Book Title: Dashvaikalika Sutram
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Shripalnagar Jain S M P Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैलाससंगरसूति ॥ अर्हम्॥ श्रीमच्छय्यम्भवसूरिश्वरसूत्रितं श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं याकिनीमहत्तरासूनु-सूरिपुरन्दर-श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहद्वृत्तियुतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम्। ANUA For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ризи ।। अहम् ।। श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२ ॥ ॥श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरस्मृति-ग्रन्थमाला-आगमाङ्कः-४२-ग्रन्थाङ्कः-३१॥ श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं श्रीमद्भद्रबाहविरचितनियुक्तियुतं याकिनीमहत्तरासूनु सूरिपुरन्दर-श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहद्वृत्तियुतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम्। ACHARYA SAI KAILASSAGARSURIGYANSAND प्रकाशक: SAINTAHAYA HRABADNAMA KENDRA Kobo.sataninagar-362009 श्री श्रीपालनगर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक देरासर ट्रस्ट Phone: (079823270252,2527020403 १२, जे. मेहता मार्ग, मुंबई-४००००६. ॥१ ॥ वीर संवत् २५३८ प्रथम संस्करण विक्रम संवत् २०६८ इ.स. २०१२ प्रतयः १००० For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 144566 For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरस्मृति-ग्रन्थमाला-आगमाङ्कः-४२-ग्रन्थाङ्कः-३१॥ ।। प्रथमतीर्थपति-श्रीआदिनाथस्वामिने नमः ॥ऐं नमः। चरमतीर्थपति-श्रीमहावीरस्वामिने नमः ।। ॥पञ्चमगणधर-श्रीमत्सुधर्मस्वामिने नमः ।। ॥ तपागच्छीय पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजयदान-प्रेम-रामचन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं याकिनीमहत्तरासूनु सूरिपुरन्दर-श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहद्वृत्तियुतं ॥ २ ॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रम् । धर्मप्रभावकसाम्राज्यम् तपागच्छाधिराज-जैनशासनशिरोमणि-पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वराः आज्ञाऽऽशीर्वाददातार: ज्योतिर्मूर्ति-सूरिरामचन्द्रपरमकृपापात्र-सुविशालगच्छाधिपतयः पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजयमहोदयसूरीश्वराः प्रेरका: शासनप्रभावक-पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विविजयमुक्तिचन्द्रसूरीश्वरविनेयरत्न-प्रज्ञामूर्ति-पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजयविचक्षणसूरीश्वरा: मार्गदर्शका: *पू.आ.भ.श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरि-पट्टालङ्कार-पू.आ.भ. श्रीमद्विजयजितमृगाङ्कसूरीश्वरविनेयरत्न-सुविशालगच्छाधिपतय: पू.आ.भ.श्रीमद्विजयहेमभूषणसूरीश्वराः सम्पादका: पूज्यमुनिवर्यश्रीदिव्यकीर्तिविजयगणिबिनेयरत्न-पूज्यमुनिप्रवरश्रीपुण्यकीर्तिविजयगणिवर्या, ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशीर्वाद: श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 130 ॥ गच्छाधिपतीनां आशीर्वादः ।। अनन्तज्ञानवतामनुपमबोधवतामपरिमितप्रभावशालिनामर्हतामिदं शासनं शास्त्रवचनानुबद्धतयैवाद्य यावज्जीवितमस्त्यप्रतिहतप्रभावम् । यत्र शास्त्राज्ञा प्रवर्तते तत्र शासनं विलसत्यतितमाम्। भगवतां जिनेश्वराणां विरहकाले तेषां वचास्युपजीव्यैवाराधना साध्या। यद्यपि शास्त्राणि सर्वोपकारकारणानि, अतस्तदध्ययनं सर्वैरेव कर्तव्यम्, तथापि परमोत्कृष्टपावित्र्यवतां शास्त्राणामध्ययनार्थं पात्रताऽनिवार्या । द्विविधा किल शास्त्रश्रेणिः । मूलागमरूपा, तदितररूपा च । तत्र मूलागमशास्त्राणि तद्वत्तयश्व केवलं गुरूदत्ताधिकाराणां योगक्रियावाहिनामेव श्रमणानामध्ययनगोचरी भवन्ति । तदितररूपाणिशास्त्राणि मूलागमानुसारं विरचितान्यपि यथास्वं श्रमणश्रमणीनां श्रावकश्राविकाणांचाध्ययनभाजनानि भवन्ति । इह तु, आगमशास्त्रप्रस्ताव इति यथाऽहै योगवाहिनां श्रमण-श्रमणीनामेव प्रवृत्तिरस्मिन् । यद्यपि नागमशास्त्राणि मुद्रणााणि, तेषामुपलब्धिसौख्यादनधिकारिणामपि तत् पठनादिसंभवाद् । तथापि बहसंख्यक-श्रमण-2 श्रमणीगण-स्वाध्याय-सहायकतया मुद्रणव्यवस्थाऽद्यतनकालीनगीतार्थ: स्वीकृता, केवलं निगूढरहस्यानां छेदसूत्राणां मुद्रण नाहतमित्ययं विवेकः सुस्पष्टः । इह सवृत्तिकानामागमशास्त्राणां सम्पुट: सम्पादित: मुनिवरैः श्रीदिव्यकीर्तिविजयगणिवरैः, मुनिवरैः श्रीपुण्यकीर्तिविजयगणिवरैश्चसायुज्येन । इतः पूर्वमनेकवारमनेकस्थानकैश्चागमशास्त्राणिसम्पादितानि । तत् परम्परायामिदंसम्पादनं स्वयंसिद्धां विशिष्टिं धारयतीत्येतत् प्रत्यक्षमस्ति। ___अत्र दिव्यकृपावतरणं तपागच्छाधिराजपूज्यपादाचार्यवर्यश्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वराणाम, सुविशालगच्छाधिपति पूज्यपादाचार्य श्रीमद्विजयमहोदयसूरीश्वराणाञ्च। प्रेरकत्वञ्चात्र परमगीतार्थपूज्यपादाचार्यवर्यश्रीमद्विजयविचक्षणसूरीश्वराणाम् । श्रीश्रीपालनगरजैनश्वेताम्बरमूर्तिपूजकसङ्घन ग्रन्थप्रकाशनेऽस्मिन् ज्ञानद्रव्यव्यय आदृत इत्येतदनुमोदनीयमस्ति । अग्रेऽपि सङ्गो ॥३॥ G008 48 For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४ ॥ ऽयमेवमेव लाभान्वितो भवत्विति भृशमाशास्यते । www.kobatirth.org अमीषामागमग्रन्थानामध्ययनं प्रसरतु श्रमणसंघे । श्रमणैश्चागमानाममीषामुपनिषद्भूत उपदेशः प्रसरतु सकलश्रीसंघे- इत्याशीर्वादः । तपागच्छाधिराजपूज्यपादाचार्यवर्य श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वराणां पट्टालङ्काकाराणां प्रशान्तमूर्तिपूज्यपादाचार्यवर्य श्रीमद्विजयजितमृगाङ्कसूरीश्वराणां चरणकिङ्करो विजयहेमभूषणसूरिः । कान्दीवली, मुंबई. विक्रम सं० २०६४ वीर सं० २५३४ पोष सुद १३ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशीर्वादः ॥ ४ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir प्रकाशकीयम श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ प्रकाशकीयम् ॥ ॥ श्रीपालनगरमण्डन श्रीआदिनाथस्वामिने नमः ।।।श्रीपालनगरमण्डन श्रीमुनिसुव्रतस्वामिने नमः॥ ॥नमामि नित्यं गुरुरामचन्द्रम् ॥ प्रथमराजा, प्रथममुनि, अने प्रथमतीर्थाधिपति, जगदुद्धारक, जगद्वत्सल, श्रीदेलवाडा (मेवाड) तीर्थथी प्राप्तथयेल विशालकाय अद्भूत श्रीआदिनाथभगवान अने श्री मुनिसुव्रतभगवाननी अमीदृष्टिथी तेमज श्रीसंघसन्मार्गदर्शक पुण्यनामधेय परमाराध्यपाद सुविशालगच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजानी कृपादृष्टिथी अमारा श्रीटूस्टनी स्थापना वि.सं. १२०२४ मां थई अने आज सुधी उत्तरोत्तर धर्मनी ऋद्धि अने वृद्धि थती रही छे । श्रीपालनगर नामने सार्थक करतुं अमाझं ट्रस्ट नवा नवा सीमांकनोने अंकित करतुं रह्यु छ। वि.सं. २०५६नी सालमा ट्रस्टना ज्ञानद्रव्यना सव्यय माटे विनंति करतां सुविशुद्धसंयमी पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयविचक्षणसुरीश्वरजी महाराजाओ आगमग्रंथोना सुंदरीते संपादन माटे उपदेश कर्यो । ज्ञानखाताना द्रव्यनो सद्व्यय अने साधुसाध्वीवर्गने सरलताथी अध्ययन ए अमनो हेतु हतो। रतलाम चातुर्मास बिराजमान सुविशाल गच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजयमहोदयसूरीश्वरजीमहाराजापासे जई आज्ञा मेळवी,संपादनकार्य माटे मुख्यपणे पूज्य मुनिराज श्रीदिव्यकीर्तिविजयजी तथा पूज्य मुनिराज श्रीपुण्यकीर्तिविजयजी म.सा., आर्थिक सहयोग माटे अमारा ट्रस्टमण्डळे अने ट्रस्टनी विनंतिथी मुद्रण सुधीना आयोजन माटे श्रीयुत रमणलाल लालचंदजीओजवाबदारी स्वीकारी ज्ञानभक्तिनो सुंदरलाभ मळ्यानो आनंद व्यक्त कर्यो। सुंदर अनेटकाउ कागळ तेमज सुवाच्य टाइप अक्षरो अने सुशोभित छापकार्य माटे पू. गुरुवर्योनुं सतत मार्गदर्शन अने श्रीयुत रमणभाईनी जहमत अत्यंत स्तुत्य छ। श्रीपालनगर उपाश्रयमांज अलग रीते एक सुंदर आगमकक्ष नुं निर्माण संपन्न थयु, कोम्प्युटर-प्रीटर-सोफ्टवेर, इत्यादि सामग्री वसावी, आगमग्रंथो उपर आगमप्रणेतानी दृष्टिनु सिंचन थाय ते माटे श्रीगौतमस्वामीनी गुरुमूर्ति प्रस्थापित करी। पवित्रताना हेतुथी बहेनो For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥६॥ www.kobatirth.org पासे आ कार्यनो प्रतिषेध निर्णीत कर्यो अने आगमकक्षमां पण प्रवेश निषेध कर्यो अने कम्प्युटरोमां कम्पोजींग-प्रूफरीडींग कार्य मात्र पुरुषवर्गनां आपरेटरो- एडीटरो द्वारा कराववानो अमल कर्यो। दररोज आ कार्य ना प्रारंभथी अंत सुधी धूप-दीपना प्रज्वलनपूर्वक अपवित्रतानो नाश अने अर्चनीयतानुं स्थापन करवापूर्वक परममंगलकारी अने परमपवित्र आगमग्रंथोनी गरिमा जाळववानो यथाशक्य प्रयास कर्यो । जो के आकार्य तो मात्र पुनः सम्पादननुं छे। प्राचीन हस्तप्रतोमांथी संशोधनकार्यनो अथाग प्रयत्न तो आगमोद्धारक पूज्य सागरजी महाराज (पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज) आदिओ कर्यो छे जेनो श्रेय तो तेओना फाळेज जाय छे। अन्य संशोधको अने संपादनोनो आ संपादनमां उपयोग कर्यो छे तेनो उल्लेख ते ते स्थळोओ कर्यो छे । गणिपिटक भेटले आचार्यभगवंतोनी अत्यंत किंमती अने गुप्त संपत्ति। तेनो दुरुपयोग न थाय माटे साधु-साध्वीभगवंतोने उपयोगमां आवतां ज्ञानभंडारो तथा पू. आचार्यादि गुरुभगवंतो जेमने जरूर हशे तेमने वितरण करवानुं नक्की कर्यु छे । श्री श्रीपालनगर जैन श्वे० मूर्तिपूजक देरासर ट्रस्ट श्रीपालनगर, १२ जमनादास मेहता मार्ग, वालकेश्वर, मुंबई ४००००६. विक्रम सं० २०६३ वीर सं० २५३३ ट्रस्टीगण श्री श्रीपालनगर जैन श्वे० मूर्तिपूजक देरासर ट्रस्ट For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीयम् ॥ ६ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir ॥ सम्पादकीयम्॥ सम्पादकीयम श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥७॥ आ-समन्तात् गम्यते मोक्ष प्रति येन स आगमः । देवगुरुधर्मविनयेन स आगमः फलति, विद्या विनयेन शोभते इत्युक्त्यनुसारेण संस्मरणमात्रेण समाधिदायकंटीण्टोइमण्डनश्रीमुहरीपार्श्वनाथं नत्वा व्याख्यानवाचस्पतिसन्मार्गदर्शकदीक्षायुगप्रवर्तकपूज्यपादाचार्यदेवेशश्रीमद्विजय रामचन्द्रसूरीश्वरं संयममार्गप्रापकसमतानिधिपरमगुरुदेवपूज्यदर्शनभूषणविजयगुरुवरंच प्रणम्य इदं ज्ञानधर्मरूपो ग्रन्थः प्रस्तूयते। A चतुर्दशपूर्वधर श्रीशय्यंभवसूरिवर्यैः स्वपुत्रशिष्यस्याराधनायै यत्सूत्रं रचितं तद्दशवैकालिकम् । आयरियाणं बुद्धी समुप्पन्ना इमस्स थोवर्ग आउं, किं कायव्वंति? तं चउदसपुवी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिहति, दसपुव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहड़ ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं, तो अहमवि णिहामि, ताहे आढत्तां णिजूहिउँ । इत्यालम्बनेन विकाले अर्थात् तृतीयपोरूष्यां तत्रापि बह्वतिक्रान्तायां अथवा वियाले णिजूढा थोवावसेसे दिवसे उत्पन्नं तस्मात् वैकालिकम् तथा अध्ययनानां दशप्रकारत्वात् दश इति दशवैकालिकम् । अस्मिन् ग्रन्थे मुख्यतया साधूनामाचार उक्तः । चत्वारि अध्ययनानि पाठयित्वा उपस्थापना क्रियते तथा पश्चिम पिण्डेषणाऽध्ययनमध्यापयित्वैव गोचरचर्याया अधिकारः। कहं चरे कह चिट्टे सूत्रद्वारेण श्रामण्यमुपदर्शितं भवति । तस्मिन् सूत्रे समासत: श्रमणत्वस्य सारमुपदिष्टम् । षष्ठे महाचारकथाऽध्ययने गोचरप्रविष्टेन साधुना स्वाचारं न विस्तरतः कथयितव्य इति निरूपणमस्ति । सप्तमे वाक्यशुद्ध्यध्ययने आचारः निरवद्यवचसा कथयितव्यस्तस्मात् निरवद्यभाषा कीटशी भवतीति निरूपणमस्ति । अष्टमे आचारप्रणिध्यध्ययने निरवद्यं वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति दर्शितम् । नवमे विनयसमाध्यध्ययने आचारे प्रणिहितो कीशो विनयसंपन्नो भवतीति प्ररूपितम् । दशमेसभिश्वध्ययने नवस्वध्ययनेषु निरूपितार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग्भिक्षुरिति प्रतिपादितम् । अन्ते इडशोऽपि भिक्षुः कर्मपरतन्त्रत्वाद् । ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir सीदेदतस्तत्स्थिरीकरणाय द्वे चूलिके स्तः । एवमस्मिन् ग्रन्थे समग्रेण साध्वाचारेण साध्वात्मन उत्कर्षो दर्शितः । अध्ययनेन साध्वाचारे दृढता स्युरिति प्रार्थना। सम्पादकीयम् श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ८ ॥ मुनिपुण्यकीर्तिविजयो गणिः। श्री श्रीपालनगर जैन श्वे० मूर्तिपूजक देरासर ट्रस्ट श्रीपालनगर, १२ जमनादास मेहता मार्ग, वालकेश्वर, मुंबई - ४००००६. विक्रम सं० २०६३ वीर सं०२५३३ THEREREBERREEEEEEEEEEE6600000REM688088086MBERONE For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः ॥ १ ॥ ३ ॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः ।। क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्ति: भाष्यम् पृष्ठः ॥ प्रथममध्ययन शब्दस्य निक्षेपः। - ११ - १४ द्रुमपुष्पिकाख्यम् ।। १-५ १-१५१ १-४ १ १.९ दशवैकालिकाभिधानहेतुः १.१ मङ्गलम्। श्रुतस्कन्धयोश्च निक्षेपाः १.२ मङ्गलत्रयहेतुः शास्त्रसमुत्थ-वक्तव्यतायां शब्दार्थव। 'येने त्यादीनि चतुर्विधोऽनुयोगः। - पञ्चद्वाराणि। पृथक्त्वानुयोगाधिकार 'येने ति प्रथमद्वारे शरणकरणानुयोगस्य च शास्त्रकर्तुः शय्यंभवसूरेः निक्षेपादिद्वाराणि। - कथानकम्। दशवैकालिकानुयोगा १.११ 'यमि'ति द्वितीयद्वारे रम्भः 'निक्षेपे'ति शास्त्राभिधानहेतः 'यत' प्रथमद्वारं च। इति तृतीयद्वारेएककनिक्षेपः। - कस्मानियूँढमिति। - १५ - दशवकालिकस्य दश १.१२ 'यत इति तृतीयद्वारे शब्दस्य निक्षेपस्तथाकाल कस्मानियूँढमिति - १६-१८ - दशकविशेषार्थः। - ९-१० - १२ । १.१३ 'यावन्ति'ति चतुर्थद्वारे । दशवैकालिकस्य काल दशाध्ययनानि द्वे चूडे ॥१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः श्रीदशवैकालिक श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२॥ नक्रमः - १.१५ . W0 'यथास्थापितानी'ति पञ्चमद्वारे संक्षेपणाध्ययनार्थाधिकाराः। - २०-२३ संक्षेपेण चूडाद्वयार्थाधिकारः। - २४-२५ अध्ययनशब्दस्यौधादि निक्षेपाः। भावाध्ययननिक्षेपः। - २८द्रुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणा। ३४ दुमपर्यायशब्दाः । - पुष्पैकार्थिकानि सुसमादृष्टान्तादिश्च। - ३६-३७ संहितादिषड़िधा व्याख्या। १ चालनाप्रत्यवस्थानयोः प्रवृत्तिः। धर्मपदनिक्षेपाः द्रव्य क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः धर्मनिक्षेपाश्च। - ३९-४० - ३४ १.२४ धर्मनिक्षेपेऽस्तिकायादि धर्मस्वरूपः धर्मनिक्षेपे भावधर्मभेदाः। - ४१-४२ धर्मनिक्षेपे लोकोत्तरो भावधर्मः। द्रव्यभावमङ्गलम्। १.२७ हिंसाऽहिंसास्वरूपः। - .२८ संयमप्रतिपादनम्। - .२९ बाह्यतप:प्रति पादनम्। अभ्यन्तरतपःप्रतिपादनम्। जिनवचनस्याज्ञायुक्त्युभयसिद्धत्वम् । - पञ्चावयवदशा वयवाः। १.३३ उदाहरणहेतुस्वरूप: उदाहरणैकार्थिकाच। - ५१-५२ १.३० ३८ १.२३ 29808880800DE For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BEE श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 13|| श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्ति: भाष्यम् पृष्ठः । क्रम: विषय: सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः १.३४ चरितकल्पितोदाहरणं पायश्व-अभयकुमारस्यतदुष्टान्तक्ष। चौरभावविज्ञानो१.३५ उदाहरणस्य चतुर्भेदाः दाहरणञ्च। प्रतिभेदाच। ५६ १.४२ द्रव्यानुयोगमधिकृत्योद्रव्यापाये-वणिग्भ्रातृ पायदर्शनं आत्माकथानकम्। स्तित्वाभिधानं च। - ६३-६५ - क्षेत्रापाये दशारवर्गस्य १.४३ चरणकरणानुयोगमकालापाये द्वैपायनस्य धिकृत्य भावापाये च हिङ्गशिवोदाहरणम्। -६६-६७ - मण्डुकिकाक्षपकस्य १.४४ स्थापनाकर्म । ६८ - कथानकाः । - ५६ - १.४५ प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारे १.३८ चरणकरणानुयोगमधि गान्धर्वकोदाहरणम्। - ६९ - कृत्यापायनिरूपणम्। - ५७-५८ १.४६ प्रत्युत्पन्नविनाश१.३९ द्रव्यानुयोगमधिकृत्या द्वारम्। ७०-७१ पायनिरूपणम्। - ५९ - १.४७ 'तद्देशे'ति चतुष्प्रकारेद्वितीयोपायद्वारे ध्वनुशास्ती'ति प्रथमद्वारे चरणकरणानुयोगमधि सुभद्रोदाहरणम्। - ७२-७३ - कृत्य द्रव्यक्षेत्रोपायः। - ६०-६१ - ६४ १.४८ अनुशास्त्युपसंहारः। - ७४ १.४१ कालोपायो-भावो १.४९ द्रव्यानुयोगमधि ॥३॥ REPEHAR For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kailassagarsuneyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४ ॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः १.५१ ७८ क्रम: विषय: सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः कृत्यानुशास्तिद्वारम् । - ७८ १.५० उपालम्भद्वारे मृगावतिदेव्युदाहरणम्। उपालम्भद्वारम् । - पृच्छानिश्राद्वारे कोणिकगौतम स्वाम्युदाहरणम्। १.५३ पृच्छा-निश्राद्वारम्। - ७९-८० - 'तद्दोष'ति चतुष्प्रकारेष्वधर्मयुक्तमिति प्रथमद्वारे नलदामकोदाहरणम्। - १.५५ 'प्रतिलोमे'ति अभयप्रद्योत राज्ञोपिकम्। - १.५६ 'आत्मोपन्यासे' ति तडागभेदे पिङ्गलस्थपतिरुदाहरणम्। - 'दुरुपनीते'ति मत्स्यग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम्। - 'उपन्यासे'ति तद्वस्तूप क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः न्यासे कार्पिटिकोदाहरणम्। 'प्रतिनिभोपन्यासे परिव्राजक श्रावकयोः कथानकम्। १.६० हेतोश्चतुर्भेदेषु प्रथम यापकहेतावुष्ट्रिलिण्डानि कथानकम्। १.६१ हेतूपन्यासस्य चतुर्भेदाः यापकहेतौ उष्ट्रलिण्डा नीति उदाहरणम्। - १.६२ द्वितीयस्थापकहेतौ लोकमध्यज्ञानोदाहरणम्। व्यंसकहेतौ शकट तित्तिरीकथानकम्। - १.६४ लूषकहेतौ त्रपुषोदाहरणं धर्म उकृष्टं मंगलमिति निगमन। १.63 .५८ ८८ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् श्रीदशवैकालिकसूत्रस्या -10 0 नुक्रमः ॥ ५ ॥ -0 - 0 १.७७ -0 -0 -0 -0 क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्ति: भाष्यम् पृष्ठः १.६५ सूत्रावयवे प्रतिज्ञादिः। ६६ पञ्चावयव-उपनय निगमने-दशावयवप्रतिपादनञ्च। ९१-९२ - १०० १.६७ दशावयवेषु-प्रतिज्ञाशुद्धिः । १०१ १.६८ हेतोर्विशुद्धिः। ९५ १-२ भ्रमरोदाहरणम्। - ३-४ १.७० अन्या दृष्टान्तवि शुद्धिः । दृष्टान्तविशुद्धावाक्षेपपरिहारौ। - ९८-११६ - आहारग्रहणविधिः। ३ द्रव्यभावविहङ्गम प्रतिपादनम्। - ११७ - १.७४ एकप्रकारेण-भाव विहङ्गमस्वरूपः। - १.७५ भावविहङ्गम 33ww. क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः स्वरूपः। - ११९-१२१ - १.७६ संज्ञासिद्ध्या-भाव विहङ्गमस्वरूपः। - १२२ - २३ - भावविहङ्गमस्वरूपः। उपनयशुद्धिः । ४-५ - १.७९ उपनयशुद्धौ-दोषपरिहारः। १२५-१ निगमनं-तच्छुद्धिश्च। - १३०दशावयवाः। दशावयवेषु प्रथमद्वितीयौ प्रतिज्ञाप्रतिज्ञाविभक्त्यवयवौ। - १३८ - तृतीयचतुर्थी-हेतुहेतुविभक्त्यवयवौ पञ्चमो विपक्षावयवश्च। - १३९-१४० - पञ्चमो विपक्षावयवः। - १४१ - १.८५ दशावयवे पञ्चमषष्ठी or om १.६९ -0 -0 W000 -10 B888800008100800105808080480886880000000000000000 ९६-९७ ॥ ५ ॥ FRIEND For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥६॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः २.५ १.८७ क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्ति: भाष्यम् पृष्ठः । क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः विपक्षविपक्ष पूर्वशब्दस्य च त्रयोप्रतिषेधावयवौ। - १४२-१४३ - १२४ दशविधनिक्षेपाः। - १५९-१६० - |१.८६ षष्ठो विपक्ष सङ्कल्पवशस्य प्रतिषेधावयवः। - १४४-१४५ - १२५ असमर्थत्वम्। १ - - सप्तमोदृष्टान्तः अष्टम कामशब्दस्यआशङ्का नवम निक्षेपाः। - १६१-१६५ स्तत्प्रतिषेधः। - १४६-१४७ - पदशब्दस्य निक्षेपाः। - १.८८ दशमं निगमनम्। - १४८ पदशब्दस्य निक्षेपाः ज्ञाननयः। १४९ द्रव्यभावपदम्। - १६७-१६८ - क्रियानयः। १४९ भावपदं स्थितपक्षः। - १५०-१५१ १३१ ग्रथितपदं च। - १६९-१७४ - ।। द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य अपराधपदं पूर्वकाख्यम् ॥ १-१११५२-१७७ - क्षुल्लकथानकं च। - १७५ - अभिसम्बन्ध:-श्रामण्य अपराधपदेऽष्टादशपूर्वकस्य च निक्षेपः। - १५२ - शीलाङ्गसहस्रप्रतिश्रमणनिक्षेपाः। - १५३-१५७ - १३२ पादनम्। - १७६-१७७ - १४४ श्रमणस्य पर्याय त्यागिस्वरूप: शब्दाः । - १५८ - सुबन्धुकथानकं च। २ - - २.४ श्रमणपर्यायाः २.१३ त्यागिस्वरूपः arr or mmmm SON 00mm 9NNO. 88888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888 १.९१ ००००० For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः २.२४ १८२ क्रमः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः क्रमः विषय: सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः काष्ठहारोदाहरणं च। ३ - - १४८ ३.५ कथानिक्षेपे मनोनिग्रहविधि: राज आक्षेपण्यादिपुत्रदासीवणिग्दारक चतुर्विधधर्मकथा। - १९३-२०५ - कथानकौ च । ४ - १५० ३.६ मिश्राकथा विकथासंयमस्थैर्योपदेशः कथादिश्च। - २०६-२१५ - रथनेम्युदाहरणं च। ५-७ - १५२ ३.७ औद्देशिकादि-त्रिपश्चासंयमस्थैर्योपदेशः शदनाचीर्णाः। १-१० - - १८५ रथनेमिबोध:-नूपुर३.८ साधुस्वरूपम्। ११-१५ - १८९ पण्डितोदाहरणम्। ८-११ - - १५४ ॥ चतुर्थमध्ययनं । तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचार षड्जीव- १-१५ कथाख्यम् ॥ १-१५१७८-२१५ - १६०-१९१ निकायाख्यम् ।। गा०१-२८२१६-२३३ ५-६० १९२-२५४ अभिसम्बन्धो ४.१ षड्जीवनिकायः। १ महत्क्षुल्लकाचारकथा ४.२ उपक्रमेऽधिकाराः। - २१६-२१९ - १९२ शब्दानां निक्षेपाः। - १७८-१८० - ४.३ जीवपदस्य व्याख्यापद्याचाराः। - १८१-१८७ - निक्षेपद्वाराणि। - २२०-२२२ ६-९ ३.३ कथानिक्षेपे अर्थकथा ४.४ जीवस्य लक्षणानि कथानकाव। - १८८-१९१ - (जीवसिद्धिः)। - २२३-२२४१०-३६ १९७ कथानिक्षेपे अन्यत्वादिद्वारत्रयम्। - २२५ ३७-४७ २०६ कामकथा। - १९२ - जीवनित्यत्वसिद्धिः। - २२६ ४८-४९ २१० १६० CERIC ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः 11८॥ २२२ २२१ २५८ क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः जीवकर्तृत्वद्वारम्। - २२७ ५०-५७ २१२ निकायपदव्याख्या। - २२८-२२९ - २१६ स्थावरत्रसानां भेदाः। १ - द्रव्यभावभेदपृथिव्यादीनां शस्त्रम। - २३०-२३१ मूलादिजीवस्वरूपं। - २३२ ५८-६० २२४ षट्कायविराधनानिरूपणम्। चारित्रधर्म पञ्चमहाव्रतस्वरूपं। ३-७ २३१ चारित्रधर्मे रात्रिभोजनविरमणम्। ८-९ पृथिवीकाययतना। १० अप्काययतना। तेजस्काययतना। १२ वायुकाययतना। ४.१९ वनस्पतिकाययतना। १४ ४.२० षट्काययतना। गा०१-२८ . 0 | क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः | ४.२१ अध्ययनपर्यायशब्दाः । - २३३ - २५३ ॥ पञ्चममध्ययनं पिण्डैषणाख्यम् ॥ १-१००२३४-२४४ - २५५-२९८ ५.१ पचमाध्यने प्रथमोद्देशकः। १-१००२३४-२४४ - २५५-२८६ ५.१.१ पिण्डस्य एषणायाश्च निक्षेपाः। - २३४-२४४ ६१ २५५ भिक्षागमनविधिः। १-२ ५.१.३ आत्मसंयमविराधना।३-८ २५९ ५.१.४ चतुर्थव्रतयतना। ९-११ २६१ ५.१.५ आत्मसंयमविराधना ।१२-१८ - ५.१.६ वर्थोमूत्राधारणम्। १९ । २६४ ५.१.७ नीचद्वार परिवर्जनादिः। २०-२२ ५.१.८ असंसक्तप्रलोकनम् ।२३-२६ २६५ ५.१.९ अकल्पिकपरिवर्जनादिः। २७-२९ २६७ ५.१.१०सचित्तघट्टनं पुरः कर्मादिदोषाश। ३०-३४ - - २६७ २६२ 000000000 MSCW0-00-0 २६५ ॥ ८ ॥ १५ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४॥ विषय: क्रमः ५. १.११ पश्चात्कर्मदोषः । ५.१.१२कल्पिकाकल्पिक भक्तपानम् । ५.१.१३ उद्भिद्यदायक प्रतिषेधः । ५. १. १४ अकल्प्यम् । ५.१.१५ औदेशिकादिदोषाः । सूत्रम् निर्युक्तिः भाष्यम् पृष्ठः ३५-३६ २६९ ३७-४४ ४५-४६ ४७-५४ ५५-६४ ५. १. १६दायकदोषाः । ६५-६९ ५. १. १७ कन्दादिप्रतिषेधः । ७०-७४ ५. १. १८ पानग्रहणविधिः । ७५-८१ ५.१.१९ वसत्यभावे भोजनविधिः । ८२-८६ ५.१.२० वसतिमधिकृत्य भोजनविधिः । ८७-९६ .१.२१ भोज्यमधिकृत्य विधिः । ९७-१०० पञ्चमाध्ययने द्वितीयोदेशक: (पिण्डेषणाविशेषः) । १-५० www.kobatirth.org २८३ २७० २७२ २७३ २७४ २७६ २७७ २७८ २८० २८१ २८६-२९८ क्रमः विषय: सूत्रम् निर्युक्तिः भाष्यम् पृष्ठ: ५.२.१ निरवशेषं अशनाऽऽज्ञा उत्सृजननिषेधश्च । १-३ ५.२.२ असंस्तरणे पुनर्भिक्षाचर्या कालादियतना १४-१३ ५.२.३ परपीडा प्रतिषेधाधिकारः । १४-२४ ५.२.४ भिक्षाटनविधिः । २५-२८ ५.२.५ समभावप्ररूपणा । २९-३० ५.२.६ मायाविनः कर्मबन्धः । ३१-३५ ५.२.७ सुराद्यासेवने दोषाः । ३६-४१ ५.२.८ तपस्विनो गुणाः । ४२-४५ ५.२.९ तपस्तेनादिदोषाः । ४६-४९ ५. २.१० उपसंहारः । ५० ६ ६.१ ६.२ ॥ षष्ठमध्ययनं महाचारकथाख्यम् ॥ अभिसम्बन्धः । जिज्ञासुभिः पृष्टस्य गणेर्वक्तव्यम् । १-५ For Private and Personal Use Only १६८२४५-२६८ २४५ २८६ २८७ २९० २९२ २९३ २९३ २९४ २९६ २९७ २९८ २९९-३२३ २९९ २९९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकसूत्रस्था नुक्रमः ॥ ९ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१०॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः ३१८ । । क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः ६.३ धर्मस्य भेदाः। - २४६-२४८ - अर्थशब्दस्य निक्षेपाः। - २४९-२५१ - धान्यरत्नस्थावराद्यर्थाः।- २५२-२५८ - कामनिक्षेपाः कामस्य भेदाः। - २५९-२६६ - अष्टादशासंयमस्थानानि। ६-१०२६७- २६८ - अहिंसाऽमृषास्थानस्य विधिः। ११-१२ - अदत्तानादान-मैथुनविवर्जनविधिः। १३-१६ । अपरिग्रहविधिः। १७-२१ रात्रिभोजनत्यागविधिः। २२-२५ - कायषट्के पृथिवीकायाप्कायसमारम्भ वर्जनविधिः । २६-३१ - - ३१३ ६.१३ तेजस्कायसमारम्भ वर्जनविधिः। ३२-३५ - - क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः ६.१४ वायुकायसमारम्भ वर्जनविधिः । ३६-३९ - - ३१५ ६.१५ वनस्पति-त्रसकायसमारम्भवर्जनविधिः।४०-४५ - ३१६ ६.१६ अकल्प्यपिण्डः। ४६-४९ ३१७ ६.१७ गृहिभाजन-पर्या दिवर्जनम्। ५०-५५ ६.१८ निषद्यावर्जनम्। ५६-५९ ३२० ६.१९ स्नानवर्जनम्। ६०-६३ ६.२० शोभावर्जनम्। ६४-६६ ६.२१ उपसंहारः। ६७-६८ ॥ सप्तममध्ययनं वाक्य शुयाख्यम् ॥ १-५७२६९-२९२ - ३२४-३४९ ७.१ अभिसम्बन्धो वाक्यनिक्षेपश्च। - २६९ - ३२४ ७.२ द्रव्यभावभाषा। - २७०-२७१ - २४ ७.३ सत्या भाषा। - २७२-२७३ मृषाभाषायाः सत्यामुषाभाषायाः दशप्रकाराः। - २७४-२७५ - ३२१ । ३२२ ॥१०॥ 0.00 33x For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥११॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः Mmmm orrorm क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः ७.५ असत्यामृषाभाषा। - २७६-२७८ - ३२८ ७.६ श्रुतभावभाषा। - २७९-२८० - ३२९ ७.७ शुद्धिनिक्षेपाः। २८१-२८८ . ७.८ वाक्यपरिज्ञानहेतुः। - -२९१ ७.९ वचनविधिः। ७.१० वाच्यावाच्यभाषा। १-४ ७.११ वितथादिभाषा विवर्जनम्। ७.१२ शतिभाषाविवर्जनम्। ८-१० ७.१३ पुरुषादिमाश्रित्याल पनप्रतिषेधः। ११-२० - ७.१४ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्विषये वाग्विधिः। २१-२५ - ७.१५ उद्यानाद्यधिकृत्य वाग्विधिः। २६-३५ - संखडीमधिकृत्य वाग्विधिः। ३६-३७ - ७.१७ नदीमधिकृत्य क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः वाग्विधिः। २८-४० - - ७.१८ सुकृतमित्यादि सावद्यवर्जनम्। ४१-४२ - - ३४४ ७.१९ सर्वोत्कृष्टमित्यादिसावद्यवर्जनम्। ४३-४६ - ३४४ ७.२० असंयताद्याश्रित्य सावद्यवर्जनम्। ४७-४९ - ७.२१ संग्रामाद्याश्रित्य सावद्यवर्जनम्। ५०-५४ ३४६ ७.२२ वाक्यशुद्धिफलम् । ५५-५७ ३४८ || अष्टममध्ययनं आचार प्रणिध्याख्यम् ।। १-६४ २९३-३०८ - ३५०-३७१ ८.१ अभिसम्बन्धः प्रणिधिप्रतिपादनञ्च। - २९३-२९४ - ३५० ८.२ द्विविधो भावप्रणिधिः। - २९५-३०० प्रणिधेरुपसंहारः। - ३०१-३०३ - ८.४ प्रशस्तेतरप्रणिधेगुणदोषाः। ३०४-३०६ - mmm FN mmm For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १२ ।। विषय: १ निगमनम् । शिष्यसंबोधनम् । आचारप्रणिधी षट्काय हिंसाप्रतिषेधः । २-१२ अष्टौ सूक्ष्माणि तेषां विधिश्च । उपाश्रयगोचरप्रवेशादिमाश्रित्य विधिः । १७-२८ ८.१० क्रोधादीनामिह - १३-१६ परलोकापायाः । २९-४० ८.१९ कषायनिग्रहार्थं क्रमः ८.५ ८.६ ८.७ ८.८ ८.९ सूत्रम् निर्युक्तिः भाष्यम् पृष्ठः ३०७-३०८ ३५४ ३५४ कायवाक्प्रणिधिः । ४१-५० ८.१२ निमित्तादिप्रतिषेधः ॥५१-६० ८.१३ उपदेशोऽऽचार प्रणिधिफलं च । ६१-६४ ॥ नवममध्ययनं विनयसमाध्याख्यम् ॥ ३०९-३२७ नवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः (अविनीतस्याशातना) ११- १७३०१-३२७ - www.kobatirth.org - क्रमः विषय: सूत्रम् निर्युक्तिः भाष्यम् पृष्ठ: ९.१.१ अभिसम्बन्धो विनयनिक्षेपाश्च । ९.१.२ भावविनयः । ९.१.३ पञ्चविधमोक्षविनयः । ९.१.४ प्रतिरूपाप्रतिरूपो विनयः । ९.१.५ समाधिनिक्षेपाश्च । ९.१.६ विनयाग्राहिणो हानिः । ९.१.७ उदाहरणपूर्वकं ९.२ दोषप्ररूपणम् । ९.१.८ गुरुमहत्त्वं गुर्वाराधनाफलं च । ११-१७ नवमाध्ययने द्वितीयोदेशक: (अधिकारवान् ) । १-२३ | ९. २.१ वृक्षोपमया विनयमाहात्म्यम् । १-२ ९.२.२ अविनयिनो दोषाः । ३-४ ३७२-३८३ ९.२.३ नरनार्युदाहरणेन ३७२-३९९ ३५५ ३५७ ३५९ ३६२ ३६५ ३६७ ३७० For Private and Personal Use Only - २-१० ३०९ ३१०-३१३ ३१४-३२२ ३२३-३२६ ३२७ - - ३७२ ३७२ ३७३ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३८१ ३८३-३९० ३८३ ३८४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक सूत्रस्था नुक्रमः ।। १२ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः फलम्। ५-९ ३८४ १० ॥ दशममध्ययन ९.२.४ देवोदाहरणेन फलम् ।१०-११ - ३८६ सभिश्वाख्यम् ।। १-२१३२८-३५८ - ४००-४१५ ९.२.५ लोकोत्तर १०.१ अभिसम्बन्धः विनयफलम्। १२-१६ - ३८६ सकारनिक्षेपाः। ३२८-३२९ - ४०० ९.२.६ विनयोपायम्। १७-२० - ३८८ १०.२ सकारनिक्षेपाः। - ३३०-३३२ - ४०० ९.२.७ विनयाविनय १०.३ भिक्षुनिक्षेपफलाभिधानम्। २१-२३ - ३८९ निरूक्तादिद्वाराणि। - ३३३-३३५ - ४०१ ९.३ नवमाध्ययने तृतीयोद्देशकः १०.४ लिङ्गिद्रव्यभिक्षो:(विनीतस्य पूज्यत्वम्)।१-१५ ३९०-३९४ सावयपरत्वम्। - ३३६-३३८ - विनीतस्य १०.५ कुतीर्थिकाब्रह्मपूज्यत्वोपदर्शनम्। १-१५ - चारिकथनं भावनवमाध्ययने चतुथीद्देशक: भिक्षुनिक्षेपाश्च। ३३९-३४० - (समाधिस्थानानि)। १-७ ३९५-३९९ १०.६ निरुक्तद्वारम् । ३४१-३४३ ४०४ ९.४.१ चत्वारि विनयसमाधि १०.७ एकार्थिकद्वारम्। - ३४४-३४७ - ४०५ स्थानानि । १ १०.८ लिङ्गद्वारमवयव९.४.२ विनयसमाधिस्थानम्। २ द्वारं च। - ३४८-३५० - ९.४.३ श्रुतसमाधिस्थानम्। ३ १०.९ अवयवद्वारे सुवर्णगुणा ९.४.४ तप:समाध्याचार उपनयश्च। - ३५१ ४०७ समाधिस्थानम्। ४-७ - १०.१० उपनयः। - ३५२-३५५ - mmM B888888888888TBERROR For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् वैकालिकसूत्रस्यानक्रमः ॥१४॥ ४२९ क्रम: विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः । । क्रमः विषयः सूत्रम् नियुक्तिः भाष्यम् पृष्ठः १०.११ निगमनम्। _ - ३५६-३५८ - ४०८ निदर्शनम्। ९-१४ - ४२५ १०.१२ षट्कायाविराधको ११.७ उपदेशोपसंहारौ। १५-१८ - ४२७ भिक्षुः। ४०९ १२ ॥ द्वितीया विविक्त१०.१३ भिक्षुस्वरूप: चर्याचूलिका ।। १-१६३६८-३७१ - ४२९-४३८ समसुखदुःखः। ६-१५ - ४११ १२.१ प्रतिज्ञाचर्या गुणाश्च । १-४ - - |१०.१४ भिक्षुस्वरूप: अमूझेड १२.२ विहारचर्योगृद्धोऽज्ञातोछः। १६-२१ - ४१३ पदेशाधिकारक्ष। ५-९३६८-३६९ - ४३१-४३२ ११ ॥ प्रथमा रतिवाक्य १२.३ विहारचयांचूलिका ॥ १-१८३५६-३ ६७ ४१६-४२९ विशेषोऽसीदनगुणो११.१ द्रव्यभावरतिः। - ३५९-३६३ ४१६ पाय:-शास्त्रोपसंहार११.२ रत्यभिधानोपदर्शनम्। - ३६४- ३६६ - ४१७ उपदेशसर्वस्वञ्च। १०-१६ - - ४३४ ११.३ उपसंहारः। वक्तव्यताशेष: ११.४ अष्टादशस्थानानि। - (टीकोपसंहारः)। - ३७०-३७१ - ४३८-४४२ ११.५ सीदत: स्थिरीकरणार्थ - वक्तव्यताशेष: मुत्प्रव्रजितस्य (टीकोपसंहारः)। - ३७०-३७१ - ४३८ परितापनानिदर्शनम् । १-८ ४२३ सीदत: स्थिरीकरणार्थमुत्प्रव्रजितस्यैहि ॥ इति श्रीदशवैकालिकसूत्रस्यानुक्रमः॥ कामुष्मिकप्रत्यपाय ४१८ ok ११६ ॥१४॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥ १ ॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, निक्तिः ॥ अहम् ॥ ॥ श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरस्मृति-ग्रन्थमाला-आगमाङ्कः-४२-ग्रन्थाङ्कः-३१ ।। ।। प्रथमतीर्थपति-श्रीआदिनाथस्वामिने नमः ॥ ऐं नमः॥ चरमतीर्थपति-श्रीमहावीरस्वामिने नमः ।। ॥पञ्चमगणधर-श्रीमत्सुधर्मस्वामिने नमः॥ । तपागच्छीय पूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजयदान-प्रेम-रामचन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं याकिनीमहत्तरासूनु सूरिपुरन्दर-श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहद्वृत्तियुतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम्। जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवित: श्रीमान् । विमलस्त्रासविरहितस्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥१॥ इहार्थतोऽहत्प्रणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिबद्धपूर्वगतोद्धृतस्य शारीरमानसादिकटुकदुःखसंतानविनाशहेतोर्दशकालिकाभिधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते- तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकटयिषयैवेष्टदेवतानमस्कारद्वारेणाशेषविघ्नविनायकापोहसमर्थां परममङ्गलालयामिमां प्रतिज्ञागाथामाह नियुक्तिकार: नि०-सिद्धिगइमुबगयाणं कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसकालियणिजुत्तिं कित्तइस्सामि ॥१॥ ॥१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२ ॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, नियुक्तिः१ मङ्गलम्। सिद्धिगतिमुपगतेभ्यो नत्वा दशकालिकनियुक्तिं कीर्तयिष्यामीति क्रिया। तत्र सिद्ध्यन्ति- निष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः- लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा, तथा चोक्तं इह बोंदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ । गम्यत इति गतिः, कर्मसाधनःसिद्धिरेव गम्यमानत्वाद्गतिःसिद्धिगतिस्तामुप- सामीप्येन गताः- प्राप्तास्तेभ्यः, सकललोकान्तक्षेत्रप्राप्तेभ्य इत्यर्थः, प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, यथोक्तं छठीविभत्तीएँ भण्णइ चउत्थी । तत्र एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका अपि तदुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तस्वरूपा भवन्त्यत आह कर्मविशुद्धेभ्यः क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तेन विशुद्धा-वियुक्ताः कर्मविशुद्धाःकर्मकलङ्करहिता इत्यर्थः, तेभ्यः कर्मविशुद्धेभ्यः। आह- एवं तर्हि वक्तव्यम्, न सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः, अव्यभिचारात्, तथाहि- कर्मविशुद्धाः सिद्धिगतिमुपगता एव भवन्ति, न, अनियतक्षेत्रविभागोपगतसिद्धप्रतिपादनपरदुर्नयनिरासार्थत्वादस्य, तथा चाहुरेके रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम्। सदाऽनियतदेशस्थं,सिद्ध इत्यभिधीयते॥१॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । तेच तीर्थादिसिद्धभेदादनेकप्रकारा भवन्ति, तथा चोक्तं तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्थगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धानपुंसगलिंगसिद्धासलिंगसिद्धा अन्नलिंगसिद्धा गिहिलिंगसिद्धा एगसिद्धा अणेगसिद्धा इत्यत आह- सर्वसिद्धेभ्यः सर्वे च ते सिद्धाश्चेति समासस्तेभ्यः, अथवा सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः इत्यनेन सर्वथा सर्वगतात्मसिद्धपक्षप्रतिपादनपरदुर्नयस्य व्यवच्छेदमाह, तथा चोक्तमधिकृतनयमतानुसारिभिः गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्तप्रकृतिक्रियाः। 0 इह बोन्दिं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यति । षष्ठीविभक्त्या भण्यते चतुर्थी । 0 तीर्थसिद्धा अतीर्थसिद्धाः तीर्थकरसिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः स्वयंबुद्धसिद्धाः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः बुद्धबोधितसिद्धाः स्त्रीलिङ्गसिद्धाः पुरुषलिङ्गसिद्धा नपुंसकलिङ्गसिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धा एकसिद्धा अनेकसिद्धाः । Oगुणाः सत्त्वरजस्तमोरूपाः सत्वमात्मा तयोरन्तरं विशेष इति वि. प.। ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् 11३11 मङ्गलम्। मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः॥१॥ व्यवच्छेदश्चैतेषां सामीप्येन सर्वात्मना सिद्धिगतिगमनाभावात्, कर्मविशुद्धेभ्यः ।। प्रथममध्ययन इत्यनेन तु सकर्मकाणिमादिविचित्रैश्वर्यवत्सिद्धप्रतिपादनपरस्येति, उक्तं च प्रक्रान्तनयदर्शनाभिनिविष्टैः अणिमाद्यष्टविध दुमपुष्पिका, नियुक्तिः१ प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा। मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम्॥१॥ इत्यादि, व्यवच्छेदश्चैतेषां कर्मसंयोगेन अनिष्ठितार्थत्वाद्वस्तुतः सिद्धत्वानुपपत्तेरिति, सर्वसिद्धेभ्यः इत्यनेन तु भङ्गयैव सर्वथा अद्वैतपक्षसिद्धप्रतिपादनपरस्येति, तथा चोक्तं प्रस्तुतनयाभिप्रायमतावलम्बिभिः एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ व्यवच्छेदश्चास्य सर्वथा अद्वैते बहुवचनगर्भसर्वशब्दाभावात् (सिद्धिगतिगमनाभावात् । नत्वा' प्रणम्येति, अनेन तु समानकर्तृकयो: पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तवादासाधुत्वमाह, तत्र क्त्वाप्रत्ययार्थानुपपत्तेः, तत्र नित्यैकान्तवादे तावदात्मन एकान्तनित्यत्वादप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वाद्भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तेः, क्षणिकैकान्तवादे चात्मन उत्पत्तिव्यतिरेकेण व्यापाराभावादिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तिरेवेत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेवैतदिति। भवति च चतुर्थ्यप्येवं नमनक्रियायोगे, अधिकृतगाथासूत्रान्यथानुपपत्तेः, आप्तश्च नियुक्तिकारः, 'पित्रे सवित्रे च सदा नमामी' त्येवमादिविचित्रप्रयोगदर्शनाच्च, कर्मणि वा षष्ठी । सर्वसिद्धेभ्यो नत्वा किमित्याह- दशकालिकनियुक्तिं कीर्तयिष्यामि तत्र कालेन निर्वृत्तं कालिकम्, प्रमाणकालेनेति भावः, दशाध्ययनभेदात्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकं प्रकारशब्दलोपाद्दशकालिकम्, विशब्दार्थ तूत्तरत्र व्याख्यास्यामः, तत्र नियुक्तिरिति-निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:-परिपाट्या योजनं निर्युक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिस्तां- विप्रकीर्णार्थयोजनां व्याख्यास्यामि कीर्त्तयिष्यामीति गाथार्थः।। शास्त्राणि चादिमध्यावसानमङ्गलभाजि भवन्तीत्यत आह HTTRIBENE TRENESS For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥ ४ ॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, नियुक्ति:२ हेतु शब्दार्थच। नि०-आइमज्झवसाणे काउं मंगलपरिग्गहं विहिणा। शास्त्रस्यादौ- प्रारम्भे मध्ये- मध्यविभागे अवसाने- पर्यन्ते, किं?- कृत्वा मङ्गलपरिग्रहम्, कथं?- विधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण, आह-किमर्थं मङ्गलत्रयपरिकल्पनम्? इति, उच्यते, इहादिमङ्गलपरिग्रहः सकलविघ्नापोहेनाभिलषितशास्त्रार्थपारगमनार्थम्, तस्थिरीकरणार्थं च मध्यमङ्गलपरिग्रहः,तस्यैव शिष्यप्रशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदायावसानमङ्गलपरिग्रह इति। अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविवरणादवसेयौ इति । सामान्यतस्तु सकलमपीदं शास्त्रं मङ्गलम्, निर्जरार्थत्वात्तपोवत्, न चासिद्धो हेतुः, यतो वचनविज्ञानरूपं शास्त्रम्, ज्ञानस्य च निर्जरार्थता प्रतिपादितैव, यत उक्तं ज णेरइओ कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥ इत्यादि । इह चादिमङ्गलं द्रुमपुष्पिकाध्ययनादि, धर्मप्रशंसाप्रतिपादकत्वात्तत्स्वरूपत्वादिति, मध्यमङ्गलं तु धर्मार्थकामाध्ययनादि, प्रपञ्चाचारकथाद्यभिधायकत्वात्, चरममङ्गलं तु भिक्ष्वध्ययनादि, भिक्षुगुणाद्यवलम्बनत्वादित्येवमध्ययनविभागतो मङ्गलत्रयविभागो निदर्शितः, अधुना सूत्रविभागेन निदर्श्यते- तत्र चादिमङ्गलं 'धम्मो मंगल' इत्यादिसूत्रम्, धर्मोपलक्षितत्वात्, तस्य च मङ्गलत्वादिति, मध्यममङ्गलं पुनः ‘णाणदसणे' त्यादि सूत्रम्, ज्ञानोपलक्षितत्वात्, तस्य च मङ्गलत्वादिति, अवसानमङ्गलं तु ‘णिक्खम्ममाणा इय' इत्यादि, भिक्षुगुणस्थिरीकरणार्थं विविक्तचर्याभिधायकत्वात्, भिक्षुगुणानां च मङ्गलत्वादिति । आह- मङ्गलमिति कःशब्दार्थः?, उच्यते, 'अगिरगिलगिवगिमगीति' दण्डकधातुः, अस्य इदितो नुम् धातो (पा० ७-१-५८) रिति नुमि विहिते औणादिकालच्प्रत्ययान्तस्य अनुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति। मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम्, मङ्गयते 0 यन्नैरयिकः कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छासमात्रेण ॥१॥ 0 मङ्गलस्वरूपत्वात् वि. प.1 0 ०करणभिक्षु. (प्र०)। SE:58000 For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Shes Kalassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ५ ॥ २-३ ऽधिगम्यते साध्यत इतियावत्, अथवा मङ्ग इति धर्माभिधानम्, ला आदाने अस्य धातोर्मङ्गे उपपदे आतोऽनुपसर्गे कः (पा० प्रथममध्ययनं १३-२-३) इति कप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते आतो लोप इटि च (पा०६-४-६४) क्ङिति इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते । द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति भवति, मङ्गलातीति मङ्गलम्, धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति । मङ्गलम्, संसारादपनयतीत्यर्थः। तच्च नामादि चतुर्विधम्, तद्यथा नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं द्रव्यमङ्गलं भावमङ्गलं चेति, अनुयोगः। एतेषां च स्वरूपमावश्यकविशेषविवरणादवसेयमिति ।। अमुमेव गाथार्थमुपसंहरन्नाह नियुक्तिकारः नि०-नामाइमंगलं पिय चउव्विहं पन्नवेऊणं ॥२॥ नामादिमङ्गलं चतुर्विधमपि प्रज्ञाप्य प्ररूप्येति गाथार्थः । तत्र समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानात् प्रज्ञाप्य किमत आह नि०-सुयनाणे अणुओगेणाहिगयं सो चउव्विहो होइ । चरणकरणाणुओगे धम्मे गणिए (काले)य दविए य ॥३॥ श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं तस्मिन् श्रुतज्ञाने अनुयोगेनाधिकृतम्, अनुयोगेनाधिकार इत्यर्थः, इयमत्र भावना- भावमङ्गलाधिकारे श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा चोक्तं एत्थं पुण अहिगारो सुयणाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽविय अणुओगु पईवदिहतो॥१॥ तस्य चोद्देशादयः प्रवर्त्तन्ते इति, उक्तं च सुअणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तइ तत्रादावेवोद्दिष्टस्य समुद्दिष्टस्य समनुज्ञातस्य च सतः अनुयोगो भवतीत्यतो नियुक्तिकारेणाभ्यधायि श्रुतज्ञानेऽनुयोगेनाधिकृत मिति । सः अनुयोग 0 अत्र पुनरधिकारः श्रुतज्ञानेन यतः श्रुतेनैव । शेषाणामात्मनोऽपि च अनुयोगः प्रदीपदृष्टान्तः (न्तात्) | 0 श्रुतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगः प्रवर्तते। ५ For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11६॥ श्वतुर्विधो भवति, कथं? चरणकरणानुयोगः चर्यत इति चरणं- व्रतादि, यथोक्तं वय समणधम्मसंजम वेयावचं च बभगुत्तीओ।। प्रथममध्ययन णाणादितियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ।। १।। क्रियते इति करणं-पिण्डविशुद्ध्यादि, उक्तं च पिंडविसोही समिई भावण पडिमा । द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥१॥ चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः, अनुरूपो।। २-३ योगोऽनुयोगः-सूत्रस्यार्थेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्धो, व्याख्यानमित्यर्थः, एकारान्तः शब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमा । चतुर्विधो ऽनुयोगः। (द्वितीया)न्तोऽपि द्रष्टव्यः, यथा कयरे आगच्छइ दित्तरूवे इत्यादि, धर्म इति धर्मकथानुयोगः, काले चेति कालानुयोगश्च । गणितानुयोगक्षेत्यर्थः, द्रव्ये चे ति द्रव्यानुयोगश्च । तत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः, ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः, सूर्यप्रज्ञप्त्यादीनि गणितानुयोगः, दृष्टिवादस्तु द्रव्यानुयोग इति, उक्तं च कालियसुअंच इसिभासियाइ तइया । यसूरपन्नत्ती । सव्वो य दिठिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो॥१॥ इति गाथार्थः ।। इह चार्थतोऽनुयोगो द्विधा- अपृथक्त्वानुयोगः पृथक्त्वानुयोगश्च तत्रापृथक्त्वानुयोगो यत्रैकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्य, पृथक्त्वानुयोगश्च यत्र क्वचित्सूत्रे चरणकरणमेव क्वचित्पुनर्धर्मकथैवेत्यादि, अनयोश्च वक्तव्यता जावंत अज्जवइरा अपुहत्तं कालियाणु ओगस्स। तेणारेण पुहत्तं कालियसुय दिठिवाए य॥१॥ इत्यादेग्रन्थादावश्यकविशेषविवरणाचावसेयेति ॥ इह पुनः पृथक्त्वानुयोगेनाधिकारः, तथा चाह नियुक्तिकार: व्रतानि श्रमणधर्मः संयमो वैयावृत्त्यं च ब्रह्मगुप्तयः । ज्ञानादित्रयं तपः क्रोधनिग्रहादि चरणमेतत् ।। Oपिण्डविशुद्धिः समितयः भावनाः प्रतिमाश्च इन्द्रियनिरोधः। प्रतिलेखना गुप्तयः अभिग्रहाश्चैव करणं तु 10 कतर आगच्छति दीप्तरूपः10 कालिकश्रुतं च ऋषिभाषितानि तृतीया (गणितानुयोगमयी) च सूर्यप्रज्ञप्तिः। सर्वश्व दृष्टिवादश्चतुर्थो भवत्यनुयोगः ।।यावदार्यवज्रा अपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्य । ततोऽर्वाक् (तत आरात्) पृथक्त्वं कालिकश्रुते दृष्टिवादे च ॥ १ वक्तव्या प्र.। 3888888888888 For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक वृत्तियुतम् प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, नियुक्तिः ४-५ पृथक्त्वानुयोगाधिकारअरणकरणानयोगस्यच निक्षेपादिद्वाराणि। नि०- अपुहुनपुहुत्ताई निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुँति ॥ ४॥ अपृथक्त्वपृथक्त्वे लेशतो निर्दिष्टस्वरूपे निर्दिश्य, अत्र प्रक्रमे भवत्यधिकारः, केन?- चरणकरणानुयोगेन तस्य चरणकरणानुयोगस्य द्वाराणि प्रवेशमुखानि अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि भवन्तीति गाथार्थः ।। नि०- निक्खेवगट्ठनिरुत्तविही पवित्ती य केण वा कस्स?। तहारभेवलक्खण तयरिहपरिसा व सुत्तत्थो॥५॥ अस्याः प्रपञ्चार्थ आवश्यकविशेषविवरणादवसेयः, स्थानाशून्यार्थं तु संक्षेपार्थः प्रतिपाद्यत इति, णिक्खेव त्ति अनुयोगस्य निक्षेपः कार्यः, तद्यथा- नामानुयोग इत्यादि, एगट्टत्ति तस्यै, तद्यथा- अनुयोगो नियोग इत्यादि, निरुत्त त्ति तस्यैव निरुक्तं वक्तव्यम्, अनुयोजनमनुयोग अनुरूपो वा योग इत्यादि, विहि त्ति तस्यैव विधिर्वक्तव्यो, वक्तुः श्रोतुश्च, तत्र वक्तुः सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे॥१॥ श्रोतुश्चायं मूर्य हुंकारं वा बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिनिट्ट सत्तमए॥१॥ पवित्ती यत्ति अनुयोगस्य प्रवृत्तिश्च वक्तव्या, सा चतुर्भङ्गानुसारेण विज्ञेया, उक्तं च णिचं गुरू पमाई सीसा य गुरू ण सीसगा तह य। अपमाइ गुरू सीसा पमाइणो दोवि अपमाई॥१॥पढमे नत्थि पवित्ती बीए तइए य णत्थि थोवं वा। अत्थि चउत्थि पवित्ती एत्थं गोणीएँ दिहतो॥२॥ अप्पण्या उगोणी णेव य दोद्धा समुज्जओ सूत्रार्थः खलु प्रथमो द्वितीयो नियुक्तिमिश्रितो भणितः । तृतीयश्च निरवशेष एष विधिर्भवति अनुयोगे ॥ १॥0 मूकं हुङ्कारं वा बाढंकारं प्रतिपृच्छा विमर्शः। ततः प्रसङ्गपारायण परिनिष्ठा च सप्तमके ||१|| 0 नित्यं गुरुः प्रमादी शिष्या गुरुः न शिष्यास्तथा । अप्रमादी गुरु: शिष्याः प्रमादिनो द्वयेऽप्यप्रमादिनः॥ १॥ प्रथमे नास्ति प्रवृत्तिद्धितीये तृतीये च नास्ति स्तोका वा । अस्ति चतुर्थे प्रवृत्तिरत्र गोदृष्टान्तः ।। २।। अप्रस्नुता गौर्नेव च दोग्धा समुद्यतो ॥७॥ BEAUCRUIRALA For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11८॥ ४-५ वरणकरणा द्वाराणि। दोढुं । खीरस्स कओ पसवो? जइवि य बहुखीरदा सा उ॥३॥ बितिएऽवि णत्थि खीरं थोवं तह विजए व तइएवि। अस्थि चउत्थे खीर प्रथममध्ययन एसुवमा आयरियसीसे॥ ४॥ गोणिसरिच्छो उ गुरू दोहा इव साहुणो समक्खाया। खीर अत्थपवित्ती नत्थि तहिं पढमबितिएसु॥५॥ तुमपुष्पिका, नियुक्तिः अहवा अणिच्छमाणं अवि किंचि उ जोगिणो पवत्तंति। तइए सारंतमी होज पवित्ती गुणित्ते वा॥ ६॥ अपमाई जत्थ गुरू सीसाविया विणयगहणसंजुत्ता। धणियं तत्थ पवित्ती खीरस्सव चरिमभंगमि॥ ७॥ केण त्ति केनानुयोगः कर्त्तव्य इति वक्तव्यम्, तत्र य पृथक्त्वानु योगाधिकारइत्थंभूत आचार्यस्तेन कर्त्तव्यः, तद्यथा देसकुलजाइस्वी संघयणधिइजुओ अणासंसी। अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवक्को । १॥ जियपरिसो जियनिद्दो मज्झत्थो देसकालभावन्नू । आसन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासन्नू ।। २॥ पंचविहे आयारे जुत्तो। नुयोगस्य च सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू। आहरणहेउकारणणयनिउणो गाहणाकुसलो॥३॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुण निक्षेपादिसयकलिओ जुग्गो पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४॥ आसामर्थः कल्पादवसेयः, प्राथमिकदशकालिकव्याख्याने तु लेशत उच्यते । आर्यदेशोत्पन्नः सुखावबोधवाक्यो भवतीति देशग्रहणम्, पैतृकं कुलं विशिष्टकुलोद्भवो यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यति, मातृकी जातिः, तत्सम्पन्नो विनयान्वितो भवति, रूपवानादेयवचनो भवति, आकृतौ च गुणा वसन्ति, संहननधृतियुक्तो । व्याख्यानतपोऽनुष्ठानादिषु न खेदं याति, अनाशंसी न श्रोतृभ्यो वस्त्राद्याकाङ्कति, अविकत्थनो बहुभाषी न भवति, अमायी । न शाठ्येन शिष्यान् वाहयति, स्थिरपरिपाटी स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रं न गलति, गृहीतवाक्योऽप्रतिघातवचनो भवति, - दोग्धुम् । क्षीरस्य कुतः प्रसवो यद्यपि बहु क्षीरदा सा तु ? ॥ ३॥ द्वितीयेऽपि नास्ति क्षीरं स्तोक तथा विद्यते भवेत् वा तृतीयेऽपि। अस्ति चतुर्थे क्षीरमेषोपमाचार्यशिष्ययोः॥ ४ ॥ गोसदृशस्तु गुरुर्दोग्धेव साधवः समाख्याताः। क्षीरमर्थप्रवृत्तिर्नास्ति तत्र प्रथमद्वितीययोः।। ५ ।। अथवा अनिच्छन्तमपि किञ्चित्तु योगिनः प्रवर्त्तयन्ति। तृतीये सारयति भवेत् प्रवृत्तिर्गुणित्वे वा ॥ ६ ॥ अप्रमादी यत्र गुरुः शिष्या अपि च विनयग्रहणसंयुक्ताः। बाद तत्र प्रवृत्तिः क्षीरस्येव चरमभङ्गे॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥९॥ www.kobatirth.org जितपरिषत् परप्रवादिक्षोभ्यो न भवति, जितनिद्रोऽप्रमत्तत्वाद् व्याख्यानरतिर्भवति प्रकामनिकामशायिनश्च शिष्यांश्चोदयति, मध्यस्थः संवादको भवति, देशकालभावज्ञो देशादिगुणानवबुद्ध्याप्रतिबद्धो विहरति देशनां च करोति, आसन्नलब्धप्रतिभो जात्युत्तरादिना निगृहीतः प्रत्युत्तरदानसमर्थो भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञो नानादेशजविनेयप्रत्यायनसमर्थो भवति, ज्ञानादिपञ्चविधाचारयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थोभयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपको भवति, उदाहरणहेतुकारणनयनिपुणस्तद्गम्यान् भावान् सम्यक् प्ररूपयति नागममात्रमेव, ग्राहणाकुशलः शिष्याननेकधा ग्राहयति, स्वसमयपरसमयवित् सुखं परमताक्षेपमुखेन स्वसमयं प्ररूपयति, गम्भीरो महत्यप्यकार्ये न रुष्यति, दीप्तिमान् परप्रवादिक्षोभमुत्पादयति, शिवो गुणशतकलितो मारिरोगाद्युपद्रवविघातकृद् भवति, सौम्यः प्रशान्तदृष्टितया सकलजनप्रीत्युत्पादको भवति, इत्थंभूत एव योग्यः प्रवचनं- आगमस्तस्य सारस्तं कथयितुमिति, यतोऽसावनेकभव्यसत्त्वप्रबोधहेतुर्भवति, उक्तं च-गुणसुट्ठिअस्स वयणं घयमहुसित्तोव्व पावओ भाइ। गुणहीणस्स न सोहइ णेहविहीणो जह पईवो ॥ १ ॥ तथा चान्येनाप्युक्तं क्षीरं भाजनसंस्थं न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति । आवल्गमानशिरसो यथा हि मातृस्तनात्पिबतः ।। १ ।। तद्वत्सुभाषितमयं क्षीरं दुःशीलभाजनगतं तु । न तथा पुष्टिं जनयति यथा हि गुणवन्मुखात्पीतम् ॥ २ ॥ शीतेऽपि यत्नलब्धो न सेव्यतेऽग्निर्यथा श्मशानस्थः । शीलविपन्नस्य वचः पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत् ॥ ३ ॥ चारित्रेण विहीनः श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्भिः । शीतलजलपरिपूर्णः कुलजैश्चाण्डालकूप इव ॥ ४ ॥ कस्स ि कस्यानुयोग? इति वक्तव्यम्, तत्र सकल श्रुतज्ञानस्याप्यनुयोगो भवति, अमुं पुनः प्रारम्भमाश्रित्य दशकालिकस्येति । अत्राह® न्यायसूत्रे पञ्चमाध्यायाद्याह्निके सविस्तरं जातिस्वरूपम्। ०पि कार्ये (प्र० ) । ०तसमन्वितः (प्र०) । गुणसुस्थितस्य वचनं घृतमधुसिक्तः पावक इव भाति । गुणहीनस्य न शोभते स्नेहविहीनो यथा प्रदीपः ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, निर्युक्तिः ४-५ पृथक्त्वानुयोगाधिकारश्वरणकरणा नुयोगस्य च निक्षेपादिद्वाराणि । ॥ ९ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ १० ॥ www.kobatirth.org ननु दसकालियनिज्जुत्तिं कीत्तइस्सामित्ति अस्मादेव वचनतः प्रकृतद्वारार्थस्यावगतत्वात् तदुपन्यासोऽनर्थक इति, न, अधिकृतनिक्षेपादिद्वारकलापस्याशेषश्रुतस्कन्धविषयत्वात्, तद्बलेनैव च निर्युक्तिकारेणापि तथोपन्यस्तत्वात्, अस्मादेव स्थानादन्यत्राप्यादी शास्त्राभिधानपूर्वक उपन्यासः क्रियत इति भावना । व्याख्यातं लेशतो निर्युक्तिगाथादलम्, पश्चार्द्ध त्वध्ययनाधिकारे यथाऽवसरं व्याख्यास्यामः, यतस्तत्रैवोपक्रमाद्यनुयोगद्वारानुपूर्व्यादितद्भेदसूत्रादिलक्षणतदर्हपर्षदादयश्च वक्तुं शक्यन्ते, नान्यत्र, निर्विषयत्वादित्यलं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं प्रकृतयोजनामेवोपदर्शयन्नाह निर्मुक्तिकारः नि० एयाइँ परूवेडं कप्पे वण्णियगुणेण गुरुणा उ। अणुओगो दसवेयालियस्स विहिणा कहेयव्वो । ६ ॥ एतानि निक्षेपादिद्वाराणि प्ररूप्य व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गुरुणा, षट्त्रिंशद्गुणसमन्वितेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशवैकालिकस्य विधिना प्रवचनोक्तेन कथयितव्य आख्यातव्य इति गाथार्थः । सम्प्रत्यजानानः शिष्यः पृच्छति- यदि दशकालिकस्यानुयोगस्ततस्तद्दशकालिकं भदन्त ! किमङ्गमङ्गानि ? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः ? अध्ययनमध्ययनानि ? उद्देशक उद्देशका? इत्यष्टौ प्रश्नाः, एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खलु प्रयुज्यन्ते, तद्यथा दशकालिकं श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि उद्देशकाश्चेति, यतश्चैवमतो दशादीनां निक्षेपः कर्त्तव्यः, तद्यथा- दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य उद्देशकस्य चेति, तथा चाह निर्युक्तिकारः नि०- दसकालियंति नामं संखाए कालओ य निद्देसो दसकालियसुअखंधं अज्झयणुद्देस निक्खिविरं ॥ ७ ॥ दशकालिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थं इति एवंभूतं यत् नाम अभिधानम्, इदं किं ? -संख्यानं संख्या तया, तथा कालतश्च कालेन चायं निर्देशः निर्देशनं निर्देश:, विशेषाभिधानमित्यर्थः, अस्य च निबन्धनं विशेषेण वक्ष्यामः 'मणगं पडुच्च' इत्यादिना For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, निर्युक्तिः दशवैकालिकानुयोगा रम्भः 'निक्षेपे' ति प्रथम द्वारं च । ॥ १० ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir FREE श्रीदशवैकालिक हारि० वृत्तियुतम् प्रथममध्ययन द्रमष्पिका, नियुक्तिः८ एककनिक्षेपः। ग्रन्थेन, यतश्चैवमत: दसकालियं ति कालेन निर्वृत्तं कालिकं दशशब्दस्य कालशब्दस्य च निक्षेपः, निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः, तथा श्रुतस्कन्धं तथाऽध्ययनं उद्देशं तदेकदेशभूतम्, किं?- निक्षेप्नुमनुयोगोऽस्य कर्त्तव्य इति गाथार्थः ।। तत्र 'यथोद्देशं निर्देश इति न्यायादधिकृतशास्त्राभिधानोपयोगित्वाच्च दशशब्दस्यैवादौ निक्षेपः प्रदर्श्यते- तत्र दशैकाद्यायत्ता वर्तन्ते, एकाद्यभावे दशानामप्यभावाद्, अत एकस्यैव तावन्निक्षेपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह नि०- णामं ठवणा दविए माउयपयसंगहेक्कए चेव । पज्जवभावे य तहा सत्तेए एक्कगा होति ॥८॥ - इहैक एव एककः, तत्र नामैककः एक इति नाम स्थापनैककः एक इति स्थापना, द्रव्यैककं त्रिधा-सचित्तादि, तत्र सचित्तमेकं पुरुषद्रव्यम्, अचित्तमेकं रूपकद्रव्यम्, मिश्रं तदेव कटकादिभूषितं पुरुषद्रव्यमिति, मातृकापदैककं एक मातृकापदम्, तद्यथाउप्पन्ने इवे' त्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तद्यथा- उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा अमूनि च (वा) मातृकापदानि अ आ इ ई इत्येवमादीनि, सकलशब्दव्यवहारव्यापकत्वान्मातृकापदानि, इह चाभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति कृत्वेत्थमुपन्यासः, सङ्घहैककः शालिरिति, अयमत्र भावार्थ:- सङ्ग्रहः- समुदायः तमप्याश्रित्यैकवचनगर्भशब्दप्रवृत्तेः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते बहवोऽपि शालयः शालिरिति, लोके तथादर्शनात् अयं चादिष्टानादिष्टभेदेन द्विधा- तत्रानादिष्टो यथा शालिः, आदिष्टो यथा कलमशालिरिति, एवमादिष्टानादिष्टभेदावुत्तरद्वारेष्वपि यथारूपमायोज्यौ, पर्यायैककः एकः पर्यायः, पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरम्, स चानादिष्टो वर्णादिः आदिष्टः कृष्णादिरिति । अन्ये तु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्षयेत्थं व्याचक्षते- अनादिष्टः श्रुतस्कन्ध आदिष्टो दशकालिकाख्य O०पदेष्वपि (प्र०)। 0 चूर्णी-अणाइई दसगालियं आइई दुमपुस्फिअं सामण्णपुब्वियं एवमादि । ॥११।। For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१२॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: ९ दशवेकालिकस्य दशशब्दस्यनिक्षेपस्तथाकालदशक विशेषार्थः । इति, अन्यस्त्वनादिष्टो दशकालिकाख्यः, आदिष्टस्तु तदध्ययनविशेषो द्रुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे,न चैतदतिचारु, दशकालिकाभिधानत एवादेशसिद्धेः। भावैकक: एको भावः, स चानादिष्टो भाव इति, आदिष्टस्त्वौदयिकादिरिति । सप्त एते अनन्तरोक्ता एकका भवन्ति, इह च किल यस्माद्दश पर्याया- अध्ययनविशेषाः सङ्ग्रहैककेन संगृहीतास्तस्मात्तेनाधिकारः, अन्ये तु व्याचक्षते- यतः किल श्रुतज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्त्तते तस्माद्भावैककेनाधिकार इति गाथार्थः ।। इदानीं व्यादीन् विहाय दशशब्दस्यैव निक्षेपं प्रतिपादयन्नाह नि०- णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे । एसो खलु निक्लेवो दसगस्स उ छव्विहो होइ॥९॥ __ आह-किमिति व्यादीन् विहाय दशशब्दः उपन्यस्तः?, उच्यते, एतत्प्रतिपादनादेव ढ्यादीनांगम्यमानत्वात्, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यदशकं दश द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि मनुष्यरूपककटकादिविभूषितानीति, क्षेत्रदशकं दश क्षेत्रप्रदेशाः, कालदशकं दश कालाः, वर्त्तनादिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः, वक्ष्यति च-'बाला किड्डा मंदे' त्यादिना, 0 उदइयभावेक्कगं दुविहं- अणाइ8 उदइओ भावो आइट्ठ पसत्थमपसत्थं च, तत्थ पसत्थेक्कगं तित्थगरनामगोत्तस्स कम्मस्स उदओ एवमादी, अपसत्थेक्कगं कोहोदओ एवमादि । इयाणि उवसमियखइयखओवसमिया, ते तिण्णिवि भावेवगा णिच्छयणयस्स पसत्थगा चेव, एतेसि अपसत्थो पडिवक्खो णत्थि, कम्हा?, जम्हा मिच्छद्दिष्ठीण केइ कम्मंसा खीणा केइ उपसंता, खओवसमेण य कल्लाणबुद्धी पाडवादिणो गुणा संतावि तेसिं विपरीयगाहित्तणेणं उम्मत्तवयणमिव अप्पमाणं चेव, तम्हा उवसमिअखइअखओवसमिआ भावा सम्मद्दिशिणो चेवलब्भंति । परिणामिअभावकगं दुविहं अणाइद परिणामिओ भावो, आइई दुविहं- सादिपरिणामिएक्कगं च अणाइपरिणामिएक्कगं च, तत्थ साइपरिणामिएक्कगं जहा कसायपरिणओ एवमादी, अणाइपरिणामिएक्कगं जहा जीवो जीवभावेण निचमेव परिणओ । एत्थ कयरेण एक्केण अहिगारो?, भदियायरिओवएसेण- संगहेक्कगेण दत्तिलायरिओवएसेण भावेक्कगेणं अहिगारो, दोण्णिवि एते आएसा अविरुद्धा। इति चूर्णिः । ॥१२॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३॥ भावदशकं दश भावाः, ते च सान्निपातिकभावे स्वरूपतो भावनीयाः, अथ चैत (वैत) एव विवक्षया दशाध्ययनविशेषा प्रथममध्ययन इति, एष एवंभूतः खलु निक्षेपो न्यासो दशशब्दस्य बहुवचनान्तत्वाद्दशानां षड्विधो भवति, तत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः, एष एव द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः११ प्रक्रान्तोपयोगीति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिष्टि?- नायं दशशब्दमात्रस्य, किन्तु तद्वाच्यस्यार्थस्यापीति गाथार्थः ।। दशवैकालिसाम्प्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वात्कालस्य कालदशकद्वारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिषयेदमाह कस्य काल शब्दस्यनि०- बाला किड्डा मंदा बलाय पन्ना य हायणि पवंचा। पब्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालदसा ।।१०।। निक्षेपः। बाला क्रीडा च मन्दा च बला (च) प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपञ्चा प्रारभारा मृन्मुखी शायिनी तथा । एता हि दश दशा:-जन्त्ववस्थाविशेषलक्षणा भवन्ति । आसां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा।ण तत्थ सुहदुक्खाइ, बहु जाणंति बालया॥१॥ बिइयं च दस पत्तो, णाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तत्थ कामभोगेहि, तिव्वा उप्पज्जई मई ॥२॥ तइयं च दस पत्तो, पंच कामगुणे नरो । समत्थो भुजिउं भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा ।। ३।। चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बल दरिसिउ, जइ होइ निरुवद्दवो ॥४॥ पंचमिं तु दसं पत्तो, आणुपुव्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचिंतेइ, कुटुंबं वाऽभिकंखई॥ ५॥ छट्ठी । उहायणी नाम, जनरो दसमस्सिओ। विरजइय कामेसु, इदिएसु य हायई॥६॥ सत्तर्मि च दस पत्तो, आणुपुच्चीइ जो नरो। निट्टहइ। Oजातमात्रस्य जन्तोर्या सा प्रथमा दशा। न तत्र सुखदुःखानि बहूनि जानन्ति बालकाः ॥ १॥ द्वितीयां च दशां प्राप्तो नानाक्रीडाभिः क्रीडते । न तत्र कामभोगेषुतीव्रोत्पद्यते मतिः॥ २॥ तृतीयां च दशां प्राप्तः पश्श कामगुणान्नरः। समर्थो भोक्तुं भोगान् यदि तस्य (सन्ति) गृहे ध्रुवाः ॥ ३ ॥ चतुर्थी तु बला नाम या नरो दशामाश्रितः। समर्थो बलं दर्शयितुं यदि भवति निरुपद्रवः ॥ ४ ॥ पञ्चमी तु दशां प्राप्त आनुपूर्व्या यो नरः । ईप्सितार्थ विचिन्तयति कुटुम्बं वाऽभिकाशति ।। ५ ।। षष्ठी तु हायिनी नाम यां नरो दशामाश्रितः। विरज्यते च कामेभ्य इन्द्रियार्थेषु च हीयते ॥ ६ ॥ सप्तमी च दशां प्राप्त आनुपूर्व्या यो नरः। निष्ठीवति, ॥१३॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति:११ दशवैकालिकस्य कालशब्दस्यनिक्षेपः। ॥१४॥ चिक्कणं खेलं, खासइ य अभिक्खणं ।। ७ ।। संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्टमिं दसं। णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ॥८॥ शालिकणवमी मम्मुही नाम, जनरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ॥९॥हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। श्रीहारिक वृत्तियुतम् । दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दस िदसं॥१०॥ इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ।। इदानीं कालनिक्षेपप्रतिपादनायाह नि०-दव्वे अद्ध अहाउअ उवक्कमे देसकालकाले य । तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥११॥ द्रव्य इति वर्त्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, अद्धे ति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्यद्धाकालः। समयादिलक्षणो वाच्यः, तथा यथायुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा उपक्रमकालः अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः सामाचार्यायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभाग: पर्याय इत्यनर्थान्तरम्, ततश्चाभीष्टवस्त्ववाप्त्यवसरः काल इत्यर्थः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्रैकः कालशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु सामयिकः, कालो मरणमुच्यते, मरणक्रियायाः कलनं काल इत्यर्थः, च:समुच्चये, तथा प्रमाणकालः अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्णकालो वाच्यः, वर्णश्चासौ कालश्चेति, भावेत्ति औदयिकादिभावकाल: सादिसपर्यवसानादिभेदभिन्नो वाच्य इति । प्रकृतं तु भावेने ति भावकालेन, इह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाधिकारः, तत्रापि तृतीयपौरुष्या, तत्रापि बहतिक्रान्तयेति । आह- यदुक्तं- पगयं तु भावेणति तत्कथं न विरुध्यते इति?, उच्यते, क्षायोपशमिकभावकाले चिकणं श्लेष्माण कासति चाभीक्ष्णम् ॥ ७ ।। सङ्कचितवलिचर्मा सम्प्राप्तोऽष्टर्मी दशाम् । नारीणामनभिप्रेतः जरया परिणामितः ॥ ८ ॥ नवमी मृन्मुखी नाम यां नरो दशामाश्रितः । जरागृहे विनश्यन् जीवो वसत्यकामः।।९।। हीनभिन्नस्वरोदीनो विपरीतो विचित्तकः। दुर्बलो दुःखितः स्वपिति संप्राप्तो दशमी दशाम् ॥१०॥ ॥१४॥ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १५ ।। www.kobatirth.org शय्यम्भवेन निर्व्यूढं प्रमाणकाले चोक्तलक्षण इत्यविरोधः, अथवा प्रमाणकालोऽपि भावकाल एव तस्याद्धाकालस्वरूपत्वात्, तस्य च भावत्वादिति गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थस्तु सामायिकविशेषविवरणादवसेयः । तथा चाह निर्युक्तिकारः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि० सामाइय अणुकमओ वण्णेउं विगयपोरिसीए ऊ । निज्जूढं किर सेजंभवेण दसकालियं तेणं ।। १२ ।। सामायिकं- आवश्यकप्रथमाध्ययनं तस्यानुक्रमः- परिपाटीविशेषः सामायिके वाऽनुक्रमः सामायिकानुक्रमः, ततः सामायिकानुक्रमतः- सामायिकानुक्रमेण वर्णयितुम्, अनन्तरोपन्यस्तगाथाद्वाराणीति प्रक्रमाद् गम्यते, विगतपौरुष्यामेव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, निर्यूढं पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितम्, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः शय्यम्भवेन चतुर्दशपूर्वविदा दशकालिकं प्राग्निरुपिताक्षरार्थं तेन कारणेनोच्यत इति गाथार्थः ॥ श्रुतस्कन्धयोस्तु निक्षेपश्चतुर्विधो द्रष्टव्यो यथाऽनुयोगद्वारेषु, स्थानाशून्यार्थं किञ्चिदुच्यते- इह नोआगमतः ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तम्, अथवा सूत्रमण्डजादि, भावश्रुतं त्वागमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव दशकालिकम्, नोशब्दस्य देशवचनत्वात्, एवं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः सचेतनादिः, तत्र सचित्तो द्विपदादिः, अचित्तो द्विप्रदेशिकादिः, मिश्रः सेनादि (दे) र्देशादिरिति, तथा भावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव, नोआगमतस्तु दशकालिक श्रुतस्कन्ध एवेति, नोशब्दस्य देशवचनत्वादिति, इदानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः, तं चानुयोगद्वारप्रक्रमायातं प्रत्यध्ययनं यथासम्भवमोघनिष्पन्ने निक्षेपे लाघवार्थं वक्ष्याम इति ।। ततश्च यदुक्तं दसकालिय सुअक्खंध अज्झयणुद्देस णिक्खिविडं अनुयोगोऽस्य कर्त्तव्य इति, तदंशतः © क्रियारूपत्वेन । For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, निर्युक्तिः १२ दशवैकालि काभिधान हेतुः श्रुतस्कन्धयोश्च निक्षेपाः निक्षपाः शास्त्रसमुत्थवक्तव्यतायां 'येने'त्यादीनि | | पञ्चद्वाराणि । ।। १५ ।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 188888 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।१६।। काभिधान स्कन्धयोश्च सम्पादितमिति । साम्प्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुत्थवक्तव्यताभिधित्सयाह प्रथममध्ययनं नि०- जेण व जंव पडुच्चा जत्तो जावंति जह य ते ठविया। सोतं च तओताणि य तहा य कमसो कहेयव्वं ।। १३ ।। द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: १३ येन वा आचार्येण यद्वा वस्तु प्रतीत्य अङ्गीकृत्य यतो वा आत्मप्रवादादिपूर्वतो यावन्ति वा अध्ययनानि यथा च येन प्रकारेण दशवैकालितानि अध्ययनानि स्थापितानि न्यस्तानि, स च- आचार्यस्तच्च वस्तु ततः-तस्मात्पूर्वात् तानि च- अध्ययनानि तथा च- तेनैव । प्रकारेण क्रमशः क्रमेणानुपूर्व्या कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः । अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव निक्षेपाः यथाऽवसरं वक्ष्यति । तत्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवद्वारेणाद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह शास्त्रसमुत्थनि०-सेजंभवं गणधरंजिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं । मणगपिअरंदसकालियस्स निजूहगं वंदे ।।१४।। दारं ।। वक्तव्यतायां 'येने त्यादीनि सेज्जंभव मिति नाम गणधर मिति अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तम्, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुद्धं तत्र रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गादिजेतृत्वाज्जिनस्तस्य प्रतिमा-सद्भावस्थापनारूपा तस्या दर्शनमिति समासः, तेन- हेतुभूतेन, नियुक्ति: १४ किं?- प्रतिबद्धं मिथ्यात्वाज्ञाननिद्रापगमेन सम्यक्त्वविकाशं प्राप्तं मनकपितर मिति मनकाख्यापत्यजनकं दशकालिकस्य 'येने'ति प्राग्निरूपिताक्षरार्थस्य निर्मूहकपूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकर्तारं वन्दे स्तौमि इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, शास्त्रकर्तः शय्यंभवसूरेः तच्चेदं- एत्थ वद्धमाणसामिस्स चरमतित्थगरस्स सीसो तित्थसामी सुहम्मो नाम गणधरो आसी, तस्सवि जंबूणामो, तस्सवि यपभवोत्ति, तस्सऽनया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तम्मि चिंता समुप्पन्ना-को मे गणहरो होज्जत्ति?,अप्पणो गणेय संघे यसव्वओ। Oअत्र वर्द्धमानस्वामिनश्वरमतीर्थकरस्य शिष्यः तीर्थस्वामी सुधर्मा नाम गणधर आसीत्, तस्यापि जम्बूनामा, तस्यापि च प्रभव इति, तस्यान्यदा कदाचित्पूर्वरात्रापररात्रे चिन्ता समुत्पन्ना- को मे गणधरो भविष्यतीति?, आत्मनो गणे च सङ्केच सर्वतः पञ्चद्वाराणि प्रथमद्वारे कथानकम्। For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandise श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१७॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: १४ 'येने'ति प्रथमद्वारे शास्त्रकर्तुः शव्यंभवसूरे कथानकम्। उवओगो कओ, ण दीसइ कोइ अव्वोच्छित्तिकरो, ताहे गारत्थेसु उवउत्तो, उवओगे कए रायगिहे सेजंभवं माहणं जन्नं जयमाणं पासइ, ताहे राअगिहं णगरं आगंतूणं संघाडयं वावारेइ- जन्नवाडगं गंतुं भिक्खट्ठा धम्मलाहेह, तत्थ तुब्भे अदिच्छाविजिहिह, ताहे तुब्भे भणिजह-अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते इति तओ गया साहू अदिच्छाविया अ, तेहिं भणिअंअहो कष्ट तत्त्वं न ज्ञायते, तेण यसेजंभवेण दारमूले ठिएण तं वयणं सुअं, ताहे सो विचिंतेइ-एए उवसंता तवस्सिणो असचंण वयंतित्तिकाउं अज्झावगसगासं गंतुं भणइ- किं तत्तं?, सो भणइ- वेदाः, ताहे सो असिं कहिऊण भणइ सीसं ते छिंदामि जइ मे तुमं तत्तं न कहेसि, तओ अज्झावओ भणइ- पुण्णो मम समओ, भणियमेयं वेयत्थे- परं सीसच्छेए कहियव्वंति, संपयं कहयामि जं एत्थ तत्तं, एतस्स जूवस्स हेट्ठा सव्वरयणामयी पडिमा अरहओ सा धुव्वत्ति अरहओ धम्मो तत्तं, ताहे सो तस्स पाएसु पडिओ, सो य जन्नवाडओवक्खेवो तस्स चेव दिण्णो, ताहे सो गंतूणं ते साहू गवेसमाणो गओ आयरियसगासं, आयरियं वंदित्ता साहुणो (य) भणइ-मम धम्मं कहेह, ताहे आयरिया उवउत्ता-जहा इमोसोत्ति, ताहे आयरिएहिं साधम्मो : उपयोगः कृतः, न दृश्यते कोऽपि अव्युच्छित्तिकरः, तदा गृहस्थेषूपयुक्तः, उपयोगे कृते राजगृहे शय्यम्भव ब्राह्मण यज्ञ यजमानं पश्यति, तदा राजगृहं नगरमागत्य सङ्घाटकं (साधुयुग्मम्) व्यापारयति- यज्ञपाटकं गत्वा भिक्षार्थं धर्मलाभयतम्, तत्र युवां अदित्सिष्येथे (निषेत्स्येथे) तदा युवां भणेतं- ततो गतौ साधू अदित्सितौ (निषिद्धौ) च, ताभ्यां भणितं- तेन च शव्यम्भवेन द्वारमूले स्थितेन तद्वचनं श्रुतम्, तदा स विचिन्तयति- एनौ उपशान्तौ तपस्विनौ असत्यं न वदेतामितिकृत्वा । *अध्यापकसकाशं गत्वा भणति- किं तत्त्वं?, स भणति- वेदाः, तदा सोऽसिं कृष्ट्वा भणति- शीर्ष तव छिनधि यदि मां तत्त्वं न कथयसि, ततोऽध्यापको भणति-पूर्णो । मे समयः, भणितमेतद् वेदार्थे - परं शीर्षच्छेदे कथयितव्यमिति, साम्प्रतं कथयामि, यदत्र तत्त्वम्, एतस्य यूपस्याधस्तात् सर्वरत्नमयी प्रतिमा अर्हतः सा ध्रुवेति आर्हतो धर्मस्तत्त्वम्, तदा स तस्य पादयोः पतितः, स च यज्ञपाटकोपस्करः तस्मायेव दत्तः। तदा स गत्वा तौ साधू गवेषयन् गत आचार्यसकाशम्, आचार्य वन्दित्वा साधू भणति- मां धर्म कथयत, तदा आचार्या उपयुक्ता- यथाऽयं स इति । तदाऽऽचायः साधुधर्मः00न दानगोचरीभविष्यथ: वि. प.10ते निग्गया (प्र०)। ॥१७॥ For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१८॥ कहिओ, संबुद्धो पव्वइओ सो, चउद्दसपुव्वी जाओ। जया य सो पव्वइओ तया य तस्स गुग्विणी महिला होत्था, तम्मि य । प्रथममध्ययनं पव्वइए लोगो णियल्लओ तंतमस्सति- जहा तरुणाए भत्ता पव्वइओ अपुत्ताए, अवि अत्थि तव किंचि पोट्टेत्ति पुच्छइ, सा द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: १४ भणइ- उवलक्खेमि मणगं, तओ समएण दारगो जाओ। ताहे णिव्वत्तबारसाहस्स नियल्लगेहिं जम्हा पुच्छिज्जंतीए मायाए से 'येने'ति भणिअं 'मणगं'ति तम्हा मणओ से णामं कयंति । जया सो अट्ठवरिसो जाओ ताहे सो मातरं पुच्छइ-को मम पिआ?, सा प्रथमद्वारे शास्त्रकर्तुः भणइ- तव पिआ पव्वइओ, ताहे सो दारओ णासिऊणं पिउसगासं पट्ठिओ। आयरिया य तं कालं चंपाए विहरंति, सोऽवि शय्यंभवसूरेः अदारओ चंपयमेवागओ,आयरिएण य सण्णाभूमिं गएण सो दारओ दिट्ठो, दारएण वंदिओ आयरिओ, आयरियस्स य तं कथानकम्। दारगं पिच्छंतस्स हो जाओ, तस्सवि दारगस्स तहेव, तओ आयरिएहिं पुच्छियं- भो दारगा! कुतो ते आगमणति?, सो। दारगो भणइ- रायगिहाओ, आयरिएण भणियं- रायगिहे तुमं कस्स पुत्तो नत्तुओ वा?, सो भणइ-सेजंभवो नाम बंभणो तस्साहं पुत्तो, सो य किर पव्वइओ, तेहिं भणियं- तुमं केण कज्जेण आगओऽसि ?, सो भणइ- अहंपि पव्वइस्सं, पच्छा सो कथितः, संबुद्धः प्रव्रजितः, चतुर्दशपूर्वी जातः। यदा च स प्रव्रजितः तदा च तस्य गर्भिणी महिलाऽभवत्, तस्मिंश्च प्रव्रजिते लोको निजक आक्रन्दति- यथा तरुणाया भर्ता प्रव्रजितोऽपुत्रायाः, अपि च अस्ति तव । किञ्चित् उदरे इति पृच्छति, सा भणति-उपलक्षयामि मनाक्, ततः समयेन दारको जात । तदा निवृत्तद्वादशाहस्य निजकैः यस्मात् पृच्छ्यमानया मात्रा तस्य भणितं मनागिति तस्मात् मनकस्तस्य नाम कृतमिति । यदा सोऽष्टवर्षो जातस्तदा स मातरं पृच्छति- को मे पिता?, सा भणति- तव पिता प्रवजितः, तदा स दारकः नंष्ट्रा पितृसकाशं प्रस्थितः, आचार्याश्च तस्मिन् काले चम्पाया विहरन्ति, सोऽपि चम्पामेवागतः, आचार्येण च संज्ञा (विहार) भूमिं गतेन स दारको दृष्टः, दारकेण वन्दित आचार्यः, आचार्यस्य च तं दारकं प्रेक्षमाणस्य स्नेहो जातः, तस्यापि दारकस्य तथैव, तत आचार्यः पृष्टः-भो दारक! कुतस्ते आगमनमिति, स दारको भणति- राजगृहात्, आचार्येण भणितं- राजगृहे त्वं कस्य पुत्रो नप्तको वा?, स भणति- शय्यम्भवो नाम ब्राह्मणः तस्याहं पुत्रः, स च किल प्रव्रजितः, तैर्भणित:-त्वं केन कार्येण आगतोऽसि? स भणति- अहमपि प्रव्रजिष्यामि, पश्चात् स For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१९॥ कस्मानि दारओ भणइ-तं तुम्हे जाणह?, आयरिया भणंति-जाणेमो, तेण भणियं!- सो कहिति?, ते भणंति- सो मम मित्तो। प्रथममध्ययन एगसरीरभूतो, पव्वयाहि तुमं मम सगासे, तेण भणियं- एवं करोमि । तओ आयरिया आगंतुं पडिस्सए आलोअंति-सच्चित्तो। द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: १५ पडुप्पन्नो,सो पव्वइओ, पच्छा आयरिया उवउत्ता- केवतिकालं एस जीवइत्ति?, णायं जावं छम्मासा, ताहे आयरियाणं 'यमिति बुद्धी समुप्पन्ना- इमस्स थोवर्ग आउं, किं कायव्वंति?, तं चउद्दसपुव्वी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिहति, दसपुव्वी पुण द्वितीयद्वारे शास्त्राभिअपच्छिमो अवस्समेव णिजूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं, तो अहमवि णिजूहामि, ताहे आढत्तो णिजूहिउं, ते उ धानहेतुः णिजूहिज्जंता वियाले णिजूढा थोवावसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणिज्जति । अनेन च कथानकेन न केवलं 'येन वे' 'यत'इति त्यस्यैव, द्वारस्य भावार्थोऽभिहितः, किन्तु यद्वा प्रतीत्यैतस्यापीति, तथा चाह नियुक्तिकार: तृतीयद्वारेनि०- मणगं पडुच्च सेजंभवेण निहिया दसऽज्झयणा। वेयालियाइ ठविया तम्हा दसकालियं णामं ।।१५।। द्वारं ।। व्यूढमिति। मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यम्भवेन आचार्येण निर्मूढानि पूर्वगतादुद्धत्य विरचितानि दशाध्ययनानि द्रुमपुष्पिकादीनि वेयालियाइ ठविय त्ति विगतः कालो विकाल: विकलनं वा विकाल इति, विकालोऽसकलः खण्डश्चेत्यनर्थान्तरं । दारको भणति- तं यूयं जानीथ, आचार्या भणन्ति- जानीमः, तेन भणितं- स कुत्रेति?, ते भणन्ति- स मम मित्रमेकशरीरभूतः, प्रव्रज त्वं मस सकाशे, तेन भणितं- एवं करोमि । आचार्या आगत्य प्रतिश्रयं आलोचयन्ति- सचित्तः प्रत्युत्पन्नः (लब्धः), स प्रव्रजितः, पश्चादाचार्या उपयुक्ताः कियन्तं कालमेष जीविष्यति?, ज्ञातं यावत्षण्मासान्, तदाऽऽचार्याणां बुद्धिः समुत्पन्ना- अस्य स्तोकमायुः, किं कर्त्तव्यमिति, तत् चतुर्दशपूर्वी कस्मिंश्चिदपि कारणे समुत्पन्ने उद्धरति, दशपूर्वी पुनरपश्चिमः अवश्यमेव उद्धरति, ममापीदं कारणं समुत्पन्नं तस्मादहमपि उद्धरामि, तदा आहत उद्धर्तुम, तानि तूद्धियमाणानि विकाले उद्धृतानि स्तोकावशेषे दिवसे, तेन तद्दशवैकालिकं भण्यत इति। 0 यूह उद्धरण इत्यागमिको घातुरिति न्यायसंग्रहः। For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shes Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२०॥ कस्मानि तस्मिन् विकाले- अपराण्हे स्थापितानि न्यस्तानि द्रुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतस्तस्माद्दशकालिकं नाम, व्युत्पत्तिः पूर्ववत्, प्रथममध्ययनं दशवैकालिकं वा, विकालेन निर्वृत्तं!, संकाशादिपाठाचातुरर्थिकष्ठक् (पा०४-२-८०) तद्धितेष्वचामादे (पा०७-२-११७)। द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः रित्यादिवृद्धवैकालिकम्, दशाध्ययननिर्माणं च तद्वैकालिकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः । एवं येन वा यद्वा प्रतीत्येति |१६-१८ व्याख्यातम्, इदानीं यतो नियूंढानीत्येतद् व्याचिख्यासुराह 'यत' इति तृतीयद्वारेनि०- आयप्पवायपुव्वा निजूढा होइ धम्मपन्नत्ती। कम्मप्पवायपव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा॥१६॥ नि०- सच्चप्पवायपुव्वा निजूढा होइ वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निजूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ।।१७।। यूंढमिति। नि०- बीओऽवि अ आएसो गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। एअंकिर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ।।१८।। इहात्मप्रवादपूर्व- यत्रात्मनः संसारिमुक्ताद्यनेकभेदभिन्नस्य प्रवदनमिति, तस्मानियूंढा भवति धर्मप्रज्ञप्तिः, षड्जीवनिका इत्यर्थः, तथा कर्मप्रवादपूर्वात, किं?- पिण्डस्य तु एषणा त्रिविधा, नियूंढेति वर्त्तते, कर्मप्रवादपूर्वं नाम- यत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति तस्मात्, किं?- पिण्डस्यैषणा त्रिविधा गवेषणाग्रहणैषणाग्रासैषणाभेदभिन्ना निर्मूढा, सा पुनस्तत्रामुना सम्बन्धेन पतति- आधाकर्मोपभोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीर्बध्नाति, उक्तं च-आहाकम्मं णं भुंजमाणे । समणे अट्ठकम्पपगडीओ बंधइइत्यादि, शुद्धपिण्डोपभोक्ता वा शुभा बनातीत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, सत्यप्रवादपून्नियूंढा। भवति वाक्यशुद्धिस्तु, तत्र सत्यप्रवादं नाम- यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति, वाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्ययनम्, अवशेषाणि । 0 कुमुदादेराकृतिगणत्वात् वुञ्छणित्यादिना ठक्, संकाशादीति तु लेखकभ्रममूलः पाठस्तत्र ण्यभावात्। 0 विकाले पठ्यते इति वैकालिकमिति चूर्णिः। 08 आधाकर्म भुञ्जानः श्रमणः अष्टकर्मप्रकृतीबंध्नाति। ॥२०॥ 8 For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २९ ।। www.kobatirth.org प्रथमद्वितीयादीनि निर्व्यूढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति । द्वितीयोऽपि चादेशः आदेशो विध्यन्तरं गणिपिटकाद् आचार्य सर्वस्वाद् द्वादशाङ्गाद् आचारादिलक्षणात् इदं दशकालिकम्, किलेति पूर्ववत्, निर्व्यूढमिति च, किमर्थं ?- मनकस्य उक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः । एवं यत इति व्याख्यातम्, अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते नि०- दुमपुष्फियाइया खलु दस अज्झयणा सभिक्खुयं जाव अहिगारेवि य एत्तो वोच्छं पत्तेयमेक्वेक्वे ।। १९ ।। दारं ।। तत्र द्रुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम, तदादीनि दशाध्ययनानि सभिक्खुयं जाव त्ति सभिक्ष्वध्ययनं यावत्, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ? - तदन्ये द्वे चूडे, यावन्तीति व्याख्यातम् । यथा चेत्येतत् पुनरधिकाराभिधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुःसम्बन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह- अधिकारानपि चातो वक्ष्ये प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने, तत्रा अध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्त्तते सोऽधिकार इति गाथार्थः ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि०- पढमे धम्मपसंसा सो य इहेव जिणसासणम्मित्ति। बिइए धिइए सक्का काउं जे एस धम्मोति ॥ २० ॥ नि० तइए आयारकहा उ खुड्डिया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमोऽवि य होइ चउत्थंमि अज्झयणे ।। २१ ।। नि०- भिक्खविसोही तवसंजमस्स गुणकारिया उ पंचमए। छट्टे आयारकहा महई जोग्गा महयणस्स ।। २२ ।। नि०- वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमद्रुमे भणियं । णवमे विणओ दसमे समाणियं एस भिक्खुत्ति ।। २३ । प्रथमाध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह- धर्मप्रशंसा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्य प्रशंसा- स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपा, तथाऽन्यैरप्युक्तं धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ १ ॥ इत्यादि । स चात्रैव जिनशासने धर्मो नान्यत्र, इहैव निरवद्यवृत्तिसद्भावाद्, एतच्चोत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः । For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, निर्युक्तिः १९ 'यावन्ति'ति चतुर्थद्वारे दशाध्ययनानि इति | निर्युक्तिः २०-२३ 'यथास्थापितानी ति पञ्चमद्वारे संक्षेपणाध्ययनार्था धिकाराः। ।। २१ ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २२ ॥ www.kobatirth.org Ο धर्माभ्युपगमे च सत्यपि मा भूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः सम्मोह इत्यतस्तन्निराकरणार्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम्, आह च- द्वितीयेऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम्, जे इति पूरणार्थो निपातः एष जैनो धर्म इति उक्तं च- जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सोग्गई सुलहा। जे अधितिमंत पुरिसा तवोवि खलु दुल्लहो तेसिं ॥ १ ॥ सा पुनर्धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम्, आह च- तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह- आचारगोचरा कथा आचारकथा, सा चेहैवाणुविस्तरभेदात्, य (अ)त आह- क्षुल्लिका लघ्वी, सा च आत्मसंयमोपायः संयमनं संयमः आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तदुपायः, उक्तं च- तस्यात्मा संयमो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥ ११ ॥ इति, स चाचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम्, अथवाऽऽत्मसंयमः - तदन्यजीवपरिज्ञानपरिपालनमेव तत्त्वत इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम्, आह च तथा जीवसंयमोऽपि च भवति चतुर्थेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति, अपिशब्दादात्मसंयमोऽपि तद्भावभाव्येव वर्त्तते, उक्तं च- छसु जीवनिकाएसुं, जे बुहे संजए सया। से चेव होइ विण्णेए, परमत्थेण संजए ॥ १ ॥ इत्यादि । एवमेव च धर्म्मः, स च देहे स्वस्थे सति सम्यक् पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न भवति, स च सावद्येतरभेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति, आह च- भिक्षाविशोधिस्तपः संयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति, तत्र भिक्षणं भिक्षा तस्याः विशोधि:- सावद्यपरिहारेणेतरस्वरूपकथनमित्यर्थः, तपःप्रधानः संयमस्तपःसंयमस्तस्य गुणकारिकैवेयं वर्त्तत इति, उक्तं च- से संजए समक्खाए, निरवज्जाहार जे विऊ। धम्मकायट्ठिए ® यस्य धृतिस्तस्य तपो यस्य तपस्तस्य सुगतिः सुलभा । येऽधृतिमन्तः पुरुषास्तपोऽपि खलु दुर्लभं तेषाम् ॥१ ॥ षट्टु जीवनिकायेषु यो बुधः संयतः सदा । स चैव भवति विज्ञेयः परमार्थेन संयतः ॥ १ ॥ स संयतः समाख्यातो निरवद्याहारं यो विद्वान् । धर्मकायस्थितः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, निर्युक्तिः १९ 'यावन्ति 'ति चतुर्थद्वानि Callede इति निर्युक्तिः २०-२३ 'यथास्थापितानीति पञ्चमद्वारे संक्षेपणाध्ययनार्थाधिकाराः। ॥ २२ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२३॥ २०-२३ 'यथास्था पञ्चमद्वारे संक्षेपणाध्ययनार्थाधिकाराः। सम्म, सुहजोगाण साहए॥१॥ इत्यादि । गोचरप्रविष्टेन च सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः । प्रथममध्ययन कथयितव्यः, अपि तु आलये, गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति, आह च द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः षष्ठेऽध्ययनेऽर्थाधिकारः आचारकथा साऽपि महती, न क्षुल्लिका, योग्या उचिता महाजनस्य विशिष्ट परिषद इत्यर्थः, वक्ष्यति च:-गोअरग्गपविढे उन निसिएज कत्थई। कहं च न पबंधिज्जा चिट्टित्ताण व संजए॥१॥ इत्यादि । आलयगतेनापि तेन गुरुणा पितानीति (वा) वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव सप्तममध्ययनमिति, आह च- क्यणविभत्ती । त्यादि, वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजनं विभक्तिः- एवंभूतमनवद्यमित्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः, पुनःशब्दः शेषाअध्ययनार्थाधिकारेभ्यः अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थ इति सप्तमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति, उक्तं च- सावजणवजाणं वयणाणं जो ण याणइ विसेसं। वोत्तुं पि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥ इत्यादि । तच्च निरवद्यं वचः आचारे । प्रणिहितस्य भवति इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति, आह च- प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेऽर्थाधिकारत्वेन भणितं उक्तम्, प्रणिधानं नाम-विशिष्टश्चेतोधर्म इति, उक्तं च-पणिहाणरहियस्सेह, निरवजंपि भासियं । सावज्जतुलं विनेयं, अज्झत्थेणेह संवुडं।। ११॥ इत्यादि । आचारप्रणिहितश्च यथोचितविनयसम्पन्न एव भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव नवममध्ययनमिति, आह चनवमेऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकारः इति, उक्तं च-आयारपणिहाणमि, से सम्मं वहई बुहे। णाणादीणं विणीए जे, मोक्खट्टा णिव्विगिच्छए। सम्यक् शुभयोगानां साधकः ॥ १॥ 0 गोचराग्रप्रविष्टस्तु न निषीदेत् कुत्रचित् । कथा च न प्रबध्नीयात् स्थित्वा वा संयतः ।। १।। 0 सावधानवद्यानां वचनानां यो न जानाति विशेषम् । वक्तुमपि तस्य नाह किमङ्ग पुनर्देशनां कर्तुम्?॥१॥प्रणिधानरहितस्येह निरवद्यमपि भाषितम् । सावद्यतुल्यं विज्ञेयमध्यात्मस्थेनेह संवृतम् ॥१॥ O आचारप्रणिधाने स सम्यक् वर्तते बुधः। ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्थं निर्विचिकित्सः ॥१॥ ॥ २३॥ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् २४-२५ ॥२४॥ चूडाद्वयाऑधिकारः। ॥१॥ इत्यादि । एतेषु एव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग् भिक्षुरित्यनेन सम्बन्धेन सभिक्ष्वध्ययनमिति, आह । प्रथममध्ययनं च- दशमेऽध्ययने समाप्तिं नीतमिदं साधुक्रियाभिधायकं शास्त्रं एतत्क्रियासमन्वित एव भिक्षुर्भवत्यत आह- एष भिक्षुरिति दुमपुष्पिका, नियुक्तिः गाथाचतुष्टयार्थः । स एवंगुणयुक्तोऽपि भिक्षुः कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्च बलत्वा (वत्त्वा)त्सीदेत् ततस्तस्य स्थिरीकरणं । कर्त्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडाद्वयमित्याह संक्षेपेण नि०-दो अज्झयणा चूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं । बिइए विवित्तचरिया असीयणगुणाइरेगफला ।।२४।। द्वे अध्ययने, किं?-चूडा चूडेव चूडा, तत्र प्रमादवशाद्विषीदति सति साधौसंयमे स्थिरीकरणम्, एकं प्रथमं स्थिरीकरणफलमित्यर्थः, तथा च तत्रावधावनप्रेक्षिणः साधोः दुष्प्रजीवित्वनरकपातादयो दोषा वर्ण्यन्त इति । तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते, किंभूता? असीदनगुणातिरेकफला तत्र 'विविक्तचर्या' एकान्तचर्या- द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वसम्बद्धता, उपलक्षणं चैषाऽनियतचर्यादीनामिति, असीदनगुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथाविधेति गाथार्थः ।। नि०- दसकालिअस्स एसो पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । एत्तो एक्केवं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥२५॥ दशकालिकस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य एषः अनन्तरोदितः पिण्डार्थः सामान्यार्थो वर्णितः प्रतिपादितः समासेन संक्षेपेण, अतःऊवं पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति, पुनःशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः।। तत्र प्रथमाध्ययनं द्रुमपुष्पिका, अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा- उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयः, एषां चतुर्णामप्यनुयोगद्वाराणामध्ययनादावुपन्यासस्तथेत्थं च क्रमोपन्यासे प्रयोजनमावश्यकविशेषविवरणादवसेयं स्वरूपंच प्रायश इति । प्रकृताध्ययनस्य च शास्त्रीयोपक्रमे आनुपूर्व्यादिभेदेषु स्वबुद्ध्याऽवतारः कार्यः, अर्थाधिकारश्च वक्तव्यः, तथा चाह नियुक्तिकार: ॥२४ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२५॥ अध्ययन अध्ययन नि०- पढमज्झयणं दुमपुफियंति चत्तारि तस्स दाराई। वण्णेउवकमाई धम्मपसंसाइ अहिगारो ।। २६ ।। प्रथममध्ययन प्रथमाध्ययनं द्रुमपुष्पिकेति, अस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपावसर एव शब्दार्थं वक्ष्यामः, चत्वारि तस्य द्वाराणि अनुयोगद्वाराणि, द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: २६ किं?- वर्णयित्वोपक्रमादीनीति, किं?- धर्मप्रशंसयाऽधिकारो वाच्य इति गाथार्थः।। तथा निक्षेपः, स च त्रिविधः, तद्यथाओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति, तत्रौघः- सामान्यं श्रुताभिधानम्, तथा चाह नियुक्तिकारः शब्दस्यौधादि निक्षेपाः। नि०-ओहो जं सामन्नं सुआभिहाणं चउव्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आय ज्झवणा य पत्तेअं॥२७ ।। नियुक्ति:२७ ओघो यत्सामान्यं श्रुताभिधानं श्रुतनाम चतुर्विधं तच, कथं?- अध्ययनमक्षीणमायःक्षपणा च इदं च प्रत्येकं पृथक् पृथक् ।। किं? शब्दस्यौ घादि। नि०-नामाइ चउतभेयं वण्णेऊणंसुआणुसारेणं । दद्मप्फिअ आओजा चउसुंपिकमेण भावेसं॥२८॥ निक्षेपाः नामादिचतुर्भेदं वर्णयित्वा, तद्यथा-नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावाध्ययनं चेति, एवमक्षीणादीनामपिन्यासः नियुक्तिः कर्त्तव्यः, श्रुतानुसारेण अनुयोगद्वाराख्यसूत्रानुसारेण, किं?- द्रुमपुष्पिका आयोज्या प्रकृताध्ययनं सम्बन्धनीयम्, चतुर्ध्वप्यध्ययनादिषु क्रमेण भावेष्विति गाथार्थः ।। साम्प्रतं भावाध्ययनादिशब्दार्थं प्रतिपादयन्नाह निक्षेपः। नि०- अज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उवचिआणं । अणुवचओ अनवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ।।२९।। नि०- अहिगम्मति व अत्था इमेण अहिगं च नयणमिच्छति । अहिगं च साहु गच्छइ तम्हा अज्झयणमिच्छंति ॥३०॥ नि०-जह दीवा दीवसयं पड़प्पई सो अदिप्पई दीवो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवंति ।। ३१ ।। नि०- नाणस्स दंसणस्सऽवि चरणस्स य जेण आगमो होई। सो होइ भावआओ आओ लाहो त्ति निद्दिट्टो ।। ३२।। २८-३३ भावाध्ययन ॥ २५॥ 1888888888 For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२६॥ नि०-अट्ठविहं कम्मरयं पोराणं जखवेइ जोगेहि। एवं भावज्झयणं ने अव्वं आणुपुव्वीए३३॥ प्रथममध्ययन आसांगमनिका- इह प्राकृतशैल्या छान्दसत्त्वाच्च अज्झप्पस्साणयणं पकारस (स्स) कारआकारणकारलोपे अज्झयणं ति द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः भण्णइ, तच संस्कृतेऽध्ययनम्, भावार्थस्त्वयं-अधि आत्मनि वर्तत इति निरुक्तादध्यात्म चेतस्तस्यानयनं आनीयतेऽनेने २८-३३ त्यानयनम्, इह कर्ममलरहितः खल्वात्मैव चेतःशब्देन गृह्यते, यथाऽवस्थितस्य शुद्धस्य चेतस आनयनमित्यर्थः, तथा । भावाध्ययन निक्षेपः। चैतदभ्यासाद्भवत्येव, किं?- कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां अपचयो ह्रासः, किंविशिष्टानाम्?- उपचितानां मिथ्यात्वादिभिरुपदिग्धानां बद्धानामितिभावः, तथा अनुपचयश्व अवृद्धिलक्षण: नवानां प्रत्यग्राणां कर्मणाम्, यतश्चैवं तस्मात् प्राकृतशैल्या| अध्यात्मानयनमेवाध्ययनमिच्छन्त्याचार्या इति गाथार्थः । अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते वा अर्था अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैल्या तथाविधार्थप्रदर्शकत्वाच्चास्य वचसोऽध्ययनमिति, तथा अधिकं च नयनमिच्छन्त्यस्याप्य(पि तथाविधा)र्थप्रदर्शकत्वादेव। वचसोऽयमर्थः, अय वय' इत्यादिदण्डकधातुपाठान्नीतिर्नयनम्, भावे ल्युट्प्रत्ययः, परिच्छेद इत्यर्थः, अधिकं नयनमधिकनयनं चार्थतोऽध्ययनमिच्छन्ति, चशब्दस्य च व्यवहित उपन्यासः, अधिकंचसाधुर्गच्छति, किमुक्तं भवति?- अनेन करणभूतेन साधुर्बोधसंयममोक्षान् प्रत्यधिकं गच्छति, यस्मादेवं तस्मादध्ययनमिच्छन्ति, इह च सर्वत्र अधिकं नयनमध्ययनमित्येवं योजना कार्येति गाथार्थः । इदानीमक्षीणं- तच्च भावाक्षीणमिदमेव, शिष्यप्रदानेऽप्यक्षयत्वात्, तथा चाह- यथा दीपाद्दीपशत प्रदीप्यते, स च दीप्यते दीपः, एवं दीपसमा दीपतुल्या आचार्या दीप्यन्ते स्वतो विमलमत्याधुपयोगयुक्तत्वात् परं च विनेयं । दीपयन्ति प्रकाशयन्त्युज्वलं वा कुर्वन्तीति गाथार्थः । इदानीमायः-सच भावत इदमेव, यत आह- ज्ञानस्य मत्यादेः दर्शनस्य । चौपशमिकादेः चरणस्य च सामायिकादेः येन हेतुभूतेन आगमो भवति प्राप्तिर्भवति स भवति भावायः, आयो लाभ इति निर्दिष्टः, ॥२६॥ For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२७॥ अध्ययनेन च हेतुभूतेन ज्ञानाद्यागमो भवतीति गाथार्थः ॥ अधुना क्षपणा, साऽपि भावत इदमेवेति, आह च- अष्टविधं अष्टप्रकारं कर्मरजः, तत्र जीवगुण्डनपरत्वात्कर्मैव रजः कर्मरजः पुराणं प्रागुपात्तं यत् यस्मात्क्षपयति योगैः अन्त:करणादिभिरध्ययनं कुर्वन् तस्मादिदमेव कारणे कार्योपचारात् क्षपणेति । तथा चाह- इदं भावाध्ययनं नेतव्यं योजनीयं आनुपूर्व्या परिपाट्या अध्ययनाक्षीणादिष्विति गाथार्थः ।। उक्त ओघनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं नामनिष्पन्न उच्यते- तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनं नामनिष्पन्ने द्रुमपुष्पिकेति, आह- द्रुम इति कः शब्दार्थः?, उच्यते, दुद्रुगतौ इत्यस्य द्रुरस्मिन् देशे विद्यत इति तदस्यास्त्यस्मिन्निति (पा० ५-२-९४) मतुपि प्राप्ते दुद्रुभ्यां मः (पा०५-२-१०८) इति मप्रत्ययान्तस्य द्रुम इति भवति। साम्प्रतं द्रुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणायाह नि०- णामदुमो ठवणदुमो दव्वदुमो चेव होइ भावदुमो । एमेव य पुप्फस्स वि चउव्विहो होइ निक्खेवो ।। ३४ ।। नामद्रुमो यस्य द्रुम इति नाम द्रुमाभिधानं वा, स्थापनाद्रुमो द्रुम इति स्थापना, द्रव्यद्रुमश्चैव भवति भावद्रुमः तत्र द्रव्यद्रुमो द्विधा- आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तस्त्रिविधः, तद्यथाएकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, तत्रैकभविको नाम य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेषूत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन द्रुमनामगोत्रे कर्मणी बद्धे इति, अभिमुखनामगोत्रस्तु येन ते नामगोत्रे कर्मणी उदीरणावलिकायां प्रक्षिप्ते इति, अयं च त्रिविधोऽपि भाविभावद्रुमकारणत्वाद्रव्यद्रुम इति, भावद्रुमोऽपि द्विविधः- आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु । द्रुम एव द्रुमनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्निति । एवमेव च यथा द्रुमस्य तथा किं?- पुष्पस्यापि वस्तुतस्तद्विकारभूतस्य चतुर्विधो ®आयुर्विशिष्टे इति ज्ञेयम्, तथा च न बद्धायुष्कताऽसंगतिः। प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, नियुक्तिः २८-३३ भावाध्ययननिक्षेपः। नियुक्तिः ३४ द्रुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणा। ॥२७॥ For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२८॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, नियुक्ति: ३५ दुमपर्यायशब्दाः । नियुक्तिः ३६-३० पुष्पेकार्थिकानि सुसमादृष्टान्तादिव। भवति निक्षेप इति गाथार्थः ।। साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणासम्मोहार्थमागमे द्रुमपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह नि०-दुमा य पायवा रुक्खा, अगमा विडिमा तरू । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगारुंजगावि अ॥ ३५॥ द्रुमाश्च पादपा वृक्षा अगमा विटपिनः तरवः कुहा महीरुहा वच्छा रोपका रुञ्जकादयश्च । तत्र द्रुमान्वर्थसंज्ञा पूर्ववत्, पद्भ्यां पिबन्तीति पादपा इत्येवमन्येषामपि यथासम्भवमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या, रूढिदेशीशब्दा वा एत इति गाथार्थः । इदानीं पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह नि०-पुप्फाणि अकुसुमाणि अफुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि असुहुमाणि अपुष्फाणं होंति एगट्ठा ॥३६॥ पुष्पाणि कसमानि चैव फलानि प्रसवानि च सुमनांसि चैवसूक्ष्माणि सूक्ष्मकायिकानि चेति ।। साम्प्रतमेकवाक्यतया द्रमपुष्पिकाध्ययनशब्दार्थ उच्यते- द्रुमस्य पुष्पं द्रुमपुष्पम्, अवयवलक्षण: षष्ठीसमासः, द्रुमपुष्पशब्दस्य प्रागिवात्कः (पा०५-३-७) इति वर्त्तमाने अज्ञाते (७३) कुत्सिते (७४) (के) संज्ञायां कनि (७५) ति कनि प्रत्यये नकारलोपे च कृते द्रुमपुष्पक इति, प्रातिपदिकस्य स्त्रीत्वविवक्षायां अजाद्यतष्टाप् (४-१-४) इति टाप्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः (पा०७-३-४४) इतीत्वे कृते अकः सवर्णे दीर्घः (पा०६-१-१०१) इति दीर्घत्वे परगमने च द्रुमपुष्पिकेति भवति, द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति, द्रुमपुष्पिका चासौ अध्ययनं चेति समानाधिकरणस्तत्पुरुषः, द्रुमपुष्पिकाध्ययनमिति ॥ अस्य चैकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह नि०- दुमपुप्फिआ य आहारएसणा गोअरे तया उंछो । मेस जलूगा सप्पे वणऽक्खइसुगोलपुत्तुदए ।। ३७ ।। तत्र द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति, वक्ष्यति च-'जहा दुमस्स पुप्फेसु' इत्यादि, तथा आहारस्यैषणा आहारैषणा, ॥ २८॥ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२९॥ एषणाग्रहणाद् गवेषणादिग्रहः, ततश्च तदर्थसूचकत्वादाहारैषणेति, तथा गोचरःसामयिकत्वाद् गोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा प्रथममध्ययन गोचारः, तदर्थसूचकत्वाचाधिकृताध्ययनविशेषो गोचर इति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, भावार्थस्तु यथा गौश्वरत्येवमविशेषेण । द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: ३७ साधुनाऽप्यटितव्यम्, न विभवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वणिग्वत्सकदृष्टान्तेन वेति, तथा त्वगिति' त्वगि पुष्पैकार्थवासारं भोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात् त्वगुच्यत इति, उक्तं च परममुनिभिः- जहा चत्तारि घुणा पण्णता, तंजहा- तयक्खाए छल्लिक्खाए कानि सुसमाकट्टक्खाए सारक्खाए, एवामेव चत्तारि भिक्खुगा पन्नत्ता, तंजहा- तयक्खाए छल्लिक्खाए कट्टक्खाए सारक्खाए, तयक्खाए णाम एगे नो। दृष्टान्तादिश्च। सारक्खाए सारक्खाए णाम एगेनो तयक्खाए एगे तयक्खाए वि सारक्खाए वि एगे नो तयक्खाए णो सारक्खाए । तयक्खायसमाणस्स ण । भिक्खुस्स सारक्खायसमाणे तवे भवइ, एवं जहा ठाणे तहेव दट्टव्वं । भावार्थस्तु भावतस्त्वकल्पासारभोक्तुः कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवति, तथा उंछं इति अज्ञातपिण्डोज्छसूचकत्वादिति, तथा मेष इति यथा मेषोऽल्पेऽप्यम्भसि अनद्वालयन्नेवाम्भः पिबति, एवं साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाकुलेन भिक्षा ग्राहोत्येवंविधार्थसूचकत्वादधिकृताभिधान प्रवृत्तिरिति, तथा जलौका इति अनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृदुभावनिवारणार्थसूचकत्वादिति, तथा सर्प इति यथाऽसावेकदृष्टिअर्भवत्येवं गोचरगतेन संयमैकदृष्टिना भवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति, अथवा- यथा द्रागस्पृशन् सर्पो बिलं प्रविशत्येवं साधुनाऽप्यनास्वादयता भोक्तव्यमिति, तथा व्रण इत्यरक्तद्विष्टेन व्रणलेपदानवद्धोक्तव्यम्, तथा अक्ष इत्यक्षोपाङ्गदानवच्चेति, 0 यथा सालङ्कारवणिम्वधूहस्ताद्भक्ष्यमात्त्वाऽत्ति वत्सस्तद्रूपालङ्काराद्यनिरीक्षमाणस्तथा साधुरपि । 0 यथा चत्वारो घुणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- त्वक्खादकः छल्लीखादकः काष्ठखादकः सारखादकः। एवमेव चत्वारो भिक्षुकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-त्वक्खादकः छल्लीखादकः (अन्तस्त्वक् छल्ली) काष्टखादकः सारखादकः। त्वक्खादको नामैकः नो सारखादकः सारखादको नामैको नो त्वक्खादकः एकस्त्वक्खादकोऽपि एको नो त्वक्खादको नो सारखादकः । त्वक्खादकसमानस्य भिक्षोः सारखादकसमानं तपो भवति, एवं यथा स्थानाने तथैव द्रष्टव्यम् । For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३०॥ उक्तं च-व्रणलेपाक्षोपाङ्गवदसङ्गयोगभरमात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं पुत्रपलवच्च ॥१॥ इत्यादि, तथा इसु त्ति तत्र प्रथममध्ययन 'इषुः' शरो भण्यते, तत्र सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा जहरहिओऽणुवउत्तो इसुणा लक्खंण विंधइ तहेव । साहू गोअरपत्तो संजमलक्खम्मि द्रुमपुष्पिका, नियुक्ति: ३७ नायव्वो॥१॥ गोल इति जह जउगोलो अगणिस्स णाइदूरे ण आवि आसन्ने । सक्कइ काऊण तहा संजमगोलो गिहत्थाणं ॥१॥ दूरे पुष्पैकार्थिअणेसणाऽदसणाइ इयरम्मि तेणसंकाइ । तम्हा मियभूमीए चिट्ठिज्जा गोयरगगओ ॥ २॥ पुत्र इति पुत्रमांसोपमया भोक्तव्यम्, कानि सुसमा दृष्टान्तादिश्च। सुसमादृष्टान्तोऽत्र वक्तव्यः। उदक मिति पूत्युदकोपमानतः खल्वन्नपानमुपभोक्तव्यमिति, अत्रोदाहरणं-जहा एगेणं वाणियएणं । दारिद्ददुक्खाभिभूएणं कहंवि हिंडंतेणं रयणदीवं पावित्ता तेलुक्कसुंदरा अणग्घेया रयणा समासादिआ, सो अ ते ।। चोराकुलदीहद्धाणभएण ण सक्कड़ णित्थारिऊणमुवओगभूमिमाणेउं, तओ सो बुद्धिकोसल्लेण ताणि एगम्मि पएसे ठवेऊण अण्णे जरपाहाणे घेत्तुं पट्टिओ गहिल्लगवेसेणं 'रयणवाणिओ गच्छइ'त्ति भाविंतेण तिण्णि वारे, जाहे कोई ण उट्ठइ ताहे घेत्तूण पलाओ, अडवीए तिव्वतिसाए गहिओ जाव कुहियपाणिअंछिल्लरं विणटुं पासइ, तत्थवि बहवे हरिणादयो मआ, । तेण तं सव्वं उदगं वसा जायं, ताहे तं तेण अणुस्सासियाए अणासायंतेण पीअं, नित्थारियाणि यऽणेण रयणाणि । एवं यथा रथिकोऽनुपयुक्त इषुणा लक्ष्य न विध्यति तथैव । साधुर्गोचरप्राप्तः संयमलक्ष्ये ज्ञातव्यः ॥ १॥ यथा जतुगोलोऽनेनातिदूरे न चाप्यासन्ने । शक्यते कर्तु तथा संयमगोलो गृहस्थानाम् (संयमलक्षे ज्ञातव्यः) ॥ १॥ दूरेऽनेषणाऽदर्शनादि इतरस्मिन् स्तेनशङ्कादिः। तस्मान्मितभूमौ गोचराग्रगतः तिष्ठेत् ।। २।। 0 यथैकेन वणिजा दारिद्रयदुःखाभिभूतेन कथमपि हिण्डमानेन रत्नद्वीपं प्राप्य त्रैलोक्यसुन्दराणि अनाणि रत्नानि समासादितानि, स च तानि चौराकुलदीर्घाध्वभयेन न शक्नोति निस्तार्य उपभोगभूमिमानेतुम, ततः स बुद्धिकौशल्येन तानि एकस्मिन् प्रदेशे स्थापयित्वा अन्यान् जरत्पाषाणान् गृहीत्वा प्रस्थितो ग्रहगृहीतवेषेण रत्नवणिग् गच्छतीति भावयन तिम्रो वाराः, यदा कोऽपि नोत्तिष्ठति तदा गृहीत्वा पलायितः, अटव्यां तीव्रतृषा गृहीतो यावत्कुथितपानीय पल्वलं विनष्ट पश्यति, तत्रापि बहवो हरिणादयो मृताः, तेन तत्सर्वमुदकं वसारूपं जातम्, तदा तत्तेन अनुच्छ्रसताऽनास्वादयता पीतम्, निस्तारितानि चानेन रत्नानि, एवं ॥३०॥ For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kababirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 1॥३१॥ दृष्टान्तादिक्षा रयणत्थाणगाणि णाणदसणचरित्ताणि चोरत्थाणिआ विसया कुहिओदगत्थाणिआणि फासुगेसणिजाणि अंतपंताणि । प्रथममध्ययन आहाराइयाणि आहारतेण । ताहे तब्बलेण जहा वाणियगो इह भवे सुही जाओ, एवं साहू विसुही भविस्सइत्ति । अडवित्थाणी दुमपुष्पिका, नियुक्ति: ३७ संसारं णित्थरेइत्ति । एवमेतान्यथैकार्थिकानि, अर्थाधिकारा एवान्ये इति गाथार्थः। उक्तो नामनिष्पन्नः, साम्प्रतं सूत्रालापक- पुष्यैकार्थिनिष्पन्नस्यावसरः, स च प्राप्तलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् कारणात्?, यस्मादस्ति इह तृतीयमनुयोगद्वारमनुगमाख्यम्, कानि सुसमातत्र निक्षिप्त इह निक्षिप्तो भवति, इह निक्षिप्तो वा तत्र निक्षिप्तो भवति, तस्माल्लाघवार्थं तत्रैव निक्षेप्स्यामः । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविवरणादवसेयौ, साम्प्रतमनुगमः, स च द्विधा- सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र निर्युक्त्यनुगम-1 स्त्रिविधः, तद्यथा- निक्षेपनियुक्त्यनुगम: उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो । गतः, य एषोऽध्ययनादिनिक्षेप इति, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु द्वारगाथाद्वयादवसेयः,तच्चेदं- उद्देसे निद्देसे य निगमे खित्तकालपुरिसे । य। कारण पचय लक्खण नए समोयारणाऽणुमए॥१॥ किं कइविहं कस्स कहिं केस कहं केचिरं हवइ कालं। कइसंतरमविरहियं भवागरिस फासण निरुत्ती ॥ २॥ अस्य च द्वारगाथाद्वयस्य समुदायार्थोऽवयवार्थश्वावश्यकविशेषविवरणादेवावसेय इति । प्रकृतयोजना पूनस्तीर्थकरोपोद्धातमभिधायार्यसेंधर्मस्य च तत्प्रवचनस्य पश्चाजम्बनाम्नस्ततः प्रभवस्य ततोऽप्यार्यशय्यम्भवस्य रत्नस्थानकानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि चौरस्थानीया विषयाः कुथितोदकस्थानीयानि प्रासुकैषणीयानि अन्तप्रान्तानि आहारादीनि आहारयता । तदा तद्बलेन यथा । वणिक् इह भवे सुखी जातः, एवं साधुरपि सुखी भविष्यति इति । अटवीस्थानीयं संसारं निस्तरति इति । एषोऽधो नामादिनिक्षेपः (प्र०)10 उद्देशः निर्देशश्व निर्गमः क्षेत्रं कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययः लक्षणं नयाः समवतारणाऽनुमतम् ॥ १॥ किं कतिविधं कस्य व केषु कथं कियचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भव आकर्षाः स्पर्शना निरुक्तिः॥ २॥ 0 सुष्ठ धर्मः सुधर्मः आर्यः सुधर्मो यस्येति आर्यसुधर्मस्तस्येति विगृह्य कार्यम्, धर्मस्य केवलस्योत्तरपदत्वाभावात् परमस्वधर्म B इतिवत् न समासान्तप्रसङ्गः, न चैवं समासान्ता नित्यत्वकल्पनागौरवमपि । 1॥३१॥ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३२॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् संहितादिबड़िधाव्याख्या। पुनर्यथा तेनेदं नियूंढमिति तथा कथनेन कार्या इति । आह च-'जेण व जंच पडुच्चे' त्यादिना यत्पूर्वमुक्तं तदत्रैव क्रमप्राप्ताभिधानत्वात् तत्रायुक्तमिति, न, अपान्तरालोपोद्धातप्रतिपादकत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति, आह- एवमपि महासम्बन्धपूर्वकत्वादपान्तरालोपोद्धातस्यात्रैवाभिधानं न्याय्यमिति, न, प्रस्तुतशास्त्रान्तरङ्गत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति कृतं प्रसङ्गेन, अक्षर-. गमनिकामात्रफलत्वात्प्रयासस्य। गत उपोद्धातनिर्युक्त्यनुगमः, साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमावसरः, स च सूत्रे सति भवति, आह-यद्येवमिहोपन्यासोऽनर्थकः, न, नियुक्तिसामान्यादिति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, इह चास्खलितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुच्चारणीयम्, तद्यथा-अस्खलितममिलितमव्यत्यानेडितमित्यादि यथाऽनुयोगद्वारेषु, ततस्तस्मिन्नुच्चरिते सति केषाञ्चिद्भगवतांसाधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता भवन्ति, केचन त्वनधिगताः, तत्रानधिगताधिगमायाल्पमतिविनेयानुग्रहाय च प्रतिपदं व्याख्येयम् । व्याख्यालक्षणं चेदं-संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालनाप्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥ १॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । किं च प्रकृतं?, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चरणीयमिति, तच्चेदं सूत्रं धम्मो मंगलमुक्टि, अहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।। सूत्रम् १ ॥ तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा पाठसिद्धैव । अधुना पदानि- धर्मः मङ्गलं उत्कृष्ट अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं । नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः । तत्र धृञ् धारणे इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गलरूपं पूर्ववत् । तथा कृष् । विलेखने इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूपमुत्कृष्टमिति । तथा तृहि हिसि हिंसायां इत्यस्य इदितो नुम् धातोः (पा०७-१५८) इति नुमि कृते स्त्र्यधिकारे टाबन्तस्य नञ्पूर्वस्येदं रूपं यदुताहिंसेति । तथा यमु उपरमेइत्यस्य धातोः संपूर्वस्याप्प्रत्ययान्तस्य For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३३ ।। www.kobatirth.org संयम इति रूपं भवति । तथा तप सन्तापेइत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिस्वप्नकान्तिगतिषु इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति भवति । अपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति भवति । तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य नमोवरिवश्चित्रङः क्यच् (पा०३-१-१९) इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्तादेशस्ततश्च नमस्यन्तीति भवति । तथा यदिति सर्वनाम्नः षष्ठ्यन्तस्य यस्येति भवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले सर्वैकान्यकिंयत्तदः काले दा (पा० ५-३-१५) इति दाप्रत्ययः सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि (पा० ५(३-१६) इति स आदेशः सदा। तथा मन ज्ञाने इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति भवति । इति पदानि । साम्प्रतं पदार्थ उच्यते- तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तथा चोक्तं दुर्गतिप्रसृतान् जीवान्, यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥ १ ॥ मन्यते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत्, उत्कृष्टं प्रधानम्, न हिंसा अहिंसा प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः, संयमः आश्रवद्वारोपरमः, तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः - अनशनादि, दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्यादि भावार्थ:, अपिः सम्भावने देवा अपि मनुष्यास्तु सुतराम्, त मित्येवंविशिष्टं जीवम्, नमस्यन्तीति प्रकटार्थम्, यस्य जीवस्य किं ? - धर्मे प्रागभिहितस्वरूपे सदा सर्वकालं मन इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासभाक्पदपूर्वकत्वेनेह निबन्धनाभावान्न प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टाद् वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शनायाह नि०- कत्थड़ पुच्छइ सीसो कहिंचऽपुट्ठा कहंति आयरिया। सीसाणं तु हियट्ठा विपुलतरागं तु पुच्छाए ।। ३८ ।। क्वचित्किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः कथमेतदिति इयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम्, इत्थमनयोः प्रवृत्तिः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम १ निर्युक्तिः ३८ चालनाप्रत्यव स्थानयोः | प्रवृत्तिः । 11 33 11 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३४ ।। www.kobatirth.org तथा क्वचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किञ्चित्कथयन्त्याचार्याः, तत्प्रत्यवस्थानमिति गम्यते, किमर्थं कथयन्त्यत आहशिष्याणामेव हितार्थम्, तुशब्द एवकारार्थः, तथा विपुलतरं तु प्रभूततरं तु कथयन्ति पुच्छाए त्ति शिष्यप्रश्ने सति, पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः । एवं तावत्समासेन, व्याख्यालक्षणयोजना । कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे, कार्यैवमपरेष्वपि ।। १ ।। ग्रन्थविस्तरदोषान्न, वक्ष्याम उपयोगि तु । वक्ष्यामः प्रतिसूत्रं तु यत् सूत्रस्पर्शिकाऽधुना ॥ २ ॥ प्रोच्यते ऽनुगमनिर्युक्तिविभागश्च विशेषतः । सामायिकबृहद्भाष्याज्ज्ञेयस्तत्रोदितं यतः ॥ ३ ॥ होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेअं सुअं सुआणुगमो। सुत्तालावगनासो नामादिण्णासविणिओगं ॥ १ ।। सुत्तप्फासि अनिज्जुत्तिणिओगो सेसओ पयत्थाइ । पायं सोच्चिय नेगमणयाइमयगोअरो होइ ॥ २ ॥ एवं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओ अ निक्खेवो। सुत्तप्फासिअणिज्जुत्ति गया अ समगं तु वच्चन्ति ॥ ३ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् । तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिप्रतिपादनायाह नि०- णामंठवणाधम्मो दव्वधम्मो अ भावधम्मो अ। एएसिं नाणत्तं वृच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। ३९ ।। णामंठवणाधम्मो त्ति अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, नामधर्मः स्थापनाधर्मो द्रव्यधर्मो भावधर्मश्च । एतेषां नानात्वं भेदं वक्ष्ये अभिधास्ये यथानुपूर्व्या यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः । साम्प्रतं नामस्थापने क्षुण्णत्वादागमतो नोआगमतश्च ज्ञात्रनुपयुक्तज्ञशरीरेतरभेदांश्चानादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यधर्माद्यभिधित्सयाऽऽह नि० दव्वं च अत्थिकायप्पयारधम्मो अ भावधम्मो अ। दव्वस्स पजवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥ ४० ॥ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेदं सूत्रं सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥ १ ॥ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिनियोगः शेषकः पदार्थादीन् । प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २ ॥ एवं सूत्रं सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिः नयाश्च युगपत्तु व्रजन्ति ॥ ३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ३९-४० धर्मपद निक्षेपा:द्रव्यधर्मनिक्षेपाश्च । ।। ३४ ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||३५|| सूत्रम् १ ४१-४२ स्तिकाया रूप: धर्म इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः, तद्यथा- द्रव्यधर्म:अस्तिकायधर्मः प्रचारधर्मश्चेति । तत्र द्रव्यं चेत्यनेन धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदाद् ।। प्रथममध्ययन द्रव्यधर्ममाह, तथास्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमितिकृत्वा उपलक्षणत्वादवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म दुमपुष्पिका, इति, प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन द्रव्यधर्मदेशमाह । भावधर्मश्चेत्यनेन तु भावधर्मस्य स्वरूपमाह ।। साम्प्रतं प्रथमोद्दिष्टद्रव्य- नियुक्तिः धर्मस्वरूपाभिधित्सयाऽऽह- द्रव्यस्य पर्याया-ये उत्पादविगमादयस्ते धर्मास्तस्य द्रव्यस्य, ततश्च द्रव्यस्य धर्मा द्रव्यधर्मा इत्यन्या धर्मनिक्षेपेसंसक्तैकद्रव्यधर्माभावप्रदर्शनार्थो बहुवचननिर्देश इति गाथार्थः ।। इदानीमस्तिकायादिधर्मस्वरूपप्रतिपिपादयिषयाऽऽहनि०-धम्मत्थिकायधम्मो पयारधम्मो य विसयधम्मो य। लोइयकुप्पावयणिअलोगुत्तर लोगऽणेगविहो ॥४१॥ दिधर्मस्वधर्मग्रहणादू धर्मास्तिकायपरिग्रहः, ततश्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकः अस्तिकायधर्म इति । अन्ये निक्षेपे भावतुव्याचक्षते-धर्मास्तिकायादिस्वभावोऽस्तिकायधर्म इति, एतच्चायुक्तम्, तत्र धर्मास्तिकायादीनां द्रव्यत्वेन तस्य द्रव्यधर्माव्यतिरेकादिति । तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, तत्र प्रचरणं प्रचारः, प्रकर्षगमनमित्यर्थः, स एवात्मस्वभावत्वाद्धर्मः प्रचारधर्मः, सच किं?- विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया- रूपादयस्तद्धर्म एव, तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यद्रागादिमान् सत्त्वस्तेषु प्रवर्त्तत इति, चक्षुरादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम्, प्रधानसंसारनिबन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थं द्रव्यधर्मात् पृथगुपन्यासः । इदानीं भावधर्मः, स च लौकिकादिभेदभिन्न इति, आह च-लौकिकः कुप्रावचनिकः लोकोत्तरस्तु, अत्र लोगोऽणेगविहो त्ति लौकिकोऽनेकविध इति गाथार्थः । तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह 0 तेसिं पंचण्हवि धम्मो णाम सब्भावो लक्खणंति एगट्ठा इति चूर्णिः। जो जस्स इंदिअस्स विसओ इति चूर्णिः । धर्मभेदाः। For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ३६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि०- गम्मपसुदेसरचे पुरवरगामगणगोट्ठिराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थो ।। ४२ ।। तत्र गम्यधर्मो - यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्यैव, एवं भक्ष्याभक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्त्तव्येति, पशुधर्मो- मात्रादिगमनलक्षणः, देशधर्मो देशाचारः, स च प्रतिनियत एव नेपथ्यादिलिङ्गभेद इति, राज्यधर्म:- प्रतिराज्यं भिन्नः, स च करादिः, पुरवरधर्म:- प्रतिपुरवरं भिन्नः क्वचित्किञ्चिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रदानादिलक्षणः सद्वितीया योषिगेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा, ग्रामधर्मः- प्रतिग्रामं भिन्नः, गणधर्मो- मल्लादिगणव्यवस्था, यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि, गोष्ठीधर्म्मो - गोष्ठीव्यवस्था, इह च समवयसां समुदायो गोष्ठी, तद्व्यवस्था पुनर्वसन्तादाविदं कर्त्तव्यमित्यादिलक्षणा, राजधर्मो- दुष्टेतरनिग्रहपरिपालनादिरिति । भावधर्मता चास्य गम्यादीनां विवक्षया भावरूपत्वात् द्रव्यपर्यायत्वाद्वा, तस्यैव च द्रव्यानपेक्षस्य विवक्षितत्वात्, लौकिकैर्वा भावधर्मत्वेनेष्टत्वात्, देशराज्यादिभेदश्चैकदेश एवानेकराज्यसम्भव इत्येवं स्वधिया भाव्यम्, इत्युक्तो लौकिकः, कुप्रावचनिक उच्यते- असावपि सावद्यप्रायो लौकिककल्प एव, यत आह- सावज्जो उइत्यादि, अवद्यं पापं सहावद्येन सावद्यम्, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, सावद्य एव, कः ? - कुतीर्थिकधर्मश्वरकपरिव्राजकादिधर्म इत्यर्थः, कुत एतदित्याह - न जिनैः अर्हद्भिः तुशब्दादन्यैश्च प्रेक्षापूर्वकारिभिः प्रशंसितः स्तुतः, सारम्भपरिग्रहत्वात्, अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रफलत्वात् प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः । उक्तः कुप्रावचनिकः, साम्प्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह नि०- दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ । सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ ४३ ॥ पिबंति समवाएणं इति चूर्णिः । अत्तणेऽवि अवराहेण खामिज चू० । प्रयासस्येति (प्र०) । For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, सूत्रम् १ | निर्युक्तिः ४१-४२ धर्मनिक्षेपेऽस्तिकाया दिधर्मस्व रूप: धर्मनिक्षेपे भावधर्मभेदाः । निर्युक्ति: ४३ धर्मनिक्षेपे लोकोत्तरो भावधर्मः । ।। ३६ ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३७॥ प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्ति:४३ धर्मनिक्षेपे लोकोत्तरो भावधर्मः। द्विविधो- द्विप्रकारो लोकोत्तरो लोकप्रधानो, धर्म इति वर्त्तते, तथा चाह- श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्मश्च, तत्र श्रुतं- द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?- स हि वाचनादिभेदाच्चित्र इति, आह च- श्रुतधर्मः स्वाध्यायःवाचनादिरूपः, तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुत्वाद्धर्म इति । तथा चारित्रधर्मश्च, तत्र चर गतिभक्षणयोः इत्यस्य अर्तिलूधूसूखनसहचर इनन् (पा०३-२-१८४) इतीत्रन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावचारित्रम्, अशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः, ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये। अयं च श्रमणधर्म एवेत्याहचारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः कृत्यल्युटो बहुलम् (पा०३-३-११३) इति वचनात् कर्त्तरिल्युट, श्राम्यतीतितपस्यतीति, एतदुक्तं भवति-प्रव्रज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतौ गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याऽऽ प्राणोपरमात्तपश्चरतीति, उक्तं च- यःसमः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥ १॥ इति, तस्य धर्मः स्वभावः श्रमणधर्मः, सच क्षान्त्यादिलक्षणों वक्ष्यमाण इति गाथार्थः । उक्तो धर्मः, साम्प्रतं मङ्गलस्यावसरः, तच्च प्राग्निरुपितशब्दार्थमेव, तत्पुनर्नामादिभेदतश्चतुर्धा, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वात्साक्षादनादृत्य द्रव्यभावमङ्गलाभिधित्सयाऽऽह Oखमा मद्दवं अजव सोयं सर्च संजमो तवो चाओ अकिंचणियत्तणं बंभचेरमिति । तत्थ खमा आकुछस्स वा तालियस्स वा अहियासेतस्स कम्मखओ भवइ, अणहियार्सेतस्स कम्मबंधो भवइ, तम्हा कोहस्स निग्गहो कायब्वो, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एस खमत्ति वा तितिक्खत्ति वा कोधनिग्गहेति वा एगट्टा । मद्दवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवणसीलत्तणं जहाऽहं उत्तमजातीओ एस नीयजातीओत्ति मदो न कायव्यो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिजरा भवइ, अकरेंतस्स य कम्मोवचयो भवइ, माणस्स उद्दिनस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणमिति । अज्जवं नाम उजुगत्तणति वा अकुडिलत्तणंति वा एवं च कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकुव्वमाणस्स य कम्मोवचयो भवइ । मायाए उदंतीए णीरोहो कायचो उदिण्णाए विफलीकरणंति। सोए नाम अलुद्धया धम्मोवगरणेसुवि, एवं च कुव्वमाणस्स कम्मनिज्जरा भवति, तत्र संयमादिना क्षान्तिप्रमुखेन मूलोत्तरगुणाख्यानम् । ॥३७॥ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३८॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्तिः ४४ द्रव्यभाव नि०- दव्वे भावेऽवि अमंगलाई दव्वम्मि पुण्णकलसाई। धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धित्ति काऊणं ।। ४४ ।। द्रव्यं इति द्रव्यमधिकृत्य भाव इति भावं च मङ्गले अपिशब्दान्नामस्थापने च । तत्र दव्वम्मि पुण्णकलसाई द्रव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि, आदिशब्दात् स्वस्तिकादिपरिग्रहः, धर्मस्तु तुशब्दोऽवधारणे धर्म एव भावमङ्गलम् । कुत एतदित्यत आहअतः अस्माद्धात्क्षान्त्यादिलक्षणात् सिद्धिरितिकृत्वा मोक्ष इति कृत्वा, भवगालनादिति गाथार्थः ।। अयमेव चोत्कृष्टप्रधानं मङ्गलम्, एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च, न पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च ।। साम्प्रतं यथोद्देशं - अकुव्वमाणस्स कम्मोवचओ तम्हा । लोभस्स उदेंतस्स गिरोहो कायव्वो उदयपत्तस्स वा विफलीकरणमिति । सचं नाम संचिंतेउण असावजं ततो भासियवं सचं च, एवं च करेमाणस्स कम्मनिचरा भवइ, अकरेमाणस्स य कम्मोवचयो भवइ । संजमो तवो य एते एत्थं न भन्नंति, किं कारणं?, जं एए उवरि अहिंसा संजमो तवो एत्थवि सुत्तालावगे संजमो तवो वत्रणियव्वगा चेव, तेण लाघवत्थं इह न भणिया । इयाणिं चागो, चागो णाम वेयावश्चकरणेण आयरियोवज्झायादीण महती कम्मनिज्जरा भवइ, तम्हा वत्थपत्तओसहादीहिं साहूण संविभागकरणं काथवंति । अकिंचणिया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणंति वुत्तं भवइ, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्रा भवइ, अकरेमाणस्स य कम्मोवचओ भवइ, तम्हा अकिंचणीयं साहूणा सव्वपयत्तेणं अहिट्टेयव्वं । इदाणि बंभचेरं, तं अद्वारसपगारं, तंजहा- ओरालियकामभोगे मणसा ण सेवइ ण सेवावेइ सेवंतं णाणुजाणइ, एवं नवविधं गयं, एवं दिव्वावि कामभोगा मणसा विन सेवइ न सेवावेइ सेवंतं नाणुजाणइ, एवं वायाएविन सेवेइ न सेवावेइ सेवंतं नाणुजाणइ एवं कारणाविन सेवेइ न सेवावेइ सेवंतं नाणुजाणइ एवं एयं अट्ठारसविधं बंभचेरं सम्मं आयरंतस्स कम्मनिजरा भवइ, अणायरंतस्स कम्मबंधो भवइत्ति नाऊण आसेवियव्वं । दसविहो समणधम्मो भणिओ, इदाणि एयंमि दसविहे समणधम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा समवयारिजंति- संजमसचअकिंचणियबंभचेरगहणेण मूलगुणा गहिया भवंति, तंजहा- संजमग्गहणेणं पढमा अहिंसा गहिया, सचग्गहणेणं मुसावादविरती गहिया, बंभचेरगहणेणं मेहणविरती गहिया, अकिंचणियगहणेणं अपरिणहो गहिओ अदत्तादाणविरती य गहिया, जेण सदेहेवि णिस्संगता कायव्वा तम्हा ताव अपरिगहिया गहिया, जो सदेहे निस्संगो कहं सो अदिन्नं गेहति?, तम्हा अकिंचणियगहणेण अदत्तादाणविरती गहिया चेव, अहवा एगगहणे तज्जातीयाणं गहणं कयं भवतित्ति तम्हा अहिंसागहणेण अदिनादाणविरती गहिया खंत्तिमद्दवजवतवोगहणेण उत्तरगुणाणं गहणं कथं भवइत्ति, धम्मोत्ति दारं गये। ॥३८॥ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवेकालिक हारि० वृत्तियुतम् ॥३९॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्तिः४५ हिंसाऽहिंसास्वरूपः। निर्देश' इतिकृत्वा हिंसाविपक्षतोऽहिंसा, तां प्रतिपादयन्नाह___नि०- हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा चउव्विहा सा उ। दव्वे भावे अतहा अहिंसऽजीवाइवाओत्ति ॥४५॥ तत्र प्रमत्तयोगात्त् प्राणव्यपरोपणं हिंसा, अस्याः हिंसायाः किं?- प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः- अप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं । प्राणाव्यपरोपणमित्यर्थः, किं?- भवत्यहिंसेति, तत्र चतुर्विधा चतुष्प्रकारा अहिंसा, दव्वे भावे अत्ति द्रव्यतो भावतश्चेत्येको । भङ्गः, तथा द्रव्यतो नो भावतः तथा न द्रव्यतो भावतः, तथा न द्रव्यतो न भावत इति तथाशब्दसमुचितो भङ्गत्रयोपन्यासः, अनक्तसमच्चयार्थकत्वादस्येति, उक्तं च तथा समचयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रकारवचनेवित्यादि. किं तत्रायं भडकभावार्थ:-- द्रव्यतो भावतश्चेति, जहा केइ पुरिसे मिअवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाइड्डियकोदंडजीवे सरं णिसिरिजा, से अमिए तेण सरेण विद्धे मए सिआ, एसा दव्वओ हिंसा भावओवि ।या पुनर्द्रव्यतो न भावतःसा खल्वीर्यादिसमितस्य साधो: कारणे गच्छत इति, उक्तं च- उच्चालिअम्मि पाए इरियासमिअस्स संकमट्ठाए। वावजेज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्जा॥१॥ न य तस्स तण्णिमित्तो बंधो सहमो वि देसिओ समए। जम्हा सो अपमत्तो सा य पमाओत्ति निद्दिट्ठा ॥२॥ इत्यादि। या पुनर्भावतो न द्रव्यतः, सेयं-जहा केवि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकार्य रज्जु पासित्ता एस अहित्ति तव्वहपरिणामपरिणए णिकहियासिपत्ते 0 यथा कश्चित् पुरुषो मृगवधपरिणामपरिणतः मृगं दृष्ट्रा आकर्णाकृष्टकोदण्डजीवः शरं निसृजेत्, स च मृगस्तेन शरेण विद्धो मृतः स्यात्, एषा द्रव्यतो हिंसा भाव तोऽपि। 0 उचालिते पादे ईर्यासमितेन संक्रमणार्थम् । व्यापद्येत कुलिङ्गी म्रियेत तं योगमासाद्य ॥ १॥ न च तस्य तन्निमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये । यस्मात्सोऽप्रमत्तः सा च प्रमाद इति निर्दिष्टा ॥ २॥ 0 यथा कश्चित्पुरुषः मन्दमन्दप्रकाशदेशे संस्थितामीषद्वलितकायं रजु दृष्ट्रा एषोऽहिरिति तद्वधपरिणामपरिणतः निष्कृष्टासिपत्रो द्रुतं द्रुतं छिन्द्यात्, एषा भावतो हिंसा न द्रव्यतः।* द्वीन्द्रियादिः वि. प. । ॥३९॥ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४० ।। www.kobatirth.org दुअं दुअं छिंदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दव्वओ ।। चरमभङ्गस्तु शून्य इति, एवंभूतायाः हिंसायाः प्रतिपक्षोऽहिंसेति । एकार्थिकाभिधित्सयाऽऽह- अहिंसऽजीवाइवाओत्ति न हिंसा अहिंसा, न जीवातिपातः अजीवातिपातः, तथा च तद्वतः स्वकर्मातिपातो भवत्येव, अजीवश्च कर्मेति भावनीयमिति । उपलक्षणत्वाच्चेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं संयमव्याचिख्यासयाऽऽह 0 नि० पुढविदग अगणिमारुयवणस्सईबितिचउपणिदि अजीवे। पेहोपेहमजणपरिवणमणोवई काए ।। ४६ ।। पुढवाइयाण जाव य पंचिंदियसंजमो भवे तेसिं । संघट्टणादि ण करे तिविहेणं करणजोएणं ।। १ ।। अज्जीवेहिं जेहिं गहिएहिं असंजमो इहं भणिओ। जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए अ ॥ २ ॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी अ। एयं पोत्थयपणयं पण्णत्तं वी अराएहिं ।। ३ ।। बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडी पोत्थो उ तुल्लगो दीहो। कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेअव्वो ॥ ४ ॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिति मुट्ठिपोत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिअ चउरस्सो होइ विणणेओ ॥ ५ ॥ संपुडओ दुगमाईफलगा वोच्छं छिवाडिमेत्ताहे । तणुपत्तोसिअरूवो होइ छिवाडी बुहा बेंति ।। ६ ।। दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो। तं मुणिअ समयसारा छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ ७ ॥ दुविहं च दूसपणअं समासओ तंपि होइ • उवकरणसंजमो चू० कालं पुण पडुच चरणकरणा अव्वोच्छित्तिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ, चू० । पृथ्व्यादीनां यावच्च पञ्चेन्द्रियाणां संयमो भवेत्तेषाम् । संघट्टनादि न करोति त्रिविधेन करणयोगेन ।। १ ।। अजीवेषु येषु गृहीतेषु असंयमो भणित इह यथा पुस्तकदूष्यपञ्चके तृणपञ्चके चर्मपञ्चके च ॥ २ ॥ गण्डी कच्छपी मुष्टिः संपुटफलकं तथा स्पाटिका च। एतत्पुस्तकपञ्चकं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ॥ ३ ॥ बाहल्यपृथुत्वाभ्यां गण्डीपुस्तकं तुल्यं दीर्घम् । कच्छपी अन्ते तनुकं मध्ये पृथु ज्ञातव्यम् ॥ ४ ॥ चतुरङ्गुलदीर्घं वा वृत्ताकृति मुष्टिपुस्तकमथवा चतुरङ्गुलदीर्घमेव चतुरस्रं भवति विज्ञेयम् ॥ ५ ॥ संपुटकं द्विकादिफलकं वक्ष्ये सृपाटिकामतः । तनुपत्रोच्छ्रितरूपं भवति सृपाटिका बुधा ब्रुवते ॥ ६ ॥ दीर्घं वा ह्रस्वं वा यत्पृथु भवत्यल्पबाहल्यं । तत्मुणितसमयसाराः सृपाटिकापुस्तकं भणन्ति इह ॥ ७ ॥ द्विविधं च दूष्यपञ्चकं समासतस्तदपि भवति For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ४६ संयमप्रतिपादनम्। || 80 || Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४१ ।। www.kobatirth.org ❖❖ नायव्वं । अप्पडिलेहियदुसं दुप्पडिलेहं च विष्णेयं ॥ ८ ॥ अप्यडिलेहिअसे तूली उवधाणगं च णायव्वं गंडुवधाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥ ९ ॥ पल्हवि कोयवि पावार णवतए तहय दाढिगालीओ । दुप्पडिलेहिअ दूसे एवं बीअं भवे पणगं ।। १० ।। पल्हवि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूअपूरिओ पडओ। दढगालि धोड़ पोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेदा ।। ११ ।। तणपणगं पुण भणियं जिणेहिँ कम्मट्ठगंठिदहणेहिं । साली वीही कोद्दव रालग रण्णेतणाई च ।। १२ ।। अय एल गावि महिसी मियाणमजिणं च पंचमं होइ। तलियाँ खल्लग कोसग कित्ती य बितिए य ।। १३ ।। तह विअडहिरण्णाई ताइँ न गेहड़ असंजमं साहू । ठाणाइ जत्थ चेए पेह पमज्जित्तु तत्थ करे ।। १४ ।। एसा पेह उवेहा पुणोवि दुविहा उ होइ नायव्वा । वावारावावारे वावारे जह उ गामस्स ।। १५ ।। एसो उविक्खगो हू अव्वावारे जहा विणस्संतं। किं एयं नु उविक्खसि ? दुविहाएवित्थ अहियारो ।। १६ ।। वावारुव्विक्ख तहिं संभोइय सीयमाण चोएइ । चोएई इयरं पिहु पावयणी अम्मि कजम्मि ।। १७ ।। अव्वावारउवेक्खा ज्ञातव्यम् । अप्रतिलेखितदूष्यं दुष्प्रतिलेख्यदूष्यं च विज्ञेयम् ॥ ८ ॥ अप्रतिलेखितदूष्ये तूलिका उपधानकं च ज्ञातव्यम्। गण्डोपधानमालिङ्गिनी मसूरकश्चैव पोतमयः ॥ ९ ॥ प्रह्लादि कुतुपि प्रावारकः नवत्वक् तथा च दृढगालिका दुष्प्रतिलेखितदूष्ये एतद् द्वितीयं भवेत्पञ्चकम् ॥ १० ॥ प्रहादि हस्तास्तरणं कुतुपो रुतपूरितः पटकः । दृढगाली धौतपोतं शेषाः प्रसिद्धा भवन्ति भेदाः ॥ ११ ॥ तृणपञ्चकं पुनर्भणितं जिनैः कर्माष्टकग्रन्थिदहनैः । शालिग्राहिः कोद्रवो रालकोऽरण्यतृणानि च ॥ १२ ॥ अजैडगोमहिषीमृगाणामजिनं च (चर्म) पञ्चकं भवति । तलिका खल्लकं वर्षं कोशकः कृतिश्च द्वितीये च ॥ १३ ॥ तथा विकटहिरण्यादीनि तानि न गृह्णाति असंयमत्वात्साधुः । स्थानादि यत्र चेतयति प्रेक्ष्य प्रमार्ज्य तत्र कुर्यात् ॥ १४ ॥ एषा प्रेक्षा उपेक्षा पुनरिह द्विविधा भवति ज्ञातव्या । व्यापाराव्यापारयोः व्यापारे यथैव ग्रामस्य ॥ १५ ॥ एष उपेक्षकश्चैवाव्यापारे यथा विनश्यन्तम् । किमेतं नूपेक्षसे ? द्विविधयाप्यत्राधिकारः ॥ १६ ॥ व्यापारोपेक्षा तत्र साम्भोगिकान् सीदतश्चोदयति ।। चोदयतीतरमपि प्रावचनिके कार्ये ।। १७ ।। अव्यापारोपेक्षा खरडियो। भूरविगा। सलोम पटः । ०० जीर्णम् । सदृशवस्त्रं वि. प. । उपानत् वर्ध्रः पिपप्लकस्थानं चर्म वि० प० पार्श्वस्थादिकम् वि० प०। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ४६ संयमप्रतिपादनम् । ।। ४९ ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥४२॥ णवि चोएइ गिहिं तु सीअंतं । कम्मेसु बहुविहेसुं संजम एसो उवेक्खाए॥१८॥ पडिसागरिए अपमजिएसु पाएसुसंजमो होइ।। प्रथममध्ययन ते चेव पमज्जते असागरिए संजमो होइ ।।१९।। पाणाईसंसत्तं भत्तं पाणमहवा वि अविसुद्धं । उवगरणभत्तमाई जं वा अइरित्त । द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ होजाहि ।। २० ।। तं परिठ्ठप्पविहीए अवहट्ट संजमो भवे एसो। अकुसलमणवइरोहो कुसलाण उदीरणं चेव ।। २१ ।। जुयलं नियुक्ति: ४७ मणवइसंजम एसो काए पुण जं अवस्सकन्जम्मि । गमणागमणं भवइ तं उवउत्तो कुणइ सम्मं ।। २२ ।। तव्वजं कुम्मस्स व बाहातप: प्रतिपादनम्। सुसमाहियपाणिपायकायस्स । हवइ य काइयसंजम चिटुंतस्सेव साहुस्स ।। २३ ।। उक्तः संयमः। आह- अहिंसैव तत्त्वतः संयम इतिकृत्वा तद्भेदेनास्याभिधानमयुक्तम्, न, संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं तपःप्रतिपाद्यते- तच्च द्विधा- बाह्यमाभ्यन्तरं च । तत्र तावद्बाह्यप्रतिपादनायाह नि०- अणसणमूणोअरिआ वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ।। ४७॥ न अशनमनशनं-आहारत्याग इत्यर्थः, तत्पुनर्द्विधा- इत्वरं यावत्कथिकंच, तत्रेत्वरं- परिमितकालम्, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे । चतुर्थादिषण्मासान्तम्, यावत्कथिकं त्वाजन्मभावि, तत्पुनश्चेष्टाभेदोपाधिविशेषतस्त्रिधा, तद्यथा- पादपोपगमनमिङ्गितमरणं भक्तपरिज्ञा चेति, तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य नैव चोदयति गृहिणं सीदन्तम् । कर्मसु बहुविधेषु एष संयम उपेक्षायाम् ।। १८॥ प्रतिसागारिके अप्रमार्जितयोःपादयोःसंयमो भवति । तावेव प्रमृज्यमानयोरसागारिके संयमो भवति ।। १९ ।। प्राणादिसंसक्तं भक्तं पानमथवाऽपि अविशुद्धम् । उपकरणभक्तादि यद्वातिरिक्तं भवेत् ॥ २०॥ तत्परिष्ठापनविधिना अपहत्यसंयमो भवेदेष! अकुशलमनोवचोरोधः कुशलानामुदीरणं चैव ।। २१ ।। युगलं मनोवचःसंयम एष काये पुनरवश्यकार्ये । गमनागमने भवतस्ते उपयुक्तः करोति सम्यक् ।। २२।। तद्र्ज कूर्मस्येव सुसमाहितपाणिपादकायस्य । भवति च कायिकः संयमस्तिष्ठत एव साधोः ।। २३॥ ॐ अहिंसाया उपकारकः । * अप्पसागारिए चू०। ॥४२॥ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् नियुक्ति: ४७ बाहातप:प्रतिपादनम्। ॥४३॥ पादपस्येवोपगमनं सामीप्येन वर्त्तनं पादपोपगमनमिति,तच्च द्विधा- व्याघातवन्निाघातवच्च, तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिंहायुपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति, उक्तं च-सीहादिसु अभिभूओ पादवगमणं करेइ थिरचित्तो। आउम्मि पहुप्पते विआणिउं नवरि । दुमपुष्पिका, गीअत्थो॥