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जैन 'चित्र कथा
वनसिंह
चौबीस तीर्थकर
भाग-1
भगवान श्री आदिनाथ जी
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सम्पादकीय
चित्र
सुनो सुनायें
तीर्थंकर जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। जिसका भाव है, धर्म तीर्थ को चलाने वाला अथवा धर्म तीर्थ का प्रवर्तक । कभी ऐसा भी समय आता है, जब धर्म का प्रभाव क्षीण होने लगता है, उसमें शिथिलता आती है। उस समय ऐसे
कथा प्रखर ऊर्जावान महापुरुष जन्म लेते हैं, जो धर्म परम्परा में आई मलिनता और विकृतियों का उन्मूलन कर धर्म के मूल स्वरुप को पुन: स्थापित करते हैं ऐसे ही जगतोद्धारक महान् उन्नायक महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। ऐसे तीर्थकर 24 होते हैं। तीर्थकर संसाररुपी सरिता को पार करने के लिए धर्म शासन रुपी सेतु का निर्माण करते हैं। धर्म शासन के अनुष्ठान द्वारा अध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त
सत्य कथाएँ बनाया जा सकता है। तीर्थंकर महापुरुष से मंडित होते हैं। जो समस्त विकारों पर विजय पा कर जिनत्व को उपलब्ध कर लेते हैं और कैवल्य प्राप्य कर निर्वाण के अधिकारी बनते हैं।
आशीर्वाद - श्री वर्धमान सागर जी महाराज वर्तमान कालचक्र मे भगवान ऋषभदेव प्रथम और
प्रकाशक - आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला एवं
भा. अनेकान्त विद्वत परिषद भगवान महावीर अन्तिम चौबीस तीर्थकर हुए हैं। चौबीस
निर्देशक - ब्र धर्मचंद शास्त्री तीर्थंकरों के घटना चक्र के बारे में चित्र कथाओं के माध्यम से
कृति - चौबीस तीर्थकर भाग - 1 बाल पीढ़ी को जानकारी मिल सके इस हेतु चौबीस तीर्थंकरों
सम्पादक - रेखा जैन एम. ए. अष्टापद तीर्थ को तीन भागों में पढ़ कर आत्म सात करें। तीर्थंकरत्व की
- 51 उपलब्धि सहज नही है। हर एक साधक आत्म साधना कर
- बने सिंह राठौड़ मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थंकर नहीं बन सकता। प्राप्ति स्थान, - 1. अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर तीर्थकरत्व की उपलब्धि बिरले साधकों को ही होती है। इसके
2. जैन मन्दिर गुलाब वाटिका लिए अनेकों जन्मों की साधना और कुछ विशिष्ठ भावनाएँ अपेक्षित होती हैं विश्व कल्याण की भावना से अनुप्राणित
© सर्वाधिकार सुरक्षित साधक जब किसी केवलज्ञान अथवा अतु केवली के चरणों में बैठकर लोक कल्याण की सुदृढ़ भावना माता है तभी तीर्थंकर
अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर जैसी क्षमता को प्रदान करने में समर्थ तीर्थकर प्रकृति नाम के
विलासपुर चौक, महापुण्य कर्म का बन्ध करता है। इसके लिए सोलह कारण
दिल्ली-जयपुर N.H. 8. भावनाएँ बताई गई है जो तीर्थकरत्व का कारण है पाठक गण
गुड़गाँव, हरियाणा इस चित्रकथा को पढ़कर तीर्थंकरों की विशेष जानकारी प्राप्त
फोन : 09466776611
09312837240
पुष्प नं.
करें।
जं धर्मचन्द शास्त्री अष्टापद तीर्थ जैन मंदिर
मूल्य-25/- रुपये
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इस मध्यलोक में असंख्य द्वीप समुद्रों से घिरा हुआ एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है। उसी विदेह क्षेत्र में मेरू पर्वत के पश्चिम की ओर एक बांधिल नामक देश है। उसमें एक विजयार्थ पर्वत है उसकी उत्तर श्रेणी में अलका नाम की सुन्दर नगरी है। उस समय राजा अतिबल यहां के शासक थे ये वीर, पराक्रमी, यशस्वी दयालू एवं नीतिनिपुण प्रजावत्सल | राजा थे। उनकी स्त्री का नाम मनोहरा था। कुछ समय बाद मनोहरा की कुक्षि से एक बालक | उत्पन्न हुआ। राजा अतिबल ने उसका नाम महाबल रख दिया। चतुर एवं नीतिनिपुण पुत्र को राजा ने युवराज बना दिया एवं आप बहुत निश्चिंत हो कर धर्म ध्यान करने लगे ।
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जैन चित्रकथा
अवश्य
महाराज
आप निश्चित
रहें ।
चौबीस तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ जी एक दिन निमित्त पाकर महाराज अतिबल का हृदय संसार से विरक्त हो गया। बारह भावनाओं का चिन्तन कर उन्होंने जिनदीक्षा धारण करने का निश्चय कर लिया। फिर मंत्री सामन्त आदि से विचार प्रकट किया।
भाग-1 चित्रांकन बनेसिंह
अब युवराज महाबल सब तरह से योग्य है। मैं राज्य व्यवस्था इन्हें सौंपकर जिनदीक्षा लेना चाहता हूँ। आप मंत्री व सभी सामन्त पूर्ववत सहयोग करें।
पण
राजा अतिबल के साथ अनेक विद्याधरों ने भी दीक्षा ली। राजा अतिबल कठिन से कठिन तप करने लगे.........
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________________ wwwwwww पपपपपपण इधर राजा महाबल.भी नीति पूर्वक प्रजा का |उसके शरीर की शोभा बड़ी ही विचित्र हो गयी थी उसका सुन्दर रूप पालन करने लगा। देखकर स्त्रियों का मन काम से आकुल हो उठता था। महाराज आपकी शासन हमारे राज कुमार कामदेव के प्रणाली अभ्दुत है। हम सब समान हैं। नगरवासी मुग्धचित्त से आपका Aक अभिनन्दन करते हैं। हमारी राजकुमारी भी कम नहीं है। W Wwण्ण्ण्ण vada योग्य विद्याधर कन्याओं के साथ उसका विवाह हो गया था। राजा महाबल जो भी कार्य करता था, वह मन्त्रियों की सलाह से ही करता था। उनमें स्वयंबुद्ध को छोड़कर बाकी तीन मंत्री मिथ्या दृष्टि थे। इसलिए वे राजा महाबल व स्वयंबुद्ध के साथ धार्मिक विषयों में विद्वेष रखा करते थे। पर राजा महाबल को राजनीति में कोई बाधा नही आती थी। किसी समय अलकापुरी में राजा महाबल की वर्षगांठ का उत्सव मनाया जा रहा था। स्वर्ग-मोक्ष ये जीव-अजीव कुछ नहीं कल्पित बातें है। होता सब कुछ प्रकृति इनमें कोई सच्चाई से बनता है। नहीं है। loooad ACCEEDO UOTr Doपम्प माजमा पासण्या पण जम्म फासण्या चौबीस तीर्थकर भाग-1
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स्वयंबुद्ध ने जीव अजीव आदि तत्वों का समर्थन किया स्वर्ग मोक्ष आदि पर लोक का अस्तित्व सिद्ध कर दिखलाया।
जो बातें आगम में लिखी हैं वे गलत नही हो सकती।
इसी समय स्वयंबुद्ध ने पाप एवं धर्म का फल बतलाते हुए राजा महाबल को लक्ष्य कर चार कथाएं कही जो इस प्रकार है। कुछ समय पहले आपके निर्मलवंश में अरविन्द नाम के एक राजा हो गये हैं। उनकी रानी का नाम विजयादेवी था। उनके दो पुत्र थे हरिचन्द और करूविन्द। दोनो पुत्र बहुत विद्वान थे। राजा अरविन्द दीर्घ संसारी जीव थे इसलिए उनका चित्त सतत पाप कर्मों में लगा रहता था। इसी के फल स्वरूप वे नरक आयु का बंध कर चुके थे। आयु के अंत में राजा अरविन्द को दाह ज्वर हो गया।
अब तो बहुत दु:खी हो गया बहुत चिकित्सा की
व्याकुलता बढ़ गई। क्या करूं पर कोई लाभ
कुछ सूझता नहीं।
नही।
उन्होंने उत्तर कुरू क्षेत्र के सुहावने बाग में घूमना चाहा, पाप के उदय से उनकी समस्त विद्यायें नष्ट हो गयी थी। उन्हें विवश हो कर रुक जाना पड़ा। बड़े पुत्र हरिचन्द ने अपनी विद्या से उन्हें उत्तर कुरू भेजना चाहा।
मेरा दुर्भाग्य बेटा! तुम्हारी विद्या भी सफल नही हुई।
एक दिन की घटना है दीवाल पर दो छिपकली लड़ रही थी। लड़ते-लड़ते एक की पूंछ टूट गई, जिसमें खून की दो चार बूंदे अरविन्द के शरीर पर पड़ी। खून की बुंदों के पड़ते ही उन्हे कुछ शान्ति मालूम हुई, इसलिए उन्होंने समझा कि यदि वे खून की बावड़ी में नहायेंगे तो उनका रोग दूर हो सकता है। यह विचार कर लघु पुत्र कुरूविन्द से खून की बावड़ी बनवाने के लिए कहा। वह पिता का आज्ञाकारी था, उससे अधिक धर्मात्मा था। उसने बावड़ी बनवाई पर उसे लाख के रंग से भरवादी। खून की बावड़ी देखकर राजा बहुत खुश हुए। नहाने के लिए उसमें प्रवेश किया। ज्योंही कुल्ला किया त्यों ही पता चला ये तो लाख का रंग है। इस कार्य पर राजा को इतना क्रोध आया कि वे तलवार लेकर कुरूविन्द को मारने के लिए दौड़े, पर बीमारी के कारण अधिक नहीं दौड़ सके एवं बीच में ही अपनी तलवार की धार पर गिर पड़े। फलस्वरूप उनका उदर विदीर्ण हो गया वे मरकर नरक गति में पहुंचे। सच है मरते समय जैसे भाव होते हैं वेसी ही गति होती है।
अरे पिताजी!
