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दिगम्बर जैन ग्रंथ भंडार काशी
प्रथम गुच्छक ।
प्रकाशक---
पन्नालाल चौधरी।
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श्री दिगम्बरजैन ग्रंथभंडार काशी
प्रथमगुच्छक । ( उन्नीस संस्कृत ग्रंथों व स्तोत्रों का संग्रह )
प्रकाशक
पन्नालाल चौथा भदैनी, काल
बी० सं० २४५१ वि० से १९
प्रथमावृत्ति]
[न्यौछावर १॥
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प्रकाशकपन्नालाल चौधरी, भदैनी-काशी।
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VAALA
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मुद्रकबाबू जयकृष्णदास गुप्ता - 'विद्याविलास प्रेस, गोपालमन्दिर लेन, बनारस ।
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प्रकाशक का निवेदन ।
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इस प्रथमगुच्छक में प्रकाशित पहिले के १४ ग्रंथ बंबई के सुप्रसिद्ध निर्गयसागर प्रेस द्वारा सनातन जैन ग्रंथमाला के प्रथमगुच्छक में प्रकाशित हुए थे । इस समय उसकी कापी समात्र होजाने तथा गुच्छक की उपयोगिता के कारण यह गुजछक प्रकाशित किया जाता है। इसमें उक्त १५ प्रन्यों के अतिरिक्त पात्रकेसरिस्तोत्र, इष्टोपदेश, द्वात्रिंशतिका, सर्वावस्तवन और अन्त में श्री पार्श्वनाथस्तोत्र भी प्रकाशित हैं। यह गुच्छक नित्य पाठ संग्रह के समान ही नित्य पाठ करने योग्य गुटका है । अतएव इसमें मूलग्रंथ ही प्रकाशित किये गये हैं। आशा है कि पाठक इसे पसंद करेंगे। - इसके प्रकाशन में जहांतक होसका है शुद्धता पर अधिका ध्यान रक्खा गया है तौभी जो अशुद्धियां रहगई हैं वे अन्त में शुद्धिपत्र में प्रकाशित हैं। पाठक उन्हें सुधार लेवें।
इस महत्वपूर्ण कार्य में हमें पं० फूलचन्दजी शास्त्री (श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी के धर्माध्यापक) और पं० आनन्दकुमारजी शास्त्री से अधिक सहायता मिली है जिसके लिये हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। विजयादशमी )
निवेदकव० सं० २४५१ १ भदैनी- बनारस सिटी। J. पन्नालाल चौधरी।
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ग्रंथकर्ताओं का परिचय ।
श्रीवृहत्स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरंडश्रावकाचार, आप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन-इन ग्रंथों के कर्ता आचार्यप्रवर श्री समन्तभद्रस्वामी हैं जो विक्रम संवत् की दूसरी शताब्दी में हुए हैं । इनके बनाये हुए गंधहस्तिमहाभाष्य, जिनसत्तालङ्कार, विजयधवल टीका, तत्वानुशासन, चिन्तामणि व्याकरण, जिनशतक आदि ग्रंथ विद्यमान हैं। . .
समाधिशतक और इष्टोपदेश-इनके कर्ता श्री देवनंदि (फूज्यपाद) स्वामी हैं । जो विक्रम की चौथी शताब्दी में हुए हैं। इनके बनाये हुए पश्चाध्यायी ( जैनेंद्र व्याकरण सूत्र) सिद्धप्रियस्तोत्र, सर्वार्थसिद्धि, श्रावकाचार, पूजाकरुप, जिनसंहिता आदि ग्रंथ हैं। __ तत्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और समयसारकलशा-इनके कर्ता श्री अमृतचन्दसूरि हैं जो विक्रम की दशवीं शताब्दी में हुए हैं। इनके बनाये समयसार टीका,
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प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाम टीका आदि बहुत से अन्थ हैं।
परीक्षामुखसूत्र (न्यायसूत्र)-इसे आचार्य प्रवर श्री माणिक्यनंदि स्वामी ने वि० सं० ५६९ में बनाया है । ___ आलापपद्धति-इसे श्री देवसेनाचार्य स्वामी ने वि. सं० ९९० में बनाया है । इनके बनाये हुए प्राकृतनयचक्र, प्राकृतज्ञानसार, प्राकृतभावसंग्रह, प्राकृतदर्शनसार आदि ग्रंथ हैं। ___नयविवरण-इसके कर्ता का नाम अभीतक ज्ञाव नहीं हुआ है।
आत्मानुशासन- इसे स्वामी गुणभद्राचार्य ने बनाया है जो वि० सं० ८०७ में हुए हैं। इनके बनाये हुए जिनसेनाचार्यकृत आदि पुराण का उत्तर भाग, उत्तर पुराण, भावसंग्रह, टिप्पणीग्रन्थ, पूजाकल्प, जिनदत्तकाव्य आदि हैं। ___ आप्त परीक्षा, और पात्रकेसरिस्तोत्र-इसके कती आचार्य विद्यानंदि ( पात्रकेसरी ) वि० सं० की ९वीं शताब्दी में हुए हैं। इनके बनाये हुए विद्यानंदि परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, प्रमाण-निसंय, तर्क-परीक्षा, पत्र परीक्षा, प्रमाण मीमांसा, श्लो
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[A]
'कवार्तिकालङ्कार, अष्टसहली, तत्वार्थालङ्कार, देवागमाल कृति, आदि ग्रंथ हैं ।
तत्वार्थ सूत्र - इसके कर्ता आचार्य उमास्वामि विक्रम की प्रथम शताब्दी में हुए हैं ।
द्वात्रिंशतिका - यह अमितगतिसूरि की बनाई हुई है। जां विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं । इनके बनाये हुए लुभा - षितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, अमितगति श्रावकाचार आदि ग्रंथ हैं ।
सर्वज्ञस्तवन - इसके कर्ता श्रीजयानन्दसूरि हैं । जो विक्रम की १५वीं शताब्दी में हुए हैं । ये श्वेताम्बर थे । पार्श्वनाथस्तोत्र – इसके कर्ता श्री पद्मप्रभदेव हैं इनके समय का हमें पता नहीं चला ।
यह परिचय निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रकाशित सनातन जैन ग्रंथमाला के प्रथमगुच्छक व माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला पर से प्रकाशित किया गया है ।
प्रकाशक
पन्नालाल चौधरी ।
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पृष्ठम
Mor
अथ ग्रन्थानुक्रमणिका। ग्रन्थनाम १ वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् .. २ रत्नकरण्डश्रावकाचारः ३ पुरुषार्थसिधुपायः " ४ आत्मानुशासनम् ... ५ तत्त्वार्थसूत्रम् ( तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रं ) ६ तत्त्वार्थसारः ( तत्त्वार्थकारिका ) ... ७ आलापपद्धतिः ८ नाटकसमयसारकलशाः ( अध्यात्मतरंगिणी ) ... ९ परीक्षामुखसूत्राणि ... १० आप्तपरीक्षा ११ आप्तमीमांसा १२ युक्त्यनुशासनम् .. १३ नयविवरणम् १४ समाधिशतकम् ( सटिप्पणीकं ) १५ पात्रकेसरिस्तोत्रम् .." १६ इष्टोपदेशः ... " १७ द्वात्रिंशतिका .१८ सर्वज्ञस्तवनम् १९ पार्श्वनाथस्तोत्रम् .
इति ग्रन्थानुक्रमणिका
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( ॐ)
प्रथम गुच्छक ।
श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य्यविरचितम्.
* बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् । *
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स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समञ्जसज्ञानविभूतिचक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः | ११ प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः | ३| स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् । जगाद तत्त्वं जगतेऽर्थिनेऽञ्जसा बभूव च ब्रम्हपदामृतेश्वरः |४| स विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चितः सतां समग्र विद्यात्मव पुर्निरञ्जनः । पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः |५| इत्यादि जिन स्तोत्रम्.
यस्य प्रभावात्रिदिवच्युतस्य क्रीड़ाखपि तीवमुखारविन्दः । श्रजेयशक्तिर्भुवि बन्धुवर्गश्चकार नामाजित इत्यवन्ध्यम् ॥६॥ अद्यापि यस्याजितशासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमङ्गलार्थम् ।
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रतोत्र-संग्रह। प्रगृह्यते नाम परं पवित्र स्वसिद्धिकाभेन जनेन लोके ।। ७४४ यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्तिभूना भव्याशयालीनकल कशान्त्यै । महामुनिर्मुक्तघनोपदेहो यथारविन्दाभ्युदयाय आस्वान् ॥८॥ येन प्रणीतं पृथुधर्मतीर्थं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । गाझं ह्रदं चन्दनपङ्कशीतं गजप्रवेका इव धर्मतताः ॥ ६॥ स ब्रह्मनिष्ठः सममित्रशत्रुर्विद्याविनिर्वान्तकषायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनःश्रियं मे भगवविधत्तां१८
इत्यजितजिनस्तोत्रम्. त्वं शम्भवः संभक्तर्षरोगैः संतप्यमानस्य जनस्थ लोके। पासीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथा नाथ रुजां प्रशान्त्यै ११ अनित्यमत्राणमहं क्रियाभिः प्रसक्तमिथ्याध्यवसायदोषम् । इदं जगजन्मजराम्तकात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम् ॥१२॥ शतरुदोषचलं हि सौख्यं तृष्णामयाप्यायनमानहेतुः । ताभिवृद्धिश्च नाराज सं तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥ बंधा मोक्षश्च तयो हेर" बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः । स्वाहादिनो नाथ तवैर युक्तंकान्त दृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ।१४१ शकोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीतः स्तुत्या प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भवत्या स्तुतपादपद्मो ममार्य देयाः शिवतातिमुचैः।१५।
इति शंभवजिनस्तोत्रम्. गुणाभिनन्दाभिनन्दमो भवान् दयाव●क्षान्तिसखीमशिश्रयत् । समाधितन्त्रस्त दुपोपपत्तये द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन चायुजत् ॥१६॥ अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि ममेदमित्याभिनिवेशकग्रहात् । प्रभङ्गरे स्थावरनिश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥ १७ ॥ कदादिदुःखप्रतिकारतः रिथतिर्न चेन्द्रियार्थप्रभवारपरसौख्यतः
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वृहत्त्वयम्भू स्तोत्रम् |
ततो गुणो नास्ति च देह देहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत्र १८ जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न प्रवर्त्तते । दहाप्यत्राप्यनुबन्धदोषवित्कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत् | १६ | स चानुवन्त्रोऽस्य जनस्य तापकृत्त षोऽभिवृद्धिः मुखतो न चस्थितिः इति प्रभो लोकहितं यतो मतं तती भवानेव गतिःसतां मतः | २०| इत्यभिनन्दन जिनस्तोत्रम्.
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धन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं स्वयं मतं येत सुयुक्तिनीतम् । यतश्च शेत्रेषु मतेषु नास्ति सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः ॥ २१ ॥ श्रनेकमेकं च तदेव तत्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् | २२| सतः कथञ्चित्तदसत्वशक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । सर्वस्वभावच्युतमप्रमाणं स्ववाग्विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत् ॥ २३ ॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम् । नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमःपुङ्गलभावतोऽस्ति |२| विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥ २५ ॥ इति सुमतिजिनस्तोत्रम्
पद्मप्रभः
पद्मपलाशालेश्यः
पद्मालयालिङ्गितचारुमूर्त्तिः । भौ भवान् भव्य पयोरुहाणां पद्माकराणामिव पद्मबन्धुः ॥ २६ ॥ बभार पक्षां च सरस्वतीं च भवान्पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेत्र समप्रशोभां सर्वशलक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ॥ २७ ॥ शरोररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करमिच्छविरालिलेप । नरामराकी सभां प्रभावच्छैलस्य पद्माभमणैः स्वसानुम् ||२८|| नभस्तलं पल्लवयविव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः ।
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स्तोत्र-संग्रह। पादाम्बुजैः पातितमारदो भूमौ प्रजानां विजहर्ष भूत्यै ॥ २६ ॥ गुणाम्बुधेविषमप्यजनं नाखण्डलस्तोतुमलं तवर्षेः । प्रागेव मादृक्किमुतातिभक्तिमा बालमालापयतीदमित्थम् ॥३०॥
. इति पद्मप्रभस्त्रोत्रम्. स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभङ्गरात्मा। तृषोऽनुषङ्गान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान् सुपार्श्वः३१ अजङ्गमं जंगमनेययन्त्रं यथा तथा जोधृत शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः३२॥ अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्यवादीः३३॥ बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षोनित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः। तथापि बालो भयकामवश्यो वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥३४॥ सर्वस्य तत्वस्य भवान्प्रमाता मातेव बालस्य हितानुशास्ता। गुणावलोकस्य जनस्य नेता मयापि भक्तया परिणयसेऽद्य॥३५॥
इति सुपार्श्वजिनस्तोत्रम्. चन्द्रभ्रमं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्द्यं महतामृषीन्द्र जिनं जितस्वान्तकषायबन्धम् ॥३६॥ यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बाह्य बहुमानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ ३७॥ स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ता वासिंहनादैर्विमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केशरिणो निनादैः ।३। यः सर्वलोके ,परमेष्ठितायाः पदं .बभूवाद्भुतकर्मतेजाः । अनन्तधामाक्षरविश्ववतुः समेतदुःखक्षयशासनश्च ॥३६॥ स चन्द्रमा भव्यकुमुदतीनां विपन्नदोषाभ्रकलङ्कलेपः ।
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बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् । व्याकोशवाङ्मयायमयूखमालः पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे४०।
इति चन्द्रप्रभजिनस्तोत्रम्. एकान्तदृष्प्रितिषेधि तत्त्वं प्रमाणसिद्धं तदतत्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे खधाम्ना नैतत्समालीढ़पदं त्वदन्यैः॥४१॥ नदेव च स्थान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतीतेस्तव तत्कथश्चित् । नात्यन्तमन्यत्वमानन्यता च विधेनिषेधस्य च शून्यदोषात् ॥४२॥ नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धः । न तद्विरुद्धं बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते ॥४३॥ अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । आकाक्षिणःस्यादिति वै निपातो गुणानपेने नियमे पवादः४४ गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद्विषतामपश्यम् । तता भिवन्धं जगदोश्वराणां ममापि साधोस्तव पादपद्मम्।४५॥
. इति सुविधिजिनस्तोत्रम्. न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनस्ते नघवाक्यरश्मयःशमांबुगर्भाःशिशिरा विपश्चिता४६ सुखाभिलाषानलदाहमूञ्छितं मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुभिः । विदिध्यपस्त्वं विषदाहमोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहं४७॥ स्वर्जीविते कामसुखे च तृष्णया दिवाश्रमात निशिशेरते प्रजाः। स्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि ॥४८॥ अपत्यवित्तीत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्युनर्जन्मजरा जिहासया त्रयी प्रवृत्तिं शमधीरवारुणात्४६॥ त्वमुत्तमज्यातिरजः क निर्वृतः क ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । ततः स्वनिश्रेयलभावनापरैवुधप्रवेकैर्जिनशीतलेड्यसे ॥ ५० ॥
इति शीतलजिनस्तोत्रम्.
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स्तोत्र-संग्रह। श्रेयान जिनः श्रेयसि वर्मनीमाःश्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भवांश्चकाशे भुवनत्रवेस्मिन्नेको यथावीतघनो विवस्वान् ।५२। विधिर्विषतप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानम् । गुणो परो मुख्य नियामहेतुर्नयः सदृष्टान्तसमर्थनस्ते । ५२ ॥ विवक्षितो मुख्य इतीष्यते न्यो गुणो विषक्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्तिद्वयावधिः कार्यकरं हि वस्तु ॥५३॥ दृष्टान्तसिद्धावुभयोर्विवादे साध्यं प्रसिद्ध्येन्न तु ताहगस्ति । यत्सर्वथैकान्तनिवामदृष्टं त्वदीयदृष्टिविभवत्यशेषे ॥ ५४॥ एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धिायेषुभिर्मो हरिपुं निरस्य । असिस्म कैवल्यविभूतिसम्राट ततस्त्वमहन्नसि मेस्तवाहः।५५।
इति श्रेयांसजिनस्तोत्रम्. शिवासु पूज्यो भ्युदयक्रियासु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्रपूज्यः । मयापि पूज्योल्पधिया मुनीन्द्र दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्यः५६। न पूजयार्थस्त्वयि 'वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तबैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।५७॥ पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावधलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शोतशिवाम्बुराशौ॥५॥ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥ ५ ॥ बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिqधानाम्।६०॥
इति वासुपूज्यस्तोत्रम्. य एव नित्यक्षणिकादयो नया मियो तपेज्ञाः स्त्रपरप्रणाशिनः। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाःस्वपरोपकारिणः।६१॥
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वृहरस्वयम्भूस्तोत्रम् । यथै कशः कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्य विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः।६। परस्परेक्षान्वयभेदलिङ्गतः प्रसिद्धसामान्यविशेषयोस्तव । समग्रतास्ति स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुविवुद्धिलक्षणम्।६३१ विशेषवाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्यं विनियम्यते च पत्। तयोश्वसामान्य मतिप्रसज्यते विधतितात्स्यादिति ते न्यवर्जनम् ६४ नयास्तव स्यात्पदसत्य लाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमाः प्रणिता हितैपिणः॥६५॥
इति विमलजिनस्तोत्रम् अनन्तदोषाशयविग्रहरे ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि । यता जितस्तत्वरुचीप्रसोदतात्वया ततोभूभगवाननन्तजित् ।६६। कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथिनामशेषयन्नाम भवानशेषवित् । विशोषणं मन्मथदुर्मदामयं समाधिभैषज्यगुणैर्व्यलीनयन् ॥६७॥ परिश्रमाम्बुभयवीचिमालिनी त्वया स्वतृष्णासरिदार्य शोषिता। असंगवर्मार्कगभस्तितेजसा परं ततो निवृतिधाम तावकम् ।। सुहृत्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते द्विषन् त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवेहितम्॥६६॥ त्वमीहशस्तादृश इत्ययं मम प्रलापलेशोल्पमतेर्महामुने । अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधेः॥७॥
इत्यनन्तजिनम्तोत्रम्. धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । करकक्षमदहत्तपोऽग्निभिः शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥ ७१ ॥ देवमानवनिकायलत्तमै रेजिषे परिवृतो वृतो बुधैः । वारकापरिवृतोऽतिपुष्कलो व्योमनीव शशलान्छनोमलः ॥७२॥
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स्तोत्र-संग्रह। प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषन्नरामरान्नापि शासनफलेषणानुरः ७३ ।। कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो घोर तावकमचिन्स्यमीहितम् ॥ मानुषों प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमासि देवता श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ॥ ७५।।
इति धर्मजिनस्तोत्रम्. विधाय रक्षा परतः प्रजानां राजा चिरं यो प्रतिमप्रतापः। व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्तिर्मुनिर्दयामूतिरिवाघशान्तिम्॥७॥ चक्रेण यः शत्रुभयंकरेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ॥ ७ ॥ राजश्रिया राजसु राज सिंहो रराज यो राजसुभोगतन्त्रः । प्रार्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रो देवासुरोदारसभे रराज II GE यस्मिन्नभृद्राजनि राजचक्रं मुनौ दयादीधितिधर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुःप्राञ्जलि देवचक्र ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्सचक्रम् ॥६॥ स्वदोषशान्त्यावहितात्मशान्तिः शान्तर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भवलेशभयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य:५८|
इति शान्तिजिनस्तोत्रम्. कुन्थुप्रभृत्यखिलसत्त्वदयैकतानःकुन्थुर्जिनो ज्वरजरामरणोपशान्त्य। त्वधर्मचक्रमिह वर्त्तयसिस्मभूत्यभूत्वा पुरातिसिपतीश्वरचक्रपास्थिः
तृष्णार्चिपः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभयैः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं. निमिक्तमित्यात्मवान्विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥२॥
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बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम्। बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानये ववृतिषेतिशयोपपन्ने ॥ ३ ॥ हुत्वा स्वकर्मकटुकप्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्य्यः । विभ्राजिषे सकलवेदविधेर्विनेता प्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥ ४॥ यस्मान्मुनीन्द्र तव लोकपितामहाद्या विद्याविभूतिकणिकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥ ५ ॥
इति कुन्थुजिनस्तोत्रम्. गुणस्तोकं सदुल्लंध्य तद्वदुत्वकथा स्तुतिः । मानन्त्यात गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ ६॥ तथापिते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किञ्चन ॥७॥ लक्ष्मीविभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाञ्छनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तणमिवाभवत् ॥ ८ ॥ तव रूपस्य सौन्दयं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । घ्वतः शकः सहस्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥८६॥ मोहरूपो रिपुः पापा कषायभटसाधनः । राष्टिसम्पदुपेतास्त्र स्त्वया धीर पराजितः ॥ ६०॥ कन्दर्पस्योहरो दर्पस्रलोक्यविजयार्जितः ।
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स्तोत्र--संग्रह। हे मांस तं धीरे त्वयि प्रतिस्तोइः ॥ १ ॥ श्रापत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिनिरुत्तरा । सृष्णा नदी त्वयोत्तोर्ण विद्यानावा विविक्तया ॥ ६२॥ अत्तकः कन्द को नृणां जन्मज्वरसखा सदा । स्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः ॥ ६३ ॥ भूषावेषायुधत्यागि विद्यादमदयापरम् । रूपमेव तवाचष्टे धीर दोषविनिग्रहम् ॥१४॥ समन्ततोगभासां ते परिवेषेण भूयसा। तमो बाघमपाकीर्णमध्यात्मध्यानतेजसा ॥६५॥ सर्वज्ञज्योतिषोद्भूतस्तावको महिमोदयः। कं न कुर्यात् प्रणम्रते सत्वं माथ सचेतनम् ॥६६॥ तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् । प्रणोयत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥६६॥ अनेकान्तात्महष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥ ६ ॥ ये परस्खलितोनिद्राः खदोषेभनिमीलिनः । तपखिनस्त किं कुर्युरपात्रं त्वन्मतश्रियः ॥ ६ ॥ ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः । त्वद्विषः खहनो बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिताः ॥१०॥ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥१०॥ सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥१०॥ भने कान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।
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बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम्। अनेकान्तः प्रमाणान्ते तदेकान्तोर्पितान्न थात् ॥ १०३ ॥ इति निरुपमयुक्तिशालनः प्रियहितयोगगुणानुशासनः । अरजिनदमतीर्थनायकस्त्वमिव सतां प्रतिबोधनायकः१०४ मतिगुणविभवानुरूपतस्त्वयि वरदागमदृष्टिरूपतः । गुणकशमपि किञ्चनोदितंमम भवता दुरिताशनोदितम्।०५
इत्यरजिनस्तोत्रम्. यस्य महर्षेःसकल पदार्थप्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । सामरमत्त्यं जगदपि सर्व प्राञ्जलिभूत्वा प्रणिपतति स्म ॥१०॥ यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा। वागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पदपूर्वा रमयति साधून् ।१०७। यस्य पुरस्ताद्विगलितमाना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीजातविकोशाम्बुजमृदुहासा॥१०॥ यस्य समन्ताजिनशिशिरांशोः शिष्यकसाधुग्रहविभवो भूत् । तीर्थमपि स्वं जननसमुदत्रासितसत्त्वोत्तरणपथो प्रम् ॥१०६।। यस्य च शुक्लं परमतमोऽग्निानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् । तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥११० ।।
इति मल्लिजिनस्तोत्रम्. अधिगतमुनिसुव्रतस्थितिर्मुनिवृषभो मुनिसुव्रतो नघः । मुनिपरिषदि नि भौ भवातुडुपरिषत्परिवीतसोमवत् ॥११॥ परिणतशिखिमराठरागया कृतमदनिग्रहविग्रहाभयो । भवजिनतपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुचेव शोभितम् ॥११२॥ शशिरुचिशुचिशुक्तलोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः। तब शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसोऽयमीहितम् ।११३॥ स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् ।
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स्तोत्र -संग्रह। इति जिनल कलशलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥११४॥ . दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमयोगवलेन निर्दहन् । अभवदभषसौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशांतये ॥११५॥
इति मुनिसुव्रतजिनस्तोत्रम्. स्तुतिस्तोतुः साथोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीनाज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्नत्वा विद्वान्सततमपि पूज्य नमिजिनम् ॥११६॥ स्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्मनिगलं समूलं निर्भिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी । त्वयि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणे ति भगवन्नभूवन् खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥११७॥ विधेयं . बाय चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत् विशेषैः प्रत्येक नियमविषयैश्च परिमितः । सदान्योन्यापेक्षः
सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्वं बहुनयविवतरवशात् ॥११॥ अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सातत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥११॥ वपुर्भूषावेषव्यवधिरहितं
शान्तिकरणं यतस्ते संचष्टे स्मरशरविषातकविजयम् । विना भीमः शस्त्ररदयहृदयामर्षविलयं ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्तिनिलयः ॥१२० ।
हति नमिजिनस्तोत्रम्,
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बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् । 'भगवानृषिः परमयोगदहनहुतकल्मषेन्धनम् । शानविपुलकिरणैः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धः कमलायतेक्षण; ॥१२१ हरिवंशकेतुरनवद्यविनयदमतीथ नायकः शीलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिनकुअरोजरः।१२२॥ त्रिदशेन्द्रमौलिमणिरत्नकिरणविलरोपचुम्बितम् पादयुगलममलं भवतो विकसकुशेश रदलारुणोदरम् ॥१२३॥ नखचन्द्ररश्मिकवचातिरुचिरशिखराङ्गुलिस्थलम् । स्वार्थनियतमनसः सुधियःप्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः॥१२४॥ धुतिमद्रथाङ्गरविबिम्बकिरण जटिलांशुमण्डलः नालजलजदलराशिवपुः सहबन्धुभिर्गरुडकेतुरीश्वरः ॥१२॥ हलभृञ्च ते स्वजनभक्तिमुदितहृदयौ जनेश्वरौ । धर्मविनयरसिको सुतरां चरणारविन्दयुगलं प्रणेमतुः ॥१२६॥ ककुदं भुवः खत्ररयोषिदुषितशिखरैरलंकृतः । मेघपटलपरिवीततटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा॥१२७॥ वहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेद्य च । प्रीतिविततहृदयैः परितोभृशमूर्जयन्त इति विश्रुतो चलः१२८॥ बहिरन्तरप्युभयथा च करणभविघाति नाथकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ ॥१२६॥ अत एव ते बुधनुतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसःस्थिता वय।१३०॥
इत्यरिष्टनेमिजिनस्तोत्रम् तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणैः प्रकीर्णभीमाशनिवायुवृष्टिभिः । बलाहकैर्वैरिवशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः॥१३॥ बृहत्फणामण्डलमण्डेपन यं स्फुरत्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणाम् ।
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स्तोत्र संग्रह। जुगूह नागोधरणोधराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा।१३२॥ म्बयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोहविद्वषम् । भवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयासादं पदम्१३३ यमीश्वरं वोदय विधूतकल्मषं तपोधनास्ते पि तथा वुभूपयः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥२३४॥ स सत्यविद्यातपसा प्रणायकः समगधीरुग्रकुलाम्बरांशुमान् । मयासदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः१३५
इति पाय जिनस्तोत्रम्. कीा भुवि भालि तया वीर त्वं गुणसमुच्छया भासितया । भासोडुस भासितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोमालितया॥१३६॥ तजिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः । दोषाशासनविभवः स्तुति चैनं प्रभाकशासनविभवः ॥१३७॥ अनवद्यः स्याहादस्ता दृष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इसरो न स्याहाको सछिरायविरोधान्मुनीश्वराऽस्थाहादः॥१३॥ त्वमसि सुरासुरमहितो प्रन्धिकसत्त्वाशयप्रणामामहितः । लोकत्रयपरमहितोनावरणज्योतिरुज्वलद्धामहितः ॥ १३६ ॥ सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुणभुषणं श्रिया चारचितम् । मग्न स्वास्यां रुचिरंजयसिघ मृगलांछन स्वकान्त्यारुचितम्१४० स्वं जिम गसमदमायश्तव भावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमदमायात्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥ १४१ ॥ गिरिभिस्यवदानवतः श्रीमत इच दन्तिनः श्रवद्दानवतः । तष शमषादानमतो गसमूर्जितमपगतप्रमादानवतः(१) ॥१४२॥
(१)प्रया मा हिंसा प्रमा अपगता प्रमा अपगसममा तस्या दानममबहानं तदस्यास्त्रीति तस्य ।
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वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम्। बहुगुणसंपदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नय(२)भक्त यवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं समलम् ।१४३॥
इति वीरजिनस्तोत्रम. यो(३) निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः श्रोगौतमाद्यैः कृतः सूक्ताथै रमलैः स्तवोयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नः पदैः । तयाख्यानमदो यथाह्यवगतः किञ्चित्कृतं लेशतः रुथेयांश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रहलादचेतस्यलम् ॥१४४॥
'इति बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रं समाप्तम् ।
(२) नया भक्तयो भङ्गास्ता एवावतंसकं कर्णभूषणं तल्लातीति वा।
(३)अन्तिमः श्लोकः स्वयम्भुस्तोत्रस्य न किन्तु टीकाकृतः ।
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स्तोत्र--संग्रह।
(*) श्रीम-स्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचितो
रत्नकरण्डश्रावकाचारः।
मङ्गलाचरणम्. नमः श्रीवर्द्धमानीय निर्दूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणास्यते ॥१॥
धर्मोपदेशप्रतिज्ञा. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिबहणम् । संसारदुःखतः सत्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥
धर्मस्य लक्षणम्. सदृष्टिक्षाकवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥
सम्यग्दर्शनम्. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥
प्राप्तलक्षणम्. प्राप्तेनोच्छन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥
वीतरागकथनम्. . खुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः ।
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रत्नकरंड श्रावकाचारः ।
न रागद्वेषमोहाच यस्याप्तः सः प्रकीर्त्यते ॥ ६ ॥ हितोपदेशिनः कथनम्.
परमेष्ठी परंज्योतिर्निरागो विमलः कृती ।" सर्वशोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलात्यते ॥ ७ ॥ अनात्मार्थं विनारागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥ = ॥ शास्त्रलक्षणम्.
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स्वभावतोऽशुचौ काथे रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सागुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ १३॥
प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदष्टविरोधकम् ।
तस्योपदेशकृत्सार्व शास्त्र कापथघट्टनम् ॥ ६ ॥ गुरुलक्षणम्. विषयाशावशातीतो निरारम्भारपरिग्रहः । ज्ञानध्यान तपोरतस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ १० ॥ सम्यक्त्वस्याष्टाङ्गानि । १ निःसाङ्किताङ्गम्. इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा | इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गे) संशया रुचिः ॥ ११ ॥ २ निःकांक्षिताङ्गम्. कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखे नास्था श्रद्धानाकांक्षा स्मृता ॥ १२ ॥ ३ निर्विचिकित्सिताङ्गम्.
४ श्रमूढरष्टयङ्गम्. कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः ।
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ม.
स्तोत्र - संग्रह |
'सम्पृतिरनुत्कीर्तिरमूढ़ा दृष्टिरुच्यते ॥ १४॥ ५ उपगूहनाङ्गम्.
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्थ बालाशकजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥१५॥ स्थितिकरसाङ्गम्. दर्शनाञ्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकर णमुच्यते ॥१६॥
वात्सल्याङ्गम्.
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स्वयूथ्याम्प्रतिसद्भावसनाथा ऐतकैतवा प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ १७ ॥
प्रभावनाङ्गम्.
अज्ञान तिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १८॥
श्रष्टाङ्गधारिनामानि
तावदञ्जनचौरोऽङ्गे ततोऽनन्तमती स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥ १६ ॥ ततो जिनेन्द्रभोऽन्यो वारिषेणस्ततः परः । विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्षतां गतौ ॥२०॥ अङ्गृहीनदर्शनस्य व्यर्थत्वम्.
नाङ्गदीनसलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||२१||
लोकमूढ़ता.
श्रपगासागरस्नानमुश्ञ्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातच लोक मूढं निगद्यते ॥२२॥
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रत्नकरंडधावकाचारः ।
देवमूढ़ता.
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥ गुरुमूढ़ता.
सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनं पुरस्कारो ज्ञेयं पाखरिडमोहनम् ||२४|| श्रष्टमदनामानि.
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमा हुर्गतस्मयाः ॥ २५ ॥ मदस्यानिष्टत्वम्.
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना ||२६|| यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापास्स्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ||२७|| सम्यग्दर्शनमहिमा.
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि
मातङ्गदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥ २८ ॥ श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्बिषात्। कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ||२६|| भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ ३० ॥ दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥ ३१ ॥ विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः ।
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. स्तोत्र--संग्रह। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव॥३२॥ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । ' अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥३३॥ नसम्यक्त्वसमं किश्चित्काल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयो श्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥३४॥
पार्या. सम्यग्दर्शनशुद्धानारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवृतिकाः।।३।। श्रोजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः । महाकुलाः महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूनाः ॥३६॥ अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः। अमराप्सरसांपरिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताःस्वर्ग||३७॥ नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः ॥३॥ श्रमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजाः। दृष्टया सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः॥३६॥ शिवमजरमरुजमक्षयमव्यावाचं विशोकभयशङ्कम् । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः॥४०॥ देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानम्
. राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् ।। धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकम्
लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः।।४।। इति श्रीसमन्तभद्रखामिविरचिते रत्नकरण्डनाम्नि उपासका.
ध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥
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रत्नकरंडश्रावकाचारः।
सम्यग्ज्ञानस्य लक्षणम..... अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तन्धानमागमिनः ॥४२॥
- प्रथमानुयोगकथनम्. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः॥४॥
करणानुयोगकथनम्... लोकालोकविभक्तर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । श्रादर्शमिव तथामतिरवैतिकरणानुयोगं च ॥४॥
चरणानुयोगकथनम्.. . गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥४५॥
द्रव्यानुयोगकथनम्. . जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोमदोपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥४६॥
चारित्रस्यावश्यकता. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । 'रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥ रागद्वेषनिवृत्तेहिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषःसेवते नृपतीन् ॥४८|| इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्ज्ञानवर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥२॥
चारित्रकथनम्। हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च । :
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स्तोत्र-संग्रह। पापप्रणालिकाभ्यो विरतिःसंशस्य चारित्रम्हा
चारित्रभेदौ. सकलं विकलं चरणंतत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागारागां ससङ्गानाम् ॥५०॥
विकल (गृहस्थ ) चारित्रभेदाः गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासङ्ख्यमाख्यातम् ॥ ५ ॥
अणुव्रतम् प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूळेभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥५२॥
अहिंसाणुव्रतम्. संकल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ॥५३॥
अहिंसाणुव्रतस्य पश्चातीचाराः. छेदनबन्धनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः । आहारवारणापि च स्थूलवधाव्युपरतेः पञ्च ॥५४॥
सत्याणुव्रतम्. स्थूलमलोकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषाबादवैरमणम् ॥ ५५॥
सत्याणुव्रतस्य पश्चातीचारा:. परिवादरहोभ्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणंच। न्यासापहारितापि च व्यतिकमाः पञ्च सत्यस्य ॥५६॥
अचौर्याणुव्रतम्. निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् ।
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रत्नकरडश्रावकाचारः। में हरति यन्न च दत्ते तदकृषवीर्यादुपारमणम् ॥ ५७ ॥
अचौर्याणुव्रतस्य पञ्चातीचाराः. चौरप्रयोगचौरार्थादानविलोपसदृशसन्मिश्राः । होनाधिकविनिमानं पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥५॥
ब्रह्मचर्याणुव्रतम्. व तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः सदारसन्तोषनामापि ॥५॥
ब्रह्मचर्याणुव्रतस्य पश्चातीचारा:. अन्य विवाहाकरणानबक्रीडाविरस्वविपुलतृषाः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥६०॥
परिमितपरिग्रहाणुव्रतम्. धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय तताऽधिकेषु निस्पृहता। परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ १ ॥
परिमितपरिग्रहाणुव्रतस्य पञ्चातीचारा: अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितमहस्य च विक्षेपाः पञ्च कष्यन्ते । ६२ ॥
पञ्चाणुव्रतफलम्. पञ्चाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । थवावधिरपगुणा दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥ ६३ ॥
पञ्चाणुव्रतिप्रसिद्धानां नामानि. मातको धनदेवश्च बारिषेणस्ततः परः । नीली जयश्च सम्प्रासाः पूतातिशयमुत्तमम् ॥ ६४॥
हिंसादिपञ्चपापेषु प्रसिद्धानां नामानि. १. धनश्रीसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि ।
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स्तोत्र--संग्रह। उपाख्येयास्तथा श्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ॥६५॥
गृहमेधिनामष्टौ मूलगुणाः. .. मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुवतपञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ ६६ ।। इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने अणुव्रतवर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥३॥
त्रीणि गुणव्रतानि. दिग्बतमनर्थदण्डवतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुबृंहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ॥६॥
दिग्वतम्. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति सङ्कल्पो दिग्वतमामृत्यगुणपविनिवृत्यै ॥ ६८ ॥
दिग्बतस्य मर्यादा. मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादाः। पाहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रतिद्धानि ॥ ६ ॥
दिखतस्य माहात्म्यं. अवधेहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिब्रतानि धारयताम् । पञ्चमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ ७० ॥ प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्द तराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महाघ्रताय प्रकल्प्यन्ते ॥ ७१ ॥
महाव्रतलक्षसाम्. पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः।। कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥७२॥
दिग्व्रतस्यातीचाराः... ऊयाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः तत्रवृद्धिरवधीलाम् ।
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रत्नकरंड श्रावकाचारः ।
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विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥ ७३ ॥ अनर्थदण्डव्रतम्.
अभ्यन्तरं दिगवधेर पार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं च विदुर्ब्रतधरामरायः ॥ ७४ ॥ अनर्थदण्डस्य भेदाः, पापोपदेशहिसादानापध्यानदुःश्रुतीः
पश्च 1
प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥ ७५ ॥ पापोपदेशः.
1
तिर्यक क्लेशव गिज्या हिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥ ७६ ॥ हिंसादानम्.
परशुकृपा राखनित्रज्वलनाबुधश्टङ्गशृङ्खलादीनाम् । वध हेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ॥ ७७ ॥ श्रपध्यानम्.
बधबन्धच्छेदादे द्वेषाद्रागाच्च
परकलत्रादेः 1
श्राध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥७८॥ दुःश्रुतिः
!
श्रारम्भसङ्गसाहसमिध्यात्व द्वेषरागमदमदनैः चेतःकलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥ ७६ ॥ प्रमादचय्य.
क्षितिसलिलदहन पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ॥ ८० ॥ श्रनर्थदण्डव्रतस्यातीचाराः.
कन्दपं कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्चः ।
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स्तोत्र संग्रह ।
समीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयो ऽनर्थदण्डकृद्विरतेः । ६१ । भागोपभोगोपरिमाणव्रतम्.
श्रक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामध्यवधी रागरतीनां तनूकृतये ॥ ८२ ॥ भोगोपभोगभेदौ.
भुक्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिपञ्चेन्द्रियो विषयः ॥८३॥ मधुमांसमद्य निषेधःः
सहति परिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ ८४ ॥
अल्पफल बहुविघातनिषेधःः
अल्पफल बहुविघातान्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥ ८५ ॥ यदनिष्टं तदूव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति ॥ ८६॥ यमनियमकथनम्.
नियमो मा विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितिकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥ ८७ ॥ नियमविधिः,
भोजन वाहनशयनस्त्रानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु । ताम्बूलव संमभूषण मन्मथसङ्गीतगीतेषु ॥ ८ ॥
श्रद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तर्थर्त्तुरयनं वा । छवि काल परिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः (युग्मं ) | ६|
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रत्नकरंडश्रावकाचारः।
भोगोपभोगपरिमाणवतातीचारा: विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवो ।
भोगोपभोगपरमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥६॥ इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डकनाम्नि उपासका. ध्ययने गुणवतवर्णनो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ॥४॥
चत्वारि शिक्षावतानि. .. देशावकाशिक वा सामयिक प्रोषधोपवासी वा। वैय्यावृत्यं शिक्षाब्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ११ ॥
देशावकाशिकशिक्षावतम. देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥१२॥ ' देशावकाशिकवतस्य क्षेत्रमर्यादा. गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । देशाधकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥६॥
देशावकाशिकव्रतस्य कालमर्यादा. संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपतमृतं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधि प्राशाः ॥ ६४ ॥
देशावकाशिकवतस्य सार्थकता. सीमान्तानां परतः स्थूलेतरपञ्चपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाब्रतानि प्रसाध्यन्ते ॥ १५ ॥
देशात्रकाशिकव्रतस्य पश्चातीचारा:. प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपौ । देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्ते त्ययाः पञ्च ॥६६॥
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___ स्तोत्र संग्रह।
सामायिकशिक्षावतम्. आसमयमुक्तिमुक्त पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥७॥
सामायिकविधिः. मूर्धरुहमुष्टिवासोबन्धं पर्यङ्कबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥६॥ एकान्ते सामयिकं निाक्षेपे धनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥६६॥ व्यापारवैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या । सामयिकं बनीयादुपवासे चैकभुक्त वा ॥ १० ॥ सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् । व्रतपश्चकपरिपूरणकारणमवधानयुक्तेन ॥१०॥
सामायिकशिक्षाव्रतस्य सार्थकता. सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेपि । चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥१०२॥
सामायिके परीषहसहनम्. शीतोष्णदंशमशकपरिषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिक प्रतिपन्ना अधिकुधीरन्नचलयोगाः ॥१.३॥
सामायिक किं विचार्य. अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनास्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥ १०४ ॥
___ सामायिकस्य पंचातीचारा:.. वाक्कायमालसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यातिगमा व्यज्यन्ते पञ्चभावेन ॥ १०५ ॥
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रत्नकरंडश्रावकाचारः।
प्रोषधोपवास शिक्षाघ्रतम्. पर्वण्यष्टम्यां च धातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । 'चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ॥१०६ ।।
प्रोषधोपवासे कि त्याज्यं. पश्चानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । सानाअननस्यानामुपवासे परिहर्ति कुर्यात् ॥ १०७ ॥
उपवासे कि कर्तव्यं. धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥ १० ॥
प्रोषधोपवासः. चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधासकृद्भुक्तिः। स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥१०६॥
प्रोषधोपवासस्य पश्चातीचारा:. ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासे व्यतिलङ्घनपञ्चकं तदिदम् ॥११०॥ - वैयावृत्त्यशिक्षाव्रतम्, दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ १११॥
पुनश्च. व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥११२॥
पुनश्च. नवण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । .. अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११३॥, ,
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स्तोत्र-संग्रह।
• दानफलम. गृहकर्मणापि निश्चितं कर्म विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम् अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥ ११४ ॥ उच्चैर्गोत्रं प्रणते गो दानादुपासनात्पूजा। भक्त सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥ ११५ ॥ क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥११६॥
- दानभेदाः आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्त्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ॥ ११७ ॥ .. दानफलस्य प्रसिद्धभोक्तारः.
श्रीषेणवृषभसेने कौएडेशः शूकरश्च दृष्टान्ताः । वैयावृत्त्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मन्तव्याः ॥ ११ ॥
वैयावृत्ये (दाने ) जिनपूजाविधानम, " देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहिकामदाहिनि परिचिनुयादाटतो नित्यम् ॥११॥
पूजायाः फलस्य दृष्टान्तः. अर्हचरणसपर्यामहानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥ १२० ॥
वैयावृत्त्यस्य पञ्चातीचाराः. हरितपिधाननिधाने घनादरास्मरणमत्सरत्वानि ।
वैयावृत्त्यस्यैते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ १२१ ॥ इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डकनाम्नि उपासका
ध्ययने शिक्षाप्रतवर्णनो नाम पञ्चमः परिच्छेदः ॥५॥
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रत्नक एंड श्रावकाचारः ।
सल्लेखनालक्षणम्.
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२२॥ सल्लेखनाया श्रावश्यकता.
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अन्तः क्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।१२३॥
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समाधिमरणस्य विधिः
स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षांत्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ॥ १२४॥ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । श्रारोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषम् ॥ १२५ ॥ शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सखोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः ॥ १२६ ॥ आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ॥ १२७ ॥ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यज्येत्सर्वयत्नेन ॥ १२८ ॥
सल्लेखनायाः पञ्चातीचाराः
जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः । सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिष्टाः ॥ १२६ ॥ सल्लेखनायाः फलम्.
निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निः पिवति पीतधर्मा सर्वे दुखेरनालीदः ॥ १३१ ॥
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स्तोत्र-संग्रह।
... मोक्षकथनमः जन्मजरामयमरणैः शोकैर्दुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥१३१ ॥ विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रहलादतृप्तिशुद्धियुजः । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् ॥१३२॥ काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्षा। उत्पातोऽपि यदि स्यात्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः ॥१३३॥ निःश्रेयसमधिपन्नास्त्रलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । मिरिकट्टिकालिकाच्छविचामीकरभासुरात्मानः ॥१३४॥ पूजार्थश्वर्यैबलपरिजनकामभोगभूयिष्ठैः ।
अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥१३५॥ इति श्रीसमन्तभद्रस्वामीविरचिते रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्यनेय सल्लेखनावर्णनो नाम षष्ठः परिच्छेदः ॥ ६॥
श्रावकस्बैकादश प्रतिमाः (कक्षाः). श्रावकपदानि देवरेकादश देशितानि येषु खलु । खगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ११३६॥
१ दर्शनिकः. सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विएणः । पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥१३७॥
२ ब्रतिकः. निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि । ध्ययने निःशल्यो योऽसौ प्रतिनां मतो ब्रतिकः ॥१३॥
३ सामयिकः. चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथा जातः ।
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रत्नकरंड श्रावकाचारः।
सामयिको विनिषद्यस्त्रियोग शुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी॥१३६॥
४ प्रोषधनियमविधायी. पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुश। प्रापयनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशतः ॥१४॥
५रूचित्तविरतः, मूलफलशीकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि याऽत्ति साऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥१४॥
६ रात्रिमुक्तित्यागो. अन्नं पानं खाद्यं लेा नानाति यो विभार्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥१४२॥
७ ब्रह्मचारी:. -- मलबीज मलयोनि गलन्मलं पूतगन्धिषीमासम् । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥ १४३ ॥ .
आरम्भत्यामो. सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो. व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्यो सावारम्भविनिवृत्तः ॥ १४४ ॥
परिचितपरिग्रहत्यागो. बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचितपरिप्रहाद्विरतः ॥१४॥
१० अनुमतित्यागी.. अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा । नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥१४६॥
११ उत्कृष्टश्रावकः. गृहतो मुनिधनमित्वा गुरूपकण्ठे ब्रतानि परिगृह ।
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स्तोत्र-संग्रह। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥२४७n
श्रेष्ठज्ञातुर्लक्षणम. पापमरातिधमों बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रेयो साता ध्रुवं भवति ॥ १४८ ॥
. उपसंहारः, येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या दृष्टिः क्रियारत्नकरएडभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषुविष्टपेषु ॥१४६५
अन्तमङ्गलम्, सुखयतु सुखभूमिः कामिन' कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कम्यका संयुनीता.
