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GD श्री ( चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोधार.
अपरनाम. चतुर्थस्तुतिकुयुक्निनिर्णयच्छेदनकुठार. सकतरिमंत्रज्ञादन्यासपवित्रीकृतभामिनागाखि लनाश्रम गमस्कारजनितरुमतिमतकाननासक्तचे तापदान्मत्तदिग्दकपालविदारए.हरयः क्रियाशु समुपकारकावकाळचायोः परमगुरुश्रीश्री१०० श्रीविजयराजेन्समरिजी तलिप्यन्यायचक्रवतीपर परानुगश्रीयुतपंमितमुनिधनविजयजीमहाराजविर चितः अनुष्टुपवरम् राधान्ततत्वविज्ञाय । विनयादिगुणान्वितः ॥ शंकोचाराजिशेग्रन्थोपनिमाजविलोक्यताम्॥१॥
छादी प्रसिद्ध करणार. श्री मरुधर,मालव,अने गुर्जरदे
शना साधर्मी संघ.
॥ श्री अमदावाद ॥ गुनियनामिटिंगसमधिलाजानिरासंहदासंगप्यो संवत् १९४६ सने १०ए०
किम्मत ४ रुपैया NDIसिमकाए सहक स्वाधिन राख्याने
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प्रस्तावना.
सत्य बे तेमज प्रस्तावना ष्टष्ट बीजाथी ते पृष्ट त्रीजा सुधी जेटलो लेख लख्यो बे ते पण असत्य बे, केमके संवत् १९४० नी सालमां जंगमजुंग प्रधान जट्टारक प रमपुज्य प्राचार्य श्री विजयराजेंड्सूरिजी श्री गुजरात देशना शेहेर अमदावादमां प्रात्मारामजीनुं चोमासु थवं नक्की जाणीने पोताना शिष्य श्री धनविजयजी साधे विचार करयो के आत्मारामजी निरापेक्षीने विद्वान संजलाय बे, माटे यापणे त्यां जइए तो परस्पर सिद्धांतोना विचारनो अपूर्व अद्वितीय लान धाय; एम विचारीने श्री कृगशीनगरथी एकदम विहार करी केटलाएक साधुना परिवारथी श्री प्रमदावाद चोमासुं कर्यु, त्यारे श्री पर्युषण पर्व वीत्या पढी महाराज साहेबने वंदन करवाने अर्थे यापणा मालवा तथा मारवाड देशना साधर्मी श्रावक एकत्र थया, त्यारे त्यां श्री यमदावादना साधर्मी तथा श्री संघना श्रावकोना मुखथी वार्त्ता सांगली के आत्मारामजीने उत्सूत्र जाप करवानो तथा बोलीने फरी जवानो कशो विचार नथी, ने अहंकारनुं पूतनुं बे, ते खमे सारी पेठे जाणीए बीए, ने वली तेमने स्थानके एक वखत महाराज राजेंड्सूरिजी पधारया ने बे त्रण वार मुनि धनविजयजी मल्या; पण श्रात्मारामजी एकेवार महाराज पासे याव्या नही, अने
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प्रस्तावना. जे अवलरे मल्या ते अवसरे बीजी देशावर संबंधी प्राडतरिखे वार्ता चलावी; पण शास्त्र संबंधी तथा थुझ्यो संबंधी वार्ता चलावी नही, अने हमणां थोडा दिवस मध्ये अमदावादना रहेवासी गोकल नमेद,नागजी, धने बीजा बेत्रण वाणिया साथे प्रात्मारामजीनो पंमित अमीचंद, या माणसो पांजरापोलनी शेठ जयसिंहना. ईनी धर्मशालामां राजेंइसरिना शिष्य धनविजयजीनी पासे जईने नीचे प्रमाणे अमीचंद पंमिते प्रश्न पुग्यो, अने कह्यु के प्रा प्रश्न यात्मारामजीना हुकमी पुर्ववं. १ चतुर्थस्तुति नवीनहे के प्राचीनहे? अरु कारण वास्ते हे के विना कारणे हे? ॥२ वेत्रावञ्चगराणं इत्यादि पाठ नवीन हे के प्राचीनहे? अस कारण वास्ते हे के विना कारण हे ? ॥ __उपरना प्रश्नोनो उत्तर बाप्यो. ते नीचे मुजब ॥१॥ नवीनहे, कारण वास्तेहे.॥शा नवीनहे, कारणवास्तेहे.॥ । उपरना प्रश्नोनो नपर मुजब जवाब प्रापी राजेंड सरिजीए आत्मारामजीने पूबवा माटे पांच प्रश्न लख्यां, त्यारे पानाचंद हकमचंदे कयु के आ प्रश्न नीचे तमारी सहि करो, त्यारे राजेंसूरिए कह्यु के आत्मारामजी सहि करे तो हुं करीश. पडी पानाचंदे कह्यु के अमे प्रात्मारामजीनी सहि करावी अापीशं, पडी राजेंड्स.
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प्रस्तावना.
रिजीए तो प्रश्न नीचे सहि करी विवेकसागरजी साथे आत्मारामजी पासे मोकल्या, पण ह्यात्मारामजीमां मचकूर प्रश्ननो उत्तर देवानी शक्ति होतंतो तेन सहि करत ! पण सहि नही करतां मोढेथीज जवाब याप्यो के खातो खोटुं लख्युं बे, हुं सही करतो नथी. पत्नी विवेक सागरजीए आत्मारामजीने कह्युं के तमे सही ना करोतो ए कागल पाठ आपो, पढी ते कागल लेईने विवेकसागरजीए राजेंड्सूरिजीने पाठो आप्यो, तेमां लखेलां प्रश्न नीचे मुजब बे ॥ १ ॥ जैनतत्वादर्शमें तीनथुइ चैत्यमे करणी लिखीहे सो के सेहे ? क्या मुद्दा हे ? ॥२॥ सदाय रंगे कपडा पेरणा कहां कह्याहे ? || ३ || करेमिनंते पहेली अरु पीछे इरिया वही सो केसें? ॥४॥ नविन श्राचार्च किसकुं कहते हो ? अरु प्राचीन आचार्य किसकुं कहते हो? ||५|| मुहपत्ती व्याख्यान के अवसर मे कान में घालणी के नही ? ॥
उपर लखेल प्रश्न बीजे दिवसे राजेंड्सूरिजीए पोताना शिष्य धनविजयजी साथे नगरशेवजी प्रेमानाइने त्यां पावी कह्युं के या प्रश्न आत्मारामजीने त्यां तमारी मारफत मोकलीने तेनो खुलासो मेलवी आपो. त्यारे नगरशेठे ए प्रश्न लेई श्रात्मारामजी पासे मोकल्यां, त्यारे आत्मारामजीए जवाब देवानी शक्ति न होवाथी ते
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प्रस्तावना. प्रश्न पाठां पांजरापोले बारोबार मोकल्यां, पण जवाब थाप्यो नही, मचकुर ते प्रश्न धनविजयजीए नहीं लेतां कह्यु के ज्यांथी लाव्या हो त्यां लेजान, सिपाश्नेश्ने शेठ पासे गयो, शेते पानां राजेंसूरिजी पासे बाहारनी वाडीये मोकली दीधां, त्यारपनी लोकोमा एवो हकवाद चाल्यो के आत्मारामजीना पंमिते आत्मारामजीना तर. फथी प्रश्न पूडयां, तेनो जवाब मुनि धनविजयजीए खु. तासाबंधाप्यो; पण विजयराजेंसूरिजीए जे प्रश्न लखी आत्मारामजीने पूनाव्यां,तेनो जवाब तेमणे न थाप्यो,ते हकवादथी यात्मारामजीए पोतानुं मान ज्रष्ट थतुं जाणी अमदावाद समाचार नापामां चरचापत्र पाव्यु. तेमां नपर कहेली खरेवरी बीना बनेली तेने जूठी करवाने अधाधुंध खोटुं नीचे प्रमाणे आपाव्यु, के राजेंड्सूरिजी अत्रे चोमासु रह्याने ते त्रणथोयो कहेवान कहे जे तेथी केटलाक श्रावको मलीने तेमनो खुलासो लेवाने गया, अने सदरहुं बाबत ते राजेंऽसूरिने पुड्युं के तमी थोय बाबत सूत्रपंचागीने अनुसारे मुनी आत्मारामजी. नी साथे सनामां बेशी चरचा करो, त्यारे तेनुए कह्यु के अमारे सनामां बेसीने चरचा करवी नथी: वली थोडी मुदत उपर ते राजेंड्सूरिए मनकल्पित प्रश्न सखी ते प्रश्ननो कागल मुनि विवेकसागरजी साथे आत्मारामजी
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प्रस्तावना. पासे मोकल्यो, तेमा खोटयो हती तेथी आत्मारामजीए जवाब न आप्यो पण राजेंसूरिनुं कहेवू साचुं होयतो सना करवानो अमे बंदोबस्त करीशं; आ खबर थमने आठ दिवसमां बापवी; एवी खोटी बीना बपावी बाहार पाड्याथी श्री पांजरापोले शेठजी श्रीजयसिंहनाइ हहि. सिंहजीनी धर्मशालाना बेसनार श्रावकोए जेवी रीते बीना बनी हती तेवी रीते न्यायदर्शक बापाद्वारे पूर्वे नव्या प्रमाणे प्रसिह करी पाव्यु के धनविजयजीए जेवी रीते आत्मारामजीना सवालोना जवाब आप्या तेवीज ते राजेंइसरिजीए जे सवालो मोकल्या ते पोते ले हस्व दीर्घ प्रादि नूलो हती तो सुधारी नून काढी जवाब लरवी पाडा आपवा हृता पण कांइतेवी मुद्दानी जून न बतां खरा जवाब खुल्ला आपे अने बाहार पडे तो पोतानुं ज्ञान जगाइ आवे, अगर ते जवाब लखवानी शक्तिनथी ए विना बीजी खोट मुद्दानी प्रात्मारामजीने जासन थइ ते अमारा जाएयामां नथी, केमके जो बीजी खोट ते प्रश्नोमां नासन था होततो प्रथम न्यायदर्शकमां ते प्रश्न खलं बोलनारे उपावी प्रसिक्ष करयां हतां त्यारे ते नूलो लवीने तेना खुलासा लखवा जोइता हता, पण ते लख्या सिवाय मनकल्पित रीते साडे रस्ते जे विचार बताव्या डे, ते विद्वानोनुलदण न कहेवाय, ते
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प्रस्तावना. माटे पत्रद्वाराए ते जूल्यो खुल्ली पाडवी जोइए. तथा पंचांगी अनुसारे आत्मारामजीनी साथे सनामां बेसीने चरचा करो एवं धात्मारामजीना तरफथी श्रावकोए का पण राजेंसूरिजीए ना कही,ए वात पण आंखमां रज पेसवानुं तेकाणुं नही त्यां मुसल पेसाडवानुं मोहोल करी लब्यु डे,पण विजयराजेंसूरिजी महाराजे बिलकुल सनानी ना कही नथी, पण तेमनुं कहेQ एवं बे के प्रात्मारामजीने बोलीने बदलवानो नय नथी, तेथी प्रथम कागल पत्रथी जे बाबत निर्णय करवानी होय ते सारु प्रश्नोत्तर करवां: तेथी निर्णय न थाय तो पढी जनर लसनामां जैनदर्शनी अने अन्यदर्शनीना सारासारा विद्वान सग्रहस्थोनी करवी तेमां जवाब वसाल करतां बधार्नु विद्वानपणुं अने पंमिताइ जणाआवशे; एम राजेंड्सूरिजीनो विचार हतो ते खुल्लो पड्यांबतां हवे अात्मारामजी तरफथी चरचापत्रमा लखेबे के सना करवी होय तो नगरशेत विगेरेने राजेंड्सूरि कही बंदोबस्त करी खबर आपे. पाते केवा अघटित विचारो ! जे के सना करवानुं प्रयत्न पोते करी पालथी बीजाने कहे, ए केवल पोतानी बधी तरफनी हीणशक्ति बतावी प्रापे . जो सना करवी होयतो अमने को रीते हरकत नथी माटे योग्य स्थले अमुक सारा सारा ग्रहस्थो
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प्रस्तावना. अने चार न्यायी लोकोने राखी सनामध्ये निर्णय थवो जोइये ॥
एवी रीते विजयराजेंसूरिजी अने आत्मारामजी ने परस्पर थयेली बीना श्री अमदावादना श्रावकोने मोढे सांजली तेमज परस्पर बापां नपाएला सर्व प्राप. णा मालवा, मारवाडना श्रावकोए प्रत्यक्ष दीनां बने वली ते परस्परना बापां सर्व देशावरोमां प्रसिह थयां. ते बापां वांचतां खुल्ली रीते मालम पडेले के विजयराजें
सुरिजीएसनानी नाकही नथी अने चतुर्थस्तुतिनिर्णय प्रस्तावना पृष्ठ बीजामा आत्मारामजी लखेडे, के नगर शेके वंमेमे आकर शेठजीको कहगये के हम सना नही करेगें 'इत्यादि सर्व बीना असत्य नखे बे, केमके अमदावादमा अन्य दर्शनीना हितेच बापामा बन्ने तर. फनी बनेली बीना अन्य दर्शनीयोए जपावी प्रसिझकरी, ते बीनानो सारांस देखतां आत्मारामजी तरफथी सना करवानुं बंध पड्युं एवं सिह थायने, पण राजेंसूरिजी तरफथी सिह थतुं नथी; तेमज प्रश्नोमां पण कांड मूहानी खोट हती नही, तो पण चतुर्थस्तुति निर्णय प्रस्ता वना पृष्ट त्रीजामां आत्मारामजी लखे के *प्रश्नपत्र ही तरे शुझलखा हूया नहिथा* ए वाक्यमां "ह" हुस्व जोइए ते दीर्घ लख्यो *तथा* इस वास्ते शेठजीकों दे
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प्रस्तावना. दीया ए वाक्यमा “दी” ह्रस्व जोएते दीर्घलखी,इत्यादि मुहाना बे वाक्योमा ह्रस्व दीर्घनी बे खोटो , तेमज याखा स्तुतिनिर्णयं ग्रंथमां तो नाषामां सेंकडो खोट्यो थमने (श्रावक लोकोने) पण नासन थायडे, तो संस्कृत लखवामां केटलीखोट्यो हशे? ते अमेकांइलखी शकता नथी:पण यात्मारामजीए श्री अमदावादमां सनासमद श्री शत्रंजयतीर्थाधिराज जेमा रहेलो एवो सर्वोत्तम श्री सोरठदेश तेने अनार्य प्ररूप्यो त्यारे तेमनी परंपरामां रहेला तेमना काकागुरु पन्यास रत्नविजयजीए तेमने हितशिदाने अर्थे आर्यानार्यदेशज्ञापक चरचा पत्र ब. पावी देशावरोमां प्रसिह करयो. ते हितशिदाने खंमन करवा आर्यदेशदर्पण बनान्यो, तेमां प्रात्मारामजी तथा
आत्मारामजीना शिष्य शांतिविजये खोट्यो काढी ते केटलाक तो व्याकरणद्वाराए विकल्प हता, तेनने अशुभ मखीने खोटो बतावी. अने पृष्ट १६ अने पंक्ति उनी शुक्ष्मिां निग्रंथानांवानिग्रंथी ए वाक्यमां “थी” इस्व. जोडएतेदीर्घलखी तथा पृष्ट १६ पंक्ति १ए नी शधिमांग विधिमांऽसादयंति एप्रशुध्वाक्यनी शुद्धिमां ॥माजसा दयंति ॥ए वाक्यमां "धिं"मां अनुस्वार न जोइए, इत्या दि केटलेक स्थले अशुभनी तो शुद्धिकरी नही बने खोट बतावाने पोताना काकागुरुनी खोटी हीलणा
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प्रस्तावना.
करतां एमने ला नावी तो पूर्वोक्त शुरु प्रश्नोने पोतानी हीनता घटाडवाने खोटा लखे तेमां तो शं श्राश्चर्य? पण अमोए जेवी रीते सामान्य प्रकारे खोट दावी तेवी रीते मुद्दानी खोट बापाद्वारे ते प्रश्नोनी दशा विहोत तो विद्वलनशुमशु-पनी खोलना करे अने मोढेथी खोटां कह्यां तो ते खोट कहेवावालाना मुखमांज प्रवेश करे. ए सुझजननो न्याय . तथा प्रस्तावना पृष्ट त्रीजामा संघना पत्रनी नक्कल लखी तेनो परमार्थ एम ने के परस्परना बापा देशावरोमां प्रसिध्थयां, पनी देशावरोना लोकना अंतःकरणमां ते बापां वांचतां एम ठश्युंके राजेंसूरिजीजीत्या, अने प्रात्मारामजी हास्या, तेथी केटनाक दहाडा पनी मेवाड देशमां सादडी,राणकपुर अने सिवगंजादिक स्थानोथी आत्मारामजीनी श्रझाना श्रावको तरफथी पत्र अाव्या तेनमां एवा लेख याव्या के अमदावादमा सना थइ तेमां राजेंड्सरिजी फ्रीत्या अने आत्मारामजी हास्या, एवी रीतना देशावरोना पत्र वांचीने आत्मारामजीना हैयामां पोतानी महत्वता घटवानी चिंता पेठी, तेथी नगरशेठजीने कडं के * राजेंइसूरिने जुते कागद लिखके हमारी नंमी मचाइहे* त्यारे नगरशेवजी प्रेमानाइए शेठ जयसिंहनाइ हठिनाइजीनी बहारली वाडिए जश्ने नपरनी कागल
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प्रस्तावना.
संबंधी सर्व हकीकत कही, ते सांजलीने राजेंड्सूरिजीए कह्युं के मोतोमारा साधुनने पण कागलपत्र - हस्थिने हाथे लखंवां, लखाववा, तथा मोकलवा, मोकलावामां दोष गणिए बीए, तो ग्रहस्थिने कागलपत्र लखवा, लखाववा, मोकलवानो तो मारो व्यवहारज नथी, तो एवा रागद्वेपना कागल लखवा लखाववानो
मो महा प्रायश्चित्त गणिए बीए, तेथी ए वातमां मो कश्युं जाणता नथी; एवी रतिना यथार्थ वचन श्रवण करी नगरशेठजीना हृदयरूप सरोवरमांधी यात्मारामजीनो फसावेलो नम रूप मल वेगलो थवाथी केटलाक संघना लोकोना मनमां निश्चय थयुं जे, जेम श्रात्मारामजी पोताना चेखाउने तथा ग्रहस्थोने का गलपत्र लखी लखावी डाकमां नांखेढे, तथा ग्रहस्थाने हाथे पोहोचाडे बे, तेवी रीतनो व्यवहार राजेंप्रसूरिजीनो तथा राजेंड्सूरिजीना साधुननो जाएयो नथी, तेम सांजल्यो पण नथी, तेथी ए बधुं तरकट आत्मारामजीनी तरफना श्रावकोनुं तथा साधुनंनुं जणाय बे, पण राजेंपसूरिजीना श्रावक तथा साधुननी तरफनुं जलातुं नथी; तोपणापणा शेहेरमा रहेला कोइ साधुने दिल गीरी होवी न जोइए, तेथी आत्मारामजीनी दिलगीरी मटाडवा नगरशेठे सनाचतुराइथी कागल उपावी प्र
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प्रस्तावना.
सिह करयो बे. तेनी नकल आत्मारामजीए पोताना करेला ग्रंथनी प्रस्तावनामां लखी ने तेथी अमो इहां लखता नथी पण ते नक्कल वांचतांज *राजेंसरि ध नविजयजी यह दोनु नगरशेतके वमेमें आकर शेत जीकों कह गये के हम सना नहीं करेंगे* इत्यादि रा. धनपुरना श्रावक निश्रित आत्मारामजीनुं लखवू अपक्षपाति जनोने असत्य नासन अने अमारी उपर ल खेली ए कागल संबंधी बिना सत्य नासन थया विना रहशे नही, केमके ए कागलमां एम लख्युंडे के अत्रे सना थइ नथी, तो हारवा जीतवानी वात बिलकुल खोटी. एम लव्युं, पण श्री राजेंड्सूरिजी धनविजय जी सना करवानी ना कही गया एवं लख्युं नथी, जो तेनए ना कही होत तो त्यांना शेठिया कागलमां लख्या विना रहेत नही; पण ना कह्या विना जूठ लखवानो महा प्रायश्चित्त जाणी जोइने तो आत्मारामजी जेवा पुन्यनिरु विना कोइपण लखे नही, तेथी सना प्रमुख ना करवानी बिना जूठी लखी, तेमज पृष्ट ५ माथी ते पृष्ट १५ मा सुधी राधनपुर संबंधि तथा गुरु संबंधी पण जेटली बिना लखीजे ते पण प्राये जूठीज हशे, पण ते बाबतनी यथार्थ आपणने मालम नथी माटे महाराज साहेबजीने पूज्यं मालम पडे, एम विचारीने संवत
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प्रस्तावना.
१९४५ नी सालमा श्री विजय राजेंSसूरिजीए श्री गुर्जरदेशमां श्री विरमगाम शेहेरमां चोमासुं करयुं हतुं, त्यां श्री पर्युषण पर्व वीत्या पढी मे श्री मालवा, मारवाड, प्रमुख देशना श्रावको वांदवा जेना थया त्यारे मोए महाराज साहेबने पुब्धुं के श्रात्मारामजी श्रानंदविजयजी चतुर्थस्तुनिनिर्णय प्रस्तावना पृष्ट ५ माथी ते पृष्ट 9 सातमा सुधी बिना लखेबे, ते सत्य वे ? के सत्य बे ? अने ते बिना केवी रीते बनी ते
मने यथार्थपणे मालम पडवी जोइए, त्यारे महाराज साहेबे करूं के संवत् १९४३ नी सालमां श्री थरादथी प्रमो राधनपुर गया, त्यारे श्री तपगन्छ खरतरग
नापक्षपाती श्रावक धरणा कालथी त्रण थुइ करता प्रावेला, तथा श्री प्रागमिक गन्ना श्रावक, धनजी साजीनी तरफना, तथा श्री पायचंद गहना श्रवकोए त्रण तथा व्यार थुइ बाबतनी वार्त्ता चलावीने कर्तुं के प्रापना शिष्य श्री धनविजयजी यावेला त्यारे इहांनो वासी नामे गोडदास पण धर्मतग धर्मोपजीवी गुणेकरी रोडीदास नामनो श्रावक श्री धनविजयजी साधे चरचा करतां मूंगे पड्यो, ते दहाडाथी प्रापना ऊपर तथा आापनी पासे बेसनार श्रावकोना ऊपर द्वेष मत्सरनाव धरतो ने अज्ञातपणाना दोषथी बहु निंद्यामां वर्त्तीने कर्म
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प्रस्तावना. बंध करेले, ते आपनी पासे आवे, अने तेना शुनकर्मोना उदयथी आपनी पासे धर्मचरचा करी अज्ञातपणानो दोष टाली कर्मबंध न करे तो ठीक, त्यरि अमे कह्यु के सर्व जीव पोत पोताना कर्मने वशे जेवी क्रिया उदय यावे तेवी क्रिया करे, तेना नपर आपणे मध्यस्थनावे वर्तवू; पण तेना उपर रागद्वेष बुध्येि तेना अवगुण प्रकाशवा नही, अने अमारी पासे अावशे तो ते जीवने कर्मबंध न थाय तेवो उपदेश करीशं; एवामां तो च्यार पांच दिवस वीत्या पली सांजल्यु के गोडीदासजी आपनी पासेतोपाव्या नही,पण गाम श्रीमामलमां अात्मारामजी आव्या ने तेमने अने आपने परस्पर चरचा कराववाने बोलाववा गया ले. त्यारे अमने जेणे वार्ता करी ते श्रावकोने कह्यं के गोडीदासजी अात्मारामजीने वांदवा गया हशे, पण चरचा करवा कराववाना नावथी गया समृजाता नथी. जो अमाराथी चरवा करवा कराववानो नाव होत तो अमने चेतावीने जात, अने जो ए जावधीज गया हशे तो मांमल गाम निकटज दे, तेथी अात्मारामजी पांच सात दिवसमां प्रावशे. त्यारे जे हशे ते नाव मालम पडि जशे. एम विचारीने अमो त्यां मा सकल्प रह्या, तो पण आत्मारामजी तथा गोडीदास विगेरे एक्के आव्या नही. त्यारे अमोए विचास्यं के जो
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प्रस्तावना. इहांना संघने तथा आत्मारामजी अने गोडीदासजी ने चरचा करवा कराववानी होत तो अमने विनंती करत तथा समाचार कहेत, पण आज सुधि विनंती पण कोइए करी नहीं अने त्यांथी समाचार पण आव्या नही, अने मासकल्प पूरो थयो त्यारे अमो राधनपुरथी विहार करीने श्रीतेरवाडे गया, त्यां सांजल्युं के आत्मारामजी श्री संखेश्वरजी प्राव्या . एवामां तो श्री राधनपुरना संघनो कागल श्रीतेरवाडाना संघना नपर आव्यो. ते कागल अमारी रुबरु वांचीने श्री तेरवाडाना संघे श्रीराधनपुरना संघ उपर पाबो कागल लरव्यो, ते परस्परना कागलोनी नक्कल तथा राधनपुरना संघना मून कागल अमारी पासे बे. ते जोड्ने सत्य असत्यनो निर्णय तमे श्रावक लोक तमारे हाथे करील्यो. त्यारे ते परस्परना कागल अमोए मारवाड मालवाना श्रावकोए वाचतां निरधार करचो के आत्मारामजी तो प्रस्तावना पत्र ७ तथा मामां *नुस पत्रका उत्तर प्रत्युत्तर असमंजस रीत से राधनपुर नगरमें नही आवनेकी सूचना करनेवाला नेजदीया एम लखे, पण श्री राधनपुरना संघना पत्र तथा श्री तेरवाडाना संघना पत्र श्री राधनपुर गया तेनी नक्कल जोतां तथा तेन्ना उत्तर प्रत्युत्तर देखतां तो राधनपुरना संघनो तथा प्रात्मारामजीनो चरचा
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प्रस्तावना.
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करवानो नाव असमंजस जासन थाय बे. केमके श्री श्री संखेश्वरजीथी श्री राधनपुर श्रावतां तो पांच पांच गाउ चाले, तो त्रण प्यार दहाडा लागे, ने जो ना चाले तो पांच सात दहाडा लागे, पण श्री राधनपुरना संघे श्री तेरवाडाना संघने लख्युं के व्यात्मारामजी तो १४ तथा १५ दाहाडे यत्रे अर्थात् श्री राधनपुरे प्राववाना बे, अने तेमनी साथै पंमितजी अर्थात् नामथी श्रावक अमीचंदजी बे ते प्रत्रे प्रावेला बे, तेमनी साथे चरचा करवी होय तो पत्रे विहार करज्यो. त्यारे श्री राजेंड़सूरिजी विचारयुं जे आत्मारामजी साधु नाम धरावे बे, तेमने पण बोलीने बदलवानुं ठेका नथी, तो ग्रहस्थिने बोलीने न बदलवानो श्यो जरूसो ? माटे परस्पर लखावट करी चरचा करवी ठीकछे. त्यारे श्री तेरवाडाना संधे श्री राधनपुरा संघ उपर पाढो कागज लख्यो. तेनी नक्कल जेम तेम लखीए बीए, श्री तेरवाडाथी ल संघ समस्तना प्रणाम वांचज्यो, जतरे यहीं श्री देवगुरुधर्म पसायी खेमकुशल बे आपनी खेमकुसल हमेसा चाहीए, विशेष विनती एबे के आफ्नो पत्र फागावद १२ नो लखे जो कासीद साथै आव्यो ते वांची समाचार जाणीने मुनीराजजीने मोए विनंती करी ने उपर एमनुं फरमाववुं जे लखत थाशे तो खेतरफ -
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प्रस्तावना.
रसन जोगे आपना तरफ पधारखं थाशे ॥ लखत नीचे मुजब करवानी विगत || श्री जिनायनमः ॥ करार एक कस्यो पिस्तालीस यागमनी जे पूर्वाचार्योंनी करेली पंचांगी तेमां जे साधुनी तथा श्रावकनी नित्य करणी उत्सर्ग मार्गमां करवी ते सर्वे पंचांगी मुजब करवी. एमां कोई गनी ममत्व राखवी नही अने जे पंचांगीमां समाचारी कही ते परमाणे राजेंड्सूरि तथा आत्मारामजी तथा समस्त राधनपुरनो संघ चाले ने ते समाचारी पा लनारनेज मानवो एवी रीते राधनपुरनो संघ तथा बे साधु लख्यो एमां जे बदले तेने श्री तीर्थंकरनी प्रांण जांगवानो दोष लागे, ए लखत सर्वे राजी खुसीथी लख्यो बे ॥ एवी रीतें लखत करी तेना नीचे सर्वे संघनी सहियो कराववी तथा श्रात्मारामजीनी पण सही कराववी, ते लखत करावी ही मोकसवं, एटले राजेंड्सूरि पण सही करशे ए प्रभाणे त्रण तथा व्यार थुइ बावत तथा हरेक समाचारी बाबत जे पंचांगीमां नीकलशे ते सर्वने कबूल बे, ए रीते लखत करी मोकलशो, तो राजेंड्सूरिजी जरूर खापने त्यां पधारशे. ए श्री तेरवाडाना संघनो लेख सहित पत्र वांचीने श्री राधनपुरना संघे पाठो असमंजस रीते जुवाब वालीने लख्युं के एमां कांइ लखवा लखाववानी जरूर
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प्रस्तावना. नथी, तेमने चरचा करवानी मरजी होय तो प्रा तरफ विहार करावज्यो,तेमना लखाव्याथी लखशो तेनोउत्तर अमे फरीथी लखवाना नथी, इत्यादि परस्परना कागल देखवाथी जो राधनपुरना श्रावक तथा आत्मारामजीने परस्पर चरचा करी निर्णय करवाना नाव नही, तेथी प. रस्पर लखावट करी नही. एम अपदपाती विचारवंत पुरुषोना हृदयमां तश्याविना रहेशे नही, तेमज अमारा श्रावक लोकोना चित्तमां पण खरेखलं तश्यं, के आ चतुर्थस्तुतिनिर्णय प्रस्तावनामां जेटलुं लरव्यु , ते गधेमाना सिंगमा जेवं सर्व सत्य नासन थाय , तोपण नजीवोनो भ्रम टालवाने महाराज श्री राजेंऽसरिजीने पुन्यु के स्वामीनाथ, चतुर्थस्तुतिनिर्णय प्रस्तावनामां आत्मारामजी बापना आदिलखेडे के *इनकों जैनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सिझ नही होतीहे* ते केम? त्यारे महाराज साहेबजीए का के ए वातन समाधान तथा
आत्मारामजी कृत अयुक्तनिर्णय ग्रंथनु खंमन श्रवण करवानीचा होय तो अमारी पासे नपसंपद ग्राहक मुनि धनविजयने विनंती करो. त्यारे अमो सर्व साधर्मी श्रावक श्री अमदावाद चोमासु रहेला मुनि श्री धनविजयजीनी पासे ज वंदना नमस्कार करी पुब्युं के स्वा
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प्रस्तावना. मीनाथ, तमो कोना शिष्य बो? त्यारे श्र धनविजयजीए आश्चर्य पामीने प्रत्युत्तर दीधो के अमे परमपुज्याचार्य श्री विजयराजेंसूरिंजीना शिष्य बीए पण तमे (श्रावक लोक) जाणता उतां अाज ए प्रश्न करयुं तेनुं कारण शुं? त्यारे अमोए (श्रावकोए) कह्यु के श्री विजयराजेंऽसूरिजी तो आपने उपसंपद ग्राहक कहे रे,अनेआप कहोडो के अमे तेमना शिष्य बीए तेनं कारण शं? त्यारे धनविजयजीए कह्यु के श्री विजयराजेंसूरिजी कहे जे ते सत्य बे, कारण के अमे श्रीमंझपाचले पातसाह जहांगीरदत्त महा तपाबिरुद धारक श्री विजयदेवसूरिजी शिष्य न्यायचक्रवर्ति बिरुदधारक महोपाध्याय श्री कृश्नविजयजीगणि तशिष्य पं० श्री गंगविजयजीगणि तशिष्य पं० श्री ना वविजयजीगणि तशिष्य पं० श्री मोहनविजयजीगणि तशिष्य पं० श्री कस्तरविजयजीगणि तशिष्य पं० श्री लक्ष्मीविजयजीगणि तथापं० श्री चतुरावजयजीमाणिना शिष्य हता; पण पानी फरी दिदा अर्थात् नपसंपर्द ग्रहण करवानुं कारण एडे के कोइ तरेहथी गजगुरु परंपरामां शिथिलाचार असंयम प्रवृत्ति थइ जाय, अने कोई क्रियान-झार करे तो अवश्यमेव संयमीगुरुनी पासे पानी दिदा ले. एम जैनशास्त्रोमां कह्यु ले तथा च श्री जिवानुशाशनवृत्तौ श्री देवसूरिनिः प्रोक्तं
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प्रस्तावना. तत्पाठः॥ यदिपुनर्गहोगुरुश्चसर्वथानिजगुणविकलो नवति ततभागमोक्तविधिनात्यजनीयः परंकालापेक्ष्या योऽन्योविशिष्टतरस्तस्योपसंपदाह्यानपुनःस्वतंत्रैःस्थात व्यमितिहदयं ॥
अस्य नाषा ॥ जो गह अने गुरु ए बन्ने सर्वथा निजगुणे कर्राने विकल होय, तो आगमोक्त विधिए करीने त्यागवा योग्य बे, परंतु कालनी अपेक्षाये अन्य कोई विशिष्टतर गुणवान् संयमी होय, तेनी समीपे चारित्र नपसंपद् अर्थात्पुनर्दीदा ग्रहण करवी, परंतु उपसंपद लीधाविना स्वतंत्र अर्थात् गुरुविना रहेवू नही. ए पाठ जणाववानो अमारे. तात्पर्यार्थ एडे के अमारी गड परंपरामां तो शिथिलाचारादि प्रवृत्ति न थइ, पण महोपा. ध्याय श्री कृश्नविजयजीथी त्रीजी चोथी पढिमां गुरु परंपरामां प्राये शिथिलाचारादी प्रवृत्ति जांणी अागमाझा नंगदोष निवर्तन करवा गुरुगड प्रवृत्ति प्रागम आ. झाए शुक्ष जांणी परमपुजाचार्य श्री विजयराजेंइसरि जी पासे उपसंपद ग्रहण करी क्रिया न-हार करयो, तेथी अमो तेमना शिष्य बीए एम प्रत्तिमां कहिएबीए, कारण के जेनी पासे नपसंपद ग्रहण करी क्रियान-झार करे, तेमनाज ते शिष्य प्रवृत्तिमा कहेवाय, ए अागम प्रवृत्ति देखाय जे. ते माटेज श्री वजस्वामीशाखायां चांड्कुले
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प्रस्तावना. कौटिकगणे वहजो तपागल बिरुदधारक जट्टारक श्री जगञ्चंइसरिजी महाराजे पोतानी शिथिनाचार प्रवृत्ति जाणीने चैत्रवानगडीय श्री देवनगणिसंयमीनी समीपे चारित्रोपसंपद अर्थात् फरी दीदा लीधी. ए हेतुथी ज श्री जगचंसूरिजीमहाराजना परमसंविज्ञ श्री देवेंद्र सरिजी शिष्ये श्री धर्मरत्नग्रंथनी टीकानी प्रशस्तिमां पोताना वृहजबीय श्री मणिरत्नसूरिजीनु नाम बोडीने पोताना गुरु श्री जगचंऽसूरिजीने श्री चैत्रवानगडीय श्री देवनगणिपुज्यना शिष्य लख्या.ते पाए ॥क्रमशश्चैत्राबालक, गल्छेकविराजराजिननसीव श्री नवनचंद सूरिर्गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः॥॥तस्यविनेयः प्रशमै, कम दिरं देवनगाणपुज्यः शुचिसमयकनकनिकषो, बनूव नूविदितनूरिगुणः ॥ ५॥ तत्पादेपद्मनुंगाः निस्संगाचं गतुंगसंवेगाः संजनितशुबोधाः जगतिजगचंइसरिवराः ॥६॥ तेषामुनौविनेयौ श्रीमान् देवेंऽसूरिरित्याद्यः श्री विजयचंइसरिदितीयकोऽद्वैतकीर्तिनरः ॥ ७ ॥ स्वान्यषो रुपकाराय श्रीमद्देवेंइसरिणा धर्मरत्नस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ॥७॥ इत्यादि नवनीत पुरुषोनीमारे पण माझा प्रतिपालन करवानी अनिलाषा प्रवर्ने ने, परीक्षक श्रावक प्रश्न ॥आत्मारामजी आनंदविजयजी तो चतुर्थस्तुतिनिर्णय प्रस्तावना पृष्ट तथा ए मामां
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प्रस्तावना.
थापना गुरु आश्रिनखेडे, *के प्रथम परिग्रहधारी महा व्रत रहित यतिथे,अरु पी नीग्रंथपणा अंगीकार करके पंचमहाव्रतरूप संयम ग्रहण करा; परंतु किसी संयमी गुरुके पास चारित्रोप संपत् अर्थात् फेरके दिदा लीनी नही अरु पहले तो इनका गुरु प्रमोदविजयजी यती थे सो तो कुल संयमी नही थे यह वात मारवाडके बहोत श्रावक अजीतरेंसें जानतेहे तो फेर असंयतीके पास दिदा लेके क्रिया नझार करणा यह जैनमतके शास्त्रोसें विरुक्ष है* एम लखेडे तो प्रापे श्री विजयराजेंड्सरिजीनी गुरुगह प्रवृत्ति आगम आझाए शुं शुक्ष जाणी अंगीकार करी? तेनी अमने समजण पाडवी जोइए ॥ __ उत्तर॥ हे महानुनावो! आत्मारामजीनुं लखवू बोलवू तो जाणीजोइने वंध्यापुत्रना लखवा बोलवा जेवू ,का. रण के एमना लखवा प्रमाणे तो एनए वर्तमानकालना सर्वे यति श्रपिज महाव्रत रहित परिग्रहधारी असंयमी मान्या,तेमज वर्तमानकालमा जे पीला कपडा पेहेरी ना. मथी संवेगी तथा साधु नाम धरावे ने ते पण प्रथम कोई निन्नव तथा कोई परिग्रहवंत पंचमहाव्रत रहित असंयमी हता, अने पाबलथी निLथपणुं अंगीकार करी पंचमहा व्रतरूप संयम ग्रहण करी संयमी थया, पण कोई संयमी
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प्रस्तावना. गुरुनी पासे चारित्रोपसंपत् अर्थात् फरी दिदा लिधी नही तेथी तेमने पण जैनमतना साधु मानवा न जोइए.
॥पूर्वपदी श्रावक प्रश्नः ॥ वर्तमानकालमां श्रीत पागडमां तमारा गुरु श्री विजयराजेंड्सरिजी तथा श्री नेमसागरजीना शिष्य श्री रवीसागरजी अने श्री बुटेरायजी अर्थात् श्री बुझिविजयजीना शिष्य श्री बात्मारामजी तथा श्री खरतरगन्जमां श्री शिवजीरामजी अने मोहनलालजी प्रमुख निष्परिग्रही जेटला साधु विचरे बे, तेनमां तमारा गुरु राजेंइसृरिजी अने रवीसा गरजीना गुरू नेमसागरजी तथा शिवजीरामजी अने मोहनलालजी विना सर्वे उपसंपद अर्थात् संयमी गुरुनी पासे फरी दिक्षा ग्रहण करीने विचरे ने तथा ते तो मानवा योग्य.
अस्य प्रश्नस्योत्तरः ॥ हे आर्य! मोहनलालजी तो आत्मारामजीना लखवा प्रमाणेप्रथम श्री खरतरगहना परियह धारी महाव्रत रहित यति हता, अने पालथी निग्रंथपणुं अंगीकार करी पंचमहाव्रत रूप सयंम अंगी कार करयु, पण ते महापुरुष तो पोतानी पुजा मानता वधि करवाने पीला कपडा करी लोकोक्तिए “गंगा गया गंगादास अने जमुना गया जमुनादास" अर्थात् तपग. बुनी प्रवृत्ति विशेष देखे त्यां तपगढीय थइ तेमनी प्र
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प्रस्तावना. वृत्ति करे, धने खरतरगडनी प्रवृति विशेष देखे त्यां खरतरगडीय थइ खरतरगचनी प्रवृत्ति करे, माटे तेमनी तो अपरंपार थकल माया , तेथी तमारा कह्या प्रमाणे होय तो अमो ना कही शकता नथी, पण शिवजीरामजी तो सात्विक ध्यानी पुरुष संनलाय , तेनुए परि. ग्रह त्यागन करी को पासे नपसंपद ग्रहण करघु संननाती नथी, तेनुं कांइ कारण हशे, पण लिंग बदलाव्यो नथी, तेथी विचारवंत पुरुष समकाय ने.तेमज श्री तपा गहना यति श्री मयासागरजी पण परिग्रह त्यागन करी को पासे उपसंपद ग्रहण करी नथी, तेनुं कारण एम संनव थाय ,के कोइ यति लोकोनी पाटपरंपरा पेढीमां शिथिलाचारादि प्रवृत्ति घणा कालथी प्रवृत्त थइने, ने कोनी पाटपरंपरा पेढीमां थोडा कालथी शिथिलाचारादि प्रवृत्ति प्रवर्त्तन थने, तेथी श्री रवीसागरजीना गुरु श्री नेमसागरजी त्यागी वैरागी हता, तेनुए श्री म. यासागरजीनी पेढीमां थोडा कालनी शिथिलाचार प्रवृत्ति देखी श्री मयासागरजीने परिग्रह त्यागन करावी पोते गुरु ध्यारया पण झानबल थोडुंहतुं, तेथी लोकोनो परिसह असहन थवाथी लिंग बदलाव्यो संनवेने, परंत आत्मारामजी आनंदविजयजी तो विद्वानपणानो अनि मान धारण करी ढंढकमतमांथी नीकलीने कुलिंगपएं
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प्रस्तावना.
धारण करधुं, पण कोइ संयमी गुरु देखी तेमनी पासे उपसंपद अर्थात् नवी दिक्षा लीधी नही, अने हे प्रार्य ! तमे श्री बुटेरायजीना शिष्य थया ते माटे श्री बुटेरायजी पासे उपसंपद ग्रहण करी कहोलो, तेतो तमे बुकस वावीने बीजोजम करी सुन्यनी मुठी नरवानी इछा करोबो, केमके श्री बुटेरायजी अर्थात् श्री बुद्धिविजयजी तो ढुंढक मतमांथी नीकलीने मुहपत्तीनी चरचा बनावी, ते बपावीने श्रावकोए देशावरोमां प्रसि -5 करी, तेमां लखेबे के * मेरी सरधा तो श्री जसोविज जीके साथ घी मिलेहे जिम उपाध्यायजी नाममात्र तपे का कहलाताथा तिम मेरेकोबी नाम मात्र तपे गका कहिलाया जोइए, मेने उपाध्यायजीके पुराग करके लोक व्यवहार मात्र समाचारी अंगीकार करी. राजनगर मध्ये सुन्नागविजे तथा मणिविजय पासे ग धारीने हम १ तथा मुलचंद २ तथा वृद्धिचंद सेठाकी धर्मशाल में चले खाए, एता उनके साथ मेरा संबंधथी मेने कर्मजोरे पांचमा कालमें जन्म लीया, विराग पिल याव्या, गुरु संजोग न मिल्या ते पापका चदा * इत्यादि बुटेरायजीना वचन जोतां तो श्री बुटेरायजीए श्री य - शोविजयजी उपाध्यायजीने परोक्षपणे जावथी गुरु धारण करी लोक व्यवहार मात्र श्री तपागचनी समा
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प्रस्तावना.
चारी अंगीकार करी, पण कोइ पासे नपसंपद अर्थात् फरी दिदा धारण करी नही, पण कदाच कोई कहेशे के श्री सोनागविजयजी तथा मणिविजयजी पासे गह धारण करयो तेज उपसंपद ग्रहण करी समजवी, एम कहे ते पण मिथ्या , कारणके सोनागविजयजी तो जेम श्री रूपविजयजीए रूपसी पद्मसीना नामनी हं. मियो चलावी तेम सोनागविजयजी पण इंमियो च. लावता, तथा एक काणे रहेता ने कोई काणे विहार तो तेमनोमेनाविना थतोज नही, इत्यादि असंजमप्रवृत्ति श्री गुर्जर, मारवाड देशना सर्व संघमां प्रसिजे, तेम कारण विना एक ठेकाणे रहेवानी तथा मोली प्रमुखमा बेसवानी अने परिग्रहादि संचय असंजमप्रवृत्ति लोहार (लवार)नी पोलवाला श्री मणिविजयजीनी पण हती, तेथीज मुखपत्ति चरचाना एए मा टष्टमां श्री बुटेरायजी अखेने के *बाइ दिदा लेनेवालीथी ते साधांकी रुपश्ये चडायके पूजा करने लगी, प्रथम तो रुपश्ये चडाइने रत्नविजयजीकी पूजा करी, फेर मणिविजयजीने धागे रुपश्ये चडाइने पूजा करी पीछे मेरेको रुपश्ये चडावगोलगि, तिवारे नितविजयजी बोल्या महारे आगे रुपश्ये चडावरोका कुछ काम नही, हमारे रुपझ्याकी खप नही, इम कहीने मने करदीने तिवारे हमसवे तहां ते कठके
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प्रस्तावना. चले आये पीछे तिनाने बाइक दिदा देके सहरमे चले गये,*ए वाक्योथी स्पष्ट मालम पडे के जो मेहेलावाला रत्नविजयजी तथा सवारनी पोलवाला मणिविजयजी परिग्रहनो संचय नहोता राखता तो साधुनक्तिकृत अयपूजाने बुटेरायजी प्रमुख निषेध करत नही, पण मणिविजयजी तथा रत्नविजयजी संचय करता हता, तेथी निषेध करी उठीने चालता थया एथी ए पण सूचना था के श्री बुटेरायजी मणिविजयजीने संयमीगुरुजाणीने नपसंपद ग्रहण करी होत तो पोताना गुरुनी एवडी मोटी अाशातना करत नही, एथी ए निश्चय थयं के श्री बुटेरायजीए तो मणिविजयजीने संयमीगुरु धारया नही, केमके मणिविजयजी प्रमुख तो स्वतमानोपेत श्री वीरप्रनुनो स्वेतांबर जैननिंग बोडीने पीतांबर अर्थात् पीला कपडा धारण करता हता, अने श्री बुटेरायजीनो मत तो श्री यशोविजयजी उपाध्यायजीथी मलतो हतो अने श्री यशोविजयजी नपाध्यायजीए तो श्री दशमत्ताधिकार तवनमां तथा कुमती कपटस्वाध्यायमां तथा नपाध्यायजीनी परंपरामांथएला श्री उदयविजयजी वाचक प्रमुख श्री हितशिक्षाषट्त्रिंशकामां तथा श्री गडाचार विचारबोल पत्रक ग्रंथमा पीला कपडा धारण करनारने कुलिंगी निन्नव असंयती कह्या बे; ते ग्रंथना पाठ ग्रंथ
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प्रस्तावना. गौरवना जयथी इहां अमो जणावता नथी, कोइने जोवा होय तो अस्मत्कृत श्री स्तुतिनिर्णय विनाकर जो शंका निवत्तेन करवी. इहां तो एटलुंज प्रयोजन ने के श्री यशोविजयजी उपाध्यायजीनी श्रद्धा श्री बुटेरायजीने जचेली (गमेली) हती, तेथीज श्री बुटेरायजीए सर्व संवेगी नाम धारीने कुगुरु समझी तेमनो लिंग त्यागन करी स्वेत कपडा धारण करी* अबी जैन सि
तके कहे मुजब कोई साधु हमारी देखणेमें नही पाया ओर हमारेमेबी तिस मुजब साधपणा नहीहे तिस्से हमनी साधु नहीहे * इत्यादि श्रापूर्वक अंत. काल सुधि श्री अमदावादमां श्री बुटेरायजी रह्या ते सर्व शेठिया प्रमुख त्यांना संघमां प्रसिह ने तो हवे विचार करवो जोइए के आत्मारामजीना गुरुने संयमी गुरु मल्या नही ने तेनुमां संयमीपणुं हतुं नही तो प्रा. स्मारामजीमां संयमीपणुं ने संयमी गुरु मल्या एवु विदामसूझजन तो कोई कहे नहीं, पण कदाच अज्ञताना जोरथी आत्मारामजी आनंदविजयजीए जेम श्री बुटे. रायजीने गुरु धारण करया तेम श्री बुझिविजयजीए नामथी संवेगी श्री मणिविजयजीने गुरु धास्था होय तो पण जैनमतना शास्त्रानुसार आत्मारामजीने साधु मानवा ए वार्ता सिध्थती नथी, केमके यात्मारामजी
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हेतुस्वाध्याय पाध्यायजीकृत २५ए पुनः श्री प्रवचनसारो श्री सिइसेनसूरिजीकृत
झार वृत्ति २६० पुनः श्रीआवश्यकचूर्णि श्री पूर्वधराचार्य कृत २६१ श्री पाक्षिकसूत्रवृत्ति श्री पूर्वाचार्यकृत २६२ श्री गणांगसूत्रवृत्ति थ श्री गणधरदेव तथा
नुक्रमेण श्री अजयदेवसूरिकृत २६३ श्री जीवानिगमसूत्रवृत्ति श्री गणधरदेवरुतश्री
अनुक्रमेण मलयागिरीबाचार्यजीकृत २६४ श्रीहीर प्रश्न तपागबाधिराज श्री वि
अयहीरसूरिजीकृत २६५ श्री आराधना पताका श्री हरिनइसूरिजीकृत २६६ श्री चनुसरणपयन्नो श्री पूर्वधराचार्य कृत २६७ श्री पंचसूत्री सूत्र श्री हरिनाचार्यजीकृत २६७ श्री नपदेशरत्नाकर श्री पूर्वाचार्यकृत २६ए श्री धनपालपंचाशिका पंमितवर्य श्री धनपाल
जीकृत २७० श्री उपदेश प्रकरण श्री हरिनसरिजी कृत २७१ श्री सुक्तावली ग्रंथ श्री पूर्वाचार्यकृत २७२ श्री महानिशीथ सूत्र श्री गणधरदेवजीकृत २७३ श्री वीरस्तुति श्री हरिनसरिजीकृत
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२७४ श्री वीरस्तुति श्री प्रद्युम्नसूरिजी कृत २७५ श्री सिचक्रस्तुति श्री प्राचीनाचार्यकृत २७६ श्रीं नोमनाथस्तुति श्री प्राचीनाचार्यकृत २७७ श्री सूयगडांग नियुक्ति चौदपूर्वधर श्री नबाहु
स्वामीजीकृत २७७ श्री सूयगडांग नियुक्ति श्री पूर्वाचार्यजीकृत
वृत्ति २७ए श्री नमिनाथजी स्तवन श्री आनंदघनजी महा
राजकृत
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चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयच्छेदनकुठारः
॥ श्रहं नमः ॥
श्री जिनवीरमीश्वरविनुं त्रैलोक्यचिंतामणि तत्त्वज्ञाननिधिं तमोदिनमणिं श्रेयः श्रियां घुमणिम् नक्त्या वंदित मंत्रमानवगणैर्देवाधिदेवं सदा वंदे नूरि निमकतां नवजले पोतायमानं परम् १ वीतरागं परित्यज्य योन्यदेवमुपासते ॥ कामधेनुं तिरस्कृत्य स खरी दोग्धि मूढधीः ॥ २ स्याद्वादनिधिं वीरं प्रणिपत्यजगद्गुरुम् ॥ शंकरमहं कुर्वे चतुर्थस्तुतिनिर्णये ॥ ३
शिष्टा हि शास्त्रादौ किमपि प्रारिप्सितपरिसमाप्तिप्रतिबंधक दुरितनिवर्त्तनायेष्ठदेवतानमस्कारपूर्वकमेव मं गलमुपक्रमते तथात्राप्यासन्नोपकार कशासनाधीश्वरश्रीवीरपरमेश्वरनमस्कारात्मकं त्रिकरणशुद्ध्या परममंगल मुपन्यस्तम् । तथाच श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थमनिधेय संबंधप्रयोजनत्रितयमपि नियमाद्वाच्यमित्यालोच्य चतुर्थस्तुतिकुयुक्ति निर्णय शंकोद्धारो निरूप्यते । निरभिधेये. काकदंतपरिगणनमिव न सज्ज
मुख्यवृत्त्यानिधेयतया
P
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परिच्छेदः १ नानां प्रवृत्तिः तथा वाच्यवाचकनावसंबंधस्तु नामतो व्यक्त एव प्रयोजनं चात्र दुःखमादोषानुनावात्केपांचिदुर्विदग्धोपदेशविप्रतारितानां नूयः शंकोदयः प्रादुर्नवतीति तन्निरासेन तन्मनोनैर्मल्यमाधातुमयं ग्रंथः प्रारभ्यते। ___ सर्वतीर्थाधिराजश्रीशत्रुजयसंबंधी श्रीसौराष्ट्रदेशने समस्त प्राचीन अर्वाचीन आचार्योएं सकल आर्य देश शिरोमणि कह्या बतां पण वर्तमानकालमां कालनी अपेक्षा करी सौराष्ट्रदेशने अनार्यनी अपेक्षाए श्रीशजयादि तीर्थोने अनार्य कथन करनार नामथी यात्मारामजी आनंदविजयजी प्रतिक्रमण चैत्यवंदनामां च्यार थुइ कहेवानो पंथ चलानवाने तथा दृढ करवाने अांखनुं काजल गाले घसवू एहवी युक्तिए करी, चतुर्थस्तुति निर्णय नामनो ग्रंथ बनाव्योडे, पण ते चतुर्थस्तुति कुयुक्ति निर्णय नामे करीने सार्थक थायडे, कारणके, श्रीजैन शास्त्रने अनुयायी निर्णय नथी, निःकेवल शंकामोहनी मिथ्यात्वावबोध वृक्षनुं बीज.केमके देवसिप्रतिक्रमणनाबादिमां अने राइप्रतिक्रमणना अंतमा पूर्वाचार्योएं सामान्य प्रकारे अर्थात् जघन्य प्रकारे तथा चैत्यगृहमां नवेप्रकारनी चैत्यवंदना यथाशक्तिएं करवी कहीले. पण प्रतिक्रमणमां च्यारथुइए चैत्यवंदना करवी,कोइ जैनम
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
३
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तना शास्त्रमां कही नथी. तोपण खात्मारामजि श्रानंदविजयजि पोतानी नुन्मत्तताथी पृष्ट ३३ में प्रवचनसारोद्धारादिकमां' पक्किमे चेइहरे" इत्यादि गाथाए प्रतिकमणना याद्यंतमें सामान्य जघन्य प्रकारे चैत्यवंदना कह्यात पण च्यारथुइ ए चैत्यवंदना स्थापन करेबे पण से साक्षियोए करी प्रतिक्रमणमां व्यारथोयो सिद्ध थती नथी. ते नव्यजीवोने ज्ञापन करवाने तथा आत्मारामा थानंद विजयजिने प्रतिक्रमण संबंधी चतुर्थस्तुति शंकांनोनिधिना यावर्त्तथी नुद्धरवारूप नृपकारने खर्थे पंचांगी पूर्वक पूर्वाचार्यांना रचेला शास्त्रोने अनुसारे शंकोद्वार करीएं बीए.
प्रश्नः - आत्मारामजी यानंदविजयजीतो *पमिक्कमकी याद्यंत मे च्यार थुइकी चैत्यवंदना करनी कही हे* एहवं लखेढे तो, तमो पक्किमणामां च्यार थोयूं सिद्ध थती 'नथी एवं केम लखोटो ?
- नत्तरः- अमारा श्राचार्य राजेंद्रसूरीश्वरजी तथा यमो प्रतिक्रमणना याद्यंत में जघन्य प्रकारे चैत्यवंदना करीएं बीएं. ते तां श्रात्मारामजि खानंदविजयजि पृष्ठ २ जामां * राजेंद्रसूरीजी रु धनविजयजी प्रतिक्रम
कि यादिकी चैत्यवंदनमें तीन थुइ कहनेका पंथ चलाया है तथा तीन थुइकी थापना करते हे * एह लखेबे
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परिच्छेदः १
ते सर्वथा खोटुं लखेडे. कारण के मोतो पूर्वोक्त प्रकारे प्रतिक्रमणना याद्यंतमां चैत्यवंदन करीएं बीएं तथा जेम आत्मारामजी च्यार थुइनी थापना एकांते करेले तेम एकांते त्र थुइनी थापना करता नथी. पूर्वाचार्योंए जे ठेकाले त्रण कहीबे, ते ठेकाले त्रण करीएं बीएं. अने व्यार कही बे ते ठेकाले व्यार करीएं बीएं. खने मोए जेम आत्मारामजी श्री सोरतदेशने अनार्य कहेवानो तथा मुहपत्ति व्याख्यानवेलाए बांधवी सारीबे, पण कारणथी बांधता नथी एहवां बलनां वचन बोली अनिनिवेश मि ध्यात्वना नदये, केवल जोला लोकोने फंदमां नाखवानो पंथ चलाव्योवे. तेम मे नवो पंथ नथि चलाव्यो, केमके पूर्वे पण श्रीधर्म कोटिकादिगण में तथा श्रागमिकादि गच्छ में जिनगृहमांत्रा थुइए करी देववंदन करता थावेबे, तेमज मो पण स्वगच्छमां गुरुपरंपराए कहेता याव्या. तथा परगच्छमां वर्त्तमानकालमा करता पण देखीए बीए तेम कराएं बीएं. माटे मारो नवो पंथ चलाव्यो ए लखवं मृषानरेलुंडे. पण वर्त्तमानकालमां श्रीसोरदेश शत्रुंजयने कालापेक्षाए स्वगच्छ परगच्छ में कोइ अनार्य कहेता नथी पण श्रात्मारामजि कहे. तेथी थात्मारामजिए नवो पंथ चलाव्यो एहवुं कहीए तो चाले. मोमारी बुद्धिथी नवी वात नवावी नथी तो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
पण आत्मारामजि नवो पंथ चलाव्यो एवं मृषावचन लखेडे तेम मो इहां आत्मारामजि पक्किमलाना थाद्यंतमां व्यारथुइए चैत्यवंदन करवुं लखेंबे ते ठेकाणे, प्रतिक्रमणमां च्यारथुइए चैत्यवंदन करवं पंचांगीमां नथी एवं लखीएं बीएं ते मृषावचन नथी. केमके ग्रात्मारामजी खेडे एटलुंज नही पण लोकोने मोढें एहवुं कहे बे के, राजेंद्रसूरीज अरु धनविजयजि प्रतिक्रमणमां चैत्यवंदन नही मानते हैं तथा संवत् १९४० नी सालमा न्युसपेपरद्वारे खात्मारामजीने खनें मारे चर्चा थइ त्यारे
मोए स्तुतिनिर्णय विनाकरनामे ग्रंथ बनाव्यो हतो ते ग्रंथमां प्रतिक्रमणना यादिमां सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना तथा त्रण स्तुतिए करि, नन्नप्रकारे देवगृहमां चैत्यवंदना ने पूजादिविशिष्ट कारणे चतुर्थथुइए देववंदना सिद्धांत ग्रंथोनी साक्षिसहित करवी लखीने. ते ग्रंथ श्री विवेकसागरजिए श्री धरादधी लखाविने मंगाव्यो ते ग्रंथ विवेकसागरजि पासेथी मंगावीने आत्मारामजिए श्राद्यंत सुधी जोयावतां पण, प्रतिक्रमणकी यादिमें तीन थुइ कते रु तीन थुइकी थापना करता हे ए सी श्रावको मुखसें सुनिहे एवं जाणतां बतां लख्युं तेथी अथवा संवत् १९४० नी सालमां श्रात्मारामजी ए अमदावाद समाचार बापामां व्याख्यानके व्यवसरे
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परिच्छेदः १ मोहपत्ति बांधवी हम अनि जानतेहे पण कोइ कारणसे नही बांधतेहे एहेवू बपाव्युं त्यारे विद्याशालानी बेठकना श्रावकोए आत्मारामजिने पूज्यु, साहेब आप मोहपत्ति बांधवि रूमी जाणोडो तो बांधता केम नथी?त्यारे आत्मारामजिए तेने पोताना रागि करवाने कांके हम इहांसें विहार करे पीछे बांधेगे. पण हजु सुधी बांधता नथी ते कारणथी आत्मारामजिनुं लखवू जुदु ने बोलवू जुदु अने चालवू जुदु अमने नासन थयुं तेथी यात्मारामजी प्रतिक्रमणमां च्यारथुइ माने एवं श्रावकोने मोढें सांजल्यु तेवं अमोए जव्युं तेमां तो शो दोष, पण आत्मारामजीने एकली चोथी थुइना मानवावाला कहीए तोपण दोष नथी स्याथीके त्रण थुइतो अमारे मानवानी लखी. त्यारे एवंने मानवानी तो एकज सिद्ध थई ॥इति प्रश्नोत्तर॥
अथ आत्मारामजि आनंदविजयजि आचरणाथी चोथी थुइ सिद्ध करे. तथापि सिद्धांतपंचांगी तथा गीतार्थाचरणाए प्रतिक्रमणना आद्यंतमा सिद्धथती नथी पए देवगृहमा त्रण स्तुतिये देववंदन, सिद्धांत पंचांगी अनुसारे तथा पूजादि विशिष्ट कारणे च्यार स्तुतिये देववंदन, गीतार्थ आचरणाए सिद्ध थाय.तेथी किंचित् आचरणानुं स्वरूप लखीएं डीएं. तिहां सिद्धांत पंचांगीमां"व्यवहार,कल्प,जीत,करणी,याचरणा एगठा"
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्वारः
एटले व्यवहार कहो कल्प कहो जीत कहो करणी कहो चरण कहो ए एकार्थ बे, ए वचनथी ते याचरणा त्रण प्रकारनी बे. ते कहेते. प्रथम श्रागम याचरणा१ बीजी गच्छाचरणा त्रीजी गीतार्थ याचरणा३ तेमां यागमोक्त याचारमां प्रवर्त्ततुं तेने श्रागम याचरणा कहीएं. ॥ यदुक्तम् ॥ नवांगवृत्तिकारक श्रीमदनयदेवसूरिभिः श्रीश्रागमाष्टोत्तरिकायाम् ॥ यतः ॥ श्रागमे ॥ यागमं खायरंतेणं यत्तणो हियकंखिणो तिनाहोगुरुधम्मो सव्वे ते बहुमन्निया ७ ॥ व्याख्या ॥ ग्रात्मनः स्वस्य हितकiक्षिणा हितकामिना यागमं यत्प्रणीतसिद्धांतोक्तमाचारं श्राचरता यभ्युपगच्छता जनेन तीर्थनाथोगुरुर्धम्र्माचार्यः धर्मश्च ते सर्व्वे बहुमानिताः गौरविताः । श्रयंनावः श्रात्महितैषिणा येन श्रीसिद्धांतो बहुमानितस्तदुक्तं सर्व्वमप्पंगीकृतमित्यर्थः नतु जमाल्यादिवत्सिद्धतिकदेशोप्यप्रमाणितोस्तीति तेनार्हगुरुधर्मा बहुमानता एव यश्चागमपदमेकमपि नांगीकरोति सनिवक्तौ सम्यक्त्वविकलो गणपते ॥ पयमवि - सदहंतो सुतं मिच्छदिवीश्रो” ॥ इति वचनात् ॥
नावार्थ:- पोताना त्रात्माना हितवांबकपुरुषे - रिहंतप्ररूपित सिद्धांतोक्त श्राचारने याचरण करतां एटजे सिद्धांतोक्त याचार अंगीकारकरतां तीर्थनाथ जे अरि
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परिच्छेदः १ हंत, गुरुजे धर्माचार्य, धर्मजे सर्वज्ञप्ररूपित, ए सर्वेनु गौरव एटले बहुमांन कस्युं तेणे सर्वसिद्धांतोक्त सर्वश्राचार अंगीकारकरयो. पण जमालिनिपेठे सिद्धांतनो एकदेशपण अप्रमाण जेने नथी,तेणे अरिहंतगुरुधर्मानुज बहुमानकरचुं. अने जे आगमनु एक पद पण अंगीकार न करे ते पुरुपो निहवनी पंक्तिनेविषे सम्यक्त्वकरहितपणे गणाय ॥ ते सिद्वांतमें कडंडे ॥ सूत्रोक्त एक पद पण नहीं सदहे तो, तेने मिथ्यात्व दृष्टिवालो जावो. ॥ अवतरण ॥जे, अनिनिवेशिक मिथ्यात्व बोमी जिन आगमोक्त आचरणा आचरे,ते प्राणी सर्व तीर्थकर पूर्वा. चार्योक्त धर्मना बहमान करवावालो जाणवो. अने जे प्राणी सिद्धांतने न माने में, पोत पोताना गच्च ममत्व कदायहना ग्रंथ तथा पोत पोताना गच्छनी परंपरानु बहुमान करी,शुद्ध सिद्धांत पंचांगीना वर्त्तवावाला पुरुषोनुं अपमान करेडे; ते प्राणीने, अर्हत् तथा पूर्वाचार्य, अने धर्म, ए त्रणनो जमालिनी पेठे अपमान आशातनानो करवावालो जाणवो ॥ नपर लण्यानो सार ए ले जे आगमोक्त आचार आचरवो, तेने बागमोक्त परंपराधी आचरणा कहीए, ते आगम, श्री अनुयोगद्वार सूत्रमा त्रण प्रकारे कह्याडे. ते पाठ ॥ सेकिंतं आगमे २ दुविहे पण्णत्तेतंजहा लोइएअलोनुत्तरिएअ-सकिंतं लोइए ।
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः जण्णंइमंअण्णाणिएहिं मिलादिठिएहिं सलंदबुद्धिमइ विगप्पियं तंजहा नारहं रामायणं जाव चत्तारि वेआ सांगोवांगा सेतंलोइए. सेकिंतं लोनत्तरिए २ जण्णंइमं अरिहंतेहिं जगवंतेहिं नप्पण्णणाणदंसाधरेहिं तीयपचुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिलुक्कवहि अमहियपूइएहिं सवण्णूहिं सव्वदरसीहिं पणीअदुवालसंगं गणिमिगं तंजहा आयारो जावदिठिवाओ अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते तंजहा सुत्तागमे अबागमे तदुनयागमे अहवा आगमे तिविहे पण्णते तंजहा अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे गणह. राणं सुत्तस्स अत्तागमे अबस्स अणंतरागमे गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणपरं सुत्तस्सवि अत्थस्सवि गोअत्तागमे गोअणंतरागमे परंपरागमे ॥ व्याख्या ॥ सेकिंतं आगमत्यादि गुरुपारंपर्येणागडतीत्यांगमः आसमंताद्गम्यते झायंते जीवादयः पदार्थाः अनेनेतिवा आगमः अयंच द्विधाप्रज्ञप्तस्तद्यथा ॥लोईएत्यादि ॥ इदं चेहैव पूर्व नावश्रुतं विचारयता व्याख्यातं यावत्सेत्तं लोइए.सेकिंतं लोगुत्तरिए आगमेत्ति अहवा आगमे तिविहे इत्यादि तत्र सूत्रमेव सूत्रागमस्तदनिधेयश्चार्थ एवार्थागमः सूत्रार्थोनयरूपस्तु तदुनयागमः अथवा अन्येन प्रकारेणागमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा
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परिच्छेदः १ आत्मागमइत्यादि तत्रगुरूपदेशमंतरेणात्मन एव आगम श्रात्मागमो यथा तीर्थकराणामर्थस्यात्मागमः, स्वयमेव केवलोपलब्धी गराधराणां तु सूत्रस्यात्मागमः स्वयमवग्रथितत्वादर्थस्यानंतरागमोऽनंतरमेव तीर्थकरादागतत्वात्॥
॥नक्तंच ॥ अत्थं नासइ अरहा सुत्तं गुत्थंति गणहरा निनणमित्यादि ॥ गणधरशिष्याणां जंबूस्वामिप्रनृतीनां सूत्रस्यानंतरागमोऽव्यवधानेन गणधरादेव श्रुतेः, अर्थस्य परंपरागमः गणधरेणैव व्यवधानात्तत नवं प्रजवादीनां सूत्रस्यार्थस्य च नात्मागमो नानंतरागमस्तल्लक्षणायोगादपि तु परंपरागम एव.
अर्थः-गुरुपरंपराए आवे तेने वागमकहीए अ. थवा था कहेतां सर्वथाप्रकारे गमीयें कहेतां जाणीए जीवादिकपदार्थ एणेकरी तेने आगमकहीए. ते बे प्रकारे प्ररूप्यु तद्यथा लोकिक अने लोकोत्तरिक, तिहां आदिनेद कहेले. सेकिंतं लाइए इत्यादि इहां जेम भावश्रुत कडं तेम लेवू अथवा आगमत्रिविध प्ररूप्युं तेज कहेडे सूत्रज जे बागम ते सूत्रागम, अने तेहy जे अनिधेय जे अर्थ ते अर्थजजे आगम ते अर्थागम.अने सूत्र अर्थ ननयरूप ते तदुनयागम. अथवा वली थामम त्रिविध प्ररूप्यु ते कहे. गुरुपदेश विना श्रात्माथीज जे था
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
गम ते श्रात्मागम, यथा श्रीतीर्थंकरने अर्थनुं कथन ते आत्मागमज होय, केम जे स्वयमेव केवलज्ञानेकरी सर्व पदार्थ जाणे. ने गणधरने सूत्रनु जांणपणुं ए खात्मागमकहीए मजे तेमज सूत्र गुथ्यां बे माटे खने ते गधरने अर्थनुं ज्ञान ते अनंतरागम कहीए अर्थनुंज्ञान यांतरारहित तीर्थंकरकनेथी श्राव्यं ए हनुमाटे.
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॥ ते कडे ॥ त्थंासइअरहा इत्यादि ॥ तथा श्रीगणधरना शिष्य श्रीजंबुस्वाम्यादिकने सूत्रनुं ज्ञान ते अनंतरागमबे तेहने सूत्र, यांतरा विना गणधर - पाथी धाव्यं. ने अर्थनुं जाणपणुं परंपरागम जेथी ते अर्थ गधररूप अंतरपामी खाव्युंडे ते नृपरांत श्री प्रजवादिकने सूत्रनुं ज्ञान घने अर्थनुं ज्ञान ते, नही आत्मागम, नही अनंतरागम, किंतु परंपरागम कीहएं ॥
एटले ए वचनेकरी गणधरजगवंतना शिष्यथकी पी श्रीप्रनवस्वामी की मांमीने यावत् श्रीदुप्पसहाचार्यसुधी सर्वसाधुने पंचमायाराना पर्यंतसुधी सूत्र श्रीयाचारांगादिक ते सूत्रथकी अर्थथकी परंपरागम जागवां. ते परंपरा यागमोक्याचारने याचरखं ते परंपरागम श्राचरणा जाणवी. एमज श्रीभगवतीसूत्रमां पण त्रणप्रकारनां श्रागम कह्यां वे ॥
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१२
परिच्छेदः १
॥ तेपाठ ॥ सेकिंतं पमाणे २ चनुव्विहे पण्णत्ते तंजहा पञ्चकवे मा श्रोवमे श्रागमे जहा अयोगद्दारे तहा यव्वं प्रमाणं जाव तेणपरं सोत्तागमे लोप्रांतरागमे परंपरागमे ॥ व्याख्या ॥ श्रागमस्तुद्विधा लौकिकलोकोत्तरनेदात्, त्रिधा वा सूत्रार्थोनयनेदात्, अन्यथा वा त्रिधा श्रात्मागमानंतरागमपरंपरागमनेदात्, तत्रात्मागमादयोऽर्थतः क्रमेण जिनगणधरतच्छिष्यापेक्षया द्रष्टव्याः । सूत्रतस्तु गणधरतच्छिष्यप्रशिष्यापेक्षयेति । एतस्य प्रकरणस्य सीमां कुर्व्वन्नाह ॥ जावेत्यादि ते परंति गणधर शिष्याणां सूत्रतोनंतरा - गमोर्थतस्तु परंपरागमः ततः परं प्रशिष्याणामित्यर्थः ॥
एपाठनो अर्थ पूर्वे लख्यो तेम जाणवो, एपूवोक्त पाठमा त्रिविध श्रागम कह्यां तेनी व्याख्या वृत्तिकारे श्री जगवतीवांगे प्रत्यनीकसूत्राधिकारे एवीरीते करीबे
॥ तेपाठ ॥ सुण्णं नंते पमुच्च पुच्छा गोयमा तोपमिणीया पण्णत्ता तंजहा सुत्तपमिणीए पमिलीए तदुजय मिणीए । एवं ठाणांगेपि । सुयंपमुच्च तत्रोपमिलीया पण्णत्ता तंजहा सुत्तपमिणीए अपमिलीए तदुनयपमिणीए ॥ नुनयोर्व्याख्या ॥ त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा सुत्रप्रत्यनीकोऽर्थप्रत्य -
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्वारः १३ नीकस्तदुनयप्रत्यनीक इनि अनुवादार्थः ॥ व्याख्याश्रुतं सूत्रादि तत्र सूत्रं व्याख्येयं, अर्थस्तयाख्यानं नियुक्त्यादि तदुनयमेतद्वितयमिति ॥
अर्थः-सूत्रने अंगीकारकरी हेनगवंत केटला प्रत्यनीक प्ररूप्या? हेगौतम त्रण प्रत्यनीक प्ररूप्या ते कहेले. सूत्रप्रत्यनीक १ अर्थप्रत्यनीकर तदुनयप्रत्यनीक एअनुवादार्थ हवे व्याख्यार्थश्रुत ते सूत्रादिक, तिहां सूत्र ते व्याख्यान करवायोग्य तेना प्रत्यनीक. थर्थ ते, सूत्रनु व्याख्यान नियुक्त्यादिक तेना प्रत्यनीक. तदुनयते सूत्र ने अर्थ बेइना प्रत्यनीक. एमज गणांगव्याख्या पण जाणवी इहां व्याख्यानकरवाजोग्य ते सूत्र श्रीगणांगजीमां श्रुतज्ञानाधिकारे ब प्रकारचें कह्युजे ॥
॥तेपाठ ॥ सुअनाणे दुविहे पन्नत्ते तंजहा अंगपविढेचव अंगबाहिरेचेव अंगबाहिरे दुविहे पन्नत्ते तंजहा श्रावस्सएचेव श्रावस्सवइरित्तेचेव आवस्सवइरित्ते दुविहे पन्नत्ते तंजहा कालिएचेव नकालिएचेव ॥ व्यारव्या ॥ सुयनाणेत्यादि ॥ प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाडानि तेषु प्रविष्टं तदभ्यंतरं तत्स्वरूपमित्यर्थः तज गणधरकृतम् ॥ नप्पन्ने,इत्यादि मातृकापदत्रयप्रनवं वा धुवश्रुतं वा आचारादि यत्पुनः स्थविरकृतमातृकापदत्रय
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१४
पारच्छेदः १ व्यतिरिक्तव्याकरणनिबद्धमधुवं श्रुतं चोत्तराध्ययनादि तदङबाह्यमिति आहच गणहरी थेराइकयं आएसा? सुक्कवागरगोवा धुवंर चलविसेसणाोश् अंगाणंगेसुणाणतंति ॥ १ अंगबाहीत्यादि अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यक सामायिकादिषडिधं आहच समणेणसावएणय अवस्सकायंहवइजम्हा अंतोअहोनिसिस्सय तम्हाश्रावस्सयंनामंति ॥१॥ आवश्यकाद्यतिरिक्तं ततो यदन्यदिति आवस्सगवइरित्तेत्यादि यदिह दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीदये एव पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकमुत्तराध्ययनादि यत्पुनः कालवेलावजै पठ्यते तदूर्ध्वङ्कालिकादित्युत्कालिकं दशवकालिकादि ॥२३॥
___ अर्थः-श्रुतज्ञानना बे नेदडे एकअंगप्रविष्ट १ बीजो अंगबाह्य २ तिहां प्रथम प्रवचन पुरुषनाअंगनि पेठे अंगनेविषे प्रविष्ट अभ्यंतरस्वरूप एटले श्रुतपुरुषना अंगनविषे अंगनावेकरीरह्योते चप्पन्नेइवा इत्यादि त्रिपदी पांमि गणधररचेसांध्रुवश्रुत याचारांगादिक अंग तेने अंगप्रविष्ट सूत्र कहीएं. जोवली श्रुतस्थविरनां करेला मातृकापद एटले त्रिपदीरहित व्याकरणनिबद्ध अधुवश्रुत ते उत्तराध्ययनादि गणहरथेराइ गाथोक्त ते अंगबाहिर सूत्रकहीए.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्वारः १५ तेअंगबाहिरना बेप्रकार, आवश्यक १ घने बावश्यकव्यतिरिक्त २ तिहां साधुश्रावकने सामायिकादि बप्रकार, अवश्यकर, तेनुनाम आवश्यक सूत्र कहीएं अने जे आवश्यकथी जूदोसिद्धांत तेने आवश्यकव्यतिरिक्त सूत्र कहीएं ते यावश्यकव्यतिरिक्तना बे नेद एक कालिक १ बीजो नत्कालिक २ तिहां कालवेलाए प्रथम बेहली पोरसायेंज नणाय नत्तराध्ययनादि तेने कालिकसूत्रकहीएं बीजांकालवेलारहित जणाय दशवैकालिकादिक ते नत्कालिकसूत्र कहीएं एमज श्रीनंदीसूत्रमा सम्यक्श्रुताधिकारें तथा श्रीपाखिसूत्रमा सूत्रनत्कीर्त्तनाऽधिकारे जे जे सूत्र कह्यां ते ते सर्वे सूत्रागम कहीएं ॥ तथावली विधिसूत्र १.न्द्यमसूत्र ५ नयसूत्र ३ वर्णकसूत्र ४ नत्सर्गसूत्र ५ अपवादसूत्र ६ तदुनयसूत्र ७ तिहां प्रथम श्रीदशवैकालिकना पंचमअध्ययनमा कडं ॥ संपत्तेनिक्खुकालंमि असंनंतोषमुचिन इम्मेणकम्मजोगेणं नत्तपाणंगवेसए १ ॥ इत्यादिक विधिसूत्र कहीएं तथा श्रीनत्तराध्ययनना दशमा अध्ययने कह्यु ॥ दुमपत्तयपंमुयएजहा निवमइराइगणाणमच्चए एवंमणुयाणजीवियं समयंगोयममापमायए ॥ इत्यादिक नयमसूत्र कहीएं अने नरकादिकनेविषे मांसरुधिरादिकवर्णवि कहेवां यथा नत्तराध्ययने मृगापुत्रअध्यय
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परिच्छेदः १ नमा तथा सूयगमांगना नरकविनत्तिअध्ययनमा ते परमार्थे मांसादिक नथी पण जयसूत्र यतः नरएसुमं. सरुहिराइ वजंपसिद्धिमित्तेणं जयहेनइहरतेसेिं विनव्वियपावोनतेयं ॥ इत्यादिक जयसूत्र तथा नववाइ ज्ञाताधर्मकथा प्रमुखने विषे ऋधित्थमियसमिद्धा इत्यादिक प्राये सूत्र ते वर्णक सूत्र वली श्रीयाचारांगादिकसूत्रने विषे इच्चेसिंबन्हजीवनिकायाणंनेवसयंदमसमारंनेजा इत्यादिक तत्सर्गसूत्र जाणवां तथा बेदग्रंथ प्राये अपवादसूत्रने अथवा नयालनिझानिनणंसहायं गुणाहियंवागुणोसमंवा । इकोविपावाइविवजयंते विहरिजकम्मेसुसंजमाणो॥ इत्यादिक अपवादसूत्र जाणवां तथा जेमा उत्सर्गने अपवादसाथे कहेवाय ते तदुनयसूत्र कहींएं ॥ इत्यादिएसातप्रकारनां सूत्र पण सूत्रागम कहीएं पूर्वोक्त सर्वप्रकारना सूत्रमाथी कोइसूत्र न माने तेने सूत्रप्रत्यनीक कहीएं ॥
हवे अर्थागमनु स्वरूप लिखीएडीए अर्थते सूत्रनु व्याख्यान नियुक्त्यादिक एटले श्रीअनुयोगद्दारसूत्रमा च्यारअनुयोगद्वार कह्यांडे उपक्रम १ निदेोप २ अनुगम ३ अने नय ४ तेमां त्रीजुं अनुगमनामा अनुयोगद्वार तेहमां सूत्रानुगम तथा नियुक्तिअनुगम ए बे प्रकारनो अनुगम कह्यो तथाच तत्सूत्रं ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १७ अणुगमे दुविहे पण्णने तंजहा सुत्ताणुगमेश्र निजुत्तियणुगमेथ ॥ व्याख्या ॥ सूत्रानुगमः सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः, नियुक्त्यनुगमश्च नितरां युक्ताः सूत्रेण सह लोलीनावेन संबद्धा निर्युक्ता अर्थास्तेषां युक्तिः स्फुटरूपतापादनमेकस्य युक्तशब्दस्य लोपान्नियुक्ति मस्थापनाप्रकारैः सूत्रविनजनेत्यर्थस्तद्रूपोऽनुगमस्तस्या वानुगमो व्याख्यानं नियुक्त्यनुगमः ॥
अर्थः-अथ अनुगम ते शृं?
उत्तर-अनुगम कहेतां सूत्रनाथर्थर्नु अनुक्रमपणे कहे, ते अनुगम कहीएं अथवा अनुगमीए वखाणीए सूत्रने जेणेकरी अथवा एहुथी अथवा एथकी ते अनुगम कहीएं. ते अनुगम बेनेदे प्ररूप्यां तद्यथा सूत्रानुगम अने नियुक्त्यनुगम तिहां सूत्रनुं अनुगम कहेतां वखाणवू ते सूत्रानुगम अने निकहेतां अतिशे, युक्त कहतां सूत्रसाथे लोलीनावसंबंधने पामेला अर्थने नियुक्ति कहीएं एअर्थ. पत्रे ते नियुक्तनी जे युक्ति कहेतां प्रगटरूपपणानुं करवू इम इहां एक युक्तशब्दनो लोप थवाथी नियुक्ति एहवी व्युत्पत्ति थई. एटले नियुक्ति कहेतां नाम स्थापनादिकप्रकारेकरी सूत्रनुं विनजीने वखाणवू इत्यर्थः तद्रूप जे अनुगम अथवा तेहर्नु
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परिच्छेदः । जे अनुगम कहेतां वखाणq ते नियुक्त्यनुगम कहीएं ते नियुक्तिअनुगम त्रणप्रकारे कह्योडे. तेमज निदेपनियुक्तिअनुगम १ 'सूत्रस्पर्शकनियुक्तिअनुगम उपोद्घात नियुक्तिअनुगम ३ एत्रण अनुगमनो अर्थ श्रीअनुयोगद्वार मूलसूत्रवृत्तिथकी जाणवो. ग्रंथगौरवनानयथी नथी लख्यो. तथा श्रीनगवतीसूत्रमां पण त्रणप्रकारे व्याख्यान अर्थ कहेवो कह्यो ।
॥तेपात ॥सुत्तत्थोखलुपढमो बीननिज्जुत्तिमीसननणि तइयोयगिरवसेसो एसविहोहोइअणुयोगो ॥१॥ ॥ व्याख्या ॥ सूत्रार्थमात्रप्रतिपादनपरः सूत्रार्थोऽनुयोग इति गम्यते खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः सचावधारण इत्ये. तदुक्तं नवति गुरुणा. सूत्रार्थमात्रानिधानलक्षणः प्रथमोनुयोगः कार्यो, मानूप्राथमिकविनेयानां मतिमोह इति. द्वितीयोनुयोगः सूत्रस्यर्शकनियुक्तिमिश्रः कार्य इत्येवंजूतो जणितो जिनादिनिः तृतीयश्च तृतीयः पुनरनुयोगो निरवशेषस्य प्रसक्तानुप्रसक्तस्यार्थस्य कथनात्, एषोनंतरोक्तः प्रकारत्रयलक्षणो नवति स्याद्विधिविधानमनुयोगे सूत्रस्यार्थेनानुरूपतया योजनलदाणे विषयनूत इति गाथार्थः॥
अर्थः-सूत्रनोअर्थमात्र एटले सूत्रनोजसामान्यअर्थ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १ए प्रतिपादनतत्पर एटले कहेवाने तत्पर ते सूत्रार्थअनुयोग एबुंकहीएं खलुशब्द एवने अर्थे ते इहां अवधारणने अर्थडे ते एयुकां के गुरुए, सूत्रार्थमात्र अनिधानलकण एमाटे पहिलो अनुयोगले एटलेसूत्रनोज अर्थ एहवेनामे ए पहिलोअनुयोग कहेवो. प्राथमिकशिष्योने मतिमोह म थान तेमाटे इहां बीजो अनुयोग सूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रकरवो एहबुं जिनादिके कडंडे. त्रीजोवली अनुयोग सूत्रअर्थनियुक्तिथी बेनं प्रकारे निर्विशेपनो एटले जे प्रसंग अनुप्रसंगे मलतोअर्थ ते सर्वकहेवाथी निर्विशेष एहवे नामे त्रीजोअनुयोग हुवे. एह अनंतराक्तप्रकारे त्रणलक्षण हुवे. विधिविधानअनुयोगने विषे एतावता सूत्रना अर्थनेविषे अनुरूपपणेकरी योजनलहणे विषयनत एहवो एगाथार्थः॥
॥ नावार्थः॥एगाथामांत्रणप्रकार-सूत्र-व्याख्यान देखामधुं तेमां प्रथमसूत्रनो शब्दार्थ शिष्यनेदेवो. जेम नमोकहेतां नमस्कारथाओ अरिहंताणं के० अरिहंत रागद्वेषरूपशत्रु हण्या माटे. ते शब्दार्थ अवलीरीते श्रावम्यो तेवारे बीजो कहेतां बीजीवार अर्थकहे ते निज्जुनिमीसथो कहेतां नियुक्तिसहित अर्थकहे. हेशिष्य तेअरिहंतना प्यार प्रकार. नाम स्थापना द्रव्य थने
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परिच्छेदः १ जावनेदें. यतः नामजिणाजिणनामा ग्वणजिणापुण जिणंदपमिमाओ दव्वजिणाजिणजीवा नावजिणासम वसरणबा ॥१॥ इत्यादिक एम बीजीवार अर्थआवमयो पत्रे त्रीजीवार फरी एजपदनोधर्थ निर्विशेषकहेतां समस्तरीते कहे एटले संगेप्रसंगे सर्वकहे नैगमादिनयपण शक्तिहोयतो तेनां साधन कहे. उदाहरण जे अरिहंतने नमस्कार- फल कहे. इत्यादिक एटले एनाव जे. प्रथम अर्थमां टीकाचूर्णी अने बीजाअर्थमां नियुक्ति तथा त्रीजाअर्थमां नाष्याव्युं एटले सूत्रनुं व्याख्यान ते नियुक्ति १ जाष्य २ टीका ३ अनेचूर्णी ४ ए च्यारने अर्थागमकहीएं. अने सूत्रयर्थतनयरूप एटले सूत्र ते आचारांगादिक अर्थते नियुक्ति नाष्य टीका चूर्णी प्रमुख तेने तदुनययागमकहीएं. एपूर्वोक्त त्रणप्रकारना बागमने आराधतो जीव आराधक थाय.
॥ यदुक्तं श्रीनगवत्यंगे ॥सेनणंतमेवसचं नीसंकंजे जिणेहिंपवेइयं हंता गोयमा तमेवसचं जावजिणेहिं पवेइयं ॥ सेनूणंनंते एवंमणंधारमाणे एवंकरेमाणेएवंसंवरेमाणे आणाए वाराहए नवइ हंता गोयमा एवंमणं धारेमाणे जावाराहएनवइ ॥
अर्थः-श्रीगौतमस्वामी श्रीमहावीरस्वामीने पूछेले
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २१ जे सत्य निःशंक ते कीयुं कहेवू तिवारे जगवंत कहेडे हेगौतम. तेहज निःशंक जे श्रीवीतरागे कह्यु. वली श्री गौतमपूजे. हेस्वामिन् जेजिनवीतरागे कह्यं तेने मानतो
आझापालतो आराधक होय? तिवारे जगवंतकहे. हां गौतम एमजकरतो आराधक होय. एटले पूर्वोक्त त्रण प्रकारनासूत्रमांकह्योजे याचार तद्रूपआचरणा आचरतो जीव संसारसमुद्र तरे. अने पूर्वोक्तत्रणप्रकारना सूत्रनी आचरणा आझा खंमे तो जीव संसारवधारे तेमज का बे श्रीसमवायांगसूत्रवृत्तिमां.
॥तेपातः ॥ इच्नेयंदुवालसंगंगणिपीमगंअतीतेकाले अणंताजीवा आणाएविराहिता चाउरंतसंसारकंतारं अगुपरिअहिंसु ॥ समवायसूत्रे ॥ इदं हि द्वादशांगं सूत्रार्थोनयनेदेन त्रिविधं ततश्चाइया सूत्राझ्याऽनिनिवेशतोऽन्यथापागदिलदाणया,अतीतकालेऽनंताजीवाश्चतुरंतं संसारकंतारं नारकतिर्यग्नरामरविविधवृदजालदुस्तरं नवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्तिवंतो जमालिवत्, अर्थाज्ञतया पुनरनिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलद
या गोष्ठामाहिलवत्, उनयाझ्या पुनः पंचविधाचारपरिझानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरणलपया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिंगधारकानेकश्रमणवत्, सूत्रार्थोनयैर्विरा
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परिच्छेदः १ ध्येत्यर्थः, अथवा द्रव्यदेवकालनावापेदमागमोक्तानुठानमेवाज्ञाततया तदकरणेनेत्यर्थः॥
॥ नाषा ॥ ए द्वादशांग सूत्रार्थ उनयनेदेकरी त्रण प्रकारनु. तेनीआझातेसूत्राझा.ते अनिनिवेशथकी अन्यथाकहेवेकरी गयाकाले अनंताजीव चतुरंतसंसारकांतार नरक तिर्यंच मनुष्य देवतारूप नानाप्रकारना वृदजालेकरी गहन दुःखे उलंघाय एहवी संसाररूपअटवीनेविषे जमालिनीपेठे वारंवार परिभ्रमण करचा करे ने करशे. तेमज अजिनिवेशथकी अर्थागम आर्थाझा एटले अर्थ विपरीतपणे नावता प्ररूपता गोष्ठामाहिलनीपेठे संसार परिभ्रमण करया करे.ने करशे उनयआझा एटले सूत्र. अर्थ बेऊने विपरीतपणे प्ररूपे. ते पंचविधवाचार विशेषप्रकारे जाणीने पालवानणी उद्यमवंतथया,पण गुर्वादिकना आदेशथकी उलटा विपरीत करवावाला गुरुप्रत्यनीक द्रव्यलिंगधारक अनेकद्रव्यसाधुनीपेठे संसारपरिभ्रमण करचाकरे ने करशें अथवा द्रव्यदेवकालनावनी अपेदाए अजाणपणे आगमोक्तअनुष्टान अकरवे पण संसारमा परिभ्रमण करया करे ने करशे ॥ नपरलख्यानो नावार्थ एलेके, सूत्रागम अर्थागम तदुनयागम एत्रणे प्रकारना आगम गणधरादिकत्पणाथी सर्व
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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सूत्र जावां. ते सूत्र कोइप्राणी मानेढे, पण जो सूत्रनो एकपद एकप्रक्षर अथवा पदनो अर्थ विपरीतपणे सदहे तो मिथ्यादृष्टि जावो. तेमज कह्युंडे. पूज्य श्रीजिनन्द्रगणित्संग्रहणीने विषे.
॥ तथाच तत्पाठः ॥ मिथ्यादृष्टिलक्षणमाह ॥ पयमक्खरंपिएगं जोनरोचेइसुत्तनिद्दिधं सेसंरोयतोविहु मिच्छदिठीमुव्वो ॥ व्याख्या ॥ सूत्रनिर्दिष्टमेकमपि पदमकरं वा यो न रोचयति न स्वचेतसि सत्यमेतदिति परिए - मयति स शेषं सकलमपि द्वादशांगार्थमनिरोचयमानोपि मिथ्यादृष्टिर्ज्ञातव्यः तस्य जगवति जगद्गुरौ प्रत्ययनाशात् । अथ किं तत्सूत्रं यद्गतस्य पदस्यावरस्य चैकस्याप्यरोचनान्मिथ्यादृष्टिर्भवतीति सूत्रस्वरूपमाह.
सुत्तंग हररइयं तहेवपत्तेयबुद्धरइयंच सुयकेवलि - पारइयं निन्नदसपुव्विणारइयं १ ॥ यद्गाधरैः सुधर्मस्वामिप्रनृतिनिर्विरचितं यच्च प्रत्येक बुद्धैर्यच्च श्रुतकेबलिना चतुर्दशपूर्वधारिणा यच्चानिन्नदशपूर्वेण परिपूर्णदशपूर्वधारिणा विरचितं तदेतत्सर्वं सूत्रमिति ॥
नावार्थ : - मिथ्यादृष्टिनां लक्षण कहे ॥ सूत्रमां देखा मेलु एकपल पद अथवा अक्षर उपलक्षणथी पदनो अर्थ सर्व जेसूत्रमां कह्युं ते पद र अर्थ साचोबे
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परिच्छेदः १ एहवो पोताना चित्तमें न परिणमे ने बीजो समस्तपण द्वादशांगनोअर्थ रोचकमान सत्य मानतोथको पण मिथ्यादृष्टि जाणवो. तेने नगवंत जगद्गुरुनपर, प्रतीतिना नाशपणाथकी. हवे कीयुं ते सूत्र! जेमा रहेलो पद तथा अदर एकनो पण अरोचकपणाथी मिथ्यादृष्टि होय तेसूत्रनुं स्वरूप कहेले ॥ ___ जे गणधर सुधर्मस्वामिप्रमुख एटले सुधर्मस्वामी जंबूस्वामी प्रनवादि गणधरदेव, रचलुं हुवे ते सिद्धांत जाणवं. अने जो प्रत्येकबुद्ध एटले प्रत्ययदेखी बोध पाम्या. नमि करकंमु प्रमुख तेउनां रचेला हुवे ते पण सूत्र कहीए. वली जे श्रुतकेवली एटले चनदपूर्वधर तेउनु रचेनुं पण सूत्रकहीए. अने वली अनिन्नदशपूर्वे करीने, एटले पूरां, अधुरांनही एहवां संपूर्णदशपूर्वधरनां रचेला ते सर्वे सूत्र जाणवां ॥ एटले एनाव, जे सूत्र १ नियुक्ति २ नाष्य ३ चूर्णी ४ टीका एपांचअंग गणधरादिकोनां करेलां,जे प्राणीयो यथार्थपणे न सहहे तो ते प्राणीयोने मिथ्यादृष्टि जिनाझा बाहिर सूत्रागम अर्थागम तदुनयागमना प्रत्यनीक. अनंतसंसारी समझवा ॥
प्रश्नः-नपरलख्याप्रमाणे तो गणधर प्रत्येकबुद्ध
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २५ चौदपूर्वधर संपूर्णदशपूर्वधर, एनी करेली पंचांगी मानवी सिघ थइ, तो वर्तमानकालमां पंचांगीडे तेतो गणधरादि दशपूर्वधरकृत नथी तेने केम मानोडो?
उत्तर-हेलव्य श्रीनंदिसूत्रमा स्वामिसंबंध चिंतननाधिकारे श्रीगणधरादिक चौदपूर्वधर पश्चानुपूर्वीए यावत् दशपूर्वधरसूधी, नियमथी निश्चयसम्यक्त्वदृष्टि कह्याने. तेवारपडी संपूर्णदशपूर्वधरथी पश्चानुपूर्वीए निनदशपूर्वधरने निश्चेसम्यग्दृष्टि नजनाए कह्याले. पण व्यवहारसम्यक्त्वनी नजना कही नथी. तेथी जिन्नदशपूर्वधरथी यावत् एकपूर्वधरसूधी निश्चयसम्यक्त्वआश्री तो नजना पण व्यवहारसम्यक्त्व आश्री नियमा सम्यग्दृष्टि कहीए.केमके पूर्वनुझान व्यवहारसम्यक्त्वविना होय नही. ते पनी व्यवहारसम्यक्त्वनी पण नजना अने निश्चयसम्यक्त्वनी पण नजना जाणवी.सम्यक्त्वपरिक्षानामा ग्रंथने विषे तेजम कडंडे जे दशपूर्वधरसूधी तो निश्चयसम्यक्त्व जाणवं. तेवारेपडीतो निश्चयसम्यक्त्वनी नजना जाणवी. एटले घणा पूर्वधारीजीवोनेतो निश्चयसम्यक्त होय. कोइपूर्वधारीने निश्चयथकी सम्यक्तनहोय तोपण व्यवहारथकी जिहां सूधी सम्यक्त्वहोय तिहांसूधी तेहना
क्रियानुष्ठानादिक शुनव्यवहार देखीने
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परिच्छेदः १
बीजाजीव प्रमाण करे. तथा सत्कारादिक करे ते सफलज जाणवुं. तेथी गणधरदेवकृत अंगप्रविष्ट मूलभूतसूत्र आचारांगादिद्वादशांग तेवंनो एकदेश अंगीकार करीने श्रुतस्थविरना रचेला उत्तराध्ययनादि अनंगप्रविष्ट सूत्र सर्व सम्यक् श्रुत जाणवां तेमज श्रुतस्थिवरोनां करेला वृत्तिचूर्ण्यादि व्याख्यान पण सम्यक् श्रुत सदहवां तथा निन्नदशपूर्वधरपश्चानुपूर्वीए यावत् एकपूर्वधरनां रचेलां पण, गणधरादिकतना अनुयायिपणाथी सम्यक् श्रुतपणेज धारणकरवां. तेमज पढी पूर्वधरकृतना अनुयायि गीतार्थोनां रचेला पण, पूर्वधरवत् सम्यक् श्रुत समजवां.
·
तथा चोक्तं श्रीशांतिसूरिकृत धर्मरत्नप्रकरणवृत्तौ ॥ तत्पाठः ॥ सुत्तं गएहिररइयं तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च सुयकेवलिया रइयं निन्नदशपूव्विणा रइयं । इत्येषां च निश्वयसम्यग्दृष्टित्वेन सद्भूतार्थवादित्वादन्यग्रथितमपि तदनुयायि प्रमाणमेव न पुनः शेषमिति ॥
अर्थ:-सूत्रसिद्धांत ते कहीएं जे, गएाधरदेवनुं रचेतुं होय ते सिद्धांत जावं. तथा वली नमि करकंमु प्रमुख प्रत्येकबुद्धनु रच्युं होय ते सूत्र कहीएं, श्रुतकेवली चौद पूर्वधर तेहनुं रच्युं पण सूत्र, सिद्धांत जावं. अथवा यन्नि, पूरा अधूरा नही, दशपूर्व नण्यो तेहनुं रच्युं पण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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सूत्र, सिद्धांत कहीएं. एवंने निश्वयसम्यग्दृष्टिपणे करीने यथार्थवक्तापणाथी तेने अनुयायी अर्थात् गणधरादि संपूर्णदशपूर्वधरनां रचेलां सिद्धांतोने मुसारे बीजाघोनां गुंथेलां अर्थात् रचेलां पण प्रमाणज होय न पूनः शेषं एटले ते पूर्वोक्त पूर्वधरोने अनुयायी ग्रंथरचना न होय तो प्रमाण न थाय इतितत्त्वम् ॥
उपरनख्यानुं तात्पर्य एबे के गणधरकृत द्वादशांगीने अनुसारे श्रुतस्थिवर चौदपूर्वधर रचे. चौदपूर्वधरने - नुसारे दशपूर्वघर रचे. दशपूर्वधरने अनुयायि यावत् एक पूर्वधर, सूत्र अर्थ पंचांगी रचे. ते पूर्वधरोने अनुसारे, बहुश्रुत सर्व गीतार्थोनां रचेलां वृत्त्यादिव्याख्यान पण सम्यक् श्रुतपणे सम्यग्दृष्टियोने अंगीकारकरवा जोग्य डे. तथा वर्तमानकालमां जे सूत्रोनी पंचांगीडे ते पूर्व पंचांगीने अनुसारे वर्त्ते. कारण के ठामश्वर्त्तमानवृत्त्यादिकमां लखेडे के, पूर्ववृत्त्यादिकअनुसारे हुं वृत्ति करु. अथवा श्रावश्यकवृत्त्यादिक में श्रीहरिनद्राचार्यप्रमुख लखेडे के, एषावि हि मूलटीकाकारेण नलिया । इत्यादिकवचनोथी पूर्वपंचांगीने अनुयायि वर्त्तमानसूत्रोनी पंचांगीठे तेने पूर्वपंचांगीतुल्य सर्वगीतार्थ प्रमाण करता श्राव्या. तथाहि तेमज अतीत वर्त्तमानकालनिकटवर्त्ति
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२०
परिच्छेदः १ न्यायाचार्य उपाध्याय श्रीयशोविजयजी पण हुंमिना स्तवनमें पूर्वोक्तलेखप्रमाणे पंचांगीनी स्थापना करे ॥ - ॥ते पाठ ॥ सूत्रअर्थपहिलोबीजोकह्यो निजुत्तिए रेमीस निरविशेषत्रीजोअंगपंचमे एमकहेतुं जगदीस स० ॥१६॥
अर्थः-सूत्रअर्थपहिलो के० प्रथमसूत्रार्थ आपे. एटले गुरू, शिष्यने जेवारे अर्थापे तेवारे प्रथमथी शब्दार्थमात्र आपे. तेहमीरीते आवम्यापली, बीजोकहे. निजुत्तीएमीस क० बीजीवार तेजसूत्रने नियुक्तिसहित ने निदेपासहित व्याख्यानकरी शीखवे. निरवशेष त्री. जो क० त्रीजीवार अर्थ आवमया पढ़ी त्रिजो समस्त कहे. एटले त्रिजीवार संगे प्रसंगे दृष्टांत, हेतु, नय, प्रमुख सर्व कहे. एटले नाष्यटीका चूर्णी, ए त्रीजी व्याख्यामां समाणां. एसूत्र नियुक्तिप्रमुख पंचांगी मांनवी देखामी अंगपंचमे क० श्रीनगवती सूत्रमध्ये एम कहे तुं जगदीसक० हेजगदीश एम तुं कहेजे ॥ १६॥ एमपंचांगीनी स्थापनाकरीने एपूर्वोक्त पंचांगी माने ते. नेज प्रथमगाथाए शुद्धसमकिती कह्याडे.
॥तेपातः ॥ समकितसू●रेतेहनेजागीए जेमाने तूज आण सूत्रतेवांचेरेयोगवहीकरी करेपंचांगांप्रमाणास०१॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ए अर्थः--तेप्राणीने शुद्धसमकित जाणीए, जे तमारी आज्ञा माने. ते माझा बतावे. जे प्राणी योगवहीने सूत्र वांचे. तथा पंचांगी प्रमाण करे. एटले सूत्र निर्यु क्तिनाष्यटीका अने चूर्णी एमां जे काडे ते सर्व सत्य करी माने ॥१॥ वली साहरराज तथा देवराजना प्र. श्रोत्तर कागलमां पण श्रीयशोविजयगणिनपाध्यायजीए कागलथी प्रश्नोत्तरदीधा. तेमां पण, पंचांगीज मानवी लखीजे. तेअदर इहां टांकीएडीए। हवणां बिनपसंधानन्याये देवगिणीचमाश्रमण वाचनानुगतपंचांगी शुद्ध आलंबतां किसी न्यूनता नथी. एवीरीते उपर लिख्या प्रमाणे आजसूधी सर्वगीतार्थ, सूत्रपंचांगी मानता आव्या. तेमज अमोपण मानीए बीए. अने ए पूर्वोक्त पंचांगी सूत्र अर्थ उनय रूप आगमले. तेथी ए पंचांगीमां कहेला आचारने आचरवु तथा सदहवं तेने आगमाचरणाकहीए. ते श्रागमाचरणाने जे कोइ हतग्राही, अनंतसंसारी मिथ्यादृष्ठि दुर्लनबोधी जीव, न माने तो तेने जैनसंप्रदायवाला पुरुषो जैनी केम करी कहेशे अर्थात् नज कहे. अनेजो कदाच पोताना मुखथी जैनीनाम धराव्यो तोशं ते जैनी बनीगयो - र्थात् ते जैनी नथी. केमके, श्रीवीतरागनावचन उपर श्रदाहोवाथीज जैनी थइसके. अन्यथा न थईसके.
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परिच्छेदः १ ॥ इतिप्रश्नोत्तरबागमोक्ताचरणानिगमनम् ॥
॥ इति चतुर्थस्तुतिनिर्णये शंकोद्धारे अपरनानि चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयच्छेदनकुठारे प्रश्नोत्तरआगमोक्ताचरणानिदर्शनो नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥
॥जिज्ञासुप्रश्न॥तुमो व्यवहार कल्प आचरणा जीत, एकार्थआश्री आगमोक्तयाचारमा वर्तवू तेने आगमाचरणा कहोबो पण श्रीजगवतीजीमां पांचव्यवहारकह्याले. तेमांधी हमणां एक जीतव्यवहारज वर्तेले. केमके, श्रीमद्यशोविजयनपाध्यायजीए श्रीसीमधरस्वामिनी विनतिरूपस्तवननी चनदमीढालनी ७ मी गाथाए कयुंजेके,
व्यवहारपांचेनाषीया अनुक्रमेजेहप्रधान आजतोतेमांजीत तेतजीएहोकेमविगरनिदानासा०७॥
एगाथाना अनिप्रायथी तो आजकालें पांचमो जीतव्यवहारज वर्तेडे तो आगम श्रुतश् आझा३ धारपाच एच्यारव्यवहार किहांथी होय !! तो तमो, बीजा व्यवहार आजना कालमां श्या आधारथी मानोडो? तथापंचांगीप्रमाणकरोडो तेम पंचांगीकारना करेला ग्रंथ प्रकरण प्रमाणकरोडो के नथी करता?
उत्तर-हेजिज्ञासो तमारांकरेला बे प्रश्ननो उत्तर
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
यमो साथेज पीएं बीएं.
३१
प्रथमतो याजनाकालमां एकलो जीतव्यवहारज वर्त्ते ए कहेतुं तो सर्वथा मिथ्या पण एक श्रागम व्यवहार विना बीजा व्यारव्यवहार तो खाजनाकालमां पण वर्त्ते. ॥ तथा चोक्तं श्रीसेनप्रभे ॥
॥ तत्पाठः ॥ तथागम १ श्रुता २ झा ३ धारणा ४ जीत ५ व्यवहारेष्वधुना कियंतो व्यवहारा वर्त्तत इति प्रभोत्रोत्तरम् श्रागमव्यवहारः सांप्रतं नास्त्येव श्रुतव्यवहारस्तु संपूर्ण नास्ति कियान्वर्त्तत इति श्रुतादीनां चतु व्यवहाराणां सांप्रतं विद्यमानत्वमवसीयते तत्रापि प्रायश्चित्तप्रदानं प्रायो जीतव्यवहारानुसारेण प्रवर्त्तत इति
अर्थः - श्रागम १ श्रुतश् प्राज्ञा३ धारणा४ जीत५ एपांचव्यवहारोने विषे हमणां केटला व्यवहार वर्त्तेबे ?
एनो उत्तर श्रीसेनसूरिजी कहेबे के, यागमव्यवहार तो संप्रति वर्तमानकालमां नथीज. वली श्रुत व्यवहार संपूर्ण नथी, पण केटलोक वतेंडे. तेथी श्रुतादिक व्यारव्यवहारोनुं हमणां विद्यमानपणु जलायडे. तिहां पण प्रायश्चित्तनुं देवं ते बहुलताप्रकारे जीतव्यवहारने अनुसारे प्रवर्ते ॥ इहां ए अभिप्रायले के, खातोयणाप्रायश्चित्तत्र्यधिकारमां जीतव्यवहारनुं मुख्य
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परिच्छेदः । पणुंडे तेथीज श्रीमद्यशोविजयनपाध्यायजीएं पण, एज अनिप्रायथी आजना कालमांजीतव्यवहारने मुख्य कह्योडे. अन्यथा श्रीसेनसूरिजी अने उपाध्यायजीना वचनमां विरोधपणु थाय माटे पूर्वाचार्योनां अविरोधी वचनने आधारे अमो पण वर्तमानकालमा च्यारव्यवहार मानीएं बीएं ॥ इतिजिज्ञासुप्रथमप्रश्नोत्तरम् ॥
अथ बीजो प्रश्न ग्रंथमानवानो, तेमां श्रुतधर बहुश्रुतगणिवाचकादिशब्दानिधेयास्तथा पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च विनेयान्वाचयंतीति वाचकाः पुनः॥ वादीयखमासमणे दिवायरवायगित्तिएगठा, पुव्वगयंमिनसुत्ते एएसदापयति ॥१॥ इत्यादिक्रमेण श्रीवहत्कल्पनाष्य नंदिवृत्ति कथावल्यादिग्रथाक्तचिह्नापलादताःपूर्वधरा झेयाः॥
भावार्थः-श्रुतधर? बहुश्रुत गणि३ वाचक इ. त्यादिशब्दे उपलदित एटले ए शब्दोएकरी ननखातां के नाम जेनां ते, अथवा शिष्योने पूर्वगतसूत्र प्रते तथा बीजां पण शास्त्र वंचावे ते वाचक. वली वादी १ खमासमण २ दिवाकर ३ वाचक ४ ए एकार्थनाम पूर्वगत गीतार्थोना रचेला सूत्रादिकमां प्रवर्ते ॥१॥ एटले एपूर्वोक्तशब्दानुक्रमे श्रीबृहत्कल्पनाष्य नंद्यादिवृत्ति कथावलियादि पंचांगीग्रंथोमां कह्या, चिहकरीनुलखाव्या
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ३३ ते.पूर्वधरजाणवा ते पूर्वोक्तचिह्नयुक्त श्रीनमास्वातिवाचक कृत श्रावकप्राप्ति, प्रशमरति, तत्त्वार्थादिक ५०० प्र. करणग्रंथ, तथापूर्वगतधारि संघदासवाचकळंत वसुदेव हिंम पंचकल्पप्रमुख, श्रीजिननद्रगणिक्षमाश्रमणकृत जीतकल्प क्षेत्रसमास संग्रहणि विशेषणवती महानाष्य विशेषावश्यकादि. वली पूर्वगतयोनिप्रानृतादि. दर्शनशास्त्र द्रव्यानुयोगरूप संमत्यादि श्रीसिद्धसेनदिवाकरमल्लवादिप्रमुखकत. इत्यादि यावत् श्रीदेवर्दिछमाश्रमणनां रचलां श्रीनंदिप्रमुखसूत्र चूादि, जे जे पूर्वधरोनां करेला प्रकरणग्रंथादिक सर्व सम्यग्दृष्टियोने पं. चांगीमुजब मानवा योग्य. तथा वाचकवंशमां थएला आर्यनागहस्ति नंदिलपण प्रमुखना शिष्योना करेला संस्कृतशब्द व्याकरण प्रारुतशब्द व्याकरण कर्मप्रकृति शतकादि कर्मग्रंथ. अने वली पूर्वधरपंचांगीथनुयायि मूलपंचांगीना कर्त्ता पूर्वश्रुतव्यवच्छेदकालने अनंतर विक्रम संवत्सर ५८५ वर्षे देवंगत थएला कलिकालसर्वज्ञ श्रीहरिनद्राचार्यना करेला धर्मसंहग्रणि अनेकांतजय पताका पंचवस्तुक उपदेशपद लगशुद्धि लोकतत्त्वनिर्णय योगबिंदु धर्मबिंदु पंचाशक पोमशक अष्टक इत्यादिक १४०० प्रकरणमाहेला जे वर्तमानकाले होय तेपण स. म्यग्दृष्टियोने यथार्थपणे प्रमाणकरवा. केमके वर्तमान
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परिच्छेदः । पंचांगानाकर्ता । श्रीअनयदेवाचार्यप्रमुख तथा अन्याचार्योए श्रीपंचाशकवृत्त्यादिकमां श्रीहरिनद्रसूरिने पूवंगत बहु ग्रंथ पारग गुरूत्तमपणे कह्याने.