१॥ इत्यादि, निर्व्याघातवत्पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्ठितः शिष्यान्निष्पाद्योत्सर्गतः द्वादश समाः कृतपरिकर्मा सन्काल एव करोति, उक्तं च चत्तारि विचित्ताई विगईनिजूहियाइं चत्तारि । संवच्छरे अ दोणि उएगंतरिअंच आयामं ॥१॥णाइविगिट्ठो अब तवो छम्मासे परिमिअंच आयामं। अने वि अ छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्म ॥२॥ वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुवीए। गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ।। ३ ।। इत्यादि । तथा इङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणम्, इंद च संहननापेक्षमनन्तरोदितमशक्नुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोद्वर्त्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यमिति, उक्तं च-इंगिअदेसंमि सयं चउब्विहाहारचायणिप्फण्णं। उच्चत्तणादिजतं णाणेण उ इंगिणीमरणं ॥१॥ इत्यादि। भक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपा, सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंहननवतो यथासमाधि भावतोऽवगन्तव्येति, उक्तं च- भत्तपरिणाणसणं तिविहाहाराइचायनिप्फण्णं । सपडिक्कम्मं नियमा जहासमाहि विणिद्दिढ॥ १॥ इत्यादि उक्तमनशनम्, अधुना ऊनोदरता- ऊनोदरस्य भाव ऊनोदरता, सा पुनर्द्विविधा- द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया, तत्रोपकरणे जिनकल्पिकादीनामन्येषां सर्वात्मना। 0 सिंहादिभिरभिभूतः पादपोपगमनं करोति स्थिरचित्तः। आयुषि प्रभवति विज्ञाय केवलं गीतार्थः ॥१॥ चत्वारि विचित्राणि विकृतिनियूंढानि चत्वारि । संवत्सरौ च द्वौ तु एकान्तरितं चाचाम्लम् ॥ १॥ नातिविकृष्ट च तपः षण्मासान् परिमितं चाचाम्लम् । अन्यानपि च षण्मासान् भवति विकृष्ट तप कर्म ।। २॥ वर्ष कोटीसहितमाचामाम्लं कृत्वाऽऽनुपूर्व्या । गिरिकन्दरां तु गत्वा पादपोपगमनमथ करोति ।। ३ ।। 0 इङ्गितदेशे स्वयं चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्नं । उद्वर्तनादियुक्तं नान्येनैव इङ्गिनीमरणम् ॥१॥ भक्तपरिज्ञाऽनशनं त्रिविधाहारादित्यागनिष्पन्नम् । सप्रतिकर्म नियमात् यथासमाधि विनिर्दिष्टम् ॥ १।। * रहितानि वि. प्र० । ॥४३॥ 55 For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४४॥ बाहातप: वा तदभ्यासपराणामवगन्तव्या, न पुनरन्येषाम्, उपध्यभावे समग्रसंयमाभावाद् अतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति, उक्तं च-ज प्रथममध्ययन वट्टइ उवयारे उवगरणं तं सि होइ उवगरणं। अइरेगं अहिगरणं अजयं अजओ परिहरंतो॥१॥ इत्यादि । भक्तपानोनोदरता पुनरात्मीया द्रमपुष्पिका, हारादिमानपरित्यागवतो वेदितव्या, उक्तं च- बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलिआए अट्ठावीसं नियुक्ति: ४७ हवे कवला॥१॥कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडयपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगिअवयणो वयणम्मि छुहेज वीसत्थो ॥२॥ इत्यादि, प्रतिपादनम्। एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरता अल्पाहारादिभेदतः पञ्चविधा भवति, उक्तं च-अप्पाहार अवड्वा दुभाग पत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठ अदुवालस सोलस चउवीस तहेक्कतीसा य ॥शा अयमत्र भावार्थ:- अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादारभ्य यावदष्टौ कवला इति, अत्र चैककवलमाना जघन्या, अष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषभेदा मध्यमा च, एवं नवभ्य आरभ्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपाङ्खनोदरता जघन्यादिभेदा भावनीया इति, एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत्षोडश तावद् द्विभागोनोदरता, एवं सप्तदशभ्य आरभ्य यावच्चतुर्विंशतिस्तावत्प्राप्ता, इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता, जघन्यादिभेदाः सुधियाऽवसेयाः, एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः, एवं योषितोऽपि द्रष्टव्या इति, भावोनोदरता पुनः क्रोधादिपरित्याग इति, उक्तं च-कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ।भावेणोणोदरिआ पण्णता वीअरागेहि॥१॥ इत्यादि । उक्तोनोदरता, इदानीं वृत्तिसङ्गेप उच्यते-स च गोचराभिग्रहरूपः,ते चानेकप्रकाराः, तद्यथा- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च,तत्र द्रव्यतो यद्वर्त्तत उपकारे उपकरणं तदस्य भवत्युपकरणम् । अतिरेकमधिकरणमयतम्यतः परिभुञ्जन् ।।१॥ ॐद्वात्रिंशत्किल कवला आहार: कुक्षिपूरको भणितः। ॥ ४४ ।। पुरुषस्य महिलायाः अष्टाविंशतिः स्युः कवलाः ॥ १॥ कवलानां च परिमाणं कुकुट्यण्डकप्रमाणमात्रमेव । यो वाऽविकृतवदनो बदने क्षिपेत् विश्वस्त ।। २08 क्रोधादीनामनुदिनं त्यागः जिनवचनभावनातश्च । भावेनोनोदरता प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् 1॥४५॥ प्रतिपादनम्। निर्लेपादि ग्राह्यमिति, उक्तं च-लेवडमलेवर्ड वा अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि। अमुगेण व दवेणं अह दव्वाभिग्गहो नाम॥१॥ प्रथममध्ययन अट्ठ उ गोअरभूमी एलुगविक्खभमित्तगहणं च । सग्गामपरगामे एवइय घरा य खित्तम्मि॥२॥ उज्जुअ गंतुं पञ्चागई अगोमुत्तिआ द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् पयंगविही। पेडा य अद्धपेडा अभिंतरबाहिसंबुक्का ॥३॥काले अभिग्णहो पुण आदी मज्झे तहेव अवसाणे। अप्पत्ते सइकाले आदी बिइ। नियुक्तिः ४० मज्झ तइअंते॥४॥दितगपडिच्छयाणं भवेज सुहम पि मा हुअचियत्तं । इति अप्पत्तअतीते पवत्तणं मा य तो मझे॥५॥ उक्खित्तमाइचरगा। बाहातप:भावजुआ खलु अभिग्गहा होति । गायन्तो अरुअंतो जं देइ निसन्नमादी वा ॥ ६॥ ओसक्कण अहिसक्कणपरंमुहालंकिओ नरो वावि । भावण्णयरेण जुओ अह भावाभिग्गहोणाम ॥७॥उक्तो वृत्तिसंक्षेपः, साम्प्रतं रसपरित्याग उच्यते- तत्र रसाः क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति, उक्तं च-विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला णे ॥ १॥ विगई परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिण्णे । सुहृवि चित्तजयपरो कहं अकज्जे ण वट्टिहिति?॥२॥ दावानलमज्झगओ को तदुवसमठ्याइ जलमाई। सन्तेविण सेविजा? मोहाणलदीविएसवमा ।। ३॥ इत्यादि, उक्तो रसपरित्यागः, साम्प्रतं कायक्लेश उच्यते- सच लेपकृद् अलेपकृद्वाऽमुकं द्रव्यं चाध ग्रहीष्यामि । अमुकेण वा द्रव्येणासौ द्रव्याभिग्रहो नाम ॥ १॥ अष्ट तु गोचरभूमय: एलुक (देहली) विष्कम्भमात्रग्रहणं च। स्वग्रामे परग्रामे एतावन्ति गृहाणि च क्षेत्रे ॥ २॥ ऋज्वी गत्वा प्रत्यागतिश्च गोमूत्रिका पतङ्गवीथीं। पेटा चार्धपेटा अभ्यन्तरबाह्यशम्बूके ।। ३ । कालेऽभिग्रहः पुनरादी 8मध्ये तथैवावसाने। अप्रामे स्मृतिकाले आदिः द्वितीये मध्यः तृतीयेऽन्तः ॥ ४॥ दायकप्रतीच्छकयोर्भूत सूक्ष्माऽपि मैवाप्रीतिः। इत्यप्राप्तातीतयोः प्रवर्तनं च मा च (भूत) ततो मध्ये ॥ ५ ॥ उत्क्षिपचरकत्वाद्या भावयुताः खलु अभिग्रहा भवन्ति । गायन् रुदैश्च यद्ददाति निषण्णादिवा ॥ ६॥ अववष्कणमभिष्वष्कणपराङ्गखालतो ॐनरो वाऽपि । भावेनान्यतरेण युतः असौ भावाभिग्रहो नाम ॥ ७॥ 0 विकृति विकृतिभीत: विकृतिगतं यस्तु भुङ्क्ते साधुः। विकृतिर्विकृतिस्वभावा विकृतिर्विगतिं बलान्नयति ॥ १॥ विकृतिः परिणतिधर्मा मोहो यदुदीर्यते उदीर्णे च। सुष्टुपि चित्तजयपरः कथमकार्ये न वय॑ति? ॥ २॥ दावानलमध्यगतः कस्तदुपशमार्थाय जलादीनि । सन्त्यपि न सेवेत? मोहानलदीपित एषोपमा ॥३॥ ॥४५॥ For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४६॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्ति: ४७ बाहातप:प्रतिपादनम्। वीरासनादिभेदाच्चित्र इति, उक्तं च- वीरासण उक्कुडुगासणाइ लोआइओय विष्णेओ। कायकिलेसो संसारवासनिव्वेअहेउत्ति॥१॥ वीरासणाइसु गुणा कायनिरोहो दया अजीवेसु । परलोअमई अतहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं ॥२॥णिस्संगया य पच्छापुरकम्मविवजणं । चलोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ॥३॥तथाऽन्यैरप्युक्तं- पश्चात्कर्म पुर कर्मे (मई) र्यापथपरिग्रहः । दोषा ोते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥१॥ इत्यादि । गतः कायक्लेश: साम्प्रतं संलीनतोच्यते इयं चेन्द्रियसंलीनतादिभेदाच्चतुर्विधेति, उक्तं च-इंदिअकसायजोए पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तहय विवित्ता चरिआ पण्णत्ता वीअरागेहिं॥ १॥ तत्र श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः ।। शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणमिन्द्रियसंलीनतेति, उक्तं च- सद्देसु अ भद्दयपावएसु सोअविसयमुवगएसु। तुट्टेण व रुट्टेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१॥एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्यम्, यथा- रूवेसु अभद्गपावएसु इत्यादि । उक्तेन्द्रियसँल्लीनता, अधुना। कषायसंलीनता-सा च तदुदयनिरोधोदीर्णविफलीकरणलक्षणेति, उक्तं च- उदयस्सेव निरोहो उदयं पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं. इत्थ कसायाणं कसायसंलीनता एसा ॥१॥ इत्यादि । उक्ता कषायसंलीनता, साम्प्रतं योगसंलीनता-सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणमित्येवंभूतेति, उक्तं च-अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाण। कज्जम्मि या विहिगमण जोए संलीणया भणिआ॥१॥ इत्यादि । उक्ता योगसंलीनता, अधुना विविक्तचर्या, सा पुनरियं- आरामुजाणादिसु 0वीरासनमुत्कटुकासनं च लोचादिकश्व विज्ञेयः । कायक्लेश: संसारवासनिर्वेदहेतुरिति ।। १ ।। वीरासनादिषु गुणाः कायनिरोधो दया च जीवेषु । परलोकमति तथा बहुमानश्चैवान्येषाम् ।। २।। निस्संगता च पश्चात्पूर्वकर्मविवर्जनं च लोचगुणाः । दुःखसहत्वं नरकादिभावनया च निर्वेदः ।। ३ ।। ॐ इन्द्रियकषाययोगान् प्रतीत्य सलीनता मुणितव्या । तथा च विविक्ता चर्या प्रज्ञप्ता वीतरागैः।। १।। 0 शब्देषु च भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु । तुष्टेन वा रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ।। १00रूपेषु च भद्रकपापकेषु । उदयस्यैव निरोध उदयप्राप्तानां वाऽफलीकरणम् । यदत्र कषायाणां कषायसलीनतैषा ॥१॥0 अप्रशस्तानां निरोधो योगानामुदीरणं च कुशलानाम् । कार्ये च विधिगमनं योगे संलीनता भणिता ॥१॥ 0 आरामोद्यानादिषु - ॥ ४६॥ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४७॥ थीपसुपंडगविवज्जिएसु जं ठाणं । फलगादीण य गहणं तह भणियं एसणिज्जाणं॥ १॥गता विविक्तचर्या, उक्ता संलीनता। बज्झो । तवो होही इति एतदनशनादि बाहां तपो भवति, लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायत इतिकृत्वा बाहामित्युच्यते विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियत इतिकृत्वा इति गाथार्थः ।। उक्तं बाह्य तपः, इदानीमाभ्यन्तरमुच्यते । तच्च प्रायश्चित्तादिभेदमिति, आह । नियुक्ति: ४८ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् अभ्यन्तर प्रतिपादनम्। नि०-पायच्छित्तं विणओ वेआवच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोऽवि अ अन्भिंतरओ तवो होइ।। ४८॥ तत्र पापं छिनत्तीति पापच्छित्, अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति, उक्तं च-पावं छिंदइ जम्हा : स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितेषु यत्स्थानम् । फलकादीनां च ग्रहणं तथा भणितमेषणीयानाम्॥१॥ ॐ तत्थ आलोयणा नाम अवस्सकरणिजेसु भिक्खायरियाइएसु जइवि अवराहो नस्थि तहावि अणालोइए अविणओ भवइत्ति काऊण अवस्सं आलोएतव्वं, तो जइ किंचि अणेसणाइअवराहं सरेजा, सो वा आयरिओ किंचि सारेजा, तम्हा आलोएयव्वं, आलोयणंति वा पगासकरणति वा अक्खणंति वा विसोहित्ति वा एगहा। इदाथि पडिकमणं, तं च मिच्छामिदुकडसहुत्तं भवइ, तंजहाकोइ साहू भिक्खायरियाए गच्छन्तो कहापमत्तो इरियं न सोहेइ, न य तंमि समए किंचि पाणविराहणं कयं, ताहे सो मिच्छादुक्कडेणेव सुज्झइ, एवं सेससमितीसुवि गुत्तीसु, जत्थ असमितित्तण कयणय महन्तो अवराहो भवे मिच्छादुक्कडेणेव सुद्धी भवतित्तितदुभयं नाम जत्थ आलोयणं पडिकमणं एगिदियाणं जीवाणं संघट्टपरितावणादिषु कएसु आउत्तस्स भवन्ति। विवेगो नाम परिहावणं, तं च आहारोवहिसेजासणाणसंसत्ताण उग्गमादीसु य कारणेसु असुद्धाणं भवइ । इदाणिं काउस्सग्गे, सो यह काउस्सग्गोत्ति वा विउस्सगोत्ति वा एगट्ठा, सो य काउस्सगो इमेहिं किजइ तंजहा- णावानईसतारे गमणागमणसुमिणदसणआवस्सगादिसु कारणेसु बहुविहो भवइ। इदाणिं तवो, सो पंचराइंदियाणि आदिकाऊण बहवियप्पो भवइत्ति। तथा छेदो नाम जस्स कस्सविह साहणो तहारूवं अवराहणाऊण परियाओ छिनइ, तंजहाअहोरत्तं वा पक्खं वा मासं वा संवच्छरं वा, एवमादिच्छेदो भवति । मूले नाम सो चेव से परियाओ मूलतो छिज्जइ। अणवठ्ठप्पो नाम सबच्छेदपत्तो किंचि कालं करेऊण तवं तत्तो पुणोवि दिक्खा कजइ । पारंचो नाम खेत्तातो देसतो वा निच्छुभइ । छेदअणवट्ठमूलपारंचियाणि देसं कालं संजमविराहणं पुरिसं पडुच दिज्जतित्ति पच्छित्तं गतं पापं छिनत्ति यस्मात् . ॥४७ For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४८॥ प्रथममध्ययनं दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्ति: ४८ प्रतिपादनम्। पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा। पाएण वावि चित्तं विसोहई तेण पच्छित्तं ॥१॥तत्पुनरालोचनादि दशधेति, उक्तंच- आलोयणपडिक्कमणे । मीसविवेगेतहा विउस्सगे। तवछेअमूलअणवठ्ठया य पारंचिए चेव॥१॥भावार्थोऽस्या आवश्यकविशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तम्, साम्प्रतं विनय उच्यते- तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय इति, उक्तं च-विनयफलंशुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफल श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः॥१॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः । क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम्॥२॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ३॥ स च । ज्ञानादिभेदात् सप्तधा,उक्तं च-णाणे दसणचरणे मणवइकाओवयारिओ विणओ।णाणे पंचपगारो मइणाणाईण सद्दहणं॥१॥ भत्ती । तह बहुमाणो तद्दिद्वत्थाण सम्मभावणया। विहिगहणब्भासोवि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ॥ २॥ सुस्सूसणा आणासायणा य विणओ अदंसणे दुविहो । दसणगुणाहिएसुंकजइ सुस्सूसणाविणओ॥३॥ सक्कारब्भुटाणे सम्माणासण अभिग्गहो तह य। आसणअणुप्पयाणं किइकम्म अंजलिगहो अ॥४॥ एतस्सणुगच्छणया ठिअस्स तह पवासणा भणिया। गच्छताणुव्वयणं एसो सुस्सूसणाविणओ॥ ५॥ इत्थ य सक्कारो- थुणणवंदणादि अब्भुट्ठाणं-जओ दीसइ तओ चेव कायव्वं, संमाणो वत्थपत्तादीहिं प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥१॥ आलोचना प्रतिक्रमणं मिश्रं विवेकस्तथा व्युत्सर्गः। तपश्छेदो मूलमनवस्थाप्यं उच पाराश्चिकं चैव ॥१॥ अत एव नात्र चूर्णाविव स्थानदर्शनम्। जाने दर्शने चरणे मनोवाक्कायेषु औपचारिको विनयः । ज्ञाने पञ्चप्रकारः मति-ज्ञानादीनां श्रद्धानम् ॐ॥१॥ भक्तिस्तथा बहुमानः तद्दृष्टार्थानां सम्यग्भावनता। विधिग्रहणमभ्यासोऽपि च एष विनयो जिनाभिहितः ॥ २॥ शुश्रूषा अनाशातना च विनयः दर्शने द्विविधः ।। दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषाविनयः ॥ ३ ॥ सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मानमासनाभिग्रहस्तथा च । आसनानुप्रदानं कृतिकर्माञ्जलिग्रहश्च ।। ४ । आगच्छतोऽनुगमनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता । गच्छतोऽनुव्रजनमेष शुश्रूषाविनयः ॥५॥ 0 अत्र च सत्कार:- स्तवनबन्दनादि अभ्युत्थानं- यत्र दृश्यते तत्रैव कर्त्तव्यं सन्मान वस्त्रपात्रादिभिः - ॥४८॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् 1॥४९॥ अभ्यन्तर पूअणं, आसणाभिग्गहो पुण- अच्छंतस्सेवायरेणासणाणयणपुव्वगं उवविसह एत्थति भणणंति, आसणअणुप्पदाणं तु । प्रथममध्ययन ठाणाओ ठाणं संचारणं, किइकम्मादओ पगडत्था। अणासायणाविणओपुण पण्णरसविहो, तंजहा-तित्थगर धम्म आयरिअ दुमपुष्पिका, सूत्रम् वायगे थेर कुलगणे संघे। संभोइय किरियाए मइणाणाईण य तहेव ॥१॥ एत्थ भावणा-तित्थगराणमणासायणाए तित्थगरपन्नत्तस्स नियुक्तिः ४८ धम्मस्स अणासायणाए। एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम्। कायव्वा पुण भत्ती बहुमाणो तह य वण्णवाओ । अरिहंतमाझ्याणं केवलणाणावसाणाणं॥१॥ उक्तो दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनयः सामाझ्याइचरणस्स सदहाणं तहेव कारणं । संफासणं परूवणमह पुरओ भव्वसत्ताणं ॥१॥मणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि। अकुसलमणोनिरोहो कुसलाण उदीरणं तहय॥२॥ इदानीमौपचारिकविनयः, स च सप्तधा, अब्भासऽच्छणछंदाणुवत्तणं कयपडिक्किई तहय। कारियणिमित्तकरणं दुक्खत्तगवसणा तहय ॥१॥ तह देसकालजाणण सव्वत्थेसु तहयणुमई भणिया। उवआरिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥२॥ तत्थ अन्भासऽच्छणं पूजनं आसनाभिग्रहः पुनः तिष्ठत एवादरेणासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणन आसनानुप्रदान तुस्थानात् स्थानं सवारणम्, कृतिकर्मादयः प्रसिद्धाः । अनाशातनाविनयः पुनः पञ्चदशविधस्तद्यथा-तीर्थकरधर्माचार्यवाचके स्थविरकुलगणे सङ्के। साम्भोगिके क्रियायां च मतिज्ञानादीनां च तथैव ॥१॥0 किरिआ णाम अत्थवाओ भण्णति-तं जहा अस्थि माया अस्थि जीवा एवमादी, जो एवं ण सद्दहइ विवरीय वा पण्णवेइ तेण किरिआ आसादिता भवति। अत्र भावना- तीर्थकराणामनाशातनया तीर्थकरप्रज्ञास्य धर्मस्यानाशातनया। 0 कर्त्तव्या पुनर्भक्तिर्बहुमानस्तथैव वर्णवादश्च ।अर्हदादीनां केवलज्ञानावसानानाम् ॥१॥0 सामायिकादिचरणानां श्रद्धानं तथैव कायेन । संस्पर्शनं प्ररूपणमथ पुरतो भव्यसत्त्वानाम् ॥ १ ॥ मनोवाकायिकविनयः आचार्यादीनां सर्वकालमपि। अकुशलमनोनिरोधः कुशलानामुदीरणं तथैव ॥ २॥ ७ अभ्यासस्थानं छन्दोऽनुवर्त्तनं कृतप्रतिकृतिस्तथैव । कारितनिमित्तकरणं दुःखार्तगवेषणं तथा च ॥ १॥ तथा देशकालज्ञानं सर्वार्थेषु तथा चानुमतिर्भणिता। औपचारिकस्तु विनय एष भणितः समासेन ॥२॥ तत्र अभ्यासस्थानं D★ आयरिआईण अद्धाणपरिस्संताणं सीसा उ आरब्भ जाव पायतला ताव परमेण आदरेण विस्सामणं चू० । ॥४२ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥५०॥ आएसत्थिणा णिच्चमेव आयरियस्स अब्भासे अदूरसामत्थे अच्छेअव्वं, छंदोऽणुवत्तियव्वो, कयपडिक्किई णाम पसण्णा प्रथममध्ययन आयरिया सुत्तत्थतदुभयाणि दाहिंति ण णाम निज्जरत्ति आहारादिणा जइयव्वं, कारियणिमित्तकरणं सम्ममत्थपदमहेन्जाविएण द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ विणएण विसेसेण वडिअव्वं, तयट्ठाणुट्ठाणं च कायव्वं, सेस भेदा पसिद्धा । उक्तो विनयः, इदानीं वैयावृत्त्यं-तत्र व्यापृतभावो। नियुक्तिः ४८ वैयावृत्त्यमिति, उक्तंच-"वेआवच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं । अण्णादियाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो॥१॥आयरि अभ्यन्तर तप:उवज्झाए थेर तवस्सी गिलाणसेहाणं । साहम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥ २॥ तत्थ आयरिओ पंचविहो, तंजहा प्रतिपादनम्। पव्वावणायरिओ दिसायरिओ सुत्तस्स उद्देसणायरिओ सुत्तस्स समुद्देस्सणायरिओ वायणायरिओत्ति, उवज्झाओ पसिद्धो । चेव, थेरो नाम जो गच्छस्स संठितिं करेइ, जाइसुअपरियायाइसु वा थेरो, तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ, गिलाणो नाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्वइओ, साहम्मिओ णाम एगो पवयणओ ण लिंगओ, एगो लिंगओ ण ॐ आदेशार्थिना नित्यमेवाचार्यस्य अभ्यासे- अदूरासन्ने स्थातव्यम्, छन्दोऽनुवर्तितव्यः, कृतप्रतिकृति म-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रमर्थं तदुभयं वा दास्यन्ति न नाम निर्जरेति आहारादिना यतितव्यं कारितनिमित्तकरणं सम्यगर्थपदमध्यापितमस्माकं विनयेन विशेषेण वर्तितव्यम्, तदनुष्ठानं च कर्त्तव्यम्, शेषाः भेदाः प्रसिद्धाः। O8 जिनस्य धर्मो जिनधर्मः, विनयधर्मः । उक्तं च- मूलाउ खंघप्पभव्वो दुमस्स इत्यादी, यतः विणओ सासणे मूलं विणओ निव्वाणसाहगो। विणयाउ विप्पमुक्कस्स कओ धम्मो कओ तवो ॥१॥ विणयाउ नाणं नाणाउ दसणं दसणाउ चरणं तु । चरणेहितो मुक्खो मुक्खे सुक्ख अणाबाह ॥ २॥ इति प्र० विनयात्परं। 0 वैयावृत्त्यं व्यापृतभावः इह धर्मसाधननिमित्तम्, अन्नादिकानां विधिना सम्पादनमेष भावार्थः ॥ १॥ आचार्य उपाध्याये स्थविरे तपस्विनि ग्लाने शैक्षके । साधर्मिके कुले गणे सङ्के । सङ्गतं तदिह कर्त्तव्यम् ॥ २॥ तत्राचार्यः पञ्चविधः । तद्यथा-प्रव्राजनाचार्यः दिशाचार्य सूत्रस्योद्देशनाचार्य: सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यः वाचनाचार्य इति, उपाध्यायः प्रसिद्ध एव, स्थविरो नाम यो गच्छस्य संस्थितिं करोति, जाति (जन्म) श्रुतपर्यायैर्वा स्थविरः, तपस्वी नाम य उग्रतपश्चरणरतः, ग्लानो नाम रोगाभिभूतः, शैक्षको नाम योऽधुना प्रव्रजितः, साधर्मिको नाम एकः प्रवचनतो न लिङ्गतः, एको लिङ्गतो न For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् अभ्यन्तरतप:प्रतिपादनम्। पवयणओ, एगो लिंगओ वि पवयणओ वि, एगोण लिंगओण पवयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चेव । इदानी सज्झाओ, प्रथममध्ययनं सो अ पंचविहो-वायणा पुच्छणा परिअट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा, वायणा नाम सिस्सस्स अज्झावणं, पुच्छणा सुत्तस्स। दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ अत्थस्स वा हवइ, परिअट्टणा नाम परिअट्टणंति वा अब्भस्सणंति वा गुणणंति एगट्ठा, अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअट्टेइ ।। नियुक्ति: ४८ णो वायाए, धम्मकहाणाम जो अहिंसाइलक्खणं सव्वण्णुपणीअंधम्म अणुओगंवा कहेइ, एसा धम्मकहा। गतः स्वाध्यायः, इदानीं ध्यानमुच्यते- तत्पुनरा दिभेदाच्चतुर्विधम्, तद्यथा-आर्तध्यानं रौद्रध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चेति, तत्र राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यानं तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥१॥ संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्व, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तुरौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥ २॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता। पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति । तज्ज्ञाः॥३॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्गखानि, सङ्कल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः सदा त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तम प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥ ४॥ आर्ते तिर्यगितिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सदा, धर्मे देवगतिः शुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः। तस्माद् व्याधिरुगन्तके हितकरे संसारनिर्वाहके, ध्याने शुक्लवरे रजःप्रमथने कुर्यात् प्रयत्नं बुधः॥५॥ इति । उक्तं समासतो ध्यानम्, विस्तरतस्तु ध्यानशतकादवसेयमिति।साम्प्रतं व्युत्सर्गः,सच द्विधा- द्रव्यतो भावतः, द्रव्यतश्चतुर्धा- गणशरीरोपध्याहारभेदात्,। - प्रवचनतः, एको लिङ्गतोऽपि प्रवचनतोऽपि, एको न लिङ्गतो न प्रवचनतः, कुलगणसवाः प्रसिद्धाश्चैव । इदानीं स्वाध्यायः, स च पश्चविधः- वाचना प्रच्छना ॐ परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा धर्मकथा । वाचना नाम शिष्यस्याध्यापनम् । प्रच्छना सूत्रस्य अर्थस्य वा भवति । परिवर्तना नाम परिवर्तनमिति वा अभ्यसनमिति वा गुणनमिति वा 8 एकार्थाः । अनुप्रेक्षा नाम यो मनसा परिवर्त्तयति न वाचा। धर्मकथा नाम योऽहिंसादिलक्षणं सर्वज्ञप्रणीतं धर्ममनुयोग वा कथयति, एषा धर्मकथा । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥५२॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम्१ नियुक्ति:४९ जिनवचनस्याजायुक्त्युभयसिद्धत्वम्। भावतश्चित्रः, क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति, उक्तं च-दव्वे भावे अतहा दुहा विसग्गो चउब्विहो दव्वे। गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहादिचाओ ति॥१॥ काले गणदेहाणं अतिरित्तासुद्धभत्तपाणाणं । कोहाइयाण सययं कायव्चो होइ चाओ त्ति ॥ २॥ उक्तो ? व्युत्सर्गः, अभिंतरओ तवो होइ त्ति, इदं प्रायश्चित्तादि व्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च भावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्गत्वाचाभ्यन्तरं तपो भवतीति गाथार्थः ।। शेषपदानां प्रकटार्थत्वात् सूत्रपदस्पर्शिका नियुक्तिकृता ।। नोक्ता, स्वधिया तु विभागे (न) स्थापनीयेति । अत्राह-'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट' मित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपोग्रहणमयक्तम. तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाद्धर्मस्य च कार्यत्वात्कार्य। कारणयोश्च कथञ्चिद्भेदात्, कथञ्चिद्भेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात्, उक्तं च-पत्थि पुढवीविसिट्ठो घडोत्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो। जंपुण घडुत्ति पुव्वं नासी पुढवीइ तो अन्नो ॥१। इत्यादि, गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्स्वरूपज्ञापनार्थवाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण ।। आह- अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाज्ञासिद्धमाहोस्विद्युक्तिसिद्धमपि?, अत्रोच्यते, उभयसिद्धम्, कुतो?, जिनवचनत्वात्, तस्य च विनेयसत्त्वापेक्षयाऽऽज्ञादिसिद्धत्वात्, आह च नियुक्तिकारः नि०-जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं हेऊऽवि कहिंचि भण्णेना॥ ४९।।। जिना प्राग्निरूपितस्वरूपास्तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव- सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव अविचार्यमेवेत्यर्थः, कुतः?, जिनानां रागादिरहितत्वात्, रागादिमतश्च सत्यवचनासम्भवात्, उक्तं च-रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्त ॐ द्रव्ये भावे च तथा द्विधा व्युत्सर्गः चतुर्विधो द्रव्ये । गणदेहोपधिभक्तेषु भावे क्रोधादित्याग इति ॥ १॥ काले गणदेहयो अतिरिक्ताशुद्धभक्तपानानाम् । क्रोधादिकानां सततं कर्त्तव्यो भवति त्याग इति ।। २।। एनास्ति पृथ्वीविश्लिष्टो घट इति यत्तेन युज्यते अनन्यः । यत्पुनर्घट इति पूर्वं नासीत्पृथिव्यास्ततोऽन्यः ।। १ ।। ॥५२॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥५३॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्ति: ५० पजावयवदशावयवाः। स्यान्तकारणं किं स्यात्? ॥१॥इत्यादि, तथापि तथाविधश्रोत्रपेक्षया तत्रापि भण्यते क्वचिदुदाहरणम, तथा आश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि क्वचिद्भण्यते, न तु नियोगतः, तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः, किंविशिष्टं श्रोतारं?-पटुधियं मध्यमधियं च, न तु मन्दधियमिति, तथाहि-पटुधियो हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थाय गतिर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते, न त्वितर इत्यर्थः।। तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते, दृष्टान्त इत्यर्थः, साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः, इह च हेतुमुअल्लङ्य प्रथममुदाहरणाभिधानं न्यायानुगतत्वात्तद्बलेनैव हेतोःसाध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः क्वचिद्धेतुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थ वा, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपद्गलानां गत्यपष्टम्भको धर्मास्तिकायः, चक्षुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत्, उक्तं च- जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥११॥ तथा क्वचिद्धेतुरेव केवलोऽभिधीयते न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वो, विशिष्टचिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ।। तथा नि०- कत्थई पंचावयवं दसहा वा सव्वहान पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भण्णइ हंदी सविआरमक्खायं ।। ५०॥ श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य क्वचित्पश्चावयवं दशधा वे ति क्वचिद्दशावयवम्, सर्वथा गुरुश्रोत्रपेक्षया न प्रतिषिद्धमुदाहरणाद्यभिधानमिति वाक्यशेषः, यद्यपि च न प्रतिषिद्धं तथाप्यविशेषेणैव, न च पुनः सर्वं भण्यते उदाहरणादि, किमित्यत आह-हंदी सविआरमक्खायं हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति?, यस्मादिहान्यत्र चशास्त्रान्तरे 'सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातं साकल्यत उदाहरणाद्यभिधानमिति गम्यते, पञ्चावयवाश्च प्रतिज्ञादयः, यथोक्तं- प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः (न्यायद०११-३२) । दश पुनः प्रतिज्ञाविभक्त्यादयः, वक्ष्यति च- ते उपइण्णविहत्ती इत्यादि । प्रयोगाश्चैतेषां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्याम इति गाथार्थः ।। साम्प्रतं यदुक्तं- जिणवयण सिद्ध चेव भण्णई कत्थई उदाहरणं इत्यादि, तत्रोदाहरणहेत्वोः ॥५३॥ For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥५४॥ स्वरूपाभिधित्सयाऽऽह प्रथममध्ययनं नि०- तत्थाहरणं दुविहं चउव्विहं होइ एकमेक्कं तु । हेऊ चउव्विहो खलु तेण उ साहिजए अत्थो ।। ५१॥ दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ । तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थो निर्धारणार्थो वा, उदाहरणं पूर्ववत्, तच्च मूलभेदतो द्विविधं द्विप्रकारम्, चरितकल्पितभेदात् । नियुक्तिः उत्तरभेदतस्तु चतुर्विधं भवति, तयोर्द्वयोरेकैकमुदाहरणमाहरण १ तद्देश २ तद्दोषो ३ पन्यास ४ भेदात्, तच्च वक्ष्यामः, तथा ५१-५२ हिनोति- गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, स चतुर्विधः चतुष्प्रकारः, खलुशब्दो व्यक्तिभेदादनेकविधश्चेति । उदाहरणहेतु विशेषणार्थः, तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात् तेन पुनर्हेतुना साध्यार्थाविनाभावबलेन साध्यते निष्पाद्यते ज्ञाप्यते वा अर्थः प्रतिज्ञार्थ । उदाहरण। इति गाथार्थः ।। साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणहितायोदाहरणैकार्थिकप्रतिपिपादयिषयाऽऽह कार्थिकाचा नियुक्ति: ५३ नि०-नायमुदाहरणंतिअ दिवंतोवम निदरिसणं तहय। एगटुं तं दुविहं चउव्विहं चेव नायव्वं ।। ५२। चरितज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्, अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः, तथोदाह्रियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ । कल्पितो इति उदाहरणम्, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, अतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः, उपमीयतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम्, तथा च निदर्शनं निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दान्तिक एवार्थ इति निदर्शनम्, एगह ति इदमेकार्थं एकार्थिकजातम्, इदं च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि, सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदेकत्वाद्, अत एव सामान्यस्यापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनाभिधानं एकार्थमिति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्, गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः ।। साम्प्रतं यदुक्तं तत्रोदाहरणं द्विविध' मित्यादि, तद् द्वैविध्यादिप्रदर्शनायाह नि०- चरिअंच कप्पिअंवा दुविहं तत्तो चउविहेक्केकं । आहरणे तसे तद्दोसे चेवुवन्नासे ।। ५३।। दाहरण तहष्टान्तवा For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥५५ ॥ www.kobatirth.org चरितं च कल्पितं चे (वे ) ति द्विविधमुदाहरणम्, तत्र चरितमभिधीयते यद्वृत्तम्, तेन कस्यचिद् दान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते, तद्यथा दुःखाय निदानम्, यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते, तेन च कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रत्तिपत्तिर्जन्यते, यथा- पिष्पलपत्रैरनित्यतायामिति, उक्तं च- जह तुब्भे तह अम्हे तुब्भेवि अ होहिहा जहा अम्हे। अप्पाहेइ पडतं पंडुअपत्तं किसलयाणं ॥ १ ॥ णवि अत्थि गवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं। उवमा खलु एस कया भविअजणविबोहणट्टाए ।। २ ।। इत्यादि । आह- इदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते, तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति, उक्तं च साध्येनानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधर्म्येतरो द्विधा ॥ १ ॥ अस्य पुनस्तल्लक्षणाभावात् कथमुदाहरणत्वमिति ?, अत्रोच्यते, तदपि कथञ्चित्साध्यानुगमादिना दान्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम्, इहापि च साऽस्त्येवेतिकृत्वा किं नोदाहरणतेति ? साध्यानुगमादि लक्षणमपि सामान्यविशेषोभयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथञ्चिद्भेदवादिन एव युज्यते, नान्यस्य, एकान्तभेदाभेदयोस्तदभावादिति, तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थभेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वादिप्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुयोग्येव, भिन्नवस्तुधर्मत्वात्, सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वाद्, इत्थमपि च तद्बलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदभावो भावनीय इति, अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मसामर्थ्यात्ततद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवति, अन्यथा ततस्तस्मिंस्तत्प्रतिपत्त्यसम्भव इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं • यथा यूयं तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयम्। उपालभते पतत् पाण्डुरपत्रं किशलयान् ॥ १ ॥ नैवास्ति नैव भविष्यति उल्लापः किशलयपाण्डुरपत्रयोः । उपमा खल्वेषा कृता भविकजनविबोधनार्थाय ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ५३ चरितकल्पितो दाहरणं तदृष्टान्तश्च । ।। ५५ ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥५६॥ सत्रम प्रस्तुमः- चरितंच कल्पितंचे वे) त्यनेन विधिना द्विविधम्, पुनश्चतुर्विधं- चतुष्प्रकारमेकैकम, कथमत आह- उदाहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यास इति। तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एव, तस्य देशस्तद्देशः, एवं तद्दोषः, उपन्यसनमपन्यासः,सच तद्वस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः ।। साम्प्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आह नियुक्ति: ५४ नि०-चउहा खलु आहरणं होइ अवाओ उवाय ठवणाय। तहय पड़प्पन्नविणासमेव पढमं चउविगप्पं ॥५४॥ उदाहरणस्य चतुर्भेदाः चतुर्धा खलु उदाहरणं भवति, अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे भेदा भवन्ति, तद्यथा- अपायः उपायः स्थापना च । प्रतिभेदाच। तथा च प्रत्युत्पन्नविनाशमेवेति, स्वरूपमेषां प्रपश्चन भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति, तथा चाह- प्रथमं अपायोदाहरणं चतुर्विकल्प नियुक्ति: ५५ द्रव्यापायेचतुर्भेदम् । तत्रापायश्चतुःप्रकारः, तद्यथा-द्रव्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो भावापायश्च इति गाथार्थः ।। तत्र द्रव्यादपायो । वणिग्भातद्रव्यापायः, अपाय:- अनिष्टप्राप्तिः द्रव्यमेव वा अपायो द्रव्यापायः, अपायहेतुत्वादित्यर्थः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयम् । साम्प्रतं द्रव्यापायप्रतिपादनायाह नि०-दव्वावाए दोन्नि उ वाणिअगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएक्कमेक्कं दहमि मच्छेण निव्वेओ॥५५॥ द्रव्यापाये उदाहरणं द्वौ तु, तुशब्दादन्यानि च, वणिजौ भ्रातरौ धननिमित्तं धनार्थं वधपरिणतौ एकैकं अन्योऽन्यं हदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदं एगंमि संनिवेसे दो भायरो दरिद्दप्पाया, तेहिं सोरटुं गंतूण साहस्सिओणउलओ रूवगाणं विढविओ, ते असयंगाम संपत्थिया, इंता तंणउलयं वारएण वहंति, जया एगस्स हत्थे तदा 0 एकस्मिन् सन्निवेशे द्वौ भ्रातरौ दरिद्रप्रायौ, ताभ्यां सौराष्ट्रं गत्वा साहसिको नकुलको रूपकाणामर्जितः, तौ च स्वकं ग्राम संप्रस्थितौ, आयान्ती तं नकुलकं वारकेण वहतः, यदा एकस्य हस्ते तदा कथानकम्। ILE For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥५७॥ इयरो चिंतेइ-'मारेमि णवरमेए रूवगा ममं होंतु' एवं बीओ चिंतेइ जहाऽहं एअंमारेमि ते परोप्परं वहपरिणया अज्झवस्संति । प्रथममध्ययन तओ जाहे सग्गामसमीवं पत्ता तत्थ नईतडे जिट्टेअरस्स पुणरावित्ति जाया-'धिरत्थु मम, जेण मए दव्वस्स कए भाउविणासो दुमपुष्पिका, नियुक्ति: ५५ चिंतिओ' परुण्णो, इअरेण पुच्छिओ, कहिओ, भणई- ममंपि एयारिसं चित्तं होतं, ताहे एअस्स दोसेणं अम्हेहिं एअंक द्रव्यापायेचिंतिअंति काउं तेहिं सोणउलओ दहे छूढो, ते अ घरं गया, सो अणउलओ तत्थ पडतो मच्छएण गिलिओ, सो अमच्छो । वणिग्भ्रातृ कथानकम्। मेएण मारिओ, वीहीए ओयारिओ। तेसिं च भाउगाणां भगिणी मायाए वीहिं पट्ठविआ जहा मच्छे आणेह जं भाउगाणं ते सिझंति, ताए अ समावत्तीए सो चेव मच्छओ आणीओ, चेडीए फालिंतीए णउलओ दिट्ठो, चेडीए चिंतिअं- एस णउलओ मम चेव भविस्सइत्ति उच्छंगे कओ, ठविजंतो य थेरीए दिट्ठो णाओ अ, तीए भणियं- किमेअंतुमे उच्छंगे कयं?, सावि लोहं गया ण साहइ, ताओ दोवि परोप्परं पहयातो, सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आहया जेण तक्खणमेव जीवियाओ ववरोविया, तेहिं तु दारएहिं सो कलहवइअरोणाओ, सणउलओ दिट्ठो, थेरीगाढप्पहारा पाणविमुक्का निस्स8 इतरश्चिन्तयति- मारयामि केवलमेते रूप्यका मम भवन्तु, एवं द्वितीयश्चिन्तयति- यथाऽहमेतं मारयामि, तौ परस्परं वधपरिणतावघ्यवस्यतः, ततो यदा स्वग्रामसमीप प्राप्तौ तत्र नदीतटे ज्येष्ठेतरस्य पुनरावृत्तिर्जाता 'धिगस्तु मा येन मया द्रव्यस्य कृते भ्रातृविनाशश्चिन्तितः, प्ररुदितः, इतरेण पृष्टः, कथितः, भणति- ममाप्येतादृशं. चित्तमभूत, तदैतस्य दोषेणावाभ्यामेतचिन्तितमितिकृत्वा ताभ्यां स नकुलको हदे क्षिप्तः, तौ च गृहं गतौ। स च नकुलकस्तत्र पतन् मत्स्येन गिलितः, स च मत्स्यः श्वपचेन मारितः, वीथ्यामवतारितः। तयोर्धात्रोर्भगिनी च मात्रा वीर्थी प्रस्थापिता यथा मत्स्यानानय यद्भातृभ्यां ते सिद्धयन्ति, तया च समापत्त्या स एव । मत्स्य आनीतः, चेट्या विदारयन्त्या नकुलको दृष्टः, चेट्या चिन्तितं- एष नकुलको ममैव भविष्यति इति उत्सङ्गे कृतः, स्थाप्यमानश्च स्थविश्या दृष्टो ज्ञातश्च, तया भणितकिमेतत्त्वयोत्सने कृतम्?, सापि लोभं गता न साधयति, ते द्वे अपि परस्परं प्रहते, सा स्थविरा तया चेट्या तादृशे मर्मप्रदेशे आहता येन तत्क्षणमेव जीविताद् व्यपरोपिता, ताभ्यां तु दारकाभ्यां स कलहव्यतिकरो ज्ञातः, स नकुलको दृष्टः, स्थविरा गाढप्रहारा प्राणविमुक्ता निसृष्टं 20 भवितव्यतया वि० प्र०। ॥५७ For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥५८॥ भावापायेच धरणितले पडिया दिट्ठा, चिंतिअं च णेहिं- इमो सो अवायबहुलो अ(ण)त्थोत्ति । एवं दवं अवायहेउत्ति ॥ लौकिका । प्रथममध्ययन अप्याहुः- अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम् ॥ १॥ अपायबहुलं पापं, ये दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ परित्यज्य संश्रिताः । तपोवनं महासत्त्वास्ते धन्यास्ते तपस्विनः ॥ २॥ इत्यादि। एतावत्प्रकृतोपयोगि। तओ तेसिं तमवायं। नियुक्ति: ५६ पिच्छिऊण णिव्वेओ जाओ, तओ तं दारियं कस्सइ दाऊण निविण्णकामभोआ पव्वइयत्ति गाथार्थः॥ इदानी क्षेत्राद्य- क्षेत्रापाये दशारवर्गस्य पायप्रतिपादनायाह कालापाये नि०- खेतंमि अवक्कमणं दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो अकाले भावे मंइक्किआखवओ॥५६॥ द्वैपायनस्य तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, ततश्च क्षेत्रादपायः क्षेत्रमेव वा तत्कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणं- अपसर्पणं दशारवर्गस्य । मण्डुकिकादशारसमुदायस्य भवति 'अपरेण' अपरत इत्यर्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्च वक्ष्यामः। द्वैपायनश्व काले द्वैपायनऋषिः, काल इत्यत्रापि कालादपाय: कालापायः काल एव वा तत्कारणत्वादिति, अत्रापि भावार्थः कथानकगम्य एव, तच्च वक्ष्यामः। भावे मंडुक्किकाक्षपक इत्यत्रापि भावादपायो भावापायः स एव वा तत्कारणत्वादिति, अत्रापि च भावार्थः कथानकादवसेयः, तच वक्ष्यामः इति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थ उच्यते- खित्तापाओदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो एत्थ महई कहा जहा हरिवंसे । उवओगियं चेव भण्णए, कंसंमि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयंति काऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो धरणीतले पतिता दृष्टा, चिन्तितं चाभ्या- अयं सोऽपायबहुलोर्थ इति । एवं द्रव्यमपायहेतुरिति। ततस्तयोस्तमपायं दृष्टा निर्वेदो जातः, ततस्तां दारिका कस्मैचिद्दत्त्वा निर्विण्णकामभोगी प्रव्रजिताविति। 0 क्षेत्रापायोदाहरणं-दशाहो हरिवंशराजानः, अत्र महती कथा, यथा हरिवंशे, औपयोगिकमेव भण्यते, कसे विनिपातिते सापार्य क्षेत्रमेतदितिकृत्वा जरासन्धराजभयेन दशाहवर्गो मथुरातोऽपक्रम्य द्वारवतीं गत इति। क्षपकस्य कथानकाः। ॥५८॥ For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 1५९॥ द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्ति: ५६ क्षेत्रापायेदशारवर्गस्य कालापाये द्वैपायनस्य भावापायेच महुराओ अवक्कमिऊण बारवई गओत्ति । प्रकृतयोजनां पुनर्नियुक्तिकार एवं करिष्यति, किमकाण्ड एव नः प्रयासेन? कालावाए उदाहरणं पुण- कण्हपुच्छिएण भगवयाऽरिट्ठणेमिणा वागरियं- बारसहिं संवच्छरेहिं दीवायणाओ बारवईणयरीविणासो, उज्जोततराए णगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिव्वायओमा णगरि विणासेहामित्ति कालावधिमण्णओ गमेमित्ति उत्तरावहंगओ, सम्मं कालमाणमयाणिऊण य बारसमे चेव संवच्छरे आगओ, कुमारेहिं खलीकओ, कयणिआणो देवो उववण्णो, तओ य णगरीए अवाओ जाओत्ति, णण्णहा जिणभासियंति । भावावाए उदाहरणं खमओ- एगो खमओ चेल्लएण समं भिक्खायरियं गओ, तेण तत्थ मंडुक्कलिया मारिआ, चिल्लएण भणिअं- मंडुक्कलिआ तए मारिआ, खवगो। भणइ- रे दुट्ठ सेह! चिरमइआ चेव एसा, ते गआ, पच्छा रत्तिं आवस्सए आलोइंताण खमगेण सा मंडुक्कलिया नालोइया । ताहे चिल्लएण भणिअं- खमगा! तं मंडुक्कलियं आलोएहि, खमओ रुट्ठो तस्स चेल्लयस्स खेलमल्लयं घेत्तूण उद्धाइओ, अंसियालए खंभे आवडिओ वेगेण इंतो, मओ य जोइसिएसु उववन्नो, तओ चइत्ता दिट्ठीविसाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो Oकालापाये उदाहरणं पुनः कृष्णपृष्ठेन भगवताऽरिष्टनेमिना व्याकृतं- द्वादशभिः संवत्सरेद्वैपायनाद् द्वारवतीनगरीविनाशः, उद्योततरायां नगाँ परम्परकेण श्रुत्वा । द्वैपायनपरिव्राजको। मा नगरी विनिनशमिति (विनाशयिष्यामीति) कालावधिमन्यत्र गमयामीति उत्तरापथं गतः । सम्यकालमानमज्ञात्वा च द्वादशे चैव संवत्सरे आगतः, कुमारैरुपसर्गितः, कृतनिदानो देव उत्पन्नः, ततश्च नगर्या अपायो जात इति, नान्यथा जिनभाषितमिति । भावापाये उदाहरणं क्षपकः- एकः क्षपकः शिष्येण समं भिक्षाचर्यां गतः, तेन तत्र मण्डूकिका मारिता, शिष्येण भणितं- मण्डूकिका त्वया मारिता, क्षपको भणति- रे दुष्टशैक्ष! चिरमृतैवैषा, ती गती, पवादात्रावावश्यके आलोचयतां क्षपकेण सा मण्डूकिका नालोचिता तदा शिष्येण भणितम्, क्षपक! तां मण्डूकिकामालोचय, क्षपको रुष्टस्तस्मै शिष्याय, श्लेष्ममल्लकं गृहीत्वोद्धावितः, अस्त्र्यालये स्तम्भे आपतितः वेगेनाऽऽयान्, मृतश्च ज्योतिष्केषूत्पन्नः, ततश्च्युत्वा दृष्टिविषाणां- कुले दृष्टिविषः सर्पो . मण्डकिकाक्षपकस्य कथानकाः ॥५९।। For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kalassagarsun Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||६०॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्ति: ५६ क्षेत्रापायेदशारवर्गस्य कालापाये द्वैपायनस्य भावापायेच मण्डकिका जाओ, तत्थ य एगेण परिहिंडतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खइओ, अहितुंडएण विजाओ सव्वे सप्पा आवाहिआ, मंडले पवेसिआ भणिया- अण्णे सव्वे गच्छंत. जेण पण रायपत्तो खइओ सो अच्छउ, सो गया, एगो ठिओ, सो भणिओअहवा विसं आवियह अहवा एत्थ अग्गिंमि णिवडाहि, सो अअगंधणो, सप्पाणं किल दो जाईओ- गंधणा अगंधणा य, ते अगंधणा माणिणो, ताहे सो अग्गिमि पविट्ठो, ण य तेण तं वंतं पच्चाइयं, रायपुत्तोवि मओ, पच्छा रण्णा रुटेण घोसावियं रज्जे- जो मम सप्पसीसं आणेड़ तस्साहं दीणारं देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेउं आढत्तो, तं च कुलं जत्थ सो खमओ उप्पन्नो तं जाइसरं रत्तिं हिंडइ दिवसओ न हिंडइ, मा जीवे दहेहामित्ति काउं, अण्णया आहितुंडिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रत्तिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिट्ठति दारे से ठिओ, ओसहिओ आवाहेइ, चिंतेइ- दिट्ठो मे कोवस्स विवाओ, तो जड़ अहं अभिमुहो णिगच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुच्छेण आढत्तो निम्फिडिउँ, जत्तियं निप्फेडेइ तावइयमेव आहिंडओ छिंदेइ, जाव सीसं छिण्णं, मओ य, सो सप्पो देवयापरिग्गहिओ, देवयाए रणो सुमिणए दरिसणं दिण्णं- जहा जातः, तत्र चैकेन परिहिण्डमानेन नगरे राजपुत्रः सर्पण दष्टः, आहितुण्डिकेन विद्यया सर्वे सर्पा आहूताः, मण्डले प्रवेशिता भणिताः- अन्ये सर्वे गच्छन्तु, येन पुना राजपुत्रो दष्टः स तिष्ठतु, सर्वे गताः एकः स्थितः, स भणितः अथवा विषमापिब, अथवाऽत्रानौ निपत, स चागन्धनः, सर्पाणां किल द्वे जाती- गन्धना अगन्धना च, ते अगन्धना मानिनः, तदा सोऽसौ प्रविष्टः, न च तेन तद्वान्तं प्रत्यापीतम्, राजपुत्रोऽपि मृतः, पश्चाद्राज्ञा रुष्टेन घोषित राज्ये- यो मम सर्पशीर्षमानयेत् तस्मायहं दीनारं ददामि, पश्चाल्लोको दीनारलोभेन सर्पान् मारयितुमादृतः, तच कुलं यत्र स क्षपक उत्पन्नस्तजातिस्मरं रात्रौ हिण्डते दिवसे न हिण्डते, मा जीवान् धाक्षमितिकृत्वा, अन्यदाऽहितुण्डकैः सर्पान् मार्गयद्भिः रात्रिचरेण परिमलेन तस्य क्षपकसर्पस्य बिलं दृष्टमिति द्वारे तस्य स्थितः, औषधित आह्वयति, चिन्तयति- दृष्टो मया कोपस्य विपाकः, ततो यद्यहमभिमुखो निर्गच्छामि तदा धक्ष्यामि, ततः पुच्छेनाहतो निःस्फिटितुम्, यावन्निस्फिटति- तावदेवाहितुण्डिकश्छिनत्ति, यावच्छीर्ष छिन्नम्, मृतश्च, स सर्पो देवतापरिगृहीतः, देवतया राज्ञः स्वप्ने दर्शनं दत्तं- यथा - कथानकाः। ॥ ६०॥ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||६१॥ मा सप्पे मारेह पुत्तो ते नागकुलाओ उव्वट्टिऊण भविस्सइ, तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेजाहि सो अखमगसप्पो मरित्ता प्रथममध्ययन तेण पाणपरिच्चाएण तस्सेव रण्णो पुत्तो जाओ, जाए दारए णामं कयं णागदत्तो, खुडलओ चेव सो पत्रइओ, सो अकिर। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुहालुओ, दोसीणवेलाए चेव आढवेइ भुंजिउं जाव सूरत्थमणवेलं, उवसंतो धम्मसद्धिओ य, नियुक्ति: ५६ तम्मि अ गच्छे चत्तारि खमगा, तंजहा- चाउम्मासिओ तिमासिओ दोमासिओ एगमासिओत्ति, रत्तिं च देवया वंदिउँ क्षेत्रापाये दशारवर्गस्य आगया, चाउम्मासिओ पढमट्ठिओ, तस्स पुरओ तेमासिओ तस्स पुरओ दोमासिओ, तस्स पुरओ एगमासिओ, ताण य कालापाये पुरओ खुडओ। सव्वे खमगे अतिक्कमित्ता ताए देवयाए खड्डओ वंदिओ, पच्छा ते खमगा रुट्ठा, निग्गच्छंती अ गहिया द्वैपायनस्य भावापायेच चाउम्मासिअखमएण पोत्ते, भणिआ य अणेण- कडपूयणि! अम्हे तवस्सिणो ण वंदसि, एयं कूरभायणं वंदसित्ति, सा मण्डकिकादेवया भणइ-अहं भावखमयं वंदामि, ण पूआसक्कारपरे माणिओ अवंदामि, पच्छा ते चेल्लेयं तेण अमरिसं वहंति, देवया । चिंतेइ-मा एए चेल्लयं खरंटेहिंति, तो सण्णिहिआचेव अच्छामि, ताहं पडिबोहेहामि, बितिअदिवसे अचेल्लओसंदिसावेऊण मा सर्पान् मारय पुत्रस्ते नागकुलादुद्वर्त्य भविष्यति, तस्य दारकस्य नागदत्तनाम कुर्याः । स च क्षपकसर्पो मृत्वा तेन प्राणपरित्यागेन तस्यैव राज्ञः पुत्रो जाता, जाते दारके नाम कृतं नागदत्तः, क्षुल्लक एव स प्रव्रजितः, स च किल तेन तिर्यगनुभावेनातीव क्षुधालुः, प्रभातवेलायामेवाद्रियते भोक्तुं यावत्सूर्यास्तमयनवेला, उपशान्तो धर्मश्रद्धिकश्च । तस्मिन् गच्छे चत्वारः क्षपकास्तद्यथा- चातुर्मासिकस्त्रैमासिको द्वैमासिक एकमासिक इति, रात्रौ च देवता वन्दितुमागता। रत्तिवएण रात्रिसत्केन वि० प०। चातुर्मासिकः प्रथमः स्थितः तस्य पुरतः त्रैमासिकः तस्य पुरतो त्रैमासिकः तस्य पुरत एकमासिकः, तेषां च पुरतः क्षुल्लकः । सर्वान् क्षपकानतिक्रम्य तया देवतया । क्षुल्लको बन्दितः, पक्षात्ने क्षपका रुष्टाः, निर्गच्छन्ती च गृहीता चातुर्मासिकेन पोते, भणिता चानेन- कटपूतने! अस्मास्तपस्विनो न वन्दसे, एनं कूरभाजनं- वन्दस इति, सा देवता भणति- अहं भावक्षपकं वन्दे, न पूजासत्कारपरान् मानिनश्च वन्दे, पश्चात्ते क्षुल्लकाय तेनामर्षं वहन्ति, देवता चिन्तयति- मैते क्षुल्लकं निर्भर्त्सयिष्यन्ति, ततः सन्निहितैव तिष्ठामि, तदाऽहं प्रतिबोधयिष्यामि, द्वितीयदिवसे च क्षुल्लकः संदिश्य क्षपकस्य कथानकाः। ॥६१।। For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥६२॥ नयोगमधि कुत्यापायनिरूपणम्। गओ दोसीणस्स, पडिआगओ आलोइत्ता चाउम्मासियखमगं णिमंतेइ, तेण पडिग्गहे से णिच्छूढं, चेल्लओ भणइ प्रथममध्ययन मिच्छामिदुक्कडं जं तुब्भे मए खेलमल्लओ ण पणामिओ, तं तेण उप्पराउ चेव फेडिता खेलमल्लए छूढं, एवं जाव तिमासिएणं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ जाव एगमासिएणं णिच्छूढं तं तेण तहा चेव फेडिअं, अडुयालित्ता लंबणे गिण्हामित्ति काउंखमएण चेल्लओ बाहं गहिओ, नियुक्ति: ५७ तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदीणमणसस्स विसुद्धपरिणामस्स लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएण चरणकरणाकेवलनाणं समुप्पण्णं, ताहे सा देवया भणइ-किह तुन्भे वंदिअव्वा? जेणेवं कोहाभिभूआ अच्छह, ताहे ते खमगा संवेगमावण्णा मिच्छामिदुक्कडंति, अहो बालो उवसंतचित्तो अम्हेहिं पावकम्मेहिं आसाइओ, एवं तेसिपि सुहज्झवसाणेणं केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं पसंगओ कहियं कहाणयं, उवणओ पुण कोहादिगाओ अपसत्थभावाओ दुग्गइए अवाओ त्ति ॥ परलोकचिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाह नि०-सिक्खगअसिक्खगाणं संवेगथिरट्टयाइ दोण्हंपि । दव्वाईया एवं दंसिजंते अवाया उ॥५७ ॥ शिक्षकाशिक्षकयोः अभिनवप्रव्रजितचिरप्रव्रजितयोः अभिनवप्रव्रजितगृहस्थयोर्वा संवेगस्थैयार्थं द्वयोरपि द्रव्याद्या एवं उक्तेन प्रकारेण वक्ष्यमाणेन वा दर्श्यन्ते अपाया इति, तत्र संवेगो-मोक्षसुखाभिलाषः स्थैर्य पुनः अभ्युपगतापरित्यागः, ततश्च कथं गतः पर्युषिताय, प्रत्यागत आलोच्य चातुर्मासिकक्षपक निमन्त्रयति, तेन पतद्गहे तस्य श्लेष्म निष्ठ्यूतम्, क्षुल्लको भणति- मिथ्या मे दुष्कृत यत्तुभ्यं मया श्लेष्ममल्लको न दत्तः, तत्तेनोपरित एव स्फेटयित्वा श्लेष्ममल्लके क्षितम्, एवं यावत् त्रिमासिकेन यावदेकमासिकेन निक्षिप्तम्, तत्तेन तथैव स्फेटितम्, आश्रित्य (बलात्कारं कृत्वा) लम्बनान् गृह्णामीतिकृत्वा क्षपकेन क्षुल्लको बाहौ गृहीतः, तदा तेन तस्य क्षुल्लकस्यादीनमनसो विशुद्धमानपरिणामस्य लेश्याभिर्विशुद्ध्यमानाभिस्तदावरणीयानां कर्मणांक क्षयेण केवलज्ञानं समुत्पन्नम्, तदा सा देवता भणति- कथं यूयं वन्दितव्याः? येनैवं क्रोधाभिभूतास्तिष्ठथ, तदा ते क्षपकाः संवेगमापन्ना मिथ्या मे दुष्कृतमिति, अहो बाल उपशान्तचित्तोऽस्माभिः पापकर्मभिराशातितः, एवं तेषामपि शुभाध्यवसानेन केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । एवं (तत्) प्रसङ्गतः कथितं कथानकम, उपनयः पुनःक्रोधादिकात् अप्रशस्तभावात् दुर्गतेरपाय इति। For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ६३ ॥ www.kobatirth.org नु नाम दुःखनिबन्धनद्रव्याद्यवगमात्तयोः संवेगस्थैर्ये स्यातां ? द्रव्यादिषु चाप्रतिबन्ध इति गाथार्थः । तथा चाहनि०- दविअं कारणगहिअं विगिंचि अव्वमसिवाइखेत्तं च । बारसहिं एस्सकालो कोहाड़विवेग भावम्मि ।। ५८ ।। इहोत्सर्गतो मुमुक्षुणा द्रव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यद्वा कनकादि न ग्राह्यम्, शिक्षकाहिसंदिष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यम्, अत एवाह- द्रव्यं कारणगृहीतम्, किं! विकिंचितव्यं परित्याज्यम्, अनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात्, दुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्थैः स्वधिया भावनीयेति । एवमशिवादिक्षेत्रं च, परित्याज्यमिति वर्त्तते, अशिवादिप्रधानं क्षेत्रमशिवादिक्षेत्रम्, आदिशब्दादूनोदरताराजद्विष्टादिपरिग्रहः, परित्याज्यं चेदमनेकैहिकामुष्मिकापायसम्भवादिति । तथा द्वादशभिर्वर्षैरेष्यत्कालः, परित्याज्य इति वर्त्तते, तत एवापायसम्भवादिति भावना, एतदुक्तं भवति- अशिवादिदुष्ट एष्यत्कालः द्वादशभिर्वर्षैरनागतमेवोज्झितव्य इति, उक्तं च-' - संवच्छरबारसएण होहिति असिवंति ते तओ णिति । सुत्तत्थं कुव्वंता अतिसयमादीहिं नाऊणं ॥ १ ॥ इत्यादि । तथा 'क्रोधादिविवेको भाव' इति क्रोधादयोऽप्रशस्तभावास्तेषां विवेकः- नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः, भाव इति- भावापाये, कार्य इत्ययं गाथार्थः ॥ एवं तावद्वस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः, साम्प्रतं द्रव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्श्यते नि० - दव्वादिएहिं निच्चो एगतेणेव जेसि अप्पा उ होइ अभावो तेसिं सुहदुहसंसारमोक्खाणं ।। ५९ ।। द्रव्यादिभिः द्रव्य क्षेत्रकालभावैः नारकत्वविशिष्टक्षेत्रवयोऽवस्थितत्वाप्रसन्नत्वादिभिः नित्यः अविचलितस्वभावः एकान्तेनैव सर्वथैव येषां वादिनां आत्मा जीवः तुशब्दादन्यच्च वस्तु भवति संजायते अभावः असंभवः तेषां वादिनां केषां ? - सुखदुःख @ संवत्सरद्वादशकेन भविष्यति अशिवमिति ते ततो निर्यान्ति सूत्रार्थं कुर्वन्तोऽतिशयादिभिर्ज्ञात्वा ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ५८. चरणकरणा नुयोगमधि कृत्यापायनिरूपणम्। निर्युक्तिः ५९ द्रव्यानुयोगमधिकृत्यापायनिरूपणम् । ।। ६३ ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृचियुतम् HE४॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ६०-६१ द्वारचरणकरणानुयोग द्रव्य संसारमोक्षाणां तत्रालादानुभवरूपं क्षणं सुखम्, तापानुभवरूपं दुःखम्, तिर्यग्नरनारकामरभवसंसरणरूपः संसारः, अष्टप्रकारकर्मबन्धवियोगो मोक्षः, तत्र कथं पुनस्तेषां वादिनां सुखाद्यभावः?, आत्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वाद्, अन्यथात्वापरिणते: सदैव नारकत्वादिभावाद्, अपरित्यक्ताप्रसन्नत्वे पूर्वरूपस्य च प्रसन्नत्वेनाभवनाद्, एवं शेषेष्वपि भावनीयमिति: नियुक्तिः गाथार्थः।। ततश्चैवं द्वितीयोपायनि०-सुहदुक्खसंपओगोन विजई निचवायपक्खंमि। एगंतुच्छेअंमि असुहदुक्खविगप्पणमजुत्तं ।। ६० ।। सुखदुःखसंप्रयोगः, सम्यक् संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पित इत्यर्थः न विद्यते नास्ति न घटत इत्यर्थः, क्व?-8 नित्यवादपक्षे नित्यवादाभ्युपगमे संप्रयोगोन विद्यते, कल्पितस्तु भवत्येव, यथाऽऽहुर्नित्यवादिनः- प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे मधिकृत्यस्तः, स्फटिके रक्ततादिवद् बुद्धिप्रतिबिम्बाद्वाऽन्ये इति, कल्पितत्वं चास्य आत्मनस्तत्त्वत एव तथापरिणतिमन्तरेण सुखाद्यभावाद् क्षेत्रोपायः। उपधानसन्निधावप्यन्धोपले रक्ततादिवत्, तदभ्युपगमे चाभ्युपगमक्षतिः, बुद्धिप्रतिबिम्बपक्षेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकस्वभावत्वात् सदैवैकरूपप्रतिबिम्बापत्तेः, स्वभावभेदाभ्युपगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति ।मा भूदनित्यैकान्तग्रह इत्यत आहएकान्तेन' सर्वथा उत्-प्राबल्येन छेदो- विनाशः एकान्तोच्छेदः- निरन्वयो नाश इत्यर्थः, अस्मिँश्च किं?-सुखदुःखयोर्विकल्पनं । सुखदुःखविकल्पनं अयुक्तं अघटमानकम्, अयमत्र भावार्थः- एकान्तोच्छेदेऽपि सुखाद्यनुभवितुस्तत्क्षण एव सर्वथोच्छेदादहेतुकत्वात्तदुत्तरक्षणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते, कुतः पुनस्तद्विकल्पनमिति गाथार्थः ।। उक्तोऽपायः, साम्प्रतमुपाय उच्यते-तत्रोप ॥६४॥ सामीप्येन(आयः) विवक्षितवस्तुनोऽविकललाभहेतुत्वाद्वस्तुनो लाभ एवोपाय:- अभिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापारविशेष । इत्यर्थः, असावपि चतुर्विध एव, तथा चाह For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ६५ ॥ www.kobatirth.org नि०- एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दव्वंमि । धातुव्वाओ पढमो नंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ।। ६१ ।। एवमेव यथा अपायः, किं ? - चतुर्विकल्पः चतुर्भेदः भवत्युपायोऽपि तद्यथा- द्रव्योपायः क्षेत्रोपायः कालोपायः भावोपायश्च, तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः द्रव्योपाये विचार्ये धातुर्वादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः प्रथम इति लौकिकः, लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम्, क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति, अत एवाह- लाङ्गलकुलिकाभ्यां क्षेत्रं उपक्रम्यत इति गम्यते, ततश्च लाङ्गलकुलिके तदुपायो लौकिकः, लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रभावनम्, अन्ये तु योनिप्राभृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव सङ्घातप्रयोजनादौ द्रव्योपायं व्याचक्षते, विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति । अत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाभाति, पाठान्तरं वा 'धाउव्वाओ भणिओ'त्ति अत्र च कथञ्चिदविरोध एवेति गाथार्थः ॥ नि०- कालो अ नालियाइहिं होइ भावंमि पंडिओ अभओ । चोरस्स कए नहिं वकुमारिं परिकहेइ ।। ६२ ।। कालश्च नालिकादिभिः ज्ञायत इति शेषः, नालिका घटिका आदिशब्दाच्छङ्कवादिपरिग्रहः, ततश्च नालिकादयः कालोपायो लौकिकः, लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्त्तनादिभिस्तथा भवति, भावे चेति द्वारपरामर्शत्वाद्भावोपाये विचार्ये निदर्शनम्, क इत्याह- पण्डितो विद्वान् अभय: अभयकुमारस्तथा चाह- चौरनिमित्तं नर्त्तक्यां (नाट्ये) वड (वृद्ध) कुमारीम्, किं ?, त्रिकाल - गोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह- परिकथयति , ततश्च यथा तेनोपायतश्चौरभावो विज्ञातः एवं शिक्षकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः ।। नवरं भावोवाए उदाहरणं- रायगिहं णाम णयरं, तत्थ सेणिओ राया, सो भज्जाए भणिओ ® तक्रखरण्टितचीवरादि वि. प्र. भावोपाये उदाहरणं राजगृहं नाम नगरम्, तत्र श्रेणिको राजा स भार्यया भणितः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ६२ कालोपायोभावोपायश्च अभयकुमार स्वचौरभावविज्ञानोदा हरणच ।। ६५ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् |॥६६॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्ति: ६२ कालोपायोभावोपायचअभयकुमारस्यचोरभावविज्ञानोदाहरणच। जहा मम एगखंभं पासायं करेहि, तेण वड्डइणो आणत्ता, गया कट्टच्छिंदगा, तेहिं अडवीए सलक्खणो सरलो महइमहालओ दुमो दिट्ठो, धूवो दिण्णो, जेणेस परिग्गहिओ रुक्खो सो दरिसावेउ अप्पाणं, तो णं ण छिंदामोत्ति, अह ण देइ दरिसावं तो छिंदामोत्ति, ताहे तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिण्णो, अहं रण्णो एगखंभं पासायं करेमि, सव्वोउयं । च आरामं करेमि सव्ववणजाइउवेयं, मा छिंदहत्ति, एवं तेण कओ पासाओ। अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो, सा भत्तारं भणइ-मम अंबयाणि आणेहि, तदा अकालो अंबयाणं, तेण ओणामिणीए विजाए डालं ओणामियं, अंबयाणि गहिआणि, पुणो अ उण्णमणीए उण्णामियं, पभाए रण्णा दिटुं, पर्यण दीसइ, को एस मणुसो अतिगओ?, जस्स एसा एरिसी सत्तित्ति सो मम अंतेउरंपि धरिसेहित्ति काउं अभयं सद्दावेऊण भणइ- सत्तरत्तस्स अब्भंतरे जइ चोरं णाणेसि तोणत्थि ते जीविताहे अभओगवेसिउं आढत्तो, णवरं एगंमि पएसे गोजो रमिउकामो, मिलिओ लोगो, तत्थ गंतुं अभओ भणति-जाव गोजो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अक्खाणगं सुणेह जहा कहिंपिणयरे एगो दरिद्दसिट्ठी परिवसति, 8 यथा ममैकस्तम्भं प्रासादं कारय, तेन वर्धकिन आज्ञप्ताः, गताः काष्ठच्छेदकाः (काष्ठानि छेत्तु ), तैरटव्यां सलक्षणः सरलो महाऽतिमहालयो द्रुमो दृष्टः, धूपो दत्तः, येनैष परिगृहीतो वृक्षः स दर्शयत्वात्मानम्, तदा एनं न छिन्यः इति, अथ न दास्यथ दर्शनं तदा छेत्स्याम इति, तदा तेन वृक्षवासिना व्यन्तरेणाभयाय दर्शनं दत्त-: अहं राज्ञ एकस्तम्भं प्रासादं करोमि सर्व कं चारामं करोमि सर्ववनजात्युपेतम्, मा छिन्द्धि (छेत्सी.) इति, एवं तेन कृतः प्रासादः। अन्यदैकस्या मातङ्गया अकाले दोहद आम्राणाम्, सा भरि भणति- मह्यमानानानय, तदाऽकाल आम्राणाम्, तेनावनामिन्या विद्यया शाखाऽवनामिता आम्रा गृहीताः पुनश्चोन्नामिन्योन्नामिता, प्रभाते राज्ञा दृष्टम्, पदानि न दृश्यन्ते, क एष मनुष्योऽतिगतः?, यस्यैषेशी शक्तिरिति स ममान्तःपुरमपि धर्षयति इति कृत्वाऽभयं शब्दयित्वा भणति । सप्तरात्रस्याभ्यन्तरे यदि चौर नानयसि तदा ते नास्ति जीवितम् । तदाऽभयो गवेषयितुमादृतः, नवरमेकस्मिन् प्रदेशे नर्तको रन्तुकामः, मिलितो लोकः, तत्र गत्वाऽभयो भणति-यावन्नर्तको *मण्डयति आत्मानं तावन्ममैकमाख्यानं शृणुत यथा- कस्मिन्नपि नगरे एको दरिद्रश्रेष्ठी परिवसति, - For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ६७ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " तस्स या कुमारी अईव रूविणीय, वरणिमित्तं कामदेवं असाच एगंमि आरामे चोरिए पुष्काणि उती आरामिएण दिहा, कयत्विमादत्ता, सीए सो भणिओ मा मई कुमारिं विणासेहि, तवावि भवणीभाणीओ अधि तेण भणिआएक्काए ववत्थाए मुयामि, जड़ णवरं जम्मि दिवसे परिणेज्जसि तद्दिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि, तीए भणिओ एवं हवउत्ति, तेण विसज्जिआ अन्नया परिणीआ, जाहे अपवरके पवेसिआ ताहे भत्तारस्स सब्भावं कहेइ, विसजिया वच्चड़, पट्टिया आरामं, अंतरा अ चोरेहिं गहिया, तेसिंपि सब्भावो कहिओ, मुक्का, गच्छंतीए अंतरा रक्खसो दिट्ठो, जो छण्हं मासाणं आहारेइ, तेण गहिया, कहिए मुक्का, गया आरामियसगासं, तेण दिट्ठा, सो संभंतो भणड़ कहमागयासि ?, ताए भणिअं मया कओ सो पुव्विं समओ, सो भणइ कहं भत्तारेण मुक्का?, ताहे तस्स तं सव्वं कहिअं, अहो सच्चपन्ना एसा महिलत्ति, एत्तिएहिं मुक्का किहाहं दुहामित्ति तेण विमुक्का, पडियंती अ गया सव्वेसिं तेसिं मज्झेणं, आगता तेहिं सव्वेहिं मुक्का, भत्तारसगासं अणहसमग्गा गया। ताहे अभओ तं जणं पुच्छइ अक्खह एत्थ केण 4 तस्य पुत्री वृद्धकुमारी अतीव रूपिणी च, वरनिमित्तं कामदेवमर्चयति सा चैकस्मिन्नारामे चौर्या पुष्पाण्युच्चिन्वती आरामिकेण दृष्टा, कदर्थितुमारब्धा, तया स भणितः मा मां कुमारीं विनाशय, तवापि भगिनीभागिनेय्यः सन्ति, तेन भणिता एकया व्यवस्थया मुञ्चामि यदि परं यस्मिन् दिवसे परिणयसि तस्मिन्नेव दिवसे भर्त्राऽनुद्घाटिता सती मम सकाशमायास्यसि तदा मुञ्चामि तया भणितः एवं भवत्विति, तेन विसृष्टा अन्यदा परिणीता यदाऽपवरकं प्रविष्टा तदा भर्तुः सद्भावं कथयति, विसृष्टा व्रजति, प्रस्थिताऽऽराममन्तरा च चौरैर्गृहीता, तेभ्योऽपि सद्भावः कथितः, मुक्ता, गच्छन्त्याऽन्तरा राक्षसो दृष्टः, यः षभिर्मासैराहारयति, तेन गृहीता, कथिते मुक्ता, गताऽऽरामिकसकाशम् तेन दृष्टा स सम्भ्रान्तो भणति कथमागताऽसि ? तया भणितं मया कृतः स पूर्वं समयः (सङ्केतः), स भणति कथं भर्त्रा मुक्ता? तदा तस्मै तत्सर्वं कथितम्, अहो सत्यप्रतिज्ञैषा महिलेति, इयद्भिर्मुक्ता कथमहं दूषयामि ? इति तेनापि मुक्ता, प्रतियान्ती च गता सर्वेषां तेषां मध्येन आगता सर्वैस्तैर्मुक्ता, भर्तुः सकाशमनघस्वमार्गा गता । तदाऽभयस्तान् जनान् पृच्छति आख्यातात्र केन For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्ति: ६२ कालोपायोभावोपायश्चअभयकुमारस्यचौरभावविज्ञानोदाहरणच । ।। ६७ ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ६८॥ दुक्कर कयं?, ताहे इस्सालुया भणंति- भत्तारेणं, छुहालुया भणंति- रक्खसेणं, पारदारिया भणंति- मालागारेणं, हरिएसेण प्रथममध्ययन भणिअं- चोरेहि, पच्छा सो गहिओ,जहा एस चोरोत्ति । एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा अभएण तस्स चोरस्स उवाएण भावो द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ णाओ एवमिहवि सेहाणमुवट्ठायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण विपरिणामादिणा भावो जाणिअव्वोत्ति, किं एए पव्वावणिज्जा नियुक्ति: ६२ नवत्ति, पव्वाविएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव विभासा, यदुक्तं- पव्वाविओ सियत्ति अमुंडावेउंन कप्पइइत्यादि । कहाणयसंहारो। कालोपायो भावोपायश्चपुण- चोरो सेणियस्स उवणीओ, पुच्छिएण सब्भावो कहिओ, ताहे रण्णा भणियं- जइ नवरं एयाओ विजाओ देहि तो न । अभयकुमारमारेमि, देमित्ति अब्भुवगए आसणे ट्ठिओ पढई, न ठाई, राया भणई- किं न ठाई ?, ताहे तं मायंगो भणइ- जहा अविणएणं । स्यचौरभावपढसि, अहं भूमीए तुमं आसणे, णीयतरे उवविट्ठो, ठियातो सिद्धाओय विजाओत्ति । कृतं प्रसङ्गेन । एवं तावल्लौकिकमाक्षिप्त विज्ञानोदा हरणचा चरणकरणानुयोगंचाधिकृत्योक्ता द्रव्योपायादयः, साम्प्रतं द्रव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्श्यन्त इति । तत्राप्युपायदर्शनतो नित्यानित्यैकान्तवादयोः सुखादिव्यवहाराभावप्रसङ्कन तथा प्रत्यक्षगोचरातिक्रान्तेश्च वस्तूत आत्माभाव एवेति मा भूच्छिष्यकाणां मतिविभ्रमोऽत उपायत एवात्मास्तित्वमभिधातुकाम आह- दुष्कर कृत? तदा ईर्ष्यालुका भणन्ति- भर्ना, क्षुधालुका भणन्ति- राक्षसेन, पारदारिका भणन्ति- मालाकारेण, हरिकेशेन भणितं- चौरैः, पश्चात्स गृहीतः यथैष चौर इति । यथाऽभयेन तस्य चौरस्योपायेन भावो ज्ञातः एवमिहापि शैक्षकाणामुपस्थापयमानानामुपायेन गीतार्थेन विपरिणामादिना भावो ज्ञातव्य इति- किमेते प्रव्राजनीया : नवेति, प्रवाजितेष्वपि तेषु मुण्डनादिषु एवमेव विकल्पः (विभाषा) "प्रवाजितः स्यादिति च मुण्डयितुं न कल्पते " कथानकसंहारः पुनश्चौरः श्रेणिकायोपनीतः, पृष्टेन सद्भावः कथितः, तदा राज्ञा भणित- यदि नवरमेते विद्ये ददासि तदा न मारयामि, ददामीत्यभ्युपगते आसने स्थितो भणति, न तिष्ठतः, राजा भणति-किं न तिष्ठतः? तदा तं मातङ्गो भणति- यथा अविनयेन पठसि, अहं भूमौ त्वमासने, नीचतरे उपविष्टः, स्थिते सिद्धे च विद्ये इति। For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥६९॥ नि०- एवं तु इहं आया पञ्चक्खं अणुवलब्भमाणोऽवि । सुहदुक्खमाइएहिं गिज्झइ हेऊहिँ अस्थिति ॥६३ ।। प्रथममध्ययनं एवमेव यथा धातुवादादिभिर्द्रव्यादि इह अस्मॅिल्लोके आत्मा जीवः प्रत्यक्ष मिति तृतीयार्थे द्वितीया प्रत्यक्षेण अनुपलभ्यमानोऽपि द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ अदृश्यमानोऽपि सुखदुःखादिभिः आदिशब्दात् संसारपरिग्रहो गृह्यते हेतुभिः युक्तिभिः अस्ति विद्यत इति-एवं गृह्यते, तथाहि नियुक्तिः सुखदुःखानां धर्मत्वाद्धर्मस्य चावश्यमनुरूपेण धर्मिणा भवितव्यम्, न च भूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्यानुरूपो धर्मी, तस्याचेतनत्वात् सुखादीनां च चेतनत्वादिति, अत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः ।। द्रव्यानुयोग मधिकृत्योनि०-जह वऽस्साओ हत्थिं गामा नगरंतु पाउसा सरयं । ओदइयाउ उवसमं संकंती देवदत्तस्स ।। ६४॥ पायदर्शनयथा वे ति प्रकारान्तरदर्शने अश्वात् घोटकात् हस्तिनं गजं ग्रामात् नगरं तु प्रावृषः शरदं प्रावृट्कालाच्छरत्कालमित्यर्थः ।। आत्मास्ति त्वाभिधान औदयिकाद् भावाद् उपशम मित्यौपशमिकं संक्रान्तिः संक्रमणं संक्रान्तिः कस्य?- देवदत्तस्य, प्रत्यक्षेणेति शेषः ।। नि०- एवं सउ जीवस्सवि दव्वाईसंकमं पड़च्चा उ। अत्थित्तं साहिजड़ पचक्खेणं परोक्खंपि ।। ६५॥ A एवं यथा देवदत्तस्य तथा, किं?- सतो विद्यमानस्य जीवस्यापि द्रव्यादिषु संक्रमः, आदिशब्दात् क्षेत्रकालभावपरिग्रहः, तं प्रतीत्य आश्रित्य अस्तित्वं विद्यमानत्वं साध्यते अवस्थाप्यते । आह सतोऽस्तित्वसाधनमयुक्तम्, न, अव्युत्पन्नविप्रतिपन्नविषयत्वात् साधनस्य, प्रत्यक्षेण अश्वादिसंक्रमेण, सर्वथा साक्षात्परिच्छित्तिमङ्गीकृत्य परोक्षमपि अप्रत्यक्षमपि, अवग्रहादिस्वसंवेदनतो लेशतस्तु प्रत्यक्षमेवैतत्, एतदुक्तं भवति-यथा अश्वादिसंक्रान्तिन देवदत्ताख्यं धर्मिणमतिरिच्य वर्त्तते, एवमियमप्यौदारिकाद्वैक्रिये तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके परिमितवर्षायुष्कपर्यायादपरिमितवर्षायुष्कपर्याये चारित्रभावादविरतभावे च संक्रान्तिर्न जीवाख्यं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति वृद्धा व्याचक्षते । अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चाई पाठान्तरतोऽन्यथा व्याचक्षते ||६९॥ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobalirth.org श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11७०॥ तत्रायमभिसम्बन्धः-‘एवं तु इहं आये' त्यादिगाथयोपायत एवात्मास्तित्वमभिधायाधुनोपायत एव सुखदुःखादि- प्रथममध्ययन भावसङ्गतिनिमित्तं नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदेनात्मानं परिणामिनमभिधित्सुराह-'जहवऽस्साओ' गाथाव्याख्या पूर्ववत्॥ दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नि०- एवं सउ जीवस्सवि दव्वाईसंकमं पडुच्चा उ । परिणामो साहिजइ पचक्खेणं परोक्खेवि ॥६६॥ नियुक्तिः पूर्वार्द्ध पूर्ववत्, पश्चार्द्धभावना पुनरियं-न होकान्तनित्यानित्यपक्षयोदृष्टाऽपि द्रव्यादिसंक्रान्तिर्देवदत्तस्य युज्यते इत्यतस्तद्धा चरणकरणावान्यथानुपपत्त्यैव परिणामसिद्धेरिति, उक्तं च- नार्थान्तरगमो यस्मात्, सर्वथैव न चागमः । परिणामः प्रमासिद्ध, इष्टश्च खलु पण्डितैः।। नुयोगमधि११॥ घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम्॥२॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति कृत्य दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥३॥ इति गाथाद्वयार्थः ।। उक्तमुपायद्वारमधुना स्थापनाद्वारमभिधित्सुराह हिंगुशिवो दाहरणम्। नि०-ठवणाकम्म एवं दिटुंतो तत्थ पोडरीअंतु । अहवाऽवि सन्नढक्कणहिंगुसिवकयं उदाहरणं ।। ६७॥ स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यांवा कर्म-सम्यगभीष्टार्थप्ररूपणलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म, एक मिति तज्जात्यपेक्षया दृष्टान्तो निदर्शनं तत्र स्थापनाकर्मणि पौण्डरीकं तु तुशब्दात्तथाभूतमन्यच्च, तथा च पौण्डरीकाध्ययने पौण्डरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन स्वमतं स्थापितमिति, अथवेत्यादि पश्चार्द्ध सुगमम्, लौकिकं चेदमिति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु । कथानकादवसेयः, तच्चेदं-जहा एगम्मि णगरे एगो मालायारो सण्णाइओ करंडे पुप्फे घेत्तूण वीहीए एइ, सो अईव अच्चइओ, ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊणं सा पुष्फपिडिगा तस्सेव उवरि पल्हत्थिया, ताहे लोओ पुच्छइ-किमेयंति?, जेणित्थ पुप्फाणि यथैकस्मिन् नगरे एको मालाकारः संज्ञायितः करण्डे पुष्पाणि गृहीत्वा वीथ्यामेति, सोऽतीव व्यथितः, तदा तेन शीघ्र व्युत्सृज्य सा पुष्पपिटिका तस्यैवोपरि पर्यस्ता, तदा लोकः पृच्छति- किमेतदिति?, येनात्र पुष्पाणि -* संज्ञापीडितः। बाधितः वि. प. । * प्रक्षिप्ता, वि. प.। ॥ ७०।। For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥७१॥ स्थापनाकर्म । छडेसित्ति, ताहे सोभणइ-अहं आलोविओ, एत्थ हिंगसिवो नाम, एतं तं वाणमंतरं हिंगुसिवं नाम उप्पन्न, लोएण परिग्गहियं, प्रथममध्ययन पूया से जाया, खाइगयं अजवि तं पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं। एवं जड़ किंचि उड्डाहं पावयणीयं कयं होता। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ केणवि पमाएण ताहे तहा पच्छाएयव्वं जहा पंचुण्णं पवयणुब्भावणा हवइ। संजाए उड्डाहे जह गिरिसिद्धेहिं कुसलबुद्धीहि । नियुक्ति: ६८ लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुटु कया॥१॥ एवं तावच्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाह नि०- सव्वभिचारं हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चऽप्पणो नाउं ।। ६८।। सह व्यभिचारेण वर्त्तत इति सव्यभिचारस्तं हेतु साध्यधर्मान्वयादिलक्षणं सहसा तत्क्षणमेव वोत्तुं अभिधाय तमेव हेतुं अन्यैः हेतुभिरेव उपबृंहते समर्थयति सप्रसरं अनेकधा स्फारयन् सामर्थ्य प्रज्ञाबलम्, चशब्दो भिन्नक्रमः आत्मनश्च स्वस्य च ज्ञात्वा विज्ञाय, चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः।। भावार्थस्त्वयं- द्रव्यास्तिकाद्यनेकनयसङ्कलप्रवचनज्ञेन साधुना तत्स्थापनाय नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हेतुमभिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतस्तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । आह- उदाहरणभेदस्थापनाधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वभिधानं किमर्थमिति?, उच्यते, तदाश्रयेण भूयसामुदाहरणानां - त्यजसि इति, तदा स भणति- अहमलोपिकः, अत्र हिशिवो नाम, एतत् तत् व्यन्तरिकं हिङ्गुशिवं नामोत्पन्नम्, लोकेन परिगृहीतम्, पूजा तस्य जाता, ख्यातिगतमद्यापि तत्पाटलिपुत्रे हिङ्गशिवं नाम व्यन्तरिकम् । एवं यदि किञ्चिद् अपभ्राजनाकार्य प्रावचनिकं कृतं भवेत् केनापि प्रमादेन तदा तथा प्रच्छादयितव्य यथा प्रत्युत प्रवचनोद्भावना भवति संजातायामपभ्राजनाया यथा गिरिसिद्धैः कुशलबुद्धिभिः। लोकस्य धर्मश्रद्धा प्रवचनवर्णेन सुष्ठ कृता ॥१॥ लोठिओ देवतया । स्वयमवलोकि वि. प. । * पञ्चुण्णं प्रत्युत वि. प.। ||७१।। ECEB88 For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥७२॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्ति: ६९ प्रत्युत्पत्रविनाशद्वारे गान्धर्वकोदाहरणम्। प्रवृत्तेः, तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम्, अलं प्रसङ्गेन । अभिहितं स्थापनाकर्मद्वारम्, अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमभिधातुकाम आह नि०- होंति पडुप्पन्नविणासणंमि गंधव्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थवि जइ अज्झोवजिज्ज तो गुरुणा ।।६९॥ भवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशने विचार्ये गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनं तस्मिन्निति समासः । गान्धर्विका उदाहरणमिति यदुक्तं तदिदं-जहा एगम्मि णगरे एगो वाणियओ, तस्स बहुयाओ भयणीओ भाइणिज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे राउलिया गंधव्विया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि वारे, ताओ वणियमहिलाओ तेण संगीयसद्देण तेसु गंधव्विएसु अज्झोववन्नाओ किंचि कम्मादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण चिंतियं-जहा विणट्ठा एयाओत्ति, को उवाओ होजा? जहा न विणस्संति त्तिकाउं मित्तस्स कहियं, तेण भण्णइ- अप्पणो घरसमीवे वाणमंतरं करावेहि, तेण कयं, ताहे पाडहियाणं रूवए दाउं वायावेइ, जाहे गंधव्विया संगीययं आढवेंति ताहे ते पाडहिया पडहे दिति वंसादिणो य फुसंति गायति य, ताहे तेसिं गंधव्वियाणं विग्यो जाओ, पडहसद्देण यण सुव्वइ गीयसद्दो, तओ ते राउले उवट्ठिया, वाणिओ सहाविओ, किं विग्घं करेसित्ति? भणइ- मम घरे देवो, अहं तस्स तिन्नि वेला पडहे दवावेमि, Oयथैकस्मिन् नगरे एको वणिक् तस्य बहुका भगिन्यः भागिनेय्यः भ्रातृजायाश्च, तस्य गृहसमीपे राजकुलीया गान्धर्विकाः सङ्गीतं कुर्वन्ति दिवसे त्रीन् वारान्, ता वणिग्महिलास्तेन सङ्गीतशब्देन तेषु गान्धर्विकेषु अध्युपपन्नाः किश्चित्कर्मादानं न कुर्वन्ति, पश्चात्तेन वणिजा चिन्तित- यथा विनष्टा एता इति, क उपायो भवेत्? यथा : न विनश्यन्तीति कृत्वा मित्राय कथितम्, तेन भण्यते- आत्मनो गृहसमीपे व्यन्तरिकं कारय, तेन कृतम्, तदा पाटहिकेभ्यो रूप्यकान् दत्त्वा वादयति, यदा गान्धर्विका सङ्गीतमाद्रियन्ते तदा ते पाटहिकाः पटहान् ददति वंशादींश्च स्पृशन्ति गायन्ति च, तदा तेषां गान्धर्विकाणां विघ्नो जातः, पटहशब्देन च न श्रूयते गीतशब्दः, ततस्ते राजकुले उपस्थिताः, वणिक् शब्दायितः, किं विघ्नं करोषीति?, भणति- मम गृहे देवः, अहं तस्य तिस्रो वेला: पटहं दापयामि, ।। ७२ ।। 33000 For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8888886 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥७३॥ सूत्रम् १ ७०-७२ ताहे ते भणिया-जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिवे दिवे अंतराइयं कज्जइ? । एवं आयरिएण वि सीसेसु अगारीसु प्रथममध्ययन अज्झोववजमाणेसु तारिसो उवाओ कायवो जहा तेसिं दोसस्स तस्स णिवारणा हवइ, मा ते चिंतादिएहिं णरयपडणादिए। द्रुमपुष्पिका, अवाए पावेहिंति, उक्तं च-चिंतेइ दडुमिच्छइ दीहंणीससइ तह जरो दाहो । भत्तारोयग मुच्छा उम्मत्तो ण याणई मरणं ॥१॥ पढमे । नियुक्तिः सोयई वेगे दडु तं गच्छई बिझ्यवेगे। णीससइ तइयवेगे आरुहइ जरो चउत्थंमि ॥२॥ डज्झइ पंचमवेगे छठे भत्तं न रोयए वेगे। प्रत्युत्पन्नसत्तमियमि य मुच्छा अट्ठमए होइ उम्मत्तो ॥ ३ ॥णवमे ण याणइ किंचि दसमे पाणेहिं मुच्चइ मणूसो। एएसिमवायाणं सीसे रक्खंति विनाशद्वारम्। आयरिया॥४॥ परलोइया अवाया भग्गपइण्णा पडति नरएसु। ण लहंति पुणो बोहिं हिंडंति य भवसमुद्दमि ॥ ५ ॥ अमुमेवार्थं चेतस्यारोप्याह- शिष्योऽपि विनेयोऽपि क्वचित् विलयादौ यदीत्यभ्युपगमदर्शने अभ्युपपद्येत अभिष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः, ततो गुरुणा आचार्येण, किं?-गाथा नि०- वारेयव्व उवाएण जइवा वाऊलिओ वदेजाहि। सव्वेऽवि नत्थि भावा किं पुण जीवोस वोत्तव्वो।। ७०॥ वारयितव्यो निषेद्धव्यः, किं यथाकथञ्चित्? नेत्याह-उपायेन प्रवचनप्रतिपादितेन, यथाऽसौ सम्यग्वर्त्तत इति भावार्थः । तदा ते भणिताः- यथाऽन्यत्र गायत, किं देवस्य दिवसे दिवसे अन्तरायः क्रियते? । एवमाचार्येणापि शिष्येष्वगारिणीषु अध्युपपद्यमानेषु तादृश उपायः कर्त्तव्यो यथा तेषां दोषस्य तस्य निवारणं भवति, मा ते चिन्तादिकैर्नरकपतनादिकान् अपायान् प्राप्स्यन्तीति-चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्घ निःश्वसिति तथा ज्वरो दाहः।। भक्तारोचको मूर्छा उन्मत्तो न जानाति मरणम् ॥ १॥ प्रथमे शोचति वेगे द्रष्टुं तां गच्छति द्वितीयवेगे। निःश्वसिति तृतीयवेगे आरोहति ज्वरश्चतुर्थे ।। २।। दह्यते पञ्चमे वेगे षष्ठे भक्तं न रोचते वेगे । सप्तमे च मूर्छा अष्टमे भवत्युन्मत्तः।। ३ ।। नवमे न जानाति किञ्चिदशमे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः । एतेभ्योऽपायेभ्यः शिष्यं रक्षयन्त्याचार्याः ।। ४॥ पारलौकिका अपाया भग्नप्रतिज्ञाः पतन्ति नरकेषु । न लभन्ते पुनर्बोधि हिण्डन्ते च भवसमुद्रे ॥ ५॥ स्त्र्यादी वि. प । ॥ ७३|| For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ७४ ॥ www.kobatirth.org एवं तावल्लौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्याह-यदिवा वातूलिको नास्तिको वदेत्, किं ? - सर्वेऽपि घटपटादयः णत्थि त्ति प्राकृतशैल्या न सन्ति भावाः पदार्थाः किं पुनर्जीवः ?, सुतरां नास्तीत्यभिप्रायः, स वक्तव्यः सोऽभिधातव्यः, किमित्याह • नि०- जं भणसि नत्थि भावा वयणमिणं अत्थि नत्थि ? जइ अत्थि । एव पइन्नाहाणी असओ णु निसेहए को णु ! ।। ७१ ।। यद्भणसि यद्ववीषि न सन्ति भावा न विद्यन्ते पदार्था इति, वचनमिदं भावप्रतिषेधकमस्ति नास्तीति विकल्पौ ?, किं चातो ?, यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः, प्रतिषेधवचनस्यापि भावत्वात्, तस्य च सत्त्वादिति भावार्थ:, द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह- असओ णु त्ति अथासन्निषेधते को नु ?, निषेधवचनस्यैवासत्त्वादित्ययमभिप्राय इति गाथात्रयार्थः ।। यदुक्तं- 'किं पुनर्जीवः' इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधिकृत्याह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि०- णो य विवक्खापुव्वो सद्दोऽजीवुब्भवोत्ति न य सावि । जमजीवस्स उ सिद्धो पडिसेहधणीओ तो जीवो ।। ७२ ।। चशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वात् न च नैव विवक्षापूर्वी विवक्षाकारण इच्छाहेतुरित्यर्थः, शब्दो ध्वनिः अजीवोद्भवः, अजीवप्रभव इत्यर्थः, विवक्षापूर्वकश्च जीवनिषेधकः शब्द इति, मा भूद्विवक्षाया एव जीवधर्मत्वासिद्धिरित्यत आह-न च नैव सापि विवक्षा यद् यस्मात् कारणाद् अजीवस्य तु अजीवस्यैव, घटादिष्वदर्शनात्, किन्तु मनस्त्वपरिणता (त्य) न्विततत्तद्रव्यसाचिव्यतो जीवस्यैव, यतश्चैवमतः सिद्धः प्रतिष्ठितः प्रतिषेधध्वनेः नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः, ततः तस्मात् जीव आत्मेति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः।। व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम्, तदन्वाख्यानाच्चोदाहरणमिति मूलद्वारम्, अधुना तद्देशद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ७०-७२ प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम् । ।। ७४ ।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ७५॥ नि०- आहरणं तद्देसे चउहा अणुसहि तह उवालंभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ।। ७३ ।। प्रथममध्ययन उदाहरणमिति पूर्ववद्, उपलक्षणं चेदमत्र, तथा चाह-तस्य देशस्तद्देश उदाहरणदेश इत्यर्थः, अयं चतुर्द्धा चतुष्प्रकारः, द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ तदेव चतुष्प्रकारत्वमुपदर्शयति-अनुशासनमनुशास्तिः-सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहणमित्यर्थः, तथोपालम्भनमुपालम्भ:- भङ्गयैव नियुक्तिः ७३ विचित्रं भणनमित्यर्थः, पृच्छा- प्रश्नः किं कथं केनेत्यादि, निश्रावचनं- एकं कञ्चन निश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ । 'तद्देशे ति निश्रावचनमिति । तत्र भवति सुभद्रा नाम श्राविकोदाहरणम्, क्व?- अनुशास्ताविति गाथाक्षरार्थः॥ तत्थ अणुसट्ठीए सुभद्दा । चतुष्प्रका रेष्वनुशा। उदाहरणं- चंपाए णयरीए जिणदत्तस्स सुसावगस्स सुभद्दा नाम धूया, सा अईव रूववई सा य तच्चणियउवासएण दिट्ठा, सो स्तीति ताए अज्झोववण्णो, तं मग्गई, सावगो भणइ- नाहं मिच्छादिट्ठिस्स धूयं देमि, पच्छा सो साहूणा समीवं गओ धम्मो य ।। । अणेण पुच्छिओ, कहिओ साहूहिं, ताहे कवडसावयधम्म पगहिओ, तत्थ य से सब्भावेणं चेव उवगओ धम्मो, ताहे तेण साहूणं सब्भावो कहिओ, जहा मए कवडेणं दारियाए कए, णं णायं जहा कवडेणं कजहित्ति, अण्णमियाणिं देह मे । अणुव्वयाई, लोगे स पयासो सावओ जाओ, तओ काले गए वरया मालया पट्टवेइ, ताहे तेण जिणदत्तेण सावओत्ति । काऊण सुभद्दा दिण्णा, पाणिग्गहणं वत्तं, अन्नया सो भणइ- दारियं घरं णेमि, ताहे तं सावओ भणइ-तं सव्वं उवासयकुलं, ® तत्रानुशास्तौ सुभद्रोदाहरणं-चम्पायां नगर्यां जिनदत्तस्य सुश्रावकस्य सुभद्रा नाम पुत्री, साऽतीव रूपिणी, सा च तचनिक (बौद्ध) उपासकेन दृष्टा, स तस्यामध्युपपन्नः, तां मार्गयति, श्रावको भणति- नाहं मिथ्यादृष्टये पुत्री ददामि, स पश्चात् साधूनां समीपे गतः धर्मश्चानेन पृष्टः, कथितः साधुभिः, कपटश्रावकेण तदा धर्मःप्रगृहीतः, तत्र च तस्य सद्भावेनैवोपगतो धर्मः, तदा तेन साधुभ्यः सद्भावः कथितः, यथा मया कपटेन दारिकायाः कृते, एतज्ज्ञातं यथा कपटेन क्रियते इति, अन्यत् इदानीं देहि मह्यमणुव्रतानि, लोके स प्रकाशः श्रावको जातः, ततः काले गते वरकाः मालाः प्रस्थापयन्ति, तदा तेन जिनदत्तेन श्रावक इति कृत्वा सुभद्रा दत्ता, पाणिग्रहणं वृत्तम्, अन्यदा स भणति- दारिकां गृहं नयामि, तदा तं श्रावको भणति- तत् सर्वमुपासककुलं तवणिय० (प्र०)। * नेदम् (प्र०)। प्रथमद्वारे सुभद्रोदाहरणम्। ॥ ७५।। 38888888880 For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ७६ ।। www.kobatirth.org एसा तं णाणुवत्तिहिति, पच्छा छोभयं वा लभेज्जत्ति, णिब्बंधे विसज्जिया, णेऊण जुगयं घरं कयं, सासूणणंदाओ पउट्ठाओ भिक्खूण भत्तिं ण करेइत्ति, अन्नया ताहिं सुभद्दाए भत्तारस्स अक्खायं एसा य सेअवडेहिं समं संसत्ता, सावओ ण सद्दहेइ, अन्नया खमगस्स भिक्खागयस्स अच्छिंमि कणुओ पविट्ठो, सुभद्दाए जिब्भाए सो किणुओ फेडिओ, सुभद्दाए चीणपट्टेण तिलओ कओ, सो अ खमगस्स निलाडे लग्गो, उवासियाहिं सावयस्स दरिसिओ, सावएण पत्तीयं, ण तहा अणुयत्तइ, सुभद्दा चिंतेड़- किं अच्छेरयं? जं अहं गिहत्थी छोभगं लभामि, जं पवयणस्स उड्डाहो एवं मे दुक्खइत्ति, सा रत्तिं काउस्सग्गेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि ?, सा भणइ एअं मे अयसं पमज्जाहित्ति, देवो भणइ एवं हवउ, अहमेयस्स णगरस्स चत्तारि दाराई ठवेहामि, घोसणयं च घोसेहामित्ति, जहा जा पड़व्वया होड़ सा एयाणि दाराणि उग्घाडेहिति, तत्थ तुमं चेव एगा उग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि, सयणस्स पच्चयनिमित्त चालणीए उदगं छोढूण दरिसिज्जासि, तओ चालणी फुसियमविण गिलिहिति, एवं आसासेऊण णिग्गओ देवो, णयरदाराणि अणेण ठवियाणि, णायरजणो य अद्दण्णो, इओ 4 एषा तन्नानुवर्त्स्यति, पश्चात् अपमानं वा लभेतेति, निर्बन्धे विसृष्टा, नीत्वा पृथग् गृहं कृतम्, श्वश्रूननन्दरः प्रद्विष्टाः भिक्षूणां भक्तिं न करोतीति । अन्यदा ताभिः सुभद्राया भर्त्तारं प्रतिआख्यातं एषा च श्वेतपटैः संसक्ता, श्रावको न श्रद्दधाति, अन्यदा क्षपकस्य भिक्षागतस्य अणि रजः प्रविष्टम्, सुभद्रया जिह्वया तद्रजः स्फेटितम्, सुभद्रया सिन्दूरेण तिलकः कृतः, स च क्षपकस्य ललाटे लग्नः, उपासिकाभिः श्रावकस्य दर्शितः, श्रावकेण प्रत्यायितम्, न तथाऽनुवर्त्तयति, सुभद्रा चिन्तयति किमाश्चर्यं ? यदहं गृहस्थाऽपमानं लभे, यत्प्रवचनस्यापभ्राजना एतन्मां दुःखयति इति सा रात्रौ कायोत्सर्गेण स्थिता, देव आगतः, संदिश किं करोमि?, सा भणति एतन्मेऽयशः प्रमार्जयेति, देवो भणति एवं भवतु, अहमेतस्य नगरस्य चत्वारि द्वाराणि स्थगयिष्यामि, घोषणां च घोषयिष्यामि इति यथा या पतिव्रता भवति सा एतानि द्वाराणि उद्घाटयिष्यतीति, तत्र त्वमेवैकोद्घाटयिष्यसि तानि कपाटानि, स्वजनस्य प्रत्ययनिमित्तं चालन्यामुदकं क्षिप्त्वा दर्शयेः, ततश्चालन्या बिन्दुरपि न पतिष्यति, एवमाश्वास्य निर्गतो देवः, नगरद्वाराण्यनेन स्थगितानि, नागरजनश्वाधृतिमापन्नः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, सूत्रम् निर्युक्तिः ७३ "तद्देशे "ति चतुष्प्रका | रेष्वनुशा स्तीति प्रथमद्वारे सुभद्रोदाहरणम् । ।। ७६ ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥७७॥ य आगासे वाया होइ ‘णागरजणा मा णिरत्थयं किलिस्सह, जा सीलवई चालणीए छूढं उदगंण गिलति सा तेण उदगेण । प्रथममध्ययन दारं अच्छोडेइ, तओ दारं उग्घाडिजिस्सति', तत्थ बहुयाओ सेट्ठिसत्थवाहादीणं धूयसुण्हाओ ण सक्कंति पलयंपि लहिउँ, दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ ताहे सुभद्दा सयणं आपुच्छइ, अविसज्जंताण य चालणीए उदयं छोढूण तेसिं पाडिहेरं दरिसेइ, तओ विसज्जिया, उवासिआओ। नियुक्तिः ७३ एवं चिंतिउमाढत्ताओ-जहा एसा समणपडिलेहिया उग्घाडेहिति, ताए चालणीए उदयं छूढ, ण गिलइत्ति पिच्छित्ता विसन्नाओ, 'तहेशे'ति चतुष्प्रकातओ महाजणेण सक्कारिजंती तंदारसमीवं गया, अरहंताणं नमोकाऊण उदएण अच्छोडिया कवाडा, महया सद्देणं कोंकारवं रेष्वनुशाकरेमाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया, उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अच्छोडेऊण भणइ जा मया सरिसी सीलवई होहिति । स्ती'ति सा एवं दारं उग्घाडेहिति, तं अजवि ढक्वियं चेव अच्छइ, पच्छा णायरजणेण साहुकारो कओ- अहो महासइत्ति, अहो जयइ प्रथमद्वारे सुभद्रोदाधम्मोत्ति । एयं लोइयं, चरणकरणाणुओगं पुण पडुच्च वेयावच्चादिसु अणुसासियव्वा, उजुत्ता अणुजुत्ता य संठवेयव्वा जहा । सीलवंताणं इह लोए एरिसंफलमिति । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह इतश्वाकाशे वागभूत- नागरजनाः! मा निरर्थक क्लेशिषुः, या शीलवती (यया) चालन्यामुदकं क्षिप्तं (सत्) न गिलति सा तेनोदकेन द्वारमाच्छोटयति, ततो द्वारमुद्घाटिष्यते इति, तत्र बढ्यः श्रेष्ठिसार्थवाहादीनां पुत्रीस्नुषाः न शक्नुवन्ति प्रचारमपि लब्धुम्, तदा सुभद्रा स्वजनमापृच्छते, अविसृजतां च चालन्यामुदकं क्षिप्त्वा 8 तेषां प्रातीहार्य दर्शयति, ततो विसृष्टा, उपासिका एवं चिन्तितुमाहता यथैषा श्रमणप्रतिलेखितोद्घाटयिष्यति, तया चालन्यामुदकं क्षिप्तम्, न गिलति इति प्रेक्ष्य *विषण्णाः, ततो महाजनेन सस्क्रियमाणा तं द्वारसमीपं गता, अर्हतो नमस्कृत्योदकेन आच्छोटितानि कपाटानि, महता शब्देन कोङ्कारवं कुर्वन्ति त्रीण्यपि गोपुरद्वाराणि ॥७७॥ उद्घाटितानि, उत्तरद्वारं चालनीपानीयेनाच्छोट्य भणति । या मम सदृशी शीलवती भविष्यति सैतत् द्वारमुद्घाटयिष्यति, तदद्यापि स्थगितमेवास्ति, पश्चान्नागरजनेन साधुकारः कृतः, अहो महासतीति, अहो जयति धर्म इति । एतल्लौकिकं, चरणकरणानुयोग पुनः प्रतीत्य वैयावृत्यादिषु अनुशासितव्याः, उद्युक्ता अनुद्युक्ताश्च संस्थापयितव्याः यथा शीलवतामिह लोके ईदृशं फलमिति। * पलिकामात्रमपि वि.प.। हरणम्। For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ७८॥ _ नि०- साहुक्कारपुरोगंजह सा अणुसासिया पुरजणेणं । यावच्चाईसुवि एव जयंते णुवोहेजा ।। ७४ ।। प्रथममध्ययन साधुकारपुरःसरं यथा सुभद्रा अनुशासिता सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहिता, केन?- पुरजनेन नागरिकलोकेन, वैयावृत्त्यादिष्वपि- द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ आदिशब्दात् स्वाध्यायादिपरिग्रहः, एवं यथा सा सुभद्रा यतमानान् उद्यमवतः, किं?- उपबृहयेत्, सद्गुणोत्कीर्त्तनेन तत्परिणाम नियुक्तिः ७४ वृद्धिं कुर्यात्, यथा- भरहेणवि पुव्वभवे वेयावच्चं कयं सुविहियाणं । सो तस्स फलविवागेण आसी भरहाहिवो राया ॥१॥ भुंजित्तु । अनुशास्त्यु पसंहारः भरहवासं सामण्णमणुत्तरं अणुचरित्ता । अट्टविहकम्ममुक्को भरहनरिंदोगओ सिद्धिं ।। इति गाथार्थः ।। उदाहरणदेशता पुनरस्योदाहृतैक नियुक्ति: ७५ देशस्यैवोपयोगित्वात्तेनैव चोपसंहारात् तथा च अप्रमादवद्भिः साधूनां कणुकापनयनादि कर्त्तव्यमिति विहायानुशास्त्योप- द्रव्यानुयोगसंहारमाह, वैयावृत्त्यादिष्वपि देशेनैवोपसंहारः, गुणान्तररहितस्य भरतादेर्निश्चयेन तदकरणादिति भावनीयमिति, एवं मधिकृत्यानु शास्तिद्वारम्। तावल्लौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तं तद्देशद्वारे अनुशास्तिद्वारम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य दर्शयति नि०-जेसिपि अस्थि आया वत्तव्वा तेऽवि अम्हवि स अत्थि। किंतु अकत्ता न भवड़ वेययड़ जेण सुहदुक्खं ।। ७५ ।। । येषामपि द्रव्यास्तिकादिनयमतावलम्बिनां तन्त्रान्तरीयाणां किं?- अस्ति विद्यते आत्मा जीव: वक्तव्यास्तेऽपि तन्त्रान्तरीयाः, साध्वेतत् अस्माकमप्यस्ति सः, तदभावे सर्वक्रियावैफल्यात्, किन्तु अकर्ता न भवति सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामकर्त्ता न भवतिअनिष्पादको न भवति, किन्तु? कतैव, अत्रैवोपपत्तिमाह-वेदयते अनुभवति येन कारणेन, किं? - सुखदुःखं सुकृतदुष्कृतकर्मफलमिति भावः ॥ न चाकर्तुरात्मनस्तदनुभावो युज्यते,अतिप्रसङ्गात्, मुक्तानामपि सांसारिकसुखदुःखवेदनाऽऽपत्तेः, भरतेनापि पूर्वभवे वैयावृत्त्यं कृतं सुविहितानाम् । स तस्य फलविपाकेन आसीद् भरताधिपो राजा ।। १ ।। भुक्त्वा भरतवर्षं श्रामण्यमनुत्तरमनुचर्य । अष्टविधकर्ममुक्तो भरतनरेन्द्रो गतः सिद्धिम् ॥१॥ 0 वैयावृत्त्याकरणात् वि. प्र.। ॥ ७८॥ For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् अकर्तृत्वाविशेषात्, प्रकृत्यादिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाकर्त्तारमात्मानं प्रत्यकिञ्चित्करत्वाद्, अलं विस्तरेणेति । प्रथममध्ययन गाथार्थः । उदाहरणदेशता त्वत्राप्युदाहृतस्यैकदेशेनैवोपसंहारात् तत्रैव चासंप्रतिपत्तौ समर्थनाय निदर्शनाभिधानादिति ।। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् गतमनुशास्तितद्देशद्वारम्, अधुनोपालम्भद्वारविवक्षयाऽऽह नियुक्ति: ७६ नि०- उवलम्भम्मि मिगावइ नाहियवाईवि एव वत्तव्वो। नस्थित्ति कुविन्नाणं आयाऽभावे सड़ अजुत्तं ।। ७६ ॥ उपालम्भद्वारे उपालम्भे प्रतिपाद्ये मृगावतिदेव्युदाहरणम्। एयं च जहा आवस्सए दव्वपरंपराए भणियं तहेव दट्ठव्वं जाव पव्वइया । मृगावतिअज्जचंदणाए सिस्सिणी दिण्णा । अन्नया भगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिओ, चंदादिच्चा सविमाणेहिं वंदिउँ आगया, चउपोरसीयं समोसरणं काउं अत्थमणकाले पडिगया, तओ मिगावई संभंता, अयि! वियालीकयंति भणिऊणं साहुणीसहिया । जाव अज्जचंदणासगासं गया, ताव य अंधयारयं जायं, अज्जचंदणापमुहाहिं साहुणीणं ताव पडिक्वंतं, ताहे सा मिगावई अजा अजचंदणाए उवालब्भइ, जहा एवं णाम तुमं उत्तमकुलप्पसूया होइऊण एवं करेसि?, अहो न लट्ठयं, ताहे पणमिऊण पाएसुपडिया, परमेण विणएण खामेइ, खमह मे एगमवराह, णाहं पुणो एवं करेहामित्ति । अजचंदणा य किल तंमि समए देव्युदाहरणम्। Oएतक यथाऽऽवश्यके द्रव्यपरम्परायां भणितं तथैव द्रष्टव्यं यावत्यव्रजिता आर्यचन्दनायै शिष्या दत्ता। अन्यदा भगवान् विहरन् कोशाम्ब्यां समवस्तः, चन्द्रादित्यौ स्वविमानाभ्यां वन्दितुमागतौ, चतुष्पौरुषीकं समवसरणं कृत्वाऽस्तमयनकाले प्रतिगतो, ततो मृगावती सम्भ्रान्ता- अयि! विकालीकृतमिति भणित्वा साध्वीसहिता है यावदार्यचन्दनासकाशं गता तावच्चान्धकारं जातम्, आर्यचन्दनाप्रमुखाभिः साध्वीभिस्तावत्प्रतिक्रान्तम्, तदा सा मृगावत्यार्या आर्यचन्दनयोपालभ्यते- यथैवं नाम: त्वमुत्तमकुलप्रसूता भूत्वा एवं करोषि?, अहो न लष्टम्, तदा प्रणम्य पादयोः पतिता परमेण विनयेन क्षमयति, क्षमस्व ममैकमपराधम्, नाहं पुनरेवं करिष्यामि इति । आर्यचन्दना च किल तस्मिन् समये For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11८०॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्तिः ७७ उपालम्भद्वारम्। संथारोवगया पसुत्ता, इयरीए वि परमसंवेगगयाए केवलनाणं समुप्पन्नं, परमंच अंधयारं वट्टइ, सप्पो य तेणंतरेण आगच्छइ, पव्वत्तिणीए य हत्थो लंबमाणो तीए उप्पाडिओ, पडिबुद्धा य अजचंदणा, पुच्छिया-किमेय?, सा भणइ-दीहजाइओ, कहं तुमं जाणसि? किं कोई अतिसओ? आमंति, पडिवाइ अप्पडिवाइत्ति पुच्छिया सा भणइ- अप्पडिवाइत्ति, तओ खामिया । लोगलोगुत्तरसाहरणमेयं । एवं पमायतो सीसोउवालंभेयव्वोत्ति । उदाहरणदेशता पूर्ववद्योजनीयेति । एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्भद्वारम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते- नास्तिकवाद्यपि चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक इत्यर्थः, एवं वक्तव्यः अभिधातव्यः- नास्ति न विद्यते, कः? प्रकरणाजीव इति, एवंभूतं कुविज्ञानं जीवसत्ताप्रतिषेधावभासीत्यर्थः, आत्माऽभावे सति न युक्तम्, आत्मधर्मत्वाद् ज्ञानस्येति भावना, भूतधर्मता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेव न युक्ता, तत्समुदायकार्यताऽपि प्रत्येकं भावाभावविकल्पद्वारेण तिरस्कर्त्तव्येति गाथार्थः।। अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह नि०- अथित्ति जा वियक्ता अहवा नस्थित्ति जं कुविन्नाणं । अचंताभावे पोग्गलस्स एवं चिअन जुत्तं ।। ७७ ।। अस्ति जीव इति एवंभूता या वितर्काऽथवा नास्ति न विद्यत इति एवंभूतं यत्कुविज्ञानं लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताभावे पुद्गलस्य जीवस्य इदमेव न युक्तं इदमेवान्याय्यम्, भावना पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ उदाहरणदेशता नास्तिकस्य, परलोकादिप्रतिषेधवादिनो : संस्तारोपगता प्रसुप्ता, इतरस्या अपि परमसंवेगगतायाः केवलज्ञानं समुत्पन्नम्, परमं चान्धकारं वर्त्तते । सर्पश्च तेनान्तरेण (मार्गेण मध्येन वा) आगच्छति, प्रवर्त्तिन्याश्च हस्तो लम्बमानस्तयोत्पाटितः, प्रतिबुद्धा चार्यचन्दना, पृष्टा किमेतत्?, सा भणति- दीर्घजातीयः, कथं त्वं जानासि? किं कश्चिदतिशयः? ओमिति, प्रतिपात्यप्रतिपाती वेति पृष्टा सा भणति-अप्रतिपातीति, ततः क्षामिता। लोकलोकोत्तरसाधारणमेतत्, एवं प्रमाद्यन् शिष्य उपालम्भनीय इति । 0 ०र्थमुपसंहरनाह. (प्र०)। ॥८० For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ८१॥ पुच्छा कोणिकगोतमस्वाम्य दाहरणमा जीवसाधनाद् भावनीयेति । गतमुपालम्भद्वारम्, अधुना शेषद्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह प्रथममध्ययन नि०- पुच्छाए कोणिओखलु निस्सावयणमि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे जीवत्थित्तं अणिच्छतं ।। ७८ ।। दुमपुष्पिका, सूत्रम् पृच्छायां प्रश्न इत्यर्थः, कोणिकः श्रेणिकपुत्रः खलूदाहरणम् । जहा तेण सामी पुच्छिओ- चक्कवट्टिणो अपरिचत्तकाम निऍक्तिः ७८ भोगा कालमासे कालं किच्चा कहिं उववजंति?, सामिणा भणियं- अहे सत्तमीए चक्कवट्टीणो उववजंति, ताहे भणइ-अहं। निश्राद्वारे कत्थ उववज्जिस्सामि?, सामिणा भणियं-तुमं छट्ठीपुढवीए, सो भणइ- अहं सत्तमीए किं न उववजिस्सामि?, सामिणा भणियं-सत्तमीए चक्ववट्टिणो उववजंति, ताहे सोभणइ- अहं किं न होमि चक्कवट्टी? ममवि चउरासी दन्तिसयसहस्साणि, सामिणा भणियं- तव रयणाणि निहीओ य णत्थि, ताहे सो कित्तिमाई रयणाई करित्ता ओवतिउमारद्धो, तिमिसगुहाए। पविसिउं पवत्तो, भणिओ य किरिमालएणं- वोलीणा चक्कवट्टिणो बारसवि, विणस्सिहिसि तुमं, वारिजंतो वि ण ठाई, पच्छा कयमालएण आहओ, मओ य छट्टि पुढविंगओ, एयं लोइयं । एवं लोगुत्तरेवि बहुस्सुआ आयरिया अट्टाणि हेऊ य. पुच्छियव्वा, पुच्छित्ता य सक्कणिज्जाणि समायरियव्वाणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियव्वाणि, भणियं च-पुच्छह पुच्छावेह। 0 यथा तेन स्वामी पृष्टः- चक्रवर्त्तिनोऽपरित्यक्तकामभोगाः कालमासे कालं कृत्वा कोत्पद्यन्ते?, स्वामिना भणितं- अधःसप्तम्यां चक्रवर्त्तिन उत्पद्यन्ते, तदा भणति- अहं क्वोत्पत्स्ये?, स्वामिना भणितं- त्वं षष्ट्यां पृथिव्याम्, स भणति- अहं सप्तम्यां किं नोत्पत्स्ये? स्वामिना भणित- सप्तम्यां चक्रवर्त्तिन उत्पद्यन्ते, तदा स भणति- अहं किं चक्रवर्ती न भवामि ममापि चतुरशीतिर्दन्तिशतसहस्राणि, स्वामिना भणितं- तव रत्नानि निधयश्च न सन्ति, तदा स कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वाऽवपतितुं ॥८१॥ (जेतुं) आरब्धः, तमिसागुहायां प्रवेष्टुं प्रवृत्तः, भणितश्च किरिमालकेन-व्यतिक्रान्ता द्वादशापि चक्रवर्तिनः, विनचसि त्वम्, वार्यमाणोऽपिन तिष्ठति, पश्चात्कृतमालकेनाहतः, मृतश्व षष्ठी पृथ्वीं गतः। एतल्लौकिकमेवं लोकोत्तरेऽपि बहुश्रुता आचार्याः प्रष्टव्या अर्थान् हेतूश्च, पृष्ट्वा च शकनीयान्याचरितव्यानि अशकनीयानि परिहर्त्तव्यानि, भणितं च पृच्छथ पृच्छयथ For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदश सूत्रम् श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।८२॥ पृच्छा य पंडियए साहवे चरणजुत्ते । मा मयलेवविलित्ता पारत्तहियं ण याणिहिह॥१॥उदाहरणदेशता पुनरस्याभिहितैकदेश एव प्रष्टुम्रहात् । प्रथममध्ययन तेनैव चोपसंहारादिति । एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाद्वारम्, अधुनैतत्प्रतिबद्धां द्रव्यानुयोगवक्तव्यता द्रुमपुष्पिका, मपास्य गाथोपन्यासानुलोमतो निश्रावचनमभिधातुकाम आह- निश्रावचने निरूप्ये गौतमस्वाम्युदाहरणमिति । एत्थ। नियुक्ति: ७९ गागलिमादी जहा पव्वइया तावसा य एवं जहा वइरसामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसामिस्स किल । निश्राद्वारम्। अधिई जाया। तत्थ भगवया भण्णइ-चिरसंसट्ठोऽसि मे गोयमा! चिरपरिचितोऽसि मे गोयमा! चिरभाविओऽसि मे गोयमा! तं मा अधिई करेहि, अंते दोन्निवि तुल्ला भविस्सामो, अन्ने य तन्निस्साए अणुसासिया दुमपत्तए अज्झयणित्ति । एवं जे असहणा विणेया ते अन्ने मद्दवसंपन्ने णिस्सं काऊण तहाऽणुसासियव्वा उवाएण जहा सम्म पडिवखंति। उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन-प्रदर्शितलेशत एव तथानुशासनाद् । एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छानिश्रावचनद्वारद्वयम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते- तत्रेदं गाथादलं-‘णाहियवाई'मित्यादि, नास्तिकवादिनं चार्वाकं पृच्छेज्जीवास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाथार्थः।। किं पुच्छेत? नि०-केणंति नत्थि आया जेण परोक्खात्ति तव कुविन्नाणं। होइ परोक्खं तम्हा नस्थिति निसेहए कोण? ॥ ७९ ॥ केनेति केन हेतुना?, नास्त्यात्मा न विद्यते जीव इति पृच्छेत्, स चेद् ब्रूयात् येन परोक्ष इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः, पण्डितान् साधून चरणयुक्तान् । मा मदलेपविलिप्ताः पारत्रिकहितं न ज्ञासिष्ट ॥१॥0 अत्र गाङ्गल्यादयो यथा प्रव्रजितास्तापसाश्च, एवं यथा वज्रस्वाम्युत्पत्तावावश्यके 8 तथा तावज्ज्ञेयं यावद् गौतमस्वामिनः किलाधृतिर्जाता । तत्र भगवता भण्यते-चिरसंसृष्टोऽसि मम गौतम! चिरपरिचितोऽसि मम गौतम! चिरभावितोऽसि मे गौतम! तन्माऽधृति कार्षीः, अन्ते द्वावपि तुल्यौ भविष्यावः, अन्ये च तन्निश्रयाऽनुशासिता गुमपत्रकेऽध्ययन इति । एवं येऽसहनाविनेयास्तेऽन्यान् माईवसंपन्नान् निश्रीकृत्य तथाऽनुशासितव्या उपायेन यथा सम्यक् प्रतिपद्यन्ते। For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 1८३॥ स च वक्तव्य:- भद्र! तव कुविज्ञानं जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्तत्वेन तनिषेधकं भवति परोक्षम, अन्यप्रमातृणामिति गम्यते, तस्माद् भवदुपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु?, विवक्षाऽभावे विशिष्टशब्दानुत्पत्तेरिति गाथार्थः ।। उदाहरणदेशता चास्य पूर्ववदिति गतं पृच्छाद्वारम् ॥ नि०- अन्नावएसओ नाहियवाई जेसिँ नत्थि जीवो उ। दाणाइफलं तेसिं न विजाइ चउह तहोस ।। ८०॥ अन्यापदेशतः अन्यापदेशेन नास्तिकवादी लोकायतो वक्तव्य इति शेषः, अहो धिक्कष्टं येषां वादिनां नास्ति जीव एव न विद्यते आत्मैव दानादिफलं तेषां न विद्यते दानहोमयागतपःसमाध्यादिफलं-स्वर्गापवर्गादि तेषां -वादिनां न विद्यतेनास्तीत्यर्थः। कदाचित्त एवं श्रुत्वैवं ब्रूयुः- मा भवतु, का नो हानिः?, 'न हाभ्युपगमा एव बाधायै भवन्ती'ति, ततश्च सत्त्ववैचित्र्यान्यथानुपपत्तितस्ते सम्प्रतिपत्तिमानेतव्याः, इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतद्, उदाहरणदेशता चरणकरणानुयोगानुसारेण भावनीयेति । गतं निश्राद्वारम्, तदन्वाख्यानाच्च तद्देशद्वारम्, अधुना तद्दोषद्वारावयवार्थप्रचिकटविषयोपन्यासार्थं गाथावयवमाह-'चउह तहोस चतुर्धा तद्दोष- इति उदाहरणदोषः, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिकः, अथवोदाहरणेनैव सामानाधिकरण्यम्, ततश्च तद्दोषमिति तस्योदाहरणस्यैव दोषा यस्मिंस्तत्तद्दोषमिति गाथार्थः।। उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रतिपादयन्नाह नि०- पढमं अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं । दुरुवणियं तु चउत्थं अहम्मजुत्तमि नलदामो ॥ ८१ ।। प्रथमं आद्यं अधर्मयुक्तं पापसम्बद्धमित्यर्थः, तथा प्रतिलोमं प्रतिकूलम्, आत्मन उपन्यास इति आत्मन एवोपन्यास:-तथानिवेदनं यस्मिन्निति, दुरुपनीतं चेति दुष्टमुपनीतं- निगमितमस्मिन्निति चतुर्थमिदं वर्त्तते, अमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैO०णानुसारेण (प्र०)। प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्मुक्तिः ८० पृच्छानिश्राद्वारम्। नियुक्तिः ८१ 'तहो'ति चतुष्प्रकारे ध्वधर्मयुक्तमिति प्रथमद्वारे नलदामकोदाहरणम्। ER ॥ 3 ॥ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययन श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11८४॥ र्भावार्थमुपदर्शयति-अधर्मयुक्ते नलदाम कुविन्दः, लौकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः।। पर्यन्तावयवार्थः कथानकादवसेयः,।। तिचेदं-चाणक्केण णंदे उत्थाइए चंदगुत्ते रायाणए ठविए एवं सवं वण्णित्ता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदसंतिएहिं मणुस्सेहिं सह। दुमपुष्पिका, सूत्रम् चोरग्गाहो मिलिओ, णगरं मुसइ, चाणकोऽवि अन्नं चोरग्गाहं ठविउकामो तिदंडं गहेऊण परिवायगवेसेण णयरं पविट्ठो, नियुक्तिः ८१ गओ णलदामकोलियसगासं, उवविट्ठो वणणसालाए अच्छइ, तस्स दारओ मक्कोडएहिं खइओ, तेण कोलिएण बिलं 'तदोषेति चतुष्प्रकारे खणित्ता दहा, ताहे चाणक्केण भण्णइ-किं एए डहसि?, कोलिओ भणइ-जड़ एए समूलजाला ण उच्छाइजंति, तो । प्वधर्मयुक्तपुणोऽवि खाइस्संति, ताहे चाणक्केण चिंतियं- एस मए लद्धो चोरग्गाहो, एस णंदतेणया समूलया उद्धरिस्सिहिइत्ति चोरग्गाहो मिति कओ, तेण तिखंडिया विसंभिया अम्हे संमिलिया मुसामोत्ति, तेहिं अन्नेवि अक्खाया जे तत्थ मुसगा, बहुया सुहतरागं प्रथमद्वारे नलदामकोमुसामोत्ति, तेहिं अन्नेवि अक्खाया, ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मिलिऊण सव्वेऽवि मारिया। एवं अहम्मजुत्तं ण भाणियव्वं, ण य कायव्वंति । इदं तावल्लौकिकम्, अनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन णेवं अहम्मजुत्तं कायव्य किंचि भाणियव्वं वा । थोवगुणं बहुदोस विसेसओ Oचाणक्येन नन्दे उत्थापिते चन्द्रगुप्ते राजनि स्थापिते एवं सर्वं वर्णयित्वा यथा शिक्षायाम्, तत्र नन्दसत्कर्मनुष्यैः सह चौरग्राहो मिलितः, नगरं मुष्णाति, चाणक्योऽपि अन्य चौरग्राहं स्थापयितुकामः त्रिदण्डं गृहीत्वा परिव्राजकवेषेण नगरं प्रविष्टः, गतो नलदामकोलिकसकाशमुपविष्टो वयनशालायां तिष्ठति, तस्य दारको मत्कोटकैःखादितः, तेन कोलिकेन बिलं खनित्वा दग्धाः, तदा चाणक्येन भण्यते- किमेतान् दहसि?, कोलिको भणति- यद्येते समूलजाला नोच्छाद्यन्ते तदा पुनरपि खादिष्यन्ति, तदा चाणक्येन चिन्तितं- एष मया लब्धश्चौरग्राहः, एष नन्दस्तेनकान् समूलान् उद्धरिष्यतीति चौरग्राहः कृतः, तेन त्रिखण्डिकाः (स्तेनाः) विश्रम्भिताः- वयं सम्मिलिता मुष्णाम इति, तैरन्येऽप्याख्याता ये तत्र मोषकाः, बहवः सुखतरं मुष्णीम इति, तैरन्येऽप्याख्यातास्तदा तेन ते चौरग्राहेण मिलित्वा सर्वेऽपि मारिताः। एवमधर्मयुक्तं न । भणितव्यं न च कर्तव्यमिति । 0 नैवमधर्मयुक्तं कर्त्तव्यं किञ्चिद् भणितव्यं वा । स्तोकगुणं बहुदोषं विशेषतः दाहरणमा L / x ॥ 1888888880808080808086868865 For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||८५॥ ज्ञापकम्। ठाणपत्तेणं ॥१॥जम्हा सो अन्नेसिपि आलंबणं होई । द्रव्यानुयोगे तु- वादम्मितहारूवे विजाय बलेण पवयणट्टाए। कुज्जा प्रथममध्ययन सावजं पिह जह मोरीणउलिमादीसु॥१॥सो परिवायगो विलक्खीकओ त्ति । उदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनीयेति।। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ गतमधर्मयुक्तद्वारम्, अधुना प्रतिलोमद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह नियुक्तिः ८२ नि०- पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो।गोविंदवायगोऽविय जह परपक्खं नियत्तेइ ।। ८२॥ 'प्रतिलोमे'ति अभयकुमारप्रतिलोमे उदाहरणदोषे यथा अभयः अभयकुमारः प्रद्योतं राजानं हृतवान् अपहृतः सन्निति, एतद् ज्ञापकम्, इह च। प्रद्योतराज्ञोत्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थो वर्तमाननिर्देश इत्यक्षरार्थः। भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्च यथाऽऽवश्यके शिक्षायां तथैव । द्रष्टव्यमिति । एवं तावल्लौकिकं प्रतिलोमम्, लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयोगमधिकृत्य सूचयन्नाह- गोविंदे त्यादि गाथादलम्, अनेन । चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, आद्यन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तद्हणेनैव ग्रहणात्, तत्र चरणकरणे णो । किंचि य पडिलोमंकायव्वं भवभएणू मण्णेसिं। अविणीयसिक्खगाण उजयणाइ जहोचिअंकुजा॥१॥ द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवाचकोऽपि च यथा परपक्षं निवर्त्तयतीत्यर्थः । सो य किर तच्चण्णिओ आसि, विणा (ण्णा) सणणिमित्तं पव्वइओ, पच्छा भावो जाओ, महावादी जात इत्यर्थः । सूचकमिदम्, अत्र च-दव्वट्टियस्स पज्जवणयट्टियमेयं तु होइ पडिलोमं । सुहदुक्खाइ-अभावं इयरेणियरस्स: स्थानप्राप्तेन ॥१॥ यस्मात् सोऽन्येषामप्यालम्बनं भवति 10 वादे तथारूपे विद्याया बलेन प्रवचनार्थाय। कुर्यात् सावद्यमपि यथा मयूरीनकुल्यादिभिः॥१॥स परिव्राट् विलक्षीकृतः इति 10 नो किश्चिदपि प्रतिलोमं कर्तव्यं भवभयेना (जननम) न्येषाम् । अविनीतशिक्षकाणां तु यतनया यथोचितं कुर्यात् ।।१।। स च किल बौद्ध आसीत्, बिनाशन(विज्ञान) निमित्तं प्रव्रजितः, पश्चाद्भावो जातः। द्रव्यार्थिकस्य पर्यायनयार्थिक (वचनं) एतत्तु भवति प्रतिकूलम् । सुखदुःखाद्यभावमितरस्ये तरेण(रः) 1॥८५।। For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ८६ ।। www.kobatirth.org चोइज्जा ॥ १ ॥ अण्णे उ दुङवादिम्मि, किंचि बूया उ किल पडिकूलं । दोरासिपइण्णाए तिण्णि जहा पुच्छ पडिसेहो ॥ २ ॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपक्षे साध्यार्थासिद्धेः, द्वितीयपक्षे तु शास्त्रविरुद्ध भाषणादेव भावनीयेति गाथार्थः ।। गतं प्रतिलोमद्वारम्, इदानीमात्मोपन्यासद्वारं विवृण्वन्नाह नि० अत्तउवन्नासंमि य तलागभेयंमि पिंगलो थवई । R आत्मन एवोपन्यासो- निवेदनं यस्मिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागभेदे पिङ्गलस्थपतिरुदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकगम्यः, तच्चेदं- इह एगस्स रण्णो तलागं सव्वरजस्स सारभूअं, तं च तलागं वरिसे वरिसे भरियं भिज्जइ, ताहे राया। भणइ को सो उवाओ होज्जा ? जेण तं न भिजेज्जा, तत्थ एगो कविलओ मणूसो भणड़ जड़ नवरं महाराय ! इत्थ पिंगलो कविलियाओ से दाढियाओ सिरं से कविलियं सो जीवंतो चेव जंमि ठाणे भिज्जड़ तंमि ठाणे णिक्खमड़, तो णवरं ण भिज्जइ, पच्छा कुमारामच्चेण भणियं महाराय ! एसो चेव एरिसो जारिसयं भणइ, एरिसो णत्थि अन्नो, पच्छा सो तत्थेव मारेत्ता निक्खित्तो। एवं एरिसं न भाणियव्वं जं अप्पवहाए भवइ । इदं लौकिकम्, अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितम्, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्, तत्र चरणकरणानुयोगे नैवं ब्रूयात् यदुत- लोइयधम्माओविहु जे पब्भट्ठा णराहमा ते उ। कह दव्वसोयरहिया ← चोदयेत् ॥ १॥ अन्ये तु दुष्टवादिनि किञ्चिद्वयात्तु किल प्रतिकूलम् । द्विराशिप्रतिज्ञायां त्रयो यथा पृच्छा प्रतिषेधः ॥ २ ॥ एकस्य राज्ञस्तटाकः सर्वराज्यस्य सारभूतः, स च तटाको वर्षे वर्षे भृतो भिद्यते, तदा राजा भणति कः स उपायो भवेत् येनासौ न भिद्यते, तत्रैकः कपिलको मनुष्यो भणति- यदि परं महाराज! अत्र पिङ्गलः कपिलास्तस्य श्मश्रुकेशाः शिरस्तस्य कपिलं स जीवन्नेव यस्मिन् स्थाने भिद्यते तस्मिन् स्थाने निक्षिप्यते ततः पर न भिद्यते, पश्चात् कुमारामात्येन भणितंमहाराज! एष एव ईदृशो यादृशं भणति तादृशो नास्त्यन्यः, पश्चात्स तत्रैव मारयित्वा निक्षिप्तः । एवमीदृशं न भणितव्यं यदात्मवधाय भवति। लौकिकधर्मादपि ये प्रभ्रष्टा नराधमास्ते तु । कथं द्रव्यशौचरहिता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं | द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ८३ 'आत्मोन्या | तडागभेदे | पिङ्गलस्थपतिरुदा हरणम्। ।। ८६ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ८७ ॥ www.kobatirth.org धम्मस्साराहया होंति ? ॥ १ ॥ इत्यादि । द्रव्यानुयोगे पुनरेकेन्द्रिया जीवाः, व्यक्तोच्छ्वासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावात्, घटवत्, इह ये जीवा न भवन्ति न तेषु व्यक्तोच्छ्वासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावो, यथा घटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति, तस्माजीवा एवैत इति, अत्रात्मनोऽपि तद्रपाऽऽपत्त्यात्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटार्थेवेति न भाव्यते । गतमात्मोपन्यासद्वारम् अधुना दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह नि०- अणिमिसगिण्हण भिक्खुग दुरुवणीए उदाहरणं ।। ८३ ।। अत्रानिमिषा मत्स्यास्तद्ग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम् इदं च लौकिकम्, अनेन चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरमप्याक्षिप्तं वेदितव्यमिति गाथादलाक्षरार्थः ॥ भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्चेदं- दं-किल कोइ तच्चणिओ जालवावडकरो मच्छगवहाए चलिओ, धुत्तेण भण्णइ आयरिय! अघणा ते कंथा, सो भणइ जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयं कन्थाऽऽचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान् ?, ते मे मद्योपदंशान् पिबसि ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? । कृत्वाऽरीणां गलेऽही क्व नु तव रिपवो? येषु सन्धिं छिनद्मि, चौरस्त्वं? द्यूतहेतोः कितव इति कथं ? येन दासीसुतोऽस्मि ॥ १ ॥ इदं लौकिकम्, चरणकरणानुयोगे तु - इय सासणस्सऽवण्णो जायड़ जेणं न तारिसं बूया। वादेवि उवहसिज्जड़ निगमणओ जेण तं चेव ।। १ ।। उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । गतं दुरुपनीतद्वारम्, मूलद्वाराणां चोदाहरणदोषद्वारमिति, साम्प्रतमुपन्यासद्वारं व्याख्यायते, तत्राह नि०- चत्तारि उवन्नासे तव्वत्थुग अन्नवत्थुगे चेव । पडिणिभए हेउम्मि य होंति इणमो उदाहरणा ।। ८४(१) ।। एकेन्द्रियत्वापत्त्या किल कश्चित् बौद्धः जालव्यापृतकरो मत्स्यवधाय चलितः, धूर्तेन भण्यते- आचार्या अघना ते कन्था, ॐ धर्मस्याराधका भवन्ति ॥ १ ॥ स भणति- जालमेतत्। © इति शासनस्यावर्णो जायते येन न तादृशं ब्रूयात् । वादेऽप्युपहस्यते निगमनतो येन तचैव ॥ १॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only | प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ८३ 'दुरुपनीतेति मत्स्यग्रहणे भिक्षु रुदाहरणम् । | निर्युक्तिः ८४ (१) 'उपन्यासे 'ति तद्वस्तूपन्यासे कार्पिटिको | दाहरणम् । ।। ८७ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11८८॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्तिः ८४ 'उपन्यासे'ति तहस्तूपन्यासे कार्पिटिकोदाहरणम्। चत्वारः उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वा, भेदा भवन्ति इति शेषः, ते चामी- सूचनात् सूत्रमितिकृत्वा तथाधिकारानुवृत्तेश्च तद्वस्तूपन्यासस्तथा तदन्यवस्तूपन्यासः तथा प्रतिनिभोपन्यासः तथा हेतूपन्यासश्च। तत्रैतेषु भेदेषु भवन्ति अमूनि वक्ष्यमाणान्युदाहरणानीति गाथार्थः ।। भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः । तत्राद्यभेदव्याचिख्यासयाऽऽह नि०- तव्वत्थुयंमि पुरिसो सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं । तद्वस्तुके तद्वस्तूपन्यास इत्यर्थः, पुरि शयनात्पुरुषः सर्वं भ्रान्त्वा सर्वमाहिण्ड्य किम्?,- कथयति अपूर्वम्, वर्तमाननिर्देशः पूर्ववदिति गाथादलार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं- एगम्मि देवकुले कप्पडिया मिलिया भणंति- केण भे भमन्तेहिं किंचि अच्छेरियं दिट्ठ?, तत्थ एगो कप्पडिगो भणइ मए दिट्ठति, जड़ पुण एत्थ समणोवासओ नत्थि तो साहेमि, तओ सेसेहिं भणियं- णत्थित्थ समणोवासओ, पच्छा सो भणइ-मए हिंडतेणं पुव्ववेतालीए समुद्दस्स तडे रुक्खो महइमहतो दिट्ठो, तस्सेगा साहा समुद्दे पइट्ठिया, एगाय थले, तत्थ जाणि पत्ताणि जले पडंतिताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति, जाणि अथले ताणि थलचराणि हवंति, ते कप्पडिया भणंति- अहो अच्छेरयं देवेण भट्टारएण णिम्मियंति, तत्थेगोसावगो कप्पडिओ, सो भणइ- जाणि अद्धमज्झे पडंति ताणि किं हवंति?, ताहे सो खुद्धो भणइ-मया पुव्वं चेव भणियं- जइ सावओ नत्थि 0 एकस्मिन् देवकुले कार्पटिका मिलिता भणन्ति- केनचित् भवतां भ्रमता किञ्चिदाश्चर्यं दृष्ट?, तत्रैकः कार्पटिको भणति- मया दृष्टमिति, यदि पुनरत्र श्रमणोपासको नास्ति तदा कथयामि, ततः शेषैर्भणितं- नास्त्यत्र श्रमणोपासकः, पश्चात्स भणति- मया हिण्डमानेन पूर्ववैतालिकायां समुद्रस्य तटे वृक्षोऽतिगुरुको दृष्टः, तस्यैका शाखा समुद्रे प्रतिष्ठिता एका च स्थले, तत्र यानि पत्राणि जले पतन्ति तानि जलचराः सत्त्वा भवन्ति, यानि स्थले तानि स्थलचरा भवन्ति, ते कार्पटिका । भणन्ति- अहो आश्वयं देवेन भट्टारकेन निर्मितमिति, तत्रैकः श्रावकः कार्पटिकः स भणति- यानि अर्धमध्ये पतन्ति तानि के भवन्ति?, तदा स क्षुब्धो भणति- मया । पूर्वमेव भणितं यदि श्रावको नास्ति ततः पूर्वकूलं वि.प. । * खत्थो विलक्षः वि. प्र.। 1८८॥ For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥८९॥ पन्यास:। तो कहेमि । एतेणं तं चेव पडणवत्थुमहिकिच्चोदाहरियं । एवं तावल्लौकिकम्, इदं चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरस्यापि सूचकम्, तत्र प्रथममध्ययन चरणकरणानुयोगे यः कश्चिद्विनेयः कञ्चनासदाहं गृहीत्वा न सम्यग्वर्त्तते स खलु तद्वस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः, यथा कश्चिदाह- द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला॥१॥ इदं च किलैवमेव युज्यते, प्रवृत्तिमन्तरेण । नियुक्तिः निवृत्तेः फलाभावात् निर्विषयत्वेनासम्भवाच्च, तस्मात्फलनिबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यदुष्टैवेति, अत्रोच्यते, इह । ८४(२) तदन्यवस्तूनिवृत्तेर्महाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनाहोस्विददुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनेति?, यद्याद्यः पक्षः कथं प्रवृत्तेरदुष्टत्वम्, अथापरस्ततो निवृत्तेरप्यदुष्टत्वात् तन्निवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वप्रसङ्गः, तथा च सति पूर्वापरविरोध इति भावना। द्रव्यानुयोगे तु य एवमाह-एकान्तनित्यो जीवः अमूर्त्तत्वादाकाशवदिति, स खलु तदेवामूर्त्तत्वमाश्रित्य तस्योत्क्षेपणादावनित्ये कर्मण्यपि तावद्वक्तव्यः, कर्मामूर्तमनित्यं चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष एव, यथाऽन्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति । गतं तद्वस्तूपन्यासद्वारम्, अधुना तदन्यवस्तूपन्यासद्वारमभिधातकाम आह नि०- तयअन्नवत्थुगंमिवि अन्नत्ते होइ एगत्तं ।। ८४(२)?" तदन्यवस्तुकेऽपि उदाहरणे, किं?-अन्यत्वे भवत्येकत्वमित्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयं- कश्चिदाह इह यस्य वादिनोऽन्यो जीवः अन्यच्च शरीरमिति, तस्यान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात्तयोरपि तद्वाच्या विशिष्टत्वेनैकत्वप्रसङ्ग इति, तस्य जीवशरीरापेक्षया तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः कर्त्तव्यः, कथं?, नन्वेवं सति सर्वभावानां परमाणुव्यणुकघटपटादीनामेकत्वप्रसङ्गः, अन्यः - कथयामि, एतेन तदेव पतनवस्त्वधिकृत्योदाहृतम् । ॐ दुष्टत्वाङ्गीकारात्तस्याः, दुष्टपरिहारात्मकत्वात् निवृत्तेः । 0 विवक्षितायाः, निवृत्तेर्निवृत्तिः प्रवृत्तिः । 02 मतेन (प्र०)10 नैयायिकानाम् । वादिनः। Oजीवशरीरयोः । 0 अन्यशब्दवाच्याभेदेन । ॥८९॥ For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥९०॥ परिव्राजकश्रावकयोः कथानकम्। परमाणुरन्यो द्विप्रदेशिक इत्यादिना प्रकारेणान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात्, तेषां च तद्वाच्यत्वेनाविशिष्टत्वादिति, तस्मादन्यो । प्रथममध्ययन जीवोऽन्यच्छरीरमित्येतदेव शोभनमिति । एतद्रव्यानुयोगे, अनेन चेतरस्याप्याक्षेपः, तत्र चरणकरणानुयोगे न मांसभक्षण द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ इत्यादावेव कुग्राहे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः, कथं?, न हिंस्यात् सर्वाणि भूतानी त्येतदेवं विरुध्यते इति । लौकिकं तु नियुक्तिः ८५ तस्मिन्नेवोदाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहार:- जहा जाणि पुण पाडिऊण पाडिऊण कोइ खाइ वीणेइ वा ताणि किं 'प्रतिनि भोपन्यासे हवंति त्ति? । गतं तदन्यवस्तूपन्यासद्वारम्, साम्प्रतं प्रतिनिभमभिधित्सुराह नि०- तुज्झ पिया मह पिउणो धारेइ अणूणयं पडिनिभंमि। ___ गाथादलम् । तव पिता मम पितुर्धारयत्यनूनं शतसहस्रमित्यादि गम्यते । प्रतिनिभ इति द्वारोपलक्षणम्, अयमक्षरार्थः, भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्चेदं- एगम्मि नगरे एगो परिव्वायगो सोवण्णएण खोरएण तहिं हिंडइ, सो भणइ- जो मम असुयं सुणावेइ तस्स एयं देमि खोरयं, तत्थ एगो सावओ, तेण भणिअंतुज्झ पिया मम पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं । दिजउ अह नसूयं खोरयं देहि ॥१॥इदं लौकिकम्, अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम्, तत्र चरणकरणानुयोगे येषां: सर्वथा हिंसायामधर्मः तेषां विध्यनशनविषयोद्रेकचित्तभङ्गादात्महिंसायामपि अधर्म एवेति तदकरणम् । द्रव्यानुयोगे पुनरदुष्टं मद्वचनमिति मन्यमानो यः कश्चिदाह-'अस्ति जीव' इति, अत्र वद किञ्चित्, स वक्तव्यो यद्यस्ति जीवः एवं तर्हि घटादी यथा यानि पुन पातयित्वा पातयित्वा कश्चित्खादति (अव) चिनुते वा तानि के भवन्ति?0 एकस्मिन नगरे एकः परिव्राजकः सौवर्णेन खोरकेण (तापसभाजनेन) तत्र हिण्डते, स भणति- यो मामश्रुतं श्रावयति तस्मै एतद्ददामि खोरकम्, तत्रैकः श्रावकः, तेन भणितं- तव पिता मम पितुः धारयति अनूनं शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्व B ददातु अथ न श्रुतं खोरकं देहि ॥ १॥ ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् नियुक्तिः८६ प्रथमयापक नामप्यस्तित्वाज्जीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिभम्, अधुना हेतुमाह प्रथममध्ययन नि०- किं नु जवा किचंते? जेण मुहाए न लब्भंति ।। ८५ ।। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ किं नु यवाः क्रीयन्ते?, येन मुधा न लभ्यन्त इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयं-कोवि गोधो जवे किणाइ,सो अन्नेण पुच्छिनइ नियुक्ति: ८५ किंजवे किणासि?, सोभणइ-जेण मुहियाए ण लब्भामि। लौकिकमिदं हेतूपन्यासोदाहरणम्, अनेन च लोकोत्तरमप्याक्षिप्त- 'हेतुरिति चतुर्थद्वारम्। मवगन्तव्यम्, तत् चरणकरणानुयोगे तावत् यद्याह विनेयः- किमितीयं भिक्षाटनाद्याऽतिकष्टा क्रिया क्रियते?, स वक्तव्योयेन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति। द्रव्यानुयोगे तु यद्याह कश्चित्- किमित्यात्मा न चक्षुरादिभिरुपलभ्यते?, स हेतोश्चतुर्भेदेषु वक्तव्यो- येनातीन्द्रिय इति । गतं हेतुद्वारम्, तदभिधानाच्चोपन्यासद्वारम्, तदभिधानाच्चोदाहरणद्वारमिति ।। ८५ ।। साम्प्रतं । हेतावुष्ट्रिहेतुरुच्यते- तथा चाह लिण्डानि नि०- अहवावि इमो हेऊ विन्नेओतथिमो चउविअप्पो । जावग थावग वंसग लूसग हेऊ चउत्थो उ॥८६॥ अथवा तिष्ठतु एष उपन्यासः, उदाहरणचरमभेदलक्षणो हेतुः, अपिः सम्भावने, किं सम्भावयति?, इमो अयं अन्यद्वार एवोपन्यस्तत्वात्तदुपन्यासनान्तरीयकत्वेन गुणभूतत्वादहेतु रपि, किंतु हेऊ विण्णेओ तत्थिमो त्ति व्यवहितोपन्यासात् तत्रायंवक्ष्यमाणो हेतुर्विज्ञेयः चतुर्विकल्प इति चतुर्भेदः, विकल्पानुपदर्शयति- यापकः स्थापक: व्यंसकःलूषकः हेतुः चतुर्थस्तु। अन्ये । त्वेवं पठन्ति- हेउत्ति दारमहुणा, चउव्विहो सो उ होइ नायव्वोत्ति, अत्राप्युक्तमुदाहरणम्, हेतुरित्येतद् द्वारमधुना तुशब्दस्य Oकोऽपि व्यवहारी यवान् क्रीणाति । सोऽन्येन पृच्छ्यते- किं यवान् क्रीणासि?, स भणति- येन मुधिकया न लभे। 0 पूर्वोक्त। 0 पूर्वोक्त। 0 अनन्तर - भावित्वात्। 0 प्रस्तुत उदाहरणश्वरमभेदरूपः । कथानकम्। ॥ ९१ For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ९२ ।। www.kobatirth.org पुनःशब्दार्थत्वात् स पुनर्हेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते, पश्चार्द्धं तु पूर्ववदेवेति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थं तु यथावसरं स्वयमेव वक्ष्यति ।। ८६ ।। तत्राद्यभेदव्याचिख्यासयाऽऽह नि० उब्भामिगा य महिला जावगहेडंमि उंटलिंडाई । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाथादलम् । असती महिला, किं ? यापयतीति यापकः यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः तस्मिन् उदाहरणमिति शेषः, उष्ट्रिलिण्डानीति कथानकसंसूचकमेतदिति अक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदं कथानकं- एगो वाणियओ भज्जं गिण्हेऊण पच्चंतं गओ, पाएण खीणदव्वा धणियपरद्धा कयावराहा य। पच्चंतं सेवंती पुरिसा दुरहीयविज्जा य ।। १ ।। सा य महिला उब्भामिया, एगंमि पुरिसे लग्गा, तं वाणिययं सागारियंति चिंतिऊण भणड़- वच्च वाणिज्ज्रेण, तेण भणिया- किं घेत्तूण वच्चामि ?, सा भणइ उड्डलिंडियाओ घेत्तूणं वच्च उज्जेणि, पच्छा सो सगडं भरेत्ता उज्जेणिं गतो, ताए भणिओ य- जहा एक्वेक्कयं दीणारेण दिज्जहत्ति, सा चिंतेड़- वरं खु चिरं खिप्पंतो अच्छउ, तेण ताओ वीहीए उड्डियाओ, कोइ ण पुच्छर, मूलदेवेण दिट्ठो, पुच्छिओ य, सिद्धं तेण, मूलदेवेण चिंतियं- जहा एस वराओ महिलाछोभिओ, ताहे मूलदेवेण भण्णतिअहमेयाउ तव विक्किणामि जड़ ममवि मुल्लस्स अद्धं देहि, तेण भणियं- देमित्ति, अब्भुवगए पच्छा मूलदेवेणं सो हंसो © एको वणिक् भार्या गृहीत्वा प्रत्यन्तं गतः प्रायेण क्षीणद्रव्या (धनिकापराद्धाः) धनिकप्रारब्धाः कृतापराधाश्च प्रत्यन्तं सेवन्ते पुरुषा दुरधीतविद्याश्च ॥ १ ॥ सा च महिला उद्भामिका, एकस्मिन् पुरुषे लग्ना, तं वणिजं सागारिकमिति चिन्तयित्वा भणति व्रज वाणिज्येन तेन भणिता- किं गृहीत्वा व्रजामि ?, सा भणति उष्ट्रलिण्डिका गृहीत्वा व्रजोज्जयिनीम्, पश्चात् स शकटं भृत्वोज्जयिनीं गतः, तया भणितश्च यथेकेकिकां दीनारेण दद्या इति सा चिन्तयति वरमेव चिरं (क्षिप्यन्) प्रतीक्षमाणस्तिष्ठतु तेन ता वीथ्यामवतारिता, कोऽपि न पृच्छति, मूलदेवेन दृष्टः, पृष्टश्च शिष्टं तेन मूलदेवेन चिन्तितं यथैष वराको महिलाक्षोभितः, तदा मूलदेवेन भण्यते- अहमेतास्तव विक्रापयामि, यदि ममापि मूल्यस्यार्द्धं दास्यसि, तेन भणितं ददामीति, अभ्युपगते पश्चान्मूलदेवेन स हंसो For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं डुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्तिः ८७ हेतूपन्यासस्य चतुर्भेदा: यापकहेती उष्ट्रलिण्डानीति उदाहरणम् । ।। ९२ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ९३ ।। www.kobatirth.org जाएऊण आगासे उप्पइओ, णगरस्स मज्झे ठाइऊण भणइ जस्स गलए चेडरूवस्स उट्टलिंडिया न बद्धा तं मारेमि, अहं देवो, पच्छा सव्वेण लोएण भीएण दीणारिक्काओ उट्टलिंडियाओ गहियाओ, विक्कियाओ य, ताहे तेण मूलदेवस्स अद्धं दिन्नं । मूलदेवेण य सो भणड़- मंदभग्ग! तव महिला धुत्ते लग्गा, ताए तव एयं कयं, ण पत्तियति, मूलदेवेण भण्णइ - एहि वच्चामो जा ते दरिसेमि जदि ण पत्तियसि, ताहे गया अन्नाए लेसाए, वियाले ओवासो मग्गिओ, ताए दिण्णो, तत्थ एगमि पएसे ठिया, सो धुत्तो आगओ, इयरी वि धुत्तेण सह पिबेडमाढत्ता, इमं च गायड़- इरिमंदिरपण्णहारओ, मह कंतु गतो वणिजारओ। वरिसाण सयं च जीवउ मा जीवंतु घरं कयाइ एउ ॥ १ ॥ मूलदेवो भणड़- कयलीवणपत्तवेढिया, पइ भणामि देव जं मद्दलएण गज्जती, मुणउ तं मुहुत्तमेव ॥ १ ॥ पच्छा मूलदेवेण भण्णति- किं धुत्ते ?, तओ पभाए निग्गंतूणं पुणरवि आगओ, तीय पुरओ ठिओ, सा सहसा संभंता अब्भुट्ठिया, तओ खाणपिबणे वट्टंते तेण वाणिएणं सव्वं तीए गीयपज्जन्तयं संभारियं । एसो लोइओ हेऊ, लोउत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे एवं सीसोऽवि केइ पयत्थे असद्दहंतो कालेण विज्जादीहिं देवतं आयंपइत्ता - याचयित्वा आकाशे उत्पतितम्, नगरस्य मध्ये स्थित्वा भणति यस्य गलके (ग्रीवायां) चेटरूपस्य उष्ट्रलिण्डिका न बद्धा तं मारयामि, अहं देवः, पश्चात् सर्वेण लोकेन भीतेन दैनारिका उष्ट्रलिण्डिका गृहीताः, विक्रीताश्च तदा तेन मूलदेवायाद्धं दत्तम् मूलदेवेन च भण्यते सः मन्दभाग्य! तव महिला धूर्ते लग्ना, तया तवैतत्कृतम्, न प्रत्येति, मूलदेवेन भण्यते एहि व्रजावो यावत्तव दर्शयामि यदि न प्रत्येषि, तदा गतौ अन्यया लेश्यया, विकालेऽवकाशो मार्गितः, तया दत्तः, तत्रैकस्मिन् प्रदेशे स्थितौ स धूर्त आगतः, इतरापि धूर्तेन सह पातुमारब्धा, एतच गायति- लक्ष्मीमन्दिरपण्यधारकः, मम कान्तो गतो वणिज्यारतः। वर्षाणां शतं जीवतु मा जीवन् गृहं कदाचिद् गमत् ।। १ ।। मूलदेवो भणति - कदलीवनपत्रवेष्टिते! प्रतिभणामि, देव (दैवतं यत् मार्दलकेन गर्जति मुणत तन्मुहूर्तमेव ॥ १ ॥ पञ्चान् मूलदेवेन भण्यते किं धूर्ते ?, ततः प्रभाते निर्गत्य पुनरपि आगतः, तस्याः पुरतः स्थितः, सा सहसा सम्भ्रान्ता अभ्युत्थिता, ततः खादनपाने वर्त्तमाने तेन वणिजा सर्वं तस्या गीतपर्यन्तं संस्मारितम् । एष लौकिको हेतु:, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे एवं शिष्योऽपि कांश्चित् पदार्थान् अश्रद्दधानः कालेन विद्यादिभिर्देवतामाकम्प्य For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं मपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ८७ हेतूपन्यासस्य चतुर्भेदा: यापकहेती उष्ट्रलिण्डा नीति उदाहरणम्। 1193 11 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१४॥ हरणम्। सद्दहावेयव्वो। तहा दव्वाणुओगेवि पडिवाईनाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायव्वो जहा कालजावणा हवइ, तओ सो प्रथममध्ययन णावगच्छइ पगयं, कुत्तियावणचच्चरी वा कज्जइ, जहा सिरिगुत्तेण छलुए कया । उक्तो यापकहेतुः, साम्प्रतं स्थापक- दुमपुष्पिका, सूत्रम् १ हेतुमधिकृत्याह नियुक्ति: ८७ नि०-लोगस्स मज्झजाणण थावगहेऊ उदाहरणं ।। ८७ ।। द्वितीयलोकस्य चतुर्दशरज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम्, किं?, स्थापकहेतावुदाहरणमित्यक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं स्थापकहेतौ लोकमध्यएगो परिव्वायगो हिंडइ, सो य परूवेइ-खेत्ते दाणाई सफलंति कट्ठ-समखेत्ते कायव्वं, अहं लोअस्स मज्झं जाणामिण ज्ञानोदापुण अन्नो, तो लोगो तमाढाति, पुच्छिओ य संतो चउसुवि दिसास खीलए णिहणिऊण रजए पमाणं काऊण माइट्टाणिओ। भणइ- एयं लोयमज्झंति, तओ लोओ विम्हयं गच्छइ- अहो भट्टारएण जाणियंति, एगो य सावओ, तेण नायं, कहं धुत्तो लोयं पयारेइत्ति?, तो अहंपि वंचामित्ति कलिऊण भणियं- ण एस लोयमज्झो, भुल्लो तुमंति, तओ सावएण पुणो मवेऊण अण्णो देसो कहिओ, जहेस लोयमज्झोत्ति, लोगो तुट्ठो, अण्णे भणंति- अणेगट्ठाणेसु अन्नं अन्नं मज्झं परूवंतयं दद्रूण 8 श्रद्धावान् कर्त्तव्यः । तथा द्रव्यानुयोगेऽपि प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा विशेषणबहुलो हेतुः कर्त्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततः स नावगच्छति प्रकृतम्, कुत्रिकापणचर्चरी वा क्रियते, यथा श्रीगुप्तेन षडुलूके कृता। 0 एकः परिव्राजको हिण्डते, स च प्ररूपयति- क्षेत्रे दानादि सफलमितिकृत्वा, समक्षेत्रे कर्त्तव्यम्, अहं लोकस्य मध्यं जानामि न पुनरन्यः, ततो लोकस्तमाद्रियते, पृष्टश्च सन् चतसृष्वपि दिक्षु कीलकान् निहत्य रज्ज्वा प्रमाणं कृत्वा मातृस्थानिकः (मायिकः) भणतिएतल्लोकमध्यमिति, ततो लोको विस्मयं गच्छति- अहो भट्टारकेण ज्ञातमिति, एकश्च श्रावकः, तेन ज्ञात- कथं धूर्ती लोकं प्रतारयति इति, ततोऽहमपि वञ्चये इति । कलयित्वा भणितं- नैतल्लोकमध्यम्, भ्रान्तस्त्वमिति, ततः श्रावकेण पुनः मित्वाऽन्यो देशः कथितः यथैतल्लोकमध्यमिति, लोकस्तुष्टः। अन्ये भणन्ति- अनेकस्थानेषु । अन्यदन्यन्मध्यं प्ररूपयन्तं दृष्ट्वा ॥१४॥ For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ९५ ।। www.kobatirth.org विरोधो चोइओत्ति । एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिट्ठपसिणवागरणो कओ। एसो लोइओ थावगहेऊ, लोउत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंभावणिज्जासग्गाहरओ सीसो एवं चेव पण्णवेयव्वो । दव्वाणुजोगे वि साहुणा तारिसं भाणियव्वं तारिसो य पक्खो गेण्हियव्वो जस्स परो उत्तरं चेच दाउ न तीरइ, पुव्वावरविरुद्धो दोसो य ण हवइ ।। ८७ ।। उक्तः स्थापकः, साम्प्रतं व्यंसकमाह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि०- सा सगडतित्तिरी वंसगंमि हेउम्मि होइ नायव्वा । सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ भवति ज्ञातव्येत्यक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं- जहा एगो गामेल्लगो सगड कट्ठाण भरेऊण णगरं गच्छइ, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा तित्तिरी मइया दिट्ठा, सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवरिं पक्खिविऊण णगरं पड़ट्ठो, सो एगेण नगरधुत्तेण पुच्छिओ- कहं सगडतित्तिरी लब्भइ ?, तेण गामेल्लएण भण्णइ- तप्पणादुयालियाए लब्भति, तओ तेण सक्खिण उआहणित्ता सगडं तित्तिरीए सह गहियं, एत्तिलगो चेव किल एस वंसगो त्ति, गुरवो भांतितओ सो गामेल्लगो दीणमणसो अच्छइ, तत्थ य एगो मूलदेवसरिसो मणुस्सो आगच्छइ, तेण सो दिट्ठो, तेण पुच्छिओ- किं झियायसि अरे देवाणुप्पिया?, तेण भणियं अहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं मा बीहिह, <→ विरोधश्चोदित इति। एवं स तेन परिव्राजको निष्पृष्टप्रश्नव्याकरणः कृतः । एष लौकिकः स्थापकहेतुः, लोकोत्तरेऽपि चरण करणानुयोगे कुश्रुतिभिरसम्भावनीयासङ्ग्राहरतः शिष्य एवमेव प्रज्ञापयितव्यः, द्रव्यानुयोगेऽपि साधुना तादृग् वक्तव्यं तादृशक्ष पक्षो ग्रहीतव्यो यस्य परः उत्तरमेव दातुं न शक्नोति, पूर्वापरविरुद्धो दोषश्च न भवति । यथैको ग्रामेयकः शकटं काठैर्भृत्वा नगरं गच्छति, तेन गच्छता अन्तरैका तित्तिरिका मृता दृष्टा स तां गृहीत्वा शकटस्योपरि प्रक्षिप्य नगरं प्रविष्टः, स एकेन नगरधूर्तेन पृष्टः- कथं शकटतित्तिरी लभ्यते ?, तेन ग्रामेयकेण भण्यते, मध्यमानसात्कुकेन (प्राकृतत्वाद्व्यत्ययः) लभ्यते, ततस्तेन साक्षिण उपाहत्य शकटं तित्तिर्या सह गृहीतम्, एतावानेव किलैष व्यंसक इति । गुरवो भणन्ति ततः स ग्रामेयको दीनमनाः तिष्ठति तत्र चैको मूलदेवसदृशो मनुष्य आगमत् तेन स दृष्टः, तेन पृष्टः किं ध्यायसि अरे देवानुप्रिय?, तेन भणितं अहमेकेन व्यवहारिणाऽनेन प्रकारेण छलितः, तेन भणितं मा भैषी For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ८८ व्यंसकती शकटतित्तिरी कथानकम् । ।। ९५ ।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||९६॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्ति:८८ व्यंसकहेती शकटतित्तिरी कथानकमा तप्पणादुयालियं तुम सोवयारं मग्ग, माइट्ठाणं सिक्खाविओ, एवं भवउत्ति भणिऊण तस्स सगासं गओ, भणियं चणेणमम जइ सगडं हियं तो मे इयाणिं तप्पणादुयालियं सोवयारं दवावेहि, एवं होउत्ति, घरं णीओ, महिला संदिट्ठा, अलंकियविभूसिया परमेण विणएण एअस्स तप्पणादुयालियं देहि, सा वयणसमं उवट्ठिया, तओ सो सागडिओ भणति-मम अंगुली छिन्ना, इमा चीरेणावेढिया, ण सक्केमि उड्डयालेउं, तुमं अदुयालिउं देहि, अदुआलिया तेण हत्थेण गहिया, गामं तेण संपट्ठिओ, लोगस्स य कहेइ-जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणादुयालिया, ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण भज्जा णियत्तिया। एस पूण लूसओचेव कहाणयवसेण भणिओ। एस लोइओ,लोगत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावियस्स तस्स तहा वंसगो पउज्जति जहा संमं पडिवज्जइ। दव्वाणुओगे पुण कुप्पावयणिओ चोइज्जा- जहा जइ जिणपणीए मग्गे अत्थि जीवो अत्थि घडो, अत्थित्तं जीवेऽवि घडेवि, दोसु अविसेसेण वट्टइत्ति, तेण अत्थित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति, अह अस्थिभावाओ वतिरित्तो जीवो, तेण जीवस्स अभावो भवइत्ति । एस किल एहहमेत्तो चेव मथ्यमानसक्तुकं त्वं सोपचारं मार्गय, मातृस्थानं शिक्षितः, एवं भवत्विति भणित्वा तस्य सकाशं गतो, भणितं चानेन- मम यदि शकट हृतं तदा मामिदानीं मथ्यमानसक्तुकं सोपचारं दापय, एवं भवत्विति, गृह नीतः, महिला संदिष्टा, अलंकृतविभूषिता परमेण विनयेनैतस्मै मध्यमानसक्तुक देहि, सा वचनसममुपस्थिता, ततः स शाकटिको भणति- ममाङ्गली छिन्ना, इयं चीवरेणावेष्टिता, न शक्नोमि मथितुम्, त्वं मथयित्वा देहि, मथिका तेन हस्तेन गृहीता, ग्रामं तया समं (ग्राममार्गेण) प्रस्थितः, लोकाय च कथयति- यथा मया सतित्तिरिकेण शकटेन गृहीता सक्तुमथिका, तदा तेन धूर्तेन शकटं विसृष्टम्, तं च प्रसाद्य भार्या निर्वर्त्तिता, एष पुनलृषकः एव कथानकवशेन भणितः । एष लौकिक, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभावितस्य तस्य तथा व्यसकः प्रयुज्यते यथा सम्यक् प्रतिपद्यते । द्रव्यानुयोगे पुनः कुप्रावचनिकः चोदयेत् यथा यदि जिनप्रणीते मार्गेऽस्ति जीवः अस्ति घटः, अस्तित्वं जीवेऽपि घटेऽपि, द्वयोरप्यविशेषेण, वर्त्तत इति, तेनास्तित्वशब्दतुल्यत्वेन जीवघटयोरेकत्वं भवति, अथास्तिभावाव्यतिरिक्तो जीवस्तेन जीवस्याभावो भवतीति । एष किल एतावन्मात्र चैव ॥१६॥ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१७॥ सगो, लूसगेण पुण एत्थ इमं उत्तरं भाणितव्वं- जइ जीवघडा अत्थित्ते वटुंति, तम्हा तेसिमेगत्तं संभावेहि, एवं ते सव्वभावाणं प्रथममध्ययन एगत्तं भवति, कह?, अत्थि घडो अत्थि पडो अत्थि परमाणू अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सव्वभावेसु अस्थिभावो वट्टइति । द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ काउं किं सव्वभावा एगीभवंतु?, एत्थ सीसो भणति-कहं पुण एवं जाणियव्वं? सव्वभावेसु अस्थिभावो वट्टइ, न य ते । नियुक्तिः ८८ एगीभवंति, आयरिओ आह- अणेगंताओ एयं सिज्झइ, एत्थ दिटुंतो- खइरो वणस्सई वणस्सई पुण खदिरो पलासो वा, लूषकहेतौ एवं जीवोऽवि णियमा अत्थि, अत्थिभावो पुण जीवो व होज अन्नो वा धम्माधम्मागासादीणं ति । उक्तो व्यंसकः, साम्प्रतं त्रपुषोदाहरणं धर्म उकृष्ट लूषकमधिकृत्याह मंगलमिति नि०- तउसगवंसग लूसगहेउम्मिय मोयओय पुणो ।। ८८॥ निगमन। त्रपुषव्यंसकप्रयोगे पुनर्लेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं-जहा एगो मणस्सो तउसाणं भरिएण सगडेण नयरं पविसइ, सोपविसंतोधुत्तेण भण्णइ जो एयं तउसाण सगडं खाइज्जा तस्स तुमं किं देसि?, ताहे सगडत्तेण सो धुत्तो भणिओ- तस्साहं तं मोयगं देमि जो नगरद्दारेण ण णिप्फडइ, धुत्तेण भण्णति- तोऽहं एयं । व्यंसकः, लूषकेण पुनरत्रैतदुत्तरं भणितव्यं- यदि (यतो) जीवघटौ अस्तित्वे वर्तते तस्मात्तयोरेकत्वं सम्भावयसि,एवं तब सर्वभावानामेकत्वं भवति, कथं?, अस्ति घट:अस्ति पटः अस्ति परमाणुः अस्ति द्विप्रदेशिक स्कन्धः, एवं सर्वभावेष्वस्तिभावो वर्त्तत इतिकृत्वा किं सर्वभावा एकीभवन्तु? अत्र शिष्यो भणति-कर्थ पुनरेतत् ज्ञातव्यं सर्वभावेष्वस्तित्वं वर्तते, न च ते एकीभवन्ति, आचार्य आह- अनेकान्तादेतत् सिध्यति, अत्र दृष्टान्तः- खदिरो वनस्पतिः वनस्पतिः पुनःखदिर पलाशो वा, एवं जीवोऽपि नियमादस्ति, अस्तिभावः पुनर्जीवो वा भवेदन्यतमो वा धर्माधर्माकाशादीनामिति । यथैको मनुष्यः त्रपुषां भृतेन शकटेन नगरं प्रविशति. स प्रविशन् धूर्तेन भण्यते- य एतत् त्रपुषां शकटंखादेत् तस्मै त्वं किं ददासि? तदा शाकटिकेन स धूर्तो भणितः- तस्मायहं तं मोदकं ददामि यो नगरद्वारेण न निस्सरति, अधूर्तेन भण्यते- तदाहमेतत्त्र-2 2222280 ॥ ९७॥ For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥९८॥ तउससगडं खयामि, तुमं पुण तं मोयगं देज्जासि जो नगरहारेण ण नीसरति, पच्छा सागडिएण अब्भुवगए धुत्तेण सक्खिणो प्रथममध्ययन कया, सगडं अहिट्टित्ता तेसिं तउसाणं एलेक्वयं खंडं अवणित्ता पच्छा तं सागडियं मोदकं मग्गति, ताहे सागडिओ भणति- द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् इमे तउसा ण खाइया तुमे, धुत्तेण भण्णति- जइ न खाइया तउसा अग्घवेह तुमं, तओ अग्घविएसु कइया आगया, पासंति नियुक्तिः ८८ खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को एएखइए तउसे किणइ?, तओ करणे ववहारो जाओ खइयत्ति, जिओसागडिओ। लूषकहेतो पुषोदाहरणं एस वंसगो चेव लूसगनिमित्तमुवण्णत्थो, ताहे धुत्तेण मोदगं मग्गिज्जति, अच्चाइओ सागडिओ, जूतिकरा ओलग्गिया, ते । धर्म उकृष्ट तुट्ठा पुच्छंति, तेसिं जहावत्तं सव्वं कहेति, एवं कहिते तेहिं उत्तरं सिक्खाविओ- जहा तुमं खुड्डयं मोदगंणगरदारे ठवित्ता भण। मंगलमिति निगमनच। एस स मोदगो ण णीसरइ णगरदारेण, गिण्हाहि, जिओ धुत्तो। एस लोइओ, लोगुत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावितस्स । तहा लूसगो पउंजइ-जहा सम्म पडिवज्जइ। दव्वाणुजोगे पुण पुजा भणंति-पुव्वं दरिसिओ चेव । अण्णे पुण भणति-पुव्वं सयमेव सव्वभिचारं हेउं उच्चारेऊण परविसंभणानिमित्तं सहसा वा भणितो होज्जा, पच्छा तमेव हेउं अण्णेणं निरुत्तवयणेणं पुषांशकटं खादामि, त्वं पुनस्तं मोदकं दद्याः यो नगरद्वारेण न निस्सरति, पश्चात्- शाकटिकेनाभ्युपगते धूर्तेन साक्षिण कृताः, शकटमधिष्ठाय तेषां वपुषामेकैक खण्डमपनीय पश्चात्तं शाकटिक मोदकं मार्गयति, तदा शाकटिको भणति- इमानि पूषि न खादितानि त्वया, धूर्तेन भण्यते- यदा न खादितानि तदा त्रपूंषि त्वं अर्घय, ततोऽर्घितेषु क्रयिका आगता अपश्यन् खण्डितानि त्रषि, तदा क्रयिका भणन्ति- क एतानि खादितानि पूंषि क्रीणाति, ततः करणे व्यवहारो जातः खादितानीति, जितः शाकटिकः, एष व्यंसक वैव लूषकनिमित्तमुपन्यस्तः । तदा धूर्तेन मोदको माय॑ते । व्यथितः शाकटिको, धूतकरा अवलगिताः, ते तुष्टाः पृच्छन्ति, तेभ्यो यथावृत्तं सर्वं कथयति, एवं कथिते तैरुत्तरं शिक्षितं यथा त्वं क्षुल्लकं मोदकं नगरद्वारे स्थापयित्वा भण- एष स मोदको न निस्सरति नगरद्वारेण, गृहाण, जितो धूर्तः । एष लौकिकः, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभाविताय तथा लूषकः प्रयोक्तव्यो यथा सम्यक् प्रतिपद्यते । द्रव्यानुयोगे पुनः पूज्या भणन्ति- पूर्व दर्शित एव । अन्ये पुनर्भणन्ति- पूर्व स्वयमेव सव्यभिचार हेतुमुच्चार्य परविश्रम्भहेतवे सहसा वा भणितो भवेत् पश्चात् तमेव हेतुमन्येन निरुक्तवचनेन । ॥९८॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१९॥ ठावेइ। उक्तो लूषकस्तदभिधानाच हेतुरपि। साम्प्रतं यदुक्तं 'क्वचित्पञ्चावयव'मिति, तदधिकृतमेव सूत्रं 'धम्मो मंगल। प्रथममध्ययन मित्यादिलक्षणमधिकृत्य निदर्श्यते- अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टमिति प्रतिज्ञा, इह च धर्म इति धर्मिनिर्देशः, द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ अहिंसासंयमतपोरूप इति धर्मिविशेषणम्, उत्कृष्टं मङ्गलमिति साध्यो धर्मः, धर्मिधर्मसमुदायः प्रतिज्ञा, इयं श्लोकार्द्धनोक्ता नियुक्तिः इति, देवादिपूजितत्वादिति हेतुः, आदिशब्दात् सिद्धविद्याधरनरपरिग्रहः,अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः, अर्हदा- ८९-९० सूत्रावयवे दिवदिति दृष्टान्तः, अत्रापि चादिशब्दाद् गणधरादिपरिग्रहः, अयं च श्लोकचरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति । न च भावमनोऽ प्रतिज्ञादिः। धिकृत्याहदृष्टान्तेऽस्ति कश्चिद्विरोध इति, इह यो यो देवादिपूजितः स स उत्कृष्ट मङ्गलं यथाऽर्हदादयस्तथा च देवादिपूजितो। धर्म इत्युपनयः, तस्माद्देवादिपूजितत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति निगमनम् । इदं चावयवद्वयं सूत्रोक्तावयवत्रयाविनाभूतमितिकृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यलं विस्तरेण ।। ८८ ॥ साम्प्रतमेतानेवावयवान् सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयन्नाह नि०-धम्मो गुणा अहिंसाइया उ ते परममंगल पइन्ना। देवावि लोगपुजा पणमंति सुधम्ममिइ हेऊ ।। ८९॥ । धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सच क इत्याह-गुणा अहिंसादयः, आदिशब्दात् संयमतपःपरिग्रहः, तुरेवकारार्थः, अहिंसादय एव, ते परममङ्गलमिति प्रतिज्ञा, तथा देवा अपि, अपिशब्दात् सिद्धविद्याधरनरपतिपरिग्रहः, लोकपूज्या लोकपूजनीयाः प्रणमंति नमस्कुर्वन्ति, कं?- सुधर्माणं शोभनधर्मव्यवस्थितमिति, अयं हेत्वर्थसूचकत्वाद्धेतुरिति गाथार्थः ।। ८९॥ नि०-दिट्ठतो अरहंता अणगारा य बहवो उजिणसीसा । वत्तणुवत्ते नजइ जं नरवइणोऽवि पणमंति ॥९०।। दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सचाशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, तथा अनगाराश्च बहव एव जिनशिष्या स्थापयति। 0 द्रव्यमनःसत्त्वात् पूर्वावस्थामाश्रित्य वा। ॥ ९९ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shus Kailassaçarsur Gyarmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१००। प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् नियुक्तिः इति, न गच्छन्तीत्यगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं- गृहं तद्येषां विद्यत इति अर्शआदेराकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः अगारा-गृहस्थाः, न अगारा- अनगाराः, चशब्दः समुच्चयार्थः, तुरेवकारार्थः, ततश्च बहव एव नाल्पाः,रागादिजेतृत्वाग्जिनास्तच्छिष्याः-तद्विनेया गौतमादयः, आह- अर्हदादीनां परोक्षत्वात् दृष्टान्तत्वमेवायुक्तम्, कथं चैतद्विनिश्चीयते? यथा ते देवादिपूजिता इति, उच्यते, यत्तावदुक्तं परोक्षत्वा'दिति, तद्दुष्टम्, सूत्रस्य त्रिकालगोचरत्वात् कदाचित्प्रत्यक्षत्वात्, देवादिपूजिता इति च एतद्विनिश्चयायाहवृत्त-अतिक्रान्तं अनुवर्तमानेन-साम्प्रतकालभाविना ज्ञायते, कथमित्यत आह- यद्यस्माद् नरपतयोऽपि- राजानोऽपिप्रणमन्ति, इदानीमपि भावसाधुम्, ज्ञानादिगुणयुक्तमिति गम्यते । अनेन गुणानां पूज्यत्वमावेदितं भवतीति गाथार्थः ।। ९०॥ नि०- उवसंहारो देवा जह तह रायावि पणमइ सुधम्मं । तम्हा धम्मो मंगलमुक्किट्ठमिइ अनिगमणं ।। ९१ ॥ __उपसंहारः उपनयः, स चायं- देवा यथा तीर्थकरादीन् तथा राजाऽप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति । यस्मादेवं तस्माद्देवादिपूजितत्वाद् धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमनम्। 'प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमन मिति गाथार्थः ॥ ९१।। उक्तं पञ्चावयवम्, एतदभिधानाचार्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा । साम्प्रतं दशावयवं तथा स चेहैव जिनशासन इत्यधिकारं चोपदर्शयति- इह च दशावयवा:-प्रतिज्ञादय एव प्रतिज्ञादिशुद्धिसहिता भवन्ति । अवयवत्वं च तच्छुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञादीनामिव भावनीयमिति, अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तुनोच्यते, गमनिकामात्रत्वात् प्रारम्भस्येति ।। साम्प्रतमधिकृतदशावयवप्रतिपादनायाह नि०- बिइयपइन्ना जिणसासणंमि साहेति साहवो धम्मं । हेऊ जम्हा सम्भाविएसुऽहिंसाइसु जयंति ।। ९२ ।। पचावयवउपनयनिगमनेदशावयवप्रतिपादन। ॥१०० ।। For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १०१॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ नियुक्तिः ९३-९४ दशावयवे प्रतिज्ञाशुद्धिः । द्वितीया पञ्चावयवोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया, प्रतिज्ञा पूर्ववत्, द्वितीया चासौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा, सा चेयं- जिनशासने जिनप्रवचने, किं?- साधयन्ति निष्पादयन्ति साधवः प्रव्रजिताः धर्म प्राग्निरूपितशब्दार्थम् । इह च साधव इति धर्म्मिनिर्देशः, शेषस्तु साध्यधर्म इति, अयं प्रतिज्ञानिर्देशः। हेतु-निर्देशमाह- हेतुर्यस्मात् साभाविकेषु पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्वर्थेष्वित्यर्थः अहिंसादिषु, आदिशब्दान्मृषावादादिविरतिपरिग्रहः, अन्ये तु व्याचक्षते-'सम्भाविएहिति सद्भावेन निरुपचरितसकलदुःखक्षयायैवेत्यर्थः यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति इति गाथार्थः ।। ९२ ॥ साम्प्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिमभिधातुकाम आह नि०-जह जिणसासणनिरया धम्मं पालेंति साहवो सुद्धं । न कुतित्थिएसु एवं दीसइ परिवालणोवाओ।। ९३॥ यथा येन प्रकारेण जिनशासननिरता- निश्चयेन रता धर्म प्राग्निरूपितशब्दार्थं पालयन्ति रक्षन्ति साधवः प्रव्रजिताः षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च शुद्ध अकलङ्कम्, नैवं तन्त्रान्तरीयाः, यस्मान्न कुतीर्थिकेषु, एवं यथा साधुषु दृश्यते परिपालनोपायः, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यभावात् । उपायग्रहणं च साभिप्रायकम्, शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते, ॐन पुरुषानुष्ठानम्, कापुरुषा हि वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः ।। ९३ ।। अत्राह नि०- तेसुविय धम्मसद्दो धम्मं निययं च ते पसंसंति । नणु भणिओ सावज्जो कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ।। ९४।। तेष्वपि च तन्त्रान्तरीयधर्मेषु, किं?- धर्मशब्दो लोके रूढः, तथा धर्मं निजं च आत्मीयमेव यथातथं ते प्रशंसन्ति स्तुवन्ति, ततश्च कथमेतदिति, अत्रोच्यते, नन्वि त्यक्षमायां भणित उक्तः पूर्वं सावद्यः सपापः कुतीर्थिकधर्म: चरकादिधर्मः । कैः?जिनवरैः तीर्थकरैःण जिणेहिं उपसत्थो इति वचनात्, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यभावादेवेति, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ ९४ ।। तथा ॥१०१॥ For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १०२ ।। www.kobatirth.org नि०- जो तेसु धम्मसद्दो सो उवयारेण निच्छएण इहं। जह सीहसद्दु सीहे पाहण्णुवयार ओऽण्णत्थ ।। ९५ ।। यः तेषु तन्त्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः स उपचारेण अपरमार्थेन, निश्चयेन अत्र जिनशासने, कथं? - यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थितः प्राधान्येन, उपचारत: उपचारेण अन्यत्र माणवकादौ, यथा सिंहो माणवकः, उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः धर्मे त्वहिंसाद्यभिधानादय इति गाथार्थः ।। ९५ ।। भा०- एस पइन्नासुद्धी हेऊ अहिंसाइएस पंचसुवि। सब्भावेण जयंती हेउविसुद्धी इमा तत्थ ॥ १ ॥ एषा उक्तस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुद्धिः, हेतुरहिंसादिषु पञ्चस्वपि सद्भावेन यतन्त इति, अयं च प्राग् व्याख्यात एव, शुद्धिमभिधातुकामेन च भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इति, अत एवाह हेतोर्विशुद्धिर्हेतुविशुद्धिः, विषयविभाषाव्यवस्थापनं विशुद्धिः, इमा इयं तत्र प्रयोग इति गाथार्थः ।। भा०- जं भत्तपाणडवगरणवसहिसवणासणाइसु जयंति । फासूय अकय अकारियअणणुमयाणुद्दिट्टभोई य ।। २ ।। यद् यस्मात् भक्तं च पानं चोपकरणं च वसतिश्च शयनासनादयश्चेति समासस्तेषु, किं ? - यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति, कथमेतदेवमित्यत्राह- यस्मात् प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्टं च तद्भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तत्रासवः प्राणाः प्रगता असवः- प्राणा यस्मादिति प्रासुकं- निर्जीवम्, तच्च स्वकृतमपि भवत्यत आह- अकृतम्, तदपि कारितमपि भवत्यत आह- अकारितम्, तदप्यनुमतमपि भवत्यत आह- अननुमतम्, तदप्युद्दिष्टमपि भवति यावदर्शिकादि न च तदिष्यत इत्यत आह- अनुद्दिष्टमिति । एतत्परिज्ञानोपायश्चोपन्यस्तसकलप्रदानादिलक्षणसूत्रादवगन्तव्य इति गाथार्थ : ।। तदन्ये पुनः किमित्यत आह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ९५ भाष्यम् १२ हेतोर्विशुद्धिः । ।। १०२ ।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १०३ ।। www.kobatirth.org भा०- अफासुयकयकारिय अणुमयउद्दिट्टभोइणो हंदि । तसथावरहिंसाए जणा अकुसला उ लिप्यंति ॥ ३ ॥ अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टभोजिनश्चरकादयः, हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति ? - त्रसन्तीति त्रसा:- द्वीन्द्रियादयः तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषां हिंसा- प्राणव्यपरोपणलक्षणा तया जनाः प्राणिनः अकुशलाः अनिपुणाः स्थूलमतयश्चरकादयो लिप्यन्ते सम्बध्यन्त इत्यर्थः, इह च हिंसाक्रियाजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति भावनीयम्, कारणे कार्योपचारात्, ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका न भवन्ति, साधव एव भवन्तीति गाथार्थः ॥ भा०- एसा हेउविसुद्धी दिट्टंतो तस्स चेव य विसुद्धी। सुत्ते भणिया उ फुडा सुत्तफासे उ इयमन्ना ।। ४ ।। एषा अनन्तरोक्ता हेतुविशुद्धिः प्राग्निरूपितशब्दार्था, अधुना दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशुद्धिः, किं ? - सूत्रे भणिता, उक्तैव स्फुटा स्पष्टा । तच्चेदं सूत्रं जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुष्पं किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं ।। सूत्रम् २ ।। अत्राह- अथ कस्माद्दशावयवनिरूपणायां प्रतिज्ञादीन् विहाय सूत्रकृता दृष्टान्त एवोक्त इति ?, उच्यते, दृष्टान्तादेव हेतुप्रतिज्ञे अभ्यूह्ये इति न्यायप्रदर्शनार्थम्, कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र यथा येन प्रकारेण द्रुमस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य पुष्पेषु प्राग्निरूपितशब्दार्थेष्वेव, असमस्तपदाभिधानमनुमेये (उपमेये) गृहिद्रुमाणामाहारादिपुष्पाण्यधिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनार्थमिति, तथा च अन्यायोपार्जितवित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव, भ्रमरः चतुरिन्द्रियविशेषः, किं ?- आपिबति मर्यादया पिबत्यापिबति, कं? - रस्यत इति रसस्तं- निर्यासं मकरन्दमित्यर्थः, एष दृष्टान्तः, अयं च तद्देशोदाहरणमधिकृत्य © उदाहरणभेदचतुष्के प्रथमभेदगतम्, ख्यापितं च प्राक् एतत् । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् १ निर्युक्तिः ९५ भाष्यम् ३-४ सूत्रम् २ हेतोर्विशुद्धि|ष्टान्त विशुद्धिश्व भ्रमरोदा हरणम् । ॥ १०३ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१०४॥ वेदितव्य इति, एतच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तौ दर्शयिष्यति, उक्तं च सूत्रस्पर्श त्वियमन्येति । अधुना दृष्टान्तविशुद्धिमाह-न च नैव प्रथममध्ययन पुष्पं प्राग्निरूपितस्वरूपं क्लामयति पीडयति, स च भ्रमरः प्रीणाति तर्पयत्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः॥ अवयवार्थं तु द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् २ नियुक्तिकारो महता प्रपञ्चेन व्याख्यास्यति । तथा चाह भ्रमरोदाहरणं। नि०-जह भमरोत्ति य एत्थं दिटुंतो होइ आहरणदेसे । चंदमुहि दारिगेयं सोमत्तवहारण ण सेसं ।। ९६ ।। नियुक्तिः यथा भ्रमर इति च अत्र प्रमाणे दृष्टान्तो भवत्युदाहरणदेशमधिकृत्य, यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते, न अन्या शेष- कलङ्काङ्कितत्वानवस्थितत्वादीति गाथार्थः ।। ९६॥ दृष्टान्तनि०- एवं भमराहरणे अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं दिटुंतविसुद्धि सुत्त भणिया इमा चऽन्ना ।। ९७ ।। विशुद्धिः। नियुक्ति: १८ एवं भ्रमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्त्वम्, गृह्यत इति शेषः, न शेषाणां अविरत्यादीनां भ्रमरधर्माणां ग्रहणम्, दृष्टान्त इति । एषा । दृष्टान्तदृष्टान्तविशुद्धिः सूत्रे भणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शनिर्युक्ताविति गाथार्थः ।। ९७।। विशुद्धा वाक्षेपनि०- एत्थ य भणिज कोई समणाण कीरए सुविहियाणं । पागोवजीविणो ति य लिप्पंतारंभदोसेणं ।। ९८॥ परिहारी। * अत्र चैवं व्यवस्थिते सति ब्रूयात्कश्चिद्यथा- श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति, एतदुक्तं भवति- यदिदं पाकनिर्वर्तनं गृहिभिः क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति तपस्विनाम्, गृह्णन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजीविन इतिकत्वा लिप्यन्ते आरम्भदोषेण- आहारकरणक्रियाफलेनेत्यर्थः, तथा च लौकिका अप्याहः- क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः । घातको वधचित्तेन, इत्येष त्रिविधो वधः॥१॥इति गाथार्थः ।। ९८ । साम्प्रतमेतत्परिहरणाय गुरुराह ● भाष्यगतचतुर्थगाथायाम्। For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १०५ ।। www.kobatirth.org नि०- वासड़ न तणस्स कए न तणं वहइ कए मयकुलाणं । न य रुक्खा सयसाला फुल्लन्ति कए महुयराणं ।। ९९ ।। वर्षति न तृणस्य कृते, न तृणार्थमित्यर्थः, तथा न तृणं वर्धते कृते मृगकुलानां अर्थाय तथा न च वृक्षाः शतशाखाः पुष्यन्ति कृते । अर्थाय मधुकराणाम्, एवं गृहिणोऽपि न साध्वर्थं पाकं निर्वर्तयन्तीत्यभिप्राय इति गाथार्थ: ।। ९९ ।। अत्र पुनरप्याह नि०- अग्गिम्मि हवी हुयइ आइचो तेण पीणिओ संतो। वरिसड़ पयाहियाए तेणोसहिओ परोहति ।। १०० ।। इह यदुक्तं "वर्षति न तृणार्थ' मित्यादि, तदसाधु, यस्मादनौ हविर्ह्रयते, आदित्यः तेन हविषा घृतेन प्रीणितः सन् वर्षति, किमर्थं ?- प्रजाहितार्थं लोकहिताय, तेन वर्षितेन, किं ?, औषध्यः प्ररोहन्ति उद्गच्छन्ति, तथा चोक्तं- अग्नावाज्याहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ १०० ।। अधुनैतत्परिहारायेदमाह नि०- किं दुब्भिक्खं जायइ ? जड़ एवं अह भवे दुरिहं तु । किं जायड़ सव्वत्था दुब्भिक्खं अह भवे इंदो? ।। १०१ ।। नि०- वासड़ तो किं विग्धं निग्धायाईहिं जायए तस्स । अह वासइ उउसमए न वासई तो तणट्टाए ।। १०२ ।। किं दुर्भिक्षं जायते यद्येवं ?, कोऽभिप्रायः ?- तद्धविः सदा हूयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदे न कार्यविच्छेदो युक्त इति, अथ भवेद् दुरिष्टं तु दुर्नक्षत्रं दुर्यजनं वा, अत्राप्युत्तरं किं जायते सर्वत्र दुर्भिक्षं ?, नक्षत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्, सदैव सद्यज्वनां भावात्, उक्तं च- सदैव देवाः सद्द्रावो, ब्राह्मणाश्च क्रियापराः । यतयः साधवश्चैव, विद्यन्ते स्थितिहेतवः ॥ १ ॥ इत्यादि, अथ भवेदिन्द्र इति, किं ?, वर्षति, ततः किं विघ्नः अन्तरायो निर्घातादिभिर्जायते ?, आदिशब्दाद्दिग्दाहादिपरिग्रहः, तस्य इन्द्रस्य, परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विघ्नानुपपत्तेरिति भावना, अथ वर्षति ऋतुसमये गर्भसङ्घात इति वाक्यशेषः, न वर्षति ततस्तृणार्थम्, © वर्षातृणानि तस्य प्रतिषेधे इत्येतच्च भाष्यकृता प्राक् प्रपञ्चितमेवेति वचनात् प्रतीयते यदुतैता एकोनविंशतिर्भाष्यगाथाः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् २ भ्रमरोदाहरणं । निर्युक्तिः १९-१०२ दृष्टान्त विशुद्धावाक्षेप परिहारौ। ।। १०५ ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १०६ ।। www.kobatirth.org तस्येत्थम्भूतस्याभिसन्धेरभावादिति गाथाद्वयार्थः ॥ १०१-१०२ ।। किंच नि०- किं च दुमा पुष्पंति भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमरमहुयरिगणा किलामएज्जा अणाहारा ।। १०३ ।। किं च द्रुमाः पुष्प्यन्ति भ्रमराणां कारणात् कारणेन यथासमयं यथाकालं मा भ्रमरमधुकरीगणाः क्लामन् (क्लामिषुः ) ग्लानिं प्रतिपद्येरन्, अनाहारा अविद्यमानाहाराः सन्तः, काक्वा नैवैतदित्थमिति गाथार्थः ।। १०३ ।। साम्प्रतं पराभिप्रायमाह नि०- कस्सइ बुद्धी एसा वित्ती उवकप्पिया पयावड़णा। सत्ताणं तेण दुमा पुष्पंति महुयरिगणट्ठा ।। १०४ ।। अथ कस्यचिद्बुद्धिः कस्यचिदभिप्रायः स्याद्यदुत एषा वृत्तिरुपकल्पिता, केन? प्रजापतिना, केषां ? सत्त्वानां प्राणिनां तेन कारणेन द्रुमाः पुष्प्यन्ति मधुकरीगणार्थमेवेति गाथार्थ: ।। १०४ ।। अत्रोत्तरमाह नि०- तं न भवइ जेण दुमा नामागोयस्स पुल्वविहियस्स। उदएणं पुप्फफलं निवत्तयंती इमं चऽन्नं ।। १०५ ।। यदुक्तं परेण तन्न भवति, कुत इत्याह- येन द्रुमा नामगोत्रस्य कर्मणः पूर्वविहितस्य जन्मान्तरोपात्तस्य उदयेन विपाकानुभवलक्षणेन पुष्पफलं निर्वर्त्तयन्ति कुर्वन्ति, अन्यथा सदैव तद्भावप्रसङ्ग इति भावनीयम् । इदं चान्यत्कारणम्, वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ।। १०५ ।। नि०- अत्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ न उवेंति न वसंति । तत्थऽवि पुप्फंति दुमा पगई एसा दुमगणाणं ।। १०६ ।। सन्ति बहूनि वनखण्डानि तेषु तेषु स्थानेषु, भ्रमरा यत्र नोपयान्ति अन्यतः, न वसन्ति तेष्वेव, तथापि पुष्प्यन्ति द्रुमाः, अतः प्रकृतिरेषा स्वभाव एष द्रुमगणानामिति गाथार्थः ।। १०६ ।। अत्राह नि०- जड़ पगई कीस पुणो सवं कालं न देंति पुप्फफलं। जं काले पुप्फफलं दयंति गुरुराह अत एव ।। १०७ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् २ भ्रमरोदाहरणं । निर्युक्तिः १०३-१०७ दृष्टान्त विशुद्धा| वाक्षेप परिहारौ । ।। १०६ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक हारि० वृत्तियुतम् ॥१०७॥ वाक्षेप नि०- पगई एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए संते । पुप्फंति पायवगणा फलं च कालेण बंधंति ।। १०८॥ प्रथममध्ययन यदि प्रकृतिः किमिति पुनः सर्वकालं न ददति न प्रयच्छन्ति, किं?- पुष्पफलम् ?, एवमाशङ्कयाह- यद्- यस्मात्काले नियत द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् २ एव पुष्पफलं ददति, गुरुराह- अत एव- अस्मादेव हेतोः ।। प्रकृतिरेषा द्रुमाणां यद् ऋतुसमये वसन्तादावागते सति पुष्प्यन्ति । भ्रमरोदाहरणं पादपगणा वृक्षसङ्घाताः, तथा फलं च कालेन बध्नन्ति, तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथाद्वयार्थः।। १०७-१०८ ॥ नियुक्तिः १०८-११२ साम्प्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्थयोजनां कुर्वन्नाह दृष्टान्तनि०- किं नु गिही रंधती समणाणं कारणा अहासमयं । मा समणा भगवंतो किलामएज्जा अणाहारा ।। १०९।। विशुद्धाकिं नु गृहिणो राध्यन्ति पार्क निर्वर्तयन्ति श्रमणानां कारणेन यथाकालं?, मा श्रमणा भगवन्तः क्लामन्ननाहारा इति पूर्ववदिति । परिहारौ। गाथार्थः ॥१०९।। न चैतदित्थमित्यभिप्रायः ॥ अत्राह नि०-समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिमित्तं च गिहनिवासी उ । कोइ भणिज्जा पागं करेंति सो भण्णइ न जम्हा ।।११०॥ नि०-कंतारे दुब्भिक्खे आयंके वा महइ समुप्पन्ने । रतिं समणसुविहिया सव्वाहारं न भुजंति ।। १११।। नि०- अह कीस पुण गिहत्था रतिं आयरतरेण रंधति । समणेहिं सुविहिएहिं चउब्विहाहारविरएहिं?||११२॥ श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तम्, न होते हिरण्यग्रहणादिना अस्माकमनुकम्पां कुर्वन्तीति मत्वा भिक्षादानार्थं । पाकं निवर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पानिमित्तम्, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव कश्चिद् ब्रूयात्याकं कुर्वन्ति, स भण्यते- नैतदेवम्, कुतः?- यस्मात् कान्तारे अरण्यादौ दुर्भिक्षे अन्नाकाले आतङ्के वा ज्वरादौ महति समुत्पन्ने सति रात्रौ । श्रमणा: सुविहिताः शोभनानुष्ठानाः, किं? - सर्वाहारं ओदनादि न भुञ्जते ।। अथ किमिति पुनर्गृहस्थाः तत्रापि रात्रौ आदरतरेण For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||१०८॥ भ्रमरोदाहरण। दृष्टान्त वाक्षेप अत्यादरेण राध्यन्ति, श्रमणैः सुविहितैश्चतुर्विधाहारविरतैः सद्धिरिति गाथात्रयार्थः॥११०-१११-११२॥ किंच प्रथममध्ययन नि०- अत्थि बहुगामनगरा समणा जत्थ न उर्वेति न वसंति । तत्थविरंधति गिही पगई एसा गिहत्थाणं ॥११३ ।। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् २ । सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु श्रमणाः साधवो यत्र नोपयान्ति अन्यतो, न वसन्ति तत्रैव, अथ च तत्रापि राध्यन्ति । गृहिणः, अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः ।। ११३ ।। अमुमेवार्थं स्पष्टयन्नाह नियुक्तिः ११३-११५ नि०- पगई एस गिहीणं जं गिहिणो गामनगरनिगमेसुं। रंधति अप्पणो परियणस्स कालेण अट्ठाए ॥११४ ।। प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्त्तते यदहिणो ग्रामनगरनिगमेषु, निगम:- स्थानविशेषः, राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्य अर्थाय निमित्तं । विशुद्धाकालेनेति योग इति गाथार्थः ।। ११४ ।। परिहारी। नि०- तत्थ समणा तवस्सी परकडपरनिट्ठियं विगयधूमं । आहारं एसंति जोगाणं साहणट्ठाए।। ११५ ।। तत्र श्रमणाः तपस्विन इति उद्यतविहारिणो नेतरे, परकृतपरनिष्ठितमिति, कोऽर्थः?- परार्थ कृतं- आरब्धं परार्थं च निष्ठितं- अन्तं गतम्, विगतधूम-धूमरहितम्, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण मिति न्यायाद्विगतागारं च रागद्वेषमन्तरेणेत्यर्थः, उक्तं च-रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं वियाणाहि आहारं ओदनादिलक्षणं 'एषन्ते' गवेषन्ते, किमर्थं? अत्राह- योगानां मनोयोगादीनां संयमयोगानां वा साधनार्थम्, न तु वर्णाद्यर्थमिति गाथार्थः ।। ११५॥ नवकोडीपरिसुद्धं उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं । छट्ठाणरक्खणट्ठा अहिंसअणुपालणट्ठाए॥१॥ (प्र०) ॥ १०८॥ इयं च किल भिन्नकर्तृकी, अस्या व्याख्या- नवकोटिपरिशुद्धम्, तत्रैता नव कोट्यः, यदुत- ण हणइ १ण हणावेड़ २१ 0 प्राकृतवाक्यप्रतिरूपकमिति, तत्र च सप्तम्यर्थे तृतीया, हेतुत्वापेक्षया वा। 0 रागेण साङ्गार देषेण सधूमकं विजानीहि। न हन्ति न घातयति. For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१०॥ सूत्रम् २ भ्रमरोदाहरणं। दृष्टान्त वाक्षेप हणंतं नाणुजाणइ ३, एवं न किणइ ३, एवं न पयई ३, एताभिः परिशुद्धम्, तथा उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धमिति, एतद्वस्तुतः ।। सकलोपाधिविशुद्धकोटिख्यापनमेव, एवम्भूतमपि किमर्थं भुञ्जते?- षट्स्थानरक्षणार्थम्, तानि चामूनि- वेयणवेयावच्चे। दुमपुष्पिका, इरियट्ठाए य संजमठ्ठाए। तह पाणवत्तियाए छट्ठ पुण धम्मचिंताए ॥ १॥ अमून्यपि च भवान्तरे प्रशस्तभावनाभ्यासादहिंसानुपालनार्थम्, तथा चाह- नाहारत्यागतोऽभावितमतेदेहत्यागो भवान्तरेऽप्यहिंसायै भवती तिगाथार्थः ॥१॥ नियुक्तिः ११६ नि०- दिटुंतसुद्धि एसा उवसंहारो य सुत्तनिहिहो । संति विनंतित्तिय संतिं सिद्धिं च साहेति ।। ११६ ।। विशुद्धादृष्टान्तशुद्धिरेषा, प्रतिपादिता, उपसंहारस्तु उपनयस्तु 'सूत्रनिर्दिष्टः' सूत्रोक्तः, तच्चेदं सूत्रं परिहारी। एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणा(णे रया ।। सूत्रम् ३ ।। एवं अनेन प्रकारेण एते येऽधिकृता: प्रत्यक्षेण वा परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते, श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः, एते च । तन्त्रान्तरीया अपि भवन्ति, यथोक्तं- निग्गंथसक्कतावसगेरुयआजीव पंचहा समणा अत आह- मुक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन, ये विधिः। लोके अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणे सन्ति विद्यन्ते, अनेन समयक्षेत्रे सदैव विद्यन्त इत्येतदाह, साधयन्तीति साधवः, किं साधयन्ति?- ज्ञानादीनि गम्यते । अत्राह- ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम्, अत्रोच्यते, इह व्यवहारेण निह्नवा अपि मुक्ता भवन्त्येव न च ते साधव इति तद्व्यवच्छेदार्थत्वान्न दोषः। आह- न च ते 'सदैवसन्ती'त्यनेनैव व्यवच्छिन्ना इति, उच्यते, वर्तमानतीर्थापेक्षयैवेदं सूत्रमिति न दोषः, अथवा-अन्यथा व्याख्यायते-ये लोके सन्ति साधव इत्यत्र य इत्युद्देशः, घ्नन्तं नानुजानाति, एवं न क्रीणाति ३, एवं न पचति ३। 0 वेदनायै वैयावृत्त्यायेर्यार्थं च संयमार्थं च । तथा प्राणवृत्त्यै षष्ठं पुनः धर्मचिन्तायै ॥१॥ 0 निर्ग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीवाः पञ्चधा श्रमणाः। सूत्रम्३ आहारग्रहण ॥१०९।। 188000000000000000000000000000 For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||११०॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ३ आहारग्रहणविधिः नियुक्ति: ११७ द्रव्यभावविहङ्गमप्रतिपादनम्। लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र, किं? - शान्तिः- सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्तिसाधवः, तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण-संति विजेतित्ति य संतिं सिद्धिं व साहेति इदं व्याख्यातमेव । विहंगमा इव भ्रमरा इव पुष्पेषु, किं?- दानभक्तैषणासु रताः दानग्रहणाद्दत्तं गृह्णन्ति नादत्तम्, भक्तग्रहणेन तदपि भक्तं प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि, एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः, तेषु स्थानेषु रताः सक्ता इति सूत्रसमासार्थः। अवयवार्थं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि च विहङ्गमं व्याचष्टेस द्विविधः-द्रव्यविहङ्गमो भावविहङ्गमश्च । तत्र तावद्रव्यविहङ्गमं प्रतिपादयन्नाह नि०-धारे तं तु दव्वं तं दव्वविहङ्गमं वियाणाहि। भावे विहंगमो पुण गुणसन्नासिद्धिओ दुविहो ।। ११७।। धारयति आत्मनि लीनं धत्ते तत्तु द्रव्य मित्यनेन पूर्वोपात्तं कर्म निर्दिशति, येन हेतुभूतेन विहङ्गमेषूत्पत्स्यत इति, तुशब्द ।। एवकारार्थः, अस्थानप्रयुक्तश्च, एवं तु द्रष्टव्यः- धारयत्येव, अनेन च धारयत्येव यदा तदा द्रव्यविहङ्गमो भवति नोपभुङ्क्त ।। इत्येतदावेदितं भवति,द्रव्यमिति चात्र कर्मपुद्गलद्रव्यं गृह्यते, न पुनराकाशादि, तस्यामूर्त्तत्वेन धारणायोगात्, संसारिजीवस्य । च कथञ्चिन्मूर्त्तत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगित्वात्, तथाहि- यदसौ भवान्तरं नेतुमलं यच्च विहङ्गमहेतुतां प्रतिपद्यते तदत्र प्रकृतम्, न चैवमन्यः संसारिजीव इति, तं द्रव्यविहङ्गममित्यत्र यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ ।। उपजायते-धारयत्येव तद्व्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गममिति, द्रव्यं च तद्विहङ्गमश्च स इति द्रव्यविहङ्गमः, द्रव्यं जीवद्रव्यमेव, विहङ्गमपर्यायेणाऽऽवर्तनाद्, विहङ्गमस्तु कारणे कार्योपचारादिति, तं विजानीहि अनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्त इत्येवमादि- भिर्जानीहि भावे विहङ्गम इत्यत्रायं भावशब्दो बह्वर्थः, क्वचिद्रव्यवाचकस्तद्यथा नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवइ केवलो नासतो भुवि भावस्य शब्दो भवति केवलः। २२० For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिo वृत्तियुतम् ।। ९९९ ।। www.kobatirth.org भावस्य द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते, क्वचिच्छुक्लादिष्वपि वर्त्तते- - जं जं जे जे भावे परिणमइ इत्यादि यान् २ शुक्लादीन् भावानिति गम्यते, क्वचिदौदयिकादिष्वपि वर्तते यथा- ओदइए ओवसमिए इत्याद्युक्त्वा छव्विहो भावलोगो उ औदयिकादय एव भावा लोक्यमानत्वाद् भावलोक इति, तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौदयिकादिष्वेव वर्तमान इह गृहीत इति, भवनं भावः भवन्त्यस्मिन्निति वा भावः तस्मिन् भावे- कर्मविपाकलक्षणे, किं? - 'विहङ्गमो' वक्ष्यमाणशब्दार्थः, पुनः शब्दो विशेषणे, न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः, किंतु स एव जीवस्त एव पुद्गलास्तथाभूता इति विशेषयति, गुणश्च संज्ञा च गुणसंज्ञे गुणः - अन्वर्थ: संज्ञा पारिभाषिकी ताभ्यां सिद्धिः गुणसंज्ञासिद्धि:, सिद्धिशब्दः सम्बन्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि सिद्धिर्भवतु इत्युक्ते इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयत इति, तया गुणसंज्ञासिद्ध्या हेतुभूतया, किं ? - द्विविधो द्विप्रकारः, गुणसिद्ध्याअन्वर्थसम्बन्धेन तथा संज्ञासिद्ध्या च यदृच्छाभिधानयोगेन च। आह- यद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम्, गुणसंज्ञासिद्ध्येत्यनेनैव द्वैविध्यस्य गतत्वात्, न, अनेनैव प्रकारेणेह द्वैविध्यम्, आगमनोआगमादिभेदेन नेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ।। ११७ ।। तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य गुणसिद्ध्या यो भावविहङ्गमस्तमभिधित्सुराह नि०- विहमागासं भण्ण्ड गुणसिद्धी तप्पइट्ठिओ लोगो। तेण उ विहङ्गमो सो भावत्थो वा गई दुविहा ।। ११८ ।। विजहाति - विमुञ्चति जीवपुद्गलानिति विहम्, ते हि स्थितिक्षयात्स्वयमेव तेभ्य आकाशप्रदेशेभ्यश्च्यवन्ते, ताँश्च्यवमानाविमुञ्चतीति, शरीरमपि च मलगण्डोलकादि विमुञ्चत्येव (इति) मा भूत् संदेह इत्यत आह- आकाशं भण्यते, न शरीरादि, संज्ञाशब्दत्वात्, आकाशन्ते- दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्, किं ? - संतिष्ठत इत्यादिक्रियाव्यपोहार्थमाहयद्यद्यान्यान् भावान् परिणमति । २ औदयिक औपशमिकः । षडिधो भावलोकः । ४०भेदेनेति (प्र० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ३ आहारग्रहणविधिः निर्युक्तिः ११८ एकप्रकारेण भावविहङ्गम स्वरूपः । ।। १११ ।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||११२॥ प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् ३ आहारग्रहणविधिः नियुक्ति: ११९ भावविहङ्गम स्वरूपः। भण्यते आख्यायते, गुणसिद्धिरित्येतत्पदंगाथाभङ्गभयादस्थाने प्रयुक्तम्, संबन्धश्चास्य तेन तु विहङ्गमः स इत्यत्र तेन त्वित्यनेन सह वेदितव्य इति, ततश्चायं वाक्यार्थः- तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वाद्येन विहमाकाशं भण्यते तेनैव कारणेन गुणसिद्ध्या-अन्वर्थसम्बन्धेन विहङ्गमः, कोऽभिधीयत? इत्याह- तत्प्रतिष्ठितो लोक तदित्यनेनाकाशपरामर्शः, तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितः तत्प्रतिष्ठितः, प्रतिष्ठति स्म प्रतिष्ठितः- प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः, अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते, कोऽसावित्थमित्यत आह-लोकः' लोक्यत इति लोकः, केवलज्ञानभास्वता दृश्यत इत्यर्थः, इह धर्मादिपञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्याधारत्वेन निर्दिष्टत्वाच्चत्वार एवास्तिकाया गृह्यन्ते, यतो नियुक्तिकारेणाभ्यधायि'तत्प्रतिष्ठितो लोकः', विहङ्गमः सइत्यत्र विहे-नभसि गतो गच्छति गमिष्यति चेति विहङ्गमः, गमिरयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्त्तते, ततश्च विहे स्थितवांस्तिष्ठति स्थास्यति चेति भावार्थः, स इति-चतुरस्तिकायात्मकः, भावार्थ इति भावश्चासावर्थश्च भावार्थः, अयं भावविहङ्गम इत्यर्थः । उक्त एकेन प्रकारेण भावविहङ्गमः, पुनरपि गुणसिद्धिमन्येन प्रकारेणाभिधातुकाम आह- वा गतिर्द्विविधे ति, वाशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, एवं तु द्रष्टव्यः- गतिर्वा द्विविधेति, तत्र गमनं गच्छति वाऽनयेति गतिः, द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥११८ ।। तथा चेदमेव द्वैविध्यमुपदर्शयन्नाह नि०- भावगई कम्मगई भावगई पप्प अस्थिकाया उ। सव्वे विहंगमा खलु कम्मगईए इमे भेया ।। ११९ ।। भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः, अथवा भवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमध्रौव्याख्याः परिणामविशेषा इति भावा- अस्तिकायास्तेषां गति:- तथापरिणामवृत्तिर्भावगतिः, तथा कर्मगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि पारि0 विहङ्गमा० (प्र०)। For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||११३॥ सूत्रम३ आहारग्रहणविधि: नियुक्तिः१२० भावविहङ्गम स्वरूपः। भाषिकम्, क्रिया वा, कर्म च तद्गतिश्चासौ कर्मगतिः, गमनं गच्छत्यनया वेति गतिः, तत्र भावगति प्राप्य अस्तिकायास्तु इति । अत्र भावगतिः पूर्ववत्तां प्राप्य- अभ्युपगम्याश्रित्य, किं? 'अस्तिकायास्तु' धर्मादयः, तुशब्द एवकारार्थः,स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः प्रयोगः, भावगतिमेव प्राप्य न पुनः कर्मगतिम्, सर्वे विहङ्गमाः खलु सर्वे- चत्वारः नाकाशमाधारत्वात्, 'विहङ्गमा इति' विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते स्वसत्तां बिभ्रतीति विहङ्गमाः, खलुशब्दोऽवधारणे, विहङ्गमा एव, न कदाचिन्न विहङ्गमा इति । कर्मगतेःप्राग्निरूपितशब्दार्थायाः, किं?- इमौ भेदौवक्ष्यमाणलक्षणाविति गाथार्थः।। ११९॥ तावेवोपदर्शयन्नाह नि०-विहगगई चलणगई कम्मगई उसमासओ दुविहा । तदुदयवेययजीवा विहंगमा पप्प विहगगई ।। १२० ॥ इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिभिरिति गतिः, विहायसि- आकाशे गतिविहायोगतिः, कर्मप्रकृतिरित्यर्थः, तथा चलनगतिरिति, चलिरयं परिस्पन्दने वर्त्तते, चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः, चलनं च तद्गतिश्च सा चलनगतिःगमनक्रियेति भावः । कर्मगतिस्तु समासतो द्विविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, कर्मगतिरेव द्विविधा न भावगतिः, तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात्, तत्र तदुदयवेदकजीवाइति, अत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगतिं निर्दिशति, तस्याविहायोगतेः उदयस्तदुदयो विपाक इत्यर्थः, तथा वेदयन्ति-निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकास्तदुदयस्य वेदकाश्च ते जीवाश्चेति समासः, आह-तदुदयवेदका जीवा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्, न, जीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफलत्वात्, अवेदकाच सिद्धा इति । विहङ्गमाः प्राप्य विहायोगति मिति अत्र विहे विहायोगतेरुदयादुद्गच्छन्तीति विहङ्गमाः, 'प्राप्य' आश्रित्य,किं प्राप्य?-'विहायोगति' विहायोगतिरुक्ता ताम्, विपर्यस्तान्यक्षराण्येवं तु द्रष्टव्यानि-विहायोगतिं प्राप्य तदुदयवेदकजीवा विहङ्गमा इति गाथार्थः॥१२०॥ अधुना द्वितीयकर्मगतिभेदमधिकृत्याह ॥११० For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥११४॥ भावविहङ्गम स्वरूपः। नि०- चलनं कम्मगई खलु पडुच्च संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलदव्वाईवा विहंगमा एस गुणसिद्धी ।। १२१ ।। प्रथममध्ययन चलनं-स्पन्दनम्, तेन कर्मगतिर्विशेष्यते, कथं?- चलनाख्या या कर्मगतिः सा चलनकर्मगतिः, एतदुक्तं भवति-कर्मशब्देन । द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् क्रियाऽभिधीयते, सैव गतिशब्देन सैव चलनशब्देन च। तत्र गतेर्विशेषणं क्रिया क्रियाविशेषणं चलनम् । कुतः?- व्यभिचाराद्, आहारग्रहणइह गतिस्तावन्नरकादिका भवति अत: क्रियया विशेष्यते, क्रियाऽप्यनेकरूपा भोजनादिका ततश्चलनेन विशेष्यते, अतश्चल- विधिः नियुक्ति: १२१ नाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्ताम्, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, चलनकर्मगतिमेव, न विहायोगतिम्, प्रतीत्य आश्रित्य, किं?- संसरणं संसारः, संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनम्, स एषामस्तीति संसारिणः, अनेन सिद्धानां व्युदासः, भवे इति, अयं शब्दो भवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्तः, जीवा उपयोगादिलक्षणाः। ततश्चायं वाक्यार्थ:चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो भवेयुर्जीवा विहङ्गमा इति, विहं गच्छन्ति- चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशैरिति विहङ्गमाः । तथा पुद्गलद्रव्याणि वेत्यादि, पूरणगलनधर्माण: पुद्गलाः, पुद्गलाश्च ते द्रव्याणि च तानि पुद्गलद्रव्याणि, द्रव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम्, तथा चैते पुद्गलाः कैश्चिदद्रव्याः सन्तोऽभ्युपगम्यन्ते, सर्वे भावा निरात्मानः' इत्यादिवचनाद्, अत: पुद्गलानां परमार्थसद्रूपताख्यापनार्थ द्रव्यग्रहणम् , वाशब्दो विकल्पवाची, पुद्गलद्रव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहङ्गमा इति । तत्र जीवानधिकृत्यान्वर्थो निदर्शितः, पुद्गलास्तु विहं गच्छन्तीति विहङ्गमाः, तच्च गमनमेषां स्वतः परतश्च संभवति, अत्र स्वतः परिगृहाते, विहङ्गमा इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया वोक्तम्, अन्यथा द्रव्यपक्षे विहङ्गमानीति वक्तव्यम्, एष भावविहङ्गमः, कथं? - गुणसिद्ध्या अन्वर्थसम्बन्धेन, प्राकृतशैल्या वाऽन्यथोपन्यास इति गाथार्थः॥१२१॥ एवं गुणसिद्ध्या भावविहङ्गम © पुद्गलद्रव्याणां नपुंसकत्वादत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । ॐ तृतीयायां प्रथमेति । For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥११५॥ मस्वरूपः। उक्तः, साम्प्रतं संज्ञासिद्ध्या अभिधातुकाम आह प्रथममध्ययन नि०-सन्नासिद्धिं पप्पा विहंगमा होति पक्खिणो सव्वे । इहई पुण अहिगारो विहासगमणेहि भमरेहिं ।। १२२ ।। द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ३ संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः तया सिद्धिः संज्ञासिद्धिः, संज्ञासम्बन्ध इतियावत् , तां संज्ञासिद्धि प्राप्य आश्रित्य, आहारग्रहणकिं?-विहे गच्छन्तीति विहङ्गमा भवन्ति, के?- पक्षा येषां सन्ति ते पक्षिणः, सर्वे समस्ता हंसादयः, पुद्गलादीनां विहङ्गमत्वे । विधि: नियुक्तिः सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात्, इत्थमनेकप्रकारं विहङ्गममभिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति- इह सूत्रे, पुनःशब्दोऽवधारणे, १२२-१२४ इहैव नान्यत्र अधिकारः प्रस्तावः प्रयोजनम्, कैरित्याह- विहायोगमनैः आकाशगमनैः भ्रमरैः षट्पदैरिति गाथार्थः ॥ १२२॥ संज्ञासिङ्ख्या भावविहङ्गनि०- दाणेति दत्तगिण्हण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया। एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा।।१२३ ॥ दानेतिसूत्रे दानग्रहणं दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम्, दत्तमेव गृह्णन्ति, नादत्तम्, भक्त' इति भक्तग्रहणं भज सेवायां इत्यस्य निष्ठान्तस्य भवति, अर्थश्चास्य प्रासुकग्रहणम्, प्रासुकं- आधाकर्मादिरहितं गृह्णन्ति, नेतरदिति, एसण त्ति एषणाग्रहणम्, एषणात्रितये । गवेषणादिलक्षणे निरताः सक्ताः, उपसंहारस्य- उपनयस्य शुद्धिः इयं वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः ।।१२३।। नि०- अवि भमरमहुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं। समणा पुण भगवन्तो नादिन्नं भोत्तुमिच्छंति ।।१२४॥ अपि भ्रमरमधुकरीगणा, मधुकरीग्रहणमिहापिस्त्रीसंग्रहार्थम्, जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये, अविदत्तं सन्तम्, किं?-आपिबन्ति कुसुमरसंकुसुमासवम्, श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्तं भोक्तुमिच्छन्तीति विशेष इति गाथार्थः ।। १२४॥ साम्प्रतं सूत्रेणैवोपसंहार ॥ ११५॥ विशुद्धिरुच्यते-कश्चिदाह-'दाणभत्तेसणे रया' इत्युक्तम्, यत एवमत एव लोको भक्त्याकृष्टमानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्मादि, अस्य ग्रहणे सत्त्वोपरोधः, अग्रहणे स्ववृत्त्यलाभ इति, अत्रोच्यते For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥११६॥ वयं च वित्तिं लम्भामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसुरीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ।। सूत्रम् ४॥ प्रथममध्ययन वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामः तथा यथा न कश्चिदुपहन्यते, वर्तमानैष्यत्कालोपन्यासस्त्रैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः, तुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ तथा चैते साधवः सर्वकालमेव यथाकृतेषु आत्मार्थमभिनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु रीयन्ते गच्छन्ति, वर्त्तन्ते इत्यर्थः, पुष्पेषु भ्रमरा। उपनयशुद्धिः यथा इति, एतच्च पूर्वं भावितमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ यतश्चैवमतो नियुक्तिः १२५-१२६ महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता, तेण वुचंति साहुणो।। सूत्रम् ॥ उपनयशुद्धीत्तिबेमि । पढमं दुमपुफियज्झयणं समत्तं ॥१॥ दोषपरिहारः मधुकरसमा भ्रमरतुल्याः बुध्यन्ते स्म बुद्धा- अधिगततत्त्वा इत्यर्थः, क एवंभूता इत्यत आह- ये भवन्ति भ्रमन्ति वा अनिश्रिताः कुलादिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः, अत्राह नि०- अस्संजएहिं भमरेहिं जड़ समा संजया खलु भवंति । एवं यं) उवमं किचा नूर्ण अस्संजया समणा ।।१२५ ।। असंयतैः कुतश्चिदप्यनिवृत्तैः भ्रमरैः षट्पदैः यदि समाः तुल्याः संयताःसाधवः, खल्विति समा एव भवन्ति, ततश्चासंज्ञिनोऽपि ते, अत एवैनामित्थंप्रकारामुपमां कृत्वा इदमापद्यते-नूनमसंयता:श्रमणा इति गाथार्थः ।। १२५ ।। एवमुक्ते सत्याहाचार्य:एतच्चायुक्तम्, सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्, तथा च बुद्धग्रहणादसंज्ञिनो व्यवच्छेदः, अनिश्रितग्रहणाच्चासंयतत्वस्येति । नियुक्तिकारस्त्वाह नि०- उवमा खलु एस कया पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया। अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालणट्टाए ।। १२६ ।। उपमा खलु एषा मधुकरसमेत्यादिरूपा कृता पूर्वोक्तात् पूर्वोक्तेन देशलक्षणोपनयाद् देशलक्षणोपनयेन, यथा चन्द्रमुखी ||११६ For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ११७ ।। www.kobatirth.org कन्येति, तृतीयार्था चेह पञ्चमी, इयं चानियतवृत्तिनिमित्तं कृता, अहिंसानुपालनार्थम्, इदं च भावय (यिष्य) त्येवेति गाथार्थः ।। १२६ ।। नि०- जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा । जह भमरा तह मुणिणो नवरि अदत्तं न भुंजंति ।। १२७ ।। यथा द्रुमगणाः वृक्षसङ्घाताः स्वभावत एव पुष्पफलनस्वभावास्तथैव नगरजनपदा नगरादिलोकाः स्वयमेव पचनपाचनस्वभावा वर्तन्ते, यथा भ्रमरा इति, भावार्थं वक्ष्यति, तथा मुनयो नवरं एतावान्विशेषः अदत्तं स्वामिभिर्न भुञ्जन्त इति गाथार्थः ।। | १२७ ।। अमुमेवार्थं स्पष्टयति नि०- कुसुमे सहावफुल्ले आहारंति भमरा जह तहा उ। भत्तं सहावसिद्धं समणसुविहिया गवेसंति ।। १२८ ।। कुसुमे पुष्पे स्वभावफुल्ले प्रकृतिविकसिते आहारयन्ति कुसुमरसं पिबन्ति भ्रमरा मधुकरा 'यथा' येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पादयन्तः ' तथा ' तेनैव प्रकारेण भक्तं ओदनादि स्वभावसिद्धं आत्मार्थं कृतं उगमादिदोषरहितमित्यर्थः, श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहिताः शोभनानुष्ठानवन्त इत्यर्थः गवेषयन्ति अन्वेषयन्तीति गाथार्थः ।। १२८ ।। साम्प्रतं पूर्वोक्तो यो दोषः मधुकरसमा इत्यत्र तत्परिजिहीर्षयैव यावतोपसंहारः क्रियते तदुपदर्शयन्नाह नि०- उवसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवित्ति । दंतत्ति पुण पयंमी नायव्वं वक्सेसमिणं ।। १२९ ।। उपसंहार उपनयः, भ्रमरा यथा अवधजीविनः तथा श्रमणा अपि साधवोऽप्येतावतैवांशेनेति गाथादलार्थः । इतश्च भ्रमरसाधूनां नानात्वमवसेयम्, यत आह सूत्रकारः - 'नानापिण्डरया दन्ता' इति नाना- अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात्प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच्च पिण्ड- आहारपिण्डः, नाना चासौ पिण्डश्च नानापिण्डः, अन्तप्रान्तादिर्वा, तस्मिन् रता अनुद्वेगवन्तः, 'दान्ता' For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः निर्युक्तिः १२७-१२९ उपनयशुद्धीदोषपरिहारः । ।। ११७ ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥ ११८॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः १३०-१३३ इन्द्रियदमनेन, अनयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्रतिपादितमेव, अत्र चोपन्यस्तगाथाचरमदलस्यावसरः दान्ता इति पुनःपदे सौत्रे, किं?- ज्ञातव्यो वाक्यशेषोऽयमिति गाथार्थः ॥ १२९ ।। किंविशिष्टो वाक्यशेष:?, दान्ता ईर्यादिसमिताश्च । तथा चाह नि०-जह इत्थ चेव इरियाइएसुसव्वंमि दिक्खियपयारे । तसथावरभूयहियं जयंति सब्भावियं साहू ।। १३०॥ यथा अत्रैव अधिकृताध्ययने भ्रमरोपमयैषणासमितौ यतन्ते, तथा ईर्यादिष्वपि तथा सर्वस्मिन् दीक्षितप्रचारे साध्वाचरितव्य ।। | नियुक्तिः इत्यर्थः, किं?- सस्थावरभूतहितं यतन्ते साद्भाविकं पारमार्थिकं साधव इति गाथार्थः ।। १३० ।। अन्ये पुनरिदं गाथादल निगमनंनिगमने व्याख्यानयन्ति, न च तदतिचारु, यत आह तच्छुद्धिश्च। नि०-उवसंहारविसुद्धी एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुचंति साहणोत्ति (य) जेणं ते महयरसमाणा॥१३१॥ उपसंहारविशुद्धिरेषा समाप्ता तु, अधुना निगमनावसरः, तच्च सौत्रमुपदर्शयति- निगमनमिति द्वारपरामर्शः, तेनोच्यन्ते साधव इति, येन प्रकारेण ते मधुकरसमाना- उक्तन्यायेन भ्रमरतुल्या इति गाथार्थः ।। १३१ ॥ निगमनार्थमेव स्पष्टयति नि०- तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहिं भमरोव्व अवहवित्तीहिं। साहहिं साहिउ त्ति उक्किट्ठ मंगलं धम्मो ।।१३२ ।। तस्माद्दयादिगुणसुस्थितैः, आदिशब्दात् सत्यादिपरिग्रहः, भ्रमर इवावधवृत्तिभिः, कैः?- साधुभिः साधितो निष्पादितः, उत्कृष्टं मङ्गलं प्रधानं मङ्गलं धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थ इति गाथार्थः ।। १३२ ।। इदानीं निगमनविशुद्धिमभिधातुकाम आह नि०- निगमणसुद्धी तित्थंतरावि धम्मत्थमुजया विहरे । भण्णइ कायाणं ते जयणं न मुणंति न करेंति ।। १३३ ।। निगमनशुद्धिः प्रतिपाद्यते, अत्राह- तीर्थान्तरीया अपि चरकपरिव्राजकादयः, किं?- धर्मार्थं धर्माय उद्यता उद्युक्ता विहरन्ति, अतस्तेऽपि साधवः एवेत्यभिप्रायः । भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्, कायानां पृथिव्यादीनां 'ते' चरकादयः, किं- यतनां 1॥१९८॥ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् प्रथममध्ययन दुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः ॥११९॥ नियुक्तिः १३४-१३५ निगमनंतच्छुद्धिश्च। प्रयत्नकरणलक्षणांन मन्यन्ते(मुणन्ति) न जानन्ति न मन्वते वा तथाविधागमाश्रवणात्, न कुर्वन्ति, परिज्ञानाभावात्, भावितमे-। वेदमधस्तादिति गाथार्थः ।। १३३ ।। किंच नि०- न य उग्गमाइसुद्धं भुजंती महुयरा वऽणुवरोही। नेव य तिगुत्तिगुत्ता जह साहू निचकालंपि।। १३४ ।। न चोद्गमादिशुद्धं भुञ्जते, आदिशब्दादुत्पादनादिपरिग्रहः, मधुकरा इव भ्रमरा इव सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो, नैव च त्रिगुप्तिगुप्ताः, यथा साधवो नित्यकालमपि, एतदुक्तं भवति- यथा साधवो नित्यकालं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं ते न कदाचिदपि, तत्परिज्ञानशून्यत्वात्, तस्मान्नैते साधव इति गाथार्थः ।। १३४ ।। साधव एव तु साधवः, कथं?, यतः नि०- कार्य वायं च मणं च इंदियाईच पंच दमयंति। धारेंति बंभचेरं संजमयंति कसाए य ।।१३५॥ कार्य वाचं मनश्चेन्द्रियाणि च पञ्च दमयन्ति, तत्र कायेन सुसमाहितपाणिपादास्तिष्ठन्ति गच्छन्ति वा, वाचा निष्प्रयोजनं न । ब्रुवते प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्त्वानुपरोधेन, मनसा अकुशलमनोनिरोधं कुशलमनउदीरणं च कुर्वन्ति, इन्द्रियाणि पञ्च दमयन्ति । इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन, पञ्चेति साङ्खयपरिकल्पितैकादशेन्द्रियव्यवच्छेदार्थम्, तथा च वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसीन्द्रियाणि तेषामिति, धारयन्ति ब्रह्मचर्यम्, सकलगुप्तिपरिपालनात्, तथा संयमयन्ति कषायाँश्व, अनुदयेनोदयविफलीकरणेन चेति गाथार्थः ।। १३५॥ नि०-जंच तवे उजुत्ता तेणेसिं साहुलक्खणं पुण्णं । तो साहुणो त्ति भण्णति साहवो निगमणं चेयं ।। १३६ ।। यच्च तपसि प्राग्वर्णितस्वरूपे, किं?- उद्युक्ता उद्यता: तेन कारणेनैषां साधुलक्षणं पूर्ण अविकलम्, कथं?- अनेन प्रकारेण यथा साधवोऽनुपरोधिनः सन्तो भ्रमरा इव उद्गमादिशुद्धं भुञ्जते न तथा ते चरकादयः न च त्रिगुप्तिगुप्मा यथा साधवः। ॥ ११९॥ For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१२०॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः नियुक्ति: १३६ निगमनंतच्छुद्धिश्च। दशावयवाः। साधयन्त्यपवर्गमिति साधवः, यतश्चैवं ततःसाधव एव भण्यन्ते साधवो, न चरकादय इति, निगमनं चैतदिति गाथार्थः ।।१३६॥ इत्थमुक्तं दशावयवम्, प्रयोगं त्वेवं वृद्धा दर्शयन्तिअहिंसादिलक्षणधर्मसाधका: साधव एव, स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत्, विपक्षो दिगम्बरभिक्षुभौतादिवत्, इह ये स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिणस्ते उभयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिंसादिलक्षणधर्मसाधका दृष्टाः, तथा च साधवः स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः, तस्मात्स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्तेऽहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एवेति निगमनम्, पक्षादिशुद्धयस्तु निदर्शिता एवेति न प्रतन्यन्ते।।१३६ ।। एवमर्थाधिकारद्वयवशात् पञ्चावयवदशावयवाभ्यां वाक्याभ्यां व्याख्यातमध्ययनमिदम्, इदानीं भूयोऽपि नियुक्ति: १३७ भड्यन्तरभाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे नियुक्तिकार: नि०- ते उ पइन्न विभत्ती हेउ विभत्ती विवक्खपडिसेहो। दिद्रुतो आसंका तप्पडिसेहो निगमणं च ।। १३७॥ ते इति अवयवाः, तुः पुनःशब्दार्थः, ते पुनरमी प्रतिज्ञादयः-तत्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा- वक्ष्यमाणस्वरूपेत्येकोऽवयवः, तथा । विभजनं विभक्तिः - तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः, तथा हिनोति- गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति । हेतुस्तृतीयः, तथा विभजनं विभक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थः, तथा विसदृशः पक्षो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पञ्चमः, तथा । प्रतिषेधनं प्रतिषेधः विपक्षस्येति गम्यते इत्ययं षष्ठः, तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः, तथा आशङ्कनमाशङ्का प्रक्रमाद्दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः, तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः, तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः, चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः ।। १३७ ।। व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं वक्ष्यति ग्रन्थकार एव, तथा चाह ||१२०॥ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् १२२॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः नियुक्ति:१३८ दशावयवेषुप्रथमद्वितीयौ प्रतिज्ञाप्रतिज्ञाविभक्त्यवयवी। नि०- धम्मो मंगलमुक्किट्ठति पइन्ना अत्तवयणनिहेसो । सो य इहेव जिणमए नन्नत्थ पड़न्नपविभत्ती॥१३८॥ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट मिति पूर्ववत् इयं प्रतिज्ञा, आह- केयं प्रतिज्ञेति ?, उच्यते, आप्तवचननिर्देश इति तत्राप्त:- अप्रतारकः, अप्रतारकश्चाशेषरागादिक्षयाद्भवति, उक्तं च- आगमो ह्याप्तवचनमाप्न दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ।। १॥ तस्य वचनं आप्तवचनं तस्य निर्देश आप्तवचननिर्देशः,आह-अयमागम इति, उच्यते, विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एव प्रतिज्ञेति न दोषः, पाठान्तरं वा साध्यवचननिर्देश इति, साध्यत इति साध्यम्, उच्यत इति वचनं- अर्थः यस्मात्स। एवोच्यते, साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थः, तस्य निर्देशः प्रतिज्ञेति, उक्तः प्रथमोऽवयवः, अधुना द्वितीय उच्यते- स च - अधिकृतो धर्म: किं?- इहैव जिनमते अस्मिन्नेव मौनीन्द्रे प्रवचने नान्यत्र कपिलादिमतेषु, तथाहि- प्रत्यक्षत एवोपलभ्यन्ते वस्त्राद्यपूतप्रभूतोदकाधुपभोगेषु परिव्राट्प्रभृतयः प्राण्युपम कुर्वाणाः, ततश्च कुतस्तेषु धर्म:?, इत्याद्यत्र । नियुक्तिः१३९ बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभया भावितत्वाच्चेति । प्रतिज्ञाप्रविभक्तिरियं- प्रतिज्ञाविषयविभागकथनमिति गाथार्थः ।। १३८ ।। उक्तो द्वितीयोऽवयवः, अधुना तृतीय उच्यते- तत्र नि०- सुरपूइओत्ति हेऊधम्मट्ठाणे ठिया उजं परमे । हेउविभत्ति निरुवहि जियाण अवहेण य जियंति ।। १३९ ।। सुरा- देवास्तैः पूजितः सुरपूजितः सुरग्रहणमिन्द्राद्युपलक्षणम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, कोऽयं?- हेतुः पूर्ववत्, हेत्वर्थसूचकं । चेदं वाक्यम्, हेतुस्तु सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्यः, अस्यैव सिद्धतां दर्शयति-'धर्मः' पूर्ववत् तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम्, ॥ १२१।। धर्मश्चासौ स्थानं च धर्मस्थानम्, स्थानं- आलयः, तस्मिन् स्थिताः, तुरयमेवकारार्थः, स चावधारणे, अयं चोपरिष्टात् । ®सज्झ० (प्र०) 10 अयमागमो वचनरूपत्वात् न प्रतिज्ञा । 0 नैष० (प्र०)10 अर्थः । तुतीयचतीहतुहतुविभक्त्यवयवौ पञ्चमोविपक्षावयवश्च। For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१२२॥ क्रियया सह योक्ष्यते, यद् यस्मात्, किंभूते धर्मस्थाने?- परमे प्रधाने, किं?- सुरेन्द्रादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः, इति । प्रथममध्ययन तृतीयोऽवयवः, अधुना चतुर्थ उच्यते- हेतुविभक्तिरियं- हेतुविषयविभागकथनम्, अथ क एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ निरुपधयः उपधिः छद्म मायेत्यनर्थान्तरम्, अयं च क्रोधाद्युपलक्षणम्, ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषाया येभ्यस्ते । उपनयशुद्धिः निरुपधयो- निष्कषायाः, जीवानां पृथ्वीकायादीनां अवधेन अपीडया, चशब्दात्तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन जीवन्ति प्राणान् । नियुक्ति: १४० धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिताः, नान्य इति गाथार्थः ॥ १३९ ।। उक्तश्चतुर्थोऽवयवः, अधुना पञ्चममभिधित्सुराह तृतीयचतुर्थी हेतुहेतु__नि०- जिणवयणपदुद्वेवि हु ससुराईए अधम्मरुइणोऽवि। मंगलबुद्धीइ जणो पणमइ आईदुयविवक्खो। १४०॥ विभक्त्यइह विपक्षःपञ्चम इत्युक्तम्, स चायं- प्रतिज्ञाविभक्त्योरिति, जिना:- तीर्थकराः, तेषां वचनं-आगमलक्षणं तस्मिन् । वयवौ पञ्चमो विपक्षाप्रद्विष्टा- अप्रीता इति समासस्तान्, अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि, हु इत्ययं निपातोऽवधारणार्थः अस्थानप्रयुक्तश्च, स्थानं तु दर्शयिष्यामः, श्वशुरादीन् श्वशुरो- लोकप्रसिद्धः, आदिशब्दात्पित्रादिपरिग्रहः, न विद्यते धर्मे रुचिर्येषां तेऽधर्मरुचयस्तान्, नियुक्तिः१४१ पतमोविअपिशब्दाद्धर्मरुचीनपि, किं?- मङ्गलबुद्ध्या मङ्गलप्रधानया धिया, मङ्गलबुद्ध्यैव नामङ्गलबुद्ध्येत्येवमवधारणस्थानं किं?जनो लोकः प्रकर्षेण नमति प्रणमति, आद्यद्वयविपक्ष इति अत्राद्यद्वयं प्रतिज्ञा तच्छुद्धिश्च तस्य विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति आद्यद्वयविपक्षः, तत्राधर्मरुचीनपि मङ्गलबुद्ध्या जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह, तेषामधर्माव्यतिरेकात्, जिनवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तच्छुद्धेः, तत्रापि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्मसिद्धेरिति गाथार्थः ।। १४०॥ । नि०-बिइयदुयस्स विवक्खो सुरेहिं पूजंति जण्णजाईवि। बुद्धाईवि सुरणया वुचन्ते णायपडिवक्खो॥१४१॥ 0 विपक्षः प्रतिज्ञाविभक्त्योः सत्कः । वववव। पक्षावयवः। For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १२३ ।। www.kobatirth.org द्वयोः पूरणं द्वितीयं द्वितीयं च तद्वयं च द्वितीयद्वयं हेतुस्तच्छुद्धिश्च, इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते, तस्यायं विपक्ष:इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञयाजिनोऽपीति, इयमत्र भावना- यज्ञयाजिनो हि मङ्गलरूपा न भवन्त्यथ च सुरैः पूज्यन्ते ततश्च सुरपूजितत्वमकारणमिति, एष हेतुविपक्षः, तथा अजितेन्द्रियाः सोपधयश्च यतस्ते वर्तन्ते अतोऽनेनैव ग्रन्थेन 'धर्मस्थाने स्थिताः परम' इत्यादिकाया हेतुविभक्तेरपि विपक्ष उक्तो वेदितव्य इति । उदाहरणविपक्षमधिकृत्याह- बुद्धादयोऽप्यादिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, ते किं ? - सुरनता देवपूजिता उच्यन्ते भण्यन्ते तच्छासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपक्ष इति गाथार्थः ।। १४१ ।। आह- ननु दृष्टान्तमुपरिष्टाद्वक्ष्यति, एवं ततश्च तत्स्वरूप उक्ते तत्रैव विपक्षस्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः तत्किमर्थमिह विपक्षः तत्प्रतिषेधश्चाभिधीयते ?, उच्यते, विपक्षसाम्यादधिकृत एव विपक्षद्वारे लाघवार्थमभिधीयते, अन्यथेदमपि पृथग्द्वारं स्यात्, तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि द्वारान्तरं प्राप्नोति, तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते, तस्माल्लाघवार्थमत्रैवोच्यत इत्यदोषः । आह- दिडंतो आसंका तप्पडिसेहो त्ति वचनात् उत्तरत्र दृष्टान्तमभिधाय पुनराशङ्कां तत्प्रतिषेधं च वक्ष्यत्येव, तदाशङ्का च तद्विपक्ष एव, तत् किमर्थमिह पुनर्विपक्षप्रतिषेधावभिधीयेते?, उच्यते, अनन्तरपरम्पराभेदेन दृष्टान्तद्वैविध्यख्यापनार्थम्, यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यत्वाद्दान्तिकार्थसाधनायालं न भवति तत्प्रसिद्धये चाध्यक्षसिद्धो योऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः, तथा च तीर्थकरांस्तथा साधूंश्च द्वावपि भिन्नावेवोत्तरत्र दृष्टान्तावभिधास्येते, तत्र तीर्थकृल्लक्षणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येह विपक्षप्रतिषेधावुक्तौ, साधूंस्त्वधिकृत्य तत्रैवाशङ्कातत्प्रतिषेधौ दर्शयिष्येते इत्यदोषः । स्यान्मतं प्रागुक्तेन विधिना लाघवार्थमनुक्ते एव दृष्टान्ते उच्यतां कामम्, इहैव दृष्टान्तविपक्षस्तत्प्रतिषेधश्च स एव दृष्टान्तः किमित्युत्तरत्रोपदिश्यते? येन हेतुविभक्तेरनन्तरमिहैव © दृष्टान्त आशङ्का तत्प्रतिषेधः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः निर्युक्तिः १४१ पञ्चमोवि पक्षावयवः । ।। १२३ ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १२४ ।। www.kobatirth.org न भण्यते, तथाहि - अत्र दृष्टान्ते भण्यमाने प्रतिज्ञादीनामिव द्विरूपस्यापि दृष्टान्तस्यार्हत्साधुलक्षणस्य एतावेव विपक्षतत्प्रतिषेधावुपपद्येते, ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग् वक्तव्यौ भवतः, तथा च सति ग्रन्थलाघवं जायते, तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकास्त्रयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता भवन्तीति, अत्रोच्यते, इहाभिधीयमाने दृष्टान्तस्येव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधो वक्तव्यौ स्तः, तथा च सत्यवयवबहुत्वम्, दृष्टान्तस्य वा प्रतिज्ञादीनामिव विपक्षतत्प्रतिषेधाभ्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ न वक्तव्यौ स्याताम्, एवं सति दशावयवा न प्राप्नुवन्ति, दशावयवं चेदं वाक्यं भङ्ग्यन्तरेण प्रतिपिपादयिषितम्, अस्यापि न्यायस्य प्रदर्शनार्थम्, अत एव यदुक्तं साधुलक्षणदृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग् वक्तव्यौ स्यातामित्यादि तदपाकृतं वेदितव्यम्, इत्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपक्षोऽभिहितः, अधुनाऽयमेव प्रतिज्ञादिविपक्षः पञ्चमोऽवयवो वर्तत इत्येतद्दर्शयन्निदमाह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि० एवं तु अवयवाणं चउण्ह पडिवक्खु पंचमोऽवयवो। एत्तो छट्टोऽवयवो विवक्खपडिसेह तं वोच्छं ।। १४२ ।। एवं इत्ययम्, एव (वं) कार उपप्रदर्शने, तुरवधारणे, अयमेव अवयवानां प्रमाणाङ्गलक्षणानां चतुर्णां प्रतिज्ञादीनां प्रतिपक्षो विपक्षः, पञ्चमोऽवयव इति, आह- दृष्टान्तस्याप्यत्र विपक्ष उक्त एव, तत्किमर्थं चतुर्णामित्युक्तं ?, उच्यते, हेतो: सपक्षविपक्षाभ्यामनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात्, तद्विपक्ष एव चास्यान्तर्भावाददोष इति । उक्तः पञ्चमोऽवयवः, षष्ठ उच्यते, तथा चाह- इत उत्तरत्र षष्ठोऽवयवो विपक्षप्रतिषेधस्तं वक्ष्ये अभिधास्य इति गाथार्थः ।। १४२ ।। इत्थं सामान्येनाभिधायेदानीमाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधमभिधातुकाम आह नि०- सायं संमत्तं पुमं हासं रइ आउनामगोयसुहं धम्मफलं आइदुगे विवक्खपडिसेह मो एसो ।। १४३ ।। For Private and Personal Use Only प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः निर्युक्तिः | १४२-१४३ दशावयवे पञ्चमषष्ठीविपक्षविपक्षप्रतिषेधा वयवी । ।। १२४ ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||१२५॥ प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः नियुक्ति:१४४ षष्ठो विपक्षप्रतिषेधावयवः। सायं ति सातवेदनीयं कर्म संमत्तं ति सम्यक्त्वं सम्यग्भावः सम्यक्त्वं-सम्यक्त्वमोहनीयं कर्मैव, पुमं ति पुंवेदमोहनीयं हास ति हस्यतेऽनेनेति हासः तद्भावो हास्य- हास्यमोहनीयम्, रम्यतेऽनयेति रतिः- क्रीडाहेतुः रतिमोहनीयं कर्मैव, आउनामगोयसुह ति अत्र शुभशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अन्ते वचनात्, ततश्च आयुः शुभं नाम शुभंगोत्रं शुभम्, तत्रायुःशुभं तीर्थकरादिसम्बन्धि नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः, तथाहि- यशोनामादि शुभं तीर्थकरादीनामेव भवति, तथोच्चैर्गोत्रं तदपि शुभं तेषामेवेति, धर्मफल मिति धर्मस्य फलं धर्मफलम्, धर्मेण वा फलं धर्मफलम्, एतद् अहिंसादेर्जिनोक्तस्यैव धर्मस्य फलम्, अहिंसादिना जिनोक्तेनैव वा धर्मेण फलमवाप्यते, सर्वमेव चैतत्सुखहेतुत्वाद्धितम्, अतःस एव धर्मो मङ्गलं न श्वशुरादयः, तथाहि- मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम्, तच्च यथोक्तधर्मेणैव मङ्गयते नान्येन, तस्मादसावेव मङ्गलं न जिनवचनबाह्याः श्वशुरादय इति स्थितम् । आह-'मङ्गलबुद्ध्यैव जनः प्रणमती' त्युक्तं तत्कथं ? इति, उच्यते, मङ्गलबुद्ध्यापिगोपालाङ्गनादिर्मोहतिमिरोपप्लुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलत्वनिश्चयायालम्, तथाहि न तैमिरिकद्विचन्द्रोपदर्शनं सचेतसां चक्षुष्मतां द्विचन्द्राकारायाः प्रतीते: प्रत्ययतां प्रतिपद्यते, अतद्रूप एव तद्रूपाध्यारोपद्वारेण तत्प्रवृत्तेरिति । 'आइदुगं ति आद्यद्वयं प्रागुक्तं तस्मिन् आद्यद्वयविषये, विपक्षप्रतिषेधः, मो इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः 'एष' इति यथा वर्णित इति गाथार्थः॥ १४३ ।। इत्थमाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति हेतुतच्छुद्ध्योर्विपक्षप्रतिषेधप्रतिपिपादयिषयेदमाह नि०-अजिइंदिय सोवहिया वहगा जइ तेऽवि नाम पुजंति । अग्गीवि होज सीओ हेउविभत्तीण पडिसेहो।। १४४ ।। न जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते, उपधिश्छद्म मायेत्यनर्थान्तरम्, उपधिना सह वर्तन्त इति सोपधयो० पर्यायाः (प्र०)। ॥१२५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१२६॥ सूत्रम् ४-५ वयवः। मायाविनः परव्यंसका इतियावत् अथवा उपदधातीत्युपधिः- वस्त्राद्यनेकरूपः परिग्रहः, तेन सह वर्त्तन्ते ये ते तथाविधा प्रथममध्ययन महापरिग्रहा इत्यर्थः, वधन्तीति वधकाः- प्राण्युपमर्दकर्तारः, जइ तेऽवि नाम पुजंति त्ति यदीति पराभ्युपगमसंसूचकः, त इति । द्रुमपुष्पिका, याज्ञिकाः, अपि: संभावने, नाम इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, येऽजितेन्द्रियादिदोषदुष्टा यज्ञयाजिनो वर्त्तन्ते, यदि ते । उपनयशुद्धिः नाम पूज्यन्ते तद्यग्निरपि भवेच्छीतः, न च कदाचिदप्यसौ शीतो भवति, तथा वियदिन्दीवरस्रजोऽपि वान्ध्येयोरःस्थलशोभामाद- नियुक्ति: १४५ षष्ठो विपक्षधीरन्, न चैतद् भवति, यथैवमादिरत्यन्ताभावस्तथेदमपीति मन्यते, अथापि कालदौर्गुण्येन कथञ्चिदविवेकिना जनेन प्रतिषेधापूज्यन्ते तथापि तेषां न मङ्गलत्वसंप्रसिद्धिः, अप्रेक्षावतामतद्रूपेऽपि वस्तूनि तद्रूपाध्यारोपेण प्रवृत्तेः, तथाहि- अकलङ्कधियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तां गमयति, अतथाभूते वस्तुनि तद्बुद्ध्या तेषामप्रवृत्तेः, सुविशुद्धबुद्धयश्च दैत्यामरेन्द्रादयः, ते चाहिंसादिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति न यज्ञयाजिनः, तस्मादैत्यामरेन्द्रादिपूजितत्वाद्धर्म एवोत्कृष्टं मङ्गलं न याज्ञिका इति स्थितम्, हेउविभत्तीण त्ति एष हेतुतद्विभक्त्योः पडिसेहो त्ति विपक्षप्रतिषेधः, विपक्षशब्द इहानुक्तोऽपि प्रकरणाज्ज्ञातव्य इति गाथार्थः ।। १४४ ।। एवं हेतुतच्छुद्ध्योर्विपक्षप्रतिषेधो दर्शितः, साम्प्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाह नि०- बुद्धाई उवयारे पूयाठाणं जिणा उसब्भावं । दिटुंते पडिसेहो छट्टो एसो अवयवो उ॥१४५ ।। __ बुद्धादयः आदिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, उपचार इति सुपां सुपो भवन्तीति न्यायादुपचाारेण किञ्चिदतीन्द्रियं कथयन्तीति कृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम्, जिनास्तु सद्भावं परमार्थमधिकृत्येति वाक्यशेषः सर्वज्ञत्वाद्यसाधारण 0वध हिंसायामित्यन्यपठितधातुगणापेक्षयाऽयं प्रयोगः, अगणपठितं वधि हिंसार्थमाश्रित्य स्यात्परं तत्रात्मनेपदसम्भवः, यदि च तेषामर्थान्तरेऽपि अनियमस्त्यादीन् 8 प्रतीत्यपेक्ष्य स्यात्परस्मैपदिता तदा तत्रापि न दोषः। ॥१२६॥ For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandie श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१२७॥ प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः नियुक्तिः १४६-१४७ सप्तमोटष्टान्तः अटम आशङ्का गुणयुक्तत्वादिति भावना, दृष्टान्तप्रतिषेध इति विपक्षशब्दलोपाद् दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधः, किं?- षष्ठ एषोऽवयवः, तुर्विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?- सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक एवेति गाथार्थः ।। १४५॥ षष्ठमवयवमभिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमभिधातुकाम आह नि०- अरिहंत मग्गगामी दिटुंतो साहुणोऽवि समचित्ता। पागरएसु गिहीसु एसंते अवहमाणा उ॥१४६ ।। पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, न रुहन्तीति वा अरुहन्तः, किं?- दृष्टान्त इति सम्बन्धस्तथा मार्गगामिन इति प्रक्रमात्तदुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एव गृह्यन्ते, के च त इत्यत- आह- साधवः साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः, तेऽपि दृष्टान्त इति योगः, किंभूताः?- समचित्ता रागद्वेषरहितचित्ता इत्यर्थः, किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति?, अहिंसादिगुणयुक्तत्वात्, आह च- पाकरतेषु आत्मार्थमेव पाकसक्तेषु गृहिषु अगारिषु एषन्ते गवेषयन्ति पिण्डपातमित्यध्याहारः, किं कुर्वाणा इत्यत आह-अवहमाणा उन घ्नन्तोऽघ्नन्तः, तुरवधारणार्थः, ततश्चाघ्नन्त एव, आरम्भाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थः । एवं द्विविधोऽपि दृष्टान्त उक्तः, दृष्टान्तवाक्यं चेदम्, स तु संस्कृत्य कर्त्तव्योऽहंदादिवदिति गाथार्थः ।। १४६।। उक्तः सप्तमोऽवयवः, साम्प्रतमष्टममभिधित्सराह नि०- तत्थ भवे आसंका उद्दिस्स जइवि कीरए पागो। तेण र विसमं नायं वासतणा तस्स पडिसेहे ।। १४७ ।। तत्र तस्मिन् दृष्टान्ते भवेदाशङ्का भवत्याक्षेपः, यथा उद्दिश्य अङ्गीकृत्य यतीनपि संयतानपि, अपिशब्दादपत्यादीन्यपि, क्रियते निर्वय॑ते पाकः, कैः?- गृहिभिरिति गम्यते, ततः किमित्यत आह- तेन कारणेन, र इति निपातः किलशब्दार्थः, विषमं अतुल्यं ज्ञातं उदाहरणम्, वस्तुत: पाकोपजीवित्वेन साधूनामनवद्यवृत्त्यभावादिति, भावितमेवैतत् पूर्वम्, इत्यष्टमो स्तत्प्रतिषेधः। ॥ १२७॥ For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथममध्ययन द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ उपनयशुद्धिः नियुक्तिः१४८ दशम निगमनम्। नियुक्तिः १४९(१) ज्ञाननयः। श्रीदश- ऽवयवः, इदानीं नवममधिकृत्याह- वर्षातृणानि तस्य प्रतिषेधे इति, एतच्च भाष्यकृता प्राक् प्रपञ्चितमेवेति प्रतन्यत इति वैकालिक गाथार्थः ॥ १४७ ।। उक्तो नवमोऽवयवः, साम्प्रतं चरममभिधित्सुराहश्रीहारिक वृत्तियुतम् नि०- तम्हा उ सुरनराणं पुजत्ता मंगलं सया धम्मो । दसमो एस अवयवो पइनहेऊ पुणोवयणं ॥१४८॥ ।। १२८॥ यस्मादेवं तस्मात् सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यत इति पूज्यस्तद्धावस्तस्मात् पूज्यत्वात् मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थं सदा सर्वकालं धर्मः प्रागुक्तः, दशम एषोऽवयव इति सङ्ख्याकथनम्, किंविशिष्टोऽयमित्यत आह- प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं पुनर्हेतुप्रतिज्ञावचनमिति गाथार्थः ॥ १४८ ।। उक्तं द्वितीयं दशावयवम्, साधनाङ्गता चावयवानां विनेयापेक्षया विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वेन भावनीयेति । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नया उच्यन्ते-ते च नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतभेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेषामध आवश्यकसामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवातो नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते- ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं- ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणम्, युक्तियुक्तत्वात् तथा चाह नि०-णायंमि गिण्हियव्वे अगिण्हियव्वंमिचेव अत्थंमि । जइयव्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नामं ।। १४९(१) ।। Bणायमि त्ति ज्ञाते सम्यक्परिच्छिन्ने गिहियव्वे त्ति ग्रहीतव्य उपादेये अगिव्हियवंमि त्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थः उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्य:- ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये चार्थे तु ज्ञात एव नाज्ञाते, अत्थंमि त्ति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यःम्रक्चन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिः उपेक्षणीयः तृणादिः, आमुष्मिको ॥१२८।। For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१२९॥ ज्ञानमयः। ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति, तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेवे ति प्रथममध्ययन अनुस्वारलोपाद्यतितव्यम्, एवं- अनेन प्रक्रमेणैहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः।। दुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, सम्यगज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तं- विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया । उपनयशुद्धिः फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंभवात् ॥ १॥ तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनापि ज्ञात एव यतितव्यम्, तथा नियुक्तिः १४९(१) चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तं- पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही?, किंवा णाहिति । छेयपावगं?, इतश्चैतदेवाङ्गीकर्त्तव्यं यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमःगीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसिओ चेव। इत्तो तइयविहारो णाणुनाओ जिणवाहि॥१॥यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं न प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्, क्षायिकम(प्य)ङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वंतस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षांप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावज्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, इति जो उवएसो सोणओणाम ति इति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो- ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो । नाम- ज्ञाननय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु। तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छति इति गाथार्थः ।। १४९(१) ।। उक्तो ज्ञाननयः, अधुना क्रियानयावसरः, - 0प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतः। अज्ञानी किं करिष्यति? किं वा ज्ञास्यति छेकपापकम् ॥१॥0गीतार्थश्च विहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रितश्चैव । इतस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ।। १॥ ||१२९।। For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kailassagarsuneyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३०॥ तदर्शनं चेदं- क्रियैव प्रधानम्, ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणम्, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये। प्रथममध्ययन गाथामाह द्रुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ नि०- णायंमि गिण्हियव्वे अगिहियव्वंमिचेव अत्थंमि । जइयव्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नामं ॥ १४९(२)?॥ उपनयशुद्धिः अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या- ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव, नियुक्तिः न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोप्यभिलषितार्थावाप्तिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तं- क्रियैव फलदा पुंसां, न १४९(२) ज्ञाननयः। ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत्॥१॥ तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि क्रियैव कर्त्तव्या, तथा च मौनीन्द्रप्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम्, यत उक्तं-चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयणसुए य । सव्वेसुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥ १ ॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्त्तव्यम्, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम्, तथा चागमः-सुबहुपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पमुक्कस्स?। अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥ दृशिक्रियाविकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम्, चारित्रक्रियेत्यनान्तरम्, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते, यस्मा (याव) दखिलकर्मेन्धनानलभूता हूस्वपञ्चाक्षरोच्चारणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मात्क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति जो उवएसो सो णओ णामं ति इति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः किं?-क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम-क्रियानय इत्यर्थः । अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्न 0 चैत्यकुलगणसङ्के आचार्येषु च प्रवचने श्रुते च । सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंयनयोरुद्यच्छता ॥१॥ 0 सुबहुकमपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरणविप्रमुक्तस्य?। अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहस्रकोट्यपि ॥१॥ ॥१३०॥ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Shes Kalassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३१॥ अध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वानेच्छति गुणभूते चेच्छतीति प्रथममध्ययन गाथार्थः ॥ १४९॥ उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञाननयक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह दुमपुष्पिका, सूत्रम् ४-५ किमत्र तत्त्वं?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवाद्, आचार्यः पुनराह- अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुप-। उपनयशुद्धिः दर्शयन् पुनराह नियुक्तिः नि०-सव्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जंचरणगुणट्ठिओसाहू ॥१५०॥ १५०-१५१ सर्वेषा मिति मूलनयानामपिशब्दात्तद्भेदानां च द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम्, अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत् सर्वनयविशुद्ध सर्वनयसंमतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः यस्मात्सर्वनया एव(सर्वेऽपि नया)भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः।। १५० ॥ नि०- दुमपुफियनिजुत्ती समासओ वणिया विभासाए। जिणचउद्दसपुव्वी वित्थरेण कहयंति से अढें ॥ १५१ ॥ दुमपुष्फियनिजुत्ती समत्ता। सुगमा। इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकटीकायां द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम् । व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया। किश्चित् सद्धर्मलाभमखिलं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ १॥ ॥ सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्ती प्रथममध्ययनं दुमपुष्पिकाख्यं समाप्तमिति॥ 208 SEARRRRRRRRR88888888000 For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir www.kobairthorg श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३२॥ पूर्वकम्, बामण्य श्रमण ।। अथ द्वितीयमध्ययनं श्रामण्यपूर्वकाख्यम् ।। द्वितीयमध्ययन व्याख्यातं द्रुमपुष्पिकाध्ययनम्, अधुना श्रामण्यपूर्वकाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्मप्रशंसो श्रामण्यक्ता, सा चेहैव जिनशासन इति, इह तु तदभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्य नियुक्तिः१५२ मित्येतदुच्यते, उक्तं च- जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्णई सुलभा । जे अधिड्मंत पुरिसा तवोऽवि खलु दुल्लहो तेसिं अभिसम्बन्ध:॥१॥ अनेनाभिसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नवरं नामवदध्ययनविषयत्वादुपक्रमादि पूर्वकस्य च द्वारकलापस्य व्याप्तिप्राधान्यतो नामनिष्पन्नं निक्षेपमभिधित्सुराह नियुक्तिकारः निक्षेपः। नियुक्तिः१५३ नि०-सामण्णव्वगस्स उ निक्खेवो होइ नामनिप्फन्नो। सामण्णस्स चउको तेरसगो पुव्वयस्स भवे ।। १५२॥ श्राम्यतीति श्रमणः, (श्राम्यति तपस्यति) तद्भावः श्रामण्यम्, तस्य पूर्व-कारणं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति निक्षेपाः। संज्ञायां कन्, श्रामण्यकारणं च धृतिः, तन्मूलत्त्वात्तस्य, तत्प्रतिपादकं चेदमध्ययनमिति भावार्थः । अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, कोऽसौ?- अन्यस्याश्रुतत्त्वात् श्रामण्यपूर्वकमित्ययमेव, तुशब्दः सामान्यविशेषवन्नामविशेषणार्थः, श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्, श्रामण्यं पूर्वं चेति विशेषः, तथा चाह- श्रामण्यस्य चतुष्ककस्त्रयोदशकः पूर्वकस्य भवेनिक्षेप इति गाथार्थः ।। १५२ ॥ निक्षेपमेव विवृणोति नि०- समणस्स उ निक्लेवो चउक्कओ होइ आणुपुव्वीए। दव्वे सरीरभविओ भावेण उ संजओ समणो ।।१५३ ।। श्रमणस्य तु तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेनाधिकार इति विशेषणार्थः, निक्षेपश्चतुर्विधो भवति, आनुपूर्त्या : 0 यस्य धृतिस्तस्य तपो यस्य तपस्तस्य सुगतिः सुलभा । येऽधृतिमन्तः पुरुषास्तपोऽपि खलु दुर्लभं तेषाम् ॥ १॥ 0 रूढनामेति। 0 नामनिष्पन्न निक्षेपस्य । ॥१३२॥ For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिo वृत्तियुतम् ।। १३३ ।। www.kobatirth.org नामादिक्रमेण, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यश्रमणो द्विधा- आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तोऽभिलापभेदेन द्रुमवदवसेयः, तं चानेनोपलक्षयति- दव्वे सरीरभविउ त्ति । भावश्रमणोऽपि द्विविध एव- आगमतो ज्ञातोपयुक्तः नोआगमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः, तथा चाह- भावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः ।। १५३ ।। अस्यैव स्वरूपमाह नि०- जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणड़ न हणावे व सममणई तेण सो समणो ।। १५४ ।। यथा मम न प्रियं दुःखम्, प्रतिकूलत्वात् ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वं न हन्ति स्वयं न घातयत्यन्यैः, चशब्दाद् घ्नन्तं च नानुमन्यतेऽन्यम्, इत्यनेन प्रकारेण समं अणति तुल्यं गच्छति यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थः ।। १५४ ।। नि०- नत्थिय सि कोइ वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु। एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओं ।। १५५ ।। नास्ति च सि तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, तुल्यमनस्त्वात्, एतेन भवति सममनाः, समं मनोऽस्येति सममनाः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ।। १५५ ।। नि०- तो समणो जड़ सुमणो भावेण य जड़ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु ।। १५६ ।। ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमनः प्रतीत्य, भावेन च यदि न भवति पापमनाः, एतत्फलमेव दर्शयति स्वजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः ।। १५६ ।। नि०- उरगगिरिजलणसागरनहयलतरुगणसमो य जो होई। भमरमिगधरणिजलरुहरविपवणसमो जओ समणो ।। १५७ ।। उरगसमः परकृतबिलनिवासित्वादाहारानास्वादनात्संयमैकदृष्टित्वाच्च, गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात्, ज्वलनसमः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य पूर्वकम्, नियुक्ति: १५३-१५७ श्रमण निक्षेपाः। ।। १३३ ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् श्रामण्य १३४॥ श्रमण तपस्तेजःप्रधानत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः एषणीयाशनादौ चाविशेषप्रवृत्तेरिति, सागरसमो गम्भीरत्वाज्ज्ञानादि- द्वितीयमध्ययन रत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च, नभस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात्, तरुगणसमः अपवर्गफलार्थिसत्त्वशकुनालयत्वात् । पूर्वकम्, वासीचन्दनकल्पत्वाच, भ्रमरसमः अनियतवृत्तित्वात्, मृगसमः संसारभयोद्विग्नत्वात्, धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात्, नियुक्तिः १५७ जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तदूर्ध्ववृत्तेः, रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्य विशेषण निक्षेपाः। प्रकाशकत्वात् पवनसमः अप्रतिबद्धविहारित्वात्, इत्थमुरगादिसमश्च यतो भवति ततः श्रमण इति गाथार्थः ।। १५७ ।। विसतिणिसवायवंजुलकणियारुप्पलसमेण समणेणं । भमरूंदुरुनडकुक्कुडअद्दागसमेण होयव्वं ।। १।। (प्र०) श्रमणेन विषसमेन भवितव्यं भावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य, तथा तिनिशसमेन मानपरित्यागतो नमेण, वातसमेनेति । पूर्ववत्, वञ्जुलो- वेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषाभिभूतजीवानां तदपनयनेन, एवं हि श्रूयते-किल वेतसमवाप्य निर्विषा । भवन्ति सर्पा इति, कर्णिकारसमेनेति तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धापेक्षया च निर्गन्धेनेति, उत्पलसदृशेन प्रकृतिधवलतया । सुगन्धित्वेन च, भ्रमरसमेनेति पूर्ववत्, उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया, नटसमेन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणेन, कुर्कुटसमेन संविभागशीलतया, स हि किल प्राप्तमाहारं पादेन विक्षिप्यान्यैः सह भुङ्क्त इति, आदर्शसमेन निर्मलतया । तरुणाद्यनुवृत्तिप्रतिबिम्बभावेन च, उक्तं च- तरुणमि होइ तरुणो थेरो थेरेहिं डहरए डहरो। अद्दाओविव रूवं अणुयत्तइ जस्स जब सीलं ॥ १॥ एवंभूतेन श्रमणेन भवितव्यमिति गाथार्थः।। इयं किल गाथा भिन्नकर्तृकी, अत: पवनादिषु न पुनरुक्तदोष । इति ॥ १।। साम्प्रतं तत्त्वभेदपर्यायाख्ये ति न्यायाच्छ्रमणस्यैव पर्यायशब्दानभिधित्सुराह Oविषे सर्वरसानामन्तर्भावात्, न तेषामनुभवस्तस्मिन् । 0 तरुणे भवति तरुणः स्थविर स्थविरेषु बाले बालःआदर्श इव रूपमनुवर्तते यस्य यच्छीलम् ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश श्रामण्य पूर्वकम्, ॥१३५॥ श्रमणस्य नि०- पव्वइए अणगारे पासंडे चरग तावसे भिक्खू । परिवाइए य समणे निगंथे संजए मुत्ते ।। १५८ ।। द्वितीयमध्ययन वैकालिक प्रकर्षण व्रजितो- गतःप्रव्रजितः, आरम्भपरिग्रहादिति गम्यते, अगारं- गृहं तदस्यास्तीत्यगारो गृही न अगारोऽनगारः, श्रीहारि० वृत्तियुतम् द्रव्यभावगृहरहित इत्यर्थः, पाखण्डं- व्रतं तदस्यास्तीति पाखण्डी, उक्तं च- पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि।स। नियुक्ति: १५८ पाखण्डी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः (तम्) ॥२॥ चरतीति चरकस्तप इति गम्यते, तपोऽस्यास्तीति तापसः, भिक्षणशीलो. पर्यायशब्दाः । भिक्षुः भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः, परिसमन्तात्पापवर्जनेन व्रजति- गच्छतीति परिव्राजकः, चः समुच्चये, श्रमणः । नियुक्तिः पूर्ववत्, निर्गतो ग्रन्थान्निर्ग्रन्थः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहित इत्यर्थः, सं- एकीभावेनाहिंसादिषु यतः- प्रयत्नवान् संयतः, मुक्तो । १५९-१६० श्रमणबाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनैवेति गाथार्थः ।। १५८।। पर्याया:नि०-तिन्ने ताई दविए मुणी य खंते य दन्त विरए य । लूहे तीरटेऽविय हवंति समणस्स नामाई॥१५९।। पूर्वशब्दस्यच तीर्णवांस्तीर्णः, संसारमिति गम्यते, त्रायत इति त्राता, धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्य इति भावः, रागादिभावरहितत्वाव्यम्, विधनिक्षेपाः। द्रवति- गच्छति ताँस्तान ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम्, मुनिः पूर्ववत्, चः समुच्चये, क्षाम्यतीति क्षान्तः- क्रोधविजयी, एवमिन्द्रियादिदमनाद्दान्तः, विरतः- प्राणातिपातादिनिवृत्तः, स्नेहपरित्यागाद्रूक्षः, तीरेणार्थोऽस्येति तीरार्थी, संसारस्येति गम्यते, तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात्, एतानि भवन्ति श्रमणस्य नामानि अभिधानानीति गाथार्थः ।। १५९॥ निरूपितः। श्रमणशब्दः, अधुना पूर्वशब्दश्चिन्त्यते- अस्य च त्रयोदशविधो निक्षेपः, तथा चाह ॥ १३५॥ नि०- णामं ठवणा दविए खेत्ते काले दिसि तावखेत्ते य । पन्नवगपुव्ववत्थू पाहुडअइपाहुडे भावे ।। १६०॥ नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपूर्वम् अङ्कराबीजंदनः क्षीरं फाणिताद्रस इत्यादि, क्षेत्रपूर्वं यवक्षेत्राच्छालिक्षेत्रम्, तत्पूर्वकत्वात्तस्य, त्रयोदश For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३६॥ द्वितीयमध्ययन श्रामण्य पूर्वकम्, सूत्रम् १ सङ्कल्पवशस्य असमर्थत्वम्। अपेक्षया चान्यथाऽप्यदोषः, कालपूर्वं पूर्वः कालः शरदः प्रावृट् रजन्या दिवस इत्यादि आवलिकाया वा समय इत्यादि, दिक्पूर्वं पूर्वा दिग्, इयं च रुचकापेक्षया, तापक्षेत्रपूर्व- आदित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिक्, उक्तं च- जस्स जओ आदिचो उदेइ सा तस्स होइ पुवदिसा इत्यादि, प्रज्ञापकापूर्व- प्रज्ञापनं (क) प्रतीत्य पूर्वा दिक् यदभिमुख एवासौ सैव पूर्वा, पूर्वपूर्वं चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यम्, तच्च उत्पादपूर्वम्, एवं वस्तुप्राभृतातिप्राभृतेष्वपि योजनीयम्, अप्रत्यक्षस्वरूपाणि चैतानि, भावपूर्व- आद्यो भावः स चौदयिक इति गाथार्थः ॥ १६० ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्न-8 निक्षेपस्यावसरः, इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं कहं नु कुजा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसं गओ? || सूत्रम् १॥ । इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते- तत्रापि कत्यहं कदाह कथमहमित्याादृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते- कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं यः कामान निवारयति? 'कथं' केन प्रकारेण, अनु क्षेपे, यथा कथं नु स राजा यो न रक्षति?, कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुङ्क्ते एवं कथं नु स कुर्यात् 'श्रामण्यं' श्रमणभावं यः कामान् 'न निवारयति' न प्रतिषेधते?, किमिति न करोति?, तत्र निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो। दर्शनम् इति वचनात् कारणमाह- पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः कामानिवारणेनेन्द्रियाद्यपराधपदापेक्षया पदे पदे । विषीदनात्संकल्पस्य वशंगतत्वात् । (अप्रशस्ताध्यवसायःसंकल्पः) इति सूत्रसमासार्थः ॥ १॥ अवयवार्थं तु सूत्रस्पर्शनिर्यक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि शेषपदार्थान् परित्यज्य कामपदार्थस्य हेयतयोपयोगित्वात्स्वरूपमाह 0 यस्य यत आदित्य उदेति सा तस्य भवति पूर्वदिग्। 0 पूर्ववृत्तौ दर्शनेऽप्यादर्शेषु दृश्यमानेष्वदृश्यमानता। For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् श्रामण्य १७॥ सङ्कल्प वशस्य नि०- नामं ठवणाकामा दव्वकामा य भावकामा य । एसो खलु कामाणं निक्खेवो चउविहो होइ।।१६१ ।। द्वितीयमध्ययन नामस्थापनाकामा इत्यत्र कामशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, द्रव्यकामाश्च भावकामाश्व, चशब्दी स्वगतानेकभेदसमुच्चयार्थी, पूर्वकम्, एष खलु कामानां निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथार्थः ।।१६१।। तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यकामान् प्रतिपादयन्नाह सूत्रम् नि०-सहरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दव्वा । दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मयणकामा ।।१६२ ।। शब्दरसरूपगन्धस्पर्शा मोहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः, मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संघाटकविकट-2 असमर्थत्वम्। मांसादीनि तान्यपि मदनकामाख्यभावकामहेतुत्वाव्यकामा इति, भावकामानाह-द्विविधाश्च द्विप्रकाराश्च भावकामाः, नियुक्तिः १६१-१६४ इच्छाकामा मदनकामाश्च, तत्रैषणमिच्छा सैव चित्ताभिलाषरूपत्वात्कामा इतीच्छाकामाः, मदयतीति तथा मदन:- चित्रो कामशब्दस्यमोहोदयः स एव कामप्रवृत्तिहेतुत्वात्कामा मदनकामा इति गाथार्थः ।। १६२ ।। इच्छाकामान् प्रतिपादयति निक्षेपाः। नि०- इच्छा पसत्थमपसत्थिगा य मयणंमि वेयउवओगो। तेणहिगारो तस्स उवयंति धीरा निरुत्तमिणं ।। १६३।। इच्छा प्रशस्ता अप्रशस्ता च, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः सुखमुखोच्चारणार्थः, तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोक्षेच्छा, अप्रशस्ता युद्धेच्छा राज्येच्छा, उक्ता इच्छाकामाः, मदनकामानाह- मदने इति उपलक्षणार्थत्वान्मदनकामे निरूप्ये कोऽसावित्यत । आह- वेदोपयोग: वेद्यत इति वेदः- स्त्रीवेदादिस्तदुपयोग:- तद्विपाकानुभवनम्, तद्व्यापार इत्यन्ये, यथा स्त्रीवेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि, तेनाधिकार इति मदनकामेन, शेषा उच्चारितसदृशा इति प्ररूपिताः, तस्य तु मदनकामस्य वदन्ति । धीराः तीर्थकरगणधरा निरुक्तम्, इदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ।। १६३ ।। नि०- विसयसुहेसु पसत्तं अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा ॥१६४ ।। For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३८॥ विषीदन्ति-अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः- शब्दादयस्तेभ्यः सुखानि तेषु प्रसक्तः- आसक्तस्तम्, जीवमिति द्वितीयमध्ययनं योगः, स एव विशेष्यते- अबुधः- अविपश्चिजन:- परिजनो यस्य सः अबुधजनस्तम्, अकल्याणमित्रपरिजनमित्यर्थः, पूर्वकम्, अनेन बाहां विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, कामरागप्रतिबद्ध मिति कामा मदनकामास्तेभ्यो रागा-विषयाभिष्वङ्गास्तैः प्रतिबद्धो-। सूत्रम् व्याप्तस्तम्, अनेन त्वान्तरं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, ततश्चाबुधजनत्वात्कामरागप्रतिबद्धत्वाच्च विषयसुखेषु प्रसक्तमिति भावः । वशस्य किं?- निरुक्तवैचित्र्यादाह- तत्प्रत्यनीकत्वादुत्क्रामयन्ति- अपनयन्ति जीवमनन्तरविशेषितम्, कुतो?, धर्मात्, यत्तदोर्नित्याभि असमर्थत्वम्। संबन्धात् येन कारणेन तेन (ते) सामान्येनैव कामराग: कामा इति गाथार्थः ।। अन्ये पठन्ति- उत्क्रामयन्ति यस्मादिति, अत्र नियुक्ति: १६५ कामशब्दस्यचाबुधजन एव विशेष्यः, शेषं पूर्ववत् ।। १६४ ।। निक्षेपाः। नि०- अन्नंपिय से नाम कामा रोगत्ति पंडिया बिति । कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेइ खलु जंतू ।। १६५ ।। नियुक्ति: १६६ अन्यदपि च एषां कामानां नाम, किंभूतमित्याह- कामा रोगा इति एवं पण्डिता ब्रुवते, किमित्येतदेवमत आह- कामान् ।। पदशब्दस्यप्रार्थयमानः- अभिलषन् रोगान् प्रार्थयते खलु जन्तुः, तद्रूपत्वादेव, कारणे कार्योपचारादिति गाथार्थः ।। १६५ ।। इत्थं पूर्वार्धे । नियुक्ति: १६७ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमभिधायाधुनोत्तरार्धे पदावयवमधिकृत्याह निक्षेपाः नि०- णामपयं ठवणपयं दव्वपयं चेव होइ भावपयं । एक्जेक्कंपि य एत्तो णेगविहं होइ नायव्वं ।। १६६॥ द्रव्यभावपदम। नामपदं स्थापनापदं द्रव्यपदं चैव भवति भावपदम्, एकैकमपि च अत एतेभ्योऽनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ।। १६६ ।। अवयवार्थं तु नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यपदमभिधित्सुराह नि०- आउट्टिमउक्किन्नं उण्णेशं पीलिमंच रंगं च । गंथिमवेढिमपूरिम वाइमसंघाइमच्छेज्जं ।। १६७।। निक्षेपाः। पदशब्दस्य ॥१३८॥ For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१३९॥ सूत्रम् १ वशस्य असमर्थत्वम्। आकोट्टिमं जहा रूवओ हेट्ठा वि उवरिं पि मुहं काऊण आउडिज्जति, उत्कीर्णं शिलादिषु नामकादि, तहा बउलादि- द्वितीयमध्ययन पुप्फसंठाणाणि चिक्खिल्लमयपडिबिंबगाणि काउं पञ्चंति, तओ तेसु वग्धारित्ता मयणं छुब्भति, तओ मयणमया पुप्फा पूर्वकम, हवन्ति, एतदुपनेयम्, पीडावच्च-संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम्, रत्तावयवच्छविविचित्तरूवं रङ्गम्, चः समुच्चये, ग्रथितं मालादि, वेष्टिमं पुष्पमयमुकुटरूपम्, चिक्खिल्लमयं कुण्डिकारूपं अणेगच्छिदं पुप्फथामं पूरिमम्, वातव्यं कुविन्दैर्वस्त्रविनिर्मितमश्वादि, सङ्कल्पसंघात्यं- कञ्चकादि, छेद्य- पत्रच्छेद्यादि । पदता चास्य पद्यतेऽनेनेत्यर्थयोगात्, द्रव्यता च तद्रूपत्वादिति गाथार्थः ।।१६७॥ उक्तं द्रव्यपदम्, अधुना भावपदमाह नियुक्तिः१६८ नि०-भावपर्यपि य दुविहं अवराहपयं च नो य अवराह । नोअवराहं दुविहं माउगनोमाउगं चेव ॥१६८ ॥ भावपदमपि च द्विविधम्, द्वैविध्यमेव दर्शयति- अपराधहेतुभूतं पदमपराधपदं- इन्द्रियादि वस्तु, चशब्दः स्वगतानेकभेद-8 समुच्चयार्थः, णोअवराह ति चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासान्नोअपराधपदंच, चः पूर्ववत्, नोअपराधमिति-नोअपराधपदं द्विविध नियुक्ति: १६९ 'माउअ नोमाउअंचेव'त्ति मातृकापदं नोमातृकापदं च, तत्र मातृकापदं- मातृकाक्षराणि, मातृकाभूतं वा पदं मातृकापदम्, यथा दृष्टिवादे उप्पन्ने इ वा इत्यादि, नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथार्थः ।। १६८।। नि०-नोमाउगंपि विहंगहियं च पइन्नयंच बोद्धव्वं । गहियं चउप्पयारं पइन्नगं होड(अ)णेगविहं ।। १६९।। नोमाउयंपित्ति नोमातृकापदमपि द्विविधम्, कथमित्याह-'ग्रथितंच प्रकीर्णकंच बोद्धव्यं' ग्रथितं रचितं बद्धमित्यनर्थान्तरम, ®आकुट्टिकं यथा रूप्यकोऽधस्तादपि उपर्यपि मुखं कृत्वाऽऽकुट्यते । 0 तथा बकुलादिपुष्पसंस्थानानि कर्दममयप्रतिबिम्बानि कृत्वा पच्यन्ते ततस्तेषु उष्णीकृत्य मदनं क्षिप्यते, ततो मदनमयानि पुष्पाणि भवन्ति । 0 रक्तावयवच्छविविचित्ररूपम् । ॐ कर्दममयं कुण्डिकारूपम् अनेकच्छिद्रं पुष्पस्थानम्। पदशब्दस्यनिक्षेपाः द्रव्यभावपदम्। भावपद गथितपदचा For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १४० ।। www.kobatirth.org अतोऽन्यत्प्रकीर्णकं- प्रकीर्णककथोपयोगिज्ञानपदमित्यर्थः, ग्रथितं चतुष्प्रकारं गद्यादिभेदात् प्रकीर्णकं भवत्यनेकविधम्, उक्तलक्षणत्वादेवेति गाथार्थ: ।। १६९ ।। ग्रथितमभिधातुकाम आह नि०- गजं पज्जं गेयं चुण्णं च चउव्विहं तु गहियपयं । तिसमुट्ठाणं सव्वं इइ बेंति सलक्खणा कइणो ।। १७० ।। नि०- महुरं हेउनिजुत्तं गहियमपायं विरामसंजुत्तं । अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गजं ति नायव्वं ।। १७१ ।। नि०- पजं तु होइ तिविहं सममद्धसमं च नाम विसमं च। पाएहिं अक्खरेहिं य एव विहिण्णू कई बेंति ।। १७२ ।। नि०- तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं लयसमं च । कव्वं तु होइ गेयं पंचविहं गीयसन्नाए ।। १७३ ।। नि०- अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवा ओवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ।। १७४ ।। नोअवराहपयं गयं । गद्यं पद्यं गेयं चौर्णं च चतुर्विधमेव ग्रथितपदम्, एभिरेव प्रकारैर्ग्रथनात्, एतच्च त्रिभ्यो धर्मार्थकामेभ्यः समुत्थानं तद्विषयत्वेनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुत्थानं सर्वं निरवशेषम्, आह एवं मोक्षसमुत्थानस्य गद्यादेरभावप्रसङ्गः, न, तस्य धर्मसमुत्थान एवान्तर्भावात्, धर्मकार्यत्वादेव मोक्षस्येति, लौकिकपदलक्षणमेवैतदित्यन्ये, अतस्त्रिसमुत्थानं सर्वम्, 'इड' एवं ब्रुवते सलक्षणा लक्षणज्ञाः कवय इति गाथार्थः ।। १७० ।। गद्यलक्षणमाह- मधुरं सूत्रार्थोभयैः श्रव्यं हेतुनियुक्तं सोपपत्तिकं ग्रथितं बद्धमानुपूर्व्या अपादं विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात्पादवर्जितं विरामः- अवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाठतः इत्येके, जहा जिणवरपादारविंदसंदाणिउरुणिम्मल्लसहस्स एवमादि असमाणिउं न चिट्ठइत्ति, यतिविशेषसंयुक्तं अन्ये, अपरिमितं चावसाने बृहद्भवतीत्येके, अन्ये त्वपरिमितमेव भवति बृहदित्यर्थः, अवसाने मृदु पठ्यत इति शेषः, काव्यं गद्यम्, इति एवं प्रकारम्, ज्ञातव्यमिति ® यथा जिनवरपादारविन्दसंदानितोरुनिर्मलसहस्र एवमाद्यसमाप्य न तिष्ठति । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य पूर्वकम्, सूत्रम् १ सङ्कल्प वशस्य | असमर्थत्वम् । निर्युक्तिः | १६९-१७४ भावपदं ग्रथितपदं च । ।। १४० ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १४१ ।। www.kobatirth.org गाथार्थः ।। १७१ ।। अधुना पद्यमाह पद्यं तु, तुशब्दो विशेषणार्थः, भवति त्रिविधं त्रिप्रकारम्, सममर्धसमं च नाम विषमं च, कैः सममित्यादि ?, अत्राह- पादैरक्षरैश्च पादैश्चतुः पादादिभिरक्षरैः गुरुलघुभिः, अन्ये तु व्याचक्षते- समं यत्र चतुर्ष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोर्द्वितीयचतुर्थयोश्च समान्यक्षराणि, विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमाक्षरमित्येवं विधिज्ञाः छन्दः प्रकारज्ञाः कवयो ब्रुवत इति गाथार्थः ।। १७२ ।। अधुना गेयमाह- तन्त्रीसमं तालसमं वर्णसमं ग्रहसमं लयसमं च काव्यं तु भवति, तुशब्दोऽवधारणार्थ एव, गीयत इति गेयम्, पञ्चविधं उक्तैर्विधिभिः गीतसंज्ञायां गेयाख्यायाम्, तत्र तन्त्रीसम वीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च, एवं तालादिष्वपि योजनीयम्, नवरं ताला - हस्तगमाः, वर्णा- निषादपञ्चमादयः, ग्रहा उत्क्षेपाः, प्रारम्भरसविशेषा इत्यन्ये, लया:- तन्त्रीस्वनविशेषाः । तत्थ किल कोणएण तंती छिप्पड़ तओ णहेहि अणुमज्जिज्जइ, तत्थ अण्णारिसो सरो उट्ठेइ, सो लयो त्ति गाथार्थः ।। १७३ ।। साम्प्रतं चौर्णं पदमाह- अर्थो बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहुलं क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।। १ ॥ ततश्चैभिः प्रकारैर्बह्वर्थम्, महान्- प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनार्थी यस्मिंस्तन्महार्थम्, हेतुनिपातोपसर्गैर्गभीरं तत्रान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणो हेतु:, यथा- मदीयोऽयमश्वो विशिष्टचिह्नोपलक्षितत्वात्, चवाखल्वादयो निपाताः, पर्युतसमवादय उपसर्गाः, एभिरगाधम्, बहुपादं अपरिमितपादं अव्यवच्छिन्नं श्लोकवद्विरामरहितम्, गमनयैः शुद्धम्, गमाः - तदक्षरोच्चारणप्रवणा भिन्नार्थाः, यथा इह खलु छज्जीवणिया० कयरा खलु सा छज्जीवणिया० इत्यादि, नया:- नैगमादयः प्रतीताः, तुरवधारणे, गमनयशुद्धमेव चौर्णं पदं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति गाथार्थः ।। १७४ ।। उक्तं ग्रथितम्, प्रकीर्णकं लोकादवसेयम्, उक्तं ® तत्र किल कोणकेन तन्त्री स्पृश्यते, ततो नखैरनुमृद्यते, तत्रान्यादृशः स्वर उत्तिष्ठते, स लय इति । इह खलु षड्जीवनिका० कतरा खलु सा षड्जीवनिका० । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य पूर्वकम्, सूत्रम् १ सङ्कल्पवशस्य असमर्थत्वम् । निर्युक्तिः १६९-१७४ भावपदं ग्रथितपदं च । ।। १४१ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 85608 श्रामण्य श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१४२॥ पूर्वकम्, सूत्रम् १ सङ्कल्पवशस्य असमर्थत्वमा नियुक्ति: १७५ नोअपराधपदम्, अधुना अपराधपदमाह द्वितीयमध्ययन नि०- इंदियविसयकसाया परीसहा वेयणाय उवसग्गा। एए अवराहपया जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ।।१७५।।। इन्द्रियाणि- स्पर्शनादीनि विषयाः- स्पर्शादयः कषायाः- क्रोधादयः इन्द्रियाणि चेत्यादिद्वन्द्वः, परीषहाः क्षुत्पिपासादयः वेदना असातानुभवलक्षणा उपसर्गा- दिव्यादयः, एतानि अपराधपदानि मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि, यत्र येष्विन्द्रियादिषु । सत्सु विषीदन्ति आ(अव)बध्यन्ते, किं सर्व एव?, नेत्याह- दुर्मेधसः क्षुल्लकवत्, कृतिनस्तु एभिरेव कारणभूतैः संसारकान्तारमुत्तरन्तीति गाथार्थः ।। १७५ ।। क्षुल्लकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः, कोऽसौ खुल्लओत्ति?, कहाणयं-कुंकुणओ अपराधपदं जहा एगो खंतो सपुत्तो पव्वइओ, सो य चेल्लओ तस्स अईव इट्ठो, सीयमाणो य भणइ-खंता! ण सक्केमि अणुवाहणो । क्षुल्लकथानक हिंडिडे, अणुकंपाए खंतेण दिण्णाओ उवाहणाओ, ताहे भणइ- उवरितला सीएणं फुटृति, खल्लिता से कयाओ, पुणो भणइ सीसं मे अईव डज्झइ, ताहे सीसदुवारिया से अणुण्णाया, ताहे भणइ- ण सक्केमि भिक्खं हिंडिउं, तो से पडिसए। ठियस्स आणेइ, एवं ण तरामि खंत! भूमिए सुविउं, ताहे संथारो से अणुण्णाओ, पुणो भणइ-ण तरामि खंत! लोयं काउं, तो खुरेण पकिज्जियं, ताहे भणइ- अण्हाणयं न सक्केमि, तओ से फासुयपाणएण कप्पो दिजइ, आयरियपाउग्गं वत्थजुयलयं क्षुल्लक इति?, कथानक-कोणकः यथा एको वृद्धः सपुत्रः प्रब्रजितः, सच क्षुल्लकः तस्यातीवेष्टः,सीदंश्च भणति-वृद्ध! न शक्नोमि अनुपानको हिण्डितुमनुकम्पया वृद्धेन दत्तौ उपानहौ, तदा भणति- उपरितलौ शीतेन स्फाटयतः, खल्लयौ तस्य कृते, पुनर्भणति- शीर्ष मे अतीव दाते, तदा शीर्षद्वारिका तस्मायनुज्ञाता, तदा भणति-8 न शक्नोमि भिक्षा हिण्डितुम्, ततस्तस्य प्रतिश्रये स्थितस्य आनयति, एवं न शक्नोमि वृद्ध! भूमौ स्वप्नुम्, तदा संस्तारकः तस्य अनुज्ञातः, पुनर्भणति न शक्नोमि वृद्ध! 8 लोचं कर्तुम्, ततः क्षुरेण प्रकृतम्, तदा भणति- अस्नानता न शक्नोमि, ततस्तस्य प्रासुकपानकेन कल्पं ददाति, आचार्यप्रायोग्यं वस्त्रयुगलकं - 1॥१४२॥ For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रामण्य वशस्य श्रीदश- । धिप्पड़, एवं जं जं भणइ तं तं सो खंतो णेहपडिबद्धो तस्सणुजाणइ, एवं काले गच्छमाणे पभणिओ-न तरामि अविरइयाए । द्वितीयमध्ययनं वैकालिक विणा अच्छिउं खंतत्ति, ताहे खंतो भणइ-सढो, अजोग्गोत्ति काऊण पडिसयाओ णिप्फेडिओ,कम्मं काउंण याणेइ, श्रीहारिक पूर्वकम्, वृत्तियुतम् अयाणंतो खणसंखडीए धाणिं काउं अजिण्णेण मओ, विसयविसट्टो मरिउं महिसो आयाओ, वाहिज्जड़ य, सो य खंतो। सूत्रम् १ ॥१४३॥ सामण्णपरियागं पालेऊण आउक्खए कालगओ देवेसु उववण्णो, ओहिं पउंजइ, ओहिणा आभोएऊण तं चेल्लयं तेण । सङ्कल्पपुव्वणेहेणं तेसिं गोहाणं हत्थओ किणइ, वेउव्वियभंडीए जोएइ, वाहेइ य गरुगं, तं अतरंतो वोढुं तोत्तएण विंधेउं भणइ-ण असमर्थत्वम् तरामि खंता! भिक्खं हिण्डिउं, एवं भूमीए सयणं लोयं काउं एवं ताणि वयणानि सवाणि उच्चारेइ जाव अविरययाए विणान नियुक्ति: १७५ अपराधपद तरामि खंतत्ति, ताहे एवं भणंतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं- कहिं एरिसं वक्कं सुअंति?, ताहे ईहावुहमग्गणगवेसणं क्षुल्लकथानक करेइ, एवं चिंतयंतस्स तस्स जाईसरणं समुप्पन्नं, देवेण ओही पउत्ता, संबुद्धो, पच्छा भत्तं पच्चक्खाइत्ता देवलोगं गओ। एवं पए पए विसीदन्तो संकप्पस्स वसं गच्छइ, जम्हा एस दोसो तम्हा अट्ठारससीलंगसहस्साणं सारणाणिमित्तं एए अवराहपए गृह्यते, एवं यद् यद्भणति तत्तत् स वृद्धः स्नेहप्रतिबद्धः तस्यानुजानाति, एवं काले गच्छति प्रभणति- न शक्नोमि अविरतिकया विना स्थातुं वृद्ध! इति, तदा वृद्धो भणति शठः, अयोग्य इतिकृत्वा प्रतिश्रयात् निष्कासितः, कर्म कर्तुं न जानाति, अजानन् क्षणसंखण्ड्यां धाणि कृत्वाऽजीर्णेन मृतः, विषयविषार्तो मृत्वा महिषो जातः, बाह्यते च, स च वृद्धः श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा आयुःक्षये कालगतो देवेषूत्पन्नः अवधि प्रयुणक्ति, अवधिना आभोगयित्वा तं क्षुल्लकं तेन पूर्वस्नेहेन तेषां । गोधानां हस्तात् क्रीणाति, वैक्रियगन्त्र्यां योजयति, वाहयति च गुरुकम् , तं अशक्नुवन्त वोढुं तोत्रकेण वेधयित्वा भणति- न शक्नोमि वृद्ध! भिक्षां हिण्डितुम्, एवं ||१४३॥ भूमी शयनम्, लोचं कर्तुम्, एवं तानि वचनानि सर्वाणि उचारयति, यावदविरतिकया विना न शक्नोमि वृद्धेति, तदा एवं भणतस्तस्य महिषस्य इदं चित्तं जातं-कुत्र? एतादृशं वाक्यं श्रुतमिति, तदा ईहापोहमार्गणगवेषणाः करोति, एवं चिन्तयतस्तस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नम्, देवेनावधिः प्रयुक्तः संबुद्धः पश्चात् भक्तं प्रत्याख्याय, देवलोकं गतः, एवं पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गच्छति, यस्मात् एष दोषः तस्मादष्टादशशीलाइसहस्राणां स्मरणनिमित्तं एतानि अपराधपदानिक For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रामण्य वशस्य अपराध श्रीदश- वजेज । तथा चाह द्वितीयमध्ययन वैकालिक नि०- अट्ठारस उसहस्सा सीलंगाणं जिणेहिं पन्नत्ता। तेर्सि पडि (रि)रक्खणट्ठा अवराहपए उवजेजा।।१७६॥ पूर्वकम्, वृत्तियुतम Bअष्टादश सहस्राणि, तुरवधारणे, अष्टादशैव, शीलं- भावसमाधिलक्षणं तस्याङ्गानि- भेदाःकारणानि वा शीलाङ्गानि । सूत्रम् तेषां जिनैःप्राग्निरूपितशब्दार्थः प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि, 'तेषां शीलाङ्गानां परिरक्षणार्थं परिरक्षणनिमित्तं अपराधपदानि प्राग्नि- सङ्कल्परूपितस्वरूपाणि वर्जयेत् जह्यादिति गाथार्थः ॥ १७६ ।। साम्प्रतं शीलाङ्गसहस्रप्रतिपादनोपायभूतमिदं गाथासूत्रमाह असमर्थत्वम्। नि०- जोए करणे सन्ना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य। सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निष्फत्ती ।। १७७ ।। सामण्णपुव्वयनिजुत्ती नियुक्तिः समत्ता ॥२॥ १७६-१७७ तत्थ ताव जोगो तिविहो, कायेण वायाए मणेणं ति, करणं तिविहं-कयं कारियं अणुमोइयं, सन्ना चउव्विहा, तंजहा पदेष्टादशआहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा इदिएपंच, तंजहा-सोइंदिए चक्खिंदिए घाणिदिए जिभिदिए फासिदिए, पुढविकाइयाइया पञ्च, बेइंदिया जाव पंचेंदिया अजीवनिकायपंचमा, समणधम्मो दसविहो, तंजहा- खंती मुत्ती अज्जवे । प्रतिपादनम्। मद्दवे लाघवे सच्चे तवे संजमे य आकिंचणया बंभचेरवासे। एसा ठाणपरूवणा, इयाणि अट्ठारसण्हं सीलंगसहस्साण समुक्तित्तणा- काएणं न करेमि आहारसन्नापडिविरए सोइंदियपरिसंवुडे पुढविकायसमारंभपडिविरए खंतिसंपजुत्ते, एस 8 वर्जयेत्। तत्र तावद्योगस्त्रिविधः- कायेन वाचा मनसेति, करणं त्रिविधं- कृतं कारितमनुमोदितम्, संज्ञा चतुर्विधा, तद्यथा-आहारसंज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा ||१४४।। परिग्रहसंज्ञा, इन्द्रियाणि पश्च, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं घ्राणेन्द्रियं जिह्वेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियम्, पृथ्वीकायिकादयः पञ्च, द्वीन्द्रिया यावत् पञ्चेन्द्रियाः अजीवनिकायपञ्चमाः, श्रमणधर्मो दशविधः, तद्यथा-शान्तिर्मुक्तिरार्जवं मार्दवं लापवं सत्यं तपः संयमश्च अकिञ्चनता ब्रह्मचर्यवासः । एषा स्थानप्ररूपणा, इदानीं अष्टादशानां शीलासहस्राणां समुत्कीर्तना-कायेन न करोमि आहारसंज्ञाप्रतिविरतः श्रोत्रेन्द्रियसंवृतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रतिविरतःक्षान्तिसंप्रयुक्तः, एषक शीलाहसहस For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१४५॥ वशस्य अपराध पढमो गमओ १, इयाणिं बिइओ भण्णइ-काएणं ण करेमि आहारसण्णापडिविरए सोइंदियपरिसंवुडे पुढविकायसमारंभ-। द्वितीयमध्ययन पडिविरए मुत्तिसंपजुत्ते, एस बीइओ गमओ, इयाणि तइयओ एवं एएण कमेण जाव दसमो गमओ बंभचेरसंपउत्तो, एस पूर्वकम. दसमओ गमओ। एए दस गमा पुढविकायसंजमं अमुंचमाणेण लद्धा, एवं आउकाएणवि दस चेव, एवं जाव अजीवकाएणवि। सूत्रम् १ दस चेव, एवमेयं अणूणं सयं गमयाणं सोइंदियसंवुडं अमुंचमाणेण लद्धं, एवं चक्विंदिएणवि सयं, घाणिदिएणवि सयं, जिब्भिंदिएणवि सयं, फासिंदिएणवि सयं, एवमेयाणि पंच गमसयाणि आहारसण्णापडिविरयममुंचमाणेणं लद्धाणि, एवं असमर्थत्वम्। भयसण्णाएवि पंच सयाणि, मेहुणसण्णाएवि पंचसयाणि परिग्गहसण्णाएवि पंचसयाणि, एवमेयाणि वीसंगमसयाणि ण नियुक्तिः करेमि अमुञ्चमाणेण लद्धाणि, एवंण कारवेमित्ति वीसं सयाणि, करतंपि अन्नं न समणुजाणामित्ति वीसंसयाणि, एवमेयाणि १७६-१७७ छ सहस्साणि कार्य अमुचमाणेण लद्धाणि, एवं वायाएवि छ सहस्साणि, एवं मणेणवि छ सहस्साणि । एवमेतेन प्रकारेण । पदेऽष्टादशशीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिर्भवतीति गाथार्थः।।१७७।। न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्त उक्तवच्छामण्याकरणादश्रमणः किन्त्वाजीविकादिभयप्रव्रजित:संक्लिष्टचित्तो द्रव्यक्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एव- अत्याग्येव, कथं?, यत आह सूत्रकार: प्रथमो गमः, इदानीं द्वितीयो भण्यते- कायेन न करोमि आहारसंज्ञाप्रतिविरतः श्रोत्रेन्द्रियसंवृतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रतिविरतः मुक्तिसंप्रयुक्तः एष द्वितीयो गमः, इदानीं तृतीयः, एवमेतेन क्रमेण यावदशमो गमः ब्रह्मचर्यसंप्रयुक्तः एष दशमो गमः, एते दश गमाः पृथ्वीकायसंयमममुचता लब्धाः , एवमप्कायेनाऽपि दशैव, एवं यावदजीवकायेनापि दशैव, एवमेतत् अनूनं शतं गमकानां श्रोत्रेन्द्रियसंवृतममुञ्चता लब्धम्, एवं चक्षुरिन्द्रियेणापि शतम्, प्राणेन्द्रियेणापि शतम्, जिह्वेन्द्रियेणापि शतम्, स्पर्शनेन्द्रियेणापि शतम्, एवमेतानि पश्चगमशतानि आहारसंज्ञाप्रतिविरतममुञ्चता लब्धानि, एवं भयसंज्ञयाऽपि पच शतानि, मैथुनसंशयाऽपि पच शतानि, परिग्रहसंज्ञयापि पञ्च शतानि, एवमेतानि विंशतिर्गमशतानि न करोमीति अमुञ्चता लब्धानि, एवं न कारयामीति विंशतिः शतानि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति विंशतिः शतानि, एवमेतानि षट् सहस्राणि कायममुशता लब्धानि, एवं वाचाऽपि षट् सहस्राणि, एवं मनसाऽपि षट् सहस्राणि। शीलाङ्गसहस्रप्रतिपादनम्। ॥१४५॥ For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38808 श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||१४६॥ सूत्रम् २ स्वरूपः। कथानकं च। वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदाजे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चड़।। सूत्रम् २ ।। द्वितीयमध्ययन वस्त्रगन्धालङ्कारानि ति, अत्र वस्त्राणि-चीनांशुकादीनि गन्धा:- कोष्ठपुटादयः अलङ्कारा:- कटकादयः, अनुस्वारोऽ पूर्वकम्, लाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, शयनानि पर्यादीनि, चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, एतानि वस्त्रादीनि किम्?, 'अच्छन्दाः' अस्ववशा ये केचन न भुञ्जते नासेवन्ते, किं बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशः?, विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च । त्यागिभवत्येवेति कृत्वा, आह- नासी त्यागीत्युच्यते सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सूत्रार्थः ॥ २॥ कः पुनः सुबन्धुरिति?, अत्र सुबन्धुकथानकं- जया णंदो चंदगुत्तेण णिच्छुडो, तया तस्स दारेण निगच्छंतस्स दुहिया चंदगुत्ते दिहिँ बंधेइ, एयं अक्खाणयं जहा। आवस्सए जाव बिंदुसारो राया जाओ, णंदसंतिओ य सुबंधू णाम अमच्चो, सोचाणक्कस्स पदोसमावण्णो छिद्दाणि मग्गइ, अण्णया रायाणं विण्णवेइ- जइवि तुम्हे अम्हं वित्तं ण देह तहावि अम्हेहिं तुम्ह हियं वत्तव्वं, भणियं च- तुम्ह माया चाणक्केण मारिया, रण्णा धाई पुच्छिया, आमंति, कारणं ण पुच्छियं, केणवि कारणेण रण्णो य सगासं चाणक्को आगओ, जाव दिढेि न देई ताव चाणक्को चिंतेइ-रुट्ठो एस राया, अहं गयाउओत्ति काउं दव्वं पुत्तपउत्ताणं दाऊणं संगोवित्ता य गंधा संजोइआ, पत्तयं च लिहिऊण सोऽवि जोगो समुग्गे छूढो, समग्गो य चउसु मंजूसासु छूढो, तासु छभित्ता पुणो गन्धोवरए यदा नन्दश्चन्द्रगुप्तेन निक्षिप्तः (निष्काशितः), तदा तस्य द्वारेण निर्गच्छतो पुत्री चन्द्रगुप्ते दृष्टिं बध्नाति, एतदाख्यानकं यथाऽऽवश्यके यावद्विन्दुसारो राजा जातः, नन्दसत्कश्च सुबन्धुनामाऽमात्यः, स चाणक्ये प्रद्वेषमापन्नः, छिद्राणि मार्गयति, अन्यदा राजानं विज्ञपयति यद्यपि यूयमस्मभ्यं वित्तं न दत्थ तथाप्यस्माभिर्युष्माकं हितं वक्तव्यम्, भणितं च- युष्माकं माता चाणक्येन मारिता, राजा धात्री पृष्टा, ओमिति, कारण न पृष्टम्, केनापि कारणेन राजश्व सकाशं चाणक्य आगतः, यावदृष्टिं न ददाति तावच्चाणक्यश्चिन्तयति- कष्ट एष राजा, अहं गतायुरितिकृत्वा द्रव्यं पुत्रपौत्रेभ्यो दत्त्वा संगोप्य च गन्धाः संयोजिताः, पत्रकं च लिखित्वा सोऽपि योगः समुद्रे क्षिप्तः, समुद्गश्च चतसृषु मञ्जूषासु क्षिप्तः, तासु क्षिप्त्वा पुनर्गन्धापवरके - ॥१४६॥ For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsur Gyanmandir श्रामण्य-- श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१४॥ सूत्रम् २ त्यागि स्वरूपः। सुबन्धुकथानकंच। छूढो, तं बहूहिं कीलियाहिं सुघडियं करेत्ता दव्वजायं णातिवगं च धम्मे णिओइत्ता अडवीए गोकुलट्ठाणे इंगिणिमरणं द्वितीयमध्ययन अब्भुवगओ, रण्णा य पुच्छियं- चाणक्को किं करेइ?, धाई य से सव्वं जहावत्तं परिकहेइ, गहियपरमत्थेण य भणियं- अहो । पूर्वकम्, मया असमिक्खियं कयं, सव्वंतेउरजोहबलसमग्गो खामे निग्गओ, दिट्ठो अणेण करीसमज्झट्ठिओ, खामियं सबहुमाणं, भणिओ अणेण- णगरं वच्चामो, भणइ- मए सव्वपरिच्चाओ कओत्ति । तओ सुबंधुणा राया विण्णविओ- अहं से पूर्व करेमि अणुजाणह, अणुण्णाए धूवं डहिऊण तंमि चेव एगप्पएसे करीसस्सोवरि ते अंगारे परिट्ठवेइ, सोय करीसो पलित्तो, दहो चाणक्को, ताहे सुबंधुणा राया विण्णविओ- चाणक्कस्स संतियं घरं ममं अणुजाणह, अणुण्णाए गओ, पञ्चुविक्खमाणेण । य घरं दिट्ठो अपवरओ घट्टिओ, सुबंधूचिंतेइ-किमवि इत्थत्ति कवाडे भंजित्ता उग्घाडिओ, मंजूसंपासइ, सावि उग्घाडिया, जाव समुग्गं पासइ, मघमघंतं गंधं सपत्तयं पेच्छइ, तं पत्तयं वाएइ, तस्सय पत्तगस्स एसो अत्थो-जो एयं चुण्णयं अग्घाइ सो जइण्हाइवा समालभड़ वा अलंकारेड सीउदगं पिवड़ महईएसेज्जाए सवइ जाणेणगच्छड़ गंधव्वं वा सणेड़ एवमाई अण्णे वा क्षिप्तः, तं बहूभिः कीलिकाभिः सुघटितं कृत्वा द्रव्यजातं ज्ञातिवर्ग च धर्मे नियोज्याटव्यां गोकुलस्थाने इङ्गिनीमरणमभ्युपगतवान्, राज्ञा च पृष्ट- चाणक्यः किं ॐकरोति?, धात्री च तस्मै सर्वं यथावृत्तं परिकथयति, गृहीतपरमार्थेन च भणितं- अहो मया असमीक्षितं कृतम्, सर्वान्तःपुरयोधबलसमग्रः क्षमयितुं निर्गतः, दृष्टोऽनेन करीषमध्यस्थितः, क्षमितं सबहुमानम्, भणितमनेन- नगरं व्रजामः, भणति- मया सर्वपरित्यागः कृत इति । ततःसुबन्धुना राजा विज्ञप्तः- अहं तस्य पूजां करोमि । अनुजानीत, अनुज्ञाते धूपं दग्ध्वा तस्मिन्नेवेकप्रदेशे करीषस्योपरि तानङ्गारान् परिस्थापयति, स च करीषः प्रदीप्तः, दग्धश्वाणक्यः, तदा सुबन्धुना राजा विज्ञप्त:चाणक्यस्य सत्कं गृह मह्यमनुजानीत, अनुज्ञाते गतः, प्रत्युपेक्षमाणेन च गृहं दृष्टोऽपवरको घट्टितः, सुबन्धुश्चिन्तयति- किमप्यत्रेति कपाटौ भङ्क्त्वोद्घाटितः, मञ्जूषां पश्यति, साऽप्युद्धाटिता, यावत्समुद्रं पश्यति, मघमघायमानं गन्धं सपत्रकं पश्यति, तं पत्रं वाचयति, तस्य च पत्रस्यैषोऽर्थः- य एतचूर्णं जिघ्रति स यदि स्नाति वा समालभते वाऽलङ्कारयति शीतोदकं पिबति महत्यां शय्यायां स्वपिति यानेन गच्छति गान्धर्व वा शृणोति एवमादीनन्यानपि इष्टान्। BARRADIDI For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org द्वितीयमध्ययन श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् १४८॥ पूर्वकम्, सूत्रम् ३ त्यागि काष्ठहारोदाहरणं च। इडे विसए सेवेइ जहा साहुणो अच्छंति तह सो जइण अच्छेइ तो मरइ, ताहे सुबंधुणा विण्णासणत्थं अण्णो पुरिसो अग्घावित्ता सद्दाइणो विसए भुंजाविओमओय, तओसुबंधूजीवियट्ठी अकामोसाहू जहा अच्छंतोविण साहू । एवमधिकृतसाधुरपि न साधुः, अतो न त्यागीत्युच्यते, अभिधेयार्थाभावात् ।। यथा चोच्यते तथाऽभिधातुकाम आह जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टिकुव्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुचई ।। सूत्रम् ३॥ चशब्दस्यावधार(णार्थ)त्वात् य एव कान्तान् कमनीयान् शोभनानित्यर्थः प्रियान्' इष्टान्, इह कान्तमपि किञ्चित् कस्यचित् कुतश्चिन्निमित्तान्तरादप्रियं भवति, यथोक्तं-चउहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेजा, तंजहा-रोसेणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिनिवेसेणं अतो विशेषणं प्रियानिति, भोगान् शब्दादीन् विषयान् लब्धान् प्राप्तान् उपनतानितियावत्, विपिट्टिकुव्वइत्ति विविधंअनेकैः प्रकारैः शुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजतीत्यर्थः, स च न बन्धनबद्धःप्रोषितो वा किन्तु? स्वाधीन अपरायत्तः स्वाधीनानेव त्यजति भोगान, पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम्, भोगग्रहणं तु संपूर्णभोगग्रहणार्थत्यक्तोपनतभोगसूचनार्थं वा, ततश्च य ईदृशः हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स एव त्यागीत्युच्यते, भरतादिवदिति । अत्राह जड़ भरहजंबुनामाइणो जे संते भोए परिच्चयंति ते परिचाइणो, एवं ते भणंतस्स अयं दोसो हवइ-जे केऽवि अत्थसारहीणा दमगाइणो पव्वइऊण भावओ अहिंसाइगुणजुत्ते सामण्णे अब्भुजुया ते किं अपरिचाइणो हवंति?, आयरिय आह- तेऽवि विषयान् सेवते यथा साधवस्तिष्ठन्ति तथा स यदि न तिष्ठति तदा म्रियते । तदा सुबन्धुना विन्यासनार्थं (जिज्ञासार्थ) पुरुषोऽन्य आघ्राप्य शब्दादीन् विषयान् भोजितः मृतश्च । ततः सुबन्धुर्जीवितार्थी अकामः साधुर्यथा तिष्ठन्नपि न साधुः। 0 चतुर्भिः स्थानै सतो गुणान्नाशयेत्, तद्यथा- रोषेण प्रतिनिवेशेन अकृतज्ञतया मिथ्यात्वाभिनिवेशेन। यदि भरतजम्बूनामादयः ये सतो भोगान् परित्यजन्ति ते परित्यागिन एवं तव भणतोऽयं दोषो भवति-ये केऽपि अर्थसारहीना द्रमकादयः प्रव्रज्य भावतोऽहिंसादियुक्ते श्रामण्ये अभ्युद्यताः ते किमपरित्यागिनो भवन्ति? आचार्य आह- तेऽपि For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तितम् ।। १४९ ।। www.kobatirth.org तिण्णि रयणकोडीओ परिच्चइऊण पव्वइया- अग्गी उदयं महिला तिण्णि रयणाणि लोगसाराणि परिचइऊण पव्वइया, दितो एगो पुरियो सुम्मसामिणो सपासे कहारओ पव्वइओ, सो भिक्खं हिंडतो लोएण भण्णइ एसो कहारओ पव्वइओ, सो सेहत्तेण आयरियं भणड़- ममं अण्णत्थ णेह, अहं न सक्नेमि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिओवच्चामोत्ति अभओ भणड़ मासकप्पपाउग्गं खित्तं किं एयं न भवइ ? जेण अत्थक्के अण्णत्थ वच्चह ?, आयरिएहिं भणियंजहा सेहनिमित्तं, अभओ भाइ- अच्छह वीसत्था, अहमेयं लोगं उवाएण निवारेमि, ठिओ आयरिओ। बिइए दिवसे तिण्णि रयणकोडीओ ठवियाओ, उग्घोसावियं नगरे जहा अभओ दाणं देइ, लोगो आगओ, भणियं चऽणेण तस्साहं एयाओ तिण्णि कोडिओ देमि जो एयाई तिण्णि परिहरइ- अग्गीं पाणियं महिलियं च लोगो भणड़- एएहिं विणा किं सुवन्नकोडिहिं? अभओ भणइ ता किं भणह- दमओत्ति पव्वइओ, जोऽवि णिरत्थओ पव्वइओ तेणवि एयाओ तिण्णि सुवन्नकोडीओ परिच्चत्ताओ, सच्चं सामि! ठिओ लोगो पत्तीओ। तम्हा अत्थपरिहीणोऽवि संजमे ठिओ तिण्णि लोगसाराणि ॐ तिस्रो रत्नकोटी परित्यज्य प्रब्रजिताः- अग्निरुदकं महिला त्रीणि रत्नानि लोकसाराणि परित्यज्य प्रव्रजिताः, दृष्टान्तः एकः पुरुषः सुधर्मस्वामिनः सकाशे काष्ठहारकः प्रव्रजितः स भिक्षां हिण्डमानो लोकेन भण्यते एष काष्ठहारकः प्रव्रजितः, स शैक्षत्वेनाचार्य भणति मामन्यत्र नयत, अहं न शक्नोम्यध्यासितुम्, आचार्यैरभय आपृष्टो ब्रजाम इति, अभयो भणति मासकल्पप्रायोग्यं क्षेत्रं किमेतन्न भवति येनाकाण्डेऽन्यत्र व्रजथ आचार्यैर्भणितं यथा शैक्षनिमित्तम्, अभयो भणति तिष्ठथ विश्वस्ताः, अहमेनं लोकमुपायेन निवारयामि, स्थितः आचार्य द्वितीये दिवसे तिम्रो रत्नकोट्यः स्थापिता, उद्घोषितं नगरे यथा अभयो दानं ददाति, लोक आगतः, भणितं चानेन तस्मायहमेतास्तिस्रोऽपि कोटीर्ददामि य एतानि त्रीणि परिहरति अनि पानीयं महिलां च, लोको भणति एतैर्विना किं सुवर्णकोटीभि: ?, अभयो भणति तदा किं भणथ दमक इति प्रब्रजितः, योऽपि निरर्थकः प्रब्रजितः तेनाप्येतास्तिस्रः सुवर्णकोट्यः परित्यक्ताः सत्यं स्वामिन्! स्थितो लोकः प्रतीतः । तस्मादर्थपरिहीनोऽपि संयमे स्थितस्त्रीणि लोकसाराणि 1 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य पूर्वकम्, सूत्रम् ३ त्यागि स्वरूपः काष्ठहारो दाहरणं च । ।। १४९ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ १५०॥ पूर्वकम्, कथानकोच। अग्गी उदयं महिलाओ य परिच्चयंतो चाइत्ति लब्भइ । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥३॥ द्वितीयमध्ययन समाइ पेहाइ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महंनोवि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं ।। सूत्रम् ४ ॥ तस्यैवं त्यागिन: समया आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया- दृष्ट्या परि-समन्ताद्व्रजतो- गच्छतः। सूत्रम् ४ परिव्रजतः, गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः, स्यात् कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगते: मनो निःसरति बहिर्धाबहिः मनोनिग्रहभुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मन:- अन्तःकरणं निःसरति-निर्गच्छति बहिर्धा विधिः राजपुत्रदासी संयमगेहाब्रूहिरित्यर्थः । एत्थ उदाहरणं- जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अभिरमंतो अच्छइ, दासी य तेण वणिग्दारकअंतेण जलभरियघडेण वोलेइ, तओ तेण तीए दासीए सो घडो गोलियाए भिन्नो, तं च अधिई करितिं दद्दूण पुणरा-वत्ती जाया, चिंतियं च-जे चेव रक्खगा ते चेव लोलगा कत्थ कुविउंसक्का? । उदगाउ समुजलिओ अग्गी किह विज्झवेयव्वो॥ १॥ पणो चिक्खलगोलएण तक्खणा एव लहहत्थयाए तं घडछिडुढक्कियं । एवं जड़ संजयस्स संजमं करेंतस्स बहिया मणो: णिग्गच्छइ तत्थ पसत्थेण परिणामेण तं असुहसंकप्पछिड्डुचरित्तजलरक्खणट्ठाए ढक्केयव्वं । केनालम्बनेनेति?, यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयं- न सा मम नाप्यहं तस्याः, पृथक्कर्मफलभुजो हि प्राणिन इति, एवं ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत रागम्, तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्त्तन्त (स निवर्तते) एव, अतत्त्वदर्शननिमित्तत्वात्तस्येति। तत्थ न सा महंणोऽवि अहंवि तीसेत्ति, अग्निमुदकं महिलाश्च परित्यजन् त्यागीति लभ्यते। 0 अत्रोदाहरणं- यथैको राजपुत्रः बाहिरिकायामास्थानसभायामभिरममाणस्तिष्ठति, दासी च तेन मार्गण जलभृतघटेन व्रजति, ततस्तेन तस्या दास्याः स घटो गोलिकया भिन्नः, तां चाधृतिं कुर्वती दृष्ट्वा पुनरावृत्तिर्जाता, चिन्तितं च, य एव रक्षकास्त एवं लोठकाः कुत्र कूजितुं शक्यम्? उदकात् समुञ्चलितोऽग्निः कथं विध्यापवितव्यः? ॥ १॥ पुनः कर्दमगोलकेन तत्क्षणादेव लघुहस्ततया तद् घटच्छिद्र स्थगितम् । एवं यदि संयतस्य संयमं कुर्वतो बहिर्मनो निर्गच्छति तत्र प्रशस्तेन परिणामेन तदशुभसंकल्पच्छिद्र चारित्रजलरक्षणार्थाय स्थगयितव्यम् । ॐ तत्र न सा मम नो अपि अहमपि तस्या इति । ||१५०।। For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandie श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१५१॥ द्वितीयमध्ययन श्रामण्यपूर्वकम्, सूत्रम् ४ मनोनिग्रहविधि: राजपुत्रदासी वणिग्दारककथानकोच। एत्थ उदाहरणं- एगो वाणियदारओ, सो जायं उज्झित्ता पव्वइओ, सो य ओहाणुप्पेही भूओ, इमं च घोसेइ-न सा महं णोवि अहंपि तीसे, सो चिंतेइ- सावि ममं अहंपि तीसे, सा ममाणुरत्ता कहमहं तं छड्डेहामित्ति काउं गहियायारभंडगणेवत्थो चेव संपट्टिओ।गओ अतं गामं जत्थ सा सो इ (य) णिवाणतडं संपत्तो, तत्थ य सा पुव्वजाया पाणियस्स आगया, साय साविया जाया पव्वइउकामा य, ताए सोणाओ, इयरोतं न याणइ, तेण सा पुच्छिया-अमुगस्स धूया किं मया जीवड़ वा?, सो चिंतेइ-जइ सासहरा तो उप्पव्वयामि, इयरहा ण, ताए णायं-जहा एस पव्वजं पयहिउकामो, तो दोवि संसारे भमिस्सामि (मो) त्ति, भणियं चऽणाए-सा अण्णस्स दिण्णा, तओ सो चिंतिउमारद्धो- सच्चं भगवंतेहिं साहूहिं अहं पाढिओ- जहाण सा महणोवि अहंपि तीसे, परमसंवेगमावण्णो, भणियंचऽणेण-पडिणियत्तामि, तीए वेगपडिओत्तिणाऊण अणुसासिओ अणिचं जीवियं कामभोगा इत्तरिया एवं तस्स केवलिपन्नतं धम्म पडिकहेइ, अणुसिट्ठो जाणाविओ य पडिगओ आयरियसगासं पवजाए थिरीभूओ। एवं अप्पा साहारेतव्वो जहा तेणंति सूत्रार्थः ।। ४ ।। एवं तावदान्तरो मनोनिग्रहविधिरुक्तः, न अत्रोदाहरणं- एको वणिग्दारकः, स जायामुज्झित्वा प्रबजितः, स चावधावनानुप्रेक्षी भूतः, इदं च घोषयति- न सा मम नो अपि अहमपि तस्याः, स चिन्तयतिसापि मम अहमपि तस्याः, सा मय्यनुरक्ता कथमहं तां त्यजामीतिकृत्वा गृहीताचारभाण्डनेपथ्य एव संप्रस्थितः, गतश्च तं ग्रामं यत्र सा, श्रोतो (स च) निपानतटं संप्राप्तः । तत्र सा पूर्वजाया पानीयायागता, सा च श्राविका जाता प्रव्रजितुकामा च, तया स ज्ञात इतरस्तां न जानाति, तेन सा पृष्टा- अमुकस्य दुहिता कि मृता जीवति वा?, स. चिन्तयति- यदि श्वासघरा तदोत्प्रव्रजामि, इतरथा न, तया ज्ञातं- यथैष प्रव्रज्यां प्रहातुकामः, ततो द्वावपि संसारे भ्रमिष्याव इति, भणितं चानया-साऽन्यस्मै दत्ता, ततः। स चिन्तयितुमारब्धः- सत्यं भगवद्धिः साधुभिरहं पाठितो यथा न सा मम नो अपि अहमपि तस्याः, परमसंवेगमापन्नः, भणितं चानेन- प्रतिनिवर्ते, तया वैराग्यपतित इति ज्ञात्वाऽनुशासितः, अनित्यं जीवितं कामभोगा इत्वराः एवं तस्मै केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयति, अनुशिष्टो ज्ञापितश्च प्रतिगत आचार्यसकाशं प्रव्रज्यायां स्थिरीभूतः,8 एवमात्मा धारयितव्यः यथा तेनेति । ||१५१॥ For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् श्रामण्य पदेशः दाहरणंच। चायं बाह्यविधिमन्तरेण कर्तुं शक्यते अतस्तद्विधानार्थमाह द्वितीयमध्ययन आयावयाहि चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खुदुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए। सूत्रम् ॥ पूर्वकम, संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थं आतापय आतापनां कुरु, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायाद्यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः, सूत्रम् ५-६ अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह, तथा त्यज सौकुमार्य परित्यज सुकुमारत्वम्, अनेन तूभयसमुत्थदोषपरिहारम्, तथाहि संयमस्थैर्योसौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयो भवति, एवमुभयासेवनेन कामान् प्राग्निरूपितस्वरूपान् क्राम उल्लङ्गय, रथनेम्युयतस्तैः क्रान्तैःक्रान्तमेव दुःखम्, भवति इति शेषः, कामनिबन्धनत्वाद्दुःखस्य, खुशब्दोऽवधारणे, अधुनाऽऽन्तरकामक्रमणविधिमाह- छिन्द्धि द्वेषं व्यपनय रागं सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालोचनादिना, क्व?, कामेष्विति गम्यते, शब्दादयो हि विषया एव कामा इतिकृत्वा । एवं कृते फलमाह-एवं अनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः, किं?-सुखमस्यास्तीति सुखी भविष्यसि, क?संपराये संसारे, यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि, 'संपराये' परीषहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये। कृतं प्रसङ्गेनेति । सूत्रार्थः ।। ५ ।। किं च संयमगेहान्मनस एवानिर्गमनार्थमिदं चिन्तयेत्, यदुत पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउंदुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥सूत्रम् ६॥ प्रस्कन्दन्ति अध्यवस्यन्ति ज्वलितं ज्वालामालाकुलं न मुर्मुरादिरूपम्, कं?, ज्योतिष अग्निं धूमकेतुं धूमचिह्न धूमध्वज नोल्कादिरूपं दुरासदं दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तम्, दुरभिभवमित्यर्थः, चशब्दलोपात् न चेच्छन्ति- न च वाञ्छन्ति वान्तं भोक्तुं परित्यक्तमादातुम, विषमिति गम्यते, के?- नागा इति गम्यते, किंविशिष्टा इत्याह- कुले जाताः ।। ।। १५२॥ For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १५३ ।। www.kobatirth.org समुत्पन्ना अगन्धने । नागानां हि भेदद्वयं गन्धनाश्चागन्धनाश्च, , तत्थ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकट्टिया तं विसं वणमुहाओ आवियंति, अगंधणाओ अवि मरणमज्झवस्संति ण य वंतमावियंति । उदाहरणं द्रुमपुष्पिकायामुक्तमेव । उपसंहारस्त्वेवं भावनीयः- यदि तावत्तिर्यञ्चोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति न च वान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनाभिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तान् भोक्ष्यें ? इति सूत्रार्थः । अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणं- यदा किल अरिट्टणेमी पव्वइओ तया रहणेमी तस्स जेट्ठो भाउओ राइमई उवयरड़, जइ णाम एसा ममं इच्छिज्जा, सावि भगवई निव्विण्णकामभोगा, णायं च तीए जहा एसो मम अज्झोववण्णो, अण्णया य तीए महुघयसंजुत्ता पेज्जा पीया, रहनेमी आगओ, मयणफलं मुहे काऊण य तीए वंतं, भणियं च एवं पेज्जं पियाहि, तेण भणियं कहं वन्तं पिज्जइ ?, तीए भणिओ जड़ न पिज्जइ वंतं तओ अहंपि अरिट्ठनेमिसामिणा वंता कहं पिविउमिच्छसि ? । तथा ह्यधिकृतार्थसंवाद्येवाह धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ।। सूत्रम् ७ ।। तत्र राजीमतिः किलैवमुक्तवती- धिगस्तु धिक्शब्दः कुत्सायां 'अस्तु' भवतु ते तव, पौरुषमिति गम्यते, हे यशस्कामिन्निति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम्, अथवा अकारप्रश्लेषादयशस्कामिन्!, धिगस्तु तव यस्त्वं जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोः ® तंत्र गन्धना नाम ये दष्टा मन्त्रैराकृष्टास्तद्विषं व्रणमुखादापिबन्ति, अगन्धना अपि मरणमध्यवस्यन्ति न च वान्तमापिबन्ति इति । यदा किलारिष्टनेमिः प्रव्रजितः तदा रथनेमिस्तस्य ज्येष्ठो भ्राता राजीमतीमुपचरति, यदि नामैषा मामिच्छेत्, सापि भगवती निर्विण्णकामभोगा, ज्ञातं च तया यथैष मयि अध्युपपन्नः । अन्यदा च तया मधुघृतसंयुक्ता पेया पीता, रथनेमिरागतः, मदनफलं मुखे कृत्वा च तया वान्तम्, भणितं च एनां पेयां पिब, तेन भणितं कथं वान्तं पीयते ?, तया भणित- यदि न पीयते वान्तं तदाऽहमपि अरिष्टनेमिस्वामिना वान्ता कथं पातुमिच्छसि ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only द्वितीयमध्ययनं श्रामण्य पूर्वकम्, सूत्रम् ७ | संयमस्थैर्यो| पदेशः रथनेम्यु |दाहरणं च । ।। १५३ ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ १५४॥ पूर्वकम्, वान्तमिच्छस्यापातु-परित्यक्तां भगवता अभिलषसि भोक्तुम्, अत उत्क्रान्तमर्यादस्य श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतरं तव मरणम्, द्वितीयमध्ययन न पुनरिदमकार्यासेवनमिति सूत्रार्थः ।। तओ धम्मो से कहिओ, संबुद्धो पव्वइओ य, राईमईवि तं बोहेऊणं पव्वइया। पच्छा अन्नया कयाइ सो रहनेमी बारवईए भिक्खं हिंडिऊणं सामिसगासमागच्छन्तो वासवद्दलएण अब्भाहओ एक्कं गुहं । सूत्रम् ८-११ अणुप्पविट्ठो । राईमईवि सामिणो वंदणाए गया, वंदित्ता पडिस्सयमागच्छइ, अंतरे य वरिसिउमाढत्तो, तिता य (भिन्ना) संयमस्थैर्यो पदेश: तमेव गुहमणुप्पविट्ठा- जत्थ सो रहनेमी, वत्थाणिय पविसारियाणि, ताहेतीए अंगपञ्चंगं दिलु, सोरहणेमी तीए अज्झोववन्नो, रथनेमिबोधःदिट्ठो अणाए इंगियागारकुसलाए य णाओ असोहणो भावो एयस्स । ततोऽसाविदमवोचत नूपुरपण्डितोअहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ।। सूत्रम् ८।। दाहरणम्। जइतं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाविद्धव्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ।। सूत्रम् ९ ।। तीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ।। सूत्रम् १० ।। एवं करंति संबद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटृति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ।। सूत्रम् ११॥ त्तिबेमि ।। सामन्नपुब्वियज्झयणं समत्तं ॥२॥ 0 ततो धर्मस्तस्मै कथितः संबुद्धः प्रव्रजितश्च, राजीमत्यपि तं बोधयित्त्वा प्रव्रजिता । पश्वादन्यदा कदाचित् स रथनेमिरिकायां भिक्षां हिण्डयित्वा स्वामिसकाश8मागच्छन् वर्षावार्दलेनाभ्याहत एका गुफां अनुप्रविष्टः, राजीमत्यपि स्वामिनो वन्दनाय गता, वन्दित्वा प्रतिश्रयमागच्छति, अन्तरा च वर्षितुमारब्धः, भिन्ना (क्लिन्ना) ॥१५४॥ तामेव गुफामनुप्रविष्टा, यत्र स रथनेमिः, वस्त्रााणि च प्रविसारितानि । तदा तस्या अङ्गप्रत्यङ्गानि दृष्टानि, स रथनेमिस्तस्यामध्युपपन्नो, दृष्टोऽनया, इङ्गिताकारकुशलया । ॐच ज्ञातोऽशोभनो भाव एतस्य। For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् ८-११ दाहरणम्। अहं च भोगराज्ञः- उग्रसेनस्य, दुहितेति गम्यते, त्वं च भवसि अन्धकवृष्णे:- समुद्रविजयस्य, सुत इति गम्यते, अतो मा द्वितीयमध्ययन एकैकप्रधानकुले आवां गन्धनौ भूव, उक्तं च-जह न सप्पतुल्ला होमुत्ति भणिय होइ अत: संयमं निभृतश्वर-सर्वदुःखनिवारणं पूर्वकम्, क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः ।। ८॥ किञ्च- यदि त्वं करिष्यसि भावं- अभिप्रायं प्रार्थनामित्यर्थः, क्व?- या या । द्रक्ष्यसि नारी:- स्त्रियः, तासु तासु एता:शोभना एताश्चाशोभना अतःसेवे काममित्येवंभूतं भावं यदि करिष्यसि ततो वाताविद्ध संयमस्थैर्योइव हड:- वातप्रेरित इवाबद्धमूलो वनस्पतिविशेषः अस्थितात्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्व (प्रति) पदेश: रथनेमिबोध:बद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति सूत्रार्थः ॥ ९॥ तस्याः राजीमत्या असौ रथनेमिः वचन नूपुरपण्डितोअनन्तरोदितं श्रुत्वा आकर्ण्य, किंविशिष्टायास्तस्याः?- संयतायाः प्रव्रजिताया इत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनं?- सुभाषितं संवेगनिबन्धनम्,अङ्कशेन यथा नागो हस्ती एवं धर्मे संप्रतिपादित धर्मे स्थापित इत्यर्थः, केन?- अङ्कशतुल्येन वचनेन । 'अङ्कशेन जहा नागो'त्ति एत्थ उदाहरणं- वसंतपुरं नयरं, तत्थ एगा इब्भण्हुया नदीए ण्हाइ, अन्नो य तरुणो तंदट्ठण भणइ-सुण्हायं ते । पुच्छइ एसा नइ पवरसोहियतरङ्गा । एए य नदीरुक्खा अहं च पाएसु ते पडिओ॥१॥ ताहे सा पडिभणइ-'सुहया होउ नईते चिरं च जीवंतु जे नईरुक्खा । सुण्हायपुच्छयाणं घत्तीहामो पियं काउं॥१॥' सो य तीसे घरं वा दारं वा ण याणड. तीसे य बितिजियाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलोयंताणि अच्छंति, तेण ताणं पुप्फफलाणि सुबहूणि दिण्णाणि पुच्छियाणि य-का Oयथा न (गन्धन) सर्पतुल्यौ भवाव इति भणितं भवति । यथा नाग इति, अत्रोदाहरणं- वसन्तपुरं नगरम्, तत्रैकेभ्यवधू नद्यां स्नाति, अन्यश्च तरुणस्ता दृष्ट भणति- सुस्नातं ते पृच्छति एषा नदी प्रवरशोभिततरङ्गा । एते च नदीवृक्षा अहं च पादयोस्ते पतितः ॥ १॥ तदा सा प्रतिभणति- शुभता भवतु नद्याः चिरं च जीवन्तु 8 इते नदीवृक्षाः। सुस्नातप्रच्छकानां यतिष्यामहे प्रियं कर्तुम्॥१॥ स च तस्या गृहं वा द्वारं वा न जानाति, तस्याश्च द्वैतीयिकाश्चेटरूपा वृक्षान् प्रलोकयन्तस्तिष्ठन्ति, तेन तेभ्यः पुष्पफलानि सुबहूनि दत्तानि पृष्टाश्व- ॥१५५।। DECEAEEEEEEE For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१५६॥ पूर्वकम्, दाहरणम्। एसा?, ताणि भणन्ति- अमुगस्स सुण्हा, सो य तीए विरहं न लहति, तओ परिव्वाइयं ओलग्गिउमाढत्तो, भिक्खा दिन्ना, द्वितीयमध्ययनं सा तुट्ठा भणइ- किं करेमि ओलग्गाए फलं?, तेण भणिया- अमुगस्स सुहं मम कए भणाहि, तीए गन्तूण भणिया-अमुगो। श्रामण्यते एवंगुणजातीओ पुच्छई, ताए रुहाए पउल्लगाणि धोवन्तीए मसिलित्तएण हत्थेण पिट्ठीए आहया, पंचंगुलियं उट्टियं, सूत्रम् ८-११ अवदारेण निच्छुड्डा, गया तस्स साहइ- णामं पि सा तव ण सुणेइ, तेण णायं- कालपंचमीए अवदारेण अइगंतव्वं, संयमस्थैर्यो पदेश: अइगओ य, असोगवणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य, जाव पस्सवणागएण ससुरेण दिट्ठाणि, तेण णायं- ण एस मम पुत्तो, रथनेमिबोध:पारदारिओ कोइ, पच्छा पायाओ तेण णेउरं गहियं, चेइयं च तीए, सो भणिओ-णास लहुं, आवइकाले साहेज़ करेजासि, नूपुरपण्डितोइयरी गंतूण भत्तारं भणइ- एत्थ घम्मो असोयवणियं वच्चामो, गंतूण सुत्ताणि, खणमेत्तं सुविऊणं भत्तारं उट्ठवेइ भणइ यएयं तुज्झ कुलाणुरूवं? जंणं मम पायाओ ससुरोणेउरंकडूड, सो भणड- सवस पभाएलब्भिहिति, पभाए थेरेणं सिट्रं.सो। य रुट्ठो भणइ-विवरीओ थेरोत्ति, थेरो भणइ-मया दिट्ठो अन्नो पुरिसो, विवाए जाए सा भणइ- अहं अप्पाणं सोहयामि?, 9 कैषा?, ते भणन्ति- अमुकस्य स्नुषा, स च तया विरह न लभते, ततः परिव्राजिकामवलगितुमारब्धः, भिक्षा दत्ता, सा तुष्टा भणति- किं करोमि सेवायाः फलं?, तेन भणिता- अमुकस्य स्नुषां मम कृते भणे , तया गत्वा भणिता- एवंगुणजातीयोऽमुकस्ते पृच्छति, तया रुष्टया भाजनानि प्रक्षालयन्त्या मषीलिप्तेन हस्तेन पृष्ठ्यामाहता, पञ्चाङ्गलक उत्थितः अपद्वारेण निष्काशिता, गता तस्मै कथयति- नामापि सा तव न शृणोति, तेन ज्ञातं- कृष्णपञ्चम्यामपद्वारेणातिगन्तव्यम्, अतिगतक्ष, अशोकवनिकायां ®मिलिती सुप्तौ च, यावत् प्रश्रवणायागतेन श्वशुरेण दृष्टी, तेन ज्ञातं- नैष मम पुत्रः, पारदारिकः कश्चित्, पश्चात्पदो नूपुरं तेन गृहीतम्, ज्ञातं च तया, स भणितः- नश्य लघु, आपत्काले साहाय्यं कुर्याः, इतरा गत्वा भरि भणति- अत्र धर्मः अशोकवनिकां व्रजावः, गत्वा सुप्तौ, क्षणमात्र सुप्त्वा भर्तारमुत्थापयति भणति च-एतत्तव कुलानुरूपं? यन्मम पदः श्वशुरो नूपुरं कर्षति, स भणति स्वपिहि प्रातर्लफ्यते, प्रभाते स्थविरेण शिष्टम्, स च रुष्टो भणति-विपरीतः स्थविर इति, स्थविरो भणति8मया दृष्टोऽन्यः पुरुषः, विवादे जाते सा भणति- अहमात्मानं शोधयामि?, 2 ॥१५६॥ For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१५७॥ एवं करेहि, तओ ण्हाया कयबलिकम्मा गया जक्खघरं, तस्स जक्खस्स अंतरेणं गच्छंतो जो कारगारी सो लग्गइ, अकारगारी द्वितीयमध्ययन नीसरइ, तओ सो विडपियतमो पिसायरूवं काऊण णिरंतरं घणं कंठे गिण्हइ, तओ सा गंतूण तं जक्खं भणइ-जो मम श्रामण्य पूर्वकम्, मायापिउदिनओ भत्तारोतं च पिसायं मोत्तण जड अन्नं परिसं जाणामि तो मे तुम जाणिजसित्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेइ सूत्रम् ८-११ एस य (पास) केरिसाई धुत्ती मंतेइ?, अहगंपि वंचिओ तीए, णत्थि सइत्तणं खु धुत्तीए, जाव जक्खो चिंतेड़ ताव सा । संयमस्वैयोंणिप्फिडिया. तओ सो थेरो सव्वलोगेण विलक्खीकओ हीलिओय । तओ थेरस्स तीए अधिईए णिहा णट्ठा, रन्नो य कन्ने पदेश: रथनेमिबोध:गयं, रन्ना सहाविऊण अंतेउरवालओ कओ, अभिसेक्कं च हत्थिरयणं वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छइ, इओ य एगा देवी नूपुरपण्डितोहत्थिर्मिठे आसत्ता, णवरं हत्थी चोंवालयाओ हत्थेण अवतारेड़, पभाए पडिणीणेड, एवं वचड़ कालो। अन्नया य एगाए दाहरणम्। रयणीए चिरस्स आगया हथिमिंठेण रुटेण हत्थिसंकलाए आया, सा भणइ- एयारिसो तारिसो यण सुव्वइ, मा मज्झ । रूसह, तं थेरो पिच्छड, चिंतियं च णेण- एवंपि रक्खिज्जमाणीओ एयाओ एवं ववहरंति, किं पूण ताओ सदा सच्छंदाओ एवं कुरु, ततः स्नाता कृतबलिकर्मा गता यक्षगृहम्, तस्य यक्षस्य पदोरन्तरेण गच्छन् योऽपराधी स लगति, अनपराधो निस्सरति, ततः स विटः प्रियतमः पिशाचरूपं कृत्वा निरन्तरं घनं कण्ठे गृह्णाति, ततः सा गत्वा तं यक्ष भणति- यो मम मातापितृदत्तो भर्ता तं च पिशाचं मुक्त्वा यद्यन्यं पुरुषं जानामि तदा मां त्वं जानीया इति, यक्षो विलक्षश्चिन्तयति- एषा धूर्ता कीशि मन्त्रयति?, अहमपि वञ्चितोऽनया, नास्ति सतीत्वं धूर्तायाः, यावद्यक्षश्चिन्तयति तावत् सा निर्गता, ततः स स्थविरः सर्वलोकेन विलक्षीकृतो हीलितश्च । ततः स्थविरस्य तयाऽधृत्या निद्रा नष्टा, राज्ञश्च कर्णे गतम्, राज्ञा शब्दयित्वा अन्तःपुरपालकः कृतः, अभिषेकीय हस्तिरत्न हवासगृहस्याधस्तात् बद्धं तिष्ठति । इतश्चैका राशी हस्तिमिण्ठे आसक्ता, परं हस्ती मालात् हस्तेनावतारयति, प्रभाते प्रतिमुश्चति, एवं ब्रजति कालः। अन्यदा चैकस्यां ॥१५७ ।। रजन्यां चिरेणागता हस्तिमिण्ठेन रुष्टेन हस्तिशृङ्खलयाऽऽहता, सा भणति- ईशस्तादृशश्चन स्वपिति मा महां रोषीः, तत् स्थविर प्रेक्षते, चिन्तितं चानेन- एवमपि रक्ष्यमाणा एता एवं व्यवहरन्ति किं पुनस्ताः सदा स्वच्छन्दा For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||१५८॥ दाहरणम्। त्ति? सुत्तो, पभाए सव्वलोगो उठ्ठिओ, सो ण उट्टेइ, रन्नो कहियं, रन्ना भणियं- सुवउ, चिरस्स य उट्ठिओ पुच्छिओ य, द्वितीयमध्ययन कहियं सव्वं, भणइ- जहा एगा देवी ण याणामि कयरावि, तओ राइणा भंडहत्थी काराविओ, भणियाओ- एयस्स। श्रामण्य पूर्वकम्, अच्चणियं काऊणं ओलंडेह, तओ सव्वाहिं ओलंडिओ, एगा णेच्छइ, भणइ य- अहं बीहेमि, तओ रन्ना उप्पलेण आहया, सूत्रम् ८-११ मुच्छिया पडिया, रन्ना जाणियं- एसा कारित्ति, भणियं चणेण- मत्तगयं आरुहंतीएँ भंडमयस्स गयस्स बीहीहि । तत्थ न । संयमस्थैर्यो पदेशः मुच्छिय संकलाहया, एत्थ मुच्छिय उप्पलाहया ॥१॥ तओ सरीरं जोइयं जाव संकलापहारो दिट्ठो। तओ परुट्टेण रण्णा रथनेमिबोध:देवी मिठो हत्थी य तिण्णिवि छिन्नकडए चडावियाणि, भणियो य मिठो- एत्थं वाहेहि हत्थिं, दोहि य पासेहिं ते(वे)लुग्गाहा नूपुरपण्डितोउट्ठिया, जाव एगो पाओ आगासे ठविओ, जणो भणइ-किं एस तिरिओ जाणइ?, एयाणि मारियव्वाणि, तहवि राया रोसं न मुयइ, जाव तिण्णि पाया आगासे कया, एगेण ठिओ, लोगेण कओ अक्कन्दो- किमेयं हत्थिरयणं विणासिज्जई?, औरण्णा मिठो भणिओ- तरसि णियत्तेउ?, भणइ- जइ दुयगाणंपि अभयं देसि, दिण्णं, तओ तेण अंकुसेण नियत्तिओ 3- इति सुप्तः, प्रभाते सर्वो लोक उत्थितः स नोत्तिष्ठते, राज्ञे कथितम्, राज्ञा भणित- स्वपितु, चिरेणोत्थितः पृष्टः, कथितं सर्वम्, भणति- यथैका देवी न जाने कतरापि, ततो राज्ञा भिण्ड(मृन्मय)हस्ती कारितः, भणिताः- एतस्यार्चनं कृत्वोल्लङ्घयत, ततः सर्वाभिरुल्लङ्गितः, एका नेच्छति, भणति च- अहं बिभेमि, ततो राज्ञोत्पलेनाहता मूर्छिता पतिता, राज्ञा ज्ञात- एषाऽपराधिनीति, भणितं चानेन- मत्तं गजमारोहन्ती भिण्ड()मयाद्जाद्विभेषि?। तत्र न मूर्छिता शृङ्खलाहताऽत्र मूच्छितोत्पलाहता ॥१॥ ततः शरीरं दृष्ट शृङ्खलाप्रहारो दृष्टः यावत्, ततः प्ररुष्टेन राज्ञा देवी मेण्ठो हस्ती च त्रयोऽपि छिन्नकटके चटापितानि, भणितश्च मेण्ठः- अत्र : पातय हस्तिनम्, द्वयोश्च पार्श्वयोर्वेणुग्राहा स्थापिताः, यावदेकः पाद आकाशे स्थापितः, जनो भणति- एष तिर्यङ् किं जानीते, एतौ मारयितव्यौ, तथापि राजा रोष न मुञ्चति, यावत्वयः पादा आकाशे कृताः एकेन स्थितः, लोकेनाक्रन्दः कृतः किमेतत् हस्तिरत्नः विनाश्यते?, राज्ञा मिण्ठो भणितः- शक्नोषि निवर्तयितु?, भणतियदि द्वाभ्यामप्यभयं ददासि, दत्तम्, ततस्तेनाङ्कशेन निवर्त्तितो हस्तीति । For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामण्य श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।१५९॥ दाहरणम्। हत्थित्ति । दार्टान्तिकयोजना कृतैवेति सूत्रार्थः।।१०॥एवं कुर्वन्ति संबुद्धा बुद्धिमन्तो बुद्धाः सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनकीभावेन द्वितीयमध्ययन वा बुद्धाःसंबुद्धा- विदितविषयस्वभावाः, सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते- पण्डिताः प्रविचक्षणाः, तत्र पण्डिताः पूर्वकम्, सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः, अन्ये तु व्याचक्षते-संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः पण्डिता वान्तभोगा सूत्रम् ८-११ सेवनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्यभीरव इति, किं कुर्वन्ति?- विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः विविधं- अनेकैः प्रकारैरनादिभवाभ्यासबलेन संयमस्थैर्यो पदेश: कदर्थ्यमाना अपि मोहोदयेन (वि) निवर्तन्ते भोगेभ्यो-विषयेभ्यः, यथा क इत्यत्राह- यथाऽसौ पुरुषोत्तमः रथनेमिः । आह रथनेमिबोध:कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वम्, यो हि प्रव्रजितोऽपि विषयाभिलाषीति?, उच्यते, अभिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः, कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं । नपुरपण्डितोचेष्टत एवेति। अपरस्त्वाह- दशवैकालिकं नियतश्रुतमेव, यत उक्तं- णायज्झयणाहरणा इसिभासियमो पइन्नयसुया य। एए होति। अणियया णिययं पुण सेसमुस्सन्नं ।।१।।तत्कथमभिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं युज्यते इति?, उच्यते, एवम्भूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि भावाद्, उत्सन्नग्रहणाच्चादोषः, प्रायो नियतं न तु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः । ब्रवीमीति न स्वमनीषिकया किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववदिति ।। इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकटीकायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनं सम्पूर्णम् ॥२॥ ॥ सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ द्वितीयमध्ययनं श्रामण्यपूर्वकाख्यं समाप्तमिति ।। ॥१५९॥ 0 दर्शनपरिणाम० (प्र०) | 0 ज्ञाताध्ययनाहरणानि ऋषिभाषितानि प्रकीर्णकश्रुतं च । एतानि भवन्ति अनियतानि नियतं पुनः शेषमुत्सन्नं (प्रायः) ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१६०॥ १७८-१८० महत्क्षुल्लकाचारकथाशब्दाना ।। अथ तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथाख्यम् ।। तृतीयमध्ययनं व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमिदानी क्षुल्लिकाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्मा- क्षुल्लिका चारकथा, भ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्युक्तम्, इह तु सा धृतिराचारे कार्या नियुक्तिः नत्वनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते, उक्तञ्च- तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्म-8 अभिसम्बन्धोस्तस्यैव च जिनोदितः ॥१॥ इत्येनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नामनिष्पन्ने निक्षेपे क्षुल्लिकाचारकथेति नाम, तत्र क्षुल्लकनिक्षेपः कार्यः, आचारस्य कथायाश्च, महदपेक्षया च क्षुल्लकमित्यतश्चित्रन्यायप्रदर्शनार्थमपेक्षणीयमेव महदभिधित्सुराह निक्षेपाः। नि०- नामंठवणादविए खेत्ते काले पहाण पइभावे । एएसि महंताणं पडिवक्खे खुड्या होति ।। १७८ ।। नि०- पइखुडएण पगयं आयारस्स उ चउक्कनिक्खेवो। नामंठवणादविए भावायारे य बोद्धव्वे ।। १७९ ।। नि०-नामणधावणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दव्वाणि जाणि लोए दव्वायारं वियाणाहि।। १८०।। नाममहन्महदिति नाम, स्थापनामहन्महदिति स्थापना, द्रव्यमहानचित्तमहास्कन्धः, क्षेत्रमहल्लोकालोकाकाशम्, कालमहानतीतादिभेदः सम्पूर्ण:कालः, प्रधानमहत्त्रिविधं- सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधं द्विपदचतुष्पदापदभेदात्, तत्र द्विपदानां तीर्थकरः प्रधानः, चतुष्पदानां हस्ती, अपदानां पनसः, अचित्तानां वैडूर्यरत्नं मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविभूषितः प्रधान इत्यत एव चैतेषां महत्त्वमिति, प्रतीत्यमहद् आपेक्षिकम्, तद्यथा- आमलकं प्रतीत्य महत् बिल्वं बिल्वं प्रतीत्य कपित्थमित्यादि, भावमहत्रिविधं- प्राधान्यतः कालत आश्रयतश्चेति, प्राधान्यतः क्षायिको महान् मुक्तिहेतुत्वेन । For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥१६१ चारकथा, महत्क्षुल्लकाचार कथाशब्दानां तस्यैव प्रधानत्वात्, कालतः पारिणामिकः, जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिजीवा अजीवतया । तृतीयमध्ययनं परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयेति, आश्रयतस्त्वौदयिकः, प्रभूत (संसारि) सत्त्वाश्रयत्वात् सर्वसंसारिणामेवासौ विद्यत इति, क्षुल्लिकाएतेषां अनन्तरोदितानां महतां प्रतिपक्षे क्षुल्लकानि भवन्ति, अभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्ती ति न्यायात् यथार्थं क्षुल्लकलिङ्ग नियुक्तिः वचनमिति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यक्षुल्लकः परमाणुः, द्रव्यं चासौ क्षुल्लकश्चेति, क्षेत्रक्षुल्लक आकाशप्रदेशः, कालक्षुल्लकः १७८-१८० अभिसम्बन्धोसमयः, प्रधानक्षुल्लकं त्रिविधं- सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधं- द्विपदचतुष्पदापदभेदात्, द्विपदेषु क्षुल्लकाः प्रधानाश्चानुत्तरसुराः, शरीरेषु क्षुल्लकमाहारकम्, चतुष्पदेषु प्रधानः क्षुल्लकश्च सिंहः, अपदेषु जातिकुसुमानि, अचित्तेषु वजं । प्रधानं क्षुल्लकं च, मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति, प्रतीत्यक्षुल्लकं तु कपित्थं प्रतीत्य बिल्वं क्षुल्लकं बिल्वं प्रतीत्या निक्षेपाः। मलकमित्यादि, भावक्षुल्लकस्तु क्षायिको भावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः । इत्थं क्षुल्लकनिक्षेपमभिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनिक्षेपमाह- प्रतीत्य यत् क्षुल्लकमुपदिष्टं तेनात्राधिकारः, यतो महती खल्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं । तदपेक्षया क्षुल्लिकेयमिति ॥ आचारस्य तु चतुष्को निक्षेपः, स चाय-नामाचार: स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च बोद्धव्य इति । गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थ तु वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, अतो द्रव्याचारमाह- नामनधावनवासनशिक्षापनसुकरणाविरोधीनि द्रव्याणि यानि लोके तानि द्रव्याचारं विजानीहि। अयमत्र भावार्थ:- आचरणं आचारः द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, द्रव्यस्य । यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः, तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते, तत्प्रति द्विविधं द्रव्यं भवति- आचार ||१६१॥ वदनाचारवच्च, तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः, तत्र तिनिशलतादि आचारवत्, एरण्डाद्यनाचारवत्, एतदुक्तं भवतितिनिशलताद्याचरति तं भावं- तेन रूपेण परिणमति न त्वेरण्डादि, एवं सर्वत्र भावना कार्या, नवरमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२६२॥ संशयः, कदाचिदुन्निष्क्रामत्येवेत्यर्थः, तथा च वृद्धव्याख्या-वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिजइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे पश्चचममध्ययन हिंसा, पडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सव्ववयपीडा, दव्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणेण त्ति सूत्रार्थः ॥ १०॥ निगमयन्नाह- तम्हा इति सूत्रम्, यस्मादेवं । सूत्रम् तस्मादेतत् विज्ञाय दोषं अनन्तरोदितं दुर्गतिवर्धनं वर्जयेद्वेश्यासामन्तं मुनि एकान्तं मोक्षमाश्रित इति सूत्रार्थः ।। ११ । आह- १२-१८ आत्मसंयमप्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थं?, उच्यते, प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन । विराधना। प्राधान्यम्, तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाह साणं सूइअंगावि, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिम्भं कलह जुद्धं, दूरओ परिवजए।। सूत्रम् १२ ॥ अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले। इंदिआणि जहाभाग, दमइत्ता मुणी चरे ।। सूत्रम् १३ ।। दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो अगोअरे। हसंतो नाभिगच्छिज्जा, कुलं उच्चावयं सया।। सूत्रम् १४ ।। आलोअंथिगलं दारं, संधिं दगभवणाणि अ । चरंतो न विनिज्झाए, संकट्ठाणं विवजए। सूत्रम् १५ ।। रण्णो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए।सूत्रम् १६ ।। पडिकुट्ठकलंन पविसे, मामगं परिवजए। अचिअत्तकुलंन पविसे, चिअत्तं पविसे कुलं ।। सूत्रम् १७॥ साणीपावारपिहिअं, अप्पणा नावपंगुरे। कवाडं नो पणुल्लिज्जा, उग्गहंसि अजाइआ॥सूत्रम् १८॥ 0वेश्यादिगतभावस्य मैथुनं पीड्यते, अनुपयोगेनैषणाऽकरणे हिंसा, प्रत्युत्पादने (वर्तमाने) अन्यपृच्छायामपलापेऽसत्यवचनम्, अननुज्ञातवेश्याया दर्शनऽदत्तादानम्, ममताकरणे परिग्रहः, एवं सर्वव्रतपीडा, द्रव्यश्रामण्ये पुनः संशय उन्निष्क्रमणेन । 0 पमजणाऽकरणे (प्र०) 10 दर्शने वि.प. । 28000888 ॥ २६२॥ 3888888806 For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavia Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१६३॥ चारकथा, पद्याचाराः। दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते, न चक्षुरादिदर्शनम्, तच्च क्षायोपशमिकादिरूपत्वाद्भाव एव, ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं तृतीयमध्ययनं शेषेष्वपि योजनीयम्, भावार्थ तु वक्ष्यति- एष भावाचारः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्यः, इति गाथाक्षरार्थः। अधुना भावार्थ उच्यते-- क्षुल्लिकातत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इत्यादौ दर्शनाचारभावार्थः, दर्शनाचारश्वाष्टधा, तथा चाह गाथा- निस्संकी त्यादि, निःशङ्कित इत्यत्र नियुक्तिः शङ्का शङ्कितं निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ निःशङ्कितः देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः, तत्र देशशङ्का समाने जीवत्वे कथमेको १८१-१८७ भव्योऽपरस्त्वऽभव्य इति शइते, सर्वशङ्का त प्राकतनिबद्धत्वात्सकलमेवेदं परिकल्पितं भविष्यतीति, न पुनरालोचयति यथा-भावा हेतुग्राह्या अहेतुग्राह्याश्च, तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः, अहेतुग्राह्या भव्यत्वादयः, अस्मदाद्यपेक्षया प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति, प्राकृतनिबन्धोऽपि बालादिसाधारण इति, उक्तञ्च- बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम्। अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः॥१॥ दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति, उदाहरणं चात्र पेयापेयको यथाऽऽवश्यके, ततश्च निःशङ्कितो जीव एवार्हच्छासनप्रतिपन्नो दर्शनाचरणात् तत्प्राधान्यविवक्षया दर्शनाचार उच्यते, अनेन दर्शनदर्शनिनोरभेदमाह, तदेकान्तभेदे । त्वदर्शनिन इव तत्फलाभावात मोक्षाभाव इति, एवं शेषपदेष्वपि भावना कार्येति तथा निष्काहितो-देशसर्वकाङ्कारहितः, तत्र देशकासा एकं दर्शनं काङ्कति दिगम्बरदर्शनादि, सर्वकाङ्क्षा तु सर्वाण्येवेति, नालोचयति षड्जीवनिकायपीडामसत्प्ररूपणां च, उदाहरणंचात्र राजामात्यो यथाऽऽवश्यक इति २। विचिकित्सा-मतिविभ्रमः निर्गता विचिकित्सा-मतिविभ्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः,साध्वेव जिनदर्शनं किन्तु प्रवृत्तस्यापि सतोममास्मात्फलं भविष्यति न भविष्यतीति?, क्रियायाः कृषीवलादिषूभयोपलब्धेरिति विकल्परहितः, न ह्यविकल्प उपाय उपयवस्तुपरिप्रापको न भवतीति सञ्जातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते एतावताऽशेन निःशङ्किताद्भिन्नः, उदाहरणं चात्र विद्यासाधको यथाऽऽवश्यक इति, यद्वा निर्विज्जुगुप्सः- साधुजुगुप्सारहितः, 1॥१६३॥ CRRRRRRRRRB For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ १६४॥ चारकथा. पञ्चाचाराः। । उदाहरणं चात्र श्रावकदुहिता यथाऽऽवश्यक एव ३ । तथाऽमूढदृष्टिश्च बालतपस्वितपोविद्याऽतिशयदर्शनैर्न मूढा-स्वरूपान्न तृतीयमध्ययन चलिता दृष्टिः- सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः, अत्रोदाहरणं-सुलसा साविया, जहा लोइयरिसी अंबडो रायगिह। क्षुल्लिकागच्छंतो बहुयाणं भवियाणं थिरीकरणणिमित्तं सामिणा भणिओ- सुलसं पुच्छिज्जासि, अंबडो चिंतेइ- पुन्नमतिया सुलसा नियुक्तिः जं अरहा पुच्छेइ, तओ अम्बड़ेण परिक्खणाणिमित्तं सा भत्तं मग्गिया, ताए ण दिन्नं, तओ तेण बहूणि रूवाणि विउव्वियाणि, १८१-१८७ तहविण दिन्नं, ण य संमूढा, तह कुतित्थियरिद्धीओ दफूण अमूढदिट्ठिणा भवियव्वं ४ । एतावान् गुणिप्रधानो दर्शनाचारनिर्देशः, अधुना गुणप्रधानः उपबृंहणस्थिरीकरणे इति, उपबृहणं च स्थिरीकरणं च उपबृंहणस्थिरीकरणे, तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सगुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम्, स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनम् । उववूहणाए उदाहरणं जहा रायगिहे नयरे सेणिओ राया, इओ य सक्को देवराया सम्मत्तं पसंसड़। इओ य एगो देवो असद्दहंतो नगरबाहिं सेणियस्स णिग्गयस्स चेल्लयरूवं काऊणं अणिमिसे गेण्हइ, ताहे तं निवारेइ, पुणरवि अण्णत्थ संजई गुठ्विणी पुरओ ठिया, ताहे अपवरगे ठविऊण जहा ण कोइ जाणइ तहा सूइगिह कारवेइ, जं किंचि सुइकम्मं तं सयमेव करेइ, तओ सो देवो संजईरूवं ®सुलसा श्राविका यथा लौकिकऋषिरम्बडो राजगृहं गच्छन् बहूनां भव्यानां स्थिरीकरणनिमित्तं स्वामिना भणित:- सुलसां पृच्छेः, अम्बडश्चिन्तयति- पुण्यवती सुलसा यामर्हन् पृच्छति, ततोऽम्बडेन परीक्षणनिमित्तं सा भक्तं मार्गिता, तया न दत्तम्, ततस्तेन बहूनि रूपाणि विकुर्वितानि, तथापि न दत्तम्, न च संमूढा, तथा कुतीर्थिकदृष्ट्वाऽमूढदृष्टिना भवितव्यम्। 0 उपबृहणायामुदाहरणं- यथा राजगृहे नगरे श्रेणिको राजा, इतश्च शक्रो देवराजः सम्यक्त्वं प्रशंसति, इतश्चैको देवोऽश्रद्दधानो B नगराहिः श्रेणिके निर्गते क्षुल्लकरूपं कृत्वाऽनिमेषान् गृह्णाति, तदा तं निवारयति, पुनरप्यन्यत्र संयती गर्भिणी पुरतः स्थिता, तदाऽपवरके स्थापयित्वा यथा न कोऽपि जानाति तथा सूतिकागृहं कारयति यत्किञ्चिदपि सूतिकाकर्म तत् स्वयमेव करोति, ततः स देवः संयतीरूपं, ॥१६४ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १६५ ।। www.kobatirth.org परिच्चइऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेड़, भणइ य- भो सेणिय! सुलद्धं ते जम्मजीवियस्स फलं जेण ते पवयणस्सुवरिं एरिसी भत्ती भवइत्ति उववूहेऊण गओ एवं उववूहियव्वा साहम्मिया । स्थिरीकरणे उदाहरणं जहा उज्रेणीए अज्जासाढो कालं करेंते संजए अप्पाहेइ मम दरिसावं दिज्जह, जहा उत्तरज्झयणेसु एतं अक्खाणयं सव्वं तहेव, तम्हा जहा सो अज्जासाढो थिरो कओ एवं जे भविया ते थिरीकरेयव्वा । तथा वात्सल्यप्रभावना इति वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यं समानधार्मिकप्रीत्युपकारकरणं प्रभावना- धर्मकथादिभिस्तीर्थख्यापनेति, तत्र वात्सल्ये उदाहरणं अजवइरा, जहा तेहिं दुब्भिक्खे संघो नित्थारिओ एयं सव्वं जहा आवस्सए तहा नेयं, पभावणाए उदाहरणं ते चेव अज्रवइरा जहा तेहिं अग्गिसिहाओ सुहुमकाइआई आणेऊण सासणस्स उब्भावणा कया एयमक्खाणयं जहा आवस्सए तहा कहेयव्वं, एवं साहुणावि सव्वपयत्तेण सासणं उब्भावेयव्वं । अष्टावित्यष्टप्रकारो दर्शनाचारः, प्रकाराश्चोक्ता एव निःशङ्कितादयः, गुणप्रधानश्चायं निर्देशो गुणगुणिनोः कथंचिद्भेदख्यापनार्थः, एकान्ताभेदे तन्निवृत्तौ गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिरिति गाथार्थः । स्वपरोपकारिणी प्रवचनप्रभावना तीर्थकरनामकर्मनिबन्धनं चेति भेदेन प्रवचनप्रभावकानाह- अतिशयी अवध्यादिज्ञानयुक्तः ऋद्धिग्रहणादामर्षीषध्यादिऋद्धिप्राप्तः ऋद्धि (मत्) प्रव्रजितो वा आचार्यवादिधर्मकथिक्षपकनैमित्तिकाः प्रकटार्थाः विद्याग्रहणाद् विद्यासिद्धः आर्य4 परित्यज्य दिव्यं देवरूपं दर्शयति, भणति च भोः श्रेणिक! सुलब्धं त्वया जन्मजीवितयोः फलं येन ते प्रवचनस्योपरि ईदृशी भक्तिरस्तीति उपबृं गतः, एवमुपबृंह्याः साधर्मिकाः ॥ स्थिरीकरणे उदाहरणं यथोज्जयिन्यामार्याषाढः कालं कुर्वतः संयतान् संदिशति मम दर्शनं दद्यात् यथोत्तराध्ययनेषु एतदाख्यानकं सर्व तथैव तस्मात् स यथा आर्याषाढः स्थिरीकृत एवं ये भव्यास्ते स्थिरीकर्त्तव्याः । © आर्यवज्रा यथा तैर्दुर्भिक्षे सङ्घो निस्तारित एतत् सर्वं यथाऽऽवश्यके तथा ज्ञेयम्, प्रभावनायां त एवोदाहरणमार्यवज्रा यथा तैरग्निशिखात् (पुष्पाणि) सूक्ष्मकायिकाण्यानीय शासनस्योद्भावना कृता एतदाख्यानकं यथाऽऽवश्यके तथा कथयितव्यम्, एवं साधुनाऽपि सर्वप्रयत्नेन शासनमुद्भावयितव्यम् । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, निर्युक्तिः | १८१-१८७ पञ्चाचाराः । ।। १६५ ।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१६६।। पञ्चाचाराः। खपुटवत् सिद्धमन्त्रः 'रायगणसंमया' राजगणसंमताश्चेति राजसंमता- मत्र्यादयः गणसंमता- महत्तरादयः चशब्दादान-8 तृतीयमध्यवनं श्राद्धकादिपरिग्रहः, एते तीर्थ-प्रवचनं प्रभावयन्ति-स्वतः प्रकाशस्वभावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति गाथार्थः। उक्तो क्षुल्लिका चारकथा, दर्शनाचारः, साम्प्रतं ज्ञानाचारमाह- काल इति, यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तः तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः। नियुक्तिः कर्तव्यो नान्यदा, तीर्थकरवचनात्, दृष्टं च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं विपर्यये च विपर्यय इति, अत्रोदाहरणं- एक्को साहू १८१-१८७ पादोसियं कालं घेत्तूण अइक्वंताएवि पढमपोरिसीए अणुवओगेण पढइ कालियं सुयं, सम्मट्ठिी देवया चिंतेइ-मा अण्णा पंतदेवया छलिज्जइत्तिकाउं तक्त्रं कुंडे घेत्तूर्ण तक्कं तकंति तस्स पुरओ अभिक्खणं अभिक्खणं आगयागयाई करेइ, तेण य: चिरस्स सज्झायस्स वाघायं करेइत्ति, भणिआ य-अयाणिए! को इमो तक्कस्स विक्कणकालो?, वेलं ता पलोएह, तीएवि भणियं- अहो को इमो कालियसुअस्स य सज्झायकालोत्ति, तओ साहुणा णायं-जहा ण एसा पागइत्थित्ति उवउत्तो, णाओ अडरत्तो, दिण्णं मिच्छादुक्कडं, देवयाए भणियं- मा एवं करेजासि, मा पंता छलेज्जा, तओ काले सज्झाइयव्वं ण उ अकालेत्ति । तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोविनयः कार्यः, विनयः- अभ्युत्थानपादधावनादिः, अविनयगृहीतं हि तदफलं भवति, इत्थ उदाहरणं सेणिओ राया भजाए भण्णइ-ममेगखंभं पासायं करेहि, एवं दुमपुस्फियज्झयणे वक्खाणियं, तम्हा विणएण। 0 एकः साधुः प्रादोषिकं कालं गृहीत्वा अतिक्रान्तायामपि प्रथमपौरुष्यामनुपयोगेन पठति कालिकश्रुतम्, सम्यग्दृष्टिदेवता चिन्तयति- माऽन्या प्रान्ता देवता छलीदितिकृत्वा तक्रं कुण्डे गृहीत्वा तक्रं तक्रमिति तस्य पुरतोऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं गतागतानि करोति, तेन च चिराय स्वाध्यायस्य व्याघातं करोतीति, भणिता च- अज्ञे! कोऽयं तक्रस्य विक्रयकालः?, बेला तावत् प्रलोकय, तयाऽपि भणित- अहो अयं कः कालिकश्रुतस्य च स्वाध्यायकाल इति?, ततः साधुना ज्ञातं- यथा नैषा । अप्राकृता स्त्रीत्युपयुक्तः, ज्ञातोऽर्धरात्रः, दत्तं मिथ्यादुष्कृतम्, देवतया भणितं- मैवं कुर्याः मा प्रान्ता छलीत्, ततःकाले स्वाध्येयं नत्वकाल इति। 0 अत्रोदाहरण श्रेणिको राजा भार्यया भण्यते- ममैकस्तम्भं प्रासादं कुरु, एवं यथा द्रुमपुष्पिकाध्ययने व्याख्यातम्, तस्माद्विनयेनाध्येयं नाविनयेन । ॥१६६ For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १६७ ।। www.kobatirth.org अहिज्झियव्वं णो अविणएण । तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोर्बहुमानः कार्यः, बहुमानो नामाऽऽन्तरो भावप्रतिबन्धः, एतस्मिन् सत्यक्षेपेणाधिकफलं श्रुतं भवति, विणयबहुमाणेसु चउभंगा- एगस्स विणओ ण बहुमाणो अवरस्स बहुमाणो ण विणओ अण्णस्स विणओऽवि बहुमाणोऽवि अन्नस्स ण विणओ ण बहुमाणो । एत्थ दोण्हवि विसेसोवदंसणत्थं इमं उदाहरणंएगंमि गिरिकंदरे सिवो, तं च बंभणो पुलिंदो य अच्चंति, बंभणो उवलेवणसम्मज्ज्रणावरिसे य पयओ सूईभूओ अच्चित्ता थुणइ विणयजुत्तो, ण पुण बहुमाणेण, पुलिंदो पुण तंमि सिवे भावपडिबद्धो गल्लोदएण पहावेड़, ण्हविऊण उवविट्ठो, सिवो य तेण समं आलावसंलावकहाहिं अच्छा, अण्णया य तेसिं बंभणेणं उल्लावसद्दो सुओ, तेण पडियरिऊण उवलद्धो- तुमं एरिसो चेव कडपूयणसिवो जो एरिसेण उच्छिट्ठएण समं मंतेसि, तओ सिवो भणइ- एसो मे बहुमाणेड़, तुमं पुणो ण तहा, अण्णया य अच्छीणि उक्खणिऊण अच्छइ सिवो, बंभणो अ आगंतुं रडिउमुवसंतो, पुलिंदो य आगओ सिवस्स अच्छिं ण पेच्छइ, तओ अप्पणयं अच्छिं कंडफलेण ओक्खणित्ता सिवस्स लाएइ, तओ सिवेण बंभणो पत्तियाविओ, एवं णाणमंतेसु विणओ बहुमाणो य दोऽवि कायव्वाणि । तथा श्रुतग्रहणमभीप्सतोपधानं कार्यम्, उपदधातीत्युपधानं तपः, तद्धि यद्यत्राध्ययने ® विनयबहुमानयोश्चतुर्भङ्गी एकस्य विनयो न बहुमानोऽपरस्य बहुमानो न विनयोऽन्यस्य विनयोऽपि बहुमानोऽपि अन्यस्य न विनयो न बहुमानः । अत्र द्वयोरपि विशेषोपदर्शनार्थमिदमुदाहरणं- एकस्यां गिरिकन्दरायां शिवः, तं च ब्राह्मणः पुलिन्दश्चार्चयतः, ब्राह्मण उपलेपनसंमार्जनवर्षणेषु प्रयतः शुचीभूतोऽर्चयित्वा स्तौति विनययुक्तो न पुनर्बहुमानेन, पुलिन्दः पुनस्तस्मिन् शिवे भावप्रतिबद्धो गल्लोदकेन स्नपयति, स्नपयित्वोपविष्टः, शिवश्च तेन सममालापसंलापकथाभिस्तिष्ठति, अन्यदा च तयोर्ब्राह्मणेनोल्लापशब्दः श्रुतः, तेन प्रतिचर्योपालब्धः त्वमीदृश एव कटपूतनाशिवो य इदृशेनोच्छिष्टेन समं मन्त्रयसे, ततः शिवो भणति एष मां बहुमानयति त्वं पुनर्न तथा अन्यदा चाक्षि उत्खाय तिष्ठति शिवः, ब्राह्मणश्चागत्य रुदित्वोपशान्तः, पुलिन्दश्चागतः शिवस्याक्षि नेक्षते, तत आत्मीयमक्षि काण्डफलेनोत्खाय शिवाय ददाति, ततः शिवेन ब्राह्मणः प्रत्यायितः, एवं ज्ञानवत्सु विनयो बहुमानश्च द्वावपि कर्तव्यौ । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा, निर्युक्तिः १८१-१८७ पञ्चाचाराः । ।। १६७ ।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ।।१६८॥ तुतीयमध्ययन क्षुल्लिकाचारकथा, नियुक्तिः आगाढादियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्यम्, तत्पूर्वक श्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात्, अत्रोदाहरणं- एगे आयरिया, ते वायणाए। संता परितंता सज्झाएऽवि असज्झाइयं घोसेउमारद्धा, णाणंतरायं बंधिऊण कालं काऊण देवलोकं गया, तओ देवलोगाओ। आउक्खएण चुया आहीरकुले पच्चायाया भोगे भुंजंति, अन्नया य से धूया जाया, सा य अईव रूवस्सिणी, ताणि य पच्चंतयाणि गोचारणणिमित्तं अन्नत्थ वच्चंति, तीए दारियाए पिउणो सगडं सव्वसगडाणं पुरओ गच्छइ, सा य दारिया तस्स: १८१-१८७ पश्चाचारा:। सगडस्स धुरतुंडे ठिया वच्चइ, तरुणइत्तेहिं चिंतियं समाई काउं सगडाई दारियं पेच्छामो, तेहिं सगडाओ उप्पहेण खेडिया, विसमे आवडिया समाणा भग्गा, तओ लोएण तीए दारियाए णामं कयं असगडत्ति, ताए दारियाए असगडाए पिया । असगडपियत्ति, तओ तस्स तं चेव वेरग्गं जायं, तं दारियं एगस्स दाऊण पव्वइओ जाव चाउरंगिजं ताव पढिओ, असंखए । उहितं णाणावरणिज्ज़ से कम्मं उदिन्नं, पढंतस्सऽवि किंचि ण ठाइ, आयरिया भणंति, छट्टेणं ते अणुन्नवइत्ति, तओ सो भणइ-एयस्स केरिसो जोओ?, आयरिया भणंति-जाव ण ठाइ ताव आयंबिलं कायव्वं, तओ सो भणइ- तो एवं चेव। एके आचार्याः ते वाचनायां श्रान्तपरिश्रान्ताः स्वाध्यायिकेऽप्यस्वाध्यायिक घोषयितुमारब्धाः, ज्ञानान्तरायं बद्धा कालं कृत्वा देवलोकं गताः, ततो देवलोकादायुःक्षयेण च्युता आभीरकुले प्रत्यायाता भोगान् भुञ्जन्ति, अन्यदा च तस्य दुहिता जाता, सा चातीव रूपिणी, ती च प्रत्यन्तग्रामान गोचारणनिमित्तमन्यत्र व्रजतः, तस्या दारिकायाः पितुः शकटं सर्वशकटानां पुरतो गच्छति, सा च दारिका तस्य शकटस्य धुरि स्थिता गच्छति, तरुणैश्विन्तितम्, समानि शकटानि कृत्वा दारिका प्रेक्षामहे, तैः शकटान्युत्पथे खेटितानि, विषमे आपतितानि सन्ति भग्नानि, ततो लोकेन तस्या दारिकाया नाम कृतमशकटेति, तस्या दारिकाया अशकटायाः पिता अशकटपितेति, ततस्तस्य तदैव वैराग्यं जातम्, तां दारिकामेकस्मै दत्त्वा प्रव्रजितः यावच्चतुरङ्गीयं तावत् पठितः, असंस्कृते उद्दिष्टे तत् ज्ञानावरणीयं तस्य कर्मोदीर्णम्, पठतोऽपि न किश्चित्तिष्ठति, आचार्या भणन्ति- तब षष्ठेनानुज्ञायते इति। ततः स भणति- एतस्य कीटशो योगः?, आचार्या भणन्ति- यावन्नायाति तावदाचामाम्लं कर्त्तव्यम्, ततः स भणति- तदैवमेव ॥१६८।। For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १६९ ।। www.kobatirth.org पढामि, तेण तहा पढ़तेण बारस रूवाणि बारससंवच्छरेहिं अहियाणि, ताव से आयंबिलं कयं, तओ णाणावरणिज्जं कम्म खीणं, एवं जहाऽसगडपियाए आगाढजोगो अणुपालिओ तहा सम्म अणुपालियव्वं, उवहाणेत्ति गयं । तथा अनिण्हवणि ि गृहीतश्रुतेनानिह्नवः कार्यः, यद्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यः, चित्तकालुष्यापत्तेरिति, अत्र दृष्टान्तःएगॅस्स ण्हावियस्स खुरभंडं विज्जासामत्थेण आगासे अच्छइ, तं च एगो परिव्वायगो बहूहिं उवसंपजणाहिं उवसंपजिऊण, तेण सा विज्जा लद्धा, ताहे अन्नत्थ गंतुं तिदंडेण आगासगएण महाजणेण पूइजइत्ति, रन्ना य पुच्छिओ- भयवं! किमेस विज्जाइसयो उय तवाइसओ त्ति?, सो भणइ- विज्जाइसओ, कस्स सगासाओ गहिओ ?, सो भणइ - हिमवंते फलाहारस्स रिसिणो सगासे अहिजिओ, एवं तु वुत्ते समाणे संकिलेसदुट्टयाए तं तिदंडं खडत्ति पडियं, एवं जो अप्पागमं आयरियं निण्हवेऊण अन्नं कहेइ तस्स चित्तसंकिलेसदोसेणं सा विज्जा परलोए ण हवइत्ति, अनिण्हवणित्ति गयं । तथा व्यञ्जनार्थतदुभयान्याश्रित्य भेदो न कार्य इति वाक्यशेषः, एतदुक्तं भवति श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमभीप्सता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेद उभयभेदश्च न कार्य इति, तत्र व्यञ्जनभेदो यथा- 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' मिति वक्तव्ये 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोस' मिति, अर्थभेदस्तु यथा 'आवन्ती पठामि तेन तथा पठता द्वादश काव्यानि द्वादशभिः संवत्सरैरधीतानि, तावत्तेनाचाम्लानि कृतानि, ततो ज्ञानावरणं कर्म क्षीणम्, एवं यथाऽशकटपित्राऽऽगाढयोगोऽनुपालितस्तथा सम्यगनुपालयितव्यः उपधानमिति गतम् । एकस्य नापितस्य क्षुरप्रादिभाजनं विद्यासामर्थ्येनाकाशे तिष्ठति, तं चैकः परिव्राट् बहुभिरुपसंपद्धिरुपसंपद्य (स्थितः), ततस्तां विद्यां लब्धवान्, ततोऽन्यत्र गत्वा त्रिदण्डेनाकाशगतेन महाजनेन पूज्यते, राज्ञा च पृष्टः- भगवन्! किमेष विद्यातिशय उत तपोऽतिशय इति ?, स भणति विद्यातिशयः, कस्य सकाशाद् गृहीतः ?, स भगति हिमवति फलाहारादृषेः सकाशे अधीतः, एवं तूक्तमात्रे संक्लेशदुष्टतया तन्त्रिदण्डं खटदिति पतितम्, एवं योऽल्पागमामाचार्यं निहृयान्यं कथयति तस्य चित्तसंक्लिष्टतादोषेण सा विद्या परलोके न भवति । अनिह्नव इति गतम् । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, निर्युक्तिः १८१-१८७ पञ्चाचाराः। ।। १६९ ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१७०॥ चारकथा, पवाचारा:। केयावन्ती लोगंसि विप्परामुसन्ती' त्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोके- अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीत्येवं- तृतीयमध्ययन विधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केया- रज्जुर्वान्ता- पतिता लोकः परामृशति कूप इत्याह, उभयभेदस्तु द्वयोरपि याथात्म्योपमर्दैन क्षुल्लिकायथा-'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतमस्तक' इत्यादि, दोषश्चात्र व्यञ्जनभेदेऽर्थभेदस्तद्भेदे क्रियाया भेदस्तद्भेदे । नियुक्तिः मोक्षाभावस्तदभावे च निरर्थिका दीक्षेति, उदाहरणं चात्रान्धीयतां कुमार इति सर्वत्र योजनीयम्, 'क्षुण्णत्वादनुयोगद्वारेषु । [१८१-१८७ चोक्तत्वान्नेह दर्शितमिति । अष्टविधः - अष्टप्रकारः कालादिभेदद्वारेण ज्ञानाचारो- ज्ञानासेवनाप्रकार इति गाथार्थः ।। उक्तो । ज्ञानाचारः, साम्प्रतं चारित्राचारमाह- प्रणिधानं- चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा- व्यापारास्तैर्युक्त:- समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः, अयं चौघतोऽविरतसम्यग्दृष्टिरपि भवत्यत आह- पञ्चभिः समितिभिस्तिसृभिश्च गुप्तिभिर्यः प्रणिधानयोगयुक्तः, एतद्योगयुक्त एतद्योगवानेव, अथवा पञ्चसु समितिसु तिसृषु गुप्तिष्वस्मिन् विषये- एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो य एष। चारित्राचारः, आचाराचारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादष्टविधो भवति ज्ञातव्यः, समितिगुप्तियोगभेदात्, समितिगुप्तिरूपं च । शुभं प्रवीचाराप्रवीचाररूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः । उक्तश्चारित्राचारः, साम्प्रतं तपआचारमाह- द्वादशविधेऽपि तपसिप्रथमाध्ययनोक्तस्वरूपे साभ्यन्तरबाह्येऽनशनादिप्रायश्चित्तादिलक्षणे कुशलदृष्टे - तीर्थकरोपलब्धे अग्लान्या न राजवेष्टिकल्पेन यथाशक्त्या वा अनाजीविको- नि:स्पृहःफलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्योऽसौ तपआचारः, आचारतद्वतोरभेदादिति गाथार्थः ।। उक्तस्तपआचारः, अधुना वीर्याचारमाह-अनिगूहितबलवीर्यः- अनिलतबाह्याभ्यन्तरसामर्थ्यः सन् पराक्रमते- चेष्टते यो यथोक्तं षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमाश्रित्येति वाक्यशेषः, षट्त्रिंशद्विधत्वं चाचारस्य ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणामष्टविधत्वात्तपआचारस्य च द्वादशविधत्वाच्चेति, उपयुक्त इत्यनन्यचित्तः, पराक्रमते ग्रहणकाले, तत ऊर्ध्वं युनक्ति च योजयति च-प्रवर्तयति च यथोक्तं । ||१७०॥ For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १७१।। चारकथा, १८८-१९१ अर्थकथा कथानकाचा षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमिति सामर्थ्यागम्यते, यथास्थामं- यथासामर्थ्य यो ज्ञातव्योऽसौ वीर्याचार: आचाराचारवतो:कथञ्चिद- तृतीयमध्ययनं व्यतिरेकादिति गाथार्थः ।। अभिहितो वीर्याचारः, तदभिधानाचाचार इति, साम्प्रतं कथामाह क्षुल्लिकानि०-अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एनो एक्कक्कावि योगविहा होइ नायव्वा ।। १८८।। नियुक्तिः नि०- विजासिप्पमुवाओ अणिवेओ संचओ य दक्खत्तं । सामं दंडो भेओ उवप्पयाणं च अत्थकहा ।। १८९।। कथानिक्षेपे नि०- सत्थाहसुओ दक्खत्तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेणं । बुद्धीऍ अमञ्चसुओ जीवइ पुन्नेहिं रायसुओ।।१९०।। नि०- दक्खत्तणयं पुरिसस्स पंचगं सड़गमाहु सुंदेरं । बुद्धी पुण साहस्सा सयसाहस्साई पुन्नाई।।१९१ ।। अर्थकथे ति विद्यादिरर्थस्तत्प्रधाना कथाऽर्थकथा, एवं कामकथा धर्मकथा चैव मिश्रा च कथा, अत आसां कथानां चैकैकापि *च कथा अनेकविधा भवति ज्ञातव्येत्युपन्यस्तगाथार्थः। अधुनाऽर्थकथामाह-विद्याशिल्पं उपायोऽनिर्वेदः सञ्चयश्च दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपप्रदानं चार्थकथा, अर्थप्रधानत्वादित्यक्षरार्थः, भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदं- विजं पडुच्चऽत्थकहा जो है विजाए अत्थं उवज्जिणति, जा एगेण विज्जा साहिया सा तस्स पंचयं पइप्पभायं देइ, जहा वा सच्चइस्स विजाहरचक्कवट्टिस्स विजापभावेण भोगा उवणया, सच्चइस्स उप्पत्ती जहा य सडकुलेऽवस्थितो जहा य महेसरो नामं कयं एवं निरवसेसंजहावस्सए । जोगसंगहेसुतहा भाणियव्वं विज्जत्ति गयं । इयाणिं सिप्पेत्ति, सिप्पेणत्थो उवज्जिणइ त्ति, एत्थ उदाहरणं कोक्कासो जहावस्सए, 0 विद्या प्रतीत्यार्थकथा यो विद्ययाऽर्थमुपार्जयति, यावदेकेन विद्या साधिता सा तस्मै पञ्चकं प्रतिप्रभातं ददाति, यथा वा सत्यकिनो विद्याधरचक्रवर्त्तिनो विद्या- ॥१७१।। प्रभावेण भोगा उपनताः, सत्यकिन उत्पत्तिर्यथा च श्राद्धकुलेऽवस्थितो यथा च महेश्वरो नाम कृतम्, एतन्निरवशेष यथाऽऽवश्यके योगसंग्रहेषु तथा भणितव्यम् विद्येति गतम् । इदानीं शिल्पमिति, शिल्पेनार्थ उपाय॑ते इति, अत्रोदाहरणं कोकाशो यथाऽऽवश्यके । For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १७२ ।। www.kobatirth.org सिप्पेत्ति गयं, इयाणि उवाएत्ति, एत्थ दिट्टंतो चाणक्को, जहा चाणक्केण नाणाविहेहिं उवायेहिं अत्थो उवजिओ, कहं? -दो मज्झ धाउरत्ताओ०, एयंपि अक्खाणयं जहावस्सए तहा भाणियव्वं । उवाए त्ति गयं, इयाणिं अणिव्वेए संचए य एक्कमेव उदाहरणं मम्मणवाणिओ, सोवि जहावस्सए तहा भाणियव्वो । साम्प्रतं दक्षत्वं तत्सप्रसङ्गमाह- दक्षत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चगमिति- पञ्चरूपकफलम्, शतिकं- शतफलमाहुः सौन्दर्यं श्रेष्ठीपुत्रस्य, बुद्धिः पुनः सहस्रवती- सहस्रफला मन्त्रिपुत्रस्य, शतसहस्राणि पुण्यानि - शतसहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदं- जहा बंभदत्तो कुमारो कुमारामच्चपुत्तो सेट्ठिपुत्तो सत्थवाहपुत्तो, एए चउरोऽवि परोप्परं उल्लावेइ- जहा को भे केण जीवड़ ?, तत्थ रायपुण भणियं- अहं पुन्नेहिं जीवामि, कुमारामच्चपुत्तेण भणियं अहं बुद्धीए, सेट्ठिपुत्तेण भणियं - अहं रूवस्सित्तणेण, सत्थवाहपुत्तो भणड़- अहं दक्खत्तणेण, ते भांति अन्नत्थ गंतुं विन्नाणेमो, ते गया अन्नं णयरं जत्थ ण णज्जंति, उज्जाणे आवासिया, दक्खस्स आदेसो दिन्नो, सिग्घं भत्तपरिव्वयं आणेहि, सो वीहिं गंतुं एगस्स थेरवाणिययस्स आवणे ठिओ, तस्स बहुगा कइया एंति, तद्दिवसं कोवि ऊसवो, सो ण पहुप्पति पुडए बंधेउं, तओ सत्थवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उवउज्जइ < शिल्पमिति गतम्, इदानीमुपाय इति, अत्र दृष्टान्तश्चाणक्यः, यथा चाणक्येन बहुविधैरुपायैरर्थ उपार्जितः, कथं?, द्वे मम धातुरक्ते, एतदप्याख्यानकं यथावश्यके तथा भणितव्यम् । उपाय इति गतम्, इदानीमनिर्वेदे संचये च एकमेवोदाहरणं मम्मणवणिग्, सोऽपि यथावश्यके तथा भणितव्यः । यथा ब्रह्मदत्तः कुमारः कुमारामात्यपुत्रः श्रेष्ठिपुत्रः सार्थवाहपुत्रः, एते चत्वारोऽपि परस्परमुल्लपन्ति यथाऽस्माकं कः केन जीवति?, तत्र राजपुत्रेणोक्तं- अहं पुण्यैर्जीवामि, कुमारामात्यपुत्रेण भणितं - अहं बुद्ध्या, श्रेष्ठिपुत्रेण भणित- अहं रूपितया, सार्थवाहपुत्रो भणति अहं दक्षत्वेन, ते भणन्ति अन्यत्र गत्वा परीक्षामहे, ते गता अन्यन्नगरं यत्र न ज्ञायन्ते, उद्याने आवासिताः, दक्षायादेशो दत्तः शीघ्रं भक्तपरिव्ययमानय, स वीर्थी गत्वा एकस्य स्थविरवणिज आपणे स्थितः, तस्य बहवः क्रयिका आयान्ति, तद्दिवसे कोऽप्युत्सवः, स नः प्रभवति पुटिका बद्धुम, ततः सार्थवाहपुत्रो दक्षत्वेन यद्यस्योपयुज्यते For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा, निर्युक्तिः १८८-१९१ कथानिक्षेपे अर्थकथा कथानकाश्च । ।। १७२ ।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१७३॥ चारकथा, कथानकाच। लवणतेल्लघयगुडसुंठिमिरियएवमाइ तस्स तं देइ, अइविसिट्ठो लाहो लद्धो, तुट्ठो भणइ-तुम्हेत्थ आगंतुया उदाहु वत्थव्वया?, तृतीयमध्ययन सो भणइ- आगंतुया, तो अम्ह गिहे असणपरिग्गहं करेजह, सो भणइ- अन्ने मम सहाया उज्जाणे अच्छंति तेहिं विणा नाह क्षुल्लिकाभुंजामि, तेण भणियं-सव्वेऽवि एंतु, आगया, तेण तेसिं भत्तसमालहणतंबोलाइ उवउत्तं तं पञ्चण्हं रूवयाणं । बिइयदिवसे । नियुक्तिः रूवस्सी वणियपुत्तो वुत्तो- अज्ज तुमे दायव्वो भत्तपरिव्वओ, एवं भवउत्ति, सो उठेऊण गणियापाडगं गओ अप्पयं मंडेउं, १८८-१९१ तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहूहिं रायपुत्तसेट्टिपुत्तादीहिं मग्गिया णेच्छइ, तस्स य तं रूवसमुदयं दलूण। कथानिक्षेपे अर्थकथा खुब्भिया पडिदासियाए गंतूण तीए माऊए कहियं जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिट्टि देइ, तओ सा भणइ- भण एवं मम । गिहमणुवरोहेण एजह इहेव भत्तवेलं करेजह तहेवागया सइओ दव्ववओ कओ। तइयदिवसे बुद्धिमन्तो अमच्चपुत्तो संदिट्ठो अज तुमे भत्तपरिव्वओ दायव्वो, एवं हवउ ति, सो गओ करणसालं. तत्थ य तईओ दिवसो ववहारस्स छिजंतस्स परिच्छेजं न गच्छइ, दो सवत्तीओ, तासि भत्ता उवरओ, एक्काए पुत्तो अत्थि इयरी अपुत्ता य, सा तं दारयं णेहेण उवचरइ, भणइ य लवणतैलघृतगुडशुण्ठीमरीच्यादि तस्मै तद्ददाति, अतिविशिष्टो लाभो लब्धः, तुष्टो भणति- यूयमत्र आगन्तुका उताहो वास्तव्याः?, स भणति- आगन्तुकाः, तदाऽस्माकं गृहेऽशनपरिग्रहं कुर्यात्, स भणति- अन्ये मम साहाय्यका उद्याने तिष्ठन्ति तैर्विना नाहं भुजे, तेन भणितं- सर्वेऽप्यायान्तु, आगताः, तेन तेषां भक्तसमालभनताम्बूलाधुपयुक्तं यत्तद्रूपकाणां पञ्चानाम् । द्वितीयदिवसे रूपी वणिक्पुत्र उक्त:- अद्य त्वया भक्तपरिव्ययो दातव्यः, एवं भवत्विति, स उत्थाय गणिकापाटक गत आत्मानं मण्डयित्वा, तत्र च देवदत्तानाम्नी गणिका पुरुषद्वेषिणी बहुभिः राजपुत्रश्रेष्टिपुत्रादिभिर्मागिता नेच्छति, तस्य च तत् रूपसमुदयं दृष्ट्वा क्षुब्धा प्रतिदास्या गत्वा तस्या मातुः कथितं यथादारिका सुन्दरयूनि दृष्टिं ददाति, ततः सा भणति- भणैतान् मम गृहमनुपरोधेनायात इहैव भक्तवेलां कुर्यात्। तथैवागताः शतिको द्रव्यव्ययः कृतः । तृतीयदिवसे बुद्धिमान् अमात्यपुत्रः संदिष्टः- अद्य त्वया भक्तपरिव्ययो दातव्यः, एवं भवत्विति, स गतः करणशालाम्, तत्र च तृतीयो दिवसो व्यवहार छिन्दतः, परिच्छेदं न गच्छति, द्वे सपत्न्यौ, तयोर्भर्त्तापरतः, एकस्याः पुत्रोऽस्ति इतराऽपुत्रा च, सा तं दारकं स्नेहेनोपचरति भणति च-2 For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१७४।। कथानकाचा मम पुत्तो, पुत्तमाया भणइ य-मम पुत्तो, तासिंण परिछिज्जइ, तेण भणियं-अहं छिंदामि ववहारं, दारओ दुहा कजउ दबंपि। तृतीयमध्ययन दुहा एव, पुत्तमाया भणइ-ण मे दव्वेण कजं दारगोऽवि तीए भवउ जीवन्तं पासिहामि पुत्तं, इयरी तुसिणिया अच्छइ, ताहे। क्षुल्लिका चारकथा, पुत्तमायाए दिण्णो, तहेव सहस्सं उवओगो । चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भणिओ- अज्ज रायपुत्त! तुम्हेहिं पुण्णाहिएहिं जोगवहणं नियुक्तिः वहियव्वं, एवं भवउ ति, तओ रायपुत्तो तेसिं अंतियाओ णिग्गंतुं उजाणे ठियो, तंमि य णयरेअपुत्तो राया मओ, आसो । १८८-१९१ कथानिक्षेपे अहिवासिओ, जीए रुक्खछायाए रायपुत्तो णिवण्णो सा ण ओयत्तति, तओ आसेण तस्सोवरि ठाइऊण हिंसितं, राया य । अर्थकथा अभिसित्तो, अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि, एवं अत्थुप्पत्ती भवइ । दक्खत्तणं ति दारं गयं, इयाणिं सामभेयदण्डुवप्पयाणेहिं चउहिं जहा अत्थो विढप्पति, एत्थिमं उदाहरणं-सियालेण भमंतेण हत्थी मओ दिट्ठो, सो चिंतेइ- लद्धो मए उवाएण ताव णिच्छएण खाइयव्वो, जाव सिंहो आगओ, तेण चिन्तियं-सचिट्ठण ठाइयव्वं एयस्स, सिंहेण भणियंकिं अरे! भाइणेज अच्छिज्जइ?, सियालेण भणियंआमंति माम!, सिंहो भणइ- किमेयं मयं ति?, सियालो भणइ- हत्थी, मम पुत्रः, पुत्रमाता भणति च- मम पुत्रः, तयोर्न परिच्छिद्यते, तेन भणितं- अहं छिनधि व्यवहारम्, दारक द्विधा करोतु द्रव्यमपि द्विधैव, पुत्रमाता भणति- न मे द्रव्येण कार्य दारकोऽपि तस्या भवतु जीवन्तं द्रक्ष्यामि पुत्रम्, इतरा तूष्णीका तिष्ठति, तदा पुत्रमात्रे दत्तः, तथैव सहस्रस्योपयोगः । चतुर्थे दिवसे राजपुत्रो भणित:- अद्य राजपुत्र! भवता पुण्याधिकेन योगवहनं वोढव्यम्, एवं भवत्विति, ततो राजपुत्रस्तेषां पार्वात निर्गत्योद्याने स्थितः, तस्मिंश्च नगरेऽपुत्रो राजा मृतः, अश्वोऽधिवासितः, यस्यां वृक्षच्छायायां राजपुत्रो निषण्णो न सा परावर्त्तते, ततोऽश्वेन तस्योपरि स्थित्वा हेषितम्, राजा चाभिषिक्तः, अनेकानि शतसहस्राणि जातानि, एवमर्थोत्पत्तिर्भवति। दक्षत्वमिति द्वारं गतम्, इदानीं सामभेददण्डोपप्रदानैश्चतुर्भिर्यथाऽर्थ उपाय॑ते, अत्रेदमुदाहरण- शृगालेन भ्राम्यता हस्ती मृतो दृष्टा, स चिन्तयति- लब्धो मयोपायेन तावनिश्चयेन खादितव्यः, यावत्सिंह आगतः, तेन चिन्तितं- एतस्य सचेष्टेन स्थातव्यम्, सिंहेन भणितं- किमरे भागिनेय! स्थीयते?, शृगालेन भणित- ओमिति मातुल!, सिंहो भणति- किमेतत् मृतमिति, शृगालो भणति- हस्ती, For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १७५ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केण मारिओ ? वग्घेण, सिंहो चिंतेड़ कहमहं ऊणजातिएण मारियं भक्खामि ?, गओ सिंहो, णवरं वग्घो आगओ, तस्स कहियं सीहेण मारिओ, सो पाणियं पाउं णिग्गओ, वग्घो णट्टो, एस भेओ, जाव काओ आगओ, तेण चिन्तियंजइ एयस्स ण देमि तओ काउ काउत्तिवासियसद्देणं अण्णे कागा एहिंति, तेसिं कागरडणसद्देणं सियालादि अण्णे बहवे एहिंति, कित्तिया वारेहामि, ता एयस्स उवप्पयाणं देमि, तेण तओ तस्स खंड छित्ता दिण्णं, सो तं घेत्तूण गओ, जाव सियालो आगओ, तेण णायमेयस्स हठेण वारणं करेमित्ति भिउडिं काऊण वेगो दिण्णो, णट्टो सियालो, उक्तं च- उत्तमं प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत्। नीचमल्पप्रदानेन सदृशं च पराक्रमैः ॥ १ ॥ इत्युक्तः कथागाथाया भावार्थ:, उक्ताऽर्थकथा, साम्प्रतं कामकथामाह नि०- रूवं वओ य वेसो दक्खत्तं सिक्खियं च विसएसुं। दिट्ठे सुयमणुभूयं च संथवो चैव कामकहा ।। १९२ ।। रूपं सुन्दरं वयश्चोदग्रं वेषः उज्वलः दाक्षिण्यं मार्दवम्, शिक्षितं च विषयेषु शिक्षा च कलासु, दृष्टमद्भुतदर्शनमाश्रित्य श्रुतं चानुभूतं च संस्तवश्च परिचयश्चेति कामकथा । रूपे च वसुदेवादय उदाहरणम्, वयसि सर्व एव प्रायः कमनीयो भवति लावण्यात्, उक्तं च- यौवनमुदग्रकाले विदधाति विरूपकेऽपि लावण्यम्। दर्शयति पाकसमये निम्बफलस्यापि माधुर्यम् ॥ १ ॥ इति, वेष उज्वलः कामाङ्गम्, ‘यं कञ्चन उज्वलवेषं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते' इति वचनात्, एवं दाक्षिण्यमपि पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् 4- केन मारितः ?, व्याघ्रेण, सिंहश्चिन्तयति कथमहमूनजातीयेन मारितं भक्षयामि ?, गतः सिंहः, नवरं व्याघ्र आगतः, तस्मै कथितं सिंहेन मारितः, स पानीयं पातुं निर्गतः, व्याघ्रो नष्टः, एष भेदः, यावत् काक आगतः, तेन चिन्तितं यचेतस्मै न ददामि ततः काक काकेति वासितशब्देनान्ये काका एष्यन्ति तेषां काकरटनशब्देन शृगालादयोऽन्ये बहव एष्यन्ति, कियतो वारयिष्यामि ?, तस्मादेतस्मै उपप्रदानं ददामि तेन ततस्तस्मै खण्डं छित्त्वा दत्तम्, स तत् गृहीत्वा गतः, यावच्छृगाल आगतः, तेन जातं एतस्य हठेन वारणां करोमि, भुकुटिं कृत्वा वेगो दत्तः, नष्टः शृगालः । For Private and Personal Use Only तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा, नियुक्तिः १९२ कथानिक्षेपे कामकथा । ।। १७५ ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १७६ ।। www.kobatirth.org इति वचनात्, शिक्षा च कलासु कामाङ्गं वैदग्ध्यात्, उक्तं च-कलानां ग्रहणादेव, सौभाग्यमुपजायते। देशकालौ त्वपेक्ष्यासां, प्रयोगः संभवेन्न वा ॥ १ ॥ अन्ये त्वत्राचलमूलदेवौ देवदत्तां प्रतीत्येक्षुयाचनायां प्रभूतासंस्कृतस्तोकसंस्कृतप्रदानद्वारेणोदाहरणमभिदधति, दृष्टमधिकृत्य कामकथा यथा नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदेवे कृता, श्रुतं त्वधिकृत्य यथा पद्मनाभेन राज्ञा नारदाद्रौपदीरूपमाकर्ण्य पूर्वसंस्तुतदेवेभ्यः कथिता, अनुभूतं चाधिकृत्य कामकथा यथा- तरङ्गवत्या निजानुभवकथने, संस्तवश्च- कामकथापरिचय: 'कारणानी' ति कामसूत्रपाठात्, अन्ये त्वभिदधति सइदंसणाउ पेम्मं पेमाउ रई रईय विस्संभो । विस्संभाओ पणओ पञ्चविहं वड्डए पेम्मं ॥ १ ॥ इति गाथार्थः । उक्ता कामकथा, धर्मकथामाह नि०- धम्मका बोद्धव्वा चउव्विहा धीरपुरिसपन्नत्ता। अक्खेवणि विक्खेवणि संवेगे चेव निव्वेए ।। १९३ ।। नि०- आयारे ववहारे पन्नती चेव दिट्ठीवाए य। एसा चडव्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होड़ ।। १९४ ।। नि०- विज्जा चरणं च तवो पुरिसक्कारो य समिइगुत्तीओ। उवइस्सड़ खलु जहियं कहाड़ अक्खेवणीइ रसो ।। १९५ ।। नि०- कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवच्चासा मिच्छासम्मावाए एमेव हवंति दो भेया ।। १९६ ।। नि०- जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता। परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ।। १९७ ।। नि०- जा ससमएण पुव्विं अक्खाया तं छुभेज परसमए। परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेइ ।। १९८ ।। नि०- आयपरसरीरगया इहलोए चेव तहय परलोए। एसा चउव्विहा खलु कहा उ संवेयणी होइ ।। ९९९ ।। नि०- वीरियविव्वणिड्डी नाणचरणदंसणाण तह इड्डी । उवइस्सड़ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो । २०० ।। नि०- पावाणं कम्माणं असुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्थ य लोए कहा उ णिव्वेयणी नाम ।। २०१ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा, निर्युक्तिः १९३-२०५ कथानिक्षेपे आक्षेपण्यादि चतुर्विधधर्म कथा। ।। १७६ ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१७॥ कथा। नि०-थोवंपिपमायकयं कम्मं साहिबई जहिं नियमा। पउरासुहपरिणामं कहाइ निव्वेयणीइ रसो।। २०२। तुतीयमध्ययन नि०-सिद्धी य देवलोगो सुकुलुप्पत्तीय होइ संवेगो। नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च निव्वेओ॥२०३ ।। क्षुल्लिका चारकथा, नि०- वेणइयस्स (य) पढमया कहा उ अक्खेवणी कहेयव्वा । तो ससमयगहियत्थो कहिन विक्खेवणी पच्छा ।। २०४॥ नियुक्तिः नि०- अखेवणीअक्खित्ता जे जीवा ते लभन्ति संमत्तं । विक्खेवणीएँ भजंगाढतरागंच मिच्छत्तं ।। २०५॥ १९३-२०५ कथानिक्षेपे धर्मविषया कथा धर्मकथा असौ बोद्धव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता- तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः, चातुर्विध्यमेवाह-आक्षेपणी आक्षेपण्यादि विक्षेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति, सूचनात्सूत्र'मिति न्यायात् संवेजनी निवेदनी चैवेत्युपन्यासगाथाक्षरार्थः ।। १९३ ।। भावार्थ ।। चतुर्विधधर्म त्वाह-आचारो-लोचास्नानादिः व्यवहार:- कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव-संशयापन्नस्य मधुरवचनैः ।। प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च- श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनम्, अन्ये त्वभिदधति- आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, एषा-अनन्तरोदिता चतुर्विधा खलुशब्दो विशेषणार्थः श्रोत्रपेक्षयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति कथा त्वाक्षेपणी भवति, तुरेवकारार्थः, कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन, आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन: इत्याक्षेपणी भवतीति गाथार्थः ॥१९४ ॥ इदानीमस्या रसमाह-विद्या- ज्ञानं अत्यन्तापकारिभावतमोभेदकं चरणं-चारित्रं समग्रविरतिरूपं तपः- अनशनादि पुरुषकारश्च-कर्मशत्रून् प्रति स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः समितिगुप्तयः- पूर्वोक्ता एव, एतदुपदिश्यते । खल-श्रोतभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते, एवं यत्र कचिदसावपदेश: कथाया आक्षेपण्या रसो- निष्यन्दः सार इति गाथार्थः ।। १९५ ।। गताऽऽक्षेपणी, विक्षेपणीमाह- कथयित्वा स्वसमय-स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयं- परसिद्धान्तमित्येको भेदः, अथवा विपर्यासाद्-व्यत्ययेन कथयति-परसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः, मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव भवतो द्वौ भेदाविति, For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् चारकथा, ॥१७८॥ मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं कथयति सम्यग्वादं च कथयित्वा मिथ्यावादमिति, एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे।। तृतीयमध्ययन कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणीति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदं- "विक्खेवणी सा चउब्विहा । क्षुल्लिकापन्नत्ता, तंजहा- ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेड १ परसमयं कहेत्ता ससमयं कहेइ २ मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ ३ नियुक्तिः सम्मावादं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ ४ तत्थ पुव्विं ससमयं कहेता परसमयं कहेइ-ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उवदंसेइ, १९३-२०५ एसा पढमा विक्खेवणी गया । इयाणि बिइया भन्नइ-पुव्विं परसमयं कहेत्ता तस्सेव दोसे उवदंसेइ, पुणो ससमयं कहेइ, गुणे कथानिक्षेपे य से उवदंसेड़, एसा बिइया विक्खेवणी गया । इयाणिं तइया- परसमयं कहेत्ता तेसुचेव परसमएसुजे भावा जिणप्पणीएहिं। आक्षेपण्यादि चतुर्विधधर्म भावेहि सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुव्विं कहित्ता दोसा तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुण- कथा। क्खरमिव कहवि सोभणा भणिया ते कहयइ, अहवा मिच्छावादो णत्थित्तं भन्नइ सम्मावादो अत्थित्तं भण्णति, तत्थ पुव्विं णाहियवाईणं दिट्ठीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपक्खवाईणं दिट्ठीओ कहेइ, एसा तइया विक्खेवणी गया । इयाणि चउत्थी विक्खेवणी, सा वि एवं चेव, णवरं पुव्विं सोभणे कहेइ पच्छा इयरेत्ति, एवं विक्खिवति सोयारं ति गाथाभावार्थः॥ 0 विक्षेपणी सा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- स्वसमय कथयित्वा परसमयं कथयति, परसमय कथयित्वा स्वसमयं कथयति, मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वाद कथयति, सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावादं कथयति, तत्र पूर्व स्वसमयं कथयित्वा परसमयं कथयति-स्वसमयगुणान् दीपयति परसमयदोषान् उपदर्शयति, एषा प्रथमा विक्षेपणी गता । इदानीं द्वितीया भण्यते- पूर्व परसमयं कथयित्वा तस्यैव दोषान् उपदर्शयति पुनः स्वसमयं कथयति गुणांश्च तस्योपदर्शयति, एषा द्वितीया विक्षेपणी गत। इदानीं तृतीया- परसमयं कथयित्वा तेष्वेव परसमयेषु ये भावा जिनप्रणीतर्भावविरुद्धा असन्त एव विकल्पितास्तान् पूर्व कथयित्वा दोषांस्तेषामुक्त्वा पुनर्ये ॥१७८॥ जिनप्रणीतभावसदृशा घुणाक्षरमिव कथमपि शोभना भणितास्तान् कथयति, अथवा मिथ्यावादो नास्तिक्यं भण्यते सम्यग्वाद आस्तिक्यं भण्यते, तत्र पूर्व नास्तिकवादिनां दृष्टीः कथयित्वा पश्चादास्तिकपक्षवादिनां दृष्टीः कथयति, एषा तृतीया विक्षेपणी गता, इदानीं चतुर्थी विक्षेपणी- साऽप्येवमेव, नवरं पूर्व शोभनान् कथयति पश्वादितरान् । इत्येवं विक्षिपति श्रोतारमिति । For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१० ॥ चारकथा, कथा। १९६ ।। साम्प्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह- या स्वसमयवर्जा खलुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादत्यन्तं प्रसिद्धनीत्या। तृतीयमध्ययन स्वसिद्धान्तशून्या, अन्यथा विधिप्रतिषेधद्वारेण विश्वव्यापकत्वात् स्वसमयस्य तद्बर्जा कथैव नास्ति, भवति कथा लोकवेदसंयुक्ता, क्षुल्लिकालोकग्रहणाद्रामायणादिपरिग्रहः, वेदास्तु ऋग्वेदादय एव, एतदुक्ता कथेत्यर्थः, परसमयानांच सायशाक्यादिसिद्धान्तानां : नियुक्तिः च कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनद्वारेण वा एषा विक्षेपणी नाम, विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे १९३-२०५ श्रोतेति विक्षेपणी, तथाहि- सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति भवति सन्मार्गाभिमुखस्य ऋजुमतेः कथानिक्षेपे कुमार्गप्रवृत्तिः, दोषदर्शनद्वारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरिण एत इति मिथ्यालोचनेनेति गाथार्थः ।।१९७ ॥ अस्या अकथने । आक्षेपण्यादि चतुर्विधधर्म प्राप्ते विधिमाह- या स्वसमयेन- स्वसिद्धान्तेन करणभूतेन पूर्वमाख्याता- आदौ कथिता तां क्षिपेत् परसमये क्वचिद्दोषदर्शनद्वारेण । यथाऽस्माकमहिंसादिलक्षणो धर्मः साङ्गयादीनामप्येवम्, 'हिंसा नाम भवेद्धर्मोन भूतो न भविष्यति' इत्यादिवचनप्रामाण्यात्, किंत्वसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते, एकान्तनित्यानित्ययोहिँसाया अभावादिति, अथवा परशासनव्याक्षेपात्-‘सुपां सुपो । भवन्ति' इति सप्तम्यर्थे पञ्चमी, परशासनेन कथ्यमानेन व्याक्षेपे-सन्मार्गाभिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति, दोषदर्शनद्वारेण केवलमपीति गाथार्थः ॥१९८॥उक्ता विक्षेपणी, अधुना संवेजनीमाह- आत्मपरशरीरविषया इहलोके चैव तथा परलोकेइहलोकविषया परलोकविषयाच एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी भवति, संवेज्यते संवेगंग्राहातेऽनया श्रोतेति संवेजनी, एषोऽधिकृतगाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदं-संवेयणी कहा चउव्विहा, तंजहाआयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी, तत्थ आयसरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं । संवेजनी कथा चतुर्विधा, तद्यथा-आत्मशरीरसंवेजनी परशरीरसंवेजनी इहलोकसंवेजनी परलोकसंवेजनी, तत्रात्मशरीरसंवेजनी यथा यदेतदस्मदीयं शरीरक For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shus Kalassagarsur Gyarmandir www.kobairthorg श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१८ ॥ चारकथा, कथा। एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमजट्ठिण्हारुचम्मकेसरोमणहदंतअंतादिसंघायणिप्फण्णत्तणेण मुत्तपुरीसभायणत्तणेण य असुइत्ति है। तृतीयमध्ययन कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएइ, एसा आयसरीरसंवेयणी, एवं परसरीरसंवेयणीवि परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा। क्षुल्लिकापरस्स सरीरंवण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, परसरीरसंवेयणी गया, इयाणि इहलोयसंवेयणी- जहा सव्वमेयं माणुसत्तणं । नियुक्तिः असारमधुवं कदलीर्थभसमाणं एरिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा इहलोयसंवेयणी गया, इयाणि । १९३-२०५ परलोयसंवेयणी जहा देवावि इस्साविसायमयकोहलोहाइएहिं दुक्खेहिं अभिभूया किमंग पुण तिरियनारया?, एयारिसं कहं । कथानिक्षेपे आक्षेपण्यादि कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा परलोयसंवेयणी गयत्ति गाथाभावार्थः। साम्प्रतं शुभकर्मोदयाशुभकर्मक्षय- चतुर्विधधर्म फलकथनतः संवेजनीरसमाह- वीर्यवैक्रियर्द्धिः तपःसामोद्भवा आकाशगमनजनाचारणादिवीर्यवैक्रियनिर्माणलक्षणा ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्द्धिः तत्र ज्ञानर्द्धि: 'पभूणं भंते! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउव्वित्तए?, हंता पहू विउवित्तए' तहा- अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥ इत्यादि, तथा चरणर्द्धि: नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य. तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इत्यादि, दर्शनर्द्धिः प्रशमादिरूपा, तथा-सम्महिंद्री मेवं शुक्रशोणितमांसवसामेदोमज्जास्थिस्नायुचर्मकेशरोमनखदन्तान्त्रादिसंघातनिष्पन्नत्वेन मूत्रपुरीषभाजनत्वेन चाशुचीति कथयन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषाऽऽत्मशरीरसंवेजनी, एवं परशरीरसंवेजन्यपि परशरीरमीदृशमेवाशुचि, अथवा परस्य शरीरं वर्णयन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, परशरीरसंवेजनी गता, इदानीमिहलोकसंवेजनी- यथा सर्वमेतत् मानुषमसारमध्रुवं कदलीस्तम्भसमानमीदृशीं कथां कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा इहलोकसंवेजनी गता, इदानीं परलोकसंवेजनी, यथा देवा अपि ईर्ष्याविषादमदक्रोधलोभादिभिर्दुःखैरभिभूता किमङ्ग पुनः तिर्यङ्मारकाः?, ईटशी कथा कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा परलोकसंवेजनी ॥ १८०॥ गतेति। 0 प्रभुर्भदन्त! चतुर्दशपूर्वी घटात् घटसहसं पटात् पटसहसं विकुर्वितु?, हन्त प्रभुर्विकुर्वितुम्। 0 यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तद् ज्ञानी तिसृभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥ १॥0सम्यग्दृष्टि-- For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kalassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा. नियुक्तिः १९३-२०५ कथानिक्षेपे आक्षेपण्यादि चतुर्विधधर्म ॥१८१॥ कथा। जीवो विमाणवजंण बंधए आउं। जइविण सम्मत्तजढो अहव ण बद्धाउओ पुव्विं ॥१॥ इत्यादि, उपदिश्यते- कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः। उक्ता संवेजनी, निर्वेदनीमाह- पापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुभविपाक:- दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र-यस्यां कथायामिह च परत्र च लोके-इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक एवोदीर्यन्ते इति, अनेन चतुर्भङ्गिकामाहू, कथा तु निर्वेदनी नाम, निर्वेद्यते भवादनया श्रोतेति निर्वेदनी एष गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदं- इयाणि निव्वेयणी, सा चउव्विहा, तंजहा इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोएचेव दुहविवागसंजुत्ता भवन्तित्ति, जहा चोराणं पारदारियाणं एवमाइ एसा पढमा निव्वेयणी, इयाणि बिइया, इहलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति, कह?, जहा नेरइयाणं अन्नम्मि भवे कयं कम्मं निरयभवे फलं देइ, एसा बिइया निव्वेयणी गया, इयाणीं तइया, परलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कह?, जहा बालप्पभितिमेव अंतकुलेसु उप्पन्ना खयकोढादीहिं रोगेहिं दारिद्देण य अभिभूया दीसन्ति, एसा तइया णिव्वेयणी, इयाणि चउत्थी णिव्वेयणी, परलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कह?, जहा पुव्विं दुच्चिण्णेहिं कम्मेहिं जीवा संडासतुंडेहिं पक्खीहिं उववजंति, जीवो विमानवज न बघ्नात्यायुः । यदि नैव त्यक्तसम्यक्त्वोऽथवा न पूर्वं बद्धायुष्कः ॥ १॥ 0 इदानीं निर्वेदनी, सा चतुर्विधा, तद्यथा- इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि । इहलोक एव दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्तीति, यथा चौराणां पारदारिकाणां एवमाद्येषा प्रथमा निवेदनी, इदानीं द्वितीया- इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, कथं?, यथा नैरयिकैरन्यस्मिन् भवे कृतं कर्म निरयभवे फलं ददाति, एषा द्वितीया निवेदनी गता, इदानीं तृतीया, परलोके दुश्वीर्णानि । कर्माणि इहलोके दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, कथं?, यथा बाल्यात्प्रभृत्येवान्तकुलेषूत्पन्नाः क्षयकुष्ठादिभी रोगै रिण चाभिभूता दृश्यन्ते, एषा तृतीया निवेदनी, इदानीं चतुर्थी निवेदनी, परलोके दुथीर्णानि कर्माणि परलोक एवं दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, कथं?, यथा पूर्वं दुश्चीण: कर्मभिर्जीवा संदशतुण्डेषु पक्षिषु उत्पद्यन्ते, || १८१।। For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १८२ ।। www.kobatirth.org तओ ते णरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताणि ताए जातीए पूरिंति, पूरिऊण नरयभवे वेदेन्ति, एसा चउत्था निव्वेयणी गया, एवं इहलोगो पर लोगो वा पण्णवयं पडुच्च भवइ, तत्थ पन्नवयस्स मणुस्सभवो इहलोगो अवसेसाओ तिण्णिवि गईओ परलोगोत्ति गाथाभावार्थः ॥ २०१ ।। इदानीमस्या एव रसमाह- स्तोकमपि प्रमादकृतं - अल्पमपि प्रमादजनितं कर्म - वेदनीयादि 'साहिज्जई' त्ति कथ्यते यत्र नियमात् नियमेन, किंविशिष्टमित्याह- प्रभूताशुभपरिणामं बहुतीव्रफलमित्यर्थः, यथा यशोधरादीनामिति कथाया निर्वेदिन्या रसः- एष निष्यन्द इति गाथार्थः संक्षेपतः ।। २०२ ।। संवेगनिर्वेदनिबन्धनमाह- सिद्धिश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च भवति संवेगः, एतत्प्ररूपणं संवेगहेतुत्वादिति भावः, एवं नरकस्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद इति गाथार्थ: ।। २०३ ।। आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाह- विनयेन चरति वैनयिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया- आदिकथनेन कथा तु आक्षेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या, ततः स्वसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयेद् विक्षेपण उक्तलक्षणामेव पश्चादिति गाथार्थः ॥ २०४ ॥ किमित्येतदेवमित्याह- आक्षेपण्या कथया आक्षिप्ताः- आवर्जिता आक्षेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम्, तथा आवर्जनं शुभभावस्य मिथ्यात्वमोहनीय क्षयोपशमोपायत्वात्, विक्षेपण्यां भाज्यं सम्यक्त्वं कदाचिल्लभन्ते कदाचिन्नेति तच्छ्रवणात्तथाविधपरिणामभावात्, गाढतरं वा मिथ्यात्वम्, जडमतेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न द्रष्टव्या इत्यभिनिवेशेनेति गाथार्थ: ।। २०५ ।। उक्ता धर्मकथा, साम्प्रतं मिश्रामाह २०६ ॥ नि०- धम्मो अत्थो कामो उवइस्सइ जत्थ सुत्तकव्वेसुं । लोगे वेए समये सा उ कहा मीसिया णाम । ॐ ततस्ते नरकप्रायोग्याणि कर्माणि असंपूर्णानि तानि तस्यां जाती पूरयन्ति, पूरयित्वा नरकभवे वेदयन्ति, एषा चतुर्थी निर्वेदनी गता एवं इहलोक परलोको वा प्रज्ञापकं प्रतीत्य भवति, तत्र प्रज्ञापकस्य मनुष्यभव इहलोकः अवशेषास्तिस्त्रोऽपि गतयः परलोक इति । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, निर्युक्तिः २०६-२१५ मिश्राकथा विकथा कथादिश्च । ।। १८२ ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।। १८३ ।। www.kobatirth.org नि०- इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा चोरजणवयकहा य। नडनट्ट जल्लमुट्ठियकहा उ एसा भवे विकहा ।। २०७ ।। नि० एया चेव कहाओ पन्नवगपरूवगं समासद्ध अकहा कहा य विकहा हविच पुरिसंतरं पप्प ।। २०८ ।। नि०- मिच्छत्तं वेयन्तो जं अन्नाणी कहं परिकहेड़ । लिंगत्थो व गिहि वा सा अकहा देसिया समए । २०९ ।। नि०- तवसंजमगुणधारी जं चरणत्था कहिंति सदभावं । सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए ।। २९० ।। नि०- जो संजओ पमत्तो रागद्दोसवसगओ परिकहेइ। सा उ विकहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।। २११ ।। नि० सिंगाररसुत्तइया मोहकुवियफुंफुगा सहासिंति। जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयव्वा ।। २१२ ।। नि०- समणेण कहेयव्वा तवनियमकहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणुस्सो वच्चइ संवेगनिव्वेयं ।। २९३ ।। नि० अत्थमहंतीवि कहा अपरिकिलेसबहुला कहेयव्वा। हंदि महया चडगरत्तणेण अत्थं कहा हणइ ।। २१४ ।। नि०- खेत्तं कालं पुरिसं सामत्थं चऽप्पणो वियाणेत्ता । समणेण उ अणवज्जा पगयंमि कहा कहेयव्वा ।। २१५ ।। तइयज्झयणनिजुत्ती समत्ता ।। धर्मः- प्रवृत्यादिरूपः अर्थो- विद्यादिः कामः - इच्छादिः उपदिश्यते कथ्यते यत्र सूत्रकाव्येषु सूत्रेषु काव्येषु च - तल्लक्षणवत्सु, क्वेत्यत आह- लोके - रामायणादिषु वेदे - यज्ञक्रियादिषु समये- तरङ्गवत्यादिषु सा पुनः कथा मिश्रा मिश्रानाम, संकीर्णपुरुषार्थाभिधानात् इति गाथार्थः ॥ २०६ ॥ उक्ता मिश्रकथा, तदभिधानाच्चतुर्विधा कथेति । साम्प्रतं कथाविपक्षभूतां त्याज्यां विकथामाह, अज्ञातस्वरूपायास्त्यागासंभवादिति स्त्रीकथा एवंभूता द्रविडा इत्यादिलक्षणा भक्तकथा सुन्दरः शाल्योदन इत्यादिरूपा राजकथा अमुकः शोभन इत्यादिलक्षणा चौरजनपदकथा च गृहीतोऽद्य चौरः स इत्थं कदर्थितस्तथा रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, निर्युक्तिः २०६२१५ मिश्राकथा |विकथा| कथादिश ।। १८३ ।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ।।१८४॥ चारकथा, नटनर्तकजल्लमुष्टिककथा च एषा भवेद्विकथा प्रेक्षणीयकानां नटो रमणीयः यद्वा नर्तकः यद्वा जल्लः, जल्लो नाम वरत्राखेलकः तृतीयमध्ययन मुष्टिको मल्लः, इत्यादिलक्षणा विकथा, कथालक्षणविरहादिति गाथार्थः ।। २०७।। उक्ता विकथा, इदानीं प्रज्ञापकापेक्षया- क्षुल्लिका1ऽऽसांप्राधान्यमाह- एता एवोक्तलक्षणा: कथाः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः प्रज्ञापकश्चासौ प्ररूपकश्चेति विग्रहस्तमवबोधकप्ररूपक नियुक्तिः न तु घरट्टभ्रमणकल्पं यतोन किश्चिदवगम्यत इत्यर्थः समाश्रित्य प्राप्य किमित्याह-अकथा वक्ष्यमाणलक्षणा कथा चोक्तस्वरूपा: २०६-२१५ मिश्राकथा विकथा चोक्तस्वरूपैव भवति, पुरुषान्तरं- श्रोतृलक्षणं प्राप्य- आसाद्य, साध्वसाध्वाशयवैचित्र्यात् सम्यक्श्रुतादिवत्, अन्ये । विकथातु प्रज्ञापकं- मूलकर्तारं प्ररूपकं- तत्कृतस्याख्यातारमिति व्याचक्षते, न चैतदतिशोभनम्, 'पण्णवयपरूवगे समासज्ज'त्ति कथाविश्व। पाठप्रसङ्गादिति गाथार्थः ।। २०८ ।। इदानीमकथालक्षणमाह- मिथ्यात्वमिति-मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां काश्चिदज्ञानी कथां कथयति, अज्ञानित्वं चास्य मिथ्यादृष्टित्वादेव, यद्येवं नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यात्ववेदकस्याज्ञानित्वाव्यभिचारादिति चेद्, न, प्रदेशानुभववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यभिचारादिति, किंविशिष्टोऽसावित्याह- लिङ्गस्थो वा द्रव्यप्रव्रजितोऽङ्गारमर्दकादिः गृही वा यः कश्चिदितर एव सा एवं प्ररूपकप्रयुक्तयुक्त्या श्रोतर्यपि प्रज्ञापकतुल्यपरिणामनिबन्धना अकथा देशिता समये, ततः प्रतिविशिष्टकथाफलाभावादिति गाथार्थः ।। २०९।। अत्रैव प्रक्रमे कथामाह- तपःसंयमगुणान् धारयन्ति तच्छीलाश्चेति तप:संयमगुणधारिण: यां काञ्चन चरणरता:- चरणप्रतिबद्धा न त्वन्यत्र निदानादिना कथयन्ति सद्भावपरमार्थम्, किंविशिष्टमित्याह- सर्वं जगजीवहितम्, नतु व्यवहारतः कतिपयसत्त्वहितमित्यर्थः, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, सैव कथा निश्चयतो देशिता समये, निर्जराख्यस्वफलसाधनात्कर्तृणां श्रोतृणामपि चेतःकुशलपरिणामनिबन्धना कथैव, नो चेद्भाज्येति गाथार्थः ।। २१० ।। इहैव विकथामाह- यःसंयतःप्रमत्तः- कषायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशं गतः सन् न तु मध्यस्थः ||१८४।। For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||१८५।। चारकथा, सूत्रम् १-१० त्रिपञ्चाशद परिकथयति किञ्चित् सा तु विकथा प्रवचने-सा पुनर्विकथा सिद्धान्ते प्रज्ञप्ता धीरपुरुषैः- तीर्थकरादिभिः, तथाविधपरिणाम- तृतीयमध्ययनं निबन्धनत्वात् कर्तृश्रोत्रोरिति, श्रोतृपरिणामभेदे तु तं प्रति कथान्तरमेव, एवं सर्वत्र भावना कार्येति गाथार्थः ।। २११॥ क्षुल्लिकासाम्प्रतं श्रमणेन यथाविधान कार्या तथाविधामाह- शृङ्गाररसेन- मन्मथदीपकेन उत्तेजिता- अधिकं दीपिता, केत्याह- मोह एव- चारित्रमोहनीयकर्मोदयसमुत्थात्मपरिणामरूपः कुपितफुफुका- घटितकुकुला हसहसिंति त्ति जाज्वल्यमाना जायत ।। औद्देशिकादिइति वाक्यशेषः, यां शृण्वतः कथां मोहोदयो जायत इत्यर्थः, श्रमणेन-साधुना नसा कथयितव्या, अकुशलभावनिबन्धनत्वादिति नाचीर्णाः। गाथार्थः ॥ २१२॥ यत्प्रकारा कथनीया तत्प्रकारामाह- श्रमणेन कथयितव्या, किंविशिष्टेत्याह- तपोनियमकथा अनशनादिपञ्चाश्रवविरमणादिरूपा, साऽपि विरागसंयुक्ता न निदानादिना रागादिसंगता, अत एवाह- या कथां श्रुत्वा मनुष्यः- श्रोता व्रजति- गच्छति संवेयणिव्वेदं ति संवेगं निर्वेदं चेति गाथार्थः ।। २१३ ।। कथाकथनविधिमाह- महार्थापि कथा अपरिक्लेशबहुला कथयितव्या, नातिविस्तरकथनेन परिक्लेशः कार्य इत्यर्थः, किमित्येवमित्यत आह-हंदीत्युपदर्शने महता चडकरत्वेन- अति। प्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः किमित्याह- अर्थ कथा हन्ति-भावार्थं नाशयतीति गाथार्थः ।। २१४ ।। विधिशेषमाह- क्षेत्रं- भौतादिभावितं काल-क्षीयमाणादिलक्षणं पुरुष- पारिणामिकादिरूपं सामर्थ्य चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः श्रमणेन त्वनवद्या पापानुबन्धरहिता कथा कथयितव्या, नान्येति गाथार्थः ।। २१५ ।। उक्ता कथा, तदभिधानागतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं । सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं संजमे सुट्ठिअप्पाणं, विप्पमुक्ताण ताइणं । तेसिमेयमणाइण्णं, निग्गंथाण महेसिणं । सूत्रम् १॥ उहेसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे ।। सूत्रम् २ ॥ ॥१८५॥ For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra T श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १८६ ।। www.kobatirth.org संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए। संवाहणा दंतपहोयणा व संपुच्छणा देहपलोयणा य ।। सूत्रम् ३ ।। अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स व धारणट्ठाए । तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो ।। सूत्रम् ४ ॥ सिज्जायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए। गिहंतरनिसिज्जा य, गावस्सुव्वट्टणाणि य ।। सूत्रम् ५ ।। गिहिणो वे आवडियं, जाय आजीववत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य ।। सूत्रम् ६ ।। मूलए सिंगबेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे। कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए । सूत्रम् ७ ।। सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए। सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए । सूत्रम् ८ ।। धुवणे त्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे। अंजणे दंतवणे य, गायाब्भंगविभूसणे ।। सूत्रम् ९ ।। सव्वमेयमणान्नं, निग्गंथाण महेसिणं। संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ।। सूत्रम् १० ।। इह संहितादिक्रमः क्षुण्णः, भावार्थस्त्वयं- संयमे द्रुमपुष्पिकाव्यावर्णितस्वरूपे शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानस्तेषाम्, त एव विशेष्यन्ते विविधं अनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण भावसारं मुक्ताः परित्यक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्तास्तेषाम्, त एव विशेष्यन्ते - त्रायन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः परं तीर्थकराः, स्वतस्तीर्णत्वाद्, उभयं स्थविरा इति, तेषामिदं वक्ष्यमाणलक्षणं अनाचरितं अकल्प्यम्, केषामित्याहनिर्ग्रन्थानां साधूनामित्यभिधानमेतत्, महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः, अथवा महान्तं एषितुं शीलं येषां ते महैषिणस्तेषाम्, इह च पूर्वपूर्वभाव एव उत्तरोत्तरभावो नियमितो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यः, यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽत एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः, एवं शेषेष्वपि भावनीयम्, अन्ये तु पश्चानुपूर्व्या हेतुहेतुमद्भावमित्थं For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, सूत्रम् १-१० औदेशिकादित्रिपञ्चाशद नाचीणाः । ।। १८६ ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १८७ ।। www.kobatirth.org वर्णयन्ति यत एव महर्षयोऽत एव निर्ग्रन्थाः, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यमिति सूत्रार्थः ।। साम्प्रतं यदनाचरितं तदाह- 'उद्देसिय ति उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमौद्देशिकम्, क्रयणं क्रीतम्, भावे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृतं - निर्वर्तितं क्रीतकृतं २, 'नियाग' मित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न त्वनामन्त्रितस्य ३, 'अभिहाणि य'त्ति स्वग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहृतम्, बहुवचनं स्वग्रामपरग्रामनिशीथादिभेदख्यापनार्थं ४, तथा रात्रिभक्तं रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवसभुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणं ५, स्नानं च देशसर्वभेदभिन्नम्, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि, सर्वस्नानं तु प्रतीतं ६, तथा गन्धमाल्यव्यजनं च गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव, ७-८-९ इदमनाचरितम्, दोषाश्चौद्देशिकादिष्वारम्भप्रवर्तनादयः स्वधियाऽवगन्तव्या इति सूत्रार्थः ।। इदं चानाचरितमित्याह - संनिहि त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- संनिधीयते ऽनयाऽऽत्मा दुर्गताविति संनिधि:- घृतगुडादीनां संचयक्रिया १०, गृहिमात्रं गृहस्थभाजनं च ११, तथा राजपिण्डो नृपाहारः, कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः, राजपिण्डोऽन्यो वा सामान्येन १२, तथा संबाधनं अस्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनं १३, दन्तप्रधावनं चाङ्गुल्यादिना क्षालनं १४, तथा संप्रश्नः सावद्यो गृहस्थविषयः, राढार्थं कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः १५, देहप्रलोकनं च आदर्शादावनाचरितं १६, दोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः । किंच'अट्ठावए य' सूत्रम्, अस्य व्याख्या- अष्टापदं चेति, 'अष्टापदं' द्यूतम्, अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयमनाचरितं १७, तथा नालिका चे ति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा भूत्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति, इयं चानाचरिता १८, अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिका चारकथा, सूत्रम् १-१० औद्देशिकादित्रिपञ्चाशदनाचीर्णाः । ।। १८७ ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11१८८॥ तृतीयमध्ययन क्षुल्लिकाचारकथा, सूत्रम् १-१० औद्देशिकादित्रिपञ्चाशदनाचीर्णाः। उपादानम्, अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये अभिदधति, अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणार्थं नालिकाग्रहणम्, अष्टापदद्यूतविशेषपक्षे चोभयोरिति । तथा छत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनायेति, आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम्, प्राकृतशैल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति १९, तथा तेगिच्छं ति, चिकित्साया भावश्चैकित्स्य- व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितं २०, तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायकम्, न त्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २१, तथा समारम्भश्च समारम्भणं च ज्योतिषः अग्नेस्तदनाचरितमिति २२, दोषा अष्टापदादीनां क्षुण्णा एवेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ किंच-'सिज्जायर'सूत्रम्, अस्य व्याख्या- शय्यातरपिण्डश्वानाचरितः, शय्या- वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः- साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः २३, तथा आसन्दकपर्यको अनाचरिती, एतौ च लोकप्रसिद्धावेव २४-२५, तथा गृहान्तरनिषद्या अनाचरिता, गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्, चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः२६, तथा गात्रस्य-कायस्योद्वर्तनानि चानाचरितानि, उद्वर्तनानि- पङ्कापनयनलक्षणानि, चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः २७, इति सूत्रार्थः ॥५॥ तथा-'गिहिणो'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यावृत्तभावो-वैयावृत्त्यम्, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः, एतदनाचरितमिति २८, तथा च 'आजीववृत्तिता' जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनं आजीवस्तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता- जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः, इयं चानाचरिता १२९, तथा तप्तानिवृतभोजित्वं तप्तं च तदनिर्वृतं च- अत्रिदण्डोद्वृत्तं चेति विग्रहः, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते तद्धोजित्वं-मिश्रसचित्तोदकभोजित्वमित्यर्थः, इदंचानाचरितं ३०, तथा आतुरस्मरणानि च क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणानि च अनाचरितानि, आतुरशरणानि वा-दोषातुराश्रयदानानि ३१, इति सूत्रार्थः ॥६॥ किंच-'मूलए'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या ॥१८॥ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥ १८९॥ क्षुल्लिकाचारकथा, सूत्रम् ११-१५ मूलको लोकप्रतीतः, शृङ्गबेरं च आर्द्रकं च तथा इक्षुखण्डं च लोकप्रतीतम्, अनिर्वृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यते, अनिर्वृत-तृतीयमध्ययन अपरिणतमनाचरितमिति, इक्षुखण्डं चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते ३२-३३-३४, तथा कन्दो वज्रकन्दादिः ३५, मूलं च सट्टामूलादि, सचित्तमनाचरितं ३६, तथा फलं त्रपुष्यादि ३७, बीजं च तिलादि ३८, आमकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः॥ ७॥ किंच-सोवच्चले' त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- सौवर्चलं ३९, सैन्धवं ४०, लवणं च सांभरिलवणं ४१, रुमालवणं च ४२, साधुस्वरूपम्। आमकमिति सचित्तमनाचरितम्, सामुद्र- समुद्रलवणमेव ४३, पांशुक्षारश्च ऊषरलवणं ४४, कृष्णलवणं च सैन्धवलवण-8 पर्वतैकदेशजं ४५, आमकमनाचरितमिति सूत्रार्थः ।। ८॥ किं च-'धूवणे'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- धूपनमित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम्, प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते ४६, वमनं मदनफलादिना ४७, वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानं ४८, विरेचनं दन्त्यादिना ४९, तथा अञ्जनं रसाञ्जनादिना ५०, दन्तकाष्ठं च प्रतीतं ५१, तथा गात्राभ्यङ्गस्तैलादिना ५२, विभूषणं गात्राणामेव ५३, इति सूत्रार्थः ॥९॥ क्रियासूत्रमाह-सव्वमेयं ति सूत्रम्, अस्य व्याख्यासर्वमेतद्- औद्देशिकादि यदनन्तरमुक्तमिदमनाचरितम्, केषामित्याह- निर्ग्रन्थानां महर्षीणां साधूनामित्यर्थः, त एव विशेष्यन्तेसंयमे, चशब्दात्तपसि, युक्तानां- अभियुक्तानां लघुभूतविहारिणा लघुभूतो- वायुः, ततश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषाम्, निगमनक्रियापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ किमित्यनाचरितं?, यतस्त एवंभूता भवन्तीत्याह पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता छसुसंजया। पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो।। सूत्रम् ११ ।। आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसलीणा, संजया सुसमाहिया ।। सूत्रम् १२ ।। परीसहरिऊदंता, धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ।। सूत्रम् १३॥ ॥१८९॥ For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||१९०॥ तृतीयमध्ययन क्षुल्लिकाचारकथा, सूत्रम् ११-१५ साधुस्वरूपम्। दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । के इत्थ देवलोएसु, केड़ सिझंति नीरया ।। सूत्रम् १४ ।। खवित्ता पुव्वकम्माई,संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिव्वुड ।। सूत्रम् १५ ।। त्तिबेमि (गाथागं०३१) ।। इइ खुड्डियायारकहज्झयणं तइयं ।। ३ ।। पञ्चाश्रवा हिंसादयःपरिज्ञाता द्विविधया परिज्ञया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परि-समन्ताज्ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः, आहिताग्न्यादेराकृतिगणत्वान्न निष्ठाया: पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञातपञ्चाश्रवा इति वा, यत एव । चैवंभूता अत एव त्रिगुप्ता मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ता। षट्सु संयताः षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः, पञ्चनिग्रहणा इति निगृह्णन्तीति निग्रहणाः कर्तरि ल्युट् पञ्चानां निग्रहणाः पञ्चनिग्रहणाः, पञ्चानामितीन्द्रियाणाम्, धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा, निर्ग्रन्थाः साधवः, ऋजुदर्शिन इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजु-दर्शिन:- संयमप्रतिबद्धाः इति सूत्रार्थः ।। ११॥ ते च ऋजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्त्येतत्कुर्वन्ति-'आयावयंति'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्याआतापयन्ति-'ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति ग्रीष्मेषु उष्णकालेषु, तथा हेमन्तेषु शीतकालेषु अप्रावृता इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति, तथा वर्षासु वर्षाकालेषु संलीना इत्येकाश्रयस्था भवन्ति संयताः साधवः सुसमाहिता ज्ञानादिषु यत्नपराः, ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ।। १२ ।। परीसह'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- मार्गाच्यवननिर्जरा) । परिषोढव्याः परीषहा:-क्षुत्पिपासादयस्त एव रिपवस्तत्तुल्यधर्मत्वात्परीषहरिपवस्ते दान्ता-उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, समासः पूर्ववत्, न प्राकृते पूर्वापरपदनियमव्यवस्था 'नाणविमलजोण्हाग'मिति यथा, तथा धुतमोहा विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोहः-अज्ञानम्, तथा जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः, त एवंभूताः सर्वदुःखप्रक्षयार्थं शारीरमानसाशेषदुःख For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mal Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। १९१ ।। www.kobatirth.org प्रक्षयनिमित्तं प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते, किंभूताः ? - महर्षयः साधव इति सूत्रार्थः ।। १३ ।। इदानीमेतेषां फलमाह- दुक्कराई ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या एवं दुष्कराणि कृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि तथा दुःसहानि सहित्वाऽऽतापनादीनि केचन तत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु, गच्छन्तीति वाक्यशेषः । तथा केचन सिद्ध्यन्ति तेनैव भवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति । वर्तमाननिर्देश: सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वज्ञापनार्थः। नीरजस्का इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः, न त्वेकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ता एवेति सूत्रार्थः ।। १४ ।। येऽपि चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गच्छन्ति तेऽपि ततश्च्युता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येतदाह- 'खवित्त'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- ते देवलोकच्युताः क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि, केनेत्याह- संयमेन उक्तलक्षणेन तपसा च, एवं प्रवाहेण सिद्धिमार्गं सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः सन्तस्त्रातार आत्मादीनां परिनिर्वान्ति सर्वथा सिद्धिं प्राप्नुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति 'परिनिव्वुड'त्ति, तत्रापि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्चायमेव पाठो ज्यायान् इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १५ ।। उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववद्रष्टव्याः । इति व्याख्यातं क्षुल्लकाचारकथाध्ययनम् ।। ३ । || सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथाख्यं समाप्तमिति ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयमध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथा, सूत्रम् ११-१५ साधुस्वरूपम्। ।। १९१ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१९२॥ निकायम, भाष्यम्५ उपक्रमेड ।। अथ चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायाख्यम् ।। चतुर्थमध्ययन सुअंमे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या षड्जीवसुअक्खाया सुपनत्ता सेअंमे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नती ।। सूत्रम् १ ।। सूत्रम् व्याख्यातं क्षुल्लिकाचारकथाध्ययनमिदानीं षड्जीवनिकायाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्ध:- इहानन्तराध्ययने । षड्जीवनिकायः 'साधुना धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे, अयमेव चात्मसंयमोपाय' इत्युक्तम्, इह पुनः स आचार षड्जीवनिकायगोचरः नियुक्तिः प्राय इत्येतदुच्यते, उक्तं च-छसु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया। से चेव होइ विण्णेए, परमत्थेण संजए ॥१॥ इत्यनेनाभि- २१६-२१९ संबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, आह च भाष्यकार: धिकाराः। भा०- जीवाहारो भण्णइ आयारो तेणिमंतु आयायं । छजीवणियज्झयणं तस्सऽहिगारा इमे होति ।।५।। जीवाधारो भण्यत आचारः, तत्परिज्ञानपालनद्वारेणेति भावः, येनैतदेवं तेनेदं आयातं अवसरप्राप्तम्, किं तदित्याहषड्जीवनिकाध्ययनम्, अत्रान्तरे अनुयोगद्वारोपन्यासावसरः, तथा चाह- तस्य षड्जीवनिकाध्ययनस्यार्थाधिकाराः एते भवन्ति वक्ष्यमाणलक्षणा इति गाथार्थः ।। तानाह नि०-जीवाजीवाहिगमो चरित्तधम्मो तहेव जयणा य । उवएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा ।। २१६ ।। जीवाजीवाभिगमो जीवाजीवस्वरूपमभिगम्यतेऽस्मिन्नित्यभिगम इतिकृत्वा, स्वरूपे च सत्यभिगम्यत इति भावः, तथा । चारित्रधर्मः प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः, तथैव यतना च पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहारयत्नरूपा, तथा उपदेश: यथाऽऽत्मा न षट्सु जीवनिकायेषु यो बुधः संयतः सदा । स एव भवति विज्ञेयः परमार्थेन संयतः ॥१॥ ॥ १० For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsun Gyarmandir श्रीदश- बध्यत इत्यादिविषयः, तथा धर्मफलं अनुत्तरज्ञानादि, एते षड्जीवनिकाया अधिकारा इति गाथार्थः । अत्रान्तरे गत उपक्रमः, वैकालिक । निक्षेपमधिकृत्याहश्रीहारि० वृत्तियुतम् नि०- छत्नीवणियाए खलु निक्खेवो होइ नामनिष्फन्नो । एएसिं तिण्हंपि उ पत्तेयपरूवणं वोच्छं ।। २१७ ।। ॥१९३॥ षड्जीवनिकायायाः प्रक्रान्तायाः खल्विति पूरणार्थो निपातः, निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, षड्जीवनिकायिकेत्ययमेव, यतश्चैवमत एतेषां त्रयाणामपि षड्जीवनिकायपदानां प्रत्येक मिति एकमेकं प्रति प्ररूपणां सूत्रानुसारेण वक्ष्ये अभिधास्य इति गाथार्थः ।। तत्रैकस्याभावे षण्णामभाव इत्येकप्ररूपणामाह नि०- णामं ठवणा दविए माउगपयसंगहेक्कए चेव । पञवभावे य तहा सत्तेए एक्कगा होति ।। २१८॥ नि०-नाम ठवणा दविए खेते काले तहेव भावे अ। एसोउ छक्कगस्सा निक्खेवो छव्विहो होइ ।। २१९।। इयं द्रुमपुष्पिकायां व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते, संग्रहैककेन चात्राधिकारः ।। साम्प्रतं व्यादीन् विहाय षट्प्ररूपणामाहतत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषट्कं- षड् द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि पुरुषकार्षापणालङ्कतपुरुषलक्षणानि, क्षेत्रषट्कंअषडाकाशप्रदेशाः, यद्वा भरतादीनि,कालषट्कं-घट्समयाः षड्ऋतवः, तथैव भावेचे ति भावषट्कं-षड्भावा औदयिकादयः, अत्र च सचित्तद्रव्यषट्केनाधिकार इति गाथार्थः ।। आह-अत्र व्याधनभिधानं किमर्थं?, उच्यते, एकषडभिधानत: आद्यन्तग्रहणेन तद्गतेरिति । व्याख्यातं षट्पदम्, अधुना जीवपदमाह नि०-जीवस्स उ निक्खेवो परूवणा लक्खणं च अस्थित्तं । अन्नामुत्तत्तं निच्चकारगो देहवावित्तं ।। २२० ।। नि०-गुणिउद्दगइत्ते या निम्मयसाफल्लताय परिमाणे । जीवस्स तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायव्वा ।। २२१ ।। दोदारगाहाओ॥ चतुर्थमध्ययनं षड़जीवनिकायम, सूत्रम् षड़जीवनिकाय: नियुक्तिः २१७-२१९ उपक्रमेडधिकाराः नियुक्तिः २२०-२२१ जीवपदस्य व्याख्यानिक्षेपद्वाराणि। ॥१९३ For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।१९४ एतद्द्वारगाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या- जीवस्य तु निक्षेपो नामादिः, प्ररूपणा द्विविधाश्च भवन्ति जीवा इत्यादिरूपा लक्षणं च-आदानादि अस्तित्वं सत्त्वं शुद्धपदवाच्यत्वादिना अन्यत्वं देहात् अमूर्तत्वं स्वतः नित्यत्वं विकारानुपलम्भेन कर्तृत्वं स्वकर्मफलभोगात् देहव्यापित्वं तत्रैव तल्लिङ्गोपलब्ध्या गुणित्वं योगादिना ऊर्ध्वगतित्वं अगुरुलघुभावेन निर्मा(म)यता विकाररहितत्वेन, सफलता-च कर्मणः परिमाणं लोकाकाशमात्र इत्यादि (ग्रन्थाग्रं ३०००) एवं जीवस्य त्रिविधकाल इति त्रिकालविषया, परीक्षा भवति कर्तव्या इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ।। व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तथा च निक्षेपमाह नि०- नामंठवणाजीवो दव्वजीवो य भावजीवोय। ओह भवग्गहणंमि य तब्भवजीवे य भावम्मि ।। २२२ ।। नामस्थापनाजीव इति जीवशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामजीवः स्थापनाजीव इति, तथा द्रव्यजीवश्च भावजीवश्ववक्ष्यमाणलक्षणः, तत्र ओघ इति ओघजीवः, भवग्रहणे चे ति भवजीवः, तद्भवजीवश्च तद्भव एवोत्पन्नः, भावे भावजीव इति गाथासमासार्थः ।। व्यासार्थं त्वाह भा०-नामंठवण गयाओ दव्वे गुणपनवेहि रहिउत्ति । तिविहो य होइ भावे ओहे भव तब्भवे चेव ।।६।। नामस्थापने गते, क्षुण्णत्वादिति भावः, द्रव्य इति द्रव्यजीवो गुणपर्यायाभ्यां चैतन्यमनुष्यत्वादिलक्षणाभ्यां रहितः, बुद्धिपरिकल्पितो, न त्वसावित्थंविध: संभवतीति, त्रिविधश्च भवति भाव इति,भावजीवत्रैविध्यमाह-ओघजीवो भवजीवस्तद्भवजीवश्चेति, प्राग्गाथोक्तमप्येतदित्थंविधभाष्यकारशैलीप्रामाण्यतोऽदुष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति-'भावे उ तिहा भणिओ, तं पुण संखेवओ वोच्छं' 'भाव' इति भावजीवः, 'विधेति त्रिप्रकारो भणितो' नियुक्तिकारेण ओघजीवादिः, तमपि च भावार्थमधिकृत्य संक्षेपतो वक्ष्य इति गाथार्थः ।। तत्रौघजीवमाह चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम, सूत्रम् पजीवनिकायः नियुक्ति:२२२ जीवपदस्य व्याख्यानिक्षेपद्वाराणि। भाष्यम६ जीवनिक्षेपाः। 800000660 For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् १ षड़जीवनिकायः भाष्यम जीवनिक्षेपाः भाष्यम् ८-९ भावजीव: प्ररूपणाच। भा०- संते आउयकम्मे धरई तस्सेव जीवई उदए। तस्सेव निजराए मओ त्ति सिद्धो नयमएणं ।। ७ ।। सति विद्यमान आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपे ध्रियते सामान्येनैव तिष्ठति भवोदधौ, कथमित्थमवस्थानमात्राजीवत्वमस्येत्याशयात्रैवान्वर्थयोजनामाह- तस्यैव ओघायुष्ककर्मणो जीवत्युदये उदये सति जीवत्यासंसारं प्राणान् धारयति, अतो। जीवनाजीव इति, तस्यैवौघायुष्ककर्मणो निर्जरया क्षयेण, मृत इति, सर्वथा जीवनाभावात्, स च सिद्धो मृतो, नान्यः, विग्रहगतावपि तथाजीवनसद्भावात्, नयमतेने ति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाथार्थः । उक्त ओघजीवितविशिष्ट ओघजीवः, साम्प्रतं भवजीवं तद्भवजीवं चाह# भा०-जेण य धरइ भवगओ जीवो जेण य भवाउ संकमई। जाणाहितं भवाउं चउव्विहं तब्भवे दुविहं ।। ८॥ निक्खेवो त्तिगयं।। येन च नारकाद्यायुष्केण ध्रियते तिष्ठति भवगतो नारकादिभवस्थितो जीवः, तथा येन च मनुष्याद्यायुष्केण भवात् । नारकादिलक्षणात् संक्रामति याति, मनुष्यादिभवान्तरमिति सामर्थ्यागम्यते, जानीहि विद्धि, तदित्थंभूतं भवायुः भवजीवितम्, चतुर्विधं नारकतिर्यमनुष्यामरभेदेन, तथा तद्भवेतद्भवविषयम्, आयुरिति वर्तते, तच्च द्विविधं-तिर्यक्तद्भवायुमनुष्यतद्भवायुश्च, यस्मात्तावेव मृतौ सन्तौ भूयस्तस्मिन्नेव भव उत्पद्येते, नान्ये, तद्भवजीवितं च तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तदुच्यत इति। अत्रापि च भावजीवाधिकारात्तद्भवजीवितविशिष्टश्च जीव एव ग्राह्यः, जीवितं तु तद्विशेषणत्वादुक्तमिति गाथार्थः ।। उक्तो निक्षेपः, इदानीं प्ररूपणामाह भा०-दुविहाय हंति जीवा सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहमा यसवअवलोए दो चेव य बायरविहाणे॥९॥ 0 अत्र जीवत्यनेनेति जीव ओधेन सामान्येन जीव ओघजीवितविशिष्टो जीवः, मध्यमपदोत्तरपदलोपाद् इत्थं भवति इत्यधिकं केषुचिदादशेषु । ॥ १९५॥ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृनियुतम् ||१९६॥ चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम, सूत्रम् षड्जीवनिकायः भाष्यम् १०-११ प्ररूपणा लक्षणंच। द्विविधाश्च द्विप्रकाराश्च, चशब्दानवविधाश्च पृथिव्यादिद्वीन्द्रियादिभेदेन भवन्ति जीवाः, द्वैविध्यमाह- सूक्ष्मास्तथा बादराश्च, तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादरनामकर्मोदयाच्च बादरा इति, लोक इति लोकग्रहणमलोके जीवभवनव्यवच्छेदार्थम्, तत्र सूक्ष्माश्च सर्वलोक इति, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सूक्ष्मा एव सर्वलोकेषु, न बादराः, क्वचित्तेषामसंभवात्, 'द्वे एव च पर्याप्तकापर्याप्तकलक्षणे बादरविधाने बादरविधी, चशब्दात्सूक्ष्मविधाने च, तेषामपि पर्याप्तकापर्याप्तकरूपत्वादिति गाथार्थः॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह___भा०- सुहुमा य सव्वलोए परियावन्ना भवंति नायव्वा । दो चेव बायराणं पज्जत्तियरे अनायव्वा ।। १० ।। परूवणादारं गयं ति॥ सूक्ष्मा एव पृथिव्यादयः सर्वलोके चतुर्दशरज्वात्मके पर्यायापन्ना भवन्ति ज्ञातव्याः ‘पर्यायापन्ना' इति तमेव सूक्ष्मपर्यायमापन्नाः। भावसूक्ष्मा न तु भूतभाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः । तथा द्वौ भेदी बादराणां पृथिव्यादीनाम्, चशब्दात् सूक्ष्माणां च, पर्याप्तकेतरो ज्ञातव्यो पर्याप्तकापर्याप्तकाविति गाथार्थः ।। उक्ता प्ररूपणा, अधुना लक्षणमुच्यते, तथा चाह भाष्यकार: भा० - लक्खणमियाणि दारं चिंधं हेऊ अ कारणं लिंगं । लक्खणमिइ जीवस्स उ आयाणाई इमंतं च ॥११॥ लक्षणमिदानी द्वारमवसरप्राप्तम्, अस्य च प्रतिपत्त्यतया प्रधानत्वात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह- चिह्न हेतुश्च कारणं लिङ्गलक्षणमिति । तत्र चिह्न- उपलक्षणम्, यथा पताका देवकुलस्य, हेतुः-निमित्तलक्षणं यथा कुम्भकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य, कारणं- उपादानलक्षणम्, यथा मृन्मसृणत्वं घटबलीयस्त्वस्य, लिङ्गं- कार्यलक्षणं यथा धूमोऽग्नेः, पर्यायशब्दा वा । एत इति । लक्षणमित्येतल्लक्षणं लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्वितिकृत्वा, जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेकप्रकारमिदम्, तच वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ।। ॥ १९६॥ 85500RRAILERAR For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१९ ॥ नि०- आयाणे परिभोगे जोगुवओगे कसायलेसा य। आणापाणू इंदिय बंधोदयनिजरा चेव ।। २२३ ।। चतुर्थमध्ययनं नि०- चित्तं चेयण सन्ना विन्नाणं धारणा य बुद्धी अ। ईहामईवियक्का जीवस्स उ लक्खणा एए।। २२४ ।। दारं ।। षड्जीव निकायम्, एतत्प्रतिद्वारगाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या- आदानं परिभोगस्तथा योगोपयोगी कषायलेश्याश्च तथाऽऽनापानौ इन्द्रियाणि सूत्रम् १ बन्धोदयनिर्जराश्चैव, तथा चित्तं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च तथा ईहामतिवितर्का जीवस्थ तु लक्षणान्येतानि, षड़जीवनिकायः तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्जीवस्यैव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः ।। व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तच्चेदं नियुक्तिः २२३-२२४ भा०-लक्खिजइत्ति नजड़ पञ्चक्खियरो व जेण जो अत्थो । तं तस्स लक्खणं खलु धूमुण्हाइव्व अग्गिस्स ॥१२॥ जीवस्य लक्ष्यत इति ज्ञायते कोऽसावित्याह- प्रत्यक्षः अक्षगोचरापन्नः इतरो वा परोक्षः येन उष्णत्वादिना योऽर्थः अग्न्यादिस्तत्तस्य लक्षणानि (जीवसिद्धिः लक्षणं खल्विति, तदेव स्पष्टयति- धूमौष्ण्यादिवदग्नेरिति, स ह्यौष्ण्येन प्रत्यक्षो लक्ष्यते, परोक्षो धूमेनेति गाथार्थः ।। तत्रादाना- भाष्यम् दीनां दृष्टान्तानाह १२-१४ जीवस्य भा०-अयगार कूर परसू अग्गि सुवण्णे अखीरनरवासी। आहारो दिटुंता आयाणाईण जहसंखं ॥१३॥ लक्षणानि अयस्कार कूरस्तथा परशुरग्निः सुवर्ण क्षीरनरवास्यः तथा आहारोदृष्टान्ता आदानादीनां प्रक्रान्तानां यथासंख्यम्, प्रतिज्ञाद्युल्लङ्घनेन । जीवशुद्धिः। चैतदभिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थमिति गाथार्थः ।। साम्प्रतं प्रयोगानाह भा०-देहिदियाइरित्तो आया खलु गज्झगाहगपओगा। संडासा अयपिंडो अययाराइव्व विन्नेओ॥१४॥ देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, खलुशब्दो विशेषणार्थः, कथंचित्, न सर्वथाऽतिरिक्त एव, तदसंवेदनादिप्रसङ्गादिति, अनेन । प्रतिज्ञार्थमाह, प्रतिज्ञा पुनः- अर्थेन्द्रियाणि आदेयादानानि विद्यमानादातृकाणि, कुत इत्याह- ग्राह्यग्राहकप्रयोगात्, ग्राह्या 388 ॥१९७॥ For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१९८॥ रूपादयः ग्राहकाणि- इन्द्रियाणि तेषां प्रयोगः- स्वफलसाधनव्यापारस्तस्मात्, न हामीषां कर्मकरणभावः कर्तारमन्तरेण । चतुर्थमध्ययनं स्वकार्यसाधनप्रयोग: संभवति, अनेनापि हेत्वर्थमाह, हेतुश्चादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह-संदेशाद् आदानात् अयस्पिण्डाद् पइजीव निकायम, आदेयात् अयस्कारादिवत् लोहकारवद्विज्ञेयः अतिरिक्तो विद्यमान आदातेत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह, दृष्टान्तस्तु संदंशकाय सूत्रम् स्पिण्डवत्, यस्तु तदनतिरिक्त: न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः, यथा देहादिभ्य एवेति व्यतिरेकार्थः, व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमाना- षड़जीवनिकायः दातृकाणि न भवन्ति तान्यादानादेयरूपाण्यपि न भवन्ति, यथा मृतकद्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थः ।। उक्तमादानद्वारम्, भाष्यम १५-१६ अधुना परिभोगद्वारमाह जीवस्य भा०- देहो सभोतिओखलु भोजत्ता ओयणाइथालं व । अन्नप्पउत्तिगा खलु जोगा परसुव्व करणत्ता ।। १५ ।। लक्षणानि जीवशुद्धिः। देहः सभोक्तृकः खल्विति प्रतिज्ञा, भोग्यत्वादिति हेतुः, ओदनादिस्थालवत्- स्थालस्थितौदनवदिति दृष्टान्तः, भोग्यत्वं च । देहस्य जीवेन तथा निवसतोपभुज्यमानत्वादिति । उक्तं परिभोगद्वारम्, अधुना योगद्वारमाह- अन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगाः, योगा:- साधनानि मनःप्रभृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थः, करणत्वादिति हेतुः, परशुवदिति दृष्टान्तः । भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्यं हेतुः- यथा अनित्यो वर्णात्मकः शब्दः, शब्दत्वात्, मेघशब्दवदिति गाथार्थः ।। उक्तं योगद्वारम्, साम्प्रतमुपयोगद्वारमाह भा०- उवओगा नाभावो अग्गिव्व सलक्खणापरिचागा । सकसाया णाभावो पजयगमणा सुवण्णं व ॥ १६ ।। उपयोगात साकारानाकारभेदभिन्नान्नाभावो, जीव इति गम्यते, कुत इत्याह- स्वलक्षणापरित्यागाद् उपयोगलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणापरित्यागात्, अग्निवद्, यथाऽग्निरौष्ण्यादिस्वलक्षणापरित्यागानाभावस्तथा जीवोऽपीति प्रयोगार्थः, ॥१९८॥ For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||१९९।। षड़जीवनिकायम, सूत्रम् १ भाष्यम् प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, स्वलक्षणापरित्यागाद्, अग्निवदिति । उक्तमुपयोगद्वारम्, अधुना कषायद्वारमाह-सकषायत्वाद्- अचेत- चतुर्थमध्ययनं नविलक्षणक्रोधादिपरिणामोपेतत्वादित्यर्थः, नाभावो जीवः, कुत इत्याह-पर्यायगमनात्-क्रोधमानादिपर्यायप्राप्तेः, सुवर्णवत्, कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, पर्यायगमनात्, सुवर्णवदिति गाथार्थः ।। उक्तं कषायद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वारमाह पजीवनिकाय: भा०-लेसाओ णाभावो परिणमणसभावओ य खीरं व । उस्सासा णाभावो समसभावा खउव्व नरो ।। १७ ।। लेश्यातो लेश्यासद्भावेन नाभावो जीवः, किंतु भाव इति, कुत इत्याह- परिणमनस्वभावत्वात्- कृष्णादिद्रव्यसाचिव्येन । जीवस्य जम्बूखादकादिदृष्टान्तसिद्धतथाविधपरिणामधर्मत्वात्, क्षीरवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु- सन्नात्मा, परिणामित्वात्, क्षीरव लक्षणानि जीवशुद्धिः। दिति । गतं लेश्याद्वारम्, प्राणापानद्वारमाह- उच्छ्रासादिति, अचेतनधर्मविलक्षणप्राणापानसद्धावान्नाभावो जीवः, किंतु भाव एवेति, श्रमसद्भावेन परिस्पन्दोपेतपुरुषवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु पुनरत्र व्यतिरेकी द्रष्टव्यः, सात्मकं जीवच्छरीरम्, प्राणादिमत्त्वाद्, यत्तु सात्मकं न भवति तत्प्राणादिमदपि न भवति, यथाऽऽकाशमिति गाथार्थः ।। उक्तं प्राणापानद्वारम्, अधुना इन्द्रियद्वारमुच्यते भा०- अक्खाणेयाणि परत्थगाणि वासाइवेह करणत्ता । गहवेयगनिजरओ कम्मस्सऽन्नो जहाहारो॥१८॥ अक्षाणि इन्द्रियाणि एतानी ति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि परार्थानि आत्मप्रयोजनानि, वास्यादिवदिह करणत्वात् इहलोके । वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । आह- आदानान्येवेन्द्रियाणि तत्किमर्थं भेदोपन्यासः?, उच्यते, निर्वृत्त्युपकरणद्वारेण द्वैविध्यख्यापनार्थम्, ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह तु निर्वृत्तेरिति, प्रयोगस्तु- परार्थाश्चक्षुरादयः, संघातत्वात्, शयनासनादिवत्, For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २०० ॥ www.kobatirth.org न चायं विशेषविरुद्धः, कर्मसंबद्धस्यात्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । गतमिन्द्रियद्वारम् अधुना बन्धादिद्वाराण्याहग्रहणवेदक निर्जरकः कर्मणोऽन्यो, यथाऽऽहार इति, तत्र ग्रहणं कर्मणो बन्धः वेदनं उदयः निर्जरा क्षय:, यथाऽऽहारे इतिआहारविषयाणि ग्रहणादीनि न कर्त्रादिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोऽपीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु विद्यमानभोक्तृकमिदं कर्म, ग्रहणवेदननिर्जरणसद्भावाद्, आहारवदिति गाथार्थः । उक्तानि बन्धादिद्वाराणि, व्याख्याता च प्रथमा प्रतिद्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीयामधिकृत्य चित्तादिस्वरूपव्याचिख्यासयाऽऽह भा०- चित्तं तिकालविसयं चेयण पञ्चक्ख सन्नमणुसरणं विण्णाणऽणेगभेयं कालमसंखेयरं धरणा ।। १९ ।। चित्तं त्रिकालविषयं ओघतोऽतीतानागतवर्तमानग्राहि, चेतनं चेतना सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी, संज्ञानं संज्ञा-सा अनुस्मरणमिदं तदिति ज्ञानम्, विविधं ज्ञानं विज्ञानं अनेकभेदं- अनेकप्रकारम्, अनेकधर्मिणि वस्तुनि तथा तथाऽध्यवसाय इत्यर्थः, कालमसंख्येयेतरं असंख्येयं संख्येयं वा, धारणाअविच्युतिस्मृतिवासनारूपा, तत्र वासनारूपा असंख्येयवर्षायुषामसंख्येयं संख्येयवर्षायुषां च संख्येयमिति गाथार्थः ।। भा०- अत्थस्स ऊह बुद्धी ईहा चेट्ठत्थ अवगमो उ मई। संभावणत्थतक्का गुणपच्चक्खा घडोव्वऽत्थि ।। २० ।। अर्थस्योहा बुद्धिः संज्ञिनः परनिरपेक्षोऽर्थपरिच्छेद इति भाव:, ईहा चेष्टा किमयं स्थाणुः किंवा पुरुष ? इति सदर्थपर्यालोचनरूपा, अर्थावगमस्तु अर्थपरिच्छेदस्तु शिरः कण्डूयनादिधर्मोपपत्तेः पुरुष एवायमित्येवंरूपा मतिः, संभावणत्थतक्क ति प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना- एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपा तर्का । इत्थं द्वाराणि व्याख्याय सर्व एते चित्तादयो गुणा वर्तन्त इति जीवाख्यगुणिप्रतिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरन्नाह - गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतोर्घटवदस्ति जीव इति गम्यते, एष गाथार्थः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, | सूत्रम् १ पद्माव षड्जीवनिकायः | भाष्यम यम् १९ जीवस्य लक्षणानि Maung जीवशुद्धिः भाष्यम् २० जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं च। ॥ २०० ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०१ ।। www.kobatirth.org एतदेव स्पष्टयति भा०- जम्हा चित्ताईया जीवस्स गुणा हवंति पञ्चक्खा गुणपच्चक्खत्तणओ घडुव्व जीवो अओ अत्थि ।। २१ ।। यस्मात् चित्तादयः अनन्तरोक्ताः जीवस्य गुणाः, नाजीवस्य, शरीरादिगुणविधर्मत्वात्, एते च भवन्ति प्रत्यक्षाः, स्वसंवेद्यत्वात्, यतश्चैवं गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतोर्घटवज्जीवः अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु सन्नात्मा, गुणप्रत्यक्षत्वात्, घटवत्, नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुद्धः, विरुद्धोऽसति बाधने इतिवचनात्, एतच्चैतन्यं प्रत्यक्षेणैव बाधनमिति गाथार्थः ।। व्याख्यातं मूलद्वारगाथाद्वये प्रतिद्वारगाथाद्वयेन लक्षणद्वारम्, इदानीमस्तित्वद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार: भा०- अत्थित्ति दारमहुणा जीवस्सइ अत्थि विजए नियमा लोआययमयघायत्थमुच्चए तत्थिमो हेऊ ।। २२ ।। अस्तीति द्वारमधुना - साम्प्रतमवसरप्राप्तम्, तत्रैतदुच्यते- जीवः सन्, पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः सन्निति सिद्धसाध्यता न तु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदायाह- अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपः, तदपि मातृचैतन्योपादानं भविष्यति परलोकयायी तु न विद्यते इति मोहापोहायाह विद्यते नियमात् नियमेन, तथा चाह- लोकायतमतघातार्थं नास्तिकाभिप्रायनिराकरणार्थमुच्यत एतत्, तस्य चानन्तरोदित एवाभिप्राय इति सफलानि विशेषणानि, तत्र लोकायतमतविघाते कर्तव्ये अयं वक्ष्यमाणलक्षणो हेतुः अन्यथानुपपत्तिरूपो युक्तिमार्ग इति गाथार्थः ॥ भा०- जो चिंतेइ सरीरे नत्थि अहं स एव होइ जीवो त्ति। न हु जीवंमि असंते संसयउप्पायओ अन्नो ।। २३ ॥ यश्चिन्तयति शरीरे अत्र लोकप्रतीते नास्त्यहं स एव चिन्तयिता भवति जीव इति । कथमेतदेवमित्याह-न यस्माज्जीवेऽसति मृतदेहादौ संशयोत्पादकः अन्यः प्राणादिः, चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थः । एतदेव भावयति For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम २१-२३ जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं च। ।। २०१ ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२०२॥ चतुर्थमध्ययन षड़जीवनिकायम. सूत्रम् पड़जीवनिकाय: भाष्यम् २४-२६ जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं चा भा०- जीवस्स एस धम्मो जाईहा अस्थि नत्थि वा जीवो। खाणुमणुस्साणुगया जह ईहा देवदत्तस्स ।। २४ ।। जीवस्यैष स्वभाव:- एष धर्मः या ईहा सदर्थपर्यालोचनात्मिका, किंविशिष्टेत्याह-अस्ति नास्ति वा जीव इति, लोकप्रसिद्धं निदर्शनमाह- स्थाणुमनुष्यानुगता किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा येहा देवदत्तस्य जीवतो धर्म इति गाथार्थः॥ प्रकारान्तरेणैतदेवाह* भा०- सिद्धं जीवस्स अत्थितं, सद्दादेवाणुमीयए। नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवइ केवलो ॥ २५॥ सिद्धं प्रतिष्ठितं जीवस्य उपयोगलक्षणस्यास्तित्वम्, कुत इत्याह- शब्दादेव जीव इत्यस्मादनुमीयते, कथमेतदेवमित्याहनासत इति न असत:- अविद्यमानस्य भुवि पृथिव्यां भावस्य पदार्थस्य शब्दो भवति वाचक इति, खरविषाणादिशब्दैर्व्यभिचारमाशङ्कयाह- केवलः शुद्धः अन्यपदासंसृष्टः, खरादिपदसंसृष्टाश्च विषाणादिशब्दा इति गाथार्थः ।। एतद्विवरणायैवाह । भाष्यकार: भा०- अत्थिति निव्विगप्पो जीवो नियमाउ सद्दओ सिद्धी । कम्हा? सुद्धपयत्ता घडखरसिंगाणुमाणाओ॥२६ ।। अस्तीति निर्विकल्पो जीवः, निर्विकल्प इति निःसंदिग्धः, नियमात् नियमेनैव, प्रतिपत्त्रपेक्षया शब्दतः सिद्धिः वाचकाद्वाच्यप्रतीतेः, एतदेव प्रश्नद्वारेणाह-कस्मात् कुत एतदेवमिति?, आह-शुद्धपदत्वात् केवलपदत्वान्जीवशब्दस्य, घटखरशृङ्गानुमानाद्, अनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः, घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु- मुख्येनार्थेनार्थवान् जीवशब्दः, शुद्धपदत्वाद्, घटशब्दवत्, यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् न भवति स शुद्धपदमपि न भवति, यथा खरशृङ्गशब्द इति गाथार्थः॥ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह 1॥२०२॥ For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २०३ ॥ www.kobatirth.org भा०- चोयगसुद्धपयत्ता सिद्धी जइ एवं सुण्णसिद्धि अम्हं पि । तं न भवड़ संतेणं जं सुन्नं सुन्नगेहं व ।। २७ ।। उक्तवच्छुद्धपदत्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्यसिद्धिरस्माकमपि, शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः, अत्रोत्तरमाह- तन्न भवति यदुक्तं परेण, कुत इत्याह- सता विद्यमानेन पदार्थेन यद् यस्माच्छून्यं शून्यमुच्यते, किंवदित्याहशून्यगृहमिव, तथाहि देवदत्तेन रहितं शून्यगृहमुच्यते, निवृत्तो घटो नष्ट इति, नत्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदव (वि) शिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह भा०- मिच्छा भवेउ सव्वत्था, जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य, जइ जीवो न विज्जइ ।। २८ ।। मिथ्या भवेयुः अनृताः स्युः, सर्वेऽर्था ये केचन पारलौकिका- दानादयः, यदि किमित्याह- कर्ता चैव कर्मणः उपभोक्ता च तत्फलस्य, यदि जीवो न विद्यते परलोकयायीति गाथार्थः । एतदेवाव्युत्पन्नशिष्यानुग्रहार्थं स्पष्टतरमाह भा०- पाणिदयातवनियमा बंभं दिक्खा य इंदियनिरोहो। सव्वं निरत्थयमेयं जड़ जीवो न विजई ।। २९ ।। प्राणिदयातपोनियमाः करुणोपवासहिंसाविरत्यादिरूपाः, तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्यं दीक्षा च यागलक्षणा इन्द्रियनिरोधः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूप:, सर्वं निरर्थकं निष्फलमेतत्, यदि जीवो न विद्यते परलोकयायीति गाथार्थः ॥ किंच- 'शिष्टाचरितो मार्गः, शिष्टैरनुगन्तव्य' इति, तन्मार्गख्यापनायाह भा०- लोइया वेड्या चेव, तहा सामाइया विऊ। निच्चो जीवो पिहो देहा, इइ सव्वे ववत्थिया ॥ ३० ॥ लोके भवा लोके वा विदिता इति लौकिका - इतिहासादिकर्तारः, एवं वैदिकाश्चैव त्रैविद्यवृद्धाः, तथा सामायिकाःत्रिपिटकादिसमयवृत्तयो विद्वांसः पण्डिताः, नित्यो जीवो, नानित्यः, एवं पृथग् देहात् शरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिताः, नान्यथेति For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम् भाष्यम २७-३० जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं च। ॥ २०३ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०४ ।। www.kobatirth.org गाथार्थः । एतदेव व्याचष्टे भा०- लोगे अच्छेज्जभेजो वेए सपुरीसदद्भगसियालो। समएजहमासि गओ तिविहो दिव्वाइसंसारो ।। ३१ ।। लोकेऽच्छेद्योऽभेद्य आत्मा पठ्यते, यथोक्तं गीतासु- अच्छेद्यो ऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। १ ।। इत्यादि । तथा वेदे सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यत इति, यथोक्तं शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते, अथापुरीषो दह्यते आक्षोधुका अस्य प्रजाः प्रादुर्भवन्ति इत्यादि । तथा समये अहमासीद्गजः इति पठ्यते, तथा च बुद्धवचनं- अहमासं भिक्षवो हस्ती, षड्दन्तः शङ्खसंनिभः । शुकः पञ्जरवासी च, शकुन्तो जीवजीवकः ॥ १ ॥ इत्यादि । तथा त्रिविधो दिव्यादिसंसार: कैश्चिदिष्यते, देवमानुषतिर्यग्भेदेन, आदिशब्दाच्चतुर्विधः कैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः । अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्व माह भा०- अत्थि सरीरविहाया पइनिययागारया भावाओ। कुंभस्स जह कुलालो सो मुत्तो कम्मजोगाओ ।। ३२ ।। अस्ति शरीरस्य-औदारिकादेर्विधाता, विधातेति कर्ता, कुत इत्याह- प्रतिनियताकारादिसद्भावात् आदिमत्प्रतिनियताकारत्वादित्यर्थः, दृष्टान्तमाह- कुम्भस्य यथा कुलालो विधाता । कुलालवदेवमसावपि मूर्तः प्राप्नोतीति विरुद्धमाशङ्कय परिहरन्नाह'स' आत्मा यः शरीरविधाता असौ मूर्तः कर्मयोगा दिति मूर्तकर्मसंबन्धादिति गाथार्थः । अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तयेऽन्यथा तगृहणविधिमाह भा०-फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झई कायसंसिओ। नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्झई कायसंसिओ ।। ३३ ।। © आयहिमासंगज इति । अहंति (प्र०) । क्षुधा रहिता इति वि० प०। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकाय भाष्यम् ३१-३३ जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं च। ॥ २०४ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०५ ।। www.kobatirth.org स्पर्शेन शीतादिना यथा वायुर्गृह्यते कायसंसृतो देहसंगतः अदृष्टोऽपि, तथा ज्ञानादिभिः ज्ञानदर्शनेच्छादिभिर्जीवो गृह्यते 'कायसंसृतो' देहसंगत इति गाथार्थ: ।। असकृदनुमानादस्तित्वमुक्तं जीवस्य, अनुमानं च प्रत्यक्षपूर्वकम्, न चैनं केचन पश्यन्तीति, ततश्चाशोभनमेतदित्याशङ्कयाह भा०- अणिदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पासंति सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो ।। ३४ ।। अनिन्द्रियगुणं अविद्यमानरूपादीन्द्रियग्राह्यगुणं जीवं अमूर्तत्वादिधर्मकं दुर्ज्ञेयं दुर्लक्षं मांसचक्षुषा छद्मस्थेन, पश्यन्ति सिद्धाः सर्वज्ञाः, अञ्जनसिद्धादिव्यवच्छेदार्थं सर्वज्ञग्रहणम्, ततश्च ऋषभादय इत्यर्थः, ज्ञानसिद्धाश्च साधवो भवस्थकेवलिन इति गाथार्थः । साम्प्रतमागमादस्तित्वमाह भा०- अत्तवयणं तु सत्थं दिट्ठा य तओ अइंदियाणंपि। सिद्धी गहणाईणं तहेव जीवस्स विन्नेया ।। ३५ ।। आप्तवचनं तु शास्त्रम्, आप्तो- रागादिरहितः, तुशब्दोऽवधारणे, आप्तवचनमेव, अनेनापौरुषेयव्यवच्छेदमाह, तस्यासंभवादिति । दृष्टा च तत इति उपलब्धा च ततः- आप्तवचनशास्त्रात् अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगोचरातिक्रान्तानामपि, सिद्धिः ग्रहणादीना मिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यर्थः, तथैव जीवस्य विज्ञेयेति, अतीन्द्रियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः । मूलद्वारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वद्वारम्, अधुनाऽन्यत्वादिद्वारत्रयव्याचिख्यासुराह भा०- अण्णत्तममुत्तत्तं निञ्चत्तं चेव भण्णए समयं । कारण अविभागाईहेऊहिं इमाहिं गाहाहिं ।। ३६ ।। अन्यत्वं देहाद् अमूर्तत्वं स्वरूपेण नित्यत्वं चैव परिणामिनित्यत्वं भण्यते समकं एकैकेन हेतुना त्रितयमपि युगपदितिएककालमित्यर्थः, कारणाविभागादिभिः वक्ष्यमाणलक्षणैर्हेतुभिः इमाभिः तिसृभिर्निर्युक्तिगाथाभिरेवेति गाथार्थः ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम भाष्यम् | ३४-३६ जीवसिद्धिः जीवास्तित्वं च। ।। २०५ ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०६ ।। www.kobatirth.org नि०- कारणविभागकारणविणासबंधस्स पच्चयाभावा। विरुद्धस्स य अत्थस्सापाउन्भावाविणासा य ।। २२५ ।। कारणविभागकारणविनाशबन्धस्य प्रत्ययाभावा दिति अत्राभावशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, कारणविभागाभावात् न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्त्वादिकारणविभागोऽस्ति, कारणाभावादेव । एवं कारणविनाशाभावेऽपि योज्यम्, तथा बन्धस्यज्ञानावरणादिपुद्गलयोगलक्षणस्य प्रत्ययाभावात्- हेतुत्वानुपपत्तेः, बन्धस्येति बध्यमानव्यतिरिक्तबन्धज्ञापनार्थमसमासः, व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्शनार्थमिति, तथा विरुद्धस्य चार्थस्य पटादिनाशे भस्मादेरिव अप्रादुर्भावादविनाशाच अप्रादुर्भावेऽनुत्पत्तौ सत्यामविनाशाच्च हेतोः जीवस्य नित्यत्वम्, नित्यत्वादमूर्तत्वम्, अमूर्तत्वाच्च देहादन्यत्वमिति प्रतिपत्त्यानुगुण्यतो व्यत्ययेन साध्यनिर्देशः । वक्ष्यति च नियुक्तिकार:- 'जीवस्स सिद्धमेवं, निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं' इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तत्राव्युत्पन्नविनेयासंमोहनिमित्तं यथोपन्यासं तावद्वाराणि व्याख्याय पश्चान्निर्युक्तिकाराभिप्रायेण मीलयिष्यतीत्यत आह भा०- अन्नत्ति दारमहुणा अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व्व । तज्जीवतस्सरीरियमयघायत्थं इमं भणियं ।। ३७ ।। अन्यो देहादिति द्वारमधुना, तदेतद्व्याख्यायते - अन्यो देहातु, जीव इति गम्यते, गृहादिगतपुरुषवदिति दृष्टान्तः, तद्भावेऽपि तत्रानियमतो भावादिति हेतुरभ्यूह्यः, न चासिद्धोऽयम्, मृतदेहेऽदर्शनात्, प्रयोगफलमाह - तज्जीवतच्छरीरवादिमतविघातार्थम्, इदं प्रयोगरूपं भणितमिति गाथार्थः । प्रयोगान्तरमाह भा०- देहिंदियाइरित्तो आया खलु तदुवलद्ध अत्थाणं । तव्विगमेऽवि सरणओ गेहगवक्खेहिं पुरिसो व्व ।। ३८ ।। © नियुक्तिमूलद्वारापेक्षया संगृहीतार्थवाचका गाथा निर्युक्तिः, तस्याश्च यद्विवरणं तद्भाष्यम्, कर्त्ता त्वनयोरेक एवोभयोरपीति वि० प. । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् ? षड्जीवनिकायः भाष्यम् | ३७-३८ नियुक्तिः २२५ अन्यत्वादिद्वारत्रयम्। ॥ २०६ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०७ ।। www.kobatirth.org खलुशब्दः विशेषणार्थत्वात्कथञ्चिद्देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मेति प्रतिज्ञार्थ:, तदुपलब्धार्थाना मिति संभवत: परामर्शत्वात् इन्द्रियोपलब्धार्थानां तद्विगमेऽपि इन्द्रियविगमेऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः, स्मरन्ति चान्धबधिरादयः पूर्वानुभूतं रूपादीति, गेहगवाक्षैः पुरुषवदिति दृष्टान्तः । प्रयोगस्तु- कथञ्चिद्देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवदिति गाथार्थः ।। इन्द्रियोपलब्धिमत्त्वाशङ्कापोहायाह भा०- न उ इंदियाई उवलद्धिमंति विगएसु विसयसंभरणा । जह गेहगवक्खेहिं जो अणुसरिया स उवलद्धा ।। ३९ ।। न पुनरिन्द्रियाण्येवोपलब्धिमन्ति- द्रष्टृणि, कुत इत्याह- विगतेष्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात् तद्गृहीतरूपाद्यनुस्मृतेरन्धबधिरादीनामिति, निदर्शनमाह- यथा गेहगवाक्षैः करणभूतैः दृष्टानर्थाननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपलब्धा, न तु गवाक्षाः, एवमत्रापीति गाथार्थः । उक्तमेकेन प्रकारेणान्यत्वद्वारम् अधुना अमूर्तद्वारावसर इत्याह भाष्यकार: भा०- संपयममुत्तदारं अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता। रूवाइविरहओ वा अणाइपरिणामभावाओ ॥ ४० ॥ साम्प्रतममूर्तद्वारम्, तद्व्याख्यायते, अमूर्तो जीवः, अतीन्द्रियत्वात् द्रव्येन्द्रियाग्राह्यत्वात्, अच्छेद्याभेद्यत्वात् खड्गशूलादिना, रूपादिविरहतश्च- अरूपत्वादित्यर्थः । तथा अनादिपरिणामभावा दिति स्वभावतोऽनाद्यमूर्तपरिणामत्वादिति गाथार्थः ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भा०- छउमत्थाणुवलंभा तहेव सवन्नुवयणओ चेव । लोयाइपसिद्धीओ जीवोऽमुत्तो त्ति नायव्वो ।। ४१ ।। छद्मस्थानुपलम्भाद् अवधिज्ञानिप्रभृतिभिरपि साक्षादगृह्यमाणत्वात्, तथैव सर्वज्ञवचनाच्चैव सत्यवक्तृवीतरागवचनादित्यर्थः, लोकादिप्रसिद्धेः लोकादावमूर्तत्वेन प्रसिद्धत्वात्, आदिशब्दाद्वेदसमयपरिग्रहः, अमूर्तो जीव इति ज्ञातव्यः, सर्वत्रैवेयं प्रतिज्ञेति गाथार्थः । उक्तममूर्तद्वारम्, अधुना नित्यत्वद्वारप्रस्ताव:, तथा चाह भाष्यकार: For Private and Personal Use Only चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम् ३९-४१ अन्यत्वादि द्वारत्रयम्। ।। २०७ ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश वैकालिक श्रीहारिक निकायम्, वृत्तियुतम् ॥ २०८॥ पड़जीवनिकायः भाष्यम ४२-४४ अन्यत्वादिद्वारत्रयम्। भा०-णिच्चोत्ति दारमहुणा णिच्चो अविणासि सासओजीवो। भावत्ते सइ जम्माभावाउ नहं व विन्नेओ।। ४२ ।। चतुर्थमध्यवनं नित्य इति नित्यद्वारमधुनाऽवसरप्राप्तम्, तद्व्याचिख्यासयाऽऽह-नित्यो जीव इति, एतावत्युच्यमाने परैरपि संतानस्य षड्जीवनित्यत्वाभ्युपगमात्सिद्धसाध्यतेति तन्निराकरणायाह-अविनाशी-क्षणापेक्षयाऽपिन निरन्वयनाशधर्मा, एवमपिपरिमित सूत्रम् कालावस्थायी कैश्चिदिष्यते-कप्पट्ठाई पुढवी भिक्खूवेति वचनात्तदपोहायाह-शाश्वत इति सर्वकालावस्थायी, कुत इत्याहभावत्वे सति वस्तुत्वे सतीत्यर्थः, जन्माभावात् अनुत्पत्तेः नभोवद् आकाशवद्विज्ञेयः, भावत्वे सतीति विशेषणं खरविषाणादिव्यवच्छेदार्थमिति गाथार्थः ।। हेत्वन्तराण्याह भा०-संसाराओ आलोयणाउ तह पञ्चभिन्नभावाओ। खणभंगविघायत्थं भणिअंतेलोक्कदंसीहिं।। ४३॥ संसारा दिति संसरणं संसारस्तस्मात्, स एव नारकः स एव तिर्यगादिरिति नित्यः, आलोचना दिति आलोचनं-करोम्यहं : कृतवानहं करिष्येऽहमित्यादिरूपं त्रिकालविषयमिति नित्यः, तथा प्रत्यभिज्ञाभावात् स एष इति प्रत्यभिज्ञाप्रत्यय आविद्वदगनादिसिद्धः तदभेदग्राहीति नित्य इति, उक्ताभिधानफलमाह-क्षणभङ्गविघातार्थ निरन्वयक्षणिकवस्तुवादविघातार्थ भणितं । त्रैलोक्यदर्शिभिःतीर्थकरैः एतदनन्तरोदितम्, न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः ।। एतदेव दर्शयति भा०-लोगे वेए समए निच्चो जीवो विभासओ अम्हं । इहरा संसाराई सव्वंपिन जुज्जए तस्स ॥ ४४ ।। 0कल्पस्थायिनी पृथ्वी भिक्षवो वा। न च वाच्यं 'मनुर्नभोऽङ्गिो वती' (सि०१-१-२४) त्यनेन नभस्वदित्येव स्यादिति, लोकप्रसिद्धच्छान्दसशब्द-3॥२०८।। साधनमूलत्वात्तत्प्रयासस्य, अत एव 'नभोऽङ्गिरोमनुषां वेत्युपसंख्यान'मिति वैदिक्यामाख्यातवान् दीक्षितः, कैयटो भाष्यप्रदीपेऽपि उपसंख्यानान्येतानि छन्दोविषयाणीत्याहु'रिति जगाद, नभोऽस्याश्रयत्वेनेति नभस्वच्छब्दं व्युत्पादयामासुश्च व्याख्याकारा अतः वायुशब्दपर्यायव्याख्याने। For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ।। २०९।। लोके- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी त्यादिवचनप्रामाण्यात् वेदे स एष अक्षयोऽज इत्यादिश्रुतिप्रामाण्यात् समये 'न प्रकृतिर्न चतुर्थमध्ययनं विकृतिः पुरुष' इति वचनप्रामाण्यात्, किमित्याह- नित्यो जीवः- अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावः, एकान्तनित्य एव, न षड्जीव निकायम्, चैतन्न्याय्यम्, एकस्वभावतया संसरणादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादिति वक्ष्यति,अत आह- विभाषयाऽस्माकं विकल्पेन- भजनया सूत्रम् स्यान्नित्य इत्यादिरूपया द्रव्यार्थादेशान्नित्यः पर्यायार्थादेशादनित्य इत्यर्थः, इतरथा यद्येवं नाभ्युपगम्यते ततः संसारादि घजीवनिकाय: भाष्यम् ४५ संसारालोचनादिसर्वमेव न युज्यतेतस्य आत्मनः, स्वभावान्तरानापत्त्या एकस्वभावतया वार्तमानिकभावातिरेकेण भावान्तरा अन्यत्वादिनापत्तेः, एवममूर्तत्वान्यत्वयोरपि विभाषा वेदितव्या, अन्यथा व्यवहाराभावप्रसङ्गात्, एकान्तामूर्तस्यैकान्तदेहभिन्नस्य द्वारत्रयम्। चातिपाताद्यसंभवादित्यत्र बह वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अक्षरगमनिकामात्रत्वात्प्रारम्भस्येति गाथार्थः ।। एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृतनियुक्तिगाथां व्याचिख्यासुराह भा०- कारणअविभागाओ कारणअविणासओ य जीवस्स । निच्चत्तं विन्नेयं आगासपडाणुमाणाओ॥ ४५ ॥ ___ कारणाविभागात् पटादेस्तन्त्वादेरिव कारणविभागाभावादित्यर्थः, कारणाविनाशतश्च कारणाविनाशश्च कारणानामेवाभावात्, किमित्याह- जीवस्य आत्मनो नित्यत्वं विज्ञेयम्, कुत इत्याह- आकाशपटानुमानात् अत्रानुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः। आकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयोगः- नित्य आत्मा, स्वकारणविभागाभावाद्, आकाशवत्, तथा कारणविनाशाभावाद, आकाशवदेव, यस्त्वनित्यस्तस्य कारणविभागभावः कारणविनाशभावो वा यथा पटस्येति व्यतिरेकः, पटाद्धि तन्तवो । विभज्यन्ते विनश्यन्ति चेति नित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वादमूर्तः, अमूर्तत्वाइहादन्य इति गाथार्थः । नियुक्तिगाथायां कारणविभागाभावात्कारणविनाशाभावाच्चेति द्वारद्वयं व्याख्याय साम्प्रतं बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याचिख्यासुराह For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२१०॥ भा०- हेउप्पभवो बंधो जम्माणंतरहयस्स नो जुत्तो। तज्जोगविरहओखलु चोराइघडाणुमाणाओ।। ४६ ।। हेतुप्रभवो हेतुजन्मा बन्धो ज्ञानावरणादिषद्लयोगलक्षणः, जन्मानन्तरहतस्य उत्पत्त्यनन्तरविनष्टस्य न युक्तो न घटमान: तद्योगविरहत इति तै:- बन्धहेतुभिर्मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणैर्यो योगः- संबन्धस्तद्विरहतः- तदभावादेव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, चौरादिघटानुमाना दित्यनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः, चौरादिघटादिदृष्टान्तात्, न हि उत्पत्त्यनन्तरविनाशी चौरश्चौर्यक्रियाभावेन बध्यते, स्थायी हि घटो जलादिना संयुज्यते इति व्यतिरेकार्थः, प्रयोगश्चात्र- न क्षणिक आत्मा, बन्धप्रत्ययत्वाञ्चौरवत्, नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः ।। नियुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याख्यातम, अधना 'विरुद्धस्य चार्थस्याप्रादर्भावाविनाशाच्चे'ति व्याख्यायते भा०- अविणासी खलु जीवो विगारणुवलंभओ जहागासं । उवलब्भंति विगारा कुंभाइविणासिदव्वाणं ।। ४७ ।। अविनाशी खलु जीवो, नित्य इत्यर्थः, कुत इत्याह विकारानुपलम्भात् घटादिविनाशे कपालादिवद्विशेषादर्शनाद्, यथाऽऽकाश- आकाशवदित्यर्थः, एतदेव स्पष्टयति- उपलभ्यन्ते विकारा दृश्यन्ते कपालादयः कुम्भादिविनाशिद्रव्याणाम्, न चैवमत्रेत्यभिप्रायः, नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववत्, इति गाथार्थः। प्रकृतसंबद्धामेव नियुक्तिगाथामाह नि०-निरामयामयभावा बालकयाणुसरणादुवत्थाणा । सुत्ताईहिं अगहणा जाईसरणा थणभिलासा ।। २२६ ॥ निरामयामयभावात् निरामयस्य-नीरोगस्याऽऽमयभावाद्-रोगोत्पत्तेः, उपलक्षणं चैतत् सामयनिरामयभावस्य, तथा चैवं वक्तार उपलभ्यन्ते-पूर्वं निरामयोऽहमासं सम्प्रति सामयो जातःसामयो वा निरामय इति, न चैतन्निरन्वयलक्षणविनाशिन्यात्मन्युपपद्यते, उत्पत्त्यनन्तराभावादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-अवस्थित आत्मा, अनेकावस्थानुभवनात्, बालकुमाराद्यवस्थानु चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् घजीवनिकायः भाष्यम् ४६ अन्यत्वादिद्वारत्रयम्। भाष्यम् ४७ नियुक्तिः २२५-२२६ जीवनित्यत्वसिद्धिः। || २१०॥ For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २११ ।। www.kobatirth.org भवितृदेवदत्तवत्, नित्यत्वादमूर्तः, अमूर्तत्वाद्देहादन्य इति योजना सर्वत्र कार्या तथा बालकृतानुस्मरणात् कृतशब्दोऽत्रानुभूतवचनः, ततश्च बालानुभूतानुस्मरणात्, तथा च बालेनानुभूतं वृद्धोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते, न च अन्येनानुभूतमन्यः स्मरति अतिप्रसङ्गात्, न चेदमनुस्मरणं भ्रान्तम्, बाधाऽसिद्धेः, न च हेतुफलभावनिबन्धनमेतत्, निरन्वयक्षणविनाशपक्षे तस्यैवासिद्धेः, हेतोरनन्तरक्षणेऽभावापत्तेः, असतश्च सद्भावविरोधादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु- अवस्थित आत्मा, पूर्वानुभूतार्थानुस्मरणात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानमत्र गृह्यते, यद्येनोपात्तं कर्म स एव तत्फलमुपभुङ्क्ते, अन्यश्च क्रियाकालोऽन्यश्च फलकालः, एकाधिकरणं चैतद्द्यम्, अन्यथा स्वकृतवेदनासिद्धेः, अन्यकृतान्योपभोगस्य निरुपपत्तिकत्वात्, कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्, संतानपक्षेऽपि कर्तृभोक्तृसंतानिनोर्नानात्वाविशेषात्, शक्तिभेदात्, तस्यैव तथाभावाभ्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च अवस्थित आत्मा, स्वकृतकर्मफलवेदनात्, कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिभिरग्रहणात् श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरपरिच्छित्तेः, न च श्रोत्रादिभिरपरिच्छिद्यमानस्य असत्त्वम्, अवग्रहादीनां स्वसंवेदनसिद्धत्वात्, बौद्धैरप्यतीन्द्रियज्ञानाभ्युपगमात्, ज्ञानस्य च गुणत्वात्, गुणस्य च गुणिनमन्तरेणाभावात्, प्राक्तनज्ञानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः, तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च नित्य आत्मा, गुणित्वे सत्यतीन्द्रियत्वात्, आकाशवत् । तथा जातिस्मरणादिति, जातेरतिक्रान्ताया: स्मरणात्, न चेदमनुस्मरणमननुभूतस्यान्यानुभूतस्य च भवति, अतिप्रसङ्गात्, दृश्यते च क्वचिदिदम्, न चासौ प्रतारकः, तत्कथितार्थसंवादनात्, अनुभवाविशेषे सर्वेषामेव कस्मान्न भवतीति चेद्, उच्यते, कर्मप्रतिबन्धाद् दृढानुभवाभावाद्, इह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनात्, न खलु इह लोके सर्वत्रानुस्मरणदर्शनम्, तद्वदिहापि क्वचिज्जातौ सर्वेषामस्त्विति चेन्न, नष्टचेतसां सर्वत्रानुस्मरणशून्येन व्यभिचारादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च बालकृतानुस्मरणवद्द्रष्टव्य इति । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् ९ षड्जीवनिकायः | निर्युक्तिः २२६ जीवनित्यत्वसिद्धिः। ।। २९९ ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२१२॥ तथा स्तनाभिलाषादिति, तदहर्जातबालकस्यापि स्तनाभिलाषदर्शनात्, न चान्यकालाननुभूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते, प्रयोगश्च- तदहर्जातबालकस्याऽऽद्यस्तनाभिलाषोऽभिलाषान्तरपूर्वकः, अभिलाषत्वाद्, तदन्यस्तनाभिलाषवत्, तद्वदप्रथमत्वसाधनाद् विरुद्धो हेतुरिति चेन्न, प्रथमत्वानुभवेन बाधनात्, 'असति च बाधने विरुद्ध' इति न्यायाद्, अन्यथा हेतूच्छेदप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अक्षरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्वादिति । नित्यादिक्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः । एतामेव नियुक्तिगाथां लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकार: भा० - रोगस्सामयसन्ना बालकयं जं जुवाऽणुसंभरइ । जं कयमन्नंमि भवे तस्सेवन्नत्थुवत्थाणा ।। ४८ ।। रोगस्यामय इति संज्ञा, बालकृतं किमपि वस्तु यद्' यस्माधुवाऽनुस्मरति, तथा यत्कृतमन्यस्मिन् भवे- कुशलाकुशलं कर्म तस्यैव-कर्मणोऽन्यत्र- भवान्तरे उपस्थानात, सर्वत्र भावार्थयोजना कृतैवेति गाथार्थः।।। भा०- णिचो अणिदियत्ता खणिओनवि होइ जाइसंभरणा। थणअभिलासा यतहा अमओ नउ मिम्मउव्व घडो॥ ४९।। नित्य इति, सर्वत्र क्रियाभिसंबध्यते, अतीन्द्रियत्वात्-श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यर्थः, विज्ञेयो ज्ञातव्यः । तथा च जातिस्मरणात्, पाठान्तरं वा क्षणिको न भवति जातिस्मरणादिति, एतदप्यदुष्टमेव, विधिप्रतिषेधाभ्यां साध्यार्थाभिधानात्, स्तनाभिलाषाच्च, तथा अमयोऽयमात्मा, नतु मृन्मय इव घटः, ततश्चाकारण इत्यर्थः। एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति गाथार्थः । तृतीयां नियुक्तिगाथामाह नि०- सव्वन्नुवदिट्ठत्ता सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता। जीवस्स सिद्धमेवं निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं ।। २२७ ।। सर्वज्ञोपदिष्टत्वा दिति नित्यो जीव इति सर्वज्ञोक्तत्वात्, अवितथं च सर्वज्ञवचनम्, तस्य रागादिरहितत्वादिति । तथा चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् पजीवनिकायः भाष्यम् ४८-४९ जीवनित्यत्वसिद्धि। नियुक्ति २२७ जीवकर्तृत्वद्वारम्। ॥ २१२॥ For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् १ षड़जीवनिकायः भाष्यम्५० जीवकर्तृत्वद्वारम्। भाष्यम५१ स्वकर्मफलभोजना दिति स्वोपात्तकर्मफलभोगादित्यर्थः, उपस्थानादेतन्न भिद्यत इति चेन्न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तत्र हि चतुर्थमध्ययन येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कर्मोपतिष्ठत इत्युक्तं तच्चैकस्मिन्नपि जन्मनि संभवति, इदं त्वन्यजन्मान्तरापेक्षयाऽपि गृहात इति न । षड्जीव निकायम, दोषः। तथा अमूर्तत्वादिति मूर्तिरहितत्वाद्, एतदपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यस्मान्न भिद्यत इति चेन्न, तत्र हि श्रोत्रादिभिर्न गृह्यते इत्येतदुक्तम्, इह तु तत्स्वरूपमेव नियम्यते इति, मूर्ताणूनामपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादिति । द्वारत्रयमप्युपसंहरन्नाहजीवस्य सिद्धमेवं नित्यत्वममूर्तत्वमन्यत्वमिति गाथार्थः ।। मूलद्वारगाथाद्वये व्याख्यातमन्यत्वादिद्वारत्रयम्, इदानीं कर्तृता नियुक्ति २२७ रावसरः, तथा चाह भा०- कत्तत्ति दारमहुणा सकम्म्फलभोइणोजओ जीवा । वाणियकिसीवला इव कविलमयनिसेहणं एवं ॥५०॥ ___ कर्तेति द्वारमधुना- तदेतव्याख्यायते, स्वकर्मफलभोगिनो यतो जीवास्तत: कर्तार इति, वणिकृषीवलादय इव, न हामी अकृतमु- देहव्यापित्वं पभुञ्जते इति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु- कर्ताऽऽत्मा, स्वकर्मफलभोक्तृत्वात्, कर्षकादिवत् । ऐदम्पर्यमाह- कपिलमतनिषेधनमेतत् | गुणीद्वार सांख्यमतनिराकरणमेतत्, तत्राकर्तृवादप्रसिद्धेरिति गाथार्थः ॥ मूलद्वारगाथाद्वये व्याख्यातं कर्तृद्वारम्, इदानीं देहव्यापित्वद्वारावसर इत्याह भाष्यकार: भा०-वावित्ति दारमहुणा देहव्वावी मओऽग्गिउण्हं व । जीवो नउ सव्वगओ देहे लिंगोवलंभाओ॥५१॥ व्यापीति द्वारमधुना- तदेतद्व्याख्यायते, देहव्यापी शरीरमानं व्याप्तुं शीलमस्येति तथा मत इष्टः प्रवचनज्ञैः जीवो, नतु सर्वग २१३ इति योगः, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्न चाण्वादिमात्रः, कुत इत्याह- देहे लिङ्गोपलम्भात् शरीर एव सुखादितल्लिङ्गोपलब्धेः, अग्न्यौष्ण्यवत्, उष्णत्वं ह्यग्निलिङ्ग नान्यत्राग्नेः न च नानाविति (गाथा)प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु- शरीरनियतदेश आत्मा, उर्ध्वगतिद्वार For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २१४॥ परिमितदेशे लिङ्गोपलब्धेः, अग्न्योष्ण्यवत् इति गाथार्थः । व्याख्याता प्रथमा मूलद्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीया व्याख्यायते- चतुर्थमध्ययनं तत्र प्रथमं गुणीत्याद्यद्वारम्, तद्व्याचिख्यासयाऽऽह भाष्यकार: षड्जीव निकायम्, भा०- अहुणा गुणित्ति दारं होइ गुणेहिं गुणित्ति विन्नेओ। ते भोगजोगउवओगमाइ रुवाइ व घडस्स ।। ५२।। सूत्रम् अधुना गुणीति द्वारं- तदेतद्व्याख्यायते, भवति गुणैर्हि गुणी, न तद्व्यतिरेकेण 'इति' एवं विज्ञेयः, अनेन गुणगुणिनो षड्जीवनिकाय: भाष्यम् र्भेदाभेदमाह, ते भोगयोगोपयोगादयो गुणा इति, आदिशब्दादमूर्तत्वादिपरिग्रहः, निदर्शनमाह- रूपादय इव घटस्य गुणा ५२-५३ इति गाथार्थः ।। व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां गुणिद्वारम्, अधुनोर्ध्वगतिद्वारावसर इत्याह भाष्यकार: देहव्यापित्वं गुणीद्वार भा०- उटुंगइत्ति अहुणा अगुरुलहुत्ता सभावउड्डगई। दिटुंतलाउएणं एरंडफलाइएहिं च ।। ५३॥ उर्ध्वगतिद्वार ऊर्ध्वगतिरित्यधुना द्वारं- तदेतद्व्याख्यायते, अगुरुलघुत्वात्कारणात्स्वभावतः कर्मविप्रमुक्तः सन्नूर्ध्वगति: जीव इति गम्यते, यद्येवं तर्हि कथमधो गच्छति?, अत्राह- दृष्टान्तःअलाबुना तुम्बकेन, यथा तत्स्वभावत ऊर्ध्वगमनरूपमपि मृल्लेपाजलेऽधो गच्छति तदपगमादूर्ध्वमा जलान्ताद्, एवमात्माऽपि कर्मलेपादधोगच्छति तदपगमादूर्ध्वमा लोकान्तादिति । एरण्डफलादिभिश्च दृष्टान्त इति, अनेन दृष्टान्तबाहुल्यं दर्शयति, यथा चैरण्डफलमपि बन्धनपरिभ्रष्टमूर्ध्वं गच्छति, आदिशब्दादग्न्यादिपरिग्रह । इति गाथार्थः ।। व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायामूर्ध्वगतिद्वारम्, साम्प्रतं निर्मयद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह भा० - अमओय होइ जीवो कारणविरहा जहेव आगासं । समयं च होअनिच्चं मिम्मयघडतंतुमाईयं ।। ५४।। अमयश्च भवति जीवः, न किम्मयोऽपीत्यर्थः, कुत इत्याह- कारणविरहात् अकारणत्वात्, यथैवाकाशं- आकाशवदित्यर्थः, समयं च वस्तु भवत्यनित्यम्, एतदेव दर्शयति- मृन्मयघटतन्त्वादि, यथा मृन्मयो घटस्तन्तुमयः पट इत्यादि, न पुनरात्मा, नित्य भाष्यम्५४ निर्मबद्वारम्। || २१४॥ For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।२१५॥ चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् पजीवनिकाय: भाष्यम् ५५-५६ साफल्यद्वारपरिमाणद्वार इति दर्शितम्। आह- अस्मिन् द्वारे सति अमयो न तु मृन्मय इव घट इति प्राक्किमर्थमुक्तमिति, उच्यते, अत एव द्वारादनुग्रहार्थमुक्तमिति लक्ष्यते, भवति चासकृच्छ्रवणादकृच्छ्रेण परिज्ञानमित्यनुग्रहः, अतिगम्भीरत्वाद्भाष्यकाराभिप्रायस्य न (वा) वयमभिप्राय विद्म इति ।अन्ये त्वभिदधति-अन्यकर्तृकैवासौ गाथेति गाथार्थः।। व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां निर्मयद्वारम्, अधुना साफल्यद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार: भा०-साफल्लदारमहुणा निच्चानिञ्चपरिणामिजीवम्मि। होइ तयं कम्माणं इहरेगसभावओऽजुत्तं ।। ५५ ।। साफल्यद्वारमधुना- तदेतद्व्याख्यायते, नित्यानित्य एव परिणामिनि जीव इति योगः, भवति तत् साफल्यं कालान्तरफलप्रदानलक्षणम्, केषामित्याह- कर्मणां- कुशलाकुशलानाम्, कालभेदेन कर्तृभोक्तृपरिणामभेदे सत्यात्मनस्तदुभयोपपत्तेः कर्मणां कालान्तरफलप्रदानमिति, इतरथा पुनर्यद्येवं नाभ्युपगम्यते तत एकस्वभावत्वतः कारणादयुक्तं 'तत्' कर्मणां साफल्यमिति, एतदुक्तं भवति- यदि नित्य आत्मा कर्तृस्वभाव एव कुतोऽस्य भोगः?, भोक्तृस्वभावत्वे चाकर्तृत्वम्, क्षणिकस्य तु कालद्वयाभावादेवैतदुभयमनुपपन्नम्, उभये च सति कालान्तरफलप्रदानेन कर्म सफलमिति गाथार्थः ।। द्वितीयमलद्वारगाथायां व्याख्यातं साफल्यद्वारम्, अधुना परिमाणद्वारमाह भा०- जीवस्स उ परिमाणं वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा य सुहमा तस्स पएसा असंखेजा।॥५६॥ । जीवस्य तु परिमाणं विततस्य विस्तरतो विस्तरेण यावल्लोकमात्रमेव, एतच्च केवलिसमुद्धातचतुर्थसमये भवति, तत्रावगाहना च सूक्ष्मा विततैकैकप्रदेशरूपा भवति, तस्य जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः सर्व एव लोकाकाशप्रदेशतुल्या इति गाथार्थः ।। 0भाष्यगाथा ४९ अन्त्यभागः। For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra T श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २१६ ।। www.kobatirth.org अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह भा०- पत्थेण व कुलएण व जह कोइ मिणेच सव्वधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंता उ ।। ५७ ।। प्रस्थेन वा चतुः कुडवमानेन कुडवेन वा चतुः सेतिकामानेन यथा कश्चित्प्रमाता मिनुयात् सर्वधान्यानि व्रीह्मादीनि एवं मीयमाना असद्भावस्थापनया भवन्ति लोका अनन्तास्तु, जीवभृता इति भावः । आह- यद्येवं कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति ?, उच्यते, सूक्ष्मावगाहनया, यत्रैकस्तत्रानन्ता व्यवस्थिताः, इह तु प्रत्येकावगाहनया चिन्त्यन्ते इति न दोषः, दृष्टं च बादरद्रव्याणामपि प्रदीपप्रभापरमाण्वादीनां तथापरिणामतो भूयसामेकत्रैवावस्थानमिति गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां परिमाणद्वारम्, तद्व्याख्यानाच्च द्वितीया मूलद्वारगाथा जीवपदं चेति । साम्प्रतं निकायपदं व्याचिख्यासुराह नि०- णामं ठवणसरीरे गई णिकायत्थिकाय दविए य माउगपज्जवसंगहभारे तह भावकाए य ।। २२८ ।। नामस्थापने क्षुण्णे, शरीरकायः शरीरमेव, तत्प्रायोग्याणुसंघातात्मकत्वात्, गतिकायो- यो भवान्तरगतौ, स च तैजसकार्मणलक्षणः, निकायकाय :- षड्जीवनिकायः, अस्तिकायो- धर्मास्तिकायादिः, द्रव्यकायश्च त्र्यादिघटादिद्रव्यसमुदायः, मातृकाकायः त्र्यादीनि मातृकाक्षराणि, पर्यायकायो द्वेधा- जीवाजीवभेदेन, जीवपर्यायकायो- ज्ञानादिसमुदायः, अजीवपर्यायकायो- रूपादिसमुदायः, संग्रहकाय:- संग्रहैकशब्दवाच्यस्त्रिकटुकादिवत्, भारकाय:- कापोती, वृद्धास्तु व्याचक्षतेएगो काओ दुहा जाओ, एगो चिट्ठइ एगो मारिओ जीवंतो मएण मारिओ, तल्लव माणव! केण उणा ? ॥ १ ॥ उदाहरणं- एगो © एकः कायो द्विधा जात एकस्तिष्ठति एको मृतः । जीवन् मृतेन मारितः तल्लप मानव! केन हेतुना ? ॥ १ ॥ उदाहरणं एक For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं | षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम् ५७ साफल्यद्वारंपरिमाणद्वारे चा नियुक्ति २२८ निकायपदव्याख्या । ।। २९६ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् निकायम, सूत्रम् २२७॥ ख्याख्या काहरो तलाए दो घडा पाणियस्स भरेऊण कावोडीए वहइ, सो एगो आउक्कायकायो दोसु घडेसु दुहा कओ, तओ सो चतुर्थमध्ययन काहरो गच्छंतो पक्खलिओ, एगो घडो भग्गो, तम्मि जो आउक्काओ सो मओ, इयरम्मि जीवइ, तस्स अभावे सोऽवि षड्जीवभग्गो, ताहे सो तेण पव्वमएण मारिओ त्ति भण्ण्ड। अहवा- एगो घडो आउक्कायभरिओ, ताहे तमाउकायं दुहा काऊण : अद्धो ताविओ, सोमओ, अताविओ जीवइ, ताहे सोऽवि तत्थेव पक्खित्तो, तेण मएण जीवंतो मारिओ त्ति । एस भारकाओ षड़जीवनिकायः नियुक्ति २२९ गओ। भावकायश्चौदयिकादिसमुदायः, इह च निकायः काय इत्यनर्थान्तरमितिकृत्वा कायनिक्षेप इत्यदुष्ट एवेति गाथार्थः ।।। निकायपदनि०- इत्थं पुण अहिगारो निकायकाएण होइ सुत्तमि । उच्चारिअत्थसदिसाण कित्तणं सेसगाणंपि ।। २२९ ।। अत्र पुनः सूत्र इति योगः, (सूत्र इत्यधिकृताध्ययने) किमित्याह- अधिकारी निकायकायेन भवति, अधिकार:- प्रयोजनम्, शेषाणामुपन्यासवैयर्थ्यमाशङ्कयाह- उच्चरितार्थसदृशानां- उच्चरितो निकायः तदर्थतुल्यानां कीर्तनं- संशब्दनं शेषाणामपिनामादिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात्प्रदेशान्तरोपयोगित्वाच्चेति गाथार्थः ।। व्याख्यातं निकायपदम्, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं- इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या सूअक्खाया सूपन्नत्ता सेयं मे अहिचिउं अज्झयणं धम्मपण्णत्ती। कयरा खल सा छजीवणियानामज्झयणं समजेणं भयवया - कापोतीकस्तटाकात् द्वौ पानीयस्य घटौ भृत्वा कापोत्या वहति, स एकोऽप्कायो द्वयोर्घटयोर्द्विधा कृतः, ततः स कापोतीको गच्छन् प्रस्खलितः, एको घटो भन्नः, तस्मिन् योऽप्कायः स मृतः, इतरस्मिन् जीवति, तस्याभावे सोऽपि भन्नः, तदा स तेन पूर्वमतेन मारित इति भण्यते । अथवैको घटोऽप्कायभृतः, ततस्तमप्कायंत्र द्विधाकृत्वाऽर्धस्तापितः, स मृतः, अतापितो जीवति, ततः सोऽपि तत्रैव प्रक्षिप्तः, तेन मृतेन जीवन् मारित इति । एष भारकायो गतः। For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ।। २१८॥ चतुर्थमध्ययन षड़जीवनिकायम, सूत्रम् १ षड़जीवनिकायः स्थावरत्रसानां भेदाः। महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती?। इमा खलु सा छजीवणिया नामज्झयण समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती॥ तंजहा- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया। पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तंजहा- अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा संमुच्छिमा तणलया, वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ।। से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा- अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा संमुच्छिमा उब्भिया उववाइया। जेसि केसिंचि पाणाणं अभिकत पडिकंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया जे य कीडपयंगा जा य कुंथुपिपीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिंदिया सव्वे पंचिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुआ सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिआ। एसो खलु छट्ठो जीवनिकाओ तसकाउत्ति पवुच्चइ ।। सूत्रम् १॥ श्रूयते तदिति श्रुतं- प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं भगवता निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते, श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः, मये त्यात्मपरामर्शः, आयुरस्यास्तीत्यायुष्मान् तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन्!, कः कमेवमाह?- सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिति, तेने ति भुवनभर्तुः परामर्शः, भगःसमग्रैश्वर्यादिलक्षण इति, उक्तं च- ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥१॥ HTTER For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् सोऽस्यास्तीति भगवांस्तेन भगवता- वर्धमानस्वामिनेत्यर्थः, एव मिति प्रकारवचन:शब्दः, आख्यात मिति केवलज्ञानेनोप- चतुर्थमध्ययनं षड्जीवलभ्यावेदितम्, किमत आह- इह खलु षड्जीवनिकायनामाध्ययनम, अस्तीति वाक्यशेषः, इहे ति लोके प्रवचने वा, खलुशब्दा निकायम्, दन्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु च, षड्जीवनिकाये ति पूर्ववत्, नामे त्यभिधानम्, अध्ययन मिति पूर्ववदेव । इह च श्रुतं मये त्यनेनात्म सूत्रम् १ परामर्शेनैकान्तक्षणभङ्गापोहमाह, तत्रेत्थंभूतार्थानुपपत्तेरिति, उक्तं च,- एगंत खणियपक्खे गहणं चिअ सव्वहा ण अत्थाणं ।। षड्जीवनिकायः स्थावरअणुसरणसासणाई कुओ उ तेलोगसिद्धाइं?॥१॥तथा आयुष्म निति च प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्याया त्रसानां भेदाः। गमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह, तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति, उक्तं च- आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्धतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ।। १॥ आयुश्च प्रधानो गुणः, सति तस्मिन्नव्यवच्छित्तिभावात्, तथा तेन भगवता एवमाख्यात मित्यनेन स्वमनीषिकानिरासाच्छास्त्रपारतन्त्र्यप्रदर्शनेन न सर्वज्ञेन अनात्मवता अन्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोकदेशना कार्येत्येतदाह, विपर्ययसंभवाद्, उक्तं च- किं इत्तो पावयर? समं अणहिगयधम्मसब्भावो । अण्णं कुदेसणाए कट्टयरागमि पाडे। १॥अथवाऽन्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेश:- आउसंतेणं ति भगवत एव विशेषणम्, आयुष्मता भगवता-चिरजीविनेत्यर्थः, मङ्गलवचनं चैतद्, अथवा जीवता साक्षादेव, अनेन च गणधरपरम्परागमस्य जीवनविमुक्तानादिशुद्धवक्तुश्चापोहमाह, देहाद्यभावेन तथाविधप्रयत्नाभावात, उक्तं च-वयणं न कायजोगाभावेण यसो अणादिसुद्धस्स। गहणमियणो हेऊसत्यं । । एकान्तक्षणिकपक्षे ग्रहणमेव सर्वथा नार्थानाम् । अनुस्मरणशासनानि कुतस्तु त्रैलोक्य (ते लोक०) सिद्धानि ॥ १॥ ॐ आमे घटे निहितं यथा जलं तं घट ॥२१९ ।। विनाशयति । इति (एवं) सिद्धान्तरहस्यमल्पाधार विनाशयति ॥१॥0 किमेतस्मात्पापकरं सम्यगनधिगतधर्मसद्भावः। अन्य कुदेशनया कष्टकरागसि पातयति ॥१॥ BO वचन न काययोगाभावे न च सोऽनादिशुद्धस्य । ग्रहणे च नो हेतु: * लोक्क० प्र.। * कायस्येति । For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ।। २२०॥ षड्जीवनिकायम, स्थावरत्रसानां भेदाः। अत्तागमो कह णु॥१॥अथवा 'आवसंतेणं ति गुरुमूलमावसता, अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा भाव्यमित्येतदाह, चतुर्थमध्ययन ज्ञानादिवृद्धिसद्भावाद्, उक्तं च-णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥ अथवा 'आमुसंतेणं' आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन, अनेन च विनयप्रतिपत्तेर्गरीयस्त्वमाह, विनयस्य सूत्रम् १ मोक्षमूलत्वात्, उक्तं च- मूलं संसारस्सा होंति कसाया अणंतपत्तस्स । विणओ ठाणपउत्तो दुक्खविमुक्खस्स मोक्खस्स ॥१॥ कृतं । षड्जीवनिकायः प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुम:- तत्र इह खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीत्युक्तम्, अत्राह-एषा षड्जीवनिकायिका केन प्रवेदिता प्ररूपिता वेति?, अत्रोच्यते, तेनैव भगवता, यत आह- समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ते ति, सा च तेन श्रमणेन महातपस्विना भगवता समग्रैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण शूर वीरविक्रान्ता' विति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, उक्तं च- विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः॥१॥ महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तेन महावीरेण, काश्यपेने ति काश्यपसगोत्रेण, प्रवेदिता नान्यतः कुतश्विदाकर्ण्य ज्ञाता किं तर्हि?, स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षण वेदिता प्रवेदिता-विज्ञातेत्यर्थः, तथा स्वाख्याते ति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्ठु आख्याता स्वाख्याता, तथा सुप्रज्ञप्ते ति सुष्टु प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सुष्ठु- सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञपिरासेवनार्थः, तां चैवंभूतां षड्जीवनिकायिका श्रेयो मेऽध्येतुं श्रेयः- पथ्यं हितम्, ममेत्यात्मनिर्देशः, छान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये, ततश्च श्रेय आत्मनोऽध्ये तुम्,'अध्येतु'मिति पठितुं श्रोतु भावयितुम्, कुत ॥ २२० ।। 1- शास्त्रमात्मागमः (आमागमः) कथं नु? ॥१॥ ॐ ज्ञानस्य भागी भवति स्थिरतरः दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ।। १।। 0 मूलं संसारस्य भवन्ति कषाया अनन्तपत्रस्य । विनय: स्थानप्रयुक्तो दुःखविमुक्तस्य मोक्षस्य ॥१॥ 0 आत्मार्थः । For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२२१ ।। चतुर्थमध्ययनं षड़जीवनिकायम्, सूत्रम् १ घजीवनिकायः स्थावरत्रसानांभेदाः। इत्याह-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः निमित्तकारणहेतुषु सर्वासांप्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, अध्ययनत्वाद्-अध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्ध्यापादनादित्यर्थः, एतदेव कुत इत्याह- धर्मप्रज्ञप्तेः प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः, ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणाच्चेतसो विशुद्ध्यापादनं चेतसो विशुद्ध्यापादनाच्च श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये तु व्याचक्षते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवादमात्रमेतदिति ।। शिष्यः पृच्छति-कतरा खल्वि त्यादि, सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनैतदर्शयति-विहायाभिमानं संविग्नेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति, आचार्य आह- इमा खल्वि त्यादि सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनाप्येतद्दर्शयति-गुणवते शिष्याय गुरुणाऽप्युपदेशो दातव्य एवेति। तंजहा- पुढविकाइया इत्यादि, अत्र तद्यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, पृथिवी- काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव कायः- शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः, पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, स्वार्थिकष्ठक्, आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव काय:- शरीरं येषां तेऽप्कायाः, अप्काया एव अप्कायिकाः। तेज- उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव काय:- शरीरं येषां ते तेजःकायाः, तेजःकाया एव तेजःकायिकाः। वायु:- चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय:-शरीरं येषां ते वायुकायाः, वायुकाया एव वायुकायिकाः । वनस्पति:- लतादिरूपः प्रतीतः, स एव काय:शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः । एवं त्रसनशीलास्त्रसाः- प्रतीता एव, त्रसा:काया:शरीराणि येषां ते त्रसकायाः, त्रसकाया एव त्रसकायिकाः । इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामभिधानम्, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानामपि, तदनन्तरं तत्प्रतिपक्षत्वात्तेजस्कायिकानाम्, तदनन्तरं तेजस उपष्टम्भकत्वाद्वायुकायिकानाम, तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलनादिगम्यत्वादनस्पतिकायिकानाम, तदनन्तरं वनस्पतेस्त्रसोपOविभक्तीनाम्। For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SCHE8 षड्जीव श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२२२॥ षड़जीवनिकाय: २३०-२३१ द्रव्यभावभेदपृथिव्यादीनां शस्त्रम्। ग्राहकत्वात् त्रसकायिकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासार्थं पुनराह- पुढवी चित्तमंतमक्खाया 'पृथिवी' उक्तलक्षणा 'चित्तवती'ति 8 चतुर्थमध्ययन चित्तं- जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती- सजीवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' अत्र मात्रशब्दः निकायम्, स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति, ततश्च चित्तमात्रास्तोकचित्तेत्यर्थः, तथा च प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्य सूत्रम् मेकेन्द्रियाणाम्, तदभ्यधिकं द्वीन्द्रियादीनामिति, 'आख्याता' सर्वज्ञेन कथिता, इयं च अनेकजीवा अनेके जीवा यस्यां नियुक्तिः साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां 'पृथिवी देवते' त्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्षयेष्यत एव, यथाहुरेके- एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्॥१॥ अत आह-पृथक्सत्वा पृथग्भूताः सत्त्वा- आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा, अङ्गलासंख्येयभागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः। आह- यद्येवं जीवपिण्डरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुच्चारादिकरणे नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंभवी साधुधर्म इत्यत्राह- अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय-परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः। अथ किमिदं पृथिव्याः शस्त्रमिति शस्त्रप्रस्तावात्सामान्यत एवेदं द्रव्यभावभेदभिन्नं शस्त्रमभिधित्सुराह नि०- दव्वं सत्थग्गिविसंनेहंबिल खारलोणमाईयं । भावो उ दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई अ।। २३० ।। द्रव्य मिति द्वारपरामर्शः, तत्र द्रव्यशस्त्रं खङ्गादि, अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिद्धानि, क्षारलवणादीनि अत्र तु क्षार:- करीरादिप्रभवः, लवणं-प्रतीतम्, आदिशब्दात्करीषादिपरिग्रहः । उक्तं द्रव्यशस्त्रम्, अधुना भावशस्त्रमाह- भावस्तु दुष्प्रयुक्तौ वाक्कायौ । अविरतिश्च भावशस्त्रमिति, तत्र भावो दुष्प्रयुक्त इत्यनेन द्रोहाभिमानेादिलक्षणो मनोदुष्प्रयोगो गृह्यते, वाग्दुष्प्रयोगस्तु हिंस्रपरुषादिवचनलक्षणः, कायदुष्प्रयोगस्तू धावनवल्गनादिः, अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवत्तिः. For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २२३ ।। एतानि तच्च त्रिप्रकारं भवतीत्याह www.kobatirth.org स्वपरव्यापादकत्वात्कर्मबन्धनिमित्तत्वाद्भावशस्त्रमिति गाथार्थः । इह न भावशस्त्रेणाधिकारः, अपितु द्रव्यशस्त्रेण, नि०- किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एवं तु दव्वसत्थं भावे अस्संजमो सत्थं ।। २३१ ।। किंचित्स्वकायशस्त्रम्, यथा कृष्णा मृद् नीलादिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्शभेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या, तथा किञ्चित्परकाये ति परकायशस्त्रम्, यथा पृथ्वी अप्तेजः प्रभृतीनां अप्तेजःप्रभृतयो वा पृथिव्याः, तदुभयं किञ्चिदिति किञ्चित्तदुभयशस्त्रं भवति, यथा कृष्णा मृद् उदकस्य स्पर्शरसगन्धादिभिः पाण्डुमृदश्च यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति, एवं (तत्) तु द्रव्यशस्त्रम्, तुशब्दोऽनेकप्रकारविशेषणार्थः, एतदनेकप्रकारं द्रव्यशस्त्रम्, भाव इति द्वारपरामर्श:, असंयमः शस्त्रं चरणस्येति गाथार्थः । एवं च परिणतायां पृथ्व्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संभवी साधुधर्म इति। एष तावदागमः, अनुमानमप्यत्र विद्यते सात्मका विद्रुमलवणोपलादयः पृथिवीविकाराः, समानजातीयाङ्करोत्पत्त्युपलम्भात्, देवदत्तमांसाङ्गवत्, एवमागमोपपत्तिभ्यां व्यवस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम्, उक्तं च- आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्णं दृष्टिलक्षणम्। अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥ १॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥ २ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन। एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः, तेजश्चित्तवदाख्यातम्, वायुश्चित्तवानाख्यातः, वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । विशेषस्त्वभिधीयते - सात्मकं जलम्, भूमिखातस्वाभाविकसंभवात्, दर्दुरवत्। सात्मकोऽग्निः, आहारेण वृद्धिदर्शनात्, बालकवत् । सात्मकः पवनः, अपरप्रेरिततिर्यग्निगनियमितदिग्गमनाद्, गोवत् । सचेतनास्तरवः, सर्वत्वगपहरणे मरणाद्, गर्दभवत् । वनस्पतिजीवविशेषप्रतिपादनायाह- तंजहा अग्गबीया For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्. सूत्रम् १ | षड्जीवनिकायः निर्युक्तिः २३०-२३१ द्रव्यभावभेद पृथिव्यादीनां शस्त्रम्। ।। २२३ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षड़जीव श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२२४।। षड़जीवनिकाय: स्वरूपम्। इत्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, अग्रबीजा इति- अगं बीजं येषां ते अग्रबीजा:- कोरण्टकादय:- एवं मूलं बीजं येषां ते । चतुर्थमध्ययनं मूलबीजा- उत्पलकन्दादयः, पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा- इक्ष्वादयः, स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः- शल्लक्यादयः, तथा निकायम्, बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः- शाल्यादयः, संमूर्च्छन्तीति संमूर्च्छिमाः- प्रसिद्धबीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधा सूत्रम् स्तृणादयः, न चैते न संभवन्ति, दग्धभूमावपि संभवात्, तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इति, अत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेक नियुक्ति: २३२ भेदसंदर्शनार्थम्, वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मबादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्रहार्थम्, एतेन पृथिव्यादीनामपि स्वगताः भेदाः। मूलादि जीव पृथिवीशर्करादयः तथाऽवश्यायमिहिकादयस्तथा अङ्गारज्वालादयः, तथा झञ्झामण्डलिकादयो (भेदाः) सूचिता इति । सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इति, एते ह्यनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजा:- स्वस्वनिबन्धनाश्चित्तवन्त:- आत्मवन्त । आख्याताः कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगण्डिका पूर्ववत् । सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इत्युक्तम्, अत्र च। भवत्याशङ्का-किं बीजजीव एव मूलादिजीवो भवत्युतान्यस्तस्मिन्नुत्क्रान्ते उत्पद्यते इति?, अस्य व्यपोहायाह नि०- बीए जोणिब्भूए जीवो वुक्कमइ सो य अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सोऽविय पत्ते पढमयाए ।। २३२ ।। बीजे योनिभूते इति, बीजं हि द्विविधं भवति- योनिभूतमयोनिभूतं च, अविध्वस्तयोनि विध्वस्तयोनि च, प्ररोहसमर्थं । तदसमर्थं चेत्यर्थः । तत्र योनिभूतं सचेतनमचेतनंच, अयोनिभूतं तु नियमादचेतनमिति । तत्र बीजे योनिभूते इत्यनेनायोनिभूतस्य । व्यवच्छेदमाह, तत्रोत्पत्त्यसंभवाद्, अबीजत्वादित्यर्थः। योनिभूते तु-योन्यवस्थे बीजे, योनिपरिणाममत्यजतीत्युक्तं भवति, किमित्याह- जीवो व्युत्क्रामति- उत्पद्यते, स एव-पूर्वको बीजजीवः, बीजनामगोत्रे कर्मणी वेदयित्वा मूलादिनामगोत्रे चोपनिबद्ध्य, अन्यो वा पृथिवीकायिकादिजीव एवमेव, योऽपि च मूले जीव इति य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च । For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२२५॥ चतुर्थमध्ययनं षड़जीवनिकायम, सूत्रम् षड़जीवनिकायः भाष्यम ५८-५९ मूलादि जीव स्वरूपम्। पत्रे प्रथमतयेति-स एव प्रथमपत्रतयाऽपिपरिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । आह-यद्येवं सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणिओ' इत्यादि कथं न विरुध्यते इति?, उच्यते, इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तदुच्छूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किसलयावस्थां नियमेनानन्तजीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतर्नु परिणम्य(मय्य) स्वशरीरतया तावद्वर्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचक्षतेप्रथमपत्रकमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था, नियमप्रदर्शनपरमेतत्, शेषं किसलयादिसकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति मन्तव्यम्, ततश्च सव्वोऽवि किसलओखलु उग्गममाणो अणंतओ होइ'इत्याद्यप्यविरुद्धम्, मूलपत्रनिर्वर्तनारम्भकाले किसलयत्वाभावादिति गाथार्थः ।। एतदेवाह भाष्यकार: भा०- विद्धत्थाविद्धत्था जोणी जीवाण होइ नायव्वा । तत्थ अविद्धत्थाए वक्कमई सोय अन्नो वा ।। ५८।। विध्वस्ताऽविध्वस्ता- अप्ररोहप्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां भवति ज्ञातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चान्यो वा, जीव इति गम्यत इति गाथार्थः॥ भा०- जो पुण मूले जीवो सो निव्वत्तेइ जा पढमपत्तं । कंदाइ जाव बीयं सेसं अन्ने पकुव्वंति ॥ ५९॥ यः पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निर्वर्तयति यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेव । कन्दादि । यावद्वीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति, वनस्पतिजीवा एव, व्याख्याद्वयपक्षेऽप्येतदविरोधि, एकतः समुच्छूनावस्थाया एव प्रथमपत्रतया । विवक्षितत्वात्तदनु कन्दादिभावतः अन्यत्र कन्दादेवनस्पतिभेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्तरकालमेव भावादिति गाथार्थः। 0 सर्वोऽपि किशलयः खलु उद्गच्छन् अनन्तको भणितः । ॥ २२५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २२६॥ अतिदेशमाह चतुर्थमध्ययन भा०- सेसं सुत्तप्फासं काए काए अहक्कम बूया। अज्झयणत्था पंच य पगरणपयवंजणविसुद्धा ।। ६०॥ षड्जीव निकायम्, शेष सूत्रस्पर्श उक्तलक्षणं काये काये पृथिव्यादौ यथाक्रमं यथापरिपाटि ब्रूयात् अनुयोगधर एव, न केवल सूत्रस्पर्शमेव, किंतु सूत्रम् ? अध्ययनार्थान् पञ्च च- प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवाभिगमादीन् प्रकरणपदव्यञ्जनविशुद्धान् ब्रूयात्, सूत्र एव जीवाभिगमः काये । घजीवनिकायः भाष्यम् ६० काये इत्यनेनैव लब्ध इति पञ्चग्रहणम्, अन्यथा षडिहार्थाधिकारा इति । प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणं- अनेकार्था त्रसाधिकारः। धिकारवत्कायप्रकरणादि, पदं सुबन्तादि, कादीनि व्यञ्जनानि, एभिर्विशुद्धान् ब्रूयादिति गाथार्थः ।। इदानीं त्रसाधिकार एतदाह- से जे पुण इमे इति, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, असावप्युपन्यासार्थः, 'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचन-- समुच्चयेष्विति वचनात्, अथ ये पुनरमी- बालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके- द्वीन्द्रियादिभेदेन बहवः एकैकस्यां जातौ त्रसाः ।। प्राणिन:- त्रस्यन्तीति त्रसाः प्राणा- उच्छ्वासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः, तद्यथा- अण्डजा इत्यादि, एष खलु षष्ठो । जीवनिकायः त्रसकाय इति प्रोच्यत इति योगः, तत्राण्डाजाता अण्डजा:- पक्षिगृहकोकिलादयः, पोता एव जायन्त इति । पोतजाः, अन्येष्वपि दृश्यते (पा०३-२-१०१) डप्रत्ययो जनेरिति वचनात् । ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलौकाप्रभृतयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा- गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, अत्रापि पूर्ववड्डप्रत्ययः, रसाज्जाता रसजा:- तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति, संस्वेदाज्जाता इति संस्वेदजा- मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, संमूर्च्छनाज्जाताः संमूर्छनजा:- शलभपिपीलिकामक्षिकाशालूकादयः, उद्भेदाज्जन्म येषां ते उद्भेदाः, अथवा उद्भेदनमुद्भित् उद्भिज्जन्म येषां ते । उद्भिज्जा:- पतङ्गखजरीटपारिप्लवादयः, उपपाताज्जाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका- देवा नारकाश्च । For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् षड्जीवनिकायम, ॥ २७॥ भाष्यम६० त्रसाधिकारः। एतेषामेव लक्षणमाह- येषां केषाश्चित्सामान्येनैव प्राणिनां- जीवानामभिक्रान्तं भवतीति वाक्यशेषः, अभिक्रमणमभिक्रान्तम्, चतुर्थमध्ययन भावे निष्ठाप्रत्ययः, प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः, एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं- प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणमिति भावः, संकुचनं संकुचितं- गात्रसंकोचकरणम्, प्रसारणं प्रसारितं- गात्रविततकरणम्, रवणं रुतं- शब्दकरणम्, भ्रमणं भ्रान्तं- इतश्वेतश्च । सूत्रम् गमनम्, त्रसनं त्रस्तं-दुःखादुद्वेजनम्, पलायनं पलायितं- कुतश्चिन्नाशनम्, तथाऽऽगतेः-कुतश्चित्क्वचित्, गतेश्च- कुतश्चित्क्वचिदेव, षड्जीवनिकाय: विण्णाया विज्ञातारः। आह- अभिक्रान्तप्रतिक्रान्ताभ्यां नागतिगत्योः कश्चिद्भेद इति किमर्थं भेदेनाभिधानम्?, उच्यते, । विज्ञानविशेषख्यापनार्थम्, एतदुक्तं भवति- य एव विजानन्ति यथा वयमभिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा त एव त्रसाः, न तु वृति प्रत्यभिक्रमणवन्तोऽपि वल्ल्यादय इति । आह- एवमपि द्वीन्द्रियादीनामत्रसत्वप्रसङ्गः, अभिक्रमणप्रतिक्रमणभावेऽप्येवंविज्ञानाभावात्, नैतदेवम्, हेतुसंज्ञाया अवगतेः, बुद्धिपूर्वकमिव छायात उष्णमुष्णाद्वा छायां प्रति तेषामभिक्रमणादिभावात्, न चैवं वल्ल्यादीनामभिक्रमणादि, ओघसंज्ञया प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन । अधिकृतत्रसभेदानाह-जे य इत्यादि, ये च। कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटा:- कृमयः,- एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण मिति द्वीन्द्रियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते, पतङ्गाः- शलभा, अत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयोऽपि गृह्यन्त इति, तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते, अत: एवाह- सर्वे द्वीन्द्रियाः- कृम्यादयः सर्वे त्रीन्द्रियाः- कुन्थ्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः- पतङ्गादयः। आह- ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थं?, उच्यते, विचित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थम्, सर्वे पश्चेन्द्रियाः सामान्यतो, विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो- गवादयः, सर्वे नारका- रत्नप्रभानारकादिभेदभिन्नाः, सर्वे मनुजाः- कर्मभूमिजादयः, सर्वे देवाभवनवास्यादयः, सर्वशब्दश्चात्र परिशेषभेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः, सर्व एवैते त्रसा न त्वेकेन्द्रिया इव वसाः स्थावराश्चेति, For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २२८ ।। www.kobatirth.org उक्तं च- पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः (तत्त्वा० अ० २ सू० १३-१४ ) इति । सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इति सर्व एते प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति अत्र परमं सुखं तद्धर्माण: सुखधर्माण:सुखाभिलाषिण इत्यर्थः, यतश्चैवमित्यतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेतेति योगः । षष्ठं जीवनिकायं निगमयन्नाह एष खलु- अनन्तरोदितः कीटादिः षष्ठो जीवनिकायः पृथिव्यादिपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य, त्रसकाय इति प्रोच्यते प्रकर्षेणोच्यते सर्वैरेव तीर्थकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात्, घटवत् । आह- इदं त्रसकायनिगमनमनभिधाय अस्थाने 'सर्वे प्राणिनः परमधर्माण' इत्यनन्तरसूत्रसंबन्धिसूत्राभिधानं किमर्थं ?, उच्यते, निगमनसूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्यापनार्थम्, तथाहित्रसकायनिगमनसूत्रावसानो जीवाभिगमः, अत्रान्तरे अजीवाभिगमाधिकारः, तदर्थमभिधाय चारित्रधर्मो वक्तव्यः, तथा च वृद्धव्याख्या- एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउत्ति पवुच्चइ, एस ते जीवाभिगमो भणिओ, इयाणि अजीवाभिगमो भण्णइ- अजीवा दुविहा, तंजहा पुग्गला य नोपोग्गला य, पोग्गला छव्विहा, तंजहा- सुहुमसुहुमा सुहुमा सुहुमबायरा बायरसुहुमा बायरा बायरबायरा । सुहुमसुहुमा परमाणुपोग्गला, सुहुमा दुपएसियाओ आढत्तो जाव सुहुमपरिणओ अनंतपएसिओ खंधो, सुहुमबायरा गंधपोग्गला, बायरसुहुमा वाउक्कायसरीरा, बादरा आउक्कायसरीरा उस्सादीणं, बायरबायरा © एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकाय इति प्रोच्यते, एष तुभ्यं जीवाभिगमो भणितः, इदानीमजीवाभिगमो भण्यते- अजीवा द्विविधाः, तद्यथा- पुद्गलाश्च नोपुद्गलाश्च, पुद्गलाः षड्विधाः, तद्यथा सूक्ष्मसूक्ष्माः सूक्ष्माः सूक्ष्मबादरा बादरसूक्ष्मा बादरा बादरबादराः । सूक्ष्मसूक्ष्माः परमाणुपुद्गलाः, सूक्ष्मा द्विप्रदेशिकादारब्धो यावत्सूक्ष्मपरिणतोऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः, सूक्ष्मबादरा गन्धपुद्गलाः, बादरसूक्ष्मा वायुकायशरीराणि, बादरा अप्कायशरीराणि अवश्यायादीनाम्, बादरबादरा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् १ षड्जीवनिकायः भाष्यम् ६० त्रसाधिकारः । ।। २२८ ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम, सूत्रम् २ घटकायविराधना निरूपणम्। ॥२२९॥ तेउवणस्सइपुढवितससरीराणि । अहवा चउव्विहा पोग्गला, तंजहा- खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला, एस पोग्गलत्थिकाओगहणलक्खणो, णोपोग्गलत्थिकाओ तिविहो, तंजहा-धम्मत्थिकाओ अधम्मत्थिकाओ आगासत्थिकाओ, तत्थ धम्मत्थिकाओ गइलक्खणो, अधम्मत्थिकाओ ठिइलक्खणो, आगासत्थिकाओ अवगाहलक्खणो,तथा चैतत्संवाद्यार्ष- दुविहा हुँति अजीवा पोग्गलनोपोग्गला य छ त्तिविहा परमाणुमादि पोग्गल णोपोग्गल धम्ममादीया ॥१॥ सुहुमसुहुमा यह सुहमा तह चेव य सुहमबाययराणेया। बायरसुहमा बायर तह बायरबायरा चेव॥२॥ परमाणु दुप्पएसादिगा उ तह गंधपोग्गला होन्ति।। वाऊआउसरीरा तेऊमादीण चरिमा उ॥३॥ धम्माधम्माऽऽगासा लोए णोपोग्गला तिहा होति । जीवाईण गइट्टिइअवगाहणिमित्तगा। णेया ॥४॥ इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभिज्जा नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविजा दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएकाएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। सूत्रम् २॥ स्तेजोवनस्पतिपृथ्वीत्रसशरीराणि । अथवा चतुर्विधाः पुद्गलाः, तद्यथा- स्कन्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः परमाणुपुद्गलाः । एष पुद्गलास्तिकायो ग्रहणलक्षणः, नोपुद्गलास्तिकायस्त्रिविधः, तद्यथा- धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकाया, तत्र धर्मास्तिकायो गतिलक्षणः अधर्मास्तिकायः स्थितिलक्षणः आकाशास्तिकायोऽवगाहलक्षणः।- द्विविधा भवन्त्यजीवाः पुद्गला नोपुद्गलाश्च षट् त्रिविधाः। परमाण्वादयः पुद्गला नोपुद्गला धर्मास्तिकायादयः ।। १ ।। सूक्ष्मसूक्ष्माश्च असूक्ष्मास्तथैव सूक्ष्मबादरा ज्ञेयाः। बादरसूक्ष्मा बादरास्तथा बादरबादराश्चैव ।। २।। परमाणुप्रिदेशिकास्तु तथा गन्धपुद्गला भवन्ति । वायुरप्छरीराणि तेजआदीनां चरमास्तु 8॥३॥ धर्माधर्माकाशास्तिकाया लोके नोपुद्गलास्त्रिधा भवन्ति । जीवादीनां गतिस्थित्यवगाहनिमित्ता ज्ञेयाः ॥ ४॥ ॥ २२९ ।। 3858088888 E880 For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२३०॥ षटकायविराधना निरूपणम्। उक्तो जीवाभिगमः, साम्प्रतं चारित्रधर्मः, तत्रोक्तसंबन्धमेवेदं सूत्रं- इचेसिं इत्यादि, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन । चतुर्थमध्ययन हेतुना एतेषां षण्णां जीवनिकायाना मिति, सुपांसुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी, एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु-अनन्तरोदितस्वरूपेषु । षड्जीव निकायम्, नैव स्वयं आत्मना दण्डं संघट्टनपरितापनादिलक्षणं समारभेत प्रवर्तयेत्, तथा नैव अन्यैः प्रेष्यादिभिः दण्डं उक्तलक्षणं समारम्भयेत् । सूत्रम् २ कारयेदित्यर्थः, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् प्राणिनो न समनुजानीयात् नानुमोदयेदिति विधायक भगवद्वचनम् । यतश्चेवमतो. यावज्जीव मित्यादि यावद् व्युत्सृजामि, एवमिदं सम्यक् प्रतिपद्येतेत्यैदम्पर्यम्, पदार्थस्तु-जीवनं जीवा यावज्जीवा यावजीवं-8 आप्राणोपरमादित्यर्थः, किमित्याह- त्रिविधं त्रिविधेने ति तिस्रो विधा- विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन- करणेन, एतदुपन्यस्यति- मनसा वाचा कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डः, तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह- न करोमि स्वयम्, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी ति, तस्य भदन्त! प्रतिक्रामामी ति तस्येत्यधिकृतो दण्डः संबध्यते, संबन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी, अयोऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य संबन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रामामि, न वर्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्, प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति, भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम्, भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः, एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थम्, प्रतिक्रामामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति, तस्माच्च अनिवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति, तथा निन्दामि गर्हामी ति, अत्रात्मसाक्षिकी निन्दा परसाक्षिकी गर्हा- जुगुप्सोच्यते, आत्मानं अतीतदण्डकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामी ति विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः उच्छब्दो भृशार्थः सृजामीति- त्यजामि, 0 लिङोक्तत्त्वाद्, तथा च नाद्यपुरुषवचनेनाप्युक्तौ क्षतिः । ॥ २३०॥ For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir चतुर्थमध्ययन षड्जीव श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२३१॥ निकायम, सूत्रम् चारित्रधर्म स्वरूपमा ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह-यद्येवमतीतदण्डप्रतिक्रमणमात्रमस्यैदम्पर्यन प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति, नैतदेवम्, न करोमीत्यादिना तदुभयसिद्धेरिति ।। पढमे भंते! महब्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! पाणाइवायं पचक्खामि, से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइजा नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा पाणे अइवायतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पढमे भंते! महव्वए उवढिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं१॥ सूत्रम् ॥ अयंचात्मप्रतिपत्त्यर्हो दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाऽप्यङ्गीकर्तव्य इति महाव्रतान्याह- पढमे भंते इत्यादि, सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमं तस्मिन्, भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम्, महाव्रत इति महच्च तद्वतं च महाव्रतम्, महत्त्वं चास्य श्रावकसंबन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति। अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानभङ्गकशताधिकारः, तत्रेयं गाथा सीयालं भंगसयं पञ्चक्खाणंमि जस्स उवलद्धं । सो पञ्चखाणकुसलो सेसा सव्वे अकुसला उ॥१॥ एनांचासंमोहार्थमुपरिष्टाव्याख्यास्यामः । तस्मिन् महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमण मिति प्राणा- इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपात:- जीवस्य महादुःखोत्पादनम्, न तु जीवातिपात एव, तस्मात्-प्राणातिपाताद्विरमणम्, विरमणं नाम सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम्, भगवतोक्तमिति वाक्यशेषः, यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य सर्व । भदन्त! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति सर्वमिति-निरवशेषम्, न तु परिस्थूरमेव, भदन्तेति गुर्वामन्त्रणम्, प्राणातिपातमिति पूर्ववत्, प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्या ||२३१॥ For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २३२ ।। निकायम्, मीति, अथवा- प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः, अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादि- चतुर्थमध्ययन गुणयुक्त उपस्थानार्ह इत्येतदाह, उक्तं च- पढिए य कहिय अहिगय परिहरउवठावणाइ जोगोत्ति । छक्क तीहिं विसुद्ध परिहर णवएण षड्जीवभेदेण ॥१॥ पडपासाउरमादी दिट्टता होंति वयसमारुहणे । जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु णेवमिहइंपि ॥२॥ इत्यादि, एतेसिं सूत्रम् ३ लेसुद्देसेण सीसहियट्टयाए अत्थो भण्णइ- पढियाए सत्थपरिणाए दसकालिए छज्जीवणिकाए वा, कहियाए अत्थओ, चारित्रधर्म अभिगयाए संमं परिक्खिऊण- परिहरइ छज्जीवणियाए मणवयणकाएहिं कयकारावियाणुमइभेदेण, तओ ठाविजइ, ण पञ्चमहाव्रत स्वरूपमा अन्नहा । इमे य इत्थ पडादी दिटुंता- मइलो पडो ण रंगिजइ सोहिओ रंगिज्जइ, असोहिए मूलपाए पासाओ ण किजइ। सोहिए किज्जइ, वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसहं न दिज्जइ, सोहिए दिज्जइ, असंठविए रयणे पडिबंधो न किज्जइ संठविए किज्जड, एवं पढियकहिया-ईहिं असोहिए सीसे ण वयारोवणं किजड़ सोहिए किजइ, असोहिए य करणे गुरुणो दोसो, सोहियापालणे सिस्सस्स दोसा त्ति कयं पसंगेण । यदुक्तं-'सर्वं भदन्त! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामी'ति तदेतद्विशेषेण अभिधित्सुराह- से सुहमं वे त्यादि, सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः अथशब्दार्थः, स चोपन्यासे, तद्यथा-सूक्ष्म वा बादरं वा त्रसं रुपठिते च कथिते अधिगते परिहरति उपस्थापनाया योग्य इति । षट्कं त्रिभिर्विशुद्धं परिहर नवकेन भेदेन ॥ १॥ पटप्रासादातुरादयो दृष्टान्ता भवन्ति व्रतसमारोहणे। यथा मलिनादिषु दोषाः शुद्धेषु नैवमिहापि ।। २।। एतयोर्लेशोद्देशेन शिष्यहितार्थायार्थी भण्यते- पठितायां शस्त्रपरिज्ञायां दशवकालिकस्य षड्जीवनिकायां वा, कथितायामर्थतः, अभिगतायां सम्यक् परीक्ष्य- परिहरति षड्जीवनिकायान् मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतिभेदेन तत उपस्थाप्यते, नान्यथा। इमे चात्र पटादयो । दृष्टान्ताः- मलिनः पटो न रज्यते शोधितो रज्यते, अशोधिते मूलपादे प्रासादो न क्रियते शोधिते क्रियते, वमनादिभिरशोधिते आतुरे औषधं न दीयते शोधिते दीयते, असंस्थापिते रत्ने प्रतिबन्धो न क्रियते संस्थापिते क्रियते, एवं पठितकथितादिभिरशोधिते शिष्ये न व्रतारोपणं क्रियते शोधिते क्रियते, शोधिते च (उपस्थापनायाः) करणे गुरोर्दोषाः, शोधितेऽपालने शिष्यस्य दोष इति कृतं प्रसङ्गेन। * अलङ्कारेषु न्यासः। For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २३३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा स्थावरं वा अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात्, तदेतद्विशेषतोऽभिधित्सुराह- 'बादरोऽपि' स्थूरः, स चैकैको द्विधा- त्रसः स्थावरश्च, सूक्ष्मत्रसः कुन्थ्वादिः स्थावरो वनस्पत्यादिः, बादरस्त्रसो गवादिः स्थावरः पृथिव्यादिः, एतान्, णेव सयं पाणे अइवाएज त्ति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात्, 'तिङां तिङो भवन्तीति न्यायात् नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवमित्यादि पूर्ववत् । इह च 'सूक्ष्मं वा बादरं वेत्यादिनोपलक्षित 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति चतुर्विधः प्राणातिपातो द्रष्टव्यः, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति, तत्र द्रव्यतः षट्सु जीवनिकायेषु सूक्ष्मादिभेदभिन्नेषु, क्षेत्रतो लोके तिर्यग्लोकादिभेदभिन्ने, कालतोऽतीतादौ रात्र्यादौ वा, भावतो रागेण वा द्वेषेण वा, मांसादिरागशत्रुद्वेषाभ्यां तदुपपत्तेरिति । चतुर्भङ्गिका चात्र- दैव्वओ णामेगे पाणाइवाए ण भावओ इत्यादिरूपा यथा द्रुमपुष्पिकायां तथा द्रष्टव्येति । व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह प्रथमे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि उप- सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः, इत आरभ्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणमिति । 'भदन्त' इत्यनेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमनापृच्छ्य न किंचित्कर्तव्यं कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवतीत्येवमाह । उक्तं प्रथमं महाव्रतम् ॥ अहावरे दुच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं वइज्जा नेवऽन्नेहिं मुसं वायाविज्जा मुसं वयंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते! © द्रव्यतो नामैकः प्राणातिपातो न भावतः । For Private and Personal Use Only चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम, सूत्रम् ४ चारित्रधर्मे पञ्चमहाव्रत |स्वरूपम्। ।। २३३ ।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mal Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २३४ ।। www.kobatirth.org महव्वए उवडिओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं २ ॥ सूत्रम् ४ ॥ इदानीं द्वितीयमाह- अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणम्, सर्वं भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा क्रोधाद्वा लोभाद्वे त्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः, भयाद्वा हास्याद्वा इत्यनेन तु प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः, णेव सयं मुसं वएज्ज त्ति नैव स्वयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि इत्येतत् यावज्जीव मित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयं- मृषावादश्चतुर्विधः, तद्यथा-सद्भावप्रतिषेधः असद्भावोद्भावनं अर्थान्तरं गर्हा च, तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पापं चेत्यादि, असद्भावोद्भावनं यथा अस्त्यात्मा सर्वगतः श्यामाकतन्दुलमात्रो वेत्यादि, अर्थान्तरं गामश्वमभिदधत इत्यादि, गर्हा काणं काणमभिदधत इत्यादिः, पुनरयं क्रोधादिभावोपलक्षितश्चतुर्विधः, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् क्षेत्रतो लोकालोकयोः कालतो रात्र्यादौ भावतः क्रोधादिभिः इति । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियं दव्वओ णामेगे मुसावाए णो भावओ भावओ णामेगे णो दव्वओ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि एगे णो दव्वओ णो भावओ । तत्थ कोइ कहिंचि हिंसुजओ भणइ - इओ तए पसुमिणा (गा) इणो दिट्ठत्ति?, सो दयाए दिट्ठावि भणड़- ण दिट्ठत्ति, एस दव्वओ मुसावाओ नो भावओ, अवरो मुसं भणीहामित्ति परिणओ सहसा सच्चं भणइ एस भावओ नो दव्वओ, अवरो मुसं भणीहामित्ति परिणओ मुसं चेव भणइ, एस दव्वओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो पुण सुण्णो २ ।। © द्रव्यतो नामैको मृषावाद नो भावतः भावतो नामैको नो द्रव्यतः एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि एको नो द्रव्यतो नो भावतः, तत्र कोऽपि कुत्रचित् हिंसोद्यतो भणति इतस्त्वया पशुमृगादयो दृष्टा इति? स दयया दृष्टा अपि भणति न दृष्टा इति एष द्रव्यतो मृषावादो न भावतः, अपरो मृषा भणिष्यामीति परिणतः सहसा सत्यं भणति एष भावतो नो द्रव्यतः, अपरो मृषा भणिष्यामीति परिणतो मृषैव भणति एष द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, चरमभङ्गः पुनः शून्यः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम. सूत्रम् ४ चारित्रधर्मे पञ्चमहाव्रत स्वरूपम्। ।। २३४ ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२३५।। चतुर्थमध्ययन षडजीवनिकायम. पशमहावत स्वरूपम अहावरे तच्चे भंते! महव्वए अदिनादाणाओवेरमणं, सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिजा नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविजा अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाएकाएणन करेमिन कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते! महव्वए उवट्टिओमि सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं ३ ।। सूत्रम् ५॥ उक्तं द्वितीयं महाव्रतम्, अधुना तृतीयमाह- अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिंस्तृतीये भदन्त! महाव्रते अदत्तादानाद्विरमणम, सर्वं । भदन्त! अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् तद्यथा-ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा इति, अनेन क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र ग्रसति बृद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः तस्मिन्, नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम्, अरण्य-काननादि । तथा अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूल वा चित्तवद्वा अचित्तवद्वा इति, अनेन तु द्रव्यपरिग्रहः, तत्राल्पं- मूल्यत एरण्डकाष्ठादि बहु- वज्रादि अणु-प्रमाणतो वज्रादि स्थूल- एरण्डकाष्ठादि, एतच चित्तवद्वा अचित्तवद्वेति-चेतनाचेतनमित्यर्थः । णेव सयमदिण्णं गेण्हिज त्ति नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान् न समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत्, विशेषस्त्वयंअदत्तादानं चतुर्विधं- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतोऽल्पादौ क्षेत्रतो ग्रामादौ कालतो रात्र्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्याम् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियं-"दव्वओ णामेगे अदिण्णादाणे णो भावओ भावओ णामेगे णो दव्वओ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि एगे णो दव्वओणो भावओ। तत्थ अरत्तदुट्ठस्स साहणो कहिंचि अणणुण्णवेऊण तणाइ गेण्हओ 0 द्रव्यतो नामैकमदत्तादानं नो भावतः भावतो नामैक नो द्रव्यतः एक द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि एक नो द्रव्यतो नो भावतः, तत्रारक्तद्विष्टस्य साधोः कुत्रचित् 8 अननुज्ञाप्य तृणादि गृहतो ||२३५॥ For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २३६ ।। www.kobatirth.org दव्वओ अदिण्णादाणं णो भावओ, हरामीति अब्भुज्जयस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दव्वओ, एवं चेव संपत्तीए दव्व ओवि भावओवि, चरिमभंगो पुण सुन्नो । अहावरे चउत्थे भंते! महत्वए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! मेहुणं पच्चक्खामि, से दिव्यं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेविज्जा नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भंते! महव्वए उवडिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं ४ ।। सूत्रम् ६ ।। उक्तं तृतीयं महाव्रतम्, इदानीं चतुर्थमाह- अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिंश्चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथुनाद्विरमणम्, सर्वं भदन्त ! मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा- दैवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, देवीनामिदं दैवम्, अप्सरोऽमरसंबन्धीत भावः, एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र रूपाणि- निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि, भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि, एवं मानुषं तैर्यग्योनं च वेदितव्यमिति, णेव सयं मेहुणं सेविज्जा नैव स्वयं मैथुनं सेवे, नैवान्यैमैथुनं सेवयामि, मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि इत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयं मैथुनं चतुर्विधं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च द्रव्यतो दिव्यादौ क्षेत्रतस्त्रिषु लोकेषु कालतो रात्र्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्याम् । दोसेणमिमीए वयं भंजेमित्ति दोसुब्भवं, रागेण होड़। द्रव्यादिचतुर्भङ्गी ॐ द्रव्यतोऽदत्तादानं न भावतः हरामीत्यभ्युद्यतस्य तदसंपत्तौ भावतो नो द्रव्यतः एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि चरमभङ्गः पुनः शून्यः । ९ द्वेषेणास्या व्रतं भजामि इति द्वेषोद्भवम्, रागेण भवति । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् ६ चारित्रधर्मे पञ्चमहाव्रत स्वरूपम् । ।। २३६ ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक चतुर्थमध्ययनं षड़जीव श्रीहारि० निकायम, वृत्तियुतम् ॥२३७॥ सूत्रम् चारित्रधर्म पमहाव्रत स्वरूपम् त्वियं-"दव्वओ णामेगे मेहुणे णो भावओ १ भावओ णामेगे णो दव्वओ २ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दव्वओ णो भावओ ४, तत्थ अरत्तदुट्ठाए इत्थियाए बला परिभुंजमाणीए दव्वओ मेहुणं णो भावओ मेहुणसण्णापरिणयस्स तदसंपत्तीए भावओ णो दव्वओ, एवं चेव संपत्तीए दव्वओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो पुण सुन्नो।। ___ अहावरे पंचमे भंते! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते! परिग्गहं पचक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुंवाथूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिणिहजा नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविजा परिग्गहं परिगिण्हतेऽवि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पंचमे भंते! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ परिग्गहाओवेरमणं ५।। सूत्रम् ७॥ उक्तं चतुर्थं महाव्रतम्, साम्प्रतं पञ्चममाह- अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणम्, सर्वं भदन्त! परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा- अल्पं वेत्याद्यवयवव्याख्यापि पूर्ववदेव, नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत्, विशेषस्त्वयंपरिग्रहश्चतर्विधः, तद्यथा- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येषु क्षेत्रतो लोके कालतो रात्र्यादी भावतो रागद्वेषाभ्याम्, अन्यद्वेषे परिग्रहोपपत्तेः । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियं-दव्वओ नामेगे परिग्गहे णो भावओ१ भावओ णामेगे द्रव्यतो नामैक मैथुनं न भावतः १ भावतो नामैक न द्रव्यतः २ एक द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एक न द्रव्यतो न भावतः ४ । तत्र अरक्तद्विष्टायाः स्त्रिया बलात् परिभुज्यमानाया द्रव्यतो मैथुनं न भावतः, मैथुनसंज्ञापरिणतस्य तदसंपत्तौ भावतो न द्रव्यतः, एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतो, चरमभङ्ग पुनः शून्यः। द्रव्यतो नामैकः परिग्रहो नो भावतः १ भावतो नामैको ॥२३७ ।। For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २३८ ।। www.kobatirth.org णो दव्वओ २ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दव्वओ णो भावओ ४ । तत्थ अरत्तदुट्ठस्स धम्मोवगरणं दव्वओ परिग्गहो णो भावओ, मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ ण दव्वओ, एवं चेव संपत्तीए दव्वओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो उण सुन्नो । अहावरे छट्ठे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! राईभोयणं पञ्चक्खामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुजेखा नेवन्नेहिं राई भुंजाविजा राई भुंजतेऽवि अन्ने न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्टे भंते! वए उवट्ठिओमि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं ६ ।। सूत्रम् ८ ।। इच्चेयाई पंच महव्वयाई राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहियट्टयाए उवसंपजित्ता णं विहरामि ।। सूत्रम् ९ ।। उक्तं पञ्चमं महाव्रतम्, अधुना षष्ठं व्रतमाह- अहावरे इत्यादि, अथापरस्मिन् षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणम्, सर्व भदन्त! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा, अश्यत इत्यशनं- ओदनादि, पीयत इति पानं मृद्वीकापानादि खाद्यत इति खाद्यं खर्जूरादि स्वाद्यत इति स्वाद्यं ताम्बूलादि, णेव सयं राई भुंजेज्जा नैव स्वयं रात्रौ भुञ्जे नैवान्यै रात्रौ भोजयामि रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्नैव समनुजानामि इत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयं- रात्रिभोजनं चतुर्विधम्, तद्यथा- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतस्त्वशनादौ क्षेत्रतोऽर्धतृतीयेषु नो द्रव्यतः २ एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एको नो द्रव्यतो नो भावतः ४ । तत्रारक्तद्विष्टस्य धर्मोपकरणं द्रव्यतः परिग्रहो नो भावतः मूर्च्छितस्य तदसंपत्ती भावतो नो द्रव्यतः, एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, चरमभङ्गः पुनः शून्यः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् 2-9 चारित्रधर्मे पञ्चमहाव्रत स्वरूपम् । ।। २३८ ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २३९ ।। www.kobatirth.org द्वीपसमुद्रेषु कालतो रात्र्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यम्, तद्यथा - रात्रौ गृह्णाति रात्रौ भुङ्क्ते १ रात्रौ गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते २ दिवा गृह्णाति रात्रौ भुङ्क्ते ३ दिवा गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते ४ संनिधिपरिभोगे, द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियं दव्वओ णामेगे राई भुंजड़ णो भावओ १ भावओ णामेगे णो दव्वओ २ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दव्वओ णो भावओ ४, तत्थ अणुग्गए सूरिए उग्गओत्ति अत्थमिए वा अणत्थमिओत्ति अरत्तदुट्ठस्स कारण ओत्ति रयणीए वा भुंजमाणस्स दव्वओ राईभोअणं णो भावओ, रयणीए भुंजामि मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ णो दव्वओ, एवं चेव संपत्तीए दव्व ओऽवि भावओऽवि, चउत्थभंगो उण सुन्नो। एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितम्, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति ।। समस्तव्रताभ्युपगमख्यापनायाह- इच्चेयाई इत्यादि, 'इत्येतानि' अनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि, किमित्याह-आत्महिताय आत्महितो- मोक्षस्तदर्थम्, अनेनान्यार्थं तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात् उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि विहरामि सुसाधुविहारेण, तदभावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात्, दोषाश्च हिंसादिकर्तॄणामल्पायुर्जिह्वाच्छेददारिद्यपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति । साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तगाथा व्याख्यायते'सप्तचत्वारिंशदधिकभङ्गशतं वक्ष्यमाणलक्षणं 'प्रत्याख्याने' प्रत्याख्यानविषयम्, यस्योपलब्धं भवति 'स' इत्थंभूतः प्रत्याख्याने कुशलो निपुणः, शेषाः सर्वे 'अकुशलाः ' तदनभिज्ञा इति गाथासमासार्थः । अवयवार्थस्तु भङ्गकयोजनाप्रधानः, © द्रव्यतो नामैको रात्री भुङ्क्ते नो भावतः १ भावतो नामैको नो द्रव्यतः २ एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एको नो द्रव्यतो नो भावतः ४ । तत्रानुगते सूर्ये उद्गत इति अस्तमिते वाऽनस्तमित इति अरक्तद्विष्टस्य कारणतो वा रात्रौ भुञ्जानस्य द्रव्यतो रात्रिभोजनं नो भावतः, रात्रौ भुजे इति मूर्च्छितस्य तदसंपत्तौ भावतो नो द्रव्यतः, एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि चतुर्थो भङ्गः पुनः शून्यः । नरेन्द्रत्वाद्यभिलाषहेतुना । दोषप्राप्त्यवगमात् । प्रथमव्रते त्रिविधं त्रिविधेनेत्यस्य व्याख्याने । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायम्, सूत्रम् ८-९ चारित्रधर्मे | पञ्चमहाव्रत स्वरूपम्। ।। २३९ ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययन षड़जीव श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २४०॥ निकायम्, सूत्रम् ८-९ चारित्रधर्म पचमहाव्रत स्वरूपम्। स चैवं द्रष्टव्यः-तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्निक्केका य होंति जोएसु।तिदुएक्कं तिदुएवं तिदुएक्चेव करणाई॥१॥ त्रयस्त्रिकाः (३३३) त्रयो द्विकाः (२२२) त्रयश्चैकका (१११) भवन्ति योगेषु । कायवाङ्गनोव्यापारलक्षणेषु, त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं चैव करणानि-मनोवाकायलक्षणानि इति पदघटना । भावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते, (दर्श्य) सा चेयं३३३२२२१११ ।काऽत्र भावना?, न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि मणेणं वायाए काएक एक्को भेओ। ३२१३२१३२१ ९३३३९९३९९८४९ इयाणिं बिइओ- ण करेइ ण कारवेइ करतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए इक्को भंगो तहा मणेणं काएणं बिइओ भंगो तहा वायाए काएण य तइओ भंगो, बिइओ मूलभेओ गओ । इयाणि तइओ- ण करेइ ण कारवेइ करतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं एक्को वायाए बिइयो काएणं तइओ, गओ तइओ मूलभेओ। इयाणि चउत्थो- ण करेड़ ण कारवेइ मणेणं वायाए काएणं इक्को न करेइ करतं णाणुजाणइ बिइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, गओ। चउत्थो मूलभेओ। इयाणिं पंचमो- ण करेइ ण कारवेइ मणेणं वायाए एक्कोण करेइ करतं णाणुजाणइ बिइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, एए तिन्नि भंगा मणेणं वायाए लद्धा, अन्नेऽवि तिन्नि मणेणं काएण य लब्भंति, तहावरेऽवि वायाए काएणय लब्भंति तिन्नि, एवमेव सवे एए नव, पंचमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीं षष्ठः-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं इक्को, तहा ण करेइ करतं णाणुजाणइ मणेणं बिइओ, ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ मनसैव तृतीयः, एवं वायाए काएणवि तिन्नि तिन्नि भंगा लब्भंति, एएऽवि सव्वे णव, उक्त: षष्ठो मूलभेदः । सप्तमोऽभिधीयते- ण करेड़ मणेणं वायाए काएणं एक्को, एवं ण कारवेइ मणादीहिं बिइओ, करतं णाणुजाणइ तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीमष्टम:- ण करेइ मणेणं वायाए एको, मणेणं काएण य बिइओ, तहा वायाएकाएण य तइओ, एवं ण कारवेइ एत्थंपि तिन्नि भंगा, एवमेव करतं णाणुजाणइ For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २४९ ।। www.kobatirth.org एत्थंपि तिन्नि भंगा, एए सवे णव, उक्तोऽष्टमः । इदानीं नवमः ण करेइ मणेणं एक्को, ण कारवेड़ बिडओ, करंतं णाणुजाण तइओ, एवं वायाए बिइयं कायेणवि होइ तइयं, एवमेते सवेऽवि मिलिया णव, नवमोऽप्युक्तः । आगतगुणनमिदानीं क्रियतेलद्धफलमाणमेयं भंगा उ हवंति अउणपन्नासं तीयाणागयसंपतिगुणियं कालेण होइ इमं ॥ १ ॥ सीयालं भंगसयं, कह? कालतिएण होति गुणणा उ। तीतस्स पडिक्कमणं पचुप्पन्नस्स संवरणं ॥ २ ॥ पचक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एस गुणणा उ । कालतिएणं भणियं जिणगणधरवायएहिं च ॥ ३ ॥ इति गाथार्थः । उक्तश्चारित्रधर्मः, साम्प्रतं यतनाया अवसरः, तथा चाह से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढवि वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घट्टिया न भिंदिजा अन्नं न आलिहाविज्जा न विलिहाविज्जा न घट्टाविज्जा न भिंदाविना अन्नं आलिहतं वा विलिहंतं वा घट्टतं वा भिदंतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि १ ।। सूत्रम् १० ।। से इति निर्देशे स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा आरम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति, आह- संयतविरतप्रतिहत© लब्धं फलमानमेतत् भङ्गास्तु भवन्ति एकोनपञ्चाशत्। अतीतानागतसंप्रतिकालेन गुणितं भवतीदम् ॥ १ ॥ सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतं कथं ? कालत्रयेण भवति गुणनात्तु अतीतस्य प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नस्य संवरणम् ॥ २ प्रत्याख्यानं च तथा भवति च एष्यत एषा (एतस्मात्) गुणना तु कालत्रिकेण भणिता जिनगणधरवाचकैः ।। ३ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रम् १० पृथिवीकाययतना। ।। २४१ ।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदश- श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||२४२॥ प्रत्याख्यातपापकर्मा तत्र सामस्त्येन यतः संयतः- सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः, विविधं- अनेकधा द्वादशविधेतपसि रतो विरतः, चतुर्थमध्ययन प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति-प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं- हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्यभावेन पापं कर्म षड्जीव निकायम, ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः, दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत्, कारणिक सूत्रम् ११ एकः, शेषकालं परिषद्गतः, इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । से पुढविं वा इत्यादि, तद्यथा- पृथिवीं वा भित्ति वा शिलां वा लोष्टं अप्काय यतना। वा, तत्र पृथिवी-लोष्टादिरहिता भित्ति:- नदीतटी शिला-विशाल: पाषाण: लोष्ट:- प्रसिद्धः, तथा सह रजसा- आरण्य-8 पांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कस्तं सरजस्कं वा कार्य कायमिति देहं तथा सरजस्कं वा वस्त्रं- चोलपट्टकादि 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति पात्रादिपरिग्रहः, एतत् किमित्याह- हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा कलिजेन वा- क्षुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गल्या वा शलाकया वा- अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा- शलाकासंघातरूपेण णालिहिज त्ति नालिखेत् न। विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात, तत्र ईषत्सकृद्वाऽऽलेखनम्, नितरामनेकशो वा विलेखनम्, घट्टनं चालनम्, भेदो विदारणम्, एतत् स्वयं न कुर्यात्, तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न भेदयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घड्यन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत्॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविस्यपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगंवा ओसंवा हिमं वा महियं वा करगंवा हरतणुगंवा सुद्धोदगंवा उदउल्लं वा कार्य उदउलं वा वत्थं ससिणिद्धं ॥ २४२॥ वा कार्य ससिणिर्द्ध वा वत्थं न आमुसिजान संफुसिजा न आवीलिज्जा न पवीलिजान अक्खोडिजान पक्खोडिनान आयाविजा न पयाविना अन्नं न आमुसाविज्ञान संफुसाविज्ञान आवीलाविज्ञान पवीलाविजा न अक्खोडाविज्ञान पक्खोडाविज्ञान For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् यतना। सूत्रम् १२ तेजस्काययतना। आयाविज्ञान पयाविजा अन्नं आमुसंतं वा संफुसतं वा आवीलंतं वा पविलंतं वा अक्खोडतं वा पक्खोडतं वा आयावंतं वा पयावंतं चतुर्थमध्ययन वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, षड़जीवतस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। सूत्रम् ११॥ निकायम्, सूत्रम् ११ तथा से भिक्खूवा इत्यादि यावज्जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव। से उदगं वेत्यादि, तद्यथा-उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा महिकां। अप्कायवा करकं वा हरतर्नु वा शुद्धोदकं वा, तत्रोदक- शिरापानीयं अवश्यायः- त्रेहः हिमं-स्त्यानोदकं महिका- धूमिका करक:कठिनोदकरूपः हरतनु:- भुवमुद्भिद्य तृणाग्रादिषु भवति, शुद्धोदक- अन्तरिक्षोदकम्, तथा उदका वा कार्य उदका, वा । वस्त्रम्, उदकाता चेह गलद्विन्दुतुषाराद्यनन्तरोदितोदकभेदसंमिश्रता, तथा सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रम्, अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः, सस्निग्धता चेह बिन्दुरहितानन्तरोदितोदकभेदसंमिश्रता, एतत् किमित्याह- णामसेज त्ति नामृषेन्न संस्पृशेत् नापीडयेन प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तत्र सकृदीषद्बा स्पर्शनमामर्षणं अतोऽन्यत्संस्पर्शनम्, एवं सकृदीषदा पीडनमापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम्, एवं सकृदीषद्वा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्, एवं सकृदीषद्बा तापनमातापनं विपरीतं प्रतापनम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्तथाऽन्यमन्येन वा नामर्षयेन्न संस्पर्शयेत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव आमृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि || २४३॥ पूर्ववत्॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२४४॥ चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम, सूत्रम् १२ तेजस्काययतना। सूत्रम् १३ वायुकाययतना। जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अचिंवा जालं वा अलायंवा सुद्धागणिं वा उक्कं वान उंजेजान घडेजान उजालेजा न निव्वावेजा अन्नं न उंजावेजा न घट्टावेजा न उज्जालावेजा न निव्वावेजा अन्नं उजतं वा घट्टतं वा उजालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। सूत्रम् १२ ॥ से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, से अगणिं वे त्यादि, तद्यथा- अग्निं वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वाऽर्चि ज्वालां वा अलातं वा शुद्धाग्निं वा उल्कां वा, इह अयस्पिण्डानुगतोऽग्निः, ज्वालारहितोऽङ्गारः, विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः, मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः, प्रतिबद्धा ज्वाला, अलातमुल्मुकम्, निरिन्धन:- शुद्धोऽग्निः उल्का- गगनाग्निः, एतत् किमित्याह- न उंजेजा नोत्सिञ्चेत् न घटेजा न घट्टयेत् न उज्ज्वालयेत् न निर्वापयेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनम्, घट्टनं- सजातीयादिना चालनम्, उज्ज्वालनं- व्यजनादिभिर्वृद्ध्यापादनम्, निर्वापणं-विध्यापनम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा नोत्सेचयेन्न घट्टयेन्नोज्वालयेन्न निर्वापयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव उत्सिञ्चयन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ।। से भिक्खू वा भिक्खणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वाचेलेण वाचेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिरंवावि पुग्गलं न फुमेजा न वीएज्जा अन्नं न फुमावेजान Oन टीकाकृता व्याख्यातं परं दीपिकायां व्याख्यानात् स्थितिः, अन्यथाऽग्निकार्य 'भिंदेजा पज्जालेजे' त्यादिवल्लोपोऽभविष्यदस्य। ॥२४४॥ For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२४५।। यतना। वनस्पतिकाययतना। वीआवेजा अन्नं फुमंतं वा वीअंतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि । चतुर्थमध्ययनं करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। सूत्रम् १३ ।। षड्जीव निकायम्, 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे व'त्ति पूर्ववदेव, से सिएण वे त्यादि, तद्यथा-सितेन वा विधवनेन वा तालवृन्तेन वा। सूत्रम् १३ पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा, इह सितं- चामरं । वायुकायविधवनं- व्यजनं तालवृन्तं- तदेव मध्यग्रहणच्छिद्रं द्विपुटं पत्रं- पद्मिनीपत्रादि शाखा- वृक्षडालं शाखाभङ्ग- तदेकदेशः। सूत्रम् १४ पेहुणं- मयूरादिपिच्छं पेहुणहस्त:- तत्समूहः चेलं- वस्त्रं चेलकर्णः- तदेकदेशः हस्तमुखे-प्रतीते, एभिः किमित्याहआत्मनो वा कार्य- स्वदेहमित्यर्थः, बाह्यं वा पुद्गलं- उष्णौदनादि, एतत् किमित्याह- न फुमेज्जा इत्यादि, न फूत्कुर्यात् न व्यजेत्, तत्र फूत्करणं मुखेन धमनं व्यजनं चमरादिना वायुकरणम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा न फूत्कारयेन्न व्याजयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ।। __ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से बीएसुवा बीयपइट्टेसुवा रूढेसुवा रूढपइट्टेसुवा जाएसुवा जायपइट्टेसुवा हरिएसुवा हरियपइडेसुवा छिन्नेसुवा छिन्नपइटेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेजा न चिटेजा न निसीइजान तुअट्टेजा अन्नं न गच्छावेजान चिट्ठावेजान निसीयावेजान तुअट्टाविजा अन्नं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीयंतं वा तुयटुंतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।। सूत्रम् १४॥ ॥ २४५।। ENERA For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२४६॥ चतुर्थमध्ययन षड़जीवनिकायम, सूत्रम् १५ षट्काययतना। से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, से बीएसुवे त्यादि, तद्यथा- बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिनप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीजं- शाल्यादि तत्प्रतिष्ठितम्, आहारशयनादि गृह्यते, एवं सर्वत्र वेदितव्यम्, रूढानि-स्फुटितबीजानि जातानि-स्तम्बीभूतानि हरितानि दूर्वादीनि छिन्नानि-परश्वादिभिर्वृक्षात् पृथक् स्थापितान्यामा॑णि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते सचित्तानि अण्डकादीनि कोलो- घुणस्तत्प्रतिनिश्रितानि- तदुपरिवर्तीनि दार्वादीनि गृह्यन्ते, एतेषु किमित्याह-न गच्छेज्जा न गच्छेत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्वर्तेत, तत्र गमनं- अन्यतोऽन्यत्र स्थानं- एकत्रैव निषीदनं- उपवेशनं त्वग्वर्तनंस्वपनम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत् न स्थापयेत् न निषीदयेत् न स्वापयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव गच्छन्तं वा । तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओवा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहंसि वा ऊरुंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुंछणसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिअ पडिलेहिअ पमजिअ पमजिअएगंतमवणेजा नो णं संघायमावजेजा। सूत्रम् १५ ।। से भिक्खू वा इत्यादि यावज्जागरमाणे व'त्ति पूर्ववत्, से कीडं वा इत्यादि, तद्यथा-कीटं वा पतङ्ग वा कुन्थुवा पिपीलिका । 0 नैतानि व्याख्यातानि टीकायां दीपिकायां तु व्याख्यातानि। ॥ ४६॥ 0080010908780000 For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२४७॥ चतुर्थमध्ययन पइजीवनिकायम्, सूत्रगाथा १.९ अयतस्य कर्मबन्धः। वा, किमित्याह- हस्ते वा पादे वा बाही वा ऊरुणि वा उदरे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुच्छे वा उन्दके वा दण्डके वा पीठे वा फलके । वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथञ्चिदापतितं सन्तं संयत एव सन् प्रयत्नेन वा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य-पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य प्रमृज्य-पौनःपुन्येनैव सम्यक्, किमित्याहएकान्ते तस्यानुपघातके स्थाने अपनयेत् परित्यजेत्, नैनं त्रसं संघातमापादयेत् नैनं त्रसं संघातं- परस्परगात्रसंस्पर्शपीडारूपमापादयेत्- प्रापयेत्, अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्यः, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणाद् अन्यकारणानुमतिप्रतिषेधक्ष, शेषमत्र प्रकटार्थमेव, नवरमुन्दकं-स्थण्डिलम, शय्या-संस्तारिका वसतिर्वा । इत्युक्ता यतना, गतश्चतुर्थोऽर्थाधिकारः ।। अजयं चरमाणो अ (उ), पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होड़ कडुअंफलं ॥१॥ अजयं चिट्ठमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ।। २।। अजयं आसमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ।।३।। अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाई हिंसड़। बंधईपावयं कम्म, तंसे होइकडुअफलं ।। ४ ।। अजयं भुंजमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ॥५॥ अजयं भासमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ।।६।। कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कहं सए। कहं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधड़?।।७।। जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मंन बंधड़॥ ८॥ सव्वभूयप्पभूअस्स, सम्मं भूयाई पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स, पावं कम्मनबंधड़॥९॥ ॥२४७॥ For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Ma Mahavir Jain Aradhana Kendra T श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २४८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साम्प्रतमुपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते- अजय मित्यादि, अयतं चरन् अयतं अनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति, क्रियाविशेषणमेतत्, चरन्- गच्छन्, तुरेवकारार्थः, अयतमेव चरन्, ईर्यासमितिमुल्लङ्घय, न त्वन्यथा, किमित्याह- प्राणिभूतानि हिनस्ति प्राणिनोद्वीन्द्रियादयः भूतानि - एकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः, तानि च हिंसन् बध्नाति पापं कर्म अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, तत् से भवति कटुकफलं तत् पापं कर्म से तस्यायतचारिणो भवति, कटुकफलमित्यनुस्वारोऽलाक्षणिकः अशुभफलं भवति, मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ।। १ ।। एवमयतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन्, शेषं पूर्ववत् ॥ २ ॥ एवमयतमासीनो- निषण्णतया अनुपयुक्त आकुञ्चनादिभावेन, शेषं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ एवमयतं स्वपन्- असमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना (वा), शेषं पूर्ववत् ॥ ४ ॥ एवमयतं भुञ्जानोनिष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना (वा), शेषं पूर्ववत् ॥ ५ ॥ एवमयतं भाषमाणो गृहस्थभाषया निष्ठुरमन्तरभाषादिना(वा), शेषं पूर्ववत् ॥ ६ ॥ अत्राह- यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः कह चरे इत्यादि, कथं केन प्रकारेण चरेत्, कथं तिष्ठेत्, कथमासीत, कथं स्वपेत्, कथं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नातीति ? || ७ || आचार्य आह- जयं चरे इत्यादि, यतं चरेत्सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविक्षेपेण, यतमासीत उपयुक्त आकुञ्चनाद्यकरणेन, यतं स्वपेत्समहितो रात्री प्रकामशय्यादिपरिहारेण, यतं भुञ्जानः- सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना एवं यतं भाषमाणःसाधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च पापं कर्म क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि, न बध्नाति नादत्ते, निराश्रवत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ किंच- सव्वभूय इत्यादि, सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतो, य आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः, © प्रतिक्रमणं कृत्वा स्वाध्यायः ततः शयनं वि. प. For Private and Personal Use Only चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम्, सूत्रगाथा १-९ अयतस्य कर्मबन्धः । ।। २४८ ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिo वृत्तियुतम् ।। २४९ ।। www.kobatirth.org तस्यैवं सम्यग् वीतरागोक्तेन विधिना भूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः पिहिताश्रवस्य स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य दान्तस्य इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन पापं कर्म न बध्यते तस्य पापकर्मबन्धो न भवतीत्यर्थः ।। ९ ।। एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवतीति, ततश्च सर्वात्मना दयायामेव यतितव्यम्, अलं ज्ञानाभ्यासेनापि (नेति) मा भूदव्युत्पन्नविनेयमतिविभ्रम इति तदपोहायाह पढमं नाणं तदया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किं वा नाही छे अपावगं ? ।। १० ।। सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणड़ पावगं । उभयंपि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ।। ११ ।। जो जीवेवि न याणेड़, अजीवे वि न वाणेड़। जीवाजीवे अयाणंतो, कह सो नाहीइ संजमं ।। १२ ॥ जो जीवेवि वियाणेड़, अजीवेवि वियाणेड़। जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ।। १३ ।। पढमं णाण मित्यादि, प्रथमं आदौ ज्ञानं जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं ततः तथाविधज्ञानसमनन्तरं दया संयमस्तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृत्तेः, एवं अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठति आस्ते सर्वसंयतः सर्वः प्रव्रजितः, यःपुनः अज्ञानी साध्योपायफलपरिज्ञानविकलः स किं करिष्यति ?, सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताभावात्, किंवा कुर्वन् ज्ञास्यति छेकं निपुणं हितं कालोचितं पापकं वा अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समग्रनिमित्ताभावात्, अन्धप्रदीप्तपलायनघुणाक्षरकरणवत्, अत एवान्यत्राप्युक्तं - गीअत्थो अ विहारो बीओ गीअत्थमीसिओ भणिओ इत्यादि, अतो ज्ञानाभ्यासः कार्यः ।। १० ।। तथा चाह- सोच्चा इत्यादि, 'श्रुत्वा' आकर्ण्य ससाधनस्वरूपविपाकं जानाति ® गीतार्थश्च विहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रितो भणितः । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम, सूत्रगाथा १०-१३ संयमार्थं ज्ञाना प्राधान्यम् । ।। २४९ ।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra Acharya Si Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २५०॥ चतुर्थमध्ययन षड्जीवनिकायम्, सूत्रगाथा जीवाजीवादि ज्ञानेन मोक्षप्राप्तिः। बुद्ध्यते कल्याणं कल्यो- मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याणं- दयाख्यं संयमस्वरूपम्, तथा श्रुत्वा जानाति पापकंअसंयमस्वरूपम्, उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा, नाश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यत् छेकंनिपणं हितं कालोचितं तत्समाचरेत्कर्यादित्यर्थः ॥ ११॥ उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह- जो जीवेऽवि इत्यादि, यो 'जीवानपि'' पृथिवीकायिकादिभेदभिन्नान् न जानाति अजीवानपि संयमोपघातिनो मद्यहिरण्यादीन्न जानाति, जीवाजीवानजानन्कथमसौ ज्ञास्यति संयमं? तद्विषयम, तद्विषयाज्ञानादिति भावः ॥ १२॥ ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति जीवाजीवान विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशार्थाधिकारः ॥१३॥ जया जीवमजीवे अ, दोऽवि एए वियाणइ। तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ।।१४।। जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावंच, बंधं मुक्खं च जाणइ ॥१५॥ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खंच जाणइ । तया निविंदए भोए, जे दिव्वे जे अमाणुसे ।।१६।। जया निविंदए भोगे, जे दिव्वे जे अमाणुसे । तया चयइसंजोगं, सभिंतरबाहिरं ।। १७॥ जया चयइ संजोगं, सभिंतरबाहिरं। तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारिअं॥१८॥ जया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारि। तया संवरमुक्किट्ठ, धम्म फासे अणुत्तरं ।। १९॥ जया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कर्ड ।।२०।। जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकर्ड । तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ।।२१।। जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ।। २२ ।। ॥ २५०॥ For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २५१ ।। www.kobatirth.org जया लोगमलोगं च, जिणो जाणड़ केवली । तया जोगे निरुंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्र ॥ २३ ॥ जया जोगे निरुंभित्ता, सेलेसिं पडिवजड़। तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छ नीरओ ।। २४ ।। जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ।। २५ ।। साम्प्रतं षष्ठेऽधिकारे धर्मफलमाह जया इत्यादि, 'यदा' यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति - विविधं जानाति सदा तस्मिन् काले गतिं नरकरगत्यादिरूपां बहुविधां स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति, यथाऽवस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् ।। १४ ।। उत्तरोत्तरां फलवृद्धिमाह - जया इत्यादि, यदा गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति तदा पुण्यं च पापंच- बहुविधगतिनिबन्धनं (च) तथा बन्धं जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं मोक्षं च तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति ।। १५ ।। जया इत्यादि, यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति तदा निर्विन्ते- मोहाभावात् सम्यग्विचारयत्यसारदुःखरूपतया भोगान् शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान्, शेषास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति ।। १६ ।। जया इत्यादि, यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् तदा त्यजति संयोगं संबन्धं द्रव्यतो भावतः साभ्यन्तरबाह्यं क्रोधादिहिरण्यादिसंबन्धमित्यर्थः ।। १७ ।। जया इत्यादि, यदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तरबाह्यं तदा मुण्डो भूत्वा द्रव्यतो भावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजत्यपवर्गं प्रत्यनगारम्, द्रव्यतो भावतश्चाविद्यमानागारमिति भावः ।। १८ ।। जया इत्यादि, यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारं तदा संवरमुक्किडं ति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्मं- सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपम्, चारित्रधर्ममित्यर्थः, स्पृशत्यनुत्तरंसम्यगासेवत इत्यर्थः ।। १९ ।। जया इत्यादि, यदोत्कृष्टसंवरं धर्मं स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनोति-अनेकार्थत्वात्पातयति कर्मरजः कर्मैव आत्मरञ्जनाद्रज इव रजः, किंविशिष्टमित्याह- अबोधिकलुषकृतं अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ।। २० ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थमध्ययनं षड्जीव निकायम सूत्रगाथा १४-२५ जीवाजीवादि ज्ञानेन मोक्षप्राप्तिः । ।। २५१ ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२५२॥ २६-२८ जया इत्यादि, यदा धुनोति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतं तदा सर्वत्रगं ज्ञानं अशेषज्ञेयविषयं दर्शनं च अशेषदृश्यविषयं अधिगच्छति । चतुर्थमध्ययन आवरणाभावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः ।।२१।। जया इत्यादि, यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति तदा लोकं चतुर्दश षड्जीवरज्वात्मकं अलोकं च अनन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोकौ च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः ।। २२।। जया इत्यादि, यदा निकायम, सूत्रगाथा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली तदोचितसमयेन योगान्निरुद्ध्य मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते, भवोपग्राहि धर्मस्यफल कशिक्षयाय ॥ २३ ॥ जया इत्यादि, यदा योगान्निरुद्भ्य शैलेशी प्रतिपद्यते तदा कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि सिद्धिं गच्छति सुलभंदुर्लभ लोकान्तक्षेत्ररूपां नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः ।। २४ ।। जया इत्यादि, यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः त्रैलोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति शाश्वतः कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्मेति भावः। उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः ॥ २५॥ सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोअस्स, दुलहा सुगई तारिसगस्स ॥२६॥ तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥२७॥ पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो अखंती अबंभचेरं च ॥१॥ (प्र०) इच्चेअंछज्जीवणिअंसम्म हिट्ठी सया जए। दुल्लह लहित्तु सामण्णं, कम्मुणान विराहिज्जासि ॥२८॥ तिबेमि।।चउत्थं छजीवणिआणामायणं समत्तं ।। ४॥ ।। २५२॥ 0 नैषा गाथा विवृता पूज्यैः हरिभद्राचार्यैश्चूर्णिकृद्भिश्च । For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २५३॥ अध्ययन साम्प्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराह- सुहे ति, सुखास्वादकस्य- अभिष्वङ्गेण प्राप्तसुखभोक्तुः श्रमणस्य चतुर्थमध्ययन द्रव्यप्रव्रजितस्य साताकुलस्य भाविसुखार्थं व्याक्षिप्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामप्युल्लङ्घय शयानस्य उत्सोलनाप्रधाविनः षड्जीव निकायम्, उत्सोलनया- उदकायतनया प्रकर्षेण धावति- पादादिशुद्धिं करोति यः स तथा तस्य, किमित्याह- दुर्लभा दुष्प्रापा सुगतिः । नियुक्ति: २३३ सिद्धिपर्यवसाना तादृशस्य भगवदाज्ञालोपकारिण इति गाथार्थः ।। २६ ।। इदानीमिदं धर्मफलं यस्य सुलभं तमाह- तवोगुणे पर्यायशब्दाः। त्यादि, तपोगुणप्रधानस्य षष्ठाष्टमादितपोधनवतः ऋजुमतेः मार्गप्रवृत्तबुद्धेः क्षान्तिसंयमरतस्य क्षान्तिप्रधानसंयमासेविन इत्यर्थः, परीषहान् क्षुत्पिपासादीन् जयतः अभिभवतः सुलभा सुगतिः उक्तलक्षणा तादृशस्य भगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः ।। २७ ।। महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरन्नाह-‘इच्चेय'मित्यादि, इत्येतां षड्जीवनिकायिका अधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपाम्, न विराधयेदिति योगः, सम्यग्दृष्टिः जीवस्तत्त्वश्रद्धावान् सदा यतः सर्वकालं प्रयत्नपरः सन्, किमित्याहदुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्य दुष्प्रापं प्राप्य श्रमणभावं- षड्जीवनिकायसंरक्षणैकरूपं कर्मणा मनोवाक्कायक्रियया प्रमादेन न विराधयेत् न खण्डयेत्, अप्रमत्तस्य तु द्रव्यविराधना यद्यपि कश्चिद् भवति तथाऽप्यसावविराधनैवेत्यर्थः। एतेन जले जीवाः स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः? ॥१॥ इत्येतत्प्रत्युक्तम्, तथा सूक्ष्माणां विराधनाभावाच्च । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाह नियुक्तिकार: नि०-जीवाजीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपन्नत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे अएगट्ठा ।।२३३ ।। जीवाजीवाभिगमः सम्यग्जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात् एवं आचारश्चैव आचारोपदेशत्वात् धर्मप्रज्ञप्ति: यथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात् तत: चारित्रधर्म: तन्निमित्तत्वात् चरणं चरणविषयत्वात् धर्मश्च श्रुतधर्मस्तत्सारभूतत्वात्, एकार्थिका एते शब्दा इति गाथार्थः ।। BHEE880588888888881 || २५३॥ For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२५४॥ अन्ये त्विदं गाथासूत्रमनन्तरोदितसूत्रस्याधो व्याख्यानयन्ति, तत्राप्यविरुद्धमेव । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव।। चतुर्थमध्ययनं व्याख्यातं षड्जीवनिकाध्ययनम् ।। २८॥ षड्जीवनिकायम्, नियुक्ति:२३३ ॥ सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ चतुर्थमध्ययनं षड्जीवनिकायाख्यं समाप्तमिति ।। अध्ययनपर्यायशब्दाः। FREGREEMEREGREERBERGEMENERBERGE058000086888888 ॥ २५४।। 00000000000000000000000 For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २५५॥ ॥ अथ पञ्चममध्ययन पिण्डैषणाख्यम॥ ॥पञ्चमाध्यने प्रथमोद्देशकः ।। अधुना पिण्डैषणाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः- इहानन्तराध्ययने 'साधोराचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्रायः । इत्येतदुक्तम्, इह तु धर्मकाये सत्यसौ स्वस्थे सम्यक्पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न भवति, स च सावद्येतरभेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च- से संजए समक्खाए, निरवजाहारि जे विऊ । धम्मकायट्टिए सम्म, सुहजोगाण साहए॥१॥ इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, भङ्गयन्तरेणैतदेवाह भाष्यकार: भा०- मूलगुणा वक्खाया उत्तरगुणअवसरेण आयायं । पिंडज्झयणमियाणिं निक्खेवे नामनिप्फन्ने ।। ६१।।। । मूलगुणाः प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः व्याख्याताः सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने, ततश्च उत्तरगुणावसरेण उत्तरगुणप्रस्तावेनायातमिदमध्ययनं- इदानीं यत्प्रस्तुतम् । इह चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः ।। ६१ ।। तथा चाहनेक्षेपे नामनिष्पन्ने, किमित्याह नि०-पिंडो अएसणाय दुपयं नामंत्तस्स नायव्वं। चउचउनिक्खेवेहिं परूवणा तस्स कायव्वा ।। २३४ ।। नि०-नामंठवणापिंडो दव्वे भावे अहोइ नायव्वो। गुडओयणाइ दव्वे भावे कोहाइया चउरो।। २३५ ।। नि०-पिडि संघाए जम्हा ते उड़या संघयाय संसारे । संघाययंति जीवं कम्मेणट्ठप्पगारेण ।। २३६ ।। नि०- दब्वेसणा उ तिविहा सचित्ताचित्तमीसदब्वाणं । दुपयचउप्पयअपया नरगयकरिसावणदुमाणं ।। २३७ ।। 0स संयतः समाख्यातो, निरवद्याहार यो विद्वान् । धर्मकायस्थितः सम्यक्, शुभयोगानां साधकः ।। १।। पाचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः भाष्यम६१ उत्तर गुणस्वरूपम्। नियुक्तिः २३४-२४४ पिण्डस्य एषणायाश्च निक्षेपाः। 88888888880000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२५५।। For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18808080CHAPTE: श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२५६॥ नि०- भावेसणा उ दुविहा पसत्थ अपसत्थगा य नायव्वा । नाणाईण पसत्था अपसत्था कोहमाईणं ॥२३८।। पञ्चचममध्ययनं पिण्डैषणा, नि०-भावस्सुवगारित्ता एत्थं दव्वेसणाइ अहिगारो। तीइ पुण अत्थजुत्ती वत्तव्वा पिंडनिजुत्ती ।। २३९ ।। प्रथमोद्देशक नि०-पिण्डेसणा य सवा संखेवेणोयरइ नवसु कोडीसु । न हणइ न पयड़ न किणइ कारावणअणुमईहि नव ।। २४०।। भाष्यम् ६२ नि०-सा नवहा दुह कीरइ उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ। छसु पढमा ओयरइ कीयतियम्मी विसोही उ॥२४१ ।। नवकोटिः। नियुक्तिः भा०-कोडीकरणं दुविहं उम्गमकोडी विसोहिकोडी अ। उग्गमकोडी छक्कं विसोहिकोडी अणेगविहा ।। ६२ ।। २३४-२४४ नि०- कम्मुद्देसिअचरिमतिग पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ। अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ।। २४२ ।। पिण्डस्य एषणायाश्च नि०- नव चेवट्ठारसगा सत्तावीसा तहेव चउपन्ना । नउई दो चेव सया सत्तरिआ हंति कोडीणं ।। २४३ ।। निक्षेपाः। नि०- रागाई मिच्छाई रागाई समणधम्म नाणाई। नव नव सत्तावीसा नव नउईए य गुणगारा ।। २४४ ।। पिण्ड श्वैषणा च द्विपदं नाम तु द्विपदमेव विशेषाभिधानं तस्य उक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञातव्यम्, चतुश्चतुर्निक्षेपाभ्यां । नामादिलक्षणाभ्यां प्ररूपणा तस्य' पदद्वयस्य कर्तव्येति गाथार्थः ॥ २३४ ।। अधिकृतप्ररूपणामाह- नामस्थापनापिण्डो द्रव्ये । भावे च भवति ज्ञातव्यः, पिण्डशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपिण्डं त्वाह- गुडौदनादिः द्रव्य मिति द्रव्यपिण्डः, भावे क्रोधादयश्चत्वारः पिण्डा इति गाथार्थः ।। २३५ ।। अत्रैवान्वर्थमाह- पिडि संघाते धातुरिति शब्दवित्समयः, यस्मात्ते क्रोधादय उदिताः सन्तो विपाकप्रदेशोदयाभ्यां संहता एव संसारिणं संघातयन्ति-जीवं योजयन्तीत्यर्थः, केनेत्याह 0 प्रतिभातीय प्रक्षिप्तप्राया, पदघटना त्वेव- रागद्वेषौ नवभिर्मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयो नवभिः रागद्वेषौ सप्तविंशत्या श्रमणधर्मदशकं नवभिः ज्ञानदर्शनचारित्राणि नवत्या च (एव) गुणकाराः। SEED866666868080886080 || २५६॥ 300000000000000000000000 For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir २३४-२४४ पिण्डस्य एषणायाश्च श्रीदश- कर्मणाऽष्टप्रकारेण- ज्ञानावरणीयादिना, अतः क्रोधादयः पिण्ड इति गाथार्थः।।२३६॥ प्ररूपितः पिण्डः, साम्प्रतमेषणाऽवसरः, . पशचममध्ययन वैकालिक तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यैषणामाह- द्रव्यैषणा तु त्रिविधा भवति, सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामेषणा द्रव्यैषणा, पिण्डैषणा, श्रीहारिक प्रथमोद्देशकः वृत्तियुतम् । सचित्तानां द्विपदचतुष्पदापदानां यथासंख्यं नरगजद्रुमाणामिति, कार्षापणग्रहणादचित्तद्रव्यैषणा अलङ्कतद्विपदादिगोचरमिश्र भाष्यम् ६२ ॥२५७॥ द्रव्यैषणा च द्रष्टव्येति गाथार्थः।। २३७ ।। भावैषणामाह- भावैषणा तु पुनर्द्विविधा, प्रशस्ता अप्रशस्ता च ज्ञातव्या, एतदेवाह नवकोटिः। नियुक्तिः ज्ञानादीना मिति ज्ञानादीनामेषणा प्रशस्ता क्रोधादीनामप्रशस्तैषणेति गाथार्थः ।। २३८॥ प्रकृतयोजनामाह-भावस्य ज्ञानादेरुपकारित्वाद् अत्र प्रक्रमे द्रव्यैषणयाऽधिकारः, तस्याः पुनर्रव्यैषणायाः अर्थयुक्ति हेयेतररूपा अर्थयोजना वक्तव्या पिण्डनियुक्तिरिति । गाथार्थः।। २३९॥ सा च पृथक्स्थापनतो मया व्याख्यातैवेति नेह व्याख्यायते । अधुना प्रकृताध्ययनावतारप्रपञ्चमाह निक्षेपाः। पिण्डैषणा च सर्वा उद्गमादिभेदभिन्ना संक्षेपेणावतरति नवसु कोटीषु, ताश्चेमा:- न हन्ति न पचति न क्रीणाति स्वयम्, तथा न घातयति न पाचयति न क्रापयत्यन्येन, तथा घ्नन्तं वा पचन्तं वा क्रीणन्तं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव । एतदेवाहकारणानुमतिभ्यां नवेति गाथार्थः ।। २४० ॥ सा नवधा स्थिता पिण्डैषणा द्विविधा क्रियते- उद्गमकोटी विशोधिकोटी च, तत्र । षट्स हननघातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमा- उद्गमकोटी अविशोधिकोट्यवतरति, क्रीतत्रितये क्रयणक्रापणानुमतिरूपे विशोधिस्तु-विशोधिकोटी द्वितीयेति गाथार्थः ॥ २४१॥ एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:- कोटीकरण मिति कोट्येव कोटीकरणम्, कोटी (करणं) द्विविधं- उद्गमकोटी विशोधिकोटीच, उद्गमकोटी षट्क- हननादिनिष्पन्नमाधाकर्मादि, विशोधिकोटी Oपिण्डनियुक्तेः पृथक्स्थापितत्वात् तत्र भद्रबाहुस्वामिनाऽर्थयुक्तिर्व्याख्यातेति नानाध्ययनार्थाधिकारे तद्व्याख्यानम् । अन्यथा बाऽस्ति हरिभद्रसूरिकृता पिण्डनियुक्तिवृत्तिरिति तामाश्रित्यापि स्यादिदं वचः। ॥२५७|| For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || २५८॥ १-२ क्रीतत्रितयनिष्पन्ना अनेकधा ओघौद्देशिकादिभेदेनेति गाथार्थः ।। ६२ ॥ षट्कोट्याह- कर्म-संपूर्णमेव औद्देशिकचरमत्रितयं- पचममध्ययन कमौद्दशिकस्य पाखण्डश्रमणनिर्ग्रन्थविषयम्, पूति- भक्तपानपूत्येव मिश्रग्रहणात्पाखण्डश्रमणनिर्ग्रन्थमिश्रजातं चरमप्राभृतिका पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः बादरेत्यर्थः, अध्यवपूरक इत्यविशोधिरित्येतत्षट्कम् । विशोधिकोटी भवति शेषा- ओघौद्देशिकादिभेदभिन्नाऽनेकविधेति सूत्रम् गाथार्थः ।। २४२ ।। इहैव रागादियोजनया कोटीसंख्यामाह- नव चैव कोट्यः तथाऽष्टादशकं कोटीनां तथा सप्तविंशतिः भिक्षाकोटीनां तथैव चतुष्पञ्चाशत्कोटीनां तथा नवतिः कोटीनां द्वे एव च शते सप्तत्यधिके कोटीनामिति गाथाक्षरार्थः ।। २४३॥ गमनविधिः। भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः, सचायं- णव कोडीओ दोहिं रोगद्दोसेहिं गुणियाओ अट्ठारस हवंति, ताओ चेव नव तिहिं । अमिच्छत्ताणाणअविरतीहिंगुणिताओ सत्तावीसं हवंति, सत्तावीसा रागदोसेहिं गुणिया चउप्पन्ना हवंति, ताओचेवणव दसविहेण समणधम्मेण गुणिआओ विसुद्धाओ णउती भवंति, सा णउती तिहिं नाणदंसणचरित्तेहिं गुणिया दो सया सत्तरा भवंतीति गाथार्थः ॥ २४४ ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं संपत्ते भिक्खकालंमि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए। सूत्रम् १।। से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेअसा ।। सूत्रम् २ ॥ © संख्या समाहारे द्विगुश्चानाम्ययम् (सि०३-१-९९) इति द्विगुभावेनैकवद्भावः। 6 नव कोट्यो द्वाभ्या रागद्वेषाभ्यां गुणिता अष्टादश भवन्ति, ता एवं नव ॥२५८ ।। त्रिभिर्मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिभिर्गुणिताः सप्तविंशतिः भवति, सप्तविंशतिः रागद्वेषाभ्यां गुणिता चतुष्पञ्चाशत् भवति, ता एवं नव दशविधेन श्रमणधर्मेण गुणिता विशुद्धा नवतिर्भवति, सा एव नवतिः त्रिभिः ज्ञानदर्शनचारित्रैर्गुणिता द्वे शते सप्ततिश्च भवति । 68018688888888888ERLER For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २५९॥ ३-८ आत्मसंयम विराधना। संप्राप्ते शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते भिक्षाकाले भिक्षासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानैषणाप्रतिषेधमाह, पञ्चममध्ययन पिण्डेषणा, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति, असंभ्रान्तः अनाकुलो यथावदुपयोगादि कृत्वा, नान्यथेत्यर्थः, अमूर्छितः प्रथमोद्देशक: पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, न तु पिण्डादावेवासक्त इति, अनेन वक्ष्यमाणलक्षणेन क्रमयोगेन । सूत्रम् परिपाटीव्यापारेण भक्तपानं यतियोग्यमोदनारनालादि गवेषयेद् अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ यत्र यथा गवेषयेत्तदाह-'से इत्यादि सूत्रम्, व्याख्या- से इत्यसंभ्रान्तोऽमूर्च्छितः ग्रामे वा नगरे वा, उपलक्षणत्वादस्य कर्बटादौ वा, गोचराग्रगत इति । गोरिव चरणं गोचर:- उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम्, अग्र:- प्रधानोऽभ्याहृताधाकर्मादिपरित्यागेन तद्रत:तद्वर्ती मुनि:- भावसाधुः चरेत्- गच्छेत् मन्दं शनैः शनैर्न द्रुतमित्यर्थः, अनुद्विग्नः प्रशान्तः परीषहादिभ्योऽबिभ्यत् अव्याक्षिप्तेन चेतसा वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन 'चेतसा' अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः ।।२।। पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । वजंतो बीअहरियाई, पाणे अ दगमट्टि।। सूत्रम् ३ ।। ओवायं विसमं खाणुं, विजलं परिवजए। संकमेण न गच्छिता, विजमाणे परक्कमे ।। सूत्रम् ४ ।। पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ।। सूत्रम् ५ ।। तम्हा तेण न गच्छिजा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्त्रेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ।। सूत्रम् ६॥ इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससरक्खेहिं पाएहि, संजओतं नइक्कमे ।। सूत्रम् ७ ॥ || २५९॥ नचरेज वासे वासंते, महियाए वा पतिए । महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ।। सूत्रम् ८ ।। यथा चरेत्तथैवाह- पुरतो इति सूत्रम्, व्याख्या- पुरतः अग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटोर्द्धिसंस्थितया, दृष्ट्येति । For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||२६०॥ पञ्चचममध्ययन पिण्डेषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ३-८ आत्मसंयम विराधना। वाक्यशेषः, प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् महीं भुवं चरेत् यायात्, केचिन्नेति योजयन्ति, न शेषदिगुपयोगेनेति गम्यते, न प्रेक्षमाण एव अपि तु वर्जयन् परिहरन् बीजहरितानीति, अनेनानेकभेदस्य वनस्पतेः परिहारमाह, तथा प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् तथा उदक अप्कायं मृत्तिकां च पृथिवीकायम्, चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः। दृष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलब्धावपि प्रवृत्तितो रक्षणायोगात् । महत्तरया तु देशविप्रकर्षणानुपलब्धेरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ उक्तः संयमविराधनापरिहारः,अधुना त्वात्मसंयमविराधनापरिहारमाह- ओवाय मिति सूत्रम्, व्याख्या-'अवपातं' गर्तादिरूपं विषमं निम्नोन्नतं स्थाणु ऊर्ध्वकाष्ठं विजलं विगतजलं कर्दमं परिवर्जयेत् एतत्सर्वं परिहरेत्, तथा संक्रमेण जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन न गच्छेत्, आत्मसंयमविराधनासंभवात्, अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे-अन्यमार्ग इत्यर्थः, असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गच्छेदिति सूत्रार्थः ।। ४॥ अवपातादौ दोषमाह- पवडते त्ति सूत्रम्, व्याख्या- प्रपतन्वाऽसौ तत्र अवपातादौ प्रस्खलन्वा संयतः साधुः हिंस्या व्यापादयेत् प्राणिभूतानि प्राणिनो- द्वीन्द्रियादयः भूतानि- एकेन्द्रियाः, एतदेवाह-त्रसानथवा स्थावरान्, प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुभयविराधनेति सूत्रार्थः ।। ५॥ यतश्चैवं तम्हा सूत्रम्, व्याख्या- तस्मात्तेन- अवपातादिमार्गेण न गच्छेत् संयतः सुसमाहितो, भगवदाज्ञावर्तीत्यर्थः, सत्यन्येने ति अन्यस्मिन् समादौ मार्गेणे ति मार्गे, छान्दसत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया, असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना यतमेव पराक्रमेत् यतमिति क्रियाविशेषणम्, यतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति । । सूत्रार्थः ।। ६ ।। अत्रैव विशेषतः पृथिवीकाययतनामाह- इंगाल मिति सूत्रम्, आङ्गारमिति अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारं। राशिम्, एवं क्षारराशिम्, तुषराशिं च गोमयराशिं च, राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते सरजस्काभ्यां पद्भ्यां सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्यां संयतःसाधुः तं अनन्तरोदितं राशिं नाक्रामेत्, मा भूत्पृथिवीरजोविराधनेति सूत्रार्थः॥ ७ ॥ अत्रैवाप्काया For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२६१।। पचममध्ययन पिण्डेषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ९-११ चतुर्थवतयतना। 108880008 दियतनामाह-'न चरेज'त्ति सूत्रम्, न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत्, तथा महिकायां वा पतन्त्याम्, सा च प्रायो गर्भमासेषुपतति, महावाते वा वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोषात्, तिर्यसंपतन्तीति तिर्यक्संपाता:- पतङ्गादयस्तेषु वा सत्सु क्वचिदशनिरूपेण न चरेदिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ नचरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणु(ण)ए। बंभयारिस्स दंतस्स, हुन्जा तत्थ विसुत्तिआ।सूत्रम् ९॥ अणायणे चरंतस्स, संसम्गीए अभिक्खणं। हज वयाणं पीला, सामन्नंमि असंसओ। सूत्रम् १०॥ तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । वजए वेससामंत, मुणी एगंतमस्सिए ।। सूत्रम् ११ ॥ उक्ता प्रथमव्रतयतना, साम्प्रतं चतुर्थव्रतयतनोच्यते- 'न चरेज'त्ति सूत्रम्, न चरेद्वेश्यासामन्ते न गच्छेद्गणिकागृहसमीपे, किंविशिष्ट इत्याह- ब्रह्मचर्यं वशानयने (नये) ब्रह्मचर्य- मैथुनविरतिरूपं वशमानयति- आत्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन्, दोषमाह-बह्मचारिणःसाधो: दान्तस्य इन्द्रिय-नोइन्द्रियदमाभ्यां भवेत् तत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका तद्रूपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमस (श)स्यशोषफला चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः ।।९।। एष सकृच्चरणदोषो वेश्यासामन्तसंगत उक्तः, साम्प्रतमिहान्यत्र चासकृच्चरणदोषमाह-'अणायणे'त्ति सूत्रम्, अनायतने-अस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गच्छतः संसर्गेण सम्बन्धेन अभीक्ष्णं पुनः पुनः, किमित्याह- भवेत् व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा. तदाक्षिप्तेचेतसो भावविराधना, श्रामण्ये च श्रमणभावे च द्रव्यतो रजोहरणादिधारणरूपे भूयो भावव्रतप्रधानहेतौ 0 ईतिरूपो हि पतङ्गादेरापात इति पूर्वेणान्वयः, यद्वा हेती तृतीयेति साधुस्वरूपाख्यानम् । X660000088888888888888 For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥१६२॥ चारकथा, पद्याचाराः। धावनं प्रति हरिद्रारक्तं वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रक्षालनात्, कृमिरागरक्तमनाचारवत् तद्धस्मनोऽपि रागानपगमात्, वासनं प्रति तृतीयमध्ययन कवेलुकाद्याचारवत् सुखेन पाटलाकुसुमादिभिर्वास्यमानत्वात्, वैडूर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात्, शिक्षणं प्रत्याचार क्षुल्लिकावच्छुकसारिकादिसुखेन मानुषभाषासम्पादनात्, अनाचारवच्छकुन्तादि तदनुपपत्तेः, सुकरणं प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन। नियुक्तिः तस्य तस्य कटकादे: करणात्, अनाचारवत् घण्टालोहादि तत्रान्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति, अविरोध १८१-१८७ प्रत्याचारवन्ति गुडदध्यादीनि रसोत्कर्षादुपभोगगुणाच्च, अनाचारवन्ति तैलक्षीरादीनि विपर्ययादिति, एवम्भूतानि द्रव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तव्याव्यतिरेकाव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथाऽऽचरणपरिणामस्य भावत्वेऽपि गुणाभावाव्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति गाथार्थः ।। उक्तो द्रव्याचारः, साम्प्रतं भावाचारमाह नि०- दसणनाणचरित्ते तवआयारे य वीरियायारे। एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्यो ।। १८१।। नि०-निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ। उववूह थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥१८२ ।। नि०- अइसेसइडियायरियवाइधम्मकहीखमगनेमित्ती। विजारायागणसंमयाय तित्थं पभाविति ।। १८३।। नि०-काले विणए बहमाणे उवहाणे तह य अनिण्हवणे। वंजणअत्थतदुभए अट्ठविहो नाणमायारो॥१८४ ।। नि०- पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिईहिँ तिहि य गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्वो।। १८५ ॥ नि०- बारसविहम्मिवि तवे सम्भिंतरबाहिरे कुसलदिढे । अगिलाइ अणाजीवी नायव्वोसो तवायारो ॥ १८६ ।। नि०- अणिगूहियबलविरियो परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजड़ अजहाथामं नायव्यो वीरियायारो ॥ १८७ ।। दर्शनज्ञानचारित्रादिष्वाचारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपआचारो वीर्याचारश्चेति, तत्र। 22 ॥१६२॥ For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चचममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् आत्मसंयमविराधना। साणं ति सूत्रम्, श्वानं लोकप्रतीतम्, सूतां गां अभिनवप्रसूतामित्यर्थः दृप्तं च दर्पितम्, किमित्याह- गावं हयं गजम्, गौः-। बलीवर्दो हयः- अश्वो गजो- हस्ती । तथा संडिम्भं बालक्रीडास्थानं कलह वाक्प्रतिबद्धं युद्धं खड्गादिभिः, एतत् दूरतो दूरेण । पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासंभवात्, श्वसूतगोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, डिम्भस्थाने वन्दनाद्यागमनपतनभण्डन-2 प्रलुठनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधनेति सूत्रार्थः ।। १२ ।। अत्रैव विधिमाह-'अणुण्णए' त्ति १२-१८ सूत्रम्, अनुन्नतो द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो नाकाशदर्शी भावतो न जात्याद्यभिमानवान्, नावनतो द्रव्यभावाभ्यामेव, द्रव्यानवनतोऽनीचकायः भावानवनत: अलब्ध्यादिनाऽदीन: अप्रहृष्टः अहसन् अनाकुलः क्रोधादिरहितः इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि । यथाभागं यथाविषयं दमयित्वा इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः साधुः चरेद् गच्छेत्, विपर्यये प्रभूतदोषप्रसङ्गात्, तथाहि- द्रव्योन्नतो लोकहास्यः भावोन्नत ईर्यां न रक्षति द्रव्यावनत: बक इति संभाव्यते भावावनतः क्षुद्रसत्त्व इति, प्रहृष्टो। योषिद्दर्शनाद्रक्त इति लक्ष्यते, आकुल एवमेव, अदान्तः प्रव्रज्यानह इति सूत्रार्थः ॥१३॥ किंच-'दवदवस्स' त्ति सूत्रम्, द्रुतं । द्रुतं त्वरितमित्यर्थः,नगच्छेत भाषमाणोवानगोचरेगच्छेत.तथा हसन्नाभिगच्छेत. कुलमुच्चावचं सदा, उच्च-द्रव्यभावभेदाद्दिधाद्रव्योचं धवलगृहवासि भावोच्चं जात्यादियुक्तम्, एवमवचमपि द्रव्यतः कुटीरकवासि भावतो जात्यादिहीनमिति । दोषा। उभयविराधनालोकोपघातादय इति सूत्रार्थः ।।१४।। अत्रैव विधिमाह-'आलोअंथिग्गलं' ति सूत्रम्, अवलोकं निर्मूहकादिरूपं थिग्गलं चितं द्वारादि, सन्धिः- चितं क्षत्रम्, उदकभवनानि पानीयगृहाणि चरन् भिक्षार्थ न विनिध्यायेत् विशेषेण पश्येत्, शङ्कास्थानमेतदवलोकादि अतो विवर्जयेत, तथा च नष्टादौ तत्राशङोपजायत इति सूत्रार्थः ।। १५॥ किंच-'रण्णो'त्ति सूत्रम्, राज्ञः- चक्रवर्त्यादेः गृहपतीनां श्रेष्ठिप्रभृतीनां रहसाठाणमिति योगः, आरक्षकाणां च दण्डनायकादीनां 'रहःस्थानं'। BRUARIURA0008066 For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8105 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २६४॥ पञ्चचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् १९ वोमूत्राधारणम्। गुह्यापवरकमन्त्रगृहादि संक्लेशकरं असदिच्छा- प्रवृत्त्या मन्त्रभेदे वा कर्षणादिनेति, दूरतः परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६॥ किंच-'पडिकुट्ठ'त्ति सूत्रम्, प्रतिकुष्टकुलं द्विविधं- इत्वरं यावत्कथिकं च, इत्वरं सूतकयुक्तम्, यावत्कथिकं- अभोज्यम्, एतन्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसङ्गात्, मामकं यत्राऽऽह गृहपतिः-मा मम कश्चिद्गहमागच्छेत्, एतत् वर्जयेत्, भण्डनादिप्रसङ्गात्, अचिअत्तकुलं अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति, कुतश्चिन्निमित्तान्तरात्, एतदपि न प्रविशेत, तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात्, चिअत्तं अचिअत्तविपरीतं प्रविशेत्कुलम, तदनुग्रहप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १७॥ किं च-'साणि'त्ति सूत्रम्, शाणीप्रावारपिहित मिति शाणी अतसीवल्कजा पटी, प्रावार:- प्रतीतः कम्बल्याद्युपलक्षणमेतत्, एवमादिभिः पिहितं- स्थगितम्, गृहमिति वाक्यशेषः। आत्मना स्वयं नापवृणुयात् नोद्घाटयेदित्यर्थः, अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतभुजिक्रियादिकारिणां प्रद्वेषप्रसङ्गात्, तथा कपाटं द्वारस्थगनं न प्रेरयेत् नोद्घाटयेत्, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात्, किमविशेषेण?, नेत्याह- अवग्रहमयाचित्वा आगाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्यावग्रह- विधिना धर्मलाभमकृत्वेति सूत्रार्थः ।। १८॥ गोअरगपविठ्ठो अ, वचमत्तं न धारए। ओगासं फासुअंनच्चा, अणुनविअ वोसिरे ।। सूत्रम् १९॥ विधिशेषमाह-'गोयरग्ग'त्ति सूत्रम्, गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं वा न धारयेत्, अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वाऽनुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति। अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायं-पुव्वमेव साहुणा सन्नाकाइओवयोग काऊण गोअरे पविसिअव्वं, कहिंविण कओ कए वा पुणो होज्जा ताहे वच्चमुत्तं ण धारेअव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवघाओ भवति, वच्चनिरोहे जीविओवघाओ, 0 पूर्वमेव साधुना संज्ञाकायिकोपयोगं कृत्वा गोचरे प्रवेष्टव्यम्, कदाचिन्न कृतः कृते वा पुनर्भवेत् तदा वक़मूत्रं न धारयितव्यम्, यतो मूत्रनिरोधे चक्षुष उपघातो भवति, व!निरोधे जीवितोपघातः,5 M E ||२६४।। For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२६५॥ असोहणा अआयविराहणा, जओ भणिअं-सव्वत्थ संजम मित्यादि, अओ संघाडयस्स सयभायणाणि समप्पिअपडिस्सए । पजचममध्ययन पिण्डेषणा, पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिज्जा। वित्थरओ जहा ओहणिज्जुत्तीए । इति सूत्रार्थः ।। १९ ।। प्रथमोद्देशकः णीअवारं तमसं, कुट्टगं परिवाए। अचक्खुविसओजत्थ, पाणा दुप्पडिलेहा (हगा) ।। सूत्रम् २० ।। सूत्रम् २०-२२ जत्थ पुप्फाईबीआई, विप्पड़न्नाई कुट्टए। अहुणोवलित्तं उल्लं, द₹णं परिवज्जए ।। सूत्रम् २१॥ नीचद्वारपरिएलगंदारगं साणं, वच्छगंवावि कुट्टए। उलंधिआन पविसे, विउहिताण व संजए। सूत्रम २२॥ वर्जनादिः। तथा नीयदुवार न्ति सूत्रम्, नीचद्वारं नीचनिर्गमप्रवेशं तमस मिति तमोवन्तं कोष्ठकं अपवरकं परिवर्जयेत्, न तत्र भिक्षा सूत्रम् २३ असंसक्तगृह्णीयात्, सामान्यापेक्षया सर्व एवंविधो भवत्यत आह- अचक्षुर्विषयो यत्र न चक्षुर्व्यापारो यत्रेत्यर्थः, अत्र दोषमाह-प्राणिनो प्रलोकनम्। दुष्प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति, ईर्याशुद्धिर्न भवतीति सूत्रार्थः ॥ २०॥ किंच-'जत्थ'त्ति सूत्रम्, यत्र पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि बीजानि शालिबीजादीनि विप्रकीर्णानि अनेकधा विक्षिप्तानि, परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः, कोष्ठके कोष्ठकद्वारे वा, तथा अधुनोपलिप्त साम्प्रतोपलिप्त आर्द्र अशुष्कं कोष्ठकमन्यद्वा दृष्ट्वा परिवर्जयेहुरत एव, न तु तत्र धर्मलाभं कुर्यात्, संयमात्मविराधनापत्तेरिति सूत्रार्थः ॥२१॥ किं च-'एलगं'ति सूत्रम्, एडक मेषं दारकं बालं श्वानं मण्डलं वत्सकं वापि क्षुद्रवृषभलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घय । पद्भ्यां न प्रविशेत, व्यूह्य वा प्रेर्य वेत्यर्थः, संयतः साधुः आत्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाच्चेति सूत्रार्थः ।। २२ ।। असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरा वलोअए । उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअट्टिज्ज अयंपिरो।। सूत्रम् २३ ।। - अशोभना चात्मविराधना, यतो भणितं सर्वत्र संयममित्यादि, अतः सङ्घाटकाय स्वकभाजनानि समर्प्य प्रतिश्रयात्पानीयं गृहीत्वा संज्ञाभूमौ विधिना व्युत्सृजेत्, विस्तरतो यथा ओघनिर्युक्तौ । ॥ २६५।। 5888086881 For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||२६६॥ उ863868856001 अइभूमिं न गच्छेजा, गोअरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मिभूमि परक्कमे ।। सूत्रम् २४ ।। पश्चचममध्ययन तत्थेव पडिलेहिजा, भूमिभागं विअक्खणो। सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजए।। सूत्रम् २५ ।। पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः दगमट्टिअआयाणे, बीआणि हरिआणि अ। परिवजंतो चिट्टिज्जा, सव्विंदिअसमाहिए। सूत्रम् २६ ।। सूत्रम् इहैव विशेषमाह-असंसत्तं ति सूत्रम्, असंसक्तं प्रलोकयेत् न योषिद्दष्टेदृष्टिं मेलयेदित्यर्थः, रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात्, २४-२६ असंसक्ततथा नातिदूरं प्रलोकयेत दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत्, परतश्चौरादिशङ्कादोषः, तथा उत्फुलं विकसितलोचनं न विणिज्झाए । प्रलोकनम्। त्ति न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पत्तेः, तथा निवर्तेत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन्- दीनवचनमनुच्चारयन्निति ॥२३॥ तथा- अइभूमिं न गच्छिज्जा इति सूत्रम्, अतिभूमिं न गच्छेद्- अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा । न यान्तीत्यर्थः, गोचराग्रगतो मुनिः, अनेनान्यदा तद्गमनासंभवमाह, किं तर्हि?, कुलस्य भूमिं- उत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत्, यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति सूत्रार्थः ।। २४॥ विधिशेषमाह- तत्थेव त्ति सूत्रम्, तत्रैव तस्यामेव । मितायां भूमौ प्रत्युपेक्षेत सूत्रोक्तेन विधिना भूमिभागं उचितं भूमिदेशं विचक्षणो विद्वान्, अनेन केवलागीतार्थस्य भिक्षाटन प्रतिषेधमाह, तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य तथा वर्चसो विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत्, एतदुक्तं भवति- स्नानभूमिकायिकादिभूमिसंदर्शनं परिहरेत्, प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच्च रागादिभावादिति सूत्रार्थः ।। २५ ।। किंच- दग त्ति सूत्रम्, उदकमृत्तिकादानं आदीयतेऽनेनेत्यादानो- मार्गः, उदकमत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः, बीजानि शाल्यादीनि हरितानि च। दूर्वादीनि, चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जयस्तिष्ठेदनन्तरोदिते देशे सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिभिरनाक्षिप्तचित्त इति । सूत्रार्थः ।। २६॥ . NAN DEal 888888888888888 For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २६७।। तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोअणं । अकप्पिन गेण्हिता, पडिगाहित कप्पिअं। सूत्रम् २७॥ पञ्चचममध्ययन आहरंती सिआ तत्थ, परिसाडिन भोअणं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् २८।। पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि अ । असंजमकरि नच्चा, तारिसिं परिवज्जए ।। सूत्रम् २९ ।। सूत्रम् ॐ तत्थ त्ति सूत्रम्, तत्र कुलोचितभूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सत: आहरेद् नयेत्यानभोजनम्, गृहीति गम्यते, तत्रायं विधिः- २७-२१ अकल्पिकअकल्पिकं अनेषणीयं नगलीयात, प्रतिगृह्णीयात कल्पिक एषणीयम, एतच्चार्थापन्नमपिकल्पिकग्रहणं द्रव्यत: शोभनमशोभन परिवर्जनादिः। मप्येतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं साक्षादुक्तमिति सूत्रार्थः ॥२७॥'आहरंति' त्ति सूत्रम्, आहरन्ती आनयन्ती भिक्षामगारीति सूत्रम् ३०-३२ गम्यते स्यात् कदाचित् तत्र देशे परिशाटयेद् इतश्चेतश्च विक्षिपेद् भोजनं वा पानं वा, ततः किमित्याह- ददतीं प्रत्याचक्षीत । सचित्तधनं प्रतिषेधयेत्तामगारीम्, स्त्र्येव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम्, कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत आह- न मम कल्पते तादृशं- पुरःकर्मादि दोषाक्षा परिशाटनावत्, समयोक्तदोषप्रसङ्गात्, दोषांश्च भावं ज्ञात्वा कथयेद् मधुबिन्दूदाहरणादिनेति सूत्रार्थः ॥२८॥ किंच-'संमद्द' त्ति सूत्रम्, संमर्दयन्ती पद्भ्यां समाक्रामन्ती, कानित्याह- प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् बीजानि शालिबीजादीनि हरितानि दूर्वादीनि असंयमकरीं साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत्, ददतीं प्रत्याचक्षीत इति सूत्रार्थः ।। २९ ।। साह निक्खिवित्ता णं, सचित्तं घट्टियाणि य। तहेव समणट्टाए, उदगं संपणुल्लिया ।। सूत्रम् ३० ।। ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोअणं । दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस ।। सूत्रम् ३१ ।। पुरेकम्मेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ३२।। 0 मधु क्षीरे जले मद्ये इति हैमोक्तेवरित्तककथाप्रतिपादितक्षीरेयीदृष्टान्तोऽत्र गम्यः। ॥ २६७।। For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।२६८।। ३३-३४ दोषाश्च। एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे मट्टिआउसे । हरिआले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ।। सूत्रम् ३३ ।। पशचममध्ययन गेरुअवन्निअसेढिअसोरहिअपिट्ठकुक्कुसकए य । उक्किट्ठमसंसट्टे, संसढे चेव बोद्धव्वे ।। सूत्रम् ३४।।। पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः तथा 'साहट्ट'त्ति सूत्रम्, संहृत्यान्यस्मिन् भाजने ददाति तं फासुगमवि वज्जए, तत्थ फासुएफासुयं साहरइ फासुए अफासुअंक सूत्रम् साहरइ अफासुए फासुयं साहरइ अफासुए अफासुअंसाहरइ, तत्थ जं फासुअं फासुए साहरइ तत्थवि थेवे थेवं साहरड़ थेवे। सचित्तपट्टनं बहुअं साहरड़ बहुए थेवं साहरइ बहुए बहुअंसाहरइ । एवमादि यथा पिण्डनियुक्तौ ।तथा निक्षिप्य भाजनगतमदेयं षट्सु जीवनिकायेषु ददाति, सचित्तं अलातपुष्पादिघट्टयित्वा संचाल्य च ददाति तथैव श्रमणार्थं प्रव्रजितनिमित्तमुदक संप्रणुद्य भाजनस्थं प्रेयं ददातीति सूत्रार्थः।। ३० ।। ओगाहइत्ता'सूत्रम्, तथा च अवगाह्य उदकमेवात्माभिमुखमाकृष्य ददाति तथा चालयित्वा । उदकमेव ददाति, उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थं सचित्तं घट्टयित्वेत्युक्तेऽपि भेदेनोपादानम्, अस्ति चायं न्यायो- यदुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनोपादानम्, यथा-ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति, ततश्चोदकं चालयित्वा आहरेत् आनीय दद्यादित्यर्थः, किं तदित्याह- पानभोजनं ओदनारनालादि तदित्थंभूतां ददतीं प्रत्याचक्षीत निराकुर्यात् न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रद्वयार्थः ।। ३१ ।। 'पुरेकम्मे'त्ति सूत्रम्, पुरःकर्मणा हस्तेन- साधुनिमित्तं प्राकृतजलोज्झनव्यापारण, तथा दा डोवसदृशया भाजनेन वा कांस्यभाजनादिना ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्, न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ एवं ति सूत्रम्, एवं उदकाइँण हस्तेन करेण, उदकाो नाम गलदुदकबिन्दुयुक्तः, 0 तत् प्रासुकमपि वर्जयेत्, तत्र प्रासुके प्रासुकं संहरति प्रासुकेऽप्रासुकं संहरति अप्रासुके प्रासुक संहरति अप्रासुके अप्रासुकं संहरति, तत्र यत् प्रासुके प्रासुकं । सहरति तत्रापि स्तोके स्तोक संहरति स्तोके बहु संहरति बही स्तोकं संहरति बहौ बहु संहरति। For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ २६९।। एवं सस्निग्धेन हस्तेन, सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तः, एवं सरजस्केन हस्तेन सरजस्को नाम- पृथिवीरजोगुण्डितः, एवं मृद्गतेन पञ्चचममध्ययनं हस्तेन मृगतो नाम- कर्दमयुक्तः, एवमूषादिष्वपि योजनीयम्, एतावन्ति एव एतानि सूत्राणि, नवरमूष:- पांशुक्षारः, पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः हरितालहिङ्गलकमनःशिलाः- पार्थिवा वर्णकभेदाः, अञ्जनं- रसाञ्जनादि लवणं- सामुद्रादि ।। ३३ ।। तथा 'गेरुअ'त्ति । सूत्रम् सूत्रम्, गैरिका- धातुः, वर्णिका पीतमृत्तिका, श्वेतिका- शुक्लमृतिका, सौराष्ट्रिका- तुवरिका, पिष्टं- आमतण्डुलक्षोदः, ३५-३६ पश्चारकर्मकुक्कुसाः प्रतीताः, कृतेनेति एभिः कृतेन, हस्तेनेति गम्यते, तथोत्कृष्ट इति उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालाबुत्रपुषफलादीनां दोषः। शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि भण्यन्ते, चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकण्डित इति, तथा असंसृष्टो व्यञ्जनादिना अलिप्तः, संसृष्टश्चैव व्यञ्जनादिलिप्तो बोद्धव्यो हस्त इति, विधिं पुनरत्रोचं वक्ष्यति स्वयमेवेति सूत्रार्थः ॥ ३४॥ असंसट्टेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिनमाणं न इच्छिता, पच्छाकम्मं जहिं भवे ।। सूत्रम् ३५।। संसटेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दिजमाणं पडिच्छिता, जं तत्थेसणियं भवे ।। सूत्रम् ३६॥ आह च-'असंसट्टेण' त्ति सूत्रम्, असंसृष्टेन हस्तेन- अन्नादिभिरलिप्तेन दा भाजनेन वा दीयमानं नेच्छेत्, किं सामान्येन?, नेत्याह- पश्चात्कर्म भवति 'यत्र' दध्यादौ, शुष्कमण्डकादिवत् तदन्यदोषरहितं गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ।। ३५ ।। 'संसट्टेण' त्ति। सूत्रम्, संसृष्टेन हस्तेन- अन्नादिलिप्तेन, तथा दा भाजनेन वा दीयमानं प्रतीच्छेद् गृह्णीयात्, किं सामान्येन? नेत्याहयत्तत्रैषणीयं भवति, तदन्यदोषरहितमित्यर्थः, इह च वृद्धसंप्रदाय:- संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते सावसेसे दव्वे, संसढे हत्थे संसट्टे ० संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकं (०ममत्र) सावशेषं द्रव्यम्, संसृष्टो हस्तः संसृष्ट ॥ २६९॥ For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२७०॥ भक्तपानमा मत्ते णिरवसेसे दव्वे, एवं अट्ठ भंगा, एत्थ पढमभंगो सव्वुत्तमो, अन्नेसुऽवि जत्थ सावसेसं दव्वं तत्थ घिप्पड़, ण इयरेसु, पश्चचममध्ययनं पच्छाकम्मदोसाउ त्ति सूत्रार्थः ।। ३६ ।। किंच पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशक: दुहं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। दिजमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए ।। सूत्रम् ३७ ।। सूत्रम् ३७-४४ दुण्हं तु भुंजमाणाणं, दोऽवि तत्थ निमंतए। दिजमाणं पडिच्छिजा, जंतत्थेसणियं भवे ।। सत्रम ३८॥ काल्पकागुव्विणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोअणं । भुंजमाणं विवजिजा, भत्तसेसं पडिच्छए।। सूत्रम् ३९ ।। कल्पिक सिआय समणवाए, गुविणी कालमासिणी । उहिआ वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणट्टए। सूत्रम् ४० ।। तं भवे भत्तपाणं त. संजयाण अकप्पि।दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं। सूत्रम् ४१॥ थणगं पिजेमाणी, दारगं वा कुमारि। तं निक्खिवित्तु रोअंतं, आहरे पाणभोअणं ।। सूत्रम् ४२ ।। तं भवे भत्तपाणंत, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं।। सूत्रम् ४३।। जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकि अं। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ४४ ।। 'दुण्डं ति सूत्रम्, द्वयोर्भुजतो पालनां कुर्वतोः, एकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत् तद्दानं प्रत्यामन्त्रयेत्, तद्दीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः, अपितु छन्दं अभिप्राय से तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवक्त्रादिविकारैः, किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति, इष्टं चेदृह्णीयान्न चेन्नैवेति, एवं भुजानयोः- अभ्यवहारायोद्यतयोरपि योजनीयम्, यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च। B- मात्रक निरवशेष द्रव्यम्, एवमष्टौ भङ्गाः, अत्र प्रथमो भङ्गः सर्वोत्तमः, अन्येष्वपि यत्र सावशेष द्रल्यं तत्र गहीयात्, नेतरेषु, पश्चात्कर्मदोषात् । 0 उच्छिष्टस्याकल्प्यत्वाद्भुजिः पालनार्थोऽत्र । 0 अत्राणे 'भुनजोऽत्राणे' इत्यात्मनेपदभावात्। ॥ २७०॥ For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kalassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२७१॥ वर्तत इति सूत्रार्थः ।। ३७ ।। ततो 'दुण्हति सूत्रम, द्वयोस्तु पूर्ववत् भुजतो ज्ञानयोर्वा द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयाताम्, पतचममध्ययन तत्रायं विधिः-दीयमानं प्रतीच्छेद्गृह्णीयात् यत्तत्रैषणीयं भवेत्, तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ।। ३८॥ विशेषमाह-'गुग्विणीए पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः त्ति सूत्रम्, गुर्विण्या गर्भवत्या उपन्यस्तं उपकल्पितम्, किं तदित्याह- विविधं अनेकप्रकारं पानभोजनं द्राक्षापानखण्डखाद्यकादि, सूत्रम् तत्र भुज्यमानं तया विवय॑म्, मा भूत्तस्या अल्पत्वेनाभिलाषानिवृत्त्या गर्भपतनादिदोष इति, भुक्तशेष भुक्तोद्धरितं प्रतीच्छेत्, ।। ३०-४४ कल्पिकायत्र तस्या निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः ।। ३९॥ किंच-'सिआय'त्ति सत्रम, स्याच कदाचिच श्रमणार्थ साधनिमित्तं गर्विणी कल्पिक पूर्वोक्ता कालमासवती गर्भाधानान्नवममासवतीत्यर्थः, उत्थिता वा यथाकथञ्चिनिषीदेद् निषण्णा ददामीति साधुनिमित्तम्, भक्तपानम्। निषण्णावा स्वव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेद ददामीति साधुनिमित्तमेवेति सूत्रार्थः ।। ४०॥'तं भवे' त्ति सूत्रम्, तद्भवेद्भक्तपानं तु तथा निषीदनोत्थानाभ्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकम, इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम्, जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः, यतश्चैवमतो ददतींप्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ।। ४१॥ किंच-'थणगं'ति सूत्रम्, स्तनं (न्य) पाययन्ती, किमित्याह- दारकं वा कुमारिकाम, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, अत एव नपुंसकं वा, तद्दारकादि निक्षिप्य रुदद्भूम्यादौ आहरेत्पानभोजनम, अत्रायं वृद्धसंप्रदाय:- गच्छवासी जइथणजीवी पिअंतो णिक्खित्तो तो न गिण्हंति, रोवउ वा मा वा. अह अन्नपि आहारेड़ तो जति ण रोवइ तो गिण्हंति, अह रोवड़ तो न गिण्हंति, अह अपिअंतो णिक्खित्तो थणजीवी रोव छन्देन निमन्त्रणाज्ञापनार्थमतीत्यादि। 0 गच्छवासी यदि स्तन्यजीवी पिलन् निक्षिप्तस्तदा न गृह्णाति, रोदितु वा मा वा, अथान्यदप्याहारयति तदा यदि न रोदिति तदा गृह्णाति, अथ रोदिति तदा न गृह्णाति, अथापिनन् निक्षिप्तः स्तन्यजीवी रोदिति - || २७१।। For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kailassagarsuneyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० बृतियुतम् ॥२७२॥ ४५-४६ तओ ण गिण्हंति, अह ण रोवड़ तो गिण्हंति, गच्छणिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा पिबंतओ (वा) पञ्चचममध्ययन अपिबंतओ वाण गिण्हंति, जाहे अन्नपि आहारेउं आढत्तो भवति ताहे जड़ पिबंतओ तो रोवउ वा मा वा ण गेण्हंति, अह। पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः अपिबंतओ तो जइ रोवइ तो परिहरंति, अरोविए गेहंति, सीसो आह- को तत्थ दोसोऽत्थि?, आयरिओ भणइ तस्स। सूत्रम् णिक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घिप्पमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणादोसा मज्जारादि वा अवहरेज त्ति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ उद्भिद्यदायक तं भवे त्ति सूत्रम्, तद्भवेद्भक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकम्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति प्रतिषेधः। सूत्रार्थः ।। ४३ ।। किं बहुनेति, उपदेशसर्वस्वमाह-'जं भवे' त्ति सूत्रम्, यद्भवेद्धक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषय इत्यर्थः, किम्?- शङ्कितं न विद्मः किमिदमुद्रमादिदोषयुक्तं किंवा नेत्याशङ्कास्पदीभूतम्, तदित्थंभूतमसति ।। कल्पनीयनिश्चये ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ४४ ।। दगवारेण पिहिअं, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेणवि केणइ ।। सूत्रम् ४५ ॥ तंच उम्भिंदिआ दिखा, समणट्ठाए व दावए। दितिअंपडिआइक्खे,नमे कप्पड़ तारिस ।। सूत्रम ४६।। किं च-'दगवारेण'त्ति सूत्रम्, दकवारेण उदककुम्भेन पिहितं भाजनस्थं सन्तं स्थगितम्, तथा नीसाए त्ति पेषण्या, पीठकेन । वा काष्ठपीठादिना, लोढेन वापि शिलापुत्रकेण, तथा लेपेन मृल्लेपनादिना श्लेषेण वा केनचिजतुसिक्थादिनेतिसूत्रार्थः ।। ४५॥ तदा न गृह्णति, अथ न रोदिति तदा गृह्णाति, गच्छनिर्गताः पुनर्यावत्स्तन्यजीबी तावद् रोदिति वा मा वा पिबन् अपिबन् वा न गृह्णन्ति, यदा अन्यदप्याहत्माहतो ॥ २७२॥ भवति तदा यदि पिबन् तदा रोदिति वा मा वा न गृहन्ति, अथापिबन् तदा यदि रोदिति तदा परिहरन्ति अरुदति गृहन्ति । शिष्य आह- कस्तत्र दोषोऽस्ति?, आचार्यो भणति- तस्य निक्षिप्यमाणस्य खराभ्यां हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्यास्थिरत्वेन परितापनादोषा मार्जारादि वाऽपहरेत् । 0 मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम् । For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२७३॥ ४७-५४ तंच' ति सूत्रम्, तच्च स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य दद्याच्छ्रमणार्थं दायकः, नात्माद्यर्थम्, तदित्थंभूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत न पशचममध्ययन मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४६॥ पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः असणं पाणगं वावि.खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज सुणिजावा, दाणट्ठा पगडं इमं ।। सूत्रम् ४७ ।। सूत्रम् तारिस भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ४८ ।। अकल्यम्। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जंजाणिज्ज सणिजावा, पुण्णट्ठा पगड इमं ।। सूत्रम् ४९।। तं भवे भत्तपाणं त.संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे,न मेकप्पड़ तारिसं॥ सत्रम५०॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमंतहा । जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ।। सूत्रम् ५१ ।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ५२॥ असणं पाणगंवावि, खाइमं साइमंतहा । जं जाणिज्ज सुणिजावा, समणट्ठा पगडं इमं ।। सूत्रम् ५३ ।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ५४॥ किंच-'असणं'ति सूत्रम्, अशनं पानकं वापि ,खाद्यं स्वाद्यम्, अशनं ओदनादि पानकं च आरनालादि, खाद्यं लडकादि, स्वाद्यं हरीतक्यादि, यजानीयादामन्त्रणादिना, शृणुयाद्वा अन्यतः, यथा दानार्थं प्रकृतमिदम्, दानार्थं प्रकृतं नाम- साधुवादनिमित्तं । यो ददात्यव्यापारपाखण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिक्प्रभृतिरिति सूत्रार्थः ॥ ४७॥ 'तारिसंति सूत्रम्, तादृशं भक्तपानं S ||२७३॥ दृश्यमानेष्वादशेषु तु ओदनारनाललड्डकहरीतक्यादि' इत्येतावन्मात्रमेव। 0 गुडसंस्कृतवन्तपवनादि ग्राह्यम्, खाद्यकावधिश्चाशोकवृत्तिमोदकादिभोजनप्रकार इति पञ्चाशकोक्तेः। 88888888888888888880000000000000000000000000000 For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २७४।। दानार्थं प्रवृत्तव्यापारं संयतानामकल्पिकम, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ४८॥ पञ्जचममध्ययन असणं ति सूत्रम्, एवं पुण्यार्थम्, पुण्यार्थं प्रकृतं नाम-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । अत्राह-पुण्यार्थप्रकृत पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः परित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः, तथाहि-न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थ सूत्रम् ५५ मेव क्षुद्रसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात्, औदेशिकादि दोषा:। स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति, एतेनाऽदेयदानाभावः प्रत्युक्तः, देयस्यैव यदृच्छादानानुपपत्तेः, कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात्, अनीदृशस्यैव । प्रतिषेधात्, तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः नासौ तदर्थ इत्यारम्भदोषायोगात्, दृश्यते च । कदाचित्सूतकादाविव सर्वेभ्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रफलत्वात्प्रयासस्येति ।। ४९॥ तं भवेत्ति सूत्रम्, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५०॥ असणं'ति सूत्रम्, एवं वनीपकार्थं वनीपका:- कृपणाः ॥५१॥ तं भवे' त्ति सूत्रम्, प्रतिषेधः पूर्ववत् ।। ५२ ।। 'असणं'ति सूत्रम्, एवं श्रमणार्थम्, श्रमणा-निर्ग्रन्थाः शाक्यादयः ॥ ५३॥ 'तं भवे' त्ति सूत्रम्, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५४॥ उद्देसिअंकीअगडं, पूड़कम्मं च आहर्ड। अज्झोअर पामिच्चं, मीसजायं विवजए।। सूत्रम् ५५ ।। किंच-'उद्देसिति सूत्रम्, उद्दिश्य कृतमौदेशिकं- उद्दिष्टकृतकर्मादिभेदम्, क्रीतकृतं- द्रव्यभावक्रयक्रीतभेदं पूतिकर्मसंभाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम्, आहृतं- स्वग्रामाहृतादि, तथा अध्यवपूरक-स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपम्, प्रामित्यंसाध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम्, मिश्रजातं च- आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम्, वर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। ५५ ।। For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kalassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २०५॥ पचममध्ययन पिण्डेषणा, प्रथमोद्देशकः औदेशिकादिदोषा:। सूत्रम् औदेशिकादिदोषाः। उग्गर्म से अपुच्छिता, कस्सट्ठा केण वा कडं? सुच्चा निस्संकिअं सुद्ध, पडिगाहिज्ज संजए।। सूत्रम् ५६ ।। संशयव्यपोहायोपायमाह-'उग्गम' ति सूत्रम्, उद्गमं तत्प्रसूतिरूपं से तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृच्छेत् तत्स्वामिनं कर्मकर वा, यथा- कस्यार्थमेतत् केन वा कृतमिति, श्रुत्वा तद्वचो न भवदर्थं किं त्वन्यार्थमित्येवंभूतं निःशङ्कितं शुद्धं सजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात्संयतो, विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः ।। ५६॥ असणं पाणगंवावि, खाइमं साइमंतहा । पुप्फेसु हुन्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसुवा ।। सूत्रम् ५७॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति अंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ५८ ।। असणं पाणगंवावि, खाइमं साइमंतहा । उदगंमि हुज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ।। सूत्रम् ५९।। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ६० ।। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि हज निक्खितं, तं च संघट्टिआ दए ।। सूत्रम् ६१ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ६२ ।। एवं उस्सक्किया, ओसक्किया, उज्जालिआ, पजालिआ, निव्वाविया । उस्सिंचिया, निस्सिंचिया, उववत्तिया, ओयारिया दए। सूत्रम् ६३॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पिा दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस ।। सूत्रम् ६४ ॥ तथा असणं ति सूत्रम्, अशनं पानकं वापिखाद्यं स्वाद्यं तथा पुष्पैः जातिपाटलादिभिः भवेदुन्मिश्रम, बीजैर्हरितैर्वेति सूत्रार्थः॥ १५७॥ तारिसं ति सूत्रम्, तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति || २७५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाचममध्ययन श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२७६॥ सूत्रार्थः ।। ५८ ।। तथा असणं ति सूत्रम्, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा, उदके भवेनिक्षिप्तमुत्तिङ्गपनकेषु वा कीटिकानगरोल्लीषु वेत्यर्थः, उदयनिक्खित्तं दुविहं अणंतरं परंपरंच, अणंतरंणवणीतपोग्गलियमादि, परोप्परं जलघडोवरिभायणत्थं । पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः दधिमादि, एवं उत्तिंगपणएसु भावनीयमिति सूत्रार्थः ।। ५९॥ तं भवे'त्ति सूत्रम्, तद्भवेद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम्, सूत्रम् ६५ । यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६०॥ तथा असणं ति सूत्रम्, अशनं पानकं वापि दायकदोषाः। खाद्यं स्वाद्यं तथा, तेजसि भवेनिक्षिप्तम्, 'तेजसि' इत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः, तच्च संघश्य, यावद्भिक्षां ददामि तावत्तापातिशयेन मा भूदुवर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ तं भवे'त्ति सूत्रम्, तद्भवेद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकमतो ददतीं। प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६२ ।। एवं उस्सक्किय त्ति यावद्भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्यतीत्युत्सिच्य। अदद्याद्, एवं ओसक्किया अवसl अतिदाहभयादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः, एवं उज्जालिया पज्जालिया 'उज्ज्वाल्य' अर्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण, प्रज्वाल्य' पुनः पुनः। एवं निव्वाविया निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः, एवं उस्सिंचिया निस्सिंचिया, 'उत्सिच्य' अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दानार्थं तीमनादीनि, निषिच्य' तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्, उद्वर्तनभयेन वाऽऽद्रहितमुदकेन निषिच्य, एवं ओवत्तिया ओयारिया, 'अपवर्त्य' तेनैवाग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात्, तथा अवतार्य' दाहभयाद्दानार्थं वा दद्यात्, अत्र तदन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ।। ६३ ।। 'तं भवे' त्ति सूत्रम् पूर्ववत् ।। ६४॥ हुज कटुं सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया। ठविअंसंकमट्ठाए, तं च होज चलाचलं ।। सूत्रम् ६५ ।। 0 उदकनिक्षिप्तं द्विविध- अनन्तरं परम्परं च, अनन्तरं नवनीतमांसादि, परम्परं जलघटोपरिभाजनस्थं दध्यादि, एवमुत्तिङ्गपनकयोः । ॥ २७६।। BECREECREEER280320000RRERE For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२७७।। 22000000000000000000000CCEEEEEERCECHER पाचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ६५-६९ दायकदोषाः। सूत्रम् ७० कन्दादिप्रतिषेधः। ण तेण भिक्खूगच्छिज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिरं चेव, सव्विंदिअसमाहिए ।। सूत्रम् ६६ ।। निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ताणमारूहे । मंचं कीलंच पासायं, समणट्ठा एव दावए ।। सूत्रम् ६७॥ दुरूहमाणी पवडिजा, हत्थं पार्य व लूसए । पुढविजीवे विहिंसिना, जे अतन्निस्सिया जगे ।। सूत्रम् ६८।। एआरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । तम्हा मालोहर्ड भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया ।। सूत्रम् ६९।। गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य होज त्ति सूत्रम्, भवेत् काष्ठं शिला वापि इट्टालं वाऽपि एकदा एकस्मिन् काले प्रावृडादौ स्थापितं संक्रमार्थम्, तच्च भवेत् चलाचलं अप्रतिष्ठितम्, न तु स्थिरमेवेति सूत्रार्थः ।। ६५ ।। 'ण तेण' त्ति सूत्रम्, न तेन काष्ठादिना भिक्षुर्गच्छेत्, किमिति?, अत्राह- दृष्टस्तत्रासंयमः, तच्चलने प्राण्युपमर्दसंभवात्, तथा गम्भीरं अप्रकाशं शुषिरं चैव अन्त:साररहितम्, सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्, परिहरेदिति सूत्रार्थः ।। ६६ ।। किं च- णिस्सेणिं ति सूत्रम्, निश्रेणिं फलक पीढं उस्सवित्ता उत्सृत्य ऊर्ध्वं कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्चम्, कीलकं च उत्सृत्य कमारोहेदित्याह- प्रासादम्, श्रमणार्थं साधुनिमित्तं दायको दाता आरोहेत्, एतदप्यग्राह्यमिति सूत्रार्थः ।। ६७।। अत्रैव दोषमाह- दुरूहमाणि त्ति सूत्रम्, आरोहन्ती प्रपतेत्, प्रपतन्ती च हस्तं पादं वा लूषयेत् स्वकं स्वत एव खण्डयेत्, तथा पृथ्वीजीवान् विहिस्यात्, कथंचित्तत्रस्थान, तथा यानि च तनिश्रितानि जगन्ति प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति सूत्रार्थः ।। ६८ ॥ 'एआरिसे' त्ति सूत्रम्, ईदृशान् अनन्तरोदितरूपान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः। यस्माद्दोषकारिणीयं तस्मात् मालापहृतां मालादानीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति संयताः, पाठान्तरं वा हंदि मालोहडं ति, हन्दीत्युपप्रदर्शन इति सूत्रार्थः ।। ६९।। कंदं मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं व सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरंच, आमगं परिवजए।। सूत्रम् ७०।। ||२७७॥ 1888888888 For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1868 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२७८॥ पाचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ७१-७४ कन्दादिप्रतिषेधः। सूत्रम् ७५ पानग्रहणविधिः। तहेव सत्तुचुन्नाई, कोलचुन्नाई आवणे । सक्कुलिं फाणिअंपूअं, अन्नं वावि तहाविहं ।। सूत्रम् ७१।। विकायमाणं पसढं, रएणं परिफाासि। दिति अंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस ।। सूत्रम् ७२ ।। बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसंवा बहुकंटयं । अच्छियं तिंदुयं बिल्लं, उच्छुखंड व सिंबलिं ।। सूत्रम् ७३ ।। अप्पे सिआ भोअणजाए, बहुउज्झियधम्मियं । दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् ७४ ।। प्रतिषेधाधिकार एवाह-'कंदं मूलं' ति सूत्रम्, कन्दं सूरणादिलक्षणं मूलं विदारिकारूपं प्रलम्ब वा तालफलादि, आम छिन्नं वा सन्निरं सन्निरमिति पत्रशाकम्, तुम्बाकं त्वग्मिचान्तर्वर्ति आर्द्रा वा तुलसीमित्यन्ये, शृङ्गबेरं चाकम्, आम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥ तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैव सक्तुचूर्णान् सक्तून् कोलचूर्णान् बदरसक्तून् आपणे वीथ्याम्, तथा शष्कुली तिलपर्पटिकां । फाणितं द्रवगुडं पूर्य कणिकादिमयम्, अन्यद्वा तथाविध मोदकादि ।। ७१॥ किमित्याह- विक्कायमाणं ति सूत्रम्, विक्रीयमाणमापणे इति वर्तते, प्रसहा अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम्, अत एव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्ट व्याप्तम्, तदित्थंभूतं तत्र ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रद्वयार्थः ।। ७२ ।। किंच- बहुअडियं ति सूत्रम्, बह्वस्थि पुद्गलं मांसं अनिमिषं वा मत्स्यं वा बहुकण्टकम्, अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति- वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति, तथा चाह- अत्थिक अस्थिकवृक्षफलम्, तेंदुकं तेन्दुरुकीफलम्, बिल्वं इक्षुखण्डमिति च प्रतीते, शाल्मलिं वा वल्लादिफलिं वा, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्ध इति सूत्रार्थः ॥७३॥ अत्रैव दोषमाह- अप्पे त्ति सूत्रम्, अल्पं स्याद्भोजनजातमत्र, अपि तु बहूज्झनधर्मकमेतत्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ७४ ।। तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोअणं । संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोअंविवजए।। सूत्रम् ७५ ।। ॥ २७८।। For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक पशचममध्ययन पिण्डेषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ७५-८१ वृत्तियुतम ||२७९॥ पान ग्रहणविधिः। जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा । पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जंच निस्संकिअंभवे ।। सूत्रम् ७६ ।। अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज संजए। अह संकियं भविजा, आसाइत्ताण रोअए। सूत्रम् ७७ ।। थोवमासायणट्ठाए, हत्थगंमि दलाहि मे । मा मे अचंबिलं पूअं, नालं तण्हं विणित्तए ।। सूत्रम् ७८ ।। तंच अचंबिलं पूर्य, नालं तण्हं विणित्तए । दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ।। सूत्रम् ७९ ।। तं च होज अकामेण, विमणेणं पडिच्छि। तं अप्पणा न पिबे, नोवि अन्नस्स दावए ।। सूत्रम् ८० ।। एगतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिट्ठविजा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ सूत्रम् ८१ ।। उक्तोऽशनविधिः, साम्प्रतं पानविधिमाह- तहेव त्ति सूत्रम्, तथैव यथाशनमुच्चावचं तथा पानं उच्च वर्णाद्युपेतं द्राक्षापानादि अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि अथवा वारकधावनं गुडघटधावनमित्यर्थः, संस्वेदज पिष्टोदकादि, एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः, तन्दुलोदकं अट्ठिकरकं अधुनाधौत अपरिणतं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। ७५ ।। अत्रैव विधिमाह-'जं जाणिज'त्ति सूत्रम्, यत्तन्दुलोदकं जानीयात् विद्याच्चिरधौतम्, कथं जानीयादित्यत आह- मत्या दर्शनेन वा, मत्या तद्हणादिकर्मजया दर्शनेन वा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण च, वा चशब्दार्थः, तदप्येवंभूतं कियती वेलाऽस्य धौतस्येति पृष्वा गृहस्थम्, श्रुत्वा वा महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनं यच्चे'ति यदेव निःशङ्कितं भवति निरवयवप्रशान्ततया तन्दुलोदकं । तत्प्रतिगृह्णीयादिति, विशेष: पिण्डनिर्युक्तावुक्त इति सूत्रार्थः ।।७६ ।। उष्णोदकादिविधिमाह-अजीव ति सूत्रम्, उष्णोदकम जीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदण्डपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि वर्तते, तदित्थंभूतं प्रतिगृह्णीयात्संयतः, चतुर्थरसमपूत्यादि। । देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः, अथ शङ्कितं भवेत् तत आस्वाद्य रोचयेद् विनिश्चयं कुर्यादिति सूत्रार्थः ।। ७७ ॥ तच्चैवं ॥२७२।। For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २८०॥ सूत्रम् ८२-८६ वसत्यभावे भोजनविधिः। थोवं'ति सूत्रम्, स्तोकमास्वादनार्थं प्रथमं तावत् हस्ते देहि मे, यदि साधुप्रायोग्यं ततो ग्रहीष्ये, मा मे अत्यम्लं पूति नालं पशचममध्ययन पिण्डैषणा, तृडपनोदाय । ततःकिमनेनानुपयोगिनेति सूत्रार्थः ।। ७८ ।। 'तंच'त्ति सूत्रम्, सुगमम् ।। ७९ ।। आस्वादितं च सत्साधुप्रायोग्य प्रथमोद्देशकः चेगृह्यत एव नो चेदग्राह्यम्। 'तं च'त्ति सूत्रम्, तच्च अत्यम्लादि भवेद् अकामेन उपरोधशीलतया विमनस्केन अन्यचित्तेन । प्रतीप्सितं गृहीतं तदात्मना कायापकारकमित्यनाभोगधर्मश्रद्धया न पिबेत् नाप्यन्येभ्यो दापयेत्, रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थं दापनग्रहणम्, इह च 'सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेवे'त्यादि भावनयेति सूत्रार्थः ।। ८० ॥ अस्यैव। विधिमाह-एगंतंति सूत्रम्, एकान्तं अवक्रम्य गत्वा अचित्तं दग्धदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणेन स्थण्डिलमिति । गम्यते यतं अत्वरितं प्रतिष्ठापयेद्विधिना त्रिर्वाक्यपूर्वं व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकाम् । एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ।। ८१।। सिआ अगोयरम्गगओ, इच्छिता परिभुत्तु(भुंजिउं)। कुट्टगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासु ।। सूत्रम् ८२ ।। अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडे । हत्थगं संपमजित्ता, तत्थ भुंजिन संजए। सूत्रम् ८३ ।। तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठिअंकंटओ सिआ। तणकट्ठसक्करं वावि, अन्नं वावि तहाविहं ।। सूत्रम् ८४ ।। तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छहुए। हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ।। सूत्रम् ८५।। एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिट्ठविजा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ।। सूत्रम् ८६॥ || २८० ।। एवमन्नपानग्रहणविधिमभिधाय भोजनविधिमाह-'सिआ अत्ति सूत्रम्, स्यात् कदाचिद् गोचराग्रगतो ग्रामान्तरं भिक्षा प्रविष्ट इच्छेत्परिभोक्तुं पानादि पिपासाद्यभिभूतः सन्, तत्र साधुवसत्यभावे कोष्ठकं शून्यचट्टमठादि भित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादि, For Private and Personal Use Only Page #305 --------------------------------------------------------------------------  Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २८२ ।। www.kobatirth.org वीसमंतो इमं चिंते, हियमठ्ठे लाभमस्सिओ। जड़ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ।। सूत्रम् ९४ ।। साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिज जहक्कमं । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ।। सूत्रम् ९५ ।। अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ।। सूत्रम् ९६ ।। वसतिमधिकृत्य भोजनविधिमाह - 'सिआ य'त्ति सूत्रम्, स्यात् कदाचित् तदन्यकारणाभावे सति भिक्षुरिच्छेत् शय्यां वसतिमागम्य परिभोक्तुम्, तत्रायं विधिः- सह पिण्डपातेन- विशुद्धसमुदानेनागम्य, वसतिमिति गम्यते, तत्र बहिरेवोन्दुकं - स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिण्डपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः ।। ८७ ।। तत ऊर्ध्वं 'विणएण'त्ति सूत्रम्, विशोध्य पिण्डं बहिः विनयेन नैषेधिकीनमः क्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य, वसतिमिति गम्यते, सकाशे गुरो: मुनिः, गुरुसमीप इत्यर्थः, ईर्यापथिकामादाय 'इच्छामि पडिक्कमिडं इरियावहियाए' इत्यादि पठित्वा सूत्रम् आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत्कायोत्सर्गं कुर्यादिति सूत्रार्थः ।। ८८ ।। 'आभोइत्ताण' त्ति सूत्रम्, तत्र कायोत्सर्गे आभोगयित्वा ज्ञात्वा निःशेषमतिचारं यथाक्रमं परिपाट्या, क्केत्याह- गमनागमनयोश्चैव गमने गच्छत आगमन आगच्छतो योऽतिचारः, तथा भक्तपानयोश्च भक्ते पाने च योऽतिचारः तं संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ।। ८९ ।। विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् 'उज्जुप्पन्न' त्ति सूत्रम्, ऋजुप्रज्ञः अकुटिलमतिः सर्वत्र अनुद्विनः क्षुदादिजयात्प्रशान्तः अव्याक्षिप्तेन चेतसा, अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः, आलोचयेद्गुरुसकाशे, गुरोर्निवेदयेदिति भावः, यद् अशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तदा (धाव) नादिना गृहीतं भवेदिति सूत्रार्थः ।। ९० ।। तदनु च 'न संमं'ति सूत्रम्, न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्मं अज्ञानात्- अनाभोगेनाननुस्मरणाद्वा, पूर्वं पश्चाद्वा यत्कृतम्, पुरः कर्म पश्चात्कर्म वेत्यर्थः, पुनः आलोचनोत्तरकालं प्रतिक्रामेत् तस्य सूक्ष्मातिचारस्य इच्छामि पडिक्कमिउं गोअरचरिआए, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चचममध्ययनं पिण्डैषणा, | प्रथमोद्देशक: सूत्रम् ८७-९६ वसतिमधिकृत्य भोजनविधिः । ।। २८२ ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२८३॥ पाचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ९७ भोज्यमधिकृत्य विधिः। इत्यादि सूत्रं पठित्वा व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थश्चिन्तयेदिदं-वक्ष्यमाणलक्षणमिति सूत्रार्थः ।। ९१ ।। 'अहो जिणेहि सूत्रम्, अहो विस्मये जिनैः तीर्थकरैः असावद्या अपापा वृत्तिः वर्तना साधूनांदर्शिता देशिता वा मोक्षसाधनहेतोः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय संधारणार्थमिति सूत्रार्थः ।। ९२ ।। ततश्च-‘णमोक्कारेण'त्ति सूत्रम्, नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरिहंताण' मित्यनेन, कृत्वा जिनसंस्तवं लोगस्सुजोअगरे' इत्यादिरूपम्, ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् क्षणं स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ।। ९३ ॥ 'वीसमंत'त्ति सूत्रम्, विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत् परिणतेन चेतसा, हितं कल्याणप्रापकमर्थं- वक्ष्यमाणम्, किंविशिष्टः सन्?- भावलाभेन- निर्जरादिनाऽर्थोऽस्येति लाभार्थिकः, यदि मे मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिण्डग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो भवसमुद्रादिति सूत्रार्थः ।। ९४ ।। एवं संचिन्त्योचितवेलायामाचार्यमामन्त्रयेद्, यदि गृह्णाति शोभनम्, नो चेद्वक्तव्योऽसौ भगवन्! देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यम्, ततो यदि ददाति सुन्दरम्, अथ भणति त्वमेव प्रयच्छ, अत्रान्तरेसाहवोत्ति सूत्रम्, साधूंस्ततोगुर्वनुज्ञातः सन् चिअत्तेणं ति मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् यथाक्रमं यथारत्नाधिकतया, ग्रहणौचित्यापेक्षया बालादिक्रमेणेत्यन्ये, यदि तत्र केचन धर्मबान्धवाः इच्छेयुः अभ्युपगच्छेयुस्ततस्तैः सार्धं भुञ्जीत उचितसंविभागदानेनेति सूत्रार्थः ॥९४-९५ ।। 'अह कोई'त्ति सूत्रम्, अथ कश्चिन्नेच्छेत् साधुस्ततो भुञ्जीत एकको रागादिरहित इति, कथं भुञ्जीतेत्यत्राहआलोके भाजने मक्षिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः साधुः प्रव्रजित: यतं प्रयत्नेन तत्रोपयुक्तः अपरिशाटं हस्तमुखाभ्यामनुज्झन् इति सूत्रार्थः ।। ९६ ।। तित्तगंव कडुअंव कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा । एअलद्धमन्नत्थ पउत्तं, महुघयं व भुंजिज संजए ।। सूत्रम् ९७ ।। For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२८४।। अरसं विरसं वावि, सूइअंवा असूइ। उल्लं वा जड़ वा सुक्कं, मंथुकुम्मासभोअणं ।। सूत्रम् ९८ ।। पञ्चचममध्ययन उप्पण्णं नाइहीलिजा, अप्पं वा बहु फासुअं। मुहालद्धं मुहाजीवी, भुंजिजा दोसवजिअं। सूत्रम् १९।। पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवीवि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दोऽविगच्छंति सुग्गई ।। सूत्रम् १०० ।। सूत्रम् त्तिबेमि ।। पिंडेसणाएपढमो उद्देसोसमत्तो॥१॥ ९७-१०० भोज्यमधिभोज्यमधिकृत्य विशेषमाह-'तित्तगं वत्ति सूत्रम्, तिक्तकं वा एलुकवालुङ्कादि, कटुकं वा आर्द्रकतीमनादि, कषायं कृत्य विधिः। वल्लादि, अम्लं तक्रारनालादि, मधुरं क्षीरमध्वादि, लवणं वा प्रकृतिक्षारं तथाविधं शाकादि लवणोत्कटं वाऽन्यत्, एतत्तिक्तादि लब्धं आगमोक्तेन विधिना प्राप्तं अन्यार्थं अक्षोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमितिकृत्वा मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थम्, अथवा मधुघृतमिव ‘णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेज'त्ति सूत्रार्थः ।। ९७ ।। किंच- अरसं ति सूत्रम्, अरसं- असंप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः, विरसं वापि विगतरसमतिपुराणौदनादि सूचित व्यञ्जनादियुक्तं असूचितं वा तद्रहितं वा, कथयित्वा अकथयित्वा वा दत्तमित्यन्ये, आर्द्र प्रचुरव्यञ्जनम्, यदिवा शुष्कं । स्तोकव्यञ्जनं वा, किं तदित्याह- मन्धुकुल्माषभोजनं मन्थु- बदरचूर्णादि कुल्माषा:- सिद्धमाषाः, यवमाषा इत्यन्ये इति । सूत्रार्थः ।। ९८ ।। एतद्भोजनं किमित्याह-'उप्पण्णं ति सूत्रम्, उत्पन्नं विधिना प्राप्तं नातिहीलयेत् सर्वथा न निन्देत्, अल्पमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन?, बहु वा असारप्रायमिति, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, किंविशिष्टं तदित्याह- प्रासुकं प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते- अल्पं वा, वाशब्दाद्विरसादि वा, बहुप्रासुकं- सर्वथा शुद्धं नातिहीलयेदिति, अपि रुद्रवत्वात् यथा शीघ्रं जेगिल्यते तथा । न वामाद्धनुनो दक्षिणं हनु संचारयेत्। For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२८५॥ पचममध्ययन पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ९७-१०० भोज्यमधिकृत्य विधिः। त्वेवं भावयेत् - यदेवेह लोका ममानुपकारिणः प्रयच्छन्ति तदेव शोभनमिति । एवं मुधालब्ध कोण्टलादिव्यतिरेकेण प्राप्त मुधाजीवी सर्वथा अनिदानजीवी, जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये, भुञ्जीत दोषवर्जित संयोजनादिरहितमिति सूत्रार्थः ।। ९९॥ एतहुरापमिति दर्शयति-'दुल्लह'त्ति, दुर्लभा एव मुधादातारः, तथाविधभागवतवत्, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः, तथाविधचेल्लकवत् । अमीषां फलमाह- मुधादातारो मुधाजीविनश्च द्वावप्येती गच्छतः सुगति सिद्धिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिद्देवलोकसुमानुषप्रत्यागमनपरम्परया ब्रवीमीति पूर्ववत् । अत्र भागवतोदाहरणम्- जहा एगो परिव्वायगो सो एगं भागवयं उवट्ठिओ, अहं तव गिहे वरिसारत्तं करेमि, मम उदंतं वहाहि, तेण भणिओ- जड़ मम उदंतं न वहसि, एवं हवउ त्ति । सो से भागवओ सेजभत्तपाणादिणा उदंतं वहति । अन्नया य तस्स घोडओ चोरेहिं हिओ, अतिप्पभायंतिकाऊण जालीए बद्धो, सो अ परिवायगो तलाए ण्हायओगओ, तेण सो घोडओ दिट्ठो, आगंतु भणइ-मम पाणीयतडे पोत्ती विस्सरिया, गोहो विसज्जिओ, तेण घोडओ दिट्ठो, आगंतुं कहियं, तेण भागवएण णायं, जहा- परिव्वायगेण कहियं । तेण परिव्वायगो भण्णति- जाहि, णाहं तव णिव्वि, उदंतं वहामि, णिव्विस॒ अप्पफलं भवति । एरिसो मधादाई ।। मधाजीविंमि उदाहरणं- एक्को राया धम्म परिक्खई, को धम्मो?, जो अणिव्विलृ भुंजइ त्ति, तो तं परिक्खामित्ति काऊण मणुस्सा संदिट्ठा, राया मोदए देइ, तत्थ 0 यथैकः परिव्राजकः, स एक भागवतमुपस्थितः, अहं तव गृहे वर्षारात्रं करोमि ममोदन्तं वह, तेन भणित:- यदि ममोदन्तं न वहसि, एवं भवत्विति, स भागवतस्तस्मै शय्याभक्तपानादिनोदन्तं वहति । अन्यदा च तस्य घोटकचोरेर्हतः, अतिप्रभातमितिकृत्वा जाल्यां बद्धः, स च परिव्राजकस्तटाके स्नातुं गतः, तेन स घोटको दृष्टः, आगत्य भणति- मम पोतिका पानीयतटे विस्मृता, कर्मकरो विसृष्ट, तेन घोटको दृष्टः, आगत्य कथितम्। तेन भागवतेन ज्ञातम्, यथा- परिव्राजकेन कथितम् । तेन परिव्राजको भण्यते- याहि, नाहं तव निर्विष्ट (ससेव) उदन्तं वहामि, निर्विष्टमल्पफलं भवति । ईदृशो मुधादायी। मुधाजीविन्युदाहरणम्- एको राजा धर्म परीक्षते, को धर्मः?, योऽनिर्विष्ट भुङ्क्ते इति, ततस्तत् परीक्षे इतिकृत्वा मनुष्याः संदिष्टाः, राजा मोदकान् ददाति, तत्र ॥ २८५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२८६॥ पञ्चचममध्ययन पिण्डैषणा, द्वितीयोदेशक: निरवशेष अशनाऽऽज्ञा उत्सृजननिषेधवा बहवे कप्पडियादयो आगया, पुच्छिजंति-तुम्हे केण भुंजह?, अन्नो भणइ- अहं मुहेण भुंजामि, अन्नो-अहं पाएहिं, अन्नो- अहं हत्थेहिं, अनो-अहं लोगाणुग्गहेण, चेल्लगो भणइ- अहं मुहियाए । रण्णा पुच्छिअं- कह चिअ?, एगेण कहिअं- अहं कहगो अओ मुहेण, अण्णेण भणिअं- अहं लेहवाहगो अओ पाएहिं, अण्णेण भणिअं- अहं लेहगो अओ हत्थेहिं, भिक्खुणा भणिअं- अहं पव्वइओअओ लोगाणुग्गहेण, चेल्लएण भणिअं- अहं संजायसंसारविरागो अओ मुहियाए, ताहे सो राया एस धम्मोत्ति काऊण आयरियसमीवं गओ, पडिबुद्धो पव्वइओ य । एसो मुहाजीवित्ति सूत्रार्थः ।। १००।। प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।। ॥पञ्चमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ।। पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाए संजए। दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छहुए ।। सूत्रम् १ ॥ पिण्डैषणायाः प्रथमोद्देशके प्रक्रान्तोपयोगि यन्त्रोक्तं तदाह-'पडिग्गहंति सूत्रम्, प्रतिग्रहं भाजनं संलिख्य प्रदेशिन्या निरवयवं कत्वा. कथमित्याह-लेपमर्यादया अलेपं संलिहा संयतःसाधः दुर्गन्धि वा सुगन्धिवा भोजनजातम्, गन्धग्रहणं रसाधुपलक्षणम्, सर्वं निरवशेष भुञ्जीत अश्नीयात् नोज्झेत् नोत्सृजेत् किश्चिदपि, मा भूत्संयमविराधना । अस्यैवार्थस्य गरीयस्त्वख्यापनाय बहवः कार्पटिकादय आगताः, पृच्छयन्ते- यूयं केन भुञ्ध्वम्?, अन्यो भणति- अहं मुखेन भुजे, अन्य:- अहं पादाभ्याम्, अन्यः- अहं हस्ताभ्याम्, अन्यःअहं लोकानुग्रहेण, क्षुल्लको भणति- अहं मुधिकया। राज्ञा पृष्ट - कथमेव?, एकेन कथितं- अहं कथकः अतो मुखेन, अन्येन भणित- अहं लेखवाहक अतः पादाभ्याम्, अन्येन भणितं- अहं लेखकोऽतो हस्ताभ्याम्, अन्येन भणितं- अहं भिक्षुरतो लोकानुग्रहेण, क्षुल्लकेन भणितं- अहं संजातसंसारवैराग्योऽतो मुधिकया । तदा स राजा एष धर्म इतिकृत्वाऽऽचार्यसमीपं गतः, प्रतिबुद्धः प्रव्रजितश्च, एष मुधाजीवीति । 1॥ २८६।। For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsus Gyanmandie श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२८ ॥ सूत्रार्धयोर्व्यत्ययोपन्यासः, प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युद्देशादौ तदुपन्यासार्थं वा, अन्यथैवं स्यात्- दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सर्वं भुञ्जीत नोज्झेत् । प्रतिग्रहं संलिह्य लेपमर्यादया संयतः । विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः ।।१।। सेजा निसीहियाए, समावन्नो अगोअरे। अयावयट्ठा भुच्चा णं, जड़ तेणं न संथरे ।। सूत्रम् २ ॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए। विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य ।। सूत्रम् ३॥ विधिविशेषमाह-'सेन्ज'त्ति सूत्रम्, शय्यायां वसतौ नैषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ, शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधान्नैषेधिकी तस्यां। समापन्नो वा गोचरे, क्षपकादिः छन्नमठादौ अयावदर्थं भुक्त्वा न यावदर्थं - अपरिसमाप्तमित्यर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे। यदि । तेन भुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः ।। २।। 'तओ'त्ति सूत्रम्, ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्तपानं गवेषयेद् अन्विष्ये (न्वेषये)त्, अन्यथा सकृद्धक्तमेव यतीनामिति विधिना। पूर्वोक्तन संप्राप्ते भिक्षाकाल इत्यादिना, अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवञ्जित्ता, काले कालं समायरे ।। सूत्रम् ४ ।। अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि । अप्पाणंच किलामेसि, संनिवेसंच गरिहसि ।। सूत्रम् ॥ सइ काले चरे भिक्खु, कुजा पुरिसकारिअं। अलाभुत्ति न सोइज्जा, तवुत्ति अहिआसए ।। सूत्रम् ६।। तहेवूचावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया। तं उब्रुअंनगच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे ।। सूत्रम् ७॥ गोअरगपविट्ठो अ, न निसीइज कत्थई । कहं च न पबंधिज्जा, चिद्वित्ता ण व संजए।। सूत्रम् ८ ।। अग्गलं फलिहंदारं, कवाडं वावि संजए। अवलंबिआन चिट्ठिजा, गोअरग्गगओ मुणी ।। सूत्रम् ९॥ पसचममध्ययन पिण्डेषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम २-३ निरवशेष अशनाऽज्ञा उत्सृजननिषेधश्च। सूत्रम् ४-९ असंस्तरणे पुनर्भिक्षाचर्या कालादियतना। BECREENA ॥२८७॥ For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २८८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए । सूत्रम् १० । तमक्कमित्तु न पविसे, नवि चिट्ठे चक्खुगो अरे । एगतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्टिज्ज संजए ।। सूत्रम् ११ ।। वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । अप्पत्तिअं सिआ हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा ।। सूत्रम् १२ ।। पडिसेहिए व दिने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिद्ध भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए । सूत्रम् १३ ।। कालेणं ति सूत्रम्, यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो भिक्षाकालस्तेन करणभूतेन निष्क्रामेद् भिक्षुर्वसतेर्भिक्षायै, कालेन चोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत् निवर्तेत । भणिअं च- खेत्तं कालो भायणं तिन्निवि पहुप्पंति हिंडउत्ति अट्ट भंगा। अकालं च वर्जयित्वा येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स खल्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंग्रहार्थं निगमनम्, भिक्षावेलायां भिक्षां समाचरेत्, स्वाध्यायादिवेलायां स्वाध्यायादीनीति, उक्तं च- जोगो जोगो जिणसासणंमी त्यादि, इति सूत्रार्थः ।। ४ ।। अकालचरणे दोषमाह- अकाले ति सूत्रम्, अकालचारी कश्चित् साधुरलब्धभैक्षः केनचित् साधुना प्राप्ता भिक्षा न वेत्यभिहितः सन्नेवं ब्रूयात् कुतोऽत्र स्थण्डिलसंनिवेशे भिक्षा ?, स तेनोच्यते- अकाले चरसि भिक्षो! प्रमादात्स्वाध्यायलोभाद्वा, कालं न प्रत्युपेक्षसे, किमयं भिक्षाकालो न वेति, अकालचरणेनात्मानं च ग्लपयसि दीर्घाटनन्यूनोदरभावेन, संनिवेशं च गर्हसि भगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ यस्मादयं दोषः संभाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादिति । 'सति'त्ति सूत्रम्, सति विद्यमाने काले भिक्षासमये चरेद्भिक्षुः, अन्ये तु व्याचक्षते - स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिधीयते, स्मर्यन्ते यत्र भिक्षाकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन्, 'चरेद्भिक्षुः ' भिक्षार्थं यायात् कुर्यात् पुरुषकारम्, जङ्घाबले सति ® भणितं च- क्षेत्र कालो भाजनं त्रीण्यपि प्रभवन्ति हिण्डमानस्येत्यष्टौ भङ्गाः। योगो योगो जिनशासने। For Private and Personal Use Only पञ्चचममध्ययनं पिण्डेषणा, द्वितीयोदेशकः सूत्रम् ४-१३ असंस्तरणे पुनर्भिक्षाचर्या | कालादियतना। ।। २८८ ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् २८९ ४-१३ असंस्तरणे यतना। वीर्याचारं न लपयेत् । तत्र चालाभेऽपि भिक्षाया अलाभ इति न शोचयेद्, वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात्, तदर्थं च भिक्षाटनं । पश्चचममध्ययन नाहारार्थमेवातो न शोचेत्, अपितु तप इत्यधिसहेत, अनशनन्यूनोदरतालक्षणं तपो भविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः॥ पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः ६॥ उक्ता कालयतना, अधुना क्षेत्रयतनामाह- तहेव त्ति, तथैव उच्चावचाः शोभनाशोभनभेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो भक्तार्थं । समागता बलिप्राभृतिकादिष्वागता भवन्ति, तदृजुकं तेषामभिमुखं न गच्छेत्, तत्संत्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात्, किंतु यतमेव पराक्रामेत, तदुद्वेगमनुत्पादयन्निति सूत्रार्थः ॥ ७॥ किं च 'गोअरग्ग'त्ति सूत्रम्, गोचराग्रप्रविष्टस्तु भिक्षार्थं प्रविष्ट पुनर्भिक्षाचर्या इत्यर्थः न निषीदेत नोपविशेत् क्वचिद् गृहदेवकुलादौ, संयमोपघातादिप्रसङ्गात्, कथां च धर्मकथादिरूपां न प्रबध्नीयात् । कालादिप्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणैकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह- स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ।। ८। उक्ता क्षेत्रयतना, द्रव्ययतनामाह-'अग्गलं ति सूत्रम्, अर्गलं गोपुरकपाटादिसंबन्धिनं परिघं नगरद्वारादिसंबन्धिनं द्वारं शाखामयं कपाटं द्वारयन्त्रं वाऽपि संयतः अवलम्ब्य न तिष्ठेत्, लाघवविराधनादोषात्, गोचराग्रगतो भिक्षाप्रविष्टः, मुनिः संयत इति पर्यायौ तदुपदेशाधिकाराददुष्टावेवेति सूत्रार्थः ॥ ९॥ उक्ता द्रव्ययतना, भावयतनामाह समणं ति सूत्रम्, श्रमणं निर्ग्रन्थादिरूपम्, ब्राह्मणं धिग्वर्णं वापि कृपणं वा पिण्डोलकं वनीपकं पञ्चा(नांवनीपका)नामप्यन्यतमं उपसंक्रामन्तं सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा भक्तार्थं पानार्थं वा संयतः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ 'त'मिति सूत्रम्, तं श्रमणादि अतिक्रम्य उल्लङ्ग्य न प्रविशेत्, दीयमाने च समुदाने तेभ्यो न तिष्ठेच्चक्षुर्गोचरे । कस्तत्र विधिरित्याह- एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयत इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ अन्यथैते दोषा इत्याह-'वणीमगस्स'त्ति सूत्रम्, वनीपकस्य वा तस्ये त्येतच्छ्रमणाद्युपलक्षणम्, दातुर्वा उभयोर्वा अप्रीतिः कदाचित् स्यात्- अहो अलोकज्ञतैतेषामिति, लघुत्वं प्रवचनस्य वाऽन्तरायदोषश्चेति सूत्रार्थः ।।१२।। ॥ २८९॥ For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२१०॥ तस्मान्नैवं कुर्यात्, किंतु-'पडिसेहिअत्ति सूत्रम्, प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा ततः स्थानात् तस्मिन् वनीपकादौ निवर्त्तिते सति । उपसंक्रामेद्भक्तार्थं पानार्थं वापि संयत इति सूत्रार्थः ।।१३।। पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः उप्पलं पउमं वावि, कुमुअंवा मगदंतिअं। अन्नं वा पुप्फसचित्तं, तं च संलुंचिआ दए ।। सूत्रम् १४ ।। सूत्रम् तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ।। सूत्रम् १५ ।। १४-२४ परपीडाप्रतिउप्पलं पउमं वावि, कुमुअंवा मगदंति। अन्नं वा पुप्फसचित्तं, तं च संमहिआदए ।। सूत्रम् १६ ।। षेधाधिकारः। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअंपडिआइक्खे,न मे कप्पड़ तारिस ।। सूत्रम् १७ ।। सालुअंवा विरालि, कुम्अंउप्पलनालि। मुणालिअंसासवनालिअं, उच्छ्रखंड अनिव्वुडं। सूत्रम् १८॥ तरुणगंवा पवालं,रुक्खस्स तणगस्स वा। अन्नस्स वावि हरिअस्स, आमगं परिवजए।। सूत्रम् १९।। तरुणिअंवा छिवाडिं, आमिअं भजिअंसई । दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ।। सूत्रम् २० ।। तहा कोलमणुस्सिनं, वेलुअंकासवनालिअं। तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवजए।। सूत्रम् २१ ।। तहेव चाउलं पिटुं, विअडं वा तत्तऽनिव्वुडं । तिलपिट्टपूपिन्नागं, आमगं परिवजए।। सूत्रम् २२ ।। कविट्ठ माउलिंगंच, मूलगं मूलगत्तिअं। आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए।।सूत्रम् २३ ।। तहेव फलमणि, बीअमंथूणि जाणिआ। बिहेलगं पियालंच, आमगं परिवजए।। सूत्रम् २४ ।। || २९०।। परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह-'उप्पलं ति सूत्रम्, उत्पलं नीलोत्पलादि पद्मं अरविन्दं वापि कुमुदं वा गर्दभकं वा मगदन्तिका मेत्तिकाम्, मल्लिकामित्यन्ये, तथाऽन्यद्वा पुष्पं सचित्तं- शाल्मलीपुष्पादि, तच्च संलुथ्य अपनीय छित्त्वा दद्यादिति । For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २९१।। सूत्रम् १४-२४ परपीडाप्रतिपेधाधिकारः। सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तारिसंति सूत्रम्, तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते पाचममध्ययन तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ १५॥ एवं तच्च संमृद्य दद्यात्, संमर्दनं नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम्, शेषं सूत्रद्वयेऽपि पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः तुल्यम् । आह- एतत्पूर्वमप्युक्तमेव-'संमद्दमाणी पाणाणि बीआणि हरिआणि अ' इत्यत्र, उच्यते, उक्तं सामान्येन विशेषाभिधानाददोषः॥१६-१७ ।। तथा सालुअंति सूत्रम्, शालूकं वा उत्पलकन्दं विरालिकां पलाशकन्दरूपाम्, पर्ववल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये, कुमुदोत्पलनालौ प्रतीतौ, तथा मृणालिका पद्मिनीकन्दोत्थां सर्षपनालिका सिद्धार्थकमञ्जरी तथा इक्षुखण्ड अनिवृतं सचित्तम् । एतच्चानिवृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यत इति सूत्रार्थः ।।१८।। किंच- तरुणयं ति सूत्रम्, तरुणं वा प्रवालं पल्लवं वृक्षस्य चिश्चिणिकादेः तृणस्य वा मधुरतृणादेः अन्यस्य वापि हरितस्य आर्यकादेः आमं अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। १९॥ तथा-'तरुणिति सूत्रम्, तरुणां वा असंजातां छिवाडि मिति मुगादिफलिं आमां असिद्धां सचेतनाम्, तथा भर्जिता सकृद् एकवारम्, ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति सूत्रार्थः ।। २० ।। 'तहा कोलं'ति सूत्रम्, तथा कोलं बदरं अस्विन्नं वयुदकयोगेनानापादितविकारान्तरम्, वेणुकं वंशकरिलं कासवनालिअं श्रीपर्णीफलम्, अस्विन्नमिति सर्वत्र योज्यम्, तथा तिलपर्पटं पिष्टतिलमयं नीमं नीमफलमाम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥२१॥ तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव तान्दुलं पिष्टम्, लोट्टमित्यर्थः, विकटं वा- शुद्धोदकं तथा तप्तनिर्वृतं क्वथितं सत् शीतीभूतम्, तप्तानिवृतं वा-अप्रवृत्तत्रिदण्डम्, तिलपिष्टतिललोट्टम्, पूतिपिण्याकं सर्षपखलमाम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। २२ ॥ कविट्ठ'ति सूत्रम्, कपित्थं कपित्थफलम्, मातुलिङ्ग चबीजपूरकम्, मूलकसपत्रजालकं मूलवर्तिकांमूलकन्दचक्कलि आमा अपक्कामशस्त्रपरिणतांस्वकायशस्त्रादिनाऽविध्वस्ताम्, । अनन्तकायत्वाद्गुरुत्वख्यापनार्थमुभयम्, मनसापि न प्रार्थयेदिति सूत्रार्थः ।। २३॥ तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव फलमन्थून बदरचूर्णान् । 5000080800 For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥२१२॥ पजचममध्ययन पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् २५-२८ भिक्षाटनविधिः। बीजमन्थून यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतो बिभीतक बिभीतकफलं प्रियालं वा प्रियालफलंच आमं अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। २४॥ समुआणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया। नीयं कुलमइकम्म, ऊसद नाभिधारए ।। सूत्रम् २५ ।। अदीणो वित्तिमेसिजा, न विसीइज पंडिए। अमुच्छिओ भोअणंमि, मायण्णे एसणारए ।। सूत्रम् २६ ।। बहुं परघरे अस्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परोन वा ।। सूत्रम् २७ ।। सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए। अदितस्स न कुप्पिज्जा, पच्चक्खेवि अदीसओ।। सूत्रम् २८ ।। विधिमाह-'समुआणं ति सूत्रम्, समुदानं भावभैक्ष्यमाश्रित्य चरेद्भिक्षुः, क्वेत्याह- कुलमुच्चावचं सदा, अगर्हितत्वे सति विभवापेक्षया प्रधानमप्रधानं च, यथापरिपाट्येव चरेत् ‘सदा सर्वकालं नीचं कुलमतिक्रम्य विभवापेक्षया प्रभूततरलाभार्थं उत्सृतं ऋद्धिमत्कुलं नाभिधारयेत् न यायात्, अभिष्वङ्गलोकलाघवादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २५॥ किंच-'अदीण' त्ति सूत्रम्, अदीनो द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः वृत्तिं वर्त्तनं एषयेद् गवेषयेत्, न विषीदेद् अलाभेसति विषादं न कुर्यात् पण्डितः साधुः अमूर्च्छितः अगृद्धो भोजने, लाभे सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति एषणारतः उद्गमोत्पादनैषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ।। २६।। एवं च भावयेत्-'बहु'ति सूत्रम्, बहु प्रमाणतः प्रभूतं परगृहे असंयतादिगृहेऽस्ति विविधं अनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यम्, एतच्चाशनाद्युपलक्षणम्, न तत्र पण्डितः कुप्येत् सदपि न ददातीति न रोपं कुर्यात्, किंतु- इच्छया दद्यात् परोन वे ति इच्छा परस्य, न तत्रान्यत् किञ्चिदपि चिन्तयेद्, सामायिकबाधनादिति सूत्रार्थः ॥ २७॥ एतदेव विशेषेणाह-'सयण'त्ति सूत्रम्, शयनासनवस्त्रं चेत्येकवद्भावः भक्तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत् तत्स्वामिनः, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति ॥ २९२।। For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक वृत्तियुतम् २९३ सूत्रार्थः ।। २८॥ इथिअंपुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणं न जाइजा, नो अणं फरुसं वए ।। सूत्रम् २९ ।। जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिओन समुक्कसे । एवमन्नेसमाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठइ ।। सूत्रम् ३०॥ इस्थिति सूत्रम्, स्त्रियं वा पुरुषं वापि, अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा, डहरं तरुणं महल्लकं वा वृद्धं वा, वाशब्दान्मध्यम वा, वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात, अन्नाद्यभावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयात- वृथा ते वन्दनमित्यादि, पाठान्तरं वा-वन्दमानो न याचेत लल्लिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २९॥ तथा- 'जे ण वंदि'त्ति सूत्रम्, यो न वन्दते कश्चिद्गृहस्थादिः, न तस्मै कुप्येत् तथा वन्दितः केनचिन्नृपादिना न समुत्कर्षेत्। एवं उक्तेन प्रकारेण अन्वेषमाणस्य भगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यखण्डमिति सूत्रार्थः ।। ३०॥ सिआ एगइओ लर्बु, लोभेण विणिगूहइ । मामेयं दाइयं संतं, दवणं सयमायए। सूत्रम् ३१ ।। अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धो, बहु पावं पकुव्वइ । दुत्तोसओ असो होइ, निव्वाणं च न गच्छड़ ।। सूत्रम् ३२ ।। सिआ एगइओ ल , विविहं पाणभोअणं । भद्दगंभहगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ।। सूत्रम् ३३ ॥ जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अर्य मुणी । संतुट्टो सेवए पंत, लूहवित्ती सुतोसओ।। सूत्रम् ३४ ।। पूअणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए। बहुं पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ।। सूत्रम् ३५ ।। स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह-'सित्ति सूत्रम्, स्यात् कदाचिद् एकः कश्चिदत्यन्तजघन्योलब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोभेन अभिष्वङ्गेण । विनिगूहते अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति-किमित्यत आह-मा मम इदं भोजनजातं दर्शितं सदृष्ट्वाऽऽचार्यादिः पञ्चचममध्ययन पिण्डेषणा, द्वितीयोहेशकः सूत्रम् २९-३० समभाव प्ररूपणा। सूत्रम् ३१-३५ मायाविनः कर्मबन्धः। ॥ २९३॥ For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २९४ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वयमादद्याद् आत्मनैव गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ अस्य दोषमाह - 'अत्तट्ट' त्ति सूत्रम्, आत्मार्थ एव जघन्यो- गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुर्लुब्धः सन् क्षुद्रभोजने बहु प्रभूतं पापं प्रकरोति, मायया दारिद्रं कर्मेत्यर्थः, अयं परलोकदोषः, इहलोकदोषमाह - दुस्तोषश्च भवति येन केनचिदाहारेणास्य क्षुद्रसत्त्वस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते, अत एव निर्वाणं च न गच्छति इहलोक एवं धृतिं न लभते, अनन्तसंसारिकत्वाद्वा मोक्षं न गच्छतीति सूत्रार्थः ।। ३२ ।। एवं यः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः, अधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते- 'सिअ'त्ति सूत्रम्, स्यादेको लब्ध्वेति पूर्ववत्, विविधं अनेकप्रकारं पानभोजनं भिक्षाचर्यागत एव भद्रकं भद्रकं घृतपूर्णादि भुक्त्वा विवर्णं विगतवर्णमाम्लखलादि विरसं विगतरसं- शीतौदनादि आहरेद् आनयेदिति सूत्रार्थः ।। ३३ ।। स किमर्थमेवं कुर्यादित्यत आह- 'जाणंतु 'त्ति सूत्रम्, जानन्तु तावन्मां श्रमणाः शेषसाधवो यथा आयतार्थी मोक्षार्थी अयं मुनिः साधुः संतुष्टो लाभालाभयोः समः सेवते प्रान्तं असारं रुक्षवृत्तिः संयमवृत्तिः सुतोष्यः येन केनचित्तोषं नीयत इति सूत्रार्थः ।। ३४ ।। एतदपि किमर्थमेवं कुर्यात्तत्राह- 'पूअण 'त्ति सूत्रम्, पूजार्थं एवं कुर्वतः स्वपक्षपरपक्षाभ्यां सामान्येन पूजा भविष्यतीति यशस्कामी अहो अयमिति प्रवादार्थं वा, तथा मानसन्मानकाम एवं कुर्यात्, तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानः- वस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तः सन्मानः, स चैवंभूतः बहु अतिप्रचुरं प्रधानसंक्लेशयोगात् प्रसूते निर्वर्त्तयति पापं तद्गुरुत्वादेव सम्यगनालोचयन् मायाशल्यं च भावशल्यं च करोतीति सूत्रार्थः ।। ३५ । सुरं वा मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ससक्खं न पिबे भिक्खु, जसं सारक्खमप्पणो ।। सूत्रम् ३६ ।। पियए एगओ तेणो, न मे कोई विआणइ । तस्स पस्सह दोसाई, निअडिं च सुणेह मे ।। सूत्रम् ३७ ।। वढई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ ।। सूत्रम् ३८ ।। For Private and Personal Use Only पञ्चचममध्ययनं पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् ३१-३५ मायाविनः कर्मबन्धः । सूत्रम् ३६-३८ सुराद्यासेवने दोषाः । ।। २९४ ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् पशचममध्ययन पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् ।।२९५॥ सुराद्यासेवने निचुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंतेवि न आराहेइ संवरं ।। सूत्रम् ३९।। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसे। निहत्थाविण गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ।। सूत्रम् ४० ।। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए। तारिसो मरणंतेऽवि, ण आराहेइ संवरं ।। सूत्रम् ४१ ।। प्रतिषेधान्तरमाह-'सुरं वत्ति सूत्रम् सुरां वा पिष्टादिनिष्पन्नाम्, मेरकं वापि प्रसन्नाख्याम्, सुराप्रायोग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा माद्यं रसं सीध्वादिरूपं ससाक्षिकं सदापरित्यागसाक्षिकेवलिप्रतिषिद्धं न पिबेद्भिक्षुः, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात। किमिति न पिबेदित्याह-यशःसंरक्षन्नात्मनः,यशःशब्देन संयमोऽभिधीयते, अन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रं अल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षत इति सूत्रार्थः ।। ३६ ।। अत्रैव दोषमाह-'पियए'त्ति सूत्रम्, पिबति एको धर्मसहायविप्रमुक्तोऽल्पसागारिकस्थितो वा स्तेन: चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा न मां कश्चिज्जानातीति भावयन्, तस्येत्थंभूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकिकांश्च निकृति च मायारूपां शृणुत ममेति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ वड्डई'त्ति सूत्रम्, वर्धते शौण्डिका तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावादं चेत्येकवद्भाव: प्रत्युपलब्धापलापेन वर्धते तस्य भिक्षोः, इदं च भवपरम्पराहेतुः,अनुबन्धदोषात्, तथा अयशश्च स्वपक्षपरपक्षयोः, तथा अनिर्वाणं तदलाभे सततं चासाधुता लोके व्यवहारतः चरणपरिणामबाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः ।। ३८॥ किंच-'निचुव्विगो'त्ति सूत्रम्, स इत्थंभूतो नित्योद्विग्नः सदाऽप्रशान्तो यथा स्तेनः चौरः आत्मकर्मभिः स्वदश्वरितैः दर्मति:- दृष्टबद्धिः तादृशः क्लिष्टसत्त्वो मरणान्तेऽपि चरमकालेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रम्, सदैवाकुशलबुद्ध्या तबीजाभावादिति सूत्रार्थः ॥ ३९॥ तथा-'आयरिए'त्ति सूत्रम्, आचार्यान्नाराधयति, अशुद्ध 0 सदा परित्यागे साक्षिणः केवल्यादयो ये तैः प्रतिसिद्धम्, अरिहंतसक्खियमित्याद्युक्तेर्भवन्त्येव ते साक्षिणः । || २९५ ।। 1868808686DREAM For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। २९६ ।। www.kobatirth.org भावत्वात् श्रमणांश्चापि तादृशान्नाराधयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं गर्हन्ते कुत्सन्ति, किमिति ? - येन जानन्ति तादृशं दुष्टशीलमिति सूत्रार्थः ।। ४० ।। ' एवं तु'त्ति सूत्रम्, एवं तु उक्तेन प्रकारेण अगुणप्रेक्षी अगुणान् प्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा गुणानां च अप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण विवर्जकः त्यागी तादृशः क्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रमिति सूत्रार्थः ।। ४१ ।। तवं कुव्वइ मेहावी, पणीअं वज्रए रसं । मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो ।। सूत्रम् ४२ ।। तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं । विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ।। सूत्रम् ४३ ।। एवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्रए। तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं ।। सूत्रम् ४४ ।। आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसे । गिहत्थावि ण पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ।। सूत्रम् ४५ ।। यतश्चैवमत एतद्दोषपरिहारेण तवं ति सूत्रम्, तपः करोति मेधावी मर्यादावर्ती प्रणीतं स्निग्धं वर्जयति रसं घृतादिकम्, न केवलमेतत्करोति, अपितु मद्यप्रमादविरतो, नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः, तपस्वी साधुः अत्युत्कर्षः अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः ।। ४२ ।। ' तस्स 'त्ति सूत्रम्, तस्य इत्थंभूतस्य पश्यत कल्याणं गुणसंपद्रूपं संयमम्, किंविशिष्टमित्याह- अनेकसाधुपूजितम्, पूजितमिति सेवितमाचरितम्, विपुलं विस्तीर्णं विपुलमोक्षावहत्वात् अर्थसंयुक्तं तुच्छतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् कीर्तयिष्येऽहं शृणुत मे ममेति सूत्रार्थः ।। ४३ ।। ' एवं तु' उक्तेन प्रकारेण 'स' साधुः गुणप्रेक्षी गुणान् अप्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा अगुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विवर्जकः त्यागी तादृशः शुद्धवृत्तो मरणान्तेऽपि चरमकालेऽप्याराधयति संवरं चारित्रम्, सदैव कुशलबुद्ध्या तद्वीज For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चचममध्ययनं पिण्डेषणा, द्वितीयोदेशकः सूत्रम् ४२-४५ तपस्विनो गुणाः । ।। २९६ ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||२९७।। पशचममध्ययन पिण्डेषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् ४६-४१ तपस्तेनादिदोषाः। पोषणादिति सूत्रार्थः ।। ४४ ।। तथा आयरिए'त्ति सूत्रम्, आचार्यानाराधयति, शुद्धभावत्वात्, श्रमणांश्चापि तादृश आराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अपि शुद्धवृत्तमेनं पूजयन्ति, किमिति?, येन जानन्ति तादृशं शुद्धवृत्तमिति सूत्रार्थः ।। ४५ ।। तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अजे नरे। आयारभावतेणे अ, कुव्वई देवकिव्विसं ।। सूत्रम् ४६ ।। लणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे । तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं?।। सूत्रम् ४७ ।। तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअयं । नरगं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा।सूत्रम् ४८ ।। एअंच दोसं दट्टणं, नायपुत्तेण भासि। अणुमायपि मेहावी, मायामोसं विवजए।। सूत्रम् ४९ ।। स्तेनाधिकार एवेदमाह-'तव'त्ति सूत्रम्, तपस्तेनो वास्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारभावस्तेनश्च, पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषाद्देवकिल्बिर्ष करोति-किल्बिषिकं कर्म निर्वर्त्तयतीत्यर्थः, तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकल्पः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति, स पूजाद्यर्थमाह- अहम्, अथवा वक्ति- साधव एव क्षपकाः, तूष्णीं वाऽऽस्ते, एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति, एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः, एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति, भावस्तेनस्तु परोत्प्रेक्षितं कथञ्चित् किश्चित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः ।। ४६।। अयं चेत्थंभूतः लभ्रूण'त्ति सूत्रम्, लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेन उपपन्नो देवकिल्बिषे देवकिल्बिषिका ये, तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धावधिना, किं मम कृत्वा इदं फलं किल्बिषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः ।। ४७ ।। अत्रैव दोषान्तरमाह- 'तत्तोवि'त्ति सूत्रम्, ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते एलमूकतां अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारम्पर्येण लप्स्यते, बोधिर्यत्र सुदुर्लभः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिर्दुरापा । इह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति ॥२९७॥ For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२९८॥ सूत्रम् ५० उपसंहारः। वाच्ये असकृद्धावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति सूत्रार्थः ।। ४८॥ प्रकृतमुपसंहरति-'एअंच' त्ति पञ्चचममध्ययन पिण्डैषणा, सूत्रम्, एनं च दोषं- अनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषिकत्वादिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वा आगमतो ज्ञातपुत्रेण भगवता वर्द्धमानेन । द्वितीयोद्देशकः भाषितं उक्तं अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रभूतं? मेधावी मर्यादावर्ती मायामृषावादं अनन्तरोदितं वर्जयेत् परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ४९।। __ सिक्खिऊण भिक्नेसणसोहि, संजयाण बुद्धाण सगासे । तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिइंदिए, तिव्वलज्जगुणवं विहरितासि ।। सूत्रम् ५०॥ त्तिबेमि।। समत्तं पिंडेसणानामज्झयणं पंचमं ॥५॥ अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह-'सिक्खिऊण'त्ति सूत्रम्, शिक्षित्वा अधीत्य भिक्षैषणाशुद्धिं पिण्डमार्गणाशुद्धिमुद्मादिरूपाम्, केभ्यः सकाशादित्याह-संयतेभ्यः साधुभ्यो बुद्धेभ्यः अवगततत्त्वेभ्य: गीतार्थेभ्यो न द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात, ततः किमित्याहतत्र भिक्षैषणायां भिक्षुः साधुः सुप्रणिहितेन्द्रियः श्रोत्रादिभिर्गाढं तदुपयुक्तः तीव्रलज्ज उत्कृष्टसंयमः सन्, अनेन प्रकारेण गुणवान् विहरेत्- सामाचारीपालनं कुर्याद्, इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः। उक्तोऽनुगमः। साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । द्वितीयोद्देशकः समाप्तः, व्याख्यातं पिण्डैषणाध्ययनम् ।। ५०॥ । सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्ती पञ्चममध्ययनं पिण्डैषणाख्यं समाप्तमिति ।। ।।२९८॥ For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes Kailassagarsun Gyarmandir षष्ठमध्ययन महाचारकथा, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥२९९॥ पृष्टस्य गणर्वक्तव्यम्। ॥अथ षष्ठमध्ययनं महाचारकथाख्यम् ॥ अधुना महाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने साधोर्भिक्षाविशोधिरुक्ता, इह तुगोचरप्रविष्टेन । नियुक्ति:२४५ सता स्वाचारं पष्टेन तद्विदाऽपिन महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इति. अपि त्वालये गरवो वा कथयन्तीति वक्त अभिसम्बन्धः। व्यमित्येतदुच्यते, उक्तंच- गोअरगपविठ्ठोउ, न निसीएज कत्थइ। कहं च न पबंधेज्जा, चिठित्ता ण व संजए॥१॥ इत्यनेनाभिसंबन्धे- सूत्रम् १-५ जिज्ञासुभिः नायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यास: पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च महाचारकथेति नाम, एतच्च तत्त्वतः प्राग्निरूपितमेवेत्यतिदिशन्नाह नि०-जो पूविं उहिटो आयारो सो अहीणमइरित्तो। सच्चेव य होड़ कहा आयारकहाए महईए ।। २४५।।। यः पूर्वं क्षुल्लकाचारकथायां निर्दिष्ट उक्तः आचारो ज्ञानाचारादिः असावहीनातिरिक्तो वक्तव्यः, सैव च भवति कथा आक्षेपण्यादिलक्षणा वक्तव्या, चशब्दात्तदेव क्षुल्लकप्रतिपक्षोक्तं महद्वक्तव्यम्, आचारकथायां महत्यां प्रस्तुतायामिति गाथार्थः ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेप इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं नाणदसणसंपन्नं, संजमे अतवे रयं । गणिमागमसंपन्न, उजाणम्मि समोसढं। सूत्रम् १॥ रायाणो रायमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिआ। पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आयारगोयरो?।। सूत्रम् २ ॥ तेसिं सो निहुओ दंतो, सव्वभूअसुहावहो। सिक्खाए सुसमाउत्तो, आयक्खड़ विअक्खणो। सूत्रम् ३ ।। हंदि धम्मत्थकामाणं, निरगंथाणं सुणेह मे। आयारगोअरं भीमं, सयलं दुरहिट्ठिअं॥सूत्रम् ४॥ 0 गोचराग्रप्रविष्टस्तु न निषीदेत् कुत्रचित् । कथां च न प्रबन्धयेत् स्थित्वा च संयतः ॥ १॥ ॥२२०॥ For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३००॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् जिज्ञासुभिः पृष्टस्य गोर्वक्तव्यम् नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जं लोए परमदुचरं । विउलट्ठाणभाइस्स, न भूअंन भविस्सइ ।। सूत्रम् ५॥ ज्ञानदर्शनसंपन्नं ज्ञानं- श्रुतज्ञानादि दर्शनं- क्षायोपशमिकादि ताभ्यां संपन्नं- युक्तं संयमे पञ्चाश्रवविरमणादौ तपसि च । अनशनादौ रतं आसक्तम्, गणोऽस्यास्तीति गणीतं गणिनं- आचार्य आगमसंपन्नं विशिष्टश्रुतधरम्, बबागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत्, उद्याने कचित्साधुप्रायोग्ये समवसृतं स्थितं धर्मदेशनार्थ वा प्रवृत्तमिति सूत्रार्थः॥१॥ तत्किमित्याह-'रायाणो'त्ति सूत्रम्, राजानो नरपतयः राजामात्याश्च मन्त्रिणः ब्राह्मणाः प्रतीताः अदुव त्ति तथा क्षत्रियाः श्रेष्ठ्यादयः पृच्छन्ति निभृतात्मानः नियुक्ति: २४६ असंभ्रान्ता रचिताञ्जलयः कथं भे भवतां आचारगोचरः क्रियाकलापः स्थित इति सूत्रार्थः ।। २।। तेर्सि'ति सूत्रम्, तेभ्यो धर्मस्य भेदाः। राजादिभ्यःअसौगणी निभृतः असंभ्रान्त उचितधर्मकायस्थित्या, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्याम्, सर्वभूतसुखावहः सर्वप्राणिहित इत्यर्थः, शिक्षया ग्रहणासेवनरूपया सुसमायुक्तः सुष्टु-एकीभावेन युक्तः आख्याति कथयति विचक्षणः पण्डित इति सूत्रार्थः ।। ३॥ हंदि त्ति सूत्रम्, हन्दीत्युपप्रदर्शने, तमेनं धर्मार्थकामाना मिति धर्मः- चारित्रधर्मादिस्तस्यार्थः- प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्तिइच्छन्तीति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा- मुमुक्षवस्तेषां निर्ग्रन्थानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां शृणुत मम समीपाद् आचारगोचरं क्रियाकलापं भीमं कर्मशवपेक्षया रौद्रं सकलं संपूर्ण दुरधिष्ठं क्षुद्रसत्वैर्दुराश्रयमिति सूत्रार्थः ।। ४ ।। धर्मार्थकामानामित्युक्तम्, तदेतत्सूत्रस्पर्शनियुक्त्या निरूपयति-तत्र धर्मनिक्षेपो यथा प्रथमाध्ययने, नवरं लोकोत्तरमाह नि०-धम्मो बावीसविहो अगारधम्मोऽणगारधम्मो । पढमो अबारसविहो दसहा पुण बीयओ होइ ।। २४६ ।। । धर्मो द्वाविंशतिविधः सामान्येन द्वाविंशतिप्रकारः, अगारधर्मो गृहस्थधर्मः अनगारधर्मश्च साधुधर्मः, प्रथमश्च अगारधर्मो । द्वादशविधः, दशधा पुनः द्वितीयः अनगारधर्मो भवतीति गाथासमासार्थः ॥ २४६ ।। व्यासार्थं त्वाह ||३००। For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||३०१॥ नि०- पंच य अणुव्वयाई गुणव्वयाईच होंति तिन्नेव । सिक्खावयाई चउरो गिहिधम्मो बारसविहो अ॥२४७ ।। षष्ठमध्ययन पञ्चाणुव्रतानि- स्थूलप्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि, गुणव्रतानि च भवन्ति त्रीण्येव- दिव्रतादीनि शिक्षापदानि चत्वारि महाचारकथा, नियुक्तिः सामायिकादीनि, गृहिधर्मो द्वादशविधस्तु एष एवाणुव्रतादिः । अणुव्रतादिस्वरूपंचावश्यके चर्चितत्वान्नोक्तमिति गाथार्थः ।। २४७-२४८ २४७ ।। साधुधर्ममाह धर्मस्य भेदाः। नियुक्तिः नि०- खंती अमद्दवऽज्जव मुत्ती तवसंजमे अबोद्धव्वे । सच्चं सोचं आकिंचणंच बंभं च जइधम्मो ।। २४८ ।। २४९-२५० क्षान्तिश्च मार्दवं आर्जवं मुक्तिः तपःसंयमौ च बोद्धव्यौ सत्यं शौचमाकिञ्चन्यं ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथाक्षरार्थः। अर्थशब्दस्य निक्षेपाः। भावार्थः पुनर्यथा प्रथमाध्ययने ॥ २४८ ॥ नि०-धम्मो एसुवइट्ठो अत्थस्स चउविहो उ निक्खेवो । ओहेण छव्विहऽत्थो चउसट्ठिविहो विभागेणं ।। २४९ ।। धर्म एष उपदिष्टो व्याख्यातः, अधुना त्वर्थावसरः, तत्रेदमाह- अर्थस्य चतुर्विधस्तु निक्षेपो- नामादिभेदात्, तत्र ओघेन। सामान्यत: षड्डिधोऽर्थ आगमनोआगमव्यतिरिक्तो द्रव्यार्थः, चतुःषष्टिविधो विभागेन विशेषेणेति गाथासमुदायार्थः ।। २४९॥ अवयवार्थं त्वाह नि०- धन्नाणि रयण थावर दुपयचउप्पय तहेव कुविअंच। ओहेण छव्विहत्थो एसो धीरेहिं पन्नत्तो ।। २५०।। धान्यानि यवादीनि, रत्नं- सुवर्ण स्थावरं- भूमिगृहादि द्विपदं- गन्त्र्यादि चतुष्पदं- गवादि तथैव कुप्यं च- ताम्रकलशाद्य- ३०१ । नेकविधम् । ओघेन षड्विधोऽर्थ एषः अनन्तरोदितः धीरैः तीर्थकरगणधरैः प्रज्ञप्तः प्ररूपित इति गाथार्थः ।। २५० ।। एनमेव 0 चरित्तधम्मो समणधम्मो इत्यत्र चूर्णिकृद्भिर्विवृत्योक्तेः संलीनतासंयमादौ वा व्याख्यानादेवमाहुः । For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 111०२॥ २५२-२५५ वराद्याः । विभागतोऽभिधित्सुराह षष्ठमध्ययन नि०-चउवीसा चउवीसा तिगदगदसहा अणेगविह एव । सव्वेसिपि इमेसिं विभागमहयं पवक्खामि ।। २५१।। महाचारकथा, नियुक्ति:२५१ चतुर्विंशतिः चतुर्विंशतीति चतुर्विंशतिविधो धान्यार्थो रत्नार्थश्च, त्रिद्विदशधे ति त्रिविधः स्थावरार्थः द्विविधो द्विपदार्थः । अर्थशब्ददशविधश्चतुष्पदार्थः, अनेकविध एवे त्यनेकविधः कुप्यार्थः सर्वेषामप्यमीषां चतुर्विंशत्यादिसंख्याभिहितानां धान्यादीनां स्वनिक्षेपाः। नियुक्तिः विभागं विशेषं अथ अनन्तरं संप्रवक्ष्यामीत्यर्थः ।। २५१॥ नि०-धन्नाईचउव्वीसं जव १गोहुम २सालि३ वीहि ४ सट्ठीआ ५। कोहव ६ अणुया ७ कंग८रालग ९ तिल १० मुग्ग ११ धान्यरत्नस्थामासा १२ य ।। २५२॥ नि०- अयसि १३ हरिमन्थ १४ तिउडग १५ निप्फाव १६ सिलिंद १७ रायमासा १८ अ । इक्खू १९ मसूर २० तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह २३ धन्नगकलाया २४||२५३॥ धान्यानि चतुर्विंशतिः, यवगोधूमशालिव्रीहिषष्टिकाः कोद्रवाणुकाः कङ्गुरालगतिलमुगमाषाश्च अतसीहरिमन्थत्रिपुटकनिष्पावसिलिन्दराजमाषाश्च इक्षुमसूरतुवर्यः कुलत्था धान्यककलायाश्चेति, एतानि प्रायो लौकिकसिद्धान्येव, नवरं षष्टिका:- शालिभेदाः कङ्ग:उदकङ्गः तद्भेदो रालकः, हरिमन्था:- कृष्णचणकाः, निष्पावा- वल्लाः, राजमाषा:- चवलकाः, शिलिन्दा- मकुष्ठाः, धान्यर्क-कुस्तुम्भरी, कलायका-वृत्तचणका इति गाथाद्वयार्थः ॥२५२-२५३ ।। उक्तो धान्यविभागः, अधुना रत्नविभागमाह नि०- रयणाणि चउव्वीसं सुवण्णतउतंबरययलोहाई। सीसगहिरण्णपासाणवइरमणिमोत्तिअपवालं ।। २५४ ।। नि०-संखो तिणिसागुरुचंदणाणि वत्थामिलाणि कट्ठाणि । तह चम्मदंतवाला गंधा दव्वोसहाई च ।। २५५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३०३॥ २५६-२५८ धान्यरत्नस्थावराद्याः। रत्नानि चतुर्विंशतिः, सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि सीसकहिरण्यपाषाणवज्रमणिमौक्तिकप्रवालानि । शङ्खतिनिशागरुचन्दनानि । षष्ठमध्ययनं वस्त्रामिलानि काष्ठानि तथा चर्मदन्तवाला गन्धा द्रव्यौषधानि च । एतान्यपि प्रायो लौकिकसिद्धान्येव नवरं रजतं-रूप्यं हिरण्यं महाचारकथा, नियुक्तिः रूपकादि पाषाणा- विजातीयरत्नानि मणयो- जात्यानि । तिनिशो- वृक्षविशेषः अमिलानि- ऊर्णावस्त्राणि काष्ठानिश्रीपादिफलकादीनि चर्माणि सिंहादीनां दन्ता गजादीनां वाला: चमर्यादीनां द्रव्यौषधानि- पिप्पल्यादीनीति गाथा-- द्वयार्थः ।। २५४-२५५ ।। उक्तो रत्नविभागः, स्थावरादिविभागमाह नि०-भूमी घरा य तरुगण तिविहं पुण थावरं मुणेअव्वं । चक्कारबद्धमाणुस दुविहं पुण होइ दुपयं तु ॥ २५६ ।। भूमिर्गृहाणि तरुगणाश्च, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, त्रिविधं पुनरोघत: स्थावरं मन्तव्यम्, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?, स्वगतान् भेदान्, तद्यथा- भूमिः क्षेत्रम्, तच्च त्रिधा-सेतु केतु सेतुकेतु च, गृहाणि प्रासादाः, तेऽपि त्रिविधा:खातोत्छुितोभयरूपाः, तरुगणा नालिकेद्यारामा इति, चक्रारबद्धमानुष मिति चक्रारबद्धं- गन्त्र्यादि मानुषं- दासादि, एवं द्विपदं पुनर्भवति द्विविधमिति गाथार्थः ।। २५६।। उक्तं स्थावरादि, चतुष्पदमाह नि०- गावी महिसी उट्ठा अयएलगआसआसतरगा अ। घोडग गद्दह हत्थी चउप्पयं होइ दसहा उ॥२५७॥ गौर्महिषी उष्ट्री अजा एडका अश्वा अश्वतराश्च घोटका गर्दभा हस्तिनश्चतुष्पदं भवति दशधा तु, एते गवादयः प्रतीता एव, अनवरमश्वा- वाल्हीकादिदेशोत्पन्ना जात्याः, अश्वतरा-वेगसराः अजात्या घोटका इति गाथार्थः ।। २५७ ।। उक्तं चतुष्पदम्, कुप्यमाह नि०- नाणाविहोवगरणं णेगविहं कुप्पलक्खणं होइ। एसो अत्थो भणिओ छव्विह चउसट्ठिभेओउ ।। २५८।। 3 02 ||३०३|| For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ३०४ ॥ www.kobatirth.org नानाविधोपकरणं ताम्रकलशकडिल्लादि जातितः अनेकविधं व्यक्तितः कुप्यलक्षणं भवति । एषः अनन्तरोदितोऽर्थो भणित उक्तः षड्विधः, चतुःषष्टिभेदस्तु ओघविभागाभ्यां प्रकृतोपयोगो द्रव्यार्थ इति गाथार्थः ।। २५८ ।। उक्तोऽर्थः साम्प्रतं काममाहनि०- कामो चडवीसविहो संपत्तो खलु तहा असंपत्तो। संपत्तो चउदसहा दसहा पुण होअसंपत्तो ।। २५९ ।। कामश्चतुर्विंशतिविधः ओघतः, संप्राप्तः खलु तथा असंप्राप्तो वक्ष्यमाणस्वरूपः, संप्राप्तः चतुर्दशधा चतुर्दशप्रकारः, दशधा पुनर्भवत्यसंप्राप्त इति गाथासमासार्थः ।। २५९ ।। व्यासार्थं त्वाह, तत्राप्यल्पतरवक्तव्यत्वादसंप्राप्तमाह नि०- तत्थ असंपत्तो अत्थो १ चिंता २ तह सद्ध ३ संसरणमेव ४ । विक्कवय ५ लखनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ तब्भावो ९ ।। २६० ।। तत्रासंप्राप्तोऽयं कामः, अर्थे ति अर्थनमर्थः अदृष्टेऽपि विलयादौ श्रुत्वा तदभिप्रायमात्रमित्यर्थः, तत्रैवाहो रूपादिगुणा इत्यभिनिवेशेन चिन्तनं चिन्ता, तथा श्रद्धा तत्संगमाभिलाषः, संस्मरणमेव- संकल्पिकतद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनम्, वियोगतः पुनः पुनरतिविक्लवता - तच्छोकातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता, लज्जानाशो गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनम्, प्रमादः - तदर्थमेव सर्वारम्भेष्वपि प्रवर्तनम्, उन्मादो- नष्टचित्ततया आलजालभाषणम्, तद्भावना स्तम्भादीनामपि तद्बुद्ध्याऽऽलिङ्गनादिचेष्टेति गाथार्थः ॥ २६० ॥ नि० मरणं १० च होइ दसमो संपत्तंपिअ समासओ वोच्छं। दिट्ठीए संपाओ १ दिट्ठीसेवा य संभासो २ ।। २६१ ।। मरणं च शोकाद्यतिरेकेण क्रमेण भवति दशमः असंप्राप्तकामभेदः । संप्राप्तमपि च कामं समासतो वक्ष्य इति, तत्र दृष्टेः पुनः संपातः स्त्रीणां कुचाद्यवलोकनं दृष्टिसेवा च भावसारं तद्दृष्टेर्हष्टिमेलनम्, संभाषणं- उचितकाले स्मरकथाभिर्जल्प इति गाथार्थः ।। २६१ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठमध्ययनं | महाचारकथा, निर्युक्तिः २५१-२६१ | कामनिक्षेपाः कामस्य | भेदाः । ।। ३०४ ।। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३०५ ।। www.kobatirth.org नि०- हसिअ ३ ललिअ ४ उवगूहिअ ५ दंत ६ नहनिवाय ७ चुंबणं ८ होइ। आलिंगण ९ मायाणं १० कर ११ सेवण १२ संग १३ किड्डा १४ अ ।। २६२ ।। हसितं वक्रोक्तिगर्भं प्रतीतं ललितं पाशकादिक्रीडा उपगूहितं परिष्वक्तं दन्तनिपातो- दशनच्छेद्यविधिः नखनिपातोनखरदनजातिः चुम्बनं चैवेति- चुम्बनविकल्प: आलिङ्गनं- ईषत्स्पर्शनं आदानं कुचादिग्रहणं करसेवणं ति प्राकृतशैल्या करणासेवने, तत्र करणं नाम नागरकादिप्रारम्भयन्त्रं आसेवनं मैथुनक्रिया अनङ्गक्रीडा च अस्यादावर्थक्रियेति गाथार्थः ॥ २६२ ।। उक्तः कामः, साम्प्रतं धर्मादीनामेव सपत्नतासपत्नते अभिधित्सुराह नि०- धम्मो अत्थो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना असवत्ता होंति नायव्वा ।। २६३ ।। धर्मोऽर्थः कामः त्रय एते पिण्डिता युगपत्संपातेन प्रतिसपत्नाः परस्परविरोधिनः लोके कुप्रवचनेषु च यथोक्तं- अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च । धर्मस्य दानं च दया दमश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियाश्च ॥ १ ॥ इत्यादि एते च परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो जिनवचनमवतीर्णास्ततः कुशलाशययोगतो व्यवहारेण धर्मादितत्त्वस्वरूपतो वा निश्चयेन असपत्नाः परस्पराविरोधिनो भवन्ति ज्ञातव्या इति गाथार्थ: ।। २६३ ।। तत्र व्यवहारेणाविरोधमाह नि०- जिणवयणमि परिणए अवत्थविहिआणुठाणओ धम्मो सच्छासयप्पयोगा अत्थो वीसंभओ कामो ।। २६४ ।। जिनवचने यथावत्परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठानात् स्वयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रावकप्रतिमाङ्गीकरणे निरतिचारपालनाद्भवति धर्मः, स्वच्छाशयप्रयोगाद्विशिष्टलोकतः पुण्यबलाचार्थः, विश्रम्भत उचितकलत्राङ्गीकरणतापेक्षो विश्रम्भेण काम इति गाथार्थः ।। २६४ ।। अधुना निश्चयेनाविरोधमाह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययन महाचारकथा, निर्युक्तिः २६२-२६४ | कामनिक्षेपाः कामस्य भेदाः। ।। ३०५ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra T श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ३०६ ॥ www.kobatirth.org नि० धम्मस्स फलं मोक्खो सासयमउलं सिवं अणाबाहं तमभिप्पेया साहू तम्हा धम्मत्थकाम त्ति ।। २६५ ।। धर्मस्य निरतिचारस्य फलं मोक्षो निर्वाणम्, किंविशिष्टमित्याह शाश्वतं नित्यं अतुलं अनन्यतुलं शिवं पवित्रं अनाबाधं बाधावर्जितमेतदेवार्थः तं धर्मार्थं मोक्षमभिप्रेताः कामयन्तः साधवो यस्मात्तस्माद्धर्मार्थकामा इति गाथार्थः ।। २६५ ।। एतदेव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृढयन्नाह नि०- परलो मुत्तिमग्गो नत्थि हु मोक्खो त्ति बिंति अविहिन्नू । सो अत्थि अवितहो जिणमयंमि पवरो न अन्नत्थ ।। २६६ ।। परलोको जन्मान्तरलक्षणो मुक्तिमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राणि नास्त्येव मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षणः इति एवं ब्रुवते अविधिज्ञा न्यायमार्गाप्रवेदिनः, अत्रोत्तरं स परलोकादिः अस्त्येव अवितथः सत्यो जिनमते वीतरागवचने, प्रवरः पूर्वापराविरोधेन, नान्यत्रैकान्तनित्यादौ, हिंसादिविरोधादिति गाथार्थः ।। २६६ ।। व्याख्याता काचित्सूत्रस्पर्शनिर्युक्तिः, अधुना सूत्रान्तरावसरः, अस्य चायमभिसंबन्ध: - इहानन्तरसूत्रे निर्ग्रन्थानामाचारगोचरकथनोपन्यासः कृतः, साम्प्रतमस्यैवार्थतो गुरुतामाह'णण्णत्थ' त्ति सूत्रम्, न अन्यत्र कपिलादिमते ईदृशं उक्तमाचारगोचरं वस्तु यत् लोके प्राणिलोके परमदुश्वरं अत्यन्तदुष्करमित्यर्थः, ईदृशं च विपुलस्थानभाजिनः विपुलस्थानं - विपुलमोक्षहेतुत्वात् संयमस्थानं तद्भजते- सेवते तच्छीलश्च यस्तस्य, न भूतं न भविष्यति अन्यत्र जिनमतादिति सूत्रार्थः ।। ५ । सखुडगविअत्ताणं, वाहि आणं च जे गुणा। अखंडफुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ।। सूत्रम् ६ ।। दस अट्ठ य ठाणाई, जाई बालोऽवरज्झइ । तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गंथत्ताउ भस्सइ ॥ सूत्रम् ७ ॥ एतदेव संभावयन्नाह - 'सखुड' त्ति सूत्रम्, सह क्षुल्लकैः- द्रव्यभावबालैर्ये वर्त्तन्ते ते व्यक्ता- द्रव्यभाववृद्धास्तेषां सक्षुल्लक For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययन महाचारकथा, निर्युक्तिः २६५२६६ कामनिक्षेपाः कामस्य भेदाः । सूत्रम् ६-७ ॥ ३०६ ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक জান্তানি वृत्तियुतम् 11३००11 षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् २६७-२६८ अष्टादशासंयम स्थानानि। सूत्रम् व्यक्तानाम, सबालवृद्धानामित्यर्थः, व्याधिमतां चशब्दादव्याधिमतांच, सरुजानां नीरुजानां चेति भावः, ये गुणा वक्ष्यमाणलक्षणास्तेऽखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, तत् शृणुत यथा । कर्तव्यास्तथेति सूत्रार्थः ॥ ६॥ ते चागुणपरिहारेणाखण्डास्फुटिता भवन्तीति अगुणास्तावदुच्यन्ते- दस त्ति सूत्रम्, दशाष्टौ च स्थानानि असंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि यानि आश्रित्य बालः अज्ञःअपराध्यति तत्सेवनयाऽपराधमाप्नोति, कथम- नियुक्तिः पराध्यतीत्याह- तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निर्ग्रन्थत्वात् निर्ग्रन्थभावाद् भ्रश्यति निश्चयनयेनापैति बाल इति सूत्रार्थः ।। ७ ।। अमुमेवार्थं सूत्रस्पर्शनियुक्त्या स्पष्टयतिनि०- अट्ठारस ठाणाई आयारकहाएँ जाई भणियाई । तेसिं अन्नतरागं सेवंतु न होइ सो समणो ।। २६७ ।। अष्टादशअष्टादशस्थानान्याचारकथायां प्रस्तुतायां यानि भणितानि तीर्थकरैस्तेषामन्यतरस्थानं सेवमानो न भवत्यसौ श्रमण आसेवक इति गाथार्थः ।। २६७ ।। कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकार: नि०- वयछक्कं कायछक्वं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेजा य, सिणाणं सोहवजणं ।। २६८।। व्रतषट्कं प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिभोजनविरतिषष्ठानि षड्व्रतानि कायषट्क-पृथिव्यादयः षड्जीवनिकाया: अकल्पः। शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाण: गृहिभाजनंगृहस्थसंबन्धि कांस्यभाजनादि प्रतीतं पर्यङ्कःशयनविशेषः प्रतीतः। निषद्याच गृहे एकानेकरूपा स्नानं देशसर्वभेदभिन्नं शोभावर्जनं विभूषापरित्यागः, वर्जनमिति च प्रत्येकमभिसंबध्यते, शोभावर्जन स्नानवर्जनमित्यादीति गाथार्थः ।। २६८॥ तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि। अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएम संजमो।सूत्रम् ८।। स्थानानि। || ३०७॥ For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृनियुतम् ||३०८॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् ९-१० अष्टादशस्थानानि सूत्रम् ११-१२ अहिंसाऽमृषा स्थानस्य जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे णोवि घायए ।। सूत्रम् ९ ।। सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउंन मरिजिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निर्गथा वजयंति णं ।। सूत्रम् १० ।। व्याख्याता सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसंबन्ध:-गुणा अष्टादशसुस्थानेषु अखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तत्र विधिमाह-'तत्थिमं ति सूत्रम् । तत्र' अष्टादशविधे स्थानगणे व्रतषट्के वा अनासेवनाद्वारेण इदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथम स्थानं महावीरेण भगवता अपश्चिमतीर्थकरेण देशितं कथितं यदुताहिंसेति । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्देशितेत्यत आह- निपुणा आधाकर्माद्यपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, न आगमद्वारेण देशिता अपितु दृष्टा । साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा, किमितीयमेव निपुणेत्यत आह- यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः ।। संयमो, नान्यत्र, उद्दिश्यकृतादिभोगविधानादिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-'जावंति' सूत्रम्, यतो हि भागवत्याज्ञा विधिः। यावन्तः केचन लोके प्राणिनस्त्रसा- द्वीन्द्रियादयः अथवा स्थावरा:- पृथिव्यादयस्तान् जानन रागाद्यभिभूतो व्यापादनबुद्ध्या अजानन्वा प्रमादपारतन्त्र्येण न हन्यात् स्वयं नापि घातयेदन्यैः एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणाद् घ्नतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयाद्, अतो निपुणा दृष्टेति सूत्रार्थः ॥ ९॥ अहिंसैव कथं साध्वीत्येतदेवाह-'सव्वेत्ति सूत्रम्, सर्वे जीवा अपि दुःखितादिभेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं न मर्तुं प्राणवल्लभत्वात्, यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं घोरं रौद्रं दुःखहेतुत्वाद् निर्ग्रन्थाः साधवो वर्जयन्ति भावतः। णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ।। १०॥ अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूआ, नोवि अन्नं वयावए ।। सूत्रम् ११ ।। मुसावाओ उलोगम्मि, सव्वसाहहिं गरिहिओ। अविस्सासो अभूआणं, तम्हा मोसं विवजए।। सूत्रम् १२ ।। ॥३०८॥ 88888888888888 100008 For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ३०९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उक्तः प्रथमस्थानविधिः, अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह-'अप्पणट्ट' त्ति सूत्रम्, आत्मार्थं आत्मनिमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि परार्थं वा परनिमित्तं वा एवमेव, तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति मानाद्वा अबहुश्रुत एवाहं बहुश्रुत इत्यादि मायातो भिक्षाटनपरिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि, यदिवा भयात् किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि, एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम्, अत एवाह- हिंसकं परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा ब्रूयात् स्वयं नाप्यन्यं वादयेत्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्' ब्रुवतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादिति सूत्रार्थः ।। ११ ।। किमित्येतदेवमित्याह- 'मुसावाउ'त्ति सूत्रम्, मृषावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः गर्हितो निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात्, अविश्वासश्च अविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी भवति, यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। १२ ।। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जड़वा बहुं । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहंसि अजाइया ।। सूत्रम् १३ ।। तं अप्पणा न गिण्हंति नोऽवि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणंपि, नाणुजाणंति संजया ।। सूत्रम् १४ ।। उक्तो द्वितीयस्थानविधिः, साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाह - 'चित्तमंत 'त्ति सूत्रम्, चित्तवद् द्विपदादि वा अचित्तवद्वा हिरण्यादि, अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च, यदिवा बहु मूल्यप्रमाणाभ्यामेव, किं बहुना ?- दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गह्णन्ति साधवः कदाचनेति सूत्रार्थः ।। १३ ।। एतदेवाह - 'तं'ति सूत्रम्, तत् चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वात् नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव, तथाऽन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव नानुजानन्ति नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः ।। १४ ।। For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययनं महाचारकथा, सूत्रम् १३-१४ अदत्ताना| दानमैथुन विवर्जनविधिः । ॥ ३०९ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 88888888888888066 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३१०॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् १५-१६ अदत्तानादानमैथुन अबंभचरिअंघोरं, पमायं दुरहिट्टि । नायरंति मुणी लोए, भेआययणवजिणो ।। सूत्रम् १५ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहणसंसगं, निग्गंथा वजयंति णं ।। सूत्रम् १६॥ । उक्तस्तृतीयस्थानविधिः, चतुर्थस्थानविधिमाह-'अबंभ'त्ति सूत्रम्, अब्रह्मचर्य प्रतीतं घोरं रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात्, प्रमादं । प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् दुराश्रयं दुस्सेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात्, यतश्चैवमतो नाचरन्ति नासेवन्ते मुनयो । लोके मनुष्यलोके, किंविशिष्टा इत्याह- भेदायतनवर्जिनो भेदः- चारित्रभेदस्तदायतनं- तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिन: विवर्जनचारित्रातिचारभीरव इति सूत्रार्थः॥ १५ ॥ एतदेव निगमयति-'मूलं ति सूत्रम्, 'मूलं' बीजमेतद् अधर्मस्य पापस्येति पारलौकि- विधिः। कोऽपाय: महादोषसमुच्छ्रय महतांदोषाणां-चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुच्छ्रयं-संघातवदित्यैहिकोऽपायः, यस्मादेवं तस्मात् मैथुनसंसर्ग । मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥१६॥ बिडमुब्भेइमं लोणं, तिलं सप्पिं च फाणि। न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ।। सूत्रम् १७ ।। लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पव्वइएन से ।। सूत्रम् १८।। जपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संजमलजट्टा, धारंति परिहरंति अ।। सूत्रम् १९ ।। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअवुर्त महेसिणा ।। सूत्रम् २० ।। सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्षणपरिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरंति ममाइयं ।। सूत्रम् २१ ।। प्रतिपादितश्चतुर्थस्थानविधिः, इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाह- 'बिड'त्ति सूत्रम्, बिडं गोमूत्रादिपक्वं उद्भेद्यं सामुद्रादि यद्वा । बिडं प्रासुकं उद्भेद्यं अप्रासुकमपि, एवं द्विप्रकारं लवणम्, तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम्, तत्र तैलं प्रतीतम्, सर्पिघृतम्, फाणितं सूत्रम् १७-२१ अपरिग्रहविधिः। ||३१०॥ For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||३११॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् १७-२१ अपरिग्रह द्रवगुडः, एतल्लवणाद्येवंप्रकारमन्यच्च न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति पर्युषितं स्थापयन्ति, ज्ञातपुत्रवचोरताः भगवद्वर्धमानवचसि । निःसङ्गताप्रतिपादनपरे सक्ता इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ संनिधिदोषमाह- लोभस्स'त्ति सूत्रम्, लोभस्य चारित्रविघ्नकारिणश्वतुर्थकषायस्य एसोऽणुप्फास त्ति एषोऽनुस्पर्श:- एषोऽनुभावो यदेतत्संनिधिकरणमिति, यतश्चैवमतो मन्ये मन्यन्ते, प्राकृतशैल्या एकवचनम्, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः अन्यतरामपि स्तोकामपि यः स्यात् यः कदाचित्संनिधिं कामयते सेवते गृही गृहस्थोऽसौ । विधिः। भावतः प्रव्रजितो नेति, दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः, संनिधीयते नरकादिष्वात्माऽनयेति संनिधिरिति शब्दार्थात् प्रव्रजितस्य च दुर्गतिगमनाभावादिति सूत्रार्थः ।। १८ ।। आह- यद्येवं वस्त्रादि धारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत आह जंपि त्ति सूत्रम्, यदप्यागमोक्तं वस्त्रं वा चोलपट्टकादि पात्रं वा अलाबुकादि कम्बलं वर्षाकल्पादि, पादपुंछनं रजोहरणम्, तदपि संयमलज्जार्थ मिति संयमार्थ पात्रादि, तव्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात्, लज्जार्थं वस्त्रम्, तव्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन परिहरन्ति च परिभुञ्जते च मूर्छारहिता इति सूत्रार्थः ।। १९ ।। यतश्चैवमत:-'न सो'त्ति सूत्रम, नासौ निरभिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतुत्वाभावात्, केन? ज्ञातपुत्रेण ज्ञात- उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः तत्पत्रेण वर्धमानेन त्रात्रा स्वपरपरित्राणसमर्थेन, अपित मच्छा असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतत्वाद, अर्थतस्तीर्थकरेण, ततोऽवधार्य इति एवमुक्तो महर्षिणा गणधरेण, सूत्रे सेजंभव आहेति सूत्रार्थः ।।२०।। आह-वस्त्राद्यभावभाविन्यपि मूर्छा कथं वस्त्रादिभावे साधूनां न भविष्यति?, उच्यते, सम्यग्बोधेन तद्बीजभूताबोधोपघाताद्, आह च'सव्वत्थ'त्ति सूत्रम्, सर्वत्र उचिते क्षेत्रे काले च उपधिना आगमोक्तेन वस्त्रादिना सहापि बुद्धा यथावद्विदितवस्तुतत्त्वाः साधवः 1३११॥ For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३१२ ।। www.kobatirth.org संरक्षणपरिग्रह इति संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः, किं चानेन ?, ते हि भगवन्तः अप्यात्मनोऽपि देह इत्यात्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं न कुर्वन्ति ममत्वं आत्मीयाभिधानम्, वस्तुतत्त्वावबोधात्, तिष्ठतु तावदन्यत्, ततश्च देहवदपरिग्रह एव तदिति सूत्रार्थः ।। २१ ।। अहो निच्चं तवो कम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णिअं । जाव लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं ।। सूत्रम् २२ ।। संति सुहमा पाणा, तसा अदुव थावरा जाई राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे ? ।। सूत्रम् २३ ।। उदउल्लं बी असंसतं, पाणा निवडिया महिं । दिआ ताइं विवज्रिना, राओ तत्थ कहं चरे ? । सूत्रम् २४ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एअं च दोसं दणं, नायपुत्त्रेण भासिअं । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोअणं ।। सूत्रम् २५ ।। उक्तः पञ्चमस्थानविधिः, अधुना षष्ठमधिकृत्याह- 'अहो' त्ति सूत्रम्, अहो नित्यं तपः कर्मे ति अहो विस्मये नित्यं नामापायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवादप्रतिपात्येव तपः कर्म- तपोऽनुष्ठानं सर्वबुद्धैः सर्वतीर्थकरैः वर्णितं देशितम्, किंविशिष्टमित्याहयावल्लज्जासमा वृत्तिः लज्जा- संयमस्तेन समा सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः वर्तनं वृत्ति:- देहपालना एकभक्तं च भोजनं एकं भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा, द्रव्यत एक- एकसंख्यानुगतम्, भावत एकं- कर्मबन्धाभावादद्वितीयम्, तद्दिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति सूत्रार्थः ।। २२ ।। रात्रिभोजने प्राणातिपातसंभवेन कर्मबन्धसद्वितीयतां दर्शयति- 'संतिमेत्ति सूत्रम्, सन्त्येते प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः प्राणिनो जीवाः त्रसा- द्वीन्द्रियादयः अथवा स्थावराः - पृथिव्यादयः यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् चक्षुषा कथं एषणीयं सत्त्वानुपरोधेन चरिष्यति भोक्ष्यते च ?, असंभव © यद्यप्यवचूर्णिदीपिकयोर्नास्तीदं तथापि प्रतिग्रहप्रतिलेखनादोषसंपातिमसत्त्वोपरोधसंग्रहार्थं स्याच्चेन्नासंभव इति मन्ये, सर्वादर्शेषु दर्शनात् । For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययनं महाचारकथा, सूत्रम् २२-२५ रात्रिभोजनत्याग विधिः । ।। ३१२ ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३९३ ।। www.kobatirth.org एव रात्रावेषणीयचरणस्येति सूत्रार्थः ।। २३ ।। एवं रात्रौ भोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाह- 'उदउल्लं' ति सूत्रम्, उदकार्द्र पूर्ववदेकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः, तथा बीजसंसक्तं बीजै: संसक्तं- मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा बीजानि पृथग्भूतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति, तथा प्राणिनः संपातिमप्रभृतयो निपतिता मह्यं पृथिव्यां संभवन्ति, ननु दिवाप्येतत्संभवत्येव?, सत्यम्, किंतु परलोकभीरुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकार्द्रादीनि विवर्जयेत्, रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमानुपरोधेन ?, असंभव एव शुद्धचरणस्येति सूत्रार्थः ।। २४ ।। उपसंहरन्नाह - 'एअं च' त्ति सूत्रम्, एतं च अनन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण भगवता भाषितं उक्तं सर्वाहारं चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते निर्ग्रन्थाः साधवो रात्रिभोजनमिति सूत्रार्थः ।। २५ ।। पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ।। सूत्रम् २६ ।। पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ।। सूत्रम् २७ ।। तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । पुढविकायसमारंभं, जावजीवाइ वज्रए । सूत्रम् २८ ।। आउकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ ।। सूत्रम् २९ ।। आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ।। सूत्रम् ३० ।। तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवहणं । आउकायसमारंभं जावजीवाइ वज्रए । सूत्रम् ३१ ।। उक्तं व्रतषट्कम्, अधुना कायषट्कमुच्यते, तत्र पृथिवीकायमधिकृत्याह- 'पुढवि'त्ति सूत्रम्, पृथ्वीकायं न हिंसन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन, उपलक्षणमेतदत एवाह- त्रिविधेन करणयोगेन मनः प्रभृतिभिः करणादिरूपेण, के न हिंसन्तीत्याह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययनं महाचारकथा, सूत्रम् २६-३१ कायषट्के पृथिवी | कायाप्काय समारम्भ वर्जनविधिः । ।। ३१३ ।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir महाचारकथा, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३१४॥ ३२-३५ समारम्भ वर्जनविधिः। संयताःसाधवः सुसमाहिता उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ॥२६॥अत्रैव हिंसादोषमाह-'पुढवि'त्ति सूत्रम्, पृथिवीकार्य हिंसन्नालेखनादिना । षष्ठमध्ययन प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थो व्यापादयत्येव, तदाश्रितान् पृथिवीश्रितान् त्रसांश्च विविधान् प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् । चशब्दात्स्थावरांश्चाप्कायादीन् चाक्षुषांश्वाचाक्षुषांश्च चक्षुरिन्द्रियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ।। २७॥ यस्मादेवं तम्ह'त्ति सूत्रम्, तस्मादेवं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं पृथिवीकायसमारंभमालेखनादि यावज्जीवं यावज्जीवमेव । वर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। २८ ।। उक्त: सप्तमस्थानविधिः, अधुनाऽष्टमस्थानविधिमधिकृत्योच्यते-आउकायं ति सूत्रम्, सूत्रत्रयमप्कायाभिलापेन नेयम्, ततश्चायमप्युक्त एव ।। २९-३०-३१॥ जायतेअंन इच्छंति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओऽविदुरासयं ।। सूत्रम् ३२ ।। पाईणं पडिणं वावि, उई अणुदिसामवि । अहे दाहिणओवावि, दहे उत्तरओवि अ॥ सूत्रम ३३ ।। भूआणमेसमाघाओ, हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे ।। सूत्रम् ३४ ।। तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवणं । तेउकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए।। सूत्रम् ३५ ।। साम्प्रतं नवमस्थानविधिमाह-'जायतेअति सूत्रम्, जाततेजा- अग्निः, तं जाततेजसं नेच्छन्ति मनःप्रभृतिभिरपि पापर्क पाप एव पापकस्तम्, प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशुभमित्यर्थः, किं नेच्छन्तीत्याह- ज्वालयितुं उत्पादयितुं वृद्धिं वा नेतुम्, किंविशिष्टमित्याह- तीक्ष्णं छेदकरणात्मकं अन्यतरच्छस्त्रं सर्वशस्त्रम्, एकधारादिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः, अत एव सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः ।। ३२।। एतदेव स्पष्टयन्नाह-'पाईणं'ति सूत्रम्, 0वाचा कायेन चेच्छादर्शकचेष्टानिरोधात् । For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक षष्ठमध्ययन महाचारकथा, श्रीहारि० सूत्रमा ३६-३० वृत्तियुतम् ॥३१५॥ तजस्काय समाराम वर्जनविधिः। प्राच्या प्रतीच्यां वापि पूर्वायां पश्चिमायां चेत्यर्थः, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि, ‘सुपां सुपो भवन्ती'ति सप्तम्यर्थे षष्ठी, विदिश्वपीत्यर्थः, अधो दक्षिणतश्चापि दहति दाहां भस्मीकरोत्युत्तरतोऽपि च, सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दहतीति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ यतश्चैवमतो 'भूआण'त्ति सूत्रम्, भूतानां स्थावरादीनामेष आघात आघातहेतुत्वादाघातः हव्यवाहः अग्निः न संशय इत्येवमेवैतद् आघात एवेति भावः, येनैवं तेन तं' हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थं आलोकशीतापनोदार्थम् । संयताः साधवः किञ्चित् संघटनादिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३४॥ यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम्, व्याख्या पूर्ववत् ।। ३५॥ अणिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावजबहुलं चेअं, नेअंताईहि सेविअं। सूत्रम् ३६।। तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहुअणेण वा। न ते वीइउमिच्छंति, वेआवेऊण वा परं ।। सूत्रम् ३७ ।। जंपि वर्थ व पायं वा, कंबल पायपुंछणं । न ते वायमुईरति, जयं परिहरंति अ॥ सूत्रम् ३८॥ तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवहणं । वाउकायसमारंभं, जावजीवाइ वजए। सूत्रम् ३९।। उक्तो नवमस्थानविधिः, साम्प्रतं दशमस्थानविधिमधिकृत्याह-'अणिलस्स'त्ति, अनिलस्य वायोः समारम्भंतालवृन्तादिभिः करणं बद्धाः तीर्थकरा मन्यन्ते जानन्ति ताटशंजाततेज:समारम्भसदृशम्। सावद्यबहलं पापयिष्ठं चैतमितिकत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृभिः सुसाधुभिः सेवितं आचरितं मन्यन्ते बुद्धा एवेति सूत्रार्थः ॥३६॥ एतदेव स्पष्टयति-तालियंटेण त्ति सूत्रम्, तालवृन्तेन पत्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायाम्, न ते साधवो वीजितुमिच्छन्त्यात्मानमात्मना, नापि वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव, नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः ॥३७॥ उपकरणात्तद्विराधनेत्येतदपि ©नव पूर्वा वादी' अदिदादौ स्वसुपि वा पूर्वादयो नव सर्वादिरिति शाकटायनसूत्ररहस्यान्नापप्रयोगशङ्का । ॥३१५।। For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३१६॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् ४०-४५ वनस्पति प्रसकाय समारम्भ वर्जनविधिः। परिहरन्नाह-'जंपि'त्ति सूत्रम्, यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनम्, अमीषां पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते । वातमुदीरयन्ति अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किंतु यतं परिहरन्ति, परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३८॥ यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भः, तम्ह त्ति सूत्रम्, व्याख्या पूर्ववत् ।। ३९॥ उक्तो दशमस्थानविधिः, इदानीमेकादशमाश्रित्य उच्यते इति वणस्सईन हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ।। सूत्रम् ४० ॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई अतयस्सिए । तसे अविविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे।। सूत्रम् ४१ ।। तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइववणं । वणस्सइसमारंभं, जावजीवाइ वज्जए।। सूत्रम् ४२ ।। तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ।। सूत्रम् ४३ ।। तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अविविहे पाणे, चक्खुसे अअचक्खुसे ।। सूत्रम् ४४ ।। तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । तसकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ।। सूत्रम् ४५ ।। वणस्सइ इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पतेरभिलापेन ज्ञेयम्, ततश्चैकादशस्थानविधिरप्युक्त एव ।। ४०-४१-४२।। साम्प्रतं द्वादशस्थानविधिरुच्यते-'तसकायं ति सूत्रम्, त्रसकाय द्वीन्द्रियादिरूपं न हिंसन्त्यारम्भप्रवृत्त्या मनसा वाचा कायेन- तदहितचिन्तनादिना त्रिविधेन करणयोगेन मन:प्रभृतिभिः करणादिना प्रकारेण संयताः साधवः सुसमाहिताः उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ।। ४३॥ तत्रैव हिंसादोषमाह-'तसकाय'ति सूत्रम्, त्रसकायं विहिंसन् आरम्भप्रवृत्त्यादिना प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थे व्यापादयत्येव तदाश्रितान् त्रसान् विविधांश्च प्राणिन:- तदन्यद्वीन्द्रियादीन्, चशब्दात्स्थावरांश्च पृथिव्यादीन्, चाक्षुषानचाक्षुषांश्च ॥३१६॥ For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३९७ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्षुरिन्द्रियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ।। ४४ ।। यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति सूत्रम्, तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं त्रसकायसमारम्भं तेन तेन विधिना यावज्जीवया यावज्जीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। ४५ ।। जाई चत्तारि भुजाई, इसिणाऽऽहारमाइणि। ताई तु विवज्रंतो, संजमं अणुपालए ।। सूत्रम् ४६ ।। पिंडं सिद्धं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य अकप्पिअं न इच्छिज्जा, पडिगाहिज कप्पिअं ।। सूत्रम् ४७ ।। जे निआगं ममायंति, की अमुद्देसि आहडं । वहं ते समणुजाणंति, इअ उत्तं महेसिणा ।। सूत्रम् ४८ ।। तम्हा असणपाणाई, की अमुद्देसि आहडं। वज्जयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ।। सूत्रम् ४९ ।। उक्तो द्वादशस्थानविधिः, प्रतिपादितं कायषट्कम्, एतत्प्रतिपादनादुक्ता मूलगुणाः, अधुनैतद्वृत्तिभूतोत्तरगुणावसरः, ते चाकल्पादयः षडुत्तरगुणाः यथोक्तं- 'अकप्पो गिहिभायण मित्यादि, तत्राकल्पो द्विविध:- शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पश्च तत्र शिक्षकस्थापनाकल्पः अनधीतपिण्डनिर्युक्त्यादिनाऽऽनीतमाहारादि न कल्पत इति उक्तं च-' "अणहीआ खलु जेणं पिंडेसणसेज्जवत्थपाएसा । तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥ १ ॥ उउबर्द्धमि न अणला वासावासे उ दोऽवि णो सेहा । दिक्खिज्जंती पायं ठवणाकप्पो इमो होइ ॥ २ ॥ अकल्पस्थापनाकल्पमाह-'जाई'ति सूत्रम्, यानि चत्वारि अभोज्यानि संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि ऋषीणां साधूनां आहारादीनि आहारशय्यावस्त्रपात्राणि तानि तु विधिना वर्जयन् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत्, तदत्यागे संयमाभावादिति सूत्रार्थः ।। ४६ ।। एतदेव स्पष्टयति- 'पिंड 'न्ति सूत्रम्, पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च ® अनधीताः खलु येन पिण्डैषणाशय्यावस्त्रपात्रैषणाः। तेनानीतानि यतेः न कल्पन्ते पिण्डादीनि ॥ १ ॥ ऋतुबद्धे नानलाः वर्षावासे तु द्वयेऽपि न शैक्षकाः। दीक्ष्यन्ते प्रायः स्थापनाकल्पोऽयं भवति ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययनं महाचारकथा, सूत्रम ४६-४९ अकल्प्य पिण्डः । ।। ३९७ ।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३१८ ।। www.kobatirth.org चतुर्थं पात्रमेव च, एतत्स्वरूपं प्रकटार्थम्, अकल्पिकं नेच्छेत्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकं यथोचितमिति सूत्रार्थः ।। ४७ ।। अकल्पिके दोषमाह - 'जे'त्ति सूत्रम्, ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणो नियागं ति नित्यमामन्त्रितं पिण्डं ममायन्ती ति परिगृह्णन्ति, तथा क्रीतमौद्देशिकाहतं एतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायां वधं त्रसस्थावरादिघातं ते द्रव्यसाध्वादयः अनुजानन्ति दातृप्रवृत्त्यनुमोदनेन इत्युक्तं च महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः ।। ४८ ।। यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति सूत्रम्, तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौद्देशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्ग्रन्थाः साधवो धर्मजीविनः संयमैकजीविन इति सूत्रार्थः ।। ४९ ।। कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । भुंजंतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ।। सूत्रम् ५० ।। सीओदगसमारम्भे, मत्तधोअणछडुणे । जाई छनंति (छिप्पंति) भूआई, दिट्ठो तत्थ असंजमो । सूत्रम् ५१ ॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिआ तत्थ न कप्पइ। एअमहं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ।। सूत्रम् ५२ ।। उक्तोऽकल्पस्तदभिधानात्त्रयोदशस्थानविधिः, इदानीं चतुर्दशस्थानविधिमाह-'कंसेसु' त्ति सूत्रम्, कंसेषु करोटकादिषु कंसपात्रेषु तिलकादिषु कुण्डमोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु भुञ्जानोऽशनपानादि तदन्यदोषरहितमपि आचारात् श्रमणसंबन्धिनः परिभ्रश्यति अपैतीति सूत्रार्थः ।। ५० ।। कथमित्याह- 'सीओदगं'ति सूत्रम्, अनन्तरोद्दिष्टभाजनेषु श्रमणा भोक्ष्यन्ते भुक्तं वैभिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति, तदा शीतोदकसमारम्भे सचेतनोदकेन भाजनधावनारम्भे तथा मात्रकधावनोज्झने कुण्डमोदादिषु क्षालनजलत्यागे यानि क्षिप्यन्ते हिंस्यन्ते भूतानि अप्कायादीनि सोऽत्र- गृहिभाजनभोजने दृष्ट उपलब्धः केवलज्ञानभास्वता असंयमस्तस्य भोक्तुरिति सूत्रार्थः ।। ५१ ।। किंच - 'पच्छाकम्मं ति सूत्रम्, पश्चात्कर्म पुरः कर्म स्यात् - तत्र कदाचिद्भवेद्गृहिभाजनभोजने, पश्चात्पुरः कर्मभावस्तूक्तवदित्येके, अन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्साधवो वयं पश्चाद्भोक्ष्याम इति पश्चात्कर्म व्यत्ययेन For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठमध्ययनं | महाचारकथा, सूत्रम् ५०-५२ गृहिभाजनपर्यङ्कादि वर्जनम्। ।। ३९८ ।। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३१९ ।। www.kobatirth.org तु पुरः कर्म व्याचक्षते, एतच्च न कल्पते धर्मचारिणाम्, यतश्चैवमतः एतदर्थं पश्चात्कर्मादिपरिहारार्थं न भुञ्जते निर्ग्रन्थाः, क्वेत्याहगृहिभाजने अनन्तरोदित इति सूत्रार्थः ।। ५२ ।। आसंदीपलि अंकेसु, मंचमासालएसु वा अणायरिअमजाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ।। सूत्रम् ५३ ।। नासंदीपलि अंकेसु, न निसिजा न पीढए। निग्गंथाऽपडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिट्टगा ।। सूत्रम् ५४ ।। गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदी पनि अंको अ, एअमहं विवजिआ ।। सूत्रम् ५५ ।। उक्तो गृहिभाजनदोषः, तदभिधानाच्चतुर्दशस्थानविधिः, साम्प्रतं पञ्चदशस्थानविधिमाह - 'आसंदि' त्ति सूत्रम्, आसन्दीपर्यङ्कौ प्रतीतौ, तयोरासन्दीपर्यङ्कयोः प्रतीतयोः, मञ्चाशालकयोश्च, मञ्चः- प्रतीतः आशालकस्तु- अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः एतयोः अनाचरितं अनासेवितं आर्याणां साधूनां आसितुं उपवेष्टुं स्वप्तुं वा निद्रातिवाहनं वा कर्तुम्, शुषिरदोषादिति सूत्रार्थः ।। ५३ ।। अत्रैवापवादमाह - 'नासंदि'त्ति सूत्रम्, न आसन्दीपर्यङ्कयोः प्रतीतयोः न निषद्यायां- एकादिकल्परूपायां न पीठकेवेत्रमयादौ निर्ग्रन्थाः साधवः अप्रत्युपेक्ष्य चक्षुरादिना, निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, नञ् सर्वत्राभिसंबध्यते, न कुर्वन्तीति । किंविशिष्टा निर्ग्रन्थाः ? इत्याह- बुद्धोक्ताधिष्ठातारः तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः, इह चाप्रत्युपेक्षितासन्द्यादौ निषीदनादिनिषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह, विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति सूत्रार्थः ।। ५४ ।। तत्रैव दोषमाह- 'गंभीर'त्ति सूत्रम्, गम्भीरं- अप्रकाशं विजय आश्रयः अप्रकाशाश्रया एते प्राणिनामासन्द्यादयः, एवं च प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया एतेषु भवन्ति, पीड्यन्ते चैतदुपवेशनादिना, आसन्दः पर्यङ्कुश्व चशब्दान्मञ्चादयश्च एतदर्थं विवर्जिताः साधुभिरिति सूत्रार्थः ।। ५५ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठमध्ययनं | महाचारकथा, सूत्रम् ५३-५५ पर्यङ्कादि वर्जनम् । ।। ३९९ ।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३२० ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोअरग्गपविट्ठस्स, निसिद्धा जस्स कप्पड़। इमेरिसमणायारं, आवज्रइ अबोहिअं ।। सूत्रम् ५६ ।। विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्धाओ, पडिकोहो अगारिणं । सूत्रम् ५७ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थी ओ वावि संकणं। कुसीलवडणं ठाणं, दूरओ परिवञ्जए । सूत्रम् ५८ ।। तिण्हमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पई। जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो । सूत्रम् ५९ ।। उक्तः पर्यङ्कस्थानविधिः, तदभिधानात्पञ्चदशस्थानम्, इदानीं षोडशस्थानमधिकृत्याह - 'गोअरग्ग'त्ति सूत्रम्, गोचराग्रप्रविष्टस्य भिक्षाप्रविष्टस्येत्यर्थः, निषद्या यस्य कल्पते, गृह एव निषीदनं समाचरति यः साधुरिति भावः, स खलु एवं ईदृशं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचारं आपद्यते प्राप्नोति अबोधिकं मिथ्यात्वफलमिति सूत्रार्थः ।। ५६ ।। अनाचारमाह- 'विवत्ति' त्ति सूत्रम्, विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्य- आज्ञाखण्डनादोषतः साधुसमाचरणस्य प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा संबन्धादाधाकर्मादिकरणेन, वनीपकप्रतीघातः, तदाक्षेपणा- अदित्साभिधानादिना, प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्स्वजनानां च स्यात् तदाक्षेपदर्शनेनेति सूत्रार्थः ।। ५७ ॥ तथा 'अगुत्ति' त्ति सूत्रम्, अगुप्तिर्ब्रह्मचर्यस्य तदिन्द्रियाद्यवलोकनेन, स्त्रीतश्चापि शङ्का भवति तदुत्फुल्ललोचनदर्शनादिना अनुभूतगुणायाः, कुशीलवर्धनं स्थानं उक्तेन प्रकारेणासंयमवृद्धिकारकम्, दूरतः परिवर्जयेत् परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ५८ ॥ सूत्रेणैवापवादमाह 'तिन्ह'त्ति सूत्रम्, त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानां अन्यतरस्य एकस्य निषद्या गोचरप्रविष्टस्य यस्य कल्पते औचित्येन, तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः, कस्य पुनः कल्पत इत्याह- जरयाऽभिभूतस्य अत्यन्तवृद्धस्य व्याधिमतः अत्यन्तमशक्तस्य तपस्विनो विकृष्टक्षपकस्य । एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः, न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः संभवन्ति, परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीति सूत्रार्थः ।। ५९ ।। For Private and Personal Use Only षष्ठमध्ययनं | महाचारकथा, सूत्रम् |५६-५९ निषद्या वर्जनम्। ।। ३२० ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३२१॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् ६०-६३ स्नानवर्जनम्। सूत्रम् ६४ वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए। वुद्धंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो। सूत्रम् ६० ॥ संतिमे सुहमा पाणा, घसासु भिलुगासु । जे अभिक्खू सिणायतो, विअडेणुप्पलावए। सूत्रम् ६१॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ।। सूत्रम् ६२॥ सिणाणं अदुवा कलं, लुद्ध पउमगाणि अ। गायस्सुव्वट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइवि।। सूत्रम् ६३ ॥ उक्तो निषद्यास्थानविधिः, तदभिधानात्षोडशस्थानम्, साम्प्रतं सप्तदशस्थानमाह-वाहिओव'त्ति सूत्रम्, व्याधिमान् वा व्याधिग्रस्तः अरोगी वा रोगविप्रमुक्तो वा स्नानं अङ्गप्रक्षालनं यस्तु प्रार्थयते सेवत इत्यर्थः, तेनेत्थंभूतेन व्युत्क्रान्तो भवति । शोभा वर्जनम्। आचारो बाहतपोरूपः, अस्नानपरीषहानतिसहनात्, जढ़ः परित्यक्तो भवति संयमः प्राणिरक्षणादिकः, अप्कायादिविराधनादिति सूत्रार्थः ॥६०॥ प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह-'संतिमे'त्ति सूत्रम्, सन्ति एते प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः प्रलक्ष्णा: प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः घसासु शुषिरभूमिषु भिलुगासु च तथाविधभूमिराजीषु च, यांस्तु भिक्षुः स्नानजलोज्झनक्रियया विकृतेन प्रासुकोदकेनोत्प्लावयति, तथा च तद्विराधनातः संयमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥६१॥ निगमयन्नाह-'तम्ह'त्ति सूत्रम्, यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात् 'ते' साधवो न स्नान्ति शीतेन वोष्णेनोदकेन, प्रासुकेनाप्रासुकेन वेत्यर्थः, किंविशिष्टास्त । इत्याह-यावज्जीवं आजन्म व्रतं घोरं दुरनुचरमस्नानमाश्रित्य अधिष्ठातारः अस्यैव कर्तार इति सूत्रार्थः ।। ६२॥ किंच 'सिणाणं'ति । सूत्रम्, स्नानं पूर्वोक्तम्, अथवा कल्कं 'चन्दनकल्कादि' लोध्र, गन्धद्रव्यं पद्मकानि च कुङ्कमकेसराणि, चशब्दादन्यच्चैवंविधं गात्रस्य उद्वर्त्तनार्थं उद्वर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि, यावज्जीवमेव भावसाधव इति सूत्रार्थः।। ६३ ।। नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिणो। मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारिअं? ॥ सूत्रम् ६४॥ For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyarmandir षष्ठमध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥३२२॥ महाचारकथा, सूत्रम् ६७-६८ उपसंहारः। विभूसावत्तिअंभिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।। सूत्रम् ६५ ।। विभूसावत्तिअंचेअं, बुद्धा मन्नति तारिसं । सावजबहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं। सूत्रम् ६६ ।। उक्तोऽस्नानविधिः, तदभिधानात्सप्तदशस्थानम्, साम्प्रतमष्टादशं शोभावर्जनास्थानमुच्यते-शोभायां नास्ति दोषः। अलङ्कृतश्चापि चरेद्धर्म मित्यादिवचनाद् (इति) पराभिप्रायमाशङ्कयाह-'नगिणस्स'त्ति सूत्रम्, नग्नस्य वापि कुचेलवतोऽप्यु- शोभा वर्जनम्। पचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रं मुण्डस्य द्रव्यभावाभ्यां दीर्घरोमनखवतः दीर्घरोमवतः । कक्षादिषु दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । मैथुनाद् उपशान्तस्य उपरतस्य, किं विभूषया राढया कार्य?, न किञ्चिदिति सूत्रार्थः ।। ६४ ।। इत्थं प्रयोजनाभावमभिधायापायमाह-'विभूस'त्ति सूत्रम्, विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं भिक्षुः साधुः कर्म बध्नाति चिक्कणं दारुणम्, संसारसागरे घोरे । रौद्रे येन कर्मणा पतति दुरुत्तारे अकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घ इति सूत्रार्थः ।। ६५ ।। एवं बाहाविभूषापायमभिधाय संकल्पविभूषापायमाह-'विभूस'त्ति सूत्रम्, विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं चेत एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपद्यत इति, तत्प्रवृत्त्यङ्गं चित्तमित्यर्थः, बुद्धाः तीर्थकरा मन्यन्ते जानन्ति तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषाक्रियासदृशं सावद्यबहुलं चैतद् आर्तध्यानानुगतं । चेतः, नैतदित्थंभूतं त्रातृभिः आत्मारामैः साधुभिः सेवितं आचरितम्, कुशलचित्तत्त्वात्तेषामिति सूत्रार्थः ।। ६६ ।। खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवेरया संजमअजवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाईन ते करंति ।। सूत्रम् ६७॥ सओवसंता अममा अकिंचणा, सविजविज्ञाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमाणाई उति ताइणो। सूत्रम् ६८॥ ||३२२॥ For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३२३॥ षष्ठमध्ययन महाचारकथा, सूत्रम् ६७-६८ उपसंहारः। त्तिबेमि ॥ छटुं धम्मत्थकामायणं समत्तं ।।६।। उक्तः शोभावर्जनस्थानविधिः, तदभिधानादष्टादशं पदम, तदभिधानाच्चोत्तरगुणाः, साम्प्रतमुक्तफलप्रदर्शनेनोपसंहरन्नाहखवंति'त्ति सूत्रम्, क्षपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्तयोगेनानुपशान्तं शमयोजनेन जीवम्, किंविशिष्टा इत्याह- अमोहदर्शिनः । अमोहं ये पश्यन्ति, यथावत्पश्यन्तीत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते- तपसि- अनशनादिलक्षणे रताः- सक्ताः, किंविशिष्टे । तपसीत्याह-संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणौ यस्य तपसस्तस्मिन्, संयमऋजुभावप्रधाने, शुद्ध इत्यर्थः, त एवंभूता धुन्वन्ति । कम्पयन्त्यपनयन्ति पापानि पुराकृतानि जन्मान्तरोपात्तानि नवानि प्रत्यग्राणि पापानि न ते साधवः कुर्वन्ति, तथाऽप्रमत्तत्वादिति सूत्रार्थः ।। ६७।। किंच-'सदोवसंत'त्ति सूत्रम, सदोपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः, सर्वत्राममा-ममत्वशून्या: अकिश्चना हिरण्यादिमिथ्यात्वादिद्रव्यभावकिञ्चनविनिर्मुक्ताः स्वा- आत्मीया विद्या स्वविद्या- परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया स्वविद्यया विद्ययानुगता- युक्ताः, न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति, त एव विशेष्यन्ते- यशस्विनः शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः, त एवंभूता ऋतौ प्रसन्ने परिणते शरत्कालादौ विमल इव चन्द्रमाः चन्द्रमा इव विमलाः, इत्येवंकल्पास्ते भावमलरहिताः सिद्धिं निर्वृति तथा सावशेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीनि उपयान्ति सामीप्येन गच्छन्ति त्रातारः ।। स्वपरापेक्षया साधवः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः,साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववत् ।।६८॥ व्याख्यातं षष्ठमध्ययनम् ॥ ॥३२३|| ॥ सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ षष्ठमध्ययनं महाचारकथाख्यं समाप्तमिति ।। For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३२४ ।। www.kobatirth.org ॥ अथ सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्ध्याख्यम् ॥ साम्प्रतं वाक्यशुद्ध्याख्यमध्ययनं प्रारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने गोचरप्रविष्टेन सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य (आचार) इति, अपि त्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च- सा वज्रणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोतुंपि तस्स ण खमं किमंग पुण देसणं काउं? ॥ १ ॥ इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र वाक्यशुद्धिरिति द्विपदं नाम, तत्र वाक्यनिक्षेपाभिधानायाह नि०- निक्खेवो अ (उ) चउक्को वक्के दव्वं तु भासदव्वाई। भावे भासासहो तस्स य एगट्ठिआ इणमो ।। २६९ ।। निक्षेपस्तु चतुष्को नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणो वाक्ये वाक्यविषयः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यं तु द्रव्यवाक्यं पुनर्जशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं भाषाद्रव्याणि भाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि, भाव इति भाववाक्यं भाषाशब्दः भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकार्थिकानि अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानीति गाथार्थः ।। २६९ ।। नि०- वक्कं वयणं च गिरा सरस्सई भारही अ गो वाणी। भासा पन्नवणी देसणी अ वयजोग जोगे अ ।। २७० ।। वाक्यं वचनं च गीः सरस्वती भारती च गौर्वाक् भाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगो योगश्च, एतानि निगदसिद्धान्येवेति गाथार्थ: ।। २७० ।। पूर्वोद्दिष्टां द्रव्यादिभाषामाह © सावद्यानवद्ययोर्वचनयोर्यो न जानाति विशेषम् । वक्तुमपि न तस्य क्षमं किमङ्ग पुनर्देशनां कर्तुम् ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only |सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, निर्युक्तिः २६९ अभिसम्बन्धो वाक्यनिक्षेपक्ष | निर्युक्तिः २७० द्रव्यभाव भाषा। ।। ३२४ ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३२५॥ नि०-दव्वे तिविहा गहणे अनिसिरणे तह भवे पराघाए। भावे दव्वे असुए चरित्तमाराहणी चेव ।। २७१ ।। सप्तममध्ययनं द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभाषा त्रिविधा- ग्रहणे च निसर्गे तथा भवेत्पराघाते । तत्र ग्रहणं भाषाद्रव्याणां काययोगेन यत् सा वाक्यशुद्धिः, नियुक्ति: २७१ ग्रहणद्रव्यभाषा, निसर्गस्तेषामेव भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया, पराघातस्तु निसृष्टभाषाद्रव्यैस्तदन्येषां तथापरिणामा द्रव्यभावपादनक्रियावत्प्रेरणम्, एषा त्रिप्रकाराऽपि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यभाषेति । भाव इति द्वारपरामर्शः, भाषा। नियुक्ति: २७२ भावभाषा त्रिविधैव, द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति, द्रव्यभावभाषा श्रुतभावभाषा चारित्रभावभाषा च, तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तैर्या । सत्या भाषा। भाष्यते सा द्रव्यभावभाषा, एवं श्रुतादिष्वपि वाच्यम्, इयं त्रिप्रकारापि वक्त्रभिप्रायात्त व्यभावप्राधान्यापेक्षया भावभाषा, इयं चौघत एवाराधनी चैवेति, द्रव्याधाराधनात्, चशब्दाद्विराधना चोभयं चानुभयं च भवति, द्रव्याद्याराधनादिभ्य इति । आह- इह द्रव्यभाववाक्यस्वरूपमभिधातव्यम्, तस्य प्रस्तुतत्वात्, तत्किमनया भाषयेति, उच्यते, वाक्यपर्यायत्वाद्धाषाया न दोषः, तत्त्वतस्तस्यैवाभिधानादिति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थं तु वक्ष्यति ।। २७१।। तत्र द्रव्यभावभाषामधिकृत्याराधन्यादिभेदयोजनामाह नि०- आराहणी उदव्वे सच्चा मोसा विराहणी होइ। सच्चामोसा मीसा असञ्चमोसा य पडिसेहा ।। २७२ ।। आराध्यते-परलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु द्रव्य इति द्रव्यविषया भावभाषा सत्या, तुशब्दात् ।। द्रव्यतो विराधन्यपि काचित्सत्या, परपीडासंरक्षणफलभावाराधनादिति, मृषा विराधनी भवति, तव्यान्यथाभिधानेन । तद्विराधनादिति भावः, सत्यामृषा मिश्रा, मिश्रेत्याराधनी विराधनी च, असत्यामृषा च प्रतिषेध इति नाराधनी नापि विराधनी, तद्वाच्यद्रव्ये तथोभयाभावादिति, आसां च स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्टीभविष्यतीति गाथार्थः ।। २७२ ॥ तत्र सत्यामाह For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३२६।। मुषाभाषायाः। सत्यामृषाभाषायाः दशप्रकाराः। नि०- जणवयसम्मयठवणा नामे रूवे पडुच्च सच्चे आववहारभावजोगे दसमे ओवम्मसच्चे अ ।। २७३ ।। सप्तममध्ययनं सत्यं तावद्वाक्यं दशप्रकारं भवति, जनपदसत्यादिभेदात्, तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थ- वाक्यशुद्धिः, नियुक्ति: २७३ प्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति,यथोदकार्थे कोङ्कणकादिषु पयः पिच्चमुदकं नीरमित्याद्यदुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाव्यवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदिति, एवं शेषेष्वपि भावना कार्या। संमतसत्यं नाम- कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां नियुक्ति:२७४ समाने पङ्कसंभवे गोपादीनामपि संमतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । स्थापनासत्यं नाम अक्षरमुद्राविन्यासादिषु यथा माषकोऽयं । कार्षाषणोऽयंशतमिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्यं नाम कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते धनमवर्धयन्नपि धनवर्द्धन इत्युच्यते ।। अयक्षश्च यक्ष इति । रूपसत्यं नाम अतद्वणस्य तथारूपधारणं रूपसत्यम्, यथा प्रपश्चयतेः प्रव्रजितरूपधारणमिति । प्रतीत्यसत्य नाम यथा अनामिकाया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति, तथाहि- अस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणसंनिधानेन तत्तद्रूपमभिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसत्यं नाम दह्यते गिरिगलति भाजनमनुदरा कन्या अलोमा एडकेति गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते तथोदके च गलति सति तथा संभोगजबीजप्रभवोदराभावे च सति तथा लवनयोग्यलोमाभावे सति । भावसत्यं नाम शक्ला बलाका, सत्यपि पञ्चवर्णसंभवेशुक्लवर्णोत्कटत्वाच्छक्लेति । योगसत्यं नाम छत्रयोगाच्छत्री दण्डयोगादण्डीत्येवमादि। दशममौपम्यसत्यं च, तत्रौपम्यसत्यं नाम समुद्रवत्तडाग इति गाथार्थः ।। २७३ ।। उक्ता सत्या, अधुना मृषामाह नि०- कोहे माणे माया लोभे पेजे तहेव दोसे अ । हासभए अक्खाइय उवघाए निस्सिआ दसमा ।। २७४।। क्रोध इति क्रोधनिसृता यथा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमाह-नत्वं मम पुत्रः, यद्वा क्रोधाभिभूतो वक्ति तदाशयविपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति, एवं माननिसृता मानाध्मातः क्वचित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आह-महाधनोऽहमिति, मायानिसृता मायाकार ॥३२६॥ For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३२७॥ सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, नियुक्ति:२७५ मषाभाषायाः। सत्यामुषा भाषायाः दशप्रकाराः। प्रभृतय आहुः-नष्टो गोलक इति, लोभनिसृता वणिक्प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थमिदं क्रीतमित्यादि, प्रेमनिसृता अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, द्वेषनिसृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि, हास्यनिसृता कान्दर्पिकानां किंचित्कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्ठानां न दृष्टमित्यादि, भयनिसृता तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, आख्यायिकानिसृता तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः, उपघातनिसृता अचौरे चौर इत्यभ्याख्यानवचनमिति गाथार्थः ।। २७४ ।। उक्ता मृषा, साम्प्रतं सत्यामृषामाह नि०-उप्पन्नविगयमीसग जीवमजीवे अजीवअजीवे। तहऽणंतमीसगा खलु परित्त अद्धा अ अद्धद्धा ।। २७५ ।। उत्पन्नविगतमिश्रके ति उत्पन्नविषया सत्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषात्वात्, श्वस्ते शतं दास्यामि इत्यभिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव (च) मृषात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाभावेन सर्वथा व्यत्ययादित्येवं विगतादिष्वपि भावनीयमिति, तथा च विगतविषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे, एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्नविगतोभयसत्यामृषा, यथैकं पत्तनमधिकृत्याहास्मिन्नद्य दश दारका जाता दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे, जीवमिश्रा-जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशौ जीवराशिरिति, अजीवमिश्रा च अजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति, जीवाजीवमिश्रेति- जीवाजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव । जीवन्मृतकृमिराशौ प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे। तथानन्तमिश्रा खल्वि ति। अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः, परीतमिश्रा- परीतविषया सत्यामृषा यथा अनन्तकायलेशवति परीतम्लानमूलादौ परीतोऽयमित्यभिदधतः। अद्धामिश्रा- कालविषया सत्यामृषा यथा कश्चित् ॥३२७॥ For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृनियुतम् ।। ३२८॥ नियुक्तिः २७६-२७७ असत्यामृषाभाषा। कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति, अद्धद्धमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अद्धद्धोच्यते, तद्विषया सत्यामृषा यथा कस्मिंश्चित् प्रयोजने त्वरयन् प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह । एवं मिश्रशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यत इति गाथार्थः ।। २७५ ।। उक्ता सत्यामृषा, साम्प्रतमसत्यामृषामाह नि०- आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा अ॥