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राजा अरविन्द हताश होकर शैया पर पड़े रहे। जैन चित्रकथा
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हे नरेन्द्र ! कुछ समय पूर्व आपके इसी वंश में दण्ड नाम के राज | मर कर वे अपने भण्डार में विशालकाय अजगर हुए। वह अजगर मणि मली के हो गये हैं, जिन्होंने अपने प्रचण्ड पराक्रम से समस्त विद्याधरों को | सिवाय भण्डार में किसी दूसरे को नही आने देता था। एक दिन मणिमाली ने वश में कर लिया था। यद्यपि राजा दण्ड शरीर से वृद्ध हो गये थे तथापि इस अजगर का हाल किसी मुनिराज से कहा। मुनिराज ने अवधिज्ञान से उनका मन वृद्ध नहीं हुआ था। उनके मणिमाली नाम का आज्ञाकारी
जानकर कहा कि यह अजगर आपके पिता राजा दण्ड का जीव है। आर्तध्यान पुत्र था। पुत्र को राज्य का भार सौंपकर स्वयं अन्तःपुर मैं ही रहने लगे
के कारण उन्हें यह कुयोनि प्राप्त हुई है। यह सुनकर मणिमाली झट से भण्डार एवं अनेक तरह के भोग भोगने लगे। किसी संक्लेश भाव से राजा दण्ड
गृह में गया एवं वहां अजगर के सामने बैठकर उसे इस ढंग से समझाने लगा, का मरण हो गया।
जिससे उसे अपने पूर्व भव का स्मरण हो गया एवं विषयों की लालसा छूट गई! बैरभाव छोड़ दिया अन्त में सन्यास पूर्वक मरकर देव पर्याय पाई।
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अजगर ने सन्यास पूर्वक मरण से देवपर्याय पाई। राजन् आपके बाबा शतदल भी चिरकाल तक राज्य सुख भोगने के बाद आप के
पिता राजा अतिबल को राज्य प्रदान कर धर्म-ध्यान करने लगे थे एवं आयु के स्वर्ग से आकर देव ने मणीमाली
अन्त में समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुए थे। आपको भी के गले में एक सुन्दर हार पहनाया
ध्यान होगा कि जब हम दोनो मेरू पर्वत पर नन्दन वन में क्रीडारत्न थे। तब देव था जो आज भी आपकी ग्रीवा में |
शरीरधारी आपके बाबा ने कहा था। जैन धर्म को कभी नहीं भूलना यही सब शोभायमान हो रहा है।
सूखों का कारण है।
सच है विषयों की अभिलाषा से मनुष्य अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। विषयों के त्याग से स्वर्ग आदि का सुख पाते हैं।
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इसी तरह आपके पिता अतिबल के बाबा सहस्रबल भी अपने पत्र शतबल के लिए राज्य देकर नग्न दिगम्बर मुनि हो गये थे एवं कठिन तपस्या से आत्मशुद्धि कर शुक्ल ध्यान के प्रताप से मोक्ष स्थान को प्राप्त हुए थे।
एक दिन स्वयबुद्ध मंत्री अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करने के लिए। मेरू पर्वत पर गये एवं वहां समस्त चैत्यालयों के दर्शन कर अपने आप को पुण्यशाली मानते हुए सोमनस वन में बैठे ही थे कि इतने में उन्हें पूर्व विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत कच्छ देश के अनिष्ट नामक नगर से आए हुए दो मुनिराज दिखाई पड़े। हे नाथ हमारी अलका हे मंत्री ! राजा महाबल भव्य है, क्यों की नगरी में विद्याधरों का भव्य ही तुम्हारे वचनों में विश्वास कर सकता अधिपति जो महाबल है। तुम्हें राजा महाबल श्रद्धा की दृष्टि से नाम का राजा राज्य देखते हैं। वह दशमें भव में ऋषभनाथ नाम करता है। वह भव्य का पहला तीर्थंकर होगा सकल सुरेन्द्र उसकी है या अभव्य?
सेवा करेंगें। समस्त प्राणियों का कल्याण
करके स्वयं भी मुक्त हो जायेगा।
ये कथाएं प्राय: सभी लोगों को परिचित एवं अनुभूत थी, इसलिए स्वयंबुद्ध |मंत्री की बात पर किसी को अविश्वास नहीं हुआ। राजा एवं प्रजा ने स्वयंबुद्ध का खूब सत्कार किया। महामति आदि तीन मन्त्रियों के उपदेश से जो कुछ विभ्रम फैल गया था, वह स्वयंबुद्ध के उपदेश से दूर हो गया। इस तरह राजा महाबल की वर्षगांठ का उत्सव हर्षध्वनि के साथ समाप्त
अब मैं राजा महाबल के पूर्व भव का वर्णन करता हूँ जिसमें कि पूर्व भव की अतृप्त वासना से राजा महाबल अब भी रात दिन भोगों में लीन रहते। इसने धर्म का बीज बोया था। पश्चिम विदेह के गन्धिल देश में | राजा महाबल का पूर्वभव सुनने के बाद मुनि राजा आदित्यमति ने स्वयंबुद्धि सिंहपुर नगर में किसी समय राजा श्रीषेण राज्य करते थे। उनकी मंत्रि से कहा कि आज राजा महाबल ने स्वप्न देखा है कि मुझे सम्भिन्नमति रानी का नाम सुन्दरी था। उनके जय वर्मा व श्री वर्मा नाम के दो। आदि मन्त्रियों ने जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया है। फिर स्वयंबुद्ध मंत्री ने उन पुत्र थे। उनमें श्री वर्मा छोटा पुत्र सभी को प्यारा था। राजा ने प्रजा
दुष्टों को धमका कर मुझे कीचड़ से निकाल कर सोने के सिंहासन पर बैठाकर के आग्रह से लघुपुत्र श्रीवर्मा को राज्य दे दिया। स्वयं धर्म ध्यान में |
निर्मल जल से नहलाया तथा एक दीपक की शिखा प्रतिक्षण क्षीण हो रही है।। लीन हो गये। ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा को अपना यह अपमान सहा नही गया। इसलिए वह दिगम्बर मुनि बन कर उग्र तप करने लगा। एक
राजा अवश्य पूछेगा तुम पहले ही बता देना कि दिन आकाश मार्ग से विहार करता हुआ विद्याधरों का राजा जा
पहले स्वप्न से आपका सौभाग्य प्रकट होता है। रहा था।
दूसरे से आपकी आयु एक माह शेष रह गयी ज्ञात काश ! मैं भी राजा होता
होती है। ऐसा करने से तुम पर उसका विश्वास तो शान से विचरता!
दृढ़ हो जायेगा, तब तुम उसे जो भी हित का मार्ग
बताओगे उसे वह शीघ्र मान लेगा।
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R राजा बनने की अभिलाषा ने फिर धर दबाया । जयवर्मा राज भोगों की कल्पना से मग्न हो रहे थे। इधर सांप ने उन्हे डस लिया।
इतना बताकर दोनो मुनि विहार कर गये मंत्री नगर में लौट आया।
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वहां राजा महाबल मंत्री स्वयंबुद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे सो स्वयंबुद्ध ने शीघ्र ही जाकर उनके दोनो स्वप्नों का फल कह सुनाया तथा उन्हें समयोपयोगी अन्य भी धार्मिक उपदेश दिये। मंत्री के कहने से राजा महाबल को दृढ़ निश्चय हो गया कि उसकी आयु एक माह रह गई है। वह समय अष्टाछिका व्रत का था, इसलिए उसने जिन मंदिर में आठ दिन का खूब उत्सव कराया एवं शेष बाइस दिन का सन्यास धारण किया। उसे सन्यास विधि मंत्री स्वयंबुद्ध बतलाते रहते थे।
लतितांग देव की आयु सुदीर्घ थी इसलिए उसके जीवन में अल्पआयु वाली कितनी ही देवियां नष्ट हो जाती थी उसके स्थान पर दूसरी देवियां उत्पन्न हो जाती थी। इस तरह सुखभोगते हुए ललितांग देव की आयु जब केवल कुछ पल्यों की शेष रह गई तब एक स्वयंप्रभा नाम की देवी प्राप्त हुई। उसके जैसी सुन्दरी देवी जीवन में पहली बार मिली थी, वह उसे बहुत चाहता था एवं वह भी ललितांग को बहुत अधिक चाहती थी। दोनों एक दूसरे पर अत्यंत मोहित थे।
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अन्त में पंच नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए राजा महाबल नश्वर मनुष्य शरीर का परित्याग कर ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में देव पर्याय का अधिकारी हुआ। वहां उसका नाम ललितांग था। जब उसने अवधि ज्ञान से पूर्व भव का चिन्तवन किया, तब उसने स्वयंबुद्ध का अत्यंत उपकार माना एवं उसके प्रति अपने हृदय से कृतज्ञता प्रकट की। पूर्वभव के भव्य संस्कार से उसने वहां भी जिनपूजा आदि धार्मिक कार्यों में कभी प्रमाद नहीं किया। इस प्रकार ऐशान स्वर्ग में स्वयं प्रभा, कनक लता, | विद्युल्लता आदि चार हजार देवियों के साथ अनेक सुख भोगते हुए रहने लगा। Shiv
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परन्तु सब दिन किसी के एक से नही होते। धीरे-धीरे ललितांग देव की दो सागर की आयु समाप्त होने को आई अब उसकी आयु सिर्फ छः माह की शेष रह गई तब उसके कण्ठ में पड़ी माला मुरझा गई कल्पवृक्ष कान्ति रहित हो गये। मणि, मुक्ता आदि सभी वस्तुएँ प्रायः निष्प्रभ सी हो गई। अब तो लगता है मेरी आयु मात्र छः माह की शेष रह गयी है। इसके बाद मुझे अवश्य ही नरलोक में उत्पन्न होना पड़ेगा । प्राणी जैसे कार्य करते हैं, वैसे ही फल पाते हैं। मैनें अपना समस्त जीवन | भोग विलासों में बिता दिया। अब कम से कम इस शेष आयु में मुझे धर्म साधन करना परम आवश्यक है।
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यह चिन्तवन कर पहले ललितांगदेव ने समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना की, फिर अच्युत स्वर्ग में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ समता सन्तोष से वह समय बिताने लगा अन्त में समाधिपूर्वक पंचनमस्कार मंत्र का जाप करते हुए उसने देव शरीर को त्याग दिया।
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जम्बुदाप कविदह क्षेत्र में एक पुष्कलावती देश हैं। उसकी राजधानी उत्पल खेट | जम्बु द्वीप पूर्व विदेह क्षेत्र में पूण्डरीकणी नगरी के राजा बजटत नगरी है। वहां के राजा वज्रबाहु थे उनकी रानी का नाम वसुन्धरा था। वही
व उनकी रानी लक्ष्मीमती के श्रीमती नामकी पुत्री हुई। ललितांग देव अपनी आयु समाप्त होने पर इन्ही दम्पति का वजजंध नाम का पुत्र
। श्रीमती बहुत हुआ वह अपनी मनोरम चेष्टाओं से सभी को हर्षित करता था।
सुन्दर है इसे ब्रह्मा
ने चन्द्रमा की चन्द्रमा जिस तरह कुमुदों को विकसित करता है उसी तरह यह
