Book Title: Dashkanthvadham
Author(s): Durgaprasad Dvivedi
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P TIT राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक-पुरातत्त्वाचाय जिनविजय मुनि [सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । ग्रन्थाङ्क २३ महामहोपाध्याय ५० दुर्गाप्रसादद्विवेदविरचितं दशकराठवधम् नाम रामचरितम् स्वोपज्ञसाधुशद्धिटीकासमन्वितम् प्रकाशक राजस्थान राज्य-सस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE JODHPUR जोधपुर ( राजस्थान ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यत अखिल भारतीय तथा विशेषत राजस्थानदेशीय पुरातनका दोन सस्कृत प्राकृत, अपभ्र श, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचाय जिनविजय मुनि [ प्रॉनरेरि भेम्बर अॉफ जमन ओरिए टल मोमाइटी, जमनी ] सम्मा य सदस्य भाण्डारकर प्राच्यविद्या सशोधन मन्दिर, पूना, गुजरात साहित्य-सभा, अहमदाबाद विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोव मस्थान, होशियारपुर, निवत्त सम्मान्य नियामक ( प्रानरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई ग्रन्थाङ्क २३ महामहोपाध्याय प० दुर्गाप्रसादद्विवेदविरचित दशकण्ठवधम् नाम रामचरितम् वोपज्ञसाधुशुद्धिटोकासमन्वितम् प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहोपाध्याय प० दुर्गाप्रसादद्विवेदविरचितं दशकण्ठवधम् नाम रामचरितम् स्वोपज्ञसाधुशुद्धिटीकासमन्वितम् सम्पादक श्री गङ्गाधर द्विवेदी साहित्याचार्य, व्याकरणताथ, विद्यारत्न व्यारयाता, महाराज सस्कृत कालेज, जयपुर प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) विक्रमाब्द २०१७) भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८२ ख्रिस्ताब्द १९६० ( मूल्य ४०० प्रथमावृत्ति १००० मुद्रक-मूल पाठ, प० १ से १४० प्रभात प्रेस, जयपुर, प० १४१ से १५६ अजन्ता प्रि टस, जयपुर और शेष साधना प्रे, जोधपुर । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थ-माला प्रधान सम्पादक — पुरातत्त्वाचाय मुनि श्री जिनविजयजी ++++++++++ प्रकाशित ग्रन्थ १ - संस्कृत ग्रन्थ १ प्रमाणमजरी तार्किकचूडामणि मवदेवाचाय सम्पादक - मीमासा यायकेसरी प० शास्त्री विद्यासागर | पट्टाभिराम मूल्य - ६०० २ यत्रराजरचना, महाराजा सवाई जयसिह कारित | सम्पादक - स्व० प० केदारनाथ, ज्योतिर्वित । मूल्य - १७५ ३ महषिकुलवैभवम स्व० प० मधुसूदन श्रोभाप्रणीत सम्पादक-म०म० प० गिरिवर शर्मा मूल्य - १०७५ चतुर्वेदी | ४ तह, भट्ट, सम्पादक - डा० जिते द्र जेटली एम ए, पी-एच डी ५ कारकसबधोद्योत प० रभसनदी सम्पादक- डा हरिप्रसाद शास्त्री, एम ए मूल्य - ३०० पी एच डी, मूल्य - १७५ ६ वृत्तिदीपिका, मौनिकृष्ण भट्ट सम्पादक - प० पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी साहित्याचाय | मूल्य - २०० ७ शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञात कत व सम्पादक - डा हरिप्रसादशास्त्री, एम ए पी एच डी । मूल्य - २०० एच डी ८ कृष्णगीति, कवि सोमनाथ सम्पादिका - डॉ प्रियबाला शाह एम ए, लट् । पी 2 मूल्य - १७५ ६ नृत्तसग्रह, अज्ञातकतृक, सम्पादिका - डॉ प्रियबाला शाह, एम ए पी एच डी डीलिट् । 7 मूल्य - १७५ १० शृङ्गारहारावली, श्री हष कवि-रचित, सम्पादिका - डा प्रियबाला शाह, एम ए लट् । मूल्य - २७५ ११ राजविनोद महाकाव्य, महाकवि उदयराज, सम्पादक - प श्री गोपालनारायण बहुरा, एम ए, उप सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य - २२५ १२ चक्रपाणिविजय महाकाव्य भट्ट लक्ष्मीवर विरचित, सम्पादक - केशवराम काशीराम शास्त्री । मूल्य - ३५० १३ नृत्य रत्नकोश (प्रथम भाग ) महाराणा कुम्भकरण रचित, सम्पादक - प्रो रसिकलाल छोटालाल पारीख तथा डॉ० प्रियवाला शाह, एम ए पी एच डी डी लिट । मूल्य - ३७५ १४ उक्तिरत्नाकर, साधुसुन्दर गणी विरचित, सम्पादक - पुरातत्त्वाचाय श्री जिनविजय मुनि । सम्मान्य सचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर । 1 मूल्य- ४ ७५ १५ दुर्गापुष्पाञ्जलि, म०म० प० दुर्गाप्रसार द्विवेदीकृत, सम्पादक प० गङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचाय । मूल्य- ४२५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ [ २ ] १६ कणकुतूहल, महाकवि भोलानाथ विरचित सम्पादक-प० श्री गोपालनारायण बहुरा, एम ए , उप-सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । इसी ग्रथकार की अपर कृति 'श्रीकृष्णलीलामत' सहित । मूल्य-१५० १७ ईश्वरविलास-महाकाव्य, कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट विरचित, सम्पादक-श्री मथुरानाथ शास्त्री, साहित्याचाय, जयपुर। मूल्य-११५० १८ रसदीपिका कवि विद्याराम प्रणीत, सम्पादक-प०श्री गोपालनारायण बहुरा, उप सञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर । मूल्य-२०० १६ पद्यमुक्तावली, कविकलानिधि कृष्ण भट्ट सम्पादक-प० श्री मथुरानाथ शास्त्री साहित्याचाय । मूल्य-४०० २० काव्यप्रकाशसकेत, सामेश्वर भट्ट कृत, सम्पादक-श्री रसिकलाल छो० परीख भाग १ मूल्य-१२०० , , भाग २ मूल्य- ८ २५ २२ बस्तुरत्नकोश, अज्ञात कत क, सम्पादिका-डा प्रियबाला शाह। मूल्य-४०० २३ दशकण्ठवधम प० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी कृत, सम्पादक प० गङ्गाधर द्विवेदी, मूल्य-४०० २-राजस्थानो और हि दी ग्रन्थ १ का हडदे प्रब ध, महाकवि पद्मनाभ रचित, सम्पादक-प्रो के बी व्यास, एम ए । मूल्य-१२२५ २ क्यामखा रासा, कविवर जान रचित, सम्पादक-डा दशरथ शर्मा और श्री अगरच द भवरलाल नाहटा। मूल्य-४७५ ३ लावारासा चारण कविया गोपालदानविरचित, सम्पादक-श्री महताबचद खारैड । मूल्य-३७५ ४ वाँकीदासरी ख्यात, कविवर बाकीदास, सम्पादक-श्री नरोत्तमदास स्वामी, एम ए । मूल्य-५५० ५ राजस्थानी साहित्यस ग्रह,भाग १, सम्पादक-श्री नरोत्तमदास स्वामी एम ए । मूल्य-२ २५ ६ कवी द्रकल्पलता, कवी द्राचाय सरस्वती विरचित सम्पादक-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूडावत। मूल्य-२०० ७ जुगलविलास, महाराजा पथ्वीसिह कृत, सम्पादिका-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चडावत । मूल्य-१७५ भगतमाळ, ब्रह्मदासजी चारण कृत सम्पादक-उदराजजी उज्ज्वल मूल्य-१७५ & राजस्थान पुरातत्त्व मदिरके हस्तलिखित न थो की सूची-भाग १ मूल्य-७५० १० राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की सची भाग २ मल्य-१२०० ११ मुहता नणसीरी रयात भाग १, मुहता नणसी कृत, सम्पादक-श्री बदरीप्रसाद साकरिया मूल्य-८ ५० १२ रघुवरजसप्रकास, किसनाजी आढ़ा कृत, सम्पादक-श्री सीताराम लाळस मूल्य-८ २५ १३ राजस्थानी हस्तलिखित न थोकी सूची, भाग १, सम्पादक-श्री मुनि जिनविजय । मूल्य-४५० १४ वीरवाण, ढाढी बादर कृत, सम्पादिका-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूडावत । मूल्य-४५० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ } प्रेस में छप रहे ग्रथ संस्कृत ग्रथ १ शकुनप्रदीप लावण्य शमा रचित २ त्रिपुरा भारती लघुस्तव धर्माचाय प्रणीत ३ करुणामतप्रपा, ठक्कुर मोमेश्वर-विनिर्मित ४ बालशिक्षाव्याकरण ठक्कुर सग्रामसिह विरचित ५ पदाथ रत्नमजूषा, प० कृष्ण मिश्र रचित ६ वस तविलास फागु अज्ञात कत क ७ न दोपाख्यान, अज्ञात कत क ८ चाद्रव्याकरण, प्राचाय चन्द्रगोमि विरचित ६ वत्तजातिसमुच्चय, कवि विरहाङ्क विनिर्मित १० कविदपरण श्रज्ञात कत क ११ स्वयम्भूछद कवि स्वयम्भू विनिर्मित १२ प्राकृतान द, रघुनाथ कवि रचित १३ कविकौस्तुभ प० रघुनाथ विरचित १४ नत्यरत्नकोश, भाग २, महाराणा कुभा प्ररणीत १५ भुवनेश्वरी स्तोत्र ( सभाष्य), पथ्वीधराचाय रचित १६ इन्द्रप्रस्थ प्रबन्ध सम्पादक - मुनि श्रीजिनविजयजी १६ राजस्थान मे सस्कृत साहित्य की खोज मूल लेखक श्री आर एस भण्डारकर २० राठोडारी वंशावली २१ सचित्र राजस्थानी भाषा साहित्य ग्रन्थ सूची २२ मीरा बहत पदावली २३ राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग २ " 39 3 "9 "" 33 17 1) رو , , , 3" رو " सम्पादक 33 " "3 53 19 دو 12 29 33 एम सी मोदी " " 1 श्री बी डी दोशी २ - राजस्थानी और हिदी ग्रन्थ १७ मुहता नणसी री रयात, भाग २, नैणसी मुहता सम्पादक - श्री बदरीप्रसाद साकरिया १८ गोरा बादल पदमिणी चउपई, कवि हेमरतन सम्पादक श्री उदयसिह भटनागर विनिर्मित बी जी साडेसर रा 13 एच डी वरणलकर अनुवादक - श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी । सम्पादक - मुनि श्री जिनविजयजी 11 मुनि श्री जिनविजयजी श्री एम एन गोरी डा प्रियबाला शाह श्री गोपालनारायण बहुरा डा दशरथ शर्मा "" विद्याभूषण स्व पुरोहित हरि नारायणजी द्वारा संकलित श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया (देवजी बगडावत और प्रतापसिंह वार्ता आदि ) २४ पुरोहित बगसीराम हीरा और प्र य वार्ताए श्री लक्ष्मीनारायण गोस्वामी 37 इन ग्रंथोके अतिरिक्त अनेकानेक सस्कत, राजस्थानी और हिदी भाषाके ग्रथोका सशोधन और सम्पादन किया जा रहा है । 'राजस्थान पुरातत्त्व' नामसे एक शोध पत्र ( जनल) निकालने की योजना भी विचाराधीन है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य भारतीय साहित्यमे संस्कृत काव्य-ग्रन्थोका विशेष महत्त्व है । यो तो अनेक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ विद्वत् समाजमे समादरणीय है कि तु वाल्मीकि, भवभूति, हष, माघ और कालिदास जैसे महाकवियोके काव्योकी सुरयाति देश-विदेश के समस्त काव्य-प्रेमियों तक प्रसृत हो चुकी है। यही नही, इनके काव्योके देश-विदेशकी कई भाषाओोमे रूपान्तर और व्यारयान भी प्रकाशित हो चुके है । ससारके प्रमुख देशोमे, सवत्र ही संस्कृत काव्यो और नाटकोका अध्ययन-अध्यापन, सम्पादन प्रकाशन और अभिनयादि प्रवृत्तिया लोगो की विशेष रुचि से गतिशालिनी है । राजस्थान प्रदेश भारतीय सभ्यता एव विद्याका विशेष क्षेत्र रहा है । यहाँके अनेक शासक स्वय रसिक साहित्य प्रणेता और साहित्यकारोके श्राश्रयदाता रहे है | राजस्थानी जनता भी विद्याभिरुचिमे किमीसे पोछे नही रही है । यही कारण है कि राजस्थानमे साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रामे उपलब्ध होती है । प्रस्तुत महाकाव्य के प्रणेता स्वर्गीय महामहोपाध्याय पण्डित दुर्गाप्रसादजी द्विवदी पूव जयपुर - राज्य के श्राश्रित थे । प्रगाढ पाण्डित्य एव साहित्यिक प्रतिभा के लिए सरकार की ओरसे उह विशेष मान एव प्रोत्साहन प्राप्त था । द्विवदीजी कृत दशकण्ठवधम् (चम्पू) रामचरित्र - विषयक एक सरस काव्य-कृति है जिसका प्रकाशन विद्वत् समाजमे चिरप्रतीक्षित था । ' राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला" के २३वे ग्रथके रूपमे इस काव्यका प्रकाशन हो रहा है । स्वर्गीय महामहोपाध्यायजी रचित एक और ग्रन्थ दुर्गा-पुष्पाञ्जलि' भी इस ग्रन्थमाला प्रकाशित हो चुका है। इन दोनो ही ग्रन्थोके सम्पादक ग्रन्थकार के पौत्र श्री गङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचाय है । ग्रन्थकर्ताके जीवनवृत्त एव रचनाएँ आदि विषयो पर 'दुर्गापुष्पाञ्जलि' के सम्पादकीय लेखमे पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है । आशा है कि संस्कृत काव्य-प्रमियोमे इस कृतिका समुचित आदर होगा । महा शिवरात्रि स० २०१६ वि० भारतीय विद्या भवन, बम्बई मुनि जिनविजय सम्मा य सञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-तालिका विषय पष्ठ सरया १ सञ्चालकीय वक्तव्य २ १-१५६ मूल पाठ परिशिष्ट श्लोकानुक्रमणिका -0070500 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहोपाध्यायपण्डित श्री दुगाप्रसाद द्विवेद विरचितम् दशकण्ठवधम् नाम रामचरितम् wwwwwwmm तदोपदार्थस्य वरेण्यमेतद् देवस्य भर्गः सवितुः प्रधीमहि । ब्रह्मादिरूपत्रितयोपसहृतियों नो धियः कर्मभुमि प्रचोदयात् || साधुशुद्धि: । को मत्स्यादि निषेवितु निविशते नानावतारान्तरे को वा न्यूनतयावधारितमहस्याश्वाममायास्यति । शृङ्गारोदयदीपितोऽपि चरमे नालम्बते गौरव चेतः केवलमेकमेन मनुते श्रीरामभद्र हरिम् ||१|| दशकण्ठध नाम चरितं रामवर्मणः 1 यत्र विन्यस्यते साधुशुद्धिर्लाभाय शर्मणः || २ || एतदुच्छृङ्खल ब्रह्मन् ! मनश्चेद् रावणायते । तदानीमिन्द्रियग्रामो दशकण्ठायते ध्रुवम् ||३|| दडान्वयक्रमेणात्र तथार्थान् प्रारभामहे । यथा न सज्जतेऽहन्ता ससार कफले महे ॥ ४ ॥ इहामुत्रानुरक्ताना किमन्यद् वासनावहम् । उभयत्र रक्तार्ना किमन्यद् वासनापहम् ||५|| अथ दशकण्ठवधाख्यरामचरित प्रारिप्सु - 'मङ्गलाचरण शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति' सा० द० ५१ ) इति प्रमाणयन् सच्चिदानन्दलक्षण परमात्मान परामृशति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् तदिति । ॐ पदार्थस्य प्रणवनाव्यस्य । 'तस्य वाचक प्रणव' (यो० द० १२७ ) इति पतञ्जलि | अवतीति श्रम् । अव रक्षणादौ । 'अवतेष्टिलोपश्च' इत्यादिको मन् । वेदितव्य वेदनसावन च - ' शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्या सात् सकरस्तत्प्रविभागसयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्' (यो० द० ३१७) । तथा च गीतासु पठ्यते - 'ओमित्येकाक्षर ब्रह्म' ( -१३ ) इति । शिवमहिम्न - 'समस्त व्यस्त त्वा शरद । गृणात्योमिति पदम् ।' इति च । व्यस्तपक्षे अकार उकारो मकार इति तदवयवा । 'अकार चाप्युकार च मकार च ' - ( मनु० २७६ ) इति मनु । दीव्यतीति देव | पचाद्यच् । तस्य । सुवति प्रेरयतीति सविता । षू प्रेरणे । तृच् | तस्य | 'विश्वानि देव । सवित " ( शु० य० स० ३० ३) इति श्रुत्यन्तरम् ! तदेतकद् । 'अव्ययसर्वनाम्नामकच्प्राक्टे ' ( पा० सू० ४ ३ ७१ ) इत्यकच् । तदिद् सकलान्तर्यामितथा परोक्षापरोक्षमिति तत्त्वम् । वरेण्यम् अभ्यर्थनीयम् । भर्जते इति भर्ग तेज । भृजी भर्जने । 'अञ्चयजियुजिभृजिभ्य कुश्च' इत्यौणादिकोऽसुन् । प्रधीमहि सम्यग् ध्यायेम | ध्यै चिन्तायाम् । क्वचित्-'सत्य पर धीमहि' (वि० भा० १११ ) त्रियम्बक सयमिन ददर्श' (कुमा०स०३ ४४) इत्यादिवत् लोकेऽपि विशिष्टप्रतिपत्तये छान्दसप्रयोग | अन्यथा - 'ध्यायेम सत्य परम्' यद्वा- 'सत्य पर मन्महे' इति - 'त्रिलोचन' कि वा- 'त्रिचक्षुष' इति च प्रयोजयेत् । सर्वे वयमुपासका उक्तलक्षण भर्ग सप्रज्ञातास प्रज्ञातयोगाभ्यामाकलयेमहीति तात्पर्यम् । प्रवर्तनाया लिङ् । लिड्वाच्यप्रवर्तनया प्रवृत्तिनिष्पत्तौ तु लडेव । अभेदवादे तु तदात्मतासमापत्त्या वयमितरै प्रध्यायेमहीत्यप्यनुसधेयम् । आत्मा हि चिप को विभुर्नित्यश्चास्ति । स्वयप्रकाशत्वात् सजातीयादिभेदशून्यत्वात् सर्वगतत्वाद् अनाद्यनन्तत्वाद् यावद्भेदकजालस्य जडत्वाच्च । ततश्चैतन्यात्मनो विराट्शरीरत्वमव्याहतम् । तथा चोक्तम् 'एक स आत्मनासौ न हि क्रमोऽस्तीह देशकालाभ्याम | भेदिनि मिथ स युक्तश्चेत्ये भेदाश्रय खलु स ॥ ( विरूपाक्षपञ्चा० २१२ ) इतरथा 'उत्क्रम्य विश्वतोऽङ्गात् तद्भागैकतनुनिष्ठिताहन्त । कण्ठलुठत्प्राण इव व्यक्त जीवन्मृतो लोक ॥' ( विरूपाक्ष पञ्चा० १५ ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक इति यथादर्शनभेदावमर्शनदुष्परिणामो व्यक्त एर। इतो वैशेषिकदर्शने प्रतिपत्तिसौकर्थिं चार्वाकादिमुखमुद्रणाय प्रथमभूमिकायामेवात्मा परीक्षित इति द्रष्टव्यम् । अन्यथायमत करणगुणसपृक्त कथमिव वयेत । श्रुति-स्मृतिषु युक्तिप्रमाणाभ्या निर्गुणत्वेन निरूपितत्वात् । समानतन्त्रे न्यायेऽपि प्राधान्येन कथककथैवावतारिता | अथवा अस्तु बालाना सुखबोधायारम्भवाद इवान्त करणसबन्धेनात्मगुणवाद । मन्ये, साख्यदर्शने द्वितीयभूमिकायामात्मा परीक्षित इति । यस्मात् 'असङ्गोऽय पुरुष ' (सा० द० १ १५) इति मूत्रयता भगवता श्रुति-स्मृतिसिद्धान्तितमात्मनो निगुणत्वमेव प्रतिपादितम् । सुखावबोधाय लौकिकदृशा तु 'जन्ममरणकरणाना प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्व सिद्ध त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। (सा० का० १८) इति । किमियता-'ईश्वरासिद्ध ' (साख्यद० १ ६२) इति सूत्रयतापि महामुनिना 'एव तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद्विशुद्ध केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ।।' (सा० का० ६४) इति भावनया 'विज्ञान ब्रह्म'ति रहस्यमुन्मीलितमेव । समानतन्त्रे योगे तु 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट पुरुषविशेष ईश्वर' (यो० द० १ २४) इत्यादिना यथाप्रसङ्ग प्रणयवाचक वस्तूपक्षिप्तमेव । मीमासयोस्तु धर्मब्रह्मोपासने उपब हयद्भयामपि जैमिनि पाराशर्याभ्या वेदपुरुषव्यपदेशेन चरमभूमिकायामात्मा सुपरीक्षित एव । इत्थच-'ईक्षते शब्दम् (वे० द० १५) इत्यादिना परमाणुप्रकृतिवादादिनिरसनपुर सर वेदवमना तक-सारय योगपदार्थान् पश्य द्भिरेकमेवात्मतत्त्व निश्चेतव्यम् । अतएव 'नित्यो नित्याना चेतनश्चेतनाना मेको बहूना यो विदवाति कामान् ।। तत्कारण साख्ययोगाधिगम्य ज्ञात्या देव मुच्यते सर्वपाशै ॥ (श्वेता० ६१३) इत्यानि श्रुतिसवर्गेण क्वचिदभ्युपगमवादेन भिन्नप्रणालिकोऽपि तर्क साख्ययोगप्रवाहो वेदप्रणालिक्यैव नीतो नेतव्यश्च विभावनीय इति दिक् ।। ब्रह्मा कार्यब्रह्मा चतुराननादिपदव्यपदेश्य आदि प्रथम येषा तेषामुत्पत्तिस्थितिसहारघटकाना रूपाणा त्रितयस्य त्रयस्य उपसहृति उपसहारोऽन्तर्भावो यस्मिन् स । 'सख्याया अवयवे तयप' (पा० सू० ५२ ४२) । श्रूयते च Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् 'यो ब्रह्माण विदधाति पूर्व यो वै वेदाश्च प्रहिणोति तस्मै । त ह देवमात्मबुद्धिप्रकाश मुमुक्षुर्वै शरणमह प्रपद्ये ॥' (श्वेता० ६१८) य सविता अन्तर्यामी । न अस्माक प्रमातूणाम् । धिय धीपदोपस्था'यान्त करण तदधीनबुद्धिकर्मेन्द्रियाणि । कर्मभुवि-व्यवहारदशायाम् । प्रचोदयान प्रेरयति । लडथे लेट् । तथा च-'व्यत्त्ययो बहुलम्' (पा० सू० ३१८५) इति वृत्तिभाष्यगतम् 'सुप्तिडुपग्रहलिङ्गनराणा कालहलचस्वरक यडा च । व्यत्ययमिच्छति शास्त्रकृदेषा सोऽपि हि सिध्यति बाहुलकेन ।।' इति । तदुपबृहण 'क्वचित्प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव ।' इति बाहुलकविवरण च यथाङ्गोपाङ्गगतिक वेदवस्तूद्वतु मेव शरण मन्तव्य न पुनस्तन्नवनव मनीषित वर्त्म नेतुमिति । अन्यथा वेदगव्या मातरि पुरुषायित स्यात् । अत्र सवितु भर्ग इति पुरुषस्य चैतन्यमितिवदभेदे षष्ठीति सक्षेप । वशस्थेन्द्रवशयोरुपजाति ॥१॥ इदानी परमात्मन प्रवानशक्तिकार्य निर्दिशस्तस्यान्वेष्टन्यत्यमादिशतिब्रह्मत्वमापादनरागरञ्जितो विष्णुत्वमाप्यायनकेलिकर्मठः । रुद्रत्वमादानकलावलम्बितो योऽभ्येति मायीप स साधु मृग्यताम् ॥२॥ ब्रह्मत्वमिति । य अन्तर्यामी, माया अघटितघटनापटीयसी अस्यास्तीति मायी। ब्रीह्यादित्वादिनि । मायावी इव । अस्ति जायत इति बीजाकुरमर्यादया यद् आपादन कार्यघटन तत्र यो रागोऽनुराग , तेन रञ्जित अभिनिविष्ट सन् । ब्रह्मत्व ब्रह्मभावम् । अभ्येति प्रयाति । विपरिणमते वर्वत इति यत् पल्लवादिरूपेण कार्यस्य आप्यायन परिपोषण तस्य या केलि तदनुगुणनिभालन तत्र कर्मठ कर्मशूर सन् । विष्णुत्व विष्णुदशाम् । अभ्येति प्राप्नोति । अपक्षीयते नश्यतीति पल्लवादिविस्फारसकोचक्रमेण यद् आदान कार्यस्य कारणाभिमुखीभवन तस्य कलाया कलनाव्यापारे अवलम्बित प्रतिष्ठित सन् । रुद्रत्व रुद्रावस्थाम् अभ्येति गच्छति । स एकस्वभावोऽपि नामरूपप्रथया भिन्नभिन्न इव प्रतीयमान । साधु सोद्योगम् । मृग्यताम् अन्विष्यताम् । मृग अन्वेषणे । कर्मणि लोट् । ब्रह्मजिज्ञासा प्रतिजानाना एकस्मादेव ब्रह्मणो जगतो जन्म स्थिति भङ्गमुपदिशन्ति । तत्रोत्थाप्याकाङ्क्षया हरिहरादिपदाक्षेपेण ब्रह्मजिज्ञासा नाकुलीकर्तव्या। श्रुत्तहान्यश्रुतकल्पनाप्रसङ्गात् । यदि तथाभिप्रायोऽभविष्यत् तर्हि हरिहरादिष्वन्यत Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक पाठेनैवापठिष्यत् । तथा च-तत्र निरतिशय सार्वज्ञबीजम्' ( यो० द० १ २५) इति सूत्रे योगवार्तिके___ "हरिहरादिसज्ञामूर्तयस्तु शक्तिशक्तिमदाद्यभेदेनोपासनार्थमेव परमेश्वरस्यो च्यन्ते न तु साक्षादेव ।" इतो माण्डूक्यादुपज्ञातो पिराड हिरण्यगर्भ प्राज्ञ विभागोऽपि यथोत्तर सारग्राही ब्रह्मण एकत्वमेव बोधयति । श्रुति स्मृतिनीत्या आत्मब्रह्म श्वरा पर्याया इति मनोहत्य मीमासनीयम् । एतदभिधेयरूढाना शब्दानामैकमत्येऽपि जाति गुण क्रिया यदृच्छासश्लेषेण पार्थक्यम् । तत्र शरीरिणि भौतिकस्य शरीराशस्य व्यपगम इव चिदैक्यामर्शानुमानानुभवाभ्यामेकत्वमेवोपपद्यते । अतएव भगवता पाराशर्येण पुराणेतिहासेषु पञ्चदेवोपास्तिमभिदवतापि पञ्चायतनोन्यायेन पर्यायात् पञ्चानामपि गौणमुख्यभाव वर्णयता तदेकतायामेवावस्थायि । अन्यथा तत्र मृढत्वारोपणास्माभिरेव प्रत्यवेतव्यम् । इह हरिहरादिसहस्रनामस्वपि विशेषण विशेष्यसगत्या भेदकनाम्ना समवाये भेद , अभेदकाना त्वभेद इत्यन्यत्र विस्तर । इन्द्रवशा वृत्तम् ।।२॥ इदानी विशेषवर्तनशालिनि विवर्ते परिणमनयोगिनि परिणामे वा परमामन ऐश्वर्येष्ववतारावतसमुपश्लोकयति बीज धर्मद्रमस्यावनिरुपनिषदामास्पद दर्शनानामास्थान मङ्गलानामुपपनमतुलानन्दमाकन्दकानाम् । स्फूर्जत्पीयूषवृष्टिः कलिकलुषकथाक्लेशसतापभाजा प्रत्याख्यान रिपूणा चिरभवतु जगज्जानकीजानिरेकः ॥३॥ बीजमिति । पतन्त जनमालम्बनीभूय वरतीति वर्म । औणादिको मन् । तथा च श्रुति - “वर्मो विश्वस्य जगत प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठ प्रजा उपसर्पन्ति । धर्मेण पापमपनुदन्ति, वर्मे सर्व प्रतिष्ठित, तस्माद् धर्म परम वदन्ति ।।" इति । (तैत्ति० आर० १० प्रा० ६३ अनु०) तथा- 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म' (मी० द० १ १ २ ) इति जैमिनि । अय हि फलदर्शनरूपेण-'यतोऽभ्युदयनि श्रेयससिद्धि स धर्म' (दै० १० ११२) इति कणादेनासूत्रि । सोऽय प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च । तत्र प्रथम कल्पसूत्र Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् गृह्यसूत्र मन्वादिस्मृति पुराणेतिहासेषु प्रतिपादित । इह कल्पसूत्रादिपञ्चके यथोत्तर दौर्बल्यमित्यनुसधेयम् । द्वितीयस्तूपनिषद् ब्रह्मसूत्र स्मृति पुराणेतिहासेषु निरूपित । इह तु पञ्चके ईश केन कठ प्रश्न मुण्ड माण्डूक्य तैत्तिरीय-छान्दोग्य वृहदारण्यकैतरेय-श्वेताश्वतरकैवल्यादय कतिपया एवोपनिषदो हृदयगमा । अन्यास्तु कालवशाद् वहुत्र सदिग्या दृश्यन्ते । इयमेवावस्था मनुयाज्ञवल्क्यस्मृती अपहाय स्मृत्यन्तरे, विष्णु मार्कण्डेयौ विहाय पुराणान्तरे, रामायण-महाभारतयोश्चापि क्वचित्क्वचिद् दृश्यते । ब्रह्मसूत्रादिषडदर्शनानि तु साकल्येन सम्यञ्चीति सर्वं यथायथ परीक्षणीयम् । धर्म एव द्र म । मयूरव्यसकादि । धर्मो द्रुम इव इति वा । धर्मघटक त्वात् । धर्मद्र मस्य बीज हेतु । तथा चास्माभिरुपदिश्यते राज्ञ प्रति "राष्ट्रे पुरे ग्रामटिकान्तरे च धर्मप्रचाराय सदा यतध्वम् । य आश्रयीभूय विधीयमानो जन पतन्त धरतीति रूढि ।। (चातुवर्ण्यशि० ७२ श्लो०) इति । उपनिपूर्वात् सदे कर्तरि क्विपि उपनिषद -मन्त्रब्राह्मणलक्षणस्य वेदस्य भागा । यथा वाजसनेयिमन्त्रसहितायाश्चत्वारिंशोऽध्याय ईशावास्योपनिषद् वाजसनेयिब्राह्मणस्य शतपथस्य चतुर्दश काण्डो बृहदारण्यकोपनिषद् । अरण्ये पाठ्यत्वाद् आरण्यकमिनि सज्ञा । यदाहु "अत्र चोपनिषच्छब्दो ब्रह्मविद्ये कगोचर । तच्छब्दावयवार्थस्य विद्यायामेव सभवात् ।। उपोपसर्ग सामी'ये तत्प्रतीचि समाप्यते । सामीप्यतारतम्यस्य विश्रान्ते स्वात्मनीक्षणात् ।। त्रिविधस्य सदर्थस्य निशब्दोऽपि विशेषणम् । उपनीय तमात्मान ब्रह्मापास्तद्वय तत ॥ निहन्त्यविद्या तज्ज च तस्मादुपनिषद् भवेत् । निहन्त्यानर्थमूल स्वाविद्या प्रत्यक्तया परम् ॥ गमयत्यस्तसभेदमतो वोपनिषद् भवेत् । प्रवृत्तिहेतून्नि शेषास्तन्मूलोच्छेद्कत्वत ॥ यतोऽवसादयेद् विद्या तस्मादुपनिषद् * भवेत् ।" इति । * अत्रेदमप्यनुसधेयम्-उपनिषच्छब्दो ब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारविषय । उपनिपूर्वस्य क्विप्प्रत्ययान्तस्य 'षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु' इत्यस्य धातोरुप Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक उपनिषदाम् अपनि प्रादुर्भावस्थानम् । दर्शनाना शास्त्राणाम् आस्पद प्रतिष्ठा । मङ्गलाना श्रेयसाम् । आस्थान ससद् । अतुला निरुपमा आनन्दा एव माकन्दका सहकारा आम्रविशेषा । तेषाम् उपवनम् आराम । कलौ कले कलुषा मलिना कथा वाक्यप्रबन्धा ताभिर्ये क्लेशा -अविद्या स्मिता राग द्वषाभि निवेशा पुराणेतिहासयो तमो-मोह महामोह तामिस्रान्धतामिस्रसज्ञाभिर्वणिता , तै सताप भजन्तीति तेषाम् । भजो ण्वि । स्फूर्जन्ती भासमाना पीयूषस्य सुधाया वृष्टि वर्षा । रिपूणाम् अन्त सचारिणा काम-क्रोव लोभ मोह मद मात्सर्या ख्याना षण्णाम् एतत्ससर्गेण परेषा रावणादिदुर्विनीताना च प्रत्याख्यान निराकृति । अतएव एकोऽद्वितीय । तथा चोद्धृष्यते सुन्दरकाण्डे वायुसूनुना 'जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबल । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालित ॥' (वाल्मी रा यु का ४२ २०) जनयति ब्रह्मविद्याम् उपपादयतीति जनको विदेह । एवुल् । 'जनिवध्योश्च' (पा० सू०७ ३ ३५) इति निषेवाद् वृद्धिप्रतिषेध । विदेहेत्यत्र-'अशरीर वा वसन्त प्रियाप्रिये न स्पृशत' (छा० उ अध्या ८ स १२) इत्यायनु सधेयम् । तस्य राज्ञोऽपत्यमयोनिजा जानकी। अस्या अयोनिजत्व तु सीतेत्यौपचारिकनाम्नापि व्यक्तम् । जानकी जाया पत्नी अस्येति जानकीजानि । 'जायाया निड् । (पा० सू० ५४ १३४ ) जङ्गम्यते इति जगत् स्थावरजङ्ग मात्मक विश्वम् । चिर चिराय | अवतु रक्षतु । इहावतेरन्येऽग्यर्था यथासभवमुन्नेया । लोट् च ( पा० सू० ३ ३ १६२) इति प्रार्थनाया लोट । स्रग्धरावृत्तम् ॥३॥ निषदिति रूपम् । तत्रोपशब्द सामीप्यमाचष्टे । तच्च सकोचकाभावात् सर्वान्तरे प्रत्यगात्मनि पर्यवस्यति । निशब्दो निश्चयवचन । सोऽपि तत्तत्त्वमेव निश्चिनोति तन्नकट्यवान्युपशब्दसामानाधिकरण्यात । तस्माद् ब्रह्मविद्यास्वसशीलिना ससारसारत्तामति सादयति विपादयति शिथिलयतीति वा परमश्रेयोरूप प्रत्यगात्मान सादयति गमयतीति वा दु सजन्मप्रवृत्त्यादिमूलाज्ञान सादयत्युन्मूलयतीति वोप निषत्पदवाच्या । सैव प्रमाणम् । तस्या प्रमारूपाया करणभूत सर्वशाखासूत्तरभागेषु पठ्यमानो ग्रन्थराशिरप्युपचायत् प्रमाणमित्युच्यते । स्पष्टश्चायमर्थो बृहदारण्यकभाष्यादिषु ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दशकण्ठवधम् साप्रत महाराजस्य कलेस्तत्प्रकृतेश्च महिमानमुदीरयति - निद्राणेव गुणज्ञता सरसता लीनेव मैत्रीप्रथा छिन्ने प्रलय गतेव महता वाक्येषु नाकिता | एका स्वार्थविकस्वराद्य वलते वैचित्र्यचर्या यया निःशङ्क महितापि पूर्वसरांणः सद्यः समुत्सार्यते ||४|| ८ विद्राणेति । गुणाना शौर्यादीना ज्ञता वेत्तता विद्राणेव पलायितेव । निपूर्वाद् द्राते कर्तरि क्त । निष्ठानत्व णत्व च । सरसता सहृदयभाव । नेव लुक्कावि | मैत्री सख्य तस्या प्रथा निर्व्याजावस्थानम् । छिन्नेव विशीर्णेव । महता महापुरुषाणाम् । वाक्येषु उक्तिषु । हेवाकोऽभिलाषोऽस्यास्तीति वाकी तस्य भावस्तत्ता । श्रद्ध ेति यावत् । प्रलय गतेव विनाश प्राप्तेव । अद्य इदानीम् । एक केवला । स्वार्थेन आत्मनोऽभिलषितेन विकस्वरा भासुरा । विपूर्वात् कसते कर्तरि वरच् । विचित्रस्य भावो वैचित्र्यम् वैलक्षण्यम् । ध्यन् । तस्य चर्या घटना वलते व्याप्नोति । वल सपरणे । यया वैचित्र्यचर्यया । महिता पूजितापि । पूर्वा पारम्परिकी। किं वा 1 येनास्य पितरो याता येन याता पितामहा | तेन यायात् सता मार्ग तेन गच्छन्न रिप्यते ॥ ( मनु० ४७१८ ) इति मनूपदेशेन पूर्वेषा पितृपितामहादीना सरणि आचारपद्धति । निर्गता अपक्रान्ता शङ्का आतङ्को यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्यात् तथा । सद्य अविलम्बित समुत्सार्यते परावर्त्यते । समुत्पूर्वात् सरतेणिजन्तात् कर्मणि लट् ॥ शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ॥४॥ साप्रत भारतवर्षस्य अपकर्षमूलकान् पुरुषान् विभजन् निर्विण्णो भगवन्त प्रार्थयते एकै मान्द्यजुष, परे परगुणच्छेद क्रियाकर्कशा हन्तान्ये द्विरदेक्षिकाव्यसनिनो नि मारमित्थ जगत् । इत्यालोच्य मुहुर्मुहू रघुकुलोत्तस ! प्रशसाश्रय । ब्रह्मण्याद्भुतवीर्य ! केवलमदस्त्वामेन याचामहे ||५|| एक इति । एके मुख्या, प्रज्ञापराधेन । मन्दस्य कर्म भावो वा मान्द्यम् । 'मूढाल्पापटुनिर्भाग्यमन्दा स्यु' इत्यमर । तज्जुषन्ते सेवन्ते इति मान्द्यजुष । कर्तरि क्विप् । पितृपितामहादिसमुपार्जितसपद मुजाना इति यावत् | परे अन्ये, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक परे उत्कृष्टा वा, परेषा ये गुणा अभिलषणीया अन्त करणवर्मा तेषा छेदक्रिया दोषारोपणव्यापारा , तत्र कर्कशा निष्ठुरस्वभावा - 'योगिनो योगिना मध्ये भोगिनोऽपि च भोगिनाम् । विदुषामतिविद्वासो दुर्जना कैपिनिश्चिता ॥' इत्येवप्राया महासस्थानविलायकाश्चाटुकारा । हन्तेति खेदे । अये इतरे । द्वौ रदौ दर्शनार्हो येषा ते द्विरदा मातङ्गा । तेषाम् ईक्षिका नयननिमीलिका तव्यसनिन । तद्वद् विलोकयितार इति तात्पर्यम् । प्रायो लक्ष्मीदुर्ललितप्रकृतय एवमनुभूयन्ते | इत्थ विवेचनेन जगत् निस्सार गतश्रीकम् । इति मुहुमुहु पौन - पुन्येन आलोच्य विविच्य । हे रघुकुलोत्त स । रघूणा कुलम् अन्वय तस्य उत्तसो भूषणम्, तत्सबुद्धि । रघुशब्दो यदुशब्दवत् तदपत्ये लाक्षणिक । प्रशसाया आश्रय | आवार | मर्यादापुरुपोत्तमत्वात् । ब्रह्मणि साधु ब्रह्मण्य , तत्सबुद्धि । तत्र साधुरिति यत् । 'ये चाभावमणोरि'त्यन प्रकृतिभाव । अत्र ब्रह्म वेदो ब्राह्मणश्च । शम्बूकनिग्रहेण ब्राह्मणबालरक्षणकथा प्रसिद्धव । अद्भु तमाश्चर्यभूत वीर्य यस्येति तत्सबुद्धि । अद्भुतत्व समुद्रनिग्रहादो सुप्रसिद्धम् । अद केवल त्वामेव याचामहे अर्थयामहे । अदसा निर्देश्य प्रधान कर्म सबोध्यस्य अन्तर्यामित्वेनानुल्लिखितम् । एषकारेण दात्रन्तरव्युदास ॥५॥ साप्रतमादिकवि भगवन्त वल्मीकजन्मान स्मरतिस्मरामि रामायणसर्गबन्धब्रह्माणमाबद्धरसप्रवाहम् । योऽद्व तसिद्वान्ततरङ्गिताया वेदान्तलक्ष्म्याः कुतुकान्यतानीत् ॥ ६ ॥ स्मरामीति | सप्तकाण्डात्मक क्रियाप्रधान षट्प्रकरणात्मक ज्ञानप्रधान चात्र रामायणपदार्थ । स्मरामि तदीयलोकोत्तरकविकर्मभावनेन त प्रति प्रह्वीभवामीति तात्पर्यम् । य आदिकवि अद्वैत जीवब्रह्म क्यम् । लोके चेत्यचित्पदयोराभास्याभासकत्वेन पार्थक्याभ्युपगमेऽपि पर्यवसाने चित एव वस्तुत्वम् । अभिधीयतेऽपि रूपकेण 'मायाख्याया कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ । यथेष्ट पिबता द्वैत तत्त्वम तमेव हि ॥' इति । अद्वैतस्य सिद्धान्ता वादिप्रतिवादिभ्या निश्चितार्था । तै तरङ्गिताया विचारिताया । इतच् । वेदान्तस्य उपनिषत्प्रमाणस्य लक्ष्म्या कुतुकानि कौतुकानि । अतानीत् अतनिष्ट । तनोते कर्तरि लुङ ।। इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोरुपजाति ॥६॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दशकण्ठवधम साम्प्रत प्रकृतमुक्तिविशेष काव्यवस्तु निर्दिशतिप्रसह्य सद्यो हृदय पिशन्त. कियन्त एपान तभनिहृयाः । पदे पदे कन्दलयन्ति राग ___ कान्ताकटाक्षा इस वाग्विलासाः ॥७॥ प्रसह्य ति । किं प्रमाणमेषा ते कियन्त , कतिचिदेव न तु सर्वे । 'वाता धिका हि पुरुषा कवयो भवति' इति निषेधस्मरणात् । _ 'अधीत्य शास्त्राण्यभियोगयोगाद भ्यासवश्यार्थपदप्रपञ्च । त त विदित्वा समय कवीना, __ मन प्रसत्तौ कविता विध्यात ।।' इति विधिनवणाच्च । अद्भता हृदयावर्जिका या भङ्गी रचनाविशेष तया हृद्या हृदयगमा । हृदयस्य प्रिया हृद्या । यति हृदयस्य हृदादेश । 'भव्या' इति पाठे-भव्या उज्ज्वला । वाचा विलासा । कान्ताकटाक्षा इव | प्रसह्य बलात् । अव्ययम् । सद्य तत्क्षणम् । हृदय मानस विशन्त लभमाना । पदे पदे प्रतिपदम् । वीप्साया द्विर्भाव । पदम् सुप्तिडलक्षण चरणविन्यासश्च । रागम् अनुरागम् । कन्दलयन्ति अङ्क रयति । उत्पादयतीति यावत् । कन्दलशब्दात्-'तत्करोति तदाचष्टे' (ग० सू० २०४ ) इति णिच् । पूर्ववदुपजाति ॥७॥ ___ एव पद्यमभिवत् प्रबन्धस्य चम्पूत्वव्यपदेशार्थ गद्यमवतारयन् रामायणकथामुपक्षिपति-तत्र तावत् प्रथम पिनेयरिदमवधातव्यम्-शब्दार्थाभ्या दोषवर्ज कविकर्म रीयते अलक्रियते गुण्यत इत्यतो रसोऽपि नापेयात् । येन यो हि तात्पर्येणाभिधीयते लक्ष्यते व्यज्यते स प्रथमया विभक्त्या अभिधेय-लक्ष्य-व्यङ्ग यरूप तृतीयया च अभिधायक लाक्षणिक व्यञ्जकरूप इत्यतिरोहितम् । सोऽय शब्दार्थप्रपञ्चो हर्षचरिते वाणी वाणयता वाणेन 'श्लेषप्रायमुदीच्येषु प्रतीच्येष्वर्थमात्रकम् । उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु गौडेष्वक्षरडम्वर ॥ नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्ट स्फुटो रस । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुष्करम् ॥' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक इति कवितारहस्याचिख्यापयिषया निरटड्कि । एवप्रायाभिप्रायवान् ननु शब्दार्थों काव्यमि-याचार्यरुद्रटमनुसरन्-तददोषौ शब्दार्थो’-( का० प्र० ११२) इत्यादिसूत्रण राजानकमम्मटोऽपि यथाशासनमुपदिदेश । यञ्च तैलङ्गान्वयमङ्ग लान्वयमहालक्ष्मीदयालालितेन 'रमणीयार्थप्रतिपादक शब्द काव्यम् । रमणीयता च लोकोत्तराह्लादजन कज्ञानगोचरता, लोकोत्तरत्व चानुभवसाक्षिको जातिविशेष ।' (रसग० प्रथमा) इति समयान्तरेणायोचि तदप्यापाततो रमणीयम् । तथा परिष्कारेऽपि शब्दार्थयोरेकस्य काव्यत्वाभिवाने अन्यस्याप्राधान्यापत्त । 'शब्दार्थो सत्कविरिव द्वय विद्वानपेक्षते' ( शिशु० व० २।८६) इत्यादिना द्वयोरेव प्राधान्यावगते श्चेति दिक् । ___ साहित्यापराख्यमिदमलकारशास्त्रमपि ब्रह्मादिदेवोद्भूतमपि रुद्रोपज्ञत्वेनाख्यायते । तदिद नाट्य काव्यमिति द्विधा स्मयते। द्वयोरपि प्रपञ्चन नाट्यशास्त्राग्नेयपुराणादौ । तत्राद्यम्-'पाराशर्यशिलालिभ्या भिक्षुनटसूत्रयो' (पा०४।३।११०) इति पाणिनिनाप्यस्मारि । द्वितीय पुन-'अग्निमीले-' (ऋ० १११।१।१) इत्यादि- 'वागर्थाविव सपृक्तौ-' (रघु० १।११ ) इत्यन्तमनेकवा श्रोत्रियै पण्डितैश्च परीक्षितमेव । तत्र-'कनिर्मनीषी परिभू स्वयभू -' (शु० य० स० ४।८) इत्यादि प्रकृती रूढैव । इह गुणदोषालकाररीतिरूप एक प्रवाह । विभावानुभावव्यभिचारिसयोगनिष्पत्तिको व्यञ्जनावलम्बिता रसो द्वितीय इति सर्व यथायथ वस्तुस्थापनवियैवावधातव्य धीवनैर्नान्यथेत्यलम् । प्रकृते तु 'गद्यपद्यमय काव्य चम्पूरित्यभिधीयते ।' इति, 'वृत्तबन्धोज्झित गद्य मुक्तक वृत्तगन्धि च । भवेदुत्कलिकाप्राय चूर्णक च चतुर्विधम् । आद्य समासरहित वृत्तभागयुत परम् ॥ अन्यदीर्घसमासाढ्य तुर्य चाल्पसमासकम् ।' इति च दर्पणोक्तानि षष्ठपरिच्छेदे गद्यलक्षणानि । अथ कथाप्रसङ्गमुनिपुगवो वाल्मीकिर्यदृच्छयाऽऽगत देवर्षि परमेष्ठितनय नारद पप्रच्छ ॥८॥ अथेति । पुमाश्चासौ गौश्च, पुमान् गौरिवेति वा । 'गोरतद्धितलुकि' इति टच । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् 'स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुङ्गवर्षभकुञ्जरा । सिंहशार्दूलनागाद्या पुसि श्रेष्ठार्थगोचरा ॥' इत्यमर । मुनिषु पु गव । 'दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृह । वीतरागभयक्रोध स्थितधीमुनिरुच्यते ।।' (२०५६) इति गीता। दीव्यतीति देव । ऋषति आम्नाय पश्यति इति ऋषि । देवश्चासौ ऋषिश्च देवर्षि । तम् । परमेष्ठितनय हिरण्यगर्भागभुवम् । पप्रच्छ । प्रच्छ ज्ञीप्सायाम् । दुह्यादित्वाद् द्विकर्मा । तत्र द्वितीय प्रधान कर्म वक्ष्यमाणम् ॥