जिनपतिपदप प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥१५०॥ इति श्रीसमन्तभद्स्वामिविरचिते रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने एकादशतिमावर्णनो नाम सप्तमः परिच्छेदः ॥ ७॥
समाप्तोऽयं ग्रंथः ।
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(ॐ) श्रीमदमृबधन्द्रसूरिविरचितः पुरुषार्थसिद्ध्युपायः।
तज्ज्यति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। दर्पणतल इब सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र॥१॥ परमाणमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनथविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥२॥ लोकत्रयैकनेत्रं निरूण्य परमागमं प्रयत्नेन । ... अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्प्युपायोऽयम् ॥३॥ मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः। व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ ४॥ निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्ण यन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥५॥ अवुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥६॥ माणवक एन सिंहो यथा भवत्य नवगीतसिंहस्य। . व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥ व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥८॥ अस्ति पुरुषश्चिदारमा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवणैः।
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स्तोत्र-संग्रह। गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ।।६।। परिणममालो नित्यं ज्ञानविवतैरनादिसन्तत्या। परिणामानां वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ।।:0} सर्वविवत्तॊत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥१२॥ जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्थे । स्वयमेव परिणमन्तत्र पुद्गलाः कमभावेन ॥१२॥ परिणममाणस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वकैम वैः । भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥१३।। एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भव बोजम् ॥१४॥ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ॥१५॥ अनुसरतां पदमेतत्करंबिताचारनित्यनिरभिमुखाः। एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥१६|| बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति । तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥१७॥ यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्साहमानोऽतिदूरपि शिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।।१६।। एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥२०॥ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः ।
तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥ २१ ॥ जीवाजीवादीनां तवार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविधिकमात्मरूपं तत् ||२२|| सकलमने काम्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्केति कर्तव्या ||२३|| इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रित्वकेश्वत्वादीन् । एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत् ||२४|| चुत्तृष्णा शीताष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ||२५|| लाके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ||२६|| धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदाषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ||२७|| कामक्राधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्वा स्थितिकरणमपि कार्यम् | २= | अनवरत महिंसायां शिवसुख लक्ष्मी निबन्धने धर्मे । सर्वेपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्य माल ध्यम् ॥२६॥ आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानव पाजिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ ३० ॥ इत्याश्रितसम्यक्त्वः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन । श्रानाययुक्तियोगः समुपास्यं नित्यमात्महितैः ॥ ३१ ॥ पृथगाराधनमिष्टं दर्शन सदभाविनोऽपि बोवस्य । लक्षणभेदेन यता नानात्वं सम्भवत्यनयोः ॥३२॥ सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।
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स्तोत्र--संग्रह। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥ ३३ ॥ कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दोपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः ।सुघटम् ॥३४॥ कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु । संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ॥३५॥ ग्रंथार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिन्हवं शानमाराध्यम् ॥२६॥ विगलितदर्शनमोहैः समंजसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः । नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यकचारित्रमालम्ब्यम् ॥ ७॥ न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमझानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ॥ ३ ॥ चारित्रं भवति यतः समस्तसावधयोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥३६॥ हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्न्यैकदेशविरतश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥४०॥ निरतः कात्य॑निवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूताऽयम् । या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥४१॥ आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२॥ यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरीपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥ युक्ताचरणस्य सतो रागाचावेशमन्तरेणापि ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४ व्युत्थानावस्थायां रागादीनी वशप्रवृत्तायाम् । नियतां जीवो मा वा धावत्य ने ध्रुवं हिंसा ॥ ४६ ॥ यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाजायेत न घा हिंसा प्राण्यन्तराणांतु ॥४॥ हिंसायामविरमणे हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात्प्रयासयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४॥ सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परबस्तुनिवन्धना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥EN निश्चयमबुध्यमानो यो निश्च पतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिः करणालसो बालः ॥ ५० अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्यकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥५१॥ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥५२१ एकस्व सैव तीवं दिति फलं सैव मन्दमन्यस्य । बजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥ प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि। प्रारभ्म कर्तुमकृताऽपि फलति हिंसानुभावेन ॥५४॥ एकः करोति हिंसां भवन्तिफलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुग्भवत्येकः ॥५५॥ कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम् ॥५६॥ हिंसाफलमपरस्थ तु ददात्यहिंसा तु परिणामे ।
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स्तोत्र--संग्रह। इतरस्य पुनहिंसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ॥५॥ इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्ध नयचक्रसञ्चारः ॥५it अत्यन्त निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमारणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्ध.नाम् ॥५॥ अवबुध्य हिस्यहिंसकर्हिसाहिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानैनिजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥६॥ मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥६॥ मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसाविशङ्कमाचरति ॥१२॥ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्य भजतां तेषां हिंसा संजायते वश्यम् ॥६३॥ अभिमानभयनुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च शरकसन्निहिताः ॥६॥ न विना प्राणविधातान्मांसम्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात्मसात्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥ यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः। तत्रापि भवति हिंसा सदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥६६॥ श्रामास्वपि पक्कास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्त जातीनां निगोतानाम् ५६७॥ श्रामा वा पक्का वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचित्तं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥६॥ मधुशकलमपि प्रायो मधुकरहिंसात्मकं भवति लोके ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः। भजति मधुमूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥६॥ म्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयवाणिनां घातात् ।।७।। मधु मधं नवनीतं पिशितं च महाविकृत यस्ताः । घलभ्यन्ते न प्रतिना सवर्णा जन्तवस्तत्र ॥७॥ यांनिरुदुम्बरयुग्मं सजन्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥७२॥ यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छन्नत्रसानि शुरुकाणि । भजतम्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥१३॥ अष्टानिष्टदुस्तरदुम्तिायतनान्यमूनि परिवर्ण्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥७॥ धर्ममहिसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिंसामसहावं लाहिंसां तेऽपि मुझबन्तु ॥५॥ कृतकारितानुमननै कायमनोभिरिष्यते नवधा। श्रोत्सर्गिकी निवृत्तिविचित्ररूपापबादिकी त्वेषा ॥७॥ स्तोकै केन्द्रियघातागृहिणां सम्पन्नयाग्यविषयाणाम् । शेष स्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ॥७॥ अमृतत्वहेतुभूतं परमहिसारसायनं लावा । अवलोक्य बालिशानामसम असमाकुलैन भवितव्यम् ॥८॥ सूक्ष्मो भगवान् धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति । इलि धर्ममुग्धहदयन जातु भून्वा पारीरिगो हिस्याः ॥ धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेवमिह सर्घम् । इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्याः ।।८।। पूज्यनिमित्त्रं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषाऽस्ति ।
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स्तोत्र संग्रह ।
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इति संप्रधार्य कार्यं नाऽतिथये सस्वसंज्ञपनम् ||१|| बहुसघातजनितादशनाद्वरमेकस स्वघातोत्थम् । इत्याकलय्य कार्य न महोसत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥८२॥ रक्षा भत्रति बहूनामेकस्यैवास्व जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसरवानाम् ॥८३॥ बहुस्त्रघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा ने हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ८४॥ बहुदुःखाः संज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःख विच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ||५|| कृच्छ्रेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलाग्रः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ ८६ ॥ उपलब्धिसुगतिसाधन समाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषता ॥८॥ धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् ।
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झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥८८॥ eg परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयां न चात्मापि ॥ ६ ॥ को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरुन् । विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसां विशुद्धमतिः ॥ ६० ॥ यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनुतमपि विशेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ ६१ ॥ स्वक्षेत्रकालभात्रः सदपि हि यस्मिन्निषिद्यते वस्तु । तमसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥६२॥ श्रसपि हि वस्तुरूपं यंत्र परक्षेत्रका लभानैस्तैः ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय। उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन्यथास्ति घटः ।।६३॥ वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेखाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विशेयं गौरिति यथाश्वः ॥६॥ गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन धामतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥१५॥ पैशुन्यहासमर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च । अन्वदपि यदुत्सूत्रं तत्सवं गर्हित गर्दितम् ॥६६॥ छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तलावद्यं यस्मात्प्राणिवधांचाः प्रवर्तन्ते ॥१७॥ परतिकरं भीतिकरं खेदकरं घेरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रिय शेषम् ॥६॥ सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतु कथनं यत् । अनृतवचने पि तस्मान्नियतं हिंसासमवसरति ॥६॥ हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकल वितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ॥१०॥ भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥१०॥
वितीर्यस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमरायोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा बधस्य हेतुत्वात ॥१०२॥ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्वराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् या यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥१.३॥ हिंसायां स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमतयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्याम्यैः ॥ १०४ ॥ नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोगैककारणविरोधात् ।
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स्तोत्र संग्रह। अपि कर्मातुनहरे नीरागाणामविद्यमानत्वात् ॥ १०५ ॥ असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ॥१.०६॥ यवेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भाव त ॥२०७॥ हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यवत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत ॥१०॥ यदपि कियते किंचिन्मदनोद्रे कादनहरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥१०॥ ये निजकलत्रमा परिहतुं शक्नुवन्ति न हि मोहात् । मिःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरान कार्यम् ॥११॥ या मूच्र्छा नाभेयं विज्ञातव्यः परिग्रहां ह्येषः । मोहादयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥१११॥ मू लक्षणकरणात्सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रन्थो मूर्छावान् विनारि किल शेषसंगेभ्यः ॥१.१२॥ यद्यवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । भयति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूच्छानिमित्तत्वम् ॥११॥ एवमतिठयाप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहसे न मूर्छास्ति ॥११४॥ ४.तिसंज्ञेपा द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च । प्रथमश्चतुर्दशावधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥११५॥ मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्च दुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥११६॥ अथ निश्चित्तसाचत्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदो द्वौ।
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पुरुषार्थ सिद्ध्य पायः।
४५ नैषः कदापि सङ्गे सर्वोऽप्यतिवतते हिंसां ॥११७॥ उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति । द्विविधपरिग्रहवहन हिंसेति जिनप्रवचनशाः ॥११॥ हिंसापर्यायत्वात्सिद्धा हिसान्तरङ्गमङ्गेषु । वहिरङ्गे तु नियतं प्रयातु मूच्छेच हिंसात्वम् ॥११॥ एवं न विशेषः स्यादुन्दररिपुहरिणशावकादानाम् । नैवं भवति विशेषत्तेषां मूच्छाविशेषेण ॥१२०॥ हरिततुणाकुरवारिणि मन्दा मृगशावके भवति मूर्छा। उन्दरनिकरान्माथिनि मार्जारे सैव जायते तीवा ॥१२॥ निर्बाध संसिद्ध्ये कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् ।
औधस्यखण्डयोरिह माधुयं प्रोतिभेद इव ॥१२२॥ माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये । सैघात्कटमाधुर्य खण्डे व्यपदिश्यते तीता ॥१२३।। तत्वार्थाश्रद्धाने नियुक्त प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥१२४॥ प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सम्मुखायातः । नियतं ते हि कषाया देशचरित्रं निरुध्यन्ति ॥१२५॥ निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसंगानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ॥१२६॥ बहिरङ्गादपि संगाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं पा सचित्तं वा ॥१२७॥ योऽपि न शक्तस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सापि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ॥१२॥ रात्रौ भुनानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा ।
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स्तोत्र-संग्रह। हिंसाविरतैस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥१२६॥ रागाद्युदयपरत्वादनिवृशि तिवर्तते हिंसाम् । रात्रिंदिवमाहरतः कथं हि हिंसा न सम्भवति ? ॥१३०॥ वघवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निभायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ॥१३१॥ नैवं वासरभुक्तभवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ। अनकवलस्व भुक्तो भुक्ताविव मांसकवलस्थ ॥१३२॥ अर्कासोकेन विना भुंजामः परिहरेत्कथं हिंसाम् । श्रपि योधित प्रदीपे भोज्यनुष्कं सूक्ष्मजन्तूनाम् ॥१३३॥ किवा बहुप्रलवितरिति सिद्ध योमनोवचनकायैः। परिहरति राशिभुति सततमहिसां स पालयति ॥१३४॥ इत्यत्र त्रितत्रात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये खहितकामाः। अपर प्रयन्ते प्रान्ति ते मुक्किमचिरेण ॥१३५॥ परिषद व नगरासि प्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । , व्ररूपालाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६।। प्रविधाच सुप्रसिद्धैर्मयांदा सर्वतोऽप्यभिज्ञानः। प्राठवादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता ॥१३७॥ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्याः । सकलासंयमविरहाद्वयाहिंसावत्तं पूर्णम् ॥१३॥ तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं धिरमणं देशात् ॥१३॥ इति विरतो बहुदेशात्तदुस्थहिंसाविशेषपरिहारात्। तत्कालं विमलमतिः श्रयत्यहिंसां विशेषेण ॥१४०॥ पापर्द्धिजयपराजयसंगरपरदारगमनचौर्याद्याः ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः ।
म कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥ १४१ ॥ विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवा शिल्पजीविनां पुंसाम् । पापरोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥ १४२ ॥ भूखननवृक्ष मोदनशाज्वलदलनाम्बुसेखनादीनि । निःकारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोश्चयानपि च ॥ १४३॥ असिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरचा कार्मुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ॥ १४४॥ रागादिवर्धनानां दुष्टकथानाम बोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ॥ १४५|| सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सझ मायायाः । दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ॥ १४६॥ एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः । तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥ १४७॥ रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमुलं बहुशः सामायिकं कार्यम् || १४ || रजनीदिवयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥ १४६ ॥ सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य || १५० ॥ सामायिक संस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्यो ऽवश्यमुपवासः ॥ १५६ ॥ मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिन पूर्व वासरस्यार्थे । उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देह दी || १५२ ॥ भित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावद्ययोगमपनीय ।
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स्तोत्र--संग्रह। सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥१३॥ धर्मध्यानाशक्ता वासरमतिबाह्य विहितसाध्यविधि । शुविस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४।। प्रातः प्रोत्थाय सतः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् । निवर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रामुकद्रव्यैः ॥१५॥ उक्तेन ततो विधिना नीत्या दिवसं द्वितीयरात्रि च । अतिवाहयेत्ययत्नादधं च तृतीयदिवसस्य ॥१५॥ इति यः षोडश यामागमयति परिमुक्तलकलसावधः । तस्य तदानी नियतं पूर्णमहिसाव्रतं भवति ॥१५७।। भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत्किलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ॥१५।। वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानावरहतः स्तेयम् । . नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो ना प्यमूर्च्छस्य ॥१५॥ इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाबतित्वमुपचारात् । उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ।।१६०॥ भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा। अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ॥१६॥ एकमपि प्रजिघांसुः निहन्त्यनन्तान्यतस्तो वश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥१६॥ नवक्रीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यद्वापि पिण्डशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किश्चित् ॥१६॥ अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमवेत्य धीमता त्याज्याः। प्रत्याज्येष्वपि सीमा कार्येकदिवानिशोपभोग्यतया ॥१६॥ पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्य तात्कालिकी निजां शक्तिम् ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः। सीमन्वन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ॥१६॥ इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्वजति बहुतरान् भोगान् । बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥१६६॥ विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय । स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्याऽवश्यमतिथये भागः ॥१६॥ संग्रहमुश्वस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।। वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्व विधिमाहुः ।।१६।। ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः।१६६। रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् । १७०।। पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोतकारणगुणानाम् । अविरतसम्यग्दृष्टिविरताविरतश्च सकलविरतश्च ॥१७१।। हिंसायाः पर्यायो लोभोत्र निरस्यते यतो दाने । . तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेधेयम् ॥१७॥ गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परान्नपीडयते। वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति।१७३। कृतमात्माथं मुनये ददाति भक्तिमतिभावितत्यागः। अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिसैव॥१७॥ इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥१७॥ मरणान्ते वश्यमहं विधिना सल्ले खनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ।१७६१ मरणे वश्यंभाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे।
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स्तोत्र संग्रह |
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥ १७७॥ यो हि कषायाविष्टः कुम्भकज लधूमकेतुविषशस्त्रः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥ १७८ ॥ नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्ध्यर्थम् ॥१७६॥ इति यो तरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि । वरयति पवित्र स्वयमेत्र तमुत्सुका शिवपदश्रीः || १८०|| श्रतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पञ्च पश्ञ्चेति । संततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः ॥ १८२॥ शङ्का तथैव कांक्षा चिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् । मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ||१८२|| छेदनबन्धा भारस्यारोपणं समधिकस्य । पानान्नयोश्व रोधः पञ्चाहिसा व्रतस्यैति ॥ १८३॥ मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यान कूट लेखकृतीः । न्यासापहारवचनं साकारकमन्त्रभेदश्च ॥ १८४॥ प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ॥ १८॥ स्मरती ग्राभिनिवेशानङ्गक्रीडान्य परिणयनकरणम् । अपरिगृहीतेतरयोर्गमने चेत्वरिकयोः पञ्च ॥ १८६॥ ! वास्तुक्षेत्राटापद हिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रमाः पञ्च ॥ १८७॥ क़दूर्ध्वमधस्तात्तिर्यख्यतिक्रमाः दक्षेत्रवृद्धिराधानम् । स्मृत्यन्तरस्य गदिताः पञ्चेति प्रथमशीलस्य ॥१८८॥ यस्य संप्रयोजन मानयनं शब्द रूपविनिपाती ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः ।
क्षेपणेपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पश्चेति ॥ १०६ ॥ कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौर्य्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पश्ञ्चति ॥ १६० ॥ वचनमनःकायानां दुःप्रणिधानां वनादरश्चैव । स्मृत्यनुपस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशीलस्य ॥ १६९ ॥ श्रनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य || १६२॥ श्राहागे हि सचित्तः सचित्तमिश्रः सचित्तसम्बन्धः । दुःपक्को (भिषवोऽपि च पञ्चामी षष्टशीलस्य ॥ १६३॥ परदातृव्यपदेशः सचित्त निक्षेपतत्पिधाने च । कालस्यातिक्रमणं मात्सर्यं चेत्यतिथिदाने || १६४ || जीविनमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च । सनिदानः पञ्चैते भवन्ति सल्लेखनाकाले ॥२६५॥ इत्येतानतिचारानपि योगी संप्रतर्क्य परिवर्ज्यं । सम्यक्त्वप्रतशीलैरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्य चिरात् ॥ १६६ ॥ चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् ।
પૂર
श्रनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः ॥ १६७ ॥ | अनशनमवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृतेः संख्या च निषेव्यमिति तपो बाह्यम् १६८ विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः । स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ॥ १६६॥ जिन युङ्ग प्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवी शक्तिं च निषेव्यमेतदपि ||२०० || इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् ।
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- स्तोत्र-संग्रह। प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम् ॥२०१॥ सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य । मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तित्रितयमवनुगम्यम् ॥२०२।। सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथंषणा सम्यक् । सम्यग्ग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः ॥ २०३।। धर्मः सेव्यः शान्तिः मृदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । पाकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्व संयमश्चेति ॥२०॥ अध्रुवमशरणमेकत्वमन्यताशौचमारको जन्म । लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ॥२०॥ चुतृष्णाहिममुष्णं नग्नत्वं याचनारातरलाभः । दंशो मशकादोनामाकोशो व्याधिदुःखसंगमनम् ।।२०।। स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रशा। सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री ॥२०७।। द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततम् । संक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ॥२०॥ इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ।।२०६।। बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥२१०॥ असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मवन्धो यः। सविपतकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११॥ येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांग्रेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१२ ॥ येनांशेन झानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायः ।
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येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१३ ॥ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २९४ ॥ योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति यः कषायान्तु । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ॥ २१५ ॥ दशमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ २२६॥ सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय || २१७ || सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबन्धकौ भवतः । योगकषाय तस्मात्तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ २१८ ॥ ननु कथमेवं सिद्धयतु देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २२६॥ रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । श्रावति यत्तु पुण्यं शुभोपोगोऽयमपराधः ॥ २२० ॥ एकस्मिन्समवायादत्यन्तविरुद्ध कार्ययोरपि हि । इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः २२१ सम्यक्त्वचरित्रबोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुरुगेपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥ २२२ ॥ नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः । गगनमित्र परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ॥ २२३ ॥ कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ॥ २२४ ॥ एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्तो वस्तुतत्त्वमितरेण ।
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स्तोत्र-संग्रह। अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ॥२२५॥ वर्णैः कृतानि चित्र पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ २२६ ॥ इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरीणां कृतिः पुरुषार्थसिध्युपायो परनाम
जिनप्रवचनरहस्यकोशः समाप्तः ॥ ३ ॥
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श्रीगुणभद्राचार्यविरचिताः
आत्मानुशासनम् -
मङ्गलाचरणम् दमोनिवासनिलयं विखीनविलयं निधाय हृदि वीरम् । प्रात्मानुशानमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ॥१॥ दुःखाद्विमेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतो हमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥२॥ यद्यपि कदाचिदस्मिन् विपाकमधुरं तदा तु कटु किंचित् । त्वं तस्मात्मा भैषोर्यथातुरो भेषजादुग्रात् ॥३॥ जना घनाश्च वाचाल सुलभाः स्युर्वृथोत्थिताः । दुर्लभा बन्तरार्दास्ते जगदभ्युजिहीर्षवः ॥४॥ प्राज्ञः प्रातलमस्त्रशास्त्रहृदयंः प्रव्यक्त लोकथितिः ... प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्वसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया याद्धर्मकथां गमे गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥५॥ श्रुतमविकलं शुद्धा वृतिः परप्रतिबोधने परिणतिरुरुद्योगो मागप्रवर्तनसद्विधौ। बुधनुतिरनुत्सेको लोकाता मृदुता स्पृहा बाविपतिमुणा यस्मिन्नत्ये च. सोऽस्तु गुरुः संताम् ॥६॥
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स्तोत्र -संग्रह। भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाभृशं भीतिमान सौख्यैषो श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धम्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितम् गृह्णन् धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७॥ पापाद्दुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्यमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ॥८॥ सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तात्स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्ते प्यतस्तं युक्त्या सुविचाय्यं सर्वसुखदं सन्तःश्रयन्तु श्रियै ॥६ श्रद्धानं द्विविधं त्रिधा दशविध मौढ्याद्यपोढं सदा संवेगादिविधर्द्धितं भवहरं यज्ञानशुद्धिप्रदम् । निश्चिन्वन् नव सप्त तत्वमचलप्रासादमारोहतां सोपानं प्रथमं विनेयविदुषामाद्येयमाराधना ॥१०॥ आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढ़परमावगाढ़े च ॥११॥ प्राशासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाइयैव त्यक्तग्रंथप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता या संज्ञानागमाधिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशिदृष्टिः ॥१२॥ आकराचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्चिजातोपलब्धेरसमशमयशाद्वीजदृष्टिः पदार्थात् संक्षेपेणैव बुध्धा रुचिपुगतवान्लाधुसंक्षेपदृष्टिः ॥१३॥
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आत्मानुशासनम् । यः श्रुचा द्वादशाङ्गों कृतरुचिरस्थ तं विद्धि विस्तारदृष्टिं संजातार्थात् कुतश्चित् प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गालबाह्यप्रवचनभवगाह्योत्थिता यावगाढ़ा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगादेति रूढ़ा ॥१४॥ शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः। पूज्य महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ॥१५॥ मिथ्यात्वातङ्कवतो हिताहितप्राप्त्यनाप्तिमुग्धस्य । वालस्येव तवेयं सुकुमारैव क्रिया क्रियते ॥१६॥ विषयविषप्राशनोत्थितमोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाधुपक्रमः श्रेयान् ॥१७॥ सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्ध्यै दुःखभु जस्तदुपघातायः ॥१८॥ धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्षतांस्ततस्तान्युच्चिनुयैस्तैरुपायैस्त्वम् ॥१६॥ धर्मः मुखस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधका स्वकार्यस्य । तस्मात् सुखभङ्गभिया माभूधर्मस्य विमुखस्त्वम् ॥२०॥ धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु । बीजादवाप्तधान्यः कृषीवलस्तस्य बीजमिव ॥२१॥ संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ २२॥ परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्रामाः । तस्मात् पापापचयः पुर पोपचयश्च सुविधेयः ॥२३॥ कृत्वा धर्मविघातं विप्रयमुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् । श्राच्छिद्य तरं मूलात्फलानि गृह्णन्ति ते पापाः ॥२४॥
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स्तोत्र--संग्रह। कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतैः स्मरणचरणवचनेषु । यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः ॥२५॥ धर्मो वसेन्मनसि योक्दलं सतावछन्ता न हन्तरपि पस्य मतेऽथ तस्मिन् । रष्टा परस्परहतिजनकात्मजानां रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एवं ॥३६॥ न सुखानुभवात्पापं पापं तद्धतुघातकारम्भात् । नाजोणं मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥२७॥ अप्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्षदुःखास्पदम् पापैराचरितं पुरातिभयदं सौख्यायं संकल्पतः । संकल्पं तमनुझितेन्द्रिय सुखैरासेविते धोधनधर्मे (म्य) कर्मणि किं करोति न भवान लोकद्वयश्रेयसिार भीतमूर्तीगतत्राणा निर्दोषा देहवित्तिका । दन्त लग्नतुणा धनन्ति मृगीरन्येषु का कथा ॥२६॥ पैशून्यदैन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात् । लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयशःसुखायार्थम् ॥३०॥ पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनीशोऽपि नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेश्च भूत्यै । संतापयन् जमदशेषमशीतरश्मिः पद्मेषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम् ॥ ३१ ॥ नेता यस्य ( यंत्रं ) बृहस्पतिः प्रहरणं वजं सुराः सैनिकाः स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरैरावणी धारणः । इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे ते शक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिवृथा पौरुषम् ॥३२॥
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प्रात्मानुशासनम् । भर्तारः कुल पर्वता इध भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानी निधयः पयोधय इव व्यवृत्तवित्तस्पृहाः। स्पृष्टाः कैरपि नों नेभोविभुतयाविश्वस्य विश्रान्तये सन्त्यद्यापिचिरन्तनान्तिकचराःसन्तः कियन्तोऽप्यमी॥३३॥ पिता पुत्रं पुत्रः पितरमभिसंधाय बहुधा विमोहादीहेते सुखलवमवाप्तुं नृपपर्दम् । अहो मुग्धो लोको मृतजननदंष्ट्रान्तरगतो न पश्यत्यश्रान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम् ॥ ३४ ॥ . अन्धादयं महानन्धी विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षुषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ॥३५॥ आशागतः प्रतिप्राणिं यस्मिन् विश्वमरगूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥३६॥ आधुश्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोगर्जितम्. स्यात्सर्व न भवेन्न तच नितरामायासितेऽप्यात्मनि । इत्या ः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोद्यमाः द्रागागामीभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्तेतराम् ॥३७॥ का स्वादो विषयेष्यसी कटुविषप्रख्येष्वलं दुःखिना यानन्वेष्टुमिव त्वयाशुचिकृतं येनाभिमानामृतम् । . प्राज्ञातं करणैर्मनाप्रणधिभिः पित्तज्यराविष्टवत् कष्टं रागरसैः सुधीस्त्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः॥३८॥ अनिवृत्तेर्जगत्सवं मुखादवशिनष्टि यत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ॥ ३९ ॥ साम्राज्यं कथमप्यवाप्य सुचिरात्संसास्सारं पुनस्तत्त्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवरा प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् ।
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स्तोत्र-संग्रह। ग्वं प्रागेव परिग्रहापरिहर त्याज्यान गृहीत्वापि ते माभूभौतिकमोदकव्यतिकरं संपाद्य हास्यास्पदम् ॥४०॥ सर्व धर्ममयं क्वचित क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकम् काप्येतद्वयबत्करोति चरितं प्रशाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्थाथवा मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥४१॥ कृष्ठाप्त्वा नृपतीन्निषेध बहुशो भ्रान्त्वा वनेऽम्भोनिधौ किं क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिरं हा कष्टमज्ञानतः । तैलं त्वं सिकता स्वयं मृगयसे वाञ्छेद् विषाजनीवितुं नन्वाशाग्रहनिग्रहात्तव सुखं न ज्ञातमेतत्वया ॥ ४२ ॥ प्राशाहुताशनग्रस्त घस्त्वर्थी (स्तूच्चैः) बंशजां जनाः । हा किलैति (त्य) सुखच्छायांदुःखधर्मापनोद (दि) नः ॥४३॥ खातेऽभ्यासजलाशयाजनि शिला प्रारब्धनिर्वाहिणा भूयोभेदि रसातलावधि ततः कच्छात्सुतुच्छं किल । क्षारं वार्युदगात्तदप्युपहतं तिकृमिश्रेणिभिः शुष्कतच पिपासितास्य सहसा कष्टं विधेश्चेष्टितम् ॥४४॥ शुद्धधनैर्विवर्द्धन्ते सतामपि न संपदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिंधषः ॥४५॥ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखं । तज्ज्ञानं यत्र नाशानं सा गतिर्यत्र मांगतिः ॥४६॥ वार्तादिभिर्विषयलोलविचारशून्यः क्लिासि यन्मुहुरिहार्थपरिग्रहार्थम् । तच्चेष्टितं यदि सकृत्परलोकबुद्धया न प्राप्यते ननु पुनर्जननादि दुःखम् ॥ ४७ ॥
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आत्मानुशासनम् । संकल्पेदमनिमिष्टमिदमित्याज्ञातयाथात्मको बाह्म वस्तुनि किं वृथैव गमयस्यासज्य कालं मुहुः। अन्तःशान्तिमुपैहि यावद दयप्राप्तान्तकप्रस्फुरज्ज्वालाभीषणजाठरानलमुखे भस्मीभवेन्नो भवान ॥३८॥
आयातोऽस्यतिदूरतोग! परवानाशासरित्प्रेरितः किन्नावैषिननु स्वमेव नितरामेना तरीतुं क्षमः । स्वातन्त्र्ययं ब्रज यासि तीरमचिराग्नीचे दुरन्तान्तकग्राहव्याप्तगभीरवक्रविषमे मध्ये भवाब्धर्भवः ॥४६॥ आखाद्याद्य यदुज्झितं विषयिभिावृत्तकौतूहलैस्तभृयोप्यविकुत्सयन्नभिलषस्य प्राप्तपूर्व यथा । जन्तो कि तप शान्तिरस्ति न भवान्यावद्दुराशामिमा. मंहःसंहतिवीरवैरिपृतनाश्रीबैजयन्ती हरेत् ॥५०॥ भक्त्वाभाविभवांश्च भोगिविषमान् भोगान् बुभुक्षुभृश मृत्वापि स्वयमस्तभीतिकरुणः सर्वाजिघांसुर्मधा। यद्यत्साधुविहित हतमिति तस्यैव धिक्कामुकः कामक्रोधमहाग्रहाहितमनाः किं किन कुर्याज्जनः ॥५१॥ श्वो यस्याजनि यः स एव दिवसो मस्तस्य संपद्यते स्थैय्यं नाम न कस्यचिज्जगदिदं कालानिलोन्मूलितम् । भ्रातान्तिमपास्य पश्यसितरां प्रत्यक्षमणोन किं येनात्रैव मुहुमुहुर्बहुतरं बद्धस्पृहो भ्राम्यसि ॥५२॥ संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेप्युद्वेगकारीण्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत्स्मरसि (स) स्मरस्मितशितापाडैरनहायुधैर्वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥५३॥
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स्तोत्र-संग्रह। उत्पन्नोस्यतिदोषधातुमलवदेहोसि कोपादिवान् साधिव्याधिरसि प्रहीणचरितोऽस्यस्यात्मनो बञ्चकः । मृत्युव्याप्तमुखान्तरोऽसि जरसा प्रस्तोसि जन्मिन् वृथा किं मत्तो स्यसि कि हितारिरहिते किं वासि बद्ध स्पृहः॥५४॥ उग्रग्रीष्मकठोरधर्मकिरणस्फूर्जद्गभस्तिप्रभैः संतप्तः सकलेन्द्रियैरयमहो संवृद्धतृष्णो जनः अप्राप्याभिमतं विवेकविमुखः पापप्रयासाकुलस्तोयोपान्तदुग्न्त कदमगतक्षीणोक्षवत् क्लिश्यते ॥१५॥ लब्न्धनोज्वलत्यग्निः प्रशाम्यति निरन्धनः । ज्वलत्युभयथाप्युच्चैरहो मोहाग्निरुत्कटः ॥५६॥ किं मर्माण्यभिदन्नभोकरतरो दुःकर्मागर्मुद्गणः किं दुःखज्वलनावली विलसितै लेढ़ि देहश्चिरम् । कि गर्जयमतूर्य्य (र) भैरवरवान्नाकर्णयन्निर्णयन् येनायं न जहाति मोहविहितां निद्रामभद्रां जनः ॥५॥ तादात्म्यं तनुभिः सदानुभवनं पाकस्य दुःकर्मणो ब्यापारः समयं प्रति प्रकृतिभिर्गाढं स्वयं बन्धनम् । निद्राविश्रमणं मृतेः प्रतिभयं शश्वन्मृतिश्च ध्रुवं अन्मिन् जन्मनि ते तथापि रमले तत्रैव चित्र महत् ॥८॥ अस्थिस्थूलतुलाकलापघटितं नद्धं शिरास्नायुभिश्वर्माच्छादितमन्नसान्द्रपिशितैर्लिप्तं सुगुप्तं खलैः । कर्मारातिभिरायुरुच्चनिगलालग्नं शरीरालयं कारागारमवेहि ते हतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥५६॥ शरणमशरणं वो बन्धवो बन्धमूलं चिरपरिचितदारा द्वारमापद्गृहाणाम् ।
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आत्मानुशासनम् । विपरिमृशत पुत्राः शत्रवः सर्वमेतत् त्यजत भजत धम्म निर्मलं शर्मकामाः ॥६०॥ तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनैराशाग्निसंधुतणेः सम्बन्धेन किमत शश्वदशुभैः सम्बन्धिभिर्बन्धुभिः । किं मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा देहिन याहि सुखाय ते समममुं मा गाः प्रमादं मुधा ॥१॥ श्रादावेव महाबलैरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं रक्षाध्यक्षभुजालिपजरवृता सामन्तसंरक्षिता। लक्ष्मीर्दीपशिस्त्रोपमा क्षितिमतां हा पश्यतां नश्यति प्रायः पातितचामरानिलहते वान्यत्र काशा नृणाम् ॥६२॥ दीप्तोभयाग्रवातारि दारूदरगकीटवत् । जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे बत सीदसि ॥६३॥ नेत्रादीश्वरचोदितः सकलुषो रूपादिविश्वाय कि प्रेष्यः सीदति (सि) कुत्सितव्यतिकरैरहांस्यलं बृहयन् । नीत्वा तानि भुजिष्यतामकलुषो विश्चं विसृज्यात्मवानात्मानं धिनु सत्सुखी धुतरजाः सद्वृत्तिभिर्निर्वृतः ॥६॥ अर्थिनो धनमप्राप्य धनिनोप्यवितृप्तितः । क्रष्टं सर्वेऽपि सीदन्ति परमेको मुनिः सुखी ॥६५॥ परायत्तात्सुखाद्दुःखं वायत्तं केवलं वरम् । अन्यथा सुखिनामानः कथमासंस्तपस्विनः ॥६६॥ यदेतत्स्वच्छन्द विहरणमकार्पण्यमशनं सहास्यैः संवासः श्रुतमुपशमकश्रमफलम् । मनो मन्दस्यन्दं पहिरपि चिरायाति विमृशन् न जाने कस्येयं बरिणतिरुदारस्य तपसः ॥६॥
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દુષ્ટ
स्तोत्र संग्रह ।
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विरतिरतुला शास्त्रे चिन्ता तथा करुणापरा मतिरपि सदैकान्तध्वान्त प्रपत्र विभेदिनी । अनशनतपश्चय्य चान्ते यथोक्तविधानतो भवति महतां नाल्पस्येदं फलं तपसो विधेः ॥ ६८ ॥ उपाय कोटिदूरक्षे स्वतस्तत इतोऽन्यतः । सर्वतः पतनःप्राये काये कोऽयं तत्राग्रहः ॥ ६६ ॥ श्रवश्यं नश्वरैरेभिरायुःकायादिभिर्यदि । शाश्वतं पदमायाति मुधा यातमहि ते ॥ ७० ॥ गन्तुमुच्छ्वास निश्वासैरभ्यस्यत्येष सन्ततम् । लोकः पृथगितो वाञ्छुत्यात्मानमजरामरम् ॥ ७१ ॥ गलत्यायुः प्रायः प्रकटितघटीयन्त्रसलिलं खलः कायाप्यायुर्गतिमनुपतत्येष सततम् । किमस्यान्यैरन्यैर्द्वयमयमिदं जीवितमिद्द स्थितो भ्रान्त्या नावि स्वमिव मनुते स्थास्नुमपधीः ॥७२॥ उछ्वासखेदजन्यत्वाद्दुःखमेवात्र जीवितम् । तद्विरामे भवेन्मृत्युडणां भरा कुतः सुखम् ॥७३॥ जन्मतालदुमजन्तु फलानि प्रच्युतान्यधः । अप्राप्य मृत्युभूभागमन्तरे स्युः कियच्चिरम् ॥७४॥ क्षितिजलिधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनैस्त्रिभिः परिवृतमतः खे नाधस्तात्ख लासुरनारकान् । उपरि दिविजान्मध्ये कृत्वा नरा। न्विधिमन्त्रिणा पतिरपि नृणां त्राता नैको ह्यलंध्यतमोऽन्तकः ॥ ७५ ॥ श्रविज्ञातस्थानो व्यपगततनुः पापमलिनः चलो राहुर्भास्वदशशत कराक्रान्तभुवनम् ।
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आत्मानुशासनम् । स्फुरन्तं भास्वन्तं किल गिलति हो कष्टमपरं परिप्राप्ते काले विलसितविधेः को हि बलवान् ॥७६॥ उत्पाद्य मोहमद विनमेव विश्वं । वेधाः स्वयं गतघृणष्टमवद्यथेष्टम् । संसारभीकरमहागहनान्तराले हन्ता निवारयतुमत्र हि का समर्थः ॥७॥ कदा कथं कुतः कस्मिन्नित्यतयः खलोऽन्तकः । प्राप्नोत्येव किमित्याध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ॥७॥ असामवायिकं नृत्योरेकमालोक्य कंचन । देशं कालं विधि हेतुं निश्चिन्ताः सन्तु जन्तवः ॥७६॥ अपिहितमहाघोरद्वारं न कि नरकापदामुपकृतवतो भूयः किं तेन चेदमपाकरोत् । । कुशलविलयज्वालाजाले कलत्रकलेवरे कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ॥०॥ व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूले योग्योचितं विष्वक नुत्ततपातकुकुथिताधुग्राम्यैः छिद्रितम् । मानुष्यं घुणभक्षितेसुसदृशं नान करम्यं पुननिःसारं परलोकबीजमचिरात्कृत्वेह सारी कुरु ॥१॥ प्रसुप्तो मरणाशङ्का प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयत्येष तिष्ठत्काये कियच्चिरम् ॥२॥ सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्य.. माप्त त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहिवं तव भस्मयन्ति ॥३॥
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स्तोत्र-संग्रह। जन्मसन्तानसम्पादि विवाहादिविधायिनः । स्वाः परे स्य सकृत्योराहारियो न परे परे ॥४॥ रे धनेन्धनसंभार प्रक्षिप्याशाहुताशने। ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संधुतणे क्षणे ॥५॥ पलितच्छ्लेन देहान निर्गच्छति शुद्धिरेव तव बुद्धेः । कथमिव परलोकाथं जरी वराकस्तदा स्मरति ॥६॥ इष्टार्थाद्यदवाप्ततद्भवसुखेक्षाराम्भसि प्रस्फुरन्नानामानस दुःखवाडवशिखासंदीपिताभ्यन्तरे । मृत्यूत्पत्तिजरातरंगचपले संसारघोराणवे मोहग्राह विदारितास्यविवराद्दूरे चरा दुर्लल्भाः ॥८॥ अव्युच्छिन्नैः सुखपरिकरैरोलिता लोलरम्यैः श्यामांगोनां नयनकमलरञ्चिता यौवनान्तम् । धन्योऽसि त्वं यदि तनुरियं लब्धबोधे मृगीभिदग्धारण्यस्थलकमलिनीशङ्कयालोक्यते ते ॥ ८ ॥ बाल्ये वेत्ति न किञ्चिदप्यररिपूर्णाङ्गो हितं वाहितं कामान्धः खलु कामिनीवुमघने भ्राम्यन्वने यौवने । मध्ये वृद्धतृषार्जिजतुं धनुपशुः क्लिश्नासि कृष्यादिभिबुद्धो वा दूर्धमृतः क्व जन्म फलिते धर्मो भवेन्निर्मलः ।।६।। बाल्ये स्मिन यदनेन ते विरचितं स्मर्तुं च तन्नोचितं मध्ये चापि धनार्ज नव्यतिकरैस्तन्नार्पितं यत्त्वयिः । वाक्येप्यभिभूय दन्त दलनाद्यञ्चेष्टितं निष्ठुरम् पश्यायापि विधेशेन चलितुं वञ्छस्यहो दुर्मत ॥ ६ ॥ अश्रोत्रीव तिरस्कृता परतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिः वग्वीक्षितुमतमं तव दशांदृष्यामिवान्धयं गतम् ।
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आत्मानुशासनम् । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोप्ययं कम्पते निष्कम्पस्त्वमहो प्रदीप्तभवने प्यासे जराजर्जरे ॥ ११ ॥ अतिपरिचितेष्ववक्षा नवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । त्वं किमि मृषा कुरुषेदोशासको गुणेष्वरतः ॥ १२ ॥ हंसैर्न भुक्तमतिकर्कशमम्भसापि नो संगतं दिनविकाशि सरोज मिच्छन् । नालोकितं मधुकरेण मृतं वृथैव प्रायः कुतो व्यसनिनो स्वहिते विवेकः॥ ३ ॥ प्रज्ञव दुर्लभा मुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मनि । वां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ति ते शोच्याः खलु धीमताम् । ६४। लोकाधिपाः क्षितिभुजो भुवि येन जाता. स्तमिन् विधौ सति हि सर्वजनप्रसिधे । शोच्यं तदेव यदमीस्पृहणीयवीर्यास्तेषां बुधाश्च वत किङ्करतां प्रयान्ति ॥ १५ ॥ यस्मिन्नस्ति स भूभृतो धृतमहावंशाः प्रदेशः परः प्रज्ञापारमिताधृतोन्नतिखना मूर्धा ध्रियन्ते श्रियै । भूयास्तस्य मुजङ्गदुर्गमतमो मार्गो निराशस्ततो । व्यक्तं वक्तुमयुक्तमार्य्यमहतां सर्वार्यसाक्षात्कृतः। ६३ । शरीररेऽस्मिन् सर्वाशुचिनि बहुदुःखे पि मिवसन् व्यरंसीन्नो नैव प्रथयति जखः प्रीतिमधिकाम् । इमं दृष्पाप्यस्माद्विरमयितुमेनं च यतते यतिकताख्यानःपरहितरतिं पश्य महतः ।। १७ ॥ इत्यं तथेति वहुना किमुदीरितेन भूयस्त्वयैव ननु जन्मनि भुक्तमुक्तम् ।
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स्तोत्र-संग्रह।
एतावदेव कथितं तव संकलय्य सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम् ॥ ६ER अन्तर्वातं वदनविवरे नुत्तषातः प्रतीच्छन् कायत्तः सुचिरमुरावस्करे द्धागृद्धथा। निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो मन्ये जन्मिन्नपि च मरणात्तन्निमित्ताद्विभेषि ॥ ६ ॥ अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमुग्धेन भवादितः पुरा। यदत्र किंचित्सुखरूपमाप्यते तदार्य विद्धयन्धकवतीयकम्॥ हाकष्टविष्टवनिताभिरकाण्ड एव चण्डो विखण्डयति पण्डितमानिनोऽपि । पश्याद्भुतं तदपि घोरतया सहन्ते दग्धं तपोऽग्निरमुं न समुत्सहन्ते ॥ १०१ ॥ नर्थिभ्यस्तृणवद्विचिन्त्य विषयान् कश्चिच्छियं दत्तवान् पपां तामवितर्पिणीं विगणयन्नादात्परस्त्यक्तावान् । प्रागेवाकुशलां विमृश्य सुभागोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीदेते ते विदितोत्तरोत्तरवराः सर्वोत्तमास्त्यागिनः॥ १०२ ॥ घिरज्य सम्पदः सन्तस्त्यजन्ति किमिहाद्भुतम् । मावमीकि जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥१०३॥ श्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं सात्त्विकं सताम् । करोति तत्वविञ्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥१०४॥ विमृश्योच्चैर्गर्भात् प्रभृति मृतिपर्यंतमखिलम् मुधाप्येतत् क्लेशाशुचिभयनिकाराघबहुलम् । । बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्तिश्च जडधीः स कस्त्यक्तुं नालंखलजनसमायोगसदृशम् ॥१०॥
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प्रात्मानुशासनम् । कुबोधरागादिविचेष्टितैः फलम् त्वयापि भूयोजननादि लक्षणम् । प्रतीहि भव्यप्रतिलोमतिभिध्रुवं फलं प्राप्स्यसि तद्विलक्षणम् ॥१०॥ दयादमत्यागसमाधिसन्ततः पथि प्रवाहि प्रगुणं प्रयत्नव न्। नयत्यवश्यं वचसामगोचरं विकल्पदरं परमं किमप्यसौ१०७ विज्ञाननिहितमाहं कुटीप्रवेश विशुद्धकायमिव । त्यागः परिग्रहाणामवश्यमजरामरं कुरुते ॥१०८॥ अभुक्त्वापि परित्यागात्स्वोच्छिष्टं विश्वमासितम् । येन चित्रं नमस्तस्मै कुमारब्रह्मचारिणे ॥१०६॥ अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः। योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥११०।। दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः । मानुष्यमिहैवतपोमुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥ १११॥ आराध्यो भगवान जगत्रयगुरुर्वृत्तिः सतां सम्मता क्लेशस्तञ्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् । साध्यं सिद्धिसुखं कियान परिमितः कालो मनःसाधनम् सम्यक चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किंवा समाधौ बुधाः२१२ द्रविणपवनप्राध्मातानां सुखं किमिहेक्षते किमपि किमयं कमव्याधः खलीकुरुते खलः। चरणमपि किं स्पृष्टुं शक्ताः पराभवपांशवो वदत तपसोऽप्यन्यन्मान्यं समीहितसाधनम् ॥११३॥
इहैव सहजान् रिपून्विजयते प्रकोपादिकान् . गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाति ।
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स्तोत्र-संग्रह। पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात् स्वयं यायिनी नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ३११४॥ तपोवल्यां देहः समुपचितपुण्यार्जितफलः शलाट्वग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलितः। व्यशुष्यञ्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपयः स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११॥ अमी प्ररूढ़वैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत् । तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभुवम् ॥११६॥ क्षणार्धपि देहेन साहचर्यं सहेत कः। यदि प्रकोष्टमादाय न स्याद्वोधो निरोधकः ॥११७॥ समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवा न्तपस्यन्निर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाटेभिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि सुचिरं न सोढव्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशतः ॥११॥ पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किङ्कर इव स्वयं सृष्टा सृष्टः पतिरथनिधीनां निजसुतः । क्षुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगतीमहो केनाप्यस्मिन् विलसितमलंध्यं हतविधेः ॥११॥ प्राक प्रकाशप्रधानः स्यात् प्रदीप इव संयमी । पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ॥१२०॥ भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रंभास्वरः। स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्धमत्कर्मकजलम् ॥१२॥ अशुभाच्छभमायातः शुद्धः स्यादयमाममात्। रवेरप्राप्तसन्ध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥१२२।।
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आत्मानुशासनम् । विधूततमसो रागस्तंपाश्रुतनिबन्धनः । संध्याराग इचार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२३॥ विहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः । रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥१२४॥ झानं यत्र पुरःसरं सहचरी लज्जा तपः संवलम् चारित्रं शिविका निवेशनभुवः स्वर्गा गुणा रक्षकाः । पंथाश्च प्रगुणं शमाम्बुबहुल: छाया दया भावना यानं तन्मुनिमापयेदभिमतं स्थानं विना विप्लवैः ॥१२॥ मिथ्या दृष्टिविषाम्वदन्ति फणिनो दृष्टं तदा सुस्फुट यासामर्द्धविलोकनैरपि जगहन्दह्यते सर्वतः। तास्त्वय्येव विलोमवर्तिनि भृशं भ्राम्यन्ति बद्धक्रुधः स्त्रीरूपेण विषं हि केवलमतस्तदंगोचरं मास्मगाः ॥१२६।। क्रुद्धाः प्रापहरा भवन्ति भुजगा दष्दैव काले क्वचितेषामौषधयश्च सन्ति बहवः सद्याविषव्युच्छिदः । हन्युः स्त्रीभुजगाः पुरेह च मुहुः क्रुद्धाः प्रसन्नास्तथा योगीन्द्रानपि तानिरौषधविषा दृष्टाश्च दष्वापि च ॥१२७॥ पतामुत्तमनायिकामभिजनावां जगत्प्रेयसी मुकिश्रीललनां गुणप्रणयिनी गन्तुं तवेच्छा यदि । तां त्वं संस्कुरु वर्जयाम्यवनितावार्तामपि प्रस्फुट तस्यामेव रतिं तनुष्व नितरां प्रायेण सेाः स्त्रियः ॥१२॥ वचनसलिले हासस्वच्छस्तरङ्गसुखोदरैः घेदनकमलाहोरम्याः स्त्रियः सरसीसमाः। इह हि बहवः प्रास्तप्रज्ञास्तटेऽपि पिपासवोविषयविषमसाहनस्ताः पुनर्न समुद्गताः ॥१२६॥
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· स्तोत्र संग्रह। पापिष्ठैर्जगती विधीतमभितः प्रज्वाल्य रागानलं क्रुद्धैरिन्द्रियलुब्धकैर्भयपदैः संत्रासिता सर्वतः । हन्तैते शरणैषियोजनमृगाः स्त्रीछमना निम्मितम् घातस्थानमुपाश्रयन्ति मदनव्याधाधिपस्याकुलाः ॥१३॥ अपत्रपतपोऽग्निना भयजुगुप्सयोरास्पदं शरीरमिदमद्धदग्धशववम्न किं पश्यसि। वृथा व्रजसि किं रतिं ननु न भीषयस्यातुरो निसर्गतरलाः स्त्रियस्त्वदिह नाः स्फुदं विभ्यति ॥१३॥ उत्तुंगसंगतकुलाचल दुर्गदुरमाराद्वलित्रयसरिद्विषमाक्तारम् । रोमावलीकुसृतिमार्गमनङ्गमूदा . कान्ताकटीविवरमेत्य न केत्र खिन्नाः ॥१३॥ व!गृहं विर्षायणां मदनायुधस्य नाडीव्रणं विषमनिवृतपर्वतस्य । प्रच्छन्न पादुकमनङ्गमहाहिरध्र-- माहुर्बुधा जघनरन्ध्रमदः सुदत्याः ॥१३३॥ अध्यास्यापि तपोवनं बत गरे नारीकटीकोटरे व्याकृष्टा विषयैः पतन्ति करिणः कूटावपाते यथा। प्रोचे प्रीतिकरी जनस्य जननी प्रारजन्मभूमि च यो व्यक्तं तस्य दुरात्मनो दुरुदितैर्मन्ये जगद्वचितम् ॥१३॥ कण्ठस्थः कालकूटोऽपि शम्भोः किमऽपि नाकरोत् । सोपि दन्दह्यते स्त्रीभिः स्त्रियो हि विषमं विषम् ॥१३॥ तव युवतिशरीरे सर्वदोषेकपात्रे रतिरमृतमयूषाद्यर्थसाधतश्वेत्।
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श्रात्मामुशासनम् । मनु शुचिषु शुभेषु प्रीतिरेग्वेव साध्वी मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ॥१३६॥ प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ह्लादते । मनो ननु नपुंसकं स्थिति न शब्दतश्वार्थतः सुधो कथमनेन सन्नुभयथा पुमान् जीयते ॥१३७॥ राज्यं सौजन्ययुक्तं श्रुतवदुरुपतः पूज्यमत्रापि यस्मात त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन्नलघुरतिलघुः स्यात्तपः प्रोह्य राज्यम् राज्यातस्मात्प्रपूज्यं तप इति मनसालोच्य धीमानुदग्रं कुर्यादार्यः समग्रं प्रभवभयहरं सत्तफः पापभीरूः ॥१३॥ पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि । पश्चात् पादोऽपि नास्पाक्षीत् किं न कुर्याद्गुणक्षतिः॥१३६॥ हेचन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वम् तद्वान भवेः किमिति तन्मय एव नामः। किं ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ॥१४०॥ विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः । रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्व गुरूक्तयः ॥१४॥ दोषान् कांश्चन तान प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं साई तैः सहसा म्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुगुरुगुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटम् ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥१५२|| लोकद्वयहितं धक्तुं श्रोतुश्च सुलभाः पुरा । दुर्लभाः कत्तु मद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः ॥१४३॥
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स्तोत्र-संग्रह। गुणागुणविवकिमिर्विहितमप्यलं दूषणं भवेत्सदुपदेशवन्मतिमतामतिप्रीतये । कृतं किमपि धाष्टर्यतः स्तवनमप्यतीर्थोषितैन तोषयति तन्मनांसि खलु कष्टमज्ञानता ॥१४॥ त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ गुणदोषनिबन्धनौ। . यस्यादानपरित्यागौ स एवं विदुषां वरः ॥१४॥ हितं हित्वाहिते स्थित्वा दुर्थीखायसे भृशम् । विपर्यायें तयोरेंधि त्वं सुखायिष्यसे सुधीः ॥१४६॥ इमे दोषास्तेषां प्रभवनममीभ्यो नियमितो गुणाश्चैते तेषामपि भवनमेतेभ्य इति यः। ध्यजस्त्याज्यान हेतून् झटिति हितहेतून् प्रतिभजन स विद्वान् सवृत्ता स हि स हि निधिः सौख्ययशसो:१४७ साधारणौ सकलजन्तुषु वृद्धिनाशी जन्मान्तरार्जितशुभकर्मयोगात् । धीमान्स यः सुगतिसाधन वृद्धिनाशस्तद्वयत्यवाद्विगतधीरपरो भ्यधायि ॥१४॥ कलौ दण्डो नीतिः स च नृपतिभिस्ते नृपतयों नयन्त्यर्थाथं ते न च धनमदोस्त्याश्रमवताम् । मतानामाचार्या न हि मतिरता साधुचरिता स्तंपस्तेषु श्रीमम्मणये इच जाताः प्रविरल्यः ॥१४६।। एते ते मुनिमानिनः कवलिताः कान्ताकटाक्षेतणे रङ्गालग्नशरावसम्नहरिणप्रख्या भ्रमन्त्याकुलाः । सम्धत्तु विषयाटवीस्थलतले खान्क्वाप्यहो न क्षमा मानाजोन्मरुदाहताम्रवपतैः संसर्गमेभिर्भवान् ॥१५०॥
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- प्रात्मानुशासनम् । . ७५ गेहं गुहा परिदधासि दिशो विहाय संयानमिष्टमशनं तपसा भिवृद्धिः । प्राप्तागमार्थ तव सन्ति गुणाः कलंत्रमप्रार्थ्यवृत्तिरसिं यासि वृथैव याचाम् ॥१५१॥ परमाणोः परं नाल्पं नमसो न महत्परम् । इति ध्रुवन् किमद्रातीम्निमौं दीनाभिमानिनौ ॥१५२॥ याचितुर्गौरवं दातुर्मन्ये संक्रान्तमन्यथा। तदवस्थौ कथं स्यातामेतो गुरुलघू तदा ॥१५३॥ . अधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्ध्वमजिघृत्तवः । इति स्पष्टं वदन्तो वा मामोन्नामौ तुलान्तयोः ॥१५॥ सस्वमाशासते सर्वे न खं तत्सर्वा यत् । अर्थिवैमुख्यसंपादि सखत्वाग्निःस्वता वरम् ॥१५५।। आशाखनिरतीवाभूदगाधा निधिभिश्च या। सापि येन समीभूता तत्ते मानधनं धनम् ॥१५६॥ प्राशाखनिरगाधेयमधकृतजगत्रया । उत्सर्योत्सर्ग्य तत्रस्थानहो सद्भिः समोकृता ॥१५७॥ विहितविधिना देहस्थित्यै तस्युपबृंहबनशनमपरैर्भक्त्या दत्तं वचित् कियदिच्छति । सदपि नितरां लज्जाहेतुः किलास्य महात्मनः कथमयमहो गृह्णात्यन्यान रिग्रहदुर्ग्रहान् ॥१५॥ दातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं गृह्णन्तः स्वशरीरतापि विरताः सर्वोपकारेच्छया। लषैव मनस्विनां ननु पुनः कृत्वा कथं तत्फलं रागद्वेषवशाभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५॥
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स्तोत्र संग्रह |
श्राम सहजं तव त्रिजगतीवीधाधिपत्यं तथा aौख्यं चात्मसमुद्भवं विनिहतं निर्मूलतः कर्मणा । दैन्यास द्विहितैस्त्वमिन्द्रियसुखैः सन्तृप्य से निस्त्रपः स त्वं यश्चिरयातनाकदशनैर्बद्ध स्थितिस्तुष्यसि ॥ १६० ॥ तृष्णा भोगेषु चेद्भितो सहस्वाल्पं खरेच ते । प्रतीक्ष्य पाकं किं पीत्वा पेया भुक्तिं विनाशयेः ॥ १६१७ निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् ।
किं करोति विश्विस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ॥ १६२ ॥ जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिर्विधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता ॥ १६३ ॥ परां कोटिं समारूढ़ो द्वावेव स्तुतिनिन्द्रयोः । यस्त्यजेरुपसे चक्रं यस्तपोषियाशया ॥ १६४॥ त्यजतु तपसे चक्रं चकी यतस्तपसः फलं सुखमनुपमं स्वो (त्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् । इदमिह महदिचत्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भोक्तुं जहाति महत्तपः ॥ १६५ ॥ शय्यातलादपि तु कोपि भयं प्रप्राता
तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् । चित्रं त्रिलोकशिखरादपि दूरतुङ्गाः श्रीमान्खयं न तपसः पतनाद्विभेति ॥ १६६ ॥ विशुद्धयति दुराचारः सर्वोऽपि तपसा ध्रुवम् । करोति मलिनं तच किल सर्वाधरोऽपरः ॥ १६७॥ सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु क्रिस्तु विस्मापकं तदुलमेतदिह द्वयं नः ।
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. आत्मानुशासनम् । पीत्वामृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्या: संप्राप्य संयमनिधि यदि च त्यजन्ति ॥१६॥ इह विनिहितबहारम्भबाह्योरशत्रो. रपचितनिजशक्त परः कोन्य पाया। प्रशनशयनयानस्थामदत्तावधान कुरु तव परिरक्षामान्तरान् हन्तुकामः ॥१६६।। अनेकान्सात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते घचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखांशतयुते । समुत्तुङ्गे सम्यक प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥१७॥ तदेव तदतद्रूपं प्राप्नुवन्न विरंस्यति । 'इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित्सदा ॥१७॥ एकमेकक्षणे सिद्धं ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मकम् । अबाधितान्येतत्प्रत्ययान्यथानुपपत्तितः ॥१७२॥ न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं नाभावमप्रतिहतप्रतिभासरोधात् । तत्त्वं प्रतिक्षणभवत्तदतरस्वरूप. माद्यन्तहीनमखिलं च तथा यथै कम् ॥१७॥ . ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा खभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज ज्ञानभावनाम् ॥१७४॥ ज्ञानमेव फलं शाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥१५॥ शास्त्राग्नी मणिवद्भयो विशुद्धो भाति निर्वृतः। अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म बा भवेत् ॥१७६॥
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स्तोत्र संग्रह ।
मुहुः प्रसाय्यं सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थिताम् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७॥ वेनोद्वेष्टने यावत्तावद्भ्रान्तिर्भवार्णवे । श्रावृत्तिपरिवृत्ताभ्यां जन्तार्मन्थानुकारिणः || १७ ||, मुच्यमानेन पाशेन भ्रान्तिर्वन्धश्च मन्थवत् । जन्तौस्तथासौ मोक्तव्यो येनाभ्रान्तिरबन्धनम् ॥ १७६ ॥ रागद्वेष कृताभ्यां जन्तोर्बन्धः प्रवृत्यवृत्तिभ्याम् । तत्रज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेदयते मोक्षः || १८०॥ द्वेषानुरागबुद्धिगुणदोषकृता करोति खलु पापम् । तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहिता तयोर्मोक्षम् ॥ १८२ ॥ मोहवोजाद्र विद्वेषौ बीजानू मूलाङ्कराविव । तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिधिक्षुणा ॥ १८२ ॥ पुराणो ग्रहदोषोत्थो गम्भीरः सगतिः श्वरुक् । त्याग जात्यादिना मोहवणः शुद्धयति रोहति ॥ १८३॥ सुहृदः सुखयन्तः स्युर्दुःखयन्ता यदि द्विषः । सुपि कथं शोच्या द्विषो दुःखयितुं मृताः ॥ १८४ ॥ अपरमरणे मत्वात्मीयानलङ्घयतमे रुदन् । विलपतितरां स्वस्मिन् मृत्बौ तथास्य जडात्मनः ॥ विभयमरणे भूयः साध्यं यशः परजन्म वा । कथमिति सुधीः शोकं कुय्यन्मृतेऽपि न केनचित् ॥ २८५॥ हानेः शोकस्ततो दुःखं लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सन् सुखी स्यात् सर्वदा सुधीः ॥ १८५ ॥ सुखी सुखमिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकतसंन्यासो दुःखं तस्य विपर्म्यषः ॥ १८७॥
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प्रात्मानुशासनम् । मृत्योमृत्यवन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् । तत्र प्रमुदितान्मन्ये पाश्चात्ये पक्षपातिनः ॥१८॥ अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो। यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः।" कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्कं फलम् ॥१६॥ तथा श्रुतमधाव शश्वदिहलोकपंक्तिं विना शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः। कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान् शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तपःशास्त्रयोः ॥१६॥ दृष्टा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोप्यसौ तव महजनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ॥१६॥ अहितविहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमरि स्वयं सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाहोषं समीक्ष्य भवे भवे विषयविषवद्रासापासं कथं कुरुते बुधः ॥१२॥ प्रात्मन्नात्मविलोपनात्मवरितैरासीहरात्मा चिरं स्वात्मास्याः सकलात्मनीनचरितैरात्मीकृतैरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतयत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोऽत्थात्मसुखोनिषोदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना१६३ अनेन सुविरं पुरा त्वमिह दासवद्वाहित. स्ततोऽनशनसामिभकरसवर्ननादिकमैः।
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स्तोत्र--संग्रह। क्रमेण विलयावधिस्थिरतपोविशेषैरिदं कदर्थय शारीरकरिपुमिषाद्य हस्तागतम् ॥१६॥ श्रादौ तनोर्जननमंत्र हतेन्द्रियाणि ... कादन्ति तानि विषयान् विषमाश्च मानः । हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु. मलं ततस्तनुरनर्थपरम्पराणाम् ॥१६५॥ शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छन्ति जीवितम् ॥१६॥ इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावा यथा मुगाः। वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥१६॥ घरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसोभाविजन्मनः । सुस्त्रोकटाक्षलुण्टाकैलुप्तवैराग्यसंपदः ॥१६॥ स्वार्थभ्रंशं त्वमविगणयंस्त्यक्तलज्जाभिमानः संप्राप्तोऽस्मिन् परिभवशतैर्दुःखमेतत्कलत्रं । नान्वेति त्वां पदमपि पदाद्विालुब्धोऽसि भूयः सख्यं साधो यदि हि मतिमान्मानहीविग्रहेण ॥१६॥ न कोऽप्यन्योऽन्येन व्रजति समवायं गुणवता गुणी केनापि त्वं समुपगतवान् रूपिभिरसौ। न ते रूपं ते यानुपव्रजसि तेषां गतमतिस्ततश्छेद्यो भेद्यो भवसि भवदुःखे भववने ॥२००॥ माता जातिः पिता मृत्युराधिन्याधी सहोद्गती। प्रान्ते जन्तोर्जरा मित्रं तथाप्याशा शरीरकं ॥२०१॥ शुद्धोऽप्यशेषविषयावगमोऽप्यमूर्तोप्यात्मन् त्वमप्यतितरामशुचीकृतोऽसि ।
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आत्मानुशासनम्।
मूर्त सदा शुचि विचेतनमन्यदत्र किंवा न दूषयति घिग्धिगिदं शरीरम् ।। २०२॥ हा हतोऽसितरां जन्तो येनास्मिस्तव सांप्रतम् ।.. ज्ञानं काया शुचिज्ञानं तत्त्यागः किल साहसम् ॥ २०३॥ अपि रोगादिभिवृद्धैर्न मुनिः खेदमृच्छति । उडुपस्थस्य कः क्षोभः प्रवृद्धऽपि नदीजले ॥ २०४ ॥ जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा नो चेत्तनुं त्यजतु वा द्वितयी गतिः स्यात् । लग्नाग्निमावसति वहिमपोह्य गेहं निर्हाय वा व्रजति तत्र सुधीः किमास्ते ॥ २०५॥ शिरस्थं भारमुत्ता- स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः । शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥ २०६॥ यावदस्ति प्रतीकारस्तावत्कुर्यात् प्रतिक्रियाम् । तथाप्यनुपशान्तानामनुगः प्रतिक्रिया ॥२०७॥ यदा यदा भवेजन्मी त्यक्त्वा मुक्तो भविष्यति । शरीरमेव तत्त्याज्यं किं शेषैः क्षुद्रकल्पनैः ॥ २०८ ॥ नयत्सर्वाशुचिप्रायं शरीरमपिपूज्यतां ।। सोऽप्यात्मा येन न स्पृश्यो दुश्चरित्रं घिगस्तु तत् । २०९ ॥ रसादिराद्यो भागः स्यात् ज्ञानावृत्यादिरन्वितः। ज्ञानादयस्तृतीयस्तु संसायेवं त्रयात्मकः ॥२१० ॥ भागत्रयमिदं नित्यमात्मानं बन्धवर्तिनम् । भागद्वयात् पृथकर्तुं यो जानाति स तत्त्ववित् ॥ २११ ॥ करोतु न चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान् । चित्तसाध्यान् कषायारीन जयेद्यत्तदक्षता ॥ २१२ ॥
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प्रथम गुच्छक।
हृदयसरसि यावनिर्मलेऽप्यत्यगाधे वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । ... श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशङ्क समदमयमशेषस्तान् विजेतुं यतस्व ॥ २१३॥ हित्वा हेतुफले किलात्र सुधियस्तां सिद्धिमामुत्रिकी वाग्छन्तः स्वयमेव साधनतया शंसन्ति शान्तं मनः। तेषामाखुबिडालिकेति तदिदं धिग्धिकले प्राभवं येनैतेऽपि फलद्वयप्रलयनादूरं विपर्यासिताः ॥ २१४ ॥ उद्युक्तस्त्वं तपस्यस्यधिकमभिभवंस्त्वामगच्छन्कषायाः प्राभूद्वोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किन्तु दुर्लक्ष्यमन्यैः । निव्यूढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निनदेशेष्ववश्यं मात्सर्यन्ते स्वतुल्यैर्भवति परवशाद्दुर्जयं तजहीहि ॥२१५|| चित्तस्थमप्यनवबुध्य हरेण जाड्या क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्ध्या। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २१६ ॥ चक्र विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्नतु तदैव स तेन मुकः। क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हर्ति महतीं करोति ॥ २१७ ॥ सत्यं वाचि मतौ श्रुतं हृदि दया शौर्य भुजे विक्रमो लक्ष्मीर्दानमनूनमर्थिनिचये मार्गे गतिनिवृते। येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहङ्काराः श्रुतेगोचराश्चित्रं संप्रति लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ॥२१८॥
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आत्मानुशासनम् ।
वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यरुदरमुपनिविष्टा सा च ते चापरस्य । तदपि किल परेषां शानकोणे निलीनं वहति कथमिहान्यो गर्षमात्माधिकेषु ॥ २१९ ॥ यशोमारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः। सकृष्णः कृष्णोऽभूत्कपटबटुवेषेणनितरामपिच्छामाल्यं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ॥ २२० ॥ भेयं मायामहागान्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ॥ २२१:॥ प्रच्छन्नकर्म मय कोऽपि न वेत्ति धीमान् .... ध्वंसं गुणस्य महतोऽपि हि मेति मंस्थाः। कामं गिलन् धवलदीधितिधौतदाहो गूढोऽप्यबोधि न विधुः सविधुन्तुदः कैः ॥ २२२॥ वनचरभयाद्धावन देवालताकुलबालधिः किल जडतया लोलो बालबजे विचलं स्थितः। बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ॥ २२३ ॥ . विषयविरतिः संगत्यागः कषायब्रिनिग्रहः शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यमः। नियमितमनोवृत्तिभक्तिर्जिनेषु दयालुता भवति कृतितः संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ॥ २२४ ॥ यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिममितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी।
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प्रथम गुच्छक।
विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥ २२५ ॥ समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः कथमिह न विमुक्त जनं ते विमुक्ताः ॥ २२६ ॥ दासत्वं विषयप्रभोर्गतवतामात्मापि येषां परस्तेषां भो गुणदोषशून्यमनसां किं तत्पुनर्नश्यति । भेत्तव्यं भवतैव यस्य भुवनप्रद्योति रत्नत्रयं भ्राम्यम्तीन्द्रियतस्कराश्च परितस्त्वं तन्मुहुर्जागृहि ॥२२७॥ रम्येषु वस्तुवनितादिषु बीतमोहो मुहोद्वथा किमिति संयमसाधनेषु । धीमान् किमामयमयात्परिहत्य भुक्ति पीत्त्वौषधं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥ २२८ ॥ तपः श्रुतमिति द्वर्य बहिरुदीर्य रूढं यथा कृषीफलमिवालये समुपनीयते स्वात्मनि । कृषीवल इघोत्थितं करणचोरव्याधादिभिस्तदा हि मनुते यतिः स्वकृतकृत्यतां धीरधीः ।। २२९ ॥ दृष्टार्थस्य न मे किमप्ययमिति ज्ञानावलेपादमुं नोपेक्षस्व जगत्त्रथैकडमरं निःशेषयाशाद्विषम् । पश्याम्भोनिधिमप्यगाधसलिलं चावाद्यते वाडवः क्रोडीभूतविपक्षकस्य जगति प्रायेण शान्तिः कुतः ॥२३०॥ नेहानुषद्धहृदया ज्ञानचरित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः। दीप इवापादयिता कजळमलिनस्य कार्य्यस्य ॥ २३१ ॥
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८५
आत्मानुशासनम् ।
रतेररतिमायातः पुनारतिमुपागतः ।
तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो बत सीदसि ॥ २३२ ॥ तावदुःखाग्नितप्तात्माऽयः पिण्ड इव सीदसि । निर्वासिनिर्वृताम्भोधौ यावत्वं न निमज्जसि ॥ २३३ ॥ मोक्षं सुसम्यक्त्वं सत्यंकारस्वसात्कृतं । ज्ञानचारित्रसाकल्य मूलेन स्वकरे कुरु ॥ २३४ ॥ अशेषमद्वैतमभोग्यभोग्यं निवृत्तिवृत्त्योः परमार्थकोट्याम् । अभोग्यभोग्यात्मविकल्पबुद्ध्या निवृत्तिमभ्यस्यतु मोक्षकाङ्क्षी ॥ निवृत्तिं भावयेद्यावन्निवर्त्य तदभावतः । न वृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेवपदमव्ययम् ॥ २३६ ॥ रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसम्बद्धौ तस्मात्तांश्च परित्यजेत् ॥ २३७ ॥ भावयामि भवाऽऽवर्त्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भावितानेति भवाभावाय भावनाः ॥ २३८ ॥ शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट्त्रयं । हितमाद्यमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥ २३९ ॥ तत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्ध त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥ २४० ॥ अस्त्यात्मास्तमितादिबन्धन गतस्तद्बन्धनान्यास्रवैस्ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोदादयस्तेऽव्रतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित् सम्यक्त्वव्रतदक्षता कलुषतायोगः क्रमान्मुच्यते ॥ २४९ ॥ ममेदमहमस्येति प्रीतिरीतिरिवोत्थिता ।
क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत्का सा तपःफले ॥ २४२ ॥
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८६
प्रथम गुच्छक ।
मामन्यमन्यं मां मत्त्वा भ्रान्तो भ्रान्तो भवार्णवे । नान्योऽहमेवाहमन्योऽन्योऽन्योऽहमस्ति न ॥ २४३ ॥ बन्धो जन्मनि येन येन निषिडं निष्पादितो वस्तुना बाह्यार्थी करतेः पुरापरिणतप्रज्ञात्मनः साम्प्रतम् । तत्तत्तन्निर्धनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्टास्पृशो दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥ २४४ ॥ अधिकः क्वचिदाश्लेषः क्वचिद्धीनः क्वचित्समः । क्वचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ॥ २४५ ॥ यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्त्रवः ॥ २४६ ॥ महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा । मर्यादा पालिबन्धेऽल्पामप्युपेक्षिष्ट माक्षतिम् ॥ २४७ ॥ दृढगुप्तिकपाटसंवृतिधृतिभित्तिर्मतिपादसंभृतिः । यतिरल्पमपि प्रपद्य रन्ध्रं कुटिलैर्विक्रियते गृहाकृतिः॥२४८॥ स्वान्दोषान्हन्तुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्द्धरैः । तानेष पोषयन्यज्ञः परदोषकथाशनैः ॥ २४९ ॥ दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो देवानुरोधात्क्वचिद्यातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छनसमस्तं द्रष्टुमन्धोऽप्यलम् । दृष्टाप्नोति न तावदस्य पदवीमिन्दोः कलङ्क जगद्विश्वं पश्यति तत्प्रभाप्रकटितं किं कोऽप्यगात्तत्पदम् ॥ २५० ॥ यद्यदाचरितं पूर्व तत्तदज्ञानचेष्टितम् । उत्तरोत्तरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ॥ २५१ ॥ अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते भवति हि मनोमूले यावन्ममत्व जलाईता |
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आत्मानुशासनम् ।
इति कृतधियः कृच्छारम्भश्चरन्ति निरन्तरं चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहाः ॥ २५२ ॥ क्षीरनीरवदभेदरूपतस्तिष्ठतोरपि च देहदेहिनोः । भेद एव यदि भेदवत्स्वलं बाह्यवस्तुषु वदात्र का कथा ॥२५३॥ तप्तोऽहं देहसंयोगाजलं वानलसंगमात् । इह देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणः ॥ २५४ ॥ अनादिचयसंबद्धो महामोहो हृदि स्थितः। सम्यग्योगेन यैर्वान्तस्तेषामूर्ख विशुद्ध्यति ॥ २५५ ॥ एकैश्वर्यामिकतामभिमतावाप्ति शरीरच्युति दुःखं दुष्कृतनिष्कृति सुखमलं संसारसौख्यासनम् । सर्वत्यागमहोत्सवव्यतिकरं प्राणन्ययं पश्यताम् किं तद्यन्नसुखाय तेन सुखिनः सत्यं सदा साधकः॥२५६॥ आकृप्योग्रतपोबलैरुदयगो (ग) पुच्छं यदानीयतं तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः। यातव्यो विजिगीषुगा यदि भवेदारम्भकोऽरिः स्वयं वृद्धिः प्रत्युत ने तुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ॥ २५७ ॥ एकाकित्वप्रतिज्ञाः सकलमपि समुत्सृज्य सर्व सहत्वात् भ्रान्त्याचिन्त्याः सहायं तनुमिव सहसालोच्य किंचित्सलज्जाः। सजीभूताः स्वकार्ये तदपगमविधि बद्धपल्यबन्धाः ध्यायन्ति ध्वस्तमोहा गिरिगहनगुहा गुह्यगेहे नृसिंहाः।।२५८ येषां भूषणमङ्गसंगतरजः स्थानं शिलायास्तलम् शय्या शर्करिला मही सुविहितं गेहं गुहा द्वीपिनाम् । आत्मात्मीयविकल्पवीतमतयस्त्रुट्यत्तमोग्रन्थयस्ते नो ज्ञानधना मनांसि पुनता मुक्तिस्पृहा निस्पृहाः॥२५९॥
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प्रथम गुच्छक । दूरारूढतपोऽनुभावजनितज्योतिः समुत्सर्पणरन्तस्तत्त्वमदः कथं कथमपि प्राप्य प्रसादं गताः। विश्रब्धं हरिणी विलोलनयनरापीयमाना वने धन्यास्ते गमयन्त्यचिन्त्यचरित(राश्चिरं वासरान्॥२६०॥ येषां बुद्धिरलक्ष्यमाणभिदयोराशात्मनोरन्तरं गत्वोचैरविधाय भेदमनयोरारान्न विश्राम्यति । यैरन्तर्विनिवेशितः शमधनैर्बाढं बहिर्व्याप्तयः तेषां नोऽत्र पवित्रयन्तु परमाः पादोत्थिताः पांशवः ॥२६॥ यत्प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं तवं तदुदीरणादनुभवन् दुःखं सुखं वागतम् । कुर्य्याद्यः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तूभयोच्छित्तये सर्वारम्भपरिग्रहपरित्यागी स वन्द्यः सताम् ॥ २६२ ॥ सुखं दुःखं वास्यादिह विहितकर्मोदयवशात् कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् । उदासीनस्तस्य प्रगलितपुराणं न हि नवं
समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धोमणिरिव ॥ २६३ ॥ : सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन् ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा । पुनरपि तदभावे प्रज्वलत्युज्वलः सन् भवति हि यतिवृत्तं सर्वथाश्चर्यभूमिः ॥ २६४॥ गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाशयिष्यते। अतएव हि निर्वाणं शून्यमन्यैर्विकल्पितम् ॥ २६५ ॥ अजातो नश्वरो मूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः। देहमानो मलैर्मुक्तो गत्वो मचलः प्रभुः ॥ २६६ ॥
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आत्मानुशासनम्।
स्वाधीन्याद्दुःखमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम्। स्वाधीनसुखसम्पन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ॥ २६७ ॥ इति कतिपयवाचां गोचरीकृत्य कृत्यं चरितमुचितमुचैश्चेतसां चित्तरम्यम् । इदमविकलमन्तः सन्ततं चिन्तयन्तः सपदि विपदपेतामाश्रयन्तु श्रियं ते ॥ २६८ ॥ जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ॥ २६९ ।। ऋषभो नाभिसूनुर्यो भूयात्स भविकाय वः। . यज्ज्ञानसरसि विश्वं सरोजमिव भासते ॥ २७ ॥
इति श्रीगुणभदभदन्तकृतमात्मानुशासनम् ।
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अथ.