॥तेपातः॥वृद्धव्याख्यानुसारेण वृत्तिवक्ष्ये समासतः पंचाशकाहुशास्त्रस्य धर्मशास्त्रशिरोमणेः ॥१॥ इहहि विस्फुरनिखिलातिशयतेजोधामनि दुःखमाकालविपुल जलपटलावलुप्यमानमहिमनि नितरामनुपलक्ष्यीजूत पूर्वगतादिबहुतमग्रंथसार्थतारतारकानिकरे पारगगदिता. गमांबरे पटुतमबोधलोचनस्तथा सुगृहीतनामधेयो न. गवान्, श्रीहरिनद्रसूरिस्तथाविधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थिनामपटुदृष्टीनामुन्नमितजिज्ञासाबुद्धिकंधराणामेदंयुगीनमानवानात्मनोपलक्ष्यमाणान् विवदितार्थसार्थसाधनसमर्थान्, कतिपयप्रवचनार्थतारतारकविशेषानुपदिदर्शयिषुः पंचाशद्गाथापरिमाणतया पंचाशकानिधानानि प्रकरपानि चिकीर्षुरित्यादि पंचाशकवृत्तौ नवांगतिकारश्रीबनयदेवसूरयः । सूर्यप्रकाश्यं क नु ममलं दिवः खयोतकः कास्य विनासनोद्यमी कधीशगम्यंहरिनद्रसद्वचः क्वाधीरहं तत्र विनावनोयतः ॥अष्टकवृत्तौ ॥ तभाषावाचि प्रकरणचतुर्दशशतीसममुतुंगप्रासादपरंपरा सूत्रणेकसूत्रधारैरंगाधवारिधिनिमजजंतुजातसमुचारण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः प्रवहणप्रधानधर्म्मप्रवहणप्रवर्त्तनकर्णधारैर्भगवतीर्थकरप्रवचनावितथतत्त्वप्रबोधप्रसूतप्रवरप्रज्ञाप्रकाशतिरस्कृतस
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मस्ततीर्थिकचक्रप्रवादप्रचारैः प्रस्तुतनिरतिशयस्याद्वादविचारैः श्रीहरिन्द्रसूरिभिः ॥
॥ पाठां श्रीश्रनयदेवसूरी श्रीजिनेश्वरसूरी प्रमुख याचार्योंए, नगवान् हरिभद्रसूरीने पूर्वगतग्रंथांना जाण कह्या. तेथी पूर्वधरवत् एनां वचन पण पूर्वगीतार्थ जेम प्रमाण करता याव्या, तेम प्रमोषण प्रमाण करीए बीए. तेमज मूलपंचांगीकारना वचनने अनुसारे वर्तमानपंचांगीकारनां करेलां प्रकरण ग्रंथादिक तथा य न्यखाचार्यांना करेला प्रकरणादिक पण सिद्धांतपंचांगीने अनुसारे सर्व प्रमाण करीए बीए. इहां कोइ कहेश्ये के पंचांगीने अनुसारे प्रकरणादिक मानवां किहाँ कह्यांबे ॥
उत्तरः- श्रीयशोविजयनपाध्यायजीकृत श्रीसीमंधरस्वामीनी विनति रूप साढात्रण सोगाथाना स्तवननी नवमीढालनी पांचमीगाथामां. यादिशब्दथी अर्थकारे पंचांगानुसारे प्रकरणचरित्रादिक मानवां कह्यांडे ॥
॥ तेपाठः ॥ वृत्त्यादिका एणमानता सूत्रविराधेदीन जि० सूत्ररथतदुनयथकी प्रत्यनीककह्या तीन जि० तुज ०।५। अर्थः- वलीवृत्त्यादिकके० वृत्तिचूर्णीनापने श्र
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परिच्छेदः ५ नुसारे प्रकरणचरित्रादिकने अणमानताथका तेदीन के. नावदयाकरवायोग्य सूत्रनेजविराधेले. सूत्रनीज थाशातनाकरे. ॥ श्रीसमवायांगसूत्रे॥ तथा नंदिसूत्रे कडं
॥श्रायरेणं परित्ता वायणा संखिजा अणुनगदारा संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेजान निजुत्तीयो संखेजाथो पमिवत्तीयो संखेजायो संघरणीयो इत्या. दिक कह्यांडे. तेमाने नहि तेवारे सूत्रने विराधेजडे. वली १ सूत्रप्रत्यनीक २ अर्थप्रत्यनीक ३ तदुनयप्रत्यनीक । ए श्रीगणांगसूत्रेकह्याडे॥ यतः॥सुयं पमुच्च तनु पमिणीया प०२० सुत्तपमिपीए अत्थपमिणीए तदुनयपमिपीए ए त्रिजागंणाने चोथे उद्देशे कह्युजे. एमज जगवतीसूत्रना थाउमा शतकना पाठमा उद्देशमां कांडे. तो अर्थप्रत्यनीक ते नियुक्त्यादिक जे नथीमानता, तेने कहीये. ते शिवाय अर्थप्रत्यनीक तथा तदुनयप्रत्यनीक ते बीजाकोने कहीये ते बतावो ॥५॥ एमजपूर्वाचार्योना ग्रंथोमां पण घणे ठेकाणे लेख तेमज पूर्वोक्तवचनानुसारे सिद्धांतपंचांगीयनुयायि, सर्वगीतार्थोनां करेला, प्रकरण चरित्रादिक, सर्वगीतार्थ, मानतााव्या तेम अमोपण मानिएडीए ॥ इतिजिज्ञासुद्वितीयप्रश्नोत्तरम् ॥
समीक्षकप्रश्नः-तुमोतो सिद्धांतपंचांगीने अनुसारे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ३७ श्रन्यप्रकरणादिक सर्वमानोडो पण श्रात्मारामजीथा. नंदविजयजी चतुर्थस्तुतिनिणर्यना १४एमापृष्टमां *राजेंद्रसूरिजीअरु धनविजयजी सिद्धांतोकी पंचांगी मा. नतेहे परंतु अन्यप्रकर्णादि कुबनी नहीमानतेहे* एवं जूतं लखेजे तो तेने स्युं संसारसमुद्रमा बमवानो नय नथी? तेथी समजु थइने अणसमजू जेवा बनीने सत्यार्थमानवावालाग्ने पण असत्य कलंकदेइ पोतानी महत्ता जगावे!!! तेकांइयात्मारामजीन यात्माराम पणुंनासनथतुं नथी.
उत्तर-हेसुज्ञ समीदको तमोतो जगत्नाजीवोने कर्मवाधीन जाणीने बीजायोना दूषणग्रहणकरता नथी. पण जेजीव, पोतानांदूषण देखेडे. तेवंने रूमा जाणोडो. तथापि जेम गधेमो पारकाक्षेत्रमा द्राखना मांमवानो बिगामकरतो देखी, सजनन हृदय दूखे तेम उत्तमपुरुषोने पण, असत्यनाषणकरवावाला उपर अरज आवेज, तेथी हेसमीक्षको तुमोपण आत्मारामजी थानंदविजयजीना असत लखाण उपर तुमारां पूर्वोक्तवचन हितशिक्षा रूपले. पण ते हितशिक्षावचन तो, जेहनो उत्तम आत्मारामहोय तेने हितकारि थाय. परंतु या जगतमां कर्मोनी विचित्रगति ते शास्त्रमा पण संनलायडे के ॥ कम्माण विचित्तां गइ॥ तेवास्ते तुमारी
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परिच्छेदः । हितशिक्षा धारवी तो वेगली रहो पण जेहनो थात्माराम मत्सूत्ररूप विष्टाथी नरेलो होय तेहने यथार्थनापणरूप जलवते नावं ते तो घणं दुर्लन डे पण, सत्यनापणथी मुखशुद्धकरवु पण मुसकिलले. तेकारण शास्त्रोमें कझुंडे के नव्यप्राणायोने पोताना आत्मारामने उत्सत्र असत्यनाषणथी विशेषे बचाववो एहवी शास्त्रोक्त हित शिक्षा जाणतां बतां पण, जेप्राणी पोताना श्रात्मारामनी पूजा मानता आनंद विजय इत्यादिकना लानने अर्थे रूढलोक पासत्थादिकनी अनुवृत्तिए उत्सूत्रनाषण करे तेने मूलशुद्विप्रकरणमा श्रीप्रद्युम्नसूरिए दुर्लनबोधी कह्या. तथा श्रीवावश्यकनाष्यमां ते असत्यनाषीनु मुखदेख पण संसारद्धिनु कारण कयुंजे.
॥ तथाच तत्पाठः ॥ परिवारपूयहे पासत्याणं च आणुवित्तिए जो न कहेइ विशुद्धं तं दुल्लहबोहियं जाण ॥१॥श्रावश्यकनाष्यपि ॥ जे जिगवयगुतिन्ने वयणं नासंति जेठ मन्नंति सम्मदिहीणं तहसणंपि संसारबुद्धि करंति ॥१॥
एपाठमां पोतानो परिवार वधारवाने अर्थे तथा लोकोमें पोतानी पूजामानतावधारवानेयर्थे पासत्थानि अनुरत्तिएं जे प्राणी जिनप्ररूपित शुद्ध न प्ररूपे. एटले
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः सिद्धांतपंचांगीप्रमाणे यथार्थमार्ग न कहे ते प्राणीयोने दुर्लनबोधी जाणवा. तेमज आवश्यकनाष्यमांपण, कपुंडे.जेजिनवचन, जाणीने असत्यनाषणकरे ते जीवनु, दर्शन एटले समदृष्टियोने तेनु मुखदेख, पण, संसार वृद्धिनु कारण थाय, इत्यादिक नानाप्रकारना पूर्वोक्त ग्रंथ जेप्राणीएं देख्या होय तथा ते ग्रंथोनी श्रद्धा होय तो तेप्राणी एहवां असत्यलखाण न करे. पण जे, मु. खथी तो कहे अमे पूर्वाचार्योना वचन सर्व मानीएं बीएं पण कोइ कहेवावालो मले के, पिलाकपमा धारणकरवा तथा सामायिक प्रतिक्रमणमां कारणविना चतुर्थस्तुति देववंदनमां कहेवी वली सामायिक उच्चार विना श्रावकने प्रथम ईरियावही करवानो उपदेश करवो. इत्यादिक किया आचार्यना लेखथी करोडो? त्यारे प्रथमतो बलकरीने ग्रंथोना कारणिक पाव देखामीने पो. तानो मत दृढकरी नोलाजीवोने जरमावे. कदाच ते उलनो अवकास न मले तो कहे, एमां पूर्वाचार्योना शुं लेख देखवा ले. एतो अमो अमारी गुरुपरंपराथी करीएं बीएं.एमवकपोलकल्पित मतस्थापनकरे. तेप्राणी अस. त्यनाषणकरी, वीजागंने कलंकरूप असत्य लखाणकरे, तेमांशुंबाश्चर्यजे. तेवास्तेहेसमीदो जगत्मां सर्वजीव कर्मने बशजे. जेम कर्म नचावे तेम नाचेने, तेथी था.
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परिच्छेदः २
पणे बीजाना दूषण लेवाथी श्यं प्रयोजन. यापले तो आपणा श्रात्मारामना दूषण वेगलाकरी, सिद्धांतपंचांगानुसारे, पूर्वाचार्यांना वचनप्रमाणे, यथार्थ नाषण करवुं एज श्रेय ॥ । इतिप्रसंगप्राप्तसमीक्षप्रश्नोत्तरम् ॥
इति चतुर्थस्तुतिनिर्णये शंकोद्धारे अपरनाम्नि चतुर्थ स्तुतिकुयुक्तिनिर्णयच्छेदन कुठारे प्रसंग प्राप्त जिज्ञासु तथा समीक्षक प्रश्नोत्तरनिदर्शनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः॥२॥
हवे गच्छपरंपराचरणानु किंचित् स्वरूप लिखीएं बीएं. तिहां गच्ठपरंपरा बेप्रकारनी, एकनावगच्छपरंपरा बीजी द्रव्यगच्छ परंपरा. तिहां प्रथमनावगच्ठपरंपरानुं स्वरूप. श्रीमहानिशीथमां कह्युंबे,
॥ तेपाठ ॥ तीचरणं ताव तियर तित्थे पुरा चावन्ने समसंघे सेणं गच्छे सुपइट्ठिए गच्छेसु पिणं सम्मदंसण नाणचारिते पइहिए तेय सम्मदंसणनाए चरिते परमपुजाएं पुज्जयरे परम सरन्नाणं सरन्ने परम सञ्चाi सच्चयरे ताइंच जत्थां गते ॥ ॥ तत्रैव पुनः पाठः ॥ जत्थय उसनादिणं तित्थयराणं सुरंदमहियाणं कम विष्पमुक्काणं खाणं न खिलीजइ स गच्छो तित्थ करे तित्थयरे तित्थंपुण जाणे गोयमा संघ संघे ठिए गच्छतिए नाणदंसणचरिते ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ४१ ॥नाषा॥ तीर्थकरतो प्रथम तीर्थना करणहार, तीर्थ वली चतुर्विधश्रमण संघ, साधु १ साध्वी २ श्रावक ३ श्राविका ४ जेगलनेविषे प्रतिष्ठित तेगच्न, गच्चनेविषे वली, सम्यग्दर्शन १ ज्ञान २ चारित्रप्रतिष्ठित ते गच्छ ते सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र, परमपूज्य ने पण पूजनीक बे. तथा परम शरण्यने पण शरण करवायोग्य. परम सत्यवंताने अतिशे सत्य ते ज्ञानादिकनी उत्कृष्ट सेवनाडे जे गच्चने विषे तेने गढ़ कहीए. तथा जिहां वली देवताना इंद्रने पूजनीक वली जे आवकर्मथी मुकाणा एवा ऋषनदेवश्रादेदेइने चोवीस तीर्थकरनी थाणा खंमन नकरे तेने गच्च कहीए. तथा पूर्वोक्त च्यारतीर्थना करणहारने तीर्थकरकहीए. तीर्थ. वली जाणो हेगौतम चतुर्विधसंघ. ते चतुर्विधसंघनेविषे गच्छ स्थित कहीए. गच्छते झानदर्शनचारित्रे स्थित कहीए. तेगच्छनीपरंपराए वर्तवं ते नावगच्छपरंपरा कहीए. तेमज नवांगत्तिकारक श्रीमदनयदेवाचार्ये नावतीर्थनी आदिनूत परंपरा श्रीयागमअठोत्तरीमा देखामी॥
॥ तेपात ॥ सिरिवःक्ष्माणपढे गोयमसामीय पढमपटधरो तप्पहे सोहम्मो परंपरातित्थनाविल्लो ॥४॥
॥ व्याख्या ॥ श्रीवर्द्धमानस्वामि पढे श्रीगौतस्वामि
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परिच्छेदः ३ नामा प्रथमपट्टधरः बनूव श्रीगीतमस्वामि पट्टे सुधर्म स्वामी परंपरानावतीर्थस्यादिनूतः॥
नाषा ॥ ज्ञानादिलक्ष्मीवंत वर्धमान स्वामीने पाटे गौतमस्वामी नामा प्रथमपट्टधर ते गौतमस्वामीने पाटे सुधर्मास्वामी नावपरंपरातीर्थना आदिभूत थताहवा ॥४॥हवे जावपरंपरायो लखावे॥
॥गाथा ॥ अद्यत्ता जे समणा ते सव्वे असहमसीसायो नावपरंपरतित्थं वदृइ सव्वंपि तम्हायो॥५॥
व्याख्या॥ अद्य प्रभृति ये श्रमणाः साधवः प्रवनैते ते सर्वे आर्यसुधर्मस्वामिशिष्यप्रशिष्यरूपा नावपरंपरातीर्थ प्रवर्तते सर्वमपि तस्मात् ॥ ५॥
॥नापा ॥ सर्व पण जे सुधर्मास्वामीथकी हमणां जे साधु प्रवर्तेने ते सर्वे आर्यसुधर्मास्वामीना शिष्यप्रशिष्यरूप, एटले शिष्यना शिष्य जावपरंपरतीर्थडे. ते प्रवले. एटले पंचांगीप्रमाणे शुभसामाचारिना प्रवत्ता. वनारा निष्कपटी निरहंकारी मूलोत्तरगुणना खपना करणहार, ते सर्वे जे हमणां वर्ते, ते सुधर्मगच्चीय साधु जाणवा. एहवें ॥ दशाश्रुतस्कंधना पाठमा अध्ययनमध्ये कयुंजे ॥
तेपात ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समयस्स
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५ नगवथो महावीरस्स नवगणा इक्कारसगाहरा होत्यार से केणठेणं नंते एवं वुञ्चति समयस्सणं नगवथोमहावीररस नवगणा इक्कारसगणहरा होत्था समयस्स जगवयो महावीरस्स जिछे इंदनूइयणगारे गोयमस्स गोत्तेणं पंचसमसयाईवाएइ. मसिमए अग्गिनूइअणगारे गोयमस्सगोत्तेणं पंचसमसयाई वाएइ. कएीयसे अणगारे वाचनई गोयमस्सगोत्तेणं पंचसमसयाई वा. एइ. थेरे अब वियत्ते जारहायगोनेणं पंचसमसयाई वाएइ. थेरे अऊसुहम्मे अग्गिवेसायणगोनेणं पंचसमएसयाई वाएइ. थेरे मंमियपुत्ते वासिष्ठस्सगोत्तेणं अछुघाई समणसयाइं वाएइ. थेरे मोरियपुत्ते कासवगोनेणं अछाई समसयाई वाएइ. थेरे अकंपिए गोयमस्सगोत्तेणं थेरे अयलनाया हारियायणगोत्तेणं ते दुन्निवि थेरा तिनि २ समणसयाइं वाइंति. थेरे मेयके थेरे बऊप्पनासे दुन्निवि थेरा कोमिन्ना गोत्तेणं तिनिश समएसयाइं वाइंति. सेतेणठणं अजो एवं वुञ्चति समणस्स नगवयोमहावीरस्स नवगणा इक्कारसगणहरा होना ३ सव्वेएए समस्स जगवओ महावीरस्स इक्कारस गणहरा दुवालसंगिणो चरहसपुग्विणो सम्मतगणिपिमगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं नत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुखप्पहीणा थेरे इंदभूई थेरे अद्यसुह
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gy
परिच्छेदः ३
म्मे सिडिंगए महावीरे पच्छा दुन्निवि थेरा परिनिव्वुया जे इमे द्यत्ताए समला निग्गंधा विहरंति एएवं सव्वे अद्यसुहम्मस्स अणगारस्स श्रावच्चिद्या यवसेसा गएहरा निरवच्चा बुन्ना ॥ ४ ॥
॥ व्याख्या ॥ तेांकालेलं इत्यादितो हुत्यत्तिपर्यंतं सुगमं १ सेकेणामित्यादितो होत्यत्ति यावत् तत्र से केति हे जदंत तत्केन प्रर्थेन यत् श्रीवीरस्य नवगणा एकादशगणधरा इति अन्येषां तु जावइया जस्स गणा तावइया गहरा तस्स इति प्रसिद्धत्वात् । इति शिष्येण प्रश्ने कृते श्राचार्य याह २ समणस्सेत्यादित इक्कारसगहरा होत्यत्तिपर्यंतं तत्र कपिताचलभ्रात्रोरेकैव वाचना जाता. एवं मेतार्य प्रजासयोरपीति युक्तमुक्तं नवगणा एकादशगणधरा इति । यस्मात् एकवाचनिको यतिसमुदायो गण इति, अत्र मंमिक मौर्यपुत्रयोरेकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपि निन्नगोत्रानिधानं पृथग्जनकापेक्षया तत्र मंमिकस्य पिता धनदेवो मौर्यपुत्रस्य तु मौर्य इति निषिद्धं च तत्र देशे एकस्मिन्पत्यौ मृते द्वितीयपतिवरणमिति वृद्धाः ३ सव्वे एए समणस्सेत्यादितो निरवच्चा वुच्छिन्नत्तिपर्यंतं । तत्र इंद्रभूत्यादयः सर्व्वेपि एते गणधरा द्वादशांगिनः श्राचारांगादिदृष्टिवादांतश्रुतवंतः स्वयं तत्तत्प्रणयनात् । चनद्दस पुव्विणोत्ति चतु
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
४५
ईशपूर्विणः द्वादशांगित्वे नक्ते चतुर्दशपूर्वित्वं श्रागतमेव तथापि पूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थ इदं विशेषणं, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्व प्रणयनात्, महाप्रमाणत्वात्, अनेकविद्यामंत्रमयत्वाच्च. अत एव सम्मत्तगणिपिमगधारगा इति गणी नावाचार्यस्तस्य पिटकमिव रत्नकरमंकमिव गणिपिटकं द्वादशांगं समस्तं यहणिपिटकं तस्य धारकाः राजगृहे नगरे प्रपानकेन मासिकेन जतेांति नत्तेन नक्तप्रत्याख्यानेन पादोपगमनानशनेन मोक्षं गताः तत्र नव गणधरा जगवति जीवत्येव सिन्हा इंद्रनृति सुधर्माण तु जगवति निर्वृत्ते निर्वृत्तौ । जेश्मे इत्यादि ये इमे अद्यत्ताति अद्यतनकाले श्रमणा निर्यथा विहरंति ते सर्वे जगवतः सुधर्मणः प्रावचिद्या इति प्रपत्यानि शिष्य संतानजा इत्यर्थः प्रवशेष गणधरा निरपत्याः शिष्यसंतान रहिताः सुधर्मस्वामिनि स्वस्वगणान्निसृज्य शिवं गताः ॥ ४ ॥
॥ नावार्थः ॥ तेकाल तेसमयने विषे श्रमणनगवंत श्रीमहावीरने नवग ने अग्यारगणधर होताहवा. सेशब्द ते प्रथशब्दार्थवाची एटले प्रश्नसूत्र कहे. हेजदंत पूज्य श्यामाटे ? श्रमणनगवंत श्रीमहावीरदेवना नव ग ने यार गण होताहवा. एम कहोठो ते, श्या प्रर्थे इहां प्रश्नकर्त्तानो एप्राशय बेके, जे सिद्धांते जेटलाग
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परिच्छेदः ३
४ ६
होय, तेटला गणधर होय ए वचनबे, अने श्रीमहावीरने नवगण ने प्रग्यारगणधर कह्या ते केम ? एहवं शिष्ये प्रश्नकरया ताँ प्राचार्य कहे. श्रमण भगवंतश्रीमहावीरने जेष्ठ सर्वमांहे मा इंद्रभूति नामा प्रागार ते. हनो गौतमगोत्र पांचों साधुने वाचना च्यापे १ मझिम ते वचल्योनाई अग्निभूतिनामा प्रागार, तेहनो पण गौतमगोत्र ते पांचशे शिष्यने वाचना च्यापे २ कणियसे कतां नाहना जाई वायुभूतिनामा अणगार गौतम गोत्रयंत तेपण पांचशें साधुने वाचना प्रापे ३ थिवर प्रर्य व्यक्तनामा नारद्वाजगोत्रीय पांचों श्रमाशिष्यने वाचना आ. ४ थिवर प्रार्य सुधर्मास्वामी अग्निवेश्यायनगोत्री पांचशें साधुने वाचना यापे. ५ थिवर ममित पुत्रनामा वासिष्ठगोत्री साढात्रणरों शिष्यने वाचनाचापे. ६ थिवर मौर्यपुत्र तेहनु काश्यपनामा गोत्र सादात्र
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रों शिष्यने वाचना प्रापे. ७ थिवर कंपित गौतम गोत्रवंत थिवर चलभ्रात हारितगोत्रवंत ए प्रत्येके २ ए बेथिवर त्रण २ शिष्यने वाचना यापे. थिवर तार्य १० ने थिवर प्रजास ११ एबे थिवरनो कौमि - न्यगोत्र ते पण त्रणरों २ श्रमाशिष्यने वाचना यापे ते कारण माटे हे प्रार्य एम कह्युंबे. श्रमणनगवंत श्री महावीरने नवग ग्यारगणधर होता हवा ३
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १४ एटले एकवाचनिकयातिसमुदाय ते गढ कहीए जेमाटे अकंपितथचलभ्रातनी एकवाचना, एममेतार्य प्रनासनी एकवाचना. तेमाटे नवगडकह्या. तथा मंमितमोरियपुत्र ने एकमाता पण गोत्रनिन्न कह्यं ते एटनामाटे जे, बेना पिता जुजुया. मंमितनो पिता धनदेव मोरिय पुत्रनो पिता मौर्यनामेडे. माताबेहुनी एकज विजयादेवी हती जेमाटे ते देशमा एकपतिमरण पाम्ये अ. वरपति करवानी प्राचरणा. एम वृक्षवचन ले. तेमाटे निन्नगोत्र कह्यां. ३ श्रमणलगवंतश्रीमहावीरना अग्यारगणधरो द्वादशांगरचणहार अने चौदपूर्वी तथा दा दशांगमां चौदपूर्व मायां तोपण चौदपूर्वी विशेषण निनकरघु ते पूर्वोतुं प्रधानपणु जपतववानप्रर्थे तथा चौद पूर्वीकृत सूत्र ते जिनसरीखां जाणवां. तथा द्वादशांगीनो विचिन्नकाल नथी अने पूर्वनो तीर्थे २ विल्लेदकालले तेमाटे पूर्वनी विशेषता माटे चौदपूर्वीपद जिन्न का अथवा पूर्व- पूर्वे कथनकस्युं तेनुं कारण प्रधानपणु ख्यापनकरवा वास्ते एविशषण कडं. ते प्रधानपणुं तो महाप्रमाणपणे अनेकविद्यामंत्र तेमां रह्यावे. तेथीजले. तेमाटे संपूर्ण गणिपिटकना धारक परिकर्म अनुयोगादिकेकरी सर्वानरसन्निपाती श्रुतझानना धणी राज गृहनगरेपानरहित मासिकनक्तप्रत्याख्यानेकरी पादोपग
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परिच्छेदः ३ मननामे अनशनग्रहणकरी कानप्राप्त थया. यावत् सर्व उखथी मुकाणा. एटले मोद पाम्या थिवरइंद्रजूतिअने थिवरआर्यसुधर्मा एबहु श्रीमहावीर पड़ी सिछिपाम्या अने नवगणधर जगवंत मोदपाम्याथी पहेला जगवंत बतां मोगया. अने वर्तमानकालमा जे श्रमनिग्रंथ जरतदेत्रमध्ये विद्यमानकाने विचरेने ते सर्वे पांचमा जे गणधर सुधर्मास्वामी तेहना अणगार अपत्यसंतानीय जाणवा. अवशेष बाकीना सर्व गणधर निरपत्य शिष्यसंतति रहितले. सुधर्मस्वामीने पोतपोतानो गढ जलावीमोगया. एटले एक सुधर्मास्वामिनो गब रह्यो ते गलनी परंपराए वर्तवं ते नावगल परंपरा कहीए॥ ॥ते जावपरंपरानां लक्षण श्रीअनयदेवाचार्य भागम अगत्तरीमालखे ॥
॥तेपात ॥ सुतबकरण खनु परंपरानावन वि. याणिद्या सिरिजंबूसामिसिस्सा आगमगथान गहिवाद
॥ व्याख्या ॥ शुभसूत्रार्थकरणतः न तु अनिनिविष्टबुद्धिवंतः खलु निश्चये परंपरानावतीर्थ तद्विजानीयात् श्रीजंबुस्वामिशिष्याः अन्ये प्रशिष्याः सिमांततो गही. तव्या इति ॥
॥जापा॥ शुसूत्रार्थकरवाथी जे अनिनिवेशिक बुध्विाला नथी तेनने निश्चे परंपरानावतीर्थ जाणवा.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ४ए श्रीजंबूस्वामि शिष्य प्रशिष्य सिद्धांतथी ग्रहण करवा. एटले सूत्रते, जिनगणधर तथा चौदपूर्वधर, दशपूर्वधर, प्रत्येकबुझ, प्रमुख च्यार बुध्विंतोना 'करेला. अर्थते, नियुक्ति, नाष्य, चूर्णी, वृत्ति प्रमुख पूर्वाचार्योनी करेली पंचांगी ते प्रमाणे शुछ सूत्रार्थना कहेवावाला होय. तथा तेप्रमाणे द्रव्यदेवकालनावप्रमुखवडे करीने पोते प्रवर्ते. अने परने प्रवर्ताववावाला होय ते महात्मा श्रीजंबूस्वामिना शिष्य प्रशिष्य जावत् पांचमा पाराना हमा सूधी प्राणायुक्त नावतीर्थवंत जागवा. एटले नावगडनी मर्यादा पालवावाला जाणवा. तेमज कझुंडे श्रीमहानिशीथमां पूर्वोक्तगहमर्यादा श्रीप्रसहयाचार्य सूधी प्रवर्तशे.
॥सथाच तत्पाठः ॥ से जयवं केवश्यं कालं जाव गन्जस्सणं मेरा पल्पविया केवश्यंकालं जावणं गस्स मेरा पाश्वमेयवा । गोयमा जावणं महायसे महासत्ते महाणुनागे उप्पसहे अणगारे तावणं गडमेरा पन्नविया जावणं महायसे महासत्ते महाणुनागेऽप्पसहे अणगारे तावणं गडमेरा नाइक्कमेयत्वा ॥
अर्थः-अहो नगवंत ते केटला काल जावत् गबनी मर्यादा प्ररूपी. अने वली केटलाक काल संधी
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परिच्छेदः ३ जावत् ते गडनी मर्यादा न उलंघवी. त्यारे नगवंत कहे ने हेगौतम यावत् मोटाजसनोधणी मोटा सत्वनोधणी मोटा नाग्यंनो धणी प्रसहनामाअणगार, तिहांलगे पूर्वोक्त गजमर्यादा प्ररूपी. अने त्यां लगे तेगबनी मर्यादा पण न नलंघवी ॥ एपूर्वे कह्या जे पाठ तेनो परमार्थ एबेके, महानिशीथ तथागबाचारपयन्नादिकमां जे गबनी मर्यादा बतावी तेप्रमाणे यथाशक्तिए प्रवर्ने, तथा सुधर्मस्वामिथी यावत् प्रसहश्राचार्यसूधी ते मर्यादाने नलंघे नही तेने नावगह परंपर आचरणा कहीए. ते आचरणाप्रमाणे वर्च ते नव्यजीवोने कल्यागनु कारणले. अने तेथी विपरीत आचरणाए वर्तवं ते द्रव्यगबपरंपर आचरणा कहीए. ते द्रव्यपरंपरानां लक्षण श्रीनवांगवृत्तिकारे एवीरीते कह्यां ॥
॥तेपात ॥ लोयाणं एस निई अऊयपऊयगयाय माया दवपरंपररावणा कुलकम नेव मिल्हिस्सं १० मूढाणंएसवि चुकंतिजिणुत्तवयणमग्गा हारंतिबोहिलानं बायहिनेवजाति ११ दवपरंपरवंसो संजम चुकाण सवजीवाणं नावपरंपरधम्मो जिणंदयावान सुपसिझो १२ दवपरंपर, पद्योअणे उग्गो सिणेह,रायेणं कोसंबीइंमिगासुत्र, वयगबलणा कारविन १३
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५१ देवरिखमासमण, जा परंपरा जावन विवाणेमि सिढिलायारे विश्रा दवेण परंपरा बहुधा १४ वेसकरंमय तुल्लेहिं सोवागकरंमसमाणेहिं दत्वपरंपरगहिया निय नियगवाणुराएण १५ जंजीयमसोहिकरं पासपमत्त संजयाईणं बहुएहिविधायरियंनतेणजीएणववहारो।१६।
॥ व्याख्या ॥ लोकानां एषा स्थितिः । प्रपितामहप्रमुखागता मर्यादा सा द्रव्यपरंपरा स्थापनोच्यते कुलक्रमागतत्वात् । नैव मोक्ष्येहमिति संसारव्यामोहमूढानामेषा स्थितिः कुलक्रमागतां मर्यादां पालयंतः भ्रश्यंति येजिनोक्तवचनमार्गात् परिभ्रष्टाः संतः ते पुरुषाः बोधिबीजं हारयंति ते नरा आत्महितं नैव जानंति ॥ द्रव्यपरंपरावंशो यस्मिन् कुले जातः सवंशः सप्तदशविधसंयमभ्रष्टानां सर्वजीवानां जावपरंपराधर्म उच्यते । जिनेंद्राझातः सुप्रसिधः अर्हदाझा विना धर्मों प्यकिंचित्करः । द्रव्यपरंपरातः प्रद्योतनराजेन उर्गः स्नेहरागेण कौशव्यां नगामित्यर्थः मृगावत्या राड्या सुतवचनबलनादिना कारितः ॥ देवदिमाश्रमणं यावत् नावतो परंपरामहं जाने या पुनः शिथिलाचारैः स्थापिता सा द्रव्यपरंपरा बहुधा गणनेदात् । वेश्यानूषण करमसदृशा अंतोऽसारा नपरि दृष्टा तेजसा जात्काररूपा
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पारच्छेदः ३ चर्मकारकर्मकरमसदृशा जूरितरचर्मखमयुक्तत्वेनांतर्षहिश्वासारनूता तथा तद्वद्रव्यपरंपरा गृहीताऽसारा निज २ गहानुसारेण रागेण स्नेहेनाझाविराधकादिदोषषाहुल्यातद्रव्यपरंपराशुझा तद्वत् ॥ यजीतमशुझकरं पार्श्वस्थप्रमत्तसंयतादिनिरपि बहनिरप्पाचरितमपि न स जीतव्यवहारो नएयते ॥
॥नाषा ॥ हवे द्रव्यपरंपरानी नखाण कहे ॥ पिता दादा पमदादाथी चाली आवी जे मर्यादा ते न मेलीए. कुलक्रमागतपणाथी एवी जे लोकोनी स्थिति संसारव्यामोह तेने द्रव्यपरंपर स्थापना कहीएं. एटले पोतानी कुलक्रममर्यादापाले पण शुरु अशुभनी खोलना न करे ते लोकस्थिति द्रव्यपरंपरा जाणवी ॥१०॥ हवे जे कुलक्रमागत अशुझपरंपरा न बोमे ते मूढपणानी स्थितिनुं फल बतावे. मूर्योनी ए पूर्वोक्त कुलक्रमागतमयार्दापालताथका जिनोक्तवचनमार्गथी चूकेले. एटले जिनकेवलीना वचनमार्गथी व्रष्ठथयाथका, ते पुरुष बोधबीजसम्यक्त्वप्रते हारे. अने ते पुरुष प्रात्माना हितप्रते नथी जाणतो. एटले जे, पोते जाणतो थको पण शुभ अशुभ विवेचन विना कुलपरंपरा पाले पण छोमे नही तेने, लोहवाणीयानी पेठे महामूर्ख जाणवो.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः तेहने बोधबीज पामवु महाकविणले. कदाच पाम्यु होय तोपण हारी जाय.॥११॥हवेद्रव्यनावपरंपरा नलखावे. सप्तदशविधसंयमथी व्रष्ट सर्वजीवोने, द्रव्यपरंपरावंशजे. एटने जे कुलनेविषे जन्म तेहने वंश कहीएं. अने नाव परंपरधर्म ते जिनेंद्रथाज्ञाथी नलीरीतें प्रसिहले. अर्हत्
आझा विना धर्मपण अकिंचित्करले. एटले जे शास्त्र विरु६ पोतपोताना कुलक्रम तथा गहममत्व कदाग्रहमां वसे ते द्रव्यपरंपरावंशकहीएं. तेहमां वसता जीवने संसारनी वृद्धिथाय. पण आत्मसिदिन थाय. अने जे जिन वीतरागनी आज्ञाए, तप, जप, संयम, अनुष्टान, क्रिया, सामाचारी, करवी ते शुनावपरंपराधर्म जा
वो तेथीज यात्मसिध्थिाय, पण वीतरागनी आज्ञा विना द्रव्यपरंपराए तप जप संयम क्रिया सर्व बार नपर लीपण समान फोगट जाणवं. ॥१२॥ हवे द्रव्य परंपरा दृष्टांते करी उनखावे ॥ द्रव्यपरंपराथकी चंमप्रद्योतनराजापासे, स्नेहरागदेखामिने, कौशांबीनगरीमें मृगावतिराणीएं, सुतवचनबलणादिकें उर्ग एटले कील्लो कराव्यो. एटले कोटसऊकराववा परंपराएं इंटो मंगावी ते द्रव्यपरंपरा जाणवी.॥१३॥ हवे नावपरंपरानी स्विति अनेद्रव्यपरंपरानी नत्पत्ति बतावे.॥देवहिंगणीक्षमाश्रमण जावत् नावथकी परंपराने हु विशेषे
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परिच्छेदः ३ जाणुन. ते पनी वलि शिथिलाचारियोएं स्थापनकरी बहुधा घणाप्रकारनी गडोना नेदथी एटले सुधर्मास्वामीथी ते देवगिणिक्षमाश्रमणसूधी बहुधाजावपरंपरा चाली तेपली शिथिलाचारियोना प्रनावथी घणी द्रव्यपरंपरा रहि. तिनावः ॥१४॥ तेमज कडंडे श्रीमहानिशीथमां
॥ तेपात ॥से जयवं केवइएणं कालेणं पहे कुगुरू. नवीहति गोयमा इन्य अझतेरसएहं वाससया साइरेगाणं समवंताणं परत नवीस से जयवं केणं अणं गोयम तत्कालं झीरससायगारवसंगए समीकार अहंकारग्जीए अचंतो संपवलंतबोंदी अहमहंति कयमाणसे अमुणिय समयसप्नावे गणी नवसुं एएणं अटेणं से जगवं किं सवेवि एवं विहे तक्वालं गणीनवासु गोयमा एगंतेणं नो सो॥ एपारामध्ये कांइक अधिक १२५० वर्षपडी झिगारव रसगारव सातागारव अहंकार ममकार अत्यंतक्रोधादिकमां धमधम्या, सिद्धांतोना सद्नावने अणजाणता, अहंपणु मनमेमानता, गणी गढ बहुधा थाशे. पण एकांते सर्व नही. बाकी नावार्थ उपर लख्या प्रमाणे जाणवो. हवे द्रव्यपरंपराने दृष्टांतसहित असार ननखावे . वेश्याना प्राभूषण करंमक सरीखा अंतरमे असार. उपरथीदेखाता ऊनफलाटरूप, तथा
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चतुर्थस्तुतिनिणयंशकोद्धारः चर्मकार कर्मकरंम सरीखा बहुचर्मखम युक्तपणे करीने, अंतरने बाहिर असारभूत. तथाविधकेतां तेनी पेठे द्रव्यपरंपरा अंगीकार करनार साररहित पीतपोताना गबानुसार रागे स्नेहे करीने जिनाझा विराधकादि दोषनी बहुलताथी ते द्रव्यपरंपरा अशुजाणवी.
पूर्वदृष्टांतनी पेठे एटले वेश्यानांजे घरेणां होय ते अंदरथी तो कांसा पीतल त्रांबानां खोटां होय पण बाहिरथी सोना रूपा मोती सरीखां महातेजस्वी ज. णाय तेम पासहा निह्नवादिक बाहिरथी क्रियानो आमंबर करी सारा देखाय, पण अंतरथी गडममत्वे करी, तथा पोतानी मतिकल्पनाए करी असार होय. अने बीजो दृष्टांत. चर्मकारक कर्मकरंमक अंतरबाहिरथी असार होय. तेम कुलिंगी वेषधारी बाहिरथी क्रियारहित अंतरथी पण रागदेषेकरी निज गड ममत्व कदाग्रह स्थापनकरी मुनिपशु धरावी जिनथाझा विराधे ते बाहिर अंतरथी असारजाणवा ॥ १५॥ हवे जे द्रव्य परंपराए रह्या पासबाप्रमुख तेजनी करेली आचरणा तथा तेलंनो व्यवहार ते नव्यप्राणीयोने बांझवा योग्य जावो. ते आगमनी साखे करीने कहे ॥जे जीत व्यवहार अशुझकर पार्श्वस्थ प्रमत्तसंयतादिकोए घणा
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परिच्छेदः ३ जणाए पण आचरयुं तेहने जीतव्यवहार न कहीए. एटले रात्रे दीवाप्रमुखकराववा. तथा मोरनापांखनां चीरेनां झमासंण राखवां. सादमियो बिबाववी. सामश्यावास्ते गामबाहिर नभुं रहे. तथा साबुए करी कपमा धोववां. तथा केसर काथादिके करी रोगादि विनाकारणे कपमा रंगवा. तथा अरिहंत विना अन्यदेवनी बहमानता कराववी. निरंतर एकठेकाणे रहे,. विहार न करवो. इत्यादिक जे जे अशुभ आचरणा आत्माने मलीनता कारक, पासबादिक स्वछंदमतधारियोए, घणे जणे मतीने करी होय तोपण, ते अशुद्ध आचरणा सिहांत विपरीत संसारनी वृद्धिकरवावाली जावी. पण आगममें जे जीतव्यवहारकह्यो ते न जाणवो. ॥१६॥हां द्रव्यपरंपरागाथामें जे गशब्दाव्यो ते सुधर्मस्वामी प्रनवस्वामी शय्यंनवादिकनी अपेक्षाए ए कथन नथी पण गडोना विनेदकारक मतममत्वी परनवनी बीकथी अणमरता गवस्थापता परंपराथापी ते आचरणामांवतवं तेने द्रव्यगन्नुपरंपर आचरणा कहीए. ते आचरणा सुविहितोने आचरवायोग्य न जाणवी.॥
॥ति चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारेऽपरनानि चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयछेदनकुठारे द्रव्यनावगनुपरंपराचरणा निदर्शनो नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥ ३ ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५७ ॥ हवे गीतार्थपरंपरथाचरणानु किंचित् स्वरूप ल. खीएडीए. तिहां बृहत्कल्पनाष्यादिकागममां, जघन्य मध्यमनत्कृष्ठगीतार्थ कह्याडे.तेगीतार्थ जीतव्यवहारे था. चरणा करे ते जीतनु लण श्रीगणांग तथा जगवती सूत्रवृत्तिमां श्रीअनयदेवसूरीप्राचार्ये अावीरीते कडुंडे.
॥तेपान॥ तथा जीतद्रव्यक्षेत्रकालनावपुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या संहननवृत्त्यादिपरिहाणिमवेक्ष्ययत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र गन् सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारे प्रवर्तितं बहुनिरन्यैश्चानुवर्तितं तङीतमिति ॥ ___ अर्थः-हवे जीतव्यवहार कहे जे अपराधने पूर्वे साधु, घणे तपे शुद्धिकरता, ते अपराध उपजे बते, सां. प्रतकाले द्रव्यादि ४ प्रतिसेवा चिंतवी संघयण धृति बलनी हांणी जाणी जे योग्य तंपनो प्रकार जणाय ते प्रायश्चित्त देवं ते जीत कहीए. अथवा जे प्रायश्चित्त जे
आचार्यने गब्बे प्रधिको नबो प्रवत्यो अने घणा बीजा गीतार्थे ते मांन्यो हुवे ते जीत कहीए. इत्यादिक पाउना अनिप्रायथी मुरव्यपणे प्रायाश्चित्त तप प्रमुखमें आगम अतिरिक्त गीतार्थ आचरणा करे पण चैत्यवंदन यावश्यकादिकमें आगमनिन्न आचरणा न करे. तेमज स्प. ष्टपणे कडं नवांगवृत्तिकारक श्रीमदजयदेवसूरिए बा. गमअठोत्तरिमां..
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परिच्छेदः ४ " ते पाठ ॥गाथा ॥ संघयणबुध्यिबलं तुजं नाना सुविहियजणाणं गीयबेहिं चिणा तवाईकालेसु आयरणा १७ यतः॥ जं जीयं सोहिकरं संविग्गपरायणेण दंतेणं शक्केणवि आयरियं तेणइ जीएण ववहारो १५ असढेणसमाश्यं जं कबई केणई असावऊं न निवारियमहोहिं बहुगुणमणुमेध,मायरियं २० आवस्सया करणं श्वामिहादसविहायरणं चिश्वंदणपमिलेहणं संवबरपवपवतिही ५१ उदयतिहीणं तवणा विणयाइसुसाहुमागणादाणं ववि किं आयरणा बलबुझीका विहाडेई ॥२॥ - ॥व्याख्या ॥ संघयणं तुई श्रीयकवत्, बुझिस्तुला मनोबलं त्रीणि तुहानि ज्ञात्वा, सुसाधुजनानां गीतार्थैः
हता तपोविषये असं सामर्थ्य निष्ठाप्रापणसामर्थ्य यन्युना न्यूनकरणं अथवा जिनाझापूर्वकमाचरंति पyषणावत्प्रतिक्रमणमेषाधाचरणा॥
नक्तंच व्यवहारलाष्ये ॥ यत् जीतं शकरं संविअपरेण सुसाधुना जितेंद्रियेण एकेनापि केन, वाचरितं "तेणइ" बहुगीतार्न प्रतिषिस जीतव्यवहारो नएयते अमूढनावेनाननिनिवेशत्वेनाचरितं यत्र कुत्रापि, असावध निरवद्यं न निवारीतमन्यगीताथैर्निर्दोषत्वात्. बहुगुणाकीर्ण द्रव्यक्षेत्रकाल नावहान्या सुलनतयाऽनु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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मतं तीतमित्युच्यते ॥ श्रावश्यकादिकरणं ॥ इहामि ज्ञादिदशविधसमाचारि यतिधर्माचरणं चैत्यवंदन, प्रतिलेखना संवत्सरपर्वणोऽपरपर्व्वतिथिरुदयतिथिः नाम स्थापना विनयादिकं सुसाधूनां मानदानं एतेषु कृत्येषु किमाचरणा शास्त्र संमतत्वात् बल बुद्धिसंघयणादिनामत्र कर्त्तव्ये का हानिस्ततः सर्वैरपि मान्यानी ॥
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॥ जाषा || संघया तु श्रीभूलिनद्रनाबांधव श्रीयकनीपेठे बुद्धि मासतूस साधुनीपेठे मनोबल सुह श्रीनंदिषेणशिष्यना पूर्वपर्यायनी पेठे ए पूर्वोक्त त्रा वानां तुच्छ जाणीने सुसाधुने हितने अर्थे गीतार्थे ग्रादरी तपादिकालने विषे याचरणा ते सिद्धांतोक्त तप समाप्ति करवाने सामर्थ्य जाणी त्र्यधिकाने नलो करे अथवा जिनाज्ञापूर्वक याचरे पर्यूषणापर्वप्रतिक्रमणमी पेठे ॥ एटले कालदोषे संघेण बुद्धिबल हांणीथकी ने in प्राव्यां थकां मास व्यारमासादिक मम न बनी सके तेथी महापुरुषोए द्रव्य क्षेत्र काल नाव जोई ब
मादिक तपनी प्राचरणा करी अथवा "अंतरावियसकप्पई” इत्यादिजिनाज्ञापूर्वक जाद्रवासुदि पंचमीथी चोथनापर्यूषणाप्रतिक्रमणनी पेठे आचरणा करवी एने श्राचरणाकहीएं ॥ १८ ॥ ते पूर्वोक्तञ्चाचरणा सुविहित
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परिच्छेदः ४ एकगीतार्थे पण अाचरीहोय तो सुविहितोने आत्मशुदिने अर्थे श्रादरवा जोग्य थाय ते सिक्षांतसाखसहित बतावे ॥ यतः ॥ कपुडे व्यवहारलाष्यमां जे जीतशुझिकारक संविग्नरंगमे तत्पर जितेंद्रिय सुसाधुएं एकेंपण
आचरणा करी. तेणे जीतें व्यवहार प्रवर्ते. एतलेसंसारना जीरु परमसंवेगवंत गीतार्थे, गढसमुदायना हितजणी, एकगीतार्थे पण प्राचरी, ते बहु गीतार्थे न निषेधी, ते जीतव्यवहार कहीएं. ते सुविहितने आदरवा योग्य जाणवी ॥१५॥ ॥हवे आचरणानां लक्षण कहे ॥ अमूढनावे अननिनिवेशपणे करीने समाचीर्ण करघु, जिहां तिहां पण केणे निरवद्य, न निवास्युं अन्यगीतार्थे निर्दोषपणाथी, घणागुणे आकीर्ण द्रव्य देत्र काल नाव हानियकी सुननपणे करीने अंगीकार करधुं ते प्राचीर्ण, जीत कहीएं. एटले अशगीतार्थे आचरणा करी होय. वली जेहने सि-झांतखमेनही एहवी निर्दोष, पापरहित, अने बीजे गीतार्थे कोएं खंमिन होय,ते शुरूआचरणा जाणवी. ॥२०॥ हवे बलबुझिनु जेहमां काम न होय वली सिझतमा जेहनोखुलासो होय तथा निषेध न कस्थो होय एहवा कर्त्तव्यमां गीतार्थ हेरफेर आचरणा न करे ते बेगाथाए करी कर्त्तव्य कहेले. आवश्यकादिकन करवं, श्वामिडादिदशविधसमाचारी, दशविधयतिधर्म
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ६१ आचरण, चैत्यवंदनपमिलेहणा, संवरिपर्वथी अपर पर्वतिथि, ॥२१॥ उदयतिथियोनी स्थापना विनयादिक सुसाधुनने मानदेवू इत्यादिकृत्योनेविषे बल बुद्धि संघयणादिकनीअपेदाए शंशाचरणा नथिज केमजे एतो शास्त्र संमतिपणाथी सर्वने मानवा योग्य जे. एटले आवश्यकप्रतिक्रमणादिकनुं करवं. तथा श्वामिडादि दश विधसमाचारी समाचरवी. वली दशविधयतिधर्म आचरवं. अने चैत्यवंदन पमिलेहण संवबरपर्वनितिथिथी अन्यपर्वतिथि उदयतिथि स्थापना. वनी विनयादिकनु करवं, सुसाधुनने बहुमानदेवू,इत्यादिकर्त्तव्योमें आचरणा होय नही. ने होय ते सिहांतपंचांगीना प्रगटपाठपणाथी होय.॥२॥
हार मी१ एमीगाथामें कडं जेगीतार्थ, बलबुद्धि हांनीजाणीने जिनआझापूर्वक पर्युषणाप्रतिक्रमणनी पेठे आचरणाकरे. ए उपलक्षणथी उखमादिकालप्रमुखनु प्रमाणविचारीने सुखे संजमनिर्वाहलणी आगममांकडं ते प्राचार हेरफेरकरीने संविझगीतार्थे पंचांगी अनुसारे प्रकरणोक्त श्राचरी ते आचरणा पण सुविहितोने प्रमाणकरवा योग्य. पण जे अविरतिदेवादिक न वांदवा तथा सिझांतपंचांगी प्रकरणादिकमां कारणे जे क्रियाकरवी कही ते विनाकारणे करे. तथा चैत्य
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परिच्छेदः । गृहनी क्रिया प्रतिक्रमणमां करे. अने प्रतिक्रमणनि किया चैत्यगृहमां करे. तथा पोतानो शिथिलाचार पोषवा जणी अपवादनीक्रिया उत्सर्गमां प्राचरे. तथा कारण विना पीतादिक रंगेला कपमा पेरी लिंगनेद करे. इत्यादि जे बागममां ना कही ते वस्तनि आचरणा आचरे ते आचरणा सुविहितधात्मार्थी नव्यजीवोने प्रमाण करवा जोग्यनथी. आगमनिषेधपणाथी तेमज कांडे. ॥धर्मरत्नप्रकरणमां॥
तेपाठ॥ मग्गोब्रागमनाई अहवा संविग्गबहुजणा इन उनयाणुसारिणी जा सामग्गाणुसारिणी किरिया मृग्यते थन्विष्यतेऽनिमतस्थानावाप्तये पुरुषैर्यः स मार्गः सच द्रव्यनावनेदाविधा द्रव्यमार्गो ग्रामादेर्नावमार्गो मुक्ति पुरस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः। दायोपशमिकजावरूपो वा तेनेहाधिकारः स पुनः कारणे कार्योपचारा दागमनीतिः सिझतनणिताचारः । अथवा संविग्नबहुजनाचीपर्णमिति द्विरूपोऽवगंतव्यति तत्रागमो वीतराग वचनं उक्तंच आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषदयाद्विः वीतरागोऽनृतं वाक्यं न ब्रूया इत्वसंनवात् ॥ तस्य नीतिरुत्सर्गापवादरूपा शु-संयमोपायः स मार्गः नक्तंच यस्मात् प्रवर्तकं मुवि निवर्तकं चांतरात्मनो वचनम् । धर्मश्चैतत्संस्थौ मौनींद्रं चैतदिदं परमम्
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चतुर्थस्तुतिनिणयंशकोद्धारः ६३ ॥१॥ अस्मिनहृदयस्थे सति हृदयस्थस्तक्ष्तो मुनींद्र इति । हृदयस्थिते च तस्मिन्नियमात्सर्वार्थसंसिझेरिति तथासंविग्गा मोदानिलाषिणो ये बहवो जना अर्थाद्गीतार्था इतरेषां संवेगायोगार्यदाचीपर्णमनुष्ठितं क्रियारूपं इह च संविग्गग्रहणमसंविनानां बहूनामप्यप्रमाणतां दर्शयति तद्यवहारः जं जीयमसोहिकरं पासवपमत्तसंजयाइहिं बहुएहिंवि आयरियं न पमाणं सुश्चरणाणत्ति । बहुजनग्रहणंसंविनोऽप्येकोऽनानोगानवबोधादिनिर्वितथमप्याचरेत्ततः सोपि न प्रमाणमित्यतः संविनबहुजनाचरितं मार्ग इत्यत एवाह नजयानुसारिणी यागमाबाधया संविनव्यवहाररूपा सा मार्गानुसारिणी क्रियोत
आह आगम एव मार्गोवक्तुं युक्तो बहुजनाचीपर्णस्य पु. नर्मार्गकरणमयुक्तं शास्त्रांतरविरोधादागमस्य चाप्रमाणा पत्तेः तथाहि बहुजणपवित्तिमित्तं खंतेहिं इहलोडचेव धंमो न उशियबो जेण तहिं बहुजणपवित्ती ॥१ ता आणाणुगयं जं तं चेवं बुहेण होइ कायवं किमिह बहुजपाणेणं हंदि नासयनिणो बहुया तथा जिऊंमिविद्यमाणे उचिए अणुजिष्पूयणमजुत्तं लोयाहरणंपि तहा पयमे नयवं तवयामि १ आगमस्तु केवलिनापि नाप्रमाणीक्रियते यतः अहो सनवरत्तो सयनाणी जवि गिएहे असुई तं केवलिवि भुंज अपमाणसुयं नवे
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परिच्छेदः ४ हरा किंच यागमे सत्यप्याचरितस्य प्रमाणीकरणे तस्य लघुता स्फुटवेति नैतदेवमस्य सूत्रस्य शास्त्रांतराणां च विषयविनागापरिज्ञानात् तथाहि इह सूत्रे संविग्नगीतार्था आगमनिरपेदं नाचरंति किं तर्हि दोसा जेण निरुशंति जेण खिद्यांत पुत्वकम्माई सो सो मुखोवान रोगावबासु समणंव इत्याद्यागमवचनमनुस्मरंतो द्रव्य देवकालनावपुरुषाद्यौ चित्यमालोच्य,संयमद्धिकार्ये च किंचिदाचरांति तच्चान्यपि संविग्नगीतार्थाः प्रमाणयंतीति स मार्गोऽनिधीयते। नवउच्चारितशास्त्रांतराणि पुनरसंविप्रगीतार्थालोकमसमंजसप्रवृत्तमाश्रित्य प्रवृत्तानिततः क थं तैः सह विरोधसंनवस्तथागमस्यापि नाप्रमाणतापत्तिरपि तु सुष्टुतरं प्रतिष्ठा यस्मादागमोप्यागमश्रुताझा धा राणजीयनेदात् पंचधा व्यवहारः प्ररूप्यते ॥
॥यत उक्तं ॥ स्थानांगे पंचविहे ववहारे पन्नत्ते तंजहा आगमववहारे। सुयववहारे आणाववहारे३ धारणाववहारे। जीयववहारेए जीताचरितयोश्वानर्थातरत्वादाचरितस्य प्रमाणत्वे सुतरामागमस्य प्रतिष्ठासिद्धिः त. स्मादागमाविरुक्ष्माचरितं प्रमाणमिति स्थितं अत ए वेदमाह अन्नहणियंपि सुए किंची कालाकारणाविखं अन्नमन्नह चिय दीसा संविग्गगीएहिं १ अन्यथा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
प्रकारांतरेण नणितमप्युक्तमपि श्रुते पारगतगदितागमे किंचिद्वस्तु कालादिकारणापेक्षं दुःखमादि स्वरूपालोचनपूर्वक माची व्यवहृतमन्यथैव चियशब्दस्यावधारणार्थत्वात्. दृश्यते साक्षाऽपलभ्यते संविग्नगीतार्थैरुक्तस्वरूपैरिति । किंतदित्याह कप्पाणं पावर अग्गोयरचान जोलिया निरका नवग्गहिय, कमाहय, तुंबय, मुहदाण, दोराई ८२ कल्पानामात्मप्रमाणायामसार्द्धद्विहस्तविस्तराणामागमप्रतीतानां प्रावरणं परितो वेष्टनं प्रतीतमेव ते हि किल कारणव्यतिरेकेण निकाचर्यादौ गछता संवृताः कंधगता एव वोढव्या इत्यागमाचारः । संप्रति प्राव्रियंते, अग्गोयरति यावतारः परिधानविशेषः साधुजनप्रतीतस्तस्य त्यागः, कटी पटकस्यान्यथा करणं, तथा कालिका ग्रंथिद्वयनियंत्रितपात्रबंधरूपा तया निक्षा, श्रागमेहि मणिबंधप्रत्यासन्नं पात्रबंधांचलद्वयं मुष्ट्या धियते, कूर्परसमीपगमेववध्यत इति व्यवस्था तथौपग्रहिक, कटाहक, तुंबक, मुखदानदवरकादयः सुविहिता एव साधूनामाचरिताः संप्रतीति गम्यते । तथा सिक्किग्ग, निखिवणाई पघोसवणाइ, तिहिपरावत्तो जोया विहि, अन्नत्तं एमाईविविहमन्नपि ८३ सिक्किक्का, दवरकरचितो नाजनाधारविशेषः, तत्र निदेषणं बंधन मर्थात्पात्राणामादिशब्दात् शुक्तिपेनपात्रलेपनादि, तथापर्यपणादितिथिपरावर्त्तः,
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विविधमायातायां शिष्यवमादिग्रहणेन
परिच्छेदः । पर्युषणासांवत्सरिकमादिशब्दाच्चतुर्मासकपरिग्रहस्तयोस्तिथिपरावर्त्य तिथ्यंतरकरणं सुप्रतीतमेतत् तथा नोजनविधिरन्यत्वं यतिजनप्रसिझमेव एमाइति प्रारुतशैल्यैवंशब्दे वकारलोपस्तत एवमादिग्रहणेन षीवनिकायामप्यधीतायां शिष्य नबाप्य इत्यादिगीतार्थानुमतं विविधमन्यदप्याचरितं प्रमाणीनतमस्तीत्यवगंतव्यम् । तथाच व्यवहारनाष्यं सबपरिन्ना, बक्काय संजमो, पिम, उत्तरकाए, रुके वसहे गोवे जोहे साही य पुस्करिणी । अस्या अयमर्थलेशः शस्त्रपरिझाध्ययने सूत्रतोऽर्थतश्चावगते निक्षुरुवापनीय इत्यप्रमेयप्रनावपारमेश्वरप्रवचनमुद्रा जीतं, पुनः षदायसंयमो दशवैकालिकचतुर्थाध्ययने षट्जीवनिकाव्ये झाते निक्षुरुवाप्यत इति तथा, पिमैंषणायां पवितायामुत्तराध्ययनान्यधीयंते स्म संप्रति तान्यधीत्याचार उद्दिश्यते. पूर्व कल्पपादपा लोकस्य शरीरस्थितिहेतवोऽनूवन्निदानी सहकारकरीरादिनिर्व्यवहारः। तथा वृषनाः पूर्वमतुलबला धवलषना बनूवुः । संप्रति धूसरैरपि लोको व्यवहरति । तथा गोपाः कर्षकाश्चक्रवतिगृहपतिरत्नवत्तदिन एव धान्यनिष्पादका आसन सं. प्रति ताहगनावेपीतरकर्षकैलोंको निर्वहति तथा पूर्व योधाः सहस्त्रयोधादयः समनवन् संप्रत्यल्पबलपराक्रमैरपि राजानः शत्रूनाक्रम्य राज्यमनुपालयंति । तद्वत्सा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ६७ धवोपि जीतव्यवहारेणापि संयममाराधयंतीत्युपनयः तथा शोधिः प्राश्चित्तं षएमासिक्यामप्यापत्तौ जीतव्य वहारे दादशकेन निरूपितति पुष्करिएयोपि प्रोक्तनीत्यो हीना अपि लोकोपकारीण्येवेति दाष्टीतिकयोजना पूर्ववत्. एवमनेकधा जीनमुपलभ्यत इति अथवा किं बहुना जं सबहा न सुत्ते पमिसिहं नेय जीववहहेक तं सर्वपि पमाणं चारित्तधणाण नणियं च ॥ यत्तु सर्वथा स. र्वप्रकारैनैव सूत्रे सिझते प्रतिषि निवारितं सुरतासेवनवत् । उक्तंच नय किंचि अणुन्नायं पमिसिहंवावि जिणवरिदेहिं मोत्तुं मेहुणानावं न तं विणा रागदोसेहिंति नापि जीवबधहेतुराधाकर्मग्रहणवत्, तदनुष्टानं सर्वमपि प्रमाणं चात्रिमेव धनं येषां ते चारित्रधनानां चारित्रिणामागमानुज्ञातवाद्भणितमुक्तं च पूर्वाचार्येरिति । यद्भणितं तदेवाह । अबलंबि कण कचं जं किंपि समायरति गीयन्हा थोवावराहबहुगुण सवेसिं तं पमाणंतु ७५ अवलंब्याश्रित्य कार्य संयमोपकारि यत्किमपि समाचरंति सततं सिहांतानुयाय्याचरंत्यासेवंते गीतार्था वि. दितागमतत्त्वाः स्तोकापराधमल्यदोपं निष्कारणपरिनो. गत्वेन प्रायश्चित्तापत्तेः बहुगुणं गुरुग्लानबालपकादीनामुपष्टनेन बहुपकारं मात्रकादिपरिजोगवत् सर्वेषामपि चारित्रिणां तत्प्रमाणमेव. तुशब्दस्यैवकारार्थत्वादार्य
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६७
परिच्छेदः । रक्षितसूरिसमाचरितं उर्बलिकापुष्पमित्रस्यैव ॥ तथा ॥ अत्र कश्चिदेवमाह । नन्वेवमाचरिते युष्मानिः प्रमाणी. कृतेऽस्माकं पितृपितामहादयो नानारं नमिथ्यात्वक्रिया प्रवृत्तयोऽभूवन्. ततोऽस्माकमपि तथैव प्रवर्तितुमाचतं. इत्यत्रोच्यते सौम्यमार्गेणापि नीयमानानोन्मार्गेण गमः यतोऽस्मानिः संविनाचरितमेव स्थापितं न सर्वपूर्वपुरुषाचरितमित्यत एवाह । जं पुण पमायरूवं गुरुलाघवचिंतविरहियं सवहं सुहसीलसमाइन्नं चरिनिणो तं न सेवंति ७६ यत्युनराचरितं प्रमादरूपं संयमबाधकत्वान्, अत एव गुरुलाघवचिंताविरहितं सगुणमपगुणं चेति पर्यालोचवर्जितमत एव सबधं यतनानावात् सखशीला इह लोकप्रतिबझाः शठा मिथ्यालंबने प्रधानास्तराचीर्ण समाचरितं चारित्रिणः शुचारित्रवंतस्तन्न सेवंते नानुतिष्ठतात्ति॥॥अस्यैवोल्नखं दर्शयन्नाहजहसमेस ममत्तं राढाइंधशुझ्नवहिनताई। निदिधवसहितली मसूरगाईणपरिजोगो॥७॥ यथेत्युपदर्शने श्रादेषु श्रावकेषु ममत्वं ममत्वस्वीकारं मदीयोयं श्रावक इति गाढायहं ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे ममत्वना"न कहिंवि कुद्या" इत्यागमनिषिक्ष्मपि केचित् कुर्वति । तथा राढया शरीर शोनाकाम्यया अशुहोपधिनतादि केचन गृहंति, तत्राशुझमुद्गमोत्यादनादिदोषऽष्टं, उपधिर्वस्त्रपात्रादिर्नक्त
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ६॥ मशनपानखाद्यस्वाद्यादि श्रादिशब्दाउपाश्रयग्रहणमेतान्यप्यागमेऽशुक्षानि निपिहान्येव यदेवं मार्गः । पिम सियं च वचं च, चनचं पायमेव य, अकप्पियं न इबिद्या पमिगाहिद्य कप्पियमिति ॥ इह च राढाग्रहणं पुष्टालबनेन निदादमादौ पंचकपरिहाण्या किंचिदशुक्ष्मपि गृहृतो न दोष इति झापनार्थ यतोऽनाणि पिंझनियुक्ती एसो प्राहारविही जह नणि सत्वनावदंसीहिं धम्मावस्सगजोगा जेणमहायति तं कुद्या ॥१॥ तथाकारण पमिसेवा पुणनावे अणावपत्ति दिवा अणाइतीनावे सो सहोमकहेनत्ति १ तथा "निदिधति" पत्रलेखनेनाचंद्रसादिकं प्रदत्तावसतिग्र्हमेषापि साधूनामकल्पनीया अनगारत्वहानेः ननसंस्थापनादौ कायबध संनवात् । तथाच पम्यते । अविकत्ति कणजीवे कोत्तोघरसरणगुत्ति संतप्यं अविकत्तियाय तं तह पमियाअसंजयाण पहे १ एतद्हणमप्येकैराचर्यते । तथा तूली मसूरकादीनामपि परिनोग: कैश्चिविधीयते तत्र तनीमसूरके प्रतीते अादिशब्दात्तूलिका सल्लककांस्यताम्रपात्रादीनां परिग्रह एतान्यपि यतीनां न कल्पंत इति । अथ प्रस्तुतमुपसंहरन्नाह । श्चाई असमंजस मणेगहाखुडविध्यिं लोएबहुएहि वि पायरियं न पमाणं सुहचरणाणं इत्यायेवंप्रकारमसमंजसं वक्तुमप्यनुचितं
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७०
परिच्छेदः १ शिष्टानामनेकधानेकप्रकारं क्षुद्राणां तुलसत्वानां चेष्टितमाचरितं.लोके लिंगिजने बहुनिरप्यनेकैरप्याचीर्ण न प्रमाणं नालंबनहेतुः । शुश्चरणानां निष्कलंकचारित्रिणां,अप्रमाणता पुनरेतस्य सिझांतनिषिदत्वात्संयमविरुत्वादकारणप्रवृत्तत्वाच्च । सम्यगालोचनीयेति । एवमानुषंगिकमनिधाय प्रस्तुतोपसंहारमाह । गीयनपारतंता, श्यविहं मग्गमयुसरंतस्स नावजस्तं जुत्तं उप्पसहं तं जन चरणं नए गीतार्थपारतंत्र्यादागमविदाइयेत्युक्तनीत्या द्विविधमागमनीत्यागमानुगत-समाचारनेदेन द्विप्रकारं मार्गमनुसरतस्तदनुसारेण व्यवहरतः साधोरिति गम्यते नावयतित्वं सुसाधुत्वं युक्तमुचितं वक्तमिति शेषः। किमित्यत आह। पसहांतं प्रसहनामधेयाचार्यपर्यतं । यतो यस्माचरणं चारित्रं सिझते श्रूयते इतिशेषः। अयमनिप्रायो यदि मार्गानुसारिक्रियाकरणसारं यतमानाश्चारित्रिणो नाभ्युपगम्यते, ततस्तदन्येषामनुपलंनायवछिन्नं चारित्रं तयवजेदातीर्थ चेत्या. यातं, एतच्च प्रत्यदीनूतनवद्भाविनावस्वनावजिननाथप्रपीतसिक्षांतेन सह विरुक्षमिति न प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रतिपद्यते । तथाच व्यवहारनाष्यं, सेकिंचिय आएसो दसणनाणेहि वहए तिचं वोबिन्नं च चरित्तं वयमाणो नारिया चतरो १ जो जण नदि धमो नय सामाश्यं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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नचेव य वयाई सो समणसंघवो कायवो समण संघेण १ इत्याद्यागमप्रामाण्यान्मार्गानुसारिक्रियाकारिणो नाव यतय इति स्थितं ॥
एपाठनो जावार्थ श्रीमद्यशोविजयजीउपाध्यायजी कृत साढात्रण सोगाथाना स्तवननी १४ मी ढालनी ४ थी गाथाथी ८ गाथासूधी कोडे. तेपाठ सहित जावार्थ लखीए बीए ॥ मार्गसमयनी थिति तथा संविग्नबुधनी नीति ए दोअनुसारे क्रिया जे पाले होते न लहे नीति ॥ सा० ४ ॥
अर्थः- हवे उपरकहेला सातनेदमांथी मार्गानुसारणी क्रिया नामे प्रथमनेद वखारोडे मार्गकै ० समयनी स्थिति एटले आगमनी मर्यादा. ते यागमकेने कहीए ॥
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॥ उक्तंच ॥ यागमो ह्याप्तवचन माप्तं दोषदयाद्विडुः वीतरागोनृतं वाक्यं न ब्रूयादेत्वसंभवात् ॥ ते प्रागमनी स्थिति उत्सर्गापवादरूप. शुद्धसंयमनो उपाय ते मार्ग कहीये अथवा जे संविग्रबुधनी नितिके संविग्न जे मोक्षानिलाषी ने बुध ते गीतार्थ. इहां बहुपद अधिकुं कहीए. सेवारे एम कहेवुं जे संविग्न बहुगीतार्थनी नीति के० जे खाचरण क्रियारूप तेने पण मार्ग कहीये. ए दाईके बे अर्थ मार्गना कह्या. तेवा मार्गने अनुसारणी जे क्रिया, यागमनी प्रबाधाये संविग्र व्यवहाररूप,
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परिच्छेदः । मार्गानुसारणी क्रिया कहीये. एवी किया जे पाले ते नातिके संसारनी बीक न लहे के कदापि न पांमे. इति गाथार्थः॥
हवे संविनगीतार्थनी नीति एनां पदबेदकरीयेबीए. संविनपद कह्यं ते असंविग्नपणुं टालवामाटे का तो, ते घणा असावन मनीने जे आचस्यं होय तो पण प्रमाण न थाय, ययवहारः, जं जीयमसोहिकरं पासबपमत्त संजयाहिं बहुएहिं विधायरियं न पमाणं सुश्चरणाणं १। इहां बहुगीतार्थपद मूक्युं तेनुं कारण एजे, एकगीतार्थे आचस्युं होय ते कदाचित् अनाजोगे अनवबोधा. दिककारणे विपरीतपणे आचरयुं होय ते पण प्रमाण न थाय. तेमाटे बहुगीतार्थपद मुक्यूं तो, ते बहुगीतार्थ जे आचरे ते अवितथ होय.इहां कोई प्रश्न करेजे, आ. गममार्ग कहेवो ते तो युक्त. पण बहुजनाचरण कहेवू युक्त नथी. केमके, घणालोकोये तो लौकिकमार्ग आ. चरयो होय, माटे आगम ते तो प्रमाण. पण घणा लोकोन,आचरण प्रमाण नही. वली आगम ते ज्येष्ठले. अने बहुजनाचरण ते अनुज्येष्ठ ले. अने लौकिकमां पण ज्येष्ठने मूकी अनुज्येष्ठनु पूजन युक्त नथी. तेमज आ गमतोकेवलीपण अप्रमाण न करे. यतः अहोसुचनत्तो सुअनाणी जवि गिएहइ असुई तं केवलिावे भुंजई
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः. ३ अपमाणं सुझं नवेशहर ॥१॥ तथा आगमतां जो आचरणा प्रमाणकरीए तो, आगमनी लघुता थाय, हवे गुरु उत्तर कहे. जे संविग्न गीतार्थ ते, आगमनी अपेक्षाविना थाचरेज नही. तेशंाचरे नही. तथा शुंबाचरे. ते कहेले. यतः दोसा जेणनिरुशंति जेण खिद्यति पुवकम्माइं सो सो मुकोवा रोगाववासुसमएणं च १ इत्यादिक आगमवचन संजारी, द्रव्य क्षेत्र काल जाव पुरुषादिक उचित जोश, संयमने वृद्धिकारीज या. चरे, ते बीजा सविन गीतार्थ पण अंगीकार करे, ते मार्ग कहीए. अने बीजा बहुलोके आचरयुं तेतो असंविघ्न अगीतार्थ माटे अप्रमाण. वली आचरणा प्रमाण करतां, बागमतो अत्यंत प्रतिष्टा.पामेले. श्रीगणांगसू. त्रमा पांच प्रकारना व्यवहार प्ररूप्यावे.।
॥ उक्तंच ॥ पंचविहे ववहारे पणते. तंजहा. बाग. मविवहारे सुयववहारे आणाववहारे धारणाववहारे जियववहारे इहांजीत अने आचरणा ते बेनो एकज अर्थडे तेमाटे आचरणा मानि तेणे अत्यंतपणे बागम मान्यु, तो आगमअविरोध जे थाचरणा ते प्रमाणजो. ॥४॥ - सूत्रेनएयुं पण अन्यथा जुज बहुगुणजाण संविग्न विबुधे बाचस्युं कां दीसे हो कालादि प्रमाण सा०५॥
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परिच्छेदः ४
अर्थः- वली एज वात कहेते. सूत्रे नएयुं के० आगमविषे कह्युंडे तोपण, अन्यथाके० हेरफेर करीने बहुगुणा के० तेमां घणोगुण जाणीने, संविग्न गी - तार्थोके जे खाचरण करयुं. तेवी केटलीक वातो दीसे बे. पण ते गुंजाणी याचस्युं. ते कहेबे जे, कालादिप्रमाए के० डःखमादि कालप्रमुखनु प्रमाण विचारीने श्राचरतुं ॥५॥
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कल्पनुधरवु कोलिका जाजने दवरक दान तिथि पजूसणनी पालटी जोजनविधिहोइत्यादि प्रमाण॥ सा० ६ ॥ अर्थः- वली तेज देखामेडे. कल्पनु धरबुंके० पूर्वे कल्प जे कपको तेने कारणे नढता. तथा गोचरी प्रमुखने विषे वालीने खंधेमूकी चालता. एयागमनो आचार हतो. ने हवे तो गोचरीप्रमुखनविषे पांगरीने जावं. तथा चोलप प्रमुखपएम समजवां. पूर्वे कुणीये राखताहमणां कंदोरे राखीयेबीये. तथा पूर्वे फोलिका के ० फोली मुंठीये जाली, ग्रंथी कुंणीए कमी बांधता. अने हमणां हाथमां कालिये बीए. उपलक्षणथी उपयहिक, कटासपुं, संधारीन, दंमासादिक, लेवां तथा तरपणी प्रमुखनेविषे दोरादेवा. एम सीकी दोरानी, कोलीना श्राधारविशेष. इत्यादिक. वली पात्रेलेपदेवा. तथा पजूसानी तिथी जे पांचम तेनी चोथकरी. उप
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५ लक्षणथी चोमासुं पुनमर्नु टाली चौदशर्नु कर. तथा जोजनविधि प्रमुख, शास्त्रोक्त विना पण आचरित प्र. माग. नोजनविधि ते मांमलीये बेसवू, वहेचीदेवं, इत्यादिक ॥ तथाच ॥ व्यवहारलाष्ये ॥ .
सबपरिणा बकाय संयमो पिंमनत्तरकाए रुके वसहे गोवे जोहे साही य पुस्करिणी॥१॥एनो लेशथी अर्थ करे. जे पूर्वं शस्त्रपरिझाअध्ययन सूत्रार्थे नाणिने, साधुने नगमणकरता हता. अने हमणां दशवैकालिकनुं चो,अध्ययन नणेथके उगवणा थायवे तथापूर्वे पिंमेषणाध्ययन नएयांपली उत्तराध्ययन नणावता हता हमणां वगरजणे पण नणाविये लिये तिहां दृष्टांत कहे . पूर्वे कल्पवृक्ष हतां, हमणां आंबाप्रमुखें काम चाले डे. पूर्वे अतुल्यबल धवल वृषन्न हता, हमणां धुसरेज कामचालेले. पूर्वे गोपजे कर्षणी, ते चक्रवर्त्तिने तेज दिवसे धान्य नीपजावी देताहता. आज तेविना पण काम चाले. तथा पूर्वे सहस्रयोधी हता, हमणां अल्पपराक्रमी सुनटोथी पण शत्रुनो पराजयकरी राज्य पालेले. तेम साधु हमणां जीतव्यवहारे पण संयम पालेले. तथा षट्मासनु प्रायश्चित्त होय तेने हमणां पांच उपवास कह्याले. तथा पूर्वे महोटी पुष्करणीन हती. हमणां नानी
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परिच्छेदः ४ ने तेथी कामचाले. इत्यादिक दृष्टांते जीतव्यवहार पण जाणवो. अथवा किं बहुना। जसबहा न सुत्ते पमिसिहं तेय जीयववहे नत्तं सर्वपि पमाणं चारित्त धणाण न. णियं च ॥१॥अवलंबिकण कजं जं किंचि समायरंति गीयबा थोवावराहबहुगुणं सवोर्स तं पमाणंतु॥२॥ इत्यादिक. जेम थार्यरहितजीये आचरथु, तेर्बलिका पुष्यमित्रजीये अंगीकार करयु. तेमज सुविहीते जेथा. चरयुं, तेने सर्व कबूल करे. ॥६॥
व्यवहारपांचेनापीया अनुक्रमेजेहप्रधान पाजतो तेमांजीत तेतजियेहोकेम विगरनिदान सा० ॥७॥
अर्थः-तेमाटेज कहेडे जे, पांचव्यवहार कह्यावे. तेमां अनुक्रमे जे प्रधान होयते आदरवो.
॥यक्तं ॥ कतिविहेणं नंते ववहारे पाहाते गोयमा पंचविहे ववहारे पणते तंजहा आगमे, सुए, आणा,धारणा, जीए, जहा से तब अागमे सिया बागमेणं ववहारं पठवेद्या १ पोय से तब बागमसिया जहा से तब सुए सिया। सुएणं ववहारं पध्वेधा २ पोय से तब सुए सिया जहा से तब आणासिया बाणाए ववहारं पव्वेजा ३ पोय से तब आणासिया जहा से तब धारणा सिया धारणाए ववहारं पव्वेका ५ णोय से
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ७७ तब धारणा सिया जहा से तब जीए सिया जीएणं ववहारं पध्वेद्या ५च्चे तेहिं पंचहिं ववहारं पध्वेजा तं० आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं जहा जहा से बागमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पव्वेजा से किं माहु नंते आगमबलिया समणा निगंथा श्वेयं पंचविहं ववहारं जदाजदा जहिंजहिं तहा तहा तहिंतहिं अगस्सितोवस्सयं समं ववहारमाणे निग्गंथे आणाए आराहए नवा इतिनगवतीसूत्रे शतक आम्मे उद्देशे आम
आजतोतेपांचव्यवहारमे जीतव्यवहार मुख्य ॥ जीतव्यवहारेज कामचाले तेजीतव्यवहार विगर निदानके कोपणकारणविनां केम त्यजियें एटले जीत व्यवहार जे प्राचार्यबांध्यो ते प्रमाण ॥७॥
श्रावक ममत्व अशुझ वली उपकरणवसतियाहार सुखशील जेजनाचरे नविधरियेहोतेचित्तलगार॥सा०७
अर्थः-हवे एवी आचरणा ते अप्रमाणले. केमके सिंझांतमां ना कही जे, श्रावकनुं ममत्व न कर. यतः गामेवा कुलेवा नगरेवा देसेवा ममत्वनावं नकहिंवि कुद्या इत्यादि, श्रावकनु ममत्वकरे ते अप्रमाण . तथा अशुभमान उपगरण वसति थाहारप्रमुख
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परिच्छेदः ४ लेवानी बागममां ना कही.अने जो लीयेतो ते था. चार अप्रमाणले. यतः आगमे, पिंमसिऊंच व च चनबं पायमेव य अकप्पियं न इन्डिा पमिगाहेद्य कप्पियं ॥१॥इति उपनदणथी वस्त्रपात्रादिक पण एम जाणवा. माटे, सुखशीललोके जे आचर'. एटले पोताना शरीरनी शोनाने अर्थे जे आचरथु ते अप्रमाण. बाकी उनिहादिक कारणे तो कां अशुलीये,तोपण निर्दोषो. यतः ॥ पिमनियुक्तौ ॥ एसो थाहारविहि जह जणी सनावदंसीहिं धम्मावस्सगजोगा जेण न हायति तं कुद्या ॥१॥ तथा, कारणपमिसेवा पुण नावे. श्रणासेवणत्ति दिवा,आणाइतिश्नावे सो सुझोमुकहे. उत्ति ॥॥ इत्यादिवली नववाइसूत्रे “सुझसणीए" एवा अनिग्रह मुनियेकरघा, तेथी जाणीए बीए जे, पुर्व अशुरूपण कोक कारणे लेतादीसे. एअपवादतो प्रमाण बे. पण सुखशीनलोके जे आचरयुं ते चित्तमा लगार पण न धरीए एटले एनाव जे, प्रसहयाचार्य लगेतो चारित्र, सिहांतमा सनिलीये बीए.अने जे मार्गानुसारिणी क्रिया कही तेरीते यलकरता होय तेने चारित्रिया न मानीएतो, एथी बीजा चारित्रिया तो देखाता नथी, तेवारे चारित्र विजेदगयुं? एम तरयुं तोते चारित्र विना तीर्थपण विजेदगडे एम ठरघु. एमकरतां तो आगम
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
७.
विरुद्ध थायडे ॥ यतः व्यवहारभाष्ये ॥ जो नाइ नचि धम्मो नय सामाइयं न चेवय वयाई । सोसमण संघब
कायो समसंघेण ॥ १ ॥ इत्यादिवचने तो, मार्गानुसारिक्रियानो करनार ते नाव साधुबे एम ठरधुं ए प्रथम क्रियानामा जेदथयो ॥ ८ ॥
इहां कोइ कहेशे जे, तुमातो पंचांगी प्रमाणे याच रणा प्रमाणको तो, कल्पनु धरवु कोलिका इत्यादिक, आचरणा पंचांगीमां नथी, तेंने तुमो केमप्रमाण करोगे ? तेहने कहीए हेसौम्य अमो पंचांगानुसारे प्रकरणादि याचरणा सर्व प्रमाण करीएबीए तेथी ए पूर्वोक्त केटलीक याचरणा तो पंचांगी प्रमाणेडे. अने केटीक पंचांगी अनुसार यागमयनिषेध याचरणाढे ते याप्रमाणे कपमानुं पांगरखं. तथा कोलि हाथमां कालवी. तथा उपग्राहक उपधि संथारियाप्रमुख राखवा. अथवा तुंबाप्रमुखने मुख करकुं. दोरादिक देवा. अने शीकी दोरानी फोलिना श्राधारविशेष जोजनविधि, मांमलीए बेसj वेचीदेवं इत्यादिक, पंचांगी अनुसार आगम निषेध याचरणा. केमके, मूलमार्गेतो पंचांगीमें कपमाप्रमुख उपगरण स्वस्वकार्यना उपयोगजणी चाल्या. पण कालदोषे, बल बुद्धि उपयोग हांणी
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८०
परिच्छेदः ४ जाणीने गीतार्थोए पांगरवादिक हेरफेर आचरणा करी तेनो पंचांगीमां निषेध नथी, तथा चोलपटक आंटी तथा दवरादिके राखवा. तथा पजूसणनीतिथि जे पांचम, तेनी चोथकरवी, चोमासुं पुनमनुटाली चौक्शनु करवं, दमासणादिक राखवां, वली पात्रे लेप देवा, इ. त्यादिक आचरणा, श्रीतीर्थोद्गालीपयन्नामे तथा वृहकल्पवृत्ति श्रीनिशीथसूत्र, तेनीचूर्णीप्रमुख पंचांगीमां, प्रगट कही. ते पाठ ग्रंथगौरवना नयथी लख्या नथी. पण ए सर्व पाचरणा पंचांगी प्रमाणे तथा पंचांगी अ. नुसार अनिषेध आचरणा जाणवी. कारणके, आगममां जेनो निषेध न होय,अने असावद्य अशठ गीतार्थ
आचरितहोय ते बागम अनिषेध आचरणा कहीए ते कह्यं ॥ श्रीमदयशोविजयजी उपाध्यायजीए सवासो गाथानास्तवनमां ॥
॥तेपात ॥ ॥जेहनागमवारीन दीसेअशग्याचा. रोरे तेहजबुधबहुमानिन श्रुझकह्योव्यवहारोरे ॥तुज०६६
॥ व्याख्या ॥ जेहवागमके० सिझतमाहे नथी वारयो अशठपरिणामीनो आचार दीसे तेहज बुधब. हुके घणापंमिते मान्यो शुझ व्यवहार कह्यो ।
॥ उक्तंच ॥ मग्गो बागमणिई थहवा सविग्गबहु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धारः
८ १
जणाईनं उजयानुसारिणीका सामग्गानुसारिणि किरिया ॥ १ ॥ इत्यादि तथा सवेण समाइन्नं जं कचर केई असावऊं णिवारियमन्नेहिं जं बहुमणुमेामा यरियं ॥ २ ॥ तथा वत्तणुं वत्तपवत्तो बहुसो व्यासेविन महाणेण एसोय जियकप्पो पंचमऊ णाम ववहारो ॥ ३ ॥ ६६ ॥ इहां श्रागम निषेध याचरणा प्रमाण करवी कही, पण श्रीगचाचारपयन्ना प्रमुखमां, श्रीवीरशासनमां श्वेत मानोपेत वस्त्रनोत्याग करी, पीतादिक एटले रंगेला वस्त्र धारण करे तेने गमर्यादा बाहिर काबे ॥
॥ तेपाठ ॥ गाथा || जब य वारमियाणं तत्तमिग्रा पांच तहय परिनोगो मुत्तुं सुकिल्लवचं कामेरा त गमि ॥ ८९ ॥ टीका ॥ तथा यत्र गच्छे वार मियाणंति रक्तवस्त्रणां तत्तमियाांति नीलपीतादिरंजितवस्त्राणां च परिनोगः क्रियते किंकृत्वेत्पाह मुक्का परित्यज्य किं शुक्लवस्त्रं यतियोग्यांबरमित्यर्थः तत्र कामे रतिः का म र्यादा न काचिदपीति अवि गाथानंदसी ॥८॥
अर्थः- नगवंत श्रीमहावीरव- ईमानस्वामी गौतम गणधर कहे. गौतम गणधर जेगमां रक्तवस्त्रोने खने नीला पीला रंगितवस्त्रोने पेहेरेले एटले रंगेलां
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७२
परिच्छेदः ४ वस्त्रजोगवे. शं करीने ते कहे के, जतीने जोग्य वस्त्र सुपेतले, तेतो न पांगरे, अने रंगेला वस्त्र पांगरे, ते गबमां, सीमर्यादा. एटले तेगड मर्यादा रहित ॥ वली साधीयोंना अधिकारमां पण लखेले ॥ ___ गणिगोयम अजानविय सेवा विवङि सेवए चित्तरूवाणि न सा असा विश्राहिया ११२ टीका ॥
हेगणिन् गौतम या आर्या नचितं श्वेतवस्त्रं विवय॑ चित्ररूपाणि विविधवर्णानि विविधचित्राणि वा, वस्त्राणि सेवते उपलक्षणात्पात्रदमाद्यपि विचित्ररूपं सेवते सा आर्या नव्याहृता न कथितेति विषमारेति गाथाबंदः ॥११॥
अर्थः-हेगणधर गौतम जे साध्वी जोग्यवस्त्र सुपेत एटले धोलां वस्त्र, तेहने वर्जीने अनेकप्रकारनांबीजां रंगेला वस्त्र पेहरे. ए कहेवाथी पातरां दांमाप्रमुख उपगरण रंगेला राखे तो. ते आर्या में कही नथी. एटले जे साधी पीला प्रमुख वस्त्र पातरां दांमा रंगेला राखे तो ते साधी नथी, एह अजोग्यवेशनी धरनारीने में साधी कही नथी. साधी तो श्वेतवस्त्र पेहरे तेहज जे. ॥ ___ एमज आवश्यकादिकसूत्रमा अविरतिदेवोने वांदवानोनिषेध तथा शिथलविहारीपासबादिके आचस्यां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ७३ नियतवासादिक आलंबन इत्यादिक आगमनिषेध ग्राचरणा अंधपरंपराए चालीभावी ते सुविहितोने प्रमाण करवा जोग्य नथी. तेमज कझुंडे श्रीयशोविजयजीनपाध्यायजीए सवासोगाथाना स्तवनमां ॥
॥तेपातः ॥ जेहमांनिजमतिकल्पना जेहथीनविनवपारोरे अंधपरंपराबांधिनतेह अशुध्याचरोरे तुज॥६
व्यारव्या ॥ जेहमां निजमतिनी कल्पना अतएव जेहथी नवनोपार न पामीए तथा जे अंधपरंपराए बांध्यो ते अशुभ आचार जाणवो ॥
॥ नक्तंच ॥ जहसमेसु ममत्त मित्यादि शिथिलवि हारीएआचस्यां पानबनजेकृमारे नियतवासादिकसाधुने तेनविजाणीएरुमारे तुझ ६७ ॥
॥ व्याख्या ॥ शिथिलविहारी पासबादिक, तेणे नियतवासादिक जे कुमां आलंबन आचस्यां, ते साधुने रूमा न जाणीएं. यतः नीयावासविहारं चेश्यनत्तिं च अधियालानं विगईसुअपमिबई णिदोसंचोयाबिंती॥ १ इत्यादिक बावश्यके एहना उत्तर सर्व तिहां डे. आलंबन तो कल्पना मात्र ले.
॥ उक्तंच ॥ आलंबणाण लोगो नरिन जीवस्स अ. जककामे जंजं पास लोए तंतं अानंबणं कुणइ १ ॥६॥
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परिच्छेदः ४ नपरलरव्यानो सरांश एने के जीत प्राचरणाव्यवहार तीर्थकर आझाएं सूत्रअविरुपरंपराए प्राव्युते अात्महितेनुनने, प्रमाणकरवां पण, तीर्थकराझाविना सूत्रविरुइ जीत आचरणा बहुश्रुतनी पण करेली अप्रमाण कहीजे.
॥ तथाचोक्तं ॥ श्रीव्यवहार, निशीथ, घनियुक्ति, नाष्य, चूर्णी, वृत्तिष. ॥ तत्पावः ॥ तिबयरे जगवंते जगजीववियाणए तिलोएगा जोनकर पमाणं न सो पमाणं सुहहराणं १ ॥ तिबयरेहि कयमिणं गणहराणं तुतेहि सीसाणं ततो परंपरेणं आगयमिण तेण जीयंतु २ ॥ इह लोगंमि अकित्ती परनोए पुग्गए धुवा तेसिं आणं विणा जिणाणं जे ववहारं ववहरंति ३ ॥ इह लोगंमि विकित्ती परलोए सो गईधुवा तेसिं बाणाए जिणंदाणं जे ववहारं ववहरंति ४ प्राणा जिणंदाणं नहुबलियतराठ प्रायरियाणा जिणाणाए परिनावो एवं गबोअविणनय १ ॥ श्रीनिशीथचौँ अथ श्रीनघ निर्यक्तौ चोयगवयणं प्राणा प्रायरियाणं त खंमिया तेण साहम्मिय कऊपन्यया ए सुचिरेणवि न गछे॥१॥ तिबयराणा चोयग दिळंतो गामनोइयनरवणा जत्तुगयनोश्य दंमिएय घरदार पवकए २ रन्नो तणघरकरणं सचित्तकम्मं च गामसामिस्ल धुएहपि मकर विव
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५ यिनेणुवनय ३ जह नर वरुणो आणं अश्क्कमंता पमायदोसेणं पावंति बंधवहरोह बिऊयमरणावसाणाई ४ तह जिणवराण प्राण प्रश्क्कम तापमायदोसे पावंति ग्गपहे विणिवायसहस्सकोमी ५ तिबयरवयण करणे प्रायरिया कपए होश, कुद्या गिनाणगस्सन पढमालियजाववहिगमणं ६ जश्तापासबोसन्न कुसीलनिएहगाणपि देसियं करणं, चरकरणानसा सप्नावपरम्मुहाणंच ७ किं पुणजयणाकरणु, जुयाणदं तिदियाएणगुत्नाणं संविग्गविहारीणं सवपयत्तेण कायवं ॥॥
अर्थः-सकलजीवस्वरूपतणा जांण त्रिनुवनना गुरु जगत्पूज्य तीर्थकरनीजे प्राझा न माने ते बहुश्रुतनी प्राचरणा अप्रमाण ॥ १ ॥ तीर्थकरनं वचन गणधरे केल्यं पनी गणधरवचन स्थिवरे मान्यु. ते वचन परंपराएं अनुक्रमे आव्यं. ते जीतव्यवहार कहीए ॥२॥ जिननी अाझाविनाजे व्यवहार करे तेहने इहलोकेशपीर्ति अने परलोके दुर्गति हुवे. ३ अने जे श्रीवीतरागतणी आझाएं करी व्यवहारकरे. तेहने इहलोके कीर्नि अने परलोके नुत्तमगति हुवे. ४ ए व्यवहारसि-छातनी बिहं गाथा तणो अर्थ जाणवो ॥
श्रीवीतरागतणी आझापाग्वे प्राचार्यतणी आझा
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परिच्छेदः ४ सबल नही. अने जो परमेश्वरनी आज्ञापाखे, आचार्य तणी आज्ञा अधिक मानीएतो, त्रण दोष लागे. एक वीतरागतणी आज्ञालोपी तेनु पाप. १ अने अहंकार रुपि दोष. २ अने विनयनंगरुपि दोष ३ ए श्रीनिशीथनी गाथानो अर्थः ॥ ___ एक माहात्माने क्षेत्र जोवा गुरुए मोकल्यो मार्गे गिलाण कोई दीठो तेहनी सार करवी एहवं गुरुएं कडं त्यारे शिष्ये पड गुरुए देबजोवा माहात्माने मोकल्यो अने गिलांगनी परिचर्या करवा विचाले रहे तो तेहने गुरुनी आज्ञा तणो लोप हुवे. एम गलनां कार्यकरतां घणे काले क्षेत्रे न पहुचे. ए शिष्यनी पृहा नपरे गणधरे उत्तर दीधो के, परमेश्वरनी अाझा एम . गिलांपनी सारकरवीज अने एपरमेश्वरनु वचनलोपी प्राचार्यनु वचनकरे तो ते विराधक हुवे. ॥हां दृष्टांत ॥
कोइक राजा कटके चाल्यो, वाटे गाम एक आव्यो, गामलोके राजाने बाहिर तृणाना घरमा उतारो दीधो. अने गामना ठाकोरने धवन चित्रांमणवालाघरे उतास्थो राजा, ते वातजांणी कोप्यो. गामना गकोरने दमयो. अने गामना लोकोने पण दंमया. तेम राजामे श्रीवतिराग, गामाकोरनेठांमे आचार्य, गांमलोकने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकाद्धारः गंमे साधु साधी श्रावक श्राविका, स्वामीनी आज्ञालोपी जीव गति अवतारनी सहस्र कोमी पामे. अने जो स्वामीनी आज्ञा करे तो, गुरुवाशानुं फल पांमे, ए श्रीनधनियुक्ति गाथाम्नो अर्थ जाणवो, ए व्यवहार नाष्यादिक पाठनो ए परमार्थडे के, जिनयाझायुक्त गएणधरपरंपराए अावी आगमोक्ताचरणा, तथा पंचांगी अनुसारे सूत्रअनिषेध आचरणा आचरे, तेने गीतार्थ आचरणा कहीए. पणजे आचरणाने सूत्रानषेधे तथा पंचांगीमा जे आचरणाकरवानी खुलावट होय, तेने निषेधी, बीजी आचरणा बहुश्रुत एटले घणानणेला
आचार्यादिकनी करेली होय, ते गीतार्थ आचरणा न कहवाय. किंतु सठ आचरणा कहेवाय. ते आचरणा नवनीरुपुरुषोने प्रमाणकरवाजोग्य न होय. ॥इति आ. चरणानिर्णय ॥
॥ इति चतुर्थस्तुतिनिर्णयको बारेऽपरनानि चतुर्थ स्तुतिकुयुक्तिनिर्णयजेदनकुगरे गीतार्थाचरणानिदर्शनो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ॥४॥
॥ एआचरणा लखवानु मुख्यप्रयोजन ए डे के,प्रा. मारामजी आनंदविजयजीए चतुर्थस्तुतिनिर्णयना पृष्ठ ए मामां, चैत्यवंदनमहानाष्पोक्त आचरणानुं स्वरूप
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परिच्छेदः ५ नरव्युं ते आचरणा जे एक सूत्र माने, पण पंचांगी न माने, अथवा पंचांगीअनसारे प्रकरणोक्त गीतार्थाचरणा न माने. तथा एक शक्रस्तवकरीनेज देवगहमां चैत्यवंदनामाने. तेहनी शिदानेर्थे श्रीशांत्याचार्यजीए गुरुशिष्यप्रभोत्तररूपें, चैत्यवंदनाना नवप्रकाराश्रि, याचरणानस्वरूप लखेडे, पण पंचांगिना मानवावाला याश्रि, तथा पंचांगीयनुसारे प्रकीणोक्त नवप्रकारे, चैत्यवंदना मानवावालाने आश्रि ए कथन नथी ॥
॥ तथाच तत्पातः ॥ तीसे करणविहाणं नद्य सुताणुसारन किंपि संविग्गायरणा किंची ननयंपि तंन णिमो ॥१५॥ पुल सीसो जयवं सुत्तो श्यमेव साहिन जुत्तं किं वंदणाहिगारे आयरणाकीरइसहाया ॥१६॥ दीसश्सामन्नेणं बुत्तंसुत्तमिवंदविहाणं नवश्यायरणाम विसेसकरणकमोतस्स ॥१७॥ सुयणमेत्तंसुतं प्रायरणान्यगम्मश्तयबो सीसायरियकमेहि नयंतेसिप्पसबाई॥१७॥ अन्नंच, अंगोवंगपश्नय नेयासुअसागरोखनुअपारो कोतस्तमुश्मशं परिसोपंमिचमाणीवि ॥ १६॥ किंनुसुहकाणजणगं जंकम्मरखयावहंअठाणं अं. गसमद्देदे नणियंचियतंजग्नशियं ॥ २० ॥ सवयवाय मलं ज्वालसंगजनसमकायं रयणायरतुल्लं रखनुतासवं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ए सुंदरतमि ॥ २१ ॥ वोडिन्नेमूलसुए बिंडपमाणंमिसंप धरते आयरणानुनघर परमबोसवकोसु २२ जणियंच। बहुसुयकमाणुपत्ता आयरणाधरइसुत्तविरहेवि विक्षाए विपईचे नधादिसुदिठीहि २३ जीवियपुवंजीव जी. विस्सजेणधम्मियजणमि जीयंतितेपनन्नई आयरणा समयकुसनेहिं २४ तह्माअनायमूला हिंसारहियासुझाजगणीय सूरिपरंपरपत्ता सुत्तवपमाणमायरणा ॥२५॥
॥व्याख्या॥ ते चैत्यवंदन करवाना निन्नप्रकार एटले जघन्यादि नवप्रकारना विधिनेद केटलाक तो सूत्रधनुसारथी जाएया जायजे. अने केटलाक संविनगीतार्थोनी
आचरणाथी जाएया जायडे. अने केटलाकसूत्र अने गीतार्थ आचरणा बेचंथी जाएया जाय. ए पूर्वोक्त त्रण प्रकारथी हुँ चैत्यवंदनानु स्वरूप कहुलु.॥१५॥अवतरण। माहानिशीथसूत्रमा चैत्यवंदनानां सूत्र कह्यां. तथा रा. यपसेपी, जीवानिगमादिक, सूत्रमा शकस्तवादिक नमस्कारे, चैत्यवंदना कही, सूत्रानुसार १ अने श्रीबृहत्कल्प, व्यवहारनाष्यादिकमां जीताचारे पूर्वधरोएं, मध्यमोत्कृष्टविधिएं, चैत्यवंदना कही. ते गीतार्थ श्राचरणा अनुसारे॥२॥ वली श्रीपंचमश्रुतकेवली श्रीजद्रबाहुस्वामीकत वंदनपयन्नोक्त चैत्यवंदनाविधि अनुक्रम. तथा
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परिच्छेदः ५ श्रीहरिनद्रसूरिकत पंचाशकजीमां कहेला उपनदारूप त्रणनेद, तेहना स्वजातीय बेबे नेद ग्रहण करवाथी, चैत्यवंदनाना नवनेद ते ननयानुसार. ॥३॥ एत्रण प्रकारथी आचार्य चैत्यवंदनानुं स्वरूप कहे.
॥ अथ शिष्यप्रश्नगाथार्थः ॥ शिष्य पूजे के, हे जगवन् सूत्रनीवार्ता एज कहेवी युक्तले. पण तुमे वंदनाना अधिकारमें आचरणानी सहायता केम ल्योडो. १६ अवतरण ॥ शिष्यना प्रश्नमां पंचांगी निरपेक्ष एकांत सूत्रवार्ता ग्रहणकरवानो अनिप्रायडे. पण पंचांगीअनुसारे प्रकरणोक्तगीतार्थ आचरणा ग्रहणकरवानो अनिप्राय नथी. तेअभिप्राय जणाववा, आचार्य शिष्यने नतर दे. ___ गुरू कहेडे हेशिष्य सूत्रमें चैत्यवंदनाविधिना नेद सामान्यमात्र एटले संक्षेपमात्रकरीने कह्याने. ते चैत्यवंदनाना जे क्रमले ते विशेषेकरीने आचरणाथी जाएया जायजे. १७ केमके सूत्रजेने ते सूचनामात्र. वली आचरणाथी ते सूत्रना अर्थ जाएया जाय जेम शिल्पशास्त्र पण शिष्य अने आचार्यने क्रमे करीने जाएयु जाय पण पोतानी मेले जाएयु न जाय १ ॥बे गाथानु नेनुं अवतरण ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५१ माहानिशीथादिकसूत्रमा चैत्यवंदनाविधि. तथा तेना जघन्यादि नवप्रकारना नेद, तथा ते दोना क्रम, संदेषमात्रकरीने कह्याले. तेथी ते चैत्यवंदनाना नेद, विधि, क्रमविशेषे आचरणा, एटले जंबूप्रनवादिक श्राचार्यपरंपराएं प्रावी आचरणा ते पंचांगी तथा पंचांगी अनुसारे प्रकीर्णकादिक आचरणाए जाणी जाय.केमके, सूत्रनासूचनामात्रपणाथी, तेनंना अर्थ, वृत्त्यादिक, पंचांगीअनुसारे, प्रकीर्णकादिकथी जाएया जाय. जेम शिल्पादिकशास्त्र नाव, आचार्यना देखाम्या जाएया जाय, तेम चैत्यवंदनामां मुद्रा न्यास प्रमुख पण, "टीका गुरूणां गुरु;" ए वचनथी वृत्यादिकअनुसारे, गीतार्थाचरणाएं, जांएया जाय. पण स्वयमेव न जाएया जाय. तेमज अन्यवार्ताएकरी, सूत्रनो नाव आचार्य नजरखावे.॥तथा बीजीपण एक वार्ता ॥ अंगोपाग प्रकीर्णक नेदेकरीने श्रुतसागर जे जे ते निश्चयकरीने अपारडे. कुंण ते श्रुतसागरना मध्यने अर्थात् श्रुतसागरना परमार्थने जाणी सके. पोताना प्रात्मामें चाहे जेटनु पंमितपणु मानतो होय तोपण ॥१ए ॥ अवतरण ॥ पोते पोताना आत्मामें अत्यंतपंमितपणुं मानतो होय तोपण वृत्त्यादिक अंग विना एटले पंचांगी विना श्रुतसमद्रना तात्पर्यने न जागीसके, हवे शुन अनुष्टान होय ते आगमनां अंग
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परिच्छेदः ५ होय. तेने प्राचार्य, बागली गाथाए दरसावे. ॥ किंतु जे अनुष्ठान शुनध्याननां जनक होय. अने कर्मोना क्ष्यकरवावाला होय. ते अनुष्टान निश्चेज शास्त्रनां अंग बे. शास्त्ररूपसमुद्रना विस्तारमेंज कह्यां थकां जांणवां. तेवास्ते शास्त्रमें एम कडंडे. ॥२॥सर्वशुनअनुष्टाननां कहेवावालां द्वादशांग. केमके, द्वादशांग जे जे ते, रलाकरसमुद्र. अथवा रलोनी खांणि सरीखां ने. ते वास्ते जे शुनअनुष्टान डे ते सर्ववीतरागनी आझा होवाथी सुंदर. ते श्रुतरलाकरमें २१ मूलसूत्रोना व्यवच्छेदें,एटले विल्छेद हुवा. अने बिंडमात्र वर्तमानकालमें धारणकरयां बतां, अर्थाबिंउमात्र मूलसूत्रने रहेथके, तेसूत्रथी सर्व अनुष्टाननु विधान केम जांएयुं जाय. तेवास्ते आचरणाथीज सर्वकर्तव्यमें परमार्थ जाएयो जायजे.॥२॥त्रण गाथानो नेनुं अवतरण ॥ दिवससंबंधि प्रायश्चित्त टालवाना कायोत्सर्गादिक. तथा स्तुतिस्तवादिकेकरी जघन्यादिक नवप्रकारनी चैत्यवंदना. इत्यादिक कर्मक्ष्य करवावालां, शुनध्याननां जनक अनुष्टान, ते शास्त्रनां थंग. एटले सूत्रमा न कह्यां होय तोपण सूत्रमा कहेला ज जाणवां. केमके, सर्वनिरवद्य अनुष्टान करवानी आज्ञा वीतरागनी. ने ते सर्व निरवद्यअनुष्टान- कथनकरवावालां सिझत. पण देवादिकने सामायक
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
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प्रमुखमा नमस्कारप्रमुख करवुं तथा वीरना शासनमां पीला प्रमुख वस्त्रेकरी लिंगभेद करवो इत्यादिक सावद्य क्रियानां कथन करवावालां सिद्धांत नथी. तेथी पूर्वोक्त शुभअनुष्टाननु कथन करवावालां सिद्धांत जाणवा. ते मूलसिद्धांत द्वादशांगी, अढारहजारादि पदप्रमाण विछेदगयां थकां संप्रतिकाले पूर्वश्रुतसमुद्रनी अपेक्षाए बिंदुमात्र रह्यांबे. ते सूत्रोथी अनुष्टाननो विधि, सामान्यपणाथी सर्वप्रकारे जाएयो न जाय, तेथी जंबप्रजवादिकनी आचरणाए श्रावेली शुनप्रनष्टाननी प्राचरणा, ते गीतार्थोए, पंचांगीमां तथा पंचांगी नुसारे प्रकरणादिकमां, कहेली बे. तेथी सर्वकर्त्तव्यनो परमार्थ जाल्यो जायडे. तेथी तेज याचरणानु स्पष्टपणु आचार्य प्रागली गाथा में देखा मेले.
बहुश्रुतोने क्रमकरीने जे प्राप्तथई श्राचरणा ते याचरणा, सूचना विरहमें सर्व अनुष्टानविधिने धारण करेले, जेम दीपकना प्रकाशथी जली दृष्टिवाला पुरुपोने, कोइक घटादिक वस्तु देखीने ते वस्तु दीपकना अस्तथया पढी पण स्वरूपथी भूजाती नथी. तेमज श्रागमरूप दीपकनो अस्तथये पण, यागमोक्त वस्तु, प्राचरणाथी सम्यग्दृष्टि पुरुषो, याचार्योंनी परंपराथी जांबे. तेनु नाम जीत कहे. ॥२३॥ अवतरण ॥
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परिच्छेदः ५ जेम ननीदृष्टिवाला पुरुपे दीवाढतां देखी जेवस्तु ते वस्तुने दीवो गए बते पण भूलता नथी. तेम बहुश्रुत पुरुष पणं प्रागमविसर्जन थए थके पण आगमनी वार्ता जूनता नथी. जेम श्रीदेवगिणिदमाश्रमणे, केटनोक पागम विसर्जन थयाथकां पण,आगमनी वार्ता भूल्या नही. ते वार्ता चूर्णादिकमां गुंथी. ते आगमोक्त बहुश्रुत परंपरागत आचरणा जाणवी. ते प्राचरणाथी सत्रविरहे सम्यग्दृष्टिपुरुषोने सर्वअनुष्टान जाएया जाय, ते जीत कहेवाय. ने जीतनेज समयकुशल प्राचरणा कहे ते प्रागनीगाथामें प्राचार्य स्पष्टपणे जगावे ॥
पूर्वकालमा धर्मीजनोमें जीव तो हतो अने वर्तमानकालमे जीवेडे. वली आगामीकालमें जीवशे. जैन शास्त्रमें ते जीत ने समयकुशल आचरणा कहे.॥२४॥ तेवास्ते जो अज्ञातमून होय, एटले जेहनी खबर न होय के, या आचरणा किया कालमें किये आचार्ये चलावी. तेहने अज्ञातमूल कहीए. एहवी अझातमूल प्राचरणा, हिंसारहित शुनध्याननी जननी होय अने प्राचार्योनी परंपराए करीने प्राप्तहोय, ते पाचरणाने सूत्रनी पेठे प्रमाणभूत मानवी जोइए ॥ २५॥ बे गाथानु नेनुअवतरण ॥ जीव्यो जीवे ने जीवशे, धर्मी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः . ५५ जनोमें, तेहने जीत कहीए. एटले पूर्वधरोना अवसरमा जे आचार वर्त्ततो हतो ते जीव्यो कहीए. ते पूर्वधरोंनो आचार, पूर्वधरादिके पंचांगी तथा पंचांगी अनुसार प्रकरणादिकमां गुंथ्यो, ते वर्तमानमां वर्नेले. तेहने जीवे ने कहीए. अने ते पंचांगीअनुसारे आगामीकाले, श्री अप्रसहसूरि यावत् प्रवर्तशे तेहने जीवशे कहीए.ते जीते करीने आचारनुं प्रवर्त्तवं, तेहने जीताचरणा कहीए. ते अनुसारे हिंसारहित, शुनध्याननी नत्पन्नकरवावाली, कियाकालमें कियाघाचार्ये आचरी, एहवी खबर न होय तेहने अज्ञातमूल आचरणा कहीए.॥
जेम श्रीहरिनद्राचार्यकृत पंचवस्तुकोक्त प्रतिक्रमण विधिमां पर्वे वईमान त्रस्ततिसधी प्रतिक्रमण स. माप्ति करी, थोमी वेला गुरुपासे विश्राम करी, कता ने हमणां स्तवन स्वाध्याय पर्यंत प्रतिक्रमणनी समाप्ति करी उठे. ए आचरणानी खबरनथी के, कियाकालमें किया आचार्ये चलावी. एहवी अझातमूल निरवद्य
आचरणा होय, तेहने सूत्रप्रमाणे प्रमाण करवी. इति नाष्यगाथावतरणं॥
सूत्र अनिषेध, निरवद्य आचरणा, सूत्रमुजब अं. गीकार करवी कही, पण गाढकारण विना रात्रे विहार
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परिच्छेदः ५ करवो. तथा पोताना वास्ते रंधायेलो आधाकर्मी आहार जाणीने लोगववो अथवा साधुने चोमासुंआवता जांणी, मुकाम जग्या साधुनिमित्ते, गृहस्थ बनावी राखे, ते वस्तीमां जांणीने रहे वली अविरति देवादिकने नमवा अने पूजादि विशिष्टकारणविना चतुर्थस्तुतिए देववंदननु कर. जे काणे आचार्यादिके क्रियाकरवानी कही बे, ते काणे न करवी ने विपरीतपणे करवी. गाढकारण विना लिंग बदलों करवो. वसतिए गृहस्थे सांमां लावेलां वस्त्रपात्रादिक लेवां, चोमासुं रहे तिहांथी विहार करतां पात्र वस्त्र लेवां, इत्यादिक आगमनिषेध सावध आचरणा प्रमाण न करवी. केमके, एहवी सावद्याचरणाने, गीतार्थोप्रवर्तन करे नही. ने जेआचरणानो विधिनिषेध सूत्रमा न होय एहवी, हिंसारहित निरवद्य आचरणा, जे परंपराए घणा कालथी प्रवर्नेली होय, ते आचरणाने, गीतार्थ निषेध पण करे नही. तेमज कझुंडे. श्रीधर्मरलप्रकीर्णमां श्रीशांत्याचार्यजीए.