कलाओं से बनाया बालक सबको हर्षित करता है।
उधर राजा की आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ तथा नगर के बाहर अब ललितांगदेव के बिना मुझे एक क्षण भी वर्ष के समान प्रतीत होता है। तुम उद्यान में यशोधर महामुनि को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। राजा वज्रदंत उसकी खोज करके मुझे मिलादो। देखो मैनें इस पटिये पर पूर्वभव के चित्र अंकित महामुनि के ज्ञानोत्सव में शामिल हुए। ज्योहि उन्होंने मुनिराज के किये हैं। इन्हें दिखाकर तुम सरलता से ललितांग देव की खोज कर सकती हो। चरणों में प्रणाम किया उन्हें अवधिज्ञान हो गया इससे राजा ने अपने व पुत्री आदि के पूर्वभव स्पष्ट रूप से जान लिए। निश्चिन्त हो कर दिग्विजय के लिए निकल पड़े। इधर पंडिताधाय श्रीमती का मन बहलाने लगी। उसने उसे मुर्छित होने का कारण पूछा। मुझे पूर्व भव के पति ललितांगदेव का स्मरण हो आया है।
FESCIENCE
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पण्डिताधाय चित्रपट लेकर ललितांगदेव की खोज के लिए | इतने में पंडिताधाय भी हंसती हुई आ गई। ये चित्र कई लोगों ने देखे पर चल दी। उधर श्रीमती के पिता दिग्विजय करके लौट आये,
| उसका रहस्य किसी को समझ में नही आया परन्तु एक युवक जो साक्षात् काम उन्होंने पुत्री को पास बुलाकर कुशल क्षेम पूछा व
देव सा लगता था। चित्र को देखते ही मुर्छित हो गया। उसने सारी जानकारी अवधिज्ञान ने सारा वृतांत उसे बता दिया।
ली। उसकी चेष्टाओं से मैनें निश्चय कर लिया कि यही ललितांगदेव का जीव है। तुम्हारा ललितांगदेव जो कि हमारा भानजा है, उसके साथ |
उसके साथ वालों ने बताया कि वह राजा वज्रबाहु का पुत्र है, उसका नाम तुम्हारा शीघ्र विवाह होने वाला है। वे अब यहां आ रहे हैं
वज्रजंघ है, उसने अपना चित्र तुम्हारे पास भी भेजा है। तुम निश्चिन्त रहो।
KGANG
श्रीमती ने चित्र को हृदय से लगा लिया।
इधर राजा वज्रदंत, बहन वसुन्धरा भानजे वज्रजंघ व बहनोई विदा होकर श्रीमती अपने ससुराल उत्पलखेट नगरी पहुंची, वहां वज्रबाहु को लेकर घर आ गये।
नवदम्पति का शानदार स्वागत हुआ।
आपकी कृपा से मेरे पास सब जीजाजी आप लोगों के आने से
कुछ है। यदि आपकी इच्छा है अपार हर्ष हुआ है। आप मुझ पर | स्नेह रखते हैं। मेरे घर में आपके
तो चित्र वज्रजंघ के लिए आपकी लायक जो भी वस्तु हो उसे
पुत्री श्रीमती दे दिजीए। स्वीकार कीजियेगा।
चक्रवर्ती तो यही चाहते थे तथा विवाह की तैयारी होने लगी शुभ मुहूर्त में विवाह हो गया।
श्रीमती के सौ पुत्र हुए उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन को सफल माना।
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________________ एक समय राजा वज्रबाहु महल की छत पर बैठे आकाश की || इधर चक्रवर्ती राज सभा में बैठे थे कि माली ने उन्हें एक कमल का फूल सुषमा निहार रहे थे। संसार के सभी पदार्थ इसी बादल अर्पित किया। उस कमल की सगन्धि से चारों ओर भौरे मंडरा रहे थे। ज्यों ही उन्होंने निमीलित कमल को विकसाने का प्रयत्न किया त्यों ही उसमें रूके के समान क्षणभंगुर हैं मैं इस राज्य विभूति को स्थिर समझ कर व्यर्थ ही विमोहित हो रहा हूँ। नर भव पाकर भी जिसने हुए मृत भौरे पर उनकी दृष्टी पड़ी। वह भौरा सुगन्धि के लोभ से सायंकाल के समय कमल के भीतर बैठा था कि अचानक सूर्य अस्त हो गया जिससे वह उसी मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं किया वह फिर सदा के में बन्द होकर मर गया था। लिए पछताता है। जब यह भौरे एक नासिका इन्द्रिय के विषय में आसक्त हो रहे हैं वे क्यों भौरे की तरह मृत्यु को प्राप्त न होंगे। संसार मे इन्द्रिय के विषय ही प्राणियों को दुखी करते हैं। मैंने जीवनभर विषय सुख भोगे पर कभी सन्तुष्ट नहीं हुआ। C00 CIDR | ऐसा चिन्तवन करके राजा संसार से एक दम उदासीन हो गये। पुत्र वज्रजंग को राज्यतिलक कर वन जाकर आचार्य के पास यह चिन्तवन कर उन्होंने जिन दीक्षा धारण का संकल्प कर लिया। जब पुत्रों दीक्षा लेकर तप करने लगे। उनके साथ श्रीमती के सौ पुत्र ने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया तब अपने छ: माह के पौत्र पुण्डरीक पंडिता सखि एवं अनेक राजाओं ने भी जिन दीक्षा गृहण की। को राज्य दे दिया पुत्रों तथा पुरवासियों के साथ दीक्षित हो गये। चक्रवर्ती एवं पुत्र अमिततेज के विरह से सम्राज्ञी लक्ष्मीमती तथा / महारानी ने पत्र भेजकर दामाद वनजंघ को बुलाया कुछ समय के बाद अनुन्दरी बहुत दुखी हुई। कहां चक्रवर्ती का विशाल राजा वजजंघ व श्रीमती पुण्डरीक की तरफ आये उनके साथ सारा साम्राज्य एवं कहां छ: माह का अबोध बालक पुण्डरीक। अब सरकारी लवाजमा था। रथ घोड़े हाथी से सजी विशाल सेना थी। राज्य की रक्षा किस तरह होगी। एक सुन्दर सरोवर के पास सैना को रोक कर स्वयं श्रीमती के साथ नगर में जाने लगे। दो मुनिराज विहार करते हुए वहां से निकले / राजा dरानी ने मुनियों को शुद्ध सरस आहार दिया उसके बाद मुनिराज वन कीओर विहार कर गये। ये युगल मुनि आपके सबसे छोट दो पुत्र हैं। आत्म शुद्धि के लिए सदा वन में ही रहते हैं। आहार के लिए भी नगर में नहीं जाते। जैन चित्रकथा
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यह सुन राजा वज्रजंघ व श्रीमती को रोमांच हो आया। वे तत्क्षण उसी ओर गये जिस ओर मुनिराज गये थे। निर्जन वन में एक शिला पर बैठे हुए मुनि युगल को देखकर राज दम्पति के हर्ष का पार न रहा। मुनिराजों के चरणों में मस्तक नवाकर गृहस्थ धर्म का आख्यान सुना इसके बाद अपना पूर्व भव सुनकर राजा वज्रजंघ ने पूछा ....... हे मुनिराज ! ये मतिवार आनन्द एवं
राजन ! अधिकतर पूर्वभव के संस्कारों से ही अकम्पन मुझसे बहुत स्नेह करते हैं।
प्राणियों में परस्पर स्नेह अथवा द्वेष रहा करता मेरा भी इनसे अत्यधिक प्रेम है।
है। आपका भी इनके साथ पूर्वभव का सम्बन्ध इसका क्या कारण है।
है। सुनो मैं इनके पूर्वभव सुनाता हूँ।
EOB
जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र वत्सकावती देश में प्रभाकरी नगर हैं। वहां का राजा नरपाल आरम्भ परिग्रह में लीन रहता था। इसलिए वह मरकर पंकप्रभा नरक में गया। अनेक दुख भोगकर उसी नगरी के पास शार्दूल (व्याघ्र) हुआ। किसी समय उस पर्वत पर वहां के तात्कालिक राजा प्रितीवर्धन अपने छोटे भाई के साथ रूके हुए थे। राजपुरोहित ने उनसे कहायदि आप इस पर्वत पर
इस निर्जन पहाड़ पर कोई मुनि मुनिराज के लिए आहार
आहार के लिए क्यों आवेगा? देवें तो विशेष पुण्य
लाभ होगा।
आप नगरी के समस्त रास्ते सुगन्धित जल से सिंचवा कर उन | पर ताजे फूल बिछवादें। जिससे कोई निर्ग्रन्थ मुनि उसमें प्रवेश नहीं करेगा। वे नगरी में न जाकर इसी ओर आवेंगे। तब
आप पड़गाह कर उन्हें विधिपूर्वक आहार दे सकते हैं।
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राजा प्रीतीवर्धन ने पुरोहित के कहे अनुसार ऐसा ही किया |जिससे पहितास्व नामक मुनि नगरी को विहार के अयोग्य समझकर उसी पर्वत की ओर आ गये।
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मुनिराज को आते देख राजा प्रीतीवर्धन ने उन्हे भक्ति पूर्वक पड़गाहा| राजा प्रीतीवर्धन ने उस शार्दूल की खूब परिचर्या की एवं मुनिराज ने स्वयं एवं उत्तम आहार दिया । देवों ने वहां रत्नों की वर्षा की तब मुनिराज उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया जिससे वह अठाइस दिन बाद समतारूपी ने राजा प्रीतीवर्धन से कहा- हे धरारमण ! दान के वैभव परिणामों में मरकर ऐशान स्वर्ग में देव हुआ। राजा के सेनापति, मंत्री, से बरसती हुई रत्नधारा को देख कर जिसे जाति स्मरण हो आया है पुरोहित ने भी राजा के आहारदान की अनुमोदना की जिसके प्रभाव वे ऐसा एक शार्दूल इसी पर्वत पर सन्यास वृत्ति धारण किए हुए है। सो तुम | तीनों मरकर ऐशान स्वर्ग में देव हुए। जब आप ऐशान स्वर्ग में ललितांगदेव उसकी योग्य रीति से परिचर्या करो, वह आगे चल कर भरत क्षेत्र के थे तब ये सब आपके परिवार के देव थे। वहां से चयकर ये सब क्रमश: प्रथमतीर्थक र वृषभनाथ का प्रथम पुत्र समाट भरत आपके मंत्री पुरोहित, सेनापति व सेठ बने । बस इस पूर्व भव के बंधन से होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
आपका आपस में अत्यधिक स्नेह है।
उस निर्जन वन में राजा वज जंघ एवं मुनिराज के बीच जब | यह सवादचल रहाथा, तब वहां
है तपोनिधे ! ये नकुल, शार्दुल, बंदर एवं शूकर आदि चार जीव आपकी ओर टकटकी लगाये
क्यों बैठे हैं। T
यह व्याघ्र इसी देश मे हस्तिनापुर नगर में वेश्य दम्पत्ति का उग्रसेन नाम का पुत्र था-वह अधीनस्थ सेवकों को धमकाकर भण्डार से घी, चावल आदि वस्तुएं वेश्याओं के लिए भेजा करता था राजा को पता लगा तो पकड़ाकर खूब मार लगाई। वह मर कर व्याघ्र हुआ है।
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यह सूकर पूर्व भव मे विजयनगर के राज दम्पत्ति का हरिवाहन नामक पुत्र || यह बंदर पहले भव में वेश्य दम्पत्ति नागदत्त नामक पुत्र था। किसी समय था। वह बहुत अभिमानी था। वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं |
इसकी माँ ने छोटी कन्या के विवाह के लिए दुकान से कुछ धन ले लिया। समझता था। यहां तक की पिता एवं गुरूजनों तक की आज्ञा नहीं मानता था। एक दिन इसके पिता ने इसे कुछ आज्ञा दी जिससे कुध होकर इसने