आचार्यश्रीमदुमास्वामिविरचितं तत्वार्थ सूत्रं
( तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रम् )
(५)
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्ज्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ||५|| प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥ निर्देशस्वामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः ||७|| सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च ॥८॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानिज्ञानम् ॥९॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आद्ये परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥ ॥ १३ ॥ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ अवग्रहेहावायधारणाः ॥ १५॥ बहुबहुविधक्षिप्राऽनिःसृताऽनुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्॥ १६ ॥ अर्थस्य ॥ १७ ॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ भवप्रत्ययो ऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥२१॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २२ ॥ ऋजुविपुलमती मनः पर्य्ययः ॥ २३ ॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्य्यययोः ॥ २५ ॥ मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसपर्यायेषु ॥ २६ ॥ रूपष्ववधेः ॥ २७ ॥ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥ २८ ॥ सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य ॥ २९ ॥ एकादीनि भा
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तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रम् ।
ज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः॥३०॥मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२ ॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवंभूता नयाः ॥ ३३ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगभे मोक्ष शास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ - औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौदयि. कपारिणामिकौ च ॥१॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोग वीर्याणि च ॥ ४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्च भेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुस्त्येकैकैकैकषड्भेदाः॥६॥ जीवभव्याऽभव्यत्वानि च ॥७॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ सद्वि. विधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥१०॥ समनस्कामनस्काः ॥११॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः॥१२॥ पृथिव्यप्तेजोवायु वनस्पतयः स्थावराः॥ १३॥ द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥ १४ ॥ पञ्चे. न्द्रियाणि ॥ १५ ॥ द्विविधानि॥ १६ ॥ निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ।। लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ स्पर्शनरसन. घ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ॥१९॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः॥२०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २१ ॥ वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥ २३ ॥ कृमि पिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ संशिनः समनस्काः ॥२४॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २५॥ अनुश्रेणि गतिः।। ॥ २६ ॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्रा. क्चतुर्व्यः॥२८।एकसमयाऽविग्रहा ॥२९ ॥ एकं द्वौत्रीन्वाऽना हारकः ॥३०॥ सम्मर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१॥ सचित्तशी. तसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ जरायुजाण्डज.
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प्रथम गुच्छक।
पोतानां गर्भः॥ ३३ ॥ देवनारकाणामुपपादः ॥ ३४ ॥ शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥ ३५॥ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।।३६ ॥ परं परं सूक्ष्मम् ।। ३७॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥३८॥ अनन्तगुणे परे ॥६९॥ अप्रतीघाते ॥४०॥ अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ सर्वस्य ॥४२॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः ॥४३॥ निरूपभोगमन्त्यम् ॥४४॥ गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥ ४५ ॥ औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ तैजसमपि ॥४८॥ शुभं विशुद्धमन्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥४९॥ नारकसम्मूर्छिनोनपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः॥५१॥शेषास्त्रिवेदाः।। ५२ ॥ औपपादिकचरमोत्तमदेहाः संख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ ५३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशाने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः॥१॥ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥ २ ॥ नारकानित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ ज. म्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥ ७॥ द्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥ ८॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥९॥भ. रतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलह
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तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रम्। ९३ 'क्मिशिखरिणा वर्षधरपर्वताः। ११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥ १२ ।। मणिविचित्रपार्वा उपरि मूले च तुल्यवि. स्ताराः ॥१३॥ पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरी. काहदास्तेषामुपरि ॥१४॥ प्रथमोयोजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कं. भोह्रदः ॥ ९५ ॥ दशयोजनावगाहः ॥१६॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥ १७ ॥ तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ॥ १८ ॥ तत्रिवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्भ्यः पल्योपस्थितयः स. सामानिकपरिषत्काः ॥ १९ ॥ गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारतोदाः सरिस्तन्मध्यगाः ॥ २० ॥ द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१॥ शेषास्त्वपरगाः ॥ २२ ॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृत्ता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः ॥ २३ ॥ भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्ता. रः षट्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥ २४ ॥ तद्विगुणद्विगुणवि. स्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः॥२५॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥ भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सधिण्यवसप्पिणीभ्याम् ॥ २७ ॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥ २८ ॥ एकद्वि. त्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरुबकाः ॥२९॥ तथोत्तराः ॥ ३० ॥ विदेहेषु संख्येयकालाः ॥ ३१ ॥ भरतस्य वि. कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२ ॥ द्विर्धातकीखण्डे ॥ ३३ ॥ पुष्कराद्धे च ॥ ३४ ॥ प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३६॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ ३७ ॥ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्त. मुहूर्ते ॥ ३८ ॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३९ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोनशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
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प्रथम गुच्छक।
- देवाश्चतुर्णिकायाः ॥ १॥ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥२॥ दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः॥ ४॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥५॥ पूर्वयो-न्द्राः ॥६॥ कायप्रवीचारा आ ऐ. शानात् ॥ ७॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥ ८॥ परेऽ प्रवीचाराः ॥९॥ भवनवासिनोसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिकुमाराः ॥ १० ॥ व्यन्तरा:किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥११॥ ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच ॥१२॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगत. यो नृलोके ॥ १३ ॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ बहिरवस्थिताः ॥ १५॥ वैमानिकाः ॥ १६॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १७ ॥ उपर्युपरि ॥ १८ ॥सौ धम्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रमब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेवानतप्रा. णतयोरारणाच्युतयोर्नवसु अवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १९ ॥ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥ २०॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥२१॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२ ॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३ ॥ ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥२४॥ सारस्वतादित्यवयरुणगर्दतोयतुषिताब्याबाधारिणाश्च ॥ २५ ॥ विजयादिषु द्विचरमाः॥ २६॥ औपपादिकमनुष्ये. भ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमा हीनमिताः ॥ २८ ॥ सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिक ॥ २९ ॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥
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तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रम्। • त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥ आ. रणाच्युतादूर्द्धमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजियादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२ ॥ अपरा पल्योपममधिकम् ॥ ३३ ॥ परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तराः ॥ ३४ ॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६ ॥ भवनेषु च ॥३७॥ व्यन्तराणां च ॥ ३८ ॥ परा पल्योपममधिकम् ॥३९॥ ज्योतिकाणां च ॥ ४०॥ तदष्टभागोऽपरा ॥४१॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ अजीवकायाधर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥ द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥३॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ असङ्ख्येयाः प्रदेशा धमाधम्मकजीवानाम् ॥ ८॥ आकाशस्यनन्ताः ॥९॥ सङ्ख्येयासङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ नाणोः ॥ ॥ ११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ।। १३ ।। एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४॥ असङ्ख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५॥ प्रदेशलंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः॥ १७ ॥ आकाशस्यावगाहः ॥ १८ ॥शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ।। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ अणवस्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ भेदसवातेभ्य
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प्रथम गुच्छक।
उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषः ॥ २८॥ सव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥३०॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥ अपितानप्पितसिद्धः ॥ ३२ ॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः ॥ ३३ ॥ न जघन्यगुणानाम् ॥ ३४॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३५ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ २६ ॥ बन्धेऽधि. को पारिणामिकौ च ॥ ॥ ३७ ॥ गुणपर्यायवद्व्यम् ॥ ३८ ॥ कालश्च ॥ ३९ ॥ सोऽनन्तसमयः॥ ४० ॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥ तद्भावः परिणामः ॥४१॥
इाते तत्त्वायाधिगमे मोक्षशास्त्रे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ कायवामनःकर्मयोगः॥१॥सआस्रवः॥ २॥ शुभः पुण्य. स्याशुभः पापस्य ॥ ३॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकापथयोः॥४॥ इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः॥५॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्य. विशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६॥अधिकरणं जीवाऽजीवाः॥ ७॥ आ. द्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥ ८॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गाद्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ ९॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १०॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनबधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य ॥ ११ ॥ भूतत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिशौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १९॥ केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य॥१३॥ कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १४॥ बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारफस्यायुषः ॥ १५ ॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१६॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥ १७ ॥ स्वभावमार्दवं च
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तत्वार्थधिगममोक्षशास्त्रम् ।
॥१८॥ निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥१९॥ सरागसंयमसंयमासंयमाऽकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य ॥२०॥ सम्यक्त्वं च ॥ २१॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नानः ॥ २२॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥ तद्विपर्ययौ नीचैवृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्ले षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ देशस. र्वतोऽणुमहती ॥ २ ॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ वाङनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥५॥ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥ ६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७॥ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥ ९॥ दुःखमेव वा ॥ १० ॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥ ११॥ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्॥१२॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥ १५ ॥ मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मूर्छा
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प्रथम गुच्छक।
परिग्रहः ॥ १७ ॥ निःशल्यो व्रती ॥ १८ ॥ अगार्यनगारश्च ॥ १९ ॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ २० ॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ २१॥ मारणान्तिकीसल्लेखनां जोषिता ॥ २२ ॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाःसम्यग्दृष्टेरतीचासः ॥ २३ ॥ व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ २४ ॥ बन्धबधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥ २५ ॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः॥ २६ ॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मा. नप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ॥ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ॥२८॥ क्षे
वास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः ॥ २९॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ ३१ ॥ कन्दर्प कौत्कुच्यमौख-समीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ अ• प्रत्यवेक्षिताऽप्रमोजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्कृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥ सचित्तसम्बन्धसन्मिश्राभिषवदुःपक्वाहाराः॥ ३५ ॥ सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥ ३६ ॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुवन्धनिदानानि ॥ ३७ ॥ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥
___ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशालो सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा वन्धहेतवः ॥१॥
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तत्वार्थधिगममोक्षशास्त्रम् ।
सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्तेस बन्धः॥२॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागाप्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३॥ आद्यो ज्ञानदर्शना. वरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥ ४॥ पञ्चनवद्वयटाविंशति चतुर्दिचत्वारिंशद्विपञ्चभेदायथाक्रमम् ॥५॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलानाम् ॥ ६॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥ ७॥ सदसद्ये ॥ ८॥ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिदिनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यऽकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसक्वेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥९॥ नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसङ्घातसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्याऽगुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहा. योगतयः प्रत्येकशरीरत्रसशुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥ ११ ॥ उच्चैनीचैश्च ॥१२॥ दानलालभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परास्थितिः ॥ १४ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १५॥ विशतिर्नामगोत्रयोः॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरापमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १८॥ नामगोत्रयोरटौ ॥ १९ ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥२०॥ विधाकोऽनुभवः ॥ २१ ॥ स यथानाम ॥ २२ ॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २४ ॥सवेद्यशुभाशुर्नामगोत्राणि पुण्यन् ॥ २५ ॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥
___ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोशशास्नेऽटमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
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प्रथम गुच्छक।
आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥ तपसा निर्जरा च ॥ ३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥४॥ईOभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणिधर्मः ॥ ६॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यानवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमसकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाच्मालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्का. रपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि॥ ९॥ सूक्ष्मसाम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १०॥ एकादश जिने ॥ ११॥ वादरसाम्पराये सर्वे ॥ १२ ॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाच्चासत्कारपुरस्काराः ॥ १५॥ वेदनीये शेषाः ॥१६॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥ १७ ॥ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ॥ १८ ॥ अनशनावमौदर्यव्रत्तिपरिसङ्कयानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेश बाह्यं तपः॥ १९॥ प्रा. यश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकन्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः॥२२॥ शानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानराणकुलसवसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ वाचनापृच्छ. नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः॥२५॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥२६॥
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तत्वार्थधिगममोक्षशास्त्रम् । उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥ २७ ॥ आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ २८ ॥ परे मोक्षहेतू ॥ २९ ॥ आर्तममनो. ज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः॥ ३० ॥ विप. रीतं मनोज्ञस्य ॥ ३१ ॥ वेदनायाश्च ॥ ३२ ॥ निदानं च ॥ ३३ ॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ३४ ॥ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३५॥ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयायधर्म्यम् ॥ ३६ ॥ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ॥ ३७॥ परे केवलिनः ॥ ३८ पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥ ३९ ॥ त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥ अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥ वितर्कःश्रुतम् ॥ ४३॥ वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः॥४४॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमो. हक्षपकोपशान्तमोहलपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ ४५ ॥ पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ ४६॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः॥४७॥
___ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशाने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाञ्च केवलम् ॥१॥ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥ ३॥ अन्यत्रकेवलसम्यक्त्वज्ञा. नर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥ ४॥ तदनन्तरमूर्द्ध गच्छन्त्यालोका. न्तात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणा. माञ्च ॥ ६॥ आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाम्बूवदेरण्डबीजवदग्निशिखावश्च ॥७॥ धर्मास्तिकायाऽभावात् ॥८॥
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प्रथम गुच्छक ।
क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥ ९ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
१०२
अक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यञ्जनसन्धिविवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥ १ ॥ दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवैः ॥ २ ॥
इति तत्त्वार्थ सूत्रमपरनामतत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र समाप्तम् ।
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नमः सिद्धेभ्यः श्रीमदमृतचन्द्रमूरिकृतः
तत्त्वार्थसारः
जयत्यशेषतत्त्वार्थप्रकाशिप्रथितश्रियः। मोहध्वान्तौघनिर्भेदि ज्ञानज्योतिजिनेशिनः ॥१॥ अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्षमार्गकदीपकः ॥ मुमुक्षूणां हितार्थाय प्रस्पष्टमभिधीयते ॥२॥ स्थात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयात्मकः। मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितम् ॥३॥ श्रद्धानं दर्शन सम्यग्ज्ञानं स्यादवबोधनम् । उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितः॥४॥ श्रद्धानाधिगमोऽपेक्षा विषयत्वमिता ह्यतः। बोध्यामागेवतत्त्वार्था मोक्षमार्ग बुभुत्सुभिः ॥५॥ जीवोऽजीवात्रवौ बन्धः संवरो निर्जरा तथा। मोक्षश्च सप्त तत्त्वार्था मोक्षमार्गेषिणामिमे ॥ ६॥ उपादेयतया जीवोऽजीवो हेयतयोदितः।। हेयस्यास्मिन्नुपादानहेतुत्वेनास्त्रवः स्मृतः॥७॥ हेयस्यादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तितः। संवरो निर्जरा हेयहानहेतुतयोदितौ। हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः ॥ ८॥ ..
... ... ... (षट्पदम् )
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१०४
प्रथम गुच्छक ।
तत्त्वार्था सन्त्यमी नामस्थापनाद्रव्यभावतः । न्यस्यमानतयादेशात्प्रत्येकं स्युश्चतुर्विधाः ॥ ९ ॥ या निमित्तान्तरं किञ्चिदनपेक्ष्य विधीयते । द्रव्यस्य कस्यचित् संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम् ॥ १० ॥ साऽयमित्यक्षकाष्टादेः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि | यद्व्यवस्थापनामात्रं स्थापना साभिधीयते ॥ ११ ॥ भाविनः परिणामस्य यत्प्राप्तिं प्रति कस्यचित् । स्याद्गृहीताभिमुख्यं हि तद्द्रव्यं ब्रुवते जिनाः ॥ १२ ॥ वर्तमानेन यत्नेन पर्यायेणोपलक्षितम् । द्रव्यं भवति भावं तं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥ १३ ॥ तत्त्वार्थाः सर्व एवैते सम्यग्बोधप्रसिद्धये । प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्ते च नयैस्तथा ॥ १४ ॥ सम्यग्ज्ञानात्मकं तत्र प्रमाणमुपवर्णितम् । तत्परोक्षं भवत्येकं प्रत्यक्षमपरं पुना ॥ १५ ॥ समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् । पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम् ॥ १६ ॥ इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षमुक्तमव्यभिचारि च । साकारग्रहणं यत्स्यात्तत्प्रत्यक्षं प्रचक्ष्यते ॥ १७ ॥ सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थ व्यवसायात्मकं विदुः । मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्यय केवलम् ॥ १८ ॥ स्वसंवेदन मक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा । प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ॥ १९ ॥ बुद्धिर्मेधादयो याश्च मतिज्ञानभिदा हि ताः । इन्द्रियानिन्द्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं प्रवर्तते ॥ २० ॥
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तत्त्वार्थसारः ।
अवग्रहस्ततस्वीहा ततोऽवायोऽथ धारणा । बहोर्बहुविधस्यापि क्षिप्र स्यानिःसृतस्य च ॥ २१ ॥ अनुक्तस्य ध्रुवस्येति सेतराणां तु ते मताः । व्यक्तस्यार्थस्य विज्ञेयाश्चत्वारोऽवग्रहादयः ॥ २२ ॥ व्यञ्जनस्य तु नेहाद्या एक एव ह्यवग्रहः । अप्राप्यकारिणी चक्षुर्मनसी परिवर्ज्य सः ॥ २३ ॥ चतुर्भिरिन्द्रियैरन्यैः क्रियते प्राप्यकारिभिः । मतिपूर्व श्रुतं प्रोक्तमविस्पष्टार्थतर्कणम् ॥ २४ ॥ तत्पर्यायादिभेदेन व्यासाद्विशतिधा भवेत् । परापेक्षां विना ज्ञानं रूपिणां भणितोऽवधिः ॥ २५ ॥ अनुगोऽननुगामी च तदवस्थोऽनवस्थितिः । वर्द्धिष्णुयमानश्च षड्विकल्पः स्मृतोऽवधिः ॥ २६ ॥ देवानां नारकाणां च स भवप्रत्ययो भवेत् । मानुषाणां तिरश्चां च क्षयोपशमहेतुकः ॥ २७ ॥ परकीयमनःस्वार्थज्ञानमन्याऽनपेक्षया ।
स्यान्मनः पर्ययो भेदौ तस्यर्जुविपुले मती ॥ २८ ॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां विशेषश्चिन्त्यतां तयोः । स्वामिक्षेत्रविशुद्धिभ्यो विषयाश्च सुनिश्चितः ॥ २९ ॥ स्याद्विशेषोऽवधिज्ञानमनः पर्ययबोधयोः ।
असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणमक्रमम् ॥ ३० ॥ घातिकर्मक्षयोत्पन्नं केवलं सर्वभावगम् । मतेर्विषयसंबन्धः श्रुतस्य च निबुध्यताम् ॥ ३१ ॥ असर्वपर्ययेष्वत्र सर्वद्रव्येषु धीधनैः ।
असर्वपर्ययेष्विष्टो रुपिद्रव्येषु सोऽवधिः ॥ ३२ ॥
१०५
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प्रथम गुच्छक।
स मन:पर्ययस्येष्टोऽनन्तांशेऽवधिगोचरात् । केवलस्याखिलद्रव्यपीयेषुस सूचितः ॥ ३३ ॥ जीवे युगपदेकस्मिन्नेकादीनि विभावयेत् । ज्ञानानि चतुरन्तानि न तु पञ्च कदाचन ॥ ३४ ॥ मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्वसमवायिनः । मिथ्याज्ञाननि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥ ३५ ॥ अविशेषात्सदसतोरुपलब्धेर्यदृच्छया। यत उन्मत्तवज्ज्ञानं न हि मिथ्यादृशोऽञ्जसा ॥ ३६ ॥ वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणं व्यञ्जितात्मनः । एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा मतः ॥ ३७ ॥ द्रव्यपर्यायरूपस्य सकलस्यापि वस्तुनः। नयावंशेन नेतारौ द्वौ द्रव्यपर्ययार्थिको ॥ ३८॥ अनुप्रवृत्तिः सामान्य द्रव्यं चैकार्थवाचकाः। नयस्तद्विषयो यः स्याज्ञयो द्रव्याथिको हि सः ॥३९॥ व्यावृत्तिश्च विशेषश्च पर्यायश्चैकवाचकाः । पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायार्थिको मतः॥ ४० ॥ शुद्धाशुद्धार्थसंग्राही त्रिधा द्रव्यार्थिको नयः। नैगमसंग्रहश्चैव व्यवहारश्च संस्मृतः॥ ४१ ॥ चतुर्धा पर्यायार्थः स्यादृजुशब्दनयाः परे। उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मसूत्रार्थभेदतः । शब्दः समभिरूद्वैवंभूतौ ते शब्दभेदगाः॥४२॥
(षट्पदक) चत्वारोऽर्थनया आद्यास्त्रयः शब्दनयाः परे। उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मगोचरता मता ॥४३॥
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तत्त्वार्थसारः ।
अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । प्रस्थोदनादिजस्तस्य विषयः परिकीर्तितः ॥ ४४ ॥ भेदेन क्यमुपानीय स्वजातेरविरोधतः । समस्तग्रहणं यस्मात्स नयः संग्रहो मतः ॥ ४५ ॥ संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः । व्यवहारो भवेद्यस्माद्वयवहारनयस्तु सः ॥ ४६ ॥ ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम् । वर्त्तमानक समयविषयं परिगृह्यते ॥ ४७ ॥ लिङ्गसाधनसंख्यानां कालोपगृहयोस्तथा । व्यभिचारनिवृत्तिः स्याद्यतः शब्दनयो हि सः ॥ ४८ ॥ ज्ञेयः समभिरूढोऽसौ शब्दो यद्विषयः स हि । एकस्मिन्नमरूढार्थे नानार्थान्समतीत्ययः ॥ ४२ ॥ शब्दो येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययेत् । यो नयो मुनयो मान्यास्तमेवं भूतमभ्यधुः ॥ ५० ॥ एते परस्परापेक्षाः सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः । निरपेक्षा पुनः संतो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः ॥ ५१ ॥ आर्या छन्दः । निर्देशः स्वामित्वं साधनमधिकरणमपि च परिचिन्त्यम् । स्थितिरथविधानमिति पतत्वानामधिगमोपायाः ॥ ५२ ॥ अथ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तराणि भावश्च । अल्पबहुत्वं चाष्टावित्यपरेऽप्यधिगमोपायाः ॥ ५३ ॥ शालिनी छन्दः ।
सम्यग्योगो मोक्षमार्ग प्रपित्सुर्न्यस्तां नामस्थापनाद्रव्यभावैः । स्याद्वादस्थां प्राप्य तैस्तैरुपायैः प्राग्जानीयात्सप्तत्व क्रमेण ॥५४॥ • इति सप्ततन्त्रीपीठिका बन्धः ॥ १ ॥ ..
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प्रथम गुच्छक।
अनन्तानन्तजीवानामेकैकस्य प्ररूपकान् । प्रणिपत्य जिनान्मूर्ना जीवतत्त्वं प्ररूप्यते ॥१॥ अन्यासाधारणा भावाः पञ्चौपशमिकादयः । स्व तत्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते ॥२॥ स्यादौपशमिको भावः क्षायोपशमिकस्तथा । क्षायिकश्चाप्यौदयिकस्तथान्यः पारिणामिकः ॥३॥ भेदौ सम्यक्त्वचारित्रे द्वाचौपशमिकस्य हि । अज्ञानत्रितयं ज्ञानचतुष्कं पञ्चलब्धयः ॥ ४॥ .. देशसंयमसम्यक्त्वे चारित्रं दर्शनत्रयम्। क्षायोपशमिकस्यैते भेदा अष्टादशोदिताः॥५॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रवीर्यदानानि दर्शनम् । . भोगोपभोगौ लाभश्च क्षायिकस्य नवोदिताः॥६॥ चतस्रो गतयो लेश्याः षट् कषायचतुष्टयम् । वेदा मिथ्यात्वमज्ञानमसिद्धोसयंतस्तथा । इत्यादौदयिकभावस्य स्युर्भेदा एकविंशतिः ॥७॥
(षट्पदं ) जीवत्वं चापिभव्यत्वमभव्यत्वं तथव च। पारिणामिकभावस्य भेदत्रितयमिष्यते ॥८॥ अनन्यभूतस्तस्य स्यादुपयोगो हि लक्षणम् । जीवोऽभिव्यज्यते तस्मादवष्टब्धोऽपि कर्मभिः ॥९॥ साकारश्च निराकारो भवति द्विविधश्च सः । साकारं हि भवेज्ज्ञानं निराकारं तु दर्शनम् ॥ १०॥ कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः। साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः॥११॥
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तत्वार्थसारः।
यद्विशेषमकृत्वैवं गृहीते वस्तुमात्रकम् । निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ॥ १२॥ ज्ञानमष्टविधं ज्ञेयं मतिज्ञानादिभेदतः। चक्षुरादिविकल्पाच्च दर्शनं स्याञ्चतुर्विधम् ॥ १३ ॥ संसारिणश्च मुक्ताश्च जीवास्तु द्विविधा स्मृताः। लक्षणं तत्र मुक्तानामुत्तरत्र प्रचक्ष्यते ॥१४॥ सांप्रतं तु प्ररूप्यन्ते जीवाः संसारवर्तिनः । जीवस्थानगुणस्थानमार्गणादिषु तत्त्वतः ॥ १५ ॥ मिथ्याक्सासनो मिश्रो संयतो देशसंयतः। प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणौ तथा ॥ १६ ॥ सूक्ष्मोपशान्तसंक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ। गुणस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥ १७ ॥ मिथ्यावृष्टिर्भवेजीवो मिथ्यादर्शनकर्मणः। उदयेन पदार्थानामश्रद्धानं हि यत्कृतम् ॥ १८ ॥ मिथ्यात्वस्योदयाभावे जीवोऽनन्तानुवन्धिनाम् । उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सासादनाभिधः॥ १९ ॥ सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञायाः प्रकृतेरुदयाद्भवेत्। । मिश्रभावतया सम्यग्मिथ्यावृष्टिः शरीरवान् ॥ २० ॥ वृत्तमोहस्य पाकेन जनिताविरतिर्भवेत् ।। जीवः सम्यक्त्वसंयुक्तः सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥ २१ ॥ पाकक्षयात्कषायाणासप्रत्याख्यानरोधिनाम् । विरताविरतो जीवः संयतासंयतः स्मृतः ॥ २२॥ प्रमत्तसंयतो हि स्यात्प्रत्याख्याननिरोधिनाम् । उदयक्षयतः प्राप्तः संयमद्धि प्रमादवान् ॥ २३॥
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प्रथम गुच्छक। संयतो ह्यप्रमत्तः स्यात्पूर्ववत्प्राप्तसंयमः । प्रमादविरहावृत्तवृत्तिमस्खलितां दधत् ॥ २४ ॥ अपूर्वकरणं कुर्वन्नपूर्वकरणो यतिः । शमकः क्षपकश्चैव स भवत्युपचारतः॥ २५ ॥ कर्मणां स्थूलभावे न शमकः क्षपकस्तथा। अनिवृत्तिरनिर्वृत्तिः परिणामवशाद्भवेत् ॥ २६ ॥ सूक्ष्मत्वेन कषायाणां शमनात्क्षपणात्तथा। स्यात्सूक्ष्मसांपरायो हि सूक्ष्मलोभोदयानुगः ॥२७॥ उपशान्तकषायः स्यात्सर्वमोहोपशान्तितः। भवेत्क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात् ॥२८॥ उत्पन्न केवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात् । सयोगश्चाप्ययोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥ २९ ॥ एकाक्षा वादराः सूक्ष्मा द्यक्षाद्या विकलास्त्रयः। संशिनोऽसंशिनश्चैव द्विधा पञ्चेन्द्रियास्तथा ॥३०॥ पर्याप्ताः सर्व एवैते सर्वेऽपर्याप्तकास्तथा । जीवस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥ ३१ ॥ आहारदेहकरणप्राणापानविभेदतः। वचोमनोविभेदाच सन्ति पर्याप्तयो हि षट् ॥ ३२ ॥ एकाक्षेषु चतस्रः स्युः पूर्वाः शेषेषु पञ्च ताः । सर्वा अपि भवन्त्येताः संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तत् ॥ ३३ ॥ पञ्चेन्द्रियाणि वाक्कायमानसानां बलानि च । प्राणापानौ तथायुश्च प्राणाः स्युःप्राणिनां दश ॥ ३४ ॥ कायाक्षायूंषि सर्वेषु पर्याप्तेष्वान इष्यते। . वारद्यक्षादिषु पूर्णेषु मनः पर्याप्तसंशिषु ॥ ३५ ॥..
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तत्त्वार्थसारः।
आहारस्य भयस्थापि संज्ञा स्यान्मैथुनस्य च । परिग्रहस्य चेत्येवं भवेत्संज्ञा चतुर्विधा ॥३६॥ गत्यक्षकाययोगेषु वेदक्रोधादिवित्तिषु ! वृत्तदर्शनलेश्यासु भव्यसम्यक्त्वसंशिष । आहारके च जीवानां मार्गणाः स्युश्चतुर्दशः ॥ ३७॥
(षट्पदकम् ) गतिर्भवति जीवानां गतिकर्मविपाकजा। श्वभ्रतिर्यग्नरामर्त्यगतिभेदाच्चतुर्विधा ॥ ३८ ॥ इन्द्रियं लिङ्गमिन्द्रस्य तच्च पञ्चविधं भवेत् । प्रत्येकं तद्विधाव्यभावेन्द्रियविकल्पतः ॥ ३९ ॥ निर्वृत्तिश्चोपकरणं द्रव्येन्द्रियमुदाहृतम् । बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यमनयोरपि ॥ ४०॥ नेत्रादीन्द्रियसंस्थानावस्थितानां हि वर्तनम् । विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निवृत्तिरान्तरा ॥४१॥ तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु । नामकमकृतावस्थः पुद्गलपचयोऽपरा ॥ ४२॥ आभ्यन्तरं भवेत्कृष्णशुक्लमण्डलकादिकम् । बाह्योपकरणं त्वक्षिपक्ष्मपत्रद्वयादिकम् ।। ४३ ।। लब्धिस्तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतम् । सा लब्धिर्वोधिरोधस्य यः क्षयोपशमो भवेत् ॥४४॥ स द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते यतः। कर्मणो ज्ञानरोधस्य क्षयोपशमहेतुकः ॥ ४५ ॥ आत्मनः परिणामो यः उपयोगः स कथ्यते। शानदर्शनभेदेन द्विधा द्वादशधा पुनः ॥ ४६॥ स्पर्शनं रसनं नाणं चक्षुः श्रोत्रमतः परम् । ...
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प्रथम गुच्छक।
इतीन्द्रियाणां पञ्चानां संज्ञानुक्रमनिर्णयः ॥४७॥ स्पर्शो रसस्तथा गन्धो वर्णः शब्दो यथाक्रमम् । विज्ञेया विषयास्तेषां मनसस्तु मतं श्रुतम् ॥ ४८ ॥ रूपं पश्यत्यसंस्पृष्टं स्पृष्टं शब्दं शृणोति तु। बद्धं स्पृष्टं च जानाति स्पर्श गन्धं तथा रसम्॥४९॥ यवनालमसूरातिमुक्तेन्द्रर्द्धसमाः क्रमात् । । श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः ॥ ५० ॥ स्थावराणां भवत्येकमेकैकमभिवर्धयेत् । शम्बूककुन्थुमधुपमादीनां ततः क्रमात् ॥ ५१ ॥ स्थावराः स्युःपृथिव्यापस्तेजोवायुर्वनस्पतिः । स्वैः स्वैर्भेदैः समा ह्येते सर्व एकेन्द्रियाः स्मृताः ॥५२॥ शम्बूकः शङ्ख शुक्तिर्वा गण्डूपदकपदकाः । कुक्षिकम्यादयश्चैते द्वीन्द्रियाः प्राणिनो मताः ॥ ५३॥ कुन्थुः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चन्द्रगोपकः । घुणमत्कुणयूकाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः ॥ ५४॥ मधुपः कीटको दंशमशको मक्षिकास्तथा। वरटी शलभाद्याश्च भवन्ति चतुरिन्द्रियाः॥५५॥ पञ्चेन्द्रियाश्च माः स्यु रकास्त्रिदिवौकसः । तिर्यञ्चोऽप्युरगाभोगिपरिसर्पचतुष्पदाः ।। ५६ ॥ मसूराम्बूपृषत्सूचीकलापध्वजसन्निभाः। धराप्तेजोमरुत्काया नानाकारस्तरुस्त्रसा(?) ॥ ५७ ॥ मृत्तिका बालुका चैव शर्कराचोपलः शिला। लवणोऽयस्तथा तानं त्रपुः सीसकमेव च ॥५८ ॥ रौप्यं सुवर्ण वनं च हरितालं च हिङ्गल।. ...,
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तस्वार्थसारः। मनःशिला तथा तुत्थमञ्जनं समवालकम् ॥ ५९॥ क्रिरोलकाभ्रके चैव मणिभेदाश्च वादराः । गोमेदो रुचकाङ्कश्च स्फटिको लोहितः प्रभः ॥ ६ ॥ वैडूर्य चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः। .... गैरिकश्चन्दनश्चैव वरोरुचकेस्तथा ॥११॥ मोठोमसारगलश्च सर्व एते प्रदर्शिताः। षत्रिंशत्पृथिवीभेदा भगवद्भिर्जिनेश्वरैः ।। ६२॥ अवश्यायो हिमबिन्दुस्तथा शुद्धघनोदके । शीतकाद्याश्च विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः ॥६३ ॥ ज्वालागारास्तथाविश्व मुर्मुरः शुद्ध एव च । अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः ॥ ६४ ॥ महान् घनतनुश्चैव गुञ्जामण्डलिरुत्कलिः। वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः ।। ६५ ।। सूलाग्रपर्वकन्दोत्थाः स्कन्धबीमल्हास्तथा। सम्मूर्छिनश्च हरिताः प्रत्येकानन्तकायिकाः ॥६६॥ सति वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमसम्भवे । योगो ह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते ॥ ६७॥ चत्वारो हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयम् । काययोगाश्च सप्तैव योगाः पञ्चदशोदिताः॥ ६८ ॥ मनोयोगो भवेत्सत्यो मृषासत्यमृषा तथा। तथाऽसत्यमृषा चेति मनोयोगश्चतुर्विधः ॥१९॥ वचोयोगो भवेत्सत्यो मृषासत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति वचोयोगश्चतुर्विधः ॥ ७० ।। औदारिको वैक्रियकः कायश्चाहारकश्च वे। . .
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प्रथम गुच्छक। मिश्राश्च कार्मणं चैव काययोगोऽपि सप्तधा ॥ ७१.॥
औदारिको वैक्रियकस्तथाहारक एव च। .. तैजसः कार्मणश्चैवं सूक्ष्माः सन्ति यथोत्तरम् ।। ७२ ।। असंख्येयगुणौ स्यावामाद्यादन्यौ प्रदेशतः । यथोत्तरं तथानन्तगुणौ तैजसकार्मणौ ॥ ७३ ॥ उभौ निरुपभोगौ तौ प्रतिघातविवर्जितौ । सर्वस्यानादिसम्बन्धौ स्यातां तैजसकार्मणौ ॥ ७४ ॥ तौ भवेतां क्वचिच्छुद्धौ क्वचिदौदारिकाधिकौ। क्वचिद्वैक्रियकोपेतौ तृतीयाद्ययुतौ क्वचित् ।। ७५ ॥ औदारिकशरीरस्य लब्धिप्रत्ययमिष्यते। अन्याद्वक् तैजसं साधोपुर्वैक्रियकं तथा ।। ७६ ॥ औदारिकं शरीरं स्याद्गर्भसम्मूर्छनोद्भवम् । तथा वैक्रियकाख्यं तु जानीयादौपपादिकम् ॥ ७ ॥ अव्याघाती शुभः शुद्धः प्राप्तर्यः प्रजायते। संयतस्य प्रमत्तस्य स खल्वाहारकः स्मृतः ॥ ७८ ॥ भाववेदस्त्रिभेदः स्यान्नोकषायविपाकजः।। नामोदयनिमित्तस्तु द्रव्यवेदः स च त्रिधा ।। ७ ॥ द्रव्यानपुंसकानि स्युः श्वाभ्राः सम्मूर्छिनस्तथा । पल्यायुषो न देवाश्च त्रिवेदा इतरे पुनः ।। ८० ।। उत्पादः खलु देवीनामैशानं यावदिष्यते। गमनं त्वच्युतं यावत् पुवेदा हि ततः परम् ॥ ८१ ॥ चरित्रपरिणामानां कषायः कषणान्मतः।। क्रोधोमानस्तथा माया लोभश्चेति चतुर्विधः॥ ८२ ।। तत्त्वार्थस्यावबोधो हि ज्ञानं पञ्चविधं भवेत् ।
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तत्त्वार्थसारः।
मिथ्यात्वपाककलुषमज्ञानं त्रिविध पुनः ॥ ८३॥. संयमः खलु चारित्रमोहस्योपशमादिभिः। प्राणस्य परिहारः स्यात् पञ्चधा स च वक्ष्यते ॥ ८४॥ विरताविरतत्वेन संयमासंयमः स्मृतः। प्राणिघाताक्षविषयभावेन स्यादसंयमः ॥ ८५॥.... दर्शनावरगस्य स्यात् क्षयोपशमसन्निधौ। आलोचनं पदार्थानां दर्शनं तश्चतुर्विधम् ॥ ८६ ॥ चक्षुर्दर्शनमेकं स्यादचक्षुर्दर्शनं तथा । अवधिदर्शनं चैव तथा केवलदर्शनम् ॥ ८७ ॥ योगवृत्तिर्भवेल्लेश्या कषायोदयरञ्जिता । . भावतो द्रव्यतः कायनामोदयकृताङ्गरुक् ॥ ८८॥ कृष्णा नीलाथ कापोता पीता पद्मा तथैव च । शुक्ला चेति भवत्येषा द्विविधापि हि षड्विधा ।। ८९ ॥ भव्याभन्यविभेदेन द्विविधा सन्ति जन्तवः। भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युर्विपरीतास्तथापरे ॥ ९ ॥ सम्यक्त्वं खलु तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्त्रिधा भवेत् । स्यात्सासादनसम्यक्त्वं पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम् ॥९१ ॥ सम्यग्मिथ्यात्वपाकेन सम्यग्मिथ्यात्वमिष्यते। मिथ्यात्वमुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः ॥ ९२ ॥ यो हि शिक्षाक्रियात्मार्थवाही संज्ञी स उच्यते । अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी कथितो जिनैः ॥ ९३ ।। गृह्णाति देहपर्याप्तियोग्यान्यः खलु पुद्गलान् । आहारकः स विज्ञेयस्ततोऽनाहारकोऽन्यथा ॥ ९४ ॥ अस्त्यनाहारको योगः समुद्धातगतः परम् ।
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प्रथम गुच्छक।
साशनो विग्रहगतौ मिथ्यावृष्टिस्तथावृतः॥९५ ॥ विग्रहो हि शरीरं स्यात्तदर्थ या गतिर्भवेत् । विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता ॥९६ ॥ जीवस्य विग्रहगतौ कर्मयोगं जिनेश्वराः। प्राहुदेहान्तरप्राप्तिः कर्मग्रहणकारणम् ॥ ९७ ॥ जीवानां पश्चताकाले यो भवान्तरसंक्रमः। मुक्तानां चोर्ध्वगमनमनुश्रेणिगतिस्तयोः ॥९८ । सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिविधा। अविग्रहैव मुक्तस्य शेषस्यानियमः पुनः ॥ ९९ ॥ अविग्रहैकसमया कथितेषुगतिर्जिनैः । अन्या द्विसमया प्रोक्ता पाणिमुक्तकविग्रहा ॥ १० ॥ द्विविग्रहां त्रिसमयां प्राहुर्लाङ्गलिकां जिनाः । गोमूत्रिका तु समयैश्चतुभिः स्यात्रिविग्रहा ॥ १०१॥ समयं पाणिमुक्तायामन्यस्यां समयद्वयम् । तथा गोमूत्रिकायां त्रीननाहारक इष्यते ॥ १०२ ॥ त्रिविधं जन्म जीवनां सर्वज्ञैः परिभाषितम् । सम्मुर्छनात्तथा गर्भादुपपादात्तथैव च ॥ १०३॥ भवन्ति गर्मजन्मानः पोताण्डजजरायुजाः। तथोपपादजम्मानो नारकास्त्रिदिवौकसः ॥ १०४॥ स्युः सम्मूर्छनजन्मानः परिशिष्टास्तथाऽपरे । योनयो नव निर्दिष्टास्त्रिविधस्थापि जन्मनः ॥ १०५ ॥ सचित्तशीतविवृता अचित्ताशीतसंवृताः। सचित्ताचित्तशीतोष्णौ तथा विवृतसंवृतः॥ १०६॥ योनि रकदेवानामचित्तः कथितो जिनैः। . ...
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तत्वार्थसारः ।
११७
( षट्पदम् )
गर्भजानां पुनर्मिश्रः शेषाणां त्रिविधो भवेत् ॥ १०७ ॥ उष्णः शीतश्च देवानां नारकाणां च कीर्तितः । उष्णोऽग्निकायिकानां तु शेषाणां त्रिविधो भवेत् ॥ १०८ ॥ नारकै काक्ष देवानां योनिर्भवति संवृतः । विवृतो विकलाक्षाणां मिश्रः स्याद्गर्भजन्मनाम् ॥ १०९ ॥ नित्येतरनिगोतानां भूम्यम्भोवाततेजसाम् । सप्त सप्त भवन्त्येषां लक्षाणि दश शाखिनाम् ॥ ११० ॥ पढ़ तथा विकलाक्षाणां मनुष्याणां चतुर्दश । तिर्यनारकदेवानामेकैकस्य चतुष्टयम् । एवं चतुरशीतिः स्यालक्षाणां जीवयोनथः ॥ १११ ॥ द्वाविंशतिस्तथा सप्त त्रीणि सप्त यथाक्रमम् । कोटीलक्षाणि भूम्यम्भस्तेजोऽनिलशरीरिणाम् ॥ ११२ ॥ वनस्पतिशरीराणां ताम्यशविंशतिः स्मृताः । स्युद्वित्रिचतुरक्षाणां सप्ताष्ट नव च क्रमात् ॥ ११३ ॥ तानि द्वादश सार्द्धानि भवन्ति जलचारिणाम् । नवाहिपरिसर्पाणां गवादीनां तथा दश ॥ ११४ ॥ वीनां द्वादश तानि स्युञ्चतुर्दश नृणामपि । षड्विंशतिः सुराणां तु श्वाभ्राणां पञ्जविंशतिः ॥ ११५ ॥ कुलानां कोटिलक्षाणि नवतिर्नवभिस्तथा । पञ्चायुतानि कोटीनां कोटिकोटी व मीलनात् ॥ ११६ ॥ द्वाविंशतिर्भुवां सप्त पयसां दश शाखिनाम् । नभस्वतां पुनस्त्रीणि वीनां द्वासप्ततिस्तथा ॥ ११७ ॥ उरगाणां द्विसंयुक्ता चत्वारिंशत्प्रकर्षतः । आयुर्वर्षसहस्राणि सर्वेषां परिभाषितम् ॥ ११८ ॥
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११८
प्रथम गुच्छक। दिनान्येकोनपश्चाशत्यक्षाणां त्रीणि तेजसः। षण्मासाश्चतुरक्षाणां भवत्यायुः प्रकर्षतः ॥ ११९ ॥ मवायुः परिसर्पाणां पूर्वाङ्गानि प्रकर्षतः। ध्यक्षाणां द्वादशाब्दानि जीवितं स्यात्प्रकर्षतः ॥ १२० ।। असंशिनस्तथा मत्स्याः कर्मभूजाश्चतुष्पदाः । मनुष्याश्चैव जीवन्ति पूर्वकोटि प्रकर्षतः ॥ १२१ ॥ एकं द्वे त्रीणि पल्यानि नृतिरश्वां यथाक्रमम् । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभोगभूमिषु जीवितम् । कुभोगभूमिजानां तु पल्यमेकं तु जीवितम् ॥ १२२ ॥
(षट्पदम् ) एकं त्रीणि तथा सप्त दश सप्तदशेति च । द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिंशद् धर्मादिषु यथाक्रमम् ॥ १२३ ।। स्यात्सागरोपमाण्यायु रकाणां प्रकर्षतः। दशवर्षसहस्राणि घम्मायां तु जघन्यतः ॥ १२४॥ वंशादिषु तु तान्येकं त्रीणि सप्त तथा दश । तथा सप्तदश घना विंशतिश्च यथोत्तरम् ॥ १२५ ॥ भावनानां भवत्यायुः प्रकृष्टं सागरोपमम् । दशवर्षसहस्रं तु जघन्यं परिभाषितम् ॥ १२६ ॥ पल्योपमं भवत्यायुः सातिरेकं प्रकर्षतः । दशवर्षसहस्रं तु व्यन्तराणां जघन्यतः ॥ १२७ ।। पल्योपमं भवत्यायुः सातिरेकं प्रकर्षतः । पल्योपमाष्टभागस्तु ज्योतिष्काणां जघन्यतः ॥ १२८ ॥ द्वयोर्द्वयोरुभौ सप्त दश चैव चतुर्दश । षोडशाष्टादशाप्येते सातिरेकाः पयोधयः ॥ १२९ ।।
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तत्त्वार्थसारः।
११९ समुद्रा विशतिश्चैव तेषां द्वाविंशतिस्तथा। सौधर्मादिषु देवानां भवत्यायुः प्रकर्षतः ॥ १३० ॥ एकैकं वर्द्धयेदब्धि नवप्रैवेयकेष्वतः। .. नवस्वनुदिशेषु स्याद्वात्रिंशदविशेषतः ॥ १३१ ॥ त्रयस्त्रिंशत्समुद्राणां विजयादिषु पञ्चसु। . साधिकं पल्यमायुः स्यात्सौधर्मेशानयोयोः ॥ १३२॥ परतः परतः पूर्व शेषेषु च जघन्यतः । आयुः सर्वार्थसिद्धौ तु जघन्यं नैव विद्यते ॥ १३३॥ अन्यत्रानपमृत्युभ्यः सर्वेषामपि देहिनाम् । अन्तर्मुहूर्त्तमित्येषां जघन्येनायुरिष्यते ॥ १३४ ॥ असङ्ख्येयसमायुष्काश्चरमोत्तममूर्चयः ।। देवाश्च नारकाश्चैषामपमृत्युन विद्यते ॥ १३५ ।। घम्मायां सप्त चापानि सपादं च करत्रयम्।... उत्सेधः स्यात्ततोऽन्यासु द्विगुणो द्विगुणो हि सः ॥१३॥ शतानि पञ्च चापानां पञ्चविंशतिरेव च । प्रकर्षेग मनुष्याणामुत्सेधः कर्मभूमिषु ॥ १३७ ।। एकः क्रोशो जघन्यासु द्वौ क्रोशौ मध्यमासु च । क्रोशत्रयं प्रकृष्टासु भोगभूषु समुन्नतिः ॥ १३८ ॥... ज्योतिष्काणां स्मृताः सप्तासुराणां पञ्चविंशतिः । शेषभावनभौमानां कोदण्डानि दशोन्नतिः ॥ १३९ ॥ द्वयोः सप्त द्वयोः षड् च हस्ताः पञ्च चतुर्थतः। ततश्चतुर्षु चत्वारः सार्धाश्चातो द्वयोस्त्रयः ॥ १४० ॥ द्वयोस्त्रयश्च कल्पेषु समुत्सेधः सुधाशिनाम् । अधोवेयकेषु स्यात्सार्द्ध हस्तद्वयं यथा ॥ १४१॥.