॥तेपा॥ ॥ननु सूत्रनणितं प्ररूपयतीत्युक्तं यत्युनः सूत्रानुक्तं विचारपदं लोकानां तत्र एव्यमानानां गीतार्थानां किमुचितमित्याह ॥ ॥जंच न सुत्ते विहियं नय पमिसिइंजणमि चिररूढं समविगप्पियदोसा तंपि न
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः एउ दूसति गीयबा एए ॥ इह चशब्दःपुनरर्थ इति यत्पुनरर्थजातमनुष्टानं वा नैव सूत्रे सिझते विहितं करणीयत्वेन नोक्तं चैत्यवंदनावश्यकादिवत् नच प्रतिषि प्राणाति पातादिवत् अथच जने लोके चिररूढमझातादिनावं स्वमतिविकल्पितदोषात्स्वानिप्रायसंकल्पितदूषणात्तदप्पा स्तामागमोक्तं न दूषयति न युक्तमेतदिति परस्पनोप दिशति संसारधिनीरवो गीतार्था विदितागमतत्वाः यतस्ते एवं श्रीनगवत्युक्तं पर्यालोचयंति तथा हि। जेणं मदुया अठंवा हेवा पसिणंवा वागरणंवा अन्नायंवा अदिठंवा नस्सूयंवा अपरिपायंवा बहुजणमसे आघवे पनवेश से निदसे उवदंसे सेणं अरहंताणं आसायणाए व बरहंत पहात्तस्स धम्मस्स आसायणाए वह केवलीणं आसायणाए वह केवलीपरपत्तस्स धम्मस्स अासायणाए वरदंच गीतार्थानां चे. तसि सदा चकास्ति तथाहि ॥ संविग्गा गीयतमा वि. हिरसिया पुवसूरिणो आसि तदूसियमायरियं अणइसई को निवारे १ संविना ममुदवो मोदानिलाषिणो गीयतमेत्तिपदेकदेशे पदप्रयोगो यथा नीमसेनो नीम इति ततो गीतार्थाः तमपि प्रत्यये गीतार्थतमा तिनवंत्यति शयगीतार्था इति नावस्तत्काले बहुतमागमसद्भावात् ॥ तथा विधी रसो विद्यते येषां विधिरसिका विधिबहुमा
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परिच्छेदः ५
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निनः संविग्रत्वादेव पूर्वसूरयश्चिरंतनमुनिनायका थासन्ननूवन् । तैरदूषितमनिषिद्धमाचरितं सर्वधार्मिकलोक व्यवहृतमनतिशयी विशिष्टश्रुतत्वादवध्याद्यतिशयविक
लःको निवारयति पूर्वपूर्वतरोत्तमाचार्याशातनानीरुर्न कश्विदिति ॥ तथैतदपि गीतार्थाः परिभावयति ॥ इसाहसमेयं जं, तस्सुत्तपरूवणा कविवागा, जाएते हि विदिद्य, निद्देसो सुत्तबच्चो १०१ ज्वलज्ज्वा जानल प्रवेशकारिनरसाहसादप्यधिकमतिसाहसमेतद्वर्त्तते यत्सूत्रप्ररूपणा सूत्रनिरपेक्ष देशना कटुविपाकादारुण फला जानानैरवबुध्यमानैरपि दीयते वितीर्यते निर्देशोनि श्वयः सूत्रबाह्ये जिनेंद्रागमानुक्तेऽर्थ वस्तुविचारे किमुक्तं नवति । झासिए इक्केण, मिरीइ डकसागरं पत्तो जमिन कोमाकोमिं, सागरसरिनामधेयाणं १ उस्सुत्तमायरंतो, बंधइ कंमं सुचिक्कणं जीवो, संसारं च वमृइ माया मोसं च कुइय २ उम्मग्ग बेसच मग्ग नासन, गूढहि ययमाइल्लो सढसीलो य ससल्लो, तिरियानं बंधए जीवो ३ उम्मग्गदेसणाए, चरणनासति जिवरिंदाणं, वावन्नदं सपा खनु, नहुलना तारिसा दहुं ४ इत्याद्यागमवचनानि श्रुत्वापि स्वाग्रहग्रहग्रस्तचेतसो यदन्यथान्यथा व्याचक्षते विदधति च तन्महासाहसमेवानर्वाक् अपारासारसंसा रपारावारोदर विवरनाविनूरिङः खनारांगीकारादितिग्राह
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः एए किमेवमागमार्थमनवबुध्यापि कोप्यन्यथावादमाद्रियते यत थाह ॥॥ दीसंतिय दमुसिणगे, नियमइए उत्तजुतीहिं, विहिपमिसेहपवत्ता चेश्यकिच्चेसु रूढेसु १०५ दृश्यंते उखमारूपे वक्रजमबहुले काले दमसिणो महासाहसिका रौद्रादपि जवपिशाचादबिभ्यतोऽनेके निज मतिप्रयुक्तानिरात्मीयबुद्धि व्यापारितानियुक्तिनिरुपपत्ति निर्विधिप्रतिषेधप्रवृत्ता ति कासांचिक्रियाणामागमानुक्तानामपि विधौ करणे प्रवृत्ता अन्यासामागमानिषिश्तया चिरंतनजनाचरितानामप्यविधिरयुक्तापरा न कर्त्तव्या धार्मिकैरित्येवं प्रतिषेधे प्रवृत्ताः केषु चैत्यकृतेषु स्नात्रबिंबकारणादिषु रूढेषु पूर्वपुरुषपरंपरया प्रसिझेषु पूर्वरूढिरविधिः इदानी प्रवृत्तिर्विधिरित्येवं वादिनोऽनेके दृश्यंते महासाहसिका इति ननु तेषां स्वमत्या धर्मार्थिनां सर्वयलेन तथा प्रवृत्तिर्गीताथैः श्लाघनीया नवेत्याह तं पुण विसुझसझा, सुयसंवायं विणा न संसति अवहीरि कण नवरं, सुयाणुरूवं परूवति १० ३॥ तां पुनस्तेषां प्रवृत्ति विशुझागमबहुमानसारा श्रझा येषांते विशुरू अक्षाः श्रुतसंवादं विना श्रुतनणितमंतरेण न शंसति नानुमन्यते । नवरं, केवलमवधार्यमध्यस्थनावनोपेक्ष्य श्रुतानुरूपं प्ररूपयंति यथा सूत्रे नणितं तथैव विवदि पूणामुपदिशंतीति ॥
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परिच्छेदः ५ ___ एपाठमां शिष्ये प्रश्नकस्युं जे सूत्रमा का, ते तो गीतार्थ प्ररूपण करे, पण सूत्रमा न कहेला विचार,लोकोए पूढे बते गीतार्थोने शुं कहेवु नचितडे.
तेवारे गुरु कहेते. जो वली प्रयोजने थयेनुं अनुष्टान, अथवा सिझांतमा करवापणे न कह्यु, चैत्यवंदन
आवश्यकादिकनी पेठे, अने निषेध पण करयु नही प्राणातिपातादिकनी पेठे, एटले चैत्यवंदनामें मद्रादि विधि तथा जघन्यादिक नवप्रकार एहवीरीते करवा, एह प्रतिपादन पण न करयुं होय अने प्राणातिपासादिक निषेध्यं तेम निषेध पण न करयुं होय एहवां अनुष्टांन अथवा लोकोमा घणा कालनां प्रवर्तेलां निर्वद्य अज्ञातमूल अनुष्टांन होय ते पण स्वमति विकल्प दोषथी गीतार्थ निषेधे नहीं तो, आगमोक्त अनुष्टांन तो नज निषेधे. ए अनुष्टांन न करवां एह परने नपदेश न करे. केमके संसारध्थिी जय पामेला आगमतत्वना जाण गीतार्थ, ते एम श्रीनगवती सुत्रोक्त
आलोचना करे ते कहेले. जे हे मद्दक अर्थ, हेतु, प्रश्न प्रतिवचन, अणजाएयो, अणदीतो, अणसांनल्यो, अथवा विशेषे अजाएयो, घणालोकोमें कहे, प्ररूपे, देखाडे, निर्देशकरे, उपदेशकरे, ते अरिहंतनी आशातनाएं
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
वर्ते. अरिहंत प्ररूपितधर्मनी प्राशातनाएं वर्त्ते. वली केवलिनी यातनाएं वर्ते. केवली प्ररूपित धर्मनी प्राशातनाएं वर्त्ते. एटले जे प्राणी अज्ञातपणाथी सूत्रोक्त अथवा सूत्रप्रनिषेध प्राचरणानिषेधे ते णी - रिहंतादिकनी आशा तनानो जागी थाय. एहवं गीता - र्थोना चित्तमां सदा वर्त्ते. तेथी संविन मोहाभिलाषी तत्कालिक घणा प्रागमना सद्भावधी अतिशयवंत गीतार्थ तथा संविग्रपणाथी विधिना बहुमानी एटले अति यादरवंत पूर्वाचार्यनिकट थयेला तेमले न निषेध्यो एहवो सर्व धम्मलोकोनो निर्वद्य व्यवहार, तेहने विशिष्टश्रुत प्रवध्यादितिशय रहित, पूर्वपूर्व उत्तम थाचार्योंनी आशातनाना नीरु कोण वर्जे. अर्थात् नज वर्जे. एटले पूर्व प्राचार्योंनी निर्वेद्य आचरणाने उत्तरोत्तर श्राचार्य निषेधे नही. तथा ए पण, गीतार्थ समस्तप्रकारे जावे के, जाज्वल्यमान बलता निमां प्रवेशकारि पुरुषना साहसिक पणाथी पण, सूत्रनिरपेक्ष देशना देवा वालानु साहसिक अधिक वर्त्ते. केमके, कhai दारुण फल जाणतो थको पण, सूत्रबाह्य एटले जिनेंद्र श्रागममां न कहेला वस्तुविचारने विषे निश्वे देशना देवे. एन ए जावडे के, एकवचन खोदुं नाषण करी, मरीची दुःखसागरने पाम्यो, अने कोमाकोमी
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परिच्छेदः ५ सागरसूधी, संसारसमुद्रमां नम्यो. तथा उत्सूत्रने श्राचरतो जीव, जलीरीते चीकणांकर्म बांधे. वली माया मृषाएकरी संसार वधारे. वली जे प्रांणी नन्मार्गनो उपदेशकरि मार्गनो नाशकरे. गुप्तहृदयी मायावी शताचारी ससल्ली जीव, तिर्यचनु आयुष बांधे. अथवा नन्मार्ग उपदेशकरी, जिनेश्वर माहाराजना चारित्रनो नाशकरे. एहवा व्यापन्न दर्शन एटले सम्यक्त्वज्रष्ट पुरुषोनुं देख पण रूडुं नही. इत्यादिक आगमनां वचन सांजलीने पण, पोताना प्रायहरूपी ग्रहमां ग्रस्त चित्त थयोथको, अन्यथा कहे. एटले सूत्रविपरीतप्ररूपणाकरे. ते प्राणी, नथी जेहनो पार एहवा यासंसार समुद्रमां, श्रागामी घणा उखनार अंगीकार करवायी महासाहसिकपणुं अंगीकार करे. इहां शिष्य कहे शुं बागम अर्थनो अजाण पण, कोई अन्यथा वाद अंगीकारकरे?
गुरु कहे. दीसे. जखमाकालमा घणा वक्रजम महासाहसिक रुद्र बीहामणा नव पिशाचथी नहीं मरताथका अनेक प्राणी, पोतानी आत्मिक बुद्धि व्यापरित युक्तिए करी, एटले पोतानी मतिमां आव्यु ते युक्तिए करीने विधि प्रतिषेधमां प्रवला. एटले कोई क्रिया श्रागममां न कही होय तोपण ते करवाने प्रवर्ने. अने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धारः
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बीजी यागम निषेध क्रिया प्राचीन जने श्राचरेली पण "विधियुक्त ए न करवी धर्मिजनोए” एम निध प्रवृत्तिमां प्रवर्त्ते ने । विषे । चैत्यकार्य स्त्रांत्र बिंबकारणादि पूर्वपुरुष परंपराप्रसिद्ध रूढिनेविषे एटले जिन गृहमां अनेक बिंब कराववां ने एक बिंब मोटु करी मू ल नायक थापवा वली विविध प्रकारे पूजा स्नात्रादि न छव करवां देवगृहमां देववंदन करवां इत्यादि पूर्व पुरुष परंपराए करता होय ते निषेधी अन्यथा करे ने बीजो ते परमाणे विधिकरतो होय तेहने कहे. पूर्वरूढीतो
विधि हमणानी प्रवर्त्ति विधिबे. एम कहीने पूर्वाचार्योंनी मर्यादा निषेध करावे एहवा माहासाहसिक दुःखमा कालमां घणा देखायडे. ए गुरुनो प्रतिउत्तर थयां थकां शिष्य प्रश्न करेले . के हेस्वामिन् तेधर्मार्थियोनि स्वमति विकल्पितक्रिया, सर्वप्रयले करीने, जे प्रवर्त्ति ते गीतार्थोने प्रशंसवा जोग्यले के नथी ?
तिवारे गुरुकडे. ते स्वमत विकल्पोनी प्रवर्त्ति प्रतें श्रागमना प्रत्यादर करवावाला विश्रुश्रावंत पुरुषो श्रुतमां कहेलीजे प्रवर्त्ति, ते विना बीजी प्रवर्त्तिने न प्रशं से. बहुमान करे. एतलो विशेष जे, ते प्रवर्त्तिने हृदयमां अवधारणकरी, मध्यस्थनावे देखीने श्रुत प्रनुरूप एतले सिद्धांतथी मलती यथा सुत्रमां कहेलि, तेवीज रीते -
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१०४ परिच्छेदः ६ पदेश करे अन्यथा न करे॥ति चैत्यवंदननाष्यादिउक्त आचरणा स्वरूप ॥
॥ इतिचतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारे ऽपरनानि चतुर्थ स्तुतिकुयुक्तिनिर्णयछेदनकुठारे चैत्यवंदनमहानाष्यायुक्त प्राचरणानिदर्शनो नाम पंचमः परिजेदः ॥५॥
प्रश्न-सूत्रोक्त आचरणा श्या आधारथी कहो बो.
नत्तर-पूर्वोक्त ग्रंथोने अनुसारे तथा चैत्यवंदनमहानाष्यने अनुसारे.
प्रश्न-चैत्यवंदनमहानाष्यमांशुं का. . उत्तर-चैत्यवंदनमहानाष्यमा एम कडंडे ॥ नमि कण समणसंघ संघायार समास बुद्धं चेश्यवंदा विसयं सुत्तायरणाणुसारेणं ॥५॥
जावार्थः॥श्रमणसंघप्रते नमस्कारकरीने चैत्यवंदनविषयिक संघाचार एटले चतुर्विध संघनो आचार सूत्रधाचरणा अनुसारे करीने संदेपे कहुंदु ॥ इहां सूत्राचरणाए चैत्यवंदना कही.
प्रश्न-चैत्यवंदना अर्थात् देववंदना त्रणस्तुतिए करवी ते आगमधाचरणाए के, आगमअनिषेध आचरणाए..
उत्तर-आगमधाचरणाए पण अने बागमअनिषेध आचरणाए पण .
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १०५ प्रश्न-आगमाचरणाएं डे तो सूत्रागमधाचरणाए बे के अर्थागम आचरणाए .
उत्तर-सूत्रागम ने अर्थागम ए बिहूं आचरणाएंजे.
प्रश्न-सूत्रागम अर्थागम एबिहूं आचरणाएं ने तो पूर्वधर गीतार्थकत् सूत्रागम अर्थागम आचरणाएंजे के बहुश्रुत गीतार्थकत् सूत्रागम अर्थागम आचरणाएं डे..
उत्तर-पूर्वधर गीतार्थकृत सूत्रागम अर्थागम प्राचरणाएं पण अने बहुश्रुतगीतार्थकत अर्थागम आचरगाए पण बे.
प्रश्न-पूर्वधर गीतार्थकत सूत्रागम अर्थागम तथा बहुश्रुत गीतार्थकृत अर्थागमाचरणाए चैत्यवंदनामां त्रण स्तुति सिने तो, आत्मारामजी यानंदविजयजीए चतुर्थस्तुतिनिर्णयग्रंथ श्या अर्थे बनाव्यो.
उत्तर-पूर्वधर गीतार्थकृत सूत्रागम अर्थागम तथा बहुश्रुतगीतार्थकृत अर्थागमना प्रगट पातथी चैत्यवंदना त्रस्तुतिए करवी सिह थायडे पण जीव पदपातमे तथा दृष्टिरागमे पज्यो थको शुंशु असत्यनाषण न करे, अर्थात् करेज. तेथी आत्मारामजी आनंदविजयजीपण पोतानो बणावेलो जैनतत्वादर्श तेमां चैत्यवंदनामां त्रस्तुतिकरवीलखीने हवे राधनपुरना केटलाक
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परिच्छेदः ५ पदपाती अइलोकोना कहेवाथी पोताना मुखमांधी वमीने पानु नक्षण करवाने वली पूर्वधर बहुश्रुत शास्त्रकारोंना लेख जुग ठराववाने स्वकपोल कल्पित कुतर्क कुयुक्तिकरी पोतानी महना वधारवाने चतुर्थस्तुति निर्णय ग्रंथ बनाव्यो बे. पण परमार्थे चतुर्थस्तुति कुयुक्ति निर्णय सिह थायजे. केमके, जैनमतमां तथा जैनमतना शास्त्रोमां पूर्वधरादि अप्रमत्तप्रमाण पुरुपाना बनावेला आगमने अनुसारे बीजाग्रंथ प्रकरणादि प्रमाणकरवां कह्यांडे. तथा तेज पूर्वधरादिकनां करेला सूत्रमा कहेला विधिना विधानेकरीने, मोदानिलापि पुरुषोंने लौकिक कृत्यादि फलनी अपेदा रहित जिनपूजादि कर्त्तव्यपण सूत्रोक्त विधियेज करवां कह्यांडे श्रीदर्शनशुद्धिप्रकरण सूत्रवृत्तिमां जिनशासनमां दिवाकरतुल्य प्राचार्य श्री हरिनद्रसूरिजी श्रीदेवनद्रसूरिजी तथा श्रीचंद्रप्रनसूरि तथा विमतगणीप्रमुख कांजे.
तेपात ॥ सुतनणिएण विहिणा गिहिणा निवाण मिन्चमाणेण लोगुत्तमाण पूया निचं चिय होइ कायवा॥ सूत्रमप्रमत्तप्रमाणप्रधानपुरुषप्रणीत आगम उच्यते॥
॥ यत नक्तं ॥ सुत्तं गणहररश्यं तहेव पत्तेयबुरश्यं तु सुयकेवलिणा रश्यं अनिन्नदसपुविणा रश्यं १ शेषं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १०७ वर्वाचीनपुरुषप्रणीत प्रकरणादि सूत्रं न नवति प्रमाणतां पुनर्याति तदर्थानुकरणादेव तेहि कथंचित्प्रमत्ततया यहहयावादिनोपि नवंति तस्मिन्नणितः प्रतिपादितः सूत्रनणितस्तेन विधिनाविधानेन गिहिणा गृहस्थेन निर्वा णं मोदमिन्चमाणेनेति प्राकृतवशादानसु प्रत्ययःश्चतानिलपता लोकोत्तमानां सर्वजगन्छेखरकनृतानां पूजा पूजनं नित्यं सर्वदेव नवति कर्त्तव्याविधानेनेत्यर्थः इदः मत्र हृदयं जवज्रमणनीरुणा तचित्तिमिता शिव सुखमनिलषता जिनपूजादौ प्रवर्त्तमानेन लौकिककत्या दिफलनिरपेदवृत्यैव सूत्रोक्तविधिनैव च प्रवर्तितव्यं अन्यथा हि अनिलषितार्थासंसाधकत्वेन निःफलत्वप्रसंगात् नहीदमंगीकर्त्तव्यं यत तीर्थकदनुनावादेवेष्टार्थसिहिनविष्यति॥
॥ यत नक्तं ॥ समपवित्ती सवा, आणावसंतिनवफला चेव, तिबगरुदेसण वि,न तत्तनसात देशा इति ॥
गाथार्थः एपाउनोतात्पर्यार्थ उपरतल्याप्रमाणे जांवो तथा एपाठमा आचार्य पूर्वधरादिकृत प्रागमनुं प्रमाणपणु जणाव्युंने तेज पूर्वधरादिकना अनुकरण अर्थप्रमाणे बीजा ग्रंथप्रकरणादिकनुप्रमाणपणु जणाव्या बतां पण आत्मारामजी आनंदविजयजीए पूर्वधरादि
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परिच्छेदः ६ कोनीसाक्षीएं चतुर्थस्तुतियापनकरवी तो वेगली रही पण पूर्वधरादिकना बनावेना त्रस्तुतिना केटलाक प्रागमगुप्तंराखीने तथा केटसाक नत्थापीने अर्वाचीन पुरुषप्रणीत ग्रंथोनं अवष्टंन लेई पूर्वधरादिकनी त्रण स्तुतिनी आचरणा नत्थापीने असंबह लखाण करी चतुर्थस्तुतिनिर्णय ग्रंथ बनाव्यो ॥ तथा एग्रंथमां जे ग्रंथोनी सादी दीधी. ते ग्रंथ केटनाकतो पूर्वधरपडी अर्वाचीनकालवर्ति गीतार्थोना कहेला ने अने केटलाक अर्वाचीन गडवासीयोना करेलाबे पण पंचांगीना एके ग्रंथमां चतुर्थस्तुतिनुं कथन नथी. अने बीजाग्रंथोमा पूजादिविशिष्ठकारणे चतुर्थस्तुति कही ते कुयुक्तिकरीने प्रतिक्रमणना आदिअंतमां विना कारणे स्थापन करी पण ते ग्रंथोमां तेवो लेख नथी वली जे ग्रंथोनी सादी दीधी ते ग्रंथोमां ढूंढियानी माफक पोताने अनुकूलपणानां वचन मान्यां. पण पोताने प्रतिकूलवचन न मान्या. अर्थात् जे कथनथी पोतानो मत सिध्याय ते कथन जे ग्रंथमां होय ते कथन तो मानवां ने जे ग्रंथमां पोताना मतने त्रोमवावाला कथन होय ते न मानवां तो तेग्रंथोने मांनवा वाला सुज्ञजन केवीरीते कहीसके केमके जे ग्रंथनी सादी दीधी ते ग्रंथमा कहेली सर्ववार्ता मानवामां आवे त्यारे ते ग्रंथप्रमाण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १०॥ करयो कहेवाय पण जे ग्रंथनी सादी दीधी ते मांहेली पोताना मनमानी वाततो मानवी पण बीजी न मानवी तो ते ग्रंथप्रमाणकस्यो केम कहेवाय अपितुं प्रमाण करयो नज कहेवाय ॥
प्रश्न-आत्मारामजी श्रानंदविजयजीये जे ग्रंथनी साख दिधी ते ग्रंथमाहिला इयां श्यां कथन नथी मा नता ते दर्शाववां जोएं ॥
उत्तर-आत्मारामजी आनंदविजयजी चतुर्थस्तुति निर्णयमा जे जे ग्रंथोनी सादी दीधी ते ते ग्रंथोना जे जे कथन मानता नथी ते ते कथन ग्रंथोना नाम सहित दावीए बीए.
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परिच्छेदः ६ ॥प्रथमचतुर्थस्तुतिनिर्णयग्रंथसंख्याअनुक्र मांक. द्वितीयचतुर्थस्तुतिनिर्णयग्रंथसंख्या मूलांक आगललिख्यतेप्रमाणेजाणवू
तथाहि॥ १॥३॥ श्रीमहानिशीथ गाधरकृत सूत्र. एसूत्रमा व्यारथुई कही नथी ने चैत्यवंदनाना जे सूत्र कह्यां ते त्रणथुश्ना डे ते प्रमाणे श्रात्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी. ___२॥ १२ ॥ कल्पनाष्य संघदासगणिकत.
एमां जिनगृहमांत्रणस्तुतीये करी मध्यम तथा मध्यमनकृष्ट देववंदना कही ते प्रमाणे आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी.
३॥ १५ ॥ व्यवहारलाष्य संघदासगणिकत. __एमांत्रण थूएं उत्कृष्ट तथा उत्कृष्टश् देववंदना कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानतानथी करता पण नथी. ४ ॥ १७ ॥ कल्पसामान्यचूर्णि पूर्वधरकृत.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १११ एमांत्रण थुएं देववंदना कही ते प्रमाणे थात्मारामजी मानता नथी. ५॥ १७ ॥ कल्पविशेषचूर्णि पूर्वधराचार्यकत.
एमां पण त्रण स्तुति कही ते प्रमाणे प्रात्मारामजी मानता नथी करता पण नथी. ६ ॥ १५ ॥ कल्पवृहद्भाष्य पूर्वधराचार्यकृत. एमां पण त्रण थुएं देववंदना कही ते प्रमाणे प्रात्मारामजी मानता नथी ने करता पण नथी. ७ ॥ २१ ॥ वंदनपश्नो० श्रुतकेवली
नद्रबाहुस्वामीकृत डे. पण आत्मारामजीने उत्तमपुरुषोनां नामलेतां लजा प्राप्त थाय तेथी नाम लखता नथी। एमां विधियुक्त त्रण थूएं देववंदना कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी. ७ ॥४१॥पादिकसूत्र गणधरादिरचित. एमां चोथीथुइ नथी ने श्रुतदेवीने आत्मारामजी समकितशल्योझारमां वाणीरूपे लखेडे पण थुकहेतां वाणीरूपे मानता नथी देवीरूपे माने.
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परिच्छेदः ६ ए ॥ ४३ ॥ वसुदेवहिंम पूर्वधरकृत. एमादेवगृहमां देववंदना करवी कहीने ते प्रमाणे थात्मारामजी मानता नथी ने करता पण नथी. १० ॥ ४५ ॥ आवश्यकचूर्णि पूर्वधरकृत. एमां प्रतिक्रमणकरी जो चैत्य होय तो वांदवा एटले देहरे देव वांदवा तथा सामायिक लेतां श्रावकने प्रथम करेमिनंते तेपले शरियावही कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी. ११॥ ४६॥ आवश्यककायोत्सर्गनियुक्ति श्री
नद्रबाहुस्वामिकृत तेमां. जे गाथा नद्रबाहुस्वामिकृत प्रतिक्रमणविधिनी ने तेतो आत्मारामजी "मानता नथी॥ने अन्यकृत केपकगाथा माने. १२ ॥ ६५ ॥ आवश्यकनियुक्ति श्रीनद्रबाहु
स्वामि चनदहपूर्वधर कृत .तेमां च्यारस्तुतिनो अधिकार नथी ने परिक चनमासि संवन्डरिमां देवदेवी नुवनदेवीनो कायोत्सर्ग कह्योडे पण स्तुति कही नथी ते प्रमाणे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ११३ आत्मारामजी करता नथी ने मानता नथी. १३ ॥ ६६ ॥ आवश्यकसूत्र सुधर्मस्वामिकृत.
एकांते लव्युं ते जुतुं पण श्रुतस्थिविरकृत पण ग्रंथोमां लखेले एमां च्यार तथा त्रण स्तुतिनो अधिकार नथी अने प्रतिक्रमणपर्यंत मंगल ने ते त्रण थुइनुजले पण च्यारनु नथी. १४ ॥ ६७ ॥ स्थानांगसूत्र श्रीसुधर्मास्वामिकृत.
एमां त्रण तथा च्यारस्तुतिनो अधिकार नथी ने देवोंनो वर्णवाद कह्योडे ते नाषण रूपेजे थूनिबंधनरूपे नथी अने थुनिबंधनरूपे होय तो चतुर्वर्णसंघ गुणवर्णन निबंधनरूप पण थुइ करवी जोएं ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी मे करता पण नथी. | १५॥ ७० ॥ आवश्यकचूर्णि पूर्वधराचार्यकृत.
एमांपाच्यारथश्नो अधिकार नथी ने परकी चठमासी संवबरीमा क्षेत्र नुवनदेवीनो कायोत्सर्ग कह्योने पण स्तुतिकही नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी करता नथी ने मानता पण नथी
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परिच्छेदः ६
१६ ॥ ७१ ॥ आवश्यकसूत्र गणधरकृत. लख्यते जुठु केमके ग्रंथोमां श्रुतस्थिवरकृत पण कडे एहमां पण व्यारस्तुतिनो अधिकार नथी पण लोकोंने नमाववाने अर्थे नाम लख्यंबे पण सूत्रमां कह्युं बे तेम आत्मारामजी करता नथी ने मानता पण नथी.
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१७ ॥ ७३ ॥ पाक्षिकसूत्र गणधरकृत नथी श्रुतस्थिविर कृतले.
एमां च्यारथुइनो अधिकारनथीने श्रुताधिष्टा 'तृदेवी भगवती पूजवा योग्य ज्ञानावरणीय कर्मनी क्षयकरवावाली ते. जगवंतनी वांणीनी स्तुति करीबे ते प्रमाणे श्रात्मारामजी मानता नथी. १८ ॥ ७८ ॥ निशीथनाष्य संघदासगणिकृत.
एमां च्यारथुइनो अधिकार नथी ने वनदेवतानो कायोत्सर्ग मार्ग मूल्यां कारणे करवो कह्योढे ते प्रमाणे कारणे देवतानो कायोत्सर्ग च्यात्मारामजी मानता नथी.
१९ ॥ ७९ ॥ निशीर्थचूर्णि जिनदास गणिकृत.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ११५ एमां पण दिशानागनें अजाएयां मार्गादि भूल्यां गन्चरका कारण वनदेवतानो कायोत्सर्ग करवो कह्योडे पण च्यारथुझ्नो अधिकार नथी ने प्रतिक्रमणपर्यंत मंगल त्रण थुइ कहीने पमिलेहणा करवी कहीजे ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ॥ ए नपरलिख्या एटला ग्रंथतो गणधर तथा पूर्वधरादिकृत एमां त्रण थुश्नो अधिकारडे पण च्यारनो नथी. २० ॥ २० ॥आवश्यकवृत्ति श्रीहरिनद्रसूरिकृत.
एमां पारिगवणिया अधिकारे त्राथुएं देववंदन कडं पण च्यारथुनु कोश्काणे का नथी तथा प्रतिक्रमणना अंतमा सामान्य प्रकारे देववंदन कयुंजे ने एक प्राचार्यना मतमा प्रतिक्रमण पर्यंत त्रण थुश्मंगल करीने पमिलेहणा करवी कही. ते प्रमाणे अात्मारामजीमानतानथी. २१॥६७॥पुनः आवश्यकत्ति श्रीहरिनद्रसूरीकृ.
एमां श्रावकने सामायक लेतां प्रथम करोमि नंते पदी रियावही करवी कही तथा चोमासी संवबरीमा खेत्रदेवी अने परकीमा सिधातर दे
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परिच्छेदः ६
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वीनो कायोत्सर्ग करवो कह्योने पण थूश्यों करवी || कही नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ने करता पण नथी. २२ ॥ ७६॥ उत्तराध्ययनवृत्ति श्रीशांतिसूरीकृत.
एमां प्रतिक्रमण पर्यंत मंगल प्रस्तुति कहीने काल निवेदन करचापली चैत्यहोय तो जिनग्रहमां देव वांदे ए अधिकारले पण च्यारथुझ्नो अधि कार नथी नें पीलाप्रमुख रंगेला वस्त्रधारणकरे तेने नांमसरीखा कह्या ते चेष्टा आत्मारामजी प्रा. नंदविजयजी धारण करेनें तो ए ग्रंथ मान्यो केम कहीएं अर्थात् ए पण ग्रंथ मानता नथी. २३ ॥६॥स्थानांग वृत्ति श्री अनयदेव सूरि कृत
एमां च्यारथुश्नो अधिकार नथी ने अरिहंत १ अरिहंत प्राप्तधर्म २ प्राचार्य नपाध्याय ३ चातुर्वर्णसंघ ४, अतिशयकरीने पर्यंतने प्राप्तथया बे तप अने ब्रह्मचर्य जेहना अथवा उदय प्राप्त थयाने तप अने ब्रह्मचर्य रूप हेतुथी देवताना
आयुष्कादि कर्म जेने एहवा देवता ॥ ५॥ ए पांचना नाषणरूपे अवर्ण वाद बोले से उलनवो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ११७ | धिषणानु कर्म नपार्जन करे अने ए पांचना गुणवर्णन करे तो सुलनबोधि होय तेमां अरिहंतादिकना गुणवर्णन तो प्रसिक्ष्वे ने देवताना गुणवर्णन एवीरीते के देवोनु केवू शुन आश्चर्य कारी शीलबे के विषयने वश विमोहित जेनुं मन तोपण जिननुवनमे अपनरा देवांगनाने साथे हास्यादिक करता नथी इत्यादिक नापण रूपे गुणवर्णन करे तो सुननबोधिपणानु कर्म उपार्जन करे पण स्तुतिनिबंध रूपे कयुं नथी जो वर्णवाद स्तुतिनिबंधे होय तो अवर्णवाद पण निंदास्तुति निबंधे होवां जोएं तेथी एकांते चोथी थुइ निबंधे इहां गुणवर्णन कह्यां नथी अने इहां जेम वृत्तिकारे देवताना गुणवर्णन करवां कह्यांडे तेम यात्मारामजी मानता नथी. २४ ॥ ७७ ॥ अनुयोगद्वारवृति हेमचंद्रसूरिकृत.
एमां च्यारथुझ्नो अधिकार नथी ने श्रुतदेवी ते जिनवाणीना अतुल्य प्रसाद अनुग्रहे करीने जे नव्यजीव जे ते अनुयोगना जाणकार थाय ते श्रुतदेवीने नमस्कार करुंलु एम कडं ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ॥ ए वृत्तिकार श्री
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११७
परिच्छेदः ६ | हर्षपुरीगढीय श्रीअनयदेवसृरिना शिष्य पण देवचंद्रसरिना शिष्य हेमचंद्रसरि न जाणवा ॥ एउपरलख्या ग्रंथ ते पंचांगीनाडे एनमांत्रण थु कही पण च्यारथुइ कही नथी ते आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी. २५ ॥ ४२ ॥ पाक्षिकसूत्र
___नथी पण पूर्वाचार्य कृतले. एमां देवसस्कियं एसूत्रनी चूर्णिमा विरति अं. गीकार करणकालमें चैत्यवंदनानो नपचारकरीने अवश्य यथासंनिहित देवतानिकट होय ते वास्ते देवसस्कियं एहवो पाठ पढेडे अर्थात् व्रतादिक अंगीकार करतां नांद समवसरण मांमे त्यारे देवतानंना मंत्ररूपस्तुति तथा चैत्यवंदनामांत्रण थुएं देववादि शांतिनाथ आराधना प्रमुखमां शासनदेव तथा देवदेव प्रमुखना कायोत्सर्गादिक उपचारथी निकटवर्ति देवता साक्षिपणुं अंगीकार करेजे एम कडं पण पमिक्कमणामां चोथी थु तथा देवतानो कानसग करवो चूर्णिमां कह्यो नथी ने पूजोपचारादिअर्थे कह्यो ते प्रमाणे था|त्मारामजी मानता नथी.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
२६ ॥ ७४ ॥ पाक्षिकसूत्रावचूरि.
एमां च्यारथुइकही नथी ने श्रुताधिष्टातृ, जिनेंद्रवाणीरूप श्रुतदेवीनी थुइ आत्मारामजी प्रानंदविजयजी मानता नथी ने व्यंतरादिरूपे माने.
११ ए
२७ ॥ ४ ॥ पंचाशक श्रीहरिन्द्रसूरिकृत.
एमां जघन्य मध्यम उत्कृष्ट ऋण प्रकारनी देववंदना कही पण च्यार थुइनी कही नथी ने देवताने देशीने तप कर कह्युंडे ते नोला लोकोने लौकीक मिथ्यात्व बोमाववा ने लोकोत्तर मार्गनो अभ्यास कराववा कह्युंडे पण सद्बुद्धि - वालाने कह्युं नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी.
२८ ॥ २५ ॥ पंचवस्तु श्रीहरिजद्रसूरिकृत.
एमा प्रतिक्रमणविधि बे तेना आदिमां च्यार थुइएं देववंदना करवी लखी नथी ने श्रुतदेवादि कनो आचरणाए कायोत्सर्ग कोळे ते प्रतिकमण पर्यंत मंगल त्रण थुइ कह्यां पढी चनमासी संवरी परकी गाथा साकीए करी करवां कह्यां
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१२०
परिच्छेदः ६
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ने पण थुइ करवी कही नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी. २ए ॥ ६३ ॥ पुनः पंचाशकमूल श्रीहरिजद्रसरि
कृत.अने वृत्ति श्रीअनयदेवसूरीकृत. एमां च्यारथुइकही नथी ने देवताने उद्देशीने तपकर, कांजे ते नोलालोकोने लौकिकमिथ्यात्व बोमाववाने अनें लोकोत्तरमार्गनो अभ्यास कराववा कडुंडे पण सद्बुध्विालाने कयुं नथी तथा वीरशासनमा साधुने सपेत मानोपेत कपडां पहेरवा कह्यांचे ते प्रमाणे आत्मारामजी प्रमाण करता नथी । ए पंचाशकटीकाकार नवांगवृत्तिना करवावाला विक्रम सं० ११३५ तथा ३एमां महाप्रनाविक थयावे तेनुं कथन आत्मारामजी
आनंदविजयजी मानता नथी. ३०॥७॥ पुनः पंचाशकवृत्ति श्रीअनयदेव सूरिकृत
एमां जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वंदनामें स्वजाति नपलक्षणथी नवप्रकारनी देववंदना प्रस्तुतिए सिह थाय. अने उत्कृष्टचैत्यवंदना त्रणथुनी प्रणिधान पावेकरी कही. ने चोथीथुइ नवीन
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चतुर्थस्तुतिनिणर्यशंकोद्धारः
१.२१
कही. तथा सामायिक लेतां श्रावकने प्रथम करेमि तेने पढी ईरिया वही कहीडे, ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ॥ ॥ए उपरलख्या ग्रंथ के तलाक पूर्वधरनिकटकालवर्त्ति तथा पूर्वधर निकटकालवर्त्ति पीना, आचार्य अथवा पंचांगीकारना करेला ग्रंथ एमां जे प्रमाणे कह्युं ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी करतापणनथी. ३१ ॥ २४ ॥ ललित विस्तरा श्रीहरिभद्रसूरीकृत.
एमां जिनगृहमां पूजादिविशिष्टकारले च्यार थुइ करवी कही पण प्रतिक्रमणना यादि - तमांकरवी कही नथी ने मां नव अधिकार कावे ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ए ग्रंथ विरहशब्दांकित तथा याकिनीमहत्तरासूनु अंकितचिन्हे करी, उपलक्षितले तेथी केटलाक ग्रंथों ना प्रियथी तो विक्रमसंवत ५८५ तथा विक्रम संवत् ५३५ मां थएला हरिभद्रसूरि सि६थाय ने केटली पहावलियोंना अभिप्रायथी विक्रमसंवत् ९६२ मां थएला हरिभद्रसूरि सिद्ध थायडे तत्त्वतो तत्त्वविद् जांले श्रमारे तो पूर्व
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१२२
परिच्छेदः ६
धरना अनुकरण अर्थे करीने बेहु प्रमाण ले पड़ी गीतार्थ.निरीहपणे कहे ते सत्य.
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३२ ॥ ५ ॥ महानाष्य शांत्याचार्यकृत. ३३ ॥ ११ ॥ पुनःमहानाष्य शांत्याचार्य कृत. ३४ ॥ १३ ॥ पुनःमहानाष्य शांतिसूरिकृत. ३५ ॥ १४ ॥ पुनःमहानाष्य शांतिसूरिकृत. । ३६ ॥ २७ ॥ पुनःमहानाष्य शांतिसूरिकृत. ३७ ॥ ४७ ॥ पुनःवृहद्भाष्य शांतिसूरि कृत.
एग्रंथनां नामनी संख्या लोकोने घणाग्रंथ जगाववाने ब ठेकाले लखीने पण ग्रंथनी कृतिना अंतमां शांत्याचार्यनु नाम नथी पण इतिश्रीमां "श्रीशांत्याचार्यविरचितं चैत्यवंदनमहानाष्यं संपूर्णमिति” ॥ एहq नव्युंडे तेथी तथा वादिवेता ल प्रमुखचिह्न पण लख्यां नथी तेथी नत्तराध्ययन वृहद्वृत्तिना करणहार स्थिरापद्रीय गबैंकमंझन आचार्य वादिवेताल श्रीशांतिसूरिजीए चैत्यवंदन महानाष्यबणाव्युं एवं एकांतेसिथतुं नथी पण अमाराजोया प्रमाणे जैनग्रंथोमां बीजाशांत्याचार्य
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १२३ थयेला देखवामां आव्या नथी तेथी जो उत्तराध्य| यन वृहद्वृत्तिकारक सिह होय तो पण एनाष्यमां श्रीहरिजद्रसूरि कृत पंचाशकमूल तथा श्री अजय देवसरिकृत वृत्ति अनुसारे स्वजात्योपलदित नव प्रकारनी चैत्यवंदना त्रण थुइए तथा पूजादि वि. शिष्टकारणे चोथीथुइए वंदना कही ने जे एकांत बृहत्कल्पनाष्योक्त त्रणथुइएज देववंदना मांने अने व्यवहारनाष्योक्त देववंदना नमांने तथा पूजादि विशिष्टकारणे चोथीथन मांने तेने अन्यथा व्याख्यान करी समकावे ॥ ते प्रमाणे आत्माराम जी मानता नथी ने जिनगहमां नवप्रकारनी वं-. दना जे विधिए करवी कही ते प्रमाणे करता पण नथी.
३० ॥ २ ॥ जीवानुशासन श्रीदेवसूरी कृत. ३ए ॥६॥ जीवानुशासनवृत्ति श्रीदेवसूरिकत.
एमां मोदअर्थे देवतानी पूजा कायोत्सर्ग करवां अयुक्त कह्यांडे ने विघ्ननिवारणा निमित्ते युक्त कह्यांडे पण ज्यारथुएं चैत्यवंदना कही नथी ने नित्यकायोत्सर्ग करवा कह्या ते पण पूजादि
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१२४
परिच्छेदः ६
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विशिष्ट कारणे करवा कद्याने ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी. ४० ॥ २३ ॥ यतिदिनचर्या श्रीदेवसूरिकत. ४१ ॥ २७ ॥ पुनः यतिदिनचर्या श्रीदेवसूरिकृत. ए बे ग्रंथ एकज एमां मूलमां देवसियप्रायश्चित्त नो कायोत्सर्ग पमिकमणु गयां पहेली करवो कह्यो ने व्याख्याकारें पड़े कह्योने वली पमिकमणा निअादिधतमा सामान्य प्रकारेजघन्य चैत्यवंदना कही अने मूलमा विधिपूर्वक पांच शक्रस्तवे जि नगृहमा चैत्यवंदना कहीजे पण च्यार थुइएं कही नथी अने व्याख्याफारें संकेतनाषाएथुइ च्यार आ दिनि त्रणथुइ वंदनादिरूप। अने चोथी तीर्थादि अनुशास्ति रूप तथा प्रवचन नक्तदेवतानी कही तेपणजिनगृहमां कहीले पण प्रतिक्रमणनि आदिवं तमां कही नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ए ग्रंथ देवसूरिजीनो करेलोले पण चोरासीह जारश्लोकप्रमाण स्याहाद रलाकर ग्रंथकर्ता वादि देवसरि थया तेदुंनी करेली यतिदिनचर्या एकांते संनवती नथी केंमके ए ग्रंथनि अंतकतिमा “श्री
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १२५ ॥ देवसूरिणा नणिता उहरिता” एवं लखेटे तथा इतिश्रीमां सुविहित शिरोमणी देवसूरि रचिता जखेडे पण वादि प्रमुख चिह्न लखता नथी तेथी एक देवसूरितो सर्वदेवसूरिना शिष्यरूप श्री,बिरुदधारक थया वली देवसरि सर्वदेवसूरिना गुरु पण थया॥१॥बीजा मुनिचंद्रसूरिना शिष्य अने अजितदेवसूरिना गुरुनाइ स्याहादरलाकरकर्ता जयसिंहदेव राजानी सनामां कुमुदचंद्र दिगंबरने जीतवावाला विक्रमसं० १२ सूधि वर्तमान वा. दिदेवसरि थया त्रीजा श्रीअजितसिंहसूरिने वारे कान्हमयोगिने सादिक वादना जीतवावाला थया ३ चोथा श्रीसेनसूरिना शिष्य देवसूरि थया ४ पांचमा श्रीजिनचंद्रसूरिशिष्य खरतरगबीय देवसूारे थया ५ एपांचेना शिष्य परंपरावाला सार्वसुविहितसिरोमणि देवसूरि लखेले तो चतुर्थस्तुति निर्णय पृष्ट ४५।४। मां वादिप्रमुख चिहना निर्णयकरथाविना स्याहादरलाकर ग्रंथना कर्ताज वादिदेवसरिए यतिदिनचर्या बनावी एहवी रीतना आत्मारामजी आनंदविजयजीना गप्पना गोलांधी विद्वानोनां चित्ततो न दाय
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परिच्छेदः ६
पण जमनारतियोना चित्त नेदाय केमजे ते प्रशक्य नथी तेथी आत्मारामजी खानंदविजयजी - ने विद्वाननु नाम धरावी एहवा एाधम गप्पना गोला मारवा युक्त नथी.
४२ ॥ ए ॥ उपदेशपदवृत्ति श्रीमुनिचंद्रसूरिकृत मां च्यारथुइ कही नथी.
४३ ॥ १० ॥ ललितविस्तरापंजिका श्री मुनिचंद्रसूरिकृत.
एमां पूजादि विशिष्टकारले जिनगृहमां च्यार थुइकही पण पक्किमणानि यादितमां कही नथी ते प्रमाणे. आत्मारामजी मानता नथी. ४४ ॥ १ ॥ धर्मरल देवेंद्रसूरिकृत लख्युं ते जुतुं बे मूल श्री शांति सूरिकृतले ने टीका देवेंद्रसूरिकृतले.
मां च्यारथुइ कहीनथी ने मूलमां यागम पर्यालोचन हीज क्रिया करवी कहीबे ने वृतिकारे दहति १ अहिगमपगं इत्यादिक पोताना करेला लघ देववंदन जाष्यनी गाथाएं करी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १२७ | देववंदन विधि बतावि तेमां जिनगृहमां पूजादि विशिष्ट कारणे नपयोग देवाने अर्थे चोथी. थु कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी. ४५ ॥ ३६ ॥ वृंदारुवृत्ति श्रीदेवेंद्रसूरिकतले. पण आत्मारामजीने मालम नही होय तेथी नाम लख्यु नथी, ए श्रावक षमावश्यकनी टीका बे एमां पमिकमणानि आदिवंतमा सामान्य प्रकारे जघन्य चैत्यवंदना कहीले चितने विषे उचितप्रवर्ति एटले जेहने जोग्य जे प्रवर्ति होय ते जणावाने अर्थे चोथी थुइ कही ते देवताउँने अविरति पणाथी प्रतिक्रमणादि प्रवर्ति करवीतो संनवे नही पण पूजादिप्रवर्ति करवी संनवे तेथी पूजादि विशिष्ट कारणे चोथी थुइ कहीले केमके हमणा प्रवर्त्तिमां पण प्रतिक्रमणना आदि अंतमां जावंति प्रमुख जाव जयवीयराय कहेता नथी ने एवृत्तिमां जयवीराय सूधी चैत्यवंदना कहीजे तेथी देवगृहमां पूजादि विशिष्ट कारणे चोथी थुइ कही ते प्रमाणे आत्मारामजी आ. नंदविजयजी मानता नथी.
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परिच्छेदः ६
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___४६ ॥ ५० ॥ लघुनाष्यश्रीदेवेंद्रसूरीकृत,
एमां पूजादिविशिष्टकारणे चोधी थुइ कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ॥ धर्मरल वृत्ति ? वृंदारवृत्ति २ लघुनाष्य३ ए ग्रंथना कर्त्ता श्रीदेवेंद्रसूरि तपागजमां विक्रम संवत् १३ मां था तेन्नाकरेला श्राइदिनरुतवृत्ति प्रमुखमा | जिनगृहमां त्रण थुएं तथा पूजादि विशिष्ट कारणें व्यारथुएं चैत्यवंदना कही ने सामायिक लेतां श्रावकने प्रथम करेमि नंते ने पडे रियावही करवी कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मांनता नथी.
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४७ ॥ ७ ॥ प्रवचनसारोछार सूत्रवृत्ति श्रीनेमि
चंद्रसूरिकत मूल, श्री सिझसेनसूरि कत वृत्ति.
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४ ॥ २५ ॥ पुनःप्रवचनसारोक्षार सूत्रम्. ४ए ॥ २२ ॥ पुनःप्रवचनसाराझार सूत्रवृत्ति. ५० ॥ २६ ॥ पुनःप्रवचनसारोझार वृत्ति. एच्यारे तेकांणे नाम लख्यां पण ग्रंथ मूलने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१२
वृत्ति, एमां मूलमां तथावृत्तिमां पूजादि विशिष्ट कार जिनगृहमां योथीथुइ श्राचरणाए कहीबे नेत्र थुइ सूधी जिनमंदिरमां रहेवुं ते उपरांत कारण विना वर्ज्य ने प्रतिक्रमणना प्रादितमां सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना कहीबे पण च्यार थुएं कही नथी श्रुतदेवता ने खेत्र देवताना कायोत्सर्ग विघ्नविदलन निमित्ते कह्याबे ते प्रमाणे श्रात्मारामजी मानता नथी ने एग्रंथनि, वृत्तिना कर्त्ता विक्रम संवत् १२७२ मां थयेला सिद्धसेनसूरीबे पण सिइसेनदिवाकर कहेबे ते न जांणवा.
५१ ॥ ७२ ॥ श्रावश्यकचूर्णी विजयसिंह कृत. एम आत्मारामजी श्रानंदविजयजीएं लोकोंने नरमाववा लख्युं ते जुतुंबे केम के एग्रंथनुं नाम तो श्राप्रतिक्रमणचूर्णि विमक सं० १९०३ मां थयेला चंद्रगीय विजयसिंहाचार्यकृत बे एमां सामान्यप्रकारे एटले जघन्य प्रकारें पक्किमणाना आदिमां श्रावकने चैत्यवंदना कहींदें परण चोथी थुइ तथा श्रुतक्षेत्रदेवीना कायोत्सर्ग तथा थुइकर वि कहि नथी नें प्रतिक्रमणपर्यंत मंगल त्रणथुइ
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परिच्छेदः ६
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कही पमिक्कमणु समाप्त करथु डे ते प्रमाणे था. स्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी. ५२ ॥ ५१ ॥ वंदनकचूर्णि पूर्वधरकत ए ग्रंथ
पूर्वधरकत नथी पण जसोदेवसू
रिकत. एमां पमिकमणाना आदिअंतमा च्यार थुएं चैत्यवंदना कही नथी जिनगृहमा पूजादि नपचारें च्यारथु कही तथा श्रावकने सामायिक लेतां प्रथम करोमि ते पडे रियावही ने वीरना साधु वोंने सपेत मानोपेत कपडा पेरवा कह्या ले ते प्रमाणे यात्मारामजी मानता नथी. ने करता पण नथी.
५३ ॥३७॥ योगशास्त्र हेमचंद्रसूरिकृत. एमां जिनगृहमा पूजोपचारादिविशिष्ट कारणे च्यारथुइ कही ने प्रतिक्रमणना आदि अंतमां सामान्य जघन्य प्रकारे चैत्यवंदना कहीजे तथा श्रावकने सामायक लेतां प्रथम करेमिनंते नेपडे शरिया वहीकरवी कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी ने करता पण नथी ए ग्रंथकर्ता विक्र०
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३१ संवत् ११६६ सूरि पदने १२२ए स्वर्ग प्राप्तथया. | ५५ ॥ १६ ॥ संघाचारनाष्यवृत्ति धर्मघोषसूरिकत.
एमां जिनगृहमां पूजादि उपचारे च्यार थु कही ने प्रतिक्रमणना थादिअंतमा जघन्यप्रकारे चैत्यवंदना तथा खोपद्रव निवारवाने देवताना कायोत्सर्ग तथा जघन्यादि नवप्रकारे त्रणथुइए तथा च्यार थुइए चैत्यवंदना कही ते प्रमाणे थात्मारामजी मानता नथो.
५५ ॥ ४०॥ संघाचारवृत्ति धर्मघोषसूरीकृत. एमां क्षुद्रोपद्रव दूरकरवाने अर्थे तेना ते ते गुणोनि प्रशंसा करीने ते उत्साह उत्पन्न करवाने वास्ते वैयावृत्य कर इत्यादि विशेषण द्वारा समदृष्टि देवता तेनु स्मरण नपढेहण करवाने थर्थे अथवा तेने करवा जोग्य वैयावृत्त्यादि कृत्यामां प्रमादादि करवामे शिथल थया देवतांनने प्रवृत्ति करवाने वास्ते प्रवचननी प्रनावनादि हित का. यमे प्रेरणाअर्थे समदृष्टि देवतागंनो कायोत्सर्ग पूजादि विशिष्ट कार्ये उचित प्रवृत्ति जगाववाने
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१३२
परिच्छेदः ६
कह्युंडे पण पक्किमणामां करवुं कर्तुं नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी एग्रंथ बे ठि. का लख्योढे पण ग्रंथ एकजबे एचैत्यवंदन लघु जाष्य श्रीदेवेंद्रसूरीकृत तेनी टीका एग्रंथकार विक्रम संवत् १३५७ मे थयावे.
५६ ॥ ७५ ॥ प्राराधनापताका.
एमां व्यारथुइ कही नथी पण जे दृष्टि देवा मात्रथी जगवंतनी खाज्ञामे रक्तपुरुषोने नरसुरनि कदिने शिवपुर राज्य दे ते देवीने अर्थात् श्रुताधिष्ठातृजिनेंद्रवांणीने नमस्कार करधोढे पण व्यंतरादि प्रकारे श्रुतदेविने नमस्कार करचो नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी मानता नथी.
५७ ॥६॥ विचारामृतसंग्रह श्रीकुल मंमनसूरिकृत
एमां पूजोपचारादि कारणे वैयावृत्यकरादिकोंनो कायोत्सर्ग करवो सम्यग्दृष्टियोंने अनुचित पणे मांने तथा एकांते साधुने प्रतिक्रमणयंत्य मंगल पाठनि पेठे थुइ त्रज देववंदना मानें - थवा कायोत्सर्ग स्तव प्रणिधानादिक न मांने तेजने समजाववा व्यवहार जाप्यनि साक्षिथी शेष चै
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३३ त्यवंदन सूत्रापलक्ष्ण जणावि त्रण स्तुति स्तव | प्रणिधानादिक सिकरी ललितविस्तराद्रिकनी शादिए चैत्यवंदन कायोत्सर्ग च्यारनेअंते स्तुति जिनगृहमां कारणिक दृष्टांतदेव सि-६ करी पण पमिक्कमणामां कही नथी तथा श्रुतत्रदेवीनो कायोत्सर्ग पूर्वधरकाले याचरणाए करवो कह्यो पण थुइ करवी कही नथी वली पदैकदेशे पद समुदायोप्युच्चार्यः तेम वृत्तैकदेशे वृत्ति समुदायोप्पुच्चार्यः एन्यायथी श्रावकने सामायिक लेतां प्रथम करेमिनंते पडे ईरियावही करवी कहीजे ते प्रमाणे आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी॥ ॥ए ग्रंथकर्ता विक्रम संवत् १४५५ मां थयावे.
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५० ॥ ३० ॥ श्राइविधि रलशेखर सूरिकत. एमां निश्रा अनिश्रा कत चैत्यमांत्रण थुएं चैत्यवंदना कही ने पूजादि उपचारेंजिनगृहमां च्यारयुइए पण चैत्यवंदना कही तथा प्रतिक्रमणना आदिअंतमां जघन्यप्रकारे चैत्यवंदना कही ते प्रमाणे आत्मारामजी थानंदविजयजी
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परिच्छेदः ६
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मांनता नथी ने करता पण नथी । ए ग्रंथकार विक्रम संवत् १५१७ मां थएलाबे.
५९ ॥ ३२ ॥ यतिदिनचर्याभावदेवसूरिकृत. ६० ॥ ३३ ॥ पुनःयतिदिनचर्या जावदेवसूरि० ६१ ॥ ३४ ॥ पुनःयतिदिनचर्या जावदेवसूरि०
ram ग्रंथ एकडे पण नाम जुदा २ लख्यांबे एमां पंचांग नमस्कारें तथा श्लोकादिरूप नमस्कारें जघन्या चैत्यवंदना १ बीजी स्थापनार्हत्सूत्र दंमकोएं करीने कर एटले २ स्तुतिरूप युगलें करीने एटले अरिहंतचेश्याणं १ सवलोएअरिहंत वेश्याएं एसूत्रदंक ने नामस्तुति १ श्रुतस्तुतिरूप ध्रुव ध्रुव थुइ २ बेए करी एटले थुश्त्रणे करी मध्यमा अथवा दंमक शक्रस्तव थुइ आवश्यक चूयुक्त त्रणथुएं करीने मध्यमाए मध्यम चैत्यवंदनाना नेद कह्या तेमां अन्य कोइ श्राचार्य दमक शक्रस्तवाढिकपाच तथा थुइयुगल एटले संकेत नाषा एकरी थुइ व्यारेकरी मध्यम चैत्यवंदना मांडे ने उत्कृष्ट विधिपूर्वक पांचशक्रस्तवे निर्मित तथा शक्रस्तवादिक दशक पांच जयवी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३५ यराय इत्यादि प्रणिधानांत उतकृष्ट चैत्यवंदना थाय अन्य आचार्य बेवार चैत्यवंदनाए प्रवेशत्रण, निक्रमण बे, ए पांच शक्रस्तवे युक्त उतकृष्ट चैत्यवंदना मांने एरीतें त्रण तथा च्यार थुइए जिनगृहमां चैत्यवंदना कहीले वली राइसमिक्कमणना विधिमां सिसाय कहीने नगवानादि च्यार वांदवा | कह्या ने देवसी पमिक्कमणामां असमाय नुड्डा | वणिकायोत्सर्ग करी हा आवश्यकनी मुहपत्ति पमिलेहवी कही ते प्रमाणे आत्मारामजी मा नता नथी ने करता पण नथी तो ए ग्रंथ मान्यो केम कहेवाय. | ६ ॥ ५५ ॥ सामाचारी अनंयदेवसूरिकृत.
एमां श्रावकने सामायिक लेतां प्रथम सामायक उच्चरी पडे ईरियावही करवी कही ने प्र. तिक्रमणना आयंतमा सामान्य एटले जघन्य प्रकारे चैत्यवंदना करवी कही तथा प्रतिक्रमणमां श्रुत खेत्र देवीना कायोत्सर्ग कह्याले पण थुश्यों तथा शांतप्रमुख कहेवां कह्यां नथी ने सम्यक उच्चरवाने अवसरे नंदिविधि करतां वाई
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परिच्छेदः ६ मान त्रण थुइएं देववंदना करी सि-इस्तवने यंते | सिरिसंति १ संति २ पवयण ३ जवण ४ खेत्र. देवी ५ वेयावच्चगरादि कायोत्सर्ग थुइ नंदिपूजा अवसरे कह्यांचे ते प्रमाणे आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी ने करता पण नथी.
ए समाचारी ग्रंथ कर्ता अजयदेवसूरि रुद्रपल्लियगडमां पद्मचंद्रगणीना शिष्य विजयचंद्रसूरि तेलंना शिष्य अनयदेवसूरि तथा गुणचंद्रसूरिना शिष्य तेजगढमां बीजा अनयदेवसूरि थया तेसुना राज्यमां अथवा तेलंएं, ए समाचारग्रंथ बनाव्योडे पण श्रीजिनेश्वरसूरिजीना शिष्य नवांगवृत्तिकारक श्रीमानयदेवसूरिना राज्यमां तथा तेवंनी करेली एसमाचारी नथी ने आत्मारामजी यानंदविजयजी चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट १०७ मां *श्रीअनयदेवसूरिने तथा तिनके शिष्यने देवसि पमिक्कमणेकी थादिमें च्यारथुइस चैत्यवंदना करनि कहीहै जर श्रुतदेवता क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करना तथातिनकिथु करनी कहिहै* इ. त्यादिक बलनां वचन लखी जोला लोकोंने जम घालवा जिनवल्लनसूरिना गुरु नवांगतिकारक
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३७ श्रीधनयदेवसूरि उपर लखेला बले करी थापेठे| ते दहि बदले कपास जण करेले पण ए समाचारीना कर्ता जिनवल्लनसरिना गुरु नवांगत्तिकारक एजसमाचारिना अनिप्रायथी सिह थता नथी पण जिनवल्लनसरिना शिष्य तेना शिष्यना शिष्य रुद्रपल्लीयगडी अनयदेवसूरि तथा रुद्रपल्लीयगढ संझा थप्या पनि तेरमेपाटे गुणचंद्रसूरिना शिष्य खरतरगडना ११पाटियामां थ. एला अनयदेवसूरिना राज्यमे एसमाचारि थश्छे पण नवांगवृत्तिकारकना राज्यमां थ नथी अनें जो नवांगवृत्तिकारकना राज्यमा थइ तथा श्री. जिनेश्वरसूरिना शिष्य श्रीयननदेवसूरिनि बनावेलि ए समाचारि आत्मारामजी धारताहोयतो एसमाचारिमा जे जे विधि कह्योडे ते ते विधि प्रमाणे यात्मारामजीने वर्तवं जोइए पण ते प्र. माणे वर्त्तता नथी तो ए ग्रंथ मान्यकरचो केम कहेवाय?
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६३ ॥ ५७ ॥ समाचारी देवसुंदरसूरि कृत. ६४ ॥ ५६ ॥ समाचारी सोमसुंदरसूरि कृत.
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परिच्छेदः ६ | एग्रंथकर्ता अनुक्रमे विक्रमसं० १४२॥१४५७ मां थया॥ ६५ ॥ ५७ ॥ समाचारी नरेश्वरसूरि कृत. एग्रंथकर्ता यशोदेवसूरिना शिष्य नरेश्वरसूरि थयाडे पण सुधर्मातपागढमां नथी थया केमके श्रीतपागहमां यशोदेवसुरिना शिष्यना शिष्य श्री मानदेवसूरि थयावे पण नरेश्वरसूरि नथी थया एत्रणे समाचारीमा जेम पूर्वलि समाचारीमा विधिविधांन कह्योडे तेम एमां पण कह्योडे ते प्रमाणे आत्मारामजी यानंदविजयजी मानता नथी करता पण नथी, ६६ ॥ ३५ ॥ प्रतिक्रमणगर्नहेतु श्रीजयचंद्रसूरि
विरचित. एमां रात्रिप्रतिक्रमणविधिमां सिकायकरी पत्रे चतुरादि, दमाश्रमणे देव गुरु वांदि माश्रमण पूर्वक राइपमिकमणुं गवq का डे ने शक्रस्तव पावें संदेप देववंदन कडं तथा बेश्यावस्यकना आद्यतमां मंगलीकने अर्थे चैत्यवंदन कर्तुं तो पण प्रदोषमुखें कालवेला प्रतिबद्ध पणे करीने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१३ए
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विस्तारथी देववंदन करवा संनवे नही एटले सा. मान्यप्रकारे देववंदन करवू पण विस्तारें देववंदन न करवू एवं कडं तथा शायरिय नवशायनी त्रण गाथा श्रावकने कहेवी कहीजे ने शांत पण कहेवी कही नथी ते प्रमाणे आत्मारामजी प्रा. नंदविजयजी मानता पण नथी ने करता पण नथी॥ ए ग्रंयकर्ता वि० संवत् १५०६ मां सो. मसुंदरसूरिना शिष्य थयाडे. ६७ ॥ ४० ॥ विधिप्रपा जिनप्रनसूरिकत. एग्रंथ
खरतरगडीय जिनप्रनसूरिकत . एमां श्रावकने सामायिक लेतांप्रथम नवकार त्रण सहित त्रण वार करोमिनंते कही पडे रियावही करवी कही ने खमासमण बेएं करी कटासणं संदिसावं पठंबणं संदिसा एना आदेश लेवा कह्या जे वली सामायक पारता इरियावही करवी कही नथी ने जयवं दसन्ननदो इत्यादि गाथाएं सामायक पारवी कही. पण सामाश्य वयजुतो इत्यादि गाथाएं पारवि कही नथी तथा पूजोपचारादि कारणे च्यार थुइए देववंदन कह्यु
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१४०
परिच्छेदः ६
बे ने नवप्रकारे चैत्यवंदना कहीले तेमां प्रतिक्रमना याद्यंतें देव वंदन सामान्य प्रकारे कह्युं बे वली देवसि प्रतिक्रमणमां देवसिय प्रायचित कायोत्सर्ग पढे क्षुद्रोपद्रव उमावरणीय कायोत्सर्ग करी खमासम वे देइ सझाय संदिसावि नवकार त्रण कहि पार्श्वनाथ प्राराधनानो व्यार लोगस्सनो कायोत्सर्गकरि शेष प्रतिक्रमणविधि करवो कह्यो बे वली एग्रंथमां प्रातः संध्या प्रतिक्रमणविधि ने पोसह उपधान देवपूजा दीक्षा दि जे जेविधि विधान कह्यो बे ते प्रमाणे श्रात्मारामजी यानंद विजयजी मानता नथी ने करता पण नथी.
६८ ॥ ५३ ॥ बृहत्खरतर समाचारी जिनपत्यादि सूरिकृत.
मां महावीरस्वामिना षट्कल्याणक तथा श्रावकने सामायिक लेतां प्रथम करेनिंत्ते त्राणवार उच्चरी पढे इरियावही करवी कही बे ने प्रतिक्रम
ना श्राद्यंत चैत्यवंदन देवगृहमां करवां कह्यांबे वली शांति प्रतिक्रमणमां कहेवी कही नथी ने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १४१ पोसह प्रमुखनी जे जे समाचारि एमां कही ते प्रमाणे आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी ने करता पण नथी. ६ए ॥ ५५ ॥ प्रतिक्रमणसूत्रकी लघुत्ति तिल
काचार्यकृत. एमां गुरु स्थापनाचार्यने अनावें जघन्य मध्यम चैत्यवंदना करवी कही ने, जे अश्या, ए गाथा
आगमिक बतां अनागमिक कही तथा गुर्वादि |संनिधे शरियावही पमिक्कमी उतकृष्ट चैत्यवंदना जयवीयराय सुधी कही ते जिनग्रहमां उचित प्रवृत्तिने अर्थे चोथी थुइ कही ने जयवीयरायनी गाथा बेज कही ने वांदणा देश्लाकारेण संदिसह नगवन् "देवसिय पमिक्कमणं ठाएमि" श्वं जो मे देवसिन अश्यारो कन इत्यादि" ठगवा प्र. मुखविधि के वलि श्रुत क्षेत्र देवतानां कायोत्सर्ग थुइ अथवा शांत प्रमुख कह्यां नी ते प्रमाणे आत्मारामजी आनंदविजयजी मानता नथी ने करता पण नथी.
७० ॥ ५ए ॥ तिलकाचार्यकृत विधिप्रया.
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परिच्छेदः ६
७१ ॥ ६० ॥ समाचारी तिलकाचार्य कृत. एबे ग्रंथ एकज बे एमां सम्यक्कदेशविरति यारोपणार्थ नंदिकरणावसरे प्रथम त्रण थुइएं देव वांदि पढे शांतिनाथ आराधनार्थे वंदावत्तियाए कायोत्सर्गकरी श्रुतदेवी द्वादशांगजिनवाणी शासनदेवी प्रमुख समस्त वैयावच्चकारक देवतानंने झापन करवा तेनुंनि साहिने अर्थे कायोत्सर्ग करी चतुर्विंशतिस्तव श्रुतस्तव कायोत्सर्ग अंते थुइ बे एटले त्रण थुइना जोमला बे ने बीजाकायोत्सर्गना अंतमां थुइ ६ एटले शांतिनायादिवथुर ने बे श्रतदेवी द्वादशांगीनि कहेवी कही पण एकांते च्यार थइ कही नथी ने प्रतिक्रमण गवतां कुमा० इवा० पमिक्कमलइ गजं श्वं कुमा० "सवस्सवि राज्य चिंतियनासियं
चिठियह मणिवचणिकायाइंमिचामिकमं” एवि रीते पाठ बोजवो कह्योबे ने राइ पक्किमणना अंतमां शक्रस्तवें पूर्णाचैत्यवंदना कहीबे तथा देवसि प्रतिक्रमण समाप्ति मंगल त्रण थुइनुं करी शक्रस्तव स्तोत्र कही एकखन कम्मखन० कायोत्सर्ग करी सिझाय करवी कही बे पण दे
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
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वसिय प्रायश्चित्तनो कायोत्सर्ग तथा शांत कहेवी कही नथी ते प्रमाणे श्रात्मारामजी मांनता, नथी ने करता पण नथी ॥ ए ग्रंथोना कर्त्ता लघुप्रावश्यकवृत्तिना तथा वृहद्दशविकालिक वृत्तिना कर्त्ता श्रागमिक गीय श्रीतिलकाचार्य होय तो ते तो देववंदनमां त्रण थुइज माने तेथी विधिप्रपादिकमां जिनपूजादि विशिष्ट कारणे वैयाaa रादि देवोना कायोत्सर्ग लाव्याबे ने श्रीचंप्रसूरिने परंपरामां थयेल श्रीशिवप्रनसूरिना शिष्य तिलकाचार्य होय तो तेनुंनी प्रतिक्रमणादि समाचारमां पण घणो हेर फेर बे ते प्रमाणे आत्मारामजी वर्त्तता होय तो ए ग्रंथ मान्य क स्या कहेवाय अन्यथा पोतानी मनमांनिती वात मांन्या मान्य करया केम कहेवाय ॥
७२ ॥ ६२ ॥ षमावश्यकविधि पूर्वाचार्यकृत. ए ग्रंथ पूर्वधर निकटवर्ति पूर्वाचार्य तथा प्राचीन पूर्वाचार्य कृत नथी पण वर्त्तमान कालथी पूर्वे थला पूर्वाचार्य कृतले एमां देवसिप्रतिक्रमाना यादिमां ने राइ प्रतिक्रमणना अंतमां शकस्तवादिके सामान्यप्रकारे एटले जघन्यप्रकारे
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परिच्छेदः ६
चैत्यवंदना कहीले पण च्यारथुइएं कही नथी ते प्रमाणें आत्मारामजी खानंदविजयजी मांनता नथी नें करता पण नथी ।
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७३ ॥ ६१ ॥ प्रतिक्रमणहेतुगर्जित स्वाध्याय श्री मडपाध्याय यशोविजयजी गणि कृत बे.
एमां सामायिक विना १२ अधिकारथी देववंदना कही ते जिनगृहमां संध्यापूजा अवसरे देववंदन करी पमिकम करे ते यानि बे तथा श्रुत खेत्र देवताना कायोत्सर्ग कह्या बे. पण थुइ कवी कही नथी राइ पमिकमणाना विधिमां सिझाय करवी पढे जगवानादि ४ खमासमल काबे ने प्रतिक्रमणना अंतमां प्रतिक्रमण पर्यंत मंगल त्रण थुइनु करी सामान्य प्रकारे शस्तवनी चैत्यवंदना कहीबे ते प्रमाणे आत्मारा| मजीप्रानंदविजयजी मानता नथी ने करता पण नथी.
७४ ॥ ४९ ॥ धर्मसंग्रह मानविजयजी उपाध्याय कृत बे.
एमां निश्राकृत अनिश्राकृत सर्व चैत्यमां त्रण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १४५ थुएं देववंदन कझुंडे तथा जिनगृहमां द्रव्यपूजा करी जघन्यादि त्रण नेदे चैत्यवंदना कही तेमां कल्पनाष्य व्यवहारनाष्य गाथा आश्रित त्रण थुएं तथा प्रकारांतरथी च्यार थुएं देववंदना कही पण एकांते च्यार थुएंज कही नथी ने संघाचारनाष्यनि सम्मतिथी नवप्रकारनि चैत्यवंदनानो पाठ प्रा धर्मसंग्रहना जीर्णपुस्तकमां लखावट बेज नही पण आत्मारामजी थानंदविजयजी स्वकपोलकल्पित च्यार थुएं नवप्रकारतुं चैत्यवंदन थापवाने पोताना नवा लखावेला पुस्तकोमा “संघाचारवृत्तौ चैतगाथा व्याख्या ने वृहद्भाष्य संमत्या नवधा चैत्यवंदना व्याख्याता" इत्यादिकथी यावत् “चेश्यपरिवाडिमाइसु" इहां सूधी नवप्रकारना जंत्र सहित नवरूपिपिसाचना माचामां पमवाने नवभ्रमणनो नय अवगुणीने पत्रएए नीपृष्ट बीजी नली आठमीथी पत्र १00 नीपृष्टर नली त्रिजी सूधी पोतानी परतमा नवो पाठ प्रदेप करयो तेथी एम जणाय के यात्मारामजी आनंदविजयजीने अनिनिवेश मिथ्यात्वना उदयथी उत्सूत्र प्ररूपण करवानोअने संसा
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परिच्छेदः ६
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रनि वृद्धि थवानो जय न रह्यो एवात सिद्ध थाय बे तो हवे सऊनलोकोने विचार राखवो जोइए के जालीने एकप्रकर कानो मात्र हेर फेर करवाधी अनंत संसारवृद्धिनुं कारण होय तो ग्रंथमां पोतानि मनकल्पनाए नवो पाठ बनावीने पूर्व पुरु पोना करेला ग्रंथोंमां प्रक्षेप करीने नवो पाठ लखवो ते काम करवाथी जे पापलागे तेथी अधिक पाप बीजा किया काम करवाथी लागतुं हशे ए काम करवाने कोइ पण नवनीरु पुरुष पोतानी सम्मतितो नज दे परंतु खरा अंतःकरणथी पश्चात्ताप - करीने आत्मारामजी श्रानंदविजयजीने एहवा sष्ट कामथी दूर करवाने अर्थे अवश्य सत्य - नपदेश करवाने केम तत्पर नहि होय अपितु तत्पर होयज कैमके ग्रंथोमां पोतानी मुतलबना नवा पाव अन्यकृत ग्रंथमां क्षेप करवा एवात कां सहेज नथी ए करवाथी ते जीव जिनवचन चापक उत्सूत्रदोषथी अनंतसंसारी थायडे तो चंद्र ने दक्षाणावर्त्त शंखथी उज्वल जे सर्वदर्शनमें शिरोमणीनूत श्री जैनधर्म चिंतामणिरल पांमीने पोताना खोटा प्रायहने आधीन थई तेने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १४७ वेगलुं नाखीने पोताना मन कल्पित रूप विष्टाने नगवी हाथमां धारण करे तेने देखीने कोण नव्य जीवने ते पांमर जीव उपर दयानो अंकूरो उत्पन्न न होय अर्थात् निकट नवसिक्ष्यिोने तो अवश्य करुणा आवेन अने जेने जे उपर करुणा आवे त्यारे ते, ते प्रते अवश्य उपदेश पण करे केमके कदाच जो उराग्रही अनिमांनी प्रतिबोध पांमि जाय तो ते जीवनुं काम थइ जाय अने बोध करवावालाने पण मोटा पुण्योपार्जन | रूप लान थइ जाय एहq नगवाननु कथन डे ॥ अमने मोटुं आश्चर्य थाय के राजनगर अर्थात् अमदावाद प्रमुखना झाननंमारोमें एधर्मसंग्रहनां प्राचीन पुस्तको बे तेमां ए पाठ डेज नहीं तो जे पुरुष पोतानी मनकल्पित वात जमाववाने नवो पाठ ग्रंथोमां प्रक्षेप करतां नय न पांमे परंतु मु. लटां एवां उष्ट काम करी आनंद पांमे तो तेने अन्यपाप करवामे पण श्यो जय होय जेम जे प्राणी अन्यायमें आनंद माने ते प्राणीने न्याय वचन प्रिय न लागे तेंम आत्मारामजी थानंदविजयजीने पण पोतानि महत्ता वधारवाने नवा
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परिच्छेदः ६ | पाठ प्रक्षेपकरवानी आदत प्रिय लागेले ते पोता||नी पूर्वेनी ढंढकपणामें अनुजव करेली निनवपगानी कर्तव्यता तेनी सूचना करे केमके लौकीकमां कहेले के “ताढ जाए रूए ने अादत जाय मूए” पण एवी आदत नवनीरू पुरुषोने राखवी युक्त नथी. ७५ ॥ ५२ ॥ धर्मसंग्रहना अंतर्गत गाथा पूर्वा
चार्यकृत. एमां देवसि पमिक्कमणाना आदिमा सामान्य पणे चैत्यवंदना कही ने शांत कहेवी पण कही नथी ते प्रमाणे प्रात्मारामजी मानता नथी ने करता पण नथी॥ ए धर्मसंग्रहग्रंथनी स्वोपड़ वृत्तिना कर्त्ता विक्रमसंवत १७३७ मां श्री आनंद सूर गडमां श्रीशांति विजयजीना शिष्य श्रीमानविजयजी उपाध्याय थया पण श्रीहीरसूरिजिना शिष्यना शिष्य आत्मारामजी आनंदविजयजी लखे ते असत्य सखाणले. ७६ ॥ ७० ॥ बंन्नुवेथु बप्यनदृसूरिकृत. ७७ ॥ १ ॥ नुवेथुइ शोजनमुनिकृत.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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इहां प्रथम॥आ॥बप्पन लरव्युं ते खोटु पण बप्प नहि लखवू जोशए तथा एस्तुतियोंपण आचार्योए त्रणने कांणेत्रण अने च्यारने वेंकाणे च्यार कहेवा सारु एक बेत्रण श्लोकनी थुइ“अनपरं थयं" इत्यादिक व्यवहार नाष्यादिकना वचनथी स्तुति स्तोत्ररूपे करी संनवे ने एटले जिनपूजादिक विशि टकारण विना त्रण थुएं अन्यथा च्यारथुइए देववंदन अर्थे ए स्तुति स्तोत्र रूपे जोमलां बनाव्यां ते जिनगृहमां कहेवां संनवे पण सामायिकादिकमां कहेवां संजवतां नथी केमके सर्व जैनसिहांतोमां तथा प्राचीन अर्वाचीन आचार्योंना ग्रंथोमा अधस्तन गुणस्थानक वर्ति अविरति देवतानने “वंदणवत्तियाए" एपाउना निवर्त्तन करवाथी वंदन नमस्कार कर निषेध्युंडे ने ए पूर्वोक्त स्तोत्र नाम नी चोथी केटलीक थुश्योमां तो पोतार्नु परशरीरनुं रक्षण तथा सुख वली शत्रुना समुदायनो नाश करवो इत्यादिक याचना अने नमस्कार तथा तेदेवनो जय बोलवो ने पोतानुं ऐश्वर्यादिक वधारवा प्रमुख याचना करी तेसामायिकादिकमां एहवी याचना करतां व्यवहारे सावद्य लागे तेथी आचार्योए सर्वग्रंथोमां आचरणाए चोथी थु
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परिच्छेदः ६ जिनपूजादि अवसरे कहेवी कहीले ते प्रमाणे कहेवाने ए स्तुति स्तोत्र थुइयों साधारण रूपे बनावी संनवे ते प्रमाणे.आत्मारामजी आनंदविजयजी मांनता नथी ॥ ए १ ना अांकनो स्तुतिस्तोत्र ग्रंथ तेना कर्ता श्रीशोननमुनिने चतुर्थस्तुतिनिर्णयष्टष्ट १७३मां श्रीजिनेश्वरसूरिकाशिष्य नवांगर तिकारकश्रीअन्नयदेवसूरिका गुरुनाइ ॥ ए लखवू पण आत्मारामजीनुं एकांते सिथतुं नथी पुस्त कांतरनो लेखले पण प्रबंधचिंतामणी तथा यात्म प्रबोधादिक ग्रंथोमां श्रीवईमानसूरि तथा श्री सुस्थिताचार्य शिष्यपरंपरामे पण थया शोननाचार्य लखे धने प्रनावकचरित्रमा चंद्रगढीय श्रीमहेंद्रसूरिना शिष्य कह्याचे ॥ तेथी नवांगवृत्तिकारकना गुरुनाई एकांते संनवता नथी पडे बहुश्रुत निरीहपणे कहे ते प्रमाण. ___७ ॥ २५ ॥ पुनः यतिदिनचर्या.
ए ॥ ३० ॥ पुनः यतिदिनचर्या, एवि, विना नामनीदिनचर्यान ले ते केटलीक |तो त्रणथुश्योनी जे ने केटलीक च्यारथुश्योनी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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टीकम त्रण तथा व्यार थुइ एके नथी ने एनमा पक्किमणाना यादित्र्तमां जघन्य प्रकारे चैत्यवदना कहीले पण व्यार थुनी कही नथी तथा केटलीकमां श्रुतक्षेत्रदेवीना कायोत्सर्ग का नथी ने केलीकमां काजसग्ग कह्या पण थुइ कही नथी ते प्रमाणे श्रात्मारामजी करता पण नथी ने मानता पण नथी.
८० ॥ ८२ ॥ श्रुतदेवताकिथुइ श्रीहरिनद्रसूरिकृत.
ए संसारदावानु चोथु वृत्तबे ए संसारदावा स्तुति एकांते थुइ नथी पण स्तुति स्तोत्र रूपे बे केमके श्री व्यवहारजाप्यमां एक बे त्रण श्लोकनी थुइ, तिवारे पति स्तव कह्योढे ते कारणथीज वर्त्त - मान परंपराएं संसारदावा सिझाय प्रमुख स्तुति स्तोत्रादिकमां प्रवर्त्ते तेथी थुइने अवसरे त्रण थुइ केवायाने स्तुतिस्तवने अवसरे प्यार पण केवाले वली श्रीहरिनद्रसूरीिजना करेला त्राण थुइयोनां जोमां पण ज्ञान जंमागारोमां देखवामां प्रावे ते कारणथी जिनपूजादि विशिष्ट कारणे च्यार थुइ अन्यथा त्रण थुइ कहेवाने अर्थे ए
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१५२
परिच्छेदः ६
जोमां बणाव्या संजवेढे पडे बहुश्रुत निरीह गीतार्थ कहे ते प्रमाण ए स्तुतिस्तोत्रमां नवविरहवरं ए वाक्यथी श्रुतदेवि जिनवांणीनो पण संभव थाय बे ते प्रमाणे खात्मारामजी यानंद विजयजी मांनता नथी.
८१ ॥ ३१ ॥ समाचारीप्राचीनाचार्यकृत. ग्रंथ वर्त्तमानकालथी पूर्वे थयेना प्राचीनाचार्य ग्रहण करवा पण पूर्वधरकालवर्त्ति तथा पूर्व धरनिकटकालवर्त्ति प्राचीनाचार्य ग्रहण न करवा केम के एवि विना नामनी समाचारीजंमे किंहांक त्रण थुइए चैत्यवंदना लखेबे किहांक प्यार थुइएं जिनगृहमां चैत्यवंदना लखेडे तेम ए उपरलखेली समाचारमां पक्किमलाना यादितमां जघन्य प्रकारे चैत्यवंदना कही पण व्यार थुइनी कही नथी तथा श्रुतदेवतादिकना कायोत्सर्ग कह्या बे पण थुइ कही नथी ते प्रमाणे खात्मारामजी यानंदविजयजी मानता नथी ने करता पण नथी. ८२ ॥ ४४ ॥ प्रावश्यकार्थदीपिका श्रीरलशेखर सूरिकृत.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५३ एमां आवश्यक कायोत्सर्गनियुक्ति पूर्वधर श्रु. तधारियोनीमाचरणाएं चातुर्मासि संवत्सरि प्रतिक्रमणमां देवदेवतानो कायोत्सर्गअने पादिकप्रति क्रमणमा जुवनदेवतानो, तथा कोइक आचार्यना मतथी चातुर्मासीमे पण नवनदेवतानो कायोत्सर्ग करवो कह्यो पण निरंतर करवो कह्यो नथी ने थुइ तो कहीज नथी तथा वजस्वामीएं अगसण माझा कारणे वनदेवतानो कायोत्सर्ग करयो, वली वृहद्भाष्य तथा ललितविस्तरानी सादिथी वैयावृत्यकर देवतानो कायोत्सर्ग तथा थुइ कही ते, तेज ग्रंथोमे पूजादि विशिष्टकारणे करवी कही बे वलि मोद अर्थे देवतागंनीप्रार्थना बहुमान वा बे ने इह लोकार्थ यदादिक आराधना करवामे मिथ्यात्व वृद्धि प्रसंग लख्यो ते प्रमाणे प्रात्मारामजी करफे आनंदविजयजी मानता नथी जे ग्रंथमा पूर्वधर ग्रंथनी सादी दिधी होय ते ग्रंथमां जे का होय तेवीरीते न माने तेने दीर्घसंसारी शिवाय बीजं स्यूं कहेवाय.
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१५४
हो के
प्रधान कार्य मह
परिच्छेदः ६ प्रश्न-ए पूर्वोक्त ग्रंथ पंचांगी विनाना तमे प्रमाण करोडो के नथी.
उत्तर-अमो प्रधान नैगमादि नय विशारद श्रीमदहरिनद्राचार्य प्रमुख पूर्वाचार्य महाराजना वचनथी प्रर्वधर अनुकरण अर्थे सर्वग्रंथ प्रमाण करीए बीए ने निर्वद्य समाचारी विशेष अधिकि नलि होय तेने दूषता नथी पण कर्तव्यतातो पूर्वधरादि अनुयायि परंपराए
आपत्ति थायबे केमके सर्व ग्रंथमां कहेली जे निन्न । समाचारी ते सर्वे अवश्य नावे करवी एवा शास्त्रमा अदर देखाता नथी अने जे पूर्वधरादि अनुयायि परंपरा आपत्ति न माने तेने तो जे ग्रंथमा जे समाचारि कहि होय ते सर्वे करवि जोएं।तथाचोक्तं श्रीसेनप्रश्ने॥
॥ तत्पातः ॥ खाद्याः कथयंत्यस्माकं पौषधिकाः रात्रेस्तुर्ययामे समुबाय पौषधमध्ये सामायिकं कुर्वति तदक्षाणि च प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णौ संति तेन श्रीमतां श्रीपूज्याः सामायिकं कथं न कारयंतीति प्र० रात्रिपौषधमध्ये पश्चात्यरात्री सामायिककरणमाश्रित्य यानि चूर्ण्याणि संति तानि सामाचारीविशेषेण समर्थनीयानि नतु दूषणीयानि तस्याः शिष्टकतत्वात् न चात्मनां तदनदर्शनेन तत्कर्त्तव्यतापत्तिः सर्वेपि समाचारीविशे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५५ पाः सर्वैरपि अवश्यंनावेन विधेया एवेति शास्त्राक्षरानुपलंनादिति किंच खरतरपदीयाणां चूर्णिगतैकवचनं युक्तिमन्न प्रतिनाति तद्गतसकलसामाचार्यास्तैरकरणात् यदि च तेषां चूर्णैः प्रामाण्यमेव तदा तद्गता सकलापि समाचारी तैः कथं न विधीयत इति बहु वक्तव्यमस्तीतिए
नावार्थः-खरतरगडवाला कहे अमारे पोषावाला रात्रिना चोथापोरमां नवीने पोषामां सामायिक करे तेनां अदर प्रतिक्रमण चूर्णीमां ने तेथी तमारा श्रीपूज्य सामायिक केम नथी करावता तिप्रश्नः
उत्तर-रात्रिपोषधमध्ये पालि रात्रिने विषे सामायिक करवाआश्रि जे चूर्णिना अदर ले ते समाचारी विशेषे करीने समर्थन करवा पण दूषवा नहि तेना शिष्टकृत्य पणाथी पण अमारे ते अदर देखवे करीने तेना कर्तव्यनी आपत्ति नथी थाती सर्व समाचारिविशेष सवें पिण अवश्यनावे करवीज एवा शास्त्रमा अक्षर अप्राप्तपणाथी अने खरतर पदियोने चूर्णि माहेलु एक वचन युक्तिवंत नथी नासन थतुं तो ते मांडली समस्त समाचारी तेने अकरवाथी जो तेनंने चूर्णिप्रमाणज होय तो ते मांडली सकल समाचारी ते केम नथी करता इत्यादिक घणी वक्तव्यता डे ॥ ए पाठना अनुना
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१५६
परिच्छेदः ६
वथी से पूर्वधरादि परंपरा अनुयायि ग्रंथ प्रमाण करे तेने तो कां ऋति नथी पण जे पोताना मनकल्पित प्रमांणे ग्रंथ मांहेनुं एकवचन तो मानवुं ने बीजां ते ग्रंथनां वचन न मानवां एहवो गामिना पेरणानो न्यायतो आत्मारामजी शवाय बीजा सुइजन तो न करे अने करे तो ते पण आत्मारामजी करफे श्रानंदविजयजीना अन्यायांनोनिधिना यावर्त्तमां पडीने मबकां खायाज करे एमां शक्क नथी ए पूर्वोक्त ८२ ग्रंथोनि शाखात्मारामजि श्रानंदविजयजीएं चतुर्थ स्तुतिनिर्णयमां दिधी तेनुंमां २१ । २२ पंचांगीना ग्रंथो बे तेनुंमां च्यार थुइ तथा श्रुतखेत्र देवतादिकनी थुइनो अधिकार नथी पण थुइनो केटला कमां अधिकार ने त्राण ग्रंथ पंचांगीकर्त्तानावे तेमां पण व्यारथुइ तथा श्रुतखेत्रदेवतादिकनी थुनो अधिकार नथी पण चोथी थुइ नवीन कही नेत्र थुइ स्थापन करीबे वली ललितविस्तराने चैत्यवंदनमाहानाष्य ए वे ग्रंथ पंचांगीकर्त्ताना एकांते सिद्ध यता नथी ते मां पण पूजादि विशिष्ट कारणे चोथी थुइ कही ए उपरांत बीजा ॥ ३६ ॥ तथा३७ ग्रंथबे ते केटलाक तो गांतर पूर्वकाल निकटवर्त्ति याचार्योना करेला ने केटलाक गांतरवर्त्ति याचार्यांना करेला बे एनमां पूजादि विशिष्ट कारणे चोथी थुइ करवी पण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५७ केटलाकमां कहीले ने निश्रा अनिश्रा कृत चैत्योमांत्रण थइ पण कहीजे ने केटलाकमां श्रत खेत्र देवीना का. योत्सर्गज कह्या पण थुइ कही नथी ने केटलाकमां कायोत्सर्ग थुइ एके पण कही नथी वली केटलाकमां कायोत्सर्ग थुइ बे पण करवां कह्यांडे एम सर्वाले ६४ तथा ६५ आशरे ग्रंथोनि पूरती सादी ने पुनः पुनः तेज ग्रंथोनां नाम लखीने ७२ ग्रंथोनां नाम लख्यां ते अन्य प्रयोजन तथा लोकोने घणा ग्रंथनां नाम बतावी नरमाववा लख्यां संनवे पण एवंथी एकांते चोथी थु सिह थती नथी ने त्रण थुइ नबपती नथी तेमाटे नव्यजीवोने आत्मारामजीना एकांत लखाण उपर दृष्टि देने वर्तवं ए श्रेय नथी पोताना बोधबीजनुं रहण करवाने मध्यस्थदृष्टिएं पूर्वाचार्योना पूर्वापरवचन पूर्वधर अनुयायि प्रमाण करी सावधनिर्वचनी खोलना करवी एज श्रेय. तितत्वम् ॥
॥तिचतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारे ऽपरनाम्नि चतुर्थ स्तुतिकुयुक्तिनिर्णयछेदनकुठारे सूत्रागम अर्थागम तथा पूर्वधरगीतार्थकत सूत्रागम अर्थागम बहुश्रुतगीतार्थकृत अर्थागमनाचरणाया त्रिस्तुत्या चैत्यवंदनाप्रश्नोत्तरे तथा चतुर्थस्तुतिनिर्णययोक्त ग्रंथ,ग्रंथकर्तमान्यनिदर्शनो नाम षष्टः परिच्छेदः ॥६॥
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परिच्छेदः ७
॥ पूर्वपद ॥ णथुइधी चैत्यवंदना करवी किया शा
मां कही
॥१॥
उत्तरपक्षः ॥ सुपंचांगी वा गणधर पूर्वधर बहुश्रुत तथा सामान्य बहुश्रुतोना करेला ग्रंथोमां त्रण धुएं चैत्यवंदना करवी कही ते मांह्येला केटलाक ग्रंथोनी साही पाठसहित लखीए बीए.
प्रथमगणधरकृत श्रीमहानिशीथसूत्रमां त्रण थुइनां सूत्र कह्यां वे पण च्यार थुइनां कह्यां नथी.
तेपाठः ॥ सेनयवमिरियावहियमाहिद्यित्ताणं तनुं किमहिद्या गोयमा सवाइयं चेइयवंदणविहाणं एवरं Rai एगमबत्ती साए यायंबिलेहिं अरहंतचयं एगेणं चणं तिहिं च्छायंबिलेहिं चनवीसचयं एगेणं ब एगेणं चचेणं पणवीसाए आयंबिलेणं पाठांतरे - मेगं परं च इति नचि, पाणचयं एगेणं चनचेणं पंचहिं श्रायंबिलेहिं.
नोजावार्थ कहेबे के उपधान, न वहे तेहनी किरिया कुछ नथी ते माटे नवकारनो उपधांन वहीने इरियावहिनो उपधांन वहे ते विधि कहि हवे गोतमस्वामी पूढे बे हे गवन् इरियावही जाणने पढे स्युं न. लिई जगवांन कहेबे हे गौतम शक्रस्तव यादि लेइ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५० चैत्यवंदन विधांन नणवं, ते तेमज, पण एटलो विशेष शक्रस्तवनो तप एक अहम ने बत्रीस आमत अरिहंत स्तवते अरिहंतचेश्याणं एहनो तप एकचन एटले एक उपवास त्रण प्रांबिल करीने जणवं चोविसवय कहियें लोगस्स ते एगबह एक उपवास पंचवीस आंबिले करीने जण झानस्तव एटले पुकरवरदी एक उपवास पांच आंबिलें करीने नणदुं एटले नमुचणं १ अरिहंतचेश्याणं लोगस्स ३ पुकरवरदी ४ ए च्यार सूत्र चैत्यवंदनना कह्यां तेथी त्रणस्तुति अनुक्रमे थायजे.
एमज श्रीमानदेवसूरि विरचित उपधान प्रकरणमा पण कयुं .
तेपात ॥ पंचनमुक्कारेकिल ज्वालंसतवोठहोइनवहाएणं अव्यायामाई एगंतहथम्मेअंते १ एवंचिअनीसेसं इरिआवहिबाइंहोइनवहाणं सक्कलयंमिअम मेगंबत्तीसायामा २ अरहंतचेश्अथए नवहाणमिणं तुहोइकाइवं एगचेवचनबं तिनिअायंबिलाणतहा ३ एगंचिअकीरबठं चनसमेगंतुहोकायचं पणुविसंधायांमा चवीसथयम्मि उवहाणं ४ एगचेवचनवं पंचयायं बिलाणिनाणथए चिश्चंदणाइसुत्ते उवहाण मिणं विणिदि॥५॥
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परिच्छेदः ६ नावार्थ ए पाठनो पूर्वली परे जाणवो एमां पण प्रथम शक्रस्तव एटले नमुवणं १ बीजो अरिहंतस्तव एटले अरिहंतचेश्याणं, त्रीजो चनवीसवय एटले नामस्तव ते लोगस ३ चोथो नाणबय एटले श्रुतस्तव पुकरवरदी ४ एम त्रण थुइनां सूत्र अनुक्रमे कह्यां डे पण चोथी थुझ्नो वेयावच्चगराणं सूत्र कह्यु नथी.
प्रश्नः-त्रण थुश्ना सूत्रनो अनुक्रम केवीरीते थायले
उत्तरः-प्रथम शकस्तव १ तेनमुबुणं, अरिहंत स्तव ते अरिहंतचेश्याणं कही, कायोत्सर्गकरी ध्रुव अध्रुव स्तुति कहे पडे चतुर्विंशतिस्तव ३ तेलोगस्स, सर्व चैत्यस्तव ४ तेसवलोए अरिहंतचेश्याणं कही कायो त्सर्ग करी ध्रुवअध्रुव स्तुति कहे पडे श्रुतस्तवः ५ ते पुकरवरदी सुअस्सनगवकही कायोत्सर्ग करी ध्रुव अध्रुव स्तुति कहे ए प्रमाणे त्रण थुश्नां सूत्र जाणवां.
प्रश्नः-पंचाशकवृत्ति प्रमुखमां तो शक्रस्तवादिक दंझक पांच अने थुइ त्रणे करी चैत्यवंदना कही डे ने यहां तो स्तव पांच कह्यां ते केम. __ उत्तरः-स्तवने पर्यायांतरसंझाए दमक केवायजे.
प्रश्नः-स्तवने पर्यायांतर संज्ञाए दमक किहां कयां .
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १६१ उत्तर-हेलव्य कुवामे होय तो अवामामां आवे तेंम सूत्रमा होय तो ग्रंथमां आवे तेथी मूलसूत्रमा चैत्यवंदनना सूत्रने स्तव तथा स्तुति कहिने बताव्यांजे ने ग्रंथामां आचार्योए दंझक कहिने बताव्यां तेथी चैत्यवंदननां सूत्र स्तुति स्तवने पर्यायांतर संज्ञाए दमक पण केवाय. ___ प्रश्न-पूर्वधरोंना कोई ग्रंथमां स्तवने दमक कही बताव्यो बे के नही?
उत्तर-चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली श्रीनद्रबाहुस्वांमिजी कृत वंदन पयन्नामे अरिहंतस्तवने दमक कही बताव्यो ने तेथी तुलादंमन्यायें करी आतनास्तवने दंझक संझा गणाय ने वली सूत्र तथा पूर्वाचार्योना ग्रंथोंमां दंझक नाम पाठ अथवा दंग इव दंमा सरला इत्यर्थः एटले दंमनि पठे दंमते सरल पाउनु कहतेनुं नाम दमक, ए वचनथी शक्रस्तव १ अरिहंतस्तव २ नामस्तव ३ चैत्यस्तव ४ श्रुतस्तव ए ए स्तवोंने सरल पणे सूत्रपाठे बोलवा तेज सूत्रन्याये पांच दंमक संनवे डे पडे बहुश्रुत निरीह पणे सूत्रन्याये कहे ते प्रमाण.
प्रश्न-श्रीमहानिशीथमां तो चैत्यवंदनानां सूत्र स्तव च्यार कह्या पण “सबलाए अरिहंतचेश्याएं"
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१६२
परिच्छेदः ७ ने सूत्र स्तव कह्यो नथी तो त्रण थुझ्ना अनुक्रममा ए सूत्र ग्रहण केंम कराय! _ उत्तर-हे नद्र श्रीमहानिशथिमां अरिहंत स्तव कहवाथी चैत्यस्तव तो आव्योज केमके अरिहंतचेयाणं ए पाठमां चैत्यशब्द कहेवाथी चनवीस वर्तमान जिननुं कथन डे अने सवलोए अरिहंतचेश्याएं मे समस्त अतीत अनागत वर्तमान तथा विहरमाण प्रतिमा रूप जिन त्रिलोक पूजनीकनुं ग्रहण ले ते बिहुँ स्थापना रूपें एकज . ___यक्तं प्राचारदिनकरेतत्पातः ॥अर्हचैत्यानां कायोत्सर्ग करोमि तेषामाराधनार्थमित्यर्थःअत्र चैत्यकथने जिनानां चतुर्विंशतिवर्तमानानां कथनं यत्र च सवलोए अरहंतचेश्याणं इति कथने समस्तानागतातीत वर्त्तमान विहरमाण प्रतिमारूपाणां जिनानां त्रैलोक्य महितानां ग्रहणं कार्यमित्याह वंदणवत्तियाए॥
॥ नावार्थः ॥अर्हतचैत्योने आराधवाने अर्थे कायोत्सर्ग करूंशहां चैत्य कहेवाथी जिन चनवीस वर्तमान नु कथन डे "सवलोए अरिहंतचेश्याणं" एकथनने विर्षे समस्त अनागत अतीत वर्तमान विहरमानप्रतिमा रूप जिन त्रिलोकपूजितोंर्नु पूजा फल ग्रहण अर्थे कहे । वंदणवात्तयाए इत्यादिपाठ ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १६३ इहां अरिहंत स्तवने चैत्यस्तवनो ग्रंथकारे नेलो अर्थ कस्यो ते बिहुनुं सादृश्यपणाथी एटले ए अनिप्राय संनवेनेके श्रीश्रावश्यक सूत्रमा सबलोए, ए पाठ कह्यो बे ने श्रीमहानिशीथमां अरिहंतस्तवने चैत्यस्तव नेलो लेखव्यो बे ते अरिहंतस्तवने चैत्यस्तवने विषे “सवलोए" ए च्यार अदर नपरांत फेरफार नथी तेथी पृथक् कह्यो नधी पण चैत्यवंदनादि अनुक्रममां श्रीनद्रबाहुस्वामिजी प्रमुख प्राचार्ये पृथक् स्तव कह्यो जे एम सिद्धांत न्याये त्रण थुझ्ना अनुक्रममां ए स्तव ग्रहण करायडे,
प्रश्न-सवलोए अरिहंतचेझ्याणं एने स्तव किहां
कह्यो.
उत्तर-सवलोए अरिहंतचेश्याणं एने स्तव श्रीयाचारदिनकरादिकमां कह्यो. __ ॥तेपाठ ॥ चतुर्विंशतिस्तवकथने शस्तव? अर्हचैत्यस्तव श् चतुर्विशतिस्तव ३ श्रुतस्तव ४ सिहस्तव ५ सर्वचैत्यस्तव ६ ॥ __ ए पाठमां सिहस्तव कह्योडे ते ध्रुव अध्रुव स्तव स्तुति रूपे बे तेथी प्रतिक्रमणमां कायोत्सर्ग अध्ययनमा स्तव केवाय ने चैत्यवंदनामां स्तव स्तुति रूपे केवाय बे एटले ध्रुव स्तुतिना देववंदनमां स्तुतिरूपे ग्रहण क
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परिच्छेदः ६ राय ने अध्रुव स्तुतिना देववंदनमा कोइक आचार्य स्तवरूपे ग्रहण करे तेथी इहां सिक्षाएंबुझाणं एने स्तव कह्योडे पण प्राये सर्वचैत्यस्तवडे ते पांचस्तव तथा पांच दमकमां प्रागमन्यायें प्राचार्योएं चतुर्थस्तव ग्रहण करथो केमके प्राचारदिनकरादिकमां सर्वस्तवने अंते सिइस्तुति एटले सिक्षाणंबुझाणं कहेवी कहीजे ॥यक्तं प्राचारदिनकरे॥
तत्पातः ॥ सर्वस्तवप्रांते सर्वसिद्धिदायकानां सिझानांस्तुतिरनिधीयते परमार्थेन जगबंद्या जगवंतोहतोपि सिझा एव नतु ते स्वकायेन सर्वदैव विहरंति अत एवोच्यंते सिसाणंबुझाणं इत्यादि ॥ ___ ए पाठमां सर्वस्तवनेप्रांतें ए कहेवाथी पांच स्तवने बेमे सर्वसिद्धिदायक सिझोनी स्तुति कहेवी कही तेथी ए सिझणं बुझाणं झक “स्तव स्तुति रूपेडे" ते वास्ते चोथो सर्वचैत्यस्तव कही कायोत्सर्ग पारी स्तुति कही पंचम श्रुतस्तव कहे एम पांचस्तव दंमकें करी देववंदना सिक्षांतोमा पूर्वाचार्योना कथनथी संनवेडे पजे गीतार्थ कहे ते प्रमाण पण चोथी थुझ्नो दमक स्तव श्रीमहानिशीथमां कहेलो देखातो नथी.
प्रश्न-जेम थरिहंतस्तवने चैत्यस्तव जेलो गएयो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १६५ तेम श्रुतस्तव ने सिइस्तव नेलो गण्याथी चतुर्थस्तुतिनो वेयावच्चगराणं पाठ पण नेलो आव्यो एम मानियें तो शी हानी . __उत्तर-हे आर्य जे शृंग पूंब विनाना पशु जेवा मनुष्यने तो पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंना लेख विना पोतानी मनकल्पनाथी पाठ नेलो नेलव्यांथी दीर्घसंसार विना बीजी हांनि नथी पण विद्वान प्रामाणिक पुरुष तोयाधार विना पोताना मनकल्पित पाउनेलोनेलवामें सं. सारवृझिनु कारण जांणी महाअनर्थरूप हांणी जाणे तेथी अरिहंत चैत्यस्तव अने सर्वचैत्यस्तव तो सादृश्य पावधी एक नेतो गणाय पण श्रुतस्तव सिहस्तवनो सादृश्य पाठ नथी तेथी नेलो न गणाय केमके विधिपू. र्वक वाचनानुयोग उपधान चैत्यवंदन सूत्रना श्रीमहानिशीथ सूत्रानुसारे सिह थायडे तेमां श्रुतस्तव ने सिइस्तव नेलो गएयो नथी. ॥यक्तं श्रीयाचारदिनकरे ॥
॥ तत्पातः॥ अथ श्रुतस्तवोषधानं ॥ नंदीथयं पूर्ववत् प्रथमे दिने एकनक्तं द्वितीये नपवासंतृतीये एकनक्तं तण्यैव पंचाचाम्लाः तदंते गाथाद्वयस्य तृतद्वयस्यापि समकालं वाचना तत्र पंचाध्ययनानि अध्ययनद्वयं गाथा द्वयेन तृतीयाध्ययनं वसंततिलकावृत्तेन चतुर्थाध्ययनं
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परिच्छेदः ७ शार्दूलविक्रीमितवृत्तपूर्वान पंचमाध्ययनं तऽत्तराईन इति श्रुतस्तवोपधानं इति षमुपधानानि तथा सिइस्तवे प्रथमगाथात्रयस्योपधानं विनैव वाचना शेषा गाथा आधुनिक्य इति ॥
ए पाठमां उपधानविधिमां श्रुतस्तव ने सिइस्तव पण नेलो गएयो नथी तो चतुर्थस्तुतिनु सूत्र यावच्चगराणं ते नेर्नु केम गणाय अर्थात् नज गणाय केमके एग्रंथमां सिइस्तवनी प्रथम त्रण गाथातो उपधान विना वांचवी लखी ने शेष गाथा आधुनिक्य एटले नवीन कही तो वेयावच्चगराणं तो नवीन केवायज. — प्रश्न-नुपधानविधि प्रकरणमां श्रुतस्तवने सिह स्तव नेलो गएयोडे ते केम? ___ नत्तर-नपधानविधि प्रकरण पूर्वाचार्यकृतमां तो श्रुतस्तव ने सिध्वस्तव नेलो गएयो नथी ने ग ना नपधान विधि प्रकरण बे तेमां अरिहंतस्तवने चैत्य. स्तवना उपधांनमा पोषध १ तप २ वाचनाना ३ सादृस्य पाठ पणाथी एकज लखेडे पण श्रुतस्तव ने सिह स्तवना नपधानमा पोषध तप उपवास वाचना निन्न २ लखेडे ते प्रतिक्रमण श्रुतस्कंधना नपधाननी अपेवाए लखेडे पण चैत्यवंदन सूत्रनी अपेक्षाए पूर्वोक्त
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१६७
न्याये लख्यां नथी तेमज स्वस्वगच संबंधि उपधानविधि प्रकरणादिकमां लखेटे.
ते पाठ ॥ महानिशीथानुसारेण चैत्यवंदनसूत्रस्य विधिपूर्व वाचनानुयोगौ सम्यग्दृष्टेः सिद्धौ सामायिकाद्या वश्यकसूत्रस्य वाचनानुयोगः देशविरतेस्तु महानिशीथे विशेष उपधानविध्य निर्देशात् त्र्यनुयोगद्वारादौ नद्देशादि निर्देशात् नंदि, समवायांग, गणांगादौ, उपधाननिर्देशात् परंपरायां विस्तारदर्शनाच्च तत्तु याचारांगादि योगाधिकारे साधुनामिव यत्र उपधानविधि विशेषो न निर्द्दिश्यते तत्रोत्सर्गतः श्राचाम्नत्रयैः श्रादानामप्पुद्दे सादि समाप्यते इति नावः ॥
एपाठमा महानिशीथने अनुसारे करीने चैत्यवंदन सूत्र ना विधिपूर्वक वाचना अनुयोग सम्यग्दृष्टिने सिद्ध कह्यां नें सामायिकादिक व्यावश्यकसूत्रनो वाचनानुयोग देशवि रतिने श्रीमहानिशीथमां विशेष उपधानविधिना निर्देश पाथीनें अनुयोगद्वारादिकमां उद्देश निर्देश पणाथी तथा नंदिसूत्र ठाणांगसूत्रादिकमां उपधानना निर्देशधी परंपराए विस्तार देखवाथी याचारांगादि योगाधिकारने विषे साधुनी पेठे जिहां उपधानविधिनो निर्देश न होय तिहां उत्सर्गथी यांबिल त्रणे करीने श्रावकोनें उद्देशा
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परिच्छेदः 9
दिकनी समाप्तिकरवी कही, ए अभिप्रायथी प्रतिक्रमण एटले च्यावश्यकना उपधानमां सिद्धस्तवनु उपधान संनवे पण चैत्यवंदनसूत्रना उपधांनमां सिस्तव, न iva Ha विरति समदृष्टि तथा देशविरति श्रावक बेहूने चैत्यवंदनसूत्र उपधांन संनवे ने यावश्यकनु उपधान तो ए पाठना अभिप्रायथी देशविरतीनेज संनवे तेथीज श्रीमहानिशीथसूत्रमां चैत्यवंदनसूत्रना उपधांनमां सिद्धस्तवनां उपधान, न कह्यां ने श्राचारदिनकरमां सिद्धस्तवने उपधान विना वांचतुं कह्युं वली स्वस्वगसंबंधी उपधानविधि प्रकरणोमां श्रुतस्तव सिद स्तव, नामा बठा उपधानमां सिद्धस्तवनां उपधान कां ते प्रतिक्रमण श्रुतस्कंध प्राश्रिसंनवे पण चैत्यवंदनामां, ए सिद्धस्तंव स्तुति रूपें ग्रहण संनवेढे ने प्रतिक्रमण श्रुतस्कंधमां स्तवस्तुतिरूपें संनवे अन्यथा गीतार्थोनां परस्पर विरोधि वचन ते विरोध पांमे तेम न करवुं, कह्युं बे जिनशासनमां थंननूत श्रीहरिनद्राचायें पंचवस्तुकमां ॥
तह वरकाणे अवं, तहा तहा तस्स अवगमो होइ श्रागमिमागमे जुत्तीगम्मं तु जत्तीए १
ए वचनथी प्रागमिकयुक्ति प्रागमप्रमाणथी तेनी सिद्धिथयां तेना अर्थ पण प्रमाणिक पणु अंगीकार
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १६ए करवू एटले जेम आगमवचन विघटे नही तेवी युक्तिएं गीतार्थोना वचननो अवगम अर्थ प्रमाण करवो विद्वजनश्रेय माने जे पण आगमवचन विघटे तेवी युक्तिथी अवगम अर्थनुं प्रमाण करवू विदऊन श्रेय मानता नथी.