|जिसे यह देना नही चाहता था। इसने माँ से धन वापस लेने के अनेक उपाय पत्थर के खम्भे से सिर फोड़ लिया मरकर सूकर हुआ।
किये। निष्फल रहा, इस दुख से मरकर बंदर हुआ।
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यह नेवला पहले भव में सुप्रतिष्ठित नगर में आपने जो मुझे आहार दिया है, उसका वैभव देखने से इन सब को अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। कादम्बिक नाम का पुरूष था। वहां के राजा ने इसे | ये पश्चाताप कर रहे हैं। पात्रदान की अनुमोदना से इनका पुण्य संचय हुआ है। ये सब आठभवों तक मंदिर बनवाने के काम में लगा रखा था। वह ईट वाले आपके साथ स्वर्ग एवं मनुष्यों के सुख भोग कर संसार बंधन से मुक्त हो जायेंगे। साथ ही इस श्रीमती का लोगों को धन देकर बहुत सी ईंटें अपने घर डलवाता जीव आपके तीर्थ में दानतीर्थ के चलाने वाला श्रेयांसकुमार होगा तथा उसी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करेगी। था। कादम्बिक को एक दिन अपनी कन्या के ससुराल जान पड़ा। अपने पुत्र को मंदिर के काम पर लगा गया था। पुत्र ने उसका बताया पाप काम नहीं किया। उसने बेटे को बहुत पीटा। क्रोध में आकर अपने पांव भी काट लिए राजा को पता चला तो उसकी बहुत पिटाई हुई, वह मरकर नेवला हुआ।
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...दोनो राजदम्पति मुनिराज को नमस्कार कर अपने नगर को चले आये। मुनियुगल भी अनन्त आकाश में विहार कर गये। .
चौबीस तीर्थंकर भाग-1
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अपनी राजधानी पुण्डरीकिणीपुरी आकर बालपुण्डरीक का राजतिलक किया विश्वस्त वृद्ध मंत्रियों के साथ में राज्य का भार सौंप दिया। एक दिन राजा रानी शयनागार में सोये थे। चन्दन आदिका सुगन्धित धुंवा फैल रहा था। दुर्भाग्य से सेवक महल की खिड़कियां खोलना भूल गया। जिससे धुंआ संचित होता रहा। उसी धुंए से राजदम्पति का स्वास रूक गया, सदा के लिए सोते रह गये। वे दोनों मरकर उत्तर कुरूक्षेत्र में आर्य एवं आर्या हुए। वे नकुल, व्याघ्र, सूकर एवं बंदर भी उसी क्षेत्र में आये हुए थे। सुख से रहने लगे। इधर उत्पल खेट नगर मे राजा वनजंघ के विरह से मतिवर, आनन्द, धनमित्र एवं अकम्पन पहले तो दुखी हुए अन्त में जिन दीक्षा धारण करली । तप के प्रभाव से स्वर्ग में अहमिन्द्र हुए। एक दिन उत्तर कुरूक्षेत्र में आर्य एवं आर्या कल्पवृक्ष के नीचे बैठे क्रीड़ा कर रहे थे आकाश मार्ग, से दो मुनि राज पधारे। आर्य दम्पति ने उनका स्वागत किया चरणों में नमस्कार कर पूछा
आर्य ! पूर्व काल में जब आप राजा महाबल थे तब आप कहां से आ रहे हैं एवं इस भोग भूमि में किधर
मैं आपका स्वयंबुद्ध नाम का मंत्री था। मैने ही आपको जैन धर्म का विहार कर रहे हैं? हमारा हृदय भक्ति भाव से उमड़
उपदेश दिया था। जब आप बाइस दिन का सन्यास धारण कर मर रहा है कृपा कर कहिए आप कौन हैं?
कर स्वर्ग चले गये। मैनें जिन दीक्षा धारण करली थी। जब मुझे अवधिज्ञान से मालूम हुआ कि आप यहां हैं तब मैं आपको धर्म
का स्वरूप समझाने के लिए आया हूँ।
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हे भव्य ! विषयाभिलाषा प्रबलता से महाबल पर्याय में आपको | कुछ समय बाद आयु पूर्ण होने पर आर्य एवं आर्या के जीव ऐशान स्वर्ग में देव निर्मल सम्यगदर्शन प्राप्त नही हुआ था। इसलिए आज निर्मल हुए। शार्दूल, सूकर, बंदर व नेवले के जीव भी उसी स्वर्ग में देव हुए। वहां सम्यग्दर्शन को धारण करो। यह दर्शन ही संसार के समस्त || अनेके भोग भोगते हुए सुख से रहने लगे। काल क्रम से स्वयं बुद्ध मंत्री के जीव दुखों को दूर करता है। जीव अजीव आस्रव बंध, संवर प्रीतिकर मुनिराज को श्री प्रभ पर्वत पर केवल ज्ञान हुआ। सभी देव उनकी निर्जरा एवं मोक्ष इन सात तत्वों कातथा दया धर्म का सच्चे मनावदना के लिए गयादेवन अपनगुरूस पुछा। से श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है।
भगवन् ! महाबल के भव में सम्भिन्नमति /निगोदराशि में उत्पन्न हो अचिन्त्य शतमति तथा महामति नाम के मेरे जो तीन/दुख भोग रहे हैं तथा शतमति मिथ्या मिथ्या दृष्टि मंत्री थे वे अब कहां हैं। -ज्ञान के प्रभाव से दूसरे नरक में
कष्ट भोग रहा है।
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उपदेश देकर मुनिराज आकाश मार्ग से विहार कर गये।।
जैन चित्रकथा
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जिस समय जयसेन का विवाह होने वाला था। उसी समय श्रीधर
देव ने जाकर समझाया। नरक के समस्त दुखों की याद दिलाई । |जिससे उसने संसार से विरक्त होकर मुनि दीक्षा ले ली। कठिन तप के प्रभाव से मरकर पांचवे स्वर्ग में ब्रह्मेन्द्र हुआ।
यह सुन कर श्रीधर देव को बहुत दुख हुआ। वह सम्भिन्नमति तथा महामति के विषय में तो कर ही क्या सकता था हां शतमति को सुधार सकता था। वह शीघ्र ही दूसरे नरक में गया। वहां अवधिज्ञान से शतमति मंत्री के जीव को पहचान कर उससे कहा-
क्यों महाशय ! आप तो मुझे पहिचानते हैं न ? विद्याधरों के राजा महाबल का जीव हूँ। मिथ्याज्ञान के कारण आपको नरक के ये तीव्र दुख प्राप्त हुए हैं। अब भी यदि इनसे छुटकारा चाहते हो, तो सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान से अपने आपको अलंकृत करो।
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श्रीधर देव के उपदेश से नारकी शतमति ने शीघ्र ही सम्यग्दर्शन धारण कर लिया। वह आयु पूर्ण कर मंगलावती देश में राजदम्पति के जयसेन नाम का पुत्र हुआ।
कुछ समय बाद श्रीधरदेव स्वर्ग से चयकर जम्बूद्वीप के महावत्सकावती देश के राजदम्पति के सुविधि नामक पुत्र हुए। अभय घोष चक्रवर्ती उसके मामा थे। चक्रवर्ती के मनोहरा नाम की एक सुन्दर कन्या थी, जिसका विवाह सुविधि से हुआ। सुख से समय बिताने लगे। कुछ समय बाद राज्य का भार सुविधि को सौंप कर राजा मुनि हो गये। सुविधि राजकार्य में बहुत अधिक कुशल था। समय पाकर राजा सुविधि के केशव नामक पुत्र हुआ। राजा वज्रजंघ का जीव अनेक सुख भोगकर राजा सुविधि हुआ। श्रीमती का जीव उनका पुत्र केशव हुआ। शार्दूल का जीव इसी देश के राजा विभीषण व रानी प्रियदत्ता का वरदत नाम का पुत्र हुआ। सूकर का जीव अनन्त मति व नन्दिसेन राज दम्पति का वरसेन नाम का पुत्र हुआ। बंदर का जीव चन्द्रमती व रतिसेन नामक राजदम्पति के चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ। नकुल का जीव चित्रमलिनी तथा प्रभन्जन नामक राजदम्पति के मदन नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुआ।
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कुछ समय के बाद चक्रवर्ती अजयघोष ने अठारह हजार राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले ली। वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद तथा मदन भी चक्रवर्ती के साथ दीक्षित हो गये। राजा सुविधि का अपने पुत्र केशव पर अधिक स्नेह था। इसलिए उन्होंने मुनि न होकर श्रावक के व्रत धारण किये। आयु के अन्त में महाव्रत धारण कर सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हुए। केशव ने भी दीक्षा ली, आयु के अन्त में स्वर्ग में यतीन्द्र हुआ।आयु के अन्त में अच्युतेन्द्र पुण्डरीकणी नगरी के श्रीकान्ता तथा वज्रसेन नामक राजदम्पति के पुत्र हुआ। वहां उसका नाम वजनाभि था। वरदत्त, वरसेन, चित्रांगदा तथा मदन स्वर्ग में सामानिक देव थे। वहां से चयकर वजनाभिके विजय वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित नाम के छोटे भाई हुए। जो सोलहवें स्वर्ग में यतीन्द्र हुआ । वह कुबेदत्त तथा अनन्तमति नामक वैश्य दम्पति के धनदेव नामक पुत्र हुआ । वज्रनाभिके वज्रजंघ भव में जो मतिवर, आनन्द, धनमित्र तथा अकम्पन नाम के मंत्री पुरोहित सेठ तथा सेनापति थे। वे मरकर अहमिन्द्र हुए थे। अब वे वहां से चयकर वज्रनाभिके भाई हुए। वहां उसके सुबाहु, महाबाहु पीठ तथा महापीठ नाम रखे गये थे। राजपुत्र वज्रनाभि का शरीर पहले से ही बहुत सुन्दर था। यौवनावस्था आने पर अत्यधिक सुन्दर प्रतीत होने लगा। राजा वज्रसेन ने अपने पुत्र वज्रनागि को राज्यभार सौंपकर वैराग्य ले लिया। इधर वजनाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। चक्ररत्न को आगेकर वज्रनाभि ने दिग्विजय की। धनदेव उका गृहपति नामक रत्न हुआ इस तरह नौ निधि तथा चौदह रत्नों के स्वामी सम्राट वज्रनाभि का समय सुख से बीतने लगा।
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महाराज वज्रनाभि अपने पुत्र वज्रदंत को राज्यभार सौंपकर सोलह हजार राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों तथा श्रेष्ठी धनदेव के साथ तीर्थंकर देव के समीप दीक्षित होकर तपस्या करने लगे। वजनाभि ने भी वहीं सोलह भावनाओं का चिन्तन किया जिससे तीर्थकर प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में सर्वाथसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। यह अहमिन्द्र ही हमारे कथा नायक वृषभनाथ होंगें। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सुबाहु, पीठ, महापीठ तथा धनदेव शरीर त्याग कर अहमिन्द्र हुए थे, भगवान वृषभनाथ के साथ मोक्ष प्राप्त करेंगे।....