८॥ साप्रतमस्मिन् लोके को नु श्रीमान् कीर्तेः प्रतापस्य चाश्रयः, सुकृतोज्ज्वलः प्रजावत्सलः, इति पृष्टः स प्रत्युवाच ॥६॥ माप्रतमिति । 'नु स्यात् प्रश्ने विकल्पार्थेऽग्यतीतानुनयार्थयो' इति विश्व ॥६॥ वैवस्वतस्य मनोर्वशे मुक्तामणिः, इक्ष्वाकुकुलकुमलये दिनमणिः, महापुरुषहीरः रघुबीरः, असता विरामः सतामारामः श्रीरामः, इत्यभिधाय देवलोक गते देवर्षों सहर्षी भरद्वाजद्वितीयो महर्षिर्माध्याहिकाय नियमाय जाह्नव्या नातिदूर तमसातीर समाससाद ॥१०॥ वैवस्पतेति । विवस्वत सूर्यस्यापत्य वैवस्वत तस्य मनो । 'स्वायभुवो मनुरभूत प्रथमस्ततोऽमी, स्वारोचिषोत्तमजतामसरैवताख्या । षष्ठस्तु चाक्षुष इति प्रथित पृथिव्या, वैवस्वतस्तदनु सप्रति सप्तमोऽयम् ।।' इति । वशोऽन्यवाये वेणौ च । मुक्ता मणिरिव मुक्तामणि । इक्ष्वाकूणा कुलमेव कुवलय कमलविशेष तत्र । दिनमणि प्रद्योतन । महापुरुषेषु होर हीरकरत्नम् । अलकार इति यावत् । रघुषु वीर । विरामोऽवसानम् । आराम आनन्दस्थानम् । भरद्वाजस्तदाख्यो मुनिरुपचारार्थ द्वितीयो यस्य स । मध्याह्न भवो माध्याह्निक स्नानसध्यातर्पणरूपो नियम तदर्थम् । नातिदूरमिति नशब्देन 'सुपसुपा' इति समास । नातिविप्रकृष्टमित्यर्थ । तमसा नदीविशेष । सा च कोसलेषु सरय्वा दक्षिणस्या दिशि क्वचिन्निर्जला क्वचित्सजलेति । 'वितमसा तमसासरयूतटा' Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक इति रघुवशम् । तस्या तीर तटम् । समाससाद प्राप ॥१०॥ तत्र पुण्येष्वरण्येषु विचरन्नग्रे क्रौञ्चस्त्रीपु सयोरेक पुमास मन्मथमोहित निषादशरसिद्ध शोणितपरीताङ्ग भूतले पिलुठन्त ददर्श ॥११॥ तत्र ति । क्रौञ्चौ चक्रवाकौ, स्त्री च पुमाश्च इति स्त्रीपु सौ। 'अचतुरे'ति साधु । तयो । निषादस्य व्यावस्य शरेण विद्ध ताडितम् । शोणितेन क्षतजेन परीतानि आ'लुतानि अङ्गानि यस्य तम् । ददर्श आलुलोके ॥११॥ त तथा चेष्टमान पश्यतस्तस्य दयानिधेह दयालीनः शोकानलप्रवर्तितः साक्षात्करुणरस एच 'मा निषाद । प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समा । यत् क्रौञ्चमियुनादेकमवधीः काममोहितम् ।' इति श्लोकच्छलेन निःससार ॥१२॥ तमिति । तथा चेष्टमानम् । चेष्ट चेष्टायाम् । कर्तरि शानच् । क्रोशन्तमिति यावत् । दयते अनया इति दया । दय रक्षणे। षिद्भिदादिभ्योऽड् । निदवाति अस्मिन् निधीयतेऽसाविति वा निधि । 'कर्मण्यधिकरणे च' इति कि । दयाया अन्त करणधर्मविशेषस्य निधि तस्य । हृदय मानसम् आलीन आरूढ । शोक एप अनल परपीडासहिष्णुतया सतापजनकत्वेन दहन तेन प्रवर्तित सचारित । सा क्षान् मूर्त । करुणरस एव तदाख्यरसविशेष एव । इति श्लोकच्छलेन'मा निपाद-' इति काव्यससारे प्राथमिको य श्लोकस्तच्छलेन व्याजेन । नि ससार प्रादुरास । अत्र ध्वनिकार - __ 'काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तदा चाढिकवे पुरा । कौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थ शोक श्लोकत्वमागत ॥' इति विविधविशिष्टवाच्यवाचकरचनाप्रपञ्चचारुण काव्यस्य स एवार्थ सारभूत सनिहितसहचरीविरहकातरक्रौञ्चाक्रन्दजनित शोक एव श्लोकतया परिणत इत्यर्थ ।' ( ध्वन्या १ उद्यो ) इति । ‘मा निषाद-' इति श्लोकार्थस्तु रे निषाद । व्याध । निषीदति मन पाप वा अस्मिन्निति । पद्-घञ् । निष्करुणेत्यर्थ । व शाश्वती निरन्तरा । शश्वद् भव अण , ततो डीए । ना | समा वत्सरान् । द्वितीयाबहुवचनम् । समाशब्दो नित्य बहुवचनान्त । तथाचसवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत् समा' । इति । तत्प्रायोऽभिप्रायेण । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् पाणिनिराचार्यस्तु-'समा समा विजायते' (पा०५-२-१२ ) इति सूत्रयन्नेक वचनान्ततामस्य प्रतिपेदे । प्रतिष्ठा स्थितिम् । आश्रय चेत्यर्थ । अत्य तसयोगे द्वितीया। 'प्रतिष्ठास्थितिमाहात्म्ये' इति वैजयन्ती । मा अगम मा प्राप्नुहि । आशसाया भूतवच्चेति लुडतिदेश । न कदाचित् त्व निरुद्व गमेकत्रावास प्रास्यसीति तात्पर्यम् । अगम इत्यत्र छान्दसोऽडागम । काशिकाकारस्तु नाय माङ किन्तु मा शब्द एवेत्यडागम समर्थितवान् । दुर्घटवृत्तिका रेण पुन 'त्वम गम' इत्यत्र तुशब्द पुनरर्थे । मा शब्दस्य लक्ष्मीवाचिनो नया बहुब्रीहौ 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (पा० १।२।४८) इति ह्रस्वे हे अम । अलक्ष्मीकेति निषादविशेषण मत्वा अडागमप्रसक्तिर्वार्यत इति विशेष । रामायणमञ्जर्यामा चार्यक्षेमेन्द्ररेण तु त्वमगमेत्यत्र 'त्वमालब्धा' इति पाठान्तरमुपकल्पयता सेय मनुपपत्ति समाहितेति सर्व यथायथमनुसधेयम् । यत् यस्मात् । त्व क्रौञ्चमिथु नात्-क्रुञ्च एन क्रौञ्च । स्वार्थे अण । तयोमिथुन दाम्पत्यरूप द्वन्द्वम्, तस्मात् । ल्यब्लोपे पञ्चमी । तमासाद्य त्यर्थ । एक पु रूपावयव काममोहित-कामेन रति क्रोडया मोहित रसावेशनिर्भरम् । अवधी हिंसितवानिति शापाभिप्रायकोऽर्थ । ब्रह्मण प्रसादाधिगत प्रथमोऽयमादिकवेर्वाड निष्यन्दो न केवल शापपर एन भवितुमर्हति यावन्मङ्गलार्थकोऽपीति मन्वाना पूर्वाचार्या भगवन्महिमा शसकत्वमायस्य वर्णयन्ति । तद्यथा-- निषीदत्यस्मिन्निति निषादो निवास , मा लक्ष्मी , तस्या निषादो मानिषाद श्रीनिवास , तत्सबुद्धि । त्व शाश्वती समा सर्पकाल, प्रतिष्ठा माहात्म्यम् अगम लभस्व । लकारव्यत्यय । यत् यस्मात् क्रौञ्चमिथुनाद् रावणमन्दोदरी रूपाद् राक्षसमिथुनात् । कामेन मोहित सीतापहर्तारम् । एक रावणम् अवधी । रावण हत्वा त्रैलोक्यसरक्षणपरस्त्व चिराय विजयस्वेति परमार्थ । वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्गमलङ्कार । अत्र च सप्तकाण्डोपनिबद्ध रामायणीय कथाशरीरमपि भगयन्तरेणोपन्यस्त स्वयमुत्प्रेक्षितु सुशकमिति नेहायस्तम् । वाच्यलक्ष्यव्यङ्गय विधया श्लेषमर्यादया च तत्र तत्र सभवन्तोऽप्यर्था प्रतिपद व्याख्यातुमशक्या प्रेक्षावद्भि स्वयमुन्नेया इत्यल व्याख्याननिर्बन्धेन ॥ शकुनिशोकावेशेन मया किमिद श्रवणपेय व्याहारीति सविस्मय भरद्वाज ब्रुमाणो यथाविधि निहिताभिषेकस्तेनैवापूरितकलशीकेन पृष्ठतोऽनुगम्यमानः स्वाश्रम प्रतिपेदे ॥१३॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक शकुनिशोकेति । शकुने चक्रवाकस्य शोकावेश शुचोऽवतर यस्य तेन । मया किमिद श्लोकरूप श्रवणाभ्या पेय श्रोत्ररसायन व्याहारि अभाषि । वि आङ पूर्वाद् हरते कर्मणि लुड । सविस्मय साश्चर्य यथा तथा भरद्वाजमुनि ब्रु वाण ब्रुवन् । ब ब व्यक्ताया वाचि । शानच । विधिमनतिक्रम्य यथाविधि | विहित अद्वैवतैर्मन्त्रै सपादित अभिषेक स्नान येन स । तेनैव भरद्वान मुनिना आपूरिता कलशी कुम्भिका येन तेन । 'नवृतश्च' ( पा० ५।४।१५३ ) इति कप । पृष्ठत पृष्ठभागे। अनुगम्यमान अनुस्रियमाण । स्वाश्रमपद निजावास स्थानम् । प्रतिपेदे आजगाम । पद गतौ । अत्र वेब्राह्मणोपनिषत्सु श्लोकारयस्य च्छन्दस प्रसिद्धत्वेऽपि तस्य रसप्राधान्यादाश्चर्यत्वोक्ति । अतएव महामुनेरादि कवित्वाख्यानमिति सर्व समञ्जसम् ॥ १३ ॥ तत्र तमर्थं ध्यायतो महामुनेः पुरस्तादितरत्र श्लोकोपलम्भमसहमान इव मन्त्रब्राह्मणलक्षणस्य ब्रह्मण उपवृहणस्थानमाम्नायकवयिता ब्रह्मा प्रादुर्बभून ॥१४॥ तत्रेदि । तमर्थ श्लोकात्मकम् । ध्यायत पुन पुनर्विचारयत । महामुने ल्मीके । पुरस्ताद् अग्रे । इतरत्र वेदेभ्योऽन्यत्र । श्लोकस्य पद्यस्य । उपलम्भम् उपलब्धिम् । असहमान अमर्षमाण । इवेत्युत्प्रेक्षायाम् । तथा चाचार्य दण्डीपठति 'मन्ये शङ्क ध्रुव प्रायो नूनमित्येवमादिभि । उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृश ।' इति । ब्रह्मण' वेदस्य । उपवृ हणस्थानम् आविर्भावभूमि । वेदा हि कारणब्रह्मणा कार्यब्रह्मणश्चतुराननस्य हृदये प्रकाशिता । तत ऋषिमुनिषु विस्तर प्राप्ता । तथाच श्रूयते 'यो ब्रह्माण विदधाति पूर्व यो वै वेदॉश्च प्रहिणोति तस्मै । तह देवमात्मबुद्धिप्रकाश मुमुक्षुर्वै शरणमह प्रपद्ये ॥ _ (श्वेताश्व उप ६।१८) इति । स्मर्यतेऽपि 'युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान महर्षय । लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता स्वयभुवा ।।' इति । (तैत्तिरीयसहिताभाष्यभूमि) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् __ आम्नायाना वेदाना कवयिता कवनकर्ता । आम्नायन्ते श्रभ्यस्यन्ते इति आम्नाया । म्ना अभ्यासे । कर्मणि धम् । कवयतीति कवयिता । तृच । 'कविर्मनीषी परिभू स्वयभू -' इत्यौपनिषदी श्रुति । ब्रह्मा हिरण्यगर्भ । प्रादुर्बभूव आविर्भवतिस्म ।।१४॥ सादर पाद्याासनवन्दनः सत्कृतश्चासौ दशनज्योत्स्नया पुण्य पीयूषं पिकिरन्निव बल्मीकभुवमानभाषे-॥१५॥ मादरमिति । सादर गौरवपूर्वकम् । पादायार्घाय च वारि पाद्यम् अय॑म् । आसनम् विष्टरम् । वन्दनम् अभिवादन स्तवन च । तै । सत्कृत पूजितश्चासौ ब्रह्मा । दशनाना दन्ताना ज्योत्स्नया चन्द्रिकया। पुण्यमेव पीयूष सुधाम् । विकिरन् विक्षिपन् । इव । वल्मीकाद् भवतीति वल्मीकभू वल्मीकजन्मा। क्विप् । तम् । आबभाषे जगाद ॥१५॥ मुने ! करुणावतस्तर शोक एव सरससारस्वतप्रसरशसफ श्लोकत्वमापन्न । तन्नारदनिर्दिष्ट रामचरित रामायण विधीयताम् । एवमास्ता चिराय श्रुतिवहनपरिश्रान्ता सुधास्नपनशिशिरा सरस्वती । इत्याभाष्य तिरोहिते ब्रह्मणि तदाज्ञया प्रतीच्या ज्ञानदृशा तपोनिधिरपिकल रघुराजचरित करामलकीकृत्य स्वर्गमिव सुरसार्थसुन्दर रामायण विदधे ॥१६॥ मुने इति । मुने । मननशील || करुणा विद्यतेऽस्यास्मिन्वेति करुणावान् | प्राशस्त्ये मतुप् । तस्य । क्रौचवधहेतुक शोक एव । सरसो हृदयाकर्षक सरस्वत्या अय प्रसर उद्गम तस्य शसकम् आवेदकम् । श्लोकत्व पद्यभावम् । आपन्न प्राप्त । तदित्यव्यय पञ्चम्यर्थे । नारदेन निर्दिष्टमाख्यातम् । रामचरित रामायण व्याख्यातचरम् | विधीयता क्रियताम् । निर्मीयतामिति यावत् । विपूर्वको वाब करणार्थे, तत आशिषि कर्मणि लोट । एवम् इत्थमनुष्ठिते । आस्ता भवतात् । चिराय चिरस्य । श्रुतीनाम् अपौरुषेयीणा गिरा वहनेन धारणेन परिश्रान्ता क्लिष्टा । अर्थप्रधानरामचरितवर्णनेन सुधारनपनशिशिरा पीयूषावगाहनशीतला सरस्वती भगवती वाग्देवी । इत्याभाष्य आदिश्य । तिरोहिते अन्तर्हिते । ब्रह्मणि आत्मभुवि । तस्य आज्ञया शासनेन । प्रत्यञ्चतीति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक १७ प्रतीची। ऋत्विगिति क्विन् | उगितश्च ेति डीप् । तया प्रतीच्या सर्वक्षया । ज्ञानदृशा अवबोवदृष्टया । तपोनिधि - तपसा कायिक वाचिक मानसिकलक्षगाना निविरधिष्ठानम् | अविकल समग्रम् । रघूणा राजा स्वामी तस्य चरित माख्यानम् । करामलकीकृत्य हस्तकलितधात्रीफलवत् प्रत्यक्षीकृत्य । स्वर्गमिव नाम्वत् । सुराणा देवाना सार्थो वर्ग । उपमेयपक्षे - सुरसा वाच्य लक्ष्य तात्पर्य व्यग्य रूपा अर्थातै, सुन्दर मनोहरम् । विदधे रचितवान् । यदाहु - 'स्याद्वाचको लाक्षणिक शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिधा । वाच्यादयस्तदर्था स्युस्तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित् ॥' इति । 'वायोsर्थोभिधया बोध्यो लक्ष्यो व्यङ्गयो व्यञ्जनयाता स्युस्तिस्त्र 'तात्पर्यारया वृत्तिमाहु तात्पर्यार्थं तदर्थ च वाक्य ( का प्र २ उल्ला ) लक्षणया मत । शब्दस्य शक्तय ॥' इति । ( सा द २ परि ) पदार्थान्वयबोध | तद्बोधक परे ।' (साद २ परि) इतिच | ||१६|| तदनु मुनिसुनासीरोऽश्विनानि परस्परोपमौ वेदपरिनिष्ठितो कुशलवौ रामायणरसायन ग्राहयामास । तच्च तौ यथासगीत मुनिमण्डले गायन्तौ कदाचन रामभद्रनियोगेन तत्सनाथाया परिषदि यथाक्रम गातुमुपचक्रमाते ॥ १७॥ तदन्विति । तदनु भविष्यतो रामायणस्य प्रणयनानन्तरम् । मुनि सुना सीर इन्द्र इव । अश्विन्या जातौ अश्विनौ अश्विनेयाविव । 'सधिवेलाद्यतुनक्षत्रेभ्योऽण' ( पा० ४।३।१६ ) इत्यण् । 'नक्षत्रेभ्यो बहुलम् ' ( पा० ४ | ३ | ३७ ) इति लुकि - 'लुफ्तद्धितलुकि ' ( पा० १ २ ४६ ) इति ङीपो लुक् । परस्परम् अन्योन्यम् उपमा सादृश्य ययोस्तौ । कुशलवौ तन्नामानो सीतादेव्या सूनू । रामायणमेवाश्चर्यजनकत्वाद् रसायनम् । ग्राहयामास अध्यापयामास । कुशलवाविति ण्यन्तावस्थाया कर्तारौ ण्यन्तावस्थाया च कर्मणी । 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ -' ( पा० १|४|५२ ) इत्यनुशासनात् । तच्च यथावद्गृहीत रामायणम् । तौ यमौ यथासगीत गान्धर्वशास्त्रानुसारम् । मुनीना मण्डले परिषदि । राम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दशकण्ठवपम् भद्रस्य दाशरथे नियोगेन आदेशेन। तत्सनाथाया तेन भूषितायाम् । परिषदि सभाया यथाक्रम यथासबन्धम् । गातुमुपचक्रमाते प्रारेभाते । तदिद वाल्मी कीयमार्ष तदुपजीव्य प्रकृत रघुवशवत् पौरुषमिति व्यक्तम् ।।१७।। अथेदानी जनपद वर्णयति अस्ति स्वस्तिमान् , प्रत्यादेश स्वर्गोद शस्य, वीप्मा चैत्ररथप्रदेशस्य, दृष्टान्तसदन सकलासेचनकानाम् , कनिकातिक्रान्तविभूत्या भगवत्या सरवा मरसीभूतभूभाग कोशलो नाम जनपदः ॥१८॥ अस्तीति । स्वस्तिमान् कल्याणानुबन्धी । स्वर्गोडे शस्य स्वर्लोकस्य प्रत्यादेशो निराकृति । चैत्ररथप्रदेशस्य कुबेरावासस्य वीसा द्विर्भाव । सकला सेचनकानाम्-'तदासेचनक तृते स्त्यन्तो यस्य दर्शनात्' इति लक्षिताना यावद्रमणीयाना दृष्टान्तसदनमादर्श । कविर्माण वर्णनमतिक्रान्ता अति शायिनी विभूतिरश्वर्यं यस्यास्तथाभूतया । भगवत्या जलात्मकद्रवद्रव्यविलक्षण विग्रहालकीणया । एतच्चागमेषु गङ्गादिवर्णनेषु प्रसिद्धमेव । सरय्वा तदाख्यया महानद्या । सरसीभूत मसृणप्राय न तु मरुप्रदेशादिवन्नीरस भूभाग भूमि प्रदेशो यस्य तादृक् कोसलो नाम उत्तरकोशलारयो जनपदो नीवृत्। अस्तीति पूर्वेणानुषड्ग ॥ १८ ॥ ___ यत्र परागमहिता पाटिका ब्राह्मणाश्च, उच्चापा ह्रदाः क्षत्रियाश्च, बहुलाभाः सस्यसपदो वैश्याश्च, द्विजातिनता फलिन शूद्राश्च, अश्रान्तविक्रमाः कृषीपला विटपाश्च, सच्छाया मार्गा आश्रमाश्च, सदागोभृतः सीमानो गोपाश्च, सुरुचिराजीपनमिताः तडागा कूपाश्च, वहुधान्यजुष्टा ग्रामा मठाश्च, तीव्रतापहारिणः छायावृक्षाः सन्तश्च ॥१६॥ योति । यस्मिश्च कोसलजनपदे । परा उत्कृष्टा अगा वृक्षा , परागा सुमनोरजासि च, तैर्महिता महनीया । मह पूजायाम् । वाटिका वृक्षवाटिका । परा वेदसमता आगमा शास्त्राणि तत्र हिता उचिता ब्राह्मणा अग्रजन्मानश्च । एवमुत्तरत्रापि एकमेव विशेषण विशेष्यद्वये सगच्छत इति द्रष्टव्यम् । उच्चा भूयस्य आप सलिलानि येषु ते उच्चापा । समासान्तोऽप् प्रत्यय । ह्रदा जलाशया । उद्गता चापा' वनू षि येषा ते उच्चापा । क्षत्रियाश्च । बहुला आभा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक कातयो यासा ता बहुलाभा । सस्यसपद सस्याना समृद्धय । बहन भूयासो लाभा कलान्तरादय येषा ते बहुलाभा । वैश्या विशश्च । द्विजै पक्षिभि अतिनता तद्विहारेणातिनमिता । फलिन शाखिन । जम-कर्मरूपे जाती जन्मनी येषा ते द्विजातयो ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्या । तेषु नता नम्रा नतू द्धता । शूद्रा पादजाश्च । एव चत्वारो वर्णा वणिता । यत्र विभागे-'ब्राह्मणो ऽस्य मुखमासीद्-' इति चतुवेदप्रसिद्ध पुरुषसूक्तमन्त्र प्रमाणम् । प्रतिपादिवादनिरसनपूर्विका जातिमीमासा तु 'चातुर्वर्ण्य शिक्षाया वेददृष्टी' द्रष्टव्या । अश्रान्ता नवनवोन्मेषा विक्रमा पराक्रमा येषा ते अश्रान्तविक्रमा । कृषिरेषा मस्तीति कृषीवला कृषका । 'रज कृष्यासुतिपरिषदो वलच्' (पा० ५।११२) इति वलच् । 'पले' (पा० ६३।११८) इति दीर्घ । अश्रात निरन्तर वीना शकु नीना क्रना क्रमणानि येषु ते अश्रा तविक्रमा । विटपा पादपाभोगाश्च । सती विद्यमाना छाया अनातपो येषु ते सच्छाया । मार्गा पन्थान । सताम् आचारवता छाया कान्ति येषु ते सच्छाया । आश्रमा ब्रह्मचर्यादयश्च । सदा गा बिभ्रतीति सदागोभृत । डुभृत्र धारणपोषणयो । कर्तरि क्वि । तुक् । सीमान सीमा । सदा आगासि गोकतृ कसस्यचारणेनापरावान् बिभ्रतीति तथोक्ता । गोपा, गोपालाश्च । सुष्टु रुचि शोभा येषा तथाभूतानि राजीवानि कमलानि, तै नमिता सुरुचिराजीवनमितह । तडागा सगसि । सुरुचिरा' सुन्दरा जीवनम् इता प्राप्ता । इण गतौ । क्त । कूपाश्च । बहुभि धान्यै ब्रीहिभि जुष्टा सश्रिता । जुषी प्रीतिसेवनयो । क्त । ग्रामा । बहुवा अनेकधा। अन्यै नानादिग्देशागत जुष्टा सेविता । मठाश्च । 'मठश्छात्रादिनिलय' इत्यमर । तीव्र तापमातप हतु शील येषा ते तोव्रता पहारिण छायाप्रधाना न्यग्रोधप्लक्षादयो वृक्षा । शाकपार्थिवादि । तीव्रता तैदण्यम् अपहर्तुं शील स्वभावो येषा ते तीव्रतापहारिण । ताच्छील्ये णिनि । प्रियवदा इत्यर्थे । सन्त सजनाश्च । एवचात्र वाटिकादिविशेष्यपदाना द्वन्द्वदशकम् विंशति ।।१।। यत्र च विविक्तसरयूतटाभोगः सर्वदातुलसीमवतामाधारतयानेकधारञ्जयति ॥२०॥ यत्र चेति । विविक्त विजन पूतश्च सरय्वा तटाभोग तीरविस्तार । कर्तृपदम् । सर्वश सदा हरिहरादिपूजार्थं तुलसीम् अवता रक्षताम् । आधार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठववम् तया आवासत्वेन । सर्व नानासस्य ददति वितरन्तीति सर्वदा । अतुला निरुपमा । यथायोग निबद्धा इति यावत् । सीमा चतुर्दिक्का मर्यादा सन्ति येषा येषु वेत्यतुलसीमवन्त । सर्वदाश्च ते अतुलसीमवन्तश्च । विशेषणयोरपि परस्पर विशेषणविशेष्यविवक्षया-'विशेषण विशेष्येण बहुलम्' (पा २।१।५७) इति समासः । षष्ठयर्थबहुव्रीहिणा मतुबर्थाभिधानेऽपि तन्निबन्धन क्वचिन्नासमञ्जसम् । इह-'प्रत्ययस्थात्कात्-' (पा ७।३।४४) इति सूत्रे 'असुब्बत' इति भाष्यप्रयोगो नियामक । तथाभूताना केदाराणाम् । आधारतया आश्रयत्वेन । सर्वदा अतुला सीमा अण्डकोश तद्वता कस्तूरीमृगाणाम् । आधारतया विहारस्थलत्वेन । सर्व द्यन्ति खण्डयति इति सर्वदा अतुला अप्रतिभटा सीमावन्त व्याधादय घातुका । तेषाम् । आधारतया मृगयास्पदत्वेन । अनेकधा बहुधा । रञ्जयति प्रीणयति । अनेका धारा यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्यात् तथा । जयनक्रियाविशेषणम् । जयति लोकोत्तर वर्तते । अभिभवतीति वा । अर्मक सकर्मकश्च जयतिरित्यर्थ ॥२०॥ अमन्दसौगन्ध्यतरङ्गिताभि मरन्दसदोहकरम्बिताभि । पतत्प्रसूनोत्करबन्धुराभि यो भृष्यते कुञ्जपरम्पगभिः ॥२१॥ अमन्देति । य कोसलाख्यो जनपद । अमन्द गाढ यत् सौगन्ध्य सौरभ्य तेन तरङ्गिताभि नीरन्ध्रिताभि । 'तदस्य सजात तारकादिभ्य इतच् (पा० ५।२।३६ ) इतीतच् । मरन्दाना मकरन्दाना सदोह सचय , तेन करम्बिताभि सपृक्ताभि । पतन्ति गलति यानि प्रसूनानि कुसुमानि तेषाम् उत्कर सघात तेन बन्धुराभि मनोहराभि नतोन्नताभिर्वा । कुञ्जाना निकुञ्जाना लतादिपिहितोदराणाम् अवस्थानाना परम्पराभि सहतिभि । भूयते अलक्रियते । भूषअलकारे । कर्मणि लट् । उपजातिवृत्तम ॥२१॥ उदारकर्माप्यनुदारकर्मा वनीपरागोऽप्यवनीपरागः । यः पाटलाभोऽप्युपशल्यरूढ द्रुमावलीश्यामलितश्चकास्ति ॥२२॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक उदारेति । यश्च । उदाराणि प्रशस्तानि कर्माणि क्रियमाणानि यस्मिस्तथाभूतोऽपि । न उदाराणि न प्रशसाकर्माणि चरितानि यस्मिंस्तथोक्त । अपिना विरोधो द्योत्यते । तत्परिहारस्तु-अनुदारम् अनुकुटुम्बिनि कर्म यस्मिन्नित्यनुदारकर्मा। अव्ययीभावगर्भो बहुव्रीहि । पाटला श्वेतरक्ता आभा शोभा यस्य तादृगपि उपशल्येषु सामान्तेषु रूढा या द्रुमाणा शाखिनाम् अावल्य वीथ्य ताभि श्यामलित श्यामलिमान प्राप्त -इति विरोध । पाटल श्यामलो न भव तीत्यर्थ । विरोवनिरासस्तु-पाटलै ब्रीहिभि आभाति शोभते इति पाटलाभ । 'आशु/हि पाटल स्यात्-इत्यमर । वनीप अवनीपोऽर्थाद् वनीपभिन्नो न भवतीति विरोव । तत्परिहारस्तु-वनीपाना याचकाना राग प्रीतियंत्र । धनवाय समृद्धत्वात् । अपनीपाना भूभुजा रागो यत्रेति । वनीम अरण्यानीम् , अवनी भुव च पान्तीति वनीपा अवनीपा । 'आतोऽनुपसर्गे क' (पा० ३।२१.) चकास्ति दीप्यते । चकास दीप्तौ । उपजातिवृत्तम् ।।२२।। किमियता । यत्र च पुनहिमकरकरनिकरकरम्बितकुमुढदलावदातकीर्तिकर्पूरकरण्डीकृतरोदसीकास्तपस्यन्ति तपोनिवयः ॥२३॥ फिमियतेति । इयता किम् । यत्र च पुन । हिमा शिशिरा करा यस्य स हिमकर चन्द्र , तस्य करा किरणा , तेषा निकर समुदाय , तेन करम्बितानि सवलितानि यानि कुमुदानि कैरवाणि, तेषा दलवत् पत्रवद् अवदाता विशुद्धा या कीर्ति सैव कपूर नासीर , तस्य करण्ड स्थापनपात्रम्, तत्कृता रोदसी द्यावापृथिव्योर्वपु यै ते तथोक्ता । 'अभूततद्भाव 'इति न्वि । समासान्त कप् । तपोनिधय ऋषयो मुनय सुकृतिनश्च । तपस्यन्ति तपासि चरन्ति । 'कर्मणो रोमन्थतपोभ्या वर्तिचरो' ( पा० ३।१।१५) इति क्यड्। 'तपस परस्मैपट च' इति वार्तिकेन परस्मैपदम् ॥ २३॥ येषा दर्शनमाशु मोहतिमिरध्धसाय हमायते पादाम्भोजरजःकणश्च सुमनोहर्षाय वर्षायते । ते सिद्धीकृतसिद्वयोऽपि विषयास्वादस्पृहानिःस्पृहा भूमान कमपि स्मरन्ति सरयूक्रोडे कुटीबासिनः ॥२४॥ येषामिति । येषा तपस्यता दर्शनम् आशु सद्य । द्रष्टणा मोहोऽज्ञान स एर आवरक्त्वात् तिमिरम् अन्धकार , तस्य ध्वसो नाश , तदर्थ हस सहस्रकिरण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दशकएठवधम् इस आचरतीति हसायते । उपमानपदाद् हसात् कर्तु आचारेऽर्थे क्यड् । येपा च पादौ अम्भोने इव, तयो रज कण धूलिकणिका च । सुमनसा सुपिया हर्ष उल्लास तदर्थम् । वर्षायते इति वर्षाशब्दात् पूर्ववत् क्या' । वर्षा अपि सुमनसा पुष्पाणा हर्षाय प्रभवन्तीति श्लिष्यते । ते। सिद्धीकृता साधनानुषगण सिद्ध पदवी गता । सिद्धय अणिमादय येषा ते तथाभूता अपि । नियमापेक्षया विषया शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणगोचरा , तेषाम आस्वाद स्पृहा ग्रहणवासना , तासु निस्पृहा निष्का तगार्ध्या | अतएव सरयूकोडे सारवप्रान्तरे, कुटीषु पर्णशालासु वसन्ति तच्छीला महात्मान । कमपि अनिर्वचनीयम् । भूमान पारमेश्वर मह । स्मरन्ति चिन्तयन्ति । स्पष्टोऽयमों वेदान्तदर्शने-'भूमा सप्रसादादध्युपदेशात्' (वे. द. १।३८ ) इति सूत्रवृत्ति भाष्ययो । शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ॥२४॥ वातान्दोलनकेलिलोलमरयूकल्लोलमालोज्ज्वले सर्वाङ्गीणफलप्रसूनविभवव्याघूर्णमानद्रुमे । क्यापि बध्नसुतान्तरालविकसन्नीलाम्बुजन्मोपरि क्रीडपटपदकान्ति किचन महो ध्यायन्ति बद्धासनाः ॥२५॥ वातेति । बद्ध स्वस्तिकपद्मादि स्थिरसुखम् आसन ये तथोक्ता महापुरुषा । वातस्य समीरणस्य या आन्दोलनकेलि व्यापारलीला, तया लोला चञ्चला ये सरय्या कल्लोला उल्लोला , तेषा मालाभि परम्पराभि उज्ज्वले प्रकाशमाने । सर्वाङ्गाणि व्याप्नोतीति सर्वाङ्गीण सर्वाग्यवसपूर्ण । 'तत्सर्वादे पथ्यगकर्म पत्रपात्र व्याप्नोति' (पा० ५।२।७) इति ख । सर्वाङ्गीणो य फलप्रसूनविभव प्रसवसपत् , तेन व्याघूर्णमाना व्याजम्भमाणा द्रमा यस्मिंस्तादशि | कापि प्रदेशे । बध्नस्य सूर्यस्य सुता यमुना, तस्या अन्तराले मध्ये, विकसन्ति विकस्व राणि, नीलाम्बुजन्मानि इन्दीवराणि, तेषाम् उपरि उपरिष्टात् । क्रीडता षट्पदाना कान्तिरिव कान्तिर्यस्य तत् । 'सप्तम्युपमानपूर्वपदस्य' इति वार्तिकेनोत्तर पदलोपोऽत्र द्रष्टव्य । अथवा-क्रीडन्त खेलन्तो ये षट्पदास्तद्वत् कान्तिर्यस्य तत् । किंचन किमपि । रामात्मक कृष्णात्मक वा मह । तच्च लीलाविग्रहोपलक्षकमपि । देवाना विग्रहवत्वे-'विरोध कर्मणीति चेन्नानेकप्रतिपत्तेर्दर्शनात्' (वे० द० २३।२७) इति वेदान्तसूत्रमपि निरूपितम् । ध्यायन्ति चिन्तयन्ति । पद्याभ्यामाभ्या योगाभ्यासयोग्या भूमि सूचिता । तथा च न्यायसूत्रम्-'अरण्यगुहापुलिनादिषु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोगुच्छक योगा +यासोपदेश' ( ४|२| ४२ ) इति । शार्दूलविक्रीडित छन्द ||२५|| इदानीमयोध्यापुरी वर्णयति तत्र च यथाविधि विधीयमानवर्णाश्रमधर्मक्रिया कौशलेषु कोशलेष्ट मानव मरुयता मनुना निर्मिता द्वादशयोजनायामा त्रियोजनविस्तारा सुरासुरैरयोध्या अयोध्या नाम पुरी विधिकर्मावधिः सर्वसपन्निधिः ॥ २६ ॥ तत्र चेति । निवीयन्त इति विधय श्रौतस्मार्त पौराणलक्षणा । उक्त च 'चोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचका ।' इति । विधीननतिक्रम्य वर्तत इति यथाविधि । यथाविधि विवीयमाना अनुष्ठीयमाना । वर्णाना ब्राह्मणादीना तदन्तरप्रसूतानाच आश्रमाणा ब्रह्मचर्यादीना तदवस्था विशेषाणा च या धर्मक्रिया धर्मकर्माणि, तासा कौशल दादय येषु तथाभूतेषु कोशलेषु कोशलाख्येषु जनपदेषु । देशवाचक शब्दो बहुवचनान्त प्रयुज्यत इति तु प्रायोवाद | मानवमरुत्त्वता मानवेन्द्रेण मनुना वैवस्वतेन निर्मिता विहिता । कारयन्नपि कर्तेव भवतीति भाव । द्वादशयोजनेत्यायामविस्तारनिरूपणे वाल्मीकीय रामायण मानम् । इदानी तु सरखा दक्षिणतीरमुपश्लिष्टा सकुचितैव । अस्या दक्षिणे सनिहितत्रायैव तमसाख्या सरिन्निर्जलेति । सुराश्व असुराश्च सुरासुरा, तै ' येषा च विरोव शाश्वतिक' ( पा० २२४१६ ) इति सूत्रस्य तु नाय विषय 1 देवासुरविरोधस्य नैमित्तिकत्वात् । अयोध्या योद्धुमन | अयोध्या नाम अयोध्येति विख्याता | पुरी नगरी । विधेर्ब्राह्मण कर्मावधि कार्य सोमा । सर्वासा सपदानिधि धानी । अस्तीत्यप्रयुज्यमानोऽपि वाक्यबलाल्लभ्यते । तिड्सुबन्तचयो वाक्यमित्यभिधानात् ||२६|| याक्रान्तापि सुरोत्सवः प्रतिगृह पावित्र्यसदानिता दुर्वलितापि यानवरत चश्चत्सुपर्णाञ्चिता । या चोखी लयाश्रितापि बिलसन्नानामरोभूषिता रज्यत्यच्छसुधासितापि परितो या रक्तपर्णोर्जिता ||२७|| याक्रान्तेति । या अयोध्या । गृहान् गृहान् प्रति इति प्रतिगृहम् 1 सुराणा मद्यानाम् उत्सवै गोष्ठीभि आक्रान्ता परिगता अपि । पवित्रस्य भाव पाविन्य शुचित्व तेन सदानितास्यूता । पावित्र्य च स्वरूपत हेतुतश्चेति द्विविधम् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ दशकण्ठवधम् यथा स्वरूपन शुद्धमपि चाण्डालान्त हेतुतोऽशुद्धम् । इय तु उभयत शुद्धा । सुराससर्गेण आपततो दोपस्य परिहारस्तु-सुराणा देवानामिति व्याख्यानेन । या, अनपरत नित्यम् । दुर्वर्णं दुष्टपणे आकलिता सश्लिष्टापि । चञ्चद्भि दीप्तिमद्भि सुवर्णं शोभनै वणे अञ्चिता पूजिता । अत्र दुर्वर्णा सुवर्णा न भवतीति विरोवोद्भावने-दुर्वर्णानि रजतानि, सुवर्णानि स्वर्णानि-इति व्याख्यया तत्परिहार । या, क्षोण्या वलय मण्डलम् आश्रिता सगतापि । विलसन्तीभि नाना विविधाभि , अासरोभि स्वर्गवाराङ्गनाभि । भूषिता अलकृता । क्षोणिपृष्ठगता अप्सरसो न भवन्ति, तासा भूतलस्पर्शाभावादिति विरोधोपस्थितौग्लिसद्धि प्रकाशमान , विभि हसादिपक्षिमि लसद्भि शोभनैरिति वा । नाना 'सरोभि अनेकै अप्प्रधानै सरोभि भूषिता-इति तन्निरास । या, अच्छा निर्मला सुपा पीपूषम, सेव सिता शुभ्रापि। रक्तो लोहितो यो वर्णो द्रव्यनिष्ठगुण तेन उर्जिता प्राणिता । ऊर्जबलप्राणवारणे । क्त । शुक्लपर्णा रक्तवर्णा न भवतीति विरोवे अच्छया विमलया सुधया लेपनद्रव्येण-कलीति भाषाप्रसिद्धन-सिता ववला तथा रक्ता अनुरक्ता वर्णा ब्राह्मणादय , ते अजिता उज्जीविता-इत्येव विरोधनिराकरणमनुसधेयम् । सर्वत्र विरोवद्योतकोऽपि । कविसप्रदायाद् 'या' इति सर्वनाम्न आवृत्तिश्च । रज्यति प्रीयते । शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ॥२७॥ लीलालोलमरालवाललुलितव्याकोशकोशाम्बुज श्च्योतत्म्फारपरागरागललित व्यालोलमम्भोभरम् । निभ्राणा तरुणारुणारुणमिन प्रावारमुत्कण्ठिता या कल्लोलभुजच्छ लेन सरयूरालीमिशालिगति ॥२८॥ लीलेति । लीलया खेलया लोला चञ्चला मरालाना हसाना बाला शावका , तै लुलितानि आलोडितानि, तथा- व्यामोशा विकचा कोशा पुटानि येषा तानि, अम्बुनानि । एषा विशेषणसमास । तथाभूतेभ्य अम्बुजेभ्य ऽच्योतन्त गलन्त स्फारा भूयास परागा किंजल्का तेषा रागेण वर्णेन ललित सुन्दरम् । व्यालोल तरलम् अम्भसा भर पूरम् । तरुण नवीन अरुण रविमण्डलम् , तद्वद् अरुण लोहित प्रावारम् उत्तरासङ्गम् इव बिभ्राणा विभ्रती। उत्कण्ठिता कूलगता उत्का च । सरयू सरयूसरित् , वयस्या च । कल्लोला ऊर्मय एव भुजौ बाहू , तच्छलेन व्याजेन । आली सखीमिव । याम् अयोध्याम् । आलिङ्गति आश्लिष्यति । शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ।।२८।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक सुधाशुशोभाजयजागरूकै रभ्युन्नतैः स्फाटिकसौधशृङ्गः। हिमाद्रितुगत्वजिगीषयेव या वर्धते विष्णुपद श्रयन्ती ॥२६॥ सुधाश्विति । या पुरी । सुधाशो पीयूषरश्मे शोभा छनि , तस्या जये पराभवे, जागरूकै व्याप्रियमाणे । 'जागुरूक' (पा० ३।२।१६५ ) इति उक प्रत्यय । अ-युन्नतै अभ्र करित्यर्थ । स्फाटिकै स्फटिकमणिनिर्मितै । सुधालेपोऽ स्त्येषा सौवाना हाणाम् । 'ज्योत्स्नादिभ्य उपसख्यानम्' इति अण् । शृङ्गै शिखरै । हिमाद्रे हिमालयस्य, तुगत्वम् उच्छाय , तस्य जिगीषया जेतुम् इच्छयेव । विष्णुपदम् आकाशम् । मेरुगत विष्णुपुर च । विष्णुपुराणवर्णनात् । श्रयन्ती सेवमाना। वर्धते स्फायते । वृध वृद्धौ । ब्रह्म विष्णु रुद्रपुराणि मेरावेव वर्णि तानि । मेरुस्तु देवभूमितया पुराणेतिहासादौ सुप्रसिद्ध एव । इयमयोध्या तु भुवर्लोकगता । भूलोकस्तु लड्कादक्षिणभागे। एव भूर्भुव स्व सज्ञकास्त्रयो लोका भूविशेषगता एव मन्तव्या । महरादिचत्वारो लोकास्तु भूमेरोरुपरिष्ठात् । एव विष्णुपुराणतो वेदितव्या । यत्तु साकेतगोलोकादिव्यवस्थाऽन्यथान्यथा कल्यते सा तु कल्पनैवेति सक्षेप ।।२६।। कलाकलापाकलिताकृतीनि ___ स्थले जले व्योमनि सद्गतीनि । यथेष्टवेगानि गृहोपमानि यानानि यस्या सतत प्लवन्ते ॥३०॥ कलेति । यस्या पुरि । कला वेदनिर्गतानि अर्थवेदरूढानि विश्वकर्मादिशिल्पशास्त्राणि, तासा क्लापा उच्चावचविभागा , तै आफलिता सुनिरूप्य आपादिता , आकृतय अगोपाङ्गघटनावस्थितय येषा तानि । स्थले भूम्यादौ । जले समुद्रादौ । व्योमनि अन्तरिक्षादौ । इहादिशब्दलभ्य पर्वत-सरिद् द्योलोकलक्षणोऽर्थ समुन्नेय । तत्र कौवेर पुष्पक, राघव स्यन्दन लिङ्गमिति सक्षेप । सत्य अस्खलिता गतय गमनानि येषा तथोक्तानि । यथेष्ट यथाभिलषित वेगो जवो येषा तानि । गृहा उन्चावचभूमिका उममा सादृश्य येषा तानि | यान्ति Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम एभि एषु वा इति यानानि पञ्चभूतवैभवारब्धकलायन्त्रादीनि । 'करणाधिकरण योश्च' ( पा० ३।३।११७ ) इति ल्युट् । सतत नक्त िदवम् । प्लवन्ते । प्लुड् गतौ । इमे उपजाती ॥३०॥ या भाति तर्कविद्येव प्रकाशितनवक्षणा । पर गुणिनि वर्वति यत्र शक्तिविलक्षणा ॥३१॥ येति । या पुरी । तर्कविद्या तर्कशास्त्रमिव प्रकाशितनवक्षणा आभाति । प्रकाशिता आयोजिता नवा नूतना क्षणा उत्सवा यस्या सा । '-अथ क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सव ।' इत्यमर । तर्कविद्यापक्षे तु-नव नवसरयाका क्षणा पाकक्षणा यस्या सा । स्पष्टोऽयमर्थ पीलुपिठरपाकवादावसरे 'तत्रापि परमाणौ स्यात् पाको वैशेषिके नये । नैयायिकाना तु नये द्वयणुकादावपीष्यते ।।' ___ इत्यादौ । पर यत्र । गुणिनि पौरलोके । विलक्षणा लोकोत्तरा । शक्ति सामर्थ्यम् । वर्वति वरीवृतीति-इति व्यतिरेकोद्भावनम् । तर्कशास्त्रे तुशक्तिग्रह व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्यादित्यादि विचारावसरे-'नीलादिपदाना नीलरूपादौ नीलविशिष्टे च शक्ति कोशेन व्युत्पाद्यते । तथापि लाघवानीला दावेव शक्ति , नीलादिरूपविशिष्टे तु लक्षणैवाङ्गीक्रियते ।' इति । व्याकरणे तु'गुणवचनेभ्यो मतुबो लुगिष्ट' इति भिन्न व रीतिराश्रीयते । एव गुणे शक्ति गुणिनि लक्षणा आस्ताम् । अस्यामयोध्याया तु गुणिनि गुणशालिन्यपि विलक्षणा शक्ति प्रतीयत इति वाचोयुक्तिमात्रम् ।।३१।। भूमयो बहिरन्तश्च कान्ताहारपरिष्कृताः। अश्रान्त कम्रगोत्राणा सौहित्य यत्र कुर्वते ॥३२॥ भूमय इति । यत्र यस्या पुरि । कान्तै मनोहारिभि आहावै निपान । 'आहावस्तु निपान स्यादुपकूपजलाशये ।' इत्यमर ! परिष्कृता घटिता । बहिभूमय । तथा-कान्ताना कामिनीना हावै शृङ्गारभावक्रियाभि , परिष्कृता भूषिता । अन्तभूमयश्च । यथाक्रम कम्रगोत्राणा । गवा समूहा गोत्रा । 'इनित्रकट्यचश्च' (पा० ४।२।५१) इति सामूहिक त्र । स्त्रीत्व लोकात । टाप् । कम्रा शोभनाश्च ता गोत्राश्च, तासाम् । कम्राणा कामुकाना गोत्राणि कुलानि तेषाम् । 'कम्र कामयिता-' इत्यमर । अश्रान्तम् अनारतम् । सुहितस्य भाव सौहित्य तर्पणम् । 'सौहित्य तर्पण तृप्ति ' इत्यमर । कुर्वते कुर्वन्ति ॥३२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIHHATHRIRAT प्रथमो गुच्छक यस्यां च सर्वदासारचन्तोऽन्तर्वर्षागृहा वही रक्षापुरुषाः, विश्वभरापरागभाजोऽन्तर्वालका बहिर्वाहीकाः, लताङ्गीकृतहार्दाः कुसुमेषुचपल चेतसोऽन्तर्विलासिनो बहिमिलिन्दाः, वयोविलासहारिण्यो विटपालिपरायणा अन्तर्वाणिन्यो पहिरुपबनवल्लयः, मधुपरागन्ति परागवन्ति रागन्ति चान्तारभयनाजिराणि बहिः क्रीडाकुञ्जलतान्तराणि ॥३३॥ __ यस्या चेति । यस्या च । अन्त अभ्यन्तरे-वर्षाणा कलायन्त्रप्रवर्तिताना गृहा आलया । सर्वदा निरन्तरम्, न तु विश्रम्य विश्रम्य, आसारवन्त वारा सपातशालिन । 'धारासपात आसार' इत्यमर । बहि प्राकाराद् बाह्यप्रदेशेषु । रक्षापुरुषा पालका । सर्वदा सारवन्त बलवन्त इत्यर्थ । 'सारो बले स्थिराशे च' इत्यमर । अन्त -बालका अर्भका । विश्वभराया परागान् पासून भजन्ति इति विश्वभरापरागभाज । धूलिधूसरविग्रहा इत्यर्थ । बहि बाहीका प्राकृता लौकायतिका । बहिषष्टिलोपो ईकम् च । विश्वभरे भगवति अपरागभाज । अन्त विलसन्ति तच्छीला -विलासिन कामुका । लतावद् अङ्गानि यासा ता लताङ्गय । सुकुमारगाव्य इत्यर्थ । लताङ्गोषु, कृत विहित, हार्द प्रेम, यैस्तै तथोक्ता । कुसुमेषुणा पुष्पायुधेन, चपल तरल, चेत चित्त, येषा ते, तथाभूताश्च । बहि - मिलिन्दा षट्पदा । लतासु वल्लरीषु, अङ्गीकृत हाद यैस्ते । कुसुमेषु पुष्पेषु । चपलचेतस दोलायमानमानसाश्च । अन्त -वाणिन्यो मत्त गना । वयस यौवनस्य, विलासेन कौतुकेन, हारिण्य हृदयग्राहिण्य । विटाना भुजङ्गाना, पालौ पड्क्ती, परायणा तत्पराश्च । बहि-उपवनवल्लर्य आरामवीरुध । वयसा पक्षिणा, विलासेन क्रीडया, हारिण्य हृदयगमा । विटपाना शाखिविस्तारपल्लवानाम् , आलिषु, परायणा आसक्ताश्च । मधुना, परा उत्कृष्टा , अगा वृक्षा, मधुपाना रागाश्च । तद्वन्ति । परागा -किजल्का क्रीडापर्वतकाश्च । तद्वन्ति । रागा -लाहितादय गीतकानि च । तद्वन्ति । सर्वत्र प्राशस्त्ये मतुप् । नपु सके बहुवचनम् । अन्तर्बहिश्च समानार्थकम् । वारस्य वेशस्य, भवनाजिराणि गृहाङ्ग णानि । क्रीडार्थ यानि कुानि निकुञ्जानि, तेषा लतान्तराणि व्रतत्यन्तरा लानि ।।३।। कथमसौ नाकान्नातिरिच्यते---यतोऽमुष्यामुपप्राकार जिष्णुकोटय , प्रतिपण्यपीथिक पत्रोचयाः, अनुधात्रि नन्दनवर्गः, गृहे गृहे रम्भाः, शासने शासने गुरसः, पदे पदे सुधर्माः ॥३४॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दशकण्ठवधम् कथमिति । कथमसौ कथकारमियम् । नाकात् स्वर्गात् । नातिरिच्यते न विशिष्यते--यत -अमुष्या नगर्याम् । प्राकारस्य परणस्य समीपे जिष्णूना कोटय । जयन्ति अभिभवन्ति वा जिष्णव । 'ग्लाजिस्थश्च पस्नु ' (पा०३।२।१३६) झाते ग्स्नु । प्रतिपण्यपीथिक हट्टविपणिषु । वज्राणा हीरकाणाम् । उच्चया पूगा । अनुमातृक नन्दनाना वर्ग । गृहे गृहे प्रतिगृहम् । रम्भा कदल्य । शासने शासने गुरव उपदेष्टार । पदे पदे प्रतिस्थानम् । सुधर्मा शोभनवर्मा । स्वर्गे तु-एको जिष्णु , एक वज्रम् , एक नन्दनम् , एका रम्भा अप्सरा , एको गुरु , एका सुवर्मा इति पुराणेतिहासतो व्यक्तम् ।।३४॥ वापीषु स्फुटितारविन्दनिचया गञ्जासु पानप्रिया क्रीडाशैलगुहासु मीननयना वेशेषु वेशाङ्गनाः । उद्देशेषु सरोपरा उपवनीकुञ्जषु शृङ्गारिणो राग पल्लवयन्ति यत्र नितरा कान्तालिपिभ्राजिताः ॥३५॥ पापीधिति । यत्र यस्मिन्नयोध्यापुरे। वापीषु दीपिकासु । कान्तै गुञ्जद्भिः, अलिभि भ्रमरै , विभि हसादिपक्षिभिश्च, भ्राजिता दीपिता । भ्राज दीप्तौ । स्फुटिताना विकसितानाम् अरविन्दाना निचया बाता । गञ्जासु मदिरागृहेषु । 