॥ उपर लख्यानो सारार्थ एडे के स्वमत परमतमां सर्वविदऊन मूलशास्त्र उपर आधार राखेडे एटले स्वमत ते जैनमत तेमां गणधर पूर्वधरकत शास्रना आ. धारथी सर्व आचार्य शास्त्ररचना करेनें तथा तेलंनी सादीथी पोताना रचेला ग्रंथने समर्थन करेले पण गणधर पूर्वधरादि साहीना आधार विना जैनमतमां ग्रंथ प्रसार थता नथी तेमज परमत ते अन्यदर्शन तेमां मूल शास्त्रजे वेद तेना आधारथी पुराणादिक रचना करे अने तेचंनी सादीथी पोताना रचेला ग्रंथने समर्थन करेडे पण वेदांतनी सादीना आधार विना वेदांत मति, ग्रंथरचनाने प्रसार करता नथी तथाविध न्याय प्रमाणे आत्मारामजी तरफ आमंदविजयजी वर्तता नथी केमके चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट १४ मामा जखे ने *ऐसेचोथुनि हरिनद्रसूरीजीके ग्रंथकरणेसें प्रथमही पूर्वधोंकियाचरणासेचलतीथी क्योंकेहरीनद्रसूरी कत ललितविस्तरामेचोथीथुश्का पाठहे ॥
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परिच्छेदः ७ ___ ए लखवं आत्मारामजीनु महामिथ्यात्व नरेलुं ले केमके विचारामृतसंग्रह यंथमेतो श्रीकुलममनसूरिजीयें एम लख्यु॥श्रीवीरनिर्वाणावर्षसहस्रे पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं श्रीहरिनद्रसूरिस्तदनु पंचपंचाशहर्षेः दिवं प्राप्ताः ताथकरणकालाचाचरणायाः पूर्वमेव संनवात् श्रुतदेवतादिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेपि संनवति स्मेति ॥
॥अस्यार्थः ॥ जगवंत श्रीमहावीरस्वामीजीना निर्वाणथी हजारवर्षव्यतीतहुवां पूर्वश्रुतनो व्यवच्छेद थयो तिवार पडे ५५वर्षव्यतीत थयां श्रीहरिजद्रसूरिजी स्वर्ग प्राप्त थया ते हरिनद्रसूरिजीना ग्रंथ करणकाल पेलांज थाचरणा चालती हती ते वास्ते श्रुतदेवतादिकना का. योत्सर्गनो संनव पूर्वधरोंना कालमे पण हतो ॥
तथाहि तत्रैव ॥ चानम्मासियवरिसे उस्सग्गो वित्तदेवताएष परिकयसिऊसुराए, करिति चउमासिए वेगे १ आव० कायोनिर्यु चानम्मासियसंवहरिएसु सवेवि मूलगुणवत्तरगुणाणं आलोयण दाऊण पमिक्कमंति खित्तदेवताए अनस्सग्गं करिति केइ पुरा चानम्मासिगे सिद्या देवयाए कानस्सग्गं करिति श्राव० चानम्मासिए एगो उवस्सग देवताए काउसग्गे कीरति संव. बरिए खित्तदेवयाएवि कीरति असहिन आव० चू०
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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तथा श्रुतदेवतायाश्वागमे महतीप्रतिपत्तिर्दृश्यते तथाहि सुयदेवता यासायलाए सुतदेवताजीए सुयमहिमिगं - ती असायला नच सा किंचित्करी वा एवमादि याव० चू० ॥
ए पाउना निप्रायथी श्रीकुलमंमनसूरिएं पूर्वधर साहीए श्रुतक्षेत्र देवतानो कायोत्सर्ग पूर्वधर याचरणाए लख्यो पण खेत्रदेवतादिकनी थुइ तथा वेयावच्चगराणं प्रमुखनी चोथी थुइ पूर्वधर याचरणाए लखी नथी तेथी ललितविस्तरामे चोथी थुइनो पाठ डे ते गीतार्थ याचरणाएं संनवेळे ॥ यक्तं श्रीप्रवचनसारो दारवृत्तौ ॥
इयं स्तुतिश्चतुर्थी गीतार्थाचरणेनैव क्रियते गीतार्थाचरणं तु मूल गणधरनणितमिव सर्व विधेयमेव सर्वैरपि मुमुक्षुनिरिति ॥
॥ अस्यनाषा ॥ ए चोथी थुइ गीतार्थौनी प्राचरणाथी करीएं बी. ने गीतार्थोनी खाचरणा बे ते मूल गणधरोना कथन करया समान सर्व मोक्षार्थियोने सर्व करवा योग्य बे ॥
ए पाठमां गीतार्थ खाचरणाए चोथी थुइ कही प गणधर पूर्वधर याचरणाए न कही जो गाधर पूर्वधरथी आचरणाए चोथी थुइ चालती होत तो श्रीकुल
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परिच्छेदः ७ मंमनसृरिजीएं जेमगणधर पूर्वधरोनी सादीएं श्रुतखेत्रदेवतानो कायोत्सर्ग सिह कस्यो तेम गणधर पूर्वधर याचरणां सादीए श्री प्रवचन सारोझार वृत्तिकार श्री सिझसेनसूरिजी पण चोथी थुश्नो कायोत्सर्ग तथा थुइ सिह करत पण गणधर पूर्वधर साझीएं, ए चोथी थुइ तथा चोथी थुझ्नो कायोत्सर्ग सिह नथी तेथी जे पूजादि विशिष्ट कारणे चोथी थुइ न माने तेने समकाववा श्रीसिइसेनसूरि मूल गणधरना कथन कस्या समान गीतार्थ आचरणा करवी योग्य जे एम कही गीतार्थ आचरणा सिझकरी पण पूर्वधरना कथननी सादी न बतावी अने शास्त्रमा उत्कृष्ट गीतार्थ पूर्वधर कह्याने तेथी चोथी थुइ जघन्य गीतार्थ आचरणाए डे केमके श्रीमहानिशीथमां चैत्यवंदननां सूत्र त्रणथुश्नां कह्या पण वेयावच्चगराणं चोथी थुनुं सूत्र कर्वा नथी तथा पंचाशक वृत्तिकारे चोथी थुइ नवीन कही जो गराधर पूर्वधरोनी आचरणा होय तेने गीतार्थ नवीन थाचरणा कहे नही तेवास्ते विचार करवो जोइए के गाधर पूर्वधर प्रागमोक्त आचरणाएं चाल्यां थाव्यां त्रण थुश्नां सूत्र तथा त्रण थुश्नो निषेध करवावालो मिथ्यात्वनो हेतु दीर्घसंसारी विनां बीजो शुं था शके.
प्रश्न-पूर्वधरोक्त आगममा जेम शकस्तवादिक चै
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१७३
त्यवंदनानां सूत्र त्रण थुनां कह्यां तेम पूर्वघर श्रागमोक्त तथा पूर्वाचार्योंत त्रण थुइ किया किया शास्त्रमां कहीले.
उत्तर - हे पूर्णनद्र प्रथमतो " शक्कछवाइचेइयवंदणं” इत्यादि श्रीमाहानिशीथ सूत्र वचनथी तथा " नस्सग्गो पारियंमि थुइ" इति नियुक्ति वचनथी शक्रस्तवादि चै - त्यदमक कायोत्सर्ग नंतर थुइ कहेवी पूर्वधरोना वचनथी थुइ सिद्ध थायले.
Ե
वली श्रीयाराधनापताका जगवतीसूत्र १ वंदनपयन्नो २ कल्पनाष्य ३ व्यवहारभाष्य ४ कल्पसामान्य चूर्णि ५ कल्पविशेषचूर्णि ६ कल्पबृहद्भाष्य 9 श्रावउपकचूर्णि यावश्यक सूत्र ए कल्पनाप्यवृत्ति १० व्यवहारभाष्यवृत्ति ११ तथा नर पिण पंचाशकवृत्ति ॥ इत्यादि अनेक शास्त्रों में त्रणथुइए चैत्यवंदना करवी कही वे ए ग्रंथाने उल्लंघन करीने आत्मारामजी यानंदविजयजी थुनी चैत्यवंदना निषेध करेले अने च्यार थुनी चैत्यवंदना करवानो एकांते उपदेश करे बे, ए एवंनो मत जैनमतना शास्त्री ने पूर्वाचार्यांनी समाचारियोथी विरु-६ बे ते वास्ते जैनधर्मापुरुषोने एजंनी श्रद्धा न मांनवी जोइएं कदाचित् पूर्वकालमें -
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१७४
परिच्छेदः ७ जांणपणाथी मानवामें भावी होय तोत्रण करणत्रण योगथी वोसरावी पूर्वधरोना वचन ऊपर श्र-झा राखवी जोइए केमके एकतो जैनलिंगनो विरोधी बीजो श्रीश@जय प्रमुख तीर्थनो विरोधी त्रीजो जैनशास्त्रनो विरोधी चोथो चतुर्विध श्रीसंघनो विरोधी पांचमो पूर्वाचार्य समाचारिनो विरोधी इत्यादि विरोध करवा वालो किवारे पण संसारसमुद्रथी तरे नही!!! जैनलिंगनो विरोधी एवीरीते थाय के श्रीवीरशासनना साधवोंने श्रीजैनशास्त्र में सपेत मानोपेत जीर्णप्राय कपमां धारणकरवां कह्यांजे ने पीला प्रमुख कपमां धारण करवा वालाने महाप्रनाविक स्थिरापद्रगढकमंझन प्रा. चार्य श्रीवादिवेताल शांतिसूरिजीए उत्तराध्ययननी "बहदत्तिमां विम्बक" एटलेनेष विगोववा वाला थादिशब्द नांडचेष्टाना करवावाला कह्याने
ते पाठः ॥ अत्र च द्वितीयं द्वारं लिंगत्ति लिंग्यते गम्यते अनेनायं व्रतीति लिंगं वर्षाकल्पादि रूपो वेषस्तदधिकत्याय "अचेल" इत्यादि प्राग्वदाख्यातमेव नवरं "महामुणित्ति” महामुने पति च "महायसत्ति" महायशसा लिंगे द्विविधे अचेलकतया विविधवस्त्रधारकतया च द्विनेद इति सूत्रत्रयार्थः ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १७५ "इन्छियत्ति” इष्टमनुमतं पार्श्वतीर्थरुवईमानतीर्थ रुङ्ग्यामिति प्रक्रमो वईमानविनेयानां हि रक्तादिवस्त्रानुझाते वक्रजमत्वेनवस्त्ररंजनादिषु प्रवृत्तिरतिनिवारा स्यादिति न तेन तदनुज्ञातं पार्थशिष्यास्तु न तथेति रक्तादीनामपि तेनानुझातमिति नावः किंच प्रत्ययार्थ चामी बातिन इति प्रतीतिनिमित्तं कस्य लोकस्यान्यथा हि यथानिरुचितं वेषमादाय पूजादिनिमित्तं विम्बकादयोपि वयं वतिन इत्यनिधीरन् ततो व्रतिष्वपि न लो. कस्य वतिन इति प्रतीतिः स्यात् किंतदेवमित्याह नाना विधविकल्पनं प्रक्रमान्नानाप्रकारोपकरणपरिकल्पनं नानाविधं हि वर्षाकल्पाद्युपकरणं यथादद्यतिष्वेव संनवतीति कथं न तत्प्रत्ययहेतुः स्यात्तथा यात्रासंयमनिर्वाह स्तदर्थ विना हि वर्षाकल्पादिकं ठंष्टयादौ संयमबाधेव स्यात् । ग्रहणं ज्ञानं तदर्थं च कथंचिञ्चित्तविप्लवोत्पत्तावपि गहातु यथाहं व्रतीत्येतदर्थ लोके लिंगस्य वेषधारणस्य प्रयोजनमिति प्रवर्त्तनं सिंगप्रयोजनं ॥॥अथेत्यु पन्यासे " नवे पश्नाउत्ति" तुशब्दस्यैवंकारार्थत्वाद्भिन्न क्रमत्वाच नवेदेव प्रतिज्ञानं प्रतिझाभ्युपगमः प्रक्रमापार्श्ववईमानयोः प्रतिज्ञास्वरूपमाह "मोस्कस्सझूयसाहणत्ति" मोदस्य सद्भूतानि च तानि तात्विकत्वात्साधनानि च हेतुत्वात् मोदसतसाधनानि कानीत्याह
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१७६
परिच्छेदः 9
ज्ञानं च यथावदवबोधो दर्शनं च तत्त्वरुचिश्वारित्रं च सर्वत्र सावद्यविरतिरेव इत्यवधारणे स च लिंगस्य मुक्तिसद्भूतंसाधनतां "व्यवढिन्नत्ति” ज्ञानाद्येव मुक्तिकारणं न तु लिंगमिति श्रूयते हि जरतादीनां लिंगं विनापि केवलकोनोत्पत्तिनिश्चय इति निश्वयनये विचार्ये व्यव हारनये तु लिंगस्यापि कथं चिन्मुक्तिसद्भूतहेतुतेष्यत एव तदयमनिप्रायो निश्वये तावलिंग प्रत्याद्रियत एव न व्यवहार एवतू कहेतुनिस्तदिच्चतीति तद्भेदस्य तत्त्व तो ऽकिंचित्करत्वान्न बिषा विप्रत्ययहेतुता शेषं स्पष्टमिति सूत्रार्थः ॥
नावार्थः ॥ वली इहां बीज द्वारलिंगनुबे लिंग ते स्युं के, जांलिए जिो करीने एटले ए लिंगेकरीने जांपीए जे ए व्रतीने तेहने लिंग कहीये एटले वर्षाकल्पादि रूप वेष तेहने अधिकारकरीने कहे अचेल इत्यादि - कनो अर्थ पूर्वे को बे पण तेमां एटलो विशेष "महामुनि महाजसवंत " तेनो लिंग वे प्रकारे एकतो अचेलक पणे करीने बीजु प्रनेक प्रकारना वस्त्रधारवापणे करीनें बे ने एहमां लिंग ते वस्त्रादिक धारवानु कह्युं एटले श्वेत मानोपेतवस्त्रधारे ते लिंग महावीरस्वामीना साधुनु बे, अनेक प्रकारना बहुमोंघा पंचवर्णा वस्त्र धारे ते लिंग पार्श्वनाथजीना साधुनुं बे, खने महावीरना साधु
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
१७७
जो रंगेलां तथा बहुमोघां वस्त्रपहिरे तो तेहने कुलिंगी कहीये इहां कोइ कहेशे जो रंगेलां वस्त्रपहिरवाथी कुलिंग कहो तो पार्श्वनाथस्वामीना साधु पण कुलिंगी थया तेह ने कहीये एम न बोलवु तेहुंने तो पांचवर्णा पहिरवानो जयाचारबे जेहुना याचारमें तथा प्राज्ञामे चाले ते कुलिंग न कहिएं माटे ते कुलिंग न होय हवे जे लिंगमां स्युंबे तेहनो उत्तर वृत्तिकार कहे .
जे पूर्वे पार्श्वनाथस्वामीना साधुवोंने सचेलप ने वर्द्धमानस्वामीना साधुवोंने अचेल पण मान्यु तीर्थंकरोए ते वांबित बे एटले ए मार्ग इमज जोइयें एहमां शंका न करवी ने जो कोइ इम कहे एहमां शुं बे तेने कहे
जो अधिकार इम न मानिये ने वर्द्धमानस्वामीना चेलानंने रंगवानी मर्याद कहीये तो वर्द्धमांनस्वामीना साधु वक्रजम बे ते सदा रंगवानुज करता रहे ए दोष प्रवर्त्ति मिटावी प्रतिकठिण थाय ते माटे एहुंने वस्त्र रंगवुं सर्वथा वर्ज्य. अने रंगेलुं वस्त्र धारकुं पण पूर्वे निषेध करधुं बे ने पार्श्वनाथजीना शिष्य एहवा नथी माटे तेहुँने रंगेला वस्त्रनी श्राज्ञा थापी जुप्राज्ञपणाथी ए परमार्थ डे वली कहेबे के लिंगमां शुं बे तेहनो परमार्थ देखामे के लिंगथी लोकोंने प्रतीत उपजे जे ए
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१७०
परिच्छेदः । साधु डे अने जो लिंग न देखामिये तो मनमां आवे तेहवो वेष करीने पूजाने अर्थे नांम प्रमुख पण कहे जे अमे पणं साधु बीए ते माटे लोकमां ए साधु डे एहवी प्रतीति न थाय केमके अनेक प्रकारना विकल्प एटले नाना प्रकारना नपगरणनी कल्पना अधिकारथी जाणवामां आवे के वर्षाकल्पादिक नपगरण साक्षात् साधुनेज होय एटले स्वेत मानोपेत कंबलादिक उपगरणतो यतिनेज होय अने रंगेला प्रमुख उपगरण नामादिकोने होय एहवी प्रतीति केम न होय एटले होयज ए प्रयोजन लिंग देखामवानु बे तथा संयमनिर्वाहने अर्थे वस्त्रादिक राखे. न राखेतो दृष्टि वर्षतां संयमने बाधाज थाय तेहने अंर्थे लिंग धारे तथा को वखते चित्त चले तो लिंग धारेनुं होय तो जाणे के हुं साधु थयोढुं माटे अकार्यकिम करुं एटला कारण माटे लिंगर्नु राखवानुं प्रयोजन डे एटले लिंगधारवानु प्रयोजन देखामधु हवे कोइ निश्चय नयने अवलंबन करीने वेषने निषेधे तेहने कहे "थथेत्युपन्यासे” इत्यादिकनो नावार्थ एम डे के पार्श्वनाथ स्वामी अने वईमानस्वामी ए बेहुने ए प्रतिज्ञा ते कहे बे के मोदनुं सत्य साधन निघेनये तो ज्ञानदर्शनचारित्रज ने लिंगने मुक्तिनूत साधनपणुं नथी मानता केमके ज्ञानादिक ने तेहीज मोदनु सत्य कारण डे पण
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १७ए लिंग मोइनुं कारण नथी केमके जरतादिकोंने लिंग विना केवलज्ञान उपज्यु एम सांजलीए बीए एम नि. श्चयनयना विचारमांतो लिंगनी कां पण जरूर नथी पण एकांत मांनवाथी व्यवहारनो लोप थाय तो शासनोछेद पाप लागे ते माटे व्यवहार नयना मतमां तो लिंगने पण मोद सद्भत कारणपणुंज ने एटले निश्चेमा तो ज्ञानदर्शनचारित्रज मोदना कारण पण व्यवहारे लिंग पण मोक्षद् कारण ले तेमज निश्चयनयने मते पण एज अनिप्राय जे जे लिंग प्रत्ये तो आदरज करवो पण ते आदर केवल व्यवहारथीज नथी इवता केमके तत्वथी व्यवहार निश्चयनो नेद विद्वानने विप्रत्ययनो हेतु कोई पण थतोज नथी वस्तुताए ए नयअपेक्षाए एकज ए जावार्थ स्पष्ट ने एटले महावीरस्वामिए सिंग कडं ते अने पार्श्वनाथस्वामीए लिंग का ते पोत पो. ताना तीर्थमां मोदनुं कारण ले माटे वीरना साधु जो नानाप्रकारना रंगेला तथा मूल्यथी बहु मोघां वस्त्र धारण करे तो नामलिंग थाय अने कुलिंग थाय एम जणाव्युंडे तथा लिंगमां स्युं ने तेहकारण पण जणाव्यु॥ एवीरीतें श्रीश्राचारांगसूत्री आचारांगवृत्तिश् श्रीसूयगमांगसूत्र श्रीसूयगमांगवृत्ति श्रीनिशीथसत्र५ श्रीनिशीथचूर्णि श्रीधनियुक्तिमूल ७ श्रीधनियुक्तिटीका श्रीश्रावश्य
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परिच्छेदः ७ कमियुक्तिमूलए श्रीयावश्यकनियुक्तिवृत्तिर० श्रीपंचाशकमून ११ श्रीपंचाशकटीका १२ श्रीगणांगसूत्र १३ श्रीगाणांगसूत्रवृत्ति १४ श्रीगडाचारपयन्नासूत्र १५ श्रीगबाचारपयन्नावृत्ति१६ पिंमनियुक्तिमून १७ मिनियुक्ति वृत्ति १७ श्रीनगवतीसूत्र १ए श्रीनगवतीसूत्रवृत्ति २० कल्पसुबोधिका श्रीविनयविजयजी नपाध्यायकत१ श्री दशगणामूलश् श्रीदशाणावृत्ति३३ इत्यादिकग्रंथोंमां श्रीवीरनाशासनना साधुवोंने सपेत मांनोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करवां कह्यांडे अने वर्षाकाल प्रमुख कारणे धोववानु विधान कह्यु डे पण रंगवानु विधान का नथी तथा श्रीनिशीथसूत्रमा लोद कर्क प्रमुख द्रव्य, वस्त्र पात्रने लगाववां कह्यां ते श्रीनिशीथचूर्णिमा मदिराप्रमुख उगंध टालवाने कह्यांचे पण निरंतर गाढागाढकारण विना नेष बदलाववाने अर्थे कह्यां नथी इत्यादिक तर्क वितर्क समाधान सहित पूर्वोक्त सूत्र ग्रंथोना पाठ, नावार्थ सहित अस्मत्कृत स्तुतिनिर्णयविनाकरथी जांगवा एम पूर्वोक्त अनेक शास्त्रना अनिप्रायथी सपेतवस्त्र त्यागी पीनाकपमा प्रमुख धारणकरे तेने जैनलिंगनो वि. रोधी जाणवो. __ "श्रीशत्रुजयप्रमुख तीर्थनो विरोधी एवी रीते थाय के” ॥ वृहत्कल्पनाष्य १ वृत्ति २ सिक्षातसारसंग्रह३
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १७१ धर्मसंग्रहवृत्ति ४ ठाणांगसूत्रवृत्ति ५ पन्नवणासूत्रवृत्ति ६ लोकप्रकाश ७ आचारदिनकर आवश्यकवहात्ति ए शत्रुजयमाहात्म्य १० जरताष्टपाटचरित्र ११ वीरचरित्र १२ मुनिसुव्रतचरित्र १३ प्रनावकचरित्र १४ श्री पालचरित्र १५ पांवचरित्र १६ शांतिचरित्र १७ श@जयकल्पवृत्ति १८ सप्ततिस्थानकग्रंथवृत्ति १ ए जंबुदिप पन्नत्तिसूत्रवृत्ति २० नुपदेशमालावृत्ति २१ इत्यादिक अनेक शास्त्रोमें श्रीशत्रुजयसंबंधि सोरठदेशने आर्य खेत्र कह्योने पण कालअपेक्षाकरीने प्राचीन अर्वाचीन कोइ आचार्यै खेत्र अपेक्षाए अनार्यकर्वा नथी केमके खेत्रप्रपेदाए आर्यखेत्रनो अनार्य थाय नहीं ने अनाथनो आर्य थाय नही तेम बतां काल अपेदाए आर्य खेत्रने खेत्र अपेक्षाए अनार्य कथन करतां, ते खेत्रमा रहेला तीर्थ पण अनार्य थाय केमके सिखेत्रादिक तीर्थ पण खेत्र केवाय माटे आर्यखेत्रने खेत्र अपेक्षाएं अनार्य केवावालो प्रांणी ते खेत्रमा रहेला शत्रुजयप्रमुखतीर्थनो विरोधि थाय ॥"जैनशास्त्रमें कोडीशब्द क्रोमसंख्यानो वाचक ने कोइक प्राचार्य कोडीशब्दने एक क्रोमवाचक नथी मानता किंतु संझांतर मांने ते मतांतर,वाक्य जे जे स्थले जोइएं, ते तेस्थले आचार्योंए वापरयो बे पण जेम आत्मारामजी यानंदविजयजी च.
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१०२
परिच्छेदः ७ तुर्थस्तुतिनिर्णय प्रस्तावना पृष्ट १२ मामां श्रीहीरसूरिजीने पोतानापूर्वाचार्यअंगीकारकरीने तेलंनी बुधियल्प जांणी पोतानी बुद्धि अधिक मांनीने जैनतत्वादर्श परिच्छेद ७ मे पत्र ३०३मां चक्रवर्तिप्रमुखनीसेना तथा शत्रुजयतीर्थमां जिहां मुनि मोद गया तिहां पांच कोडी,शतसहस्रादिक, शब्द सर्वत्र ठेकाणे संज्ञांतर शब्द वापरचो तेम पूर्वाचार्योए तथा अर्वाचीन श्राचार्योए संज्ञांतर शब्द सर्वठेकाणे वापरयो नथी प्रत्युत श्रीश. जयमहात्म्य प्रमुखमा श्रीशत्रुजयने उपरे जिहां मुनि मोद गया हे त्यां कोट्यादिसंख्यावाचिशब्दोमां शतसहस्रने लाखसंज्ञा शतलदने कोटिसंज्ञा पूर्वाचार्योए लखीने पण मतांतरवाक्ये संज्ञांतर संज्ञा कही नथी "तथाहि श्रीहीरप्रश्ने"।
तथा श्रीशजयस्योपरि पंचपांमवैः समं साधूनां विंशतिकोटयः सिझा इति श्रीशत्रुजय महात्म्यादौ प्रोक्त मस्ति सा कोटिर्विशतिरूपा शतलदरूपावति, अत्र शतलदरूपा कोटिरवसीयते नतु विंशतिरूपति बोध्यं ॥४॥
नावार्थः ॥श्रीशत्रुजयने ऊपरे पांचपांमवसाथे वीस कोमी साधु सिझा एहवं शत्रुजयमहात्म्यादिकमां कडं ने ते कोडी वीस रूपे संज्ञांतर गणवी के संख्यासंझाए
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१८३
सो लाखरूपे गावी ए प्रश्न श्रीविभर्षि गणिनो तेनो उत्तर श्रीतपागचनायकें श्रीहीरसूरिजीएं दीधो के इहां सो लाखनी एककोडि जलायडे पण वीसरूपें न जांगवी हवे सुजनोंने विचार करवो जोइए के एवीरीते पूर्व पुरुषोंना खुलासाने उल्लंघी स्वकपोल कल्पनाए पूर्वाचार्य सम्मति विना जैनशास्त्रमां विरोधनाव जणाववा वालो जैनशास्त्रानो विरोधीकेम न थाय अर्थात् थायज नें जे जैनशास्त्रानो विरोधी होय ते चतुर्विध संघनो विरोधी होयज केमके चतुर्विधसंघमे प्रवचन रह्युंडे माटे ॥ " तथा पूर्वधरपूर्वाचार्यसमाचारीनो विरोधी एवीरीतेथायढेके" ॥ श्रीश्रावस्यकवृहद्वृत्ति १ श्रावक धर्मप्रकरण २ श्रावस्यक लघुवृत्ति ३ यावस्यक चूर्णि ४ पंचाशकवृत्ति ५ नवपदप्र करणविवरण श्रीयशोदेवउपाध्यायकृत ६ नवपदप्रकरण वृत्ति संव १०७० मां थयेला श्रीदेवगुप्त सूरिकृत ७ श्रावक प्रतिक्रमणचूर्णि सं १९८३मां थयेला चंद्रगीय श्रीसिंहाचार्यकृत पंचाशकचूर्णि यशोदेवसूरिकृत ए योगशास्त्रवृत्ति श्रीमाचार्यकृत १० कथाकोश श्रीवर्द्धमानसूरिकृत ११ श्रादिनकृतसूत्र १२ श्राइ दिनकृतवृत्ति श्रीतपागच्छाधिराज श्रीदेवेंद्रसूरिकृत १३ इत्यादिक - नेक शास्त्र में श्रावकोनें सामायिक लेतां प्रथम करेमि ते पढे इरियावही कहीबे तथा एक तो श्रीभद्रबाहु
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परिच्छेदः ७
स्वामी चतुर्दश पूर्वधर बीजा श्रीसंघदासगणि पूर्वधर त्रीजा श्रीदेवगिणि पूर्वधर चोथा श्री हरिनद्रसूरि ॥ १४० ० । १४४० । १४४४ ॥ ग्रंथोना कर्त्ता पांचमा श्री जयदेवसूरि नवांगवृत्तिकारक इत्यादि श्राचार्योंनां ग्रंथोमां त्रण थुए करी चैत्यवंदना कहीबे वली त्रण त्रण थुइयोंनां जोडां श्रीहरिनद्रसूरि प्रद्युम्नसूरिप्रमुखनां करेला तेमां प्रथम अधिकृत अरिहंत थुइ बीजी सर्व जिनथुइ त्रीजी ज्ञाननी एवीरीतनां त्रण थुइयोंनां जोडां घणांक देखवामां यावेळे ए पूर्वोक्तपुरुष गुरुपरंपराथी सर्वे त्रण धुइ मानता हता जो त्रण थुइ न मानता एहवुं कहीए तो ते पुरुष स्यावास्ते त्रण थुइनी रचना करे ने ग्रंथोमां प्रतिपादन करे तथा वादिवेताल श्रीशांतिसूरिजीए उत्तराध्ययन सूत्रनीवृत्तिमां त्रण थुइ कंही तथा श्री जगच्चंद्रसूरी महाप्रजाविक क्रियाशिथिल मुनिसमुदायने जांणी, गुरुश्राज्ञाएं चैत्रगतीय वैराग्यरसैक समुद्र श्रीदेवनद्रोपाध्यायनी सहायता अंगीकार करीने किया दारकर्त्ता श्रीश्राघाटपुरमे बत्रीस दिगंबराचार्योंने रांणानी सनामे विवादमे जीत्या तपाबिरुद धारक तेवंनां शिष्य परमवैराग्यवंत श्रीदेवेंद्रसूरिकृत श्रावक दिनकृत्यसूत्रवृत्तिमां निश्राकृत निश्राकृत चै - त्यमांत्रण धुइए चैत्यवंदना कहीबे तथा वृहद्रचैकमंमन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
1 Ե Ա
श्रीचतुर्विंशतिदंमकस्तवना कर्त्ता श्रीगजसागरजी नृपाध्यायजीना गुरु श्रीधवल चंद्र उपाध्यायजीकृत प्रतिक्रमण गर्नहेतुमां जिनगृहमां त्रण थुइएं देववांदी प्रतिक्रमण श्रवसरे जघन्य चैत्यवंदना करी पक्किमणुं कर कह्युंडे पण च्यार थुइ कही नथी तथा श्रीरलशेखरसूरिजीए तथा श्रीमद्यशोविजयजीउपाध्यायजीए तथा श्रीमानविजयजी उपाध्यायजीए तथा श्रीजिनवल्लनसूरिना शिष्य जिनदत्तसूरिए तथा सुविहित देवसूरिना शिष्य श्रीनेमिचंद्रसूरिए तथा श्रीसिदसेनसूरिए तथा श्रीकुलमंमनसूरिए तथा श्रीसोमसुंदरसूरिए तथा श्रीधर्म घोषसूरिए क्रमी श्राद्धविधिमा प्रतिमाशतकमां धर्म संग्रहमां संदेहदोलावलि मूल वृत्तिमां प्रवचनसारो-र मूलवृत्तिमां विचारामृतसंग्रहमां लंघुनाप्य प्रवचूरिमां निश्राच्प्रनिश्राकृत सर्वचैत्योंमां त्रण थुइ कहेवी कही बें इत्यादिक बीजा पण अनेक प्राचार्योंए त्रण थुइ कहेवी कही.
ए सर्व श्राचार्यांनी गुरुपरंपरा अने शिष्यपरंपराधी हजारो प्राचार्योएं त्रणथुइ मान्य करीबे तेवास्ते यमोने मोटुं प्राश्वर्य उत्पन्न थायले के पुण्योदये ढुंढकपणानुं कुलिंग सेवन मुंकी वली आत्मारामजीने नस्मग्रहनी वक्रताने जोगे पापनो उदय किहांथी जाग्यो के पालुं
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परिच्छेदः ७ कुत्सितलिंग धरीने हजारों पूर्वधर पूर्वाचार्योथी विरुद वली जिनाणा रुचि चतुर्विधश्रीसंघथी विरुद्ध पंथ चलावी तथा जैनशास्त्र जैनतीर्थनी विरुझ परूपणा करी दश दृष्टांते उर्जन एवो मनुष्यनो नव पामेला नो. ला प्राणीयो जे पोताना आत्माने तारवा धर्मनी रुचिए करी तरण तारण परमगुरु जाणी धर्मदेशना सांजलवाने आवे तेमने रूढीमार्गनी परंपरानुं एक बानु बतावी पूर्वधर पूर्वाचार्योना वचनने उल्लंघी विपरीत श्रझा क रावी पोताना आत्माने मबोववानी बीक न राखतांशरणे आवेना हजारो जीवोंना नावप्राणनो नाश निरर्थक अहंकारने लीधे करावी उर्गति शिवाय केवी नीचि गति पांमवानी श्वा हशे ते हूं कां लखिशकतो नथी पण पोतानो अहंकार बोमीने जेम पोता, तर थाय ने शरणे आवेला जीवोनुं तार, थाय तेवो उपदेश नथी करता तेथी आत्मारामजी आनंदविजयजीनुं सी रीते कल्याण थशे ने शरणे आवेला जीवोनी शी गति थशे ॥ हवे आगल गणधरादि पूर्वधर पूर्वाचार्योएं चैत्यवंदनामां वईमान त्रण थुइए देववंदन कडं ते दे. ववंदन स्तुति स्तवेकरीने थाय माटे प्रथम स्तुति स्तवनां लक्षण सहित वईमानस्तुतिनो विचार तथा केटनाक पूर्वोक्त ग्रंथोना पाठ लखीए बीए, ते वांचवाथी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
नव्यजीव मध्यस्थदृष्टियोंने जगाव थशे के आत्मारामजी आनंदविजयजी थुइनो एकांते निषेध करे ते पूर्वधर पूर्वाचार्यांना कथनथी तथा प्रवर्त्तनथी मोटो - न्याय करे ॥ प्रथमस्तुतिस्तवनु लक्षण ज्ञाननास्कर प्राचार्य श्रीमलयगिरिजी कृत व्यवहारवृत्ति खंम २ मां कबे.
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॥ तेपाठः ॥ एकश्लोका द्विश्लोका त्रिश्लोका वा स्तु तिर्भवति परश्वतुः श्लोकादिकः स्तवः ॥
अर्थः एक बेत्र श्लोकनी थुइ थाय व्यारश्लोकादि स्तव कहीए ॥ तथा थिरापद्रगन्लैकमंमन वादिवैताल श्री शांत्पाचार्य कृत उत्तराध्ययन वृहटत्तिमां पण स्तुति स्तवनुं लक्षण कह्युंडे.
॥ तेपाठः ॥ तत्र स्तवा देवेंद्रस्तवादयः स्तुतय एकादि सप्तश्लोकांताः यत उक्तं एग हुग ति सिलोगा थुइन अन्नेसिं जाव हुंति सत्तेव देविंदचवमाइ ते परं तया होंति ति ॥
अर्थ-य थुइ मंगले करीने जगवांन जीव शुं उत्पन्न करे train कहे बोधिलान उत्पन्न करे तिहां स्तव देवें द्रास्तवादिक स्तुतियो एक श्लोकथी लेइ सात श्लोक पर्यंत जेमाटे कह्युंडे एक बे त्रण श्लोकनी थुइ बीजा केइ च्या
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परिच्छेदः ७ चार्य तेहुने मते सात श्लोक पर्यंत थुथाय तिवारे पड़ी देवेंद्र स्तव आदि लेइ स्तव होय ॥ एमज श्रीउत्तराध्ययन अवचूरीमां ॥
॥तेपातः॥ तत्र स्तवा देवेंद्रस्तवादयः स्तुतय एकादि सप्त श्लोकांता स्ततो इंटे स्तुतिस्तवाः स्तुतेः क्त्यंतत्वाप्रागनिपाते प्राप्तेपि सूत्रे प्राकृतत्वाव्यत्ययनिर्देशः ॥
एहनो अर्थ पूर्वे लिख्यो ने तेमज, एमां पण एक बे त्रण श्लोक तथा सात श्लोकनी थुइ कही॥ तथा उत्तराध्ययन लघुटीकामां पण एक बेत्रण श्लोकनी थुइ कही.
. ॥ तेपातः॥स्तवा देवेंद्रस्तवादयः एकादिसप्तश्लोकांता यत उक्तं एग उग ति सिलोगा थुझ्न इत्यादि. ____ ए पाठनो अर्थ पूर्वे लख्यो तेमज जाणवो एहमां पण त्रण थुइ ॥तथा उत्तराध्ययन वृत्तिर शहजारी तेनो
॥ पाठः ॥ स्तवा देवेंद्रस्तवादयः स्तुतयः एकादि सप्तश्लोकांता यत नक्तं एग उग ति सिलोगान थुन थन्नसिं जाव सत्तेव इत्यादि। __ए पानो अर्थ पिण पूर्वे लिख्यो ने तिमज ॥ एहमां पण एक बेत्रण श्लोकनी थुइ कहीजे ॥ तथा उत्तराध्ययनटीका तपागडीय श्रीनावविजयजी नपा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १७ ध्याय कृतमां पण एकादि सप्तश्लोकांत थुइ कही.
॥ तेपाठः ॥ स्तवा देवेंद्रस्तवाद्याः स्तुतयः एकादि सप्तश्लोकांताः ततश्च स्तवाश्च स्तुतयश्च स्तुतिस्तवाः स्तुतिशब्दस्य इदंतत्वात्पूर्वनिपातः इत्यादि. ___ एहनो अर्थ पण पूर्वे लख्यो तेमज ॥ ॥ एपूर्वोक्त ग्रंथोना पाठमां जे स्तवस्तुतिनां लक्षण कह्या तेमांस्तव ते शकस्तवादिक अने थुइ ते समुदित पाठे एक बेत्रण श्लोकनी तथा सात श्लोकनी कही. ते नांमस्तुति १ श्रुतस्तुति ५ सिझस्तुति ३ ए त्रण सूत्र स्तुति, तथा एक श्लोक १ बे श्लोक पत्रण श्लोकनी, अथवा पद अदर स्वरेकरीने वईमान थुइ संसारदावा प्रमुख तथा प्रतिक्रमण समाप्ति थुइ नमोस्तु वईमानाय विशाललोचनदलं ते पडे त्रण चूलि काथुइ पण पूर्वोक्त पंचांगी ग्रंथोंनां अनिप्रायथी जांणवी तेमज श्रीयावश्यकचूर्णामां चतुर्विंशतिस्तव ए. टले लोगस्स? श्रुतस्तव एटले पुरकरवरदी श सिहस्तव एटले सिझाएं बुझाणं ३ ए त्रण स्तवने श्रीकायोत्सर्ग नियुक्तिचूर्णीमां स्तुति कही.
ते पाठः॥अपरिमिए एं काले ए नस्सारयचं तंच नमो अरिहंताणं ति नणित्ता पारे पडा थुइ जेहिं मं
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परिच्छेदः । तिवं श्माए उस्सप्पिणीए देसियं नाणं दसणं चरित स्स य नवएसो तोसें महइएनत्तीए बहुमाणन संधवो कायबो एएणं कारणेणं कानसग्गाणंतरं चनवीसवन इत्यादि तथा नमोक्कारेणं पारे तन नाणा यारविसुधि निमित्तं च सुयनाणेणं मुस्कसाहणाणि साहिति ति का तस्स नगवन परा नत्तीए तप्परूवगं नमोक्कारपुवर्ग थुइ कित्तणं करे तं जहा “पुरकरवरदीवझे" इत्यादि तथा नमोक्कारेणं पारेई एवं चरित्तदंससुयधम्मअश्यारवि सोहिंकारगा काउसग्गा कायवाश्याणिं दंसणसुयधम्माणं संपन्नं फलं जहिं पत्तं तेसिं बहुमान पराए नत्तीए मंगल निमित्तं च भुको थुइं जण सिझाएं बुझाणं गाहा इत्यादि आव० चू०
अर्थः ॥ अपरिमाएकाले करीने कामस्सग्ग पारवो नमो अरिहंताणं कहीने पड़े थुइ कहेवी जेणे ए तीर्थए उस्सप्पिणीमा देखामधुं ज्ञान दर्शन चारित्रनो उपदेश तेहुनो डे माटे मोटी नक्ति बहुमानथी संस्तवन करवो एकारणे काळसग्गने अनंतर चनवीसबो इत्यादि तथा नवकारेकरी काठसग्ग पारी पडे झानाचार विशुदिने अर्थे श्रुतज्ञानेकरीने मोक्षसाधनादिक साधिये एम जाणी ते श्रुतनगवंतनी परमनक्तिए करीने तेहनी प्र. रूपक नमस्कार पूर्वक थु कीर्तन करे ते जिम "पुस्कर
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१०१
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वरदीवमे” इत्यादि तथा नवकार कही काजसग्ग पारे एम चारित्र तथा दर्शन ने श्रुतधर्म्मना श्रतिचार विसोधिना करनारा एटले चारित्र दर्शन ज्ञांनना तिचारनी शुद्धिना करनारा त्रण का सग्ग करवा ते करीने हिवे दर्शन श्रुत धर्मनु प्राप्त थयुं जे फल तेहने पांम्या जे पुरुष तेनुं बहुमान परमनक्तिए करी वली मंगलने खर्थे थुइ कहे "सिद्धाणं बुझाएं गाथा" इत्या विक ॥ ए पाठमां नामस्तव १ श्रुतस्तव २ सिद्धस्तव ३ ने थुइ कही तेथी केटलाक याचार्य एस्तुतित्रिकनें शास्वती थुइ मांनी ध्रुवथुश्ना देववंदन कहेबे छाने केटलाक ध्रुव ध्रुव थुनां मांनवावाला याचार्य लोगस्स प्रमुख त्रण सूत्र थुई, ने एक श्लोकिकादि वर्द्धमानं चूलिका थुइए, ध्रुव ध्रुव देववंदना मांनेडे ते एक श्लोकिकादि वर्द्धमान थुइनो विचार, विचारामृत संग्रहमां श्रीकुलमंमनसूरिजीए श्रीश्रावश्यक चर्यादिकनी साकीए एविरीते कोडे.
पाठः ॥ तान्य थुइन एगसिलोगादि वरुतियान पयारकरादिहिं वासरेण वा वरूं तेण तिमि जाणि कणं ततो पाचसियं करिति प्रजातावश्यके तुपचा तिनि थुती अप्पसदेहिं तहेव जयंति जहा घरको इलियादीसंतान छिंति कालं वंदित्ता निवेदिति जइ चेइयाणि
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परिच्छेदः ७
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यहि तो वदंति याव० चू० ४०२ यावस्सयकानां जिणोवहं गुरुवएसेा तिमि थुती पमिलेहा कालस्स विही इमो तब ॥ १ ॥ श्रावश्यके, निशीथे, व्यवहारेच, अत्र चूर्णिः, जिहिं गएणहराएं नवदिहं ततो परंपरए जाव म्हं गुरुवएसेा खागतं तं कान यावस्सगं ये तिमि यतिन करिति ग्रहवा एगा एगसिलोगिया बितिया बिसिलोगिया ततिया तिसिलोगिया तेसिं समतीए कालवेलाप मिले हणविही इमा कायवा यावचू ० निशीथ न १० चूर्णौच जिरोहिं नवदिठं गहराणं गुरूवएसेति म्हंत्र्ायरिय नवझाएहिं जहा नवदिठं तिमि थुतीन पढमा एग सिलोगिया बितिया बिसिलोगिया । ततिया तिसिलोगिया व्यवचू० २० प्रतिक्रमणपरिसमाप्तौ ज्ञानदर्शनचारित्रार्थं स्तुतित्रये दत्ते सति एतेषां मुखवस्त्र कादीनां प्रत्युपेक्षणा समात्यनंतरं यथा सूर्य त्येष प्रत्युपेक्षणाकालविभाग इति घ वृ ५० इह यास्त्रिश्लोकिकाद्याः स्तुतयो याश्व पदारादिनिः वर्धमानस्वरेण वा जानीया उक्ताः संति तानामग्राहं क्वाप्पागमचूर्णिवृत्त्यादौ न दृश्यंते परमाचार्य परंपरागतं नमोऽस्तुवर्द्धमानायेत्यादि विशाल लोचनेत्यादि संसारदावेत्यादि च पृथ्थक् स्तुतित्रयं पवाक्षरवृद्धं वर्द्धमानस्वरेण जायते इति यच तिबयरे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३ नगवंते इत्यादि स्तुतित्रयं केनचिद्भएयते तत्पदाक्षाभ्यामपि वईमानं नास्तीति शेयमिति, इति वईमान स्तुतित्रयविचारः ॥
॥नावार्थः ॥ ते थुझ्यो एक श्लोकादिक वईमान अथवा पद अदर स्वरे करीने वईमान त्रण कहीने प्रादोषिक कालग्रहण करे, प्रनातना आवश्यकने विषे वली एम कडं पचरकाण करी पवित्रण थुश्यो अल्प शब्दे करीने कहे जेम गरोली प्रमुख हिंसक जीव कवे नही पडे वांदिने कालनिवेदन करे अने जो चैत्य होय तो वांदे एम आवश्यकचर्णिमां अने अावश्यके करीने जिनेंद्र उपदेशित गुरुउपदेशे करीने त्रण थुइ कहीने प. मिलेहणा करि कालग्रहण करे एम.आवश्यक, निशीथ, व्यवहार चूर्णिमां, आवश्यककरीने तीर्थकरे गणधरोने उपदेश्यो त्यार पढी परंपराए जावत् अमारा गुरुना नपदेशे करीने आव्यो अावश्यककरीने अन्य त्राथुश्यो करे अथवा एक थुइ एक श्लोकनी बीजी बे श्लोकनी त्रीजी त्रण श्लोकनी सेनी समाप्तिकालवेलाए पमिलेहणाविधि करवो, आवश्यकचू निशीथ उ १५ चूर्णिमां वली तीर्थकरे गणधरने का त्यार पढी अमारा आचार्य उपाध्याये जेम कयुं तेम गुरु उपदेशे त्रण थुझ्यो प्रथम एक श्लोकनी बीजी बे श्लोकनी त्रीजी
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परिच्छेदः ७
aur श्लोकनी करीए बीए. व्यव चू० ८० ७ प्रतिक्रसमातिने विषे ज्ञानदर्शनचारित्रने अर्थे थुइ त्रण कह्यात मुखस्त्रिकादिक पहिलेहणा संपूर्ण थया पढी सूर्यनगे, ए पहिलेहणा कालनो विभाग जालवो. मुंघ ० वृ०इहां ण श्लोकादिक थुइयो जे कही ते पद अक्षरा - दिके वर्द्धमान तथा वर्द्धमानस्वरे करीने कहेवी कहीले पण तेनंनु नाम ग्रहण कोइ आगम चूर्णि वृत्त्यादिकमां देखातु नथी पण प्राचार्य परंपराए ग्रावेलां " नमोस्तुवर्द्धमानाय विशाललोचनदलं संसारदावा" इत्यादिक जूदि श्थुइ त्रएना, पद र वृद्धिए वर्धमानस्वरे करीने कहीए बीएं ने "जेतियरे जगवंते" इत्यादिक ऋण थुइयो केइक कहे ते पद अरे, करीने पण वर्द्धमान न जांगवी. संपूर्णव ईमान थुइ त्रणनो विचार ||
प्रश्न - ए पाठमां तो प्रतिक्रमणसमाप्तिमां वर्द्धमान थुइ कही पण चैत्यवंदनामां कही नथी.
उत्तर - हे महानुभाव ? जे प्राणिने कमलानो रोग थयो होय ते प्राणीने शंख जेवी उज्वल वस्तुने पता पीली देखे तो अन्य वस्तुने तो पीली देखेज तेम जे पुरुषने स्वमताग्रह रोग थयो होय ते तो साक्षात् श्रीकेवलीनगवंतना मुखथी सांजलीने पण पोताना डुराग्रहने बोमे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५५ नहीं तो, शास्त्रनुं कथन तो तेने क्यांथी नासन थाय अर्थात् नज थाय पण जे मत कदाग्रह रहित अपदपाती मध्यस्थ दृष्टिवंत पुरुषोने तो पूर्वधरअनुयायिशास्त्रमा सामान्ये वचन होय तो पण विशेषे नासन थाय तो पूर्वधरोना विशेष वचन तो केम नासन न थाय अर्थात् थायज पण जेम सूर्य सर्वत्र प्रकाश करी सर्वनां नेत्र विकाश करे पण घुयमनां नेत्र विकाश न थाय तो, सूर्यनो शो दोष तेम पूर्वधरोना खुलासा करेला पाठ पण कोनी नजरमां न आवे तो शास्त्रनो शो दोप तेना कर्मनोज दोष परंतु पूर्वधरोना कथन करेला पाठमांथी केवि रीतनो पाठ केविरीते ग्रहण करवो अने केविरीते समजवो ते तो मध्यस्थ दृष्टिकपर आधार रहे. डे तेथी मध्यस्थ दृष्टिए विचार करीए तो पूर्वोक्तपाठमां प्रतिक्रमण समाप्तिमांत्रण वईमान थुइ कही तेमज चैत्यवंदनामां पण जाणवी केमके अनवचिन्ह परंपराए पूर्वधरोना वचनने आधारे चैत्यवंदनामा पूर्वपरंपराए त्रण वईमान थुइ करता आव्या तेथीज अाधुनिक पू. र्वकाल वर्ति श्रीसेनसूरिजी पण चैत्यवंदनामां. वर्धमान त्रण थुइ लखेडे.
तेपातः ॥ अथपं० सत्यसौनाग्यग० कृतप्रश्ने चैतडतरं यथा उत्कृष्ठचैत्यवंदनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयो वर्ग
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परिच्छेदः ७ हा विधीयते न त्वल्पा ति रुढिः सत्यासत्या वेति प्र० उल्लष्टचैत्यवंदनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयः प्रायो वर्षे वृक्षा एवं विधेया इति परंपरा वर्त्ततेऽनेन रूढिः सत्यै वावसीयते परंपरामूलं तु नमोस्तु वईमानायेत्यस्याधिकारे ताअ थुन एगसिलोगादिवति आन पयत्रकरादिहिं वा सरेण वा वदंतेण तिन्नि नाणिकपमि त्याद्यावश्यकचूर्यदरदर्शनमिति संनाव्यत इति ॥
अस्यार्थः नत्कृष्टचैत्यवंदनाविधिमां नुत्तरोत्तर एटले एकथी बीजी, बीजीथी त्रीजी, थुश्यो वर्णेकरीने वधती कहीएबीए पण अल्प एटले नबी नही ए रूढी सत्य कें असत्य एवी रीते श्रीसत्यसोनाग्यगणिए प्रश्न कस्यो तेनो उत्तर श्रीतपागबनायक श्रीसेनसूरीजीए एवो दीधो के चैत्यवंदना विधिने विषे उत्तरोत्तर थुश्यो बहुलताए वर्णे करीने वृक्षहीज कहेवी, एवी परंपरा वडे तेणे करीने वर्धमान थुनी रूढिः सत्यज जणाय ने परंपरामूलतो नमोस्तु वईमानाय ए अधिकारने अवसरे थुझ्यो एक श्लोकादिक वईमानपद अदादिक अथवा स्वरे वर्धमान त्रण कहीने इत्यादिक आवश्यक चूर्णिना अदर देखवाथी संनवेडे ॥ इहां प्रतिक्रमण समाप्ति त्रण थुइ दृष्टांते चैत्यवंदनामां वर्धमान थुश
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५७ कहेवी कही तेमज श्रीअंगचूलियासूत्रमा पण देववंदनमा वईमानथुई कहेवी कही.
॥ते पाठ ॥ अमुगसुयखंधश्रंगनदेसावणियं वा नं. दिकमावणियं वासनिकिवं करेह एवं देवे वंदावेह तन वतियाहिं थुइहिं देवे वंदिय बारसावत्तं वंदणं दे “थस्यार्थः" अंग उदेसावणने काजे अथवा नंदिकमा वणने काजे हे जगवन वासनिदेप करो एमज देव वंदावो, एम कहीने वधती एटले वईमान थुइ वडे करी देववांदीने द्वादशावत वंदणा दे, नंदिकढावणीनो सत्तावीस श्वासोश्वासनो कासग्ग करे ॥ ए पूर्वोक्त पाठमां वईमान थुइए चैत्यवंदना कही तेमज श्रीवृहत्कल्प नाष्यादिक पूर्वधर पूर्वाचार्योना ग्रंथोमांत्रण थुइए चैत्यवंदना कही ते पाठ अनुक्रमे नव्यजीवोने ज्ञापन करवाने लखीएबीए ॥ प्रथमहत्कल्पनाष्य.
॥पाठः॥ निस्सकडमनिस्सकके वावि चेए सोहिं थुइ तिनि वेलंब चेश्याणि नातं इक्विकया वावि ॥१॥
॥ गाथार्थः ॥ एक निश्राकृत चैत्य तेने कहिए के गबना प्रतिबंधथी बन्यो जेमके ए अमारागबनो देरासर ने बीजो अनिश्राकृत चैत्य ते तेना उपर कोई गबनो प्रतिबंध नथी ए सर्व जिनगृहमांत्रण थुइ कहेवी
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१एन
परिच्छेदः ७ अने जो सर्वजिनगृहमा त्रण थुझ्नी चैत्यवंदना करतां घणो काल लागतो जांणे अने जिनगृह एटले देरासर घणां होय तो एकेक जिनगृहमा एकेक थुनी चैत्यवंदना करे ॥ ए कल्पनाष्यना मूल पाठमांत्रण थुश्नी चैत्यवंदना सर्वचैत्यमां करवी कही तेमज वृहत्कल्प नाष्यवृत्तिमां पण त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कहीले.
॥ते पातः॥अथ चैत्यवंदनविधिमाह निस्सकमेति॥
॥ व्याख्या ॥ निश्राकृते गडप्रतिबके अनिश्राकृते च तद्विपरीते च चैत्ये सर्वत्र तिस्त्रः स्तुतयो दीयंते अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयभाने वेलाया अतिक्रमो नवति जयांसि वा तत्र चैत्यानि ततो वेलांचैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकापि स्तुतिर्दातव्योति.
अस्यार्थः ॥ निश्राकृत कहीए एकगन्जप्रतिबद्ध चैत्यमांवली अनिश्रा कत जे पूर्वे कह्यो तेथी विपरीत एटने जे चैत्यमां बधाइ गबना प्रतिष्टादिक करे इत्यादि सर्वचैत्यमांत्रण स्तुति कहेवी जो प्रतिचैत्यमांस्तुति त्रण कहेवाथी सिसायादिक वेला उल्लंघन थाय अथवा बह चैत्य त्यां जे त्यारे वेला अवसर जाणीने चैत्यदीप एक एक पण स्तुति कहेवी । एमज कल्पचूर्णिमां पण त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कहीजे.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १८ ॥ते पाठः॥ पविगणं चेयवंदणे समोसरणय विधि जणति णिस्सकडगाधाचनक्कं कं ॥
इहां चूर्णिकारे “पविठाणं चेश्यवंदणे” इत्यादिक च्यारगाथाए करी चैत्य वंदना त्रणथुनी कही पण गाथात सुगम ले तेथी व्याख्याकरी नहीं तेथी पूर्वधरपू
चार्योने वारे पण त्रण थुइएज चैत्यवंदना हती पण च्यार थुनी नही केमके श्रीव्यवहारनाष्यमांत्रण थुइनी उतकृष्ट चैत्यवंदना उपरांत कारण विना जिनगृह मां रहे साधुने वयु ३ ॥
॥तेपातः॥ उशिगंधपरिस्सावी तणुरप्येस एहाणया ज्वाहान वहो चेव, तो चिठति न चेइए १ तिनीवाक. एजाव बुतीतोतिसलो इया तावतप्राणायं कारणं मिपरेणावि ॥ अर्थः-ए शरीर उर्गधी वाळु ले मलनुं नरेलु डे एमां सर्वत्र मत स्ववे एवं तेथी एने स्नान करावीए तोएपण उंचे नीचेथी वायु एमांधी नीकलेले ते माटे साधुवो ने चैत्यमा घणीवार रहेवू नहि १ अने जो दर्शन काजे जाय तो त्रण श्लोकनी त्रीजी थोय कहे त्यां सूधी रहेवानी आज्ञा चैत्यमां ने कारणे अधिक पण रहे ५ एमां जाव शब्दथी त्रण स्तुतिए मध्यम तथा उत्कृष्ट
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परिच्छेदः ७ प्रणिधान पर्यंत देववंदन करे त्यां सूधी रहेवू कडं ते माटे चैत्यवंदनामांत्रण थुले ए व्यवहारजाष्यनी गाथानो अर्थ. वली व्यवहारनाष्यनी टीकामां पण त्रण
थुइ कही.
तेनो पाठः॥ एषा तनुः नापितापिरनिगंधप्रस्वेद परिश्राविणी तथा द्विविधो वायुर्यथोधिो वायुवहो निर्गम नन्चासनिश्वासनिर्गमश्च तेन कारणेन चैत्ये चेत्यायतने साधवो न तिष्ठंति अथवा श्रुतस्तवानंतरंतित्रः स्तुतयः त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत्कर्षते तावतत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं कारणेन कारणवशात्परेणाप्यवस्थानमनुज्ञातमिति ॥
अर्थः-मुमिने चैत्यमां क्या सूधी रहे ते कहेले. साधुनने चैत्ये जावं पण ए शरीरने श्वा होय तेटलुं स्नान करावो तोय पण उगंध परसेवादिकतो एमांथी निकलतांज रहेडे वली उंचानीचाथी वायु एमांधी सदा वहेडे ए कारणे एटले अाशातनाना नयथी साधु चैत्यमां न रहे अथवा रहेतो "पुस्करवरदीव" कहीने त्रीजी थु त्रण श्लोकनी कहे त्यां सुधी रहेवानी आझा ने अने जो को शांति स्नात्र प्रमुख कारण होय तो अधिक पण रहे ए पाठनो तात्पर्यार्थ ए बे के चैत्यगृहमा साधु म
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २०१ र्यादा उपरांत न रहे. ते मर्यादा एडे के चैत्यवंदनामां शक्रस्तवादि अनंतर पहेली एक श्लोकनी,बीजी बे श्लोकनी, त्रीजी श्रुतस्तव एटले ज्ञानस्तवने अनंतर त्रण श्लोकनीथुइ कहे त्यां सुधीजिनगृहमा रहेवानी बाझाबे तथा नाष्यगाथामां वा शब्द पदांतर सूचक . तेथी चैत्यवंदनाना अंतमां एटले त्रीजी थुइ त्रण श्लोकनी कह्या पली शकस्तवादिकने अनंतर जो त्रण थुइ त्रण श्लोक परिमाण प्रणिधानने अर्थे प्रतिक्रमणने अनंतर मंगलार्थ स्तुति त्रणपानी पेठे कहे, त्यांसुधी जिनमंदिरमा रहेवानी आझा , एटले संपूर्ण चैत्यवंदना कस्या पनी विनाकारणे साधु जिनदे, रासरमां न रहे. ___ हवे पदपातरहित जिनमतरसिकोने विचारकरवो जोइए के पूर्वोक्त पूर्वधर पूर्वाचार्यांना वचनप्रमाणे जे कोइजैनमति नामधरावि चैत्यवंदनामा त्रणथुप्रमाण न करे तेने मिथ्यादृष्टि होवामे कोण नव्य शंका करे अर्थात् नज करे, तथा वृहत्कल्प आवश्यकनाष्यादि शास्त्रोमां मृतकसाधुने परग्या पडी पण त्रण थुनी चैत्यवंदना कही बे, ते शास्त्रोना पाठ ऐजे त्यां प्रथम साधु काल करे. त्यारे तेज पूर्वोक्त वर्धमान त्रण थुश्यों चैत्यमा हीयमान कहे एवं आवश्यकनियुक्तिमा चनद पूर्वधर श्रीनद्रबाहुस्वामीए कांजे.
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परिच्छेदः ७ तेपाठ गाथा-आयंमि चेश्यहरं गंतूण चेश्याई वंदिद्या अजिअजय तिन्नि थूई परिहायतित्व कति २७
अर्थ-त्यांची श्रावी देरे जश्ने चैत्यवांदवां, पनी अजिसंतो कहेवो. त्रण थू हीयमान कहेवी. तथा कल्पवृहद्भाष्यमा त्रण थुइ निश्चय करवी कही.
तेपाठ-चेश्यघरूवस्स एवा प्रागम्मुस्सग्गगुरुसमीवंमि अवहिविगिंचणियाए संतिनिमित्तंचथतोतब १ परिहायमाणीयान तिन्निथुइनहवंतिनियमेणं अजियसंतिलगमाश्यानकमसोतहिंनेउ.
अर्थ-चैत्यघरे वा उपाश्रयमा आवीने गुरुसमीपे श्रविधि परिठावणियानो कायोत्सर्ग करवो, अने शांति निमित्त स्तोत्र कहेवू १. परिहयिमान त्रण थुइ नियमे करीने होय. अजितशांति स्तवादिक क्रमथी त्यां जांणवां तथा वली वृहत्कल्पचूर्णिमां पण त्रण थुइ हीय. मान कही .
ते पाठ-साहुणो चेश्यघरे वा नवस्सए वा दिया होघा जश् चेश्यघरे तो परिहायंतीहिं थू हि चेश्याई बंदित्ता आयरिय सगासे रियावाह पमिक्कमिनं अविहिपरिवावणियाए कानसग्गं करेंत ताहे मंगलसंति निमित्तं इत्यादि.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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॥ श्रस्यार्थ ॥ साधु दे शमां तथा उपाश्रयमां होय तो पण हीयमान थुइए करीने चैत्यवादीने श्राचार्यने पासे यावी इरियावही करीने विधिपरठवांनो कान - सग्ग करे. मंगलने अर्थे स्तवन कहे, इहां पण त्रण थुइ परिहीयमान ॥ वली विशेषचूर्णिमां पण त्रण थुइनुं करवुं कह्युंडे.
ते पाठ-तन यागम्म चेश्यघरं गति चेइयाणं वंदित्ता संतिनिमित्तं श्रजितसंतिथन परिकमिकइ तिन्नि थुइन परिहायंतीन कमिति तनुं यागंतु श्रविहि परिaraणया का स्सगं कीरइ ७
॥ अस्यार्थ ॥ त्यापी प्रवीने दे' रे जई चैत्य चांदीने शांतीने अर्थे अजितशातिस्तवन कहे, त्रणथुइयो हीयमान कहे. पी यावीने विधिपरितवानो काउसग्ग करे, एमां पण त्रण थुइबे " तिन्निथुइन " ए पाठमां प्रसिइबे तथा च्यावश्यकवृहद्वृत्तिमां पण श्री हरि - द्राचार्य थुइ हीयमान लखेडे.
॥ ते पाठ - ततो गम्म चेइए गनुंति चेश्याणि वंदित्ता शंतिनिमित्तं यजियसंतिवन परियद्दिक तिन्नि वाथुइन परिहार्यतीन कद्यति.
॥ प्रस्यार्थः ॥ त्यांची आावीने दे'रे जाय चैत्य वांदीने
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परिच्छेदः ७
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संतिनिमत्ते जिसंतो कहे, अथवा त्रण थुइ वर्द्धमान कही, ते हृयिमान कहे. एमां पण त्रण थुइ कही. तथा त्र्यावश्यकलघुवृत्तिमां पण त्रण थुइनो अधिकार
ते पाठ -- ततश्चैत्यगृहे यागत्य चैत्यानी वंदित्वा शांतिनिमित्तं शांतिस्तवं पठित्वां स्तुतिश्व हीयमाना नपित्वा १ प्राचार्योंतिके प्रागत्य प्रविधिपारिष्टापनिकी कायोत्सर्गः कार्यः ॥
अर्थ - पी चैत्यघरे याविने एटले दे' रे यावी चैत्य वांदिने शांतिने अर्थे शांतिस्तव नगीने स्तुति हीयमान कहीने एटले वर्धमान करता हता ते हीयमान कहेवी पढी याचर्यनी पासे यावी यविधिपारिठावणीनो का - उसग्ग करे, एमा हीयमान कहेवाथी त्रिजी थुई पेहेली कवी एमबे, तथा श्रावश्यकाऽवचूरी तेमां पण चैत्यमां त्रण थुइ कही.
ते पाठ - तत श्रागम्य चैत्यगृहे विपर्यस्तंदेवा वंदित्वाचार्यपार्श्व विधि पारिष्टापनिकायाः कायोत्सर्गः क्रियते ॥
अर्थ - पी खावीने दे रे अवलादेव वांदीने एटले त्रीजी थुइ पहेली कहे एम विपरीत देव वांदीने थाचार्यपासे यावि विधिपरत्वानो काठसग्ग करे, एमां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २०५ पण त्रण थुइ विपरीत कहीजे. एमज बीजी पण श्रवचूरी बे, तेमां पण एमजले. तथा श्रावश्यकदीपिकामां पण त्रण थुइ हीयमान कहवी कहीले.
तेपात-तत्रैव स्थंमिले क्रियमाणेनबानादयो दोषाः स्युः ततोग्राममागम्य चैत्यं गत्वा नवा शांत्यै तीर्थम जितशांतिस्तवो गुण्यः तिन्नि वा थुन परिहायंतीन कमिछति ततो गुरुपार्श्वमेत्याविधिपारिस्थापनिकायाः कायोत्सर्गः कार्यः सप्तविंशतिः उन्हासाः एष वृक्षसंप्रदायः आचरणा पुनः उम्मबरयहरणेणं किरगमणागमणं आलोद्य ततो रियावहिया पमिकमिद्यतन चेश्या वंदित्तेत्यादि।
अर्थ-त्यांज स्थंमिले कानसग्ग करतां थकां मृतक नगाववा प्रमुख दोष थाय, तेमाटे गाममां ावीने देरे चैत्य नमीने अजितशांतिस्तव कहेवो. त्रण थुइ हीयमान कहेवी. पड़ी गुरुपासे आवीने अविधिपरिगववानो कामसग्ग करवो. सत्तावीस श्वासोश्वासनो एम वृक्षसं. प्रदाय . आचरणाए वली नई रजोहरणे करी निश्चे गमणागमण थालोश्ये,पडी रियावही पमिकमिए पनी चैत्य वांदीने इत्यादि आचरणा ले. हवणां तो च्यारथुईनी याचरणा , ते पूर्वोक्तग्रंथथी विरु. तथा वि.
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परिच्छेदः ७ क्रम सं० १४४०मां ज्ञानसागरसूरिजी थया ते पण थावश्यक अवचूरिमां त्रण थुइना विपर्यय देववंदन कहेले.
तेपाठ-नहा तत्रैव स्थमिलोपांते कायोत्सर्गोन क्रियते उबानादिदोषसंनवात् तत आगम्य चैत्यगृहे विपर्यस्तं देवान्वंदित्वाचार्यपाइँऽविधिपारिष्ठापनिकायाः कायोत्सर्गः क्रियते २६ दं गाथादयं अन्यकृतमव्यारख्यातं चेति ॥
॥अस्या अर्थः॥ जे जगाए मृतक वोसराव्यो त्यांज कासग्ग नजीक न करवो मृतक उनुथवानो दोष संनवे माटे त्यांथी आवीने देरे विपर्यये चैत्यवंदन कर, एंटने सदा त्रणथुइ वईमान कहेता हता ते हीयमान कहेवी, पडी आचार्य कने प्रावी अविधिपरत्ववानो कानसग्ग करवो "आयमि"एश्मीप्रने प्रायरणा" ए बे गाथा क्षेपक माटे अमे अर्थ नथी कीधो. एम साहशतकग्रंथमां पण हीयमान थुइ कही, तथा साईशतकनीनाषामां पण हीयमान कही॥इत्यादिक अनेकशास्त्रोमां मृतकसाधु परतववाना अधिकारमा शांतिनिमित्ते एटले उपसर्गहरवाने त्रण थुइ वर्षमानने ठेकाणे हीयमान त्रण थुइ करवी कही पण च्यारथुइन कही जो पूर्वधर पूर्वाचार्योना वारामा च्यार थुश होत तो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २०७ विघ्न विघातने अर्थे जेम हमणां आत्मारामजी था. नंदविजयजिनी परंपरामांसाधु काल कस्या पड़ी पहेलां अवला त्रण थुइना देव वांदी पड़ी सुलटा च्यारथुइना देव वांदे, तेम पूर्वधर पूर्वाचार्योना लेख नथी, तेथी चोथी थुनी आचरणा देववंदनमां पाबलथी थइ संनवे. बे, तथा आत्मारामजी आनंदविजयजी चतुर्थस्तुतिनि. र्णय पृष्ट ११४ मां अंचनगढना मतनुं शरणुं लेले ते पण अयुक्त बे, एवं लखीने पोतेज अंचलगबना मतनु शरण लेइ अंचलमतनी शतपदीनामे ग्रंथनी सादीए पृष्ट ३श्मामां *कल्पविशेषचूर्णि कल्पवृहद्भाष्य अरु आवश्यकवृत्तिमे जो हे तिसमे तो तीन थुइसें चैत्यवंदना करनी कहीही नहीं हे ॥ एवं लखेले, ते निःसंदेह शरणागतवडलने बदले कृतघ्नपणुं सूचना करे • दे, जेम कोई प्राणी कोइनुशरणुं लेइपोतानुं कार्य सिद्ध करी जे प्राणिना शरणाथी पोतानुं कार्य सिझ थयुं तेज प्राणिना अवर्णवाद बोले तो ते प्राणि केवो नत्तम कहेवाय तेवी उत्तमता आत्मारामजि धारणकरी चतुर्थ स्तुतिनिर्णय पृष्ट २० मील १५ मीथी टष्ट ३० मानी नन ५ मी सुधी पाठ लखे ॥
तेपाठ शतपदीग्रंथनो , पण कल्पनाष्य कल्प चूर्णि प्रमुखनो नथी; केमके “कल्पविशेषचूर्णि कल्पब
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२०७
परिच्छेदः ७ हद्भाष्यावश्यकवृत्तिकद्भिरन्यथा व्याख्यातं यत चैत्यवंदनानंतरमजितशांतिस्तवो नणनीयो नोचेत्तदा तस्य स्थानेऽन्यदपि हीयमानस्तुतित्रयं नणनीयमिति” ॥
ए पाठ आवश्यकादिशास्त्रोमां नथी, पण शतपदीकारे त्रण सूत्र स्तुतिसिझकरवाने अन्यथा व्याख्यान जणाव्यु, तेपाठनो आयंत श्राशयपाउडोमीने अात्मारामजी आनंदविजयजि ते पाठमांथी बनकरीने केवल कल्पसामान्यचूर्णि प्रमुखना पाठ लखी त्रण थुइ निषेधकरवाने शतपदी ग्रंथनो पाठ लखेडे, पण ते पाउना अनिप्रायथी चोथी थुइ निषेध थाय. पण त्रण थु निषेध थती नथी तथाच;
तत्पाठ-ननु चैत्यवंदनां कुर्वद्भिः संसारदावानल दाहनीरमित्यादिकाः स्तुतयः किंननएयंते उच्यते इह तावदागमे साधूनां चैत्यवंदना विधिरयं तथाहि “पवि. हाण चेश्यवंदणे समोसरणेय विहिं नणइ निस्सकममनिस्सकमेगाहा" अत्र हि स्तुतित्रयमेवोक्तं तद्यदि "लोगस्सुबोयागरे पुकरवरदीवझे" सिझणं बुझाणमित्येवं रूपं स्तुतित्रयं शास्वतं कृत्रिमस्तुतयश्च नएयते तदा स्तुतिसप्तकं पदं वा स्यात् अथच त्रितयमेव विधेयतयोक्तं अथ चतुर्विशतिस्तवादीनां स्तुतित्वमसिझमिति चेत्तदपि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
२०५
न यतः कायोत्सर्ग निक्तिचूर्णो एतत्त्रयस्यापि स्तुतित्व मनिहितमेव तथाहि श्रपरिमिएणं काजेणं नस्सारेयवं तं च नमोयरिहंताणंति नणित्ता पारेइ पचा थुई जेहिं इमं तिचं इमाए उस्सप्पिणीए देसियं नाणं दंसणं चरित्तस्स य जवएसो तेसिं महइए नत्तीए बहुमान संवो कायवो एएवं कारणं कावसग्गाांतरंचनवसन इत्यादि तथा नमोक्कारेणं पारे तन नाणायारविशुद्धि निमित्तं च सुयनाणेणं मुरकसाहाणि साहिद्यंति ति का तस्स जगव पराए जन्तीए तप्परूवगं नमोकार - पुवगं थुकित्तां करेइ तंजहा पुरकरवरदीवेइत्यादि तथा नमोक्कारेणं पारेइ एवं चरित्तदंसणसुयधम्मप्रश्यारविसोहिं कारग्गका सगा कायद्या इयाणिं दंसणसुगंध म्माणं संपन्नं फलं जहिं पत्तं तेसिं बहुमान पराए जत्तीए मंगलनिमित्तं च द्यो थुइ नाइ सिद्धाणं बुझाएंणं गाहा इत्यादि याव० चू० तथा पारिय उद्योयगरे थुइ कमिति इति षमावश्यकवृत्तौ पाक्षिककायोत्सर्गे तथा ठिक यसामाइयादिवसाइयारचिंताकयनस्सग्गा नमो क्कारेण पारणाकयच वीसच्चयथुइ निसन्नपभिलेहियमुह पत्ती इत्यादिना पाचिकचूर्णावपि चतुर्विंशतिस्तवः स्तुतित्वेनोक्तः तस्मादेतदेव शाश्वतं स्तुतित्रयमनिधातव्य मिति स्थितं, उ ॥ यद्येवं चेश्यघरुवस्सए वाहायंतीन
२७
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२१
परिच्छेदः ७ तन थुई तिन्नि सारवणंवसहीए करे सवं वसहिपालो १ अविहिं परिठवणाए काउसग्गोठ गुरुसमीवम्मि मंगलसंतिनिमित्तं थन्तन अजियसंतिणं १ ते साहुणो चेश्यघरे वा उवस्सए वा ठ्यिा हुद्या ताहे जइ चेश्य घरे तो परिहायंतीहिं थुईहिं चेश्याणं वंदितुं थायरिय सगासे रियावहियं पमिक्कमि अवहिपारिछावणीयाए कासग्गो कीरइ ताहे मंगलपडई तन अन्नेवि दोबए हायंते कमिति उवस्सएवि एवं चेव चेश्यवंदणवचंति कल्पचतुर्थोद्देशकसामान्यचूर्णो.
॥यक्तं ॥ स्तुतिनां हीयमानत्वं तत्कथं चतुर्विंशति स्तवादि स्तुतीनां शाश्वतत्वात् घटत इति उच्यते घटत एवं प्रतिक्रमणसमाप्तिस्तुतित्रयदृष्टांतात् तथा हि तान्य थुझ्न एगसिलोगाति वझतियान पययकराहिं वा सरेण वा वदंतेण तिणि नणिकणं तन पाउसियं करेति आव० चू० ततो यदा तत्र प्रतिक्रमणस्तुतिनां स्वरेण प्रवईमानत्वमुक्तं तथात्रापि स्वरेण हीयमानत्वं क्रियमाणं को निवारयति किं चैतदेव हीयमानत्वं कल्प विशेषचूर्णि कल्पवृहद्भाष्यावश्यकवृत्तिकद्भिरन्यथा व्यारख्यातं तहत चैत्यवंदनानंतरमजितशांतिस्तवो लणनीयो नोचेत्तदा तस्य स्थानेऽन्यदपि हीयमानं स्तुतित्रयं जणनीयमिति तथाहि चेश्यघरगाहा चेश्यघर गईति
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५११ चेश्याई वंदित्ता संतिनिमित्तं अजियसंतिबक परियहिव तिन्नि वा थुतीन परिहार्यतीत कम्धिति तन श्रागंतु
आयरियसगासे अविहिपरिठावणियाए कानस्सग्गो कीर कल्पविशेषचू० उ ४ तथा चेश्यघरूवस्सए वा प्रागम्मुस्सगगुरुसमीवंमि अविहिं विगिंचणियाए संतिनिमित्तं चथतो तब १ परिहायमाणीयाउ तिन्नि थु उहवंति नियमेणं अजियसंतिबगमाश्यान कमसो तहिनेठ कल्पवृहद्भाष्ये तथा सवानठाणाई दोसा हवांते तबेव कानसग्गंमि आगम्मुस्सयं गुरुसगासे अविहीए उसग्गो कोई नणेचा तजेव किमिति कानस्सग्गो न कीर नन्न उठाणा दोसा हवंति तन य आगम चेश्यघरं गडंति चेश्याणि वंदित्ता संतिनिमित्तं अजिय संतिबयपढति तिहिण वा थुझ्नु परिहायमाणिन कमिछति तब आगंतुं थायरियसगासे अविहिविगिचणियाए कासग्गोकीर ॥ आव० ० ॥ तस्मान्न किंचिदेतद्वि प्रतिपादनात् कथमेकस्तुतित्वमित्युच्यते एतद्गाथात्रयस्य समदितस्यैव पाठात कायोत्सर्गानंतरं च समदितस्यैव नानाच एकस्तुतित्वमिति यथाश्रुतस्तवस्याद्यगाथया तीर्थकृतस्तुते रूपकत्रयेण च श्रुतस्तुतेः प्रतिपादनात् चतुर्णामपि रूपकाणामेकस्तुतित्वमिति इति कृत्रिम स्तुतिनिषेधविचारः ॥
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परिच्छेदः ७ अर्थः-कोई प्रश्न करे के चैत्यवंदनाकरतांथकां तुमो संसारदावादिकनी थुश्यों केम नथी कहेता तेहने उत्तर कहे. हा प्रथमश्रागममा साधुवोने चैत्यवंदना विधि, एने तेहज कहेले चैत्यवांदवामां तथा समोसरणमां विधि कहे निस्सकम एगाथामां त्रैणज थुइकही तोते थुश्लोगस्स तथा “पुकरवरदी"अने “सिझाबुदाणं" एहवी त्रस्तुतिनुं त्रिक शास्वतुं तेज कहेवाय अनें कृत्रिम थुश्यो कहियें तो थुइ सात अथवा न थाय अने सिझांतमां तो त्रिकज विधि करवापणे कह्यो २ अने को कहेशे जे चनवीसबादिकोंने स्तुतिपणु असिम एतो स्तव ने एयूँ कहे ते पण अयुक्त जे जे माटे का. उसग्गनियुक्तिचूर्णिमा ए त्रिकने पण थुइपणु कझुंज ने ते कहेजेः अपरिमाणकाने करीने कानसग्गपारवो नमोअरिहंताणं कहीने पडे थुइ कहेवी जेणे ज्ञानदर्शन चारित्रनो उपदेशरूप थातीर्थ थाउत्सर्पणीमा देखामधुं तेनी मोटी नक्ति बहुमानथी संस्तवन करवु एकारणे काठसग्गने धनंतर चळवीसबो इत्यादि तथा नवकारें करी कानसग्ग पारी पनी ज्ञानाचारविशुझिने अर्थे श्रुतज्ञाने करीने मोक्षसाधनादिक साधिये एम जाणीने श्रुतनगवंतनी परमनक्तिए करीने तेनो प्ररूपक नमस्कारपूर्वक थु कीर्तन करे ते जिम "पुरकरवरदीव"
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २१३ इत्यादि तथा नवकारकही कानसग पारे एम चारित्र तथा दर्शन अने श्रुतधर्मना अतिचार विशोधिना करनारा एटले चारित्रदर्शनशानना अतिचारनी शुझिना करनारा त्रण कानसग्ग करवा ते करीने हवे दर्शनश्रुत धर्मनुं प्राप्तथयं फल तेहने पाम्या तेन्नो बहमानपरमजक्तिएं करी मंगलने अर्थे वली थुइ कहे “सिझाएं बुझाणं गाथा" इत्यादिक अावश्यकचूर्णिनोपाठ तेनोनावार्थ कह्यो तथा कासग्ग पारी "लोगस्स उद्योयगरे"थु कहे एषमावश्यकत्तिमां लोगस्स ने थुइ कही पाक्षिक प्रतिक्रमणना काठसग्गमा सामायक करीने तथा प्रकारे रह्या दिवसना अतिचार चिंतवीने कानसग्ग नमस्कारें करी पारीनें कहे चोवीसस्तव, नामां थुइ एटले लोगस्स कहे पढी बेसीने मुहपत्ती पमिलेहीने इत्यादिक पाक्षिक चूर्णिमां पण लोगस्सने थुश्पणे करीनें कह्यो तेमाटे एज शास्वतीथुनुं त्रिक कहे, एम सिह थयुं.
हवे इहां कोई कहेशे के जे तमो एम कहोडो तो कल्पना चोथा उद्देशानी सामान्यचूर्णिमा ते साधु चैत्यघरे अथवा उपाश्रये रह्या होय तेवारे जो चैत्यघरे तो परि हायमान थुए चैत्यवादिने आचार्यपासे इरियावही पमिकमीने अविधिपारिगवणीनोकाउसगकरेत्यारपती
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२१४
परिच्छेदः ७
मंगलने श्रर्थे बीजां वे स्तव हीयमान कहे उपाश्रये पण एमज चैत्यवंदन विना विधि जाणवो एम कह्युंडे एमां थुइ हीयमान कही तो ए हीयमानपणु लोगस्सप्रमुख थुयोने विषे केम मले ए थोइयो शास्वतपणाथी हीयमान के घटे एम कहे तेने कहे हीयमानपां घटेज बे पक्किम समाप्तिमां जे स्तुतित्ररण कहे ते दृष्टांतथी तेज कहे तेथुन एक श्लोकादिक वधतीयो अथवा पद - दरादिके अथवा स्वरेकरीने वधती त्रण थुइयो कहीने पढी प्रादोषिक काल करे एटले बीजं कार्य मांमलादिक करे आवश्यकचूर्णिमां कहेबे तेमाटे जो त्यां प्रतिक्रमा थुइयोनुं स्वरेकरी वर्धमानपां कह्युं तेम इहां पण स्वरे करीने हीयमान पणुं करतां थका ने कोण वर्जेले वल्ली ए हीयमानपणुं कल्पविशेषचूर्णि तथा कल्पवृहद्वायाने यावश्यकवृत्तिकारोए अन्यथा पणे वखाएयुंडे जे एम चैत्यवंदनने अनंतर अजितशांतिस्तव कहवु नही तो त्यारे तेने ठेकाणे बीजी पण हीयमान स्तुति त्रण कहेवी एमबे तेज कहे " चेश्यघर गाहा एटले चैत्यघरे जाई चैत्यने वांदिने शांतिने पर्थे अजितशांति स्तवन कहे अथवा त्रण थुइन हीयमान कहे त्यारपढी यावीने प्राचार्य पासे विधिपरिठावीनो का सरग करे ए कल्पविशेषचूर्णिना चोथा -
""
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५१५ देशामाले तथा चैत्यघरे तथा उपाश्रये प्रावीने कानसग्ग करे गुरुने पासे अविधिपरिछावणीनो शांतिने. निमित्त त्यां परिहीयमान त्रण थुइ निश्चय होय अजितशांति स्तवप्रमुख अनुक्रमे तेवारे ते करे ए कल्पवृहद्भाष्यमां डे तथा सवे नत्थापनादिक दोष होय एटले मृतकननो थाय इत्यादिक दोष त्यां कासग करवामां माटेनपाश्रए आवीने गुरुने पासे अविधिपारिछावणीनो का नसग्ग करे कोई कहेशे के त्यां कानसग्ग केम न करे ते माटे कहे.उठाणादिदोष होय ते माटे प्रावीने चैत्यघरे जाश्चैत्यवादिने शांतिने अर्थे अजितशांतिस्तवकहे अने त्रण थुश्न ते हीयमान कहे त्यांथी श्रावीने आचार्यपासे अविधिपारिछावणीयानो कानसग करे ए श्रावश्यक वृत्तिमा तेमाटे एकांश विपरीत नथी तेथी एज त्रण थुइ शाश्वती हीयमान कहे त्यारे कोइ कहेशे एने एक थु पणुं केम संनवे ते कहेजे ए त्रणगाथा सिहाणंनी एकीज कहेवाथी वली काउसग्गने अनंतर गाज कहेवाथी एक थुइ पणुबे जेम श्रुतस्तवने श्राद्यगाथाए करी तीर्थकर थु अनेत्रण रूपकेकरीने श्रुतथुना प्रतिपादनथी एटले कहेवाथी च्यारे पण रूपकोठें एक थुश्पगुंडे एटले ब्यार समुदित थुइ एकजे ॥ .
एपाठमां कत्रिम थुझ्नो निषेध जे ते कत्रिम थुन
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५१६
परिच्छेदः ७ माने तेना मतमांत्रण सूत्र थुइनीज चैत्यवंदना माने तेथी एज शतपदीग्रंथना १५मा प्रश्रोत्तरमां ॥ागमे यतिनां स्तुतित्रयेणैव चैत्यवंदनोक्ता ॥ए कहेवाथी साधने त्रण थुइएज चैत्यवंदना कही तो चोथी थुइ तो ए ग्रंथना अनिप्रायथी सूत्र निषेधथइ तथा मृतकसाधुना परत वावाला साधु चैत्यघरमां प्रथम परि हीयमान त्रण थुइथी चैत्यवंदना करीने प्राचार्यने समिपेरियावहि पनि क्वमिने अविधिपारिठावणियानो कायोत्सर्ग करे तेवारपड़ी मंगलपन॥ तेवारपनी अन्यत अपि बेस्तवहीय मान कहे एटले मंगलशांतिनिमिते अजितशांतिप्रमुख स्तवन कहे ए कल्पसामान्यचूर्णिना कथनमा प्रथम त्रण थुश्थी हीयमान चैत्यवंदना करीने अविधिपारिहावणियानो कायोत्सर्ग करयां पड़ी मंगलशांतिनिमित्ते अजितशांतिप्रमुख स्तवन कहवां कह्यांधने कल्पविशेष चूर्णि तथा कल्पहत्नाण्यावश्यकवृत्तिमा प्रथम शांति निमित्ते अजितशांतिस्तवन कही पड़ी हीयमान त्रण थुइ तथा अविधिपारिघावणियानो कायोत्सर्ग करवो कह्यो एअन्यथाव्याख्यान संनवे पण बृहत्कल्पचूर्णि तथा आवश्यकवृत्तिकारना तिन्नि वा थुझ्यो ए वाक्यमा वा शब्दग्रहणकरवाथी चैत्यवंदनाने अनंतर अजितशांति स्तवन कहेवो भने अजितशांतिस्तवन न कहे तो ते
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५१७ अजितशांतिना स्थानमा अन्यतः हीयमान त्रण थुकहेवी एवं अन्यथा व्याख्यान शतपदीकारनुं स्वीकारकरेलुं संनव थतुं नथी केमके कल्पबृहत्नाष्यमां तो अजित शांतिस्तवादिक क्रमथी परिहीयमान त्रण थुइ नियमे करीने कहेवी कही पण वा शब्दग्रहणकस्यो नथी तेथी वृहत्कल्पचूर्णीमां तथा आवश्यकवृत्तिमां वा शब्द ले ते अवधारण अर्थे उ एटले मृतकसाधुना परतवावाला साधु चैत्यघरमा जाय त्यां चैत्यवंदना करीने शांतिने निमित्त अजितशांति स्तवन कहे ने निश्चेत्रण थुइहीयमान कहे तेवारपडी आचार्यसमीपे प्रावीने अविधि पारिठावणियानो कायोत्सर्ग करे एम वाशब्दनो अवधारण अर्थ ग्रहणकरचाथी बृहत्कल्पनाष्यनु कथन मिलान थाय अन्यथा न थाय ॥ माटे कल्पसामान्य
चूर्णिमा जे स्थानके त्रण हीयमान थुइ कही ते स्था. नके अजिसशांति स्तवन कहेवं ने पडी हीयमान त्रण थुइ कहेवी अन्यथा ते स्थानके स्वरे करीने हीयमान त्रण सूत्र थुइ कहेवी ने पडी अजितशांतिस्तवन कहेवू ए अनिप्रायथी शतपदीकार कल्पविशेषचूर्णि प्रमुखनु अन्यथा व्याख्यान सूचन करथु संनवेडे. पण वाशब्द ग्रहण करीने आत्मारामजीए अन्यथाव्याख्यान कस्युं से सि-तथी मलतुं संलवतु नथी केमके वृहत्कल्पवृ
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परिच्छेदः ७
त्तिकारे कल्पविशेषचूर्णिनो पाठ वृत्तिमां लख्योढे तेमा तिन्नि थुइयो एवो पाठ लख्योढे पण तिन्नि वाथुइयो एवो पाठ वाशब्द ग्रहणकरीने लख्यो नथी तथा कोइ जुनी प्रतोमां पण वाशब्द देखातो नथी तेथी प्रजितांति स्तवन कहेतुं श्रथवा थुइ कहेवी एवं अन्यथा व्याख्यान यात्मारामजी लखे ते सत्य बे ने कदाच वाशब्दनो पक्षांतर ग्रहणकरी शतपदीकारनुं अन्यथा व्याख्यान सिद्धांतथी मलतु स्वीकार करेलुं संनवे तोपल कल्पविशेषचूर्णि कल्पवृहद्भाष्य ने श्रावश्यकवृत्तिमां त्रण थुथी चैत्यवंदना करवी कही नथी एवं प्रात्मारामजीनुं लखवं कस्तुरीने बदले कोयला चर्बणकरवा जेवं संनवेले केमके अन्यथा व्याख्यानमां श्रजितशांति स्तवन कहो अथवा त्रण हीयमान थुइकहो एवं वाशदनो पक्षांतर अर्थ ग्रहणकरवाथी सिध्थाय बे पण
थुइ नज कहेवी ने चोथी थुइ कहेवी एवं सि६ धतुं नथी तेवास्ते जो कोइ कुयुक्तिकरीने ए पूर्वोक्तशास्त्रोना पाठ देखाडी नोलाजीवाने त्रधुनी चैत्यवंदना बोhrat एकांते चोथीथुइ स्थापन करे तो तेने निःसंदेह उत्सूत्रप्ररूपक शिवाय शुं कहेतुं जोइए तथा जेम पूर्वधरोना ग्रंथोमां त्रण थुनी चैत्यवंदना कही तेम पूर्वधरवर्त्तमानकालवर्त्ती तथा पूर्वधरनिकटकालवर्त्ती तथा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २१ए पूर्वधर पश्चात्कालवर्ती अथवा वर्तमानकाल पूर्ववर्ती श्राचार्योना ग्रंथोमां पण त्रणथुश्नी चैत्यवंदना कहीले ते पाठ लखीएडीए प्रथम कलिकालसर्व १४४४ ग्रंथकर्ता महाप्रनाविक श्रीहरिनद्रसारमहाराजे तथा देवनद्रसूरिजीए श्रीदर्शनशुझिवृत्तिमां अधिकारिकत अनधिकारिकत विधिकत जातमूल थएली सर्व जिन प्रतिमा पूजन अधिकारे त्रणथुश्नी चैत्यवंदना कही.
ते पाठ-अष्टविधजिनप्रतिमायाः पूजा कर्तव्येत्युक्तं सा च किं स्वनावा नवतीत्याह गुरुकारियाए केई अन्ने सयकारियाए तेवेति विहिकारियाए अन्ने, पमि माए पृयणविहाणं २५
व्याख्यातत्र गुरुवो मातपित्रादयस्तैः कारिता निष्यादिता इति केचन प्रतिपादयंति अन्ये पुनः स्वकारि तायास्तत् पूजाविधान ब्रुवंते विधिकारितायाः अन्ये प्रतिमायाःपूजनविधानं पूजा कर्तव्ये त्यध्याहारः इति सा मान्यने नानामतजनमानसोबा विकल्पाः प्रदर्शिताः नावार्थस्त्वयं अधिकारिकता वानधिकारीकता वा विधि कृता वा जातमूलोबा वा याकाचित् जिनप्रतिमा सासर्वापि विवेकवतां पूजनीयायः कश्चिदनधि कारकगता नुमोदन संनवस्तत्र जिनवचनमेव प्रमाणं.
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परिच्छेदः ७ ॥यक्तं ॥ सीलेहमखफलए इयारेचोइतितंतुमाईसु अनिजोतिसवित्तिसु अणिवाफेतदीसंता॥१॥निस्सकममनिस्सकमेवावि चेएसव्वहिंथु तिन्नि वेलंवचश्याणंच नाउएक्विक्कियावावि २ इतिगतार्थाः॥
नाषा-श्रावप्रकारनी जिनप्रतिमानी पूजा करवी एवं कर्वा माटे ते पूजा केवी होय ते कहे जे गुरुकारियाए, गाथानो अर्थ एम के कोइक तो एम कहेले के मातापितादिके करावेली जिनप्रतिमा पूजवी अने बीजा एम कहे के पोतानी करावेली प्रतिमा पूजवी केटलाएक विधिए करावेली प्रतिमा पूजवी एम सामान्ये करीने लोकनां मनना थएला विकल्प देखाम्या पण नावार्थ इहां एम के अधिकारीए करावेली प्रतिमा तथा अनधिकारी एटले बीजे कोइए करावेली अथवा विधिए करेली अथवा जातमूल थएली एटने जेमतेम थएली मरजीभावे एवी कोइ पण जिनप्रतिमा ते सर्वे पण विवेकी लोके पूजवी इहां जे कोइ एम कहे के अधिकारमा ए नथी माटे एनो अनुमोदननो दोष संनवे एम कहे तेने कहीए शहां एम न विचार केमके जिनवचन तेज प्रमाण जे माटे नाष्यकार एम कहे के असंविज्ञचैत्यमांजे प्रतिमा तेना नपर जो जालादिक होय तो त्यां पूजारा प्रमुखने साधु ले ते एम कहे अरे तमे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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एम मलीनता शुं राखोटो एवं करवाथी तमारी खाजिविका केम चालशे केमके जेम मंखली चित्रामणनां पाटीयां ते मेलां राखे तो तेने कोइ पण न पूजे खने जो नजलां राखे तो लोक बधाए पण तेने पूजे एम तमो पण वारंवार पूजवादिके करी जो देरामां नजलुं राखशो तो बहुलोक पूजा सत्कार तमारो करशे एम कहे ने जो ते पूजारा देवनी याजिवीका वृति पोते खाता होय ने कह्युं न माने तो तेने निळंबीने कहे जे पापिन एकतो तमे देरानी जिवीका खानुंढो बीजुं देरां पण नथी पूजता एम कहे बते पण ते जालादिक दूर नकरे तो प्रन्नवृत्तिए कोइ न देखे तेम साधु पोतेज जालां दूर करे एम सामान्ये चैत्यनुं कर्तुं बे तथा निश्राकृत निश्राकृत बन्ने चैत्यमां त्रण स्तुति कहेवी अने जो अवसर न होय तो बधाए चैत्यमां एक एक थुइए चैत्यवंदना करवी एम प्रागमनुं कयुं मानी विधि - विधि कृत प्रमुख चैत्य सर्व वांदवां ॥ तथा श्रीप्रवचनसारोछार मूल वृत्तिमां श्रीनेमिचंद्रसूरि तथा श्रीसि-5सेनसूरिजिए पूर्वधर अनुयायि त्रणथुनी चैत्यवंदना कही तेपाठ श्रागल प्रस्ताव उपर लखाशे तथा श्री दिनकर मूलमां पण पूर्वधर अनुयायी त्रण थुइनी चैत्यवंदना कही.
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परिच्छेदः 9
पाठ - झिगंधमलस्सावी तपुरप्पेस एहालया अहो वा वहो चेव, तो चिरंति न चेइए ४८ तिन्निवाकमजावे थुइनतिसिलोइया तावतञ्च पुन्नायं कारणेपरेवि ४
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अर्थः- चैत्य मांजवं त्यारे प्राठ पुमनो मुखकोस बांवो केमके ए शरीर दुर्गधी बे बहुधोइए तोपण एमांथी मल करे उंचो नीचो वायु वहे माटे चैत्यमां रहेवुं नही जो रहे तो श्रुतस्तव ने अनंतर त्रीजी स्तुति त्रण श्लोकनी कहे त्यां सुधी प्राज्ञा बे कारणे अधिक पण रहे ॥ तथा परमवैराग्यरसिक श्रीदेवनद्रगुरुना शिष्य श्री जगचंद्रसूरि क्रियान-धारना कर्त्ता तपस्वी राणानी सनामा तेत्रीस ३३पणकाचार्योंने वादमां जीत्या तपाविरुद धारक तेना शिष्य श्वेतांबराचार्य श्रीदेवेंद्रसूरिए पण श्रादिनकरवृत्तिमां पूर्वधर अनुयायी त्रण थुनी चैत्यवंदना कही ॥
पाठ - चैत्ये एव साधवः किं न तिष्टंतीत्याशंका व्यवहारजाष्यगाथानिन्निरस्यन्नाह जइविन० ॥ यद्यपि चक्तिकृतमायतनादि जगवतां नाधाकर्म्म तथापि तद्वजयद्भिः खलु निश्चयेन जक्तिर्जिनानां कृता नवति इदं तु लोकेपि दृष्टांतात्तदेव दर्शयति ४६ वंदीस्तानीयाया
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २२३ स्तीर्थकरप्रतिमायानक्तिनिमित्तमायतनं साधवः प्रविशंति नतु तत्रैव तिष्टंति ४७ कुत इत्याह "उशिगंधपरि०" “तिनिवाकम० " एषा तनुः नापितापि उरनिगंधप्रस्वेदपरिश्राविणी तथा द्विधा वायुपथोऽधोवायुनिर्गमननबासनिः श्वासनिर्गमश्च तेन कारणेन चैत्ये चैत्या यतने साधवो न तिष्ठति अथवा श्रुतस्तवानंतरं तिस्त्र स्तुति स्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत कर्षति तावत्तत्र चैत्यायतने ऽवस्थानमऽनुज्ञातं कारणेन कारण वशात् परेणाप्यऽवस्थानमऽनुज्ञातमिति “किंतसेल सिहरे” इत्याद्यऽपि बहुश्रुताचीर्णत्वादविरुक्ष्मेव चतुर्थी पर्युषणाचरणवदिति ॥
अर्थः-चैत्यमांज साधु केम न रहे एवी शंकाने व्यवहारनाष्यनी गाथाओए करीने शंकानिवर्त्तन करता कहे जो पण नतिकत चैत्य साधुवोने आधाकर्मी नथी तोपणते वर्जनाराने एटने चैत्यमां नरहे तेने निश्चय जिनवरोनी नक्तिकरी होय एटले जिननक्ति थाय ए वली लोकमां पण दृष्टांतथीज देखामे ने वंदीस्थानी तीर्थकरप्रतिमा तेनी नक्तिने अर्थे साधु चैत्ये जाय पण त्यांज न बेसे एटले रहे नहीं शामाटे न रहे ते कहे ले के एशरीर स्नान करेलु होय तोपण गंध परसेवो तो एमांथी फरेज तथा बे प्रकारनो वायु एमांथी वहे एकतो
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२२४
परिच्छेद: 9
अधो वायु बीजो श्वासोश्वास वायुए नीकले ते कारणे चैत्यमा साधुळे ते न रहे ग्रने जो रहे तो श्रुतस्तवने अनंतर त्रीजी थुइ त्रण श्लोकनी एटले श्लोक त्रण प्रमाण यावत् कहे त्यांसुधी त्यां चैत्यमां रहेवानुं कांबे
कारणवशे अधिक पण रहेवुं कह्युंडे तथा ए कहेवाथी "नति सेल सिहरे" इत्यादिक गाथा पण बहुश्रुते याची करी ते पणाथी ए कहेवी विरुद्ध नथीज, चतुर्थी पर्युषणानी पेठे || तेमज तपागचनायक श्रीसोमसुंदरसूरित श्रादिनकृत्यावचूरिमां त्रण थुनी चैत्य. वंदना कही ॥
ते पाठ - कुत इत्याह 'झिगंधमल० ' " तिन्निवाकई० " एषा तनु स्त्रापितापि रनिगंधप्रस्वेदपरिश्राविणी तथा द्विधा वायुपथोऽधोवायुनिर्गमन उल्लासनिः श्वासनिर्गमश्च तेन कारणेन चैत्ये चैत्यायतने साधवो न तिष्ठति अथवा श्रुतस्तवानंतरं तिस्रस्तुतिस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत्कर्षति तावत्तत्र चैत्यायतने ऽव - स्थानमनुज्ञातं कारणेन कारणवशात् परेणाप्यवस्थानमनुज्ञातमिति "नति सेल सिहरे" इत्याद्यपि बहुश्रुताचीत्वादविरुमेव ॥
अर्थः- ए शरीर स्नान कराव्ये सते पण रनिगंध परसेवो करे एवं बे तथा बे वायुना मार्ग ते अधोवायु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
१२५
वली श्वासोश्वासवायु नीकली रह्या बे ते माटे दे रामां साधु न रहे अथवा श्रुतस्तवने अनंतर त्रीजी भुइ त्रण श्लोकनी एटले श्लोक त्रण प्रमाणनी ज्यां सुधी कहीए त्यां सुधी चैत्यमा रहेवानुं कर्त्तुं बे कारणे अधिक पण रहे कयुं बे "तिसेनसिहरे" इत्यादि पण बहुश्रुताचीर्ण पंमितो याचरधुं ते कहेवानो विरोध नथी ए “सिद्धाणं बुझाएं" मां जे बे गाथा बे ते कहेवानी थाचरणावे ॥ तथा श्रीमडपाध्याय श्रीयशोविजयजीए प्रतिमाग़तकनी टीकामां पण त्रणथुनी चैत्यवंदना कहीले.
तेपाठ न चैवमविधिरुतामपि पूजयतस्तदनुमतिद्वारेणाज्ञानंगलक्षणदोषोपपत्तिरागमप्रामाण्यात्तथाहि श्री कल्पनाये " निस्सकममनिस्सकमे" इत्यादि १ निश्राकृते प्रतिबदेऽनिश्राकृते च तद्विपरिते चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयतेऽत्रप्रति चैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो नवति नूयांसि वा चैत्यानिततोवेलां चैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकापि स्तुतिर्दातव्येति ॥
अर्थः- अविधिकतचैत्य पूजवां एम कहेबाथी अनु मोदनाद्वारे करी श्राज्ञानंगदोष थायडे एवं न बोलवु केमके यागममां कहेतुं ते ते माटे तेमज कहेबे श्री कल्पनाष्यमां निश्राकृत यनिश्राकृत मधा चैत्योमां त्र
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२२६
परिच्छेदः ७
थुइथी देव वांदवा तथा अवसर न होय तो एक एक थुइधी पण बधां चैत्य वांदवां एमां पण बधा चैत्यमां त्रण थुइ कहेवी कही एमज प्रतिमाशतकनी लघुटीकामां पण त्रण थुनी चैत्यवंदना कहीडे ॥ तथा श्राइविधिनीटीका श्रीरत्नशेखरसूरि कृतमां निश्राकृत श्र निश्राकृत चैत्यमां पूर्वधर अनुयायी त्रण थुनी चैत्यवंदना कही ॥
तेपाठ - तथाहि श्रीकल्पनाष्ये निस्सकमे त्यादि निश्राकृते प्रतिबदेऽनिश्राकृते च तद्विपरिते चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयंते यथ प्रति चैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलायाऽतिक्रमो नवति नूयांसि वा तत्र चै - त्यानि ततो वेलां चैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकापि स्तुतिर्दातव्या एमां पण त्रा थुई एनो अर्थ एनी जापामां श्रागल लख्युंबे ते प्रमाणे जाणवुं ३६ ॥ अथ श्रादविधिनी नाषामां त्राण थुबे ॥
॥ तेपाठ ॥ श्रीकल्पनाप्यने विषे कह्युं बे निश्रानुं करेल निश्रा विनानुं करेल एवां जे चैत्य तेने विषे सर्व dard स्तुतित्र देवी वेला घणी थाय तो वली चैत्य जाणीने एकेकी थुइ पण कहेवी १ निश्राकृत चैत्य ते शुं ग प्रतिबद्ध गनां बंधाएलां अनिश्राकृत ते वली
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १५७ गडविनाना जे चैत्य तेने विषे सर्व काणे त्रण थुन देवी हवे देरे देरेत्रण ५ थुइ कहे ते थके वार घणीज थाय अथवा त्यां घणां दे'रांजे त्यारे वेलाने देरां जाणीने दे'रा देरा प्रते एकेकी पण थुइ देवी ॥ तथा धर्मसंग्रह प्रकरण श्रीहीरविजयसूरिजिना शिष्यना शिष्य श्रीविजयतिलकसूरि तेना शिष्यना शिष्य श्रीशांतिविजयगणि तेना शिष्य श्रीमानविजयजी उपाध्यायजी कृतमा पण पूर्वधर अनुयायि सर्व प्रतिमा अविशेष पूजाधिका रमांत्रण थुश्नी चैत्यवंदना कही ॥
ते पाठ-प्रतिमाश्च विविधास्तत्पूजाविधौ सम्यक्तप्रकरणे इत्युक्तं 'गुरुकारिधाई केई अन्ने सयकारियाई तं बिति विहिकारिआईअन्ने पमिमाए पूअणविहाणं'१
व्याख्या-गुरुवो मातृपितृपितामहादयस्तैः कारितायाः केचिदन्ये स्वयंकारिताया विधिकारितायास्त्वन्ये प्रतिमायास्तत्पूर्वानिहितं पूजाविधानं ब्रुवंति कर्तव्यमितिशेषः अवस्थितपदस्तु गुर्वादिकृततत्वस्यानुपयोगि त्वान्ममत्वाग्रहरहितेन सर्वप्रतिमा अविशेषेण पूजनीयाः नचैवमविधिकृतामपि पूजयतस्तदनुमतिद्वारेणाझा जंगलक्षणदोषापत्ति रागमप्रामाण्यात् तथाहि श्रीकल्प बृहद्भाष्ये 'निस्सकममनिस्सको चेइए सबहि थुइ तिन्नि
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परिच्छेदः ७ वेलंब चेझ्याणि अनासं इक्किक्किया वावि' १ निश्राकृते गह प्रतिबझेऽनिश्राकृते तद्विपरिते चैत्ये सर्वत्र तिस्त्रः स्तुतयो दीयते अर्थ प्रतिचैत्यं स्तुति त्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो नवति नूयांसि वा तत्र चैत्यानि ततो वेलां चैत्यानि च ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमे कैकापिस्तुतिर्दातव्या ॥
नाषा-वली प्रतिमा नानाप्रकारनी तेनी पूजा विधि सम्यक्तप्रकरणमा एम का ने गाथानो अर्थ गुरु जे माता पिता दादा प्रमुख तेकए करावेली प्रतिमा पूजवी एम कहेले के पोतानी करावेली ते पूजवी एम कहे केश विधिए करेली तेनी पूजा करवी एम कहे पण इहां ए सर्व पदनुं कांइ पण कारण नथी माटे ममत्व कदाग्रह रहित सर्वप्रतिमा सदृश जाणीने पूजवी इहां एम पण न जाणवू जे अविधिकरेली प्रतिमा पूजवाथी तेकनी अनुमोदनाद्वारे करी माझानंग रूप दोष लागे एम न समजवू केमके आगममां सर्व पूजवी एम जणाय डे माटे आगमप्रमाणथी तेजयागम देखाडे श्रीकल्पवृहद्भाष्यमां निश्राकृत जे गहनो करावेलो अनिश्राकृत तेथी विपरीत एटले संघनो करावेलो ए सर्वचैत्यमा थुइ त्रण करी चैत्यवांदवां अने चैत्यचैत्यदीत त्रण थुइ कहेवानो अवसर न होय तथा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २२ए चैत्य बह होय तो अवसरजाणीने सर्वचैत्यमा एकथुइथी चैत्यवंदना करवी एनाष्यकारनु वचन डे माटे सर्व प्रकारनां चैत्य पूजवां वांदवां ॥ तथा श्रीजिनवल्लनसूरि संतानीय कृत संदेहदोलावलिमा जेटला कालसुधी चैत्यवंदना करे तेटलाकालसूधी नत्सर्गथी साधुस्थातव्याधिकारमा पणत्रण थुश्थी चैत्यवंदना कही.
तेपाठ-अत्रत्वाराध्यं चैत्यं तस्य चोचितेयंस्थितिर्यावता कालेन चैत्यवंदना क्रियते तावन्मात्रमेवोत्सर्गतश्चैत्ये साधुनिः स्थातव्यं नाधिकं स्नानादिकरणे तु स्नानादि यावत् ॥ ___ यउक्तं-तिन्निवा कमई जाव थुइन तिसिलोइया ताव तब अणुनायं कारणेन परेण वेति ॥ ___तथा श्रीराजनगरपांजरापोलमां शेठ हठीसिंह केसरिसिंहजिना धर्मठपाश्रयमा शेठजयसिंहलाइ हतीसिंहजीना ज्ञाननंमारमा जिनप्रतिमास्थापनहुंमिना ग्रंथमांत्रणथुनी चैत्यवंदना कही ते अदर जेम ले तेम टांकीए बीए.
॥ थयथुश्मंगलेणं नंते कि जण ॥ थय कहेतां स्तवन थु कहेतां ३थुइ ते थुइ बीजी स्थापना जिननी हुवे एटलेइसीउ नाव जे स्थापनाजिने था
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परिच्छेदः । गल थय थुए करी देववांदे तेने शानदर्शनचारित्र बोधिलान उपजे ॥पर पुरनु॥इत्यादिकअनेकपूर्वार्थोयोना ग्रंथोमां पूर्वधरअनुयायी त्रणथुनी चैत्यवंदना कहीले तेथी जाणवू जोइए के एवा एवा मोटापुरुषोनां वचन जो कोतुबबुद्धिपुरुष न माने तो जेवा तेवा तुझबुद्धि वालानां वचन मानवावालाथी वली अधिक मूर्ख मणि ने कहेवो जोए ॥
॥पूर्वपद॥ श्रीबृहत्कल्पनाष्यप्रमुख पूर्वोक्त पूर्वधर तथा पूर्वधर अनुयायी ग्रंथोमां त्रणथुनी चैत्यवंदना कही तेतो सामान्यविधिए साधुने उद्देशीने कही पण विशेषविधिए तथा साधुश्रावकने उद्देशीने कही नथी तो सामान्यविधिथी विशेषविधि करवू केम घटमान थाय. ___ उत्तर–हेसम्यक्यनापेदी सामान्य जे त्यां विशेष रहेनुं बे ने विशेष जे त्यां सामान्य रहेनुं बे ए न्यायथी बृहत्कल्पनाष्यप्रमुखग्रंथोमां सामान्यविशेषविधि बेठ रहेला अने सर्वक्रिया अनुष्टान शास्त्रोमांकयां लेते साधुने उद्देशानेज कह्यांडे.
॥ यज्क्तं ॥ वृंदारवृत्त्यादौ सर्वमप्यनुष्ठानं साधुमुद्दिश्य क्रियते ॥
एवचनथी साधुने अनुयायी सर्व अनुष्टान श्राव
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
२३१
कने पण जावां ते चैत्यवंदनादि अनुष्ठाननी विधि पूर्वे पण सम्यक्त्वधारी मानता हता वर्तमानकालमां मानेढे प्रागामिकालमां मानशे पण मिथ्यादृष्टितो कदापि मने नही ते वास्ते सम्यग्दृष्टि जीवाने त्रणथुइनो निषेध ने एकांते चोथीथुइनो याग्रहरूप कदाग्रह
देव ते योग्य केमके पूर्वधर तथा पूर्वधर अनुयायिग्रंथोमां सामान्यप्रकारे चैत्यवंदनाविधिमा त्रा थुइ कही बे पण चोथीथुइ कही नथी तेमज पूर्वधर तथा पूर्वधरअनुयायिग्रंथोमां विशेषप्रकारे चैत्यवंदनाविधि कोढे ते मां पण त्रण थुइ कहीले पण चोथी थुइ कही नथी ते विशेषविधिना पाठ अनुक्रमे लखीए बीए स्यां प्रथम श्रीराजनगर अर्थात् मदावादमांपांजरापोल मध्ये शेवहतीसिंह के सरिसिंहजीनां धर्मपाश्रयमां शेठ जयसिंहनाइ हतीसिंहजिना ज्ञानजंमागारमां पूर्वधर तथा पूर्वाचार्यकृत विक्रम संवत् १४सोनी शालनीलखेली श्रीराधनापताका जगवतीसूत्रमां साधुश्रावक बेचने उद्देशीने विशेषप्रकारे त्रणथुनी चैत्यवंदना कहीले.