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यहां जब भोगभूमि की रचना मिट चुकी थी एवं कर्मभूमि की रचना आरंभ हो रही थी, तब अयोध्या नगरी में अन्तिम कुलकर नाभिराज का जन्म हुआ था। इनके काल में जन्म के समय बालक की नाभि में नाल दिखलाई देने लगी थी। महाराज नाभिराज ने उस नाल को काटने का उपाय बताया था। इसलिए, उनका नाम नाभिराज सार्थक हुआ था। इन्हीं के समय में आकाश में श्यामल मेघ दिखने लगे थे। इन्द्रधनुष की विचित्र आभा छिटकने लगी थी। विद्युत चमकती थी। वर्षा होने से पृथ्वी की शोभा अभ्दुत हो गयी थी। कहीं सुन्दर निर्झर कलरव करते हुए बहने लगतेथे। कहीं पहाड़ों की गुफाओं से इठलाती हुई नदियां बहने लगी थी। कहीं मेघों की गर्जन सुनकर वनों में मयूर नाचने लगे थे। आकाश में श्वेत बगुले उड़ने लगे थे। समस्त पृथ्वी पर हरी भरी घास उत्पन्न हो गई थी। उस वर्षा से खेतों में अपने आप तरह-तरह के धान्य अंकुर उत्पन्न हो कर समय पर योग्य फल देने लगे थे। यद्यपि भोग उपभोग की समस्त सामग्री मौजूद थी परन्तु प्रजा उसे काम में लाना नही जानती थी इसलिए वह यह सब देखकर भ्रम में पड़ गई। अब तक भोग भूमि बिलकूल मिट चुकी थी एवं कर्मयुग का आरंभ हो चुका था परन्तु लोग कर्म करना नहीं जानते थे, इसलिए वे भूख-प्यास से दुखी होने लगे। एक दिन चिन्ता से व्याकुल हुए समस्त प्राणी महाराज नाभिराज के पास पहुंचे एवं उनसे दीनता पूर्वक प्रार्थना करने लगे।
(खेतों में कई तरह के छोटे पौधे लगे हुए हैं जो बालों के महाराज! आपके उदय से अब मनचाहे फल देखिये कल्प वृक्षों के बदले ये अनेक भार से झकने के कारण मानो महीदेवी को नमस्कार देने वाले कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं। इसलिए हम अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए हैं जो फल के भार कर रहे हैं। कहिए ये सब किसलिए पैदा हुए हैं। सब भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे । कृपा कर से नीचे झुक रहे हैं। इनके फल खाने महाराज ! आप हम सब के रक्षक हैं, बुद्धिमान हैं, जीवित रहने का कुछ उपाय बतलाईये। से हम लोग मर तो नहीं जायेंगे। इसलिए इस संकट के समय हमारी रक्षा कीजिए।
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प्रजा के ऐसे दीनता भरे वचन सुनकर/भाईयों ! कल्पवृक्ष के नष्ट हो जाने पर ये साधारण वृक्ष तुम्हारा वैसा ही उपकार करेंगे जैसा नाभिराज ने मधुर वचनो से सबको कि पहले कल्पवृक्ष किया करते थे। देखो ये खेतों में अनेक तरह के अनाज पैदा हुए हैं। संतोष दिलाया एवं युग के परिवर्तन इनके खाने से तुम लोगों की भूख शान्त हो जावेगी एवं इन सुन्दर कुए, बावड़ी, निर्झर आदि का हाल बताते हुए कहा।
का पानी पीने से तुम्हारी प्यास मिट जावेगी।
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ये लम्बे गन्ने के पेड़, जो बहुत अधिक मीठे हैं। इन्हे दान्तों से या यन्त्र से पेलकर इनका रस पीना चाहिए। इन गायों, भैसों के थनों से स्वेत मिष्ट दुग्ध झर रहा है, इसे पीने से शरीर पुष्ट होता है एवं भूख मिट जाती है।
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COपान इस तरह दयालु महाराज नाभिराज ने उस दिन प्रजा को जीवित रहने के सब उपाय बताये एवं थाली आदि कई तरह के मिट्टी के बर्तन बनाना सिखाये। उनके मुख से यह सब सुन कर प्रजाजन बहुत अधिक प्रसन्न हुए एवं उनके बताये उपायों को काम में लाकर सुख से रहने लगे। जैन चित्रकथा
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पहिले लोग बहुत अधिक भद्र परिणामी होते थे, इसलिए उनसे किसी प्रकार का अपराध नहीं होता था। पर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों लोगों के परिणाम कुटिल होते गये एवं वे अपराध करने लगे। इसलिए नाभिराज ने एवं उनके पहिले कुलकरों ने अपराधी मनुष्यों को दण्ड देने के लिए | दण्ड विधान भी चलाया था। 'हा', 'मा', 'धिक' ये तीन प्रकार के दण्ड थे ।
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राजा नाभिराज की पत्नी का नाम मरूदेवी था। उसके समान सुन्दरी एवं सदाचारणी न हुई और न होगी। उनकी राजधानी अयोध्यापुरी थी। राजदम्पति अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए बड़े आनन्द से वहां रहते थे। नये-नये उपायों से प्रजा का पालने करते थे। इन्ही राजदम्पति के पुत्र भगवान श्री वृषभनाथ से प्रसिद्ध हुए। भगवान वृषभनाथ प्रथम आदितीर्थंकर कहलाते थे।
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जब से कर्मयुग का आरम्भ हुआ तब से लोगों के हृदय भोग लालसाओं से बहुत कुछ विरक्त हो चुके थे। उस समय संसार को ऐसे देव दूत की आवश्यकता थी। जो सृष्टी के अव्यवस्थित लोगों को व्यवस्थित बनाए। उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कराए. ये महान कार्य किसी साधारण मनुष्य से नही हो सकता था। उसके लिए तो किसी ऐसे महात्मा की आवश्यकता थी जिसका व्यक्तित्व बहुत विशाल हो। हृदय अत्यन्त निर्मल एवं उदार हो । उस समय वज्रनाभि चक्रवर्ती का जीव जो कि सवार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र पद पर आसीन था। इस महान कार्य के लिए उद्यत हुआ। देवताओं ने उसका सहर्ष अभिवादन किया। सबसे पहले देवों ने भव्यता से स्वागत के लिए भव्य नगरी का निर्माण किया फिर उसमें नित्य प्रतिदिन में चार बार करोड़ों रत्नों की वर्षा की। एक दिन महारानी मरूदेवी स्वच्छ वस्त्र से शोभित शैया पर शयन कर रही थी। शीतल सुगन्धित वायु धीरे-धीरे बह रही थी। सुख की नींद आ रही थी। जब रात्रि समाप्त प्राय थी तब उसने आकाश में सोलह स्वप्न देखे। स्वप्न देखने के बाद उसने अपने मुख में प्रवेश करते हुए स्वेत वर्ण वाला एक बैल देखा।....
