । प. ५ ए शति । त्रि. सी शतं । त्रि. ६ बी यज्वानां. ७ ए रिन्दों क. ८ बी हुषु । य°. ९ए कैप. १०९ °दा साप्ये'. ११ बी इत्यत्वि'. १२ ए 'शत्वाध्या. १३ ए सी पैः । त्रिश. १४ बी शञ्चत्वा. सी 'शव्यत्वा'. १५ ए 'नो त्रैश. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्याश्रयमहाकाव्ये कमारपाल:]. दशकेषु दशद्वर्गो यथा पश्चत्सु पञ्चकः । तथा शशिकरेष्वन्तर्बभूव ज्योतिषां प्रभा ॥ १०४॥ १०४. दशमानमेषां तेषु दशकेषु वर्गेषु मध्ये दशद्वर्गो दशसंख्यामान एकः समूहो यथा यादृशोल्पत्वेनालक्ष्यः स्याच्छशिकरेष्वन्तर्मध्ये ज्योतिषां ताराणां प्रभा तथा तादृश्यलक्ष्या बभूव । शिष्टं स्पष्टम् ॥ पञ्चत्सु । दशत् । इत्येतो "पञ्चद्" [ १७५] इत्यादिना निपात्यो वा ॥ पेक्षे । पञ्चकः । दशकेषु ॥ विंशस्तोमविदां मत्रैर्यज्ञियानां नु शीतगोः । आभिषेचनिकस्योर्दण्ड्यं वध्यं तमोद्रवत् ॥ १०५॥ १०५. तमोद्रवदनश्यत् । कीहक्सत् । शीतगोरिन्दोः किरणैः कृत्वा दण्ड्यं वध्यं च निग्रहं हिंसां चाहत्। कीदृशस्य । आभिषेचनिकस्य सकलपृथ्व्याह्लादकत्वादभिषेचनं राज्याभिषेकमहतः। योप्याभिषे. चनिको राजा तस्य दण्ड्यो वध्यश्च संस्तमस्तुल्यश्चौरादिर्भयेन नश्यति । यथा यज्ञो नाम क्रियासमुदायः कश्चित् । तदभिव्यङ्गयं वापूर्वमित्याहुस्तमहतां यजमानानां तमः पापं द्रवति। कीहक्सत् । विंशतिऋचो मानमस्य विंशो यः स्तोम ऋक्समूहस्तं विदन्ति ये तेषामृत्विजां मन्त्री कृत्वा यागकाले दण्ड्यं वध्यं च ॥ विंशस्तोम । इत्यत्र "स्तोमे ट्" [१] इति । १ ए प्रभाः । द. २ ए गोः । अमि'. ३ बी ड्यं बध्यं. १ सीकरीधान्त. २ ए ना पा. ३ बी पक्षं । प. ४ ए 'रुस्तो कि. ५ ए श्वादि. ६ ए पूर्वामि'. ७ ए 'नस्स. ८ ए °स्य विशो. १बी विंशतो यः. १० सी शो य स्तो'. ११ एट् । अभि'. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ६.४.१८०.] सप्तदशः सर्गः। आमिषेचनिकस्य । इत्यत्रं "तमर्हति" [ १७७ ] इतीकण् ॥ दण्ड्यम् । वध्यम् । अत्र "दण्डादेर्यः" [ १७८ ] इति यः ॥ यज्ञियानाम् । अत्र "यज्ञादियः" [ १७९] इतीयः ॥ प्राप्येन्दोः पात्रिया–श्मीन्व्यकसन्कुमुदान्यथ । स्थालीबिलीयं पात्र्यं वा कडंगर्या इवौदैनम् ॥ १०६॥ १०६. अथ तथेन्दो रश्मीकान्तीः प्राप्य कुमुदानि व्यकसन् । किंभूतान् । पात्रियानतिप्रधानत्वात्पात्रमहंतः । यथा कडंगर्याः कडंगरं पलालमहन्तो वृषा ओदनं प्राप्य हर्षाद्विकसन्ति। कीदृशम् । स्थाली बिलीयं स्थाली बिलमहन्तं पाकाहमित्यर्थः । पात्र्यं वातिप्रधानत्वात्पात्रमहन्तं वा ॥ दक्षिण्यो दॆक्षिणीयानामपीन्दुः स्वधियैक्षि खे । कडंगरीही(ही) स्थालीबिल्यैहैयङ्गचीनकम् ॥ १०७॥ १०७. दक्षिणीयानामपि दक्षिणार्हाणां द्विजानामपि दक्षिण्यो दक्षिणार्हः पूज्यः खे वर्तमान इन्दु- विस्मये । कडंगरीयैः । अपिरत्र ज्ञेयः । वृषभादिपँशुभिरपि स्वधियैक्षि ज्ञातः । कीदृक् । स्थालीबिल्यंहैयङ्गवीनकम् । ईवोत्रावसीयते । स्थाली बिल्यं स्थाली बिलमहत्पाकार्ह मन्थन्यां पिण्डीकृतमित्यर्थः । यद्धैयङ्गवीनकं ह्योगोदोहस्य १बी व्रिस्मीन्थ्य'. २ ए सकुमु. ३ ए °दनाम्. ४ए दक्षणी'. ५ ए 'न्दुः स्वाधि०. ६बी धियैः क्षि. ७ए यह स्था'. बी यैर्हा स्था'. ८ बी बिलाहेंगवी. ९एल्यहेयगवी. १ एत्र म. २ ए त्वात्पत्र'. ३ सी गरं. ४ एन्तो तृषा. ५ सी कामि'. ६ बी हतं वा. ७ए सीक्षिणो द. ८ सी पशूना. ९ए 'ल्यहेय'. १० ए इत्रोत्रा. ११ बी बिल. १२ ए यद्धेय'. १३ ए गोदेह'. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ] विकारस्तदव पशूनामपि सद्य उत्तीर्णनवनीतपिण्डवश्चन्द्र आह्लादकोभूदित्यर्थः । यद्वा ही खेदे | सकलजगत्पूज्योपीन्दुः पशुभिः स्वतुच्छबुद्ध्या नवनीतपिण्डक इव ज्ञात इत्यर्थः ॥ पात्र्य॑म् । पात्रियान् । अत्र "पात्रात्तौ " [ १८० ] इति य इयौ ॥ दक्षिणीयानाम् । दक्षिण्यः । कंडंगरीयैः । कडंगर्याः । स्थालीबिलीयम् । स्थालीबिल्य । इत्यत्र “दक्षिणा०" [ १८१ ] इत्यादिना ईयया ॥ छैदिको भैदिकः शीर्षच्छेद्यः किं न विधुंतुदः । इति वैरङ्गिकोप्चे विधोरानन्दितः करैः ॥ १०८ ॥ १०८. वैरङ्गिकोपि विरागमर्हनीरागो मुनिरपि विधोरिन्दोः करैरानन्दितः सन्नूचे। किमित्याह । विधुंतुदो प्रेसनेन विधर्यथको राहुश्छैदिको भैदिकः शीर्षच्छेद्यः किं न । छेदं द्विधाकरणम् । भेदं विदारणम् । शीर्षच्छेदं च किं नित्यं नार्हति किं त्वत्येवेति ॥ अपकौपीनशालीनैराविजीनैरिवाम्बुजैः । 3 स्थितं संकुच्य चक्रे शैर्षच्छेदिकमानिभिः ॥ १०९ ॥ ९ १०९. अम्बुजैश्चत्रैश्चक्रवाकैश्च संकुच्य स्थितम् । यतः शर्षच्छेदिकमानिभिश्चन्द्रविपक्षस्यार्कस्याश्रितत्वेनेन्दुना शीर्षच्छेदार्हं स्वं मन्यमानैरिव । ये हि विपक्षाश्रितत्वेन स्वं राज्ञा शीर्षच्छेदार्हं मन्यन्ते तैर्भयात्कुत्रापि संकुच्य स्थीयते । यथार्त्विजीनैर्ऋत्विजं यायजूकमर्ह 1 १ ए "दिका शी.. २ बीच शीर्ष'. १ एत्र्य । पा. २ बी ग्रसेने. ५ ए हुश्छेदि. ३ ए विधौर्व्य'. बी 'हुच्छेदिकोमैदिकः. ६ ए च कि नि. • एकं अर्ह . बी किं त्वाई'. ८ बी सी 'तः शीर्ष'. १० बी सी याजयूक . ४ बी 'धोव्यथ'. सी च कि ना. ९ स्वम. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.१.] सप्तदशः सर्गः। द्भिर्यजमानैत्विकर्मार्हर्जित्विग्भिरेव वा संकुच्य स्थीयते । कीदृशैः सद्भिः। कूपप्रवेशनमर्हति कौपीनः । कौपीनशब्दः पापकर्मणि गोपनीयपायूपस्थे तदावरणे च चीवरखण्डे वर्तते । अपगतं कौपीनं चीवरखण्डं येषां तेपकौपीना नग्ना अत एव लज्जया शालीनाः शालाप्रवेशमहन्तो ये तैः ॥ छैदिकः । भैदिकः । अत्र “छेदादेर्नित्यम्" [ :८२ ] इतीकण् ॥ वैराशिकः । अत्र "विरागाद्विरङ्ग" [१८३] इतीकण विरागस्य विरजच ॥ शीर्षच्छेद्यः शैषच्छेदिक । इत्यत्र “शीर्ष०" [ १४५ ] इत्यादिना वा यः । शालीनैः । कौपीन । आखिजीनैः । एते "शालीन." [ १८५ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ चतुर्विंशः पादः ॥ गोविन्दोर्युग्यधुर्येषु द्विरथ्येष्विव हारिषु । प्रासङ्ग्या नु भधौरेया न धौरेयकतां दधुः ॥११०॥ ११०. इन्दोर्गोषु कान्तिषु हारिषु दीप्रतया मुख्येषु सत्सु मधौरेया धुरं यानमुखं भारं वा वहन्ति धौरेया मुख्यवृषभा उपचारा. दन्येपि मुख्या उच्यन्ते । भेषु नक्षत्रेषु धौरेया दीप्रतया मुख्याः शुक्रादयो धौरेयकतां मुख्यतां न दधुः । इन्दुकनिस्तेजसोभूवनित्यर्थः । यथा प्रासङ्गयाः प्रासङ्गो यत्काष्ठं वत्सानां दमनकाले स्कन्ध आसज्यते तद्वहन्तो दम्यवृषा धौरेयकतां मुख्यवृषभतां न दधति । केषु सत्सु । गोषु वृषभेषु । कीदृक्षु । द्विरथ्येषु बलिष्ठत्वाही रथौ वहत्स्वत एव युग्यानां युगं वहतां वृषाणां मध्ये धुर्येषु मुख्येषु ॥ १सी शैः। कू'. २ एवरेणे. ३ सी शनम'. ४ एहस्य । शी. ५ सी ते शलीत्या. ६ सी भधोरेया मुख्य". ७ए तयं म. ८ बी दून्य. ९एतां नृपाणां. १० सी वृषभाणां. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० व्याश्रयमहाकाव्ये धुर्यो वामधुरीणाः सर्वधुरीणा मनोभुवः । - धुरीणैः सर्वधुर्यैश्चेशै रन्तुं प्रावृतन् स्त्रियः ॥ १११ ॥ 3 १११. स्त्रिये ईशैः सह रन्तुं प्रावृतन् । कीदृश्यः । मनोभुवो धुर्यो धुरं गाढरिरंसादिकरणरूपं कार्यप्राग्भारं वहन्त्यस्तथा वामधुरीणा यथा वामधुरां वहन्यृषभः सातिशयं भारं वहति तथा सातिशैयं स्मरकार्य प्राग्भारं वर्हन्त्य इत्यर्थः । किं बहुना मनोभुवः सर्वधुरीणाः । किंभूतैः । ईशैर्मनोभुवो धुरीणैः सर्वधुर्यैश्च ॥ द्विरथ्येषु । युग्य । प्रासङ्ग्न्याः । अत्र " वहति ०" [ २ ] इत्यादिना वहत्यर्थे "यः " [ १ ] इति यः ॥ धुर्येषु । धौरेयाः । भन “धुरो यैयण्" [ ३ ] इति यैयणौ ॥ कश्चित्तु यद 1 90 एयकणावपीच्छति । धुर्यः । टित्वादन ङीः । धौरेयकताम् ॥ : ११ वामधुरीणाः । सर्वधुरीणाः । अत्र “वामाद्यादेरीनः " [ ४ ] इतीनः ॥ सर्वधुर्यैः । भत्रे यप्रत्ययोपीति कश्चित् ॥ धुरीणैः । अत्र केवलादपीन इत्यन्यः ॥ रामेण हालिकेनैकधुरीणो हालयाधिनोत् । रेवत्यैकधुरां कान्तां कोप्यूर्जन्गौर्वसैरिकः ॥ ११२ ॥ ११२. कोपि युवा कान्तां हालया सुरयाधिनोदप्रीणात् । सुरामपाययदित्यर्थः । कीदृग् । ऊर्जन्बलिष्ठः । यथासैरिकः सीरं हलमवहन् १ एणा सर्व धु २ रन्तं प्रा. ४ ए कान्ता को . [. कुमारपालः 1 १ एय विंशै:. नोभ्रुवा । धु. ३ ए श्वशै. बी यैश्वरौ ५ एर्जन्मो . बी 'जन्गान्वसै'. २ बी 'नोभवो. ५ ए ंशयस्म'. इ. १० “त्यनः । रा ं. १४ ए सी कान्ता हा, ३ सी रंरि. ७ए 'नोभवो. धुर्य । टि. ११ सी रीणा । अ ं ६ ए 'हन्त इ'. ८ ४ ए "न्वृषः सारौं धुर्येणैश्च. ९ बी १२ बी त्र प्र. १३ ए Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ७.१.८.] सप्तदशः सर्गः। ४०१ गौप ऊर्जन्हलवहनाभावेनात्रुटितवलः स्यात् । अत एव मद्य प्रियस्वाच हालिकन हलं वहता रामेण बलभद्रणकधुरीण एका सदृशी धुरां वहन्सदृशः सन्नित्यर्थः । कीदृशीं कान्ताम् । रेवत्या बलदेवभार्ययैकधुरां तुल्याम् ॥ एकधुराम् । एकधुरीणः । अत्र "अश्चैकादेः" [५] इति-भईनश्च ॥ हालिकेन । सैरिकः । अत्र "हल." [६] इत्यादिनेकण् ॥ तोवेशिकटानुक्ष्णो यथा द्वैशकटी पुमान् । मधुमत्तान्सरो युनो विव्याधोरस्यसायकः ॥ ११३ ॥ ११३. स्मर उरो हृदयं विध्यन्त्युरस्या ये सायका वाणास्तैः कृत्वा मधुमत्तान्मद्यपानेन क्षीबान्यूनस्तरुणांस्तरुणीश्च विव्याधाताडयत् । यथा द्वे शकटे वहन्ति देशकटा भ्रूषाः सन्त्यस्य द्वेशकटी पुमान द्विशकटान्द्वयोः शकटयोर्वोट्कनुक्ष्णो भ्रूषांस्तोत्रैः प्रवयंणैः कृत्वा विध्यति ॥ द्वैशकटी । इत्यत्र “शकटादण्" [ ७ ] इत्यण ॥ ननु च "तस्यैदम्" [ ६.३.१६० ] इति शकटादण् सिद्ध एव । यो हि यद्वहति स तस्य संबन्धी स्यात् । सत्यम् । रथवदेव तदन्तार्थमुपादानम् । तेनात्रापि द्विगौ द्वेरूप्यं स्यात् । द्वितीयं तु रूपं द्विशकटान् ॥ उरस्य । इत्यत्र "विध्यति" [ 0] इत्यादिना यः ॥ अनन्येनेति किम् । सरो यूनो विव्याध सायकैः । अत्र हि सरो यूनो विध्यन्सायकैर्विध्यति । - १सी कटिकी पु. १ए लं दह'. २ बी धुरेण. ३ वी सी धुरं व. ४ बी सीम् । रैव. ५सी लभद्रभा. ६ सीरिक । म. ७ए वृषा स. ८बी वृषास्तों. ९ सी यणोः कृ. १० सी टी । तत्र. ११ सी द्विगो द्वै. १२बी ध्यन्शोय. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] धन्या गण्यानेवातुल्यं हृद्यपथ्यं नै मध्वधात् । जिज्ञासुः प्रेयसो भावं मधुवश्यस्य काचन ॥ ११४ ॥ ११४. काचन मधु मद्यं नाधान्नापिबन् । कीदृग । हृद्यपथ्यं हृद्यं हृदयस्य प्रियमपि पथ्यं रोगोपशमकमपि तथातुल्यं पेयवस्तुषु मध्ये. त्युत्कृष्टमपि । यतः कीदृशी । मधुवश्यम्य मत्तस्य प्रेयसो भावमनुरागविषयमभिप्राय जिज्ञासुः । यथा धन्या धनं लब्ध्री वेश्या गण्या च गणं पुरुषसमूहं लन्ध्री कुलटा चाना चान्नं धान्यं लब्ध्री दासी च पुरुषस्य भावं जिज्ञासुः सती मधु न पिबति ॥ अमूल्यपद्यकस्तूरीलेखां नु लुलितालके।' अतिजन्यवयस्यास्ये चक्रे हाला मृगीदृशाम् ॥ ११५ ॥ ११५. हाला सुरा मृगीदृशामास्य मुखेषु लुलितालकैर्मत्ततावशेनेतस्ततो लुंठितैश्वर्णकुन्तलेः कृत्वा चक्रे । काम् । अमूल्या मूल्यं विनों सुधिकयैव(?) संपन्नत्यर्थः। तथा पदमस्यां दृश्यं पद्या नातिद्रवा नातिशुष्केत्यर्थः । या कस्तूरी तस्या लेखों नु मण्डनविच्छित्तिमिव । अत एव कीदृग् हाला । अतिजन्यवयस्या जनीं 'वधूं वहन्ति जन्या जामातुः स्निग्धा वयस्याः सख्यो द्वन्दे ता अतिक्रान्ता तत्तुल्येत्यर्थः । जामातृवयस्याः स्वसख्योपि हि वधूमुखेषु कस्तूरीलेखां कुर्वन्ति ।। १ सी धन्यग'. २ ए 'थ्यं मम'. ३ बी न वं. ४ बी खां तु लु. १ ए कापि म. २ सी यम'. ३ सी ल्यं प्रेय. ४ बी प्राय जि. ५ बी नं वे'. ६ए चान्न धा. ७ ए भाव जि. ८ बी मुख्येपु. ९सी 'खेप्युललि'. १० ए सी लुचिते. ११ एना मुधि. १२ सी मस्य दृ. १३ ए सी तस्यां ले'. १४ बी खां तु म. १५ ए सी वधू व. १६ सी न्ता तुल्ये'. १७ सी रीतिले'. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है ० ७.१.... ममदशः सर्गः । धनी धेनुष्यया धर्यो गार्हपत्ये न ना यथा । नदी नाव्यै जलेर्वासां क्रीडयामीयत सरः ॥ ११६ ॥ ११६. आसां स्त्रीणां क्रीडया मद्यपान केल्या स्मरोप्रीयत विज़म्भित इत्यर्थः । यथा धेनुष्ययाधमर्गेनोत्तमाय ऋणप्रदानादोहाथ धेनुर्दीयते सा धेनुरेव धेनुध्या पीतदुग्धेति यस्याः प्रसिद्धिस्तया कृत्वा धनीश्वर उत्तमर्णः प्रीयते । यथा वा गाई पत्येनाग्निभेदेन कृत्वा धो धर्मादनपेतो धार्मिको ना नरः प्रीयते । यथा वा नाव्यैः वा तायें जलैः कृत्वा नदी प्रीयते विजृम्भत इत्यर्थः ॥ विष्यः कोपीति न न्याय्यमर्थ्य मत्यमिति स्मरन । गुडकल्पेन ताः कामो मद्यास्त्रेणाक्षिपत्ततः ॥ ११७ ।। ११७. ततो विजृम्भणानन्तरं कामो गुडकल्पेनेषदपरिसमाप्तगुडेन प्रायो गुडमयेनेत्यर्थः । मद्यास्त्रेण कृत्वा ता अङ्गना अभिपन्निरा. चक्रेहन्नित्यर्थः । यतः म्मरन । किमित्याह । कोपि शत्रुरपि विष्यो विषेण वध्य इत्येतनाच॑मर्थादर्थशास्त्रादनपेतं न । यो गुडेनापि म्रियते स शत्रुरपि विषेण न वध्य इत्युक्तेरिदं नीतिशास्त्रोत्तीर्णमित्यर्थः । अत एवं न न्याय्यं न युक्तमत एव च न मन्यं मतम्याभीष्टस्य करणं न कस्याप्येतन संमतमित्यर्थ इति ।। धन्या । गण्या । इत्यत्र "धन." [९] इत्यादिना यः ।। १ए नाध्यैर्जलेवासां. २ बी व्यंजलै'. ३ सी वास की. १ ए केल्यां स्म'. २ बी मणीया क्र. ३ ए नादौहा. ४ बी को न. ५ ए नान्येनावा. ६ बी ताज'. ७ ए 'ये जलैः. ८ ए °ल्पनैप'. ९ ए त्वा . १० बी “पि मृयते स सत्रु. ११ ए रेदानीति'. १२ ए व न्या. १३ ए गणा। ई. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ न्याश्रयमहाकाव्ये आता । इत्यत्र " णोन्नात्" [१०] इति णः ॥ च । पच । तुल्यम् । मूल्य । वैश्यस्य । पथ्यम् । वयस्या । धेनुष्यया । गार्हपत्येन । जन्य । धर्म्यः । इत्येते " हृद्यपद्य०" [११] इत्यादिना निपात्याः ॥ नाथ्यैः । विष्यः । अत्र “नौ० " [१२] इत्यादिना येः ॥ न्याय्यम् । अर्थ्यम् । अत्र "न्याय ० [ 13 ] genfar 4: || मस्थम् । मद्य । भत्र " मन०" [ १४ ] इत्यादिना यः ॥ "" कृता सामन्यया मद्यातिथेय्यामीत्तथा प्रिया । वासतेय्यां न पाथेयस्वापतेयं यथा नृणाम् ॥ ११८ ॥ ११८. मद्यातिथेयी मद्यमेवाह्लादकत्वादातिथ्यं तथा प्रियस्य प्रियाभीष्टासीद्यथा पाथेयस्वापतेयं संबलद्रव्यं नृणां न प्रियं स्यात् । यतः कीशी | सामन्यया सामनि सामोक्तौ साध्ळ्या प्रियया वासतेय्यां वसतौ साध्यां रात्रौ कृता प्रियं प्रति । संबलद्रव्यं किल पथि जीवनतुल्यत्वान्नृणामतिप्रियं स्यात्तस्मादपि प्रियया स्वयंकृतत्वेन मद्यातिथेयी प्रियस्य । तिप्रियाभूदित्यर्थः ॥ [ कुमारपालः ] सामन्यया । इत्यन्त्रं “तत्र साधौ” [ १५ ] इति यः ॥ 1 पाथेय | आतिथेयी । वासतेय्याम् । स्वापतेयम् । अत्र “ पथि०" [ ५६ ] इत्यादिनेयण् ॥ १३. भाक्तशालिभुवं हालां पीत्वा पारिषदैः प्रियैः । नापारिषद्यं पार्षद्या: पार्पदेषुचिरे स्त्रियः ।। ११९ ॥ १ सी 'त्वा परि. १ ए वशस्य. ५ एकत्वां ति.. ९ ए सामान्य'. २ सी यः । कृता. ६ ए "दृशीः सा'. १० बी 'त्र सा. ३ ए यः । कृता. ४ बी 'श्रेयाम'. ७ ए साध्या प्रि'. ८ ए साध्यां रां'. ११ ए दिनेय'. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ई०७.१.१९.] ममदशः सर्गः । ११९. स्त्रियः पार्षदेषु पर्षदि सभायां साधुषु विचक्षणेष्वित्यर्थः । प्रियेषु विषये पारिषद्यं सभायामनुचितं ग्राम्यं वचो मदवशान्नोचिरे । यतः पार्षद्या विचक्षणाः । सदा सदभ्यस्तसभ्यवचना इत्यर्थः । किं कृत्वा । पारिषदैः प्रियैः सह हालां पीत्वापि । किंभूताम् । भक्त ओदने माधुर्भाक्तो यः शालिस्तम्माद्भरुत्पनिर्यम्यास्ताम् | हाला हि शालिपिष्टक्षेपेण संधीयते ॥ 3 भाक्त । इत्यत्र “भक्ताण्णः " [ १७ ] इति णः ॥ पार्षद्याः । पार्श्वदेषु । इत्यत्र "पर्षदो यणी" [ ८ ] इति ण्यणौ ॥ परिष दोपीच्छन्त्यन्ये । पारिषद्यम् । पारिषदैः ॥ ४०५ जितोप्या स्यैः शशी सार्वजन्यः सार्वजनीनगुः । अचिचेष्टन्मदाचेष्टाः सतां प्रातिजनीनता ।। १२० ।। १२०. शशीन्दुरास्यैः कृत्वा स्त्रीभिर्जितोपि मँदाचेष्टा अतिरिक्तमद्यपानोत्थक्षीबतया निश्चेतनीभूताः स्त्रीरचिचेष्टत् । शीतकिरणैर्मदस्योपशमनात्स चेतनी चक्रे । कीदृक्सन । सार्वजन्यः सर्वजनेषु शत्रुध्वशत्रुषु चाह्लादकत्वात्साधुस्तथा सार्वजनीनाः सर्वजनेषु साधवो गावः किरणा यस्य सः । अथ च यः सार्वजन्यः सज्जनः स्यात्स सर्वजनीना गावो वाचो यस्य स तथा स्यात् । युक्तं चैतं । यदास्यै こ र्जितोपि शशी स्त्रीरचिचेद्यतः सतां माधूनां प्रातिजनीनता प्रत्य र्थिनो जनाः प्रतिजनाः शत्रवस्तेष्वपि साधुता स्यात् ॥ १ बी साज.. १ सीवा । परि°. २ए सीधी ३ बी ते । भोक्त. ४ बी पा रिषदे. ५ सी महाविष्टा ६ बी 'शमात्स. ७ बी त्रुषु . सी त्रु आहा.. बी 'सर्व' बीत् । यादा १० सी 'नां प्रीति ११ बी सी 'नताः प्र. ८. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्य [कुमारपाला सांयुगीनमनङ्गस्य काथिकं गौणिकं मधु । देवानां देवदेवत्यं पुष्ट्य हविरिवाभवत् ॥ १२१ ॥ १२१. मधु मद्यमनङ्गस्य पुष्ट्यै पोषायाभवत् । यतोनङ्गस्य काधिकं कामोद्दीपकत्वेनानङ्गकथायां साधु । तथानङ्गस्य गौणिकं गुण उपकारे माधपकारकं तथानङ्गस्य मांयुगीनं संयुगे रणे माधु । देवदेवत्यं हविरिव । देवताशब्देन देवम्य हविरादेः प्रतिगृ(ग्रहीता स्वामी संप्रदानमुच्यते । देवाश्च ते देवताश्च ताभ्य इदं हव्यं यथा देवानां पुष्ट्यै स्यात् ॥ सार्वजन्यः । सार्वजनीन । इत्यत्र "सर्व." [१९] इत्यादिना ग्य ईनञ्च ॥ प्रातिजनीन । सांयुगीनम् । अत्र "प्रति." [२०] इत्यादिनेनन् । काथिकम् । गौणिकम् । अत्र "कथादेरिकण्" [२१] इनीकण् ॥ देवदेवत्यम् । अत्र "देवता." [ २२ ] इत्यादिना यः ॥ नदार्घ्यपाद्यमातिथ्यं प्रियाभ्यः पूर्वतोधिकम् । आसेदुः कामिनो हल्याविहल्यातः फलं यथा ॥ १२२ ॥ १२२. नंदा मद्यपानकाले कामिनः प्रेयसीनां स्मरातुरतया प्रियाभ्यः सकाशादासेदुः प्रापुः । किमित्याह । आतिथ्यम् । किमातिध्यमित्याह । अर्घ्यपाद्यमर्घः पूजोपचारस्तस्मायिदमयं स्रग्विलेपनादि तथा पादायेदं पाद्यमुदकादि । द्वन्दे तत् । कीदृशमासेदुः । १बी काविका . २ बी मेदु का'. १ए 'स्य सं. २ बी न हे देवस्य. ३ सी देवस्य. ४९ देता. ५ बी इदह. ६ सी जनीं. ७ सी नता । सां'. ८ वी कायिक. ९ए देनेयः. १० ए तथा म. ११बी पाने का १२ सी किमि': Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ [हे० ७.१.२७.] सप्तदशः सर्गः। पूर्वतोधिकं मद्यपानकालाद्यत्पूर्वमातिथ्यं तस्मादतिरिक्तम् । यथा हल्यादेकस्माद्धलकर्षाद्यत्फलं स्यात्ततोधिकं द्विहल्यातो द्वयोहलयोः कर्षात्सकाशाल्लोका आसादयन्ति ।। पाचम् । अर्घ्य । इत्येतो "पाचार्ये" [२३ ] इत्यनेन निपात्यो । आतिथ्यम् । अत्र "ण्योतिथेः" [ २४ ] इति ण्यः ॥ हल्यात् । इत्यत्र "सादश्चातदः" [२५] इत्यधिकाराद् द्विहल्यातः । इत्यत्र च "हलस्य कर्षे" [ २६ ] इति यः ॥ आमिक्षीयमनामिक्ष्याद्विसीत्यं सीत्यतो यथा । अत्यशेत प्रियागण्डूषांसवश्वषकांसवात् ॥ १२३ ।। १२३. चषकासवाचषकेभ्यः प्राप्तान्मद्यात्सकाशात्प्रियागण्डूषासवः प्रियामुखेभ्यः प्राप्तं मद्यमत्यशेत । प्रेमातिशयोल्लासकत्वेन प्रियाणामतिसुस्वाद्वभूदित्यर्थः । यथा शृते क्षीरे दधि क्षिप्रमामिक्षा तस्यायिदं दध्यामिक्षीयमनामिक्ष्यात्सकाशादतिशेते । यथा वा द्विसीय सीता लागलपद्धतिः। सस्यं वा द्वाभ्यां सीताभ्यां संगतं क्षेत्रं सीत्यत एकयों सीतया संगतात्क्षेत्रादतिशेते ।। ओदनीयैर्यथौदन्यमपूपीयमपूप्यकैः । तन्दुल्यं तन्दुलीयैर्वा स्त्रीणी मद्यैर्मदोवृधत् ॥ १२४ ॥ १२४. स्त्रीणां मथैर्मदः श्रीवतावृधत् । यथौदन्यमोदनायेदं १ ए धावसच. २ ए कावसात्. ३ बी यथोद. ४ ए णां माथै'. १ सी पानाद्य. २ बी हल्यांतोईयो'. ३ ए तोधिक द्विहल्यातो द. ४बी अर्घ । इ. . ५ सी यमेतो. ६ सी द्या ई. ७ ए बी चकषास'. ८सी शादतिशेते ।. ९ बी णामिति. १० ए “मिक्षात्स. ११ ए शा. दतिशाद. १२ सी °या सं. १३ बी यथोद'. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८. व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] स्तोकतन्दुला ओदनीयैरोदनार्थैर्बहुभिस्तन्दुलैः कृत्वा वर्धते । एवमप्रेपि योजना कार्या। अपूपायेदमपूपीयं पिष्टकणिकाघृतध्यादि । तथा तन्दुलेभ्य इदं व्रीह्यादि तन्दुल्यम् ।। सीत्यतः । द्विसीत्यम् । अत्र "सीतया संगते" [२७] इति यः ॥ हविर्भद । अनामिक्ष्यात् आमिक्षीय । अन्नभेद । ओदन्यम् ओदनीयैः । अपूपादि । अपूप्यकैः अपूपीयम् । तन्दुल्यम् तन्दुलीयैः । अत्र "हविर." [२९] इत्यादिना वा यः ॥ पझे "ईयः" [ २८ ] इत्यधिकृत ईयः ॥ शङ्कव्यीकुरुते युग्यं नभ्यं सूच्यं च दारु कः । नोष्णीषीचक्रिरे नाभ्यं वसनान्तं मदेपि ताः ॥ १२५ ॥ १२५. ता नायिका मदेपि नाभ्यं नाभये हितं नाभिदेशस्थमित्यर्थः । वसनान्तमन्तशब्दः शोभार्थों वस्त्रश्रेष्ठमधोवसनं नोष्णीषी. चक्रिरे । सदा सदभ्यस्तलज्जावशेन मदेनात्यन्तं वैकल्य॑स्याभावाच्च न मूर्धवेष्टनीचक्रुः । दृष्टान्तमाह । दारु काष्ठं कः शङ्कयीकुरुते कीलकार्थदार करोति न कोपीत्यर्थः । यतः कीदृशम् । युग्यं नभ्यं खुच्यं च। युगो यूपः। अरकमध्यवर्यक्षधारणश्चक्रावयवो नाभिः । खुम् यज्ञोपकरणं दर्वी । एतेभ्यो हितमेतेस्य स्युरिति वा तत् ॥ उवर्ण । शकण्यीकुरुते । युगादि । युग्यम् । खुच्यम् । अत्र "उवर्ण." [३०] इत्यादिना यः॥ १बी त्रुभ्यं च. १सी र्या । आपू. २वी भेंदः । अ. ३ ए न्दुली'. ४बी शस्थि. तमि'. ५ वी शब्दशो'. ६ सी ल्यत्वामा . . ए सुभ्यं च. ८५ तेप्य यं. ९सी युग्य त्रु'. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.१.३५. ] सप्तदशः सर्गः । ४०९ नभ्यम् । अत्र “नामेर्०” [३१] इत्यादिना यो नाभेर्नभ् च ॥ अदेहांशादिति किम् । नाभ्यम् ॥ ऊधन्यव॑त्स्तनस्पर्शी शुन्ये शून्यदृशं प्रियाम् । लामिव सम्बल्यां घूर्णन्ती (न्तीं ) कोपि सस्वजे ॥ १२६ ॥ १२६. कोपि कामी शुन्ये शुने हिते विजनप्रदेशे प्रियां सस्वजे । आलिङ्गत् । कीदृशीं सतीम् । मदवशेन घूर्णन्तीं तुलामिव सकम्बल्यां कम्बलोस्य स्यात्कम्बल्यं परिमाण मूर्णापलशतमुच्यते । अशीतिशतमित्यन्ये । षट्षष्टिशतमित्यपरे । तेन सहिता तुला भाराकान्तत्वाद्यथा घूर्णति । तथा शुने हितं शून्यं विजनप्रदेशः । अत्र चोपचाराच्छून्ये विशिष्टचैतन्यव्यापाररहिते दृशौ यस्यास्ताम् । कीदृक्सन् । स्तनस्पर्शी प्रियास्तनौ स्पृशन् । यथोधसे हितं ऊधन्यों गोधुक् स्तनस्पैर्शी दोहनाय गोस्तनस्पर्शकः स्यात् ॥ ऊधन्य । इत्यत्र “न्चोधसः " [ ३२ ] इति यो नश्चादेशः ॥ शुन्ये । शून्य । इत्यत्र " शुनः ०" [ ३३ ] इत्यादिना यः । वश्व उरूपे A ऊरूपश्च स्यात् ॥ " सकम्बल्याम् । अत्र “कम्बलान्नान्नि” [ ३४ ] इति यः ॥ नाचार्याय ब्राह्मणाय राज्ञे वृष्णे हितास्तथा । यथासन्कामुकाः स्त्रीभ्यो मैरेयमद विह्वलाः ॥ १२७ ॥ १ बी वस्त्तनशीं पुन्ये. २ ए तुल्यामि'. १ ए 'योनी'. ५ ए "हिती '. ६ ए यथौध'. ९ सी 'स्पशी दो'. २ एम् । औध'. ३ एम्बल्यां प. ७ ए बी 'त औध'. ८ १० ए द । औध'. ११ एशः । शून्ये. उरू. १३ बी म्वल्यम्. १४ ए बी लानाम्नि. ५२ ४ बी घूर्णति. स्तन्यस्पशी दो. १२ बी Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] १२७. स्पष्टः । किं तु वृष्ण इन्द्राय । मैरेयो मद्यम् ।। राजे आचार्याय ब्राह्मणाय वृष्णे हिताः । अत्र "तस्मै हिते" [३५] इति प्राप्त ईयो "न रोज." [३६] इत्यादिना न स्यात् ॥ वाणिनीमणितैः कण्यमुमुदे कामिनां गणः । रथ्यवृष्यखल्यतिल्यमाष्ययव्यैरिवेतरः ॥ १२८ ॥ १२८. स्पष्टः । किं तु वाणिनीमणितैश्छेकानां मत्तानी च स्त्रीणां रतकूजितः। कण्यः कर्णेभ्यो हितैः सुखदैः । रथाय हितो रथ्यः सममार्गस्तथा वृषेभ्यो वृषभेभ्यो हितो वृष्यो बुसादिर्यद्वा वृषाय मैथुनाय हितं वृष्यं भीरपाणं तथा खलाय हितं खल्यमग्निरक्षणं तथा तिलेभ्यो हितस्तिल्यो वातस्तथा माषेभ्यो हितो माष्यो वातस्तथा यवेभ्यो हितो यव्यस्तुषारो द्वन्द्वे एतैः कृत्वा यथेतरो ग्राम्यलोको रथ्यार्थिवान्मोदते ॥ मानं मत्तापि नौज्झत्काप्यजथ्याविथ्यवृत्तयः । ब्रा(?)मण्याश्चारकीणा माणवीना वा भवन्ति किम् ॥१२९।। १२९. काप्यतिमानिनी स्त्री मत्तापि मानं नौज्झन् । युक्तं चैतत् । यतो ये ब्रह्मणे ब्रह्मचर्याय ब्राह्मणाय वा चरकेभ्यो द्विजभेदेभ्यो माणवेभ्यो वा हिता भवन्ति धार्मिकाः स्युरित्यर्थस्तेजेभ्यश्छागेभ्यो हिता अजध्या अजापालास्तथाविभ्य ऊ(उ?)रणेभ्यो हिता अविध्या अविपाला द्वन्द्वे तेषामिव वृत्तिापारो येषां ते निर्धर्माः किं भवन्ति ॥ १ एपि नोझ. १ए य । मेरे'. २ ए हिता . ३ ए राज्य इ. ४ सी नां स्त्रीणां चर'. ५ बी ततस्त'. ६ बी °पि मौनं. ७ एभ्यो द्विजमेदेभ्यो मा. बी सी 'भ्यो वा. ८ ए भ्यश्चागे'. ९बी तिव्यापा'. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.१.४०. ] सप्तदशः सर्गः ४११ कण्यैः ः । रथ्य | खत्य । तिल्य । येग्यैः । वृष्य । ब्रह्मण्याः । माध्य । इ I त्यत्र “प्राणि०” [ ३७ ] इत्यादिना यः । अविश्य । भजथ्य । इत्यत्र " भव्यजात्थ्यप्" [ ३८ ] इति ध्यप् ॥ 3 ४ चारकीणाः । माणवीनाः । अत्र " चरक० " [ ३९ ] इत्यादिनेनन् ॥ आत्मनीनस्तदा यूनां स्त्रीभोगीणो निशामरुत् । जहे पञ्चजनीनः सर्वजनीनो रतश्रमम् ॥ १३० ॥ १३०. तदा निशामरुद्यूनां रतश्रमं जहे । कीदृक्सन् । पञ्चज ε नीनः सर्वजनीनश्च । रथकारपश्चमस्य चातुर्वर्ण्यस्य पञ्चजन इति संज्ञा । पञ्चजनेभ्यः पञ्चजनाय वा सर्वजनेभ्यश्च हितः शैत्यादिगुणैः सुखदोत एव स्त्रीभोगीणो नारीसंभोगाय हितोत एव यूनामात्मनीन आत्मने हितः ॥ मरुद्विश्वजनीनोताय्यमाहाजनिकं स्मरम् । हितैः स्रार्वे न्वसवये यः सार्वजनिकः स हि ॥ १३१ ॥ १२ १३१. विश्वजनीनः सर्वलोकेभ्यो हितः सन्मरुत्स्मरमतायि पालितवानवर्धयदित्यर्थः । किंभूर्तम् । अमाहाजनिकं महान्पूज्यो जनो मुनिलोकस्तस्मै हितो माहाजनिको न तथौ तमपि । युक्तं चैतत् । हि यस्मादसवयेपि न सर्वेभ्यो हितेपि नरे सार्वे नु सर्वस्मै हित इव यो हितोनुकूलः स्यात्स सार्वजनिकः सर्वस्मै जनाय हितः ॥ १ एनीने स°. २ ए 'निकस्म'. ३ सी 'तः सर्वे. १ बी सी यव्यै । दृ ै. २ ए प्राणिम इ. ३ ए सी कीणा । मा. ४ बी सी 'वीना । अँ. 1 ५ ए दामिनि . ६ सी 'नीनश्च. नা". ८ बी सी 'संगा'. ९ बी 'दि'. १० १२ बी सी तो महा. १३ ए थाम.. महा. ७एगी ए 'तमद्दा'. ११ सी १४ बी स्यात्सार्बज Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये स्त्रीभोगीणः । आत्मनीनः । अत्र "भोग०" [ ४० ] इत्यादिनेनः । पञ्चजनीनः । सर्वजनीनः । विश्वजनीनः । अत्र "पञ्च० ४१२ ev इत्यादिनेनः ॥ माहाजनिकम् । सार्वजनिकः । अत्र " महत्०" [ ४२ ] इत्यादिनेक‍ ॥ सार्वे । सर्वोये । अत्र “सर्वाण्णो वा" [ ४३ ] इति वा णः || अङ्गं विरंहिणीनां दार्वङ्गारीयमिवादहत् । वाधौपानह्यचमेवादारयच्च मनः स्मरः ।। १३२ ॥ [ कुमारपालः ] १३२. स्मरो विरहिणीनामङ्गमदहत्संतापितवान् । यथा कश्चिदङ्गारीयमङ्गारार्थं दारु दहति । तथा स्मरो विरहिणीनां मनोदारयद्यथा वर्धयेदं वार्धमुपानहे पादुकाया यिद मौपानां च चर्म चर्मद्वैर्भाद्यर्थं दारयति ॥ हृदयं कस्य नामनात्स्मर उच्छृङ्खलस्तदा । यथापेभ्यश्छा दिपेय तृणचालेयतन्दुलान् ॥ १३३ ॥ 99 ३ ए २ वी सी नेन । मा'. सी वधाये.. ६ सी वाधमु. ९ बी 'नायेमनि'. १२ सी च्छदिर्. द्वद्य. १३३. पूर्वार्धं स्पष्टम् । छदिषे छादनायेमानिच्छादिषेयाणि यानि तृणानि तानि तथा वलय इमे बालेया ये तन्दुलास्ते तथा द्वन्द्वेतन्यथा ऋषभायायमार्पभ्यो वत्स उच्छृङ्खलः सन्खादनेन मध्नाति ॥ ११ अङ्गारीयं दारु । इत्यत्रे " परिणामिनि०" [ ४४ ] इत्यादिनेयः ॥ वार्धं । इत्यत्र “चर्मण्यञ् " [ ४५ ] इत्यञ् ॥ १ बी "रहणी". २ एवाधौपा. बी चापा. "रहणी". १ नीयः । अ ५ बी व एद्वधाद्यर्थ दा. सी १० एतान्व्यथा. ११ दा. 5 [ ४ ] ३ बी "भरछा". साँव 1 #°. ४ ए ७ वी सी 'कृ'. सी 'नायेनि'. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.५१.] सप्तदशः सर्गः। ४१३ आपभ्यः । औपानल्य । इत्यत्र "ऋषभ०" [४६ ] इत्यादिना न्यः । छादिषेय । बालेय । इत्यत्र "छदि०" [ ४७ ] इत्यादिनैयण् ॥ इष्टकोधैः प(पा.)रिखेयप्राकारीयैर्यथा भुवः । पारिखेयप्राकारीयाः कान्ताः कातैः(न्तैः) स्मरोयुनक ॥१३४॥ १३४. स्मरः कान्ताः कान्तैः सहायुनक् संयोजितवान् । यथा कश्चिद्वर्धकिरिएको(कौ)धैः सह भुवः परिखाप्राकारनिष्पत्तये युनक्ति । यतः कीदृशीः । परिखा प्राकारश्वासु स्यात्पारिखेयप्राकारीयाः । किं. भूतैः । परिखा प्राकारश्चैषां स्याद्बहुत्वात्पारिखेयप्राकारीयास्तैः ॥ पारिखेयरिष्टकौघैः । अत्र “परिखास्य स्यात्" [ ४८ ] इत्ययण् ॥ पारिखेया भुवः । अत्र "अत्र च" [ ४९ ] इत्येयण ॥ प्राकारीयैः । प्राकारीयाः । अत्र "तद्" [५० ] इति यथाविहितमीयः ॥ आचरन्कामवत्कामः क्षत्रवत्प्रहरंस्तथा । तृणवन्मानिनी—न्वन्भृत्यवत्सेवितो न कैः ॥ १३५ ॥ १३५. कामो भृत्यवद्धृत्यैरिव कैर्न सेवितः । कीहक्सन् । कामवत्कामाई यथा स्यादेवमाचरन् । त्रैलोक्येनापि स्वशासनं मूर्ध्नि वाहयन्नित्यर्थः । तथा क्षत्रवत्क्षत्रिय इव प्रहरन्नत एव मानिनीस्तृणवद्धन्व. न्मानास्पातयन्नित्यर्थः । योपि क्षत्रियः प्रहरंस्तृणानीव मानिनो धूनोति स भृत्यैरिव कैर्न सेव्यते ॥ १ बी सी 'टकोषैः. २ बी रिषेय. सी °रिषय'. ३ बी यप्रका. ४ सी कातै सं. १बी भ्यः । उपा. २ ए दिनेय'. ३ बी सी दृशी । प. ४ सी °रिषेय'. ५ बी 'रिषेयिरि'. ६ बीटकोधैः. ७ए कामहिं य. ८ ए 'लो. कोना. ९ए°शानं. १० ए वत्क्षित्रयप्र. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [मारपाठः ] प्रतीच्यै स्पृहय-श्रीवद्रुवत्खाच्छश्यवातरत् । द्रष्टुं ताः पूर्वदद्रौ स्त्रीः पूर्वदगुरुत श्रियम् ॥ १३६ ॥ १३६. शशी द्रुवढुक्षादिव खादवातरदुत्ततार । यतः प्रतीच्यै पश्चिमायै स्पृहयश्रीवद्यथा कश्चिच्छ्रेिये स्पृहयत्यस्तं जिगमिषनित्यर्थः । उत्प्रेक्ष्यते । द्रष्टुमिव । काः । पूर्वत्पुर्यामिवाद्रावधंदे वर्तमानास्ताः सुरतासक्ताः स्त्रीः । उताथ वा पूर्वत्पुरस्येवाद्रेरर्बुदस्य श्रियं प्राग्वर्णितां शोभाम् । चन्द्रस्यास्तोन्मुखत्वेनाकाशादवतीर्णत्वादर्बुदस्य च पश्चिम दिग्वर्तित्वेनेन्दुनिकटत्वाच्चैवमाशङ्का । अन्योपि यो नीचैःस्थं वस्तुं व्यक्त्या द्रष्टुमिच्छति स उच्चस्थानादवतरति ॥ आचारन्कामवत् । इत्यत्र "तस्य." [५१ ] इत्यादिना वत् ॥ क्षत्रवत्प्रहरन् । तृणवन्मानिनीए॒न्वन् । भृत्यवत्कैन सेवितः। प्रतीच्यै श्री. वत्स्पृहयन् । द्रुवत्खादवातरत् । इत्यत्र "स्यादेरिवे" [ ५२ ] इति वत् ॥ पूर्वदछौ । अत्र "तत्र" [५३ ] इति वत् ॥ पूर्वदद्रेः श्रियम् । अत्र "तस्य' [ ५४ ] इति वत् ॥ गोतावतो यथा गोत्वं शुक्लत्वं शुक्लतावतः । प्रबोधित्ववतो राज्ञस्तथाथाभूत्प्रबोधिता ॥ १३७ ।। १३७. स्पष्टः । किं तु प्रबोधित्ववतः प्रबोधो जागरणं बुद्धिश्चा१ए तीत्यै स्पृ. २ बी च्छस्यवा. ३ ए द्रष्टुतापू. ४ ए ववद्रे. १ ए यता प्र. २ सी “च्छ्रितये. ३ बी र्वपुर्या'. ४ बी वात्पूर्व'. ५ सी °णितशो'. ६ बी स्य प. ७ बी ग्वतत्वे. ८ ए त्वेनैन्दु'. ९ बी सी °स्तु वक्त्या. १० एतरंति. ११ सी तीच्यैः श्री. १२ ए दिद्रौ, १३ बी द्रेः. १४ ए बुश्चिश्वा'. १५ सी द्विरस्या. १४ १५ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.५५.] सप्तदशः सर्गः। ४१५ स्यास्ति प्रबुध्यत इत्येवंशीलो वा प्रबोधी तस्य भावः प्रबोधित्वं तद्वतो जागरूकस्य धीमतश्च सतो राज्ञः कुमारपालस्य । अथ चन्द्रास्तानन्तरं प्रबोधिता जागरणं प्रयाणकविषया बुद्धिश्च ।। डित्थत्वराजपुरुषत्वधनैरबालि. श्यागाडुलीकमजिरं नृपतेरभाजि । प्राची तमोगडुलतां हरता च सद्यो देवेन चक्रगडुलत्वविमोचनेन ॥ १३८ ॥ १३८. डित्थत्वराजपुरुषत्वे धने येषां तैर्डित्यादिसंझै राजपुरुषैः कर्तृभिरित्यर्थः । नृपतेः कुमारपालस्याजिरमावासभूमिरभाजि । राज्ञः सेवार्थमाश्रितम् । कीदृशम् । अबालिश्यं बालिशानामभावाद्वालिश्येन मौर्येणे रहितं च तदगाडुलीकं च कालुष्यवतामभावाद्गाडुत्या कालुष्येण रहितं च तत् । तथा तेन देवेन च रविणा च सद्यः प्राची पूर्वाभाजि । उदितमित्यर्थः । कीदृशा सता । तमोगडुलती ध्वान्तकृतं कालुष्यं हरता । तथा चक्रगडुलत्वविमोचनेन चक्रवाकाणां विरहव्यथाकृतस्य चित्तकालुब्यस्य त्याजकेन ॥ जातिवचनेभ्यो जातौ । गोत्वम् । गोता ॥ गुणशब्देभ्यो गुणे । शुक्लत्वम् । शुक्लता ॥ समासासंबन्धे । राजपुरुषत्व ॥ कृतस्तद्धिताच्च संबन्धे । प्रबो. धित्व । प्रबोधिता ॥ डिस्थादेः स्वरूपे । डित्थत्व । इत्यत्र "भावे त्वतल" १ बी बालेश्या'. १ए बोधां त'. २ ए चितत्वं. ३ सी धीतमश्च. ४ सीमावस्याभू. ५ सी °णरणरहेि. ६ बी भिांजि. ७बी तां ध्वांक्षकृ. ८ए चित्तः का. ९सी गोता. १०५ °धिताः । दि. ११ बीरूपा हि. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] [५५] इति त्वतलौ ॥ "प्राक्त्वादगडुलादेः" [५६ ] इति त्वप्रत्ययात्प्रा. क्वतलावधिकृतो ज्ञेयौ गडुलादीन्वजयित्वा ॥ अगडुलादेरिति किम् । गाडुली । बालिश्य ॥ गडुलादेरपि केचिदिच्छन्ति । गडुलत्व । गडुलताम् ॥ वस. न्ततिलका छन्दः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्रा भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तौ सप्तदशः सर्गः ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्रयमहाकाव्ये अष्टादशः सर्गः । कैरविण्यपडताकृति पाथोजापटुत्वहृति तेजसि भूपः । सोध धीप्रथिमतो जगदाबुध्याचतुर्यहरणः प्रचचाल ॥ १ ॥ १. अथ से भूपः कुमारपालः प्रचचालानं प्रति प्रतस्थे । क सति । तेजसि रवेरुद्योते । कीदृशे । कैरविण्यपटुताकृति कुमुदिनीनां संकोचकारके तथा पाथोजापटुत्वहृति पद्मसंकोच स्थापनेतरि । कीदृक्सन् । धीप्रथिमतो. बुद्धेर्विस्ताराद्धेतोर्जगतो यदायुध्येनायुधत्वेनाज्ञानेनाचतुर्यं कृत्याकृत्यविषयमकौशलं तस्य हरणोपनेता पृथ्वीं न्याये प्रवर्तयन्नित्यर्थः ॥ स्वागताच्छन्दः ॥ 1 पार्थवेन स बलस्य निरास्यद्दिक्पृथुत्वमवनीपृथुतां च । ध्वान्तचण्डिमैहरस्य च चण्डत्वं रजोनिचयचण्डतयांशोः ॥२॥ २. स भूपो बलस्य पार्थवेन विस्तारेण कृत्वा दिक्पृथुत्वं दिशां विस्तारमवनीपृथुतां च निरास्यन्निराचक्रे । तथा रजोनिचयचण्डतयावखुराद्युत्खात धूलिनिकरनिविडतया च कृत्वांशो र वेश्वण्डत्वं संतापकत्वेन तीव्रतां निरास्यत् । किंभूतस्य । ध्वान्तचण्डिमहरस्य । दिशो भूमिं च सैन्यैरकं च तद्रजोभिराच्छादितवानित्यर्थः ॥ ३ ए स्यदिक्पृ. ४ बी १ बी सी पार्थिवे . २ बी निस्यदिक्प 'मरहस्य. १ ए स नृप:. २ बी सी रुथोते. ३ बी सी 'बुद्धेना' ४ बीना५ बी पृथ्वी न्या. ६ सी पार्थिवे. चातु ५३ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] चाण्ड्यदायढतास्पदमन्वबाजि सबढिमसद्रढिमांसः । पार्थिवैः श्रित दृढत्ववृढत्वे रिवायदृढते से हरिष्यन् ॥ ३॥ ३. स कुमारपालः श्रित दृढत्ववृढत्यैराश्रित बलोत्साहैः पार्थिवैरन्वत्राज्यनुब्रजितः । यतो वैरिवाळढते आन्नस्योत्साहवलौ (ले?) हरिप्यन्नपहर्तुमनाः । ईदृशोपि कुत इत्याह । यतः सत्रढिमानौ सोत्साही संद्रढिमानौ च सबलावंसौ स्कन्धौ यस्य सः । तथा चाण्ड्यं सत्त्वानभिभवनीयताहेतु मत्वगुणो वा(दा)यं वलिता ६()ढतोद्यम एषामास्पदम् ॥ व्योम्यशुक्लिमनि शौक्लयदमाभाच्छत्रमस्य निजशुक्लतयोच्चैः । क्ष्मापतित्वपिशुनं श(स)मशुक्लत्वाधिपत्यमिव विभ्रददभ्रम् ॥४॥ ४. अस्य राज्ञश्छत्रमाभान् । कीटक्सन् । मापतित्वपिशुनं नृपवैसूचकं तथादभ्रं संपूर्ण समशुक्लत्वाधिपत्यमिव समं सर्व यच्छुक्लत्वं शुक्लो गुणस्तस्य स्वामित्वमिव विभ्रन् । कया कृत्वा । उच्चैरतिशयितया निजशुक्लतया । अत एवाशुक्किमनि कृष्णे व्योनि शौक्लयदं शुक्लतां ददत् । यो हि यस्या लक्ष्म्याः स्वामी स्यात्स तां लक्ष्मी तल्लक्ष्मीदरिद्रस्य नरस्य ददगौरवास्पदत्वेने शोभते ॥ - १ वी सी ट्यदृढ'. २ वी थिवै श्रि. ३ ए वी त्वदृढ. ४ ए स हिष्य'. ५ बी ‘दमभा०. ६ ए °नं त्सम . ___ १ ए पालं श्रितदृढत्वं . २ ए ढ्यवृढ'. ३ वी साहेब. ४ ए र्तुमानाः. ५ सी सदृद्धि. ६ ए °त् । झ्याप. ७ बी त्वशूच. ८ ए निशु. ९सी न लभ'. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.१.५७.] ४१९ अष्टादशः सर्गः । साध्वधादिव दिवस्पतितभृद्यौवराज्यमधिराजतया सः । मूढतौवियुगयन्नधिराजत्वाप्तमोढ्य रिपुनिर्दलनाय ॥ ५॥ ५. स राजा साधुर्य (धु यथा स्यादेव दिवस्पतिता भूद्यौवराज्यमिवैन्द्रर्युवराजतामिवाधाद्दधार । कीदृक्सन् । मूढतीवियुक् । तादृक्प्रचण्डवैरिविरोध उपस्थितेपि व्याकुलचित्ततारहितो वीर इत्यर्थः । अत एवाधिराजत्वाप्तमौ च्य रिपुनिर्दलनायाधिको राजाधिराजंस्तस्य भावोधिराजत्वमधिकराज्यलक्ष्मीस्तेनातं मौन्यं मोहो विचेतनत्वं येन स तथा योरिपुरान्नस्तस्य निर्दलनायायैन्गच्छन् । कया कृत्वा । अधिराजतया महासैन्यादिसंपदा | संपदुत्कर्पेण यान्कुमारपाल इन्द्रेस्य युवराज ईव जात इत्यर्थः ॥ ε राजतापि कविताप्यविमूढत्वान्य राज्य पर काव्य जिदेव । इत्यसावरमगादरिराजत्वेप्सुरभ्युदितवन्दि कवित्वः ॥ ६ ॥ १४ ६. असौ राजारं शीघ्रमगात् । यतोरिराजत्वेप्सुरान्नराज्येच्छुः । कुत इत्याह । राजतापि कवितापि च नास्ति मूढत्वं लक्षणया निन्द्यत्वं यस्यां साविमूढत्वा प्रशस्या । कीदृक्सती । अन्यराज्य परेकाव्यजिदेवान्यराज्यं शत्रुराज्यं परकाव्यमन्यदीयकवित्वं चोत्कृष्टत्वाज्जयन्त्येवेति हेतोः । तथाभ्युदितान्युल्लसितानि वन्दिनां भट्टानां कवित्वानि काव्यानि यत्र सः ॥ १८ १ ए ध्वदि बी 'ध्वदादि'. १ एजा यथा साधु स्या'. २ ए 'भृद्यैव'. ६ सी रिवध. १० ए हो वेचे'. 'युथरा . ५ बी 'तात्रि'. धेको. ९ ए जव ay. १३ बी व ज्ञात. "त्कृत्वा'. १७ सी यत्येवे". २ बी 'ताद्यौ'. ३ बी 'तात्रयु. ३ बी 'वेन्दुयौa'. ७ बी 'स्थितोपि'. ११ सी यन्कया. १५ बी परिका. १४ ए 'रिपुरा'. १८ ए 'ति हितो:. ४ ए ८ बी या १२ ए १६ ए Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] अपटुत्व । अपटुता । अत्र "न " [५७] इत्यायधिकारात्वतलावेव ॥ अषुधादेरिति किम् । आबुध्याचतुर्य ॥ प्रथिमतः । चण्डिम । इत्यत्र "पृथ्वादेरिमन्या" [५८ ] इतीमन्वा । प्राक्वादिस्यधिकारात्वतलौ च । वावचनाद्यश्चाणादिः प्राप्रोति सोपि स्यात् । पूरवन् । पृथुताम् । पार्थवेन । चण्डत्वम् । चण्डतया। चाण्ड्य ॥ शौक्लय । शुक्लिम नि । शुकृत्व । शुक्लतया ॥ दृढादि । दाढ्यं । दिम । दृढत्व । दृढते । वाळ । बढिम । वृढत्वैः । वृढता । इत्यत्र "वर्ण०" [५९] इत्यादिना व्यणिमनो वा । त्वतलौ चाधिकृतत्वात् ॥ पत्यन्त । आधिपत्यम् । आमापतित्व । दिवस्पतिता ॥ राजान्त । यौवराज्यम् । अधिराज्य(ज)त्व । अधिराजतया । गुणाङ्ग । मौढ्य । अविमूढत्वा । मूढता । राजादि । राज्य । राजत्व । राजता। काव्य । कवित्व । कविता । इत्यत्र "पति." [ ६० ] इत्यादिना व्यणं ॥ त्वतलौ चाधिकृतौ ॥ अर्हत्तयार्हन्त्यजुषां यथैवाहत्त्वाद्वि(वि)पश्रुक्षुभुरस्य तद्वत् । द्विषोपसाहायकया सहायताकाजिसाहाय्यकृतो ध्वजिन्या ७ ७. यथार्हन्त्यजुषामर्हतामहत्तया देवकृताष्टमहाप्रोतिहार्यादिलक्ष्मीरूपेणार्हतो भावेन कर्मणा वाहत्त्वाद्वि(हिषोन्यदर्शनिनः क्षुभ्यन्ति तद्वत् तथास्य राज्ञो ध्वजिन्या सेनया कृत्वा द्विषश्चक्षुभुर्विभ्युः । १ वी सी 'हत्वदि. २ ए पश्चक्षु. ३५ पहासायिक . सी पहाप्साय. ४ बी लिन्याः । य. १ ए इत्यर्षि. २ ए पृथ्याई'. ३ ए वी वाच. ४ ए सी थुता'. ५ए कृयम. ६ए तत्वं । पृढता । वा. ७सी त्व । वृद्ध'. ८सी जता. ९ए ण् । तत्व. १० ए हिंदोर्ह. ११ बी 'महत्त. १२ बी 'प्रातीहा'. १३ बी सी हलदि. १४ ए पश्चधु. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {है. ५.१.६१.] अष्टादशः सर्गः। ४२१ कीदृश्या । अपसाहायकयापगतान्यकृतसाहाय्यया । यतः । कीटशोस्य । सहायताकाविणां साहाय्यैषिणां साहाय्यकृतो महाबलत्वेन प्रत्युत साहाय्यकारिणः ॥ उपजातिच्छन्दः ॥ स दोःसहायत्वधनोपसख्यं वणिक्तयारि गणयन्नथाप । तमासखित्वासखिते दधान रजोत्रभो(भौ)घेः कथिताग्रसैन्यः॥८॥ ८. अथ स राजापारिमेव प्राप । कीदृक्सन् । दोपोर्वाह्वोः सहायत्वं साहाय्यं धनं यस्य स तथा भुजबलान्वितोत एवापसख्यमपगतमैत्रीकमरिमानं वणिक्तया गणयन्वणिजमिव निःसत्त्वं मन्यमान इत्यर्थः । तथा रजोखभौघे रेणुभिः शस्त्रकान्तिपूरैश्च कथिताग्रसैन्यः । किंभूतैः । तमःसखित्वासखिते दधानरुद्यो(द्यो)तस्योच्छेदकत्वात्तमसः सखित्वं दधानै रजोभिस्तथा तमउच्छेदकत्वात्तमसोसखितां शत्रुतां दधानरत्रभौधैः । उपेन्द्रवंञा ॥ समिद्वणिज्यासु नवाग्रदूत्या आकर्ण्य हेषा यमदूततार्हाः । दतत्वयोग्यं हि वणिक्त्वमाजामुक्त्वेत्यथाजावुदतिष्ठतान्नः ॥९॥ ९. अथान्न आजौ रणायोदतिष्ठतोदयच्छत् । किं कृत्वा । हेषा आकर्ण्य । कीदृशीः । समितः संप्रामा एव जयश्रीलाभहेतुत्वाद्वणिज्याः क्रयविक्रयादीनि वणिकर्माणि तासु विषये नवमग्रदूत्यमग्रेगॅवं यासां ताः व्यवसाया इव रणवणिज्यानां मेलिका इत्यर्थः । अत एवं यमदूत १बी ये मूषा. २ ए सी नः । तथा. १९ था । अपहासाय. २एकसा". ३ ए प्राप्य । की. ४ बी सभोपै. ५ सी खित्वं श. ६ ए लभूषैः. ७५ बी वज्राः । सौ. ८ बी नि वाणि'. ९बी गूत्वा या. १० बी सी ताः । व. ११ ए मेलका. १२ एव मः. १३ बी दूता'. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] ताह यमस्य यहृतकर्म तस्य योग्या यमपार्श्वेनेकप्राणिनामा कारिका यमदूतीरिवेत्यर्थः । तथोक्त्वा च । किमित्याह । योजनं योग्यं भावप्रत्ययान्तोयम् । दूतत्वस्य दूतक्रियाया योग्यमौचित्यं हि स्फुटं वणिक्त्वभाजां वणिजामेव । यद्वा दूतत्वस्य योग्यमुचितं प्रधानप्रेपणादिकं वणिजामेव स्याद्भीरुत्वात्तेषां न तु क्षत्रियाणामिति ॥ आर्हन्त्य । अर्हत्व | अर्हत्तया । इत्यत्र " अर्हतस्तोन्त् च " [ ६१ ] इति द्व्यण् । तस्य न्त (न्त्) आदेशश्च । त्वतलौ चाधिकृतौ ॥ साहाय्य । साहायकया । सहायत्व । सहायता । इत्यत्रै "सहायाद्वा” [ ६२ ] इति व्यण्वा । पक्षे योपान्त्यलक्षणोकञ् । त्वतलौ चं ॥ . सख्यम् । सखित्वासखिते । वणिज्यासु । वणिक्त्व । वणिक्तया । दूत्याः । दूतत्व । दूतता । इत्यन्त्र " सखि ०" [ ६३ ] इत्यादिना यः । त्वतेलौ च ॥ उपजातिः ॥ सोस्तेनत्वायाः स्तेनतामन्यकीर्ते रक्षोज्ञातेयं ज्ञातितां कालरात्रेः । मृत्योर्ज्ञातित्वं वीरंहृत्स्तेयकारी प्रेप्सुर्निष्कापयो सिमादत्त दत् ॥ १० ॥ १०. स आनो दर्पाद सिमादत्त । कीदृक्सन् । नास्ति स्तेनत्वं चौर्य यस्यास्तस्याः केनाप्यहृताया इत्यर्थः । अन्यकीर्तेः शत्रुकीर्तेः स्तेनतीं प्रेप्सुर्जयप्राप्त्या जिहीर्षुरित्यर्थः । अत एव कापेयात्कपिकर्मण १ बी 'रहस्तेय'. २ बी 'प्युनिष्का. २ सी 'यायो'. १ए तो दूतक्रि. आहे. ५ बी 'या । साहा . ८ ए 'णिक्त्वया । दूत्या । दूत. ११ बी 'स्वस्था के. ६ ए 'त्र ९ ए १२ ए अन्यः की. ३ सी दिकव". ४ सीन्त्य । सादा'. ७ बी सी च । संख्य. सी तलो च. १० ए यस्याः के. १३ बी 'नताः मेष्टुर्ज . Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.६४.] अष्टादशः सर्गः । ४२३ श्चापलान्निष्क्रान्तो निष्कापेयो युद्धे स्थिरचित्त इत्यर्थः । अत एवं वीरहृत्स्तेयकारी शूराणां हृदयावर्जकस्तथा तदातिरौद्रत्वाद्रक्षोज्ञातेयं राक्षसस्वजनतां कालखेत्रे : कृष्णचतुर्दशीरात्रेर्ज्ञातितां मृत्योर्ज्ञातित्वं च प्रैप्सुः ।। वैश्वदेवी छन्दः ।। कपितावतामिव कपित्वमश्वेताश्ववतां नु शावमित्र शावतावताम् । युवतेव यौवनवतामहंकृतिर्ददृशेस्य सौष्ठवयुवत्वशालिनः ॥११॥ ११. स्पष्टम् । किं त्वाश्ववतामश्वत्वान्वितानामश्वानाम् । शावमिव वात्यमिव । अस्यान्नस्य सौष्ठवयुवत्वशालिनः सौष्ठवेनातिशयेन यद्यवत्वं तारुण्यं तेन शोभमानस्य ॥ नन्दिनी छन्दः ॥ निःशावत्वाश्वत्वभाक्सुरद्विनेत्रारुणिमा क्रुधास्य रेजे । चातुर्हायनपञ्चहायनत्वनवहायनताभाजिनो नु मद्यात्॥ १२ ॥ १२. अस्यान्नस्य क्रुधा नेत्रारुणिमा रेजे । मद्यान्नु यथा सुरातो नेत्ररुणिमा राजते । किंभूतात् । चातुर्हायर्नपञ्चहायनत्वं नवहायनताभाजिनश्चतुर्वार्षिका [त्पश्ववार्षिका ? ] न्नववार्षिकाद्वातिजातादित्यर्थः । निःशावत्वाश्वत्वभाक्सुरद्विद्वैन्निः शाक्त्वं बालत्वान्निष्क्रान्तं यदश्वत्वमश्वजातिर्निःशावत्वाश्वत्वं तरुणाश्वतेत्यर्थः । तद्भजते यः सुरद्विकेशिदानवस्तस्य यथा विष्णुं वैरिणं प्रति क्रुधा नेत्रारुणिमा रेजे || 93 १४ १ ए श्वव. २ बी शामि ३ सी नः ॥ ११ ॥ सौष्ठवे . 'नेत्रा . ४ बी ४ बी १ बी ळान्निः कान्तो. २ सीवच त्री'. ३ बी सी 'रहस्तेय ं. 'री सूरा'. ५ बी सी रात्रे कृ. ६ बी श्रेष्टुः । वै. ७ ए किं त्वश्व नत्व'. ९ १० ए 'डुन्निशा ं. १२ बी 'त्वानि:क्रान्तं, १४ ए 'केशदा ं. • त्वव". १३ बी 'तिर्निशा'. ११ सी द्विवत्वं. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] स्तेय । अस्तेमत्वायाः । स्तेनताम् । अत्र " स्तेनाजलक" [ ६४ ] इति यो नस्य लुक्च । त्वतला च ॥ निष्कापेयः । कपित्वम् । कपिता । ज्ञातेयम् । ज्ञातित्वम् । ज्ञातिताम् । अत्र “कपि०” [ ६५ ] इत्यादिनयण् ॥ त्वतलौ च ॥ प्राणिजाति । भाश्व । अश्वत्य | अश्वता ॥ वयोर्थ । शाम् । शावस्व । शात्रता । इत्यत्र "प्राणि०" [ ६६ ] इत्यादिनान् । त्वतौ च ॥ 1 यौवन | सौष्टव । इत्यत्र " युवादेरण" [ ६७ ] इत्यण् । स्वतौ च । युवत्व । युवता ॥ चातुहीयन | पञ्चहायनस्व । नवहायनता । इत्यत्र " हायनान्तात्" [ ६८ ] इत्यण् | त्वतलों च ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका ॥ आरातकाशन व गौरवस्य पैत्रं दधत्पौरुपसौरभाढ्यः । भेजे स भूपः पुरुषत्वभाग्मिर्हार्दं दधानैर्हृदयत्वधारी ॥ १३ ॥ १३. स आन्नो भूपैर्भेजे । कीदृक् । पौरुषस्य यत्सौरभमुत्कर्ष इत्यर्थः । तेनाच्योत एवारातेर्भावः कर्म वारातं वैरं तदेव कार्शानवं कृशानुकर्म ज्वलनं तस्य यगौरवं महत्वं तस्य पैत्रं पितृत्वं जनकतां दधज्जाज्वल्यमानं महद्वैरं कुर्वन्नित्यर्थः । तथा हृदयत्वधारी स्वकीयभूपेषु स्नेहवान् । किंभूतैर्भूपैः । पुरुपत्वभाग्भिः पौरुषान्वितैस्तथा हामाने हं दधानैः । इन्द्रवज्रा छन्दः || सौहृदैय्यघन सत्पुरुषत्वभ्राजिभिर्हृदयतायुगमात्यैः । श्रौत्रवत्पुरुपताभृदिवैष श्रोत्रियत्वदयितैः प्रतिपेदे ॥ १४ ॥ १ वी हद". १ए 'नालु'. En°. ५ वी 'न । एजे २ वी 'धाराः । स. सी 'धारै: । स. ३ सी 'दत्व'. २ बी लुक् त्व ३ बी पेय । क. ४ सी व । शौठ ६ बी 'वादिरित्य'. ७ ए 'चहान'. 'चाय'. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.१.६९.] अष्टादशः सर्गः ः । ४२५ १४. अमात्यैः स (त्यैरेष ?) आन्नः प्रतिपेद आश्रितः । कीदृक्सन् । हृदयतायुगमात्येष्वनुरागवान् । यतः किंभूतैः । सौहृदेश्यघना गाढानुराग सान्द्रा ये सत्पुरुपत्वभ्रार्जिनः सत्पुरुपत्वेन साधुपुरुषस्य भावेन कर्मणा वा स्वाम्यद्रोहसुबुद्ध्यादिना भ्राजिष्णवस्तैः । यथा श्रोत्रियस्य भात्रः कर्म वा श्रौत्रं तदस्यास्तिं श्रत्रवान्यः पुरुपताभृत्पुरुपो वैदिकद्विज इत्यर्थः । वेदपाठाद्यर्थमाश्रीयते । कैः । श्रोत्रियत्वं छान्दसत्वं दयितं प्रियं येषां तैर्वेदार्थिभिर्द्विजैरित्यर्थः ।। स्वागता छन्दः || आचार्यताश्रोत्रियताप्त सुप्रख्यत्वो नेयाचार्यकभागमात्यः । द्विपद्यशचौरकधौर्तिकाचार्यत्वं दधानं तमथेत्युवाच ॥ १५ ॥ १५. अथामात्य आगतामात्येषु मुख्यो मन्त्री तमान्नमिति वक्ष्यमाणमुवाच । कीदृक्सन् । आचार्यतया नीतिशास्त्रादिसर्वशास्त्रव्याख्यातृत्वेन यद्वोपचारान्मत्रिपु मुख्यतया श्रोत्रियतया च वैदिकद्विजतया चामं प्राप्तं सुप्रेख्यत्वं शोभना विख्यातिर्येन स तथात एव नयाचार्यकभाग्यायस्य सम्यक्प्रतिपादयितेत्यर्थः । कीदृशं सन्तं तम् । द्विषतः कुमारपालस्य यद्यशस्तस्य ये चौरकधौर्तिके द्विपत्पराभूत्यापहरणवश्वने इत्यर्थः । तयोर्विषये यदाचार्यत्वमतिनैपुणं तद्दधानं युद्धायोद्यतमित्यर्थः ॥ उपजातिः ॥ : स्वाम्यायुक्तानां चौरतां वेत्त्वचौरत्वं वा शैष्योपाध्यायिकां वाथ कुर्यात् । १ ए नवाचा. १ ए "दस्यघ". ५ बी न्दसं द. ६ १० सी पुण्यं त ५४ ३ एनां चोर ३ ए वा श्रोत्रं. वा ८ सी २ सी चौरिक'. ४ ए बी 'स्ति श्रोत्र'. २ ए 'जिताः स. ए मुखो म ७ए ९ ए प्रमुख्य'. ११ बी 'जाति । स्वा. सी जातिच्छन्द । स्वा ं, त्वत . • Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] श्लाघात्याकारौ गार्गिकाकाठिकाभ्यां भाषेतामात्यस्तथ्यपथ्यं तथापि ॥ १६ ॥ १६. स्वामी प्रभुरायुक्तानामधिकृतानां मत्रिणामहितमानितया चौरतां वेत्त्वैचौरत्वं वा हितमानितया साधुतां वा वेत्तु शैष्योपाध्यायिकां वा किंचिज्ज्ञमानित्वाच्छिष्यत्वं वा वेत्त्वति विज्ज्ञमानित्वादुपाध्यायतां वा वेत्तु । अथाथ वा गार्गिकाकाठिकाभ्यां गार्ग्यत्वेन कठत्वेन च श्लाघात्याकारौ कुर्यात् । सत्यवादित्वादिगुणोपेतस्य गर्गस्यरपत्यत्वेन सत्यवादित्वादिगुणोपेता एत इति । तथा हेयोपादेयार्थोक्तियुक्तस्य सर्वशास्त्रसारस्य कठप्रोक्तवेदस्य वेदित्रध्येतृत्वेन सर्वशास्त्ररहस्यज्ञा विधेयज्ञाश्चामी इति श्लाघां करोतु । पुलिन्दस्येव सदा वनेवासिनो गर्गर्षेरपत्यत्वेनाकिंचिज्ज्ञा एत इति । तथा कठवेदाभ्यासजडत्वेन न नीतिशास्त्रज्ञा नापि लोकव्यवहारमात्रस्याप्यभिज्ञा इति निन्दां वा करोतु स्वामीत्यर्थः । तथाप्यमात्यस्तथ्यपथ्यं स्वामिनः सत्यहितं वचो भाषेत वक्तुमर्हति । वैश्वदेवी छन्दः॥ तथ्यपंध्याभणनेमात्यस्य दोषमाह ॥ ब्रह्मत्वपोत्रीयधरोपि गार्गिकां सकाठिका क्ष्मावगतामवाप्य च । पापः स यो नावति शाकशाकटेक्षुशाकिने र्नु स्वनियोगमुद्यतः ॥१७॥ १७. यो नियुक्तो मन्त्र्युद्यतः सावधानः सन्स्वनियोगं स्वाम्यादिष्टं तथ्यपथ्यभाषणादिकं स्वव्यापारं नावति न रक्षति स पापो निन्द्यः १ बी नु स्वानि. १५ णाहि'. २ ए °यातचोर'. ३ ए त्वचोर. ४ बी रत्वाहि'. ५ सी °त्तु अथा'. ६ ए वाऽकिं. ७ बी 'विशमा. ८ बी °र्गिककाठि. ९ बी श्लाध्यात्या. १० बी सी दिगु. ११ बी स्रशार. १२ वी वेदन्यास'. १३ ५ °भ्यासान. १४ बी सी न नी. १५ एपम्योम. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.७५.] अष्टादशः सर्गः। ४२७ स्यात् । कीदृक् । ब्रह्मत्वपोत्रीयधरोपि ब्राह्मणत्वपोतृत्वे धारयन्नपि । ब्राह्मणोपि ऋत्विग्विशेषोपि वेत्यर्थः । तथा मावगतां पृथ्व्या ज्ञातां सकाठिका काठिकया कठप्रोक्तवेदित्रध्येतृत्वेनान्वितां गार्गिकां गर्गापत्यत्वमवाप्यापि च । अपिरत्रापि योज्यः । पृष्ठयां प्रसिद्धो गाग्र्यापि कठोपि वा भूत्वेत्यर्थः । यथोद्यतः सन्यः शाकशाकटेनुशाकिने शाकक्षेत्रमिक्षुक्षेत्रं च न रक्षति स ब्राह्मणादिरपि निन्द्यः स्यात् । गम्यमानास्तिक्रियापेक्षयैककर्तृत्वादवाप्येत्यत्र क्त्वा । सौरभ । गौरवस्य । पैत्रम् । अत्र "रवृवर्णालध्वादेः" [६९] इत्यण् ॥ केचित्तु कार्शानव आरातेत्यादिप्वपीच्छन्ति । तन्मतसंग्रहार्थ लघ्वादेरिति प्रकृतेर्विशेषणं न वृवर्णस्येति व्याख्येयम् ॥ पौरुष । पुरुषत्व । पुरुषता । हार्दम् । हृदयत्व । हृदयता । अत्र "पुरुप०" [७० ] इत्यादिनाण् । स्वतलौ च ॥ असमास इति किम् । सत्पुरुषत्व । सौ. हृदय्य । भत्र नाण् ॥ श्रौत्र । श्रोत्रियत्व । श्रोत्रियता । इत्यत्र "श्रोत्रियाद्यलुक्च" [७१] इत्यण् । यलोपश्च त्वतलौ च ॥ __ आचार्यक । आचार्यत्वम् । आचार्यता। इत्यत्र " योपान्त्य०" [७२ ] इत्यादिनाकञ् । त्वतलौ च ॥ असुप्रख्यादिति किम् । सुप्रख्यत्वः ॥ चौरक । धौर्तिका । इत्यत्र "चोरादेः" [७३] इत्यकञ् । स्वतलौ च । चौरस्वम् । चौरताम् ॥ शैष्योपाध्यायिकाम् । अत्र "द्वन्द्वाल्लित्" [ ७४ ] इति लिदकञ् । गार्गिकाकाठिकाभ्यां श्लाघात्याकारौ। गार्गिका सकाठिकामवाप्य । गार्गिकां सकाठिकां मावगताम् । अत्र "गोत्र." [ ७५ ] इत्यादिनाकञ् ॥ १ बी प्रोक्तोवदि. २ सी शाकने. ३ ए रुषः । पुरुषात्व. ४ बीरुत्व. ५ एर्द । है ६५ °मा ६ ७ सी दत्व । अं. ८ बी पान्त ई. ९ए सी ख्यत्व। चौ. १०बी चौरा'. ११ए सी च । चोर'. १२ ए सी म्। चोर'. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये पोत्रीय । इत्यत्र " होत्राभ्य ईयः " [ ७६ ] इतीयः ॥ ब्रह्मत्व । इत्यत्र "ब्रह्मणस्त्वः " [ ७७ ] इति त्वः ॥ शाकशाकटेशाकिने । भन “ शाकट०" [ ७८ ] इत्यादिना शाकटशाकिनौ ॥ ४२८ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ अथ तथ्यपथ्यं वच एकादशभिर्वृत्तैरार्हं । मौद्गीनशालेययवक्ययव्यंत्रै हेयपष्टिक्यमणव्यमाष्यम् । औमीनभाङ्गीनेमभञ्जि तैलीनं वा न केनापि विभोः प्रसह्य ॥ १८ ॥ १८. यवका यवतुल्या धान्यभेदाः । षष्टिकाः षष्ठिरात्रैः पच्यमाना व्रीहिभेदाः : । अणवो मणिचव्याख्या धान्यभेदाः । उमा अतैस्यः । भङ्गाः सणधान्यानि । विभोस्तव सत्कानि मुद्गादिक्षेत्राणि प्रसह्य हठात्केनापि शत्रुणा न भग्नानि । तव भूमिः केनापि न भग्नेत्यर्थः । इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ स को नाम यो ममापि भूमिं भक्ष्यति तत्किमेवं त्वमजल्प इत्ययं मदान्मा वादीदित्याशङ्क्योपसान्त्वनायास्य सामर्थ्यं वर्णयन्नाह ॥ € तिल्याणवीनमथ भङ्ग्यमथौ (थो) म्यमापी - [कुमारपालः] णं वास्तु देव भवतो विषयेद्य यावत् । भङ्गाकटं तिलकटं तदुमाकटं वा लाबूकटांशमपि वेप्सति को विगृह्य ।। १९ । १९. वा यद्वा हे देव भवतस्तव विषये देशे तिलादिक्षेत्रजातिरस्तु । शत्रुणा तव भूमेर्भ का वार्तेत्यर्थः । यतोद्य यावत्ते विषये भङ्गाकटं १ ए 'लेयंयव'. बी 'लेयव'. २ ए 'व्यन्रीहे'. ३ बी 'ष्टिकम'. ४ सी 'मणिव्य ं. ५ ए नभ ६ ए षीणी वासु दे. 