'गञ्जा तु मदिरागृहम् ' इत्यमर । कान्ते अभिमतास्वादै , अलिभि मौ , विभ्रा जिता विद्योतिता । पानप्रिया पानरसिका । क्रीडाशैलाना केलिपर्वतकानाम् । गुहासु दरीषु । कान्ताभि स्निग्धाभि , आलिभि पयस्याभि , विभ्राजिता वेष्टिता । मीननयना मीनाक्ष्य । वेशेषु वेशशालासु । काताना दयितानाम् , आल्या पक्त था, विभ्राजिता सभाजिता । वेशागना वारवधूट्य । उह शेषु आरामादिक्रीडाप्रदेशेषु । कान्तै रमणीयै , आलिभि सेतुभि , विभ्राजिता यथासनिवेश घटिता । सरोवर' क्रीडातडागप्रवरा । उपवनीकुब्जेषु उद्यानलतागृहेषु । कान्ताना रामाणाम् , आल्या श्रेण्या, विभ्राजिता परीता । शृङ्गारिण विलासिन । नितराम् अत्यर्थम् । रागम् अनुरागम् । पल्लवयन्ति विस्तारयन्ति । पल्लवशब्दात्-'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिच् । एक हि विशेषण षट्सु विशेष्येषूपपद्यते ॥ शार्दूलविक्रीडित वृत्तम् ।।३।। यत्र प्रासादशालामणिमयवलभीमगताः प्रौढकान्ता साकूत नूतनेन्दीवरमधुररुचीन् गच्छतो वारिवाहान् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्रथमो गुच्छक आकृष्यान्योन्यमारात् स्वचिकुरनिकुरान् स्माङ्गलारण्यलक्ष्मी ___साक तैश्चञ्चलाभिश्चिरममरवधूसनिभा भावयन्ति ॥३६॥ यत्रेति । यत्र यस्या पुरि । प्रासादाना सौधविशेषाणा शालासु गृहविशे षेषु, या मणिमय्य रत्नप्रचुरा , वलभ्य शिरोगृहा, तत्र सगता आरूढा अमरवधूसनिभा देवाङ्गनाभि सदृशा । प्रौढकान्ता यौवनोद्धता युवतय । अन्योन्य परस्परम् । साकूत सोत्पास यथा तथा । नूतनेन्दीवरवन् मधुरा मसृणा रुचि द्यु ति , येषा तथाभूतान् । आरात् समीपे । गच्छत नभसि सचरत । वारिवाहान जलदान । हस्तेनाकृष्य । तै वारिवाहै साक सार्धम् । स्वस्य आत्मन , चिकुरनिकुरान् केशपाशान् । स्वस्य, अङ्गानाम् अवयवानाम् । लावण्यलक्ष्मी लावण्यस्य सुषमाश्च । 'मुक्ताफलेषु च्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा । प्रतिभाति यदगषु तल्लावण्यमिहोच्यते ॥' इति । तथा-तद्गताभि चञ्चलाभि क्षणप्रभाभिश्च । चिर चिराय । भारयन्ति मिन्वन्ति ।।३६।। उद्यन्नीलाश्मबद्धक्षितितलविलसद्रश्मिजालप्ररोहान् ___ प्रत्यग्रोद्भिन्नदोङ्क रसहजरुचो वाञ्छता साभिलाषम् । शङ्क भास्वद्धयाना प्लवनघनजवादापतस्ता_बन्धु यंत्रापानूरुभार कठिनमणिशिलाघातभग्नोरुसधिः ॥३७॥ उद्यदिति । यत्र यस्या पुर्याम् । ताय॑ गरुड । 'गरुत्मान् गरुडस्ता_-' इत्यमर । तस्य बन्धुरग्रज काश्यपि । 'सूरसूतोऽरुणोऽनूरु काश्यपिर्गरुडाग्रज ।' इत्यमर । प्रत्यग्रोद्भिन्ना अभिनवोद्गता , ये दूख्यतृणविशेषस्य अकुरा अभि नवोद्भदा । 'काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती-' इति श्रुतिप्रसिद्धा । तत्सहजरुच तत्सो दर्या तीन् । उद्यद्भि स्फुरद्भि, नीलाश्मभि मरकतमणिमि , बद्व घटितम् , यत् क्षितितल भूपृष्ठम् , तत्र विलसन्त उद्गच्छन्त , ये रश्मिजालाना मरीचि पुञ्जानाम् , प्ररोहा कन्दला , तान् । साभिलाष सतर्षम् , यथा तथा । वाञ्छताम् इच्छताम् । भास्वत सूर्यस्य, हयाना रथाश्वानाम् । प्लवनघनजनात्-'लवने प्रान्तरातिक्रमणे, य घन भूयान जव वेग, तद्वशात् तत्पराभवात् । आपतन् अनाधारम् भ्रश्यन् । कठिना कठोरा , या मणिशिला रत्नप्रावाण, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० दशकण्ठरवम् तत्र य आघात निपात , तेन भग्न खण्डित , ऊो सक्थ्नो , सधि सधान यस्य तथाभूत सन् । अविद्यमानौ ऊरू यस्य, तस्य भावम् । अनुरुत्वमिति भाव । आप आससाद । इति शङ्क मन्ये । 'मन्ये शक ध्रुव प्रायो नूनमित्येवमादिभि । उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृश ॥ इत्युक्त दण्डिन काव्यादर्शे ॥३७॥ फुल्लदल्लीमतल्लीवलयितविविधानोकहाहूयमान प्रौढ व्वान्ताढ्यकुञ्जोदरगतकमनद्वन्द्वनमैंकसाक्षि । यस्यामुद्यानवृन्द मृदुपवनपतत्पुष्पगन्धानुगच्छ न्माघल्लोलम्बनादद्विगुणितमदन भुञ्जते भाग्यभाज ॥३८॥ फुल्लदिति । यस्या पुरि । भाग्यभाज सौभाग्यशालिन । फुल्लन्त्य म्फुटा , या वल्लीमतल्य प्रशस्तवल्लर्य । 'प्रशसावचनैश्च' (पा० २।१।६६) इति समास । ताभि वलयिता वेष्टिता , विशिष्टा विवा प्रकारो येषा तथाभूता , ये अनोकहा शाखिन , तै आहूयमान सचीयमान , य प्रौढध्वान्त गाढान्ध कार , तेन पाढ्य सपन्न यत् कुञ्जोदर लतागृहान्तरम् , तद्गत यत् कमनद्वन्द्व कामुकमिथुनम् , तस्य नर्मण एकसाक्षि असाधारणद्रष्ट । मृदुना कोमलेन, पवनेन वायुना, पतन्ति पतनशीलानि, यानि पुष्पाणि प्रसूनानि, तेषा गन्ध सौरभ्यम् , अनुगच्छन्त अनुसरत , माद्यन्त हर्षमाणाः, लोलम्बा भ्रमरा , तेषा नादै नि स्वनै , द्विगुणित द्वैगुण्य नीत , मदन मन्मथ , यस्मिन् तथोक्तम् । उद्यानवृन्दम् आक्रीडनिकुरम्बम् । भुञ्जते सेवन्ते ।। एतानि स्रग्धरा वृत्तानि ॥३८॥ यस्याश्चोत्तरभागे निमलतरतरङ्गरिङ्गत्प्रतिविम्बैबैंकर्तनातपतापतततयावगाहनाय कृतप्रयासैरिव, माध्यदिननियमाय तटोपविष्टाना षटकर्मणामातपापनोदार्थमुद्यव्रततिपितानोपगूढपिटपाभोगकैतवेन धृतातपत्ररिव, उदयास्ताचलमध्यभ्रमणशीलस्यभगवतः सप्तसप्तेः प्रान्तरसचरातिक्रमणक्लान्तरथ्यपथ्यपाथेयार्थमनूरुशिष्टिसपादितशष्पकूटभृगरिव, पादपकदम्बकैरलक्रियमाणकला, मदमत्तराजहसकुलकेलिपरिभ्रान्तपाठीनपुच्छपरिवर्तनावधूतविकचपङ्क रुहपटलरिंगलन्मकरन्दबिन्दुसदोहवासितवोया, अवगाहनावतारितमत्तमातङ्गघटाकपोलपालीश्च्योतन्मदधाराकषा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक ३१ यितकल्लोला, विविक्ततटनिहितस्फाटिकपट्टनिविष्टमहषिहर्षसमुदीर्यमाणोपनिषन्निनादमधुरा, स्नानागतवालखिल्यजनजेगीयमानसूक्तस्तवस्तोमा, अभिषेकापतीर्णपौररमणीकुचकुम्भकु कुमपुञ्जपिञ्जरीक्रियमाणसलिलसताना, दिव्यदोहददानायातनववधूवरानुगप्रकरपरस्परहर्षस्पर्धावर्धमानसगीतवादित्रवाचालितपरिसरा, तटनिकटवासिनो भगरतो नागेश्वरस्याट्टहासन्छटेव कूलकषाकारेणापस्थिता, तत्रभवतोऽरुन्धतीजानेः कीर्तिरिव स्रोतोरूपेण पेरिणता, पार्पणचन्द्रचन्द्रिकानिष्यन्दधारेव चिरसचिता, ज्योतीरसमसतिरिव प्रचेतसः, श्वेतचन्दनललाटिकेन भुवः, मुकुरफलिकेर कुबेरककुमः, वैकुण्ठकन्येव कमलोपभोगमुदितमधुसूदननादनन्दिता, वह्निकाष्ठेर पुण्डरीकमण्डिता, नरवाहनससदिव प्रकटशङ्खपद्ममकरकच्छपा, सभङ्गाप्यभङ्गा, वसि ठतनया भगरती सरयूवहति ॥३६॥ यस्या इति । यस्या दक्षिणायाश्च । उत्तरभागे उत्तरस्या दिशि । सरयू तन्नाम्नी सुप्रसिद्धा नदी । वहति समुच्छलतीति व्यवहितेनान्वय । किं विशिष्टा सेत्यपेक्षायाम् विमलतरतरङ्गषु शुद्धोर्मिषु, रिङ्गन्ति मूर्छति, प्रतिबिम्बानि प्रतिच्छाया येषाम् , तथाभूतै । वैकर्तनातपस्य सौरोद्योतस्य, तापेन सज्वरेण, तप्ततया प्लुष्ट तया। अवगाहनाय मज्जनाय । कृतप्रयासै विहितप्रयत्नै , इव । माध्यदिननिय माय माध्याह्निकानुष्ठानाय । तटोपविष्टाना तीरे निषण्णानाम् । षट्कर्मणाम्षट् कर्माणि वेदाध्ययनाध्यापनादीनि येषा तेषाम्-अग्रजन्मनाम् । आतपापनो दार्थ निदाघवारणाय । उद्यद्भि , व्रततीना वल्लरीणा-वितानै विस्तारै उपगूढाना वेष्टिताना विटपाभोगाना काण्डशाखापल्लवपत्रपुष्पफलसपदा-कैतवेन व्याजेन । धृतातपत्रे गृहीतच्छत्रै, इव । उदयास्ताचलयो मध्ये भ्रमणशीलस्य । भगवत सप्तसाते सप्ताश्वस्य । प्रान्तरसचरस्य दूरशून्यस्याध्वन , अतिक्रमणेन उल्लङ्घनेन क्लान्ता श्रान्ता , ये रथ्या रथस्य वोढार अश्वा । 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' (पा० ४।४।७६ ) इति यत् । पथ्य हितम् , यत् पाथेय पथि साधु । 'पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ड' (पा० ४।४।१०४) इति ढम् । तदर्थम् । अनूरो सूरसूतस्य, शिष्टे आज्ञया, सपादिते सचितै, शष्पकूटाना बालतृणपुञ्जानाम , शृङ्ग Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ दशकण्ठवधम् शिखरै, इन | पादपक्रम्बकै वृक्षत्रातै । अलक्रियमाणानि भूष्यमाणनि, कूलानि तीराणि यस्या , तथाभूता। मदेन मत्तानि, यानि राजहसाना हसविशेषाणाम् , कुलानि यूथानि, तेषा केलिभि क्रीडाभि , परिभ्रान्ता ये पाठीना मत्स्यभेदा , तेषा पुन्छपरिवर्तनेन पुन्छान्दोलनेन, अवधूतानि कम्पितानि यानि विकचानि स्फुटितानि, पड्क रुहाणा पङ्कजाना पटलानि, तेभ्य विगलता क्षरताम् , मकर दबिन्दूना सदोहै , वासितानि अधिवासितानि, तोयानि यस्या तथोक्ता । अवगाहनाय मज्जनाय, अवतारिता हस्तिपकै प्रापिता , या मत्तमातङ्गघटा गन्धगजयूथानि, तासा कपोलपालीभ्य गण्डस्थलीभ्य । 'प्रशसावचनैश्च' (पा० २।११६६) इति समास । श्च्योतन्तीभि क्षरन्तीभि , मदधाराभि दानलेखाभि , कषायिता तिक्ता , कल्लोला उर्मय यस्या तथोक्ता । विविक्त विजनपूते, तटे निहित निक्षिप्त , य स्फाटिकपट्ट स्फटिकशिलातलम , तत्र निविष्टा उपविष्टा , ये महर्षय , तै हर्षेण समुदीर्यमाणाना स्वरव्यक्तिपुरस्सर पठ्यमानानाम् उपनिषदा निनादै रावै मधुरा रुचिरा। स्नानाय आगता , ये वालखिल्यजना मुनिविशेषा , तै जेगीयमाना पापठ्यमाना, सूक्तस्तवाना स्तोमा समुदाया यस्याम् , तथाभूता । अभिषेकाय अवगाहनाय, अवतीर्णा कृतावतरणा , या पौरा पुरभवा रमण्य , तासा कुचकुम्भयो । 'स्तनादीना द्वित्वविशिष्टा जाति प्रायेण' (वामसू ११५।१७ इति वामन । कुकुमपुजेन कश्मीरजन्य केशरपरागस्तोमेन, पिञ्जरीक्रियमाण सलिलसतान वारिपूर यस्या , तथाभूता । 'पिञ्जर पीतरक्ताभ' इति । दिव्यदोहददानार्थम् आयाता , ये नववधूवरयो अनुगप्रवरा सहचारिवर्गा , तेषा परस्परहर्षस्पर्धाभि वर्धमाने सगीतै - 'धातुमातुसमायुक्त गीतमित्युच्यते बुबै । तत्र नादात्मको धातुर्मातुरक्षरसचय ॥' इत्यादिनिरूपितै । वादिनै ततानद्धशुषिरघनादिभि आतोद्यपदाभिलप्य , वाचालित मुखरित , परिसर यस्या , तथाभूता । तटनिकटवासिन समीपवसते । भगवत सकलसिद्धिसद्मन । नागेश्वरस्य तदाख्यज्योति गस्य ।' नागेश दारुकावने ।' (शिवपु० ज्ञानस० ३८ अ० १६ श्लो०) इति पुराणवचनात् । अट्टहासन्छटेव हसितराशिरिव । कूखकषाकारेण नदीरूपेण । अवस्थिता । हास श्वेत इति कविसमय । तथा चोक्त साहित्यदर्पणे सप्तमपरिच्छेदे 'मालिन्य व्योग्नि पापे, यशसि धवलता वय॑ते हासकीयो रक्तौ च क्रोधरागौ, सरिदुदविगत पङ्कजेन्दीवरादि ।' Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक ३३ इत्यादि । तत्रभवत पूज्यस्य । अरुन्धतीजाने वसिष्ठस्य | कीर्तिरिन समज्ञेव । स्रोतोरूपेण प्रवाहाकारेण परिणता | पार्वणस्य पार्विकस्य, चन्द्रस्य इन्दो, चन्द्रिकानिष्यन्दवारेव ज्योत्स्नाप्रवाहपारम्परीव | चिरसचिता चिराय राशीकृता ज्योतीरसस्य स्फटिकमणे, वसति अवस्थानम्, इव । प्रचेतस वरुणस्य । श्वेत चन्दनस्य मलयजस्य, ललाटिका ललाटभूषणम्, इव । ' कललाटात्कनलकारे' ( पा० ४ | ३ | ३५ ) इति कन् । भुव भूदेव्या | मुकुरफलिकेव दर्पणबिम्बमिव । कुबेरककुभ धनददिश । दिशो विभुत्वेन सर्वगतत्वेऽपि विन्ध्याद्र रेवविकल्पनया तथात्वारयानम् । वैकुण्ठस्य, कक्ष्येव प्रासादप्रकोष्ठ इव | कमलाया इन्दिराया उपभोगेन, अन्यत्र, कमलाना वारिरुहाम्, उपभोगेन सचरणेन, मुदित प्रसन्न य मधुसूदन नारायण, परत्र, ये मधुसूदना मधुलिह, तन्नादेन, नन्दिता समृद्धा । वह्निकाष्ठा आग्न ेयीदिग्, इव । पुण्डरीकेण तन्नाम्ना दिक्कुञ्जरेण, अन्यत्र, पुण्डरीकै सिताम्भोजै, मण्डिता भूषिता । नरवाहनस्य धनदस्य, ससत् सभा, इव । प्रकटा आविर्भूता शङ्खा पद्म मकर-कच्छपाख्या निधिविशेषा यस्याम्, तथाभूता परत्र, प्रकटा रिङ्गन्त, शङ्खा पद्मानि मकरा कच्छपा, तदाख्यवस्तूनि यस्याम् तथोक्ता । सभङ्गा भङ्ग प्राप्ता, अभङ्गा भङ्गेन रहिता, न स्याद् । अपि विरोधे । परिहारे तु-भङ्गै तरङ्ग सह वर्तमाना सभङ्गा । अथ अभङ्गा, गङ्गायमुनादिरिव नानोपद्रवेण वर्जिता । वसिष्ठस्य तनया वासिष्ठीति जोर्जाह्नवीव पुराणेतिहासप्रसिद्धा । अत्र मामक पद्यम् 1 'अश्रान्त तव सनिधौ निवसत कूलेषु विश्राम्यत पानीय पिबत क्रिया कलयतस्तत्त्व पर ध्यायत । उद्यत् प्रेमतरङ्गभगुरदृशा वीचिच्छटा पश्यतो दीनत्राणपरे | ममेदमयता वासिष्ठ | शिष्ट वय || ३ ||' (सरयू सुधा ) इति । भगवती रूपान्तरग्रहणक्षमा, न तु वारिरूपैव ||३६|| मञ्जन्नागरनायिकाकुचघटीस घट्टभग्नीभव त्पुष्प्यत्सारन शुक्लकृष्णकमलारण्यस्य पत्रत्रजः । जालो मस्ता निरन्तरमहो यो व्योम्नि सकीर्यते मुग्धास्त कलयन्ति तारकततीप्रत्युप्त नीलाम्बरम् ||४०|| मज्जन्नागरेति । मज्जन्तीनाम् अवगाहमानानाम्, नागरनायिकाना पौररमणीनाम्, कुचघटीसघट्टेन स्तनकलशावमर्देन, भग्नीभवन्ति त्रुट्यन्ति, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दशकण्ठववम् पुष्प्यन्ति विकस्वराणि, सारवाणि सरय्या भवानि, यानि शुक्लकृष्णकमलानि पुण्डरीकेन्दीवराणि, तेषाम् अरण्यस्य काननस्य । पत्राणा दलानाम्, व्रज बात । जवाल वेगवान्, अर्थात् मरुता दिनु विदिक्षु विक्षिप्त । य व्योम्नि मरुता निरन्तर सकीर्यते विकीर्यते । मुग्धा भ्रान्ता । त तारकाना नक्षत्राणाम् , ततीभि पक्तिभि , प्रत्युत्त घटितम् , नीलाम्बर नील नभ । कलयन्ति जानन्ति । अहो आश्चर्यम् । शार्दूलविक्रीडित छन्द ॥४०॥ इति पुरीवर्णनम् । तामध्युवास रुचिरा कुलराजधानी भूवासवो दशरथः श्रु तपारदृश्वा । लेभे यमात्मजतया जगदुदिधीषु नारायणः प्रकृतिपूरुषयोः परस्तात् ॥४१॥ तामिति । भुव भूपृष्ठस्य, वासव इन्द्र । श्रुताना शास्त्राणा, पारम् अन्त दृष्टवान् । दृशे क्वनिप् । 'दशरथ' इत्याख्य , दिलीपस्य प्रपौत्र , रघो पौत्र , अजस्य पुत्र । ता वर्णिताम् । रुचिरा मनोरमाम् । कुलस्य मन्वादिसतानस्य, राजवानी राजशासनास्थानीम् । अध्युवास अविवसतिस्म । 'उपान्वध्याड्वस (पा० १।४।४८ ) इति आधारस्य कर्मत्वम् । प्रकृति मूलप्रकृति , पूरुष साक्षी । 'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या प्रकृतिविकृतय सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृति पुरुष ॥' (साख्यका०३) इत्यादिना व्युत्पादितौ प्रकृति-पुरुषपदार्थों, तयो । परस्तात् पर । सर्वपुरुषयो निरित्यर्थ । जगतो लोकस्य, उहिधीर्षु । उत्पूर्वाद् दधाते सन्नन्ताद् उप्रत्यय । नारायण 'आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव । ता यदस्यायन पूर्व तेन नारायण स्मृत ।' इत्युक्त । आत्मजतया अपत्यत्वेन । य सुकृतिन दशरथम् । लेभे प्राप्तवान् । स्वेच्छयैव नान्यजनसाधारण्येन । य लब्ध्वा प्रादुर्बभूव इति तात्पर्यम् । वसन्ततिलकावृत्तम् । उक्त च पिङ्गलसूत्रे वसन्ततिलका भौ जौ गौ।' (पिङ्गलसू० अ०७८) यस्य पादे तकारभकारौ जकारौ गकारौ च तवृत्त वसन्ततिलकोत्युच्यत इत्यर्थ । एवमग्रऽपि ॥४॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ प्रथमो गुच्छक येनान्वभाषि भुवनान्तरजम्भमाण कीर्तिप्रतापभरसौरभभास्वरेण । अस्तोपसर्गमधिकर्द्धि समृद्धभाव ___राजप्रजाप्रणयबन्धननन्दनश्रीः ॥४२॥ येनेति । भुवनान्तरेषु लोकान्तरेषु, जृम्भमाणौ जागरूको, यौ कीर्तिप्रतापौ यश ओजसी, तयो भर प्राग्भार , स एव विमलावदानजन्यतया सौरभ सौगन्ध्यम् , तेन भास्वरेण प्रकाशमानेन । भासते कर्तरि वरच् । येन दशरथेन । अस्ता नष्टा , उपसर्गा, यस्मिन् कर्मणि | तथा अविका अभिलापातिशायिनी, ऋद्धि सपत् यस्मिन् कर्मणि| तथा समृद्धा उदारा , भावा पदार्था , यस्मिन् कमणि । तद् यथा स्यात् तथा । राज्ञ रञ्जकस्य स्वामिन , प्रजाना प्रकर्षेण जायमानानाम् , यत् प्रणयबन्धन परस्परप्रीतिशृखला, तदेव नन्दन महेन्द्रोद्यानम् , तस्य श्री इव श्री , काचित् सौभाग्यलक्ष्मी । अन्वभाषि अनुपूर्वाद् भाषे कर्मणि लुङ् ॥४२॥ यस्यौजस्तपनः सपत्नसुदृशामाविश्य चेतस्यर तत्रत्या सुखमाधनी सरसता सशोष्य चक्रे पुनः । नेत्रद्वारपतत्पयोझरमिषाद्वर्षोदय तादृश य वीक्ष्य स्मितहसमण्डलमगान्मुञ्चत्तदास्याम्बुजम् ॥४३॥ यस्येति । यस्य राज्ञो दशरथस्य । ओज प्रताप एव तापकत्वात् तपन उष्णधामा । सपत्नसुदृशा वैरिस्त्रीणाम् । अर द्रुतम् , चेतसि मानसे | आविश्य सक्रम्य । तत्रत्या तत्रभवाम् । सुखसाधनी सतोषावहाम् । सरसता सारस्यम् । सशोष्य खिलीकृत्य । पुन-नेत्रद्वाराभ्याम् अक्षिवद्मभ्याम् , पततो गलत , पयोझरस्य अश्रुप्रवाहस्य, मिषाद् व्याजात् । तादृश तथाभूतम् । वर्षोदय जलदागमम् । चक्रे कृतवान् । य वीक्ष्य अवलोक्य । तासा सपत्नसुदृशाम् , आस्याम्बुज मुखारविन्दम् । मुञ्चत् जहत् । स्मितमेव हसमण्डल मरालकुलम् । अगात् अयासीत् । इणो लुङि गाडादेशे रूपम् ॥४॥ नाविद्वान्न शठो न कैतवपरो नाम्नायसिद्धान्तभि नानेकागमभेदभिन्नहृदयो न द्रोहदग्धाशय । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठववम् नो सत्कारपराङ्मुखो न विधुरो लोको व्यलोकि क्वचि द्यस्मिन्नात्मजनिर्विशेषमवनीनाथे प्रजा रक्षति ॥४४॥ नेति । यस्मिन् दशरथे । अवनीनाथे वसुवाधिपे । आत्मजेभ्य अपत्येभ्य , निर्गत विशेष तरतमभावो यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्यात् तथा । प्रजा जनान् । रक्षति पालयति सति । क्वचित् क्वापि राष्ट्र । अविद्वान् अज्ञ । लोक न व्यलोकि नो ऐति । एव क्वचित् शठ "प्रिय वक्ति पुरोऽन्यत्र पिप्रिय कुरुते भृशम् । व्यक्तापराधचेष्टश्च शठोऽय कथितो बुवै ॥' इति विष्णुपुराणोक्तलक्षणलक्षित । एवम् 'मनसा वचसा यश्च दृश्यते कार्यतत्पर । कर्मणा विपरीतश्च स शठ सद्भिरुच्यते ।।' इति शब्दार्थचिन्तामणिनिरूपितश्च लोको न । कितवस्य खलस्य कर्म कैतवम् । तत्र पर परायणो लोको न। आम्नायस्य निगमागमस्य, सिद्धान्तम् उपादेयप्रमेयम्, भिनत्ति खण्डयति, इति आम्नायसिद्धान्तभिद् लोको न । तथा च रामायणम् 'तस्य सदिदिहे बुद्धिमुहु सीता निरीक्ष्य च । आम्नायानामयोगेन विद्या प्रशिथिलामिव ।।' इति । अनेकेषा नानाप्रकाराणाम्, आगमाना शास्त्राणा, भेदै प्रक्रियाभेदैः, भिन्न भेट प्राप्तम् , दोलायमानमिति यावत् । हृदय मानस यस्य तादृक् लोको न । द्रोहेण जिघासया, दग्ध हत आशयो वासना यस्य तथोक्त लोको न । सत्कार आगतस्वागतम् । तच्च 'तृणानि भूमिरुदक वाक् चतुर्थी च सूनृता । एतान्यपि सता गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥' इत्यवधिक । तत्र पराड्मुखो विरतव्यापारो लोको न । इहेद तत्त्वम्'प्रियप्राया वृत्तिविनयमधुरो वाचि नियम प्रकृत्या कल्याणी मतिरनवगीत परिचय । पुरो वा पश्चाद् वा तदिदमविपर्यासितरस रहस्य साधूनामनुपधि विशुद्ध विजयते ॥" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक इति । विधुरो इतिकर्तव्यताविकलो लोको न । 'व्यलोकि' इति सर्वत्रान्वेति ॥४४॥ यस्मिश्च चक्रवर्तिनि प्रकृति पातयति, छलप्रसङ्गो न्याये, न व्यवहारे, पदाथकल्पनालाघव वैशेषिके, न प्राघुणिकसत्कारे, विकारोदय सोख्ये, न सख्यावन्मानसे, प्राणनिग्रहो योगे, न नियोगे, आथीभावना मीमासायाम्, न नैष्ठिकेषु, मायावादो वेदान्ते, न प्रजासु, प्रत्ययलोपो व्याकरणे, न प्रतिज्ञातप्रदाने, परगुणच्छेदो ज्याचाप गणिते, न वाकोनाक्ये; अलकाराकलन साहित्ये, नाक्षदर्शके, कृष्णचरित पुराणे, न नागरेऽश्रावि ॥४॥ यस्मिन्निति । यस्मिंश्च दशरथे। चक्रे भूमण्डले राजमण्डले वर्तितु वा चक्र सैन्य वर्तयितु शीलमस्येति चक्रवर्ती । 'सुष्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' (पासू० ३।२।७८) अवश्य चक्र वर्तयतीति तु-आवश्यके णिनि । तस्मिन् चक्रवर्तिनि सार्वभौमे । प्रकृति प्रजामण्डल पालयति रक्षति सति । छलस्य चतु दशस्य पदार्थस्य, प्रसङ्ग प्रसञ्जनम् । न्याय प्रमाणादिषोडशपदार्थीप्रतिपादके गौतमोपज्ञे दर्शने । न व्यवहारे अष्टादशधा विभक्त व्यवहारपदे छल कपटमिति । पदार्थाना पारिभाषिकाणा कल्पनया लाघव तन्त्रान्तरापेक्षया गौरवनिरास । वैशेषिके सप्तपदार्थीप्रतिपादके कणादोपज्ञे दर्शने । न प्राघुणिकानाम् आगन्तुकाना सत्कारे शुश्रूषाया पदस्य व्यवसितादे अर्थस्य धनस्य कल्पनाया योजने लाघव सकोच इति । विकारस्य षोडशकगणस्य उदय उद्गम साख्ये कपिलोपज्ञे दर्शने । न सख्यावता पण्डिताना मानसे हृदयक्रोडे विकारस्य कामादिषडूमिविकृतेरुदय इति । प्राणानाम् असूना निरोधो योगे पातञ्जलदर्शने । न नियोगे राजकीयाज्ञाया प्राणाना निग्रहो बाध इति । आर्थी लिडाधु पस्थाग्या भावना प्रवर्तना मीमासाया त्रयीव्यवस्थापकशास्त्रे जैमिनिसकलिते । न नैष्ठिकेषु ब्रह्मचारिविशेषेषु आर्थी धनसबन्धिनी भावना चिन्तेति । मायाया वाद अवतार' अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतदित्यादिप्रक्रियाप्रपञ्चिते वेदान्ते उपनिषत्प्रमाणे शास्त्रे पाराशर्यसकलिते । न प्रजासु प्रकृतौ मायया वादो व्यवहारकल्पनेति । प्रत्ययस्य स्वादे लोप अदर्शन व्याकरणे पाणिनितन्त्रे । न प्रतिज्ञातस्य वस्तुन प्रदाने वितरणे प्रत्ययस्य विश्वासस्य लोप खिलीकार इति । परगुण राशित्रयस्य Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दशकण्ठवधम् ज्याछेदो हर । परगुणच्छेद इति व्यवहारो ज्योतिषसिद्धान्तस्कधे सूर्यसिद्धा न्तादौ । न वामोवाक्ये उक्तिप्रत्युक्तिप्रस्तावे परेषा पराणा वा गुणाना छेद खण्डनमिति । अलकाराणा शब्दार्थोभयलक्षणाना भाववरणव्युत्पन्नानाम् आक लन मीमासन साहित्ये काव्यप्रकाशादिसाहित्यशास्त्रे । न अक्षदर्शके व्यावहा रिकपदे अल काराया ब वनालयस्य कलनम् अभियुक्तकृते विवेचनमिति । कृष्णस्य भगवतो देवकीनन्दनस्य चरितमितिवृत्त पुराणे ब्राह्मादौ । न नागरे पौरे कस्यचिदपि कृष्ण मलीमस चरित वृत्तमिति । 'अश्रावि' इति प्रत्येकमन्वेति । शृणोते कर्मणि लुड् ॥४५॥ यस्य च कनकलतिकेव न कठोरा, तारकेन न वासरधूमरा, क्षणप्रभेव न क्षणप्रभा, तरङ्गिणी लावण्यपूराणा, जन्मजगती मदनविभ्रमाणा, चन्द्रशाला सुकृतपिलासाना, रोहणस्थली पातिव्रत्यमाणिक्याना, कोमल्या कैकेयी सुमित्त्रेति परस्परानुग्रहा वेदत्रयीव धामत्रयीव लोकत्रयीव महिषीत्रग्यासीत् । यस्येति । यस्य च राज्ञो दशरथस्य । कनकलतिकेव स्वर्णवल्लीव न कठोरा न कठिना शरीरत स्वभावतश्च । कनकलतिका तूभयतस्तादृशीति व्यतिरेक । एव तारकेव न वासरधूसरा, केवल नक्तमेव जाग्रती अपितु नक्तदिव प्रकाशमाना। क्षणप्रभेव चपलेव न क्षणप्रभा कितु स्थिरकान्ति । तरङ्गिणी स्रोतस्वती, लावण्य प्राग्व्याख्यात तत्सूराणा प्रवाहाणाम् । जन्मजगती उत्पत्तिस्थान मदनविभ्रमाणा मन्मथविलासानाम् । चन्द्रशाला शिरोगृह सुकृतविलासाना पुण्यपरिष्काराणाम् । रोहणस्थली जन्मभूमि । पति व्रत अस्या पत्यौ व्रत अस्या इति वा पतिव्रता । साच 'आर्तेि मुदिता हृष्टे प्रोषिते मलिना कृशा । मृते म्रियेत या पत्यौ साध्वी ज्ञेया पतिव्रता । सुप्ते पश्चाच्च या शेते पूर्वमेव प्रबुध्यते । नान्य कामयते चित्ते सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता ।।' एवभूता । तस्या भाव एव माणिक्यानि रत्नविशेषा तेषाम् । कोसलस्य राज्ञ अपत्य स्त्री कौसल्या । 'वृद्धत्कोसलाजादायड्' (पा० सू० ४।१।१७१) 'यङश्चाप्' (पा० सू० ४।१।७४ ) सूत्रनिर्देशात् कोसलशब्दो दन्त्यसकारमध्य । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक केकयस्य राज्ञोऽपत्य स्त्री कैकेयी । 'जनपदशब्दा-क्षत्रियादब्' (पा० सू० ४।१।१६८ ) 'केकयमित्रयुप्रलयाना यादेरिय' (पा० सू० ७।३।२) 'टिड्ढाणद्ध यसउदघ्नमात्रच्तयाठकठकवरप' (पा० सू० ४।१।१५) इति डीप् । सुमित्रा शोभन मित्र यस्या सेति समास । शोभनेन मित्रेण सहितेति वा । शोभनत्व च दाम्पत्यरूपेण मधुरसबन्धेन इति । परस्परेषा परस्परेषु वा अनुग्रह यस्या तथाभूता । वेदाना ऋग्यजु सामाथर्वणा त्रयीव । त्रयोऽवयवा ऋग्यजु साम लक्षणा यस्या सा त्रयी। आथर्वणेऽपि रचनात्रैविध्यस्य सत्त्वान्नाव्याप्तिरिति सूक्ष्मेक्षिकया द्रष्टव्यम् । धाम्ना सौरचान्द्रमसाग्नेयाना त्रयीव । लोकाना भूर्भुव स्वर्लक्षणाना भूभ्यन्तरिक्ष दिव्याना वा श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धाना त्रयीव । महिषीणा कृताभिषेकाणा त्रयी । आसीत् । अस्ते कर्तरि लड् । अभवत् ।।४६॥ यथासमयमुपासितामपि निष्फलव्यवसिता गार्हस्थ्यगहोमयीमिव महिषीत्रयी चिन्तयमाने चिन्तापरिष्यन्दमन्दिमानमुपेयुषि पुत्रार्थमश्यमेधक्रतुमाचरितुकामे भूशतक्रतौ मन्त्रिमतल्लिका सुमन्त्रोऽमुष्मै 'देव । किमुत्ताम्यास, अवग्रहग्रहनिगृहीतेषु राज्ञो रोमपादस्य जनपदेवगषु सुवाधारानुकारया वृष्टिसृष्ट्या दृष्टब्रह्मवर्चसमहिम्नः शान्तासखस्य विभाण्डकसूनोऋष्यशृङ्गस्य प्रभावेण तव पुत्रा जनिष्यन्ते।' इति भगवत्सनत्कुमारकथित पुराणवृत्त कथयाचक्रे । सोऽपि सुमना यियक्षन् वसिष्ठशिष्टयाऽनेष्ट रोमपादजामातर सशान्तादार वैभाण्डकि महातेजसमयोध्यामलकृताम् ॥४७॥ यथेति । यथासमय यथा ऋतुकालम् । उपासिता निषेविताम् अपि । निष्फलम् अदृष्टप्रसव व्यवसित प्रयतन यस्या तथोक्ताम् । गृहस्थस्य कर्म गार्हस्थ्य तदेव शोच्यत्वात् गर्दा, तन्मयीमिव । महिषीणा राज्ञीना त्रयीम् । चिन्तयमाने अनुशोचति । चिन्ता अनपत्यताजन्यव्यथेत्यर्थ । तस्या परिष्यन्देन प्रस्रवणेन मन्दिमान मन्दताम् । उपेयुषि गतवति । पुत्रार्थ सतानाय । अश्वमेधक्रतु तदाख्य श्रौतमध्वरम् । आचरितुम् अनुष्ठातु कामो यस्य तादृशे । भूशतक्रतौ महीन्द्र । मन्त्रिमतल्लिका प्रशस्तो मन्त्री । सुमन्त्र अन्वर्थनामा । अमुष्मै दशरथाय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दशकण्ठववम् देव ! महाराज | किं किमर्थम् । उत्ताम्यसि खिद्यसे । अवग्रहो वृष्टिप्रतिबन्ध स एव ग्रह व्यथक , तेन निगृहीतेषु ग्रस्तेषु । राज्ञो रोमपादस्य तदाख्यनृपते । जनपदेषु देशेषु । अगषु तदारयेषु । सुवाधारानुकारया पीयूपपूरप्रतिमया । वृष्टिसृष्ट्या वर्षासर्गेण । दृष्ट परीक्षित , ब्रह्मवर्चसस्य ब्राह्मण्यस्य, महिमा प्रभाव , यस्य तादृश । शान्तासखस्य शा तापते । विभाण्डकसूनो विभाण्डकास्यमहर्षिपुत्रस्य । ऋष्यशृङ्गस्य ऋष्यशृङ्गनाम्नो महर्षे । प्रभावेण शुभाशसनेन तव भवत । पुत्रा सूनव । जनिष्यन्ते उत्पत्स्यन्ते ।' इति इत्थभूतम् । भगवता सनत्कुमारेण ब्रह्मतनयेन कथितम् आदिष्टम् । पुराणवृत्त चिरतनवृत्तान्तम् । कथयाचक्रे वर्णितवान् । सोऽपि दशरथ । सुमना तवृत्तश्रवणेन सुमना हर्षमाण । यियक्षन् यष्टुमिच्छन् । वसिष्ठशिष्टया कुलगुरोर्नसिष्ठस्याज्ञया । रोमपादस्य जामातरम् प्यशृङ्गम् । रोमपादो हि ऋष्य शृङ्गप्रभावादभिमता वृष्टिं समविगत्य परितुष्ट तस्मै महर्पये स्वात्मजा शान्ता दत्तवानिति कथा रामायणादितोऽ सधेया। सशान्तादार शान्तया दाराभि सह वर्तमानम् । वैभाण्डकिं विभाण्डकस्यापत्यम् ऋष्यशृङ्गम् । महातेजस लोकोत्तरप्रभावम् । अयोध्या पुरम् अल कृता तदागमनहर्षेण परिष्कृताम् । अनेष्ट आनीतवान् ।।४७॥ ततश्च यथावसर प्रत्यग्रोत्फुल्लपृथुलकमलिनीपटलाटोपपाटलायमानगाटिकापर्यन्ते, नूतनोन्निद्रसहकारमञ्जरीमधुरसास्वादमुदितमधुकरपुञ्जगुञ्जिनदिड्मुखे, नेकविधविटपिविटपाभोगनिर्यत्पुष्पपरागपरीतसचरे, विकचकुसुमसौरभासारनीरन्त्रितरोदसीके, वसन्तावतारे, सरयूनरतीरे यथाकल्पपरिक्लृप्ताया, प्रयत्नोपकल्पितवैतानिकसामग्रीसभृताया, सगौरववितीर्यमाणवस्तुजाताया, यथाक्रमसपाद्यमानसपनसतानाया, व्याप्रियमाणऋत्विक्प्रकाण्डाया, जाज्वल्यमानाऽग्निशरणायाम्, एकविशतियूपोच्छायाया, यथाशासनानीताश्यरत्नपुरस्सर पशुपरिष्कृताया,यज्ञभूमी, भगवद्वसिष्ठऋष्यशृङ्गादेशमनुवर्तमानो गृहीतदीक्षः सपत्नीको विरराज महाराजः॥४८॥ तत इति । ततश्च अनन्तरम् । यथावसर यथासमयम् । प्रत्यग्रोत्फुल्ला Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ प्रथमो गुन्छक नवविकासा , या पृथुला बहला , स्थलकमलिन्य स्थलस्य भूपृष्ठस्य कमलिन्य पद्मिन्य , तासा यत् पटल स्तोम , तस्य आटोपेन बहिम्ना, पाटलायमान श्वेतरक्लायमान , वाटिकापर्यन्तो यस्मिस्तथाभूते । नूतनोन्निद्रा नवनवोन्मेषा , ये सहकारा आम्रविशेषा , तेषा सारा सर्वस्वभूता , या मञ्जर्य कुसुमोद्गमा , तासा मदुरसास्वादेन मकरन्दपानेन, मुदिता मत्ता, ये मधुकरा मधुलिह , तेषा पुनेन प्रकरेण, गुञ्जितानि दिडमुखानि यस्मिस्तथाभूते । नैकविवा नानाप्रकारा, ये विटपिना शाखिना, विटपाभोगा शाखादिविभवा , तेभ्यो निर्यन्त निर्गच्छन्त ये पुष्पपरागा कुसुमरजासि, तै परीत सकुल , सचरो मार्गो यस्मिस्तथोक्त । विकचानि विकसितानि, यानि कुसुमानि प्रसूनानि, तेषा सौरभासारेण सौगन्ध्यतरङ्गण, नीरन्निता व्याप्ता, रोदसी द्यावापृथिव्योपु यस्मिंस्तथाभूते । वसन्तस्य पुष्पसमयस्य सुरभे, अवतारे प्रादुर्भावे । सरय्वा उत्तरतीरे सौम्यतटे । यथाकल्प श्रौतसूत्रानुसार, क्लृप्ताया सपादितायाम् । प्रयत्नै प्रकृष्टव्यापारै , उपकल्पिता घटिता, या वैतानिकी याज्ञिकी, सामग्री वस्तुसभार , तया सभृताया परिपूर्णायाम् । सगौरव सादर, तत्तत्कर्मणि वितीर्यमाण प्रतिपाद्यमान, वस्तुजात पदार्थसार्थो यस्या तथोक्तायाम् । यथाक्रम यथाकल्प, सपाद्यमान अनुष्ठीयमान , सवनसतान' यस्या तथोक्तायाम् । तत्तक्रियासु व्याप्रियमाणा नियुज्यमाना ऋत्विक्प्रकाण्डा प्रशस्ता ऋत्विज यस्या तथोक्तायाम् । जाज्वल्यमान प्रकाशमानम्, अग्निशरणम् अग्निशाला यस्या तस्याम् । एकविंशति श्रौतवर्मना एफविशतिसख्याकानि यानि यूपानि काष्ठस्तम्भविशेषा , तेषाम् उच्छ्राय उच्छृति यस्या तस्याम् । यथाशासन यथाशास्त्रम्, आनीतम् आहतम् , अश्वरत्न तादशलक्षणलक्षित अश्व , पुरस्सर अग्रसर', यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा। पशुभि कल्पोक्तै अनेकै परिष्कृताया विशिष्टायाम् । यज्ञभूमौ अध्वरभुवि । भगवतो वसिष्ठऋष्यशृङ्गयो , आदेशम् आज्ञाम्, अनुवर्तमान अनुरुन्धान । गृहीता स्वीकृता, दीक्षा सयमविशेष , येन तथाभूत । सपत्नीक सपाणिगृहीतीक । महाराज दशरथ । विरराज विरेंजे ।।४८11 ततश्च क्रमतः "कौशल्या त हय तत्र परिचर्य समन्ततः । कृपाणैर्निशशासैन त्रिभिः परमया मुदा ।। पतत्त्रिणा तदा सार्ध सुस्थितेन च चेतसा । अप्रसद्रजनीमेकामव्यग्रा धर्मकाम्यया ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् होताध्वयुस्तथोद्गाता हयेन समयोजयन् । महिष्या परिवृत्त्याथ वापातामपरा तथा ॥ पतत्त्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः । ऋत्विक्परमसपन्नः श्रपयामास शास्त्रतः ॥ धूमगन्ध वपायास्तु जिघ्रतिस्म नराधिपः । यथाकाल यथान्याय निणु दन् पापमात्मन || हयस्य यानि चाङ्गानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः । अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ता. षोडशतिज ॥" __(इत्याषषट्कम् ) ॥४६॥ ततश्चेति । ततश्च क्रमत वैवक्रमेणेत्यर्थ । इदानी जैनबौद्धकल्पाना पिष्टपशुकल्पकाना ज्ञानाञ्जनशलाकायमान वाल्मीकीयमाषषट्कमवतारयति'कौशल्येत्यादिना षोडशर्विजः ॥' इत्यन्तेन । 'पर्यग्निकृतानारण्यान् उत्सजत्यहिंसाया' इति श्रौतसमयाचारात् आरण्यान् पशून पर्यग्निकृतानुत्सृज्य शामित्रे निशसनकर्मणि ग्राम्याणा पशूना यथाशास्त्र नियोजनान तरमिति पूर्वेण सबन्ध । कौसल्या महिषी शामित्रप्रदेशे त मृताश्व समतत परित , परिचर्य समन्त्रक प्रदक्षिणाप्रदक्षिण सचार्य, कृपाणे तिसृभि सौवर्णीभि' सूचिभि , एन अश्व परमया मुदा निरवधिकश्रद्धया विशशास सज्ञपयामास । तदा विशसनोत्तरकाले, कौसल्या धर्मकाम्यया धर्मसिद्धिसपादनेच्छया। काम्यजतादकारप्रत्यये टाप् । अव्यग्रा शवस्पर्शजनितमनोविकारशून्या पतत्त्रिणा अश्वेन साधं साक एका रजनी रात्रिम् अवसत् अवात्सीत् । अय भाव - तत्तन्मन्त्रोच्चारपूर्वक महिषी यथाविवि अश्वमुपसगम्य प्रजनने प्रजनन सनिवायोपविष्टा । ततोऽध्वर्युक्षौमेन वाससा महिषीमश्व च प्रच्छादितवान् । सा च रेतोधानमन्त्रमामृशन्ती आनीघ्र जागरण कुर्वती निशा निनाय । होता, अध्वर्यु , उद्गाता, तथेतिपदेन ब्रह्मणोऽप्युपसग्रह । महिष्या कौसल्यया परिवृत्त्या एतत्पदपरिभाषितया उपेक्षितया च साक वावाता भोगिनी अपरा पात्रप्रदा पालाकली च राज्ञो दक्षिणार्थ परिगृह्य हस्तेन समयोजयन् रमणवत् पाणिग्राहमगृह्णन् । तथा च सूत्रम् Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक ४३ 'महिषी ब्रह्मणे ददाति, वावाता होत्रे, परिवृत्तिमुद्गात्रे, पालाकलीमध्वर्यवे ।' इति । एतदुत्तर आसा निष्क्रयद्रव्यदानेन पुनरादान विधीयत इति सक्षेप । आसा निरुक्तिस्त्वेवम् 'कृताभिषेका महिषी परिवृत्तिरुपेक्षिता । वावाता भोगिनी पात्रप्रदा पालाकली मता ।।' तस्य पतत्त्रिणो अश्वस्य । 'पतत्रिपक्षितुरगावित्यमर' । वपा वपास्थानीया तेजनी 'नाश्वस्य वपा विद्यते' इति सूत्रात् । उद्धृत्य आदाय, नियतेन्द्रिय नियत अव्यग्र आन्तर बाह्य च इन्द्रिय यस्य तथाभूत , परमसपन्न परमेण प्रयोगादिसहकृतेन चातुर्येण सपन्न वित्त , ऋत्विक् याजक , शास्त्रत शास्त्र विहितेन विधिना, श्रपयामास पपाच । 'श्रा पाके' इत्यत कर्तरि लिट् । ततो वपाहोमकाले नराधिप मण्डलेश्वरो दशरथ', यथाकाल होमकालमनतिक्रम्य, यथान्याय यथाशास्त्र, आत्मन पाप ज्ञाताज्ञातोभयरूप सततिप्रतिबन्धकर निर्गुदन निवर्तयन् , हुताया वपाया धूमगन्ध गन्धोद्गारिधूमसतान, जिघ्रतिस्म अजिघ्रत् । वपाहोमानन्तर अगहोमे चिकीर्षिते षोडशत्विज षोडशसख्याका ब्राह्मणयाजका , विधिवत् यथाविधान हयस्य सर्वाण्यङ्गानि मन्त्रोच्चारपूर्वक अग्नौ यज्ञीयाग्नौ प्रास्यन्ति होस्यन्ति । 'वर्तमानसामी'ये वर्तमानवद्वति' लट प्रयोग । सर्वाणीत्यनेन सर्वस्य हुतत्वेन शेषभक्षण नास्तीति सूचितम् । अङ्गहोम फल त्वेव श्रूयते 'अगे अगे वै पुरुषस्य पापमपोपश्लिष्ट , अगादगादेवैन पाप्मनस्तेन मु चतीति ।' यजमानस्य सर्वमपि पाप निवर्तत इत्याशय । ___ यत्त साप्रत कतिपये महेन्छा हिसाशब्दश्रवणमात्रादेवोद्विग्ना श्रुति-स्मृति समयाचारसिद्धामपि याज्ञिकी पशुहिंसा प्रतिक्षिपन्त पिष्टपशुवर्त्मना व्यवहतुमीहन्ते, युक्तितदाभासविजृम्भितैश्च प्राक्तनी मर्यादा विपरिवर्तयितुमुत्सहन्ते त इह मन्त्र ब्राह्मण-सूत्र मीमासादिरहस्यमुग्धतया कथमिव नोपालभ्या । नहि प्राणि हिंसाहेतुकत्वादेव किमपि परिपर्जनीयतया प्रामाण्यकक्षामधिरोहति । एव 'अग्नीषोमीय पशुमालभते ।' (तै० स० ६ का० १ प्रपा०, ११ अनु०) तथैतत्सहधर्मिण्य 'सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभेत ।' 'कपिञ्जलानालभेत ।' इत्येवजातीयका श्रुतयोऽन्यथा योजयितु शक्यन्ते । शास्त्रविरोधात् यथारुचिनियमासभवात्, अनाश्वासप्रसङ्गाच्चेति सर्व यथायथ परीक्षणीयम् । न च Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् 1 'माणवकस्य हृदयमालभते' इत्यादि दर्शनेन तथा श्रुत्यभिप्राय पिष्टपशुर्वेति वक्तु पार्यते । 'अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदस प्रेष्य अनुन हि वा' इत्यत्र 'प्रेष्यत्र वोह विषो देवतासप्रदाने ( पा० सू० २।३।६१ ) इति सूत्रभाष्यादिनापि छागरूपस्य पशोरेव सज्ञपनस्य सिद्धत्वात् । किच, 'अशुद्धमिति चेन्न शब्दात् ।' (ब्रह्मसू० अ० ३।२५) इति वेदान्तसूत्रमप्यत्रार्थे सवादमादवन् विभावनीयमिति दिक् । ४४ स समापितमहामसः प्राची होत्रे, प्रतीचीमध्पर्यके, उदीचीमुद्गात्रे, पाची ब्रह्मणे च प्रादात् । ते तु न वय स्वाध्यायाचरणप्रवणा अरण्यशरणा धरणी शासितुमीश्महे । तदेषा भवतैव शिष्यताम् । अस्मभ्यमदसीयनिष्क्रयभूत यत्किचित्कल्प्यताम् इति सानुरोधमवादिषुः । तथोदितश्च साक्षात्कृतमन्नभ्यस्तेभ्यो गवा जातरूपाणा रूपाणा च कोटीरितरेभ्योऽपि यथाकाम प्रकाम वसु प्रदायाप्रीयत || ५० ॥ सइति । स दशरथ । समापित पारनीत, अश्वमेधरयो महामखो महाध्वरो येन तादृक् । प्राचीम् अयोध्या केन्द्रीकृत्य प्राग्भूभागम् । होत्रे हौत्रकर्मानुष्ठात्रे ऋग्वेदविदे । प्रतीची प्रत्यग्भूभागम् | अध्वर्यवे श्रध्वर्यवकर्मानुष्ठात्रे यजुर्वेदविदे । उदीचीम् उत्तरभूभागम् । उद्गात्रे गात्रकर्मानुष्ठात्रे सामवेदविदे | अवाचीं दक्षिणभूभाग च । ब्रह्मणे ब्रह्मकर्मानुष्ठात्रे सर्ववेदविदे अथर्वरिकाय । प्रादात् स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वक प्रायच्छत । ते प्रधानभूता होत्रादय चत्वार ऋत्विजस्तु । वयमेते स्वाध्यायाचरणेषु स्वस्वशाखाकलनेषु प्रवणा परायणा, अरण्यशरणा वनवासिन | स्वाध्यायसरक्षणार्थमेव विविक्तवसतय इत्यर्थ । धरणीम् अवनीं शासितु पालयितु न नो ईश्म प्रभवाम । तत् तस्माद् एषा धरणी, चिराय परिचितेन भवता त्वयैव शिष्यताम् पाल्यताम् । अस्मभ्यम् ऋत्विग्भ्य । अमुष्या इदम् अदसीय निष्क्रयभूत मूल्यत्वेन परिकल्पितम् । यत्किंचिद् वस्तु कल्प्यताम् निरूप्यताम् । इति इत्थ सानुरोध सप्रति - बन्धम् । वादिषु कथिषु । तथोदित उक्तञ्च । साक्षात्कृतमन्त्रेभ्य स्वायत्ती कृतमन्त्रप्रतिपाद्यभ्य । तेभ्य ऋत्विग्भ्य । गवा गोतल्लजाना, जातरूपाणा स्वर्णाना, रूपाणा रूप्यारणा च कोटी संख्याविशेषान् । इतरेभ्य होत्रादिसहायभूतेभ्य अन्येभ्योऽपि यथाकाम यथेष्ट, प्रकाम भूरि, वसु द्रव्य, प्रदाय वितीर्य, प्रीयत तुष्यत् ॥