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रात्रि पूर्ण हो गयी, पूर्व दिशा में लाली छा गई, राज मंदिर में मंगल ध्वनि होना लगी। बंदी जन-स्तुति गान करने लगे। महारानी मरुदेवी की नींद खुल गई। पंच परमेष्ठी का स्मरण करती हुई। शैया से उठी अभूतपूर्व स्वप्नों का स्मरण कर आश्चर्य सागर में निमग्न हो गई।
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जब उसे बहुत सोच विचार करने पर भी स्वप्नों के फल का पता न चला तब वह शीघ्र ही तैयार हो कर सभा मण्डल की ओर गई। | महराज नाभिराज ने यथोचित सत्कार कर उसे राज्यसभा में आने का कारण पूछा। मरूदेवी ने विनय पूर्वक रात में देखे स्वप्न राजा नाभिराज से कहे एवं उनके फळ जानने की इच्छा प्रकट की तब महाराज नाभिराज ने अवधिज्ञान से जानकर कहा।
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देवी! तुम्हारे एक महान पुत्र होगा। वह पूरे संसार का अधिपति होगा। प्रचण्ड पराक्रमी व अतुलित वैभवशाली होगा तीर्थ का कर्त्ता एवं सबको आनन्द देने वाला होगा। तेजस्वी व निधियों का स्वामी होगा तथा अनन्त सुखी होगा। उत्तम लक्षणों से भूषित होगा। सर्वदर्शी व स्थिर साम्राज्यशाली होगा। स्वर्ग से आयेगा। अवधिज्ञान, गुणों की खान व कर्मरूपी ईधन को जलाने वाला होगा। ऐसा लगता है कि तुम्हारे गर्भ में किसी देव ने अवतार लिया है।
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देवों के आसन अकस्मात कम्पायमान हुए जिससे उन्हें वृषभनाथ के गर्भारोहण का निश्चय हो गया। इन्द्र की आज्ञानुसार दिक्कुमारियां लक्ष्मी आदि देवियां जिन माता महारानी मरूदेवी की सेवा के लिए उपस्थित हो गई। इन्द्र आदि समस्त देवों ने अयोध्यापुरी में खूब उत्सव किया। रत्नों को बरसाते रहे। इस तरह आषाढ़ शुक्ला द्वीतीया के दिन उत्तरासाढ़ नक्षत्र में वजनाभि अहमिन्द्र ने स्वार्थसिद्धि से चयकर महादेवी मरूदेवी के गर्भ में स्थान पाया।
चेत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तम लगन में प्रात: काल के समय मरूदेवी ने पुत्र रत्न प्रसव किया। वह सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत होता था। उस समय तीनों लोकों में उल्लास छा गया था। दिशाएं निर्मल हो गयी थी। अयोध्या नगरी की शोभा अनुपम प्रतीत होती थी। सौ धर्म स्वर्ग का इन्द्र भी इन्द्राणी के साथ अयोध्यापुरी की ओर चला। मार्ग में अनेक सुर नर्तकियां नृत्य करती जाती थी। सरस्वती वीणा बजाती थी। गंधर्व गीत गाते थे। भरताचार्य नृत्य की व्यवस्था कर रहे थे। देव सेना आकाश से नीचे उतरी।
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इन्द्र-इन्द्राणी आदि कुछ प्रमुख देव राजा नाभिराज के भवन पर पहुंचे एवं तीन प्रदक्षिणा दे कर उनके भीतर हुए बाल जिनेन्द्र को लाने के लिए इन्द्र ने इन्द्राणी को प्रसूति गृह में भेजा एवं स्वयं द्वार पर खड़ा रहा- इन्द्राणी ने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया, मरूदेवी को मायामयी निद्रा से अचेत कर उसके समीप माया निर्मित एक बालक को सुलाकर बालक जिनेन्द्र को बाहर ले आई। उनके आगे दिक्कुमारीयां अष्ट मंगल लिए हुए चल रही थी, मंगल गीत गा रही थी। जय घोष कर रही थी। इन्द्राणी ने जिन बालक को लेजाकर इन्द्र को सौंप दिया।
सौधर्म इन्द्र ने उन्हे ऐरावत पर बैठायां। बालक वृषभनाथ के शीश पर ऐशान स्वर्ग का धवलछत्र लगाया सनत्कुमार एवं महेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र दोनो चमर ढुलार रहे थे। सब देवता जय-जयकार कर रहे थे। आकाश मार्ग से मेरूपर्वत की ओर, चले धीरे-धीरे चलकर ....
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निन्यानवे हजार योजन ऊंचे पर्वत पर पहुंच गये। शिखर पर जो पाण्डक वन में देव सेना को ठहराकर, पाण्डक शिला पर मध्य सिंहासन पर बालक जिनेन्द्र को विराजमान कर दिया। पास के दोनो ओर सिंहासनों पर ऐशान स्वर्ग के इन्द्र बैठे। इन दोनों इन्द्रों के आसन से क्षीर सागर तक देवों की दो पंक्तियां बन गयी जो वहां से जल से भरे कलश हाथों हाथ इन्द्र के पास पहुंचा रही थी। जब अभिषेक का कार्य पूरा हो गया तब उत्तम वस्व से बालक जिनेन्द्र की देह पोंछ कर इन्द्राणी ने तरह-तरह के आभूषण पहनाए, अनेक स्तोत्रों से देवराज ने उनकी स्तुति की। देव नर्तकियों ने नृत्य किया, समस्त देवों ने उनका जन्म कल्याणक देखकर अपने को धन्य माना। इन्द्र ने बालक का नाम वृषभनाथ रखा। मेरूपर्वत पर अभिषेक महोत्सव समाप्त कर अयोध्या वापस आये व बालक को माता की गोद में देकर अभिषेक विधि के समाचार सुनाये जिससे सब लोग बहुत प्रसन्न हुए।
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महाराज नाभिराज ने दिल खोल कर अनेक उत्सव किए। जन्माभिषेक का || उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि उन्हे किसी गुरू से विद्या सीखने की महोत्सव पूराकर देव एवं देवेन्द्र अपने-अपने स्थानों को चले गए। जाते समय आवश्यकता नहीं पड़ी थी। आप ही समस्त विद्याओं एवं कलाओं के कुशल नाभिराज के महल पर भगवान के रक्षा के लिए चतुर कुछ देवकुमार एवं देव |
हो गये थे। कभी विद्वान मित्रों के साथ बैठकर कविता की रचना करते। कुमारियों को छोड़ गया था। इन्द्र ने भगवान के हाथ के अंगूठे में अमृत भर दिया
तरह-तरह की पहेलियों के द्वारा मन बहलाते। कभी सुन्दर संगीत सुधा का
पान करते । कभी मयूर, तोता, हंस, सारस आदि पक्षियों की मनोहर चेष्टाएं था। जिसे चूस-चुसकर वे बड़े हुए थे। उन्हें माता का दूध पीने की आवश्यकता
देखकर प्रसन्न होते। कभी प्रजाजन सेमधर वार्तालाप करते। नहीं हुई थी।
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कभी हाथी पर सवार हो कर नदी, तालाब उद्यान आदि की सैर करते। महाराज नाभिराज ने वृषभनाथ के बढ़ते हुए यौवन को देखकर उनकी कभी ऊंचे-ऊचे पहाड़ोकी चोटियो पर चढकर प्रकृति की शोभादेखत था। विवाह करना चाहा। इनका हृदय अभी से निर्विकार है- जब ये इस प्रकार राजकुमार वृषभनाथ ने सुख पूर्वक कुमार काल व्यतीत कर | बंधन मुक्त हाथी की भांति हठ कर तप के लिए वन को चले जावेंगे तब तरूणावस्था में प्रदार्पण किया। उस समय उनके शरीर की शोभा तप्त कंचन | दूसरे की कन्या का क्या होगा? सम्भव है विवाह कर देने से कुछ परिचित की तरह अत्यधिक भली मालूम होती थी। उस युवावस्था में भी राजपुत्र | | हो सकेंगे यह युग का आरम्भ है। सृष्टि की व्यवस्था एक प्रकार से नहीं के वृषभनाथ के मन पर विकार के कोई चिह्न प्रकट नहीं हए थे उनका बालकों बराबर है। इस युग में विवाह की रीति प्रचलित करना सृष्टि को व्यवस्थित जैसा उन्मुक्त हास्य एवं निर्विकार चेष्टाएं ज्यों की त्यों विद्यमान थी। बनाना आवश्यक है।
ऐसा सोचकर पिता नाभिराज वृषभनाथ के पास गए। इस समय मानव समाज को सृष्टि का क्रम सिखलाने के लिए आप सर्वाधिक उपयुक्त है। इसलिए आप किसी योग्य कन्या के साथ विवाह करने की अनुमति दीजिए।
उस समय विवाह की तैयारियां शुरू कर दी। शुभ मुहूर्त में राजा कच्छ की। बहिन यशस्वी एवं महाकच्छ की बहिन सुनन्दा के साथ भगवान वृषभनाथ का विवाह कर दिया । वे दोनो अनुपम सुन्दरी थी। पुत्र वधुओं को देखकर माता मरूदेवी का हृदय फूला न समाता था। अयोध्या में कई तरह के उत्सव मनाये गये।
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तब भगवान वृषभनाथ ने मंद मुस्कान से पिता के वचनों का उत्तर दिया महाराज नाभिराज मौन सम्मति पाकर बहुत प्रसन्न हुए।
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चौबीस तीर्थकर भाग-1
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एक दिन रात के समय महादेवी यशस्वी ने सोते समय रात्रि के पिछले प्रहर में सुमेरू पर्वत, सूर्य, चन्द्र, कमल, अग्नि एवं समद ये स्वप्न देखे। प्रातः महादेवी ने सपनो का फल महाराज वृषभनाथ से पूछा उन्होने हसते हुए कहा-करता तुम्हारे चक्रवर्ती, प्रतापी, कान्तिवान, लक्ष्मीवान, समस्त वसुधा का पालन कर्ता, गंभीर हृदय वाला, चरम शरीरी पुत्र उत्पन्न होगा। वह पुत्र इक्ष्वाकु वंश की कीर्ति बढ़ायेगा। अपने अतुल्य भुजबल को भरत
क्षेत्र के छहों खण्डों पर राज्य करेगा।
इसके अनन्तर व्याघ्र का जीव सुबाहु जो कि सर्वाथ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था, वहां से चयकर महादेवी यशस्वी के गर्भ में आया। धीरे-धीरे शरीर में गर्भ के चिहन प्रकट हो गए। समस्त शरीर रक्तहीन हो गया। उस समय उनका मन वीर चेष्टाओं में रमता था। योद्धाओं के वीरताभरे वचन सुनती थी शूरवीरो की युद्ध कला देखकर प्रसन्न होती थी। ऐसा लगता है। कोई पराक्रमी पुरूष अवतार लेगा। क्रमश: नो महीने बीतने पर शुभलग्न में प्रात:काल तेजस्वी बालक को प्रसूत किया।