२७६ ।। ___ आमन्त्रणी यथा हे देवदत्त इत्यादि, एषा किलाप्रवर्तकत्वात्सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्याअमृषेति, एवमाज्ञापनी यथेदं कुरु, इयमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अदुष्टविवक्षाप्रसूतत्वादसत्यामृषेति, एवं स्वबुद्ध्याऽन्यत्रापि भावना कार्येति । याचनी यथा भिक्षां प्रयच्छेति, तथा प्रच्छनी यथा कथमेतदिति, प्रज्ञापनी यथा हिंसाप्रवृत्तो दुःखितादिर्भवति, प्रत्याख्यानी भाषा यथाऽदित्सेति भाषा, इच्छानुलोमा च यथा केनचित्कश्चिदुक्तः साधुसकाशं गच्छाम इति, स आह-शोभनमिदमिति गाथार्थः ।। २७६ ।। नि०- अणभिग्गहिआ भासा भासा अ अभिग्गहमि बोद्धव्वा । संसयकरणी भासा वायड अवायडा चेव ।।२७७॥ अनभिगृहीता भाषा अर्थमनभिगृह्य योच्यते डित्थादिवत्, भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या- अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, तथा संशयकरणी च भाषा- अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत्, व्याकृता- स्पष्टा प्रकटार्था देवदत्तस्यैष भ्रातेत्यादिवत्, अव्याकृताचैव-अस्पष्टाऽप्रकटार्था बालकादीनां थपनिकेत्यादिवदिति गाथार्थः ॥ २७७ ।। उक्ता असत्यामषा, साम्प्रतमोघत एवास्याः प्रविभागमाह ॥ ३२८॥ For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३२९ ।। www.kobatirth.org नि० सव्वावि असा दुविहा पचत्ता खलु तहा अपजत्ता । पढमा दो पजत्ता उवरिल्ला दो अपजत्ता ।। २७८ ।। सर्वाऽपि च सा सत्यादिभेदभिन्ना भाषा द्विविधा पर्याप्ता खलु तथाऽपर्याप्ता, पर्याप्ता या एकपक्षे निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी, तद्विपरीता पुनरपर्याप्ता, अत एवाह-प्रथमे द्वे भाषे सत्यामृषे पर्याप्ते, तथास्वविषयव्यवहारसाधनात्, तथा उपरितने द्वे सत्यामृषाऽसत्यामृषाभाषे अपर्याप्ते, तथास्वविषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः ।। २७८ ।। उक्ता द्रव्यभावभाषा, साम्प्रतं श्रुतभावभाषामाह नि०- सुअधम्मे पुण तिविहा सच्चा मोसा असच्चमोसा अ । सम्मद्दिट्ठी उ सुओवउत्तु सो भासई सच्चं ।। २७९ ।। श्रुतधर्म इति श्रुतधर्मविषया पुनस्त्रिविधा भवति भावभाषा, तद्यथा सत्या मृषा असत्यामृषा चेति, तत्र सम्यग्दृष्टिस्तु सम्यग्दृष्टिरेव श्रुतोपयुक्त इत्यागमे यथावदुपयुक्तो यः स भाषते सत्यं आगमानुसारेण वक्तीति गाथार्थः ।। २७९ ।। नि० सम्मद्दिट्ठी उ सुअंमि अणुवउत्तो अहेउगं चेव । जं भासइ सा मोसा मिच्छादिट्ठीवि अ तहेव ।। २८० ।। सम्मद्दिट्ठी सम्यग्दृष्टिरेव सामान्येन श्रुते आगमे अनुपयुक्तः प्रमादाद्यत्किंचिद् अहेतुकं चैव युक्तिविकलं चैव यद्भाषते तन्तुभ्यः पट एव भवतीत्येवमादि सा मृषा, विज्ञानादेरपि तत एव भावादिति । मिथ्यादृष्टिरपि तथैवे त्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद्भाषते सा मृषैव, घुणाक्षरन्याय (यात्) संवादेऽपि सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवदिति गाथार्थः ।। २८० ॥ नि०- हवइ उ असच्चमोसा सुअंमि उवरिल्लए तिनाणंमि। जं उवउत्तो भासइ एतो वोच्छं चरितंमि ।। २८१ ।। भवति तु असत्यामृषा श्रुते आगम एव परावर्तनादि कुर्वतस्तस्यामन्त्रण्यादिभाषारूपत्वात्तथा उपरितने अवधिमनः पर्यायकेवललक्षणे त्रिज्ञान इति ज्ञानत्रये यदुपयुक्तो भाषते सा असत्यामृषा, आमन्त्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेः, इत्युक्ता For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, निर्युक्तिः २७८ असत्या मृषाभाषा । निर्युक्तिः | २७९-२८० | श्रुतभावभाषा। निर्युक्तिः २८१ शुद्धिनिक्षेपाः। ।। ३२९ ।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || ३३०॥ श्रुतभावभाषा । अत ऊर्दू वक्ष्ये चारित्र इति चारित्रविषयां भावभाषामिति गाथार्थः ।। २८१ ।। समममध्ययन नि०-पढमबिइआ चरित्ते भासा दो चेव होंति नायव्वा । सचरित्तस्स उभासा सच्चा मोसा उइअरस्स ।। २८२ ॥ वाक्यशुद्धिः, नियुक्तिः . प्रथमद्वितीये सत्यामृषे चारित्र इति चारित्रविषये भाषे द्वे एव भवतो ज्ञातव्ये, स्वरूपमाह- सचरित्रस्य चारित्रपरिणामवतः, २८२-२८५ तुशब्दात्तद्वृद्धिनिबन्धनभूता च भाषा द्रव्यतस्तथाऽन्यथाभावेऽपि सत्या, सतां हितत्वादिति । मृषा तु इतरस्य' अचारित्रस्य । निक्षेपाः। तद्बुद्धिनिबन्धनभूता चेति गाथार्थः ।। २८२ ।। उक्तं वाक्यमधुना शुद्धिमाह नि०-णामंठवणासुद्धी दव्यसुद्धी अभावसुद्धी अ। एएसिं पत्तेअंपरूवणा होइ कायव्वा ।। २८३ ।।। नामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिर्द्रव्यशुद्धिश्च भावशुद्धिश्च, एतेषां नामशुद्ध्यादीनां प्रत्येकं प्ररूपणा भवति कर्तव्येति गाथार्थः ।। २८३ ।। तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनङ्गीकृत्य द्रव्यशुद्धिमाह नि०-तिविहा उ दव्वसुद्धी तद्दव्वादेसओ पहाणे अ । तहव्वगमाएसो अणण्णमीसा हवइ सुद्धी ।। २८४ ।। त्रिविधा तु द्रव्यशुद्धिर्भवति तद्दव्यत इति तद्व्यशुद्धिः आदेशत इति आदेशद्रव्यशुद्धिः प्राधान्यतचे ति प्राधान्यद्रव्यशुद्धिश्च । तत्र तद्रव्यशुद्धिः अनन्ये त्यनन्यद्रव्यशुद्धिः, यमुव्यमन्येन द्रव्येण सहासंयुक्तं सच्छुद्धं भवति क्षीरं दधि वा असौ तव्यशुद्धिः, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिरन्यानन्यविषया, एतदुक्तं भवति-आदेशतो द्रव्यशुद्धिर्द्विविधा- अन्यत्वेनानन्यत्वेन च, अन्यत्वे यथा शुद्धवासा देवदत्तः, अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः ॥२८४ ।। प्राधान्यद्रव्यशुद्धिमाह नि०-वण्णरसगंधफासे समणुण्णा सा पहाणओसुद्धी। तत्थ उसुकिल महरा उसंमया चेव उनोसा ।। २८५।। वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता-सामान्येन कमनीयता अथवामनोज्ञता- यथाभिप्रायमनुकूलता साप्राधान्यतः शुद्धिरुच्यते, || ३३० ।। For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६-२८७ निक्षेपाः। श्रीदश- तत्र चैवंभूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्लमधुरौ वर्णरसौ तुशब्दात्सुरभिमृदू गन्धस्पशी च संमतौ, यथाभिप्रायमपि प्रायो मनोज्ञौ, सप्तममध्ययन वैकालिक बहूनामित्थंप्रवृत्तिसिद्धेः, उत्कृष्टौ च कमनीयौ च । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ।। २८५ ।। उक्ता द्रव्यशुद्धिः, वाक्यशुद्धिः, श्रीहारि० नियुक्तिः वृनियुतम् अधुना भावशुद्धिमाह।। ३३१॥ नि०- एमेव भावसुद्धी तब्भावाएसओ पहाणे अ। तब्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवइ सुद्धी।। २८६ ।। शुद्धिएवमेवे ति यथा द्रव्यशुद्धिस्तथा भावशुद्धिरपि, त्रिविधेत्यर्थः, तद्भाव इति तद्भावशुद्धिः आदेशत इति आदेशभावशुद्धिः प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यभावशुद्धिश्च, तत्र तद्भावशुद्धिः अनन्ये त्यनन्यभावशुद्धिस्तद्भावशुद्धिः, यो भावोऽन्येन भावेन सहासंयुक्तः । सन् शुद्धो भवति बुभुक्षितादेरन्नाद्यभिलाषवदसौ तद्भावशुद्धिः, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिस्तदन्यानन्यविषयेत्यर्थः, एतदुक्तं भवति- आदेशभावशुद्धिर्द्विविधा- अन्यत्वेऽनन्यत्वे च, अन्यत्वे यथा शुद्धभावस्य साधोर्गुरुः अनन्यत्वे शुद्धभाव इति । गाथार्थः ।। २८६॥ प्रधानभावशुद्धिमाह नि०-दसणनाणचरित्ते तवोविसुद्धी पहाणमाएसो। जम्हा उ विसुद्धमलो तेण विसुद्धो हवड़ सुद्धो॥२८७ ।। दर्शनज्ञानचारित्रेषु दर्शनज्ञानचारित्रविषया तथा तपोविशुद्धिः प्राधान्यादेश इति यद्दर्शनादीनामादिश्यमानानां प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः, यथा दर्शनादिषु क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तपःप्रधानभावशुद्धिः- आन्तरतपोऽनुष्ठानाराधनमिति । कथं पुनरियं प्रधानभावशुद्धिरिति?, उच्यते, एभिर्दर्शनादिभिः शुद्धेर्यस्माद्विशुद्धमलो भवति साधुः, कर्ममलरहित इत्यर्थः, तेन च मलेन विशुद्धो मुक्तो भवति सिद्ध इत्यतः प्रधानभावशुद्धिर्यथोक्तान्येव दर्शनादीनीति गाथार्थः ।। २८७ ।। उक्ता शुद्धिः, इह च भावशुद्ध्याऽधिकारः, सा च वाक्यशुद्धेर्भवतीत्याह For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३३२॥ वाक्य नि०-जं वक्तं वयमाणस्स संजमो सुज्झई न पुण हिंसा। न य अत्तकलुसभावो तेण इहं वक्तसुद्धित्ति ।। २८८ ।। सप्तममध्ययन यद् यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुद्ध्यति, शुद्ध्यतीति निर्मल उपजायते, न पुनहिँसा भवति कौशिकादेरिव, न वाक्यशुद्धिः, नियुक्ति: २८८ चात्मनः कलुषभावः कालुष्यं- दुष्टाभिसन्धिरूपं संजायते, तेन कारणेन इह प्रवचने वाक्यशुद्धिर्भावशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र शुद्धिप्रयतितव्यमिति गाथार्थः ।। २८८ ।। ततश्चैतदेव कर्तव्यमित्याह निक्षेपाः। नियुक्तिः नि०-वयणविभत्तीकुसलस्स संजमंमी समुजुयमइस्स । दुब्भासिएण हुन्जा हु विराहणा तत्थ जइअव्वं ।। २८९।।। २८१-२९१ वचनविभक्तिकुशलस्य वाच्येतरवचनप्रकाराभिज्ञस्य न केवलमित्थंभूतस्यापि तु संयमे उ(समु)द्यतमतेः अहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः तस्याप्येवंभूतस्य कथंचिदुर्भाषितेन कृतेन भवेत् विराधना- परलोकपीडा अतः तत्र दुर्भाषितवाक्यपरिज्ञाने यतितव्यं । परिज्ञानहेतुः। नियुक्ति: २९२ प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः ॥ २८९ ।। आह- यद्येवमलमनेनैव प्रयासेन, मौनं श्रेय इति, न, अज्ञस्य तत्रापि दोषाद्, आह च- वचनविधिः। नि०- वयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अयाणंतो। जइविन भासइ किंची न चेव वयगुत्तयं पत्तो ।। २९० ।। वचनविभक्त्यकुशलोवाच्येतरप्रकारानभिज्ञः वाग्गतं बहुविधं उत्सर्गादिभेदभिन्नमजानानः यद्यपिन भाषते किश्चित् मौनेनैवास्ते, न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः, तथाप्यसौ अवाग्गुप्त एवेति गाथार्थः ।। २९० ।। व्यतिरेकमाह नि०- वयणविभत्तीकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो। दिवसंपि भासमाणो तहावि वयगुत्तयं पत्तो ।। २९१।। वचनविभक्तिकुशलो वाच्येतरप्रकाराभिज्ञः वागतं बहुविधमुत्सर्गादिभेदभिन्नं विजानन् दिवसमपि भाषमाणः सिद्धान्तविधिना तथापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः, वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः ।। २९१ ॥ साम्प्रतं वचनविभक्तिकुशलस्यौघतो वचनविधिमाह नि०- पुव्वं बुद्धीइ पेहित्ता, पच्छा वयमुयाहरे। अचक्खुओ व नेतारं, बुद्धिमन्नेउ ते गिरा ।। २९२ ।। For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, नियुक्ति: २९२ वचनविधिः। सूत्रम् १-४ वाच्या वाच्यभाषा। पूर्वं प्रथममेव वचनोच्चारणकाले बुद्ध्या प्रेक्ष्य वाच्यं दृष्ट्वा पश्चाद्वाक्यमुदाहरेत्, अर्थापत्त्या कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः, दृष्टान्तमाह- अचक्षुष्मानिव अन्ध इव नेतारं आकर्षकं बुद्धिमन्वेतु ते गी: बुद्ध्यनुसारेण वाक्प्रवर्ततामिति श्लोकार्थः ।। २९२ ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्च: पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं । सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज सव्वसो।। सूत्रम् १।। जा असच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा अजा मुसा । जा अबुद्धेहिं नाइन्ना, न तं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् २।। असञ्चमोसं सचंच, अणवजमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिन पन्नवं ।। सूत्रम् ३॥ एअंच अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमोसंपि, तंपि धीरो विवजए।। सूत्रम् ४ ॥ चतसृणां खलु भाषाणाम्, खलुशब्दोऽवधारणे, चतसृणामेव, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति, भाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैत्विा, स्वरूपमिति वाक्यशेषः प्रज्ञावान् प्राज्ञो बुद्धिमान् साधुः, किमित्याह- द्वाभ्यां सत्यासत्यामृषाभ्यां तुरवधारणे द्वाभ्यामेवाभ्यां विनयं शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेतिकृत्वा शिक्षेत जानीयात्, द्वे असत्यासत्यामृषे न भाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः ॥१॥ विनयमेवाह-जा अ सच्च'त्ति सूत्रम्, या च सत्या पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्य अवक्तव्या अनुच्चारणीया सावद्यत्वेन, अमुत्र स्थिता पल्लीति कौशिकभाषावत्, सत्यामृषा वा यथा दश दारका जाता इत्यादिलक्षणा, मृषा च संपूर्णेव, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, या च बुद्धैः तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा अविधिपूर्वकं स्वरादिना प्रकारेण, नैना भाषेत नेत्थंभूतां वाचं समुदाहरेत् प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २॥ यथाभूताऽवाच्या 13331 For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३३४ ।। www.kobatirth.org भाषा तथाभूतोक्ता, साम्प्रतं यथाभूता वाच्या तथाभूतामाह- 'असच्चमोस' ति सूत्रम्, असत्यामृषां उक्तलक्षणां सत्यां च उक्तलक्षणामेव, इयं च सावद्यापि कर्कशापि भवत्यत आह- असावद्यां अपापां अकर्कशां अतिशयोक्त्या ह्यमत्सरपूर्वी संप्रेक्ष्य स्वपरोपकारिणीति बुद्ध्याऽऽलोच्य असंदिग्धां स्पष्टामक्षेपेण प्रतिपत्तिहेतुं गिरं वाचं भाषेत ब्रूयात् प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ।। ३ । साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह- 'एअं च'त्ति सूत्रम्, एतं चार्थं अनन्तरप्रतिषिद्धं सावद्यकर्कशविषयं अन्यं वा एवंजातीयम्, प्राकृतशैल्या यस्तु नामयति शाश्वतं य एव कश्चिदर्थो नामयति- अननुगुणं करोति शाश्वतं मोक्षं तमाश्रित्य ससाधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम्, अपिशब्दात्सत्यापि या तथाभूता तामपि धीरो बुद्धिमान् विवर्जयेत् न ब्रूयादिति भावः । आह- सत्यामृषाभाषाया ओघत एव प्रतिषेधात्तथाविधसत्यायाश्च सावद्यत्वेन गतार्थं सूत्रमिति, उच्यते, मोक्षपीडाकरं सूक्ष्ममप्यर्थमङ्गीकृत्यान्यतरभाषाभाषणमपि न कर्तव्यमित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतददुष्टमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ वितहपि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए ? ।। सूत्रम् ५ ।। तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ । अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ । सूत्रम् ६ ।। एवमाइ उ जा भासा, एसकालंमि संकिआ संपयाइ अमठ्ठे वा, तंपि धीरो विवज्जए । सूत्रम् ७ ॥ साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाह- 'वितहंपि' त्ति सूत्रम्, वितथं अतथ्यं तथामूर्त्यपि कथंचित्तत्स्वरूपमपि वस्तु, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, एतदुक्तं भवति- पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गाय वेत्यादिरूपाम्, तस्माद् भाषणादेवंभूतात्पूर्वमेवासौ वक्ता भाषणाभिसन्धिकाले स्पृष्टः पापेन बद्धः कर्मणा, किं पुनर्यो मृषा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, सूत्रम ५-७ वितथादि भाषा विवर्जनम्। ।। ३३४ ।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३३५॥ विवर्जनम्। वक्ति भूतोपघातिनीं वाचं?, स सुतरां बद्ध्यत इति सूत्रार्थः॥ ५॥ 'तम्ह'त्ति सूत्रम्, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बद्ध्यते तस्माद्गमिष्याम एव श्व इतोऽन्यत्र, वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदौषधनिमित्तमिति, अमुकं वा नः कार्यं वसत्यादि। वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् ८-१० भविष्यत्येव, अहं चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन, एष वासाधुरस्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः ॥६॥ एवमाई'त्ति शतिभाषा सूत्रम्, एवमाद्या तु या भाषा, आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः, एष्यत्काले भविष्यत्कालविषया, बहुविघ्नत्वात् मुहूर्तादीनां शङ्किता किमिदमित्थमेव भविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा, तथा साम्प्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता, साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्स्त्र्याद्यनिश्चये तदाऽत्र गौरस्माभिदृष्ट इति।। याप्येवंभूता भाषाशङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत्, तत्तथाभावनिश्चयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तेः, विघ्नतोऽगमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसङ्गात्, सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति सूत्रार्थः ।। ७।। किंच अईअंमि अकालंमि, पञ्चुप्पण्णमणागए। जमझे तु न जाणिज्जा, एवमेअंति नो वए ।। सूत्रम् ८।। अईअंमि अकालंमि, पञ्चुप्पण्णमणागए। जत्थ संका भवे तंतु, एवमेअंति नो वए।। सूत्रम् ॥ अईयंमि अकालंमि, पचप्पण्णमणागए। निस्संकिअंभवे जंतु, एवमेअंतु निहिसे ।। सूत्रम् १०॥ 'अईयंमि'त्ति सूत्रम्, अतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च यमर्थं तु न जानीयात् सम्यगेवमयमिति, तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः, अयमज्ञातभाषणप्रतिषेधः ।।८।। तथा-'अईयम्मिति सूत्रम्, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽ-- नागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्यर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः, अयमपि विशेषतः शतिभाषणप्रतिषेधः ।। ९॥ तथा-'अईयमि'त्ति सूत्रम्, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं भवेत्, यदर्थजातं तुशब्दादनवद्यम्, तदेवमेतदिति । राजपात ३३५।। For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि वृत्तियुतम सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् १९-२० पुरुषादिमाश्रित्यानपनप्रतिषेधः। 13३६ निर्दिशेत, अन्ये पठन्ति-'स्तोकस्तोक'मिति, तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ।। सूत्रम् ११।। तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिवावि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ।। सूत्रम् १२ ॥ एएणऽन्नेण अद्वेणं, परो जेणुवहम्मड़। आयारभावदोसन्न, न तं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् १३ ।। तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति आदमए दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पनवं ।। सूत्रम् १४ ।। अजिए पजिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति अ। पिउस्सिए भायणिजत्ति, धूए णत्तुणिअत्ति अ।। सूत्रम् १५ ।। हले हलित्ति अन्नित्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि। होले गोले वसुलित्ति, इत्थिनेवमालवे ।। सूत्रम् १६ ।। नामधिशेण णं बूआ, इत्थीगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ।। सूत्रम् १७ ।। अज्जए पजए वावि, बप्पो चल्लपिउत्ति अ । माउलो भाइणिज त्ति, पुत्ते णत्तुणिअत्ति अ।। सूत्रम् १८॥ हे भो हलित्ति अन्नित्ति, भट्टे सामिअगोमि। होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेवमालवे। सूत्रम् १९।। नामधिशेण णं बूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ।। सूत्रम् २० ।। 'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव परुषा भाषा निष्ठुरा भावस्नेहरहिता गुरुभूतोपघातिनी महाभूतोपघातवती, यथा कश्चित्कस्यचित् । कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यभिदधतः, सर्वथा सत्यापि सा बाह्यार्था तथाभावमङ्गीकृत्य न वक्तव्या, यतो यस्या । भाषायाः सकाशात् पापस्यागमः अकुशलबन्धो भवतीति सूत्रार्थः ।। ११॥ 'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवेति पूर्ववत्, काणं ति भिन्नाक्षं काण इति, तथा पण्डकं नपुंसकं पण्डक इति वा, व्याधिमन्तं वापि रोगीति, स्तेनं चौर इति नो वदेत, अप्रीतिलज्जा For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalinth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदश श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३३०॥ चित्यानपनप्रतिषेधः। नाशस्थिररोगबुद्धिविराधनादिदोषप्रसङ्गादिति गाथार्थः ।।१२।। एएण'त्ति सूत्रम्, एतेनान्येन वाऽर्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते, सप्तममध्ययनं येन केनचित्प्रकारेण । आचारभावदोषज्ञो यतिर्न तंभाषेत प्रज्ञावांस्तमर्थमिति सूत्रार्थः ॥१३॥ तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवेति पूर्ववत्, वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् ११-२० होलो गोल इति श्वा वा वसुल इति वा द्रमको वा दुर्भगश्चापि नैवं भाषेत प्रज्ञावान् । इह होलादिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो। पुरुषादिमानष्ठुर्यादिवाचकाः अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥१४॥एवं स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृत्वाऽधुना स्त्रियमधिकृत्याह- 'अज्जिए'त्ति सूत्रम्, आर्जिके प्रार्जिके वापि अम्ब मातृष्वस इति च पितृष्वसः भागिनेयीति दुहितः नप्त्रीति च ।। एतान्यामन्त्रणवचनानि वर्तन्ते, तत्र मातुः पितुर्वा माताऽऽर्यिका, तस्या अपि याऽन्या माता सा प्रार्यिका, शेषाभिधानानि । प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः ।।१५।। किंच-हले हले त्ति सूत्रम्, हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा भट्ट स्वामिनि गोमिनि । तथा होले गोले वसुले इति, एतान्यपि नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, यतश्चैवमत: स्त्रियं नैवं हलादिशब्दैरालपेदिति, दोषाश्चवमालपनं कर्वतःसङ्गएतत्प्रद्वेषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः ।। १६ ।। यदि नैवमालपेत् कथं तालपेदित्याह- 'नामधिज्जेणं ति सूत्रम्, नामधेयेने ति नाम्नैव एनां ब्रूयात्स्त्रियं क्वचित्कारणे यथा देवदत्ते! इत्येवमादि। नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुनर्ब्रयात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे! इत्येवमादि, यथार्ह यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया अभिगृह्य गुणदोषानालोच्य आलपेल्लपेद्वा ईषत्सकृद्वा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनम्, तत्र वयोवृद्वा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते ।। धर्मशीले इत्यादिना, अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च, साम्प्रतं पुरुषमाश्रित्याह-'अजए'त्ति सूत्रम्, आर्यकः प्रार्यकश्चापि बप्पश्चुल्लपितेति च, तथा मातुल भागिनेयेति पुत्र नप्त इति च, इह भावार्थ: स्त्रियामिव द्रष्टव्यः, नवरं चुल्लबप्पः पितृव्योऽभिधीयत इति सूत्रार्थः ।। १८॥ किंच-'हे भो'त्ति सूत्रम्, हे भो || ३३७॥ BURB00000 For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes Kailassagarsun Gyarmandir श्रीदश श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३३८॥ समममध्ययन वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् २१-२५ पद्यन्द्रियतिग्विषये वाग्विधिः। हलेति । अन्नेत्ति भर्त! स्वामिन् गोमिन् होल गोल वसुल इति पुरुषं नैवमालपेदिति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥ १९।। यदि नैवमालपेत्, कथं तालपेदित्याह-'नामधिजेण'त्ति सूत्रम्, व्याख्या पूर्ववदेव, नवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति ॥२०॥ पंचिंदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं । जावणं न विजाणिजा, ताव जाइत्ति आलवे ।। सूत्रम् २१ ॥ तहेव माणुसं पसुं, पक्खि वावि सरीसर्व । थूले पमेइले वज्झे, पायमित्ति अनो वए ।। सूत्रम् २२ ।। परिवूढत्ति णं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ । संजाए पीणिए वावि, महाकायत्ति आलवे ।। सूत्रम् २३ ।। तहेव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरहगत्ति अ । वाहिमा रहजोगित्ति, नेवं भासिन्न पन्नवं ।। सूत्रम् २४ ।। जुवं गवित्तिणंबूआ, घेणुं रसदयत्ति अ। रहस्से महल्लए वावि, वए संवहणित्ति अ।। सूत्रम् २५ ।। उक्त: पुरुषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्व, अधुना पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह-'पंचिंदिआण'त्ति सूत्रम्, पञ्चेन्द्रियाणांगवादीनां प्राणिनां 'क्वचिद्' विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्रीगौरयं पुमान् बलीवर्दः, यावदेतद्विशेषेण न विजानीयात् । तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजने उत्पन्ने सति जाति मिति जातिमाश्रित्यालपेत, अस्मानोरूपजातात्कियहरेणेत्येवमादि, अन्यथा । लिङ्गव्यत्ययसंभवान्मषावादापत्तिः, गोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः, आक्षेपपरिहारौ तु वृद्धविवरणादवसेयौ, तच्चेदं- जड़ लिंगवच्चए दोसो ता कीस पुढवादि नपुंसगत्तेवि पुरिसिस्थिनिहेसो पयट्टइ, जहा पत्थरो मट्टिआ करओ उस्सा मुम्मोजाला वाओवाउली अंबओ अंबिलिआ किमिओ जल्या मक्कोडओ कीडिआ भमरओमच्छिया इच्चेवमादि? यदि लिङ्गव्यत्यये दोषः तदा कथं पृथ्व्यादीनां नपुंसकत्वेऽपि स्त्रीपुंसत्वेन निर्देशः प्रवर्तते, यथा प्रस्तरो मृत्तिका कारकोऽवश्यायो मुर्मुरो ज्वाला बातो वातूली । (वात्या) आम्र अम्लिका कृमिः जलौकाः मत्कोटकः कीटिका भ्रमरो मक्षिका इत्येवमादि?, For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् || ३३९॥ आयरिओ आह-जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयट्टइत्ति ण एत्थ दोसो, पंचिंदिएसुपुण ण एयमंगीकीरड़, गोवालादीण- सप्तममध्ययन विण सुदिट्ठधम्मत्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छि असामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति इति सूत्रार्थः।।२१।।किंच-'तहेव वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् २१-२५ त्ति सूत्रम्, तथैव यथोक्तं प्राक् मनुष्यं आर्यादिकं पशुं अजादिकं पक्षिणं वापि हंसादिकं सरीसृपं अजगरादिकं स्थूल: पद्धेन्द्रियअत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिस्तथा प्रमेदुरः प्रकर्षण मेदःसंपन्नः तथा वध्यो व्यापादनीयः पाक्य इति च नो वदेत्, ‘पाक्यः तिर्यग्विषये बाविधिः। पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये, 'नो वदेत्' न ब्रूयात् तदप्रीतितदव्यापत्त्याशङ्कादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥२२॥ कारणे सूत्रम् २६ पुनरुत्पन्न एवं वदेदित्याह- ‘परिवूढ'त्ति सूत्रम्, परिवृद्ध इत्येनं- स्थूलं मनुष्यादि ब्रूयात, तथा ब्रूयादुपचित इति च, संजातः ।। उद्यानाद्यप्रीणितश्चापि महाकाय इति चालपेत् परिवृद्धम्, पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्रार्थः ।। २३॥ किं च- 'तहेव'त्ति सूत्रम्, धिकृत्य वाग्विधिः। तथैव गावो दोह्या दोहार्हा दोहसमय आसां वर्तत इत्यर्थः, दम्या दमनीया गोरथका इति च, गोरथकाः कल्होडास्तथा वाह्याः ।। सामान्येन ये क्वचित्तानाश्रित्य रथयोग्याश्चैत इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, अधिकरणलाघवादिदोषादिति सूत्रार्थः॥ २४॥ प्रयोजने तु क्वचिदेवं भाषेतेत्याह- जुवं ति सूत्रम्, युवा गौरिति- दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात्, धेनुं गां रसदेति ब्रूयात्, रसदा गौरिति, तथा हूस्वं महल्लकं वापि गोरथकं हूस्वं वाहां महल्लकं वदेत, संवहनमिति रथयोग्यं संवहनं वदेत्, क्वचिद्दिगुपलक्षणादौ । प्रयोजन इति सूत्रार्थः ।। २५॥ तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणिवणाणि अ।रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् २६ ।। - आचार्य आह- जनपदसत्येन व्यवहारसत्येन चैव प्रवर्तते इति नात्र दोषः, पञ्चेन्द्रियेषु पुनर्नेतदङ्गीक्रियते, गोपालादीनामपि न सुदृष्टधर्माण इति विपरिणामसंभवात्, पृष्टसामाचारीकथने वा गुणसंभवात् । ||३३९।। For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३४० ।। www.kobatirth.org अलं पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ। फलिहऽग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥ सूत्रम् २७ ॥ पीढए चंगबेरे (रा) अ, नंगले मइयं सिआ जंतलठ्ठी व नाभी वा, गंडिआ व अलं सिआ ।। सूत्रम् २८|| आसणं सवणं जाणं, हुजा वा किंचुवस्सए। भूओवघाइणि भासं नेवं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् २९ ।। तहेव गंतुमुखाणं, पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् ३० ।। जाड़मंता इमे रुक्खा, दीहवट्टा महालया पयायसाला विडिमा, वए दरिसणित्ति अ । सूत्रम् ३१ ।। तहा फलाई पक्काई, पायखज्राइं नो वए। वेलोइयाई टालाई, वेहिमाइ त्ति नो वए। सूत्रम् ३२ ॥ असंथडा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमाफला। वइज बहुसंभूआ, भूअरूवत्ति वा पुणो ।। सूत्रम् ३३ ।। तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीड़ अ । लाइमा भजिमाउत्ति, पिहुखख त्ति नो वए । सूत्रम् ३४ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढावि अ। गब्भिआओ पसूआओ, संसाराउत्ति आलवे ।। सूत्रम् ३५ ।। 'तहेव 'त्ति सूत्रम्, 'तथैवे 'ति पूर्ववत्, गत्वा उद्यानं जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा तथा वनानि च तत्र वृक्षान् महतो महाप्रमाणान् प्रेक्ष्य दृष्ट्वा नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ किमित्याह-'अलं'ति सूत्रम्, अलं पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्भयोः, अत्रैकस्तम्भः प्रासादः, स्तम्भस्तु स्तम्भ एव, तैयोरलम्, तथा तोरणानां नगरतोरणादीनां गृहाणांच कुटीरकादीनाम्, अलमिति योगः, तथा परिघार्गला नावां वा तत्र नगरद्वारे परिघः गोपुरकपाटादिष्वर्गला नौः प्रतीतेति आसामलमेते वृक्षाः, तथा उदकद्रोणीनां अलम्, उदकद्रोण्योऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ तथा पीढए त्ति सूत्रम्, © 'अलं निवारणे । अलङ्करणसामर्थ्यपर्याप्तिष्ववधारणे' इत्युक्तेः अलमिति पर्याप्त्यर्थग्रहणमित्युक्तेश्चात्र सामर्थ्यार्थग्रहणान्न चतुर्थी । For Private and Personal Use Only सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् २६-३५ उद्यानाद्यधिकृत्य वाग्विधिः । ।। ३४० ।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||३४१॥ सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् २६-34 उद्यानाद्य धिकृत्यवाग्विधिः। । पीठकायालमेते वृक्षाः, पीठकं प्रतीतं तदर्थम्, 'सुपां सुपो भवन्ती'ति चतुर्थ्यर्थे प्रथमा, एवं सर्वत्र योजनीयम्, तथा चंगबेरा ये ति चङ्गबेरा- काष्ठपात्री तथा नंगले त्ति लागलं- हलम्, तथा अलं मयिकाय स्यात्, मयिकं- उप्तबीजाच्छादनम्, तथा यन्त्रयष्टये वा, यन्त्रयष्टिः प्रतीता, तथा नाभये वा, नाभिः शकटरथाङ्गम्, गण्डिकायै वाऽलं स्युरेते वृक्षा इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते, गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) स्थापनी भवतीति सूत्रार्थः ।। २८ ।। तथा आसणं ति सूत्रम्, आसनं आसन्दकादि शयनं पर्यङ्कादि यानं युग्यादि भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये- वसतावन्यद्- द्वारपात्राद्येतेषु वृक्षेष्विति भूतोपघातिनी सत्त्वपीडाकारिणी भाषां नैव भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ।। दोषाश्चात्र तदनस्वामी व्यन्तरादिः कुप्येत्, सलक्षणो वा वृक्ष इत्यभिगृह्णीयात्, अनियमितभाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः ।। २९॥ अत्रैव विधिमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, वस्तुतः पूर्ववदेव, नवरमेवं भाषेत ॥ ३० ।। जाइमंत त्ति सूत्रम्, जातिमन्तः उत्तमजातयोऽशोकादयः अनेकप्रकारा एत उपलभ्यमानस्वरूपा वृक्षा दीर्घवृत्ता महालयाः दीर्घा नालिकेरीप्रभृतयः वृत्ता नन्दिवृक्षादयः महालया वटादयः प्रजातशाखा उत्पन्नडाला विटपिनः प्रशाखावन्तो वदेदर्शनीया इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेन्नान्यदेति सूत्रार्थः ।। ३१ ।। तहा फलाणि त्ति सूत्रम्, तथा फलानि आम्रफलादीनि पक्वानि पाकप्राप्तानि तथा पाकखाद्यानि बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति नो वदेत् । तथा वेलोचितानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, टालानि अबद्वास्थीनि कोमलानीति तदुक्तं भवति, तथा द्वैधिकानी त्ति पेशीसंपादनेन। द्वैधीभावकरणयोग्यानीति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्वं नाश एवामीषां न शोभनानि वा प्रकारान्तरभोगेनेत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्रार्थः ॥ ३२॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह- असंथड त्ति सूत्रम्, असमर्था एते ।। म For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३४२॥ सूत्रम् ३६-३० संखडीमधिकृत्य वाग्विधिः। आम्राः, अतिभरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षणम्, एतेन पक्वार्थ उक्तः, तथा सप्तममध्ययन बहनिर्वर्तितफलाः बहूनि निर्वर्त्तितानि- बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा, अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः, वदे बहसंभूताः बहुनि वाक्यशुद्धिः, संभूतानि- पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा भूतरूपा इति वा । पुनर्वदेत्, भूतानि रूपाणि- अबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षित इति सूत्रार्थः॥ ३३॥ तहेव त्ति सूत्रम्, तथा ओषधयः शाल्यादिलक्षणाः, पक्का इति, तथा नीलाश्छवय इति वा वल्लचवलकादिफललक्षणाः, तथा लवनवत्यो लवनयोग्याः भर्जनवत्य इति भर्जनयोग्याः, तथा पृथुकभक्ष्या इति पथकभक्षणयोग्याः, नो वदेदिति सर्वत्राभिसंबध्यते, पृथुका अर्धपक्वशाल्यादिषु क्रियन्ते, अभिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। ३४॥प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह- रूढ त्ति सूत्रम्, रूढाः प्रादुर्भूताः बहुसंभूता निष्पन्नप्रायाः स्थिरा निष्पन्नाः उत्सृता इति उपघातेभ्यो निर्गता इति वा, तथा गर्भिता अनिर्गतशीर्षकाः प्रसूता निर्गतशीर्षकाः संसाराः संजाततन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत्, पक्काद्यर्थयोजना स्वधिया कार्येति सूत्रार्थः ।। ३५ ।। तहेव संखर्डिनचा, किचंकजंति नो वए। तेणगं वावि वज्झित्ति, सुतित्थित्ति अ आवगा।सूत्रम् ३६।। संखडि संखडि बूआ, पणिअट्टत्ति तेणगं । बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे ।। सूत्रम् ३७॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव संखडिं ज्ञात्वा संखण्ड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी, तां ज्ञात्वा, करणीये ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत्, मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात्, तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत्, तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रसङ्गात्, सुतीर्था इति च, चशब्दाहुस्तीर्था इति वा आपगा नद्यः EMENT ||३४२॥ For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् सूत्रम् 113४३॥ नदीमधिकृत्य वाग्विधिः। । केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत्, अधिकरणविघातादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३६॥ प्रयोजने पुनरेवं वदेदित्याह- संखडि न्ति । सप्तममध्ययनं सूत्रम्, संखडि संखडिं ब्रूयात, साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि, पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत्, शैक्षकादिकर्मविपाक वाक्यशुद्धिः, दर्शनादौ, पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः, प्राणद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः, तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् ।। साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ।। ३७॥ तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिजत्ति नो वए। नावाहिं तारिमाउत्ति, पाणिपिजत्ति नो वए।। सूत्रम् ३८।। बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज्ज पन्नवं ।। सूत्रम् ३९ ।। तहेव सावजं जोगं, परस्सट्ठा अनिट्ठि। कीरमाणंति वा नच्चा, सावजं न लवे मुणी ।। सूत्रम् ४० ।। वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह-'तहा नईउ'त्ति सूत्रम्, तथा नद्यः पूर्णा भृता इति नो वदेत्, प्रवृत्तश्रवणनिवर्त्तनादिदोषात्, तथा कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत्, साधुवचनतोऽविघ्नमिति प्रवर्त्तनादिप्रसङ्गात्, तथा नौभिः-द्रोणीभिस्तरणीयाः- तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत्, अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात् तथा प्राणिपेयाः तटस्थप्राणिपेया नो वदेदिति, तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति सूत्रार्थः ।। ३८॥ प्रयोजने तु साधुमार्गकथनादावेवं भाषेतेत्याह- बहुवाहड त्ति सूत्रम्, बहुभृताः प्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा अगाधा इति बह्वगाधाः प्रायो गम्भीराः, तथा बहुसलिलोत्पीलोदकाः प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः, तथा विस्तीर्णोदकाश्च स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, न तु तदाऽऽगतपृष्टो न वेदम्यहमिति बूयात्, प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३९॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव सावा सपापं योग व्यापारमधिकरणं सभादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्ठितं निष्पन्न तथा क्रियमाणं वा CENE 11३४३॥ For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३४४|| सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, मूत्रम् ४१-४२ सुकृतमित्यादि सावध वर्जनम्। सूत्रम् ४३ सर्वोत्कृष्ट वर्तमानं वाशब्दाद्धविष्यत्कालभाविनं वा ज्ञात्वा सावा नालपेत् सपापं न ब्रूयात् मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ।। ४०॥ सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्ठिए सुलट्ठित्ति, सावजं वजए मुणी।। सूत्रम् ४१ ।। पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्नत्ति व छिन्नमालवे। पयत्तलट्ठित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढत्ति व गाढमालवे। सूत्रम् ४२।। तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयादित्याह-'सुकडि'त्ति सूत्रम्, सुकृत मिति सुष्टु कृतं सभादि सुपक्व मिति सुष्ठ पक्वं सहस्रपाकादि। सुच्छिन्न मिति सुष्टु छिन्नं तद्वनादि सुहृत मिति सुष्ठु हृतं क्षुद्रस्य वित्तं सुमृत इति सुष्ठु मृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, सुनिष्ठित मिति सुष्ठु निष्ठितं वित्ताभिमानिनो वित्तं सुलटि त्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेद् मुनिः, । अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात्, निरवद्यं तु न वर्जयेत्, यथा- सुकृत मिति सुष्ठ कृतं वैयावृत्त्यमनेन सुपक्व मिति सुष्ठु पक्वं ब्रह्मचर्य साधोः सुच्छिन्न मिति सुष्टु छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, सुहृत मिति सुष्ठु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे सुमृत इति सुष्ठु मृतः पण्डितमरणेन मित्यादिसाधुरिति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्त्तते, सुनिष्ठित मिति सुष्ठु निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य सुलट्ठ त्ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति ।। वर्जनम्। । सूत्रार्थः । ४१ उक्तानुक्तापवादविधिमाह-‘पयत्त'त्ति सूत्रम्, प्रयत्नपक्क मिति वा प्रयत्नपक्वमेतत् पक्कं सहस्रपाकादि ग्लानप्रयोजन एवमालपेत्, तथा प्रयत्नच्छिन्न मिति वा प्रयत्नच्छिन्नमेतत् छिन्नं वनादि साधुनिवेदनादौ एवमालपेत्, तथा प्रयत्नलष्टे ति वा प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक् पालनीयेति कर्महेतुक मिति सर्वमेव वा कृतादि कर्मनिमित्तमालपेदिति योगः, तथा गाढप्रहार मिति वा कञ्चन गाढमालपेत्- गाढप्रहारं ब्रूयात् क्वचित्प्रयोजने, एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः । परिहृता भवन्तीति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ सव्वुक्कसं परग्घं वा, अउलं नत्थि एरिसं । अविक्किअमवत्तव्वं, अविअत्तं चेव नो वए ।। सूत्रम् ४३ ।। सावध For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kababirth.org Acharya Sher Kailassagarsuneyarmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३४५॥ सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् ४४-४६ सर्वोत्कृष्टमित्यादिसावद्यवर्जनम्। सव्वमेअंवइस्सामि, सव्वमेअंतिनो वए। अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज पन्नवं ।। सूत्रम् ४४ ।। सुक्कीअंवा सुविक्कीअं, अकिञ्चं किजमेव वा । इमं गिण्ह इमं मुंच, पणीअंनो विआगरे ।। सूत्रम् ४५ ।। अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विक्कएविवा। पणिअट्टे समुप्पन्ने, अणवजं विआगरे ।। सूत्रम् ४६ ।। क्वचिद्व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्रूयादित्याह-सव्वुक्कसं ति सूत्रम्, एतन्मध्य इदं सर्वोत्कृष्ट स्वभावेन सुन्दरमित्यर्थः, पराघु वा उत्तमा वा महार्घ क्रीतमिति भावः अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि क्वचित्, अविक्किअंति असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि, अवक्तव्य मित्यनन्तगुणमेतत् अविअत्तं वा- अप्रीतिकरं चैतदिति नो वदेत्, अधिकरणान्तरायादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ।। ४३॥ किं च-'सव्वमेअंति सूत्रम्, सर्वमेतद्वक्ष्यामी ति केनचित् कस्यचित् संदिष्टे सर्वमेतत्त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद्वक्ष्यामीति नो वदेत, सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथा सर्वमेतदिति नो वदेत्, कस्यचित्संदेश प्रयच्छन्सर्वमेतदित्येवं वक्तव्य इति नोवदेत्, सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, असंभवाभिधाने मृषावादः, यतश्चैवमतः अनुचिन्त्य आलोच्य सर्वं वाच्यं सर्वत्र कार्येषु यथा असंभवाद्यभिधानादिना मृषावादो न भवत्येवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ।। ४४ ।। किंच-'सुक्कीअं वत्ति सूत्रम्, सुक्रीतं वे ति किञ्चित् केनचित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न व्यागृणीयात् इति योगः, तथा सुविक्रीत मिति किञ्चित्केनचिद्विक्रीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणयात् तथा केनचित् क्रीते पृष्टः 'अक्रेयं' क्रयाहमेव न भवतीति न व्यागृणीयात्, तथैवमेव क्रेयमेव वा क्रयार्हमेवेति, तथा इदं गुडादि। गृहाणागामिनि काले महाघ भविष्यति तथा इदं मुञ्च घृताद्यागामिनि काले समर्घ भविष्यतीतिकृत्वा पणितं पण्यं नैव व्यागृणीयात्, अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अत्रैव विधिमाह-'अप्पग्घे व'त्ति सूत्रम्, अल्पाचे वा For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३४६ ।। www.kobatirth.org महार्घे वा, कस्मिन्नित्याह- क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन् अनवद्यं अपापं व्यागृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापाराभावादिति सूत्रार्थः ।। ४६ ।। तहेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा। सय चिट्ठ वयाहित्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं ।। सूत्रम् ४७ ।। बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो न लवे असाहु साहुत्ति, साहु साहुत्ति आलवे ।। सूत्रम् ४८ ।। नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । एवंगुणसमाउत्तं, संजयं साहुमालवे ।। सूत्रम् ४९ ।। किंच- 'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैव असंयतं गृहस्थं धीरः संयतः आस्वेहैव, एहीतोऽत्र, कुरु वेदं संचयादि, तथा शेष्व निद्रया, तिष्ठोर्ध्वस्थानेन, व्रज ग्राममिति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ।। ४७ ।। किंच - 'बहवे 'त्ति सूत्रम्, बहवः एते उपलभ्यमानस्वरूपा आजीवकादयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिसंघाते उच्यन्ते साधवः सामान्येन, तत्र नालपेदसाधु साधुम, मृषावादप्रसङ्गात्, अपितु साधुं साधुमित्यालपेत, न तु तमपि नालपेत्, उपबृंहणातिचारदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ किंविशिष्टं साधुं साधुमित्यालपेदित्यत आह- 'नाण'त्ति सूत्रम्, ज्ञानदर्शनसंपन्नं समृद्धं संयमे तपसि च रतं यथाशक्ति एवंगुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत्, न तु द्रव्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः ।। ४९ ।। देवाणं मणुआणंच, तिरिआणं च बुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ ति नो वए ।। सूत्रम् ५० ।। वाओ वुद्धं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवंति वा । कया णु हुज्ज एआणि ?, मा वा होउ त्ति नो वए । सूत्रम् ५१ ।। तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेवत्ति गिरं वइज्जा समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज वा वुट्ट बलाहय ति । सूत्रम् ५२ ।। अंतलिक्खत्तिणं बूआ, गुज्झाणुचरिअत्ति अ । रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतंति आलवे ।। सूत्रम् ५३ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् ४३-४९ असंयताचाश्रित्य सावध मावडा वजन वर्जनम्। सूत्रम सूत्रम् ५०-५३ संग्रामाद्याश्रित्य सावद्यवर्जनम्। ।। ३४६ ।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 888888 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३४७॥ ५०-५४ संग्रामाद्या श्रित्य मावा वर्जनमा तहेव सावजणुमोअणी गिरा, ओहारिणी जाय परोवघाइणी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणोऽवि गिरं वइला।। सप्तममध्ययन सूत्रम् ५४॥ वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् किंच-'देवाणं ति सूत्रम्, देवानां देवासुराणां मनुजानां नरेन्द्रादीनां तिरश्चां महिषादीनां च विग्रहे संग्रामे सति अमुकानां । देवादीनां जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदेद्, अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ।। ५० ।। किं च वाउ'त्ति सूत्रम्, वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वा वर्षणम्, शीतोष्णं प्रतीतं क्षेमं राजविरशून्यं ध्रातं सुभिक्षं शिव मिति चोपसर्गरहितं । कदा नु भवेयुः एतानि वातादीनि, मा वा भवेयुरिति धर्माद्यभिभूतो नो वदेद, अधिकरणादिदोषप्रसङ्गाद, वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेः तद्वचनतस्तथाभवनेऽप्यार्तध्यानभावादिति सूत्रार्थः॥५१॥ तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव मेघ वा नभो वा मानवं वाऽऽश्रित्य नो देवदेवत्ति गिरं वदेत्, मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत्, एवं 'नभ' आकाशं मानवं' राजानं वा देवमिति नो वदेत्, मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदेदित्याह- उन्नतं दृष्ट्वा समूर्छित उन्नतो वा पयोद इति, वदेद्वा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः ।। ५२॥ नभ आश्रित्याह-'अंतलिक्ख'त्ति सूत्रम्, इह नभोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयाद्ह्यानुचरितमिति वा, सुरसेवितमित्यर्थः, एवं किल मेघोऽप्येतदुभयशब्दवाच्य एव । तथा ऋद्धिमन्तं संपदुपेतं नरं दृष्ट्वा, किमित्याह-रिद्धिमंत मिति ऋद्धिमानयमित्येवमालपेत्, व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः ।। ५३॥ किंच-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवसावद्यानुमोदिनी गीः वाग् यथा सुष्टु हतो ग्राम इति, तथा अवधारिणी इदमित्थमेवेति, संशयकारिणी वा, या च परोपघातिनी यथामांसमदोषाय से इति तामेवंभूतां क्रोधाल्लोभाद्रयाद्धासाद्वा, मानप्रेमादीनामुपलक्षणमेतत्, मानवः पुमान् साधुन हसन्नपि गिर एवमर्थे समाप्तावित्युक्तेरेवमर्थोऽत्रेतिस्तेन न देवमिति विरुद्धम्। MATAMI L Ex911 For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३४८॥ अवदेत्, प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः॥५४॥ समममध्ययन ___ सवक्कसुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवजए सया। मिअं अदुढे (९) अणुवीइ भासए, सयाण मज्ो लहई पसंसणं ॥ वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् सूत्रम् ५५॥ ५५-५७ भासाइ दोसे अगुणे अजाणिआ, तीसे अदुढे परिवजए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वइज बुद्धे हिअमाणुलोमिअं वाक्यशुद्धि।। सूत्रम् ५६॥ ___ परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए। से निडुणे धुन्नमलं पुरेकर्ड, आराहए लोगमिणं तहा परं। सूत्रम् ५७॥ तिबेमि ।। सवतसुद्धीअज्झयणं समत्तं ।। ७।। वाक्यशुद्धिफलमाह-सवक्क त्ति सूत्रम्, सद्वाक्यशुद्धिं स्ववाक्यशुद्धिं वा सवाक्यशुद्धिं वा, सतीं शोभनाम्, स्वामात्मीयाम्, स इति वक्ता, वाक्यशुद्धिं संप्रेक्ष्य सम्यग् दृष्ट्वा मुनिः साधुः गिरं तु दुष्टां यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा, किंतु मितं स्वरत: परिमाणतश्च, अदुष्टं देशकालोपपन्नादि अनुविचिन्त्य पर्यालोच्य भाषमाणः सन् सतां साधूनां मध्ये लभते प्रशंसनं प्राप्नोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ यतश्चैवमतः- भासाइ त्ति सूत्रम्, भाषाया उक्तल्लक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा यथावदवेत्य तस्याश्च दुष्टाया भाषायाः परिवर्जकः सदा, एवंभूतः सन् षड्जीवनिकायेषु संयतः, तथा श्रामण्ये श्रमणभावे चरणपरिणामगर्भे । चेष्टिते सदा यतः सर्वकालमुद्युक्तः सन् वदेद् बुद्धो हितानुलोमं हितं- परिणामसुन्दरं अनुलोमं मनोहारीति सूत्रार्थः ।। ५६॥ उपसंहरन्नाह-'परिक्ख'त्ति सूत्रम्, परीक्ष्यभाषी आलोचितवक्ता तथा सुसमाहितेन्द्रियः सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिनिरोधकर्तेति भावः, अनिश्रितो द्रव्यभावनिश्रारहितः, प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम्, स इत्थंभूतो निधूय प्रस्फोट्य For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8888888 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11३४९॥ धूनमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरकृतम्, किमिति?- आराधयति' प्रगुणीकरोति लोकं एनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन, तथा पर मिति परलोकमाराधयति निर्वाणलोकम्, यथासंभवमनन्तरं पारम्पर्येण वेति गर्भः। ब्रवीमीति पूर्ववत् । नया: पूर्ववदेव ।। ५७॥ सप्तममध्ययन वाक्यशुद्धिः, सूत्रम् ५५-५७ वाक्यशुद्धिफलम। ॥सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ । सप्तममध्ययनं वाक्यशुद्ध्याख्यं समाप्तमिति ।। 13४९।। For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३५०॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, नियुक्ति २९३-२९४ अभिसम्बन्धः प्रणिधिप्रतिपादनच। ॥ अथ अष्टममध्ययनं आचारप्रणिध्याख्यम् ।। व्याख्यातं वाक्यशुझ्यध्ययनम्, इदानीमाचारप्रणिध्याख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने साधुना वचनगुणदोषाभिज्ञेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह तु तन्निरवद्यं वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुच्यते, उक्तंच- पणिहाणरहिअस्सेह, निरवजपि भासिओसावजतुल विन्नेअं, अज्झत्थेणेह संवुडम्।।१।। इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र चाचारप्रणिधिरिति द्विपदं नाम, तत्राचारनिक्षेपमतिदिशन् प्रणिधिं च प्रतिपादयन्नाह नि०-जो पुव्विं उद्दिट्टो आयारो सो अहीणमइरित्तो। दुविहो अहोइ पणिही दव्वे भावे अनायव्वो।। २९३ ।। य: पूर्व क्षुल्लिकाचारकथायामुद्दिष्ट आचार: सोऽहीनातिरिक्त:- तदवस्थ एवेहापि द्रष्टव्य इति वाक्यशेषः, क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनादृत्य प्रणिधिमधिकृत्याह- द्विविधश्च भवति प्रणिधिः, कथमित्याह- द्रव्य इति द्रव्यविषयो भाव इति भावविषयश्च । ज्ञातव्य इति गाथार्थः ।। २९३ ॥ तत्र नि०-दव्वे निहाणमाई मायपउत्ताणि चेव दव्वाणि । भाविदिअनोइंदिअदुविहो उ पसत्थ अपसत्थो ।। २९४ ।। द्रव्य इति द्रव्यविषयः प्रणिधिः निधानादिप्रणिहितं निधानं निक्षिप्तमित्यर्थः, आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः, मायाप्रयुक्तानि चेह द्रव्याणि द्रव्यप्रणिधिः, पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणं स्त्रियो वा पुरुषवेषेणेत्यादि । तथा भाव इति भावप्रणिधिढिविधः- इन्द्रियप्रणिधि!इन्द्रियप्रणिधिश्च, तत्रेन्द्रियप्रणिधिर्द्विविध:- प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति गाथार्थः ।। २९४ ।। प्रशस्तमिन्द्रिय प्रणिधानरहितस्येह निरवद्यमपि भाषितम् । सावद्यतुल्यं विज्ञेयं अध्यात्मस्थेनेह संवृतम्॥१॥ SBDD003BHERE ॥३५०।। For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 888888888888888 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः २९५-२९८ प्रणिधिमाह नि०-सहेसु अरूवेसु अगंधेसु रसेसु तह य फासेसु । नवि रजड़ न वि दुस्सइ एसा खलु इंदिअप्पणिही ।। २९५ ।। शब्देषु च रूपेषु च गन्धेषु रसेषु तथा च स्पर्शेषु एतेष्विन्द्रियार्थेष्विष्टानिष्टेषु चक्षुरादिभिरिन्द्रियैर्नापि रज्यते नापि द्विष्यते एष । नियुक्तिः खलु माध्यस्थ्यलक्षण इन्द्रियप्रणिधिः प्रशस्त इति भावार्थः, अन्यथा त्वप्रशस्तः ।। २९५ ।। तत्र दोषमाह द्विविधो भावनि०-सोइंदिअरस्सीहि उ मुक्काहिं सहमुच्छिओ जीवो। आइअइ अणाउत्तो सद्दगुणसमुट्ठिए दोसे ।। २९६ ।।। प्रणिधिः। श्रोत्रेन्द्रियरश्मिभिः श्रोत्रेन्द्रियरचुभिः मुक्ताभिः उच्छृङ्खलाभिः, किमित्याह- शब्दमूर्छितःशब्दगृद्धो जीवः आदत्ते गृह्णात्यअनुपयुक्तः सन् , कानित्याह- शब्दगुणसमुत्थितान्दोषान्- शब्द एवेन्द्रियगुणस्तत्समुत्थितान् दोषान्- बन्धवधादीन् श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिरादत्त इति गाथार्थः ।। २९६ ।। शेषेन्द्रियातिदेशमाह नि०-जह एसो सहेसुंएसेव कमो उसेसएहिं पि। चउहिपि इंदिएहिं रूवे गंधे रसे फासे ।। २९७ ।। यथैष शब्देषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्तः, एष एव क्रमः शेषैरपि चक्षुरादिभिश्चतुर्भिरपीन्द्रियैर्दोषाभिधाने द्रष्टव्यः, तद्यथा- चक्खिन्दिअरस्सीहि उ, इत्यादि, अत एवाह- रूपे गन्धे रसे स्पर्श रूपादिविषय इति गाथार्थः ।। २९७ ।। अमुमेवार्थं दृष्टान्ताभिधानेनाह नि०- जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिआई तवंचरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहिं सारही वा तुरंगेहिं ।। २९८ ।। यस्य खल्विति यस्यापि दुष्प्रणिहितानीन्द्रियाणि विश्रोतोगामीनि तपश्चरत इति तपोऽपि कुर्वतः स तथाभूतो ह्रियते अपनीयते इन्द्रियैरेव निर्वाणहेतोश्चरणात्, दृष्टान्तमाह-'अस्वाधीनैः'अस्ववशैः सारथिरिव' रथनेतेव तुरङ्गमैः'अश्वैरिति गाथार्थः ।। २९८ ।। ॥३५१।। For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३५२ ।। www.kobatirth.org उक्त इन्द्रियप्रणिधिः, नोइन्द्रियप्रणिधिमाह नि० कोहं माणं मायं लोहं च महत्भयाणि चत्तारि । जो संभइ सुद्धप्पा एसो नोइंदिअप्पणिही ।। २९९ ।। क्रोधं मानं मायां लोभं चेत्येतेषां स्वरूपमनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नं पूर्ववत्, एत एव च महाभयानि चत्वारि, सम्यग्दर्शनादिप्रतिबन्धरूपत्वात् । एतानि यो रुणद्धि शुद्धात्मा उदयनिरोधादिना एष निरोद्धा क्रोधादिनिरोधपरिणामानन्यत्वान्नोइन्द्रियप्रणिधिः, कुशलपरिणामत्वादिति गाथार्थः ।। २९९ ।। एतदनिरोधे दोषमाह नि०- जस्सवि अ दुप्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सीविव गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ।। ३०० ।। यस्यापि कस्यचिद्व्यवहारतपस्विनो दुष्प्रणिहिता- अनिरुद्धा भवन्ति कषायाः क्रोधादयः तपश्चरतः तपः कुर्वत इत्यर्थः, स बालतपस्वीव उपवासपारणकप्रभूततरारम्भको जीवो (यथा) गजस्नानपरिश्रमं करोति, चतुर्थषष्ठादिनिमित्ताभिधानतः प्रभूतकर्मबन्धोपपत्तेरिति गाथार्थः ॥ ३०० ॥ अमुमेवार्थं स्पष्टतरमाह नि०- सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निष्फलं तस्स सामन्नं ।। ३०१ ।। श्रामण्यमनुचरतः श्रमणभावमपि द्रव्यतः पालयत इत्यर्थः, कषाया यस्योत्कटा भवन्ति क्रोधादयः मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्यमिति गाथार्थ: ।। ३०१ ।। उपसंहरन्नाह नि० एसो दुविहो पणिही सुद्धो जड़ दोसु तस्स तेसिं च । एत्तो पसत्थमपसत्थ लक्खणमज्झत्थनिप्फन्नं ।। ३०२ ।। एषः अनन्तरोदितो द्विविधः प्रणिधिः इन्द्रियनोइन्द्रियलक्षणः शुद्ध इति निर्दोषो भवति, यदि द्वयोः बाह्याभ्यन्तरचेष्टयोः © आवश्यके विस्तरेण पूर्वं व्याख्यानात् । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टममध्ययनं आचार प्रणिधिः, निर्युक्तिः २९९-३०० द्विविधो भावप्रणिधिः । निर्युक्तिः ३०१-३०२ प्रणिधेरुप | संहारः । ।। ३५२ ।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailasagarsun Gyanmandir आचार श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ||३५३॥ । तस्य इन्द्रियकषायवतः तेषां च इन्द्रियकषायाणां सम्यग्योगो भवति, एतदुक्तं भवति- यदि बाह्यचेष्टायामभ्यन्तरचेष्टायां च । अष्टममध्ययन तस्य च प्रणिधिमत इन्द्रियाणां कषायाणां च निग्रहो भवति ततः शुद्धः प्रणिधिरितरथा त्वशुद्धः, एवमपि तत्त्वनीत्याऽभ्यन्तरैव प्रणिधिः, चेष्टेह गरीयसीत्याह, अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्तं चारु, तथाऽप्रशस्तमचारु लक्षणं प्रणिधेः अध्यात्मनिष्पन्नं अध्यवसानोगतमिति नियुक्तिः३०३ गाथार्थः ।। ३०२॥ एतदेवाह प्रणिधेरुप संहारः। नि०- मायागारवसहिओ इंदिअनोइंदिएहिं अपसत्थो । धम्मत्था अपसत्थो इंदिअनोइंदिअप्पणिही।। ३०३ ।। नियुक्तिः मायागारवसहितो मातृस्थानयुक्त ऋद्ध्यादिगारवयुक्तश्चेन्द्रियनोइन्द्रिययोर्निग्रहं करोति, मातृस्थानत ईर्यादिप्रत्युपेक्षणं ३०४-३०५ प्रशस्तेतरद्रव्यक्षान्त्याद्यासेवनं तथा ऋझ्यादिगारवाद्वेति अप्रशस्त इत्ययमप्रशस्त: प्रणिधिः । तथा धर्मार्थं प्रशस्त इति, मायागारवरहितो। प्रणिधेधर्मार्थमेवेन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहं करोति यः स तदभेदोपचारात् प्रशस्तः सुन्दर इन्द्रियनोइन्द्रियप्रणिधिनिर्जराफलत्वादिति गुणदोषाः। गाथार्थः ।। ३०३ ।। साम्प्रतमप्रशस्तेतरप्रणिधेर्दोषगुणानाह नि०- अट्ठविहं कम्मरयं बंधड़ अपसत्थपणिहिमाउत्तो। तं चेव खवेइ पुणो पसत्थपणिहीसमाउत्तो ।। ३०४ ।। अष्टविधं ज्ञानावरणीयादिभेदात् कर्मरजो बध्नाति आदत्ते, क इत्याह-अप्रशस्तप्रणिधिमायुक्तः अप्रशस्तप्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः, तदेवाष्टविधं कर्मरजः क्षपयति पुनः, कदेत्याह- प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः ।। ३०४ ॥ संयमाद्यर्थं च प्रणिधि: प्रयोक्तव्य इत्याह ||३५३॥ नि०-दसणनाणचरित्ताणि संजमो तस्स साहणट्ठाए। पणिही पउंजिअव्वो अणायणाईच वज्राई।। ३०५ ।। दर्शनज्ञानचारित्राणि संयमः संपूर्णः, तस्य संपूर्णसंयमस्य साधनार्थं प्रणिधि प्रशस्त: प्रयोक्तव्यः, तथा अनायतनानि च For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३५४ ।। विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि इति गाथार्थः ॥ ३०५ ।। एवमकरणे दोषमाह नि०- दुप्पणिहिअजोगी पुण लंछिजइ संजमं अयाणतो । वीसत्थनिसटुंगोव्व कंटइल्ले जह पडतो।। ३०६ ।। दुष्प्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिधिरहितस्तु प्रव्रजित इत्यर्थः लञ्च्यते-खण्ड्यते संयममजानानः संयत एवेति । दृष्टान्तमाहविश्रब्धो निसृष्टाङ्गस्तथा अयत्नपरः कण्टकवति श्वभ्रादौ यथा पतन् कश्चिल्लञ्छ्यते तद्वदसौ संयत इति गाथार्थः ।। ३०६ ॥ व्यतिरेकमाह नि०- सुप्पणिहिअजोगी पुण न लिप्पई पुव्वभणिअदोसेहिं । निद्दहइ अकम्पाई सुक्कतणाई जहा अग्गी ॥ ३०७ ।। सुप्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिहितः प्रव्रजितः पुनः न लिप्यते पूर्वभणितदोषैः कर्मबन्धादिभिः, संवृताश्रवद्वारत्वात्, निर्दहति: च कर्माणि प्राक्तनानि तपःप्रणिधिभावेन, दृष्टान्तमाह- शुष्कतृणानि यथा अग्निर्निर्दहति तद्वदिति गाथार्थः ।। ३०७॥ नि०- तम्हा उ अप्पसत्थं पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिहाणंमि पसत्थे भणिओ आयारपणिहित्ति ।। ३०८ ।। यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिर्दुःखद इतरश्च सुखदस्तस्माद् अप्रशस्तं प्रणिधानं अप्रशस्तं प्रणिधिं उज्झित्वा परित्यज्य श्रमणेन साधुना प्रणिधाने प्रणिधौ प्रशस्ते कल्याणे, यत्नः कार्य इति वाक्यशेषः। निगमयन्नाह- भणित आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः ।। ३०८ ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं___ आयारप्पणिहिं लडूं, जहा कायव्व भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुब्विं सुणेह मे ॥सूत्रम् १ ॥ आचारप्रणिधिं उक्तलक्षणं लब्ध्वा प्राप्य यथा येन प्रकारेण कर्तव्यं विहितानुष्ठानं भिक्षुणा साधुना तं प्रकारं भे भवद्भ्यः अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः नियुक्ति: ३०६ प्रशस्तेतरप्रणिधेगुणदोषाः। नियुक्तिः ३०७-३०८ निगमनम् सूत्रम् शिष्यसंबोधनम्। 11३५४।। For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० अष्टममध्ययन आचारप्रणिधि: वृत्तियुतम् ||३५५।। २-१२ आचारप्रणिधौ षट्काय हिंसा प्रतिषेधः। उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि आनुपूर्व्या परिपाट्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः॥१॥ पुढविदगअगणिमारुअ, तणरुक्खस्सबीयगा । तसा अपाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ।। सूत्रम् २ ।। तेसिं अच्छणजोएण, निचं होअव्वयं सिआ।मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए ।। सूत्रम् ३॥ पुढवि भित्तिं सिलं लेखें, नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करणजोएणं, संजए सुसमाहिए। सूत्रम् ४ ।। सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे। पमजित्तु निसीइजा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ।। सूत्रम् ५ ।। सीओदगंन सेविजा, सिलावुलु हिमाणि । उसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगाहिज संजए।। सूत्रम् ६ ।। उदउल्लं अप्पणो कायं, नेव पुंछे न संलिहे। समुप्पेह तहाभूअं, नो णं संघट्टए मुणी ।। सूत्रम् ७ ।। इंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा सजोइ। न उंजिजा न घट्टिन्जा, नो णं निवावए मुणी ।। सूत्रम् ८॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा । न वीइजऽप्पणो कार्य, बाहिरं वावि पुग्गलं ।। सूत्रम् १।। तणरुक्खं न छिदिजा, फलं मूलंच कस्सई। आमगं विविहं बीअं, मणसाविण पत्थए। सूत्रम् १०॥ गहणेसुन चिट्ठिया, बीएसु हरिएसु वा । उदगंमि तहा निचं, उत्तिंगपणगेसुवा।।सूत्रम् ११॥ तसे पाणे न हिंसिजा, वाया अदुव कम्मुणा । उवरओ सव्वभूएसु, पासेज विविहं जगं ।। सूत्रम् १२॥ तं प्रकारमाह-'पुढवि'त्ति सूत्रम्, पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसबीजा एते पञ्चैकेन्द्रियकायाः पूर्ववत्, त्रसाश्च प्राणिनो। द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षिणा वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः ।। २।। यतश्चैवमतः 'तेसिं'ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या। तेषां पृथिव्यादीनां अक्षणयोगेन अहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यं वर्त्तितव्यं स्यात् भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येन एभिः ||३५५ ।। For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥३५६॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, सूत्रम् २-१२ आचारप्रणिधी षट्कायहिंसा प्रतिषेधः। करणैरित्यर्थः, एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संयतो, नान्यथेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ एवं सामान्येन षड्जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमभिधायाधुना तद्गतविधीन्विधानतो विशेषेणाह-'पुढवि'त्ति सूत्रम्, पृथिवीं शुद्धां भित्ति तटीं शिला पाषाणात्मिकां। अलेष्टुं इट्टालखण्डं नैव भिन्द्यात् नो संलिखेत्, तत्र भेदनं द्वैधीभावोत्पादनं संलेखनं ईषल्लेखनं त्रिविधेन करणयोगेन न करोति । मनसेत्यादिना संयतः साधुः सुसमाहितः शुद्धभाव इति सूत्रार्थः ॥ ४॥ तथा सुद्ध'त्ति सूत्रम्, शुद्धपृथिव्यां अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न निषीदेत, तथा सरजस्के वा पृथ्वीरजोऽवगुण्ठिते वा आसने पीठकादौ न निषीदेत, निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः, अचेतनायां तु प्रमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेत् ज्ञात्वे त्यचेतना ज्ञात्वां याचयित्वाऽवग्रह मिति यस्य संबन्धिनी । पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥ ५॥ उक्तः पृथिवीकायविधिः, अधुना अप्कायविधिमाह-'सीओदगं'ति सूत्रम्, शीतोदकं पथिव्यद्भवं सच्चित्तोदकं न सेवेत, तथा शिलावष्टं हिमानि च न सेवेत, तत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगान्ते, वृष्टं वर्षणम्, हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति । यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह- उष्णोदकं क्वथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदण्डोद्वृत्तम्, नोष्णोदकमात्रम्, प्रतिगृह्णीयाद्वृत्त्यर्थं संयतः साधु एतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ तथा उदउल्लं ति सूत्रम्, नदीमुत्तीर्णो भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहत: उदकाढू उदकबिन्दुचितमात्मनः कार्य शरीरं स्निग्धं वा नैव पुञ्छयेद् वस्त्रतृणादिभिः न संलिखेत् पाणिना, अपितु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथाभूतं उदकार्दादिरूपं नैव कायं संघट्टयेत् मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ उक्तोऽप्कायविधिः, तेज:कायविधिमाह-'इंगालं ति सूत्रम्, अङ्गार ज्वालारहितं अग्निं अय:पिण्डानुगतं अर्चिः छिन्नज्वालं अलातं उल्मुकं वा सज्योतिःसाग्निकमित्यर्थः, किमित्याह- नोत्सिञ्चेत् न घट्टयेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनं प्रदीपादेः, घट्टनं मिथश्चालनम्, तथा नैनं- अग्निं निर्वापयेद् अभावमापादयेत् मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ८॥प्रतिपादितस्तेजःकायविधिः, ॥ ३५६।। For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३५७ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . अनन्त वायुकायविधिमाह- 'तालिअंटेण 'त्ति सूत्रम्, तालवृन्तेन व्यजनविशेषेण पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना शाखया वृक्षडालरूपया विधूप (व) नेन वा व्यजनेन वा, किमित्याह न वीजयेद् आत्मनः कार्य स्वशरीरमित्यर्थः बाह्यं वापि पुद्गलं उष्णोदकादीति सूत्रार्थः ।। ९ ।। प्रतिपादितो वायुकायविधिः, वनस्पतिविधिमाह- 'तण'त्ति सूत्रम्, तृणवृक्षमित्येकवद्भावः, तृणानि दर्भादीनि वृक्षा:- कदम्बादयः, एतान्न छिन्द्यात् फलं मूलं वा कस्यचिद्वृक्षादेर्न छिन्द्यात्, तथा आमं अशस्त्रोपहतं विविधं अनेकप्रकारं बीजं न मनसाऽपि प्रार्थयेत्, किमुत अश्नीयादिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तथा 'गहणेसु 'त्ति सूत्रम्, गहनेषु वननिकुञ्जेषु न तिष्ठेत्, संघट्टनादिदोषप्रसङ्गात्, तथा बीजेषु प्रसारितशाल्यादिषु हरितेषु वा दूर्वादिषु न तिष्ठेत्, उदके तथा नित्यं अत्रोदकंवनस्पतिविशेष:, यथोक्तं- उदए अवए पणए इत्यादि, उदकमेवान्ये, तत्र नियमतो वनस्पतिभावात्, उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत्, तत्रोत्तिङ्गः- सर्पच्छत्रादिः पनकः- उल्लिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ।। ११ ।। उक्तो वनस्पतिकायविधिः, त्रसकायविधिमाह'तस' त्ति सूत्रम्, त्रसप्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् न हिंस्यात्, कथमित्याह- वाचा अथवा कर्मणा कायेन, मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणम्, अपि च- उपरतः सर्वभूतेषु निक्षिप्तदण्डः सन् पश्येद्विविधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपम्, निर्वेदायेति सूत्रार्थः ।। १२ ।। अट्ठ सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए। दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ट सएहि वा ।। सूत्रम् १३ ।। कयराई अट्ठ सुहुमाई ?, जाई पुच्छिज संजए। इमाई ताई मेहावी, आइक्खिज विअक्खणो ।। सूत्रम् १४ ।। सिणेहं पुप्फसुहमं च, पाणुत्तिंगं तहेव य पणगं बी अहरिअं च, अंडसुहुमं च अट्टमं ॥ सूत्रम् १५ ।। एवमे आणि जाणिजा, सव्वभावेण संजए। अप्पमत्तो जए निचं, सव्विंदि असमाहिए। सूत्रम् १६ ।। @ उदकं वनस्पतिविशेषः प्र । उदकमवकः पनकः । सारम्भाणामशक्यं वर्जनं यस्य, निरारम्भैः सूक्ष्मोपयोगेन वर्जनीयं यत्, स्वरूपेण वा सूक्ष्मताभाक्। For Private and Personal Use Only अष्टममध्ययनं आचार प्रणिधिः, सूत्रम् ९३-९६ अष्टौ सूक्ष्माणि तेषां विधिश्च। ।। ३५७ ।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृतियुतम् ।।३५८॥ अष्टममध्ययनं आचारप्रणिधिः, सूत्रम् १३-१६ अष्टी सूक्ष्माणि उक्तः स्थूलविधिः, अथ सूक्ष्मविधिमाह-'अट्ठ'त्ति सूत्रम्, अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगत आसीत तिष्ठेच्छयीत वेति योगः, किंविशिष्टानीत्याह- यानि ज्ञात्वा संयतो ज़परिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवति, अन्यथा दयाधिकार्येव नेति, तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवासनादीनि कुर्याद्, अन्यथा तेषां सातिचारतेति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ आह-- 'कयराणि' सूत्रम्, कतराण्यष्टौ सूक्ष्माणि यानि दयाधिकारित्वाभावभयात् पृच्छेत्संयतः?, अनेन दयाधिकारिण एव एवंविधेषु । यत्नमाह, स ावश्यं तदुपकारकाण्यपकारकाणि च पृच्छति, तत्रैव भावप्रतिबन्धादिति। अमूनि तानि अनन्तरं वक्ष्यमाणानि तेषां विधिश्च। मेधावी आचक्षीत विचक्षण इति, अनेनाप्येतदेवाह-मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या, एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवति, अन्यथा विपर्यय इति सूत्रार्थः ॥ १४॥ 'सिणेहंति सूत्रम्, स्नेह मिति स्नेहसूक्ष्म- अवश्यायहिममहिकाकरकहरतनुरूपम्, पुष्पसूक्ष्मं चेति वटोदुम्बराणां पुष्पाणि, तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते, पाणी ति प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिः कुन्थुः, स हि। चलन विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात् । उत्तिगं तथैव चे त्युत्तिङ्गसूक्ष्म-कीटिकानगरम्, तत्र कीटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति । तथा पनक मिति पनकसूक्ष्मं प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनः पनक इति, तथा बीजसूक्ष्म शाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका, या लोके तुषमुखमित्युच्यते, हरितं चेति हरितसूक्ष्मम्, तच्चात्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवीसमानवर्णमेवेति, अण्डसूक्ष्मं चाष्टम मिति एतच्च मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकाब्राह्मणीकृकलासाद्यण्डमिति सूत्रार्थः ।। १५ ।। एवमेआणि'त्ति सूत्रम्, एवं उक्तेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन सर्वभावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना संयतः साधुः किमित्याह- अप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितः यतेत मनोवाक्वायैः संरक्षणं प्रति नित्यं सर्वकालं सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्निति सूत्रार्थः ।। १६ ।। ॥३५८।। For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्नियुतम् ।। ३५९ ।। www.kobatirth.org धुवं च पडिलेहिजा, जोगसा पायकंबलं । सिज्रमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवाऽऽसणं ।। सूत्रम् १७ ।। उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लिअं । फाअं पडिलेहित्ता, परिडाविज संजए । सूत्रम् १८ ।। पविसित्तु परागारं, पाणट्ठा भोअणस्स वा । जयं चिट्टे मिअं भासे, न य रूवेसु मणं करे ।। सूत्रम् १९ ।। बहु सुणेहि कन्नेहिं, बहुं अच्छीहिं पिच्छड़। न य दिट्ठं सुअं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ।। सूत्रम् २० ।। सुअं वा जड़ वा दिडं, न लविज्जोवघाइअं । न व केणइ उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ।। सूत्रम् २१ ।। निद्वाणं रसनिजूढं, भगं पावगंति वा पुट्ठो वावि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निद्दिसे ।। सूत्रम् २२ ।। नय भो अणंमि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो अफासुअं न भुंजिखा, की अमुद्देसि आहडं ॥। सूत्रम् २३ ।। संनिहिं च न कुव्विज्जा, अणुमायंपि संजए। मुहाजीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए । सूत्रम् २४ ।। लूहवित्ती सुसंतुट्टे, अप्पिच्छे सुहरे सिआ। आसुरत्तं न गच्छिना, सुच्चा णं जिणसासणं ।। सूत्रम् २५ । कन्नसुक्खेहिं सदेहिं, पेम्मं नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहिआसए ।। सूत्रम् २६ ।। खुहं पिवासं दुस्सिद्धं, सीउण्हं अरई भयं । अहिआसे अव्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं ।। सूत्रम् २७ ।। अत्थंगयंमि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए। आहारमइयं सव्वं, मणसावि ण पत्थए । सूत्रम् २८ ।। तथा 'धुवन्ति सूत्रम्, तथा ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिन् प्रत्युपेक्षेत सिद्धान्तविधिना योगे सति सति सामर्थ्य अन्यूनातिरिक्तम्, किं तदित्याह- पात्रकम्बलं पात्रग्रहणादलाबुदारुमयादिपरिग्रहः, कम्बलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः, तथा शय्यां वसतिं द्विकालं त्रिकालं च उच्चारभुवं च अनापातवदादि स्थण्डिलं तथा संस्तारकं तृणमयादि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टममध्ययनं आचार प्रणिधिः, सूत्रम १७-२८ उपाश्रय गोचर प्रवेशादि माश्रित्य विधिः । ।। ३५९ ।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३६०॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, सूत्रम् १७-२८ उपाश्रयगोचरप्रवेशादि विधिः। रूपमथवा आसनं अपवादगृहीतं पीठकादि प्रत्युपेक्षतेति सूत्रार्थः ॥१७॥ तथा 'उच्चारं ति सूत्रम्, उच्चार प्रस्रवणं श्लेष्म सिंघाणं जल्लमिति प्रतीतानि, एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः, परिस्थापयेद् व्युत्सृजेत् संयत इति सूत्रार्थ : ।।१८॥ उपाश्रयस्थानविधिरुक्तो, गोचरप्रवेशमधिकृत्याह-'पविसित्तु' सूत्रम्, प्रविश्य परागारं परगृहं पानार्थं भोजनस्य ग्लानादेरौषधार्थ ।। वा यतं- गवाक्षकादीन्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे, मितं यतनया भाषेत आगमनप्रयोजनादीति, न च रूपेषु दातृकान्तादिषु । मनः कुर्यात्, एवंभूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत्, रूपग्रहणं रसाधुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ।। १९॥ गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्ट एवं ब्रूयादित्याह-'बहु'न्ति सूत्रम्, अथवा उपदेशाधिकारे सामान्येनाह-'बहु'न्ति सूत्रम्, बहु अनेकप्रकारं । शोभनाशोभनं शृणोति कर्णाभ्याम, शब्दजातमिति गम्यते, तथा बहु अनेकप्रकारमेव शोभनाशोभनभेदेनाक्षिभ्यां पश्यति, माश्रित्यरूपजातमिति गम्यते, एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्वं स्वपरोभयाहितमपि 'श्रुता ते रुदती पत्नी'त्येवमादि भिक्षुराख्यातुमर्हति, चारित्रोपघातात्, अर्हति च स्वपरोभयहितं 'दृष्टस्ते राजानमुपशामयशिष्य' इति सूत्रार्थः।।२०।। एतदेव स्पष्टयन्नाह-'सुअंति सूत्रम्, श्रुतं वा अन्यतः यदिवा दृष्टं स्वयमेव नालपेत्न भाषेत, औपघातिकं उपघातेन निर्वृत्तं तत्फलं वा, यथा-चौरस्त्वमित्यादि, अतो नालपेदपीति गम्यते, तथा न च केनचिदुपायेन सूक्ष्मयाऽपि भङ्गया गृहियोगं गृहिसंबन्धं तद्बालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापार वा- प्रारम्भरूपं समाचरेत् कुर्यान्नैवेति सूत्रार्थः ॥ २१॥ किं च-‘णिट्ठाणं'ति सूत्रम्, निष्ठानं सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नं रसं निर्मूढमेतद्विपरीतं कदशनम्, एतदाश्रित्याद्यं भद्रकं द्वितीयं पापकमिति वा, पृष्टो वापि परेण कीदृग् लब्धमिति अपृष्टो वा। स्वयमेव लाभालाभं निष्ठानादेर्न निर्दिशेद, अद्य साधु लब्धमसाधु वा शोभनमिदमपरमशोभनं वेति सूत्रार्थः ।। २२ ।। किं च'न य'त्ति सूत्रम्, न च भोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुलाभायेश्वरादिकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत, अपितु उञ्छं भावतो ||३६०॥ For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक हारि वृत्तियुतम् ज्ञाताज्ञातमजल्पन (ग्रन्थाग्रं५५००) शीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत्, तत्रापि अप्रासुकं सचित्तं सन्मिश्रादि कथञ्चिगृहीतमपि अष्टममध्ययन नभुञ्जीत, तथा क्रीतमौद्देशिकाहृतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्यविशोधिकोट्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ २३॥ संनिहिति । आचार प्रणिधिः, सूत्रम्, संनिधिं च प्राग्निरूपितस्वरूपां न कुर्यात् अणुमात्रमपि स्तोकमपि संयतः साधुः, तथा मुधाजीवीति पूर्ववत्, असंबद्धः सूत्रम् पद्मिनीपत्रोदकवद्गृहस्थैः, एवंभूतः सन् भवेत् जगन्निश्रितः चराचरसंरक्षणप्रतिबद्ध इति सूत्रार्थः ।। २४ ।। किंच-लूह'त्ति १७-२८ उपाश्रयसूत्रम्, रूक्षैः- वल्लचणकादिभिर्वृत्तिरस्येति रूक्षवृत्तिः, सुसंतुष्टो येन वा तेन वा संतोषगामी, अल्पेच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहार गोचरपरित्यागी, सुभरः स्यात् अल्पेच्छत्वादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः, रूक्षवृत्तिः स्यादित्यादि। प्रवेशादितथा आसुरत्वं क्रोधभावं न गच्छेत् क्वचित् स्वपक्षादौ श्रुत्वा जिनशासनं क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनम् । जहा चउहि । माश्रित्य विधिः। ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा- कोहसीलयाए पाहडसीलयाए जहा ठाणे जाव जंणं मए एस पुरिसे अण्णाणी है मिच्छादिट्ठी अक्कोसइ हणइ वा तंण मे एस किंचि अवरज्झइत्ति, किंतु मम एयाणि वेयणिज्जाणि कम्माणि अवरज्झतित्ति । सम्ममहियासमाणस्स निजरा एव भविस्सइ त्ति सूत्रार्थः ।। २५ ।। तथा 'कण्ण'त्ति सूत्रम्, कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा वेणुवीणादिसंबन्धिनस्तेषु प्रेम रागंन अभिनिवेशयेत् न कुर्यादित्यर्थः, दारुणं अनिष्टं कर्कशं कठिनं स्पर्शमुपनतं सन्तं कायेनाधिसहेत् । न तत्र द्वेषं कुर्यादिति, अनेनाद्यन्तयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वेदितव्य इति सूत्रार्थः।। २६॥ किं च- 'खुहं पित्ति सूत्रम्, क्षुधं बुभुक्षां पिपासां तृषं दुःशय्यां विषमभूम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रतीतं अरति मोहनीयोद्भवां भयं यथा चतुर्भिः स्थानर्जीवा आसुरत्वाय कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-क्रोधशीलतया प्राभृतशीलतया यथा स्थानाङ्गे यावत् यन्मामेष पुरुषोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिराक्रोशति हन्ति वा तन्न मे एष किश्चिदपराध्यतीति, किन्तु ममैतानि वेदनीयानि कर्माणि अपराध्यन्तीति सम्यगध्यासीनस्य निर्जरैव भविष्यतीति। 13६१॥ B808080808000E For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || ३६२॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, सूत्रम् २९-४० क्रोधादीनामिहपरलोकापायाः व्याघ्रादिसमुत्थमतिसहेदेतत्सर्वमेव अव्यथितः अदीनमनाः सन् देहे दुःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतदुःखम्, शरीरं चासारम्, सम्यगतिसामानं च मोक्षफलमेवेदमिति सूत्रार्थः ।। २७ ।। किंच-'अत्थं ति सूत्रम्, अस्तगत आदित्ये अस्तपर्वतं प्राप्ते अदर्शनीभूते वा पुरस्ताच्चानुद्गते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, आहारात्मकं सर्वं निरवशेषमाहारजातं ।। मनसापि न प्रार्थयेत्, किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति सूत्रार्थः ।। २८॥ अतितिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे। हविज उअरे दंते, थोवं लद्धंन खिसए।।सूत्रम् २९ ।। न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुअलाभेन मजिजा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए ।। सूत्रम् ३० ।। से जाणमजाणं वा, कट्ट आहम्मिअंपयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअंतं न समायरे ।। सूत्रम् ३१।। अणायारं परकम्म, नेव गूहे न निण्हवे । सुई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिए ।। सूत्रम् ३२ ।। अमोहं वयणं कुता, आयरिअस्स महप्पणो। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए।। सूत्रम् ३३॥ अधुवं जीविअंनच्चा, सिद्धिमग्गं विआणिआ। विणिअट्टिन भोगेसु, आउँ परिमिअप्पणो ।। सूत्रम् ३४ ।। बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो । खितं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजएँ।। सूत्रम् ३५ ।। जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वहई। जाविदिआन हायंति, ताव धम्मं समायरे ।। सूत्रम् ३६ ।। कोहं माणंच मायंच, लोभंच पाववडणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणो ।। सूत्रम ३७॥ कोहो पीईपणासेड़, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेड़, लोभोसव्वविणासणो।। सूत्रम् ३८।। O नैषा व्याख्याकृन्मता। 888888888888888888888888888888888888888888 ।। ३६२।। For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BOOR श्रीदशवैकालिक अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, श्रीहारिक वृत्तियुतम् 3630 २९-४० क्रोधादीनामिहपरलोकापायाः। उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। सूत्रम् ३९ ।। कोहो अमाणो अ अणिग्गहीआ, माया अलोभो अपवट्टमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।। सूत्रम् ४०॥ दिवाप्यलभमान आहारे किमित्याह-'अतिंतिणे'त्ति सूत्रम्, अतिन्तिणो भवेत्, अतिन्तिणो नामालाभेऽपि नेषद्यत्किञ्चनभाषी, तथा अचपलो भवेत्, सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा अल्पभाषी कारणे परिमितवक्ता, तथा मिताशनो मितभोक्ता भवे दित्येवंभूतो भवेत्, तथा उदरे दान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः, तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत् देयं दातारं वा न हीलयेदिति सूत्रार्थः ।। २९ ।। मदवर्जनार्थमाह-'न बाहिर'ति सूत्रम्, न बाह्य आत्मनोऽन्यं परिभवेत्, तथा आत्मानं न समुत्कर्षयेत्, सामान्येनेत्थंभूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां न माद्येत, पण्डितो लब्धिमानहमित्येवम्, तथा जात्यातापस्व्येन बुझ्या वा, न माद्यतेति वर्त्तते, जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवम्, उपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणाम्, कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न माद्यतेति सूत्रार्थः ।। ३०॥ ओघत आभोगानाभोगसेवितार्थमाह-'से'त्ति सूत्रम्, 'स' साधुः जाननजानन् वा आभोगतोऽनाभोगतश्चेत्यर्थः कृत्वाऽधार्मिक पदं कथञ्चिद्रागद्वेषाभ्यां मूलोत्तरगुणविराधनामिति भावः संवरेत् क्षिप्रमात्मानं भावतो निवालोचनादिना प्रकारेण, तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत, अनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः ।। ३१ ।। एतदेवाह अणायारं'ति सूत्रम्, अनाचारं सावद्ययोगं पराक्रम्य आसेव्य गुरुसकाश आलोचयन् नैव गूहयेत् न निह्ववीत तत्र गूहनं किञ्चित्कथनं निह्नव एकान्तापलापः, किंविशिष्टः सन्नित्याह- शुचिः अकलुषितमतिः सदा विकटभावः प्रकटभावः असंसक्तः अप्रतिबद्धः । क्वचित् जितेन्द्रियो जितेन्द्रियप्रमादः सन्निति सूत्रार्थः ।। ३२ ।। तथा अमोहंति सूत्रम्, अमोघं अवन्ध्यं वचनं इदं कुर्वित्यादिरूपं 8 ॥३६३॥ 20088 For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३६४॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, सूत्रम् २९-४० क्रोधादीनामिहपरलोकापायाः। कुर्या दिति एवमित्यभ्युपगमेन, केषामित्याह- आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिभिर्गुणैः, तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यभ्युपगमेन कर्मणोपपादयेत् क्रियया संपादयेदिति सूत्रार्थः ।। ३३ ॥ तथा 'अधुवं'ति सूत्रम्, अध्रुवं अनित्यं मरणाशङ्कि जीवितं सर्वभावनिबन्धनं ज्ञात्वा । तथा सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत भोगेभ्यो बन्धैकहेतुभ्यः, तथा ध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विज्ञायात्मनो विनिवर्तेत भोगेभ्य इति सूत्रार्थः ।। ३४ ।। उपदेशाधिकारे प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाह'जर'त्ति सूत्रम्, जरा वयोहानिलक्षणा यावन्न पीडयति व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वर्द्धते यावद् इन्द्रियाणि क्रियासामर्थ्योपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इतिकृत्वा धर्म समाचरेच्चारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः ।। ३५-३६ ॥ तदुपायमाहकोहं गाहा, क्रोधं मानं च मायां च लोभं च पापवर्धनम्, सर्व एते पापहेतव इति पापवर्द्धनव्यपदेशः, यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोषान् एतानेव क्रोधादीन् हितमिच्छन्नात्मनः, एतद्वमने हि सर्वसंपदिति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ अवमने त्विहलोक एवापायमाह'कोह'त्ति सूत्रम्, क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात्, मानो विनयनाशनः, अवलेपेन मूर्खतया तदकरणोपलब्धेः, माया मित्राणि नाशयति, कौटिल्यवतस्तत्त्यागदर्शनात्, लोभः सर्वविनाशनः, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भाव-भावित्वादिति सूत्रार्थः ॥ ३८॥ यत एवमत:-'उवसमेण'त्ति सूत्रम्, उपशमेन शान्तिरूपेण हन्यात् क्रोधम, उदयनिरोधोदय-प्राप्ताफलीकरणेन, एवं मानं मार्दवेन- अनुच्छ्रिततया जयेत् उदयनिरोधादिनैव, मायां च ऋजुभावेन- अशठतया जयेत् उदय-निरोधादिनैव, एवं लोभं संतोषतः' निःस्पृहत्वेन जयेत्, उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः ।। ३९॥ क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह'कोहो'त्ति सूत्रम्, क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ- उच्छृङ्खलौ, माया च लोभश्च विवर्धमानौ च वृद्धिं गच्छन्ती, चत्वार एते क्रोधादयः कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति अशुभभावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्भवस्य पुनर्जन्मतरोरिति ||३६४॥ For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || ३६५।। अष्टममध्ययनं आचारप्रणिधिः, सूत्रम् ४१-५० कषायनिग्रहार्थ कायवाक्प्रणिधिः। सूत्रार्थः ॥ ४०॥ रायाणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइजा। कुम्मुव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिजा तवसंजमंमि ।। सूत्रम् ४१।। निदं च न बहु मन्निज्जा, सप्पहासं विवजए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायंमि रओ सया।। सूत्रम् ४२ ।। जोगं च समणधम्ममि, जुंजे अनलसो धुवं । जुत्तो असमणधम्मंमि, अटुं लहइ अणुत्तरं ।। सूत्रम् ४३ ।। इहलोगपारत्तहिअं, जेणं गच्छइ सुग्गई। बहुस्सुअंपवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थविणिच्छयं ।। सूत्रम् ४४ ।। हत्थं पायं च कार्य च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ।। सूत्रम् ४५ ।। न पक्खओन पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न य ऊरुसमासिजा, चिट्ठिजा गुरुणंतिए। सूत्रम् ४६॥ अपूच्छिओन भासिजा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाइजा, मायामोसं विवजए।। सूत्रम् ४७ ।। अप्पत्तिअंजेण सिआ, आसु कुप्पिज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं ।। सूत्रम् ४८ ।। दिलु मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअंजिअं। अयंपिरमणुव्विगं, भासं निसिर अत्तवं ।। सूत्रम् ४९ ।। आयारपन्नत्तिधरं, दिट्ठिवायमहिजगं । वायविक्खलिअंनच्चा, न तं उवहसे मुणी ।। सूत्रम् ५०॥ यत एवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह-'रायणिए'त्ति, रत्नाधिकेषु चिरदीक्षितादिषु विनयं अभ्युत्थानादिरूपं प्रयुञ्जीत, तथा ध्रुवशीलता अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपां सततं अनवरतं यथाशक्त्या (क्ति) न हापयेत्, तथा कूर्म इव कच्छप इवालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक् संयम्येत्यर्थः, पराक्रमेत प्रवर्तेत तपःसंयमे तपःप्रधाने संयम इति सूत्रार्थः ।। ४१ ।। किंच-'निइंच'त्ति सूत्रम्, निद्रांच न बहमन्येत न प्रकामशायी स्यात् । सप्रहासंच अतीवहासरूपं विवर्जयेत्, मिथ कथासु For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥३६६॥ अष्टममध्ययन आचारप्रणिधि: सूत्रम् ४१-५० कपायनियहाथ काय वाक्प्रणिधिः। राहस्यिकीषु न रमेत, स्वाध्याये वाचनादौ रतः सदा, एवंभूतो भवेदिति सूत्रार्थः ।। ४२॥ तथा-'जोगं च'त्ति सूत्रम्, योगं च। त्रिविधं मनोवाक्कायव्यापारं श्रमणधर्मे क्षान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत अनलसः उत्साहवान्, ध्रुवं कालाद्यौचित्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा, अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगमध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । फलमाहयुक्त एवं व्याप्तः श्रमणधर्मे दशविधेऽर्थ लभते प्राप्नोत्यनुत्तरं भावार्थं ज्ञानादिरूपमिति सूत्रार्थः ॥ ४३ ।। एतदेवाह-'इहलोग'त्ति सूत्रम्, इहलोकपरत्रहितं इहाकुशलप्रवृत्तिदुःखनिरोधेन परत्र कुशलानुबन्धत उभयलोकहितमित्यर्थः, येन अर्थेन ज्ञानादिना करणभूतेन गच्छति सुगतिम्, पारम्पर्येण सिद्धिमित्यर्थः, उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनोपायमाह- बहुश्रुतं आगमवृद्धं । पर्युपासीत सेवेत, सेवमानश्च पुच्छेद अर्थविनिश्चयं अपायरक्षकंकल्याणावहंवाऽर्थावितथभावमिति सत्रार्थः ।। ४४ ॥ पर्यपासीनश्च हत्थं ति सूत्रम्, हस्तं पादं च कायं च प्रणिधाये ति संयम्य जितेन्द्रियो निभृतो भूत्वा आलीनगुप्तो निषीदेत, ईषल्लीन उपयुक्त इत्यर्थः, सकाशे गुरोर्मुनिरिति सूत्रार्थः॥ ४५ ॥ किं च-'न पक्खओ'त्ति सूत्रम्, न पक्षतः- पार्वतः न पुरत:- अग्रत: नैव कृत्यानां आचार्याणां पृष्ठतो मार्गतो निषीदेदिति वर्त्तते, यथासंख्यमविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसङ्गात् । न च ऊरु समाश्रित्य ऊरोरुपलं कृत्वा तिष्ठेदुर्वन्तिके, अविनयादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ।। उक्तः कायप्रणिधिः, वाक्प्रणिधिमाह- अपुच्छिओ त्ति सूत्रम्, अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, नेदमित्थं किं त·वमिति, तथा पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेत् न भाषेत, मायामृषां मायाप्रधानां मृषावाचं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः॥ ४७॥ किंच'अप्पत्तिअंति सूत्रम्, अप्रीतिर्येन स्या दिति प्राकृतशैल्या येनेति- यया भाषया भाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं भवेत् तथा आशु शीघ्रं कुप्येद्वा परो रोषकार्यं दर्शयेत् सर्वशः सर्वावस्थासुता इत्थंभूतां न भाषेत भाषां अहितगामिनी उभयलोकविरुद्धामिति For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३६७ ।। www.kobatirth.org सूत्रार्थ: ।। ४८ ।। भाषणोपायमाह - 'दिट्ठ'ति सूत्रम्, दृष्टां दृष्टार्थविषयां मितां स्वरूपप्रयोजनाभ्यां असंदिग्धां निःशङ्कितां प्रतिपूर्णां स्वरादिभिः व्यक्तां अलल्लां जितां परिचितां अजल्पनशीलां नोच्चैर्लग्नविलग्नां अनुद्विनां नोद्वेगकारिणीमेवंभूतां भाषां निसृजेद् ब्रूयाद् आत्मवान् सचेतन इति सूत्रार्थ: ।। ४९ ।। प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह- आयार ति सूत्रम्, आचारप्रज्ञप्तिधर मित्याचारधरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंभूतम् । तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकादिवेदिनं वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा विविधं अनेकैः प्रकारैर्लिङ्गभेदादिभिः स्खलितं विज्ञाय न तं आचारादिधरमुपहसेन्मुनिः, अहो नु खल्वाचारादिधरस्य वाचि कौशलमित्येवम्, इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते- नाधीतदृष्टिवादम्, तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनाऽसंभवाद्, यद्येवंभूतस्यापि स्खलितं संभवति न चैनमुपहसेदित्युपदेशः, ततोऽन्यस्य सुतरां संभवति, नासौ हसितव्य इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ नक्खत्तं सुमिण जोगं, निमित्तं मंतभेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पयं ।। सूत्रम् ५१ ।। अन्नङ्कं पगडं लयणं, भइज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवज्जि अं ।। सूत्रम् ५२ ।। विवित्ता अभवे सिज्जा, नारीणं न लवे कहं। गिहिसंथवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं ।। सूत्रम् ५३ ।। जहा कुक्कुडपो अस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ।। सूत्रम् ५४ ।। चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकिअं । भक्खरंपिव दट्टूणं, दिट्ठि पडिसमाहरे ।। सूत्रम् ५५ ।। हत्थपायपलिच्छिन्नं, कण्णनासविगप्पिअं । अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवज्रए । सूत्रम् ५६ ।। विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीअं रसभोअणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा । सूत्रम् ५७ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टममध्ययनं आचार प्रणिधिः, सूत्रम् ५१-६० | निमित्तादि| प्रतिषेधः । ।। ३६७ ।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३६८॥ सूत्रम् ५१-६० अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लविअपेहिअं। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवडणं ।। सूत्रम् ५८।। अष्टममध्ययन विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए। अणिचं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण उ ।। सूत्रम् ५९।। प्रणिधिः, पोगलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीअतण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा ।। सूत्रम् ६० ।। किंच-'नक्खत्तं ति सूत्रम्, गृहिणा पृष्टः सन्नक्षत्रं- अश्विन्यादि स्वप्नं शुभाशुभफलमनुभूतादि योगं वशीकरणादि निमित्तं । निमित्तादिअतीतादि मन्त्रं वृश्चिकमन्त्रादि भेषजं अतीसाराद्यौषधं गृहिणां असंयतानां तद् नाचक्षीत, किंविशिष्टमित्याह- भूताधिकरणं पद प्रतिषेधः। मिति भूतानि- एकेन्द्रियादीनि संघटनादिनाऽधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति, ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमित्थं ब्रूयाद्- अनधिकारोऽत्र तपस्विनामिति सूत्रार्थः ॥५१॥ किंच-'अन्नटुं'ति सूत्रम्, अन्यार्थं प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निर्वर्त्तितं लयनं स्थानं वसतिरूपं भजेत् सेवेत, तथा शयनासन मित्यन्यार्थं प्रकृतं संस्तारकपीठकादि सेवेतेत्यर्थः, एतदेव विशेष्यते- उच्चारभूमिसंपन्नं उच्चारप्रस्रवणादिभूमियुक्तम्, तद्रहितेऽसकृत्तदर्थं निर्गमनादिदोषात्, तथा स्त्रीपशुविवर्जित मित्येकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितं स्त्र्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः ॥५२॥ तदित्थंभूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह-विवित्ता य: त्ति सूत्रम्, विविक्ता च तदन्यसाधुभी रहिता च, चशब्दात्तथाविधभुजङ्गप्रायैकपुरुषयुक्ता च भवेच्छय्या- वसतिर्यदि ततो । नारीणां स्त्रीणां न कथयेत्कथाम, शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति. तथा गहिसंस्तवं गहिपरिचयं न कर्यात तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कर्यात्साधुभिः सह संस्तवं परिचयम, कल्याणमित्रयोगेन कुशलपक्षवृद्धिभावत इति सूत्रार्थः ।। ५३ ।। कथञ्चिगृहिसंस्तवभावेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कर्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह-'जह'ति । । सूत्रम्, यथा कुक्कुटपोतस्य कुक्कुटचेल्लकस्य नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जारात् भयम्, एवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् । ॥ ३६८॥ For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir आचार प्रणिधिः, श्रीदश- स्त्रीशरीराद्भयम् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि भयख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥५४॥ यतश्चैवमत:-'चित्त'त्ति सूत्रम्, चित्तभित्तिं । अष्टममध्ययन वैकालिक । चित्रगतां स्त्रियं न निरीक्षेत न पश्येत् नारी वा सचेतनामेव स्वलङ्कताम, उपलक्षणमेतदनलङ्कतां च न निरीक्षेत, श्रीहारिक वृत्तियुतम् कथश्चिद्दर्शनयोगेऽपि भास्करमिव आदित्यमिव दृष्टा दृष्टिं प्रतिसमाहरेद् द्रागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ।। ५५ ॥ किं बहुना? सूत्रम् ।। ३६९।। हत्थ'त्ति सूत्रम्, हस्तपादप्रतिच्छिन्ना मिति प्रतिच्छिन्नहस्तपादां कर्णनासाविकृत्ता मिति विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिका नारीम्, निमित्तादिएवंविधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणीं?, तां तु सुतरामेव, ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधन इव तस्करान् विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ।। प्रतिषेधः। ५६॥ अपिच-'विभूस'त्ति सूत्रम्, विभूषा वस्त्रादिराढा स्त्रीसंसर्गः येन केनचित्प्रकारेण स्त्रीसंबन्धः प्रणीतरसभोजनं गलत्स्नेहरसाभ्यवहारः, एतत्सर्वमेव विभूषादि नरस्य आत्मगवेषिण आत्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितमिति सूत्रार्थः ।। ५७ ।। 'अंग'त्ति सूत्रम्, अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थान मिति अङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि प्रत्यङ्गानिनयनादीनि एतेषां संस्थान-विन्यासविशेषम्, तथा चारु- शोभनं लपितप्रेक्षितं लपितं- जल्पितं प्रेक्षितं- निरीक्षितं स्त्रीणां । संबन्धि, तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि न निरीक्षेत न पश्येत् किमित्यत आह- कामरागविवर्द्धनमिति, एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषात् ।। मैथुनाभिलाषं वर्द्धयति, अत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधागतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थो भेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः॥ ५८॥ किं च-'विसएसुत्ति सूत्रम्, विषयेषु शब्दादिषु मनोज्ञेषु इन्द्रियानुकूलेषु प्रेम रागं नाभिनिवेशयेत् न । कुर्यात्, एवममनोज्ञेषु द्वेषम्, आह- उक्तमेवेदं प्राक् कण्णसोक्खेही त्यादौ किमर्थं पुनरुपन्यास इति?, उच्यते, कारणविशेषाभिधानेन विशेषोपलम्भार्थमिति, आह च-अनित्यमेव परिणामानित्यतया तेषां पुद्गलानाम्, तुशब्दाच्छब्दादिविषयसंबन्धिनामिति योगः, विज्ञाय अवेत्य जिनवचनानुसारेण, किमित्याह- परिणामं पर्यायान्तरापत्तिलक्षणम्, ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो। ||३६९॥ For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् आचार ||३७०॥ ६१-६४ उपदेशोऽऽ फरनंच विषयाः क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति अमनोज्ञा अपि मनोजतया इति तुच्छ रागद्वेषयोनिमित्तमिति सूत्रार्थः ।। ५९॥ एतदेव अष्टममध्ययनं स्पष्टयन्नाह-'पोग्गलाणं'ति सूत्रम्, पुद्गलानां शब्दादिविषयान्तर्गतानां परिणाम उक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा विज्ञाय यथा । प्रणिधिः, मनोज्ञेतररूपतया भवन्ति तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णः अपेताभिलाष: शब्दादिषु विहरेत् शीतीभूतेन क्रोधाद्यग्न्युपगमात्प्रशान्ते सूत्रम् नात्मनेति सूत्रार्थः ।। ६०॥ जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिआयट्टाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरिअसंमए ।। सूत्रम् ६१॥ चारप्रणिधितवं चिमं संजमजोगयंच, सज्झायजोगं च सया अहिट्टए। सुरेव सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ।। सूत्रम् ६२ ।। सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकर्ड, समीरिअंरुप्पमलं व जोइणा ।। सूत्रम् ६३॥ से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे । विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमि ।। सूत्रम् ६४।। त्तिबेमि ॥ आयारपणिहीणाम अज्झयणं समत्तं ८॥ किं च-'जाइ'त्ति सूत्रम्, यया श्रद्धया प्रधानगुणस्वीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात् पर्यायस्थानं प्रव्रज्यारूपं उत्तम प्रधान प्राप्त इत्यर्थः, तामेव श्रद्धामप्रतिपतिततया प्रवर्द्धमानामनुपालयेद्यत्नेन, क्व इत्याह- गुणेषु मूलगुणादिलक्षणेषु, आचार्यसंमतेषु तीर्थकरादिबहुमतेषु, अन्ये तु श्रद्धाविशेषणमेतदिति व्याचक्षते, तामेव श्रद्धामनुपालयेद्गुणेषु, किंभूतां? - आचार्यसंमताम्, न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति सूत्रार्थः ।। ६१ ॥ आचारप्रणिधिफलमाह-'तवं चिमं ति सूत्रम्, तपश्चेदं For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३७१ ।। www.kobatirth.org अनशनादिरूपं साधु लोकप्रतीतं संयमयोगं च पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च स्वाध्याययोगं च वाचनादिव्यापारं सदा सर्वकालं अधिष्ठाता तपः प्रभृतीनां कर्तेत्यर्थः, इह च तपोऽभिधानात्तद्ग्रहणेऽपि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनाभिधानमिति । स एवंभूतः शूर इव विक्रान्तभट इव सेनया चतुरङ्गरूपया इन्द्रियकषायादिरूपया निरुद्धः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपः प्रभृतिखड्गाद्यायुधः अलं अत्यर्थमात्मनो भवति संरक्षणाय अलं च परेषां निराकरणायेति सूत्रार्थः ।। ६२ ।। एतदेव स्पष्टयन्नाह'सज्झाय'त्ति सूत्रम्, स्वाध्याय एव सद्ध्यानं स्वाध्यायसङ्ख्यानं तत्र रतस्य सक्तस्य त्रातुः स्वपरोभयत्राणशीलस्य अपापभावस्य लब्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्धचित्तस्य तपसि अनशनादौ यथाशक्ति रतस्य विशुद्धयते अपैति यद् अस्य साधोः मलं कर्ममलं पुराकृतं जन्मान्तरोपात्तम्, दृष्टान्तमाह- समीरितं प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषा अग्निनेति सूत्रार्थः ।। ६३ ।। ततः - 'से तारिसे 'त्ति सूत्रम्, स तादृशः अनन्तरोदितगुणयुक्तः साधुः 'दुःखसहः' परीषहजेता जितेन्द्रियः पराजित श्रोत्रेन्द्रियादिः श्रुतेन युक्तो विद्यावानित्यर्थः अममः सर्वत्र ममत्वरहितः अकिञ्चनो द्रव्यभावकिञ्चनरहितः विराजते शोभते, कर्मघने ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति, निदर्शनमाह- कृत्स्नाभ्रपुटापगम इव चन्द्रमा इति यथा कृत्स्ने कृष्णे वा अभ्रपुटे अपगते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपेतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इति सूत्रार्थः ।। ६४ ।। ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् ॥ ८ ॥ || सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ अष्टममध्ययनं आचारप्रणिध्याख्यं समाप्तमिति ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टममध्ययनं आचार प्रणिधिः, सूत्रम् ६१-६४ उपदेशो55चारप्रणिधि फलं च । ।। ३७१ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३७२ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ नवममध्ययनं विनयसमाध्याख्यम् ॥ ॥ नवमाध्यने प्रथमोद्देशकः ॥ अधुना विनयसमाध्याख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने निरवद्यं वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव भवतीत्येतदुच्यते, उक्तं च- आयारपणिहाणमि, से सम्म वट्टई बुहे। णाणादीण विणीए जे, मोक्खट्ठा निव्विगिच्छ ॥ १ ॥ इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च विनयसमाधिरिति द्विपदं नाम, तन्निक्षेपायाह नि० विणयस्स समाहीए निक्खेवो होइ दोण्हवि चउक्को। दव्वविणयंमि तिणिसो सुवण्णमिचेवमाईणि ।। ३०९ ।। विनयस्य प्रसिद्धतत्त्वस्य समाधेश्च प्रसिद्धतत्त्वस्यैव निक्षेपो- न्यासो भवति द्वयोरपि चतुष्को नामादिभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यविनयमाह- द्रव्यविनये ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ते तिनिशो वृक्षविशेष उदाहरणम्, स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा यथा विनीयते तत्र तत्र तथा तथा परिणमति, योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुण्डलादिप्रकारेण विनयनाद् द्रव्याणि द्रव्यविनयः, आदिशब्दात्तत्तद्योग्यरूप्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः ।। ३०९ ।। साम्प्रतं भावविनयमाहनि०- लोगोवयारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेडं च। भयविणय मुक्खविणओ विणओ खलु पंचहा होइ ।। ३१० ।। नि०- अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं अतिहिपूआ य लोगोवयारविणओ देवयपूआ य विहवेणं ।। ३११ ।। नि० अब्भासवित्तिछंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च अब्भुट्ठाणं अंजलिआसणदाणं च अत्थकए ।। ३१२ ।। © आचारप्रणिधाने स सम्यग्वर्त्तते बुधः । ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्थं निर्विचिकित्सकः ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only नवममध्ययनं विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः नियुक्ति: ३०९ अभिसम्बन्धोविजयविनयनिक्षेपाच निर्युक्तिः | ३१०-३१२ | भावविनयः । ।। ३७२ ।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३७३॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः प्रथमोद्देशकः नियुक्ति: ३१३ भावविनयः। नियुक्तिः ३१४-३१६ पञ्चविधमोक्षविनयः। नि०- एमेव कामविणओ भए अनेअव्वमाणुपुव्वीए । मोक्खंमिऽवि पंचविहो परूवणा तस्सिमा होइ ।। ३१३।। लोकोपचारविनयो लोकप्रतिपत्तिफल:अर्थनिमित्तं च अर्थप्राप्त्यर्थं च कामहेतुश्च कामनिमित्तश्च तथा भयविनयो भयनिमित्तो मोक्षविनयो मोक्षनिमित्तः, एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु पञ्चधा पञ्चप्रकारो भवतीति गाथासमासार्थः ॥३१०॥ व्यासार्थाभिधित्सया तुलोकोपचारविनयमाह- अभ्युत्थानं तदुचितस्यागतस्याभिमुखमुत्थानं अञ्जलिः विज्ञापनादौ, आसनदानं च गृहागतस्य प्रायेण, अतिथिपूजा चाहारादिदानेन 'एष' इत्थंभूतो लोकोपचारविनयः, देवतापूजा च यथाभक्ति बल्याधुपचाररूपा विभवेने ति यथाविभवं विभवोचितेति गाथार्थः ।। ३११ ॥ उक्तो लोकोपचारविनयः, अर्थविनयमाह- अभ्यासवृत्तिः नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं छन्दोऽनुवर्तनं अभिप्रायाराधनं देशकालदानं च कटकादौ विशिष्टनृपतेः प्रस्तावदानम्, तथाऽभ्युत्थानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्ति अर्थकृते अर्थार्थमिति गाथार्थः ॥ ३१२ ।। उक्तोऽर्थविनयः, कामादिविनयमाह- एवमेव यथाऽर्थविनय उक्तोऽभ्यासवृत्त्यादिस्तथा कामविनय: भये चेति भयविनयश्च ज्ञातव्यो विज्ञेयः आनपा परिपाट्या. तथाहिकामिनो वेश्यादीनांकामार्थमेवाभ्यासवृत्त्यादि यथाक्रमं सर्वं कुर्वन्ति प्रेष्याश्च भयेन स्वामिनामिति, उक्तौ कामभयविनयौ, मोक्षविनयमाह- मोक्षेऽपि मोक्षविषयो विनयः पञ्चविधः पञ्चप्रकारः प्ररूपणा निरूपणा तस्यैषा भवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ।। ३१३॥ नि०-दसणनाणचरित्ते तवे अतह ओवयारिए चेव । एसो अमोक्खविणओ पंचविहो होइ नायव्यो ।। ३१४ ।। नि०-दव्वाण सव्वभावा उवइट्ठाजे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दहइनरोदसणविणओ हवइ तम्हा ॥ ३१५।। नि०- नाणं सिक्खड़ नाणं गुणेड़ नाणेण कुणइ किच्चाई। नाणी नवं न बंधड़ नाणविणीओ हवड़ तम्हा ।। ३१६ ।। ॥३७३|| For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् || ३७४।। नवममध्ययन विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः नियुक्तिः ३१७-३२२ पञ्चविधमोक्षविनयः। नि०- अट्ठविहं कम्मचयं जम्हा रित्तं करेइ जयमाणो । नवमन्नं च न बंधइ चरित्तविणओ हवइ तम्हा ।। ३१७ ।। नि०- अवणेइ तवेण तमं उवणेइ असम्गमोक्खमप्पाणं । तवविणयनिच्छयमई तवोविणीओ हवइ तम्हा ।। ३१८।। नि०- अह ओवयारिओ पुण दुविहो विणओसमासओहोड़। पडिरूवजोगजुंजण तह य अणासायणाविणओ।। ३१९।। नि०- पडिरूवो खलु विणओ काइअजोए य वाइ माणसिओ। अट्ठ चउव्विह दुविहो परूवणा तस्सिमा होइ ।। ३२० ।। नि० - अन्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गह किई अ। सुस्सूसणमणुगच्छण संसाहण काय अट्ठविहो ।। ३२१ ।। नि०-हिअमिअअफरुसवाई अणुवीईभासि वाइओ विणओ। अकुसलचित्तनिरोहो कुसलमणउदीरणाचेव ।। ३२२ ।। दर्शनज्ञानचारित्रेषु दर्शनज्ञानचारित्रविषयः तपसि च तपोविषयश्च तथा औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव, एष तु मोक्षविनयो- मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथासमासार्थः ।। ३१४ ।। व्यासार्थे दर्शनविनयमाह- द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वभावाः सर्वपर्यायाः उपदिष्टाः कथिता 'ये' अगुरुलघ्वादयो यथा येन प्रकारेण जिनवरैः तीर्थकरैः तान् भावान तथा तेन प्रकारेण श्रद्धत्ते नरः, श्रद्दधानश्च कर्म विनयति यस्माद्दर्शनविनयो भवति तस्माद, दर्शनाद्विनयो दर्शनविनय । इति गाथार्थः ।। ३१५ ।। ज्ञानविनयमाह- ज्ञानं शिक्षति अपूर्वं ज्ञानमादत्ते, ज्ञानं गुणयति गृहीतं सत्प्रत्यावर्त्तयति, ज्ञानेन करोत्ति कृत्यानि संयमकृत्यानि, एवं ज्ञानी नवं कर्म न बध्नाति प्राक्तनं च विनयति यस्मात् ज्ञानविनीतो ज्ञानेनापनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाथार्थः ।। ३१६ ।। चारित्रविनयमाह- अष्टविधं अष्टप्रकारं कर्मचयं कर्मसंघातं प्राग्बद्धं यस्माद् रिक्तं करोति तुच्छतापादनेनापनयति यतमानः क्रियायां यत्नपरस्तथा नवमन्यं च कर्मचयं न बध्नाति यस्मात् चारित्रविनय इति चारित्राद्विनयचारित्रविनयः चारित्रेण विनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाथार्थः ।। ३१७ ।। तपोविनयमाह- अपनयति तपसा तमः अज्ञानं 2 ॥३७४।। For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तिषुतम् ।। ३७५ ।। www.kobatirth.org उपनयति च स्वर्गं मोक्षं आत्मानं जीवं तपोविनयनिश्चयमतिः, यस्मादेवंविधस्तपोविनीतो भवति तस्मादिति गाथार्थः ।। ३१८ ।। उपचारविनयमाह- अथौपचारिकः पुनर्द्विविधो विनयः समासतो भवति, द्वैविध्यमेवाह प्रतिरूपयोगयोजनं तथाऽनाशातनाविनय इति गाथासमासार्थः ।। ३१९ ।। व्यासार्थमाह- प्रतिरूपः उचितः खलु विनयस्त्रिविधः, काययोगे च वाचि मानसः कायिको वाचिको मानसश्च, अष्टचतुर्विधद्विविधः, कायिकोऽष्टविधः वाचिकश्चतुर्विधः मानसो द्विविधः । प्ररूपणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं भवति वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः ।। ३२० ।। कायिकमाह- अभ्युत्थानमर्हस्य, अञ्जलिः प्रश्नादौ, आसनदानं पीठकाद्युपनयनम्, अभिग्रहो गुरुनियोगकरणाभिसन्धिः, 'कृतिश्चे' ति कृतिकर्म वन्दनमित्यर्थः, शुश्रूषणं विधिवददूरासन्नतया सेवनम्, अनुगमनं आगच्छतः प्रत्युद्गमनम्, संसाधनं च गच्छतोऽनुव्रजनं चाष्टविध: कायविनय इति गाथार्थ: ।। ३२१ ।। वागादिविनयमाह- हितमितापरुषवागिति हितवाक्- हितं वक्ति परिणामसुन्दरम्, मितवाग्- मितं स्तोकैरक्षरैः, अपरुषवागपरुषंअनिष्ठुरम्, तथा अनुविचिन्त्यभाषी स्वालोचितवक्तेति वाचिको विनयः। तथा अकुशलमनोनिरोधः आर्तध्यानादिप्रतिषेधेन, कुशलमनउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्त्येति मानस इति गाथार्थ: ।। ३२२ ।। आह- किमर्थमयं प्रतिरूपविनयः ?, कस्य चैष इति ?, उच्यते नि०- पडिवो खलु विणओ पराणुअत्तिमइओ मुणे अव्वो। अप्पडिरूवो विणओ नायव्वो केवलीणं तु ।। ३२३ ।। नि० एसो भे परिकहिओ विणओ पडिरूवलक्खणो तिविहो। बावन्नविहिविहाणं बेंति अणासायणाविणयं ।। ३२४ ।। नि०- तित्थगरसिद्धकुलगणसंघकियाधम्मनाणनाणीणं। आयरिअथेर ओज्झागणीणं तेरस पयाणि ।। ३२५ ।। नि० अणसायणाय भत्ती बहुमाणो तहय वन्नसंजलणा। तित्थगराई तेरस चउग्गुणा होंति बावन्ना ।। ३२६ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययनं विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः निर्युक्तिः | ३२३-३२६ प्रतिरूपाप्रतिरूपो विनयः । ।। ३७५ ।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३७६॥ निक्षेपाश। प्रतिरूप: उचितः खलु विनय: परानुवृत्त्यात्मकः तत्तद्वस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्त्यात्मको मन्तव्यः । अयं च बाहुल्येन छद्मस्थानाम् । तथा अप्रतिरूपो विनयः अपरानुवृत्त्यात्मकः, स च ज्ञातव्य: केवलिनामेव, तेषां तेनैव प्रकारेण : विनयसमाधिः प्रथमोद्देशकः कर्मविनयनात्, तेषामपीत्वरः प्रतिरूपोऽज्ञातकेवलभावानां भवत्येवेति गाथार्थः ।। ३२३ ।। उपसंहरन्नाह- एषः अनन्तरोदितो नियुक्ति: ३२७ भे भवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणः त्रिविधः कायिकादिः द्विपञ्चाशद्विधिविधानं एतावत्प्रभेदमित्यर्थः ब्रुवते अभिदधति समाधितीर्थकरा अनाशातनाविनयं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ।। ३२४ ।। एतदेवाह- तीर्थकरसिद्धकुलगणसङ्घक्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा आचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि, अत्र तीर्थकरसिद्धौ प्रसिद्धौ, कुलं नागेन्द्रकुलादि, गणः कोटिकादिः, सड़ः प्रतीतः, क्रियाऽस्तिवादरूपा, धर्मः श्रुतधर्मादिः, ज्ञानं मत्यादि. ज्ञानिनस्तद्वन्तः, आचार्यः प्रतीतः, स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रतीतः, गणाधिपतिर्गणिरिति गाथार्थः ।। ३२५ ।। एतानि त्रयोदश पदानि अनाशातनादिभिश्चतर्भिर्गणितानि द्विपञ्चाशद्धवन्तीत्याह- अनाशातना च तीर्थकरादीनां सर्वथा अहीलनेत्यर्थः, तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरभावप्रतिबन्धरूपः, तथा च वर्णसंज्वलनातीर्थकरादीनामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गणा अनाशातनाद्यपाधिभेदेन भवन्ति द्विपञ्चाशद्भेदा इति गाथार्थः ।। ३२६ ।। उक्तो विनयः, साम्प्रतं समाधिरुच्यते, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाह नि०-दव्वं जेण व दव्वेण समाही आहिअंचजंदव्वं । भावसमाहि चउब्विह दंसणनाणे तवचरित्ते ।। ३२७॥ द्रव्य मिति द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिः यथा मात्रकं अविरोधि वा क्षीरगुडादि तथा येन वा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधिस्त्रिफलादिना तद् द्रव्यसमाधिरिति । तथा आहितं वा यद्रव्यं समतां करोति तुलारोपितपलशतादिवत्स्वस्थाने तद् द्रव्यं ॥३७६।। For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३७७ ।। www.kobatirth.org समाधिरिति । उक्तो द्रव्यसमाधिः, भावसमाधिमाह- भावसमाधिः प्रशस्तभावाविरोधलक्षणश्वतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाहदर्शनज्ञानतपश्चारित्रेषु । एतद्विषयो दर्शनादीनां व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथाऽविरोध इति गाथार्थः ।। ३२७ ।। उक्तः समाधिः, तदभिधानान्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत् तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व की अस्स वहाय होइ ।। सूत्रम् RII 'थंभा व 'त्ति, अस्य व्याख्या स्तम्भाद्वा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् क्रोधाद्वा अक्षान्तिलक्षणात् मायाप्रमादा दिति मायातोनिकृतिरूपायाः प्रमादाद्- निद्रादेः सकाशात्, किमित्याह- गुरोः सकाशे आचार्यादेः समीपे विनयं आसेवनाशिक्षाभेदभिन्नं न शिक्षते नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात्कथमहं जात्यादिमान् जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्क्वचिद्वितथकरणचोदितो रोषाद्वा, मायातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्प्रक्रान्तोचितमनवबुद्ध्यमानो निद्रादिव्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यासश्चेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे विनयं न शिक्षते, अन्ये तु पठन्ति गुरोः सकाशे 'विनये न तिष्ठति' विनये न वर्त्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तम्भादिर्विनयशिक्षाविघ्नहेतुः तस्य जडमतेः अभूतिभाव' इति अभूतेर्भावोऽभूतिभावः, असंपद्भाव इत्यर्थः, किमित्याह- 'वधाय भवति' गुणलक्षणभावप्राणविनाशाय भवति, दृष्टान्तमाह- फलमिव कीचकस्य कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति, सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्, तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जे आवि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवज्रमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ।। सूत्रम् २ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययनं | विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् १ विनयाग्राहिणो हानिः । सूत्रम् २ उदाहरण पूर्वकं दोषप्ररूपणम् । ।। ३७७ ।। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३७८॥ पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंतो गुणसुट्टिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा ।। सूत्रम् ३॥ जे आवि नागंडहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिअंपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ।। सूत्रम् ४ ।। आसीविसो वावि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउपरं नु कुना? आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो।। सूत्रम् ॥ जो पावगंजलि अमवक्तमिजा, आसीविसं वावि हु कोवइजा। जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् ६॥ सिआ ह से पावय नो डहिजा, आसीविसो वा कुविओन भने । सिआ विसं हालहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए। सूत्रम् ७॥ जो पव्वयं सिरसा भिन्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहइजा। जो वा दए सत्ति अग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् । नवममध्ययन विनयसमाधिः प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ३-१० उदाहरणपूर्वकं दोषप्ररूपणम। ॥३७८।। सिआ हसीसेण गिरिपि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओन भक्खे। सिआन भिदिज वसत्तिअगं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥सूत्रम् ९॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो। तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा। सूत्रम् १०॥ For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३७९॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् २-१० उदाहरणपूर्वकं दोषप्ररूपणम्। किंच-जे आवि त्ति सूत्रम्, ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः, किमित्याह- मन्द इति गुरुं विदित्वा क्षयोपशमवैचित्र्यातन्त्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्य ज्ञात्वा । तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसंडहरोऽयं अप्राप्तवया खल्वयम्, तथा अल्पश्रुत इत्यनधीतागम इति विज्ञाय, किमित्याह- हीलयन्ति सूययाऽसूयया वा खिसयन्ति, सूयया । अतिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असूयया तु मन्दप्रज्ञस्त्वमित्याद्यभिदधति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना इति गुरुर्न हीलनीय । इति तत्त्वमन्यथाऽवगच्छन्तः कुर्वन्ति आशातनां लघुतापादनरूपांते द्रव्यसाधवः गुरूणां आचार्याणाम्, तत्स्थापनाया अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम्, अथवा कुर्वन्ति 'आशातनां' स्वसम्यग्दर्शनादिभावापहासरूपांते गरूणां संबन्धिनीम. तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥ २॥ अतोन कार्या हीलनेति, आह च-'पगइति सूत्रम्, प्रकृत्या स्वभावेन । कर्मवैचित्र्यात् मन्दा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति एके केचन वयोवृद्धा अपि तथा डहरा अपि च अपरिणता अपि च । वयसाऽन्येऽमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः, किंविशिष्टा इत्याह- ये च श्रुतबुद्ध्युपपेताः तथा सत्प्रज्ञावन्तः श्रुतेन बुद्धिभावेन वा, भाविनी वृत्तिमाश्रित्याल्पश्रुता इति, सर्वथा आचारवन्तो ज्ञानाद्याचारसमन्विता: गुणसुस्थितात्मानो गुणेषु- संग्रहोपग्रहादिषु सुष्ठ- भावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः, ये हीलिता खिसिताः शिखीव अग्निरिवेन्धनसंघातं भस्मसात्कुर्युः ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः ।। ३ ।। विशेषेण डहरहीलनादोषमाह- जे आवि त्ति सूत्रम् यश्चापि कश्चिदज्ञो नाग सर्प डहर इति बाल इति ज्ञात्वा विज्ञाय आशातयति किलिञ्चादिना कदर्थयति 'स' कदीमानो नाग: से तस्य कदर्थकस्य अहिताय भवति भक्षणेन प्राणनाशाय भवति, एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः- एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापित हीलयन् निर्गच्छति जातिपन्थानं द्वीन्द्रियादिजातिमार्ग मन्दः अज्ञः, संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्थः ॥ ४॥ अत्रैव दृष्टान्तदाटन्ति 888888888888 For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३८०॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् २-१० उदाहरणपूर्वकं दोषप्ररूपणम्। कयोर्महदन्तरमित्येतदाह- आसि'त्ति सूत्रम्, आशीविषश्चापि सर्पोऽपि परं सुरुष्टः सुक्रुद्ध सन् किं जीवितनाशात् मृत्योः परं कुर्यात्?, न किंचिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना हीलनयाऽननुग्रहे प्रवृत्ताः, किं कुर्वन्तीत्याह- अबोधिं निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहतिम्, तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात्, यतश्चैवमत आशातनया गुरोर्नास्ति मोक्ष इति, अबोधिसंतानानुबन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५॥ किं च-'जो पावर्ग'ति सूत्रम्, यः पावकं अग्निं ज्वलितं सन्तं अपक्रामेद् अवष्टभ्य तिष्ठति, आशीविषं वापि हि भुजङ्गमं वापि हि कोपयेत् रोषं ग्राहयेत्, यो वा विषं खादति जीवितार्थी जीवितुकामः, एषोपमा अपायप्राप्ति प्रत्येतदुपमानम्, आशातनया कृतया गुरूणां संबन्धिन्या तद्वदपायो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अत्र विशेषमाह- सिआ हुत्ति सूत्रम्, स्यात् कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पावकः अग्निः न दहेत् न भस्मसात्कुर्यात्, आशीविषो वा भुजङ्गो वा कुपितो न भक्षयेत् न खादयेत्, तथा स्यात् कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं हालाहलं अतिरौद्रं न मारयेत् न प्राणांस्त्याजयेत. एवमेतत्कदाचिद्भवति न चापि मोक्षो गुरुहीलनया गुरोराशातनया कृतया भवतीति सूत्रार्थः ।। ७॥ किंच-'जो पव्वयंति सूत्रम्, यः पर्वतं शिरसा उत्तमाङ्गेन भेत्तुमिच्छेत्, सुप्तं वा सिंह गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत्, यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन, एषोपमाऽऽशातनया गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ८॥ अत्र विशेषमाह-'सिआ हु'त्ति सूत्रम्, स्यात् कदाचित्कश्चिद्वासुदेवादिः प्रभावातिशयाच्छिरसा गिरिमपि पर्वतमपि भिन्द्यात्, स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिंहः कुपितो न भक्षयेत्, स्याद्देवतानुग्रहादेर्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रंप्रहारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया गुरोराशातनया भवतीति सूत्रार्थः ॥ ९॥ एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थमाह-'आयरिअ'त्ति सूत्रम्, आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्वार्धं पूर्ववत्, यस्मादेवं तस्माद् अनाबाधसुखाभिकाजी मोक्षसुखाभिलाषी साधुः गुरुप्रसादाभिमुखः 2 ॥३८०॥ For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।।३८१॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ११-१७ गुरुमहत्त्वं गुराधनाफलंच। आचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् 'रमेत' वर्तेत इति सूत्रार्थः ।। १० ।। जहाहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरिअंउवचिट्ठइना, अणंतनाणोवगओऽवि संतो।। सूत्रम् ११ ।। जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा अनिच्च ।। सूत्रम् १२ ॥ लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूअयामि ।। सूत्रम् १३ ।। जहा निसंते तवणचिमाली, पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमज्झे व इंदो।। सूत्रम् १४॥ जहा ससीकोमुइजोगजुत्तो, नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा। खेसोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे।।सूत्रम् १५ ॥ महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगेसुअसीलबुद्धिए। संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी ।। सूत्रम् १६।। सुच्चाण मेहावि सुभासिआई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो। आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं ।। सूत्रम् १७ ।। तिबेमि ।। विणयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ।।९-१॥ केन प्रकारेणेत्याह-'जहाहिअग्गि'त्ति सूत्रम्, यथा आहिताग्निः कृतावसथादिर्ब्राह्मणो ज्वलनं अग्निं नमस्यति, किंविशिष्टमित्याह- नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तं तत्राहुतयो- घृतप्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्रपदानि अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि तैरभिषिक्तंदीक्षासंस्कृतमित्यर्थः, एवं अग्निमिवाचार्य उपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत, किंविशिष्ट इत्याह-अनन्तज्ञानोपगतोऽपी ति अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तदुपगतोऽपि सन्, किमङ्ग पुनरन्य इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ एतदेव स्पष्टयति'जस्स'त्ति सूत्रम्, यस्यान्तिके यस्य समीपे धर्मपदानि धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत आदद्यात् तस्यान्तिके तत्समीपे किमित्याह- वैनयिकं प्रयुञ्जीत विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः, कथमित्याह- सत्कारयेदभ्युत्थानादिना पूर्वोक्तेन ॥३८१।। For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11३८२॥ शिरसा उत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः प्रोद्गताञ्जलि: सन् कायेन देहेन गिरा वाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया भो इति शिष्यामन्त्रणं नवममध्ययन विनयसमाधिः मनसा च भावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं सदैव सत्कारयेत्, न तु सूत्रग्रहणकाल एव, कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ।। प्रथमोद्देशकः १२।। एवं च मनसि कुर्यादित्याह-'लज्जा दय'ति सूत्रम्, लज्जा अपवादभयरूपा दया अनुकम्पा संयमः पृथिव्यादिजीवविषयः सूत्रम् ब्रह्मचर्यं विशुद्धतपोऽनुष्ठानम्, एतल्लज्जादि विपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्तकत्वेन कल्याणभागिनो जीवस्य विशोधिस्थान ११-१७ गुरुमहत्व कर्ममलापनयनस्थानं वर्त्तते, अनेन ये मांगुरव आचार्याः सततं अनवरतं अनुशासयन्ति कल्याणयोग्यतां नयन्ति तानहमेवंभूतान गुराधनागुरून् सततं पूजयामि, न तेभ्योऽन्यः पूजार्ह इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इतश्चैते पूज्या इत्याह-'जह'त्ति सूत्रम्, यथा निशान्ते । फलं च। रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः, तपन् अर्चिाली सूर्यः प्रभासयति उद्योतयति केवलं संपूर्णम् । भारतं भरतक्षेत्रम्, तुशब्दादन्यच्च क्रमेण एवं-अर्चिालीवाचार्यः श्रुतेन आगमेन शीलेन परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिभावानिति । एवं च वर्त्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजते सुरमध्य इव सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्र इति सूत्रार्थः ।। १४॥ किंच-'जह'त्ति सूत्रम्, यथा शशी चन्द्रः कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः, स एव विशेष्यतेनक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, खे आकाशे शोभते, किंविशिष्टे खे?- विमलेऽभ्रमुक्ते अभ्रमुक्तमेवात्यन्तं विमलं (तत्) भवतीति ख्यापनार्थमेतत्, एवं चन्द्र इव गणी(तत्) आचार्यः शोभते भिक्षुमध्ये साधुमध्ये, अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः ।। १५ ।। किंच- महागर त्ति सूत्रम्, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्या महैषिणो मोक्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह- समाधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः समाधियोगैः- ध्यानविशेषैः श्रुतेन- द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन- परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च औत्पत्तिक्यादिरूपया, अन्ये तुव्याचक्षते-समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति । तानेवंभूतानाचार्यान् ||३८२|| For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SEC8 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३८३॥ संप्राप्नुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद्विनयकरणेन, न सकृदेव, अपि तु तोषयेद् असकृत्करणेन तोषं ग्राहयेत् धर्मकामोनिर्जरार्थम्, न तु ज्ञानादिफलापेक्षयाऽपीति सूत्रार्थः ।।१६।। सोचाण त्ति सूत्रम्, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि गुर्वाराधनफलाभिधायीनि, किमित्याह- शुश्रूषयेदाचार्यान् अप्रमत्तो निद्रादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः, य एवं गुरुशुश्रूषापरः स आराध्य गुणान् । अनेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नोति सिद्धिमनुत्तराम, मुक्तिमित्यर्थः, अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा । ब्रवीमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः॥ १७॥ ॥ प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।। ॥नवमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ।। मूलाउखंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविंति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ सि पुष्पं च फलं रसो अ॥सूत्रम् नवममध्ययन विनयसमाधिः, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् १-२ वृक्षोपमया विनयमाहात्म्यम। ___एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअंसिग्घं, नीसेसं चाभिगच्छइ ।। सूत्रम् २ ।। विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिमंसूत्रं- 'मूलाउ' इत्यादि, अस्य व्याख्या-मूलाद् आदिप्रबन्धात् स्कन्धप्रभवः स्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-द्रमस्य वृक्षस्य। 'ततः स्कन्धात् सकाशात् पश्चात् तदनु समुपयान्ति आत्मानं प्राप्नुवन्त्युत्पद्यन्त इत्यर्थः, कास्ता इत्याह- शाखाः तद्भुजाकल्पाः । तथा शाखाभ्य उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता विरोहन्ति जायन्ते, तथा तेभ्योऽपि पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति । ततः तदनन्तरं से तस्य द्रमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीति सूत्रार्थः॥१॥ एवं दृष्टान्तमभिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह-एवं ति सूत्रम्, एवं द्रुममूलवत् धर्मस्य परमकल्पवृक्षस्य विनयो । मूल आदिप्रबन्धरूपं परम इत्यग्रो रसः से तस्य फलरसवन्मोक्षः, स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमनसुकुलागमनादीनि, For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३८४ ।। www.kobatirth.org अतो विनयः कर्तव्यः, किंविशिष्ट इत्याह- येन विनयेन कीर्तिं सर्वत्र शुभप्रवादरूपां तथा श्रुतं अङ्गप्रविष्टादि श्लाघ्यं प्रशंसास्पदभूतं निःशेषं संपूर्ण अधिगच्छति प्राप्नोतीति ॥ २ ॥ जे अ चंडे मिए श्रद्धे, दुव्वाई नियडी सढे । वुज्झइ से अविणीअप्पा, कट्ठे सोअगयं जहा ।। सूत्रम् ३ ।। विणयंपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो सिरिमिजंतिं, दंडेण पडिसेहए ।। सूत्रम् ४ ।। अविनयवतो दोषमाह- 'जे अ'त्ति सूत्रम्, यः चण्डो रोषणो मृगः अज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति तथा स्तब्धो जात्यादिमदोन्मत्तः दुर्वाग् अप्रियवक्ता निकृतिमान् मायोपेतः शठः संयमयोगेष्वनादृतः, एभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति यः उद्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा 'अविनीतात्मा' सकलकल्याणैकनिबन्धनविनयविरहितः । किमिवेत्याह- काष्ठं 'स्रोतोगतं' नद्यादिवहनीपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः ।। ३ । किं च - 'विणयंपी'ति सूत्रम्, विनयं उक्तलक्षणं यः उपायेनापि एकान्तमृदुभणनादिलक्षणेनापि अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः चोदित उक्तः कुप्यति रुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह- दिव्यां अमानुषीं असौ नरः श्रियं लक्ष्मीं आगच्छन्तीं आत्मनो भवन्तीं दण्डेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति । एतदुक्तं भवति विनयः संपदो निमित्तम्, तत्र स्खलितं यदि कश्चिच्चोदयति स गुणस्तत्रापि रोषकरणेन वस्तुतः संपदो निषेधः, उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागत श्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणस्तद्रहितास्तदभङ्गकारी च तद्युक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्ठिआ ।। सूत्रम् ५ ।। तव सुविणीअप्पा उववज्झा हया गया। दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ।। सूत्रम् ६ ।। अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह- 'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैवे ति तथैवैते अविनीतात्मानो विनयरहिता अनात्मज्ञाः, उपवाह्यानां For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययनं विनयसमाधिः, द्वितीयोदेशकः सूत्रम् ३-६ अविनयिनो | दोषाः । ।। ३८४ ।। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३८५ ।। www.kobatirth.org राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः हया अश्वाः गजा हस्तिनः, उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते किमित्याहदृश्यन्ते उपलभ्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उभयलोकवर्त्तिना यवसादिवोढारः दुःखं संक्लेशलक्षणं एधयन्तः अनेकार्थत्वादनुभवन्तः आभियोग्यं कर्मकरभावं उपस्थिताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ।। ५ ।। एतेष्वेव विनयगुणमाह- 'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवे ति तथैवैते सुविनीतात्मानो विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते किमित्याह- दृश्यन्ते उपलभ्यन्त एव सुखं- आह्लादलक्षणं एधमाना अनुभवन्तः शुद्धिं प्राप्ता इति विशिष्टभूषणालयभोजनादिभावतः प्राप्तर्द्धयो महायशसो विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ तहेव अविणीअप्पा, लोगंमि नरनारिओ दीसंति दुहमेहंता, छाया विगलितेंदिआ ।। सूत्रम् ७ ।। दंडसत्थपरिजुन्ना, असब्भवयणेहि अ । कलुणाविवन्नच्छंदा, खुप्पिवासाइ परिगया ।। सूत्रम् ८ ।। तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ।। सूत्रम् ९ ।। एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह- 'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैव तिर्यञ्च इव अविनीतात्मान इति पूर्ववत् । लोके अस्मिन्मनुष्यलोके, नरनार्य इति प्रकटार्थं दृश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् छारा (ताः) कस घातव्रणाङ्कितशरीराः विगलितेन्द्रिया अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः ।। ७ ।। तथा 'दंड' त्ति सूत्रम्, दण्डा- वेत्रदण्डादयः शस्त्राणि खड्गादीनि ताभ्यां परिजीर्णाः समन्ततो दुर्बलभावमापादितास्तथा असभ्यवचनैश्च खरकर्कशादिभिः परिजीर्णाः, त एवंभूताः सतां करुणाहेतुत्वात्करुणादीना व्यापन्नच्छन्दसः परायत्ततया अपेतस्वाभिप्रायाः, क्षुधा बुभुक्षया पिपासया - तृषा परिगता- व्याप्ता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाभ्यामिति । एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुभावत एवंभूताः परलोके तु For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | नवममध्ययनं विनयसमाधिः, | द्वितीयोदेशकः सूत्रम् ७-९ नरनार्युदाहर णेन फलम्। ।। ३८५ ।