ते पाठ - गीयच्चारण गुरूणं पासे चिह्न वंदलाइ दारेहिं प्रणसणविहिं पतंजइ खवगो संवेगनरियंगो ॥४५॥ भीमं अणोरपारं नवजजहिं उत्तरं कलेच गुरु
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परिच्छेदः ७ पायजुयं नमिदं कयंजली विनवे खवगो॥ ४६ धाराहणापवहणं सहित नियामएहिं पुरोहिं जयवं नवनव महं उरुत्तरं तरिन मिजामि ॥४७ कारनामयजलही वायगवसना नणांत खवगमुणिं निविग्धमुत्तम]साहेहि लहुं महानाग ॥४७ धन्नोसि तुमं सुंदर एरिसन जस्स निबनजा संसारऽस्कमहणं चित्तुं प्राराहणपमागं ॥ ४ए ता देहाइसु सुविहिय मा पमिबंधं कहंवि कुविद्या असणविहिं पवधसु चिश्वंदणवियमणाईय ॥५०
खंति नणिय खवगो लिए परिखितु तस्स उन्हाहं पमि. चारगेहि यसमं संघेणय संपाहारिता ॥१अह निधामय गुरुणो सम्मं नाकपअणसणावसरं नत्तपरिनाकार कारंति संघपञ्चकं॥५२ तो खवगो जिगनाहे आराहण. नायगे तिहिं थुहिं वदा निविग्धवं हरिसवसुनिन्नरोमं चा॥५३तह सावगोवि सम्मं सावगधम्म समुऊमेमाणो अराहणं पतंज श्मेण विहिणा खवियदेहो ॥ ५४ का चेश्यपूयं जहविहवं पूइनचनविह संघ उचिय जगोवयारं कालं च कुडंबसुबत्तं ॥५५ खाामतुसयरावग्ग नियदवं ठविय नवसु खित्तेसु अणुसासियपुत्ताई सम्माणिय पुरजणं सयनं ॥५६ संथारयपवधं संपमिवाचितु अणसणानिमुहो साहुब तिहिं थुहि सगग्गारो जिणवरे वंदे ॥५७ जशपुण सयणनिसेहाइ कारणा चरणमोह
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २३३ उदया वा, पचसियपुत्ताईणं, संदेसं वा कहिलकामो॥५७ संथारगपत्वधं मय पमिवधेश्मरणकालेवि तो अणसणं कुतो देसजई वा अविरन वा ॥ ५ए जिणंपमिमाएं सतरस नेयं पूयं करित्तु सत्तीए नमूतणूवित्ताणं असएणं थुणेकणं ॥६० वामं जाणुनं चिय दाहिणजाणु निहित्तु धरणियले तिरवुत्तो मुझणं फासिय धराणिएतो जाले ॥६१ दसनहमंजलिमारो विकण सकबएण जि. पानाहे वंद नमुवणं जा संपत्ताणं तिचं तेणं ॥६॥ चैत्यवंदनदारं १४
नावार्थ-गीतार्थगुरुने पासे चैत्यवंदनादि द्वारे करीने अणसण विधिप्रयुंजे एटले करे अणसणकरनारो पक संवेगमां नरेनुं बे अंग जेनुं एहवो ५ नयानक पारनथी जेनो एवो नवसमुद्र उरखे तरवामां श्रावे एवं जांणीने गुरुना पगजुगल नमीने हाथ जोमी पवविनवे ४६ आराधनाप्रवहणे चढ्यो हुँ निर्यामक पुज्यवते हे जगवंत नवार्णवतरवो उक्कर ले तेने तरवो वांबु ढुं४७ करुणाअमृतना समुद्र एवा वाचकवृषन कहे पकने निर्विघ्नपणे नुत्तमार्थसाधो हे महानाग तत्कालढिल न करो ॥ धन्य तने हेसुंदर एवो तमारो निश्चय थयो संसारकने मंथनकरनारी आराधना पताका ग्रहणकरवानो तारो अनिलाष जलो बे
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परिच्छेदः
एतात्पर्य जाणवुं प्राकृतत्वाल्लिंगव्यत्यः ॥४॥ हे सुविहित तेमाटे देहादिकनो प्रतिबंध कोइ प्रकारे पण मां करशो एटले देहादिकनो प्रतिबंध कोइ प्रकारे मत करो चैत्यवंदन विकटनादि एटले प्रगटसुंदर विशालदमकादि विधिए चैत्यवंदनादि करीने सणविधि अंगीकार करो ५० रूपक कहे हुं एमज वां एम कहीने रहना गुर्वादि तेनो चाह परखीने परिचारक पूर्वे कह्या तेनी साथे एटले ॥४८ वेयावच्चना करनारानी साथै संधे करीने सहित संप्रधारीने पती अणसानो अवसर
प्रकारे जाणीने जनपरि नाकरनाराने संघप्रत्यक्ष एटले चावो करे ५२ पीपक जेते आराधनानायक जिननाथने थुए करीने वांदे निर्विघ्नताने अर्थे एटले थुइ सुधी चैत्यवंदन करे ते रूपक केवोढे के हर्षवशे विकस्वरमान कवेलां बे रोम जेनां एवो ५३ तेम श्रावक पण जले प्रकारे श्रावकधर्मने जमतो थको याराधना करे एविधिए शरीरने खपावे ५४ चैत्य पूजाकरीने यथाविनवे व्यारप्रकारना संघने पूजीने 3चितजननो उपकार करीने कुटुंबने सुस्थित करे ॥ ५५ खमावीने सनवर्गने पोतानु द्रव्य नवदेत्रे स्थापीने पुत्रादिक ने शिखामप्रापीने सर्वनगरलोकने सन्मानिने ५६ संथारप्रवज्यायंगीकार करीने यासासन्मुख
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशकोद्धारः ३५ थयोथको साधुनीपेठे त्रण थुए करीने चैत्यवांदे गर्गलोले स्वर जेनो एवो ५७ जो वली सङननु निषेधादिक कारण होय तथा चारित्रमोहनो उदय होय अथवा परदेश गएला पुत्रादिकने संदेशो कहेवामवो होय ५७ तो संथारक प्रव्रज्याने मरणकाले पण न ग्रहण करे ने अणसण करतो थको देशविरतिपणु तथा अविरतिपणु धारण करे एए जिनप्रतिमानी सत्तरनेदी पूजा यथाशक्तिए करीने नईतनुकरी एटले उनोथइने एकसो बाट काव्येकरी स्तवना करीने ६० माबोढींचण उँचो करीने जमणो ढींचण पृथ्वीए स्थापन करीने त्रणवार मस्तकने पृथ्वि तले श्रमामीने ६१ दशनखनेगाकरी अंजलि म. स्तके चढावीने शक्रस्तवकरीने जिननाथने वांदे 'नमु. बुणं' 'जाव संपत्ताणं' ए अंत सुधी एम चैत्यवंदन द्वार नामा चनदमो दार वखाएयो॥ तथा श्री अवंति थीरपुर राजनगर प्रमुखश्रीसंघना ज्ञाननंमागारोमा चतुर्दश पूर्वधर पंचमश्रुतकेवली श्रीनद्रबाहुस्वामी कृत वंदनपयन्नो तेमां पण साधु श्रावकने नद्देशीने नल्लष्ट त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कही ॥
तेपाठ-दवानावे समो करे णिचं जिणंदपमिमाणं पुरन विच्चा नाव पूत्रा साहुव संसुझा ३ महुरधुलिमकलित्रं संपत्ता मुक जाव जेध जिणा ठवणावं
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परिच्छेदः ७ दणहेक नावविसुधिसु इह गहिया १७ कारण उनकार्य अरिहंतचेश्य दमसंपढ वदणयाइ फल नस्सग्गे पुण हो जिणमुद्दा १ए चत्तारि अंगुलाई, पान पुरो हीण पडिमो जब विबारे जिणमुद्दा उवगळं अणुशाणं २० नगणवीसदोसवऊं शाणहरुदविमुक्कससाणं विग्गोसग्गे तिचा अहस्सासाजहोणं २१ पूरणमुयारेणं एगोसुधकरेण संथुत्ति एगसिलोगियअहवा वर्मृतिमूलनाहस्स २२ निनणोवमाइकित्ति सझुअगुणासुजेअलंयारा, ललि अकरेणपएण सरेणवणसाथुत्ति २३ अन्नेसुणंति सवे एगमणानसग्गमसंमि सायंतिधम्मसुकं तस्सव्धरं तिवाएगे २४ नामबयं च पन्हा कमइसमग्गसुवन्नाकलिन सबलोएअरिहंत चेईयाणंचसमग्गं वि २५ तनसर्गकिच्चा बित्तीया बिसिलोगियायश्हथुत्ति नपश्यहवावा माणाइसवजिणंदाणं २६ पुष्व॒त्तंकयविहिणा कर्मृतिसुत्तथवंचसंविगा सुअस्सलगवंताणं तस्सग्गतिनसुणसंथुत्ति २७ तत्तियाअहवावर माणासिलोगियायसुहवणा कम्माणनिकार; महयासदेणघोसंति २७ विचापुवविहिणा सक्कलयंकहजावपणिहाणं मुत्तासुत्तिमुद्दा धरेइसुहजोगसंपन्ना २ए
नावार्थः-श्रावक जे ते द्रव्यनो अनावसते जिनेंद्र प्रतिमाने आगल बेशीने साधुनीपेठे संशुम थई नित्य
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः १३७ नावपूजा करे ३ मधुर स्वरेकरीने अस्खलितपणे यावत् जिन मोद पाम्या त्यां सुधी शक्रस्तव नए. कारणके शहां स्थापना जिनवंदनकारणे एटले वांदवाने अर्थे नावविशुदि ग्रहण करी १७ तेमाटे कलकायकरीने एटले ननो थईने 'अरिहंतचेश्याणं' एदंझकनणीने वंदनादिकफलनेयर्थे जिनमुद्राएकानसग्गकरे १५ तेजिनमुद्रानुस्वरूपकहे के कानसग करती वखत बेपगना आगलनाग च्यारथांगुल पोहोला राखे ने पाउलथी अनुक्रमे हीन एटले च्यारयांगुलथी नबा अंतरवालो विस्तारे राखे तेने जिनमुद्राकहीए केमजे उपयोगने अर्थे एअनुष्ठान २० विज्ञ एटले निपुणपुरुषजेते जधन्यपणे अावश्वासोबा समान कानसग्गमां रहीने मेंगणीशदोषवर्जिने आतरौद्रध्याननो त्यागकरीने धर्मशुक्ल ध्यानने ध्याय २१ नमोअरिहंताणं कही कासगपारीने शुश्चक्षरेकरी एक नली थुइ एकश्लोके करीने अथवा अनवधती मूलनाथनी थु कहे २२ तेथु निपुण नपमादिके सहित कीर्ति तथा बतागुणोनु जेमां अलंकारे सहित वर्णन एवी तथा सुंदर अक्षरपदेकरी स्वरेकरी वर्धमान एवी ते थुइ जाणवी २३ एकजणकहे ने बीजा काउसग्गमा रहेला सर्व एकाग्रमनेकरीने सांनने धर्मशुक्लध्याननेधरे अथवा केटलाक तेथुइनो अर्थ
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२३८
परिच्छेदः ७
चितवनकरे २४ पढे नामस्तवकहेतां लोगस्स कहे समस्तसाराय दरेकरीने अस्खलितपदेकरीने पढी " सबलोएअरिहंतचेयाणं” एपाठ समस्तकहे जावत्वं दणवतीयाए त्यां पर्यंत २५ त्यारेपनी कानसग्गकरीने बीजी बे श्लोकनी इहां णवी अथवा वर्द्धमानादि सर्व जिनेंद्रनी थुइ कहेवी २६ संविग्र पूर्वोक्त विधिएकरीने सूत्र स्तव कहे एटले "पुरकरवरदें कहे " ने श्रुतनगवतन का सगमारही संस्तवेकरी स्तुतिकरे २७ अथवा त्रीजी वर्धमानादरनी त्रणश्लोकनी सारखेवर्णाक्षर जेमां एवी कर्मनिर्जरानेयर्थे मोटाशब्देकरिने कहेवी २८ पूर्वविधिकरी बेशिने शक्रस्तव कहे गुनयोगनेप्राप्तथयाउता मुक्ताशुक्तिमुद्राधारणकरीने यावत् प्रणिधानपाठपर्यत एटले जयवीयरा त्यां पर्यंत चैत्यवंदना करे २०
B
एप्रकारे श्रीमद्रबाहुस्वामिप्रमुख पूर्वधर पूर्वाचार्योंना ग्रंथोमां प्रगटपाठ देखवाथी समदृष्टि यपक्षपाति पुरुष तो निश्वय पोताना हृदयमां शोचकरेके पूर्वधारियोना वखतमां त्रण थुनी चैत्यवंदना चालती हती तो हवे पूर्वधारियोनी खाचरणानो निषेध करीएकांते चोथीथुइन चरणा करवी ए महानर्थनुं मूलबे तथापूर्वधर पूर्वाचार्योनी त्रणथुए करी चैत्यवंदनानी आचरणा निषेध करवावाला ने एकांते चोथि थुनी याचरणा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः ५३५ करवावाला आत्मारामजी प्रमुख पोताना मनमां एम नही शोचता हशे के अमारा जेवा तुडबुध्विाला थक्ने पूर्वधारियोनी याचरणानो निषेधकरीने केविगतीमां जश्शुं ! तथा पूर्वधरनिकटकालवी तथा पश्चात्काल वर्ती आचार्योना ग्रंथोमां पण विशेषप्रकारे चैत्यवंदना त्रणथुनी करवी कही ॥ त्यां प्रथम श्रीस्थंननतीर्थ प्रगटकर्ता नवांगवृत्तिकारक महाप्रनाविक श्रीअनयदेव सूरि कृत पंचाशकवृत्तिमां पूर्वधर अनुयायि व्यवहार नाष्य साहिए त्रणथुश्थी चैत्यवंदनानी सिद्धि, पूर्वपद उत्तरपरकरीने सारीपेठे निश्चितकरी.
ते पाठ-इह केचिन्मन्यते शक्रस्तव मात्रमेव वंदनं श्रावकस्य युक्तं जीवानिगमादिषु तन्मात्रस्यैव तस्थ विजयदेवादिनिः कृतत्वेन प्रतिपादितत्वात्तथाहि जीवाजीगमे विजयदेवेन राजप्रश्नकृते सरिकाजदेवेन जंबुद्दीप प्रज्ञप्त्यां शक्रेण ज्ञाताधर्म कथायां च द्रौपद्या शक्रस्तव मात्र मष्ठोत्तरवृत्तशतपागन्वितं वंदनं कृतमिति श्रूयते ततस्त दाचरित प्रमाएयात्तदधिकतरस्यं च गणधरादि कृतसूत्रे अननिधानान्न शक्रस्तवातिरिक्तं तदस्तीति अत्रोच्यते यतमाचरितप्रामाण्यादिति तदयुक्तं यतो यदिदं जीवानिगमादिसूत्रं तद्विजयदेवादिचरितानुवाद मात्रमेवेति न ततोऽधिकृतवंदनाछेदः कर्तुं शक्यस्तेषां
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२४०
परिच्छेदः ७ ह्यविरतत्वात्प्रमत्तत्वाच्च तावदेव तद्युक्तं. तदन्येषां पुनर प्रमादविशेषवतां विशेषनक्तिमतां तदधिकत्वेपि न दोषः यदि पुनराचरितमवतव्य प्रवृत्तिः कार्या तदा बहुन्यदपि कर्त्तव्यं स्याद्विधेयतयांगीकृतमपि च वर्जनीयं स्यातथाहि विजयदेवादिनिर्धारशाखाशालनंजिकादेहली स्तंनमंझपमध्यगतशास्त्रदपीठ सिंहासनपुष्करिएयादि पूजितं तथा जरतेन परिव्राजकवेषधारी मरीचिंवदितो चातुर्बधाय चक्रमुद्गी नगिनी प्रव्रजंती जोगार्थ विधृताद्रौपद्या पंचनारो विहिताः प्रदोशिना च राज्ञा सत्रागाराणि कारितानीत्येवमन्येनापि सर्वमेतद्विधेयं स्यामकृत्यमेवतदीयमालंबनीयमिति चेदेवंतर्हि विजयदेवादिनिः सिक्ष्प्रतिमास्नपनं स्वकीयपुष्करणीजलेन कृतमितींद्राणां जिनजन्मानिषेकस्तेनैव विधेयः स्यान्न पुनर्नानाविधतीर्थोदकमृत्तिकाकषायादिनिर्वि जयदेवादी नां वा पुष्करणीजलेन तन्नोचितं स्यादि रैन्यथा जिन जन्मस्नानस्य कृतत्वादिंद्राणां वा निर्वाणमऊनंहीरोदकेनैवन विधेयं स्याऊन्मनिःक्रमणमऊनयोस्तीर्थोदकादि निस्तैरेव कृतत्वात्तथा शक्रस्तवपागोचितवामजानोन्य स्तदक्षिणजानोरेव च विधेयः स्यादिंद्रादिनिस्तथा तस्य कृतत्वान्न पुनः पर्यंकासनस्थस्यानशनप्रतिपत्तिकाले मेघकुमारस्येव तथा तंउरष्टाष्टमंगलकानि कृतानि दे
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
वैस्तथैव बलिरन्येनापि विधेयः स्यान्न पुनर्विचित्रनम्त्यादिनिरेव मारात्रि कलवणावतारेण जलावतारणाद्यपि न विधेयं स्यादिद्रादिनिर्विहितत्वेन जीवाभिगमादिष्वननि हितत्वादिति यचोक्तंतदधिकतरस्य तस्याननिधानादिति तदयुक्तं " तिथि वाकई जाव थुइन तिसिलोइएइत्यादि” व्यवहारभाष्य वचन श्रवणात्साध्वपेचयातदिति चेन्नैवं साधु श्रावक यो दर्शनशुः कर्त्तव्यत्वाद्दर्शनशुद्धिनिमित्तत्वाच्च वंदनस्य तथा संवेगादिकारणत्वादश समाचरितत्वा गीतलणस्येहोयपद्यमानत्वाच्चैत्यवंदन नाष्यकारादिनि रेतत्करणास्य समर्थितत्वाच्च तदधिकतरमपि तन्नायुक्तं नच वाच्यं जाष्यकारादिवचनान्यप्रमाणानि तदप्रमाण्ये सथा गमानवबोधप्रसंगादावश्यकानुज्ञाते च चैत्यवंदनस्थानु ज्ञातत्वादावश्यकांतःपातित्वाचैत्यवंदन सूत्रस्येत्यलं प्रसंगेनेति गाथार्थः ॥
२४ १
अर्थ- हां कोई माने के एकशक्रस्तवमात्रज वंदना श्रावकने योग्य. जीवाजीगमसूत्रादिकोमां शक्रस्तवमात्रज वंदन विजयदेवादिके करवापणे करीने प्रतिपादन करवापणाथी. तेमज कहेडे. जीवानिगममां विजयदेवे रायपसेणिमां सूर्यानदेवे जंबूद्वीपपन्नत्तिमांशकेंद्रे, ज्ञातामां द्रौपदीए, शक्रस्तवमात्र, एकसोयाववृत्तपाठ सहित, वंदनकरयुं, सांगलीए बीए. तेमाटे तेना याच
३१
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२४२
परिच्छेदः ७ रितप्रमाणपणाथी तेथी अधिकतरनो गणधरादिके करेला सूत्रां कडं नथी तेथी नथी शक्रस्तवथी अधिक ते चैत्यवंदन, एटले शक्रस्तव कहेवो एटलुंज चैत्यवंदन डे अधिक नथी एवं कहे तेने इहां कहेले के, जे तमें का सूत्र, प्राचरणाप्रमाणथी. एटखंज चैत्यवंदन ते कहे अयुक्त केमके जे जीवानिगमादिसूत्र ते विजयदेव चरितानुवादमात्रज . ते अधिकारप्राप्त वंदननु बेद करवा समर्थ नथी. केमके तेने अविरतपणाथी वली प्रमादपणाथी तेटलुंज युक्त. ते विना बीजा अप्रमादी विशेषनक्तिवंतोने तेथी अधिक करवामां पण दोष नथी.
अने जो प्राचरितने बालंबनकरीने प्रवृत्ति करवी ते वारे तो बहु बीजुं कर्तव्य पण करवू पम अने अंगीकार करेलुं कोई कर्त्तव्य ते बोमवू पमशे तेमज देखामे बे. विजयदेवादिकोए द्वारशाखा १ शालनंजिका पूतली २ देहली ३ थांनो ४ मंझपमध्यगतनाग ५ शस्त्र पद ७ पीठ - सिंहासन ए पुष्करणी वाव १० इत्यादिक पूज्यां ते पूजवां पमशे. तथा जरते मरीचि परिवाजकने वांद्यो १ नाइने बधकरवा चक्र मूक्युं २ पोतानी बहेनने दीक्षालेतीने जोगार्थे राखी. ३ द्रौपदीए पांचनरतार करचा. प्रदेशिए दानशाला करावी तो एटलां पण करवा योग्य थशे. अने जो कहेशो के, धर्मकार्यज लेवां,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २४३ संसारनां न लेवां. तेज आलंबन योग्य. एम तमारु कहे तो विजयदेवादिकोए सिप्रतिमाने. स्नान पोतानीपुष्करणीवाव्यनाजलेकरीने कराव्युं तो, बीजा इंद्रोने जिनजन्मानिषेक ते जलेकरीनेज करावयु होय पण इहां नानाप्रकारना तीर्थोदकमृत्तिका कषायादि नंषधीए करयु.अने विजयदेवादिकोए पण पुष्करण्या दिजले कस्युं तेनजोइए. अने इंद्रे जिनजन्मादिस्नान बीजीरीते कराव्युं ते नजाइए. पुष्करणीजनेज कराव्यु जोइए.अने इंद्रादिके निर्वाण,मऊन,दीरोदकेज कराव्यु ते करवायोग्य न होय,अने द्रादिकेतो जन्मनिक्रमणनं स्नान तीर्थोदकादिकेज कराव्युंडे, तेथी तथा शकस्तव पाठ, अंचित माबोढींचण उंचो, जमणो नूमिए स्थापन करी, करवो थशे. केमके, इंद्रादिकनु तेमज करवापणु बे तेथी पण पर्यकासने रहेलो असणअवसरमांमेघ कुमारनी पेठे करवो नही थाय, तथा चोरवाए करी आठ
आठ मंगल ते देवतानए कस्या, तेमज बलि इत्यादिक पण बीजा करवा योग्य नहिथाय.वली अनेक नत्यादिके करीने भारति, लूण, नतारवेकरीने जलावतारणादिक पण करवां न थशे. इंद्रादिकोए करवापणे करीने जिवानिगमादिकमां कह्यां नथी ते हेतुमाटे तमारे ए सर्व करवां अयुक्त थशे, वली तमोए शक्रस्तवथी अधिकतर चै
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२४४
परिच्छेदः ७
त्यवंदना शास्त्रमांकरवी कही नथी एम कह्यु ते प्रयुक्त बे. केमके " तिन्नि वा कइ" एटले त्रण थुइ चैत्यमां कवी कही ए व्यवहारजाप्यनुं वचनसांनलवाथी; यागममां शक्रस्तवथी अधिकविधिबे. ने जो तमो कहेशो एतो साधुनी अपेक्षाए कह्योबे, ए पण न कहो. साधुने
श्रावक दर्शनशुछिनु कर्त्तव्य पपुढे. तेथी वंदनने दर्शनशुछिनुं कारण बे तथा संवेगादि कारणपएं बे तथा शठ एटले गोतार्थे समाचरितपणाथी जीतल एनु इहां अंगीकारपण बे. तेथी चैत्यवंदननाष्यकारादिके ए वंदनने कारणप कह्युंडे तेथी ते जीवानिगमादि के कहेलाथी अधिक वंदननुं प्रयुक्तपणु नथी. एटले अधिककर पण योग्य वली एम पण न बोलवं. जे जाष्यकारादिकनां वचन प्रमाण नथी. केमके तेनां वचन
प्रमाणये सर्वप्रकारे श्रागमनो बोध न थाय ए प्रसं गधी बोधिपथाय ने चैत्यवंदननुं वली श्रावश्यक श्राज्ञामां अनुज्ञापणुं बे तेथी वली श्रावश्यकना अंतःपातिपणाथी चैत्यवंदनसूत्रनुं ज्ञापनडे. माटे प्रमाण करवु, बहु प्रसंग कहेवेकरीने सर. ए गाथार्थः ॥ ५० ॥
ए पंचाशकवृत्तिकार श्रीश्रनयदेवाचार्यनुं पांमित्यप ाजसुधि सर्वजैनमति साधु श्रावक स्वगच पर
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
२४५
मां प्रसिद एयाचार्ये हजारो ग्रंथनी रचना करी . तेमां कोइ पण ग्रंथमां कोइ शंकित वात देखवामां यावती नथी सर्वशंकान्नु समाधानकरीने. पूर्वधरश्रनुयायी रचना करी. ए प्राचार्यना रचेला ग्रंथ वांचवाथी ज शंका करवावाला वादी प्रतिवादीयोना मद दूर थ जाय. ए वार्ता कोइ पण समजवान जैनीथी नामंजूर थती नथी तो शक्रस्तवथी अधिक चैत्यवंदना नहि मानवावाला पूर्वपदीने साधु श्रावक बेचने दर्शनशुछिनुं कर्तव्यपणु बतावी. शक्रस्तवथी अधिकचैत्यवंदना व्यवहारजायनी गाथाए सिकरेली त्रणथुनी संपूर्ण चैत्यवंदना, कोणसमदृष्टि नामंजूरकरे. अर्थात् समदृष्टितो नामंजूर नकरे, मिथ्यादृष्टि करे, तेनी ना नही. तथा न्याय सरस्वतीबिरुदधारक श्रीमदुपाध्याय श्रीयशोविजयजीशोधित श्रीविजयानंद सूरिशिष्य पंमितश्रीशांतिविजयगणिचरणसेविमहोपाध्याय श्रीमानविजयगणि विरचित स्वोपज्ञधर्मसंग्रहवृत्तिमां बहुकाल यायतनचैत्यस्थितिदोषाधिकारमां वईमान त्रणथुइथी मध्यम तथा उत्कृष्ट चैत्यवंदना कहीले.
पाठ - बहुकालं हि चैत्यायतनेवस्थितिर्दोषाययत उक्तं साधूनुद्दिश्य व्यवहारभाष्ये जवि न याहाकम्मं जत्तिकयं तह विवद्धिखं तेहिं नत्ती खजु होइ कया
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२४६
परिच्छेदः ७ जिणाण लोएवि दिलंतु १ बंधित्ता कासवन वयणं अहपुमसुक्ष्पोत्तीए पबिवमुवासए खलु वित्तिनिमित्तं नया ईवा २ पार्थिवस्थानीयायास्तीर्थकरप्रतिमाया नक्तिनिमित्तं चैत्यायतनं साधवः प्रविशंति नतु तत्रैव तिष्ठति इति तदृत्तिः कुत इत्याह उझिंगंधपरिस्सावी तगुरप्येसन्हाणिया हावानपहो चेव तेण तंति न चेइए ३ तिन्नि वा कहई जाव थुइन तिसिनोइया ताव तब मणुणायं कारणं परेणवि ४ तिस्त्रः स्तुतयः कायोत्सर्गानंतरं या दीयंते ता यावत्कर्षति जणतीत्यर्थः किंविशिष्टाः तत्राह त्रिश्लोकिकाः, त्रयः श्लोकाः बंदो विशेष रूपा आधिक्येनयासुतास्तथा सिहाणं बुझाणमित्येकः श्लोको, जो देवाणवि, इति द्वितीयः एक्कोवि नमो कारो, इतितृतीयः तावत्कालमेव तत्र जिनमंदिरेऽनुझातमवस्थानं यतीनां कारणेन पुनर्धर्मश्रवणाद्यर्थमुपस्थितनविकजनोपकारादिना परतोपि चैत्यवंदनाया अग्रतोपि यतीनामवस्थानमनुज्ञातं शेषकाले साधूनां जिनाशातनादिनयान्नानुझातमवस्थानं तीर्थकरगणधरादिजिस्ततो व्रतिनिरप्येवमाशातनाः परिहियंते गृहस्थैस्तु सुतरां परिहरणीया इति पुनस्तत्रैव जीर्णपुस्तिकायां 'श्क्कोवि नमुक्कारोति' तृतीयोपरि पर्यायपातः॥ एतयो
वार्थः साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठति अथवा चैत्यवंदनां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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त्यशक्रस्तवाद्यनंतरं तिस्रः स्तुतयः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रधानार्थं यावत्कर्षैति प्रतिक्रमणानंतरं मंगलार्थ स्तुतित्रयपाठवत्. तावचैत्यगृहे साधूनामनुज्ञातं निःकारणं न परतः सिद्धादिश्लोकत्रयमात्रांतपाठे तु संपूर्णवंदनानाव एव प्रसति श्लोकत्रयपाठानंतरं चैत्यगृहेऽवस्थानाननुज्ञातेन प्रणिधानाऽसद्भावात् नणितं चागमेवंदनांते प्रणिधानं यथा 'वंद नमंसइ' इति सूत्रवृत्ती वंदते ताः प्रतिमाश्चैत्यवंदन विधिना प्रसि-देन नमस्करोति. पश्चाप्रणिधानादियोगेनेति तिस्राः स्तुतयोऽत्र प्रणिधानरूपाः ज्ञेयाः सर्वथा परिभाव्यं यत्र पूर्वापरविरोधे प्रवचनगांभीर्यमुत्कानिनिवेशमिति संघाचारवृत्ताविति ॥
·
जाषा -- बहुकालसुधी चैत्यमां रहेतुं ते दोषनणिज निश्वे जे माटे कह्युंडे. साधूने उद्देशीने एटले साधूने अधिकारे व्यवहारभाष्यमां जोपण चैत्य प्राधाकर्मि नथी केमके क्तिकृत तोपण ते चैत्यमां साधूने नरेहवं केमके, जिनराजनी निश्चेकरीने नक्ति करी होय माटे लौकिकदृष्टांत कहे, ते दृष्टांत एमबे के, हजाम एटले घांयजो ते राजानी हजामत करवाजाय तेवारे पोताने मुखे यात पुमनो मुखकोश बांधीने पढी ते राजानी उपासना एटले हजामत निश्वे करे, याजिविकानेर्थे
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परिच्छेदः ७ जयादिक राखे. तेम इहां पण एदृष्टांत जाणवू के, राजाने काणे तीर्थंकरप्रतिमा तेनी जक्तिने अर्थे देरामां साधु जाय पण त्यांज न रहे. शा माटे त्यां न रहे ते कहे बे के, ए शरीरने मरजीयावे तेटलो स्नानकरावो तोपण एमांथी रनिगंध परसेवो फरे. तथा अधो वात ते अश्वात नईवात ते श्वासोश्वास ए बेए शरीरमांथी वहे. ते माटे साधु देरामां न रहे. रहे तो आशातना लागे. अने जो रहे तो त्रण थुश्यो कानसग्गने अनंतर एटले कानसग्ग पारीने जणिये त्यां सुधी ते थुइन केवी के त्रण श्लोकनी ले. त्यां कहे त्रण श्लोक प्रमाणनी त्रण श्लोक बंदोविशेषरूप अधिक पणे करीने जेने विषेले तथा 'सिझा बुझाणं' ए एक श्लोक. बीजो 'जोदेवाण विदेवो.' त्रिजो 'एक्कोविनमुक्कारो.' ए त्रण श्लोककहे त्यां सुधी एटले एटलो काल त्यां जिन. मंदिरमा रहेवानोज तिरोने देखाड्यो एटले त्रण थुइ कहे त्यां सुधी जिन मंदिरमा रहवानी आझाले. अने वली कारणे अधिक पण रहेवानुं का. ते कारण देखा मेले के नविकलोक धर्मसांजलवादिकने अर्थे बेसे तो उपगारादिक जाणी, अधिक पण जतियोने रहेवानी
आझाले.अने एकारण विना साधुनने जिन आशातना दिकना नयथकी तीर्थ करगणधरादिके आज्ञा नथी प्रा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
२४
पी माटे साधु पण एम प्राशातना टालेबे तो, गृहस्थो ने तो अवश्य नजीरीते श्राशातना वर्जवीज एमां शुं अधिकते.
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झिगंध. ए वे गाथानो नावार्थ ए वे साधु जे बे ते चैत्यमां न रहे. अथवा चैत्यवंदनने यंते शक्रस्तवादि कहने नजीक थुइयो श्लोकत्राप्रमाणनी एवी प्र विधानने श्रर्थे ज्यां सुधी पढे, जेम पक्किमणाने अंते मंगलने पर्थे णथुइ पढे तेम, इहां पण पढे त्यां सुधी चैत्यगृहमां साधुने रहेवानुं कह्युंडे. कारणविना अधिक न रहेतुं ने जो कोइ लोगस्स १ पुस्करवरदी २ सिबुदा ३ ए त्रज थुइ एवो अर्थ कहे तेने कहे बे के सिन्हाviबुझाए त्रण श्लोकसुधीज पाठ कहेवो. तेमांतो संपूर्णवंदनानो यन्नाव एटले संपूर्णवंदना न थाय. अने उनयकाले तो चैत्यमां संपूर्ण वंदना कहे तो तेनानावनो प्रसंगथयो. केमके, त्रणश्लोकना पाठ पढी चैत्यमां न रहेवुं ए आज्ञा तेणे करीने प्रणिधाननो सद्भावथयो तेथी ए अर्थ केम घटे ने यागमम तो एम कह्युं बेके, वंदनाने ते प्रणिधान, जेम वंद नमंस ए सूत्रनी वृत्तिमां, वांदे ते प्रतिमानुने, चैत्यवंदनविधिए करीने, प्रसिद्ध नमस्कार करे पढी प्रणिधानादिक योगेकरीने, एक कहेवाश्री त्राणस्तुतियो इहां प्रणि
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२५०
परिच्छेदः ७ धान रूप जाणवी. एटले त्रण थुइ कहीने प्रणिधाननी त्रण गाथान कहेवी. त्यारे संपूर्ण चैत्यवंदना थाय. ए सम. स्तप्रकारे विचार.सिक्षाणं बुझाणं ए त्रण गाथा कहे त्यां सुधीज रहेवानी अाझा नथी पण अधिक रहेवानी आझा ने तेथी इहां अनिनिवेश एटले कदाग्रह मूकीने.प्रवच ननुं गांनीर्यपणुं ने तेथी पूर्वापर विरोध टाली सर्वथाप्रकारे विचारवं. केमके श्हां त्रण थुइ आगत प्रणिधाननी त्रण थुइन मानियेतो, प्रणिधानप्रागममां कह्यं ते वचन केम मनाय. माटे संपूर्ण वंदना प्रणिधान पर्यंत त्रणश्लोकसुधी जाणवी.
इहां कायोत्सर्ग अनंतर एटले ज्ञानस्तवना कायो त्सर्ग अनंतर त्रीजीथुश्त्रण श्लोकनी बंदविशेषरूपेमा धिक्य करीने कही. ते पहेली अरिहंतचैत्य निश्रित एक श्लोकनी, बीजी सर्वचैत्यनिश्रित बे श्लोकनी, त्रीजी श्रुतनिश्रित त्रणश्लोनी; अथवा पद अदादिके आवश्यकचूर्युक्त वईमानथुइ जाणवी. तथा सिक्षाणंबुाणं तेनी त्रणश्लोके थुइ कही ते कोक आचार्य श्रुतस्तव कायोत्सर्गने अनंतर त्रीजी चूलिकास्तुति कहीने सिमा पांबु-हाणं कही पड़ी बेशीने शक्रस्तव जावंतिप्रमुखस्तोत्र प्रणिधानपर्यंत देववंदन करेडे, ते अपेक्षाए कहीजे. ते पाठ प्रसंगे आगललखाशे. तथा धर्मसंग्रहनी जुनी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २५१ प्रतमा एक्कोवि नमुक्कारो इति तृतीय ए वाक्यनी ऊपर पर्याय पाठ, संघाचारवृत्तिनो, तेमां सिझादिश्लोकत्रण सुधी, केइ चैत्यवंदना माने. तेना निराकरणनेप्रर्थे या. वत्शब्दथी शक्रस्तवादिस्तोत्र प्रणिधानपर्यंत उत्कृष्ट चैत्यवंदना थाय. एटले त्रण ध्रुव श्रध्रुव थुइ कही. शक्रस्तव जिनमुनिवंदन स्तोत्रप्रार्थना प्रणिधानपर्यंत त्रण थुसहित उत्कृष्टचैत्यवंदनासुधी, नत्सर्गे साधु चैत्यमां रहे. कारणे अधिकपणे रहे. एपरमार्थग्रंथकारे जणाव्यो बे. हवे विचारकरवोजोइए के-पूर्वोक्तपूर्वधर तथा पूर्वधर अनुयायिपूर्वाचार्योना ग्रंथोमां विशेषप्रकारे विधिपूर्वक चैत्यवंदनानो प्रगटपाठ देखीने जो कोई त्रण थुइनी चैत्यवंदनानो निषेध करे तेने जैनमतनी श्रझारहित शिवाय बीजा कियाशब्देकरी बोलाववो ने एवा एवा मोटा मोटा महाशास्त्रोना प्रगटपात जे तोपण यात्मारामजा आनंदविजयजीने देखवामां आवता नथी ए कर्मनी विषमगति ले तो हवे बीजुंशुं कहे ?
• इति चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारेऽपरनानि चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयजेदनकुठारे पूर्वधरपूर्वधराऽनुयायिकत त्रिस्तुतिचैत्यवंदनानिदर्शनो नाम सप्तमः परिच्छेदः ॥७॥
प्रश्न-जघन्यमध्यमउत्कृष्टत्रणनेदनी चैत्यवंदना त
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२५२
परिच्छेदः ७ था नवप्रकारनी चैत्यवंदना पंचांगिमा पूर्वधर तथा पूर्व-. धरअनुयायिग्रंथोमां कहीनथी. ते तमे केम मानोबो? ___ उत्तर-हेपूर्वापरविचारयज्ञ “कुवामां होय ते हवामामां आवे" तेमपंचांगी तथा पूर्वधरोना ग्रंथोमां सामान्यवचने विधि होय तो, विशेषवचने करी अन्यग्रंथकार पूर्वधरअनुयायि खुलासो करे, पण सामान्ये विधि न होय तो “ग्रामंनास्तिकुतःसीमा” ए न्यायथी अन्य ग्रंथकार विशेषविधिनो खुलासो क्याथी करे. माटे जघन्यमध्यमनत्कृष्टनेदे त्रणथुश्नी चैत्यवंदना कोइकाणे जघन्यनेदे, कोइकाणे मध्यमनेदे अने कोइठेकाणे नस्कृष्टनेदे, पंचांगीमां पूर्वधरे दर्शावी. ते प्रमाणे पूर्वधर वर्तमानकालवर्ति तथा पश्चात्कालवर्ति, आचार्योए जघन्यमध्यमउत्कृष्टत्रणनेदनी तथा नवनेदनी चैत्यवं. दनानी संकलनाकरी, ते दर्शावीए बीए.
प्रथमरायपसेणि जीवानिगमादिसूत्रोथी जघन्यमध्यमनत्कृष्टनेदे चैत्यवंदना सिध्यायो.
तेपाठ-धूयं दानणं जिणवराणं असयंविसुई गंथजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहिं संथूण सत्तठपयाई पच्चोसक्कइश्वामं जाणुअंचे दाहिणं जाणु धरणितलंसि तिकट्ठ तिखुत्तो मुझाणं धरणितलंसि णिवोमेत्ति इस
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २५३ पन्नूए णम इसिं पञ्चुए एमित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मबए अंजलिकटु एवं वयासी एमोबुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणंद मंस॥
नावार्थ-जिनवरजणी धूपदेइ, एटले सर्वद्रव्य पूजावि धिकरीने अतिशुह एटले दोषरहित जेना शब्दोनी तथा अर्थनी रचना एवां तथापुनरुक्तिवगेरे दोषरहित सारयुक्त अर्थरचनासहित मोटा वृत्तना देवलसिप्रनावगनित सुंदरस्तोत्रवते स्तुतिकरे. स्तुतिकरीने पनी सात
आठ पगलां उपरांठा नसरे नसरीने एटले पाडां पगलां नरे नरीने माबो ढींचण थोमो उँचो राखे जमणो ढीचण नूमीतलने विपे स्थापे.त्रण वेला मुस्तक नूमितले लगामे. लगामीने कांइक मुस्तक नॅचुं करे. चुं करीने बेठ हाथे प्रावतप्रददाणारूप मुस्तके अंजलि करीने एम बोले. अरहंतनणी नमस्कार थान. जावत् ठाणं संपत्ताणं पाठ त्यां लगे नमोथुणं कहीवांदे नमस्कार करे.ए पाठमां अठ सयं विशुई ए पाठथी तथा “नमुचणं" “जाव संपत्ताणं” ए पाथी जघन्यचैत्यवंदना दर्शावी तेमज कपु. संघाचारादि ग्रंथांतरोमां नमोअरिहंताणं इत्यादि एक श्लोकरूपे करीने तथा जातिनिर्देशथी बहुनमस्कारे करीने अथवा प्रणिपात एटले नमुबुणं
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२५४
परिच्छेदः ७ दमके करीने, जघन्यचैत्यवंदना थाय. अने वंदइ नमसइए पातथी, नत्कृष्ट चैत्यवंदना दर्शावी, तेमज कांडे. श्रीमलयगिरिजीकृत रायपसेणिप्रमुखनी वृत्तिमां वांदे ते प्रतिमानने प्रसिझ चैत्यवंदनविधिए करीने पनी नमस्कार करे. प्रणिधानादियोगे करीने एवचनथी ज्यां प्रणिधान त्यां उत्कृष्ट चैत्यवंदना जाणवी. अने “आचंतयोग्रहणे मध्यमपिग्रहणीयं" एन्यायथी मध्यमा चैत्यवंदना पण सूत्रसिह जाणवी.
यजक्तं ॥ श्रीपर्वधराचार्यरुत वंदनकप्रकरणे नकोसाविहि एसा नवयारेणय जहासंगहिया मसिम अ
गनेया ऐया सुत्ताणुसारेण ३४ इहां जघन्य तथा उत्कृष्ट चैत्यवंदनाना मध्यमे मध्यमा चैत्यवंदनाना अनेकनेद दर्शाव्या तेथी त्रणथुश्थी नवप्रकारनी चैत्यवंदना पण पंचांगीथी सिझ थायजे. तथा रायपसेणि प्रमुख सिद्धांतोमा पूर्वोक्तन्यायथी,जघन्य,मध्यम, नत्कृष्ट नेदे सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना कही. तेमज श्रीनद्र बाहुस्वामीकृत पूजापयन्नामां चत्तारिगाहाहिं चेश्यवंदण सकबव गाहजुत्तो य इत्यादि त्रण गाथा जघन्यचैत्यवंदना अने निस्सकममनिस्सकम ए गाथा श्रीकल्पजाप्योक्त तेनो पूर्वे अर्थ लरव्योते. तेमां सर्वजिनचैत्यमां त्रण थुइ कहेवी कही. ते मध्यम चैत्यवंदना तथा पूर्वे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २५५ अर्थपाठ सहित लखाइ आवेली, श्रीव्यवहारनाष्यनी गाथामां, तिनि वा कह थुए वाक्यथी त्रएर थु प्रणिधानपर्यंत उत्कृष्ट चैत्यवंदना ए पूर्वोक्तत्रणे चैत्यवंदनानी एकत्र संकलना श्रीनद्रबाहुस्वामीकृत वंदन पयन्नामां बे, एरीते विशेष प्रकारे, पूर्वधरकृत ग्रंथोमां जघन्यमध्यम नत्कृष्ट त्रणजेदनी चैत्यवंदनाने अनुसारे पूर्वधर वर्तमानकालवर्ति जिनशासनननोमणि श्वेत पहाचार्य श्रीहरिनद्रसूरिजी पण श्री पंचाशक प्रकरणमा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट त्रणनेदनी चैत्यवंदना लखे जे. ते प्रकरणनी टीका कर्त्ता सुविहितशिरोमणि नवांगवृत्ति. कारक श्रीमत्यनयदेवसूरिजी वंदन पंचाशकमा जघन्य १ मध्यम ५ उत्कृष्ट ३ चैत्यवंदना त्रण थुश्थी लखे .
ते पाठ-पवकारणजहन्ना दंडगथुइजुबानमनि माणेया संपुन्नानक्कोसा विहिणा खनुवंदणा तिविहा १
व्याख्या-नवकारमाह ॥ ॥नमस्कारेण सिह मरुयमणिंदियमक्कियमणवधमनुयंवीरं पणमामि सयलतिहुयण मन्वयचूमामणि सिरसेत्यादि पाठपूर्वकनमस्क्रिया लक्षणेन करणजूतेन क्रियमाणा जघन्या स्वल्पा पाक्रिययोरल्पत्वात्वंदना नवतीति गम्यं. मुत्कर्षादित्रिनेदमित्युक्त्वापि यऊपन्यायाः प्रथमानिधानं तदादिशब्द स्य प्रकारार्थत्वान्नऽष्टं. तथा दंडकचा रहंतचेश्याणमित्या.
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२५६
परिच्छेदः ७ दि स्तुतिश्च प्रतीता तयोर्युगलं युग्ममेत्तएव वा युगलं दंझकस्तुतियुगलमिह च प्राकृतत्वेन प्रथमैक वचनस्य तृतीयैकवचनस्य वालोपो दृष्टव्यो मध्यमाजघन्योत्कृष्टा पाक्रिययोस्तथाविधत्वादेतच व्याख्यानमिमां कल्पनाप्यगाथामुपजीव्य कुवति ॥ तद्यथा ॥ ॥ निस्सकमम निस्सकमेवावि चेए सवहिं थुइ तिणि वेनंबचेईयाणि वि नावं इक्विक्किया वावि ॥ ॥यतो दंमकावसाने एका स्तुतिर्दीयते इतिदंझकस्तुतिरूपं युगलं नवति।अन्यत्वाहुः दमकैः शक्रस्तवादिनिः पंचनिः स्तुतियुगलेन च समयनाषया स्तुतिचतुष्ठयेन च रूढेन मध्यमा ज्ञेया बोधव्या । तथा संपूर्णा । परिपूर्णा सा च प्रसिदमकैः पंचनिः स्तुतित्रयेण प्रणिधानपाठन च नवति । चतुर्थ स्तुतिः किलार्वाचीनेति किमित्याह । नत्कृष्यतेत्युत्कर्षा उत्कृष्टा इदं च व्याख्यानमेकेति तिणि वा कम्इ जाव थश्न तिसिलोगेया ताव तब अणुणायं कारणेण परेण वीत्येतांकल्पनाष्यगाथा पणिहाणं मुत्तसुत्तीए इतिवचन माश्रित्य कुर्वति । अपरेत्वाहुः । पंचशक्रस्तवपाठोपेता संपूर्णेति। विधिना पंचविधानिगमप्रदक्षिणात्रयपूजादि लक्षणेन विधानेन खलुक्यालंकारे अवधारणे वा तत्प्रयोगं च दर्शयिष्यामः । वंदना चैत्यवंदना त्रिविधा त्रिनिःप्रकारैरेव नवतीति.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः
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अस्य नावार्थः -- नमस्कार सिमरुय इत्यादि पाठपूर्वक, नमस्कार लक्षण, करणनूतकरीने क्रियमाण नमस्कार, जघन्यवंदना, होय. पाठक्रियाना अल्पपणाथी, उत्कृष्टादित्रणनेद एवं कहीने पण प्रथम जघन्यनुं कथन करधुं ते यादि शब्दनो प्रकारार्थ होवाथी पुष्ट नथी. ए जघन्य चैत्यवंदना तथा दंमक अरिहंतचेइयाणं इत्यादि वली थुबे ते प्रसिधबे. ते बेजनुं युगल जोमनुं प्रथवा तेज दंमकस्तुतिनु जोमलुं ते दंमकस्तुति युगल कहेवाय इहां प्राकृतभाषा होवेकरीने, प्रथमाविनक्तिना एकवचन अथवा तृतिया विभक्तिना एक वचननो लोप जाणवो. ए मध्यमपाठ क्रिया ना होवाथी मध्यम चैत्यवंदना, ए व्याख्यान, ए कल्पनाप्यनी गाथाने अंगीकार करी करेबे, ते कहेते. निश्राकृत प्रनिश्राकृत सर्व जिनमंदिरमां त्रण थुनी चैत्यवंदना करवी जो सर्व जिनचैत्योमां त्रण थुइनी चैत्यवंदना करतां घणो काल लागशे एम जगाय ने जिनचैत्य घणां होय त्यारे एक एक जिनचैत्यमां एकेक थुनी चैत्यवंदना करे. एहेतुथी दमकना अवसानमां एक एक स्तुतिदिजीए ते दंगक स्तुतिरूप युगलथाय अन्य एम कहे. दंमक, शक्रस्तवादिक पांचकरीने अने स्तुतियुगलकरी संकेतनाषा करीने स्तुतिच्यार रुढीए करीने जो चैत्यवंदना करे ते
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२५७
परिच्छेदः ७ मध्यमचैत्यवंदना जाणवी २ तथा संपूर्ण एटले परिपूर्ण वंदना तो प्रसिह दमक पांच अने स्तुतित्रणे करीने वली प्रणिधान पाते करीने थाय ने. चोथी थु निश्चे नवीन. केम नवीन. ते कडे अतिशय उत्कर्षते उत्कृष्टा कहीए. ए व्याख्यान को आचार्य त्रण स्तुति त्रण श्लोकनी श्लोक त्रण प्रमाणे ज्यां सुधी चैत्यवंदना करीए त्यां सुधी जिनचैत्यमां साधुने रहेवानी आज्ञा बे. अने कारण होय तो उपरांत पण रहे. इत्यादि व्याख्यान आ कल्पनाष्यनी गाथा “ पणिहाणमुत्तसुत्तिए” एटले प्रणिधान जयवीयराय ए पाठ नत्कृष्ट चैत्यवंदनाने अंतेमुक्तासुक्तिमुद्राए कहेवो. एवचन आ. श्रिने करे . अपरथाचार्य एम कहेले के-पंचशक्रस्तव पाठ सहित संपूणे विधिकरीने पंचविध अनिगम त्रण प्रदक्षिणा पूजादिलक्षण विधान करीने, उत्कृष्ट चैत्यवंदना थायले. खलु शब्द वाक्यालंकारमा जे. अथवा अवधारणमां बे, तेनो प्रयोग आगल देखामीशु. एवी रीते चैत्यवंदना त्रणप्रकारे थाय .
ए पाठमां कल्पनाष्यगाथाना अनुसारथी दमकना अवसानमा त्रण थुइएकरी मध्यम चैत्यवंदनानुं व्याख्यान पूज्यपूर्वाचार्य करेले. तथा दमक पांच अने थुइ त्रण अने प्रणिधानपाठ सहित उत्कृष्ट चैत्यवंदनानुं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धारः २५० व्याख्यान पूज्य पूर्वाचार्य करे . अने अपराचार्य उत्कृष्ठवंदनाना व्याख्यानमां पंचशक्रस्तव अने पांच अनिगम त्रण प्रदक्षिणा पूजादि संयुक्त उत्कृष्टचैत्यवंदना नं व्याख्यान करे. ए त्रण व्याख्यान तो पूर्वधर पूर्वाचार्यनी सादीए टीकाकार सिकरे . अने अन्य कोइक तो, दमकपांच अने थुइ च्यार रूढीए करीने मध्यम चैत्यवंदनान व्याख्यान करेजे. ते तथा शब्देकरी मध्यमचैत्यवंदनानो पूर्व प्रकार त्रण थुझ्नो टीकाकार, सूचनकरी अने चोथीथुइ निश्चयथी नवीन कहीने, उत्तरप्रकारमा ग्रहण न करी अने व्यवहारनाष्य ने कल्प नाष्यनुं प्रमाण देने, त्रण थुश्थी नत्कृष्ट चैत्यवंदना सिह करी.
॥पूर्वपदः ॥ अन्येत्वाहुः ॥ एटले अन्य कोइकना व्याख्यानमां तो, सिक्षांतनाषाए करीने स्तुतियुगल अर्थात् च्यारस्तुतिरूढकरीने मध्यम चैत्यवंदनानु स्वरूप कडंडे तो, तमो संकेत भाषाए करीने युगलशब्दे थुइ च्यार केम कहोबो?
उत्तर-हेसौम्य जैनशास्त्रोमां चरितानुवादे, तथा विधिवादे, पूर्वाचार्योए युगलशब्दनो अर्थ युग्म तथा द्वित्वसंख्यावाचि लख्यो. तथा चोक्तं श्रीहरिनद्रसूरिनिः आवश्यकवृत्तौ पारिणामिकी बुद्ध्याधिकारे सुंदरीनंदक
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ४७३ ॥ उच्यते॥ श्रुतवासितमतेस्तत्स्वरूपझस्य तस्य ते नाव कल्पनया प्रत्यदा श्वेति कथं न साहिति॥तथा साधवो मुनयस्ते सातिशयज्ञानवंत इतरे वा विरतिप्रतिपत्ति समयसमीपवर्तिनः साक्षिणो यत्र तत्साधुसादिकं तथा देवता जवनपत्यादयस्ते जिननवनाधिष्टायिनस्तिर्यग लोकसंचारमवो वा विरतिप्रतिपत्तिक्रमनाविनश्चैत्यवंदनाद्युपचारात्समीपमुपगताः स्वस्थानस्थायी कथंचिद्दीप समुशन प्रति प्रयुक्तावधयः सादियो यत्र तदेवसादिकं ॥यदाह चूर्णिकारः॥ विरपडिवत्तिकाले चिश्वंदणागोवयारेणअवस्समहासंनिहीया देवयासन्निहाणंजव॥ अतोदेवसस्कियनणियं अहवा नवणवणजोइवेमाणिया देवा साणबा चेव अहापवन्नोवहिणा दीवं दीवपद्यवेहिं समुदं समुदपद्यवेहिं बहवेनारयतिरियमणुदेवेयवि विहनावसंपनत्तेपेन्चमाणासाहुं पिपाणाश्वाय विरइंपडिवद्यमाणं पेडति विसेसतिरियजनगादियारान दिसि विदिसि विदिसासु संचरंतत्ति।तथात्मा स्वजीवः स स्वसंविदितप्रत्यदविरतिपरिणामपरिणतः सादी यत्र तदात्मसादिकं इह च ससाक्ष्यं कृतमनुष्टानमत्यंतहढं जायत शते सादिणः प्रतिपादिताः पृथक् तेऽपि प्रतीतमेवै तद्यत सादिको व्यवहारो निश्चलो नवतीति ॥
॥नावार्थः ॥ ए पचकाण अरिहंतादिक पांचनी
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४५४ परिछेदः १३ सादीए थाय; ते पांच कया कया ए कहे जे.
१ अरिहंत एटने जेमणे बधा जाव प्रत्यद दीगडे तेवा तीर्थंकर नगवान् सादी बे. तेमां क प्रत्यय विधान अर्थवाची बे, तेथी "अर्हतसादिक" थयु. हवे अहंतसादिकं (प्रत्याख्यानं) ए क्रियाविशेषण , एवं बीजे ठेकाणे पण जाणवू. हवे आ देवना तथा बीजा देवना तीर्थंकरो उत्तम केवनझानरूपी प्रधान चक्षुवडे ते पच्चकाण करता मने जुए बे तेथीएसादी जे एम कहीएबीए.
२ एज रीते बीजा सिह नगवान सादी बे, ते प्रत्यद अतींद्रिय ज्ञान गोचर डे, तेथी तेमनुं सादीपणुं कहीए बीए; तेमना दिव्य झानवडे तेमणे पण बधा नाव प्रत्यद दी , तेथी सिहनगवान पण सादीरुप बे. इहां कोई अाशंका करेले के बेजणानने प्रत्यदलावें लोकमां सादि व्यवहारनी रुढीले ने अहियां पञ्चखाण करनारने तो सिह प्रत्यद नथी, कारण के ते अतीद्रिय झानगोचर ,तो तेन ते पञ्चरकाण करनारना सादी शी रीते कहेवाय ? ते आशंका दूर करवाने कहे जे के श्रुतथी वासित थएनी बुद्धिवाला अने सिनु स्वरूप जाणनार एवा पञ्चकाण करनारने जावनी कल्पनावडे सिह नगवान प्रत्यक्ष जेवाज ने तेथी तेन सादी केम न थई शके? सादी थायज.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ४५ ३ वली त्रीजा साधु साही, ते अतिशय ज्ञानवंत साधु मुनिराजो तथा बीजा मुनिराजो जे दिदा प्रतिपत्तिनी वखते नजीक होय तेन सादी ले.
४ चोथा देवता साक्षी, ते नवनपति विगेरे जेन जिनमंदिरना अधिष्टायक देवो अथवा लोकमां संचरवावाला देवो ते, तथा दिदा प्राप्तिनी वखते अ. नुक्रमे करातां चैत्यवंदन विगेरे उपचारथी नजीक प्रा. वेला देवो, एटले दिदा लेवाने अवसरे समवसरण विधि अनसारे श्री पंचाशकादि समवसरण थाहान मंत्रोपचारथी तथा ते अवसरे जिनपूजा करीने चैत्यवंदना अवसरे समष्टी देवोनी गुणवर्णनामत्मक स्तुति कहे जे ते विगेरे नपचारथी यावेला देवो, अथवा पोताने स्थाने रह्या बतां पण कोईपण रीते द्वीपसमुशेने अवधि झानथी जोता देवो ते देवसादी कहीए. वली चूमिकार पण एमज कहेजेः-विरति प्रतिपत्तिकाले चैत्यवंदनादि नपचारे करीने अवश्य नजीकरहेला देवता संनिधान होय तेथी देवसस्कियंकडं; अथवा नवनपति वाणव्यंतर, ज्योतिषि अने वैमानिक देवता, पोताने स्थाने रह्याज यथा प्रयुजित अवधिझाने करीने द्वीप,दीपपर्यवप्रति,समुझसमुझपर्यवप्रति घणा नारकी, तिर्यंच, मनष्य देवादिकोना विविध नावसंप्रयुक्त देखता थका
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४०६
परिछेदः १३
साधुने पण प्राणातिपात विरति प्रतिपद्यमानाने देखे; विशेषे तिर्यक् जुंनकदेव दिवसे तथा रात्रे दिशि विदिशिने विषे संचरे, तेमनी साक्षी ते देवसादी.
"
५ पांचमी आत्मसाक्षी ते ए के खात्मा एटले पोतानो जीव जेणे पोताना खरा स्वरूपने नलखीने विरति परिणामे परिणम्यो बे ते खात्मा जेमां साक्षी बे ते आत्मसाक्षी कहीए ॥ उपर लख्या प्रमाणे पांच साक्षी थाने या लोकने विषे पाटली साक्षी समछ करेतुं अनुष्टान अत्यंत दृढ थायडे तेथी साक्षी प्रतिपादन करचा, ते पण जूदा जूदा प्रतिपादन करचा. ए उपरथी एम.वर के ससादिक व्यवहार निश्चल थायले.
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ए पाठमां देवसादि कारणे चोथी थुइ सहित त्रण थुइनी चैत्यवंदना कही. तेमज विक्रम संवत ११६२ मां जयसिंहदेव नृप राज्ये श्रीमद्देवसूरिजीकृत जीवानुशासनवृत्तिमां उपव विनाशन अर्थे साधूने क्षेत्र दे - aari कायोत्सर्ग ने श्रावकने विघ्न विघातन कारणे समदृष्टि देवदेवीनी पूजा दृढ करीबे.
॥ ते पाठः ॥ तहबंन संतिमाइण केश्वारिंतिपयलाईयं तन्नेज सिरिहरिजद सूरिोणुमयमुत्तंच ॥ ९०९ ॥
॥ व्याख्या ॥ तथेति वादांतरनणनार्थोब्रह्मशांत्यादिनामं बिकादिपूर्ववत् यादिशब्दादबिकादिग्रहः केप्येके
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ४७ वारयति पूजनादिकमादिग्रहणाचेषएतदौचित्यादिया. ततत्पूजादिनिषेधकरणं नेति निषेधे यतो यस्मात् श्री हरिनासूरैः सिझांतादिवृत्तिकर्तुरनुमतमनीष्टं तत्पूजादिविधानं नक्तं च नणितं च पंचाशके इति गाथार्थः ॥॥ तदेवाह ॥ साहम्मियायएए महट्ठियासम्मदिष्णिोजेण एनोचियचियंखनु एएसिंश्वपूयाई॥प्रतीतार्थाः ॥ २०॥ न केवलं श्रावका एतेषामित्रं कुर्वति यतयोपि कायोत्सर्गादिकमेतेषां कुवतीत्याह ॥ विग्यविघायणहेर्नु जश्णोविकुणंतिहंदिनस्सग्गं ॥ खित्नाईदेवयाए। सुयकेवलिणाजन्नणियं ॥ १००१ ॥
व्याख्या॥ विघ्नविघातनहेतोरुपश्वविनाशार्थ यत. योपि साधवोपि न केवलं श्रावकादय इत्यपि शब्दार्थः कुर्वति विदधति हंदीति कोमलामंत्रणे उत्सर्ग कायोत्सर्ग देवादिदेवताया आदिशब्दाद्भवनदेवतादिपरिग्रहः श्रुतकेवलिना चतुर्दशपूर्वधारिणा यतो यस्माद्भजाणितं गदि तमिति गाथार्थः ॥तदेवाह॥ चाउम्मासियवरिसे नस्सग्गोखिनदेवताएय परिकयसेद्यसुराए करितिचनमासिएवेगे ॥१००२॥ गतार्था ॥3॥ ननु यदि चतुर्मासका. दिषु नणितमिदं किमिति सांप्रतं नित्यं क्रियत इत्याह॥ संपइनिचंकीरइ संनिशानावनविसिझान ॥ वेयावच्च गराणं श्चाविबहुयकाला ॥१००३॥
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एन
परिजेदः १३ व्याख्या॥ सांप्रतमधुना नित्यं प्रतिदिवसं क्रियते विधीयते कस्मात्सान्निध्यानावतस्तस्य करणादिशिष्टादतिशायिनो वैयावृत्त्यकराणां प्रतीतानामित्याद्यपि न केवलं कायोत्सर्गादीत्यऽपीत्यर्थः आदिग्रहणासंतिकराणामित्यादिदृश्यं प्रनूतकालात् बहोरनेहसतिगाथार्थः ॥३॥ ॥१००३॥ चंस्थिते किंकर्त्तव्यमित्याह । विग्यवि घायणहे चेईहररकणायनिचंपि ॥ कुद्यापूयाईयं एयागंधम्मवंकिंच ॥१००४॥
॥ व्याख्या ॥ विघ्नविघातनहेतोरुपसर्गानवारकत्वेन यात्मन इति शेषः चैत्यगृहरदणाच देवनवनपालनात् नित्यमपि सर्वदा न केवलमेकदेत्यपि शब्दार्थः कुर्यादि दध्यात् पूजादिकमादिशब्दात्कायोत्सर्गादिप्रकारः एतेषां ब्रह्मशांत्यादिनां धर्मवान् धाम्मिकःअयमनिप्रायो यदि मोदार्थमेतेषां पूजादि क्रियते ततोऽष्ट, विघ्नादिवारणार्थ वऽष्टं, तदिति किंचेत्यभ्युच्चय इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥१०॥ अभ्युच्चयमेवाह ॥ मित्तगुणजुयाणं निवाइयाकरितिपूयाईशहलोयकएसम्मत्त गुणजयाननगमूढा ॥१००५॥ • व्याख्या ॥ मिथ्यात्वगुणयुतानां प्रथमगुणस्थान वर्तिनां नृपादीनां नरेश्वरादीनां कुर्वति पूजादि अभ्यर्चनं नमस्कारादि इहलोककते मनुष्यजन्मोपकारार्थ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः एए सम्यक्त्वसंयुतानां दर्शनसहितानां ब्रह्मशांत्यादीनामिति शेषः न पुन नँव मूढा अझानिन इति गाथार्थः ॥
॥नाषा ॥ तथा शब्द वादांतर कहेवाने अर्थे बे. ब्रह्म शांत्यादिकनांमकार पूर्वनी पेठे प्रादि शब्दथी अंबिकादि ग्रहण करवां; केटलाएक एमनी पूजादिकनो निषेध करे ,आदिशब्द ग्रहण करवाथी शेष तेमने - चित ग्रहण करवा, तेमनी पूजा निषेध करवी योग्य नथी, केमके सिहांतादिक वृत्तिना कर्ता श्री हरिनासूरिजी महाराजने ब्रह्म शांत्यादिकनी पूजा उचित कृत सम्मत ने तेथीश्री पंचाशकजीमां तेमनां पूजादि विधान कह्यांडे. इति गाथार्थः ॥ ए०१ ॥ तेज कहे , ए ब्रह्म शांत्यादिक देव ते सम्यग् दृष्ठि ने, महा शहिवंत बे, साधर्मी डे, ते वास्ते एमनी पूजादि उचित कृत्य श्रावकोने करवां ए गाथा प्रसिझार्थ ॥ केवल श्रावक एमनी पूजादि करे, एम न समजवू, किंतु यति साधुपण एमना कायोत्सर्ग करे , तेज कहे ॥ विघ्नविघातन ते उपव विनाश करवाने अर्थे यति साधु पण क्षेत्र देवतादिकना कायोत्सर्ग करे , आदि शब्दथी जुवन देवतादिकनुं ग्रहण करते वास्ते केवल श्रावकादिकज एमनां उचित कृत्य करे जे एम न समजवं अपितु साधु पण कायोत्सर्ग करे . ए अपि शब्दनो अर्थ , केमके
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५००
परिच्छेदः १३ पूर्वोक्त कायोत्सर्ग करवा, ए कथन श्रुतकेवली श्रीनबाहुस्वामीए कांडे, ए गाथार्थ जे. ॥१००१॥ तेज कहे बे, चातुर्मासीमां,सांवत्सरीमा क्षेत्र देवतानो कायोत्सर्ग करवो, कोइक आचार्य चातुर्मासीमां पण नवनदेवतानो कायोत्सर्ग करे . ए गाथार्थ डे ॥ १००२ ॥ इहां कोई प्रश्न करेले के, जो चातुर्मास्यादिकमां देव देवतादिकना कायोत्सर्ग श्री जबाह स्वामीजीए कह्याने तो वली वर्तमान कालमां नित्य कायोत्सर्ग केम करोडो? ए प्रभनो उत्तर कहे ॥आधुनीक कालमां नित्य प्रतिदिवस जे क्षेत्र देवतादिकनो कायोत्सर्ग करेडे, तेनुं कारण ए बे के वर्तमानकालमां ते देवतानना सानिध्यना अनावथी अर्थात् पूर्वकालमां विघ्न याव्यां थकां यदा कदा एकवार कायोत्सर्ग करवाथी ते देवता नपश्वनाशनादि कार्य करता हता, अने अधुना कालमां काल दोषथी विघ्न आव्यां थकां यदा कदा कायोत्सर्ग करवाथी ते देव सानिध्य करता नथी, ते वास्ते नपश्व आव्यो जाणी ते दिवसथी मांडीने उपव विनाश थाय त्यां सूधी नित्य प्रतिदिन कायोत्सर्ग द्वारा जागृत करया थका ते देव सानिध्य करेले. ते वास्ते नित्य कायोत्सर्ग करे ते नित्य कायोत्सर्गना करवाथी विशिष्ट अतिशयवंत वैयावृत्त्यकरादि देव जे ने तेजागृत थायले उपव श्राव्यां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५०१ निःकेवल वैयावृत्त्य करवावाला देवताननाज कायोत्सर्ग नथी करता, किंतु आदि शब्दना ग्रहणथी शांति कराणं इत्यादिक पण ग्रहण करवा, तथा प्रनत कालात् अर्थात् बहु दिवस कायोत्सर्ग कस्याथी सांप्रतकालमां नपश्वनो नाश थाय ते वास्ते विघ्न संनव थयां पूर्वोक्त देवताना नित्य कायोत्सर्ग करेने ए गाथार्थ ॥१००३॥ एवी रीते स्थित सिह थयां शुं करवू ते कहे ॥ विघ्न विघातनने वास्ते प्रात्माने उपसर्ग निवारण होवाथी अने जिनगृहनी रक्षा करवाथी वली देवनवननी पालना करवाथी,नित्य ए देवताननी पूजा करवी जोइए.
आदि शब्दथी तेमना कायोत्सर्ग पूजा अवसरे करवा जोइए. कोने करवा जोइए? धार्मिक जनोने; इहां ए अभिप्राय डे के, मोदने अर्थे ए पूर्वोक्त देवताननी पूजा तथा कायोत्सर्गादि करे तो अयुक्त ने, परंतु विघ्न निवारणादिकने निमित्ते करे तो कांश अयुक्त नथी; उपश्व प्रवृत्ति निवारण होवाथी तथा उचित प्रवृत्तिने अर्थे पूजा तथा पूजा अवसरे कायोत्सर्ग करवा युक्तज , किंच शब्द अभ्युच्चयार्थमां ने ए गाथार्थः ॥१००४॥अभ्युचय शेष कहेवा योग्य जे राने, ते कडे ॥ मिथ्यात्व गुण सहित प्रथम गुणस्थानमां वर्त्तवावाला नरेश्वर जे राजादिक तेमने पजा प्रणाम रुप नमस्कारादिक करे ले ते
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५०२
परिजेदः १३ या लोकना प्रयोजनने अर्थे करेठे, परंतु सम्यक्त सहित सम्यग् दृष्टि ब्रह्म शांत्यादिक देवताननी पूजा प्रणाम कायोत्सर्गादि जे करे , ते कां मूढ अज्ञानी करता नथी ए गाथार्थः ॥१००५॥ ___एपाठमां आशय एवो संनवेने के पूर्वकाने पादिक चानम्मासी ने संवन्चरीना देवसिक प्रतिक्रमणना अंत नागमा अाझा निमित्त तथा कोई विघ्नादिक का. रण संनव थये, साधु देव देवी प्रमुखनो कायोत्सर्ग करता अने सांप्रत कालमां अाझा निमित्ते तो तेज पादिक प्रमुख दिवसमां देत्र नुवन देवीना कायोत्सर्ग करवा, पण विघ्नोपशामिनी पूजा प्रतिष्ठादिकारणे तथा विघ्न विनाश कारणे तो जे दहाडाथी पूजा प्रतिष्ठादिकनो आरंन थाय, तथा नपश्वादिकनो संनव थाय, ते दहाडाथी निरंतर देत्रदेवी प्रमुखना पण कायोत्सर्ग साधुबोने करवा; अने श्रावकजनने तोपूर्वकालमां तथा सांप्रतकालमां पूजादि विशिष्ट कारणे तथा विघ्न विनाश कारणे समदृष्टि देवताननी पूजा पूर्वकालमां करता तेम सांप्रत कालमां पण करवी. यऽक्तं चतुर्दशपूर्वधर श्री नबाहुस्वामीजी कृत पूजाप्रकीर्णे ॥ गाथा ॥ सम्मदि देिवपूया सढोकीरइसंघहेतणा उवदत्ववारणकङ पुणो जिणबिंबपश्वाय ॥५॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५०३ ॥जावार्थः ॥ संघने काजे उपव वारवाने अर्थे,तथा वली जिन बिंबप्रतिष्ठामां उपवादि वारवाने अर्थे, समदृष्टी देवनी पूजा श्रावक करे; तथा वली जीवा नुशासनना पूर्वोक्त पाठमां श्री देवसूरिजीए का के, पंचाशकजीमां ब्रह्मशांत्यादिकनी पूजाना विधान कह्या बे, ते पण प्रतिष्ठा पंचाशकमां श्री हरिज सूरिजीए प्रतिष्टा अवसरे कह्या बे, पण प्रतिक्रमणमां कार्योत्सर्गादि करवा कह्या नथी; ने श्री पंचाशकजीना योगपीसमा पंचाशकना पाठमां रोहिणी अंबिका प्रमुख देवियोना आराधन अर्थे तप प्रमुख कह्याने ते नोला लोकोने असत अभ्यास गोडावी सत अभ्यासमा प्रव विवाने कारणे एटले लौकीक मिथ्यात्व प्रवृत्ति गोडा वी लोकोत्तर प्रवृत्तिनो अभ्यास कराववा कह्या बे पण मोदार्थे कह्या नथी॥
॥तथाचतत्पाठः ॥ किंच अयोवियबिचित्तो तहा तहादेवयाणिनए मुजणाणहि खलु रोहिणीमाईमुगोयवो ॥२४॥ व्याख्या अन्यदपि अस्ति विद्यते चित्रं विचित्रं तप ति गम्यते तथा तथा तेन तेन प्रकारेण लोकरूढेन देवतानियोगेन देवतोदेशेन मुग्धजनानामव्युत्पन्नबुझिलोकानां हितं खलु पथ्यमेव विषयाभ्यासरूपत्वात् रोहिण्यादि देवतोद्देशेन यत्तशोहिएयादि मुणे
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५०४
परिन्जेदः १३ यवोत्ति ज्ञातव्यं पुल्लिंगता च सर्वत्र प्रारूतत्वादिति गाथार्थः ॥ देवता एव दर्शयन्नाह ॥ रोहिणिअंबातहमद पुणियासवसंपयासोका सुयसंतिसुराकाली सिकाइयातहाचेव ॥ २४ ॥
व्याख्या ॥ रोहिणी १ अंबा २ तथा मदपुएियका ३ सवसंपयासोकत्ति । सर्वसंपत् ५ सर्वसौख्याचेत्यर्थः ॥ सुयसंतिसुरित्ति ६ श्रुतदेवता ७ शांतिदेवताचेत्यर्थः ॥ सुयदेवयसंतिसुरा इति वा पागन्तरं व्यक्तं ७ च काली ए सिहायिका इत्येता नवदेवता स्तथा चैवेति समुच्चयार्थे संवाश्या चैवत्ति पाठान्तरमिति गाथार्थः ॥ ततः किमित्याह ॥ एमादेवयान पडुच्चअवनस्सग्गान जेचित्ता ॥ पाणादेसपसिक्षा तेसवेचेवहोइतवो ॥२५॥
व्याख्या।एवमादिदेवताःप्रतीत्यैतदाराधनायेत्यर्थः अवनस्सग्गत्ति अपवसनानि अवजोषणानि वा तुःपूरणे ये चित्रा नानादेशप्रसिझास्ते सर्वे चैव नवंति तपति स्फुटमिति तत्र रोहिणीतपो रोहिणीनदनदिनोपवासः सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावत्तत्र च वासुपूज्यजिनप्रतिमाप्रतिष्ठा पूजा च विधेयेति तथांबातपः पंचस पंचमीष्वकाशनादि विधेयं नेमिनाथांबिकापूजा चेति तथा श्रुतदेवतातप एकादशष्वेकादशीषूपवासो मौन व्रतं श्रुतदेवतापूजा चेति शेषाणि तु रूढितोऽवसेयानीति
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको हारः ५०५ गाथार्थः ॥ अथ कथं देवतोद्देशेन विधीयमानं यथोक्तं तपः स्यादित्याशंक्याह ॥जबकसायणिरोहो बंनंजिण. पूयणंअणसांच सोसबोचेवतवो विसेसनमुघलोयंमि ॥२६॥ ॥ व्याख्या ॥ यत्र तपसि कषायनिरोधो ब्रह्म जिनपजनमिति व्यक्तं अनशनं च नोजनत्यागः सोत्ति तत्सर्वं नवति तपोविशेषतो मुग्धलाके मुग्धलोको हि तथा प्रथमतया प्रवृत्तः सन्नभ्यासात्कर्मदयोद्देशेनापि प्रवर्तते न पूनरादित एव तदर्थ प्रवर्तितुं शक्नोति मुग्ध. त्वादेवेति सबुझ्यस्तु मोदार्थमेव विहितमिति बुद्धयैव वा तप्स्यति ॥ यदाह मोदायैव तु घटते विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुष इति मोदार्थघटनाचागमविधिनैवालंबनांतर स्यानानोगहेतुत्वादिति गाथार्थः ॥न चेदं देवतोद्देशेन तपःसर्वथा निष्फलमौहिकफलमेव वा चरणहेतुत्वादपीति चरणहेतुत्वमस्य दर्शन्नाह॥ एवंपडिवत्तिए एत्तोमग्गाणुसा रिनावा चरणंविहियंबहवे पत्ताजीवामहानागा ॥२॥
॥ व्याख्या ॥ एवमित्युक्तानां साधर्मिकदेवतानां कुशलानुष्ठानेषु निरुपसर्गत्वादि हेतुना प्रतिपत्त्या तपोरू. पोपचारेण तथा ति उक्तरूपात्कषायादिनिरोधप्रधानात्तपसः पागंतरेण एवमुक्तकरणेन मार्गानुसारिनावात् सिपिथानुकूलाध्यवसायाचरणं चारित्रं विहितमाप्तोपदिष्टं बहवः प्रनूताः प्राप्ता अधिगता जीवाः सखा
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५०६ परिच्छेदः १३ महानागा महानुनावा इति गाथार्थः ॥तथा॥ सवंगसुंदरंतह णिरुजसिहोपरमनूसणोचेव ॥ प्रायजणणसो. हग्ग कप्परुखोतहणावि ॥२०॥ पढिन्तवोविसेसो अणे हिवितेहिंतेहिंसजेहिं मग्गपडिवत्तिहेक हंदिविणेयाणुगुणेणं ॥२९॥ ॥व्याख्या ॥ सर्वांगानि सुंदराणि यतस्त पोविशेषात्स सर्वांगसुंदरस्तथेति समुच्चये ॥ रुजानां रोगाणां अनावो नीरुजं तदेवशिखेवशिखा प्रधानं फलं तया यत्रासौ नीरुजशिखा तथा परमाएयुत्तमानि नूषणान्यानरणानि यतोसौ परमनूषणं चैवेति समुच्चये तथा श्रायतिमागामिकालेऽनीष्टफलं जनयति करोतियोऽसावायतिजनकस्तथा सौनाग्यस्य सुनगतायाःसंपादने कल्पवृक्षश्व यःस सौनाग्यकल्पवृक्षस्तथेति समुच्चये अ. न्योऽप्यपरोपि उक्ततपोविशेषात्किमित्याह ॥पतितोऽधी तस्तपोविशेषस्तपोनेदोऽन्यैरपि ग्रंथकोरेस्तेषु तेषु शास्त्रेषुनानायंथेष्वित्यर्थः नन्वयं पठितोपि सानिष्वंगत्वान्न मु. क्तिमार्ग इत्याशंक्याह ॥ मार्गप्रतिपत्तिहेतुः शिवपथाश्रयणकारणं यश्च तत्प्रतिहेतःसमार्ग एवोपचारात्कथमिदमिति चेडच्यते ॥ हंदीत्युपदर्शने विनेयानुगुण्येन शिकणीयसत्वानुरूपेण नवंति हि केचित्ते विनया ये सा जिष्वंगानुष्ठानप्रवृत्ताः संतो निरनिष्वंगमनुष्ठानं लनंत इतिगाथादयार्थः॥
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंको द्वारः
६०७
॥ अस्य नापार्थः ॥ न्य प्रकारे एटले पूर्वोक्त त पना स्वरूपथी अन्य तरेहना पण विचित्र प्रकारना तप बे, ते ते प्रकारे लोकरूढीए करीने देवताने नद्देशीने नोला व्युत्पन्न बुद्धिवाला लोकोने तपविषयाभ्यास रूप प्रकृति होवाथी ते हितकारक पथ्य वा सुखदायी बे. रोहिणी यादि देवीनने उद्देशीने जे तप करेबे ते रोहिली यदि तप जाणवा ॥ ए गाथानो अर्थः ॥
हवे ते देवताज देखाडता थका ग्रंथकार कहेबे १ रोहिणी २ अंबा ३ तथा मदपुष्यिका ४ सर्वसंपत् सर्व सौख्या इत्यादि ५ श्रुतदेवता ६ शांतिदेवता ७ काली ८ सि-छायका ए ए नव देवीयो बे ए गाथार्थः ॥ इत्यादि देवता प्राश्रित तेमनी च्याराधनाने वास्ते पवसन एटले उपवासादि विचित्र नाना देशप्रसिद्ध ते सर्व तप होय बे; तेमां ते रोहिणी तप रोहिणी नक्षत्रना दिनमां उपवास करे, एवी रीते सात वर्ष सात मासाधिक तप करे, ने श्री वासुपूज्य तिर्थंकर जगवंतनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा ने पूजा करे ॥ इति रोहिणी तप ॥ १ ॥ तथा खंबा तपः ॥ पांच पंचमीमां एकाशणादिक करवा, अने श्री नेमनाथजीनी तथा अंबिका जिनयतिणीनी पूजा करे ॥ २ ॥ तथा श्रुत देवतानो तप ॥ ग्यार एकादशीनमां उपवास मौनव्रत करे यने श्रुत देवतानी पूजा करे;
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परिजेदः १३ शेष तप विधि रूढीथी जाणवी; ए गाथार्थ डे ॥ अथ देवताने उद्देशीने यथोक्त विधीयमान तप केम थाय एवी
आशंका करीने कहेले के ॥जे तपमां कषायनो निरोध होय,ब्रह्मचर्यपालन जिनपूजन होय, अने अनशन कहे. तां नोजननो त्याग होय, ते सर्व तपविशेष एटले ए सर्व तप नोला लोकोमां होय बे; केमके नोला लोक प्रथम एवा तपमा प्रवृत्त थया थका अभ्यासना बलथी पली कर्मक्ष्य करवा वास्ते पण तप करवामां प्रवृत्त थाय बे. परंतु प्रथमथीज कर्मक्ष्य करवा वास्ते नोना होवा. थी प्रवृत्त थता नथी. अने जे सद्बुध्विाला ने ते तो मोक्ने अर्थेज सर्व अनुष्ठान करवां एवी बुद्धिए करीने तप करे, अर्थात् कर्म दय करवानेज तप करे, पण संसार प्राशंसाए देवता उद्देशाने तप न करे ॥ यदाह ॥ उत्तम पुरुषोनी जे मति ने ते मोदार्थमांज घटेने अने मोक्षार्थनी जे घटना ते आगम विधिए करीनेज ने, केमके आगम विधि विना जे प्रालंबन ले ते सर्व अनाजोग हेतु एटले अजाण हेतु ॥ ए गाथार्थ ॥ ए पूर्वोक्त कथनथी एम न जाणवू के देवताओने उद्देशीने जे तप करवा ते नोला लोकोने सर्वथा निःफल , अथवा या लोकनुंज फल दे, किंतु चारित्रनो पण हेतु दे.हवे ए तप चारित्रनो हेतु केवी रीते ने ते देखाडे जे ॥ एम
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चतुर्थस्तुतिनिणयशं को हारः ५० उक्त साधर्मिक देवतानना कुशल अनुष्ठानमां निरुपसर्गादि हेतुए करीने प्रतिपत्ति एट ले तप रूप उपचारे करीने तथा ए उक्तरूप कपायादिनिरोधरूपी प्रधान तपथी पागंतरे करीने एम उक्त कहेवा प्रमाणे करवाथी मार्गानुसारी एटले सिह पंथना अनुकूल अध्यवसायथी "चरणं चारित्रं" प्राप्तनु कथन करेलुं चारित्र बहु महानु नाव जीवोने पूर्वकालमा प्राप्त थयु बे;ए गाथार्थ जावो. तथा सर्वांग सुंदर थायजे तपविशेषथी, ते सर्वांग सुंदर तप कहेवाय. तथा शब्दले ते समुच्चयार्थमां . तथा जे "रुजाणां" कहेतां रोगनो अनाव थवो ते नीरुज कहेवाय तेज शिखानी पेठे शिखा प्रधान फने करीने ज्यां ठे ते नीरुजशिखातप कहेवाय, तथा परभोत्तम जूषण था जरण होय जेथी ते परमनपणतप जाणवो; चैव समुचयार्थमां ने. तथा जे अागामिकालमां मनवांबित फलनी सिद्धिकरे तथा सुनगपणे करीने कल्पवृक्नी पेठे संपादन करे ते सौनाग्यकल्पवृदतप कहेवाय; तथा शब्द समुच्चय अर्थमां . उक्त तपथी तथा अन्य प्रकारना तपविशेषथी झुं फल थाय ते कहे . अन्य ग्रंथकारे पण नाना प्रकारना ग्रंथोमां कह्या जे तपना विशेष नेद तेनां फल ते ते शास्त्रोमां कह्यांबे, इहां प्रश्न करेले के ए जे तप कह्या ते पण वांडा सहित होवाथी मुक्ति मार्गमा
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५१०
परिछेदः १३
नथी, एवी पर आशंकानो उत्तर कहे.
ए पूर्वोक्त तप जे बे ते मार्गानुसारीपणु प्राप्त थवानुं कारण बे; एटले वांडा सहित तप करवाथी नजीवने मार्गानुसारीपणुं प्राप्त थाय ने मार्गानुसारीपणु बे मो मार्ग प्राप्तिनुं कारण बे, ने जे मोक्ष मार्ग प्रातिनुं कारण बे ते उपचारथी मोक्षमार्गज कहेवाय बे: ते वा सहित तप मार्गानुसारीपणानुं कारण शाथी कहेवायवे, हंदि शब्दले ते उपदर्शन अर्थे बे, एटले पूर्वोक्त वार्त्ता नलखाववाने अर्थे बे. कोइक शिष्य वांबा सहित अनुष्टानमां प्रवृत्त थया थका विनयादि गुण शीखवाथी जीवने अनुरूप थवाथी " निरनिष्वंग ” अर्थात् वा रहित अनुष्ठान प्राप्त थाय बे ए बे गाथानो अर्थः ॥ ए पाठमा जोला जीवाने पूर्वोक्त देवतानुना तप प्रमुख करवा का ते मार्गानुसारी प्रवृतिमां प्रवर्त्तावी लौकीक मिथ्यात्व बोडाववाने कह्यावे, पण सद्बुदिवाला प्राीने करवा कह्या नथी तोपण चतुर्थ स्तुति नि - र्णय पृष्ट १३८ मां * तत्ववेत्तायोकोजी पूर्वोक्तदेवतायोंका तपादिकरनानिषेधनही कराहे, किंतुइसलोकके अर्थ न करना परंतु मोके वास्ते करे तो निषेध नही ॥ इत्यादि पूर्वापर विरुद्ध ग्रात्मारामजी यानंद विजयजीनुं लखवं तदन सत्य केमके चतुर्थ स्तुति निर्णय ष्टष्ट १४८
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोचारः. ५११ मा पोतेज लखे ले के जे कर मोतके अर्थे न पूर्वोक्त देवतायोंकी पूजादि करे जब तो अयुक्त हे परंतु विघ्न निवारणादिक के निमित्त करे तो कुवनी अयुक्त नही हे एम लखीने वली चतुर्थ स्तुति निर्णय टष्ट १३७ मां नखेडे *तथा नोले श्रावकों कोनीपूर्वोक्त देवतायोंका तप करना यहनी मोदमार्गही कहाहे* ए रीते काणे ठेकाणे असंबह लखाण करेठे, पण नव्य जीवोनेविचार करवो जोइए के जैन मतमां सूर्य समान श्री हरिन सूरिजीकृत पंचाशक मूलमां अने नवांग वृत्तिकारक श्री अनयदेव सरिजी कृत पंचाशक टीकामां नोला लोकोने मार्गनि रुचि कराववाने रोहिणी अंबिका प्रमुख देविनने उद्देशीने तपकरवा तथा तेमनी पूजा करवी कही बे, ने ते तप प्रमुख नपचारथी मोद मार्ग कह्यो ते वांबा रहित अनुष्ठान थवानु कारण,तेथी कह्योडे,पण वांगासहित अनुष्ठान करवू ते मोद मार्ग कह्यो नथी. तथा तत्त्व वेत्तानएतो प्रथमथीज प्रागम विधि प्रालंबन करीने वांडा रहितज तप प्रमुख अनुष्ठान करवां कह्यां, पण वांडा सहित करवां कह्यां नथी; अने पूर्वोक्त देवतानना तप प्रमुख डे ते वांडा सहितज होय, पण वांडा विना होय नहीं, ते माटेज पूर्वोक्त जीवानुशासनमां श्री देवसूरिजीए तत्ववेत्ता पुरुषोने पूर्वोक्त देवतानने उद्देशीने पु.
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परिच्छेदः १३ जादि अनुष्ठान मोक्षार्थे करवां ते पुष्ट कह्यां ने विघ्न निवारणादि कारणे करवां ते ठीक कह्यां; तथा तेमज श्री रत्नशेखरसरिजीए पण श्री श्राइप्रतिक्रमणदीपिकामां विघ्न निराकरण अर्थे पूर्वोक्त देवताननी प्रार्थना बहुमानादि करवां कह्या , पण मोक्षार्थे कह्यां नथी ते पाठः ॥ ननु देवादिषु प्रार्थनाबहुमानादिकरणे कथं न सम्यक्त्वमालिन्यं उच्यते न हि ते मोदं दास्यंतीति प्रा. यंते बहुमन्यते वा किंतु धर्म ध्यानकरणे अंतरायं निराकुर्वतीति नैवं कश्चिदोषः पूर्वश्रुतधररेप्याचीर्णत्वा दागमोक्तत्वाच्च नक्तं चावश्यकचूर्णी श्री वजस्वामिचरित्रे ॥ तब यअनासे अन्नागिरीतंगयातच देवयाए कानस्सग्गो कन्साविग्रनयिा अणुग्गहत्ति आणुनायमिति ॥ नावार्थः ॥ इहां कोई वादी तर्क करे ले के देवादिकोने विषे प्रार्थना बहुमानादि करवाथी सम्यक्त मलीन केम न थाय? अपितु थायज. तेनो उत्तर अर्थ दीपिकाकार कहे जे के, ते देवता अमने मोद देशे ते वास्ते ते देवतानुनी प्रार्थना बहुमान अमो करता नथी.किंतुधर्म ध्यान करवामां विघ्न वेगलां करेले, ते माटे प्रार्थना करिए बीए ते वास्ते विघ्न निवर्त्तन करवाने देवतानने बहुमानादि करवामां दोप नथी. केमके पूर्व श्रुतधारियोए पण विघ्न निवर्त्तनादि कारणे एवं आचरण करथुळे अने बाग
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५१३ ममां एम कहेलुं , तेमज श्री आवश्यक चूमिमां श्री वजस्वामीना चरित्रमा कडं के श्री वजस्वामी साथे अणसण ग्राहक साधुनने देवतानो उपसर्ग थयो तेथी श्री वज्जस्वामी अन्य पर्वत नपर गया,त्यां देवतानो कायोत्सर्ग करयो.ते देवी जागृत थमने कहेवा लागी के, तमे मारा उपर मोटोअनुग्रह करयो,एम कहीने आज्ञा दीधी. ॥ए अर्थ दीपिकानो पाठ इहां लख्यो जे ते पारथी पूर्व पाठ तथा उत्तर पाउनो परमार्थ पूर्वे शंका समाधान सहित लख्यो ने ते ग्रंथ गौरवना जयथी लग्यो नथी, पण चतुर्थ स्तुति निर्णय पृष्ट १३८ मां वंदितासूत्रमा सम्मदिछीदेवा दितुसमाहिंचबोहिंच॥ यह पाठ तो तत्ववेत्ता श्रावककोंनी प्रायें नित्य पठनमें आता है. इस वास्ते पूर्वोक्त देवतायोंका तप पूजन कायोत्सर्ग अरु थकहनी, जानकार श्रावकोंको करनी चाहिये, यह सिह हुआ ॥एम आत्मारामजी आनंदविजयजी बल करीने लखेटे पण ॥ सम्मदिही देवादि पाउथी विघ्न निराकरणादि कारण विनातत्ववेत्ता जाणकार श्रावकोने देवादिकने उद्देशीने तपादि यावत्थुइ करवीसिथती नथी केमके ॥ सम्मदिठीदेवा दितुसमाहिंचबोहिंच॥ ए पाठमां तो समाधि कही ए चित्तनुं स्वस्थपणुं, अने बोधि ते परलोकमां जिन धर्मनी प्राप्ति एटले हुं परनवमां
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५१४
परिजेदः १३ श्रावकना घरमां शानदर्शन संयुक्त जो दास पण थान तो सारूं, पण मिथ्या मोहमतिवालोराजाचक्रवर्ति पण मां थान, इत्यादि परलोक नावनाए सम्यग् दृष्टि देवोनी पासे श्रावक जन समाधि बोधि मागेजे; पण चतुर्थ स्तुतिमां प्राये ठाम नाम इह लोकार्थ पुजनीक आशाए देवादिकनी पासे जाचना करे , तेम करता नथी तेथी तत्ववेत्तानने अर्थात् जाण श्रावकोने पूजा प्रतिष्टादि तथा विघ्न निराकरणादि कारण विना पू. वोक्त देवतानना तप, पूजन, कायोत्सर्ग अने थुइ करवां, जैन सिद्धांत न्याये सिथतां नथी; केमके श्री जगवतीजीप्रमुख श्रीगणधरकत सूत्रोमां तथा श्री आवश्यक नियुक्ति प्रमुख पूर्वधराचार्योना करेला आगममां "असहिध देवा" इत्यादि वचनथी चारनिकायना देवतानो सहाय लेवो तथा वांदवा पूजवा निषेध्या डे; तदनुयायि पूर्वधर पश्चात्काल वर्ति वहुश्रुत आचार्योना ग्रंथोमां पण ॥ वंदणवत्तियाए इत्यादि न पठ्यते तेषामविरतत्वात् ॥ इत्यादि वचनथी पूर्वोक्त सम्यग दृष्टि देवताने पण वांदवा पूजवा निषेध्या डे, ने चोथी थुश्मां तो ते पूर्वोक्त देवतानने वांदवा पूजवा तथा तेननी सहाय याचना प्रमुख कह्यांडे.
॥प्रश्न॥ ए पूर्वोक्त देवतानी साहाय्य लेवी, तथा ते
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५१५ मने नमस्कार करवो चोथी थुश्मां क्या क्या कह्यो ?
॥उत्तर॥ बीज प्रमुख तिथीयोनी चोथीथुश्मां तथा अन्य थुश्योमा बहु ठेकाणे कह्यो बे. ॥ ते पाठः॥ गजगामिनीकामिन कमलसुकामलचीर चकेसरीकेसरीसरससुगंधसरीरकरजोडीबीजेडंप्रणुमुतसपाय एमलब्धिविजयकहेपूरोमनोरथमाय तथा॥रमऊ मकरतीचरणेनेनरदेवीदिसेरूपालीजी नामचक्केसरीसानि धकारीसहुसंघनीरखवालीजी विघ्नकोडहरेएकपलमा जे सेवेएनापायजी नयविजयनेनाणविजयनीसानिधकरज्योमोरिमायजी॥ ॥इत्यादिक अनेक थुश्योमा देवी नने सहाय वंदन पूजन प्रमुख कह्यांचे ते केटनांक नखिए.
॥पूर्वपदः॥ लब्धिविजय तथा जाणविजय प्रमुख कोई अपनपयोगी पुरुषोए एवी थुश्यो करी तेथी झुं पूर्वोक्त देवताननां वंदन पूजनादिक सिह थाय? अपितु नथाय. पण पूर्वाचार्योनी करेली चोथी थुश्मां तो वंदन पूजना दि सहाय लेवी कही नथी ते तमो केम मानता नथी?
॥ उत्तरपद ॥ आम राजा ग्वालियरना तेना प्रति बोधक श्री बप्पनटिसूरि महाप्रनावक थया तेमनो जन्म विक्रम संवत् ७०२ मांथयो , तेमणे एकेक तीर्थकरना नामथी तथा संबंधी प्रथम थुइ, बीजी सर्व तीर्थकरोनी,
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परिच्छेदः १३ त्रीजी श्रुतज्ञाननी,एवी रीते चोवीतरी बोतेर थुइ रचीने अने चोथी श्रुतदेवी विद्यादेवी प्रमुखनी २४ थुइ रची डे तेमां सर्वत्र वंदन पूजन सहाय प्रमुख ग्रहण कस्यां , तथा संसारावस्थामां श्री धनपालपंमितना सगा नाइसंवत् १०२ए मां थयेना श्री शोननाचार्य महामनि थया,तेमणे श्री बप्पनट्टिसरिजीनी पेठे चोवीतरी वोतेर थुझ्यो रची डे अने चोथी श्रुतदेवी मानसी प्रमुखनी २४ थुइ रची डे ते चोवीशे थुझ्योमां अनुक्रमथी श्रुत देवता, मानसी, वजशृंखला, रोहिणी, काली, गंधारी, महामानसी, वजांकुशी, ज्वलनायुझा, मानवी, महाकाली,श्रीशांतिदेवी,रोहिणी,अच्युता,प्राप्ति, ब्रह्मशांतियद, पुरुषदत्ता, चक्रधरा, कपर्दियद, गौरी, कालि, अंबा, वैरोट्या, अंबिका, एमनी थुझ्योमां वंदन प्रमुख करी शत्रुनाश प्रमुख सहायता वांदी ते पूर्वोक्त देवताननी स्तवना करीने,तेमना पाठ ग्रंथगौरवताना नयथी लरख्या नथी. तथापि ते चोवीस थुश्योनो नाव रक्षण प्रमुख सहाय्यादिकनो जेम ले तेम अनुक्रमे जणाविए लिए। त्यां प्रथम थुश्मा जे कमनने विषे भ्रमराननी पंक्ति सु. गंध युक्त परागर्नु सेवन करती हवी, ते कमलने विषे स्वकीय चरण स्थापन करनारी श्रुत देवता तमारूं रहाण करो ॥१॥ थु बीजीमां मानसीनामे देवी सुखने आपो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५१७ ॥॥ थुइ त्रीजीमां वजशृंखलादेवीने (आनमः) कहेतां निरहंकारपणे वंदन थाना॥थ चोथीमां रोहिणी नामे अधिष्टायक देवीने (नमः) कहेतां वंदन कर ॥॥ थुइ पांचमीमां कालिनामादेवी (मां) कहेतां मने प्रवतात् कहेतां रहाण करो॥५॥ थुइ बठीमां गंधारिनामे देवीना वज १ मृसत आयुधो अत्यंत जय शील ॥६॥ सातमीमां मानसी देवी तुं नक्तोनुं रदण कर ॥॥थुइ प्रातमीमां वजांकुशिनामे देवी प्राणियोना तनु रक्षण माटे 'प्रयत्न' कहेतां उद्योग कर ॥ ७ ॥ थुइ नवमीमां ज्वननायुधनामे देवी नव्यने 'क' कहेतां सुरखने पापो ॥॥ थ६ दशमीमां मानवी नामे देवी ते जय पामो ॥ १०॥ थुइ अग्यारमीमां महाकाली देवी उत्कृष्टपणे जयवंत रहे ने ॥११॥ थुइ बारमीमां शांतिदेवी नामे देवी जगतने विषे तु जे 'दमा' कहेतां नपशम तेनो लान, अथवा दमा कहेतां पृथ्वी तेनो लान उत्पन्न करो ॥१२॥ थुइ तेरमीमां 'रोहिणी' नामे देवी ते अ. त्यंत उत्कृष्टपणे नजनशील एवी एटले नजन करवा योग्य ले ॥१३॥थ चौदमीमां अच्यता नामे देवी 'क' कहेतां सुखने दिशतु कहेतां समर्पण करो ॥१४॥ पन्नरमीमां प्राप्ती नामे देवी ते 'वः' कहेतां तमाराला नने करो॥१॥थुइ सोनमीमां ब्रह्मशांतिक नामा यद
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परिछेदः १३
'इन' कहेतां वेगे करीने 'शं' कहेतां सुखने करो ॥ १६ ॥ थुइ सत्तरमीमां पुरुषदत्तानामे देवी तारो प्रसाद मने सनाने विषे मनवांबित फलनो उत्पन्न करनारो था ॥ १७॥ थुइ ढारमीमां चक्रधरा देवी "मुदे" कहेतां हर्ष ने माटे था ॥ १८ ॥ थुइ नगीसममां कपर्दीनामे यह मारा हृदयने विषे रमण करो ॥ १९५ ॥ थुइ वीसमीमां गौरीनामेदेवी "तव" कहेतां तारा नाश करनारा जे शत्रु तेने ते " नश्यतु " कहेतां नाश करो ॥ २० ॥ थुइ एकवीसममां कालीनामादेवी ते "वः" कहेतां तमारा “विपक्ष" कहेतां शत्रुना समुदायने “दलयतु" कहेतां नाश करो ॥ २१ ॥ थुइ बावीसमीमां अंबानामे देवी 'नः ' कहेतां मारे माटे, वारंवार ऐश्वर्यनो विस्तार करो ॥ २२ ॥ थुइ तेवीसमीमां वैरुट्यानामक देवी “त्वां” कहेतां तने " त्रासात् " कहेतां संसार रूप जयश्री " त्रायतां" कहेतां रण करो ॥ २३ ॥ थुइ चन्वीसमीमां हे अंबानामक देवी तुं प्रत्यंत प्रधान नव्य प्राणियोने "अव" कहेतां रक्षण कर ॥ २४ ॥
एवी रीते पूर्वाचार्योए एम चोथी थुइमां नमस्कारादि कह्या बे तो लब्धिविजयजी नागविजयजी प्रणउपयोगी थया तेम तमारा कहेवा प्रमाणे पूर्वोक्त पूर्वाचार्य पण उपयोगी थया, केमके ते पुरुष पण पूर्वाचार्यो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५१५ नी परंपरा प्रमाणे वर्त्तता हता, पण स्वकपोलकल्पित मनोमति आत्मारामजी आनंदविजयजी जेवा तथा तमारा जेवा यदातद्वा बोलवावाला ते पूर्वाचार्य तथा पूर्व पुरुष नहोता, केमके ते पूर्वाचार्य तथा पूर्व पुरुषो तो महा उत्तम उपयोगी विचक्षण हता, पण तमारा जेवा मंदमति नहोता; तेथी कोइ बुद्धिवान् पुरुष तमारा सरखाने अणनपयोगी कहे तो चाले, पण ते महापुरुषोने अण नपयोगी कहेवाने तो तमारा सरखा दीर्घ संसारी अधमाधम गतिवालाननीज जीन चाले,केमके पूर्वाचार्य तथा पूर्व पुरुष तो तमारा जेम सामायक प्रतिक्रमणमां चौथी थुइ कहेता नहोता तेम सामायिक प्रतिक्रमणमां तमारा सरखाने कहेवाने अर्थे पण तेम महापुरुषोए चोथी थु न बनावी नथी. ते महापुरुषोए तो “एगबीतीसिनोगा। थुश्मनपरंथयं" इत्यादि पूर्वधर पुरुषोना वचनने अनुसारे पुर्वोक्त शोजन स्तुति प्रमुख स्तुतियो स्तोत्ररूपे बनावी बे ते त्रणने काणे त्रण थुइ, अने पूजा प्रतिष्ठादि का. रणे तथा विघ्नोपशमादि कारणे चोथी थुइ कहेवाने ब. नावी , पण पूर्वोक्त कारण विना पूर्वाचार्योए चोथी थु कहेवाने बनावी नथी. ते माटे पूर्वोक्त कारणे चोथी थुइ अमो मानीए बीए; पण यात्मारामजी आनंदविजयजी पूर्वधर तथा पूर्वाचार्योनी परंपराए चालती प्रावी
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परिजेदः १३ त्रण थनी चैत्यवंदनाने नबापीने प्रतिक्रमण सामायिकमां कारण विना चोथी थुइ स्थापन करे, तेम अमो स्थापन करता नथी.
॥प्रश्न॥ कारण विना पूर्वोक्त देवतानने नमस्कारादि करतां मिथ्यात्व लागे; केमके पूर्वोक्त देवतानने जैन सि. झांतोमा अवती अपञ्चस्काणी कह्या ने ने अव्रती अपचखाणीने श्री ज्ञाताजी प्रमुख सिद्धांतोमां वांदवा पूजवा निषेध करया , तो आगम निषेध पूर्वोक्त देवतानने कारणे पण नमस्कारादि करतां मिथ्यात्व केम नलागे ?
नत्तर ॥ हे नव्य “गुणाऽहियंवंदे" एवा जैन सिहांतोता वचनथी अव्रती अपञ्चकाणीने वांदवा पूजवाथी मिथ्यात्व लागे; पण अव्रती अपञ्चकाणी देव बे प्रकारना जैन सिद्धांतोमां कह्या . एक सम्यग्दृष्टी बीजा मिथ्यात्व दृष्टी;त्यां जिन यद यक्षिणी प्रमुख तथा पूर्वोक्त ब्रह्म शांत्यादिक प्रवचन जक्त देवता ते सर्वे सम्यग्दृष्टी ले अने गोगो आसपाल पादरदेवता देवदेवता प्रमुख सर्वे प्राये मिथ्यादृष्टी देव ने त्यां मिथ्या दृष्टि देवतानने तो इह लोकार्थे तथा परलोकार्थे कारणे अकारणे वांदवा पूजवा मानवाथी मिथ्यात्व लागेज, अने सम्यग्दृष्टि देवतानने संघादि कार्य कारण विना इह लोकार्थे वांदवा पूजवा मानवाथी मिथ्यात्व प्रसंग दोष लागे. तथा चोक्तं श्री
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको-द्वारः
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तपागच्छनायक श्री हीरविजयसूरिश्वरजी शिष्य श्रीमहो पाध्याय श्री कीर्त्तिविजयजीकृत तज्ञिष्यमहोपाध्याय श्री विनयविजयजी संशोधित श्रीविचारत्नाकरे तत्पाठः ॥
॥ अथ लोकोत्तर मिथ्यात्वस्वरूपं लिख्यते ॥ लोको तर देवगतं परतीर्थिक संगृहीतजिनबिंबार्चनादि सप्रत्यय श्रीशांतिनाथपार्श्वनाथादिप्रतिमानामिहलोकार्थं यात्रोप याचितादि माननादि च । लोकोत्तरगुरुगतं च लोकोत्तरलिंगे षु पार्श्वस्थादिषु गुरुत्वबुद्ध्या वंदनादि गुरुस्तूपादावैहिकफलार्थ यात्रोपयाचितादि च ननु यथा वैद्यादयो व्याधिप्रतीकाराद्यर्थे धनञोजनवसनादिना बहु मन्यंते तथा सप्रभावयकयचियादीनामप्यैहिकलौकिक फलार्थं पूजोपयाचितादौ को दोषः मिथ्यात्वं हि तदास्याद्यदि मोक्षप्रदोयमिति बुद्ध्याराध्येत यदाहुः || देवे देवबुद्धिर्या । गुरुधीरगुरौ च या ॥ धर्मे धर्मबुद्धिश्च । मिथ्यात्वंद्विपर्ययात् ॥ श्रूयते च । विश्रु छदृढसम्यक्ता रावणकृष्ण श्रेणिकाजयकुमारादयोऽपि शत्रुजयपुत्रप्रात्याद्यैहिककार्यार्थं विद्यादेवताद्याराधनं कृतवंत इति ततश्वेहलोकार्थं या धाराधनेऽपि किं नाम मिथ्यात्वं सत्यं तत्त्ववृत्त्या श्रदेवस्य देवस्वबुद्ध्याराधनमेव मिथ्यात्वं तथापि यचाद्याराधनमिहलोकार्थमपि श्रावके वर्जनीयमेव प्रसंगाद्यनेकदोषसंभवात् प्रायो हि जीवामंदमुग्धवक्रबुध्यः संप्रति च
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परिछेदः १३
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विशिष्यते ह्येवं विमृशंति यद्यनेन विशुइसम्यक्तेन महात्मना यक्षाद्याराधनं विधीयते । तदा नूनमयमपि देवो मोक्षप्रदतया सम्यगाराध्य इत्यादि परंपरया मिथ्यात्ववृद्धिस्थिरीकरणादिप्रसंगस्तथा चैहिकफलार्थमपि यदाद्याrestore प्रेत्यबोधः प्राप्यं स्याक्तं च ॥ यन्नेसिंस - नाणं मित्तंजोजणे मूढप्पा | सोतेलनिमित्तेयं नलहइबोहिंजणानिहियं ॥ रावणकृष्णादिनिश्चतत्समयेहधर्मस्येतरधर्मेभ्योतिशायितया सर्वप्रतीतत्वेनापवादपदे य दि विद्याराधनादि कृतं तदापि तदालंबनग्रहणं नोचितं ॥ यतः । जाणिद्यमिदिधी जेपरालंवणाइंघिप्यंति ॥ जेपुणसम्मदिधी तेसिंपुणोचढइपयडीए ॥१॥ इति श्री श्रा-प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ संकाकंखाविगिचेतिगाथायां ॥
॥ जावार्थनाषा ॥ अथ लोकोत्तर मिथ्यात्व स्वरूप लखीए बीए | लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व ते अन्य तीर्थी ग्रहण करया जिन बिंब पूजवा, तथा सप्रत्यय श्री शांतिनाथ पार्श्वनाथ यदि प्रतिमानुनी इह लोकने अर्थे आशाए यात्रा मानतादि करवी ते लोकोत्तर देवगतमिथ्यात्व कही ॥ १ ॥ यने पार्श्वस्थादिक लोकोत्तर लिंगने विषे गुरुत्वबुद्धिए करीने वंदन नमस्कारादि करवां तथा प्रा लोकना फलने अर्थे गुरु थून प्रमुखनी यात्रादि मानता करची ते लोकोत्तर गुरु गत मिथ्यात्व
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः. ५२३ कहीए॥॥॥ इहां वादी प्रश्न करेले के जेम वैद्यादिकने व्याधि प्रतिकारादिक अर्थे एटले नपधादि कारण माटे धन नोजन वस्त्रादिके करीने बहुमान करे, तेम समकित धारी प्रनाववंत यद यदिण्यादिकने पणइहलोक फलने अर्थे पूजे जाचे तेमां शो दोष? मिथ्यात्व तो मोदना देनारा ए बे, ए बुझिए पाराधे तो थाय; काने के, अदेवमां देव बुद्धि एटले जे देव नथी तेने देव माने, कुगुरुने गुरु माने, अधर्मने वली धर्म बुझिए माने,त्यारे मिथ्यात्व बे. वलि सांजलीए गीए के, निर्मल जे दृढ समकितवंत रावण कृष्ण श्रोणिक अजय कुमारादिक, ते पण शत्रुने जीतवा पुत्रादिकप्राप्तिादिइह लोक कार्यने अर्थे विद्या देवतादिकोनुंआराधन कस्युं, तो इह लोक कार्यने अर्थे याददिक आराधन करवामां शुं मिथ्यात्व ठे? एवं कहे तेने आचार्य कहे , तुं कहे ते सत्य बे; तत्वबुझिए विचार करीए त्यारे तो अदेवने देवबुझिए मानिए तेज मि थ्यात्व; तोपण श्रावकोने इह लोकने अर्थे यदादिकनुं थाराधनकरQ वर्जबुंज, कारण के तेथीप्रसंगादिक अनेक दोषनो संनव बे, केमके हमणांना कालमा प्राये घणा जीवनोला वक्र बुध्विाला.ते एम विचारे जे,आनिर्मल दृढ समकितवंत महात्मा पण यदादिक अन्य देवने था. राधे ने तो, निश्चे ए देव पण मोद अापता हशे, ते माटे
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परिजेदः १३ आपणे जली रीते बाराधवा; एम परंपराए मिथ्यात्वनी वृद्धि तथा मिथ्यात्व स्थिरीकरणादिक प्रसंग थाय, ए प्रत्यक्ष देखीए लिए. इह लोकना फलने अर्थे आराधे तेनुं फल कहे , तथा इह लोकना फलने अर्थे पण यदादिक अाराधनाराने पण परलोकमां समकित पामवंडकर थाय: जे माटे का के बीजा जीवोने जे मूर्ख मिथ्यात्व उपजावे, ते प्राणी मूर्ख आत्मा ते निमित्त वडे करीने समकित नही पामे, एवं केवली नगवंते कयुं डे. वली दृढ समकितवंत रावण कृष्णादिके विद्यादिक था. राधन करयां, ते समये बीजा धर्म थकी अरिहंतना धर्मर्नु अतिशयपणुं सर्व प्रसिपणे करीने हतुं; तेमणे जो कोई अपवादपदे एटले.कारणे विद्या बाराधन करी तेवा ते. मनुं पण आलंबन कर ते योग्य नथी, जे माटे कां के, जे पडतां बालंबन करे ते मिथ्यादृष्टि जाणवा. बने जे समकित दृष्टि ने तेमने वली चढति प्रकृति जा. णवी ॥ ए पाठ श्राइप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमा संका कंखा विगिहा एगाथानी व्याख्यामां .ए पाठमां यद यदिणीना साधारण अाराधनथी मिथ्यात्व प्रसंग दोष कह्यो, पण ते सम्यग्दृष्टी यद यक्षिणी जाणवां: केमके ग्रंथ. कारे लोकोत्तर मिथ्यात्वने अधिकारे पूर्वोक्त पाठ लख्यो बे, तेथी लौकिक यद यक्षिणी संनव न थाय, ने पूजा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५२५ प्रतिष्ठादि संघादि कार्य विना अाराधन प्रमुख करवाथी मिथ्यात्व प्रसंग दोष संनव थाय; अन्यथा न थाय; के. मके पूजा प्रतिष्ठादि संघादि कार्य कारणमां तो मिथ्या दृष्टी देवताननां पण पूजा प्रमुख बहुमान करवामां मिथ्यात्व प्रसंग दोष पूर्वाचार्योए कह्यो नथी, तो सम्यग्दृष्टी देवताननां पूजा प्रमुख कृत्य करवामां मिथ्यात्व प्रसंग दोषनो अवकाश होयज क्याथी ? केमके जैनशासन ननोमणि श्वेतपट्टाचार्य श्री हरिनसूरिजीए तथा जैनसूत्रार्थकुमुदविकाशकचंडिकाचं नवांगवृत्तिकारक श्रीमद् अजयदेवसरिजीए अनुक्रमथी श्री पंचाशक सूत्रवृत्तिमा पूजा प्रतिष्ठादि अवसरे पूर्वोक्त देवतानना पू. जादि बहमान करवां, एम पूर्वपक उत्तरपद करीने प्रतिष्ठादि अब सरे सम्यक् प्रकारे स्थापन करघु ने.. - ते पाठः॥ तथा दिसिदेवयाए.पूया सवे सिंतहय लोगपालाएं बासरणकमेण सवेसिंचेवदेवाणं ॥१॥
॥ व्याख्या ॥ दिग्देवतादीनामिादीनां पूजार्चनं सर्वेषां समस्तानां तथा चेति समुच्चये लोकपालानां सो. मयमवरुणकुब राणा शक्रसंबंधिना पूोदिदिक्षु क्रम व्यवस्थितानां क्रमेणैव तु खड्ग १ दंम २ पाश ३ गदा ४ हस्तानामिाते अवसरणक्रमेण समवसरणन्यायेन द्वितीयप्रकरणामतेनान्ये परे सूरयः सर्वेषां चैव समस्ता
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५२६ परिछेदः १३ नामेव देवानां सुराणां पूजा कार्येत्याहुरिति शेषः इति गाथार्थः ।। अथ किमेषामसंयतानां पूजादि क्रियत इत्याह ॥॥ जमहिंगयबिंबसामी सवेसिंचवअनुदयहेक तातस्सपश्वा एतेसिंपूयाश्अविरुई ॥१॥
॥ व्याख्या ॥ यद्यस्मादधिकतबिंबस्वामी जिनपतिरित्यर्थः सर्वेषामेव समस्तानामपीज्ञादिदेवानामभ्युदय हेतुः कल्याणनिमित्तत्तस्मात् तस्याधिस्तबिंबस्वामिनः प्रतिष्ठायां तेषां दिक्देवतादीनां पूजादि पूजासत्कारप्र. नृति क्रियमाणमविरुई संगतमेवेति गाथार्थः ॥ ७ ॥ तथा॥ साहम्मियायएए महिमियासम्मतिष्णिोजेण एतोचियचियंखलु एतेसिएसपयाई ॥२०॥
व्याख्या ॥ साधमिकाः समानधार्मिका आहे तत्त्वात्तेषामेते दिग्देवतादयस्तथा महर्षिका महेश्वरा स्तथा मिथ्यादृशोऽपि साधर्मिका व्यतो जवंतीत्याह सम्यग्दृष्ठयः सम्यग्दर्शनधरा येन कारणेन एत्तोच्चियत्ति अत एव कारणत्रयादेवोचितं खलु संगतमेवेति एतषां दिग्देवतादीनामत्र प्रतिष्ठावसरे पूजादि पूजासत्कारप्रनृतीति गाथार्थः ब.