यह बालक सर्वभौम न समस्त पृथ्वी का अधिपति
अर्थात चक्रवर्ती होगा।
स्वप्नों का फल सुनकर महादेवी यशस्वी बहुत हर्षित हुई।
जिन राज वृषभदेव बहुत अधिक प्रसन्न हुए थे। मरूदेवी एवं नाभिराज के हर्ष का तो पारावार ही नहीं था। सम्पूर्ण नगरी पताकाओं से सजाई गई थी। राजा नाभिराज ने अभूतपूर्व दान दिया था। कच्छ, महाकच्छ आदि राजाओं ने मिलकर नाती का जन्मोत्सव मनाया एवं उसका नाम भरत रखा। भगवान वृषभनाथ के वज्रजंघ भव में जो आनन्द नाम का पुरोहित था एवं क्रम से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था। वह कुछ समय बाद महादेवी यशस्वी के गर्भ से वृषभसेन नाम का पुत्र हुआ। फिर क्रम से सेठ धन मित्र शार्दुलाय, वराहार्य एवं नकुलार्य के जीव इसी महादेवी के गर्भ से क्रम से अनन्त विजय, अनन्त वीर्य, अच्युत, वीर एवं वरवीर नाके पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह भरत के बाद निन्यानवे पुत्र तथा ब्राह्मी नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई।
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उधर भगवान वृषभनाथ की दूसरी रानी सुनन्दा के गर्भ में वज्रजंघ भव का सेनापति जो क्रम से अहमिन्द्र हुआ था। अवतीर्ण हुआ जिसका नाम बाहुबली था। जैसा नाम था वैसे ही गुण थे। उनकी धीर चेष्टाओं के सामने महादेवी यसस्वी के समस्त पुत्रों को मुंह की खानी पड़ती थी। भगवान वृषभनाथ के वज्रजंघ भव में अनुन्दरी नाम की बहिन थी वह कुछ समय बाद उसी सुनन्दा के गर्भ से सुन्दरी नाम की पुत्री हुई। इस प्रकार भगवान वृषभनाथका समय परिवार के साथ सुख से व्यतीत होता था।
वह समय अब सर्पिणी काल का था। इसलिए प्रत्येक विषय में ह्रास ही ह्रास होता था। कल्पवृक्षों के बाद बिना बोई हुई धान पैदा होती थी। अब वह भी नष्ट हो गई । औषधियों की शक्ति कम हो गई। मनुष्य खाने पीने के लिए दुखी होने लगे। सब ओर त्राहि-त्राहि मच गई। अपनी रक्षा का कोई उपाय नहीं देख कर लोग वृषभनाथ के पास पहुंचे -
हे त्रिभुवन पते हे दयानिधे! हम लोगों के दुर्भाग्य से कल्पवृक्ष तो पहले ही नष्ट हो चुके थे। पर अब रही सही धान्य आदि भी नष्ट हो गई है। इसलिए भूख-प्यास की बाधाऐं हम सबको अत्यधिक कष्ट पहुंचा रही है। वर्षा, धूप एवं सर्दी से बचने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। नाथ! इस तरह हम कब तक जीवित रहेंगे।
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पुत्र-पुत्रीयों को विद्या प्रदान के योग्य समझकर वर्णमाला सिखलाने के बाद ब्राह्मी को गणित शास्त्र तथा सुन्दरी को व्याकरण, छंद तथा अलंकार शास्त्र सिखलाए। ज्येष्ठ पुत्र भरत के लिए अर्थशास्त्र तथा नाटय शास्त्र वृषभसेन के लिए संगीत शास्त्र अनन्त विजय को चित्रकला तथा गृहनिर्माण विद्या, बाहुबली को कामतंत्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, हरिततंत्र अश्व तंत्र तथा रत्न परीक्षा शास्त्र पढ़ायें। इसी तरह अन्य पुत्रों को भी लोकोपकारी समस्त शास्त्र पढ़ाये। इस | प्रकार महाप्रतापी पुत्रों गुणवती पत्नियों के साथ विनोदमय जीवन बीताते हुए वृषभनाथ का दीर्घ जीवन क्षणभर समान बीतता गया । .....
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आप हम सब के उद्धार के लिए ही पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। आप विज्ञ हैं, समर्थ है, दया के सागर हैं, इसलिए जीविका के कुछ उपाय बतलाकर हमारी रक्षा कीजिए, प्रसन्न होइये।
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इस तरह लोगों की अतिवाणी सुनकर भगवान वृषभदेव का ऐसा निश्चय कर उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया एवं इच्छानुसार समस्त व्यवस्था करने के लिए, हृदय दया से भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि- इन्द्र का स्मरण किया। समस्त देवों सहित इन्द्र आया। महाराज का विचार जानकर सबसे पहले पूर्व पश्चिम विदेह क्षेत्रों की तरह यहां भी, ग्राम-नगर आदि|
उसने अयोध्यापुरी में चारों दिशाओं में बड़े-बड़े जिन मंदिरों की रचना की। फिर काशी, कौशल, का विभाग कर असिमसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य एवं कलिंग, कर्नाटक, अंग, बंग, मंगल, चोल, केरल, मालवा, महाराष्ट्र, सौराष्ठ , आन्ध्र, तुरष्क, विद्या इन छ: कार्यों की प्रवृति करनी चाहिये। ऐसा करने | करसेन, विदर्भ आदि देशों का विभाग किया। उन देशों में नदी, नहर, तालाब, वन, उपवन आदि पर ही लोग सुख से अपनी आजीविका ग्रहण कर सकेंगे। लोकोपयोगी उपादानों का निर्माण किया - फिर उन देशों के मध्य परिखाकोट, उद्यान
आदि से सोभायमान गांव, पुर, कर्वट आदि की रचना की तब से इन्द्र का नाम पुरन्दर पड़ा। वृषभेश्वर की आज्ञा पाकर देवेन्द्र ने प्रजा को उन नगरों में बसवाया। प्रजाजन भी नवनिर्मित भवनों में रहकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
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| एक दिन अवसर पाकर वषभदेव ने प्रजा के लोगों मे क्षत्रिय, | | वृषभनाथ ने सृष्टि की सुव्यवस्था की थी इसलिए वे 'सृष्टाब्रह्मा' कहलाये। वेश्य, शुद्र इन तीन वर्णो की स्थापना कर उनके आजीविका । वह युग कृतयुग नाम से पुकारा जाने लगा। महाराज नाभिराज की सम्मति के योग्य उपाय बताये। उन्होंने क्षत्रियों को धनुष बाण तलवार से उनका राज्याभिषेक किया गया। मणि जड़ित, स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हुए आदि शस्त्रों को चलाना सिखाया। दीन-हीन जनों की रक्षा का भार आदिनाथ तेजोमय मुखकमल सूर्य के समान दमकता था। प्रजा को सोंपा। वैश्यों को देश-विदेश में व्यापार करना सिखाया। शुद्रों |सुव्यवस्थित बनाने के लिए क्षत्रिय, वेश्य एवं शुद्र वर्ण का विभाग कर दिया को दूसरों की सेवा का कार्य सौंपा। उस समय भगवान था। उन्हें उनके योग्य कार्य सौंप दिया था। पर काल के प्रभाव से वृषभनाथ का आदेश लोगों ने मस्तक झुकाकर स्वीकार
उत्तरोतर लोगों के हृदय कुटिल होने लगे। इसलिए उन्होंने द्रव्य क्षेत्र, | किया। जिससे सब ओर सुख शान्ति हो गयी।
काल एवं भाव का ध्यान रखते हुए । अनेक तरह के दण्ड विधान प्रयुक्त किये थे।
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उन्होंने राज्य व्यवस्था को महामण्डलिक रूप में संगठित किया। चार हजार राजाओं पर एक महामण्डलिक राजा नियुक्त किया। चार महामण्डलिक राजाओं पर स्वयं महामण्डलेश्वर होकर सबकी देखभाल करते थे। अपने पुत्रों में ज्येष्ठ भरत को युवराज बनाया तथा शेष पुत्रों को भी योग्य पदों पर नियुक्त किया। भगवान वृषभनाथ ने सब मनुष्यों को इक्षु (ईख) के रस का संग्रह करने का उपदेश दिया लोग उन्हे 'इक्ष्वाकु' कहने लगे। प्रजापालन के उपाय प्रचलित किये थे। इसलिए प्रजापति भी कहते थे। कुलधर, काश्यप आदि ब्रह्मा अनेक नाम से पुकारते थे।
एक दिन प्रजापति वृषभनाथ राजसभा में बैठे थे। अनेक देव-देवियों के साथ सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र वहां आया। राजसभा में एक अप्सरा नीलांजना ने नृत्य शुरू किया। अचानक नीलांजना नृत्य करते-करते क्षण भर में विद्युत की भांति विलीन हो गई। तब इन्द्र ने रस भंग न हो इसलिए उसी के समान दूसरी अप्सरा को खड़ा कर दिया। वह भी नीलंजना की तरह ही नृत्य करने लगी। भेद विज्ञानी वृषभदेव से यह रहस्य छिपन सका, वे उदासीन हो गये। यह शरीर वायु के वेग से कम्पित दीप शिखा की भान्ति नश्वर है। यौवन संध्या की लाली के समान देखते-देखते नष्ट हो जाता है। शरीर इस आत्मा के साथ दूध एवं जल की तरह मिला हुआ है। वह भी समय पाकर आत्मा से पृथक हो जाता है। तब बिलकुल अलग रहने वाले स्त्री, पुत्र-धन, सम्पत्ति आदि में कैसे बुद्धि स्थिर की जा सकती है? यह प्राणी पाप के वश में नरक गति जाता है। तिर्यंचं गति में उष्ण, भूख-प्यास आदि अनेक दुख भोगता है। कदाचित मनुष्य भी हुआ तो दरिद्रता, रोग, मानसिक दुखों से दुखी होता है। इस तरह चारों गतियों में कहीं भी सुख का ठिकाना नहीं है। सच्चा सुख मोक्ष में ही प्राप्त हो सकता है एवं वह मोक्ष केवल मनुष्य पर्याय में ही प्राप्त किया जा सकता है। इस मनुष्य पर्याय को पाकर यदि मैंने आत्म कल्याण के लिए प्रयत्न नही किया तब मुझसे मुर्ख अन्य कौन होगा?