1 · १ ए इ २ बी वंशस्थ ३ ए सी जाति । अ° ४ बी 'ह । मोद्गी'. ५ एतस्य । भ ं. ६ बी त्वज. ७ सी दीरित्या ८ बी सी 'शङ्क्याप . • Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.८५.] अष्टादशः सर्गः। ४२९ तिलकटं तदुमाकटं वा तदत्यल्पीयस्त्वेन प्रसिद्धं भङ्गानां तिलानामुमानां वा रजोप्यलावूकटांशमपि वालाबूकटस्य तुम्बकरजसोशमैपि वा कः शत्रुर्विगृह्य विग्रहं कृत्वेप्सति । त्वत्तः समर्थस्य राज्ञोभूतत्वान्न कोपीत्यर्थः ॥ मौद्गीन । इत्यत्र “धान्येभ्य ईनन्" [७९] इतीनञ् ॥ हेय । शालेय। इत्यत्र “नीहि." [ ८० ] इत्यादिनैपञ् ॥ यव्य । यवक्य । षष्टिक्यम् । अत्र "यव०" [ ८१] इत्यादिना यः ॥ अणज्य आणवीनम् । माष्यं माषीणम् । अत्र "वाणुमापात्" [८२] इति वा यः । पक्ष ईनञ् ॥ उम्य औमीन । भङ्गय भाङ्गीनम् । तिल्य तैलीनम् । अत्रं "वोमा०"[८३] इत्यादिना वा यः॥ अलाबूकट । उमाकटम् । भङ्गाकटम् । तिलकटम् । अत्रं "अलाब्वाश्च." [८४ ] इत्यादिना कटः ॥ वसन्ततिलका छन्दः ॥ एवं च तव केनापि किमपि नापराद्धमित्युक्तम् । ततश्च किमित्याह । कौलीनमस्ति यदु गूर्जरविग्रहाया श्वीनां करीरकुणपीलुकुणास्पदं माम् । उत्कर्णजाहविनमन्मुखजाहरम्यै वहिस्त्वमारिथ सुपक्षतिपक्षिवेगैः ॥ २०॥ २०. हे राजस्तत्कौलीनं कुलस्य जल्पो लोकापवादोस्ति यत्त्वं वाहैरश्वैः कृत्वा गूर्जरविग्रहाय कुमारपालविग्रहणार्थ क्ष्मां मरुदेश १ ए रगुण'. २ ए पीलगुणा'. सी पीलकु. १ ए ° वा. २ बी लानां मुनीनां. ३ सी °पि कःकः. ४ सी °ति । ततः स. ५ए सी धानेभ्य. ६ बी भ्य इत्यनिती'. ७ बी सी दिनेय. ८ए व्यं । भ. ९बीत्र वामा. १०बी ला. ११ बी स्वत्कोली'. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः भूमिमारिथागतः। किंभूताम् । आश्वीनां सीमसंधिवर्तित्वेन निकटत्वादश्वस्यैकेनाहा गम्यां तथा करीरकुणपीलुकुणास्पदं करीरपाकपीलुपाकस्थानम् । किंभूतैः । सुजात्यत्वेनोदूर्खानि यानि कर्णजाहानि कर्णमूलानि तथा विनमन्ति नम्राणि यानि च मुखजाहानि मुखमूलानि तै रम्यैस्तथा शोभना पक्षतिः पक्षमूलं यस्य स यः पक्षी तद्वजवो वेगो येषां तैः । [जेरैः सहासतो विरोधस्य प्रथमत उत्थापकत्वात्त्वां जनोपवदतीत्यर्थः ॥ . आश्वीनाम् । अत्र “अह्ना०" [८५] इत्यादिनेनञ् ॥ कौलीनम् । अत्र "कुलाजल्पे" [८६] इतीनञ् ॥ पीलँकुण । करीरकुण । इत्यत्र “पील्वादेः०" [८७] इत्यादिना कुणः ॥ कर्णजाह । मुखजाह । इत्यत्र “कर्णादे०" [८८] इत्यादिना जाहः ॥ पक्षति । इत्यत्र “पक्षात्तिः" [८९] इति तिः ॥ अन्यच्च । हिमेलुवातूलबलूलसैन्यः शीतालुरुष्णालुरमर्पतोसौ । स्वदेशत्प्रालुरिहार भैमिर्यथामुखीने त्वयि संमुखीनः ॥२१॥ २१. त्वयि यथामुखीने संमुखमैत्रागते सत्यसौ भैमिः कुमारपालोमर्पतोमर्षात्संमुखीनः संमुख इह त्वत्समीप आराययौ । कीहक्सन् । हिमेलु वातूलं बलूलं च हिमं शीतं वातं लूकादि बलं परवलं च सहमानं सर्वसहमित्यर्थः। सैन्यं यस्य स तथा शीतालुरुष्णालुः शीतोष्णयोरसहोप्यतिसुकुमारोपीत्यर्थः । यद्येवं सुकुमार १ ए मेलवा. २ बी शीलालु'. ३ सी तृष्णालु'. १ सी संबन्धव. २ बी क्षति प. ३ बी गूजरैः. ४ बी लुकण. ५ ए रकण. ६ सी न्यथा । हि. ७बी मत्र ग. ८ बी रहसोप्य'. ९ए 'तिक Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.९४.] अष्टादशः सर्गः। ४३१ स्तर्हि किमित्यारेत्याह । यतः स्वदेशप्रालुः स्वदेशस्य कष्टमसहमानः । एतेन त्वया विरोद्धोयमत्रागादित्यस्य न्यायित्वमुक्तम् ।। हि मेलु । इत्यत्र । “हिमाद्" [९०] इत्यादिना-एलुः ।। बलूल । वातूल । इत्यत्र "बल." [९१] इत्यादिनोलः ।। शीतालुः । उष्णालुः । तृप्रालुः । अत्र "शीत." [१२] इत्यादिनालुः ।। यथामुखीने । संमुखीनः । अत्र “यथा." [१३] इत्यादिनेनः ॥ उपजातिः ॥ अयं मे सेवाद्यर्थमत्रायात इति न वाच्यं यतः । स सर्वपत्रीणकसर्वकर्मीणपत्तिकः सर्वपथीननागः । द्राक्सर्वपात्रीणधनोस्ति सर्वाङ्गीणप्रभः प्राग्भवदाज्यपेक्षी॥२२॥ २२. स भैमिाक्प्राक्पूर्व भवदाज्यपेक्षी तव संग्राममपेक्षमाणोस्ति । चेत्त्वं रणं प्रारब्धवांस्तदायमतितरां रणकरणे प्रगुण एवास्त इत्यर्थः । यतः सर्वपत्रीणका अज्ञाताः सर्वपत्राणि व्याप्नुवन्तः सर्ववाहनारोहणशक्ता इत्यर्थः । सर्वकर्मीणाः सर्वकर्माणि व्याप्नुवन्तः सर्वकार्यकरणक्षमाश्चेत्यर्थः । पत्तयः सेवका यस्य सः । तथा सर्वपथीना वहीयस्त्वात्सर्वान्पथो व्याप्नुवन्तो नागा गजा उपलक्षणत्वादश्वा रथाश्च यस्य सः । एतेन सर्वसैन्यसंपदुक्तिः । तथा सर्वपात्रीणं वंहीयस्त्वात्सर्वाणि पात्राणि देवस्थानानि व्याप्नुवद्धनं यस्य सः । एतेन कोशसंपदुक्तिः । तथा सर्वाङ्गीणा सर्वाङ्गं व्याप्नुवती प्रभोत्साहादिसंपदुद्भवं तेजो यस्य सः ।। १ एज्यपक्षी. २ बी क्षी । तव. १ वी सी तृष्णालुः.२ सी°लुः यथा'. ३ ए ने। हंमु. ४ सी भैमिः प्राकपूर्व द्राक् भं.५ बी पेक्ष्यमा ६ सी सः । यथा. ७ एथीनां वं. ८ सीर्वाणि पत्रा'. ९ए 'त्रीणां वही . १० सी तेनास्य सं. ११ वीङ्गिव्या. १२ एनीणां स. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपातः] यद्येवं तर्हि किं कार्यमित्याह । राजन्मौ(न्मो?)जौंजसा निजानां सर्वशरावीणानभोजिनां त्वम् । पतनाय भवेनिजापि पट्याप्रपदीनानुपदीनिका च तुङ्गा ॥ २३ ॥ २३. हे राजंस्त्वं निजानां पूर्वजानां पतनाय स्वविनाशेन भ्रंशाय मा भूः । केन कृत्वा । उजौंजसोर्जया बलेन यदोजस्तेजस्तेन बलावलेपेनँ । कीदृशाम् । सर्वशरावीणानि बहीयस्त्वेन सर्वशरावान्व्याप्नुवन्ति यान्यन्नानि तद्भोजिनां त्वत्सदृशस्यापत्यस्य श्राद्धादौ नानापिण्डप्रदत्वेन तृप्नानामित्यर्थः । सर्वथा समर्थेनं न्यायिना च भैमिना सह रणं मा कृथा इत्यर्थः । स्वोक्तमेवार्थान्तरेण द्रढयति । निजापि पटी वस्त्रमाप्रपदीना प्रपदं गुल्फं यावद्व्याप्नुवती सत्यतिविस्तीर्णत्वेन गतेः रखलयित्रीत्वात्पतनाय भवेत्तथा निजाप्यानुपदीनिका कुत्सितानुपदं वद्धा पदप्रमाणा पादुका तुङ्गात्युच्चा सती पतनाय भवेत् ॥ सर्वपथीन । सर्वाङ्गीण । सर्वकर्माण। सर्वपत्रीण। सर्वपात्रीण। सर्वशरावीण । इत्यत्र “सर्वादेः०" [९४] इत्यादिना-ईनः ॥ आप्रपदीना । इत्यत्रं "आप्रपदम्" [१५] इतीनः ॥ आनुपदीनिका । इत्यत्र “अनु." [९६] इत्यादिनेनः॥ औपच्छन्दसकं छन्दः॥ अथ वृत्तत्रयेण त्वत्पूर्वजैरपि चुलुक्यैः सह विग्रहो न कृत इति भणन् कृताया मैत्र्याः फलं चोपदर्शयन् स्वोक्तं रणाकरणमे द्रढयति । १एन्मांजोंज'. २ ए तुरङ्गा. वी तुङ्गे । हे. १बी सी ततः किं. २ ए उजोंज'. ३ ए °स्तेजब. सी स्तेन ब. ४ ए 'न । स. ५ ए नि वाही . ६ सीन तृ. ७ ए वान्वाम. ८ बीदत्तेन. ९ एन ज्ञायि. १० सी दं यदा ५०. ११ ए वी पाटुका. १२ बी पा. १३ ए दिरित्या'. १४ बीत्र प्र. १५ सी स वि. १६ बी व दृढति'. १७ सी 'ति । माया. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है.७.१.१००. अष्टादशः सर्गः। ४३३ अयानयीनैरकृतारिसर्वानीनैर्न ते कोप्यरितां चुलुक्यैः। परोवरीणोथ परंपरीणोमि पुत्रपौत्रीण इहान्वये ते ॥ २४ ॥ २४. हे रास्ते संबन्धी कोपि पूर्वजनुलुक्यैः सहारितां वैरं नाकृत । यतोयानयीनैः । अयः शुभं दैवम् । अनयोशुभम् । शुभादेवा. त्सकाशादपवर्ततेशुभं दैवं यस्मिन्कर्मणि तदयानयं शान्तिकर्म मारिघोषणदेवगुरुपूजादि तद्ये नेयाः कारयितव्यास्तैरीश्वरैस्तथा सर्व सर्वप्रकारमदन्ति सर्वान्नीना अरिभिः सर्वान्नीनी अरिसर्वानीनास्तैः सर्वारिविनाशकैरित्यर्थः । अत्रार्थे कः प्रमाणमिति न वाच्यम् । यतस्ते तवेहान्वये वंशेहमस्मि वर्ते । कीदृक् । परोवरीणोथ तथा परंपरीणः पुत्रपौत्रीणश्च परांश्चावरांश्च परांश्च परतरांश्च पुत्रांश्च पौत्रांश्चानुभवामि जानामि यः स तथा ॥ अयानयीनैः । अत्र “अया०" [ ९७ ] इत्यादिनेनः ॥ सर्वान्नीनैः । अत्र "सर्वान्नमत्ति" [ ९८ ] इतीनः । परोवरीणः । परंपरीणः । पुत्रपौत्रीणः । एते "परोवरीण." [ ९९ ] इत्या. दिना निपात्याः ॥ उपजातिः ।। यथाकामीनोर्जत्करिभिरनुकामीनतुरगैः ___सदात्यन्तीनोष्ट्रधरणिधव संधाय चुलुकैः । नयाब्धेः पारीणानयसरिदवारीणजगृहु र्यशः पारावारीणमिह गुरवस्तेरिविजयात् ॥ २५ ॥ १ वी नवीनै'. २ बी नीन्नैनं. ३ सी गोस्मि. ४ बी त्रपुत्री'. १ सी अयं शु. २ वी भाशुभाई'. ३ बी सी कर्मा मा'. ४ ए दि ये. बी 'दिनाद्येन्यया का". ५ सी तथैर्नेयाः. ६ सी नास्तैः. ७ए 'श्च पुत्राश्च पौ. ८ सी श्च पु. ९ ए बी मियाना. १० ए मि स. ११सी था । आया. १२ ए मि. १३ सी णः । अत्र प. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ] २५. हे धरणिधव राजन हे नयाब्धेः पारीण नीतिशास्त्रसागरपारगामिन्नत एव हे अनयसरिदवारीणानावारनद्या अर्वाग्भागगामिन्यायनिष्ठ ते तव गुरवः पूर्वजा अरिविजयादिह जगति पारावारणमधिगामि यशो जगृहुः । किं कृत्वा । चुलुकैः सह सदा संधाय । कैः कैः कृत्वा । यथाकामीना यथाकामं गच्छन्तस्तथोर्जन्तो बलिष्ठा ये करिणस्तैस्तथानुकामीना अनुकामं यथेच्छं गच्छन्तो ये तुरगास्तैस्तथात्यन्तीना अत्यन्तं गामिनो य उष्ट्रास्तैश्च हस्तितुरगोप्रदानेनेत्यर्थः । एतेन चुलुकैः सह संधाने तेषामरिविजयोत्थं यशः फलमुक्तम् ॥ शिखरिणी छन्दः ॥ अवारपारीणमुदन्वतस्तद्यशो निजानां द्युपथाध्वनीनम् । हारि त्वया मानुगवीनबुद्ध्या भैमिं नयाध्वन्यममुं विराध्य ||२६|| । २६. हे राजन्निजानी पूर्वजानां तचुलुकैः संधानेनारिविजयोत्थं यशस्त्वया मा हारि मापनायि । कीदृशम् । उदन्वतो धेरवारपारीणमर्वाग्भागपरभागयोर्गामुकं तथा द्युपथाध्वनीनं स्वर्गमार्गे पथिकतुल्यं स्वर्गगामीत्यर्थः । किं कृत्वा । नयाध्वन्यं न्यायमार्गपथिकममुं भैमिं विराध्यं विरोध्य । कया कृत्वा । अनुगवीन बुद्ध्या गवां पश्चादनुगु तदलंगाम्यनुगवीनो गोपालस्तस्य या बुद्धिस्तयानुचितयुद्धविषयया मूर्खबुद्ध्येत्यर्थः ॥ यथाकामीन | अनुकामीन । अत्यन्तीन । इत्यत्र " यथाकाम ० [ १०० ] इत्यादिनः ॥ 39 पारावारणम् । पारीण । अवारीण । अवारपारीणम् । इत्यत्र "पारावारं ०" 1 [ १०१ ] इत्यादिनेनः ॥ १ सी 'धर रा. सी धानात्तेषा'. र नापायि. २ सी ह सं. ३ सीयन्त गा. ४ बी 'धानते. ६ सीनां तच्चलैः सं ७ सी ९ सी ध्यक. ५ सी 'न्दः । आवा.. ८ बी मार्ग. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.१०४.] अष्टादशः सर्गः । ४३५ अनुगवीन । इत्यत्र "अनुग्वलम्" [ १०२ ] इतीनः ॥ भध्वन्यम् । अध्वनीनम् । अत्र "भध्वानं येनौ" [१०३ ] इति येनौ । उपजातिः ॥ अथ स्वोक्तस्यैव रणाकरणस्य विशेषेण द्रढनाय यस्य सैन्यस्य बलेनानो युद्धायोत्सहते तन्निराकुर्वन्नाह । तवाभ्यमित्रीणरणेभ्यमित्र्यो भाव्यभ्यमित्रीय इहाथ वा कः । एष्वागवीनेषु समांसमीनाद्यश्वीनधेनुष्विव निःसहेषु ॥२७॥ २७. अथ वेति कृतकाभ्युपगमे । त्वत्संतोपाय युद्धं किल मयाभ्युपगतमित्यर्थः । परं हेभ्य मित्रीणामित्राभिमुखमलंगामिनिह भैमावभ्यमित्रीयेमित्रस्य तवाभिमुखमलंगामिनि सत्येषु प्रत्यक्षेपु तव भटेपु मध्ये को भटो रणेभ्यमित्र्योमित्रस्य भैमेरभिमुखमलंगामी भावी भविष्यति । यतः कीदृक्षु। आगवीनेष्वागोप्रदानं का(नका?)रिण आगवीनाः कर्मकरभेदास्तत्तुल्येषु । एतदपि कुत इत्याह । यतः समांसमीनाः प्रतिवर्ष गर्भग्राहिण्यो विजायमाना वा तथाद्यश्वीना अद्य श्वो वा विजनिष्यमाणा एवं नाम प्रत्यासन्नप्रसवा इत्यर्थः । द्वन्द्वे ता या धेनवस्ताविव निःसहेष्वसमर्थेषु ॥ तदेवं सर्वथा युद्धं निषिध्य विधेयमाहे ॥ भैमौ ततः साप्तपदीनमद्यप्रातीनधेनुं नु पुषाण भूत्यै । मन्त्रेषडक्षीण इहाश्वलंकर्मीणो भवालंपुरुषीणशक्ते ॥ २८ ॥ २८. अलंपुरुषाय पौरुषोपेतायालंपुरुपीणा शक्तिर्यस्य हे अलंपुरुषीणशक्ते महापराक्रमिस्ततो हेतोभूत्यै राज्यादिलक्ष्म्यर्थं भैमौ विषये १ए समास'. २ बी हास्वलं'. ३ ए शक्तैः । अ. सी शक्तै । अ. १ एषा यु. २ ए°णामि'. ३ बी मित्र्यस्य. ४ बी सी स्ताश्विव. ५ बी ह । भेमौ. ६ बी °लं पौरुषा. ७ ए क्रमस्त'. सी क्रमस्त'. ८ बी 'तो भूत्यै. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] साप्तपदीनं सप्तभिः पदैरवाप्यं सख्यं पुषाण पोषय । अद्यप्रातीनधेनुं न्वद्य प्रातर्वा विजनिष्यमाणां धेनुं यथा कश्चित्पुष्णाति । तथाविद्यमानानि षडक्षीण्यस्मिन्नषडक्षीणस्तस्मिंस्त्वां मां च विनान्येन केनाप्यज्ञात इत्यर्थः । इहै कृतपूर्व मत्र आश्वलंकर्मणेलंकर्मीणः समर्थों भवामुं मदीयं मन्त्रमविलम्ब कुर्वित्यर्थः ॥ इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ रुदितमिव वचोस्याशितंगवीने न समीचीनममंस्त राडुदीच्याः । सम्यग्भेदितयैव मन्यमानः सचिवं सोश्वतयाँश्वकानिवोच्चैः॥२९॥ २९. उदीच्या उत्तरस्या दिशो राडान्नोस्यामात्यस्य वचः समीचीनं युक्तं नामस्त । यथाशिंता गावोस्मिन्नाशितंगवीनमरण्यं तस्मिन्नुदितं निष्फलत्वात्समीचीनं लोको न मन्यते । यतः कीदृक् । सचिवं सम्यनिश्चितं भेद(दि)तयैव भेदोस्यास्ति भेदी तद्भावेनैव भैमिना भेदितमेवेत्यर्थः । मन्यमानः । यथा कश्चिदुच्चैरुलतानश्वकानश्वकाख्यानश्वसदृशान्पशुभेदानश्वस्य प्रतिकृतीः काष्ठादिमयान्प्रतिच्छन्दकान्वा भ्रान्याश्वतयाश्वा अमी इति मन्यते । अनेनोपमानेनान्नस्य भ्रान्ततासूचि ॥ अभ्यमित्रीये । अभ्यमिध्यः। अभ्यमित्रीण । इत्यत्र "अभ्य मित्रमीयश्च" [१०] इतीययेनाः॥ १ए °चोस्यशि. २ बी स्यासितं . सी स्यासितग'. ३ बी सी ग्भेदत. ४ बी यास्वका. १ए वा विन. २ बी सी स्तस्मिस्त्वां. ३ सी इत्यकृ. ४ सी कमीणोलं. ५ बीमणोलं. ६ बी रस्यां दि. ७ सी राजानो'. ८ सी 'नं लोको. ९ बी शितगा. १० बी शानशु. ११ ए बी कृतीका. १२ बी काष्ठम. १३ बी न्याश्वा इमी. १४ ए सी मित्र्य । अं. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.११०.] अष्टादशः सर्गः। ४३७ समांसमीना । अद्यश्वीन । अद्यप्रातीन । आगवीनेपु । साप्तपदीनम् । एते "समांसमीना." [१०५] इत्यादिना निपात्याः ॥ अपडक्षीणे । आशितंगवीने । अलंकर्मीणः । अलंपुरुषीण । इत्यत्र "अपडक्ष." [ १०६ ] इत्यादिनेनः ॥ समीचीनम् । अत्र "अदिक्०" [ १०७ ] इत्यादिनेनो वा ॥ पक्षे । सम्यक् ॥ अदिस्त्रियामिति किम् । उदीच्याः ॥ भश्वकान् । इत्यत्र "तस्य." [ १०८ ] इत्यादिना संज्ञायां प्रतिकृतौ च कः ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका छन्दः ॥ ऊचे च चश्चामपि किं चुलुक्यं स्तवीपि मां भापयितुं दुराशं । को नाम चित्रायतनध्वजस्थभीमान्तकव्याघ्रशताद्विभेति ॥३०॥ ३०. स्पष्टः । किं तु चञ्चामपि चञ्चा तृणमयः पुरुषो यः क्षेत्रे रक्षणाय क्रियते । अकिंचित्करत्वेन तत्तुल्यमपि । चित्रायतनध्वजस्थभीमान्तक[व्याघ्र?]शताचित्रस्थाचित्रे लिखिता ये भीमा भीमसेना आयतनस्था देवगृहस्था येन्तकाः पूजार्था यमप्रतिकृतयो ध्वजस्था ये च व्याघ्रास्तेषां शतादपि ॥ नृ । चञ्चाम् ॥ पूजार्थ । आयतनस्थान्तक ॥ ध्वजे । ध्वजस्थव्याघ्र ॥ चित्र। चित्रस्थभीम । इत्यत्रं "न नृ०" [ १०९] इत्यादिनी न कः ॥ उपजातिः ॥ विक्रीणते करटिकान्दधते च गौरी पथ्यंत्र देवपथराजपथे स्वगुप्त्यै । राज्ञां चरास्त्वमु चरः प्रकटः शिलेय वास्तेयवक्र सुचिरादुपलक्षितोसि ॥ ३१ ॥ १ सी श । केना. २ ए °थ्यस्य दे'. १वी द्यप्रती. २ सी °ना संज्ञायां. ३ ए °नेन । स. ४ सी का ॥ ऊ. ५ बी सी स्थाचित्रे. ६ ए °श्चित्रलि. ७ बी स्थानक. ८बी ज. स्थान्तव्या. सी जय'. ९ बी 'त्र नाम्नित्या. १० ए°ना कः. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ३१. उ हे शिलेय स्वस्वाम्यवदातैरनाद्रीकृतहृदयत्वाच्छिलायास्तुल्य कठोरहृदय तथा वास्तेयमशुचिकल्पवर्चःक्षेपित्वाद्वस्तेः पुरीषोत्सर्गद्वारस्य तुल्यं वक्रं यस्य हे वास्तेयवक्र राज्ञां शत्रूणां चरा अत्र पथ्यस्य पुरस्य मार्गे करटिकाकरटिनो हस्तिनस्तुल्यान्मृत्तिकामयानि हस्तिप्रतिच्छन्दकानि विक्रीणते तथा गौरी गौर्यास्तुल्यां जीविकार्थी गौरीप्रतिमां दधते । किंभूते पथि । देवपथराजपथे विस्तर्णत्वान्मनोज्ञत्वाच्च देवपथराजपथतुल्ये । त्वं पुनर्द्विषां प्रकटश्वरः परं सुचिरादुपलक्षितोसि । एतेनास्य गुप्तचरेभ्योप्यतिदुष्टतोक्ती ।। वसन्ततिलका ॥ शैलेय्यसौं धीः क भवादृशानां द्रव्यं कुशाग्रीयधियां क मत्राः । तत्काकतालीयमजाकृपाणीयं कार्यसिद्धिर्यदशाख्यमुख्यात् ॥३२॥ ३२. शैलेय्यतिस्थूलत्वाच्छिलायास्तुल्यासौ पूर्वोक्ता भवादृशानां धीः क । तथा कुशाप्रीयधियां सूक्ष्मबुद्धीनां मन्त्राः क च । कीदृशाः। द्रव्यं द्रुतुल्या यथा द्रु अग्रन्ध्य जिह्म दोरूपकल्प्यमानं विशिष्टेष्टफलरूपं स्यात्तथा विशिष्टेष्टफलदा इत्यर्थः । भवादृशाः स्थूलबुद्धयो मत्रायोग्या इत्यर्थः । ननु मन्मन्त्रेणाप्यनेकाः कार्यसिद्धयोभूवंस्तत्कथमहं मत्रा. योग्य इति न वाच्यम् । यतो भवतस्त्वत्तो यत्कार्यसिद्धिस्तत्काकताली १ बी पिकां क. २ बी 'कालता. १ सी स्ववस्वा. २ बी सी नाद्रीकृ'. ३ बी 'च्छिशाया'. ४ बी 'चःक्षपि'. ५ सी गौर्या . ६ ए बी गौर्यास्तु. ७बी गौरी प्र. ८ बी 'त्वात्मनेज्ञात्वा'. ९ सी "भ्योति'. १० सी °क्ता । भवादृशानां धीक । तथा. ११ बी वोक्त्या भ'. १२ सी दारुप्रक. १३ बी सी टरू. १४ ए "प्टेफ. १५ सी फला इ. १६ सी योभवं. १७ बी "ति वा. १८ ए 'स्त्व. चौका. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.११८.] अष्टादशः सर्गः। ४३९ यमाश्चर्यभूतमित्यर्थः । यद्वाजाकृपाणीयमजया पादेनावकिरत्यात्मवधाय कृपाणस्य दर्शनमजाकृपाणं तत्तुल्यं परिणामेनर्थहेतुरेवाभूदित्यर्थः । यतः । किंभूतात् । पुरुषस्कन्धस्यं वृक्षस्कन्धस्य वा तिर्यक्प्रसृतमङ्गंशाखेत्युच्यते । तद्यथा शाखा पार्शयता तथा कुलस्य यः पार्शर्यतोङ्गभूतः स शाखायास्तुल्यः शाख्यस्तथा मुखस्य तुल्यो मुख्यः प्रकृष्टो विशेषणकर्मधारये न तथा यस्तस्मात् ।। गौरीम् । अत्र "अपण्ये जीवने" [११० ] इति न कः ॥ जीवन इति किम् । करटिकान् ॥ देवपथराजपथे । अत्र “देव." [११] इत्यादिना न कः ॥ वास्तेय । इत्यत्र "व(ब?)स्तेरेयञ्" [ ११२ ] इत्येयञ् ॥ शिलेय । शैलेयी । इत्यत्र "शिलाया एयच्च" [ ११३ ] इत्येयच् । एयञ्च ॥ शाख्य । मुख्यात् । इत्यत्र "शाखादेयः" [११४ ] इति यः ॥ द्रव्यम् । अत्र "द्रोभव्ये" [ ११५] इति यः ॥ कुशाग्रीय । इत्यत्र "कुश०" [११६ ] इत्यादिनेयः ॥ काकतालीयम् । अजाकृपाणीयम् । एतौ "काक०" [११७ ] इत्यादिना निपात्यौ ॥ इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ भोः सपत्न वचनेने सैकताशार्करेण यशसो मर्म ध्रुवम् । येकशालिकभुजस्य नेच्छसि त्वं भवत्रिजगदैकशालिकम् ॥३३॥ १ वी सी न शंक. २ ए °म श्रियः । एक'. ३ सी °च्छति त्वं. १ वी णीम. २ बी नाकि . ३ बी सी यः । किं. ४ सी स्य वा. ५ सी था यः कुलस्य पा. ६ सी यताङ्ग. ७ए त शा. ८ बी शा. खास्त. ९ बी मुख्य प्र° १० ए री । अ. ११ बी °ण्ये न जी'. १२ बी °ति कः. १३ बी सी शाग्राग्री. १४ ए कुशीयेत्या . सी कुश्येत्या. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ३३. भोः सपत्न सपन्यास्तुल्य शेत्रो सैकतं काठिन्यवैरस्यादिना सिकताया वालुकायास्तुल्यमत एवाशार्करं न शर्कराया इक्षुविकारस्य तुल्यं यत्तेन प्राक्तनेन वचनेन कृत्वा ध्रुवं ज्ञायसे त्वं मम यशस ऐकशालिकमेकशालायास्तुल्यं भवत्सत्रिजगन्नेच्छसि । ननु ते यशः कुतस्त्यमिति न वाच्यम् । यतः श्रियो विजयलक्ष्म्या एकशालिकावेकशालायास्तुल्यौ भुजौ यस्य तस्य कुमारपालस्यै कस्यैवारेजयेन जगत्रयेप्यकृच्छ्रेण विचरन्मम यशस्त्वं सपत्नत्वान्नेच्छसीत्यर्थः ॥ रथोद्धता छन्दः ॥ वाचापि कौलिशिक गौणिकलोहितीक वस्त्रार्ह नो पलितकार्किक हैन्मि तत्वाम् । कार्कीककीर्तिगुरुलौहितिकानुरागे च्छा यद्विशालजगतीह विशङ्कटा मे ॥ ३४ ॥ ३४. रे न केवलं हृदा वाचापि कौलिशिक वज्रतुल्यात एवरे गौणिकलौहितीकवस्त्राई गौणिकमतिस्थूलत्वादोण्यास्तुल्यं लौहितीकं च लोहितवर्णस्य तुल्यमलोहितवर्णमपि मञ्जिष्ठाद्यपाश्रयवशात्तथावभासमानं यहूँखं मञ्जिष्ठादिकोच्छलकवस्त्रमित्यर्थः । तस्याहं योग्य । तथा रे पलितकार्किक पलितैः श्वेताश्वतुल्य तत्तस्मात्त्वां न हन्मि यद्यस्मादिह विशालजगति मे मम कार्कीककीर्तयः श्वेताश्ववनिर्मलयशसो ये गुरवो मत्पित्रादयः पूज्यास्तेषां लौहितिको लोहिततुल्यो रक्तो यस्त्वद्विष१ सी "हे गौणिकमतिस्थू. २ ए हतन्मि. १ बी पन्नारतु. २ बी शत्रोः सै'. ३ सी °स्य तस्य कुमार'. ४ ए शालक. ५ ए न्म य?. ६ बी रत्वं संपन्नत्वा'. ७ बी ल्यं लोहि'. ८ बी स्त्रम. ९ए 'तैः श्वोता. १० सी तस्मा'. ११ सी शाले ज. १२ बी पां लोहि. १३ ए तिको लौहि . बी तिकालो . १४ सी यद्वस्तुविष'. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.१.१२४.] अष्टादशः सर्गः । योनुरागस्तस्येच्छा । यद्वा कार्कीककीर्तयो ये गुरवस्त्वत्पित्रादयस्तेषु या ममं लौहितिकानुरागेच्छा सा विशङ्कटा विस्तीर्णास्ति । मद्गुरुभिस्त्वगुरुभिश्च त्वं ममे भलापित इति त्वां न हन्मीत्यर्थः ॥ ४४१ अशार्करेण । सैकत । इत्यत्र "शर्करादेरण्” [ ११८ ] इत्यण् ॥ 1 सपत्न । इत्यत्रै “अः सपदया : " [ ११९ ] इति-अः ॥ एकशालिक । इत्यत्र "एक" [ १२० ] इत्यादिना - इकः ॥ गौर्णिक । कौलिशिक । ऐकशालिकम् । अत्र " गोण्यादेश्वेकण्" [ १२१ ] इतीकण् ॥ कार्कीक । कार्किकै । लौहिती कँ । लौहितिक । इत्यत्र " कर्क ० " I [ १२२ ] इत्यादिना टीकणिकणौ ॥ विशाल । विशङ्कटा । इत्यत्र " वेर्०" [ १२३ ] इत्यादिना शालेशङ्कटौ ॥ वसन्ततिलका ॥ विकटोत्कट प्रकटवाक्स्तवीपि यं रणसंकटेवकटधेन्वपाणिना । निकटे भिभूतमवटीटिनं मयावक्कुटारमौलिवटीट पश्य तम् ॥ ३५ ॥ 90 57 १२ 13 ३५. रे अवटीट नासानतिमंश्चिपिटनासिक तिरस्कुर्वाण एवं संबोधयति । यद्वा रे अवटीट स्वाम्यभक्तत्वेनाति निन्द्यत्वाल्लोकानां नासानति हेतोयं भैमिं त्वं स्तवीषि । कीदृक्सन् । विकटा विस्तृतोत्कटाधिका प्रकटा सर्वलोकस्य प्रकाशा च वाग्यस्य सः । तं भैमिं त्वं पश्य । कीदृशम् । अवकटमारोपितत्वान्नतं धन्व यत्र स तथा पाणिर्यस्य तेन १ ए धनुपा". १ बी म लोहि'. २ बी 'म भिला. ३ ए अस°. ४ ए 'णिकः । कोलि' सी 'णिकः । कौ. ५ ए सी शिकः । एक. ६ ए क । लोहि. ७ सी क । लोहि. ८ बी सी विसङ्क ९ बी सी 'लसक चिपि. ११ एश्चिपुट'. १२ सी ण इति सं १३ एनां सा १० बी मं ५६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] मया निकटे शीघ्रं करिष्यमाणत्वात्समीपस्थे रणसंकटे रणसंकीर्णेभिभूतमत एवावटीटं नासानतिरस्यास्त्यवटीटिनम् । पराभवेपि हि नासा मुटति । अत एव की दृक्सन्पश्य । अवकुटारमौलिश्चौलुक्यपराभूत्यातिपराभूतंमन्यत्वान्नतशिराः ॥ नन्दिनी छन्दः ॥ अनवभ्रटः स मुनिरप्सरोजनो नवनाट आश्वचिपिटाश्च बन्दिनः । अतिचिकं तेप्यचिकिना धुवासिनो निबिडं ममाजिमवलोक्य भाविनः ॥ ३६॥ ३६. अतिशयितं चिकं नासानतिरस्य यद्वातिशयेन चिक्को नासानतिमानतिचिक्कस्तत्संबोधनं हे अतिचिक्क । यद्वा हेतिनिन्द्य नि विडं ममाजिमवलोक्य स रणकौतुकी मुनिनारदो भावी। कीदृक् । अनवधेटो नासानतिरहितोनासानतिमान्वानिन्द्यो वा। हर्षेणोत्फुल्लनासिक इत्यर्थः । एवमपि योजना कार्या ।। अतिनिबिडतया तवात्र किं किं न्वतिनिबिरीसतयान्यदुर्जनानाम् । मम रणनिबिरीसताविचाराद्रुहिणसुतो भविता मुदश्रुचिल्लः॥३७॥ ३७. अत्रा जिविषये तवातिनि विडतयातिशयितं निविडं नासानतिरस्य यद्वातिशयेन निविडो नासानतिमानतिनिविडस्तस्य भावेनारुच्यात्य॑न्तं नक्रमोटनेन किं न किंचिदित्यर्थः । अन्यदुर्जनानां त्वदितरखलानां वातिनिबिरीसतया नक्रमोटनेन किं नु । यस्मान्मम रणनिबि १ सी अव. २ ए नोवन'. ३ बी पिदाश्च. ४ सी न्दिन । अ. ५ बी क तोप्य. १ बी सी संकी'. २ ए टीटा नासामति'. ३ बी सी निनार'. ४ ए भ्रष्टो मासा. ५ बी नाशान'. ६ बी नाशानाति'. सी नाशान. ७ सी वेनरु. ८ बी त्यन्तन. ९ए वानि . १० ए °न्मर'. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.९ [है० ७.१.१२९.] अष्टादशः सर्गः। ४४३ रीसताविचारात्संग्रामनीरन्ध्रताविमर्शाद्रुहिणसुतो नारदो भविता भविप्यति । कीदृक् । मुदश्रुचिल्लो हर्पनेत्राम्बुभिः क्लिनचक्षुरन्वितः ॥ एतेनामात्यं निराकृत्य युद्धविधानमेव राज्ञा समर्थितम् ॥ औपच्छन्दसकम् ।। स मंत्रिणं वार्धकचुल्लमेवमुत्कोपपिल्लस्तमुवाच यावत् । उपत्यकाधित्यकयोगिरीणां प्रतिध्वनस्तावदर्भूनिनादः॥३८॥ ३८. स आन्नो यावद्वार्धकचुलं वार्धक्येन गलन्नेत्रं तं मत्रिणमेवमुक्तनीत्योवाच । कीहक्सन् । उदुल्लसितो मत्रिणं प्रति यः कोपस्तेन पिल्लो गर्लन्नेत्रः । तावद्रीिणामुपत्यकाधित्यकयोरधोभूम्यूलभूम्योः प्रतिध्वननिनादः कुमारपालसैन्यकर्लकलोभूत् ।। विकट । इत्यत्र "कटः" [ १२४ ] इति कटः ॥ संकटे । प्रकट । उत्कट । निकटे । अत्र "संप्र." [१२५] इत्यादिना कटः॥ अवकुटोर । अवकट । इत्यत्र "अवात्.” [ १२६] इत्यादिना कुटाकटौ ।। नासानतौ । अवटीटिनम् । अवनाटः । अनवभ्रटः ॥ तद्वति । अवटी । अनवनाटः । अनवभ्रटः । अत्र "नासा." [१२७] इत्यादिना टीटनाटभ्रटाः ।। अचिकिनाः । अचिपिटाः । चिक्क । इत्यत्र "नेरिन०" [ १२८ ] इत्यादिना ने सानतौ तद्वति चेनपिटकाः । नेर्यथासंख्यं चिचिचिक् इत्यादेशाः ॥ नासानतौ तद्वति च । निबिड । निबिरीस ॥ नीरन्ध्रे । निबिडम् । निविरीसता । इत्यत्र "बिड" [१२९] इत्यादिना बिडबिरीसौ ॥ १ बी भूवन्नितावः । स. १ ए क्लिनच. २ ए °लनेत्रः. ३ ए भूमूर्ध्व. ४ सी ललो'. ५सी °टारः । अ. ६ ए °रको । ना. ७ बी टीटः । अ.° ८ बी सी वभ्र'. ९ बी सी चिकचि. १० बी °देशः । ना. ११ बी रन्ध्य । नि'. १२ बी 'रीशौ । चि. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] चिल्लः । पिलः।चुल्लम् । अत्र "लिंबा" [३०] इत्यादिना लः। निस्य च चिलपिलचुलादेशाः ॥ उपत्यकाधित्यकयोः । इत्येतो "उपत्यका." [३१] इत्यादिना निपात्यौ । उपजातिः ॥ अविकटाविपटैरिव जाङ्गलैः करटिगोष्ठनियोगिभिराकुलैः । तुरगपगवसन्मयगोयुगाधिकृतिभिश्च विराविभिरैधि सः ॥ ३९ ॥ ३९. जाङ्गलैजङ्गलदेशोद्भवैनरैः स चौलुक्यसैन्यकलकल ऐधि वर्धितः । यत आकुलैट्दैिन्यनादश्रवणाक्षुभितैः सद्भिर्विराविर्भिविरसं शब्दायमानः । अविकटाविपटैरिव यथाविकटा अ(उ)रणानां समूहा अविटाश्चावीनां विस्ताराश्चाकुलाः सन्तो विरुवन्ति । किंभूतैः । करटिगोष्ठेपु हस्तिनां स्थानेषु नियोगिभिरायुक्तस्तथा तुरगषगवेष्वश्वर्षगवेषु सन्मयगोयुगेषु शोभनोष्ट्रभेदानां द्वित्वेषु चाधिकृतिभिश्च ॥ अविकटाविपटैः । इत्यत्र "अवे." [१३२] इत्यादिना कटपटौ ॥ करटिगोष्ठ । इत्यत्र "पशुभ्यः" [१३३] इत्यादिना गोष्ठः ॥ सन्मयगोयुग । इत्यत्र "द्वित्वे गोयुगः" [१३४] इति गोयुगः ॥ तुरगषगव । इत्यत्र "पेट्त्वे षड्गवः" [१३५] इति षड्गवः ॥ द्रुतविलम्बितं छन्दः ॥ ढक्कानकशङ्खजोथ धीरैस्तिलतैलेङ्गुदतैलवयवेचि । रणकर्मठभैमिवीर्यशंसी स दिवा तारकितावच्च भीदः॥४०॥ ४०. स्पष्टम् । किं तु धीरैर्निर्भयभटैर्यवेचि । अयं ढक्काजोयं चौ१बी वेत्ति । र. २ ए मणि भीमवी. १एबी किनात्. २ सी ना नः । वि. ३ बी किनस्य. ४ ए 'लैट्सै'. ५ ए णाक्षुभितैः सर्वि' ६ ए भिर'. ७ बी पटोश्चा. ८ सी छे. त्यत्र पशुभ्यः. ५ ए °षु नि. १० ए घड़ेपु. ११ ए घड़े ष. १२ ए वः । दु. १३ ए चातजो. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.७.१.१४०.] अष्टादशः सर्गः। ४४५ नकजोयं च शङ्खजो निनाद इत्यक्षुब्धचित्तत्वेन पृथग्निर्णीतः । दिवा तारकितावद् दिने संजाततारका द्यौर्महारिष्टसूचकत्वाद्यथा भीदा स्यादेवं भीदः । औपच्छन्दसकम् ॥ सोश्रावि त्रासाद्वेगितैाग्यवौघा___ल्लू(ल्लूत्वाप्युज्झद्भिगर्भिताबजमात्रान् । गर्भः संजातोस्याः प्रियाया हि योसौ मा च्योष्टेत्यातॆर्जाङ्गलैः कर्मकृद्भिः॥४१॥ ४१. जाङ्गलैः कर्मकृद्भिः स निनादत्रासादेश्रावि । कीदृशैः सद्भिः। अस्याः प्रियाया भार्याजातेर्यो गर्भो गर्भजातिः संजातोसौ मा च्योष्टैतद्रौद्रस्वरश्रवणोत्थभयातिरेकेण माधः पतदिति हेतोरातः सखेदैस्तथा वेगितैर्भयात्संजातवेगैरत एव यवौघालू(ल्लूँ )त्वापि द्रागुज्झद्भिः । किंभूतान् । अपि गर्भितान्संजातगर्भान्फलितानित्यर्थः । तथा रजस्तिर्यक्प्रमाणमेषां रज्जुमात्रास्तान् ।। तिलतैलेमुदतैल । इत्यत्र “तिल." [१३६] इत्यादिना तैलः ॥ कर्मठ । इत्यत्र "तत्र." [१३७] इत्यादिना ठः ॥ तारकित । वेगितैः । अत्र "तदस्य." [१३८] इत्यादिना इतः ॥ गर्भितान् यवौघान् । इत्यत्र "गर्भादप्राणिनि" [ १३९] इतीतः ॥ अप्राणिनीति किम् । गर्भः संजातोस्याः प्रियायाः ॥ रजुमात्रान् । इत्यत्र "प्रमाणान्मात्रद"[१४०] इति मात्रद ॥ वैश्वदेवी छन्दै॥ १ सी घालवाप्यु. २ ए सी गर्भ सं. १ ए दिनं सं°. सी दिनसं. २ ए °वं मेदः. ३ बी म् । सौस्रावि'. ४ ए निनद'. ५ ए दस्रावि. ६ ए मौ मोच्योष्टौत'. बी सी सौ सौ मा. ७ बी वैद्रौद्र'. ८ सी पतदि. ९ ए वौघल्ल. १० ए ताराकि. ११ बी इतः. १२ बीन्दः । पोसखीमि'. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पौरुषीमिव विलङ्घय हास्तिनी हस्तिमात्रदृषदं नदीमथ । आगतोस्य कथितथुलुक्यरावन्दिभिः पुरुषमात्रफालदैः ॥ ४२ ॥ ४२. अथास्यान्नस्य चुलुक्यराडागतो बन्दिभिः कथितः । किं कृत्वा । नदी पौरुषीमिव पुरुपं ऊर्ध्वमानं यस्यास्तामिवं स्नाद्या(गाधा?)मिव विलक्ष्योल्लङ्ग्य । किंभूताम् । हस्त्यूर्ध्वमानं यस्यास्तां हास्तिनीमनाद्या (गाधा?)मपीत्यर्थः । तथा हंस्तिमात्रा दृषदः शिला यस्यां तां महाशिलाभिर्दुलझ्यामपीत्यर्थः । यद्येवं तर्हि कथं व्यलङ्घतेत्याह । यतः पुरुपमात्रफालदैः शीघ्रं जिगमिषया पुरुषप्रमाणान्फालान्ददद्भिः ।। हास्तिनीम् हस्तिमात्र । पौरुषीम् पुरुषमात्र । इत्यत्र "हस्ति०" [१४१] इत्यादिना वाण ॥ रथोद्धता छन्दः ॥ दोष्णेभहस्तद्वयसेन तालदनं दधद्धस्तफलं च कुन्तम् । आनः पदन्यासविदीर्णहस्तमात्रावनि गमथारुरोह ॥४३॥ ४३. स्पष्टम् । किं त्विभहस्तद्वयसेन हस्तिशुण्डाप्रमाणेन । तालदघ्नं तालवृक्षप्रमाणमतिप्रलम्वमित्यर्थः । हस्तफलं हस्तप्रमाणाग्रभागकं च । पदन्यासविदीर्णहस्तमात्रावनिः । अनेनास्यातिबलिष्ठत्वोक्तिरशकुनस्तथा च ॥ इन्द्रवज्रा छन्दः ॥ १४ १ सी हस्तमा. २ ए दृष्चिन्नदी. ३ सी तोथक'. ४ सी दोपेभ. १ सी थान्न. २ वी पमूदमा'. ३ ए व स्तांद्यामि'. सी व वि. ४ बी स्लायाम. ५ सी हस्तमात्र्यो दृ. ६ बी मात्र्यो दृ. ७बी थं विल'. सी धं विलंध्यते'. ८ ए 'अन्तेत्या . ९ ए णान्फलान्दद्भिः. बीणान्फला. १० ए "म् हास्ति. ११ सी स्पष्टः । किं. १२ बी स्तिसुण्डा. १३ ए लिष्ठः। त्वो. १४ बी स्तवा च. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ हि ०७.१.१४४.] अष्टादशः सर्गः। राजानोस्येभैः शतमात्रैः शतयोधै___ रग्रेभूवन्द्राग्विवितस्त्यूर्जितकुम्भैः। वाणांश्चास्यपछतमात्रात्तधनुष्का स्त्रिंशन्मात्रान्विंशतिमात्रान्दशमात्रान् ॥४४॥ ४४. अस्यानस्याग्रे द्राग्राजानोभूवन् । कैः सह । इभैर्गजैः । किंभूतैः । शतमात्रैः शतप्रमाणैस्तथा शताः शतप्रमाणा योधा येपु तैरनेकयोधशतान्वितैस्तथा द्वे वितस्ती मानमेषां द्विवितस्ती(स्ति?) मानमेपां स्यादिति वा द्विवितस्तयो वितस्तिद्वयमात्रमुच्छ्रिताः परिमण्डला वेत्यर्थः। ऊर्जिता बलिष्ठाः कुम्भाः कुम्भस्थलानि येषां तैस्तथास्याग्रे वर्तमानाः पैट्छतानि मानमेषां स्यात्पैट्छतमात्रा य आत्तधनुष्का धनुर्धरास्ते च बाणानास्यंश्चिक्षिपुः । कतिसंख्यान् । त्रिंशद्विंशतिश्च दश च मानमेषां स्यात्तांस्तथा ॥ तालदनम् । इभहस्तद्वयसेन । हस्तमात्र । इत्यत्र “वोवं." [१४२] इत्या. दिना वा दनदयसटौ ॥ पक्षे मात्रद ॥ हस्तफलम् । अत्र "मानाद्" [१४३] इत्यादिना प्रस्तुतस्य मात्रडादेर्लुप् ॥ केचित्तु मानमात्रान्मात्रटं तस्यासंशये लुब्विकल्पं चेच्छन्ति । शतयोधैः । शतमात्रैः ॥ द्विवितस्ति । इत्यत्र "द्विगोः संशये च" [१४४] इति मात्रडादेर्लुप् ॥ अन्ये तु रूढप्रमाणान्तादेव द्विगोरिच्छन्ति । तन्मते पट्शतमात्र इत्यत्र मात्रटो न हुँ ॥ १ बी वितिस्फूजि. २ एतस्यूजि'. ३ थी श्वास्यान्षट्कत . ४ ए°नुष्वास्त्रिं. १ सीतप्र. २ ए सी पां स्या. ३ बी पट्शता. ४ बी षट् शत. ५सी स्यात्तथा. ६ बी सी यशटौ. ७सी तमा. ८ बी त्रैः । द्वयिस्ति. ९ ए °न्ति । दश्या.. १० सी पू । त्रि. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ब्याचमहाकाव्ये [कुमारपालः] दशमात्रान् । त्रिंशन्मात्रान् । विंशतिमात्रान् । अत्र “स(श)." [१४६] इत्यादिना डिनोपवादो मात्रट् ॥ मत्तमयूरं छन्दः ॥ दश्याननो विंशिभुजो नु राक्षसो जेतुं त्रयस्त्रिंशिन उद्यतः सुरान् । आनोप्यधिज्यं रभसौद्धनुर्व्यधादियत्कियन्मेरिबलं त्रुवन्निति ४५ ४५. आनोपि रभसाद्युद्धातिरसेन धनुरधिज्यं व्यधात् । देशीनि दशसंख्यान्याननानि यस्य तथा विशिनो विंशतिपरिमाणा भुजा यस्य स विशिभुजो राक्षसो रावणो यथा रभसादधिज्यं धनुर्व्यधात् । कीडक्सन् । त्रयस्त्रिंशन्मानमेषां त्रयस्त्रिंशिनः सुरान् ध्रुव १ धर २ सोम ३ विष्णु ४ अनिल ५ अनल ६ प्रत्यूष ७ प्रभासा ८ ख्यानष्टौ वसून प्रागुक्तनामकानेकादश रुद्रान् द्वादशाश्व नासत्यौ च ३३ जेतुमुद्यतः । शिष्टं स्पष्टम् ।। दशि । त्रयस्त्रिंशिनः । विशि । इत्यत्र "डिन्" [१४७] इति डिन् ॥ इयत् । कियत् । इत्यत्र "इदं." [१४८ ] इत्यादिनातुरिदंकिमोरिरिकयौ च ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ आस्सन्यावन्तोरिवीरा यतीचूंस्तान्तोमी गूर्जरास्तत्यपि द्राक् । एतावन्तः कत्यहो सप्ततैय्यामब्धीनां नः सैन्य इत्यालपन्तः ४६ ४६. पूर्वार्धं स्पष्टम् । किंभूता द्वयेपि । अहो इत्यक्षान्तौ । नोस्माकं सैन्य एतावन्त एतत्संख्या अरयः कति कियन्तो न कियन्तोपीत्यर्थः । यतः । किंभूते सैन्ये । अधीनां सप्तावयवा यस्याः संहतेस्तस्यां सप्ततैय्यामसंख्यत्वेनाधिसप्तकतुल्य इत्यर्थः ॥ १एन् । अन्नो'. २ वी साधनु'. ३ ए बी 'ति । अन्नो'. ४ बी रिवारा. ५ ए सी तीस्ता'. ६ बीवतोमी. ७ ए एतव. ८ बी तव्यामष्टीनां. ९ बी सैन्यं ई. १ सी °न् । दशमात्रान् । अं. २ बी सायुद्धा. ३ बी दशानि. ४ सी 'स्य सः त°. ५ बी धधर. ६ बी नामाने'. ७ सी त्यौ जे'. ८ बी एतासंख्या. ९ए वा तय. सी वास्या संसते'. १०बी तव्यामसंख्यना. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है• ७.१.१५२.] अष्टादशः सर्गः । ४४९ यावन्तः । तावन्तः । एतावन्तः । भत्र "यत्तद्" [१४९] इत्यादिना डा. वादिरतुः ॥ यति । तति । कति । इत्यत्र “यत्तद्" [१५०] इत्यादिना डेतिः ॥ सप्ततरयाम् । अत्र "अवयवात्तयट" [१५१] इति तयद ॥ शालिनी छन्दः ॥ द्वितयं द्वयेन त्रितयं त्रयेण युयुधे भटानामभिलाषुकाणाम् । द्विमयं स्वजीवं यशसः परस्य द्विमयं स्वजीवस्य यशस्तु नैव ॥४७॥ ४७. पूर्वार्धं स्पष्टम् । कीदृशानां भटानाम् । परस्य शत्रुसंबन्धिनो यशसो द्वौ गुणौ केयावस्य स्वजीवस्य तद्विसयं स्वजीवं स्वजीवितव्य. मभिलाषुकाणामिच्छतां तथा स्वजीवस्य संबन्धिनौ द्वौ गुणौ मूल्यमस्य यशसः क्रयस्य तत्परस्य शत्रोः संबन्धि यशस्तु नैवाभिलाषुकाणाम् । स्वकीयानामल्पविनाशेन परेषां च द्विगुणं विनाशेन यत्स्वस्य द्विगुणं यशः स्यात्तदिच्छतां यत्तु स्वकीयानां द्विगुणं विनाशे परेषां चाल्पविनाशे स्वस्यैकगुणं यशः स्यात्तन्नेच्छतां चेत्यर्थः॥केकिरवं छन्दः॥ द्विमयं तनोर्मूल्यमधीश वित्तं भवतात्तमित्यालपतो भटौ । सुभटे शिरश्छिन्दति तस्स रायो द्विमयं वपुः क्रेयममस्त भर्ता ॥४८॥ ४८. भर्ता सुभटस्वामी तस्यारिशिरश्छेदकस्य स्वसुभटस्य वपुरमस्ताज्ञासीत् । कीदृशम् । द्वौ गुणावस्य शेयभूतस्य वपुषस्तद् द्विमयं द्विगुणं रायो द्रव्यस्य केयं क्रेतव्यम् । क सति । सुभटे । किंभूते । भटस्यारिवीरस्य शिरश्छिन्दति । यतः। किंभूतस्य । आलपतो वदतः । १ए यं' २ सी °स्य । रा'. १एन्तः २ए डति । स. ३ सी गुणवि. ४ सी यत् स्या'. ५५ °स्य ल'. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] किमित्याह । हे सुभट भवता तनोरङ्गस्य मूल्यं मूल्यभूतमधीशवित्तं स्वामिद्रव्यं द्वौ गुणावस्य मूल्यभूतस्याधीशवित्तस्य द्विमयं द्विगुणमात्रं स्वपराक्रमस्य मानेन द्विगुणं स्वामिद्रव्यं त्वया गृहीतमास्त इत्यर्थः । तस्मात्तस्याधिकस्य द्रव्यस्य कार्य युद्विशेष दर्शयेत्यर्थाद्गम्यत इति । एवं वदतो महारेः शिरश्छेदरूपेणावदातेनातिरञ्जितत्वादेतत्पराक्रमापेक्षया मंयातिस्वल्पमेव दत्तमिति स्वाम्यज्ञासीदित्यर्थः ॥ द्वयेन द्वितयम् । त्रयेण त्रितयम् । अत्र “द्वि." [१५२] इत्यादिना वायद ॥ द्विमयं यशः स्वजीवस्य । द्विमयं स्वजीवं यशसः। द्वितीयार्थव्याख्याने । द्विमयमधीशवित्तं तनोर्मूल्यम् । द्विमयं वयू रायः केयम् । अत्र "द्यादे०" [१५३] इत्यादिना मयट् ॥ एकादशं त्रिंशमथैकविंशं शतं सहस्रं कनकस्य लब्धा । एकादशो रुद्र इवारिमौलि भर्ने ददनिष्क्रयमाप कोपि ॥४९॥ ४९. कोपि भटो निष्क्रयं कनकलाभस्यानृण्यमाप । कीदृक् । कनकस्य शतं सहस्रं च लब्धा लभमानोपि । किंभूतम् । एकादश त्रिंशदेकविंशतिर्वाधिकास्मिञ् शते सहस्रे वा तदेकादशं त्रिंशमथाथ वैकविंशम् । ईदृग्महादानस्यापि निष्क्रयं कथर्मीपेत्याह । यतोरिमौलिं भर्ने ददत् । ईदृशोपि कुत इत्याह । यत एकादशानां पूरण एकादशो रुद्रः पिनाक्याख्यस्तत्तुल्यो महावीर्यत्वात् । रुद्रोपि हि देवत्वापू(त्पू)जार्थ भक्तेभ्यः कनकस्य शतं सहस्रं वा लब्धा स्यात् ॥ १ए रिमैलिर्भत्रं. २ सी पि ॥ किंभू'. १पण वदतो. २ सी क्रमास्य. ३ बी मस्यामा'. ४ ए ये बुदिशे. ५ ए मति'. ६ ए यधी'. ७ सीम् । कीदृ'. ८ सी °माप्येत्या . ९बी सी नाकाख्य. १० ए क्यास्त. ११ सी पि देवतापू. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ [ है. ७.१.१५७.] अष्टादशः सर्गः। एकविंशम् । त्रिंशम् । एकादशं शतं सहस्रं वा । इत्यत्र "अधिकं." [१५४] इत्यादिना डः ॥ एकादशः । अत्र "संख्या०" [१५५] इत्यादिना डट् ॥ उपजातिः ॥ त्रिंश्यस्य विंशतितमस्य युदेकविंशी त्रिंशत्तमस्य च सहस्रतमस्य चास्य । अर्वाक्तिथेः शततमीयमु मासतस्या(म्या) भāति केपि कथिता द्विगुणीबभूवुः ॥५०॥ ५०. केपि भटा द्विगुणीबभूवुर्हर्षेणोच्छसिताः । यतो भा कथिताः प्रशंसिताः । कथमित्याह । विंशतितमस्य विशतेर्भटानां पूरणस्य विंशतिभटस्वामिन इत्यर्थः । अस्य प्रत्यक्षस्य महाभटस्येयं प्रत्यक्षा युद्रणं त्रिंशी त्रिंशतो युधां पूरणी । तथा त्रिंशत्तमस्य त्रिंशतो भटानां पूरणस्यास्य च महाभटस्येयं युदेकविंश्येकविंशतेयुधां पूरणी । तथा उ अहो सहस्रतमस्य सहस्रस्य भटानां पूरणस्यास्य च भटराजस्य मासतम्या मासपूरण्यास्तिथेराग्मासमध्य इत्यर्थः । इयं युच्छततमीति ॥ वसन्ततिलका ॥ संवत्सरतम्यर्धमासतम्योस्तिथ्योरिव पर्वाहवं विजानन् । युयुधेशीतितमान्दकोपि कश्चित्तष्टितमाब्दमहेभवन्महौजाः॥५१॥ ५१. कश्चिद्भूटोशीतितमोशीतेः पूरणोब्दो वर्ष यस्य स तथाति. वृद्धोपे युयुधे । किंवत् । षष्टितमः षष्टेः पूरणोब्दो वर्ष यस्य सोतितरुण इत्यर्थः । स चासौ महेभश्च तद्वत् । यतः कीदृक् । संवत्सरस्य १ बी ति कोपि. २ सी चुः ॥ हर्षे'. ३ बी स्तिथोरि . ४ सी मा. न्दिको'. ५ ए हौजः । क. १ए 'नाउः । उ. २ सी शति.' ३ सी था उ अहो. ४ ए विशेषु'. ५ वी हसत. ६ सी नभ'. ७ सी "स्य में. ८ बीतस्या मा. ९५ गोशब्दो. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] पूरणी संवत्सरतम्यक्षयतृतीयादिस्तथार्धमासस्य पूरण्यर्धमासतम्यमावास्या पूर्णिमा वा । द्वन्द्वे तयोस्तिथ्योर्यत्पर्व हर्षक्रियारूप उत्सवस्तैदिवाहवं विजानन् । ईदृशोपि कुत इत्याह । यतो महौजाः शौर्यातिरेके. णोत्सवमिव रणं प्राप्यापि हृष्यन्नित्यर्थः ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका छन्दः ॥ एकपष्ट इव कोपि कौरवः कोपि पञ्चम इवाथ पाण्डवः । युन्मुदं बहुतिथादिनांदवापैकषष्टितमहायनोपि हि ॥५२॥ ५२. कोपि भटो हि स्फुटमेकषष्टितमहायनोप्येकषष्टिपूरैणवर्षोपि कथमप्येकषष्टिवर्षमध्ये युद्धाप्राप्त्या बहुतिथादहूनां दिनानां पूरणादिनाचिरकालादित्यर्थः । युन्मुदं रणहर्षमवाप । यथैकपष्ट एकषष्टेः पूरणः कौरवः सेनान्याख्यो बहुतियादिनायुन्मुदमवाप । अथ तथा यथा पञ्चमः पाण्डवः सहदेवो बहुतिथाहिनाद्युन्मुदमवापैवं कोप्यपरोपि भटः । किल सेनानीः सहदेवश्च कुरुपाण्डवयुद्धे युन्मुदमवापतुस्तच्च युद्धं पाण्डवानां कुरूणां च सर्वेषामपि षष्टितमवर्षानन्तरमेव मिथो बभूवेति भारतम् ॥ रथोद्धता ॥ गणतिथैरिह संघतिथा भटैरमरपूगतिथत्वमयुर्हताः । विरहितेयतिथैः कतिथैश्चमूरिति न किंचिदबुध्यत तत्र तु ॥५३॥ ., ५३. इह रणे संघतिथाः संघानां बहूनां पूरणा भी अयुः प्रापुः । किम् । अमरपूगतिथत्वं पूगानां वहूनां पूरणः पूगतिथोमराणां पूगति १ ए सी पि कोर'. २ बी 'नादिवा'. ३ ए 'तितथा. ४ ए र्हतः । वि'. १ए °स्तद्दिवा'. २ बी प्यातिह'. ३ सी रणो व. ४ बी युद्धप्रा. ५ बी तिथ्या, ६ ए थाबहू. ७ ए सी णादिना'. ८ सी न्याख्ये ब. ९ सी था ५. १० सी तिम. ११ ए रुवपा. १२ ए देन्मु. १३ बी 'त. १४ बीटा आयुः. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.१५९.] अष्टादशः सर्गः। ४५३ थोमरपूगतिथस्तैद्भावं देवत्वमित्यर्थः । कीदृशाः सन्तः । गणतिथैर्गणानां बहूनां पूरणैर्भटैर्हताः । तत्र तु रणे कतिथैः कतीनां पूरणैर्भटैश्वमूर्विरहितेति प्रश्ने । इयतिथैरियतां पूरणैर्विरहितेतीदं न किंचिदबुध्यत सैन्यानामतिबहुत्वान्न किमपि ज्ञातम् ॥ द्रुतविलम्बितम् ।। बलकतिपयथः कोपि दोर्द्वितीयस्तूणतृतीयः सद्धनुश्चतुर्थः । षष्ठं तुर्य विद्विषं नृपस्य मंश्चक्रे भात्मनस्तुरीयः ॥ ५४ ॥ ५४. कोपि भटो भर्चा नृपेणात्मनस्तुरीयश्चतुर्थश्चक्रेतिमान्यत्वादास्मनश्चतुर्थस्थाने कृत इत्यर्थः । यतो नृपस्यारिभूपस्य तुर्य षष्ठं च चतुर्थस्थानीयं षष्ठस्थानीयं च विद्विषं नन् । कीदृक्सन् । दोषौ बाहू द्वितीयौ यस्य सः । तथात्मभुजापेक्षया तूणौ तृतीयौ यस्य सः । तथात्मभुजतूणापेक्षया सद्धनुश्चतुर्थं यस्य सः । तात्पर्येणैकाकीत्यर्थः । एकाकी चेत्कथमसौ तादृशौ द्विषावहन्नित्याह । यतो बलकतिपयथो बलेन कतिपयानां स्तोकानां पूरणो बलेन कियन्तोपि तादृशा इत्यर्थः ॥ विंशतितमस्य । एकविंशी । त्रिंशत्तमस्य । त्रिंशी । इत्यत्र "विंशति." [१५६] आदिना वा तमद ॥ शततमी । सहस्रतमस्य । मासतम्याः । अर्धमासतम्योः। संवत्सरतमी । इत्यत्र "शतादि०" [१५७] इत्यादिना तमट् ॥ पष्टितम । अशीतितम । इत्यत्र “षष्टयादेर०" [१५८] इत्यादिना तमद ॥ असंख्यादेरिति किम् । एकषष्टितम । एकपष्टः ॥ पञ्चमः । अत्र “नो मद" [१५९] इति मद ॥ १ सीस्तद्भवं. २ए दं ना किं. ३ सी म्बि । ब. ४ बी धक. ५ सी 'यं च. ६ बी बाहौ दि. ७ सी त्मनो भु. ८ बी त्रिंशतीत्य', ९ बी हश्रत. १० सी तमः । ए'. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] बहुतियात् । गणतिथैः । पूगतिथत्वम्]ि । संघतिथाः। इत्यत्र "पित्तिथद" [१६०] इत्यादिना पित्तिथट् ॥ इयतिथैः । अत्र "अतोरिथद" [१६१] इतीथद ॥ पष्ठम् । कतिथैः । कतिपयथः। अत्र "पदकति०" [१६२] इत्यादिना थद ॥ चतुर्थः । अत्र "चतुरः" [१६३] इति थट् ॥ तुर्यम् । तुरीयः । अत्र “येयौ चलुक्च" [१६४] इति येयौ चस्य लुक्च ॥ द्वितीयः । अत्र "द्वेस्तीयः" [१६५] इति तीयः ॥ तृतीयः । इत्यत्र "त्रेस्तृ च" [१६६] इति तीयोश्च तृ ॥ औपच्छन्दसका. परान्तिका ॥ कीर्त्या पूर्वी संदृष्टपूर्व्यद्य चाहं साध्विष्ट्याम्नाती युद्धयज्ञेसि वीर । इत्युक्त्या कोप्यामोदयद्धातमूढं द्राक्छg यद्वच्छाद्धिकं श्राद्धिभक्तः ॥५५॥ ५५. कोपि भटो घातमूढं शत्रु द्रागामोदयदाहादयत् । कया । उत्तया प्रशंसावचनेन । कथमित्याह । हे वीरासि त्वं युद्धमेव स्वर्गहे. तुत्वाद्यज्ञस्तत्र विषय आम्नातमभ्यस्तमनेनाम्नाती निपुणोसीयर्थः । अत एव साधु सुभटोचितं यथा स्यादेवं युद्धयज्ञ इष्टमनेकारिभटाहुतिभिर्यजनं येन स इष्ट्यसि । अत एव चाहं त्वां की| कृत्वा पूर्व दृष्टोनेन पूर्व्यतिविक्रान्तं त्वां पूर्व श्रुतवानस्मीत्यर्थः । अद्य चाधुना त्वहं त्वां संदृष्टपूर्वी युद्धेन सम्यक्साक्षात्कारेण त्वां विक्रान्तं दृष्टवानित्यर्थ इति । यद्वद्यथा आद्धिभक्तः श्राद्धं पितृदैवत्यं कर्म । उपचारात्त १ ए पूर्वद्य. २ सी श्राद्ध'. १बी तिथिट्. २ ए सी त्तिथिट. ३ ए श्च तुः । औं'. ४५त्य. पोऽस्यथ सा. ५ बी युद्धं य. ६ सी आदर्भ. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.१७..] अष्टादशः सर्गः। ४५५ दुपकरणमोदनाद्यपि श्राद्धं तद्भुक्तमद्यानेन श्राद्धी द्विजस्तत्र भक्तो यजमानः श्राद्धिकं श्राद्धे भुक्तं द्विजमामोदयति । कया। हे द्विजासि यज्ञे साध्वानातीष्टी चात एवाहं त्वां कीर्त्या पूर्व्यद्य च संदृष्टपूर्वीत्युक्त्या ॥ पूर्वी ॥ सादेः। संदृष्टपूर्वी । इत्यत्र "पूर्वम्" [१६७] इत्यादिनेन् । इष्टी । आम्नाती । इत्यत्र “इष्टादेः" [१६८] इतीम् ॥ श्राद्धिकम् । श्रादि[-] । इत्यत्र "श्राद्धमद्य०" [१६९ ] इत्यादिनेकेनौ । वैश्वदेवी छन्दः ॥ अभूद्विषोन्योनुपदीति संगृणंस्त्वां चेन्नदाण्डाजिनिकाय हन्म्यहम्। गृह्येय दण्डाजिनिकौघपार्श्वकाय शूलिकक्षेत्रियपातकैस्तदा ॥५६॥ ५६. अन्यो भटो द्विषोरेरनुपद्यनुपदं पदस्य पश्चात्पदस्य समीपं वान्वेष्टाभून्नश्यतो द्विषः पृष्ठे लग्न इत्यर्थः। कीडक्सन् । संग्णन्प्रतिजानानः । किमित्याह । रे दाण्डाजिनिक दण्डाजिनं दम्भस्तेनान्वेष्टश्छलप्रहारित्वादाम्भिक चेत्त्वामद्य न हन्मि तदाहं गृह्येयं गृहीतः स्याम् । कैः । दण्डाजिनिकौघो दाम्भिकसमूहस्तथा पार्वमनृजुरुपायो लञ्चादिस्तेनान्वेष्टा पाश्र्वकस्तथायःशूलसाम्यादयःशूलं तीक्ष्णोपायस्तेनान्वेष्टा आयःशूलिकोयःशूलिको वा राभसिकस्तथान्यस्मिन्क्षेत्रे नाश्यः क्षेत्रियः पारदारिकः । स हि स्वक्षेत्रादन्यस्मिन्क्षेत्रे परदारेषु वर्तमानस्तत्र नाश्यो निग्राह्यः स्याद्वन्द्वे एषां महापापिष्ठानां यानि पातकानि पापानि तैः । एतत्पापानि मम स्युरित्यर्थ इति ॥ १सी अत्र द्विषो. १५ द्धे भक्तं. २ बी संसष्ट'. ३ ए पूर्वीम्. ४ ए इष्टयादेः. ५ सी गृहण'. ६ ए ह्येयं गृहीत स्या. ७ सी गृहीयाम् । के द. ८ बी सी 'नान्विष्टा. ९ सी पाश्विक. १. बी 'नान्विष्टा. ११ ए सी को वा. १२ ए स ह स्व. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ व्याश्रयमहाकाव्ये अनुपदी । इति "अनुपद्यन्वेष्टा” [ १७० ] इति निपात्यम् ॥ 3 दाण्डा जिनिक | आयः शूलिक । पार्श्वक । इत्येते "दाण्डाजिनिक ०" [१७१ ] केचिद्दण्डाजिनायः शूलाभ्यामिकमेवाहुस्तन्मते निपात्याः " इत्यादिना दण्डाजिनिक । अयःशूलिकेति ॥ क्षेत्रिय । इत्यत्र " क्षेत्रे ०" [१७२] " इत्यादिनेयः ॥ वंशस्थेन्द्रवंशयोरुपजातिः ॥ द्रांक्ट्रोत्रियैश्छान्दसवंर्जि (जि) तेन्द्रियै र्धनुश्चणः कार्मुकंचुचुनामिलत् । द्विकं द्विकस्याशु तृतीयकं नु तत् स्वस्यास्त्रवेदग्रहणं प्रदर्शयन् ॥ ५७ ॥ [ कुमारपालः ] E ५७. धनुश्चणो धनुषा वित्तो महाधनुर्धरजातिः । कार्मुकै चुञ्चुना कार्मुकेण वित्तेन सह द्रागमिलत् । कीदृक्सन् । द्विकस्य द्वितीयेन रूपेणास्त्र वेदग्रन्थग्राहकस्य स्वस्यात्मनो यह्निकं द्वितीयमस्त्रवेदग्रहणं धनुर्वेदाभ्यासस्तत्तृतीयकं नु तृतीयमिव प्रदर्शयन् । द्विवारमभ्यस्तधनुर्विद्यो - प्युत्कृष्टधनुःकलाप्रकटनात्रिवारमभ्यस्तधनुर्विद्योहमिति लोकाञ्ज्ञार्पर्यनित्यर्थः । यथा जितेन्द्रियैः श्रोत्रियैर्वेदमधीयानैर्द्विजैः सह छान्दसा वैदिकाः समानगुणत्वेन मिलन्ति ॥ 97 श्रोत्रियैः । अत्र “छन्द०” [ १७३] इत्यादिना इयो वा तत्संनियोगे च छन्दसः श्रोत्रभावः ॥ पक्षेण | छान्देस ॥ २ बी सी 'वर्जिते .. १ सी द्राकुश्रोत्रि. 'स्वशास्त्र'. ५ ए यत् ॥ ध°. ३ बी सी कच ४ सी १ बी म् । दण्डा. २ ए बी 'निक: आ. ३ ए 'लिकः । पा. ४ ए 'निकैः । म. ५ बी सी 'कच. ६ ए केन वि.. ७ एकस्या ८ सी " सस्तृत . ९ वी शद. १० बी 'नुविद्यो ११ बी सी 'धोयमि'. १२ सी "यदित्व'. १३ सी 'यो त. १४ बी न्दसः । ६. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.१.१८१.] अष्टादशः सर्गः 1 इन्द्रियैः । इति "इन्द्रियम्" [१७४] इत्यनेन निपात्यम् ॥ कार्मुकेचुञ्चुना । धनुश्चणः । अत्र " तेन० " [ १७५] इत्यादिना चुचुचणौ ॥ द्विकस्य । इत्यत्र “पूरैणाद् ०" [१७६] इत्यादिना कः पूरणप्रत्ययस्य लुक् च ॥ द्विकं तृतीर्यकमस्त्र वेदग्रहणम् । अत्र " ग्रहणाद्वा" [१७७ ] इति कः पूरणस्य वा लुक् ॥ यत्सस्यका सीन सहन्त वीरा हिरण्यको नो धनकश्च हेतुः । किं त्वदन्तोष्ठक केशकस्वः स्त्री कामनानौदरिको चिताभूत् ॥ ५८ ॥ ५८. सस्यकासीन् सस्यशब्दोत्र गुणवचनः । सस्येन परिजाताः सस्यकाः सर्वतः सारेण संबद्धा येसयस्तान् यद्वीरा असहन्त । अत्र सस्य कासिसहनविषये हिरण्येको हिरण्ये स्वर्णे कामो नो हेतुर्नापि घनकश्च धनाभिलाषश्च हेतुः । किं त्वत्र दन्तौष्ठकाः केशकाश्च दन्तौ - ष्ठस्य केशानां च रचनायां प्रेसक्ता इत्यर्थः । याः स्वः स्त्रियो देव्यस्तासां कामना वाञ्छा हेतुः । किंभूता । अनौदरिकोचितानौदरिका 1 १२ 93 णामुदरे सक्तानां विजिगीपूणामुचिता योग्या ॥ सस्यक । इत्यत्र “सस्याद्०" [ १७८ ] इत्यादिनों कः ॥ धनकः । हिरण्यकः । अत्र “धन० " [१७९] इत्यादिना कः ॥ केशक । इत्यत्र “स्वाङ्गेषु सक्ते" [१८० ] इति कः । बहुवचनात्खाङ्गसमुदायादपि । दन्तौष्ठकं ॥ अनौदरिक । इत्यत्र “उदरे तु० [१८१] इत्यादिनेकन् ॥ उपजातिः ॥ १ दन्तोष्वक'. १ बी इत इ. त्यस्य पू. ५ सी स्व. ९ सी १३ सी रेशक्ता". १७ सीरे इ. π°. ५८ २ बीसी 'कच. रणेत्या. ६ ए यम १० ए दन्तोष्ठ ं. ११ बी सी प्रशक्ता. १४ए ना कध १५ सी षु शक्ते. ४५७ ३ बी सी 'ना चनु. ४ बी सी ७ सी णाद् इ एरणाको. १८ सी ण् ॥ अ. · १२ सी रिका". १६ बी ठकः । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ] अप्युष्णकां तत्रकवत्रखण्डलं वा शीतकः किं लभर्तेशकोपि हि । इत्युंष्णकैर्ब्राह्मणकोद्भवैर्बलेधिकैर्भृशं कीर्त्यनुकैर्विचक्रमे ॥ ५९ ॥ ५९. ब्राह्मणकोद्भवैः सदाचारब्राह्मणेभ्यस्तदानीमेवोद्धृत्य पृथकृतो ब्राह्मणको देशो यत्रायुधजीविनः काण्डस्पृष्टा नाम ब्राह्मणा भवन्ति । आयुधजीवी ब्राह्मण एव ब्राह्मणक इत्यन्ये । तत्रोद्भवैर्भटैर्विचक्रमे विक्रमः कृतः । किंभूतैः । उष्णकैरुष्णं क्षिप्रं कुर्वद्भिर्दक्षैरित्यर्थः । तथा बले सामर्थ्यधिकैरध्यारूढैस्तथा कीर्त्यनुकैः कीर्तिकामयमानैः । कुतो विचक्रमे । इति हेतोः । तमेवाह । हि यस्मादेशं हार्यशकोपि दायादोपि शीतं मन्दं करोति शीतकोलसः सन् किं लभते नैवेत्यर्थः । किमित्याह । उष्णादचिरोद्धृतोष्णिका तामप्यास्तामन्यद्यवागूमपि । यद्वा तत्रात्तन्तुवायोपकरणादचिरोद्धृतं तत्रकं यद्वत्रं तस्य यत्खण्डलं खण्डं तदपीति ॥ ४५८ अंशकः । अत्र “अंश हारिणि " [१८२] इति कः ॥ तन्नक । इत्यत्र “तन्त्राद्०" [१८३] इत्यादिना कः ॥ ब्राह्मणक । इत्यत्र "ब्राह्मणान्नान्नि” [१८४] इति कः ॥ उष्णिकाम् । अत्र “उष्णात् " [१८५] इति कः ॥ शीतकः । उष्णकैः । अत्र “शीताच्च कारिणि " [१८६ ] इति कः ॥ अधिकैः : । अत्र " अधेरारूढे " [१८७ ] इति कः ॥ अनुकैः । अत्र “अनोः कमितरि” [ १८८ ] इति कः ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयो रुपजातिः ॥ १ सी वा सीत. २ ए "त्युष्णुके'. १ ए घोट'. २ सी देशे व.. ३ सी मर्थ्याधि ४ बीस किं. 'णादिचि ६ ए त्रादिना. ७ बी किम्. ५ सी Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.१.१९३.] अष्टादशः सर्गः। ४५९ एषोभिकः शृङ्खलकावती! ममास्तु योद्धा जिनदत्तकान्यः । ममोत्सुकायास्त्वयमाहवोत्को. भीकोस्त्विति व्याहियताप्सरोभिः ॥६० ॥ ६०. अप्सरोभिर्व्याहियतोक्तम् । किमित्याह । एष योद्धा ममाभिको भर्तास्तु। कीदृक् । शृङ्खलं बन्धनमस्य शृङ्खलकः करभस्तस्माद्युद्धार्थमवतीर्ण इति । तथा मम तु मम पुनरुत्सुकाया उत्कण्ठिताया अयमाहवोत्को युद्ध उन्मना योद्धाभीको भर्तास्तु । कीहक् । जिनदत्तकान्यो जिनदत्तो मुख्योस्य जिनदत्तकः संघस्तस्मादन्य इति च । देवीभिर्भटा इत्थं वृता इत्यर्थः ।। ___ अभिकः अभीकः । अत्र "अभेरीश्च वा" [१८९] इति क ईश्चास्य वा ॥ जिनदत्तक । इत्यत्र “सोस्य मुख्यः" [१९०] इति कः ॥ शृङ्खलक । इत्ययं "शृङ्खलकः करभे" [१९१] इति निपात्यः ॥ उत्कः । उत्सुकायाः। अत्र “उँदुत्सोरुन्मनसि" [ १९२] इति कः ॥ उपजातिः ॥ तेजोभिरुष्णकतृतीयककाशपुष्प कान्नु ज्वरानसुहृदां दिशता क्षणेन । कौल्मास्य(ष्य?)थ त्रिपुटिका वेटकिन्यमानि केनापि सिद्धसुरसाक्षिरणस्य लीला ॥ ६१॥ ६१. केनापि भटेन सिद्धा विद्यासिद्धादयः सुराश्च देवाः साक्षिणः कौतुकायातत्वात्साक्षाद्रष्टारो यस्य तद्यद्रणं तस्य लीला केलि १ ए बी वटिकि. १ सी योभी . २ बी ख्योख्य जि. ३ सी श्च श्वा इ. ४ सी सो मु. ५ ए त्यत्र शृ. ६ ए उन्मुका. ७ ए उडुत्सो. ८बी द्यदृणं. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] रमानि ज्ञाता। कीदृशी । हर्षहेतुत्वाकुल्मासास्त्रिपुटाश्च धान्यभेदा वटकानि च प्रायेण प्रायो वान्नान्यस्य पौर्णमास्यां कौल्मासी त्रिपुटिका वा वटकिनी वोत्सवविशेषा इव । कीदृशा सता । तेजोभिः प्रतापैः कृत्वा क्षणेनासुहृदां शत्रूणां ज्वरानिवातिसंतापकत्वाद्दिशता ददता । किंभूतान् । उष्णं फलं कार्यमस्योगकस्तथा तृतीयो दिवसोस्याविर्भावाय तृतीयकस्तथा काशपुष्पं हेतुरस्य काशपुष्पको द्वन्द्वे तान् ।। तृतीयक । काशपुष्पकान् । उष्णक । इत्यत्र “काल." [१९३] इत्यादिना कः॥ त्रिटिका । इत्यत्र "प्रायः" [१९४] इत्यादिना कः ॥ कोल्मासी(पी?) । इत्यत्र “कुल्मासी(षा?)दण्" [१९५] इत्यण् ॥ वटकिनी । इत्यत्र “वटकादिन" [१९६] इतीन् ॥ साक्षि । इत्यत्र “साक्षाद्रष्टा" [१९७] इतीन् ॥ वसन्ततिलका छन्दः ॥ पञ्चविंशः पादः ॥ कुमारिकस्येव जनः कुमारीमान्साधु नौमानिव नाविकस्य । जानन्महारैः पततां रुजं कोप्याज्यब्धिनावी न पुनः प्रजहे ॥६२॥ ६२. आज्यब्धौ रणाम्बुधौ नावी नौमान्दुर्विगाहं रणमवगाहमानः सन्नित्यर्थः । कोपि भटः प्रहारैः पततां भटानां पुनर्न प्रजहे । यतस्तेपां रुजं पीडां क्षत्रियोत्तमत्वात्साधु जानन् । यथा कुमारीमाननेककन्यान्वितो जनः कुमारिकस्यानेककन्यावतो जनस्य विवाहादिचिन्ताकृतां रुजं साधु जानाति । यथा वा नौमाननेकवेडान्वितो जनो नाविकस्यानकवेडावतोनेकवेडासमारंचनादिविषयचिन्ताकृतां रुजं साधु जानाति । उपजातिः ॥ १ बी सी भेदो व. २ सी °नि प्रा'. ३ बी पौर्णिमा . ४ बी 'टि की वा. ५ ए णां जरा'. ६ एणस्त. ७ए यकः । का. ८ एपकीन्. ९ बी पुत्रिका. १० ए सादिण्. ११ बी क्षादृष्टा. १२ ए °दः समाप्तः । कु. .१३ ए सी म्बुधोना. १४ बी न ज. १५ सी था वा नौवाननेकवेडा. १६ सी कबेडा. १७ सी °क बेडा, १८ सी रसना'. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.५. ] ४६१ अष्टादशः सर्गः । कुमारिणः खे वरमालिनोमिल शिखावदत्राशिखिनो नु तेजसा । मालावतोन्वेष्टुममायिनो भटानमायिका नव्यवरान्नभश्वराः ॥ ६३ ॥ ६३. अमायिका अमायिनो नभश्वरा देवाः खेमिलन् । किं क - र्तुम् । नव्यवरान्नवान्वधूटानन्वेष्टुम् । किंभूतान् । शिखावन्ति दीप्तियुक्तान्यस्त्राणि येषां तान्युध्यमानानित्यर्थः । तथा तेजसा कृत्वा शिखिनो न्वीनिव । तथा मालावतः कण्ठस्थपुष्पमालान्वितांस्तथामायिनो मायायुद्धरहितान । किंभूताः सन्तः । कुमारिणः कन्यायुक्ता अत एव वरमालिनो वराय माला वरमालास्तदन्विताः कुमार्यभिरुचितवरकण्ठे क्षेतुं गृहीतवरमालाः । वंशस्थेन्द्रवंशयोरुपजातिः || नाज्ञायेकस्यैकतो गुर्वनीकं मायावद्भिः क्षुण्णमप्यत्र कैश्चित् । ε व्रीहिक्षेत्रं व्रीहिकाणां महीयो यद्वल्लूनं कापि चात्री हिमद्भिः || ६४ || ६४. स्पष्टुम् । किं त्वेकस्य राज्ञ एकत एकस्मिन्प्रदेशे मायावद्भिइछलपरैः कैश्विद्भटैः । अत्र रणे व्रीहिक्षेत्रं त्रीहियुक्तं क्षेत्रमत्रीहिमद्भि ७ हिरहितैश्चौरादिभिः । नाविकस्य । कुमारिकस्य । इत्यत्र "नावादेरिकः " [ ३ ] इतीकः ॥ "आयात्" [२] इति वचनात् " तदस्य ० " [१] इत्यादिना मतुश्च । तेन नौमान् । कुमारीमान् | नौकुमारीभ्यामिनं केचिदाहुः । नावी । कुमारिणः ॥ शिखिनः । शिखावत् । मालिनः । मालावतः ॥ अत्र “शिखादिभ्य इन्” [ ४ ] इतीन् मतुश्च ॥ ब्रीहिकाणाम् । व्रीहि । अव्रीहिमद्भिः । अमायिकाः । अमायिनः । मायावद्भिः । अत्र “व्रीह्यादिभ्यस्तौ ” [५] इतीकेनौ मतुश्च । शालिनी छन्दः ॥ १ सी कान्नव्य'. १ बी 'न्युद्धमा'. ५ ए सी माला । वं · ८ २ या य. २ ए त्यस्तथा. ३ बी 'न्वितात्तथा'. ४ एता: कु. ६ ए 'द्भिस्थल, ७ सी 'हिमद्भिव्रीहिर ८ ए विहि Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ व्याश्रयमहाकाव्ये (कुमारपालः] छत्रिणः कार्यिणो योधिनश्छत्रिकैः कार्यिकैर्भूत्यवद्भिःस्ववद्भिर्भटैः। छत्रवान्माल्यवान्कर्पटी वर्मुनिर्वीरवत्याहवे पश्यति मात्र सः६५ ६५. वीरवति भटान्वितेत्राहवे रणे स रणकौतुकी स्वर्मुनि रदो भटैः सह योधिनोवश्यं युध्यमानान्भटान्पश्यति स्म । कीदृक् । छत्रवांश्छत्रिकान्वितस्तथा माल्यवान्पुष्पमालान्वितस्तथा निन्द्यः कर्पटोस्यास्ति कर्पटी कक्षापटान्वितः । कीदृशान्योधिनः । छत्रिणष्ठकुरत्वेन धृतातपत्रांस्तथा कार्यिणो रणव्यापारवतः । किंभूतैर्भटैः । छत्रिकैस्तथा भृत्यवद्भिस्तथा स्ववद्भिर्दानार्थद्रव्यवद्भिर्जातिमद्भिर्वा तथा कार्यिकैः ॥ श्र(स्रग्विणी छन्दः॥ धनिनः कर्पटिका अपि ह्यभूवनसिनः सत्यरणस्तवेषु सूताः । धनिकाधीनधनैरपीह वीरै रसिकैस्त्यागरणक्रियाखशङ्कः ॥६६॥ ६६. इह रणे सूता भट्टाः कर्पटिका अपि निःस्वत्वेन निन्द्यकर्पटान्विता अपि सत्यरणस्तवेष्ववितथभटयुद्धवर्णनासु रसिनो रसिकाः सन्तो वीरैः कृत्वा धनिन ईश्वरा अभूवन् । यतो धनिकाधीनधनैरप्युत्तमर्णायत्तद्रव्यैरप्यणग्रस्तैरपीत्यर्थः । परं त्यागरणक्रियासु दानप्रधानेपु रणकर्मसु रसिकैः साभिलाषैः । एतदपि कुत इत्याह । यतोशकैर्ऋणभयरहितैरकातरैश्चेत्यर्थः ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका ॥ समित्खलिन्यां भुवि कोप्यशै(शी?)र्षिक: प्रत्यर्थिकीर्त्यर्थ्यकरोदशीर्षिणम् । अशीर्पवान्सोपि ननत खड्गभृत् प्रत्यर्थिकैरर्थिकवत्परिष्टतः ॥ ६७ ॥ १ ए त्यद्भिः. २ ए 'कर्षटी. ३ ए प्रथिं . ४ बी रक'. १बी न्वितोत्रा'. २ ए न्योनिधि'. ३ बी पत्रास्त. ४ बी सी छकै. ५ बी तिम. ६ बी पिके। श्री. ७सी कैः । स्वग्वि'. ८ सी भटा क. ९ बी निसत्वे. १० ए अभव'. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.९. ] अष्टादशः सर्गः ः । ४६३ २ 3 ६७. खलाः सन्त्यस्यां खलिनी समितो युद्धस्य खलिनीव समित्खलिनी तस्यां यथा खलिनी धान्यखलाधार एवं संग्रामाधार इत्यर्थः । भुवि रणाङ्गणे कोपि भटोशै (शी ? ) र्षिकः शीर्षरहितोप्यशीर्पिणं शीर्षरहितमकरोदर्थात्प्रत्यर्थिनम् । यतः प्रत्यर्थिकीत्यर्थी शत्रुकीर्ति जिघृक्षुरित्यर्थः । ततश्चाशीर्षवान् शीर्षरहितः सोपि प्रत्यर्थ्यापि खगभृत्सन्ननर्त वीर्यातिशयाद्युद्धाय ववल्ग । अत एव प्रत्यर्थिकैः शत्रुभिरर्थिकैवद्याचकैरिव परिष्टुतः ॥ छत्रिकैः 5: । छत्रिणः । छत्रवान् । इत्यत्र "अतः ०" [६] इत्यादिना इकेनौ मतुश्च ॥ अनेकस्वरादिति किम् । स्ववद्भिः ॥ अभिधानार्थ स्पेतिकरणस्यानुवृत्तेः कृदन्तान्न भवतः। भृत्यवद्भिः ॥ क्वचिद्भवतः । कार्यिकैः । कार्यिणः ॥ जातिशब्देभ्यो न भवतः । माल्यवान् । क्वचिद्भवतः । का ( क ) पेटिकाः । कर्पटी ॥ धनादुत्तमर्णे भवतः । धनिकः ( क ) । धनिनः ॥ सप्तम्यर्थे च न भवतः । वीरवत्याहवे ॥ क्वचिद्भवतः । खलिन्याम् ॥ रसरूपगन्धस्पर्शशब्दस्नेहेभ्यो गुणवाचिभ्यो न भवतः ॥ क्वचिद्भवतः । रसिकैः । रसिनः ॥ 9 १० 1 अशीर्षिकः । अशीर्षिणम् | अशीर्षवान् । इत्यत्र "अशिरसोशीर्षश्व" [ ७ 'इतीकेनौ मतुश्चाशिरसोशीर्षादेशः ॥ अर्थिकवत् । अर्थी । प्रत्यर्थिकैः । प्रत्यर्थि । इत्यत्र “अर्थ०” [ ८ ] इत्यादिना - इकेनौ ॥ वंशस्थेन्द्रवंशयोरुपजातिः ॥ अतुन्दिलः क्वापि च तुन्दवन्तमतुन्दिकं कापि जिगाय तुन्दी | अशालिलं शाल्यथ शालिमन्तमशालिकः स्थानिवशेन यद्वत् ॥ ६८ ॥ १एपि शा° २ सी स्थानव. ३ सीत् । कोपि. १ सी 'नी तस्यां खलिनी यथा धा. २ एनी धन्य ३ ए सी कीर्त्ति जि. ४ सी एवा प्र. ५ ए कविद्या". ६ सी रस्या". ७ सी कार्यकैः . ८ प काः । कार्पटीः । ध. ९ बी 'र्षिणाम्. १० ए शीपिवा. ११ एवं शोरु. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कुमार ४६४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ६८. कापि च रणप्रदेशेतुन्दिलोस्थूलोदरस्तुन्दवन्तं जिगाय। कापि च तुन्द्यतुन्दिकं जिगाय । यथा स्थानं ग्रामादिस्तदस्यास्ति स्थानी प्रामठक्कुरादिस्तद्वशेनाशालिलं शालिरहितं दरिद्रं शालीश्वरो जयति । अाथ वा यद्वदशालिको दरिद्रोपि शालिमन्तमिति ।। उपेन्द्रवज्रा ॥ पङ्किलत्रीहिलक्षेत्रवान्महीं शोणितैः पङ्किनी पङ्कवन्मूर्तयः। पङ्किकक्ष्मातलस्रंसिनः पादिलान्संत्यजन्तो मयांश्चक्रमुः पत्तयः ६९ ६९. पङ्कवती श्रमोत्थस्वेदसैन्यरजःसंपर्केण कर्दमवती मूर्तियेषां ते तथा पत्तयः स्फारका युन्महीं रणोर्वी चक्रेमुर्गताः । किंभूताम् । शोणितैः पङ्किनीमत एव पङ्किलब्रीहिलक्षेत्रवत्पङ्कयुक्तंब्रीहियुक्तक्षेत्रतुल्याम् । किंभूताः सन्तः । मयानुष्ट्रभेदान्संत्यजन्तः। किंभूतान । पङ्किकं शोणितकर्दमयुक्तं यक्ष्मातलं तत्र संसिनः स्खलनेनाधःपातुकान् । एतदपि कुत इत्याह । यतोतिवृद्धा महान्तः पादाः सन्त्येषां पादिलास्तान् ॥ स्रग्विणी ॥ यथैव शृङ्गारकपादिभिाग्मृगैर्मृगाः पादिकशृङ्गवन्तः । वृन्दारकैस्तद्वदन्दवन्तो भटैर्भटा युद्धकृतोत्र दृष्टाः ॥ ७० ॥ ७०. तद्वत्तथा वृन्दारकैः समूहवद्भिर्भटैः सहावृन्दवन्त एकौकिनो भटा युद्धकृतो युध्यमाना अत्र रणे दृष्टाः । यथैव शृङ्गारकपादिभिः शृङ्गवद्भिर्विवृद्धपादवद्भिश्च मृगैरारण्यपशुभिः सह पादिकशृङ्गवन्तो मृगा युध्यमाना दृश्यन्ते ॥ १ए किनी प. २ बी क्रतुः प. १ बी शेन शालिनं शालिर'. २ सी लिर'. ३ सी रो गाय. ४ ए थावथाय'. ५ बी कतुर्ग'. ६ बी क्षेव. ७ सीक्तक्षे. ८ सी तुल्याः । किं. ९ए °लान्. १० सी 'कादिनो भट यु. ११ ए युद्धमा . १२ सी 'गारिक. १३ ए दिभिशृंगारव'. १४ सी भिः शृंगारव. १५ बी सी द्भिवृद्ध'. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.१३.] अष्टादश: ४६५ व्रीह्येर्थ । अशालिंलम् । अशालिकः । शाली । शालिमन्तम् ॥ तुन्दादि । अतुन्दिलः | अतुन्दिकम् । तुन्दी । तुन्दवन्तम् ॥ पङ्किल । पङ्किक । पङ्किनीम् । पङ्कवत् । इत्यत्र “व्रीह्यर्थ ० " [९] इत्यादिना इलः । चकारादिकेनौ । “आयात्" [२] इति मतुश्च ॥ व्रीहिशब्दोपि व्रीह्यर्थो भवति । किं तु तस्य पूर्वत्रोपादानादिलो न स्यात् । भावे हि तत्रोपादानंमनर्थकं स्यात् ॥ भवतीत्येके । व्रीहिल ॥ सर्गः ः । Ε पादिलान् । पादिक । पादिभिः । अत्र “स्वाङ्गाद् ०" [१०] इत्यादिना इल- इक-इनः ॥ वृन्दारकैः । अंवृन्दवन्तः । अत्र "वृन्दादारकः " [ ११ ] इत्यारको मतुश्च ॥ शृङ्गारक । शृङ्गवन्तः । अत्र “शृङ्गात् " [१२] इत्यारको मतुश्च ॥ उपजातिः ॥ फलिनद्रुमद्भर्हवदातपत्रकाः फलवच्छरश्रेणिमुचोपि जाङ्गलाः । अथ गूर्जरैर्वर्हिणवन्महाहयः प्रेत्रभञ्जिरे शृङ्गिणावच्च शाखिनः ७१ ७१. अथ गूर्जरैर्जाङ्गला आन्नभटाः प्रबभञ्जिरे । कीदृशाः । फनिद्रुमन्ति सश्रीकत्वात्सफलदुमा इवाचरन्ति बहुवन्ति मायूरपिच्छयुक्तान्यातपत्राणि येषां तेपि ठकुरा अपि । तथा फलवती प्रशस्यशस्त्राप्रभागान्विता या शरश्रेणिस्तां मुञ्चन्ति ये तेपि यथा बर्हिणैर्मयूरैर्महा' हयो भज्यन्ते । यथ च शृङ्गिणैर्वन महिषैः शाखिनो वृक्षा भज्यन्ते || 1 फलिन । फलेर्वेत् । बर्हिण | 'बैर्हवत् । शृङ्गिण । इत्यत्र “ फल० " [१३] इत्यादिना इनो मतु ॥ सुदन्तं छन्दः ॥ १८ वहिं. २ बी प्रभ १ ए बी ह्यर्थः । अ २ बी 'लिनम्. 37°• ४ए थप भ. ८ बी रकः । शृ. ९ ए ३ ए 'न्दिलं । अ. सी दिल | ५ सी न. ६ सी दिकः । पा. ७ बी अत्रवृन्द . त्वाशफ १० सी 'तान्येव पात्रा'. ११ सी स्य बस्त्रा ं. १२ सी ंथा शृ ं. १३ ए नर्महिषौ शा. १४ ए वतत्.. १५ बी बर्हिव ं. · १६ एश्च । मुद'. १७ सी दतं छ°. ५९ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] मलवद्यशस्कान्मलिनेन कर्मणातिमलीमसांस्तर्जयितानकः स्वकान् । दलितुं मरुत्वानिव पर्वतान्द्विषो युयुधे ततः पर्ववेदस्वभृत्स्वयम् ७२ ७२. यथा मरुत्वानिन्द्रः पर्वास्त्येषां तान्पर्वतानद्रीन्वत्रेण दलय. येवमानको द्विषो दलितुं स्वयं युयुधे । कीदृक्सन् । पर्ववन्ति प्रशस्यप्रन्थिप्रदेशयुक्तानि यान्यस्त्राणि शरास्तभृत्तथा स्वकान्स्वकीयभटांतर्जयिता निर्भर्त्सयन् । यतो मलवद्यशस्कान्मलिनकीर्तीन् । एतदपि कुत इत्याह । यतो मलिनेन कर्मणा रणभङ्गेन निन्द्यकर्मणातिमलीमसान् । मरुत्तवत्तुण्डिभचक्रवर्षी स योधयन् क्रुद्वेलिभालिकोरीन् । ऊर्णायुवद्वा वटिभानवद्वाहंयुस्तदामस्त शुभंयुमानी ॥ ७३ ॥ __७३. स आन्नस्तदारीन्योधयन्युध्यमानान्प्रयुञ्जानोमंस्त । कीह. शान् । ऊर्णायुवद्वा सुखविनाश्यत्वेनोरणकतुल्यान् । वटिभानवा वटिभं वटीव्यजनविशेषान्वितं यदन्नं तत्तुल्यान्वा । कीहक्सन् । शुभंयुमानी शुभंयुं शुभसंयुक्तमनुकूलदैवमात्मानं मन्यमानोत एवाहयुरहंकारवानत एव क्रुधा पलिभं रेखायुक्तमलिकं ललाटं यस्य सोत एव च मरुत्तवद्राजविशेष इव तुण्डिभानि प्रवृद्धनाभिमन्ति चक्राणि चक्रा. स्त्राणि वर्षतीत्येवंशीलो यः सः ॥ मलीमसान् । मलिनेन । मलवत् । इत्यत्र "मलादीमसच" [१४] इतीमसेनौ मतुश्च ॥ मरुत्त। मरुत्वान् । पर्वतान् । पर्ववत् । इत्यत्रे "मरुत्"[१५] इत्यादिना तो मतुश्च ॥ १ बी लयव. २ सी दलयन् म. ३ ए वन्ति प्रशस्य'. ४ ए 'दभिलाभिको.' १ए भस्तय". बी भंय'. २ सीणाति'. ३ ए मणोति'. ४ ए युजानों'. ५ सी श्यकत्वे. ६ए द्वा भटिर्भवटी. ७सी टिभव. ८ बीत्तद्राज. ९ सीमसोनौ. १० सीत् । अम. ११ बी रुत्तान्. १२ सीत्र अम'. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.१८.] अष्टादशः सर्गः । ४६७ वलिभ । वटिभ । तुण्डिभ । इत्यत्र " वलि०" [ १६ ] इत्यादिना भः ॥ ऊर्णायु । अहंयुः । शुभंयु । इत्यत्र “ऊर्णा ०" [१७] इत्यादिना युस ॥ उपजातिः ॥ अशयकं योपि स शन्त्वकन्तुरशंयुकं यूनपि शन्त्यकन्तीन् । स्वकांश्चकारालमकन्तशन्तानश्च (व) कंवान् द्विपतश्च जिष्णुः ७४ I ७४. स आन्नः स्वकान्निजभटान् शं सुखमस्त्येषां शन्तयेः । कमित्ययं कुत्सायाम् । कं कुत्सास्त्येषां कन्तयो न तथाकन्तयो विशेषणकर्मधारये ताञ् शन्त्यकन्तीन्सुखितान् सतेजस्कत्वेनाकुत्सितांश्चालमत्यर्थं चकार । कीदृशान् । अशंयुकंयूनपि द्विड्डिः पराभवात्पूर्वम सुखितनिस्तेजस्कानपि । कीदृक्सन् । अशयकंयोपि स्वसैन्यस्य पराभवादसुखितनिस्तेजस्कोपि जिष्णुः सञ् शन्त्वकन्तुः सुखी सतेजस्कश्च । तथा द्विषतश्चाकन्तशन्ताञ् जितकाशित्वेन प्राक्कान्तान्सु खिनश्च सैतोशंवकंवानसुखिनो निस्तेजस्कांश्चकार ॥ उपेन्द्रवज्रा || वातूलाशम्भान्कांश्चिद स्त्रैरकम्भाचूडालादन्तूलाललार्दूलकांश्च । मूर्छालान्सो स्त्रैर्मक्षिकालान्बलूलो द्विदूपत्तींश्चक्रे सिध्मलान्वा विवर्णान् ॥ ७५ ॥ ७५. स आन्नः कांश्चिद्विपत्तीनखैः कृत्वा चक्रे । किंभूतान् । वातूलाशम्भान्वातग्रस्तवदसुखितान् । तथाकम्भाचूडालादन्तूलाललाटूलकांश्च कांश्चिदकम्भान्मस्तकरहितान् कांश्चिदचूडालान वेणी कान्कांश्चिददन्तूलान्दन्तरहितान् । कांश्चिदलला टूल का ललाटरहितांश्च । तथा कांश्चि 93 १ ए लाहूल.. २ बी कां° सी 'टूलंका'. २ बी 'यः किमि . १ सी षां कंतयो. ३ सी न्यप. ४ सी 'शिशब्देन. ५ ए सन्तोशं'. ६ ए “जस्काश्चत्वका. ७ बी 'लाल'. ८ बी "नवणी'. ९ सी काकुत्सितान्लला १० ए कान्कुत्सितान्लला. ११ ए 'हिताश्व". Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] न्मूmलान्मूर्छावतस्तथा कां श्चिन्मक्षिकालान्मक्षिकावतः परासूनित्यर्थः । तथा कांश्चिसिध्मलान्वा विवर्णान् । वात्रेवार्थे । सिध्मानि त्वक्पुष्पाणि रोगभेद एषां सन्ति सिध्मला यथा त्वचि श्वेतपुष्पैर्विवर्णा विच्छायाः स्युरेवं प्रहारैर्विवर्णाश्च । यतः । कीदृक् । सोझैः कृत्वा बलूलो बलिष्ठः ॥ वैश्वदेवी ॥ फेनिलोदकिलवक्रममूर्छन्पत्तयः पृथुलशस्त्रमुचीह। फेनलोदकलसिन्धुरभूत्तच्छत्रशोणितजलैः पतितैश्च ॥ ७६॥ ७६. इहान्ने पृथुलानि पृथुत्ववन्ति शस्त्राणि मुञ्चति यस्तस्मिन्सति पत्तयोमूर्छन् । कथम् । फेनिलानि फेनवन्त्युदंकिलान्युदकवन्ति वक्राणि यंत्र तद्यथा स्यादेवम् । तथा फेनलोदकलसिन्धुर्डिण्डीरान्वितोदकवती च नद्यभूत् । कैः कृत्वा । तच्छत्रशोणितजलैस्तेषां पत्तीनां छत्रैः श्वेतातपत्रैः शोणितजलैश्च रक्ताम्भःप्रवाहैश्च । किंभूतैः । रणोा पतितैः ॥ स्वागता ॥ प्रज्ञालोस्त्रे प्रज्ञिलेनानकेन स्वांचौलुक्यस्ताप्यमानानथास्त्रैः । शाखीवोच्चैःपर्णिलोपर्णलद्रौ धन्वत्येत्याश्वासयत्तत्र धन्त्री॥७७॥ ७७. स्पष्टम् । किं त्वपर्णला अपर्णवन्तो द्रवो वृक्षा यत्र तस्मिन्धन्वति मरुस्थल उच्चैरुन्नतः पर्णिलः पत्रबहुलः शाखी यथा ताप्यमानाअनानाश्वासयति । तत्र रण एत्य धन्वी धनुर्धरः ॥ 'कंयून् । अशंयु । अकन्तीन् । शन्ति । कंयः । अशेय। अकन्तुः। शन्तु । कन्त । १ सी फेनिलो'. . बी सी दकिल'. ३ बी च्छस्त्रशो. ४ ए "नावके, ५ ए °मानांस्तथा'. ६ए लधो ध'. ७ बी न्वतेत्या. सीन्वतेत्या'. ८ बी सी धन्वा । स्प. १ एसिध्माला . २ ए°च्छायास्यु. ३ सी ति सति. ४ ए दलिकान्यु. ५ ए सी फेनिलो . ६ सी दकिल'. ७ए त पूर्णि'. ८ ए प्यमन्जना'. ९एशंशय. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. .२.२३.) अष्टादशः सर्गः। शन्तान् । कंवान् । अशंव । अकम्भान् (कम्भ)। अशम्भान् । इत्यत्र "केशंभ्यां." [१८] इत्यादिना युस्-ति-यस्-नु-त-व-भाः ॥ बलूलः । वातूल । दन्तूल । ललाटूलकान् । इत्यत्र "बल." [१९] इत्यादिनोलः ॥ चूडाल । इत्यत्र "प्राणि." [२०] इत्यादिना लः ॥ सिंधमलान् । पृथुल । क्षुदजन्तु । मक्षिकालान् ॥ रुगू । मूर्जालान् । इत्यत्र "सिध्मादि०" [२१] इत्यादिना लः ॥ प्रज्ञालः । प्रज्ञिलेन । पर्णल । पर्णिलः । उदकल। उदकिल। फैनल । फेनिल। इत्यत्र "प्रज्ञा०" [२२] इत्यादिना ल-इलौ ॥ शालिनी छन्दः ॥ ऊचेथ जाङ्गलनृपोभिसरन्नकाला लोकालिलं तमिति संप्रहरस्व दोष्मन् । काडालघाटिलजटालतमैरघाटा लाकाडिलैरजटिलैश्च हतैः किमेभिः ॥ ७८ ॥ ७८. अथातिप्रकाशत्वात्क्षेप्या काला पादस्रसाविशेषो यस्य स तथा नाकालालो जाङ्गलनुप आन्नोभिसरन्नभिमुखं गच्छन्सनकालिलं तं चौलुक्यमुवाच । कथमित्याह । हे दोष्मन्सहरस्व युध्यस्व । यत एभिभेटैहतैः किं न किंचित् त्वमेव मे वध्य इत्यर्थः । किंभूतैरेभिः । काडा पादत्रसामेदो घाटा कृकाटिका जटाश्च क्षेप्याः सन्येषां तेतिशयितास्तैः काडालघाटिल जटालतमैस्तथाघोटालाकाडिलैरजटिलैश्च ॥ १ सी काकिलं. २ सी 'टाकालाडि'. ३ ए श्च हितैः. १एन् । स्वागन । अक'. सी °न् । अक. २ ए °तिशव'. ३ ए °लूल । वा. ४ एल। लला. ५ ए सिध्माला'. ६ सीन् । इ. ७ बी मूर्छला. ८ए प्रशिल:. ९ ए फेनिल । फे'. १० बी नल: । फे'. ११ ए दलस्तावि. १२ बी °प अन्नो'. १३ बी प्रहार'.१४ए दस्तसापादो.सी दश्रसा'.१५सी टालका'. १६बी रजिटि. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः कालालः । कालिलम् । जटाल । जटिलैः। घाटोल । घाटिल । अत्र “काला." [२३] इत्यादिना ल-इलौ ॥ कालेति डोपान्त्यं केचित्पठन्ति । काडाल । काडिलैः ॥ वसन्ततिलका ॥ ज्यावाचालधनुष्क किं न पुरतो वाग्मिनिहागाः स्वयं वाचाटः प्रहितः खरामधुरवाग्योढुं जनोयं मुधा । बन्धुं नोरसिलैः कृषीवलजनैर्दन्तावलः पिच्छिलो दानाल्लोमैशकर्कशैरपि यतः शक्योङ्गनानिःसहैः ॥ ७९ ॥ ७९. ज्यया प्रत्यञ्चया वाचालमसकृदाकृष्यमाणत्वादव्यक्तस्वरत्वाच्च बहुगटवाग्युक्तं धनुर्यस्य हे ज्यावाचालधनुष्क तथा हे वाग्मि(ग्ग्मि)न् । उपहासेन संबोधने इमे । हे चौलुक्य पुरतः प्रथमं स्वयमिह मत्समीपे किं क्रिमिति त्वं नागाः । तथायं मया हतविप्रहतो जनो भटलोको योद्धं मुधा मत्पुरोकिंचित्करत्वान्निरर्थकं त्वया प्रहितः । कीदृक् । खं महत्कण्ठविवरमस्त्यस्यां खरा कठोरात एव न मधु माधुर्यमत्रास्त्यमधुरा च वाग्यस्य सः। तथा वाचाटो बहुगीवागसन्निष्फलमात्मनः प्रभोश्च पराक्रमादि प्रशंसन्नित्यर्थः । अर्थान्तरन्यासमाह । यतः कृषीवलजनैर्हालिकलोकैर्दन्तावलो हस्ती न बँन्टुं शक्यः । किंभूतैः । उरसिलैरपि महावक्षोभिरप्यतिस्थूलैरपीत्यर्थः । तथा लोमानि सन्त्येषां लोमशास्ते च ते कर्कशाश्च कोश्व उपमेयतयास्त्येषां श्वेताश्ववत्कठोरास्तैरपि । तर्हि कस्मान्न शक्य इत्याह । यतोङ्गनानिःसहैः स्त्रीवद १ बी सी वाग्मिन्नि. २ बी पिच्छलो. ३ बी मक. ४ बी शक्येङ्ग. १ए लाल । का. २ सी टालः । घा. ३ बी सी ति वोपा. ४ सी "ह स. ५ बी मत्परो'. ६ ए मथास्त्य. बी मत्रत्यम. ७ए 'ग्य सः. ८ सी कृनिःफल'. ९बी निफल'. १० बी बढुं श. ११ बी को उ.. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०७.२.२८.] अष्टादशः सर्गः। पराक्रमैः । कीदृग्गजः । दानान्मदापिच्छं चिकणत्वमस्यास्ति पिच्छिलः पकिलो मदोत्कटः ।। शार्दूलविक्रीडितम् ।। युध्यस्ख नान्योस्म्यहमात्मतेजसो मणः स एवोद्भुषणेन द?ण । शाकीनतां याति न यत्पलालिनो न वा पलालीनपदं च शाकिनः ॥ ८० ॥ ८०. हे उद्भुषणेन रोमाञ्चेन कृत्वा द्रुण दर्दूव्याधियुक्त युयंस्वानेकभटैः सह युद्धेनातिश्रान्तत्वाद्योढुं न शक्नोषीत्यहं न युध्य इति न वाच्यम् । यतोहमात्मतेजसा कृत्वोमोष्मत्वमस्यास्त्यूष्मणः सन्नान्योस्मि श्रान्तत्वादिप्रकारेण नान्यादृशो वर्ते । किं तु स एव यादृग्युद्धापूर्व दृष्टस्तादृश एवास्मि । युक्तं चैतन् । यद्यस्मात्पलालिनो महत्पलालं पलालक्षोदो वा पलाली तद्वान्प्रदेशः । शाकीनतां महच्छाकं शाकसमूहो वा शाकी तद्वत्प्रदेशतां न याति । शाकिनश्च पलालीनेपदं पला. लीवत्स्थानं पलालीनतामित्यर्थः । न वा याति ॥ वाचाल । वाचाटः । अत्र "वाच: " [२४] इत्यादिना-आलाटौ ॥ वाग्मिन् । इत्यत्र "मिन्" [२५] इति ग्मिन् ॥ मधुर । खर । इत्यत्र "मध्वादिभ्यो ः" [२६] इति रः ।। कृषीवल । दन्तावल(लः)। इत्यत्र “कृप्यादिभ्यो वलच्" [२७] इति वलच् ॥ लोमश । कर्कशैः । इत्यत्र । पिच्छिलः । उरसिलैः । इत्यत्र च "लोम." [२८] इत्यादिना श इलश्च ॥ १बी दद्रुण. १ सी °ण म. २ बी सी पिच्छल:. ३ ए कण्ठः। शादूल'. ४ सी उद्धृष. ५ वी दद्रुण दद्र्व्या . ६ ए°ध्यस्थाने". ७ बी युद्ध इ. ८ए शो बते । किं. ९ ए सी यस्मा. १० ए °लीव. ११ सीनता. १२ बी सी वाग्मिन्. १३ ए कैश । . १४ सी पिच्छल:. Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल:] अगना । ऊष्मणः । अत्र "नोङ्गादेः" [२१] इति नः॥ शाकिनः। पलालिनः । द?ण । इत्यत्र "शाकी." [३०] इत्यादिना नो हस्वच ॥ केचित्तु शाकीपलाल्योहस्वत्वं नेच्छन्ति । तन्मते शाकीनताम् । पलालीन ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ युच्छ्राद्धवा” विषुणो नु लक्ष्मणः प्राज्ञार्च उच्छार्करवाक् चुलुक्यराट् । खं पांशुतामिस्रमपि प्रपादयन् दन्तांशुभिज्योत्स्नतुलामुवाच तम् ॥ ८१ ॥ ८१. चुलुक्यराट् तमान्नमुवाच । कीटक्सन् । विषुणो नु विष्वञ्चो रश्मयो विष्वग्गतानि वास्य सन्ति विषुणो रविर्वायुर्वातितेजस्वित्वादलिष्ठत्वाच्च तयोस्तुल्योत एव युधि श्राद्धः श्रद्धावान्वार्तश्च व्यापारवान् युच्छाद्धवार्तस्तथा प्राज्ञेषु प्रज्ञावत्स्वार्थोर्चावान्पूज्यः प्राज्ञार्यों विद्वत्तमोत एव शर्करात्रास्ति शार्करं दुग्धमोदकादि माधुर्यातिशयेनोत्क्रान्ता शार्करमुच्छर्करा वाग्यस्य सः । तथा लक्ष्मणः स्मितेन सश्रीकोत एव खमाकाशं पांशुभिस्तमिस्रा तमस्ततिस्तमो वात्रास्ति पांशुतामिमपि धूलीधूसरितमपि दन्तांशुभिः कृत्वा ज्योत्स्नात्रास्ति ज्योत्स्नः श्वेतपक्षस्तस्य या तुला साम्यं तां प्रपादयन्नङ्गीकारयञ् श्वेतीकुर्वन्नित्यर्थः ॥ इन्द्रवंशा॥ किमुवाचेत्याह । १ बी णो ल° २ सी णः प्रशा. ३ बी भिज्योत्ल'. १५ नः । द. २ ए बी दद्रुण. ३ ए विषणो. ४ बी रस्मयो. ५ बी विवायु. ६बी ज्य: प्रज्ञा ७ बी ग्यस्यां सः. ८ ए बी मिश्रा त. ९ बी मिश्रम. १० सी सस. . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.३१.] अष्टादशः सर्गः । यो शार्करासिकतिलेष्विव सैकतानः कर्षेद्धिं शर्करिल सैकतभूषु गौः सः । चञ्चद्युमद्रुमसमानभुजोपि वीरः काण्डीर शूर इह यः क्रियया गिरेव ॥ ८२ ॥ १ ४७३ ८२. काण्डानि शराः सन्त्यस्य हे काण्डीर हे धानुष्क । उपहसन्नेवं संबोधयति । हे आन्न चञ्चन्तौ विलसन्तौ युमद्रुमसमानौ द्यौर्वास्यास्मिन्वास्ति युमो रूढिशब्दत्वादुच्चैस्तमो यो द्रूणि दारूणि सन्त्य - स्यास्मिन्वा द्रुमो रूढिवशाद्वृक्षस्तद्वत्प्रलैम्बबलिष्ठौ भुजौ यस्य सोपि यो गिरेव यथा गिरा वाचा शूरस्तथा यः क्रियया रणकर्मणा शूरः स इह जगति वीरः । दृष्टान्तमाह । हि यस्माद्यो गौर्यथा शार्करासिकतिलेषु क्षुद्रपापाणवालुकारहितेषु देशेषु सैकतं सिकतावद्वालुकाभृतं(भृद् ? ) यदनः शकटं तत्कर्तेत्तथा यः शर्करिलसैकर्तभूपु सैकतानः कर्पेत्स गौर्वृषभगुणोपेतो वृषभः स्यात् । तत्ते स्वशौर्यश्लाघावचनै: - वक्तैर्न किंचित्किं तु यदि शूरं मन्यस्तदा रणक्रियां प्रकटयेत्यर्थः ॥ वसन्ततिलका || आण्डीरभाण्डीरहयाजिकच्छुरैः सदन्तुरेभै रथिरैः समेधिरैः । संभूय भूपैर्हृदयालुभिः स्वकैकस्य नन्वेंसि कृपालुरेकके ||८३|| ८३. नन्विति संबोधने । हे आन्न स्वकैर्निजैर्भूपैः सह संभूयमिलित्वा त्वं ढौकस्व । किंभूतैः । आण्डीरा वृषणवन्तो भाण्डीराश्च भाण्ड १ बी 'द्धि कश". २ बी न्वस्म कृ°. १ सी 'नि शिराः २ बी र्द्युवास्या.' ३ सी 'णि स. ५स्माद्या गौ. ६ बी 'तलभू° ७ बी 'त्सा गौ' . ६० ४ सी लम्बी ब'. ८ एवोक्तेर्न', Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] मश्वाभरणादि तद्वन्तश्च ये हयास्तैर्याजियुद्धं तत्र कच्छुरैः कण्डूमद्भिस्तथा सदन्तुरेभैरुन्नतदन्तान्वितगजयुक्तैस्तथा रथिरै रथवद्भिस्तथा समेधिरैर्मेधिरा बुद्धिमन्तोमात्या युद्ध क्रियाचतुरा योधाश्च तद्युक्तैस्तथा हृदयालुभिः सहृदयै रणे निपुणैरित्यर्थः । कस्मादेवमुच्यत इत्याह । यत एकक एकाकिन्यसहाये त्वयि विषयेस्म्यहं कृपालुर्वते ॥ इन्द्रवंशावं. शस्थयोरुपजातिः ॥ मेधावता हृदयिना रथिनासि पातो गाण्डीविकेशवसमेन कृपावता यत् । तातेन तर्हि शिरसा मणिवेन नम्र स्तनाद्य संसरसि नासिक सोसि वीरः ॥८४ ॥ ८४. तर्हि यदा जयसिंह आसीत्तस्मिन्काले यत्त्वं मणिवेन रत्नवता शिरसा नम्रः संस्तातेन जयसिंहेन कृपावता सता पातो द्विड्भ्यो रक्षितः । कीदृशा तातेन । मेधावता तथा हृदयिना विक्रान्तेन तथा रथिनोपलक्षणत्वाद्जाश्वपत्तिवता च शक्तित्रयोपेतेनेत्यर्थः । अत एव गाण्डीविकेशवसमेनार्जुनविष्णुतुल्येन । तत्तातकृतं रक्षणमद्य युद्धदिने न संस्मरसि । तत्तस्माच्छिन्ना नासिकास्यास्ति रे नासिक तदा कृपया तातेन रक्षितस्याद्य मयैव सह युद्धकरणेन निर्लजत्वान्नक्रवर्धिततुल्य त्वं यः प्रणम्रः कृपया तातेन रक्षितः स वीरोसि वर्तसे । यत्त्वमात्मनो भटत्वं वर्णयसि तन्मे विदितमेवेत्यर्थः ॥ १ ए ण्डीवके . २ बी 'प्रतन्ना'. ४ सी हिं तदा. १ बी जि युद्धं. २ सी था ह'. ३ बी तेंते । ई. ५ बी वन्तो त'. ६ बी 'न्मे वेदितमिवे. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः [६. ७.२.४६. ] अष्टादशः ४७५ विषुणः | अत्रे " विष्वचो विषुश्च" [३१] इति नो विधिवत्यादेशश्च ॥ लक्ष्मणः । अत्र “लक्ष्म्या अनः " [ ३२ ] इत्यनः ॥ "" प्राज्ञ । श्राद्ध | आर्चः । वार्तः । इत्यत्र " प्रज्ञा० [ ३३ ] इत्यादिना णः ॥ ज्यौत् । तामिस्रम् । इत्यत्र "ज्योत्स्नादिभ्योण्” [ ३४ ] इत्यण् ॥ सैकतानः । शार्कर । इत्यत्र “सिकता० " [ ३५ ] इत्यादिना ॥ सिकतिलेषु । सैकस । शर्करिल । अशार्कर । इत्यत्र “इलश्व देशे” [ ३६ ] 'इतीलोच ॥ धुर्मं । द्रुम । इत्यत्र “युद्रोर्म:" [ ३७ ] इति मः ॥ काण्डीर । आण्डीर । भाण्डीर । इत्यत्र "काण्डाण्ड०" [३८] इत्यादिना-ईरः ॥ कच्छुरैः । अत्र “कच्छ्रा दुर:" [ ३९ ] इति डुरः ॥ दन्तुर । इत्यत्र " दन्तादुन्नतात्" [ ४० ] इति डुरः ॥ मेधिरैः । रथिरैः । अत्र " मेधा ०" [४१] इत्यादिना वा इरः । वावचनाद्यथाप्राप्तमिनादि । “आयात् " [२] इति मतुश्च । मेधावता । रथिना ॥ कृपालुः । कृपावता । हृदयालुभिः । हृदयिना । इत्यत्र “कृपा०" [ ४२ ] इत्यादिनालुर्वा ॥ केशव । इत्यत्र “केशाद्व:" [ ४३ ] इति वः ॥ : । मणिवेन । गाण्डीवि । इत्यत्र “मण्यादिभ्यः " [ ४४ ] इति वः ॥ नौसिक । इत्यत्र “हीनोत्स्वाङ्गादः " [ ४५ ] इत्यः ॥ वसन्ततिलका ॥ कालोसेना इवातरखिना मायाविनानायितमा मियांस्त्वया । स्रग्वी तपखिन्नधुना युयुत्संसे मेधाव्यसि व्यक्तमनामयाव्यहो ८५ ता १ बी यां त्वया'. २ बी से १ सी 'त्र लक्ष्म्या. २ ए आर्च । वा. ३ बी वाचा । इ. ४ बी 'लम् । ५ एस्र । इत्यजोत्ना . ६ बी म । द्रुम. ७ मित्यादि । आ. एसी पालु । कृ. ९ बी 'ण्डीव । इ. १० बी नाशिक. ११ ए नास्वाङ्गा'. Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] ८५. हे तपस्विन्वराक त्वयातरस्विनाबलिष्ठेनात एव मायाविना नमस्क्रियादिरूपमायान्वितेन सतेयान्कालोनायि तमामत्यर्थमतिवाहितो यथार्शसेनाशरोगवता नरेणाभ्रोभ्रवान्कालो वर्षाकालोतरस्विनार्शोरोगस्यातिवृद्धेरबलेनात एव मायाविनार्शउपशमक तथाविधौषधक्रियादिनाशौरोगवञ्चनावता सता नीयते । अधुना तु हे तपस्विन्स्रग्वी पुष्पमालावान्सन्युयुत्ससे । तस्मादहो आन्न त्वं व्यक्तं मेधाव्यसि माययेयतः कालस्यातिवाहनेन पण्डितोसि तथानामयाव्यस्यधुना युद्धाभिलाषेणामयरहितो बलिष्ठोसि ॥ अभ्रः । अर्शसेन । इत्यत्र “अभ्रादिभ्यः " [ ४६ ] इत्यः ॥ तरस्विनौ । तपस्विन् । मायाविना । मेधावी । स्रग्वी । इत्यत्र "अस्तपस् ०" [ ४७ ] इत्यादिना विन् ॥ अनामयावी । इत्यत्र " आमयाद्दीर्घश्व" [ ४८ ] इति विन् दीर्घश्चामयस्य ॥ इन्द्रवंशा ॥ स स्वामिगोमी मम तात ऊर्जस्व्यूर्जस्वलेष्वर्णवगीतकीर्तिः । हुं लज्जते त्वां न जयाम्यहिम्यज्योत्स्ना तमिस्रामिव यद्यगुण्याम् ८६. ८६. यदि त्वां न जयामि । यथाहिम्या हिमरहिता निर्मला या ज्योतिरत्रास्ति ज्योत्स्ना चन्द्रिका तमोत्रास्ति तमिस्रां तामसीं रात्रि जयति तमोपहारेण पराभवति । कीदृशीम् । अगुण्यामालोक विनाशकत्वादिदोबैर्निर्गुणाम् । तदा हुमिति कोपे । स प्रसिद्धो मम तातो जयसिंहो लज्ज्ञते । कीदृक्। ऊर्जस्वलेषु बलिष्ठेषु मध्य ऊर्जस्व्यति बलिष्ठोत एव स्वामी चासौ गोमी च भूमिमांश्च । यद्वैा स्वामिनां प्रभूणां राज्ञां गोमी पूज्योत एव चार्णवगीतकीर्तिस्तस्माद्यावज्ञेयं त्वां जयाम्येवेत्यर्थः । इन्द्रवज्रा ॥ 1 १ बी 'स्फूर्ज'. १ एना ए. २ ए 'न्युत्स'. ३ एना । तपस्विना । तप द्वा प्रभूणां स्वामिनां रा . ५ ए श्यं त्वं ज ं. ४ सी Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.२.५२.] अष्टादशः सर्गः। ४७७ इति तं गदित्वा बहुरूप्यमूल्यं गुणवद्ध हेमवतीपतिर्नु । सशरं व्यधाद्रूप्यपि पौर्णमासीशशिरूप्यवक्रोथ चुलुक्यचन्द्रः ८७ ८७. अथानन्तरं रूप्यपीत्यत्रापिभिन्नक्रमे । न केवलमानश्चौलु. क्यचन्द्रोपि धनुः सशरं व्यधात् । हैमवतीपतिर्नु हिमवतोपत्यस्य गौर्या भर्ता हरो यथा त्रिपुरदाहादिकाले धनुः सशरं व्यधात् । किं कृत्वा । इत्युक्तरीत्या तमानं गदित्वा । कीहक्सन् । पौर्णमास्या यः शशीन्दुस्तद्वद्रूप्यं प्रशस्यरूपान्वितं सौम्यं मुखं यस्य सः । रूप्यपीत्यस्य स्थाने कुत्रापि रुष्यपीति पाठो दृश्यते तदा रुष्यपि रोषेपि सति महापुरुषत्वेनालेक्ष्यकोपविकारत्वात्पौर्णमासीशशिवक्र इति यथास्थानमेवापिर्योज्यः। हरोपि शशिरूप्यवक्रश्चन्द्रकलया रूपवन्मुखः । कीदृशं धनुः । आहतं रूपमस्त्येषां रूप्या दीनारादयः । निघातिकाताडनाहीनारादिषु यद्रूपमुत्पद्यते तदाहतं रूपम् । बहवो रूप्या मूल्यं यस्य तत् । यथा(तथा?) गुणवत्प्रशस्यप्रत्यञ्चम् ॥ स्वामि । इत्यत्र "स्वामिनीशे" [४९] इति मिन् दीर्घश्चास्य ॥ गोमी । इत्यत्र "गोः" [५० ] इति मिन् ॥ पूज्य एव मिनमिच्छन्त्येके ॥ ऊर्जस्वी । ऊर्जस्वलेषु । इत्यत्र "ऊर्जा विन्" [५१] इत्यादिना विन्वलावस् चान्तः ॥ तमिस्राम् । अर्णव । ज्योत्स्ना । इत्येते "तमिस्रा." [५२] इत्यादिना निपात्याः ॥ १ए °नुहेम. १बी पि भित्र. २ बी र्ता हारो. ३ सी रूप्यान्वि. ४ ए मुख्यं य. ५ बी लक्षकों'. ६ ए सी पियोज्यः . ७ ए नादीना: ८ ए च । स्वा. ९ सी स्वामिनीशे. १० बी मित्तं से ई. ११ बी ऊज्यों वि . १२ बी "दि वि. १३ ए सा । अ. १४ बी त्येन्ये त. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ द्व्याश्रयमहाकाव्ये कुमारपालः गुण्याम् । गुणवत् । हिम्य । हैमवती । इत्यत्र "गुणादिभ्यो यः" [५३] इति यो मतुश्च ॥ रूप्यवक्रः । रूप्य । इत्यत्र "रूपात्०" [५४] इत्यादिना यः ॥ कथं रूपी । ग्रीह्यादित्वाद्भविष्यति ॥ पौर्णमासी । इत्यत्र "पूर्णमासोण्" [५५] इत्यण् ॥ केकिरवं छन्दः ॥ आन्नोथै गौशतिकनैष्कसहस्रिकैः खै__ त्यैः सनैष्कशतिकैः सहँगौत्रिकैश्च । संभूर्य सर्वधनिभिश्च रुपान्धको नु तं देवमैकगविकं पिदधेस्त्रवृष्टया ॥ ८८ ॥ ८८. अथान्नो रुषा कृत्वान्धको नु कुत्सितोन्ध इवात्यन्तं कोपाविष्टः सन्नित्यर्थः। तं चौलुक्यमस्त्रवृष्टया बाणवर्षणेन पिदधे । किं कृत्वा । स्वैर्भूत्यैः सह संभूय मिलित्वा । किंभूतैः । गो(गौ)शतिकनैष्कसहस्रिकैः कैश्चिद्रगोशतयुक्तैः कैश्चिच्च निष्कसहस्रयुक्तैः । निष्कोष्टोत्तरं शतं स्वर्णस्य पलं वा तथा निष्कशतमस्त्येषां संह तैर्य (ये) तैः सनैष्कशतिकैस्तथा गोत्रा गोसमूहोस्त्येषां संह तैयें तैः सहगोत्रिकैश्च गोशतादिमद्भिर्देशपालैर्निष्कसहस्रादिप्रभूतजीविकैर्महायोधैश्चेत्यर्थः । तथा सर्वधनमस्त्येषां तैः सर्वधनिभिश्च चतुरङ्गबलोपेतनृपैश्चेत्यर्थः । यथान्धको दैत्यः स्वैभृत्यैः सह संभूयैकगव ऐकवृपोस्यास्यैकगविकं देवं रुद्रमस्त्रवृष्टया पिदधे। १ बी °थ गोश. २ ए °सहिस्रि. ३ बी सी हगोत्रि. ४ ए य संबंध'. १ए त् । है'. २ बी वत्य'. ३ बी रूप । ई. ४ ए 'त्र पौर्ण'. ५ए बीन्दः । अन्नो'. ६ ए °विष्टा स. ७ए त्यर्थ चौ. ८ए कैः कश्चि'. ९ ए ०णस्याप. १० बी कत. ११ सी सहित . १२ सी सहितै. १३ बी 'तैर्य तैः. १४ बी सी हगोत्रि. १५ सी त्रिभिश्च. १६ ए द्भिदेश'. सी 'द्भिर्दश. १७ सी यद्वान्ध'. १८ ए स्वैभृत्यैः. १९ ए एषवृ. सी एषो. २० सीस्यास्त्येक. २१ सीधे । गोशः. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.२.६०,] अष्टादशः सर्गः। . ४७९ गौशतिक । इत्यत्र "गोपूर्वाद्" [५६] इत्यादिनेकण् ॥ केचित्तु गवादेरनकारान्तादपीच्छन्ति । गौत्रिकैः ॥ नैष्कशतिकैः । नैष्कसहस्रिकैः । अत्र "निष्कादेः."[ ५७ ] इत्यादिनेकण् ॥ ऐकगविकम् । अत्रं "एकादेः." [५८ ] इत्यादिनेकण् ॥ सर्वधनिभिः । अत्र “सर्वादेरिन्" [५९ ] इतीन् ॥ वसन्ततिलका ॥ तां भैमिश्चास्यदस्त्रवृष्टिं शृङ्ग्यश्व इवोर्गप्यभान चान्नः । सुकटकवलयी यथा हि कुष्ठी पोटा वा स्तनकेशवत्यपीह ॥८९॥ ८९. भैमिश्च तामान्नीयामस्त्रवृष्टिमास्यचिक्षेप । ततश्चान्न ऊर्गपि बलिष्ठोपि निस्तेजस्कत्वेन नाभात् । यथेह जगति शृङ्गी शृङ्गान्वितोश्व ऊर्गपि निकृष्टतमलक्षणत्वान्न भाति । यथा वा कुष्ठी न भाति । कीदृक् । वलयः प्रकोष्ठाभरणभेदः पादाभरणविशेषश्च पादकटकः । तथा च हंसकः पादकटक इत्यमरकोशे । ततः पादकटकैकदेशोपि कटक इति द्वन्द्वविरोधाभावे शोभनौ कटकवलयावस्य स्तः सुकटकवलय्यपि। यथा वा स्तनकेशवत्यपि पोटा नृलक्षणा स्त्री दंष्ट्रिकादिपुंश्चिह्नन विरूपत्वान्न भाति ॥ द्वन्द्व । सुकटवलयी॥ रुक् । कुष्ठी ॥ निन्द्य। }ङ्ग्यश्व । अत्र “प्राणिस्थाद्" [६०] इत्यादिनेन् ॥ अस्वाङ्गादिति किम् । स्तनकेशवती ॥ औपच्छन्दसकम् ॥ अथेषुवर्षं विदधे च भैमिरान्नस्य भृत्या लुलुवु(ठु)श्च भूमौ । वातक्यतीसारकिणः पिशाचकिनो यथा पञ्चमिनश्च बालाः ९० १० १ ए शृङ्गाश्व. २बी लुवश्च. १ए पूर्वद्. २ ए सी °न्ति । गोत्रि. ३ बी हश्रिकैः. ४ बीत्र इका. ५ एमसुवृष्टिगासाच्चिं. ६ ए °ठो नि. ७ सीजस्त्वेन पा. ८ ए भेदाःपा' ९ बी दः पादाभरणमेदः पा. १० सी क ई. ११ ए भनो क. १२ बी क्षणे स्त्री. १३ बी वलीय । रु. १४ ए शृङ्गाव. सी शृङ्गश्व. १५ बी अश्वाङ्गा'. Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ९०. स्पष्टः । किं तु पिशाचकिनो पहिलाः । पञ्चमो मासः संवसरो वास्त्येषां पञ्चमिनो बालाः । वातक्यादयो यथा भूमौ लुठन्ति ॥ __ वातक्यतीसारकिणः । पिशाचकिनः। अत्र 'वात." [६] इत्यादिनेन् कश्वान्तः ॥ पञ्चमिनो बालाः । अत्र"पूरणाद्वयसि" [६२] इतीनेव ॥ उपजातिः ॥ दुःखिनोपि सुखिनो नु मूर्छया मालिनो निपतितानहन्न सः । ब्रह्मवर्णिन इव द्विषोपि तान् क्षत्रधर्मियतिशील्ययं यतः॥९१॥ ९१. स चौलुक्यस्तानान्नभटान्द्विषोपि रणाङ्गणे निपतितान्सतो ब्रह्मवर्णिन इव ब्राह्मणजातिमतो ब्राह्मणानिव नाहन् । कीदृशान् । प्रभूतप्रहारैर्दुःखिनोपि मूर्छया प्रहारकष्टोत्थमोहेन कृत्वा दुःखस्यासंवेदकत्वात्सुखिनो नु । तथा मालिनो रणे पातेन विसंस्थुलम्लानस्रक्त्वान्निन्द्यमालान्वितान् । अहँनने हेतुमाह । यतोयं भैमिः क्षत्रधर्मः क्षत्रियाचारः पतितेष्वप्रहारादिरस्यास्ति क्षत्रधर्मी स चासौ यतिशीलं मुन्याचारः कृपादिधर्मोस्यास्ति यतिशीली चं सः ॥ सुखिनः । दुःखिनः । अत्र "सुखादेः" [६३ ] इतीन् ॥ मालिनः । अत्र "मालायाः क्षेपे" [ ६४ ] इतीन् ॥ क्षेत्रधर्मियतिशीली । ब्रह्मवर्णिनः । अत्रे “धर्म०" [६५] इत्यादिनन् ॥ रथोबता॥ १पल्ययन्तः. १बी वास्तेषां. २ बी मौ लुंठ. ३ ए बी यसती'. ४ ए °स्तान्नान. ५ए 'तपूरै. ६ ए टेथ मो'. ७ए लिनं र. ८ ए °हनेन हे'. बी ह. मनेन हे'. ९ सी चारकृ. १० ए च सा । मुं ११ बी क्षत्रिध. १२ ए 'तिशिली, १३ सीत्र ब्रह्म इ. . Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.७१.] अष्टादशः सर्गः। ४८१ स बाहुबल्यूरुबली सवर्मी खान्यामिनीपङ्कजिनीवदान्नः। म्लानान्विदित्वा करिणं नुनोद रुषाब्जिनीपुष्पदलारुणाक्षः ९२ ९२. स्पष्टः । किं तु सवर्मी वर्मास्यास्ति वर्येवं नाम राजा तेनान्वितः । अब्जिनीपुष्पं रक्तोत्पलम् ॥ उपजातिः ॥ मदाम्भसा पुष्करिणी नु तन्वत्यत्रानहस्तिन्यथ दन्तिनं स्वम् । नुनोद सद्दानतरङ्गिणीकं वर्णीव रामस्तरसा चुलुक्यः ॥ ९३ ॥ __ ९३. स्पष्टः । किं तु पुष्करिणी नुवापीमिव तन्वति मदोन्मत्त इत्यर्थः । आन्नहस्तिनि विषये सद्दानतरङ्गिणीकं विद्यमानमदनदीकं खं हस्तिनं नुनोद । यतस्तरसा बलेन कृत्वा वर्णो ब्रह्मचर्यमस्या स्ति वर्णी । राम इव परशुरामतुल्यः ॥ पाहुबली । अरुबली । इत्यत्र “बाहु." [ ६६ ] इत्यादिनेन् ॥ मनन्त । वर्मी । मान्त । यामिनी ॥ अब्जादि । अब्जिनी । पङ्कजिनी । इत्यत्र "मन्म." [ ६७ ] इत्यादिनेन् ॥ हस्तिनि । दन्तिनम् । करिणम् । अत्र "हस्त." [६८] इत्यादिनन् । वर्णी । इत्यत्र "वर्णात्०" [ ६९] इत्यादिनेन् ॥ पुष्करिणीम् । तरङ्गिणी । इत्यत्र "पुष्करादेर्देशे" [७० ] इति-इन् । वैमुक्तमैत्रावरुणीययज्ञायज्ञीयदैवासुरगर्दभाण्डान् । भयाविजास्तहि सगर्दभाण्डीयेषेत्वकं घोषदकं जगुर्न ॥९४॥ ९४. तर्हि तस्मिन् रणकाले भयाहिजा न जगुर्न पेठुः । कान् । विमुक्तशब्दोत्राध्यायेनुवाके वास्ति वैमुक्तस्तथा मैत्रावरुणशब्दोत्रास्ति १ए रिणा नु. २ ए पाड्जिनी'. १ए जाति । मन्दाभसा. २ सीन्मत्ते यह. ३ प नि नु. ४ए यस्त. ५ए जाति । . सी जानि । . ६ सी णी । द. ७ए बाखि. . Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये (कुमारपालः मैत्रावरुणीयं सूक्तमेवमपि वाक्ये । यज्ञायज्ञीयं साम । दैवासुरो गर्दभाण्डश्चाध्यायोनुवाको वा द्वन्द्वे तांस्तथा गर्दभाण्डीयेषेत्वकाभ्यामध्यायाभ्यामनुवाकाभ्यां वा सहितं घोषच्छब्दोत्रास्ति घोषदकमध्यायमनुवाकं वा ॥ मैत्रावरुणीय । यज्ञायज्ञीय । इत्यत्र "सूक्त." [७१ ] इत्यादिनेयः ॥ गर्दभाण्डान् । गर्दभाण्डीय। इत्यत्र "लुब्वा०" [७२] इत्यादिनेयस्य लुब्वा ॥ वैमुक्त । दैवासुर । इत्यत्र "विमुक्तादेरण्" [ ७३ ] इत्यण् ॥ घोषदकम् । इषेत्वकम् । अत्र "घोषदादेरकः" [७४ ] इत्यकः । सुस्थूलकैः प्रहरतोर्दशनैः प्रवीर जातीययोस्तदिभयोरुदगुः स्फुलिङ्गाः । भ्रष्टुं क्षमा यवककृष्णकजीर्णकादि गोमंत्रकं दिव इवानणुकं दिशन्तः ॥ ९५॥ ९५. तदिभयोभैम्यानगजयोः स्फुलिङ्गा दन्तसंघटोत्था अग्निकणा उदगुरुच्छलिताः । यतः स्थूलः प्रकार एषां स्थूलकाः सुष्टु स्थूलकाः सुस्थूलकास्तैरतिस्थूलैर्दशनैः प्रहरतोः । एतदपि कुत इत्याह । यतः प्रवीरः प्रकारो ययोस्तयोः प्रवीरजातीययोः प्रकृष्टशूरयोः । किंभूताः । यवप्रकारा यवका ब्रीहयः कृष्णप्रकाराः कृष्णकास्तिला जीर्णप्रकारा जीर्णकाः शालयो द्वन्द्वे तदादि वस्तु भ्रष्टुं दग्धुं क्षमास्तथारक्तप्रभूतातिसान्द्रत्वादिवो व्योनो गोमूत्रकमिव गोमूत्रप्रकारं गोमूत्रवर्णमाच्छा. __ १५ मूत्रिकं. १सी ग्रे वा. २ बी सुरौ ग'. ३ बी 'ध्यायानु. ४ ए वाक्याभ्यां. ५ बीभ्यां स. ६ बी सी पशब्दो'. ७ बी दकं । इषे. सी दकं वाध्या. ८ ए क । देवा'. ९सी क । म. १० बी सी स्थूलप्र. ११ बी दर्शनैः. १२ ए वीरजा. १३ बी टसर'., १४ सी स्तमार'. Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.२.८०.] अष्टादशः सर्गः। ४८३ दनमिव दिशन्तो ददतः । किंभूतम् । अणुः प्रकारोस्याणुकं न तथा महाप्रमाणम् ॥ वसन्ततिलका ॥ अवदातिकां पीत इवानकः सुरां सुरकाहिरक्ताक्ष इन्षामुचत् । नगरी नु गौष्ठीन इषूथुलुक्यपो प्यचिरादिहाविष्टचरीय॑वीविशत् ॥ ९६ ॥ ९६. आन्नक इषूनमुचदक्षिपत् । कीहक्सन् । रुषा हेतुना सुरकः सुरावर्णो योहिस्तद्वद्रक्ताक्षोत एव ज्ञायतेवदातिकामवदातप्रकारां प्रसन्नां सुरां मद्यं पीत इव । तथा चुलुक्यपोपीहान्नेविष्टचरी: पूर्वमप्रविष्टा इपूरचिरान्यवीविशत्समस्थापयत् । यथा भूतपूर्वो गोष्ठो गोस्थानं गोष्ठीनस्तत्र पवित्रभूमित्वेन कश्चित्पुरी निवेशयति । गोखुरक्षुण्णे हि प्रदेशे पुरादि निवेश्य मिति वास्तु । प्रवीरजातीययोः । अत्र "प्रकारे जातीयर" [ ७५ ] इति जातीयर् ॥ अनणुकम् । सुस्थूलकैः । अत्र "कोण्वादेः" [ ७६ ] इति कः ॥ जीर्णक । गोमूत्रकम् । अवदातिकाम् । सुरक । यवक । कृष्णक । इत्यत्र "जीर्ण." [७७] इत्यादिना कः ॥ भविष्टचरीः । अत्र "भूत०" [ ७८] इत्यादिना चरद ॥ गोष्ठीने । अत्र "गोष्ठादीन" [७९] इतीनञ् ॥ सुदन्तम् ॥ चौलुक्यरूप्या भृशमानतोभवंश्चौलुक्यतश्चान्नचराः पदातयः । तौ तेभितोवा परितश्च युच्छ्रमप्रवाहिकातो व्यधुरादितस्ततः॥९७॥ १५ बी नु गोष्ठी'. २ बी दिहवि'. ३ बी 'वं चौलु'. १५ °लुक्योपी . २ ए स्थानां गो'. ३ बी भुन्ने हि. ४ बी वास्तुः । प्र. ५ सी म् । सस्थू. ६ एर्णकः । गों. ७५ °ना स्वर. ८ए 'दन्ता । चौ. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] ४ . ९७. चौलुक्यरूप्याश्चौलुक्यस्य भूतपूर्वाः पदातयश्चाहडादयो भृशमान्नत आन्नस्य पक्षेभवन् । तथानचरा आन्नस्य भूतपूर्वाश्च पदातयो गोविन्दराजादयश्चौलुक्यतश्वौलुक्यपक्षेभवन् । ततस्तस्मिन्पक्षद्वयभवने सति ते चौलुक्यरूप्या आन्नचराश्चादितो भूत्वा तौ भैम्यान्नावभितो वा । वात्र समुच्चये । परितचं वयोर पार्श्वयोः सर्वतश्च भूत्वेत्यर्थः । व्यधुः । किं युच्छ्रमप्रवाहिकातो युच्छ्रम एव भैम्यानयोयुद्धश्रान्तिरेव दुःखकत्वात्प्रवाहिका रोगभेदस्तस्य प्रतीकारं स्वयं युद्धकरणेन तौ युद्धश्रान्तौ विश्रमयामासुरित्यर्थः ॥ चौलुक्यरूप्याः । आन्नचराः । अत्र "ठ्याः०" [ ८० ] इत्यादिना रूप्यप्चरटौ ॥ चौलुक्यरूप्या आवतोभवन् । चौलुक्यतश्चान्नचराः । अत्रं "व्याश्रये तसुः" [८१] इति तसुः ॥ प्रवाहिकातो न्यधुः । अत्र "रोगात्०" [ ८२ ] इत्यादिना तसुः ॥ परितः । अभितः । अत्र "परि." [८३ ] इत्यादिना तसुः ।। आदितः । ततः। अत्रे "आधादिभ्यः" [ ८४ ] इति तसुः ॥ इन्द्रवंशीवंशस्थयोरुपजातिः ॥ ते वृत्ततोप्यव्यथिताः प्रहीणाः क्षिप्ताश्च पापाः प्रहतेः प्रहारम् । मिथोसुतोसून्प्रति दायिनो द्रान नात्यगृह्यन्त तदा यशस्तैः।।९८॥ १ ए प्रहीःणाक्षप्ता. २ सी पापैः प्र. ३ ए हृते प्र. ४ सी थोसतो'. ५ बी स्तः । तौ चौ. - १ ए क्यस्य भू.सी क्यस्य स्वरू. २ ए °स्य पू. ३ बी विदरा. ४ ए चौलव्य'. ५ ए प्या अन्न. ६ एश्च यो'. ७ ए सी षष्ठ्यादि . ८ ए प्यचर'. सी प्यर. ९एत्र व्याश्र . . १० ए गादिना. बी गादि ६. ११ एत्र था. १२ एवंश. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.२.८८. ] अष्टादशः सर्गः । ४८५ २ ४ ९८. ते चौलुक्यरूपया आन्नाचराश्च राणकास्तदा युद्धकाले द्राग्यशस्तः पराक्रमोत्थयशसा कृत्वा न नात्यगृह्यन्त किं त्वन्यानतिक्रम्य यशसा गृहीता अतियशस्विनः संभाविता इत्यर्थः । यद्वा । अतिशयेन यशसा गृहीता इत्यर्थः । येतो मिथः प्रहृतेः प्रति प्रहारं दायिनः । तथासुतः प्रत्यसून्दायिनः । आधमयैत्र णिन् । प्रहृतेरसुत इत्यत्र "यतः प्रतिनिधि०” [ २. २. ७२ ] इत्यादिना पञ्चमी । विपक्षाणां प्रहृतिं प्राणांश्च गृहीत्वा स्वस्य प्रहारं प्राणांश्च ऋणमिव ददतः । प्राणनिरपेक्षं युध्यमाना इत्यर्थः । किंभूताः । वृत्ततः शौर्यवृत्त्यादिना चरित्रेण कृत्वाव्यथिता अप्यचलिता अप्यभीता अपि वा यावती स्वस्वामिनं परिहृत्य रिपुपक्षे स्थितास्तावता वृत्ततः स्वस्वामिनि चुक्क पदातितारूपेण निकृष्टौचारेण कृत्वा प्रहीणाः सदाचाराद्भष्टास्तथा वृत्ततः पापाश्च पापिष्ठाश्चात एव वृत्ततः क्षिप्ता निन्दिताः ॥ 'वृत्ततः क्षिप्ताः । यशस्तो न नात्यगृह्ये॑न्त । वृत्ततोव्यथिताः । अत्र “क्षेपο" [ ८५ ] इत्यादिना तसुः ॥ धृततः पापाः । वृत्ततः प्रहीणाः । अत्र "पाप" [८६] इत्यादिना तसुः ॥ प्रहारं प्रहृतेः प्रति दायिनः । असूनसुतः प्रति दायिनः । अत्र " प्रतिना० " [ ८७ ] इत्यादिना वा तसुः ॥ उपजातिः ॥ मानाद्रिमूर्भोनवरोहिणौ नृपौ वीर्यादहीनौ प्रसभं प्रजहतुः । निर्यन्न तूणान्न च चापतेः शरोलक्ष्यापतन्नेव कुतोपि सर्वतः ॥ ९९ ॥ १ सी रोहणी. २ ए 'तः शिरो. १ बी 'शश्विनः . २ ए 'ति'. ५ बी 'त्र्य णि. ६ एमी । प्र०. ' सी 'त्तयः शौ'. ९ ए अच.. १२ ए वृत्तेन व सी वृत्तयः स्व .. ३ सी यथा मि. ४ सी ते प्र ७ ८ त्वा स्तस्य १० अधामी. ११ १३. टा. प्र. १४ बी सी 'त्वा तस्य. 'ता स्वं स्वा. न्ते । वृ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल:] ९९. स्पष्टम् । किं तु सर्वस्मात्कुतोप्यस्माद्देशादयमायातीति विवेकुमशक्यप्रदेशादार्पतन्नेवागच्छन्नेव तयोः शरोलक्षि । अतिलघुहस्तत्वात् ॥ इन्द्रवंशा ॥ स्थानाधिकाभ्यां बहुतोथ विश्वतो द्वाभ्याममूभ्यां चकितोन्तकोपि सः । कालाहोरौज्झदितः कुतोपि ता मतो ने मत्कोपि बलीत्यहंकृतिम् ॥ १० ॥ १००. स सर्वजगद्रासकत्वेन प्रसिद्धोन्तकोपि । अपिः संभावने । संभावयेहं यमोपीतः प्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानादथ वानुभूयमानादत एव कुतोप्यनिर्देश्यावहोर्विस्तीर्णात्कालादोज्झदत्यजत् । काम् । अतोस्मान्मसकाशान्न कोपि बली बलिष्ठ इत्येवंविधां तां सर्वत्र प्रसिद्धामहंकृतिम् । यतो द्वाभ्याममूभ्यां भैम्यान्नाभ्यां सकाशाच्चकितो भीतः । यतो बहुतो बहुभ्यः सकाशादथाथ वा विश्वतः सर्वस्मादपि सकाशात्स्थाम्ना बलेन कृत्वाधिकाभ्याम् ॥ दूणानिर्यन् । चापतो निर्यन् । इत्यत्र "अहीय." [ ८८ ] इत्यादिना वा तसुः ॥ महीयरुह इति किम् । वीर्यादहीनौ । मू नवरोहिणौ ॥ १ सी रोइणौ. २ ए तः शिरो'. ३ ए रौद्यदि . बी ४ सी न हि कोपि. ५ बी कृतिः । स. रौज्झिदि. १सी स्पष्टः । किं. २ ए बी मापती'. ३ बी शक्यात्प्रदे'. ४ ए °पने'. ५ बी नेव. ६ सी क्षित अं. ७ सी °द्धोपि. ए द्धोतको'. ८ ए बी अपि सं. ९ सी देशाद्ध. १० बी इयानातीतस्यापि कर्णार्जुनयुद्धस्य सुराणां वर्तमानत्वेन प्रसिद्धमात्मयोधं स्वमटं. (१०३ श्लोको द्रष्टव्यः). ११ सी सास. १२५ °पि बलि'. १३ एत्र सि'. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.२.९१.] अष्टादशः सर्गः । ४८७ किम् । कुतः॥ सर्वादि । सर्वतः। विश्वतः॥ बहै। बहुतः। अत्र "किमयादि." [ ८९ ] इत्यादिना पित्तस् ॥ ब्यादिवर्जनं किम् । द्वाभ्याम् । मत् ॥ घहो. पुल्यप्रतिषेधः किम् । बहोः कालात् ॥ इतः । अतः । कुतः । एते “इतोतः कुतः" [ ९० ] इति निपात्याः ॥ इन्द्र. वंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ स भवान्बली कोस्त्वभि तं भवन्तं भवितालमस्मै भवतेपि कोत्र । न ऋते भटोसाद्भवतोप्यनेन भवतेति कोस्तौन ततोभवन्तौ१०१ १०१. ततोभवन्तौ पूज्यौ भैम्यान्नौ को नास्तौत् । कथमित्याह । हे भैमे स प्रसिद्धो भवान् बल्यतश्च तं प्रसिद्धं भवन्तमभिलक्ष्यीकृत्य को बल्यस्तु न कोपीत्यर्थः। अत एवास्माद् भवतस्त्वत्त ऋते विना न भटस्त्वमेव वीर इत्यर्थ इति । तथा हे आन्नास्मै प्रत्यक्षाय भवतेपि तुभ्यमप्यलं समर्थोत्र जगति को भवितास्ति भविष्यति वा न कोपीत्यर्थः । अत एवानेन भवतापि सह को भटो न कोपीत्यर्थ इति च ।। केकिरवम् ॥ आयुध्यते किमु ततोभतो विवखतः पुत्रेण पार्थ उ ततोभवता ततोभवान् । विष्णोर्ऋतेपि हि ततोभवतः सुरा इति शश्लाघिरे किल ततोभवतेथ भैमये ॥१०२॥ १०२. अथ किलेति सत्ये । सुरास्ततोभवते पूज्याय भैमये शश्नाघिरेवर्णयन् । कथमित्याह । उ हे भैमे ततोभवान्पूज्यः पार्थोर्जुनस्ततोभवतः पूज्यस्य विवस्वतो रवेस्ततोभवता पूज्येन पुत्रेण १ए तौस्त्वत्त ऋते. २ सी वतेथ. १ए किमु । कु. २ सी हुतः, ३ सी दिव. ४ सी वन्तिम ५ सी त्यको ब. ६ सीवानेन, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ घ्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कर्णेन सह हि स्फुटं किमु आयुध्यते नैवेत्यर्थः । कथं ततोभवतः पूज्याद्विष्णोतेपि विष्णुं सहायं विनापीत्यर्थः । एतेन त्वमसहाय एव कर्णतुल्येनान्नेन सहायुध्यमानोर्जुनादप्यतिबलिष्ठ इति व्यञ्जिवं स्यादिति । प्रत्यक्षस्य भैम्यानयुद्धस्य दर्शनेनातीतस्यापि कर्णार्जुनयुद्धस्य सुराणां वर्तमानत्वेनावभासनादायुध्यत इत्यत्र वर्तमाना । मृदङ्गच्छन्दः ।। आनं स दीर्घायुरहंस्ततो देवानां प्रियं भैमिरय शरेण । पपात सोथानवलम्ब्य तं देवानांप्रियं घातरजात्मयोधम् ॥१.३॥ १०३. स प्रसिद्धो दीर्घायुश्चिरजीवी भैभिस्ततो देवानां प्रियं पूज्यमान्नमयःशरेण लोहबाणेनाहन् । अथ स आन्नो घातरुजा प्रहारपीडया हेतुना पपात भूमौ । किं कृत्वा । तं हत्यारोहश्रेष्ठत्वेन प्रसिद्धमात्मयोधं स्वभटं गजाग्रभागारूढं चाहडमनवलम्व्यानवष्टभ्य यतो देवानांप्रियं मूर्खमवलम्बदानेसमर्थमित्यर्थः ॥ उपजातिः ।। न ततोदीर्घायुमेहंथुलुक्योस्त्वयमायुष्मानित्युपेक्षमाणः । इतआयुष्मान्केवलं तदीयां जग्राहेभघटा तुरङ्गमांश्च ॥ १०४ ॥ १०४. स्पष्टम् । किं तु ततोदीर्घायुः पूज्यः । अयमान्न आयुमानस्त्विति जीवतादित्युपेक्षमाणः । इतआयुष्मान्पूज्यः ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका ॥ वस्त्यस्तु तत्रभवतेत्रभवाञ्जयत्वित्याशंसिनात्रभवता दिविषजनेन । १ सी पेक्ष्यमा . २ ए °णः । अत. ३ सी युष्मन्न केव. सी ह स्फु. २ ए ष्णो ते'. ३ सी 'दित्यप्र. ४ एनत्वभा'. ५ सी युरहंस्त.. ६ ए हस्त्यरों. ७ बी प्रियमू. ८ ए इत्य'. ९सी थः ॥ न. १० सी पेक्ष्यमा . ११ एणः । अत. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.११.] अष्टादशः सर्गः । 3 शक्रस्य तत्रभवतस्तनये नु भैमौ न्यक्षेपि तत्रभवति प्रसवोत्करोथ ।। १०५ ॥ १०५. स्पष्टम् । किं तु तत्रभवते पूज्याय । एवमग्रेपि । यथा कर्णस्य विजये शक्रस्य तनयेर्जुने दिविषज्जनेन पुष्पौघो न्यक्षेपि ॥ वसन्ततिलका || इन्दो ऋत्रभवतोत्र भवन्तमीशं स्थित्यानुकुर्वति ततोभवती है भैमौ । द्राक्तंत्रभोः क नु गमिष्यसि कं ततोभो यामीति वादिनं इतो रिपवोथ नेशुः ॥ १०६ ॥ १०६. अथ रिपवो द्रागितो भैमेनेंशुः । किंभूताः । इति वा .. दिनः । तदे॒वाह॑ । नुः प्रश्ने । हे तत्रभोः पूज्य शरणार्थं के कं देश नृपं वा गमिध्यसीति । तथा हे ततोभोः पूज्याहं कं नृपं देशं वा यामीति । क्व सति । ततोभवति पूज्य इह भैमौ । किंभूते । अत्रभवतः पूज्यादिन्दोः शिरः शेखराच्चन्द्रादृते चन्द्रकलारहितमित्यर्थः । अत्रभवन्तमीशं शंभुं स्थित्या जित्वा रणाङ्गणे समपादाख्येन स्थानविशेषेण कृत्वानुकुर्वति । शंभुर्हि समपादस्थानेन तिष्ठति । अत एव स्थाणुरिति नामास्य ॥ ५ ततोभवान् । ततोभवन्तौ । ततोभवंता । ततोभवते । ततोभवत ऋते । ततोभवतः पुत्रेण । इतआयुष्मान् । ततोदीर्घायुः । ततो देवानां प्रियम् । अत्र "भवतु ० " [ ९१] इत्यादिना तस्वा ॥ २ बी इन्द्रो रुते'. १ बी °ये न भैमो न्य'. सी 'ये न भै'. ४ए त भोः. ५ ए 'न अतो. १ सी ह । प्र'. २ एक कः दे. ५ सी 'र्थः । तत्र'. ६ बी स्थित्वा जि. ६२ ३ ए 'मिष्यासी. ४८९ ७वतः पु · एह भीमौ. ४ए तोभीति, ८ सी व पु. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः अनभवान् । अत्रभवन्तम् । अत्रभवता । तत्रभवते । अत्रभवंत ऋते। तत्रभवतस्तनये । तत्रभवति । इत्यत्र "त्रच" [१२] इति त्रप् ॥ एवमायुष्मदादिमिरप्युदाहार्यम् । सूत्रद्वयस्यापि विकल्पपक्षे । स भवान् । तं भवन्तम् । अनेन भवता । अस्मै भवते । अस्माद्भवतः । अयमायुष्मान् । स दीर्घायुः । तं देवानांप्रियम् ॥ "त्रच" [ ९२ ] इति योगविभागश्चकारेण पुनस्तस्विधानार्थः । तेन सप्तम्यन्तादपि तस् स्यात् । ततोभवति । तत्रभवति । अन्यथा हि ततः "सप्तम्याः" [ ९४ ] इति परत्वात्रबेव स्यात् ॥ केचिच्च भवच्छन्दस्यामन्त्रणे सौ भो आदेशं कुर्वन्ति । तन्मते ततोभोः । तत्रभोः । इत्यत्रापि स्यात् ॥ कश्चित्तु भवदाद्ययोगेपि वप्तसाविच्छति । न गमिष्यसि । कं यामि ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायों श्रीसिद्ध हेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्तावष्टादशः सर्गः ॥ १ए भवता. २ ए "ता । अ. ३ ए वते । अत्र. बी वते . ४ ए 'युष्मादि'. ५ ए राम्यान्ता. ६ बी सी चित्तु भ. ७ ए सौ भे आ. सी सौ मा आ. ८ सी ष्यति । कं. ९बी "सि । किं या'. १०बी 'वो सिद्धहे. ११५ श्रीहे. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये एकोनविंशः सर्गः। ख्यातो बहुत्र सर्वत्रेहैव भैमिरथावसत् । रणेचें पतितान्कुत्राप्यरीन्खान्काप्यशोधयत् ॥ १॥ १. अथ भैमिरिहैव रणभूनिकट एवावसत् । कीहक्सन् । आनविजयेन बहुत्र बहुषु स्थानेषु सर्वत्र जगत्रयेपि ख्यातः । ततश्चात्र रणे कापि स्थानेरीन्पतितानशोधयदगवेषयत् । कापि च स्वान्स्वकीय. भटान्पतितानशोधयद्रणभूमिमशोधयदित्यर्थः । क । कुत्र । अत्र । इह । इत्येते "क." [ ९३ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ सर्वत्र । बहुत्र । इत्यत्र “सप्तम्याः" [ ९४ ] इति त्रप् ॥ नैकां नान्यदोत्सेको न कदाचिन्न सर्वदा । हीः प्रत्युत तदाँ तस्य यदासीजयकीर्तनम् ॥ २॥ २. यदा तस्य भैमेर्जयकीर्तनमासीत्तदा प्रेत्युतेति विपरीतफलोपदर्शने । तस्य हीर्लज्जासीत् । यस्मान्महापुरुषत्वात्तस्यैकदोत्सेकहेता. वेकस्मिन्विवक्षिते शत्रुविजयरूपाभ्युदयकाल उत्सेक औद्धत्यं नासीत्तथान्यदा शत्रुविजयाभ्युदयकालादन्यस्मिन्नप्यभ्युदयकाले तस्योत्सेको १बी हुत्व सौ. २ ए वत्र है'. ३ बी रवाव'. ४ बी णेप्रप. ५ सी रीन्वीक्ष्याप्य'. ६ सी दा मान्य'. ७ सी दासी. १सी हुबहुस्सा. २ए मिशों'. ३ ए हुव । ३. ४ बी स्य भीमे'. ५ सी प्रत्येति. ६ बी हीलज्जा. ७५°न्यदो श. ८ बीस्योच्छेको. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ] नासीत् । न तस्यान्यदोत्सेकोभवत्ति कदाचिन्नासीत्सर्वदा वेत्याह । न कदाचिन्न सर्वदा न स्तोकेनापि सर्वस्मिन्नपि काल इत्यर्थः ॥ कदाचित् । यदा । तदा । सर्वदा । एकदा । अन्यदा । इत्यत्र "कियत्" [ ९५ ] इत्यादिना दा॥ आन्नदूतोभ्यगादेतद्देचे चेति सदा पटुः। यत्तदानीं व्यधत्तानो न तत्सन्मन्यतेधुना ॥३॥ ३. स्पृष्टः । किं त्वेतस्मिन्प्रस्तावेभ्यगा मिमभ्याययौ । ततः सदा पटुर्वाग्मी( गग्मी ? ) सन्नूचे च । यद्विग्रहादि । तदानीं कल्ये । न सन्मन्यते मया भद्रं न कृतमिति जानातीत्यर्थः ॥ क्षात्रो धर्म इदानीमस्त्यद्याद्यानां कथा ऋताः । यत्सद्यो मूर्छिते शत्रौ परेद्यवि कृपां व्यधाः ॥४॥ ४. इदानीं कलिकालेपि क्षात्रो धर्मः पतितप्रहाराकरणादिः क्षत्रियाचारोस्ति । तथाद्यानां रामचन्द्रादीनां कथा अद्य ऋताः सत्या बभूवुः । अनेन क्षत्रियोचितयुद्धेन कृत्वा त्वया पूर्वे क्षत्रियाचारयोधिनोद्य सत्यीकृता इत्यर्थः । शत्रावान्ने । परेद्यवि परस्मिन्नहनि । शिष्टं स्पष्टम् ॥ सदा । अधुना । इदानीम् । तदानीम् । एतर्हि । इत्येते "सदा०" [ ९६ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ सथः । अघ । परेचवि । इत्येते "सद्योध" [ ९७ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ १ए तोभागातर्थनेचेति. २ बी गादैतब्यूचेति. ३ बी तान्ये न. ४ सी नीनस्तदाद्यानां. ५ बी मस्तया. १ ए सी नन्वस्या'. २ सीधः ॥ य. ३ सी यदेत्या'. ४ सी स्पष्टम् । किं. ५ ए वेभ्यागा'. ६ ए सचेव । य. ७ ए बी द्रं कृ. ८ ए योधनों'. ९ सीम् । ए. १० सी 'त्याः ॥ पू. ११बी अधः । प. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.२.१००.] एकोनविंशः सर्गः । ४९३ पूर्वेधुंरपरेयुधान्येधुरन्यतरेगुरु । तुभ्यं द्रुह्यन्ति ये दर्पादुत्तरेयुः पतन्ति ते ॥५॥ ५. स्पष्टः । किं तु उ हे चौलुक्य । उत्तरेयुरप्रेतनेह्नि ।। नोभयेयुर्व्यधात्कर्णो नोभयधुर्यदर्जुनः । अधरेयुर्व्यधास्तत्त्वमितरेयुः करोषि किम् ॥ ६॥ ६. स्पष्टः । कि तूभयेधुर्दिनद्वये । यदन्योन्यं युद्धम् । कर्णार्जुनौ हि दिनद्वयं मिथो युद्धाविति पुराणम् । अधरेयुरधरस्मिन्नहनि दिनस्यान्त्ये याम इत्यर्थः । तन्निरुपमविजयफलं महायुद्धम् । इतरेयुरधरस्मादह्रोन्यस्मिन्नह्नि करोषि किं विधेयस्यातिस्तोककालेपि विहितत्वाच्छेषकाले किं करिष्यसीत्यर्थः ॥ पूर्वेधुः । अपरेघुः । अधरेधुः । उत्तरेयुः । अन्येषुः । अन्यतरेधुः । इतरेघुः । अत्र "पूर्वापर०" [ ९८ ] इत्यादिनैद्युस् ॥ उभयद्युः । उभयेयुः । अत्र "उभयाद् धुश्च" [९९] इति धुसू एधुस् च ॥ न परुन परार्यासीन बहुर्हि न कर्हिचित् । चौलुक्यैर्विग्रहो नः किं त्वकसादेष ऐषमः ॥७॥ ७. स्पष्टः । किं तु बहुर्हि बहुषु संवत्सरेषु । कर्हि चित्कस्मिन्नप्यनद्यतने काले । अकस्मादतर्कितम् । ऐषमोस्मिन्संवत्सरे ॥ अकुप्यत्सर्वथा यहि कथंचित्ते पितामहः । तयपीत्थं व्यधानानो भक्तिं तु बहुधाकरोत् ॥ ८॥ १ सी 'युश्चा'. २ सी "न्ति । स्पष्ट उ. ३ बी भयेथु. ४ बी सीप एष. ५ ए था याहि. . १बी टः । उभ. २ बी सी स्यान्ते या. ३ ए म् । अत'. ४५ 'ले किं करोष्यतीत्य'. ५ ए सी दिनेधु. ६५ °स् ॥ न. ७ सी दुषु. ८ बीतम् । एमेस्मि'. सी त एष. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ८. स्पष्टः । किं त्वकुप्यदान्नं प्रति । ते पितामहो जयसिंहः । इत्थ १ मिममेतं वा विग्रहलक्षणं प्रकारं न व्यधात् । बहुधा बहुभिः प्रकारैः ।। ऐषमः । पैरुत् । परारि । इत्येते " ऐषमः ० " [ १०० ] इत्यादिना निपात्याः ॥ कर्हिचित् । यहि । तर्हि । बहुर्हि । इत्येतेषु " अनद्यतने हिं ( र्हिः )" [ १०१ ] इति र्हिः ॥ ४ सर्वथा । इत्यत्र " प्रकारे था" [ १०२ ] इति था ॥ 1 कथंचित् । इत्थम् । एतौ " कथमित्थम्” [ १०३ ] इति निपात्यौ ॥ बहुधा । इत्यत्र “संख्याया धा” [ १०४ ] इति धा ॥ चिकीर्षत्यान ऐकध्यं पूर्व स्नेहं द्विधाकृतम् । तितिक्षस्वैकधैकध्यमपराद्धं तदास्य तत् ॥ ९ ॥ ९. आन्नो द्विधाकृतमनेन विग्रहेणैकं सन्तं द्वौ कृतं पूर्वस्नेहमप्रेतनी प्रीतिमैकध्यमनेकं सन्तमेकमभिन्नं चिकीर्षति मैत्रीं चिकीर्षतीत्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोस्तदानन्तरातीतदिनेस्यान्नस्यापराद्धं विग्रहलक्षणमैकध्यं प्रसादकरणरूपेणैकप्रकारेण तितिक्षस्व सहस्व । किंभूतम् । एकधानेकदुर्वाक्यप्रहाराद्यपेक्षयानेकं सदेकविग्रहापेक्षयैकमान्नस्यैकमपराद्धं प्रसद्य सहस्वेत्यर्थः ॥ द्वेधा त्रेधापराद्धेपि द्वैधं त्रैधमिवैकधा । प्रार्थितानां सतां चेतो द्वैधं त्रैधं च नो भवेत् ॥ १० ॥ १०. द्वेधा त्रेधा द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां त्रिभिः प्रकारैर्वा पराद्धेपि द्वि १ "क". १ सीतं च वि. ५ बी नीं प्रति ९ सी राधेपि. €. त्रि, २ सी रात. ३ ए भवत्. २ बी सी 'रैः । एष ६ बी 'रूपप्र ३ बी परत. ७ ए बी राधं प्र. ४ बी रे वा ८ सीभ्यां Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है. ७.२.१०८.] एकोनविंशः सर्गः। ५९५ निर्वापराचे कृतेपीत्यर्थः । सतां सज्जनानां चेतो न भवेत् । कीदृशम् । द्वैधमेकं सत्तोषातोषाभ्यामुभयरूपं त्रैधं चैकं सत्तोषातोषमिश्रत्वैत्रिरूपं च । कीदृशां सताम् । प्रार्थितानां मैत्र्यर्थं याचितानाम् । कथम् । एकैधैकप्रकारेण सकृदित्यर्थः । किंवत् । द्वैधं त्रैधमिव । द्वाभ्यां प्रकाराभ्यामिव त्रिभिः प्रकारैरिव वा । अनेकशो याचितानामिव सकृद्या. चितानामपीत्यर्थः । तस्मादान्ने प्रसन्न एव भवेति सकलश्लोकस्य भावार्थः ॥ द्वेधा त्रेधा न भाव्यानो द्वैधस्वैधश्च मा स भूः। सकृविस्त्रिश्चतुः पञ्चकृत्वो वागः सहेन्महान् ॥ ११ ॥ ११. आन्नो न भावी । कीदृक् । द्वेधा भक्तोभक्तश्च । तथा त्रेधा भक्तोभक्तो मिश्रश्च । अत्यन्तं भक्त एव भविष्यतीत्यर्थः । तथा त्वमपि मा स्म भूः । कीदृक् । द्वौ विभागौ प्रकारौ वास्य द्वैधः प्रसन्नोप्रसन्नश्चैवं त्रैधश्च । उत्तरार्ध स्पष्टम् ॥ द्विधाकृर्तम् । अत्र "विचाले च" [१०५] इति धा ॥ ऐकष्यं तितिक्षस्व एकधा प्रार्थितानाम् ॥ विचाले । ऐकध्यं चिकीर्षति एकधापराद्धम् । अत्र "वैकाथ्यमन्" [१०६ ] इति ध्यमञ् ॥ द्वैधं त्रैधं प्रार्थितानाम् । द्वेधी त्रेधापराद्धे ॥ विचाले । द्वैध त्रैधं मनः (घेतः) । द्वधा । त्रेधा । इत्यत्र "द्वित्रे०" [ १०७ ] इत्यादिना धमजेधौ । द्वैधः । त्रैधः । अत्र "तेति धण्" [ १०८ ] इति घण् । १बी मा साभूः. १एपं । की. २ सी नां मत्यर्थया'. ३ ए कधेक. ४ बी चिना'. ५ सीर्थः । दैना त्रैषा. ६ए था वैधा. ७ बी मा साभूः. ८ बी दौ भा'. ९सी त । अ. १० ए धाप'. ११ ए दविधति धम् । प. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पञ्चकृत्वः । अत्र "वारे कृत्वस्" [१०९] इति कृत्वस् ॥ द्विस्त्रिश्चतुः । इत्यत्र "द्वित्रि०" [ ११० ] इत्यादिना सुच् ॥ सकृत् । इत्यत्र "एकारसकृञ्चास्य" [११] इति सुच् सकृदित्यादेशश्च ॥ बहुधा गणधा तावद्धा वा वक्ष्याम्यहं यथा । भवेत्यागागतः स्नेहो युवयोः प्रागिवाधुना ॥१२॥ १२. बहवः प्रभूता गणाः समुदायभूतास्तावन्तश्च कियन्तोपि विवक्षिता आसन्ना वारा अस्य वचनस्य बहुधा गणधा तावद्धा वा तथाहं वक्ष्यामि यथा युवयोः प्राक्प्राचः कालादागतश्विरकालीन ईत्यर्थः । स्नेहः प्रागिव प्राचि काल इवाधुनापि भवेत् ॥ रमणीयं यथासीत्प्राक्सिद्धेशे प्राग्गतागते । भृत्येनान्नेन देवात उपर्यपि तथास्तु ते ॥ १३ ॥ १३. हे देव भैमेतोस्य वर्तमानकालस्योपर्यप्यूर्ध्वकालेपि ते वव भृत्येनानेन कृत्वा प्राक्प्राची दिग्देशो वावन्तयस्तथा रमणीयं त्वदाज्ञामनोज्ञमस्तु । यथा सिद्धेशे जयसिंहे सति प्राक्प्राची दिग्देशः कालो वा रमणीयं जयसिंहाज्ञया मनोज्ञमासीत् । किंभूते । प्राग्गतागते गतश्वासावागतच गतागतस्तस्मिन्प्राक्प्राच्यां दिशि देशे वा मालवेषु यशोवर्मनृपजयाय गते प्राच्या दिशो देशाद्वा विजित्यागते च । आनेन सह तव सख्य आन्नमाश्रितोवन्तिपतिर्बल्लालोपि त्वत्किंकरो भविष्यत्यतो यथा सिद्धेशाज्ञयावन्तयः प्राग्रमणीया आसंस्तथाधुना त्वदाज्ञ१बी वा पक्ष्या'. २ ए मणी य'. ३ बी देवता उ. १ए 'नां चारा. २ बी इत्यः स्ने'. ३ ए यं त्वादा'. ४ हाज्ञाया. ५ए गतश्चासावगत आगता. ६सी श्च तस्मि'. ७सी 'शि दिशो वा. ८ ए बी शोधर्म. ९ सी 'यादाग'. १० बी देशका वितिजि . ११ सी वे आ. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ७.२.११२.] एकोनविंशः सर्गः । ४९७ यापि सन्त्वित्यर्थः । क्रियाव्ययविशेषण इति वचनाद्रम्य( मणीय ? )मित्यत्र क्लीबता । एवमग्रेपि ॥ अत इत्यत्र "आद्यादिभ्यः" [ ७. २. ८४ ] इति षष्ठ्यर्थे तस् । " रिरिष्टोत्" [२. २. ८२] इत्यादिना रियोगे पठ्या विधानात् ॥ उपरिष्टाद्गते सिद्धेधस्तादिन्द्रस्त्वमागमः । द्वयं युवाभ्यां भोक्तव्यमानस्तज्ज्ञातवान्न हि ॥ १४ ॥ १४. हे भैमे त्वमुप(त्वमिन्द्र उप?)रिष्टादूर्वाया दिशो देशाद्वा स्वर्गात्सकाशादधस्तादधरस्यां दिशि देशे वा मर्त्यलोक आगम आगतः । क सति । सिद्धे जयसिंहेधस्तान्मर्त्यलोकात्सकाशादुपरिष्टास्वर्गे गते प्राप्ते । ततश्च द्वयमुपरिष्टादधस्ताच्च स्वर्गों मर्त्यलोकश्च युवाभ्यां भोक्तव्यमुपभोग्यम् । तत्तु स्वर्गः सिद्धेन भोक्तव्यो मर्त्यलोकश्च त्वयेत्येतदान्नो मर्त्यलोकोपभोगवाञ्छया त्वया सहैवं युद्धकरणेन न हि नैव ज्ञातवान् ।। खेचराः कौतुकं द्रष्टुं ये यान्त्यायान्त्युपर्यधः । अस्तु रम्यं द्वयं तेषां युन्मैत्रीवार्तयाद्य वाम् ॥ १५ ॥ १५. ये खेचरा विद्याधराद्याः कौतुकं रणकुतूहलं द्रष्टुं यान्ति । क । उपयूँ/यां दिशि देशे वा स्वर्गे तथाधश्चाधरस्यां दिशि देशे वा पाताले च । तथा य आयान्ति मर्त्यलोक आगच्छन्ति । कुतः । उपर्यधश्च स्वर्गात्पातालाच्च । कौतुकं द्रष्टुं लोकत्रयेपि ये भ्राम्यन्तीत्यर्थः । तेषां खेचराणामद्यास्मिन्दिने वां युवयोर्युन्मैत्रीवार्तया रणसख्ययो. १ सी 'यावि'. २ सी °स् । अरिष्टा'. ३ ए 'टादिना. ४ ए तश्चादमु. ५ बी °ो मृत्युलो'. ६ए °न हि. ७ बी वा पा. ८ सी लादा । कौ'. ९ बी योन्मै. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ ख्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] त्तान्तेन कृत्वा द्वयमुपर्यधश्च रम्यमस्तु । युवयोः संबद्धां युन्मैत्रीवाता स्वर्गे पाताले च खेचराः कुर्वन्त्वित्यर्थः ॥ पुरस्तादुदयत्यंशाववस्ताच त्वयि प्रभो। अर्धाञ्जलिं करोत्वानो रम्यमस्तु द्वयं च तत् ॥ १६ ॥ १६. हे प्रभो आनः पुरस्तात्पूर्वस्यां दिशि देशे वावस्ताच्चावरस्यां दिशि देशे वापि गूर्जरत्रायां च रविं त्वां चोद्दिश्यार्धाञ्जलिं पूजार्थमञ्जलिं करोतु । क सति । अंशौ रवौ । कीदृशे। पुरस्तात्पूर्वस्या दिशो देशात्कालाद्वा प्रभातात्सकाशादुदयत्युदयं गच्छति । तथा त्वयि च । कीदृशे । अवस्तादवरस्याः पश्चिमाया दिशो देशाद्वा गूर्जरत्रायाः सकाशादुदयति वृद्धिं गच्छति । ततश्चार्यत्वात्तहयं पुरस्तादवस्ताच रम्यमस्तु । योधो याति पुरोवश्च येन रम्यं त्रयं च तत् । तसान्नित्योदयोन्योसि भावान्मोहात्तु नार्चितः ॥ १७ ॥ १७. यो भास्वानधोधरैस्या दिशो देशाद्वा समुद्रमध्यात्सकाशादुदयकाले पुरः पूर्वस्यां दिशि देशे वा याति । तथा यः पुरः पूर्वस्या दिशो देशाद्वा सकाशादपराह्नेबोवरस्यां पश्चिमायां दिशि देशे वा याति तथा योवंश्च पश्चिमाया दिशो देशाद्वा सकाशादस्तकालेधोब्धिमध्ये याति । अस्तकाले हि रविः पश्चिमौब्धिमध्ये मजति प्रातश्च पूर्वाब्धिमध्यादुदेतीति रूढिः । तथा येन च भास्वता तत्रयमधः पुरोवश्व १ ए मासान्मो'. २ बी नाचितः. १ बी शेव. २ ए 'शाकालादायप्र. ३ सी दा समुद्र. ४ बी 'रस्यां दि'. ५ ए ध्यासका. ६वी वस्यां दि. ७ सी शादस्त. ८बी व प. ९ ए यास्ति । म. १०९ °माध्यमञ्ज. ११ सी पिचम'. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.१.११.] एकोनविंशः सर्गः । ४९९ प्रकाशितत्वाद्रम्यं तस्माद्भास्वतः सकाशादसि त्वमन्यो मिनो भावाब्रविः । यतो नित्योदयः । मोहात्त्वज्ञानात्पुनस्त्वमान्नेन नार्चितः ।। बहुधा । इत्यत्र "बहोर्धासने" [ २] इति धा ॥ एके तु । गणधा । तावद्धा । अत्रापीच्छन्ति ॥ प्राग्रमणीयम् । प्रागागते । प्राग्गते ॥ काले । प्रागागतः । प्रागिव । इत्यत्र “दिक्शब्दाद्" [१३] इत्यादिना धा ॥ उपरि रम्यम् । उपरिष्टागोक्तव्यम् । उपरि आयान्ति । उपरिष्टादागमः। उपरि यान्ति । उपरिष्टाद्गते ॥ काले । अत उपरि । अत्र "ऊर्धादि०" [११४ ] इत्यादिना रिरिष्टातावूर्ध्वस्य चोपादेशः ॥ पुरः पुरस्तादम्यम् । पुरः सकाशाद्याति । पुरस्तात्सकाशादुदयति । पुरो याति । पुरस्तादर्घाञ्जलिम् ॥ अवः अवस्तादम्यम् । अवः सकाशाद्याति । अव. स्तात्सकाशादुदयति । अवो याति । अवस्तादर्घाञ्जलिम् ॥ अधो रम्यम् । अधस्ता. भोक्तव्यम् । अर्धः सकाशाद्याति । अधस्तात्सकाशाद्गते । अधो याति । अधम्ता. दागमः । अत्र "पूर्वावर०" [११५] इत्यादिना-अस्-अस्तातौ । पूर्वावरीधराणां च पुर-अवू-अधादेशाः ॥ परस्तादवरस्ताद्यात्वायात्वान्नस्त्वदाज्ञया । दक्षिणेतोथोत्तरतस्तच्चतुष्कं वशं हि ते ॥ १८ ॥ १८. त्वदाज्ञयान्नः परस्तीदवरस्तादक्षिणत उत्तरतश्च पूर्वपश्चिमाद१ बी दक्षण'. २ सी गत उत्त'. ३ ए "तुष्कव'. १बी काशत्वा'. सी काशत'. २ सी भिनवो भा'. ३ ए तो मि. त्याद'. ४ बी हाच्चशा. ५ बी नेना. ६ सी रिष्टा. ७ एति । अव. ८ बी धः शका. ९बी अधःस्ता. १० ए सीराणां. ११ सी या प. १२९ स्वान्दक्षि'. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] क्षिणोत्तरासु दिक्षु देशेषु वा यातु स्वेच्छया विचरतु । तथा त्वत्सेवाद्यर्थ पूर्वपश्चिमादक्षिणोत्तराभ्यो दिग्भ्यो देशेभ्यो वा त्वत्पार्श्वमायातु । हि यस्मात्तच्चतुष्कं परस्तादवरस्ताद्दक्षिणत उत्तरतश्च ते वशं जितत्वादायत्तमस्ति । परतोवरतो यात उत्तराद्दक्षिणादथ । त्वत्सैन्यस्याग्रगोस्त्वान्नो वश्यं यद्यपि तत्तव ॥ १९ ॥ १९. आन्नस्त्वत्सैन्यस्याग्रगोस्तु। कीदृशस्य सतः । यद्यपि तत्परतोवरत उत्तरदक्षिणाच्च पूर्वपश्चिमादक्षिणोत्तरा दिशो देशा वा तव वश्यं तथापि कौतुकादेशश्रीदर्शनाद्यर्थ यातो विचरतः । क । परतः सकाशादवरतस्तथावरतः सकाशात्परतोथ तथोत्तरात्सकाशादक्षिणोत्तथा दक्षिणात्सकाशादुत्तरात् । चतुर्वपि दिक्षु देशेषु वेत्यर्थः ।। यात ऐतोधरात्पश्चाद्रामरूपेण यः फैणी । यत्कीां तवयं रम्यं वेत्त्यानस्त्वां तमोजसा ॥ २० ॥ २०. यः फणी शेषाहिरधरादधरस्या दिशो देशोद्वा पातालाद्रामरूपेण बलभद्रमूर्येत आगतः । क । पश्चादपरस्यां पश्चिमायां दिशि देशे वा सुराष्ट्रासु । यो मर्त्यलोकेवतीर्ण इत्यर्थः । बलभद्रो हि शेषावतार इति रूढिः । तथा यश्च पश्चात्सुराष्ट्राभ्यो मर्त्यलोकत्सकाशादि १ बी सी रादक्षि. २ बी दश्च । त्व. ३ सी एवाध'. ४ ए फणी: । य. १बी वा तत्पा. २ए °स्ताई. ३ सी 'त्तश्च. ४बी दायात'. ५ सी वतर. ६ बी र उ. ७ बी सी रादक्षि. ८ए °श्चिमद. ९ बी शाद्वा त'. १० सी रतः स. ११ ए वतर. १२ सी णात्स. १३ ए त्तद. १४ बी शात्तथादु. १५ सी शात्पाता: १६ बी धः । तथा यत्की. १७ सी काशा. . Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.११९. ] एकोनविंशः सर्गः । ५०१ त्यर्थः । अधरात्पाताले यातो गतः पुनः शेषाहि रेवाभूदित्यर्थः । तथा यत्कीर्त्या हूयमधरात्पश्वीच पातालमर्त्यलोकावित्यर्थः । रम्यमोजसा बलेन कृत्वा तं शेषाहिं शेषतुल्यबलमित्यर्थः । त्वामान्नो वेत्ति ॥ परस्तात् अवरस्ताद्वशम् । परस्तादवरस्तादायातु । परस्तादवरस्ताद्यातु । इत्यत्र “पर०” [ ११६ ] इत्यादिना स्तात् ॥ दक्षिणत उत्तरतो वशम् । दक्षिणत उत्तरत आयातु । दक्षिणत उत्तरतो यातु । परतोवर तो वश्यम् । परतोवरतः सकाशाद्यातः । परतोवरतो यातः । अत्र " दक्षिण०" [ १७ ] इत्यादिना तस् ॥ अधरात् पश्वाद्रम्यम् । अधरात्पश्वादेतः । अधरात्पश्वाद्यातः दक्षिणादुतेराद्वश्यम् । दक्षिणादुत्तरात्सकाशाद्यातः । दक्षिणादुत्तरायातः । अत्र "अधर०" [ ११८ ] इत्यादिना -आत् ॥ वसता दक्षिणा रम्यं येन तस्य मुनेः समम् । मात्रा सह गुरुं प्रैषीदान्नस्ते दातुमात्मजाम् ॥ २१ ॥ २१. आन्नस्ते तुभ्यमात्मजां दातुं मात्रा + पुत्रीजनन्या सह गुरुं पुरोहितं प्रेषीत् । कीदृशम् । तस्य मुनेरर्गेस्त्यस्य प्रभावादिना समं तुल्यम् । येन मुनिना कृत्वा दक्षिणा दक्षिणा दिग्देशो वा रम्यं पवित्रम् । यतो दक्षिणा दक्षिणस्यां दिशि देशे वा वसता तिष्ठता ॥ ५ दक्षिणा रम्यम् । दक्षिणा वसता । इत्यत्र "वा दक्षिणात् ०" [११९] इत्यादिना - आवा ॥ पक्षोदाहरणानि प्राक्तनान्येव ज्ञेयानि ॥ १ बी सी गुरमै'. १ ए ंश्चान्वपा. २ए 'गस्तस्य. ५ सी 'क्षिण'. तो । उ°. ६ एम् । याद'. ३ ए तरायातः । अत्र. ४ बी + पञ्चाशत्तमश्लोकस्थेन पितामहीसममित्यनेन विरोधं परिहृतुं स्वजनन्या इत्यावश्यकमिति भाति । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाठः यदितो दक्षिणा रम्यं स्थितैलॊकैस्ततोपि यत् । दक्षिणाह्यागतस्तत्र गुरुरानस्य तिष्ठति ॥ २२ ॥ २२. इतः स्थानाद्दक्षिणा दक्षिणस्यां दूरवर्तिन्यां दिशि देशे वा स्थितैर्लोकः कृत्वा यदक्षिणा रम्यं या दक्षिणा दूरा दिग्देशो वा रम्यस्ततोपि दक्षिणस्या दिशो देशाद्वापि परं यद्दक्षिणाहि या दूरा दक्षिणा दिग्देशो वास्ति तत्र दक्षिणाहि दक्षिणस्यां दूरायां दिशि देशे वागत आन्नस्य गुरुस्तिष्ठति ॥ दक्षिणा रम्यम् । दक्षिणा स्थितैः। दक्षिणाह्यस्ति । दक्षिणाह्यागतः। अत्र "नाही दूरे" [ १२० ] इत्याहिप्रत्ययौ ॥ यैः ख्यातमुत्तरा जातैवर्धितैरुत्तराहि सत् । तानश्वान्प्राहिणोदानो दातुमुद्वाहमङ्गले ॥ २३ ॥ २३. उत्तरोत्तरस्यां दिशि देशे वा केकाणे जातैः केकाणाश्वैः कृत्वोत्तरोत्तरा दिग्देशो वा ख्यातं तथोत्तरायुत्तरस्यां दिशि देशे वा वर्धितैर्वृद्धिं नीतैर्यैः कृत्वोत्तराहि सच्छोभनम् । उत्तरार्ध स्पष्टम् ।। उत्तरा ख्यातम् । उत्तरा जातैः । उत्तराहि सत् । उत्तराहि वर्धितैः । अत्र "वोत्तरात्" [१२१] इत्याही वा ॥ पक्षोदाहरणानि प्राकनान्येव ॥ जातैर्विन्ध्याद्रेः पूर्वेणोत्तरपश्चादपाक्तथा । पश्चाच्छाध्यं च यैस्तान्स प्राहिणोत्त्वत्कृते गजान् ॥२४॥ २४. स आनस्त्वत्कृते तानगजान्प्राहिणोत् । भद्रजातीयत्वेन यैः १५ णात्याग'. २ ए तैरु. ३ बी हि तत्. ४ ५ त् । न. ५ बी "श्वाड्राध्यं. १ए दक्षणाहि दक्षण २ए °णाहस्ति. ३ बी सी 'त्यादिप्र. ४ एयौ। मै ख्या'. सी यौ । खैः ख्या'. ५ ए काणे जा. ६ बी सी 'त्तरा'. •ए 'शो व्याख्या. ८५°हि व. . ९ पक्षोह'. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.१२५. ] एकोनविंशः सर्गः । ५०३ कृत्वा श्लाघ्यम् । किम् । विन्ध्याद्रेर्विन्ध्यशैलात्पूर्वेण पूर्वादूरा दिग्देशो वा । तथोत्तरपश्चादुत्तरी च सापरा चोत्तरापरा दिग्देशो वा वायव्यकोणस्तथापागपाची दक्षिणा दिग्देशो वा तथा पश्चाचापरा पश्चिमा दिग्देशो वा । उपलक्षणत्वाद्विन्ध्याद्रेरष्टापि दिशो देशा वेत्यर्थः । यतः । किंभूतैः । जातैः । क । विन्ध्याद्रेः पूर्वेण । तथोत्तरपश्चात्तथापाक्तथा पञ्चाच्च पूर्वेण श्लाघ्यम् ॥ ४ पूर्वेण जातैः । अत्र “अदूरे एनः " [ १२२ ] इत्येनः ॥ अपाक् श्लाध्यम् । अपाग्जातैः । अत्र “लुबञ्चे:" [ १२३ ] इति धात्व यस्य लुप् ॥ पश्चात् । उत्तरपश्चात् । अत्र “पैश्चः ०" [ १२४ ] इत्यादिना पश्चादेशः ॥ इत्युक्त्वोत्तरपश्चार्धभूपते स्थितेत्रवीत् । क्ष्मापरार्धं खपश्चार्धं शुक्लीकुर्वन्स्मितैर्नृपः ॥ २५ ॥ २५. स्पष्टः । किं तूत्तरपश्चार्धभूपदूत उत्तरापरस्या दिशो यदर्धमुत्तरदिग्विभागस्तस्य भूप आन्नस्तस्य दूते । क्ष्मापराधं खपश्चार्ध पृथ्व्या व्योम्नश्चापरमन्यतममँर्धं खण्डमेकमित्यर्थः । नृपो भैमिः अरूकुर्वन्रजीकुर्वन्संमुखीभवतो रणे । अस्मानप्युन्मनीकुर्वन्यूनी स्यादान्नकः कुतः ॥ २६ ॥ २६. आन्नकः कुतो न्यूनीस्याद्धीनो भवेन्न कस्मादपीत्यर्थः । कीदृक्सन् । रणे संमुखीभवतो भटानरूकुर्वन् शस्त्रव्रणवतः कुर्वंस्तथा १ बी सी 'त्युक्तो'. २ ए सी शु. २ बी 'रा चासा अप.. १ ए बी 'विन्ध्य.. देशो वे. ५ बी पश्चा इ. ६ सी 'तरस्याप'. 'पो नैमि ॥ अ. ९ सी 'तोपि न्यू. ३ बी 'क्षणाद्वि. ७ बी "मर्दा ख. ४ सी ८ ए Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] रजीकुर्वन्धूलीकुर्वस्तीव्रप्रहारै चूर्णीकुर्वन्नित्यर्थः । अतिविक्रान्त इत्यर्थः । अत एवास्मानप्युन्मनी कुर्वन् सङ्गेमायोत्कण्ठयन्नित्यर्थः । साश्चयीं कुर्वनित्यर्थो वा ॥ ५०४ उच्चक्षूभवतोचेतीभवतो मूर्छया भटान् । रहीभूते रणे नाहन्यः श्लाघाः कथं न सः ॥ २७ ॥ 3 २७. स आन्नः कथं न श्लाघाः । यः क्षत्रियोत्तमत्वाद्रणे भटानाहं । किंभूतान् । मूर्छया तीव्रप्रहारोत्थमोहेनोच्चक्षूभवत उद्घान्तेनेत्रगोलकी भवतस्तथा चेतीभवतो चेतनीभवतः । अत एव किंभूते रणे । रहीभूते रहसि रहसि भूते भटानां मूर्छितत्वेनासत्कल्पत्वाच्छ्रेन्यीभूत इवेत्यर्थः ॥ पश्चार्धम् । अपरार्धम् । उत्तरपश्चार्ध । इत्यत्र "वोत्तर ० " [ १२५ ] इत्यादिना वा पश्चादेशः ॥ उत्तरापरार्धम् । इति पक्षोदाहरणं ज्ञेयम् ॥ शुक्कीकुर्वन् । संमुखीभवतः । न्यूनीस्यात् । अत्र “कृभू० " [ १२६ ] इत्यादिना चिवः ॥ अरूकुर्वन् । उन्मनीकुर्वन् । उच्चक्षूभवतः । अचेती भवतः । रहीभूते । रजीकुर्वन् । इत्यत्र "अरुर्मन ० " [ १२७ ] इत्यादिना च्वावन्तस्य लुक् ॥ सर्पीकृत्यादति भटान्संबन्धोप्यत्र युज्यते । धनूभवति वंशे हि गुणः श्लाघास्पदं भवेत् ॥ २८ ॥ १ सी 'त्यादिति. ५ बी सी गुण श्रा १ सी व्यर्थादत. मूं. ६ ए न्ततत्र ं. “च्छून्यां भू. १० सी I २ बी संबोधोप्य'. ३ एते । घेनू ४ बी वंशो हि . ६ ए श्लाघ्यास्प'. २ एङ्गमयो'. . ६ बी 'चेत'. वार्षः । अँ. घाहें न यः . ४ सी न् । ८ बीरभू. ९ ए ३ सी ७ सी सि भू. ११ सी रजी, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ०.२.१२९.] एकोनविंशः सर्गः । २८. स्पष्टः । किं तु सकृित्यादति भटान् सीपीवे सुखेन भटा. न्संहरमाण इत्यर्थः । संबन्धो विवाहेन स्वजनसंबन्धः । अत्रानवि. षये । धनूभवति चापीभूत इत्यर्थः । गुणो ज्या । यथा धनूभूतो वंशो गुणारोपयोग्यस्तथैव विक्रान्त आनोपि संबन्धयोग्य इत्यर्थः ॥ आन्न एवेदृशो नान्यः कश्चिद्भवितुमर्हति । __ सर्भिवति किं तैलं धनुर्भवति किं नडम् ॥ २९ ॥ २९. स्पष्टः । किं त्वीदृशो विक्रान्तत्वादिगुणोपेत आन्न एव भवितुमर्हति नान्यः कश्चित् । नडं तृणभेदः ॥ सपीकृत्य । धनूभवति । इत्यत्र "इसैंसोर्बहुलम्" [ १२८] इति वाव. न्तस्य बहुलं लुप् । न च स्यात् । सर्पिर्भवति । धनुर्भवति ॥ यथार्को दृषदीभूतं कुर्यादुदकसाद्धिमम् । आनभक्तिदृषद्भूतमसदीयं मनस्तथा ॥ ३० ॥ ३०. यथा रविर्हिमं दृषदीभूतं शीतेन पाषाणतुल्यीभूतं सदुदकसाकुर्यात्सर्वमप्युदकीकरोति तथान्नभक्तिरस्मदीयं मनो दृषद्भूतं कोपाकठोरीभूतं सदुदकसात्कुर्यादाीकरोति प्रसन्नं करोतीत्यर्थः ॥ आनो भक्त्यानया मित्रसात्स्यात्संबन्धिसाद्भवेत् । सर्वोप्येवं सखिसात्स्यात्संपद्येत च बन्धुसात् ॥ ३१ ॥ ३१. स्पष्टः । किं तु मित्रसात्स्यान्मित्रीभवेत् । संबन्धिसाद्भवेत्संबन्धीभवेत् । एवं भक्त्या कृत्वा ॥ १९ घेति च. १ सीत्यादिति. २ सी 'बतेत्यत्र जाते संपदा च इति स्सा. (३३ लोको द्रष्टव्यः). ३ बी माणेस. ४ए ये । धेनू. ५ए था धेनू. ६५ °थैवं विक्रीत आ. ७ एत्य । धेनू. ८ बी सुमोबा. ९ ए वेद । ए. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] भक्त्यान्नस्य प्रसादो नः सुघटोनन्यसात्कृतः। वर्षासु कोम्बुसात्कुर्याल्लवणं हि स्वयं भवेत् ॥ ३२ ॥ ३२. नोस्माकं प्रसाद आन्नस्य भक्त्या का सुंघटः सुखेन घट्यते क्रियते सुघटः । यत आन्नभक्त्यानन्यसात्कृतो नान्यत्राधीनः कृत आन्न एवायत्तीकृतः । युक्तं चैतत् । हि यस्माद्वर्षासु लवणं को. म्बुसात्कुर्यादुदुकीकुर्यात्किं तु स्वयमेव लवणमम्बुसाद्भवेत् ॥ संबन्धो गुरुसात्संपद्येताथो मातृसाद्भवेत् । आत्मसात्केवलो न स्यात्तद्युक्तं तौ न्ययुत सः ॥ ३३ ॥ ३३. तत्तस्माद्धेतोः स आन्नस्तौ मातृगुरू युक्तं न्ययुत विवाहसंबन्धाय व्यापारयत् । यस्मात्संबन्धो विवाहसंबन्धो गुरुसात्संपद्येत पुरोहितेधीनो भवेत्तथा मातृसाद्भवेन्मातर्यधीनः स्यात् । आत्मसादात्मन्यायत्तः केवलोयं न स्यात् ॥ दृषदीभूतम् । अत्र "व्यञ्जनस्थान्त ई(ई:)" [ १२९] इति ब्वौ-ई (ई.)। न च स्यात् । दृषद्भूतम् ॥ उदकसारकुर्यात् । संबन्धिसागवेत् । मित्रसात्स्यात् । अत्र "व्याप्तौ स्सात्" [ ३० ] इति स्सात् ॥ वर्षासु लवणमम्बुसात्कुर्यात् । अम्बुसाद्भवेत् । सर्वोपि सखिसात्स्यात् । बन्धुसारसंपचेत । इत्यत्र "जातेः संपदा च" [१३] इति स्सात् ॥ अनन्यसास्कृतः । मातृसाद्भवेत् । आत्मसात्स्यात् । गुरुसासंपेयेत । इत्यत्र "तत्राधीने" [१३२] इति स्सात् ॥ १ए मुघंट:. २ए 'ते । य. ३ बी आन्न: म. ४ बी ययत्ती". ५ बी र्या उद'. ६ बी पद्यते पुरोहिताधी'. ७ बी °ति च्चौः ई । न च: स्या'. ८ पत्र हाते । सं. ९ए सी पचत. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.१.१३५.] एकोनविंशः सर्गः। सोस्मत्रा भाविनी कन्याममत्रा कुरुतां पुरे। असंत्री सन्त्विभाः संपद्यन्तां तत्रैव वाजिनः ॥ ३४ ॥ ३४. स्पष्टः । किं तु स आनः । अस्मत्रा भाविनीमस्मासु देयामधीनां भविष्यन्तीम् । पुरेणहिलपाटके । अस्मत्रा कुरुतामस्मदेथ प्रेषयत्वित्यर्थः । तत्रैव पुरे ।। असत्रा कुरुताम् । अस्संत्रा भाविनीम् । अस्मत्रा सन्तु । असंत्रा संपद्यन्ताम् । अत्र "देये त्राच" [ १३३ ] इति त्रा॥ येषां बहुत्रा देवत्रा भ्राम्यन्त्यद्यापि कीर्तयः । तेषां पुरं नः पूर्वेषां गुरुमाता च पश्यतु ॥ ३५ ॥ ३५. येषामस्मत्पूर्वजानामद्यापि संप्रत्यपि कीर्तयो बहुत्रा भ्राम्यन्ति देवत्रा भ्राम्यन्ति च । बहुषु देशेषु देवेषु च विज़म्भन्ते । उत्तरार्धं स्पष्टम् ॥ देवत्रा भ्राम्यन्ति । बहुत्रा भ्राम्यन्ति । इत्यत्र "सप्तमी." [ १३४ ] इत्यादिना त्रा॥ व्यसृजनं प्रतीष्योप्तकार्यबीजां स तद्गिरम् । मां द्वितीयाकृतशम्बाकृतबीजाकृतामिव ॥ ३६ ॥ ३६. स भैमिस्तं दूतं व्यसृजत् । किं कृत्वा । तद्गिरं दूतवाणी प्रतीष्याङ्गीकृत्य । किंभूताम् । उप्तं न्यस्त कार्यबीजं संधिविवाहरूपं १सी सत्राः सं. २ प त्रा सीत्वमाः. ३ ए व्यस्रज.. ४ सी 'योप्ते का. १बी सी हिलपा. २ ए दधीं प्रे'. ३ सी सास्त्राभा'. ४ सी सत्रा सं. ५ बी म्यति दे. ६ सी °वता भा. ७ बी "न्ति । ब. ८ बी धु वि. ९सी 'न्ति । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कार्यसारो यस्यां ताम् । यथा कश्चित्दमां भूमि प्रतीच्छति । किंभूताम् । द्वितीयं वारं कृता द्वितीयाकृता द्वितीयं वारं कृष्टेत्यर्थः । तथा शम्ब तिर्यकृता शम्बाकृतानुलोमं कृष्ट्वा पुनस्तियकृष्टेत्यर्थः । अन्ये त्वाहुः । शम्बसाधना कृषिरिति शम्बेन हलभेदेन कृष्ठेत्यर्थः । तथा वीजैः कृता वीजाकृतोप्ते पश्चाद्वीजैः सह कृष्टेत्यर्थः । विशेषणकर्मधारये तां तथोप्तं कार्याय धान्यनिष्पत्तिप्रयोजनाय बीजं यस्यां ताम् ।। दूतः शीघ्रं ययौ काले द्विगुणाकर्तुमुर्वराम् । कः शम्बाकृतकुलिवः समयाकुरुतेथ वा ॥ ३७॥ ३७. दूतः शीघ्रं ययौ । अर्थान्तरमाह । अथ वा लोहकाञ्ची वर्धकुण्डलिका वा शम्बमस्य क्रियते शम्बाकृतं कुलिवं हलविशेषो येन स तथा क्षेत्रकर्षणाय संजितहलं: कः कर्षकः काले वर्षासु समयाकुरुते समयं कालक्षेपं करोति । किं कर्तुम् । उर्वरा सर्वसस्यात्यां भूमि द्विगुंणाकर्तुं द्विगुणं कर्षणं कर्तुं द्विगुणं ऋष्टुमित्यर्थः । द्वितीयाकृत । शम्बाकृत । बीजाकृताम् । अत्र "तीयशम्ब०" [१३५] इत्यादिना डाच् ॥ एके तु शम्बाकृतकुलिव इत्युदाहरन्ति ॥ द्विगुणाकर्तुम् । अत्र "संख्या०" [ १३६ ] इत्यादिना डाच् ॥ समयाकुरुते । अत्र “समयाँद्" [ १३७ ] इत्यादिना डाच् ॥ १ बी कृष्लेत्य. २ बी ति वा श'. ३ ए कृतो'. ४ ए बी शेषेण. ५ सी थोप्तां का. ६ सी न्यत्ति'. ७५ वर्द्धकु. सी वर्धकु. ८ सीन था. ९ए सर्जितहलकर्ष. १० एलः कर्ष. ११ ए समाया'. १२ वी सी भूमिदि. १३ ए . गुणां क. १४ सी गुणक. १५ बी तीयेश. १६ एमकु. १७ए 'यादिना. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.२.१४०.] एकोनविंशः सर्गः। ५०९ सपत्राकृत्य निष्पत्राकृत्यान्यानपि भूभुजः । निष्कुलाकृतकर्पासाल्पान्कुर्वन्यवृतन्नृपः ॥ ३८ ॥ ३८. नृपो भैमियवृतत्स्वदेशं प्रति निवृत्तः । कीडक्सन् । अन्यानेप्यान्नादितरानपि भूभुजः कुर्वन् । किंभूतान् । निकृष्टं कुलमवयव. संघातोस्मादिति निष्कुलो निष्कुलः क्रियते स्म निष्कुलाकृतो निष्कुषित इत्यर्थः । स यः कर्पासस्तद्वदल्पानिःसारान् । किं कृत्वा । सपत्राकृत्य सपत्रान्सशरान्कृत्वा शरानेषां शरीरे प्रवेश्येत्यर्थः । तथा कांश्चन निष्पत्राकृत्य निर्गतशरान्कृत्वा शरानेषामपराधै निष्क्रमय्येत्यर्थः ॥ सपत्राकृत्य । निष्पत्राकृत्य । इत्यत्र “सपत्र." [१३८ ] इत्यादिना डाच् ॥ निष्कुलाईत । इत्यत्र "निष्कुलाद्" [ १३९ ] इत्यादिना डाच् ॥ क्ष्माप्रियाकृत्सुखाकृत्स सत्याकुर्वञ्जगजयम् । दुःखाकुर्वन्नरीशूलाकुर्वन्निव ययौ पुरे ॥ ३९ ॥ ३९. स भैमिः पुरे पत्तनसमीपे ययौ । कीहक्सन् । क्षमायाँ: प्रियाकृतामानुकूल्यं कुर्वतां राजादीनां सुखाकृद्राज्यादिदानेनानुकूल्यं कुर्वस्तथा जगज्जयं सत्याकुर्वजगज्जयस्य सत्यं सत्यंकारं कुर्वन्पराक्रमेण मयावश्यमेव जगज्जेयः क्रेतव्य इति शत्रून्प्रत्याययन्नित्यर्थः । अत एवारीशूलाकुर्वन्निव शूले पचन्निव दुःखाकुर्वन् शत्रूणां प्रातिकूल्यं कुर्वन्प्रतिकूलमाचरन्ननभिमतानुष्ठानेन तान्पीडयन्नित्यर्थः ॥ १ ए सान्कु. २ सी कृत्स. १ सी °ति वृ. २ बी नपि अन्ना'. ३ सी लमेव. ४ ए मय'. ५ए तोस्यादि. ६ सी ति निःकुलः कि. ७सी त्वा । शरामेषामपर. ८ए वेत्य. ९ए पाश्वो निष्कामयेत्य. १० बी धः । प. ११ एसी कृत्य । ६. १२ बी °दि डा. १३ बी 'याः कृ. १४ सी 'त्यंका. १५ ए जयक्रे. १६ सी 'यः कर्तव्य. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० व्याश्रयमहाकाव्ये स सत्यं कुर्वतो भद्राकृताल (ल) क्ष्म्यपहारतः । क्लैत्र्यान्मंद्राकृतंश्मश्रूनप्यरीन्गुप्तितोमुचत् ॥ ४० ॥ ४०. स भैमिरासतामन्येरीनपि गुप्तितः कारातोमुचत् । किंभूतान्तः । लक्ष्म्यपहारतो राज्यलक्ष्म्या अपहारेण भद्राकृतान्मुण्डि - सानि यथा मुण्डिता अपहृतकेशश्रीकाः स्युस्तथापहृतलक्ष्मीकानित्यर्थः । तथा कैव्यान्निःसत्त्वतया मद्राकृती तवाग्रे वयं क्लीबा नपुंसका न तु पुरुषा इति ज्ञापनाय मुण्डिती श्मश्रुयैस्तान् । तथा सत्यं कुर्वतोद्यप्रभृति वयं त्वद्दासा इति प्रत्यायनार्थं सप्रत्यय देवतादिशपथं कुर्वाणान् ।। प्रियाकृत् । सुखाकृत् । इत्यत्र “प्रिय०" [ १४० ] इत्यादिना डाच् ॥ दुःखाकुर्वन् । इत्यत्र “दुःखात् ०" [ १४१ ] इत्यादिना डाच् ॥ शूलाकुर्वन् । इत्यत्र “शूलात्पा के” [ १४२ ] इति डाच् ॥ सत्याकुर्वन् । इत्यत्रं “सत्याद् ०" [ १४३ ] इत्यादिना डाच् ॥ अशपथ इति किम् । सत्यं कुर्वतः ॥ मद्राकृत । भद्राकृतान् । अत्र “मद्र०” [ १४४ ] इत्यादिना डाच् ॥ [ कुमारपालः ] सोथ झात्कारिकाञ्चीनां स्त्रीणां झलझलाकृताम् । नेत्रैर्झलझलायद्भिः पीयमानः पुरेविशत् ॥ ४१ ॥ ४१. अथ स भैमिः पुरेविशत् । कीदृक्सन् । स्त्रीणां नेत्रैः पीयमानः सतर्ष दृश्यमान इत्यर्थः । कीदृशीनाम् । झात्कारिण्यो दि 99 १ न्द्राः कृ. १ ए भैमीरा. ५ सीतानि त 'खाहृत्. "रिण्यादि. ९ २ सी 'म. २ बी 'न्सतोऽल'. ६ सीतानि मश्रूणि यैस्ता. ७ बी यं त्वं दासा. १० बी 'त्र शूलात्पाके इति डाच् । अ°. 'नाच्. ३ सी 'हारे". ४ बी क्ष्म्याप . ८ बी ११ बी Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.२.१४९.] एकोनविंशः सर्गः। दृक्षया सत्वरमागमनाज्झाच्छब्दकरणशीलाः काभ्यो यासां तासाम् । तथा झलझलाकृतः प्रसरजलानां शब्देन झलदिति शब्दं कुर्वाणा नद्यादयस्ततः कान्तिजलानामितस्ततोतिप्रसरणाझलझलाकृत इव झलझलाकृतस्तासां शरीराभरणादिकान्तिजलैः संभृतानामित्यर्थः । किंभूतैनेत्रैः। झलझलायद्भिः। झलच्छब्दोत्र तद्वति वर्तते। ततो झलच्छब्दवन्तो भवन्ति झलझलायन्तो दीर्घिकादयस्तत्तुल्यैः प्रसरत्स्वच्छंस्निग्धज्योतिजलपूरेण संपूर्णरित्यर्थः ॥ तूर्ये झणिति कुर्वाणे द्राग्झणझणदित्यपि । पटत्पटेति पटहेलंचकार स्वधाम सः॥ ४२ ॥ ४२. स्पष्टः ॥ झलझलाकृताम् । झलझलायद्भिः । अत्र "अव्यक्त" [ १४५ ] इत्यादिना डाच् ॥ अनेकस्वरादिति किम् । झात्कारि ॥ अनिताविति किम् । झणिति कुर्वाणे ॥ अत्र "इतावतो लुक्" [१४६ ] इत्यतो लुक् ॥ झणझणदिति । इत्यत्र "न द्वित्वे" [ १४७ ] इति नातो लुक् ॥ पंटेस्पटेति । इत्यत्र "तो वा" [ १४८ ] इति तस्य वा लुक् ॥ द्वास्थैः पटपटाकृत्य भूरिशः सारितान्नृपान् । संभाषमाणो बहुशो नाल्पशो व्यसृजत्ततः ॥४३॥ ४३. ततो भैमिबहुशो बहून्नृपान्नापैशोल्पान्व्यसृजत्किं तर्हि सर्वा१ एषणो. १ए शीला का. २ ए शब्दकु. ३ सी °सरेण ज्झ. ४ एलज्झला. ५ बी तामि'. ६ बी सी लशब्दो'. ७ बी सी तोऽझ. ८ ए बी °च्छब्दं व. ९ बीन्तो झलच्छब्दावन्तो भ. १० ए °च्छनिधज्यो'. ११ए सी पूर्णेरि'. १२ ए 'टपटे'. १३ बी ल्पसोल्पा. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपलः नपि यथास्थानं मुत्कलितवानित्यर्थः । कीहक्सन् । संभाषमाण आलपन् । किंभूनान्सतः । भूरिशः प्रभूतैर्दास्थैर्वेत्रिभिः पटपटाकृत्य मि. त्यादिषु प्रतिशब्दैः पटच्छब्दं कृत्वा स्मारितान् ॥ अस्तोकशो रिपूंजिष्णुं तं पौरा एकशोभ्ययुः । अश्वमश्वं ढौकयतस्तोन्सोप्येकैकमालपत् ॥ ४४ ॥ ४४. तं भैमि पौरा एकशे एकैकोभ्ययुरभिजग्मुः । यतः स्तोकान्स्तोकशो न तथास्तोकशो बहूनिपूजिष्णुम् । सोपि भैमिरप्यश्वमश्वं ढौकर्यतः प्राभृतीकुर्वतः सतस्तान्पोरानेकैकमेकमेकमालपत् ।। नादण्डयविपदिकां न स द्विशतिकां च यान् । द्वे ते ददानास्ते ग्राम्या अश्वशश्च तमभ्ययुः ॥ ४५ ॥ ४५. स भैमिर्यान्प्राम्यान्द्विपदिकां द्वौ पादौ रूपकादेवौँ भागावपि नादण्डयत् । द्विशतिकां च रूपकादेढे शते च नादण्डयत्ते ग्राम्यास्तं भैमिमभ्ययुः । किंभूताः सन्तः । ते द्वे द्विपंदिकाद्विशतिके अश्वशश्वाश्वमश्वं च ददानाः ॥ ये लभन्ते द्विपदिकां वृत्तौ द्विशतिकां च ये । तानप्युत्कास्थितान्पश्चात्सोपश्यस्निग्धया देशा ॥४६॥ ४६. ये भटा वृत्तौ जीविकायां द्विपदिकां रूपकादेवौं द्वौ पादौ भागौ भोजनमात्रमित्यर्थः । लभन्ते ये च द्विशतिका रूपकोदेढे द्वे १ ए 'पूजिष्णुं. २ बी यन्तस्तान्सोप्यक. .३ ए श्यस्निग्ध . ४ ए दृशाः ॥ ये. १बी रितवान्. २ बी °श एकैकश ए. ३ सी कैकेभ्य. ४ बीयत प्रा. ५ बी सी कमा'. ६ ए °न्द्विपादि'. ७सी देवैश. ८ एतिका च. ९ए पदाका. १० वी शतके. .११ सी नमि'. १२ ए °का. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ७.२.१५३.] एकोनविंशः सर्गः । शते च लभन्ते तानप्यासतां महान्तोल्पकानपि भटान्निग्धया सानुरागया दृशा स भैमिरपश्यत् । यत उत्कान्नृपदर्शन उत्कण्ठितान् । तथाल्पकत्वेन पश्चास्थितान्दूरस्थानित्यर्थः ॥ पैटपटाकृत्य । इत्यत्रै “डाच्यादौ" [ १४९ ] इति पूर्वपदे यस्तस्तस्य लुक् ॥ बह्वादिष्टे । बहुशो नृपान् । भूरिशो द्वास्थैः ॥ अल्पार्थादनिष्टे । अल्पशो नृपान् । अस्तोकशो रिपून् । इत्यत्र "बहल्प." [१५० ] इत्यादिना प्रशस् ॥ एकशः । एकार्थः । अश्वशः । अत्र “संख्या०" [ १५१ ] इत्यादिना शस् ॥ वाधिकारात्पक्षे द्विर्वचनमपि । एकैकम् । अश्वमश्वम् ॥ द्विपदिकाद्विशति के ददानाः। द्विपदिकाम् द्विशतिकामदण्डयत् ॥ वीप्सायाम् । द्विपदिकां द्विशतिकां लभन्ते । अत्र "संख्यादेः०" [१५२] इत्यादिना-अकल् । प्रकृतेरन्तस्य लुक्चं ॥ द्वैतीयीकः शशी कान्त्या द्वितीयस्तेजसा रविः । तां तृतीयाय्यविद्या स धारयंस्तर्कितो जनैः ॥४७॥ ४७. स्पष्टः । किं तु कान्त्या शशी तेजसा रविश्च । कुतोयमतसत्याह । यतस्तां राज्ञा भीमकान्तगुणादीनां प्रतिपादकत्वेन प्रसिद्धां तृतीयोग्यविद्यामान्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो विद्यास्तत्र तृतीयस्या वार्ता विद्याया अग्र्या चतुर्थी या विद्या दण्डनीतिस्तां धारयन् । राजनीतिशास्त्रोक्तं राज्ञा प्रजासु कान्तेन भाव्यं शत्रुषु च तेजस्विनेत्याद्यर्थं प्रजासु कान्तीभवनेन शत्रुषु भीमीभवनेन च विद्मत् ॥ __१ ए रागाया. २ सी शनस्य लुप । बह्व. ३ बी पटेप. ४ बी 'त्र द्राबादौ. ५ बी स्तस्य. ६ए हल इ. ७ बी ना म्शस्. सी ना शस्. ८ सी कार्थाः । अ. ९ बीच । द्वितीयी'. १० बी राज्ञा भी. ११ सी शां सीम. १२ बी °याग्रवि. १३ ए नीस्तां. १४ ए 'नी शाः १५ए 'न वि. १६ ए त् । द्वितीयी. बीत् । द्वितीयकः. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः द्वैतीयीकः । द्वितीयः । अत्र "तीयात्" [ १५३ ] इत्यादिना टीकण् स्वार्थे ॥ न विद्या चेदिति किम् । तृतीयायविद्याम् ॥ स यावंद्वयसः स्थाम्ना तावन्मात्रो न कोप्यभूत् । तिलपेजेतरसमस्तिलपिञ्जो भवेन हि ॥ ४८ ॥ ४८. स भैभिः स्थाना कृत्वा यावह यसो यावानभूत्तावन्मात्रः कोपि नाभूत् । हि यस्मात्तिलपिञ्जो निष्फलस्तिलस्तिलपेजेतरसमस्तिलपेजानिष्फलतिलादितरस्य फलतिलस्य समो न भवेत् ॥ तिलपिञ्जः । तिलपेज । इत्यत्र "निष्फले." [ १५४ ] इत्यादिना पि. अपेजो ॥ यावंयसः । तावन्मात्रः । अत्र "प्रायोतो." [ १५५] इत्यादिना द्वयसट्मात्रटौ ॥ रकारो नु षकारो नु मूर्धन्यो वाग्मि(रिग्म?)नां गुरुः । नमस्कारार्ह आनस्सानहंकारोन्यदागमत् ॥ ४९ ॥ ४९. अन्यदानस्य गुरुरागमत् । कीदृग् । यथा रकारषकारौ मूर्धन्यौ मूर्धनि स्थाने भवौ तथा वाग्मि(ग्ग्मि?)नां मूर्धन्यो विद्वचूडामणिः परमनहंकारो ज्ञानाद्यहंकाररहितोत एव नमस्कारार्हः ॥ कन्यादादेफभुग्नधूर्जहणा नामधेयतः । सुरूपधेया सद्भागधेया पितामहीसमम् ॥ ५० ॥ ५०. नामधेयतो नाना जल्ह(ह)णा कन्या पितामह्या समं सह "उ. नार्थपूर्वाद्यैः" [ ३. १. ६७ ] इति समासे पितामहीसममागात्। कीदृशी। १ बी सी वद्वय'. २ ए सी ल्हणा. ३ ए तः । सरू'. बीतः । स्वरू'. १ सी तीया'. २ बी वद्वय'. ३ बी वानभू. ४ बी लमिल'. ५ बी "स्तिले'. ६ ए पेजोनिष्फ. ७ सी स्य सफ'. ८ ए अपिजी. ९ बी वय. १० सीसः । तावद्द्यसः । ता. ११ बी प्रायातो'. १२ वी समा'. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.२.१६१. ] एकोनविंशः सर्गः । ५१५ रेफद्भुने कुटिले भ्रुवौ यस्याः सा तथा सुरूपधेया शोभनरूपा तथा सद्भागधेया कुमारपालसदृशवरभविष्यंत्तया शोभनभाग्या || घकारः । नमस्कार । इत्यत्र " वर्ण ० " [ १५६ ] इत्यादिना कारः ॥ प्रायोनुवृत्तेरन्यत्रापि भवति । अनहंकारः ॥ रेफ । इत्यत्र “रादेफः *" [ १५७ ] इत्येफः ॥ प्रायोवचनाद्वकार इत्यपि ॥ नामधेयतः । सुरूपधेया । सद्भागधेया । अत्र " नाम ० " [ १५८ ] इत्यादिना धेयः ॥ नूलातिथीनामेतेषां सूर्यो मर्त्येषु नूतनः । नैवीनमार्पयद्भूप आवासं नव्यमन्दुरम् ॥ ५१ ॥ · ५१. भूपो भैमिरेतेषां पितामहीकन्यागुरूणां नूत्नातिथीनों नव्यप्राघूर्णकानां नव्यमन्दुरं नैवाश्वशालं नवीनं नवमावासमार्पयत् । कीदृक् । मर्त्येषु नूतनः सूर्यः प्रकाशकत्वाद्वितीयोर्कः ॥ मर्त्येषु सूर्यः । अत्र " मर्तादिभ्यो यः " [ १५९ ] इति यः ॥ नवीनम् । नूतनः । नूंत्र । नैव्य । इत्यत्र "नवद्०" [ १६० ] इत्यादिना - ईन-तन-ल-या नवस्य नू - आदेशश्च ॥ पप्रच्छोद्वाहहोत्रीयं प्रीणेभ्योपि प्रणं विधीन् । नृपोप्रोपि माहात्म्या देवता प्रतनेव सः ॥ ५२ ॥ १ एयों मूर्त्ये २ सी नदान . ३ बी यं प्राणे. ४ ए माहत्म्यादेव . २ एकार | न. १ सी 'ष्यतया. ३ सी 'ति । रे. इति फ: प्रा. ५ सीनां प्रा. ६ सी नव्याश्व. ७ ए अम. ९ बी नूलं । न . १० ए बी नव । इ. ४ ए इत्ररादेः फ समर्प ८ बी ११ एवादिना. *रादिफ इति कात्यायनवार्तिकमेव युक्तम् । अन्यथा वृद्धयापत्तिर्दुर्वारा स्यात् । उवारणार्थाकारानङ्गीकारे तु रकार इत्यादौ तदङ्गीकारेणार्धजरतीयत्वमापतेत् । इति भाति । T Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः ५२. स नृपो भैमिः प्रीणेभ्योपि पुराणेभ्योपि प्रणं पुराणमतिवृद्धं विवाहहोत्रीय विवाहस्य ऋत्विजं विवाहेग्निकारिकाकारकमान्नपुरोहितं विधीन्विवाहकार्याणि पप्रच्छ । कीदृशः । अप्रत्नोप्यपुराणोपि युवापि माहात्म्यात्प्रतना देवतेचे पुराणदेव इव । चिरकालीनदेवता ह्यतिसप्र. भावा स्यात् ॥ प्रणम् । प्रीणेभ्यः । प्रतना । अप्रत्नः । अत्र "प्रात्" [ १६१ ] इत्यादिना स्वार्थे न-ईन-तन-त्राः ॥ देवता । इत्यत्र “देवात्त" [ १६२ ] इति तद ॥ होत्रीयम् । अत्र "होत्राया ईयः" [ १६३ ] इतीयः॥ आवसथ्यं श्रियः प्राज्ञो भैषज्यं विश्वभोरुजाम् । सोसजदैवतश्रौत्रः कर्णलक्ष्मकुलाग्रणीः ॥ ५३ ॥ ५३. स भैमिर्विवाहोचितनेपथ्यविशेषेणातिशयितरूपादिलक्ष्मीकस्वावतस्येव देवस्येवं श्रौत्रमङ्गं यस्य स तथा सन्नसजद्विवाहार्य प्रगुणो. भूत् । कीदृक् । प्राज्ञस्तथा विश्वभीरुजां जगद्भयरोगाणां भैषज्यमौषधं जगतः शरणमित्यर्थः । अत एव श्रियः संपत्तीनामावसथ्यमावासोत एवं च कृष्ण एव कार्णो मृगो लक्ष्म चिह्नं यस्य स कार्णलक्ष्मा चन्द्रस्तस्य यत्कुलं तत्रांग्रेणीः ।। १ बी रुजम्. २ ए कार्णल'. बी काष्णं ल'. १ बी मिः प्राणे २ सी कारिक'. ३ सी व ई. ४ ए °णेभ्य । प्र. ५ सी देवतात्त. ६ ए वस्ये. ७ बी सी व श्रोत्र. ८ सी °य गु. ९ ए यः सर्वपत्नीना. १० बी 'मावासपथ्य. ११ ए व कृ. १२.बी लक्ष्म्य चि. १३ बी कार्णलक्ष्म्या च'. १४ सी लक्ष्म्यां च . १५ बी सी 'ग्रणी । शं. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०. ७.२.१७०.] एकोनविंशः सर्गः । ५१७ शंसन्कार्मणमान्नीयसवैनयिकवाचिकैः । तं सांप्रदानिकायाद्गुरुः संजीवनौषधम् ॥५४ ॥ ५४. गुरुरानपुरोहितः संजीवनौषधं संजीव्यतेनेन संजीवनं यदौषधं तत्तुल्यं चौराद्यन्यायिगदेभ्यः सकलजगतो रक्षकमित्यर्थः । तं भैमिमाह्वदाकारयत् । किमर्थम् । सांप्रदानिकाय कन्यासंप्रदानार्थम् । कीहक्सन् । आन्नीयान्यान्नसंबन्धीनि सवैनयिकानि सविनयानि यानि वाचिकानि कन्याविवाहादिविषयाः संदिष्टा वाचस्तैः कृत्वा कार्मणं विवाहादिक्रियालक्षणं संदिष्टं कर्म शंसन् । सविनयमान्नेन संदिष्टमेतद्यधुना कन्याया विवाहः प्रसद्य कार्य इति वदन्नित्यर्थः । भैषज्यम् । आवसथ्यम् । अत्र "भेषजादिभ्यष्टयण" [ १६४ ] इति व्यण् । प्राज्ञः । दैवत । इत्यत्र “प्रज्ञादिभ्योण्" [ १६५ ] इत्यम् ॥ श्रौत्रः। औषधम् । कार्ण । इत्यत्र "श्रोत्र." [१६६ ] इत्यादिनाण् ॥ कार्मणम् । अत्र "कर्मणः संदिष्टे" [ १६७ ] इत्यण ॥ वाचिकैः । अत्र “वाच इकण्" [ १६८ ] इतीकण् ॥ वैनयिक । सांप्रदानिकाय । इत्यत्र “विनयादिभ्यः" [ १६९ ] इतीकण् ॥ कान्त्यौपयिकमृदूपाभूः पुरोमृत्स्न आश्वगात् । समेत्समृत्तिकापात्रोद्यद्यवं तद्गृहं नृपः ॥ ५५ ॥ ५५. नृपो भैमिः पुरोग्रतो मृत्स्ना प्रशस्ता मृच्छुभशकुनभूता १ए शंकन्कर्म . २ सी द्गुरुरात्र. ३ बी रुः सज्जीव. ४ बी पाभू पु. ५ बी मृत्लम. १सी दाका . २ बी आतीयानान. ३ ए न्धीन् स. ४ सी °हावि'. ५एम संशन्. ६ ए "सह्य का. ७एण् । श्रोत्र । औं'. ८ ए कार्य । ई. ९सी वाचि ई. १० ए दायिका. ११ सी सूत्सातिप्र. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] यस्यै स पुरोमृत्स्नः संस्तद्गृहं गुरुगृहमाश्वगात् । कीदृशम् । माङ्गल्याय समृत्सानि प्रशस्तमृत्तिकान्वितानि यानि मृत्तिकापात्राणि शरावास्तत्रोद्यन्त उगच्छन्तो यवा यत्र तत् । कीदृग्नृपः । कान्ते रूपादिश्रिय औपयिकमुपायः कारणं या मृद्रूपा प्रशस्ता मृत्तस्या भवति स्मोत्पद्यते स्म यः सः । कान्तिहेत्वत्युत्कृष्टपरमाणुभिर्निष्पन्न इत्यर्थः ॥ औपयिक । इत्यत्र “उपायाद्धस्वश्च” [ १७० ] इतीकण् ह्रस्वश्च ॥ मृत्तिका । इत्यत्र “मृदस्तिकः” [ १७१ ] इति [ति]कः ॥ समृत्स । पुरोमृत्स्नः । अत्र “सत्रौ प्रशस्ते” [ १७२ ] इति सत्रौ ॥ केचित्तु रूपंपमपीच्छन्ति । मृद्रूपा ॥ षड्विंशः पादः ॥ तिलकं मङ्गलमये राज्ञो दधिमयं व्यधुः । अग (गा?)णिक्याः स्त्रियो द्वारि महेत्रागणिकामये ॥ ५६ ॥ 99 ५६. न गणिकाः प्रकृता अखंगाणिक्याः स्त्रियः कुलाङ्गना दधि प्रकृतं दधिमयं दधिस्वरूपं तिलकं व्यधुः । कस्य । मङ्गलमये प्रकृतमौक्तिकस्वस्तिकादिमङ्गलकैर्मणि द्वारि गृहद्वारदेशे वर्तमानस्य राज्ञो भैमेः । क । अत्र महे विवाहोत्सवे । किंभूते । गणिकाः प्रकृता गीतगानमाङ्गलिक्यकरणादौ प्राचुर्येण प्राधान्येन वा कृता अत्र गणिकायो न तथा तस्मिन्कुलाङ्गनाप्रस्तुतोद्वाहविधावित्यर्थः ॥ १. २ सीम्। मङ्ग ं. ३ बी सी मृत्खानि. ४ बी 'णि शाखास्त ं. ५ बी औपायि. ६ बी औपायि'. ७ बी सी 'मृत्ख । अ ८ बी सी 'म. ९. बी आश्वगा. १० ए सी 'स्वगणि. घिरू', १२ बी कर्माणि. १३ सी हदे". १४ सी "स्य भै. १६ सी प्रशस्तोद्वा'. ११ बी हे. १५ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.३.५.] एकोनविंशः सर्गः। _ ५१९ त्यक्त्वापूपमयं मौदकिकं च धवलान्दधुः । तत्रागायनपाशाश्च स्त्रीतमा विलसत्तमाः ॥ ५७॥ ५७. स्पष्टः । किं त्वपूपमयं मौदकिकं च त्यक्त्वापूपान्मोदकांश्च प्रकृतान्मुक्त्वा ॥ सूक्ष्मवस्वतमः श्रेष्ठतमथुलुकजन्मनाम् । ययौ गौरतमः सोन्तर्मित्वा लवणसंपुटम् ॥ ५८ ॥ ५८. स्पष्टः । किं त्वतिशयेन सूक्ष्माणि वस्त्राण्यस्य सूक्ष्मवत्रतमः । लवणसंपुटं लवणाग्निगर्भ शरावसंपुटम् ॥ दधिमयम् । अत्र "प्रकृते मयट्" [ 9 ] इति मयट् ॥ मङ्गलमये द्वारि । इत्यत्र “अस्मिन्" [२] इति मय: ॥ मौदकिकम् । अपूपमयम् । अगाणिक्याः । अगणिकामये । अत्र "तयोः" [३] इत्यादिना समूहवत्प्रत्ययाः स्युरिति “कवचि." [ ६. २. १४ ] इत्यादिनेकण् । "गणिकाया ण्यः" [ ६. २. १७ ] इति ण्यः । चकारान्मय च ॥ अगायनपाशाः । अत्र "निन्द्ये पाशप्" [४] इति पाशप् ॥ गौरतमः । विलसत्तमाः । अत्र "प्रकृष्टे तमप्" [५] इति तमप् ॥ जातिव्यवचनेभ्योपि गुणक्रियाप्रकर्षविवक्षया स्यात् । स्त्रियोमूर्या अपपाकादिखी. कार्य सुश्लिष्टाः कुर्वन्ति । स्त्रीतमा एता याः सुलक्षणा अपपाकादि गीतगानादि च स्वीकार्य कुर्वन्ति । व्यान्तरसमवायिना च प्रकृष्टेन गुणेन प्रकृष्टे द्रव्ये तद्वतः प्रत्ययः स्यात् । सूक्ष्मवस्त्रतमः । प्रकर्षप्रत्ययान्ताच प्रकर्षस्थापि प्रकर्षविवक्षायां प्रत्ययः स्यात् । श्रेष्ठतमथुलुकजन्मनाम् ॥ १ बीन्ददुः । त'. १५ बी यं मोद'. २ बी पूपोमोद'. ३ बीन शूक्ष्मा'. ४ बी तेमय'. ५ बी ट् । सोद. ६ ए 'नामस'. ७ सी पक्रियावि'. ८ ए 'पूपा. बी पूपंका'. ९ बी पूपा. १० ए °टे द्र. ११ सी पवि'. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] __ अयं शुभतरः किं वासौ शोभनंतरा न्विति । दृष्टो वधूसखीवगैर्मातृवेश्माविशन्नृपः ॥ ५९ ॥ ५९. वधूवरयोर्मध्ये किमयं वरः सौन्दर्यश्रिया शुभतरः प्रधानतरः किं वासौ वधूः शोभनतरातिशोभमानेति हेतोर्वध्वाः सखीलोकैदृष्टः सन्नृपो मातृवेश्म सप्तानां मातृणां देवतानां गृहमविशत् ॥ तत्र पूज्यतरैः सांकाश्यकेभ्यो नागरेयकैः । आगात्पुरोहितोग्रेपि प्रीतः प्रीततरस्तदा ॥ ६० ॥ ६०. अग्रेपि भैम्यागमकारात्प्रागपि विवाहोत्सवेन प्रीतस्तदा भैम्यागमकाले तु प्रीततरः सन्पुरोहितोपि तत्र मातृगृह आगात् । कैः सह । नागरेयकैनगरे स्थानविशेषे भवैर्द्विजैः । किंभूतैः । सांकाश्यकेभ्यः सांकाश्ये पुरे भवेभ्यो द्विजेभ्यः सकाशात्पूज्यतरैः । नागरा हि द्विजाः सर्वद्विजेभ्योत्युत्कृष्टत्वेन प्रसिद्धाः ॥ किं पाणी पॉणिपादस्यांही वा मृदुतराविति । ज्ञातुं नूचैस्तरां सख्यो(ख्या)त्रोत्क्षिप्यानायि कन्यका ॥६१॥ ६१. स्पष्टः । किं त्वितीदमुच्चैस्तरामत्यन्तं ज्ञातुं नु वेत्तुमिवोत्क्षिप्योत्पाद्य सख्या कन्यकात्र मातृगृह आनायि ॥ अतिशेतेतरां न्वेषोतिशेते किंतरामियम् । पुरोधा इति विमृशंस्तयोः पाणी अयोजयत् ॥ ६२॥ - १ एनहरा. २ ए विशान्नृ. ३ ए 'त्पुरहि'. ४ बी प्रीतं प्री'. ५ सी पादस्यंही. ६ ए बोक्षिप्यानावि क. ७ बी न्यकाः । स्प. ८ बी शेषेतरा न्वे'. १सी °रः किं. २ ए वधू शो'. ३ बी भने'. ४ एखीलोंकै'. ५ बी °पि भीम्यागमनका. ६ सी °ला तु. ७बी मनका. ८ए तो त. ९ ए °काशकेभ्यः संका १० सीत्पूज्यैः पूज्य. ११ बी क्षिप्येत्पा. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है.७.३.६.] एकोनविंशः सर्गः। ५२१ ६२. स्पष्टः। किं त्वियं कन्यका वा किंतरामतिशेते । इदमनयोर्वधू. वरातिशयनयोर्मध्ये रूपश्रीप्रकर्षणोत्कृष्टं स्वस्यातिशयनं यथा स्यादेवं किमुत्कृष्टा भवति । किं वेयमत्यर्थमतिशेत इत्यर्थः ॥ स गायन्तितमां तत्र मत्रानग्रेतरां द्विजाः। प्रगेतमामिवाब्जेषूच्चैस्तमा हर्षिणोलयः ॥ ६३ ॥ ६३. स्पष्टः । किं तु स्म गायन्तितमां द्विजाः वनर्षिवदुद्वि(हि?). जानां मध्ये द्विजा अतिशयेन गायन्ति स्म । तत्र महे । अग्रेतरां द्वयोरंयकालयोर्मध्ये प्रकृष्टेयकालेतिप्रथममित्यर्थः । प्रगतमामतिप्रभात इत्यर्थः ॥ वध्वा उत्तमसख्योथैवं नर्मधवलाञ्जगुः । पटिष्ठो वश्चयतेसौ किंतमां नः पटीयसीः ॥ ६४ ॥ ६४. अथ पाणियोजनानन्तरं वध्वा अतिशयेनोत्कृष्टा उत्तमा याः संख्यस्ता एवं वक्ष्यमाणरीत्या नर्मधवलान्हासप्रधानानि गीतानि जगुः। तथा हि । असौ भैमिः पटीयसीरपि द्वयोः पट्टीमेश्योर्मध्येतिशयेन पटीरपि नोस्मान्कितमां वञ्चयते बहूनां वञ्चनानामिदं वचनमतिशयितं यथा स्यादेवं कथं नाम वञ्चयते । एवं सख्याः पाणिग्रहणेनायमस्मान्पश्यन्तीरेव वञ्चयत इत्यर्थः । अत एव कीदृक् । पटिष्ठो बहूनां पटूनां मध्येतिपटुः ॥ शुभतरः । शोभतरा ॥ विभज्ये । सांकाश्यकेभ्यो नागरेयकैः पूज्यतरैः । १ ए धूस्तैच्चमां. २ बी यति सो किं. १ बी शयेन'. २ सीटं तस्या'. ३ बी यमित्यर्थमिति. ४ बी वर्षि'. ५°नर्षेव. ६ सी रमन. ७ ए टेतिका. ८ बी मामिति'. ९ बी ध्वानति'. १० ए सस्ता. ११ बी रास्योर्म'. . १२ ए चचना. १३ ए ए की. १४ एतराः। विभजो। संका. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] अत्र " द्वयोर् ० " [ ६ ] इत्यादिना तरप् ॥ पाणिपादस्य पाणी अंही वा मृदुतरौ । इत्यत्र यद्यपि विग्रहे बहुत्वसंख्या प्रतीयते तथापि समाहारेवयवौ स्वामात्रं पाणित्वादिलक्षणमभेदै कत्व संख्या योग्युपाददाते न संख्याभेदेमिति द्वयोरेव प्रकर्षः । तथाग्रेपि प्रीतः प्रीततरस्तदेत्यत्रैकस्यापि पर्यायार्थार्पणया द्वित्वमिति द्वयोरेव प्रकर्षः ॥ 1 उच्चैस्तराम् । अत्र “क्वचित्स्वार्थे” [ ७ ] इति तरप् ॥ किंतैराम् । किंतमाम् ॥ त्यादि । अतिशेतेतराम् । गायन्तितमाम् ॥ ए । अग्रेतराम् । प्रगेतमाम् ॥ अव्यय । उच्चैस्तराम् । उच्चैस्तमाम् । अत्र "किंत्यादि०" [८] इत्यादिना तरप्तमपौरन्तस्याम् ॥ असत्व इति किम् । उत्तमसख्यः ॥ पठिष्ठः । पटीयसीः । अत्र “गुण ०" [९] इत्यादिना तमप्तरपोरथं इष्ठेयम् ॥ असौ हेरतिरूपं नश्चौररूपः सखीमिमाम् । पद्मकल्पे करे गृह्णन्वज्रदेश्येन पाणिना ।। ६५ ॥ ६५. असौ वरो वदेश्येन वज्रवत्कठोरेण पाणिना पद्मकल् पद्मवत्कोमैले करे नोस्माकमिमां सखीं गृह्णन्हरतिरूपं सर्वलोकसंमत्या हरणात्प्रशस्तं चोरयति । अत एवासौ चौररूपः प्रशस्यश्चौरः ॥ वंरोसौ सीरिदेशीयो धत्तेर्देश्यं च पाणिना । इयं च कम्पतेकल्पं ब्रूमोदेशीयमत्र किम् || ६६ ॥ १ ए बी हरंति'. १ ● दिना. १० सी 'स्वचौर:. ३ बी सीरेदे. ३ बी 'पण'. २ ए वसौ. पादिदा. २ए दमति. ६ सी जब. ७ पदेशेन. ४ बी 'देश्यां च . ४ सीतमा ५ सी ९ बी 'मलक". ८ सी अव". Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.३.१०.] एकोनविंशः सर्गः। २३ ६६. असौ वरः सीरिदेशीयो हलधरतुल्यः सन्पाणिना धत्तेदेश्यं च हलधरकर्तृकंकठोरपाणिधरणादीषदपरिसमाप्तमस्मत्सखी हस्तेन धारयति हलधरवत्कठोरपाणिना गृह्णातीत्यर्थः । इयं चातिमृद्वङ्ग्यस्मत्सखी च कम्पतेकल्पं कठोरकरग्रहणोत्थकष्टेनेषदपरिसमाप्त कम्पते । अत्रास्मिन्विषये वयं किं बमोदेशीयं किं वदामः । सर्वलोकसंमत्यास्मत्सखीमेवं पाणौ गृह्णतोस्य पुरो वयं न किमपि वक्तुं शक्ता इत्यर्थः । अथ वासौ वरः सीरिदेशीयो रूपाद्यतिशयेन बलभद्रतुल्यः सन्पाणिनेमां धत्तेदेश्यमनुरागेणास्याः कष्टभयादीषदपरिसमाप्तं धत्ते । इयं च कन्याभीष्टवरस्पर्शोत्थस्मरोद्रेकेण कम्पतेकल्पम् । अत्र च वयं किं बमोदेशीयम् । अस्माकमप्येतत्संमतमित्यर्थः । इत्यर्थो व्यज्यते ।। बहुरक्षोनुवरोसौ प्रकृष्टः पटुकः सखि । वाञ्छतिच्छिन्नकतमो मनसा केन मोदकान् ॥ ६७ ॥ ६७. हे सख्यसौ प्रत्यक्षोनुवरो वरमैनुगतो नरः केन मनसा केनाभिप्रायेण मोदकान्वाञ्छति । कीहक्सन् । बहुरक्ष ईषदपरिसमाप्तं रक्ष औदरिकतयों राक्षसतुल्य इत्यर्थः । अत एव प्रकृष्टः पटुको द्वयोर्वहूनां वा पटुकानां मध्ये प्रकर्षवान्कुत्सितः पर्दुर्बुभुक्षार्तमनस्कत्वेनातिकुपटुरित्यर्थः । अत एव चच्छिन्नकतमः । कुत्सितश्छिन्नश्छि १ ए 'नुवारो'. १ सी यो धत्ते'. २ ए कठो'. ३ ए रकर. ४ ए °ष्टेनैष'. ५ए °रः सैरि'. ६ ए वर्या किं. ७ सीम् । तेस्मा. ८ सी त्यों. ९ए 'त्यकोनु. १० सी मनसा. ११ ए कावान्छौं. १२ बी °या रक्ष. १३ सी 'टुके वांछति छिन्नकतमो मद. १४ ए टुर्बभु. बी टुबुभु. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः नकोयमेषामनत्यन्तं छिन्नकश्छिन्नकतमस्तत्तुल्यः कान्दविकश्ववत्सस्पृहं मुहुर्मोदकानामालोकनेन निर्लजत्वान्नक्रवर्धिततुल्य इत्यर्थः । अस्माभिः सहास्य कः संबन्धो येनायं निर्लज्जो मोदकान्वाञ्छतीत्यर्थः । जेमनवेलायां किल प्रधान मोदकादि भोज्यं यादृग्वरो लभते तादृगनुवरोपीत्येवं श्यालिकाद्या उपहसन्ति । हास्यवशादेव च बहुरक्ष इत्यादिविशेषणान्यसन्त्यप्यनुवरे लोकैः प्रयुज्यन्ते । एवं वक्ष्यमाणान्यपि ॥ अस्य केशद्वयी दृश्यादेश्यिकाविकवन्मुखे । प्रकृष्टच्छिन्नकस्यानुवरयं यावकदृशः ॥ ६८॥ ६८. यावकन्त्यावलक्तवदाचरन्त्यो दृशौ यस्य तस्य रक्ताक्षस्यास्यानुवरस्य मुखे दंष्ट्रिकाप्रदेशे केशद्वयी द्वौ वालौ दृश्यादेश्यिकातिलघुत्वेन कुत्सितेषदपरिसमाप्ता दृश्या यतोनत्यन्तं छिन्नंश्छिन्नको बहूनां मध्ये प्रकृष्टच्छिन्नकस्तस्य दंष्ट्रिकायामतिनिन्द्यं मुण्डितस्येत्यर्थः । अविकवद्यथाविकस्यच्छागस्य मुखे केशद्वयी दृश्यादेश्यिका स्यात् । मुण्डिवश्मश्रुत्वादेवमुपहासः॥ हरतिरूपम् । चौरसैंपः । अत्र "त्यादेच." [१०] इत्यादिना रूपम् ॥ कम्पतेकल्पम् । धत्तेदेश्यम् । बमोदेशीयम् ॥ पद्मकल्पे । वज्रदेश्येन । सीरिदेशीयः। अत्र “अतमबादे०" [११] इत्यादिना कल्पप्देश्यप्देशीपरः ॥ केचिद्देश्यं पितं नेच्छन्ति । तन्मते दृश्यादेश्यिका ॥ १बी ‘देश्यका'. २ ए "स्य मव. १ए पामेत्य. २ थी 'वं शालि. सी °वं शालका'. ३ ए पस'. ४ ए 'रन्त्यो दृशो य. ५ सी स्यानु. ६ बी दो बालौ. ७सी देशिका'. ८ ए का स्वाद. ९ सी नको. १० सी रूपं । म. ११ ए रूपपत् । क. १२ ५ "देशी. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१६. ] एकोनविंशः सर्गः । "" बहुरक्षः । अत्र “नाम्नः प्राग्बहुव" [१२] इति प्राग्बहुः ॥ प्रकृष्टः पटुकः । अत्र "न तम ० ' [१३] इत्यादिना तम्बादिर्न ॥ अ च्छिन्नादिभ्य इति किम् । छिन्नकतमः ॥ प्रकृष्टच्छिनकस्य । इत्यत्र " अनंत्यन्ते " [ १४ ] इति न तम्बादिः ॥ यावकत् | अविक । इत्यत्र " यावादिभ्यैः कः " [ १५ ] इति कः ॥ कन्दुकं मोदकधिया ज्यायस्कानुवरेससि । गृधो मणिपटौ व्यधियां लोहितकौ यथा ॥ ६९ ॥ ५२५ ६९. रे ज्यायस्क लाम्पट्यातिशयादतिवृद्ध तुल्यानुवर कन्दुकं कन्यायाः क्रीडार्थं गेन्दुकं मोदकधिया मोदकोयमिति बुद्ध्येप्ससि वाञ्छसि । यथा गृध्रः पक्षिभेदो लोहितकौ रक्तौ मणिपटौ क्रव्यधिया मांसबुद्ध्यैप्सति ॥ मणी व + ग्लोहिनिका धानुवर ते मुधो । वैलक्ष्येण मुखं चैतत्कालकं कालकांशुक ।। ७० ॥ ७०. हेनुवरास्माकमुपरि कोपेन यत्ते हगारक्ता तेन न कोपि विभेतीत्यर्थः । तथा हे कालकांशुक कृष्णवस्त्रैतत्प्रत्यक्षं ते मुखं च वक्रमपि वैलक्ष्येण कोपवैफल्योद्भवया विलक्षतया कृत्वा मुधा कालकं कृष्णं दैन्याश्रयणेनापि न किंचित्ते त्राणं भविष्यतीत्यर्थः । रात्रिजागरणादिना रक्ताक्षत्वात्कस्तूरिकामण्डनेन कृष्णमुखत्वा चैवमुपहासः ॥ कन्दुकँम् । ज्यायस्क । इत्यत्र " कुमारी० " [ १६ ] इत्यादिना स्वार्थे कः ॥ १ए या लौहि". + इवार्थे वो ज्ञेयः. २ बी धा । विल.. "शुकः । हे. १ बी 'नत्यं इ. २ सी भ्य इ. ५ सी 'खं व. ६ ए बी दैत्याश्र.. ३ बी 'अप्स्यति. ७ बी 'क । ज्या. ३ ए ४ सीन को " . Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] लोहितको मणिपटौ । अत्र "लोहितान्मणौ" [१७] इति कः ॥ लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणालोहिनिका मणी ॥ रक्त । लोहितको मणिपटौ ॥ अनित्यवर्णे । क्रुधा लोहिनिका दृक् । अत्र "रक०" [१८] इत्यादिना कः ॥ स्वार्थे रक्ते । कालकांशुक । अनित्यवर्णे । वैलक्ष्येण कालकं मुखम् । अत्र "कालात्" [१९] इति स्वार्थे कः ॥ रोमप्रावरणं वोढा शीतके नूष्णकेप्य॒तौ । विहानकालूनकाङ्गवियातकपशुन्यम् ॥ ७१ ॥ ७१. अयमनुवरो यथा शीतक ऋतौ शीतकाले रोमप्रावरणं शीतत्राणाय वहति तथोष्णकेप्यतावुष्णकालेपि रोमाण्यङ्गलोमान्येवातिसान्द्रत्वेनाङ्गाच्छादकत्वात्प्रावरणमाच्छादनं तद्वोढा वहति । विगतं हानं गमनं यस्य स विहानः स एव विहानकस्तथा लून एव लूनको लूनरोमा पशुन तथालूनकः सरोमा पशुस्तस्येवाङ्गमस्यालूनकाङ्गो लोमशाङ्गस्तथा. वियात एव वियातकश्च धृष्टो यः पशुरुरणः स यथा रोमाण्येव प्रावरणं शीतके नूष्णकेप्युतौ वहति । रोमशत्वादेवमुपहासः ॥ शीतके । उष्णक ऋतौ । अत्र "शीत." [२०] इत्यादिना स्वार्थे कः ॥ अलूनक । वियातक । इत्यत्र "लून." [२१] इत्यादिना स्वार्थे कः ॥ विहानशब्दादपीच्छन्त्येके । विहानक ॥ १बी गं बोढा. १सी हितिका. २ बी रक्त । लो'. सी रक्तौ । लो'. ३ ए हितिका. ४ ए स्वार्थों र. ५ ए शुका। . ६ सीतकोले. ७ ए वणं. ८ सी शुस्त'. ९ए "गो लाम. १० वी मसाङ्ग. ११ बी शुरूर'. सी 'शुरूरुणः. १२ बी मसत्वा'. १३ बी नकः । वि'. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ५.३.२५.] एकोनविंशः सर्गः। ५२७ पुरोधाः स्नातकाग्र्योथ तनुकब्रह्ममूत्रभृत् । पुत्रको न्वणुकः स्रष्टरग्निकार्य प्रचक्रमे ॥ ७२ ॥ ७२. अथानन्तरं पुरोधा आनगुरुरग्निकार्य वेदिकायामग्निकारिका प्रचक्रमे । कीदृक् । तनुसूत्रं तनुकं भङ्गादिमयं तस्य यद्ब्रह्मसूत्रं यज्ञोपवीतं तद्विभर्ति । यद्वा तनुकं शिक्षाकल्पादि सूत्रं तच्च ब्रह्मसूत्रं विभर्ति यः सः । तथा वेदं समाप्य स्नाताः स्नातका वेदपारदृश्वानस्तेष्वग्र्यो मुख्योत एव स्रष्टुब्रह्मणोणुको निपुणः पुत्रको नु कृत्रिमः पुत्र इवाङ्गीकृतः पुत्र इवेत्यर्थः । अंशून्यका बृहतिकावन्तोहौपुर्द्विजास्तथा । भागं खसाष्टमं पाष्ठं वा धूमो व्यानशे यथा ॥ ७३ ॥ ७३. स्पष्टः । किं तु शून्या एव शून्यका न तथाशून्यका विद्याधनसंपूर्णाः । बृहतिकावन्त उत्तरासगवस्त्रावृताः । आष्टममष्टमम् । पाष्ठं षष्ठम् ॥ स्रातक । इत्यत्र "साताद्" [२२] इत्यादिना कः ॥ तनुकः(क)। पुत्रकः । अणुकः । बृहतिका । अशून्यकाः । अत्र "तनुपुत्र" [ २३ ] इत्यादिना कः स्वार्थे ॥ आटम भागम् । अत्र "भागेष्टमाञः" [२४] इति नः ॥ पाष्टं भागम् । अत्र "पष्टात्" [२५] इति जः॥ १ बी रोधा ना. २ सी कोण्वणु'. ३ बी असून्य. ४ बी वन्तौहोषु. ५ ए हौवुद्धिजातास्त. ६ सी गं स्वस्या. ७ ए °मो द्यानशो य. १ सी कारि. २ ए सी त्रं च वि. ३ ए °णुक्ये नि. ४ बी शूनका. ५ बी पूर्ण वृ. ६ ए °तिकाः । अ. ७ बीमाशः इ. सी मायः ६. ८ बी ञः ॥षारी. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ व्याश्रयमहाकाव्ये खारीषाष्ठामेयकान्तिस्तालषष्ठकमेयदोः । वध्वानेकिकर्यानेकाक्येकेनामत्र्यथो वरः ॥ ७४ ॥ ७४. अथो पुरोधसाग्निकार्यप्रारम्भानन्तरंमने काकी महापरिवारावितो वरोनेकिकया महापरिवारान्वितया वैध्वा सहितः सन्नेकेन महापुरुषेणामत्रि वेदिकायां प्रदक्षिणादानायाकारितः । कीदृक् । खारीषाष्ठेन खार्याः षष्ठभागेनामे या तिप्रभूतत्वान्मातुमशक्या कान्तिस्तेजो यस्य सः । तथा तालषष्ठकेन तालवृक्षस्य षष्ठेन भागेन मेयावतिप्रलम्बावित्यर्थः । दोषौ भुजौ यस्य सः ॥ Į तालषष्ठक । खारीषाष्ठे । इत्यत्र "माने कश्च” [ २६ ] इति कञ ॥ अनेकाकी । अनेकिकया । अत्र "एकीद्०" [२७] इत्यादिना - आकिन् 1 कश्च ॥ असहाय इति किम् । एकेन ॥ [ कुमारपाल: ] स वधूटिकया भ्राम्यतकि स्मग्नेः प्रदक्षिणम् । जगुश्च सर्वकानन्दि मङ्गलं विश्विकाः स्त्रियः ।। ७५ ॥ १ ए मेका.. १ रमेका. ५ एठक | ई. ९ सका. ७५. स वरो वधूटिकया हसितया वधूट्या सहाग्नेः प्रदक्षिणं प्रदक्षिणावर्त भ्राम्यतक्यल्पं भ्राम्यति । तथा विश्विकाः कस्येमा इत्यज्ञाता विश्वाः सर्वाः स्त्रियो मधुरत्वेन सर्वकानन्दि मङ्गलं मङ्गलगीतानि जगुश्च ॥ बधूटिकया । इत्यत्र “प्रानित्यात्कप्” [ २८ ] इति कप् ॥ २ सी यानैका'. २ सी 'न्वित'. ६ सी 'कादिना', १० एत्याचप् ३ ए "काक्यैके". ३ ए वध्वाः स. ७ सी भ्राम्यंतकल्पं. ४ ए स्माग्ने प्र ं. ४था काल'. ८ सी विश्वकाः. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.३.३०.] एकोनविंशः सर्गः। ५२९ भ्राम्यतकि । सर्वक । विश्विकाः । अत्र "त्यादि." [२९] इत्यादिनान्त्या. स्वरात्पूर्वोक ॥ यद्युष्मकासु मयका लभ्यं न त्वसकासु तत् । अर्ग्यतां त्वयकेत्युक्त्वा श्यालोङ्गुष्ठे दधार तम् ॥ ७६ ॥ ७६. स्पष्टः । किं तु युष्मकासु ह्रस्वेषु युष्मासु विषये । एवं सर्वत्र । तं वरम् ॥ अयं युवकयो वकयो त्यः कृतार्थ्यताम् । युवकाभ्यां नावकाभ्यां सुहृद्वन्द्वैरगाद्यदः ॥ ७७ ॥ ७७. सुहृहन्द्वैर्युगलीभूतै|मिमित्रैरन्योन्यमदोगादि नर्मणोक्तम् । यथा । अयं श्यालो युवकयोर्हस्वयोर्युक्यो त्यो नावकयोस्ततश्चायं युवकाभ्यां कृतार्थ्यतां भृतिदानेन कृतकृत्यः क्रियतां नावकाभ्याम् ॥ तूष्णीकां नीचकैः स्थास्तुं चित्तादपृथकन्नृपः । श्यालकं नर्मणेत्यूचे देयं भवतकेत्र किम् ॥ ७८ ॥ ७८. स्पष्टः । किं तु तूष्णीकाम् । नीचकैः । अपृथकत् । भवतके। एषु कुत्सितत्वाल्पत्वाज्ञातत्वानि त्रयोप्यर्था भावनीयाः । चित्तादपृथकत्प्रियत्वेन भैमेश्चित्ते वसन्तमित्यर्थः । यद्वा चित्तादमिन्नं यथा स्यादेवमूचे दानाभिप्रायेणोवाचेत्यर्थः । श्यालकमल्पं वा केनापि गुणेनोज्ञातं वानुकम्पितं वा श्यालम् ॥ १ सी अपंकं त्व. २ बी त्वयंके'. ३ बी भ्यां ताव'. ४ ए नाका'. ५ सी स्थातुं चि. ६ बीपः । शाल. ७ एमणोत्यू. १ ए म्यतिकि. २ ए सी विश्वकाः. ३ सी 'दिनांक्षरा'. ४ बी तै. भेंमि. ५ सी यं शालो. ६ ए योहस्व. ७ बी 'त्यो व. ८ ए सी 'कृत्य क्रि. ९ प अ अथक'. १० ए त्वाशा. ११बी यस्या. १२ बी सी धः । शाल'. १३ ए मला वा. १४ बीणेन शा. १५ ए नामाशांन्त. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] दिग्धकः पङ्ककेनासि बालकोत्तिष्ठक त्वकम् । ददके गुडधानाकाः ककिं देविय देविक ॥ ७९ ॥ ७९. हे बालक त्वकं पङ्ककेन पङ्किलभूमावेवं पाताल्लग्नेन कर्दमेन दिग्धकोसि लिप्तोसि । अत उत्तिष्ठक । हे देवियानुकम्पितदेवदत्त । तूष्णीकत्वेनाभाषमाणत्वात्पुनः संबोधयति । हे देविकानुकम्पितदेवदत्त । अभिधान्तरेण वा संबोधनम् । हे अनुकम्पितदेवसिंह ककिं किं तुभ्यं गुडधानाका ददके ददामि ॥ व्याघ्रक व्याघ्रिलं मित्रं देवदत्तक देविल । उपडं रामकोपेन्द्रदत्तकावुपकोपियौ । ८० ॥ उपिकं वोपिलं वा मातृयमातृकमातृलान् । भानुयं भानुकं भानुलं वा संपृच्छय मार्गय ॥ ८१ ॥ ८०, ८१. प्राग्वद् । हे देवदत्तक हे देविल मार्गय परं संपृच्छय । कान् । व्याघ्रकं व्यालिं मित्रं व्याघ्राख्यौ द्वौ वयस्यावित्यर्थः । तथोपडमुपेन्द्रदेवम् । तथा रामकोपेन्द्रदत्तको [*रामोपेन्द्रदत्तौ । तथोपकोपियावुपाग्निशर्माणौ । तथोपिकं वोपाशीर्दत्तं वा । तथोपिलं १ए 'य वेविकः । हे. २ बी विकं । हे. ३ ए व्याघ्रलं. ४ बी पि यया. ५ सी पिमं वो. ६ एय ॥ किं व्या. १सी क त्वं प. २ बी त्वप. ३ सीणत्पु. ४ सी रे वा. ५ सी म् । अ. ६ बी °च्छय । क्यत् । व्याधिकं. ७ सी व्याघ्रिलं. ८ए नितं. मि'. ९सी वास्यो दौ. १० सी दश. ११ सी पासीई'. १२ ए तथापि . ___ * विंशतितमसर्गस्थचतुर्विंशतितमपघटीकायां दर्शितधनुश्चिकपर्यन्तं बीपुस्तकसपत्राणि नम्मानि॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.३.३५. ] एकोनविंशः सर्गः । वोपाशीदेवं वा । तथा मातृयमातृकमातृलान् मातृदत्तमातृदेवमातृभक्तान्वा । तथा भानुयं भानुकं भानुलं व भानुदत्तं भानुदेवं भानुभक्तं वा । सर्वानप्येतान्वयस्याननुकम्पितान् । बालकत्वेन स्वयंमा - गणेनभिज्ञत्वादेतान्विज्ञान्वयस्यान्कियदहं मार्गयामीति पृष्ट्वेत्यर्थः ॥ त्वयका । मयका । इत्यत्र " युष्मद् ०" [३०] इत्यादिनान्त्यात्स्वरात्पूवक् ॥ केचिद्भवच्छब्दस्यापि स्याद्यन्तस्यान्त्यस्वरात्पूर्वं कम (वैम) कमिच्छन्ति । तन्मते भवतके ॥ असोभादिस्यादेरिति किम् । युष्मकासु । अस्मकासु । युवकयोः । आवकयोः । युवकाभ्याम् । आवकाभ्याम् ॥ ५३१ नीचकैः 5: । अपृथकद् । इत्यत्र " अव्ययस्य को द् च " [ ३१ ] इत्यक् । तत्संनियोगे यस्ककारान्तमव्ययं तस्य दोन्तादेशः ॥ तूष्णीकाम् । इति "तूष्णीकाम्" [ ३२ ] इत्यनेन निपात्यम् । श्यालकम् । भवतके । नीचकैः । तुष्णीकाम् । अत्र “कुत्सित ० " इत्यादिनां कबादयः ॥ १ सी 'पासीदें ". २ए शीदेवं. ५ सी 'नात्यस्वरा'. ९ए । नायकः. ६ सी 'स्यात्यस्व'. १२ ए 'कः पंके'. १३ सी बालो को . पेजातर्. १६ ए "वह". : अनुकम्पायम् । श्यालकम् ॥ तद्युक्तनीतौ । दिग्धकैः पङ्ककेनासि । बोलकोत्तिष्ठ । ददके गुडधानाकाः । ककिम् । इत्यत्र “अनुकम्पा०” [ ३४ ] इत्यादिनों कबादयः ॥ असीत्यादिष्वनभिधान्न स्यात् ॥ यत्र त्वभिधानं तत्र स्यात् । त्वकम् ॥ देविय | देविक | देविल । इत्यत्र " जातेर् ०" [ ३५ ] इत्यादिना इ [ ३३ ] १० सी ना बा. ३ सी 'नुकं. ४ सी वा तथा भा". ७ सी 'चकै । अ ८ ए दोन्वादे११ सीम् । शालकं । श्या". १४ सी ना बा १५ सी अनुकं Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल इक-इला(ला:) ॥ वावचनात्कबपि ॥ देवदत्तक ॥ अजातरिति प्रायिको निषेध इत्यन्ये । व्याघ्रिल मिति हि दृश्यते । तन्मते बहुस्वरादित्यपि प्रायिकम् । स्वमते तु व्याघ्रकमित्येव भवति ॥ बहुस्वरादिति किम् । रामक ॥ उपडम् । उपकोपियौ । उपिकम् । उपिलम् । अत्र "वोप०' [३६] इ. त्यादिना ड-अकौ चकारादिय-इक-इलाः । वावचनाकबपि । उपेन्द्रदत्तकौ ॥ मातृय । मातृक । मातृलान् ॥ भानुयम् । भानुकम् । भानुलम् । अत्र "ऋवर्ण." [ ३७ ] इत्या दिनानुकम्पायां विहितस्य स्वरादेः प्रत्ययस्यादेर्लुक् ऋ. वर्णोवर्णान्तं च प्रकृत्या तिष्ठति ॥ देवकां व्याघ्रकां पृच्छ वाचियां षडियां प्रियाम् । कुवियां कहियां शेवलियां वाथ विशालियाम् ॥ ८२ ॥ ८२. हे श्यालक प्रियां पृछ । कां कामित्याह । देवदत्तायाः "ते लुग्वा" [ ३. २. १०८] इत्युत्तरपदलोपेनुकम्पिता देवी देवका । अत्र कपि पित्वात्पुंवद्रावे नित्त्वादाप्परेपि ककार इत्वं न स्यात् तां देवकां तथा व्याघका व्याघ्राजिनां व्याघ्रमहाजिनां वा । तथा वाचियां वागाशिषं वाग्दत्तां वागाशीर्दत्तां वा । तथा षडियां षडङ्गुली तथा कुवियां कुबेरदत्ताम् । तथा कहियां कहोडां वा । तथा शेवलियां शेवलदत्ताम् । अथ तथा विशालियां विशालदत्ताम् । सर्वा अप्येता अनुकम्पिता(ताः)॥ १सी विया की. १ए 'इल । वा. २ सी को । पिक'. ३ ए कलाः । वाच'. ४ सी "तृला. ५ सी र्णान्तरप्र. ६ सी च्छ । कारे इत्वं. ७ ए कति पि. ८ ए दावि नि'. ९ ए त्वं च स्या. १० सीनां वा. ११ ए ङ्गुली त. १२ सी कुबेर'. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ [है. ७.३.४१.] एकोनविंशः सर्गः। इत्युक्त्वा बृहस्पतियविशाखिलकुमारिलैः । सोदापयद्दत्तियाय शुण्डारिकलभाश्वकान् ॥ ८३ ॥ ८३. स भैमिरिति पूर्वोक्तं नर्मणोक्त्वा बृहस्पतियविशाखिलकुमारिलैरनुकम्पितबृहस्पतिदत्तविशाखादत्तकुमारदत्तैः कर्तृभिर्दत्तियायानुकम्पिताय देवदत्ताय श्यालायादापयत् । कान् । शुण्डारा हस्वाः शुण्डाः सन्त्येषां शुण्डारिणस्ते ये कलभास्त्रिंशदव्दका गजास्ते शुण्डारिकलभास्तथा हस्वा अस्वा(श्वा) अश्वकाः किशोरा द्वन्द्वे तान् । माणिक्यकुतुपान्कूदीरशमीरकुटीरगान् । शमीरुस्तम्भमध्येसै हयांश्चानगुरुर्ददौ ॥ ८४ ॥ ८४. आन्नगुरुरस्मै भैमये ददौ । कान् । माणिक्यकुतुपान् माणिक्यैर्भूत्वा ईस्वाः कुतूश्चर्ममयानि स्नेहपात्राणि । किंभूतान् । हस्वाः कुद्यस्तृणभेदाः कूदीरास्तथा हस्वाः शैम्यः शमीरा द्वन्द्वे तेषां यः कुटीरो हस्वा कुटी तत्रस्थान् । तथा शमीरुस्तम्भमध्ये हस्वशमीस्तम्भध्ये बद्धत्वेन वर्तमानान्हयांश्च ॥ देवकाम् । अत्र "लुकि०" [३८] इत्यादिना कप् ॥ व्याघ्रकाम् । अत्र “लुक्च०" [३९] इत्यादिना कप लुक्चोत्तरपदस्य ॥ वाचियाम् । अत्र “षड्वर्ज०" [ ४० ] इत्यादिनोत्तरपदस्य लुक् ॥ पंड्वति किम् । पडियाम् । अत्र "द्वितीयाद्” [ ४१ ] इत्यादिना द्वितीयात्स्वरादूर्व ---- - १ सी यायाशु. २ए °ध्येस्से ह'. १ सी 'म्पितैबृह. २५ लादा'. ३ ए अश्व'. ४ सी हस्वा कु. ५ सी शमी'. ६ सीन् । यथा. ७सी ध्ये बी. ८ सी अत्रांगुलि . ९सी पडि. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाकः] लोपः । तथा च "अवर्णेवर्णस्य" [ ७. ४. ६८ ] इत्यल्लुबः(कः) स्थानिवद्भावात्पर्दस्यानिवृत्तेस्तृतीयत्वं न निवर्तते ॥ कुवियाम् । कहियाम् । अत्र "संध्यक्षरात्तेन" [ ४२ ] इति द्वितीयात्संध्यक्षररूपात्स्वरादूर्ध्व लुक् तेन द्वितीयेन स्वसंध्यक्षरेण सह ॥ शेवलियाम् । विशालियाम् । अत्र “शेवल." [ ४३ ] इत्यादिना तृतीयारस्वरादूवं लुक् ॥ केचित्तु विशाखिल । कुमारिलैः । इत्यत्रापीच्छन्ति ॥ बृहस्पतिय । इत्यत्र "क्वचित्तुर्यात्" [ ४४ ] इति कचिच्चतुर्थात्स्वरादूर्ध्व लु ॥ दत्तियाय । इत्यत्र "पूर्वपदस्य वा” [ ४५ ] इति पूर्वपदस्य लुग्वा ॥ वावचनाद्यथाप्राप्तम् । देवियेत्यादीनि पूर्वोक्तान्येवोदाहरणानि ॥ अश्वकान् । इत्यत्र “ह्रस्वे" [ ४६ ] इति कप् ॥ कुटीर । शुण्डारि । इत्यत्र “कुटी." [ ४७ ] इत्यादिना रः ॥ केचित्तु कुटीस्थाने कूदी पठन्ति ॥ कूदीरें ॥ शमीरु । शमीर । इत्यत्र “शम्या रुरौ" [ १८ ] इति रुरौ ॥ कुतुपान् । इत्यत्र "कुत्वा दुपः" [ ४९ ] इति डुपः ॥ वत्सतरोक्षतराश्वतरर्षभतरव्रजैः। ऊढं गोणीतरीः कासूर्या छित्वा स वस्खदात् ॥ ८५ ॥ ८५. स आन्नगुरुः कासूतर्या हस्वय(या) कास्वा शक्तिशस्त्रेण कृत्वा गोणीतरीहवा गोणीर्वस्वावपनानिच्छित्वा पाटयित्वा भैमये १ सी तराः का. २ सी यांश्छित्वा पाट'. १ए "दस्यांनि. २ ए क्षरांतत्वेन. ३ सी क् । तेन वि. :४ सी क् । कल्यया'. ५ सी देवये. इसी कूदी प. ७ सी दीरु. ८ सीये सुवर्ण". Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.३.५४.] एकोनविंशः सर्गः । ५३५ वसु स्वर्णमदात् । किंभूतम् । वत्सतरा दम्या उक्षतरा महोक्षा अश्वतरा वेसरा ऋषभतरा वृद्धोक्षा द्वन्दे तेषां ब्रजैरतिवंहीयस्त्वेनोढम् ॥ कासूतर्या । गोणीतरीः । अत्र "कासू०" [ ५० ] इत्यादिना तरट् ॥ वत्सतर । उक्षतर । अश्वतर । ऋषभतर । इत्यत्र "वत्सोक्ष." [५] इत्यादिना पित्तरद ॥ अपकृष्टो नैकतरः क्रियाहीनो न चैककः । अमहेच्छो न चैकोपि तयोः संबन्धिपक्षयोः ।। ८६॥ ८६. तयोः संबन्धिपक्षयोर्मध्येमहेच्छोनुदार एकोपि न च नैवाभूदत एवैकक एकोपि न च नैव क्रियाहीनो विवाह कार्यन्यूनोभूदत एव चैकतर एकोपि नापकृष्टो निन्दितोभूत् ।। तयोरेकतरः । अत्र “वैकाद्" [ ५२ ] इत्यादिना वा डतरः ॥ वाचनमगर्थम् । तयोरेककः ॥ महावाधिकारान्न भवत्यपि । तयोरेकः ॥ पक्षयोर्यतरोप्यैक्षि ततरोपि क्रियाधिकः । स्तूयतां कतरस्तत्रान्यतरो निन्द्यतां कथम् ।। ८७ ॥ ८७. स्पष्टः । किं तु यतरोपि योपि । एवमप्रेपि ॥ पक्षयोर्यतरः । तेतरः । कतरः । अन्यतरः । अत्र “यद्" [५३] इत्यादिना डतरः॥ स्वर्गभाजामन्यतमां वधूमन्यतरं च तम् । अकारयदथ प्रीतः पुरोधाः करमोचनम् ॥ ८८ ॥ ८८. स्पष्टः । किं तु स्वर्गभाजां देवीनां मध्ये रूपाद्यतिशयेनान्य१ए योयोंत. २५ रोधा क. . १सी ति वहीं . २ ए दिन त'. ३ सी वनगमर्थ. ४ एपि। ई. ५सी तरकन्य. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] तमामेकां वधूम् । स्वर्गभाजां देवानां मध्येन्यतरमेकं तं च वरं च । करमोचनं पाणिग्रहणमोक्षम् ॥ कतरो वः कठो विद्वान कतमो वेति भाषयन् । नृपोप्रीणाद्धनैर्विमान्यतरांस्ततरान्न हि ॥ ८९ ॥ ८९. हे विप्रा वो युष्माकं मध्ये कतरः केटः कः कठप्रोक्तवेदाध्यायी । वा यद्वा । वो मध्ये कतमः को विद्वानिति स्वनरैर्भाषयन्सन्नृपो विप्रान्कठत्वादिविशिष्टान्द्विजान्धनैरप्रीणाहुद्रव्यैस्तृप्रीचक्रे । न हि पुनर्यतरांस्ततरान्कठत्वादिरहितान् ॥ भूरिदक्षिणया विप्रान्यतमा(मां)स्ततमानपि । कौन्तेयवलिकर्णानामयमेकतमोणत् ॥ ९० ॥ ९०. स्पष्टः । किं तु गुणिनो द्विजांस्तावद्भरिद्रव्यैरप्रीणयत् । निगुणानपि भूरिदक्षिणामात्रेणाप्रीणयदित्यर्थः । कौन्तेयो युधिष्ठिरः ॥ यतरान् । यतमान् । ततमान् । ततरान् । कतमः । कतरः । अन्यतमाम् । अन्यतरम् । अत्र “बहूनां०" [५४ ] इत्यादिना डतमो वा चकाराडतरश्च । एकतमः । अत्र “वैकात्" [५५] इति डतमः ॥ वावचनादक । एकक इति पूर्वोक्कमेव ॥ क्षणेत्रच्छिन्नतमकश्रमच्छि(शिछ ?)नवस्त्रभृत् । रजसा भिन्नतरकः पुमानागाँदवन्तितः ॥ ९१ ॥ ९१. अत्र क्षणेस्मिन्प्रस्तावेवन्तितो मालवदेशात्पुमानागात् । की१ सी रो व कवो वि. २ ए °न् ऋत'. ३ सी पोपूर्णद्ध'. ४ ए तरंस्त'. ५ सी 'पृणात्. ६ एकमस्त्र. ७ ए गावदन्ति. १ सी र क. २ सी कठकः. ३ ए °ठः क. ४ ए गानामपि. ५ सी 'राम्. ६ एहूनादित्या. ७ एवमौ वा. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ [ है. ७.३.५७.] एकोनविंशः सर्गः। हक । छिन्नतमकोनत्यन्तं छिन्नतमस्तदैवागमनेनातिश्रान्तत्वादनपगतो राजदर्शने गमनावधेः पूर्णत्वेन स्वस्थचित्तत्वाञ्च किंचिदपगतेश्चेत्यर्थः । श्रमो मार्गखेदो यस्य सः । तथा छिन्नकमनत्यन्तं छिन्नं स्फुटितमित्यर्थः । यद्वस्त्रं तद्विभर्ति यः सः । तथा रजसा भिन्नतरकोनत्यन्तं भिन्नतरः किंचिद्व्याप्त उद्धूलितजङ्घ इत्यर्थः ।। छिन्नक । तमबाद्यन्तात् क्तात् । छिन्नमकः(क)। मिन्नतेरकः । अत्र "क्तात्" [५६ ] इत्यादिना कप् ॥ द्वाःस्थेन साम्यनत्यन्तं प्रविष्टः सामिवारितः । सो|क्तोर्द्धमनत्यन्तं निवेदिततमः प्रभोः ॥ ९२ ॥ ९२. स पुमान् द्वाःस्थेन प्रभो:मेरत्यौत्सुक्यादिवशेनावन्तितः पुमानित्यधमनत्यन्तं मधुरवचसा निवेदिततमोतिशयेन विज्ञप्तः । कीदृक् । साम्यर्धमनत्यन्तं प्रविष्टः सन् द्वाःस्थेन सामिवारितः प्रविशनर्धमनत्यन्तं निषिद्धस्तथा?क्तो राज्ञो निवेदनेत्यन्तमुत्सुकत्वेन संपूर्णवाक्यस्योक्तावशक्तत्वात्क्षणं द्वारदेश एवेत्यर्धमनत्यन्तर्मुक्तः ॥ भूपतिः साम्यनत्यन्तं निर्भुनतरया भ्रुवा । सांराविणं व्यावभाषीं विनापि तमवीविशत् ॥ ९३ ॥ ९३. भूपतिः साम्यनत्यन्तं निर्भुगतरया प्रवेशसंज्ञार्थमनतिशयेन वक्रीकृतया ध्रुवा कृत्वा तं पुमांसमवीविशत्प्रवेशितवान् । कथम् । विनापि । किम् । सांराविणं समन्ताद्रवणं पुमांसं शीघ्रं प्रवेशयेति १ सीन्तं प्रावृष्टः स्यामि . २ ए°तमः. ३ सी तमोति'. १ सी गमाव'. २ सी "त. ३ ए °न्नं स्फटि. ४ ए तरकः. ५ए तमकः. ६ सी नस्यन्तं. ७ सीन्तं न विषि'. ८ सी मुक्तं ॥ भू. ९ सी द्रव्यणं. १० ए°शयति. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ व्याश्रयमहाकाव्ये २ संशब्दनम् । तथा व्यावभाषी व्यवभाषणं किमर्थमसावागतः कीग्वामुनार्थेनागत ईदृग्वेत्यन्योन्यालापं च ॥ साम्यनत्यन्तं प्रविष्टः । अर्धमनत्यन्तं निवेदिततमः । साम्यनत्यन्तं निर्भुग्नरया । इत्यत्र “न सामि० " [ ५७ ] इत्यादिना न कप् ॥ अन्ये तु समास एैवोदाहरन्ति । सामिवारितः । अर्धोक्तः ॥ [ कुमारपालः ] व्यावभाषीम् । सांराविणम् । अत्र " नित्यं जजिनोण" [ ५८ ] इति स्वार्थे नित्यमर्णौ ॥ वैरिवैसारिणाङ्केशं शिबीनां सोग्रणीर्नृपम् । प्रणम्येत्यत्रवीद्वाचो देवदत्तकपूगजित् ॥ ९४ ॥ ९४. स पुमान्वैरिण एव सन्तापकत्वाद्वैसारिणाङ्को मीनध्वजः कामस्तत्रेशं शत्रूणां भस्मसात्कारकं तं भैमिं प्रणम्य स पुमानिति वक्ष्यमाणंवाचोब्रवीत् । कीदृक् । शिबीनां नानाजातीयानामनियतवृत्तीनामर्धकामप्रधानानां संघानामग्रणीर्मुख्यस्तथा देवदत्तको देवदत्तेमुख्यो यः पूंगः संघविशेषस्तज्जित् । एतदपेक्षयोत्कृष्टानां शिविपूगानामग्रणी - त्वत्स्वपूगस्वामिनो देवदत्तादुत्कृष्ट इत्यर्थः ॥ वैसारिण । इत्यत्र “विसारिणो मत्स्ये” [ ५९ ] इति स्वार्थेण् ॥ शिबीनाम् । अत्र “पूगाद् ०" [ ६० ] इत्यादिनों न्यः स च द्विः । द्वित्वाद्वहुवस्त्रियां लुप् ॥ अमुख्यकादिति किम् । देवदत्तकपूँग ॥ 'तख्यो. १२ सी पूग सं. १५ सी मुष्यका १६ ए १ सी वैशारि". १ ए व्यावभा". २ सी धमागतोसौ कीदृक् पुमर्थेना. ३ सी च । सनमन. ४ सी व अ. ५ सी 'तमया. ६ सी एववाह'. ७ एण् । विरि. ८ सीज: कमनस्त. ९ सी 'णवतो. १० सी 'तव्रतीना. १३ सी 'त्वात्सपू. पूगः ॥ स्त्री. १४ सी ना ज्याः ११ ए । स. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः सर्गः । स्त्री व्रीहिमतां व्रीहिमेतानां संमतोस्म्यहम् । दण्डनेतुर्नियुक्तस्य मालवेषु सकुन्तिषु ।। ९५ । [ है० ७.३.६३. ] ९५. यथा व्रीहिमतानां व्रातानामनियतैवृत्तीनां शरीरायासजीविनां संघानां त्रीहिमता स्त्री संमता भवति तथाहं दण्डनेतुः संमतोस्मि दण्डेशस्य पुमानहमित्यर्थः । किंभूतस्यै । सकुन्तिषु कुन्तिभिः शस्त्रजीविसंघेन सहितेषु मालवेषु मालवा वाहीकेषु शस्त्रजीविसंघस्तेषु विषये नियुक्तस्य त्वया विजयाय व्यापारितस्य ॥ तद गौपालिराजन्यकाम्बव्यवृकपत्तिकः । सेनानीस्ते सयौधेयशौभ्रेयोगादवन्तिषु ।। ९६ ।। ५३९ ९६. तदा यदा त्वमान्नजयाय स्वयं चलितः । सेनान्यं तु बैंल्लालजयाय प्रेषितवांस्तस्मिन्काले ते सेनानीरवन्तिष्वगात् । कीदृक्सनं । गौपालयो गोपालस्यापत्यानि ब्राह्मणभेदा राजन्याश्च राज्ञोपत्यानि काम्बव्याश्च काम्बवस्यापत्यानि वाहीकेषु शस्त्रजीविसंधी वृकाश्च शस्त्रजीविसंघाः पत्तयो यस्य सः । तथा युधायाः शुभ्रस्य वापत्यानि वहका (क?) कुमारास्ते शस्त्रजीविसंघा यौधेयशौश्रेयाः संह तैर्यः सः ॥ व्रीहिमतानाम् । अत्र “वातादखियाम्" [ ६१ ] इति स्वार्थे न्यः स च द्विः । अस्त्रियामिति किम् । व्रीहिमता स्त्री ॥ १२ कुन्तिषु । इत्यत्र “शस्त्र ० " [ ६२ ] इत्यादिना न्यट् स च द्विः ॥ १ता ब्रहम. २ सी मनानां सम. ३ सीदा गोपा. १ एनां व्रता. २. सीता ५ सी स्य कु. ६ सी बल्लोज'. ९ सीधा पत्तयेय. १० सी 'इनकु ३ सी 'तव्रतीनां. ४ सी 'नां व्री. ७ सी 'न् । गोपा. ८ सी राप ११ सी सहितै १२ ए द्रिः । मा • Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] मालवेषु । इत्यत्र "वाहीकेषु०" [ ६३ ] इत्यादिना न्यट् स च द्रिः ॥ भब्राह्मणराजेन्येभ्य इति किम् । गौपालिराजन्यकाम्बव्य ॥ वृक । इत्यत्र "वृकाट्टेण्यण्" [ ६४ ] इति टेण्यण् स च द्विः ॥ यौधेय । शौभ्रेयः । अत्र “यौधेयादेरज्" [ ६५ ] इत्यञ् स च द्विः ॥ रक्षोभिः पशुभिदमिनिभिरौलपिभिर्वृतः । श्रीमतैः त्रैमतैश्चामुं बल्लालो दर्पतोभ्यगात् ॥ ९७ ॥ ९७. स्पष्टः । किं तु रक्षांसि पर्शवो दामनय औलपयश्च शस्त्रजीविसंघे(घा?)स्तैस्तथा श्रुमतः श्रीमतश्चापत्यानि श्रीमताः त्रैमताश्च त एव औमताः त्रैमताश्च तैश्च वृतः॥ शामीवत्याभिजित्याभ्यां शैखावत्येन चैष ते । कृत्यौ विभेद सामन्तौ नाम्ना विजयकृष्णकौ ॥ ९८ ॥ ९८. एष च बल्लालो नाना विजयकृष्णको ते तव सामन्तौ बिभेद । कैः कृत्वा । शामीवत्याभिजियाभ्यां शैखावत्येन च शमीवतोभिजितः शिखावतश्चापत्यैः । यतः कीदृशौ । कृत्यौ करणीयौ भेदाहावित्यर्थः ।। शालावत्योर्णावत्याभ्यां वैदभृत्येन चेरितौ । किंराजानमराजानौ सुराजस्तौ तमीयतु(तुः) ॥ ९९ ॥ १सी पशुमि. २ एतः श्रेमतेश्चा'. ३ ए मीवित्या. ४ सी मेदे सा. ५ सी को ।। ते तव. ६ ए मीयुधः ।। हे. १ सी ह्मण्यरा'. २ ए जनेभ्य. ३ सी धेयः । . ४ सीमनेय. ५ सी घस्त'. ६ सी तैर्वृत ॥ शा. ७५ मे कैः. ८ सी याभ्यो 3. १९ दाहावि. Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.३...] एकोनविंशः सर्गः। ९९. हे सुराजन्पूजितनृप भैमे तो सामन्तौ शालावत्यौर्णावत्याभ्यां वैदभृत्येन च शालावत ऊर्णावतो विदभृतश्चापत्यैरीरितौ ब. लालपक्षे भवनाय प्रेरितौ सन्तौ किंराजानं निन्द्यं नृपं बल्लालमीयतुराश्रितौ । यतोराजानौ । नत्राल्पार्थो निन्दार्थों वा । स्वामिनि दूढत्वादल्पौ तुच्छौ निन्द्यौ वा राजानौ । निषेधार्थ एव वा नम् । राजार्हचरित्ररहितावित्यर्थः ॥ सौ(सो)तिराजस्तवानीके आसन्नबहुभिर्नृपः । कुर्वन्नागादस्यसि द्विदण्डि द्विमुशलि क्षणात् ॥ १० ॥ १००. हेतिराजन्पूजितनृप स बल्लालस्तवानीके क्षणादागात् । कीटक्सन् । आसन्ना बहवो भटगजाद्या येषां तैर्नृपैः कृत्वा कुर्वन् । किम् । अस्यस्यसिभिरसिभिः प्रहृत्य युद्धं वृत्तं तथा द्वौ दण्डौ द्वौ मुशलौ चास्मिन्प्रहरणे द्विदण्डि द्विमुशलि च ॥ पशुमिः । रक्षोमिः । अत्रं "पादेरण्" [ ६६ ] इत्यण् स च द्विः ॥ दामनिमिः । औलपिमिः । अत्र "दामन्यादेरीयः" [ ६७ ] इतीयः स च दिः ॥ श्रीमतैः । शामीवत्य । शैखावत्येन । शालावत्यं । और्णावत्याभ्याम् । वैदभृत्येन । भ(आ?)मिजित्याभ्याम् । इत्यत्र "श्रुमत्०" [ ६८ ] इत्यादिना स्वार्थे यञ् स च द्विः ॥ श्रीमच्छब्दादपि केचिदिच्छन्ति । त्रैमतैः ॥ १सी के क्ष. १ए त्यौर्णव'. २ सी तो वेद'.. ३ सी नौ। नान्यत्रा'. ४ ए वा टश्. ५ सी ससि आसिमिः प्र. ६ सी त्तं यथा. ७ सीत्र पार्था'. ८ सी दिः । शा. ९एस । ऊर्णा. १० एस श्रु. ११ सी च्छन्दमपि. १२ सी "न्ति । भौम'. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] किंराजानम् । अत्र "न किमः क्षेपे" [७० ] इति वक्ष्यमाणः समासान्तोत् न स्यात् ॥ अराजानौ । अत्र "न" [७१] इत्यादिना समासान्तो न ॥ सुराजन् । अतिराजन् । अत्र "पूजा." [७२ ] इत्यादिना .टात्प्राक् समासान्तो न ॥ आसन्नबहुभिः । अत्र "बहो." [ ७३ ] इति डप्रसङ्गे डः कच्च न ॥ अस्यसि । इत्यत्र “ईच्युद्धे" [ ७४ ] इतीच् ॥ द्विदण्डि । द्विमुशलि । इत्येतो "द्विदण्ड्यादेः(दिः)" [७५] इति निपात्यौ ॥ तसोक्तचैंरिवत्विग्भिः श्रीपुरैः क्ष्वेडिभिर्भटैः । प्रा(आ?)रेभेसद्धलं होतुं समीपपथरोधिभिः ॥ १०१॥ १०१. उक्त.रुच्चारितमबविशेषैः सद्भिर्ऋत्विग्भिर्यथा हव्यं होतुमारभ्यते तथा तस्य भटैबल्लालस्य वीरैरस्मदलं होतुमारेभे हन्तुमारब्धमित्यर्थः । किंभूतैः सद्भिः । श्रीपुरैः श्रियश्चतुरङ्गबलविक्रमादिलक्ष्म्याः पूर्भिनगरैर्निवासैरित्यर्थः । तथा श्वेडिभिः सिंहनादवद्भिस्तथा संगता आपो यत्र तत्समीपं तडागादि तस्य ये पन्थानः प्रवेशमार्गास्तद्रोधिभिर्जलस्थानानि रुद्धा स्थितैः । यद्वा रुद्धा(?) समीपान्निकटान्पथो रुन्धानरस्मत्सैन्यस्य निकटमागतैरित्यर्थः ॥ ऋच् । उक्तः ॥ पुर। श्रीपुरैः ॥ पथिन् । समीपपथ ॥ अप् । समीप । इत्यत्र "ऋक्पूर०" [५६ ] इत्यादिनी-अत् ॥ १सी अत्ररा'. २ ए जानं । . ३ ए न् । अ. ४ सी होड ई. ५ए °सङ्ग डः. ६ए इच् । द्वि. ७ए °ण्ड्यादिभिः इनिपा. ८सी "गकलावि'. ९ सी यः । यथा. १० सी "नि रदस्थि. ११ सी उचैं:. १२ सी नाक ॥ ना. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है• ७.३.५७.] एकोनविंशः सर्गः। ५४३ नारोहुँ दृढधूरक्षात्रथानणधुराक्षमान् । लेभिरेसद्भटा रुद्धा उदग्भूमस्थितैः परैः ॥ १०२ ॥ १०२. अस्मद्भटा उदीच्युत्तरा भूमिरुदग्भूमस्तत्र स्थितैः परै रुद्धाः सन्तो रथानुपलक्षणत्वादश्वेभं चारोढुं न लेभिरे । किंभूतान् । दृढ• धुरो बलि[ष्ठधु] रोक्षाश्चकाणि येषु तान् । तथा [ण]धुराक्षमाञ् श. स्वादिसर्वसामग्र्या रणकार्यप्राग्भारशक्तान् ।। कृष्णभूमं पाण्डुभूमं द्विभूमं च विहाय नः । पुरोगा नेशुरत्यध्वं घातान्धतमसान्धिताः ॥१३॥ १०३. नोस्माकं पुरोगा अग्रेसरभटा अत्यध्वं मुक्तमार्ग यथा स्यादेवं नेशुः । किं कृत्वा । कृष्णा भूमिः कृष्णभूमं तत् कृष्णा भूमिरत्र कृष्णभूमो देशस्तं वा । एवं पाण्डुभूमं तथा द्वयोर्भूम्योः समाहारो द्विभूमं तत् । द्वे भूमी अत्रै त(तं) द्विभूमं देशं वा विहाय पश्चाद्भूत्वेत्यर्थः । यतो घाता द्विट्प्रहारा एवातिनिबिडत्वेनान्धका(न्धं करोत्यन्धमन्धं च तत्तमश्चान्धं तमोस्मिन्वान्धतमसमतिनिबिडतिमिरं तेनान्धिता अन्धीकृताः ॥ शरसंतमसेरीणां मूर्छावतमसस्पृशः। अन्येप्यतप्तरहसा भियावरहसं ययुः ॥१०४॥ १०४. अन्येपि पुरोगेभ्योपरेपि भटा अवरहसमवहीनं रहोवहीनं रहसा वावरहसमवहीनं रहोस्यावरहसस्तं वा निकृष्टं विजनदेशं निकृष्ट१ए गधरा . २ सी °न् । शस्त्रा'. १ए मत्स्या र. २ सी हारे द्वि'. ३ ए °त्र तद्वभू. ४ ए°मन्तं च. ५५ 'श्चान्धत. ६ एन्वान्धं तमसमिति'. ७ सी हीनर. ८ सी स्तं. पिवा. ९ सीकृष्ट विजनदेशा'. Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] विजनदेशान्वितं पर्वतादि वा ययुHशुरित्यर्थः। किंभूताः सन्तः। अरीणां शरसंतमसे शरैरतिनिबिडत्वात्संतते तमसि सति मूर्छावतम[स]स्पृशो मूर्छया किंचिदचैतन्येन यद॑वहीनं तमोवहीनं तमसो[सा?]वहीनं तमोस्मिन्बावतमसमन्धकारिका तत्स्पृशन्तः । तथा भिया नास्ति तप्तरहसं वप्तं तप्ताय इवानधिगम्यं रहोप्रकाश्यं वस्तु येषां तेतप्तरहसाः। यद्वा । तप्तं रहो येषां ते तप्तरहसा न तथा स्वजीविताशयातिगोप्यं स्वाम्यादिमपि द्विषां दर्शयन्त इत्यर्थः ॥ प्रतिसामः प्रतिलोमो ज्ञातानुरहसो द्विषाम् । सोनुसामोनुलोमः खानृपानूचे चम्पतिः ॥ १०५॥ १०५. स चमूपतिरनुगतानि लोमान्यस्यानुलोमो रूढ्यानुकूलोत एवानुसामः साम्नानुगतः सन्स्वानृपानणे स्थिरीभवनायोचे । यतः कीहक् । द्विषां प्रतिलोमो रूच्या प्रतिकूलस्तथा द्विषां प्रतिगतं सा. मास्य प्रतिसामो दण्डे प्रगुण इत्यर्थः । तथा द्विषां झातमनुरहसमनुरूपं रहो येन सः । गूढचरादिप्रयोगेण द्विषां विदितसामादिपरमार्थ इत्यर्थः ॥ अवलोमावसामेन भ; मे ब्रह्मवर्चसम् । धिक्स्तुतं धिक्च वो राजवर्चसं हस्तिवर्चसम् ॥ १०६ ॥ १सी सोनसामोनलो'. १ सी ताचं वा. २५ "विडित्वा'. ३ सी मूर्छया. ४ सी दही'. ५९ °नं तमो'. ६ सी वसस'. . सी नाति त. ८ सी बाधिनम्यं. ९सी काशं वास्तु. १० सी या साजी. ११ सी तिसगोप्यं सत्यादि १२ ए दिनपि. १३ सी 'कूलात. १४ सी गतसा. १५ सी या शा. १६ ए रहंस'. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.३.७९.] एकोनविंशः सर्गः।। ५४५ १०६. अवलोमेष्ववहीनलोमसु रूढ्या शत्रुषु विषयेवसामेनावहीनसाना सामरहितेनेत्यर्थः । भर्ना भैमिना धिक्स्तुतं श्लाषितम् । किं तदित्याह । मे मम ब्रह्मवर्चसं ब्रह्मतेजस्तथा वो युष्माकं राजवर्चसं राजतेजो हस्तिवर्चसं च हस्तिनां बलं च । एवं नाशेनातिनिन्द्यान्येतानि त्रीणि स्वामिना धिक्स्तुतानीत्यर्थः । पल्यवर्चसवम धिग्वः प्रत्युरसं नृपाः । यन्नश्च स्वामुपाक्ष्येते विशन्त्योकोगवाक्षवत् ॥ १०७ ॥ १०७. हे नृपाः प्रत्युरसमुरसि वर्तमानं वो युष्माकं वर्म धिग्गहें । यतः पल्यवर्चसवत्पल्यं कटकृतं पलालवर्तिकृतं वा धान्यभाजनं हस्तिविधा(?) वा तस्य॑ यद्व) बलं रणकार्याकरणेन भारभूतत्वात्तत्तुल्यम् । एतदपि कुत इत्याह । यद्यस्मान्नोस्माकं च स्वा(?)मुपाक्ष्यक्ष्णोः समीपे युष्माकं पश्यतामेवेत्यर्थः । एते शत्रवो विशन्ति । ओकोगवाक्षवत् । [*यथा गृहगवाक्षे सुखात्सर्वोपि विशति ॥ रणु(ग)धुरा । इत्यत्र "धुरोनक्षस्य" [ ७७ ] इत्यत् ॥ अनक्षस्येति किम् । दृढधूरक्षान् ॥ द्विभूमम् । [ पाण्डुभूमम् । ] उदग्भूमः(म) । कृष्णभूमम् । अत्र “संख्या०" [ ७८] इत्यादिना-अत् ॥ भत्यध्वम् । अत्र "उपसर्गादध्वनः" [ ७९ ] इत्यत् ॥. १ ए धर्माधि'. २ सी में द्विग्व प्र. ३ एक्षवात्.. १ए साम्ला सा. २ एम् । के त. ३ सी न्यान्यिता. ४ एक चमाधि'. ५ सी धान्यं भा'. ६ सी °स्य द्वयों. ७ सीपाक्षक्ष्णोः. * एतदारभ्य १२० तमपघटीकादर्शितधनुश्चिह्नान्तस्थो ग्रन्थः सीपुस्तके नास्ति. ६९ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः संतमसे। अवतमस । अन्धतमसा । इत्यत्र "[सम]व." [८०] इत्यादिना-अत् ॥ अतप्तरहसाः । अनुरहसः । अवरहसम् । अत्र "तप्त." [८१] आ(इत्या)दिना-अत् ॥ प्रतिसामः । अनुसामः । अवसामेन । प्रतिलोमः । अनुलोमः । अवलोम । इत्यत्र "प्रत्यनु०" [ ८२ ] इत्यादिना-अत् ॥ ब्रह्मवर्चसम् । [हस्तिवर्चसम् । राजवर्चसम् ।] पल्यवर्चसम् । अत्र "ब्रह्म" [३] इत्यादिना-अत् ॥ प्रत्युरसम् । अत्र "प्रते०" [ ८४] इत्यादिना-अत् ॥ गवाक्ष । इत्यत्र "अक्षणोप्राण्यङ्गे" [ ८५] इत्यत् ॥ अप्राणा(ण्य)ङ्ग इति किम् । [उपाक्षि]॥ प्रत्यक्षं नः समक्षं च सैन्ये क्षुण्णे परोक्षवत् । कस्माद्रक्ष्यन्ति तेन्वक्षं कटाहासगर्भितैः ॥ १०८ ॥ १०८. स्पष्टः । किं त्वन्वक्षं सकललोकप्रत्यक्षम् ॥ समक्षम् । कटाक्षः । इत्यत्र "स(सं)कटाभ्याम्" [ ८६] इत(त्योत् ॥ प्रत्यक्षम् । परोक्ष(क्ष)। अन्वक्षम् । अत्र "प्रति०" [८७] इत्यादिना-अत् ॥ प्रतिराज वदत्येवं सेनान्यां तेपि भूभुजः । अध्याजिकर्म निश्चिक्युः प्रतिवम कृतादराः ॥१०९॥ १०९. स्पष्टः । किं तु प्रतिराजं नृपं नृपं प्रति । अध्याजिकर्म रणकर्मविषये । निश्चिक्युर्निश्चयं चक्रुः । प्रतिवर्म(म) सन्नाहं प्रति सन्नाहामिमुख्येन लक्ष्यीकृत्य वा । ते नृपाः ॥ प्रतिराजम् । अत्र "अनः" [ ८८ ] इत्यत् ॥ अभ्याजिकर्म । प्रतिवर्मम् । अत्र "नपुंसकाद्वा" [ ८९] इति वा-अत् ॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है. ७.३.९१.] एकोनविंशः सर्गः । ५४७ उपनद्युपगिपर्य(गिर्य)न्तर्नदमन्तगि(नि)रं गतान् । तेध्याग्रहायणीवोडूम्ना(ला)नानाहन्खकान्भटान् ॥ ११० ॥ ११०. स्पष्टः । किं तु ते नृपाः । यथाध्याप्रहायणि मार्गशीयाँ हिमेन व्याप्तव्योमत्वेनोडवस्तारा म्लानाः स्युरेवं म्लानान् ॥ तेधियुत्पत्यसुहृदं प्रससुः सो गर्जिताः ॥ अध्याग्रहायणमुपपौर्णमासं यथाब्धयः ॥ १११॥ १११. ते नृपा अधियुद्रणे प्रत्यसुहृदं शत्रूनाभिमुख्येन लक्ष्यीकृत्य प्रसञः प्रसृताः । किंभूताः सन्तः । सोर्जाः सबला ये गर्जिताः कृतासिंहनादाः । यथाध्याग्रहायणं मार्गशीर्षपूर्णिमायामुपपौर्णमासं पौर्णमास्याः समीपे च श्वेतचतुर्दश्यां कृष्णप्रतिपदि वेन्दोरुदितत्वेना. ब्धयः सोज(ज)गर्जिताः सन्तः प्रसरन्ति ॥ अन्वगाद्दण्डनेताधिपौर्णमासीन्दुरुक्स तान् । इदं पञ्चनदं सप्तगोदावरमिति बुवन् ॥११२ ॥ ११२. अधिपौर्णमासीन्दुरुग् रणाय भूभुजा(जां) व्यावर्तनेतिप्रमुदितत्वात्पूर्णिमाचन्द्रोज्ज्वलविकसितमुख(खः) स दण्डनेता तान्भूभुजोन्वगात् । कीहक्सन् । उत्साहनाय ब्रुवन् । किमित्याह । इदं रणं वर्गहेतुत्वात्पञ्चनदसप्तगोदावरतीर्थयोस्तुल्यमिति ॥ अन्तर्गिरम् । उपगिरि । अन्तर्नदम् । उपनदि । उपपौर्णमासम् । अधिपीर्णमासं(सि) । अध्याग्रहायणम् । अध्याग्रहायणि ॥ अपञ्चमवर्य । प्रत्यसु. हदम् । अधियुत् । अत्र "गिरि०" [ ९० ] इत्यादिना-अत्( अद्वा)। पञ्चनदम् । सप्तगोदावरम् । अत्र "संख्यायाः०" [११] इत्यादिना-अद्वा (भद)॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल: सेनानीरधिशरदं शशीवाधितदं बभौ । व्याधो वोपशुनं निघ्नन्विनोपजरसं द्विषः ॥ ११३ ॥ ११३. सेनानीरुपजरसं जरायाः समीपं विना वर्तमानांस्तरुणानित्यर्थः । द्विषो निन्नन्सन्नधितदं तेषु स्वराजस्वाहादकत्वाद्वभौ । यथा शश्यधिशरदं शरत्काले भाति । यथा वा व्याध आखेटिक उपशुनं शुनां समीपे भाति ।। तदास्त्राणामनुगवानोभिः पांशुस्तथोद्धतः । यथा सरजसं मृत्युमहोक्ष इव जनसे ॥ ११४ ॥ ११४. तदास्त्राणां सत्कैरनुगवानोभिर्गा (ग) अन्वायतैः शकटैः कृत्वा पांशुस्तथोद्धत उच्छलितो यथा निबिडं रणोा व्याप्तत्वान्मृत्युयमो महोक्ष इत्र सरजसं रजसा सकलं यथा स्यादेवं जग्रसेनेकसुभटादीनभक्षयत् ॥ नष्टाञ्जातोक्षद्धोक्षस्त्रीपुंसानिव मालवान् । न जन्नुस्तावकाः शुद्धक्षत्रस्त्रीपुंसजा भटाः ॥ ११५ ॥ ११५. स्पष्टः । किं तु जातोक्षस्तरुणवृषभः । स्त्री चासौ पुमांश्च स्त्रीपुंसो नपुंसकः । यथैते रणकातरत्वेन नश्यन्ति तथा नष्टान् । शुद्धक्षत्रस्त्रीपुंसजाः । शुद्धं ब्राह्मणत्वादिजात्यासंकीर्ण(ण) क्षत्रं राजबीजं यस्य तद्यत्स्त्रीपुंसं तस्मान्जाताः शुद्धक्षत्रिया इत्यर्थः ॥ अधिशरदम् । अधितदम् । अत्र “शरदादेः" [ ९२ ] इत्यत् ॥ उपजरसम् । अत्र "जराया जरस् च" [९३ ] इत्यत् । जरसादेशश्च ॥ सरजसम् । उपशुनम् । अनुगव । इत्येते "सरजस०" [९४ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ जातोक्ष । महोक्षः । वृद्धोक्ष । इत्यत्र “जात." [ ९५] इत्यादिना-भत् ॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.९७.] एकोनविंशः सर्गः । ५४९ द्वन्द्वात् । स्त्रीपुंस । कर्मधारय(या)त् । स्त्रीपुंसान् । इत्यत्र "स्त्रिया:०" [ ९६ ] इत्यादिना-अत् ॥ ऋक्सामे ऋग्यजुषं वा केपि जीवातवे जगुः। तृणं धेन्वनु(न)डुहवक्षे(त्के?)प्यधुर्मार(न?)वा रदैः॥११६॥ ११६. स्पष्टः । किं तु जीवातवे जगुर्जीवनाय ब्राह्मणीबभूवुरित्यर्थः ॥ ऊर्वष्ठीवे पदष्ठीवेक्षिभ्रुवे च कृतव्रणः(णाः)। त्यक्तदारगवा नेशुस्तेहोरात्र व(व्रणार्दिताः॥११७ ॥ ११७. स्पष्टः । किं तूर्वष्ठीवे ऊर्वे (ो)र्जान्वोश्च केचित्कृतव्रणाः पदष्ठीवे केचिच्च । पादयोर्जान्वोश्च कृतव्रणा इत्यर्थः ।। रात्रिंदिवमिवार्को भानक्तंदिवमिवानलः। अवाङ्मनसगम्यौजा बल्लालो वा(लोथा)भ्यधावत ॥ ११८ ॥ ११८. [ अथ बल्लालोभ्यधावत । ] कीहक्सन् । न वाङ्मनसेन वाचा मनसा च गम्यं परिच्छेद्यमोजस्तेजो यस्य सोतिप्रचण्डप्रतापोत एव च रात्रिंदिवं सर्वदा योर्कः स इव तथा नक्कंदिवं सदा योनलोग्निः स इव भाजाज्वल्यमानः ॥ गोगोदुहवदासाकान्मन्वानोहर्दिवं च सः । शरैस्तुतोद कीर्णास्थित्वचमांसास्रविग्रुपैः ॥ ११९ ॥ ११९. स बल्लाल आस्माकान्भटान्गोगोदुहवद्गोगोपालानिव नि:सत्त्वान्मन्वानः सञ् शरैः कृत्वाहर्दिवं सदा तुतोद विव्यते(थे)। किंभूतैः । कीर्णे विक्षिप्ते अस्थित्वचमस्थीनि च त्वचश्च मांसास्रविपुषं च मांसं चालविग्रुषो रक्तबिन्दवश्च यैस्तैः ॥ समिट्टपदवद्भित्त्वाशु दुर्भेदां यहेपि हि । शतराजी तवाथारिः प्रपेदे दण्डनायकम् ॥ १२०.॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५५० ट्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] १२०. अथारिबल्लालो दण्डनायकं प्रपेदे प्राप्तः। किं कृत्वा ।] तव शतराजीमाशु भित्त्वेतस्ततः क्षिप्त्वा । किंभूताम् । महाबलत्वेन दृढ. व्यूहत्वेन च ब्यहेपि दिनद्वयेपि दुर्भेदाम् । समिदृषदवत् । यथा समिधः काष्ठानि दृषदश्च दुर्भेदाः स्युः ॥ ऋक्सामे । ऋग्यजुषम् । धेन्वनडुह । वाङ्मनस । अहोरात्र । रात्रिंदिवम् । नक्कंदिवम् । अहर्दिवम् । उर्वष्ठीवे । पदष्टीवे । अक्षिध्रुवे । दारगवाः। एते "ऋक्साम." [ ९७ ] इत्यादिना निपात्याः ॥ चवर्ग । अस्थित्वच ॥ दें। समिट्टषद ॥ष । मांसास्रविपुषैः॥ह । गोगोदुह । इत्यत्र "चवर्ग०" [ ९८ ] इत्यादिना-अत् ॥ शतराजीम् । व्यहे । अत्र "द्विगोरबोट" [ ९९] इत्यत् ॥ सेनानीः खांस्ततर्जाथ द्यायुषं व्यायुषं न वा । घ्यञ्जलत्र्यञ्जलवाह त्या जीविताः स्थ किम् ॥ १२१॥ १२१. अथ सेनानीः खांस्ततर्ज । यथा द्वयोरञ्जल्योः समाहारो यजलमेवं यजलम् । द्वन्द्वे उपचारात्तत्परिमाणं यत्स्वर्ण तदह त्या दिवसे भृतिर्येषां ते हे व्यञ्जलव्यञ्जलखर्णाह त्या हे स्वर्णभृताञ्जलीनां द्वयं त्रयं वा जीविकां दिने दिने लब्धारो न व्यायुषं वर्तमानजनायुरपेक्षया न द्वे आयुषी स्तो न वा व्यायुषं न वा त्रीण्यायूंषि सन्त्यर्थाद्वस्तत्किं जीविताः स्थ जीवथ । अद्य श्वो वा मृत्युर्भाव्येव तस्मात्स्वजीवितनिरपेक्षं युध्यध्वमित्यर्थः ॥ १एता । म'. २ ए च बाहे'. ३ सी ये दु. ४ सी अहर्दि'. ५ ए द । ष । मां. ६ सी रनबो'. ७ ए नानी खां तस्ततः । य. ८ सी रात्प. ९ए वे . १० ए भृवीता. ११ सी यं वा. १२ सी "वितास जीविथ. १३ सी 'त्युमाव्ये. १४ ए भवेत. १५ एध्यमि'. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.३.१०२.] एकोनविंशः सर्गः। ५५१ ब्यञ्जलयख्यञ्जलयः पूर्वेषां नौरसाः स्थ भोः । व्यंलि(यञ्जलि)व्यञ्जलिकृता मया भ्रान्त्यैव पूजिताः॥१२२॥ १२२. भो व्यञ्जलयस्यञ्जलयः स्वर्णादीनां द्वाभ्यामञ्जलिभ्यां त्रिभिरञ्जलिभिश्च क्रीता भटा यूयं पूर्वेषां पूर्वमहाभटानामौरसाः पुत्रा न स्थ । एतब्युपस्थितस्य युद्धस्याकारकत्वात् । अत एव यूयं मया भ्रान्त्यैव तेषां महाभटानामौरसा एत इति महायोधा भविष्यन्तीति मतिभ्रमेणैव पूजिताः स्वर्णवस्त्रादिदानैः सत्कृताः । कीदृशा सता । व्यञ्जलित्र्यञ्जलिकृता द्वयोरञ्जल्योस्त्रयाणामञ्जलीनां समाहारं कुर्वता भक्त्यर्थ द्विनिर्वाजलियोजनानि कुर्वता ॥ यायुषम् । व्यायुषम् । अत्र "द्विवेरायुषः" [ १०० ] इत्यद ॥ ब्याल । व्यञ्जलि । ध्योंल । व्यञ्जलि । इत्यत्र “वाञ्जलेरलुकः" [१०१] इति वा-अट् ॥ अलुक इति किम् । द्यञ्जलयः । व्यञ्जलयः ॥ तेनेत्युक्ता युयुधिरे तेधिकीभूय वैरितः॥ द्विखारतस्त्रिखारीव त्रिखारेः पञ्चखारि वा ॥ १२३ ॥ १२३. स्पष्टः । किं तु यथा द्विखारतो द्वयोः खार्यो(योः) समाहारात्सकाशात्रिखारी तिसृणी खारीणां समाहारोधिका स्यादेवं यथा त्रिखारेः पञ्चखारि वाधिकं स्यादेवं वैरितः शत्रुभ्योधिकीभूय ॥ द्विखारतः । पञ्चखारि । इत्यत्र "खार्या वा" [ १०२ ] इति वा-अट् ॥ केचिदत्र पुंस्त्वमपीच्छन्ति । तन्मते "गोश्च०" [२. ४. ९६ ] इत्यादिना १ सी यस्वर्णा. २ए भूयो बैं'. ३ ए द्विषार'. ४ सी 'खारीवत्रिवारी'. १ सी वें म. २ सी न्त्यैते ते'. ३ सीता। यं कृ. ४ ए ल । त्र्य. ५ सी अलि त्र्य. ६ सी लुक् . ७ सी खारितो. ८ सी णां स. ९ए गोश्चात्या. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] इस्वत्वे त्रिखारेः । स्त्रीत्वमप्यन्ये । तन्मते पूर्ववद्रस्वत्वे "इतोक्त्यर्थात्" [ २. ४. ३२ ] इति ब्यां च त्रिखारी । अर्धखार्यर्धखारेण भूत्वा खारीव ते स्वकैः । द्विनावव्यूहवन्तोर्धनावव्यूहं रिपुं व्यधुः ॥ १२४ ॥ १२४. ते नृपा रिपुं बल्लालं व्यधुः । किंभूतम् । नावोर्धमर्धनावं तद्वब्यूहः सैन्यरचना यस्य तं नावाकारस्य व्यूहस्य तत्सैन्यस्य संबन्धिनोर्धस्य हननेनार्धनावाकारव्यूहम् । किं कृत्वा । स्वकै टैः कृत्वा द्वयोर्नावोः समाहारो द्विनावं तदाकारो यो व्यूहः सोस्त्येषां द्विनावव्यूहवन्तो भूत्वा । यथार्धखारि खार्या अर्धमर्धखारेण खार्या अर्धेने खारी स्यात् ॥ अर्धखारेण । अर्धखारि । इत्यत्र "वार्धाच" [ १०३ ] इति वा-अट् ॥ अर्धनाव ॥ द्विगोः । द्विनाव । इत्यत्र “नावः" [ १०४ ] इत्यद ॥ सोचन्तिपुंगवः पश्चराज्या हतमहासखः। सेनान्यो गूर्जरब्रह्मस्यान्वक्षं पातितो गजात् ॥ १२५ ॥ १२५. स्पष्टः । किं तु स बल्लालोवन्तिपुङ्गवो मालवश्रेष्ठः पञ्चराज्या पञ्चानां राजा संहत्या का पातितः । गूर्जरब्रह्मस्य गूर्जरेषु देशे ब्रह्मा गूर्जरब्रह्मस्तस्य गूर्जरा(र)बावासिद्विजस्य सेनान्यः ॥ पुंगवः । अत्र "गोः०" [ १०५ ] इत्यादिना-अ, ॥ पञ्चराज्या । महासखः । अत्र "राजन्सखेः" [ १०६ ] इत्यत् ॥ गूर्जरब्रह्मस्य । इत्यत्र "राष्ट्र०" [ १०७ ] इत्यादिना-अट् ॥ १ए वः पुंवरा. १ए लाभं व्य. २ सी तब्बू. ३ सी "स्य सः तं. ४ सी वा द. ५ सी 'न कृत्वारों'. ६ ए राज्यां प. ७ सी "शां हां क. ८ ए त्या कीर्त्या पा. ९ए रत्वावासिज्जम्य से'. १० सीट् । अको'. Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१०९.] एकोनविंशः सर्गः। ५५३ अकौबंझिम(म?)हाब्रह्मा महाब्रह्मैश्वम्पतिः । यावनिषेधेत्तावत्स कैश्चित्कुब्रह्मभिर्हतः ॥ १२६ ॥ १२६. तावत्स बल्लालः कैश्चित्कुब्रह्मभिः पापिष्ठब्राह्मणैर्हतो यावबमूपतिर्महाब्रह्मैव॒हद्भाह्मणैर्निषेधेन्मारणान्निवर्तयेत् । यतो महाब्रह्मा । एतदपि कुत इत्याह । यतोकोब्रह्मिः पापो ब्रह्मा कुब्रह्मो न तस्यापत्यम् ॥ अकौबह्मिः कुब्रह्मभिः । महाब्रह्मः महाब्रह्मा । इत्यत्र "कुमहयां वा" [ १०८] इत्यड्वा ॥ ग्रामतः कौटतक्षैः स्यूतानःश्वस्ततोचलत् । सोगोष्ठश्वैरैतिश्चैयुङ् व्याघ्रश्वैरिव लुब्धकः ॥ १२७ ॥ १२७. स चमूपतिस्ततो रणस्थानादचलत् । कीहक्सन् । अनांसि शंकटान्येवातिशीघ्रगत्वाचाने ईवानःश्वाः । स्यूताः प्रगुणीकृता अनःश्वा यस्य सः । कैः । ग्रामत: मस्य तक्षभिमसाधारणैस्तक्षभिस्तथा कुटी शाला स्त(त)स्यां भवाः कौटा ये तक्षाणस्ते कौटतक्षा ये स्वतत्रा न कस्याप्यायत्तास्तैश्च तथा गोष्ठे गोकुले श्वानो गोष्ठश्वा गोष्ठश्वा इव गोष्ठश्वा यथा गोष्ठश्वास्तथाविधशौर्याभावेनापकारिषु गोष्ठश्वा एव भवन्ति नान्यत्किंचित्कर्तुमलं तथा ये स्युस्त एवमुच्यन्ते । न तथा ये तैर्महाशूरैरित्यर्थः। अतिश्वैः श्वानमतिक्रान्तः सुष्टु स्वामिभक्तैः सेवकैयुङ् युक्तः । व्याघ्र इवातिशूराः श्वानो व्याघ्रश्वा जात्यकुर्कुरास्तैर्युङ् लुब्धको यथा स्यात् ।। १ सी ब्रह्मम'. २ ए रतैश्चैर्यङ्. १ सी यतःकौन. २ ए शकायन्ये'. ३ ए 'न वा. ४ सी इव श्वानः स्य. ५ए कुलश्वा. ६५ परि'. ७ सी °स्तैर्या. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः अथोद्रजःपूर्वसक्थोत्तरसक्थाय भूपतिः । रामो नु वानरशुनेदात्तस्मै पारितोषिकम् ॥ १२८ ॥ १२८. अथ भूपतिस्तस्मै पुंसे पारितोषिकं परितोषप्रयोजनं स्वर्णाद्यदात् । कीदृशाय । पूर्व सक्थि सभा(क्नः?) पूर्वभागो वा पू सक्थमेवमुत्तरसक्थं द्वन्द्वे उद्रजसी भूरिमार्गात्तदैवागतत्वादुद्धूलिते पूर्वसक्थोत्तरसक्थे यस्य तस्मै । यथा रामः सीताप्रवृत्तिं गृहीत्वा बहुमार्गागतत्वेनोद्रजःपूर्वसक्थोत्तरसक्थाय वानरशुने वानरः श्वेव बलिष्ठत्वाद्वानरश्वा हनूमांस्तस्मै पारितोषिकमदात् ॥ हसन्कुक्कुटसक्थे स मृगसक्थे विडम्बयन् । पुमान्फलकसक्थाभ्यां निर्ययौ जवनोरसम् ॥ १२९ ॥ १२९. जवनानां वेगवतामुर(रः) प्रधानं जवनोरसं वेगवत्सु श्रेष्ठः स पुमान्निर्ययौ राजभवनान्निर्गतः । कीहक्सन् । फलके इव फलके अमांसले अतिकठिने च ये सनी (क्थिनी) ऊरू ताभ्यां कृत्वा कुक्कुटसक्थे हसन्मृगसक्थे च विडम्बयनंनुकुर्वन्नित्यर्थः ॥ . ग्रामतः । कौटतक्षैः । अत्र "ग्राम०" [ १०९] इत्यादिना-अट् ॥ गोष्टश्वैः । अतिश्वैः । अत्र "गोष्ट०" [ ११० ] इत्यादिना-अट् ॥ व्याघ्रश्वैः । अत्र "प्राणिनः०" [१११ ] इत्यादिना-अट् ॥ प्राणिन उपमानादिति पूर्वपदविज्ञानादिह न स्यात् । वानरशुने ॥ अनःश्वः । अत्र "अप्राणिनि" [ ११२] इत्यत् ॥ अप्राणिनीति किम् । बानरशुने ॥ १ सी क्थे च मृ. २ ए °यौ व. १ सी सक्थः द्व'. २ सी रामसी'. ३ सी मुरु प्र. ५ ए बकु. ६ ए क्षैः । भम्र प्रा. ७९ उमा. ४ ए अमास. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है.७.३.११५.] एकोनविंशः सर्गः । ५५५ पूर्वसक्थोत्तरसक्थाय । मृगसक्थे । उपमानात् । फलकसक्थाभ्याम् । अत्र "पूर्व०" [ ११३ ] इत्यादिना-अट् ॥ कुक्कुटादपीच्छन्त्यन्ये । कुक्कुटसक्थे । जवनोरसम् । अत्र "उरसोग्रे" [ ११४ ] इत्यत् ॥ लावण्यजालसरसंमे(म)मृताश्मं दृशोर्वधूम् । गृह्णन्वेश्माभि भूपोथाचलत्कालायंसास्त्रभृत् ॥ १३० ॥ १३०. अथ कालायसं प्रधानलोहजातिभेदस्तस्य यदत्रं क्षुरिका तबृद्भूपो वेश्माभिलक्ष्यीकृत्याचलत् । कीदृक्सन । वधूं गृह्णन् । किं. भूताम् । लावण्यस्य जालसरसमेवंनाम सरः सौन्दर्यामृतपूर्णामित्यर्थः । अत एव दृशोर्जगच्चक्षुषोरमृताश्मममृतस्याश्मामृताश्म एवंनामा प्रधानाश्मजातिविशेषस्तत्तुल्यामत्याह्नादिकामित्यर्थः ॥ पौरैरुपानसादृस्यैः पुण्याहे ददृशे व्रजन् । संख्याताहजयोसिक्तैः सोसंख्याताहकौतुकात् ।।१३१॥ १३१. स भैमिः पुण्याहे शुभदिने प्रासादाय वजन्सन्नुपगतमने उपानसमित्यन्नविशेषस्य संज्ञा । तस्य यान्यट्टानि हट्टास्तत्रस्थैः पौरैददृशे । कस्मात् । असंख्यातेष्वहःसु यत्कौतुकं तस्मादतिकौतुकादित्यर्थः । यतः कीदृशैः । संख्यातातेषु स्तोकदिनेषु यो जयः स्वामिकर्तृक आनविजयस्तेनोसिक्तैर्गर्वितैः । जालसरसम् । उपानस । अमृताइमम् । कालायस । इत्यत्र "सरोनोश्म." [ ११५] इत्यादिना-अट् ॥ १ ए सनम'. २ ए शोवळू. ३ ए यस्यास्वभृ. १ए लक्षीकृ. २ सी स्यात्मैश्ममृ. ३ ए°ल्यामात्या. ४ ए सादय. ५ सी न उपासन उपासनस. ६ए पसं. ७ ए नि हावा. ८सी कौका. ९ए आह्ववि'. १० ए पाना अं'. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्बाश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] पुण्याहे । अत्र "अहः" [ ११६] इस्यट् ॥ संख्याता संख्याताह । इत्यत्र "संख्यातादह्नश्च वा" [ ११७ ] इत्यद । अहोहादेशो वा ॥ सर्वाह्लशुभलग्ने खैर्युतो यहोत्सवैगुहम् । तयात्यह्वेन्दुमुख्या स पूर्वाह्नार्कप्रभोविशत् ॥ १३२ ॥ १३२. पूर्वाह्नार्कप्रभः प्रवर्धमानप्रतापोदय(यः) स भैमिः सर्वाह्नशुभलग्ने सर्वाह्न सकलदिनमध्ये शुभं यल्लग्नं तत्र गृहमविशत् । कथम् । अत्यह्नोहरतिक्रान्तो रात्रौ भवो य इन्दुस्तद्वन्मुखं यस्यास्तया वध्वा सह । कीहक्सन । व्यह्नो द्वयोरहोर्भव उत्सवो येषां तैद्यहोत्सवैः स्वैः स्वजनैर्युत(त:) ॥ सर्वाह्न ॥ अंश । पूर्वाह । संख्या । यह्न ॥ अयय । अत्यह । इत्यत्र "सर्वाश०" [ ११८] इत्यादिना-अट् । अह्लादेशश्च ॥ गते संख्यातरात्रेर्वाग् वर्षारात्रान्महीपतिः । व्यसृजत्पुण्यरात्राघरात्रे श्वश्रू गुरुं च तम् ॥ १३३ ॥ १३३. भूपतिर्वर्षारात्रादर्वाक् पुण्यरात्रस्य नक्षत्रादिभिः पवित्राया रात्रेर्योर्धरात्रस्तस्मिन् सन्मुहूर्त इत्यर्थः । श्वश्रू तं गुरुं च व्यसृजत् । क सति । संख्याता या रात्री रात्रिजातिस्तत्र संख्यातरात्रे गते कियतीष्वपि रात्रिष्वतिकान्तास्वित्यर्थः ॥ १सी यापाहे'. २ ए दा. १ सीताहः सं. २ ए मार्कः प्रव'. ३ ए यलमं. ४ ए कान्तौ रा'. ५पर्युता । स. ६सी व्ययं । अं. ७ए त्रेयो. ८ सीन् मुहू. ९ सीत्रे कि. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.११९.] एकोनविंशः सर्गः । ५५७ कालेप्यदीर्घरात्रेन्तरेकरात्रद्विरात्रयोः । शक्त्यान्यानपि चक्रेरीनतिराजेन्दुनिष्प्रभान् ॥ १३४ ॥ १३४. भैमिरन्यानप्यान्नादितरानप्यरीनेकरात्रद्विरात्रयोरन्तरतिशीप्रमित्यर्थः । शक्त्या कृत्वातिरात्रो रात्रिमतिक्रान्तो दिवातनो य इन्दु. स्तद्वन्निष्प्रभान्निस्तेजस्कांश्चक्रेभिषेण्य जिगायेत्यर्थः । क । न दीर्घरात्रा दीर्घा रात्रयोत्रादीर्घरात्रस्तस्मिन्कालेपि यात्राया अयोग्य उष्णकाले वर्षाकालेपि चेत्यर्थः ॥ सर्वरात्रजागरूकः स्वन्द्विषां पुरुषायुषम् । आक्रामक्ष्मां स द्विस्तावात्रिस्तावे इव याज्ञिकः ॥ १३५ ॥ १३५. स भैमिः सर्वरात्रजागरूकः सदोद्यतोत एव द्विषां पुरुषायुषं पुरुषस्यायुर्वर्षशतं स्यंस्तद्वधेनान्तं नयन्सन्द्विषां क्ष्मामाकामद्वशीचक्रे । यथा याज्ञिकः सर्वरात्रजागरूकस्तथाभिचारमर्द्विषां रात्रिंचराणां पुरुषायुषं स्यन् द्विस्तावात्रिस्तावे विकृतियागस्य वेदिविशेषावाक्रामत्यनेकयागक्रियाकरणैर्व्याप्नोति ॥ वहि द्विस्तावं त्रिस्तावमिव सश्वोवसीयसम् । श्वःश्रेयसार्थमार्चस्तमुच्चेशाद्या हयद्विपैः ॥ १३६ ॥ १३६. सह श्वोवसीयसेन कल्याणेनास्ति यस्तं सवोर्वसीयसं तं भैमि शोभनं श्रेयः श्वःश्रेयसं क्षेमं तदर्थमुच्चेशाद्या उच्चदेशाधिपाद्या नृपा हयद्विपैः कृत्वार्चन् । हयाश्च द्विपाश्च हयद्विपम् । हयद्विपं च १ सी त्रयोरतरतिशी. २ सी र्वत्र. ३ ए रूकस्य'. ४ सी स्ताव इ. १ए क्याति'. २ सी दीर्घरा'. ३ ए रात्रिस्त'. ४ सी त्रायां अं. ५ सी ले चे'. ६ सी र्वत्र'. ७ए °शिका स. ८ सी वशीय'. ९ सी 'वशीय'. .१०५ यः स्वश्रे. ११ ए त्वा कुर्वन्. १२ सी द्विपं चे. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाळः ] हयद्विपं च हयद्विपं चेत्येकशेषे हयद्विपानि तैरतिप्रभूतैरित्यर्थः । अन्यथा तु सेनाङ्गत्वादेकत्वमेव स्यात् । यथाग्निहोत्रणः सश्वोवंसीयसं द्विस्तावान्द्विस्तावस्तमेवं त्रिस्तावं च वह्निमग्निविशेषं श्रः श्रेयसार्थमर्चन्ति ॥ निःश्रेयसार्थिभिरपि स्तुतदोस्तथोवीं निस्त्रिंशपाणिरदशैः स जिगाय मासैः । न व्यङ्गुलं नयपथस्य विलङ्घते स्म नात्यङ्गुलो भवति जातु यथा स्म कोपि ॥ १३७ ॥ १३७. यथा कोपि जातु नयपथस्य द्व्यङ्गुलं द्वे अङ्गुली न विचलते स्म । यथा कोपि नयपथैस्यात्यङ्गुलश्चाङ्गुलिमप्यतिक्रान्तश्च जातु न भवति स्म । सर्वोपि यथात्यन्तं ना (न्या ) य्यभूदित्यर्थः । तथात्यन्तं कण्टकोच्छेदाश्याय्यनुशासनादिप्रकारेण सँ भैमिर्निखिंशपाणिः खड्गव्यप्रकरः सन्नदशैः न दशादश । स्तै न्यूनैर्दशभिर्मासैरुव जिगाय वशीचक्रे । अत एव कीदृक् । निःश्रेयसार्थिभिरपि मोक्षेच्छुभिर्निःस्पृधैर्मुनिभिरपि स्तुतदोर्वर्णित बाहुवीर्यः ॥ 1 संख्यातरात्रे । एकरांत्रं । पुण्यरात्र । वर्षारानात् । दीर्घरात्रे ॥ सर्व । सर्वरात्र ॥ अंश । अर्धरात्रे ॥ संख्या । द्विरात्रयोः ॥ अव्यय । अतिरात्र । इत्यत्र “संख्यात ०" [ ११९ ] इत्यादिना अत् ॥ १ एस्तथावीं नि.. १ सी वशीय'. २ ए स्वावास्त'. ३ ए “थयस्या'. ४ ए 'ति । स ं. ५ सी त्यन्तक'. ६ ए 'दानाय्य'. ७ ए स भौमिमिस्त्रि'. ८ सी शादशा a°. ९ ए 'मिनिस्पृ". १० सी त्र । व ११ सी "वरा". Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है०७.३.१२४.] एकोनविंशः सर्गः। पुरुषायुषम् । द्विस्तावात्रिस्तावे । इत्येते "पुरुष." [१२० ] इत्यादिना निपात्याः ॥ द्विस्तावात्रिस्तावयोवैद्यां प्रयोगः । अन्यत्रापि दृश्यते । द्विस्तावं त्रिस्तावं वह्निम् ॥ श्वोवसीयस[म्] । अत्र "श्वसः०" [१२] इत्यादिना-अत् ॥ निःश्रेयस । श्वःश्रेयस । इत्यत्र "निस" [२२] इत्यादिना-अत् ॥ अदशैः । निस्त्रिंश । इत्यत्र "नजव्ययात्" [१२३] इत्यादिना डः ॥ बङ्गुलम् । अत्यङ्गुलः । अत्र "संख्या." [२] इत्यादिना डः ॥ व. सन्ततिलका छन्दः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिकगनिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनबाश्रयवृत्तावेकोनविंशः सर्गः ॥ १ एस्तावत्रितावेसे'. २ए 'न्यवानि. ३ एहि। धों. ४ सी श्रेज.. Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये विंशः सर्गः। पद्माक्ष्य आततषडङ्गुलकृष्यरिक्था रन्तुं वनेष्वयुरथ श्रमजिह्मसक्थ्यः । निःशङ्कमपुरिह शासति गां द्विमूर्धा कः कस्लिमूर्घ उत योपनयं विदध्यात् ॥ १॥ १. पद्माक्ष्य: त्रियः पुष्पोच्चयादिक्रीडया रन्तुं वनेष्वयुः । कीदृश्यः । आततं विस्तीर्ण यत्षडगुलं षडङ्गुलयो यस्य तदङ्गुलिसहशावयवं धान्यकण्टकादीनां विक्षेपणकाष्ठं तेन कृष्यमतिबहुत्वाकर्षणीयं रिक्थं धनं यासां ताः । अत्यन्तमीश्वर्य इत्यर्थः । अथ गमनानन्तरं श्रमजिह्मसक्थ्यः श्रान्ताः सत्यो वनेष्वेव निःशकं निर्भयमूषुः । युक्तं चैतत् । यस्मादिहे भैमौ गां पृथ्वी शासति को द्विमूर्घोताथ वा कस्त्रिम? योपनयं चौर्यलुण्टनाद्यना(द्यन्यायं) विदध्यात् । चण्डशासनत्वेनान्यायिनो मस्तकं ग्रहीतर्यस्मिन् यो द्विमूर्धा त्रिमूर्धा वा स्यात्स एवाहमस्यैक द्वे वा मस्तके दत्त्वैकेन शिरसा जीविष्यामीत्यभिप्रायेणान्यायं कुर्यादित्यर्थः ॥ वसन्ततिलका ।। जायाप्रमाणजनताभिरगायि स त्रि. मूर्धद्विमूर्घ इव देव उदात्तशक्तिः। १ ए रिस्का र. २ सी सक्थाः । नि'. ३ सी विध्यत्. १सी 'डय र. २सी क्षेणपाका. ३ सी ह मीमो गां. ४ सी पोथ'. ५ सी मूर्धा वा सा. ६ ए यो हि . ७ सी कं वा. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ [ है. ७.३.१२५.] विंशः सर्गः। ५६१ सुप्रातसुश्वसुदिवस्त्रिदशेश्वरो वा एणीपदाजपदभद्रपदादिराड्वा ॥ २ ॥ २. स भैमिर्जाया भार्या प्रमाणी मुख्या यासां ता या जनता जनौधास्ताभिरगायि गीतः । यत उदात्तशक्तिरुद्भटप्रभुत्वादिशक्तित्रयस्तथा शोभनं कर्म प्रातः प्रभातेस्य सुप्रातस्तथा शोभनं कर्म श्वोस्य सुश्वस्तथा शोभनं कर्म दिवा यस्य सुदिवस्ततो विशेषणकर्मधारयः । सर्वदा न्याय्योचितसक्रिय इत्यर्थः । त्रिमूर्धद्विमूर्ध इव देवो यथा पञ्चशिराः सदाशिवो गीयते । यथा वा त्रिदशेश्वरी देवेन्द्रो गी. यते । तथैण्या इव पादावस्यैणीपदं मृगशिर एवमजपदो मेषराशिः । स चाश्विनीभरणीकृत्तिकैकपादरूप इत्यश्विनी भरणी कृत्तिकाया एकपादश्वोच्यन्ते । तथा भद्राः पादा आसां भद्रंपदाः पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदाश्च द्वन्द्वे ता आदिर्येषां नक्षत्राणां तेषां राट् चन्द्रः। श्रिया संपूर्णकलादिलक्ष्म्या युक्तो य एणीपदाजपदभद्रपदादिराट् स यथा वा गीयते ॥ अशारिकुंक्षं चतुरैश्रवक्षःस्थलं स्वयं प्रोष्ठपैदाधिपं नु । नमस्सतां तं रजनी ध्रुवं कल्याणीद्वितीया समभून्न कस्य॥३॥ ३. तं भैमि नमस्यतां प्रणेमतां मध्ये कस्य नमस्य॑न्नरस्य रजनी प्रणामरात्रि ()वं न समभूत् । किंभूता । कल्याणी भैमेः प्रसत्त्या सद्यः सर्वसंपदुल्लासात्सर्वशुभहेतुर्द्वितीया प्रणामरात्रेरनन्तरा रात्रिर्यस्याः सा कल्याणीद्वितीया । किंभूतं त[म् ।] न शारेरिव, स्थूलः १ सी वा श्रेणी'. २ सी 'कुक्षि च'. ३ सी रस्रव'. ४ ए पदधि'. १एणी कृत्तिका'. २ सी का ए'. ३ ए भद्रापा'. ४ सी द्रपाद उत्त'. ५५ णम्यतां. ६ सी °स्य रज'. ७ सी त्रिधावं. ८ सी व स्थळं कु. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये कुमारपालः कुक्षिमध्यं यस्य तं कृशोदरम् । तथा चतस्रोश्रयो यस्य तचतुरस्र (अं) तद्वक्षःस्थलं यस्य तम् । उपलक्षणत्वात्प्रमाणोपेतसर्वाङ्गोपाङ्गमित्यर्थः । तथा सकलजगदाहादकत्वात्स्वयं साक्षात्प्रोष्ठपदाधिपं नु प्रोष्ठो गौस्तस्येव पादा आसां प्रोष्ठपदाः पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदाश्च । तासामधिपश्चन्द्रस्तमिव । अथ च ये प्रोष्ठपदाधिपं प्रस्तावाहितीयेन्दुं स्वयं न. मस्यन्ति तेषां मध्ये कस्य नरस्य द्वितीया तिथि(थिः) कल्याणी शुभहेतुर्न स्याहितीयायामिन्दुदर्शनस्य सर्वसंपनिबन्धनत्वेन शाखेषु गीयमानत्वादित्युक्तिलेश(शः) । षडङ्गुल । इत्यत्र "बहु०" [ १२५] इत्यादिना टः ॥ जिह्मसक्थ्यः । पद्माक्ष्यः । अत्र "सक्थि०" [ १२६ ] इत्यादिना टः ॥ द्विमूधः द्विमूर्धा । त्रिमूर्धः(ध) त्रिमूर्धा । इत्यत्र "द्वि." [१२७ ] इत्यादिना वा टः ॥ जायाप्रमाण । त्रिदश । इत्यत्र "प्रमाणी." [१२०] इत्यादिना डः ॥ सुप्रात । सुश्च । सुदिवः । शारिकुंक्षम् । चतुरै। एणीपद । अजपद । प्रोष्टपद । भद्रपद । इत्येते "सुप्रातः" [२९] इत्यादिना निपात्याः ॥ कल्याणीद्वितीया रजनी । इत्यत्र "पूरणीभ्यः०" [३०] इत्यादिनाअप् ॥ उपजातिः॥ समप्रथत सोचतुरः कषायैः सदा सुचतुरोस्खलितैः पुमर्थैः । १ए पुमाय:. १५ °क्षिसंध्यं. २ सी तश्रोस्रयो. ३ सी दाश्च. ४ ए च यथोष्टप'. ५ ए तिथि क. ६ सी यामि . ७ सी न्धत्वे. ८ ए लेश्यः । ष०. ९ सी मूद्धि द्वि'. १० सी कुक्षि । च. ११ सी रस्र । २. १२ ए श्र। पाणी. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१३१.] विंशः सर्गः। ५६३ इहोपचतुरेषु जगत्सु पाप ण्डिनां विचतुरं शतमर्चमानः ॥४॥ ४. स भैमिश्चत्वारि समीपे येषां संख्येयानां तेषूपचतुरेषु त्रिषु जगत्सु समप्रथत प्रख्यातः । यतः कषायैः कृत्वा सदाचर्तुरः कोधादिकषायचतुष्टयरहित इत्यर्थः । तथास्खलितैः पुमथैः सुचतुरः शोभनपुमर्थचतुष्टयान्वित इत्यर्थः । तथेह पृथ्व्यां पाषण्डिनां वि?श्यानि विगतानि वा चत्वारि यस्य तद्विचतुरं शतं षण्णवतिमर्चमानः ॥ कोलर्छन्दः । ज्सौ स्यौ कोलः ॥ अन्तर्लोमं दधदथ बहिर्लोममौर्ण त्रिचत्वाः कर्षन्दीनांत्रिचतुरपशूनेकदा पुष्यनेत्रे । आसेव्येहन्यनृचसहितैबढ्चैः पद्मनाभे दुःसक्थः पथ्यहलिरमुना कोपि दुःसक्त ऐक्षि ॥५॥ ५. अथामुना भैमिना कोपि ग्राम्यनरो दीनान्बलादाकृष्यमाणत्वेन दीनमुखांत्रिचतुरपशूस्त्रींश्चतुरो वा छागान्पथि कर्षन्विक्रेतुं राजमार्गे नयन्सनैक्षि । क । एकदैकस्मिन्काले । एकस्मिन्वर्ष इत्यर्थः । पुष्यो नेता नायको यस्य तस्मिन्पुष्यनेत्रे पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्त इत्यर्थः । अहन्यामलकैकादशीत्याख्यया प्रसिद्धोयां पौष्यां फाल्गुनशुक्लैकादश्याम् । महापर्वदिन इत्यर्थः । क सत्यैक्षि । पद्मनाभे विष्णौ । किंभूते । न विद्यन्त ऋचो येषामनृचा माणवास्तत्सहितै १ एम्तभोमं. २ सी लोम द. ३ सी मौर्ण त्रि'. १ए च. २ ए तुर को. ३ ए पुमाथैः सच. ४ सी 'दृशानि. ५ सीनः । कौलछन्दः. ६ ए इछन्दं । जसो स्यौ. ७ ए चपुरपशुखीच. तुरो. ८ सी तुरः प. ९सी द्वाया पौ. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] बह्वय ऋचो येषां तैर्बह्वचैश्चरणैरुपलक्षणत्वादन्यलोकेनाप्यासेव्य उपबासव्रतविशेषपूजाविशेषादिनाराध्ये । पौष्यां फाल्गुन शुक्लैकादश्यां विष्णोराराधनं महाफलम् । यद्ब्रह्माण्डपुराणम् । यदा तु शुक्लद्वादश्यां पुष्यं भवति कहिंचित् । तदा सा तु महापुण्या कथिता पापनाशिनी ॥ १ ॥ पुराणभाषया द्वादशीशब्देन व्रतैकादश्युच्यते । तस्यां जगत्पतिर्देवः सर्वसर्वेश्वरो हरिः । प्रत्यक्षतां प्रयात्येव तेनानन्तं फलं स्मृतम् ॥ २ ॥ इमामेकामुपोष्यैव पुष्यनक्षत्रसंयुताम् । एकादशीसहस्रस्य फलं प्राप्नोति नान्यथा ॥ ३ ॥ तस्मादेषा प्रयत्नेन कर्तव्या फलकातिभिः । फाल्गुने च विशेषेण विशेषः कथितो नृप ॥ एतेन च पर्वोपन्यासेन तदा राजाप्युपोषितो व्रतविशेषस्थो धर्मध्यानस्थश्चासीदिति विशेषेणोल्लसद्दयं बलादाकृष्यमाणान्दीनान्पशून्द. दर्शेत्यर्थो व्यञ्जितः । कीदृग्नरः । अन्तर्लोमान्यस्यान्तर्लोमं तथा बहिर्लोमान्यस्य बहिर्लोमं च । उभयपार्श्वयोर्लोमशमित्यर्थः । और्ण. मूर्णामयं पंटं दधत्तथा मुग्धत्वात्रय एव चत्वारो यस्य स त्रिचत्वास्तथा नि(निः)स्वत्वान्नास्ति हलिमहद्धलमस्याहलिरत एव दुष्टे कार्यकठोरत्वादिना विकृते सकभी(क्थिनी) यस्य स दुःसक्थस्तथा १५ बहू क्र. २ ए °राध्यपौ. ३ ए सर्वे'. ४ सी पोष्यतं पु. ५ सी युतं । ए. ६ एथिते नृपः । ए.' ७ए तशे. ८ ए शेषणों. ९एलोम त. १० सी पदं द. ११ सी वास्त्रय. १२ सी निसला. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ॥ [ है० ७.३.१३१.] विंशः सर्गः। ५६५ दुष्टा निन्द्या सक्तिः पशुविक्रयादिकुव्यापारसंसर्गों यस्य स दुःसक्तः।। मन्दाक्रान्ता छन्दः ॥ दुःसक्तिमूचे तमसौ सुसक्तिरेनस्यसक्तिः सुकृते सुसक्तः । अवीनसक्थान्नु गतावसक्ता न्हेतोः कुतः कर्षसि भोः सुसैक्थ ॥ ६॥ ६. असौ भैमिर्दुःसक्तिं पशुविक्रयरूपदुष्कर्मासक्तं तं नरमूचे । कीहक्सन् । शोभना सक्तिर्धार्मिकैः सह संसर्गो यस्य स सुसक्तिरत एवैनसि पापकर्मविषयेसक्तिस्तथा सुकृते धर्मे सुसक्तः । किमूच इ. त्याह । शोभने गमनदक्षे सक्थ्री(क्थिनी) यस्य भोः सुसक्थावीइछागान्कुतो हेतोः कर्षसि । किंभूतानपि । असक्थान्नु यथा सक्थिरहिता गतासक्ताः स्युरेवं गमनेसक्तानसंसर्गान्बलान्नीयमानत्वेन स्वयमगच्छत इत्यर्थः ॥ उपजातिः ॥ स प्रत्यवोचत्सुहलो न दुहेलो न चास्म्यहं किं त्वहलो नयामि तत् । असक्थिदुःसक्थिसुसक्थिकानमू न्दातुं वसुभ्यः प्रति सौनिकापणे ॥७॥ ७. स नरः प्रत्यवोचत् । तथा हि । हे राजन्नस्मि न सुहलो न च दुहेलो न शोभनया न वाशोभनया हल्या युक्तः किं त्वहमहलो हलिरहितोतिदरिद्र इत्यर्थः । तत्तस्मादमून्पशून्वसुभ्यः प्रति दातुं ध. १ए सक्थ्यन्नु. २ ए °सक्थः ॥ अ. ३ सी क्थिका. १ ए दिव्या. २ सी मद. ३ सी वशक्ताः . ४ सी यमाग'. ५ ए प्रत्युवों. ६एन्वस्तुभ्यः. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल.] नानि गृहीत्वामून्दातुमित्यर्थः । सौनिकापणे खाटिकशालायाममून्नयामि । कीदृशान् । एकोसक्थिरल्पोरुर्द्वितीयो दुःसक्थिस्तृतीयस्तु सुसक्थिकः । विशेषणद्वन्द्वे तान् ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ दुईलिः सुहलितो यथा हलिं सुप्रजस्त इवं चाप्रजाः प्रजाम् । एतदीयपिशितानि सौनिकात्सन्ति दुष्प्रजस ईप्सवो धनैः ॥ ८॥ ८. यथा दुहलिः सुहलितः सकाशाईलिं महद्धलं यथा वाप्रजा निरपत्यः सुप्रजस्तो बह्वपत्यात्सकाशात्प्रजामपत्यं धनैरीप्सुः स्यात् । उत्तरार्धं स्पष्टम् । किं तु । दुष्टा प्रजा येषां ते दुष्प्रजसो निन्द्यलोकाः ॥ अचतुर्रः । सुचनुरः । विचनुरम् । उपचतुरेषु । त्रिचतुर । इत्यत्र "नसुवि०" [१३] इत्यादिना-अप् ॥ समासान्तविधेरनित्यत्वादिह न स्यात् । त्रिचत्वाः ॥ अन्तर्लोमम् । बहिर्लोमम् । अत्र "अन्त०" [१३२] इत्यादिना-अप् ॥ पुष्यनेत्रे । अत्र "भानेतुः" [ १३३ ] इत्यप् ॥ पद्मनाने । अत्र "नाभेनान्नि" [ १३४ ] इत्यप् ॥ अनृच । बढ्चैः । अत्र "नेञ्" [ १३५ ] इत्यादिना-अप् ॥ १ सी वजाम्. -- १ ए 'नु सौ. २ सी टिकेशा'. ३ सी °य सु. ४ सी "लं म. ५ सीट । दु. ६ सीरः । सच. ७५ °नाप्स । स. ८सीम् । म. ९५ नङ् . Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.३.१३९.] विंशः सर्गः। असक्तान् असक्तिः । सुसक्तः सुसक्तिः । दुःसैक्त(क्तः) दुःसक्तिम् । असक्यान् असक्थि । सुसक्थ सुसक्थिकान् । दुःसक्थः दुःसक्थि । अहल: अहलिः । सुहलः सुहलितः । दुईलः दुईलिः । अत्र "नन्सु०" [३६] इत्यादिना वा-अप् ॥ अप्रजाः । सुप्रजस्तः । दुधजसः । अत्र "प्रजाया अस्" [ १३७ ] इत्यस ॥ रथोद्धता छन्दः ॥ दुर्मेधसस्तस्य वचोल्पमेधसः श्रुत्वेति राज्ञा जगदे सुमेधसा। अमेधसो धिग्बत मन्दमेधसो हिंसन्ति जन्तूनिजजीविकाकृते ॥ ९ ॥ ९. पूवाध स्पष्टम् । बतेति खेदे । घिग्निन्दायाम् । खिद्येहं निन्दामि च । यदमेधसो जीववधोद्यतमनस्कत्वेन निन्द्यबुद्धयः खाटिकादिपापिष्ठलोका मन्दमेधसः परलोकपराङ्मुखत्वेनाल्पबुद्धयः सन्तो निजजीविकाकृते जन्तून्हिसन्ति ॥ मन्दमेधसः । अल्पमेधसः । अमेधसः । सुमेधंसा। दुर्मेधसः । अत्र "मन्द." [१३०] इत्यादिना वा-अप् ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः । खजीविकायै न भवन्ति दुर्जातीया वरं सप्तकमासिकाः किम् । मन्ति श्वधर्माण इमे विधर्माः किं सोमजम्नस्तृणजम्न एतान् ॥ १० ॥ १ए काये न. २ सी °न्ति सध. १सी क्तिः । दुसिक्त । दुः. २५ °सक्ति'. ३ सी सक्तिः । ४५ °सविथ । सु. ५ ए°सक्थिः । अ. ६ सी वापा । अल्पमे. यः खदिका. ८ सी °सः । अ. ९ए धसाः । दु. . ए Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] १०. दुष्टा पशुवधा दिपापकारित्वेन निन्दिता जातिः सामान्यं पुरुषत्वादि येषां ते दुर्जातीया इमे सौनिकादिलोका विधर्मा निर्धर्मा अत एव श्वधर्माण: कुक्कुराचाराः सन्तः किं किमित्येतान्पशून्नन्ति । किंभूतान् । सोमो वल्लीरसो जम्भोभ्यवहार्यो येषां तान् सोमजम्नस्तथा तृणजम्नश्च । निरपराधानित्यर्थः । किं तु । सप्त द्रम्मा भृतिरस्य " सोस्य भृतिवस्त्रांशम् ” [ ६. ४. १६८. ] इति के सप्तको मासो येषां ते सप्तैकमासिका भृत्याः सन्तः स्वजीविकायै स्ववृत्त्यर्थं किं किमिति न भवन्ति । वरं श्लाघ्यमेतज्जीववधाहेतुत्वात् ॥ उपजातिः ।। ५६८ ४ 'त् । व्या". ९ सी क व्याधा वने हरितजमिन सुजम्भ्यमन्तौ यद्दक्षिणेर्मणि मृगे प्रहरन्त्यधं तत् । भूशासितुः सुरभिगन्धि यशः क्षिणोति प्रत्यक्षमेव किमुतैष वधः पशूनाम् ॥ ११ ॥ ११. व्याधा वने मृगे यत्प्रहरन्ति । किंभूते । शोभना जम्भा दंष्ट्रा यस्य तस्मिन्सुजम्नि । तथा हरितानि तृणानि जम्भो भक्ष्यमस्य तस्मिंस्तथामन्तौ निरपराधे । तथेर्मं बहुत्रणं वा दक्षिणमङ्गमी वह्नस्य दक्षिणाङ्ग ईर्म (मैं) व्रणमस्येति वा दक्षिणेर्मा तस्मिन् । व्यद्धुकामानां व्याधानां दक्षिणं भागं बहुकृत्य व्यधनानुकूलं स्थिते व्याधेन वा दक्षिणभागे कृतन्नणे । तद्वनेभवत्वेन परोक्षमप्यपं पापं कर्तृ भू १ एम्नि सज. २ एमन्तो य'. ३ सी मुनेष. १ सी कुर्कुरा २ सी सोमव ६ सी 'राद्धे । त’ ५ सी · ३ सी प्रका. ४ सी 'मेधजीव ७ सी ई ब्र. ८ वेन व्या".. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.३.१३९.] विंशः सर्गः। शासितुः सुरभिगन्धि यशः कर्म क्षिणोति क्षयं नयति किमुत किं पुनः प्रत्यक्षमेवैष पशूनां वधः ॥ वसन्ततिलका ।। उद्गन्धि दुग्धं कलमान्सुगन्धीं स्त्यक्त्वा पलं कामति पूतिगन्धिं । लोको यदुद्गन्धि सुगन्धमत्तुं तच्छासितुस्तत्खलु दुर्विवेकः ॥ १२ ॥ १२. स्पष्टम् । किं तु । पूतेरिव गन्धो यस्य तत्पूतिगन्धि स्वभावेन दुर्गन्धं परं कर्पूरादिसुरभिद्रव्यक्षेपेणोद्गन्ध्युल्लसद्गन्धं सुगन्धं च सत्पलं मांसमतुम् । तच्छासितुर्लोकं शिक्षयितुपस्य ।। इन्द्रवना॥ उद्गन्धमम्ब्विह सुगन्ध्यथ पूतिगन्धि यद्वन्मरुत्सुरभिगन्धिरु पूतिगन्धः । संसर्गतः सुरभिगन्धमिदं वपुर्वा राजानुरूपगुणभृजन एष तद्वत् ॥ १३ ॥ १३. उ हे पशुकर्षिन्नर यद्वद्यथेह जगत्यम्बु जलं संसर्गतः सुरभिद्रव्यसंसर्गादुद्गन्धमुत्कृष्टगन्धं सुगन्धि चाथाथ वा दुर्गन्धद्रव्यसंसर्गात्पूतिगन्धि दुर्गन्धं स्यायथा वा मरुद्वातः संसर्गतः सुरभिगन्धिः पूतिगन्धो वा स्याद्यथा वेदं प्रत्यक्षदोर्गन्ध्यं वपुः संसर्गतः सुरभिगन्धं स्यात्तद्वत्तथैष जनः संसर्गतो नृपसंसर्गेण राजानुरूपगुणभृत् । राज शब्देनात्र राजगता गुणा उपचारादुच्यन्ते । ततो राजेनुरूपा राजगुणसदृशा ये गुणाः कृपादयोकृपादयो वा तद्विभ्रत्स्याद् यथा १ए गन्धीस्त्य'. २ सी "न्धि सु. १ सी मुति किं. २ सी र्गन्धिद्र'. ३ एन्धो यथा स्या.° ४ ५ जारू'. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] राजा तथा प्रजेति वचनात् । एतेन राज्ञात्मनोव हि(न्येव हिं?)साकरणदोषः स्थापितः॥ दुर्जातीयाः । अत्र "जातेरीयः" [ १३९] इत्यादिनेयः ॥ सप्तकमासिकाः । अत्र "भृति." [ १४० ] इत्यादिनेकः ॥ श्वधर्माणः । अत्र "द्विपदाधर्मादन्" [१४१ ] इत्यन् ॥ विकल्पमिच्छन्त्येके । श्वधर्माणः विधर्माः ॥ सुजम्नि । हरितजम्न्नि । तृणजम्नः । सोमजम्न(म्नः)। अत्र "सुहरित." [१४२ ] इत्यादिना-अन् ॥ दक्षिणेर्मणि । इत्ययं "दक्षिणेमा०" [ १४३ ] इत्यादिनामन्तः साधुः ॥ सुगन्धीन् । पूतिगन्धि पलम् । उद्गन्धि । सुरभिगन्धि । अत्र "सुपूति." [१४४ ] इत्यादिना-इत् ॥ सुगन्धि अम्बु सुगन्धं पलम् । पूतिगन्ध्यम्बु पूतिगन्धो मरुत् । उद्गन्धि पलम् उद्गन्धमम्बु । सुरमिगन्धिर्मरुत् सुरमिर्गन्धं वपुः । अत्र “वागन्तौ" [१४५] इतीद्वा ॥ वसन्ततिलका ॥ न न्यायगन्धोसि न धर्मगन्धिः करीषगन्धस्य पुरीषगन्धिः । कृते शरीरस्य करं धिगेष गृह्णामि भूमेन तु रक्षणायं ॥ १४ ॥ १४. न्यायस्य गन्धो यस्मिन्स न्यायगन्धोहं नास्मि । एवं निरपराधपशुवधस्य. महापन्यायस्यानिवर्तकत्वान्मयि न्यायस्य गन्धोपि नास्तीत्यर्थः । अत एवाहं न धर्मगन्धिर्वर्तत एव वाहं पापाशुचिलितत्वात्पुरीषस्येव गन्धो यस्य स पुरीषगन्धिः सन्नेषोहं करीषगन्ध १ सी य ॥ न्योय'. १एम्भः । अ. २ सी गन्धो महत्. ३ ए न्धव. ५ एर्भमंग'. ६ सी चितिप्त. गन्धमरु'. ४ ए ग. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.३.१४८. ] विंशः सर्गः । ५७१ स्यानेकैमला विलत्वाच्छागणचूर्णवद्दुर्गन्धस्य शरीरस्य कृते करं राजभागं धिग्निन्दितं यथा स्यादेवं गृह्णामि न तु भूमे रक्षणायानेकपशूनामेवं वधात् ॥ ३४ धर्मगन्धिः : न्यायगन्धः । अत्र "वाल्पे" [ १४६ ] इतीद्वा ॥ पुरीषगन्धिः धः करीषगन्धस्य । इत्यत्र "वोपमानात् " [ १४७ ] इतीद्वा ॥ उपजाति (तिः) ॥ aौ विष्णुपद्यामजपादहस्ति पादौ सह व्याघ्रपदा सुपादौ । मुनी द्विद [कु]म्भपदीजडं मां सुदच्चतुष्पाद्वेधकं स्तुतो धिक् ।। १५ ।। १५. सुपादौ पृथ्वीपवित्रकांही तौ सर्वत्र प्रसिद्धावजपादहस्तिपादौ नाम मुनी व्याघ्रपदा मुनिना सह सहितौ मां धिक्स्तुतः | क । विष्णोः पादौ कारणतया यस्यास्तस्यां विष्णुपद्यां गङ्गायाम् । कुमारपालनृपोत्यन्तं न्यायी धार्मिकः कृपालुश्चेत्यादि यन्मदीयं वर्णनं गङ्गातटस्था अपि मुनयः कुर्वन्ति तद् इत्यर्थः । यतः किंभूतम् । सुजाताः शोभनाः समस्ता वा दन्ता येषां ते सुदन्तोतिक्रान्तबाल्यावस्था ये चतुष्पादश्चतुष्पदारछागादयस्तेषां वधकं तद्बधकानां वधादनिवर्तकत्वात् । एतदपि कुत इत्याह । यतो द्वौ दन्तौ यस्य स द्वि १पदकं. ३ सी मे व. ४ वंविधा. ७ सी 'त्रकाही. ८ सीपादा सुपादौ १० ए 'दतोति'. ११ सी तोवा'. १८ कमाला'. २ सी णायांने". ५ ए रीग'. ६ ए द्वा ॥ तौ. नीति. ९ सी दिना य'. Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] दन्बालस्तथा कुम्भस्येव पादौ यस्याः कुम्भपदी दासी । द्वन्द्वे तद्वजडं हेयोपादेयार्थेष्वज्ञम् ॥ व्याघ्रपदा । इत्यत्र “पात्पादस्य." [१४८ ] इत्यादिना पादस्य पाद् ॥ भहस्त्यादेरिति किम् । हस्तिपादौ । अजपाद ॥ कुम्भपदी । विष्णुपद्याम् । इत्येतौ “कुम्भपद्यादिः" [१४९ ] इति निपात्यो । सुपादौ । चतुष्पाद् । इत्यत्र “सुसंख्यात्" [ १५० ] इति पाद् ॥ सुदत् । द्विदत् । इत्यत्र “वयसि." [१५१ ] इत्यादिना दन्तस्य देतृ ॥ अत्ययोदतिररोकदन्क्रुधा श्यावदन्तयुगरोकदन्तकः । श्यावदंश्च यमकिंकरो यथा प्राणिभिन्मयि नृपेपि ही जनः १६ १६. मयि नृपेपि मयि राज्ञि सत्यपि । ही खेदे । जनः क्रुधा कृत्वा प्राणिभित् प्राणिनः पशून् भिनत्ति विनाशयति । कीडक्सन् । अय इव दन्ता अस्या अयोदती नाम राक्षसी । तामतिक्रान्तः । राक्षसीतुल्य इत्यर्थः । यथा यमकिंकरः क्रुधा प्राणिभित् । किंकिनामेत्याह । अरोकदस्तथा श्यावदन्तयुगरोकदन्तकस्तथा श्यावदंश्च । अरोका निर्दीप्तयो निश्छिद्रा वा श्यावाः कपिशा दन्ता अस्येति व्युत्पत्तिः ॥ अत्ययोद॑तिः । अत्र "स्त्रियां नाम्नि" [ १५२ ] इति दैतृ । श्यावदन् श्यावदन्त । अरोकदैन् अरोकदन्तकः । अत्रं "इयावारोकाद्वा" [ १५३ ] इति वा दैतृ ॥ रथोद्धता छन्दः ॥ १ सी श्च नृप. १सी थेव. २ ए °द्यादिति. ३ ए दतः । अ.. ४ सी °पि ही म. ५ सी वदंश्च. ६ सीदति । अं. ७ ए दतः । श्या. ८ सी दन्तक । अ. ९सी त्रशावा. १०९ दतः । र. Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ७.३.१५४.] विंशः सर्गः। ५७३ लोकोत्र मूषिकदतोहिदतः पशून्ह न्त्याः शुद्धदन्खलु हसन्न तु शोचति स्वम् । वज्राग्रदैच्छिंखरदद्वृषदद्वराह दन्ताहिदन्तयमदूतहनिष्यमाणम् ॥ १७ ॥ १७. आः खेदे। लोकोत्र भुवि मूष(षि)कस्येव दन्ता येषां तान्मूषिकदत एवमहिदतश्च पशून्खलु निश्चयेन हन्ति । कीडक्सन् । पशुषु हतेष्वस्माकं प्रधानं भोज्यं भविष्यतीति हर्षेण हसन्नत एव शुद्धदन्हास्यश्वैत्येनोज्ज्वलदन्तः । न तु न पुनः स्खं शोचति । कीदृशं सन्तम् । वज्राग्रददादिविशेषणोपेता ये यमदूतास्तैर्हनिष्यमाणम् ॥ वसन्ततिलका ॥ किं शुभ्रदच्छिखरदन्तखरापदन्त दुःशुद्धदन्तवृषदन्तवराहदद्भिः। दूतैर्हरेर्यदिह मूषिकदन्तकीटाः क्लिश्नन्ति जन्तुवधकं स्फुटशुभ्रदन्तम् ॥ १८॥ १८. यद्वा । हरेर्यमस्य दूतैः । किंकि भूतैः । शुभ्रदच्छिखरदन्तखरापदन्तदुःशुद्धदन्तवृषदन्तवराहदद्भिः । खराग्राः प्रचण्डाग्रभागा दन्ता येषां ते तथा दुष्टु शुद्धा दन्ता येषां ते तथा । शेषविशेषणव्युत्पत्तिः स्पष्टैव । ततो विशेषणद्वन्द्वे तैः । यमदूतकृतव्यथानां परलोकभावित्वेन परोक्षत्वातंद्गणनेन न किंचिदित्यर्थः । यद्यस्मादिहेह१ ए दख'. २ सी च्छिषर'. ३ ए °न्तनृष. ४ ए रेयदि'. १ए मूखिक. २ एन् । कान् । प. ३ सी न्हास्याश्वेतेनो.:. ४ सी दन्तिख. ५ सी था शें. ६ सी त्तद्रण. ७सी न किं. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः) लोकेपि जन्तुवधकं मांसभक्षणाय प्राणिनां घातुकं नरं मूषिकदन्ता ये कीटा लूतास्त एव क्लिनन्ति पीडयन्ति । किंभूतम् । स्फुटशुभ्रदन्तमभीष्टभोज्यप्राप्तिहर्षोत्थहास्येन प्रकटोव (ज्ज्व)लदैन्तम् । मांसभक्षका हि प्रायो लूतारोगमहाक्लेशेन विपद्यन्ते ॥ वज्रासदत् खरापदन्त । शुद्धदन शुद्धदन्त । शुभ्रदत् शुभ्रदन्तम् । वृषदत् वृषर्दन्त । वराहँदद्भिः वराहदैन्त । अहिदतः । अहिदन्त । मूषिकदैतः मूषिक. दन्त । शिखरदत् शिखरदन्त । इत्यत्र “वाग्रान्त." [ १५४ ] इत्यादिना वा दत्()। संज्ञोसंचः प्रचुरप्रज्ञ ऊर्ध्वज्ञोनूर्ध्वक्षुर्जानुना खेन भुङ्क्ते । पापं पापोपार्जितार्थ नु जन्तुर्दहत्प्रायः खैः सुहद्भिश्च सार्धम ॥१९॥ १९. संगते गुर्वादौ विनयेन रोगादिना वा मिलिते जानुनी यस्यै स संज्ञोसंजुर्वासंगतजानुर्वा तथा प्रगते प्रवृद्धे प्रणते प्रकृष्टे वा जानुनी यस्य स प्रक्षुरप्रज्ञो वा तथोचे जानुनी यस्य स ऊर्ध्वज्ञ ऊर्ध्वस्थोनू जुर्वा सर्वोपीत्यर्थः । जन्तुः स्वेनात्मीयेन जानुना । उपलक्षणत्वास्वकायेनेत्यर्थः । पापमशुभं कर्म भुङ्क्तेनुभवति । पापोपार्जितार्थ नु पापेन जीववादिनोपार्जितो योर्चा द्रव्यं तं स्वैर्जातिभिः सुहृद्भिश्च मित्रैश्च साधं भुते । किंभूतैः । दुहृत्प्रायैः । पापोपार्जितद्रव्यविभागस्य प्राहकत्वेन दुःखहेतोः पापविभागस्य त्वग्राहकत्वेन च नरकादिमहा १ए लोकिपि. २ सी कं मास'. ३ सी धातकनरमू. ४ ए °दतामां. ५ सी दन्त । शुभ्रदन्तम् । वृ. ६ सी दन्तं । व. ७ ए हद्भिः. ८ सी दन्तं । अ. ९ सीदत मू. १० सी दत् । शि. ११ ए शिर'. १२ सीस सं. १३ ५ ते वा प्र. १४ ए पार्दिनों. १५ सी न च नर'. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१५५.] विंशः सर्गः । दुःखहेतुत्वादरितुल्यैः । तस्मादेतदर्थमज्ञानान्ध एव प्राणी प्राणिवधा दिमहापापकर्म करोतीत्यर्थः । शालिनी छन्दः ॥ उक्त्वोर्ध्वजानुमिति तं द्रुणेसं स जैत्रधन्वाथ गाण्डिवर्धनुःशतधन्वतुल्यः । इत्यादिशत्खरणसं खुरणस्तनूज मायोगिनं खुरंणसं खरणः सुतं च ॥ २० ॥ I २०. स्पेष्टम् । किं तु । ऊर्ध्वजानुमूर्ध्वस्थम् । तं पशुकर्षिणं नरम् । द्ध्रुवन्नासिकास्य द्रुणसं नाम । जैत्रं जिष्णु धनुर्यस्य स जैत्रधन्वात एव गाण्डिवधनुषार्जुनेन शतधन्वना च नृपभेदेन तुल्यः । खरा खरस्येव वा नासिकास्यै खरणसं नाम । आयोगिनमधिकारिणम् । खुरवन्नासिकास्य खुरणसं नाम । वसन्ततिलका || किमादिशदित्याह । विस्रो विखुर्न खलु किं तु मृषाभिभाषी स्यात्स्थूलनासिक इव प्रणसोपि विग्र ( ग्रः) । शिष्यस्ततोपि परयौवतजानिरस्मा ५७५ दप्यत्र जन्तुवधकः प्रसभं भवद्भिः ॥ २१ ॥ २१. विख्रो विगतनासिकः पुमान्खलु निश्चयेनं न विखुर्न विगत - १० नासिकः किं तु स्थूलनासिकः प्रणसः स्यादेवं प्रणसोपि प्रवृद्धनासि १ सी उक्तोर्ध्व. २ ए 'समजै.. ३ ए धनुश ४ सी रणः सु. ५ ए विषुर्न . ६ ए विग्रह: शि.. ७ सी शिक्ष्यस्त. ८ ए. दथत्र. १ ए संज्ञा'. २ सी स्पष्टः । किं. ३ सीम् । पंशुः . ४ सी दुवानासि. ५ ए नामाः । जै. ६ सी त्रं विष्णु. "इ । निक्खेतिखु. ९ सीन नु विषुर्न. ८ सी १० ए किं स्थू. ७स्य हर. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] कोपि मृषाभिभाषी विग्रो विगतनासिकः साधुवादरूपस्य परमार्थनक्रस्याभावात्(?) । अत एवायं महापापिष्ठत्वाद्भवद्भिः शिष्यः शिक्षणीयस्ततोपि मृषाभाषिणोपि सकाशात्परयौवतं परस्त्रीसमूहो जाया यस्य स परयौवतजानिः पारदारिकः परदारासेवनेनैतदपलापमहालीकेन च मृषामिभाषकाहिगुणं महापापिष्ठत्वाद्भवद्भिः प्रसभं हठाद्विशेषेणेत्यर्थः । शिष्यः। अस्मादपि परयौवतजानितोप्यत्र जगति जन्तुवधको मृषावादादिसर्वमहापापमूलेन जन्तुवधेन मृषाभिभाष्यादिपापिष्ठेभ्योतिमहापापिष्ठत्वाद्भवद्भिः प्रसभं शिष्यः ॥ स ः। संज्ञः । प्रजुः । प्रज्ञः । अत्र "संप्राद्" [ १५५] इत्यादिनी जुज्ञौ ॥ अनूर्ध्वजः(जुः)। [अर्वज्ञः।] अर्ध्वजानुम् । अत्र “वोर्ध्वात्" [१५६] इति जुज्ञौ वा ॥ सुहृद्भिः । दुर्हत् । इत्येतो "सुहृद्” [ १५७ ] इत्यादिना निपात्यौ । जैत्रधन्वा । इत्यत्र “धनुषो धन्वन्" [१५८ ] इति धन्वन् । शतधन्व गाण्डिवधनुः । अत्र “वा नाग्नि" [ १५९ ] इति वा धन्वन् । खरणः । खुरणः । अत्र "खर०" [ १६० ] इत्यादिना नस् ॥ गुणसम् । खरणसम् । खुरणसम् । अत्र “अस्थूलाच नसः" [ १६१] इति नसः ॥ अस्थूलादिति किम् । स्थूलनासिकः ॥ प्रणसः । अत्र "उपसर्गात्" [ १६२ ] इति नसः ॥ १ सी शिक्ष्यः शि. २ सी शातं पर'. ३ ए निः पर. ४ सी द्विशिष्येत्य'. ५ सी शिष्यास्सा. ६ सी बंपा. ७सी षाभा. ८सी भ्योप्यति'. ९सी शिक्ष्यः । सं. १० ए संज्ञः प्रशः. ११ सी नुः । प्रडः । . १२ ए संप्रत्या. १३ सी ना निपा. १४ पधन्वः गा. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१६९.] विंशः सर्गः । विखुः । विखः विग्रः । अत्र "वेः खुखमम्" [ १६३ ] इति खुखग्राः ॥ परयौवतजानिः । अत्र "जायाया जानिः" [ १६४ ] इति जानिः ॥ विकाकुदुत्काकुंदपूर्णकाकुदं संपूर्णकाकुत्सममेव तद्वचः । प्रपद्य ते पूर्णककुजनैरमार्याघोषणामा त्रिककुद्रेिर्व्यधुः ॥२२॥ २२. ते नियोगिनः पूर्ण ककुदं स्कन्धो येषां ते जनास्तैस्तरुणलोकैः कृत्वामार्या घोषणां व्यधुः । कथम् । त्रीणि ककुदानि ककुदाकाराणि शिखराण्यस्य त्रिककुद्यो गिरिलङ्गाद्रिस्तस्मादा तमभिव्याप्य तमवधीकृत्य वा । किं कृत्वा । तद्वचो भैमेर्वचनं सममेव युगपदेव प्रपद्याङ्गीकृत्य । किंभूतम् । विगतं काकुदं ताल्वत्र विकाकुत्तयोत्का. कुत्तथापूर्णकाकुदं तथा संपूर्णकाकुत्किंचित्तालुस्पर्शरहितं किंचिच्चोद्गत तालुस्पर्श किंचिच्चापूर्णतालुस्पर्श किंचिच्च संपूर्णतालुस्पर्श मित्यर्थः ।। विकाकुत् । उत्काकुत् । इत्यत्र "न्युदः०" [ १६५] इत्यादिना लुक्समा सान्तः॥ संपूर्णकाकुत् । अपूर्णकाकुदम् । अत्र "पूर्णाद्वा" [ १६६ ] इति वा लुक् । पूर्णककुजनैः । अत्र “ककुदस्य." [१६७ ] इत्यादिना लुक् ॥ त्रिककुत् । इति "त्रिककुदिरौ" [१६८] इति निपात्यम् ॥ वंशस्येन्द्र वंशयोरुपजातिः॥ जन्तुं घटोनीवर्दैहन्न कोपि जनः सुशस्त्रीकसुभोक्तृकोपि । सुस्वामिकायां शुभदण्डिकायां श्रेयस्तेनूकेन भुवामनेन ॥२३॥ १५ कुदं. २ ए र्यामघों'. ३ सी °णामत्रक. ४ सी दन्नकोपि जिन मु. ५ सी स्वतः के. १सी विखः. २ ए विग्रैः । अ. ३ ए जानिरजा'. ४ ए ते येना'. ५ एर्लकाद्रि'. ६सी ततम. ७सी त्र का. ८सी हि'. ९सी 'निच. १० सी लुक् । त्रि. ११ सीम् ॥ . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ व्याश्रयमहाकाव्ये {कुमारपालः] २३. कोपि जनो भुवां पृथ्व्यां जन्तुं घटोनीवद्गामिव नाहन् । कीदृक् । महाभटत्वाच्छोभना शस्त्री क्षुरिका यस्य स सुशस्त्रीकस्तथा शोभनो भोक्ता रक्षको राजादिर्यस्य स सुभोक्तृको विशेषणकर्मधारये सोपि । यतः । कीदृश्यां भुवाम् । शुभाः पशुवधनिवारणाय नियुक्तत्वेन पशुवधस्थानेषु परिभ्रामुकत्वाच्छुभव्यापारा दण्डिनो राजकाम्बिका यस्यां तस्याम् । एतदपि कुत इत्याह । यतः श्रेयस्तनूकेन न्यायदयादिसद्गुणपवित्राङ्गकेनानेन भैमिना कृत्वा सुखामिकायां शोभनक(भ?)र्तृकायाम् ॥ घटोनी । इत्यत्र "सियामूधसो न्" [१६९] इति नः समासान्तः ॥ बहु(शुभ)दण्डिकायाम् । अत्र "ईनः कच्" [१७० ] इति कच् ॥ अनिनस्मन्प्रहणान्यर्थवतानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति । सुस्वामिकायाम् ॥ ऋत् । सुभोक्तृकः ॥ नित्यदित् । सुशस्त्रीक । श्रेयस्तनूकेन । इत्यत्र ". नित्यदितः" [ १७१ ] इति कच् ॥ उपजातिः ॥ सुशालिके सद्देधिके सुसर्पिष्के भोजने निर्मधुकोत्पयस्के। प्रजोदुरस्का रमते स न त्वामिषेनुपानत्क इवापमार्गे ॥२४॥ २४. स्पष्टम् । किं तु । निर्मधुकोत्पयस्के मधुनो मद्यान्निर्गतं ३ ए दुरुस्का. ४ सी रस्का . १ए के मुद्द. २ सी दकिके. ५ सी स्वानिषे. १ एपि मु. २ सी भुवि पृ. ३ सी भीमिव'. ४ ए दियस्य. ५ सी 'शेषेण. ६ सी भ्रामक'. ७ ए पारद'. ८ सी 'स्यां ए. ९ए यथाने. १० सी इन क. ११ सी के . १२ सी जन्ति'. १६५ 'सीकः । श्रे. १४ सी मध्यानि. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ [है...३.१७२.] विंशः सर्गः। निर्मधुकं तथोत्प्राबल्येन पयो दुग्धं यत्र तदुत्पयस्क विशेषणकर्मधारये तस्मिन् । उदुरस्काभीष्टामारिघोषणोत्थहर्षेणोच्छ्वसितहृदया सती । यथानुपानत्कः पादुकारहितो नरोपमार्गे कण्टकाद्याकीर्णत्वान्न रमते ।। भूर्भुजा सदनडुत्कसुलक्ष्मीकादिदेवेसदृशेन तदानीम् । दुष्कृताब्धितरणे जितनौकेनैकपुंस्कममुना जगदासीत् ॥२५॥ २५. तदानीमैमुना भूभुजा भैमिना कृत्वा जगदासीत् । किंभूतम् । एकः कुमारपाल एव पुमान्पुंगुणोपेतः पुरुषो यत्र तदेकपुंस्कम् । विक्रमाभयदानन्यायपालनादिभिः पुंगुणैर्जगति कुमारपालतुल्यः पुमानन्यो नाभूदित्यर्थः । यतः । किंभूतेन । विक्रमादिगुणैः सदेनडुत्कसुलक्ष्मीकादिदेवसदृशेन सदैनडुत्कदेवेन शम्भुना सुलक्ष्मीकदेवेन च विष्णुना तुल्येन । प्रचण्डशासनेनेत्यर्थः। तथोाममारिप्रवर्तनया दुष्कृताब्धितरणे जिता नौडा येन तेन । स्वागता ॥ योलीकदात्पलमाद ऋद्धिमान् स तं सलक्ष्मीकमपि व्यवासयत् । अश्रद्धंमुच्छ्रद्धकमाश्वनर्थके तरैर्वचोभिः करुणाविधौ व्यधात् ॥ २६ ॥ २६. पूर्वार्ध स्पष्टम् । किं तु । व्यवासयदेशताडितं चक्रे । तथा करुणाविधौ दयाकरणविषये नास्ति श्रद्धान्तरः परिणामविशेषो यस्य १ सी भुजां स. २ए वशदृ'. ३ ए दुक्षता'. ४ ए कपुस्क'. ५ सी "त्पदमा . ६ ए व्यवताय. ७ बी मच्छ्र. ८ ए कैत'. १ए तथात्पा. २ सी उदर'. ३ बी मधुना. ४बी दामन्या'. ५ बी दनुडु. ६ बी नुडु. ए सी नौ बेडा. ८ बीम् । न्य. ९बीणादिबि. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] तमश्रद्धं नरमनर्थकेतरैः सार्थकैर्वचोमिधर्मदेशनाभिः कृत्वोच्छ्रद्धकमुल्लसच्छ्रद्धं व्यधात् ॥ सदधिके । उदुरस्का । सुसर्पिष्के । निर्मधुक । अनुपानत्कः । सुशालिके । भत्र "दधिः" [१७२इत्यादिना कच् ॥ एकपुंस्कम् । सदनहुँत्क । जितनौकेन । उत्पयस्के । सुलक्ष्मीक । इत्यत्र "पुम्०" [ १७३ ] इत्यादिना कच् ॥ केचिल्लक्ष्मीशब्दावित्वबहुत्वयोरपि नित्यं कचमिच्छन्ति । सलक्ष्मीकम् ॥ अनर्थक । इत्यत्र "नमोर्थात्" [१७४ ] इति कच् ॥ उच्छ्रदकम् अश्रद्धम् । अत्र “शेषाद्वा" [१७५] इति वा कच् ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ सुप्रेयसी करुणया बहुविष्णुमित्र ग्रामेप्यभूत्ससुत एव जनो नृपेसिन् । सुभ्रातृपुत्रसहिते क्षतनाडिकृत्त तत्रीगलौजबलिमाप न देवतापि ॥२७॥ २७. अस्मिन्मौ नृपे नशासति सति बहवो विष्णुमित्रा यत्र स बहुविष्णुमित्र एवंनामा यो ग्रामस्तस्मिन्नपि । आस्तां सुप्रसिद्ध पुरादिस्थाने । अत्यप्रसिद्ध ग्रामादिस्थानेपीत्यर्थः । ससुत एव । उपलक्षणत्वात्सबान्धवोपीत्यर्थः । जनोभूत् । कीदृक् । करुणया कृत्वा शो १बी भत्सुत. २ ए°न् । त्सुभ्रा. ३ ए कृत'. ४ ए प्लाजाब. १सी उदर. २ ए धुके । अ. सी धुकः । अ. ३ ए पावुत्कः. ४ ए 'डुक । जि. ५ ए सी जाति । सु. ६बी तिः । सप्रे'. ए 'सिन्भौमौ. ८ ए बी ति व. ९ए ग्रामी असि. १० ए 'नेपी'. ११ सीः । मस्तुत. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ७.३.१७६.] विंशः सर्गः । ५८१ भना प्रेयसी प्रियतमा यस्य स सुप्रेयसी । प्रामेपि लोको न जन्तुवधं चकारेत्यर्थः । तथा देवतापि । आस्तां जनैः । चण्डिकादिदेव्यपि नाप न लेभे । का ( क ) म् । क्षताश्छिन्ना नाड्योङ्गनसा येषां 1 क्षतनाडयस्तथा कृत्ता छिन्ना तत्रीर्धमनियेषां ते तथा गला येषां ते कृत्ततीगलाश्च येजाः । देवतानां पुरो ये हिंसिताश्छागा इत्यर्थः । तद्रूपो यो बलिस्तम् । किंभूतेस्मिन् । शोभनो भ्राता कुमारपालो यस्य स सुभ्राता महिपाल देवस्तस्य पुत्रोजयदेवस्तेन सहिते ।। वसन्ततिलका | व्याधोपि तत्रालमनेकतत्रीकामेकेतत्रीं ध्वनयन्विपञ्चीम् । स्तम्बं सुनाडीकमखण्डनाडिं श्रित्वा मृगान्कर्षति न स्म हन्तुम् ॥ २८ ॥ २८. तत्र भैमौ सति व्याधोपि मृगान्हन्तुं न कर्षति स्म लक्ष्यं नानयति स्म । कीदृक्सन् । अनेकतन्त्रीकामनेकवल्लकीगुणामेकतन्त्र च विपञ्चीं वीणामलेमत्यर्थं ध्वनयन्मृगचित्तहरणाय वादयन् । किं कृत्वा । स्तम्बं गुल्मं श्रित्वा । मृगाणां स्वमदर्शयितुं स्तम्बेनान्तर्हितो भूत्वेत्यर्थः । किंभूतम् । शोभना अखण्डाश्च नाड्यैः नसा यस्य तं सुनाडीकमखण्डनाडिं च ॥ बहुविष्णुमित्र । इत्यत्र “न नाम्न्नि” [ १७६ ] इति न कच् ॥ १ ए "कलश्री. २ एकलत्रीव. ३ ए म्बं ना'. १ सी था कृत्ता. २ बी 'नः चिण्डि '. ३ ए ते नक्ष. 'श्रीधर्मनये'. ६ बी 'ते तस्मि ५ बी श्रीधम' सी • बी तिमालक्षं ना.° ९ १० वी उत्य'. व • ४ बी कृत्तछि.. ७ सी 'स्ते । न ११ सी न्य: सा., Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपास] सुप्रेयसी । हस्यत्र "ईयसोः" [ १७७ ] इति न कच् ॥ ससुतः । अत्र "संहात्" [ १७४ ] इत्यादिना न कच् ॥ सुम्रातृ । इत्यत्र "भ्रातुः स्तुतौ" [१७९] इति न कच् ॥ क्षतनाडिकृत्ततन्त्री। इत्यत्र "नाडी." [ १८०] इत्यादिना न कच् ॥ स्वाङ्ग इति किम् । सुनाडीकं स्तम्बम् । अनेकतन्त्रीकां विपञ्चीम् ॥ अन्ये स्वाहुः । न पारिभाषिकं स्वाङ्गमिह गृह्यते किं तु स्वमात्मीयमङ्गं स्वाङ्गम् । मारमा चेहान्यपदार्थस्तस्याङ्गमवयवस्तस्मिन्निति । तेषां मते । अखण्डनीडिं स्तम्बम् । एकतन्त्री विपञ्चीम् । इन्द्रवंशा ॥ निष्प्रवाणिवसनाः करभोरुसुभ्वनस्तमनसः ऋतुपूच्चैः । दाक्षिभार्गवमुखा अतिकैकेय्यात्मजे पशुवधं जहुरसिन्॥२९॥ २९. केकयस्य राज्ञोपत्यं स्त्री कैकेयी तस्या आत्मजो भरतः । अमार्याघोषादिमहाधर्मेण तमप्यतिक्रान्तेस्मिन्भैमी सति दाक्षिभार्गवमुखा मुनयः ऋतुषूच्चैः पशुवधं जैहुस्तत्यजुः । पशुवधपरिहारेण ऋतूंश्चक्रुरित्यर्थः । किंभूताः सन्तः । प्रोयतेस्यामिति प्रवाणी तन्तुवायशलाका । सा निर्गतास्मादिति निष्प्रवाणि । तत्रादचिरोद्धृतमित्यर्थः । "क्लीवे" [२. ४. ९७ ] इति इस्वः । यद्वा । ऊयतेस्यां वानिदें(द)शाः। प्रसृता वाँनिः प्राणिः। सा निर्गता तन्तुभ्योस्येति नि १५ भोरुस्तुभ्रून. सी भोरुसुनन'. २ बी कैकय्या'. १ बी सी हाई. २ ए ना क. ३ बी व भानुः स्तु. ४ एना की. ५ ए स्तम्बा । म. ६ ए वाहु नापा. ७ एषां ख. ८ ए ना स्त. ९ बी वंश। नि. १० सी दिना पं. ११ ए जहुस्त. १२ ए सी शुप. १३ ए ऋतुं. १४ बी यसला. १५ सी वाणं । तत्र्याद. १६ ए निर्देशाः. सी निशाः. १० सी बानि प्र. १८ ए बाणि । सा. १९ एति निःप्रा. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है...३.१८१. विंशः सर्गः। ૧૮૨ प्रवाणि सदशमित्येके । तद्वसनं येषां ते निष्प्रवाणिवसनाः । यागाचार्यत्वाद्यागक्रियाकाले माङ्गलिक्याय परिहितसदेशनूतनवत्रा इ. त्यर्थः । तथा करभोरूभिः सुभ्रूमिश्च स्त्रीविशेषैरनस्तमक्षिप्तमजितं मनो येषां ते । जितेन्द्रियाश्चेत्यर्थः ॥ स्वागता ॥ मैत्रेयिकाप्त्युग्रधियोपि दाविका__कूलैर्यवैर्दाविकपूर्वदाविकाः। ते दासत्राहुतिमत्र चक्रिरे प्रालेयभश्रायस तद्वचोवशात् ॥ ३० ॥ ३०. अत्र जगति दाविकपूर्वदाविका देविकायां नद्यां भवा पू. देविकानाम्नि प्राच्यग्रामे भवाश्च ते दाक्षिभार्गवमुखा मुनयो दाघसत्री दीर्घसत्रे चिरकालीनयागे भवा याहुतिरोहवनं तां चक्रिरे । कैः कृत्वा । दाविकाकूलैदेविकाया नद्याः कूले भवैर्यवैः । न तु पशुभिरित्यर्थः । कस्मात् । प्रलयाद्धिमाद्रेरागतं प्रालेयं हिमं विनयादिप्रधानत्वेनातिशीतलत्वात्तद्वद्भाति प्रालेयभं तथा श्रेयसो दयाप्रधानधर्मस्येदं श्रायसं च धर्मसंबद्धं यद्वचो भैमिवचनं तस्य यो वश आयत्तता तस्मात् । किंभूताः । मित्रयुराद्यपुरुषो गोत्रस्य प्रवर्तयिता तस्य कर्म मैत्रेयिका मित्रयुप्रवर्तितो यागे छागादिवधस्तस्या आप्तिः का १सी श्रेयका. २५ ते दीर्घ'. ३ बी भखाय. १५ ते निःप्रवा'. २ बी दस. ३ ए सी भोरुमिः. ४सी मिः शुश्रषिश्च. ५ सी विकापू. ६ए देका. ७सी देवेका. ८ए विना: ९ सी च त दा. १. ए सी यो दी. ११ एसत्रि चि. १२ ए बी 'रवं. १३ ए °सं १, १४ सी प्रवृत्तितो. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] र्यत्वेन लाभस्तयोप्रा हिंस्रा धीर्येषां तेपि । आनायायातच्छागवैधःर्माणोपीत्यर्थः ॥ इन्द्रवंशा॥ सशशिपस्तम्भभुजोतिनैया यिकोतिसौवागमिको मृगव्यात् । ररक्ष सत्त्वानि धनानि वैही नराणि वैहीनरिवन्महौजाः ॥ ३१ ॥ ३१. स भैमिमंगव्यादाखेटात्सत्त्वान्यारण्यान्पशूनरक्ष । यतः।की. दृक् । सर्वधर्मप्रधानदयाधर्मस्याख्यातृत्वेन परस्परवाक्यविरोधादिदो. परहितत्वेन च सर्वागमेषु शोभन आगमः स्वागमः श्रीद्वादशाङ्गं तं स.. दाईतमुनिपर्युपास्त्या तिशयेन वेत्त्यधीते वातिसौवागमिकः । एतेन सम्यग्ज्ञानमुक्तम् । तथातिनैयायिकोत्यन्तं न्यायेन प्राणिवधरक्षादिना धर्म नयेन चरन् । एतेन सम्यक्रियापरत्वोक्तिः । तथा शिंशपाया वृक्षभे. दस्य विकारः शाशंपो यः स्तम्भस्तद्वदतिसारौ जौ यस्य सः। तथा महदोजः स्वमित्रवन्धुमित्रसैन्यादिजनितं बलं यस्य सः । एतेन सर्वशतिसंपन्न इत्युक्तम् । यथों वैहीनरिर्वहीनरस्यापत्यं विज्ञो न्यायी शक्तश्च सन्वैहीनराणि वहीनरस्य स्वपितुः सत्कानि धनानि रक्षति ॥ उपेन्द्रवजा। 13 १ए शांसप. २ ए वैरीन'. ३ ए हौजः । स. १बी सी यात'. २ बी तयागच्छा . ३ ए वधः कर्मणो'. ४ बी क. मणो'. ५ सी खेलास. ६ ए °वानार. ७ ए स्यातृ. ८ सी त्वे च. ९ सी दशङ्गं. १० सीस्त्यावे. ११ सी धीयते. १२ बी धर्म न. सी धर्म न. . १३ ए ये च'. १४ सी 'शपायस्त'. १५ ए पो यस्त'. १६ सी भुजो य. १७ बी सी स्व. १८ ए °न्याजनितब'. १९ सी 'या विहीं'. २० बीशे श्यायी. २१ बी "णि वाही. २२ बी सी सक्कानि. Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ५.४.३.] विंशः सर्गः। ५८५ सौवश्विदौवारिकमत्रिदौवा रपालि सौवस्तिकमुख्यलोकः । मांसान्यतिस्फैयकृतोत्र नैय ग्रोधं कषायं नु न भोक्तुमैच्छत् ॥ ३२ ॥ ३२. स्पष्टम् । किं तु । शोभनोश्वोस्य स्वश्वस्तस्यापत्यं सौवैश्विः । दौवारिको द्वारे नियुक्तः । दौवारपालिभरपालस्यापत्यम् । अतिस्फैयकृतो दयादिगुणैः स्फा(स्क्य)कृतस्यरपत्यमतिक्रान्तः सन् । अत्र भैमौ सति ॥ निष्पवाणि । इत्यत्र "निष्प्रवाणिः" [१८१] इति कजभावो निपात्यः ।। सुधू । करभोरू । अत्र "सुभ्वादिभ्यः" [ १८२ ] इति न कच् ॥ सप्तविंशः पादः ॥ निति । दाक्षि ॥ णिति । भार्गव । इत्यत्र "वृद्धिः" [१] इत्यादिना वृद्धिः ॥ कैकेयी । मैत्रेयिका । प्रालेय । इत्यत्र "केकय." [२] इत्यादिना वृद्धियादेश् शब्दरूपस्येयादेशः ॥ दाविक । दाविकाकूलैः । पूर्वदाविकाः । शांशप । दार्घसंत्रं । प्रायस । इत्यत्र “देविका०" [३] इत्यादिना वृद्धिप्रसङ्ग आकारः ॥ १सी मांसम्यतिस्पैय'. २ सी °ति स्पैय'. ३ सी यग्रोधक. ४ ए 'ग्रोघे क. ५ ए भोक्तमै. ६ सीत् । सेप्टः । किं. १ बी स्पष्टः। किं. २ बी °स्य सव'. ३ ए वश्विं दौ. ४ सी ति सै. न्यकृ. ५ सी णैः कृ. ए णैः स्याकृ. ६ ए °स्यवर्षे. सी स्यपरत्य'. ७ बी समिति'. ८बी भैमो स. ९सी सुभ्रः । किर'. १० ए भोरु । म. ११ सी द्धिः । किंके. १२ एश्च रू. १३ ए वि दा. सी वि. कादादिकाकलैः. १४ बी 'विकक. १५ बीत्र । प्राय. ७४ 13 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૬ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाठः ] निति । वैद्दीनरि ॥ णिति । बैहीनराणि । अत्र "बहीनरस्यैत्" [ ४ ] 1 इत्यैत् ॥ नैयायिकः । सौवागमिकः ॥ निति । सौवश्वि । इत्यत्र "स्व:" [ ५ ] इत्यादिनदौतावागमौ ॥ 1 1 दौवारिक । सौवस्तिक । स्फेयकृतः । अत्र “द्वारादेः " [६] इत्यौदैतावागमौ ॥ श्वादेरिति” [ ७.४.१०. ] इति प्रतिषेधाद्वारादिपूर्वाणामपि स्यात् । दौवारपाल ॥ नैयग्रोधम् । भन्न “न्यग्रोधैस्य०" [ ७ ] इत्यादिनैदागमः ॥ उपजातिः ॥ नैयङ्कव्यासीन्याङ्कवत्वक्पटानां त्वग्दुःप्रा (ग्दुष्प्रापास्मिन्घोषयत्याश्वमारिम् । स्वाङ्गिव्याङ्गिश्वाभस्त्रिभिर्व्यावभाषी निष्ठैः श्वाकर्णेप्युच्चकैः पल्लिदेशे ॥ ३३ ॥ E ३३. न्याङ्कवी न्यङ्कुमृगभेदसत्का त्वक् चर्म पी येषां न्याङ्केवत्वक्पटानां मुनीनां शबराणां वी नैयङ्कवी त्वक् दुष्प्रापासीत् । मृगाणां मारणाभावात् । क सति । अस्मिन्भैमौ । किंभूते । व्यावभाषीनिष्ठैर्विनिमयेनान्योन्यं भाषणे तत्परैः सद्भिः स्वाङ्गिव्याङ्गिश्वाभस्त्रिभिः खङ्गव्यङ्गवभस्त्राणामपत्यैः प्रयोज्यकर्तृभिरुच्चैरुदात्तस्वरेणा 1 १५ १ए 'बीन हैः श्वा'. १ सी 'ति । विवै'. २ ए बी रिकः । सौ . ३ ए बी स्तिकः । स्फै॰. ४ सी कृत । अ ५ एधस्यादि. ६ बी 'वीनाडु'. ७ सी मंग ८ एटो षां. ९ ए ङ्कत्व'. १० एणां नै. ११ बी वा नय.. १२ ए १३ सी 'भूतैर्व्याव'. १४ ए 'भाषानिष्ठैविनि'. बी भाषानिहैसि १५ बी 'हिस्वाम'. १६ ए सी मिः श्वङ्ग 'स्मिन्भौमौ. नये . Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४.१२. ] विंशः सर्गः । श्वमारिं घोषयति । क । वाक वाकर्णेः श्वकर्णापत्यस्य पल्लीपतेः सत्के पल्लिदेशेपि ॥ नैयङ्कवी न्याङ्कव । इत्यत्र " न्यङ्कोर्वा" [ ८ ] इति वा ऐदागमः ॥ व्यावभाषी । स्वाङ्गि । व्याङ्गि । इत्यत्र "न स्वाङ्गादेः” [ ९ ] इत्यै I दौतौ न ॥ श्वाभस्त्रिभिः । अत्र “श्वादेरिति ” [१०] इति नौत् ॥ श्वाकर्णे । अत्र “इञः” [ ११ ] इत्यौ ॥ वैश्वदेवी छन्दः ॥ न श्वापदं श्वापदिकोपि शौवापदामिषेच्छुः पलमाददेस्मिन् । न प्रोष्ठपादोप्यभवन्नृशंसो धर्मात्तदात्युत्तरभद्रपादः ॥ ३४ ॥ १२ I १४ ३४. अस्मिन्नृपे सति शुन इव पदमेस्य श्वापद्मारण्यंकः पशुर्मृगचित्रकादिस्तेन चरति श्वापदिकोपि व्याधोपि श्वापदं श्वापदस्य मृगस्य विकारं पलं मांसं नाददे श्वापदवघेन नाग्रहीत् । कीदृकूँ । शौवापदामिषेच्छुः श्वापदसत्कमांसमिच्छन् । एतेन राज्ञोतिप्रचण्डाज्ञतोक्ता । तथा तदा भैमे राज्यकाले प्रोष्ठपादोपि प्रोष्ठपदाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ते काले जातोपि नरो नृशंसो हिंस्रकर्मा नाभूत् । प्रोष्ठपदासु हि जातोतिनित्रिंशः स्यात् । यदुक्तम् ! १७ १८ १ बी न प्रौष्ठ . १८७ २ बी शंशोध. १ सी कर्णेः श्ववर्णे व लस्वङ्गा'. ५ बी इत्येद". 'वी छन्दः . ८ सी न्दः । ११ ए शुमृग'. १२ सी १४ ए शोपि प्र. १५ बी प्रौष्ठ १८ सी ले नृ . • २ ए र्णेश्वक ३ ए पते सत्केः प° ४ ए बी ६ बी नौनु । स्वाक° सी नौनु । श्वा'. 1 ७ वी नाश्वा ं. ९मश्वाश्वा". १० सी ण्यकप'. दिकापि श्वा". १३ सी क् । राजका. १६ ए सी 'पदो. पादाशीवामि . १७ बी पि Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] परदारमद्यसेवी दारुणकर्मा निशाचरस्तीक्ष्णः । विषमः प्रसह्य हर्ता प्राक्प्रोष्ठपदे भवति जातः । प्राक्प्रोष्ठपदा पूर्वभद्रपदा यत्र स प्राक्प्रोष्ठपदः कालस्तत्रे । यतः । कीदृक् । धर्मादत्युत्तरंभद्रपाद उत्तरभद्रपदासु जातमति कान्तः । उ. त्तरभद्रपदासु हि जातोतिधार्मिकः स्यात् । उक्तं च । वक्ता सुखी प्रजावान्धार्मिको द्वितीयास्वित्यादि । द्वितीयासूत्तरभद्रपदासु । श्रीकुमारपालोत्पादितयाहिंसादिविषयया धर्मवासनया तस्मादप्यतिधार्मिक इत्यर्थः॥ मापदम् शौवापद । इत्यत्र "पदस्यानिति वा" [१२] इति वा-औत् ॥ मनितीति किम् । श्वापदिकः ॥ प्रोष्ठपादः । उत्तरभद्रपादः । अत्र "प्रोष्ठ." [१३] इत्यादिनोत्तरपदस्य वृदिः ॥ उपजातिः॥ तं पूर्वनैदाघरविप्रतापमनुव्रजन्सोपि न जन्तुहिंसाम् । चक्रे सुपाञ्चालकसर्वपाञ्चालकार्धपाञ्चालकलोक उच्चैः ३५ ३५. सोपि हिंसकत्वेन सर्वत्र प्रसिद्धोपि सुपाञ्चालकसर्वपाञ्चालेकार्धपाञ्चालकलोकः सुपञ्चालेषु सर्वेषु पञ्चालेष्वर्धेषु पञ्चालेषु च भवो यो लोकः स जन्तुहिंसामुच्चैनै चके । यतः। पूर्वनैदाघो निदाघस्य पूर्वस्मिन्भागे भवो यो रविस्तद्वत्प्रतापो यस्य तं तथों तं भैमिमनुव्रजन्सेवकत्वात्तदाज्ञाप्रतिपालनेनानुगच्छन् । १ ए°लका. २ सी कलो'. १बी मामिनि'. २ पत्र । यः की. ३ ए प्रभाद्रपद. ४ ए र. माद्र ५सी मुहि. ६ ए 'रभाद्र. ७सी खी च प्र. ८ए या. वस'. ९बी वाद. १० सी दः । म. ११ सी सत्वे. १२५ 'कलों'. १३ सी 'लक'. १४ ए बी सुपाजा. १५ सी या मैं'. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है. ७.४.१६.] विंशः सर्गः। ५८९ पूर्वनैदाघ । इत्यत्र "अंशाहतोः" [१४] इत्युत्तरपदवृद्धिः । सुपाञ्चालक । सर्वपाञ्चालक । अर्धपाचालके । इत्यत्र "सुसर्व०" [१५] इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिः ॥ पदातिभिः सोपरकार्णमृत्तिकपूर्वपाश्चालकपौर्वमेद्रैः । हालामथो दारितभाण्ड आस्यविवार्षिकी वाधिवार्षिकी च ॥३६॥ ३६. स्पष्टम् । किं तु । अपरकार्णमृत्तिकपूर्वपाञ्चालकपौर्वमट्टैरपरकृष्णमृत्तिकानाम्नि प्राग्ग्रामे पूर्वेषु पञ्चालेषु पूर्वेषु मद्रेषु च भवैः । द्विवार्षिकी द्वे वर्षे भूतामधिकवार्षिकी चाधिकानि द्वाभ्यां वर्षाभ्यां सकाशादतिरिक्तानि वर्षाणि भूतां च ।।. सीदतामदित धान्यमसौ त्रै वा(वार्षिकं यदिह तेन कदापि । न द्विकौडविक आब्यगृहं को प्यभ्यगादधिककौडविको वा ॥ ३७॥ ३७. असौ भैमिर्यद्यस्माद्धेतोः सीदतां मांसादिविक्रयनिषेधेनावर्तमानानां सौनिककल्लालादीनां त्रैवा(व)र्षिकमतिबहुत्वेन त्रीणि वाणि भावि धान्यमदित ददौ । तेन कारणेनेह जगति कोप्याढ्यगृहं कदापि नाभ्यगात् । कीटक्सन् । द्वौ कुडवौ सेतिके प्रयोजनमस्य १ बी कपूर्व'. २ सी मरैरपकृष्ण'. ३ बी द्विर्षि'. ४ बी कवर्षि. ५ बी °र्षिकी य. ६ ए ब्यकींगृ. ७ सी भ्यद'. १ए लकः । . २ एक पौर्वमट्टैरपरकृ. ३ ए प्राग्मागे पूर्वेषु पाञ्चा. ४ बी कल्लोला. सी कल्पपाला. ५ बी तिबाहु. ६ सी हं तदाप्य ना. ७बी दाप्यना'. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] द्विकौडविको धान्यसेतिकाद्वयार्थी । एवमधिककौडविकः ॥ स्वागता ॥ नृपः स्वपत्पाञ्चकलायिकाह वृर्तिद्विसांवत्सरिकाङ्गरक्षे। द्वैशाणशौणानिशितासिपार्थो शृणोनिशीथे स्वरमन्यौतम् ॥ ३८॥ ३८. अन्यदा नृपो निशीथ आत सदुःखं स्वरमशृणोत् । की. हेक् । द्वाभ्यां शाणाभ्यां मानभेदाभ्यां क्रीता द्वैशाणी । श्रेष्ठत्वेन महापेत्यर्थः । या शाणा तेजनोपलस्तस्यां निशितस्तीक्ष्णीकृतो योसिः स पार्श्वे यस्य सः । किंभूते निशीथे । पञ्च कलाया मानमस्य "मानम्" [ ६ ४. १६९] इतीकणि पाञ्चकलायिकम् । तद्धितान्तमिदम् । स्वर्णादिपरिमाणविशेषस्य नाम । पाञ्चकलायिकमहर्वृत्तिर्दिनजीविका येषां ते पाञ्चकलायिकाहर्वृत्तयः । शूरत्वाचुकतादिगुणैर्महावृत्तय इत्यर्थः । द्विसांवत्सरिकाश्च द्वौ संवत्सरौ भूताः । चिरकालीना इत्यर्थः । येङ्गरक्षा निशीथस्य निद्राभरहेतुत्वात्खपन्तस्ते यत्र तस्मिन् ॥ उपजातिः ॥ नृपोथ दध्याविति कापि शोका पूरान्मुमूर्षन्त्यभिरोदितीह। १ बी सी 'चिदिसां. २ ए क्षे । द्वेशा'. ३ सी शाणनि'. ४ ए 'दात । अ. ५ बी रोदती. १सी दुःखस्व. २ बी मसूणों'. ३ बी दृक्सन् । दा. ४ सी यः । अथ वा शा. ५ बी कण पा. ६ बी हवृत्तिर्दिन्जी'. ७ बी यः । सूरत्वानुकता'. ८ सी त्वानुद्धतादिभिर्गुणोम'. ९ए दिर्गुणै. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.४.१६.] विंशः सर्गः। ५९१ विदीर्यते द्वैकुलिजिंक्युखा ह्या र्धकौडविक्यभ्यधिकानपूरात् ॥ ३९ ॥ ३९. पूर्वाधं स्पष्टम् । युक्तं चैतत् । यदसौ शोकापूरादभिरोदिति । हि यस्मादार्धकौडविकी कुडवस्यार्धन क्रीतोखा स्थाली द्वैकुलिजिकी द्वे कुलिजे धान्यमानभेदौ पचैन्ती संभवेन्त्यवहरन्ती वा सत्यभ्यधिकानपूराद्विदीर्यते ॥ राजार्धकंसिकमथो परिधाय वस्त्र मात्तार्धकौडविकगुण्ठननीलवासाः। प्रावाहणेयपदिकान्खपतः प्रवाह णेयेतरानपि विहाय ततश्चचाल ॥४०॥ ४०. अथो राजा ततः स्थानाञ्चचाल । किं कृत्वा । कंसो व्रीह्यादिमानम् । अर्ध कंसस्यार्धकसः प्रयोजनमस्याकसिकम् । अल्प. मूल्यमित्यर्थः । वस्त्रं परिधार्य तथा स्वपतः प्रावाहणेयपदिकान्प्रवाहैणः शस्त्राजीवी विप्रस्तस्यापत्यानि शुभ्रादित्वादेयणि [ ६. १. ७३. ] प्रावाहणेया ये पदिकाः पत्तयस्तान्प्रवाहणेयेतरीनपि विहाय । कीदृ. क्सन् । केनौप्यनुपलक्षणार्थमात्तं गृहीतमार्धकौडविकं कुडवार्धेन क्रीतं गुण्ठनं सकलशरीराच्छादकं नीलं वासो वखं येन सः॥ १एयत द्वैकलि. बी र्यत द्वेकु. २ सी जित्सुखा. ३ सी कोड'. १ए यसौ. २ ए 'भि । हि. ३ सी विक्य कु. ४ सी 'चती सं. ५ ए वन्तीत्यवह'. ६ ए कंसः प्र. ७ सी कंसप्र. ८ सी यतः प्रा. ९बीतः प्रावा. १० ए °हणा श. ११ बी भ्रादत्वा'. १२ बी °णि प्रवा'. १३ सी °णेयप. १४ सी त्तयो यस्मात्प्रवा. १५ बी 'रामपि. १६ ए हायः । की. १७ बी 'नाप्युप. १८ बी दनं नी'. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पूर्वपाञ्चालक । इत्यत्र "भमनस्य दिशः" [१६] इत्युत्तरपदवृद्धिः ॥ अमवस्येति किम् । पौर्वमद्रैः ॥ अपरकार्णमृत्तिक । इत्यत्र "प्राग्ग्रामाणाम्" [१७] इत्युत्तरपदवृद्धिः ॥ द्विवार्षिकीम् । अधिकवार्षिकीम् । अत्र “संख्या." [१८] इत्यादिनो. तरपदवृद्धिः ॥ अभाविनीति किम् । त्रैवा(व)षिकं धान्यम् ॥ मान । द्विकौडविकः । अधिक कौडविकः ॥ संवत्सर । द्विसांवत्सरिक । इत्यत्र "मान०" [१९] इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिः ॥ अशाणकुलिजस्येति किम् । द्वैशाण । द्वैकुलिजिकी ॥ अनाम्नीति किम् । पाञ्चकलायिक ॥ अर्धकौडविक । आर्धकोडविकी । इत्यत्र "अर्धात्" [२०] इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिः । वा त्वादेः । परिमाणात्पूर्वस्य त्वर्धशब्दस्य वा स्यात् ॥ अनत इति किम् । आर्धकसिकम् ॥ प्रवाहणेयं । प्रावाहणेय । इत्यत्र "प्राद्" [२१] इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिरादेः पूर्वस्य तु प्रस्य वा ॥ वसन्ततिलका ॥ समलक्षि स यान्प्रवाहणेयकतोप्यप्रावाहणेयकः । तादृग्वेषः प्रवाहणेयिभिरेकप्रावाहणेयिवत् ॥४१॥ ४१. स राजा प्रवाहणेयकतोपि प्रवाहणेयानां प्रवाहणस्यापत्यानां समूहादपि यान्सन् । बहूनां रक्षापालानां मध्यानिर्गच्छन्नपीत्यर्थः । १ सी णेयेय'. २ बी °यकातोप्यप्रवा'. ३ बी यकं प्रावाहणेयानां स. मूहः. ४ ए त् । रा. १बी मद्रेः । अं. २ सी पिका । अत्र. ३ एम् । देशा. ४ सी मानादको . ५ ए °ण । टेकु. ६ बी कुलजि . ७ए कार्ड'. ८ बी 'णेस. ९सीय प्रवाहणेत्य. १० सी हतो'. ११ सी रक्षपा. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.४.२३.] विंशः सर्गः। ५९३ प्रवाहणेयिभिः प्रवाहणेयस्यापत्यैर्युवमी रक्षापालैः समलक्षि । क इव । एकप्रवाहणेयिवत् ! कोप्येकोयं प्रवाहणेयस्यापत्यं युवा यातीति ज्ञातो न तु राजेत्यर्थः । यतो नास्ति प्रावाहणेयकं प्रावाहणेयानां समूहः सहचरं यस्य सः । एकाकीत्यर्थः । तथा तादृग्वेषः परिहिताल्पमूक्यनीलवनत्वेन प्रावाहणेयिवेषसहशवेषः ॥ प्रवाहणेयिमिः । प्रावाहणेयि । प्रवाहणेयकर्तः । प्रावाहणेयंकः । अत्र "एयस्य" [ २२ ] इत्युत्तरपदवृद्धिः । आदेस्तु प्रस्य वा ॥ वैतालीयं छन्दः ॥ आचापलेनैष जयनचापलं क्षितेरनैश्वर्यमनैपुणं विना । पथा शौचेन ययौ स तस्स य आकौशल पथ्यपथ्ये(थे) ह्यकौशलम् ॥ ४२ ॥ ४२. स एष राजानशौचेनाशुचित्वरहितेन पथा कृत्वा ययौ । कीहक्सन् । आचापलेन स्थिरचित्ततया क्षितेः पृथ्व्या अचापलं स्थिरतां जयन् । निर्भय इत्यर्थः । तथानैश्वर्यमनैपुणं विनासामर्थेनादक्षतया च रहितः । शक्तो दक्षश्चेत्यर्थः । युक्तं यदसौ शुचिना पथा ययौ। यद्यस्मात्तस्य भैमेः 'पंथि मार्गविषय आकौशलमनिपु १ ए नशोचे'. २ ए यौ न त'. सी यो च त'. ३ सी लं पाध्ये. १६ त्यैयुव. २५ °स्य । ए'. ३ सी था सद. ४ बी ‘णेयवे'. ५ एषः । प्रावा'. ६ बी 'भिः प्रवा'. ७ ए यि प्रावा. ८ वी तः प्रवा'. ९सी यकन्तः । . १० बी न्दः । अचापलेन्नैष. ११ ए ना. सुचि. १२ ए पथ्या कृ. १३ बी 'न् । अचा. १४ बी तनाया. १५ बी 'येन द. १६ ए शक्ती द. १०ए परिमा'. १८ बी 'पये अको. १९एमाकोश'. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] णत्वं नास्ति । मार्गे ह्यसौ कुशल एवेत्यर्थः । तथा हि यस्मात्तस्यापथेमार्गेकौशलम् । अथ च पथि सदाचारेपथेनाचार इत्यर्थः । शब्दच्छलेनायमर्थान्तरन्यासः । इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः || आनैश्वर्यानैपुणाशौचरुग्णो यल्लोकस्तत्किं मयेत्यन्यदुःखैः । दुःखीत्याटीद्यन्नृपस्तेन नाक्षैत्रज्ञे प्यां क्षैत्रय (ज्ञः) मेषोन्वमंस्त ४३ ४३. यद्यस्माल्लोक आनैश्वर्य दारिद्र्यमसामर्थ्यं वा । आनैपुणमैज्ञा (ज्ञता । आशौचं रोगादिनाशुचित्वम् । द्वन्द्वे ते रुग्णः पीडितो वर्तते । कस्या अपि स्त्रिया एवं शोकेन रोदनात् । तत्तस्माद्धेतोर्मया किम् । आनैश्वर्यादिदुःखादरक्षकत्वेन व्यर्थनृपशब्दार्थत्वान्मया नृपेण न किमपीत्यर्थः । इत्येवंप्रकारेणान्येदुः खैरानैश्वर्यादिविषयैर्लोकस्य कष्ठैदुःखी नृपो भैमिर्यद्यस्मादाटीद भ्राम्यत्तेन हेतुनैष नृपोक्षेत्रज्ञेपि क्षेत्रज्ञ आत्मा न तथाक्षेत्रज्ञः परस्तस्य भावेपि लोकस्य परत्वेप्याक्षे (क्षे )ज्ञ स्वस्माल्लोकस्य परत्वं नान्वमंस्त । प्रजादुःखदुःखितत्वादात्मनो भिन्नां प्रजां नाज्ञासीदित्यर्थः ॥ २ १ ए सी 'प्याक्षेत्र'. अक्षेत्रक्ष्ये (ज्ञे?) क्षेत्रज्ञम् । अनैश्वर्यम् भानै धैर्य । अकौशलम् भाकौशलम् । अचापलम् आचापलेन । अनैपुणम् आनैपुणं । अर्नशौचेन अ (आ) ५ १ सी कुल. न्मदुखै ९ सी आत्म न. १२ ए आक्षेत्र. छान् । अँ. शोचे. - २ ए°तिः । अनै ३ ए सी मन्यता. ४ ए रक". ६ सी सनृपो. ७ ए सी 'पोक्षेत्र'. ८ ए बी श्येपि. १३ ए म् । आ. १६ बी सी 'म् अनै'. १० एत्रज्ञां स्व. बी 'त्रश्यंस्तस्मा ११ सी 'झं अ. •· १४ सी वयं । अ° १७ सी १५ बी प पुणः । अ १८ बी °F. Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४.२४. ] विंशः सर्गः । ५९५ शौच । इत्यत्र " नमः ० " [२३] इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिरादेस्तु नलो वा ॥ शालिनी छन्दः ॥ किं कौरुजङ्गल्युत वैश्वधेनवी न कौरुजाङ्गल्युत वैश्वधैनवी । 3 इयं हि सौवर्णवलज्यदो मृशंस्तरोरधेः स्त्रीं रुदतीं ददर्श सः ॥ ४४ ॥ ४४. स भैमिस्तरोरधो रुदतीं स्त्रीं ददर्श । कीदृक्सन् । अद एतन्मृशंस्तस्यास्तथाविधरूपे नेपथ्यादिदर्शनात्परिभावयन् । तदेवाह । इयं स्त्री किं कौरुजङ्गली कुरुसंबद्धा जङ्गला निर्जला देशाः कुरुजङ्गलास्तेषु भँवा । उत किं वा वैश्वधेनवी विश्ववेनौ देशभेदे भवा । उताथ वेयं न कौरुजाङ्गली नापि वैश्वधे (धै ) नवी । किं त्वियं स्त्री हि स्फुटं सौवर्णवलजी सुवर्णवलेजे पुरे भवा ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ॥ I 93 अथेत्यवोचत्स पितेव वत्से सौवर्णवाल ज्यसि किं सदुःखा । सौभाग्यदर्पादपसौहृदेन सौहार्दिनी किं विधुतासि पत्या ॥ ४५ ॥ १ एश्वन'. ५ बी 'धः स्त्री रु. 99 १ सी 'स्तथा. ५ ए डाजाङ्ग". ९ सीकिं दु:. १३ बी वंश". २ बी 'र्णबल'. सी धः स्त्री रुदन्ती द. ३ ए दो भृशंततोर २ बी 'मने'. ६ बी निजाला. १० ए नौ. ३ ए किं कुरु. ७ए रुजाङ्ग ११ ए 'जी सौव . ४ बी 'रोदधः. ४ बी "कुरसं". ८ ए भवो कि वा. १२ बी "लपु. Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकान्ये (कुमारपास ४५. अथ स राजा पितेवावोचत् । तथा हि । हे वत्से सौवर्णवालजि किं किमिति सदुःखासि किं त्वं सौहार्दिनी सुहृदः सुहृदयस्य वेदं भावः कर्म वा "तस्ये दम्" [६. ३. १६०.] इत्यणि युवाद्यणि [७. १. ६७.] वा सौहार्द पत्यो प्रेम तद्वती सत्यपि पत्या विधुतासि पराभूतासि । येतः । सौभाग्यदादपसौहृदेन त्वय्यपगतस्नेहेन । उपजातिः ॥ सौरसैन्धव उ सौझनागरो वानुशातिकिरपारलौकिकः । त्वां न दुर्बतिक आनिवारुणी गामिवेह विनिहन्तुमाहरत् ४६ ४६. उ हे वत्से सुरसिन्धोर्गङ्गायाः समीपो देशोपि सुरसिन्धुाराणसी तत्र जातः । “कोपान्त्याचाण्" [ ६. ३. ५६.] इत्यणि सौरसैन्धवः सौमनागरो वा सुह्मनगरे प्राचां नगरे भवो वा। एतद्देशभवो ह्यतिदाम्भिकः स्यादित्यतिदाम्भिक इत्यर्थः । कोपि दुब. तिको दुष्टव्रती कापालिकादिर्दुर्विद्यासाधनाय त्वां विनिहन्तुमिह स्थान आहरन्न किमानिनाय । नबत्र लोकभाषया किमर्थे । यतः। कीदृक् । आनुशातिकिरनुशतिकस्यै चोरस्यापत्यं कुलक्रमागतचौरिकाबलेन हरणे कुशल इत्यर्थः । तथा परलोकः प्रयोजनमस्य पारलौकिको न तथापारलौकिकः खीवधमहापापस्य चिकीर्षुत्वेन परलोकानपेक्षी । यथा सौरसैन्धवः सौमनागरो वा कोप्यत्विगाग्निवारुणीमग्निवरुणदेवतां १बी गरो वा'. १सी से स सौ. २ ए जि किमि . ३ ए तद्विती. ४ ए वितासि य. ५सी यथा सौ. ६ एरसेन्ध'. ७ बी सी धव सौ. ८ सी गरैः प्रा. चीनगरे म. ९ए भवौ त. बी भवौ चैत. १० बी दिति'. ११ सी अंदी. १२ बी दिदुर्वि'. १३ सी य त्वा वि. १४ ए मर्य । य'. १५ बी 'स चौर. १६ बी को न त'. १७एनपक्षी. १८ सी वातोगृत्ति'. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ..४.२९.) विंशः सर्गः। गाम ड्वाही विनिहन्तुं यागे यूपसमीप आहरति । असाध्यराजयममहाव्याधिनिवर्तनायामिवारुणीमनड्वाहीमालभेतेति हि श्रुतिः॥ कौरुजङ्गली कोरुजाङ्गली । वैश्वधेनवी वैश्वधैनवी । सौवर्णवलजी सौवर्णबालजि । भत्र “जङ्गल." [२४] इत्यादिना पूर्वपदस्य नित्यं वृद्धिरुत्तरपदस्य तु वा ॥ सौहार्दिनी । सौभाग्य । सौरसैश्ववः । भत्र "दुद्" [२५] इत्यादिनो. भयपदवृद्धिः ॥ बहुलाधिकारान्मित्रामित्रार्थयोः सुहंदुहृच्छब्दयोरपसौहदेनेत्यपि स्यात् । दौह(ई)दमित्यपि ज्ञेयम् ॥ सौहानागरः । अत्र "प्राचां नगरस्य" [२६] इत्युभयपदवृद्धिः ॥.. भानुशातिकिः। पारलौकिकः। अत्र "अनु."[२७] इत्या दिनोभयपदवृद्धिः॥ भानिवारुगीम् । अत्र “देवतानामारवादौ" [२०] इत्युभयपदवृद्धिः ॥ रयोद्धता ॥ सौमेन्द्रमैन्द्रावरुणं हविर्नु किं त्वाच्छिनत्कोप्यसुरश्छलेन । ऐक्ष्वाकदारांन्नु हिरण्मयेणे नाभ्रौणहत्यक्षुभितो दशायः॥४७॥ ४७. किं कोप्यसुरो दैत्यश्छलेन त्वा त्वामाच्छिनद्रूपातिशयमूढत्वेन हादग्रहीत् । यथा सौमेन्द्रदेवतमैन्द्रावरुणं च [ह]विहव्यं कोयनुरइछलेन ऋत्विग्भ्य आच्छिनत्ति । यथा वा दशास्यो रावण १ बी सी 'रछले'. २ बी रानराम'. ३ सी हत्या ते'. १ सी 'नवडा. २ बी साध्यं रा'. ३ ए रु मिन'. ४ बी सी °ति . ५ बी रुजा. ६ सी ली बैं'. ७ एषधेन'. ८सी सौर'. ९बी हृद्हच्छ. १० सी दिः । अग्नि. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] ऐक्ष्वाकदारानामभार्यां सीतां हिरण्मयणेन स्वर्णमृगेण कृत्वाच्छिनत् । यतः । कीदृक् । भ्रूणन्नो भावो भ्रूणहत्यं भ्रूणहत्या तेन क्षुभितो भीतो भ्रौणहत्यक्षुभितो ने तथा । महापापिष्ठ इत्यर्थः ॥ उपजातिः ॥ मैत्रेयवाक्सारवंवाःपवित्रा मनन्तमान्तिक्यनिजप्रियां त्वाम् । अनन्तियोप्यन्तितमोत्र विध्वं सितुं कुधैवत्य उतानिनाय ॥४८॥ ४८. उताथ वा कुत्सितं धैवत्यं धीनः पण्डितस्य भावः पाण्डित्यं यस्य स कुधैवत्यः कुधीः पारदारिकस्त्वां विध्वंसितुं विध्वस्तशीलां कर्तुमत्र स्थान आनिनाय । कीडक्सन् । अनन्तियोपि शीलभङ्गहेतुत्वादन्तिकेसाधुरप्यन्तितमः शीलभङ्गायातिशयेनान्तिकः । किंभूतां सतीं त्वाम् । मित्रयोरपत्यं गृष्ट्यादित्वादेयनि [ ६. १. ८४.] मैत्रेयो मुनिस्तस्य या वाक् तथा सरय्वां भवं सारवं यद्वार्जलं तद्वत्पवित्रां सुशीलत्वेन निर्मलाम् । तथान्तिके निकटे साधुरन्तिक्योत्यनुरक्त इत्यर्थः । यो निजप्रियः स तथान्तमोतिनिकटो न तथानन्तमः प्रोषितत्वादिना दूरस्थ आन्तिक्यनिजप्रियो यस्यास्ताम् ॥ अप्यन्तितोन्तिकत एत्य तदैवमुक्त्वा भूपे स्थितेन्तिकतमे निजबान्धवे नु । साथान्तिपन्यगददन्तिकसन्नृपांहि द्वन्द्वं स्रजिष्ठमिव दन्तरुचादधाना ॥४९॥ १५ वचाः पतित्रा'. २ सी नन्तिमा'. ३ ए °न्तिकानि'. .४ बी 'त क ए. ५ ए धानः । अथान्तिकतः. १ सी न म. २ सी "स्य वा भा'. ३ सी गाति'. ४ सी भान्तिमो'. ५ बी सी 'न्तिकनि. Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४.२९.] विंशः सर्गः । ५९९ ४९. अथान्तिके सीदत्यन्तिषन्निकटस्था सा स्त्री न्यगद्द्वभाषे । क सति । भूपे । किंभूते । अन्तिकात् । " अहीयरुहोपादाने” [ ७. २. ८८. ] इति तसावन्तितोपि निकटादप्यन्तिके भयादित्वात्तसौ [ ७. २. ८४.] अन्तिकतः । अत्यन्तं निकट इत्यर्थः । एत्यागत्य तदैवमुक्तत्यक्त्वावस्थिते मौनमाश्रिते । कस्मिन्निव । अन्तिकतमेति निकटे निजबान्धवे नु । अतिनिकटेमात्र के पित्रादिस्वजन इवेत्यर्थः । कीदृक्सती । सलज्जत्वेनाधोमुखं भाषणाद्दन्तरुचा कृत्वान्तिकसन्निकटस्थं नृपांहिद्वन्द्वं स्रजिष्ठमिव वहूनां मध्येतिशयेन स्रग्वीव दन्तकान्तेरितिविशत्वादतिप्राचुर्याच्च पूजाहेत्वतिशयितपुष्पमालान्वितमिवादधाना || वसन्ततिलका ॥ बोधिसत्वमिव वेद्मि भवन्तं सुत्वचिष्टतय ऋज्ववदातम् । अस्रजीयसि जने स्रजयेत्कः कोत्वचीयसि बत त्वचयेद्वा ५० ५०. हे महापुरुष भवन्तं त्वां सुत्वचिष्ठतया बहूनां मध्येत्यर्थं त्वग्वांस्त्वचिष्ठः सुष्ठु त्वर्चिष्ठः सुत्वचिष्ठस्तद्भावेन त्वचः सौम्यतादिश्रीविशेषेण हेतुन ऋजुः सरलस्वभावः स चासाववदातश्च पापमलरहितश्च ऋज्ववदातस्तम् । यद्वा । ऋजूनि सरलान्यवदातान्युत्कृष्टकृपाकरणादीन्यद्भुतकर्माणि यस्य तं वेद्मि । कमिव । बोधिसत्वमित्र बुद्धदेवतामिव । आकृतिविशेषेणापि त्वां बुद्धदेवमिव लोकोत्तरकृपार्जवादिगुणाधारं जानामीत्यर्थः । अमुमेवार्थं व्यतिरेकार्थान्तर १ एवतिष्ठ' सी 'त्वचष्ठ'. • १ सी त्योक्ताव'. ५ बी 'चिष्टं सु. ६ ९ सी लोकेत '. २ ए बी 'ना'. चिष्ठस्त'. ३ सी 'त्रकं पि'. बीनि शर'. ४ सी ि ८ बी कृतवि. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० व्याश्रयमहाकाव्ये न्यासाभ्यां द्रढयति । बतेति कोमलामन्त्रणे । द्वयोर्मध्येत्यन्तं स्रग्वी स्रजीयान्न तथास्त्र जीयांस्तस्मिन्पुष्पमालारहितजनविषये कः स्रजयेत् स्रग्विणमाचक्षीत । वा यद्वा । अत्वचीयसि विशिष्टत्वग्रहिते जने कस्त्वचयेत्त्वग्वन्तमाचक्षीत । न कोपीत्यर्थः ॥ * सोमेन्द्रम् । ऐन्द्रावरुणम् । अत्र “भतो न० " [ २९ ] इत्यादिना नोत्तर पदवृद्धिः ॥ सारव | ऐवाक | मैत्रेय । श्रौणहत्य | धैर्त्रत्यः । हिरण्मय । इत्येते "सा I I I 3 रब०" [ ३० ] इत्यादिना साधवः ॥ भनन्तम । भन्तितमः । अन्तितः । अनन्तियः । अन्तिषद् । एते "वीन्तम ० [३१] इत्यादिना वा साधवः ॥ पक्षे । अन्तिकतमे । अन्तिकतः । अस्तिक्य । भन्तिकसद् ॥ " ऐ. ११ स्वजयेत् । स्रजिष्ठम् । स्स्रजीयसि । त्वचयेत् । सुत्वचिष्ठतया । त्वचीयसि । इत्यत्र “विन्मतोर्०” [ ३२ ] इत्यादिना विन्तोर्लुप् ॥ स्वागता ॥ कनयनेषं धर्ममथो कनीया *°. [ कुमारपालः ] २ नथ वा कनिष्ठोसि मनुः स्वयं सः । १ ए 'नद्यथंध'. २ सी यं नु । य १ सी ध्ये स्र'. २ ५ बी 'खः । ऐ. ६ एवद्दत्यः. ८ ए सी न्तिय । अ ११ बी 'ये । स्र ं. १५ ए ॰गताः । क ं. यवयेद्यविष्ठस्य यवीयसोल्पि जने तथाल्पीयसि नाल्पयेत्कः ॥ ५१ ॥ १२ ए त्वचेय'. यस वि. ३ सी 'सि वशि. ४ ए सौम्येन्द्र । ७ एन्तमः । अ. बी 'न्तमा । ९ सी वान्त्यम'. १० सी 'न्तिक्य'. १३ ए विमवो. १४ बी 'न्मघोड़े • Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ५.४.३४.] विंशः सर्गः। ५१. अथ वाहो महापुरुष कनीयान्द्वयोर्मध्येत्यन्तं युवा कनिष्ठो बहूनां मध्येत्यन्तं युवा चातितरुणतम इत्यर्थः । असि त्वम् । सोतिधार्मिकत्वेन प्रसिद्धः स्वयं साक्षान्मनुमन्वृषिः । को मनुरित्याह । कनीयान् द्वयोरल्पयोर्मन्वोर्मध्येत्यल्पोथ वा कनिष्ठो बहूनां मनूनां मध्येत्यल्पो वा । स्वायंभुव १ स्वारोचिष २ औत्तम ३ तामस ४ चाक्षुषे ५ रैवत ६ वैवस्वत ७ सूर्यसावर्ण ८ ब्रह्मसावर्ण ९ रुद्रसावर्ण १० धर्मसावर्ण ११ दक्षसावर्ण १२ रोच्य १३ भौत्याख्या[१४] हि चतुर्दश मन्वर्ष(न्वृष)यः आद्याः सप्त भूता अन्त्यास्तु भाविनः । तेषु त्वं लघुतरो लघुतमो वा मनुर्भवसीत्यर्थः । यतः । कीदृक् त्वम् । एवं कृपालुत्वादिगुणैरघं पापं कनयन्त्रल्पीकुर्वन् । अथो तथा धर्म कनयन्युवानं कुर्वन् । अमुमेवार्थमर्थान्तरन्यासाभ्यां द्रढयति । यविष्ठस्य यवीयसश्च । संबन्धमात्रेत्र षष्ठी । माषाणामश्रीयादित्यादिवत् । बहूनां यूनां द्वयोर्वा मध्येतियुवानं नरं को न यवयेावानं नाचक्षीतेत्यर्थः । तथाल्पिष्ठजनेल्पीयसि च विषये को नाल्पयेत् ।। कनयन् । कनिष्टः । कनीयान् । अत्र “अल्प." [ ३३ ] इत्यादिनाल्पयूनोः केन्वा ॥ पक्षे । अल्पयेत् । अल्पिष्ठ । अल्पीयसि ॥ यवयेत् । यविष्ठस्य । यवीयसः ॥ केकिरवं छन्दः ॥ श्रेष्ठे ज्येष्ठे श्रेयसि ज्यायसि त्व य्यात्मोत्लेशान्द्राक्छ्यामि ज्ययामि । १४ १सी ठेय. १बी नुर्मान्वृ. २ सी यानल्प. ३ ए भुवः १ स्वा. ४बी व ५ ऐराव'. ५ए खतः ७ सू. ६ बी र्यस्यव'. ७ सी रोद्रच्य. ८ ए तमो. ९ए रमन्या. १. ए °यवष्ठ. ११ बी सी योर्मध्ये . १२ बी न युव. १३ सी कण्वा । प. १४ ए °ल्पीयिसि. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ म्याश्रयमहाकाव्ये .[कुमारपालः साधीयःसाधिष्ठनेदिष्ठनेदी यांसः श्रोतुः सन्तु ते दुःखवेगाः ॥ ५२ ॥ ५२. उद्गतः क्लेशो येभ्यस्त उक्लेशा दुःखहेतव आत्मन उत्क्केशा आत्मोत्लेशास्तानहं त्वयि विषये द्राक् श्रयामि वचनस्यातिस्फुटसत्यत्वेन प्रशस्यं यथा स्यादेवमार्चक्षे । तथा ज्ययामि वचनस्यातिमहत्त्वादृद्धं यथा स्यादेवमाचक्षे च । प्रशस्यशब्दादृद्धशब्दाच क्रियाविशेषणादत्र णिन् । यतः। किंभूते त्वयि। श्रेष्ठे श्रेयसि च। महापुरुषत्वेनातिप्रशस्यतम इत्यर्थः । तथा ज्येष्ठे ज्यायसि च । अत्यन्तं गुणैर्वृद्धतम इत्यर्थः । ततश्च श्रोतुर्मदीयोक्लेशानाकर्णयतः सतस्ते तव महापुरुषत्वेन परदुःखदुःखितत्वाद्दुःखवेगाः कष्टसंभाराः सन्तु । कीदृशाः । द्वयोर्मध्येतिबाढाः साधीयांसो बहूनां मध्येतिबाढाः साधिष्ठास्तथा बहूनां मध्येत्यन्तिका नेदिष्ठा द्वयोरत्य॑न्तिका नेदीयांसः। विशेषणकर्मधारये ते तथा । अतिगाढतमा अतिनिकटतमाश्चेत्यर्थः ॥ शालिनी छन्दः । प्रेम नेदयति साधयितोक्तेः प्रापयन्सवरिमेह गरीयान् । त्वां त्रपिष्टमहमत्रपिमाणं - ही करोम्यगरिमा त्रपयन्ती ॥ ५३ ॥ ५३. गरीयान्द्वयोर्मध्येत्यन्तं गुरुत्वयुक्त उक्तेर्वचसः साधयिता वाढमाख्याता । अत्रापि क्रियाविशेषणादाढाणिज् । अत्यन्तं वक्ता पुमा१ बी श्रोतः स २ बी तोक्ते प्रा. १ सी 'नवहं. २५ °चक्ष । त'. ३ बी क्षेत । त'. ४ बी त्वावृद. ५ बी माषक्षे. ६ सी याया वि'.. ७ सी 'णादिति णि, ८ सी तमेत्य'. ९ एपिष्टा व. १० सी सन्तका. ११ सीख्या । . Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४.३४. ] विंशः सर्गः । ६०३ निह जगति प्रेम प्रियभावं प्रीतिं नेदयत्यन्तिकं करोति । कीदृशम् । सह वरिम्णोरुत्वेन यत्तत्सवरिम महेत् । यतः । कीदृशः । प्रापयन्प्रियमाचक्षाणः । यो हि गरीयान्वक्ता स्यात्स सुखदोक्तिभिर्जगतो महतीं प्रीतिं निकटीकरोतीत्यर्थः । अहं त्वगरिमा स्त्रीत्वेन गुरुत्वरहितात्रपिमाणं त्रपिम्णा दुःखेन रहितं त्वां ही खेदे त्रपिष्ठं महापुरुषत्वेन दर्पणवन्निर्मले त्वचित् खदुःखसंक्रमणेनातिदुःखिनं करोमि । यतस्त्रपयन्ती नृपं (तृप्रं ?) स्वदुःखमाचक्षाणा || स्वागता छन्दः ॥ दुःखभणनेन सननैजनस्य दुःखकारिणं स्वं प्रणिन्द्य दुःखहे - तूनाह । Ε आसीत्प्रेयान्मेतिवन्दिष्ठ वृन्दीयान्स्त्रीप्रेष्ठः स्फेष्टवंहिष्ठकान्तिः । स्फेयोद्राघिष्ठेक्षण श्रीरतिस्थे - योवर्षीयान्स्थेष्ठवर्षिष्ठबुद्ध्या ॥ ५४ ॥ ५४ हे अतिवृन्दिष्ठ महापुरुषत्वेनातिप्रशस्य मे मम प्रेयान्भर्ता - सीत् । कीदृं । स्फेष्ठातिस्थिरात्युपचिता बंहिष्ठातिबहुला कान्तिलेक्ष्म्याद्युत्कर्षजनिता दीप्तिर्यस्य सः । तथा स्फेयस्यत्युपचिता द्राघिष्ठातिदीर्घेक्षणश्रीर्यस्य सः । अतिरूपपात्रमित्यर्थः । तथां स्थेष्ठातिस्थिरा वर्षिष्ठा चातिवृद्धा या बुद्धिस्तया कृत्वातिस्थेयो वर्षीयान् स्थेया३ बी १ ए 'न्तिः । स्पेय' सी 'न्तिः । स्फाय २ सी 'तिस्थायो. 'यान्श्रेष्ठ'. सी 'यान्स्वेष्ठ'. १ बी 'रिनोरु". २ एत्। की', ३ बी 'न्वयास्यात्सुख. निर्म° ६ ए न्ती पृपं दु:. क् । स्पेष्ठा' सी 'कू । स्पष्टाति.., ही क्षे. ५ सी स्वं प्राणि.... : ९ ए "था श्रेष्ठा. ७. सी 'नस्य. १० या वेष्ठा. ४ बी ८ सी बी Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] नतिस्थिरप्रकृतियों वर्षीयानतिवृद्धस्तमप्यतिक्रान्तोत एव वृन्दीयानतिप्रशस्योत एव स्त्रीप्रेष्ठः स्त्रीणामतिप्रियः । शालिनी छन्दः ॥ द्राधीयोबहीयोवणिज्येगरिष्ठो लक्ष्मी सोस्थेमां स्थापयन्स्फापयंश्च । दध्यौ रात्रौ निहिमद्राधिमायां वर्षिम्णानातोपि त्रपीयान्कदाचित् ॥ ५५ ॥ ५५. स मैत्प्रियो वर्षिम्णा वार्धकैनानाप्तोपि युवापि त्रपीयान् बहुलक्ष्मीरक्षाचिन्तयातिदुःखी सन्कदाचिनिबंहिमद्राघिमायां बंहिम्नो बाहुल्यावाघिम्णो दीर्घत्वाच निष्क्रान्तायां शेषायामित्यर्थः । रात्रौ दध्यौ चिन्तितवान् । कीदृग् । द्राधीयांस्यतिदीर्घाणि बंहीयांसि चातिबहुलानि यानि वाणिज्यानि वणिकर्माणि व्यवहारास्तैः कृत्वा गरिष्ठोतिगुरुरत एवास्थेमां स्थेम्ना स्थैर्येण रहितां स्वभावेन चपलामपीत्यर्थः । लक्ष्मी स्थापयन् स्थिरां कुर्वन्स्फॉर्पयंश्वोपचितीकुर्वश्च ॥ वैश्वदेवी छन्दः ॥ यद्दध्यौ तदाह । बंहयेच्च गरयेत्प्रिययेद्वा योर्थमक्षमसलोभनृपोाम् । द्राघयेत्स वरयेत्स्थिरयेच्चानर्थमेकमवरिष्ठमनीष(षः) ॥ ५६ ।। 53 १बी स्थेम्नां स्था'. २ बो यन्स्थाप'. ३ ए °येच्चा'. ४ सी 'येद्वान'. ५ सी मविरि'. ६ ए नीयः । अ. बी नीपुः । अ. १ए ति ये व. २ बी मम प्रियो. ३ बी प्लोसि यु. ४ सी सन निर्द'. ५ बी °घिम्नो दी. ६ बी दधौ चि. ७ सी °नि वा. ८ ए सी 'नि वाणि.. ९-बी सीत्वातिगः १. ए रुतर ए. सी रुतरं त ए. ११ बीस्थेम्नां स्थे. १२ ए पयांश्चों. १३ बी बीश्छन्दः. १४ सी तदेवाह. Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.४.३४.] विंशः सर्गः। ५६. अक्षमः पालयितुमशक्तः सलोभश्च लुब्धो यो नृपस्तस्य योर्वी तस्यां यो नरोथ द्रव्यं बहुव्यवहारादिभिबहयेच बहुलं कुर्यागरयेच्च विस्तारयेत्प्रिययेद्वा प्रियं कुर्याच्च । स चौरादिभि[ नूपेण वार्थस्यापहरणादेकं केवलमन) द्रव्याभावं कष्टं वा द्राघयेही/कुर्याद्वरयेदुरूकुर्यात्स्थिरयेच्च । कीटक्सन् । अवरिष्ठात्यन्तमनुरुरमहत्तमा मनीषा यस्य सः । निर्बुद्धिरित्यर्थः ॥ स्वागता ।। खानि वर्षयितुमेषु वृन्दयन् राट्वन्दिमसु वीक्ष आत्मनः । आपदं शिमदां वरीयसीमक्रशिष्ठविभवाशीयसः॥५७॥ ५७. स्वानि द्रव्याणि वर्षयितुं वर्धयितुं वृन्दयन्वृन्दारकं प्रकृष्टं कुर्वन्नादात्मानम् । अनेकव्यवहारैः प्रकर्षण द्रव्याणि वर्धयन्सनित्यर्थः । अहमात्मनः स्वस्य कैशिमदां कृशत्वदायिकां दारिद्यदामित्यर्थः । वरियसीमतिमहतीमापदं सर्वस्वापहाररूपां वीक्षे संभावयामि । क । एषु राट्सु सामीप्यके सप्तमीयम् । यद्देशेधुनोष्यते तेषां मनःस्थत्वेन प्रत्यक्षाणां नृपाणां समीप इत्यर्थः । यतोवृन्दिमसु वृन्दिम्ना प्रशस्यत्वेन रहितेष्वसामर्थ्यलोभातिरेकादिना निकृष्टेष्वित्यर्थः । आत्मनश्च कीदृशस्य । अशिष्ठोकृशतमो महत्तमो यो वि. भवो द्रव्यं तेनाक्रशीयसो महत्तमस्य ॥ रथोद्धता ॥ उष्ट्रान्भ्रंशिष्ठान्भ्रशयन्भ्रंशीया व्रथान्प्रथिष्ठान्प्रथयन्प्रथीयान् । १ ए °षु छन्द'. २ बी मनुवीक्ष्य आ'. ३ ए °सु दीक्ष. ४ ए सिम. ५ बी क्रसीय'. ६ बी न्भ्रसिष्ठा'. ७ बी न्भ्रसीया. १ सी रोव्यं. २ए 'दि नि. ३ बी कमिशदां. ४ ए पदां स. ५ बी वीक्ष्ये सं. ६बी 'शेधनों. ७एमीपेत्य : ८ए °स्य । उ. *धनुचिह्नान्तर्गतो ग्रन्थः सी पुस्तके नास्ति । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] षान्त्रंढिष्ठान्वढयन्त्रढीया न्सुराज्ञि देशेत्र ततः स आगात् ॥ ५८ ॥ ५८. ततः स्वस्य महापत्संभावनाकरणानन्तरं स मत्प्रेियः सुराक्यत्र देशे गूर्जर]त्रायामागात् । कीहक्सन् । भ्रशिष्ठानतिभृशानुष्यान्भ्रशयञ् शीघ्रान्कुर्वन्यतो भ्रशीयानत्युत्सुकस्तथातिपृथूत्रथान्प्रथयनतिबहुत्वेन सर्वपथीनान्कुर्वन्यतः प्रथीयान्महातिपृथुस्तथातिवृढान्सोद्यमान्वृषान्सोद्यमीकुर्वन्यतोतिसोद्यमः ॥ उपजाति(तिः)॥ स मां प्रदिष्ठां बृदयन्प्रदीया ल्ल(ल्लँ)क्ष्मी द्रढिष्ठां द्रढयन्द्रढीयान् । परिबढीयान्सुपरिवढिम्ना सहानयत्सबढिमभ्रशिना ॥५९ ॥ ५९. स मत्पतिम्रदीयान्मनसा वाचातिमृदुंरत एव प्रदिष्ठामतिमृद्वी मां अदयन्मृद्वाचक्षाणः सन्नत्र देशे सहानयत् । केन हेतुना । सह बढिन उद्यमस्य भ्रशिनातिशयेनास्ति यस्तेनोत्साहप्रकर्षान्वितेन सुपरिवढिम्ना सुप्रभुत्वेन । कीदृशः । द्रढीयानत्यन्तं बल्युपचितो वा । तथा द्रढिष्ठामत्युपचितां लक्ष्मी द्रढयन् वृद्धिरक्षादिना बलिष्ठामुपचितां वो कुर्वन्नत एवं परिवढीयानतिपरिवृढोनेकजनस्वामी ॥ १बी बढ'. २ बी सुसुरा. ३ए थे त'. ४ सी सम प्र. ५ सी यन्मदीयालक्ष्मी. ६ ए ना ॥ समत्प. १ बीतः म १ ए नाकार'. ३ बी "प्रिया सु. ४ सीति अशा. ५ बी मान्कु. ६ ए तोपिसो'. ७ए "मः । स सांप्र. ८बी तिर्मुदी', सी तिर्मदी .९.ए दुतर.ए. १० सी मति - २५ बी सी प्रमो. १२ सी वानकु. १३ सी एवातिप. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.५४.३४) विशः सर्गः। स परिव्रढयन्परिवढिष्ठं सद्रढिमम्रदिमानमत्र भूपम् । विभवप्रथिमापहारशङ्कां क्रशयन्भूयिष्ठादभूय[य]त्स्वम् ॥६०।। ६०. स मत्पतिः स्खं धनं भूयिष्टादतिवहोरपि स्वात्सकाशादभूययदनेकवणिज्यैर्बहूचक्रे । यतो विभवप्रथिमापहारशङ्कां क्रशयन्शीकुर्वन् । मुञ्चन्नित्यर्थः । एतदपि कुत इत्याह । यतोत्र देशे नृपं परिवढयन्वास्तव्यीभवनेन प्रभूकुर्वन् । किंभूतम् । सद्रढिमम्रदिमानं द्रढिना प्रजारक्षासामर्थेन म्रदिना च निर्लोभत्वोत्थेन सदयहृदयत्वेन सहितमत एव परिवढिष्ठमुत्कृष्टप्रभुम् ॥ औपच्छन्दसकम् ॥ बहयन्वधर्म वसु भावयंश्च स्थवयन्विलासान्सुखभूम्नि मनः । कुधियां दविष्ठो विपदां दवीयान् स निनाय भूयः समयं यवीयान् ॥ ६१ ॥ ६१. यवीयानतियुवा स मत्पतिर्भूयःसमयमतिबहुकालं निनायातिचक्राम । कीदृक्सन् । कुधियां मूर्खाणां कुत्सितानां बुद्धीनां वा दविष्ठोतिदूरोत एव विपदों दवीयानतिदूरोत एव स्वधर्म वहयन्बहूकुर्वस्तथा वसु द्रव्यं भावयंश्च बहूकुर्वश्च । तथा विलासा शृङ्गारचेष्टाविशेषान्यवयन्नुपचितीकुर्वन् । यथावसरं धर्मार्थकामान्सेवमान इत्यर्थः । अत एव च सुखभूग्नि सुखबाहुल्ये मनः ॥ केकिरवं छन्दः ॥ १ बी मित्रहिमा. २ ए प्रतिमा. बी प्रथमा .. ३ सी ययि'. . .१ सी ढिमा प्र. २ सी रिवृद्धमु.. ३ बी क ॥ . ४ ए दां पद'. ५५.सी. कुर्वस्त...६ बीन्सनु... ७. ए मानासेव'. . ८ सीखवा'. ९बील्येन म. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] अस्थवीय इह सोस्थविष्टधीः क्षोदयद्यवयदन्ययौवतम् । क्षेपयच्च दवयनजीजनत्योपमं मयि यविष्ठ आत्मजम् ॥६२॥ ६२. स यविष्ठोतियुवा मत्पतिरिह देशे वसन् स्वोपममात्मतुल्यमात्मजं मय्यजीजनन् । कीदृक्सन् । अस्थविष्ठधीरस्थूलबुद्धिः । दीर्घदर्शीत्यर्थः । अत एवान्ययौवतं दवयन्दूरीकुर्वन् । परदारसङ्गं वर्जयन्नित्यर्थः । कीदृशम् । अस्थवीयः कृशाङ्गम् । रूपपात्रमित्यर्थः । तथा क्षोदयद्यवयत्क्षेपयञ्चासतीत्वेन क्षुद्रान्नटविटादीन्यूनस्तरुणान्क्षिप्रांश्च सोद्यमानाचक्षाणम् ॥ रथोद्धता ॥ अक्षोदीयानहसिष्ठहर्षो विदधे क्षेपीयो महोत्सवं सः। इसिमक्षोदिमशातनं इसीयःक्षोदिष्ठानामप्यथार्थदानैः ६३ ६३. अथ पुत्रजन्मानन्तरं स मत्पतिः क्षेपीयोतिक्षिप्रं महोत्सवं विदघे । कीदृशम् । हसीयःक्षोदिष्ठानामपि हसीयांसोतिहस्वा इ(अ)तिलघवोतिदरिद्रा इत्यर्थः । तथा क्षोदिष्ठा अतिक्षुद्रा अतिनृशंसा व्याधादयो द्वन्द्वे तेषामपि । आसतां ह्रस्वमात्राः क्षुद्रमात्राश्चेत्यप्यर्थः । अर्थदानै सिमक्षोदिमशातनं द्रव्यम्यातिबहोर्दानादतिदरिद्राणामप्यतिनृशंसानामपि च दरिद्रत्वनृशंसत्वयोर्विनाशकमित्यर्थः । यतः । कीदृक्सः । क्षुद्रो दरिद्रः कृपणश्चात्यन्तं क्षुद्रः क्षोदीयान्न तथा । ईश्वर उदारश्चेत्यर्थः । तथाहसिष्ठहर्षो गुरुतमानन्दः ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका ॥ स्थूलयामि युवयामि शिशुं क्षेपिष्ठमित्यहसिताशयवृत्तिः । क्षेपिमोपनतसत्पयसिष्ठत्वाभ्यदूरयमहं न हि पुत्रम् ॥ ६४ ॥ १एम हि. १ सी "त्मजमजी'. २५ बुद्धिदी'. सी 'बुद्धिरदी'. ३ बी वक्षेप. ४ सीनतट'.. ५ बी सी स्वाति'. ६५ °ति द. ७बी वर्षः. Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४.३४.] विंशः सर्गः । ६०९ ६४. अहं पुत्रं न हि नैवाभ्यदूर्रयम् । सदा स्वसमीपस्थमकार्ष - मित्यर्थः । कीदृक्सती । क्षेपिष्टमतिक्षिप्रं यथा स्यादेवं शिशुं स्थूलयामि स्थूलं करोमि । तथा युवयामि युवानं करोमि । इत्येवंप्रकारेणाहसिता स्नेहातिरेकादह्रस्वीकृता विपुलीकृताशयवृत्तिर्मनोरथो यया सा । तथा प्रकृष्टा पयस्विनी पयसिष्टा तस्या भावः पयसिष्ठत्वम् । क्षेपिम्णा क्षिप्रतयोपनतं स्वयं ढौकितं सन्नीरोगत्व पुष्टिकृत्त्वा दिना शोभनं पयसिष्ठत्वं यस्याः सा । अतिस्नेहात्स्वयं प्रस्तुतं प्रचुरचारुस्तनेत्यर्थः E : । स्वागता ॥ सुतं करिष्ठं करयन्त्यवर्धयं करीयसी स्वं पयसी [यसी] स्वयम् । पतिं वसिष्ठं वसयन्त्यहं कदा प्यानाययं न ह्यपराः पयीयसीः ॥ ६५ ॥ 93 १४ ६५. अहं सुतं स्तन्यपानादिनावर्धयम् । कीदृशी । कर्ता जनको स्त्यस्याः कर्तृमती प्रकृष्टा कर्तृमती करीयसी । प्रशस्य पितृवंशेत्यर्थः यद्वा । प्रकृष्टा कर्त्री जनयित्री करीयसी । तथा प्रकृष्टं कर्तृमन्तं करिष्ठं प्रशस्यजनक वन्तं स्वमात्मीयं सुतं करयन्ती कर्तुमन्तं विद्यमानप्रशस्यजनकमाचक्षाणा । यद्वा । प्रकृष्टं कर्तारमव्यक्तालापरिङ्खणादिबोले १६ १ एसी स्व. १ ए रम्. ५ सी 'रेण ह . ९ सी 'ष्टिकत्त्वा". १२८ रुभूलेत्य. करी • २ बी 'एमितिक्षिप्रं य स्या. ३ सी शुं कं. ६सी पिप्र. ७ बी सी पनंतं. ८ १० बी प्रस्थत'. सी प्र ं वस. ११ १३ ए 'कोस्तस्था क. सी को तस्याः. १५ सी कत्री क. १६ ए रिवणा". १७ बी लकौचि. 23 ४ए स्थूलं. सी सनीरो . तथस्तु . १४ सी ती Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] कोचितक्रियाणां विधातारं करिष्ठ स्वं सुतं करयन्ती कंर्तारमाचक्षाणा तत्तदनुकूलाचरणेन कर्तारं कुर्वाणा वा । यद्वा । करिष्ठं प्रकृष्टं जनकवन्तं कर्तारं वा पुत्रस्य जनयितारं स्वमात्मानं करयन्ती कर्तृमन्तं कर्तारं वाचक्षाणा । न हि न पुनरपरा अन्याः पयीयसीरतिपयस्विनीः पुत्रस्तन्यपानार्थं कदाप्यानाययम् । कीदृक्सती । वसिष्ठमत्यन्तं वसुमन्तमतिद्रव्यात्यं पतिं भर्तारं वसयन्ती वसुमन्तमाचक्षाणा । ईश्वरोयं बहुद्रव्यं वो दास्यतीति पुत्रस्य स्तन्यपानाय स्वपतिमत्याढ्यं भणन्तीत्यर्थः । यतः स्वयमेव पयसीयस्यतिपयस्विनी । वंशस्थेन्द्रवंशयोरुपजातिः ॥ ६१० ६६. स तु स पुनर्बालको जनैर्भृशमतर्कि । कथमित्याह । एव बालको वसीयानतिवसुमान्सन्प्रपाश्चक्रे । पूर्वभवे कारयदित्यर्थः । कीदृशीः । पयिष्ठवसंविष्ठशुभाः पयिष्ठाः शीतल सुरभि सुस्वादुज़लपूर्णघटत्वादतिशयेन पयस्विन्यो वसंविष्टाश्च विशिष्टोपभोग्यगवाक्षीपवनपुष्पफलशीतलच्छाया दिमहर्द्धिकत्वेनातिवसुमत्यो याः शुभा म १ सन् २ ए 'यशश्च. ३ एसय. २ सी 'णा । न हि . स्नेहेन मां पयसंयन् वसवीयसव पुत्रो भवन्स तु जनैर्भृशमित्यतर्कि । एष प्रपा वसैवयत्पययज्जनानां चक्रे पयिष्ठवसविष्ठशुभा वसीयान् ॥ ६६ ॥ १ एवं स्वसु. ५ सी पयीय. 'स्यति. डा वशि. ९ प. ३ वी कृष्ट'. ४ बी सी ७स यिष्ठ. ८ सी सि ११ ए याम. ६ ए मान्प्र° सी १० बी सी 'तच्छा, Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.-७. ४. ३८.] विंशः सर्गः। नोज्ञास्ताः । केषां कृते । वसवयत्पययजनानां वसवयन्तः पययन्तश्च वसुमतीः पयस्विनीश्चाचक्षाणा ये जनास्तेषाम् । गवाक्षादिभिर्महर्द्धिकाः सुपयःपूर्णाश्च प्रपाः क सन्तीत्युपभोगेच्छया वदतां लोकानां निमित्तमित्यर्थः । कुत एवं वितर्क इत्याह । यतः स्नेहेन मां पयसैयन्पयस्विनी कुर्वस्तथा वैसवीयसो महेभ्यस्य पुत्रश्च भवन् । श्रयामि । श्रेष्ठे । श्रेयसि । इत्यत्र "प्रशस्थस्य श्रः" [३४] इति अंः ॥ ज्ययामि । ज्येष्ठे । अत्र "वृद्धस्य च ज्यः" [३५] इति ज्यः ॥ प्रशस्वस्य तु ज्यादेशोदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ ज्यायसि । इति "ज्यायान्" [३६] इति निपात्यम् ॥ साधयिता । साधिष्ठ । साधीयः । नेदयति । नेदिष्टः(छ) । नेदीयांसः । अत्र "बाढ" [३०] इत्यादिना साधनेदौ ॥ प्रिय । प्रेम । प्रापयन् । प्रेष्ठः । प्रेयान् । स्थिरै । अस्थेमाम् । स्थापयन् । स्थेष्ठ । स्येयः ॥ स्फिर ॥ स्फापर्यन् । स्फेष्ट । स्फेयः॥ उरु । वरिम । वरयेत् । वरिष्ठ । वरीयसीम् ॥ गुरु । गरिमा । गरयेत् । गरिष्ठः । गरीयान् ॥ बहल । बंहिम । बंहयेत् । बहिष्ट । बंहीयः ॥ तृप्र । त्रपिमाणम् । त्रपयन्ती । पि. ठम् । पीयान् ॥ दीर्घ । द्राधिमायाम् । दापयेत् । दाघिष्ठ । द्राधीयः ॥ वृद्ध । वर्षिग्णा । वर्षयितुम् । वर्षिष्ठ । वर्षीयान् ॥ वृन्दारक । वृन्दिमसु । वृन्दयन् । १६ १ए सय'. २ सी न्तश्च. ३ बी सी 'यश्विनी. ४ एन मा प. ५ सी ससन्प. ६ ए सी वसीय. ७ बी भ्यश्च पु. ८ सी त्रस्य भ'. ९ बी 'स्य श्रः. १० ए बी श्रः ॥ जाया. ११ ए बी पिष्टः । सा. १२ बी 'न् । स्पष्टः । प्रे. १३ बी स्थिरः । अं. १४ ए सी स्थेष्टः -। स्थे. १५ सी 'न् । स्पष्टः । स्फे. १६ ए रिम 1 ग. १७ ए बंहीए. १८ सी °घिटः । दा. १० बी सी रकः । १. Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाला वृन्दिष्छ । वृन्दीवान् । अत्र "प्रियस्थिर" [३८] इत्यादिना प्रादय भादेशाः। कश्चित्त करोत्यर्थे णौ प्राद्यादेशानेच्छति । तन्मते प्रिययेत् । स्थिरयेत् । प्रथिम । प्रथयन् । प्रथिष्टान् । प्रथीयान् ॥ म्रदिमानम् । म्रदयन् । म्रदिष्ठाम् । म्रदीयान् ॥ भ्रशिना । भ्रशयन् । भ्रशिष्टान् । भ्रशीयान् ॥ ऋशिम । ऋशयन् । ऋशिष्ट । ऋशीयसः ॥ दृढिम । द्रढयन् । दढिष्ठाम् । द्रढीयान् ॥ परिवढिम्ना । परिवढयन् । परिवढिष्ठम् । परिवढीयान् । अत्र "पृथुमृदु." [३९] इत्यादिना तो रः ॥ केचित्तु वृढशब्दस्यापीच्छन्ति । बढिम । वढयन् । बढिष्टान् । बढीयान् ॥ अभूययत् । भूयिष्टात् । इत्यत्र "बहोणोठे भूर" [४०] इति भूय् ॥ गौ केचिद्विकल्पमाहुः । अभूययत् । बहयन् ॥ बहोणों भाविति कश्चित् । भावयन् ॥ भूयः । भूग्नि । इत्यत्र “भूर०" [1] इत्यादिना भू इत्यादेश इयसिमनोश्वेवर्णस्य लुक् ॥ स्थवयन् । स्वविष्ठ । स्थवीयः ॥ दवयन् । दविष्टः । दवीयान् ॥ यवयत् । यविष्टः । यवीयान् ॥ इसिम । इसिता । हसिष्ठ । इसीयः ॥ क्षेपिम । क्षेपयत् । शेपिष्टम् । क्षेपीयः ॥ क्षोदिम । क्षोदयत् । क्षोदिष्टानाम् । सोदीयान् । भत्र "स्थूलदूर०" [ ४२] इत्यादिनान्तस्थादेरवयवस्य लुनामिनश्च गुणः ॥ a १ वी सी देशं नेच्छ'. २ सी “न् । प्र. ३ ए प्रतिष्ठा. ४ सी क्रशम. ५ ए 'शिन । क्र. ६ वी सी कसीय. ७ एवढी'. ८ ए नित्य. ९ सी बहों. १० एन् । वाहोगी. ११ बी भूत इ. १२ सी स्वयय'. १३ सी स्थवी. १४ ए 'विष्टः । स्व. १५ ए सिता. १६ बी सित । ह.सी 'सि । ह. १७ सी ‘मपिछ । क्षे. १८ ए पीय । क्षो. १९ए बी 'दिमः । क्षो. २० सी ‘म् । अ'. २१ ए दिनां सा. Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.५.४.४४.] विंशः सर्गः। केचिरस्थूलदूरयूनां करोत्य] गौ नेच्छन्ति । स्थूलयामि । अभ्यदूरयम् । युवयामि । करयन्ती । करिष्ठम् । करीयसी ॥ पययत् । पयिष्ठ । पयीयसोः ॥ वस. यन्ती । वसिष्ठम् । वसीयान् । अत्र "त्रन्त." [ ४३ ] इत्यादिना तृप्रत्ययान्तस्यान्त्यस्वरादेवावयवस्य लुक् ॥ विन्मतोलृप्यनेकम्बरस्यान्त्यस्वरादेलुषं (कं ?) विकल्पेनेच्छन्त्यके । लुंगभावपक्षे णौ गुणं चेच्छन्ति । पययत् । पयसयन् । पयिष्ठ । पयसिष्टत्वा । पयीयसीः । पयसीयसी ॥ वसयन्ती। वसवयत् । वसिष्ठम् । वसविष्ट । वसीयान् । वसवीयसः ॥ वसन्ततिलका छन्दः ॥ मां लपंन्सजयितासंजीयसीमस्रजिष्ठपितरं च सुसितैः । दाण्डिनायन उ हास्तिनोयनो वाशिनायनिरुतेत्यलक्षि सः६७ ६७. उ हे महारुष स बालकः सौभाग्यादिगुणैः शुद्धब्राह्मणवंशजातत्वेन चालक्षि लोकरशति । कथमित्याह । किमयं दण्डिनो हस्तिनो वॉशिनो वर्षेरपत्यं बालक इति । कीदृशः । लपन्नव्यक्तमधुरं भाषमाणः सन् सुस्मितैः कृत्वास्रजीयसीमस्रग्विणीं मामस्रजिष्ठपितरं चास्रग्विणं जनकं च स्रजयिता संग्विणं कर्ता ॥ लजयिता । नजिष्ठ । स्त्रजीयसीम् । अत्र "नैकस्वरस्य" [१४] इत्यन्त्यस्वरादेनं लुक् ॥ ४ ए दा. १बी पन्सज'. २ बी स्रजयीय . ३ बी तैः । टांडना'. ण्डना'. ५ बी नायुतो वासिना'. ६ ए यनैरु'. १ए मि । वार'. २ ए बी यत्. ३ ए °यिष्ठः । प'. ४ सी वशिष्ठ'. ५ ए सिष्ठः । व. ६ एत्र त्रेत्या. बीत्र वं त्या'. ७ बी लुक् भा. ८सी 'यसीः । व. ९सी वशिष्ठ'. १० सी विष्टः । व. ११एन्दः । मा ल. ११ सी वासिनो. . १३ ए णी नाम'. . १४ सी नजि'. Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] दाण्डिनायनः । हास्तिनायनः । अत्र " दण्डि० " [ ४५ ] इत्यादिनाम्य स्वरादेर्लुम ॥ वाशिनाय निः ः । अत्र "वाशिन आयनौ” [ ४६ ] इत्यन्त्यस्वरादेर्न लुक् ॥ रथोद्धता ॥ ६१४ जैह्मांशिनेयान्निगमाध्वनीना त्सामन्यकाथर्वणिकात्स विद्याम् । प्रापात्मनीनादथ सौत्वनाच्चा दौरात्म्यसौवनिकां तनूजाम् ॥ ६८ ॥ ६८. स पुत्रो जैह्माशिनेयाज्जिह्माशिनो ब्राह्मणस्यापत्यात्सकाशाद्विद्यां प्राप । किंभूतात् । अज्ञातः सामनि सामवेदे सान्त्वने वा. साधुः सामन्यको य आधर्वणिकोथर्ववेदज्ञस्तस्मात्तथा निगमेषु वेदे - ष्वर्थादृग्यजुषोरध्वनीनोध्वानमलंगामी यस्तस्माच्चतुर्वेदीविद इत्यर्थः । तथात्मनीनाद्धार्मिकत्वेनात्मने हितात् । अथ विद्याप्रास्त्यनन्वरमात्मनीनात्सौत्वनाच्च सुत्वनो याज्ञिकस्यापत्यात्सकाशात्तनूजां पुत्रिकां प्राप । किंभूताम् । अविद्यमानं दौरात्म्यं कुरूपत्वनिर्गुणत्वादिना दुष्टं स्वरूपं यस्याः सौदौरात्म्या या सद्यौवनिका शोभनयौबना ताम् ॥ 'जैह्माशिनेयात् । इत्यत्र “एवे० " [ ४७ ] इत्यादिनान्त्यस्वरादेर्लुन ॥ • १ बी झासिने सी 'ह्माशने. २ ए 'चौधनि. १ सिन आयिनौ. दिनां स्व. २ सी वासिना. ५ सी 'झाशने. ६ ए ९ ए बी सामान्य'. १३ सी इत्यैये. ८ बी वेदसा: भदौ १२ सी 'झाशने. ३ ए 'नायिन । अ. ४ सी वा'शिनया'. ७ बी 'नेवाजिह्मा'. १० सी दुष्टस्व. ११ बी सा Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है ० ७.४. विंशः सर्गः । ६१५ अध्वनीनात् । आत्मनीनात् । अत्र “ईनेध्वात्मनोः " [४८] इति न लुके ॥ आथर्वणिकात् । अत्रै "इकणि० " [ ४९ ] इत्यादिना न लुक् ॥ 1 ५५. ] यौवनिकाम् । अत्र “यूनोके" [ ५० ] इति न लुक् ॥ सामन्य । इत्यत्र “अनोव्ये ये” [ ५१] इति लुग्नं ॥ अन्य इति किम् । दौरात्म्य ॥ सौत्वनात् । इत्यत्र “अणि " [ ५२ ] इति लुप्झ ॥ इन्द्रवज्रा ॥ शांङ्खिनगाथिनवैदथिनाद्यैः कैशिनपाणिनगाणिनमुख्यैः । गौणिनवादमदत्त स मैधावस्तनयो मम मम मुदं च ॥ ६९॥ मञ्जु ६९. मैधावो मेधाविनोपत्यं [स] मम तनयः शङ्खिनो गाथिनो विदथिनः केशिनः पा[प]णिनो गा[ग]णिनश्चापत्यैराचार्यैः सह गुणिनां पण्डितानामयं गौणिनो यो वादस्तमदत्तात्यन्तं सर्वशास्त्रवेत्तृत्वादने - काचार्यैः सह पण्डितवादं चकारेत्यर्थः । तथा सर्वत्र जेतृत्वान्मम म मुदं चादत्त ॥ शाङ्खिन । इत्यत्र “संयोगादिनः " [ ५३ ] इति लुग्न । संयोगादिति किम् | मैधावः ॥ 93 १४ थिन । वैदथिन । कैशिन । पाणिन । गाणिन । इत्यत्र "गाथि० " [ ५४ ] इत्यादिना लुग्न ॥ 13 १६ गौणिन । इत्यत्र " अनपत्ये " [ ५४ ] इति लुग्न ॥ अनपत्य इति किम् । मैः ॥ दोधकवृत्तं छन्दः ॥ १ ए शान्तिन. २ बी 'चै: कौशि'. १ बी नीत्. २ ए ध्वानोः ३ सी कू । अथ ं. ४ एत्रक. ५ बी "ना लु. ६ सी यूनेके. ७ एन । ३. ८ ए यः शाङ्खि. ९ ए यं गोणि ं. १० ए 'ण्डितं च . ११ बी त्र जैतृ. १२ सी धाव | गा° ३१ ए 'दयिनः । कै. १४ ए न । गणि'. २७ सी भावं । दो. १५ ए णित्य : . १६ ए म् । मेधा'. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] पालानिवौक्षान्प्रतिवादिनोजयदुर्जाह्मणान्ब्राह्मरहस्यवेद्यसौ । सौषामवद्राययुतोपि धीयुतोतिहैतनामो जितचाक्रवर्मणः ७० ७०. असौ मत्पुत्रः प्रतिवादिनो दुर्ब्राह्मणान्परिभवितुकामत्वेन दुष्टचित्तान्द्विजानौक्षानुक्ष्णां संवन्धिनः पालानिव पालकानिव गोपालानिवेत्यर्थः । अजयत् । कीदृक्सन । ब्रह्मण इयं ब्राह्मी प्रज्ञाहेतुरोषधिः प्रज्ञार्थं तस्या अभक्षणेन तयायुतोपि धीयुतः स्वाभाविकप्रज्ञया युक्त इत्यर्थः । अत एव सौषामवत्सुपानोपत्यं सौषाम ऋषिस्तद्वत् । ब्रह्मणः स्रष्टुरिदं ब्राह्मं यद्रहस्यमुपनिषच्छास्त्रं वेदग्रन्थस्तद्वेदी । अत एव चातिहैतनामो हितनाम्न ऋषेरपत्यं वेदवेदिनमतिक्रान्तस्तथा जिर्वचाक्रवर्मणः ॥ इन्द्रवंशावंशस्थयोरुपजातिः ।। स यशो जितहैतनामनस्तन्मधावो मेधाविरूप्यमापत् । कौथुमकालापपैठसर्पास्तैतलजाजललाङ्गलाच नो यत् ॥७१॥ ७१. मैधावो मेधाविनोपत्यं सं मत्पुत्रो जितहतनामनः सन्मेधाविरूप्यं मेधाविनां भूतपूर्व तद्यश आपत् । यद्यशो नापुः । के । कुथुमिना कलापिनी च प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा कौथुमौः कालापाश्च तथा पीठसर्पिण ऋषेरपत्यानि पैठसा द्वन्द्व ते तथा तैतली जाजली लाङ्गली चाचार्यास्तदुक्ता प्रन्या अप्युपचारात्तत्तच्छब्दैरुच्यन्ते । वानधीयते तैतलजाजललाङ्गलाश्च महावैदिकाः ॥ औपच्छन्दसकम् ॥ १बी'न् । ब्राझ. २ वी 'तुरौष. ३ बी ब्राहयं य. सी ब्राम य. ४ए तिहेतुनामो हैतनामं हि. ५ बीमो हैतनामं ऋतनाम्न. ६ सीतचक्र'. ७ए शास्य'. ८ सी सत्पु. ९बी पुत्रौ जि. १० ए रूपं में. ११ सी ना वा प्रो. १२ बी माः कला. १३ बी न्दे त°. १४ ए ते तैतळ. १५ सी ततिली. १६ बी ली जांज'. १७ सी चार्या'. १८ सी न्या उप. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.४.६१.] विंशः सर्गः । सौपर्वयुक्सौकरस शिष्यशैलालशैखण्डजितस्तुतोष । साब्रह्मचारोस्य जनो गुणेनाश्मोपि द्रवेत्कीदृगनाश्मनो यः॥७२॥ ७२. अस्य मत्पुत्रस्य सब्रह्मचारिणामयं साब्रह्मचारो जनः सहाध्यायिलोको गुणेन महाविद्वत्तादिना तुतोष । किंभूतस्य । सुपर्वणोपत्यं सौपर्वस्तेन युजो युक्ता ये सौकरसद्मशिष्यशैलालशैखण्डजितः । सूकरसद्मापत्यस्य च्छात्रश्च शिलालिशिखण्डिनोरपत्ये च तान्वैदिकद्विजाजयति यस्तस्य । यद्वा किमत्र चित्रं यदस्य गुणेन साब्रह्मचारो जनस्तुतोष । यतो गुणेन कृत्वाश्मोप्यश्मविकारवदतिकठिनहृदयः खलादिरपीत्यर्थः । द्रवेदाहृदयी स्याद्यस्त्वनाश्मनो नाश्मविकारतुल्यः स्नेहाईचित्तः सजनमित्रादिः स कीहक्सनितरां द्रुत एचेत्यर्थः ।। औक्षान् । इत्यत्र “उक्ष्णो लुक्" [५६] इत्यन्त्यस्वरादेर्लुक् ॥ ब्राह्म । इत्यत्र “ब्रह्मणः" [५७ ] इति लुक् ॥ ब्राह्मी । इत्यत्र "जातो" [५८ ] इति लुक् ॥ पूर्वेण सिद्धे जातावनपत्य एवेति नियमाथं वचनम् । तेनोत्तरसूत्रेणापत्ये लुग्न। ब्रह्मणोपत्यानि ब्राह्मणान् ॥ सो(सौ)षाम । इत्यत्र "अवर्मणो नो(मनो)पत्ये" [५९] इति लुक् । अवर्मण इति किम् । चाक्रवर्मणः ॥ हैतनामः हैतनामनः । अत्र “हितनाम्नो वा" [ ६० ] इति वा लुक् । मैधावः । अत्र "नोपदस्य" [६१ ] इत्यादिना लुक् ॥ अपद इति किम् । मेधाविरूप्यम् ॥ १ए°ष । सत्र. २ ए नाश्वानो. सी नास्सनेय ॥ अ. १बी स्य ब्र. २ बी रिण्याम'. ३ सी द्वादः कि. ४ सी यी साध्यस्त्वनारमना ना. ५ बी त्रादि स. ६ए दिः की. सीक। अवर्मण इति कि.८ एत्य इति लुक्. ९बी सी धाव । अ. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ व्याश्रयमहाकाव्ये {कुमारपाल: कालाप । कौथुम । तैतलजाललाङ्गलाः । शैखण्ड । शैलाल। साब्रह्मचारः । पैठसर्प । सौकरसद्म । सौपर्व । इत्यत्र "कलापि०" [६२] इत्यादिना लुक् ॥ आश्मः । अनाश्मनः। अत्र "वाश्मनो विकारे" [६३] इति लुक् ॥ इन्द्रवज्रा ॥ स चार्मकोशस्थगितास्यबाह्योतिशीवसंकोच इहानहंयुः। गुरोरपार्थक्य इवांहिमूलादाह्र निनाय यहवद् व्यहीनः ७३ ७३. यथा व्यहीनो द्वाभ्यामहोभ्यामधीष्टो भूतो वा व्यहं द्वयोरहोः समाहारं नयति तथा स मत्पुत्र ऑर्ह "श्वादिभ्यो" [६.२.२६] इत्यर्जि अह्नां समूहं निनायात्यवाहयत् । कीडक्सन् । चार्मश्चर्मणो विकारो यः कोशः प्रत्याकारस्तेन स्थगितो योसिस्तद्वदबाह्योबहिर्भूतो गुरुहृदयमध्यस्थः । कुत ईदृगित्याह । यतो गुरोर्मातापित्रादेः पूज्यस्यांहिमूलादपार्थक्य इवापृथग्भूत इव । ईगपि कुत इत्याह । यत इह गुरोरहिमूले शुनोयं शौवो यः संकोचः शीतादिना संकुचनं तमतिक्रान्तो विनीततमत्वेन नतसंलीनाङ्गत्वादतिसंकुचित इत्यर्थः । ईदृशोपि कुत इत्याह । यतोनहंयुर्विद्याद्यवलेपरहितः । विनयोत्कर्षण गुरूनावर्जयन्प्रभूतानि दिनानि दिनद्वयवत्सुखेनातिचक्रामेत्यर्थः ॥ चार्मकोश । शौवसंकोचः । अत्र " चर्म० " [६४] इत्यादिनान्यस्वरादेखें । १५ रोपा. १ ए जलाला.. २ सी गल शैला'. ३ ए खण्डः । शैं. ४ ए महाभ्या'. ५ बी सी हं स्वादि. ६ सी "नि आह्नां. ७ ए शुनेयं. ८ सी यं शोवाय सं. ९ए नि निदन . १० सी कोच । . Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है. ७.४.६७.] विंशः सर्गः। बाह्यः । अत्र "प्रायोव्ययस्य" [ ६५ ] इति लुक् ॥ प्रायोग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् । तेनेह न स्यात् । अपार्थक्यः ॥ पदस्येत्येव । अनहंयुः ॥ आह्नम् । अत्र "अनीन."[६६ ] इत्यादिनाह्वोतो लुक् ॥ अनीना[द]टीति किम् । द्यहीनः । “रात्र्यह" [ ६. १. ११० ] इत्यादिनेनः ॥ यह । “द्वि. गोरबोट्" [७. ३. ९९] इत्यत् ॥ अति(टि!)। अन्वहमित्यादिप्रत्युदाहरणं स्वयं ज्ञेयम् ॥ उपजातिः॥ विशेष वर्षेस्य पिता विपन्नः शुक्काद्रवेय्येष सुतोपि दष्टः । सांकृत्यदौलेयसदाक्षिचौडिकामण्डलेयः प्रतिबोधितोपि ॥७४॥ ७४. स्पष्टः । किं तु शुक्काद्रवेय्या शोकसर्पिण्या सुतोपि दष्टोतिशोकातुरोभूदित्यर्थः । सांकृत्यादयो मुनयः ॥ इन्द्रवत्रा ।। ययावभाग्यैर्मम पाण्डवेयजाम्बयबाभ्रव्यनिभोथ घाम । स्वायम्भुवं शाबरर्जम्बुकं नु स मातृकस्नेहनदी विलक्य ।। ७५ ॥ ७५. अथ शुक्काद्रवेयीदशनानन्तरं ममाभाग्यैरपुण्यैः स पुत्रः स्वायंभुवं स्वयंभुव इदं धाम ब्रह्मलोकं स्वर्ग ययौ । कीदृक् । पण्डोरपत्यानि शुभ्रादित्वादेयणि [ ६.१.७३ ] पाण्डवेयाः पञ्च पाण्डवास्तथा जम्बूवर्णा १ सी शुष्कागतोव्येष. २ सी दाक्षचौ'. ३ ए क्षिवोडि'.. ४ सी °पि सः ।। स्प. ५ ए धामः । स्वा'. ६सी जम्बूकं. ७ए तृकः खे. १ सी वाह्य । अ. २ सी पाधिक्य । ५. ३ सी तो। अ. ४ सी हीन । रा. ५ बी नेन । द्य. सी 'नेम । द्य. ६ सी रनहो'. ७. बी जाति ॥ वि. सी जाति । विशे'. ८ एतिः । वंशे'. ९ सी 'द्रव्येय्या'. १० सी पिण्य मु. ११ ए वज्राः । य. १२ ए ग्यैः स. १३ सी पुण्यै पुत्र खा. १४ सी वर्णयौ'. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०, व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः गौर्जम्बूस्तस्या अपत्यं चतुष्पाद्य एयत्रि [६. १.८३] जाम्बवेयो बाभ्रव्यश्च ऋषी बलविद्वत्त्वादिना तैर्निभस्तुल्यः। किं कृत्वा ययौ । मातुरागतो मातृको यः स्नेहः स एव संततं प्रवाहित्वानदी तां विलढ्यावगणय्येत्यर्थः। ग्था कश्चिनंदी मार्गसिन्धुं विलक्ष्य शबरजम्बां देशे भवम् “उवर्णात्" [ ६. ३. ३९] ईतीकणि शावरंजम्बुकं ग्रामं याति ॥ उपजाति(तिः)। अब्धौ दौष्कोध(ध्व)न्यधानुष्कसार्पि को यद्वद्वाकस्मिकं याति नाशम् । शाकृत्क्येपोशाश्वतिक्यङ्गयष्टि स्तद्वतिक तां धारयिष्याम्यनाथा ॥ ७६ ॥ . ७६. यद्वद्या दौको दो| तरन्नरोब्धेर्दोभ्या तरीतुमशक्यत्वादब्धावाकस्मिकमकस्माद्भवं नाशं याति विनश्यति । यथा वाधानुष्को न धनुःप्रहरणो यः सापिष्कः सपिप्पण्यः स धनुःप्रहरणाभावात्सर्पिःसद्भावाच सर्पिलुण्टनाय निःशङ्कं चौरपातेनाध्वन्याकस्मिकं नाशं याति तद्वत् । तथा शात्की शकृता विष्ठया संसृष्टैषा प्रत्यक्षाङ्गयष्टिरांकस्मिकं नाशं याति । यतोशाश्वतिक्यशाश्वती तस्मात्तां विनश्वरीमनयष्टिमनाथा पतिपुत्ररहिता सत्यहं किं धारयिष्यामि नैवेत्यर्थः ॥ १ सी धौ दोको'. २ ए दौष्वोध'. ३ ए पिषो य. ४ ए पाश्वाश्वतिकि. ५ ए दकिं ता धा. ६ सी त्कि ता धा. १ ए गौजम्बू. २ बी म्बू तस्या'. ३ सी स्याप. ४ ए सी नदी मा'. ५ सीर्णादिकण् इ. ६ ए इक. ७ ए रजाम्बु. ८ ए था दोष्वो दो'. ९ बी दौष्कौ दोभ्या तरी . सी दौा त'. १० ए रोब्धदोभ्या ततरी . ११ सी यः सपिं . . १२ बी पिष्क स. १३ ए सर्पिलुण्ट. सी त्सर्पिस. १४ बी पिलुण्ट'. १५ सी लुटना. १६ सी कृतिकी श. १७ ए सृष्टा प्र. १८ बी कश्मिकं. १९ बी शास्ववी. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ हैं. ७.४.७२.] विंशः सर्गः। 'विशे । अत्र "विंशतेस्तेर्डिति" [६७ ] इति तेल्छ । दक्ष । दाक्षि ॥ चूडा । चौडि । बाह्नादित्वादिञ् ॥ इवर्ण । सांकृत्य । गर्गादित्वाद्यञ् ॥ दुली । दौलेय । “द्विस्वरादनद्याः" [ ६. १.७१] इत्येयण् । अत्र "भवर्णवर्णस्य" [ ६८ ] ईत्यवर्णेवर्णयोर्लुक् ॥ कामण्डलेयः । देवीविवक्षायां "न्यायूङः" [ ६. १. ७० ] इत्येयण् । गविं तु "चतुष्पादयः" [६. १. ८३] इत्येयञ् । जाम्बेय । इत्यत्र "अकदू." [६९ ] इत्यादिनोवर्णस्य लुक् ॥ अकद्रूपाण्डोरिति किम् । कावेया । शुभ्रा. दित्वादेयण [६. १. ७३]। पाण्डवेय ॥ बाभ्रव्य । इत्यत्र “अस्वयंभुवो" [ ७० ] इत्यवू । अम्वयंभुव इति किम् । स्वायंभुवम् ॥ ऋवर्ण । मातृक ॥ उ[*वर्ण । शाबरजम्बुकम् ॥ दोस्। दौकः ॥ इस् । सापिष्कः ॥ उस् । धानुष्क । त् । शाकृषकी । अत्र "ऋवर्ण."[७१ ] इत्या. दिनेकस्येतो लुछ ॥ शश्वदकस्मात्प्रतिषेधः किम् । शाश्वतिकी । “वांकाले. भ्यः" [ ६. ३. ८० ] इताकण् । आकस्मिकम् । अध्यात्मादित्वादि. कम् [ ६. ३.७८ ] शालिनी ॥ अर्थ नृपो पुत्रमृतस्य गृह्णात्यर्थेपि नास्थेत्ययि गच्छ गच्छ । मा जल्प मा जल्प तवेति जल्पनत्यगे स्वमुल्लम्बयितुं प्रवृत्ता ॥७७॥ १ ए °यितुं प्रवृत्ता । की. १ ए विश अं. २ बी सी स्टेडिति'. ३९ ति स्तेनु'. सी तिनु'. ४ ए °चूड । चौ. ५ एणयोलुक्. ६ सी इवण'. ७ ए सी वि च. ८ वी सी द्रयः एएय'. ९एम् । शु. १० ए वी । शु. ११ सी "वेयः । बा. १२ सी भ्रव । ६. १३ ए त्र स्व. १४ बी अश्वयं . १५ एस् । दोवः । इ. १६ एपिष्टः । उ. सी 'पिक । उ. १७ ए 'नुष्य । त्. १८ सी कृत्तिकी । अ. १९ ए शास्वति'. * बी पुस्तके ९३ तमपघटीकास्थधनुचिहपर्यन्तं पत्राणि न सन्ति. - - - - - Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल: - - ७७. तदा सा स्त्री अगे वृक्षे स्वमुल्लम्बयितुं प्रवृत्ता । कीहक्सती। जल्पन्ती । किमित्याह । अपुत्रः सन्यो मृतस्तस्यार्थ नृपो गृहातीति हेतोरर्थेपि धनेपि विषये नास्था न ममाशास्ति । तस्मादयि हे महापुरुष मद्धेतुका तवापि काप्यापन्मा स्म भूदिति त्वं गच्छ गच्छ । तथा कोपि श्रोष्यतीति मा जल्प मा जल्पेति ॥ गच्छ गच्छ । मा जल्प मा जल्प । इत्यत्र "असकृत्संभ्रमे" [२] इति पदस्य वाक्यस्य च द्विरुक्तिः ॥ उपजाति(तिः)॥ आच्छिन्द्राच्छिन्द्धीत्याच्छिदत्पांशमसाः शोचं शोचं तामित्यवोचच्च भूपः। राजायं तेथें न ग्रहीता ग्रहीता स्तोकं स्तोकं श्रद्धीयतां मद्वचोपि ॥ ७८ ॥ ७८. स्पष्टम् । किं तु पाशं गलबन्धनवस्त्रमाच्छिन्द्ध्याच्छिन्द्धीत्याच्छिदत् । भृशं वलात्कारेणोद्दालितवान् । शोचं शोचमभीक्ष्णं स्वं निदि(न्दि)त्वेत्यर्थः । अयमत्रत्यो राजा । अथ चायं प्रत्यक्षो मल्लक्षणो राजेत्यपि राज्ञा व्यजितम् । न ग्रहीता ग्रहीताविच्छेदेन सदा न ग्रहीध्यति ॥ वैश्वदेवी छन्दः॥ कुरुते कुरुतेतमां दयां यन्नृपतिर्मोक्ष्यति तत्परामुवित्तम् । स्थेयाः पतिपुत्रयोः प्रदातुं पयमः पुत्रि घटं घटं हि नित्यम् ॥७९॥ ७९. यद्यस्मान्नृपतिरत्रत्यो राजा सकलपृथ्व्याममार्याघोषणाकारिवायां [कुरुते] कुरुतेतमां भृशमभीक्ष्णमविच्छेदेन वात्यन्तं कुरुते । १ए 'त्पाशोम'. २ सी पि । पेशं. ३ ए पुत्र . १५ वि ना. २ए मनाशा. ३ सी मास्थास्ति'. ४ एका का तवापि क्याप्या. ५५ कोप्य ओ. ६सी बी। कु. .एलादयां. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है० ० ७.४.७५. ] विंशः सर्गः । ६२३ तत्तस्मात्परासुवित्तं मृतस्य द्रव्यं मोक्ष्यति । तस्माद्धे पुत्रि पयसो जलस्य प्रत्येकं घटं घटमेकैकं घंटं हि स्फुटं नित्यं परलोकगतयो: पतिपुत्रयोस्तर्पणाय प्रदातुं स्थेयाः । द्रव्यापहारशङ्कां मुक्त्वैतयोः परेतकार्याणि कर्तुं तिष्ठेत्यर्थः ॥ भृशे । आच्छिन्द्ध्याच्छिन्द्वी त्याच्छिदत् ॥ अभीक्ष्ण्य (क्ष्ण्ये ?) । शोचं शोचमवोचत् ॥ अविच्छेदे । न ग्रहीता ग्रहीता । इत्यत्र “भृश०” [ ७३] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ भृशादयश्च क्रियाधर्मा इति क्रियापदमेवात्र संबध्यते । क्रियाविशेषणस्यापि क्रियात्वेनाध्यवसायाद्भृशादियोगे द्विर्वचनं स्यात् । यथा स्तोकं स्तोकं श्रद्धीयताम् । प्राक्तमबादेरिति किम् । कुरुते कुरुते तमाम् । अत्र तमबादेराति - शयिकात्पूर्वमेव द्विर्वचनं पश्चात्तमबादिरन्यथा ह्यनियमः स्यात् ॥ पतिपुत्रयोः पयसो घटं घटं प्रदातुम् । अत्र “नाना० " [ ७३ ] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ औपच्छन्दसकम् ॥ कुर्वत्यनिशं नमो नमस्त्वं ज्येष्ठं ज्येष्ठमनु प्रसादयर्षीन् । कतरा कतरा त्वदीशमून्वोर्विपदेवं जनवाचि मा स्म रोदीः ॥ ८० ॥ 30 ८०. हे पुत्र्यनिशं सदा नमो नमोधिकं नमस्कारं कुर्वती सती त्वमृषीञ् ज्येष्ठं ज्येष्ठमनु प्रसादय ज्येष्ठानुक्रमेण मुनीन्संतोषय द्रव्यापहारशैङ्कां मुक्त्वा सदा गुरुसेवादिधर्मकृत्यानि कुर्वित्यर्थः । तथा त्वदीशसून्वोस्त्वत्पतिपुत्रयोः कतरा कतरा विपत् । आधिविपद्व्याधिव्या (वि) १ सी 'स्य घटं प्रत्येकमैकं घ. अभी. “शयका'• " शङ्का मु. २ सीटं स्फुटं हि नि . ४ ए भीक्ष्ण। शो'. ५ सीता । ३. ८ सी क्तिः । कु. ९ सी मो. १२ सी वोखदीशपु . ३ सी च्छन्दत् । ६ सीत् । तथा. ७ ए. सी वी व ११ सी १० Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] पदोर्मध्ये का मृत्यु हेतुर्विपदभूदित्यर्थः । एवंप्रकारेण जनतावाचि लोकस्य प्रश्नवाक्ये सतिं तयोर्विपैस्म (स्म) रणेन मॉ स्म रोदी: ॥ कतमा कतमानयोर्विभूतिः कतमन्निद्भुतमीश्वरत्वमस्ति । कतमत्कतमत्प्रकाशमेवं न खलु प्रक्ष्यति पुत्रि राजेना त्वाम् ||८१ ॥ । ८१. स्पष्टम् । किं त्वनयोस्त्वत्पतिपुत्रयोः कतमा कतमा विभूति - रग्निं किं रत्नसंबन्धकृतोत स्वर्णरूपादिसंवन्धकृत होस्विदुभयसंवन्धकुंतेत्यर्थः । निद्भुतं गुनं निधांनीकृतमित्यर्थः । ईश्वरत्वमैर्श्वर्यं विभूतिरित्यर्थः । राजना राजपुरुषः ॥ नमो नमः । ज्येष्ठं ज्येष्टमनु प्रसादयर्थीत् । इत्यत्र " आधिक्य ० " [ ७५ ] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ त्वदीयसून्वोः कतरा कतरा विपत् । कतमा कतमानयोर्विभूतिः । अत्र “डतर०” [ ७६ ] इत्यादिना द्विरुतिः ॥ स्रीग्रहणं किम् । अनयोः कतमदीश्वरस्वम् ॥ केचिड्डतरडतमाभ्यां स्त्रीलिङ्गाच्चान्यत्रापीच्छन्ति । अनयोः कतमत्कतमदीश्वरत्वम् ॥ प्रथमं प्रथमं पुत्रि मा स्म भुक्थाः पूर्वं पूर्वं भोजयेर्गुरूंस्त्वम् । अनुपोपश्वमायुरभ्यतीयाः प्रप्रशमं संसंश्रयत्य (न्त्य) खण्डम् ॥ ८२ ॥ ८२. हे पुत्रि प्रथमं प्रथमं गुरुभ्यः पूर्वतरं त्वं मा स्म भुक्थाः किंतु पूर्वं पूर्वं स्वस्नात्पूर्वतरं गुरून्भोजये राजोपद्रवाभावेन प्रभूतं २ ए 'जयो. ३ सी गुरूत्व'. १३ १ एत्व. १ सी 'डोमध्ये. ५ एन्ति के र'. ९ सी धानी'. १३ सीतं त्वं ध. २ ए "जनिता". ३ सी पश्मर'. ७ सी कृत्येत्य. ११ सी धिक इ. ६ ए 'होश्विदु'. १० एवयं वि.. ४ सी 'मा रो. ८ ए "निधन". १२ सी गुरु: पूर्व मा. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.४.७७. ] ६२५ स्वपनं गुरुभोजनादिना धर्मकार्येण सफलयेरित्यर्थः । तथा नास्त्युपोप - वो राजादिकृतो धनापहारादिरुपद्रवो यत्र तद्यथा स्यादेवमखण्डं वृक्षादावुल्लम्बनादिनापमृत्योरकरणेन परिपूर्ण निष्कलङ्कं वायुरभ्यतीया गमयेः । कीदृक्सती । प्र [ प्र ]शममुपशान्ति शोकोपशमेनेन्द्रियविजयेन च मनः समाधिमित्यर्थः । संसंश्रयन्ती ॥ औपच्छन्दसकापरान्तिका ॥ । विंशः सर्गः 1 उपर्युपर्यार्तिमिमामथोच्चैः स इत्युदुद्बोध्य तरूनधोधः । चिकीर्षुरध्यध्युपकारमार्तमार्तं च पाता स्वगृहाञ्जगाम ॥ ८३ ॥ 90 ८३. अथ राजा तरूनधोधो वृक्षाणामासन्नः सन्स्वगृहान्स्वसौधं जगाम । गृहा (हा :) पुंसि च भूयेवेति गृहस्य पुंस्त्वम् । किं कृत्वा । आर्तिमुपर्युपरि धनापहारशङ्कोत्थस्य दुःखस्यासन्नामिमां स्त्रियमित्युक्तरीत्योच्चैरंत्यन्तमुदुद्वोर्ध्य संबोध्य सुस्थीकृत्येत्यर्थः । यतः । कीदृक् । आर्तमार्तं दुःखितं दुःखितं पाता दुःखेभ्यो रक्षिता । तथामोर्त (थार्त ? )मध्यभ्युपकारेंमुपकारस्यासन्नं चिकीर्षुश्चौ (चो) पचिकीर्षुरित्यर्थः ॥ उपजोतिः ॥ 93 5.४ पुरे पुरे स्वस्य हठापहृत्यासुतोसुतो दुःस्य इति स्मरन्सः । अथ प्रजा (जां) नन्दयितै के एकाममात्यमेकैकमिति न्यदिशत् ८४ ५ ए 'त्वातमु". ९ सी कृत्वेत्य'. १३ सी रा. ७९ १ ए र्यातिऽपमृत्योमि मेमेथो. २ ए पकृत्या ३ सी 'कमेकमामात्यमै कै. १ एस्त्युप'. ४ सी 'काजाति । उँ २ए "शमिने". ६ सी यगिमि. १० ए र्थः । की'. १४. ३ सी सं ७ ए 'रत्यंमु'. ११ एखतपा". ८ सी ध्य सु. १२ ए "मार्त्तम', १५ सी जाति । पु Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः ] ८४. स्पष्टम् । किं तु स्वस्य द्रव्यस्य । असुतोसुतो निष्पुत्रो निपुत्रः । स राजा । एक एकां सर्वामित्यर्थः । प्रजां नन्दयितासुतद्रव्यस्य हठापहृतेर्निर्वारणेच्छयाह्लादयिता सन्नेकै कममात्यमिति वक्ष्यमा - णरीत्या न्यदिक्षत् ॥ ६२६ पूर्व पूर्व भोजये गुरून् । प्रथमं प्रथमं मा स्म भुक्थाः । अत्र “पूर्व०” [ ७७ ] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ प्रप्रशमम् । अनुपोपप्लवम् । संसंश्रयन्ती । उदुद्बोध्य । इत्यत्र “प्रोप०" [ ७८ ] इत्यादिना द्विरुक्तिः ॥ तरूनंधोध(धः) । अध्यध्युपकारम् । उपर्युपर्यार्तिम् । अत्र “सामीप्येधोभ्युपरि ” [ ७९ ] इति द्विरुक्तिः ॥ I क्रियया वीप्सायाम् । आर्तमार्त पाता ॥ गुणेन । असुतोसुतो दुःस्थः ॥ द्रम्येण । पुरे पुरेसुतः । भन्त्र “वीप्सायाम्” [ ८० ] इति द्विरुक्तिः ॥ एकैकम् । अत्र “लुप् च० " [१] इत्यादिना द्विरुक्तस्यैकस्यादौ य एकस्तत्सक (स्क?) स्यादेः लुप् ॥ एक ऐकाम् । अत्र विरामस्य विवक्षितत्वापुंवद्भावे सति संधिकायं न स्यात् ॥ उपेन्द्रवज्रा ॥ द्वन्द्वं हीनाः सन्तु लक्षा मदाये द्वाभ्यां द्वाभ्यां कोटयो वाथ निम्नाः । ग्राह्यं वित्तं न त्वसूनोः परासोरेतद्वन्द्वं निर्दिशामो भवद्भयः ॥८५॥ १ एतं द्वन्द्वं. १ सी स्पष्टः । किं. २ सी तो नि'. ५ सी कमामा'. ६ ए 'गुरू'. धोवः । अ ९ ए वोध्यप विविक्षि.. १३ ए ंन्द्रका । ३. १० ३ ए ७ ए प्रशप्र एरेसु. १२ पुत्र : '. सी प्रश. ११ सी एकम् " . ४ ए प्रजा न. ८ ए नव १२ ए Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ है. ७.४.८१.] विंशः सर्गः। ८५. अहो अमात्या मदाये मदीय आयपदे ये द्रम्मादीनां लक्षाः स्युस्ते द्वन्द्वं द्वाभ्यां द्वाभ्यां लक्षाभ्यां हीना न्यूनाः सन्तु । अथ वा मदाये याः कोट्यो भवन्ति ता द्वाभ्यां द्वाभ्यां कोटिभ्यां निम्ना हीना(नाः) सन्तु । तु परमसूनोः परासोवित्तं भवद्भिर्न ग्राह्यम् । एतद्वन्द्वं रहस्यं भवद्भयो निर्दिशामो वदामः ।। शालिनी ।। ये द्वन्द्वमत्राचतुरंत एव द्वन्द्वं विभिन्ना मृतवित्तलुब्धाः। द्वन्द्वं प्रयुते य उ यज्ञपात्राण्यन्यः समस्तेन तदसि शामि॥८६॥ ८६. उ हे अमात्या अत्र भुव्याचतुर्थ्यः “ शरदादेः " [७. ३. ९२ ] इत्यति आचतुरं ये द्वन्द्वं मैथुनाय द्वौ द्वौ भवन्ति माता पुत्रेण पौत्रेण प्रपौत्रेण तत्पुत्रेण च मैथुनं यातीत्यर्थः । मृतवित्तलुब्धा मृतद्रव्याभिलापुका नरास्त एव पशव एव द्वन्द्वं विभिन्ना द्वैराश्येन पृथग्भूताः । एके मृतवित्तलुब्धा मृतद्रव्यग्रहणस्य निन्द्यतमकार्यस्य करणेन निर्विवेकत्वाच्छृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टा नृरूपाः पशवोपरे तु शृङ्गपुच्छादिमन्त इत्यर्थः । अन्यो मृतवित्तलुब्धेभ्योपरः पुनस्तेन तुल्यो यो याज्ञिको द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुङ्क्ते यज्ञक्रियासु द्वे द्वे यज्ञपात्रे व्यापारयतीत्यर्थः । मृतवित्तानभिलाषी तु पुण्यपात्रत्वाच्छाध्यतमत्वाच याज्ञिकतुल्यः स्यादित्यर्थः । तत्तस्माद्धेतोरस्म्यहं शास्मि मृतवित्तं भवद्भिर्न ग्राह्यमित्यादिशामि ॥ द्वन्द्वं हीनाः। इति "द्वन्द्वं वा" [२] इति वा निपात्यम् । पक्षे । द्वाभ्यों द्वाभ्यां निम्नाः॥ १ सी शपत्रा. २ एण्यन्य स. १सी भ्यां ल'. २५ भ्यां को'. ३ एमः ॥ ये, ४ सी रहं. ५ सी भ्यां रभिम्ना । र. Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपालः] रहस्ये । द्वन्द्वं विदिशामः ॥ मर्यादोकौ । आचतुरं ये द्वन्द्वम् ॥ व्युक्रान्तौ । द्वन्द्वं विभिन्नाः । यज्ञपात्रप्रयोगे । द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुङ्क्ते । अत्र "रहस्य." [ ८३] इत्यादिना द्वन्द्वमिति निपात्यते ॥ इन्द्रवज्राः(वा) ॥ द्वन्द्वं विजित्य शिववैश्रवणौ स्थितस्य वाच्यस्य तेथ न न कुर्म इति स नाहुः । छायां दधुर्न खलु कालिककालिकां स जातीयबुद्धय उपाददिरे तदाज्ञाम् ॥ ८७॥ ८७. अथ तेमात्या वाच्यस्य सुराजत्वेन युक्तायुक्तं वक्तुं शक्य. स्यापि राज्ञः पुरो न न कुर्म इति नाहुः स्म मनसा पीड्यमानत्वेन मृतवित्ताग्रहणाज्ञां नैव कुर्म इति नोचुरित्यर्थः । कीदृशस्य । द्वन्द्वं शिवैश्रवणावत्यन्तं सहचरौ शंभुधनदौ विजित्यैवं परोपकारितोदाराशयत्वादिगुणोत्कर्षेण पराभूय स्थितस्य वर्तमानस्य । ननु राज्ञो मुखदाक्षिण्येनेदं नोक्तं भविष्यति । मनस्यरुच्या तु मुखं कृष्णं कृतं भविष्यति । नेत्याह । काल्येव कालिका कालिकायाः सदृशी कालिककालिका तां मनस्यरुच्या कृष्णां छायां मुखकांन्तिं च न खलु दधुः। किं तु तदाज्ञामुपाददिरेङ्गीचक्रुः । यतः । सती प्रकारोस्याः सज्जातीयातुच्छत्वेन स्वामिशुभाभिप्रायबहुमानिनीत्वेन च शोभना बुद्धिर्येषां ते ॥ द्वन्दं शिववैश्रवणौ । अत्र " लोक० " [४] इत्यादिना द्वन्द्वमिति निपात्यम् ॥ न न कुर्मः । अत्र "भाबाधे" [ ८५] इति द्विरुक्तिः ॥ १सी इदं वि. २ सी पात्यते । द. ३सी ५५ ष्णं भ. ६५ लिकः का. चु. नौ ४ए कत्रैव'. Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है.७.४.८८.] विंशः सर्गः। ६२९ काल(लि)ककालिकाम् । अत्र "न वा गुणः" [६] इस्यादिना द्विरुक्तिः । वत्र चादौ स्यादेः प्ठप सा च रित् । रिस्करणं प्रतिषिद्धस्य पुंधद्धावस्यः रितीति विधानार्थम् । तेनात्र कोपान्त्यत्वात्पुंवद्भावप्रतिषेधेपि "रिति" [ ३. २. ५८ ] इति पुंवद्रावः ॥ वाग्रहणात्पक्षे जातीयरपि । सजातीय ॥ वसन्ततिलका ॥ इत्यादिशक्षि(रिक्ष)तिपतिः स यथा प्रियप्रि येण व्यधुः सुखसुखेन तथा ह्यमात्याः । त्यागी प्रियेण परिपर्यसुतः सुखेन दाताथ वा परि बलेः क इति ब्रुवाणाः ॥ ८८ ॥ ८८. स क्षितिपतिभैमिर्यथा प्रियप्रियेणाक्लेशेनेति पूर्वोक्तरीत्या मृतवित्ताग्रहणविषयमात्यानादिशत् । तथा हि तथैवामात्याः सुखसुखेनाक्लेशेन नृपादेशं व्यधुः । कीदृशाः सन्तः । भैमेरौदार्यातिशयरजितत्वेन ब्रुवाणाः । किमित्याह । असुतः परिपर्यसंख्यस्याप्यपुत्रमृतद्रव्यस्यैवं लीलयैव मोक्षणादमुं भैमि विना प्रियेण सुखेन त्यागी दाता कोथ वा बलेः परि बलिं विना सुखेन को दाता भैमिबली मुक्त्वात्र न कोपि त्यागीत्यर्थ इति ॥ प्रियप्रियेण प्रियेण । सुखसुखेन सुखेन । इत्यत्र "प्रिय." [ ८७] इत्यादिना वा द्विरुक्तिस्तत्र चादौ स्यादेः प्लुप् ॥ परिपर्यसुतः । परि बलेर्दाता । इत्यत्र " वाक्यस्य०" [८८] इत्यादिना वा द्विरुतिः॥ १सी प्रिये. २ सीरिकलेक. १ सी° सो च. २ सी परि'.. . ३ ए ति भैमि. ४ ए मुखा.. ५ सीन दाता को मैं. ६ए 'त्र प्रिय ई. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: राजनाजन्नृधव नृधवास्येकवीरः पृथिव्यां न्यायिन्यायिन्बुध बुध जहि प्राग्नयं दुर्नियुक्त । सौजः [सौजः] खल खल कले वेत्स्यदो दुष्ट दुष्ट क्षुद्र क्षुद्रेत्यजनि जनतावाद उच्चैस्तदानीम् ॥ ८९ ॥ ८९. तदानीमपुत्रमृतवित्तत्यागकाल उच्चैरुत्कृष्टो जनतावादो लोकोक्तिरजनि । कथमित्याह । हे राजन राजन् हे नृधर्व नृधव नराणां भर्तः कुमारपालासि त्वं पृथिव्यामेकवीरः । केनाप्यकृतपूर्वस्यापुत्रमृतवित्तत्यागस्य करणानिरुपमो दयावीरो दानवीरश्वेत्यर्थ इति । तथा हे न्यायिन्यायिन्यायवन्मन्य हे बुध बुध पण्डितंमन्य दुर्नियुक्त दुष्टस्यापुत्रमृतवित्तस्य ग्रहणेन दुष्टाधिकारिन्दुष्टामात्य प्राग्नयमपुत्रवित्तप्रहणरूपां प्राक्तनी नीति जहि त्यजेति । तथा रे [सौजः] सौजो बलिष्ठ तथा सर्वकषत्वाद्रे खल खल तथा रे दुष्ट दुष्टापुत्रमृतस्तापहारादिदोषयुक्त तथा लोकानां महाकष्टे पातुकत्वेन रे क्षुद्र क्षुद्र कले कलिकालाद एतद्पुत्रमृतवित्तत्यागलक्षणं त्वदीयसौजस्त्वादीनां निपूदनं राज्ञः सन्न्यायाचरितं वेत्सीति च ॥ संमैतिः कार्येष्वाभिमत्यं पूजनं वा तत्र । राजत्राजन्नृधव नृधवास्येकवीरः पृथिव्याम् । असूयायाम् । न्यायिन्यायिन्बुध बुध जहि प्राग्नयं दुर्नियुक्त ॥ कोपे। सौजः सौजः खल खल कले वेत्स्यदः॥कुत्सने। क्षुद क्षुद्र दुष्ट र्दुष्ट कले १ सी युक्तं । सौ. २ सी क्षुद्रे'. १ए व न. २ ए त्यागेस्य. ३ ए णानिरु. ४ सीत्यर्थः । त'. ५ ए कारन्दु. ६ सील त°. ७ ए हादि'. ८ सी कालद. ९ए "निसूद. १० एमति का. ११ सी जन्नृ. १२ सी °ध ब. ११ ए 'निं । को. १४ एट काले. Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है० ७.४,९०. ] विंशः सर्गः । ६३१ बेत्स्यदः । अत्र “संमति ० " [ ८९ ] इत्यादिना द्विरुतिस्तत्र पूर्वोक्तौ स्वरेध्व न्त्यः स्वर (रः) लुतो वा ॥ मन्दाक्रान्ता ॥ दस्यो३ दस्यो हतक हतक३ पाप पापाङ्ग कूज ३ अङ्गोत्कूजानुभवसि फलं त्वं खयं वेश्म यासि ३ । देवं खण्डालयमकलयः सोपरेद्युः खसं प्र त्येवं प्रोचे प्रणिधिकथिते शीर्णकेदारहर्म्ये ॥ ९० ॥ ९०. अपरेद्युः शीर्णं भग्नं यत्केदारस्य शंभोर्हम्थं तस्मिन्प्रणिधिकथिते केदार हर्म्यं भग्नमस्तीति चरैः कथिते सतीत्यर्थः । स भैमिः खसं खसाः केदारसमीपदेशस्थाः क्षत्रियैभेदाः खसानां राजाप्यभेदात्खसस्तं खसराजं प्रत्येवं तर्जनाप्रकारेण प्रोचे । तथा हि । हे दस्यो३दस्य यांत्रिकादिष्वकस्माद्वाटेः पातकत्वेन चौरात एव रे पाप पापात एव च रे हतक हतक ३ निन्द्यतम । अङ्गशब्दः संबोधने । हे खस कूजाव्यक्तं शब्दं कुरु तथाङ्ग हे खसोत्कूज प्राबल्ये - नाव्यक्तं शब्दं कुरु । केनाप्यनिगृहीतत्वेनानिशं चौर्यादिपापकर्मणोपाजितप्रभूतविभूतिदर्पेण व्यक्तान्कलकलारावान्कुर्वित्यर्थः । परमेतत्कुंकर्मणः फलमनुभवसि त्वं "सत्सामीप्ये सद्वद्वा” [ ५. ४. १ ] इति भवियति वर्तमाना | अधुनैव त्वां निग्रहीष्यामीत्यर्थः । तथा हे खस विनयादिधर्माचार भ्रष्टत्वात्स्वयं वेश्म गृहं यासि ३ आश्रयसि । देवं केदार खण्डो विशीर्ण आलयः प्रासादो यस्य तं तथाकलयोधारयः १ सी 'लय: कलयेऽसो.. १ सी 'ष्वत्य स्व. २ सी 'रेघुशीर्ण भ'. ३ सी यदा:. ४ सी या कुकार्मण फ सृका ं. • सी भ्रष्टास्वयं. ५ सी 'त्वे चौ', ६ सी शब्द सं. ७ सी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] केदारप्रसाद विशीर्णं न समाचरय इत्यर्थः । अस्यापि फलमनुभवसीति ॥ तदेवं चौर्याद्यन्यायकारित्वाद्विशीर्णस्य केदार (प्रा) सादस्य साराया अकर्तृत्वाच्च केदारसमीपदेशस्थं खसराजं संतर्ज्यात्मानं निन्दन्विशीर्णकेदारप्रासादोद्धारायामात्यमाह ॥ सद्मन्यासे खण्डालये देव आस्ते प्रायश्चित्तं देवोपदिश्यांक्रियां च । तच्चाचर्यासं तद्विशेषं च राजे त्यन्तर्थ्यात्वाचे वाग्भटामात्यमेवम् ॥ ९१ ॥ I ९१. राजा वाग्भटामात्यं भग्नकेदारप्रासादोद्धारायैवं वक्ष्यमाणरीत्योचे । किं कृत्वा । भक्त्यतिशयादन्तश्चित्ते ध्यात्वा । किमित्याह । अहं सद्मन्यासे तिष्ठामि । देव: केदारः खण्डालये विशीर्णप्रासद आस्ते | तस्माद्धे देव केदार तद्विषयकृतैवंविधाविन योत्थमहापापविशुम प्रायश्चित्तं विशोधि तपश्चरणं क्रियां च स्वर्णदानादिकं कार्य चोपदिश्यात् । आदिशेस्त (त) तश्च तच्च प्रायश्चित्तं च तद्विशेषं च प्रायश्चित्तविशेषं स्वर्णदानादिकं चाहमाचर्यासमनुष्ठेयासमिति । वैश्वदेवी छन्दः ॥ यदूचे तदाह ॥ कारूंश्व प्रहिणु३ धनं च भृतकानायुङ्क्ष्व नेतॄंस्तथा चान्द्रं वेश्म चिदस्तु गान्धिकपुटीचिजायतां धाम ते३त् । ४ सी तत् २ सी 'स्य सरा. ३ सी 'अक्षतत्वा'. ४ सी संत्य - ५ सी 'मात्ममेवं म ं. ६ सी 'सादमाचर्यास'. ७ ए ंश्याम् । आ. १ सी क्रियायां . १ एरस्य. ज्यात्मा. ८ सी है । को २ ए राज्येत्य'. ३ ए 'स्तु गन्धि'. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ है. ७.४.९०.] विंशः सर्गः। ६३३ भक्तिस्ते मयि यद्वदर्हति विभौ शंभो तथा मेहति३. तद्वेश्माक्षतमात्थ तत्प्रवरमित्यात्थ३ तदामात्य भोः ॥१२॥ ९२. भो अमात्य यद्वत्ते मयि विभौ प्रभौ विषये भक्तिरर्हत्युचिता स्यात्तथा मे शंभौ विषये भक्तिरर्हति३ । तस्माद्विशीर्णकेदारभवनोद्धाराय कारूंश्च वर्धक्यादीञ् शिल्पिनो धनं च प्रहिणु३। तथा भृतकान्कर्मकरानेतुंस्तथा भृतकादिचिन्ताकारिणो नायकांश्चायुद्ध प्रयुङ । ततश्च तद्धाम केदारभवनं चान्द्रं वेश्मचिदस्तु चन्द्रप्रासाद इव भवतु चन्द्रभवनं ह्येकरात्रावेव निष्पद्यतेन्यथा पतेत्तद्वच्छीघ्रं निष्पद्येतामित्यर्थः । तथा गान्धिकपुटीचिन्नायता३म् । यथा गन्धपण्यस्य वणिज औषधपुटिका क्षणार्निष्पद्यत एवं निष्पद्यताम् । तथा भो अमात्य तदा तस्मिन्विवक्षित आवयोः प्रसिद्ध काले तद्वेश्म केदारभवनं त्वमक्षतमभग्नमस्तीत्यात्थावोचः । तदायोगे "स्मे च वर्तमाना" [५.२.१६ ] इत्यतीतेत्र वर्तमाना। तथा तद्वेश्म तदा प्रवरमनेकरूपकचित्रादिभिः प्रधानमस्तीति त्वमात्थाख्यः । तद्वेश्माक्षतं तत्प्रवरमित्युक्तवन्तममात्यं प्रणिधिभणितियुक्त्या स्वमतात्प्रच्याव्यैवमुपालम्भं चामात्यं प्रति राजोच इति संबन्धः ॥ दस्यो३ दस्यो। हतक हतक३ । अत्र "भर्सने पर्यायेणे" [१०] इति द्विरुक्तिः । तत्र पर्यायेण पूर्वस्यामुत्तरस्यां वोक्तावन्त्यस्वरः प्लुतो वा ॥ पक्षे । पाप पाप। १ सीर्णकदा'. २ ए रानेतुं. ३ सी . त'. ४. सी तदासं के. ५.सी °द्यतां । तथा भो आमा'. ६ ए °निषद्य. ७, ए आचार्याः प्र. ८ सी सिद्धे'. ९ए°ण ति. १० ए स्याप्रवर'. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ व्याश्रयमहाकाव्ये [ कुमारपाल: ] अङ्ग कूज३ । भङ्गोत्कृजानुभवेसि फलम् । पाप पाप । इत्यत्र "त्यादेः०" [ ९१] इत्यादिना वा लुतः ॥ क्षिया भाचार्रेभ्रेषः । तत्र स्वयं वेश्म यासि ३ । देवं खण्डालयमकलयः । सनन्यासे । खण्डालये देव आस्ते ॥ भाशिषि । प्रायश्चित्तं देवोपदिश्य (३)क्रियां च । तच्चाचर्यासं तद्विशेषं च ॥ प्रेषे । कारूंश्व प्रहिणु३ धनं च । 1 भृतकानायुङ्क्ष्व नेतॄंस्तथा । इत्यत्र " क्षिया० " [ ९२ ] इत्यादिना वा श्रुतः ॥ गान्धिकपुंटीचिज्जायतां धाम त३त् । चान्द्रं वेश्मचिदस्तु । इत्यत्र “चितीवार्थे” [ ९३ ] इति वा लुतः ॥ I प्रतिश्रवणे । शंभौ तथा मे भक्तिरंहति३ । भक्तिस्ते मयि यद्वदर्हति ॥ निगृह्यानुयोगे । तत्प्रवरमित्यात्थ (३) । तद्वेश्माक्षतमात्य । इत्यत्र " प्रतिश्रवण ० " [ ९४ ] इत्यादिना लुतो वा ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ स्रष्टा नु३ शंभुवित्युशन्तो मुनीन्द्रा ओ३म्स्रष्टारमो३म् (मोम् ) शंभुमित्यस्तुवन्यम् । शीर्णागारं तं नाशृणोर्नाबुधो वा श्रौषं हि३ प्रावेदं द्युदित्वा स ऊचे ॥ ९३ ॥ 99 ९३. अथ वाहो अमात्य यं केदारमों स्रष्टारं विधातारं [ओं शंभुं संहर्तारं ? ] प्रतिपद्यामह इत्येवंप्रकारेण मुनीन्द्रा अस्तुवन् । यतः । स्रष्टा नु३ शंभुन्वित्युशन्तः सृष्टिसंहारकारित्वात्केदारोयं ब्रह्मा वा १ सी बात फ. तत्रास्व'. ५ सी 'लयः Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है...४.९८.] विंशः सर्गः।। ६३५ हरो वेति देवताद्वयविषयसंशयप्रकारेणेच्छन्तस्तं केदारं शीर्ण भममागारं यस्य तं शीर्णागारं लोकेभ्योनाशृणो बुधो वा चरै ज्ञासी यत्त्वं तद्वेश्म तदाक्षतं प्रवरं वात्थेत्यर्थः । इति नृपप्रभेमात्यो हे राजन् हि स्फुटं तं शीर्णागारमेश्रौषं प्रावेदं चाधुनाहमपि श्रुतवाञातवांश्चेत्यर्थः । इत्युदित्वा प्रत्युत्तरमुक्त्वा राजानमूचे ॥ स्रष्टा नु३ शंभुर्नु । इत्यत्र "विचारे पूर्वस्य" [ ९५ ] इति प्लुतो वा ॥ ओ३म् अष्टारम् ओ३म्(ओम्!) शंभुम् । इत्यत्र "ओमः प्रारम्भे" [९६] इति लुतो वा ॥ शीर्णागारं तं नाशृणोनाबुधो वा अनौषं हिं'३ प्रावेदं हि । इत्यत्र-"हेः प्रश्नः" [ ९७ ] इत्यादिना हेः प्लुतो वा ॥ वैश्वदेवी छन्दः ॥ मत्री यदूचे तदाह । सोमेशवेश्म३ अगम[:] अपश्य स्तदित्यथोचे नृपतिः पुनस्तम् । एत३दगच्छ३न्तदपश्यमुच्चै मंत्रिन्नदोप्युद्भियतां विशीर्णम् ॥ ९४ ॥ ९४. हे राजंस्त्वं सोमेशवेश्म३ सोमनाथभवनं यात्रार्थमगम३स्तथा तत्सोमेशवेश्मापश्य इति मन्यूच इति संबन्धः । अथामात्यस्यैव भणनानन्तरं प्रत्युत्तरयत्नृपतिः पुनस्तममात्यमूचे । यथा हे मत्रिनेत३ १ ए सोमोशवेश्मः३ अप. २ सी म म'. ३ सी च्छ३स्तद'. १ सी पयशंश. २ ए°मारं. ३ ए °भ्यो वा ना. ४ सी वावेत्य. .ए°मश्रोपं. ६ ए वा। शी". ७सी हि प्रा. ८ एशवोश्म. ९बी 'र्धमागमत् । स्त. १०एवेश्म प. ११ए त्यस्येवं. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः] सोमेशवेश्माहमुच्चैरतिशयेनागच्छ ३म् । तथा तत्सोमेशवेश्मोच्चैरपश्यम् । अदोपि सोमेशवेश्मापि विशीर्णमुद्भियताम् ।। प्रभे। सोमेशवेश्म३ अगम३[:] अपश्यस्तत् ॥ प्रभाख्याने । एत३. दगच्छ३म् तदपश्यम् । अत्र " प्रश्ने च० " [ ९८] इत्यादिना वा प्लुतः ॥ उपजातिः॥ राजाज्ञयाथ सचिवो न्यगदत्वकानि त्यागच्छ भोः कपिलक३ बजे दे३वदत्त । उत्तिष्ट क्लुप्तशिख साधय कृष्णमि(३)त्र केदारसोमशिरसोर्भवने विधध्वम् ॥ ९५ ॥ ९५. स्पष्टम् । किं त्वागच्छ मर्द्वचःश्रवणाद्यर्थ मत्समीपमायाहि । साधयामुकं किंचित्कार्य निष्पादय ततो यूयं सर्वेपि मिलित्वा केदारसोमशिरसोः केदारसोमनाथयोर्भवने विधध्वं निष्पादयध्वम् ॥ वसन्ततिलका ॥ नम कपिलक मत्रिशासनं त्वं प्रतिशृणु क्लुप्तशिख त्वमप्यदो भोः। विभृहि शिरसि देवद(३)त्तशीघ्रं मिथ इति तेप्रणिगद्य तत्र जग्मुः९६ ९६. स्पष्टम् । किं तु नम शिरो नमयित्वाङ्गीकुर्वित्यर्थः । प्रतिशृण्वङ्गीकुरु । अदो मत्रिशासनम् । शिरसि विभृहि शिरस्यञ्जलिं बवा मन्त्रिशासनं प्रतीच्छेत्यर्थः । तत्र केदारसोमनाथौ यत्र स्तः ॥ १ ए सी रावा. २ ए ज३ दे'. ३ ए बी देव. ४ सी °ष्ण३ मि. ५ ए सी विदध्व'. १सी मेचे. २ बी इम३ आगमः३ . ३ सीतः। रा. ४ ए सी दच. ५ए यश्च । व. ६५: । के. ७ ५ °नायो य. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [है. ७.४.१०१.] विंशः सर्गः। आगच्छ भोः कपिलक३ । नेम कपिलक ॥ गुरुबैंकोनन्त्योपि लनृत् । बज दे. ३वदत्त । बिभृहि शिरसि देवद(३)त्त । उत्तिष्ठ क्ल(३)प्तशिख । प्रतिशृणु क्लुप्तशिख । अत्र "दूराद्" [ ९९ ] इत्यादिना वा लुतः ॥ महाविभाषयव प्लुतविकल्पे सिद्ध वाग्रहणं न विकल्पार्थ किं स्वन्त्यस्य प्लुतेन सह गुरोरसमावेशार्थम् । तेन क्ल३प्तशिख३ इति न स्यात् ॥ अनृदिति किम् । साधय कृष्णमि ३त्र । कृसंबन्धिन ऋतो न प्लुतत्वम् ॥ औपचन्दसकम् ॥ 'हे३ देवदत्त चले है३ व्रज यज्ञदत्त गोविन्द हे३ त्वरय माधव है३ त्वरस्व । अन्योन्यमित्यभिदधद्भिरुपेत्य हर्षे- .. णाकारि शिल्पिभिरथायतनद्वयं तत् ॥ ९७ ॥ ९७. स्पष्टम् ॥ हे३ देवदत्त चल। गोविन्द हे३ त्वरय । है३ बज यज्ञदत्त । माधव है। त्वरस्व । इत्यत्र "हेहैप्वेपामेव" [१०० ] इति यत्रतत्रस्थयोर्हे हैशब्दयोरन्त्यः स्वरः प्लुतो वा ॥ वसन्ततिलका ॥ युष्मान्भो अभिवादये भव जयी भो३ एधि जैनश्च भो युष्मानप्यभिवादये सुकृतवान्भूयाः कुमार३ भव । आयुष्मांश्च कुमारपाल चिरमित्याशंसितोत्रार्हते. चैत्यं स्फाटिकपार्थविम्बमकृत स्वर्णेन्द्रनीलैनृपः ॥९८ ॥ ९८. नृपो भैमिः स्फाटिकं स्फटिकमयं पार्श्वविम्वं श्रीपार्श्वनाथप्र १ बी हे दें. २ ए बी ल हे३ . ३ बी व हे३ त्व... ४ सी 'नवभोश्च. ५ ए तोवाहंतश्चेत्यं स्फुटि . १ बी नमः क. २ बी °ख ई. ३ सी 'मित्र. ४ वी हे दे. ५ए °व हे ३ त्व. ६ बी रय । ई. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ ध्याश्रयमहाकान्ये [कुमारपालः] तिमा यत्र तश्चैत्यं प्रासाद स्वर्णेन्द्रनीलैः स्वर्णेन नीलमणिमिश्च कृत्वात्राणहिलपाटकेकृताकारयदित्यर्थः । कीहक्सन् । आर्हतैरईदैवतैराचार्योपाध्यायायैराशंसितो दत्ताशीर्वादः । कथमित्याह । भो आर्हता आचार्या अहं युष्मानभिवादये वन्द इति भैमेरभिवाद आहताः प्रत्यभिवदन्ति । भो३ भैमे त्वं जय्यमार्याघोषणादिप्रकृष्टधर्मवृद्धये जयनशीलो भव । तथा भो भैमे जैनश्चाहतश्चैधि भव । तथा भो उपाध्यायाद्याहता युष्मानप्यहमभिवादय इति भैमेरभिवादेपरेप्याहताः प्रत्यभिवदन्ति हे कुमार३ कुमारपाल त्वं सुकृतवान्धर्मलाभवान्भूयास्तथा हे कुमारपाल त्वं जिनधर्मवृद्धये चिरमायुष्मांश्च भवेति ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥ मोदख गार्य शिवमस्तुं तवापि वात्स्य३ पुण्यैधि वासि जयतात्तुषजेत्यृषीणाम् । यत्राभिवादमनु वागथ तत्र भूपः । श्रीदेवपत्तनतलेकृत पार्श्वचैत्यम् ॥ ९९ ॥ ९९. अथ तथा भूपो भैमिस्तत्र श्रीदेवपत्तनतले देवपत्तनाख्यपुरस्य तलपदे पार्श्वचैत्यमकृताकारयत् । यत्राभिवादमभिवादये गाग्र्योहं भो इत्याद्यभिवन्दनामनुलक्ष्यीकृत्य ऋषीणां वागाशीर्वचनं वर्तते । तथाहि । हे गार्यामीष्टपूर्त्या मोदख तथा हे वात्स्य३ तवापि शिवमस्तु तथा हे वात्सि वत्सस्यापत्य खि पुण्या पापमलापगेमात्पवित्रैधि भव तथा हे तुषज शूभेद त्वं जयतादिति ॥ १ सी स्तु मत्स्य. २ ए चैत्याम् . १बी तच्चेत्यं. २ बी सी हिल्लपा. ३ सी. °था भैमे जेजे'. ४ ए 'यादई'. ५ सी रपा'. ६ सी दमये. ७ सी वापित्स्स. ८ .सी तवापि हे. ९ सी गतात्प. १० एभे स्वं. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (है.७.४.१०२.] विंशः सर्गः। ६३९ युष्मान्भो भभिवादये भव जयी मो३ एघि जैनश्च भोः ॥ गोत्रे । अभिवादये वात्स्योहं भोः शिवमस्तु तवापि वात्स्य३ भमिवादये गार्योहं भो मोदख गार्य ॥ नाम। युष्मानप्यमिवादये सुकृतवान्भूयाः कुमार३ भवायुष्मांश्च कुमारपाल । इत्यत्र "भत्री." [१०] इत्यादिना प्लुतो वा ॥ नीशूप्रवर्जनं किम् । अभिवादये वात्स्यहं भोः पुण्यैधि वासि । भमिवादये तुषजोहं भो जयतात्तषज ॥ वसन्ततिलका ॥ सोमेटपुरी३मकलय३ः सुमता३इ आप३ः साधा३उ गूर्जरपुरे३ अंगम३ः पृथा३ । तत्र३ अभूवरकुंमारविहारचैत्य दृष्टयाइ दिक्ष्विति तदाजनि पान्थवार्ता ॥ १० ॥ १००. तदा पार्श्वनाथभवनद्वयविधानकाले दिक्षु पान्थवार्ता पथिकानां मिथो वार्ताजनि । कथमित्याह । हे सुमता३इ सुमते त्वं सोमेट्पुरी३म् देवपत्तनमकलये ३ अज्ञासीरपश्य इत्यर्थस्तथा हे साधा३उ साधो त्वं सोमेदपुरी३मापं३: अगमस्तथा हे सुमता३॥ त्वं तथा हे साधा३उ त्वं च पृथा३३ पृथौ विस्तीर्णे गूर्जरपुरे३ अणहिलपाटके चागम३स्तथा तत्र सोमेट्पुरीगूर्जरपुरयोर्वरकुमारविहारचैत्यदृष्ट्या३३ वरे अद्भुते कुमारविहारौ कुमारविहाराख्ये ये चैत्ये पार्श्वनाथप्रासादौ तयोर्या दृष्टिस्तदर्थं त्वमभूः संपन्नो वरकुमारविहारचैत्ये देवं दृष्टवानित्यर्थ इति । एतेनैतयोः कुमारविहा१ए अपग'. २ ए "कुलामा'. १सी वात्स्य अ. २५ बी दयो गा. ३ बी स्त्रीसूद्र. ४ सी हं मो पु. ५एय३ आशा. ६ बी धा३ सा. ७ बी आग'. सी • . सी पृथो वि. ९सी हिलपा. १० बी यर्थः। ए.. Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपाल: रयोनिरुपम रामणीयकमुक्तम् । सर्वत्र "प्रश्ने च प्रतिपदम्" [७.४. ९८] इति लुतः ॥ भक्तोसि साधा३उ ततो वसामि गिरा३उ किं ते पुरि शंभुनेति । खमे निदिष्टः क्षितिपः कुमार पालेश्वराख्यायतनं *व्यधत्त ॥ १०१॥ १०१. क्षितिपो भैमिरणहिलपुरे कुमारपालेश्वराख्यायतनं व्यधत्ताकारयत् । यतः स्वप्ने शंभुना निदिष्ट आज्ञप्तः । कथमित्याह । हे साधा३उ अत्र “दूराद" [ ७. ४. ९९ ] इत्यादिना प्लुतः। हे साधो कुमारपालासि त्वं मयि भक्तस्ततस्तस्माद्धेतोः किं गिरा३उ । अत्र "विचारे पूर्वस्य" [ ७. ४. ९५ ] इति प्लुतः । गिरौ. हिमवति स्फटिकाचले वा स्वाश्रये वसामि किं वा ते पुरि वसामि त्वद्भक्तिविशेष8तहृदयोहं स्वाश्रयं गिरि(रिं) मुक्त्वाणहिलपुरे वस्तुमिच्छामीति तात्पयार्थ इति ॥ उपजातिः ॥ आयुष्मान्भव भूपता३३ अजय३[:] शान्त्या३ सुबुद्धा३युषी[३] जिष्णाश्र्ज तदैन्दवे जय चिरं चौटलुक्यचूडामणे । क्ष्मानृण्यीकरणात्प्रवर्तय निज संवत्सरं चेत्यृषि वाघोपत्सु सदा नृपः पदविधिद्वत्समर्थोभवत् ॥१०२॥ १०२. यद्वद्यथा पदविधिः पदसंबन्धी विधिः सदा समर्थपदा १ ए धत्ताका. २ ए रं चो४लु. १ वी मं रम. २ ए सी ति पाद'. ३ सी ना इति आ. ४ ए प्लुतो सा'. ५ सी जाति । आ. * इत उत्तराणि बी पुस्तकपत्राणि न लब्धानि. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ह. ७. ४. १०२.] वंशः सर्गः । ६४१ श्रयो भवति समर्थानां पदानां स्यादित्यर्थः । तथा नृपः कुमारपाल: सदा समर्थः सर्वशक्तिसंपद्भिः शक्तोभवत् । शब्दश्लेषेणोपमा । केषु सत्सु । ऋषिपु । किंभूतेषु । आघोपत्सु भैमेले कोत्तरैविनयादिगुणैरवदातै तहृदयत्वेनाशिपो ददत्सु । कथमित्याह । हे भूपता३इ भूपते आयुष्मान्भव युष्मान्भो अभिवादय इति कुमारपालाभिवादोत्र गम्यः । "अस्त्रीशूद्र" [७- ४. १०१ ] इत्यादिना प्रत्यभिवादेन प्लुतः । तथा हे सुबुद्धा३य् सुबुद्धे शान्त्या३ इन्द्रियजयेन कृत्व(३नप्यजय३: । सर्वत्रात्र "प्रश्ने च." [ ७. ४. ९८ ] इत्यादिना प्लुतः। तत्तस्मात्केनाप्यजेयानामन्तरङ्गद्विषामपि जयाद्धेतोहे जिष्णा३व् जिष्णो ऊर्ज जगत्रयेपि बलिष्ठो भव । विकल्पेन [य]न्ताभुरादय इति मताश्रयणान्नात्र णिच् । तथा हे ऐ४न्दवे अत्राणन्तायूनीज् । हे सोमवंश्य तथा हे चौ४लुक्य. चूडामणे जगद्रक्षायै चिरं जय । तथा क्ष्मानृण्यीकरणानिज संवत्सरं प्रवर्तयं च । पृथ्वीमनृणीकुर्वन्हि निजनाम्ना संवत्सरं प्रवर्तयतीति स्थितिरिति ॥ प्रश्ने । सोमेट्पुरी३मकलय३[:] सुमताइ । आप३: साधाउ । तत्र३अभू३वरकुमारविहार[चैत्य] दृष्ट्या३इ । गूर्जरपुरे३ अगम३[] पृथा३उ ॥ अायाम् । भक्तोसि साधा३उ ॥ विचारे । ततो वसामि गिरा३उ किं ते पुरि ॥ प्रत्यभिवादे । आयुष्मान् भव भूपता३इ । अत्र "प्रश्नार्चा०" [१०२] इत्यादिना संधियोग्यस्य संध्यक्षरस्य प्लुतो भवन्नाकार इदुत्परः प्लुतो भवति । स च प्रत्यासाया एकारैकारयोरिकारपर ओकारौकारयोरुकारपर इति ॥ -... --.--. - - - - - - - -~-~~~------ - १एदा सदा स'. २ सी त्यै च. ३ सी जिष्णो. ४ सी वेति. ५.सी नृणीक. ६ सी यस्व । पृथिवीम'. ७ सी गिरौ३उत किं. ८५° काररै'. Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ व्याश्रयमहाकाव्ये [कुमारपालः अजय[:] शान्त्या३ सुबुद्धा३यपी३न् । जिष्णा३वूज । इत्यत्र "तयोवी." [१०३] इत्यादिना तयोः सुताकारात्परयोरिदुतोः स्थाने स्वरे परे संहितायां विषये यवौ ॥ केचिदैदीतोश्चतुर्मानं लुतमिच्छन्ति । ऐ४न्दवे । चौ४लुक्यचूडामणे ॥ पदविधिद्वत्समोंभवत् । इत्यनेन “ समर्थः पदविधिः " [ १२२] इति सूत्रार्थो ज्ञापितः ॥ शार्दूलविक्रीडित छन्दः ॥ अष्टाविंशः पादः समर्थितः ॥ इति श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यलेशाभयतिलकगणिविरचितायां श्रीसिद्धहेमचन्दा भिधानशब्दानुशासनद्याश्रयवृत्ती विंशः सर्गः समर्थितः ॥ १ए 'मर्थ प. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४३ संपूर्ण चेदं व्याश्रयमहाकाव्यं तत्संपूर्णा च तद्वृत्तिरपीतिं शुभमस्तु ।। नमः श्रीपार्श्वनाथ जिनदत्तगुरुपादपद्मेभ्यः । प्रसीदन्तु जिने - श्वरसूरिगुरुपादाः | सदा प्रमत्यै तत्रभवत्यै सरस्वत्यै नमोस्त्वति ॥ श्री चान्द्रे विपुले कुलेतिविमले श्रीवर्धमानाभिधाचार्येन्द्रस्य जिनेवरोन्तिपदभूत्सूरिर्द्विजानां पतिः । श्रीमद्दुर्लभराजसंसदि वसत्यध्वानमुद्द्योत्य यः साधून्साधुविहारिणो व्यरचयच्छ्रीगुर्जरात्रानौ ॥ १ ॥ संवेगरङ्गशालां सुधाप्रपां त्वकृत शिवपथिकहेतोः । 'योन्तःसिद्धिपथं तत्पदे (हे ?) स जिनचन्द्रसूरिमदेत् ॥ २ ॥ तत्पदेभयदेवसूरिरभवद्यः पार्श्व कल्पद्रुमं सच्छायं श्रितदत्तवाञ्छितफलं श्रीस्तम्भनेरोपयन । जन्तूनां हितहेतवेत्र सुघटीर्थैः सदोद्रसैः संपूर्णाश्वनवाङ्गवृत्तिसरसीः श्रेयोर्थसोच्यतः ॥ ३ ॥ तच्छिष्यो जिनवल्लभो गुरुरभाचारित्रपावित्र्यतः सारोद्धारसमुच्चयो नु निखिलश्रीतीर्थसार्थस्य यः । 99 सिद्धाकर्पणमन्त्रको न्वखिलसद्विद्याभिरालिङ्गनात् कीर्त्या सर्वगया प्रसाधितनभोयानाग्र्यैविद्यो ध्रुवम् ॥ ४ ॥ तत्पट्टाम्बरसूरडम्बरधेरैः कृष्णद्युतिदैवतैः सेव्यः श्रीजिनदत्तसूरिरविभः प्रायां युगाप्रीयताम् । १ सी 'ति । न'. • रिणे व्य. एस. स्वस्थि. ૪ ५ ए शालायां सु. ९ सी 'जीवन'. १२ सी ध्यपियो'. २ सी नाधाय श्रीजि . ३ सी ६ सी योन्तिसिद्ध '. १० सी सूच्यात । तँ. १३ सी हारणो. ४ ए ७ सी 'तहत '. ११ सी को घर कृ°. १४ सी 'रिभविभ प्रा. Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ केनाप्यस्खलितप्रतापगरुडो यम्य त्रिलोक्यां स्फुरं खोटं बोटमपास्यति श्रितवतां विनाहिपाशान्क्षणात् ॥ ५॥ तत्पेठेचलचूलिकाञ्चलमलंचक्रेप्टवोपि स __ श्रीसान्द्रो जिनचण्डसूरिसुगुरुः कण्टीरवाभोपमः । यं लोकोत्तररूपसंपदमपेक्ष्य स्वं पुलिन्दोपमं मन्वानो नु दधौ स्मरस्तदुचितांश्चापं शरान्पञ्च च ॥ ६ ॥ आरुह्य क्षितिभृत्समाचतुरिकां निर्जित्य दुर्वादिन स्तेजोग्नौ ज्वलिते लसत्यनुदिशं नादे यशोदुन्दुभेः । पाणौकृत्य जयश्रियो गुरुमहैर्यः सा(शा?)रदां मातरं पृथ्वी चोन्मुदितां व्यधाजिनपतिः सूरिः स जज्ञे ततः ॥७॥ प्रासादोत्तमतुङ्गशृङ्गसुभगं पर्यष्करोत्तत्पदं' ___ श्रीमान्सूरिजिनेश्वरोत्र भगवान्गाङ्गेयकुम्भप्रभः । माधुर्यातिशयश्रिया निरुपमा यद्वाचमन्वहतो नूनं सापि सिता मुधा च लवणं वारीव चोत्तारणाम् ॥ ८॥ या रूपातिशयाद्विदूषकमिवानङ्गं हसत्यञ्जसा ___ सौम्यत्वान्नु ददाति लेक्ष्ममिषतः पत्रावलम्वं विधौ । नानासिद्धिरमाद्भुतात्करकजान्जित्वैव लक्ष्म्याश्रितं पद्मं वात्ततृणाननं वितनुते मन्ये मृणालच्दलान ॥ ९ ॥ सूरिजिनरत्न इह बुद्धिसागरः सुधी रमरकीर्तिः कविः पूर्णकलशो बुधः । ज्ञौ प्रबोधेन्दुगणिलक्ष्मितिलको प्रमो दादिमूल्दयो यद्विनेयोत्तमाः ॥ १० ॥ १ सी पट्टां व. २ सी हैर्यच्छार. ३ सी व्यध्याग्जि. ४ सी दं धीमा'. ५ सी लक्ष्म्यमि'. ६ सी लक्ष्म्युझितं. ७ सी लमो बु. ८ सी त्तमा । सु. Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ सुगुरोस्तस्यादेशात्स कर्णकर्णोत्सवं विवृतिमेताम् । स्वमतिविभवानुसारान्मुनिय॑धादयतिलकगणिः ॥ ११ ॥ आम्रांती सर्व विद्यास्वविकलकविताकेलिकेलीनिवास(सः) कीया (र्त्य?)कवेः पारदश्वा त्रिभुवनजनतोपक्रियास्वात्तदीक्षः । निःशेषग्रन्थसाथै मम गुरुरिह तु याश्रयेतिप्रकामं टीकामेतां स लक्ष्मीतिलककविरविः शोधयामास सम्यक् ॥१२॥ अंग्ये द्वादशभित्रयोदशशते श्रीविक्रमाब्देष्वियं श्रीप्रह्लादनपत्तने शुभदिने दीपोत्सवेपूर्यत । मेधामान्धमदात्कथंचिदिह यच्चायुक्तमुक्तं मया शोध्यं स्वल्पमतौ प्रसद्य मयि तनिर्मसँरै धिरे(रैः) ॥१३॥ सप्तदश सहस्राणि श्लोकाः पञ्च शतानि च । चतुःसप्ततिरप्यस्या वृत्तेर्मानं विनिश्चितम् ॥ १४ ॥ प्रक्रीडत्परिमाद्यदङ्गिसुभगा श्रीभूर्भुवःस्वस्त्रयी सर्वेषां परमेष्ठिनां सितयशोभिद्योतिता सर्वतः । यावदीपमहोत्सवं प्रविभृते तेषां प्रतापोज्वल हीपैस्ताव दियं करोतु विवृतिः प्राज्यं सुराज्यं भुवि ॥ १५ ॥ १ सी शात्स्यक. २ सी नाता स. ३ सी अग्रे द्वा. ४ सी सरे। स'. ५ ए°नां शत. ६ ए तापव. ७ सी राज्ये भु. Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : छन्दस्सूचि : 1. अनुष्टुप 1.1, 196; III.1,158; V.1,141; VII.1,141; IX.1,166%; XI.1,117; XIII. 1, 108; XV.1,121; XVII.1,137; XIX.1.136. 2. इन्द्रवज्रा II. 2,9,20, 32, 38, 47,49, 55, 57,87,90,94,98,104, 106,107; VI.14,15,18,20,27,32,40,41,53, 59, 63,71, 72,76,78,83,84,92, 101,104; IX.167; X.1, 2, 5.7,12, 23,32. 58,61,65,69,70,72.75,80,81; XIV. 3,10,13.15,20, 23, 27,33,37,45,46, 54,57,61,62,64,65,67,70,XVI. 6,20, 38,43, 44,50,51, 56,68,75,84,86,94; XVIII. 13,18,28, 32,43. 86; XX.12,28,68,72,74,86. 3. इन्द्रवंशा XVIII. 17. (वंशस्थसहित), 45, 56,57,59. 63,67,80,81, 83.85,97,99.100,XX.7,9, 22, 30,42,44,65,70. 4. उपजाति ||. 1,3,8,11,18,21,23-31,3337,39,45,48,50,54 56, 58,61,63,86,88,89,91,93,95,97,99,103, 105%; VI.1,13,16,17,19,21, 26, 28,31, 33, 39, 42,52, 54,58, 60,62,64,70,73,75,79,82,85,91,93,100,102,103,1053; XI. 172, X. 3, 4, 6, 8,11, 13,22, 25,31,33,42, 44.51,53,57,59,60,62,64,66,68,71,73,74,76,79 82,853:XII.76,XIV.1,2,4,9,11,12,16,19,24.26,34.36, 38,44.4753.58.60.63.66.68.69.71:XVI.1.5.7.19. 21,37, 39,42,45,49, 52,55,57,67,69,70,72,74, 76.83,85,87,93; XVIII.7,9,15,21,22,24,26,27, 30, 38, 49,58,60,62,70,73,90,92,94,98,103:XX.3.6,10. 14,15,23,24,32,34,36,38,39,45,47,48,58,59,73, 75.77.83,94,101 5. उपेन्द्रवज्रा ।।, 10, 19, 22,46; X. 24,43; XVI.71; XVIII. 8, 68, 74;XX. 31,84. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. औपच्छन्दसिका VI. 1,90; XII.77; XV. 124; XVIII. 12,23,29 (अपरान्तिका). 37,40, 51,54,66,89,104;XX. 60,63,71, 79,80,82,96. 7. केकिरव XII. 1,75; XVIII. 47.48. 87,101; xx. 51,61. 8. कोल xx. 4. 9. दोधक xx. 69. 10. द्रुतविलम्बित XVIII. 39,53. 11. नन्दिनी XVI. 125. 12. पुष्पिताग्रा VII. 125. 13. पृथ्वी III. 110, 14. मत्तमयूर ||. 109., XVIII, 44. 15. मन्दाक्रान्ता Xx 5, 89,90. 16. मृदङ्ग XVIII, 102. 17. रथोद्धता IV 93., XVIII. 33,42,52,91.,xx.8,16, 46,57,62,77, 18. रुचिरा XV. 123. 19. वसन्ततिलका 1.197,98., ||.1083; III.160; VI.106; VII.142; X.87; XI. 118; XII.80,81; XII.109.110; XIV.72; XVII.1383; XVIII.16.20; 31, 33, 50, 61,78,82,84, 95, XI.137; Xx.1, 2, 11, 13, 17, 18, 20, 21, 27,40,49,66,87,88,95,97, 99,100; 20. वैतालीय 1. 199;XX. 41. 21. वैश्वदेवी 1.169: XII; 78 79.xiv.73.XIV.73.XVIII.10.16. 41,55,75,XX. 33,55,78,91,93. 22. वंशस्थ XVIII.17; (इंद्रवशायुक्त), 45, 56.57, 59,63, 67,72,80 83, 97,75, 100,xx.7,9, 22, 42, 44,65,70. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. Scafamifta i 200,201; III. 159; IV.94; V.142. IX. 186, X.88, XIV. 74, XVIII. 79, 98, 102. 24. Tifosat VII. 1 20., IX. 170,171; X.86: XVI. 95,96, XVII.46, 64, 77; (XX. 19, 43, 52, 54, 76, 85.) 25. frafot VI. 107; XVIII. 25, 26. gspai X. 89.90., XVIII. 25, 27. wfiqul IV. 91.92., XVII.66. 28. Farat VIII. 21, 120; XVIII. 1, 6, 14, 76, XX.29, 37, 50, 53, 29. front VIII. 121,124. (NARANG, S. P. Dvyasrayakavya : A literary and cultural study p. p. 91-93 À ATHR Gaya) Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ દ્વયાશ્રય કાવ્યમાં આવેલા વિશેષ નામની સૂચ (संत सूयि. Sircar = Sircar D. C. Studies in the geography of ancient and medieval India. Bajpai = Bajpai K. D The geogra-phical encyclopadedia of ancient and medieval India. DV= Hemchandra's Dvyasrayakavya by Satya pal Narang સંસ્કૃત દ્વયાશ્રય કાવ્યમાં મધ્યકાલીન ગુજરાતની સામાજિક સ્થિતિ” (લે. રામલાલ ચુનીલાલ મોદી, પ્ર. ગુજરાત વર્નાક્યુલર સોસાયટી-અમદાવાદ) માંથી લીધેલ-ક્રયાશ્રય કાવ્યમાં આવેલ વિશેષ નામોની સૂચિ. नय: (१) स्थान सामान्य पश्यिय (श, नही, नगर) । प्रभारी. (૨) સૂચિત અંકોમાં પહેલો અંક સમે અને બીજો અંક બ્લોક બતાવે છે. એ અક મૂળ કાવ્ય અને ટીકા બને તે માટે છે. (3) Ul. 4. -Cuningham's Ancient Geography of India, edited by Surendranath Majumdar Hhastri अङग ६, १६, ७, ९७-१३४, १५, ८६: देश भागलपुर पासेना चपापुर अने चंपानगर. (Bajpai) अचलेश्वर १६, ४८; आबु पर, शिवमन्दिर अजिरवती ६, ६२, नगरी- राजकोटनी आजीनदी उपर हशे अणहिल्लपाटक १, ४, चौलुक्यानी राजधानी अतिराज ५ ४५; श्रीमालनो राजा (टी०) आबुनो राजा अन्तर्घण १२, ६६, देश अन्ध १३ , ६९; पर्वत अन्ध्र ७., १०५ - १३८, ८, ४८; देश - आन्ध्र. गोदावरी - कृष्णा वच्चेनो देश (Bajpai) मद्रास ईलाकानो उत्तरप्रदेश. अन्ध्र ७. १०५ - १३८, ८, ४८; अन्न देशनो राजा अप्ह १५, ९८; शिहोर पासेन गाम-अनोडा? Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरेषुकामशमी १६, १५; गाम अभिजित्य १९, ९८; अभिजतनो पुत्र अभिसार १६, २४; देश - झेलम अने अभिसारगर्त चिनाब वच्चनो प्रदेश. अर्जुन ९, ३९; (टी०) सहस्त्रार्जुन - प्राचीन राजा अर्बुदाचल १६, ३३, आबु पर्वत अबुदेश्वर ५, ४२, आबुनो राजा अरोहणक १५. ९६, देश अलङ्कारवती ६, ६२, नगरी - सिकंदरे सिंधुना तोरे वसावेलु अलकंद तो नहि होय? अवन्ती १४, ५, ९९, १२५; नगरी- उज्जैन अश्वपालिक २४, ७४; राजा - अश्वपालीनो पुत्र अश्म ३, ८४; देश अश्मक २५, १०१; देश के नगर - मलकन्द घाट पासेनो किल्लो ? (प्रा. भू. पृ ६६७) अहीवतिका २.६१; नदी - नागमती? आन्न १६. ७-१३, १८, ९-४३: अर्णोराज-अजमेरनो राजा आभीर २, ६२, देश आयामुख १६, ३२, गाम - काशिकामां आयोमुखा जमाव्युं छे रायबरेलो जिल्लान प्रतापगढ (प्रा. भू. पृ. ४४३) आश्चत्थिक १५. १०१; देश के नगर आहूजाल · १६, २०-२१; गाम इक्कटिक १५, १०१; देश के नगर इन्दुवक्र १६., २६, देश इक्ष्वाकु १६, ३२; देश उज्जयन्त १५, ६०, गिरनार पर्वत उत्तरकोसल १, १४९, देश-अयोध्यानो प्रदेश. अत्यारे Bharaich District (DV) उत्स १६. ५२: देश-उच्छ (पंजाब) झेलम अने चिनाबना संगम पर (प्रा. भू पृ. २७७) उर्दि १६, १०, देश उशीनर १६, २०, गाम. Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण ऋषोवती २, ६१: नदो ऐरावत १६, २४, देश औत्स १४, ४१; उत्स देशनो राजा औदपान १४, ४१; उदपान देशनो राजा औदुम्बर १५, ९०; उदुम्बर नगरनो राजा-उमरडा? (काठियावाड) औदुम्बरि १५, ३८; प्रभासनो पुराध्यक्ष गंड औपगवा १४. ३८ उपगव ऋषिना शिष्यो यशोवर्माना सैनिको कच्छ २. १०५, १०६, ५, १२१; देश कटवर्तक १६, ३२; देश कदम्बकुल ९. १५३; राजवंश - मीनकदेवीना पितानो कनकचूड १३. ४५; नाग कन्था १६,.१४: चेदि देशनो राजा ९ ७४-१५७. ११, ६५ - ११५; चौलुक्य-सिद्धराजनो पिता कलचूरि ९, २८; चेदि देशनो राजवंश द्रविडनो उत्तरे ओरिस्सानी सरहदे दरियाकाठे आवेल प्रदेश (DV) कलिङग ९, ३६: १२-६, देश - राज महेन्द्रीनी आसपासनो प्रदेश - आन्ध्रनी पश्चिमे (प्रा. भू पृ ५९१) कश्मीर १३, ८८; देश - काश्मीर कश्यक १५, १०१, देश अथवा नगर काक १६, २३; (टी०) कुमारपालनो ब्राह्मण सेनापति काकन्दकी १६, २२; नगरी काण्डाग्नि १६, २६, देश कापिश्या १६. ११: (टी०) नदी अथवा नगरी - काबूल ( प्रा. भू. पृ. ६७२) काम्पील्य ६. २६; पांचाल देश- नगर - फरकाबाद जिल्ला कंपोल (प्रा. भू. पृ. ७०४) काायणी कार्मायणो १५. १७, जैन ब्राह्मणो कारन्तप १६, २०; गाम कारीषगन्धी ४, ९४; कोई राणीनुं नाम कालो कालिका १४, १३-१४; अवन्तीनी योगिनी Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशि ९, ३३ काशीनो राजा काशिल १५, ९५ नगर काशीश्वोय १५, १०० नगर कोर ६, २३ काश्मीरनो राजा कुण्डिन ५, १२१ नगर कुन्तल ७. ३५ देश - कर्णाटक कुमारपाल १५, ५५-१२३: १६ -१ पाटणनो राजा कुमार चैत्य २० १०० जैन मन्दिर कुमारपालेश्वर २०, १०१ शिवमन्दिर कुमुदिक १५, १०१ देश कुरुदेश ८, ४६ अत्यारनां यमुना नगरनो प्रदेश (DV.) कुरु जंगल २०. ४४ देश सीरहिन्द (Sirhind) मां आवेल हस्तिनापुरनी पश्चिमनो उत्तर प्रदेश (DV) कृकण १६, ३४ दश कृष्ण १९. ९८ राजानुं नाम-कुमारपालनो सामन्त अने बल्लालना पक्षमा जनार केक्काण १९ २३ (टो०) देश - बलुचिस्तान? केदार २०, ९० तीर्थस्थान केदार देव १५. १४ तीर्थस्थान कैतवायनि १५, १५ मुनि कैलास ५, २३ पर्वत, हिमालयनो भाग (Sircar) कोटरावण ६.६१ वन-काठियावाडनं कोटडा? कोल्लापुर ६, २२ नगर कौण्डेयक कोणेयक १६. ९ आन्ध्र देशनी कुण्ड्या नदी के नगरीनो राजा कुण्या नदी के नगरीनो राजा कौमुदिक १५. १०२ देश अथवा नगर कौलक १६. २५ सौवीरना कूलगामनो रहेवासी कौशाम्बी १५, ९० नगरी -प्रयागना नैऋत्य खूणे ३० माईल दूर आवेलु कोसम आ न होय - आ काठियावाडमां होय एम लागे छे. कौशल्यायनि १५, १६ ब्राह्मण (जैन) क्षीरसमुद्र ८, ४२-४३-४४ (टो०) समुद्र Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेमराज ९, ७० -७२-७३ राजा-सिद्धराजनो काको क्षौद्रकमालवी १५, ४८ मालवानी सेना खइरालु २, ५६ (टी०) गाम - खेरालु खरशाला १६, ५८ गाम खस खसा २०, ९० देश अथवा जाति खाण्डवक १५, ९६ देश गजबन्ध ९, ३४ (टो०) देश नुं नगर गन्ति ९, ३६ राजानुं नाम गह १६, ३४ जलं धरनी सभोपनो देश (टी.) गंगमह ५.२ राजानु नाम गंगा ३, ४. ५ २१ नदी गंगाद्वार ५. २ देश-हरद्वार ( प्रा. भू पृ. ७२६) गंगा साथेसंकळायेल्तीर्थ गंगापारपति ५, ३५ काशीनो राजा गिरिनदी ४, ६ नदी- जम्बुमाली गुर्जरत्रा ५. १२१. १६.११ (टी०) देश-गुजरात गुजरेश ७, १०६ गुजरातनो राजा गुर्जर १८, २०-४६ गुजरातनुं गुर्जरत्रा ५: १२१ गुजरात गोदौ ३, ८४ गोद गामनो राजा गोष्ठा १६, १५ गोष्ठ्या गामनो राजा गोनर्दीय १६. १७ अवन्तीना गोणद पत्तननो राजा __ - बल्लाल, पैठणथी श्रावस्तिना मार्ग उपर (प्रा.भूपृ७२६) गोविन्दराज १८, ९७ राजा - अर्णोराजना पक्षमाथी फूटी कुमार पालना पक्षमा आवेलो गोस्थान १६, ५८ देश गोशाल १६. ५८ देश गौड ९, ३८ देश-पश्चिम बंगाल गौधार १४, ७४ राजानं नाम गौमती १६. १५ गोमता नदीनो राजा Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्त १६, २७ देश चण्डिका चाण्डालदेवी १, १८८ मूलराजनी माता चन्द्रपुर ९ ९९ कदम्बवंशनी राजधानी चामुण्डराज ६. १; ७. ३१ (टी.) पाटणनो राजा चारण १६. ४६ जाति चाहड १६. १४; १८, ९७-१०३ (टी०) कुमार पालनो सामन्त चीन ८, ५८ देश चुल्य १५, ९८ शिहोर पासेनुं गाम चेदि ९. १ देश-बुन्देलखण्ड चेदिप ९, १३ चेदि देशनो राजा चौलुक्य ७, ११२, १.२-३-१३५ सोलंको वंश छाग्यायनि १५, १६ जैन ब्राह्मण जम्बुमाली ३. १५३, ४, ८१, ५, ३७, नदी जम्बुरी (काठियावाड) जम्बक २, ५६ मूलराजनो महामन्त्रो जेहुल २, ५६-६१ मूलराजनो सामन्त-खेरालुनो राजा जर्त ४, ८ देश-कच्छ जयकेशी ९, १००-१५४, १४. ५०; चन्द्रपुरनो राजा-मोनलनो पिता जयसिंह ११, ३९, १४, १४-४८; १२, ८०, पाटणनो राजा-सिद्धराज जहलणा १९, ५०; कुमारपालनी राणी- अर्णोराजानी पुत्री जाङगल १८, ७८, देश तन्ति ९, ३६: राजानुं नाम ताणबिन्दवि तार्णबिन्दोवक १५, ११ राजानां नाम ताायण १५, ८८, राजानुं नाम तुदी १७, ३, देश तुरुष्क २, १०५: मुसलमान तुरष्केश ७, १३७; मुस्लिम राजा नो सरदार तेज ८, ५८; राजानु नाम तेक १६, १५, तैकया गामनो राजा Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैकायनि १५, १५-३८, मुनि तेकायनोय १५, १४: राजानु नाम तणसा १५, ९५, नदी त्रिककुद् २०, २३, लंकानो पर्वत विगत १६, २४: देश-रावो, बियास अने सतलज वच्चनो प्रदेश (प्रा. भू. पृ ६८३) जलन्धर (अ. चि.) त्रिभुवनपाल ११, १४४ १५ ५५ः कुमार पालनो पिता दटक्क ३. ९९, मूलराजनो काको दत्ता ६. ४१० लाटदेशनी राणी दधीस्थली ९, ७७; गाम-देथली (सिद्धपुर पासे) दमनक १३, ७२: नागकुमार दर्व १६. २४: देश दशावतार्या उद्यान १३, २९, पाटणना दशावतारी मन्दिरनो बगीचो दशावतारी १५, ११९: पाटण- विष्णुमन्दिर दशार्ण ९. ३३, देश - मध्यप्रान्तमां बेसनगरनी आजुवाजुनो प्रदेश दाक्षिकन्या दाक्षिपलद दाक्षिनगर दाक्षिहद १६, ३२-३३, गामनां नाम द्रागव्यायनि १५. १६: ब्राह्मण (जैन) दामोदर ९. २६-६१, भीमनो सन्धिविग्रहिक दारद ६, ४५, लाट-दारद राणीनो पति दारद्य ६. ३९; दरद राजानी पुत्रोनो पति - बारप दार्तेय १४. ६८, दत्ताराणीनो पुत्र दुर्लभराज ७. १३. पाटणनो राजा दुर्लभदेवी ७, ९२: दुर्लभराजानी राणी देवदत्त १९, ८३, कुमारपालनो साको - कदाच अर्णोराजना पुरोहितनो पुत्र हशे अने लग्नमां तेणे साकानें काम कर्यु हो देवपत्तन १५ ३७ सोमनाथ पाटण देवप्रसाद ९, ७२, ११, ११३, कुमारपालनो पितामह देविका २०, ३०, नदी देवयातवक १५, ८७, देव यातनो राजा Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुणस ४, २: ग्राहरिपुनो दूत द्रुमती १५ ९०, नदी-देमइ (मोरबी राज्य) द्रुहिणतनया ६, १०७ नदी-सरस्वती द्वारका ५, १२१ नगर द्वारप ६. २७ लाटनो राजा द्वाराहक १५. १०१ देश के नगर धारा १४. ७०-७३ नगरी (मालवामां) धूम १६, २४ देश नन्ति ९. ३६ देश नदसा १५, ९५ नदी नडकीय १५. १०० नगर नड़वल ७, ७३ (टी.) देश-नाडोल ( मारवाड) नागराज ७, २०-११३-११७: ८.१ भोमदेवनो पिता नान्दीपुर १६, २३ नगर - नान्दोर नापितवास्तु १६. २१ गाम नामिसूनु १६, ५० जैन तीर्थकर - ऋषभनाथ निम्बजा ७, ४२ देवी नीलहद १४. ६५ सरोवर - नर्मदानो पुत्र नेमि १५, ६३ जैन तीर्थंकर - नेमिनाथ नेकेती १६, १६ गाम पञ्चनद ८, ७४: १९, ११२ सिन्धुनो प्रवाह पञ्चाल १५ २८ पञ्चाल देशनो राजा पत्तन ७, ३१ (टी.) पाटण परमार ५, ४७ आबुनो राजा पदि १६. ११ देश पर्ण १६. ३४ देश पल्ली २०, ३३ देश-पाली (मारवाड) पाक्षायण १५. ९९ देश पाञ्चालायनि १५. १८ पाञ्चालना राजानो पुत्र Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डु ६. १८ देश पाटच्चर १६. १५ पटच्चर देशनो राजा पाटलिपुत्र १६, २२ नगर ( मगधमां ) पाताल १३. ४२ पाताल पान्थायन १५. ९८ गाम पारा १६, ८: ७ ३५ नदी ( मालवा ) पालाशक १५. १०१ देश के नगर पिङगलिका १२, ७६ पिप्पल कच्छ १६, २६ बर्बरकनी पत्नी देश पुण्ड्र ८, ४१ देश- पूर्णिया, दीनाजपुर अने राजशाही परगणांनो प्रदेश (प्रा. भू पृ. ७२३) गौडदेश (Dey ) पुरगामना वननो राजा देश पिङगल ऋषिनो शिष्य पुरगावण ६. ६० पूर्वभद्र १६, १५ पैङगल १४, ३८ देश प्रक्षण १५. ९५ प्रागर्बुद ५ ३७ प्राची ६. १०७ प्राची सरस्वती १५, १६ पूर्वाभिमुखी सरस्वती देश आवुनी पूर्वनो प्रदेश सरस्वती नदो प्लक्षकीय १५. १०० नगर फल कि १५० ९५ देश फाण्टाहत फाण्टाहतायनी १५. १० राजा फाल्गुनीवह १६. २३ देश फुल्ल २, १०६ फुलाणी-लाखानो बाप बाबरो १२, ६५ बर्वरक १२ ३३: १३. १०६ बाबरो बर्बरराज ८, ५८ बर देशनो राजा सिन्धमां आवेलुं मंबोरा (प्रा भू पृ. ३३७ ) बल्लाल १६, ८-२२: १९, १३ ९७ (टो.) मालवानो राजा बीज ३, ९९ (टी) मूलराजनो काको वुधान्वय ११, २७ ( चन्द्रसुत) बुधनो वंश Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मो ११, ११५ नदी-सरस्वती भद्रमट ९ ३४ गजबन्ध देशनो राजा भद्रा ४, ७६ नदी - भादर भागवित्तायन भागवित्तिक १५. ११- १२ , राजाओ भीम ८, १-११९, ९.१-४-४०-६३ - -७५; १४, ५० पाटणनो राजा भिल्ल १, १७९ जाति । भोगवती. १३, ४२ पातालनी नगरी भौरिकविध भौलिकविध १५, ८९ भौरि (लि) कोनु राज्य मण्डुकेश्वर ९, ७६ (टो.) देथली पासेनुं शिवमन्दिर मद्र १६, २१ देश-पंजाबमां शियालकोटनी आसपासनो प्रदेश (प्रा. भू पृ. ६८६) मथुरा ८, ४२ (टी.) नगर मधुमत् १५, ९० मधुमान् देशनो राजा (महुवा) मन्ति ९, ३६ देश मशि ५. १४ मरु (मारवाड) नो राजा मरुपुरी ७. ७३ मारवाडनी राजधानी (नाडोल) मयणल्ला ९. १०१ मीनलदेवी महिष्मान् १५, ९१ (टी.) देश महेन्द्र ४. ९४, ७, ६६ मारवाडनो राजा मालव्य मालविक ७, ३१-१३५ मालवान मागध ८, ४९ मगधन माहेय १६, ६ क्षत्रियनो जाति-महीडा (टो.) महियडा मिथिलोपवन ८ ४२-४३.४४ (टी.) मिथिलानुं वन माहिष्मती १५. ९१ (टी.) नगरी, दक्षिण अवन्तीनी राजधानी (DV १६४) मिश्रकावण ६. ६१ एक वन मूलराज १, १३५ पाटणनो राजा मेद ४. ४६ एक जाति मैमत मैमतायनि १५, १० राजाओ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यकृल्लोभ १६, १५ यकृल्लोमन गामनो राजा यन्ति ९. ३५ देश यमुना ८, ४२-४३-४४ (टो.) नदी - जमना यशोवर्मा १४, १२-१४- ५२-७०७३: १९, १३ (टी.) मालवानी राजा यामुन्दायनिक यामुन्दायनी १५ १२ राजाओ युगन्धर १६, २९-३० देश रत्नचूड १३. ४३ नाग रसातल १३, ८८ - १०१ सप्त पातालमांनु एक राष्ट्रिय १६, ६ क्षत्रियनो जाति राठोड ? राजि ३, ९९ (टो.) मूलराजनो पिता राजिनन्दन ४ ६३ राजिनो पुत्र - मूलराज - राजे सूनु ६.१०७ रेवती मित्र ५. १-२ रूद्रमहालय १५. १५ रुद्रमहाकाल १२, ६ (टी.) रुद्रमालना देव रुमण्वान २. ६२ पर्वत शैल प्रस्थनो राजा सिद्धपुरनो रुद्रमाल रेवा ९. ५४ नदी - नर्मदा रैवतक १५. ६१ पर्वत - गिरनार रैवतिक १४. ७४ राजा रोमक १६. १५ देश के गाम - इटालीनुं रोम ? १६. ११ देश रंक लक्ष लक्ष्मी २, १०५ : ४, ४७ ५ १०५ लाखो-कच्छनो राजा ७, ११३ (टो.) महेन्द्रनी बहेन नागराजनी पत्नी ਨਾਟ ६, २७ देश लाटपुरी ६, ५६ लाटनी राजधानी लाटेश ६, ८४ (टी.) लाटनो राजा लोम १५. ९८ गाम वत्सशाला १६. ५८ देश वर्णासा १६, ६५, १७, १ नदी - बनास Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्ति ९, ३६ देश वनवास ६, २० देश-उत्तर कानडानो सीरसी तालुको वर्मती १७. ३ देश वल्य १५. ९८ शिहोर पासेनुं गाम वल्लभराज ७, ८-३१ पाटणनो राजा वसिष्ठाश्रम १६. ३८ आवु उपर वह्मि १६ १० देश । वंग १५. ८६ देश - बंगाल वातानुप्रस्थ १६. २३ नगर वागभट २०, ९१ कुमारपालनो अमात्य वाचिणो ७, ३१ (टी०) चामुडंनी बहेन वाराणसी ७. ३१ (टी०) काशी वाशिला १५. ९६ नगरो? वासुकि १३, ४४ नाग वासातक १५. ८७ वसातीनो राजा वाायणि १५, १२ राजा वाहिक १६. १५ देश विक्रमसिंह १६, ३४ आवुनो राजा विजय १९, ९८ कुमारपालनो सामन्त विन्ध्य ७. १०४: ९, ३२ पर्वत-विन्ध्याचल वृजि १६. २१ देश वृन्दावन ८, ४२-४३-४४ देश वेणुक १६. ३५ देश वैकर्णेय १४, ७० विकर्ण ऋषिनो पुत्र वैदिश ६, ४५: १५. ८९ विदिशा नगरोन (बेसनगर) शङ्खपाल १३, ४४ नागकुल शरावतो ६.६२ नगरी शरजाचल ६. २१ देवगिरि शर्करीयेट शार्कर शार्क रिक १५ ९३ शर्करा - हलका पापाणनो देश शाकशापेयि शाकशापेयिक १५, ११ राजाओ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शामीवत्य १९, ९८ शमीवत राजानो पुत्र शावरजाम्बूक २०, ७५ गाम शिवरुप्य १६, १४ देश शिवशाण ८. ५४ देश - सिवाना (मारवाड) शिवहारा १६, ७ नदो शैखावत्य १९, ९८ राजा शुक्लतीर्थ ७, ५६ (टो०) तीर्थ- भरुच पासेनें शैब १५. ८६ शिबिओनो राजा शैरोषक १५, ९५ गाम-सेरीसा ( कलोल पासे ) शैलप्रस्थ ५, १ नगर (शिलप्रस्थ) नो राजा शोण ५, २१ नदी शौरसेन १६, १५ शूरसेन देशनो राजा शगालगत १६, ३२ देश श्रीमाल ५. ४५ नगर-भिन्नमाल श्रीस्थल ६, १०७, १२, ५ (टी०) नगर-सिद्धपुर श्रोणितपुर ८, ४२-४३-४४ नगर श्वभ्रमती ६, ४५ नदी- साबरमती सति सन्ति ९. ३९ राजाओ सपादलक्ष १६. ७ (टी०) देश - अजमेरनी आसपासनो मुलक सप्त गोदावर १९, ११२ देश - गोदावरीनो प्रदेश समरसिंह १४. २७ (टी०) राजा। सरस्वती १२. ८६ १०७ (टी०) नदी-सिद्धपुर-पाटणनी सहसलिंग। १५, ११४ (टी०) पाटण- सरोवर साखेय साखिदत्तय १५. ९८ शिहोर पासेनां गाम साति ९, ३९ राजा सारिकावण ६, ६१ एक वन साम्राज्य १५, ८ सम्राजना पुत्रो-क्षत्रिय साल्व १६, ३० देश कुरुक्षेत्र पासेनो प्रदेश (Dey) साल्वागिरि ६.६१ पर्वत सालातुर १७. ३ देश सांकाश्य १६. २३ नगर सिद्ध सिद्धिराट १५, ५० १९, १४] सिद्धराज Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धेश सिद्धपुर १९१३ १५. १५ : १२. ५ ( टी०) नगर आने श्रीस्थलपुर पण कहेवातुं (DV. 164) मालवानी नदी सिन्धनो राजा ८, ११६ - ११९ सिन्धनो राजा ७, ३५ सिन्धु सिन्धुपति ८ ५३ सिन्धुराज ६ १९: सिन्धुराट् ८, ८५ सिन्धुवह ८, ७४ सिप्रा १४. २७: सिहपुर १५, ९७ सुवर्णवलज २०, ४४ सिन्धनो राजा सिन्धुनो प्रवाह - पञ्चनद १४. ४२ मालवानी नदी नगर - शिहोर (काठियावाडमां) देश (टी०) देश- सोरठ सुराष्ट्र ४ : ३१ : २. ६३ सुरसिन्धु २०, ४६ वाराणसी - गंगानी प्रदेश सुह्म २०. ४६ नगर सैकोत्तर ४. ४९ सैप्र १४. ६८ सोमनाथ १५. १८ सोमेश १९. ९४ सोमवंश ९, ४२. सौयामायनि १५. १० सौयामायनिक १५. १२ राजा सौमेशवेश्म १५. स्नाक् सिध्रकावण स्थली (टी०) १६, २४ हन्ति ९. ३६ राजा हम्मुक ८, ११६: ९. १ (टो०) सिधनो हाकेम हार्दिक्य १५. ८ हार्दिकनो पुत्र - क्षत्रिय हारितकात्या : १४. ३८ हरितकात्यना शिष्यो हुल्लड १३, ७४ ८१ नाग हूळ ७, १०२-१३६ देश अथवा हूण देशनो राजा हद्गोल १७, ३ एक पर्वत समुद्रमांनो पर्वत - सोकोट्रा बेट ? सिप्रानो राजा - यशोवर्मा तीर्थ-प्रभास सोमनाथ महादेव चन्द्रवंश राजा ४१. सोमनाथनुं मंदिर ६, ६१ एक वन देश- थली ( राधनपुर पासे) Page #674 -------------------------------------------------------------------------- _