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१२०
प्रथम गुच्छक ।
हस्तद्वितयमुत्सेधो मध्यप्रैवेयकेषु तु। अन्त्यप्रैवेयकेषु स्याद्धस्तोऽध्यर्द्धसमुन्नतिः। एकहस्तसमुत्सेधो विजयादिषु पञ्चसु ॥ १४२ ॥
(षट्पदम् ) योजनानां सहनं तु सातिरेकं प्रकर्षतः।। एकेन्द्रियस्य देहः स्याद्विक्षेयः स च पमिनि ॥ १४३ ।। त्रिकोशः कथितः कुम्भी शङ्को द्वादशयोजनः। सहस्रयोजनो मत्स्यो मधुपश्चैकयोजनः ॥ १४४ ॥ असङ्ख्याततमो भागो यावानरत्यङ्गलस्य तु । एकाक्षादिषु सर्वेषु देहस्तावान् जघन्यतः ॥ १४५ ॥ घामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्च सरीसृपाः। मेघास्ताश्च विहङ्गाश्च अञ्जनान्ताश्च भोगिनः ॥ १४६ ॥ तामरिष्टां च सिंहास्तु मघव्यन्तास्तु योषितः। नरा मरस्याश्च गच्छन्ति माघवीं तांश्च पापिनः ॥१४७॥ न लभन्ते मनुष्यत्वं सप्तम्या निर्गताः क्षितेः । तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः ॥ १४७ ॥ मध्व्या मनुष्यलाभेन षष्ठया भूमेर्विनिर्गताः। सयमं तु.पुनः पुण्यं नाप्नुवन्तीति निश्चयः ॥ १४९ ॥ निर्गताः खलु पञ्चम्या लभन्ते केचन व्रतम् । प्रयान्ति न पुनर्मुक्ति भावसलेशयोगतः ।। १५० ॥ . लभन्ते निर्वृति केचिश्चतुर्थ्या निर्गताः क्षितेः। म पुनः प्राप्नुवन्त्येव पवित्र तीर्थकर्तृताम् ॥ १५१ ॥ लभन्ते तीर्थकर्तृत्वं ततोऽन्याभ्यो विनिर्गताः। निर्गत्य नारका न स्युर्बलकेशवचक्रिणः॥ १५२ ॥
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तत्त्वार्थसारः ।
सर्वे पर्याप्तका जीवाः सूक्ष्मकायाश्च तैजसाः । वायवो संज्ञिनश्चैषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः ॥ १५३ ॥ त्रयाणां खलु कायानां विकलानामसंज्ञिनाम् । मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमो मिथः ॥ १५४ ॥ नारकाणां सुराणां च विरुद्धः संक्रमो मिथः । नारको न हि देवः स्यान्न देवो नारको भवेत् ॥ १५५ ॥ भूम्याः स्थूलपर्याप्ताः प्रत्येकाङ्गवनस्पतिः । तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मैषां परिकीर्त्तितम् ॥ १५६ ॥ सर्वेऽपि तैजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः । मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यनन्तरे ॥ १५७ ॥ पूर्णासंज्ञितिरश्चामविरुद्धं जन्म जातुचित् । नारकामरतिर्यक्षु नृषु वा न तु सर्वतः ॥ १५८ ॥ सङ्ख्यातीतायुषां मर्त्यतिरश्चां तेभ्य एव तु । सङ्ख्यातवर्षजीविभ्यः संज्ञिभ्यो जन्मसंमृतम् ॥ १५९ ॥ सङ्ख्यातीतायुषां नूनं देवेष्वेवास्ति संक्रमः । निसर्गेण भवेत्तेषां यतो मन्दकषायता ॥ १६० शलाकापुरुषा नैव सन्त्यनन्तरजन्मनि । तिर्यञ्च मानुषाश्चैव भाज्याः सिद्धगतौ तु ते ॥ १६१ ॥ ये मिथ्यादृयो जीवाः संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽथवा । व्यन्तरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ॥ १६२ ॥ संख्यातीतायुषो मर्त्यास्तिर्यञ्चश्वाप्यसदृशः । उत्कृष्टास्तापसाश्चैव यान्ति ज्योतिष्कदेवताम् ॥ १६३ ॥ ब्रह्मलोके प्रजायन्ते परिव्राजः प्रकर्षतः । आजीवास्तु सहस्रारं प्रकर्षेण प्रयान्ति हि ॥ १६४ ॥
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प्रथम गुच्छक ।
उत्पद्यन्ते सहस्रारे तिर्यञ्चो व्रतसंयुताः ।
अत्रैव हि प्रजायन्ते सम्यक्त्वाराधका नराः ॥ १६५ ॥ न विद्यते परं ह्यस्मादुपपादोऽन्यलिङ्गिनाम् । निर्ग्रन्थश्रावका ये ते जायन्ते यावदच्युतम् ॥ १६६ ॥ धृत्वा निर्ग्रन्थलिङ्गं ये प्रकृष्टं कुर्वते तपः । अन्त्यग्रैवेयकं यावदभव्याः खलु यान्ति ते ।। १६७ ॥ यावत्सर्वार्थसिद्धि तु निर्ग्रन्था हि ततः परम् । उत्पद्यन्ते तपोयुक्ता रत्नत्रयपवित्रिताः । १६८ ।। भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः । तिर्यक्त्व मानुषत्वाभ्यामासहस्रारतः पुनः ॥ १६९ ॥ ततः परं तु ये देवास्ते सर्वेऽनन्तरे भवे । उत्पद्यन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित् ॥ १७० ॥ शलाकापुरुषा न स्युर्भीमज्योतिष्कभावनाः । अनन्तरभवे तेषां भाज्या भवति निर्वृतिः ॥ १७१ ॥ ततः परं विकल्यन्ते यावद्द्यैवेयकं सुराः । शलाकापुरुषत्वेन निर्वाणगमनेन च ॥ १७२ ॥ तीर्थेशरामचत्रित्वे निर्वाणगमनेन च ।
१२२
च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामराः ॥ १७३ ॥ भाज्यास्तीर्थेशचकित्वे च्युताः सर्वार्थसिद्धितः । विकल्पारामभावेऽपि सिद्ध्यन्ति नियमात्पुनः || १७४ ॥ दक्षिणेन्द्रास्तथा लोकपाला लौकान्तिकाः शची । शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति निर्वृतिम् ॥ १७५ ॥ धर्माधर्मास्तिकायाभ्यां व्याप्तः कालाणुभिस्तथा । व्योम्नि पुगलसंछवो लोकः स्यात् क्षेत्रमात्मनाम् ॥ १७६ ॥
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तत्वार्थसारः ।
अधो वेसनाकारो मध्येऽसौ झलरीसमः । ऊर्ध्वं मृदङ्गसंस्थानो लोकः सर्वज्ञवर्णितः ।। १७७ ॥ सर्वसामान्यतो लोकस्तिरश्चां क्षेत्रमिष्यते । श्वाभ्रमानुषदेवानामथातस्तद्विभज्यते ॥ १७८ ॥ अधोभागे हि लोकस्य सन्ति रत्नप्रभादयः ॥ . घनाम्युपवनाकाशे प्रतिष्ठाः सप्तभूमयः ।। १७९ ।। रत्नप्रभादिमा भूमिस्ततोऽधः शर्कराप्रभा । स्याद्वालुकाप्रभातोऽधस्ततः पङ्कप्रभा मता ॥ १८० ॥ ततो धूमप्रभाधस्तात्ततोऽधस्तात्तमःप्रभा । तमस्तमःप्रभातोऽधो भुवामित्थं व्यवस्थितिः ॥ १८१ ॥ त्रिंशन्नर लक्षाणि भवन्त्युपरिमक्षितौ ॥ अधः पञ्चकृतिस्तस्यास्ततोऽधो दशपञ्च च ॥ १८२ ॥ ततोऽधो दशलक्षाणि त्रीणि लक्षाण्यधस्ततः । पञ्चोनं लक्षमेकं तु ततोऽधः पञ्च तान्यतः ॥ १८३ ॥ परिणामवपुर्लेश्या वेदनाविक्रियादिभिः । अत्यन्तमशुभैर्जीवा भवन्त्येतेषु नारकाः ॥ १८४ ॥ अन्योन्योदीरितासह्यदुःखभाजो भवन्ति ते । संक्लिष्टासुरनिर्वृत्तदुःखाचोर्ध्वक्षितित्रये ॥ १८५ ॥ पाकान्नरकगत्यास्ते तथा च नरकायुषः । भुञ्जन्ते दुःकृतं घोरं चिरं सप्तक्षितिस्थिताः ॥ १८६ ॥ मध्यभागे तु लोकस्य तिर्यक्प्रचयवर्द्धिनः । असङ्ख्याः शुभनामानो भवन्ति द्वीपसागराः ॥ १८७ ॥ जम्बूद्वीपोऽस्ति तन्मध्ये लक्षयोजनविस्तरः । आदित्यमण्डलाकारो बहुमध्यस्थमन्दरः ॥ १८८ ॥
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प्रथम गुच्छक ।
द्विगुणद्विगुणेनातो विष्कम्मेणार्णवादयः। पूर्व पूर्व परिक्षिप्य वलयाकृतयः स्थिताः ॥ १८९ ।। जम्बूद्वीपं परिक्षिप्य लवणोदः स्थितोऽर्णवः । द्वीपस्तु धातकीखण्डस्तं परिक्षिप्य संस्थितः ॥ १९० ॥ आवेष्ट्य धातकीखण्डं स्थितः कालोदसागरः आवेष्ट्य पुष्करद्वीपः स्थितः कालोदसागरम् ॥ १९१॥ परिपाट्यानया ज्ञेयाः स्वयम्भूरमणोदधिः। यावजिनाशया भव्यैरसड्डया द्वीपसागराः ॥ १९२॥ सप्त क्षेत्राणि भरतस्तथा हैमवतो हरिः । विदेहो रम्यकश्चैव हैरण्यवत एव च। ऐरावतश्च तिष्ठन्ति जम्बूद्वीपे यथाक्रमम् ॥ १९३ ।।
.. (षट्पदम् । ) पार्श्वेषु मणिभिश्चित्रा ऊर्ध्वाधस्तुल्यविस्तराः। तद्विभागकराः षट् स्युः शैलाः पूर्वापरायताः ॥ १९४ ॥ हिमवान्महाहिमवान्निषधो नीलरुक्मिणौ। शिखरी चेति संचिन्त्या एते वर्षधराद्रयः ॥ १९५॥ कनकार्जुनकल्याणवैडूर्यार्जुनकाञ्चनैः । यथाक्रमेण निर्वृत्ताश्चिन्त्यास्ते षण्महीधराः ॥ १९६ ॥ पनस्तथा महापद्मस्तिगिछः केशरी तथा । पुण्डरीको महान् क्षुद्रो हृदा वर्षधराद्रिषु ॥ १९७ ॥ सहस्रयोजनायाम आद्यस्तस्यार्द्धविस्तरः । द्वितीयो द्विगुणस्तस्मात्तृतीयो द्विगुणस्ततः ॥ १९८ ॥ उत्तरा दक्षिणैस्तुल्या निन्नास्ते दशयोजनीम्। प्रथमे परिमाणेन योजनं पुष्कर हदे ॥ १९९ ॥
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तत्वार्थसारः ।
द्विचतुर्योजनं ज्ञेयं तद्वितीयतृतीययोः ।
अपाच्य वदुदोच्यानां पुष्कराणां प्रमाश्रिताः ॥ २०० ॥ श्रीश्च ह्रीश्च धृतिः कीर्त्तिर्बुद्धिर्लक्ष्मीश्च देवताः । पल्योपमायुषस्तेषु पर्षात्सामानिकान्विताः ।। २०१ ॥ गङ्गासिन्धू उभे रोहिद्रोहितास्ये तथैव च । स्तो हरिद्धरिकान्ते च शीताशीतोदके तथा ॥ २०२ ॥ स्तो नारीनरकान्ते च सुवर्णार्जुनकूलिके । रक्तारक्तोदके च स्तो द्वे द्वे क्षेत्रे च निम्नगे ॥ २०३ ॥ पूर्वसागरगामिन्यः पूर्वा नद्यो द्वयोर्द्वयोः । पश्चिमार्णवगामिन्यः पश्चिमास्तु तयोर्मताः ॥ २०४ ॥ गङ्गासिन्धुपरीवारः सहस्राणि चतुर्दश । नदीनां द्विगुणास्तिस्रस्तिसृतोऽर्द्धार्द्धहापनम् ॥ २०५ ॥ दशोनद्विशतीभरको जम्बूद्वीपस्य विस्तरः | विस्तारो भरतस्यासौ दक्षिणोत्तरतः स्मृतः ॥ २०६ ॥ द्विगुणद्विगुणा वर्षधरवर्षास्ततो मताः । आविदेहात्ततस्तु स्युरुत्तरा दक्षिणैः समाः ॥ २०७ ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ षट्समे वृद्धिहानिदे |
१२५
भरतैरावतौ मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित् ॥ २०८ ॥ जम्बूद्वीपोक्तसंख्याभ्यो वर्षा वर्षधरा अपि । द्विगुणा धातकीखण्डे पुष्करार्द्ध च निश्चताः ॥ २०९ ॥ पुष्करद्वीपमध्यस्थो मानुषोत्तरपर्वतः । श्रूयते वलयाकारस्तस्य प्रागेव मानुषाः ॥ २१० ॥ द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु द्वयोश्चापि समुद्रयोः । निवासोऽत्र मनुष्याणामत एव नियम्यते ॥ २११ ॥
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प्रथम गुच्छक |
आर्यम्लेच्छविभेदेन द्विविधास्ते तु मानुषाः । आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः । म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ २१२ ॥
( षट्पदम् । )
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भावनव्यन्तरज्योतिर्वैमानिकविभेदतः । देवाश्चतुर्णिकायाः स्युर्नामकर्मविशेषतः ॥ २१३ ॥ दशधा भावना देवा अष्टधा व्यन्तराः स्मृताः । ज्योतिकाः पञ्चधा ज्ञेयाः सर्वे वैमानिका द्विधा ॥ २१४ ॥ नागासुरसुपर्णाग्निदिग्वातस्तनितोदधिः ।
द्वीपविद्युत्कुमाराख्या दशधा भावना स्मृताः ॥ २१५|| किन्नराः किम्पुरुषाश्च गन्धर्वाश्च महोरगाः । यक्षराक्षसभूताश्च पिशाचा व्यन्तराः स्मृताः ॥ २१६ ॥ सूर्याचन्द्रमसौ चैव ग्रहनक्षत्रतारकाः । ज्योतिष्काः पञ्चधा द्वेधा ते चलाचलभेदतः ॥ २१७ ॥ कल्पोत्पन्नास्तथा कल्पातीता वैमानिका द्विधा । इन्द्राः सामानिकाश्चैव त्रायस्त्रिंशाश्च पार्षदाः ॥ २९८ ॥ आत्मरक्षास्तथा लोकपालानीकप्रकीर्णकाः । किल्विषा अभियोग्याश्च भेदाः प्रतिनिकायकाः ॥ २१९ ॥ श्रायत्रिस्तथा लोकपालैर्विरहिताः परे । व्यन्तरज्योतिषामष्टौ भेदाः सन्तीति निश्चिताः ॥ २२० ॥ पूर्वे कायप्रवीचारा व्याप्यैशानं सुराः स्मृताः । स्पर्शरूपध्वनिस्वान्तप्रवीचारास्ततः परे । ततः परेऽप्रवीचाराः कामकुंशाल्पभावतः ॥ २२१ ॥
( षट्पदम् । )
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तत्त्वार्थसारः।
धर्मायाः प्रथमे भागे द्वितीयेऽपि च कानिचित् । भवनानि प्रसिद्धानि वसन्त्येतेषु भावनाः ॥ २२२ ।। रत्नप्रभाभुवो मध्ये तथोपरितलेऽपि च । विविधेष्वन्तरेष्वत्र व्यन्तरा निवसन्ति ते ॥ २२३।। उपरिष्टान्महीभागात् पटलेषु नभोऽङ्गणे। तिर्यग्लोकं समाच्छाद्य ज्योतिष्का निवसन्ति ते ॥ २२४ ।। ये तु वैमानिका देवा ऊर्ध्वलोके वसन्ति ते । उपर्युपरि तिष्ठत्सु विमानप्रतरेष्विह ॥ २२५ ॥ उर्ध्व भागे हि लोकस्य त्रिषष्टिः प्रतराः स्मृताः । विमानैरिन्द्र कैर्युक्ताः श्रेणीबद्धः प्रकीर्णकैः ॥ २२६॥ सौधर्मशानकल्पौ द्वौ तथा सानत्कुमारकः । माहेन्द्रश्च प्रसिद्धौ द्वौ ब्रह्मब्रह्मोत्तरावुभौ ॥ २२७ ।। उभौ लान्तवकापिष्टौ शुक्रशुक्रो महास्वनौ। द्वौ सतारसहस्रारावानतप्राणतावुभौ ।। २२८ ॥ आरणाच्युतनामानौ द्वौ कल्पाश्चेति षोडश । प्रैवेयाणि नवातोऽतो नवानुदिशचक्रकम् ।। २२९ ॥ विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम्। सर्वार्थसिद्धिरित्येषां पश्चानां प्रतरोऽन्तिमः ॥ २३०॥ एषु वैमानिका देवा जायमानाः स्वकर्मभिः । द्यतिलेश्याविशुद्ध्यायुरिन्द्रियावधिगोचरैः ।। २३१ ।। तथा सुखप्रभावाभ्यामुपर्युपरितोऽधिकाः। हीनास्तथैव ते मानगतिदेहपरिग्रहैः ॥ २३२ ॥ इति संसारिणां क्षेत्रं सर्वलोकः प्रकीर्तितः। सिद्धानां तु पुनः क्षेत्रमूर्ध्वलोकान्त इष्यते ॥ २३३ ।।
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प्रथम गुच्छक।
सामान्यादेकधा जीवो बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्धनोसिसिद्धत्वात् कीर्त्यते त्रिया ॥ २३४ ॥ भ्वाभ्रतिर्यग्नरामर्त्यविकल्पात् स चतुर्विधः । प्रशमक्षयतद्वन्दः परिगामोदयो भवेत् ॥ २३५ ॥ . भावः पञ्चविधत्वात्स पञ्चभेदः प्ररूप्यते। . षण्मार्गगमनात्षोढा सप्तधा सप्तभङ्गतः ॥ २३६ ॥ अष्टधाष्टगुणात्मत्वादष्टकर्मकृतोऽपि च । पदार्थनवकात्मत्वान्नधधा दशधा तु सः । दशजीवभिदात्मत्वादिति चिन्त्यं यथागमम् ।। २३७ ।।
(षट्पदम् । ) इत्येतजीवतत्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते। शेषतत्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ २३८ ॥
इति जीवतत्त्ववर्णनम् ॥ २ ॥
अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशितजगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् सर्वानजीवाः संप्रचक्ष्यते॥१॥ धर्माधर्मावथाकाशं तथा कालश्च पुद्गलाः । अजीवाः खलु पञ्चैते निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥२॥ एते धर्मादयः पञ्च जीवाश्च प्रोक्तलक्षणाः । षट् द्रव्याणि निगद्यन्ते द्रव्ययाथात्म्यवेदिभिः ॥३॥ विना कालेन शेषाणि द्रव्याणि जिनपुङ्गवैः। पञ्चास्तिकाया कथिताः प्रदेशानां बहुत्वतः ॥ ४ ॥ समुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं क्षीणकल्मषाः । गुणपर्ययवद्रव्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥५॥ .
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सत्त्वार्थसारः।
१२९
द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च । भावान्तरपरिप्राप्तिनिजा जातिमनुज्झतः ॥ ६॥ स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि । विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ॥ ७॥ समुत्पादव्ययाभावो यो हि द्रव्यस्य दृश्यते । अनादिना स्वभावेन तदोव्यं ब्रुवते जिनाः ॥ ८ ॥ गुणो द्रव्यविधानं स्यात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया । द्रव्यं ह्ययुतसिद्धं स्यात्समुदायस्तयोर्द्वयोः ॥९॥ सामान्यमन्वयोत्सर्गौ शब्दाः स्युर्गुणवाचकाः । व्यतिरेको विशेषश्च भेदः पर्यायवाचकाः ॥ १० ॥ गुणैर्विना न च द्रव्यं विना द्रव्यानो गुणाः । द्रव्यस्य च गुणानां च तस्मादव्यातरिक्तता ॥ ११॥ न पर्यायाद्विना द्रव्यं विना द्रव्यान्न पर्ययः। वदन्त्यनन्यभूतत्वं द्वयोरपि महर्षयः ॥ १२ ॥ न च नाशोऽस्ति भावस्य न चाभावस्य सम्भवः । भावाः कुर्युर्व्ययोत्पादौ पर्यायेषु गुणेषु च ॥ १३ ॥ द्रव्याण्येतानि नित्यानि तद्भावान व्ययन्ति यत् । प्रत्यभिज्ञानहेतुत्वं तद्भावस्तु निगद्यते ॥१४॥ इयत्ता नातिवर्तन्ते यतः षडिति जातुचित्। अवस्थितत्वमेतेषां कथयन्ति ततो जिनाः ॥ १५॥ शब्दरूपरसस्पर्शगन्धात्यन्तव्युदासतः । पञ्च द्रव्याण्यरूपाणि रूपिणः पुद्गलाः पुनः ॥ १६ ॥ धर्माधर्मान्तरिक्षाणां द्रव्यमेकत्वमिष्यते। कालयुद्गलजीवानामनेकद्रव्यता मता ॥ १७ ॥
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१३०
प्रथम गुच्छक |
धर्माधर्मो नमः कालश्चत्वारः सन्ति निःक्रियाः : जीवाश्च पुद्गलाश्चैव भवन्त्येतेषु सक्रियाः ॥ १८ ॥ एकस्य जीवद्रव्यस्य धर्माधर्मास्तिकाययोः । असङ्घयेय प्रदेशत्वमेतेषां कथितं पृथक् ॥ १९ ॥ सङ्ख्येयाश्चाप्यसङ्ख्येया अनन्ता यदि वा पुनः । पुद्गलानां प्रदेशाः स्युरनन्ता वियतस्तु ते ॥ २० ॥ कालस्य परिमाणस्तु द्वयोरप्येतयोः किल । एक प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वमिष्यते ॥ २१ ॥ लोकाकाशेऽवगाहः स्याद्द्रव्याणां न पुनर्बहिः । लोकालोकविभागः स्यादत एवाम्बरस्य हि ॥ २२ ॥ लोकाकाशे समस्ते धर्माधर्मास्तिकाययोः । तिलेषु तैलवत्प्राहुरवगाहं महर्षयः ॥ २३ ॥ संहाराश्च विसर्पाश्च प्रदेशानां प्रदीपवत् । जीवस्तु तदसंख्येयभागादीनवगाहते ॥ २४ ॥ लोकाकाशस्य तस्यैकप्रदेशादिस्तथा पुनः । पुद्गला अवगाहन्ते इति सर्वज्ञशासनम् ॥ २५ ॥ अवगाहन सामर्थ्यात्सूक्ष्मत्वपरिणामिनः । तिष्ठन्त्येक प्रदेशेऽपि बहवोऽपि हि पुद्गलाः ॥ २६ ॥ एकापवर के sनेकप्रकाशस्थितिदर्शनात् । न च क्षेत्रविभागः स्यान्न चैक्यमवगाहिनाम् ॥ २७ ॥ अल्पेऽधिकरणे द्रव्यं महीयो नावतिष्ठते ।
इदं न क्षमते युक्तिं दुःशिक्षित कृतं वचः ॥ २८ ॥ अल्पक्षेत्रे स्थितिर्दृष्टा प्रचयस्य विशेषतः । पुद्गलानां बहूनां हि करीषपटलादिषु ॥ २९ ॥
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तत्त्वार्थसारः।
१३१ धर्मस्य गतिरत्र स्यादधर्मस्य स्थितिर्भवेत् । उपकारोऽवगाहस्तु नभसः परिकीर्तितः ॥ ३० ॥ पुद्गलानां शरीरं वाक् प्राणापानौ तथा मनः। उपकारः सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ॥ ३१॥ परस्परस्य जीवानामुपकारो निगद्यते। उपकारस्तु कालस्य वर्तना परिकीर्तिता ॥ ३२॥ क्रियापरिणतानां यः स्वयमेव क्रियावताम् । आदधाति सहायत्वं स धर्मः परिगीयते ॥ ३३ ॥ जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये गत्युपग्रहे । जलवन्मत्स्यगमने धर्मः साधारणाश्रयः ॥ ३४ ॥ स्थित्या परिणतानां तु सचिवत्वं दधाति यः। तमधर्म जिनाः प्राहुनिरावरगदर्शनाः ॥ ३५ ॥ जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये स्थित्युपग्रहे। साधारणाश्रयो धर्मः पृथिधीव गवां स्थितौ ॥ ३६॥ आकाशान्तेऽत्र द्रव्याणि स्वयमाकाशतेऽथवा । द्रव्याणामवकाशं वा करोत्याकाशमस्त्यतः ॥ ३७॥ जीवानां पुद्गलानां च कालस्याधर्मधर्मयोः । अवगाहनहेतुत्वं तदिदं प्रतिपद्यते ॥ ३८ ॥ क्रियाहेतुत्वमेतेषां नि क्रियाणां न हीयते । यतः खलु बलाधानमात्रमत्र विपक्षितम् ॥ ३९ ॥ स कालो यन्निमित्ताः स्युः परिणामादिवृत्तयः। वर्तनालक्षणं तस्य कथयन्ति विपश्चितः ॥ ४० ॥ अन्ततिकसमया प्रतिद्रव्यविपर्ययम्। अनुभूतिः स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना ॥४१॥
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प्रथम गुच्छक।
आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययैः । वर्तनाकरणात्कालो भजते हेतुकर्तृताम् ॥ ४२ ॥ न चास्य हेतुकर्तृत्वां निःक्रियस्थ विरुध्यते । यतो निमित्तमात्रेऽपिं हेतुकर्तृत्वमिष्यते ॥ ४३ ॥ एकैकवृत्त्या प्रत्येकमणवस्तस्य निःक्रियाः। लोकाकाशप्रदेशेषु रत्नराशिरिव स्थिताः॥ ४४ ॥ व्यावहारिककालस्य परिणामस्तथा क्रिया। परत्वं चापरत्वं च लिङ्गान्याहुमहर्षयः॥ ४५ ॥ स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः । परिणामः स निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः ॥ ४६ ॥ प्रयोगविनसाभ्यां या निमित्ताभ्यां प्रजायते । द्रव्यस्य सा परिशेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया ॥४७॥ परत्वं विप्रकृष्टत्वमितरत्सन्निकृष्टता। ते च कालकृते ग्राह्ये कालप्रकरणादिह ॥ ४८ ॥ ज्योतिर्गतिपरिच्छिन्ना मनुष्यक्षेत्रवर्त्यसो । यतो न हि बहिस्तस्माज्ज्योतिषां गतिरिष्यते ॥४९॥ भूतश्च वर्तमानश्च भविष्यनिति च विधा। परस्परव्यपेक्षत्वाव्यपदेशो ह्यनेकशः ॥ ५० ॥ यथाऽनुसारतः पति बहूनामिह शाखिनाम् । क्रमेण कस्यचित् पुंस, एकैकाऽनोकुहं प्रति ॥ ५१ ॥ संप्राप्तः प्राप्नुवन्प्राप्स्यन्व्यपदेशः प्रजायते । द्रव्याणामपि कालाणूंस्तथाऽनुसरतामिमान् ॥५२॥ पर्यायं चानुभवतां वर्तनाया यथाक्रमम् । भूतादिव्यवहारस्य गुरुभिः सिद्धिरिष्यते ॥ ५३॥
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तत्त्वार्थसारः।
१३३ भूतादिव्यपदेशोऽसौ मुख्यो गौणो ह्यनेहसि। व्यावहारिककालोऽपि मुख्यतामादधात्यसौं ॥५४॥ भेदादिभ्यो निमित्तेभ्यः पूरणाद्गलनादपि। पुद्गलानां स्वभावः कथ्यन्ते पुद्गला इति ॥ ५५ ॥ अणुस्कन्धविभेदेन द्विविधाः खलु पुद्गलाः। स्कन्धो देशः प्रदेशश्च स्कन्धस्तु त्रिविधो भवेत् ॥ ५६ ॥ अनन्तपरमाणूनां संघातः स्कन्ध इष्यते । देशस्तस्यार्द्धमर्द्धार्द्ध प्रदेशः परिकीर्तितः ॥ ५७ ॥ भेदात्तथा च संघातात्तथा तदुभयादपि । उत्पद्यन्ते खलु स्कन्धा भेदादेवाणवः पुनः ॥ ५८ ॥ आत्मादिरात्ममध्यश्च तथाऽत्मान्तश्च नेन्द्रियैः। गृह्यते यो विभागी च परमाणु स उच्यते ॥ ५९॥ सूक्ष्मो नित्यस्तथान्त्यश्च कार्यलिङ्गस्य कारणम् । एकगन्धरसश्चैकवर्णो द्विस्पर्शवांश्च सः ॥ ६ ॥ वर्णगन्धरसस्पर्शसंयुक्ताः परमाणवः । स्कन्धा अपि भवन्त्येते वर्णादिभिरनुज्झिताः ॥ ६१ ॥ शब्दसंस्थानसूक्ष्मत्वस्थौल्यबन्धसमन्विताः । तमश्छायातपोद्योतमेदवन्तश्च सन्ति ते ॥ ६२॥ साक्षरोऽनक्षरश्चैव शब्दो भाषात्मको द्विधा । प्रायोगिको वेनसिको द्विधा भाषात्मकोऽपि च ॥ ६३ ॥ संस्थानं कलशादीनामित्थं लक्षणमिष्यते । शेयमम्भोघरादीनामनित्थं लक्षणं तथा ॥ ६४ ॥ अन्त्यमापेक्षिकञ्चति सूक्ष्मत्वं द्विविधं भवेत् । परमाणुषु तत्रान्त्यमन्यद्विल्वारुकादिषु ॥ ६५ ॥
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१३४
प्रथम गुच्छक । अन्त्यापेक्षिकभेदेन ज्ञेयं स्थौल्यमपि द्विधा। महास्कन्धेऽन्त्यमन्यच्च बदरामलकादिषु ॥ ६६ ॥ द्विधा वैनसिको बन्धस्तथा प्रायोगिकोऽपि च । तत्र वैनसिको वह्निविधुदम्भोधरादिषु ॥ बन्धः प्रायोगिको शेयो जतुकाष्ठादिलक्षणः ॥ ६७ ॥
.. (षट्पदम् । ) कर्मनोकर्मबन्धो यः सोऽपि प्रायोगिको भवेत् । तमो द्वप्रतिबन्धः स्यात्प्रकाशस्य विरोधि च ॥ ६८ ॥ प्राकाशावरणं यत्स्यानिमित्तं वपुरादिकम् । छायेति सा परिज्ञेया द्विविधा सा च जायते ॥ ६९ ॥ तत्रैका खलु वर्णादिविकारपरिणामिनी।। स्यात्प्रतिबिम्बमात्रान्या जिनानामिति शासनम् ।। ७ ।। आतपोऽपि प्रकाशः स्यादुष्णश्चादित्यकारणः । उद्योतश्चन्द्ररत्नादिप्रकाशः परिकीर्तितः ॥ ७१ ॥ उत्करश्चूर्णिकाचूर्णः खण्डोऽनुचटनं तथा। प्रतरश्चेति षड्भेदा भेदस्योक्ता महर्षिभिः ॥ ७२ ॥ विसदृक्षाः सद्रक्षा वा ये जघन्यगुणा न हि । प्रयान्ति स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धते परमाणवः ॥ ७३ ॥ संयुक्ता ये खलु स्वस्माद्वयाधिकगुणैर्गुणैः । बन्धः स्यात्परमाणूनां तैरेव परमाणुभिः ॥ ७४॥ बन्धेऽधिकगुणो यः स्यात्सोऽन्यस्य परिणामकः। रेणोरधिकमाधुर्यो दृष्टः क्लिन्नगुडो यथा ॥ ७५ ॥ घणुकाद्याः किलाऽनन्ताः पुद्गलानामनेकधा। सन्त्यचित्तमहास्कन्धपर्यन्ता बन्धपर्ययाः ॥ ७६ ॥
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तत्वार्थसारः ।
इतीहाजीवतस्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेषतस्त्रैः समं षड़भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ ७७ ॥ इत्यजीवतत्त्ववर्णनम् ॥ ३ ॥
अनन्त केवलज्योतिःप्रकाशित जगत्रयान् । प्रणिपत्य जिनान सर्वानास्रवः संप्रवक्ष्यते ॥ १ ॥ कायवाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स आस्रवः । शुभः पुण्यस्य विज्ञेयो विपरीतश्च पाप्मनः ॥ २ ॥ सरसः सलिलावाहिद्वारमत्र जनैर्यथा । तदास्रवणहेतुत्वादात्रवो व्यपदिश्यते ॥ ३ ॥ आत्मनोऽपि तथैवैषा जिनैर्योगप्रणालिका | कर्मास्रवस्य हेतुत्वादात्रवो व्यपदिश्यते ॥ ४ ॥ जन्तवः सकषाया ये कर्म ते साम्परायिकम् । अर्जयन्त्युपशान्ताद्या ईर्यापथमथाऽपरे ॥ ५ ॥ साम्परायिकमेतत्स्यादार्द्रचर्मस्थरेणुवत् । सकषायस्य यत्कर्मयोगानीतं तु मूर्च्छति ॥ ६ ॥ ईर्यापथं तु तच्छुककुड्यप्रक्षिप्तलोष्टवत् ।
अकषायस्य यत्कर्म योगानीतं न मूर्च्छति ॥ ७ ॥ चतुः कषाय पञ्चाक्षैस्तथा पञ्चभिरवतैः । क्रियाभिः पञ्चविंशत्या साम्परायिकमाश्रयेत् ॥ ८ ॥ तीव्रमन्दपरिज्ञातभावेभ्योऽज्ञातभावतः । वीर्याधिकरणाभ्यां च तद्विशेषं विदुर्जिनाः ॥ ९ ॥ तत्राऽधिकरणं द्वेधा जीवाऽजीवविभेदतः । त्रिःसंरम्भसमारम्भारम्भैर्योगैस्तथा त्रिभिः ॥ १० ॥
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१३६
प्रथम गुच्छक ।
कृतादिभिस्त्रिभिश्चैव चतुर्भिश्च क्रुधादिभिः । जीवाधिकरणस्येति भेदादष्टोसरं शतम् ॥ ११॥ संयोगो द्वौ निसर्गास्त्रीनिक्षेपाणां चतुष्टयम् । निवर्त्तनाद्वयं चाहुर्भेदानित्यपरस्य तु ॥ १२ ॥ मात्सर्यमन्तरायश्च प्रदोषो निह्नवस्तथा । आसादनौपघातौ च ज्ञानस्योत्सूत्रचोदितौ ॥ १३॥ अनादरार्थश्रवणमालस्यं शास्त्रविक्रयः। बहुश्रुताभिमानेन तथा मिथ्योपदेशनम् ॥ १४॥ अकालाधीतिराचार्योपाध्यायप्रत्यनीकता। श्रद्धाभावोऽप्यनभ्यासस्तथा तीर्थोपरोधनम् ॥ १५ ॥ बहुश्रुतावमानश्च ज्ञानाधीतेश्च शाठ्यता। इत्येते ज्ञानरोधस्य भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ १६ ॥ दर्शनस्यान्तरायश्च प्रदोषो निह्नवोऽपि च । मात्सर्यमुपघातश्च तस्यैवासादनं तथा ॥ १७॥ नयनोत्पाटनं दीर्घस्वापिता शयनं दिवा। नास्तिक्यवासना सम्यग्दृष्टिसन्दूषणं तथा ॥ १८ ॥ कुतीर्थानां प्रशंसा च सुगुप्सा च तपस्विनाम् । दर्शनावरणस्यैते भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ १९ ॥ दुःखं शोको वधस्तापः क्रन्दनं परिदेवनम् । परात्मद्वितयस्थानि तथा च परपैशुनम् ॥ २० ॥ छेदनं भेदनं चैव ताडनं दमनं तथा। तर्जनं भर्त्सनं चैव सद्यो विश्वसनं तथा ॥ २१॥ पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशीलत्वमेव च । शस्त्रप्रदानं चिश्रम्भघातनं विषमिश्रणम् ॥ २२॥
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तत्त्वार्थसारः ।
शृङ्खला वागुरापाशरज्जुजालादिसर्जनम | धर्मविध्वंसनं धर्मप्रत्यूहकरणं तथा ॥ २३ ॥ तपस्विगर्हणं शीलव्रतप्रच्यावनं तथा । इत्यसदनीयस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ २४ ॥ दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः क्षमा । वैयावृत्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जवं तथा ॥ २५ ॥ सरागसंयमश्चैव संयमासंयमस्तथा । भूतवृत्त्यनुकम्पा च सद्वेद्यास्रवहेतवः ॥ २६ ॥ केवलीत संघानां धर्मस्य त्रिदिवौकसाम् । अवर्णवादग्रहणं तथा तीर्थकृतामपि ॥ २७ ॥ मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम् । इति दर्शनमोहस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ २८ ॥ स्यात्तीवपरिणामो यः कषायाणां विपाकतः । चारित्रमोहनीयस्य स एवात्रवकारणम् ॥ २९ ॥ उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता । मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥ ३० ॥ अजस्त्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥ ३१ ॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता । जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥ ३२ ॥ मार्जारताम्रचूडादिपापीयः प्राणिपोषणम् । नैः शील्यं च महारम्भपरिग्रहतया सह ॥ ३३ ॥ कृष्णलेश्या परिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् । आयुषो नारकस्येति भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ ३४ ॥
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प्रथम गुच्छक। नैःशाल्यं निर्वृतत्वं च मिथ्यात्वं परवञ्चनम् । मिथ्यात्वसमवेतानामधर्माणां च देशनम् ॥ ३५ ॥ कृत्रिमाऽगुरुकर्पूरकुङ्कमोत्पादनं तथा । तथा मानतुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनम् ॥ ३६॥ सुवर्णमौक्तिकादीनां प्रतिरूपकनिर्मितिः। वर्णगन्धरसादीनामन्यथापादनं तथा ॥ ३७॥ तक्रक्षीरघृतादीनामन्यद्रव्यविमिश्रणम् । वाचान्यदुत्काकरणमन्यस्य क्रियया तथा ॥ ३८ ॥ कापोतनीललेश्यात्वमार्तध्यानं च दारुणम् । तैर्यग्योनायुषो शेया माया चारवहेतवः ॥ ३९ ॥ ऋजुत्वमीषदारम्भः परिग्रहतया सह । स्वभावमार्दवं चैव गुरुपूजनशीलता ॥ ४० ॥ अल्पसंक्लेशतादानं विरतिः प्राणिघाततः। आयुषो मानुषस्येति भवन्त्यानवहेतवः ॥ ४१ ॥ अकामनिर्जरा वालतपो मन्दकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् ॥ ४२ ॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ ४३ ॥ मनोवाकायवक्रत्वं विसंवादनशीलता। मिथ्यत्वं कूटसाक्षित्वं पिशुनास्थिरचित्तता ॥४४॥ विषक्रियेष्टकापाकदावाग्नीनां प्रवर्तनम् । प्रतिमायतनोद्यानप्रतिश्रयविनाशनम् ॥ ४५ ॥ चैत्यस्य च तथा गन्धमाल्यधूपादिमोषणम् । अतितीव्रकषायत्वं पापकर्मोपजीवनम् ॥ ४६ ॥
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तत्त्वार्थसारः।
परुषासह्यवादित्वं सौभाग्यकारणं तथा। अशुभस्येति निर्दिष्टा नाम्न आस्रवहेतवः ॥४७॥ संसारभीरुतानित्यमविसंवादनं तथा। योगानां चार्जवं नाम्नः शुभस्यानवहेतवः॥४८॥ विशुद्धिदर्शनस्योच्चैस्तपस्त्यागौ च शक्तितः। मार्गप्रभावना चैव सम्पत्तिविनयस्य च ॥४९॥ शीलवतानतीचारो नित्यं संवेगशीलता। ज्ञानोपयुक्तताभीक्ष्णं समाधिश्च तपस्विनः ॥ ५० ॥ वैयावृत्त्यमनिर्हाणिः षविधाऽवश्यकस्य च । भक्तिः प्रवचनाचार्यजिनप्रवचनेषु च ॥५१॥ वात्सल्यं च प्रवचने षोडशैते यथोदिताः। नाम्नस्तीर्थकरत्वस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥५२॥ असद्गणानामाख्यानं सद्गणाच्छादनं तथा। स्वप्रशंसान्यनिन्दा च नीचैर्गोत्रस्य हेतवः ॥५३॥ नीचैर्वृत्तिरनुत्सेकः पूर्वस्य च विपर्ययः । उच्चैर्गोत्रस्य सर्वज्ञैः प्रोक्ता आस्रवहेतवः ॥ ५४ ॥ तपस्विगुरुचैत्यानां पूजालोपप्रवर्तनम् । अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिषेधनम् ॥ ५५॥ वधबन्धनिरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्तनम् । प्रमादाद्देवतादत्तनैवेद्यग्रहणं तथा ॥ ५६ ॥ निरवद्योपकरणपरित्यागो वधोऽङ्गिनाम् । दानभोगोपभोगादिप्रत्यूहकरणं तथा ।। ५७ ॥ ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्मविघ्नकृतिस्तथा । इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥५८॥
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प्रथम गुच्छक।
प्रतात्किलास्त्रवेत्पुण्यं पापं तु पुनरवतात् । सङ्किप्यास्रवमित्येवं चिन्त्यतेऽतो व्रताव्रतम् ॥ ५९॥ हिंसाया अनृताच्चैव स्तेयादब्रह्मतस्तथा । परिग्रहाच विरतिः कथयन्ति व्रतं जिनाः॥६॥ कात्स्न्येन विरतिः पुंसांहिंसादिभ्यो महाव्रतम् । एकदेशेन विरतिर्विजानीयादणुव्रतम् ॥ ६१ ॥ व्रतानां स्थैर्यसिद्ध्यर्थं पञ्च पञ्च प्रतिव्रतम् । भावनाः सम्प्रतीयन्ते मुनीनां भावितात्मनाम् ॥ ६२ ॥ वचोगुप्तिममोगुप्तिरीर्यासमितिरेव च । ग्रहनिक्षेपसमितिः पानान्नमवलोकितम् ॥ ६३ ॥ इत्येताः परिकीर्त्यन्ते प्रथमे पञ्च भावनाः । क्रोधलोभपरित्यागौ हास्यभीरुत्ववर्जने ॥ १४॥ अनुवीचिवचश्येति द्वितीये पञ्च भावनाः । शून्यागारेषु वसनं विमोचितगृहेषु च ॥ ६५ ॥ उपरोधाविधानं च भैश्यशुद्धियथोदिता। ससधर्माऽविसम्वादस्तृतीये पञ्च भावनाः ॥ ६६ ॥ स्त्रीणां रागकथाश्रावो रमणीयाङ्गवीक्षणम् । पूर्वरत्याः स्मृतिश्चैव वृष्येष्टरसवर्जनम् ॥ ६७ ॥ शरीरसंस्क्रियात्यागश्चतुर्थे पञ्च भावनाः । मनोज्ञा अममोशाश्च ये पञ्चेन्द्रियगोचराः ॥ ६८ ॥ रागद्वेषोज्झनाम्येषु पञ्चमे पञ्च भावनाः । इह व्यपायहेतुत्वममुत्रावद्यहेतुताम् ॥ ६९ ॥ हिंसादिषु विपक्षेषु भावयेञ्च समन्ततः । स्वयं दुखस्वरूपत्वाद्दुःखहेतुस्वतोऽपि च ॥ ७० ॥
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तत्वार्थसारः ।
हेतुत्वाद्दुःखहेतूनामिति तत्त्वपरायणः । हिंसादीन्यथवा नित्यं दुःखमेवेति भावयेत् ॥ ७१ ॥ सत्त्वेषु भावयेन्मैत्रीं मुदितां गुणशालिषु । क्लिश्यमानेषु करुणामुपेक्षां वामदृष्टिषु ॥ ७२ ॥ संवेगसिद्धये लोकस्वभावं सुष्ठु भावयेत् । वैराग्यार्थं शरीरस्य स्वभावं चापि चिन्तयेत् ॥ ७३ ॥ द्रव्यभावस्वभावानां प्राणानां व्यपरोपणम् । प्रमत्तयोगतो यत्स्यात् सा हिंसा संप्रकीर्त्तिता ॥ ७४ ॥ प्रमत्तयोगतो यत्स्यादसदर्थाभिभाषणम् ।
समस्तमपि विज्ञेयमनृतं तत्समासतः ॥ ७५ ॥ प्रमत्तयोगतो यत्स्याददत्तार्थ परिग्रहः । प्रत्येयं तत्खलु स्तेयं सर्वे संक्षेपयोगतः ॥ ॥ ७६ ॥ मैथुनं मदनोद्रेकादब्रह्मपरिकीर्त्तितम् ।
ममेदमिति संकल्परूपा मूर्च्छा परिग्रहः ॥ ७७ ॥ मायानिदानमिथ्यात्वशल्याभावविशेषतः । आहिंसादिवतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ॥ ७८ ॥ अनगारस्तथाऽगारी स द्विधा परिकथ्यते । महाव्रतोऽनगारः स्यादगारी स्यादणुव्रतः ॥ ७९ ॥ दिग्देशाऽनर्थदण्डेभ्यो विरतिः समता तथा । सप्रोषधोपवासश्व संख्याभोगोपभोगयोः ॥ ८० ॥ अतिथेः संविभागश्च व्रतानीमानि गेहिनः । अपराण्यपि सप्त स्युरित्यमी द्वादश व्रताः ॥ ८१ ॥ अपरं च व्रतं तेषामपश्चिममिहेष्यते । अन्वे सल्लेखनादेव्याः प्रीत्या संसेवनं च यत् ॥ ८२ ॥
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१४२
प्रथम गुच्छक ।
सम्यक्त्वव्रतशीलेषु तथासल्लेखनाविधौ । अतीवाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ ८३॥ शङ्कनं काङ्कणं चैव तथा च विचिकित्सनम् । प्रशंसा परदृष्टीनां संस्तवश्चेति पञ्च ते ॥ ४॥ बन्धो वधस्तथा छेदो गुरुभाराधिरोपणम् । अन्नपाननिषेधश्च प्रत्येया इति पञ्च ते ॥ ८५ ॥ कूटलेखो रहोभ्याख्या न्यासापहरणं तथा। मिथ्योपदेशसाकारमन्त्रभेदौ च पञ्च ते ॥ ८६ ॥ स्तेनाहृतस्य ग्रहणं तथा स्तेनप्रयोजनम् । व्यवहारप्रतिच्छन्दैर्मानोन्मानोनवृद्धता ॥ ८७ ॥ अतिक्रमो विरुद्ध च राज्ये सन्तीति पञ्च ते । अनक्रीडितं तीव्रोऽभिनिवेशो मनोभुवः ॥ ८८ ॥ इत्वोर्गमनं चैव संगृहीतागृहीतयोः। तथा परविवाहस्य करणं चेति पञ्च ते ।। ८१ ॥ हिरण्यस्वर्णयोः क्षेत्रवास्तुनोधनधान्ययोः । दासीदासस्य कुप्यस्य मानाधिक्यानि पञ्च ते ॥ ९० ॥ तिर्यग्व्यतिक्रमस्तद्वदध ऊर्ध्वमतिक्रमो। तथा स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्च ते ॥ ९१ ।। अस्मिन्नानयनं देशे शब्दरूपानुपातनम् । प्रेष्यप्रयोजनं क्षेपः पुद्गलानां च पञ्च.ते ॥ ९२ ॥ असमीक्ष्याधिकरणं भोगानर्थक्यमेव च । तथा कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याणि च पञ्च ते ॥ ९३ ॥ त्रीणि दुःप्रणिधानानि वाङ्मनःकायकर्मणाम् । अनादरोऽनुपस्थानं स्मरणस्येति पञ्च ते ॥ ९४ ॥
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तत्त्वार्थसारः ।
संस्तरोत्सर्जनादानमसंदृष्टापमार्जितम् । अनादरोऽनुपस्थानं स्मरणस्येति पञ्च ते ॥ ९५ ॥ सचित्तस्तेन सम्बन्धस्तेनसम्मिश्रितस्तथा । दुःपक्वोऽभिषवश्चैवमाहाराः पञ्च पञ्च ते ॥ ९६ ॥ कालव्यतिक्रमोऽन्यस्य व्यपदेशोऽथ मत्सरः । सचित्ते स्थापनं तेन पिधानं चेति पञ्च ते ॥ ९७ ॥ पञ्चत्वजीविताशंसे तथा मित्रानुरञ्जनम् । सुखानुबन्धनं चैव निदानं चेति पञ्च ते ॥ ९८ ॥ परात्मनोरनुग्राही धर्म वृद्धिकरत्वतः ।
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स्वस्योत्सर्जन मिच्छन्ति दानं नाम गृहिव्रतम् ॥ ९९ ॥ विधिद्रव्यविशेषाभ्यां दातृपात्रविशेषतः ।
ज्ञेयो दानविशेषस्तु पुण्यास्त्रवविशेषकृत् ॥ १०० ॥ हिंसानृतचुराब्रह्मसङ्गसंन्यासलक्षणम् । व्रतं पुण्यास्त्रवोत्थानं भावेनेति प्रपञ्चितम् ॥ १०१ ॥ हिंसानृतचुराब्रह्मसङ्गसंन्यासलक्षणम् । चिन्त्यं पापात्रवोत्थानं भावेन स्वयमवतम् ॥ १०२ ॥ हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः । हेतू शुभाशुभ भाव कार्ये चैव सुखासुखे ॥ १०३ ॥ संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः ।
न नाम. निश्चये नास्ति विशेषः पुण्यपापयोः ॥ १०४ ॥ इतीहास्रवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेषतत्त्वः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ १०५ ॥
इत्यास्त्रवतत्त्ववणनम् ॥ ४ ॥
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ફ્૪૪
प्रथम गुच्छक ।
अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशित जगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान्मूर्ध्ना बन्धतत्वं प्ररूप्यते ॥ १ ॥ बन्धस्य हेतवः पञ्च स्युमिध्यात्वमसंयमः । प्रमादश्च कषायश्च योगश्चेति जिनोदिताः ॥ २ ॥ ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च । आज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वैनयिकं भवेत् ॥ ३ ॥ यत्राभिसन्निवेशः स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ॥ ४ ॥ किं वा भवेन्न वा जैनो धर्मोऽहिंसादिलक्षणः । इति यत्र मतिद्वैधं भवेत्सांशयिकं हि तत् ॥ ५ ॥ सग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो ग्रासाहारी च केवली । रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम् ॥ ६ ॥ हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम् ।
यथा पशुवध धर्मस्तदाज्ञानिकमुच्यते ॥ ७ ॥ सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैव च । यत्र स्यात्समदर्शित्वं ज्ञेयं वैनयिकं हि तत् ॥ ८ ॥ षड्जीव काय पञ्चाक्षमनोविषयभेदतः । कथितो द्वादशविधः सर्वविद्भिरसंयमः ॥ ९ ॥ शुके तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञैः प्रमादः परिकीर्त्तितः ॥ १० ॥ षोडशैव कषायाः स्युनकषाया नवेरिताः । ईषद्भेदो न भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥ ११ ॥ चत्वारो हि मनोयोगा चाग्योगानां चतुष्टयम् । पञ्च द्वौ च वपुर्योगा योगाः पञ्चदशोदिताः ॥ १२ ॥
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तत्वार्थसारः ।
१५ ॥
यज्जीवः सकषायत्वात्कर्मणो योग्यपुद्गलान् । आदते सर्वतो योगात्स बन्धः कथितो जिनैः ॥ १३ ॥ न कर्मात्मगुणोऽमूर्तेस्तस्य बन्धाप्रसिद्धितः । अनुग्रहोपघातौ हि नामूर्त्तेः कर्त्तुमर्हति ॥ १४ ॥ औदारिकादिकार्याणां कारणं कर्म मूर्त्तिमत् । नामूर्त्तेन मूर्त्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते ॥ न च बन्धाप्रसिद्धिः स्यान्मूर्त्तेः कर्मभिरात्मनः । अमूर्त्तेरित्यनेकान्तात्तस्य मूर्त्तित्वसिद्धितः ॥ १६ ॥ अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥ १७ ॥ बन्धं प्रति भवत्यैक्यमन्योन्यानुप्रवेशतः । युगपद्वावितः स्वर्णरौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥ १८ ॥ तथा च मूर्त्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । नामूर्त्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी ॥ १९ ॥ गुणस्य गुणिनश्चैव न च बन्धः प्रसज्यते । निर्मुक्तस्य गुणत्यागे वस्तुत्वानुपपतितः ॥ २० ॥ प्रकृतिस्थितिबन्धौ द्वौ बन्धश्वानुभवाभिधः । तथा प्रदेशबन्धश्च ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः ॥ २१ ॥ ज्ञानदर्शनयो रोधौ वेद्यं मोहायुषी तथा । नामगोत्रान्तरायाश्च च मूलप्रकृतयः स्मृताः ॥ २२ ॥ अन्याः पञ्च नव द्वे च तथाष्टाविंशतिः क्रमात् । तस्रश्च त्रिसंयुक्ता नवतिर्द्वे च पञ्च च ॥ २३ ॥ मतिः श्रुतावधी चैव मनःपर्यय केवले । एषामावृत्तयो ज्ञानरोधप्रकृतयः स्मताः ॥ २४ ॥
१०
१४५
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१४६
प्रथमगुच्छक।
चतुर्णा चक्षुरादीनां दर्शनानां निरोधतः । दर्शनावरगाभिख्यं प्रकृतीनां चतुष्टयम् ॥ २५॥ निद्रानिद्रा तथा निद्रा प्रचलाप्रचला तथा। प्रचला स्त्यानगृद्धिश्व दृग्रोधस्य नव स्मृताः ॥ २६ ॥ द्विधा वेद्यमसद्वेद्यं सद्वेद्यं च प्रकीर्तितम् । प्रयः सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यगमिथ्यात्वभेदतः ॥ २७ ॥ क्रोधो मानस्तथा माया लोभोऽनन्तानुबन्धिनः। तथा त एव चाप्रत्याख्यानावरणसंशिकाः ॥ २८ ॥ प्रत्याख्यानरुधश्चैव तथा सज्वलनाभिधाः।। हास्यं रत्यरती शोको भयं सह जुगुप्सया ॥ २९ ॥ नारीपुंषण्ढवेदाश्च मोहप्रकृतयः स्मृताः। श्वाभ्रतिर्यग्नदेवायुर्भेदादायुश्चतुर्विधम् ॥ ३० ॥ चतस्रो गतयः पञ्च जातयः कायपञ्चकम् । अङ्गोपाङ्गत्रयं चैव निर्माणप्रकृतिस्तथा ॥ ३१ ॥ पञ्चधा बन्धनं चैव सङ्घातोऽपि च पञ्चधा। समादिचतुरस्रं तु न्यग्रोधं सातिकुब्जकम् ॥ ३२ ॥ वामनं हुण्डसंशं च संस्थानमपि षड्विधम् । स्याद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचमेव च ॥ ३३ ॥ नाराचमर्द्धनाराचं कीलकं च ततः परम् । तथा संहननं षष्ठमसंप्राप्तामृपाटिका ।। ३४ ॥ अष्टधा स्पर्शनामापि कर्कशं मृदु लघ्वपि । गुरु स्निग्धं तथा रूक्षं शीतमुष्णं तथैव च ॥ ३५ ॥ मधुरोऽम्लः कटुस्तिक्तः कषायः पञ्चधा रसः। वर्णाः शुक्लादयः पञ्च द्वौ गन्धौ सुरभीतरौ॥३६॥
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तत्त्वार्थसारः ।
श्वभ्रादिगतिभेदात्स्यादानुपूर्वीचतुष्टयम्। उपघातः परघातस्तथा गुरुलघुर्भवेत् ॥ ३७॥ उच्छ्वास आतपोद्योती शस्ताशस्ते नभोगती। प्रत्येकासपर्याप्तबादराणि शुभं स्थिरम् ॥ ३८ ॥ सुस्वरं सुभगादेयं यशःकीर्तिः सहेतरैः। तथा तीर्थकरत्वं च नामप्रकृतयः स्मृताः ॥ ३९ ॥ गोत्रकर्म द्विधा शेयमुच्चनीचविभेदतः।। स्यादानलाभवीर्याणां परिभोगोपभोगयोः ॥ ४ ॥ अन्तरायस्य वैचित्र्यादन्तरायोऽपि पञ्चधा । द्वे त्यक्त्वा मोहनीयस्य नाम्नः षड्विंशतिस्तथा ॥ ४१ ॥ सर्वेषां कर्मणां शेषा बन्धप्रकृतयः स्मृताः। अबन्धा मिश्रसम्यक्त्वे बन्धसङ्घातयोर्दश ॥ ४२ ॥ स्पर्श सप्त तथैका च गन्धेष्टौ रसवर्णयोः। वेद्यान्तराययोर्ज्ञानदृगावरणयोस्तथा ॥ ४३ ॥ कोटीकोट्यः स्मृतास्त्रिंशत्सागराणां परा स्थितिः । मोहस्य सप्ततिस्ताः स्युर्विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ ४४ ॥ आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागराणां परा स्थितिः। मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया वेद्यष्टौ नामगोत्रयोः॥ ४५ ॥ स्थितिरन्तर्मुहूर्तस्तु जघन्या शेषकर्मसु । विपाकः प्रागुपात्तानां यः शुभाशुभकर्मणाम् ॥ ४६॥ असावनुभवो शेयो यथा नाम भवेच्च सः। घनाङ्गलस्थासङ्ख्येयभागक्षेत्रावगाहिनः ॥४७॥ एकद्वित्र्याद्यसङ्ख्येयसमयास्थितिकांस्तथा। उष्णरूनहिमस्निग्धान्सर्ववर्णरसान्वितान् ॥४८॥
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१४८
प्रथमगुच्छक।
सर्वकर्मप्रकृत्यान् सर्वेष्वपि भवेषु यत् । द्विविधान् पुद्गलस्कन्धान् सूक्ष्मान् योगविशेषतः ॥ ४९ ॥ सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशकान् । आत्मसात्कुरुते जीवः सः प्रदेशोऽभिधीयते ॥ ५० ॥ शुभाशुभोपयोगाख्यनिमित्तो द्विविधस्तथा। पुण्यपापतया द्वेधा सर्व कर्म प्रभिद्यते ॥ ५१ ॥ उच्चैर्गोवं शुभायूंषि सद्वेद्यं शुभनाम च । द्विचत्वारिंशदित्येवं पुण्यप्रकृतयः स्मृताः ।। ५२ ॥ नीचैर्गोत्रमसद्वेद्यं श्वभ्रायुर्नाम चाशुभम्। यशीतिर्घातिभिः सार्द्ध पापप्रकृतयः स्मृताः ॥ ५३ ॥ इत्येतद्वन्धतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते।। शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ ५४॥
. इति बन्धतत्त्ववर्णनम् ॥ ५ ॥
अनन्तकेवलज्योति प्रकाशितजगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना संवरः संप्रचक्ष्यते ॥१॥ यथोक्तानां हि हेतूनामात्मनः सति सम्भवे । आस्रवस्य निरोधो यः स जिनैः संवरः स्मृतः ॥२॥ गुप्तिः समितयो धर्मः परीषहजयस्तपः । अनुप्रेक्षाश्च चारित्रं सन्ति संवरहेतवः ॥ ३ ॥ योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिरित्यभिधीयते । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा ॥४॥ तत्र प्रवर्तमानस्य योगानां निग्रहे सति । तन्निमित्तास्रवाभावात्सद्यो भवति संवरः ॥५॥
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तत्त्वार्थसारः।
ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गभेदतः । पञ्चगुप्तावशक्तस्य साधोः समितयः स्मृताः ॥ ६॥ मार्गोद्योतोपयोगानामालम्ब्यस्य च शुद्धिभिः । , गच्छतः सूत्रमार्गेण स्मृतेर्या समितिर्यतेः॥७॥ व्यलीकादिविनिर्मुक्तं सत्यासत्यामृषाद्वयम् । वदतः सूत्रमार्गेण भाषासमितिरिष्यते ॥ ८॥ पिण्ड तथोपधि शय्यामुद्गमोत्पादनादिना। साधोः शोधयतः शुद्धा ह्येषणा समितिर्भवेत् ॥ ९॥ सहसादृष्टदुभ्रष्टाप्रत्यवेक्षणदूषणम् । त्यजतः समितिज्ञेयादाननिक्षेपगोचरा ॥ १० ॥ समितिर्दर्शितानेन प्रतिष्ठापनगोचरा। त्याज्यं मूत्रादिकं द्रव्यं स्थण्डिले त्यजतो यतेः ॥ ११॥ इत्थं प्रवर्तमानस्य न कर्माण्यास्रवन्ति हि। असंयमनिमित्तानि ततो भवति संवरः ॥ १२॥ क्षमामृदृजुते शौचं स सत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिञ्चनता ब्रह्म धर्मो दशविधः स्मृतः ॥ १३ ॥ क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानामत्यन्तं सति सम्भवे । आक्रोशताडनादीनां कालुष्योपरमः क्षमा ॥ १४ ॥ अभावो योऽभिमानस्य परैः परिभवे कृते । जात्यादीनामनावेशान् मदानां मार्दवं हि तत् ॥ १५ ॥ वामनःकाययोगानामवक्रत्वं तदार्जवम् । परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः ॥ १६ ॥ चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते । शानचारित्रशिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते ।
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१५०
प्रथमगुच्छक ।
धर्मोपबृंहणार्थं यत्साधु सत्यं तदुच्यते ॥ १७ ॥
( षट्पदम् )
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वधवर्जनम् । समिती वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः ॥ १८ ॥ परं कर्मक्षयार्थं यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम् । त्यागस्तु धर्मशास्त्रादिविश्राणनमुदाहृतम् ॥ १९ ॥ ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । अभिसन्धिनिवृत्तिर्या तदाकिञ्चन्यमुच्यते ॥ २० ॥ स्त्रीसंसक्तस्य शय्यादेरनुभूताङ्गनास्मृतेः । तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद्ब्रह्मचर्य हि वर्जनात् ॥ २१ ॥ इति प्रवर्तमानस्य धर्मे भवति संवरः । तद्विपक्षनिमित्तस्य कर्मणो नास्रवे सति ॥ २२ ॥ क्षुत्पिपासा च शीतोष्णदं शमत्कुणनग्नते । अरतिः स्त्री च चर्या च निषद्या शयनं तथा ॥ २३ ॥ आक्रोशश्च वधश्चैव याचनालाभयोर्द्वयम् । रोगश्व तृणसंस्पर्शस्तथा च मलधारणम् ॥ २४ ॥ असत्कारपुरस्कारं प्रज्ञाज्ञानमदर्शनम् ।
इति द्वाविंशतिः सम्यक् सोढव्याः स्युः परीषहाः ॥ २५ ॥ संवरो हि भवत्येतानसंक्लिष्टेन चेतसा । सहमानस्य रागादिनिमित्तास्रवरोधतः ॥ २६ ॥ तपो हि निर्जराहेतुरुत्तरत्र प्रचक्ष्यते । संवरस्यापि विद्वांसो विदुस्तन्मुख्यकारणम् ॥ २७ ॥ अनेककार्यकारित्वं न चैकस्य विरुद्धयते । दाहपाकादिहेतुत्वं दृश्यते हि विभावसोः ॥ २८ ॥
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तत्त्वार्थसारः।
१५१ अनित्यं शरणाभावो भवश्चकत्वमन्यता। अशौचमास्रवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ॥ २९ ॥ लोको दुर्लभता बोधिः स्वाख्यातत्वं वृषस्य च । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षाः प्रकीर्तिताः ॥ ३०॥ क्रोडीकरोति प्रथमं जातजन्तुमनित्यता। धात्री च जननी पश्चाद्धिग्मानुष्यमसारकम् ॥ ३१॥ उपघ्रातस्य घोरेण मृत्युव्याघ्रण देहिनः । देवा अपि न जायन्ते शरणं किमु मानवाः ॥ ३२॥ चतुर्गतिघटीयन्त्रे सनिवेश्य घटीमिव । आत्मानं भ्रमयत्येष हा कष्टं कर्मकक्षिकः ॥ ३३ ॥ कस्थाऽपत्यं पिता कस्य कस्याम्बा कस्य गेहिनी। एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे ॥ ३४ ॥ अन्यः सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनम् । हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोजनाः ॥ ३५ ॥ नानाकृमिशताकीर्णे दुर्गन्धे मलपूरिते। आत्मनश्च परेषां च व शुचित्वं शरीरके ॥ ३६॥ कर्माम्भोभिः प्रपूर्णोऽसौ योगरन्ध्रसमाहृतः। हा दुरन्ते भवाम्भोधौ जीवो मजति पोतवत् ॥ ३७॥ योगद्वाराणि रुन्धन्तः कपाटैरिव गुप्तिभिः । आपतद्भिर्न बाध्यन्ते धन्याः कर्मभिरुत्कटः ॥ ३८ ॥ गाढोपजीर्यते यद्वदामदोषो विसर्पणात् । तद्वनिर्जीर्यते कर्म तपसा पूर्वसञ्चितम् ॥ ३९ ॥ नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवर्त्मनि । वसतिस्थानवत्कानि कुलान्यध्युषितानि न ॥४०॥
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१५२
प्रथमगुच्छक।
मोक्षारोहणनिश्रेणिः कल्याणानां परम्परा। अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा ॥४१॥ क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुङ्गवैः। अयमालम्बनस्तम्भो भवाम्भोधौ निमजताम् ॥ ४२ ॥ एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः।। ततो हि निःप्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥४३॥ वृत्तं सामायिकं ज्ञेयं छेदोपस्थापनं तथा। परिहारं च सूक्ष्मं च यथाख्यातं च पञ्चमम् ॥ ४४ ॥ प्रत्याख्यानमभेदेन सर्वसावद्यकर्मणः । नित्यं नियतकालं वा वृत्तं सामायिकं स्मृतम् ॥ ४५ ॥ यत्र हिंसादिभेदेन त्यागः सावद्यकर्मणः । व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ॥ ४६॥ विशिष्टपरिहारेण प्राणिघातस्य यत्र हि । शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ॥ ४७॥ कषायेषु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेष्वखिलेषु वा। स्यात्सूक्ष्मसाम्परायाख्यं सूक्ष्मलोभवतो यतेः ॥ ४८॥ क्षयाचारित्रमोहस्य कात्स्न्येनोपशमात्तथा। यथाख्यातमथाख्यातं चारित्रं पञ्चमं जिनैः ॥ ४९ ॥ सम्यक्चारित्रमित्येतद्यथास्वं चरतो यतेः । सर्वास्रवनिरोधः स्यात्ततो भवति संवरः ॥ ५० ॥ तपस्तु वक्ष्यते तद्धि सम्यग्भावयतो यतेः। स्नेहक्षयात्तथा योगरोधाद्भवति संवरः ॥ ५१ ॥ इति संवरतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते। शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ ५२ ॥
इति संवरतत्त्ववर्णनम् ॥ ६॥ .. .