५०॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक पुनश्च पिनयशालीनेन तेन पुत्रकाम्यया प्रार्थितः स भगवानृष्यशृङ्गोऽथर्वशिरोमन्त्रैः पुत्रीयामिष्टिमकापीत् । अहो । महर्षेः प्रभावः कियत् श्लाध्यताम् । यत्र मन्त्रव्याहारप्रादुर्भवद्द वताप्रसाददर्शनेन शब्दपूपिका सृष्टिरिति वेदवादः पप्रथे । हहो इयतापि तावत्कथमिव न चित्रीयामहे, यदेतस्या इष्टः पर्यवसानेन अपरिच्छिन्नोऽपि परिच्छिन्न इव कश्चिदिन्दीपरदाममञ्जिमा महिमाऽजनिष्ट ॥५१॥ पुनश्चेति । पुनश्च अपिच विनयशालीनेन नम्रण तेन राज्ञा पुत्रकाम्यया सतानेच्छया प्रार्थित निवेदित स दृष्टमहिमा भगवान् षडैश्वर्यसपन्न ऋष्यशृङ्ग । अथर्वशिरोमन्त्रै सद्य फलप्रदै अथर्ववेदोक्तै सतानप्रवर्तकैर्मन्त्रै पुत्रीया पुत्रफलिकाम्, इष्टिं यागविशेषम् । अकार्षीत् अकृत । अहो | इत्याश्चर्ये । महर्षे ऋष्यशृङ्गस्य । प्रभाव तपोबलम् । कियत् इयत्तया कथमिव श्लाध्यताम् प्रशस्य ताम् । यत्र इष्टौ, मन्त्रव्याहारेण मन्त्रपाठेन, प्रादुर्भवन्त्य प्रकटीभवन्त्य , या देवता मन्त्रप्रतिपाद्या , तासा प्रसाददर्शनेन प्रसन्नतावलोकनेन । शब्दपूर्विका सृष्टि -'भूरिति व्याहरन् भुव ससर्ज' इत्यादिलक्षणा । इति वेदवाद वैदिक सिद्धान्त , स्फुट व्यक्तम्, प्रपथे प्रथितो बभूव । हहो इत्याश्चर्ये । इयता एतावतापि । तावद् वाक्यालकारे । कथमिव किमिव, न नो चित्रीयामहे विस्मयामहे । यदेतस्या इष्टे , पर्यवसानेन परिणामेन, अपरिच्छिन्नोऽपि अमेयोपि, परिच्छिन्नो मेय इव, कश्चिद् अनिर्वचनीय । इन्दीवराणा नीलाम्बुरुहा, दाम्न स्रज इव, मञ्जिमा सौन्दर्य, यस्य तादृक् । महिमा प्रभाव । अजनिष्ट अजनि ॥५१।। अत्रान्तरे दशमुखेन निपीड्यमाना दावानलेन विकला इव जीवसघाः । देनाः सरोरुहभुव पुरतो विधाय नारायण नलिनलोचनमेतदूचुः ॥५२॥ अत्रान्तर इति । अत्रान्तरे अस्मिन्नेव यज्ञसमये । दश मुखानि आननानि, अङ्गविकारत्वात् यस्य स तेन | निपीड्यमाना बाध्यमाना । देवा इन्द्रादय । दावानलेन दवाग्निना। दवदावौ तु वनवह्नौ वनेऽप्युभौ इति मेदिनी । विकला व्याकुला जीवसङ्घा इव । पशुप्राया इत्यर्थ । सरोरुहाद् भवतीति सरोरुहभू Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठववम् पद्मयोनि । 'भुव सज्ञान्तरयो' (पा० सू० ३।२।१७६ ) इति कर्तरि विप् । तम् । पुरत अग्रे। विधाय कृत्वा । नलिनलोचन पुण्डरीकाक्षम् । नारायण विष्णुम् । एतद् वक्ष्यमाणम् । प्रधानकर्म । ऊचु कथयामासु ॥५२॥ त्रैलोक्यनायक । विरञ्चिपरप्रभागाद् दुःखाकरोति बहुधाद्य स रावणोऽस्मान् । तेनात्मसत्त्वमपहाय विहायस च वर्तामहे वयमितस्तत आधिमन्तः ॥५३॥ त्रैलोक्येति । हे त्रैलोक्यनायक । हे विश्वभर । अद्य इदानीम् । विरञ्चि ब्रह्मा । ब्रह्मत्युपलक्षणम् । शिवोऽपि । तस्य वरप्रभावात् प्रसादमहिम्न । स पौलस्त्य वैश्रवण रावण | लोकान् रावयति इति क्रियया विश्वध्रु क् । अस्मान् बहुवा सहस्रधा । दुखाकरोति पीडयति । 'दु खात्प्रातिलोम्ये' (पा० सू०५।४।६४) इति डाच् । तेन हेतुना वयम्, आवि मानसपीडा, तद्वन्त । आत्मन सत्त्व वीर्यम् । अपहाय त्यक्त्वा । विहाया स्वर्ग त च अपहाय । आत्मसत्त्वमिहापि अन्वयनीयम् । इतस्तत यत्र तत्र । वर्तामहे जीवाम ॥५३।। त्ल शासकः सकलशासनकारकाणा स पालकः खलनिपीडनकातराणाम् । व स्थापकः श्रुतिनिरूपितपद्धतीना यत्र प्रयाणनिरता न खलु स्खलन्ति ॥५४॥ समिति । हे भगवन् । त्व भवान् । सकलानि समग्राणि यानि शासनानि, निग्रहानुग्रहरूपाणि, तेषा कारकाणा कतणाम, अपि शासक नियन्ता । असि । एव च निमित्तमात्रेण उपेन्द्रसज्ञा श्रयन् इन्द्रादिबाधकस्य त्वमेवानन्यशरण इति लभ्यते। त्व भवान् । खला दुरात्मान, तेषा निपीडनेन बाधनेन, कातराणाम् अधीराणाम्, पालक रक्षक । असि । एतत्तु गुणप्राधान्येन तवैव कर्मेति । त्व भवान् । श्रुत्या वेदेन, निरूपिता व्यवस्थापिता , या पद्धतय मार्गा, तासा स्थापक व्यवस्थापक । असि । एतदपि पूर्वोक्ताम्र डन, तत् स्तुतौ शोभनम् । यत्र वेदागमपद्धतिषु, प्रयाणनिरता गमनपरायणा , न खलु नैव, स्खलन्ति पतन्ति ॥५४॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक एकोऽपि तात्त्विकदृशा भुवनेश ! भूयो भूयोभिरागमवचोभिरनेककोटिम् । प्रासादयन् नवनवाङ्क रमेयभड्ग्या ____ वाग्विभ्रमे भ्रमयसे प्रतिभाधिरूढान् ॥५५॥ एक इति । हे भुवनेश । हे जगन्नाथ | । त्व तात्त्विकदृशा परमार्थदृष्टया । एक केवलोऽपि । भूय पुन । भूयोभि बहुविधै । आगमवचोभि शास्त्रवाक्यै । अनेककोटिम् नानाप्रथाम् । आसादयन् प्राप्नु वन् । प्रतिभाम् अधिरूढान् वैतण्डिकान् । वाचा वाणीना, विभ्रम विकल्पे । नवनवा नवप्रकारा , अङ्क रा उन्मेषा येषु, तथाभूता ये मेया प्रमेया , तेषा भगया कोटिपरिष्कृत्या । भ्रमयसे मोहयसे ॥५॥ पु जातधर्मनिधुरोऽपि विशिष्य ताप न्माया वशामतिरसादिन गूहमानः । ब्रह्माण्डसततिममूमसृजस्तदेत को वेद कोशपिहित तव नाथ ! तत्त्वम् ॥५६॥ पु जातेति । हे नाथ । हे स्वामिन् । । त्वम् । पु सि जाता ये वर्मा कर्तृ त्वभोक्तृत्वादय , तै विधुरो हीनोऽपि । निर्गुणत्वादिति भाव । तावद् वाक्यालकारे। अतिरसादिव बलवद्भोगगाादिव । वशा स्वाधीनाम् । माया प्रकृतिम् । विशिष्य गृहमान आश्लिष्यन् । अमूम् एताम् । ब्रह्माण्डम् एव सतति , ताम् । असृज उत्पादितवानसि । पु धर्मेण विकल अर्थात् षण्ढोऽपि वशा वन्ध्या मायाम् आश्लिष्य यद् ब्रह्माण्डमकार्षी इति तात्पर्यम् । तदेतत् कोशपिहित कोशाच्छादितम् । तैत्तिरीयप्रतिपादिता अन्नमयादि पञ्च कोशा वेदान्तप्रसिद्धा एव । तव भवत । तत्त्वम् रहस्यम् । को वेद वेत्ति । न कोऽपीत्यर्थ ॥५६।। हृत्कन्दराश्रयिणि विभ्रति धर्ममेघ भाव भवत्यमृतार्षिणि विश्वशिल्पिन् ! । व्याजृम्भमाणचितिशुक्तिनिरर्गलश्री रभ्येति मौक्तिककलामणुबिन्दुरेषः ॥७॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् हदिति । हे विश्वशिल्पिन् विश्वस्थपते । हृदेव कन्दरा गुहा, तदाश्रयिणि । मानसगुहाधिष्ठातरीत्यर्थ । धर्ममेघभाव पातञ्जलप्रतिपादित धर्ममेघत्वम् । बिभ्रति बिभ्राणे । अमृतवर्षिणि अमृतमुचि । भवति त्वयि जागरूके । एष अयम् । अणुबिन्दु आणवादिमलेन सकुचत्प्रसर । व्याजृम्भमाणा विकस्वरा, या चिति चिदेव शुक्ति मुक्तास्फोट , तत्र निरर्गला सकोचविगलनेन स्वच्छन्दा श्री सुषमा यस्य तादृश सन् । मौक्तिकक्ला जीवन्मुक्तिदशाम् । अभ्येति प्राप्नोति । आणवादिमलत्रय तु 'गोपितस्वमहिम्नोऽस्य समोहाद्विस्मृतात्मन । य सकोच स एवास्मिन्नाणवो मल उच्यते ॥१॥ षट्कञ्चुकव्याप्तिवशाद्विलोपितनिजस्थिते । भूतदेहस्थितिर्यासौ मायीयो मल उच्यते ॥२॥ यदन्त करणाधीनबुद्धिकर्मेन्द्रियादिभि । बहिव्याप्रियते काम मलमेतस्य तन्मतम् ॥३॥' इत्युक्तमाचार्यश्रीवामदेवपादै ॥७॥ क्रोधानलक्कथितदैवतसिद्धसाध्यः सोऽबाध्य एव सकलस्य मनुष्यवर्जम् । तस्मात् प्रभो ! दशरथात्मजतामुपेत्य सदयो विधेहि दशकण्ठवधेजधानम् ॥५८॥ क्रोधेति । क्रोध एव दाहकत्वात् अनल ज्वलन , तेन कथिता विशीर्णा । कथे निष्पाके क्त । दैवतानि सिद्धा साध्याश्च येन तथोक्त । स रावण । अन्वर्थनामा। मनुष्यवर्ज मनुष्य वर्जयित्वा । सकलस्य समस्तस्य । अबाध्य बाधनानह एव । हे प्रभो । स्वैरिन् । । तस्माद् हेतो दशरथस्य राज्ञ , आत्मजता पुत्रभावम् । उपेत्य प्राप्य । सद्य शीघ्रम् । दशकण्ठस्य दशग्रीवस्य, वधे हनने अवधान प्रणिधान विधेहि कुरुष्व । 'दशकण्ठरधे काव्ये अवधान विधेहि' इति ध्वन्यते ॥५॥ भूमण्डले वयमपि द्रुतमेव युष्म सेवाकृते विविधयोनिषु सभवामः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रथमो गुच्छक यत्र प्रकाशमधिगच्छति कल्पवृक्ष स्तत्रैव सर्वविभमा हि परिस्फुरन्ति ॥५६॥ भूमण्डल इति । हे प्रभो । वयमपि, युष्मत्सेवाकृते युष्माकमाराधनाय । भूमण्डले भूतले । द्रुतमेव झटित्येव । विविवयोनिषु नानायोनिषु । यथोपयोग सभवाम उत्पत्स्यामहे । हि यस्मात्, यत्र कल्पवृक्ष प्रकाशमविगच्छति उदेति । तत्रैव सर्वविभवा सर्वे उपयुक्ता भावा । परिस्फुरन्ति उद्यन्ति ।।५।। इत्युक्तमत्सु दिविषत्सु स दीनबन्धु नीलाचलोद्गतहिमाशुरुचिस्मिताभिः । पीयूषवर्षमधुराभिरुदारगीर्भि राश्वास्य तान्चिधुरितान्नयनातिगोऽभूत् ॥६०॥ इतीति । इति इत्थम् । उक्तवत्सु कथितवत्सु । दिविषत्सु द्यु सत्सु । स. दीनाना दुर्विधानाम् । बन्धु बान्धव । तान् दिविषद । विधुरितान् विह्वलान् । नीलाचलात् मरकताद्र, उद्गत उदित , य हिमाशु हिमकर , तस्य रुचिवत् कान्तिवत, स्मित यासु तादृशीभि । पीयूषवर्षवत् सुधावृष्टिवत् मधुराभि श्रवणपेयाभि । उदारगीनि प्रशस्तवाग्भि | आश्वास्य सतोष्य । नयनातिग अन्तर्हित । अभूत अजनिष्ट । एतानि नव वसन्ततिलकावृत्तानि ॥६॥ ततो वैतानाद् वैश्वानरादुद्भ तो विष्वग्निसारिदीप्तिदीप्तः विग्रहवान् विभावसुरिव, नूतनस्तनयित्नुसच्छायकायो नवजवाकुसुमकान्तिवसनः शिशिरारुणरागरञ्जितमरकतशिखरीव लोहितोष्ठपल्लवः, प्रभाकरबिम्बफिसलयितरोदसीशकलसधिरिव स्निग्धहर्यक्षरोमसोदरश्मश्रु मूर्धजः, सौदामनीदामदन्तुरितधनाधनाभोग इव दिव्याभरणसवीतः, सुरासुरसघर्ष इस सुलक्षणोऽपि पिलक्षणः, दुन्दुभिस्सानगभीरया गिरात्मान प्राजापत्य पुरुष शसन्, पराभयस्तम्भाभ्यामिर दोर्ध्या योगाहितसकोचा, भुवनाण्डप्रतिकृतिमिव दिव्यपायसपरिपूर्णा स्वर्णपात्रीम्, पुत्रीयते पिनीताय दशरथाय वितीर्य तिरोधात् ॥६१।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दशकण्ठववम् तत इति । तत अनन्तरम् । वैतानाद् वैश्वानराद् यज्ञाग्ने । उद्भत सजात । विष्वग्विसारिणीभि सर्वतो विसृत्वराभि , दाप्तिभि प्रभाभि दीप्त । विग्रहवान् मूर्त । विभावसुर्वह्निरिव । नूतन नव , य स्तनयित्नु बलाहक , तेन सच्छाय समानकान्ति काय मूर्ति यस्य तादृक् । नवजवाकुसुमवद् वसन वास यस्य स । अरुणवासा इत्यर्थ । अतएव शिशिरारुण शिशिरकालिको य उषाद्योत, तस्य रागेण रञ्जितो विच्छुरित मरकतशिखरी नीलाद्रिरिव । स्थित इत्यर्थ । लोहितौ रक्तवर्णे ओष्ठपल्लवौ यस्य स । अतएव प्रभाकरबिम्बेन सूर्यमण्डलेन किसलयिता पल्लविता या रोदसी, तस्या शकलसधि खण्डसवान मिव । स्थित इत्यर्थ । स्निग्ध मसृण यद् हर्यक्षस्य केसरिण रोम तत्सोदरा श्म श्रुमूर्वजा यस्य तादृक् । अतएव सौदामनीदाम्ना विद्युल्लेखया दन्तुरित सजातदन्तो घनाघनाभोगो मेघाडम्बर इव । स्थित इत्यर्थ । दिव्यै आभरणै अलकारै सवीत भूषित । पक्षे दिव्याभ रणो यस्मिन् इति । सुरासुराणा सघर्ष समर्द । शोभनानि लक्षणानि यस्य ताक् विलक्षण लक्षणहीन न भवतीति विरोध । अपूर्व इति तत्परिहार । दुन्दुभिस्वानगभीरया दुन्दुभिराधीरया इत्यर्थ । गिरा वाचा । आत्मान सम् । प्राजापत्य पुरुष पुमास शसन् सूचयन् । वराभययो स्तम्भाभ्याम् इव । दोभ्या वाहुभ्याम् । योगेन योगविभूत्या, आहित निहित सकोचो यस्यां तादृशीम् । भुवनाण्डस्य प्रतिकृति प्रतिमानमिव । दिव्येन अलौकिकेन पायसेन चरुणा परिपूर्णा सभृताम् । स्वर्णपात्री सुवर्णभाण्डम् । पुत्रीयते पुत्रमिच्छते । विनीताय नम्राय । दशरथाय राज्ञे । वितीर्य दत्त्वा । तिरोधात् अन्तरधात् ॥६॥ सोऽपि दरिद्रो रत्नखनिमिर तामवाप्यानन्दसदोहतरङ्गितो वीतसतापशल्यायै कौशल्यायै ततः पायसार्धम्, उदश्चन्मोदमात्रायै सुमित्रायै तदर्धादर्धम्, प्रमदमय्यै कैकेन्यै तदवशिष्टादम्, पुनरनय॑चरित्रायै सुमित्राय तदपशिष्टार्थमपि प्रायच्छत् ॥६२॥ सोऽपीति । सोऽपि राजा। दरिद्र निस्व । रत्नखनिमिव मणिरोहणस्थलीमिव । ता पायसस्वर्णपात्रीम् । अवाग्य । आनन्दसदोहतरङ्गित आह्लादमग्न इत्यर्थ । वीतो निर्मूल , सताप अनपत्यतालक्षण एव शल्यो यस्या सा तस्यै कौशल्यायै । तत स्वर्णपाच्या पायसार्वम् । उदञ्चन्ती उच्छलन्ती, मोदमात्रा आनन्दातिशय , यस्या तस्यै । सुमित्रायै तदधादर्धम् । प्रमद हर्ष प्रस्तुत Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक ५१ अस्या सा प्रमदमयी । तत्प्रकृतवचने मयटू, डीप् । तस्यै कैकेय्यै तदवशिष्टादर्धम् | पुन भूय । अनर्घ्यं अमूल्य चरित्र पातिव्रत्य यस्या तस्यै, सुमित्रायै तदवशिष्टार्धमपि प्रायच्छत् प्रादात् ॥६२॥ ता नरेन्द्रदयिता निराधयो भाविभावुक निषण्णमानसाः । पुत्रहेतुरिति बृहितादर प्राश्य पायसमतीव रेजिरे ||६३ || ता इति । ता कौशल्याप्रभृतय । भाविनि भविष्यति, भावुके मङ्गले, निषण्णम् आरूढम् मानस मन, यासा ता । नरेन्द्रस्य राज्ञो दशरथस्य दयिता प्रिया । पुत्रहेतु पुत्रकारणमिति । बृहित उपोद्बलित, आदर यस्मिस्तादृशम् । पायस पूर्वलक्षण पयोविकारविशेषम् । प्राश्य भुक्त्वा । निर्गता निर्मूलिता आधय मानसव्यथा यासा तथाभूता सत्य । अतीव अत्यर्थम् । रेजिरे शुशुभिरे ॥ ६३॥ " 1 भेजिरेऽथ तनुतः प्रभावतो गौरव किमपि ताः समन्ततः । प्रेयसा त्रिदशराजबन्धुना यत्र दोहदविधाः सुपूरिताः ||६४ || भेजिर इति । अथ ता समन्तत समन्तात् । तनुत शरीरेभ्य । प्रभावत प्रभावेभ्य । किमपि अनिर्वचनीयम् । गौरव गुरुभावम् । भेजिरे आसेदु । यत्र यस्मिन् काले । त्रिदशाना राजा महेन्द्र, बन्धु सखा यस्य तथोक्तेन । प्रेयसा तासा प्रियतमेन । दोहदाना विधा प्रकारा । सुपूरिता प्रवाहिता । न हीन्द्रसरये त्रिलोक्या किमपि दुर्लभमिति भाव । इमे रथोद्धतावृत्ते ॥ ६४ ॥ चैत्रशुक्ले नवम्या तिथावादितेयके कर्क लग्ने तुषाराशुनागीश्वराधिष्ठिते, तुङ्गयातेषु खेटेषु पञ्चस्वपास्ताखिलो त्पातस तान सबन्धगन्धा रेऽनेहसि || Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ दशकण्ठवधम् रामभद्रेति रम्येण पुण्येन नाम्ना मुहुः मल्कवीना वचोवल्लरीः स्फारमुद्वेल्लयन्, समानन्दयन् शर्म संचारयन् साध्यस भञ्जयन् मड्नु सोऽसावि कौशल्यया श्रीहरिः ॥६५॥ चैत्रेति । स श्रीहरि । चैत्रशुक्ले नवम्या तिथौ | आदितेयर्क्ष के पुनर्वसुनक्षत्रे | तुषाराशुवागीश्वराभ्या चन्द्रगुरुभ्याम् अविष्ठिते कर्क लग्ने । पञ्चसु खेटेषु ग्रहेषु । तुङ्गयातेषु उच्चस्थितेषु । अपास्ता निरस्ता, अखिला समग्रा, ये उत्पातसताना भौमदिव्यान्तरिक्षरूपा, तेषा सबन्धगन्धाक ुरा, सपर्कलेशोद्गमा, यस्मिंस्तथाभूते । अनेहसि काले । रम्येण शब्दतोऽर्थतश्च मनोहरेण । पुण्येन पवित्रेण पावित्र्यजनकेन च । रामभद्र ेति श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धेन । नाम्ना अभिधानेन | मुहु वारवारम् । सत्कवीना वाल्मीकिव्यासादीनाम् । वचोवल्लरी वाग्व्रतती । स्फारम् अत्यर्थम् । उद्वेल्लयन् वृहयन् । सर्वं स्थावरजङ्गमात्मकम् । विश्वम् आनन्दयन् आह्लादयन् । शर्म सुखम् । सचारयन् प्रवर्तयन् । साध्वस भयम् । भञ्जयन् मर्दयन् सन् | कौशल्यया भगवत्या महाराज्ञ्या । मडनु सपदि । अनायासमित्यर्थ । सावि उपादि ||६५|| स्फुरन्मरन्दसौरभ प्रवाहवासनोत्सुकभ्रमन्मिलिन्द काहलीविजृम्भणावभासिता, दिवो निपेतुरुबरुदारपारिजातक प्रसून पृष्टस्तदा निलिम्पलोककल्पिताः ॥ दिशः प्रशस्तदर्शनाः समीरणाः सुखावहा भुनः प्रकर्षसगता जनाः प्रसन्नतामिताः, निचित्रकर्मभोगतः क्वचिच्चराचरान्तरे निविष्टजीवचेष्टिता वय प्रसादमागताः || ६६ || 6 1 स्फुरदिति । तदा तदानीम् । दिव आकाशाद् उच्चकै । निलिम्पलोक देवकुलै, कल्पिता सृष्टा । स्फुरन्त उन्निद्रा, ये मरन्दाना मकरन्दानाम्, सौरभ प्रवाहा सौगन्ध्यतरङ्गा, तेषा वासनया लिप्सया, उत्सुका उत्कण्ठिता, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुन्छक ५३ अतएव भ्रमन्त , ये मिलिन्दा भ्रमरा , तेषा काहलीविजृम्भणया ध्वनिविशेषा विष्कारेण अवभासिता नीरन्त्रिता । उदारा पारिजातकप्रसूनाना वृष्टय वर्षणानि । निपेतु पतिता । दिश आशा । प्रशस्तदर्शना सुखालोका । समीरणा वायव । सुखावहा स्पृहणीयस्पर्शा । भुव कृत्रिमाकृत्रिमस्थलप्रदेशा । प्रकर्षसगता स्वस्वगुणोत्कर्षे हृदयगमा । जना लोका । प्रसन्नता प्रसादम् । इता प्राप्ता । विचित्र भाविकवादेन विलक्षण, यत् कर्म शरीरवाड्मनोभिरारब्वम्, तद्भोगत तद्भोगाय । क्वचित् कस्मिंश्चित् । चराचरान्तरे स्थावरजङ्गमलक्षणे सर्गे। निविष्ट लीन, जीवस्य बलप्राणधान, चेष्टित विलसित, येषा तादृश | वय सप्रति वर्तमाना अपि । शाब्देन आर्थेन च व्यापारेण प्रसादम् आगता प्रतिपन्ना इति पुनरुक्तप्रायम् ॥६६॥ पुष्य क्षितिजमुपागते झषे विलग्ने सलग्नप्रमदनिशामनाञ्चिते जनौघे । सौभ्रात्रप्रकरणतात्त्विकप्रमेयकल्य कैकयी भरतमस्त भूरिभाग्यभव्या ॥६७॥ पुष्य इति । भूरि भूयिष्ठ, यद् भाग्य भागधेय, तेन भव्या शोभना । कैकेयी राज्ञी। पुष्यर्ते पुष्यनक्षत्रे। झषे विलग्ने मीनाङ्ग । क्षितिज क्षितिजरेखाम् । उपागते प्राप्ते । मीने उदिते सतीत्यर्थे । सलग्न सश्लिष्ट , य प्रमद आनन्द , तस्य निशामनेन आकर्णनेन, अञ्चिते । जनौघे अन्त पुरवर्गे । सौभ्रात्रप्रकरणस्य भ्रातृस्नेहपूर्ते , यत् तात्त्विकप्रमेय मार्मिकरहस्य, तत्र कल्य निष्णातम् । भरत तन्नामानम् । असूत अजीजनत् ॥६७॥ साईं कर्कटलग्नेऽभ्युदिते मार्तण्डके महाभागौ । तौ लक्ष्मण-शत्रुघ्नौ प्रासोष्टार्या सुमित्रापि ॥६८॥ सार्प इति । आर्या महनीया । सुमित्नापि राज्ञी । सार्पे आश्लेषानक्षत्रे । कर्कटलग्ने कर्कोदये । मार्तण्डके सूर्ये । अम्युदिते सति । तौ महाभागौ महा शयौ । लक्ष्मण शत्रुघ्नौ तन्नामानौ । यमलावित्यर्थ । प्रासोष्ट प्रासूत ॥६६॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दशकण्ठवधम् यथाकल्प भगवता वसिष्ठेन कल्पिते सस्कारजाते ते गमभद्रादयश्चत्वारो भ्रातरो विद्याना विनयाना च सक्रान्तिमणिदर्पणा नवनरिन्दुकिरणैरिव स्वभावमधुरैरात्मगुणैः सह लोकाना हृदयान्यध्यवात्सुः । परस्परप्रेमबन्धेष्वपि तेषु प्रकृत्या चन्द्रः सूर्यमित्र लक्ष्मणो राम शत्रुन्नो भरतमन्वसाषीत् ॥६६॥ यथेति । यथाकल्प यथागृह्यसूत्रशासनम् । भगवता वसिष्ठेन कुल गुरुणा । कल्पिते अनुष्ठिते । सस्कारजाते सस्कारकलापे सति । ते रामभद्रा दयश्चत्वारो भ्रातर । विद्याना चतसृणा त्रयीप्रभृतीना, विनयाना च शीलाना च । सक्रान्तये सक्रमणाय, मणिदर्पणा रत्नमुकुरबिम्बा । नवनवैरिन्दुकिरणे वर्विष्णुसुवाशुकरैरिव । स्वभावमधुरै प्रकृतिपेशलै । आत्मगुणै स्वचरित्र । सह समम् । लोकाना जनानाम् । हृदयानि मानसानि । अध्यवात्सु अधिवस न्तिस्म । परस्परेषाम् अन्योन्येषा, प्रेमबन्वा स्नेहग्रन्थय , येषा तेषु अपि । तेषु रामभद्रादिषु । प्रकृत्या स्वभावेन । चन्द्र चन्द्रमा । सूर्य सवितारमिव । लक्ष्मणो राम, शत्रुघ्नो भरतम् । अन्वसार्षीत् अन्वयासीत् ॥६६॥ दन्तैरिगाभ्रमातङ्गो भुजैरिव जनार्दनः । आश्रमैरिव सद्वर्णः सुतैर्दशरथोऽरुचत् ॥७॥ दन्तैरिति । अभ्रमातड्न ऐरावत । दन्तै चतुभिर्दशनैरिव । जनार्दन विष्णु । भुजै चतुर्भि बाहुभि इव । सद्वर्ण ब्राह्मणादि । आश्रमै ब्रह्मचर्या दिभिश्चतुभिरिव । दशरथो राजा, सुतै रामभद्रादिभि । अरुचद् अरोचिष्ट ।।७०।। कृतरत्नाकरोल्लासो हृतलोकतमोमलः । प्रसन्नमण्डलो राजा विरराज करोज्ज्वलः ॥७१॥ कृतेति । कृत सपादित , रत्नाकराणा रत्नखनीना समुद्रस्य च, उल्लासो वृद्धि , येन तादृक् । हृत दूरीकृत , भूरादीना जनाना च, तमोमल अज्ञानग्रन्थि अधकारश्च, येन तादृक् । प्रसन्न मुदित निर्मल च, मण्डल सामन्तवर्ग विम्बश्व, यस्य तादृक् । करै भागधेयै अशुभिश्च, उज्ज्वल विशुद्ध स्वच्छश्च । राजा दशरथ , चन्द्रमाश्च । विरराज विरेजे ।'७१।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो गुच्छक परमोच्छ्राय प्रकाश्य परितो महः । आक्रान्तजगतीचक्रो राजहसो व्यरोचत ||७२ || अवाप्येति । अत्रान्त स्वावीनीकृत शासनेन चङ्क्रमणेन च जगतीचक्र भूमण्डल येन तथाभूत । राजहस, राजशार्दूल मरालराजश्च । परमोच्छ्राय महती श्रिय गतिविशेष च । अवाप्य आलम्ब्य । परित समन्तात् । मह तेज धाम च प्रकाश्य निरूप्य च । व्यरोचत व्यद्योतत ||७२ || सरस्वतीन्दिराधौते प्रवेष्टविटपाश्रिते । तस्य खड्गलताभोगे चिर चिक्रीड मेदिनी ॥ ७३ ॥ सरस्वतीति । तस्य राज्ञो दशरथस्य | सरस्वतीन्दिराभ्या धौते निक्ति । प्रवेष्टौ बाहू एव विटपौ, तदाश्रिते तदालम्बने । खड्गो निस्त्रिंश एव, लता वल्ली, तदाभोगे झलञ्झलायाम् । मेदिनी चिर चिक्रीड । सुखेन सौरभमाससादेत्यर्थं । वीरभोग्या हि वसु वरेति तात्पर्यम् ॥७३॥ पठन् द्विजो वागृषभत्नमीयात् स्यात् चत्त्रियो भूमिपतित्वमीयात् । वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयाज् जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात् ॥७४ || पठन् द्विज इत्यादि मूलरामायणानुरूपम् । विशेषस्त्व ||७४ || तातश्रीसरयूप्रसादचरणस्नर्वृक्षसेवा परो ५५ मातृश्री हरदेव्यपारकरुणा पीयूषपूर्णान्तरः । साकेतापरभागवद्धवसतिदुर्गाप्रसादः सुधी रास्ते तेन कृतेऽत्र रामचरिते गुच्छोऽयमाद्यो गतः ॥७५॥ इति श्रीमति रामचरिते दशकण्ठवधे भगवदवतारो नाम प्रथमो गुच्छकः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् अथ द्वितीयो गुच्छकः। अथ-'योऽद्व तसिद्धान्ततरङ्गिताया वेदान्तलक्ष्म्या कुतुकान्यतानीत्' इति प्रानिर्दिष्टमर्थ चिख्यापयिषुरुत्तरग्रन्थ ससगतिकमवतारयति अथ भगवन् ! जीवन्मुक्तस्थितिः कीदृशीति सप्रश्रय भरद्वाजेन मुनिना पृष्टो वाल्मीकी रामवसिष्ठसवादमधुरमक्षरामृत ब्रह्मरसमुपबृहयन्नुवाद-॥१॥ अथेति । अथ रामभद्रादीनाम् अपराख्यविद्याग्रहणानन्तरम् । जीवन्मुक्तस्य जीवत्मे मुक्तस्य स्थितिलक्षणम् । सप्रश्रय सप्रणयम् । प्रश्रयप्रणयौ समावित्यमर । रामवसिष्ठयो य सवाद उक्तिप्रत्युक्तिरूप , तेन मधुर श्लक्ष्णम् । अक्षराणि वर्णा एव अमृतानि पीयूषाणि, अक्षरम अविनश्वरम् अमृत मोक्षश्च, यस्मिन् तम् । ब्रह्मणो वेदस्य रस निर्यासम्, ब्रह्मव रस त च । उपव हयन् पल्लवयन् । उवाद वदव्यक्ताया वाचि ॥१॥ जागतस्य भ्रमस्यास्य जातस्याकाशवर्णवत् । अपुनःस्मरण मन्ये ब्रह्मन् ! विस्मरण वरम् ॥२॥ जागतस्येति । हे ब्रह्मन् । भरद्वाज | । आकाशवर्णवत् नभोनल्यवत् । जातस्य अत्यन्तासभावितया कल्पितस्य । अस्य पुरोतिन । जागतस्य जगत्सवन्धिन । भ्रमस्य मिथ्यामते । भ्रान्तिमिथ्यामतिभ्रम इत्यमर । उक्त च परमार्थसारे 'रज्वा नास्ति भुजङ्गस्त्रास कुरुते च मृत्युपर्यन्तम् । भ्रान्तेमहती शक्तिर्न विवेक्त शक्यते नाम ॥२८॥ इति । तन्मूलाविद्यावासनोच्छेदेन अपुन स्मरण यथा भवति तथा । विस्मरण स्मरणाभावम् । वरम् सर्वोत्कृष्टम् । मुक्तिलक्षणम् आत्यन्तिकदृश्योच्छेद , स्वरूप तदुपलक्षितचिन्मात्रावस्थितिश्चेत्यर्थ । मन्ये प्रमाणानुभवाभ्या निश्चित वानस्मि । नीरूपे नभसि नेल्यस्येवात्मनि विजृम्भितस्य दृश्यजातस्यात्यन्त विस्मरणमेव वरीय इति ज्यायान् पन्था । अत्रेद सारम् - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक 'भिन्नाऽज्ञानप्रन्थिर्गतसदेह पराकृतभ्रान्ति । प्रक्षीणपुण्यपापो विग्रहयोगेऽग्यसौ मुक्त ॥' इति ॥ दृश्यात्यन्ताभावबोध विना तन्नानुभूयते । महीयसापि यत्नेन स्मोधोऽन्धिष्यतामतः ॥३॥ दृश्येति । दृश्यस्य प्रपञ्चस्य, य अत्यन्ताभावो बाय , तस्य बोध ज्ञानम् । तज्जीवन्मुक्तलक्षण स्वरूप च । नानुभूयते न साक्षाक्रियते । अत अस्मात् । महीयसा महत्तरेण । यत्नेन उपायेन । स्वबोध आत्मज्ञानम् । अन्विष्यताम् गवेष्यताम् ॥३॥ उपदेशफलितमाह दृश्यं नास्तीति बोधेन मनसो दृश्यमार्जनम् । सपन्न चेत् तदोत्पन्ना परा निर्वाणनितिः॥४॥ दृश्यमिति । चिद्र पादात्मनो व्यतिरिक्त दृश्य देहादि जडजात नास्तीति बोधेन तत्तज्ज्ञानेन मनस मानसात् । चेद् उक्तलक्षणस्य दृश्यस्य मार्जन निरसन सपन्न घटितम् । तदा परा निर्वाणाख्या निवृति आत्मसुखम् उत्पन्ना आविर्भूता इत्यर्थ । मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयोरिति भाव ॥४॥ अशेषशासनात्यागो मोक्ष इत्यभिधीयते । क्षीणाया वासनाया हि चेतो गलति सत्वरम् ॥५॥ एष वासनया कायो ध्रियते भूतपञ्जरः । तन्तुनान्तर्निविष्टेन यथा मौक्तिकगुच्छकः ॥६॥ अशेषेति, एषेति च । वासना पुनरुत्पत्तिबीजम् । पुनरुत्पत्ति प्रेत्यभाव । चेतो मन वासनापुञ्जरूपम् । शेष स्पष्टम् ।।५-६॥ वासना विभजते वासना द्विविधा शुद्धा मलिना चेति गीयते । मलिना जन्मनो बीजं शुद्धा जन्मरिभञ्जनी ॥७॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ वामनेति । स्पष्टम् ॥७॥ अज्ञानघनसकाशा वनाहकारकर्कशा | पुनर्जन्मकरी ज्ञेया वासना मलिना बुधैः ||८|| ज्ञानेति । अज्ञानक्षेत्रे एव वासनाबीजानि प्ररोहन्ति हि || || संभृष्टबीजसस्थाना पुनर्जन्माङ्क राक्षमा । शरीरे वासना शुद्धा भाति चक्रे यथा भ्रमिः ॥६॥ सभृष्टेति । सजाते ज्ञाने कृतकृत्ये चक्रे भ्रमिरिव शरीरे भृष्टबीजकल्पा वासना भवाङ् कुरोत्पादिका न भवति । उक्त च परमार्थसारे इति ॥६॥ दशकण्ठवधम् अत एतत् फलति 'अग्न्यभिदग्ध बीज यथा प्ररोहासमर्थतामेति । ज्ञानाग्निदग्धमेव कर्म न जन्मप्रद् भवति ||६२||' इति ॥१०॥ ये शुद्धवासना भूयो न जन्मानर्थभाजनम् । ज्ञातज्ञेयास्त उच्यन्ते जीवन्मुक्ता महाधियः ||१०| य इति । ज्ञातज्ञेया प्राप्तज्ञेयावसाना इत्यर्थ । तथाच गीतासु 'यदा ते मोहकलिल बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेद श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ मुक्तिफल दृष्टान्तयन् भरद्वाज नियन्त्रयति जीवन्मुक्तिश्रिया रेमे यथा रामो महायशाः । तदत्र साध्यते साधो' सानधानोऽनधारय ॥११॥ 1 जीवन्मुक्तीति । सावधान एकतान सन् अवधारय निश्चिनु । किं तत् हे साधो । यत्र जीवन्मुक्तिविषयक साध्यते दृष्टान्तानुभवाभ्या व्युत्पाद्यते इति ॥ ११ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक अथ विद्याविनयसपन्नो रामभद्रः कानिचिद् दिनानि गृहेषु क्रीडया नयन्नेकदा नसकिरणकैसरपरीत पितृपादपद्म समुपसृत्य, तात ! तीर्थानि द्रष्टुप्लुत्कण्ठित मम चेतो भनदाज्ञा प्रतीक्षत इति विनतकधर प्रार्थयाचक्रे । अनुज्ञातः शास्त्रज्ञैविप्रैः स्निग्धैर्वयस्यैश्च सहलक्ष्मणशत्रुघ्नो यथायथ चतुर्दिगन्तश्रितानि तानि तीर्थदेवतायतनपुण्यारण्यानि सभाजयित्वा कोशलानन्दिनी प्रत्ययासीत् ॥१२॥ अथेति । सभाजयित्वा प्रीतिपूर्वक सेवित्वा । समाज प्रीतिसेवने ॥१२॥ तदन्यनुदिन रघुनन्दन प्रासादेऽवस्थितः, शरदि कासार इव कार्यं श्रयन्, पद्मासनगतः, कपोलतलसलीनपाणिपल्लवः, अरुणोदयपिच्छायमिन्दुविम्बमिन वदनमुकुल दधत्, चिन्तापरायणस्तूष्णीको व्यापारशून्योऽजनिष्ट ॥१३॥ तदन्विति । कासार पद्माकर । पद्माकरस्तडागोऽस्त्री कासार सरसी सर इत्यमर । पद्मासन नामासनविशेष । यथा 'वामोरूपरि दक्षिण नियमत सस्थाप्य वाम तथादक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्या कराभ्या धृतम् | अडगुष्ठ हृदये निधाय चिवुक नासाग्रमालोकये देतद् व्याधिविकारनाशनकर पद्मासन प्रोच्यते ।।' इति । तूष्णीक तूष्णीशील । शीले को मलोपश्च ।।१३।। ____ अहह ! किमेव कुमारोऽजनीति चिन्तयति परिजने, शोचति मातृमण्डले, विषीदति वयस्यवर्गे, दुर्मना दशरथः सहसा दौवारिकेणागत्य, 'देव ! भवन्त द्रष्टु द्वारमधितिष्ठति स भगवान् विश्वामित्र' इति सत्वर व्यज्ञपि ॥१४॥ ___अहहेति । दौवारिक द्वारे नियुक्त । 'तत्र नियुक्त ' (पासू० ४।४।६६) इति ठक् । विश्वेषा मित्र विश्वामित्र । 'मित्रे चर्पो' (पा० सू० ६।३।१३०) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० दशकण्ठवधम् इति दीर्घ । विश्वस्य मित्र निरुपाधिप्रेमगोचरतया प्रेयान् । 'आत्मानमेव प्रियमुपासीत' इति श्रुति । 'विश्वत्रयेण यो मैत्री कर्तुमिच्छति धर्मत । विश्वामित्र स -' इति स्मृतिश्च । व्यज्ञपि न्यवेदि || १४ || सम सोऽपि श्रवणसमकालमेव सिहासनादुत्थाय सामात्यः वसिष्ठ - नामदेवाभ्या पदातिरेन सरितपद पद्यमानः पिशङ्गजटाजूट ससध्याभ्रमिव शैलकूटम्, उल्लसद्यज्ञोपनीत सवारिप्रपातवेणिकमिव शिखरिणम्, अपरभुवनोपादानकारणशेषभाण्डकमिव कमण्डलु दधान, सुकृतसुधामबुराभ्या वाड्मनसाभ्या वन्दारूननुगृह्वान महर्षिमालुलोके ॥ १५॥ सोऽपीति । पिशङ्गजटाजूट पिङ्गलसटाबन्धम् । पिङ्गपिशङ्गौ कद्र पिङ्गलौ इति, व्रतिनस्तु जटा सटा इति चामर । अतएन ससध्याभ्रमिव शैलकूटम् । उल्लसद्यज्ञोपवीत धृतयज्ञसूत्रम् । अतएव सवारिप्रपातवेणिकमिव शिखरिणम् । अपरभुवनस्य भुवनान्तरस्य, यत् उपादानकारणशेष निर्माणावशेषद्रव्य, तस्य भाण्डकमिव कमण्डलु दधानम् । सुकृतसुधामधुराभ्या पुण्यपीयूषसोदर्याभ्याम् । वाक् च मनश्च वाङ्मनसे । 'चतुर' (पा० सू० ५|४| ७७ ) इति निपातनात् । ताभ्याम् । वन्दारून् अभिवादकान् । 'शूनन्द्योरारु' ( पासू ३।२।१७३ ) इति ||१५|| अवलोक्य दूरादेव भूतलमिलन्मुकुटमणिकोरक प्रणिपत्यैन यथाशास्त्र परिपूज्य च प्रतिनन्दनमधिगत्य प्राञ्जलिरेतदवोचत् ||१६|| लोक्येति । स्पष्टम् ॥१६॥ , भगवन् ! भरता द्विजराजेन पयोधिरिव पर मोल्लास सीमानं लम्भि - तोऽहमिदानी कि व्याहराणि किं वाऽऽचराणि यदादेशनिधिप्रसितो ममान्तरात्माऽऽत्मानमतोऽपि महान्त मन्येत इति प्रणयपेशल ब्रुवाणे धरणिसुत्रामणि स प्रत्यवोचत ||१७|| भगवन्निति । द्विजराजेति श्लिष्टम् । शेष स्पष्टम् ॥१७॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक अयि ! रघुधुरधर !! महायशप्रसूतस्य तवैष व्याहारो वाढमुपपद्यते । यदह दशरात्रेण क्रतुना यियक्षमाणो रक्षोभयक्षुब्धोऽधिज्यधन्वान रामभद्रमेव रक्षितार मन्यानोऽर्थित्वेन त्या प्राप्तोऽस्मि ॥१८॥ अयीति । वाढमुपपद्यते प्रकाम सगच्छते । दशरात्रेण क्रतुना सोमयाग विशेषेण ॥१८॥ पुत्रस्य तादृशं दौर्मनस्य रणेऽपाटन च विभावयन् नननेति गर्भितेन वाकोवाक्येन गमननिषेधमेव समर्थयन्नपि पार्थियो महर्षिभ्र - भगभुजगभीतो वसिष्ठबोधितः सलक्ष्मण रामभद्रमाजूहवत ॥१६॥ पुत्रस्येति । वाकोवाक्येन उक्तिप्रत्युक्तिप्रस्तावेन ॥१६॥ मोऽपि च प्ररूढमानसव्यथाविषण्णः शनकैरुपेत्य पुरस्तात् पितर परस्तात् तपोधामनी वसिष्ठनिश्वामित्त्री ब्रह्मनिष्ठ वामदेव च प्रणम्य तेन मूर्धन्याघ्रातः समात्सल्यमालिङ्गितस्ताभ्या तेन च प्रयुक्ताशीरवन्या परिजनाम्तीर्णे ऽशुके न्यविक्षत । तदनु क्रमेण तैरेवमवादि ॥२०॥ सोऽपीति । सोऽपि रामभद्र ।तै दशरथवसिष्ठविश्वामित्रवामदेवै ॥२०॥ पुत्र ! प्राप्तविवेकोऽसि कल्याणाना च केतनम् । जडवज्जीर्णया मत्या मोहायात्मा न दीयताम् ॥२१॥ पुत्रेति । 'पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् पितर त्रायते सुत । तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त स्वयमेव स्वयभुवा ॥ इति निरुक्ति । जइवद् अविवेकिवत् । जीर्णया शिथिलया । मोहन मोह । मुह वैचित्त्ये-घन । आत्मा जीव ॥२॥ राजपुत्र ! महाबाहो ! शूरस्त्व विजितास्त्वया । दुरुच्छेदा दुरारम्भा अपीमे विषयारयः ॥२२॥ राजपुत्रेति । विषया एव अरय ॥२२॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् किनिष्ठाः के कियन्तस्ते हेतुना केन चानघ । । आधयस्तेऽवलुम्पन्ति मनो गेहमिवाखवः ॥२३॥ फिमिति । श्रावय कि निष्ठा के चेति स्वरूपप्रश्न । केन हेतुना चेति निमित्तप्रश्न । ते कियन्त इति विभागप्रश्न ॥२३।। इति पृष्टो मुनीन्द्रेण समाश्वस्य च राघवः । यथावद् वक्त मारेभे लड्बते को हि सद्वचः ॥२४॥ इतीति । इति विशिष्य मुनीन्द्रेण भगवता विश्वामित्त्रेण । पृष्ट प्रणुन्न । समाश्वस्य समाश्वास प्राग्य। सता महात्मना, सद् उपादेय च वच । क प्रेक्षावान् । लवते अतिक्रामति ॥२४॥ सदाचारपरो भूत्वा भ्रमित्वा तीर्थभूष्वहम् । भोगनीरसया बुद्धया महर्षे ! मृष्टवानिदम् ॥२५॥ सदाचारेति । स्पष्टम् ॥२॥ कि नामेद बत सुख येय ससारसगतिः । जायन्ते मृतये यत्र म्रियन्ते जातये जनाः ॥२६॥ किमिति । "मृतिबीज भवेज्जन्म, जन्मबीज भवेन्मृति" इति वचना दित्यर्थ ॥२६॥ अयःशङ्क, समा सर्वे परस्परमसगिनः । श्लिष्यन्ते केवल भावा मनःकल्पनया स्वया ॥२७॥ अय इति । सूच्यादिवन् मिथ समन्धशून्या अपि दृश्या भावा अह मेतेषा मम चैते इति क्रियाकारकभावेन सबध्यन्ते-इत्यर्थ ॥२७॥ मनसा जगदाभोगि मनोऽसदिव दृश्यते । मृगतृष्णाम्भसा कष्ट मृगा इव निमोहिताः ॥२८॥ मनसेति । जगद् मनसा आभोगि विषयानुबन्धि । तच्च मन अत्यन्त Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक तरलत्वाद् असदिव शून्यकल्पमिव दृश्यते अनुभूयते । कष्ट मृगतृष्णाम्भसा मरीचिवारिणा मृगा इव भोगाभिलाषेण विमोहिता वयम् ॥२८॥ नहि केनापि विक्रीता विक्रीता इव यन्त्रिताः । अहो ! सर्वे वय मूढा जानाना अपि शाम्बरीम् ॥२६॥ नहीति । श वृणोतीति शबरो दैत्यविशेष , तत्सबन्धिनी शाम्बरीम्, मायाम् । उक्तस्यैव प्रपञ्च ॥२६॥ एव विमृशतो बाढं दुरन्तेषस्थिरेषु मे । भावेष्वरतिरुत्पन्ना पथिकस्य मरुष्विव ॥३०॥ एवमिति । दुरन्तेषु दुष्परिणामेषु । अरति वैरस्यम् । उक्त च पातञ्जले-'परिणामतापसस्कारदु खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु खमेव सर्व विवेकिन' (यो० द० २।१५) इति ॥३०॥ तदिद भगवन् । ब हि किमिद परिणश्यति । किमिदं जायते भूयः किमिद परिवध ते ॥३१॥ ॥ इति प्रथमः परितापः ॥ तदीति । हे भगवन् ! त्रिकालज्ञ । तदिद प्रत्यक्षमुपनत ब्रूहि आख्याहि । किमिद दृश्य सत् परिणश्यति अगोचरता प्राप्नोति । सतो नाशासभवात् । किमिद भूय जायते प्रादुर्भवति । परिणष्ट कथमिव जायेत । किमिद पुन परिवर्धते । परिणष्टस्य पुनरुत्पत्त्यसभवे तद्वर्धनानौचित्यात् । यदि च दृश्यमसत् तर्हि किं परिणश्येत् । स्वरूपेणासतो असत्त्वप्रतिपादन वन्ध्यासूनुध्वसवदनुप पन्नम् । एव च जननवर्धने अपि । यदि यद् दृश्यते तदन्यन् नश्यति-इत्यादि प्रतिपाद्यत तदा सबन्धाभावेन शके व दुष्यति ।।३१।। ॥ इति प्रथम परिताप ॥ इदानी परितापमेव प्रपञ्चयति सप्तदशभि प्रघट्टकै - मोहयन्ती मनोवृत्ति खण्डयन्ती गुणावलिम् । प्रयच्छन्ती दुःखजालं श्रीरिय कि गवेष्यते ॥३२॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् मोहयन्तीति । श्रयतीति श्री सौभाग्यसपत् । माघोक्त्याऽखिललोककान्तेति यावत् ॥३२॥ लक्ष्मीविशङ्कटोल्लासकल्लोलानलमाकुलान् । जडौघान् विकृतान् धत्ते वर्षास्विर तरङ्गिणी ॥३३॥ लक्ष्मीरिति । विशङ्कट पृथु वृहत् - इत्यमर । जडौघान् - वारिवेगान्, जडवृन्दानि च। ओघो वेगे जलस्य च । वृन्दे परम्पराया च द्रुतनृत्योपदेशयो-इति मेदिनी ॥३३॥ इय श्रीः पदमेकत्र नो निबध्नाति चञ्चला । दग्धेवानियताचारचक्रमा व्यतिराजते ॥३४॥ इयमिति । उपमेयपक्षे- अनियताचारेषु शास्त्रविहिताचरणशून्येषु, उपमानपक्षे-अनियताचार स्खलितन्यास यथा तथा, चक्रमो यस्या सा। व्यतिराजते इति- 'कर्तरि कर्मव्यतिहारे' (पा० सू० १।३।१४) इत्यात्मनेपदमिष्यते ॥३४॥ गुणागुणानपश्यन्ती श्रीरेषा पार्श्वशायिनम् । राजप्रकृतिवन्मूढा दुरारूढाऽवलम्बते ॥३५॥ गुणागुणेति । प्रायेण राजानोऽविवेकिनो भवन्ति । उक्त च- आश्रयन्ति समीपस्थ राजानो वनिता लता -इति ॥३५॥ तावच्छीतमृदुस्पर्शो लोकः स्वेषु परेषु वा । वात्ययेव हिम यापल्लदम्या न परुषीभवेत् ॥३६॥ तापदिति । वात्यया वातसमूहेन । 'पाशादिभ्यो य' (पा सू ४।२।४६) इति य ॥३॥ प्राज्ञाः कृतज्ञाः सख्यज्ञाः पेशलाः सरला अपि । पासुमुष्टय व मणयो लक्ष्म्या हि मलिनान्तराः ॥३७॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द६ दशकण्ठवधम् भार इति । एवमादिस्थले शब्दस्य पुनरुक्तिरेव विच्छित्तिमावहति । अतएव-'नैक पद द्वि प्रयोज्य प्रायेण' (वा० सू० ५।१) इति सूत्रयन् वामन प्रायेण इति प्रायुक्त ॥४२॥ पादपा अपि जीरन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः । स जीवति मनो यस्य मननेन न जीवति ॥४३॥ ॥ इति जीवितगर्दा ॥ पादपा इति । पादै मूलै पिबन्ति इति पादपा वृक्षा । 'सुपि स्थ' (पा० सू० ३।२।४) इति क । एषा चेतनत्वे स्मृतिरपि "तमसा बहुरूपेण वेष्टिता कर्महेतुना । अन्त सज्ञा भवन्न्येते सुखदु ख समन्विता ॥ (मनु १।४६) ___ इति । मनसो ह्यजीवनत्व निश्चलीभाव । इय मनोवस्था उन्मनीभावपदेनापि परिभाष्यते ॥४॥ ॥ इति जीवितगर्यो । मिहिका गुणपद्मषु कुलिश शमशाखिषु । सैहिकेयो विमर्शेन्दावहकारो भृशायते ॥४४॥ मिहिकेति । अहमिति करणमहकार । अहमिति विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययम् । आत्मा हि अहप्रत्ययप्रत्ययी । तत्र शब्दसृष्टिप्रस्तावे- अहमिति प्रत्याहारन्यायेन अकारादिहकारान्तो वर्णसघात । अर्थसृष्टिप्रस्तावे तु- अभिमानोऽहकार इति अन्त करणवृत्तिविशेष । अभृशो भृशो भवतीति भृशायते । 'भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हल ' (पा सू ३।१।१२) इति क्यङ् ॥४४॥ डह कायमहारण्ये क्षुब्धोऽहकारकेसरी । जृम्भते विकटाटोप तेनेद जगदश्यते ॥४॥ इहेति । जभि-जुभी गाविनामे ! अश्यते प्रम्यते । अश्चाते. कर्मणि लट् ॥४॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ द्वितीयो गुच्छक निराकुर्वन् घनाकारमहकारमहाकरी । श्रा ! प्रारोहयते काम दुरारम्भनिपादिनम् ॥४६॥ निरेति । आ । अहकार एव महाकरी मत्तमातङ्ग । घनाकार निराकुर्वन् पराभवन् । दुष्ट आरम्भ दुरारम्भ , स एव निषादी, तम् । काम यथा स्यात् तथा, आरोहयते ॥४६॥ अहो ! अहकृतेः कृत्या यदल्पेऽपि परिच्छदे । अाढ्य मन्या नृपमन्याः प्राज्ञमन्याश्च जज्ञिरे ।।४७॥ अहो इति । अहो । हहो ।। अहकृतेरहकारस्य । कृत्या करणेन चेष्टया अथवा कृत्येति प्रथमान्तम् । यद् यस्मात् कारणाद् अल्पे कतिपयेऽपि । परिच्छदे भोगसामग्रीसत्त्वे । इत्थप्रकृतिका जज्ञिरे-इत्यर्थ ॥४७॥ अहकारेऽम्बुदे शान्ते तृष्णया तडिताऽशमि । विच्छिन्ने विटपारोहे व्रतत्यापि विलीयते ॥४॥ अहमिति । अहकारे अम्बुदे शान्ते सति । तृष्णया तडिता विद्यु ता अपि अशमि शान्तम् । शम्यतेर्भावे लुड् । व्यस्तरूपकम् । विटपारोहे विच्छिन्ने सति, तदालम्बिन्या व्रतत्या वल्लापि । विलीयते शम्यते इति प्रसिद्धम् ।।४८।। अहमित्यस्ति चेद् बुद्धिरहमापदि दुःखितः । नास्ति चेत् सुखितस्तस्मादनहकारिता वरम् ॥४६॥ ॥ इत्यहकारजुगुप्मा॥ अहमिति । अनेनाहकाराभावो व्युत्पादित ॥१|| ॥ इत्यहकारजुगुप्सा ।। मनो मननविक्षुब्ध दिशो दश विगाहते । मन्दरान्दोलनोद्ध तक्षीरोदाम्बुपृषद् यथा ॥५०॥ मन इति । क्षुब्धस्य मनसो दशदिशावगाहने देवासुरैर्मध्यमानस्य हीरोदस्य क्षीराब्धे पृषतो दृष्टान्त ॥५०॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दशकण्ठवधम् भोगदूर्वाङ्क राकाक्षी श्वभ्रपातमचिन्तयन् । इतस्ततो धावमानो न श्राम्यति मनोमृगः ॥५१॥ भोगेति । श्वभ्रपातम् अध पातम् ॥५१॥ क्रोडीकृत दृढग्रन्थितृष्णासूत्रयुजात्मना । पक्षिणा जालकेनेव चेतसा परितप्यते ॥५२॥ क्रोडीति । क्रोडीकृत अन्तर्नीत , दृढग्रन्थि विषयग्रहो यया तादृशी, तृष्णैव सूत्रम् तन्तु , तेन युज्यते इति तथाभूतेन । आत्मना बलप्राणभृता चेतनेन । का। पक्षिणा जालबन्धेन इव । चेतसा करणेन परितप्यते क्लिश्यते-इत्यर्थ ॥२॥ अनल्पकल्पनातल्पे विलीनाश्चित्तवृत्तयः । बोध्यमाना न बुध्यन्ते तदत्यर्थ व्यथामहे ॥५३॥ अनल्पेति । अनल्पकल्पनैव तल्पम्, तत्र । तल्पपट्टे शय्या-कलत्रयो इति द्विस्वरे हैम । व्यथामहे-व्यथ भय सचलनयो ॥५३॥ अवान्तरे निपाताय प्रान्तरे भ्रमणाय वा । तृणेन पवनेनेव चेतसा बहु चल्यते ॥५४॥ अपान्तरेति । अवान्तरे अकाण्डे । निपाताय प्रशमाय । प्रान्तरे शून्ये । भ्रमणाय गमनाय । पवनेन वायुना, तृणेन इव । चेतसा, बहु अधि कम् । चल्यते भ्रम्यते ॥५४॥ धूमिना मत्सरौघेण ज्वालिनाऽनन्तचिन्तया । श्राश्रयाशेन मनसा प्लुष्यते स्फारमन्तरम् ॥५५॥ धूमिनेति । मत्सरौघेण अन्यशुभद्वेषावेशेन । धूमिना धूमवता । ज्यालिना ज्वालाविष्टेन । आश्रयाशेन अग्निना इव । मनसा अन्तर स्फार बहु प्लुष्यते दह्यते ॥५॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक यावन्न मनसोऽपैति जगचित्र प्रसारितम् । तावत्कौतूहलाक्रान्त कथमेतत् प्रशाम्यति || ५६ || यावदिति । एतद् मन ||५६ || क्षण ध्यान क्षण ज्ञान क्षण नन्दनचिन्तनम् | विलक्षण मनो यावद् विषयोर्मिंषु सक्षणम् ॥५७॥ क्षणमिति । सक्षण सस्पृहम् | क्षणमिति - ' कालाध्वनोरत्यन्तस योगे' ( पा० सू० २/३/५ ) इति द्वितीया ॥ ५७ ॥ ६६ क्षणाज्जगन्ति सचर्य न मनागपि तिष्ठति । यत्तन्निगृह्यता केनाकाशकासारवृएमनः || ५८ || ॥ इति चिचदौरात्म्यम् || क्षणादिति । आकाश एव कासार, तंत्र तृड् तृष्णा यस्य तादृग् मन । अतएव गीतासु ' चञ्चल हि मन कृष्ण । प्रमाथि बलवद् दृढम् |' 1 महाशनो महापाप्मा विध्येनमिह वैरिणम् || ( ६ । ३४) इति ||५८ || ।। इति चित्तदौरात्म्यम् ।। ( ६ ) अलमन्त मायैव तृष्णा निलुलिताशया । प्रयाता निषमोल्लासमूमिंरम्बुनिधाविव ॥५६॥ अलमिति । भ्रमो मिथ्यामति आवर्तश्च । विलुलिताशया लोडितचित्ता | अन्यत्र आन्दोलितमध्यप्रदेशा ||५६ || • वाञ्छन्नपि र रोद्धु ं वात्ययेव जरत्तृणम् । नीतः कलुषया कापि तृष्णया चित्तचातकः ॥ ६० ॥ वाञ्छन्निति । रय चापल्य वेग च । रोद्धु वाञ्छन्नपि चित्तमेव चातक पक्षिविशेष | धर्ममेघाख्यरसपानाय मेघरसपानाय चेत्यर्थाल्लभ्यते । वात्यया जरत्तृणमिव कलुषया तृष्णया कापि नीत प्रापित || ६०|| Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् मरुतीव रजःपुञ्जो वियतीव शरधनः । उदन्तीव डिण्डीरस्तृष्णागते भ्रमाम्यहो ! ॥६१॥ मरुतीति । डिण्डीरोऽब्धिकफ फेन - इत्यमर ॥६॥ अश्रान्तजलससा गाढोर्धाधोगमागमा । तृष्णा ग्रन्थिमती स्फारमारघट्टाग्ररज्जुवत् ॥६२॥ अश्रान्तेति । आरघट्ट घटीयन्त्रम् । अरहट इति प्रसिद्धम् ॥६२।। कुटिला कोमलस्पर्शा निषवैषम्यसश्रया । दशतीषदपि स्पृष्टा तृष्णा कृष्णेव सपिणी ॥६३॥ कुटिलेति । कुटिलेति चत्वारि विशेषणानि उभयत्र तुल्यानि ॥३॥ अनापर्जितचित्तापि सर्वमेवानुगच्छति । न विन्दति फल किंचित् तृष्णा जीर्णेव कामिनी ॥६४॥ अनावर्जितेति । न आवर्जितम् अनाकलित चित्त यया तथाभूता जीर्णा कामिनीव ॥६४॥ पद करोत्यलध्येऽपि तृप्तापि फलमीहते । चिर तिष्ठति नैकत्र तृष्णा लोलेव वानरी ॥६५॥ पदमिति । पद स्थान चरणन्यास च ॥६५॥ उद्यद्धनरसोत्सेधा परमालोकमुद्रिका । मोहकेकिकुलाकीर्णा तृष्णा कादम्बिनीयते ॥६६॥ उद्यदिति । कादम्बिनी मेघमाला-इत्यमर ॥६६॥ आयताऽनन्तसस्थाना विचित्रा विगलद्गुणा । आवद्धरागसताना तृष्णा शक्रधनूयते ॥६॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक आयतेति । अनन्तम् अपरिच्छिन्न, अनन्ते खे च सस्थान यस्या सा । गुण औदार्यादि मौर्वी च । शक्रधनूयते शक्रधनु इद्रायुवम्, तद्वदा चरति । शक्रवनुष्शब्दादाचारेऽर्थे क्यड । 'कर्तु क्यड् सलोपश्च' (पा० सू० ३।१।११) इति ॥६७।। वल्लकी कामगीताना शृङ्खला मोहदन्तिनाम् । नटी जगद्रूपकाणा तृष्णा केनाभिभूयताम् ॥६८|| ॥ इति तृष्णाभङ्गः॥ वल्लकीति । जगन्त्येव रूपकाणि । नाटकादिदृश्यकाव्यविशेषा ॥६८।। ॥ इति तृष्णाभङ्ग । सुखराकाप्रभोद्भासि क्षणमानन्दतुन्दिलम् । क्षण दुःखकुहूध्वान्तच्छन्न क्लिष्टमिद वपु. ॥६६॥ सुखेति । सुखमेव राका पूर्णचन्द्रा रात्रि । पूर्णे राका निशाकरे-इत्यमर । दु खमेव कुहू शून्यचन्द्रा रात्रि । सा नष्टेन्दुकला कुहू -इत्यमर । क्षणमित्य त्यन्तसयोगे द्वितीया ॥६॥ बद्धास्था ये शरीरेषु सक्ताः ससृतिभूतिषु । ते मोहमदिरोन्मत्ताः किमुच्यन्ते धिगन्तरा ॥७०॥ बद्धास्थेति । आस्था आलम्बनम् । आस्था त्वालस्वनास्थानयत्नापेक्षासु योषिति-इति मेदिनी । ससृति ससार ७०॥ तडित्सु शरदभ्रषु गन्धर्वनगरेषु च । स्थिरता निश्चिता येन तेन विश्वस्यतां तनौ ॥७१।। तडिदिति । गन्धर्वनगर राजनगराकार नीलपीतादिमेघरचनाविशेष ॥७॥ इय हि चेतना दीना देहान्तरविवर्तिना । मिथ्याज्ञानपिशाचेन ग्रस्यमाना विमुह्यति ॥७२।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् इयमिति । दीना वराकी ॥७२॥ न किचिदपि दृश्येऽस्मिन् दृश्यते सत्यवत्तया। दग्धात्मना शरीरेण जनता पिपलभ्यते ॥७३॥ नेति । सत्यवत्तया परमार्थतया । दग्यात्मना चेतनहतकेनेत्यर्थ ॥७३॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यगारूढप्रपालावलिसवृतः । प्रकाण्डशाखाविटपप्राग्भारविभवोच्छितः ॥७४॥ आमूलचूडपर्याप्तिपत्त्रपुष्पफलोर्जितः । तृष्णाशीविषसूत्कारः कोपवायसाशितः ।।७५॥ द्रोहगृगरुत्वोभोऽहंकारोल्लासलालितः । कस्यात्मीयः परो वापि कायवृक्षोऽयमुद्गतः ॥७६॥ (तिलकम्) ॥ इति कायजुगुप्सा ॥ ऊर्षेति । सर्वदिक्कया प्रवालसतन्या वेष्टित इत्यर्थ । प्रकाण्डेति । तत्तदवयवसमृद्धथा अभ्र कष इत्यर्थ । आमूलेति । आमूलाग्र तत्तद्भोग्यविशेषेण प्राणित इत्यर्थं । तृष्णेति । सूत्कार फूत्कार । वाशित शब्दित । तिरश्चा वाशित रुतम्-इत्यमर । द्रोहेति । गरुक्षोभ पक्षविक्षेप । स्वकीय परकीयो वा । उभयथाप्यनास्थेय इति भाव । तिलक त्रिभि सबद्ध विशेषकमित्यर्थ ॥७४-७६।। ॥ इति कायजुगुप्सा ॥ लब्धापि तरलाकारे कार्यभारतरङ्गिणि । ससारसागरे जन्म, बाल्य क्लेशाय केवलम् ।।७७॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक लब्ध्वेति । क्लिश्नन्ति इति क्लेशा । तथा च पतञ्जलि -'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा पञ्च क्लेशा' (यो द० २।३) इति ॥७७॥ अशक्तिरापदस्तृष्णा मूकता मूढबुद्धिता । गृध्नुता लोलता दैन्य बाल्ये वल्गन्त्यशृङ्खलम् ॥७८॥ अशक्तीति । गृध्नु गर्धनशील । गृधु अभिकाक्षायाम् । 'त्रसिगृविधृषिक्षिपे क्नु' (पा० सू० ३।२।१४०) इति क्नु । अशङ्खल निरर्गलमिति क्रियाविशेषणम् ॥८॥ रोषरोदनरौद्रीषु दैन्यदीप्तदुराधिषु । दशासु बन्धन बाल्यमालानमिव हस्तिनः ॥७॥ रोषेति । रौद्रय उग्रा । आलान हस्तिबन्धनम् । आलान करिणा बन्धस्तम्भे रज्जौ च न स्त्रियाम्-इति मेदिनी ॥७६।। प्रतिविम्बधनाज्ञान नानासकल्पपेलवम् । बाल्यमालूनसशीर्णमनः कस्य सुखावहम् ॥८०॥ प्रतिविम्बेति । प्रतिबिम्बवद् घन सान्द्रम् अज्ञान यस्मिस्तत् । नानासकल्पै पेलवम् कोमलम् । तत्तत्सकल्पितविषयालाभाद् आलूनवत् सर्वतश्छिन्नवत् सशीर्णवद् दुखितवन् मनो यस्मिस्तत् ॥८॥ सर्वेषामेन सत्त्वाना सर्वावस्थाम्य एव हि । रिशिष्य शैशवे चेतश्चाञ्चल्याधिक्यमृच्छति ॥८१॥ सर्येषामिति । प्रत्यक्षमनुभूतमेतत् ।।८१॥ मनः प्रकृत्यैव चल बाल्यं च चलता वरम् । भ्रात्रोरिव तयोः श्लेषश्चापलायालमेधते ॥२॥ मन इति । पूर्वस्यैव प्रपञ्चनमेतत् ॥२॥ विकल्पकल्पितारम्भे दुर्विलासे दुराशये । श्राः कष्ट मोहमाधत्ते बालो बलवदापतन् ॥८३॥ ॥ इति बाल्यजुगुप्सा ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् विकल्पेति । बलवदित्यव्ययम् । बलवत्सुष्ठु किमुत स्वत्यतीव च निर्भरेइत्यमर ॥३॥ ॥ इति बाल्यजुगुप्सा ॥ बाल्याक्रीडमतिक्रम्य प्रसरत्कामकेलयः । आरोहन्ति निपाताय यौवन सालशृङ्गवत् ॥८४॥ बाल्येति । बाल्यमेव आक्रीड उद्यानविशेष , तम् । सालशृङ्गवत् प्राकार शिखरवत् ॥४॥ चिन्ताना चलवृत्तीना वनितानामिवावृतीः । विगाहते भ्रमच्चेतो भ्रमरो व्रततीरिव ॥६॥ चिन्तेति । भ्रमत्, चेत -इति पदवयम् । विगाहते आलोडयति ।।५।। नानारसमयी चित्रवृत्तजम्बालपिच्छिला । भीमायौग्नभूर्येन तीर्णा, धीरः स दुर्लभः ॥८६॥ नानारसेति । भगवन्त रामभद्रमपहाय नान्यमुपलभामहे-इति नातिश योक्ति ॥६॥ अहो ! प्रतिपद पातः प्रतिपातमधोगतिः । प्रत्यधोगति भिन्नार्तिरुत्कटे यौवनभ्रमे ॥७॥ अहो इति । नातिच्छन्नेय सारालकारोक्ति ॥८॥ यदा हि परमा कोटिमाटङ्कयति यौग्नम् । तदा स्मरशरक्षुब्ध चित्त क्रामति यौपतम् ।।८८॥ यदेति । यौवत युवतीना समूहम् ।।८।। असत्यं सत्यसकाशमचिराद्विप्रलम्भदम् । स्वप्नाङ्गनासङ्गसम तारुण्य दुरतिक्रमम् ॥८६॥ ॥ इति यौवनगरे । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक असत्येति । असत्यम् अचिरस्थायित्वाद् विद्युद्विलाससदृशमिति भाव । अचिरात् सद्य । विप्रलम्भद वियोगजनकम् ।।६।। ॥ इति यौवनगर्दा ॥ सविकारा हृद्यगन्धा सरसोल्लासभूमिका । मदिरा मदिराक्षी च केवल व्यक्तितः पृथक् ॥१०॥ सरिकारेति । मदिरा प्रसिद्धा । मदिर पक्षिविशेष , तद्वद् अक्षिणी यस्या सा मदिराक्षी । मीनाक्षीवद् व्युत्पाद्यते । एषा द्वयी, केवल व्यक्तित व्यक्त गुणविशेषाश्रयमूर्ते । आकारादिति यावत् । पृथक् पृथग्भूता । मादनगुणेन तु एकैवेति तात्पर्यम् ।।६०॥ परिष्कृतानेकरागैर्वल्लकीव स्वरोद्गमैः । कॉस्कान्न चित्रयत्येषा तरुणान् हरिणानिव ॥११॥ परिष्कृतेति । रागोऽनुराग , गीतक च । स्वर सलेशभाषणाभिव्यक्त सप्तसख्यागश्च । चित्रवत् आश्चर्यवत् करोतीति चित्रयति । मोहयतीति भाव ॥६॥ किरातेनेन कामेन वागुरा इव योषितः । कुरङ्गानिव समुग्धानात्मसात्कतु मातताः ॥१२॥ किरातेनेति । वागुरा मृगबन्धनी-इत्यमर । आत्मसात् स्वाधी नान् ॥३२॥ ललनाविपुलालाने मनोमत्तमतगजः । रतिशृङ्खलया बद्धो मुहुर्माद्यन् विघूर्णते ॥१३॥ ललनेति । विघूर्णते कर्तव्याकर्तव्य न पर्यालोचयतीत्यर्थ ।।१३।। कायपल्वलमत्स्याना स्वान्तकमचारिणाम् । पुसा दुर्वासनारज्जुर्योषा बडिशपिण्डिका ॥४॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ दशकण्ठवधम् कायेति । बडिश मत्स्यवेवनकण्टक , तत्रत्या पिण्डिका ॥४॥ मुख गुहा स्तनौ गुल्मौ नितम्बो वालुकोच्चयः। नारी मरुस्थली यत्र म्रियन्ते कामुकामगाः ॥६५॥ ॥ इति स्त्रीजुगुप्सा ॥ मुखमिति । अहो । विषयरसपानाज् ज्ञानरसपानस्येयती भिदा इति तात्पर्यम् ।।६।। ॥ इति स्त्रीजुगुप्सा ॥ ( ११ ) अपर्याप्त हि बालत्वं बलात्पिबति यौवनम् । यौवन च जरा पश्चादहो ! कर्कशता मिथः ॥६६॥ अपर्याप्तमिति । पिबति असति । अहो । बाल्य तारुण्य वाईकानामवस्थाविशेषाणा परस्पर कार्कश्यम् ॥६६॥ अनायासकदर्थिन्या जरया जीर्णता गते । सपत्न्येवाहता योपिन्मतिः क्वापि पलायते ॥१७॥ अनायासेति । अन्यावस्था तु आयासेन कर्थिनी। इय जरा तावदनायासेनेति । कदर्थनम् श्रात्मन्यवज्ञा । उपासकाना त्वेव न भवतीत्यपि द्रष्टव्यम् । अाहता अभिभूता ॥१७॥ शीर्णाया तनुवल्ला गतमिन्द्रियगुच्छकैः । चित्रमाशारसा तृष्णा भावानभि युगायते ॥६८|| शीर्णायामिति । गतमिति भावे क्त । भावानिति-'अभिरभागे' (पा० सू० ११४६१) इति कर्मप्रवचनीयसज्ञाया-'कर्मप्रवचनीययुक्त द्वितीया' (पा० सू० २।३।८) इति द्वितीया । युवायते-युवतिरिवाचरतीति क्यड् ॥१८॥ जाग्रज्जरासुधादीप्त वपुरन्तःपुरान्तरम् । अशक्तिरार्तिरापच्च सुखमध्यासतेऽङ्गनाः ॥६६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छ जाग्रदिति । जाग्रती जरैव सुधा लेपनद्रव्य, तया दीप्त धवलम् । वपुरेव अन्तपुरम् अन्तर्भवनम्, तदन्तरम् । अशक्त यादय अङ्गना । सुखम् अकुतोभयम् । अध्यासते -'अविशीड्स्थासा कर्म' ( पा० सू० १ | ४ | ४६ ) इत्याधारस्य कर्म - सज्ञा ||६|| दृष्ट्वैवोत्कण्ठितेवाशु प्रगृह्य शिरसि क्षणम् । लुनाति जरा काय कामिनी कैरव यथा ॥ १०० ॥ दृष्ट्वेति । उत्कण्ठिता उत्का समीपस्था च । शिरसि मूर्धनि अग्रभागे च | कैरव चन्द्रकिरणविकास कमलम् ||१०० ॥ दुष्प्रेक्ष्य दुरवस्थान दुराधिव्याधिवान्धनम् । अभ्यर्णमरणोद्वार वार्धक केन गृध्यते ॥ १०१ ॥ ॥ इति जराजुगुप्सा ॥ दुष्प्रेक्ष्यमिति । गृध्यते अभिकाङ्क्ष्यते ॥१०१॥ ॥ इति जराजुगुप्सा ॥ ( १२ ) विकल्पकल्पनानल्पजल्पितैरल्पबुद्धिभिः । भेदैरुद्धरता नीतः ससारकुहरे भ्रमः || १०२ || ७७ विकल्पेति । ममेद भोग्यम्, अहमस्य भोक्ता, इमानि च तत्साधनानि, अनेन इदम् इत्थ सपाद्य भोये, इदमद्य लब्धम्, इद लप्स्ये इत्येवमादिभि विकल्पकल्पनै अनल्पानि जल्पितानि येषा तै । अल्पबुद्धिभिन्दै कर्तृभि । भेदै शत्रुमित्रोदासीनादिभि । ससारकुहरे ब्रह्माण्डान्तरे भ्रम उद्धरता दुरुच्छेदता नीत ॥१०२॥ सता कथमिनास्थात्र जायते जालपञ्जरे । शिशूनामेव संतुष्टिः फले मुकुरबिम्बिते ॥१०३॥ सतामिति । सता विवेकिनाम् । अत्र जालपञ्जरे इन्द्रजालकल्पे आयतने । फले आम्रादिरूपे । मुकुरबिम्बिते दर्पणादौ प्रतिफलिते ॥१०३॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दशकएठवधम् इहापि भामते येषा सुभगा सुखभावना । तामप्याखुरिव ग्रन्थि कालः कृन्तति सर्वतः ॥१०४॥ इहेति । इहापि एवदुर्विलसितेऽपि ।।१०।। कालो जगन्ति सामान्याददन्नपि जिघत्सुकः । दृश्यसत्तामिमा सर्वा करलीकतु मुद्यतः ॥१०५॥ कालेति । सामान्यात् सर्वसाधारण्यात् । जिघत्सु अत्तुमिच्छु जिघत्सुरशनायित -इत्यमर ॥१०॥ पिरश्चिमूलब्रह्माण्डबृहद्दवफलिद्रुमम् । ब्रह्मकाननमाभोगि यः पराक्रम्य चेष्टते ॥१०६॥ पिरश्चीति । य काल । विरश्चि अपञ्चीकृतभूतात्मा मूल यस्य तादृग् , ब्रह्माण्डमेव बृहन् देव दैवतवर्ग , फलप्रदतया फली फलवान्, द्रुम वृक्ष , यस्मिंस्तत् । 'जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम्' (पा० सू० १।२।५८) इति विकल्पेनैकवचनम् । ब्रह्मैव कानन, दुर्गमत्वान्महारण्यम् । आभोगि आभोगवत् । पराक्रम्य परिभूय । चेष्टते जृम्भते ।।१०६॥ जगज्जीर्णकुटीकीर्णान् निदवात्युग्रकोटरे । यः क्रमाद् गुणवल्लोकमणीन् मृत्युसमुद्गके ॥१०७॥ जगदिति । य काल । जगदेव जीर्णकुटी तत्र कीर्णान् विक्षिप्तान् । गुणवन्तो लोका एव मणय , तान् । उनकोटरे भीषणकन्दरे। मृत्युरेव समुद्गक सपुटक , तत्र । क्रमाद्-अद्य श्व परश्व-इत्यादि क्रमेण । निदधाति निक्षिपति ॥१०७॥ गुणैरापूर्यते यैव लोकरत्नापली भृशम् । भूषार्थमिव सा कण्ठे कृत्याप्येतेन पात्यते ॥१८॥ गुणैरिति । गुणै शौर्योदार्यादिभि तन्तुभिश्च । लोका एव रत्नानि, लोका रत्नानीव, तेषाम् आवली ।।१०।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक चारयश्चारहस्तेन कोणेष्वादित्यदीपकम् । कालो लोकलये कुत्र किमस्तीति पिलोकते ॥ १०६॥ चारयन्निति । चार चारणम् । गतिरित्यर्थ । स एव हस्त । कोणेषु अन्तरालेषु ॥ १०६॥ भज्यते नावभग्नोऽपि दग्धोऽपि नहि दद्यते । दृश्यते नापि दृश्योऽपि कालो मायाविदेशिकः ॥ ११०॥ || इति कालापवादः ॥ भज्यतइति । मायावी मायी । देशिक उपदेष्टा । धारय ॥११०॥ ७६ तत कर्म ॥ इति कालापवाद ॥ ( १३ ) अस्योड्डामरचेष्टस्य दिष्टस्य क्रूरकर्मणा । अजातमिव भूत च भावि चेद चराचरम् ॥१११॥ अस्येति । उड्डामरा उद्भटा, चेष्टा लीला, यस्य स तस्य । दिष्टस्य कालस्य ॥१९१॥ अस्य विश्वंभरा पात्र पारावाराः परिस्र ुताः । अवदशाः ककुब्नागा ब्रह्माण्ड पानमण्डपम् ॥ ११२ ॥ ॥ इति कालविलासः || ( १४ ) विष्वग् विश्वेषु निदधत्काल स्वस्य करालताम् । कृतान्तरूपता धचे शैलूष इव भूमिकाम् ॥ ११३ ॥ अस्येति । परिस्रुता मदिरा । अवदशा पानरुचिजनकभक्षणानि । ककुब्नागा दिग्गजा ॥११२॥ ॥ इति कालविलास ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठववम् निष्पगिति । विष्वक् समन्तत । भूमिकाम् रूपान्तरम् | भूमिका रचनाया स्यान्मूर्त्यतरपरिग्रहे - इति विश्व ॥ ११३ ॥ το नृत्यन्नितान्तरागीव नियत्या प्रियया समम् । लक्ष्यश्चित्रपद क्रामन् भावे भावे रस वहन् ||११४॥ नृत्यन्निति । नियति कृतस्य कर्मण फलावश्यभावनियम । चित्रपद विचित्रचरणयासम् इति क्रियाविशेषणम् । भाव पदार्थ स्थायिभावश्च । लक्ष्यो दृश्य ॥१९४॥ अन्तरेण क्रियामस्य स्वपरिस्पन्दलक्ष्मण । नान्यदालच्यते रूप न कर्म न समीहितम् ॥ ११५ ॥ अन्तरेणेति । अन्तरेण विना | स्वपरिस्पन्द एव लक्ष्म चिन्ह यस्य स तस्य ॥ २१५|| तारकासुमनोनद्धव्योमकुन्तलपक्षकम् । दीप्तिमासलमार्तण्डचन्द्रमण्डलकुण्डलम् ॥११६॥ लोकालोकाचले शिवाचाल क्षुद्रघण्टिकम् | इतस्ततो रणद्भीमविद्युद्वलयकङ्कणम् ॥११७॥ अनिलान्दोलनोद्ध तपुष्करावर्तचेलकम् । तुभ्यत्क्षोणिघनाघातभग्नशेषफणागणम् ॥ ११८ ॥ तददोऽन्योन्य सघर्षोद्रेकदीर्णदिगन्तरम् । सर्त पर्तनारब्ध दिव्यस्त्रीपु सताण्डवम् ॥ ११६॥ ( चक्कलकम् ) ॥ इति कृतान्तविलसितम् ॥ तारकेत्यादि । तारका एव सुमनस पुष्पाणि, व्योम एव कुन्तलपक्षक चिकुरबन्ध । मार्तण्ड चन्द्रमण्डले एव कुण्डले । अचलश्रेणि एव क्षुद्रघटिका । विद्युद्वलयमेव कङ्कण करभूषणम् । पुष्करावर्ताख्यमेघ एव चेलकम् । चुभ्यन्त्या क्षोण्या घनाघातेन भग्न शेषफणागण यस्मिंस्तत् । तदद स्त्रीपु स Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक लक्षण ताण्डवम् । अन्योन्यस्य य स पर्पोद्रक अभिभवेच्छातिशय , तेन दीर्णानि भिन्नानि दिगन्तराणि यस्मिन् तत् । सवर्त-वर्तने प्रलयक्षणे आरब्धम् । दिव्ययो स्त्रीपु सयो –'अचतुर-' (पा० सू० ५।४।७७) इति साधु । ताण्डव नृत्यविशेष । चक्कलकम् कालापकम् चतुभि सबद्धमित्यर्थ । ॥११६-११६। ॥ इति कृतान्तविलसितम् ॥ (१५) एव कालादिवृत्तान्तैर्दुरन्तै कीलिता इव । कथ ससारचक्रेऽस्मिन्नाश्वास तात ! दध्महे ॥१२०॥ एवमिति । कीलिता यन्त्रिता । तातेति विशिष्य विश्वामित्र प्रति सबोवनम् ॥१२०॥ कालः कालनाकल्यो दैव दारुणचेष्टितम् । कृतान्तः कर्कशस्त्रान्तो वराकी जगती हता ॥१२१॥ कालेति । कवलनाकल्य ग्रासकुशल । जगती भुवनम् । जगती भुवने क्ष्माया छन्दोभेदे जनेऽपि च-इति मेदिनी ॥१२१॥ आयुरत्यन्ततरल मृत्युरेकान्तनिष्ठुरः । तारुण्य तरुणीगीर्णं वाल्य बालिशतापदम् ॥१२२॥ आयुरिति । बालिशतापदम् मौयस्थानम् । बालिशश्च शिशौ मूर्खे, भूकेश शैवले वटे-इति मेदिनी ॥१२२॥ लोकोऽभिलषितालोको बन्धवः स्नेहसिन्धवः । भोगा जगन्महारोगास्तृष्णाश्च मृगतृष्णिकाः ॥१२३।। लोकेति । अभिलषितालोक इष्टदर्शन । आलोकस्तु पुमान् द्योते दर्शने वन्दिभाषणे-इति मेदिनी ॥१२३॥ द्विषन्त इन्द्रियाण्याशु सत्य मिथ्यातिरस्कृतम् । रजोगुणहता दृष्टिस्तुष्टिनित्यमवस्तुनि ॥१२४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठबधम् द्विषन्त इति । द्विषन्त अमित्रा । द्विष अप्रीतौ । 'द्विपोऽमित्रे' (पा सू० ३।२।१३१ ) इति शतृ । रज गुणेषु मध्यम पासुच । श्रवस्तुनि प्रतिषिद्ध पदार्थे ॥१२४॥ ८२ ज्वलतीन जरा देहे वहतीव स्पृहा हृदि । मनो विलुठतीवान्तमुदिता करुणापि नो ॥ १२५ ॥ ज्वलतीति । ज्वलति त्वरते। वहति एधते । विलुठति प्रक्रमते । मुदिता करुणापि वृत्ति । नोदेतीति तात्पर्यम् । 'मैत्री करुणा मुदितो- पेक्षारणा सुख दुस पुण्यापुण्यविषयाणा भावनातश्चित्तप्रसादनम् ' ( यो० द० १।३३ ) इति योगसूत्रम् ॥। १२५ ।। सुलभो दुर्जनाश्लेषो दुर्लभः सज्जनाश्रयः । अहकारकरातोद्य' नृत्यते ह्यभ्यसूयया ॥ १२६ ॥ सुलभ इति । अहकारकरे श्रतोद्य वादित्र यस्मिन् कर्मणि । नृत्य इति भावे लट् ॥१२६|| अनुरक्ताङ्गनालोललोचनालोकरञ्जितम् । मानसीकतु विदुषापि न शक्यते ॥ १२७॥ I अनुरक्त ेति । वैषयिको रागो दुष्परिहर इति तात्पर्यम् ॥१२७॥ परोपकारकारिया परार्तिपरितप्तया । स्वात्मशीतलया बुद्धया बुद्धो विद्वस्यते परम् ॥ १२८॥ I परोपकारेति । बुद्ध इति 'मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च' ( पा० सू० ३।२।१८८ ) इति वर्तमाने । विद्वानिवाचरतीति विद्वस्यते । क्यड् ॥१२८|| 1 भूयो भूयोऽपि भूयासो दुराशापाशसदिताः । दोषगुल्म सारङ्गा विशीर्णा जन्मजङ्गले ॥ १२६ ॥ भूय इति । भूय इति पुनरर्थेऽव्ययम् । जङ्गल काननम् ||१२६| Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक अद्योत्सवोऽयमृतुरेष तथेह यात्रा ते बान्धवाः सुखमिद सविशेषभोगम् । इत्थ वृथैर कलयन् सुविकल्पजाल मालोलकोमलमतिर्गलति प्रकामम् ॥१३०॥ ॥ इति दैवदुर्मिलास ॥ अद्यति । आलोला दोलायमाना, कोमला सुकुमारा । विवेकाक्षमेति यावत् मतिर्यस्य तादृक् । गलति विशीयते ॥१३०॥ ॥ इति दैवदुर्विलास ॥ (१६) पर्यायसक्रान्तरवीन्दुरत्न दीपप्रकाशोऽपि जगद्विलासे । न लक्ष्यते क्वापि तदर्थजात येनातिविश्रान्तिमुपैति चेतः ॥१३१॥ पर्यायेति । पर्याय अहोरात्रविभाग । रवीन्दू एव रत्नदीपौ । अर्थो वस्तुविशेष परमार्थतत्त्व च ॥१३१॥ बाल्ये गते कल्पितकेलिलोले मनोमृगे दारदरीषु जीर्णे । काये जराजर्जरता प्रयाते विदूयते केवलमेव मन्दः ॥१३२॥ बाल्य इति । मन्द इति कर्त्तव्यताविचारमूढ ॥१३२॥ जरातुषारव्यथिता शरीर सरोजिनी वीतरसामवेत्य । विनिःसृते जीवितचञ्चरीके जनस्य संसारसरोऽनसन्नम् ॥१३३॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ दशकण्ठवधम् जरेति । इदम् इतिकर्तव्यताविचारमौट्यस्य फल दर्शितम् ॥ १३३|| तृष्णासरित् सान्द्रतरप्रनाहपूरस्यदग्रस्त पदार्थपूगा । तटस्थसतोषतरून् समन्तात् समूलकाष कपतीव रुष्टा ॥ १३४॥ तृष्णेति । पूरस्य स्यदो वेग । पूग वृन्दम् । पूगस्तु क्रमुके वृन्दे - इति मेदिनी । समूलकाष कषति - समूल कषतीत्यर्थ । 'निमूलसमूलयो कष' ( पा० सू० ३|४|३४ ) इति णमुलि - ' कषादिषु यथाविध्यनुप्रयोग ' ( पा० सू० ३ | ४|४६ ) इति ॥ १३४|| तनूतरिस्तै जसतन्तुमृता जगत्पयोधौ तरल तरन्ती । उरुक्रमैरिन्द्रियनव रभ्याहता हन्त ! निमज्जतीव ॥ १३५॥ तनूतरीति । तनू काय । कायो देह क्लीवपु सो स्त्रिया मूर्तिस्तनुस्तन् इत्यमर । तैजसतन्तुमूता रजोगुणबद्धा । मूङ् बन्धने - क । उरुक्रमै विपुल - क्रमणै ॥१३५॥ दुःखेषु दूरास्तविषादमोहाः सुखेष्वनुत्सिकमनोभिरामा । सुदुर्लभा सप्रति सुन्दरीभि राहतान्तःकरणा महान्तः || १३६|| दुःखेष्पिति । अनुत्सिक्तम् अगर्वितम् ॥१३६॥ शिद्विषादा विषमामवस्था - मुपाश्रितो दग्धवयोविरामे । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ द्वितीयो गुच्छक भावान् स्मरन् सानिह धर्मरितान् जीवन्मृतो म्लायति गेहकोणे ॥१३७|| विशदिति । दग्धवयस यौवनहतकस्य विरामे अवसाने । भावान् अनुष्ठितान इत्यर्थ । अन्यत्राप्युक्तम् 'उत्क्रम्य विश्वतोङ्गात् तद्भागैकतनुनिष्ठिताहन्त । कण्ठलुठत्प्राण इव व्यक्त जीवन्मृतो लोक ॥' इति । अप्रयोजकतया परिवारोपेक्षणे वर्णितदशा सुप्रसिद्धैवेति भाव ॥१३७|| समूलघात निहते सपत्ने पत्नीकृताया च नयेन लक्ष्म्याम् । भुक्त हि सोख्यानि पराणि यावत् तावन्मृतिर्मार्गति कामिनीव ॥१३८॥ समूलेति । समूलघात समूलमित्यर्थ । 'समूलाकृतजीवेषु हन्कृग्रह' (पा० सू० ३।४।३६) इति णमुल् । ऐहिकसुखसाधनोपार्जनप्रवणस्य आमुष्मि कावसरो नायातीति भाव ॥१३८।। प्रियासुभिः कालमुस क्रियन्ते ___जनैडकास्ते हतकर्मबद्वाः। यैः पीनतामेन बलादुपेत्य शरीरबाधेन न ते जयन्ति ॥१३६॥ प्रियासुभिरिति । प्रियासुभि प्रियप्राणै, यै कर्मभि , शरीरबाधेन शरीरपीडया, बलाद् हठात्, पीनताम् एव पुष्टिम् एव, उपेत्य स्वीकृत्य, ते जना , एडका मेषा इव, विवेकशून्यत्वात । 'उपमानानि सामान्यवचनै ' ( पा० सू० २।११५५) इति समास । जनैडका ऐहिकामुष्मिकफलकाक्षिण | कालमुख कालपास यथा स्यात् तथा क्रियन्ते । कर्मिणो निष्पाद्यन्ते इत्यर्थ । ते हतेन क्षयिणा । नश्वरफलघटकेनेत्यर्थ । कर्मणा व्यापारेण बद्धा नियन्त्रिता सन्त न जयन्ति-जीवन्मुक्तथादिमार्गस्खलितत्वात् कृतकृत्या न भवन्तीति तात्पर्यम् । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ පුදි दशक्ण्ठवधम् 'विद्यायामन्तरे वर्तमाना -१ ( मुड० उ० ०/८/६ ) इति । गीतासु च(२।४३ ) इति च । प्राञ्चस्तु — नरमेषा इत्यादि बहु 'कामात्मान स्वर्गरता व्याचक्षते || १३ || इतस्ततपता समानस के निबद्धभावा । मेलाममासङ्गसमा जनाना कलत्रमित्रव्यवहारखेला ॥१४०॥ इतस्तत इति । इतस्तत इत्यव्यय यत्रतत्रार्थे । मेला - मेल के समौ - इति मेदिनी । क्रीडा खेला च कूर्दनम् - इत्यमर ॥१४०॥ प्रदीपहेतिष्विव भूरिभुक्तदशास्पतिस्नेहनिबन्धनीषु । ॥१४२॥ ससारदोलासु चलाचलासु न ज्ञायते मर्म विमोहिनीषु ॥ १४१ ॥ प्रदीपेति । ति शिखा स्त्रियाम् - इत्यमर | दशावस्था दीपवर्त्यो - इति मेदिनी । स्नेह स्यात् पु सि तैलादिरसद्रव्ये च सौहृदे - इति मेदिनी ॥ १४१ ॥ ससारसरम्भकुचक्रिकेय प्रावृट्पयोबुबुद्भङ्ग, रापि । साववानस्य विचारणासु चिरस्थिरप्रत्ययमातनोति ॥ १४२॥ ससारेति । चिरस्थिरप्रत्यय स्थायिज्ञानम् | असावधानस्य चलचित्तस्य मनोहरस्याप्यतिदोषवृत्त े - रन्तर्विनाशाय समुत्थितस्य । विषद्रमस्येव जनस्य सङ्ग्रा दासाद्यते सप्रति मूर्धनैन ॥१४३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक मनोहरेति । विषद्रुम कारस्करो वृक्ष । मूर्छना मूर्छा ॥१४३।। कास्ता दृशो यासु न सन्ति दोषाः कास्ता दिशो यासु न दुःखदाहः । कास्ताः प्रजा यासु न भङ्ग रत्व कास्ताः क्रिया यासु न नाम माया ॥१४४॥ कास्ता इति । दृश दृष्टय । वैषयिकज्ञानानीत्यर्थ । दु खदाह सुख सचाराभाव । भङ्ग रत्व नश्वरभाव । माया अनाश्वास ॥१४४।। सर्वत्र पाषाणमया महीनाः मृदा मही दारुभिरेव वृक्षाः । मासर्जनाः पौरुषबद्धभावा नापूर्वमस्तीह विकारशून्यम् ॥१४॥ सर्वत्रेति । प्रकृत्यादिभ्य उपसख्यानम् । इत्यभेदे तृतीया । पौरुषबद्ध भावा पुरुषार्थाहकृता । किमपि विकारशून्यम् अपूर्व दृश्य नास्ति । वाचारम्भण विकारो नामधेयमिति तात्पर्यम् ।।१४।। जनः कामारूढो विविधकुकलाकल्पनपर स्ततोऽन्यो दुष्प्रापो जगति सुजनोऽनघचरितः । क्रिया क्लेशावेशा विधुरपिधुरा लौकिककथा ___ न जाने नेतव्या कथमिव दशा जीवनमयी ॥१४६॥ ॥ इति निःश्रयसपिरोधिभागानित्यता ॥ जन इति । कामारूढ स्वार्थपरायण । अनर्घचरित अमूल्यचारित्र । लौकिककथा लोकयात्रा । कथमिव कया चर्यया । अहो । दु ख दु खमिति भाव । शिखरिणी छन्द ॥१४॥ ॥ इति नि श्रेयसविरोधिभावानित्यता । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KK दशकण्ठवधम् ( १७ ) विपर्ययममायन्ति भूतभौतिकभूतयः । धान्यधान्य इवाजस्र पूर्यमाणाः पुनः पुनः || १४७ || विपर्ययेति । यत्ति यान्ति । इण गतौ । धान्यधान्य धान्यकुम्भ्य ॥ १४७॥ प्रतिक्षणनिपर्यासवाहिना निहतात्मना । जगद्भ्रमेण के नाम मतिमन्तो न मोहिताः || १४८ ॥ प्रतिक्षणेति । निहतात्मना अध पातितात्मना ॥१४८॥ क्षण निपत् क्षण सपत् क्षण जन्म क्षणं मृतिः । विलक्षण प्रवाहेऽस्मिन् मुने ! किमिव न क्षणम् ॥१४६॥ क्षणमिति । क्षरणमित्यत्यन्तसंयोगे द्वितीया । अहो । सर्वं नश्वरमिति भाव ॥१४६॥ घटस्य पटता दृष्टा पटस्यापि घटात्मता । तन्न यन्न विपर्यासि दृश्यते रोदसी नौ ॥ १५० ॥ घटस्येति । घटस्य विशीर्णस्य क्षेत्रे कार्पासपरिणामेन पटता दृष्टा - इत्यर्थ । एव पटस्यापि परिणामवशेन घटता समुन्नेया ॥ १५०॥ इतान्यदितवान्यद्वस्त्वेव विदधद् विधिः । क्रीडन् शिशुरिवैकान्त न खेद प्रतिपद्यते ॥ १५१ ॥ ॥ इति सर्वभागातिविपर्यासः || इतश्चेति । यदेकत्र ततोऽन्यत्र विलक्षणमिति भाव ॥ १५१ ॥ ॥ इति सर्वभावाविरत विपर्यास ॥ ( 25 ) क्लिष्ट मानसकोर के | इति मे दोष उत्पद्यन्ते न भोगाशा मृगतृष्णा इन हृदे ॥ १५२ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक इतीति । इति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु-इत्यमर । मे मम रामस्य । दोषदृष्ट यव सर्वत्रासमञ्जस्यपर्यालोचनेनैव ॥१५२॥ जन्मानलिवरत्रायामिन्द्रियग्रन्थयो दृढाः । निपुण येन मुच्यन्ते जित तेन महात्मना ॥१५३॥ जन्मेति । नत्री वीं वरत्रा स्यात्-इत्यमर । मुच्यन्ते भिद्यन्ते । जितमिति भावे क्त ॥१५३॥ इदानी स्वच्छया बुद्ध्या चित्त चेन चिकित्स्यते । पुनरेतचिकित्साया ब्रह्मन्नवसरः कदा ॥१५४॥ इदानीमिति । चिकित्स्यते नैरुज्यीक्रियते। कित निवासे रोगापनयने च ॥१५४॥ वासनाजालजटिला दुःखसकटसकुला । निपातोत्पातभूयिष्ठा भीमा ह्यज्ञानताटगी ॥१५॥ वासनेति । सकट ना तु सबाध -इत्यमर ॥१५५।। आयुर्घायुविघट्टिताभ्रपटलीलम्बाम्बुमद् भङ्ग र भोगा मेघपितानमध्यविलसन्मौदामिनीचश्चलाः । लोला यौवनलालना जलरयोहल्ला इति व्यामृशन् मुद्रामेप दृढामकार्षमधुना चित्त चिर शान्तये ॥१५६।। ॥ इति सकलपदार्थानास्था ॥ आयुरिति । उद्घल्ला वारिवेगवदुद्भटा इत्यर्थ । विषयविरतिलक्षणा मुद्रा सनिवेशविशेषम् । अकार्ष व्यधाम् ॥१५६।। ॥ इति सकलपदार्थानास्था । इदानी परितापमुपसहरन् प्रयोजन दर्शयति प्रयोजन तु-'यमर्थमविकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम्' (१११।२४) इत्यक्षपाद । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् (१६) इत्थमभ्युत्थितानथसार्थसकटकोटरे । जगन्निपतितं वीक्ष्य मूर्छतीव मतिर्मम ॥१५७॥ इत्थमिति । जगन्निपतनमेव लक्ष्मीनिराकरणादिना प्रघट्टकजातेन प्रपञ्चितम् ॥१५७।। तदतुच्छमनायासमनुपाधि भ्रमापहम् । कि विश्रान्तिपद तात ! यत्र शोको न विद्यते ॥१५८॥ तदतुच्छमिति । अनुपाधि उपाधिशून्यम् ।।१५८।। सर्वारम्भसमारूढाः सुजना जनकादयः । व्यवहारपरा एव कथ निःश्रेयस गताः ॥१५॥ सारम्भेति । जनकादय इत्यन्तेन प्रवृत्तावेव निवृत्तिलक्षणो धर्मो जिज्ञास्य इति स्पष्टम् । जनको विदेह । स हि प्रथमो विवक्षित , रघुयदुवत् । एवमादीना तत्सतानाभिधाने तु लक्षणैव ॥१५६। का दृष्टि वा समालम्ब्य भवन्तो वीतकल्मषाः। जीवन्मुक्ता महाभागा पिचरन्ति क्षमान्तरे ॥१६॥ का दृष्टिमिति । विचरन्ति व्यवहरन्ति ॥१६०।। तदेतदुच्यता तत्त्व मह्यमाधिमुपेयुषे । स्निग्धमम्बुभृत हित्वा चातकोऽन्य न नाथति ॥१६१॥ ॥ इति प्रयोजनम् ॥ तदेतदिति । तत्त्व परमार्थ । स्निग्ध वृष्ट्यु न्मुखम् । नाथति याचते ॥१६॥ अहह ! लुलति जीवितपल्लनाग्रलग्नपानीयपृषन्निवहे, पतति सज्जनसङ्गविटपवृन्तश्लथकुसुमसमूहे, सर्पति दुर्वासनापवमानझंकारे, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ द्वितीयो गुच्छक स्फुरति दुराशा सौदामिनीदामवारे, उद्यति मोहमिहिकाविताने, गर्जति गर्वबलाहरुप्रताने, मूर्छति लोभकेकिकेका फलफले, तानद् विषमभन्द वानलतापप्रशमनस्य क. प्रयत्नः का शैली कि विधानमिति यथायथ सम्यड् निवेदितवान् रामभद्रो मुनिवृन्दारकाणाममीषा विशामित्रपुरस्मराणा पुरस्ताद् विवदिपुस्तूष्णीमासावन || १६२॥ श्रहहेति । अहहेत्युङ्क्ते । जीवित जीवनमेव पल्लवाग्रलग्नपानीयप्रपन्नियह, तस्मिन् लुलति दोलायमाने सति । एवमग्रे ऽपि योजनीयम् । तत्र - पवमान प्रभञ्जन । वार समुदाय । निवहावसरौ वारौ - इत्यमर । मिहिका प्रालेयम् । की मयूर | तावदिति वाक्यालकारे । विषम उच्चावच । प्रयत्न प्रकृष्टो यत्न । शैलीपरिभाषाशैलीसकेतसमयकाराश्चेति त्रिकाण्डशेष | विधान विधि | मुनि वृन्दारकाणामिति 'वृन्दारकनागकुञ्जरै पूज्यमानम्' ( पा० सू० २१११६२ ) इति समास । विविदिषु वेत्त मिच्छु | आसाबभूव ॥ १६२॥ अत्रान्तरे भास्वत्प्रकाशावेशविकसन्मुखी कण्टकितावयवनाला स्फुरदामोदरससभृता सरोजिनीव, पिमलनिचारणापास्तसमस्तभनवेदना मुहूर्त ममृतपूर प्लावितेन प्रमेयावधान निष्यन्दा श्रवणनिनिष्टेत रेन्द्रियग्रामेन, जननीरसा शिशुतनुरिव परमार्थपरायणा कविवक्लिरिन, रामचित्तापि विरामचित्ता सगता समस्ता जनता जहर्ष ॥ १६३ ॥ " अत्रान्तर इति । भास्वान् सूर्य प्रकाशश्च । कण्टको रोम आमोद आनन्द सौरभ च । इवेत्युत्प्रेक्षायाम् । निष्पन्दो निश्चल । श्रवणनिविष्टेतरेद्रियग्रामा श्रवणैकपरायणा । जने लोके नीरसा । जनन्या रसो यस्या सा । परलोक वैरिजन ब्रह्मादिलोकान्तर च । मुक्ता जीवन्मुक्ता मौक्ति कानि च । परमार्थ तत्त्वज्ञान वान्यलक्ष्यव्यङ्ग चतात्पर्यात्मा च । विरोधपरिहारे विराम उपराम । जहर्ष मुमुदे || १६३ ॥ | तदनु ससाधुवादसला देवलोकविसृष्टा, सुरतरुकुसुमकोशस्ररन्मधुविन्दुकरम्बिता, अनुचलल्लोल लोलुभलोलम्वमण्डल गुञ्जिता, प्रसृमर मधु Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ दशकण्ठवधम् रामोदमोदमानजनमानसा, उद्ग्रीवनागरवर्गावलोकिता, चरणपल्लनद्वयसी, परिष्कृतपरिपन्मणिकुट्टिमा, अदृष्टपूर्वा, उन्मिपत्प्रभाजालमासला आयामिनी कबुरा रत्नपतिरिव पुष्पवृष्टिरा च मुहूर्तचतुर्भागाद् पिहायसः पपात ॥१६॥ तदन्विति । करम्बिता मिश्रिता । लोलम्बा भ्रमरा । प्रसमरो विसृत्वर । चरणपल्लवद्वयसी । प्रमाणो द्वयसच्-डीप् । कुट्टिमोऽत्री निबद्धा भू। उन्मिषदि त्यादिविशेषणत्रय रत्नपड्क्तौ पुष्पवृष्टौ सगमनीयम् । आ च इति पृथक्पदम् । विहायस आकाशात् ॥१६४॥ तत्कालमिह परस्परपरामर्शसधृष्टकृष्णाजिना, यज्ञोपवीतिनी, लोलाक्षमालावलया, कमण्डलुवारिणी, पिशगजटाजूटा, प्रसरदीप्तिवितानतारतम्येन काचन सवितरन्ती, काचन चित्रभानयन्ती, काचिदिन्दवन्ती, काचित्तारकायन्ती, काचन पुनरुडूयमाना यदृच्छयोपस्थिता दिव्या मुनिपरम्परा यथान्यायमुपवेशिता अभिमतरसा साधी दाशरथिगनीमेव मुहुर्मुहुरन्योन्य श्लाघमानापतस्थे ॥