नावार्थ नाषा ॥ इंज्ञदिक दश दिग्पाल तथा च शब्द समुच्चयर्थे जेए अनुक्रमे पूर्वादि विशानमा रहेला खड्ग १ दंम २ पाश ३ गदा ४ अनुक्रमे जेमना हस्तमां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको द्वारः
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बे एवा शक्रेंड संबंधि सोम १ यम २ वरुण ३ कुबेर ४ लोकपालनी अनुक्रमे द्वितीय प्रकरणवर्णित समवसर
न्याये करीने समस्तनी पूजा करवी, एटले समवसर एना न्याय प्रमाणे सम्यग् दृष्टि देवतानंनी पूजा करवी, खने बीजा प्राचार्य शेष समस्त देवतानुंनी पूजा करवी कहे बे, एटले सम्यग् दृष्ठि तथा मिथ्यादृष्टि सर्वेनी पूजा करवी. ए गाथार्थ बे ॥
अथ पूर्वपदः ॥ पूर्वोक्त असंयति देवतानुंनी पूजा शा माटे करवी एवी आशंका वेगली करवाने प्राचार्य कहेबे के, जे कारणथी अधिकृतबिंबना स्वामी श्री तीर्थंकर ते इंड्रादिक देव सर्वेने पण कल्याणना करनार बे; ते वास्ते अधिकृतस्वामीना बिंब तेनी प्रतिष्ठामां ते दिग्देवतादिकानां पूजा सत्कार प्रमुख करवां संगत योग्य बे, ए गाथानो प्रर्थः ॥ तथा वली पूर्वोक्त देवतानुंनी पूजा शा माटे करवी ते कहेबे || एदिग्देवतादि बे ते बार्हत्यगाना समान धर्मथी साधार्मिक बे तथा महर्दिक एटले महा ऋद्धिमान बे, अने वली मिध्यादृष्टि पण व्यथी साधर्मी एकज काम करनारा होय छे, ते व्य साधर्मी कहेवाय बे. सम्यग् दृष्टीदेवो जे कारले करीने सम्यग् दर्शन धारण करे ते वास्ते तेम कहेवाय बे. ए पूर्वोक्त त्रण कारणथीज प्रतिष्ठा अवसरे ए दिशि
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५७ परिच्छेदः १३ देवतादिकोनां पूजा सरकार प्रमुख उचित कृस्य क. रवां निश्चे संगत एटले योग्यज . ए पाठमां सम्यग् दृष्टी देवताननां पूजा सत्कारादि करवा कयां, ते तो सार्मिकपणाना कारणथी कह्यां; अने मिथ्या दृष्टी देवतानां पूजा सत्कारादि कह्यां, ते ऽव्य साधर्मिक कारणथी कह्यां; पण मिथ्या प्रसंग दोष न कह्यो, माटे पजा प्रतिष्ठा तथा विघ्नोपशमादि कार्य कारणमां सम्यग् दृष्टि देवताउनु वंदन पूजन सत्कार सन्मानादि करवामां मिथ्यात्व न लागे; तेमज अमदावादमां पांजरापोलना धर्मठपाश्रयमां शेठ जयसिंहनाई हठीसिंहजीना ज्ञान नंमारमा पूर्वाचार्य कृत प्रवचनसारोझार बालावबोध बे, तेमां पण पूर्वोक्त कारण समदृष्टि देवतानने आराधवा कह्या बे, पण विना कारणे कह्या नथी. ते बाला. वबोवनी नाषा जेमतेमज इहां लखीए बीए॥ वेयावञ्च गराणं संतिगराणं सम्मदिछीसमाहेगराएं करोमि कास्सग्गं ॥१॥
अर्थः श्री वीतरागना शासननी नक्तिना करनार गोमुख यदादि चौवीस, तथा चक्रेश्वरीदेवी प्रमुख चौवीस ते शासनना देवता बे, ते सानिध्य करो,सर्व संघने शांतिना करणहार सम्यग् दृष्ठि समाधि ते मननुं सुख तेहना करणहार तेनने अर्थे कानस्सग्ग करुढुंए सम्यग्
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५२ए दृष्टि सुर स्मरणाधिकार १२ मो. इहां वंदणवत्तियाए न कहिएजे माटे देवता अविरतिपणाथकी वांदवा पूजवा योग्य नथी, ते माटे अन्नबससीएणं कहीए. शहां केटलाएक एम कहेले के देवतानो कानस्सग्ग करे तो मिथ्यात्व लागे, ते जतु, जेह माटे श्री हरिनसरी कृत ललित विस्तरावृत्ति मध्ये तथा श्री हेमाचार्यकृत योगशास्त्रनी वृत्ति तथा आवश्यकचूर्णिमां देवतानो कानस्सग्ग करवो प्रगट कह्यो . मनोरमा श्राविका सूदर्शन शेठने सूलिने संकट पडे, तथा सुनाए चंपानगरीनी पोल उघाडवाने अवसरे देवतानो काठस्सग्ग कीधो सानलीए बीए, तेहनगीसम्यग्दृष्टिने देवताननो कामस्सग्ग करतां दोष नहीं, समकितधारीएकारणे देवताप्राराधवा. एजावार्थ जाणवो ॥” इहां सम्यग्दृष्टि देवतानने वांदवा पूजवा निषेध्या ने पूर्वोक्त स्तुति स्तोत्ररूप शोजन स्तुति प्रमुखमां वांदवा पूजवा कह्या, तेनो ए परमार्थ ने के स्तुतियो बे प्रकारनी श्री सिइसेनदात्रिंशिकामां कही.
॥ते पाठः॥ स्तुति द्विधा प्रणामरूपा असाधारण गुणरूपाच तत्र प्रणामरूपा सामर्थ्यगम्या असाधारण गुणात्कीर्चनरूपा च द्विधा स्वार्थसंपदनिधायनी परार्थसंपदनिधायिनी च ॥
ए पाठमां प्रणाम रूप स्तुति कही त्यां प्रणाम न.
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५३० परिजेदः १३ मस्कार एकार्थ बे, ते जैन ग्रंथोमां पांच प्रकारना कह्या डे १ मत्सर, श्न य, ३ स्नेह, ४ प्रजुता, ५ जक्ति ॥ ए पांच प्रणाममांथी प्रथमना च्यार नमस्कार तो सम्यग् दृष्टि मिथ्यादृष्टी बेसने प्राये संसार हेतुए करवां संनवे, ने स्नेह प्रजता ने नक्ति एत्रण नमस्कार प्राये सम्यग दृष्टीने धर्म हेतुएज करवा संजवे; तेमां पांचमो वंदनप्रत्यायरूप नक्ति नमस्कार तो सर्वविरती प्रमुखनेज सं. नवे, ने प्रणाम प्रत्ययिनक्ति नमस्कार देशविरती अवि. रती सम्यग् दृष्टीने परस्पर करवो संनवे, तेथी पूर्वोक्त स्तुति स्तोत्र रूप चोथी थुश्मां समदृष्टी देवतानने आश्रि नमस्कार शब्द प्राचार्योए वापस्याडे, ते सर्वे प्रणामरूपे जाणवा; तथा श्री जवाहुस्वामीजी चनदपूर्वधरकृत प्रतिष्ठा कल्प तथा श्री हरिनसूरिजीकृत प्रतिष्ठा कल्प तथा श्री स्यामाचार्यजी प्रमुख कृत प्रतिष्ठाकल्पोमां नमः शब्द तथा स्वाहा शब्द पूजा वाची कह्या बे, तेथी पूर्वोक्त चोथी थुश्यो पूजा प्रतिष्ठादि कारणेज कहेवी संनव थायजे. इहां कोश्यात्मारामजी आनंदविजयजीसरखा कहेशे के चतुर्थ स्तुति पूर्वे तो कारणे करता, पण संप्रति केटलाक कालथी परंपराए विना कारणे करता याव्या तेम करवी जोइए, तेने कहीये के, हे नइ! पूर्वे जेम कारणे करता तेम संप्रति पण केटलाक कालथी परंपराए कारणेज क
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५३१ रता आवेडे, यउक्तं श्री तपागडाधिराज श्री हीरविज. यसरि शिष्यरूत गुरुतत्वप्रदीपे तथा च ॥
तत्पाठः॥ चतुर्थी स्तुतिः पुरापि कारणे कता सं. प्रत्यपि कारणे क्रियमाणत्वादाचार्यपरंपरायाता च॥
॥ नावार्थः ॥ चोथी थुइ पूर्वे पण कारणे करी अने वर्तमानमां पण कारणे करतां थकां आचार्य परंपराए प्रावी ॥ ए पाठमां परंपराए पण चोथी थुइ कारणे कहेवी कही तो, अमारूं कहे, ए के महा गंजीर प्रा. शयवाला अने समुजेवी बुध्विाला पूर्वाचार्योए जे शास्त्रोनी रचना करी बे ते शास्त्रकारोना लेखने जूना ठराववाने वास्ते कुतर्क करवावाला कुतर्की कोट्यावधि कुतर्क करे, तो पण ते महा पुरुषोना अस्खलित वचननो कोइपण कुतर्की तुन्छ मतिवाला लोकोथी परानव थइ शके नहीं, किंत परानव करवावालो पोतेज पोतानी मेले स्खलनपणुं पामे डे, केमके पूर्वाचार्योना शास्त्रनी अपेक्षा बोडीने पोतानी कुयुक्तियोथी रुढी परंपरा चलाववाने उद्यम करवानी वांडा राखेडे, तेनो बोल असमंजस मृोना टोलामां तो श्वा माफक कदाच प्रमाण थइजाय, पण विवेकी जनोनी प्रागल तो अत्यंत नि. स्तेज थइ जाय. पण जूतो कोई काले साचो थाय नही. ॥ तथा समकितसारनुं खंम्न समकित सल्योहारनामा
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परिछेदः १३ आत्मारामजी खानंदविजयजीए बनाव्युं, तेमां पोते पोताना हाथथी शासन देवतानुनी पूजा प्रमुख नक्ति यागारि सम्यग् दृष्टि श्रावकोने करवी लाख तो एगारी सम्यग् दृष्टी श्रावकोने तो प्रर्थात् निषेध थइ.
नेागारि सम्यग् दृष्टी श्रावक पण सम्यक्त उचरतां जे जे कारणना यागार राखेबे, तेते कारण अपवाद कारणे सेवे बे, पण उत्सर्गे सेवता नथी; तो आागारि श्रावकने पण कारणे शासन देवता प्रमुखनी नक्ति करवी अर्थात् सि थ ने कारणे शासनदेवता प्रमुखनी जक्ति करवी सि-६ थइ तो चोथी थुइ पण अपवाद कारणे करवी अर्थात् सिद्ध थइ. केमके ढुंढकमति जेठमलजी विरचित समकितसार जाग १ पृष्ठ ३२ मामां लखेबे के, " वली ए साब तो सूत्र मध्ये बे, जे कार्यविशेषे लोकीकपदे समदृष्टीने श्रावकने अन्य देव मानवा पडेबे
नेते कशे जे "सइज" श्रावक देवतानी साद्य न वांडे, तो तमे कहोगे जे चोवीस तीर्थंकरना चोवीस जद चोवीस जहिणी रक्षा करे बे. वली शासन देवता सहाय करे बे, तेमनी थुइयो पडिक्कमणामां तमे कहोबो, चार तीर्थ सहाय न वांबे, तो ए जद जक्षिणी केहनी रक्षा करतां होसी वली शेत्रुंजा उपर चक्केसरी माताने कीम पुजोढो" ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशको शारः ५३३ ए जेतमलजी ढुढियाना लेखनु खंमन करता समकित सल्योहारपृष्ठ ५४ मां आत्मारामजीए एवी रीते प्रत्युत्तर लेख लख्यो बे के “जेठाढंढके लख्युं ने के सम्यक्त दृष्टी अन्य देवने पूजेने" ते मिथ्या , कारणके अन्यदेवने श्रावक पूजे नही; मिथ्या दृष्टी होय ते पूजे अने श्रावके गुरुमहाराजना मुखे उप्रागार सहित सम्यक्त
य ते शासन देवता प्रमुख समकित दृष्टिनी नक्ति करे , ते साधर्मीना संबंधे करीने करे ,तेने अन्यदेव कहेवाता नथी; वली जे कोइ सम्यग् दृष्टि को पण अन्य देवने मानशे ते देवता कांतो सम्यग् दृष्टि हशे अथवा तो कोई नपश्य करवावाला हशे, तेने माटे श्रावकने “देवानीनगेणं" आगार डे, परं तुंगोया नगरीना श्रावकोने शुंकष्ट आवी पड्युं हतुं जे अन्य देवने पूज्या? जेठो मूढमति कहे जे के “गोत्र देवपूज्या” ते कीया पाठनो अर्थ दे. गोत्रदेवता कोइ पण श्रावके पूज्या होय तो सूत्र पाठ देखाडो, कारणके अन्यदेवने श्रावक पूजे न ही" ॥ ए बेठ लेख समकित सार तथा समकित सल्योारमा जेम ले तेम लख्या . हवे बुद्धिवंताने विचार जोइए के, आत्मारामजी आनंदविजयजी चोथी थ करवानुं अपवाद कारण पोताने हाथे जणावीने हवे विना कारणे स्थापना करे बे, ते जेम कोइ मनुष्य एक
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५३४
परिजेदः १३ वखत जुलु बोले ने अने ते दुपाववा वास्ते तेने वारंवार जुतु बोलवू पडे जे तेम फकत प्रतिक्रमणमा चोथी थुइ स्थापवा माटे यद्वातदा मनमां आवे तेम वारंवार लखतां जम जेठमलजीढुंढके "कयबलिकम्मा"नो अर्थ फेरवतां संसार वधी जवानो कां पण मर खाधो नथी, तेम आत्मारामजी आनंदविजयजीए पण पूर्वधर तथा पूर्वाचार्योनुं वचन उल्लंघन करतां संसार वृद्धि थवानो किंचित्मात्र पणझरराख्यो नथी;पण सद्बुद्धिवान पुरुषोए यथार्थ जाणवू जोइए के पूर्वोक्त अनेक जैन शास्त्रोना लेखथी पूजा प्रतिष्ठादि कारणे सम्यग्दृष्टी देवतानना कायोत्सर्ग करवा, अने तेमनी थुइ कहेवी. एबे कथनमां कोइ पण जैनधर्मीने शंका रहि शकती होय के पूजा प्रतिष्ठादि कारणे सम्यग्दृष्टि देवताना कायोत्सर्ग जैनमतना शास्त्रोनां करवा कह्या बे के नथी कह्या, तो ए पूर्वोक्त शास्त्रोना पाथी निचे सिह थाय बे, के प्रतिकमणना आद्यंतमां उन्नय काल जिनगृहमांत्रण थुइए देववंदन अने पूजा प्रतिष्टादि कारणे गीतार्थ प्राचरपाए चोथी थुइ सहित त्रण थुइए साधुसाध्वी श्रावक श्राविकाने अवश्यमेव देववंदन करवू ॥
इति चतुर्थ स्तति निर्णय शंको झारे अपरनाग्निचतर्थ स्तुति कुयुक्तिनिर्णय छेदनकुगरे गीतार्थाचरणया पूजा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५३५ प्रतिष्ठादिविघ्नोपशमादिकारणे चतुर्थस्तुतिकथननिदर्शनो नाम त्रयोदशःपरिच्छेदः ॥१३॥
अथ चतुर्दशः परिच्छेदः
॥पूर्वपदः॥ प्रव्रज्याविधिमें और प्रतिष्ठादिविधिमें तो तुम पूर्वोक्तदेवतायोंका कायोत्सर्ग अरु थुइ कहनी मानते हो परंतु प्रतिक्रमणमें क्यों नहीं मानते हो तथा श्रुतदेवता देवदेवताका कायोत्सर्ग अरु तिनकि थुझ्यो कहनी क्यों नही मानते हो ॥
॥नुत्तरः॥ हे पूर्व पदिन् तमारा बेठ प्रश्ननो उत्तर एक साथेज आपीए जीए के प्रतिक्रमणना आयंते पूजा प्रतिष्ठादि कारण विना जिनगृहमां नन्नय काल त्रण थुइ ए चैत्यवंदन अर्थात् देववंदन करी साधु श्रावक प्रतिक्रमण करे, इत्यादि सर्व वात शंका समाधान पूर्वक अनेक शास्त्रोनी सादीथी नपर लखी आव्या जीए, तथापि श्री गणधरमहाराजकृत सूत्रोमां तथा पूर्वधराचा यकृत ग्रंथोमां अथवा पूर्वधरवर्तमानकालवर्ति तथा पू. र्वधरनिकटकालवर्ति बने पूर्वधरपश्चात्कालवर्ति श्राचार्योना ग्रंथोमा प्रतिक्रमण आयंत विधिमां पादिक चा. तुर्मासिक सांवत्सरिक संबंधी देवसी प्रतिक्रमणना अव
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परिजेदः १४ सानमां देवजुवन देवीना आज्ञा निमित्त कायोत्सर्ग विना कोई ठेकाणे पूर्वोक्त देवतोनना कायोत्सर्ग प्रमुख करवा कह्या नथी; ते केटलाक ग्रंथोना पाठ पंचांगी पू. र्वक जव्य जीवोने ज्ञापन करवाने अनुक्रमे लखिए बीए. तिहां प्रथम श्री उत्तराध्ययन मूनसूत्रमा सामान्य प्रकारे देवसीराइनी विधि कही ।
॥ते पाठः॥ पासवगुच्चारभूमिंच पडिलेहिऊजयंजई कानस्सग्गंतनकुद्या सवडकविमोकणं ॥३०॥ देसिजं. चअश्यारं चिंतिऊअणुपुत्वसो नाणेदंसणेचेव चरितमितहेवय ॥३॥ पारिअकाउस्सग्गो वंदित्ताणत गुरुं देसि. अंतुअश्यारं आलोऊजहक्कमं ॥४०॥ पडिक्कमित्तुनिस्सल्लो वंदित्ताणतगुरुं कानस्सग्गंतनकुटा सवडकविमोकणं ॥४१॥ पारिथकानस्सग्गो वंदित्ताणतगुरूं थुश्मंगलंकाळं कालंसंपडिलेहए ॥ ४२ ॥ ॥ संक्षिप्त नावार्थः ॥ स्थंमिलमात्रानी नूमि पडिलहिने एटले २४ मामलां करीने आवी गुरुसाझाए देवसीना अतिचार आलोववानो सर्व ख मटाडनारो कानस्सग्ग करे तेमां देवसीना अतिचार अनुक्रमे विचारे, ते अतिचार शेना ते कहे; ज्ञानदर्शन चारित्रमा लाग्या ते, तेमज पड़ी काउस्सग पारीने गुरुने वांदीने, दिवसना अतिचार अनुक्रमे बालोवे, पढी निशल्य थयो पडिकामिने,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५३७ गुरुने वांदीने सर्व उःख टाले एहवो कानस्सग करे,पनी कानस्सग्ग पारी गुरुने वांदीने स्तुतिमंगल करीने काल प्रतिलेखणा करे, एटले सञ्चाय करवानो अवसर देखे॥ ॥ए पाठमा प्रतिक्रमणनी आदिमां चोथी थुइ सहित त्रण थुश्नी चैत्यवंदना अनेअंतमां क्षेत्र देवी प्रमुखनो कायोत्सर्ग कह्यो नथी॥ तथा थिरापगढकममनवादी वेताल श्रीशांत्याचार्यकृत श्रीनत्तराध्ययनवृहदृत्तिमां पण देवसीप्रतिक्रमणनी विशेष विधि कहीजे.
॥ते पाठः ॥ कायोत्सर्ग ततः प्रश्रवणादिनूमिप्र. तिलेखनादनंतरं कुर्यात् सर्वऽःखविमोक्षणं तथा चास्यकर्मापचयहेतुत्वात् उक्तं हि “कालस्सग्गोजहमुठि यस्सनतिअंगमंगा तहनिदंतिसुविहिया अविहंकम्म. संघायं” तत्र च स्थितो यत् कुर्यात्तदाह देसियंतिप्राकृतवाहकारलोपे देवसिकं चः पूरणे अतिचारमतिक्रम चिंतयेश्यायेदणुपुत्वसो इतिअनुपूर्व्या क्रमेण प्रजातमुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेव कायोत्सर्ग नक्तं हि ॥ "गोसेमुहणंतगाइ बालोदेसिएयअश्यारे सवेसमाणयित्ता हियएदोसेठविद्याह" ॥ किं विषयमतिचारं चिंतये दित्याह झाने ज्ञानविषयमेवं दर्शने चैव चारित्रे तथैव च पारितः समापितकायोत्सर्गों येन स तथा वंदित्वा प्रस्तावाद्वादशावर्त्तवंदनेन तत इत्यतिचारचिंतनादनंतरं
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परिछेदः १४
गुरुमाचार्यादि देसियतिप्राग्वद्देवसिकं तुः पूरणे प्रतिचा रमालोचयेत् प्रकाशयेत् गुरुणामेव यथाक्रममालोचनासे वनान्यतरानुलोम्य क्रमानतिक्रमेण || प्रतिक्रम्य प्रतीप मपराधस्थानेभ्यो निवृत्त्य प्रतिक्रमणं च मनसा जावविशुदितो वाचा तत्सूत्रपाठतः कायेनोतमांगेन मना दितो निल्लो मायादिशल्यरहितः सूचकत्वात् सूत्रस्य वंदनपूर्वकं मयित्वा च वंदित्वा द्वादशावर्त्तवंदनेन तत इत्युक्तविधेरनंतरं गुरुमाचार्यादिकं कायोत्सर्गं दर्शनचारिश्रुतज्ञानशुद्धिनिमित्तं व्युत्सर्गत्रयलक्षणं जातौ चैकव चनं ततो गुरुवंदनानंतरं कुर्यात्सर्वदुःखविमोक्षणं पारिये - त्यादि पूर्वा व्याख्यातमेव स्तुतिमंगलं च सिइस्तवरूपं कृत्वा पाठांतरं वा सिद्धाणसंथव किच्चति सुगमं कालमा गमप्रतीतं संपडिले हिएत्ति संप्रत्युपेक्षते कार्थः प्रतिजागर्त्ति उपलक्षणत्वाद्गृह्णाति च एततश्व विधिरागमादवसेयः ॥ संक्षेपनावार्थः ॥ थंमिल मात्रानी चूमी देखीने २४ मंगल करीने सर्व दुःखना नाशनो करनारो एवो काजस्सग्ग करे ते काजस्सग्गमां ज्ञान दर्शन चारित्रना अतिचार चिंतवे; ए प्रथम कानस्सग्ग प्रतिक्रमण ठगव्या पबिनो बे पढी चोवीसचो वांदरणा देइ पडिक्कमणसूत्र कही गुरुने वांदीने प्रनुक्रमे त्रण कानस्सरण करी सिद्धाणं बुद्ध कहे. पनी काल ग्रहण करे. ते विधि यागमथी जा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोचारः ५३५ णवी. ए पाठमां पण देवसी प्रतिक्रमणना थादिमां चोथी थुइ सहित त्रण थुश्नी चैत्यवंदना तथा अंतमां श्रुतदेवी देवदेवतादिकनो कायोत्सर्ग कह्यो नथी ॥ तथा उसराध्ययन लघुवृत्ति ॥
पाठः॥ तनति ततःप्रश्रवणादिनूमिप्रतिलेखनानंत रंप्रतिक्रम्य निःशल्योमायादिशल्यरहितसूचकत्वात् सूत्रस्यवंदनकपूर्वकं कमयित्वा वंदित्वा ततो गुरुं कायोत्सर्ग चारित्रदर्शनशानशुझिनिमित्तं व्युत्सर्गत्रयलक्षणं जातो चैकवचनं थुश्मंगलं च कारणमितिस्तुतिमगलंस्तुति त्रयरूपं कृत्वा कालं संप्रत्युपेक्ष्यते कोर्थः प्रतिजागर्ति उपलक्षणत्वाद् गृहणाति च ॥॥
अर्थः ॥ मामला २४ करीशल्य रहित कानस्सग्गपारी गुरुने वांदी पडिक्कमणुं करी अनुक्रमे चारित्र दर्शन श्रुतना त्रण कानस्सग्ग करी, त्रण थुइ रूप मंगल करीने एटने सिझोनी त्रण थुइ कहीने काल ग्रहण करे ॥ ए सामान्य विधिना पाठमां पण देवसी प्रतिक्रमणना आदिमां चोथी सहित चैत्यवंदना कही नथी, ने अंतमां श्रुतदेवी प्रमुखना कायोत्सर्ग करवा कह्या नथी ॥ तथा उत्तराध्ययनअन्यवृत्ति
पातः॥ततःप्रश्रवणनूमि प्रतिलेखनानंतरं कायोत्सर्ग सर्वऊःखविमोदणं कुर्यात् देसियंतृत्ति प्राकृतत्वादकारलो
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५४० परिवेदः १४ पः देवसिकमतिचारमालोचयेत् अणुपुवसोत्ति बानुपू.
ा क्रमेण प्रनातमुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेवो त्सर्गः । ततः प्रतिक्रम्य निःशल्यो मायादिशल्यरहितः सूचकत्वात् सूत्रस्य वंदनकपूर्वकंदामयित्वा द्वादशावर्तेन वंदित्वा चततो गुरुंकायोत्सर्ग चारित्रदर्शनझानशुझिनिमि तं व्युत्सर्गत्रयलक्षणं जाती चैकवचनं ततः कायोत्सर्ग पारयित्वा वंदित्वा च ततो गुरुं थुतिमंगलंच काकणंति स्तुतिसिहस्तवरूपमिति हवृत्तौ स्तुतिमंगलंस्तुतित्रयरूपं कृत्वा कालं संप्रत्युपेक्षते कोर्थः प्रतिजागर्ति उपलद णत्वात् गृह्णाति च ॥४॥ __ अर्थः ॥ मामला २४ करी दिवस संबंधि अतिचारनो कानस्सग्ग करी जावत् अतिचार आलोवे एटले प्रजाते पडिलेहणनी मुहपत्ति पडिलेही त्यार पढी कानस्सग्गमां जे अतिचार लाग्या होय ते बालोवे पनी पडिक्कमणु करी शल्य रहित वांदणां देइ खामिने द्वादशावर्तवंदना दे पठी ज्ञान दर्शन चारित्रनीशुधिने अर्थे कामस्सग्ग त्रण करी पारी गुरुने वांदे, पडी स्तुतिमंगल स्तुति त्रण सि. होनी कहीने काल ग्रहण करे.एमां पण देवसी प्रतिक्रम पना आद्यमां चोथी थुइ सहित त्रण थुनी चैत्यवंदना करवी कही नथी ने अंतमां श्रुतकेत्रदेवतादिकनी थुर कहेवी कही नथी। तथा उत्तराध्ययनावचूरिका
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५४१ ॥पाठः॥ एवं सप्तविंशतिस्थमिले प्रत्युपेक्षणानंतरं आदित्योस्तमेति श्वं विशेषतो दिनरुत्यमुक्त्वा संप्रति तत्रैव रात्रिकत्यमाह कायोत्सर्ग ततःप्रश्रवणादिनूमिप्रतिलेख नानंतरं सर्वधःखविमोक्षणं इत्यादि यावत् वंदनकपूर्वकं मयित्वा वंदित्वा तत नक्तविधेरनुगुरुकायोत्सर्ग चारित्रदर्शनश्रुतज्ञानशुद्ध्यर्थ व्युत्सर्गत्रयरूपं जातावेकवचनं ततोगुरुवंदनादनुकुर्यात्॥१॥पूर्वाईव्याख्यातमेवस्तुतिमंगलं च सिइस्तवरूपं स्तुतित्रयेण कृत्वा कालं प्रत्युपेदते ॥
॥संक्षिप्त नावार्थः॥ सत्तावीस स्थंमिल पडिलेही का. नस्सग करे देवसी अतिचार चिंतवे, यावत् गुरुने वांदीने खमावीने वली वांदीने चारित्र दर्शन झानना त्रण कानस्सग्ग करी गुरुने वांदीने स्तुति त्रण रुप मंगल करे, पठी काल ग्रहण करे इति संकोचितपाठार्थः॥ इहां पण देवसी प्रतिक्रमणना आद्यमां चोथी थुइ सहित त्रय थुइनी चैत्यवंदना नथी ने अंतमां श्रुतदेवदेवीनो कायोत्सर्ग कह्यो नथी ॥ एमज श्री तपागलीयमहोपाध्याय श्री नावविजयजीकृत उत्तराध्ययन टीकामां पण देवसिप्रतिक्रमणना आयंतमां चोथी थुइ सहित त्रण थुश्नी चैत्यवंदना तथा श्रुतदेवदेवीना कायोत्सर्ग तथा थुइ कहेवी कही नथी. तथा वलि तेमज श्री खरतरग
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५४२
परिच्छेदः १४ बीय उपाध्याय श्री लक्ष्मीवल्लनजीकृत श्री उत्तराध्ययन वृत्तिमां पण पूर्वोक्त प्रमाण देवसीप्रतिक्रमणनी आदिमां चोथी थुइ सहित त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कही नथी, ने अंतमां श्रुतदेवदेवीना कायोत्सर्गनी थुइ कही नथी; तथा चौद पूर्वधर श्रुत केवली श्रीनबाहुस्वामीजीकृत आवश्यक नियुक्ति ___ ॥ पातः ॥ तेपुणससूरिएच्चिय पासवणुचारकालनूमीन पेहित्ताअबमए तंतुस्सग्गसएठाणे ॥१॥ जादे वसीयंडगुणं चिंतेगुरूअहिंगचिठं बहुवावाराश्यरे ए गगुणंताविचिंतंति ॥२॥ पवश्याणंचचिठं नाऊणगुरुबहुं बहु.विहीयंकालेणतउचिएणं पारेझ्यथोवचिठोवि॥३॥नमुकारचनवीसग किश्कम्मालोयणंपडिक्कमणं किश्कम्म उरालोश्य उप्पडिकंतेयनस्सग्गो ॥४॥ एसचरितुस्सग्गो दसणसुझीयतश्यहोइ सुयनाणस्सचन्बो सिक्षाणंथुइयकिकम्मं ॥५॥ सुकयंत्राणत्तिवा लोएकाकणसुकय किश्कम्मा वढतितियाथुन गुरुथुगहणेकएतिन्नि ॥६॥
॥ अर्थः ॥ वली ते साधु सूर्य बतां तल्ला मात्रानां मामलां करीने एटले नूमी सोधिने रहे, एवामां सूर्य अस्त थये प्रावी प्रतिक्रमण गवी सामायिक कही कानस्सग्गमां रहे. ईहां व्याघातादिकनी गाथान बोडिने पाठ लख्यो डे, ज्यां सूधि देवसी अतिचार गुरु अहिंमक ते
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको द्वारः
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व्यापार नही करता थका बमणीवार चिंतवे एटली वखतमां बहु व्यापार जेमने एहवा साधु यतिचार एकवार चिंतवे अथवा साधुननी चेष्टा के० व्यापार प्रते गुरु बहु प्रकारे जाणीने एटले तेमने गौचर्यादि बहु प्रकारना व्यापार के ० चमणादिक कार्य जाणीने गुरुने चेष्टा अल्प वे तोपण तेमने उचित काले करी काउस्सग्ग पारे, नमो अरिहंताणं करीने लोगस्स कहे वांदणां दे पनी पडिक्मणा सूत्र कही वांदणां देइने जे कोइ नूलमां - प्रतिचार रह्या होय, तेनो काउस्सग्ग करे, ए चारित्रनो का - नस्सग्ग बीजो, दर्शन शुद्धिनो त्रीजो, श्रुत ज्ञाननो चोथो करीने सिद्धोनी स्तुति करी वांदणां दे शामाटे के ज्ञेम प्रधानादिकने राजा कार्य जलाव्यां थकां ते प्रधानादिक राजाने प्रणाम करीने ते कार्य करी पाढा यावीने प्रणाम करी कहे, तेम इहां पण जाणवु पछि वर्धमान त्रण थुइ कहे ॥ ए पाठमां पण चोथि थुइ सहित चैत्यवंदना तथा श्रुतक्षेत्रदेवताना कायोत्सर्ग प्रमुख कह्या नथी तथा श्री हरिन सूरिजीकृत आवश्यकवृहद्वृत्ति ॥
॥ पाठः ॥ ते पुणससूरियाए गाहा ए व्या० ते पुनः कायोत्सर्गकर्त्तारः साधवः ससूर्य एव दिवसे प्रश्रवणोच्चारण कालभूमिं प्रत्युपेक्ष्य द्वादशप्रश्रवणनूमयः प्रालयपरिजोगांत षट् षड्बहिरेवमुच्चारनूमयोपि द्वादशप्रमाणं चासां
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परिजेदः १४ तिर्यग् जघन्येन हस्तमात्रमधश्चत्वार्यगुल्यान्यचेतनमुत् रुष्टतस्तु स्थमितं द्वादशयोजनमानं न च तेनाधिकारः तित्रस्तु कालनूमयः कालमंझलारख्या यावच्चैनमन्यं च श्रमणयागं कुर्वंति कालवेलायां तावत्प्रायशास्तमुपया त्येवसविता ततश्च अर्थमिएत्युस्सग्गंसहाणति उक्तम न्यथा यस्य यदेव व्यापारपरिसमाप्तिनवति स तदेव सामायिकं कृत्वा तिष्टतीति गाथार्थः अयं च विधिः के नचित्कारणांतरे गुरोर्व्याघाते सति यदि पुण गाहा ॥१०॥ व्या० यदि पुनर्निव्याघात एव सर्वेषामावश्यकं प्रतिक्रम णंततः कुर्वतिसर्वेपिसहैव गुरुणा सढाइकहणवाघायत्ता एपहागुरुवंतित्तिनिगदसिझमितिगाथार्थः ॥१०॥यदाच पश्चाद्गुरवस्तिष्टंति तदासेसानगाहा॥११॥व्याण् शेषाःसाघवः यथाशक्ति शक्त्यनुरूपयोहियावंतं कालंस्थातुंसमर्थः आपुडित्तातुगुरुवंतिसठाणेसामायिक काकणकिनिमित्तं सुत्नबसरणहेनसूत्रार्थ स्मरणहेतुआयरिएठियंमि देवसियांमधायरिएपुरनतिए तस्ससामाझ्यावसाणे देवसियं अश्यारंचिंतति अन्ननतिजाहेआयरिनसामाश्यंकट ताहेतेवितहतियाचेवसामाश्यसुत्तमणुपेहंतिगुरूणासहप हा देवसियंतिगाथार्थः शेषास्तुयथाशक्तिरित्युक्तं यस्य का. योत्सर्गेणस्थातुशक्तिरेव नास्ति सकिंकुर्यादिति तजतं विधिमनिधित्सुराह जोहुधन गाहाः॥१व्या यःकश्चित्सा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोक्षारः ५४५ धुर्नवेदसमर्थः कायोत्सर्गेणस्थातुं स किंनूत इत्याह बालो वृक्षःग्लानपरिततोतिपरिश्रांतो गुरुवैगावृत्त्यकरणादिना असावपि कथादिनी रहितःसन्ध्यायेत्सूत्रार्थ जागुरुवंति यावत्गरवस्तिष्टंति कायोत्सर्गमितिगाथार्थः॥१शाप्राचार्य स्थिते देवसिफमित्युक्तं तजतं विधिमनिधित्सुराह उजादेव सियंगाहा १३ व्या निगदसिझा नवरं चेष्टाव्यापाररूपा वगंतव्यापवश्याणंचचेठगाहा १४ नमोकारचठविसगा. हा १५ व्या० नमोक्कारेत्तिकानस्सग्गसमत्तीए नमोक्कारेणपाति नमोअरिहताणंति चवीसगति पुणोजेहिश्मंतिबंदेसियं तेसितिबकराणं नुसनाइणंचनवीसबएण उकित्तणंकरोति लोगस्सोयगरेतिनणियहोकि तीकम्मतुततोवंदिनकामागुरुंसंमासयंपडिलेहितानववि. संति ततोमुहणंतगंपडिलेहियससीसोवरीयंकायंपमज तिपमङिता परेणंतिकरणपरिस-इंकियकम्मकरेती वंदण गमित्यर्थः उक्तंच पालोयणवागरणस्स पूजणेपूयणाए सझाए अवराहेअगुरूणं विण-मूलंचवंदणगमित्यादि पालोयणंति एवंचवांदेत्ता नहायोजयकरगाहयरनहरण श्रावणयकाया पुवंपराचिंतिएदोसे जहाराणियाएसं. जयत्नासाए जहागुरूसो तहापवइमाणसंवेगामायाम यविप्पमुक्काअप्पणोविसुदिनिमित्तमालाएति नक्तंच विण एणविणवियमूलं गंतृणायरियपायमूलंमि जाणाविऊसु
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५४६
परिच्छेदः १४ विहिन जहअप्पाणंतहपरंच॥१॥ कयपावोविमणुसो श्रा लोइयानंद गुरुतगासे होइअरेग नहुन उहारेअन्ना क्वनारवहो ॥॥ तथा ठप्पन्नाणुप्पन्ना मायाअणुमग्गनि हंतवा आलोयणनिंदण गरहणानपुणोत्तियावितियं ॥ २॥ तस्सयपायचित्तं जमग्गविनगुरूनवासंति तंतहअणु चरियवं अपवनपसंगनीएण॥४॥ पडिकमाणतिप्रा. लोनणदेशे गरुणापडिदिन्नपायबित्ता तोसामाश्यइपुत्वगं समनावेगइनणयपडिक्कमति ॥ ५ ॥ सममुवनत्तापदं पदेणपडिक्कमणंकमंति प्रणवलपसंगनीया अपनाए णपुणनदाहरणं तिलहारगकप्पडगोत्ति कित्तिकम्मति तनप्रडिक्कमित्ता खामणानिमित्तं पडिक्कमणनिवेयण वंदति तनयायरियमादी पडिक्कमणबमेवदंसेमाणाखा मेत्ति नक्तंच आयारेयनवशाए सीसेलाहम्मिएकुलगणेश जेमेकेकसाया सवेतिविहेणखाममि ॥ २२ ॥ सबस्स समयसंवस्त नगवअंजनिकरीयसीसे सबंखमावश्त्ता खमामिसवस्सअहयपि ॥ २३ ॥ सवस्लजीवरासिस्स नावनधम्मनि हियनियचित्तो सबंखमावश्त्ता खमामिस वस्तअहयपि ॥ २४ ॥ इत्यादिडरालोयप्पडिकतेयका उस्सग्गो.त्त एवंखामेत्ता आयरियमाइतघरालोइयंवा होद्या दुप्पडिकंतवाहोद्या अणानोगादिणाकारणेणं ततोपुणोविकयसामाझ्याचरित्तविसोहणबमेवकानस्सम्गं
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५४७ करेतितिगाथार्थः ॥ एसगाहा ॥ व्याख्या चरितुस्स ग्गोतिचरित्ताय.रविसहिनिमित्तोनणियंहोंतिअयंचपंचा सुस्सासपरिमाणों ततोणमोकारेणपारेत्ताविसुश्चरित्नदे सियाणंदसणविसुझिनिमित्तएसनामुकित्तणकरेंति चारि नविसोहियमियाणींदसणंविसोहिद्यशतिकटु तंपुणनाम कित्तणमेवंकरोति लोगस्सद्योयगरेत्यादि अयं चतुर्विंश तिस्तवश्चतुर्विंशतिस्तवे पदेण व्याख्यात इति नेह पुनर्व्या ख्यायते ॥ चतुर्विंशतिस्तवं चानिधाय दर्शनविशुदि निमित्तमेव कायोत्सर्ग चिकीर्षवःपनरिदं सत्रं पठति सब लोएपरिहंतचेझ्याणं करेमिकास्सग्गमित्यादि अन्नबनस सिएणमित्यादिपर्ववत् यावदोसिरामीति एयंचसुत्तंपढि तापणविसुस्सासपरिमाणंकानस्सग्गंकरेति दसणसुछिए तश्नहोइत्ति तृतीयत्वंचास्यातिचारालोचनविषयप्रथमका योत्सर्गापेक्ष्यति ततोनमोक्कारेणपारितासुयनाणपरिबु मिनिमित्तंअश्यारविसोहणबंचसुयधम्मस्सनगवतोपरा एनत्तीए तप्परूवगनमोक्कारपुत्वगंथइपढति तंजहा पुस्कर वरदीवढे धायसंमेयजंबदीवेय नरहेरवयविदेहे धम्माग रेनमंसामि इत्यादि सुयस्सनगवनकरेमिकाउस्सग्गं वंद गवत्तियाए इत्यादि प्राग्वत् यावदोसिरामि एयंसुतंपढि त्तापणविसुस्सासमेवकानस्सग्गंकरोति प्राहचसुयनाणस्स चनोत्ति ततोनमोक्कारेणपारित्ताविसुझचरणदसणसुया
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५४७ परिच्छेदः १४ तियारामंगलनिमित्तंचरणदंसणसयदेसगाणंसिक्षाणंथति कति नणियंच सिझाणथुएतिसाचेयंस्तुतिः सिक्षाणं बुझाणमित्यादि एतास्तिस्त्रस्तुतयो नियमेनोच्यते केचिद न्या अपि पठति न च तत्र नियमः कितिकम्मति पुणो संमासयंपडिलेहियनवविसंति महपोत्तियापडिलहियंति ससीसोवरियंकायंपमङित्ता आयरियस्सवंदणंकरेति गा थार्थः थाह किंनिमित्तमिदंवंदनमित्युच्यते सुकयंगाहा २७ व्या० सुकयआणत्तिपिचलोएकानणंतिजहारनाम गुसाआणनिगाएपेसियापणामंकाकणगचंति तंचसुकयं काऊणपुणोपणामपुवगणिवेशंति एवंसाहुणोविगुरुसमाहि गवंदणपुत्वगंचरित्तादिविसोहिकाकरणपुणोसुकयकितिक म्मासंतोगुरुपोनिवेदेतिनगवंकयंतंपेसणंआयविसोहिका रंति वंदणंकाकणपुणोनक्कडयाबायरियानिमुहा वियर इयंजलिउडाचिठंति जावगुरुथशहणंकरेती ततोपडा समताएपढ़मथुएर्तिकति विपत्ति तान्थुत्तीनवढं तितिन्निकळंति आह च वलृतियाथुती गुरुथुगहणक एतित्तिगाथार्थः ॥ २७ ॥ ततोपानसिकत्तवंकरोति एवं तावदेवसियंगयं ॥3॥
॥संक्षेप नावार्थः ॥ मामलां करीने सूर्य अस्तंगत थते जे जे साधु पोत पोताना कार्यथी निवर्त्या ते ते नावीने सामायिक करे,जो गुरु को काममां होय तो का.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५४ए नस्सग्ग करीअर्थ विचारे;गुरु साथे पड़ी कानस्सग्गपारीलोगस्स कही मुहपत्नी पडिजेहि वांदणांदे, आलोइपडिकमण सूत्र कहे,परि आचार्यादिकने वांदिने खमावे पनी करेमिनंते चारित्र शुद्धि कायोत्सर्ग पचास श्वासोश्वास नोकानस्लग्गपारी पड़ी लोगस्सकही दर्शनशुद्धि निमित्ते २५ श्वासोश्वासनो कानस्सग्ग करीपुरकरवरदी कही श्रुत शुम्झिनिमित्ते २५श्वासोश्वासनोकानस्सग्ग करी सिसाणं बहाणं कहो मुहपत्ति पडिलेही गुरुवंदन एटले वांदणा दे अंते वईमान थुइ कहे.इहां सर्वविधि सूत्र अर्थ स. हित लखोडे ते बहु ने ते आदी अंत संदेपार्थथी लखी बे ॥ ए पाठमां देवसी प्रतिक्रमणना आद्यंतमां चोथी थुइसहित चैत्यवंदना तथा श्रुतदेव देवतादि कायोत्सर्ग कह्या नथी, तथा तेमज पूर्वधराचार्यरुत श्री आवश्यक चूर्णीनो पाठ ने तेमां पण प्रतिक्रमणना आद्यतमां चोथी थ सहित चैत्यवंदना तथा श्रुत देवदेवतानां कायोसर्ग थुइ करवां कह्यां नथी, पण ग्रंथ गौरवना जयथी ते पाठ लव्यो नथी॥तथा आवश्यकनियुक्ति मूल तथा वृहवृत्तिमां कालग्रहणाधिकारे पण देवसी प्रतिक्रमणनी विधि कही .
॥ते पातः ॥ अहपुणगाहा ५३ ॥ व्या० अत्यनं तरे सूरथचमाणंतरमेव श्रावस्सयंकरेति पुनर्विशेषणेऽ
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५५० परिवेदः १४ विहमावस्लगकरणंविसेसे निवाघाश्मंवाघाश्मंचजदिनि वाघायं ततोसत्वेगरुसहियंत्रावस्सयंकरेति ग्रहगरुसमेस धम्मंकहेश्तोयावस्सगस्ससाहहिं सहकरणिजस्सवाघान नवति जमिवाकालेतंकरणियंतसेतस्सवाघाना त तोगुरुनिसेऊधरोयपन्जाचरित्ताश्यारजाणणा नस्सग्गं करिहिति ॥ सेसा-जहासत्तिंगाहा ५४ व्या० सेसासाहु गुरुग्रापुचिता गुरुतापस्समग्गन आसन्नदूरे अहाराय णियाएजस्सठाणं तं तस्साणं तबपडिक्कमंताणंमंठवणा :: गुरुंपवातायंतो मणगंतुंसवाणेायति जेवामतोते अणंतरसवणंगतुंसगयंति जेदाहिणोत्रणंतरंअवसतेणंगं तुगयति तंचप्रणागयंतायंति सुत्तनधरणहेनं तनपबामे वायंता करेमिनंतेसामाश्यमित्तिसत्तंकद्देति पहाजाहेगु रुसामाश्यंकरेत्ता बोसिरामिति नणित्तातियानस्सग्गंता हेपुवठियादेवसिया अतियारंचिंतेतिअनेनणति जागरु सामाश्यंकरेति सेसंकंटजोहोचलंगाहा ५५ व्या० परि स्संतोपाहुणगादि सोविससायशाणपरो अवजाहेगुरू तंति ताहेतेविबालादियागयंति एएणविहिणाबावस्सयं तुगाहा ५६ व्या० जिरोहिंगणहराणंनवततोपरंपरा एणंजाव अम्हंगुरुवएसेणं आगयंतंकाचंअन्नातिनिथुइ नकरेति अहवाएगाएगासेसोगिया बितियासिनोगिया ततियातिसिलोगिया तेसिसमत्तीएकालपडिलेहणविही
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशेकाहारः ५५१ माकायबा ॥१२॥
॥ नावार्थः ॥ सर्य अस्तंगत थया पनी प्रावश्यक करे ते बे प्रकारे एक तो व्याघात एटले गुरु कोइने नपदेश करता होय त्यारे गरुनी साथे पडिकमणु नववानो व्याघात ले केमके जे काले जे करवू घटे ते ते काले न थाय ते व्याघात कहीये;बीजो निर्व्याघात ते गुरुनी साथे पडिक्कमणु नववं तेमां जे नियाघात होय त्यारे तो बधाए साधु गुरुनी साथे पडिक्कमए तावे; व्याघात होय तो गुरु अने गुरुनो वैयावच्ची ए बे पठी ठावे बीजा बधा गरु पहेलां थापना मांडीने ठावे, ते एवा बेसे के कोने
आड न पडे, तेवी रीते बेशी गुरुने पूबीने गुरुना नजीक तथा दूर बेसी पडिक्कमणु ठावे, पढी करेमिनंतेसामाश्यं इत्यादि कही काठस्सग्ग गावे,तेमां देवसीना अतिचार चिंतवे तथा सुत्रना अर्थ विचारे, ज्यां सूधी गुरु सामायिकादि कानस्सग्ग न पारे त्यां सधी कानसग्गमा रहे ने अतिचार चिंतवे. बीजा आचार्य एम कहे के जो व्या. घात होय त्यारे बधा कानस्सग्ग करी सूत्रार्थ चिंतवे; ज्यारे गुरु सामायिकादि नच्चारे त्यारे ते पण सामायिकादि ठावीने कामस्सग्ग करे बीजा पाहुणा तथा बालादिक पण गुरुनी साथे गावे, एम ए विधिए आवश्यक करीने तीर्थंकरे गणधरोने कह्यु, पनी
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५५२
परिच्छेदः १४
परंपराथी यावत् प्रमारा गुरुने उपदेशे करी प्राव्यो ते करीने बीजी थुई करिये बीये; अथवा एक श्लोकनी पेहेनी, बे नोकनी बीजी, त्रण श्लोकनी त्रीजी, ते समाप्त था पी कालप्रतिलेखना ते विधि एम बे ॥ ए पाठां देवसी प्रतिक्रमणनी विधि सामायिकथी ते वईमान त्रण स्तुति पर्यंत बे; पण आदिमां चोथी थुइ सहित त्रण थुना देववंदन तथा श्रुत क्षेत्र देवताना कायोत्सर्ग स्तुति कह्यां नथी; तेमज पूर्वधराचार्यकृत यावश्यक चूर्ण तथा निशीथ चूर्णि व्यवहार सूत्र वृत्ति च्यावश्यकावचूरी श्रावश्यक दीपिकादिकमां ॥ प्रहपुरागाहा ॥ जइ पुरानिवाघान इत्यादि गाथाए करी पूर्वोत सादृश्य पाठे करी देवसी प्रतिक्रमणनी विधिमांखाद्यंत चोथी थु सहित चैत्यवंदना तथा श्रुत क्षेत्र देवताना कायोत्सर्गादिकथन करया नथी । इत्यादि पूर्वोक्त अनेक पंचांगांना ग्रंथोमां सामान्य विशेषे देवसि प्रतिक्रमणविधिनुं कथन करयुं वे पण यादिमां सामान्य विशेष विधिए चैत्यवंदना कही नथी, ते पूर्वघर तथा पूर्वधर निकट कालवर्त्ति श्राचार्योंने वारे जिनगृहमां चैत्यवंदन करी प्रतिक्रमण करता, तेथी देवसि प्रतिक्रमगाना याद्यंतमां चैत्यवंदननो तथा पाक्षिकचातुर्मासिक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विना क्षेत्र देवी भुवनदेवीनो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ५५३ कायोत्सर्ग तथा थुइनु कथन नथी, तेमज पूर्वधर तथा पूर्वधर निकट कालवर्ति आचार्योने वारे राइपडिक्कमणु करीने जिन चैत्यमां चैत्यवंदन करता तेथी राप्रतिक्रमणविधिमां पण चैत्यवंदनानुं कथन नथी ते पाठ अनुक्रमे लखिए बीए ॥ त्यां प्रथम श्री उत्तराध्ययन मूलसूत्रमा राप्रतिक्रमणविधि.
पाठः॥ गाथा॥ पोरिसीएचननाए वंदिकणतनगुरूं पडिक्कमित्ताकालस्स कालंतुपडिलेहए ॥ ४५ ॥ आगए कायवुस्सग्गे सबकविमुकणे काउस्सग्गंत कुद्या सबउकविमुकणं ॥ ४५ ॥ राश्चअश्यारं चिंतिजअ गुपुत्वसो नाणंमिदंसमिश्र चरित्तंमितवंमिथ ॥४६॥ पारिअकानस्सग्गो वंदित्ताणतगुरुं राश्वेतुअश्यारं बालोइजजहक्कम ॥ ४ ॥ पडिक्कमित्तुनिसल्लो वंदित्ता गतगुरुं कानस्सग्गंतकुद्या सवडकविमुकणं ॥४॥ किंतवंपडिवजामि एवंत विचिंतए कानस्सग्गंतुपारिता वंदश्त गुरूं ॥ ४ए ॥ पारिश्रकानस्सग्गो वंदित्ताणतन गुरुं तवंसंपडिवजित्ता करिजसिझाणसंथवं ॥ ५ ॥
॥अर्थः ॥ पागली.बे घडी रात्रि रहे त्यारे गुरुने वांदीने वैरात्रिक काल ग्रहण करे पडी पडिक्कमणु गवीने कानस्सग्ग करे,सर्व उःख निवर्तन करे एवा ते कानस्सग्ग मां रात्रिना अतिचार झान दर्शन चारित्र तपमा जाग्या
७०
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परिच्छेदः १४
५५४
अनुक्रमे लोवे, पढी कानस्सग्ग पारिने गुरुने वादणां देने राईना अतिचार अनुक्रमे आलोवे, पढी निश्शव्यथयोथको पक्किमे पत्नी गुरुने वांदिने कानस्सग्ग करे ते काउस्सग्मांशुं तप करिशुं एवं चिंतवे पनी का उस्सग्ग पारी गुरुने वांदिने जे तप चिंतव्युं होय ते अंगीकार करे, पढी सिधोनी स्तवना करे ॥ ए पाठमां रात्रि प्रतिक्रमणना अंतमां चोथी थुइ सहित चैत्यवंदना कही नयी ॥ तथा थिरापङ्गचैकमंकन वादिवेतालश्रीशांत्याचार्यजीकृत उतराध्ययनवृत्तिमां रात्रिप्रतिक्रमणविधि.
॥ पाठः ॥ पोरिसीएच प्नाए सेसे वंदितो गुरु पडि क्कमितुकालस्स कालंतुपडिनेहए ॥ अत्रापिव्याख्या तथैव पाठयेपि च चतुर्थ प्रहरविशेषकृत्यानिधानप्रसंगेन पुनः प्रहरत्रयकृत्यां निधानमिति मंतव्यं व आगते प्राप्ते कायव्युत्सर्गे इत्युपचारात् कायव्युत्सर्ग समये सर्व्वडुःखा नांविमोक्षणमर्थात् कायोत्सर्गद्वारेणयस्मिन् स तथा तस्मिन् शेषंप्राग्वद्यचेह सर्वदुःखविमोक्षण विशेषणं पुनरुच्यते तदस्यात्यंतनिर्घरा हेतुत्वख्यापनार्थतथेहका योत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शने श्रुतज्ञानविशुध्यर्थंकायोत्सर्ग त्रयंगृह्यते तत्र च तृतीयेरात्रिको अतिचारश्चिंत्यते यत उक्तं एचपढमोचारिते दंसणसु-दीयबीयन होई सुयला पास्सयत वरं चिंते तच्च श्मंत एनिसा इयारंतिरात्रि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको-द्वारः
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कोतिचारश्च यथायद्विपयश्वचिंतनीयस्तथाह रात्रौनवंरात्रिकं चः पूरणेअतिचारं चिंतियेत् अणुपुवसुत्ति आनुपूर्व्या क्रमेणज्ञाने दर्शने चारित्रेतपसिचशब्दाद्वीर्येच शेषकायोत्स र्गेषुचतुर्विंशतिस्तवः प्रतीतश्चिंत्यतया साधारणश्चेतिनोक्तः ॥ ॥ ॥ ततश्वपारितेत्यादिसूत्रद्वय व्याख्यातमेव काय त्सर्गस्थितश्वकिं कुर्यादित्याह किमिति किंरूपं तपोनमस्का रसहितादिप्रतिपद्ये हमेवंतत्राविचिंतयेत् वर्द्धमानोहिनग वान् षण्मासंयावन्निरशनाविहृतवान् तत्किमहमपिनिरशनः शक्नोम्येतावत्प्रकालंस्थातुमुतनेति एवंपंचमासाद्य पियावन्नमस्कारसहितं यावत्परिजावयेऽक्तंहि चिंतेचरि मेनकिंतवंढम्मासादेकदिणादीहाणिजापोरिसोनामावाल
तराईस्पष्टंएतक्तार्थानुवादतः सामाचारीशेषमाह पारि एत्यादिप्राग्वत् नवरं तपो यथाशक्ति चिंतितमुपवासादिसप्र तिपद्यांगीकृत्यकुर्यात् सिद्धानां संस्तवंस्तुतित्रयरूपं तदनु यत्र चैत्यानि संति तत्र तद्वंदनं विधेयं तथाचाह जाष्यकारः वंदितुनिवेयंती कालंतोचेइयाइज अचि तोवंदंतीकालं जहायतुलेनं पडिक्कमणं इतिसा त्रयोदशसूत्रार्थः उ.
॥ संक्षिप्त नावार्थः ॥ रात्रिना चोथा प्रहरना अवसरे एटले आवश्यकनो अवसर आवे त्यारे आवश्यकमां चारित्र दर्शन ज्ञाननी शुद्धिने अर्थ काजस्सग्ग करे त्यां त्रीजा काजस्सग्गमां रात्रिना यतिचार चिंतवीने काव
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५५६ परिजेदः १४ स्सग्ग पारीये,प्रथमना बेकानस्सग्गमा एक एक लोगस्स कहिये पढी गुरुने वांदि पडिक्कमीने जेम पूर्वे कर्तुं तेम जाणवू, पण एटलुं विशेष के तप जेवी शक्ति होय ते, विचारी नपवासादिक अंगीकार करीने त्रण थुइ रूप सिझोनी स्तवना करे पनी ज्यां चैत्य हे त्यां तेमने वांदे एमज नाष्यकार कहे . वांदिने काल निवेदन करे. जो चैत्य होयतो वांदे ॥ ए पाठमां प्रतिक्रमण करी जो चैत्य होयतो वांदवा एटले जिन चैत्यमां चैत्यवंदना कही पण राप्रतिक्रमणना अंतमां चोथी थु सहित चैत्यवंदना कही नथी॥तथा उत्तराध्ययन सूत्रना॥२एमा॥ थध्ययननी वृत्तिमां पण ज्यां नजीक चैत्य होय त्यां चैत्यवंदना करवी कही बे.
ते पाठ॥ अत्रंचोत्तरगुणप्रत्याख्यानांतर्नुनमस्कारसहितादितग्रहणानंतरंच यत्रसन्निहितानिचैत्यानि तत्रतद्वंदनंविधेयमित्युक्तंप्राक्तच्चनस्तुतिस्तवमंगलविनेति तदाह ॥ __अर्थः-इहांउत्तर गुण पञ्चकाण अंतर्गत नवकारसी प्रमुख अंगीकार करीने पठी ज्यां नजीक चैत्य ले त्यां तेमनु वंदन करवू एवं पूर्वे कह्यं ने ते चैत्यवंदन स्तुति स्तवमंगल विना न होय माटे ते कहे ॥
ए पाठमां पण प्रतिक्रमण करीने निकट चैत्य होय
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५५७ त्यां चैत्यवंदना करवी कही,पण प्रतिक्रमणमां चोधी थुइ सहित चैत्यवंदना करवी कही नथी ॥
॥ तथा उत्तराध्ययन लघु वृत्ति पाठः ॥ तन आवस्स यंकणंतिमध्यमप्रक्रमापेदंच कालत्रयग्रहणमुक्तमन्यथाा न्मार्गतयोत्कर्षेणचत्वारोजघन्येनत्रयकालाः अपवादतश्चो कर्षणदौजघन्येनैकोप्यनुज्ञातएव ॥
॥ यतः नक्तं ॥ कालचनक्कनकोसएण जहन्ननत्तिहोतिबोधवा ॥ बीयपयंतुष्गंतू मायामयविप्पमुक्काणं ॥ पत्र च तु शब्दादेकस्यानुझा तथा चूर्णिकार एवं अमायाविणोतिन्निदोवाअगेएहंतस्सएक्कोनवति आगएकाय वोसगो सव्वदोकविमोकणं ॥ कानस्सग्गंतनंकद्या सव उस्कविमोखणं ॥ ४ ॥ अागतेप्राप्तकायोत्स्वर्गेसमयेशेष प्राग्वत् यच्चेह कायोत्सर्गस्य सर्वःकविमोकणंपुनरुच्यते तदस्यात्यंतनिर्जराहेतुत्वख्यापनार्थं ॥ यमुक्तं ॥ कानस्स ग्गेजहमति यस्सनयंतिथंगमंगाई श्यनिंदंतिमुणिवरा यविहंकम्मसंघायं ॥ तथेहकायोत्सर्गस्यसर्वङःखग्रहणेन चारित्रदर्शनशानशुद्ध्यर्थं कायोत्सर्गत्रयंगृह्यते ॥ तत्रैव तृ तीयेरात्रिकोऽतिचारश्चिंत्यते तथाचाह राश्यतुयायं ॥ चिंतियअणुपुत्वसो नाणमिदंसमिश्र चरित्तमितहेवय४६ पारियकानस्सग्गो वंदित्ताणतगुरुं राश्यंतुअश्यारं थालोश्चजहक्कम ॥७॥ पडिक्कमित्तुनिसल्लो वंदित्ताणतन
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५५७
परिन्जेदः १४ गुरुं कानस्सग्गंत कुद्या सबकविमुकणं ॥४॥ किंतवंपडिवद्यामि एवंतबविचिंतए कानस्सग्गंतुपारिता वंदिश्यतनगुरुं ॥४॥ पारियकानस्सग्गो वंदित्ताणतन गुरुं तवसंपडिवधित्ता करेघसिक्षाणसंथवं ॥५०॥ रात्रौ नवरात्रिकं चःपुरणेअतिचारंचिंतयेत् प्राणुपुवसोत्तिानुपूर्व्याकमेणझानेदर्शनेचारित्रेतपसिचशब्दावीर्येच शेष कायोत्सर्गेषुस्तवचिंतवनंप्रतीतमितिनोक्तं ततश्वपारिय सूत्रत्रयंप्रतीतमेवतृतीयसूत्रोत्तरार्दोक्तार्थानुवादसामाचारी शेषमाह ॥ पारिएत्यादि प्राग्वन्नवरंतपोयथाशक्तिचिंतितं प्रतिपद्यकुर्यात् सिझानांसंस्तवंस्तुतित्रयरूपंतदनुचयत्र चैत्यानि तत्रतद्वंदनंविधेयं ॥
॥संदिप्तार्थः॥ सिझोनु स्तव त्रण थुइ रूप करीने ज्यां चैत्य होय त्या तेमने वांदवा इहां पण चैत्यमांज चैत्यवंदन करवु कडं ॥ तथा नत्तराध्ययन लघु वृत्ति अध्ययन एमानी, तेमां पण पाठ उपर लरख्या प्रमाणे जाणवो. तथा उत्तराध्ययन अवचूरीमां पण चैत्यमांज चैत्यवंदना कही .
॥ते पाठ ॥ सिझानांसंस्तवंस्तुतित्रयरूपंतदनुयत्र चैत्यानिसंतितंचतवंदनंविधेयं ॥
अर्थः-सिझोनीस्तवना रूप त्रण थुइ कहीने पनी ज्यांचैत्य होय त्यां तेमनुं वंदन कर, एमां पण पडिक्कम
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५५ए णामां चैत्यवंदन नथी॥
तथा ए मा अध्ययननी अवचूरीनो पाठ ॥नमस्कार सहितादि तग्रहणानंतरं च यत्रसंनिहितानि चैत्यानि तत्र तवंदनं विधेयमित्युक्तं प्राक् ॥
अर्थः-नवकारसी प्रमुख तप ग्रहण करीने अनंतर ज्यां चैत्य होय त्यां तेमने वांदवां एवं पूर्वे कडं जे ॥ एमां पण चैत्यमांज चैत्य वांदवा कह्या॥
तथा नाव विजयोपाध्यायजी कत उत्तराध्ययन टीका ॥पाठ॥ यत्र चैत्यानि संति तत्र वंदनं विधेयं । एमां पण ज्यां चैत्य होय त्यां तेमने वांदवां एम कडं ॥
तथा तेज ए मा अध्ययन वृत्तिनो पाठ ॥ प्रत्याख्यानं च कृत्वा चैत्यसद्भावे तद्वंदनं कार्य।
अर्थः–पञ्चकाण करीने चैत्य होय तो तेने वंदन करवं ॥ ए पूर्वोक्त पाठमां प्रतिक्रमणना अंतमां जिनगृहमां चैत्यवंदना कही पण चोथी थुइ सहित चैत्यवंदना प्रतिक्रमणमां कही नथी॥
तथा श्री आवश्यकचूर्णिमां राइपडिक्कमणाने अंते चैत्यमांज चैत्यवंदन कडं वे ॥ ते पाठ ॥ दाणिंपनाते काविधी पढमंसामाश्यंकातूणं चरित्तविसोधिनिमित्तंकाउस्सग्गोबितिउचठवीसबयंकद्वितूणदंसविसोहिकार. को ततिनसुतणाविसोहिनिमित्तं तबराश्यातियारोचिं
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परिछेदः १४
तथायुतीच्यवसाय प्रार-छजावइमोतत्ति का स्स गोत्ति पाएं किं एवमुत्तंगोस हंसतस्स पढमेपणुवीसा बिती एविपणुवीसा तत्तिएचिपमाणं तवायरिनञ्प्रप्पलो यतिवारंचिंतेतूनस्सारेति जेठापठितासवेवि ततो चंदगं ततोयानोयणा ततोपडिक्कमणं ततोपुरवि वंदणगं खामणं ततोसामाइयाांतरं काउस्सग्गो ततोपच्च काणं गुणधारणाणिमित्तं तचचितेति कम्हिनियोगेणि उत्तो गुरुहितोतारिसंत वसंपडिवद्यिस्सामि साहुणायकिरचिंतेतवं बम्मासखमांजाव करे मिलकरेद्या एगदिव सेल कागं करेतु जावपंचमासंपंच । व । ३ । २ । १ । श्र६ मासोचचं यायंबिलं । एवंएगठाणं एगासां पुरिम शिवीयपोरुसीणमोकारोत्ति प्रद्यत्तणगानयकिरकल्लं जोगढीकातवा एवंवीरियायारोणविराधितोजवति यप्पायणिग्धाडितोजवति जंसमलोकातुं हिंद एकरेति थो जांति एवंचिंतेतवं किम पच्चरकातवं जदिप्रावस्तयमादियाजोगाणां सक्केति संधरणांकातुंतो नत्तठंचव सति प्रसक्के तोपुरिमठ्ठायंविलेगहाय सक्के तो निवीयं - सक्के तोपोरुसिमादिविनासाग्रहञ्चनतिनब ंचवस बघ्नत्तिप्रमिच्चादिविनासा नस्सारितासंथवंकातुंपबावंदित्तापडिवद्यत्तिसव्वे हिंविण मोक्कारइत्तेहिं समगंठे तवं एवंसे से सुविपच्चरका सुपचातिमिथु तीनप्पसदेहिं
५६०
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५६१ तहेवनणंति जधाघरकोइलियादीसंताणनंडिंति कालं वंदित्तानिवेदंति जदिचेश्याणि अबितोवंदसि थुतियवसाणे चेवपडिहणा मुहणंतगादि संदिसहपडिलेहेमि। बहुवेलाय इत्यादि ॥
॥संदिप्तार्थः॥हमणांप्रनाते पडिक्कमणानी शी विधि ते कहे ; प्रथम सामायिक कहिने चारित्रविशुद्धि निमित्ते कामस्सग्ग, बीजो लोगस्स कहीने दंसण विशुझिने अर्थे कानस्सग्ग, त्रीजो श्रुतझान शुझिनो कामस्सग्ग तेमां रात्रिना अतिचार चिंतवे. ए कानस्सग्गनु प्रमाण शुं ते कहे .प्रथम कानस्सग्गना पच्चीस श्वासोश्वास, बीजाना पण पच्चीस श्वासोश्वास, त्रीजानुं प्रमाण नथी; एमां थ. तिचार चिंतवी सिक्षाणं थु कही पड़ी वांदे, पनी प्रा. लोयण करे पडी पडिक्कमणु पनी खामणां पढी सामायिक कही क नस्लग्ग पड़ी ते काउस्सग्गमा तप चिंत्वे,जावत् उमासी तपथी मांडी सामर्थ्य होय तेधारे.काउस्सग्गपारी ने लोगस्स कहीने गुरुने वांदिने सर्व साधुनवकार पूर्वक सर्व साथे उन्नाथ पञ्चकाण करी पनी त्रण थुइ थ. ल्प शब्दथी जग जेम घर कोलियादि जीव न न काल वांदि निवेदन करे जो चैत्य होय तो प्रथम वांदे, नही तो थुना अंतमां मुहपत्ति प्रमुख पडिलेहण करी बहु, वेल करे ॥ ए पाठमां पण चैत्य होय तो वांदे. नहीं तो
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५६२ परिजेदः १४ मुहपत्ति पडिलेहण करे ते माटे चैत्यमांज चैत्यवंदन ले पडिक्कमणामां नथी॥
तथा आवश्यक वृहद्वृत्तिमां रात्रि प्रतिक्रमण विधि ॥ पाठः॥ याणिराश्यं तबिमाविहीपढमंचियसामाश्यं कढिकणचरित्तविसुझिनिमित्तंपणुवीसुस्सासमित्तं कानस्सग्गंकरोति ततोनमोक्कारेणपारिता दंसणविसुझिनिमित्तं चनवीसवयंपढंति पणुवीसुस्सास परिमाणमेवकालस्सग्गंकरेति एबविनमोकारेणपारिता सुयनाणविसुद्धि निमित्तं सुयनाणबयंकद्वंति कानस्सग्गंच तत्सुछिनिमित्तं करेति तबयपादोसियथुश्माश्यं अधिकयकानस्सग्गपद्यसमझ्यारंचिंतेति आह किंनिमित्तंपढमकानस्सग्गे एव. नचिंतेतिउच्यते निदामत्तोनसरगाहा व्या० निदामत्तो निहानिनननसरश्नसंजरति सुध्यश्यारंमायघट्टरांनोने अंधयारेवंदंतयाणंकिंतिकरणदोसावाअंधयारे अदंस. एणनमंदसझावानवंदति एएणकारणेणगोसेपचूसेआदीए तिणिकानस्सग्गानवंति नपुणपानसिएजहाएक्कोत्तितब पढमोचरित्तदंसासुध्यिबीयनहोइ सुयनाणस्सतत्तिन नवरंचिंते तबश्मंतश्एनिसाश्यारंचिंतत्ति व्याख्या तएवायमवयव ततोचिंतेकणअश्यारं नमोक्कारेणपारिता सिक्षाणंथुईकाकणपुवनणिएणविहिणावंदित्ता आलो. एतिततोसामाश्यपुत्वयंपडिकंमतिततोवंदणपुत्वयंखामेति
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ५६३ ततोसामाश्यपुत्वयंकानस्सग्गंकरेति तबचिंतयंति किमियनिनगेनिठत्तावयंगुरुहितोतारिसंतवंपवद्यामो जारिसेण तस्सहाणीननवइ ततोचिंतेश्यम्मासखमणंकरमोनसक्कामो एगदिवसेणनणयं तहाविनसक्कामोएवंजावपंचमासा ५ ततोचत्तारि । ततोतिनि ३ तनदोन्नि २ ततोएगत्तिय १ ततोअक्ष्मासंजावचनचं आयंबिलं एगहाणयं पुरिमळनिविगत्तिय नमुक्कारसहियं चेति उक्तं च चरिमे किंतवंकाहित्ति चरिमेकानस्सग्गे उम्मासादेगृणहाणीजाव पोरिसीनमोयारे एवंजंसमबोकावं तमसढनावीहियए करेंतिपडावंदित्तागुरुसस्कियं पवधति सक्केयनमोक्कारइत्ता समगंगति वोसिराति निसीयंतिय एवंपोरिसमादीसु विनासा ततोतिनिथु जहापवंनवरमप्पसदगदौति जहा घरकोइलादिसत्ताननति ततोदेवेवंदति ततोबहुवेलंसंदिसावेंति ततोरयहरणंपडिलेहतिपुणोनहियंसंदिसावंत पडिसेहतिअतनवसहि पडिहियकालंनिवेदोंत अन्नेनतिथुइसमणंतरंकासणिवेति इत्यादि ।
॥संक्षिप्तार्थः॥ जेम चर्णिना पाउनो अर्थ कह्यो तेमज ले पण त्रण थुइ पूर्वे कही तेमज राइ पडिक्कमपामां समजवी पण एटलु विशेष के लंचे सादे करीने न बोलवू के जेथी गरोली प्रमुख जीव उते; पड़ी देव वांदवा पडी बहुवेत संदिसाहु कहेवू पढी यो पड़ि
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५६४ परिजेदः १४ सेहवो वली उपधि संदिसाहु कही पडिलेहवी पड़ी वस्ती पडिलेहवे काल निवेदन करे. बीजा आचार्य एम कहे केत्रण थुक्ने अनंतरे काल निवेदन करे, पडी देव वांदे॥ एपाठमा सामान्ये देववंदन कह्या पण चोथी थु सहित देववंदन कह्या नथी॥
तथा नवनियुक्ति मूल तथा वृत्ति ॥ पाठः॥ एतेनयणाएसा अंधारे नग्गएवियणादीसे मुहरयणसेजचोले कप्पतिगउगपट्टथुइ सूरो ३६ एते सर्वे एवं अनादेशाः असत्यपक्ष्यापकतःअंधारे उजते विहीणदीसे अंधकारे उजतेपि सूर्ये रेखा न दृश्यंते तस्मादसत्यकोयं शेषं पदत्रयं सांधकारत्वादूषितमेव इष्टव्यं तत्कस्यां पुनर्वेलायां प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या इत्यत आह ॥ मुहरयणिसेबचोले कप्पतिगडगपट्टथुइसूरो मुखतिमुखवस्त्रिकारय इति रजोहरणं णिसेद्यारळहरणस्सनपरितनपट्टो चोलेत्ति चोलपट्टकः कप्पतिगति एककर्णिकः द्वौसूत्रिकौ उपट्टत्ति संस्तारकोपट्टः उत्तरपट्टकश्च थुतित्ति प्रतिक्रमणसमाप्ती झानदर्शनचारित्रार्थ स्तुतित्रये दत्ते सति एतेषां मुखवस्त्रिकादीनां प्रत्युपेक्षणासमात्यनंतरं यथा सूर्य नजबत्येव प्रत्युपेक्ष्णाकाल इति ॥
॥नावार्थः ॥ अंधारामां सूर्य नगे पण रेखा न देमाय. माटे रेखा देखावानो पद ते पण असत्य अने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५६५ त्रण पद तो अंधकार माटे दृषितज दे, तो हवे किये अवसरे पडिलेहण करवी ते कहे . मुहपत्ति १ घो ५ नघाना नपरनो पट्ट ३ चोलपट्टो ४ सत्रना बे वस्त्र ६ नननं वस्त्र ७ संथारपट्टो उ उत्तरपट्टो ए एटना नववांनां पडिक्कमण संपूर्ण थये एटले झान दर्शन चारित्रने अर्थे थइ त्रण कहीने पठी पडिनेहवां ते पडिलेहतां काल जाय. अने नववानांना पडिलहण पनी सूर्य कगे ए अवसर पडिलेहणनो बे एमां वईमान स्तुति अनंतर पडिलेहण मुहपत्ति पडिलेहवी कही ॥ पण चोथी थुइ सहित चैत्यवंदना कही नथी॥ ___ तथा चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली श्री नबाहुस्वामी कृत पयन्नामां आवश्यक एटले प्रतिक्रमण करीने जिन मंदिरमा चैत्यवंदना करवी कही बे ॥ते पातः ॥ श्रावस्सयंकाकणं गोसेसुहजोगशाणसंजुत्तो पेहंतोनूनागं गबिमाजिणहरेगेहे ॥५॥ कयावस्सयंसाह जइचिश्या.ण अबितागोसे णियमावंदियवाणि पहिलेहोश्ववंदिए ६
॥नाषा ॥प्रनाते आवश्यक करीने गुन योग ध्यान संयुक्त नूमि नागने देखतो थको श्रावक जिनगृहे जाय ॥ ५॥ साधु पण प्रजातनो आवश्यक करीने जो चैत्ला होय तो निश्चे वांदे ने न वांदे तो प्रायश्चित्त पामे ॥६॥ ए पाठमां आवश्यक करीने जिन चैत्यमांत्रण थुश्नी
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५६६
परिच्छेदः १४ चैत्ययंदना कही, पण प्रतिक्रमणमां चोथी थुइ सहित चैत्यवंदना कही नथी॥
तथा पूर्वधर वर्तमान काल वर्ति जिनशासन प्रनावक शिरोमणि श्री हरिनासूरिजी कृत श्री पंचवस्तुक ग्रंथमां पण देवसि प्रतिक्रमणना आद्यमां चोथी थुइ साहेत चैत्यवंदना कही नथी, तथा श्रुतदेवी देवदेवीना कायोत्सर्ग प्रमुख प्रतिक्रमणमां कह्या नथी ॥ ते पाठः॥ ॥ गाथा ॥ एमेवयपासवणे बारसचनवीसइंतुहिता का. लस्सयतिन्निनवे अहसूरोअनमुवया ॥१॥श्व पनवंमी गीनगडंमिघोसणंकुण ससायाश्वतत्ताण जाणपठासुसाहूणं ॥२॥ कालोगोयरचरिया थंमिल्लावबपत्त पडिलेहा संनरहसोयसाहू जस्सवजंकिंचिणुवउत्तं ॥३॥ जइपुगनिवाघान आवासंतोकरंतिसोवि साइकहणवाघाय याश्पन्डागुरुवंति॥धा सेसाजहासतिं आपुडित्ता.
तिसठाणे सुत्तवसरणहेर्ट आयरिएठियंमिदेवसियं ॥५॥जोहुकाअसमबो बालोवुहोववाहिनवावि सोयावस्सयजुत्तो अन्चियानिधर पेहिं ॥ ६॥ एबनकयसामइया पुश्विगुरुणोयतयवसाणंमि अश्यारंचिंतंति तेणेवसमंनतित्ति ॥७॥आयरिनसामाश्यं करताहेतहाठियातेवि ताहेअणुपेहंती गरुणासहपञ्जादेवसियं ॥ । जादेवसियंडगुणं चिंतेगुरुयहिमचिठं बहुवावाराश्यरे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ५६७ एगगुणंताविचिंतिति ॥ ए॥ महणंतयपडिनेहण माई. चंतबजेअश्यारा कंटकमग्गुवमाए धरंतितेशव चरित्तंमि ॥१०॥ संवेगसमावन्ना विसुझचित्ताचरित्तपरिणामा चारित्तसोहणा पन्हाककुएंतितेएयं ॥११॥ नमुक्कार चनबीसग किश्कम्मालोयपडिक्कमणं किकम्मरातोश्य उप्पडिकंतेयनस्सग्गो ॥१२॥ सूयागाहा ॥ नस्सग्गसमतीए नवकारेणमहत्तेनपारंति चनवीसगत्तिदंम पन्छाकद्वतिउवनत्ता ॥१३॥ संमासंपडिलेहिय नवविसियतननपावरिमुहपुत्तिं पडिलेहिपमधिय कायंसवेविनवनत्ता ॥१॥ किश्कम्भवंदणयं परेशविणयेणतोपनजंति सबप्पगारसुई जहनणियंवीयरागेहिं ॥१५॥ आलोयणवा गरणस्स पुडणेपूयणंमिसाए अवराहेयगुरुन विणयमूतंचवंदण्यं ॥१६॥ वंदितुतनपला अझावणयाजहकमेणंतु उनयकरधरियलिंगा तेघालोयंतिनवनत्ता ॥१॥ परिचिंतिएश्यारे सुहुमेवियनावनविनविग्गा अयप्प. सुझिहेकं विसुझ्नावाजननणियं ॥१७॥ विषयेणविणयमूने गंतूणायरियपायमूमि जाणाविजासुविहिन जह अप्पाणंतहपरंपि ॥ १५ ॥ कयपावोविमणूसोपालोश्य निंदिगुरुसगासे होइअरेगलहुन नहरियनरुवनारवहो ॥२०॥ उप्पणिहियजोगेहिं बसपावंतुजोनतिजोगो सु. प्पणिहित करे विद्यश्ततस्ससेसपि ॥१॥ जोजत्तो
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५६
परिजेदः १४ प्पद्य वाहीसोवकिएणतेणेव खयमेकम्मवाही विणवरमेवमुणेयवं ॥॥ नप्पणानुप्पन्ना मायाअणुमग्गन निहंतवा आलोयणनिंदणगर हणाइंणपुणोयबितियंच ॥२३॥ तस्सयपायचित्तं जमग्गाविकगुरुनवसति तंतह अणुचरियवं अगवनपसंगनीए ॥२४॥ आलोइनण दोसे गुरुनपडिवन्नपायबित्ता सामाश्यपवंतियं कढाते तनुपडिक्कमणं ॥२५॥ तंपुरणपयंपएणं सुनजोहिंवधणिय मुवमत्ता दंसमसगाइकाए अगणंताधितिबलसमेया २६ परिकढिकणपछा किश्कम्मंकाकणवरिखामंति आयरियाईसवे नावेणसएजहानणियं ॥२७॥ आयरियनवशाए सीसेसाहम्मिएकुलगणेय जेमेकयाफसाया सवेतिविहेण खामेमी ॥२॥ सबस्ससमसंघस्स जगवर्नुअंजलिकरीयसीसे सखमाश्ता खमामिसबस्सपाहियपि ॥२॥ सवस्सजीवरासिस्स जावधम्मनिहियनियचित्तो सवं रखमावश्त्ता खमामिसवस्सअहयंपि ॥३०॥ एवंविह परीणामा नावेणंनवरितबायरियं खामंतिसवसाहू वय. जेठोअन्नहाजे॥३१॥ आयरियनवशाए कान सेस. गाणकायचं नुप्परिवाडिकरणे दोसासम्मंतहाकरणे॥३॥ जाऽचरिमोत्तिताहोइ खामणंतीरिएपडिक्कमणे प्राणां पुणतिन्हं गुरुस्सचदेवसियं ॥३३॥ धिईसंघयणाईणं मेराहाणियंचजाणिनंथेरा सेहअग्रगीप्रमाणं उवणाआ.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-झारः ५६ इणकप्पस्स ॥ ३४ ॥ असढेणसमाइनं जंकबश्केण असावऊं ननिवारियमन्नेहिं बहुअणुमयमेयमायरियं३५ वियाणपञ्चकाण सएअरयणाहियाविनकरेति मशिल्ले एकरति सोचेवयतेसिएकरे ॥३५॥ खामेंतुत एवं करं तिसविनवरमणवऊं तेसिंमिउरालोश्य उप्पडिकंतेय नस्सग्गो ॥३६॥ जीवोपमायबहुलो तनावणनाविनय संसारे तबविसंनारिवेकर सुहमोसोतेणनस्सग्गो॥३॥ चोएहदिएवं नस्सग्गंमिविसहोइअणवलो नन्नातक यकरणे कायणवबाजिएतम्मि ॥३७॥ तबवियजोतन विहु जिप्पश्श्यरेणणयसदाकरणं सचोविसाहुजोगो जं खनुतप्पञ्चणीनत्ति ॥ ३५ ॥ एसचरित्तुस्सग्गो दंसणसु हीएतश्यनुहोइ सुयनाणस्सचठनो सिझाएंथुइकिश्कम्म ॥४०॥ सुच्चागाहा सामाश्यपुत्वगंतं करिंतिचारित्तसोहा एनिमित्तं पियधम्मवऊनीरू पणासुस्सासगपमाणं ॥४१॥नस्सासारितणविहिणा सुश्चरित्ताथयंपकQत्ता कट्ठतितनचेश्य वंदणदंमंतनस्सग्गं ॥ ४२ ॥ दंसणसुद्धि निमित्तं करंतिपणवीसगंपमाणेणं नस्सारिकगविहिणा कतिसुयजयंताहे ॥४३॥ सुयनाणुस्सुस्सग्गं करंतिप णवीसगंपमाणेणं सुत्तश्यारविसोहण णिमित्तइहपारिन विहिणा ॥४४॥ चरणंसारोदसण नाणायागंतुतस्सणि बयन सारंमियजयवं सुझीपडाणुपुबीए ॥४५॥ सुक्ष
કર
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परिजेदः १४ सयलाइयारा सिझाणथयंपढतितोपन्ना पुवनणिएणवि हिणा किश्कम्मदितिगुरुणोठ ॥४६ ॥ सुकयंत्राणत्तिं पिव लोएकाकणसुकयकिइकम्मा वढतियाथुन गुरुथु गहणेकएतिनि ॥४७॥थुश्मंगसंमिगुरुणा नचरिएसेस गाथुबिंति चितित थोवं कालंगुरूपायमूलमि ॥ ७ ॥ इतिवचनात्.
॥ अर्थः ॥ संदेपे नीचे प्रमाणे ने. मांझलां करीने व्याघात न होय तो गुरु साथे अने व्याधात होय तो गुरुनी आझा लेने करेमिनंते यावत् कानस्सग्ग करे तेमां अर्थ चिंतवे, गुरुवावे त्यारे ज्ञान दर्शन चारित्रमा जे अतिचार लाग्या ते चिंतवे, पड़ी लोगस्स कहे, मुहपत्ति पडिलेहे, वांदणा दे दिवसना अतिचार आलोग्ने गुरुदत्त प्रायश्चित्तपडिवकिने मंगलपूर्वक प्रतिक्रमण सूत्र जणे, पनी वांदिने अनुनिह इत्यादिक कहीने आचा
दिक सर्वने खमावे परी चारित्राचार शझिने अर्थे पच्चास श्वासोश्वासनो कानस्सग्ग करे, ते कानस्सग्ग पारी लोगस्स कही दर्शन अतिचार शुझिने अर्थे पच्चीस श्वासोश्वासनो कानस्सग्ग पारीने श्रुतस्तव कहे, पडी झानाचार शुहिने अर्थे पचीस श्वासोश्वासनो काउस्लग करे पनी सिझा बुझाणं कहे पड़ी मुहपत्ति पडिलेहीने वांदणां दे वर्धमान थुइ पहेली गुरु कहे पठी सर्व
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५७१ साधु कहे पड़ी थोडो काल गुरु चरणे बेसे; एमां पण
आदिमां चोथी थुइ सहित चैत्यवंदना नथी ने अंतमां श्रुत क्षेत्र देवीनो कायोत्सर्ग तथा थुइ कही नथी.॥२०॥
॥प्रश्नः॥ एपूर्वोक्त पंचांगीना ग्रंथोमां तथा पंचांगी कर्त्ताना ग्रंथोमां रात्रि प्रतिक्रमणना अंतमां तो जिन चैत्यमां चैत्यवंदना कही पण देवसीप्रतिक्रमणना आघमां तो चैत्यवंदना कहीज नथी: तेथी संध्याना जिन चैत्य वांदवा सिह थता नथी.
॥ उत्तरः ॥ हे महानाग्य प्रनातना जिन चैत्यमां चैत्यवंदना सिइथइ तो संध्यानी तो अर्थात् सिथइज केमके श्री महानिशीथसूत्रमा त्रिकाल जिनचैत्य वांदवां कह्यां ने.
॥ ते पातः ॥जोजो देवाणुप्पिया तए अद्यप्पनइए जावळीवंतिकालियंअणुदिणंअणुत्तावमेगग्गस्सचित्तेणं चेइए वंदेयवे इणमेवेसो मणुयत्तान असुश्य सासय ख. णनंगुरा उ सारं तितन्त्र पुवएहे ताव उदगपाणं न कायवं जाव चेइए साहूणवंदिए तहा मसणे ताव असणकिरियं न कायवं जाव चेइए ण वंदिए तहा अवरएहे चेव तहा न कायव्वं जहा अवंदिएहिं चेएहिं णो सद्यायालम कमेद्या.
॥नावार्थः॥ नो देवाणुप्रिया शरीर अशास्वतुं ले.
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परिजेदः १४ एमां सार एटलो जे त्रण काल चैत्य वांदवानो नियम करवो, प्रनाते चैत्य वांद्या विना मुखे जल पण न घालवू. मध्याने चैत्य वांद्या विना नोजन न करवू,सांके चैत्य वां द्या विना शय्यामां न बेस तथा श्री महानिशीथ सूत्रमा त्रिकाल चैत्य न वांदे तो प्रायश्चित्त कयुं . ___ते पाठः ॥ सुहद्यवसाए थयथुईहिं ण तिकालियं चेइए वंदेद्या तस्सणं एगाए वाराए खवणं पायबित्तं नवसेवा.
॥अर्थः ॥ शुनाध्यवसाये थय थुइ वडे करी त्रण काल चैत्य न वांदे तेने एक वार न वांदवानो उपवास देवो ॥ तथा श्री व्यवहार नाष्यवृत्तिमा प्रतिक्रमणना अायतमां चैत्य वांदवा स्पष्ट कह्या बे.
॥ ते पाठः ॥ तथा ये चैत्यनुवनस्थिता वैकालिकं प्रतिक्रम्य अकते आवश्यक प्रनाते च कृते अावश्यके चैत्यानि न वंदंते तेषामपि मासलघु.
॥अर्थः॥ जे चैत्यमा रह्या साधु एटले चैत्य नजीक रहेला साधु विकालिक पडिक्कमीने एटले मामला प्रमुख करीने आवश्यक करयां पहेलां चैत्य न वांदे, तथा प्रनाते
आवश्यक करया पड़ी चैत्य न वांदे तो लघुमासी प्रायश्चित्त यावे.
॥प्रश्नः॥ नव प्रकारनी चैत्यवंदनामांथी प्रतिक्रम
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ५७३ णना आद्यतमां केटला प्रकारनी चैत्यवंदना करवी जैन सिद्धांतोमां कही ?
॥ नत्तरः ॥ नव प्रकारनी चैत्यवंदनामांथी उत्कष्टाना त्रण नेदमांथी उनय काल यथाशक्ति जिन गृहमां कोई पण प्रकारनी चैत्यवंदना करी प्रतिक्रमणना अा. यंतमां सामान्य प्रकारे एटले जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना करवी जैन शास्त्रोमां कही , ते केटलाएक जैन शास्त्रोना पाठ लखीए बीए॥ त्यां प्रथम श्री महानिशीथ सूत्रने अनुसारे श्री श्राइविधिप्रमुख ग्रंथोमांसात वरखत चैत्यवंदना करवी कही .
ते पाठः॥प्रातःप्रतिक्रमणावसाने प्रथमा चैत्यवंदना गोचरीसमये चैत्योपयोगार्थ द्वितीया चैत्यवंदना नोजन समये तृतीया वरिमप्रत्याख्यानानंतरं चतुर्थी संध्याप्रति क्रमणा दौ पंचमी स्वापवेलायां षष्टी प्रतिबोधे सप्तमी सा मान्यतो यतेरहोरात्रमध्ये सप्तवेला जघन्यतोपि चैत्यवंदना कार्येवान्यथातिचारसंनवात् महानिशीथे प्रायश्चित्तना नात् ॥ तथा श्री प्रवचनसारोझारमां पण सात प्रकारनी चैत्यवंदना कही जे.
॥ते पाठः ॥ पडिक्कमणे चेहरे, जोयणसमयंमि तहयसंवरणे; पडिक्कमण सुयण पडिबोह, कालिय सत्तहा जाणो ॥२॥ पडिक्कमनगिहिणोविहु, सत्तविह पंचहा
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५७४
परिच्छेदः १४ नयरस्स; होइ जहन्नेण पुणो, तीसुविसंजासुझ्य तिविहं ॥ ए३ ॥ अत्रवृत्तिःसाधूनां सप्तवारान् अहोरात्रमध्येन वति चैत्यवंदन गृहिणः श्रावकस्य पुनश्चैत्यवंदनं प्राकृत त्वाल्लुप्तप्रथमैकवचनान्तमेतत् । तिस्रःपंचसप्तवाराइति । तत्र साधूनामहोरात्रमध्ये कथं तत्सप्तवारा नवंतीत्याह पडिक्कमणेत्यादि। प्रानातिकप्रतिक्रमणपर्यंत ततश्चैत्य गृहे तदनु नोजनसमये तथा चेति समुच्चयेनोजनानंतरं च संवरणे संवरणनिमित्तं प्रत्याख्यानं हि पूर्वमेव चैत्यवं दने कृते विधीयते तथा संध्यायां प्रतिक्रमणप्रारंने तथा स्वापसमये तथा निज्ञमोचनरूपप्रतिबोधकालिकं च सप्तधा चैत्यवंदनं नवति यते॥तिनिर्देशादेकवचनं यती नामित्यर्थः गृहिणः कथं सप्त पंच तिस्रो वारांश्चैत्यवंदन मित्याह पडिक्कमन इत्यादि द्विसंध्यं प्रतिकामतो गृहस्थ स्यापि यतेरिव सप्तवेलं चैत्यवंदनं नवति यःपुनःप्रतिक मणं न विधत्ते तस्य पंचवलं जघन्येन तिसृष्वपि संध्यासु.
॥ उन्नयो वार्थः ॥ साधुनने एक अहोरात्रमा सात वार चैत्यवंदना करवी अने श्रावकोने त्रणवार पांचवार अने सात वार करवी तेमांप्रथम साधुनने एक अहोरात्रिमा सात वार चैत्यवंदना करवी ते कहे . एक प्रजातना प्रतिक्रमणना अंतमां ॥१॥ बीजी गोचरि समये चैत्य नपयोगने अर्थे ॥२॥त्रीजी जोजन समये
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५७५ '॥३॥ चोथी नोजन करथा पड़ी ॥ ४ ॥ पांचमी संध्या प्रतिक्रमणना प्रारंजमां ॥ ५॥ बठी रात्रेसुवाना समये ॥ ६ ॥ सातमी राते सूइ उठ्या पनी ॥७॥ ए साधुनने जघन्यथी सात वेला चैत्यवंदना करवी. अन्यथा अतिचार संनवथी श्री महानिशीथमांप्रायश्चित कडुंबे. अने श्रावकतो जे ननय काल प्रतिक्रमण करे तेने तो साधुनी पेठे सात वार चैत्यवंदना करवी, अने जे पडिक्कमणुं न करे ते पांचवार चैत्यवंदना करे अने जघन्यथी जघन्य त्रणवारतो करे॥ए बन्ने पाठमां प्रतिक्रमणना प्रायंतमां सामान्य प्रकारे एटले जघन्य उत्कृष्ट चैत्यवंदना कही ले ॥ तेमज श्री धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति १ श्राइदिन कृतवृत्ति २ वृंदारवृत्ति ३ धर्मसंग्रह ४ पूर्वाचार्यकृत समाचारी ५ श्रीप्रद्युम्नसूरिजीकृत समाचारी ६ श्री देवसूरिजीकृत दिनचर्या ७ खरतरवृहत्समाचारी श्रीसोम सुंदरसूरिकृत समाचारी ए तथा श्री नावदेवसूरिकृत य. तिदिनचर्या १० लघुचैत्यवंदननाष्यवृत्ति ११ इत्यादि श्री देवनाचार्यकृत दर्शनशुधि वृत्ति प्रमुख अनेक जैन शास्त्रोमां प्रतिक्रमणना आयंतमा सामान्य प्रकारे जघन्यनत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे, पण चोथी थुइ सहित त्रण थुश्नी चैत्यवंदना स्तोत्र प्रणिधान सहित कही नथी; पण आत्मारामजी थानंदविजयजी चतुर्थ स्तुति निर्णय
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परिछेदः १४
पृष्ट ३३ माथी ष्टष्ट ३४ मा सूधी सात चैत्यवंदनाश्री श्री प्रवचन सारोदार वृतिनो पाठ लखी पृष्ट ३५ मामां जापाने ते लखे बे के, इस पाठ मे पडिक्कमणेकी श्राद्यंतमें चार थुकी चैत्यवंदना करनी कही हे * ए लेख पूर्वाचार्योंना वचनथी विरुद्ध बे केमके श्री प्रवचन सारोदार वृत्ति प्रमुख जैन शास्त्रोमां तो सातवार चैत्यवंदना कही तेमां प्रतिक्रमणना याद्यंतनी चैत्यवंदना ण तथा चार थुनी करवी कही नथी निःकेवल चैत्यवंदना कही बे. ते जघन्य तथा जघन्यनत्कृष्टज संनवे बे, केमके जैनशास्त्रमां सात वार तथा नव वार चैत्यवंदना अहोरात्रमां करवी कही डे, तेमां सात वारनी चैत्यवंदनामांथी पांचवारनी तथा व वारनी चैत्यवंदना तो जघन्यनत्कृष्ट जेदनी करवी कही ते नववारनी चैत्यवंदनामांथी त्रिकाल जिनचैत्यनी वंदना यथाशक्ति नव दनी करवी कही बे ने शेष च्यार वारनी जघन्योत्कृष्ट नेदनी करवी कही वे । त्यां प्रथम श्री बाहु स्वामीकृत पयन्नानी गाथा पूर्वे लखी आव्या बीए तेमां जिन देरासरमां उजय काल उत्कृष्ट वंदना कहीने दिवसमां पांचवार तथा कारणवशे जघन्या चैत्यवंदना कही ते जिनगृहमां प्रातः संध्या चैत्यवंदना बे अने शेष पांच चैत्यवंदमांना ते गोचरीवेला जिन चैत्यना १ नोजन स
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ५७७ मयनी र जोजन कस्या पठी ३ रात्रे सुवाने समये ४ सूता उभ्या पड़ी ५ एवं सातवार चैत्यवंदनामांथी प्रथ. मनी बे प्रकारनी यथाशक्तिए नवे प्रकारनी होय ने शेष पांच जघन्य तथा जघन्यउत्कृष्ट होय ॥ तथा प्रकारांतरे श्रीप्रवचनसारोझारादिकमांसातवारनी चैत्यवंदना कही, तेमां एकवार जिन गृहनी चैत्यवंदना तो यथाशक्तिए महानाष्यादिकमां नवे प्रकारनी करवी कही बे,अने शेष
वारनी चैत्यवंदना सुविहित श्री देवसूरिजी कृत दिनचर्यामां तथा श्री कालिकाचार्य संतानिय श्री जावदेवसूरिजीकृत दिनचर्या प्रमुख ग्रंथोमां जघन्योत्कृष्ट करवी कही डे, ते पाठ अनुक्रमे लखिए बीए त्यां प्रनातना प्र. तिक्रमणना अंतमा प्रथम चैत्यवंदना जघन्योत्कृष्ठ कही .
॥ते पाठः ॥ अणुसिगिति॥ श्वा मोएसिटिइत्यु. वा उपविष्टःसन् तिस्त्रस्तुतीःपरति विशाल लोचनदल मित्यादि कथं नृतास्तुतीःवईमानाः जिनेश्वर वंदनं देववंदनं कार्य ॥१॥ तथा त्रीजी नोजन समयनी जघन्यो त्कृष्ट कही .
ते पाठः॥ तत्र पात्रकानि मुक्त्वा जक्ताद्यर्थं जिना न्नमतिशक्रस्तवंपत्तीत्यर्थः ॥३॥ तथा जोजनने अंते पण जघन्यउत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे.
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परिजेदः १४ ॥ते पाठः ॥ तथा कृतनोजनो यतिरीयाँ प्रतिक मति तदनु शकस्तवं पठति चैत्यवंदनां करोतीत्यर्थः॥४॥ तथा संध्याना प्रतिक्रमणना आदिमां पण जघन्योत्क ष्ट चैत्यवंदना कही ने.
ते पाठः ॥ जिनवंदनं करोति चैत्यवंदनं कृत्वा देववंदनं करोति देववंदनं कृत्वा गुरुवदनं करोति यथा नगवन्नहमित्यादि चतुःक्ष्माश्रमणानि दत्त्वा गुरुनमनं करोति श्वामिखमासमणो इत्यायुक्त्वा देवसिअपडिक्क मणेता इत्यादि ॥ ५॥ तथा रात्रिमा सुवाने अवसरे पण जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे.
ते पाठः॥ चनक्कसायनमस्कारं कथयित्वा शकस्त वं पति एवंपरिपूर्णाचैत्यवंदनां कृत्वा इत्यादि ॥६॥तथा सूता उठया पढीनीचैत्यवंदना पण जघन्यनत्कृष्ट कही जे. . ते पाठः ॥ कुसुमिणमस्सग्गोत्ति कुत्सितस्वप्नदृष्ट स्वप्ननिवारणार्थ कायोत्सर्ग करोति लोगस्सचत्वारिका योत्सर्गेचिंत्यः प्रकटलोगस्स ततःदमाश्रमणंदत्त्वा सक्क बयति नमस्कारकथनानंतरं शक्रस्तवपठनं करोति ए पूर्वो कब चैत्यवंदना जघन्योत्कृष्ट अने बीजी नव नेदमांथी यथाशक्ति जिन चैत्यमां जश्ने करवानी एवं सात चैत्य बंदना कही. तेमज श्री जिनवल्लनसूरिजी संतानिय फिरो जशा बादशाहना प्रतिबोधक श्री जिनप्रनसूरिजी कृत
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको-हारः
५ उल
विधिप्रपामां साधु श्रावकने अहोरात्र मध्ये नव वेला चैत्यवंदना करवी कही बे.
॥ ते पाठः ॥ नववेला उत्तिं पडिबोहिं पडिक्कमले रवि उद देवपूजाए चेश्यहरेनोय एकालेपञ्चरकाणे सझा देवपूयाए पडिक्कम सुवणेति नववारान चीनंदणा गिहीणं रवि उदय मण पूयाकाले मुत्तुं साहूणं सत्त वारा गिहीणं अप्पडिक्कमंताणं सत्त पंचवावारा तिसु वा संज्ञासु तिमि वारति.
॥ नावार्थः ॥ नव वेला चैत्यवंदना करवी ते कहे बे: सूता नवी जागे ते पडिबोह कहीये ते वेला चैत्यवंदना करवी, एथी एनुं नाम उपचारे पडिबोह कहीये एम सर्वत्र जाणवुं १ बीजी पडिक्कमणामां श्त्रीजी सूर्यदये ३ चोथी देवपूजामां 8 पांचमी चैत्यमां ५ बी जोजन कालना पञ्चरका मां ६ सातमी संध्या वखते देवपूजामां ७ श्रामी पडिक्कमणामां नवमी सूवानी वखते ए नववार चैत्यवंदना गृहस्थने खने रवि उदय ने अस्तंगत पूजाकाल बे मूकी साधुनने साते वेला, गृहस्थ पडिक्कमपुं न करे तो सात अने उजय संध्या पूजाविना पांच वेला, त्रण संध्याए करे तो त्रण वार पण होय ॥ तथा प्रतिक्रमणमा सामान्य विधिए चैत्यवंदना संवे पण विशेष विधिए न संनवे ॥ ए पाठमां रविचदय वेला
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परिजेदः १४ तथा अस्तंगत वेला साधुने चैत्यमां कारणविना जवाय नही, ते माटे चैत्यवंदना वरजी ते विस्तारे चैत्यवंदनाना कारणथी अर्थात् रवि उदय अने अस्तंगत वेलाए जैन सिहांतोमा प्रतिक्रमणनो श्राद्यंत कह्यो डे, ने प्रतिक्रमणना आद्यंतमा पूर्वोक्त ग्रंथोना न्यायथी जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना सिह थाय डे, तेथी साधुने सातवार चैत्यवंदना कही ने श्रावकने महानाष्यादिकमां पूजा अवसरे विस्तारे चैत्यवंदना करवी कही , तेथी विधि प्रपाकारे प्रातःसंध्या चैत्यवंदनामां पूजाशब्द ग्रहण करयो ने ॥ तथा श्री देवसूरिजीकृत दिनचर्यामां अहोरात्र सातवारनी चैत्यवंदनामांथी त्रिकाल जिन चैत्यनी वंदना बीजी चैत्यवंदना मध्ये गणी .
॥ते पातः ॥ पंडिक्कमणे १ चेहरे २, नोअणसम यमि ३ तहयसंवरणे ४; पडिक्कमण ५ सुअण ६,पडिबोह कालिशं सत्तहाजणो ॥६॥
॥ व्याख्या ॥यतेःजघन्यतोपि सप्तवेता चैत्यवंदना कार्यैव तत्र प्रातःप्रतिक्रमणे १ द्वितीया चैत्यगृहे २ एषा च त्रिकालचैत्यवंदना प्रातःमध्ये संध्याकाले च वंदनेनो च्यते यतीनामपि दिवसमध्ये त्रिसंध्यं चैत्यवंदनाया तु तत्वात् चैत्यवंदनां कृत्वा नोक्तव्यं ३ एषा मध्याह्नचैत्य वंदना गएयते संवरणप्रत्याख्यानानंतरं देवान् वंदेत ५
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ५७१ संध्याप्रतिक्रमणे ५ सुश्रणत्ति संस्तारकवेलायां पौरुषी पाउनाऽवसरे ५ पडिबोहति प्रतिबोधो प्रातःसमये जाग रिताऽनंतरं क्रियाकरणसमये ७ एषा प्रतिबोधकालिकी चैत्यवंदना एषा सप्तधा चैत्यवंदना साधोरितिगाथार्थः ॥६॥ ए पाठमां श्री महानिशीथोक्त त्रणकालनी चैत्यवंदना बीजी चैत्यवंदना मध्ये गणी डे तेथी जिन चैत्यनी चैत्यवंदना यथाशक्तिए सर्वत्र काणे नव प्रकार नी जाणवी ने शेष प्रतिक्रमणनी आयंत प्रमुख चैत्यवं. दना जघन्य तथा जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना जाणवी.
॥ प्रश्न ॥सातवेलानी चैत्यवंदनामा प्रतिक्रमणना आद्यंतनी चैत्यवंदना सामान्य प्रकारे क्या कही?
॥ उत्तरः ॥ पूर्वाचार्यकृत अनेक ग्रंथोमां कही ने ते ग्रंथोना केटलाएक दाखला लखीए बीए॥त्यां प्रथमश्री अमदावादमां पांजरापोलमध्ये शेठ हछीसिंह केशरीसिंहजीना धर्म उपाश्रयमां शेठ जयसिंहलाई हठीसिंहजी. ना ज्ञानमारमा पूर्वाचार्यरुत षडावश्यक बालावबोधनी जूनी प्रतमां सातवेलानी चैत्यवंदना मध्ये प्रतिक्रमण नीबायंत चैत्यवंदना सात प्रकारे एटले जघन्य प्रकारे कही ते बालावबोधनी नाषा जेम डे तेम लखीए बीए॥ "अथ चैत्यवंदनाधिकार प्रारभ्यते ॥ साधु माहात्माने सात वार चैत्यवंदनाकरवी दिनप्रति करवी ते किम कुसु
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परिछेदः १४
मिल सुमि काउस्सग्ग करी चैत्यवंदन करवुं १ राइप डिक्कमणाने बेहडे पुरुषने विशाल लोचन स्त्रीने संसार दावानी त्रिणि थोइ २ देहरासरे ३ पच्चरकाण पारतां 8 आहार कीधा पूंति ५ देवसिपडिक्कमणाने धुरि ६ संथारा पोरसिनणतां 9 इम साधुने सदैव सातवार चैत्यवंदन हुने श्रावकने सात तथा पांच हुई जघन्यतो त्रिणि हुइ ते किम उदय अस्त पडिक्कमणां बे २ सूतानठ्यां पढी बेहली ने सूयवानी धूरली पढी ३ संथारापोरसनि ता त्रिकाल देवपूजाई करवी तेहनी त्रिणि ३ एवंसात 9 एकवार पडिक्कमणुं करे पांच ५ बेवार पडिक्कमणुं करे ६ त्रिकाल देव पूजायेंज करे तेहनि त्रिण हुई जो त्रिकाल देव पूजा न थाई तो त्रिकाल चैत्यवंदन करे एवंत्रिणि ॥” तथा श्री ज्ञानविमलसूरिजीकृत लघुनाप्यत्रय बालाव बोधमां पण सातवेलानी चैत्यवंदनामां प्रतिक्रमणना याद्यंतमां सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना कही बे ते बालावबोधनी जाषा जेम बे तेम लखिए बीए ॥ " पडिक्कमले १ चेश्य २ जिमल ३ चरिम ४ पडिक्कम ५ सुया ६ पडिबोहे ७ चिइवंदजइणोसत्तनवेला अहोरत्ते ॥ ५९॥ हवे चैत्यवंदननुं द्वार कहे ते प्रजातिक प्रतिक्रमणे विशाल लोचन रूप १ चैत्यगृहे जगवंत यागलिं २ जिमय पत्रकापरतां ३ चरिम प्रहार करयां पढी व संध्या प्र
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ५७३ तिक्रमण नमोस्तुवईमानादि ५ शयन संथारापोरिसी जणावतां ६ पडिबोहेकेण्सूतां नठी कुसुमणादि कानस्स ग्गनंतर क्रियावेलाई ७ एवं सात चैत्यवंदना यतिने अ. होरात्रि मध्ये हुइंबेहं कालिं पडिकमतां गृहस्थने ७ वार हुई अने एक पडिक्कमण करतां गृहस्थनेए वार हुइंअने पडिक्कमण नथी करता एहवा गृहस्थने त्रिकाल देव पूजावसरे त्रिणवार चैत्यवंदना जघन्यथी हुइ एटले चैत्यवंदनाद्वार २३ मुं थयुं॥” तथा श्री विबुधविमलसूरिकृत बारहजार श्री सम्यक्तपरिदा नामाग्रंथमां पण सातवारनी चैत्यवंदनामां प्रतिक्रमणनी आद्यतनि चैत्यवंदना सामान्य प्रकारे एटले जघन्य प्रकारे कही ले ते पाठ सहित बालावबोध लिखीए जीए॥"साधु तथा श्रावकने दिनप्रते नत्कृष्टुं ७ वार चैत्यवंदन कर सम्यक्तं निर्मलने काजे ॥ तथाहि॥ पडिक्कमणे १ चेईय जिमण चरिम पडिकमण ५ सूयण ६ पडिबोहे ॥चियवंदणहिजयणो । सतवेलाअहोरत्ते ॥१॥ प्रनातकाने विशाल लोचनरूप चैत्यवंदन कर एह प्रथम १ चेश्य के श्री तीर्थंकर नगवंतने देहरे जईने नित्य चैत्यवंदन करवू ते जोगवाई नहोय तो ईशांनकूणे श्री सीमंधरस्वामी सन्मुखे चैत्यवं. दन करवंशजिमण के० पञ्चकाण पारतीवेलाए चैत्यवंदन करीने सक्षाय करीने पचखाण पारवू पनी आहार सेवो
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परिच्छेदः १४
३ चरिम के बाहार लेने पती चैत्यवंदन करीने पाणी पीवुं ४ पडिक्कमण के संध्याए पडिक्कमणुं करतां तथा नमोस्तुव ईमानाय एह बिहुं एक पडिक्कमणानुं चैत्यवंदन गण ५ सूया के० पोरसी रात्रिनी वेलाए चौकसाय जे कहे ते बहु चैत्यवंदन पडिबोहि के० पाबली रात्रे जागी कुस्मा स्मणो का स्सग्ग करीने चैत्यवंदन जग चिंतामणादिकनुं कहेतुं ए सातमुं 9 एचैत्यवंदन जइयो के ० यतिने साधुने अहोरात्रमां करवुं जे सम्यग्दृष्टि जीव श्रावक जघन्य त्रणकाले पूजा करे त्रणकाल चैत्यवंदन करे, एकवार पडिक्कमणुं करे ते ५ वार चैत्यवंदन करे, जे बेटंक पडिक्कम करे तेने 9 वार चैत्यवंदन थाय ॥" तथा पूर्वाचार्योना ग्रंथोमां प्रतिक्रमणना विधिमां पण प्रतिक्रमणना श्राद्यंतमां सामान्य प्रकारे एटले जघन्यो तुष्ट चैत्यवंदना कही बे ते केटलाएक पाठ नव्यजीवाने ज्ञापन करवाने लिखिए बीए ॥ प्रथम सुविहित श्री देवसूरिजी कृत यतिदिनचर्या ॥
॥ पाठः ॥ गाथा ॥ जिावंदणमुनिमणं सामाइ अवका स्सग्गो देवसि श्रारं अणुकम्मसोइच चिंतेजा ॥ २९ ॥ जिनवंदनं करोति चैत्यवंदनं कृत्वा देववंदनं करोति देववंदनं कृत्वा गुरुवंदनं करोति यथा जगवन्नहमित्यादि ॥ ए पाठमां प्रतिक्रमणना प्रारंभमां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको क्षारः ५८५ जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही ले पण ज्यार थुनी कही नथी॥ तथा श्री अपहिलपुरपाटण नगरे फोफसवाडे जमागारे वर्तमानकाले पूर्ववर्तिप्राचीनाचार्यकृत सामाचारीयोनां पुस्तक ले तेमां पण प्रतिक्रमणना प्रायंतमां सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना कही बे.