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तत्त्वार्थसार।
अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशितजगत्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना निर्जरातत्त्वमुच्यते ॥१॥ उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा। आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा ॥२॥ अनादिबन्धनोपाधिविपाकवशवर्तिनः ।। कारब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा ॥३॥ अनुदीर्ण तपःशक्त्या यत्रोदीर्णोदयावलीम् । प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा ॥४॥ यथाम्रपनसादीनि परिपाकमुपायतः । अकालेऽपि प्रपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनाम् ॥ ५॥ अनुभूय क्रमात्कर्मविपाकप्राप्तमुज्झताम् । प्रथमास्त्येव सर्वेषां द्वितीया तु तपस्विनाम् ॥ ६॥ तपस्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्याभ्यन्तरभेदतः। प्रत्येकं षड्विधं तच्च सर्व द्वादशधा भवेत् ॥ ७॥ बाह्यं तत्रावमौदर्यमुपवासो रसोज्झनम् । वृत्तिसङ्ख्या वपुःक्लेशो विविक्तशयनासनम् ॥ ८॥ . सर्वं तदवमोदर्यमाहारं यत्र हापयेत् । एकद्वित्र्यादिभिर्मासैराग्रासं समयान्मुनिः ॥९॥ . मोक्षार्थ त्यज्यते यस्मिन्नाहारोऽपि चतुर्विधः। उपवासः स तद्भेदाः सन्ति षष्ठाष्टमादयः ॥ १०॥ .. रसत्यागो भवेत्तलक्षीरेक्षुदधिसर्पिषाम् । एकद्वित्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ॥ ११ ॥ एकवस्तुदशाङ्गारपानमुद्गादिगोचरः । सङ्कल्पः क्रियते यत्र वृत्तिसङ्ख्या हि तत्तपः ॥ १२ ॥
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प्रथमगुच्छक।
अनेकप्रतिमास्थानं मौनं शीतसहिष्णुता । आतपस्थानमित्यादिकायक्लेशो मतं तपः ॥ १३ ॥ जन्तुपीडाविमुक्तायां वसतौ शयनासनम् । सेवमानस्य विज्ञेयं विविक्तशयनासनम् ॥ १४ ॥ स्वाध्यायः शोधनं चैव वैयावृत्यं तथैव च । व्युत्सगों विनयश्चैव ध्यानमाभ्यन्तरं तपः ॥ १५ ॥ वाचनापृच्छनाम्नायस्तथा धर्मस्य देशना । अनुप्रेक्षा च निर्दिष्टः स्वाध्यायः पञ्चधा जिनः ॥ १६ ॥ वाचना सा परिज्ञेया यत्याने प्रतिपादनम् । ग्रन्थस्य वाथ पद्यस्य तत्त्वार्थस्योभयस्य वा ॥ १७ ॥ तत्संशयापनोदाय तनिश्चयबलाय वा। परं प्रत्यनुयोगाय प्रच्छनां तद्विदुर्जिनाः ॥ १८ ॥ आम्नायः कथ्यते घोषो विशुद्धं परिवर्तनम्। कथाधर्माद्यनुष्ठानं विज्ञेया धर्मदेशना ॥ १९ ॥ साधोरधिगतार्थस्य योऽभ्यासो मनसा भवेत् । अनुप्रेक्षेति निर्दिष्टः स्वाध्यायः स जिनेशिभिः ॥२०॥ आलोचनं प्रतिक्रान्तिस्तथा तदुभयं तपः। व्युत्सर्गश्च विवेकश्च तथोपस्थापना मता ॥ २१ ॥ परिहारस्तथाच्छेदः प्रायश्चित्तभिदा नव । आलोचनं प्रमादस्य गुरवे विनिवेदनम् ॥ २२ ॥ अभिव्यक्तप्रतीकारं मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिक्रान्तिस्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् ॥ २३ ॥ भवेत्तपोऽवमोदर्य वृत्तिसङ्ख्यादिलक्षणम् । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः परिभाषितः ॥२४॥
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तत्त्वार्थसारः।
१५५ अन्नपानौषधीनां तु विवेकः स्थाद्विवेचनम् ।। पुनर्दीक्षाप्रदानं यत्सा घुपस्थापना भवेत् ॥ २५ ॥ परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनम् । प्रव्रज्याहापनं छेदो मासपक्षदिनादिना ॥ २६ ॥ सूर्योपाध्यायसाधूनां शैक्ष्यग्लानतपस्विनाम् । कुलसङ्घमनोज्ञानां वैयावृत्यं गणस्य च ॥ २७ ॥ व्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेषां सम्यग विधीयते । स्वशक्त्या यत्प्रतीकारो वैयावृत्यं तदुच्यते ॥२८॥ बाह्यान्तरोपधित्यागाद् व्युत्सर्गो द्विविधो भवेत् । क्षेत्रादिरुपधिर्बाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः॥ २९ ॥ .. दर्शनज्ञानविनयौ चारित्रविनयोऽपि च । तथोपचारविनयो विनयः स्याञ्चतुर्विधः ॥ ३०॥ यत्र निःशङ्कितत्वादिलक्षणोपेतता भवेत् । श्रद्धाने सप्ततत्त्वानां सम्यक्त्वविनयः स हि ॥ ३१ ॥ ज्ञानस्य ग्रहगाभ्यासमरगादीनि कुर्वतः। वहुमानादिभिः सार्द्ध ज्ञानस्य विनयो भवेत् ॥ ३२ ॥ : दर्शनज्ञानयुक्तस्य या समीहितचित्तता। चारित्रं प्रति जायेत चारित्रविनयो हि सः॥३३॥ अभ्युत्थानानुगमनं वन्दनादीनि कुर्वतः। आचार्यादिषु पूज्येषु विनयो ह्यौपचारिकः ॥ ३४॥ आर्त रौद्रं च धयं च शुक्लं चेति चतुर्विधम् । ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽङ्गमुभयं भवेत् ॥ ३५ ॥ प्रियभ्रंशेऽप्रियप्राप्तौ निदाने वेदनोदये । आर्त कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ॥ ३६॥ ,
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१५६
प्रथमगुच्छक ।
हिंसायामनृते स्तेये तथा विषयरक्षणे । रौद्र ं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ॥ ३७ ॥ एकाग्रत्वेऽतिचिन्ताया निरोधो ध्यानमिष्यते । अन्तर्मुहर्त्ततस्तच्च भवत्युत्तमसंहतेः ॥ ३८ ॥ आज्ञापायं विपाकानां विवेकाय च संस्थितेः । मनसः प्रणिधानं यद्धर्मध्यानं तदुच्यते ॥ ३९ ॥ प्रमाणीकृत्य सार्वशीमाज्ञामर्थावधारणम् । गहनानां पदार्थानामाज्ञाविचयमुच्यते ॥ ४० ॥ कथं मार्ग प्रपद्येरन्नमी उन्मार्गतो जनाः । अपायमिति या चिन्ता तद्वायविचारणम् ॥ ४१ ॥ द्रव्यादिप्रत्ययं कर्म फलानुभवनं प्रति । भवति प्रणिधानं यद्विपाकविचयस्तु सः ॥ ४२ ॥ लोकसंस्थानपर्याय स्वभावस्य विचारणम् । लोकानुयोगमार्गेण संस्थानविचयो भवेत् ॥ ४३ ॥ शुक् पृथक्त्वमाद्यं स्यादेकत्वं तु द्वितीयकम् । सूक्ष्मक्रियं तृतीयं तु तुर्य व्युपरतक्रियम् ॥ ४४ ॥ द्रव्याण्यनेकभेदानि योगैर्ध्यायति यत्त्रिभिः । शान्तमाहस्ततो ह्येतत्पृथक्त्वमिति कीर्तितम् ॥ ४५ ॥ श्रुतं यतो वितर्कः स्याद्यतः पूर्वार्थशिक्षितः । पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्क ततो हि तत् ॥ ४६ ॥ अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचारः सङ्क्रमो मतः । वीचारस्य हि सद्भावात् सवीचारमिदं भवेत् ॥ ४७ ॥ द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च । ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत् ॥ ४८ ॥
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तत्त्वार्थसारः ।
श्रुतं यतो वितर्कः स्याद्यतः पूर्वार्थशिक्षितः । एकत्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्क ततो हि तत् ॥ ४९ ॥ अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचारः सङ्कमो मतः । वीचारस्य सद्भावादवीचारमिदं भवेत् ॥ ५० ॥ अवितर्क मवीचारं सूक्ष्मकायावलम्बनम् । सूक्ष्मक्रियं भवेद्ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥ ५१ ॥ काययोगेऽतिसूक्ष्मे तदर्त्तमानो हि केवली । शुक्लं ध्यायति संरोद्धुं काययोगं तथाविधम् ॥ ५२ ॥ अवितर्क मवीचारं ध्यानं व्युपरत क्रियम् । परं निरुद्धयोगं हि तच्छैलेस्यमपश्चिमम् ॥ ५३ ॥ तत्पुना रुद्धयोगः सन् कुर्वन् कायायासनम् । सर्वज्ञः परमं शुक्लं ध्यायत्यप्रतिपत्ति तत् ॥ ५४ ॥ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संयतासंयतस्ततः । संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धिप्रवियोजकः ॥ ५५ ॥ दृग्मोहक्षपकस्तस्मात्तथोपशमकस्ततः । उपशान्तकषायोऽतस्ततस्तु क्षपको मतः ॥ ५६ ॥ ततः क्षीणकषायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिनः । दशैते क्रमतः सन्त्यसङ्ख्येयगुणनिर्जराः ॥ ५७ ॥ पुलाको वकुशो द्वेधा कुशीलो द्विविधस्तथा । निर्ग्रन्थः स्नातकश्चैव निर्ग्रन्थाः पञ्च कीर्तिताः ॥५८॥ संयमश्रतलेश्याभिलिङ्गेन प्रतिसेवया । तीर्थस्थानोपपादैश्च विकल्पास्ते यथागमम् ॥ ५९ ॥ इति यो निर्जरातत्त्वं श्रद्धत्ते वेयुपेक्षते ।
शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ ६० ॥ इनि निर्जरातत्त्वम् ।
१५७
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प्रथमगुच्छक ।
अनन्तकेवलज्योतिःप्रकाशितजगत्रयान् । प्रणितत्य जिनान्मू| मोक्षतत्त्वं प्राप्यते ॥१॥ अभावाद्वन्धहेतूनां बन्धनिर्जरया तथा । कृत्स्नकर्मप्रमोक्षो हि मोक्ष इत्यभिधीयते ॥२॥ बध्नाति कर्म सद्वेद्यं सयोगः केवली विदुः । योगाभावादयोगस्य कर्मबन्धो न विद्यते ॥ ३॥ ततो निर्जीर्णनिःशेषपूर्वसञ्चितकर्मणः । आत्मनः स्वात्मसंप्राप्तिर्मोक्षः सद्योऽवसीयते ॥ ४ ॥ तथोपशमकादीनां भव्यत्वस्य च संक्षयात् । मोक्षः सिद्धत्वसम्यक्त्वज्ञानदर्शनशालिनः ॥ ५॥ आद्यं भावान्तभावस्य कर्मबन्धनसन्ततः । अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्तबीजवत् ॥ ६॥ दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥ ७॥ अव्यवस्थानबन्धस्य गवादीनामिवात्मनः । कार्यकारणविच्छेदान्मिथ्यात्वादिपरिक्षये ॥८॥ जानतः पश्यतश्चोर्ध्व जगत्कारुण्यतः पुनः । तस्य बन्धप्रसङ्गेन सर्वानवपरिक्षयात् ॥९॥ अकस्माञ्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्षप्रसङ्गतः। बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान्मुक्तिप्राप्तेरनन्तरम् ॥ १० ॥ पातोऽपि स्थानबन्धत्वात्तस्य नास्रवतत्त्वतः । आस्रवाद्या न पात्रस्य प्रपातोऽधो ध्रुवं भवेत् ॥ ११ ॥ तथापि गौरवाभावान्न पातोऽस्य प्रसज्यते। वृन्तसम्बन्धविच्छेदे पतत्याम्रफलं गुरु ॥ १२ ॥
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तत्त्वार्थसारः।
अल्पक्षेत्रे तु सिद्धानामनन्तानां प्रसज्यते। परस्परोपरोधोऽपि नावगाहनशक्तितः ॥ १३॥ नानादीपप्रकाशेषु मूर्तिमत्स्वपि दृश्यते । न विरोधः प्रदेशेऽल्पे हन्तामूर्तेषु किं पुनः ॥ १४ ॥ आकारभावतोऽभावो न च तस्य प्रसज्यते। .. अनन्तरपरित्यक्तशरीराकारधारिणः ।। १५॥ शरोरानुविधायित्वे तत्तद्भावाद्विसर्पणम् । लोकाकाशप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः ॥ १६ ॥ शरावचन्द्रशालादिद्रव्यावष्टम्नयोगतः । अल्पो महांश्च दीपस्य प्रकाशो जायते यथा ॥ १७ ॥ संहारे च विसर्प च तथात्मानात्मयोगतः। तदभावात्तु मुक्तस्य न संहारविसर्पणे ॥ १८ ॥ कस्यचिच्छृङ्खलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात् । अवस्थानं न मुक्तानामूर्ध्वव्रज्यात्मकत्वतः ॥ १९ ॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंयुक्तस्यात्मनो भृशम् । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ॥२०॥ पूर्वाजितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कात्स्न्ये न मोहनीयं प्रहीयते ॥ २१ ॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत्त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ २२ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा बालो विनश्यति । तथा कर्मक्षयं याति मोहनीये क्षयं गते ॥ २३ ॥ ततः क्षीणचतुःकर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धननिर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ॥ २४ ॥ .
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१६०
प्रथमगुच्छक।
शेषकर्मफलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली ॥ २५ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्व निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वहिनिरुपादानसन्ततिः ॥ २६ ॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वाद्वन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः ॥ २७ ॥ कुलालचक्रं डोलायामिषौ चापि यथेष्यते। पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ २८ ॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टाऽप्स्वलाम्बुनः । कर्मबन्धविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ २९ ॥ एरण्डस्फुटदेलासु बन्धच्छेदाद्यथा गतिः। कर्मबन्धनविच्छेदाजीवस्यापि तथेष्यते ॥ ३०॥ यथास्तिर्यगूधं च लोष्टवाय्वग्निवीचयः। स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोर्ध्वगतिरात्मनाम् ॥ ३१ ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः। अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥ ३२ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच प्रयोगाश्च तदिष्यते ॥ ३३ ॥ अधस्तियक्तथोद्ध्वं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ।। ३४ ॥ द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुस्पत्त्यारम्भवीचयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ॥ ३५ ॥ उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह। युगपद्भवतो यद्वत्तनिर्वाणकर्मणोः ॥ ३६ ॥
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तत्त्वार्थसारः।
शानावरणहानान्ते केवलज्ञानशालिनः । दर्शनावरणच्छदादुद्यत्केवलदर्शनाः ॥ ३७॥ वेदनीयसमुच्छेदादव्याबाधत्वमाश्रिताः । मोहनीयसमुच्छेदात्सम्यक्त्वमचलं श्रिताः ॥ ३८॥ आयुःकर्मसमुच्छेदात्परमं सौक्ष्म्यमाश्रिताः। नामकर्मसमुच्छेदादवगाहनशालिनः ॥ ३९ ॥ गोत्रकर्मसमुच्छेदात्सदाऽगौरवलाघवाः । अन्तरायसमुच्छेदादनन्तवीर्यमाश्रिताः ॥ ४०॥ काललिङ्गगतिक्षेत्रतीर्थज्ञानावगाहनैः । बुद्धवोधितचारित्रसङ्ख्याल्पबहुतान्तरैः ॥ ४१ ॥ प्रत्युत्पन्ननयादेशात्ततः प्रज्ञापनादपि । अप्रमत्तबुधैः सिद्धाः साधनीया यथागमम् ॥४२॥ तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शने । सम्यक्त्वसिद्धतावस्था हेत्वभावाच्च निःक्रियाः॥४३॥ ततोऽप्यूर्द्धगतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परं ॥४४॥ संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अन्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः॥४५॥ स्यादेतदशरीरस्य जन्तोनष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्युत्तरं शृणु ॥ ४६॥ लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ॥४७॥ सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ॥४८॥
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प्रथम गुच्छक ।
पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मकशविमोहाच मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥ ४९ ॥ सुषुप्तावस्था तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्वात्सुखातिशयतस्तथा ॥ ५० ॥ श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । मोहोत्पत्तिविकाराच्च दर्शनघ्नस्य कर्मणः ॥ ५१ ॥ लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तद्येन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ॥ ५२ ॥ लिङ्गप्रसिद्धे सामान्यमनुमानापमानयोः । अत्यन्तं चाप्रसिद्धं यत्तत्तेनानुपमं स्मृतम् ॥ ५३ ॥ प्रत्यक्षं तद्भगवतामर्हतां तैः प्रभाषितम् । गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न च्छद्मस्थपरीक्षया ॥ ५४ ॥ इत्यं तन्मोक्षतस्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेषतत्त्वैः समषभिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ॥ ५५ ॥ इति मोक्षतत्त्ववर्णनम् ।
१६२
उपसंहारः प्रमाणनयनिक्षेप निर्देशादिसदादिभिः ।
सप्ततत्त्वमिति ज्ञात्वा मोक्षमार्ग समाश्रयेत् ॥ १ ॥ निश्वयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ २ ॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥ ३ ॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना ।
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तत्त्वार्थसारः ।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ ४ श्रद्दधानः परद्रव्यं बुद्ध्यमानस्तदेव हि । तदेवेोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः ॥ ५ ॥ स्वद्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुद्ध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः ॥ ६ ॥ आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थ दर्शनचारित्रमोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥ ७ ॥ पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८ ॥ पश्यति स्वस्वरूपं यं जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ९ ॥ दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १० ॥ यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ११ ॥ यस्मात्पश्यति जानाति स्वं स्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १२ ॥ यस्य पश्यति जानाति स्वरूपस्य चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १३ ॥ यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे चरत्यपि । दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १४ ॥ ये स्वभावाद्दशिज्ञप्तिचर्या रूपक्रियात्मकाः । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १५ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रगुणानां य इहाश्रयः ।
१६३
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प्रथम गुच्छुक ।
दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ १६ ॥ दर्शनशानचारित्रपर्यायाणां य आश्रयः ।
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ १७ ॥
दर्शनज्ञानचारित्रप्रदेशा ये प्ररूपिताः ।
दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ १८ ॥
१६४
१९ ॥
दर्शनज्ञानचारित्रागुरुलध्वाह्वया गुणाः । दर्शनशानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ दर्शनज्ञानचारित्रध्रौव्योत्पादव्ययास्तु ते । दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ २० ॥
स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपः पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः । एको ज्ञाता सर्वदैवाद्वितीयः स्याद्द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमागः ॥ २१ ॥ तत्त्वार्थसारमिति यः समधिर्विदित्वा
निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निःप्रकम्पः ।
संसारबन्धमवधूय स धृतमोह
चैतन्यरूपमचलं शिवतत्त्वमेति ॥ २२ ॥ वर्णाः पदानां कर्त्तारो वाक्यानां तु पदावलिः । वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम् ॥ २३ ॥
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरीणां कृतिः तत्त्वार्थसारो नाम मोक्षशास्त्रं
समाप्तम् ।
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श्रीमद्देवसेनविरचिता आलापपद्धतिः।
(७) गुणानां विस्तरं वक्ष्ये स्वभावानां तथैव च। पर्यायाणां विशेषेण नत्वा वीरं जिनेश्वरम् ॥ १ ॥
आलापपद्धतिर्वचनरचनाऽनुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्य. ते। सा च किमर्थम् ? द्रव्यलक्षणसिद्ध्यर्थम् स्वभावसिद्यः र्थश्च । द्रव्याणि कानि ? जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि । सद्व्यलक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । इति द्र व्याधिकारः। ___ लक्षणानि कानि ? अस्तित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं, अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः प्रत्येकमष्टावष्टौ सर्वेषाम् । ..
[एकैकद्रव्ये अष्टौ अष्टौ गुणाः भवन्ति । जीवद्रव्ये अचे. तनत्वं मूर्त्तत्वंच नास्ति, पुद्गलद्रव्ये चेतनत्वममूर्तत्वंच ना. स्ति, धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति । एवं द्विद्विगुणवर्जिते अष्टौ अष्टौ गुणाः प्रत्येकद्रव्ये भवन्ति । ] ___ ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि स्पर्शरसन्धवर्णाः गतिहेतुत्वं स्थि. तिहेतुत्वमवगाहनहेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं भू. तत्वममूर्तत्वं द्रव्याणां षोडश विशेषगुणाः । षोडशविशेषगुणेषु जीवपुद्गलयोः षडिति । जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि
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प्रथम गुच्छक |
चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट् । पुलस्य स्पर्शरसगन्धवर्णाः मूतत्वमचेतनत्वमिति षट् । इतरेषां धर्माधर्माकाशकालामां प्र त्येकं त्रयो गुणाः । धर्मद्रव्ये गतिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते यो गुणाः । अधर्मद्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । आकाशद्रव्ये अवगाहनहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । कालद्रव्ये वर्त्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणाः । अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्वजात्यपेक्षया सामान्यगुणा विजात्यपेक्षया त एव विशेषगुणाः । इति गुणाधिकारः ।
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गुणविकारा: पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदा त् । अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्द्धिरूपाः षट्टानिरूपाः । अनन्तभागवृद्धिः असंख्यात भागद्धि, संख्यात भागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिः, एवं षड्वृद्धिरूपास्तथा अनन्तभागहानिः असंख्यात भागहानिः संख्यात भागहानिः, संख्यातगुणहानिः असंख्यातगुणहानिः, अनन्तगुणहानिः एवं षड्ढा. निरूपा ज्ञेयाः । विभावद्रव्यव्यञ्जन पर्यायश्चतुर्विधा नरनार कादिपर्यायाः अथवा चतुरशीतिलक्षा योनयः । विभावगुणव्यञ्जनपर्याया मत्यादयः । स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्वरमशरीरात्किञ्चिन्न्यूनसिद्ध पर्यायाः । स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याया अनन्तचतुष्टयस्वरूपा जीवस्य । पुद्गलस्य तु यणुकादयो विभा यद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः । रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादिविभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः । अविभागिपुद्गलपरमाणुः स्वभावद्रव्य व्यञ्जनपर्यायः । वर्णगन्धर सैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुण. व्यञ्जनपर्याय: ।
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आलापपद्धतिः ।
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अनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥ १ ॥ धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः । व्यञ्जनेन तु संबद्धौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ ॥ २ ॥ इति पर्यायाधिकारः । गुणपर्ययवद्रव्यम् । स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नि. त्यस्वभावः, अनित्यस्वभावः, एकस्वभावः, अनेकस्वभावः, भेदस्वभावः, अभेदस्वभावः, भव्यस्वभावः अभव्यस्वभावः, परमस्वभावः, द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः । चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः, मूर्त्तस्वभावः, अमूर्त्तस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अनेकप्रदेशस्वभावः, विभावस्वभावः, शुद्धस्वभावः अशुद्धस्वभावः, उपचरितस्वभावः, एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः । जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः, चेतनस्वभावः मूर्तस्वभावः, विभावस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अशुद्धस्वभाव एतैः पञ्चभिः स्वभावैर्विना धर्मादित्रयाणां षोडश स्वभावाः सन्ति । तत्र बहुप्रदेशं विना कालस्य पञ्चदश स्वभावाः । एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयांर्मताः ।
धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः ॥ ३ ॥
ते कुतो ज्ञेयाः ? प्रमाणनयविवक्षातः । सम्यग्ज्ञानं प्रमा. णम् । तद्वेधा प्रत्यक्षेतरभेदात् । अवधिमनः पर्ययावेक देशप्र त्यक्षौ । केवलं सकलप्रत्यक्षं । मतिश्रुते परोक्षे । प्रमाणमुक्तं । तद्वयवा नयाः ।
नयभेदा उच्यन्ते, -
णिच्छयववहारणया मूलमभेयाण याण सव्वाणं ।
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प्रथम गुच्छक ।
णिच्छय साहणहेओ दव्वयपज्जत्थिया मुणह ॥ ४॥ द्रव्यार्थिकः, पर्यायार्थिकः, नैगमः, सङ्ग्रहः, व्यवहारः, ऋजुसूत्रः, शब्दः, समभिरूढः, एवंभूत इति नव नयाः स्मृताः । उपनयाश्च कथ्यन्ते । नयानां समीपा उपनयाः । सद्भूतव्यव. हारः असद्भूतव्यवहारः उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपन. यात्रेधा ।
इदानीमेतेषां भेदा उच्यन्ते । द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः । कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवः सिद्धसदृक् शुद्धात्मा । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा द्रव्यं नित्यम् । भेदकल्पनानिरपेक्षः शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद्द्रव्यमभिन्नम् ।
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कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा | उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्ध द्रव्यार्थिको यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पादव्ययधौव्यात्मकम् । भेदकल्पनासापेक्षisशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो दर्शनशानादयो गुणाः । अन्वयद्रव्यार्थिको यथा-गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् । स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति । परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा-परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति । परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा -- ज्ञानस्वरूप आत्मा । अत्रानेकस्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभा वो गृहीतः ।
इति द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः ।
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आलापपद्धतिः।
अथ पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यन्ते,अनादिनित्यपर्यायार्थिको यथा पुद्गलपर्यायो नित्यो मे - दिः। सादिनित्यपर्यायार्थिको यथा-सिद्धपर्यायो नित्यः । सत्तागौणत्वेनोत्पादव्ययग्राहकस्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिः को यथा-समयं समयं प्रति पर्याया विनाशिनः। सत्तासापेक्षस्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको यथा-एकस्मिन् समये त्रयात्मकः पर्यायः। कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावो नित्यशुद्ध पर्यायार्थिको यथा-सिद्धपर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको. यथा-संसारिणामुत्पत्तिमरणे स्तः। इति पर्यायार्थिकस्य षड़ भेदाः।
नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् । अतीते वर्त: मानारोपणं यत्र स भूतनैगमो यथा-अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः। भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनैगमो यथा-अर्हन सिद्ध एव । कर्तुमारब्धमीषन्निष्प. नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो यथा-ओदनः पच्यते इति नैगमस्त्रेधा। ___ सङ्ग्रहो द्विविधः । सामान्य सङ्ग्रहो यथा--सर्वाणि द्रव्या. णि परस्परमविरोधीनि । विशेषसङ्ग्रहो यथा--सर्व जीवाः परस्परमविरोधिनः इति सङ्ग्रहोऽपि द्विधा। ___ व्यवहारोऽपि द्वेधा । सामान्यसङ्ग्रहभेदको व्यवहारो यथा--द्रव्याणि जीवाजीवाः। विशेषसङ्ग्रहभेदको व्यवहारो यथा--जीवाः संसारिणो मुक्ताश्व इति व्यवहारोऽपि द्वेधा।
ऋजुसूत्रो द्विविधः। सुक्ष्मणुसूत्रो यथा-एकसमयाव
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प्रथम गुच्छक ।
स्थायी पर्यायः । स्थूलसूत्रो यथा-- मनुष्यादिपर्यायास्तदायुः प्रमाणकालं तिष्ठन्ति इति ऋजुसूत्रोऽपि द्वेधा |
शब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः प्रत्येकमेकैका नयाः । शब्दनयो यथा दारा भार्या कलत्रं जलं आपः । समभिरूढनयो यथा गौः पशुः । एवंभूतनयो यथा -- इन्दतीति इन्द्रः । उक्ता अष्टाविंशतिर्नयभेदाः ।
उपनयभेदा उच्यन्ते-- सद्भूतव्यवहारो द्विधा । शुद्ध. सद्भूतव्यवहारो यथा -- शुद्धगुणशुद्धगुणिनोः शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायणोर्भेदकथनम् । अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथाऽशुद्धगुणाऽशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाऽशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् । इति सद्भुतव्यवहारोऽपि द्वेधा ।
असद्भूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्य सद्भूतव्यवहारो यथा-परमाणुर्बहुप्रदेशीति कथनमित्यादि । विजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा मूर्त्त मतिज्ञानं यतो मूर्त्तद्रव्येण जनितम् | स्वजातिविजात्यस भूतव्यवहारो यथा ज्ञेये जीवेऽजीवेज्ञानामिति कथनं ज्ञानस्य विषयात् । इत्यसद्भूतव्यवहारस्त्रेधा ।
उपचरिता सदभूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्युपचरितासभूतव्यवहारो यथा-पुत्रदारादि मम । विजात्युपचरिता सद्भूतव्यवहारो यथा वस्त्राभरणहेमरत्नादि मम । स्वजातिविजात्यु. पचरिता सद्भूतव्यवहारो यथा - देशराज्यदुर्गादि मम इत्युपचरितासभूतव्यवहारस्त्रेधा ।
सहभावा गुणाः क्रमवर्तिनः पर्यायाः । गुण्यन्ते पृथक्. क्रियन्ते द्रव्यं द्रव्याद्यैस्ते गुणाः । अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम् । वस्तुनो भावो वस्तुत्वम्, सामान्यविशेषात्मकं -
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आलापपद्धतिः।
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वस्तु । द्रव्यस्वभावो द्रव्यत्वम्। निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्या स्वभावविभावपयार्यान् द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवदिति द्रव्यम् । सद्रव्यलक्षणम्, सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत् । उत्पादव्ययध्राव्ययुक्तं सत् । प्रमंयस्य भावः प्रमेयत्वम् प्रमाणेन स्वपरस्वरूपपरिच्छेद्यं प्रमेयम् । अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वं । सूक्ष्मा वागगोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः ।
"सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः" ॥५॥ प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुः नावष्टब्धम् । चेतनस्य भावश्चेतनत्वम् चैतन्यमनुभवनम् ।
चैतन्यमनुभूतिः स्यात् सा क्रियारूपमेव च । क्रिया मनोवचःकायेष्वन्विता वर्तते ध्रुवम् ॥ ६ ॥ अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वमचैतन्यमननुभवनम् । मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् । इति गुणानां व्युत्पत्तिः। स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति एर्यायस्य व्युत्पत्तिः। स्वभावला. भादच्युतत्वादस्तिस्वभावः। परस्वरूपेणाभावान्नास्तिस्वभावः । निजनिजनानापर्यायेषु तदेवेदमिति द्रव्यस्योपलम्भान्नित्य. स्वभावः । तस्याप्यनेकपर्यायपरिणामित्वादनित्यस्वभावः । स्वभावानामेकाधारत्वादेकस्वभावः । एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्भादनेकस्वभावः । गुणगुण्यादिसंशाभेदाद् भेदस्वभावः । संज्ञासंख्यालक्षणप्रयोजनानि गुणगुण्याघेकस्वभावादभेदस्व. भावः । भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद् भव्यस्वभावः ।
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प्रथम गुच्छक।
कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकाराभवनादभव्यस्वभावः। उक्तश्च
"अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गासमण्णमण्णस्स । मेलंतावि य णिचं सगसगभावं ण विजहंति" ॥ ७॥ पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः । इति सामा. न्यस्वभावानां व्युत्पत्तिः । प्रदेशादिगुणानां व्युत्पत्तिश्चेतना. दिविशेषस्वभावानां च व्युत्पत्तिर्निगदिता । ___ धर्मापेक्षया स्वभावा गुणा न भवन्ति । स्वद्रव्यचतुष्टया. पेक्षया परस्परं गुणाः स्वभावा भवन्ति । द्रव्याण्यपि भवन्ति । स्वभावादन्यथाभवनं विभावः । शुद्धं केवलभावमशुद्धं तस्याः पि विपरीतम् । स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितस्वभावः । स द्वेधा-कर्मजस्वाभाविकभेदात् । यथा जीवस्य मूर्तत्वमचेतनत्वं यथा सिद्धानां परशता परदर्शकत्वं च । एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासम्भवो शेयः।
"दुर्नयैकान्तमारूढा भावानां स्वार्थिका हि ते । स्वार्थिकाश्च विपर्यस्ताः सकलङ्का नया यतः" ॥ ८ ॥ तत्कथं तथाहि-सर्वथैकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्य. वस्था-संकरादिदोषत्वात् तथा-सदूपस्य सकलशून्यता प्रसङ्गात्, नित्यस्यैकरूपत्वादेकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभाचे द्रव्यस्याप्यभावः । अनित्यपक्षेऽपि अनित्यरूपत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । एकस्वरूपस्यैकान्तेन विशेषाभावः, सर्व. थैकरूपत्वात् विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः ।
"निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच विशेषस्तद्वदेव हि" ॥९॥ इति शेयः ।
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आलापपद्धतिः।
अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावो निराधारत्वात् आधाराधेयाभावाच्च । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारत्वा. दक्रियाकारित्वाभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । अभेदपक्षेऽपि सर्वेषामेकत्वम् सर्वेषामेकत्वेऽर्थक्रिया. कारित्वाभाव अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः। भव्य. स्यैकान्तेन पारिणामिकत्वात् द्रव्यस्य द्रव्यान्तरत्वप्रसङ्गात् सङ्करादिदोषसम्भवात् । सङ्करव्यतिकरविरोधवैयधिकरण्यानवस्थासंशयाप्रतिपत्त्यभावाश्चेति । सर्वथाऽभव्यस्यैकान्तेऽपि तथा शून्यताप्रसङ्गात् स्वभावरूपस्यैकान्तेन संसाराभावः । विभावपक्षेऽपि मोक्षस्याप्यभावः । सर्वथा चैतन्यमेवेत्युक्ते स. र्वेषां शुद्धज्ञानचैतन्यावाप्तिः स्यात् , तथा सति ध्यानं ध्येयं ज्ञानं ज्ञेयं गुरुशिष्याद्यभावः । सर्वथाशब्दः सर्वप्रकारवाची, अथवा सर्वकालवाची, अथवा नियमवाची, वा अनेकान्तसा. पेक्षा वा ? यदि सर्वप्रकारवाची सर्वकालवाची अनेकान्तवाची वा सर्वादिगणे पठनात् सर्वशब्द एवंविधश्चत्तहि सिद्ध नः ल. मीहितम् ।अथवा नियमवाची चेत्तर्हि सकलार्थानां तव प्र. तीतिः कथं स्यात् ? नित्यः, आनित्यः, एकः, अनेकः, भेदः, अभेदः कथं प्रतीतिः स्यात् नियमितपक्षत्वात् । तथा चैतन्यपक्षे. ऽपि सकलचैतन्योच्छेदः स्यात्, मूर्तस्यैकान्तेनात्मनो मोक्षस्यावाप्तिः स्यात् । सर्वथाऽमूर्तस्यापि तथात्मनः संसारविलोपः स्यात् । एकप्रदेशस्यैकान्तेनाखण्डपरिपूर्णस्यात्मनोऽनेक कार्यकारित्व एव हानिः स्यात् । सर्वथाऽनेकप्रदेशत्वेऽपि तथा तस्यानर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यताप्रसङ्गात् । शुद्धस्यै. कान्तेनात्मनो न कर्ममलकलङ्कावलेपः सर्वथा निरञ्जनत्वात् ।
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प्रथम गुच्छक।
सर्वथाऽशुद्धकान्तेऽपि तथात्मनो न कदापि शुद्धस्वभावप्रस. ङ्गः स्यात् तन्मयत्वात् । उपचरितैकान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता स. म्भवति नियमितपक्षत्वात् । तथात्मनोऽनुपचरितपक्षेऽपि पर. शतादीनां विरोधः स्यात् । - "नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः ।
तच्च सापेक्षसिद्धर्थ स्यानयमिश्रितं कुरु" ॥ १० ॥ स्वद्रव्यादिग्राहकेणास्तिस्वभावः। परद्रव्यादिग्राहकेण ना. स्तिस्वभावः । उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यस्वभा वः । केनचित्पर्यायार्थिकनानित्यस्वभावः । भेदकल्पनानिरपेक्ष. णैकस्वभावः। अन्वयद्रव्यार्थिकनैकस्याप्यनेकद्रव्यस्वभावत्व म् । सद्भूतव्यवहारेण गुणगुण्यादिभिर्भेदस्वभावः। भेदक ल्पनानिरपेक्षेण गुणगुण्यादिभिरभेदस्वभावः। परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभावः । शुद्धाशुद्धपरमभावग्राहकेण चेतनस्वभावो जीवस्य । असद्भूतव्यवहारेण कनो. कर्मणोरपि चेतनस्वभावः। परमभावग्राहकेण कर्मनोकर्मणो रचेतनस्वभावः। - जीवस्याप्यसद्भुतव्यवहारेणाचेतनस्वभावः । परमभावग्राहकेण कर्मनोकर्मणोर्मू-स्वभावः । जीवस्याप्यसद्भूतव्यव. हारेण मूर्तस्वभावः । परमभावग्राहकण पुद्गलं विहाय इतरे. षाममूर्तस्वभावः । पुद्गलस्योपचारादपि नास्त्यमूर्त्तत्वम् । परमभावग्राहकेण कालपुद्गलाणूनामेकप्रदेशस्वभावत्वम् । भेद कल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् । भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । पुदूगलाणोरुपचारतो नानाप्रदेशत्वं न च कालाणोः
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आलापपद्धतिः।
१७५ स्निग्धरूक्षत्वाभावात् । अरूक्षत्वाचाणोरमूर्तपुद्गलस्यैकविंशतितमो भावो न स्यात् । परोक्षप्रमाणापेक्षयाऽसद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्त्तत्वं । पुद्गलस्य शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकेन वि. भावस्वभावत्वम् । शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभावः । अशुद्धद्रव्यार्थिकनाशुद्धस्वभावः । असद्भतव्यवहारेणोपचरितस्वभावः
"द्रव्याणां तु यथारूपं तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथाज्ञानेन संज्ञातं नयोऽपि हि तथाविधः" ॥ ११॥
इति नययोजनिका।
सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं, प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन शानेन तत्प्रमाणम् । तद्वेधा सविकल्पेतरभेदात् । सविकल्पं मानसं तञ्चतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमनःपर्ययरूपम् । नि. विकल्पं मनारहितं केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः। प्र. माणेन वस्तु संगृहीतार्थकांशो नय:, श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः, नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्राप्नोतीति वा नयः । स द्वेधा सविकल्पनिर्विकल्पभेदादिति नयस्य व्युत्पत्तिः । प्रमाणनययोनिक्षेप आरोपणं स नामस्थापनादिभेदेन चतुर्विध इति निक्षेपस्य व्युत्पत्तिः । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । शुद्धद्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिकः । अशुद्धद्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति अशुद्धद्रव्यार्थिकः । सामान्यगुणादयोऽन्वयरूपेण द्रव्यंद्रव्यमिति द्रवति व्यवस्थापयतीत्यन्वयद्रव्यार्थिकः । स्वद्रव्या. दिग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति स्वद्रव्यादिग्राहकः । परद्रव्यादि ग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति परद्रव्यादिग्राहकः । परमभाव.
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१७६
प्रथम गुच्छक ।
ग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति परमभावग्राहकः ।
इति द्रव्यार्थिकस्य व्युत्पत्तिः ।
. पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । अनादिमि. त्यपर्याय एवार्थःप्रयोजनमस्येत्यनादिनित्यपर्यायार्थिकः । सा. दिनित्यपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति सादिनित्यपर्यायार्थिकः । शुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिकः । अशुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिकः ।
इति पर्यायार्थिकस्य व्युत्पत्तिः ।
नैकं गच्छतीति निगमः, निगमो विकल्पस्तत्रभवो नैगमः । अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति सङ्ग्रहः । सङ्ग्रहेण गृही. तार्थस्य भेदरूपतया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहारः । ऋजु प्रांजलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । शब्दात् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः शब्दनयः। परस्परेणाभिरूढाः स. मभिरूढाः । शब्दभेदेऽप्यर्थभेदो नास्ति । यथा शक इन्द्रः पुर• न्दर इत्यादयः समभिरूढाः । एवक्रियाप्रधानत्वेन भूयत इत्ये. वंभूतः । शुद्धाशुद्धनिश्चयो द्रव्यार्थिकस्य भेदौ । अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । भेदोपचारतया ध. स्तु व्यवाहियत इति व्यवहारः । गुणगुणिनोः संशादिभेदात् भेदकः सद्भूतव्यवहारः । अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र स. मारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एवोपचारः, उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः। गुणगुणिनो पर्यायपर्यायिणोः स्वभावस्वभाविनोः कारककार.
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आलापपद्धतिः।
१७७
किणोर्भेदः सद्भूतव्यवहारस्यार्थः । द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्याये पर्यायोपचारः, गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुणे द्रव्योपचारः, गुण पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽसद्भुतव्यवहारस्यार्थो द्रष्टव्यः ।
उपचारः पृथग नयो नास्तीति न पृथक् कृतः । मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्त्तते सोऽपि सम्बन्धाविनाभावः । संश्लेषः सम्बन्धः। परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धेयसम्बन्धः, ज्ञानशेयसम्बन्धः, चारित्रचर्यासम्बन्ध श्वेत्यादिसत्यार्थः, असत्यार्थः, सत्यासत्यार्थश्चेत्युपचरिताऽस. भूतव्यवहारनयस्यार्थः।
पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ मि. श्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेद विषयः। तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकोशुद्धनिश्चयो यथा-केवलशानादयो जीव इति । सोपाधिकविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा-मतिज्ञानादयो जीव इति । व्यवहारो द्विविधः सद्भूतव्यवहारो. ऽसद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषयः लभूतव्यवहारः, भि. नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारस्तत्रसद्भूतव्यवहारो द्विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र सोपाधिगुणगानोर्भेद विष. यः उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा-जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः। निरुपाधिगुणगुणिनोभेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा--जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असदुद्भूतव्यव
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प्रथम गुच्छक।
हारो द्विविधा उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र संश्लेषरहितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो-यथा देवदत्तस्य धनमिति । संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरि. तासभूतव्यवहारो यथा-जीवस्य शरीरमिति ।
इति सुखबोधार्थमालापपद्धतिः श्रीमद्देवसेनविरचिता
परिसमाता ॥
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श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचिताः नाटकसमयसारकलशाः ।
(८) नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चाशते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ॥१॥ अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥२॥ परपरिणतिहेतोर्मोहनानोऽनुभावा- . दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते. र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥ ३ ॥ उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाडू जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै. रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥ ४ ॥ व्यवहरणनयः स्याद्यपि प्राक्पदव्या. मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमा परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित् ॥५॥ .