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sher Kailassagarsuneyarmandir वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11३८६॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः द्वितीयोद्देशक: सूत्रम् १०-११ देवोदाहरणेन फलम्। सूत्रम कुशलाप्रवृत्तेर्दुःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः ॥ ८॥ विनयफलमाह-तहेवत्ति सूत्रम्, तथैव विनीततिर्यञ्च इव सुविनीतात्मानो। लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धि प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव, नवरं स्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः ॥९॥ तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। दीसंति दुहमेहता, आभिओगमुवट्ठिआ। सूत्रम् १०।। तहेव सविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। दीसंति सुहमेहता, इहि पत्ता महायसा ।। सूत्रम् ११॥ एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव यथा नरनार्यः अविनीतात्मानो भवान्तरेऽकृतविनयाः । देवा वैमानिका ज्योतिष्का यक्षाश्वव्यन्तराश्च गुह्यका भवनवासिनः,त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेधमानाः पराज्ञाकरणपरवृद्धिदर्शनादिना, आभियोग्यमुपस्थिता:- अभियोगः- आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यभियोगी तद्भाव आभियोग्यं कर्मकरभावमित्यर्थः उपस्थिताः- प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥ १०॥ विनयफलमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवे ति पूर्ववत्, सुविनीतात्मानो। जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः, देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, श्यन्ते सुखमेधमाना अर्हत्कल्याणादिषु ।। ऋद्धिं प्राप्ता इति देवाधिपादिप्राप्तर्द्धयो महायशसो विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः ।।११।। जे आयरिअउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । तेसिं सिक्खा पवहृति, जलसित्ता इव पायवा।। सूत्रम् १२ ।। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा णेउणिआणि अ। गिहिणो उवभोगट्टा, इहलोगस्स कारणा।। सूत्रम् १३ ॥ जेणं बंधं वहं घोरं, परिआवं च दारुणं । सिक्खमाणा निअच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ।सूत्रम् १४॥ तेऽवि तं गुरुं पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा। सक्कारंति नमसंति, तुट्टा निद्देसवत्तिणो।सूत्रम् १५ ।। लोकोत्तरविनयफलमा ॥ ३८६॥ For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३८७॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः द्वितीयोद्देशकः सूत्रम १२-१६ लोकोत्तरविनयफलम्। किं पुण जे सुअग्गाही, अणंतहिअकामए। आयरिआ जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए ।। सूत्रम् १६ ।। एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तम्, अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफलमाहजे आयरिअ त्ति सूत्रम्, य आचार्योपाध्याययोः- प्रतीतयोः शुश्रूषावचनकराः पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यभाजां। शिक्षा ग्रहणासेवनालक्षणा भावार्थरूपाः प्रवर्द्धन्ते वृद्धिमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह- जलसिक्ता इव पादपा वृक्षा इति सूत्रार्थः ।। १२॥ एतच्च मनस्याधाय विनय: कार्य इत्याह- आत्मार्थं आत्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीति, एवं परार्थं वा परनिमित्तं । वा पुत्रमहमेतद्वाहयिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्भकारक्रियादीनि नैपुण्यानि च आलेख्यादिकलालक्षणानि गृहिणः असंयता उपभोगार्थं अन्नपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्यशेष: इहलोकस्य कारणं इहलोकनिमित्तमिति सूत्रार्थः ।। १३ ।। येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धंनिगडादिभिः वध कषादिभिः घोरं रौद्रं परितापंच दारुणं एतजनितमनिष्टं निर्भर्त्सनादिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति युक्ता इति नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते ललितेन्द्रिया गर्भेश्वरा राजपुत्रादय इति सूत्रार्थः ।। १४ ।। तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाभिनन्दनेन । तस्य शिल्पस्येत्वरस्य कारणात्, तन्निमित्तत्वादिति भावः, तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना नमस्यन्ति अञ्जलिप्रग्रहादिना । तुष्टा । इत्यमुत इदमवाप्यत इति हृष्टा निर्देशवर्त्तिन आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः ।। १५॥ यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति अत:- किं सूत्रम्, किं पुनर्यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी अनन्तहितकामुक: मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः, तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति, यतश्चैवमाचार्या यद्वदन्ति किमपि तथा तथाऽनेकप्रकारं भिक्षुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं । नातिवर्तेत, युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ।।१६।। ||३८७।। For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 113८८॥ 3888888885603016BE नवममध्ययन विनयसमाधिः, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् १७-२० विनयोपायम्। नीअंसिजं गई ठाणं, नीअंच आसणाणि ।नीअंच पाए वंदिज्जा, नीअंकुजा अ अंजलिं ।। सूत्रम् १७ ।। संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि । खमेह अवराह मे, वइज न पुणुत्ति अ॥ सूत्रम् १८॥ दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं । एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुव्वई ।। सूत्रम् १९ ।। 'आलवंते लवंते वा, न निसिजाइ पडिस्सुणे। मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ।' कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ता ण हेउहिं । तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए ।। सूत्रम् २० ।। विनयोपायमाह- नीचां शय्यां संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः, एवं नीचां गर्ति आचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः, एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मान्नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः । तथा नीचानि लघुतराणि कदाचित्कारणजाते आसनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञात: सेवेत, नान्यथा, तथा नीचं च सम्यगवनमोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत, नावज्ञया, तथा क्वचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं 'कुर्यात्' संपादयेचाञ्जलिम्, न तु स्थाणुवत्स्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥१७॥एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह-संघट्टिय स्पृष्ट्वा कायेन देहेन कथंचित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथा उपधिनापि कल्पादिना कथंचित्संघट्य मिथ्यादुष्कृतपुरःसरमभिवन्द्य क्षमस्व सहस्व अपराधं दोषं मे मन्दभाग्यस्यैवं वदेद् ब्रूयात् न पुनरिति च नाहमेनं भूयः करिष्यामीति सूत्रार्थः ।।१८।। एतच्च बुद्धिमान् स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह- दुर्गौरिव गलिबलीववत् प्रतोदेन आरादण्डलक्षणेन चोदितो विद्धः सन् वहति नयति क्वापि रथं प्रतीतम्, एवं दुर्गौरिव दुर्बुद्धिः अहितावहबुद्धिः शिष्यः कृत्यानां आचार्यादीनां कृत्यानि वा तदभिरुचितकार्याणि उक्त उक्तः पुनः पुनरभिहित इत्यर्थः, प्रकरोति निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति सूत्रार्थः ॥१९॥ एवं च कृतान्यमूनि न शोभनानी For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३८९॥ नवममध्ययन विनयसमाधिः द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् २१-२३ विनयाविनयफला भिधानम्। त्यतः (आह)-कालं शरदादिलक्षणम्, छन्दः तदिच्छारूपं उपचारं आराधनाप्रकारम्, चशब्दाद्देशादिपरिग्रहः, एतत् प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा हेतुभिः यथानुरूपैः कारणैः किमित्याह- तेन तेनोपायेन-गृहस्थावर्जनादिना तत्तत् पित्तहरादिरूपमशनादि संप्रतिपादयेत्, यथा काले शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रवातनिवातादिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचतेच आराधनाप्रकारोऽनुलोमं भाषणं ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्त्यकरणादि देशे अनूपदेशाधुचितं निष्ठीवनादिभिर्हेतुभिः श्लेश्माद्याधिक्यं विज्ञाय तदुचितं *संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥२०॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य। जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ ।। सूत्रम् २१ ।। जे आवि चंडे मइइट्टिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे। अदिट्टधम्मे विणए अकोविए, असंविभागीन तस्स मुक्खो। सूत्रम् २२॥ निहेसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्थधम्मा विणयंमि कोविआ। तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ।। सूत्रम् २३ ।। त्तिबेमि ।। विणयसमाहिअज्झयणे बीओ उद्देसो समत्तो॥२॥ किंच- विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगणानाम, संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगणानामेव, यस्यैतत् ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिद्वयं उभयतः उभयाभ्यां विनयाविनयाभ्यां सकाशात् भवतीत्येवं ज्ञातं उपादेयं चैतदिति भवति शिक्षा ग्रहणासेवनारूपां असौ इत्थंभूतः अधिगच्छति-प्राप्नोति, भावत उपादेयपरिज्ञानादिति सूत्रार्थः ॥२१॥ एतदेव दृढयन्नविनीतफलमाह- यश्चापि चण्ड प्रव्रजितोऽपि रोषणः ऋद्धिगौरवमतिः ऋद्धिगौरवे अभिनिविष्टः पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः नरो नरव्यञ्जनो न भावनरः साहसिकः अकृत्यकरणपरः हीनप्रेषणः हीनगुर्वाज्ञापरः अदृष्टधर्मा सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा विनयेऽकोविदो विनयविषयेऽ0जं च पेसगं आयरिएहिं दिण्णं तं देसकालादीहिं हीणं करेइ। ॥३८९।। For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृनियुतम् ।। ३९० ।। www.kobatirth.org पण्डितः असंविभागी यत्र क्वचन लाभे न संविभागवान् । य इत्थंभूतोऽधमो नैव तस्य मोक्षः, सम्यग्दृष्टेश्चारित्रवत इत्थंविधसंक्लेशाभावादितिसूत्रार्थ: ।। २२ ।। विनयफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह- निर्देश आज्ञा तद्वर्त्तिनः पुनर्ये गुरूणां आचार्यादीनां श्रुतार्थधर्मा इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः, विनये कर्त्तव्ये कोविदा- विपश्चितो य इत्थंभूतास्तीर्त्वा ते महासत्त्वा ओघमेनं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तारं तीत्वैव तीर्त्वा, चरमभवं केवलित्वं च प्राप्येति भावः, ततः क्षपयित्वा कर्म निरवशेषं भवोपग्राहिसंज्ञितं गतिमुत्तमां सिद्ध्याख्यां गताः प्राप्ताः । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। २३ ।। द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ नवमाध्ययने तृतीयोद्देशकः ।। आयरिअं अग्गिमिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा । आलोइअं इंगिअमेव नच्चा, जो छंदमाराहयई स पुजो ।। सूत्रम् १ ॥ आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं। जहोवइङ्कं अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुजो । सूत्रम् २ ।। रायणिएसु विणयं पउंजे, डहराऽवि अ जे परिआयजिट्ठा नी अत्तणे वट्टड़ सच्चवाई, उवायवं वक्ककरे स पुज्जो ।। सूत्रम् ३ ।। अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्टया समुआणं च निच्चं । अलद्धअं नो परिदेवइज्जा, लद्धुं न विकत्थई स पुजो ।। सूत्रम् ४ ।। संथारसिद्धासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभेऽवि संते। जो एवमप्पाणभितोसज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुत्रो ।। सूत्रम् ५ ।। सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं अणासए जो उ सहिज कंटए, वईमए कन्नसरे स पुज्जो ।। सूत्रम् ६ ।। मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, अओमया तेऽवि तओ सुउद्धरा। वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महत्भयाणि । सूत्रम् ७ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only नवममध्ययनं विनयसमाधिः, तृतीयोद्देशकः १-७ विनीतस्य पूज्यत्वो पदर्शनम्। ।। ३९० ।। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदश वेकालिक वृत्तियुतम् नवममध्ययन विनयसमाधिः तृतीयोद्देशकः सूत्रम् १-७ विनीतस्य पूज्यत्वोपदर्शनम्। साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह- आचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठार्यम्, किमित्याह- अग्निमिव तेजस्कायमिव आहिताग्निः ब्राह्मणः शुश्रूषमाणः सम्यक्सेवमानः प्रतिजागृयात् तत्तत्कृत्यसंपादनेनोपचरेत् । आह- यथाऽऽहिताग्निरित्यादिना प्रागिदमुक्तमेव, सत्यम्, किं तु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रत्नाधिकादिकमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च-'रायणीएसुविणय'मित्यादि, प्रतिजागरणोपायमाह-आलोकितं निरीक्षितं इङ्गितमेव च अन्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा विज्ञायाचाभ्यं यः साधुः छन्दः अभिप्रायमाराधयति । यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने, इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ठ्याद्यानयनेन स पूज्य स इत्थंभूतः साधुः पूजार्हः, कल्याणभागिति सूत्रार्थः।।१।। प्रक्रान्ताधिकार एवाह- आचारार्थ ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयं उक्तलक्षणं प्रयुङ्क्ते करोति यः शुश्रूषन श्रोतुमिच्छन्, किमयं वक्ष्यतीत्येवम्।। तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यं आचार्यायं ततश्च यथोपदिष्टं यथोक्तमेव अभिकासन् मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् विनयं प्रयुङ्क्ते, अतोऽन्यथाकरणेन गुरुं त्वि ति आचार्यमेव नाशातयति न हीलयति यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ।। २।। किंचरत्नाधिकेषु ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छितेषु विनयं यथोचितं प्रयुङ्क्ते करोति, तथा डहरा अपि च ये वय:श्रृताभ्यां पर्यायज्येष्ठाः चिरप्रव्रजितास्तेषु विनयं प्रयुङ्क्ते, एवं च यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचभावे वर्त्तते सत्यवादी अविरुद्धवक्ता तथा अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा एवं च यो वाक्यकरो गुरुनिर्देशकरणशीलः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ किं चअज्ञातोञ्छं परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि चरति अटित्वाऽऽनीतं भुङ्क्ते, न तु ज्ञातस्तद्बहुमतमिति, एतदपि विशुद्धं उद्गमादिदोषरहितम्, न तद्विपरीतम्, एतदपि यापनार्थं संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नान्यथा समुदानं च उचितभिक्षालब्धं च नित्यं सर्वकालं न तूञ्छमप्येकत्रैव बहुलब्ध कादाचित्कं वा, एवंभूतमपि विभागतः अलब्ध्वा अनासाद्य न ॥३९१॥ For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३९२ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिदेवयेत् न खेदं यायात्, यथा- मन्दभाग्योऽहमशोभनो वाऽयं देश इति, एवं विभागतश्च लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकत्थते न लाघां करोति- सपुण्योऽहं शोभनो वाऽयं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ किं च संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि प्रतीतान्येव, एतेषु अल्पेच्छता अमूर्च्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा अतिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्थेभ्यः सकाशात् य एवमात्मानं अभितोषयति येन वा तेन वा यापयति संतोषप्राधान्यरतः संतोष एव प्रधानभावे सक्तः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह- शक्याः सोढुं आशये ति इदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया, क इत्याह- कण्टका अयोमया लोहात्मकाः उत्सहता नरेण अर्थोद्यमवतेत्यर्थः, तथा च कुर्वन्ति केचिदयोमयकण्टकास्तरणशयनमप्यर्थलिप्सया, न तु वाक्कण्टका: शक्या इत्येवं व्यवस्थिते अनाशया फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु सहेत कण्टकान् वाङ्मयान् खरादिवागात्मकान् कर्णसरान् कर्णगामिनः स पूज्य इति सूत्रार्थः ।। ६ ।। एतदेव स्पष्टयति- मुहूर्त्तदुःखा अल्पकालदुःखा भवन्ति कण्टका अयोमयाः, वेधकाल एव प्रायो दुःखभावात्, तेऽपि ततः कायात् सूद्धराः सुखेनैवोद्धियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते, वाग्दुरुक्तानि पुनः दुरुद्धराणि दुःखेनोद्धियन्ते मनोलक्षवेधनाद् वैरानुबन्धीनि तथाश्रवणप्रद्वेषादिनेह परत्र च वैरानुबन्धीनि भवन्ति, अत एव महाभयानि, कुगतिपातादिमहाभयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ समावयंता वयणाभिघाया, कन्नगया दुम्मणिअं जणंति। धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुज्जो ।। सूत्रम् ८ ।। अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पञ्चक्खओ पडिणीअं च भासं । ओहारणि अप्पिअकारिणि च, भासं न भासिज्ज सया स पुजो ।। सूत्रम् ९ ॥ अलोलुए अक्कुहए अमाई, अपिसुणे आवि अदीणवित्ती। नो भावए नोऽविअ भाविअप्पा, अकोउहल्ले असया स पुज्जो ।। सूत्रम् १० ॥ For Private and Personal Use Only नवममध्ययनं विनयसमाधिः, तृतीयोदेशकः सूत्रम् ८-१५ | विनीतस्य पूज्यत्वोपदर्शनम् । ।। ३९२ ।। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारिo वृत्तियुतम् ।। ३९३ ।। www.kobatirth.org गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाहू । विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो ।। सूत्रम् ११ ॥ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइअं गिहिं वा । नो हीलए नोऽवि अ खिसइजा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ।। सूत्रम् १२ ॥ जे माणिआ सवयं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिईदिए सच्चरए स पुजो ।। सूत्रम् १३ ।। तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चाण मेहावि सुभासिआई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउक्सायावगए स पुजो । सूत्रम् १४ ।। गुरुमिह सययं पडिअरिअ मुणी, जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिअ रयमलं पुरेकडं, भासुरमउलं गई वइ ॥ सूत्रम् १५ ।। त्तिबेमि । विणयसमाहीए तइओ उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥ किं च समापतन्त एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः, क इत्याह- वचनाभिघाताः खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सन्तः प्रायोऽनादिभवाभ्यासात् दौर्मनस्यं दुष्टमनोभावं जनयन्ति, प्राणिनामेवंभूतान् वचनाभिघातान् धर्म इतिकृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो न त्वशक्त्यादिना परमाग्रशूरो दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरो जितेन्द्रियः सन् यः सहते न तु तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः ।। ८ ।। तथा अवर्णवादं च अश्लाघावादं च पराङ्मुखस्य पृष्ठत इत्यर्थः प्रत्यक्षतश्च प्रत्यक्षस्य च प्रत्यनीकां अपकारिणीं चौरस्त्वमित्यादिरूपां भाषां तथा अवधारिणीं अशोभन एवायमित्यादिरूपां अप्रियकारिणीं च श्रोतुर्मृतनिवेदनादिरूपां भाषां वाचं न भाषेत सदा यः कदाचिदपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः ।। ९ ।। तथा अलोलुप आहारादिष्वलुब्धः अकुहक इन्द्रजालादिकुहकरहितः अमायी कौटिल्यशून्यः अपिशुनश्चापि नो छेदभेदकर्ता अदीनवृत्तिः आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तिः (ग्रन्थाग्रं For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययनं विनयसमाधिः, तृतीयोदेशकः सूत्रम् ८-९५ विनीतस्य पूज्यत्वाप्रदर्शनम्। ।। ३९३ ।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३९४॥ ६०००) नो भावयेद् अकुशलभावनया परम्, यथाऽमुकपुरतो भवताऽहं वर्णनीय: नापि च भावितात्मा स्वयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अकौतुकश्च सदा नटनर्तकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ।।१०।। किंच- गुणैः अनन्तरोदितैर्विनयादिभिर्युक्तः । विनयसमाधिः, तृतीयोद्देशकः साधुर्भवति, तथा अगुणैः उक्तगुणविपरीतैरसाधुः, एवं सति गृहाण साधुगुणान् मुश्चासाधुगुणानिति शोभन उपदेशः, एवमधिकृत्य सूत्रम् प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविधं ज्ञापयत्यात्मानमात्मना यः तथा रागद्वेषयोः समः न रागवान्न द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः॥ ८-१५ विनीतस्य ११ ।। किं च- तथैवे ति पूर्ववत्, डहरं वा महल्लकं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा, स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा प्रव्रजित पूज्यत्वोगहिणं वा. वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा न हीलयति नापि च खिसयति तत्र सूयया असूयया वा सकद्दष्टाभिधानं हीलनम, पदर्शनम्। तदेवासकृत्खिसनमिति । हीलनखिंसनयोश्च निमित्तभूतं स्तम्भं च मानं च क्रोधं च रोषं च त्यजति यः स पूज्यो, निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ।। १२ ।। किं च- ये मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः सततं अनवरतं शिष्यान् मानयन्ति श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः, तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति यथा मातापितरः कन्यां गुणैर्वयसा च संवर्य योग्यभर्तरि स्थापयन्ति एवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्टा महत्याचार्यपदेऽपिस्थापयन्ति । तानेवंभूतान् गुरून्मानयति योऽभ्युत्थानादिना. मानार्हान् मानयोग्यान् तपस्वी सन् जितेन्द्रियः सत्यरत इति, प्राधान्यख्यापनार्थं विशेषणद्वयम्, स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १३॥ तेषां गुरूणां अनन्तरोदितानां गुणसागराणां गुणसमुद्राणां संबन्धीनि श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि परलोकोपकारकाणि चरति । आचरति मुनिः साधुः पञ्चरतः पञ्चमहाव्रतसक्तः त्रिगुप्तो मनोगुप्त्यादिमान् चतुःकषायापगत इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः सह पूज्य इति सूत्रार्थः ।। १४ ।। प्रस्तुतफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह- गुरुं आचार्यादिरूपं इह मनुष्यलोके सततं अनवरतं परिचर्य विधिनाऽऽराध्य मुनिः साधुः, किंविशिष्टो मुनिरित्याह- जिनमतनिपुणः आगमे प्रवीण: अभिगमकुशलो लोकप्राघूर्णकादि ।।३९४।। For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11३९५|| स्थानानि। प्रतिपत्तिदक्षः, स एवंभूतः विधूय रजोमलं पुराकृतम्, क्षपयित्वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भावः, किमित्याह-भास्वरांज्ञानतेजोमयत्वात् । अतुला अनन्यसदृशीं गतिं सिद्धिरूपां व्रजती ति गच्छति तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रजात्यादिना प्रकारेण । ब्रवीमीति विनयसमाधिः, चतुर्थोद्देशक: पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। १५ ।। ।। तृतीयोद्देशकः समाप्तः ।। सूत्रम् १ चत्वारि ॥नवमाध्ययने चतुर्थोद्देशकः।। विनयसुअंमे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं- इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता, कयरे खलु ते थेरेहि समाधिभगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिठाणा पन्नत्ता?, इमेखलुते थेरेहिं भगवंतेहिंचत्तारि विणयसमाहिदाणा पन्नत्ता, तंजहा-विणयसमाही सुअसमाही तवसमाही आयारसमाही। विणए सुए अतवे, आयारे निवपंडिआ। अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिआ। सूत्रम् १॥ अथ चतुर्थ आरभ्यते, तत्र सामान्योक्तविनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाह- श्रुतं मया आयुष्मंस्तेन भगवता एवमाख्यात - मित्येतद्यथा षड्जीवनिकायां तथैव द्रष्टव्यम्, इह खल्वि ति इह क्षेत्रे प्रवचने वा खलुशब्दो विशेषणार्थः, न केवलमत्र किं त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि स्थविरैः गणधरैः भगवद्भिः परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि विनयसमाधिभेदरूपाणि प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि, भगवतः सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः, कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः, अमूनि । खलु तानीत्यादिना निर्वचनम्, तद्यथे त्युदाहरणोपन्यासार्थः, विनयसमाधिः १ श्रुतसमाधिः २ तपःसमाधिः ३ आचारसमाधिः ४, तत्र समाधानं समाधिः- परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्, विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः, एवं शेषेष्वपि ॥३९५॥ For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥ ३९६ ॥ विनयसमाधिस्थानम्। शब्दार्थो भावनीयः ।। एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति- विनये यथोक्तलक्षणे श्रुते अङ्गादौ तपसि बाह्यादौ आचारे च मूलगुणादौ, नवममध्ययन चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, नित्यं सर्वकालं पण्डिताः सम्यक्परमार्थवेदिनः, किं कुर्वन्तीत्याह- अभिरमयन्ति अनेकार्थ विनयसमाधिः चतुर्थोद्देशकः त्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते आत्मानं जीवम्, किमिति?, अस्योपादेयत्वात्, क एवं कुर्वन्तीत्याह- ये भवन्ति जितेन्द्रिया । सूत्रम् २ जितचक्षुरादिभावशत्रवः, त एव परमार्थतः पण्डिता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥१॥ चउव्विहा खलु विणयसमाही भवइ, तंजहा- अणुसासिज्जतो सुस्सूसइ १ सम्म संपडिवज्जइ २ वेयमाराहइ ३ न य भवइ अत्तसंपग्गहिए ४ चउत्थं पयं भवइ । भवड़ अइत्थ सिलोगो-पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिट्ठए। न य माणमएण मजई, विणयसमाहि आययट्टिए। सूत्रम् २ ।। विनयसमाधिमभिधित्सुराह- चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति, तद्यथे त्युदाहरणोपन्यासार्थः, अणुसासिज्जतो इत्यादि, 'अनुशास्यमानः तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषति तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति १, इच्छाप्रवृत्तितः, तत् सम्यक् संप्रतिपद्यते सम्यग्- अविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथाविषयमवबुद्ध्यते २, स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति, वेद्यतेऽनेनेति वेदःश्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति ३, अत एव विशद्धप्रवृत्तेःनच भवत्यात्मसंप्रगहीतः आत्मैव सम्यक प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना स तथाऽनात्मोत्कर्षप्रधानत्वाद्विनयादेः, न चैवंभूतो भवतीत्यभिप्रायः, चतुर्थं पदं भवती त्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति, भवति च अत्र श्लोकः अत्रेति विनयसमाधौ ‘श्लोकः छन्दोविशेषः । स चायं- प्रार्थयते हितानुशासनं इच्छतीहलोकपरलोकोपकारिणमाचार्यादिभ्य उपदेशम्, शुश्रूषती त्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते, तच्चावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति-यथावत् करोति, न च कुर्वन्नपि मानमदेन मानगर्वेण माद्यति मदं याति For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ३९७॥ सूत्रम् ४ तपः विनयसमाधौ विनयसमाधिविषये आयतार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥ २॥ नवममध्ययनं चउव्विहा खलुसुअसमाही भवइ, तंजहा-सुअंमे भविस्सइत्ति अज्डाइअव्वं भवइ १,एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं विनयसमाधिः, चतुर्थोद्देशकः भवइ।२, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ ३, ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ ४, चउत्थं पयं भवइ। सूत्रम् ३ भवइ अइत्थ सिलोगो-नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अठावई परं । सुआणि अ अहिन्नित्ता, रओ सुअसमाहिए।। सूत्रम् ३॥ श्रुतसमाधि स्थानम्। उक्तो विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिमाह- चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, तद्यथे त्युदाहारणोपन्यासार्थः । श्रुतं मे आचारादि द्वादशाङ्गं भविष्यतीत्यनया बुद्ध्याऽध्येतव्यं भवति, न गौरवाद्यालम्बनेन १, तथाऽध्ययनं कुर्वनेकाग्रचित्तो भविष्यामि न विप्लुतचित्त इत्यध्येतव्यं भवत्यनेन चालम्बनेन २, तथाऽध्ययनं कुर्वन्विदितधर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेन । समाध्याचारचालम्बनेनाध्येतव्यं भवति ३, तथाऽध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं भवत्यनेनालम्बनेन ४ चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ।। स चायं- ज्ञान मित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं भवति एकाग्रचित्तश्च तत्परतया । एकाग्रालम्बनश्च भवति स्थित इति विवेकाद्धर्मस्थितो भवति स्थापयति पर मिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति, । श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च रतः सक्तो भवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ।। ३॥ ___चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा- नो इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा १ नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिला २, नो कित्तिवण्ण सद्दसिलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा ३, नन्नत्थ निजरट्ठयाए तवमहिहिज्जा ४, चउत्थं पयं भवइ । भवइ अइत्थ सिलोगोविविहगुण- ॥ तवोरए निचं, भवइ निरासए निजरहिए। तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तोसया तवसमाहिए। सूत्रम् ४॥ उक्तः श्रुतसमाधिः, तपःसमाधिमाह- चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति, तद्यथे त्युदाहरणोपन्यासार्थः, न इहलोकार्थं । समाधिस्थानम्। 1888888 For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् | ।। ३९८ ।। www.kobatirth.org इहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया तपः अनशनादिरूपं अधितिष्ठेत् न कुर्याद्धर्म्मिलवत् १, तथा न परलोकार्थं जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपोऽधितिष्ठेद्ब्रह्मदत्तवत्, एवं न कीर्त्तिवर्णशब्दश्लाघार्थ मिति सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्त्तिः एकदिग्व्यापी वर्णः, अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः, तत्स्थान एव श्लाघा, नैतदर्थं तपोऽधितिष्ठेत्, अपि तु नान्यत्र निर्जरार्थ मिति न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत्, अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं भवति तथाऽधितिष्ठेदित्यर्थः चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् । स चायं विविधगुणतपोरतो हि नित्यं अनशनाद्यपेक्षयाऽनेकगुणं यत्तपस्तद्रत एव सदा भवति निराशो निष्प्रत्याश इहलोकादिषु निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी, स एवंभूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोति अपनयति पुराणपापं चिरन्तनं कर्म, नवं च न बध्नात्येवं युक्तः सदा तपः समाधाविति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ चडव्विहा खलु आयारसमाही भवइ, तंजहा- नो इहलोगट्टयाए आयारमहिट्टिज्जा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिट्ठिजा २, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्टयाए आयारमहिट्टिज्जा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठिजा ४ चउत्थं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगो - जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्त्राययमाययट्ठिए। आयारसमाहिसंवुडे, भवइ अ दंते भावसंधए ।। सूत्रम् ५ ।। अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहिअप्पओ। विउलहिअं सुहावहं पुणो, कुव्वइ अ सो पयखेममप्पणो ॥ सूत्रम् ६ ॥ जाइमरणाओ मुच्चइ, इत्थंथं च चएड़ सव्वसो । सिद्धे वा हवड़ सासए, देवे वा अप्परए महड्डिए ।। सूत्रम् ७ ।। त्तिबेमि ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ।। ४ ।। विणयसमाहीणामज्झयणं समत्तं ।। ९ । उक्तस्तपःसमाधिः, आचारसमाधिमाह - चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति, तद्यथे त्युदाहरणोपन्यासार्थः, नेहलोकार्थमित्यादि चाचाराभिधानभेदेन पूर्ववद्यावन्नान्यत्र आर्हतैः अर्हत्संबन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिभिः आचारं मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्नि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only | नवममध्ययनं विनयसमाधिः, चतुर्थोदेशकः सूत्रम् 4-9 तप समाध्याचारसमाधिस्थानम्। ।। ३९८ ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवममध्ययन वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥३९९।। सूत्रम् ४-७ तपः समाध्याचार रीहः सन् यथा मोक्ष एव भवतीति चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ।। स चायं- जिनवचनरत आगमे सक्तः । अतिन्तिनः न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूयया भूयो भूयो वक्ता प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, आयतमायतार्थिक इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी विनयसमाधिः, चतुर्थोद्देशकः आचारसमाधिसंवृत इति आचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवद्वारः सन् भवति दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भावसंधकः भावोमोक्षस्तत्सन्धक आत्मनो मोक्षासन्नकारीति सूत्रार्थः ॥५॥ सर्वसमाधिफलमाह-अभिगम्य विज्ञायासेव्य च चतुरः समाधीन अनन्तरोदितान्, सुविशुद्धो मनोवाक्कायैः, सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे, एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुलहितसुखावह पुन रिति विपुलं- विस्तीर्णं हितं तदात्वे आयत्यां च पथ्यं सुखमावहति-प्रापयति यत्तत् तथाविधं करोत्यसौ साधुः पदं- समाधिस्थानं क्षेम-शिवं आत्मन इत्यात्मन एव न त्वन्यस्य इत्यनेनैकान्तक्षणभङ्गव्यवच्छेदमाहेति सूत्रार्थः ।। ६ ।। एतदेव स्पष्टयतिजातिमरणात् संसारान्मुच्यते असौ सुसाधुः इत्थंस्थं चेती दंप्रकारमापन्नमित्थं इत्थं स्थितमित्थंस्थं- नारकादिव्यपदेशबीज वर्णसंस्थानादि तच त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्गहणतया एवं सिद्धो वा कर्मक्षयात्सिद्धो भवति शाश्वतः अपुनरागामी सावशेषकर्मा देवो वा अल्परतः कण्डूपरिगतकण्डूयनकल्परतरहित: महर्द्धिकः अनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति । सूत्रार्थः, उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्ववत् ।। ७ ।। इति चतुर्थः ।। ४ ।। चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ।। स्थानम्। ||३९९ ।। । सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ नवममध्ययनं विनयसमाध्याख्यं समाप्तमिति ॥ ARRRRRRO0808080808081 For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सभिक्षः श्रीदशवेकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11४००। सकार ॥अथ दशममध्ययनं सभिक्ष्वाख्यम् ।। दशममध्ययन अधुना सभिक्ष्वाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययन आचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो भवति । नियुक्तिः एतदुक्तम्, इह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितःस सम्यग्भिक्षुरित्येतदुच्यते, इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, ३२८-३२९ अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च सभिक्षुरित्यध्ययननाम, अतः सकारो निक्षेप्तव्यो। अभिसम्बन्धः सकारनिक्षेपाः भिक्षुश्च, तत्र सकारनिक्षेपमाह नियुक्ति: ३३० नि०- नामंठवणसयारो दव्वे भावे अहोइ नायव्वो। दव्वे पसंसमाई भावे जीवो तदुवउत्तो ।। ३२८ ।। निक्षेपाः। नामसकार: सकार इति नाम, स्थापनासकार: सकार इति स्थापना, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः द्रव्यसकारो भावसकारच, तत्र द्रव्य इत्यागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतव्यतिरिक्तः प्रशंसादिविषयो द्रव्यसकारः, भाव इति भावसकारो जीवः तदुपयुक्तः सकारोपयुक्तः तदुपयोगानन्यत्वादिति गाथार्थः ॥ ३२८ ।। प्रकृतोपयोगीत्यागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरातिरिक्तं प्रशंसादिविषयं द्रव्यसकारमाह नि०-निदेसपसंसाए अत्थीभावे अहोई उसगारो। निहेसपसंसाए अहिगारो इत्थ अज्डायणे ।। ३२९॥ निर्देशे प्रशंसायामस्तिभावे चेत्येतेष्वर्थेषु त्रिषु भवति तु सकारः । तत्र निर्देशे यथा सोऽनन्तरमित्यादि, प्रशंसायां यथा सत्पुरुष । इत्यादि, अस्तिभावे यथा सद्धतममुकमित्यादि। तत्र निर्देशप्रसंशाया मिति निर्देशे प्रशंसायांच यः सकारस्तेनाधिकारोऽत्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ ३२९ ।। एतदेव दर्शयति नि०-जे भावा दसवेआलिअम्मि करणिज वण्णिअजिणेहि। तेर्सिसमावणमिति (मी)जो भिक्खू भन्नइस भिक्खु॥३३०॥ ॥४००॥ For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४०१ ।। www.kobatirth.org ये भावाः पदार्थाः पृथिव्यादिसंरक्षणादयो दशवैकालिके प्रस्तुते शास्त्रे करणीया अनुष्ठेया वर्णिताः कथिता जिनै:- तीर्थकर - गणधरैः, तेषां भावानां समापने यथाशक्त्या (क्ति) द्रव्यतो भावतश्वाचरणेन पर्यन्तनयनेन यो भिक्षुः तदर्थं यो भिक्षणशीलो न तूदरादिभरणार्थं भण्यते स भिक्षुरिति, इतिशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः । स भिक्षुरित्यत्र निर्देशे सकार इति गाथार्थः ।। ३३० ।। प्रशंसायामाह नि०- चरगमरुगाड़ आणं भिक्खुजीवीण काउणमपोहं। अज्झयणगुणनिउत्तो होड़ पसंसाइ उ सभिक्खू ।। ३३१ ।। चरकमरुकादीना मिति चरका:- परिव्राजकविशेषाः मरुका- धिग्वर्णाः, आदिशब्दाच्छाक्यादिपरिग्रहः, अमीषां भिक्षोपजीविनां भिक्षणशीलानामगुणवत्त्वेनापोहं कृत्वा अध्ययनगुणनियुक्तः प्रक्रान्तशास्त्रनिष्यन्दभूतप्रक्रान्ताध्ययनाभिहितगुणसमन्वितो भवति । प्रशंसायामवगम्यमानायां सद्भिक्षुः- संश्चासौ भिक्षुश्च तत्तदन्यापोहेन सद्भिक्षुरिति गाथार्थः ।। ३३१ ।। उक्तः सकारः, इदानीं भिक्षुमभिधातुकाम आह नि०- भिक्खुस्सय निक्खेवो निरुत्तएगट्टिआणि लिंगाणि । अगुणडिओ न भिक्खू अवयवा पंच दाराई ।। ३३२ ।। भिक्षोः निक्षेपो नामादिलक्षणः कार्य:, तथा निरुक्तं वक्तव्यं भिक्षोरेव, तथा एकार्थिकानि पर्यायशब्दरूपाणि वक्तव्यानि, तथा लिङ्गानि संवेगादीनि तथा अगुणस्थितो न भिक्षुरपि तु गुणस्थित एवेत्येतद्वाच्यम् । अत्र च अवयवाः पञ्च प्रतिज्ञादयो वक्ष्यमाणा इति, द्वाराण्येतानीति गाथासमासार्थः ।। ३३२ ।। यथाक्रमं व्यासार्थमाह नि०- णामंठवणाभिक्खू दव्वभिक्खू अ भावभिक्खू अ । दव्वम्मि आगमाई अत्रोऽवि अ पजवो इणमो ।। ३३३ ।। नामस्थापनाभिक्षु रिति भिक्षुशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामभिक्षुः स्थापनाभिक्षुः द्रव्यभिक्षुश्च भावभिक्षुश्चेति । तत्र For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययनं सभिक्षुः निर्युक्तिः ३३९ | सकार निक्षेपाः। निर्यक्ति: नियुक्तिः | ३३२-३३३ भिक्षुनिक्षेप निरुक्तादि द्वाराणि । ।। ४०१ ।। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययन सभिक्षुः, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४०२।। ३३६-३३७ लिनिद्रव्य नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यभिक्षुमाह- द्रव्य इति द्रव्यभिक्षुः आगमादिः आगमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तैकभविकादिभेदभिन्नः, अन्योऽपि च पर्यायो भेदः अयं द्रव्यभिक्षोर्वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः ।। ३३३ ।। नियुक्तिः नि०- भेअओ भेअणं चेव, भिंदिअव्वं तहेव य । एएसिं तिण्डंपि अ, पत्तेअपरूवणं वोच्छं।। ३३४ ।। ३३४-३३५ भेदकः पुरुषः भेदनं चैव परश्वादि भेत्तव्यं तथैव च काष्ठादीति भावः । एतेषां त्रयाणामपि भेदकादीनां प्रत्येक पृथक्पृथक् . भिक्षुनिक्षेप निरूक्तादि प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ।। ३३४ ।। एतदेवाह द्वाराणि। नि०-जह दारुकम्मगारो भेअणभित्तव्वसंजुओ भिक्खू। अन्नेवि दव्वभिक्खूजे जायणगा अविरया अ॥ ३३५ ।। नियुक्तिः यथा दारुकर्मकरो वर्धक्यादिः भेदनभेत्तव्यसंयुक्तः सन्- क्रियाविशिष्टविदारणादिदारुसमन्वितो द्रव्यभिक्षुः, द्रव्यं । भिनत्तीतिकृत्वा, तथाऽन्येऽपि द्रव्यभिक्षवः- अपारमार्थिकाः, क इत्याह- ये याचनका भिक्षणशीला अविरताश्च अनिवृत्ताश्च भिक्षोःसावधपापस्थानेभ्य इति गाथार्थः ।। ३३५॥ एते च द्विविधा:- गृहस्था लिङ्गिनश्चेति, तदाह नि०-गिहिणोऽवि सयारंभग उजुप्पन्नं जणं विमग्नता । जीवणिअदीणकिविणा ते विजा दव्वभिक्खुत्ति ।। ३३६।। गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि सदारंभका नित्यमारम्भकाः षण्णां जीवनिकायानामृजुप्रज्ञ जनं अनालोचकं विमृगयन्तःअनेकप्रकारं द्विपदादि भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यभिधाय याचमानाः, द्रव्यभिक्षणशीलत्वाव्यभिक्षवः, एते। च धिग्वर्णाः, तथा ये च जीवनिकायै जीवनिकानिमित्तं दीनकृपणाः कार्पटिकादयो भिक्षामटन्ति तान् विद्याद् विजानीयाद्रव्यभिक्षूनिति, द्रव्यार्थं भिक्षणशीलत्वादिति गाथार्थः ।। ३३६ ।। उक्ता गृहस्थद्रव्यभिक्षवः, लिगिनोऽधिकृत्याह नि०-मिच्छट्ठिी तसथावराण पुढवाइबिंदिआईणं । निच्चं वहकरणरया अबंभयारी असंचइआ॥३३७ ।। परत्वम्। ||४०२।। For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir दशममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥४०३॥ लिङ्गिद्रव्यभिक्षोःसावधपरत्वमा ब्रह्मचारिकथनं शाक्यभिक्षप्रभृतयो हि मिथ्यादृष्टयः अतत्त्वाभिनिवेशिनः प्रशमादिलिङ्गशून्याः, त्रसस्थावराणां प्राणिनां पृथिव्यादीनां । द्वीन्द्रियादीनां च, अत्र पृथिव्यादयः स्थावराः द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः, नित्यं वधकरणरता:-सदैतदतिपाते सक्ताः, कथमित्यत्राह सभिक्षुः, नियुक्ति: ३३८ अब्रह्मचारिणः संचयिनश्च यतः, अतोऽप्रधानत्वाइव्यभिक्षवः, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ।। ३३७ ।। एते । चाब्रह्मचारिणः संचयादेवेति संचयमाहनि०- दुपयचउप्पयधणधन्नकुविअतिअतिअपरिग्गहे निरया । सञ्चित्तभोइ पयमाणगा अउद्दिट्ठभोई अ।। ३३८॥ नियुक्ति: ३३९ द्विपदं- दास्यादि चतुष्पदं- गवादि धनं- हिरण्यादि धान्यं- शाल्यादि कुप्य- अलिञ्जरादि एतेषु द्विपदादिषु क्रमेण मनो- कुतीथिकालक्षणादिना करणत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे-कृतकारितानुमतपरिग्रहे निरताः- सक्ताः । न चैतदनार्ष-विहारान् कारयेद्रम्यान्वासयेच बहुश्रुतान् इतिवचनात्, सद्भूतगुणानुष्ठायिनो नेत्थंभूता इत्याशङ्कयाह- सचित्तभोजिनः, तेऽपि मांसाप्कायादिभोजिनः, भावभिक्षुतदप्रतिषेधात्, पचन्तश्च स्वयंपचास्तापसादयः, उद्दिष्टभोजिनश्च सर्व एव शाक्यादयः, तत्प्रसिद्ध्या तपस्विनोऽपि, पिण्डविशुट्यपरिज्ञानादिति गाथार्थः ।। ३३८ ।। त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता इत्येतन्याचिख्यासुराह नि०-करणतिए जोअतिए सावजे आयउपरउभए। अट्ठाणट्ठपवत्ते ते विजा दव्यभिक्खुत्ति ।। ३३९ ।। करणत्रिक इति 'सुपां सुपो भवन्तीति करणत्रिकेण मनोवाक्कायलक्षणेन योगत्रितय इति कृतकारितानुमतिरूपे सावद्ये । सपापे आत्महेतोः- आत्मनिमित्तं देहाधुपचयाय, एवं परनिमित्तं- मित्राद्युपभोगसाधनाय एवमुभयनिमित्तं-उभयसाधनार्थम्, एवमर्थायात्माद्यर्थं अनर्थाय वा-विना प्रयोजनेन आर्त्तध्यानचिन्तनखरादिभाषणलक्षवेधनादिभिः प्राणातिपातादौ प्रवृत्तान्तत्परान् तानेवंभूतान् विद्याद्- विजानीयात् द्रव्यभिक्षूनिति, प्रवृत्ताश्चैवं शाक्यादयः, तद्रव्यभिक्षव इति गाथार्थः ॥ ३३९ ॥ निक्षेपाश। ||४०३॥ For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४०४ ।। www.kobatirth.org एवं स्त्र्यादिसंयोगाद्विशुद्धतपोऽनुष्ठानाभावाच्चाब्रह्मचारिण एत इत्याह नि० इत्थीपरिग्गहाओ आणादाणाइभावसंगाओ। सुद्धतवाभावाओ कुतित्थि आऽवंभचारित्ति ।। ३४० ।। स्त्रीपरिग्रहा दिति दास्यादिपरिग्रहात् आज्ञादानादिभावसङ्गाच परिणामाशुद्धेरित्यर्थः न च शाक्या भिक्षवः, शुद्धतपोऽभावा दिति शुद्धस्य तपसोऽभावात् तापसादयः कुतीर्थिका अब्रह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोऽभिधीयते, तदचारिण इति गाथार्थः ।। ३४० ॥ उक्तो द्रव्यभिक्षुः, भावभिक्षुमाह नि०- आगमतो उवउत्तो तग्गुणसंवेअओ अ (उ) भावंमि । तस्स निरुत्तं भे अगभे अणभेत्तव्वएण तिहा ।। ३४१ ।। भावभिक्षुर्द्विविध:- आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमत उपयुक्त इति भिक्षुपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, तद्गुणसंवेदकस्तु भिक्षुगुणसंवेदकः पुनर्नो आगमतो भवति भावभिक्षुरित्युक्तो भिक्षुनिक्षेपः । साम्प्रतं निरुक्तमभिधातुकाम आह- तस्य निरुक्त मिति 'तस्य' भिक्षोर्निश्चितमुक्तमन्वर्थरूपं भेदकभेदनभेत्तव्यैरेभिर्भेदैर्वक्ष्यमाणैस्त्रिधा भवतीति गाथार्थः ।। ३४१ ।। एतदेव स्पष्टयति नि०- भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्वं । अट्ठविहं कम्मखुहं तेण निरुत्तं स भिक्खुत्ति ।। ३४२ ।। भेत्ता भेदकोऽत्रागमोपयुक्तः साधुः, तथा द्विविधं बाह्याभ्यन्तरभेदेन तपो भेदनं वर्तते, तथा भेत्तव्यं विदारणीयं चाष्टविधं कर्म च-अष्टप्रकारं ज्ञानावरणीयादि कर्म, तच्च क्षुदादिदुःखहेतुत्वात् क्षुच्छब्दवाच्यम्, यतश्चैवं तेन निरुक्तं यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुरिति गाथार्थ: ।। ३४२ ।। किं च नि०- भिदंतो अजह खुहं भिक्खू जयमाणओ जई होइ। संजमचरओ चरओ भवं खिवंतो भवंतो उ ।। ३४३ ।। भिन्दंश्च विदारयंश्च यथा क्षुधं कर्म भिक्षुर्भवति, भावतो यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिर्भवति नान्यथा, एवं संयमचरकः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only | दशममध्ययनं समिक्षुः, निर्युक्तिः ३४० |कुतीर्विकाब्रह्मचारि | कथनं भावभिक्षु निक्षेपाच निर्युक्तिः | ३४१-३४३ निरुक्तद्वारम् । ॥ ४०४ ।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययन सभिक्षुः श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् || ४०५॥ नियुक्तिः ३४४-३४६ एकार्थिकद्वारम्। सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायी चरकः, एवं भवं संसारं क्षपयन् परीतं कुर्वन् स एव भवान्तो भवति नान्यथेति गाथार्थः ।। ३४३॥ प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाह नि०-जंभिक्खमत्तवित्ती तेण व भिक्खू खवेइ जं व अणं । तवसंजमे तवस्सित्ति वावि अन्नोऽवि पज्जाओ।। ३४४ ।। यद् यस्माद् भिक्षामात्रवृत्तिः भिक्षामात्रेण सर्वोपधाशुद्धेन वृत्तिरस्येति समासः, तेन वा भिक्षुर्भिक्षणशीलो भिक्षुरितिकृत्वा, अनेनैव प्रसङ्गेन अन्येषामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह-क्षपयति यद् यस्माद्वा ऋणं कर्म तस्मात्क्षपणः, क्षपयतीति क्षपण इतिकृत्वा, तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपस्तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वापि भवति, तपोऽस्यास्तीतिकृत्वा, अन्योऽपि पर्याय इति- अन्योऽपि भेदोऽर्थतो भिक्षुशब्दनिरुक्तस्येति गाथार्थः ।। ३४४ ।। उक्तं निरुक्तद्वारम्, अधुनैकार्थिक*द्वारमाह नि०-तिन्ने ताई दविए वई अखंते अदंत विरए अ। मुणितावसपन्नवगुजुभिक्खू बुद्धे जड़ विऊ अ॥३४५।। तीर्णवत्तीर्ण: विशुद्धसम्यग्दर्शनादिलाभाद्भवार्णवमिति गम्यते, तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः, द्रव्यं रागद्वेषरहितः, व्रती च हिंसादिविरतश्च, क्षान्तश्च क्षाम्यति क्षमा करोतीति क्षान्तः, बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा, एवं दाम्यतीन्द्रियादिदमं करोतीति दान्तः, विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च, मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तपःप्रधानस्तापसः, प्रज्ञापकोऽपवर्गमार्गस्य प्ररूपकः, ऋजुः- मायारहितः संयमवान् वा, भिक्षुः पूर्ववत्, बुद्धोऽवगततत्त्वः, यतिरूत्तमाश्रमी प्रयत्नवान् वा, विद्वांश्च- पण्डितश्चेति गाथार्थः ।। ३४५ ।। तथा नि०- पव्वइए अणगारे पासंडी चरग बंभणे चेव । परिवायगे असमणे निगंथे संजए मुत्ते ।। ३४६ ।। TRACT6808666168 For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11४०६॥ दशममध्ययन सभिक्षुः, नियुक्ति: ३४७ एकाथिकद्वारम्। नियुक्तिः ३४८-३४९ लिङ्गद्वारमवयवद्वारच। प्रवजितः-पापान्निष्क्रान्तः, अनगारो- द्रव्यभावागारशून्यः, पाषण्डी-पाशाड्डीनः, चरकः पूर्ववत्, ब्राह्मणश्चैव विशुद्धब्रह्मचारी चैव, परिव्राजकश्च-पापवर्जकश्च, श्रमणः पूर्ववत्, निर्ग्रन्थः संयतो मुक्त इत्येतदपि पूर्ववदेवेति गाथार्थः ।। ३४६ ।। तथा नि०- साहू लूहे अतहा तीरट्ठी होइ चेव नायव्वो। नामाणि एवमाईणि होति तवसंजमरयाणं ।। ३४७ ।। साधू रूक्षश्च तथे ति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः स्वजनादिषु स्नेहविरहाद्र्क्षः तीरार्थी चैव भवति ज्ञातव्य इति तीरार्थी भवार्णवस्य, नामानि एकार्थिकानि पर्यायाभिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि भवन्ति । केषामित्याह- तपःसंयमरतानां भावसाधूनामिति गाथार्थः ।। ३४७ ॥ प्रतिपादितमेकार्थिकद्वारम्, इदानीं लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराह नि०-संवेगो निव्वेओ विसयविवेगो सुसीलसंसग्गो। आराहणा तवो नाणदसणचरित्तविणओ अ ।। ३४८।। संवेगो मोक्षसुखाभिलाषः, निर्वेदः संसारविषयः, विषयविवेको विषयपरित्यागः, सुशीलसंसर्गः शीलवद्भिः संसर्गः, तथा आराधना चरमकाले निर्यापणरूपा, तपो यथाशक्त्यनशनाद्यासेवनम्, ज्ञानं यथावस्थितपदार्थविषयमित्यादि दर्शनं नैसर्गिकादि। चारित्रं सामायिकादि विनयश्च ज्ञानादिविनय इति गाथार्थः ।। ३४८ ।। तथा नि०-खंती अमद्दवऽज्जव विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी अहोंति भिक्खुस्स लिंगाई ।। ३४९।। क्षान्तिश्च आक्रोशादिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च मार्दवार्जवविमुक्तते ति जात्यादिभावेऽपि मानत्यागान्मार्दवम्, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवम्, धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा विमुक्तता, तथाऽशनाद्यलाभेऽप्यदीनता, क्षुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि तितिक्षा, तथा आवश्यकपरिशुद्धिश्च अवश्यंकरणीययोगनिरतिचारता च, भवन्ति भिक्षोः भावसाधोः लिङ्गानि अनन्तरोदितानि । संवेगादीनीति गाथार्थः ।। ३४९ ।। व्याख्यातं लिङ्गद्वारम्, अवयवद्वारमाह ||४०६।। For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४०७॥ अवयवद्वारे उपनयश्व। नि०- अज्झयणगुणी भिक्खू न सेस इइ णो पइन-को हेऊ?। अगुणत्ता इइ हेऊ-को दिटुंतो? सुवण्णमिव ।। ३५०॥ दशममध्यवनं अध्ययनगुणी प्रक्रान्ताध्ययनोक्तगुणवान् भिक्षुः भावसाधुर्भवतीति, तत्स्वरूपमेतत्, न शेषः तद्गुणरहित इति नः प्रतिज्ञा सभिक्षुः नियुक्ति: ३५० अस्माकं पक्षः, को हेतुः? कोऽत्र पक्षधर्म इत्याशङ्कयाह- अगुणत्वादिति हेतुः अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्धावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं । लिङ्गद्वारमहेतुः,अध्ययनगुणशून्यस्य भिक्षुत्वप्रतिषेधः साध्य इति, को दृष्टान्तः? किं पुनरत्र निदर्शनमित्याशङ्कयाह- सुवर्णमिव यथा । वयवद्वारंच। नियुक्ति: ३५१ सुवर्ण स्वगुणरहितं सुवर्ण न भवति तद्वदिति गाथार्थः ।। ३५० ।। सुवर्णगुणानाहनि०- विसघाइ रसायण मंगलत्थ विणिए पयाहिणावत्ते । गुरुए अडज्झऽकुत्थे अट्ट सुवण्णे गुणा भणिआ।। ३५१ ।। सुवर्णगुणाविषघाति विषघातनसमर्थं रसायनं वयस्तम्भनकर्तृ मङ्गलार्थ मङ्गलप्रयोजनं विनीतं यथेष्टकटकादिप्रकारसंपादनेन प्रदक्षिणावर्त । नियुक्तिः तप्यमानं प्रादक्षिण्येनावर्त्तते गुरु सारोपेतं अदाजु नाग्निना दह्यते अकुथनीयं न कदाचिदपि कुथतीत्येतेऽष्टावनन्तरोदिताः सुवर्णे सुवर्णविषया गुणा भणितास्तत्स्वरूपज्ञैरिति गाथार्थः ।। ३५१ ।। उक्ताः सुवर्णगुणाः, साम्प्रतमुपनयमाह नि०-चउकारणपरिसुद्धं कसछेअणतावतालणाए आजतं विसघाइरसायणाइगुणसंजुअंहोड़।। ३५२॥ चतुष्कारणपरिशुद्धं चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः, कथमित्याह- कषच्छेदतापताडनया चे ति कषेण छेदेन तापेन ताडनया च, यदेवंविधं तद्विषघाति रसायनादिगुणसंयुक्तं भवति, भावसुवर्णं स्वकार्यसाधकमिति गाथार्थः ।। ३५२ ।। यच्चैवंभूतं नि०-तं कसिणगुणोवेअंहोइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती। नहि नामरूवमेत्तेण एवमगुणो हवइ भिक्खू ।। ३५३ ।। तद् अनन्तरोदितं कृत्स्नगुणोपेतं संपूर्णगुणसमन्वितं भवति सुवर्णं यथोक्तम् , न शेषं कषाद्यशुद्धम्, युक्ति रिति वर्णादिगुणसाम्येऽपि युक्तिसुवर्णमित्यर्थः, प्रकृते योजयति- यथैतत्सुवर्णं न भवति, एवं न हि नामरूपमात्रेण रजोहरणादिसंधारणादिना । ३५२-३५३ उपनयः। ॥ ४०७॥ For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४०८ ।। www.kobatirth.org अगुणः अविद्यमानप्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो भवति भिक्षुः, भिक्षामटन्नपि न भवतीति गाथार्थ: ।। ३५३ ।। एतदेव स्पष्टयन्नाह नि०-जुत्तीसुवण्णगं पुण सुवण्णवण्णं तु जइवि कीरिजा न हु होइ तं सुवण्णं सेसेहि गुणेहिं संतेहिं ।। ३५४ ।। युक्तिसुवर्णं कृत्रिमसुवर्णमिह लोके सुवर्णवर्णं तु जात्यसुवर्णवर्णमपि यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन तथापि नैव भवति तत्सुवर्णं परमार्थेन शेषैर्गुणैः कषादिभिः असद्भिः अविद्यमानैरिति गाथार्थः ।। ३५४ ।। एवमेव किमित्याह नि०- जे अज्झयणे भणिआ भिक्खुगुणा तेहि होइ सो भिक्खू । वण्णेण जच्चसुवण्णगं व संते गुणनिहिंमि ।। ३५५ ।। येऽध्ययने भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्तसमाध्यादयस्तैः करणभूतैः सद्धिर्भवत्यसौ भिक्षुर्नामस्थापनाद्रव्यभिक्षुव्यपोहेन भावभिक्षुः, परिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह- वर्णेन पीतलक्षणेन जात्यसुवर्णमिव परमार्थसुवर्णमिव सति गुणनिधौ विद्यमानेऽन्यस्मिन् कषादौ गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति यथाऽन्यगुणयुक्तं शोभनवर्णं सुवर्णं भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो भिक्षणशीलो भिक्षुर्भवतीति गाथार्थः ।। ३५५ ।। व्यतिरेकतः स्पष्टयति नि०- जो भिक्खू गुणरहिओ भिक्खं गिण्हइ न होइ सो भिक्खू । वण्णेण जुत्तिसुवण्णगं व असई गुणनिहिम्मि ।। ३५६ ।। यो भिक्षुः गुणरहितः चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात्, किमिवेत्याह- वर्णेन युक्तिसुवर्णमिव, यथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्णं न भवत्यसति गुणनिधौ कषादिक इति गाथार्थ: ।। ३५६ ।। किंच नि०- उद्दिट्ठकथं भुंजइ छक्कायपमद्दओ घरं कुणड़ । पचक्खं च जलगए जो पियइ कह नु सो भिक्खु ? ।। ३५७ ।। उद्दिश्य कृतं भुङ्क्त इत्यौद्देशिकमित्यर्थः, षट्कायप्रमर्दकः- यत्र क्वचन पृथिव्याद्युपमर्द्दकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणीयालये Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only दशममध्ययनं समिक्षुः, निर्युक्तिः ३५४-३५५ उपनयः । निर्युक्तिः ३५६-३५७ निगमनम्। ॥ ४०८ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सभिक्षुः, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४०९॥ निगमनम्। सूत्रम् १-५ षट्काया A हउ66650866638 मूर्च्छया वसतिं भाटकगृहं वा, तथा प्रत्यक्षं च उपलभ्यमान एव जलगतान् अप्कायादीन् यः पिबति, तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, 8 दशममध्ययन कथं न्वसौ भिक्षुः, नैव भावभिक्षुरिति गाथार्थः ।। ३५७ ।। उक्त उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाह नियुक्तिः३५८ नि०- तम्हा जे अज्झयणे भिक्खुगुणा तेहिं होइ सो भिक्खू । तेहि असउत्तरगुणेहि होइ सो भाविअतरो उ॥३५८ ॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव भिक्षुगुणा मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिक्षुः । उतैश्च सोत्तरगुणैः पिण्डविशुद्ध्याधुत्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ भाविततर: चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ।। ३५८ ।। उक्तो विराधको नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं भिक्षुः। सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं निक्खम्ममाणाइ अबुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविजा । इत्थीण वसं न आवि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ।। सूत्रम् ॥ पुढविनखणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पिआवए। अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू॥ सूत्रम् २॥ अनिलेण न वीएन वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए । बीआणि सया विवजयंतो, सञ्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ।। सूत्रम् ३॥ ।। ४०९।। वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकट्ठनिस्सिआणं । तम्हा उद्देसिन भुंजे, नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥ सूत्रम् ४ ॥ रोइअनायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ।। सूत्रम् ५ ।। For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४९० ।। www.kobatirth.org निष्क्रम्य द्रव्यभावगृहात् प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः आज्ञया तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्याम्, निष्क्रम्य किमित्याहबुद्धवचने अवगततत्त्वतीर्थकरगणधरवचने नित्यं सर्वकालं चित्तसमाहितः चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः, व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह- स्त्रीणां सर्वासत्कार्यनिबन्धनभूतानां वशं तदायत्ततारूपं न चापि गच्छेत्, तद्वशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिबति, अतो बुद्धवचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागाद्, अनेनैवोपायेनान्योपायासंभवात्, वान्तं परित्यक्तं सद्विषयजम्बालं न प्रत्यापिबति न मनागप्याभोगतोऽनाभोगतश्च तत्सेवते यः स भिक्षुः- भावभिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। १ ॥ तथा-पृथिवीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयंन खानयति परैः, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति खनन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एवं सर्वत्र वेदितव्यम् । शीतोदकं सचित्तं पानीयं न पिबति स्वयं न पाययति परानिति, अग्निः षड्जीवघातकः, किंवदित्याहशस्त्रं खड्गादि यथा सुनिशितं उज्वालितं तद्वत्, तं न ज्वालयति स्वयं न ज्वालयति परैः, य इत्थंभूतः स भिक्षुः । आह षड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽभिहितः किमर्थं पुनरुक्त इति उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर एव भिक्षुरिति ज्ञापनार्थम्, ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः ॥ २॥ तथा अनिलेन अनिलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयं न वीजयति परैः । हरितानि शष्यादीनि न छिनत्ति स्वयं न छेदयति परैः, बीजानि हरितफलरूपाणि व्रीह्मादीनि सदा सर्वकालं विवर्जयन् संघट्टनादिक्रियया, सचित्तं नाहारयति यः कदाचिदप्यपुष्टालम्बनः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। ३ ।। औद्देशिकादिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाहवधनं हननं त्रसस्थावराणां द्वीन्द्रियादिपृथिव्यादीनां भवति कृतौद्देशिके, किंविशिष्टानां ?- पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानां तथासमारम्भात्, यस्मादेवं तस्मादौदेशिकं कृताद्यन्यच्च सावद्यं न भुङ्क्ते, न केवलमेतत्, किंतु ? नापि पचति स्वयं न पाचयति अन्यैर्न पचन्तमनुजानाति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ किंच रोचयित्वा विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं कृत्वा, किं तदित्याह For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययनं सभिक्षुः, सूत्रम् १-५ षटकायाविराधको भिक्षुः । ।। ४९० ।। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययन सभिक्षुः, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४११॥ सूत्रम् ६-१० भिक्षुस्वरूप: समसुखदुःखः। ज्ञातपुत्रवचनं भगवन्महावीरवर्धमानवचनं आत्मसमान् आत्मतुल्यान् मन्येत षडपिकायान् पृथिव्यादीन्, पञ्चचे ति चशब्दोऽप्यर्थः पञ्चापि स्पृशति सेवते महाव्रतानि पञ्चाश्रवसंवृतश्च द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। ५ ।। चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज बुद्धवयणे । अहणे निजायरूवरयए, गिहिजोगं परिवजए जे स भिक्खू। सूत्रम् ६ ।। सम्मट्टिी सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे अ। तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू॥ सूत्रम् ७ ।। तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ।। सूत्रम् ८॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छंदिअ साहम्मिआण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू।सूत्रम् ९॥ न य वुग्गहिअंकहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ।। सूत्रम् १०॥ किं च- चतुरः क्रोधादीन् वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन सदा सर्वकालं कषायान्, ध्रुवयोगी च-उचितनित्ययोगवांश्च भवति, बुद्धवचन इति तृतीयार्थे सप्तमी, तीर्थकरवचनेन करणभूतेन, ध्रुवयोगी भवति यथागममेवेति भावः, अधन: चतुष्पदादिरहितः निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्य इति भावः, गृहियोग मूर्छया गहस्थसंबन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स । भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। ६॥ तथा- सम्यग्दृष्टिः भावसम्यग्दर्शनी सदा अमूढः अविप्लुतः सन्नेवं मन्यते-अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः, इत्थं च दृढभावस्तपसा धुनोति पुराणपापं भावसारया प्रवृत्त्या मनोवाक्कायसंवृतः तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। ७ ।। तथैवे ति पूर्वर्षिविधानेन अशनं पानं च प्रागक्तस्वरूपं तथा विविधं अनेकप्रकारं खाद्यं स्वाद्यं च प्रागुक्तस्वरूपमेव लब्ध्वा प्राप्य, किमित्याहभविष्यति अर्थः प्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तद् अशनादि न निधत्ते न स्थापयति स्वयं तथा न निधापयति न स्थापयत्यन्यैः ||४११।। For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8888 श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४१२।। दशममध्ययन सभिक्षुः, सूत्रम् ११-१५ भिक्षुस्वरूपः सम सुखदुःखः। स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति, यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ किंच- तथैवाशनं पानं च विविध खाद्य स्वाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत्, लब्ध्वा किमित्याह- छन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून भुङ्क्ते, स्वात्मतुल्यतया तद्वात्सल्यसिद्धेः, तथा भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः चशब्दाच्छेषानुष्ठानपरश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥९॥ भिक्षुलक्षणाधिकार एवाह-नच वैग्रहिकी कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति, सद्वादकथादिष्वपिन च कुप्यति परस्य, अपितु निभृतेन्द्रियः अनुद्धतेन्द्रियः ।। प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते, तथा संयमे पूर्वोक्ते ध्रुवं सर्वकालं योगेन कायवामनःकर्मलक्षणेन युक्तो योगयुक्तः, प्रतिभेदमौचित्येन प्रवृत्तेः, तथा उपशान्तः अनाकुल: कायचापलादिरहितः अविहेठकःन कचिदचितेऽनादरवान. क्रोधादीनां विशेषक इत्यन्ये, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१०॥ जो सहइह गामकंटए, अक्कोसपहारतजणाओ अभियभेरवसहसप्पहासे, समसुहदुक्खसहे अ जे स भिक्खू ।। सूत्रम् ११॥ पडिमं पडिवज्जिआ मसाणे, नो भीयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतवोरए अनिचं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू ॥ सूत्रम् १२॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अक्कुढे व हए लूसिए वा। पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिआणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू ।। सूत्रम् १३।। अभिभूअकाएण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महब्भयं, तवेरए सामणिए जेस भिक्खू। सूत्रम् १४ ।। हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च विआणइ जे स भिक्खू ॥ सूत्रम् १५ ॥ किंच-य:खलु महात्मा सहते सम्यग्ग्रामकण्टकान्ग्रामा-इन्द्रियाणि तद्दुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह-आक्रोशान् । प्रहारान् तर्जनाश्चेति, तत्राक्रोशो यकारादिभिः प्रहाराः कशादिभिस्तर्जना असूयादिभिः, तथा भैरवभया अत्यन्तरौद्रभयजनकाः 4 ॥४१२॥ 38888 For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४१३॥ ११-१५ भिक्षुस्वरूपः समसुखदुःखः। शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा तस्मिन्, वैतालादिकृतार्त्तनादाट्टहास इत्यर्थः, अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुख- दशममध्ययन दुःखसहश्च- यः अचलितसामायिकभावः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥ ११॥ एतदेव स्पष्टयति- प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य सभिक्षुः, सूत्रम् विधिनाऽङ्गीकृत्य श्मशाने पितृवने न बिभेति न भयं याति भैरवभयानि दृष्ट्वा रौद्रभयहेतूनुपलभ्य वैतालादिरूपशब्दादीनि । विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणाद्यनशनादिसक्तश्च सर्वकालम्, न शरीरमभिकासते निःस्पृहतया वार्त्तमानिकं भावि च, य इत्थंभूतः स भिक्षुरितिसूत्रार्थः ।। १२ । न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः, किमित्याह-व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः- शरीरं येन स तथाविधः, आकृष्टो वा यकारादिना हतो वा दण्डादिना लूषितो वा खडगादिना सूत्रम् १६ भक्षितो वा श्वशृगालादिना पृथिवीसमः सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागादिना पीड्यते, तथा अनिदानो भाविफलाशंसारहितः, भिक्षुस्वरूपः अकुतूहलश्च नटादिषु, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १३ ।। भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाह- अभिभूय पराजित्य अमूछोऽ गृद्धोऽकायेन शरीरेणापि, न भिक्षुसिद्धान्तनीत्या मनोवाग्भ्यामेव, कायेनानभिभवे तत्त्वतस्तदनभिभवात्, परीषहान् क्षुदादीन्, ज्ञातोछः। समुद्धरति उत्तारयति जातिपथात् संसारमार्गादात्मानम्, कथमित्याह विदित्वा विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं महाभयं महाभयकारणम्, तपसि रतः तपसि सक्तः, किंभूत इत्याह श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। १४ ।। तथा हस्तसंयतः पादसंयत इति- कारणं विना कूर्मवल्लीन आस्ते कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवागुदीरणेन, संयतेन्द्रियो निवृत्तविषयप्रसरः, अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः, सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु, तथा सूत्रार्थं च यथावस्थितं विधिग्रहणशुद्धं विजानाति यःसम्यग्यथाविषयं स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१५॥ उवहिंमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउँछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसंनिहिओ विरए, सव्वसंगावगए अजे स भिक्खू ।। सूत्रम् १६॥ ||४१३॥ For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशममध्ययन श्रीदशवैकालिक श्रीहारिक सभिक्षुः, वृत्तियुतम् ।। ४१४॥ सूत्रम् १६-२१ भिक्षुस्वरूपः अमूछोडगृद्धोडजातोछः। अलोल भिक्खून रसेसु गिज्झे, उंछं चरे जीविअनाभिकंखे। इहिच सक्कारणपूअणंच, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू ।। सूत्रम् १७॥ न परं वइजासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज न तं वइजा। जाणिअ पत्तेअंपुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू। सूत्रम् १८॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू॥ सूत्रम् १९।। पवेअए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई पर पि । निक्खम्म वजिज कुसीललिग, न आवि हास कुहए जे स भिक्खू॥ सूत्रम् २०॥ तं देहवासं असुई असासयं, सया चए निञ्चहिअट्ठिअप्पा । छिदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ।। सूत्रम् २१॥ तिबेमि ।। सभिक्खुअज्झयणंदसमं समत्तं ॥१०॥ तथा- उपधौ वस्त्रादिलक्षणे अमूर्च्छितः तद्विषयमोहत्यागेन अगृद्धः प्रतिबन्धाभावेन, अज्ञातोञ्छं चरति भावपरिशुद्धम्, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः, पुलाकनिष्पुलाक इति संयमासारतापादकदोषरहितः, क्रयविक्रयसनिधिभ्यो विरतः द्रव्यभावभेदभिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्तः, सर्वसङ्गापगतश्च यः अपगतद्रव्यभावसङ्गश्च यः, स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। १६ ।। किंचअलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो भिक्षुः साधुः न रसेषु गृद्धः, प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति भावः, उञ्छं चरति भावोञ्छमेवेति पूर्ववत्, नवरंतत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुक्त्यम्, तथा जीवितं नाभिकासते, असंयमजीवितम्, तथा ऋद्धिं च आमाँषध्यादिरूपां सत्कारं वस्त्रादिभिः पूजनं च स्तवादिना त्यजति, नैतदर्थमेव यतते, स्थितात्मा ज्ञानादिषु, अनिभ इत्यमायो यः For Private and Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir दशममध्ययन सभिक्षुः, श्रीदश- वैकालिक श्रीहारिक वृत्तियुतम् ॥४१५॥ १६-२१ भिक्षुस्वरूप: अमूच्छोडगृद्धोडज्ञातोछः। स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१७॥ तथा न परं स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदति अयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात्, स्वपक्षविनेयं । तु शिक्षाग्रहणबुद्ध्या वदत्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चित् कुप्यति न तद् ब्रवीति दोषसद्धावेऽपि, किमित्यत आह- ज्ञात्वा प्रत्येकं । पुण्यपापम्, नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत्, एवं सत्स्वपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति-न स्वगुणैर्गर्वमायाति यः। स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १८ ।। मदप्रतिषेधार्थमाह- न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रूपवानादेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभवान्, न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, अत एवाह- मदान् सर्वान् । कुलादिविषयानपि परिवर्त्य परित्यज्य धर्मध्यानरतो यो यथागमं तत्र सक्तः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। १९।। किंच-प्रवेदयति । कथयति आर्यपदं शुद्धधर्मपदं परोपकाराय महामुनिः शीलवान् ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः, किमित्येतदेवमित्यत आहधर्मे स्थितः स्थापयति परमपि-श्रोतारम्, तत्रादेयभावप्रवृत्तेः, तथा निष्क्रम्य वर्जयति कुशीललिङ्ग आरम्भादि कुशीलचेष्टितम्, तथा न चापि हास्यकुहको न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ।। २० ।। भिक्षुभावफलमाह- तं देहवास मित्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीरावासं अशुचिं शुक्रशोणितोद्भवत्वादिना अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुबन्धत्यागेन, क इत्याह- नित्यहिते मोक्षसाधने सम्यग्दर्शनादौ स्थितात्मा अत्यन्तसुस्थितः, स चैवंभूतश्छित्त्वा । जातिमरणस्य संसारस्य बन्धनं कारणं उपैति सामीप्येन गच्छति भिक्षुः यति: अपुनरागमा पुनर्जन्मादिरहितामित्यर्थः, गतिमिति। सिद्धिगतिम्, ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। २१ । उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववत्, इति व्याख्यातं सभिक्ष्वध्ययनम् ।। १०॥ ॥सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्ती दशममध्ययनंसभिक्ष्वाख्यं समाप्तमिति ।। ||४१५॥ For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४१६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।। अथ प्रथमा रतिवाक्यचूलिका ॥ अधुनौघतश्चडे आरभ्येते, अनयोश्चायमभिसंबन्ध: - इहानन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः, स चैवंभूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात् सीदेद्, अतस्तत्स्थिरीकरणं कर्त्तव्यमिति तदर्थाधिकारवच्चूडाद्वयमभिधीयते, तत्र चूडाशब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह नि०- दव्वे खेत्ते काले भावम्मि अ चूलिआय निक्खेवो। तं पुण उत्तरतंतं सुअगहिअत्थं तु संगहणी ।। ३५९ ।। नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्याह- द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्रव्यादिविषयः चूडाया निक्षेपो न्यास इति तत्पुनश्रूडाद्वयं उत्तरतन्त्रं दशवैकालिकस्य आचारपञ्चचूडावत्, एतच्चोत्तरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव दशवैकालिकाख्यश्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः, यद्येवमपार्थकमिदम्, नेत्याह- संग्रहणी तदुक्तानुक्तार्थसंक्षेप इति गाथार्थः ।। ३५९ ।। द्रव्यचूडादिव्याचिख्यासयाऽऽह नि० दव्वे सच्चित्ताई कुक्कुडचूडामणीमऊराई। खेत्तंमि लोगनिक्कुड मंदरचूडा अ कूडाई ।। ३६० ।। द्रव्य इति द्रव्यचूडा आगमनोआगमज्ञशरीरेतरादि, व्यतिरिक्ता त्रिविधा सचित्ताद्या सचित्ता अचित्ता मिश्रा च, यथासंख्यं दृष्टान्तमाह- कुक्कुटचूडा सचित्ता मणिचूडा अचित्ता मयूरशिखा मिश्रा । क्षेत्र इति क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटा उपरिवर्त्तिनः, मन्दरचूडा च पाण्डुकम्बला कूटादयश्च तदन्यपर्वतानाम्, क्षेत्रप्राधान्यात्, आदिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तकः तिर्यग्लोकस्य मन्दर ऊर्ध्वलोकस्येषत्प्राग्भारेति गाथार्थः ।। ३६० ।। नि०- अइरित्त अहिगमासा अहिगा संवच्छरा अ कालंमि। भावे खओवसमिए इमा उ चूडा मुणेअव्वा ।। ३६१ ।। अतिरिक्ता उचितकालात् समधिका अधिकमासकाः प्रतीताः, अधिकाः संवत्सराश्च षष्ट्यब्दाद्यपेक्षया काल इति कालचूडा, For Private and Personal Use Only प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, निर्युक्तिः ३५९-३६१ द्रव्य भावरतिः । ।। ४१६ ।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥ ४१७ ।। www.kobatirth.org भाव इति भावचूडा क्षायोपशमिके भावे इयमेव द्विप्रकारा चूडा मन्तव्या विज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाच्छ्रुतस्येति गाथार्थ: ।। ३६१ ।। तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यचूडा, अस्याश्चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे रतिवाक्येति द्विपदं नाम, तत्र रतिनिक्षेप उच्यते तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावरत्यभिधित्सयाऽऽह नि० दव्वे दुहा उ कम्मे नोकम्मरई अ सद्ददव्वाई। भावरई तस्सेव उ उदए एमेव अरईवि ।। ३६२ ।। द्रव्यरतिरागमनो आगमज्ञशरीरेतरातिरिक्ता द्विधा- कर्मद्रव्यरतिनकर्मद्रव्यरतिश्च तत्र कर्मद्रव्यरती रतिवेदनीयं कर्म, एतच्च बद्धमनुदयावस्थं गृह्यते नोकर्मद्रव्यरतिस्तु शब्दादिद्रव्याणि, आदिशब्दात् स्पर्शरसादिपरिग्रहः रतिजनकानि रतिकारणानि । भावरतिः तस्यैव तु रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति, एवमेवारतिरपि द्रव्यभावभेदभिन्ना यथोक्तरतिप्रतिपक्षतो विज्ञेयेति गाथार्थ: ।। ३६२ ।। उक्ता रतिः, इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाह नि०- वक्कं तु पुव्वभणिअं धम्मे रइकारगाणि वक्त्राणि । जेणमिमीए तेणं रङ्गवक्वेसा हवइ चूडा ।। ३६३ ।। वाक्यं तु पूर्वभणितं वाक्यशुद्ध्यध्ययनेऽनेकप्रकारमुक्तं धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि तानि च वाक्यानि येन कारणेन अस्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रतिकर्तॄणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्येति गाथार्थः ।। ३६३ ।। इह च रत्यभिधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम् । आह च नि०- जह नाम आउरस्सिह सीवणछेज्जेसु कीरमाणेसु । जंतणमपत्थकुच्छाऽऽमदोसविरई हिअकरी उ ।। ३६४ ।। यथा नामेति प्रसिद्धमेतत् आतुरस्य शरीरसमुत्थेन आगन्तुकेन वा व्रणेन ग्लानस्य इह लोके सीवनच्छेदेषु सीवनच्छेदनकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु, किमित्याह- यन्त्रणं गलयन्त्रादिना अपथ्यकुत्सा अपथ्यप्रतिषेधः आमदोषविरतिः अजीर्णदोषनिवृत्तिः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, निर्युक्तिः | ३६२-३६३ भावरतिः । द्रव्य | नियुक्ति: ३६४ |रत्यभिधानोपदर्शनम्। ।। ४९७ ।। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृनियुतम् ॥४१८॥ उपसहारः। हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ॥ ३६४ ॥ दान्तिकयोजनामाह प्रथमा नि०- अट्ठविहकम्मरोगाउरस्स जीअस्स तह तिगिच्छाए। धम्मे रई अधम्मे अरई गणकारिणी होई ।। ३६५ ।। रतिवाक्य चूलिका, अष्टविधकर्मरोगातुरस्य ज्ञानावरणीयादिरोगेण भावग्लानस्य जीवस्य आत्मनः तथा तेनैव प्रकारेण चिकित्सायां संयमरूपायां। नियुक्तिः प्रक्रान्तायामस्नानलोचादिना पीडाभावेऽपि धर्मे श्रुतादिरूपे रतिः आसक्तिः अधर्मे तद्विपरीते अरतिः अनासक्तिर्गुणकारिणी ३६५-३६६ भवति, निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः ।। ३६५ ।। एतदेव स्पष्टयति रत्यभिधानो पदर्शनम्। नि०-सज्झायसंजमतवे वेआवचे अझाणजोगे अ।जो रमइ नोरमइ अस्संजमम्मि सो वचई सिद्धिं ।। ३६६॥ नियुक्तिः ३६७ स्वाध्याये- वाचनादौ संयमे- पृथिवीकायसंयमादौ तपसि- अनशनादौ वैयावृत्त्ये च-आचार्यादिविषये ध्यानयोगे चधर्मध्यानादौ यो रमते स्वाध्यायादिषु सक्त आस्ते, तथा न रमते न सक्त आस्ते असंयमे प्राणातिपातादौ स व्रजति सिद्धिं गच्छति ? मोक्षम् । इह च संयमतपोग्रहणे सति स्वाध्यायादिग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः ।। ३६६ ।। उपसंहरन्नाह नि०- तम्हा धम्मे रइकारगाणि अरइकारगाणि उ(य) अहम्मे । ठाणाणि ताणि जाणे जाई भणिआई अज्झयणे ।। ३६७॥ तस्माद धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि अरतिकारकाणि च अरतिजनकानि च अधर्मे असंयमे स्थानानि तानि | वक्ष्यमाणानि जानीयात् यानि भणितानि प्रतिपादितानि इह अध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ।। ३६७ ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं इह खलु भो पव्वइएणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाई अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहिअव्वाई भवंति- तंजहा- हंभो! दुस्समाए दुप्पजीवी १, लहुसगा इत्तरिआ ॥४१८॥ For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४१९॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् (लोकजातिः), उत्प्रवजितुकामस्याष्टादशस्थानार्थव्यतिकरः। गिहीणं कामभोगा २, भुजो असाइबहुला मणुस्सा ३, इमे अमे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई ४, ओमजणपुरकारे ५, वंतस्स य पडिआयणं ६, अहरगइवासोबसंपया ७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमो वसंताणं ८, आर्यके से वहाय होइ ९, संकप्पे से वहाय होइ १०, सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परिआए ११, बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए १२, सावजे गिहवासे अणवणे परिआए १३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १४, पत्तेअंपुण्णपावं १५, अणिच्चे खलु भो! मणुआण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले १६, बहुं च खलु भो! पावं कम्मं पगडं १७, पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुव्विं दुचिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता १८ । अट्ठारसमं पयं भवइ । भवइ अइत्थ सिलोगो इह खलु भोः प्रव्रजितेन इहेति जिनप्रवचने खलुशब्दोऽवधारणेसच भिन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः, भो इत्यामन्त्रणे, प्रव्रजितेनसाधुना, किंविशिष्टेनेत्याह- उत्पन्नदुःखेन संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्यादिमानसदुःखेन संयमे व्यावर्णितस्वरूपे अरतिसमापन्नचित्तेन उद्वेगगताभिप्रायेण संयमनिर्विण्णभावेनेत्यर्थः, स एव विशेष्यते- अवधानोत्प्रेक्षिणा अवधानं- अपसरणं संयमादुत्प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन,उत्प्रव्रजितुकामेनेति भावः, अनवधावितेनैव अनुत्प्रव्रजितेनैव अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि सम्यग् भावसारं सुष्ठ प्रेक्षितव्यानि सुष्ट्वालोचनीयानि भवन्तीति योगः, अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थकमिति । तान्येव विशेष्यन्ते- हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकाभूतानि अश्वखलिनगजाङ्कशबोहित्थसितपटतुल्यानि, एतदुक्तं भवति- यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानांरम्यादयो नियमनहेतवस्तथैतान्यपि संयमादुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां भव्यसत्त्वानामिति, यतश्चैवमतः सम्यक् संप्रत्युपेक्षितव्यानि भवन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, योगात्सम्यक्-सम्यगेव संप्रत्युपेक्षित-- व्यान्येवेत्यर्थः तद्यथे'त्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, हंभो दुष्षमायां दुष्प्रजीविन इति हंभो- शिष्यामन्त्रणे दुष्षमायां- अधम I४१२॥ For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir 11४२०॥ कामस्याष्टादशस्थानार्थव्यतिकरः। श्रीदश- कालाख्यायां कालदोषादेव दुःखेन- कृच्छ्रेण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्प्रजीविनः, प्राणिन इति गम्यते, वैकालिक नरेन्द्रादीनामप्यनेकदुःखप्रयोगदर्शनात्, उदारभोगरहितेन च विडम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षित रतिवाक्य श्रीहारि० चूलिका, वृत्तियुतम् । व्यमिति प्रथम स्थानं १। तथा लघव इत्वरा गृहिणां कामभोगाः, दुष्षमायामिति वर्त्तते, सन्तोऽपि लघवः तुच्छा: प्रकृत्यैव सूत्रम् तुषमुष्टिवदसाराः इत्वरा अल्पकालाः गृहिणां गृहस्थानां कामभोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्व, न (श्लोकजातिः), उत्प्रवजितुदेवानामिव विपरीताः, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीयं स्थानं २। तथा भूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः । दुष्षमायामिति वर्त्तत एव, पुनश्च स्वातिबहुला मायाप्रचुरा मनुष्या इति प्राणिनो, न कदाचिद्विश्रम्भहेतवोऽमी, तद्रहितानां च । कीटक्सुखं?, तथा मायाबन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीयं स्थानं ३ । तथा इदं ।। च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति इदं च अनुभूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो दुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शीलं भविष्यति, श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकृतेः कर्मनिर्जरणात्संयमराज्यप्राप्तेः, इतरथा महानरकादौ विपर्ययः, अत: किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थं स्थानं ४ । तथा ओमजणपुरस्कार मिति न्यूनजनपूजा, प्रव्रजितो हि धर्मप्रभावाद्राजामात्यादिभिरभ्युत्थानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते, उत्प्रव्रजितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्यम्, अधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तु: खरकर्मणो नियमत एव इहैवेदमधर्मफलम्, अत: किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ५। एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया, तथा वान्तस्य प्रत्यापानं भुक्तोज्झितपरिभोग इत्यर्थः, अयंच श्वशृगालादिक्षुद्रसत्त्वाचरितः सतां निन्द्यो व्याधिदुःखजनकः, वान्ताश्च भोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेन, एतत्प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानं ६। तथा अधरगतिवासोपसंपत् अधो(धर)गति:- नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः, ॥४२०॥ For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४२१ ।। www.kobatirth.org एतन्निमित्तभूतं कर्म गृह्यते, तस्योपसंपत्- सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्प्रव्रजनम्, एवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानं ७ । तथा दुर्लभः खलु भो! गृहिणां धर्म इति प्रमादबहुलत्वाद्दुर्लभ एव भो इत्यामन्त्रणे गृहस्थानां परमनिर्वृतिजनको धर्मः, किंविशिष्टानामित्याह- गृहपाशमध्ये वसता मित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये वसताम्, अनादिभवाभ्यासादकारणं स्नेहबन्धनम्, एतच्चिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानं ८ । तथा आतङ्कस्तस्य वधाय भवति आतङ्कः सद्योघाती विषूचिकादिरोगः तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य वधाय विनाशाय भवति, तथा वधश्चानेकवधहेतुः, एवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानं ९ । तथा संकल्पस्तस्य वधाय भवति संकल्प इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानस आतङ्कः, तस्य गृहिणस्तथा चेष्टायोगान्मिथ्याविकल्पाभ्यासेन ग्रहादिप्राप्तेर्वधाय भवति, एतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानं १० तथा सोपक्लेशो गृहिवास इति सहोपक्लेशैः सोपक्लेशो गृहिवासो- गृहाश्रमः, उपक्लेशा:- कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनगर्हिताः शीतोष्ण श्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेति, एवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानं ११ । तथा निरुपक्लेशः पर्याय इति, एभिरेवोपक्लेश रहितः प्रव्रज्यापर्यायः, अनारम्भी कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानं १२ । तथा बन्धो गृहवासः सदा तद्धेत्वनुष्ठानात्, कोशकारकीटवदिति, एतच्चिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानं १३ । तथा मोक्षः पर्यायः अनवरतं कर्मनिगडविगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्दशं स्थानं १४ । अत एव सावद्यो गृहवास इति सावद्य:- सपापः प्राणातिपातमृषावादादिप्रवृत्तेरेतच्चिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानं १५ । एवं अनवद्यः पर्याय इति अपाप इत्यर्थः, अहिंसादिपालनात्मकत्वाद्, एतच्चिन्तनीयमिति षोडशं स्थानं १६ । तथा बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति बहुसाधारणाः- चौरराजकुलादिसामान्या 'गृहिणां' गृहस्थानां कामभोगाः पूर्ववदिति, एतच्चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानं १७ । तथा प्रत्येकं पुण्यपाप मिति मातापितृ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् (श्लोकजातिः), उत्प्रव्रजित कामस्याष्टादशस्थानार्थव्यतिकरः । ।। ४२१ ।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृनियुतम् ॥ ४२२॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् कामस्याष्टादशस्थानार्थ कलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं 'प्रत्येकं प्रत्येकं' पृथक् पृथक् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति भावार्थः, एवमष्टादशं । स्थानं १८ । एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते- सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्स । स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशंस्थानं १४, प्रत्येकं पुण्यपापमिति । पञ्चदशं स्थानं १५, शेषाण्यभिधीयन्ते, तथा अनित्यं खलु अनित्यमेव नियमतः भो इत्यामन्त्रणे मनुष्याणां पुंसां जीवित (श्लोकजातिः), उत्प्रव्रजितुआयुः, एतदेव विशेष्यते-कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपद्रवविषयत्वादत्यन्तासारम्, तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति षोडशं स्थानं १६, तथा बहुं च खलु भोः! पापं कर्म प्रकृतं बहु च चशब्दात् क्लिष्टं च खलुशब्दोऽवधारणे बढेव । पापं कर्म- चारित्रमोहनीयादि प्रकृतं' निर्वर्त्तितम्, मयेति गम्यते, श्रामण्यप्राप्तावप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तेः, नहि प्रभूतक्लिष्टकर्म व्यतिकरः। रहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किञ्चित् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदशं स्थानं १७, तथा पापानांचे त्यादि, 'पापानांच'अपूण्यरूपाणां चशब्दात्पुण्यरूपाणांच खलु भो! कृतानां कर्मणां खलुशब्दःकारितानुमतविशेषणार्थः, भो इति शिष्यामन्त्रणे, कृतानां मनोवाकाययोगैरोघतो निर्वर्तितानां कर्मणां ज्ञानावरणीयाद्यसातवेदनीयादीनां प्राक पूर्वमन्यजन्मसु दुश्चरितानां प्रमादकषायजदुश्चरितजनितानि दुश्चरितानि, कारणे कार्योपचारात्, दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्ये कारणोपचारात्, एवं दुष्पराक्रान्तानां मिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात्, ।। दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्पराक्रान्तानि, फले हेतूपचारात्, इह च दुश्चरितानि मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि वधबन्धनादीनि, तदमीषामेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वा अनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः, किं?- मोक्षो भवति प्रधानपुरुषार्थो भवति नास्त्यवेदयित्वा न भवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह, इष्यते च स्वल्पकर्मोपेतानां कैश्चित्सहकारि ॥४२२ ।। BRULAIRAILE25838 For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || ४२३॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १-८ सीदतः स्थिरीकरणार्थमुत्तिवजितस्य परितापना निदर्शनम्। निरोधतस्तत्फलादानवादिभिस्तत्, तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोक्षः, तथारूपत्वात् कर्मणः, स्वफलादाने कर्मत्वायोगात्, तपसा वा क्षपयित्वा अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुभभावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशः, अन्यानिबन्धनपरिक्लेशेन, तपःक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमित्तप्रक्रमेणापरिक्लेशमिति, अतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किंचिद्गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति अष्टादशं पदं भवति अष्टादशं स्थानं भवति १८ । भवति चात्र श्लोकः अत्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकरे, उक्तानुक्तार्थसंग्रहपर इत्यर्थः, श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः।। जया य चयई धम्म, अणजो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबुज्झइ ।। सूत्रम् १ ॥ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं । सव्वधम्मपरिभट्ठो, स पच्छा परितप्पड़ ।। सूत्रम् २ ॥ जया अवंदिमो हाइ, पच्छा होइ अवंदिमो। देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पड़ ।। सूत्रम् ३ ॥ जया अपूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो। राया व रज्जपब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पड़ ।। सूत्रम् ४॥ जया अ माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो। सिट्टि व्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पड़ ।। सूत्रम् ५ ।। जया अथेरओ होइ, समइक्कंतजुव्वणो। मच्छू व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पड़ ।। सूत्रम् ।। जया अकुकुड़बस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ। हत्थी व बंधणे बद्धो, सपच्छा परितप्पड़।। सूत्रम् ७।। पत्तदारपरीकिण्णो, मोहसंताणसंतओ। पंकोसन्नो जहानागो, स पच्छा परितप्पड़।। सूत्रम् ८॥ यदा चैवमप्यष्टादशसुव्यावर्त्तनकारणेषु सत्स्वपि जहाति त्यजति धर्मं चारित्रलक्षणं अनार्य इत्यनार्य इवानार्याम्लेच्छचेष्टितः, 1x331 For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदश वैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४२४ ।। www.kobatirth.org किमर्थमित्याह- भोगकारणात् शब्दादिभोगनिमित्तं स धर्मत्यागी तत्र तेषु भोगेषु मूर्च्छितो गृद्धो बालः मन्दः आयतिं आगामिकालं नावबुद्ध्यते न सम्यगवगच्छतीति सूत्रार्थः ।। १ ।। एतदेव दर्शयति यदा अवधावितः अपसृतो भवति संयमसुखविभूतेः, उत्प्रव्रजित इत्यर्थः, इन्द्रो वे ति देवराज इव पतितः क्ष्मां क्ष्मां गतः, स्वविभवभ्रंशेन भूमौ पतित इति भावः, क्ष्मा भूमिः । सर्वधर्मपरिभ्रष्टः सर्वधर्मेभ्यः - क्षान्त्यादिभ्य आसेवितेभ्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेभ्योऽपि वा गौरवादिभ्यः परिभ्रष्टः सर्वतश्च्युतः, स पतितो भूत्वा पश्चात् मनाग् मोहावसाने परितप्यते किमिदमकार्यं मयाऽनुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ यदा न वन्द्यो भवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चाद्भवत्युन्निष्क्रान्तः सन्नवन्द्यः तदा देवतेव काचिदिन्द्रवर्जा स्थानच्युता सती स पश्चात्परितप्यत इत्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ तथा यदा च पूज्यो भवति - वस्त्रभक्तादिभिः श्रामण्यसामर्थ्याल्लोकानां पश्चाद्भवत्युत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो लोकानामेव तदा राजेव राज्यप्रभ्रष्टः महतो भोगाद्विप्रमुक्तः स पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ।। ४ ।। यदा च मान्यो भवत्यभ्युत्थानाज्ञाकरणादिना माननीयः शीलप्रभावेण पश्चाद्भवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीव कर्बटे महाक्षुद्रसंनिवेशे क्षिप्तः सन् स पश्चात्परितप्यत इत्येतत्समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ यदा च स्थविरो भवति स त्यक्तसंयमो वयः परिणामेन, एतद्विशेषप्रतिपादनायाह- समतिक्रान्तयौवनः, एकान्तस्थविर इति भावः, तदा विपाककटुकत्वाद्भोगानां मत्स्य इव गलं बडिशं गिलित्वा अभिगृह्य तथाविधकर्मलोहकण्टकविद्धः सन् स पश्चात्परितप्यत इत्येतदपि समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ।। ६ ।। एतदेव स्पष्टयति- यदा च कुकुटुम्बस्य कुत्सितकुटुम्बस्य कुतप्तिभिः कुत्सितचिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते विषयभोगान् प्रति विघातं नीयते तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात्, क इव ? - यथा हस्ती कुकुटुम्बबन्धनबद्धः परितप्यते ॥ ७ ॥ एतदेव स्पष्टयति- पुत्रदारपरिकीर्णो विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिभिः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १-८ सीदतः स्थिरीकरणार्थमुत्प्रिव्रजितस्य परितापना निदर्शनम्। ।। ४२४ ।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् 1॥४२५॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १-१४ सीदतः स्थिरीकरणार्थमुधिवजितम्य परितापना निदर्शनम्। सर्वतो विक्षिप्तः मोहसंतानसंततो दर्शनादिमोहनीयकर्मप्रवाहेण व्याप्तः, क इव- पावसन्नो नागो यथा कर्दमावमग्नो वनगज इव स पश्चात्परितप्यते- हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ।।८।। अज आहंगणी हुँतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ। जइऽहं रमंतो परिआए, सामण्णे जिणदेसिए ।। सूत्रम् ९ ।। देवलोगसमाणो अ, परिआओ महेसिणं । रयाणं अरयाणंच, महानरयसारिसो।। सूत्रम् १०॥ अमरोवमं जाणिअसुक्खमुत्तम, रयाण परिआइ तहाऽरयाणं । निरओवमं जाणिअदुक्खमुत्तमं, रमित तम्हा परिआइ पंडिए।। सूत्रम् ११॥ धम्माउ भट्ट सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झाअमिवऽप्यते। हीलंति णं दुन्विहिअंकुसीला, दाढुडिअं घोरविसं व नागं ।। सूत्रम् १२॥ इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुनामधिज्जं च पिहुजणंमि । चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्ठओ गई। सूत्रम् १३।। भुंजित्तु भोगाई पसज्झचेअसा, तहाविहं कट्ट असंजमं बहुं । गई च गच्छे अणभिज्झिअंदुहं, बोही असे नो सुलहा पुणो पुणो । सूत्रम् १४॥ कश्चित् सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याह- अद्य तावदहं अद्य- अस्मिन् दिवसे अहमित्यात्मनिर्देशे गणी स्यां- आचार्यो भवेयं भावितात्मा प्रशस्तयोगभावनाभिः बहुश्रुत उभयलोकहितबह्वागमयुक्तः, यदि किं स्यादित्यत आह- यद्यहं अरमिष्यं रतिमकरिष्यं पर्याये प्रव्रज्यारूपे, सोऽनेकभेद इत्याह- श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि, सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याहजिनदेशिते निर्ग्रन्थसंबन्धिनीति सूत्रार्थः ॥ ९॥ अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह- देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश ॥ ४२५ ।। For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kababirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् || ४२६॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १-१४ सीदतः एव पर्यायः प्रव्रज्यारूप: महर्षीणां सुसाधूनां रताना सक्तानाम्, पर्याय एवेति गम्यते, एतदुक्तं भवति- यथा देवलोके देवाः ।। प्रेक्षणकादिव्यापृता अदीनमनसस्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं भावतः प्रत्युपेक्षणादिक्रियायां व्यापृताः, उपादेयविशेषत्वात् प्रत्युपेक्षणादेरिति देवलोकसमान एव पर्यायो महर्षीणां रतानामिति । अस्तानां च भावतः समाचार्यामसक्तानां च, चशब्दाद्विषयाभिलाषिणां च भगवल्लिङ्गविडम्बकानां क्षुद्रसत्त्वानां महानरकसदृशो रौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानस स्थिरीकरदुःखातिरेकात् तथा विडम्बनाञ्चेति सूत्रार्थः ॥ १०॥ एतदुपसंहारेणैव निगमयन्नाह- अमरोपमं उक्तन्यायाद्देवसदृशं ज्ञात्वा णार्थमुनिविज्ञाय सौख्यमुत्तमं प्रशमसौख्यम्, केषामित्याह- रतानां पर्याये सक्तानां सम्यक्प्रत्युपेक्षणादिक्रियाव्यङ्गन्ये श्रामण्ये, तथा व्रजितस्य परितापना अरतानां पर्याय एव, किमित्याह- नरकोपमं नरकतुल्यं ज्ञात्वा दुःखं उत्तम प्रधानमुक्तन्यायात्, यस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्माद् निदर्शनम्। रमेत सक्तिं कुर्यात्, वेत्याह- पर्याये उक्तस्वरूपे पण्डितः शास्त्रार्थज्ञ इति सूत्रार्थः ।।११।। पर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाह- धर्मात् श्रमणधर्माद भ्रष्टच्यतं थियोऽपेतं तपोलक्ष्म्या अपगतं यज्ञानि अग्निष्टोमाद्यनलं विध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम. अल्पशब्दोऽभावे, तेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः हीलयन्ति कदर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पङ्क्त्यपसारणादिना, एनं उन्निष्क्रान्तं दुर्विहितं उन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं कुशीलाः तत्सङ्गोचिता लोकाः, स एव विशेष्यते- दाढुडिअंति प्राकृतशैल्या उद्धृतदंष्ट्रउत्खातदंष्ट्र घोरविषमिव रौद्रविषमिव नागं सर्पम्, यज्ञाग्निसोपमानम्, लोकनीत्या प्रधानभावादप्रधानभावख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ।।१२।। एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौघत ऐहिकं दोषमभिधायैहिकामुष्मिकमाह- इहैव इहलोक एव अधर्म इत्ययमधर्मः, फलेन दर्शयति- यदुत अयशः अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं तथा अकीर्तिः अदानपुण्यफलप्रवादरूपा तथा दुर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च भवति, क्वेत्याह- पृथम्जने सामान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके, कस्येत्याह- च्युतस्य धर्माद् || ४२६॥ For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11४२७॥ प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १५-१८ उपदेशोपसंहारी। उत्प्रव्रजितस्येत्यर्थः, तथा अधर्मसेविनः कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमईकारिणः, तथा संभिन्नवृत्तस्य च अखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मबन्धाद् अधस्ताद्गतिः नरकेषूपपात इति सूत्रार्थः ।।१३॥ अस्यैव विशेषप्रत्यपायमाह-'स' उत्प्रव्रजितो भुक्त्वा भोगान् शब्दादीन् प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधं अज्ञोचितमधर्मफलं कृत्वा अभिनिर्वर्त्य असंयम कृष्याद्यारम्भरूपं बहुं असंतोषात्प्रभूतं स इत्थंभूतो मृतः सन् गतिं च गच्छति अनभिध्यातां अभिध्याता- इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः, काचित्सुखाऽप्येवंभूता भवत्यत आह-दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननीम, बोधिश्वास्य जिनधर्मप्राप्तिश्चास्योनिष्क्रान्तस्य न सुलभा पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लभैव, प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः ।। १४।। इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्ा इमं मणोदुहं? ।सूत्रम् १५॥ नमे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेणऽविस्सइ, अविस्सई जीविअपज्जवेण मे।। सूत्रम् १६॥ जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिस नो पइलंति इंदिआ, उविंतवाया व सुदंसणं गिरिं ।। सूत्रम् १७॥ इच्चेव संपस्सिअ बुद्धिमं नरो, आर्य उवाय विविहं विआणिआ। काएण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्टिजासि ॥सूत्रम् १८॥ त्तिबेमि ।। रइवक्का पढमा चूला समत्ता ॥१॥ यस्मादेवं तस्मादुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह- अस्य ताव दित्यात्मन एव निर्देशः, नारकस्य जन्तोः ॥४२७॥ For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४२८ ।। www.kobatirth.org नरकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य क्लेशवृत्तेः एकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययम्, किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोदुःखं तथाविधक्लेशदोषरहितं ?, एतत्क्षीयत एव एतच्चिन्तनेन नोत्प्रव्रजितव्यमिति सूत्रार्थः ।। १५ ।। विशेषेणैतदेवाह - न मम चिरं प्रभूतकालं दुःखमिदं संयमारतिलक्षणं भविष्यति, किमित्यत आह- अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी भोगपिपासा विषयतृष्णा जन्तोः प्राणिनः, अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाहन चेच्छरीरेणानेनापयास्यति न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति, तथापि किमाकुलत्वं ?, यतोऽपयास्यति जीवितपर्ययेण जीवितस्यापगमेन मरणेनेत्येवं निश्चितः स्यादिति सूत्रार्थः ।। १६ ।। अस्यैव फलमाह - तस्ये ति साधोः एवं उक्तेन, आत्मा तु तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् आत्मैव भवेत् निश्चितो दृढः यः स त्यजेद्देहं क्वचिद्विघ्न उपस्थिते, न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्माज्ञामिति, तं तादृशं धर्मे निश्चितं न प्रचालयन्ति संयमस्थानान्न कम्पयन्ति इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह-उत्पतद्वाता इव संपतत्पवना इव सुदर्शनं गिरिं मेरुम्, एतदुक्तं भवति यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति तथा तमपीन्द्रियाणीति सूत्रार्थः ।। १७ ।। उपसंहरन्नाह - इत्येवं अध्ययनोक्तं दुष्प्रजीवित्वादि संप्रेक्ष्य आदित आरभ्य यथावद्दृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः सम्यग् बुद्धयुपेतः आयमुपायं विविधं विज्ञाय आयः सम्यग्ज्ञानादेः उपायः- तत्साधनप्रकारः कालविनयादिर्विविधः - अनेकप्रकारस्तं ज्ञात्वा, किमित्याहकायेन वाचाऽथ मनसा- त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तैस्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनं अर्हदुपदेशं अधितिष्ठेत् यथाशक्त्या तदुक्तैकक्रियापालनपरो भूयात्, भावायसिद्धौ तत्त्वतो मुक्तिसिद्धेः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ।। १८ ।। उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव। समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति ॥ १ ॥ ॥ इति सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत् प्रथमा रतिवाक्यचूलिका समाप्ता ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमा रतिवाक्य चूलिका, सूत्रम् १५-१८ उपदेशो पसंहारौ। ।। ४२८ ।। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||४२९॥ द्वितीया विविक्तचर्या, चूलिका, भाष्यम् ६३ अभिसम्बन्धः सूत्रम् १-४ प्रतिज्ञाचयांगुणाचा ॥ अथ द्वितीया विविक्तचर्याचूलिका।। व्याख्यातं प्रथमचूडाध्ययनम्, अधुना द्वितीयमारभ्यते, अस्य चौघतः संबन्धः प्रतिपादित एव, विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदत: स्थिरीकरणमुक्तम्, इह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमभिसंबन्धः, एतदेवाह भाष्यकार: भा०- अहिगारो पुव्वुत्तो चउव्विहो बिइअचूलिअज्झयणे । सेसाणं दाराणं अहक्कम फासणा होइ।। ६३ ।। अधिकार:- ओघतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः पूर्वोक्तो रतिवाक्यचूडायां प्रतिपादितः चतुर्विधो नामचडा स्थापनाचडेत्यादिरूपो यथा द्वितीयचूडाध्ययने आदानपदेन चूलिकाख्येन, सानुयोगद्वारोपन्यासस्तथैव वक्तव्य इति वाक्यशेषः शेषाणां द्वाराणां सूत्रालापकगतनिक्षेपादीनां यथाक्रम यथाप्रस्ताव स्पर्शना- ईषद् व्याख्यादिरूपा भवतीति गाथार्थः ।। ६३ ।। अत्र च व्यतिकरे सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं चूलिअंतु पवक्खामि, सुअंकेवलिभासि। जं सुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई ।। सूत्रम् १ ।। अणुसोअपट्टिअबहुजणंमि, पडिसोअलद्धलक्खेणं । पडिसोअमेव अप्पा, दायव्यो होउकामेणं ।। सूत्रम् २ ।। अणुसोअसुहोलोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो।। सूत्रम् ३ ।। तम्हा आयारपरक्कमेणं संवरसमाहिबहुलेणं । चरिआ गुणा अनियमा अहंति साहूण दट्टवा ।। सूत्रम् ४ ।। चूडां तु प्रवक्ष्यामि चूडां प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थां तुशब्दविशेषितां भावचूडां प्रवक्ष्यामीति- प्रकर्षणावसरप्राप्ताभिधानलक्षणेन कथयामि, श्रुतं केवलिभाषित मिति इयं हि चूडा 'श्रुतं' श्रुतज्ञानं वर्त्तते, कारणे कार्योपचारात्, एतच्च केवलिभाषितं- अनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृद्धवादः- कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडुकप्रायः ॥४२९।। For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४३० ।। www.kobatirth.org संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, स तदाराधनया मृत एव, ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपम्, पृष्टो भगवान्, अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां ग्राहितेति । इदमेव विशेष्यते यच्छ्रुत्वे ति यच्छ्रुत्वाऽऽकर्ण्य सुपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां धर्मे अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे चारित्रधर्मे उत्पद्यते मतिः संजायते भावतः श्रद्धा । अनेन चारित्रं चारित्रबीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं भवतीति सूत्रार्थः ।। १ ।। एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम्, इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयाः, तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह- अनुस्रोतः प्रस्थिते नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवद् विषयकुमार्गद्रव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथाविधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथाप्रस्थानेनोदधिगामिनि, किमित्याह- प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्येण द्रव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथञ्चिद्देवतानियोगात्प्रतीपस्रोतः प्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु विषयादिवैपरीत्यात्कथंचिदवाप्तसंयमलक्ष्येण प्रतिस्रोत एव दुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादि संयमलक्ष्याभिमुखमेव आत्मा जीवो दातव्यः प्रवर्त्तयितव्यो भवितुकामेन संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्रजनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम्, अपित्वागमैकप्रवणेनैव भवितव्यमिति, उक्तं च- निमित्तमासाद्य यदेव किञ्चन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः। तपः श्रुतज्ञानधनास्तु साधवो, न यान्ति कृच्छ्रे परमेऽपि विक्रियाम् ॥ १ ॥ तथा कपालमादाय विपन्नवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीक्षिता । विहाय लज्जां न तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रता (सा) र्थेऽपि समाहितं मनः ॥ २ ॥ तथा- पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं सघृण एव विमध्यबुद्धिः । प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजनः स्ववृत्तं, वेला समुद्र इव लङ्घयितुं समर्थः ॥ ३ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ।। २ ।। अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह अनुस्रोतःसुखो लोकः उदकनिम्नाभि सर्पणवत् प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोकः, कर्मगुरुत्वात्, प्रतिस्रोत एव तस्माद्विपरीतः आश्रवः इन्द्रियजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्गनोव्यापारः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीया विविक्तचर्या, चूलिका, भाष्यम् ६३ अभिसम्बन्धः । सूत्रम् १-४ प्रतिज्ञाचर्यागुणाश्च । ।। ४३० ।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४३१॥ धिकारक्ष। 'आश्रमो वा' व्रतग्रहणादिरूपः सुविहितानां साधूनाम्, उभयफलमाह- अनुस्रोतः संसार: शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, द्वितीया कारणे कार्योपचारात्, यथा विषं मृत्युः दधि त्रपुषी प्रत्यक्षो ज्वरः, प्रतिस्रोतः उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'सुपां सुपो विविक्तचर्या, चूलिका, भवन्तीति वचनात्, तस्मात् संसाराद् उत्तारः उत्तरणमुत्तारः, हेतौ फलोपचारात् यथाऽऽयुघृतं तन्दुलान्वर्षति पर्जन्य इति । सूत्रम् ५-१ सूत्रार्थः ॥३॥ यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मात् आचारपराक्रमेणे त्याचारे- ज्ञानादौ पराक्रमः- प्रवृत्तिबलं यस्य स तथाविध विहारचर्यों पदेशाइति, गमकत्वाद्बहुव्रीहिः, तेनैवंभूतेन साधुना संवरसमाधिबहुलेने ति संवरे- इन्द्रियादिविषये समाधिः- अनाकुलत्वं बहुलंप्रभूतं यस्य स इति, समासः पूर्ववत्, तेनैवंविधेन सता अप्रतिपाताय विशुद्धये च, किमित्याह- चर्या भिक्षुभावसाधनी बाह्याऽनियतवासादिरूपा गुणाश्च- मूलगुणोत्तरगुणरूपाः नियमाश्च- उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुद्ध्यादीनां स्वकालासेवननियोगाः भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः ।। ४ ।। अनिएअवासो समुआणचारिआ, अन्नायउंछं पड़रिक्कया अ। अप्पोवही कलहविवजणा अ, विहारचरिआइसिणं पसत्था।। सूत्रम् ५॥ आइन्नओमाणविवजणा अ, ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे । संसट्ठकप्पेण चरिज भिक्खू, तज्जायसंसट्ट जई जइला ।। सूत्रम् ६॥ अमजमंसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निव्विगई गया अ। अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हविजा ।। सूत्रम् ७॥ ण पडिन्नविना सयणासणाई, सिनं निसिनं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिंपि कुज्जा ।। सूत्रम् ८।। गिहिणोवेआवडिअन कुजा, अभिवायणवंदणपूअणं वा । असंकिलिट्टेहिं समंवसिजा, मुणी चरित्तस्स जओन हाणी।।सूत्रम् १।। ॥४३१।। For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। ४३२॥ ३६८-३६९ पदेशाधिकारक्ष। चर्यामाह- अनियतवासो मासकल्पादिना अनिकेतवासो वा अगृहे- उद्यानादौ वासः, तथा समुदानचर्या अनेकत्र याचितभिक्षाचरणं अज्ञातोञ्छं विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम्, पइरिक्कया य विजनैकान्तसेविता च अल्पोपधित्वं अनुल्बणयुक्तस्तोको विविक्तचर्या, चूलिका, पधिसेवित्वं कलहविवर्जना च तथा तद्वासिना भण्डनविवर्जना, विवर्जनं विवर्जना श्रवणकथनादिना परिवर्जनमित्यर्थः।। नियुक्तिः विहारचर्या विहरणस्थितिर्विहरणमर्यादा इयं एवंभूता ऋषीणां साधूनां प्रशस्ता- व्याक्षेपाभावात् आज्ञापालनेन भावचरण विहारचर्योसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थः ।। ५ । इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाह नि०- दव्वे सरीरभविओ भावेण य संजओ इहं तस्स । उग्गहिआ पग्गहिआ विहारचरिआ मुणे अव्वा ।। ३६८ ।। साधूनां विहारचर्याऽधिकृतेति साधुरुच्यते, सच द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः,शरीरभव्य इति मध्यमभेदत्वाॐदागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतव्यतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमेतत्, भावेन चे ति द्वारपरामर्शः, स एव संयत इति संयतगुणसंवेदको भावसाधुः । इह अध्ययने तस्य भावसाधोः अवगृहीता उद्यानारामादिनिवासाद्यनियता प्रगृहीता तत्रापि विशिष्टाभिग्रहरूपा उत्कटुकासनादिविहारचर्या 'मन्तव्या' बोद्धव्येति गाथार्थः ।। ३६८ । सा चेयमिति सूत्रस्पर्शेनाह नि०- अणिएअंपरिक्कं अण्णायं सामुआणिअंउँछ । अप्पोवही अकलहो विहारचरिआ इसिपसत्था ।। ३६९॥ सूत्रवदवसेया । अवयवाक्रमस्तु गाथाभङ्गभयाद्, अर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवदृष्टव्य इति । विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ते त्युक्तं । तद्विशेषोपदर्शनायाह- आकीर्णावमानविवर्जना च विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेति, तत्राकीर्णं- राजकुलसंखड्यादि अवमानंस्वपक्षपरपक्षप्राभूत्यजं लोकाबहुमानादि, अस्य विवर्जना, आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषात् अवमाने अलाभाधाकर्मादि७०कथादिना परिव० (प्र०)। ॥४३ B8080808080800 For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jan Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदश- वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||४३३॥ चलिका, नियुक्ति:३६९ विहारचयापदेशाधिकारक्ष। दोषादिति । तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम्, उत्सन्नशब्दः प्रायो वृतौ वर्त्तते, यथा- देवा ओसन्नं सायं वेयणं वेएंति । द्वितीया किमेतदित्याह- भक्तपानं ओदनारनालादि, इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्ध्यति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, भिक्खग्गाहि विविक्तचर्या, एगत्थ कुणइ बीओ अदोसुमुवओगमिति वचनात् इत्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं भक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः, तथा संसृष्टकल्पेन । हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेद्भिक्षुरित्युपदेशः, अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात्, संसृष्टमेव विशिनष्टि- तज्जातसंसृष्ट इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंसृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिः यतेत यत्नं कुर्यात्, अतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यनेनाष्टभङ्गसूचनम्, तद्यथा-संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते सावसेसे दव्वे इत्यादि, अत्र प्रथमभङ्गः श्रेयान् शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ उपदेशाधिकार एवेदमाह- अमद्यमांसाशी भवेदिति योगः, अमद्यपोऽमांसाशीच स्यात्, एते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव, ततश्च यत्केचनाभिदधति- आरनालारिष्ठाद्यपि संधानाद् ओदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्त्याज्यमिति, तदसत्, अमीषां मद्यमांसत्वायोगात्, लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात्, संधानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात्, द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृ-। गमनादिप्रसङ्गादित्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रप्रक्रमात् । तथा अमत्सरी च न परसंपदेषी च स्यात्, तथा अभीक्ष्णं पुनः। अपुनः पुष्टकारणाभावे निर्विकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिभोगश्च भवेत्, अनेन परिभोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह, तथा अभीक्ष्णं गमनागमनादिषु, विकृतिपरिभोगेऽपि चान्ये, किमित्याह- कायोत्सर्गकारी भवेत् ईर्यापथप्रतिक्रमणमकृत्वान। किश्चिदन्यत् कुर्याद्, तदशुद्धतापत्तेरिति भावः । तथा स्वाध्याययोगे वाचनाचूपचारव्यापार आचामाम्लादौ प्रयतः अतिशय Oदेवा उत्सन्नं सातवेदनां वेदयन्ति । 0 भिक्षाग्राही एकत्र करोति द्वितीयश्च द्वयोरुपयोगम् । 0 संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकं सावशेष द्रव्यम्। 0 तक्रे शुभेऽशुभे इत्युक्तेस्तक्रम्, आदिना दध्यादि। For Private and Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ।। . ४३४ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यत्नपरो भवेत्, तथैव तस्य फलवत्त्वाद् विपर्यय उन्मादादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ किंचन प्रतिज्ञापयेत् मासादिकल्पपरिसमाप्तौ गच्छन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञां कारयेद्गृहस्थम्, किमाश्रित्येत्याह- शयनासने शय्यां निषद्यां तथा भक्तपान मिति तत्र शयनं संस्तारकादि आसनं पीठकादि शय्या वसतिः निषद्या स्वाध्यायादिभूमिः तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थौचित्येन भक्तपानं खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादि न प्रतिज्ञापयेत्, ममत्वदोषात् । सर्वत्रैतनिषेधमाह- ग्रामे शालिग्रामादौ कुले वा श्रावककुलादौ नगरे साकेतादौ देशे वा मध्यदेशादौ ममत्वभावं ममेदमिति स्नेहमोहं न क्वचित् उपकरणादिष्वपि कुर्यात्, तन्मूलत्वाद्दुःखादीनामिति ।। ८ ।। उपदेशाधिकार एवाह- गृहिणी गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात्, स्वपरोभया श्रेयःसमायोजनदोषात्, तथा अभिवादनं वाड्नमस्काररूपं वन्दनं कायप्रणामलक्षणं पूजनं वा वस्त्रादिभिः समभ्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्याद्, उक्तदोषप्रसङ्गादेव, तथैतद्दोषपरिहारायैव असंक्लिष्टैः गृहिवैयावृत्त्यकरणसंक्लेशरहितैः साधुभिः समं वसेन्मुनिः चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य यतो येभ्यः साधुभ्यः सकाशात्र हानि:, संवासतस्तदकृत्यानुमोदनादिनेति, अनागतविषयं चेदं सूत्रम्, प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वभावादिति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ ण या भेजा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा । इक्कोऽवि पावाई विवज्जयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ सूत्रम् १० ॥ संवच्छरं वाऽवि परं पमाणं, बीअंच वासं न तहिं वसिद्धा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ॥ सूत्रम् ११ ।। जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पगेणं किं मे कडं किं च मे किचसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि ? ।। सूत्रम् १२ ।। For Private and Personal Use Only द्वितीया विविक्तचर्या, चूलिका, नियुक्ति: ३६९ विहारचय |पदेशा|धिकारक्ष सूत्रम् १०-१२ | विहारचर्याविशेषोऽसीदनगुणो पायः शास्त्रो |पसंहारउप|देशसर्वस्वच । ।। ४३४ ।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् 11४३५॥ शास्त्रोपसंहार किं मे परो पासइ किंच अप्पा, किं वाऽहं खलिअंन विवजयामि । इचेव सम्म अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा द्वितीया ।। सूत्रम् १३॥ विविक्तचर्या, चूलिका, जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरिजा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ।। सूत्रम् १४।। सूत्रम् १०-१६ जस्सेरिसा जोग जिइंद्दिअस्स, धिईमओसप्पुरिसस्स निच्चं। तमाह लोए पडिबुद्धजीवी, सोजीअईसंजमजीविएणं। सूत्रम् १५ ।। विहारचर्या विशेषोऽअप्पा खलुसययंरक्खिअव्वो, सविदिएहिं सुसमाहिएहि । अरक्खिओजाइपहं उवेइ सुरक्खिओ, सव्वदुहाण मुच्चइ।सूत्रम् १६॥ सीदनत्तिबेमि ।। विवित्तचरिआ चूला समत्ता॥२॥ ॥ इइ दसवेआलिअंसुत्तं समत्तं ॥ गुणोपाय:असंक्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह-कालदोषाद् न यदि लभेत न यदि कथञ्चित् प्राप्नुयात् निपुणं संयमानुष्ठानकुशलं । उपदेशसहायं परलोकसाधनद्वितीयम्, किंविशिष्टमित्याह- गुणाधिकं वा ज्ञानादिगुणोत्कटं वा, गुणतः समं वा तृतीयार्थे पञ्चमी गुणैस्तुल्यं वा, वाशब्दाद्धीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा, ततः किमित्याह- एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन् विविधमनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परिहरन् विहरेदुचितविहारेण कामेषु इच्छाकामादिषु असज्यमानः । सङ्गमगच्छन्नेकोऽपि विहरेत्, नतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्ग कुर्यात्, तस्य दुष्टत्वात्, तथा चान्यैरप्युक्तं-वरं विहन्तुं सह। पन्नगर्भवेच्छठात्मभिर्वा रिपुभिः सहोषितुम् । अधर्मयुक्तैश्चपलैरपण्डितैर्न पापभित्रैः सह वर्तितु क्षमम्॥१॥ इहैव हन्युर्भुजगा हिरोषिताः, धतासयश्छिद्रमवेक्ष्य चारयः। असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवेह च हन्यते जनः ॥२॥तथा-परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत्।। आत्मानं योऽभिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः? ॥३॥ तथा- बह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहुरेभिश्च । सह संगमम्॥४॥इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥१०॥ विहारकालमानमाह- संवत्सरं वापिअत्र संवत्सरशब्देन वर्षासुचातुर्मासिको सर्वस्वता For Private and Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir द्वितीया श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||४३६॥ ज्येष्ठावग्रह उच्यते तमपि, अपिशब्दान्मासमपि, परं प्रमाण- वर्षाऋतुबद्धयोरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत्, द्वितीयं च । वर्ष चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासंच ऋतुबद्धे न तत्र क्षेत्रे वसेत् यत्रैको वर्षाकल्पो मासकल्पश्च । विविक्तचर्या, चूलिका, कृतः, अपितु सङ्गदोषाद् द्वितीयं तृतीयं च परिहत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः सर्वथा, किंबहुना?, सर्वत्रैव सूत्रस्य सूत्रम् १०-१६ मार्गेण चरेदिक्षुः आगमादेशेन वर्त्ततेति भावः, तत्रापि नौघत एव यथा श्रुतग्राही स्यात् अपि तु सूत्रस्य अर्थः पूर्वापरा- विहारचर्या विशेषोऽविरोधितन्त्रयुक्तिघटित: पारमार्थिकोत्सर्गापवादगर्भो यथा आज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत, नान्यथा, यथेहापवादतो नित्य सीदनवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादिपरिवर्तन, नान्यथा, शुद्धापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणा- गुणोपायःदिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्तेत, न तु तथाविधलोकहेर्या तं परित्यजेत् तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः॥ ११॥ एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह- यःसाधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले, रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थः, संप्रेक्षते । सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानं कर्मभूतमात्मनैव करणभूतेन, कथमित्याह- किं मे कृत मिति छान्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी, किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादियोगस्य किं च मम कृत्यशेष कर्तव्यशेषमुचितं?, किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं वैयावृत्त्यादि न समाचरामि न करोमि, तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ।। १२ ।। तथा- किं मम स्खलितं परः स्वपक्षपरपक्षलक्षणः पश्यति? किं वाऽऽत्मा क्वचिन्मनाक् संवेगापन्नः?, किं वाऽहमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि, इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा सम्यग् आगमोक्तेन विधिना भूयः पश्येत् अनागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् आगामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्धं करोतीति सूत्रार्थः ।। १३॥ कथमित्याह- यत्रैव पश्येत् यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनद्वारेण क्वचित् संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ दुष्प्रयुक्तं दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते, केनेत्याह- कायेन वाचा अथ मानसेनेति, मन एव मानसम्, शास्त्रोपसंहार उपदेशसर्वस्वव। ॥४३६॥ For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४३७॥ सीदन करणत्रयेणेत्यर्थः तत्रैव तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति य आत्मानम्, सम्यग् विधि प्रतिपद्यत । द्वितीया विविक्तचर्या, इत्यर्थः, निदर्शनमाह- आकीर्णो जवादिभिर्गुणैः, जात्योऽश्व इति गम्यते असाधारणविशेषणात्, तच्चेदं- क्षिप्रमिव खलिन । चूलिका, शीघ्रं कविकमिव, यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यते, एवं यो दुष्प्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सूत्रम् १०-१६ सम्यग्विधिम्, एतावताउंशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥ १४॥ यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह- यस्य साधोः ईदृशाः ।। विहारवर्या विशेषोडस्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाक्कायव्यापारा जितेन्द्रियस्य वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियकलापस्य धृतिमतः संयमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्य प्रमादजयान्महापुरुषस्य नित्यं सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारभ्यामरणान्तं तमाहुलॊके प्रतिबुद्धजीविनं तमेवंभूतं गुणोपाय:साधुमाहुः- अभिदधति विद्वांसः लोके प्राणिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रारहितजीवनशीलम्, स एवंगुणयुक्तः सन् । जीवति संयमजीवितेन कुशलाभिसंधिभावात् सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेनेति सूत्रार्थः ॥ १५॥ शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह-आत्मा खल्वि ति खलुशब्दो विशेषणार्थः, शक्तौ सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः पारलौकिकापायेभ्यः, कथमित्युपायमाह- सर्वेन्द्रियैः स्पर्शनादिभिः सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः, अरक्षणरक्षणयोः फलमाहअरक्षितः सन् जातिपन्थानं जन्ममार्ग संसारमुपैति- सामीप्येन गच्छति । सुरक्षितः पुनर्यथागममप्रमादेन सर्वदुःखेभ्यः शारीरमानसेभ्यो विमुच्यते विविधं- अनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः॥ शास्त्रोपसंहारउपदेशसर्वस्वत। ॥४३७॥ ॥ इति सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्ती द्वितीया विविक्तचर्याचूलिका समाप्ता।। For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् ३७०-३७१ वक्तव्यताशेष (टीकोपसंहार)। ॥४३८॥ ॥अथ श्रीहरिभद्रसूरिविरचितटीकोपसंहारः ।। नियुक्तिः यं प्रतीत्य कृतं तद्वक्तव्यताशेषमाह नि०- छहिं मासेहिं अहीअं अज्झयणमिणं तु अजमणगेणं । छम्मासा परिआओ अह कालगओ समाहीए। ३७० ।। षभिर्मासै:अधीतं पठितं अध्ययनमिदं तु अधीयत इत्यध्ययनं- इदमेव दशवैकालिकाख्यं शास्त्रम, येनाधीतमित्याहआर्यमणकेन- भावाराधनयोगात् आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यः आर्यश्चासौ मणकश्चेति विग्रहस्तेन, षण्मासाः पर्याय इति तस्यार्यमणकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकालः, अल्पजीवितत्वात्, अत एवाह-अथ कालगतः समाधिने ति अथ उक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत- आगमोक्तेन विधिना मृतः समाधिना- शुभलेश्याध्यानयोगेनेति गाथार्थः ।। ३७० ।। अत्र चैवं वृद्धवादः- यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितं एवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत आराधका भवन्त्विति ।। नि०- आणंदअंसुपायं कासी सिजंभवा तहिं थेरा । जसभहस्स य पुच्छा कहणा अविआलणा संघे ।। ३७१ ।। आनन्दाश्रुपातं अहो आराधितमनेनेति हर्षाश्रुमोक्षणं अकार्षुः कृतवन्त शय्यम्भवाः प्राग्व्यावर्णितस्वरूपाः तत्र तस्मिन् कालगते । स्थविराः श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः, पूजार्थं बहुवचनमिति, यशोभद्रस्य च- शय्यम्भवप्रधानशिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृच्छा- भगवन्! किमेतदकृतपूर्वमित्येवंभूता, कथना च भगवतः- संसारस्नेह ईटशः, . सुतो ममायमित्येवंरूपा, चशब्दादनुतापश्च यशोभद्रादीनां- अहो गुराविव गुरुपुत्रके वर्त्तितव्यमिति न कृतमिदमस्माभिरिति, ॥ ४३८ ।। एवंभूतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थ न मया कथितं नात्र भवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च। विचारणा संघ इति शय्यम्भवेनाल्पा For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Si Kailassagarsur Gyarmandir वैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् | ॥ ४३९।। ३७०-३७१ वक्तव्यताशेष: युषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं निर्बुढं किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संघे-कालहासदोषात् प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारक- नियुक्तिः मतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंभूता स्थापना चेति गाथार्थः ।। ३७१।। उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवम्भूतभेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्त भवन्ति। (टीकोस्वरूपं चैतेषामध आवश्यके सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते। इह पुनःस्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियान- पसंहार)। यान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते- ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं- ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणम्, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चाह- णायमि गिव्हिअव्वे अगिव्हिअव्वंमि चेव अत्थम्मि। जइअव्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ। नाम ॥१॥णायंमि'त्ति ज्ञाते सम्यक्परिच्छिन्ने 'गिण्हिअव्वे'त्ति ग्रहीतव्य उपादेये 'अगिहिअव्वे'त्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये। हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्य:- ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते, 'अत्थम्मि'त्ति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिः, उपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सद्दर्शनादिरग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विवक्षया अभ्युदयादिरिति तस्मिन्नर्थे, 'यतितव्यमेवे'ति अनुस्वारलोपाद्यतितव्यं एवं' अनेन प्रकारेणैहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः।। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, सम्यग्ज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फलाविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तं- विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया । फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंभवात् ॥१॥ तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञान एव यतितव्यम्, तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तं- पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सच्चसंजए। अण्णाणी किं काही, किंवा णाही ||४३९।। For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shes kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||४४०।। ३७०-३७१ वक्तव्यताशेष (टीकोपसंहार)। छेअपावर्ग? ॥ १॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्, यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा नियुक्तिः चागमः- गीअत्थो अविहारो बिइओ गीअत्थमीसिओ भणिओ। एत्तो तइअविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥१॥न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिर्जायते यावजीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, 'इति जो उवएसो सोणओणामति इति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो' ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः, अयंच ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ।। उक्तो ज्ञाननयः, अधुना क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं चेदं-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणम्, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह-'णायंमि गिण्हिअव्वे' इत्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थ ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेवेति, न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तं- क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥ तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि क्रियैव कर्तव्या, तथा च मौनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम्, यत उक्तं- चेइअकुलगणसंघे आयरिआणं च पवयणसुए । सव्वेसुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥१॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम्, तथा चागमः-सुबहुपि सुअमहीअं किं काही चरणविप्पमुक्कस्स? । अंधस्स जह। ॥४४०।। For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ॥४४१।। नियुक्तिः ३७०-३७१ वक्तव्यताशेष: (टीकोपसंहार)। पलिता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥शिक्रियाविकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत्क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम्, चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम्, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता हूस्वपञ्चाक्षरोदिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मात्क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, 'इति जो उवएसो सो णओ णाम ति इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वानेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ।। उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवात्, आचार्यः पुनराह- सव्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥१॥ अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह 'सव्वेसिंगाहा"सर्वेषामपि'मूलनयानाम्, अपिशब्दात्तद्भेदानांच 'नयानां' द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपां अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं' सर्वनयसंमतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात्सर्वनया एव भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥ नमो वर्द्धमानाय भगवते, व्याख्यातं चूडाध्ययनम्, तद्व्याख्यानाच्च समाप्ता दशवैकालिकटीका ॥समाप्तं दशवैकालिकं चूलिकासहितं नियुक्तिटीकासहितं च ।। ॥४४ For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 442 // महत्तराया याकिन्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता / आचार्यहरिभद्रेण, टीकेयं शिष्यबोधिनी // 1 // दशवैकालिकटीकां विधाय यत्पुण्यमर्जितं तेन / मात्सर्यदुःखविरहागुणानुरागी भवतु लोकः / / 2 / / // इति श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं याकिनीमहत्तरासूनुसूरिपुरन्दर-श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचिता सचूलिकदशवैकालिकबृहद्वृत्तिव्याख्या समाप्ता। // 442 // 8888886 B000808080808A For Private and Personal Use Only