॥ ते पाठः॥ जिणमुणिवंदणअश्या रुस्सग्गोपुत्ति वंदणालोए सुत्तेवंदणखामण वंदणचरणाश्नस्सग्गो॥४॥ उकोअशक्किका सुअखिनस्सग्गपुत्तिवंदणए ॥ थुति अनमुबत्तं पन्डितुस्सग्गुसमान ॥५॥
॥नावार्थः ॥ जिनवंदन एटले जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना मुनिवंदन एटले नगवानादि च्यार खमासमण बने पडिक्कमणु माया पठी अतिचार चिंतन कायोत्सर्ग करी लोगस्स कही मुहपत्ती पडिलेही वांदणां दे पठी देवसीय बालोयण प्रमुख पालोयणा करी प्रतिक्रमण सूत्र कहे; पली वांदणां देश खमावी वली वांदणां खामण करी चारित्रादि कायोत्सर्ग करे प्रथम २ ने पनी थकेक लोग स्सना पठी श्रुतदेवदेवीना कायोत्सर्ग करी मुहपत्ती पडिलेही त्रण थुइकही नमुबुणं आदि देवसि प्रायश्चितनो कायोत्सर्ग करी ससाय करे ॥ ए पाठमां आदिमां जघन्य चैत्यवंदना कही ने अंतमां श्रुतदेवदेवतानीथुइ कही नथी अने कायोत्सर्ग कह्या तेनो परमार्थ १५ मा
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परिजेदः १४ परिच्छेदथी जाणवो.॥पुनरपि अणहिलपुरपट्टननगरे फो. फलवाडानांमागारे कालिकाचार्यसंतानीयजावदेवसूरिविरचित यतिदिनचर्यायां ॥अथ देवसिकप्रतिक्रमणस्य स्वरूपं निरूपयति ॥ चेश्यवंदणनयवं सूरिनवसायमुणि खमणा सवस्सविसामाश्य देवसियअईयारनस्सग्गो।३।। व्याख्या ॥ तत्रादौ चैत्यवंदनं अरिहंत चेझ्याणमित्यादि पश्चाचत्वारि दमाश्रमणानि नगवानसरिनपाध्यायमुनि इत्यादि रूपाणि ॥ एवी रीते पाटणनगरना फोफलिया वाडाना नंमारमा वर्तमानथी पूर्वकालवनि पूर्वाचार्यकृत समाचारी अने यतिदिनचर्यामा प्रतिक्रमणना आदिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही ले पण च्यार थुश्थी चैत्यवंदना कही नथी॥ तथा वृंदारुवृत्तिपातप्रतिक्रमण विधिश्च योगशास्त्ररत्त्यंतर्गताभ्यः चिरंतनाचार्यप्रणीताभ्यो गाथाभ्योऽवसेयः॥ पंचविहायारविसछिनामिहसा हुसावगोवावि पडिक्कमणंसहगुरुणा गुरुविरहेकुणशक्को वि ॥१॥ वंदित्तुचेश्याइं दातुंचउराइएखमासमणे ॥ नूमिनिहिअसिरो सयलाइप्रारमिडोकडंदे॥५॥ ए वृंदारुत्ति आवकना पडावश्यकनी टीकामां पण प्रतिक्रमणना आदिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे पण ज्यार थुश्नी चैत्यवंदना कही नथी ॥ तथा श्री हेमचं सरिजीकृत श्री योगशास्त्रमा चिरंतनपूर्वाचार्योंनी रची
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयको हारः
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गाथाए करीने प्रतिक्रमणनी विधि लखेली बे तेमां देवसिकप्रतिक्रमणनीयादिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे पण व्यार थुइ करवी कही नथी. एवी रीते श्राछवि; धिमां पण पाठ लख्यो बे ॥ तथा विक्रम संवत् १३६३ नी सालमां थयेला श्री जिनदत्तसूरिसंतानीय तिलक श्री जिन सिंहसूरि शिष्य श्री जिनप्रसूरिजी कृत विधिप्रपामां प्रतिक्रमणना श्रादिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे.
॥ ते पाठः ॥ पुछोलिंगिया पडिक्कमण सामायारी पुणएसा सावनु गुरुहिसमं इक्कोवा जावंति चेाईतिगा हा डग थोत्पलिहावद्यं चेइयाईवंदिनु चनराई खमा समोहिं प्रायरियाइवंदिय जूनिहियसिरो सवस्सविदेव सियइच्चाई दंगेण सलाइयार मिनुक्कडंदानं ॥
॥ नावार्थः ॥ पूर्वे जे सामान्य प्रकारे प्रतिक्रमणनी समाचारी कहीं हती ते ए बे के श्रावक पोताना गुरुनी साथै तथा एकलो जावंति चेश्याई १ जावंति केविसाहु २ एबे गाथा ने स्तोत्रप्रणिधान वने शक्रस्तव पर्यंत चैत्यवंदना करीने व्यार क्षमाश्रमण करीने श्राचायादिकोने वांदीने भूमि उपर मस्तक लगाडीने " सङ्घस्स वि देवसिय " इत्यादि दंमकथी समस्त यतिचारोना मि
कृत दे ॥ए पाठमां जावंति प्रमुख स्तोत्रप्रणिधान वने चैत्यवंदना कही ते शक्रस्तव पर्यंत जघन्योत्कृष्ट
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परिच्छेदः १४
चैत्यवंदना जाणवी. केमके जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना बे प्रकारनी जैन ग्रंथोमां कही बे, एक तो नमस्कार शक्रस्तव जावंति प्रमुखस्तोत्र प्रणिधान सहित बीजी जावंति प्रमुख स्तोत्रप्रणिधान रहित नमस्कार शक्रस्तव पर्यंत २ ए बे जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदनामां जोजन समयनी १ जोजन पढीनी २ सुवाना समयनी ३ सूता उठया पढीनी ४ ए च्यार चैत्यवंदना तो जावंति प्रमुख स्तोत्रप्रविधानसहित जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना होय ॥ यटुक्तं श्री. प्रद्युम्न सूरिकृत सामाचार्याम् ॥ गाथा ॥ तनुयइरियाचेइ = वंदि सक्कचय जावंतिपयं पणिहाणंजाव एवं जोयण संवरसय पडिबोहति ॥ ४६ ॥
॥ जावार्थः ॥ यार पढी इरियावही करी चैत्यवंदन एटले नमस्कार कहो शक्रस्तव जावंांति प्रमुख यावत् प्रणिधान कहे एम जोजनसंवर सयन पडिबोह एटले सूता उठचा पढी पूर्वोक्तविधि प्रमाणे चैत्यवंदना करवी ॥ एटले स्तोत्रप्रणिधान सहित पूर्वे प्रथम कहेली जघन्योत्कृष्टनामा चैत्यवंदना करवी; अने प्रतिक्रमणना याद्यं तमां जावंति प्रमुख स्तोत्र प्रणिधानरहित शक्रस्तव पर्यत चैत्यवंदना करवी. अने पूर्वे कहेली बीजी जावंति प्रमुख स्तोत्र प्रणिधानरहित शक्रस्तव पर्यंत चैत्यवंदना प्रतिक्रमणना श्राद्यंतमां करवी; ए विधिप्रपाना: पाठनो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकाहारः ५७ अनिप्राय दे. पण आत्मारामजी आनंदविजयजी चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट ७ मां विधिप्रपाना पानी नापाने अंते लखे के ॥ * इस विधिमें पडिक्कमणेकी आदिमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही हे ॥ ए लखवं नि केवल नत्सूत्र ने केमके विधिप्रपाना पाठमां तो च्यार थुना अरज नथी तो प्रतिक्रमणनी आदिमां च्यार थुइ करवानुं लखवू आत्मारामजीन आकाशफूल जेवू असिथयुं ॥ तथा श्री मानविजयजी नपाध्यायजीकृत धर्मसंग्रह ग्रंथमां पण प्रतिक्रमणविधिना पाठमां जघ-- न्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे.
॥ ते पाठः ॥ पूर्वाचार्यप्रणीताःगाथाः ॥ पंचविं हायारविसुधि हेनमिहसाहुसावगोवावि पडिक्कमणंसहगु रुणा गुरुविरकुणझकोवि ॥१॥ वंदित्तुचेश्याई दानंच नराइएखमासमणे नूनिहिबसिरोसयला श्यारेमिहाड कडंदे॥२॥ ए पाठमां देवसिप्रतिक्रमणनी आदिमा जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे, पण ज्यार थुनी कही नथी॥ तथा वृहत्खरतर गबनी समाचारीमां पण जय-- न्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही ...
॥ते पाठः ॥ पुत्रोनिगिया पडिक्कमणसमायारीपुण एसा सावगुरुहिसमं कोवाजावंतिचेश्यातिगाहा ॥ उगथुत्तिपणिहाणवयं चेश्याइवंदित्तुचनराश खमासमणे
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परिजेदः १४ हिंायरियाई बंदिय नूनिहियसिरोसवस्स देवसियश्चा इदंम्गेण सय नाश्यारमिन्बोकडं ॥ ए पानी भाषा जेम विधिप्रपाना पानी अमे एज परिच्छेदमां न्याय पूर्वक नपर करी आव्या बीए तेम जाणवी. ए पाठमां पण प्र. तिक्रमणनी आदिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे, पण च्यार थनी चैत्यवंदना करवी कही नथी ॥ तथा अपहिलपुरपाटना फोफलियावाडाना नंमारमांरुपल्लीयगडी श्रीअनयदेवसरिजीकृत समाचारीमा प्रति. क्रमणना आयंतमा जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना लखी बे.
॥ ते पातः ॥ प्रव्रजितेन चोनयकालं प्रतिक्रमणं विधेयमतस्तादेधिः स च साधुश्रावकयोरेकएवेति श्रावक समाचार्या पृथक नोक्तः तत्र रात्रिकस्य यथा इरियाकुसुमिणसग्गो जिणमुणिवंदरातहेवसद्यान सबस्सविसकचन तिनियनस्सग्गकायचा ॥ १ ॥ चरणेदंसपनाणे दुसबोगद्योतयतईभईयारा ॥ पोत्तीवंदणघालोय सुत्तंवंदण यखामणयं ॥२॥ वंदणमुसम्गोश्व चिंतएकिंग्रहंतवंकाहं अम्मासादेगदिमा हाणिजापोरिसिनमोवा ॥३॥ मुहपोत्तीवंदण पञ्चका अणुसहितहथुइतिन्नि जिएवंद णबहुवेता पडिलेहराइपडिक्कमणं ॥४॥ अथदेवसि कस्य ॥ जिणमुणिवंदणयश्यारुस्सग्गोपोत्तिवंदणालोए सुनवंदणखामण वंदनतिन्नेवनस्सग्गा ॥ १ ॥ चरणेदंस
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको क्षारः ५१ णना ग्धोयादोलिएक्कएक्काय सुयखेत्तदेवनस्सग्गो पो त्तियवंदणथुईथुत्नं ॥ २ ॥ तथा श्री तिलकाचार्यकृत वि. धिप्रपामां पण प्रतिक्रमणना आयंतमा जघन्योत्ष्ट चैत्यवंदना कही ने.
ते पाठः ॥ अथ साधु दिनचर्याविधिः ॥ इहसाधवः पाश्चात्यरात्रिघाटिकाचतुष्टयसमये पंचपरमेष्टिनम स्कारं पवंतः समुदाय "किं मे कडं किं च मे" किच्चमे संकं सक्कणियं समायसमिकिंमे परोपासई किंच अथवा किंचाहंवलियनविवद्ययामि ॥१॥ इत्यादि विचिंत्या पथिकी प्रतिक्रम्य चैत्यवंदनां कृत्वा समुदायेन कुस्वप्न स्वप्नकायोत्सर्ग गुरुन् वंदित्वा यथाज्यष्टं साधुवंदनंश्रावका गां तु मिथो वांदननगनं ततः क्षणं थादेशादानेनस्वा ध्यायंविधायततः मा० इन्च पडिंकमण नावं दमा सबस्सविराश्य उचिंतियानासियं उचिठियह मणि वचणि काइंमिहामि पुक्कडं शक्रस्तवनणनं तत धारित्रशुध्यर्थं करेमिनंते काठस्सग्गं नधोयचिंतणं न पुनरादावेव अतिचारचिंतनं निंज्ञप्रमादेन स्मृतिवैकल्य संनवात् ततो दर्शनशुध्यर्थं लोगस्स उद्योयगरे उद्योय चिंतणं झानशुध्यर्थं पुस्करवर नस्सग्गो अचस्कुविस जोगुवो सिरियन इत्याद्यतिचारचिंतनं श्रावकाणां तु नाणंमि दंसमीति गाथाष्टकचिंतनं ततोमंगलार्थ सि
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परिच्छेदः १४ झाणंबुक्षाणमिति स्तुतीनां नणनं मुहपत्तीपेहणं वंदणयं नपविश्य प्रतिक्रमणसूत्रनणनं अनुन्निमि आराहणाए पनाणित्ता वंदणयं खामणयं यदिपंचाद्याः साधवो नवंति तदा त्रयाणां तक्रियतां तत्र रात्रिके देवसिके पादिकादि सत्कसंबसमाप्तिदामणेषु दमायतारः सकलं दामण कसूत्रं नणंति दमणीयास्तु परपत्तियं पदात् अविहिणा सारिया वारिया चोझ्या पडिचोइया मगेण वायाए का एग वा मिहामिपुक्कडं इतिनणंति। अथ वंदणपुत्वं उमासिया चिंतणचं आयरियनवशाए नस्सग्गा बम्मासिय चिंतणंकरिऊपञ्चकाणं जावउद्योयनणित्ता मुहपत्तीपडिलेहवंदणयं पञ्चकाणं श्वामोअणुसहि विशाललोच नदलं० इति स्तुतित्रयननं शक्रस्तवः ॥ पूर्ण चैत्यवंदना ॥ तिलकाचार्यकृत विधिप्रपामां॥ संपूर्णाचैत्यवंदना अस्तोत्रा ततो गुरुन् वंदित्वा यथाज्येष्ठं साधुवंदनं दमा इला पडिक्कमण गयहं वं दमा सवस्सवि देवसियं इत्यादि ए पाठमां राप्रतिक्रमणना अंतमां शक्रस्तव कह्यां पूर्ण चैत्यवंदना कहीने देवसिप्रतिक्रमणनी आदिमां स्तोत्र प्रणिधान रहित संपूर्ण चैत्यवंदना कही ते पूर्वोक्त न्यायथी जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना जाणवी॥ पण च्यार थुश्नी न जाणवी तथा श्री राजधनपुर अर्थात् श्री राधनपुरना नंमारमा वर्तमानकाल पूर्ववर्ति पूर्वा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-द्वारः
५ए३ चार्यकृत षडावश्यकविधि नामा ग्रंथमां पण प्रतिक्रमणना यद्यंतमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही डे.
* ॥ ते पाठः ॥ पंचविहायारविसुद्धि हेतुमिहसाहुसाव गोवावि ॥ पडिक्कमांसहगुरुणा गुरुविरहे कुणा इकोवि ॥ १ ॥ वंदितुचेश्याई दाउंचउराइएखमासमले नृनिहि यसिरोसयला इयारमिचोकडंदेश इत्यादि ॥ २॥ ए षडाक श्यक ग्रंथमां पाठमां देवसिक प्रतिक्रमणना ग्रादिमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही तेमज राइ प्रतिक्रमणना अंतमां पण जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कहीजे.
॥ ते पाठः इलामो सुसडिंति नवविसी पढइ तिन्निथुइ ॥ मीनसणंसक्क वयाइतोचेश्एवंदे ॥ ए॥ इति रात्रिप्रतिक्रमणे पडावश्यकानि ॥ ए पाठमां मृड शब्दे त्रण व ईमान थुइ कही ने पढी शक्रस्तवज बे च्यादिमां जेने एवी चैत्यवंदना करवी एटले जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना करवी कही. यद्यपि उपर लखेला सर्व शाखोमां प्रतिक्रमणना आद्यंतमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही बे, तोप चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट १०७ मामां आत्मारामजी खानंद विजयजी लखे बे के ॥ * हम ऊपर जितने शास्त्रोंकी साहीसें देवसीपडिक्कमका विधि लिख आहै तिन सर्व ग्रंथोंमे राज्यडिक्कमके अंतमें चार थुइसे चैत्यवंदना करनी कही है ॥ ए सर्व लवकुं मिथ्या
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परिजेदः १४ ले केमके जेटला ग्रंथोनी सादिआत्मारामजीए दीधी ले ते ग्रंथोसहित बमणा त्रमणा ग्रंथोनी सादि अमो लखी पाव्या बीए, तेमां को शास्त्रोक्त विधिमां "देवेवंद" कोश्मा “अरिहंतचेश्याणं" इत्यादि अने कोइकमां “सक्कबयाई" वली को ठेकाणे "शक्रस्तवः पूर्णाचैत्यवंदना” अने बहु शास्त्रोमां “ जिमुणिवंदण" इत्यादि सामान्य नामथी चैत्यवंदना करवी कही , ते प्रतिक्रमणना आयंतनी जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना सामान्यथी करवी कहीने, तेमां सर्व प्राचार्योनो एक मत ; पणको ठेकाणे विस्तारथी च्यार थुनीकरवीकही नथी. इहां कोई कहेशे के अावश्यकहवृत्तिमा राप्रतिकमयाना अंतमां वईमान त्रण थुइ कह्या पली "देवेवंद" एवो पाठ तेथी विस्तारे वंदन करवं सूचन थाय ने एम कहे तेनी न्यूनताबुझिटालवाने ए उत्तर डे के “दे. वेवंद" ए साधारण वचनथी विस्तारे देववंदन कडं ग्रहण न थाय, केमके सुविहित श्री देवसूरिजीकृत यतिदिनचर्यामां जघन्यउत्कष्ट चैत्यवंदनाने देववंदना कहीले.
॥ते पाठः ॥ मुचश्नपाणं सम्मंजिनाहवंदणं कुण सोलससिलोगमाएं जहन्नकुणइसशायं ॥३॥ व्याख्या॥शिरो ललाटं नूमि प्रमाय॑ ततो नक्तसंनृतज लनृतपात्रकाणि च तस्यां नूमौ मुक्का स्वस्थचित्तः सन्
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चतुर्थस्तुति निर्णयशंको-छारः
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सम्यक्प्रकारेण जिननाथवंदनं करोति देववंदनं करोति ततः जघन्यतः षोडशश्लोकमानं जघन्य तोपि स्वाध्यायं करोतीति गाथार्थः पोडश श्लोकानाह धम्मोमंगलमुक्किठं इत्यादि पंच गाथामयं प्रथममध्ययनं तथैकादशगाथामयं कहन्नकुद्यासामन्नमित्यादि द्वितीयमध्ययनं एवं षोडश श्लोकमान जघन्यतः स्वाध्यायं करोतीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ ए पाठमां नोजन करवाना समयमां देववंदन करीने सझाय करवी कही ते देववंदना पूर्वाचार्यांना ग्रंथोमां जघन्योत्कृष्ट कही, तेम स्वगीय परगतीय सर्व साधुसमुदायमां वर्त्तमानकालमां पण करे बे, पण विस्तारे वंदना करता नथी; तेथी “ तिन्निथुइयो ” तथा “चनरोथुइन" इत्यादि वाक्य ग्रंथोमां होय तो विस्तारे देववंदन ग्रहण थाय, पण " देवेवंद" इत्यादि सामान्य वचनथी एकांते विस्तारे ग्रहण न थाय ॥ पूर्वपचः श्री मडपाध्याय श्री यशोविजयगणिजीये प्रतिक्रमण हेतुगर्जितविधि लखी हे तिसका पाठ लिखते है | पढमहिगारे वंड नावजि
सरुरे ॥ बीजेदवजिणंद त्रीजेरे, त्रीजेरे इगचेश्यठवणा जिणोरे ॥ १ ॥ चोथेनामजिनतिहुयण उवणाजिनानमुंरे पंचमेतमवंडरे वंडरे विहरमानजिन केवलीरे ॥ २ ॥ सत्तमयधिकारेसुयनाणंवंदियेरे मीथुसि छाणनवमे रे नवमेरे इति विवीरनीरे ॥ ३ ॥ दसमेन जयंतेथुइ
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. परिवेदः १४ वलियग्यारमेरे चारधाग्दशदोयवंदोरे वंदोरे श्री अष्टा पदजिनकह्यारे ॥४॥ बारमेसम्यग्दृष्टिसुरनीसमरणारे एबारअधिकार नावोरे जावोरे देववांदतांजविजनारे॥५॥ इस उपरके पातमें देवसिपडिक्कमणा करतां प्रथम बारा अधिकार सहित चैत्यवंदना करनी कही हे तिसमे चोथा कायोत्सर्गवेयावच्चगराणंका करणा तिसकी थुइ कहनी कही है.
॥उत्तर प्रदः ॥ हे सौम्य ए पाठनो तमने यथार्थ तात्पर्यार्थ मालम नथी तेथी तेम प्रतिक्रमणनी आदिमां च्यारथुइच्यार थुइ उन्मत्त बके तेमबको बो,पण उपरना पाठनो तात्पर्यार्थ ए के विक्रम संवत् १५०५ नीशालमां थयेला श्रीजयचंसूरिजीए प्रतिक्रमणगर्नहेतु बनाव्यो, ते उपरथी प्राये श्रमिउपाध्याय श्री यशोविजयजीए प्रतिक्रमणगर्नहेतुस्वाध्याय प्राये श्रावकने उद्देशीने बना. वी ; ए स्वाध्यायमां जेवी रीते श्री जयचंसूरिजीए प्रतिक्रमणगर्नहेतुमां देववंदन करवा कह्या बे, तेवी रीते उपाध्यायजीए पण देववंदन करी प्रतिक्रमण कर, एथनिप्रायथी प्रतिक्रमणहेतुना प्रसंग प्राप्तिथी विस्तारे देववंदन कह्या बे; पण जे ग्रंथ नपरथी उपाध्यायजीए प्रतिक्रमणगर्नहेतुस्वाध्याय बनावी ने तेज ग्रंथमां प्रतिक्रमणना प्राद्यतमा विस्तारे देववंदन निषेध्या ने.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ५९७ ॥ ते पातः ॥ तदनु च “इलामो अणुसहिति” नणित्वोपविश्य स्तुतित्रयादिपाठपूर्व चैत्यानि वंदते यत उक्तं श्वामोअणुसहित्ति जणियनवविसिषपढतिन्नि थुइ मिनसदेणंसक बयंन्चेईएवंदे॥१॥उनयोरप्यावश्य कयोराद्यतेषु मांगल्याथ चैत्यवंदनेष्वधिकृतेष्वपि यदह मुंखे प्रदोषे च विस्तरतो देववंदनं तद्विशेषमांगल्यार्थ कालवेताप्रतिबध्त्वेन न संनाव्यते अन्यथा च यथागमं कारणमभ्यूह्य इदं च प्रतिक्रमणं मंदशब्देनैव कुर्यात् रात्रावुच्चैः स्वरेण शब्दकाशितहुंकारखंकारादेरपि निषे धात् अन्यथा तत्करणेन जागरितेहगोधादिजीवैर्मदि कोपवाद्यारंजः प्रातिवेश्मिकैस्विस्वारंनः प्रवत्येत तथा च परंपरया निरर्थकमनेका दोषाःप्रवर्त्तिता नवेयः॥
नावार्थः॥ प्रातःकालनां पञ्चकांण करीने पनी इ. बामोअणुसहिं कही बेसीत्रण थुादे पाठ पूर्वक चैत्योने वांदे ते केवी रीते तेकहे जामोअणुसनिणी बेसीने मृडशब्दे करीने त्रण थुइ कहे पड़ी शकस्तवे चैत्य वांदे ॥१॥ बेन पण आवश्यकना एटले राइ देवसि प्रतिक्रमणना पायंतने विषे मंगल अर्थे चैत्यवंदन अंगीकार करयां तो पण जो दिवस रात्रिना मुखने विषे विशेष मंगलने अर्थे कालवेला प्रतिबझपणे करीने विस्तारथी देववंदन करवां ते संनवतांनथी, अन्यथा वली जे प्रकारे
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एएस . परिच्छेदः १४ बागममां कारण कह्यांडे ते कारण अंगीकार करीने एटले रात्रिने विषे लंचे स्वरे करीने शब्दखांसी हुंकार
कारादिक पण आगममां निषेधवाथी ए प्रतिक्रमण मंद शब्देज कर; नही तो वली ते ते पूर्वोक्त कार्य करवे करीने गरोलि प्रमुख जीव जागृत थयां थकांमाखियोना नपवादिक प्रारंजमा प्रवर्ते,अथवा प्रजातना कृत्य करवावाला लोक निज निज प्रारंजना कार्यमां प्रवर्ने तथा वली एकथी बीजो, बीजाथी त्रीजो, एवीरीते परंपराए करीने निरर्थक अनेक दोषप्रवर्तिपणुं थाय ॥ ए पाठमां प्रतिक्रमणना आयंतमां विस्तारे देववंदन निषेध्या ॥ तेथी श्रीमपाध्याय श्री यशोविजयजीए पण गर्नहेतुस्वाध्यायमां रात्रिप्रतिक्रमणने अंते "श्चा मोअणुसहीं" कहीं “तिगथुश्थवचिश्वंदणसुहमारे" ॥ च० ॥ ए वचनथी सामान्य प्रकारे देववंदना कही पण विस्तारे देववंदना कही नथी. अने संध्याना प्रतिक्रमणनी अादिमां बारे अधिकार सहित विस्तारे देववंदना कही ते पूर्वोक्त महानाष्यादिक अनेक शास्त्रोमां श्रावकने त्रिकाल पूजा अवसरे विस्तारे देववंदना कही ने, तेथी संध्यानी पूजा अवसरे श्रावकने देव वांदतां बार अधिकार नाववा प्रतिपादन करया संनवे , पण प्रतिक्रमणमां बार अधिकार सहित देववंदना. करवी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोक्षारः . पण एवं उपाध्यायजीनुं कथन नथी; केमके उपाध्यायजीनो शोधेलो श्री धर्मसंग्रह तेनो पाठ पूर्व लखि याव्या लिए तेमां सांऊना सूर्यममलनो अई नाग दीगं पेहेला श्रावक जिनपूजाने अनंतर प्रतिक्रमण करे एम कडं बे, तेमज नपाध्यायजी पोते पण गर्नहेतुस्वाध्यायमां ॥ अ रधनिबुम्मरविगुरु सूत्रकहेकालपूरोरे दिवसनोरातिनोजांपीए दसपडिलेहणथीसूरोरे ॥६ श्रु०॥ ए गाथामां सूर्य मंझलनो अईनाग देखातां प्रतिक्रमण सूत्र कहे ते देव. सि प्रतिक्रमणनो काल बताव्यो, ने दश पडिलेहण करतां सूर्य नगे ते रात्रि प्रतिक्रमणनो काल कह्यो, तेथी प्रतिक्रमणना आद्यंतमा सामान्य विधिएज देववंदन करवा संनवे, पण विशेष विधिए देववंदन करवा न संनवे. वली श्री वृहत्खरतरगच समाचारीमा तेमज का.
॥ते पातः ननयोरप्यावश्यकयोराद्यतेषु मंगलार्थ य दाहमखे प्रदोषे च विस्तरतो देववंदनं तद्विशेषमंगलार्थ कालवेला प्रतिबश्वेन न संभाव्यते अन्यथा वा कारण यथागमं ज्ञेयं ॥ ए पाठनो नावार्थ पूर्वनी पेठे जाणवो. एमां पण विस्तारे देववंदन निषेध्या ॥ तथा सुविहित शिरोमणि श्री प्रद्युम्नसूरिजीकृत समाचारीमां पण प्रति क्रमणना आयंतमा जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना कही ले पण विस्तारे कही नथी.
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परिछेदः १४
॥ ते पाठः ॥ निबाधाएसवे गुरुणा सहसङ्घवंतिकहम वि वाघाएपुचिता यावरसंतेविगवति ॥६७॥वाघानं गुरुणं वा समाइयाणमुवएसाइहताव अोसुत्नचं काउस्सग्गठि याचिंते३॥६८॥जोहुकाप्रसमचो बालोबुढोववाहिसंजुत्तो सोन्यावस्सयसमए अािणिकरापेहि ॥ ६ ॥ प्रहगुरुग यइएवं तयाइमाविहिसाहुसहेइरिया इवाचेश्यवंदा स कचयंचनवदयं ॥ ७० ॥ इामिचकारं देवसियंतानंचय करणं सामाइयामि गमितस्सुतारंजान्नचं ॥ ७१ ॥ ठायइकाजस्सग्गं चिंतइयारजावगोसानु जातीतेविहु सवे जहक्कमेणंजनुवृत्तं ॥ ७२ ॥ जादेवसिडुगुणं चिंते गुरु श्रहिंमनचिठं बहुवावाराइयरे एगगुणं तावचिंतंति ॥ ७३ ॥ मुहांतय पडिलेहण माझ्यंत जे अश्यारा कंटक वग्गुव माए धरतिदिवसे चरित्तांम ॥ ७४ ॥ संवेगसमावन्ना विसुन्द चित्ताचरित्तपरिणामा चारितविसोहाचं पचाचनकुलं तिते एयं ॥ ७५ ॥ नमुक्कारेणपारिता चडविसच्चयंतन मुहपो तिपडिलेहा जायाइपएणवीस मवि ॥ ७६ ॥ किञ्चानवनुंगसंजुत्तं चित्रादोसंचकिकइ कि कम्मयइच्छा कारिणजन वंदिद्या ॥७७॥ आलोयणप्रवसाह वागरणस्स पुचणापूयमि सझाए वराहेच गुरुनविषयमूलंचवंदणयं ॥ ७८ ॥ वंद
अंतरवयणं तचैवविण्यवयणइवामि इवाकारिणा हाहा जन्यवंदण जिणं पुचा ॥ ७९॥ वंदि सुतनं पुछा श्रदाथ
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६०१ वणयाजहक्कमेणंतु ननयकरधरियलिंगा तेबालोयंतिउव नुत्ता॥०॥लामिपडिक्कमित्रं ठाणेक्कमणेपमुहअश्यारा विसल्लमणेणसवे चिंतश्यतस्सकल्लाणं॥७॥अवराहाणं कहणं गुरुदत्ततवंतहकारइहहव बंसवनणिया एव कारकरेमिचत्तारि॥७॥यालोयणदंमरियपगामसप्नाय जावकिकम्मा श्वामिछकार मनुन्निमिअनंतरवंदण यं॥३॥मिलाकारोगुरुणं संतोसोवाअन्नपंचतिसत्ता खा मिकासवेविगाहाणुसारतनद्या॥॥अायरियनवशाए सीसेसाहम्मिएकुलगणेय जेमेकयाकसाया सवेतिविहेण कामेमि॥७॥सवस्ससमणसंघस्स नगवनअंजलिकरीय सीसेसवंरखमावश्त्ता खमामिसबस्सअहयंपि॥६॥सवस्स जीवरासिस्स जावनधम्मनिहियनियचित्तो सवंखमाव त्ता खमामिसवस्सथहयंपि॥७॥कांमित्तुत एवं करांति सल्वेविनवरमणवा तेसिंकिंविषणा लोइयंतयणनस्स गो॥॥सामाश्यपुवंवा तामियतस्सुत्तरिजावअन्न च रित्तसोहणहेठ नस्सग्गोपणासठस्सासं॥णादसणसुद्धि निमित्तं लोगस्ससबलोएअरिहंत बंदणयनबंवा पणवी सुस्सासठस्सग्गंगए॥पारित्नासुप्रणाणे अश्यारसोहण बसुयवयं कवंदणवत्तिय अन्नबजावनस्सग्गं ॥१॥ पणवीसगंपमाणं नस्सारित्तासुझअश्यारा सिहाणवयं पढंति पुत्तिपडिलेहकिश्कम्मए जनएसचरित्तुस्सग्गो
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६०२ परिजेदः १४ दसणसुहिएतइयनुहोइ सुयनाणस्सचनबो सिक्षाणथुझे किश्कम्मए३॥कऊंकिच्चारणो कहंतिपणामकाकणकिंज्ञ यरातहविणिवेयणबंकिकम्मामुणेयवा॥एवढंतिया थुन थुश्मंगलंमिगुरुणानचरिए सेसातिथुबिति सक्कल यंचनवंदण्यं ॥५॥ इति ॥ देवसिप्रतिक्रमणविधि ॥ ए पाठमां आद्यमां चोथी थुसहित चैत्यवंदना कही नथी अने अंतमां श्रुतदेवी देवदेवीनो कायोत्सर्ग तथा थुइ करवी कही नथी ॥ अथ रात्रिप्रतिक्रमणविधिः ॥ इरियाचेश्यवंदण पत्तिपडिलेहसंथारविहिंच नणिकणध म्मसाणं मंतंसरझमहासुझाए६॥ तइएजामेनिंदा मुको जणिनजिणंदवीरेण तनरियंकुसुमिणं कानस्सग्गंचठ घोअंगए॥ चेश्यवंदणचठरो खमासमणंतहेवससान सत्वसविसकबसामाश्यंचनस्सग्गएपणवीसुस्सासं चित्र पारितान्योअगरंतोपढइ अरिहंतवंदणवत्ति अन्न बस्सग्गचंदेसु ॥ए॥पारित्तासुत्तथयं वंदराअनबजावथ इयारा चिंतश्नस्सग्गे विवरियपमायपसंगणं॥१०॥सिक्ष थयंमुहपोति किकम्मंघालोयणदंवा संथारालोयणयं पुवुत्तविहिंपडिक्कमणं ॥११॥ वंदणखामणखामण वंदण आयरियाझंगहातिनिणणं श्वामिठामितस्सुस अन्नबु स्सग्गमर्शमि ॥१०॥ किंतवंपडिवजामि बम्मासिजहस त्तिए पारित्ताचगवीसवय मुहणंतयकिश्कम्मा ॥१३॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६०३ वइमाणथुकिच्चा सक्कलयंचचउरोवा वंदणजश्यंचेश्यं अपहापडिलेहणा॥१४॥मुहपत्तिरयहरणंचोलपढेचति हिशय वनाईणंचदंमंवा जावसूरोविनग्गई॥१०॥
॥ए पाठमां राइपडिक्कमणाना अंतमां जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना करी, सूर्य उगे त्यां सुधी दश पडिलेहणा करवी कही पण चोथीथुइ सहित विस्तारे चैत्यवंदना नकही तथा श्री चतुर्विशति दमकस्तवना कर्ता श्री गजसागरजी उपाध्यायजीना गुरु श्री महोपाध्याय श्री धवलचंजी गणिकृत प्रतिक्रमणगर्नहेतुमां तो चैत्यमांज विस्तारे चै: त्यवंदना करी प्रतिक्रमण करवू का बे.
॥ते पातः ॥ तत्र देववंदनं चैल्ये कृत्वावश्यकं करोति देववंदनस्याप्यावश्यकत्वात्तस्यायं विधिः योगमुझ या शक्रस्तवं पठित्वा अरिहंतचेश्याणं ततो जिनमुश्या कायोत्सर्ग मूलनायकस्य वईमानस्तुतिनमस्कारेण पारयित्वा पठति जिनमुश्या इत्यनेन स्थापनार्हद्वंदनं विधाय पश्चान्नामस्तवं पठित्वा सवलोएयावदप्पाणंवोसि रामि स्तुतिश्चात्र सर्वचैत्यानां इत्यनेन नामनिदेपो वंदितः ततो झानस्तवं तस्यापि कायोत्सर्गस्तुतिरपि तस्य ततः शक्रस्तवादि केचिदनंतरं सिहस्तवं पति तन्नसिझते ततः प्रणिधानमित्यादि.
अर्थः ॥ त्यां देववंदन देहरे करीने प्रावश्यक करे
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६०४
परिजेदः १४ देव वंदननु पए अवश्यपणुं माटे; तेनी ए विधिः जोगमुज्ञाए शक्रस्तव जणीने अरिहंतचेश्याएं पनी जिनमुशए कानस्सग करी मूलनायकनी वईमान थु कहे एटने जिनमुशएस्थापनाअरिहंत वांद्या वांदिने लो गस्स कही सवलोए कही यावत् अप्पाणंवोसिरामि हां सर्व चैत्योनी स्तुति कहे एटले नामनिदेपो वांद्योपड़ी झानस्तव कानस्सग्ग ज्ञाननी थुइ कहेवी पड़ी शक्रस्तवादि कहिये. कोइ लोकतो इहां सिहस्तव कहे जे ते महानिशीथादिक सूत्रोमां नथी ॥ पडी प्रणिधान एटले प्रतिक्रमण मंगलपाठनी पेठेत्रण श्लोकरूप प्रणिधान कहे एटले चैत्यवंदन विधि चैत्यमां करी पडिक्कमj करे एमां पण त्रण थुइ कहीले ॥३५॥
॥ए पाठमां जिनगृहमां देववंदन करी आवश्यक करवू का, माटे ए हेतुरूप कालकरालनास्करे तो प्रतिक्रमणना आदिनी चोथी थुइ सहित तमारी विस्तारे चैत्यवंदनारूप अंनोनिधिना कादवन शोषण करी नांख्यु तो प्रतिक्रमण गर्नहेत्वादिक स्वाध्यायादिकमां देवगुरु न मन करी सकल क्रिया करवी ते सफल थाय; माटे द्वादश अधिकारे देववंदन करी च्यार खमासमरो गुरु वांदि प्रतिक्रमण गवे इत्यादि सामान्य वचननो अवष्टंजलेश्प्रतिक्रमणना यंतमां विस्तारे देववंदन स्थापन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६०५ करवु युक्त नथी, केमके पूर्वोक्त अनेक जैनग्रंथोमां जिनचैत्यमांज विस्तारे चैत्यवंदना कहीजे; अने विस्तारे चैत्यवंदनाने अंते यथोचित क्रिया करतां तो ललितविस्त रावृत्ति प्रमुख ग्रंथोमा सामान्येज चैत्यवंदना करी आचार्यादिक गुरु वांदवा कह्या ने.
॥ते पाठः ॥ एवंविधानफलप्रणिधानपर्यंते चैत्यवंदनं तदन्वाचार्यादीननिवंद्य यथोचितं करोति कुर्वतिवा,
॥नावार्थः ॥ एम पूर्वोक्त विधि शुजफल प्रणिधानना अंतमां चैत्यवंदन करी पठी आचार्यादिकने समस्त प्रकारे वांदी यथोचित क्रिया एक करे, अथवा घणा करे; एटले देवगृहमां प्रणिधान पर्यंत विस्तारे चैत्यवंदना करी यथोचित क्रिया करवाने अवसरे सामान्य प्रकारे चैत्यवंदन करी गुरवादिकने वांदि'यथोचित क्रिया करे॥ इत्यादिक जैन ग्रंथोंना अनिप्रायथी श्रीमपाध्याय यशोविजयजी प्रमुख पूर्व पुरुषोए प्रतिक्रमण हेतुग - दिकमां विस्तारे देववंदन कह्यांबे, ते जिनगृहमां विस्तारे देववंदन करी प्रतिक्रमणादि क्रिया करवाना अवसरे जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना करी प्रतिक्रमण करवं ते यात्रि कथन संनवे , अन्यथा जो प्रतिक्रमणमां विस्तारे देववंदन, कथन मानिए तो प्रतिक्रमणमां नियत कायोत्सर्ग कह्या ते प्रमाणथी अधिक थाय, यक्तं ॥ श्री सं
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परिन्जेदः १४ घाचारवृत्ती.
॥ तत्पातः ॥ तस्सग्गमाणतिएकविंशद्वारं व्याचिरख्यासुर्गाथापूर्वाईमाह ॥ "इरिनस्सग्गप्पमाणं पणुवीसु स्सासअठसेसेसु" र्यापथिक्याः कायोत्सर्गस्य प्रमाणं करणकालावधिः पंचविंशतिरुवासाः चैत्यादि विषयग मनाश्यतिचारविशोधकत्वात्तथा चागमः ॥ जत्तेपास यणा सणेयअरिहंतसमणसिद्यासु ॥ उच्चारपासवणे पणु वीसंसृतिनसासा ॥ तथानाष्ये ॥ पणवीसंगसासा इरि यावहियाइनस्सग्गेत्ति ॥ ते चतुर्विशतिस्तवनचंदेसुनिम्म सयरा इत्यंतेन पंचविंशतिपदैः पूर्यते पायसमानसासा तिवचनात् ततश्च नमस्कारेण पारयित्वा संपूर्णश्चतुर्विंश तिस्तवं पंग्यत इति वृक्षा एवं चास्य दैवसिकप्रतिक्रम त्वाद्यनावस्तेषां दिवसायतिचारविशोधकत्वादितश्चतुर्गु पाद्यबासादिमानत्वानियतकायोत्सर्गत्वादस्य त्वनियत त्वात्तथा चार्ष ॥ सायंसयंगोसई तिन्नेवसयाहवंतिपरवं मि पंचसयचानम्मासे असहस्संचवारिसिए ॥१॥ चत्तारिदोऽवालस वीसंचत्तायहोतिनधोया ॥ देसियराइ यपकिय चाउमासेयवरिसेय देसियराश्यचानम्मासे तहे ववरिसेय एएसुटुंतिनियया उस्सग्गाअनिययासेसा।। शेषागमनादि ॥२॥ विषयाविचारणीयं बह्वत्र सूक्ष्मधि येति तथाष्टौ उखासा अशेषेषु चैत्यवंदनाकायोत्सर्गेषु का
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ६०७ समानमिति यदागमः॥ अवयनसासा पठवणपडिक्क मणमाईन चात्रामिनगृहीता इति वाच्यं आदिशब्दात् दिप्तत्वात् उपन्यस्थगाथा सूत्रोपलदणत्वात् अन्यत्रापि चागमे एवंविधसूत्रादनुक्तार्थसिः नक्तं च ॥ गोसेमुहणं तगाईत्यादि ॥ अत्रमुखवस्त्रिकामात्रोक्तेः आदिशब्दाछे षोपकरणादिपरिग्रहोऽवसीयते सुप्रसिहत्वात् प्रतिदिव सोपयोगाच्चननेदेनोक्त इति श्होब्बासमानमिदं न पुन ध्येयनियमः यथापरिणामेन हि तत्स्थापनेशगुणतत्वानि वा स्थानवार्थालंबनानि वा छात्मीयदोषप्रतिपदो वा प्रतिविशिष्टमध्येय ध्यानं हि विवेकोत्पत्तिकारणमित्यलं प्रसंगेन.
॥अर्थः॥कानस्सग्गना प्रमाणनो एकवीसमोझार कहेवानी इला करता गाथापूर्वाई कहे जे “इरिवं” एट ले ईरियावहीना कानस्सग्गर्नु प्रमाण एटले कालमर्यादा ते २५ पच्चीस श्वासोश्वासनी बे, केमके चैत्यादिविषयी जवा प्राववाना अतिचारनुं विशोधकपणुंडे तेथी; तेमज आगममां कडं . के नात पाणी शयन आसन अने अरिहंत श्रमण सिद्याने विषे उल्लोमात्रु परित्व, एटसामां ५५ उडासनो कायोत्सर्ग होय. तेम नाष्यमां 'पण कहे ले के, पच्चीस नबासनो इरियावही कानस्सग्ग ते लोगस्सना चंदेसनिम्मलयरा सधी पच्चीस पदे करी
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६०७ परिवेदः १४ पद जेटला नसास ए वचनथी पुरो थाय त्यार पडी न. मस्कार करी पारीने संपूर्ण लोगस्स कहे एम १६ कहे .एम कहेवाथी को प्रतिक्रमण कानस्सग्ग मांनि ले ते माटे कहे बे; ए व्याख्यान करवाथी ए कायोत्सर्गनो देवसिक पडिक्कमणादिकमां अनाव में केमके ते देवसी प्रमुखमां तो दिवसादिकमां अतिचार लाग्या तेमनुं विशोधकपणुं बे, तेथी तेमनुं मांन चोगणा नश्वासादिकन
तेथी, तथा वली पडिक्कमणाना कामस्सग्ग नियत डे तेथी, अने इरियावहि प्रमुखनो जे कानस्सग्ग ते वली अनियत ने तेथी; हवे नियत अनियतनो तेमज वली आर्ष एटले बागम देखाडे जे के देवसीना कानस्सग्गनु प्रमाण १०० श्वासोश्वासन, रात्रिनुं प्रमाण ५० श्वासोश्वासनं, परकीमांत्रणसे ३०० श्वासोश्वास, चोमासमिां पांचसे ५००नुश्वास,अने एकहजारयात संवहरी पडिक्कमणामांर 00७ उसास.हवे लोगस्सनुं प्रमाण कहे बे, राइ देवसीमां बे अने च्यार लोगस्स, परकीमा १५ लोगस्स, चोमासीमां २० लोगस्स, अने संवबरी पडिकमणामां चालीस लोगस्स वली एक नवकार होय. हवे निश्चे निरंतर जे कानस्सग्गनुं प्रमाण ते कहे देवसी १ राइ २ परकी ३ चनमासी । अने संवबरी ५ एट-' लामां तो जेटला कह्या तेटलाज श्वासोश्वासना कान
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-झारः ६०५ स्सग होय ना अधिका होय नही, माटे ए नियत कानस्सग्ग जांणवा. शेष सर्व अनियत जांणवा तेन होय न होय, अने नग अधिका पण होय, माटे गमनादि विषय अनियत जाणवा. ए बहु सूक्ष्मबझिए विचार तथा अाठ श्वासोश्वासन चैत्यवंदनाना कायो त्सर्गनुं कालमान का, कारण के आगममां आज नश्वास पठवण पडिक्कमणादिकमां कह्याने. हवे को कहे के ए आगममां तो चैत्यनो नथी कह्यो तेने कहे जे तुं कहे डे के एचैत्यना नश्वास इहां नथी ग्रहण करया एवं तुंम कहे प्रादि शब्दथी चैत्यना पण प्राक्षिप्त तेथी स्थापित गाथा सूत्रना नपलक्षणथी जाणवू. माटे बीजी जगाए पण बागममां एवा प्रकारनाशब्दथी नहीं कहेला अर्थनीसिधि थाय जे. ते बीजा रहेला नपगरण प्रमुख परिग्रहण जाणिये बीए; केमके प्रसिपणाथी अने नित्य नपयोगी ने तेथी नेद करी कह्या नहीं आदिशब्दथी एमज वली कहे ने जेमके “गोसेमुहणंतगाई" इत्यादि था तेकाणे मात्र मुहपत्तिज कही तेमां यादिशब्दथी बीजां उपगरणनो परिग्रह पण जाणवो, ए नप करण अति प्रसिह धने प्रतिदिवस उपयोगमा आवे बे माटे तेमने जुदां जुदां कही बताव्यां नथी, एज प्र'माणे अहियां उबासमान पण जाणवू पण ध्येयनो
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६१०.
परिजेदः १४ नियम नथी कारणके ते यथापरिणामे स्थापना ईशना गुणतत्वनुं चिंतवन करे; अथवा स्थानवर्ण अर्थनुं अवलंबन करे तथा पोताना दोषना प्रतिपद (गुण) चिंतन करे इत्यादि प्रतिविशिष्टमां जेनो विवेकोत्पत्ति निश्कारण होय ते ध्यान करे, प्रसंग वधारवे करीने सरयुं.
॥ए पाठमां देवसिकादिक प्रतिक्रमणमा नियत कायोत्सर्गादि कह्या पण चैत्यवंदनाना कायोत्सर्ग प्रतिक्रमणमां कह्या नही, तेथी विस्तारे चैत्यवंदना जिनगृ. हमांज करवी सिह थाय ; पण प्रतिक्रमणमां करवी सिथती नथी ॥ तथा वली इहां कोई कहेशे जे प्रति. क्रमणगर्नहेतुमां तो विस्तारे देववंदन लखीने प्रतिक्रमण विधि सखे तो प्रतिक्रमणमां पण विस्तारे देववंदना करवी सिझ थइ, एनी उत्तर एबे के पूर्वाचार्योना करेला गर्नहेतु मां तो विस्तारे देववंदना लखी नथी अने आ धुनिकगर्नहेतु गश्ना जुदा २ तेमां केटलाकमां तो सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना लखी ,ने केटलाकमां जिनगृहमा विस्तारे देववंदन करी प्रतिक्रमण करई, ते माटे प्रसंग प्राप्त विस्तारे चैत्यवंदना विधिए लखी संनवे ॥ जेम"जलं वस्त्रगालितमेव पेयं नागालितमपि"एटले जल गलिने पीवा योग्य ने पण अणगलेखन पीq ए वाक्यमां विशेषण विधि निषेध्यो विशेषणमुपसंक्राम ए न्यायना
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६११ बले करीने जल गलवानोज उपदेश त्रसजीव रक्ष्यार्थे करचो, पण जलपान तथा जल जीव विराधनानो उपदेश नथी; तेम जिनगृहमा विस्तारे विधि करीने तथा प्रतिक्रमण अवसरे सामान्य विधिए चैत्यवंदना विना पडिक्कमणुं नही, पण पडिक्कमणामां चैत्यवंदना न जांणवी; तथा ज्यां सामान्य तथा विशेष विधि होय त्यां सामान्य शास्त्रथी विशेष शास्त्र बलवान होय ए न्यायथी विशेष विधिमां जेनुं विशेषपणुं कडं होय, ते ग्रहण कर; तेमज आगममां कडं बे.
॥ते पाठः कामीसघरंगगन थुलपश्यासिहोदव्या यणनेयणकरण नदिठकडंपिसेनुंजेति ॥ १ ॥ निशीथ नाष्येन १५ एतचूण्र्येकदेशो यथा जंचनदिठकडंतंक डसामाइनविनुंज एवंसोसवाविरश्नणहव एतेन कार ऐन तस्सएकप्पइदानति ॥ अस्य नावार्थोऽन्यत्रैवमुक्तं सामायिकं चेह नोजनगणनेन पौषधिकस्यैवावसातव्यं यत्त तथा नृतस्यापि सामायिकस्य नावस्तवत्वेन व्यपदेशः तत् व्यवहारतः संयतानुक्तातिमात्रेणावसातव्यः निरव यत्वात् तदपि श्रमणकल्पस्यैव श्रमणोपासकस्य सत्वात् यदागमः सामाश्यमिकएसमणोश्वसावहवइजम्हत्ति ॥श्रीश्राव०नि०॥अत एव कृतसामायिकः श्रमणोपा सकोपि श्रमणवत् कुसुमादिनिर्जि पूजां न करोति
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६१२
परिछेदः १४
प्रत्याख्यान करणकारापणारंजस्य सचित्तस्पर्शस्याप्यकल्प त्वात् श्रमणकल्पनंगापत्तेश्व तथात्वे च जिनाझोल्लंघनेन पूजाया श्रप्यनर्थहेतुत्वं स्यात् ज्ञानादीनां त्रयाणामपि विराधकत्वात् यदागमः प्राणान्चियचरणं तपुंगेजेां किंननग्गति प्राणंच कंतो कस्साए साकुराइसेसं ॥ १ ॥ उपदेशपदे ॥
॥ नावार्थ: ॥ इहां चूर्णिना पाठमा सामान्यविधिए सामायिकमां जोजन करवुं श्रावकने कह्युं पण पौषधनुं नाम न कह्युं, तो पण ग्रंथकारोए पौषधनी सामायिकमां श्रावकने जोजन करवुं स्विकार करयुं ने “ समणो इव सावन हवइ जम्हा " ए पाठमां श्रावकने जिनें पूजानो निषेध न करयो, पण साधुवत् कल्प चारे निषेध करचो; तेम इहां पण ग्रंथकारादि सप्तविध चैत्यवंदनामां तथा चैत्यवंदनाविधिमा अथवा गर्नहेत्वादिक प्रतिक्रमण विधिमा देववंदन तथा चतुर्थ प्रवचन नक्क देवता स्तुति लखे बे, ते प्रसंग प्राप्त विधिए लखे बे, पण पूर्वोक्त न्याये स्वस्व प्रसंगे जांणवी; तेमज विधिप्रपादि ग्रंथोमां लखे बे.
॥ ते पाठः ॥ तनुंहारायणियाएसाहू वंदित्ता तहा देवसिय पडिक्कमणमा रंनंति जहाचेझ्यवंदणाांतरं प्रद निबुडिएसूरिए सामाइयसुत्तंकर्हति सावयाणपुरावावार
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६१३ बाहुल्लेणअबमिएविपडिक्कमंति तहासाहुणोरयणीचरम जामेजागरियसत्तघ्नवकारेणनाणिय इरियंपडिक्कमिय कु सुमिणस्समिणुस्सग्गे उद्योयचनक्कंगितयसक्कबएण चे इएवंदियमुहपोतिंपडिलेहियखमासण उणसमायंसंदि सावियनवकारसामाश्यंचतिरकुत्तो कढियप्रहारायणि याएसाहूवंदियससायं कालंकालेपडिक्कमणाणंतरं. मुहपो तीरयहरणनिसिधागचालपट्टगकप्पतिगसंथारुत्तरपट्टेस पडिलेहिएसु जहासूरोप तहाविलंतुलित्ता राइ यंपडिक्कमंति तहाचेश्यवंदणाणंतरं साहुणोखमासम गडगेणबहुवेलसंदिसावमि बहुवेलंकरेमिति जाणित्ता प्रायरियाई वंदति सावयापुणबहुवेलंनसंदिसाविमि बहुवेलंकरेमित्तिनणित्ता आयरियाईवंदति सावियापुण बहुवेलंनसंदिसाविमि ॥
॥नावार्थः ॥ एमां पण चैत्यवंदनानंतर यई नि. बूडित सूर्ये प्रतिक्रमण ताई सामायिक सूत्र कहे ए देवास प्रतिक्रमण काल कह्यो, अने रात्रि प्रतिक्रमणानंतर १० पडिसेहणा करे सूर्य उदय थाय ए प्रानातिक प्रतिक्रम ण काल कह्या पड़ी चैत्यवंदन करी बहुवेलसंदिसावे का पण प्रतिक्रमण कालमा चैत्यवंदना न कही, तेथी आ ग्रंथनो अनिप्राय केटलोक यावश्यक चूर्णीकारादिकथी मलतो जणाय , केमके आवश्यकचूर्णीकारादि
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परिजेदः १४ क कहे डे के जो निकट चैत्य होय तो चैत्यवांदे, नहीं तो पडिलेहणा करे तथा वाचनांतरे एक शक्रस्तवे करी ने, पण जघन्य चैत्यवंदना कही, तेथी प्रतिक्रमणमांडा यंत नमस्कार शक्रस्तवे करी सामान्य चैत्यवंदना संजवे पण विशेष चैत्यवंदना तो चैत्यमांज संनवे कारण के "जश्चेश्याणि,अजितन्वंदिया” ए वचनथी सर्व ग्रंथो मां प्राये चैत्यमांज चैत्यवंदना लखे ॥ माटे श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायजीए पण गर्नहेतुस्वाध्यायमां बार अधिकार सहित विस्तार देववंदना कही ले ते पण जिनगृहसंबंधि जांणवी, पण प्रतिक्रमण संबंधि न जांणवी; केमके उपर लखेलां बहु शास्त्रोमां विस्तारथी नि रंतर जिनगृहमां व्रण थुइ पूर्वक तथा पूजाप्रतिष्ठादि कारणे चतुर्थस्तुति सहित त्रण थुइ पूर्वक चैत्यवंदना करवी कही बे, अने प्रतिक्रमणना आद्यतमां जघन्योत् कृष्ट चैत्यवंदना करवी कही ले सर्व आचार्योनो एकज मत बे; तेथी सुझजन नवनीरु पुरुषोने तो शास्त्रनी सूचना मात्रथी बोध थइ जाय ने तो ज्यारे बहु ग्रंथोना लेख देखे त्यारे तो तेनने किंचित्मात्र पण कदाग्रह रहेतो नथी; ते वास्ते अमे बहु नम्रता पूर्वक आत्मारामजी प्रानंदविजयजीने कहीए बीए के श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायजीना कथन प्रमाणे वर्त्तवानी इहा होय तो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६१५ प्रथम तो तमे ॥ सूत्र विरुहजे याचरे । करेअविधिना चालारे॥ते कह्योनिविडमिथ्यामती। बोलेउपदेशमालारे ॥१॥ ए वचनने प्रमाण करी पठी श्री प्रतिमाशतकमां उपाध्यायजीए श्रीकल्पनाष्यसिद्धांतनी सादीए त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कही तेने अंगीकार करो अने त्यार पठी नपाध्यायजीनो शोधेलो धर्मसंग्रह तेमां श्रावकने सामायिक नेतां प्रथम करेमिनंते एटले प्रथम सामायि क नचरी पनी रियावही कहेवी कही ले तेनी यथार्थ प्र रूपणा करो तथा चोक्तं श्री धर्मसंग्रहे.
॥ तत्पातः ॥ आवश्यकसूत्रमपि सामायिधनाम सावकजोगपरिवऊणं शिरवाजोगपडिसेवणंचेत्ति त त्रायमावश्यकचूमि पंचाशकचूर्णियोगशास्त्रवृत्त्यायुक्तो विधिर्यथा श्रावकः सामायिककर्ता द्विधा नवति शधिमाननृधिकश्च योऽसावनृद्धिकः स चतुर्दा स्थानेषु सामा यिकं करोति जिनगृहे साध्वंतिके पोषधशालायां स्वगृहे वा यत्र वा विश्राम्यति निर्व्यापारो वा आस्ते तत्र च यदा साधुसमीपे करोति तदायं विधिः यदि कस्माचिदपि जयं नास्ति केनचिद्विवादो नास्ति कणं वा न धारयति मानत्तत् कताकर्षणापकर्षणनिमित्तसंक्तशः तदा स्व गृहेऽपि सामायिकं कृत्वा यो शोधयन् सावद्या भाषां परिहरन् काष्टलेष्ट्रादिना यदि कार्य तदा तत्स्वामिनमनु
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परिजेदः १४ झाप्य प्रतिलिख्य प्रमायं च गृह्णन् खेलसिंघाणकादी श्वाविचेयन् विवेचयंश्च स्थंमिनं प्रत्यवेक्ष्य प्रमृज्य पंच समितिसमितस्त्रिगुप्तिगुप्तः साध्वाश्रयं गत्वा साधून्नम स्कृत्य सामायिकं करोति तत्सूत्रं यथा करेमिनंतेसामाइ अं सावधंजोगंपञ्चकामि जावसाहूपधुवासामि विहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं नकरोमि नकारवेमि त स्सनंतेपडिक्कमामि निंदामिगरिहामि अप्पाणंवोसिरामि त्ति ॥ एवं कृतसामायिक ईर्ष्यापथिक्याः प्रतिक्रामति पश्चादागमनमालोच्य यथाज्येष्टमाचार्यादीन्वंदते पुनर पि गुरुं वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्टः शृणोति पतति पबति वा एवं चैत्यनवनेपि इष्टव्यं यदा तु पोषधशाला यां स्वगृहे वा सामायिकं गृहीत्वा तत्रैवास्ते तदागमनं नास्ति यस्तु राजादिमहर्डिकः सगंधसिंधुरस्कंधाधिरूढश्व त्रचामरादिराज्यालंकतो हास्तिकावीयपादातिकरथका द्या परिकरितो जेरीनांकारनरितांबरतलो बंदिवंदको लाहलाकुलीकृतनजस्तलोऽनेकसामंतममलेश्वराहमहमि कासप्रेक्ष्यमाणपादकमनः पौरजनैः सश्रझमंगुल्योप दर्यमानो मनोरथैरुपस्टश्यमानस्तेषामेवांजलिबंधान ताजांजलिपातान् शिरःप्रणामाननुमोदमानः अहो धन्यो धर्मो य एवंविधैरुपसेव्यते इतिप्रारुतजनैरपि श्लाध्यमानोऽकृतसामायिक एव जिनालयं साधुवसति
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६१७ वागछति तत्र गतो राजककुदानि बत्रचामरोपानन्मुकु टखङ्गरूपाणि परिहरति आवश्यकचूर्णौ तु मनमन अवणे कुंमनाणिणाममदंचपुप्फतंबोलपावारगमादि वोसिरशत्ति नणितं जिनार्चनं साधुवंदनं वा करोति यदि त्वसौ कृतसामायिक एव गजेत्तदा गजाश्वादिनिरधिकर णं स्यात्तच न युज्यते कर्तुं तथा सामायिकेन पादाभ्यामे व गंतव्यं तच्चानुचितं नूपतीनां आगतस्य च यद्यसौ श्रा वकस्तदा न कोप्यभ्युबानादि करोति अथ यथा नजक स्तदा पूजा कता स्तु इतिपूर्वमेवासनं मुंचति आचार्यश्च पूर्वमेवोबिता आसते माननानानुबानरूता दोषा नूव निति आगतश्चासौ सामायिकं करोतीति पूर्ववत् :
॥ए पाठमां कथन करेली समाचारी तथा जैनमतथी विरु जे एकांते चोथी थुइ स्थापन करी त्रए थुनी निषेधरूप प्ररूपणाथी केटलाक नोला जव्य जी. वोने व्युग्राही कस्या बे, तेमने पाला सामायिक लेतां प्रथम सामायिक उच्चरी पड़ी इरियावही कहेवी, तथा पूर्वधरपूर्वाचार्योनो त्रण थुझ्नो मत डे, तेने यथार्थ कहीने सत्यासत्य समजावो अने नत्सूत्र प्ररूपणानो मिथ्याडष्कृत आपो, तो अवश्य तमारो मनुष्य जन्म सफल थशे, नही तो जिनवचनथी विरुष्ठ चालवाथी कोण जाणे केवी केवी अवस्था या संसारमा नोगववी
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परिजेदः १५ पडशे, ते ज्ञानी महाराज जाणे; अने पोताना क्यो पशम प्रमाणे आपणे पण जांणिये बीए तो बुध्विंत ने घणुं शुं कहेवू!
इति चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोझारे अपरनानि चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयजेदनकुठारे पूर्वधरपूर्वाचार्यसम्म त्यात् प्रतिक्रमणायंतगोचरे विस्तारे चैत्यवंदना निषेध पूर्वक जघन्योल्लष्टा चैत्यवंदना निदर्शनोनाम चतुर्दश परिछेदः ॥१४॥
॥ अथ पंचदश परिछेदः ॥
प्रश्नः ॥ श्रुतदेवता देवदेवता तथा नुवनदेवताना कायोत्सर्ग पूर्वाचार्य प्रतिक्रमणमा करता याव्या ते तमे केम करता नथी? ___ उत्तरः॥ पादिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक संबंधि देवसी प्रतिक्रमणना अतमां श्रुत क्षेत्र देवता नुवनदेवताना कायोत्सर्ग जेम पूर्वाचार्य करता याव्यातेमज अमे पण करीए बीए, पण कारण विना निरंतर करता नथी.
प्रश्नः॥ श्रुतदेवताने नमस्कार तथा तेनो कायोत्सर्ग शा माटे करोडो?
उत्तरः ॥ श्रुतदेवतानो नमस्कार तथा तेनो कायो
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६१ए त्सर्ग वाणीने आराधवाने अर्थे करीए बीए.
प्रश्नः ॥ श्रुतदेवताने वाणीरूपे आराधन करोगो के देवता रूपे आराधन करोडो? ।
उत्तरः॥ श्रुत देवताने कारण विना वाणीरूपे आराधन करीए बीए, अनेकारणे देवता रूपे पण आराधन करीए बीए.
प्रश्नः ॥ श्रुत देवताने वाणी रूपे नमस्कार तथा तेनुं आराधन कर, क्यां कडंडे ?
उत्तरः॥ श्री नगवती सूत्र शतक १५ मानी प्रा. दिमां “ नमोसुयदेवयाए नगवईए" एवो पाठ , तेनो अर्थ एम के नमस्कार थान श्रुतदेवता नगवतीने, ए पाठमां श्री गणधरदेवे श्रुतदेवताने. नमस्कार करयो ते श्री जिनवाणीने करयो संनवे,पण देवताने करयो सं. नतो नथी,केमके श्री गणधरदेवने च्यारे निकायना देवता नमस्कार करे एवं जैन सिद्धांतोमां कडं पण श्री गणधरदेव च्यार निकायना देवताने नमे एवं कोइपण जैन सिहतमां कडं नथी,तथा श्री निसीथ सूत्रनी आदिमां "नमोसुयदेवयाए” एवो पाठ,तेनो अर्थ श्री अमदावाद पांजरापोलना नंमारमा जीरण बहु वर्षोनुं पुस्तक ने, तेमां जेवी रीते लख्यु तेवी रीते लखीए बीए ॥ नमो सुयदेवयाए॥
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परिच्छेदः १५ अर्थः ॥ नमस्कार हो सू० श्रुत जे द्वादशांगी रूप अरिहंतना प्रवचन तेने ते श्रुतना इष्ट देवताने नमः स्कार कीधां मंगलीकनो अर्थ होय, ते इहां श्रुतनो इष्ठ देवता अरिहंतने नमस्कार होवो, अने अरिहंत सि-क्ष्ने नमस्कार करेले ते नणी ते श्रुत अरिहंत तीर्थकरोने न मस्कार हो, अथवा गणधर देव सूत्रना गुंथणहार तेहने नमस्कार हो ॥ इत्यादि बीजा पण सूत्रोमां जिनवाणी रूप श्रुतदेवताने श्री गणधरादिके नमस्कार कस्योडे,पण देवतारूपे नमस्कार करयो नथी तथा श्री आवश्यक चूर्णीमां श्रुतदेवता एटने जिनवाणीनी अाशातना वरजी डे.
से पाठः ॥ सुयदेवयाए आसायणाएत्ति ॥ सुयदेवया जीए सुयमहिठियंतीएयासायणा नाबसा अकिंचित्क रीवाएवमादि॥
अर्थः ॥ श्रुतदेवी जणे श्रुत अधिष्ठित बेतेनी प्राशातना एम जे श्रुतदेवी नथी, तो शुं करनारी, एम कहे तो आशातना; तथा च श्री आवश्यक वृहद्वृत्तौ ॥
तत्पातः ॥ श्रुतदेवताया याशातना क्रिया प्राग्वत् पाशातना तु श्रुतदेवता सा नविद्यते किंचित्करी वा न ह्यनधिष्टितो मौनीः खल्वागमः अतोसावस्ति न चाकिंचित्करी तामाखंब्य प्रशस्तमनसः कर्मक्ष्यदर्शनात्.
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ६१ अर्थः ॥ श्रुतदेवीनी अाशातना करवाथी अतिचार क्रिया पूर्वनी पेठे जाणवी, श्रुतदेवीनी आशातना केम लागे ते कहेडे, श्रुतदेवता जगवंतनी जे वाणी ते नथी, बेतो शुं करेले ? एहनी शी समर्था डे, एम कहे तेने एम कहीये के तीर्थकरनो अागम तेनिश्चे अधिष्टिायक विना नथी, एटले ए श्रुतदेवी जिनेंनी वाणी महा समर्थने, ए कांश नथी करती एम पण न जाणवं, केमके जे नव्य प्राणी एने शुन मनथी बालंबन करीने धारे . तेना कर्मक्ष्य थाय; ए पाठमां श्रुतदेवीना प्रालंबनथी कर्मनो क्ष्य दर्शाव्यो तेथी नत्सर्गे जिनवाणीनाज संनव थाय तेमज श्री अाराधनापताकामा कडंडे.
ते पाठः ॥ जादिठिदाणमित्तेण देईपणईणनरसुरसमिहिं सिवपररकंशाणा रयाणदेवीताइनमो॥
अर्थ ॥ जे दृष्टि देवामात्रे करीने प्राणामां रक्त एवा प्रणीत पुरुषोने नर सुरनी झवित्रापे,अने मोदनुं राज्य आपे, ते श्रुतदेवीने नमस्कार थान ॥१॥ए पाठमां नरसुरसमृद्धि अने मोदनी आपनारी श्रुतदेवी कही, ते जिनवाणी रूप श्रुतदेवी जाणवी. अन्यथा अन्यदेवदेवी प्राणीयोना नाग्योदय विना कशं प्रापवाने समर्थ नथी, तो नर सुर समृद्धि तथा मोदनं राज देवाने समर्थ क्यांथी होय? अपितु नहींज होय, पण इहां कोई कहेशे
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६२२
परिजेदः १५ के श्रुतदेवी ते व्यंतरादिप्रकार सरस्वतीनामा देवी तेना कायोत्सर्ग प्रमुख ध्यानस्मरण करवाथी झानावी कमनो श्योपशम थयां ज्ञाननी प्राप्ति थाय, ते झानथी कोईक प्राणियोने मोद थाय, माटे व्यंतरादिप्रकार श्रुतदेवीना कायोत्सर्ग प्रमुख पण प्रतिक्रमणादिकमांकरवा युक्त , तेने कहिए के हे महानुनाव ! कथंचित्प्रकारे एम होय तोपण प्रतिक्रमणादि व्यवहार क्रियामां कारण विना ग्रहण न थाय, केमके श्री मलयगिरीजी याचार्या दि कतावश्यक वृहद्धृत्यादिकमां ब्राह्मी प्रमुख वनस्प तीना सेवनथी पण झानावर्णी कर्मनो क्षयोपशम कह्यो बे, तेथी पण ज्ञानप्राप्ति थाय ने अने ते ज्ञानथी पण कोईक प्राणीने मोद थायबे, तो तमारा कथनथी तो ब्राह्मीप्रमुख वनस्पतीना पण कायोत्सर्ग प्रमुख प्रतिक्रमणादिक्रियामां करवा सिह थया, ते प्रमाणे स्वगड तथा परगन्जमां कोइ पण करता नथी, तेथी व्यंतरादि प्रकार श्रुतदेवीना आराधनथी मोद थाय एवो जिनशासननो व्यवहार नथी,पण जिनवाणी रूप श्रुतदेवीना बाराधनथी मोद थाय एज जिनमतनो व्यवहार दे, ते माटे जो कोजिनवाणीरूप श्रुतदेवीनो कायोत्सर्ग तथा स्तुति निषेध करीने व्यंतरादिप्रकार श्रुतदेवीना कायोसर्ग प्रतिक्रमणप्रमुखमां स्थापन करे , ते जिनमतना
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको-हारः
६५३
ज्ञानरूप नेत्रोथी रहीत बे, एम जारावं, तथा जिनवाणी रूप श्रुतदेवीनी जैनग्रंथोमां घणी प्रतिपत्ति देखाय बे; तथा हि श्रीउतराध्ययनवृहद्वृत्तौ .
॥ तत्पाठः ॥ यत्प्रभावादवाप्यंते, पदार्थाः कल्पना विना सा देवी संचिदेनः स्तादस्तु कल्पलतोपमां ॥ १ ॥
अर्थः ॥ जेना प्रनापथी पदार्थे कल्पना रहित पामीये एटले बहु विचार विनाज रूडा अर्थ पामिये ते देवी मोने संचिदनीहो एटले ज्ञाननी देनारी थान, ते केवी के कल्पलतानी नृपमाने ग्रस्त करी बे जेलिये एटले कल्पलतानो ते वाणी यागल शोमाल बे ? एवीए पाठां पण || देवी शब्दे जिनवाणिज संनवे. तथायावश्यक वृहद्वृत्ति ॥
पाठः ॥ प्रणिपत्यजिनवरे वीरं श्रुतदेवतां गुरुन् साधून इत्यादि ॥
अर्थः ॥ तथा ॥ जिनवरेंड् श्रीमहावीरने तथा श्रुत देवताने तथा गुरुने नमस्कार करीने यावश्यकसूत्रनी वृत्ति रचु तुं, तेमज श्री अनुयोगद्वारवृत्तिमां पण श्रुतदेवीने नमस्कार करयो बे.
॥ ते पाठः ॥ यस्याः प्रसादमतुलं संप्राप्य जवंति जव्य जननिवहाः प्रनुयोगवेदिनस्तां प्रयतः श्रुत देवतां वंदे ॥ १ ॥ अर्थ || जेनोच्यतुल प्रसाद पामीने नव्यजनना स
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६२४
परिजेदः १५ मूह ते अनुयोग एटले सत्रार्थ जाणनार होय, ते श्रुतदेवताने यत्नथी वां तथा श्रीविशेषावश्यकवृत्ती.
तत्पातः ॥ यस्याः प्रसादपरिवर्द्धितशुधबोधाः पारं वति सुधियः श्रुततोयराशेः ॥ सानुग्रहा मयि समी हितसिध्येस्तु सर्वशासनरता श्रुतदेवता सौ ॥
अर्थ ॥ जेना प्रसादथी वध्यो शुबोध जेमने एवा सुबुद्धिजन श्रुतजलनिधिथी पार पामे, ते माहरी समिहित एटने वांबित सिधिने अर्थे अनुग्रहसहित थान,
आ श्रुतदेवता केवी ने के सर्वाना शासनमां रक्त ए. टने केवलिना मार्गमा प्रवर्ताववामां रक्त एवी, तथा पंचसंग्रह टीकामां मलयगिरी प्राचार्य श्रुतदेवीनो अर्थ एम करे .
ते पाठः॥ श्रुतद्वादशांगं तद्पा देवी श्रुतदेवी तस्या प्रसादतः॥
अर्थः॥ श्रुत ते बारअंग ते रूप जे देवी ते श्रुतदेवी, तेना प्रसादथी ए प्रकरण रच्यु. एमां श्रुतरूप देवी तेने श्रुतदेवी कही ते द्वादशांग रूप देवी ॥ तथा ॥ उपचारे वाणीनो पण अर्थ संनवे तेथीजाणीए गीए के श्रृतदेवी जगवंतनी वाणी पण एकांते श्रुतनेज श्रुतदेवी माने, वाणीने श्रुतदेवी न माने, तेने पाक्षिकसूत्र वृत्तिकार प्रश्नपूर्वक जिनें वाणीरूप श्रुताधिष्ठातृ देवताने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६२५ दृढ करे .
॥ ते पाठ ॥ सुयगाहा ॥ श्रुतमहत्प्रवचनं श्रुताधि टातृदेवता श्रुतदेवता संनवति च श्रुताधिष्टातृदेवता यउक्तं कल्पनाष्ये ॥ सबंचलकणोवेयं समहतिदेवता सुत्तंचलकणावेयं जेणसवणुनासियंति ॥ जगवती पूज्य तमा झानावरणीयकर्मसंघातं ज्ञानघ्नकर्मनिवहं तेषां प्राणिनां पतु दयं नयतु सततमनवरतं येषां किमित्याह श्रुतमेवातिगंभीरतया अतिशयरत्नप्रच रतया सागरः समुः श्रुतसागरः तस्मिन्नक्तिर्बहुमानो विनयश्च समस्तीति गम्यते ननु श्रुतरूपदेवताया उक्त रूपविज्ञापना युक्ता श्रुतनक्तेः कर्मदयकारणत्वेन सुप्रतितत्वात् श्रुताधिष्टातृदेवतायास्तु व्यंतरादिप्रकाराया न युक्ता तस्याः परकर्मदपणेऽसमर्थत्वादिति तत्र श्रुताधिष्टात्री देवता गोचरशुनप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मदयहेतुत्वेनानिहितत्वात् तउक्तं ॥ सुयदेवयाएजीए संनरणं कम्मरूयकरंजणियं नबित्ति अकयकरीव एव मासायणातीए किं चेहेदमेव व्याख्यानं कर्तुमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे जक्तिस्तेषां श्रुताधिष्टातृदेवता झानावरपीय कर्मसंघातं रूपयविति वाक्यार्थोपपत्तेः व्याख्यानांतरे तु श्रुतरूपदेवता श्रुते नक्तिमतां कर्मरूपयत्विति सम्यग्नोपपद्यते श्रुतस्तुतेःप्राग बहुशोऽनिहितत्वाच्चेति त
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परिजेदः १५ स्मात्प्रस्थितमिदमहत्पादिकीश्रुतदेवतेह गृह्यत इति ॥
नावार्थ ॥ श्रुत जे अरिहंतनुं प्रवचन ते श्रुतनी अधिष्टाता देवता ते श्रुतदेवता संनवे ने, कल्पनाष्यमां पण तेमज कह्युजे; सर्व शुन लदाण सहित पदार्थने देवता समधिष्ठित जे जे माटे सर्वज्ञ नाषित सूत्र पण सर्व शुन लक्षण सहित जे तेथी देवताधिष्टित जे ॥ तथा केवी श्रुतदेवता, जगवती एटले अधिक पूज्य ते श्रुत देवी, जेमांझानादिक बहु रत्न नरेलां महागंजीर एवों श्रुत समुह तेनी जे नक्ति बहुमान विनय तेने विषे जे प्राणियोना अंतःकरण तेमना कर्म समूहनो नाश करो. ए तात्पर्यः इहां कोई प्रश्न करेले के श्रुतरूप देवताने जे विनंति करवी कही ते युक्तले केमके श्रुतनी नक्ति ते कर्मक्ष्य कारणपणे करी प्रसिह तेथी, अने श्रुताधिटाता देवता तो व्यंतरादि प्रकारना , तेणे करी ए पूर्वोक्त विज्ञप्ति करवी युक्त नथी, केमके तेनुं तो परनां कर्म क्य करवामां असमर्थपणुं, तेथी त्यां कहेठे के स्मरण करताने श्रुताधिष्टाता देवता विषे शुन प्रणिधान ने ते पण कर्मक्ष्य कारणपणे करीने कह्याने, तेज कहे श्रुतदेवता जे तेनुं संनार, एटने याद कर, ते कर्म दयकारक का, पण ए कांड करनार नथी, एम कहे तो तेनी आशातना कही तथाइहां एज व्याख्यान करवून
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६२७ चित जे जे निरंतर श्रुतसमुच्ने विषे नक्तिवंत तेमनां श्रुत अधिष्टायिका देवता ज्ञानावरणीय कर्म समूहने क्य करो. ए वाक्यार्थ थायडे व्याख्यानांतरमां श्रुतरूप देवता ते श्रुतने विषे नक्तिवंतोनां कर्मनो नाश करो, ए अर्थ तो रूडो प्रतिपादन थतो नथी, केमके श्रुतनी स्तुति विषे तो पूर्वे बहु प्रकारे कह्यो, ते कारण माटे एम सिझ थयुं के अरिहंत पादीक श्रुत देवता ते इहां ग्रहण करवा.
यहां टीकाकारे प्रामकारकने का के तमे श्रुत जक्ति कर्मक्य कारणपणे करीने श्रुतरूप देवता एवो व्याख्यानांतर मांनशो तो श्रुतने विषे नक्तिवंतोना कर्म खपावो, ए अर्थनी सम्यक् उतपत्ति न थाय. केमके श्रुत स्तुति पूर्वे बहु करी . माटे अर्हत्पादिकी श्रुत देवता ग्रहण करवी एटले अर्हत्पथी प्राप्त थइ एवी जिनवाणी रूप श्रुताधिष्टाता एटले श्रुत व्यापक देवता यहां ग्रहण करवी पण श्रुतरूप देवता तथा व्यंतरादि प्रकारनी ग्रहण न करवी, केमके श्रुत ते अर्हत् प्रवचन तेने विषे अधिष्टातृ एटले व्यापक तेने श्रुताधिष्टात्री देवता कहीए. ते जिनवाणी ते विषयि शुन प्रणिधाननो पण स्मरण करनारने कर्मक्ष्य हेतुपणे करीने इष्ट सिद्धि थायडेमहानिशीथ सूत्रमा तेमज कझुंडे, उपसंत सर्वनावे
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परिवेदः १५ करीने राग रति अरति वर्जित एकचित्ते प्रा श्रुतदेवी विद्या चैत्यालयमां जपे तो सर्वऊःख हणी परम निवृत्ति एटले मोदकारी होय.ते श्रुतदेवी ते जिनेवाणीज जाएवी केमके जिनवाणीने श्रुतदेवी आगममां कही.
ते पाठ ॥ अकरमत्ताहिणं जंचपढिळणप्रयागमां णवितेखममतवं जिणवयणंविणिग्गियावाणि ॥ए गाथानी टीकामां वाणीनेज श्रुतदेवी कही बे, इहां कोई कहशे के टीकाकारनोतो व्यंतरादि प्रकारनी श्रुतदेवीथापवानो अभिप्राय संनवे बे,पण वाणिनो संनवतो नथी, तेने कहिए के तत्वदृष्टिए विचारवं के प्रश्नकारनुं श्रुतरूप देवतानु स्थापन अनेव्यंतरादि प्रकारना श्रुतदेवतानोनबापन ए थनिप्राय जणावीने वाक्यार्थ उपपत्तिए करी श्रुतरूप देवतानु खमण अने व्याख्यानांतरे करीने अहत् पादिकी श्रुताधिष्टातृ देवता एटले जिनेवाणी रूप श्रुतदेवीनु टीकाकारे स्थापन करघु पण व्यंतरादि प्रकारनु स्थापन एकांते न करयु,केम के व्यंतरादिप्रकारनी श्रुतदेवता बीजानना कर्म खपाववानणि समर्थ न होय पण श्रुतरूप देवता कर्म खपाववानपी समर्थ होय, ए प्रश्नकारकनो अभिप्राय जांणिने टीकाकारे जिनेवाणी रूप श्रुतदेवानु स्थापन करी प्रश्नकारकना बन्ने अनिप्राय खंमन करचा संनवे , पण व्यंतरादि प्रकारनु स्थापन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-झारः ६२ए नथी संनवतु, केमके आवश्यकमां. देवाणं प्रासायणाए देवीणं अासायणाए" ए पाठमां देव देवी संबंधी बाशातनाना अतिचार कही चूक्या अने वली सुयदेवी थासायणाए ए कहेवानु शुं कारण ? कोई कहेशे के ए वाणीनी अधिष्टाता , तो कहिये के बीजा पण शासनना अधिष्टाता घाशातनातो बधायनी न करवी, एक अधिष्टाताने जूदो पाडिये तो बीजाने पण जूदा पा. डवा पडे, माटे इहां वाणीज श्रुताधिष्टात्री ठरशे, तेनी
आशातनाने माटे जूदो अतिचार वे अने जे व्यंतरदेवी बे तेनोतो अतिचार देवाणंथा० देवीणं या ए पाठमां अतिचार जाणवो अन्यथा निन्न पाडवाथी तो वेयावचगराणं आसायणाए एम पण जोइये; तथा उपचारे व्यंतरादि प्रकारनी श्रुतदेवी ग्रहण करिए तो पण स्तुति नमस्कार तो जिनवाणीनाज सिध्थाय; जेम तीर्थ शब्दे श्रीनगवतीजीमां चतुर्विध संघ कह्यो पण आधाराधेयनाव संबंधे करी कंथचित् अनेदे चतुर्विध संघने नमस्कार ते श्रतने नमस्कार जाणवो, श्रुते करीनेज ते संघने नमस्करणीय पणाथी एम इहां पण श्रुताधिष्टात व्यंतरादिक प्रकारनि विज्ञप्ति पण जिनेवाणीनेज जाणवी; पड़ी बहुश्रुत निरीहपणे करी कहे ते प्रमाण.
पूर्वपदायावश्यक हवृत्तिमां तो श्रुतदेवीनी आ
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६३० परिच्छेदः १५ शातना वरजवी एवो साधारण अर्थ डे पण श्रुतदेवी ते जिनवाणी के व्यंतरादि प्रकारनी कोई अन्य देवीले एम स्पष्ट निरधार विना श्रुनदेवी ते जिनवाणी के एम कहो बो ते तमारी मनकल्पनाए कहोबो के पूर्व पुरुषोना लेखना आधारथी कहोगे?
॥नत्तर ॥ पूर्व पुरुषोना लेखना श्राधारथी श्रुतदेवीने जिनवाणी कहीए बीए. तथाहिं श्रीसेनप्रश्ने ॥ __॥ तत्पातः ॥ तथाश्रीह्रीप्रनृतिदेव्यश्चतुर्विंशतिजिन यक्षिण्यः पट्पंचाशदिक्कुमार्यः सरस्वतीश्रुतदेवीशासन देवीत्वेत्येतासांमध्येकानवनपतिनिकायवासिन्यः काश्च व्यंतरनिकायवासिन्यति सारंव्यत्याप्रसाद्यमितिप्र० श्रीहीप्रतिपदेव्योनवनपतिनिकायांतर्गता तिमलय गिरिकतवृहत्केत्रविचारटीकायामिति तथाचतुर्विंशति जिनयदिएयस्तुव्यंतरनिकायांतर्गताः एव संजाव्यते यत नक्तं संग्रहणीसूत्रे वंतरपुण्यविहा पिसायनूयातहा जखेत्यादि तथा षट्पंचाशदिक्कुमार्यस्तुश्रीअावश्यक चूर्णी षट्पंचाशदिक्कुमारीणां इश्विर्णने बहूहिं वांण मंतरेहिं देवेहिं देविहिं सहि संपरिबुडा इत्यायुक्तानुसारे ण व्यंतर्निकायांतर्गताझायंत इति तथा शासन देवी तु जिनयहिएयेव नापरेति तथा सरस्वती श्रुतदेवी तु पर्या तांतरमिति ज्ञायते परं कुत्रापि तथायुर्माननिकाया
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६३१ दिन दृश्यत इति ॥
ए पातमा तपागच नायक श्री सेनसूरिजीए प्रश्नोत्तर करयो के सरस्वती अने श्रुतदेवी ए बे पर्यायांतर नाम जणाय डे, परंतु तेनां आयुनां प्रमाण तथा निकायादि जैनशास्त्रोमां कोई काणे देखातां नथी,ए अनिप्रायथी १ श्रुतदेवी कहो तथा सरस्वती कहो, इत्यादि अनेक पर्याय नाम जिनवाणीनांज संनवे बे, अन्यथा जो व्यंतरादिनिकायमां श्रुतदेवी होय तो तेना आयुर्मान तथा निकायादिक पण शास्त्रोमां दर्शाव्या जोइए तथा श्री अमदावादमां पांजरापोलना झाननंमारमा प्राचीनाचार्य कृत साधु प्रतिक्रमण सूत्रस्तबक जीरण पुस्तकमां श्रुतदेव तीर्थकर गणधरादिकने कह्याले; ते जेमतेम अदर टांकिए बीए, सुयदेवयाणं अासायणीए.
अर्थः ॥ सुय० श्रुतदेव तीर्थकर तथा गणधरादिक तेहनी अाशातना करी हुए तेः ॥ तथा धीरविमलजी शिष्य नयविमलजी अर्थात् ज्ञानविमल सरिजीकत यति प्रतिक्रमण सूत्रस्तबकमां श्रुतदेवीने जीनवाणी कही. तत् नाषा पाठः ॥ सुयदेवयाए प्रासायणाए॥
अर्थः ॥ श्रुतदेवता वीतरागनी वाणी पांत्रीस वाणी गुणयुक्त हती तो केम पाखंमी प्रतिबोधाता नथी इत्या दिरूप तथा श्रुतदेवी शासनाधिष्टायकानी तथा श्री
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परिजेदः १५ झानविमनसूरिजी कृत पाक्षिकसूत्र वृहद्वति बालाव बोधमां पण श्रुतदेव ते जिनवाणी तीखी बे, पण ग्रंथ गौरवना नयी ते बालावबोधनी नाषा लखी नथी॥
॥पूर्वपदः ॥ जिनवाणिने श्रुतदेवी कोई ग्रंथमां कही होय तो श्रुतदेवीने जिनवाणी कहेवाय अन्यथा न कहेवाय ॥
॥नुत्तरपदः ॥ उपदेशामाला सूत्रवृत्ति तथा स्तबक बालावबोधमां जिनवाणीने श्रुतदेवी स्पष्टपणे कहीजे. .
ते पाठ अनुक्रमे लखीए बीए त्यां प्रथम उपदेशमालावृत्ति ॥
पाठः ॥ अकरमत्ताहीणं जंचियपढियंचयामाणेणं तंखमनमानसवं जिणवयणविणिग्गयावाणी ॥५४५॥ ___॥ व्याख्या ॥ अकरोत्ति अणिमात्रयाऽथवाहीनं नूनं उपलदाणादाधिकंवा अत्र ग्रंथे यकिंचिन्मयापतितं नाणितं कीदृशेनमयाअजानतंतंशब्देनतत्हीनाधिकाक्षरत्वादिषणं ममसंबंधि सर्व समयं मतां जिनवयणे तिजिनवदनात् जिनमुखाविनिर्गतानिसृताएतादृशीवाणी श्रुतदेवी एकाग्रचित्तेननव्यैः श्रोतव्या ॥ ५४५॥ ___ अर्थः॥ अरे करीने अथवा मात्राए करीने नबो अथवा उपलहाथी अधिको या ग्रंथमां जो किंचिस्मात्र में नएयो, केवोक हुँअजाणापणाथी तं शब्दे क
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६३३ रीने ते हीनाधिक अदादिक उषण मारा संबंधी खमो, जिन मुखथी नीकलेली एवी वाणी ते श्रुतदेवी एकाय चित्ते करी नव्य जीवोए श्रवण करवी ॥ ५४५॥
ए पाठमां जिनवाणीने श्रुतदेवी कही, तेमज प्राची. नाचार्यकृतस्तबक लाषा.
पातः॥ अकरमत्ताहीणं जंचिअपढिअंधयामाणेणं तंखम मशसवं जिणवयणविणिग्गयावांणी ॥४४॥ अकरके० अदारे अथवा मत्ताके० मात्राए करीने हीणंके० हिन अधिकुं अथवा नहुं जंचियके. जे कांड वनी पढीअंके कांहोय अयाणमाणेणके अजाणपणे श्री उपदेशमालामां तके ते खमनुके खमो सांसहो मसके माहरूं सवंके० सघ ए लुण जिणवयणके० जिन वीतरागना मुखथकी विणिग्गयाके० नीकली एवी जे वांणीके वांगी श्रुतदेवताते॥४ातथा आत्मारामजी आनंदावजयजीए श्री सत्यविजयजी पन्यासनेपोतानीपट्ट परंपरायमां मांन्या , तेमना शिष्य श्री वृद्धिविजयजीए श्री उपदेशमाला पदार्थमां प्रगट जिनवाणीने श्रुतदेवी कथन करीने, ते पाठ जेमतेम लखिए गए ॥अकर मत्ताहीणं जंचियपढिअंअयाणमाणेणं तंखमनमलसवं जिणवयणविणिग्गयावाणी ॥४४॥ ॥अकरके० प्रकारे करीने अथवा मसाके० मात्रेकरीने हीणंके० हिन अ.
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परिजेदः १५ धिकुं अथवा न जंचियके जे कांश वली पढिअंके० कहिनहोए अयाणमाणेणंके अजाणपणे ए श्री उपदेशमालामांहे तंके० ते खमनके खमो सांसहो मनके माहरु सवंके० सघ ए कुंण जिणवयणके० जिन वीतरागना मुख थकी विणिग्गयाके० नीकली एहवी जे वाणी के० वाणी श्रुतदेवता ते ॥श्रीमद्यशोविजय वा चक सत्प्रसादानि ष्यादितोयमतिमंदजनस्यहेतोः सश्रीकसत्यविजयाह्वगणींमुख्यशिष्यणझिविजयन पदार्थगुंफः ॥१॥
हवे जाणवं जोइए के प्रात्मारामजी प्रानंदविजयजीनी गुरुपरंपरा वाला तो जिनवाणीने श्रुतदेवी मांनता याव्या ते वचत फेरवी श्रुतदेवीने व्यंतररूपे मांनी तेमनां वचन जूतां मानवां त्यारे तो गुरु पण जूना सिह थया, अने जो आत्मारामजी आनंदविजयजीना गुरुवादिक जूना हता तो एमनी तो शी गती थशे? तथा चतुर्थस्तुतिनिर्णय दृष्ट॥१५३॥१५॥तथा टष्ट ॥११॥ १७२ ॥ मां श्रुतदेवीनो अर्थ जिनवाणी तजीने आवश्यकसूत्र प्रमुखना पाठ लिख्याडे ने व्यंतरादि प्रकार श्रुतदेवीना कायोत्सर्ग तथा तेनी थुइ प्रमुख प्रतिक्रमण मां करवानो अनिप्राय जणाव्यो , ते एकांते पोताना पूर्वापर विरुक्ष वचननी निशानी जणावी संनवे , केम
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका झारः ६३५ के "नमो सुखदेवयाए” ए पाठनो अर्थ आत्मारामजी यानंदविजयजीए समकितसल्योहार पृष्ट ७७ मां एवी रीते लख्यो ने ते पाठ पूर्वक अर्थ जेम ले तेम लखिए बीए ॥ नमोसुदेवयाए ॥ ए सूत्रे करीने गणधरदेवे जिनवाणीने नमस्कार करयो ने ॥ ए रीते पोताने हाये श्रुतदेवीनो अर्थ जिनवाणी लखीने हवे जोखा लोकोने भ्रमजालमा फसाववा पूर्वोक्त कूडा लेख लरख्या ने, ते पोतानी मूर्खतारूप विद्वताने प्रगट करी ते नव्यजीव अपक्षपाति जनोने चिंतन करवा योग्य, तथा श्री हरि नइसरिजीए स्तुति स्तोत्ररूपे संसारदावानी स्तुतिस्तवना करी डे तेमां आमूनालोलधूनी इत्यादि चोथी थुइ रची ले तेपण जिनवाणीरूप श्रुतदेवतानी ने केम के तेमां ॥ नवविरहवरंदेहिमेदेविसारं ॥ ए वाक्ये करी देवीनी पासे संसारनो विरह एटले विजोग अर्थात् मोदनी जाचना करी बे, ते जिनवाणीरूप श्रुताधिष्टात श्रुतदेवता विना बीजी व्यंतरादि प्रकार श्रुतदेवी मोक्षदाता जैनसिहांतोमां कही नथी तेथी, श्री हरिनासूरिजीए जिनवाणीरूप श्रुतदेवता पासे मोक्ष मागी डे पण व्यंतरादि प्रकार श्रुतदेवता पासे मोद मागी संनवती नथी, थने अमलदलकमलागारनूमिनिवासे तथा वरकम लकरे इत्यादि विशेषण ते नपमारूपे एटले तिर्थंकर.
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६३६
परिछेदः १५
ना मुखरूप कमलना घरमा वासले जे वाणीरूप श्रुतदे वीनो इत्यादि वृत्ति परंपरानुनवे ते सर्व नृपमारूप विशेषणाना अर्थ संनवे बे, तथा श्रीभगवतीसूत्रमां जेम जिनवाणीनंनाम श्रुतदेवी प्रतिपादन करयुंबे तेम प्रा चीनाचार्यकृतवाङ्मयाष्ठ कमां जिनवाणीनुं वागेश्वरी नाम प्रतिपादन करधुं बे.
तथाचतत्पाठः ॥ जिनादेशजाताजिनेंाविख्याता विशु-प्रबुनना लोकमाता. दुराचारडुरनैहराशंकराणी नमोदेविवागेश्वरीजैनवाणी ॥ १ ॥ सुधाधर्मसंसाधनीध कर्मशाला मुधातापनि र्नाशनीमेघमाला महामोहविध्वंसनीमोदानी नमो० ॥२॥ प्रखेदशाखावितानि लाषा कथा संस्कृताप्रावृतादेशनापा चिदानंदनूपालकी राजधानी नमोदे० ॥ ३ ॥ समाधानरूप अनूपा बुडा न्मनेकांतधास्याद्वादांकमुडा त्रिधासप्तधाद्वादशांगीवखा नी नमो ॥४॥ प्रकोपायमानाखदंनायलोना श्रुतज्ञान रूपीमतिज्ञानशोना महापावनानावनाजव्यमानी नमो दे ॥ ५॥ अतीता जीता सदानिर्विकारा विषेवाटिकाखम नीखड्गधारा पुरापापविछेदकर्त्रीकृपानी नमोदे० ॥६॥ अगाधाअबाधानिरंधानिरासा अनंतायनादीश्वरीकर्म नाशा निशंकानिरंकाचिदकाजवानी नमोदे० ॥ ७ ॥ अशोकामुदोकाविवेकीविधानी जगऊंतुमित्राविचित्रा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६३७ वसानी समस्तावलोकानिरस्तानिदानी नमोदे० ॥७॥ इति वामयाष्टकं ॥
॥ए अष्टकमां जेम जिनवाणीनु पर्यायांतर नाम वागेश्वरी प्रतिपादन करयुं तेम संसारदावा प्रमुख स्तुति स्तोत्रादिकमां देवी, जगवती, सरस्वती, शारदा, ब्रह्माणी, ब्रह्मसुता प्रमुख जेजे पर्यायांतर नामे करी जैनशास्त्रोमां नमस्कारादि करया बे, ते सर्वे जिनवाणीनेज संनवे, पण व्यंतरादि प्रकार देवी देवताने संनवतानथी; केमके
आवश्यक वृत्यादिकमां गुणाहियं वंदे ॥एटले गुणाधिकने वंदन करवू का बे, पण न्यून गुणवालाने कडं नथी, तोसुविहित गलक्रियाना धोरी श्री हरिनसरिजी ते बहागुणाणाना धणी ते पांचमा गुणगाणावालाने नमस्कार न करे तो चोथे गुणगाणे रह्या देवी देवताने नमस्कारादिक केम करे ? ते बुध्विंतोने विचारवु श्रेयबे, किमधिक लेखनन.॥
प्रश्नः॥ श्री तीर्थकरदेव पण समवसरणमां बेसतां नमोतिबस्स ए वचने करी चतुर्विध संघने नमस्कार करे तो समदृष्टि देव देवी पण चतुर्विध संघने अंतत बे, ए अपेदाए तीर्थकर देव पण समदृष्टि देवतानने नमस्कार करे , तो बीजा साध्वादिक करे तेमां तो शो दोष ?
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६३७
परिजेदः १५ ___ उत्तर ॥ श्री तीर्थकरदेव नमोतिबस्स ए शब्दवडे करीने श्रुतझानने नमस्कार करने, शा माटे के नमस्कार डे ते इष्टदेवने थाय अने तीर्थकराने श्रुतबे ते सिझोनी पेरे इष्टदेव बे. तथा चोक्तं श्री नगवतीसूत्रवृत्तौ ॥
तत्पाठः॥ नमोसुयस्सत्ति ॥ नमस्कारोस्तुश्रुताय द्वादशांगी रुपायाहत्प्रवचनाय नन्विष्टदेवतानमस्कारोमङ्गलार्थोनवतिनचश्रुतमिष्टदेवतेति कथमयमंगलार्थति १ अत्रोच्यते श्रुतामष्टदेवतैवाहतां नमस्करणीयत्वात्सि
वन्नमस्कुर्वतिच श्रुतमहतोनमस्तीर्थायतिनणनात् तीथंचश्रुतं संसारसागरोत्तारणासाधारणत्वात् तदाधारत्वेनैवच संघस्यतीर्थशब्दानिधेयत्वात् तथासिकानपिमंगलार्थमहतोनमस्कुर्वत्येव काकणनमोक्कारं सिक्षाणयम निग्गरंतुसोगिएहे इति वचनादिति ॥
अर्थः ॥ नमस्कार थान श्रुत ते द्वादशांगीरूप अर्हत् प्रवचनने इहां कोई कहे के इष्टदेवतानो नमस्कार मंगल अर्थे होय अने श्रुत तो इष्टदेव नथी, ते माटे केम ए श्रुतदेव मंगलार्थ थाय? एनो उत्तर श्रुत तेज इष्टदेव बे, श्या माटे के अरिहंतोने पण ए नमस्कार जोग्य पणामाटे सिझना नमस्कारनी पेठे श्रुतने तीर्थंकर नमे बे, नमस्तीर्थाय ए कहेवाथी तीर्थ शब्दे इहां श्रुतग्रहण करवू, केमके संसार समुश् तारवा असाधारण पणा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको द्वारः
६३०
माटे वली ते श्रुतना प्राधारपणे करीनेज संघनुं तीर्थ एवं नाम ते कारण माटे एटले चतुर्विध संघमां श्रुत रघुंबे, तेथी संघने तीर्थ कही बोलाव्युं, तथा सिद्धो ते पण मंगलने अर्थे अरिहंत बे. ते नमस्कार करेज बे, काऊपन मोक्कारं इत्यादि निर्यूक्तिकारनुं वचन बे, जे नमस्कार सिद्धोने करीने प्रनिग्रह जगवान् ग्रहण करे माटे सिद्ध इष्टवे ते श्रुतपण इष्ट बे, तेथी मंगलार्थक जावो, एयर्थमां तोश्रुतनेज नमस्कार डे, साधु साधवी श्रावक श्राविकाने तो कह्यो नथी, जो खाधारना उपचारे नमस्कार सिद्ध करीए तो पूर्वोक्त सर्व आचायनां वचन विरोधी धाय, नियूक्तिकार जे असंज़ती न वंदिया कहेबे, ते पण विरोध पामे माटे संघ शब्दमां पण गुणाधिक थापीने नमीए पण न्यूनगुणीने नमवाथी तो सर्व व्यवहार असमंजस थायले. गुरु शिष्यने वांदे, साधु साधवी ते श्रावक श्राविकाने वांदे, एम थाय तो सर्व सूत्री विपरीतता थइ जाय, माटे विचारखं जो इसके तने तीर्थ कहीवांदे एजवात निर्यूक्तिकार या वश्यकमा लिखेखे || "गाथा || तिचपणा मंकानं कहे इसाहार
स देणं सवेसिंसनीयं जोयानीहारिणाजयवं ॥ ४५ ॥ तपुविया रहया पूइयपूयायविषयकमंच कयकिञ्चो विजहकहं कहेइनम एतहा तिचं ॥ ४६ ॥ " ए बे गाथानुमा
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६४०
परिच्छेदः १५ सूत्रनेज तीर्थ कडंडे, एनी वृत्ति श्री हरिनासूरिजीनी करेली तेमां पाठ एम, तिबपणामं गाहा ॥४५॥ व्या० नमस्तीर्थायेत्यनिधायप्रणामंचकृत्वा कथयति साधारणेन प्रतिपत्तिमंगीकृत्यशब्देन केषां साधारणेनेत्याह सर्वेषा ममरनरतिरश्चांसंझिनां किं विशिष्टेन योजननिर्हारिणा योजनव्यापिना जगवानित्येतज्क्तं नवति नगवतो ध्वनिरशेषसमवसरणस्थसंझिनिर्जिशासितार्थप्रतिपत्तिनिबंधनं नवति जगवतः सातिशयत्वादिति ॥ ___ गाथार्थः ४५ ॥ आह कृतकृत्यो जगवान् किमिति तीर्थप्रणामं करोतीत्युच्यते तप्पूवियागाहा ॥४६॥ व्यास तीर्थश्रुतझानं तत्पूर्विका अर्हता तीर्थकर्ता तदभ्यासप्रा प्ता पूजितेन पूजा पूजितपूजा साच कृतास्यं नवति लोक श्वपूजितपूजकत्वाचगवताप्यतत्पूजितमिति प्रवृत्तेः तथा विनयंकर्म च वक्ष्यमाण वैनयिकधर्ममूलं कृतं नवति अथवा कृतकृत्यो पि यथा कथांकथयति नमति तथा तीर्थमिति आहैवमपि धर्मकथनं कृतकृतस्या युक्तमेव न तीर्थकरनामगोत्रकर्म विपाकत्वातंतं च कहवेदिद्य तीत्यादि गाथार्थः ॥४६॥
नावार्थः ॥ नमस्कार थान तीर्थनणी एम कही प्रणाम करीने देव मनुष्य सांई तिर्यंच प्रमुख सर्वने साधारण एटले समजवामां आवे एवी एक योजनमा
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-दारः
६४१
व्याप्तमान जगवंत वाणी कहे, इहां एम कह्युं जे जगवा ननी ध्वनी सर्व समवसरणमां रह्या एवा संज्ञि जीवोए वांचा अर्थ तेने प्राप्तिनी कारणनूत थाय, कारणके भगवानना एवा अतिशय बे; इहां कोई प्रश्न करे बे के सर्वकार्य करी रह्या एवा जगवान श्या माटे तीर्थने नमे बे? तेने उत्तर तीर्थनाम श्रुत ज्ञाननुं बे ते श्रुतज्ञानपूर्वक परिहंत तीर्थकर्त्ता तेना ( श्रुतज्ञानना) अभ्यासथी तीर्थंकर या एटले पूर्वेश्रुतज्ञान पाम्या पढी ते श्रुतज्ञाने करी क्रियाकलाप करवाथी तीर्थंकर थया ए श्रुतनो उपगार जाणी श्रुतज्ञानने नमे बे; वली तीर्थंकर जेनी पूजा करे ते लोकमां पूजित वे एव जणाववाने पा. नम स्कार प्रवृत्ति बे, तथा विनयमूल धर्म कस्यो थाय एटले विनय जणाव्यो; अथवा जे कृतकृत्य थया ते पण कथा कहे, श्रुतने नमे, तो बीजानए तो अवश्य एम करवुं; इहां कोई वली प्रश्न करे के एम धर्म कहेवो ते पण कृतकृत्यने न जोइये ? तेने उत्तर एबेजे एम न बोलवुं, केमके ए भगवानने हालमां तीर्थंकर नामगोत्र कर्मनो विपाकमा धर्मकथा कहे; ने एम न मानश्यो तो ते तीर्थंकर नामकर्मनो विपाक केम बूटइये ए निर्यूक्तिनु वचन बे. ए पाठमां तो तीर्थशब्दे श्रुतने नमस्कार बे साधु साधवी श्रावक श्राविकानुं कथन नथी २ तथा दीपिका
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૮૧
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६४१
परिच्छेदः १५
मां पण एमज बे.