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प्रथम गुच्छक।
एकत्वे नियतस्य शुधनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णशानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेवनियमादात्मा च तावानयम् तन्मुक्तानघतरवसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥ ६ ॥ अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ॥ ७ ॥ चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सततविधितं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥ ८ ॥ उदयति न मयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्र । किमपरमभिदध्मो धानि सर्वकषेऽस्मि
अनुभवमुपयात भाति न द्रुतमेव ॥९॥ आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविसुक्तमेकं । विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥१०॥
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठां । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंताजगदपगत मोहीभूय सम्यकस्वभावं ॥११॥ भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निर्भिध बन्धं सुधीर्यधन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्काधिकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥ १२ ॥
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नाटकसमयसारकलशाः।
१८१
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या मानानुभूतिरियमेव किलेति बुचा। आत्मानमात्मनि निविश्य सुनिःप्रकम्प. मेकोऽस्ति नित्यमवबोधधनः समन्तात् ॥ १३ ॥ अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि. महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितं ॥ १४ ॥ एष शानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्थताम् ॥ १५॥ दर्शनशानचारित्रस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम्। मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः ॥१६॥ दर्शनशानचारित्रिभिः परिणतत्वतः।। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद्यवहारेण मेचकः ॥ १७ ॥ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वमावत्वादमेचकः १८॥ आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः। दर्शनशानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥ १९ ॥ कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया मपतितमिदमात्मज्योतिरुद्रच्छदच्छम् । सततमनुभवामोऽनन्तचैतन्यचिह्नम् न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ॥ २० ॥ कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूला. मचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतो वा।
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प्रथम गुच्छक ।
प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावै. मुंकुरवदविकाराः संततं स्युस्त एव ॥ २१ ॥ त्यजतु जगदिदानी मोहमाजन्मलीढं रसयतु रसिकानां रोचनं शानमुद्यत् । इह कथमपि नात्मा ऽनात्मना साकमेकः किल कलयति काले कापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥ २२ ॥ अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली स. अनुभव भवमूर्तः पार्श्ववर्ती मुहूर्त्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहं ॥ २३ ॥ कान्त्यैव नफ्यन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतम् बन्धास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥ २४ ।। प्राकारकवलितां वरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलं । पियतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालं ॥ २९ ॥ नित्यमविकारसुस्थितसर्वागमपूर्वसहजलावण्यं । अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥ २६ ॥ एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनो निश्चया. न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तसत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे. नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादकत्वमात्मानयोः ॥ २७ ॥ इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् ।
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नाटकसमयसारकलशाः।
अवतरति न बोधो बोधमेवाध कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुरक एव ॥ २८ ॥ अवतरति न यावद्वत्तिमत्यन्तवेगा. दनयमपरभावत्यागदृष्टान्तहष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ॥ २९ ॥ सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकं । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकं । प्रकटितपरमार्थदर्शनशानवृत्तैः कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः ॥३१॥ मजन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छ्रलति शान्तरसे समस्ताः। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानववोधसिन्धुः ॥३२॥
इति रंगभूमिका ॥ १ ॥
जीवाजीवविवेकपुष्कलशा प्रत्यावयत्पार्षदा नासंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत् । आत्माराममनन्तधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनाकुलं विलसति शानं मनो हादयत् ॥ १ ॥ विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकं । .
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प्रथम गुच्छक ।
हृदयसरसि पुंसः पुगलाद्भिनधास्नो मनु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः ॥२॥ चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौगालिका अमी॥ ३॥ सकलमपि विहायालाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्र। इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तं ॥४॥ वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युरष्टमेकं परं स्यात् ॥५॥ निर्वय॑ते येन यत्र किंचित्तदेव तत्स्यान कथंचनान्यत् । रुक्मेण निवृत्तमिहासिकोशं पश्यन्ति रुक्मन कथंचनासिं ॥६॥ वर्णादिसामग्यूमिदं विदन्तु निर्माणमेकस्य हि पुद्रलस्य । ततोऽस्त्विदं पुरल एव नात्मा यतःस विज्ञानधनस्ततोऽन्यः॥७॥
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमजीवो जल्पनेऽपि न तत्मयः ॥ ८॥ अनाधनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥ ९ ॥ वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो वैधास्त्यजीवो यतो नामृतत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः । इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि बा व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यतां ॥ १०॥
जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं शानी जनोऽनुवभवति स्वयमुल्लसन्तं ।
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नाटकसमयसारकलशाः।
अशानिनो निरवधिप्रविज़म्भितोऽयं मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥ ११ ॥ अस्मिानादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमानटति पुगल एक नान्यः। रागादिपुरलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ॥ १२ ॥ इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नादायित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः । विश्वं व्याप्य प्रसभविकशक्तचिन्मात्रशक्त्या मातृदन्यं स्वयमतिरसात्तावदुधकाशे ॥ १३ ॥ .
इति. जीवाजीवाधिकारः ॥ २ ॥
एकः कर्ता चिवहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्ति । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्यमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वनिरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वं ॥१॥
परपरिणतिमुज्यत् खंड्यद्भेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुचण्डमुः। ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते.
रिह भवति कथं वा पौद्रलः कर्मबन्धः ॥२॥ इत्येव विरचय्य संप्रति परद्रव्यानिवृत्ति परांस्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिनुवानः परं । अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशानिवृत्तः स्वयं शानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ॥३॥
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प्रथम गुच्छक।
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेनैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः। इत्युदामविवेकघस्मरमहो मारेण भिन्दंस्तमो
शानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ॥ ४॥ शानी जाननपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसही नित्यमत्यन्तभेदात् । अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न याव. द्विज्ञानाञ्चिश्चकास्ति क्रकचवदयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ॥५॥ यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥ ६ ॥ एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य । एकस्य परिणातः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ।। ७॥ मोभी परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥ ८ ॥ नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य । नैकस्यं च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ॥ ९ ॥
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै. दुर्वारं नर्नु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः । तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजे. त्तत्कि शानधनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥ १०॥ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ ११ ॥ __अज्ञानतस्तु स तृणाभ्यवहारकारी
झानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः। ..
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नाटकसमयसारकलशाः ।
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पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृध्यां
गां दोन्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ।। १२ ॥ अशानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रजौ जनाः । अशानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिव: च्छुद्ध ज्ञानमया अपि स्वयममी कभवन्त्याकुलाः॥१३॥ शानाद्विवेचकता तु परात्मनोयों जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषं । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ॥ १४ ॥ खानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था शानादेवाल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः । शानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम् ॥ १५ ॥ अशानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा । स्यात्कर्त्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न कचित् ॥ १६ ॥ . आत्मा शानं स्वयं शानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । .... परभावस्य कर्त्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ १७ ॥ जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्याभिशङ्कयैव एतर्हि तीवरयमोहनिबर्हणाय संकीयते शृणुत पुगलकर्मकर्तृ १८ स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव क १९ स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावयं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता २०
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- प्रथम गुच्छक ।
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेद् शानिनो न पुनरम्यः । अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमशानिनो नान्यः ॥ २१ ॥
शानिनो शाननिर्वृत्ताः सर्वे भाषा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यशामनिवृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥ २२॥ अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाः।
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ॥ २३ ॥ य एव मुक्तानयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं । विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥२४॥ एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥२५॥ एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव।।२६॥ एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव॥२७॥ एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्याति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥२८॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तस्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्थास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव॥२९॥ एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपातौ । : यस्तत्त्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३० एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥३१॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु विधिदेव ॥३२।।
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नाटकसमयसारकलशाः। १८९ एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥३३॥ एकस्य कार्य न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥३४॥ एकस्य चैका न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिशिदेव ॥३५॥ एकस्य भावो न तथा एरस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥३६॥ एकस्य शान्तो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षशतस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥३७॥ एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिधिदेव ॥३८॥ एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥३९॥ एकस्य नाना न तथा परस्य चिति द्वयो-विति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥४०॥ एकस्य चेत्यो न तथा परस्य चिति द्वयो विति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥४३॥ एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति योद्धाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ॥४२॥ एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति योाविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥४३॥ एकस्य भातो न तथा परस्य चिलि द्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खल चिश्चिदेव ॥४४॥
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प्रथम गुच्छक ।
स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला. मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिस्समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥ ४५ ॥ इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवाचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ॥४६॥
चित्स्वभावभरभावितभावा भावभावपरमार्थतयैक । बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारं ॥४७॥ आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् । विज्ञानकरसः स एष भगवान् पुण्यः पुराणः पुमान् शानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनकोऽप्ययम् ॥४८॥ दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यनिजौघाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिनगमनानीतो निजौघं बलात् । विज्ञानकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहर. नात्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥४९॥ विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलं ।
न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ॥ ५० ॥ यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलं । यः करोति न हि वेत्तिस कचित् यस्तु वेत्ति न करोति स कचित्५१ शप्तिः करोतो न हि भासतेऽन्तप्तिौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः । प्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने शातान कर्तेति ततःस्थितं च॥५२॥ कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्त्तरि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
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नाटकसमयसारकलशाः ।
ज्ञाता शातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिनेपथ्ये बत नानटीति रभसान्मोहस्तथाप्येष किं ॥५३॥ की कर्त्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव शानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिर्ध्वलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चैश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत् ॥ ५४॥
इति कर्तृकर्माधिकारः ॥३॥
तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यबोधसुधाप्लवः ॥ १॥
एको दूरात्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना. दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुराग्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥२॥ हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः । तद्वन्धमार्गाश्रितमकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ॥३॥ कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥४॥ निषिद्ध सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैःकस्य न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः॥५॥ यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
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प्रथम गुच्छक ।
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति । अतोऽन्यबन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् । ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितं ॥ ६ ॥ वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥ ७ ॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ॥ ८ ॥ मोक्ष हेतुतिरोधानाबन्धत्वात्स्वयमेव च । मोक्षहेतुतिरोधायि भावत्वात्तनिषिध्यते ॥ ९ ॥ संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना सन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वौदिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवनैः कर्मप्रतिबद्ध मुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १० ॥ यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्यं सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोsपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किं त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥ ११ ॥ 'मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्मना शाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥ १२ ॥ भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयस्थीतमोहं
मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ।
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नाटकसमयसारकलशाः
१९३
हेलोन्मीलत्परमकलया सार्द्धमारब्धकेलि ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजम्भे भरेण ॥ १३ ॥ इति पुण्यपापाधिकारः ॥ ४ ॥
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अथ महामदनिर्भरमन्थरं समररङ्गपरागत मानवं । अयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्द्धरः ॥ १ ॥ भावो रागद्वेषमोहैर्विना या जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत्त एव । रुन्धन्सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौघानेषो भावः सर्वभावास्रवाणाम् ॥२॥ भावास्त्रवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यास्त्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः । ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ॥ ३ ॥ सन्न्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयम् वारंवार मबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिन्दन् परवृत्तिमेव सकलां शानस्य पूर्णो भवनात्मा नित्यनिरास्त्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ॥ ४ ॥ सर्वस्यामेव जीवन्त्यान्द्रव्यप्रत्ययसंततौ । कुतो निरास्रवो शानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ॥ ५ ॥ विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः । तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः ॥ ६ ॥ रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः ।
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम् ॥ ७ ॥ अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमैकाग्यूमेव कलयन्ति सदैव ये ते ।
१३
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१९४
प्रथम गुच्छक।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारं ॥ ८॥ प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध
द्रव्यानवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥९॥ इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्यागाद्वन्ध एव हि ॥ १० ॥ धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिम् त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम् । तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ॥ ११ ॥ रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्त्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावानालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ॥ १२ ॥
इत्यास्रवो निष्क्रान्तः ॥ ५ ॥
आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव. न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् । व्यावृत्तंपररूपतो नियमित सम्यक् स्वरूपे स्फुर• ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते ॥१॥ चैदूप्यं जडापतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयो. रन्तरुणदारयोन परितो शानस्य रागस्य च ।
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नाटकसमयसारकलशा:
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ॥२॥
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥३॥ निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः । अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥ ४॥ सम्पद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् । स भेदविज्ञानत एव तस्मात्तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥५॥
भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्छुत्वा ज्ञानं शाने प्रतिष्ठते ॥ ६ ॥ भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ ७ ॥ भेदशानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं शानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८॥
हाते संवरो निष्क्रान्तः ॥ ६ ॥
रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरान्धृत्वा परः संघरः कागामि समस्तव भरतो दूरान्निरुन्धन स्थितः ।
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प्रथम गुच्छक।
प्राग्बद्धं तु तदैव दग्धमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्च्छति ॥१॥ तज् शानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल । यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुञ्जानोऽपि न बध्यते ॥२॥ नाश्नुते विषयसेधनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥३॥ सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥ ४॥ सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बधो न मे स्या. दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ॥५॥ आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विवुध्यध्वमन्धाः । एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥ ६ ॥ एकमेव हि तत्स्वाधं विपदामपदं पदम् ।
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥ ७॥ एकशायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादन्द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् । आत्मात्मानुभवानुभावविवशोभ्रस्यद्विशेषोदयं सामान्य कलयत्किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकां ॥ ८॥
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नाटकसमयसारकलशाः
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अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्रागभारमत्ता इव। यस्याभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवम् वलगत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ॥ ९॥ क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महावृततपोभारेण भग्नाश्चिरं । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
शानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ॥ १० ॥ पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात्कलयितुंयततां सततं जगत् ॥११॥ अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१२॥ इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतःस्वपरयोरविवेकहेतुं । अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् शानिनो यदि भवत्युपयोगः । तद्भवत्वथ च रागवियोगान्नूनमेति न परिग्रहभावम् ॥ १४ ॥ वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्वेद्यते न खलु कासितमेव । तेन काङ्क्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ॥१५॥ ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्मरागरसरिक्ततयैति । रङ्गयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहि ठतीह ॥ १६ ॥ ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्सर्वरागरसवर्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेषः कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥१७॥ यादृक् तादृगिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तुं नैष कथंचनापि हि परैरन्याशः शक्यते ।
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प्रथम गुच्छक ।
अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेत् शानं भवेत्सन्ततम् शानिन् भुश्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ॥१८॥ शानिन् कर्म न जातु कतुंमुचितं किश्चित्तथाप्युच्यते भुझे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। वन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तकि कामचारोऽस्ति ते शानं सच्च सबन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाभ्रुवम् ॥ १९ ॥ कर्तारं वफलेन यत्किल बलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः ॥२०॥ त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किश्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कम्र्मेति जानाति कः ॥२१॥ सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ॥ २२ ॥ लोकः शाश्वत एक एष सकलत्यक्तो विविक्तात्मनचिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः। लोको यन्न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ २३ ॥ एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादकं सदानाकुलैः ।
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नाटकसमयसारकलशाः
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो मानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२४॥ यत्सनाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थिति निं सत्स्वयमेव तकिल ततस्त्रातं किमस्यापरैः। अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तद्रीः कुतो शानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥२५॥ स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपेण य. च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः । अस्या गुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहजं शान सदा विन्दति ॥२६॥ प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो शानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥ २७ ॥ रकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेत्रात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो शानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ २८ ॥ टकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेयदिह सकलं नन्ति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि ममाक् कर्मणो नास्ति बन्धः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ॥ २९ ॥ रुन्धन्बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्गैः प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयनिजरोज्जृम्भणेन ।
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२००
प्रथम गुच्छक।
सम्यग्दृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं शानं भूत्वा नटति गगनाभोगरङ्गं विगाह्य ॥ ३० ॥
इति निर्जरा निष्क्रान्ता ॥ ७ ॥
रागोगारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगस्क्रीडन्तं रसभारनिर्भरमहानाट्येन बन्धं धुनत् । आनन्दामृतनित्यभोजिसहजावस्थां स्फुटन्नाटय. धीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मजति ॥ १॥ न कर्मबहुलं जगनचलनात्मकं कर्मवा. ननेककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत् । यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ॥२॥ लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्मत. सान्यस्मिन् करणानि सन्तु चिदचियापादनं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयद् ज्ञानं भवेत् केवलं बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवं ॥ ३ ॥ तथापि न निरर्गलं चरितुमिप्यते शानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यावृतिः। अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं शानिनां द्वयं न हि विरुधते किमु करोति जानाति च ॥ ४ ॥
जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु. मिथ्यादृशः स नियतं स च बन्धहेतुः॥५॥
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नाटकसमयसारकलशाः
२०१
सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अशानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमान् मरणजीवितदुःखसौख्यम् ॥ ६ ॥ अशानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्याशो नियतमात्महनो भवन्ति ॥ ७॥ मिथ्यादृष्टः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥ ८॥ अनेनाध्यवसायेन निःफलेन विमोहितः।
तत्किञ्चनापि नैवाऽस्ति नात्माऽऽत्मानं करोति यत् ॥९॥ विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ॥१०॥
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै. स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यग्निश्चयमेकमेव तदमी निःकम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिन्नि न निजे बध्नन्ति संतो धृतिम् ॥११॥ रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तामति प्रणुनाः पुनरेवमाः॥१२॥ न जातुरागादिनिमित्तभावमात्माऽऽत्मनो ग्राति यथार्ककान्तः । तस्मिानिमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥१३॥ इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यानातो भवति कारकः ॥ १४ ॥
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૨૦૨
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प्रथम गुच्छक।
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ॥ १५॥ इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बला. तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम् । आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतम् येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्माऽऽत्मनि स्फूर्जति ॥१६॥ रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुध । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेततधद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ॥ १७ ॥
इति धन्धो निष्क्रान्तः ॥ ८ ॥
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्वन्धपुरुषा नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतं । इदानीमुन्मजत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्ण शानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥ १॥ प्रज्ञाच्छेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानः सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य । आत्मानं मनमन्तःस्थिरविशदलसद्धान्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाशानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥२॥ भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्भत्तं हि यच्छक्यते चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् । भिधन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भियन्तां न भिदाऽस्ति काचन विभौ भावे विशुद्ध निति ॥ ३॥
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नाटकसमयसारकलशा:
अद्वैताऽपि हि चेतना जगति चेदृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजे. त्तसामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्पाप्यो विना व्यापकादात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं दरशप्तिरूपास्तु चित् ॥४॥ एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम् । ग्राहस्ततश्चिन्मय एव भावोभावा परे सर्वत एव हयाः ॥५॥ सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यता शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विबुधा भावाः पृथलक्षणा. स्तेऽहं नाऽस्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं सममा अपि ॥६॥
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बद्ध्येतैवापराधवान् । बचेतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः ॥ ७॥ . अनवरतमनन्तैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु । नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधुशुद्धात्मसेवी ॥८॥ अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनता प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनमात्म. न्येवालानितं च चित्तमा. संपूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः॥९॥ (१) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतम् तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्कि प्रमाधति जनः प्रपतनधोऽध: किं नोईमूर्द्धमधिरोहति निःप्रमादः ॥१०॥
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૨૦e
प्रथम गुच्छका
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः ।
अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते चाचिरात् ॥ ११ ॥ त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तकिल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः। बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल. च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥ १२ ॥ बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत. नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं पूर्ण झानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिनि ॥ १३ ॥
इति मोक्षो निष्क्रान्तः ॥ ९ ॥
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान्कर्तृभोक्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लप्तेः । शुद्धः शुद्धस्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चिघकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः॥१॥ कर्तृत्वं न स्वाभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । अशानादेव कर्ताऽयं तदभावादकारकः ॥२॥ अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभागभवनः । तथाप्यस्यासौ स्यादिह किल बन्धः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ॥३॥
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नाटकसमयसार कलशाः
२०५
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्त्तृत्ववच्चितः । अज्ञानादेव भोक्ताऽयं तदभावादवेदकः ॥ ४ ॥ अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको शानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ॥ ५ ॥ ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावं । जानन्परं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥ ६ ॥
ये
तु कर्त्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः । सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ॥ ७ ॥ नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्त्तृकर्म्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्त्तृता कुतः ॥ ८ ॥ एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्द्धं सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कर्त्तृकर्म्मघटनाऽस्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वकर्तृमुनयश्च जनाः स्वतस्त्रं ॥ ९ ॥ ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसोबत ते वराकाः । कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म
कर्त्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ॥ १० ॥ कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोग्रन्यस्याः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गाक्कृतिः ।
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प्रथम गुच्छक |
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्त्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ॥११॥ कर्मैव प्रवितर्यक र्तृहतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां कर्त्तामैष कथंचिदित्यचलिता केंश्चित्कृतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबन्धलब्ध विजया वस्तुस्थितिः स्तूयते || १२ || मा कर्त्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं साङ्ख्या श्वाप्यार्हताः कर्त्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । उ तूद्धतबोधधाम नियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥१३॥ क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम् । अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः स्वयमयमभिषिञ्चंश्चिच्चमत्कार एव ॥ १४ ॥ वृत्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भुङ्क्तेऽन्य इत्येकान्तञ्चकास्तु मा ॥ १५ ॥ आत्मानं परिशुद्धमीलुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः । चैतन्यं क्षणिक प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्ज्जुसुत्रे रतैरात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः ॥ १६ ॥ कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा कर्त्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सञ्चिन्त्यतां । प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भर्तु न शक्या क्वचि - तच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्येव नः ॥ १७॥
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नाटकसमयसारकलशा:
२०७ व्यावहारिकरशैव केवलं कर्तृकर्म च विभिन्नमिप्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कनकर्म च सदैकमिष्यते ॥१८॥
बहिलठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्वन्तरं। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ॥१९ ॥ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरो परस्य कः किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि ॥२०॥ यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम् । व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ॥२१
शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित् ।। ज्ञानं शेयमवैति यत्नु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तरचुबम्नाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः ॥२२॥ शुद्धद्रव्यस्वरसभवनार्तिक स्वभावस्य शेष. मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः । ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि निं ज्ञेयं कलयति सदा शेयमस्यास्ति नैव ॥ २३ ॥ रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन यावत् झानं ज्ञानं भवति न पुनर्बाध्यतां याति बोध्यं । ज्ञानं ज्ञानं भन्तु नदिद न्यकृताज्ञानभावं भावाभावो भवति तिश्यन्येन पूर्वस्वभावः ॥ २४ ॥ रागद्वेषाविह हि भवति कमज्ञानभावातौ वस्तुत्वप्रणिहितदशा मसालौ न किञ्चित ।
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प्रथम गुच्छक।
सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्टया स्फुटन्तौ - ज्ञानज्योतिज्वलति सहज येन पूर्णाचलाञ्चिः ॥ २५॥ रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया नान्यद्व्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्ताऽत्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्
यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥ २७ ॥ रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ॥२८॥
पूर्णैकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोद्धा न बोध्यादयं
पापात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाशादिष । तद्वस्तुस्थितिबोधबन्धधिषणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुञ्चन्त्युदासीनताम् ॥ २९ ॥
रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात् । दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिष्मयीं
विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां शानस्य संचेतनां ॥३०॥ शानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं । अशानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि वन्धः३१ कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः । परिहत्य कर्म सर्व परमं नैष्कर्म्यमघलम्बे ॥ ३२॥ मोहाद्यदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निःकर्मणि नित्यमात्मना वत्तें ॥३३॥
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नाटकसमयसारकलशाः।
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मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निःकर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥३४॥ प्रत्याख्यायभविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः। . आत्मनि चैतन्यात्मनि निःकर्मणि नित्यमात्मना वः ॥३५॥ समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी। विलीनमोहो रहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथाऽवलम्बे ॥३६॥ विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव । संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानं ॥३७ ॥
निःशेषकर्मफलसंन्यसनात्मनैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता ॥ ३८॥ यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां . भुते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः ।
आपातकालरमणीयमुदरम्यं निःकर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः ॥ ३९ ॥ अत्यन्तं भावयित्वा विरतमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाशानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं शानसंचेतनां स्वां
सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ॥४०॥ इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् । समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं शानमिहावतिष्ठते ॥४॥ अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत् पृथक वस्तुताभादानोज्झनशून्यमेतद्मलं ज्ञानं तथावस्थितम् ।
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प्रथम गुच्छक ।
मध्याद्यन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥ ४२ ॥ उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ॥ ४३ ॥ व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम् । कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शङ्कयते ॥ ४४ ॥ एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम् ॥ ४५ ॥ दर्शनशानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः ।
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एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥ ४६ ॥ एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्यप्तिवृत्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७॥ ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः । नित्योद्योतमखण्डमक मतुलालोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥ ४८ ॥ व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तन्दुलम् ॥४९॥ द्रव्यलिङ्गममकार मीलितैर्दृश्यते समयसार एव न । द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः ॥५०॥ अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्परनल्पैरयमिह परमार्थश्चिन्त्यतां नित्यमेकः ।
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नाटकसमयसारकलशाः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रा.
न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति ॥ ५१ ॥ इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ॥५२॥ इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितं । अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ॥ ५३॥
इति सर्वविशुद्धिज्ञानाधिकारः ॥ १० ॥ अत्र स्याद्वादशुद्ध्यर्थ वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः। उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ॥ १ ॥ बाह्याथैः परिपातमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तीभवद्विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति । यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुनदूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्ण समुन्मजति ॥ २॥ विश्वं ज्ञानमिति प्रतयं सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते । यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन. विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ॥३॥ याह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लसद् ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुनश्यति । एकद्रव्यतया सदाव्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन् नेकं शानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ॥ ४॥ झेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयस्नेकाकारचिकोर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति । वैचित्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतः क्षालितं
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२१२ . प्रथम गुच्छक । पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशम्पश्यत्यनेकान्तवित् ॥ ५॥ प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावञ्चितः स्वद्रव्यानवलोकनन परितः शून्यः पशुनश्यति । स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मजता स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति ॥६॥ सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति । स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जाननिर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ॥ ७ ॥ भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरमसः स्याद्वादवेदी पुनः स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन् ॥ ८ ॥ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधिपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनातुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारात्सहार्वसन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदनास्तिता त्यतार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ॥९॥ पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः । आस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ॥१०॥ अर्थालम्बनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहिशेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन्पशुनश्यति । नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुनः
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नाटकसमयसारकलशाः।
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजशानकपुत्रीभवन् ॥ ११॥ विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः । सर्वस्मानियतस्वभावमभवन् झानाद्विभक्तो भवन् स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ॥१२॥ अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति । स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरा. दारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः ॥ १३ ॥ प्रादुर्भावविराममुद्रितवहद्द्वानांशनानात्मना निर्धानात् क्षणभङ्गसङ्गपतितः प्रायः पशुर्नश्यति । स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टोत्कीर्ण घनस्वभावमहिमशानं भवन् जीवति ॥१४॥ टोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेभिन्नं पशुः किञ्चन । ज्ञानं नित्यमानित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तु वृत्तिकमात् ॥१५॥ इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसादयन् । आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते ॥ १६ ॥ एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन्स्वयम् । अलङ्घ्यं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ॥ १७ ॥
इत्याधनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः। एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवचित्रं
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प्रथम गुच्छक । तव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ॥ १८ ॥ नैकान्तसङ्गतशा स्वयमेव वस्तु. तत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः। . . स्थाद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो झानीभवन्ति जिननीतिमलङयन्तः ॥ १९ ॥ ये शानमात्रनिजभावमयीमकम्पां भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः । ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धाः । मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥ २० ॥ स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। छानक्रियानयपरस्परतीवमैत्री. पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः॥२१॥ चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहासः शुद्धः प्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः । आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ॥ २२ ॥ स्थाहाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति । कि बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावै. नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ॥ २३ ॥ चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः । तस्मादखण्डमनिराकतखण्डमेक. ..
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नाटकसमयसारकलशाः। २१५ मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ॥ २४ ॥ योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि शेयो शेयज्ञानमात्रः स नैव । शेयो शेयज्ञानकल्लोलवल्गद् शानशेयज्ञातृवद्वस्तुमात्रः ॥२५॥
क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिदमेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहृतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ॥ २६ ॥ इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् । इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम् ॥ २७ ॥ कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः स्वभावमहिताऽऽत्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥२८॥ जयति सहजतेजःपुञ्जमजत्रिलोकी. स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः। स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः प्रसभनियमिताञ्चिश्चिच्चमत्कार एषः ॥ २९ ॥ अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयध्वस्तमोहम् । उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ता. ज्ज्वलतु विमलपूर्ण निःसपत्नस्वभावम् ॥ ३०॥ यस्माद्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं
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प्रथम गुच्छक । रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः । भुजाना चयतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं
तद्विज्ञानधनौघमनमधुना किश्चिन किञ्चित्किल ॥३१॥ स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ॥ ३२ ॥
यसारकलशा:समाप्ताः॥
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श्रीमन्माणिक्यनन्दिविरचितानि
परीक्षामुखसूत्राणि ।
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥१॥ स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ॥१॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो शानमेव तत् ॥२॥ तन्नि श्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥ ३॥ अनिश्चितोऽ. पूर्वार्थः ॥ ४ ॥ दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥ ५॥ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः॥ ६ ॥ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ घटमहमात्मना वेनि ॥ ८॥ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रती. तेः॥९॥ शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥११॥ प्रदीपवत् ॥ १२॥ तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥१३॥
इति प्रमाणस्य स्वरूपोद्देशः प्रथमः ॥ १॥ तवेधा ॥१॥ प्रत्यक्षेतरभेदात् ॥२॥ विशदं प्रत्यक्षं ॥३॥ प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशचं ॥४॥ इन्द्रियानिन्द्रियनिमत्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥५॥ ना.
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२१८
प्रथम गुच्छक।
लोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥ ६॥ तदन्वयव्यति. रेकानुविधानाभावाच केशोण्डकज्ञानवन्नक्तंचरशानवञ्च ॥ ७॥ अतजन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपषत् ॥ ८॥ स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥९॥ कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः ॥ १०॥ साम. प्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यं ॥ ११ ॥ सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात् ॥ १२ ॥
इति प्रत्यक्षोद्देशः द्वितीयः ॥ २ ॥ परोक्षमितरत् ॥ १॥ प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिक्षा. मतांनुमानागमभेदं ॥२॥ संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्या. कारा स्मृतिः ॥३॥ स देवदत्तो यथा ॥४॥ दर्शनस्मरणकारः णकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥ ५॥ यथा स एवायं देवदत्तः गोसदृशो गवयः गोविलक्षणो महिष इदमस्माद्दूरं वृक्षोऽयमित्यादि ॥ ६॥ उ. पलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः इदमस्मिन्सत्येव भपत्यसति न भवत्येवेति च ॥ ७॥ यथानावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥८॥ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं ॥९॥ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः॥१०॥ सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥ ११ ॥ सहचारिणोळप्यव्यापकयोश्च सहभावः ॥ १२॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥ १३॥ तर्कात्तनिर्णयः ॥ १४॥ इष्टमबाधितमसिद्धं साध्य ॥ १५ ॥ सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादि. त्यसिद्धपदं ॥ १६ ॥ अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा. भूदितीष्टाबाधितवचनं ॥ १७ ॥ न चासिद्धवदिष्ठं प्रतिवादिनः
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परीक्षामुखसूत्राणि ।
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॥ १८ ॥ प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव ॥ १९ ॥ साध्यं धर्मः क. चित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥ २०॥ पक्ष इति यावत् ॥ २१ ॥ प्रसि. द्धो धर्मी ॥ २२ ॥ विकल्पसिद्ध तस्मिन्सत्तेतरे साध्ये ॥ २३ ॥ अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणं ॥ २४॥ प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥ २५ ॥ अग्निमानयं देशः परिणामी श. ब्द इति यथा ॥ २६ ॥ व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥ २७ ॥ अ. न्यथा तदघटनात् ॥ २८ ॥ साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनं ॥ २९ ॥ साध्यमिणि साधनध. विबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३०॥ को वा त्रिधा हेतु. मुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥ ३१ ॥ एतद्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणं ॥ ३२ ॥ न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतो. रेव व्यापारात् ॥ ३३ ॥ तदविनाभावनिश्चयार्थ वा विपक्षे बा. धकादेव तत्सिद्धेः ॥ ३४ ॥ व्याक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावनवस्थानं स्याद् दृष्टान्तान्तरा: पेक्षणात् ॥ ३५ ॥ नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादे. व तत्स्मृतेः ॥ ३६ ॥ तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्य. साधने सन्देहयति ॥ ३७ ॥ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥ ३८ ॥ न च ते तदङ्गे, साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥ ३९ ॥ समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वाऽस्तु सा. ध्ये तदुपयोगात् ॥ ४० ॥ बालव्युत्पत्त्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥ ४१ ॥ दृष्टान्तो वैधाऽन्वयव्यति. रेकभेदात् ॥ ४२ ॥ साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्व. यदृष्टान्तः ॥४३॥ साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्य. तिरेकदृष्टान्तः॥४४॥ हेतोरुपसंहार उपनयः॥४५॥ प्रतिक्षाया.
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प्रथम गुच्छक।
स्तु निगमनं ॥४६॥ तदनुमान द्वधा ॥४७॥ स्वार्थपरार्थभेदात् ॥४८॥ स्वार्थमुक्तलक्षणं ॥ ४९ ॥ परार्थ तु तदर्थपरामर्शवच. नाजातं ॥ ५० ॥ तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥५१॥ स हेतुर्द्धिघोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥५२॥ उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयो. रनुपलब्धिश्च ॥ ५३॥ अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्य.. कार्यकरणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५४॥ रसादेकसामग्यनु. मानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ॥५५॥ न च पूर्वोत्तर चारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥५६॥भाव्यतीतयोमरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् ॥ ५७ ॥ तद्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वं ॥ ५८ ॥ सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥ ५९॥ परिणामी शब्दः कृतकत्वाद्य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामीति, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामी ॥ ६०॥ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ॥ ६१ ॥ अ. स्त्यत्र च्छाया छत्रात् ॥ ६२ ॥ उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥६३ ॥ उद्गाद्भरणिः प्राक् तत एव ॥ ६४ ॥ अस्त्यत्र मातु. लिङ्गे रूपं रसात् ॥६५॥ विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ॥ ६६ ॥ नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥ ६७ ॥ नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात् ॥ ६८ ॥ नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥ ६९ ॥ नोदेण्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदया. त् ॥ ७० ॥ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्व पुग्योदयात् ॥ ७९ ॥ नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥ ७२ ॥ अविरु
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परीक्षामुखसूत्राणि । द्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधास्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वो. त्तरसहचरानुपलम्भभेदात् ।। ७३ ॥ नास्त्यत्र भूतले घटोऽनु. पलब्धेः ॥ ७४ ॥ नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥ ७५ ॥ नास्त्यत्राप्रतिवद्धसामोऽग्निधूमानुपलब्धेः ॥ ७६ ॥ नास्त्यत्र धूमोऽनन्नेः ॥ ७७ ॥ न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोद. यानुपलब्धेः ॥ ७८ ॥ नोद्गाद्भरणिर्मुहूर्ताप्राक्तत एव ॥ ७९ ॥ नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामोऽनामानुपलब्धेः ॥ ८० ॥ विरुद्धा. नुपलब्धिर्विधौ त्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ॥ ८२ ॥ यथास्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानु. पलब्धेः ॥ ८२ ।। अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥८॥ अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः ॥ ८४॥ परम्परया संभवत्साधनमात्रैवान्तर्भावनीयम् ॥ ८५॥ अभूदत्र चक्र शिवकः स्थासात् ॥ ८६॥ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ८७ ॥ नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात् , कारणविरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥ ८८ ॥ व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथो. पपत्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा ॥ ८९ ॥ अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्वोपपत्तेधूमवत्वानुपपत्तेर्वा ॥ ९० ॥ हेतुप्रयोगो हि यथा व्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ॥९१ ॥ तावता च साध्यसिद्धिः ॥ ९२ ॥ तेन पक्षस्तदाधार. सूचनायोक्तः ॥ ९३॥ आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥ ९४ ॥ सहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिप. तिहेतवः ॥ ९५ ॥ यथा मेादयः सन्ति ॥९६॥
___ इति परोक्षप्रपञ्चस्तृतीयः समुद्देशः ॥ ३ ॥ सामान्यविशेषात्मातदर्थो विषयः ॥ १॥ अनुवृत्तव्यावृ.
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રરર
प्रथम गुच्छक ।
तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणप. रिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ॥ २ ॥ सामान्यं द्वेधा तिर्यगूलता. भेदात् ॥ ३॥ सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्व. वत् ॥ ४॥ परापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादि. षु ॥५॥ विशेषश्च ॥६॥ पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥ ७॥ एकस्मिन्द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनिहर्षवि. पादादिवत् ॥ ८ ॥ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥९॥
इति प्रमाणस्य विषयसमुद्देशश्चतुर्थः ॥ ४ ॥ - अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥ १॥ प्रमाणादभिन्न भिन्नं च ॥ २॥ यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताशानो ज. हात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥ ३॥
इति प्रमाणस्य फलसमुद्देशः पञ्चमः ॥ ५ ॥ ततोऽन्यत्तदाभासम् ॥ १॥ अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शन संशयादयः प्रामाणाभासाः॥२॥ स्वविषयोपदर्शकत्वाभावा. त् ॥ ३॥ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तॄणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥ ४॥ चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥ ५॥ अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्धृमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥६॥ वैशयेऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥ ७॥ अतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा ॥८॥ सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि. प्रत्यभिज्ञानाभासं ॥९॥ असम्बद्ध तज्ज्ञानं तर्काभासं यावा. स्तत्पुत्रः स श्याम इति यथा ॥ १०॥ इदमनुमानाभासम् ॥११॥ तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः ॥ १२ ॥ अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः
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परीक्षामुखसूत्राणि |
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शब्दः ॥ १३ ॥ सिद्धः श्रावणः शब्दः ॥ १४ ॥ बाधितः प्रत्य. क्षानुमानागमलोकस्ववचनैः ॥ १५ ॥ तत्र प्रत्यक्षबाधितो यथा अनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वाज्जलवत् ॥ १६ ॥ अपरिणामी शब्दः कृतऋत्वात् घटवत् ॥ १७ ॥ प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ॥ १८ ॥ शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गत्वाच्छङ्खशुक्ति. वत् ॥ १९ ॥ माता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात्प्रसिद्धवन्ध्यावत् || २० || हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिका कि• ञ्चित्कराः || २१ || असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२ ॥ अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥ २३ ॥ स्वरूपेणैवासिद्धत्वात् ॥ २४ ॥ अविद्यमाननिश्रयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमात् ॥ २५ ॥ तस्यवाष्पादिभावेन भूतसंघाते संदेहात् ॥२६॥ सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २७ ॥ तेनाज्ञातत्वात् ॥ २८ ॥ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २९ ॥ विपक्षेऽप्यविरुद्ध वृत्तिरनैकान्तिकः || ३० || निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत् ॥ ३१ ॥ आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३२ ॥ शङ्कितवृत्तिः स्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥ ३३ ॥ सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३४ ॥ सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकि. ञ्चित्करः ॥ ३५ ॥ सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ॥ ३६ ॥ किञ्चिदकरणात् ॥ ३७ ॥ यथाऽनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वादित्यादी किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥ ३८ ॥ लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न - प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३९ ॥ दृष्टान्ताभासा अन्व येsसिद्धसाध्यसाधनोभयाः ॥ ४० ॥ अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्त त्वादिन्द्रियमुखपरमाणुघटवत् ॥ ४१ ॥ विपरीतान्वयश्च यद
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- प्रथम गुच्छक।
पौरुषेयं तदमूर्तम् ॥ ४२ ॥ विद्युदादिनाऽतिप्रसङ्गात् ॥ ४३ ॥ व्यतिरेके सिद्धतद्यतिरेकाः परमाण्विन्द्रियसुखाकाशवत् ॥४४॥ विपरीतव्यतिरेकश्च यन्त्रनामूर्त तन्नापौरुषेयम् ॥ ४५ ॥ बालप्र. योगाभासः पञ्चावयवेषु कियद्धीनता ॥४६॥ अग्निमानय देशो. धूमवत्त्वात् यादत्थ तदित्थं यथा महानसः॥४७॥ धूमवांश्वाय. मिति वा॥४८॥ तस्मादाग्नमान् धूमवांश्वायम् ॥४९॥ स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥ ५० ॥ रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचना. जातमागमाभासम् ॥५१॥ यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवकाः ॥५२॥ अङ्गुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्त इति च ॥ ५३॥ विसंवादात् ॥ ५४॥ प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादिसंख्याभासम् ॥५५॥ लोकायनिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनि षेधस्य परबुद्ध्यादेश्चासिद्धरताद्वषयत्वात् ॥५६॥ सौगतसां. ख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थाप. त्यभावैरेकैकाधिकैाप्तिवत् ॥५७ अनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्र. माणान्तरत्वम् ॥ ५८ ॥ तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वमप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ॥ ५९ ॥ प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ॥ ६० ॥ विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतंत्रम् ॥ ६१ ॥ तथाप्रतिभासनात्कार्याकरणाच्च ॥६२॥ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६३ ॥ परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा सदभावात् ॥ ६४ ॥ स्वयमसमर्थस्याकार. कत्वात्पूर्ववत् ॥ ६५ ॥ फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा ॥६६ ॥ अभेदे तयवहारानुपपत्तेः ॥ ६७ ॥ व्यावृत्याऽपि न तत्कल्पना फलान्तराव्यावृत्त्याऽलफलत्वप्रर्सगात् ॥ ६८॥ प्रमा. णान्तराखावृत्येवाप्रमाणत्वस्य ॥ ६९ ॥ तस्माद्वास्तवोऽभेदः
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परीक्षामुख सूत्राणि। . २२५ ॥ ७० ॥ भेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः॥७९॥ समवायेऽतिप्रसङ्गः ५७२ ॥ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहतदो. षो वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥७३॥ सम्भवदन्यद्विचारणीयम् ॥ ७४ ॥ परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्यधाम् ॥१॥
इति प्रमाणस्याभासोद्देशः षष्ठः ॥ ६ ॥
इति परीक्षामुखसूत्राणि समाप्तानि ।
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आचार्यश्रीविद्यानन्दस्वामिविरचिता
प्राप्तपरीक्षा।
(१०) प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थबोधदीधितिमालिने । नमः श्रीजिनचन्द्राय मोहध्वान्तप्रभेदिने ॥१॥ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तहुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ॥२॥ मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारं कर्मभूभृताम् । शातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तहुणलब्धये ॥३॥ इत्यसाधारणं प्रोक्तं विशेषणमशेषतः। परसङ्कल्पिताप्तानां व्यवच्छेदप्रसिद्धये ॥४॥ अन्ययोगव्यवच्छेदानिश्चिते हि महात्मनि । तस्योपदेशसामर्थ्यादनुष्ठानं प्रतिष्ठितम् ॥५॥ तत्रासिद्ध मुनीन्द्रस्य भेत्तृत्वं कर्मभूभृताम् । ये वदन्ति विपर्यासात्तान्प्रत्येवं प्रचक्ष्महे ॥ ६ ॥ प्रसिद्धः सर्वशास्त्रशस्तेषां तावत्प्रमाणतः । सदा विध्वस्तनिःशेषबाधकात्स्वसुखादिवत् ॥ ७॥ झाता यो विश्वतत्त्वानां स भेत्ता कर्मभूभृताम् । भवत्येवान्यथा तस्य विश्वतत्त्वज्ञता कुतः ॥ ८॥ .
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आप्तपरीक्षा ।
नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद्विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथानुपपत्तितः ॥ ९ ॥ प्रणीतिर्मोक्षमार्गस्य न विनाऽनादिसिद्धितः । सर्वज्ञादिति तत्सिद्धिर्न परीक्षासहा स हि ॥ १० ॥ प्रणेता मोक्षमार्गस्य नाशरीरोऽन्यमुक्तवत् । सशरीरस्तु नाकर्म्मा सम्भवत्यशजन्तुवत् ॥ ११ ॥ न चेच्छाशक्तिरीशस्य कर्माभावेऽपि युज्यते । तदिच्छा वानभिव्यक्ता क्रियाहेतुः कुतोऽशवत् ॥ १२ ॥ ज्ञानशक्त्यैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल । सदेश्वर इति ख्याने ऽनुमानमनिदर्शनम् ॥ १३ ॥ समीहामन्तरेणापि यथा वक्ति जिनेश्वरः । तथेश्वरोऽपि कार्याणि कुर्य्यादित्यप्यपेशलम् ॥१४॥ सति धर्मविशेषे हि तीर्थकृत्त्वसमाह्वये । ब्रूयाज्जिनेश्वरो मार्ग न ज्ञानादेव केवलात् ॥ १५ ॥ - सिद्धस्यापास्तनिःशेषकर्म्मणो वागसम्भवात् । विना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नाथपदेशिता ॥ १६ ॥ तथा धर्मविशेषोऽस्य योगश्च यदि शाश्वतः । तदेश्वरस्य देहोऽस्तु योग्यन्तरवदुत्तमः ॥ १७ ॥ निग्रहानुग्रहो देहं स्वं निर्मायान्यदेहिनाम् । करोतीश्वर इत्येतन परीक्षाक्षमं वचः ॥ १८ ॥ देहान्तराद्विना तावत्स्वदेहं जनयेद्यदि । तदा प्रकृतकार्याऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥ १९ ॥ देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः । तथा च प्रकृतं कार्य्यं कुर्य्यादीशो न जातुचित् ॥२०॥
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प्रथम गुच्छक।
स्वयं देहाविधाने तु तेनैव व्यभिचारिता। कार्यत्वादेः प्रयुक्तस्य हेतोरीश्वरसाधने ॥२१॥ यथानीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरात्मनः । पूर्वस्मादित्यनादित्वान्नानवस्था प्रसज्यते ॥ २२ ॥ तथेशस्यापि पूर्वस्माइहादेहान्तरोद्भवात् । नानवस्थेति यो ब्रूयात्तस्यानीशत्वमीशितुः ॥ २३ ॥ अनीशः कर्मदेहेनाऽनादिसन्तानवर्तिना। यथैव हि सकनिस्तद्वन्न कथमीश्वरः ॥२४॥ ततो नेशस्य देहोऽस्ति प्रोक्तदोषानुषङ्गतः। नापि धर्मविशेषोऽस्य देहाभावे विरोधतः ॥२५॥ येनेच्छामन्तरेणापि तस्य कार्ये प्रवर्तनम् । जिनेन्द्रवद् घटेतेति नोदाहरणसम्भवः ॥२६॥ शानमीशस्य नित्यं चेदशरीरस्य न क्रमः । कार्याणामक्रमाद्धेतोः कार्यक्रमविरोधतः ॥२७॥ तद्वोधस्य प्रमाणत्वे फलाभावः प्रसज्यते । ततः फलावबोधस्यानित्यस्ये ष्टौ मतक्षतिः ॥ २८ ॥ फलत्वे तस्य नित्यत्वं न स्यान्मानासमुद्भवात् । ततोऽनुद्भवने तस्य फलत्वं प्रतिहन्यते ॥ २९ ॥ अनित्यत्वे तु तज्ज्ञानस्यानेन व्यभिचारिता । कार्यत्वादेर्महेशेनाकरणेऽस्य स्वबुद्धितः ॥३०॥ बुद्धन्तरेण तबुद्धेः करणे चानवस्थितिः। नानादिसन्ततिर्युका कर्मसन्तानतो विना ॥ ३१॥ अव्यापि च यदि शानमीश्वरस्य तदा कथम् । सवत्सर्वत्र कार्याणामुत्पत्तिर्घटते ततः ॥ ३२ ॥
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आप्तपरीक्षा।
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योकत्र स्थितं देशे शानं सर्वत्र कार्यकृत् । तदा सर्वत्र कार्याणां सकृत्किन्न समुद्भवः ॥ ३३॥ कारणान्तरवैकल्यात्तथानुत्पत्तिरित्यपि । कार्याणामीश्वरज्ञानाहेतुकत्वं प्रसाधयेत् ॥ ३४ ॥ सर्वत्र सर्वदा तस्य व्यतिरेकाप्रसिद्धितः । अन्वयस्यापि सन्देहात्कायं तद्धतुकं कथम् ॥ ३५ ॥ एतेनैवेश्वरशानं व्यापि नित्यमपाकृतम् । तस्येशवत्सदा कार्यक्रमहेतुत्वहानितः ॥ ३६ ॥ अस्वसंविदितं शानमीश्वरस्य यदीप्यते । सदा सर्वशता न स्यात्स्वज्ञानस्याप्रवेदनात् ॥ ३७ ॥ शानान्तरेण तद्वित्तौ तस्याप्यन्येन वेदनम् । वेदनेन भवेदेवमनवस्था महीयसी ॥३८॥ गत्वा सुदूरमप्येवं स्वसंविदितवेदने । इज्यमाणे महेशस्य प्रथमं तागस्तु वः ॥ ३९ ॥ . तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं भिन्नं महेश्वरात् । कथं तस्येति निर्देश्यमाकाशादिवदासा ॥ ४०॥ समवायेन तस्यापि तद्भिन्नस्य कुतो गतिः। इहेदमिति विज्ञानादबाध्यायभिचारितम् ॥४१॥ इह कुण्डे दधीत्यादिविशानेनास्तविद्विषा । साध्ये सम्बन्धमात्रे तु परेषां सिद्धसाधनम् ॥ ४२ ॥ सत्यामयुतसिद्धौ चेन्नेदं साधु विशेषणम् । शास्त्रीयायुतसिद्धत्वविरहात्समवायिनोः ॥४३॥ द्रव्यं स्वावयवाधारं गुणो द्रव्याश्रयो यतः । लौकिक्ययुतसिद्धिस्तु भवेददुग्धाम्भसोरपि ॥४४॥
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प्रथम गुच्छक |
पृथगाश्रयवृत्तित्वं युतसिद्धिर्न चानयोः । सास्तीशस्य विभुत्वेन परद्रव्याश्रितिच्युतेः ॥ ४५ ॥ ज्ञानस्यापीश्वरादन्यद्रव्यवृत्तित्वहानितः । इति येऽपि समादध्युस्तांश्च पर्य्यनुर्युज्महे ॥ ४६ ॥ विभुद्रव्यविशेषाणामन्याश्रयविवेकतः । युतसिद्धिः कथं नु स्यादेकद्रव्यगुणादिषु ॥ ४७ ॥ समवायः प्रसज्येताऽयुत सिद्धौ परस्परम् । तेषां तद्वितयासत्त्वं स्याद्याघातो दुरुत्तरः ॥ ४८ ॥ युतप्रत्ययहेतुत्वाद्युतसिद्धिरितीरणे । विभुद्रव्यगुणादीनां युतसिद्धिः समागता ॥ ४९ ॥ ततो नायुतसिद्धिः स्यादित्यसिद्धं विशेषणम् । हेतोर्विपक्षतस्तावद्व्यवच्छेदं न साधयेत् ॥ ५० ॥ सिद्धेऽपि समवायस्य समवायिषु दर्शनात् । इदमिति संवित्तेः साधनं व्यभिचारि तत् ॥ ५१ ॥ समवायान्तराद्वृत्तौ समवायस्य तत्त्वतः समवायिषु तस्यापि परस्मादित्यनिष्ठतिः ॥ ५२ ॥ तद्बाधास्तीत्यबाधत्वं नाम नेह विशेषणम् । हेतोः सिद्धमनेकान्तो यतोऽनेनेति ये विदुः ॥ ५३ ॥ तेषामिति विज्ञानाद्विशेषणविशेष्यता । समवायस्य तद्वत्सु तत एव न सिध्यति ॥ ५४ ॥ विशेषणविशेष्यत्व सम्बन्धोऽप्यन्यतो यदि । स्वसम्बन्धिषु वर्तेत तदा बाधानवस्थितिः ॥ ५५ ॥ विशेषणविशेष्यत्वप्रत्ययादवगम्यते ।
विशेषणविशेष्यत्वमित्यप्येतेन दूषितम् ॥ ५६ ॥
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आप्तपरीक्षा।
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तस्यानन्त्यात्प्रपत्तॄणामाकांक्षाक्षयतोऽपि वा। न दोष इति चेदेवं समवायादिनापि किम् ॥ ५७ ॥ गुणादिद्रव्ययोभिन्नद्रव्ययोश्च परस्परम् । विशेषणविशेष्यत्वसम्बन्धोऽस्तु निरङ्कशः ॥ ५८ ॥ संयोगः समवायो वा तद्विशेषोऽस्त्वनेकधा । स्वातन्त्र्ये समवायस्य सर्वथैक्ये च दोषतः ॥ ५९ ॥ स्वतन्त्रस्य कथं तावदाश्रितत्वं स्वयं मतम् । तस्याश्रितत्ववचने स्वातन्त्र्यं प्रतिहन्यते ॥ ६०॥ समवायिषु सत्स्वेव समवायस्य वेदनात् । आश्रितत्वे दिगादीनां मृतद्रव्याधितिर्न किम् ॥ ६१ ॥ कथं चानाश्रितः सिद्ध्येत्सम्बन्धः सर्वथा कचित् । स्वसम्बन्धिषु येनातः सम्भवेनियमस्थितिः ।। ६२ ॥ एक एव च सर्वत्र समवायो यदीष्यते। तदा महेश्वरे ज्ञानं समवैति न खे कथम् ॥ ६३ ॥ इहेति प्रत्ययोऽप्येष शङ्करे न तु खादिषु । इति भेदः कथं सिध्येनियामकमपश्यतः ॥ ६४ ॥ न चाचेतनता तत्र सम्भाव्येत नियामिका । शम्भावपि तदास्थानात्खादेस्तदविशेषतः ॥ ६५ ॥ नेशो शाता न चाहाता स्वयं ज्ञानस्य केवलम् । समवायात्सदा ज्ञाता यद्यात्मैव स किं स्वतः ॥६६॥ नायमात्मा न चानात्मा स्वात्मत्वसमवायतः। सदात्मैवेति चेदेवं द्रव्यमेव स्वतोऽसिधत् ॥ ६७ ॥ नेशो द्रव्यं न चाद्रव्यं द्रव्यत्वसमवायतः। सर्वदा द्रव्यमेवेति यदि सभेव स स्वतः ॥ ६८ ॥
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प्रथम गुच्छक ।
म स्वतः सदसन्नापि सत्त्वेन समवायतः । सन्नेव शश्वदित्युक्तौ व्याघातः केन वार्यते ॥ ६९ ॥ स्वरूपेणासतः सस्वसमवाये च खाम्बुजे । स स्यात्किन्न विशेषस्याभावात्तस्य ततोऽअसा ॥७०॥ स्वरूपेणासतः सत्वसमवायेऽपि सर्वदा । सामान्यादौ भवेत्सत्त्वसमवायोऽविशेषतः ॥ ७१ ॥ स्वतः सतो यथा सत्त्वसमवायस्तथास्तु सः । द्रव्यत्यात्मत्वबोद्धत्वसमवायोऽपि तत्त्वतः ॥ ७२ ॥ द्रव्यस्यैवात्मनो बोद्धुः स्वयं सिद्धस्य सर्वदा । न हि स्वतोऽतथाभूतस्तथात्वसमवायभाक् ॥ ७३ ॥ स्वयं शत्वे च सिद्धेऽस्य महेशस्य निरर्थकम् । ज्ञानस्य समवायेन ज्ञत्वस्य परिकल्पनम् ॥ ७४ ॥ तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानतादात्म्यमृच्छतः । कथंचिदीश्वरस्यास्ति जिनेशत्वमसंशयम् ॥ ७५ ॥ स एव मोक्षमार्गस्य प्रणेता व्यवतिष्ठते । सदेहः सर्वविन्नष्टमोहो धर्म्मविशेषभाक् ॥ ७६ ॥ ज्ञानादन्यस्तु निर्देहः सदेहो वा न युज्यते । शिवः कर्त्तोपदेशस्य सोऽभेत्ता कर्म्मभूभृताम् ॥७७॥ एतेनैव प्रतिव्यूढः कपिलोऽप्युपदेशकः । ज्ञानादर्थान्तरत्वस्याविशेषात्सर्वथा स्वतः ॥ ७८ ॥ ज्ञानसंसर्गतो शत्वमशस्यापि न तत्त्वतः । व्योमवच्चेतनस्यापि नोपपद्येत मुक्तवत् ॥ ७९ ॥ प्रधानं शत्वतो मोक्षमार्गस्यास्तूपदेशकम् । तस्यैव विश्ववेदित्वाद्भेत्तृत्वात्कर्म्मभूभृताम् ॥ ८० ॥
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आप्तपरीक्षा।
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इत्यसम्भाव्यमेवास्याचेतनत्वात्पटादिवत् । तदसम्भवतो नूनमन्यथा निष्फलः पुमान् ॥ ८१॥ भोक्तात्मा चेत्स एवास्तु की तदविरोधतः। विरोधे तु तयो क्तुः स्याद्भजौ कर्तृता कथम् ॥ ८२॥ प्रधानं मोक्षमार्गस्य प्रणेतृ स्तूयते पुमान् । मुमुक्षुभिरिति ब्रूयात्कोऽन्योकिञ्चित्करात्मनः ॥ ८३॥ सुगतोऽपि न निर्वाणमार्गस्य प्रतिपादकः । विश्वतत्त्वशतापायात्तत्वतः कपिलादिवत् ॥ ४॥ संवृत्या विश्वतत्त्वशः श्रेयोमार्गोपदेश्यपि । बुद्धो वन्द्यो न तु स्वप्नस्ताहगित्याचेष्टितम् ॥ ५॥ यत्तु संवेदनाद्वैतं पुरुषाद्वैतवन्न तत् । सिञ्चत्स्वतोऽन्यतो वापि प्रमाणात्स्वेष्टहानितः ॥ ८६ ॥ सोऽहन्नेव मुनीन्द्राणां वन्द्यः समवतिष्ठते । तत्सद्भावे प्रमाणस्य निर्बाध्यस्य विनिश्चयात् ॥ ८७ ॥ ततोऽन्तरिततत्त्वानि प्रत्यक्षाण्यईतोऽअसा। प्रमेयत्वाधथास्मारक् प्रत्यक्षार्थाः सुनिश्चिताः॥८८॥ हेतोर्न व्यभिचारोऽत्र दूरार्थैर्मन्दरादिभिः । सूक्ष्मैर्वा परमाण्वाद्यैस्तेषां पक्षीकृतत्वतः ॥ ८॥ तत्त्वान्यन्तरितानीह देशकालस्वभावतः। धर्मादीनि हि साध्यन्ते प्रत्यक्षाणि जिनेशिनः ॥ १० ॥ न चास्मारक्समक्षाणामेवमहत्समक्षता। म सिद्ध्येदिति मन्तव्यमविवादाद्वयोरपि ॥ ९१ ॥ न चासिद्धं प्रमेयत्वं कात्य॑तो भागतोऽपि वा। सर्वथाप्यप्रमेयस्य पदार्थस्याव्यवस्थितेः ॥ ९२॥ ..