१६॥ तत्कालेति । अक्षो गुलिका । सवितरन्ती सवितारमिवाचरन्ती । चित्रभानवन्ती चित्रभानुर्विभावसुस्तमिवाचरन्ती। इन्दव ती इन्दुमिवाचरन्ती । तारकाय ती तारकामिवाचरन्ती । सवित्रादिशब्दाद् आचारक्किबन्तात् शतरि डीपि नुमि च सवितरन्तीत्यादि । उडूयमानेति उडु लघुतारकमिव आचरतीति क्यडि शानचि च रूपम् । यदृच्छया स्वारसिक्या इन्छया ॥१६५॥ विदन् द्विजाग्र्यो हि मुनित्वमीयात् तद् बाहुजन्मा जनकत्वमीयात् । वणिक् तुलाधारसमत्वमीया जनश्च शूद्रोऽपि च मुक्तिमीयात् ॥१६६॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गुच्छक विदनिति । द्विजाग्र यो ब्राह्मण । बाहुज मा क्षत्रिय । जनको सीरध्वजो विदेह यत्सबन्धात् भगवती सीता जानकी वैदेहीति व्यपदिश्यते । वणिग् वैश्य । तुलाधारकथा महाभारते (१२।२६०।८) इति । शूद्र पादज न तु वर्मध्वजव्याख्यानेन मूर्यो व्याक्तविशेष ।।१६६॥ तातश्रीसरयूप्रसादचरणस्ववृक्षसेवापरो मातृश्रीहरदेव्यपारकरुणापीयूषपूर्णान्तरः। साकेतापरभागवद्धवसतिदुर्गाप्रसादः सुधी रास्ते तेन कृतेऽत्र रामचरिते गुच्छो द्वितीयो गतः ॥१६७॥ ॥ इति श्रीमति रामचरिते नासिष्ठनिर्यासे वैराग्यप्रकरण नाम प्रथमो गुच्छकः । आदितो द्वितीयः ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् अथ तृतीयो गुच्छकः । अथ तथाभूताया समितिसुधर्माया स भगवान् विश्वामित्रः पुरोगत रामभद्र प्रीत्येदमभ्यभाषत-ये । ज्ञानवता वर !! भवता स्वबुद्धव सर्वं व्यज्ञायि | केवल स्वभावशुद्ध भावत्के प्रतिभाने मुकुरे मनाङ्मार्जनमिव स्तोकमुपदेशासञ्जनमुपयुज्यते । श्रहो ! मुनिवृन्दिष्ठा: ! " ज्ञेय ज्ञातमनेन रघुवीरेण यदस्मै सुमेधसे रोगा इव भोगा न रोचन्ते ॥ १ ॥ ६४ अथेति । अथ रामभद्रस्य परितापनिवेदनानन्तरम् । समितिरेव सुधर्मा देवसभा तस्याम् । अये इति कोमलामन्त्रणे अव्ययम् । व्यज्ञायि अवेदि । प्रतिभाने ज्ञाने । श्रसञ्जनम् आसङ्ग ॥१॥ ज्ञातज्ञेयस्य मनसो नूनमेतद्धि लक्षणम् । नस्वदन्ते यदेतस्मै भोगा स्वर्गागिता अपि || २ || ज्ञातेति । स्वदन्ते रोचते ||२|| भोगवासनया बन्धः शान्तया यस्य ताननम् । सनातनव राम ! मोक्ष इत्युच्यते बुधैः ||३|| भोगेति । वासना शुद्धा मलिना चेति प्रागुक्तम् । तत्र शुद्धामभिप्रेत्य ससारयात्रासूत्रमेतत् ॥३॥ इदानी केवली भावविश्रान्ति समपेक्षते । रामबुद्धिः शरलक्ष्मीः स्वभावसुषमामि ||४|| इदानीमिति । केवलीभाव कैवल्यम् । तत्र विश्रान्ति विश्रमम् । रामबुद्धि शरल्लक्ष्मीरिति व्यस्तरूपकम् । स्वभावसुषमामात्मप्रसादम् ||४|| अङ्ग ! भगवन् !! वसिष्ठ !!" अस्य महात्मनो मनोविश्रान्त्यै रघुकुलगुरुणा श्रीमतैव युक्त. प्रस्तूयन्ताम् । कच्चित् स्मरसि ब्रह्मयोने ! यदावयोर्वैरोपशमाय निश्रयसाय च निषधाद्रौ भगवता ब्रह्मणा स्वय Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक ६५ मुपदिष्ट ज्ञानम् । येन च युक्तिमता 'भास्मता श्यामेन ससारवासना सद्यः शममुपयाति । एव प्रणयपेशल व्याहरति विश्वामित्रे तत्र ममवेताः सर्ने तमेवार्थमभिननन्दु । तदनु वमिष्ठोऽपि त्रिकालदर्शी महातेजाः-अङ्ग । सकलपिकल स्मरामीति हर्षमाणो ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मोपज्ञ ब्रह्मोद्य तज्ज्ञानमुपदेष्टुमुपाक्रमत--॥५॥ अङ्गति । श्रीमतेत्यत्र तपोज्ञानसमृद्धि श्रीशब्दार्थ । प्राशस्त्ये मतुप् । येन ब्रह्मोपदिष्टज्ञानेन । ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्म कारणरूपम् । ब्रह्मोपज्ञ ब्रह्मा कार्यब्रह्मा । 'उपज्ञोपक्रम तदाद्याचिख्यासायाम् (पा सू २।४।२१) इति समास । ब्रह्म उपनिषद उपचारात् तद्वदनम् । निरूपणमिति यावत् । वद सुपि क्यप च ।।५।। रामभद्रण प्रथमपरितापादौ-'किं नामेद बत सुख येय ससारसगति । जायन्ते मृतये यत्र म्रियन्ते जातये जना ॥' इत्यादि यदुक्त तद् यथाप्रतिपत्ति सौकर्यमभिधातु भगवान् वसिष्ठ - 'परमार्क-' इत्यादिना समुपक्रमते परमार्कप्रकाशान्तस्त्रिलोकीत्रसरेणवः । उत्पत्योत्पत्य ये लीनास्ते ह्यसख्या रघूत्तम ! ॥६॥ परमार्केति । हे रघूत्तम । रघषु अवतसभूत । राम ॥ परम अपरि छिन्न अर्कप्रकाश आत्मप्रकाश । अनस्तमितभात्मक इति यावत् । एव च आत्मा चासौ प्रकाशश्चति व्यक्तमेव । श्रूयते च मुण्डके"न यत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारक नेमा विद्यु तो भान्ति कुतोऽयमग्नि । तमेव भान्तमनु भाति सर्व तस्य भासा सर्वमिद विभाति ॥” (मु ड २ ख ११) इति । एवभूतस्य परमार्कप्रकाशस्य अन्त अवकाशे । ये त्रिलोकीत्रसरेणव त्रयो लोका एव परिच्छिन्नप्रमाणतया त्रसरेणुकल्पा । त्रसरेणुस्तु 'जालान्तरगते भानौ यत् सूक्ष्म दृश्यते रज । प्रथम तत् प्रमाणाना त्रसरेणु प्रचक्षते ॥' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ दशकण्ठवधम् इत्येवमादिपरिभाषित । यथाकालम् उत्पत्योत्पत्य यथा यायम् उत्पद्योत्पद्य इति तात्पर्यम् । लीना तिरोहिता । ते हि असरया सख्यातुमर्हा । सख्येया इत्यर्थ । त्रिलोकीत्युपलक्षणम् | अनेक कोटिब्रह्माडा अपि द्रष्टव्या । अनेककोटय ब्रह्माण्डा येषा ते । अभिमन्यमानत्वादिरूप सबन्व षष्ठयर्थ । विकारपोड शान्तर्वर्तिपञ्चीकृतस्थूलभूत कार्यो हि ब्रह्माण्ड । तदभिमानी विराडुते । ब्रह्माण्डान्तर्वर्तिसमष्टिलिङ्गशरीराभिमानी स्वराट् । तदुभयकारणाव्याकृताभिमानी सम्राट् । तदुक्तम्— 1 इति ||६|| 'प्रावान्येन विराडात्मा ब्रह्माण्डमभिमन्यते । स्वराट् स्वरूपमुभय सम्राडित्य ॥ वर्तमाना ये सन्ति तेऽपीमे चित्रदर्शनाः । संख्यातु नहि शक्यन्ते भाविनां तु कथैव का ||७|| वर्तमानेति । ये च वर्तमाना अनुभूयमाना त्रिलोकीत्रसरेणव सन्ति । ते अपि इमे चित्रदर्शना विलक्षणावस्थाना । नहि सख्यातु परिच्छेत्तु शक्यते पार्यन्ते । भाविना भविष्यता तु कथैव का । दूरापास्तेत्यर्थ ॥ ७ ॥ तिर्यमानुषदेवेषु यः कश्चिन्नाम नश्यति । यस्मिन्नेव प्रदेशेऽसौ तत्रैवेद प्रपश्यति ||८|| तिर्यगिति । तिर्यगादिषु य कोऽपि यस्मिन् प्रदेशे नश्यति तस्मिन्नेव सौ प्रत्यगात्मा इद दृश्यजात पश्यतीत्यर्थ ॥ ८ ॥ आतिवाहिकनाम्नान्तः स्वहृद्येव जगत्त्रयम् । व्योम्नि चित्तशरीरेण व्योमात्माऽनुभवत्यजः ॥६॥ तिवाहिकेति । अजो व्योमात्मा शरीरी अन्त स्वहृदि व्योम्नि प्रतिवाहिक नाम्ना चित्तशरीरेण जगत्त्रय यथावासनमनुभवति । एतत्परलोकयात्रानिर्वाहक शरीरम् अतीन्द्रियत्वात् सूक्ष्मम्, अनुमेयत्वाल्लिङ्गम्, भौतिकमात्राघटितत्वादतिवाहिकम् इति च व्यपदिश्यते । उक्त च " Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक 'पञ्चप्राणमनोबुद्धिदशेन्द्रियसमन्वितम् । अपञ्चीकृतभूतोत्थ सूक्ष्माङ्ग भोगसाधनम् ।।' इति ।।१।। एव मृता म्रियन्ते च मरिष्यन्तीति निश्चितम् । यथानासनमुत्पन्ना भूतग्रामाः पृथक् पृथक ॥१०॥ एपमिति । एव मृता-इत्यन्तेन लोकसचरणमेव व्युत्पादितम् ।।१०॥ सकल्पकल्पनाक्लुप्तमनोराज्यगिलासवत् । इन्द्रजालकलाकीर्णमिथ्यार्थप्रतिभासवत् ॥११॥ स्वप्नस वित्तिसहब्धव्योमापणविहारवत् । एतज्जगत्समरण स्वान्तरेयानुभूयते ॥१२॥ (युग्मकम् ) सकल्पकल्पनेत्यादि । सकल्पकल्पनेति युग्मकेन जगत्ससरणप्रक्रियाया सुखावबोधार्थ दृष्टान्तनिरूपणम् । तत्र सकल्पकल्पनाभि क्लृप्त सज्जित यन् मनोराज्य तद्विलासवद् पभोगवत् । इन्द्रजालकलाभि साम्बरमायाभि कीर्णो विस्फारित मिथ्यार्थ प्रातिभासिकवस्तुकलाप तत्प्रतिभासवत् प्रतिभानवत् । जगतो नश्वरत्वादिति तात्पर्यम् । स्वप्नसवित्त्या स्वप्रकालिकप्रकाशेन सहब्ध घटित य व्योमापण तद्विहारवत् चड्क्रमणवत् ॥११-१२॥ तत्रातिसक्तियोगेन तत्रैव धनता गतः । इह लोकोऽयमित्येव जीवाकाशे विजृम्भते ॥१३॥ तत्रेति । अतिसक्ति अभिनिवेश । घनता पञ्चीकरणेन दायम् ॥१३॥ पुनस्तत्रैव जन्मेहामरणाद्यनुभूतिमान् । मृतश्च मन्यते तत्र परलोक तथा पुनः ॥१४॥ पुनरिति । ईहा जन्मोत्तर मरणपर्यन्त चेष्टा ॥१४॥ तदन्तरन्ये भूयासस्तेषामन्तस्तथापरे । ससृज्यन्तेऽत्र ससारे कदलीदलपीठवत् ॥१५॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् तदन्तरिति । तदन्त वासनाभ्यन्तरे । कदलीदलस्य पीठानि आधारभूता कदलीत्वच तद्वत् ॥१५॥ न भूम्यादिमहाभूतश्लेषा न च जगत्क्रमा' । अहो । मृताना तत्रापि तथाप्येषा जगभ्रमाः ॥१६॥ न भूम्यादीति । तत्रातिसक्तियोगेनेति पूर्वार्धस्यैवाय प्रपञ्चो लोकानास्था प्रयोजक ॥१६॥ अविद्यैव ह्यनन्तैषा नानाप्रसरशालिनी । जडाना निम्नगा दीर्घा सर्गकल्लोलमालिनी ॥१७॥ अविद्योति । 'अनित्याशुचिदु खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मरयातिरविद्या' (२।५) इति सूत्रिता अविद्या । तत्र दृष्टान्त -जडानामिति । जडाना मूढाना वारीणा चेति श्लिष्टम् ॥१७॥ अगाधे परमाम्भोधौ रामैताः सृष्टिवीचयः । भूयो भूयोऽनुवर्तन्ते पूर्णेन्दागिन चन्द्रिकाः ॥१८॥ अगाधेति । परमाम्भोधौ अपरिच्छिनात्मनि-इत्यर्थ ॥१८॥ आश्वस्तान्तःकरणो ध्वस्तविकल्पः स्वरूपसारमयः । परमशमामृतसुहितो विकसति विद्वान्निरावरणः ॥१६॥ ॥ इति भूयोभूयः सर्गः॥ आश्वस्तेति । आधिकारिकादिभोगवशेन शरीरवानप्यशरीरी जीवन्मुक्त इति तात्पर्यम् ॥१॥ ॥ इति भूयोभूय सर्ग ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह तृतीयो गुच्छक ( २ ) सदेहत्वेऽप्यदेहत्वे देहिनो मुक्तता ममा । सोर्मित्वे वाप्यनूमित्वे वारिणो वारिता यथा ॥२०॥ सदेहत्वेति । सतरङ्गस्यातरङ्गस्य जलाशयस्य इव जीव मुक्तस्य विदेहमुक्त स्य च तुल्यैव मुक्ततेति भाव ॥२०॥ न बोधरूपयोर्भेदः सदेहादेहमुक्तयो । ___ सस्पन्दो ह्यथाऽस्पन्दो मरुदेष न चामरुत् ।।२१।। न बोवेति । दृष्टान्तस्य साकारत्वे कदाचिद् दान्तिके भ्रम स्यादिति तन्निरासार्थ निराकार दृष्टान्तमुपन्यस्यति-न बोधरूपयोर्भेद इति । नहि सस्पन्दोऽस्पन्दश्च मरुन् स्वरूपतो भिद्यत इति भाव ॥२१॥ सदेहा वा विदेहा वा मुक्तता विषये नहि । अनास्मादितभोगस्य कुतो भोज्यानुभूतयः ॥२२॥ सदेहेति । स्यादेतद्, यदि शरीरादिदृश्ये मुक्तता भवेदित्यर्थ ॥२२॥ सर्वमेन हि ससारे पौरुषादेव लभ्यते । न तादृक् किचिदप्यत्र यदलभ्यमुदीर्यते । २३॥ सर्वमिति । नित्यलब्धस्यात्मनो लाभे दृश्यवारणार्थ पुरुषार्थ प्रशसतीत्यर्थ ॥२३॥ शास्त्रोपदिष्टमार्गण यद् देहेन्द्रियचेष्टितम् । तत् पौरुष तत् सफलमन्यदुन्मत्तजृम्भितम् ॥२४॥ शास्त्रेति । एवस्वरूप पौरुष पौरुष भवतीति भाव ॥२४॥ प्राक्तनाद्यतने गीते पौरुषे पुरुषर्षभ ! । वृद्धो युनेर पूर्व हि परेण परिभ्यते ॥२५॥ प्राक्तनेति । उक्तस्वरूपमेवाद्यतन पौरुष शिथिलमूल प्राक्पौरुष पराभव तीति तात्पर्यम् ॥२॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दशकण्ठवधम यत्नद्भिदाभ्यासः प्रजोत्साहसमन्वितैः । गिरयोsपि निगीर्यन्ते व प्राक्पौरुषे कथा ||२६|| यत्नवदिति । दृश्यवारणार्थमेव उत्साहप्रयत्नाभ्यासप्रभृतिलक्षण पौरुष प्रपञ्चयतीत्यर्थ ||२६|| पौरुषेण प्रयत्नेन त्रैलोक्यैश्वर्यभास्वराम् । कचित् प्राणिविशेषो हि विन्दति स्म महेन्द्र ताम् ||२७| ॥ इति पौरुषम् ॥ पौरुषेणेति । अहो | तदिद पौरुषम् इयद् वर्ण्यते यत्प्रभावेण इन्द्रशब्दार्थोऽपि महेन्द्रतायोगी । मीमासाया तु इन्द्रमहेन्द्रशब्दौ भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तौ स्फुटावेव ||२७|| ॥ इति पौरुषम् ॥ ( ३ ) प्रवृत्तिरेव प्रथम यथान्याय प्रर्तिनाम् । प्रमेव वर्णभेदाना साधनी सर्वकर्मणाम् ||२८|| प्रवृत्तीति । न्याय मर्यादामनतिक्रम्य प्रवर्तिना मनोवाक्कायै व्यवहरणशीलानाम् । वर्णभेदाना शुक्लनीलपीतादिवर्णभेदाना प्रभैव सावनी तद्वत् । 'तस्माच्छास्त्र प्रमाण ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ' ( १६।२४ ) इति भगवद्गीते ||२८|| मनसा साध्यते यच्च यथान्याय न कर्मणा । तदुन्मत्तक्रियाकल्प चेष्टन नार्थसाधनम् ||२६|| मनसेति । उभाभ्यामेव साधनीयमित्यर्थ ||२६| पर पौरुषमाश्रित्य दन्तैर्दन्तान् विचूर्णयन् । शुभाशुभयुक्त प्राक्तनं पौरुष जयेत् ||३०|| Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक १०१ परमिति । एतत्फलितमाह-पर पौरुषमिति ॥३०॥ प्राक्तनः पुरुषार्थो मा नियुक्त इति चेतना । बलादधस्तात् कर्तव्या प्रत्यक्षात् प्रवला न सा ॥३१॥ प्राक्तनेति । प्राक्तन पुरुषार्थ प्रारब्धकर्मफलम् ॥३१॥ प्रत्यक्षमानमुत्सृज्य योऽनुमानेषु तिष्ठते । इमौ साविति प्रेक्ष्य स स्वदोभ्यां पलायते ॥३२॥ प्रत्यक्षेति । तिष्ठते इति–'प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च' (पा० सू० १।३।२३) इत्यात्मनेपदम् ॥३२॥ दोषः शाम्यत्यसदेहं प्राक्तनोऽद्यतनगुणैः । विधीयमानभैषज्यैरल्लाघोऽत्र निदर्शनम् ॥३३॥ दोषेति । उल्लाघो नीरोग । उल्लाघो निपुणे हृष्टे शुचिनीरोगयोरपि-इति हैम ॥३३॥ न यातव्यमनुद्योगैः साम्य पुरुषगर्दभैः । उद्योगो हि यथाशास्त्रं लोकद्वितयसिद्धये ॥३४॥ न यातव्यमिति । पुरुषा एव गर्दभास्तै । लोकद्वितीयम् एष लोक परलो कश्च ॥३४॥ प्रत्यह प्रत्यवेक्षत देह नश्वरमात्मनः । सत्यजेत् पशुकर्माणि साधुवानि सश्रयेत् ॥३॥ प्रत्यहमिति । पशु पामर ॥३५॥ किंचित्कान्तान्नपानादि कलित कोमल गृहे । वणे कीट इवास्वाद्य वयः कुर्यान भस्मसात् ॥३६॥ किंचिदिति । ऐहिकसुखपरतन्त्रो वयोयापन न विध्यादित्यर्थ ॥३६॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् उद्यत्सच्छास्त्रसत्सङ्गसदाचारसुधोजितः । एष पौरुषसतानो दत्ते फलमभीप्मितम् ॥३७॥ उद्यदिति । पौरुषमेव सतान पौरुषस्य सतानो वा । सतान सततौ गोत्रे स्यादपत्ये सुरद्रु मे-इति मेदिनी ॥३७|| आलस्य यदि न भवेजगत्यनर्थः को न स्याद् बहुविभवो बहुश्रुतो पा। एतस्मादवनिरिय ससागरान्ता सकीर्णा नरपशुभिश्च निर्धनैश्च ॥३८॥ ॥ इति पौरुषस्थापनम् ॥ आलस्येति । नरपशवो निमर्यादा | आलस्यम् एव आत्मोन्नतिविघटन स्य पर निदानमित्यर्थ ॥३॥ इहैव वासिष्ठे महारामायणे प्रथमो दिवसो व्यरसीत् । तथाच पठ्यते "इत्युक्तवत्यथ मुनौ दिवसो जगाम सायतनाय विषयेऽस्तमिनो जगाम । स्नातु सभाकृतनमस्करणा जगाम ___ श्यामाक्षये रविकरेण सहाजगाम ॥" इति । एतेन साप्रत व्यास्यानताण्डवाडम्बरै सध्योपासनादि कर्म लोपयन्त सभाव्यसनिनो रागान्धा पर्यालोच्या इति । वचनव्यत्यय आर्ष ॥ ॥ इति पौरुषस्थापनम् ॥ यथा प्रयत्नभू येत तथैध्येत फलैरपि । इति पौरुषमेवेष्टे कि दैव नाम दृप्यति ॥३६॥ पथेति । भूयेत भवितव्यम् । भावे लिड् । एवम् एध्येत एवितव्यम् । दृप्यति । हपहर्षमोहनयो । मोहन गर्व ॥३६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् कश्चिन्मा प्रेरयत्येवमित्यनर्थ कुकल्पने । य प्राप्तो दृष्टमुल्लङ्घ्य स यो दूरतोऽधम ॥ ४६ ॥ कचिदिति । कश्चिद् अन्तर्यामी । माम् । प्रेरयति प्रयोजयति । इति व्यामोहमात्रम् । स हि कमर्थमभिधाय प्रेरयेद् इति तात्पर्यम् ॥ ४६ ॥ १०४ स्वार्थप्रापककार्यैकप्रयत्नपरता बुधैः । प्रोक्ता पौरुषशब्देन सा सिध्येच्छास्त्र सस्कृता । ४७|| स्वार्थेति । शास्त्रसस्कृता शास्त्रानुमोदिता नतूत्पथ नीता ॥ ४७ ॥ प्राकृत पौरुष वीर ! दैवनाम्ना न गीयते । तत्रालम्बितकर्तव्यः ः खञ्जः श्राण कुणिर्न किम् ॥४८॥ प्राकृतेति । वीरेति रामभद्रस्य साभिप्राया सबुद्धि । अतएवान्यत्राप्युक्तम्'उद्योगिन पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति । दैव हित्य कुरु पौरुषमात्मशक्तया यत्कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोष ॥ ' इति । अत्र यत्ने को दोष इति विचारणीयम् । सर्वथोद्योगवता भवित व्यमित्यर्थ ||४८|| सकलकारणकार्यविवजिता निजविकल्पबलादुपकन्पिताम् । वितथदैवकथामवहेलयन् सततमाश्रय पौरुषमात्मन ॥४६॥ ॥ इति दैवनिराकरणम् ॥ सकलेति । निजविकल्पबलादुपकल्पिताम् आत्मनो विकल्पकोटे समु स्थापिताम् ॥४६॥ ॥ इति दैवनिराकरणम् || Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ तृतीयो गुच्छक (५) ये सदुद्योगमुत्सृज्य मूढा दैवाङ्कशायिन । ते धर्ममर्थ काम च हापयन्त्यात्मविद्विषः ॥५०॥ ये सदिति । आत्मविद्विष । तथा च श्रीभगवद्गीतासु 'उद्वरेदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ॥' (६५) इति ॥५०॥ सविस्पन्दो मन स्पन्द इन्द्रियस्पन्द एव च । एतानि पुरुषार्थस्य रूपाण्येभ्यः फलोदय ॥३१॥ सपिदिति । मनसा बुद्ध या कर्मणा च एकहेलया प्रवृत्तौ फलावश्यभाव इति भाव ॥५१॥ यथासवेदन कर्म यथाकर्म फलान्यपि । एर शुभाशुभे दृष्टे न दृष्टे ते व्यवस्थिते ॥५२॥ यथेति । सवेदन ज्ञानम् ।।२।। अशुभेषु समाविष्ट शुभेष्वेगावतारयेत् । चित्त बालकवद् यत्नादिति शास्त्रार्थसंग्रहः ॥५३॥ अशुभेति । शास्त्रार्थसग्रह शास्त्रार्थसक्षेप । तत्त्वमिति यावत् ॥५३।। मच्छास्त्रतः सद्गुरुतः स्वतश्चेति त्रिसिद्धय । पुरुषार्थस्य सर्वत्र न दैवस्य कदाचन ॥५४॥ ॥ इति पौरुषप्राधान्यसमर्थनम् ॥ न चाकृतिर्न च स्पन्दो न च सत्तावभासवत् । तन्मिथ्याज्ञानवद्रढ कि दैव नाम जलप्यते ॥५॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ दशकण्ठववम् न चाकृतीति । आकृति आकार | 'आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या' (न्या० द० २।२।७० ) इति गौतम | स्पन्दन स्पन्द किया । सत्ता सामान्यम् । तदवभास वत् तत्प्रतीतिवत् । रूढ प्रसिद्धम् ||५५|| स्नकर्मफलसिद्धौ देवमस्तीति निश्चयः । दुरवबोधेन जानिव भुजङ्गमः || ५६ || स्नकर्मेति । स्वकर्मफलससिद्धौ दैवनिर्णये रज्ज्वा दुर्ज्ञानगृहीत सर्पो दृष्टान्त ॥५६ || दैवमेवेह चेत् कर्तृ पुसः किमिव चेष्टया । स्नानभोजनादि सर्वं तेन विधास्यते ||२७|| दैनमिति । एकान्ततो दैवकर्तृत्वनिश्चये तूष्णीकेन भवितव्यम् । किष्ट तरेणेति तात्पर्यम् ॥५७॥ न च निष्पन्दता लोके शवतामन्तरेक्षिता । स्पन्दादेव फलोन्मेषस्तस्माद्न निरर्थकम् ||८|| न च निष्पन्दतेति । शवतायामेव स्पन्दाभाव सघटते - इति जीवता सव्यापारेणैव वर्तितव्यम् ||५८ || पृथक् चेद् बुद्धिरन्योऽर्थ सैव चेत् काsन्यता तयो । कल्पनाया प्रमाण चेत् पौरुष कि न कल्प्यते ॥ ५६ ॥ पृथगिति । इष्टापत्तौ बोध बोवकयोर्विरुद्ध कोटिमुद्भाव्य गत्यन्तराभावात पौरुषमेव सावित भवति ॥ ५६ ॥ तेनापूर्तस्य न श्लेषो नभसेव वपुष्मतः । मूर्त च दृश्यते श्लिष्ट तद् दैव नोपपद्यते ॥ ६० ॥ ॥ इति निराकरणसमर्थनम् ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक १०७ तेनामर्तेति । अमूर्तस्य तत एव व्यवहारदशाया कल्पितस्य जात्याकृति व्यक्त्याख्यपदार्थातिक्रान्तस्य चिद्वस्तुन सगराहित्यात् प्रतिपादित साधु सघटत इति तात्पर्यम् ॥६॥ ॥ इति देवनिराकरणसमर्थनम् ।। भगवन् । यल्लोकेषु प्रतिष्ठित तद् दैव नाम फिमिति राघवेण पृष्टो वसिष्ठो व्याख्यत-अङ्ग ! अबन्ध्येन पौरुषेण सपादिता शुभाशुभार्थसपत्तिः इष्टानिष्टवस्तूपपत्तिा, अनुष्ठितस्य कर्मणः फलप्राप्ताविदमित्थ स्थितमित्युक्तिः एव मम मनिर्निश्चयश्चेत्युक्तिः इदमस्य बोधकमित्यनाश्वासनपाचोयुक्तिर्या देवमित्याहुः । भगवन् ! यत्खलु पूर्वकर्मोपार्जित जगति दैव दैनमिति व्यपदिश्यते तदेकान्ततो भाता किमपमृश्यत इति तेन पृष्टः स पुनराख्यत-अङ्ग ! साधूच्यते-॥६१॥ भगवन्निति । प्राणिनस्तेषामावासा इति द्विविधो लोकपदार्थो द्रष्टव्य । तत्र "अधिष्ठान तथा कर्ता करण च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा देव चैवात्र पञ्चमम् ॥” गीता इत्यादौ परसाचिव्येन दत्तहस्तावलम्ब दैवारय वस्तुव्यक्तमेव ॥६॥ या मनोवासना पूर्व जजागार निरर्गला । सैवेयं कर्मभावेन लोके परिणति गता ॥६२॥ यद्वासनो हि पुरुषस्तत्कर्तेष प्रजायते । नान्यभावोऽन्यकर्मा स्याद् दैव कर्म पुराकृतम् ।।६३॥ इत्थ कर्मस्थकर्माणि कर्म प्रौढा स्ववासना । वासना मनसो नान्या मनो हि पुरुषः स्मृतः ॥६४॥ मनश्चित्त पासना च कर्म दैव च निश्चयः । राम ! दुनिश्चयस्यैताः सज्ञाः सद्भिरुदाहृताः ॥६॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ दशकण्ठवधम् एवं पुरुषकारेण नेतरेण कदाचन । सर्वमासाद्यते वीर ! तस्मात्तत्र प्रयत्यताम् ||६६ ॥ या मनोपासनेत्यादि । वस्तुतो निष्कृष्य दैवाख्य वस्तु निर्वक्तुमशक्यमपि तदविकारमुपोद्वलयितु —' अत्यन्तासत्यपि हार्थे ज्ञान शब्द करोति हि ' इति न्या- या मनोवासनेत्यादिश्लोकपञ्चकेन दैनमुज्जीवयन् रामभद्रमाश्वासयति ॥ ६२६६ ॥ भगवन् ! अय प्राक्तनो वासनाप्रसरो यथा मा प्रयोजयति तथेव कृपणस्तिष्ठन् कि विदधामीति राघवेणोक्को वसिष्ठ आख्यत - सौम्य ! शुभाशुभेति द्विविधा सलु वासना । तत्र शुभया चेदिदानी नीयसे तदा शुभेन शाश्वत पद गन्तासि चेदशुभया तदैषा प्रसय निजेतव्यैव— ॥६७॥ भगवन्निति । कृपण कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव इति भाव । शुभाशुभेत्यादि स्पष्ट प्राक् प्रपचितमपि ॥ ६७॥ प्राज्ञश्चेतन मात्रस्त्व न शरीर जडात्मकम् । अन्येन चेतसा तत्ते चेत्यत्व क्वेव वर्तते ॥ ६८ ॥ अन्यस्त्वा चेतयति चेत्त' चेतयति कोऽपरः । इम करचेतयेदित्थमनवस्था न शाम्यति ॥ ६६ ॥ प्राज्ञ इति, अन्य इति च । 'यो मनसि तिष्ठन् मनसोऽन्तरो य मनोन 'वेद' ( वृह० उप० ) इति श्रुत्या मनस प्रेरक प्राज्ञात्मा अन्य, तदधीने मनोवासनोद्भवे कथ मम स्वातन्त्र्यम् इत्याशङ्कय समावत्ते । अनवस्थाख्यो दोषो न शाम्यति अपितू देत्येव ||६८-६६॥ शुभाशुभाभ्या मार्गाभ्या वहन्ती वासनासरित् । योजनीया शुभे मार्गे प्रयत्नैः पौरुषाश्रितैः ॥७०॥ शुभाशुभेति । तथा च योगभाष्ये - 'चित्तनदी हि द्वेधा प्रवहति० इत्यादि ॥७८॥ > Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तृतीयो गुच्छक अत्युत्पन्नमना यावदनभिज्ञाततत्पदः । गुरुशास्त्रप्रमाणैश्च निर्णीत तावदाचर ।।७१॥ अव्युत्पन्नेति । वासनया ससार ससारेण वासनेत्यन्योन्याश्रयत्वात् प्रमातृवर्गस्य ससारान्त पातित्वाद् यावत्प्रमेयाणा स्वरूपवशेन सकीर्णत्वाच । तत एव-'श्रुतिविभिन्ना स्मृतयो विभिन्ना-' इत्येवजातीयज्ञापकत्वाच्च सत्यायेकत्रा विकल्पसमये यावत् पारमार्थिक उन्मेषो न स्यात् तावद् गुरुशासनकपरायणतैव ज्यायसीति उपदिशति । अव्युत्पन्न परमार्थाकलने अपरिचित मनो यस्य तथाभूत इत्यर्थ ।।७१।। ततः पक्वरुपायेण त्वयाभिज्ञातवस्तुना । शुभोऽप्यय आसनौघस्त्याज्यो निर्वहिताधिना ॥७२।। ॥ इति कर्मविचारः॥ तत इति । कषायगुणयोगात् कषाय ससारसरणहेतुर्वासनैव । वस्तुतस्तु बन्वहेतुत्वाद् अशुभवासनेव शुभवासनादि त्याज्या भवतीति तत्त्वम् ॥७२।। ॥ इति कर्मविचार ॥ सप्रति तज्ज्ञानमवतारयति यत्र खलु सर्व ज्ञेय परिसमाप्यते यथास्थितब्रह्मतत्वसत्ता नियतिरुच्यते । सा विनेतुर्विनेतृत्व दिनेयस्य पिनेयता ॥७३॥ यथास्थितेति । नियति - ब्रह्मतत्त्व यथास्थित सच्चिदानन्दस्वप्रकाशात्मना सर्वत्र समतया सर्वानुकूल्येन स्थित तत्सबन्विनी सर्वपदार्थाना सत्तैव भविष्यत्कालसबन्धेन व्यपदिश्यमाना भवितव्यताख्या नियतिरित्याहु ॥७३॥ प्ररोचनार्थ चतुर्भिर्ज्ञानशैलीमेव प्रपञ्चयति-- तदेकाग्रमना राम ! पौरुषोल्लासलालितः । ससारमरुसत्रस्तचित्ताधन्यसुधावधिम् ॥७४॥ जन्ममृत्युरुजाक्लेशप्रत्यादेशमहौषधिम् । जीवन्मुक्तिमहानन्दनिस्तरङ्गपयोनिधिम् ॥७॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दशकण्ठवधम् तपो दान तथा तीर्थमनुपाया भवच्छिदे । इत्येव करुणाष्ट्या कलिता परमेष्ठिना ॥७६॥ सुखानबोधसदृब्वकथासारनिकस्वराम् । इमा विभाय ब्राह्मी ज्ञानशैली मनोहराम् ||७७|| (चकलकम्) तदेकाग्रेत्यादि । परमेष्ठिना परमगुरुणा ।।७४–७७।। नित्य हि साधुपर्काद् विवेकोऽय विकाशते । विवेकपादपस्येम भोगमोक्षौ फ्ले स्मृतौ ॥७८॥ नित्यमिति । स्पष्टम् | विवेक एव पादप तस्य फले इन भोगमोक्षौ ||७|| मोक्षद्वारे द्वारपालाचारी दर्शिता इमे । शमो विचारः सतोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः ॥७६॥ मोक्षद्वारेति । प्रतिपत्तिसौकर्यार्थं मोक्षाख्यद्वारे चतुरो द्वारपालान् व्यप दिशति ॥७६॥ एते सेव्याः प्रयत्नेन चत्वारोऽपि सुमेधसा | यो द्वौ वा तथैोऽपि सेपितो निवृति दिशेत् ||८०|| ॥ इति ज्ञानावतरणिका | एत इति । एतेषु परस्परानुप्रविष्टरहस्यार्थेषु चतुर्षु एकोऽपि यथायोग निषेवितो परार्थसग्राहक परिणमतीत्याशय || ८० ॥ ॥ इति ज्ञानावतरणिका ।। अथ प्रपञ्चिताया ज्ञानशैल्या प्रथम शमारय द्वारपाल पञ्चदशभिर्निरूपयतिएता दृष्टिमवष्टभ्य दृष्टात्मानः सुबुद्धयः । उदिता इन सारे विचरन्ति गतव्यथाः ॥ ८१ ॥ एतामिति । एता जागतीं सृष्टिदृष्टिम् । अवष्टभ्य विलाप्य । दृष्टात्मान प्रत्यक्षीकृतात्मस्वरूपा । श्रतएव सुबुद्धय । ससारे ससरणशीलेऽपि । गतव्यथा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक १११ सन्त उदिता इव आत्मसाम्राज्यलीना इव विचरन्ति व्यवहरन्ति ।।शा आत्मसाम्राज्यविलीनत्वमेव द्वाभ्या प्रपञ्चयति न शोचन्ति न पाञ्छन्ति न याचन्ति शुभाशुभम् । सर्वमेपात्र कुर्वन्ति न कुर्वन्ति मनागपि ।।२।। स्वच्छ दीव्यन्ति तिष्ठन्ति विरमन्ति निराधयः । हेयोपादेयसबाधवर्जिताः स्वात्मनि स्थिताः ॥३॥ न शोचन्तीन्यादि । हेयोपादेयसबाधवर्जिता- अग्राह्यग्राह्यविचिकित्साभ्या य सबाध मुग्धभार तेन वर्जिता अपराभूता । विदितवेदितव्या इत्यर्थ ॥२ ८३॥ निरापाय निरातङ्क निभ्रम स्वास्थ्यवैभवम् । न पिना केवलीभागाद् भासते भुपनत्रये ॥८४॥ निरपायमिति । केलीभाव कैवल्यम् । आत्मस्वरूपेणारस्थानमित्यर्थ ॥४॥ प्राप्तमेतत्पद तात ! न बाह्य साधन मतम् । केवल पौरुषारब्ध श्रवणाद्य व सततम् ॥८॥ प्राप्तमिति । श्रवणादि श्रवण मनन निदिध्यासन च ।।५।। तत्समस्तसुखासारसीमान्तमिति शस्यते । तदेवामन्दनिष्पन्द रसायनमपीष्यते ॥८६॥ तत्समस्तेति । अत्र- एतस्यवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्नि सा काष्ठा सा परागति' इत्यादि श्रुतयो जाग्रत्येव ॥८६॥ गच्छता तिष्ठता वापि भ्रमता पततापि वा । असुरेण सुरेणापि मानुषेणेतरेण वा ॥८७॥ मनः प्रशमनोद्भूत तदवाप्य महत्सुखम् । पचेलिम फल विद्यात् सद्विवेकफलेग्रहे ॥८८॥ युग्मकम्) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दशकण्ठववम् गच्छतेत्यादि । गच्छतेत्यादिना देशकालपात्रनिबन्धनो वैषम्याभावो दर्शित । इहापि परमार्थे वस्तुनि सुरासुरसघर्षानवकाशेन कक्षाविभाग सुदूरमुदस्त ॥८७-८८॥ हृत्कुशेशयकोशेषु येषा शमकुशेशयम् । ते पद्मापतिवद् वन्द्या द्विहृत्पद्मा मनीषिणः ॥८६॥ हृत्कुशेशयेति । एव योगमास्थिता सुरा वा असुरा वा इतरे वा निर्विशेप प्रशस्यन्ते । अहो । येषा हृदयमेवारविन्द तत्र विश्रान्तो शम एवारविन्दम्- ते रागद्वेषबहिभूता एकरसा महात्मानो वैलक्षण्येन द्विहृत्पद्मा इव लक्ष्यमाणा पद्मापतिपद्मनाभसमुद्भूतपद्मासनवत् कथमिव न स्पृहणीया इत्यर्थं ॥८६॥ सौहार्दहृद्य सर्वत्र शमपीयूषवर्षिणि । सुजने परम तत्त्व स्वयमेव प्रसीदति ।।६०॥ सौहार्देति । इत्यनेन परतत्त्वस्य विश्रान्तिस्थान दर्शितम् ॥६०॥ एतदेव शमपुरस्कारेण प्रपञ्चयति शमामृतरसाच्छन्न मनो यामेति निवृतिम् । छिन्नान्यपि तयाङ्गानि मन्ये रोहन्ति राघव ! ॥६१॥ यः समः सर्वभूतेषु भावि काड्क्षति नोज्झति । जित्वेन्द्रियाणि यत्नेन स शान्त इति कथ्यते ॥२॥ बुद्ध गापि शुद्धया बुद्ध्या यथैवान्तस्तथा बहिः । निमल वर्तमानो य स शान्त इति मन्महे ॥१३॥ शमसपन्नवृत्तीना सर्वत्र समदर्शिनाम् । उदेति निर्वृतिश्चित्ताज्ज्योत्स्नेव हिमदीवितेः ॥६४॥ शमममृतमहार्यमार्यगुप्त दृढमवलम्ब्य पर पद प्रयाताः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक ११३ विनयपर ! यथा महानुभावा स्त्वमपि तथा खलु सिद्धये प्रयाहि ॥६५॥ ॥ इति प्रमथो द्वारपालः शमः॥ शमामृतेत्यादि । स्पष्टम् ॥६१-६५|| यद्यपि शमादिषु चतुर्पु एकेनान्य आक्षिप्यत इत्युक्तप्रायम् । तथापि सति शमे निर्बावो विचार उदेतीति प्रक्रियामाश्रयन् दशभिर्विचाराख्य द्वितीय द्वारपाल प्रपञ्चयति शास्त्रावबोवभासिन्या धिया परमशुद्धया । कर्तव्यः कारणजेन विचारोऽनिशमात्मनः ॥६६॥ शास्त्रावरोधेति । स्पष्टम् ॥६६॥ विचाराद् वदते शास्त्रे नयते तत्त्वमञ्जसा । आमयत्यन्तरे तच्च क्रमतेऽत्र निरन्तरम् ॥१७॥ विचारादिति । वदते इत्यत्र-'भासनोपसभाषा-' (पा० सू० १।३।४७ ) इत्यनेन, नयते इत्यत्र-'समाननोत्सञ्जनाचार्य- (पा० सू० १।३।३६) इत्यनेन, क्रमते इत्यत्र-'वृत्तिसर्गतायनेषु क्रम' (पा० सू० ११३।३८ ) इत्यनेन चात्मनेपदानि विशेषप्रतिपत्तये द्रष्टव्यानि ॥१७॥ शक्तिधृतिः स्मृतिज्ञप्तिः प्रतिपत्तिः क्रिया फलम् । फलन्त्येतानि सर्वाणि विचारेणैव धीमताम् ॥८॥ शक्तिरिति । शक्ति सामर्थ्यम् । धृति वैर्यम् । स्मृति स्मरणम् । ज्ञप्ति ज्ञानम् । प्रतिपत्ति स्फूर्ति । क्रिया अनुष्ठानम् । फल निष्पत्ति । फलति निष्पधन्ते ॥६॥ जडाजडपरिज्ञानं नेयार्थपरिवर्तनम् । विचारप्लसमाश्रित्य तरेत् ससारसागरम् ॥६६॥ जडाजडेति । नेयार्थ प्रतिषिद्धार्थ । विचार एव तारकत्वात् प्लव ||६६|| Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दशकण्ठव वम् या विचारविकासिन्यो मतयो गतयो विदाम् । अप्सु तुम्ब्य इनापत्सु न ता मजन्ति वाहिताः ॥१०॥ या विचारेति । गतय अवगमा । वाहिता आश्रिता ॥१००।। मूढमानसरूढानामवाप्य पटुरोधिनाम् । अविचारकरञ्जाना मञ्जयों वेधसूचिकाः ॥१०१।। मूढमानसेति । अविचार एव समन्ताद् व्यथकत्वेन करञ्जा । मञ्जर्यो वल्लर्य । वेधसूचिका वेधनसूच्य ॥१०१।। कजलक्षोदमलिना मदिरामदधमिणी । अविचारमयी निद्रा सुज्ञा स्वप्न न सर्पति ॥१०२।। कजलेति । स्पष्टम् ॥१०२॥ रामैष केलीभान सुविचारकृषेः फलम् । यत्र निष्कामतोदेति शीताशामिव शीतता ॥१०३॥ रामेति । निष्कामता वासनाराहित्यम् ॥१०३॥ उपेक्षते गत वस्तु सप्राप्तमनुवर्तते । न क्षुब्धो वा न चाक्षुब्धः प्राज्ञ पूर्ण इवार्णवः ॥१०४॥ उपेक्षत इति । एवलक्षणक स्थितप्रज्ञो भवतीति भाव ॥१०४॥ कोऽह कथमय दोषः ससार इति सततम् । यथाशास्त्र परामर्शो विचार इति कीर्त्यते ॥१०॥ ॥ इति द्वितीयो द्वारपालो पिचारः॥ कोऽहमित्ति । प्रकृतोपयुक्त विचारलक्षणमेतत् ।।१०।। ।। इति द्वितीयो द्वारपालो विचार ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक अथ सतोषारय तृतीय द्वारपाल पञ्चभि प्रपञ्चयति सतोपैश्वर्यसुसिना चिरविश्रान्तचेतसाम् । साम्राज्यमपि शान्ताना प्रतिभाति तृणोपमम् ॥१०६॥ सतोषेति । शान्तानाम् अचलप्रतिष्ठानाम् ॥१०६॥ सतोषमुदिता प्रज्ञा राम ! ससारवृत्तिषु । विषमास्वप्यनुद्विग्ना न कदाचन हीयते ॥१०॥ सतोषमुदितेति । सतोषेण मुदिता प्रसन्ना । ससारवृत्तिषु सासारिकीषु व्यवहृतिषु । विषमासु असमञ्जसासु । अनुद्विग्ना निर्बाधा । न कदाचन हीयते अपितु यथासभव चीयत एव ॥१०७।। श्रात्मनात्मनि सतोष यावन्नामोति मानसम् । उद्भवन्त्यापदस्तावल्लता इस मनोबिलात् ॥१०॥ प्रात्मनेति । मन एव विषमत्वाद् विलम् गर्त । उद्धरेदात्मनात्मान नात्मानमवसादयेदिति भाव ॥१०॥ आशाविलासविवशे चित्ते सतोषवर्जिते । म्लानादर्श वक्त्रमिव ज्ञान न प्रतिबिम्बति ॥१०६॥ आशाविलासेति । निर्मले हि चन्द्रादि प्रतिफलति । व्यत्यासे तु प्रति फलितमपि दोषाक्रान्तमिव प्रतीयत इति स्पष्टम् ॥१०॥ नालब्धमेष्यते येन न लब्ध चाभिनन्द्यते । स पूर्णेन्दुरिवाऽऽपूर्णः सतुष्ट इति गण्यते ॥११०॥ ॥ इति तृतीयो द्वारपालः सतोष ।। नालब्धमिति । सतोषस्य स्वरूपप्रतिष्ठानमेतत् ।।११०।। ॥ इति तृतीयो द्वारपाल' सतोष ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकएठवधम् इदानीमतिम साधुसङ्गमाख्य मोक्षद्वारपाल सप्तभि प्रपञ्चयति शुन्यमाकीर्णता धत्त मृत्युरप्युत्सपायते । विपत्सपदिवाभाति राम ! साधुसमागमे ॥१११॥ शुन्यमिति । सायव सन्त इति जगति सुप्रसिद्धमेवाबालाङ्गनम् । तत्र विशिष्टयाच्यार्थस्तु प्रतिश्लोक व्युत्पादित एव । य इदानीमपि शब्दगुणेनापि आस्तिकपु गवान् आश्वासयति । व्युत्पादनविवा तु-'मनुष्याणा सहस्रषु कश्चि द् यतति सिद्धये' ( भ गी ७-३) इत्यादि यायेन दुर्लभतरतमैव । अत्र सामा न्यसाधुपदार्थनिर्वचन भवभूतीयमपि न विस्मर्तव्यम् । तथाहि-- "प्रियप्राया वृत्तिविनयमधुरो वाचि नियम प्रकृत्या कल्याणी मतिरनवगीत परिचय । पुरो वा पश्चाद् वा तदिदमविपर्यासितरस रहस्य साधूनामनुपधि विशुद्ध विजयते ॥" इति । एतेषा परीक्षण तु 'शमदम्भ शुचिदम्भ स्नातकदम्भ समाधिदम्भश्च । निस्पृहदम्भस्य तुला यान्ति न चैते शताशेन ।' इत्येवमादिक्षेमेन्द्रसूक्तितोऽपि सुव्यक्तम् । 'शून्यमाकीर्णता धत्ते-' यथा-सुर थ-समाध्यो सुमेधस सगमे । '-मृत्युरप्युत्सवायते' यथा भगवत श्रीधीचस्य । 'विपत्सपदिवाभाति-' यथा-कुती-वासुदेवयो ॥११॥ मतेर्विकासनं सम्यड् निष्कासनमहमतेः । आधेरपासन सौम्य ! साधुसङ्गमसौभगम् ॥११२॥ मतेरिति । मते -मुकुलिताया इत्यर्थ । अहमते अविद्याया । सा च पिशा चीव पुमासमात्मसात् करोति । आधे मानसव्यथाया । अपासन सुदूरनिष्कासनम् ॥११२।। नीरागाश्छिन्नसदेहा गलितग्रन्थयोऽनध ! ) साधवो यदि विद्यन्ते कि तपस्तीर्थसग्रहैः ॥११३॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक ११७ नीरागा इति । वस्तुतो जन्मजन्मान्तरार्जिततपस्तीर्थसग्रहाणामेव पारमाथिक फल तादृक् चित्तवृत्तिसमुदय इति ॥११३॥ त एते नरकानीना सशुष्कन्धनता गताः। यदृष्टा हेलया सन्तः क्लेशसतापतोयदा ॥११४॥ त एत इति । 'हरत्यघ सप्रति हेतुरेष्यत -' इत्यादिमाघोक्तथा व्याख्यातप्रायमेतत् ॥११४॥ सतोष परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गति । विचार परम ज्ञान शमो हि परमं सुखम् ॥११॥ सतोष इति । एकैकस्य मोक्षद्वारपालस्य निष्कृष्टार्थदर्शनम् ॥११५।। एकैकोऽपि किलतेषा परेषा प्रसवास्पदम् । तस्मात् ससिद्धये धीमान् यत्नेनैक समाश्रयेत् ॥११६॥ एकैकैति । इदानीमुक्तेषु चतुर्षु एकैकस्यायनुष्ठान परानुष्ठानफलकमिति सक्षेपेण विनेयान् प्रति उपदिशति ॥११६॥ विचारशमसतोषसाधुसङ्गमशालिनि । नरे श्रियो निराजन्ते कल्पवृक्षाश्रये यथा ॥११७॥ ॥ इति चतुर्थो द्वारपालः सत्सङ्गः ॥ विचारेति । एवविशेषणविशिष्टे पु सि कल्पद्रमे श्रिय इव यथाकल्पनमुद्भवन्ति ता सर्वा सपद इति यौगिकार्थेनापि स्फुटम् ॥११७|| ।' इति चतुर्थो द्वारपाल सत्सङ्ग ॥ इदानी वक्ष्यमाणस्यार्थस्य सुखावबोधाय दृष्टान्तमुत्थापयति आर्ष वा पौरुष वापि ज्ञानमज्ञाननाशनम् । सौरमाग्नेयमथवा तेजस्तिमिरभञ्जनम् ॥११॥ आर्ष वेति । ऋषिर्वेदस्तत आगतमार्षम् । 'सबुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे' (पा० सू० १।१।१६ ) इत्यादौ ऋषिशब्दस्य वेदपरता प्रसिद्धव । तथाचार्ष ज्ञान Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दशकण्ठवचम् मीशावास्यादिवाक्यघटित फलितम् । पौरुष तु रामायण महाभारतादिघटितम् । 'स्वाध्यायोऽध्येतव्य' इत्यध्ययन विधिविशेषसत्तायामपीह फले विशेषाभाव इति भगवतो वशिष्ठस्याशय । अतएवान्यत्रापि - 'स्त्री शूद्रद्विजबन्धूना त्रयी न श्रुतिगोचरा । इति भारतमाख्यान कृपया मुनिना कृतम् ॥' इत्युपदिष्टम् ||११८ || पौरुषे अर्थवादमुत्थापयति— अपि पौरुषमादेय शास्त्र चेद् युक्तियोधकम् । अन्य वार्षमपि त्याज्य भाव्य न्यान्यैकसेविना ॥ ११६॥ अपि पौरुषमिति । त्याज्यमित्यस्य त्यागे न तात्पर्यमपितु सुखावबोधने शासने । अर्थवादे स्वार्थे तात्पर्याभाव इत्यन्यत्र विस्तर ॥ ११६ ॥ युक्तियुक्तमुपादेय वचन बालकादपि । अन्यत्तृणमिव त्याज्यमप्युक्त पद्मजन्मना ॥१२०॥ युक्तियुक्तमिति । उक्तस्यैवोपवृ हणम् ॥१२०॥ योsस्मत्तातस्य कृपोऽयमिति कौपीः पिवत्यपः । मुक्या गाड़ी : सुधाधारास्त शिष्यात् कोऽतिरागिणम् ॥ १२१ ॥ योऽस्मदिति । ' तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणा क्षार जल कापुरुषा पिबन्ति' इत्येवजातीयकेना भारणकेन सुप्रसिद्धमेतत् ॥ १२१ ॥ उक्तमर्थदृष्टान्त विनेये भगवति सक्रामयति दृष्टान्तेन विना राम । नापूर्वार्थोऽबुध्यते । प्रदीपमन्तरा नक्क प्रदर्शनगृह यथा ॥ १२२ ॥ दृष्टान्तेनेति । अत्र - ' -'लौकिकपरीक्षकारणा यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्य स दृष्टान्त 1 ( न्या० द० १|१|२५ ) इत्यक्षपादीय सूत्रम् ॥ १२२॥ दृष्टान्ते या विशदयति- राघव ! दृष्टान्तैस्त्व मयात्र प्रबोध्यसे । सर्वे कारणास्ते हि प्राप्य तु सदकारणम् ॥ १२३॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक ११६ यैरिति । सत् परमार्थसत्यम् । अकारण नित्यम् । अप्रयोजकैरेव मृत्सुवर्णाधु पादानैदृष्टान्तै सद् ब्रह्म कारण बोध्यते । तथाच जन्यत्यादयो दृष्टान्तधर्मा दार्टान्तिके ह्यु पेक्ष्या ॥१२॥ उपमानोपमेयाना कार्यकारणसगतिः । वर्जयित्या परब्रह्म सर्वेषामेर वर्तते ॥१२५॥ उपमानेति । यथा विचारादिभिर्बिम्बग्राहक ज्ञानमुत्पद्यते इत्युच्यते तथा ज्ञानाद् बिम्बमुत्पद्यते इति न वक्तव्यम्-ब्रह्मण उत्पत्तेवक्त मशक्यत्वात् ॥१२४॥ ब्रह्मोपदेशे दृष्टान्तो यस्तवेह निरूप्यते । एकदेशमधर्मत्वं तत्रान्तः परिगृह्यते ॥१२॥ ब्रह्मोपदेशेति । एतदुक्त भवति–जगद्विवर्त ब्रह्माधिष्टानबोधने भुजङ्ग विवाधिष्ठानबोधकरज्जुदृष्टान्तस्याविष्ठानविवर्ताशमात्रेण दृष्टान्तत्व न तु दार्टान्तिकनित्यत्वसुखित्वादिसर्वाशेन ।।१२।। यो यो नामात्र दृष्टान्तो ब्रह्मतत्वावबोधने । दीयते स स बोद्धव्यः स्वप्नभूतो जगद्गतः ॥१२६।। यो य इति । स्वप्नजात इव मिथ्याभूतो जगदन्तर्गत एव न वास्तव ॥१२६॥ एव सति निराकारे ब्रह्मण्याकारणान् कथम् । दृष्टान्त इति नोद्यन्ति मूर्खवैकल्पिकोक्तयः ॥१२७।। एव सतीति । एव दार्टान्तिके दृष्टान्तधर्माभावे सति विकल्पोक्तीनामनवकाश ॥१२७॥ अन्यासिद्धविरुद्धादिदृशां दृष्टान्तदूषणैः । स्वप्नोपमत्वाज्जगतो न किचिदपि हीयते ॥१२८॥ अन्यासिद्धति । अन्येषाम् असिद्धविरुद्धादिदोषदृशा तार्किकाणा दृष्टान्तप्रदूषणैर्दूष्यस्य हेत्वादेर्जगत स्वप्नोपमत्वाद् वस्तुनि न किचिद् दूषण समुदेतीत्यर्थ ॥१२॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दशकण्ठववम् अयस्तु पूर्वापरयोर्वर्तमानेऽपि तादृशम् । यथा जाग्रत् तथा स्वप्नः सिद्धमाबालमागतम् ॥१२६॥ अगस्त्यिति । पूर्वापरयो उत्पत्तिविनाशपूर्वोत्तरकालयो । अवस्तु अभावग्रस्तम् । वर्तमानकालेऽपि ॥१२६।। स्वप्नसकल्पनाध्यानवरशापौषधादिभिः । यथार्था इह दृष्टान्तास्तद्रूपत्वाजगत्स्थितेः ॥१३०॥ स्वप्नेति । जाग्रति कार्याकार्यत्वेन सदिग्धयात्रादौ देवताप्रार्थनादिना शयानस्य स्व'ने कार्यमिति सकल्पोदये तथा चिन्तने चिन्तनोपलक्षितचिरकालपूजामन्त्रजपस्तुत्यादिना तदनुकूलवरलाभे शत्रूणा मुनिशापादिदर्शनेन वा प्रातर्यात्रादिकरणे शत्रुजयादिदर्शनात् स्वाप्नौषधलाभेन जागरे रोगशान्तिदर्शनाच तत्साम्येन सर्वजगत्स्थितेरपि तद्र पत्वात् स्वप्नदृष्टा ता यथार्था ॥१३०॥ स्वप्नाभत्व तु जगतः श्रुते शास्त्रेऽवधार्यते । न सद्यः पार्यते वक्त वाकिल क्रमपर्तिनि ॥१३१॥ स्वप्नामेति । तथा च स्वप्नवदाभासमानमिद जगञ्चक शास्त्राद्युपायमन्तरा न केवलया वाचा प्रतिपत्तु सुशकमितिभाव । अझारणे कारणता यद्बोधायोपमीयते । न तत्र सर्वसाधर्म्य सभवत्युपमागुणे ॥१३२॥ अकारणेति । यदि जगति स्वप्नायुपमाने सर्वाशेऽपि साधयं विवक्षित तर्हि ब्रह्मण्यपि कटकमुकुटाधु पादानस्वर्णदृष्टान्ते तद्वदेव परिणामिता कुतो न विवक्ष्यते ।।१३२।। उपमेयस्योपमानादेकाशेन सधर्मता। अङ्गीकार्याऽनवोधाय निर्विवाद सुबुद्धिना ॥१३३॥ उपमेयेति। उक्तार्थस्यैव विशदीकरणम् ॥१३३।। दृष्टान्तस्यांशमात्रेण बोध्यबोधोदये सति । उपादेयतया ग्राह्यो महावाक्यार्थनिश्चयः॥१३४|| Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो गुच्छक १२१ दृष्टान्तेति । अशमात्रेण उपादेयलेशमात्रेण । उपादेयतया ग्राह्यतया । महावाक्यानि 'तत्त्वमसि' इत्यादीनि ।' न कुतार्किकतामेत्य नाशनीया प्रबुद्धता । अनुभूत्यपलापान्तरपवित्रौर्विकल्पिते ॥१३॥ ॥ इति दृष्टान्तनिरूपणम् ॥ न कुतार्किकेति । नैषा तर्केण मतिरपनेया ( कठो० उप० ३।६) इत्याद्युपनिषद्वाक्यै कुतर्केष्वनास्थाप्रतिपादनात् यथारुचि नियमासभवाच्चेति तात्पयम् । ॥ इति दृष्टान्तनिरूपणम् ।। विशिष्टाशसधर्मत्वमुपमानेषु गृह्यते । को भेदः सर्वसादृश्ये तूपमानोपमेययोः ॥१३६॥ विशिष्टाशेति । विशिष्टो विशेषेण प्रतिपादयितु विवक्षितो योश तेनैव सधर्मत्व सर्वत्रोपमानेषु गृह्यते । अन्यथा-'गौरिव गवय ' इत्यादौ जात्यादिनापि सादृश्यविवक्षाया भेदाभावादुपमानमात्रोच्छेद स्यादित्यर्थ ।।१३६॥ दृष्टान्तबुद्धावेकात्मज्ञान-शास्त्रार्थवेदनात् । महानाक्यार्थससिद्धा शान्तिर्निर्माणमुच्यते ॥१३७॥ दृष्टान्तेति । तत्त्वपदार्थशोधनोपयोगि तत्तदृष्टान्तबुद्धौ सत्याम् एकमद्वितीय यज्ज्ञानस्वरूपमात्मतत्त्व तदेव शास्त्रार्थ तस्य वेदनाद् अववोधात् ॥१३७।। शान्ति श्रेयः पर विद्धि तत्प्राप्तौ यत्नवान् भव । भोक्तव्यमशन प्राप्त कि तत्सिद्धौ विकल्पनैः ॥१३८॥ शान्तिमिति । विकल्पनै विकल्पावतरणै ॥१३॥ तावद् विचारयेद् यावत् तुर्य विश्रान्तिमाप्नुयात् । प्राप्तविश्रान्तिसपत्त, निर्मन्दर इवाम्बुधिः ॥१३६।। तावदिति । एतावत्येव विचारस्येयत्तेति ॥१३॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ दशकण्ठवधम एकाशेनोपमानानामुपमेय सधर्मता । बोद्धव्यं बोध्यबोधाय न भाव्य बोधचश्च ना ॥ १४० ॥ एकाशेनेति । बोधचञ्चुना लोकेषु श्रात्मख्यात्यै ज्ञानध्वजिना न भवित व्यमित्यर्थ ॥१४९|| अनुभूतेर्वेदनस्य प्रतिपत्तेर्यथाभिधम् । प्रत्यक्षमिति सज्ञेह कृता जीवः स एव नः ॥ १४१ ॥ 1 अनुभूतेरिति । प्रकाशात्मना भवनम् अनुभूति । वेद्यस्य प्रकाशन वेद नम् । अनुभव वैद्य-वेत्तृलक्षणस्य त्रितयस्य व्याप्ति प्रतिपत्ति । शेष स्पष्टम् ॥१४१ | स एव सवित् स पुमानर्हताप्रत्ययात्मकः । सोदेति सन्यासा पदार्थ इति स्मृता ॥ १४२ ॥ स एवेति । साक्षी वृत्त्युपाधौ सवित् । अहताप्रत्ययात्मा पुमान् प्रमाता स एव या विषयाकारवृत्त्या बाह्यावरणभङ्गे आविर्भवति सा पदार्थो विषय इति ||१४|| एव व्यष्टौ उपपाद्य समष्टौ हिरण्यगर्भेऽपि दर्शयति स सकल्पविकल्पायैः कृतभूरिक्रमभ्रमैः । जगत्या स्फुरत्यम्बु तरङ्गादितया यथा ॥ १४३ ॥ स सकल्पेति । तरङ्गादितया अम्बुवत् स एव पदार्थ जगत्तया स्फुरती तात्पर्यम् ॥१४३॥ प्रागकारणमेवाशु सर्गादौ सर्गलीलया । स्फुरित्वा कारण भूतं प्रत्यक्ष स्वयमात्मनि || १४४ || प्रागकारणमिति । तत्साक्षिप्रत्यक्ष प्राकू सर्गादौ सृष्टे प्राग् अकारण कारणान्तरशून्यम् एव सर्गलीलया सृष्टिप्रपञ्चेन स्फुरित्वा प्रादुभूय आत्मनि सर्गभावापन्ने । स्वस्मिन्नेवेत्यर्थ । स्वयमेव कारण भूत जातमित्यर्थ. ॥१४४॥ कारण स्वविचारोत्थ जीवस्यासदपि स्थितम् । सदिवास्या जगद्रूपं प्रकृतौ व्यक्तिमागतम् ॥१४५॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ तृतीयो गुच्छक कारणमिति । जीवस्य अजन्यत्वाद् असदिव स्थित कल्पितम् । इवेत्यनास्थायाम् । अतएव विचारोत्थ कारण तु अस्या प्रकृतौ प्रकृतिलक्षणे स्वभावे सदिव कार्यत्वेन जगद्रूप व्यक्ति प्रकाशताम् आगतम् । यद् वस्तु सृष्टे प्राक् सूक्ष्मता असदिव मध्ये प्रादुर्भावेन सदिव व्यवह्रियमाण पर्यन्ते प्रलयावस्थया पुन सूक्ष्मत्वदधत् तद् इत्थमेवोन्नेतु शक्यमिति परमार्थ । एव लक्षणकमेव वस्तु आदावन्ते च प्रतिपत्तिशून्य निर्दिश्य मध्येऽपि तथा विलक्षण निर्दिश्यते ॥ १४५ ॥ | स्वयमेव विचारस्तु स्वत उत्थ स्वक वपुः । घट्य घटयत्याशु प्रत्यक्ष परमं महत् ॥ १४६ ॥ स्वयमिति । आत्मनि तु स्वयमेव विचारो विमर्शलक्षण यथासकल्प स्वत उत्थ स्वक वपुविघट्य अन्त करणज्ञानकर्मेन्द्रियै सयुज्य परम महत् प्रत्यक्ष भोग्यभावम् आशु घटयति सपादयतीति तात्पर्यम् ॥१४६॥ विचारवान् विचारोsपि यदात्मान प्रबोधते । तदा राम ! निस्ल्लेखं परमेवाशिष्यते ॥ १४७॥ विचारवानिति । यदा विचारोऽपि विचारवान् सन् आत्मान प्रबोधते अभेदतया अवगच्छति । बुधिर् अवगमने । हे राम । तदा निरुल्लेखम् अविकल्पित पर वस्तु एववशिष्यते केवली भावेनावतिष्ठते ॥ १४७ ॥ इदानीं सिंहावलोकन्यायेन दैवनिराकरण स्मारयन् पौरुषस्य प्राधान्यम् उट्टङ्कयति स्वयत्नमात्रे रघुराजसूनो ! त वाच्यार्थमपास्य दूरे | श्रासाद्यतेऽन्तः परम पद तत् पौरुषेणेव नहीतरेण ॥ १४८ ॥ स्वयत्नेति । गीतोपनिषत्स्वपि अष्टादशे - 'दैव चैवात्र पञ्चमम्' इत्यनेन चतुर्भिश्चमस्य दुर्बलत्व व्यक्तमेवेति स्पष्टम् || १४८।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दशकण्ठवधम् विदन् द्विजाग्रथो हि मुनित्वमीयात् तद् बाहुजन्मा जनकत्वमीयात् । वणिक् तुलाधारसमत्नमीयाज्जनश्च शूद्रोऽपि च मुक्तिमीयात् ॥ १४६ ॥ निदन्निति । प्राग्व्याख्यातमेतत् । तातश्रीसरयूप्रसादचरणस्पर्वृक्षसेवापरो मातृश्री हरदेव्यपारकरुणापीयूषपूर्णान्तरः । साकेतापरभागवद्धवसतिदु' गाप्रसादः सुधी रास्ते तेन कृतेऽत्र रामचरिते गुच्छस्तृतीयो गतः॥ १५०॥ इति श्रीमति रामचरिते वासिष्ठनिर्यासे मुमुक्षुप्रकरण नाम द्वितीयो - गुच्छकः । दितस्तृतीयः ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थो गुच्छकः। अथ सृष्टिप्रकारनिरूपणपुरस्सर 'एकमेवाद्वितीय ब्रह्म' इत्यागमानुभवयुक्तियुक्त ब्रह्माद्वैत प्रतिपादयितु प्रकरणमवतारयति वाग्भाभिन्न माविद् ब्रह्म भाति स्वप्न इवात्मनि । यदिद तत् स्वशब्दोत्थै यो यद् वेद स वेद तत् ॥१॥ वाग्भाभिरिति । वाचा 'तत्त्वमसि, ब्रह्माहमस्मि' इत्याधु पनिषत्सारभूताना द्वादशमहावाक्याना, भाभि स्वरूपप्रकाशै । आत्मनि प्रत्यगात्मनि । स्वग्न इव भाति आविर्भूत चकास्ति । स्वशब्दोत्थै , स्वशब्दोत्थाश्च ब्रह्मण स्वरूपप्रतिपत्तये क्रियमाणा श्रवण मनन निदिध्यासनादिरूपा उपाया , तै । यद् वेत्ति, यादृश ब्रह्म तत्त्वत साक्षात्करोति । तद् वेद, तादृशमेव पूर्वानुभूत सर्वस्मिन्नपि काले हृदयात स्फुरति । इदमत्र तात्पर्यम्___ ब्रह्मातिरिक्त न किमपि वस्तु इह परमार्थसद् भवितुमर्हति । 'आत्मैवेद सर्वमित्यादि श्रुतिशासनाद् अनुभवसवादाच । यच्चेदमनन्तप्रकारायमाणै वैचित्र्यप्रपञ्च रुल्लसितम् असदपि सदिव प्रतीयमान जगत् , तत्सर्व स्वान इव आत्मन्यध्यस्त केवल कल्पनामात्रसारम् । इत्येवरूपेण सकृदपि सजाते दृढप्रत्यये न कदाचिदपि मुमुक्षोरात्मस्वरूपबोवहानिप्रसङ्ग , न वा ज्ञातपरमार्थस्य तस्य मुक्तिसमयावधि स्वस्वरूपात्प्रच्याव , ब्रह्मविषयक सदेहप्ररोहो वा कथचिदपि सभवति । 'सद्विभातोऽयमात्मे' त्यादिश्रुतीनामप्यत्रार्थ एतदेव रहस्यम् ॥१॥ द्वाभ्या बन्धस्वरूप निर्दिशति बन्धोऽय दृश्यसद्भावाद् दृश्याभावे न बन्धता । दृश्य त्वसभवद् राम ! यथेद तच्छृणु क्रमात् ॥२॥ य एवोत्पद्यते कश्चित् स एप परिवर्तते । उत्पत्तिः समृतावेति प्रागभ्यात्मा तु शाश्वतः ॥३॥ बन्धोऽयमिति । बन्ध स्वस्वरूपानवमर्श , मायाव्यामोहितत्वमिति वा । तथाच साख्या -प्रकारान्तरासभवादविवेक एव बन्ध' (सा० सू०६।१६)। परमार्थतो नात्मनि दृश्योत्पत्ते पूर्व परतो वा विकृते कुतश्चन सभव । तथा च श्रुति - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ दशकण्ठरवम् 'न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च सापक । न मुमुक्षुर्न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता ।' इति । दृश्य जगदाद्यात्मना भासमानो वेद्यवर्ग । स्मरन्ति च शास्त्रकृत - 'यदिद दृश्यते किंचिद् दर्शनात् तन्न भिद्यते । दर्शन द्रष्टुतो नान्यद् द्रष्टैव हि ततो जगत् ।।' इति । अय दृश्यपदार्थ -"द्रष्टदृश्ययो सयोगो हेयहेतु ,' 'प्रकाशक्रिया स्थितिशील भूतेन्द्रियात्मक भोगापवर्गार्थं दृश्यम्', द्रष्टा दृशिमात्र शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्य ,” (यो० द० २ पा० १७-१८, २० ) इत्यादिसूत्रैर्योगदर्शने प्रपञ्चित ॥२॥ ___ य एवोत्पद्यत इति । ससृतौ ससरणदशायाम् । ससरण च-जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, नश्यतीति षड्भावविकारनेमियुक्तम् । प्रागभ्यात्मा प्रत्यक्चेतन । शाश्वत शश्वद्भव , अण् ॥३॥ यदेतद् दृश्यते सर्व जगत् स्थावरजङ्गमम् । तत् सुषुप्ताविन स्वप्नः कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥४॥ यदेतदिति । स्थावर जगमादितरद् । कल्पान्ते कल्पप्रलये । सुषुप्तौ, जीवस्य ज्ञानशून्यावस्थायाम् । उपनिषत्स्विय सुषुप्तिरेव विवृता'यत्र सुप्तो न कचन कामं कामयते, न कचन स्वप्न पश्यति ।' (वृ०उ० ४।३।१६) 'यत्रैतत्पुरुष सुप्त स्वप्न (स्वप्नसृष्टफल) न कचन पश्यति ।' (कौषी० उ० ३३) 'तद् यत्रतत्सुप्त समस्त सप्रसन्न स्वान न विजानाति ।' (छा० उ० ८।६३) अन्यत्रापि "अर्योऽर्थग्रह पुसा तञ्जाग्रदिति कथ्यते । यत्त विनार्थस्मरण मनसा स्वप्नसज्ञितम् ॥ यत्रार्थस्मरणे न स्तस्तत् सौषुप्तमिति स्मृतम् । शुद्धबोधैकरूपो योऽवस्थात सैव तुर्यता ।।" इति ॥४॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १२७ ततः स्तिमितगम्भीर न तेजो न तमस्ततम् । अनाख्यमनभिव्यक्त सत् किचिदवशिष्यते ॥५॥ तत इति । स्तिमितम् अमूर्तत्वान्निष्क्रियम् । गम्भीर परिच्छेदानहम् । न तेज , नीलपीतादिरूपविरहात् । न तम , प्रकाशैकधर्मत्वात् । अनाख्यम् , निर्वर्मकतया इदमित्थमिति निर्देष्टुमशक्यम् । अनभिव्यक्तम्-स्वानुभवैकगम्यतया बाह्यप्रमाणानामगोचरम् ।।शा ऋतमात्मा पर ब्रह्म सत्यमित्यादिनामभिः । शब्द्यते व्यवहारार्थं तत् सदेव महेश्वरः ॥६॥ ऋतमात्मेति । आत्मनो निर्वचन तु 'यच्चाग्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सततो भावस्तस्मादात्मेति शब्द्यते ।।' इति व्यासानुशिष्टमिह द्रष्टव्यम् । ब्रह्म, वृहत्त्वाद् बृहकत्वाद् वा । व्यवहारश्च उपदेश्योपदेशरूप , तदर्थम् । नहि सज्ञाकरणमन्तरा व्यवहार कश्चन घटते । लोकेऽपि देवदत्तादिपव्यपदेश्या हि व्यवहारभाजो भवन्तीति ।। स तथाभूत एवात्मा स्वयमन्य इवोल्लसन् । जीवतामुपयातीव वीचितामिव वारिधिः ॥७॥ स तथेति । तथाभूत चित्स्वभावतया स्थितोऽपि मुग्ध सन् अन्य , आका शादिक्रमोद्भूतलिङ्गसमष्ट्यात्मा जड , स इव उल्लसन् , तदनुप्रवेशात् तदभिमानेन प्राणवारणाद्यपाधिना देहत्वमनुप्रविष्ट जीवताम् उपयाति इव, जीवव्यवहार प्रतिपद्यत इव । वस्तुतस्तु इद विभ्रमविजृम्भितमेवेति इवोपादानात सूचितम् । दर्शनान्तरेऽपि 'देहप्राणविमर्शनधीज्ञाननभ प्रपञ्चयोगेन । आत्मान वेष्टयते चित्र जालेन जालकार इव ।।' (परमार्थसार ३२) इति ॥७॥ ततः स जीवशब्दार्थकलनाकुलता वहन् । मनो भवति भूतात्मा मननान्मन्थरीभवन् ॥८॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दशकण्ठवधम् तत इति । क्रियाशक्तिप्रधान प्राणधारणमेव जीवशब्दार्थ । तत् कलनेन आकुलता चञ्चलताम् । भूतात्मा भौतिकलिङ्गात्मा । मननात् सकल्पविकल्परूपात् । मन्थरीभवन् जाड्यं न मन्दीभवन् । मनो भवति परमात्मभाव विस्मृत्य मन सपद्यते । मनो धर्मानपि सकल्पादीन आत्मन एव मन्यत इति भाव ॥८॥ तत् स्वयम् स्पैरमेनाशु सकल्पयति नित्यश । तेनेस्थमिन्द्रजालाभ जगदेतद् निवर्तते ॥६॥ तदिति । तदेव समष्टिमनोभावमापन्न हिरण्यगर्भाख्य ब्रह्म, स्वयम् अन्येन अबोधितमपि पूर्ववासनानुरोधाद् विराड्भाव, भुवनादिभाव तत्र च चतुर्विवभूतग्रामभावमिति नित्य स्वैरमेव सकल्पयतीति स्पष्टार्थ । तेन सत्यसकल्पेन इन्द्रजालाभम् इन्द्रजालोपमम् । विवर्तते अतत्त्वत अन्यथा प्रथते ।।६।। यथाहि हेम्नः कटक न पृथग्भावमश्चति । कटकान्न च हेमापि ब्रह्मणीद तथा जगत् ॥१०॥ यथाहीति । हेमकटकरूपात् कांचनात् कटकशब्दार्थो यथा न पृथग्भाव भजते तथा ब्रह्मणि प्रतिभात जगदपीद न पृथग्भावमञ्चति । तदेवम् अध्यारोपशतैरपि नाधिष्ठानस्य पारमार्थिकी स्थिति ज्यता इति वस्तुपरमार्थ ॥१०॥ पर जगति न ब्रह्म हेम्नीव क्टकात्मता । सैकतोस्त्रेण वारीच मनसतज्जगद्धमः ॥११॥ पर जगतीति । सैकतोस्रण मरुमरीचिकया। सैकत सिकतामयम्किरणोस्रमयूखाशु -इत्यमर ॥११॥ अविद्या ससृतिवन्धो माया मोहो महत्तम । इत्यज्ञानस्य पर्यायाः कथिता मर्मवेदिभिः ॥१२॥ अपियति । विद्यापोद्यत्वादविद्या । ऊर्ध्वाधस्तिर्वक्ससरणाद्धेतो ससति । स्वातन्त्र्यविघटकत्वाद् बध । मिथ्यात्वान् माया, विश्वमोहकतया वा । मीयते परिच्छिद्यते प्रमातृप्रमेयप्रपञ्चो ययेति वा । भ्रमहेतुत्वान्मोह । दुस्तरत्वान्महत् । स्वरूपावरकत्वात् तम इति ।।१२।। बन्धमोक्षयो स्वरूपमाह द्वाभ्याम् Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ चतुर्थो गुच्छक द्रष्टुदृश्यस्य सत्त व बन्ध इत्यभिलप्यते । द्रष्टा दृश्यवलाद् बद्धो दृश्याभावे तु मुच्यते ॥१३॥ जगत्वमहमित्यादिमिथ्यात्मा दृश्यमुच्यते । यावदेतत्सभवति तावन्मोक्षदशा क्व च ॥१४॥ द्रष्टुरिति । जगत्त्वमहमिति च । स्पष्टार्थो ।।१३-१४॥ नेद नेदमितिव्यर्थप्रलापै नोपशाम्यति । सकल्पजनकै श्यव्याधिः प्रत्युत दीप्यते ॥१५॥ जगद्दश्य तु यद्यस्ति न शाम्यत्येव कस्यचित् । नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ॥१६॥ नेदमिति । जगदृश्यमिति च । दृश्यसद्भावे, नेद नेदमित्युपेक्षया कथचिदेकस्य निराकरणेऽपि पर प्रसज्जते, ततोपीतर इत्येव दृश्यपरपराया यथो त्तर प्ररोह , तस्मान्न केवलया वाचा बाध यावद् विचार सहकारेणैवेति । दृश्यव्याधि -दृश्यमेव व्याधि , दृश्य वा व्याधिरिवेति । पूर्वत्र मयूरव्यसकादित्वात्स मास परत्र च उपमितसमास । व्याधिरिव दृश्योच्छेदो न सुकर इति भाव । दीप्यते दीपदीप्तौ-भावे लट् ॥१५-१६॥ मोक्षे प्रतिबन्धकान् हेतूनाह अचेत्यचित्स्वरूपात्मा द्रष्टा यत्रैव तिष्ठति । तत्रैवैतस्य दृश्यश्री समुदत्यप्यरणदरे ॥१७॥ अचेत्येति । अचेत्य बोद्धुमशक्य चित्स्वरूप आत्मा यस्य, एतादृश । अज्ञातात्मेति यावत् । यत्रैव दृश्यसमावेशायोग्ये परमाणूदरादावरि तिष्ठति स्थिति लभते । तत्रैव एतस्य आत्मन दृश्यश्री दृश्यबीज समुदेति प्रादुर्भवति । अणूदरे-अणु पूर्णाहभावशून्य सकुचितमन्यो जीव , तस्य उदरे उदरकोटरेइति । यत्र कापि एवभूतप्रदेशे तिष्ठन्नेतेनावश्य परिभूयते ॥१७॥ जगत्प्रतिफलत्येवमादर्श इव चित्यपि । जन्ममृत्युरुजाकीर्णा ततो दु खपर परा ॥१८॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दशकएठवधम् जगत्प्रतीति । श्रादर्श इव यथा मुकुरतले सर्व साक्षात् क्रियते, एव चित्यपि परमाणूदरेऽग्यात्मनि ब्रह्माण्डा त समावेश सभवत्येव । न तत्र प्रदेशकृत प्राचुर्य सकोचो वा अनुरुध्यत इति ।।१८।। इद प्रमार्जित दृश्य मयात्राहमवस्थितः । एतदेवाक्षय बीज समाधौ समृतिस्मृतेः ॥१६॥ इदमिति । प्रमार्जित ज्ञाननिरपेक्षेण सविकल्पकेन समाविना दूरोत्सारितम् । समाधौ-समाधिश्च तदेवार्थमात्रनिर्भास स्वरूपशून्यमिव समाधि' ( यो० द० ३।३) इत्येवरूप , तस्मिन् । समाधिस्थश्चेत् समृति स्मरति, तदा समाधेरेव भङ्ग । अस्मृता सा नैव माष्टुं शक्यते । एतदेव चास्य दृश्यस्य अक्षय बीजम्-यन्मूलको दीर्घदीर्घतर ससरणव्यापार ॥१६॥ सति दृश्ये कुतो राम ! निर्विकल्पममाधिता। समाधौ चेतनत्व च तुर्यत्व चोपपद्यते ॥२०॥ सति दृश्यते । दृश्यसत्ताया निर्विकल्पक समाधिरेव न घटते, कुतस्तेन मार्जनम् । सत्यपि वा तस्मिन् चित्तसत्त्वे चेतनत्व, तस्याप्युपरामे तुरीयावस्था चेति न समाविरत्र प्रभवतीति व्यक्तम् ॥२०॥ सुषुप्तान्त इवैतस्मिन् व्युत्थाने दु.खदर्शनात् । भूयोऽनर्थपरिक्लिष्टे क्षणसाम्ये हि कि सुखम् ॥२१॥ सुषुप्तान्तेति । व्युत्थान विरुद्धमुत्थानम् । 'प्रादयो गता' ( वा० २।२।१८) इति समास । 'ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय (यो० द० ३।३६ ) एतदभिप्रेत्योक्तम् "द्रव्यमन्नक्रियाकालशक्तय साधुसिद्धिदा । परमात्मपदप्राप्तौ नोपकुर्वन्ति काश्चन ॥ सर्वेच्छालाभसशान्तावात्मलाभोदयो हि य । स कथ सिद्धिवाञ्छाया मग्नचित्तेन लभ्यते ॥' इति ॥२शा न च पाषाणताप्रख्या रूढि प्राप्ता समाधय । भनन्त्यग्रपद शान्त चिद्रूपमजमव्ययम् ॥२२॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १३१ न च पाषाणेति । पाषाणताप्रख्या अश्मशकलकल्पा , अनात्मभूता इत्यर्थ । रूढिं प्रसिद्धिम् । अजम्-न जायते इत्यज । ड । तम् । अव्ययम्-न व्येति यत् तत् । 'एरच ' इत्यच् । अग्रपद मोक्षरूपम् । न भवन्ति न जायन्ते ॥२२॥ तस्माद् यदीद सद् दृश्य तन्न शाम्येत् कदाचन । शाम्येत् तपोजपध्यानैरिति मन्दविचारणा ॥२३॥ तस्मादिति । तदित्य सतो दृश्यस्योपशम सर्वथा असभवी । शाम्येत्प्रशम यायात् । शमु उपशमे । सभावनाया लिड् । मन्दविचारणा-मन्दाना मन्दा वा विचारणेति चेत्युभयथा योज्यम् । स्वात्मज्ञानलाभे नियतिशक्तिसमुत्थ जपध्यानयज्ञादिक नोगयतया क्रमत इत्याशय । भगवद्गीतास्वपि-'नाह वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।।' (११-५३ ) इति ।।२३।। प्रलीनारोहसंतान यथा पद्माक्षकोटरे । जागर्ति पमिनीबीज तथा द्रष्टरि दृश्यधी ॥२४॥ ॥ इति बन्धहेतुदर्शनम् ॥ प्रलीनेति । प्रलीन सूक्ष्मतयान्तगूढ , आरोहस्य सतान प्रसवो यस्मिन्तत् । पद्मिनीबीजम्-पद्मिनी कमलिनी तस्या बीजम् उपादानभूतम् । जागर्तिआस्ते । द्रष्टरि प्रमातरि, दृश्यधी- दृश्यसहिता धी बुद्धि-मध्यमपदलोपी समास ॥२४॥ ॥ इति बन्धहेतुदर्शनम् ।। कामकर्मवासनासभृतया अविद्यया उपहित आत्मैव जगद्वीज मृत्युबीज च, विद्यया तद्वीजनिष्ठाया शक्तर्दाहे न मृत्युवशो भवतीति प्रागुक्त -तत्र जगत सर्गे प्राथम्यमुपगतस्य आकाशतत्त्वस्य शोधनमुखेन वक्ष्यमाणार्थे आख्यायिकामुपन्य स्यति भो ! एवं किलारव्यायते-आस्त आकाशजो नाम विप्र । यस्यचिरजीविता विलोकयन्मृत्युमर्मीमासामास- मया खलु क्रमेण कृत्स्नानि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकण्ठवधम् भूतान्यघत्सत, दृषदि कृपाणधारेनात्र मम शक्तिः कुण्ठतीति तेन पृष्टो यम ऊचिवान् । मृत्यो ! ल स्पौरुषावहेलनेन । एष आकाशज आकाश एन, नाम्य कानिचिनिधनकारणानि कर्माणि न चाजाताकृतेरिनास्य प्राक्तनैः कर्मभि सह किचिदपि श्लेष, तत एवास्य नावश मानसम्, न चानेन मनागपि क्रियते, यत्पुनरस्य प्राणस्पन्दः कर्मानुमीयते तदत्र न कमवीः, पयसि द्रवत्समिन नमस्वति स्पन्दनत्यमिव विहायसि शून्यत्वमिवैष परमे पदे तिष्ठन् स्वकारणाभिन्न स्वयभू. कथमिव ||२५|| भोः एव किलेति । किलेति वार्तायाम् अव्ययम् । आकाशज - आका शाद् ईषत्प्रकाशाद् ब्रह्मणो जात, लिङ्गसमष्ट्यात्मा हिरण्यगर्भ | चिरजीविताम्चिरजीविनोभाव, ताम् । मृत्युवशेगो न भवतीति यावत् । मीमासामास - विचारयामास । मानपूजायामिति धातो - 'मानेजिज्ञासाम्' ( वार्ति० ) इति जिज्ञासार्थे'गुप्तिजकिय सन् ' ( पा० सू० ३।११५ ) - ' मान्बवदाशान् यो दीर्घश्चाभ्या सस्य' ( पा० सू० ३|१|६ ) इति सूत्राभ्या सनि अभ्यासदीर्घे च मीमास धातु । तत कर्तरि लिट् । अघत्सत अद्य तेस्म । अद भक्षणे इत्यस्मात् कर्मणि लुङ् । ऊचिवान् उक्तवान् । वच धातो कसुप्रत्यय | नास्य कर्माणि - प्रारब्धाधिकारफलाना फलारम्भेनैव विनाशात्, सचिताना ज्ञानेन बाबातू, आगामिना बीजाभानान् नास्य कर्मानुषणि निधनम् - इति भाव । अजाताकृते - अनुत्पन्ना - कारस्य इव । प्राक्तनै श्लेष इति - प्राक्तनै पुराभवै श्लेष सम्बन्ध । तथाच सूत्रम्-'तदधिगम उत्तरपूर्वाद्ययोरश्लेषविनाशाविति' (ब्र० सू० ४।१।१३) । मानसम्-पूर्वदेहस्पदवासनावशो हि चित्तस्पन्द स च नास्त्येवेतिभाव । तत न चा क्रियते । तथाचाय परब्रह्मस्वभावे एव स्थितो न दृश्यस्वभावे । प्राणस्पन्द - स्पन्दन स्पन्द - स्पदि किंचिच्चलने । प्राणस्य स्पन्द क्रिकयौन्मुख्यम् ||२५|| भगवन् ' कृतान्त " शून्यात् कथमुपमुत्पन्न इति मृत्युना पृष्टो यम. पुनरुचे - अय ब्राह्मणो न कदाप्यजनि न वा नास्ते महाप्रलयवेलाया केवल चिन्मात्र सतिष्ठते । तदनु येनास्य सरित्स्वभावनात् Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १३३ पुरस्तान्महन्महो देहोऽहमिति चेतति तेनैव कारतालीयवद् भ्रान्तमाकार पश्यति द्रष्टा । स चाय तदानीमम्बरान्तरे निर्मिकल्पचिदाकाशरूपो विज्ञानघन एवातत स्थित ||२६|| भगवन्निति । निर्विकारस्य शूयस्य विकार, अजस्य जन्म, सता पृथिव्यादीनामसत्त्व च यदुच्यते तत्कथ शक्यसभवमिति सदिहानो मृत्युराचष्टे - भगवन्निति । अय ब्राह्मणो अजनीत्यादिना यम प्रतिवक्ति - न वय शून्यत्वाभिप्रायेण परस्य आकाशत्व पृथिव्यादीना चासत्त्वमभिदध्म किंतु कारणात् पृथक् कार्य स्य सन्नैव नाङ्गीक्रियते । एवम् अजस्योत्पत्तिकथनमपि विवर्ताभिप्रायेण न परिगामबुद्धया । ततश्च अय द्विज परमार्थत केवलविज्ञानभामात्रम्, ततश्च स तथैव सदास्थितो न विकृत । महाप्रलय सतिष्ठते - आद्यन्तयो चिन्मात्रपारिशेष्यात् तदेवास्य स्वाभाविक रूपमिति । तद्नु द्रष्टेत्यन्तम् —तदनु सर्गारम्भकाले येन वासनादृष्टसभृतजीवाविद्याहेतुना, पुरस्तात् पुरत, महतो विरारूपस्य चतुर्मुखस्य वा देहोऽहमित्यभिलापयोग्य, मह स्थूल रूप चेतति ईषत्स्फुरति तेनैव विद्याहेतुना, काकतालीयवत्- काकागमनमिव तालपतनमिवकाकतालम्, काकतालमेव काकतालीयम् - काकतालशब्दाद् इवान्तरार्थे सादृश्यान्तरे 'समासाच्च तद्विषयात् ' ( पा० सू० ५|३|१०६ ) इति छप्रत्यय, 'आयनेयीनीयिय - ( पा० सू० ७/१२ ) इति तस्य ईयादेश | अनर्कितोपनतमिति फलि - तार्थं । स्वप्न इव भ्रात मिथ्याभूतम् आकार पश्यति द्रष्टा अस्मदादिजन | आस्थित - विज्ञानघन विशुद्धज्ञानैकरूप, आततो वितत । परहष्ट्यभ्यस्तदेहादिना नास्य निर्विकल्पतादिक्षतिरिति भाव ||२६|| सचाय नाय काय न कर्माणि न कर्तृत्व न वासना | केवल व्योमरूपम्य भारूपस्येव तेजसः ||२७| नास्येति । पूर्वं प्रपञ्चितस्य निष्कृष्टार्थ ||२७|| वेदनामात्र शान्तौ तु नेदृशोऽप्येष दृश्यते । । तस्माद् यथा चिदाकाशस्तथा तत्प्रतिपत्तयः ||२८|| वेदनेति । वेदना, बहमु खचित्प्रवृत्ति, तन्मात्रस्य शान्तौ । ईदृशोऽपि, प्रातिभासिकरूपोऽपीति । तस्माद् अधिष्ठानतत्त्वस्य परिचयेन विषयबाधात्, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दशकण्ठव म् तत्प्रतिपत्तय वेदना अपि, यथा चिदाकाश तथैव तद्भावादवतिष्ठत इत्या शय ||२८|| एहि सौरमस्येव वेदनस्यानवकाशे पुष्पस्येव पृथिव्यादेसकाशस्य वा दूरोदस्ता । तदत्राक्रमण साहस नभसि बीजाकरणकल्पमिति यमेन नियमितो मृत्युर्यथागत गतवान् । एतन्निशम्य पितरेष मम पितामहो नूनमिति रघूद्वहेन निवेदितो ब्रह्मभूराहस्म - भो एष खलु सकल्पाकाशशरीरो ब्रह्मा मन इति ॥ २६ ॥ एवमिति । सौरभस्य सुरभेर्भाव -अण् । सद्गन्वस्य इव । वेदनस्य चित्स्वभावाना वेदनाना अवकाशे असहने, पृथिव्यादे दृश्यप्रपञ्चस्य | दूरो दस्ता - दूरे उदस्ता प्रतिक्षिप्ता । नभसि व्योम्नि, बीजाकरणकल्प बीजोप्तिसदृशगगनकुसुमा तिमित्यर्थ । निशम्य आकर्ण्य । पित गुरो । अनेन वसिष्ठमभिमुखी करोति । एष आकाशजब्राह्मणेति नामान्तरप्रतिपादितो ब्रह्म पितामह पद्मयोनि 'पितृव्यमातुल--' इति साधु । रघूद्वहेन रघुषु उद्वह रक्षादिभारधारक - उद् + वह + अच् । तेन । रामभद्र त्यर्थ । ब्रह्मभू - ब्रह्मणो भवति इति - 'भुव सज्ञा न्तरयो' ( पा० सू० ३।२।१७६ ) इति क्विप् । वसिष्ठ | आहस्म उक्तवान् । 'ब्रुव पञ्चानामादित-' इत्यादिना ब्रूनो लटि आहादेश | सकल्पाकाशशरीरो ब्रह्मा मन इति । सकल्पमात्रमेव मनोरूपम् । न पृथिव्यादिघटितम् । ब्रह्मा प्रजापति ||२६|| 1 1 निराकारोऽपि सकल्प कथ पुरुषाकारतामापन्न इति दर्शयति चिद्वयोम केवलमनन्तमनादिमध्य ब्रह्मेति भाति निजचित्तशात् स्वयंभूः । रानिव पुमानि वस्तुतस्तु वन्ध्यातनूज इन तस्य तनोरभावः ||३०|| ॥ इत्याद्यसर्गकतृ निरूपणम् ॥ चिद्व्योमेति । मनसो ब्रह्माकार कल्पनापरिणामो न वास्तव, किंतु शुद्ध ब्रह्मैव अज्ञानात् तथा विवर्तत इति तात्पर्यम् ॥३०॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ चतुर्थो गुच्छक ब्रह्मणो मनोरूपत्याभ्युपगमे, मनसश्च वासनाजालरूपत्वात् प्राक्तन वासनाजाल न किंचिदस्य वर्तत-इति कथन न बुद्धिपथमारोहतीति मन्यमानो राघव प्रश्न प्रस्तौति भगरन् । यदि पृथिव्यादिवजित मनो ब्रह्मति गीयते तीतरस्ये ब्रह्मण शरीरे प्राक्तनी स्मृतिः कि न कारणमिति राघवेण पृष्टो वसिष्ठ आख्यत -यस्य फिल पूर्वकर्मानुबन्धी देहस्तस्यैव ससृतिसद्भा वात् स्मृतिः कारणम् । ब्रह्मणो हि पूर्वकर्माभावे प्राक्तनस्मृतेः क इव सक्रमः । कारणात्मन इतरस्येव नापि ब्रह्मण आतिवाहिक प्राविभौतिक इति देहद्वितय केवलमातिपाहिक एव ॥३१॥ भगवनिति । इतरस्येव अस्मदादिवत् पश्वादिवच्च । प्राक्तनी स्मृति - पूर्वशरीरत्यागसमयोद्भूता स्मृति । ' य य वापि स्मरन् भावमिति गीतोक्रस्म दादिरिव ब्रह्मण शरीरे कुतो न प्राक्तनी स्मृति । सत्या च तस्या तदुद्भवावारस स्कारदेहादिकेनापि प्राक्तनेन नून भाव्यमिति । सक्रम सक्रमणम् । प्रवेश इति यावत् । आतिवाहिक - अतिवहनम् अर्चि । धूमादिमार्गेण लोकान्तरप्रापणम् । तत्र साधुरिति ठक् । अस्मदादेलिङ्गदेह इव सूक्ष्म इति यावत् । अविक तु 'आतिवाहिकास्तल्लिङ्गात्' (ब्रह्मसू० ४।३।४) इति सूत्रस्थ शारीरकभाष्यादनगन्तव्यम् । आधिभौतिक , भूतानि व्याघ्रसादीन्यधिकृत्य जात । अधि + भूत + ठन् । उभयपदवृद्धि । स्थूलभूतज । शेष सुगमम् । सर्वासा भूतवृत्तीनामेकोऽजः कारण परम् । न चास्य कारण कोऽपि तेनासावेकदेहवान् ॥३२॥ चित्तमात्रशरीरोऽय न भूम्यादिक्रमोत्थित । प्रजापतियोमरूपः प्रजाः प्रतनुतेतराम् ॥३३॥ सर्गासामिति । चित्तमात्रेति च । पूर्वोक्तस्य फलितार्थभूतत्वात् स्प ष्टार्थों ॥३२-३३॥ ताश्च चिद्व्योमरूपिण्यो विनान्यः कारणान्तरैः । यद् यतस्तत् तदेवेति सर्वैरेवानुभूयते ॥३४॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दशकण्ठवधम् ताश्चेति । ता प्रजा , अयै तत्मक्ल्पव्यतिरिक्त , कारणान्तरै कारण भेटे । यद् वस्तु, यत यस्मादुपादानाज्जातम । अनुभूयते कनककुण्डलादौ । ततश्च जगतो ब्रह्ममात्रत्वमेव सिद्धम् ॥३४॥ निर्वाणमात्र पुरुष परो बोध स एव हि । चित्तमात्र तदेवास्ते नाभ्येति वसुधादिताम् ॥३५॥ निर्वाणमात्रमिति । निर्वान्त्यत्र इति निर्वाणम् , तन्मात्र निर्वृतिमात्रमित्यर्थ । वा गतिगन्धनयो । भावे अविकरणे वा व्युत्पन्न । 'तोऽधिकरणे च' ( पा० सू० ३।४।७६) इति-'नपु सके भावे' (पा० सू० ३।३।११४ ) इति वा क्त । 'निर्वाणोऽवाते' (पा० सू० ८।२।५०) इति निष्ठानत्वम् । निर्वाणमस्त गमने निवृतौ गजमज्जने । सगमेऽप्यपवर्गे च-' इति मेदिनी । यत स चित्तो पाधि । चित्तभ्रान्त्या चित्तमात्रभूतोऽपि परमार्थत स चिदाकाश एवास्त इति न पुन तिकपुरुषादिभावमायातीत्यर्थ ॥३५।। भगवन् । कि रूप मनो येन नैकरिधा जगन्मञ्जरी सचार्यत इति पृष्टो मुनिकुञ्जर आख्यत--॥३६॥ भगन्निति । कि रूप मन | मनस तात्त्विक स्वरूप कीदृशमिति भाव । जगन्मञ्जरी लोकवल्लरी। सचार्यते प्रसार्यते । समुपसृष्टाञ्चरतेय॑न्तात् कर्मणि लट् । मुनिकुञ्जर मुनिश्रष्ठ ॥३६॥ परमार्थदृशा मनो नाम नास्त्येव किमपि तथापि शास्त्रीय-व्यवहारोपयोगि कल्पित तद्रूपमाह यदर्थप्रतिभान तन्मन इत्यभिधीयते । अन्यन्न किचिदप्येतन्मनो नाम रघूत्तम ! ॥३७॥ यदर्थप्रतिभानमिति । यत् अर्थप्रतिभानम् अर्थाकाराध्यास । तदेव मन इत्यभिलप्यते, नैतदतिरिक्त किमपि मनसो निर्वचन शक्यमुत्प्रेक्षितुमिति भाव ॥३७॥ वस्तुतो मनसो रूपं न मनागपि लभ्यते । नाममात्राहते व्योम्नो यथा शून्यजडाकृतेः ॥३८॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी गु १३७ वस्तुत इति । नाममात्राहते - नाममात्रात् नाम्ना एव केवलात् । 'अन्यारादिति' ऋतयोगे पञ्चमी । अतएव तत्कार्येषु - 'वाचारम्भण विकारो नाम 'धेय मृत्तिकेत्येव तु सत्यम' इति श्रुतौ मिध्यात्वमस्योपपद्यते । शून्यजडाकृतेरिति भूतव्योम्नो मनसश्च साधारणम् ||३८|| न बाह्य नापि हृदये सद्रूप दृश्यते मनः । सर्वत्र स्थित चैतदवधेहि यथा नभः ॥३६॥ न बाह्य ेति । अनेन नभसा मन साम्यमुपदर्शितम् । शेष स्पष्टम् ॥३६॥ मध्ये यदेतदर्थस्य प्रथते प्रतिभासनम् । सतो वाप्यसतो वापि तन्मनोऽवेहि नेतरत् ॥ ४० ॥ मध्ये यदेतदिति । प्रत्यक्षे सत स्मृत्यादिपरोक्षे चासो वा र्थस्य मध्ये यदेतत् तदाकारप्रतिभान प्रथा गत सर्वलोकस्य तदेव मन । मन्यतेऽनेन - इतिकरणे सुन् । निराकारचितोऽर्थाकाराध्यास एव मन इत्यर्थ ॥४०॥ इदमस्मात् समुद्भूत मृगतृष्णाम्बुसनिभम् । रूप तु क्षणसकल्पाद् द्वितीयेन्दु अमोपमम् ॥४१॥ इदमिति । इद जगत् । अस्माद् मनस | भ्रम तद्विषयोऽध्यास, तदुप मम् ॥४१॥ भगवन् । सच्चेन्नेद दृश्य शाम्यति असन्नावगम्यत इति कथकारमय दृश्यनिषूचिका पिपीलिकानाश नड्यतीति राघवेणोक्तो मुनिवृषा व्याख्यत- भो ! अस्य दृश्यपिशाचस्य निरासाय तावदेष मन्त्रराजः, सतो नाशायोगान्नष्टमप्येतदन्तर्बीजभूत भवेदेव तत स्मृति - सेकेन दृश्यधीरुद्भूय विविधदोषकुसुमस्तबका भववल्लरीं विकासयेदिन्यनिमोक्षः प्रसजति, स एष मोक्षपथाधिरूढानामेतेषा देवर्षिमुनिसार्थाना दर्शनादिव वाढ कान्दिशीकायते ||४२ || भगन्निति । दृश्यस्यासत्त्वे भवदुक्त केवलीभावो नून सगच्छेदेव, पर सत्सदित्येव दृश्यानुभवात् तद् विरुध्यत इति परिणामवादाभिप्रायेणात्र राघवस्य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दशकण्ठवधम् प्रश्न । दृश्यविचिका- दृश्यरूपा विषूचिका प्रवाहिका । कथकार केन प्रकारेण । 'अन्यथैव कथमित्थसु सिद्धाप्रयोगश्चेत्' (३।४।२७) इति कृञो णमुल । पिपीलि कानाश जीवनाश नश्यतीत्यर्थ । 'कोर्जीवपुरुषयोर्नशिवहो' (३।४।४३ ) इति नशे कर्तरि णमुल् । नड्क्ष्यतीति-णश अदर्शने- इति देवादिकात् कर्तरि लुट् । दृश्यमेव पिशाच -पिशितमाचामति-इति योगार्थात् पिशाच इवाकुलयतीत्यर्थ । अयमत्राभिसधि - असतोऽप्यविद्यया सदनुबोधाद् दृश्यस्य सत्ताभ्रम । कैवल्यभावोदये तु अविद्याया मूलोच्छेदान् नाय भ्रम समुदेति । प्रथम जीवन्मुक्त दर्शनलिङ्गन अनिर्मोक्षप्रसञ्जनेन च दृश्ये सत्यताविश्वास वारयतो विवर्तवाद मभ्युपेत्य भगवतो वसिष्टस्य प्रतिवचनम् । मुनिवृषा मुनिश्रेष्ठ । व्याख्यत व्याचख्यौ । मन्त्रराज - मन्त्राणा राजति विग्रह । 'राजाह सखिभ्यष्टच्' इति समासान्तष्टच् । सतो नाशायोगात् भवेदेव । इहेदमाकूतम्- परिणामवादे हि वस्तुत उत्तरोत्तरावस्थाभि पूर्वपूर्वावस्थातिरोभावमात्रम् , नात्यन्तिकोन्छेद । सतोऽसत्त्वायोगात् । तथाच नाशलक्षणेन पार्यन्तिकेनापि विकारेण तिरोहितस्य द्वैतस्य चित्ते प्रकृतौ वा अवस्थितस्य कामकर्मवासनाबीजात् पुनरुद्भवो दुर्वार एव- इत्यनिर्मोक्षप्रसङ्ग - इति । स्मृतिसेकेन- स्मृत्या सेक सेचनम्तेन । स्मृतिग्रहण भोगोपयुक्तान्त करणवृत्तिप्रमुखस्य सर्वस्यापि जगत उपलक्षणम् । उद्भय प्रादुर्भूय । विविधदोषकुसुमस्तबकाम्- विविधा विविधप्रकारा ये दोषा अविद्याजन्मान - त एव कुसुमस्तबका प्रसूनगुच्छका - ते सन्ति यस्या सा, ताम् । भववल्लरीम्- ससारमञ्जरी विकासयेत् प्रादुष्कुर्यात् । मोक्षपथाविरूढाना जीवन्मुक्ताना देवर्षिमुनिसार्थानाम् । देवाश्च ऋषयश्च मुनयश्चेतिदेवर्षिमुनय - तेषा सार्थ सच - तेषाम् । कान्दिशीकायते- कान्दिशीक इवाचरतीति आचारार्थे क्यच् । बिभ्यदिव नोपसपेति । कान्दिशीको भय त - इत्यमर । चिदात्मा य स्वबाह्यप्रधानस्थमेव दृश्य बुद्धथविवेकात् स्वहृत्स्थितमिव पश्यति- सोऽय ससार विवेकज्ञानोदयात् तदविवेकाभिमाननिवृत्तौ सत्यामपि बहि तस्मिन्- ततो विषयरागिणाम् आरम्भादिवादिना च मोक्ष स्यादिति साख्यसरणिं पुरस्कृत्य आशङ्कते । तथा च गौडपादा 'अस्पर्शयोगो नामैष दुर्दर्श सर्वयोगिनाम् । योगिनो बिभ्यति यस्मादभये भयदर्शिन ॥' इति ॥४२॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १३६ यदि स्याजगदादीद ततो मोक्षो न कस्यचित् । बाह्यमाभ्यन्तर वास्ता दृश्य नाशाय केवलम् ॥४३॥ यदि स्यादिति । स्पष्टम् ।।४३॥ तस्मादिमा प्रतिज्ञा त्व शृणु रामातिभीषणाम् । यथायुक्ति यथाशास्त्र सदर्भेऽत्र विजृम्भिताम् ॥४४॥ तस्मादिति । तस्माद्- विवर्तवादस्यैव परिशिष्टत्वात् । प्रतिज्ञाम्- प्रतिज्ञायते इति । प्रति + ज्ञा + 'आतश्चोपसर्गे' इत्यड् , टाप् । ताम् । कर्तव्यतयोपदेशमार्गमित्यर्थ । भीषणाम् दारुणाम् । यथायुक्ति- युक्तिमनतिक्रम्य वर्तत इति । एव यथाशास्त्रमपि । सदर्भ प्रबन्धे । विजृम्भिताम् उल्लासिताम् ।।