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भगवान वृषभदेव ने ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी देकर बाहूबली को युवराज बना दिया। स्वयं राजकार्य की ओर से बिल्कुल निराकुल हो गए। त्रिभुवनपति भगवान वृषभनाथ महाराज नाभिराज एवं महारानी मरूदेवी से आज्ञा लेकर वन जाने के लिए देव निर्मित पालकी पर सवार हए।
वन में पहुंच कर पालकी से उतर गये। चन्द्रकान्त मणी की शिला पर बैठ गये। समस्त वस्त्रा-भूषण उतार दिये एवं पंच मुष्ठियों से केश उखाड़ डाले तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके खड़े होकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हए। सिद्ध भगवान की साक्षी पूर्वक समस्त परिग्रहों का त्याग कर दिया। इस तरह महामुनि आदिनाथ ने चैत्र बदी नवमी के दिन अपरानुकाल के समय उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जिनदीक्षा ग्रहण की थी। वन में महामुनि आदिनाथ छह महीना का अनशन धारण कर एक आसन से बैठे हुए थे। धूप, वर्षा, शीत आदि की बाधाएं उन्हें रचमात्र भी विचलित नहीं कर सकी थी। वे मेरू के समान अचल थे। उनकी दृष्टि नासा के अग्रभाग पर लगी हई थी।
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जिस वन में महामुनि वृषभेश्वर ध्यान कर रहे थे उस वन में जन्म विरोधी जीवों ने भी विरोध छोड़ दिया। गाय, सिंह, मंग, सर्प, नेवला, मोर आदि एक दूसरे के साथ क्रीड़ा किया करते थे। सच है विशुद्ध आत्मा का प्रभाव सब पर पड़ता है।
ध्यान करते-करते जब छ: माह व्यतीत हो गये। तब भगवान वृषभदेव ने अपना उस समय करू जांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ राज्य करते थे। ध्यान मुद्रा समाप्त कर आहार लेने का विचार किया, मुनि मार्ग चलाने का ख्याल उनके छोटे भाई का नाम श्रेयांस कुमार था। श्रेयांस कुमार भगवान आदिनाथ कर ग्रामों में विहार शुरू किया। महामुनि आदिनाथ से पहले वहां कोई मुनि हुआ ही।
के वज्रजंघ भव में श्रीमती का जीव था। जो क्रम से आर्या, स्वयंप्रभ देव नही था। इसलिए लोग मुनिमार्ग से सर्वथा अपरिचित थे। वे यह नहीं समझते थे कि केशव, अच्युत, प्रतीन्द्र, धनदेव आदि होकर अहमिन्द्र हआ था। वहां से मुनियों के लिए आहार कैसे दिया जाता है। विधिपूर्वक न मिलने के कारण वे बिना चयकर श्रयास कुमार हुआ। न मिलने के कारण वे बिना कर अवासमा
आज मैं ने रात्रि के पिछले पहर में बड़ा आहर लिए ही नगरों से वापस चले जाते थे। इस तरह स्थान-स्थान पर घूमते हुए। विचित्र स्वप्न देखा। अत्यन्त ऊँचा मेरुपर्वत है, कल्पवृक्ष की शाखाओं उन्हें एक माह बीत गया। देवराज जिनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किया करते थे। सम्राट में आभूषण अलंकृत हैं। मूंगा के समान लाल-लाल से शोभित भरत जिन का पुत्र था। स्वयं तीनों लोकों के अधिपति कहलाते थे। वे भी कई नगरों सिंह, अपने सींगो पर मिट्टी लगाया हुआ बैल, दमकता सूर्य, किरण में घूमते रहे, पर आहार न मिला। इस तरह महामुनि आदिनाथ ने एक वर्ष तक युक्त चन्द्रमा, लहराता समुद्र, अष्ट मंगल द्रव्यों को लिए व्यंतर देव थे। कुछ भी नही खाया-पिया, तो भी उनके चित्त एवं शरीर में किसी प्रकार की शिथिलता नही दिखाई पड़ती थी।
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मेरू पर्वत के देखने से उसके समान प्रात: काल के राजभवन में बैठे हुए दोनो भाई उस महापुरूष की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि इतने में कोई महापुरूष अपने आगमन से आपके समय देखे गये || महामुनि आदिनाथ विहार करते हुए हस्तिनापुर आ पहुंचे। उनके आगमन का समाचार भवन को अलंकृत करेगा एवं बाकी के । स्वप्न शीघ्र ही
सुनकर दोनों भाई दौड़े आये, उन्हें प्रणाम कर अत्यधिक आनन्दित हुए। राजा श्रेयांसने स्वप्न उन्हीं महापुरूष के गुणों की
ज्यों ही भगवान आदिनाथ का दिव्य रूप देखा त्यों ही श्रीमती एवं वजजंघ भव का समस्त
फल देते हैं। उन्नति बतला रहे हैं।
वृतांत स्मरण हो आया। मुनियुगल को आहार दिया था। यह प्रात: काल का समय आहार देने के
योग्य है।
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राजपुरोहित की बात सुनकर दोनो भाई बड़े प्रसन्न हुए।
| उसने नवधा भक्ति पूर्वक उन्हे पड़गाहा। श्रद्धा, भक्ति से युक्त हो कर आदि । जिनेन्द्र वृषभनाथ को आहार देने के लिए भीतर ले गया। वहां उसने राजा | सोमप्रभ एवं रानी लक्ष्मीमती के साथ महामुनि आदिनाथ के पाणी पात्र में इक्षुरस से आहार दिया।
जय जय अहो दानम ! अहो दानम!
महामुनि आदिनाथ बीहड़ अटवियों में ध्यान लगाकर आत्म शुद्धि करते थे। उन्होंने यत्र-तत्र विहार कर अपनी चेष्टाओं से मुनि मार्ग का प्रचार किया था। वे कभी ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ की चोटियों पर ध्यान लगाकर बैठते। कभी शीतकाल की भीषण रात्रि में नदियों के तट पर आसन जमाते थे। कभी वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे योगासन लगाकर बैठतेथे।
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आहार लेने के बाद महामुनि वृषभदेव वन की ओर विहार कर गये। उस युग में सबसे पहले आहर दान की प्रथा राजा श्रेयांस व सोमप्रभ ने ही चलाई थी। 30
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इस तरह उग्र तपश्चर्या करते-करते उन्हे हजार वर्ष बीत गये, तब वे एक दिन पुरीमतालपुर नगर के पास शकट नामक वन में निर्मल शिला तल पर पद्मासन लगाकर बैठ गये। उस समय उनकी आत्मविशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। फलस्वरूप क्षपक श्रेणी में प्रवेशकर शुक्ल ध्यान के द्वारा ज्ञानावरणीय, दर्शना वरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन चार घातिया कर्मों का नाश कर फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सकल पदार्थों को प्रकाशित करने वाले केवल ज्ञान प्राप्त किया। जिनेन्द्र भगवान वृषभनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। यह जानकर धनपति कुबेर ने भव्य समवशरण की रचना की देवराज इन्द्र समस्त परिवार के साथ पुरीमतालपुर आया, महाराज भरत को जगदगुरू वृषभदेव को केवल ज्ञान होने की रचना की। उसी समय महाराज भरत के पुत्रोत्पति व आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट होने का समाचार मिला। राजा भरत अत्यधिक प्रसन्न हुए। वे भी भाई बंधु मंत्री पुरोहित मरूदेवी आदि परिवार के साथ के केवल ज्ञान महोत्सव में पुरीमतालपुर पहुंचे। उन्होंने अतिशयपूर्ण दिव्य ध्वनी में धर्म-अधर्म का स्वरूप समझाकर सम्यग्दर्शन ज्ञान, चरित्र का जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा-मोक्ष इन सात तत्वों का पुग्दल, धर्म-अधर्म आकाश एवं काल इन छ: द्रव्यों का, पुण्य-पाप का एवं लोक-अलोक का स्वरूप बताया।
जब तक प्राणियों की दृष्टि बाह्य भौतिक पदार्थों में उलझी रहेगी, तब तक उसे आत्मीय आनन्द का अनुभव नही हो सकता। उसे प्राप्त करने के लिए तो सब ओर से नाता तोड़कर कठिन तपस्या करने की आवश्यकता है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की व आत्मध्यान में अचल होने की आवश्यकता है।
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असंख्य नर-नारियों ने व्रत विधान धारण किये थे। सम्राट भरत राजधानी लौट आये। जैन चित्रकथा
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भगवान वृषभदेव ने अनेक देशों में विहार किया। वे आकाश में चलते थे। देवलोग उनके पैरों के नीचे सुवर्ण कमलों की रचना करते जाते थे। मंद सुगन्धित वायु बहती थी। देव जय-जयकार करते थे। पृथ्वी कांच की तरह निर्मल हो गयी थी। सब ओर सुभिक्ष हो गया था। उनके आगे धर्मचक्र तथा । अष्ट-मंगल द्रव्य चला करते थे।
इस प्रकार देश-विदेश में घूम-घूमकर वे कैलाशगिरी पहुंच कर आत्मध्यान में लीन हो गये।
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जैन धर्म के प्रसिद्ध महापुरुषों पर
आधारित रंगीन सचित्र जैन चित्र कथा
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जैन धर्म के प्रसिद्ध चार अनुयोगों में से प्रथमानुयोग के अनुसार जैनाचार्यों के द्वारा रचित ग्रन्थ जिनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्ति, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, कामदेव, तीर्थक्षेत्रों, पंचपरमेष्ठी तथा विशिष्ट महापुरुषों के जीवन वृत्त को सरल सुबोध शैली में प्रस्तुत कर जैन संस्कृति, इतिहास तथा आचार-विचार से सीधा सम्पर्क बनाने का एक सरलतम् सहज साधन जैन चित्र कथा जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान वर्द्धक संस्कार शोधक, रोचक सचित्र कहानियां आप पढ़ें तथा अपने बच्चों को पढ़ावें आठ वर्ष से अस्सी तक के बालकों के लिये एक आध्यात्मिक टोनिक जैन चित्र कथा
द्वारा आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला
सम्पर्क सूत्र : अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर
विलासपुर चौक, दिल्ली -जयपुर N.H. 8,
गुड़गाँव, हरियाणा फोन : 09466776611
09312837240
एवं
मानव शान्ति प्रतिष्ठान
ब. धर्मचन्द शास्त्री
प्रतिष्ठाचार्य
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________________ पद तीर्थ जैन अष्टाप विश्व की प्रथम विशाल 27 फीट उत्तंग पद्मासन कमलासन युक्त युग प्रर्वतक भगवान आदिनाथ,भरत एवं बाहुबली के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करें। मानव शान्ति प्रतिष्ठान विलासपुर चौक, निकट पुराना टोल, दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 8, गुड़गांव (हरियाणा) फोन नं. : 09466776611, 09312837240