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२३४
प्रथम गुच्छक । यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात्सर्वज्ञः केन वार्यते । इति त्रुवशेषार्थप्रमेयत्वमिहेच्छति ॥ ९३ ॥ चोदनातश्च निःशेषपदार्थज्ञानसम्भवे । सिद्धमन्तरितार्थानां प्रमेयत्वं समक्षवत् ।। ९४ ॥ यन्नाहतः समक्षं तन्न प्रमेयं बहिर्गतः । मिथ्यकान्तो यथेत्येवं व्यतिरेकोऽपि निश्चितः ॥ १५ ॥ सुनिश्चितान्वयाखेतोः प्रसिद्धव्यतिरेकतः । शाताहन विश्वतत्त्वानामेवं सिध्येदबाधितः ॥ ९६ ॥ प्रत्यक्षमपरिच्छिन्दत्रिकालं भुवनत्रयम् । रहितं विश्वतत्त्व न हि तद्बाधकं भवेत् ॥ ९७॥ नानुमानोपमानार्धापत्यागमबलादपि । विश्वशाभावसंसिद्धिस्तेषां सद्विषयत्वतः ॥९८ ॥ नाहनिःशेषतत्वो वक्तृत्वपुरुषत्वतः । ब्रह्मादिवविति प्रोक्तमनुमानं न बाधकम् ॥ ९९ ॥ हेतोरस्य विपक्षण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादेः प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिसिसिद्धितः ॥ १०॥ नोपमानमशेषाणां नृणामनुपलम्भतः। उपमानोपमेयानां तबाधकमसम्भवात् ॥ १०१॥ नार्थापत्तिरसर्वक्षं जगत्साधयितुं क्षमा। क्षीणत्वादन्यथाभावाभावात्तत्तद्बाधिका ॥ १०२ ।। नागमोऽपौरुषेयोऽस्ति सर्वशाभावसाधनः । तस्य कार्ये प्रमाणत्वादन्यथानिष्टसिद्धितः ॥ १०३ ॥ पौरुषेयोऽप्यसर्वक्षप्रणीतो नास्य बाधकः । तत्र तस्याप्रमाणत्वाधर्मादाविव तस्वतः॥ १०४॥
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आप्तपरीक्षा।
२३५
अभावोऽपि प्रमाणं ते निषेध्याधारवेदने । निषेध्यस्मरणे च स्थानास्तिताशानमञ्जसा ॥ १०५ ॥ न चाशेषजगज्ज्ञानं कुतश्चिदुपपद्यते । नापि सर्वक्षसंवित्तिः पूर्व तत्स्मरणं कुतः ॥ १०६ ॥ येनाशेषजगत्यस्य सर्वज्ञस्य निषेधनम् । परोपगमतस्तस्य निषेधे म्वेष्टबाधनम् ॥ १०७॥ मिथ्यकान्तनिषेधस्तु युक्तोऽनेकान्तसिद्धितः। नासर्वक्षजगत्सिद्धेः सर्वज्ञप्रतिषेधनम् ॥ १०८ ॥ एवं सिद्धः सुनिर्णताऽसम्भवद्बाधकत्वतः । सुखवद्विश्वतत्वज्ञः सोऽहनेव भवानिह ॥ १०९ ॥ स कर्मभूभृतां भेत्ता तद्विपक्षप्रकर्षतः। यथा शीतस्य भेत्तेह कश्चिदुष्णप्रकर्षतः ॥ ११०॥ तेषामागमिनां तावद्विपक्षः संवरो मतः। तपसा सञ्चितानान्तु निर्जरा कर्मभूभृताम् ॥ १११ ॥ तत्प्रकर्षः पुनः सिद्धः परमः परमात्मनि । तारतम्यविशेषस्य सिद्धरुष्णप्रकर्षवत् ॥ ११२॥ कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभावविकल्पतः। द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा ॥ ११३ ॥ भावकर्माणि चैतन्यविवर्तात्मानि भान्ति नुः । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिश्चिदभेदतः ॥ ११४॥ तत्स्कन्धराशयः प्रोक्ता भूभृतोऽत्र समाधितः। जीवाद्विश्लेषेणं भेदः सन्तानात्यन्तसंक्षयः ॥ ११५ ॥ स्वात्मलाभस्ततो मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयात्मनः । निर्जरासंवराभ्यां तुः सर्वसद्वादिनामिह ॥ ११६ ॥
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प्रथम गुच्छक ।
नास्तिकानान्तु नैवास्ति प्रमाणं तभिराकृतौ। प्रलापमात्रकं तेषां नावधेयं महात्मनाम् ॥ ११७ ॥ मागों मोक्षस्य वै सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकः । विशेषेण प्रपत्तव्यो नान्यथा तद्विरोधतः ॥ ११८ ॥ प्रणेता मोक्षमार्गस्यावाध्यमानस्य सर्वथा। साक्षाय एव स शेयो विश्वतत्त्वशताश्रयः ॥ ११९ ॥ वीतनिःशेषदोषोऽतः प्रवन्धोर्डन् गुणाम्बुधिः । तद्गुणप्राप्तये सद्भिरिति संक्षेपतोऽन्वयः ॥ १२० ॥ मोहाक्रान्तान भवति गुरो मोक्षमार्गप्रणीति. नेते तस्याः सकलकलुषध्वंसजा स्वात्मलब्धिः । तस्यै वन्धः परगुरुरिह क्षीणमोहस्त्वमर्हन् साक्षात्कुर्वन्नमलकमिवाशेषतत्त्वानि नाथ ॥ १२१ ॥ न्यक्षेणाप्तपरीक्षाप्रतिपक्षं क्षपयितुं क्षमा साक्षात् ।
प्रेक्षावतामभीक्ष्णं विमोक्षलक्ष्मीः क्षणाय संलक्ष्या ॥१२२॥ श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमा प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं त. द्विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै॥१२३॥
इति तत्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा। प्रणीताप्तपरीक्षेयं कुविवादनिवृत्तये ॥ १२४ ॥
इत्याप्तपरीक्षा समाप्ता।
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श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिता
प्राप्तमीमांसा ।
(११) देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ १॥ अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः। दिव्यः सत्योदिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः॥२॥ तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः। सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेदुरुः ॥३॥ दोषावरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात् । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ सुक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वशसंस्थितिः ॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन व बाध्यते ॥६॥. त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम्। माताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित् । एकान्तप्रहरकेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥ ८ ॥
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२३८
प्रथम गुच्छक ।
भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥ ९ ॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निह्नवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥ १० ॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ११ ॥ अभावकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम् ॥ १२ ॥ विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिनावाच्यमिति युज्यते ॥ १३ ॥ कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगात्र सर्वथा ॥ १४ ॥ सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ क्रमाप्तिद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः। अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गा स्वहेतुतः ॥ १६ ॥ अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि । विशेषणत्वात्साधर्म्य यथा भेदविवक्षया ॥ १७॥ नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधार्मिणि । विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेदविवक्षया ॥ १८ ॥ विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः। साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥ १९ ॥ शेषभङ्गाश्च नेतव्या यथोक्तनययोगतः । न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र तव शासने ॥ २० ॥
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आतमीमांसा !
एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेति चेन्न यथाकार्य बहिरन्तरुपाधिभिः ॥ २१ ॥ धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थों धर्मिणोऽनन्तधर्मणः । अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ॥ २२ ॥ एकानेकविकल्पादावुत्तरत्राऽपि योजयेत् । प्रक्रियां भङ्गिनीमेनां नयैर्नयविशारदः || २३ ॥ अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ २५ ॥ हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाड्यात्रतो न किम् ॥ २६ ॥ अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । सञ्ज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याद्यते क्वचित् ॥ २७ ॥ पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक्कृतौ । पृथक्त्वे नं पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो हासौ गुणः ॥ २८ ॥ सन्तानः समुदायश्च साधर्म्य च निरङ्कुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिह्नवे ॥ २९ ॥ सदात्मना च भिनं चेतु ज्ञानं ज्ञेयाद्विधाऽप्यसत् । ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥ ३० ॥ सामान्यार्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाभिलप्यते । सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥ ३१ ॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ३२ ॥
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२४०
प्रथम गुच्छक। अनपेक्षे पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तुद्वयहेतुतः। तदेवैक्यं पृथक्त्वं च स्वभेदैः साधनं यथा ॥ ३३ ॥ सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथक् द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदविवक्षायामसाधारणहेतुवत् ॥ ३४॥ विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधामणि । सतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभिः ॥ ३५ ॥ प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदो न संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ॥ ३६ ॥ नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क प्रमाणं क तत्फलम् ॥ ३७॥ प्रमाणकारकैद्यक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत् । ते च नित्ये विकार्य किं साधोस्ते शासनाद्वहिः ॥ ३८॥ यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवनोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रक्लप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥ ३९ ॥ पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः। बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥ ४० ॥ क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाधभावान कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥ यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामोभून्माऽऽश्वासः कार्यजन्मनि ॥४२॥ न हेतुफलभावादिरन्यभाषादनन्वयात् । सन्तानान्तरवनका सन्तानस्तद्वतः पृथक् ॥ ४३ ॥ अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिन मृण कथम् । मुख्यार्थः संवृतिर्नास्ति विना मुख्यान संवृतिः ॥४४॥
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आप्तमीमांसा |
चतुष्कोटेर्विकल्पस्य सर्वान्तेषूक्तयोगतः । तत्त्वान्यत्वमवाच्यं च तयोः सन्तानतद्वतोः ॥ ४५ ॥ अवक्तव्य चतुष्कोटिविकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणम् ॥ ४६ ॥ द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः सञ्ज्ञिनः सतः । असद्भेदो न भावस्तु स्थानं विधिनिषेधयोः ॥ ४७ ॥ अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात् सर्वान्तैः परिवर्जितम् । वस्त्वेवावस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ॥ ४८ ॥ सर्वान्ताश्वेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः । संवृतिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ॥ ४९ ॥ अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥ ५०॥ हिनस्त्यनभिसन्धातृ न हिनस्त्यभिसन्धिमत् । बद्ध्यते तद्द्यापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥ ५१ ॥ अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसा हेतुर्न हिंसकः । चित्तसन्ततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः ॥ ५२ ॥ विरूपकार्यारम्भाय यदि हेतुसमागमः । आश्रयिभ्यामनन्योऽसावविशेषादयुक्तवत् ॥ ५३ ॥ स्कन्धाः सन्ततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः । स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां न स्युः स्त्ररविषाणवत् ॥ ५४ ॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ५५ ॥ नित्यं तत् प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा । क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसञ्चरदोषतः ॥ ५६ ॥
१६
૪૩
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प्रथम गुच्छक ।
न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । ज्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥ ५७॥ कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८॥ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ५९ ॥ पयोवतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ६॥ कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यताऽपि च । सामान्यतद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीप्यते ॥ ६१ ॥ एकस्यानेकवृत्तिन भागाभावादहूनि वा । भागित्वाद्वाऽस्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाईते । ६२ ।। देशकालविशेषेऽपि स्याद्वत्तियुतसिद्धवत् । समानदेशता न स्यात् मूर्तकारणकार्ययोः ॥ ६३ ॥ आश्रयाश्रयिभावान स्वातन्त्र्यं समवायिनाम् । इत्ययुक्तः स सम्बंधो न युक्तः समवायिभिः ॥ ६४॥ सामान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः।। अन्तरेणाश्रयं न स्यानाशोत्पादिषु को विधिः ॥६॥ सर्वथाऽनभिसम्बन्धः सामान्यसमवाययोः। ताभ्यामर्थो न सम्बद्धस्तानि त्रीणि स्त्रपुष्पवत् ॥६६॥ अनन्यतैकान्तेऽणूनां सङ्घातेऽपि विभागवत् । असंहतत्वं स्याद्भूतचतुष्कं भ्रान्तिरेव सा ॥ ६७ ।। कार्यभ्रान्तेरणुभ्रान्तिः कार्यलिङ्गं हि कारणम् । उभयाभावतस्तत्स्थं गुणजातीतरच न ॥ ६८ ॥ :
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आप्तमीमांसा।
२४३
एकत्वेऽन्यतराभावः शेषाभावोऽविनाभुवः। द्वित्वसंख्याविरोधश्च संवृतिश्चेन्मृषैव सा॥ ६९ ।। विरोधात्रोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ ७० ॥ द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः॥ ७१ ॥ संशासंख्याविशेषाश्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तनानात्वं न सर्वथा ॥ ७२ ॥ यद्यापेक्षिकसिद्धिः स्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते । मनापेक्षिकसिद्धौ च न सामान्यविशेषता ॥ ७३ ॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिवाच्यमिति युज्यते ॥७४॥ धर्मधर्म्यविनाभावः सिद्ध्यत्यन्योऽन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत् कारकशापकाङ्गवत् ॥७॥ सिद्धं चेद्धेतुतः सर्व न प्रत्यक्षादितो गतिः। सिद्धं चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ ७६ ॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अचाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ७७ ॥ वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आते वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ।। ७८ ॥ अन्तरङ्गार्थतैकान्ते बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम् ॥ प्रमाणाभासमेवातस्तत्प्रमाणाहते कथम् ॥ ७९ ॥ साध्यसाधनविज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता । न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिमाहेतुदोषतः ॥ ८ ॥
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२४४
प्रथम गुच्छक ।
बहिरङ्गार्थतैकान्ते प्रमाणाभासनिह्नवात्। सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याद्विरुद्धार्थाभिधायिनाम् ॥ ८१ ॥ विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ ८२ ॥ भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥ ८३ ॥ जीवशब्दः सबाह्यार्थः संशात्वाद्धेतुशब्दवत् । मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च मायाद्यैः स्वैः प्रमोक्तिवत् ॥८॥ बुद्धिशब्दार्थसंशास्तास्तिस्रो बुधादिवाचिकाः । तुल्या बुद्ध्वादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिबिम्बकाः ॥ ५ ॥ वक्तृश्रोतृप्रमातृणां वाक्यबोधप्रमाः पृथक् । भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्यार्थी तादृशेतरौ ॥ ८६ ॥ बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं वाक्यबोधप्रमाः पृथक् । सत्यानृतव्यवस्थैवं युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु ॥ ८७ ॥ दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दवं पौरुषतः कथम् । देवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥ ८८ ॥ पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं देवतः कथम् । पौरुषाचेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।। ८९ ॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥९०॥ अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ ९१ ॥ पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ १२॥
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आप्तमीमांसा।
२४५
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ॥१३॥ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ९४॥ विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापनवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवाहतः ॥ ९५ ॥ अज्ञानाचेधुवो बन्धो शेयानन्त्यान केवली । शानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्वहुतोऽन्यथा ॥ ९६ ॥ विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ९७॥ अज्ञानान्मोहतो बन्धो नाशानाद्वीतमाहतः। शानस्तोकाश्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहितोऽन्यथा ॥९८॥ कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः। . तश्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धितः॥ ९९ ॥ शुद्ध्यशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् ॥ साद्यनादी तयोर्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥१०॥ तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ १०१ ॥ उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्व वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥ १०२ ॥ वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यम्प्रतिविशेषकः । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥ स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ १०४ ॥
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२४६
प्रथम गुच्छक । स्याद्वादकेवलशाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच हवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ॥ सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥ १०६ ॥ नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राट् भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ॥ १०७ ।। मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१०॥ नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा। तथाऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा ॥ १०९ ॥ तदतद्वस्तु वागेषा तदेवेत्युनुशासति ।। न सत्या स्यान्मृषावाक्यैः कथं तत्वार्थदेशना ॥ ११ ॥ वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थप्रतिषेधनिरङ्कशः। आह च स्वार्थसामान्यं तादृग्वाच्यं खपुष्पवत् ॥१११॥ सामान्यवाग्विशेषे चेन्न शब्दार्थो मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः ॥ ११२ ॥ विधेयमीप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याविरोधि यत् । तथैवादेयहेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः ॥ ११३ ॥ इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छता। सम्यनिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ ११४ ॥ जयति जगति क्लेशावेशप्रपञ्चहिमांशुमान् विहतविषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान् । यतिपतिरजो यस्याधृष्टान्मताम्बुनिधेलवान् स्वमतमतयस्तीर्थ्या नाना परे समुपासते ॥११५॥
इति श्री आप्तमीमांसा समाता ।
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अथ समन्तभद्रस्वामिविरचितं
युक्त्यनुशासनम् ।
कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वं । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम् ॥१॥ याथात्म्यमुल्लचय गुणोदयाख्या लोके स्तुतिभूरिगुणोदधेस्ते अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तुं जिन त्वां किमिवस्तुयाम ॥२॥ तथापि वैयात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः॥३॥ त्वं शुद्धिशक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपां। अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥ कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनानयो वा । स्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥५॥ दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताजसार्थ । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैजिन त्वदीयं मतमद्वितीयं ॥६॥ अभेदभेदात्मकमर्थतत्वं तव स्वतन्त्रान्यतरत् खपुष्पम् । अवृत्तिमत्त्वात्समवायवृत्तेः संसर्गहानेः सकलार्थहानिः ॥ ७ ॥ भावेषु नित्येषु विकारहानेर्न कारकव्यापृतकार्ययुक्तिः । न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयं ॥ ८॥
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૨૪૮
प्रथम गुच्छक ।
अहेतुकत्वं प्रथितः स्वभावस्तस्मिन् क्रियाकारकविभ्रमः स्यात्। आबालसिद्धेर्विविधार्थसिद्धिर्वादान्तरं किं तदसूयतां ते ॥९॥ येषामवक्तव्यमिहात्मतत्त्वं देहादनन्यत्वपृथक्त्वक्लप्तेः । तेषां शतत्वेऽनवधार्यतत्वे का बन्धमोक्षस्थितिरप्रमेये ॥१०॥ हेतुर्न दृष्टोऽत्र न वाऽप्यदृष्टो योऽयं प्रवादः क्षणिकात्मवादः । न ध्वस्तमन्यत्रभवेद्वितीये संतानभिन्ने नहि वासनाऽस्ति ॥११॥ तथा न तत्कारणकार्यभावा निरन्वयाः केन समानरूपाः । असत् खपुष्पं नहि हेत्वपेक्षं दृष्टं न सिद्ध्यत्युभयोरसिद्धम् ॥१२॥ नैवास्ति हेतुः क्षणिकात्मवादे न सनसन्वा विभवादकस्मात् । नाशोदयैकक्षणता च दुष्टा सन्तानभिन्नक्षणयोरभावात् ॥१३॥ कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगौ स्यातामसंचेतितकर्म च स्यात् । आकस्मिकेऽर्थे प्रलयस्वभावो मार्गोन युक्तोवधकश्च न स्यात् १४ नबन्धमोक्षौ क्षणिकैकसंस्थौन संवृतिः साऽपि मृषास्वभावा। मुख्याहते गौणविधिर्न दृष्टो विभ्रान्तदृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥१५॥ प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वान्न मातृघाती स्वपतिः स्वजाया। दत्तमहोनाधिगतस्मृतिर्न न क्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ॥१६॥ न शास्तृशिष्यादिविधिव्यवस्था विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिलाचेत् अतत्त्वतत्त्वादिविकल्पमोहे निमजतां वीतविकल्पधीः का ॥१७॥ अनर्थका साधनसाध्यधीश्चेद्विज्ञानमात्रस्य न हेतुसिद्धिः । अथार्थवत्त्वं व्यभिचारदोषो न योगिगम्यं परवादिसिद्धम् ॥१८॥ तत्त्वं विशुद्धं सकलैर्विकल्पैविश्वाभिलापास्पदतामतीतं । न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगधं सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्तिबाह्यं ॥१९॥ मूकात्मसंवेद्यवदात्मवेद्यं तन्म्लिष्टभाषाप्रतिमप्रलापं । अनङ्गसंशं तदवेद्यमन्यैः स्यात्वविषां वाच्यमवाच्यतत्त्वं ॥ २०॥
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युक्त्यनुशासनम् ।
२४९
अशासदांसि वचांसि शास्ता शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न तेतैः। अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत् त्वया विनाश्रायसमार्य किंतत्॥२१॥ प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्गगम्यं न तदर्थलिङ्गम् । वाचो न वा तद्विषयेण योगः का तद्गतिः कष्टमशृण्वतां ते॥२२॥ रागाद्यविद्याऽनलदीपनं च विमोक्षविद्यामृतशासनं च । न भिद्यते संवृतिवादिवाक्यं भवत्प्रतीपं परमार्थशून्यं ॥ २३ ॥ विद्याप्रसृत्यै किल शील्यमाना भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा । अहो त्वदीयोक्त्यनभिशमोहो यजन्मने यत्तदजन्मने तत्॥२४॥ अभावमात्रं परमार्थवृत्तेः सा संवृतिः सर्वविशेषशून्या । तस्या विशेषौ किल बन्धमोक्षौ हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यं ॥२५॥ व्यतीतसामान्यविशेषभावाद्विश्वाभिलापार्थविकल्पशून्यं । खपुष्पवत् स्यादसदेव तत्त्वं प्रबुद्धतत्त्वाद्भवतः परेषां ॥ २६ ॥ अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायाद्गतिर्भवेत्तौ वचनीयगम्यौ । सम्बन्धिनो चेन्न विरोधि दृष्टं वाच्यं यथार्थ न च दूषणं तत् ॥२७॥ उपेयतत्त्वानभिलाप्यतावदुपायतत्त्वानभिलाप्यता स्यात् । अशेषतत्त्वानभिलाप्यतायां द्विषां भवद्युक्त्यभिलाप्यतायाः॥२८॥ अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् । स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धं ॥ २९ ॥ सत्यानृतं वाप्यनृतानृतं वाप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन । युक्तं प्रतिद्वंद्यनुबन्धिमिधेन वस्तु तादृक्त्वदृते जिनेदृक् ॥३०॥ सहक्रमाद्वा विषयाल्पभूरिभेदेऽनृतं भेदि न चात्मभेदात् । आत्मान्तरं स्याद्भिदुरं समं च स्याचानृतात्मानभिलाप्यता च३४ न सच नासच न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्वनिषेधगम्यं । दृष्टं विमिश्रं तदुपाधिभेदात् स्वप्नेऽपि नैतस्वषेः परेषां ॥३२॥
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प्रथम गुच्छक।
प्रत्यक्षनिर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं शापयितुं शक्यं । विना च सिद्धेनंच लक्षणार्थो न तावकद्वेषिणि वीर सत्यं ॥३३॥ कालान्तरस्थे क्षणिके ध्रुवे वाऽप्रथक्पृथक्त्वावचनीयतायां । विकारहानेन च कर्तृकार्य वृथा श्रमोऽये जिन विद्विषां ते ॥३४॥ मद्याङ्गवद्भूतसमागमे शः शक्त्यन्तरव्यक्तिरदैवसृष्टिः । इत्यात्मशिनोदरपुष्टितुष्टैर्निीभयैर्हा मृदवः प्रलब्धाः ॥ ३५ ॥ दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्वमेषां । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा प्रपातः ॥३६॥ स्वच्छन्दवृत्तेर्जगतः स्वभावादुच्चैरनाचारपथेवदोषं । निघुष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टिवाह्या वत विभ्रमंति ॥३७॥ प्रवृत्तिरक्तैः शमतुष्टिरिक्तैरुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्गनिष्ठा । प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं तमः परेषां तव सुप्रभातं ॥ ३८॥ शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैर्देवान्किलाराध्य सुखाभिगृद्धाः। सिद्ध्यन्ति दोषापचयानपेक्षा युक्तं च तेषां त्वमृषिन येषां ३९
स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः संप्राप्तस्य विशुद्धिशक्तिपदवीं काष्ठां परामाश्रितां । निर्णीतं मतमद्वितीयममलं संक्षेपतोऽपाकृतं ।
तद्वाह्यं वितथं मतं च सकलं सद्धीधनैर्बुध्यतां ॥ ४० ॥ सामान्यनिष्ठा विविधा विशेषाः पदं विशेषान्तरपक्षपाति । अन्तर्विशेषान्तरवृत्तितोऽन्यत् सामान्यभावं नयते विशेषं ॥४॥ यदेवकारोपहितं पदं तदस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । पर्यायसामान्यविशेषसर्व पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥४२॥ अनुक्ततुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्त्यभावानियमद्वयेऽपि । पर्यायभावेऽन्यतराप्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्मानं ॥ ४३ ॥
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थुक्त्यनुशासनम् ।
२५१
विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात् तद्द्योतनः स्याहुणतो निपातः । विपाद्यसन्धिश्च तथाङ्गभावात् अवाच्यताश्रायस लोप हेतुः ॥४४॥ तथा प्रतिज्ञाशयतो प्रयोगः सायर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । इति त्वदीया जिन नागदृष्टिः पराप्रधृष्या परधर्षिणी च ॥ ४५ ॥ विधिर्निषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव ।
यो विकल्पास्तव सप्तधामी स्याच्छन्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ४६ स्यादित्यपि स्याद्गुणमुख्यकल्पैकान्तो यथोपाधिविशेषवीक्ष्यः । तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं द्विधाभवार्थव्यवहारवत्त्वात् ॥ ४७ ॥ न द्रव्यपयपृथग्व्यवस्थाद्वैयात्म्यमेकार्पणया विरुद्धं । धर्मश्व धर्मी च मिथस्त्रिधेमौ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्ध ॥ ४८ ॥ दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदयव्ययात्मतत्त्वव्यवस्थं सदिहार्थरूपं ॥ ४९ ॥ नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना । अङ्गाङ्गिभावात्तव वस्तु तद्यत् क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपं ॥ ५०॥ मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थहेतुर्नाशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः । परस्परेक्षाः पुरुषार्थहेतुर्दष्टा नयास्तद्वदसि क्रियायां ॥ ५१ ॥ एकान्तधर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानां । एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५२॥ प्रमुच्यते च प्रतिपक्षदूषी जिन त्वदीयैः पटुसिंहनादैः । एकस्य नानात्मतयाऽज्ञवृत्तेस्तो बन्धमोक्षौ स्वमतादबाह्यौ ॥५३॥ आत्मान्तराभावसमानता न वागास्पदं स्वाश्रयभेदहीना । भावस्य सामान्यविशेषवत्त्वादैक्ये तयोरन्यतरनिरात्म ||१४|| अमेयमश्लिष्टममेयमेव भेदेऽपि तद्वृत्त्यपवृत्तिभावात् । वृत्तिश्च कृत्स्नांशविकल्पतो न मानं च नानन्तसमाश्रयस्य ॥५५॥
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२५२
प्रथम गुच्छक ।
नानासदेकात्मलमाभयं चेदन्यत्वमद्विष्टमनात्मनोक। विकल्पशून्यत्वमवस्तुनश्चेत्तस्मित्रमेये क खलु प्रमाणं ॥४॥ व्यावृत्तिहीमान्वयतो न सिद्विपर्ययेऽप्यवितयेऽपि साध्यं । अतव्युदासाभिनिवेशवादः पुराभ्युपेतार्थविरोधवादः ॥१७॥ अनात्मनानात्मगतेरयुक्तिर्वस्तुन्ययुक्तर्यदि पक्षसिद्धिः। अवस्तुयुक्त प्रतिपक्षसिद्धिर्न च स्वयं साधनरिक्तसिद्धिः॥५८॥ निशापितस्तैः परशुः परघ्नः स्वमूनि निर्भेदभयानभिः । वैतण्डिकैयैः कुसृतिः प्रणीता मुने भवच्छासनदृप्रमूढः ॥१९॥ भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदर्हतस्ते । प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत ॥६॥ विशेषसामान्यविषक्तभेदविधिव्यवच्छेदविधायि वाक्यं । अभेदबुद्धरविशिष्टता स्याद्यावृत्तिबुद्धेश्च विशिष्टता ते ॥६॥ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षं। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। ६२ ॥ कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समहष्टिरिष्टं । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥३॥
न रागानः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनौ न चान्येषु वेषादपगुणकथाभ्यासखलता। किमु न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषज्ञमनसां हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासङ्गगदितः ॥ ६४ ॥ इति स्तुत्यः स्तुत्यस्त्रिदशमुनिमुख्यैः प्रणिहितैः स्तुतः शक्त्या श्रेयापदमधिगतस्त्वं जिन मया। महावीरो वीरो दुरितपरसेनाभिविजये विधेया मे भक्तिः पथि भवत एवाप्रतिनिधौ ॥६५॥
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युक्त्यनुशासनम् ।
२५३ स्थेयाजातजयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोद्भूतभूरिप्रभुः प्रध्वस्ताखिलदुर्नयद्विषदिभः सन्नीतिसामर्थ्यतः। सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्गमथनोऽहन्वीरनाथः श्रिये शश्वत्संस्तुतिगोचरोऽनघधियां श्रीसस्यवाक्याधिपः ॥१॥ श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्याखिलं । प्रोक्तं युक्तनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगैविद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥२॥
इति श्रीसमन्तभारस्वामिविरचितं युक्त्यनुशासनं समासम्।
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अथ नयविवरणम् ।
( १३ )
सूत्रे नामादिनिक्षिप्ततत्त्वार्थाधिगमः स्थितः। कात्स्यतो देशतो वापि सप्रमाणनयैरिह ॥ १ ॥ प्रमाणं च नयाश्चेति द्वन्द्वे पूर्वनिपातनम् । कृतं प्रमाणशब्दस्याभ्यर्हितत्वेन बह्वचः ॥२॥ प्रमाणं सकलादेशि नयादभ्यर्हितं मतम् । विकलादशिनस्तस्य वाचकोऽपि तथोच्यते ॥३॥ स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् । स्वाथैकदेशनिर्णातिलक्षणो हि नयः स्मृतः ॥ ४॥ स्वार्थाशस्यापि वस्तुत्वे तत्परिच्छेदको नयः । प्रमाणमन्यथा मिथ्याशानं प्राप्तः स इत्यसत् ॥ ५ ॥ नायं बस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः। नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥ ६ ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता।' समुद्रबहुता वा स्यात्तत्वे वास्तु समुद्रवित् ॥ ७ ॥ तत्रांशिन्यपि निःशेषधर्माणां गुणता गती। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः॥८॥
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नयविवरणम् ।
२५५ धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः। . प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः ॥९॥ नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो शानात्मको यतः। स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ॥ १० ॥ प्रमाणेन गृहीतस्य वस्युनोऽशेऽविगानतः। संप्रत्ययनिमित्तत्त्वात्प्रमाणाचेन्नयोर्जि(र्चि)तः ॥ ११॥ नाशेषवस्तुनिर्णीतेः प्रमाणादेव कस्यचित् । ताहक्सामर्थ्यशून्यत्वात्सन्नयस्यास्ति सर्वथा ॥१२॥ मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा। झातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तन ननु ॥ १३॥ निःशेषदेशकालार्था गोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितः ॥ १४ ॥ त्रिकालगोचाराशेषपदार्थाशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ॥ १६॥ परोक्षपरतावृत्तेः स्पष्टत्वात्केवलस्य तु । श्रुतमूला नयाः सिद्धाः वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥ १६ ॥ निर्दिण्याधिगमोपायं प्रमाणमधुना नयान् । व्याख्यातुं नैगमेत्यादि प्राह संक्षेपतोऽखिलान् ॥ १७॥ सामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जकात्मकः ॥ १८॥ संक्षेपावौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ । द्रव्यार्थी व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततोऽपरः ॥ १९ ॥ विस्तरेण तु सप्तैते विशेया नैगमादयः । तथातिविस्तरेणैतद्भेदाः संख्यातविग्रहाः ॥ २०॥ .
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२५६
प्रथम गुच्छक ।
नयो नयौ नयाश्चेति वाक्यभेदेन योजिताः। नेगमादय इत्येवं सर्वसंख्याभिसूचनात् ॥ २१ ॥ निरुक्त्या लक्षणं लक्ष्य तत्सामान्यविशेषतः। नीयेते गम्यते येन श्रुतार्थाशः स नो नयः ॥ २२ ॥ तदंशी द्रव्यपर्यायलक्षणौ सव्यपेक्षणौ। नीयते तुर्यकाभ्यां तु तौ नयाविति निश्चिती ॥ २३ ॥ गुणः पर्यय एवात्र सहभावी विभावितः । इति तद्वोचरो नान्यस्तृतीयोऽस्ति गुणार्थकः ॥ २४ ॥ प्रमाणगोचरार्थीशा नीयन्ते यैरनेकधा। ते नया इति विख्याता ज्ञाता मूलनयद्वयात् ॥ २५ ॥ द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषपरिबोधकाः । न मूलं नैगमादीनां नयाश्चत्वार एव तु ॥ २६ ॥ सामान्यस्य पृथक्त्वेन द्रव्यादनुपपत्तितः। सादृश्यपरिणामस्य तथा व्यञ्जनपर्ययात् ॥ २७ ॥ वैसादृश्यविवर्तस्य विशेषस्य च पर्यये । अन्तर्भावाद्विभाव्यते द्वौ तन्मूलनयाविति ॥ २८ ॥ नामादयोऽपि चत्वारस्तन्मूलं नेत्यतो गतम् । द्रव्यक्षेत्रादयस्तेषां द्रव्यपर्यायगत्वतः ॥ २९ ॥ भवान्विता न पञ्चैते स्कन्धा वा परिकीर्तिताः । रूपादयो त एवेह तेऽपि हि द्रव्यपर्ययौ ॥ ३०॥ तथा द्रव्यगुणादीनां षोढ़ात्वं न व्यवस्थितम् । षद् स्युर्मूलनया येन द्रव्यपर्यायगा हि ते ॥ ३१ ॥ ये प्रमाणादयो भावाः प्रधानादय एव वा। ते नैगमादिभेदानामर्थानां परनीतयः ॥ ३२ ॥
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२५७
नयविवरणम् । तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः।। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्याभिधानतः ॥ ३३ ॥ संकल्पो नैगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजनः । यथा प्रस्थादिसंकल्पस्तदभिप्राय इष्यते ॥ ३४ ॥ नन्वयं भाविनी संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते । अप्रस्थादिषु तद्भावस्तन्दुलेन्वोदनादिवत् ॥३५॥ इत्यसद्वहिरर्थेषु तथानध्यवसानतः। स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तितः ॥ ३६ ॥ यद्वा नैकं गमो योऽत्र स सतां नैगमो मतः। धर्मयोधर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥ ३७ ॥ प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः। इत्ययुक्तमिह शप्तेः प्रधानगुणभावतः ॥ ३८ ॥ प्राधान्येनोभयात्मानमर्थ गृह्णाद्ध वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ॥ ३९ ॥ संग्रहे व्यवहारे वा नान्तर्भावनमीक्ष्यते । नैगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः॥४०॥ नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतोरेवेति षण्णयाः। संग्रहादय एवेह न वाच्या प्रपरीक्षकैः॥४१॥ सप्तवेते तु युज्यन्ते नैगमस्य नयत्वतः । तस्य त्रिभेदताख्यानात्कश्चिदुक्ता नया नव ॥ ४२ ॥ तत्र पर्यायगस्त्रेधा नैगमो द्रव्यगो द्विधा । द्रव्यपर्यायगः प्रोक्तश्चतुर्भेदो ध्रुवं बुधैः ॥४३॥ अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावतः । कचिवस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते ॥४४॥
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२५८
प्रथमगुच्छक।
यथा प्रतिक्षणध्वंसिसुखसंविच्छरीरिणि । इति सत्तार्थपर्याया विशेषणतया गुणाः ॥ ४५ ॥ 'संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गतिः ॥ ४६ ॥ सर्वथा सुखसंवित्यो नात्वेऽभिमतिः पुनः । स्वाश्रयाश्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतितः ॥ ४७ ॥ कश्चिद्यानपर्यायौ विषयीकुरुतेजसा । गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगमः ॥ ४८ ॥ सच्चैतन्यं न रीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसन्धितः ॥ ४९ ॥ तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योऽन्यं स्वाश्रयादपि । शेयो व्यञ्जनपर्यायनैगमाभोऽविरोधतः ॥५०॥ अर्थव्यञ्जनप-यौ गोचरीकुरुते परः। धार्मिके सुखजीवत्वमित्येवमनुरोधतः ॥५१॥ भिन्ने तु सुखजीवत्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव नः ॥ १२ ॥ शुद्धं द्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रेति यो नयः। स तन्नैगम एवेह संग्रहव्यवहारजः॥५३ ॥ स द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नयः ॥ ५४ ॥ यस्तु पर्यायवद्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः । व्यवहारनयाजातः सोऽशुद्धद्रव्यनगमः ॥ ५५ ॥ तद्भदैकान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते । तथोकेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधतः ॥ ५६ ॥
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नयविवरणम् ।
शुद्धद्रव्यार्थ पर्याय नैगमोऽस्ति परो यथा । सत्सुखं क्षणिकं सिद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ॥५७॥ सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमतिः । दुर्भीतिः स्यात्सवाधत्वादिति नीतिविदो विदुः ॥ ५८ ॥ क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्वयः । विनिर्दिष्टोऽर्थ पर्यायाशुद्धद्रव्य गनैगमः ॥ ५९ ॥ सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता । दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयम् ॥ ६० ॥ गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ । नैगमोsन्यो यथासद्वित्सामान्यमिति निर्णयः ॥ ६१ ॥ विद्यते चापरोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ ।
अर्थीकरोति यः सोऽत्र नागुणीति निगद्यते ॥ ६२ ॥ भेदाभिसन्धिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापकः । पूर्ववन्नैगमाभासः प्रत्येतव्यो तयोरपि ॥ ६३ ॥ नवधा नैगमस्यैवं ख्याते पञ्चदशोदिताः । नयाः प्रतीतिमारूढाः संग्रहादिनयैः सह ॥ ६४ ॥ एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः । सजातेरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ॥ ६५ ॥ समेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते । निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते ॥ ६६ ॥ शुद्धद्रव्यमभिप्रेति सन्मात्र संग्रहः परः । स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह ॥ ६७ ॥ निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः ।
तदाभासः समाख्यातः सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ॥ ६८ ॥
२५९
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२६०
प्रथमगुच्छक। अभिन्नं व्यक्तभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्तिः केषांचिद् दुर्नयस्तथा ॥ ६९ ॥ शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि । संवेदनाद्वयं वेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ॥ ७० ॥ द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रेति चापरः । पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापि संग्रहः ॥ ७१ ॥ तथैवावान्तरान्भेदान्संगृह्येकत्वतो बहुः । वर्ततेऽयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षा निराकृतिः ॥ ७२ ॥ स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो निःशेषोऽप्यनया दिशा ॥७३॥ संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकम् । योऽवहारो विभागः स्याद् व्यवहारनयः स नः ॥७॥ स चानेकप्रकारः स्यादुत्तरः परसङ्ग्रहात् । यत्सत्तद्रव्यपर्यायाविति प्रागृजुसूत्रतः ॥ ७९ ॥ कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥ ७६ ॥ अजुसूत्रः क्षणध्वंसि वस्तु सत्सूत्रयेहजुः । प्राधान्येन गुणीभावाद्व्यस्यानर्पणात्सतः॥ ७७॥ निराकरोति यो द्रव्यं व्यवहारश्च सर्वथा । सदाभासोऽभिमन्तव्यः प्रतीतेरपलापतः ॥ ७८॥ कार्यकारणता नास्ति ग्राह्यग्राहकतापि वा। वाच्यवाचकता चेति कार्थसाधनदूषणम् ॥ ७९ ॥ लोकसंवृत्तिसत्यं च सत्यं च परमार्थता। कैवं सिवेद्यदाश्रित्य बौद्धानां धर्मदेशना ।। ८० ॥
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नयविवरणम् ।
२६१
सामानाधिकरण्यं च विशेषणविशेष्यता। साध्यसाधनभावो वा काधाराधेयतापि च ॥ ८१॥ संयोगो विप्रयोगो वा क्रियाकारकसंस्थितिः। सादृश्यं वैसादृश्यं वा स्वसन्तानेतरस्थितिः ॥ २॥ समुदायः क प्रेत्यभावादिद्रव्यस्य निहवे । बन्धमोक्षव्यवस्था वा सर्वदेष्टा प्रसिद्धितः ॥ ८३ ॥ कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः॥ ८४॥ विश्वदृश्वास्य भविता सूनुरित्येकमाता। पदार्थ कालभेदेऽपि व्यहारानुरोधतः ॥ ८५ ॥ करोति क्रियते पुष्यस्तारकापोऽम्भ इत्यपि। कारकव्यक्तिसंख्यानां भेदोऽपि च परे जनाः ॥ ८६ ॥ एहि मन्ये रथेनेत्यादिकसाधनभिद्यपि । संतिष्ठेत प्रतिष्ठेतेत्याद्युपग्रहभेदने ॥ ८७ ॥ तन्न श्रेयापरीक्षायामिति शब्दः प्रकाशयेत् । कालादिभेदनेऽप्यर्थाभेदनेऽतिप्रसङ्गतः ॥ ८८ ॥ तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धेः कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ॥ ८९ ॥ कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कलादिभेदेऽपि पदार्थकत्वनिश्चयः ॥१०॥ शब्दः कालादिर्भिभिन्नोऽभिन्नार्थप्रतिपादकः । कालादिभिन्नशब्दत्वात्ताक्सिद्धान्यशब्दवत् ॥९१ ॥ पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याभिरोहणात् । नयः समभिरूढः स्यात्पूर्ववच्चास्य निर्णयः ॥१२॥
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२६२
प्रथमगुच्छक।
इन्द्रः पुरन्दरः शक्र इत्याद्या भिन्नगोचराः। शब्दा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ॥ ९३ ॥ तक्रियापरिणामोऽर्थस्तथैवति विनिश्चयात् । एवंभूतेन नीयेत क्रियान्तरपराङ्मुखः ॥ ९४॥ यो यत्क्रियार्थमाचष्टे नासावन्यत्क्रियां ध्वनिः । पठतीत्यादिशब्दानां पाठाद्यर्थप्रसंजनम् ॥९५ ॥ इत्यन्योऽन्यमपेक्षायां सन्तः शब्दादयो नयाः । निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासा विरोधतः ॥ ९६ ॥ तत्र सूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मताः।। श्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः ॥९७ ॥ पूर्वः पूर्वनयो भूमविषयः कारणात्मकः । परः परः पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह ॥ ९८ ॥ सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते । महाविषयता भावा-भावार्थान्नैगमानयात् ॥९९ ॥ यथाहि सति संकल्पस्तथैवासति विद्यते । तत्र प्रवर्त्तमानस्य नैगमस्य महार्थता ॥ १० ॥ सङ्ग्रहाद्यवहारोऽपि स्याद्विशेषावबोधकः। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिनः ॥ १०१ ॥ नर्जुसूत्रः प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचरः । कालत्रितयवृत्यर्थगोचराद् व्यवहारतः ॥ १०२ ॥ कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छतः । नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्र शब्दस्तविपरीतवित् ॥ १०३ ॥ शब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थमभीच्छतः । न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्ययः ॥ १०४ ॥
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२६३
नयविवरणम् । क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छतः । नैवंभूतः प्रभूतार्थनयः समभिरूढतः॥ १०५ ॥ नेगमप्रातिकूल्येन सङ्ग्रहः संप्रवर्तते । ताभ्यां वाचामिहाभीष्टा सप्तभङ्गी विभागतः ॥ १०६ ॥ नैगमव्यवहाराभ्यां विरुद्धाभ्यां तथैव सा। स्यान्नैगमर्जुसूत्राभ्यां तादृग्भ्यामविगानतः ॥ १०७ ॥ सशब्दाभेगमादन्यायुक्तात्समभिरूढतः । सैवंभूताच्च सा शेया विधानप्रतिषेधगा ॥ १०८ ॥ सङ्ग्रहादेश्च शेषेण प्रतिपक्षेण गम्यताम् । तथैव व्यापिनी सप्तभङ्गी नयविदा मता ॥ १०९ ॥ विशेषैरुत्तरैः सर्वैर्नयानामुदितात्मनाम् । परस्परविरुद्धार्थैर्द्वन्द्ववृत्तिर्यथायथम् ॥ ११० ॥ प्रत्येया प्रतिपर्यायमविरुद्धा तथैव सा । प्रमाणसप्तभङ्गी च तां विना नाभिवागतिः॥ १११ ॥ सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने । स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिताः ॥ ११२ ॥ तैर्नीयमानवस्त्वंशाः कथ्यन्तेऽर्थनयाश्च ते । विधैव व्यवतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावतः ॥ ११३ ॥ यत्र प्रवर्ततेऽर्थीशे नियमादुत्तरो नयः । पूर्वः पूर्वो नयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते ॥ ११४॥ सहस्रेऽष्टशती यद्वत्तस्यां पञ्चशती मता। पूर्वसंख्योत्तरत्र स्यात्संख्यायामविरोधतः ॥ ११५ ॥ पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथा जातु प्रवर्त्तते। तथोत्तरनयः पूर्वनयार्थे सकले सदा ॥ ११६ ॥
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प्रथमगुच्छक।
नयार्थेषु प्रमाणस्य वृत्तिः सकलदोशनः । भवेन तु प्रमाणाथै नयानामखिलेअसा ॥ ११७ ॥ संक्षेपेण नयास्तावद्याख्याताः सूत्रसूचिताः। तद्विशेषाः प्रपशेन सश्चिन्त्या नयचक्रतः ॥ ११८ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैमाहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात्प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्यते नीयते सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ॥ ११९ ॥
इति नयविवरणं समाप्तम् ।
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श्रीमत्पूज्यपादस्वामिविरचितं
समाधिशतकम्। सटिप्पणीकम् ।
(१४) सिद्धं जिनेन्द्रमलमप्रतिमप्रबोधं निर्वाणमार्गममलं विबुधेन्द्रवन्धम् । संसारसागरसमुत्तरणप्रपोतं
वक्ष्ये समाधिशतकं प्रणिपत्य वीरम् ॥ १ ॥ श्रीपूज्यपादस्वामी मुमुक्षूणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूपं चोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह
येनात्माऽबुध्यतात्मैव परत्वेनैव चापरम् ।
अक्षयानन्तबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥१॥ १ उत्थानिकाकारस्येदं मङ्गलाचरणम्.
२ अत्र च पूर्वार्द्धन मोक्षोपाय, उत्तरार्धेन च मोक्षस्वरूपमुपदर्शितम् । सिद्धात्मने सिद्धपरमेष्ठिने सिद्धः सकलकर्मविप्रमुक्तः सचासावात्मा च तस्मै नमः । येन किं कृतं अषुध्यत ज्ञातः कोऽसौ प्रात्मा कथं आत्मैवं । अयमर्थः-येन सिद्धात्मनात्मैवात्मत्वेनैवाबुध्यत म शरीरादिकं कर्मोपार्जितसुरनरनारकतिर्यगांदिजीवपर्यायादिकश्च । तथा "परत्वेनैव चापरं" अपरञ्च शरीरादिकं कर्मजनितमनुष्यादिजीवपर्यायादिकश्च परत्वेनैवा
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प्रथमगुच्छक।
अथोक्तप्रकारसिद्धस्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य चोपदेष्टारं सकलात्मानमिष्टदेवताविशेषं स्तोतुमाह
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहितुः। शिवाय धात्रे सुगताय विष्णव
जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ॥२॥ ननु विकल्पेतररूपमात्मानं नत्वा भवान् किं करिष्यतीत्याह
श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्ति समाहितान्तःकरणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां
विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥३॥ येन विविक्तमात्मानमिति विशेष्योच्यत इत्याशक्याह
बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु ।
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद्वहिस्त्यजेत् ॥ ४॥ त्मनो भेदेनाबुध्यत तस्मै । कथंभूताय "अक्षयानन्तबोधाय" अक्षयोऽविनश्वरोऽनन्तो देशकालापरिच्छिन्नसमस्तार्थपरिच्छेदको वा बोधो यस्य तस्मै । एवंविधबोधस्य चानन्तदर्शनसुखवीयविनाभावित्वसामर्थ्यादनन्तचतुष्टयरूपायेति गम्यते । ननु चेष्टदेवताविशेषस्य पञ्चपरमेष्ठिरूपत्वादत्र सिद्धात्मन एव कस्माद् ग्रन्थकृता नमस्कारः कृत इति चेत् ग्रन्थस्य कर्तुर्व्याख्यातुः श्रोतुस्तदर्थानुष्ठातुश्च सिद्धस्वरूपप्राप्त्यर्थित्वात् । यो हि यत्स्वरूपप्राप्त्यर्थी स तद्गुणसम्पन्नं पुरुषविशेषं नमस्कुर्वाणो दृष्टो यथा कश्चिद्धनुर्वेदपरिज्ञानार्थी धनुर्वेदविदः सिद्धस्वरूपप्राप्त्यर्थी च समाधिशतकशास्त्रस्य कर्ता व्याख्याता श्रोता तदर्थानुष्ठाता चात्मविशेषस्तस्मात्सिद्धात्मनं नमस्करोतीति सिद्धशन्देनैव चाईदादीनामपि ग्रहणम् । तेषामपि देशतः सिद्धस्वरूपोपतेत्वात् ।
१ 'निष्कलेतर-' इति पाठान्तरम् ।
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समाधिशतकम् ।
२६७
तत्र कुतः कस्योपादानं कस्य वा त्यागः कर्त्तव्य इत्यत आह । तत्र बहिरन्तः परमात्मानं प्रत्येकं लक्षणमाहबहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मलः ॥ ५ ॥ तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह,
निर्मलः केवलः सिद्धो विविक्तः प्रभुरर्क्षयः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥
इदानीं बहिरात्मनो देहस्यात्मत्वेनाध्यवसाये कारणमुपद
र्शयन्नाह, —
बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः । स्फुरितश्चात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥ ७ ॥ नरदेहस्थमात्मानमविद्वान्मन्यते नरम् ।
तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥ ८ ॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्वर्तस्तथा । अनन्तानन्तश्रीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥ ९ ॥
स्वदेह एवमध्यवसायं कुर्वाणो बहिरात्मा परदेहे कंथभूतं
१ आदिशब्दाद्वाङ्गनसोर्ग्रहणं. २ विगता भ्रान्तिः १३ कर्ममलरहितः.
४ प्रक्षीणाशेषकर्ममलः ५ परमविशुद्धिसमन्वितः ६ प्रक्षीणाशेषकर्ममलः ७ स्वामी. ९ इन्द्रदिप तिष्ठतीति. १० संसारिजीवेभ्य उत्कृष्टात्मा.
८ अव्ययः.
११ इन्द्राय संभाविनान्तरङ्ग बाहिरङ्गेण परमैश्वर्येण सम्पन्नः १२ तत्त्वते। निश्चयेन स्वयमात्मा चतुर्गतिमयो न भवति.