४४|| ब्रह्मणो रूप निर्दिशति द्वाभ्याम् - अयमाकाशभूतादिरूपोऽहमिति लक्षिते । जगच्छब्दस्य नामार्थो ननु नास्त्येव कश्चन ॥४५॥ यदिद दृश्यते किंचिद् दृश्यजातं पुरोगतम् । परब्रह्मैव तत्सर्वमजरामरमव्ययम् ॥४६॥ अयमिति । यदिदमिति च । निगदव्याख्यातावेतौ ॥४५-४६।। पूर्णे पूर्ण प्रमरति शान्ते शान्त व्यवस्थितम् । व्योमन्येवोदित व्योम ब्रह्मणि ब्रह्म तिष्ठति ॥४७॥ पूर्णे पूर्णमिति । प्रतीचो यद् ब्रह्मक्य तत् पूर्णे पूर्ण प्रसरति । व्योम न्येव घटाधुपाधित्यागाद् व्योम्नेवोदितम् । अतो ब्रह्मण्येव ब्रह्म तिष्ठति- नाणु मात्रमपि तद् विक्रियते । यत्र हि यदध्यास तत्कृतेन गुणेन दोषेण वा अणुमात्रेणापि स न सबध्यत इति ॥४७॥ भगवन् ! नन्वेव सन्ध्यातनूजेनापेषि शैलः, शशविषाणेन पलायि दूर, शिलयानति मुहुरिति व्याहरति रघूत्तसे स सूनृतवाग् व्याहृत-॥४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० दशकएठवधम् भगवन्निति । अत्र वन्ध्यातनूजेनेत्यादयो दृष्टान्ता पदार्थवाक्यार्थोभयासभवप्रदशनायोन्यन्ते । सूनृतवाक्- सूनृता प्रिया सत्या च वाग् यस्य स । प्रामाणिकमूर्धन्य । व्याहृत व्याहरत् ॥४॥ मनो दृश्यमय दोष तनोतीम क्षयात्मकम् । असदेव सदाकार स्वप्नः स्वप्नान्तर यथा ॥४६॥ मनो दृश्यमिति । स्पष्टार्थ ॥४॥ स्फुरति गच्छति वल्गति याचति ___ भ्रमति मञ्जति सहरति स्वयम् । अपरता परतामपि केवला श्रयति चञ्चलशक्तिया मनः ॥५०॥ ॥ इति प्रकरणार्थकल्पनम् ॥ म्फुरतीति । मनश्चञ्चलशक्तितया यत् श्रयति तत्रैव स्फुरतीत्यादिभ्रमो विभाव्यते । अपरता सासारिकदशाप्रयुक्तमपकर्षम् । परता कैवल्यलक्षणोत्कर्षम् । श्रयति उपयाति ॥५०॥ ॥ इति प्रकरणार्थकल्पनम् ।। महाप्रलयविस्फूर्ती दृश्येऽसत्तामुपागते । अजोऽव्ययो भासमानः परमात्माऽनशिष्यते ॥५१॥ महाप्रलयेति । महाप्रलयस्य सकल्पप्रलयस्य विस्फूर्ति विस्फुरण यत्र । अर्थाजगति । असत्ता सूक्ष्मीभावादर्थक्रियाऽसमर्थताम् । परमात्मा महेश्वर ॥५१॥ यः पुमान् साख्यदृष्टीना ब्रह्म वेदान्तपादिनाम् । वैज्ञानिकाना विज्ञान शून्य शून्य विदामपि ॥५२॥ यः पुमानिति । सर्ववादिनामपि तत्तद्बुद्धिकल्पितैविशेष स एव सिद्धान्तविषय - इति सर्वाधिष्ठाने तस्मिन्न कोऽपि विवाद । अतएवेदमुच्यते- सज्ञासु केवलमय विदुषा विवाद ' इति ॥५२॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक नष इति । अभ्याशे अन्तिके नातिदूरे नाति स निहिते क्रियामन्तरेण लभ्ये विषमादिस्थे च फले क्रिया सफला स्यात्, आत्मा तु नतथेति पूर्वार्ध स्याशय 1 स्वानन्दा लभ्यते-विस्मृतकण्ठस्वर्णाभरणवज्ज्ञानलभ्यता त्वस्य सुलभेति तात्पर्यम् ॥५७॥ १४२ यस देव इत्येन सपरिज्ञानयोगतः || जन्तु र्न लभते दुःख जीवन्मुक्तत्वमेत्यपि || ५८ || सदेवेति । सपरिज्ञानयोगत - सपरिज्ञान स्वात्मानुभव तद् योगत || ५८ || पौरुष प्रयत्नेन विवेकेन विकासिना || स देवो ज्ञायते राम ! न तपोदानकर्मभिः || ५६ || स्वपौरुषेति । श्रवणमननादिरूपात् स्वपौरुषादतिरिक्त नान्यत् साधनान्तरम् ईश्वरपरिचयमुद्भावयतीति भाव ॥ ५६ ॥ रागद्व ेषतमः क्रोधमदमात्सर्यवर्जनम् || विना तपो वा दान वा क्लेश एव न वास्तवम् || ६०॥ रागद्वेषेति । न वास्तव साधनमिति शेष ||६०|| रागाद्य ुपहते चित्त वञ्चयित्वा पर धनम् ॥ यदयते तस्य दान तपो वा तच्च निष्फलम् ॥ ६१ ॥ रागादीति । रागाद्युपहते रागादिना कलुषिते । सति रागादौ धनार्जने परवञ्चनाद्यवश्यभावाच् चित्तशुद्वेरेव दुर्लभत्वाद् दानादे काम्य फलमपि दुर्लभम् । दूरे ततो ज्ञानमोक्षप्रत्याशा ॥ ६१॥ तत् पौरुष कीeगात्मज्ञानस्य लब्धये || येन शाम्यत्यशेषेण रागद्वेषविषूचिका ॥ ६२ ॥ दिति । ॥६२॥ क्लेश वृत्या वा लोकशास्त्राविरुद्धया || सतोषैश्वर्यसंपन्नो भोगगन्ध परित्यजेत् || ६३|| Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १४३ क्लेशेति वृत्त्या जीवनसाधनसपत्त्या | लोकशास्त्राभ्याम् अविरुद्धया समतया । भोगगन्व भोगवासनाम् । तदभिनिवेशमिति यावत् ||६२|| यथाप्राप्तार्थमतुष्टो यो गर्हितमुपेक्षते ॥ साधुमगमसच्छास्त्रसे सद्यः स मुच्यते ||६४ || यथाप्राप्तेति । अर्थसतुष्ट वित्तैषणाशून्य । गर्हित शास्त्र, शिष्टेषु निन्दितम् । सद्य तत्क्षणम् - शीघ्र वा ॥ ६४॥ विचारेण परिज्ञातस्वभावस्य महामतेः || अनुकम्पया भवन्त्येते ब्रह्मन्द्रोपेन्द्रशकराः || ६५|| ( इति मुमुक्षु प्रयत्नोपदेशः ) विचारेणेति । परिज्ञातस्वभावस्य - परिज्ञात परिशीलित स्वभाव आत्मतत्त्व येन तस्य | अनुकम्पया कृपाभाज । उपेन्द्र विष्णु ॥ ६५ ॥ | ( इति मुमुक्षुप्रयत्नोपदेश ) एष सर्वमिद विश्व न विश्व चैष सर्वगः ॥ एष एको महान् देवो नहि विश्वाभिधास्ति दृक् ॥ ६६॥ एषेति । विश्वात्मत्वोक्तिरिति भान || ६६ || सर्वाधिष्ठानभावेन सर्वगतत्यमिति प्रतिपादनाय चेतन राम ! ससारो जीव एष पशुः स्मृत. ॥ त उज्जिहते स्कारा जरामरणभीतयः ||६७॥ 1 चेतनमिति । चेतनम् - चेतयते चेतति वेति व्युत्पत्ति | 'नन्दिग्रहि - ' (पा० सू० ३।१।१२) इति कर्तरि ल्यु । वाड् मन प्रारणकरणग्रामानुप्रविष्ट ब्रह्मव जीव । स च बहिर्मुखतया विषयानेव सारतया पश्यन् पशुरित्युच्यते । श्र अस्मादेव देहेन्द्रियविषयवासनानुसारात् तत्तद्देहपरिग्रहे स्फारा जरामरणभीतय उज्जिते । उत्पूर्वाद् 'ओहाड गतौ' इत्यत कर्तरि लट् । श्रन्तस्थिता विर्भवन्ति ||६७ || स्थूल शरीरातिरिक्ततया तज्ज्ञानादेव जरामरणादिप्रत्यय सिद्ध - ' अश रीवा वसन्त प्रियाप्रिये न स्पृशत ' इति श्रवणाद् इत्याशङ्का परिहरति Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक पशुरज्ञो ह्यमूर्तोऽपि दुःसस्यैवैष भाजनम् ।। चेतनत्वाच्चेतनीय मनोऽनर्थः पय स्थितः ॥६॥ पशुरिति । सर्वमविशेषेण पश्यतीति पशु । अमूर्तस्थूल देहशून्योऽप्यसौ न कृतार्थ । यत अज्ञ अज्ञानवान । चेतनीय यन्मन तद्रपोऽनर्थश्च स्वय भूत्वा स्थित । अतो दु खभाजनमेवैतत् । अशरीरमित्यादिश्रुत्यर्थस्तु स्थूल-सूक्ष्म कारण देहत्रयरहित प्रियाप्रिये न स्पृशत -इत्येवतात्पर्यक न तुस्थूलदेहमात्रपर । तथात्वेऽपि स्वप्ने प्रियाप्रियदर्शनादिति भाव ॥६॥ चेत्यनिर्मुक्तता या स्यादचेत्योन्मुखताऽथवा ॥ सा चास्य भरितावस्था ता ज्ञात्वा नानुशोचति ॥६६॥ चेत्यनिमुक्ततेति । मुक्तौ चेत्यनिमुक्ततैव प्रयोजिका । अचेत्योन्मुखता तु समाधौ प्रसिद्धा । इयमेवास्य भरितावस्था मुक्तावस्थेति ॥६९।। अत्रार्थे श्रुति प्रमाणयति भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसशयाः ।। क्षीयन्ते च स्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥७॥ भिद्यत इति । मूलाज्ञाननाशात् तत्कार्य-अन्त करणतादात्म्याध्यास लक्षणो हृदयग्रन्थि भिद्यते नश्यति । तन्नाशादेव तन्मूलका सशयादयोऽपि नश्यन्तीत्यर्थ । परावरे-पर कारणमपि अवर यस्मात् तत्-तथाविधे । कर्माणि सुखदु खस्वभागानि । क्षोयन्ते समूलपात विलीयन्ते ॥७०।। एर तर्हि चित्तनिरोधलक्षणयोगेनैव चेत्योन्मुखत्वस्य रोद्ध शक्यत्वाज्ज्ञानप्रयासो निरर्थकस्तत्राह-- तस्य चेत्योन्मुखत्व तु चेत्यासभरमन्तरा ।। रोद्ध न पायेंते दृश्य चेत्य निरमते कथम् ।।७१॥ तस्येति । चेत्यस्य दृश्यस्य असभवज्ञानेन मूलतो बाधम् । चेत्य कथ वै शाम्यति विना ज्ञानमिति शेष । तदित्थ ज्ञानमन्तरा तादृशस्वरूपसमाधिरेव न सिध्यतीत्यर्थ ॥७॥ यदेतच्चतन जीवो निशीणों जन्मजगले ॥ उशन्त्यात्मानमेत ये ते मन्दाः कोविदा अपि ॥२७॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १४५ यदेतदिति । जन्मजङ्गले जन्मने । जन्मग्रहण शरीरसङ्घोपलक्षणार्थम् । विशीर्ण गलित । उशन्ति इच्छन्ति । वश कान्तौ । कान्तिरिन्छा । कर्तरि लट् ॥७२॥ जीव एव हि ससारश्चेतना दुःखसततिः ।। ज्ञातेऽस्मिन् नापि विज्ञात किंचिद् भवति सुव्रत ! ||७३|| ज्ञायते परमात्मा चेत् सर्वा दुःखस्य सततिः ।। प्रणश्यति विषावेशशान्तानि विषूचिका || ७४ ।। जीवेति । ज्ञायत इति च । द्वावपि स्पष्टाथ ||७४|| द्रष्ट्ऋदृश्यक्रमो यत्र स्थितोऽप्यस्तमय गतः ।। यदनाकाशमाकाश तद्र प परमात्मनः ॥७५॥। द्रष्ट्ऋदृश्येति । अनाकाशमाकाशम् - आकाशबाधेऽप्यपरिच्छिन्नत्वेनविषु लत्वादाकाशम् ||७५ ॥ अशून्यमिन यच्छून्य यस्मिन्शून्य जगत्स्थितम् ।। सगौघे सति यच्छून्य तद्र ूप ब्रह्मणो विदुः ||७६ || शून्यमिवेति । जगत् स्वभावशून्यमपि यत् सर्ववस्तुयाथात्म्य भूत स्वरूपेण पूर्णयाद् अणुमात्रेणापि अशून्यमित्र शून्यम् असदपि जगत् स्थितम् । सद्भावमापन्नमित्यर्थ । सर्वौघे - सर्गलक्षणा या यस्य तथाविधे अज्ञाने सति यत्सदपि अनुपयोगाच्छून्यमिव शून्यम् ||७६ || तज्ज्ञातमात्मनो रूप भवेन्नान्येन वर्त्मना || जगन्नाम्नोऽस्य दृश्यस्य स्वसत्तासंभव विना ||७७|| ( इति जगदादिश्य सत्ताप्रतिज्ञा ) तज्ज्ञातमिति । स्वसत्तासभत्र मिध्यात्व तन्निश्चयमिति यावत् ||७७ || ( इति जगदादिदृश्यासत्ताप्रतिज्ञा ) स्थितमेवास्तमायाति जगद्श्न विचारणात् ॥ यथा स्वप्नागमे स्वप्ने ज्ञाते सत्यत्वभावनम् ||७८|| Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ चतुर्थो गुच्छक स्थितमिति । यथा स्यग्नादौ स्थिते एर स्वग्नोऽयमिति परिज्ञाने स्वप्न सत्यत्वभावना अस्तमेति तद्वत् ।।७।। तदिद ज्ञायते ह्यस्मिज्ञानकोशेऽपधारिते ।। तज्जीवन्मुक्तिसाम्राज्यमौख्य यत्रानुभूयते ॥७६।। तदिदमिति । पिनेयानामभिमुखीकरणार्थ प्ररोचनावाक्यमिवेद ब्रह्मविषयकज्ञानप्रशसापरम् । ७६ ।। बोधेकनिष्ठता यातो जाग्रत्येर सुषुप्तयत् ।। य आस्ते व्यवहन स जीवन्मुक्त उच्यते ॥८॥ बोधैकनिष्ठतेति । यो व्यवहां सन्नपि-'नैव किचित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' इति भगवदुक्तदिशा जाग्रत्यपि सुप्तवन्निर्विकार आस्ते स जीवन्मुक्त ।।८०॥ यस्य नाहकृतो भावो यस्य बुद्धिर्न लिप्यते ॥ कुर्वतोऽकुर्वतो वापि सजीवन्मुक्त उच्यते ।।८१।। यस्य नाहमिति । न लिप्यते कर्तृत्वाकर्तृत्वाभिमानाभ्यामित्यर्थ ।।८।। जीवन्मुक्तपद त्यानत्त्वा काये कालनिमीलिते ।। विदेहमुक्ततामेति मरुदस्पन्दतामिव ।।८२।। जीवन्मुक्तेति । कालेन निमीलिते अस्ते प्रारब्धक्षये सतीति यावत् । विदेह मुक्तता मुक्तिविशेष । विदेहाद् देहविगमाद् या शुद्वा मुक्तता सा । 'तत कालवशादेव प्रारब्धे तु क्षय गते । वैदेहीं मामकी मुक्ति याति नास्त्यत्र सशय ॥' इति । मरुत् पवन । अस्पन्दताम् निश्चलताम् ।।२।। यतः कालस्य कलना यतो दृश्यस्य दृश्यता ।। मानसी कल्पना येन यस्य भासा विभासनम् ।।८।। क्रिया रूप रस गन्ध शब्द स्पर्श च चेतनम् ॥ यद् वेत्सि तदसौ देवो येन वेत्सि तदप्यसौ ॥८४।। (युग्मकम् ) (इति परमकारणदर्शनम् ) तथाच Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक यत इति क्रियामितिच । कालस्य कलना षड्भागविकारा । दृश्यस्य दृश्यता, दर्शनफलव्याप्ति । मानसी कल्पना इष्टानिष्टपरिहारविषया मनोरथविकल्पा । येन निमित्तेन । क्रमाद् यदीयसच्चिदानन्दरूपता निर्वाह्या इति यावत् । तञ्च त्रयम् यस्य भासा जगद्विभासनमेव नान्यत । अय भाव -अज्ञातसाधारणी सर्वव्याप्ति सत्ता । अनावृतमात्रव्याप्ति दर्शनम् । तत्र अनुकूल वेदनीयमात्रव्याप्ति आनन्दता इत्यान्तरे औपाधिकचैलक्षण सत्यपि भारूपव्या'तेरेकरूपत्वात् । देहकर्मेन्द्रियोपायो क्रिया, ज्ञानेद्रियोपाधो रुपादि, अन्त करणोपाधौ चेतन प्रमातार च यत्स्वरूप सन् वेत्सि तत् प्रमातृनिष्कृष्टचिद्र पमसौ । येन विषयव्याप्तवृत्तिनिष्कृष्टचिद्र पेण वेत्सि तदप्यसौ देन इत्याशय ।'८३-२४॥ ( इति परमकारणदर्शनम् ) नाशयित्वा स्वमात्मान मनसो वृत्तिसक्षये ।। सद्रूप यदनाख्येय तद्रूप तस्य वस्तुनः ॥८५|| नाशयित्वेति । यथा समाधो निरोधेन वृत्तिसक्षये सति निरिन्धनाग्निवन् मनस स्वमात्मान मन स्वरूपमपि नाशयित्वा यद् अनाख्येय स्वप्रकाशसद्र पम् अवशिष्यते तद् इत्यर्थ ॥८॥ नास्ति दृश्य जगद् द्रष्टा दृश्याभावाद् विलीनवत् ।। भातीति भासन यत् स्यात् तद् रूप परमात्मनः ॥८६॥ नास्ति दृश्यमिति । निर्विकल्पकस्य समाधे प्रारम्भे दृश्याभावाद् द्रष्टा प्रमातापि विलीनवद् भाति इति त्रिपुटीलयभासन साक्षिरूप तदित्यथे ॥८६॥ चित्प्रकाशस्य यन्मध्य प्रकाशस्यापि खस्य वा ।। दशेनस्य च यन्मध्य तद् रूप ब्रह्मणो मतम् ।।८७|| चित्प्रकाशेति । यद् द्रष्टु कोटौ अन्नमयान्ते आत्मतया प्रसृतस्य चित्प्रकाशस्य एकैककोशनिवेकेन पर्यालोच्यमानस्य आनन्दमयकोशस्यापि आन्तरत्वान् मध्यम, टश्यकोटौ च मूर्तप्रपञ्चसारभूतस्य आदित्यात्मकप्रकाशस्य अमूर्तप्रपञ्चसारभूतस्य रवस्य, आकाशलिगसमष्ट्वात्मन अव्याकृताकाशस्य वा आन्तरत्वाद् यन्मव्य दर्शनस्य चाक्षुषादिवृत्तिरूपस्य च अन्त स्फुरणरूपत्वाद् Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ चतुर्थो गुच्छक यन्मध्यम्, यथाक्रमम् द प प्रसिद्ध तद् ब्रह्मणो रूपमित्यर्थं । तथाच तैत्तिरीयाणामुपनिषदि अन्नमयादीना कोशानाम् आन्तरम् आनन्दमय- 'तस्य प्रियमेन शिर - मोदो दक्षिण पक्ष प्रमोद उत्तर पक्ष आनन्द आत्मा, ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठेति' तस्याप्यान्तर ब्रह्म दर्शितम् । वृहदा रण्यके च-द्वे गाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूर्त चेति' प्रस्तुत्य - 'तस्य मूर्तस्यैष रसो य एष तपति, तस्यैतस्यामूर्तस्यैष रसो य एतस्मिन् मण्डले पुरुष' इति प्रदर्श्य-'अथात आदेशो नेति नेतीति मूर्तामूर्तारोपाधिष्ठान तदन्तर ब्रह्म तन्निषेधेन दर्शितम् । 'प्रतिबोधविदित मतम्' इति तवलकाराणामुपनिषदि ब्रह्मण सर्वबुद्धिवृत्या श्रातरत्वमुक्तम् ||८७|| यतो जगदुद्दतीव नित्यानुदितरूप्यपि ॥ विभिन्न दिवा भिन्न तद्रूप परमार्थकम् ||८|| ( इति कल्पान्तावशिष्टपरमभावदर्शनम् ) यतो जगदुदेतीति । परमार्थक वास्तविक्रम् | अन्यत् पूर्वमवोचामेति रु पुनरास्ते || ( इति कल्पा तारशिष्ट परभावदर्शनम् ) तुल्यस्यातुलभानस्य भावकैः किल तोलनम् ॥ अनन्वया यथैवोक्तिर्जगत्सत्ता तथैव हि ॥ ८६ ॥ तुल्यस्येति । तुल्यस्य उपमातुम् इष्टस्य, दृश्यस्य, उपमेयबहिभूततुलाया अलाभेन, उपमातुमशक्यस्य भानस्य, उपमेयकोटिप्रविष्ट भावकै यत तोलनम् उपमावचन तद् अनन्वयालका रोदाहरणभूता यथा उक्तिस्तथैव । यथा—गगन गगनाकार सागर सागरोपम ।' इत्युक्तिग्नुपमत्वे पर्यवस्यति, तथैव स्यात्-इति न विकल्पकल्पनादृष्टान्त । अतो जगत पृथक्सत्ता तथैव यथा बन्ध्यापुत्रसत्तेति । असत सद्द्दष्टान्तादर्शनेऽपि असद्दृष्टान्तता न विरुध्यते । वन्ध्यापुत्र इव खपुष्पमसदित्युक्तिदर्शनात् ॥ ८६ ॥ आकाशे च यथा नास्ति शून्यल व्यतिरेकवत् ॥ जगच्च ब्रह्मणि तथा रघूत्त सोपलब्धिमत् ॥६०॥ आकाश इति । व्यतिरेको भेदस्तद्वत् । उपलब्धिमद् उपलभ्यमानमपि ॥६०॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक २४६ यथा पुरमियास्त्यन्तर्विदेव स्व'नसविदः॥ तथा जगदिवाभाति स्मात्मैव परमात्मनि ।।६१।। (इति परमार्थदर्शनम् ) यथा पुरमिति । स्वप्नसचिद स्वप्नद्रष्टुरन्तर्गता वित् चैतन्यमेव पुरमिर यथा आभाति तथा परमात्मनि स्वात्मैव, जगदिव जगदाकारेण आभाति आभासते ॥६॥ (इति परमार्थ दर्शनम् ) ब्रह्म सर्गपद् भाति सुषुप्त स्वप्नवद् यथा ।। सवोत्मक च तत्स्थान तत्र राम ! क्रम शणु ॥१२॥ ब्रह्म वेति । यथा प्रतिपुरुष सुषुप्त्यात्मरूपमेन स्यानचद् विवर्तते तथा ब्रह्मापीति दृष्टान्तानुसारिणीय कल्पनेत्यथ । सर्वात्मक्त्व च-'अात्मा वा इदमेक एवाग्र आमीत्' इति श्रुतौ सवाचि, इदपदसामानाधिकरण्यात् । तस्थान सर्वसुषुप्तसमष्टिप्रलयावस्थ ब्रह्मेति ॥२॥ तस्य खलु परप्रकाशस्य सत्तामात्रात्मक यद् विश्व तदात्मनि सरिदा अगृहीतात्मकमहमर्शनपूर्वक भविष्यन्नामार्थकलनाम्यूहितरूपक स्वयमेव किचिच्चत्यतामिवोपयाति । तदनु सा परसत्तैर सतश्चेतनोन्मुखीचिन्नामयोग्या जायते । तदनु सान्द्रसवेदना कलितकलनीया पर पद त्यजन्ती जीगादिसज्ञिता भावनामात्रसारा ससरणपरायणा वस्तुस्वभावेन सत्तामनूत्तिष्ठति । तदन्वाकाशसत्ताघोषः ॥१३॥ तस्य खल्वित्यादि । परप्रकाशस्य अनन्तप्रकाशात्मरूपस्य । सत्तामात्रात्मकम-सत्तामात्र आत्मा परमार्थ रूप यस्त्र तथाविध सविंदा अहमर्शनपूर्वकम् अगृहीतात्मक अहकाराध्यास विना, भविष्यन्नामार्थ कल नाभ्यूहितरूपक सर्वस्मिन् सृज्यविषये भावि नामरूपसधानै अभ्यूहितानि रूपाणि यस्मिन् तथाविध सत् चेत्यतामिव गच्छति । तदनु सत्तामत्तिष्ठ तीत्यादि-ईक्षणवृत्ति तद्विषयोपाधिभ्याम् ईश्वरजीवभावयो प्रदर्शनम् । परसत्ता ब्रह्मसत्ता । चेत ईक्षणात्मिका वृत्ति तत्सहिता चेतना, तदभिव्यक्तचैत Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० चतुर्थो गुच्छक न्यम् , तदुन्मुखी तत्प्रधाना सती। चिन्नामयोग्या, चेनयतीति चित सर्वज्ञ श्वर तन्नामयोग्या । वाक्प्रवृत्तिलभ्येति यावत् । जायते भवति । तदनु समनन्तरमेव । सान्द्रसवेदना चिरानुवृत्या सान्द्रा घनीभूता सवेदना ईक्षणसवेदना यस्या तथा वधा सती । कलितकलनीया-कलितेन प्रात्तेन गृहीतेन वा तद्विषयकसूक्ष्मप्रपञ्चात्मभावलक्षणपरिच्छेदेन न कलनीया । अतएन पर पद त्यजन्ती अपरि च्छिन्नभूमात्मभान विस्मरणेनोज्झती। जीवादिसज्ञिता भाविप्राणवारणोपाधिकजीव-हिरण्यगर्भादिनामिका । ससरणपरायणा ससरणोन्मुखी । भावना मात्रमारा-न विकारादिक्रियासारेत्यर्थ । वस्तुस्वभावेन तामिमा सत्तामेवा नुसृत्य रज्जौ सर्प इव जीवभाव उत्तिष्ठति । तदनु समनन्तरमेव । अस्या जीसत्ताया आकाशसत्ताद्योघ प्रवाह । इतरभूतावकाशदत्वान्छून्यताप्राया उदेति । सूर्यादिसगोत्तर भविष्य तीना आकाशाद्यभिधानाम् आ समन्तात काशते इत्याद्यर्थ दा ॥३॥ इत्थच यदुक्त ब्रह्मैव जगदाकार भवतीति तत् सिद्धमित्याह-- बीज जगत्सु ननु पञ्चकमात्रमेव बीज पराव्यवहितस्थितिशक्तिराद्या ।। गीज तदेव भवतीति सदानुभूत चिन्मात्रमेवमजमाद्यमतो जगच्छीः ॥१४॥ ( इति जगदुत्पत्तिदर्शनम् ) बीज जगत्स्विति । जगत तन्मात्रपञ्चक बोज कारणम् । तस्य च बीज परेण परमात्मना अव्यवाहता साक्षात् सबद्धा जगस्थितिहेतुर्मायाशक्तिरेव। इत्थ च तत् परमात्मतत्त्वमेव मायाशक्या बीज भव मायापगमे तदेव भवतीति प्रतिज्ञातार्थसिद्धिरित्यर्थ ॥६४|| ( इति जगदुत्पत्तिदर्शनम ) प्रलये सुषुप्ताविव पिलयेन मायाशबलब्रह्मभार प्राप्ताना जीवोपाधीना पुनराविर्भावक्रम पञ्चभि सहेतुकमुपन्यस्यति .परमे ब्रह्मणि स्फारे समे राम ! समस्थिते ॥ अनुद्भ तनभस्तेजस्तमःसत्ते चिदात्मनि ॥६५॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १५१ परम इति । विकारकृतवैषम्यशून्यमायाशबलत्वात् समे । समस्थिते समे चाधिष्ठानस्थिते । अनुद्भूताना नभस्तेजस्तम आदीना या कारणात्मना सत्ता तद्र पे चिदात्मनि ॥६॥ चितश्चेतयितृभावलक्षणजीवत्वस्य विषयकरणसिद्धिपूर्वकत्वात् तदध्यास प्रथम दर्शयति पूर्व चेत्यत्वकलन सतश्चेत्याशचेतनात् ।। उदेति चित्तकलन चिति शक्तित्वचेतनात् ॥६६॥ पूर्वमिति । कलन कल्पनम् । तत्र हेतु सद्वस्तुन त प्रथास्वभावतैव । एवमुत्तरत्रापि । यदेवाध्यस्यते त-प्रथास्वभावताया चितिपूर्वसिद्धत्वात सर्वत्र निमित्तता || ततो जीवत्वकलन चेत्यसयोगचेतनात् ।। ततोऽहभापकलन चेत्यैकपरतापशात् ।।६७॥ ततो जीवत्वेति । एकपरता तावन्मात्रोऽहमित्यभिमान ॥१७॥ ततो बुद्धित्वकलनमहतापरिणामनात् ॥ एतदेन मनस्त्वादि शब्दतन्मात्रकादिमत् ॥१८॥ ततो बुद्धित्वेति । अहतापरिणामनात् अहतोपचयत । इत्थ धर्मसिद्धौ शब्दादिविषयमात्राणा पासनात्मना स्यान्तर्गताना स्वप्न इन मननात् तद्नटित मन रूप एतदेव सपद्यत इत्यर्थ ॥८॥ तस्य स्थूलदेहभावापत्तिम आह उच्छनादन्यतन्मात्रभावनाद् भूतरूपिणः ।। अयमेव महागुल्मो जगदादिनिभाव्यते ॥६६॥ उच्छूनादिति । वासनात्मना शब्दतन्मात्राणाम् अन्यै स्पर्शादितन्मात्रै भाग्नान् मेलनात् पञ्चीकृतभावेनोच्छूनाद् आध्यात्मिकमहाभूतरूपिण स्थूल देहभावापन्नान्मनस इति यावत् । महागुम प्रकाण्डरहितो महाद्र म ॥६॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ चतुर्थो गुच्छक जगतः पञ्चक बीज पञ्चकस्य चिदव्यया ॥ यद् बीज तत् फल विद्धि तस्माद् ब्रह्ममय जगत् ॥१००॥ जगत इति । पञ्चक तन्मात्राणाम् । विद्धि जानीहि ॥१०॥ इत्थमेतत् पञ्चक महाकाशे सर्गादौ चिच्छत्त्या स्वागभूतात्मेव कल्प्यते न पुन. पारमार्थिकम् । अनेन यदपीद जगदुच्छ्रनता प्रतिपद्य पितन्यते तदप्यात्मन्याकाशात्मक सन्मयमेव । नहि कापि तत्सिद्ध नाम मन्यते यदसिद्धन साध्यते । यच्च तावद्विकल्पात्मक स्वरूप तत्खलु कथ सत्यतामियात् । अथ चेत् पञ्चक ब्रह्मात्मकधिया ब्रह्मास्ते तदा प्ररूढ जगदपि ब्रह्मव । यथा खलु सर्गादाविद पञ्चक कार्यभूतत्वे कारणतामुपगत तथैवेदानीमपीति कि चित्रम् । इत्थहि न जायते किंचिजगज्जाल नवा लक्ष्यते, सकल्पपुरमिवासदेव ब्रह्माकाशे स्वात्मनि जीवाकाशत्व सदिव प्रतीयते । जीवाकाशोऽसौ स्वमेव तस्मिन् परमेश्वरेऽणुतेज कणोऽस्मीति यत्स्वय चेतति तदेवोच्छ नमिव विभावयति--||१०१॥ इत्थमेतदिति । चिच्छक्या चेतनप्रथनशक्त्त्या। स्वागभूतात्मा इव स्वशरीरमिव सपन्नस्वरूप । एतत् पञ्चक त मात्रपञ्चक कल्प्यते । अनेन पञ्चकगणेन यदपीद स्थूल जगद् वितन्यते विस्तार्यते । आत्मनि आकाशरूप मिव स्वकल्पनाधिष्ठानात्मनि स्थितत्वात् सन्मयम्-न स्वत इत्यर्थ । पञ्चक तत्कार्यस्थूलभूतपञ्चकमपि चिद् ब्रह्मव। कारण कार्ययोरेकत्वप्रसिद्धहेतोरि त्यर्थ । प्ररूढ जगत् त्रिजगत्क्रम ब्रह्मवैति सिद्धम् । भूतत्त्वे पौर्वकालिकत्वे स्वयम् औत्तरकालिक स्व प्रत्येवेति शेष । कि चित्रम्-को विस्मय । जग ज्जातम् । ब्रह्माकाशे महाकाशरूपे परमप्रकाशे आत्मनि जीवाकाश सदिव असत्सदिव प्रतीयते अनुभूयते । जीपाकाश समष्टिजीपाकाश-तस्मिन् परमेश्वर कल्पित । विस्तृतमपि स्वम्, अणुनेज कण -अणुः अल्पनर स्फुलिङ्गवत् तेज कणोऽस्मीति चिन्तया तथैवात्मान चेतति अनुभवति । एत देवाभिप्रेत्य श्रयते- 'यथा अग्ने क्षुद्रा पिस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मन सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्तीति' इति ॥१०१॥ असदेव सदाकार जीवः सकल्पचन्द्रवत् ॥ चिन्तया चिन्तयन् द्रष्टऋदृश्यरूपतया स्थितः ॥१०२॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक एक एक द्विता गच्छन् स्वप्ने स्वमृतिबोधवत् || किचित्स्थौल्य मिवादत्तं ततस्तारकता विदन् ॥ १०३॥ (युग्मकम् ) असदेवेति । एक एवेति च । जीव यद् भावयति तत् सकल्पचन्द्र सकल्पेन्दुर्यथा न सत् तथा असदेवेत्यर्थ । द्रष्ट्ऋदृश्यभावसवलनेन तस्योपचय दर्शयति- किचिदिति । अणुतेज करणभावमपहाय तारकता तारकसादृश्य विदन् जाना । किचित् स्थौल्यम् आदत्त इन। अयमेनाम्य भूतमात्रासवलितलिङ्गा त्मभान १०२ - १०३॥ १५३ अन्तर्भात बहिष्ठोऽपि पर्वतो मुकुरे यथा ।। स्वरूपतारकान्तस्थो जीवोऽय चेतयन् स्वयम् ॥ १०४ ॥ अन्तर्भातीति । स्वप्नसकल्पयोर्बहिष्ठोऽपि विषय तद्बाह्यरूप परित्य ज्यैव अन्तर्भाति । यथा मुकुरे दर्पणे पर्यंत कूपजलप्रतिबिम्बितो देह, यथा वा गुहा दिसपुटगत प्रतिध्वनि वच । तथा स्वरूपतया कल्पिततारकान्तस्थ वासनामय देहादिव्यवहार चेततीत्यर्थ ॥ १०४ ॥ | एवमुच्छूनता तस्मिन् भावयत् तेजमा करणे ॥ सत्यासत्यसंकाशा ब्रह्मास्ते जीववाच्यवत् ॥ १०५।। एवमुच्छूनतामिति । भावयत् अध्यस्यत् । ब्रह्म आस्ते अन्यत सुगमम् ||१०५ || इत्थ स जीवशब्दाथः कल्पनाक्लृप्तिकोविदः || प्रतिवाहिक देहात्मा चित्तरूपाम्बराकृति. ॥ १०६ ॥ भाविब्रह्माण्ड कलना पश्यत्यनुभवत्यपि ॥ तदेतदन्तामान स्वप्ने खोड्डयन यथा ।। १०७ || (युग्मकम् ) इत्थमिति । भावीति च । चित्तरूपाम्बराकृति चित्तरूपमम्बरमेव स्थौल्येन स्थूल देहाकृति यस्य स । स्फुलिङ्गाकारादिबाह्य विषयान्तरकल्पनाकार ब्रह्म तदन्ते सस्थ आवरणादिसंस्थायुक्तम् अण्ड ब्रह्माण्ड पश्यतीत्यर्थ । खोडयन व्योम्नि उत्पतनम् ॥१०६ ॥ - १०७॥ इत्यनुत्पन्न एवासौ स्वयंभूः स्वयमुत्थितः || संकल्पनगरप्रख्य जगत् सदपि नैव सत् ॥ १०८ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक इत्यनुत्पन्नेति । अनेन जगन परमार्थ रूप सिद्वान्नितम् ।।१०।। अकृत चानुभूत च न सत्य सत्यरत् स्थितम् ।। महाकल्पे विमुक्तत्वाद् ब्रह्मादीनामसशयम् ॥१०६।। अकृतमिति । महाकल्पान्ते प्राक्तनाना ब्रह्मादीना मुक्त पारधारणान्न तदीयादृष्टसस्कारेण अग्रिमजगन्निर्माणम् । यस्तू गसक कल्पादौ हिरण्यगर्भा दिपद लभते न त न कदापि प्राग् विचित्र जगत् सृष्टमिति अनुभवाभावे तत्सस्कारासभवाजगतो न सस्कारजापमिति । तथा च स्वप्नेन्द्रजालपद् अकस्मा देव अनिद्ययेवोद्भूतत्वान्मिथ्यात्वमेव सिध्यति । एतन नाहष्टसस्कारसामग्री जन्य जगद् भवितुमर्हतीति सिद्वान्त उन्मीलित । ब्रह्मादीना मुक्तिस्तु'यावदधिकारमयस्थितिराधिकारिकाणाम् ' (ब्र० स० ३।३।३२) इति वेदान्तसूत्रे स्पष्टतया प्रतिपादिता । स्मृतावपि-- 'ब्रह्मणा सह ते सर्प सप्राप्त प्रतिसचर । परस्यान्त कृतात्मान प्रविशन्ति पर पदम् ।।' इति ।। ०६।।। सिहावलोकनन्यायेन प्रागुक्त सर्वमनुसधायोपसहरतिआकाश एव परमे प्रथमः प्रजेशो नित्य स्वय स्फुरति शून्यतया समो यः ।। स ह्यातिगाहिकतनु नंतु भूतरूपो भूम्यादि तेन न सदस्ति यथा न जातम् ॥११०॥ ( इति स्वयभृत्पत्तिदर्शनम् ) आकाश एवेति । परमें, ब्रह्मणि, प्रजेश स्वयभूराकाश शून्यमेव । य सम परमात्मा स एव शून्यप्रजेशाद्यात्मना स्फुरति प्रथते । हि यस्मात स प्रजेश आतिपाहिकतनु मनोमयशरीर न पाञ्चभौतिक । तेन सत्मक्ल्प मात्ररूपत्वेन । भूम्यादि न सद् अस्ति । यथा न जात अनुत्पन्न शशशृङ्गादि नास्ति, तद्वदित्यर्थ । तदित्थ यथा न जात न चास्ते तथोपवर्णित मिति शेष ॥११॥ ( इति स्वयभूत्पत्तिदर्शनम् ) इत ऊर्ध्वमनक्षरमपि ब्रह्म लीलायितनिदर्शनेनाक्षरता लम्भित सद् दशकण्ठापमानमासमाद ॥१११।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो गुच्छक १५५ इत ऊर्धमिति । अनक्षरमपि श्रनाख्येयमपि 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' इत्यादि श्रुतिसादात । लीलायित निदर्शनेन स्वोन्मीलित सर्गाद्यनन्तप्रपञ्चजातेन अक्षरता लम्भित 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमाटते' इति नीत्या वागूरूपता प्रतिपद्य दशकण्ठान सानम् दशकण्ठपटमत्र श्लिष्ट द्रष्टव्यम् । दश कण्ठा कन्धरा यस्य तस्य कर्मज्ञानेन्द्रिय रूपस्येन्द्रियर्गस्य तथा एतन्नाम्ना प्रसिद्वस्य रावणस्य च अवसान विरामम् आससाद प्रत्यर्थ ॥ १११ ॥ गृहे गृहे रामचरित्रचर्चा तज्ज्ञानचर्या तु निवेदितैन || न चाधुना काव्यरसावकाश स्ततोऽत्र मौनव्रतमाचरामः ॥ ११२ ॥ गृहे गृहे इति । रामचरित्रचर्चेत्यनेन 'रामान्जिन प्रनर्तितव्य न ' इति शास्त्र शिष्टसमत कर्तव्यमार्ग उन्मीलित । ज्ञानचर्या - 'येन प्रबुद्वभावेन भुञ्जानो विषयान् स्वयम् I न याति पाशव भाव ज्ञानचन्द्र कीर्तित ॥" तथा - 'सर्व जगत् स्वदेह ना स्वानन्दभरित स्मरेत् । युगपत् स्वामृतेनैन परानन्दमयो भवेत् ॥' 'सर्वो ममाय विभव इत्येव परिजानत । विश्वात्मनो विकल्पाना प्रसरेऽपि महेशता ॥' इत्येवरूपा ॥ ११२ ॥ लोकाना मातापितृभ्या परस्मै तस्मै भूम्ने भूरिशो मे नमस्याः || मर्यादाना दुष्करणा स्थलीं य मीतादार राम इत्याहुरेकम् ॥ ११३ ॥ लोकानामिति । सीतादारम-सीता द्वारा यस्य स तम् ॥ ११३ ॥ विदन द्विजाग्यो हि मुनित्यमीयात् तद्वाहुजन्मा जनकत्व मीयात् ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ चतुर्थो गुच्छक णि तुलाधारसमत्वमीयाज् जनश्च शूद्रोऽपि च मुक्तिमीयात् ॥ ११४॥ तात श्रीसरयूप्रसाद चर णस्ववृक्ष सेवापरो मातृश्री हरदेव्यपार करुणा । पीयूषपूर्णान्तरः || साकेतापर भागवद्धवसतिदुर्गाप्रसादः सुधी रास्ते तेन कृतेऽत्र रामचरिते गुच्छस्तुरीयोऽभवत् ॥ ११५ ॥ इति श्रीमति रामचरिते वासिष्ठनिर्यासे वेदान्तरहस्य नाम तृतीयो गुच्छः । * श्रादितश्चतुर्थः * कृतिरिय श्रीमदयोध्यापरप्रान्तवर्ति पण्डितपुरीवास्तव्यद्विवेदोपाख्याचार्य श्री सरयूप्रसादपादपद्मोपजीवन श्रीदुर्गाप्रसादस्येति शिवम् । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकाश श्रकृत चानुभूतच अक्लेशवत्त्या अकारण कारणता गाव परमाम्भोवौ अङ्ग भगवन !! वमिष्ठ || | श्रचेत्यचित्स्वरूपात्मा अथ कथाप्रसङ्ग श्रथ भगवन | जीव मुक्तस्थिति अथ तथाभूताया अथ विद्याविनयसम्पन्नो अ वोऽयमतुरे प्र तरेण क्रियामस्य अतर्भाति बहिष्ठोऽपि यस्त्वा चेतयति अन्य सिद्धविरुद्धादि अनल्पकल्पनातल्पे अनायासकदर्थया अनावर्जितचित्ताऽपि श्रनिला-दोलनादधूत अनुभूतेर्वेदनस्य अनुरक्ताङ्गनालोल अपर्याप्त हि बालत्व अपि पौरुषमादेय सौग ध्यतरङ्गिताभि माकाशभूतादि अयि रघुघुर धर । यस देव इत्यव यशकुसमा सर्वे अलम त मायैव परिशिष्टम् श्लोकानुक्रमणिका * ४१०६ ४६३ ३१.२ ३ १८ ३५ ४१७ १८ २१ ३१ २ १२ २१३० २ ११५ ४ १०४ ३ ६६ ३ १२८ २५३ २६७ २६४ २११८ ३ १४१ २१२७ २६६ ३-११६ १२१ ४ ४५ २१८ ४५८ श्लोकाश अव्युत्प मना अवलोक्य दूरादव अव पूवापरयो अवान निपाताय प्राप्य परमोच्छाय प्रविद्या ससतिब धो २२७ २५६ विद्यत्र ह्यन तैषा अविश्वा नमना शक्तिरापत्तपाप अश्रा तजलसमगा अशुभषु समाविष्ट अशू यमिव अशषवासना अस्ति स्वस्तिमान अस्य विश्वम्भरा अस्योडडामरचेष्टस्य असत्य सत्यसङ्काश असदेव सत्कार अहङ्कारेऽम्बुदशान्त अहमित्यस्ति अहह । किमेव 1 अहह लुलति अहो | कृ 1 अहो | प्रतिपद अत्रा तरे दशमुखन अत्रा तरे भास्वत्प्रकाशा प्रज्ञानघनमङ्काशा आकाश एव परमे आकाशे च यथा * श्राद्योऽङ्को गुच्छकसख्यामपरश्च श्लोकसरया सूचयति । श्रा * ३७१ २१६ ३ १२६ २५४ ५७२ ४ १२ ३ १७ २४१ २७८ २६२ ३ ५३ ४ ७६ २५ ११८ २ ११२ २२११ २८६ ४१०२ २४८ २४६ २-१४ २१६२ २४७ २८७ १ ५२ २ १६३ २८ ४- ११० ४-६० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] ३१०८ १३७ ३ ३७ प्रात्मनात्मनि पातिवाहिक आमूलचूड आयताऽन त आयुरत्य ततरल आयुर्वायुविघट्टिता आलस्य यदि आश्वस्ता त करणो आशाविलास आष वा पौरुष २७५ २६७ २१२२ २१५६ ३३८ उद्यन्नीलाश्म उद्यत्सच्छास्त्रसत्सङ्ग उदारकर्माप्यनुदार उपमानोपमेयाना उपमेयस्योपमानादे उपेक्षते गत वस्तु १२२ ३ १२४ ३ १३३ ३१०४ ऊर्वाधस्तियगारूढ २७४ ३ ११८ ऋत आत्मा पर ब्रह्म ४१०३ ३ १४० २१५७ ४१०८ ४१०१ ३ ६४ ४१०६ १-६० ३ ११६ १५५ ३ ७१ ४१११ इत्थमभ्युत्थिता इत्यमुत्पन्न इत्थमेतत इत्थ कमस्थ इत्थ स जीवशब्दाथ इत्युक्तवत्सु इत ऊध्व इतश्चा यत इतस्ततश्चोपनता इति पष्टो मुनी द्रण इति मे दोषदृष्टयव इदमस्मात इदानी केवलीभाव इदानीमयोध्या इदानी स्वच्छया इद प्रमार्जित इय श्री पदमेकत्र इय हि चेतना इह कायमहारण्ये इहापि भासते २१५१ २१४० २२४ २१५२ ४४१ एक एव द्विता गच्छन एकानोपमानाना एके मा द्यजुष एककोऽपि एकोऽपि तात्त्विक्दशा एता दष्टिमवष्टभ्य एते सेव्या एवमिह एवमुच्छूनता एव कालादि एव पुरुषकारेण एव मता म्रिय ते च एव विमशतो एव सति एव सवमिद एष वासनया ४१०५ २ १२० or १२६ २१५४ ३१० २३० ३ १२७ ४१६ o २३४ २७२ २-४५ २१०४ r ه ای عر عر ईश्वरप्रेरितो कृतरत्नाकरोल्लासो क्रियारूप क्रोडीकृत क्रोधानलक्वथित कज्जलक्षोदमलिना कथमसौ कलाकलापाकलिता ३ ४५ १५८ 4 ४६४ उच्छूनादयतमात्र उद्यदघनरसोत्सेधा ३१०२ १३४ १३० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६० २६४ ३ १४५ २१०५ २१२१ २१४४ कश्चि मा प्रेरयत्येव का दष्टि कायपल्वलमत्स्याना कारण त्वविचारोत्थ कालो जगत काल कवलना कास्ता दशो किंचित्का तान्नपानादि किनामद किनिष्ठा किमियता किरातेनेव कामेन कुटिला कोमलस्पर्शा कोऽह कथमय कौशल्या त जगत्प्रतिफलत्येव जगत पञ्चक जगददश्य तु जडाजडपरिज्ञान जममत्युरुजाक्लेश ज मावलिवग्त्राया जन कामारूढो जरातुषारव्यथिता जाग्रज्जगसुपादीप्त जागतस्य जीव एव हि जीव मुक्तपद जीव मुक्तिश्रिया ४१०० ४-१६ ३६६ ३८५ २१५३ २१४६ २१३३ २६६ २२ ror in . ३ १०५ १-४६ १५४ २ १३४ ४११२ ३८७ गहे गहे गच्छता तिष्ठता गणागुणानपश्य ती गुणगपूयते ४७७ २७१ २१०८ ३८२ घटस्य पटता २१५० ४६ ४६७ २-४० २१०६ ६८ त्व शासक तष्णासरित त एते नरकाग्नीना नज्ज्ञातमात्मनो रूप तरित्सु शरदभ्रषु तत्कालमिह तत्समस्त सुखासार तत्स्वय स्वरमेवाशु तनो जीवत्त्वकलन ततो बुद्धित्त्वकलन ततो वतानाद तत पक्वक्षायेण ततश्च यथावसर तत स्तिमितगम्भीर तत सजीवशब्गथ तन्तुच्छमनायास तत्दोऽयो यसङ्घर्षों तदतर ये तद वनुदिन तदनु मुनिसुनासीरो तदनु समाधुसलाप तदिद भगवन | ब्रूहि ३७२ चलत्पल्लवकोणाग्र चारयश्चारहस्तेन चित्तमात्रशरीरोऽय चित्प्रकाशस्य य मध्य चिद्वयोम केवलमन तमनादि चि ताना चलवत्तीना चेतन राम । ससारो चेत्यनिमुक्तता चत्रशुक्ले नवम्या ४८७ १-४८ ४५ ४८ २१५८ २-११६ २१३ ज्वलतीव जगज्जीणकुटीकीर्णान् जगत्त्वमिह २१२५ २१०७ ४ १४ १-१७ २१६४ २३१ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिज्ञायते ह्यस्मिन तदेकाग्रमना राम I तदेतदुच्यता तदोपदाथस्य तनूतरिस्तजसत तु तपोदान तथा तस्मादिमा तस्माद यदीद तस्य खलु परप्रकाशस्य तस्य त्यो मुख तत्र तमथ तत्र पुण्येष्वण्येषु तत्रातिसक्तियोगेन तातश्री सरयू प्रसाद तातश्री सरयू प्रसाद ता नरेद्रदयिता तामध्युवास तावच्छ्रीतम दुस्पर्शो तावद विचारयेद ताश्च चिदव्योमरूपिण्यो तारकासुमनोद्ध ति मानुषदेवेषु तुल्यस्यातुलभावस्य तेनामृतस्य द दृश्यात्यन्ता दश्य नास्तीतिबाधेन बुद्धावेकात्म दृष्टा तस्याशमात्रेण दष्टान्तेन विना राम । दृष्टवत्कण्ठितेवाशु द्रष्टृदृश्यक्रमो यत्र द्रष्टुदृश्यस्य terrorit द्विषन्त इन्द्रियाण्याशु ४८६ ३ ७४ २१६१ १ १ २ १३५ ३ ७६ ४४४ [ ४ ] ४ २३ ४ ६३ ४७२ १ १४ १ ११ ३१३ १७५ २१६७ ३ १५० ४ ११५ १-६३ १ ४१ २३६ ३ १३६ ४ ३४ २११६ ३८ ४८६ ३-६० २३ २४ ३ १३७ ३-१३४ ३ १२२ २- १०० ४७५ ४ १३ २७६ २१२४ हुडा द तरिवाभ्रमातङ्गो दुखेषु दूरास्तविषाद दुष्प्रक्ष्य दुरवस्थान दवमेवेह दोष शाम्यत्यस देह धूमिना मत्सरौघेण नत्यनितान्तरागीव न किचिदपि दश्येऽस्मिन न तार्किकतामेत्य न च निस्पदता लोके न च पाषाणता न चाकृति न च स्प दो न बाह्येनापि हृदये नबोधरूपयोर्भेद न भूम्यादिमहाभूत न यातव्यमनुद्योग न शोचति न ह्येष दूरे नाभ्याशे हि नापि ध न नानारसमयी नालब्धमेष्यते नाविद्वान्न शठो नाशयित्त्वा स्वमात्मान निराकुवन घनाकार निरापाय निरातङ्क निर्वाणमात्र नीरागाश्छिन्नस देहा नेद नेदमिति नास्ति दश्य जगद नास्य कायो नित्य हि साधुसम्पर्काद प पथक चेदबुद्धिरन्योऽथ ३ ४२ १८० २ १३६ २ १०१ ३५७ ३३३ २ ५५ २ १४४ २७२ ३ १३५ ३५८ ४२२ ३ ५५ ४३६ ३२१ ३ १६ ३ ३४ ३ ८२ ४ ५७ २-२६ २८६ ३ ११० १ ४४ ४८५ ४ ८६ ४२८ ३७८ २-४६ ३ ८४ ४-३५ ३ ११३ ४ १५ ३ ५६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mr m फुल्लद्वल्लीमतल्ली 280 2 148 2141 4 24 462 3125 270 4-2 ब्रह्मत्त्वमापादन ब्रह्मव सगवद ब्रह्मापदशे बद्धास्था ये शरीरेषु ब वोऽय दश्यसदभावाद बाल्याक्रीटमतिक्रम्य बाल्ये गते वुध्द्वापि शुद्धया बीज जगत्सु बीज धमद्रुमस्य बोवकनिष्ठता 284 221 3 25 3 144 385 2-132 464 mro. mr mor 0 237 2136 प्रकृतिव्रतती प्रत्यह प्रत्यवेक्षेत प्रत्यक्षमानमुत्सज्य प्रतिबिम्बधनाज्ञान प्रतिक्षणविपर्यास प्रदीपहेतिष्विव प्रलीनारोहसतान प्रवत्तिरेव प्रसह्य सद्यो प्राक्तन पुरुपायों प्राक्तनाद्यतने प्रागकारणमेवाशु प्राप्तमेतत पद प्राज्ञश्चेतनमात्रत्त्व प्राज्ञा कृतज्ञा प्रियामुभि पठन द्विजो पदकरोत्यलध्येऽपि परमाकप्रकाशात परमे ब्रह्मणि स्फारे परिष्कृतानेगराग परोपकारकारिण्या पर जगति पर पौरुषमाश्रित्य पर्यायसक्रा त पशुरज्ञो पादपा अपि पुनश्च विनयशीलेन पुनस्तत्र व पुत्र | प्राप्तविवेकोमि पुत्रम्य तादश पुजातधमविधुरोऽपि पूर्णे पूर्ण पूव चेत्यत्त्वकलन पौरुषेण कृत पौरुषेण प्रयत्नेन 4-48 217 465 261 2-128 4 11 330 2131 431 भगठन | अय प्राक्तनो भगवन | कृतात भगवन / किं रूप भगवन | न वेव भगवर भवता भगवन / यदि भगवन यल्लोकेषु भगवन | सच्चेन्नद दश्य भज्यते नावभग्नोऽपि भारो विवेकिन भावि ब्रह्माण्ड भिद्यते हृदयथि भिक्षुको मङ्गले भूमण्डले भूमयो बहिर तश्च भूया भूयोऽपि भेजिरेथ तनुत भो एव किलाख्यायते भोगडिकुराकाक्षी भोगवासनया बध 442 2-110 242 4-107 470 3 43 1-56 1-32 2-126 164 4-25 2-51 156 447 466 3 41 327