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प्रथमगुच्छका
करोतीत्याह,
स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम् । परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति ॥ १०॥ एवंविषाध्यवसायाकिं भवतीत्याह,स्वपराध्यवसायेन देहेम्वविदितात्मनाम् । वर्तते विभ्रमैः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः ॥ ११ ॥ एवंविधविश्रमाच किं भवतीत्याहअविद्यासंबिर्तस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढः ।
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥ १२ ॥ एवं मन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याहदेहे स्त्रबुद्धिरात्सानं युनत्त्येतेन निश्चयात् । स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनम् ॥ १३ ॥
देहेष्वात्मानं योजयतश्च बहिरात्मनो दुर्विलसितोपदर्शनपूकमाचार्योऽनुशयं कुर्वन्नाहदेहेवात्मधिया जाताः पुत्रभार्यादिकल्पनाः। सम्पत्तिमात्मनस्तामिर्मन्यते हा हतं जगत् ॥ १४॥ इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मन्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं दर्शयन्नाह
मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः । त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यावृतेन्द्रियः ॥१५॥ १३ देई. १४ अन्यत्वेन. १५ विपरीतत्वम्. १६ प्रतिवासितः ।
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समाधिशतकम्।
२६९
आत्मीयां बहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषादं कुर्वनाहमत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेवहम् । ताप्रपद्याहमिति मां पुरवेद न तत्त्वतः ॥ १६ ॥ . अथात्मनो ज्ञप्तौ उपायमुपदर्शयन्नाहएवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः । एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ॥ १७ ॥ कुतः पुनर्बहिरन्तर्वाचस्त्यागः कर्त्तव्य इत्याहयन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा। जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥ १८॥ एवं बहिर्विकल्पं परीत्यज्यान्तर्विकल्पं परित्याजयन्नाहयत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९ ॥ तदेव विकल्पातीते स्वरूपं निरूपयन्नाहयदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २० ॥ पूर्व कीदृशं मम चेष्टितमित्याह
उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम् ।
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्व देहादिप्वात्मविभ्रमात् ॥ २१ ॥ साम्प्रतं तत्परिज्ञाने सति कीदृशं मे चेष्टितमित्याह
यथासौ चेष्टते स्थाणी निवृत्ते पुरुषाग्रहे । तथाचेष्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रमः ॥२२॥
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૨૭૦
प्रथमगुच्छक ।
अथेदानीमात्मनि स्व्यादिना लिङ्कादिसंख्याविभ्रमनिवृ. त्यर्थं तद्विविक्तासाधारणस्वरूपदर्शनार्थ चाह. येनात्मनानुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि ।।
सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहुः ॥२३॥ येनात्मना त्वमनुभूयसे स कीदृश इत्याह -
यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥
तस्वरूपं स्वसंवेदयतो रागादिप्रक्षयान्न कचिच्छत्रुमित्रव्यवस्था भवतीति दर्शयन्नाह
क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः। बोधात्मानं ततः कश्चिन मे शत्रुन च प्रियः ॥२५॥
यदि त्वमन्यस्य कस्यचिन्न शत्रुर्मित्रं वा तथापि तवान्यः काश्चिद्भविष्यतीत्याशङ्कयाह
मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः। मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥२६॥ बहिरात्मत्यागे परमात्मप्राप्तौ चोपोयत्वं दर्शयन्नाहत्यक्त्वैव बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः ।
भावयेत्परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम् ॥ २७ ॥ तद्भावनायाः फलं दर्शयन्नाह
सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः । तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ॥ २८ ॥
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समाधिशतकम् ।
कथं कस्यचित्तत्र प्रवृत्तिरित्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह - मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम् । यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः ॥ २९ ॥ कस्यात्मनः कीदृशस्तत्प्रतिपत्त्युपाय इत्याह
सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मना ॥ ३० ॥ कस्मिन्नाराधिते तत्स्वरूपप्राप्तिर्भविष्यतीत्याशङ्कयाहयः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥ ३१ ॥ एवं स्वरूप एवाराध्याराधकभावव्यवस्था । एतदेव दर्शयन्नाह - प्राच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम् । बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतिम् ॥ ३२ ॥ एवमात्मानं शरीराद्भिन्नं यो न जानाति तं प्रत्याह
२७१
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते न स निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः ॥ ३३ ॥ ननु परमतपोऽनुष्ठायिनां महद्दुःखोत्पत्तितो मनः खेदसद्भावात्कथंनिर्वाणप्राप्तिरिति वदन्तं प्रत्याह---
आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृतः । तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ॥ ३४ ॥ खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपलम्भाभावं दर्शयन्नाह -
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ॥ ३५ ॥
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२७२
प्रथमगुच्छक।
किं पुनस्तत्त्वशब्देनोच्यते इत्याह
अविक्षिप्तं मनस्तत्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः । धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः ॥ ३६ ॥ कुतः पुनर्मनसो विक्षेपो भवति कुतश्चाविक्षेप इत्याह
अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥ ३७॥ चित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपे च फलं दर्शयन्नाह
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः। नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चतसः ॥ ३८ ॥ अपमानादीनां चापगमे उपायमाहयदा मोहात्प्रजायते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ॥ ३९ ॥ तत्र रागद्वेषयोर्विषयं विपक्षं च प्रदर्शयन्नाहयत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् । कुद्या तदुसमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति । ४01... तस्मिन्नष्टे किं भवतीत्याह--
आत्मविभ्रमजं दुःखमात्मशानात्प्रशाम्यति । नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ अन्तरात्मा च किं करोतीत्याहशुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति। उत्पनात्ममतिदेहे तत्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥ ४२॥
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समाधिशतकम्।
२७३
तत्त्वज्ञानीतरयोरबन्धकत्वबन्धकत्वे दर्शयन्नाह - परत्राहंमतिः स्वस्माच्च्युतो बनात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहमतिश्च्युत्त्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ॥ ४३ ॥
यत्राहमतिर्बहिरात्मनो जाता तलेनकथमध्यवसीयते चान्तरात्मनस्तत्तेन कथमित्याशङ्कयाहदृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते । इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ॥ ४४ ॥
ननु अन्तरात्मैवमात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमान् गौ. रोऽहमित्यादिरूपं तस्य कदाचिदभेदभ्रान्तिः स्यादिति प्रत्याह
जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि । पूर्वविभ्रमसंस्काराभ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति ॥ ४५ ॥ भूयो भ्रान्ति गतोऽसौ कथं तां त्यजेदित्याहअचेतनमिदं दृश्यमश्यं चेतनं ततः। क रुग्यामि व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ ४६ ॥ इदानीं मूढात्मनोऽन्तरात्मनश्च त्यागोपादानविषयं दर्शयन्नाहत्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नान्तर्बहिरुपादानं त्यागो निष्ठितात्मनः ॥ ४७॥ . अन्तस्त्यागोपादाने कुर्वाणोऽन्तरात्मा कथं कुर्यादित्याहयुञ्जीत मनसात्मानं वाकायाभ्यां वियोजयेत् । मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाकाययोजितम् ॥ ४८ ॥ ननु पुत्रकलत्रादिना सह वाक्कायव्यवहारे सुखोत्पत्तिः
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२७४
प्रथम गुच्छक।
प्रतीयते कथं तत्त्यागो युक्त इत्याह
जगदेहात्मदृष्टीनां विश्वासो रम्यमेव का। आत्मन्येवात्मदृष्टीनां क विश्वासक वा रतिः ॥ ४९ ॥ नन्वेवमाहारादावप्यन्तरात्मनः कथं प्रवृत्तिः स्यादित्याह
आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेविरम् । । . कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाकायाभ्यामतत्परः ॥ ५॥
तदनासक्तःकुतःपुनरात्मज्ञानमेव बुद्धौ धारयेन्न शरीरादिकमित्याह
यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यत्रियतेन्द्रियः। अन्तः पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥५१॥
ननु सानन्दं ज्योतिर्यद्यात्मनो रूपं स्यातदेन्द्रियनिरोधं कृत्वा तदनु भवतः कथं दुःखं स्यापिलाहसुखमारब्धयोगस्य बहिर्दुःखमयात्मनि । बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्म भावितात्मनः ॥ ५२ ॥ तद्भावनां चेत्थं कुर्यादित्याह- . तब्रूयात्तत्परान्पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३॥
ननु वाकायव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽसम्भवात्तद्व्यादित्याद्ययुक्तमिति वदन्तं प्रत्याह
शरीरे वाचि चात्मानं संधत्ते वाक्शरीरयोः । : भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां विबुध्यते ॥ ५४॥
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समाधिशतकम्।
२७५
एवमबुध्यमानो मूढात्मा येषु विषयेष्वासक्तचित्तो न तेषु मध्येकिञ्चित्तस्योपकारकमस्तीत्याह
न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत् क्षेमङ्करमात्मनः । तथापि रमते बालस्तत्रैवाशानभावनात् ॥ ५५ ॥ तथानादिमिथ्यासंस्कारे सत्येवंभूता बहिरात्मानो भवन्तीत्याहचिरं सुषुप्तास्तमासि मूढात्मानः कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ॥ ५६ ॥ ततोऽबहिरात्मस्वरूपं परित्यज्य स्वशरीरमित्थं पश्येदित्याहपश्येन्निरन्तरं देहमात्मनो नात्मचेतसा। अपरात्मधियान्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ॥ ५७॥
नन्वेवमात्मतत्त्वं स्वयमनुभूय मूदात्मनां किमिति न प्रति. पाद्यते येन तेऽपि तजानन्तीति वदन्तं प्रत्याह
अशापितं न जानन्ति यथा मां शापितं तथा । मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे शापनश्रमः ॥ ५८ ॥ किञ्चयद्बोधयितुमिच्छामि समाहं यदहं पुनः । ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ॥ ५९ ॥
बोधितोऽपि भ्रान्तस्तत्त्वे बहिरात्मनो तत्रानुरागः संभवति मोहोदयात्तस्य बहिरर्थ एवानुरागादिति दर्शयन्नाह
बहिस्तुप्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे । तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा पहिावृत्तकौतुकः ॥ ६० ॥
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२७६
प्रथम गुच्छक।
कुतोऽसौ शरीरादिविषये निवृत्तभूषणमण्डनादिकौतुक इत्याहन जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः । निग्रहानुग्रह धियं तथाप्यत्रैव कुर्वते ॥ ६१ ॥
यावच्च शरीरादावात्मबुद्धया प्रवृत्तिस्तावत्संसारस्तदभावा. न्मुक्तिरिति दर्शयन्नाह
स्वबुद्ध्या यावद्गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥१२॥
शरीरादावात्मनो भेदाभ्यासे च शरीरदृढतादौ नात्मनो दृढतादिकं मन्यत इति दर्शयन् 'घने' इत्यादि श्लोकचतुष्टयमाह -
घने वस्त्रे यथात्मानं न घनं मन्यते तथा । घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः ॥ ६३ ॥ जीणे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्ण मन्यते तथा । जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्ण मन्यते बुधः ॥६४॥ नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा। नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ॥ ६५ ॥ रक्ते वस्त्रे यथात्मानं न रकं मन्यते तथा । रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रकं मन्यते बुधः ।। ६६ ॥
एवं शरीरादिभिन्नमात्मानं भावयतोऽन्तरात्मनः शरीरादेः काष्ठादितुल्यताप्रतिभासे मुक्तियोग्यता भवतीति दर्शयन्नाह
यस्य सस्पन्दमाभाति निष्पन्देन समं जगत् । अप्रक्षमक्रियाभोगं स समं याति नेतरः ॥ ६७ ॥ तद्विलक्षणो बहिरात्मा सोऽप्येवं शरीरादिभ्यो भिन्नमा
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समाधिशतकम् ।
२७७
स्मानं किमिति न प्रतिपद्यत इत्याह
शरीरकञ्चुकेनात्मा संवृतो शानविग्रहः । नात्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिचिरं भवे ॥ ६८ ॥
यद्यात्मस्वरूपमात्मतत्त्वेन बहिरात्मानो न बुध्यन्ते तदा किमात्मत्वेन ते बुध्यन्ते इत्याह
प्रविशद्लतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ। स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धयः ॥ ६९ ॥
ततो यथावदात्मस्वरूपप्रतिपत्तिमिच्छन्नात्मानं देहाद्भिन्नं भावयेदित्याह-- गौरः स्थूलः शो वाहमित्यङ्गेनाविशेषयन् ।
आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलं शप्तिविग्रहम् ॥ ७० ॥ यस्त्वेवंविधमात्मानमेकाग्रमनसा भावयेत्तस्यैव मुक्तिनान्यस्येत्याहमुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः ॥ ७१ ॥
लोकसंसर्ग परित्यज्यात्मनः स्वरूपस्य स्वसंवेदनानुभवे सति स्यान्नान्यथेति दर्शयन्नाह
जनेभ्यो वाक ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः। भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ ७२ ॥
यतः एव ततस्तस्माद्योगी त्यजेत् कं संसर्ग सम्बन्धं कैः सह जनैः । तर्हि तैः संसर्ग परित्यज्याटव्यां निवासः कर्त्तव्य .
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२७८
प्रथम गुच्छक।
इत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह
ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥ ७३ ॥ अनात्मदर्शिनो दृष्टात्मनश्च फलं दर्शयन्नाहदेहान्तरगतेबीजं देहेऽस्मिनात्मभावना। बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ तर्हि मुक्तिप्राप्तहेतुः कश्चिद्गुरुभविष्यतीति वदन्तं प्रत्याहनयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव वा। गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः ॥ ७९ ॥
नान्यो गुरुरस्ति परमार्थतो व्यवहारेषु तु यदि भवति तदा भवतु । देहे स्वबुद्धिमरणोपनिपाते किं करोतीत्याह
दृढात्मबुद्धिर्दहादावुत्पश्यनाशमात्मनः । मित्रादिभिर्वियोगं च बिभेति मरणादृशम् ॥ ७६ ॥ यस्तु स्वात्मन्येवात्मबुद्धिः स मरणोपनिपाते किं करोतीत्याह
आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मनः । मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रान्तरग्रहम् ॥७॥
एवं च स एव बुध्यते यो व्यवहारे अनादरपरो यस्तु त. त्रादरपरः स न बुध्यते इत्याह
व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८॥
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समाधिशतकम् ।
२७९
यश्चात्मगोचरे जागर्ति स मुक्तिं प्राप्नोतीत्याह
आत्मानमन्तरे दृष्ट्रा रष्ट्रा देहादिकं बहिः । तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत् ।। ७९ ॥
प्रारब्धयोगावस्थायां निष्पन्नयोगावस्थायां च कीदृशं जगत्प्रतिभासत इत्याह
पूर्व दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवजगत् । स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात्काष्ठपाषाणरूपवत् ॥८॥
ननु स्वभ्यस्तात्मधिय इति व्यर्थं शरीराद्भेदेनात्मनस्तत्स्वरूपविद्भयः श्रवणात्स्वयं चान्येषां तत्स्वरूपप्रतिपादनान्मुक्तिर्भविष्यतीत्याशङ्कयाह
शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वदन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेद्भिनं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ॥ ८१॥ मोक्षभाजनं तावन्न भवेदात्मा । तद्भावनायां च प्रवृत्तोऽसौ किं करोतीत्याह
तथैव भावयेदेहाद्वथावृत्त्यात्मानमात्मनि । यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥ ८२॥
यथा च परमौदासीन्यावस्थायां स्वपरविकल्पस्त्याज्यस्तथा व्रतविकल्पोऽपि । यतः
अपुण्यमवतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोय॑यः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ ८३ ॥
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૨૮૦
प्रथम गुच्छक ।
कथं तानि त्यजेदिति तेषां त्यागक्रमं दर्शयन्नाह
अवतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। त्यजेत्तान्यपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ॥ कुतोऽव्रतव्रतविकल्पपरित्यागे परमपदप्राप्तिरित्याहयदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः ।
मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥ ८५ ॥ तस्य चोत्प्रेक्षाजालस्य नाशं कुर्वाणोऽनेन क्रमेण कुर्यादित्याह
अव्रती व्रतमादाय व्रती शानंपरायणः । परात्मज्ञानसम्पन्नः स्वयमेव परो भवेत् ॥ ८६॥
यथा च व्रतविकल्पो मुक्तेहेतुर्न भवति तथा लिङ्गविकल्पोऽपीत्याहलिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मादेते लिङ्गकृताग्रहाः ॥ ८७ ॥
येऽपि वर्णानां ब्राह्मणो गुरुरत एव परमपदयोग्य इति वदन्ति तेऽपि न मुक्तियोग्या इत्याह
जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः। न मुच्यन्ते भवात्तस्मादेते जातिकृताग्रहाः ॥ ८ ॥
जातिब्राह्मणादिदेहाश्रितेत्यादि सुगमं । तर्हि ब्राह्मणादिजाति विशिष्टो निर्वाणादिदीक्षया दीक्षितो मुक्तिं प्राप्नोतीति वदन्तं प्रत्याह
जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः ।
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समाधिशतकम् ।
२८१ तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ॥ ८९ ॥
तत्पदप्राप्त्यर्थं जातिविशिष्टे शरीरे निर्ममत्वसिद्ध्यर्थं भोगे. भ्यो व्यावृत्त्यापि पुनर्मोहवशात् शरीर एवानुबन्धं कुर्वन्तीत्याह
यत्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये ।
प्रीतिं तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिनः ॥९० ॥ तेषां देहे दर्शनव्यापारविपर्यासं दर्शयन्नाह
अनन्तरक्षः संधत्ते दृष्टिं पङ्गुर्यथान्धके । संयोगादृष्टिमङ्गोऽपि संधत्तं तद्वदात्मनः ॥ ९१ ॥ अन्तरात्मा किं करोतीत्याह
दृष्टिभेदो यथा दृष्टिं पङ्गुरन्धेन योजयेत् ।
तथा न योजयेहेहे दृष्टात्मा दृष्टिमात्मनः ॥ १२॥ बहिरन्तरात्मनोः काऽवस्था का भ्रान्तिः का वाऽभ्रान्तिरित्याह
सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमो नात्मदर्शिनाम् । विभ्रमः क्षीणदोषस्य सर्वावस्थात्मदर्शिनः ॥ ९३ ।।
ननु सर्वावस्थात्मदर्शिनोऽप्यशेषशास्त्रपरिज्ञानान्निद्रारहितस्य मुक्तिर्भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याह
विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते । देहात्मदृष्टि तात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥१४॥
सुप्ताद्यवस्थायामप्यात्मस्वरूपसंवित्त्यवैकल्यात् कुतस्तदा तदवैकल्यमित्याह
यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते ॥ ९५॥
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૨૮૨
प्रथम गुच्छक।
आसक्तं भवति क पुनरनासक्तं चित्तं भवतीत्याह
यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तस्मानिवर्त्तते ।
यस्मानिवर्त्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः॥ ९६ ॥ । यत्र च चित्तं विलीयते तद्धयेयं भिन्नमभिन्नं च भवति । तत्र भिन्नात्मनि ध्येये फलमुपदर्शयन्नाह
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः।
वर्तिीपं यथोपास्य भिन्ना भवति ताशी ॥ ९७ ॥ इदानीमभिन्नात्मन उपासने फलमाह - उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथ वा । मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः ॥ ९८ ॥ उक्तमर्थमुपसंहृत्य फलमुपदर्शयन्नाह - इतीदं भावयेन्नित्यमवाचागोचरं पदम् । स्वत एव तदानोति यतो नावर्तते पुनः ॥ ९९ ॥
नन्वात्मनि सिद्धे तस्य तत्पदप्राप्तिः स्यात् । न चासौ त. त्वचतुष्टयात्मकाच्छरीरातत्त्वान्तर्भूतः सिद्ध इति चार्वाकाः । सदैवात्मा मुक्तः सर्वदा स्वरूपोपलम्भसम्भवादिति सांख्यास्ता. न्प्रत्याह. अयत्नसाध्यं निर्वाणं चित्तत्त्वं भूतजं यदि ।
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ॥ १० ॥ कथं सर्वदास्तित्वं सिद्ध्येदिति वदन्तं प्रत्याह
स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मनः।
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समाधिशतकम् ।
तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषतः ॥ १०१ ॥ नन्वेवं प्रसिद्धस्याप्यनाद्यनिधनस्यात्मनो मुक्त्यर्थं दुर्द्धरानुष्ठानक्लेशो व्यर्थो ज्ञानभावनामात्रेणैव मुक्तिप्रसिद्धेरित्याशङ्कयाहअदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ । तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥ १०२ ॥ तिष्ठति नियमेन तिष्ठेदिति वदन्तं प्रत्याहप्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात् । वायोः शरीरयन्त्राणि वर्त्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥ १०३ ॥ तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्ते सुखं जडः । त्यक्त्वारोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १०४ ॥ कमारोपं शरीरादीनामात्मन्यध्यवसायं कथमसौ तं त्यजतीत्याह
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मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च संसारदुःखजननीं जननाद्विमुक्तः । ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितन्त्रम् ॥ १०५ ॥ प्रशस्तिः ।
२८३
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येनात्मा बहिरन्तरुत्तमभिदा त्रेधा विवृत्यादि ते मोक्षोऽनन्तचतुष्टयामलवपुः सद्ध्यानतः कीर्तितः । जीयात्सोऽत्र जिनः समस्तविषयः श्रीपादपूज्योऽमलो भग्यानन्दकरः समाधिशतकः श्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः ॥ १०६ ॥ इति श्रीमत्पूज्यपादस्वामिविरचितं समाधिशतकं समाप्तम् ।
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श्रीमद्विद्यानन्दस्वामिविरचितं पात्रकेसरिस्तोत्रम् | ( १५ )
जिनेन्द्र ! गुणसंस्तुतिस्तव मनागपि प्रस्तुता भवत्यखिलकर्मणां प्रहतये परं कारणम् । इति व्यवसिता मतिर्मम ततोऽहमत्यादरात् स्फुटार्थनयपेशलां सुगत ! संविधास्ये स्तुतिम् ॥ १ ॥ ५ मतिः श्रुतमथावधिश्व सहजं प्रमाणं हि ते ततः स्वयमबोधि मोक्षपदर्षी स्वयंभूर्भवान् । न चैतदिह दिव्यचक्षुरधुनेक्ष्यतेऽस्मादृशां यथा सुकृतकर्मणां सकलराज्यलक्ष्म्यादयः ॥ २ ॥ व्रतेषु परिरज्यसे निरुपमे च सौख्ये स्पृहा विभेष्यपि च संसृतेरसुभृतां वधं द्वेक्ष्यपि । कदाचिददयोदयो विगतचित्तकोऽप्यञ्जसा तथापि गुरुरिष्यसे त्रिभुवनैकबन्धुर्जिनः ॥ ३ ॥ तपः परमुपश्चितस्य भवतोऽभवत्केवलं समस्तविषयं निरक्षमपुनश्च्युति स्वात्मजम् | निरावरणमक्रमं व्यतिकरादपेतात्मकं तदेव पुरुषार्थसारमभिसम्मतं योगिनाम् ॥ ४ ॥ परस्परविरोधवद्विविधभङ्गशाखाकुलं पृथग्जनसुदुर्गमं तव निरर्थकं शासनम् ।
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पात्रकेसरिस्तोत्रम् ।
तथापि जिन ! सम्मतं सुविदुषां न चात्यद्भुतं 'भवन्ति हि महात्मनां दुरुदितान्यपि ख्यातये ॥५॥ सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदनय॑सिंहासनं तथाऽऽतपनिवारणत्रयमथोल्लसच्चामरम् । वशं च भुवनत्रयं निरुपमा च निःसंगता न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथाऽपि संगच्छते ॥६॥ त्वमिन्द्रियविनिग्रहप्रवणनिष्ठुरं भाषसे तपस्यपि यातयस्यनघदुष्करे संश्रितान् । अनन्यपरिदृष्ट्या षडसुकायसंरक्षया स्वनुग्रहपरोऽप्यहो ! त्रिभुवनात्मनां नापरः ॥७॥ ददास्यनुपमं सुखं स्तुतिपरेग्चतुभ्यन्नपि क्षिपस्यकुपितोऽपि च ध्रुवमसूयकान्दुर्गतौ । न चेश! परमेष्टिता तव विरुद्धयते यद्भवान् न कुप्यति न तुष्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमाम् ॥ ८॥ परिक्षपितकर्मणस्तव न जातु रागादयो न चेन्द्रियर्विवृत्तयो न च मनस्कृता व्यावृतिः। तथाऽपि सकलं जगधुगपदंजसा वेत्सि च प्रपश्यसि च केवलाभ्युदितदिव्यसच्चक्षुषा ॥९॥ क्षयाच्च रतिरागमोहभयकारिणां कर्मणां कषायरिपुनिर्जयः सकलतत्त्वविद्योदयः । अनन्यसदृशं सुखं त्रिभुवनाधिपत्यं च ते सुनिश्चितमिदं विभो ! सुमुनिसम्प्रदायादिभिः॥ १० ॥ न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुद्धया वचो . न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम् ।
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२८६
प्रथम गुच्छक ।
व्यपेतपरिशङ्कनं वितथकारणादर्शनादतोऽपि भगव॑स्त्वमेव परमेष्टितायाः पदम् ॥ ११ ॥ न लुन्ध इति गम्यसे सकलसङ्गसंन्यासतो न चाऽपि तव मृढता विगतदोषवाग्यद्भवान् । अनेकविधरक्षणादसुभृतां न च द्वेषिता निरायुधतयाऽपि च व्यपगतं तथा ते भयम् ॥ १२ ॥ यदि त्वमपि भाषसे वितथमेवमाप्तोऽपि सन् परेषु जिन का कथा प्रकृतिलुब्धमुग्धादिषु । न चाऽप्यकृतकात्मिका वचनसंहतिदृश्यते पुनर्जननमध्यहो! न हि विरुध्यते युक्तिभिः ॥ १३ ॥ सजन्ममरणर्षिगोत्रचरणादिनामश्रुतेरनेकपदसंहतिप्रतिनियामसन्दर्शनात् । फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिविनिवृत्तिहेत्वात्मनां श्रुतेश्च मनुसूत्रवत्पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः ॥ १४ ॥ स्मृतिश्च परजन्मनः स्फुटमिहेश्यते कस्यचित्तथाप्तवचनान्तरात्प्रसृतलोकवादादपि । न चाऽप्यसत उद्भवो न च सतो निसूलात्क्षयः कथं हि परलोकिनामसुभृतामसत्तोहाते ॥ १५ ॥ न चाऽप्यसदुदीयते न च सदेव वा व्यज्यते सुराङ्गमदवत्तथा शिखिकलापवैचित्र्यवत् । क्वचिन्मृतकरन्धनार्थपिठरादिके नेस्यते .
क्षतिजलादिसङ्गगुण इज्यते चेतना ॥ १६ ॥ तकरणं वपुर्विगतभूषणं चाऽपि ते तजनचित्तनेत्रपरमोत्सवत्वं गतम् ।
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पात्रकेसरिस्तोत्रम् ।
२८७
२८७
विनाऽऽयुधपरिग्रहाजिन ? जितास्त्वया दुर्जयाः कषायरिपवो परैर्न तु गृहीतशस्त्रैरपि ॥ १७ ॥ धियान्तरतमार्थवद्गतिसमन्वयान्वीक्षणा. द्भवेत्खपरिमाणवत्क्वचिदिह प्रतिष्ठा परा । प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवनो निमूलात्कचित्तथाऽयमपि युज्यते ज्वलनवत्कषायक्षयः ॥ १८ ॥ अशेषविदिहेक्ष्यते सदसदात्मसामान्यविजिन ! प्रकृतिमानुषोऽपि किमुताखिलज्ञानवान् । कदाचिदिह कस्यचित्क्वचिदपेतरागादिता स्फुटं समुपलभ्यते किमुत ते व्यपेतैनसः ॥१९॥ अशेषपुरुषादितत्त्वगतदेशनाकौशलं त्वदन्यपुरुषान्तरानुचितमाप्ततालाञ्छनम् । कणादकपिलाक्षपादमुनिशाक्यपुत्रोक्तयः स्खलन्ति हि सुचक्षुरादिपरिनिश्चितार्थेष्वपि ॥२०॥ परैरपरिणामकः पुरुष इज्यते सर्वथा प्रमाणविषयादितत्त्वपरिलोपनं स्यात्ततः । कषायविरहान चाऽस्य विनिबन्धनं कर्मभिः कुतश्व परिनिर्वृतिः क्षणिकरूपतायां तथा ॥ २१ ॥ मनो विपरिणामकं यदिह संसृतिं चाश्नुते तदेव च विमुच्यते पुरुषकल्पना स्याद् वृथा । न चाऽस्य मनसो विकार उपपद्यते सर्वथा ध्रुवं तदिति हीष्यते द्वितयवादिता कोपिनी ॥ २२ ॥ प्रथग्जनमनोनुकूलमपरैः कृतं शासनं मुखेन सुखमाप्यते न तपसेत्यवश्येन्द्रियैः ।
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૨૮૮
प्रथम गुच्छक।
प्रतिक्षणविभंगुरं सकलसंस्कृतं चेप्यते ननु स्वमतलोकलिंगपरिनिश्चयैाहितम् ॥२३॥ न सन्ततिरनश्वरी न हि च नश्वरी नो द्विधा वनादिवदभाव एव यत इष्यते तत्त्वतः । वृथैव कृषिदानशीलमुनिवन्दनादिक्रियाः कथञ्चिदविनश्वरी यदि भवेत्प्रतिक्षाक्षतिः ॥ २४ ॥ अनन्यपुरुषोत्तमो मनुजतामतीतोऽपि स. मनुष्य इति शस्यसे त्वमधुना नरैर्बालिशैः । क ते मनुजगर्भिता क च विरागसर्वशता न जन्ममरणात्मता हि तव विद्यते तत्त्वतः ॥ २५ ॥ स्वमातुरिह यद्यपि प्रभव इष्यते गर्भतो मलैरनुपसंप्लुतो वरसरोजपत्रऽम्बुवत् । हिताहितविवेकशून्यहृदयो न गर्भेऽप्यभूः कथं तव मनुष्यमात्रसशस्वमाशयते ॥ २६ ॥ न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते मृतस्य परिनिर्वृतिर्न मरणं पुनर्जन्मवत् । जरा च न हि यद्वपुर्विमलकेवलोत्पत्तितः. प्रभृत्यरुजमेकरूपमवतिष्ठते प्राङ् मृतेः ॥२७॥ परः कृपणदेवकैः स्वयमसत्सुखैः प्रार्थ्यते मुखं युवतिसेवनादिपरसन्निधिप्रत्ययम् । त्वया तु परमात्मना न परतो यतस्ते सुखं ध्यपेतपरिणामकं निरुपमं ध्रुवं स्वात्मजं ॥२८॥ पिशाचपरिवारितः पितृवने नरीनृत्यते क्षरदूधिरभीषणद्विरदकृत्तिहेलापटः ।
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पात्रकेसरिस्तोत्रम् । हरो हसति चायतं कहकहाट्टहासोल्बणं कथं परमदेवतेति परिपूज्यते पण्डितैः ॥ २९ ॥ मुखेन किल दक्षिणन पृथुनाऽखिलप्राणिनां समत्ति शवपूतिमजरुधिरांत्रमांसानि च । गणैः स्वसदृशैभृशं रतिमुपैति रात्रिंदिवं पिबत्यएि च यः सुरां स कथमाप्तताभाजनम् ॥ ३० ॥ अनादिनिधनात्मकं सकलतत्त्वसंबोधनं समस्तजगदाधिपत्यमथ तस्य संतृप्तता। तथा विगतदोषता च किल विद्यते यन्मृषा सुयुक्तिविरहान्न चाऽस्ति परिशुद्धतत्त्वागमः ॥ ३१॥ कमण्डलमृगाजिनाक्षवलयादिभिर्ब्रह्मणः शुचित्वविरहादिदोषकलुषत्वमभ्यूह्यते । भयं विघृणता च विष्णुहरयोः सशस्त्रत्वतः स्वतो न रमणीयता च परिमूढता भूषणात् ॥३२॥ .. स्वयं सृजति चेत्प्रजाः किमिति दैत्यविध्वंसनं सुदुष्टजननिग्रहार्थमिति चेदसृष्टिवरम् । कृतात्मकरणीयकस्य जगतां कृतिनिष्फला स्वभाव इति चेन्मृषा स हि सुदुष्ट एवाऽऽप्यते॥३३॥ प्रसन्नकुपितात्मनां नियमतो भवेददुःखिता तथैव परिमोहिता भयमुपद्रुतिश्चामयैः । तृषाऽपि च बुभुक्षया च न च संसृतिश्छिद्यते जिनेन्द्र ! भवतोऽपरेषु कथमाप्तता युज्यते ॥ ३४ ॥ कथं स्वयमुपद्रुताः परसुखोदये कारणं स्वयं रिपुभयार्दिताश्च शरणं कथं बिभ्यताम् ।
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२९०
प्रथम गुच्छक ।
गतानुगतिकैरहो त्वदपरत्र भक्तैर्जनैरनायतनसेवनं निरयहेतुरंगीकृतम् ॥ ३५ ॥ सदा हननघातनाद्यनुमतिप्रवृत्तात्मनां प्रदुष्टचरितोदितेषु परिहृष्यतां देहिनाम् । अवश्यमनुषज्यते दुरितबन्धनं तत्त्वतः शुभेऽपि परिनिश्चितस्त्रिविधबंधहेतुर्भवेत् ॥ ३६ ॥ विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः क्रिया बहुविधासुभृन्मरणपीडना हेतवः । त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिताः किं नु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ॥३७॥ त्वया त्वदुपदेशकारिपुरुषेण वा केनचित् कथंचिदुपदिश्यते स्म जिन ! चैत्यदानक्रिया । अनाशकषिधिश्च केशपरिलुचनं चाऽथवा श्रुतादनिधनात्मकादधिगतं प्रमाणान्तरात् ॥ ३८ ॥ न चासुपरिपीडनं नियमतोऽशुभायेष्यते त्वया न च शुभाय वा न हि च सर्वथा सत्यवाक् । न चाऽपि दमदानयोः कुशलहेतुतैकान्ततो विचित्रनयभंगजालगहनं त्वदीयं मतम् ॥ ३९ ॥ त्वयाऽपि सुखजीवनार्थमिह शासनं चेत्कृतं कथं सकलसंग्रहत्यजनशासिता युज्यते । तथा निरशनार्द्धभुक्तिरसवर्जनाधुक्तिभिजितेन्द्रियतया त्वमेव जिन ! इत्यभिख्यां गतः ॥४० जिनेश्वर ! न ते मतं पटकवस्त्रपात्रग्रहो विमृश्य सुखकारणं स्वयमशक्तकै कल्पितः ।
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पात्रकेसरिस्तोत्रम् |
अथायमपि सत्पथस्तव भवेद्वृथा नग्नता न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते ॥ ४१ ॥ परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापद्यते प्रकोपपरिहिंसने च परुषानृतव्याहृती | ममत्वमथ चोरतो स्वमनसश्च विभ्रान्तता कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसद्ध्यानता ॥४२॥ स्वभाजनगतेषु पेयपरिभोज्यवस्तुध्वमी यदा प्रतिनिरीक्षितास्तनुभृतः सुसूक्ष्मात्मिकाः । तदा क्वचिदपोज्झने मरणमेव तेषां भवदथाऽप्यभिनिरोधनं बहुतरात्मसंमूच्छेनम् ॥ ४३ ॥ दिगम्बरतया स्थिताः स्वभुजभोजिनो ये सदा प्रमादरहिताशयाः प्रचुरजीवहत्यामपि । न बन्धफलभागिनस्त इति गम्यते येन ते प्रवृत्तमनुबिभ्रति स्वबलयोग्यमद्याप्यमी ॥ ४४ ॥ यथागमविहारिणामशन पानभक्ष्यादिषु प्रयत्नपरचेतसामविकलेन्द्रियालोकिनाम् ।
कथंचिदसुपीडनाद्यदि भवेदपुण्योदयस्तपोऽपि वध एव ते स्वपरजीवसंतापनात् ॥ ४५ ॥ मरुज्ज्वलन भूपयः सु नियमात्कचिद्युज्यते परस्परविरोधितेषु विगतासुता सर्वदा । प्रमादजनितागसां कचिदपोहनं स्वागमात्कथं स्थितिभुजां सतां गगनवाससां दोषिता ॥ ४६ ॥ परैरनध निर्वृतिः स्वगुणतत्त्व विध्वंसनं ब्यघोषि कपिलादिभिश्च पुरुषार्थविभ्रंशनं ।
२९१.
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२९२
प्रथम गुच्छक।
त्वया सुमृदितैनसा ज्वलितकेवलौघश्रिया ध्रुवं निरुपमात्मकं सुखमनन्तमव्याहतम् ॥ ४७ ॥ निरन्वयविनश्वरी जगति मुक्तिरिष्टा परैन कश्चिदिह चेष्टते स्वव्यसनाय मूढेतरः । त्वयाऽनु गुणसंहतेरतिशयोपलब्ध्यात्मिका स्थतिः शिवमयी प्रवचने तव ख्यापिता ॥ ४८ ॥ इयत्यपि गुणस्तुतिः परमनिवृतेः साधनी भवत्यलमतो जनो व्यवसितश्च तत्काङ्गया। विरस्यति च साधुना रुचिरलोभलाभे सतां मनोऽभिलषिताप्तिरेव ननु च प्रयासावधिः ॥४९॥ इति मम मतिवृत्या संहतिं त्वद्गुणानामनिशममितशक्ति संस्तुवानस्य भक्त्या। . सुखमनधमनंतं स्वात्मसंस्थं महात्मन् । जिन ! भवतु.महत्या केवलं श्रीविभूत्या ॥ ५० ॥
इति श्रीनिखिलतार्किकचूडामणि विद्यानंदिस्वामिप्रणीतं बृहत्पंचनमस्कारस्तोत्रापरनामधेयं पात्रकेसरिस्तोत्रं
. . समातम्।
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* *
श्रीमत्पूज्यपादस्वामिविरचितः
इष्टोपदेशः ।
( १६ )
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ १ ॥ योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता । द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ॥ २ ॥ वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतैर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥ यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी । यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशाद्धे किं स सीदति ॥ ४ ॥ हृषीकजमनातकं दीर्घकालोपलालितम् ।
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥ ५ ॥ वासनामात्रमेवैतत्सुखं दुःख च देहिनां । तथा युद्वेजयंत्येते भोगा रोगा इवापदि ॥ ६ ॥ मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान्पादार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥ ७ ॥ वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः । सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ॥ ८ ॥
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२९४
प्रथम गुच्छक ।
दिग्देशेभ्यः खगा पत्य संघसंति नगे नगे। स्वस्वकार्यवशायांति देशे दिनु प्रगे प्रगे ॥९॥ विराधकः कथं हने जनाय परिकुप्यति । यंगुलं पातयन्पद्यां स्वयं दंडेन पात्यते ॥१०॥ रागद्वेषद्वयीदीर्घनत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥ ११ ॥ विपद्भवपदावर्ते पदिके वातिबाह्यते । यावत्तावद्भवंत्यन्याः प्रचुरा विपदः पुरः ॥१२॥ दुरज्यनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना। स्वस्थंमन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ १३ ॥ विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते । दह्यमानमृगाकीर्णवनांतरतरुस्थवत् ॥ १४ ॥ आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमं । वांछतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनं ॥१५॥ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलंपति ॥ १६ ॥ आरंभे तापकान्प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । अंत सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥१७॥ भवंति प्राप्य यत्संगमशुचीनि शुचीन्यपि। स कायः संततापायस्तदर्थ प्रार्थना वृथा ॥ १८ ॥ यजीवस्योपकाराय तहस्थापकारकं । यहहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं ॥ १९ ॥ इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इतः पिण्याकखंडकं । ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियंता विवेकिनः ॥२०॥
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इष्टोपदेशः ।
स्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यंत सौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥ संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः । आत्मानमात्मवान्ध्या येदात्मनैवात्मनि स्थितं ॥ २२ ॥ अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः । ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥ २३ ॥ परीषाद्यविज्ञानादानवस्य निरोधिनी । जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥ २४ ॥ कटस्य कर्त्ताहमिति संबंधः स्याद् द्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव संबंधः कीदृशस्तदा ॥ २५ ॥ बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥ २६ ॥ एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥ २७ दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम् । त्यजाम्येनं ततः सर्व मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ २८ ॥ न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥ २९ ॥ भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विशस्य का स्पृहा ॥ ३० ॥ कर्म कर्महिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः । स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वांछति ॥ ३१ परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन्परस्यानो दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ ३२ ॥
२९५
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२९६
प्रथम गुच्छक ।
गुरूपदेशादभ्यासात्सवित्तेः स्वपरांतरं । जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरम् ॥ ३३॥ स्वस्मिन्सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः। स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥ ३४॥ नाशो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाशत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत् ॥ ३५ ॥ अभववित्तविक्षेप एकांते तत्त्वसंस्थितिः । अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजात्मनः ॥ ३६ ॥ यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचंते विषयाः. सुलभा अपि ॥ ३७॥ यथा यथा न रोचंते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥ ३८ ॥ निशामयति निःशेषमिंद्रजालोपमं जगत् । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ॥ ३९ ॥ इच्छत्येकांतसंवासं निर्जनं जनितादरः । निजकार्यवशाकिचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतं ॥४॥ ब्रुवन्नापि हि न ब्रूने गच्छन्नपि न गच्छति । .... स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४१॥ किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्त्यावशेषयन् ।। स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ॥ ४२ ॥ यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रति । यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ॥४३॥ अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते । अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते ॥४४॥ -
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इष्टोपदेशः ।
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखं । अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ॥ ४५ ॥ अविद्वान्पुद्रलद्रव्यं योऽभिनंदति तस्य तत् ।: न जातु जंतोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुंचति ॥ ४६ ॥ आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिः स्थितेः । जायते परमानंदः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ आनंदो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतं ।
न चासौ विद्यते योगी बहिर्दुः खेष्वचेतनः ॥ ४८ ॥ अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्दृष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ ४९ ॥ जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥ ५० ॥ इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्
1
मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य ।
मुक्ताप्रहो विनिवसन्सजने वने वा
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ॥ ५९ ॥
इति श्रीइष्टोपदेशः समाप्तः ।
२९७
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श्रीअमितगतिसूरिविरचिता द्वात्रिंशतिका ।
(१७) सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । मध्यस्थमा विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ शरीरतः कर्तुमनन्तशक्तिं विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र कोषादिव खजयष्टिं तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ॥२॥ दुःखे सुख वैरिणि बन्धुवर्गे योगे वियोगे भुवने वने वा। निराकृताशेषममत्वबुद्धः समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥३॥ मुनीश!लीनाविव कीलिताविव स्थिरौ निषाताविव बिंबिताविव पादौ त्वदीयो मम तिष्ठतां सदा तमोधुनानी हदि दीपकाविव एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः, प्रमादतः संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलितानिपीडिता,तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना मया कषायाक्षवशेन दुधिया। चारित्रशुद्धेर्यदकारिलोपनं तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो॥६॥ विनिन्दनालोचनगर्हणैरहं मनोवचःकायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारणं भिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ७
अतिक्रमं यद्विमतेर्व्यतिक्रमं जिनातिचारं सुचरित्रकर्मणः । व्यधामनाचारमपि प्रमादतः प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥६॥
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द्वात्रिंशतिका।
क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेर्विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ९ यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादाद्यदि किञ्चनोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ॥१०॥ बोधिःसमाधिःपरिणामशुद्धिःस्वात्मोपलब्धिःशिवसौख्यसिद्धिः चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवि ११ यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१२॥ यो दर्शनशानसुखस्वभावः समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंशः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥ निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालं । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४ विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः। त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् १५ क्रोडीकताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥१६॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।१७ न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषैर्यो ध्वान्तसंधैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ १८ ॥ विभासते यत्र मरीचिमालि न विद्यमाने भुवनावभासि ।। स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१९॥ विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम् शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ २० ॥
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प्रथम गुच्छक ।
येन क्षता मन्मथमानमूर्छा विषादनिद्राभयशोकचिन्ता। क्षयोऽनलेनेव त रुप्रपञ्चस्तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ २१ ॥ नसंस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी विधानतो नोफलकोविनिम्मितः यतो निरस्ताक्षकषायविद्विषः सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः न संस्तरो भद्रसमाधिसाधनं न लोक पूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामपि बाह्य वासनाम् न सन्ति बाह्या मम केचनार्था भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं स्वस्थः सदा त्वं भव भद्रमुक्त्यै आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शनशानमयो विशुद्धः। एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५ एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा विनिर्मलः साधिगमस्वभावः। बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः। पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२७॥ संयोगतो दुःखमनेकभेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततनिधासौ परिवर्जनीयो यियासुना निवृतिमात्मनीनाम् २८ सर्व निराकृत्य विकल्पजालं संसारकान्तारनिपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२९॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो न कोपिकस्यापि ददाति किंचन विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥३१
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द्वात्रिंशतिका। यैः परमात्माऽमितगतिवन्धः सर्वविविको भृशमनवद्यः। शश्वदधीतो मनसि लभन्ते मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥ ३२॥ इति द्वात्रिंशतावृत्तः परमात्मानमीक्षते। योऽनन्यगतचेतस्को यात्वसौ पदमव्ययम् ॥ ३॥
इत्यमितमतिसूरविरचिता द्वाविंशतिका समाला ।
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श्रीमज्जयानंदसरिविरचितम् । सर्वज्ञस्तवनम् ।
(१८) देवाःप्रभो!यं विधिनात्मशुद्धयै भक्त्याः सुमेरोःशिखरेऽभ्यर्षिचन् संस्तूयसे त्वं स मया समोदमुन्मील्यते शानदृशा यथा मे ॥१॥ ध्यानानुकम्पाधृतयः प्रधानोल्लास्थिरा शानसुखक्षमं च । सुनाथ! संतित्वयि सिद्धिसौशाधिरूढ!कर्मोज्झित! विश्वरुच्यर ससारभीतं जगदीश ! दीनं मां रक्ष रक्षाक्षम ! रक्षणीयम् । प्रौढप्रसादं कुरु सौम्यहष्ट्या विलोकय स्वीयवचश्च देहि ॥३॥ नतेंद्र विद्रावितदोष ! दत्तदाना दरिद्रा अपि वीतदौः स्थ्याः। त्वया कृताभूरिधना अनंतशान!द्विषान् सक्षम मंचमासान् ॥४॥ द्वित्रैर्भवैमुक्तिमना द्विपाधास्तव त्रिपूजां विदधत् त्रिसंध्यम् । कल्याणकानां जिन ! पंचपर्वीमाराध्य भव्यः शिपतेऽष्टकर्म ॥५॥ साम्येन पश्यस्त्रिजगद्विवेकी श्रयन् प्रभो ! पंचसमित्युपैति । अपास्य सप्तभ्यधिसिद्धिमध्ये सिद्धं जवेनोपभवादुपेशम् ॥६॥ भवेच्छुभायोपभवद्यथेष्टं श्रये सनाथोऽस्मि नमोऽस्तु दोषाः। दुरे प्रभावश्च गुरुः सुखं मे विश्वार्य ! धीश्रीकृदुपद्विपादे ॥७॥ मुत्वा भवं सौख्यमवाप्तुमंगी धीमास्त्यजन् मोहमघस्य हंता । योमुच्यमानस्तमसा शिवीयेत त्वत्सेविताकाम्यतुसोत्र नेतः ८ क्षेमेषु वृक्षत्सु घनायमानो हितः पितेवामृतवद्दुरापः । मम प्रभो ! भव्यतरं स्वभृत्यीभावं जयानंदमय ! प्रदेयाः ॥९॥
इति श्री सर्वज्ञस्तवन समाप्तम् ।
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श्रीपद्मप्रभदेवविरचितम् श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् |
( १९ )
लक्ष्मीर्महस्तुल्यसती सती सती प्रवृद्धकालो विरतो रतो रतो । जरारुजाजन्महता हता हता पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥ ( २ ) अच्र्चेयमाद्यं सुमना मनामना यः सर्वदेशो भुवि नाविना विना । समस्त विज्ञानमयो मयोमयो पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ !! ( ३ )
विनेष्ट जन्तोः शरणं रणं रणं क्षमादितो यः कमठं मठं मठं । नरामरारामक्रमं क्रमं क्रमं पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥ ( ४ ) अज्ञानसत्कामलतालतालता यदीयसद्भावनता नता नता । निर्वाणसौख्यं सुगता गतागता पार्श्व फणे रामगरौ गिरौ गिरौ ॥ ( ५ ) विवादिताशेषविधिर्विधिविधिर्बभूव सर्प्यवहरी हरी हरी । त्रिज्ञानसज्ञानहरोहरोहरो पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥ ( ६ ) यद्विश्वलोकैकगुरुं गुरुं गुरुं विराजिता येन वरं वरं वरं ॥ तमाल नीलांगभरं भरं भरं पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥
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३०४
प्रथम गुच्छक ।
संरक्षितो दिग्भुवनं वनं वनं विराजिता येषु दिवै दिवैदिवः । पादद्वये नूतसुरासुराः सुराः पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ॥
... (८) रराजनित्यं सकला कला कलाममारतृष्णो वृजिनो जिनो जिनो। संहारपूज्यं वृषभा सभा सभापाव फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ।
तः व्याकरणे च नाटकचये काव्याकुले कौशले विख्यातो भुवि पननन्दिमुनिपस्तत्वस्य कोष निधिः । गंभीरं यमकाष्टकं पठति यः संस्तूयसा लभ्यते श्रीपमप्रभदेवनिर्मितमिदं स्तोत्रं जगन्मंगलम् ॥
इति श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र समाप्तम् ।
समाप्तोऽयमन्थः ।
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पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः
२
अस्य गुच्छकस्य शुद्धयशुद्धिपत्रम् ।
१३
१६
२०
२४
१४
२४
१६
२३.
२२
२१
२४
११
११
२५
२
२२
२६
२६
२८
२८ १७
३२ १०
३२ १३
४
ब्रम्ह
तपस्यजत्रं
क्षदादि
चन्द्रभ्रमं
परैबुध
कमकक्ष
ध्वक्षः
मण्डेपन
सद्गुष्टिशाक
जुष्टाः
क्षत्रवृद्धि
तर्थर्तुरयनं
मुकिमुक्त
शुद्धिपाठ:
परिषह
पूजार्थ
ध्यनेय
ब्रह्म
तपत्यज
क्षुधादि
चन्द्रप्रभ
परैर्बुध -
कर्मकक्ष
जुष्टाः क्षेत्र वृद्धि -
भागोपभोगोपरिमाण- भोगोपभोग परिमाण
तथर्तुरथनं
मुक्तिमुक्तं
परीषह
www
द्वयक्षः
मण्डपेन
सदृष्टिज्ञान
पूजार्था
ध्ययने
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________________
3.
पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः
३२
३३
३३
३५
३६
३६
३६
२२
४१
४१
939
१४
३६
१८
३७ १३
३७
१५
३७ २३
३८ १६
४०
V
४२
२२
४३ २१
४३
२२
४४
૪
४५ १
४५
5 L
[ २ ]
ध्ययने
प्राषध
याsत्ति साऽयं
तज्ज्यति
कमभावेन
परिणममाणस्य
निरभिमुखाः धर्मकथय
परदाष
कार्य
यता
भूताऽयम् दुर्विदग्धनाम् चलभ्यन्ते कालोच्छन
निषिद्यते
या यस्य
हिंसायां
सद्भावत् भवेन्नवं
अतिवतते
शावकादानाम्
शुद्धिपाठ:
धारयेत
प्रोषध
योऽति सोऽयं
तज्जयति
कर्मभावेन
परिणममानस्य
निरभिमुखा धर्ममकथय
परदोष
कार्य
यतो
भूतोऽयम् दुर्विदग्धानाम्
चल्भ्यन्ते
कालोच्छिन्न
निषिध्यते
यो यस्य
हिंसायाः
सद्भावात्
भवेन्नैवम्
अतिवर्तते
शावकादी
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________________
भुक्त
[३] एं पंक्तिः अशुद्धिपाठः शुद्धिपाठ:
७. मूच्छाविशेषण मूर्छाविशेषण ११: खण्डयोरिह . खण्डयोरिव
सम्मुखायातः . सम्मुखायाताः
भुक्तो ४७.१० प्रथम
प्रथनं सान्ध्यविधि सान्ध्यविधिः ४. १८: न्यतस्तो
स्थतस्ततो ४९ १८. भक्तिमतिभावितत्यागः भक्तिमितिभावित
स्त्यागः लेखकृतीः
लेखकृती... इत्येतानतिचारानपि इत्येतानतिचारान
योगी ... परानपि. .. १ व्युत्श्चेति ... व्युत्सर्गश्चेति ५२ ३ गुप्तित्रितयमवनुगम्यं गुप्तित्रितयंसमनुगम्य ५२ ११ च्याधिदुःखसंगमनम् .. च्याधिदुःसमगमलम् ५२ १७ मुक्तिमभिलषिता मुक्तिमभिलषता
तस्मात्तत्पुन- नासति तत्पुनसाङ्गङ्गवाह्य- साङ्गा वाह्य- .
देहवित्तिका : देहवित्तिकाः . ५८ २२
दुगमनुग्रहः .. : दुर्गमनुग्रहा व्यवृत्त ... व्यावृत्त द्रागागामी . . . . द्रागागामि
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[४] पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः ५९ - १९ पित्तज्यरा
पूतिकृमिसंकल्पेदस्वातव्ययं वक्रविषमे
कोपादिवान् ६३ १० काशा ६३ २३ पहिरपि
वरिणति
Wav -
शुद्धिपाठःपित्तज्वरा पूतिक्रमिसंकल्प्येदस्वातन्त्र्य वक्रविषमे कोपादिमान् का सा पहिरपि परिणति धुग्रामयैः
घुग्राम्यः
स्मत
६६ ६६
२४ २४
धीक्षितुमिवान्धयं किमि मृषा
वीक्षितुमिवान्ध्य किमिति मृषा
६७
१२
स्तमिन् खना मूर्धा
शरीररे
६७ ६७
१९ २०
जखः द्धागृद्धया विष्टवनिता सपोऽग्निरमुं
तस्मिन् घना मूना शरीरे जनः वृद्धगृद्धया मिष्टवनिता तपोऽग्निमिरमुं
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पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः ६८ १३ कश्चिच्छिर्य ६८ १४
परत्यकावान्
शुद्धिपाठ:कश्चिच्छिय
पपां
.पापां
प्रथलवन कमव्याधः बैभुवम् क्षणार्द्धपि
स्त्रियस्त्वदिह ७३ ७
श्रुतवदुरुपतः ७३ १४ तद्वान ७४ १७ ७४ २० प्रविरल्यः ७५ २०
गृण्हान्यत्यारि२२. स्वशरीरताऽपि
६ पाक७६ -११ समारूढो ७८ ४ , जन्तार्म
जन्तोस्त१५ दुःखयन्ता .. ७. श्रुतमधास्व .. १९ . .रासीहरात्मा
परत्यकवान् सुभगो प्रयत्नवान् कामव्याध: वैभवम् । क्षणार्द्धमपि लियस्तदिह श्रुतवदुरुतपः तद्वान् कलौ .. प्रविरलाः गृहात्यन्यान्परिस्वशरीप्तोऽपि पाकं . . समारूढौ अन्तोमजन्तोस्तदुःखयन्तो श्रुतमधीस्व रासीद्दुरात्मा
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________________
शुद्धिपाठ:विषयाश्च मान विभावर्या मपिच्छझाल्यं
मम
हृदया
पृष्ठं पकिर अशुद्धिपाठः .
विषमाश्चमाना विमाव
मपिच्छामायं ८३ ११
कषायब्रिनि- . ८४ २३
प्रोषयन्यज्ञः
बेशितः ८८ :१२ परिग्रहपरि
बाजन शत९२ २४ पर्वापरा
शिखरिणा पल्योपस्थितयः मुहूर्त स्यनन्ताः
नीचैतृत्व ९९ २.. भागाप्रदेशा
सागरापमा१०० १८ क्रायक्लेश १०१ २१ मर्शनसि
ज्योतिजिने १०३. १५ वर्शन
कषायविनि- . हृदयो पोषयत्यज्ञा वेशिताः परिग्रहग्रहपरियोजनशतपूर्वापराशिखरिणो पल्लोपमस्थितयः
९३
२३
स्यानन्ताः नीचैत्य भागप्रदेशासागरोपमा कायक्लेशा नदर्शनसिज्योतिजिने वर्शनं.
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________________
[७] पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः
शुद्धिपा:
सोऽय
पुनः
१०४ ५ साऽय१०४ १४ पुना १०५ १ ततस्वीहा १०६ ६ मिथ्याज्ञाननि
नैगमसं
इत्यादौदयिः १०८ १७ . तथव १११ १० तद्धिा११३ १४ - सूलाग्र११६ १६ जीवना १२५ २० निश्चताः १२६ - ज्योतिप्काः १३१ १९ निक्रियाणां १३१ २०
विपक्षित १३३ २० वेनसिको १३८ १
नैःशाल्यं १३८ २० मिथ्यत्वं १४५ २० थाश्च च १४५ २४. स्मता:
भवश्चकत्व१५६ १८ शान्तमाह१६६ २४ व्यञ्जनपर्यायः
सतस्त्वीहत मिथ्यावानि : सैगमः संइत्यौदयिकतथैव : साहिधा-मूलाग्र-: जीवानां निश्चित ज्योतिष्काः निःक्रियाणां विवक्षित अनसिको नैःशील्यं . मिथ्यात्वं त्याश्च स्मृताः मवश्चैकत्वशान्तमोहज्यञ्जनपर्वाचा
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[८] पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः १७३ ९. स्वभावरूपस्यै१७५ १२ विकल्पं १७६ १५ एवक्रिया १८३ १४.
मुछलति . १९२ १४
मानस्य
निवघ्नन२०३६ २४ नोर्द्ध२०४ १८ स्वाभावो२०७ २२ पूर्वस्वभाव २०८. १८
: स्वरसाम२१० १७ मखण्डमके २२२ १ कारापरिहार२२४ ५ यादत्य २२४ २३.. प्रसंगात् २२८ ८
सकनिस्त- २३३ ५ प्रघानं २३९ १६ २४१ १४
तद्वयापेतं २४५ १६ तयोर्यक्ती २४६ ११ तदेवेत्युनु २५१ ३ सायर्थ्यतो २५२ ७ स्वमूर्टिन
शुद्धिपाठःस्वभावस्वरूपस्यैविकल्पं एवं क्रिया मुच्छ्वलति ज्ञानस्य निवन्धननोर्द्धस्वभावो पूर्णस्वभावः स्वरसाभिमखण्डमक कारपरिहारयदित्थं . प्रसंगात 'सकर्माणस्तप्रधान
तद्वयापेतं तयोर्व्यक्ती तदेवेत्यनु सामर्थ्यतो . स्वमूर्णि
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[ ९ ].
पृष्ठं पंक्तिः अशुद्धिपाठः २५५ ५ . घस्युनो२५५ १७ निहिण्या-... २५६ ४ नीयेते . . २६१ २०
कलादि२६१ २१ कालादिभिभि२७३ ९ स्यादिति२७३ १७
रुपादानं
घन . . २७७ १३ मुक्तिरेकान्तिकी
गतेवीज २७९ १७ त्याजस्त२८४ १६ मुपश्चितस्य २८८ १९ पर: २९२ ६ स्थतिः २९२ १४ केवलं श्री२९३ १४
दुःख च २९६ - १७ ब्रुवन्नापि ३०२ ६. प्रधानोल्लास्थि३०२ ८
ससार
शुद्धिपाठःवस्तुनोनिहिश्यानीयते कालादिकालादिभि-ि
स्यादिति बदन्तं... रुपादानं न -घनं
. मुक्तिरैकान्तिकी गतेर्वीज त्याज्यस्तथा मुपाश्रितस्य परैः स्थितिः केवलश्री दुःखं च अवन्नपि प्रधानोल्लासिस्थिसंसार. क्षिपते विश्वाय॑ । शिवीयेत्
शिपते
३०२ १७ .. विश्चार्य ३०२ १९ शिवीयत
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नवीन छपे ग्रंथ।
मोक्षमार्गप्रकाशक-पंडित प्रवर टोडरमल जी विरचित
" जैन धर्मके रहस्यका अनुपम ग्रन्थ - शास्त्राकार खुले पत्र मृश्य ५) प्रथमगुच्छक-१९ संस्कृत ग्रंथों व स्तोत्रों का संग्रह
कपड़ेकी पक्की जिल्द पृष्ठ ३२० मू० १॥) शांतिसोपान-- ग्रंथोंका भाषाटीका सहित- संग्रह ... प्रष्ठ ११२ - मूस्य
) जागतीज्योति-अहिंसा व नीति विषयक उत्तमोत्तम ।
... लेखोंका संग्रह पृष्ठ ६८ मूल्य ।) भावनाभवन-उत्तम धार्मिक कविताओंका संग्रह ..
पृष्ठ ३२ . मल्यो श्रीसुदृष्टि तरंगणी -(गृहस्थोंके आचारका अनुपम ग्रन्थ,
छप रहे हैं) मंगानेका पत्तापन्नालाल चौधरी
भदैनी, काशी।
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________________ Printed by JAI KRISHNA DASS GUPTA, At the Vidya Vilas Press, Gopal Mandir Lane, Benares City. 1925.