ते पाठः ॥ तिचनमोतिचस्सेत्युक्त्वा प्रणामं कृत्वाऽई मागधगिरा सर्वसंज्ञिनां साधारणशब्देन योजननिर्धारि er योजनव्यापिना कथयत्वि ० ॥ ॥४६॥ किंतीर्थंनमती त्याह तप्पुविए तीर्थं प्रवचनं तत्पर्विकार्हता पूजितेन पूजाऽस्य कृता स्यात् लोकस्य पूजितपूजकत्वात् लोके विनय मूलधर्म स्थापनाय विनय कर्म च कृतं स्यात् यद्वा कृतकृत्योऽपि प्रतुर्यथाधर्मकथां तथा तीर्थमपि नमति ॥४७॥ए कथनमां पण पूर्व जेवुंज कथन बे, पण संदेपार्थ कहे, नमोतिबस्स एम प्रणाम करी ईमागधि ाषामा सर्व संज्ञी जीवोने साधारण शब्दे करी योजन व्यापक वाणी कहे पण तीर्थने श्या माटे नमे ते कहे बे. प्रवचन जाएवाथी अर्हत् थया तेनी पूजा करीथाय लोक पूजितने पूजेबे, माटे विनयमूल धर्म स्थापन करचो एटले विनय बताव्यो, इत्यादि एमां पण तीर्थ नाम श्रुतनुं बे. ॥ ३ ॥ तथा गुणाधिक विना वांदवानी प्रवृत्ति पण जपाती नथी केमके एज प्रावश्यकमां केवली प्रमुख पण समवसरणमां गुणाधिक वांदवानी प्रतिपत्ती जलावीबे, एटले जे परषदामां बेसे ते केवली त्रण प्रदक्षिणा करी तीर्थकरने वांदे, पी तीर्थ शब्दे गएाधरपद गुणाधिकतेने वांदे, पढी गणधर पाउल बेसे पण बीजा साधु
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चतुर्थ स्तुतिनिर्णयशंको-चारः
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साधवी तीर्थ शब्दथी चतुर्वर्ण संघमां बे तोपण गुणाधिक विना तेमने वांदे नही, तो अविरति देव देव्यादिकने वांदवानो व्यवहार धर्म संबंधमां क्यांथी संनवे ? तथा च ॥
तत्पाठः ॥ केवलिणोतिकरण जिणंतिचपणा मंचमगर्नु तस्समणमाईविनमं तावयंांतिसघाण सठाणं ॥ ३४ ॥ एनी टीका पाठ || केवलिगाहा ॥ ३४ ॥ व्या० केवलिनस्त्रिगुणं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिनतीर्थकरंतीर्थप्रणामंच कृत्वा मार्गतस्तस्यतीर्थस्यगणधरस्यानिपीदंतीतिक्रियाध्याहारः माणमाईत्ति मनः पर्यवज्ञानिनोऽपि जगवंतमनिवंद्य तिर्थं केवलिनश्च पुनः केवलिष्टष्ठतो निषीदंतीति आदिशब्दात् निरतिशयसंयता अपि तीर्थंकरादीननिवंद्य मनः पर्य्यायः ज्ञानिनां पृष्ठतो निषीदंति तथा वैमानिकदेव्यापि तीर्थंकरादीननिवंय साधुपृष्ठतः तिष्टंति न निषीदंती इत्यादि ॥ एनो जावार्थ ए बे के जे समवसर
मां १२ परषदा बेसे त्यारे केवली त्रण प्रदक्षिणा करीने तीर्थंकरने नमे, पढी तीर्थने प्रणाम करीने गणधरनी पाल बेसे, बीजा मनःपर्यव ज्ञानना धरनारा ते नगवंतने वांदी तीर्थ केवलीयोने नमीने केवलीनी पुंठे बेसे; यादिशब्दथी अतिशयवंत साधु पण तीर्थंकरादिकने वांदी मनः पर्यवज्ञानीयोनी पुंठे बेसे, ए रीतिथी जा
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६४४
परिच्छेदः १५
fat के गुणाधिकने वांदवानो व्यवहार बे; इहां ती शब्द गणधरवाची पण बे, त्यां कोइ कहेशे के केवलीथी अधिक गणधर केम? तेने कहीये के गणधर पदवी माटे अधिक बे; पण तीर्थंकरे नमस्कार जे तीर्थने करयो तेतो टीकाकारे खुलासाथी श्रुतनोज लख्यो बे, ने नगवती मां संघने तीर्थ कहढे पण त्यां तीर्थंकर न मे एवं कर्तुं नथी. ते पाठ ॥ तिनं तिचेतिकरेति ॥ १ ॥ गोयमा अरहातावणियमंतिचंगरेति तिचेपुचानवमाइस्पेसम संघे तंजहा समणासमणीनुसावगासावियान पवयां तेपवयणं पावयणीपवयणं गो० रहातावणियमं पावयणी पवयगंपुणडवाल संगेगणिपिडगे तं० प्रायारो जावदिधिवान वृत्तिः तिचंनंतेइत्यादि तीर्थंसंघरूपंनदंतति चंति तीर्थशब्दवाच्यनत तीर्थकरस्तीर्थं तीर्थशब्दवाच्यं इतिप्रश्नः यत्रोत्तरं हन्तीर्थकरस्तावत्तीर्थप्रवर्त्तयिता न तु तीर्थं तीर्थं पुनः चानवस्पाइस्पेस मणसंघेति चत्वारोव
यत्र स चतुर्वः स चासावाकीर्णश्च क्रमादिगुणै वर्व्याप्तश्चतुर्वर्णाकीर्णः क्वचित् चडवणे समणसंघेति पठ्यते तच्च व्यक्तमेवेति उक्तानुसार्येचाह पवयनं तेइ त्यादि प्रकर्षेणोच्यतेऽनिधेयमनेनेति प्रवचनमागमस्तत नदंत प्रवचनं प्रवचनशब्दवाच्यं का क्वाध्येतव्यं नतप्रव चनीप्रवचनप्रणताजिनः प्रवचनंदीर्घताचप्राकृतत्वात् ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६४५ ए पाठनो परमार्थ एडे जे गौतमस्वामीए पुग्धं के हे जगवान! तीर्थ संघरूप ते तीर्थशब्दनो वाचक के तीर्थंकर तीर्थशब्द वाचक बे? एम पूरे उत्तर प्राप्यो जे अरिहंत ने ते तो तीर्थना प्रवर्त्तावनारा ने अने तीर्थ तो कमादि गुणे व्याप्त एवो चतुर्वर्ण संघ रूप डे तेने चतुर्वर्णाकीर्ण कहीये कोइठेकाणे "चनवहसमणसंघे"एवो पाठ तेनो पण अर्थ सुगम एटले च्यार वर्ण साधु ॥ १॥ साधवी ॥२॥ श्रावक ॥३॥ श्राविका ॥ ४ ॥ ए तीर्थ ने तीर्थंकर कर्ता ले ते तीर्थ नथी, ए प्रश्नोत्तरमा तीर्थशब्दे चतुर्विध संघ कह्यो, तेमा प्रवचन रहयुंडे माटे प्रवचननो प्रश्नपूछे बे के हे जगवन् प्रवचन ते प्रवचन बे, के प्रावचनी ते प्रवचन प्ररूपनारो प्रवचन जे? ए प्रश्न तेनो उत्तर. हे गौतम! अरिहंत तो निश्चे प्रवचनना प्ररूपक डे ते प्रवचन नथी. प्रवचन तो वली बार अंगगणी करंमियो आचारां गादिक ते प्रवचन .॥
ए पातमा प्रथम प्रश्नोत्तरमा तीर्थशब्दे चतुर्विध संघ कह्यो, बने लगतोज प्रवचननो प्रश्नोत्तर कह्यो बे ते या धाराधेय नावसंबंधे करी चतुर्विध संघने तीर्थ कह्यो संनवे ,तेथीजआवश्यक वृत्त्यादिकमां प्रवचन ते श्रुतज्ञान तथा प्रवचनना का प्रथम गणधरने तीर्थ शब्दे करी तीर्थ ग्रहण करयाने, माटे तीर्थशब्दे॥१॥ श्रुतझान॥२॥
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परिजेदः १५ प्रथम गणधर ॥३॥अने चतुर्विध संघ एत्रणे अर्थ जाणवा, पण श्रीतीर्थंकर देव तो तीर्थशब्दे श्रुतझानने परम नपगारी गुणाधिक जाणीने नमस्कार करे, अने सामान्य केवली ते तीर्थंकरने तथा तीर्थ शब्दे करी प्रथम ग
धरने प्रवचनना प्ररूपक तथा प्रवचनना कर्ता ए अ. पेदाए गुणाधिक जाणी नमस्कार करे अने यावत् निरतिशयवंतसाधु ते सातिशयवंत साधुने गुणाधिक जाणी तीर्थशब्दे नमस्कार करे, पण गुणहीनने नमस्कार करे नहीं; अने चतुर्विध संघने नमस्कार दे ते पण श्रुतनेज जे केमके श्रुतनाग्राधेयथीज चतर्विध संघने तीर्थ कह्यो डे तेथी नमोलोए सवसाहुणं ए पाठमां शिष्य गुरु नमस्कारवत् तीर्थ शब्दे करी चतुर्विध संघने समुदायवाची नमस्कार संजवे ने, पण जूदा जूदा नाम पाडी नमस्कार संनवतो नथी; अने जो जूदा १ नाम पाडी नमस्कारनो संनव करीए तो साधु श्रावकने नमे अने श्रावक साधुने नमे ए व्यवहार जिनशासनमां देखातो नथी. तेनो लोप थाय केम के महाव्रतनी धारण करनारी सदृश गुणगणे रही साध्वीजीने पण साधु नमता नथी, तो हीन गुण स्थानके रह्या श्रावकादिकने केम नमे? अने हीनगुणस्थानके रह्या श्रावकादिकने न नमे तो अवती गुणस्थानके रह्या देवदेवीने तो नमेज केम? अर्थात् नज
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोदारः
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नमे, तथा कोई तीर्थशब्दथी समकितीने नमस्कार तीर्थं कर करे एम कहे बे, ते तो निःकेवल उत्सूत्र प्ररूपक बे केमके सिद्ध तथा श्रुतज्ञान एबेने तीर्थंकर नमस्कार करे एम तो जैन सिद्धांतोमां लेखडे पण एबे सिवाय बीजा साधु साध्वी श्रावक श्राविका देवदेवी प्रमुखने तीर्थंकर नमस्कार करे एवो तो कोइ जैनसिद्धांतमां लेख नथी. माटे तीर्थशब्दे करी चतुर्विध संघने तीर्थंकर नमता नथी ते अति गुणस्थानके रह्या देवीदेवाने साधु साध्वी पण नमता नथी ने वांदेतो श्री निशीथप्रमुख जैन सिद्धांतोमां असंयतिने वांदवानो महादोष प्रायश्चित लख्यो. इत्यनंविस्तरेण ॥
प्रश्नः ॥ पूर्वोक्त देवतान्ने कारण विना वंदन प्रमुख नो महादोष लखोबो तो तमे क्षेत्रदेवतादिकनो कायोत्सर्गइया माटे करोबो ?
उत्तरः ॥ कारण विना श्राज्ञा निमित्ते करीए बीए, पण सहाय निमित्ते करता नथी, तथा श्री हरिन सूरिजीए पंचवस्तुक ग्रंथमां श्राचरणाथी श्रुतदेवता क्षेत्रदेवतादिकनो कायोत्सर्ग करवो कह्यो बे, ते प्रमाणे
मोपण करीए बीए, तथा च.
तत्पाठः ॥ थुइ मंगलंमिगुरुणा चच्चरिएसेसेसगाथुईबिंति ॥ चितितनुथोवं कालंगुरुपाय मूलम्मि ॥ ५० ॥व्या
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परिजेदः १५ ख्या ॥ स्तुस्तिमंगले गुरुणा आचार्येण उच्चारिते सति ततः शेपाः साधवः स्तुतिब्रुवते ददतीत्यर्थः तिष्टन्ति ततः प्रतिक्रांतानंतरं स्तोकं कालं केत्याह गुरुपादमूले प्राचा. यांतिके इति गाथार्थः प्रयोजनमाह ॥ पम्हेठमेरसाय गननुप्फेडिहवइएवं आयरणसुखदेवय माइणंहोइनस्सग्गो॥१॥तत्र विस्मृतं स्मरणं नवति विनयश्च फेटितो नामतीतो नवत्येव उपकार्यासेवनेन एतावत्प्रतिक्रमणं याचरणात् श्रुतदेवतादिनां नवति कायोत्सर्गः अत्र॥
आदिशब्दात् देवनवनदेवतापरिग्रहः इति गाथार्थः ॥ ___ ए पाठमां प्रतिक्रमणं करया पठी आचरणाथी श्रुत देवतादिकनो कायोत्सर्ग करवो कह्यो, ते श्रुत स्मृद्धि तथा अवग्रह याचनरूप आझानो , पण सहायनो नथी. ते कायोत्सर्ग करणरूप आचरणा पूर्वधारायोना समयमां पण पादिक चातुर्मासिक संवत्सरिक संबंधी देवसिक प्रतिक्रमणमा प्रवर्त्तती हती. ते पाठ प्रयोजन पूर्वक अनुक्रमे लखिए गीए॥ तेमां प्रथम तो श्री प्रा. इयक सूत्रनी नियूक्ति टीका अने चूर्णी दीपिका प्रमुखना प्रमाण लखिए बीए.
तत्र आवश्यक नियुक्ति गाथा ॥ चाउमासिधवरिसे तुस्सग्गोखित्तदेवयाएन परिकासिऊसुराए करिंतिचानमासिएवेगो ॥३३॥ ए गाथा नाष्यकारनी॥ टीका २२
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका- हारः
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हजारीमां सर्व मूलगुपुत्तर गुणाणं श्रालोयण दाऊंण पडिक्कमंति खेत्तदेवया एयनस्सग्गं करेंति के पुणचानमासिए सिद्धादेवया विकाजस्सग्गंकरेति ॥ तथा आवश्यक चूर्णिमां पाठ बे, ते एम बे ॥ मूलउत्तरगुणायच्यालोएतवं तापडिक्कमिद्यति चानुमासिएएगोउवसग्गदेवताएकान
कीरति संवरिएखेत्तदेवया एविकीरति तथा आव इयक दीपिकामां पाठ ॥ श्रथ नाष्यं ॥ चाडचातुर्मासिकेवा पिके क्षेत्र देवतायाः कायोत्सर्गः कार्योऽवग्रहानुमतियाच नरूपः सप्तविंशत्युदासः पाक्षिके शय्यासुर्याः कायोत्स र्गः कार्यः एके प्राचार्या श्रातुर्मासिकेपि शय्यांसुर्युत्सर्गं कुर्वति ॥ २४ ॥
अर्थः ॥ मूलगुणा उत्तरगुण आलोयण करी पडिक्कमे पढी चोमासिमां ने संवरिमां क्षेत्रदेवीनो का - स्सग करे, देवनी आज्ञा लेवा माटे अर्थात् अवग्रह अनुमति याचनरूप काउस्सग्ग करे धने परिकमां शद्या सुरी एटले भुवनदेवतानो काउस्सग्ग करे, कोइ प्राचार्य चनमासिमां पण सिय्यासुरीनो काउस्सग्ग करे बे. ॥ ए पूर्वोक्त सर्व पाठमां पाक्तिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक प्रतिक्रमणना अंतनागमां क्षेत्र देवता जुवन देवताना कायोत्सर्ग अवग्रह अनुमति याचन निमित्ते प्रगटपणे करवा कह्या बे, तोपण ग्रात्मारामजी प्रानंदविजयजी
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६५०
परिजेदः १५ चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट १५२ मां नित्य प्रतिदिन सहाय्यनिमित्ते क्षेत्र जुवन देवताना कायोत्सर्ग प्रमुख स्थापन करे जे; ए पण एमनी असत्य कल्पना . पण सादेप कल्पना नथी, केम के नित्य प्रतिदिननी माझा कोई पूर्वधरोना ग्रंथमा देखाती नथी,अने पंचवस्त्वादिक ग्रंथोमां देवसिक प्रतिक्रमण विधिना अंतमा लखेडे, ते परिक चोमासी संवहरी प्रतिक्रमण पण देवसिक प्रतिक्रमण विना न होय, ते माटे पारवी विगेरे संपूर्ण करवाना देवसि प्रतिक्रमणमां लखे, पण नित्यना देवसि प्रतिक्रमणमां नही. जो नित्य प्रतिदिन करवा अर्थे पंचवस्तुकनो लेख होत तो, देवसिक प्रतिक्रमणनी विधि संपूर्ण थया पली "बायरणाए सूयदेवमाइणंउसग्गो" इत्यादिपाठने लगती पादिक प्रमुख देव देवतादि कायोत्सर्ग प्रतिपादक "चठमासिएवरिसे होइखितदेवयाउसग्गो"इत्यादि पूर्वधर कत गाथानोप्रमाण न लखत, अने जो पूर्वधरकत गाथानो प्रमाण जख्यो तो तेथी एमज सिह थाय बे के पंचवस्तुकारे पण पाक्षिक प्रमुखमांज क्षेत्र देवतादिकना कायोत्सर्ग प्रतिपादन करया बे, अन्यथा नित्य प्रतिदिन प्रतिपादन करयां पूर्वधरोना वचन विघटमान थाय, ने प्राझानंग दोष प्राप्त थाय तथा नि यूक्तिमा “उनियहुंतिचरिते दंसणनाणेअहोइशक्तिको सुत्र
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६५१ खेत्तदेवयाए थुश्यतेपंचमंगलयं" ए गाथा कोई टीका चूर्णिमां डेज नही, तेथी कोइये प्रदेप करीने, पण नियूंक्तिकार कृत नथी, एवं यावश्यक दीपिकामां लखेडे.
ते पाठ ॥ तथा वृत्तिचूादि दृष्टाक्काथादर्श गाथादृश्यते उन्नियटुंतिचरित्ते इत्यादि चारित्रशोधये द्वौ नद्योततकरौस्तः दर्शनझानयोरेकैक उद्योतकरः स्यात् श्रुतक्षेत्रदेवतयोः स्तुतेरंते पंचमंगलं नमस्कारो नएयः परं उत्तरार्थिः सिझते मया न झातोऽस्ति स्तुतिशब्दो देव्या उर्घट इव ॥
अर्थः ॥ वृत्ति चूादिकोमां तो में था गाथा दीठी नथी, पण कोईक पुस्तकमां लखेने के चारित्र शोधवा थर्थे बेलोग्गस्सनो कानस्सग्ग, दर्शन झानने अर्थे एके क लोगस्सनो कानस्सग्ग थाय, श्रुत देत्र देवीनी थु
ना अंतमां नवकार कहेवो पण ए गाथाना अंतनाबे पद दे, तेनो अर्थ सिद्धांतमां अमे जाएयो नथी, केमके देवीनी थुइ कहेवी उर्घट .॥ एटले सिद्धांत युक्तिए संनवति नथी;इहां देव्यादिकोनी स्तुति उर्घट कही ते माटे चोयी थुइ पण पूजाउपचारादि कारणविना केमसंनवे? ते बुध्विंतोने विचारवं. ॥ तथा चतुर्थस्तुति निर्णय पृष्ट १६० मां आत्मारामजी आनंदविजयजीए प्रावश्यकसू त्रनुं नाम लखी पाठ लख्यो , ते पाठ आवश्यक सूत्रनो
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परिजेदः १५ नथी, पण संवत् ११३ नी सालमां थयेला श्री चंडगडीय श्री विजयसिंहाचार्यकृत श्राइप्रतिक्रमण चूर्णिनो पाउने, ते श्राइप्रतिक्रमण चूर्णिमां देवसी प्रतिक्रमणनी विधि श्रावकने अधिकार करी सर्व लखी , पण ते विधिमां श्रुतदेव देवताना कायोत्सर्ग तथा थुइ लखी नथी, तेथी श्रावकोने तो पूर्वाचार्योना समयमां श्रुतदेव देवताना कायोत्सर्ग करवा संनवताज नथी; जो संनवता होत तो चूर्णिकार लिखत, पण ते लव्या नही. तथाच ॥
तत्पाठः ॥ इहपुणसावगपडिक्कमोहिगारो त. बसावगो चईनणघरवासवासगं काकधम्मशाणसुठियंखणमेगंमणं चईहरेवा पोसहसालाएवा साहुमूलेवा गिहेगदेसेवा सामाईयंविहिणाकानणं पडिक्कमणगई तब पढमंचेए साहूयवंदियपुगोसामाश्यामगंकहिकंण्यालोयणदंमगावसाणे दिवसाश्यारचिंतणाकानस्सग्गंगई पारिताचनवीसम्बयंकड मुहणतयंपडिलेहियं वंदरणयंदेई त बालोयणादंमगंपढई तयंतेगुरुणदिणाझ्यारे निवेश्ताअमुगंपबित्तंबालायेणाए बालोएधसुत्तिमिडा उकडंनण संमासगंपमाधित्ता नवविठोपंचमंगलंउच्चारे। सामाइदंमगंआलोयणदंमगंचपढिकण तनुपडिक्कमणसुतं अस्कलियाईगुणसंयुत् उच्चारेई तयणंतरंज्वाल
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६५३ सावत्तवंदणएखामणंकरे पुगोवंदणयंदाऊसामाश्यसुत्त पुचमालोयणादंमगं अणुकट्टई चारित्नाश्यारविसोहीनिमित्तं पंचासहसासपमाणंकानस्सग्गंठाइ चनवीसवयं सुयचयंचपढदंसणसुयनाणाश्यारविसोहिनिमित्तं पण वीसासुस्सग्गंगाकणसिच्वयंपढइ मुहणंतयंपडिलेह समत्तिवंदणंकाळं इलामोअणुसहिनणितानिवितोनूमी कयजाणुवापवट्टणान तिबाहिवथुश्नतिन्निमंगलकट्ट तनसमत्तपडिक्कमणोनव॥
अर्थः ॥ इहां वली श्रावक पडिक्कमण करे ते अधि. कार ने, त्यां श्रावक घरवास काम बोडी करीने धर्म ध्यानमारहेलोदण एकमने चैत्यमां तथा पोसहशालामां तथा साधू कने अथवा घरना एक देशमां सामायिक विधि करीने पडिक्कमण नावे, त्यां च्यार खमासमण देश एटने चैत्य साधुने वांदिने पढी पडिक्कमण गश्ने करेमिनंते कहे श्वामिठामि कानस्सग्गं कही तस्सुत्तरी अन्नब अतिचार चिंतववा काउस्सग्ग गवे, काउस्सग्ग पारीने लोगस्स कहे मुहपत्ति पडिलेही वांदगा दे पनी श्वामि देवसीयं बालो कही गुरुने अतिचार कही अमुको प्रायश्चित्त ग्रहण करे, दिवसना अढार पापस्था नादि बालो मिहामि उकडं दे संमासग पडिलेही पूंजी बेसी पंचमंगल नवकार कहे सामायिक कहे इ.
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६५४ परिच्छेदः १५ बामि पडि पनी पडिक्कमण सूत्र अस्खलित कहे, पनी बारसावत्त वांदणा दे अग्नि खमावीने वली वांदणा दे पठी सामायिक स्वामिठामि यन्न चारित्र अतिचार शोधवा पच्चास श्वासोश्वास काठस्सग्ग पारी लोगस्स सबलोए पञ्चीस श्वासोश्वास कानस्सग्ग पारी पुकरवरदी वंदण अनव पच्चीस श्वासोश्वास कानस्सग्ग पारी सिझा बुझाणं कही मुहपत्ति प. डिलेही वांदणा दे श्वामी अणुसठिं कही नूमी उपर गोडा थापी नमोस्तु वईमानाय ए वईमान त्रण थुइ कहे, त्यारे पडिक्कमएं समाप्त थाय ॥ए पडिक्कमणानी विधिमां श्रुत देव देवीनी थुइ कानस्सग्ग नथी. तेथी एम जाणिये बीए, एसचरित्त० ए गाथा नियुक्तिमा संवत् १२ बार पहेली तथा पली संप्रदाय नेदथी ममतनावे कोइए प्रदेप करी हशे तेथी पूर्वाचार्योना ग्रंथोमां देवसीनी विधिमां श्रुत देवदेवीनो कानस्सग्ग प्रतिपादन करयो नथी, ए अनिप्राय जणाववा दीपिका कारे पण उर्घट कही पण परकी चोमासी संवबरी ए थाचरणाए साधुने क्षेत्र देवीनो कामस्सग्ग माझाने अर्थे करवो संनवे बे; पण स्तुति कहेवी न संनवे, केमके पर्वाचार्योना ग्रंथोमा आचरणाए देवदेवी प्रमुखनो कायात्सर्ग प्रतिपादन बे, पण स्तुतिनो प्रतिपादन नयी,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६५५ कारण के श्रुतदेवीनो कायोत्सर्ग श्रुत समृदि निमित्ते जिनवाणी आराधक पुरुष प्राचरणाए निरंतर कायोत्सर्ग करे तो अटके नही, परंतु देवदेवादिकनो कायोत्सर्ग आचरणाए , ते पूर्वाचार्योना ग्रंथोना अनिप्रायथी साधुने अवग्रह याचन निमित्ते ने, अने अवग्रह याचन करी पनी अवग्रह दातानि स्तुति करवी, तेथी अगीयारमो उत्पादना दोष संनव थाय डे, तेमज ग्रंथांतरमां का बे.
ते पाठ ॥ खित्तावगाहको खित्तसूरीसंथवकरंताणं साहणवसहिदोसोउय्यायएएगारसमो॥१६॥तथाअर्वाचिन कालवर्ति न्याय सरस्वति बिरुद धारक महोपाध्याय श्री यशोविजयजी पण प्रतिक्रमण गर्नहेतु स्वाध्याय मांपूर्वोक्तन्यायने अनिपाए अवग्रह याचन निमित्ते देत्र देवादिकनो कायोत्सर्ग लखेडे, पण स्तुति लखता नथी.
ते पाठ ॥ तीर्थाधिपवीरवंदनरैवतममनश्रीनेमितिल सार च० अष्टापदनतिकरीयसुयदेवयाकानस्सग्गनवकार च० देवदेवताकानस्सग्गश्मकरो अवग्रहयाचनहेत च० पंचमंगलकहीपंजिसमासगमुहपतीवंदनहेतच॥॥ इहां कोई कहेशे जे काउस्सग्ग कह्यो, त्यां स्तुति तोवीज जेम पाहुणाने रोटलानु कहुं तो शाक तो आव्युंज, तेने कहीए के हे देवाणु प्रिय! टुंढिया पण कहेले के मुहपत्ति बां
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परिच्छेदः १५
धवी कही तो दोरो पण नेगो आव्यो एवी ढुंढियानुनी पेठे कुज़ुक्ति करवी जुक्त नथी, केमके प्रवचनसारो द्वारादिक वृत्तिमां प्रगट क्षेत्र देवादिकनी स्तुति कहीबे, उपने उपाध्यायजी प्रमुखे यवग्रह याचन निमित्ते क्षेत्र देवीनो कायोत्सर्गज प्रतिपादन करयो, पण स्तुति प्रतिपादन न करी, तो शुं ! ते महापुरुषाने प्रवचनसारादि ग्रंथ जोवामां याव्या नही होय ? तेथी एम लख्युं ? पण एम न समजवुं; केमके जे उपयोगी गीतार्थ ग्रंथोना पूर्वापर विरोध टालीनेज ग्रंथमां लखे, केमके प्रवचनसारादि ग्रंथ वृत्यादिकमांज लखेबे के "सर्व विघ्न निर्दलन निमित्तं देवदेवतायाः कायोत्सर्गः कार्यः एक नमस्कार चिंतनं कृत्वा तदीयस्तुति परेण वा दीयमानां शृणोति" नावार्थं सर्व विघ्नविनाश करवाने क्षेत्र देवतानो कायोत्सर्ग करवो, एक नवकार चिंतन करीने तेनी स्तुति कहेवी, तथा सांजलवी तेमज जीवानुशासन वृत्तिमां पण उपव विनाशन अर्थे साधुने क्षेत्र देवीनो कायोत्सर्ग ने श्रावकने विघ्नविघातन कारणे सम्यग्दृष्टि देवदेवीनी पूजा दृढ करेबे, ते पाठ पा उपर लखी या व्याबीए, माटे प्रवचनसारादिवृत्तिकारे पण सर्व विघ्न विनाश करवाने देत्र देवीनो कायोत्सर्ग स्तुति प्रतिपा दन करी ते निरंतर धर्मादि कार्यमां विघ्न संनवे नही, पण शांति पूजाप्रतिष्ठादि विशिष्ट कारणे स्नात्रकारकोने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६५७ प्रतिक्रमणना अंतविनागमा क्षेत्र देवीनो कायोत्सर्ग स्तुति कहेवी, ते अभिप्रायथी टीकाकारे स्तुति प्रतिपादन करी संनवे बे; अने जो एम संनवमान न करिए तो पूर्वाचार्य तथा उपाध्यायजी प्रमुखनां वचन विरोध पामे कारण के पूर्वाचार्य तथा उपाध्यायजी प्रमुखे तो अवग्रह याचन निमित्तेज देत्रदेवी प्रमुखनो कायोत्सर्ग कह्यो पण स्तुति न कही, अने प्रवचन सारोक्षारादि वृत्तिकारे विघ्नविनाश निमित्ते क्षेत्र देवीनो कायोत्सर्ग अने स्तुति कहि, एमपरस्पर गीतार्थानां वचन विरोध पामे पण गीतार्थीनां वचन प्राये परस्पर विरोध होय नही, माटे साधुने तो विहारादि कारणे तथा परिक चनमासी संवबरीना अंतनागमा देवदेवी प्रमुखनो कायोत्सर्ग अवग्रह याचन निमित्ते संनवे,अने श्रावकने प्रतिष्ठादि विशिष्ट कारणे विघ्नविनाशने अर्थे त्रिदेवीनो कायोत्सर्ग स्तुति सहित करवो संनवे; केमके कारणे चथुर्विध संघने पण देवादिकने प्रशस्त बलि देवो आवश्यकचूर्णीअध्य०२ मां कहथु दे.॥
तेपात पसबदेवबलेयअप्पसबदेवबलेयपसनदेवबबेडब्बजियपूसमित्तपमुहेणसंघेणदेवयाएबलिनिमित्तंकान स्सग्गोकतो अप्पसनदेवबने बगलमहिसपुरिसमादिहिंचमियातीणंरुद्ददेवयाणंजागाकीरंति ॥
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६५७
परिजेदः १५ ए पाठनो नावार्थ सुगम बे, पण तात्पर्य ए जे के कारणे पण समग्दृष्टि प्रशस्त बलि ये पण मिथ्यादृष्टियोनी पेठे अप्रशस्त बाल न दे, माटे कारणे देवदेव प्रमुखने प्रशस्त बलि देवो संनवे, पण विना कारणे न संनवे; पड़ी तो निरापेक्ष पणे सिक्षांतवेत्ता कहे ते सत्य.॥
पूर्वपदः ॥ जेकर प्रतिदिन देवदेवता और श्रुतदेवताका कायोत्सर्ग करनेसें मिथ्यात्व किंवा पाप लगता हे, तो फेर पादही चातुर्मासी अरु सांवत्सरी रूप महा. पर्वो के दिनोमें तथा प्रवज्याविधि अरु प्रतिष्ठा विधिमें पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग करनेसे नी महा मिथ्यात्व
और महापाप तुमकों लगना चाहिये? ___ उत्तर पदः ॥ पूर्वधर तथा पूर्वाचार्यना ग्रंथोमां पदी चातुर्मासी सांवत्सरी रूपमहापर्वोना दिवसोमांतथा प्र. बज्या प्रतिष्ठादि विधिमां पूर्वोक्त देवतायोना कायोत्सर्ग करवा कह्या बे, पण प्रतिदिन करवा कह्या नथी ते सर्वे वार्ता शंका समाधान पूर्वक अनेक शास्त्रोनी सादीथी अमो उपर लखी प्राव्या लिए, तेमज ते पूर्वधरादिकनी थाझा प्रमाणे करिए जीए, तेथी महामिथ्यात्व तथा महापाप अमने तो लागतुं नथी, पण तमनेज लागे जे, केमके पूर्वधर पूर्वाचार्योनी अाझा तो पूर्वोक्त कारण विना प्रतिदिननी नथी; ने तमे तो आशा जंग करीने
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६५९ प्रतिदिन पूर्वोक्त देवतानना कायोत्सर्ग करोडो तो तमे विचारो के अन्य कोइक दिन एकवार पण पूर्वधरादि. कनी आझा नंगनो दोष अनंत संसार वृझिनो जैन शास्त्रोमां कह्यो , तो नित्य प्रतिदिन अवश्यमेव अ. रिहंतादिकनी अाझा खंमन करे तो ते मिथ्यादृष्टि महा अधम अज्ञानी कहेवो जोइए, एटलुं तो तमे पण जाणता हशो.एवार्त्तानो जो तमे तादृश विचार पूर्वक ख्याल राखशो तो पदी प्रमुख महापर्व तथा पूर्वोक्त कारण विना नित्य प्रतिदिन पूर्वोक्त देवतानना कायोत्सर्ग करवा ते बहु अयोग्य , एम अाप आपणा प्रात्माथी समजी जशो, अमारे पण समजाववानी जरूर पडशे नही. ॥ तथा दशपूर्वधर श्रीवजस्वामीजीए देत्र देवतानो कायोत्सर्ग कस्यो एवो लेख श्री आवश्यकचूर्णिमां बे, ते पाठ पर लखि आव्या बीए, तेमां कोई मुग्धजीव एम कहे के श्री वजस्वामीजीतो अतिशय युक्त हता ते माटे तेननेतो एकज वार कायोत्सर्ग करवाथी देवदेवी प्रत्यद थइने अाझा देश गइ हती, अने हमणां तो पा. दिक प्रमुख महापर्वादिकमां नित्य करे तो पण क्षेत्रदेवी प्रत्यक्ष थती नथी ते माटे नित्य प्रतिदिन कायो. त्सर्ग करवो युक्त ने तेनो नत्तर अखिए बीए के श्री वजस्वामीजी तो अतिशययुक्त हता तेथी क्षेत्रदेवी प्रगट थई
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परिच्छेदः १५ थाझा दे गई ने हमणा तेवो अतिशय नथी तेथी क्षेत्रदेवी प्रगट थती नथी, ते कारणथीज पदी प्रमुख महापर्वोमां नित्य आझानिमित्ने क्षेत्रदेवता प्रमुखनो का. योत्सर्ग पूर्वाचार्य प्रतिपादन करे, पण प्रतिदिन प्रतिपादन करता नथी. वली श्री वजस्वामीजीए पण एकजवार कायोत्सर्ग करयो हतो परंतु प्रतिदिन कायोत्सर्ग न करों,ते माटे श्री वजस्वामीजीथी अधिकाइकरी पाक्षिक प्रमुख महापर्वादिकना नित्य कायोत्सर्ग निषेध करीनित्य प्रतिदिन स्थापन करे तेने महामुोमां शिरोमणि जा. णवो,अनेपादिक प्रमुखमां पूर्वोक्त कारणे देवदेवतादिकना कायोत्सर्ग करीए बीए ते वार्ता आवश्शक नि!. क्ति प्रमुख अनेक जैनग्रंथोनी सादीथी करिए बीए. तेमना पाठ अमो उपर लखि अाव्या बीए तो श्रुतझानी म. हापुरुषोना वचन जो न माने तो ते अज्ञजीवने समजाववाने अर्थे[श्री महाविदेह देवथी केवलझानी आवशे? माटे यमो बहु दिलगीरीथी लखिए जीए के तमे पूर्वधर पूर्वाचार्योना वचन उन्नापीने नवीनवी मनमानी पाचरणा करवानी चाहना राखोबो के नित्य प्रतिदिन प्रतिक्रमणमां कारणविना देवताननी साहाय्य लेवाने अर्थे कायोत्सर्ग करवा अने तेमनी थुश्यो करवी ते किया पूर्वधरादिकनाशास्त्रमा एवो लेख देखीने करोबो?
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६६१ वली किया शास्त्रमा एवो पात लख्योने के सामायिक प्रतिक्रमणमां पुत्र कलत्रादिकनी याचना तथा वैरी दलन निमित्ने समदृष्टि देवताना तथा देवदेवता प्रमुखना कायोत्सर्ग करतां अने तेनुनी थुइ करतां पाप नथी लागतुं ते अमने बतावी द्यो?॥
इति श्री चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारे अपरनानि चतुर्थस्तुति कुयुक्ति निर्णयच्छेदन कुठारे श्रुतस्मृछि वा देवावग्रहाझा निमित्त पादि प्रमुख दिवसे श्रुत क्षेत्र देवतादि कायोत्सर्ग निदर्शनो नाम पंचदशःपरिच्छेदः॥१५॥
अथ श्री पोडशः परिछेदः॥
पूर्वपदः ॥ सम्यग्दृष्टि वैयावृत्त्यादि करनेवाले देवतायोंका कायोत्सर्ग करना और चोथी थइमें तिनकी स्तुति करणी तिस्से जीव सुननबोधी होनेके योग्य महा शुनकर्म उपार्जन करताहै, और तिनकी निंदा करनेसें जीव उर्लनबोधी होने योग्य महापाप कर्म उपार्जन करताहै; असापाठ श्री ठाणांगजी सूत्रमें है. ॥ __॥उत्तरपदः ॥ ए पूर्वोक्त पूर्वपदीनु लखवं सर्व मिथ्या केमके श्री वाणांगजी सूत्रमा तो देवोना अवर्ण
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परिजेदः १६ वाद बोलवाथी उलनबोधि कर्म उपार्जन करे, अने व. पर्णवाद बोलवाथी सुलनबोधि कर्म उपार्जन करे, एम का पण सम्यग्दृष्टि वैयावृत्त्यादि करवावाला देवता नना कायोत्सर्ग करवाथी अने चोथी थुश्मा तेमनी स्तुति करवाथी सुननबोधि कर्म नपार्जन करे तथा पूर्वोक्त कृत्य न करवाथी झनबोधि महाकर्म उपार्जन करे एम कर्दा नथी; ते पाठ नव्यजीवोने ज्ञापन करवाने लिखिए बीए ॥ पंचहिताणेहिं जीवाडल्लनबोधिहियत्ताए कम्मं पगति तं० अरहंताणमवन्नवदमाणेअरहंतपन्नत्त स्सधम्मस्सअवन्नवदमाणे प्रायरियनवशायाणमवन्नवद माणे चावणस्ससंघस्लप्रवन्नवदमाणे विवक्तवबंनचे राणंदेवाणंअवन्नवदमाणे पंचहिनाणेहिं जीवासुननबो हियत्ताए कम्मंपगति तं० अरहंतागवन्नवदमाणे जाववि वक्तवबंनचेराणंदेवाणंववयमाणे॥
॥ व्याख्या ॥ पंचहीत्यादि सुगमं नवरं उतना बो धिर्जिनधर्मो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया उर्लनबो. धिकतया तस्यैव वा कर्म मोहनीयादि प्रकुर्वति बनंति अर्हतामवर्णमश्लाघां वदन् यथा नवीधरहंततीजांण तोकीसनुंजएनोएपाहुडियं नवजीवसमवसरणादिरूपा ए ॥१॥ एमाजिणान अवष्णोनचतेनानूवंस्तत्प्र णीत प्रवचनोपालब्धेर्नापि नोगानुनवनादिदोषोऽवश्यवे
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-झारः ६६३ यसा तस्य तीर्थंकरनामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वा नस्य तथा वीतरागत्वेन समवसरणादिषु प्रतिबंधाना वादिति तथा अर्हत्याप्तस्य धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य प्राकृतनापानिबमेतत् तथा किं चारित्रेण दानमेव श्रेय इत्यादिकमवर्णं वदन् उत्तरं चात्रप्राकतनाषात्वं श्रुतस्य न उष्टं बालादीनां सुखाध्येयत्वेनोपकारित्वात्तथा चारित्रमेवश्रेयोनिर्वाणस्यानंतरहेतुत्वादिति प्राचार्यों पाध्यायानामवर्णं वदन् यथा बालोयमित्यादि न च बालत्वादिदोषो बुझ्यादिनिर्वइत्वादिति तथा चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रामणादयो यस्मिन्स तथा सएव स्वार्थिकाएिवधानाचातुर्वण्यस्तस्य संघस्यावर्णं वदन यथा कोऽयं संघो यः समवायबलेन पशुसंघ श्वामार्गमपि मार्गीकरोतीति न चैतत्साधुझानांदिगुणसमुदायात्मक त्वात् तस्य तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति तथा विपक्कं सुपरिनिष्टितं प्रकर्षपर्यंतमुपगतमित्यर्थः तपश्च ब्रह्मचर्य च नवांतरे येषां विपक्कं वा उदयागतं तपो ब्रह्मचर्य तहेतुकं देवायुकादिकं कर्म येषां ते तथा अवविदन्न संत्येव देवाः कदाचनाप्यनुपलभ्यमानत्वात् किंवा तैः विटैरिव कामासक्तमनोनिरविरतैस्तथानिमेषेरचेष्टैश्व म्रियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगीनिश्चेत्यादिकं इहोत्तरं संति देवास्तकतानुग्रहोपघातादिदर्शनात्कामासक्तता च
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परिजेदः १६ मोहसातकर्मोदयादित्यादि अनिहितं च एउपसिहीमोहणियसायवेयणियकम्मनदयाकामपवत्तीविरईकम्मोदय नवियनतेसिं॥१॥अणिमिसदेवसहावानिच्चेठाणुत्तरानकय किच्चाकालाणुनावातिलायंपिप्रणबकुवंतित्ति"॥॥तथा अर्हतां वर्णवादो यथा"जियरागदोसमोहा सबएणूतियस नाहकयपूया अचंतसव्ववयणासिवगइगमणाजयंतिजिणा ॥१॥अर्हत्प्रणीतधर्मवर्णो यथा “वबुपयासणसूरोअइसय रयणाणसायरोजयइ सवजह सवजयजीवबंधूरेबंधुतविहो विजिणधम्मो ॥॥" आचार्यवर्णवादो यथा"तेसिनमोते सिंनमोजावेणपुणोविसिचेवनमोअणूवकयपरहियरया जेनाणंदेतिनवाणं ॥३॥” चतुर्वर्ण श्रमसंघवर्णो यथा “एयमिपूश्यंमीनलितयंजणापूश्यहोइनुवणेविपूणियोनगुणीसंघानअन्नो ॥१॥” देववर्णवादो यथा देवा
अहोसीलविसयविसमोहियाविजिगनवणेअबरसाहिपिसमंहासाईजेणनकरतित्ति ॥ - अर्थ ॥ पांच स्थानके एटले पांच प्रकारे करी जीव उर्खनबोधिपणुएटले महाकष्टेकरीने जे जैनधर्मनुं पामवं ते रूप मोहनीयादिक कर्म बांधे.तात्पर्य ए के जैनधर्म जीवने मनवो कठण तद्प कर्म ए पांच प्रकारे बांधे ते कहे , अरिहंतोना अवर्णवाद एटले अकीर्ती बोलतो थको जीव उर्सनबोधि कर्म बांधे, केमके जिननगवंतनी
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको क्षारः ६६५ अप्रशंसा करवाथी तेने जिनराज प्ररूपित धर्म न मले एवं कर्म बांधे, ते अप्रसंशानुं बोलq ते एमठे ते कहेडे, के जेप्राणी एम कहे के अरिहंत वेज नही? ने ने तो केम जाणीने नोग नोगवे बे? प्राजत एटले देवादिके लावेलो समवसरणादिक रूप जोगवे , इत्यादि जिननो अवर्ण वाद ले ते बोलतो थको उतनबोधि कर्म बांधे, पण ते एम नथी जाणतो के तेमना प्ररूपेला प्रवचन दठिामां आवेडे,तो वक्ता विना वचन न होय माटे जो ए प्रवचन बे, तो एनावक्ता अरिहंत पण ,अनेजे नोगनोगववानो नो दोष कहे ते पण नथी, केमके अवश्यवेद्य एटले वेदवा जोग्य तीर्थंकरनामादिकर्म तेनुं जोगवते. तेमने निर्जरानुं कारण दे, तथा वीतरागपणे करीने समवसरणादिकमां बेसवानो तेमने प्रतिबंध नथी. एटले रागादि रहित माटे प्रतिबंध होय नही, तेथी ए दोष पण नथी; माटे अवर्णवाद बोलनारोउ नबोधि कर्म बांधे ए प्रथम॥१॥तथा अरिहंत प्ररूप्यो श्रुत चारित्ररूप धर्म तेनो अवर्णवाद बोलतो थको उतनबोधिपणानं कर्म बांधे, ते अवर्णवाद एमके, ए सूत्र प्राकत नापामां केम करयां? संस्कृत भाषामां करयां जोइए एम बोले, तथा चारित्र पालवा करतां दान देवं तेज नहुँ , इ. त्यादिक अवर्णवाद बोलतो थको ते मूर्ख एम नथी
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६६६ परिछेदः १६ जाणतो जे एनो उत्तर इहां एमजे के बालकादिकोने सुखे नगवे करीने उपगारीपणु तेथी प्राकृत नाषापणे सूत्र बांधवानो दोष नथी, तथा मोइनु अनुत्तर कारण एटले तेज नवे तथा थोडा कालमांज मोद आपे, ते हेतुपणाथी चारित्रज श्रेष्ट कल्याणकारी ने, एम जाणे नही,अने अवर्णवाद बोलतो थको कर्म बांधे एबी ॥२॥ तथा प्राचार्य नपाध्यायोना अवर्णवाद बोलतो थको उनबोधिपणानुं कर्म बांधे ते अवर्णवाद एम, द्वेषथी कहे के ए शानो आचार्य? बोकरो ने कां जाणतो नथी, इत्यादि; पण एनो उत्तर जाणतो नथी जे बुद्ध्यादिके - झिपणु ने तेथी बालपणादिकनो दोष नथी, माटे अवर्ण वाद न बोलवो एत्रीजुं॥॥तथा च्यार ने वर्ण एटले प्रकार ते जेने विषे ते चातुर्वर्ण्य कहिए, एटले साधु साधवी श्रावक श्राविका च्यार वर्णरूप संघ तेमनो अवर्णवाद बोलतो थको उर्लनबोधिपणानं कर्म बांधे ते अवर्णवाद एम के कोई मूरख एम बोले जे बहुजणानो समुदाय मली पशु संघनी पेठे मार्ग नथी तेने मार्ग जेवो करे ए शानो संघ ? एम बोले ते सारो नही, केमके ते संघ झानादिक गुणनो समुदायरूप दे, तेथी तेने संघ कह्योडे. तेणे तो मार्गनी पेठेज मार्ग कस्योडे तेथी तेनो अवर्ण वाद न बोलवो; बोले ते झ्नबोधीपणानुं कर्म करे ए
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः चोथो ॥॥ तथा विपक्कं के संपूर्ण नली रीते अतिशये करीने पर्यंतने प्राप्त थयो तप अने ब्रह्मचर्य नवांतरमा जेमना अथवा विपक्क एटले उदय आव्यां बे तप अने ब्रह्मचर्य तेना कारणथी देवताना आयुषादिक कर्म जेमने एवा देव तेमनो अवर्णवाद बोलतो उर्लनबोधीपपार्नु कर्म करे, देवोनो अवर्णवाद ते एम ले के केवारे ए पण दीवामां आवता नथी, तेथी देवता बेज नही अथवा तो ते पण विटपुरुषनी पेठे अर्थात् अत्यंत कामी पुरुषनी पेरे काम सेववामां जेमनुं मन आसक्त रहे, एटले जम नीच माणस काममां रक्त रहे तेम ते रहे तो ते श्या कामना ले? तथा ते देव अविरति बे, कापण त्याग करता नथी, तेमनी यांखो मीचाती नथी, ते माटे कांइपण चेष्ठाए करीने रहित होवाथी मरण थएना पुरुष सरखा बे; वली प्रवचनना कार्यमां पण उपयोग नथी करता, एटले जैनशासनना कोई काममां पण आ वता नथी, एवा देवतानए करीने गुं! इत्यादिक देवोना अवर्णवाद द्वेषथी बोले ते उर्सनबोधि कर्म उपार्जन करे, ते मूरख इहां उत्तर जाणतो नथी जे देव , तेमनो करेलो अनुग्रह अने उपघात इत्यादि देखवाथी, एटले जक्तीथी लोकोनुं नलु करे, अने रूठा हानि करे. ए देख वाथी देव अने कामनोगमां अासक्त ने तेतो मो.
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परिच्छेदः १५ हनीकर्म अने शातावेदनीनो उदय ने ते कर्मना उदयथी मैथुनमां आसक्त : अने अविरति कर्मना उदयथी विरति पण तेमने नथी, अने देवनवनो स्वजाव ए ने तेथी ते आंखो टमटमावता नथी, अने अणुत्तरादिक देव ने ते कृतकृत्य थया तेथी तेमने चेष्टा नथी, एटने कांइपण कार्य तेमने करवु रह्यं नथी माटे चेष्टा शं करे? अने तीर्थनी प्रनावना नथी करता ते काल दोष , पण अन्यत्रजग्याए करे पण ने एम जाणवं, पण अवर्णवाद न बोलवो. ए पाचमुं उन्नबोधिपगु॥५॥ए पांच कारणे जीव उर्जनबोधिपणानुं कर्म उत्पन्न करे अने एज पांच कारण विपरीत होय तो सुलनबोधिपणुं होय ते कहे जे; पांच तेकाणे पांच प्रकारे जीव सलनबोधिपणानुं कर्म उत्पन्न करे ते कहे, अरिहंतनो वर्णवाद बोलतो थको सुलनबोधिपणानुं कर्म नपार्जन करे ते अरिहंतनो वर्णवाद ते एम, राग, द्वेष, मोह जेनए जीत्या एवा केवली सर्वज्ञ, इंडे करी पूजा ते जेमनी एटले देवें पूजित एवा, अने वली केवा के अत्यंत सत्यवचन बोलनारा, जेमनु केवारे पण जूतुं वचन होय नहीं एवा, वली मोद गति जनारा एवा,जिन जे अरिहंत ते जयवंता प्रवों,एम कहे ते अरिहंतनो वर्णवाद ॥१॥ तथा अरिहंते प्ररूप्या धर्मनो वर्णवाद बोलनारो सुलनबोधिपणानुं कर्म उत्प
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चतुर्थस्तुति निर्णय शंका-दारः
६६ ए
न करे ते वर्णवाद एम बे जे, अरिहंते प्ररूप्यो ते धर्म केवो के वस्तु एटले पदार्थ प्रकाशवा सूर्य बे, अने अतिशय रत्ननो सागर वे सर्व जगजीवनो बंधु, वे प्रकारनो पण जिनधर्म ते जयवंतो वर्त्तो ॥ २॥ श्राचार्यनो वर्णवाद बोलनारो सुजनवोधिपणानुं कर्म करे ते वर्णवाद एम बे ते प्राचार्यने नमो, जावे करने वली तेमने ज नमो, ते प्राचार्य केवा बे के बीजाना कोई उपकारनी चाह्यना विना पण परना हित करवामां रक्तबे, नव्याने जे ज्ञान च्यापेबे एम कहे ते वर्णवाद ॥ ३ ॥ तथा संघनो वर्णवाद बोलनारो जीव सुलनबोधि कर्म नपार्जन करे; ते वर्णवाद एम, ए संघने पूज्यां कां एवो कोइ रह्यो नथी जे पूज्याविना रह्यो होय; ए संघ केवोबे के त्रण जवनमां पूजवा योग्य बे, ने ए संघथी बीजो वो गुणी कोइ नथी जेमां ते संघथी अधिक गुण होय, एम बोलवं ते संघनो वर्णवाद बे ॥ ४ ॥ तथा देवनो व
वाद बोलनारो सुजन बोधिपानुं कर्म करे ते वर्णवाद एमके, देवोनो ग्रहो आचार तथा स्वनाव केवो बे! के विषयोना विषयमां मुझ्या बे तो पण जिनराजना चैत्यने विषे बरा देवांगनानुनी साधे पण हास्यादिक नथी करता एम देवनो वर्णवाद बोले ॥ ५ ॥ ए पांच प्रकारे सुलन बोधिपरणानुं कर्म करे ॥ ए पाठमां विवक्कत
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६७०
परिच्छेदः १५
बंजरा देवा ए विशेषण जूड पाडवाथी तथा अरिहंतादिक वर्णवाद तुल्यपणाथी समग्रदृष्टिदेवोनोज वर्णवाद संवे बे, केमके जीवित पर्यंत तप ब्रह्मचर्य - वांतरे स्विकृत करचा पण विराध्या नही तेमज पूर्वोक्त विशेषण यभिप्रायथी महोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृतहुंडीना तवनमां तथा अर्थ कर्त्ता पण समग्दृष्टि देवतानोज वर्णवाद लखेडे, तथा विपक्ककहिए नदयमां याव्यां तप ब्रह्मचर्य तेना हेतु देवायुष्कादि कर्म जेमने,
टीकाकारना पर्यायार्थथी साधारण देवोनो वर्णवाद पण संवे केम के समष्टि मिथ्यादृष्टि बेन देवाने पूर्वकृत तप ब्रह्मचर्यादि हेतु प्रायुष्कादि कर्म उदये याव्यां बे ते जोगवे बे. ए अभिप्रायथी प्राये मिथ्यादृष्टि देवोनो पण वर्णवाद करवो संजवे, केमके श्री जीवाभिगमादि सूत्र वृत्त्यादिकमां सम्यग्दृष्टि व्यतिरिक्त देवोना पूर्व सुकृत वर्णवाद पण बोल्या बे.
ते पाठः ॥ तबहवेवरसयणासाविसिधसंगसं विया पं० समाज सोखाइए गरूय बूरणवणीततूलफासा मतया सवरयणामयाश्रच्चाजावपडिरूवा तच बहवेवाण मंतरादेवादेवीन्य प्रासयंतिसयंति चिठंतिणिसीयंतितुयहं तिरमंतिजलतिकीलतिमोहतिपुरापोराला सुचिणाांसु परिकताएं सुना एकल्ला एक मा कम्मा एकल्ला फलवि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६७१ तिविसेसंपञ्चणुप्तवमाणाविहरंति ॥ ___ व्याख्या ॥ तत्र एतेषु उत्पातपर्वतादिगतहंसासनादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितप्टथ्वीशिलापट्टकेषु मिति पूर्ववत् बहवोवाणमंतरादेवादेव्यश्च यथा सुख मासते शेरते दीर्घकायप्रसारणेन वते न तु निशं कुवंति तेषु देवयोनिकतया निज्ञया अनावात् तिष्टंति नुर्ध्वस्थानेन वर्तते निषीदति उपविशति तुयति इति त्वग्वर्त्तनं कुर्वति वामपार्श्वतः परावृत्त्य दक्षिण पार्श्वेना वतिष्ठति दक्षिणपार्श्वतोवापरावृत्य वामपार्श्वनावतिष्ठति रमंते रतिमावघ्नति ललंति मन ईप्सितं यथा नवति तथा वर्तते इति नावः क्रीडति यथा सुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन वा तिष्टंति मोहंति मैथुनसेवां कुर्वति इत्येवं पुरापोराणाणमित्यादि पुरा पूर्व प्राग्नवे शति नावः कतानां कर्मणामितियोगः अत एव पौराणानां सुचीर्णानां सुचरितानां इह सुचरितजनितं कर्मापि कार्ये कारणोपचारात् सुचरितमिति विवदितं ततोयं नावार्थः विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषया प्रमादकरणदात्यादिसुचरितानामिति तथा सुपराक्रांता. नां अत्रापि कारणे कार्योपचारात् सुपराक्रांतजनितानि सुपराक्रांतानि इत्युक्तं नवति सकलसत्वमैत्रीसत्यनाषण परव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनिता नामिति
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६७१
परिच्छेदः १६
अत एव शुनाना शुनफलानां इह किंचिदगुन फलमपि इंडियमतिविपर्यासात् शुभफलमानाति ततस्तात्विकशु नत्वप्रतिपत्त्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह कल्याणानां तत्व वृत्या तथाविधविशिष्टफलदायिनां अथवा कल्याणानाम नर्थोपमकारिणां कल्याणं कल्याणरूपं फलविपाकं पचप्रमाणाप्रत्येक मनुनवंतो विहरति यासते ॥
नावार्थः ॥ त्यां ए उत्पात पर्वतादिकमां रहेला हंसासनादिक यावत् नाना प्रकारना रूपने खाकारे रह्या पृथवी सिलापट्ट तेने विषे एटले हंसासनादिक पृथवी सिलापट्टकोनी उपर घणा वाणमंतर देव देवीबे, ते यथा सुखे बेसेबे, सूबे, कायाने लांबी करीने पण निदा करता नथी, केके देवयोनीना स्वनावधी तेमने झिनो अ नाव होय तेथी, तथा उना रही तेमना उपर बेसे, माबे जमणे पसवाडे सूए, रमे, आनंद करे, जेवी इला होय तेम वर्ते, क्रीडा करता यथासुखे रहापरहा फरे, गीतादि विनोदेकरी रहे, मैथुन सेवना करे, एवा प्रकारना पूर्वला नवमां करयां कर्म तेमनां फल; ए माटेज पूर्वे जलां याचरण करयां कर्म एटले नलां तेवा प्रकारनां धर्मनां अनुष्ठान तेमां अप्रमाद करवे करी कमादिक राखवे करीने धर्मानुष्ठान कस्यां तेनो तथा जले प्रकारे पराक्रम करयां एटले सर्व जीवो उपर मित्रा,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको क्षारः ६७३ सत्य बोलवं, परायुधन न लेवं, शील नहुँ पालवं इत्यादिक पराक्रम करयां तेनुं फल नोगवे , ए माटेज जला फलोनो एटने इहां किंचित् मात्र अशुन फल पण इंख्यि मतिना विपरीतपणाथी शुन फल जेवू जाणवामा आवे, पण ते अशुन बे; ते माटे पारमार्थिक एटले साचुं शुनपणु कहेवाने पर्याय शब्द एटले एकार्थ वाचक शब्द कहे. कल्याण पणानी वृत्तिए करीने तेवा प्रकारना विशेष रूडा फलदायी कर्मनो अथवा कल्याण एटले अनर्थना नपशम करनारां ते कर्मोनुं कल्याणरूप फल एटले विपाक ते प्रत्येके जोगवता विचरे में, ते देव इहां कोक हशे सूत्रवृत्यादिकमां तो समदृष्टि मिथ्यादृष्टिनो विवरो न पाड्यो, माटे एकला मिथ्यादृष्टिनाज वर्णवाद केम संनवे? तेने कहिए के विराधक संमदृष्ट्यादि वायव्यतरादिकमां कपजे पण आराधक समदृष्ट्यादि न ऊपजे, तेथी इहा मिथ्यादृष्टि वाणव्यंतर देवोनी पूर्व सुरूतनी श्लाघा संनवे , तेमज हीरप्रश्नमां महोपाध्याय श्री कल्याणविजयगणिकत् बहा प्रश्नोत्तरमां कडंडे.
ते पाठ ॥ अपरंच जंबूद्वीपप्रज्ञप्ती ॥ जीवानिगमेच जगतीवर्णनाधिकारे पुरापुराणाणंसुचिमाणंसुपरिकता ए सुनाणंकल्लागाणं कमाणंकम्माशंफलविसेसं पच्च गुप्रवमाणाविहरंतिपत्रवाणमंतरादेवायदेवीनतिविशेष्यं
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६७४
परिच्छेदः १६ संबध्यते तथाचात्रयत्पुरातनंरुत्पंश्लाघितंवर्त्तते तत्किमारा धकसम्यक्दृष्ट्यादिसत्कमुतान्यसत्कमिति ॥ ६ ॥ एतत्प्र प्रतिवच पाठ तथा जंबूद्वीपप्रज्ञप्तौ जीवानिगमे च जगतीवर्णनाधिकारे व्यंतरदेवदेवीनां यत्पुरापुरायाणं सुचिपाणमित्यादिनाप्राक्तन सुकृतप्रशंसनंतदाराधकसम्य कदृष्ट्यादिव्यतिरिक्तानामेवावसीयते ॥ ६॥ एम पूर्वोक्क प्रकारे मिथ्यादृष्टि देवोनो वर्णवाद बोलवो पण अवर्णवाद वर्जवो, ते मार्गानुसारि धर्मकार्य याश्रयिने वर्णवाद जांणवो पण मिथ्यादृष्टि तथा तेनुना धर्मकृत्य याश्रि न जांणवो, केमके वर्णवाद, श्लाघा, प्रशंसा, ए एकार्थ
तेथी मिथ्यादृष्टिनी प्रशंसामां तो ज्यागममां अतिचार प्रतिपादन करो तो मिथ्यादृष्टिना वर्णवादमां सुल्लन बोधिप क्यांथी थाय? माटे ते पूर्वोक्त पाठना अनिप्रायी मुख्यपणे समदृष्टि तथा मार्गानुसारि देवोना वर्णवाद नवे पण बीजाना न संजवे, इहां कोइ कहेशे के ए पाठथी चतुर्थस्तुतिकारणविना कहेवी सिद्ध थायडे केम के समदृष्टि देवोना वर्णवाद करे तो सुल्लनबोधि कर्म उपार्जन करे एवं कहयुं तेथी चतुर्थस्तुति पण समदृष्टि देवोना वर्णवादनीज बे तेने कहिए ए पाठथी चतुर्थस्तुति कारण विना सिद्ध थती नथी, कारण के चतुर्थस्तुति एकांते गुणवर्णवनीज नथी; पूर्वोक्त ग्रंथोमां स्वकृत्योमां
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको-चारः
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उपयोगदानार्थ तथा विघ्नविनाशनार्थ तथा तद्विषयिक गुणवर्णनात्मक वैयावृत्यकर देवोनी स्तुति कही बे तेथी स्वकृत पूजादि उपचार तथा क्षुपड्वादि निवारण कारणे चतुर्थस्तुति कहेवी सिद्ध थायडे, पण पूजादि कारणविना कहेवी सिद्ध थती नथी; अने गुणवर्णन बे ते एकांते श्लोकादि स्तुति रूपेज नथी नाषणरूपे पाढे, जेम कोइ रिहंतादिकना च्यवर्णवाद बोलतो होय तेने अरिहंतादिकना गुणवर्णव बोली समजावे, तथा व्याख्यानादि अवसरे जेनो वर्णवाद घ्यावे तो तेनो अवर्णवाद टाली वर्णवाद करे, जेम देवोनो याश्चर्यकारी केवो याचार बे, जे विषयमां श्रासक्त बे तो पण जिनद्भुवनमां हास्यादिक संसारी क्रिया करता नथी. एम समदृष्टि देवोनी प्रशंसा करवी तेमज मिथ्यादृष्टि देवोना मार्गानुसारि धर्मकृत्यनी प्रशंसा करवी ते देववर्णवाद कहिए. तथा ग्रंथांतरमां जे अनुमोदनीय ते नियमा प्रशंसनीय,
ने जे प्रशंसनीय ते नजनाए अनुमोदनीय; जेम तीर्थंकरादि प्रशंसा प्रशस्तपणाथी प्रशंसनीय, अनुमोदनीय, जय पण होय ने मिथ्यादृष्टिनी प्रशंसा ते प्रशं सनीय परं न अनुमोदनीय जिनाज्ञा बाह्यधर्मपणाथी तेनी प्रशंसा अतिचार रूप, पण प्रयोजन विशेषे कदाचित् कोइनी प्रशंसा समदृष्टिने करवी पडे पण प्र
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परिजेदः १६ शस्तपणाथी अनुमोदनीय न होय अथवा प्रशस्तपणाथी सम्यक्तानिमुख तथा मार्गानुयायि कृत्य मिथ्याह प्टिनां पण प्रशंसनीय अनुमोदनीय कह्यां .
ते पाठ ॥ जिणजम्माइकसव करणंतहमहरिसीण पारणए जिणसासणंमिनल्लीए पमुहंदेवाणअणुमए ॥३०॥ तिरिआणदेसविरज्ञ पङताराहणंचयणुमोए सम्मदंसणलप्नं अणुमन्नेनारयाणंपि ॥३०॥ सेसाणं जीवाणंदागरुइत्तंसहावविणिअत्तं तहपयणुकसायत्तं प रोवगारित्तनवत्तं ॥३१॥ दकिन्नदयालुत्तं पियनासित्ता विविहगुणनिवहं सिवमग्गकारणंजं तंसबंअणुमयम स ॥३११॥ इयपरकयसुकयाणं बहूणमणुमोअणाक याएवं अहनियसुचरियनियरं सरेमिसंवेगरंगेणं ॥३१॥ एमाश्यमंपिय जिणवरवयणाणुसारिजंसुकडं कय कारियअणुमोअमहयंतंसवमणुमोए ॥३१३॥ इत्यारा धनापताकायां ॥ एनो अर्थ जिनशासनने विषे नक्ति करीने तीर्थंकरना जन्म महोत्सव, महाऋषीश्वरना पारगाना महोत्सव प्रमुख देवता करे ते अनुमो.तिर्यचनी देशविरति पर्यंताराधन तथा नारकीने सम्यक्त्वनो लान अनुमोडतुं. बीजा जीवनुं दान रुचिपणुं स्वनावे विनीतपणुं, अल्पकषायिपणुं, परोपकारिपणुं, नव्यपणुं, दाक्षिणता, दयालुपगुं, प्रियनाषिपणुं, इत्यादिक विविध
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको द्वारः
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गुणना समूह मोक्षमार्गनुं कारण ते सधनुं मुजने अनु मोद हो. एवीरीते परनां कीधांघणां जे सुकृत तेनी अनुमोदना कीधी अथवा पोतानां कीधां सुकृतनो समूह ते संवेगरंगे करीने संनारुतुं; इत्यादिक अन्य पण जिनवचन नेअनुसार जे पुण्यकरणी करी करावी ने अनुमोदी होय ते सघली अनुमोतुं ॥१॥ तथा हवासवंचिय वीयराय वयणाणुसारिजंसुक्कडंकालत्तयेवितिविहं पु मोमोतयं सवं ॥ ५७ ॥ इति चतुःशरण प्रकीर्णाके ॥ एनो अर्थ सघलो वीतराग वचनने अनुसारे जे सुकृत जिनजवन बिंब कराववां तेनी प्रतिष्ठा पुस्तक लिखाववां तीर्थयात्रा संघ वात्सल्य जिनशासन प्रजावना ज्ञानादिकनुं उपष्टंन धर्मसांनिध्य कमा माईव संवेगादि रूप मिथ्यादृष्टि संबंधि पण मार्गानुसारि धर्म कार्यकालने विषे मन वचन अने कायाए करीने कर कराव्यं अनुमायुं होय ते सघनुं अनुमोढुं ॥२॥ तथा मोए मिसवेसिंप्ररहंताणं ठाणं सवेसिंसि - सिद्धनावं एवंसवेसिंइंदाणं सवेसिंजीवा मग्गसा हणजो गेहो न मे एसा सुमोलासम्मंविहिपुविया ॥ इति पंचसूत्र के प्रथम सूत्रे ॥
एनो अर्थ सघला अरिहंतनुं अनुष्ठान धर्मकथादि सघलाए सिधनुं सिद्धपणुं प्रव्यावाधादि रूप इत्यादि
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परिच्छेदः १६ तथा सघलाए जीवना मार्ग साधनयोग सामान्ये कुशल व्यापार ते प्रते अनुमाउं; मिथ्यादृष्टिना पण गुणस्थानकनी अनुमोदना सम्यग् विधि पूर्वक शास्त्रने अनुसारे हो ॥३॥ तथा पंचमनिशावदधिकतरोनौतकश्चरकपरि व्राजकादिधर्मस्तस्यमिथ्यात्वतमोनृत्वोपतादृक्दमाशमें प्रियदमनसर्वजीवानुकंपापरिणामनवनिर्वेदादिरूपाधिक्योद्योतकत्वात् एताराधकास्तामलिशष्यादयो बहु श्रुक्ष्परिणामाः प्रतिपादिताश्चागमेपितिनपदेशरत्नाकरे.
एनो अर्थ स्वेतपंचमीनी रात्रिनीपेरे अधिकतर नद्योत क चरक परिव्राजकादिकनो धर्म ने, जे माटे ते धर्मने मिथ्यात्व रूप अंधकारे व्यापवापणु थए थके पण तथा विध दमा उपशम यिदमन सर्व जीवदया परिणाम नवनिर्वेदादिरूप अधिक नद्योतकपणा थकी ए धर्मना अाराधक तामलिषीश्वर प्रमुख घणा शुक्ष्परिणामवं त सिझांतनेविषे कह्याडे, ॥॥ तथा पावंतिजसंथसमं जसावि वयरोहिंजेहिंपरसमया तुहसमयमहोबहिणो तेमंदाबिजनिस्संदा ॥४१॥ इति धनपाल पंचाशिकायां॥ ___ एनो अर्थ विसंस्थलपणे परना सिक्षांत चंद सूर्य ग्रहणादिक रूप जेणे वचने करीने यश पामे डे, ते व. चनमंद स्तोक प्रकाशक ताहरा सिहांतरूप महासमुन्ना बिंननो रस ॥५॥ तथा सवप्पवायमूलं ज्वालसंगंजन
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका- द्वारः
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समस्कायं रयणायर तुल्लं खलु तं सवंसुदरं तम्मि ॥१॥ इति श्री हरिनसूरि कृतोपदेशप्रकरणे ॥
एनो अर्थ सघलाए प्रवादनुं मूल बौध नैयायिक सां ख्यादि दर्शननुं यदि कारण ते कोण द्वादशांग कं, सिइसेनदिवाकरादिके एटला माटे रत्नाकरने तुल्य कीरोदधि प्रमुख समुड़ना सरखुं खलु निश्वे ते माटे सघनुं जे कां प्रवादांतरने विषे सुंदर देखाय ते द्वादशांगी मांहिलं जावं. तेनी अवज्ञा करे तो तीर्थंकरनी अवज्ञा थाय ॥५॥ तथा मिथ्यादृशोपिहिवरंकृतमार्द्दवाये सम्यग् शोपिनवरं कृतमत्सराये तेमे चकायापिशुकाः फलशा लिनोज्या नव्याः सिताप्रतिबका न हिमीननक्ष्याः ॥ १ ॥ इति सुक्तावली ग्रंथे ॥
एनो अर्थ सरलस्वनावी मिथ्यादृष्टीए जला, पण मत्सरवंत सम्यग्दृष्टीए जला नही; जेम कालाए सूडला जला जे माटे फलशालि खाय, पण नजलांए बगलां जलां नही, जे माटे मांबलां खाय ॥ ७ ॥ तथा नयसार, धनश्रेष्ठि, संगमादिक मिथ्यात्विनुं पण दान घणा ग्रंथने विषे अनुमो देखाय बे, ॥८॥ तथा तीर्थंकरना पारयाने विषे ने सातिशय साधुना पारणाने विषे पंचदिव्यनी वेलाए अहोदानं महोदानं ए उद्घोपणापूर्वक अभिनव श्रेष्ठ प्रमुखनां दान देवताए
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परिच्छेदः १६
शास्त्र विषे अनुमोद्यां देखाय बे ॥९॥ इहां पूर्वे कहेला ग्रंथोमां मार्गानुसारि कृत्य अनुमोद्यां ते मन वचन काया कृतकारित अनुमोदन विषयिक यात्मोत्साहरूप अनुमोदना ते प्रशसंनीय पणे पण जांगवी, केमके जे आत्मशादिकि ते अनुमोदना ने परसादिक ते प्रशंसा ग्रंथांतरोमां कही बे तेथी जे अनुमोदनिय कृत्य ते प्रशंसनीयपणे पण होय माटे वर्णवाद समदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिनो अधिकार प्राप्त भाषणरूपे अनेक प्रकारे बे, ते कारथी चतुर्थस्तुतिएज देवादिकनो वर्णवाद सिद्धथतो नथी कारण के चतुर्थस्तुतिनी याचरणा पूर्वे पण वर्णवादनो पाठतो यागम प्रसिद्ध बेखने पूर्वाचार्यवारे यागम ग्रंथोना अभिप्रायथी त्रण स्तुतिए देव वंदन करता एवं सिं थायबे तो इथं! पूर्वाचार्यादिक वारे देवोनो वर्णवाद नोता करता ? तथा चतुर्थस्तुति न कर्त्ता तेथी शुं सर्व नबोधि थया ? ए युक्ति कांइ जा सन थती नथी केमके पूर्वाचार्य वारे अधिकार प्राप्त तथा नावारूपे देवादिकनो वर्णवाद करता, पण चतुर्थ स्तुतिरूपे नोता करता; तेथी एकांते चतुर्थस्तुतिएज देवादिकनो वर्णवाद संभवतो नथी. तथा अरिहंतादिकनो ववाद बे, ते स्वच्प्राश्रयि बे, ने देवादिकनो वर्णवाद बे ते तेमना कृत्य श्रयि बे, तेथी ज्यांथी चतुर्थस्तु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको झारः ६७१ तिनी आचरणा आचार्योंए करी, त्यांची पूजोपचारादिकमां स्वस्त नपयोग दानार्थ गुण वर्णनात्मक स्तुति अने शांति पूजा प्रतिष्ठादि कार्यमां विघ्न विनाश नपयोग दान गुण वर्णन स्तुतिए करी देवादिकना वर्णवाद पूर्वोक्त ग्रंथोना अनिप्रायथी संनव थाय , पण पूर्वोक्त कारण विना संभव थता नथी, इहां वनी कोइ कहेशे जे समदृष्टि देवोना वर्णवादमां सुमनबोधिपणुं थाय तो पूजादि कालसमय वर्जिने देवोना वर्णवाद करवामां कांइ दोष प्राप्त थाय नहीं, ते माटे अकारणे पण कर. वामां दोष नथी, तेने कहिए के हे देवाणुप्पिया! चैत्यवं. दनादि आवश्यक कृत्यमां अरिहंतादिकनाज गुण वर्णन डे तोपण महानिसीथ सूत्रना सातमा अध्ययनमांकालवेला समय नलंधिने प्रविधिए चैत्यवंदनादि करवामां दोष प्रतिपादन करयो बे.
ते पाठ॥ सेनयवं कयरेतेआवस्सगे गोयमाणं चिश्वं दणादनसेनयवंकम्हाग्रावस्सगे असश्पमायदोसेणं का लाइक्कमिएश्वा वेलाइक्कमिएश्वा समयाइक्कामएश्वाथ पोवनतपमतेहिंवा अविहीएसमगुछिएवाणोणं जहुतया लंविहीएसम्मंअणुछिएश्वाअसंपठिएश्वा विळपहिएश्वा अकएश्वा पमाएश्वा केवश्यं पायचितमुवइसधागायमा जेके निरकुवानिकुणीवा संजयविरयपडिहयपच्चकाय
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परिछेदः १६
पावकम्मेदिरका दियावियाप्पनिईन अणुदियहंजावीवा निग्गहेणं सुविसच्चेजतिनिनरेज हुतविहीएसुतच्च मणुसरमा ये अन्नमाणसेमेगाग्गचितेतगायमपुस सुहद्य वसाएथय थुई हिंगतिकालियंचे एवंदेद्या तस्सएगा एवाराएखवणं पायच्चितंनवसेद्याबीया एबेवंतझ्याएवढा विहीएचे इयाईवंदेतानपारंचियंजनयविहीए चेज्ञ्याएवंदेमालो त्र्यन्नेसिंस इंजइ ॥
अर्थः अथ प्रश्नारंग हे जगवंत! किया ते आवश्यक ? एम गौतमस्वामी प्रश्न पूढयां थकां जगवंत कहे हे गौतम ! चैत्यवंदनादिक, त्यारे गौतम कहे हे नगवंत ! किया यावश्यकमां बहु प्रमाद दोपे करी, अथवा आवश्यक काल उलंघवे करी, वली वेला तथा समय उलंघवे करी, अने अनाउपयोग प्रमादे करी, व्यविधि करवे करी, नथी यथोक्त काल विधि करी जले प्रकारे अनुमित अथवा
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संप्रष्टितखाज्ञा रहित तथा अणकरवे, प्रमाद थये, एटले प्रमादे करे, अविधिए करे, अवसर विना करे, न करे तो तेने केटं प्रायश्चित्त कहेवुं ? जगवंत कहे, हे गौतम ! जे कोइ साधु तथा साधवी संजत एटले जतना वंत तथा विरतिवंत एटले त्यागी एतावता प्रतिहत प्र त्याख्यान पाप कर्म जे होय एटले पापनुं पच्चरकाण करी त्याग करो, एवा दिदा दिवसथी लेइ निरंतर जावजीव
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको द्वारः
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निग्रह करी नली नक्तिना समुहे करी जेवी विधि कही तेवी विधिए करीने सूत्रार्थ स्मरण करतो थको बीजे कां पण मन नहीं करतो थको एकाग्रचित्ते तेने विषे मन शुद्ध प्रध्यवसाय एटले शुन चिने स्तवस्तुति वडे करी एटले शक्रस्तव ने स्तुति लोगस्स प्रमुखे करी त्रण काल चैत्य न वांदे तो तेने एकवार चैत्य प्रणवांदवे उ. पवासनुं प्रायश्चित्त कहेतुं ॥ १ ॥ बीजीवार प्रणवांदवे बेद ॥२॥ त्रीजीवार चैत्य प्रणवांदवे नवी दिक्षा ॥ ३ ॥ ने प्रविधिए चैत्यवांदवे तो पारंचित दंग ॥४॥ कारण के विधि चैत्य वांदतो थको बीजाने श्रद्धा एटप्रतित करे, केमके कोइ नए एम जाणे के जेम तेम चैत्य वांदवा, विधि अविधिए शुं ! एवो तेनो नाव थ जाय, तो तेने खाणानंगनी श्रद्धा थाय तो मिथ्यात्वमां पडे माटे ए प्रायश्चित्त बे ॥ इहां कालातिक्रांत एटले प्रातादिकाल नल्लंघीने तथा वेलातिक्रांत एटले मर्यादा एटले चैत्यवंदनादि क्रियानी मर्यादा जे ठेकाणे कही ते ठेकाणे न करे, अन्यत्र ठेकाणे करे; अथवा समय एटले सिद्धांत अथवा याचार अथवा अंगीकार एटले सिद्धां तमां जे चैत्यवंदनादि क्रिया कारणविना चैत्यमां करवानी कही बे ते बीजे ठेकाणे करे, वा अंगिकृत याचार उलंघे एटले सिद्धांतमां जे चैत्यवंदनादि क्रियानो था
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परिछेदः १६
चार अंगीकार करो बे ते उल्लंघे, तथा प्रमादना दोषथी प्रविधि एटले विधि विपरीत करे, तो प्रायश्चित्त पांमे. इहां परिहंतादिकना गुणवर्णनमां पण कालवेला समय लंघिने दोष प्रतिपादन करयो तो देवादिकना वर्णवाद विना अवसरे करवामां दोष केम न होय ? अर्थात् होयज जेम मंत्रादि विधानमां देवाना वर्णवाद होय बे पण कालवेला समयोक्त करे तो फलदायी थाय ने विपरीत करे तो महादोष कारक थाय ते माटे देवादि - कनो वर्णवाद पण जे अवसरे करवानो होय तेज - वसरे करवो श्रेय बे. अनं अतिप्रसंगेन. वर्णवाद रूप अंत्यमंगल प्रश्नोत्तर समाप्त ॥ तथा श्लोकादि स्तुतिरूप गुणवर्णन करवे करीनेज सुल्लनबोधी कर्म उपार्जन करे तो श्री ठाणांगसूत्रना पाठमा आचार्य तथा चतुविध श्रमण संघना पण वर्णवाद बोलवा कह्या बे तेथी श्राचार्य तथा चतुर्विधसंघनी पण श्लोकनिबंधनरूपे देववंदनमां स्तुति करवी जोइए, ते प्रमाणे स्वगच्छ तथा परगमां कोइ पण करतो नथी तो ते शुं आचार्य तथा चतुर्विधसंघना गुणवर्णवना घातक तथा दुर्लनबोधि कहेवाय ? पितु नज कहेवाय. केमके गुणवर्णव ते एकांते श्लोकादिस्तुति निबंधनरूपे नथी नाषणरूपे पण बे, कारण के पूर्वाचार्यांने वारे पूजाप्रतिष्ठादि कारणवि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-दारः
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ना अरिहंतचैत्य एटले मूलनायक निश्रित तथा सर्वलोक चैत्यनिश्रित श्रुतज्ञान निश्रित अनुक्रमे त्रणत्रण थुइना जोडापण पाटण प्रमुखना नंमारोमां पूर्वाचार्योंना करेला घणा देखवामां आवे ते सर्व थुइयो ना जोडा तो ग्रंथ गौरवना जयथी इहां लखता नथी; तो पण केटला एकत्र थुइयांना जोडा श्री हरिनइसूरिजी तथा सुधर्म त पागच्चाधिराज श्री प्रद्युम्नसूरिजी प्रमुख स्वगीय परगीय प्राचार्यांना करेला नव्य जीव निरापे की जीवोने ज्ञापन करवाने लखीए बीए; त्यां प्रथम श्री
पहिल्लपुर पाटनगरे फोफलवाडा प्रमुख नांमागारे प्राचीनाचार्य कृत पडावश्यक विधिना जीर्ण पुस्तकमां जिन चैत्यवंदन विधिमा श्री हरिनइरिजीकृत संसार दावानी त्रण थुए करीनेज चैत्यवंदना लखीने, ते जो कोइने जोवी होय तो ते परत पण मारी पासे बे, ते जोइने शंका निवर्त्तन करवी तथा विरह शब्दांकित श्री महावीर स्वामी संबंधनी श्री हरिनसूरिजी कृतत्रण थुइयो लखिए बीए ॥ ॥वीरंदा मंदंजगजीवणाहं, दित्तसु चिंसुहसंपवाहं, इतिग्गिजालावलिवारीवाहं, मामिव
विचिणाहं ॥ १ ॥ संसारसारवणेवरजाणतुल्ला, डुकम्ममहोकिरसंतिमल्ला; देविंद पुपवरासयलाजि गांदा, मित्तधंतहरणे जगतिदिशांदा || २ || निग्गंधाचरण
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परिच्छेदः १६
पूर्वाचार्यनी याचरणा बेदीने पोतानी मनमानी याचरणा स्थापन करे ते जमालिनी पेरे नाशने प्राप्तमान थाय. एवं कथन श्री सूयगडांग सूत्रनी निर्युक्तिमां श्री बाहुस्वामी कांबे.
ते पाठः ॥ श्रायरियपरंपरए ञ्प्रागयंजोय बेहबुद्धिए कोवे बेयवाई जमालिनासंसनासेही ॥ १ ॥ वृत्तिः प्रा चार्याः श्रीसुधर्मस्वामिजंबूनामप्रनवार्यरक्षिताद्याः तेषांपा रंपर्यप्रणालिकातेन त्र्यागतंयद्वाख्यानसूत्रानिप्रायः तद्यथा व्यवहारनयाभिप्रायेाक्रियमाणमपिकृतंनवति यस्स्रुकुतकध्यातमानसो मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया ठेक बुध्यानिपुण बुध्या कुशाग्रीयशेमुखीशेमुकोह मितिकृत्वाकोपयति पयति अन्यथा तमर्थ सर्वप्रणीतमपिव्याचष्टे कृतं कृतमित्ये बुयात् वक्तिचनहिमृत्पिंम क्रियाकाले एवघटोनिष्पद्यते कर्मगुणव्यपदेशना मनुपलब्धेः सएवच्चेकवादीनिपुणोहमित्येवंवादी पंमितानिमानीजमालिनावाजमालिनिह्नव वत् सर्वज्ञमतविकोप कोविनंक्ष्यतित्र्प्ररघदघटी न्यायेनसंसारचक्रवाले बंज्रमिष्यतीति नत्वासौजानातिवराकोयथायं लोकोघटार्थः क्रियामृश्वननाद्याघटमेवोपचरतितासांचकि याणांक्रियाकालनिष्टाकाल योरेक कालत्वात्क्रियमाणमेवकृतंनवतिदृश्यतेचायंव्यवहारोला के तद्यथा ॥ यथैवदेव दत्तेनिर्गते कन्यकुब्जं देवदत्तोगतइतिव्यपदेशः तथादारुणि
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६०ए विद्यमानेप्रस्थकोयमितिव्यपदेशः इत्यादि ॥ ___ ए पाठमां आचार्य शब्दे श्री सुधर्मास्वामी तथा जंबुस्वामी प्रनवसृरि प्रमुख कह्या तेमनी प्रनालिका एटले परंपराए करीने आवेला सूत्र व्याख्यानोपनकिताचरणा तेने नछेदन करे ते जमालिनी पेठे सम्यक्त्वनो विनाश पामे एम कडं. तथापि अात्मारामजी आनंदविजयजी चतुर्थस्तुति निर्णय पृष्ट ॥ १७४ तथा १७५ मां श्री सूयगडांगनियुक्तिनी गाथा लखीने जे अर्थ लखेडे ते वृत्तिकारना अनिप्राय मुजब अर्थ नथी तेथी पोताना करेला अर्थथी पोतेज जमालिनी पेठे नाशने प्राप्तमान थायडे, केमके वृत्तिकारकत्.अर्थना अनिप्रायथी तो गणधर पूर्वधरादिक आचार्योनी परंपराए आवेली आचरणा अर्थात् श्री नबाहुस्वामीजी प्रमुख पूर्वधर पूर्वाचार्योनी करेलीत्रण थुश्नीयाचरणा बेदीने एकांते चोथी थुइ स्थापन करे ते जमालिनी पेठे सम्यक्त्वनो नाश करी अनंत संसार वधारे ए अनिप्राय सूचन थायडे ॥ तथा वनी चतुर्थस्तुति निर्णय पृष्ट १४ए तथा १७५ मां आत्मारामजी आनंदविजयजी लखेडे के श्री अनयदेवसूरिजीने श्री स्थानांगसूत्रकी वृत्ति में श्रुतज्ञानकी प्राप्तिके सात अंग कहेहै ॥१॥ सूत्र ॥२॥ नियुक्ति ॥३॥ नाष्य ॥४॥ चूर्णि ॥५॥ वृत्ति
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६ए
परिछेदः १६ ॥६॥ परंपरायः॥ ॥ अननव ॥इत्यादि लेख श्री स्थानांगसूत्र वृत्तिमां तो प्राये जणातो नथी पण श्री यानंदघनजीकृत चौवीसीमां श्री नमिनाथजीनी स्तवनामां समयपुरुषना अंग कह्यां तेमांअर्थकारे सिद्धांत पुरुषना ब अंग ग्रहण करयां ले.
ते पाठ ॥ चूरानाष्यसूत्रनियुक्ति वृत्तिपरंपरधनुन वरे समयपुरुषनांअंगकह्यांए जे देतेडरनवरे ॥षट०॥॥ अर्थ ॥ अहोमारीशुक्ष्क्षा परमेश्वरनुं नत्तमांगरूप जैन-संबंधित समयपुरुष तेनांग अंग ॥१॥ पूर्वधरकत बुटकपदनी व्याख्या ते चूर्णि ॥२॥ नाष्यते सूत्रोक्तार्थ ॥३॥ सूत्रते गणधरादिकत सूत्रवचनमात्र ॥॥ पूर्वधारीकृत नियुक्तिवचन.॥५॥वृति ते टीका निरंतरव्याख्या ॥६॥परंपरधनुनवते गुरुसंप्रदायथी अननव के यथार्थ स्मृतिथी निन्न तात्कालिक ज्ञाने ए रीते समय के सिझांतरूप पुरुषत्व धर्मवंतना ए पूर्वोक्त चूर्णनाष्यादि
अंग तेने जे प्राणी परनवनी बीकने अवगणी नि. नर्य थको उन्जेदीने ममत्वरूपरसे हीनाधिक नाषे ते प्राणी उरबुही अथवा रनव के पुष्टनवगामी जाणवो ॥॥ ए पाठमा पूर्वधरादिक गुरु संप्रदायथी प्रावेली यथार्थ स्मतिने परंपरा अनलव पंचांगीमां कह्यो, ते परंपरा अनुनवे आवेलीजे परंपरा ते श्रुतज्ञानप्राप्तिनु
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६१ अंग पण गलांतर मतकल्पित परंपरा ते श्रुतझानतुं अंग नथी बने जो गलांतर मतकल्पित परंपराने थास्मारामजी आनंदविजयजी कदापि श्रुतझानतुं अंग मानता होय तो ढंढकमती पण पोताना पुर्वजोनी क. ल्पेनी परंपराने पूर्वाचार्योनी परंपरा माने ने तेनो एन ए त्याग करो पितांबर मत धारण कस्यो ते एमना लखवा प्रमाणे तो श्रुतझान प्राप्तिनं अंग त्यागन करो विपरीतांग धारण करयुं एम सिह थयु; तथा श्री तपगह खरतर गबादिकना पूर्वाचार्योनी परंपरामां श्रुतज्ञान प्राप्तिनुं अंग मालम न पड्युं तेथी स्वेतांबर प्रमुख जैनालिंगनी आचरणा मूकीने पितांबर प्रमुख कलिगर्नु आचरण करयुं ते शुं श्रुझानना अंगर्नु बाराधन करघु कहेवाय ? अपितु नज कहेवाय; केमके पूर्व पुरुषोए तो पूर्वधरादि कत पंचांगीमां कथन करेला परंपरानुनव प्रमुख सिद्धांत पुरुषना अंगने दे तेने उरनव्य अर्थात् अनंत संसारी कह्याले; माटे यात्मारामजी यानं दविजयजी पोतानो यात्मोझार करवानी जिज्ञासा करवावाला होय तो पूर्वधर पूर्वाचार्योनी परंपराए श्रावेली त्रण थुइ नबापन रूप कदाग्रह तथा पूजाप्रतिष्टादि कारणविना सामायिक प्रतिक्रमणादिकमां चोथीथुइ स्थापनरूप अाग्रह जोडीने शुरूस्याहाद जैनशैनी अं.
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परिच्छेदः१६ गीकार करी पोताना वा पराया दोपने दोपभने गणोने गुण जाणीने गुणोनुं ग्रहण अने दोषनुं त्यागन करी सजनता नावथी यथार्थ पूर्वधर पूर्वाचार्योनी परंपरा अंगीकार करी पूर्वोक्त सर्व ओरखोने वांचीने शुभ प्ररूपक थइ विचरशे तो एमनुं कल्याण तुरत थइ जशे किमधिक लेखेनबुझिमर्येषु ॥
इतिश्री चतुर्थस्तुति निर्णय शंको हारे अपरनानि चतर्थस्तुति कुयुक्ति निर्णयदनकुठारे अरिहंतादिगुण वर्णन तथा श्रुतांगनिदर्शनो नाम पोडशःपरिजेदः॥१६॥
.॥ अथ ग्रंथसमाप्ति विज्ञापना॥
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या ग्रंथनी नावनारूप तत्वव्यापारवेली सुमतारूप फुझडे जेना हृदयमां प्रफुल्लित थइ हशे, ते प्राणी पूर्वधरादिकना उपदेशरूप अमृत फलने प्रास्वादन करी कुमति कदाग्रहरूप अंधपरंपर आचरणानुं निराकरण करशे, अने जेने कदाग्रह थकी घणो गर्व वध्यो, ने स्वकल्पित झानने अंशे करी नश्कजीवोने जेणे आंधला कस्या एवा जडप्राणी आ ग्रंथने देखी पमिता. इनी खरजेकरी विटंबना पामशे, केमके कदाग्रही माण सनुं चित्त पन्चर जेबुंदे, जेम पचरमां पाणी दे नही,
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको क्षारः ए३ तेम जिनवाणीरूप रस ते कदाग्रही माणसमा प्रवेश करे नही तेथी तेना चित्तरूप वृदमां शुभ बोधरूप पू. वधरादि आचरणा ग्रहण करवानो अंकुर प्रगटे नहीं, तो तेमां सिहांतबोध ग्रंथनो शो वांक? तथा जे पंचमहा व्रत पाल्यां, उग्रतप कीधां, नद्यमे करी बेतालीस दोष रहित आहार सीधो, तेम बतां पण निन्हवादिक मुक्ति रूप फलने न पाम्या ते अपराध सर्व कदाग्रहनोज बे, तेथी असत्रूप कदाग्रहने वेगलो करीने पूर्वघर पूर्वाचार्योना उक्तग्रंथोना सारने स्वहृदयमां अंकित करीने तेमज आयंतपर्यंत आ ग्रंथने वाचन साथे एकाग्रचित्ते सदमा धारण करीने जे कोई शुभ मार्ग गवेषक नव्यप्राणी निष्पक्षपाति सम्यकदृष्टिथी ब्रांति रहित पणे विचार करशे तो पूजाप्रतिष्टादि कारणे आचरण करेलो अर्वाचीन चोथी थुझ्नो मत तथा पूर्वधर पूर्वाचार्योनो प्राचरण करेलो त्रण थुश्नो मत सत्य अने चतुर्थस्तुति निर्णयोक्त जिन बाझाथी विपरीत मत असत्य ने एम निर्णय थशे, माटे अहो नव्यजीवो संसारना दुःखना दयना नपायरूप जे रूढुं तत्व, जेनो कोई वार नाशज थवानो नथी, अने परमानंदनो ज्यां ऐक्यनावडे, एवा मोपदने साधन करवानी इहा होय तो अशुःक्ष देवगुरु धर्मनु सेवन त्यागन करीने शुक्ष्दे
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परिजेदः १६ वगुरु धर्मने लखीने अंगीकार करवानो नद्यम करवो एज शुझमार्ग गवेषक प्राणीनतेमज सम्यक्त्वानिलाषी प्राणीयोनुं मुख्य लक्षण बे, पण चित्तमां दंन राखी; पोतानो खोटो पद ते खरो जाणी, असत्यासत्यनो वि चार न करवो, अथवा तो विचार करी सत्यनी मलखाण थवाथी पोतानो ग्रहण करेलो पद असत्य जाण्या बतां तेने बोडवो नही,अने सत्यपदने ग्रहण करवो नही, ए लक्षण समकित प्राप्ति करवानी नत्कंठावाला जीवो नुं नथी: माटे तेवी रीते न करतां दरेक नव्यप्राणीयोए सत्य मार्ग धारण करवा प्रापेदित थर्बु ॥ आग्रंथ अमे फकत वादविवाद अने विरोध घटाडवाने अर्थे तथाशुभ बुध्थिी अपदपाती सम्यक्दृष्टी पंमित पुरुषोने सत्या. सत्य निर्णय माटे करयो बे, पण हठ उराग्रह इर्ष्या द्वेष बद्धि वधारवा करचो नथी, तेमज अमारे कांपकपात थी कोइ नपर द्वेषबुद्धि पण नथी माटे वांचनार दरेक जव्य प्राणीए प्रा ग्रंथ निरपेक्षपणे लक्षमा ले सउपयोग करवोज श्रेय ॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः - ॥ अथ श्री गुरु प्रशस्तिः ॥
श्रेयःस्तोममहानिधिनतसुराधीशाधिमालिश्रित, श्रेणीबक्ष्मयूखमालिमणिनिर्दीराजितंराजितम् ; माद्यहादिकरींकर्कशरवव्राधमानोद्यम, श्रीमत्पंचमुखीयवीर्यविनवैःश्रीवईमानंनुमः॥१॥ तस्य प्रौढपराक्रमस्य च विनोरेकादशैवानवन् स्वं चाप्रसहं सुधर्मणि गणं दत्त्वैव मोदं गताः; सर्वे ते निरपत्यका जुवि यतस्तत्संततिः स्थास्यती त्येवं वीरवचःप्रतापतरणिस्तीर्थं प्रवर्तिष्यति ॥२॥ निःसंगनिःस्पृहपरप्रनुतावितानैः, . प्रोद्भूतमानगुणिनं मुनितागुणोधैः; यावत्सुधर्मगणनृजानताष्टपढें, निग्रंथबीरुदमुशंति गणस्य सुझाः ॥३॥ सुस्थितेन सहितेन सुप्रतिबुझकेन विशदेन सूरिणा; कोटिमंत्रजपनादुपार्जितं, तस्य नाम तु सुधर्मकोटिकम् पट्टकेऽत्र नवमे तथाविधे, तञ्चतुर्दशपरंपरावधि; सर्वतो वरसुधर्मकोटिकं,
॥३॥
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॥७॥
६ए६
परिजेदः १६ गहनामविदितं तदा बनौ जातःपंचदशे तिथाविव ततःपट्टे प्रनानासुर, प्रालेयांशुनिनो वचाशुनिकरौर्दममलं द्योतयन्; नाना चंति प्रतापतपनःसूरिःसदाश्चर्यकत्, तन्नाम्नापि सुधर्मचंतियुत्सुझाः समाचदते ॥६॥ चूडामणेर्जगति सर्वजितेंश्येिषु, पट्टे तु षोडश इहार्यसमंतजज्ञत्; सूरेश्चतुर्थमिति नाम वने निवासात् , प्रज्ञाःसुधर्मवनवासि तदामनांत सर्वदेवनतपादपंकजः, सर्वदेवनरनाथनाथितः; सर्वदेववपुषि निस्पृहस्ततः, सर्वदेव इति सूरिराडनूत् पट्टकेऽर्कगुणितत्रिके ३६ ततो, ऽकारि सूरिपदवी महावटे; तेनगनुगतपंचमाह्वयं, श्रीसुधर्मवटगड इत्यनूत्
॥ चतुश्चत्वारिंशे विजयिनि महापट्टनिवहे, जगन्शयोऽनृत्प्रबलवरविद्यो गणधरः; सदा चाम्लाऽम्लानो प्युदयपुरराजस्य सदासि, विजिग्ये वादीन्शननुचतुरशीत्यूहकलया ॥१०॥
॥७॥
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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंको धारः ად.
तपस्तेजोवन्हौ शलनसमनावं गतवता, प्रतिस्पर्द्धावार्थों प्रमुदितहृदा तत्कृितिनृता; तपोगोऽतु विदितमिति तन्नाम विदधे, सुधर्मादिप्रोद्यगुणामिह तु षष्ठं तदजवत् ॥ ११॥ विजयदेवमुनीश्वचोऽमृतं,
सदसि चारु निपीय ज्यहांगिरः; नृपवरः प्रददौ किल मंरुपाचलगतो मुदितोऽस्य महानिधाम् इति षष्टितमे तु पट्टके, ससुधर्मादिमहातपोनिधाम्; गण एष दधन्विपक्षिणो, विगणय्य प्रथितोऽथ मेदिनीम् पर्यायांतरनाग्गो, द्विषष्टितमपट्टके; कलानृइत्लमनव, तस्मात्क्षीराब्धिसंनिनात् ॥१४॥ सकलगुनसमीक्षणैकदछः,
स विजयरत्न इति प्रसिदसूरिः; निजपरनिगमागमझरत्नं,
तदधिजं प्रवदंति यं महांतः कुमाप्रकर्षात्प्रथितं कुमायां,
क्षमाधरेषु हितदशि कम्; क्षमानिधं रत्नमनूततोऽक्षा,
॥१२॥
॥१३॥
॥१५॥
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॥१
॥
परिजेदः १६ ऽक्षमादिदोषक्ष्यकारि साक्षात् ॥१६॥ स्वच्छगन्छेह्यतु नगवतिविजयदेमसूरिःस साक्षा, चित्रांवल्लींचचिंतामणिममरगवीस्पयन्स्वैर्गुणौधैः तत्पट्टेनल्पतेजानुविदिविविदितोदेववंद्यो दयालु, र्नाम्नादेवेंसूरिःशुचितरसतताहारशुझिप्रसिदिः।१। कल्याणानिध उदितस्तदीयपट्टे, कल्याणाचल श्व सत्सहस्त्ररश्मिः कल्याणान्यखिलजगजनेदधन्यो, ऽकल्याणांधमनिहरंस्तमः स सूरिः ततःप्रमोदो न हि कस्य चित्ते, प्रमोदसूरिप्रनूतोदयेऽस्मिन् हृदिप्रमोदोदयक़ारिशीलो, न्यायप्रमोदार्थविचारसारः जातःक्रियाशुःक्युपकारकश्री, राजेंऽसूरिदिजराजराजः; तदीयपढेऽखिलशर्महहे, विराजते संप्रति तस्य राज्यम् अथ च तत्र सुधर्ममहातपा, बिरुदि देवसमायसूरिराड्ः विजयपूर्वकदर्शितविक्रमः, पर श्वार्यमरोचिरजू वि
॥२१॥
॥१
॥
॥३०॥
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________________
चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझारः ६एए तविष्योनून्यायचक्रवर्तिबिरुदधारकः; श्रीमहोपाध्यायकृष्णविजयोगणनायकः ॥२॥ धनविजयगणिःपरंपरायां, समनवदस्यकुवादिकालरात्रिः प्रथमकथितराजराजसूरे, र्दधउपसंपदमेष यानतोस्मि
॥२३॥ गद्यम्॥ श्रीमज्ञजेन्सूरेर्धवलितयशसो महामुनी श्वरस्य राझान्तनिष्णातबुझिहताझानसन्ततेरंन्तेवासिना विनयादिशालिना गुरुमतान्तःपातिना धनविजयेन ना नायगणिना मया कुवादिवास्तम्ननमन्त्राराधनेन श्री संघानुमोदनपुरस्सरं चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयजेदनकुग रनामकस्सन्दर्नो निर्मायि ॥ यथाउनगनारीणामकारो न शोनते तथोन्मादप्रवृत्तानां स्यांदादेवागशोननेतिसर्व थोन्मादस्त्याज्य एव नवतीति विमर्शनीयं सुधीनिः॥
WHATSWAAWAATASWASTI REATRITI
इतिश्रीन्यायचक्रवर्ति परंपरानुगसं - - विझपदीय पं० श्रीधनविजयगणिवि - रचितः चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोझार - अपरनामचतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णय- बेदनकुठारग्रंथःसमाप्तोऽयम् ॥ TELMMARRINARY
2008
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216 PIRAHIMiniमारगारगारमIRSTIN
VIP:RANUL
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॥ श्रीथह ॥ अथ श्री चतुर्थस्तुतिकुयुक्तिनिर्णयछेदनकुगरा परपर्याय चतुर्थस्तुति निर्णय शंकोधारस्य
शुघाऽशुधपत्रं.
शुरू.
पृष्टाङ्क. नली अशुझ.
द्युमणिम् स्याहादनिधि थाचार्योऐं
योमणिम् स्याहादस्यनिधि थाचार्योंए
थुर
थुई
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Eenama
निःकेवल यादिमां पूर्वाचार्योएं यथाशक्तिएं
को
सादियोए च्यारथोयो
पंचांगी ११ करीएंटीएं
| थोयूं ३ १६ उत्तरः
निष्केवल यादीमा पूर्वाचार्योंए यथाशक्तीए कोई सादियोंए च्यारथुश्यो पञ्चाङ्गी करीए बीए थुश्यो उत्तरम्
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________________
rr mr or mr m wwwwwww.31517135.
२० प्रतिक्रमणेकि ।प्रतिक्रमणुकी
२० आदिकी आदीकी ३ २० थुइ | २० पथ
पन्थ थुश्की थुईकी करतेहे
करतेहैं थुश्नी थुईनी करीएंडीएं करीए जीए देखीए देखिए | करीएंगीएं करीए बीए नरेलुंडे
नरेलू
कोई बुध्थिी बुद्धीथी एटर्बुज एटलूंज नहीं मानतेहें नहीं मानतेहैं | था
थई ग्रंथ
ग्रन्थ आदिमा यादीमा विवेक सागराज विवेक सागरजी सागरजि सागरजी
BPMMAD 220
को
सुधी
सूधी
बादमें
१७ धादिमें ५। १७ | थु
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________________
Ա
१९ | श्रावको के १७ सुनिहे ६ १ प्रति १ | कोइ १ जानते हैं
६
६
६
६
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६
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६
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६ २० सिद्धांत २१ पंचांगी ६ कहीएं ११ सिद्धांतोक्तं १३ श्री सिद्धांत १४ तडकं
9 १४ इत्यर्थः
6
२ नही बांधतेहे ५ रागि
6
| चारथुइ १२ थुश्तो
१३
१५ थुइ
१५ सिद्धांत पंचांगी १६ प्राद्यंतमां १७ सिद्धांत पंचांगी
२० किंचित्
२० लखीएंटीएं
श्रावकों के सुनी है यही कोई जानतें हैं
नहीं बांधते हैं
रागी
चारथुई
थुईतो
न
थुई
सिद्धान्त पञ्चाङ्गी श्राद्यन्तमां
सिद्धान्त पञ्चाङ्गी किञ्चित्
लखीएबीए
सिद्धान्त
पञ्चाङ्गी कहीए सिद्धान्तोक्त
श्रीसिद्धान्त
तक्तम् इत्यर्थः
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________________
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१४
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कपर कज़
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अप्यंगीतः थप्यङ्गीकृत १६ नांगीकरोति नाङ्गी करोति
निन्हवपंक्ती निन्हवपङो गएपते गएयते अरिहंत रिहन्त सिझांतोक्त सिद्धान्तोक्त अंगीकार अङ्गीकार तीर्थनाय तीर्थनाथ
नपर | एवं ११ १३ कीहएं
कहिए चार्यसुधी चार्यसूची
पर्यंतसुधी पर्यन्तसुधी १२ पूवोक्त पूर्वोक्त
सुत्रप्रत्यनीको सूत्रप्रत्यनीको
सूप्रत्यनीक सूत्रप्रत्यनीक १४ अंगपविचेव अङपवितेचेव तदभ्यंतर
तदभ्यन्तर करीएं कहीए कहीएं
कहीए १५ ५ कहीएं कहीए
कालिकसूत्रकाएं कालिकसूत्र कहिए १५ ए कहिएं
22
| कहीए
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________________
कहीए
कहीए
कहीए
१५ १० सम्यक्श्रुताधिकारें सम्यक्श्रुताधिकारे १५ १३ कहीएं कहीए
१७ कहीएं २० कहीएं कहीए १३ कहीएं कहीए १४ को सूत्र कोईसूत्र
कहीएं तत्सूत्रं तत्सूत्रम् | उत्तर
उत्तरम् कहीएं कहीएं कहीए कहीएं कहीए कहीएं कहीए कहीएं कहीए
मा नियुक्तिथी नियुक्तीथी
कहीएं ! कहीए १५ कहीएं कहीए
श्रीनगवत्यंगे श्रीनगवत्यड़े १ निःशंक २ निःशंक १० ते पाठः
ते पाठ १५ चतुरंतं चतुरन्तं
१३ कह
निश्शङ्क निश्शङ्क
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________________
२१
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१५ | संसारकंतारं
२० लिंग प्रार्थाज्ञा
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२०
३ | उपर
३ प्रतीति रचनुं १६ प्राणीयो २४ १७ प्राणीयोने
गाधरादित् गणधरादिकर्तृत्वथी
पणाथी
१ कोइ प्राणी १८ मिथ्यादृष्टिनां २० साचोळे
२५ थइ
२५
१७ १६ १६ कहीएं १८ कहीएं १७ १ कहीएं
२६
१८
१ हुंकिना १८ ७ गुरु १ १५ कोइ
१ २०
उपर
संसारकन्तारं
लिङ्ग अर्थाज्ञा करशे
कोइ पूर्वधारी
कोईप्राणी मिथ्यादृष्टीना सांचोबे
ऊपर
प्रतीती
रचेनुं प्राणियो
प्राणियोने
थई
कोई पूर्वधारी
कहीए
कहीए
कहीए
हुमीना
गुरु
कोई
ऊपर
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________________
२१ थइसके थ ईसके
आपीएंगीएं यापीएडीए नपाध्यायजीएं नपाध्यायजीए मानीएंनाएं मानिएवीए
| धर्मसंहयाणि धर्मसंग्रहणि ३३ २० कले काले
| ते पाठः विपुलजलपटल विपुलअदपटल पारगगदितागमां पारगतगदितागमा
म्बर ए स्तथा
तया
ते पाठ
बरे
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In
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३ मानतेहे ४ नहीमानतेहे ७ कलंकदेश
ते कांश १५ नपर
नपर हितकारि
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मानतेहैं नहीं मानते हैं कलङ्कदे ते कांई कपर कपर हितकारी
गती | घणु प्राणियोने संसार-दीनु
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| गति
घणं
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५ प्राणीयोने ३७ | १२ | संसारवृधिनु
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________________
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३७ २० अनुवृत्तिएं अनुत्तिए
प्राणीयोने प्राणियोने | संसारदिनु संसारवृद्धीनु मानीएंटीएं मानिएजीए कोई कोई
पिला कपमा पीला कपडा १७ | करीएंटीएं करीएबीए | लिखिएंडीएं लिखीएबीए जि
जेठ १ए चउहसपविणो चनदसपुविणो ४३ नारदायगोत्ते नारदायगोत्ते ४३. १० अवुताई घगई पयंत
पर्यन्त ४५ ३ पूर्व
पूर्व रत्नकरमंक रत्नकरंगक कौमिन्य कौण्डिन्य संतानीय संतान
अतात्तरी योत्तरी १६ अनिनिविष्टबु अनिनिविष्टबुध्वि
क्ष्विंतः
सथाच तथाच ५१ १६ | कौशव्यां कौशाम्ब्यां ५२ ५ रप्पाचरित ।रप्याचरित
५ - Aa Gam Cccumuwa eeeeee
१३
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________________
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मेनीएं मेनीए १० कहीएं
कहीए ४ कहीएं कहीए कहीएं कहीएं वृद्धिथाय वृही थाय | सामाचारी समाचारी १७ मृगावतिराणीएं मृगावतीराणीए
| परंपराएं परम्पराए | शिथिलाचार्योएं शिथिलाचार्योए नपर
ऊपर घरेणा
गेहणा नव्यप्राणीयोने नव्यप्राणियोने १४ | यन्युनान्यूनकर यन्यूनान्यूनकरण
निवारीत संघयणादिना मान्यानी कहीएं कहीएं
नथिज ६१ २० न ६३ १ स्तदतो
। १३ प्रमाणापत्तेः
निवारित संघयणादीना मान्यानि कहीए कहीए नथीज
सक्षितो प्रामाण्यापत्तेः
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________________
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६४
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६७
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१२ चात्रिमेव
१३ ज्ञातवाद्भणित १३ पूर्वाचार्यरिति
६७
६७ २ मासिक्या
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१३ | धाराण
धारणा
१ चतुर्मासकपरिग्रह चातुर्मासिकपरिग्रह
२ प्राश्चित्त
६८ १४ लख
३ प्रोक्तनीत्यो
५ जिन
६८
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७१
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२१ मोत्यादनादि २० खुडविधिय १६ |नितिके ७ १३ कोइ ' ८ जोइ
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२० बुद्धि
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१४ वस्त्रणां ८ १ १५ | कृत्वेत्पाह
२० कांइ
७ कांइ ६ कोइ
६ तुमातो
प्रायश्चित्त
प्रोक्तनीत्या
जित
चारित्रमेव
ज्ञातत्वाद्भणित पूर्वाचार्यैरिति षाएमासिक्या
लेख मोत्पादनादि
चिडिय
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संविग्न कांई
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कृत्वेत्याह
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१५ | जाणीएं
१२ सठ
५ नवप्रकारयाश्रि
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६ पंर्चागिना
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७ याश्रि GG ८ याश्रि १३ कहुनुं १६ कहीसूत्रानुसार १७ पूर्वधरोएं १८ विधिएं
१
१
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१ नपरसरांश
२ श्राज्ञाएं
७ चूर्णीवृत्तिषु
१६ श्रीनिशीथच
१४
परंपराएं
प्रज्ञाएं ४ रूपिदोष
७ कोइ दीठो
१७
१३ | गुरू
५ परंपराएं
११
चरणाएं
८ सुत्रविरहे
५ तदप्पास्ता
जाणीए ऊपरसारांश
याज्ञाए
चूर्णिवृत्तिषु श्रीनिशीथचूर्णो
परम्पराए
प्राज्ञाए
रूपदोप
कोई दीठो
शठ
नवप्रकारच्या श्री
पंचाङ्गीना आश्री
याश्री
कहुँबुं
कहीते सूत्रानुसार पूर्वधरोए
विधीए
गुरु परम्पराए
याचरणाए
सूत्रविरहे
तदप्यास्ता
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इदानीं
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ए ६ परस्प
परस्य नगवत्त्युक्तं जगवत्युक्तम्
मनतिशयी मनतिशयि १० जानाने विजानदि
इदानी प्रवृत्ति
प्रवृत्तिम् अनुष्ठांन
अनुष्ठान १०० अनुष्ठांन
धनुष्ठान १०० १४ अनुष्ठांन
अनुष्टान आशातनाएं
आशातनाएँ याशातनाएं याशातनाएँ
थाशातनाएं आशातनाएँ १०१ प्राशातनाएं अाशातनाएँ १०२ को १०३
रूढी १०३ माहासाहसिक
| महासाहसिक सुत्रमा
| सूत्रमा १०५
अाचरणाएं आचरणाएँ १०५ ११ चैत्यवंदनामां चैत्यवंदनमा १०७ ६ जगोखरकजुतानां जगन्धिखरभूतानाम् १०७ ។ ច ច | ए गबवासीयो गडवासियो ११० ए स्तुतीयेकरी स्तुतियेकरी
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थुएँ
११० १३ थुएं
१३ थूएं ११४ १७ | निशीर्थपूर्णि ११५
| उपर ११५ ११ कोई ठेकाणे ११५ थूइ मंगल ११६ थूश्यों ११॥ कहीएं ११ए च्यार थु ११९ लौकीक ११ यादिमा ११९ च्यार थुएं
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| निशीथचूर्णि रूपर कोई काणे थुई मङ्गल थुश्यों कहीए चार थुश्यों लौकिक थादीमा चारयुएँ
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११० च्यारयु चारथइयों १२० चोधी
चोथीथुई ११ उपर तरण्या ऊपर लख्या ११ वार्ति वर्ति
वर्ती चारयु | चार थुझ्यो चोथीथु
चोथी थुई ७ पमिकमणानि | पडिक्कमणानी १२४
| अनुशास्ति अनुशास्ति १५४ १५ प्रतिक्रमणनि प्रतिक्रमणनी
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वर्ती
११४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१३ १२४ | १७ | देबसरि १२५ २ शिरोमणी १२५ गुरुनाई १२५ सूधि
देवसूरि
योगिने १२५
देवसरी शिरोमणि गुरुलाई सूधी देवसूरी योगीने सर्वे
१२५ १२५
सार्व
१२६
१० थु
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१२६ १२६ १२६ १२७
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१२७
थई नहीं नही पमिकमणानि । पडिक्कमणानी प्रवर्ति प्रवर्ति प्रवर्ती
१२७
प्रवर्ती
१२७
प्रवर्ती
१२७ थु १२७ प्रवर्ति १२७
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| चार थुएँ थादीमां
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१२॥ १२ए
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१२ चार थुएं १२ए धादिमां १७ थुइ
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च्यार थुएं १३० च्यार थुइ
शेपश्व १३५ च्यार थु
श्रुतदेविने नाष्यनि सादिथी सादिए च्यारने वृत्तकदेशे थुएं यादिमे थुइस तिनकिथु कहिहै
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चार थुएँ चार थुई क्षुशेपश्व चार थुई श्रुतदेवीने नाष्यनी सादीथी. सादीए चारने वृत्यैकदेशे थुए यादीमे थुईसे तिनकीथुई कहीहै थईने थई नथी
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| समाचारि
विधांन १ वंटन
पारता थायतें थु
१३९ १४०
सूरिनी समाचारी विधान वन्दन पारतां याद्यन्ते थुई थ विधिप्रपा
१४१ १४१ १४१ १४२
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| प्रमुस्व | सादिने थु द्वादशांगीनि व्यार थु थुइज निकटवर्ति
यात्रि १ थुएं
सादीने थुई | द्वादशाङ्गीनी
चार थुझे थुईज निकटवर्ती पाश्री
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१४५ १४५ १४५ १४६
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१ निनव
१४८ ४ लौकीक १४८ ५ श्रादिमां
१३
१४५ ६ जन २१ ग्रंथोमा
१४
१५० ७ गुरुजाइ १५० ९ चिंतामणि १५१ ३ थुनी
१५१ ६ | थुश् १५१ २ परंपराएं १५१ ३ श्रुतदेवि १५२ ११ थुइएं
१५२ १२ उपर
१५२ १६ थुइ १५३ २ याचरणाएं
१५३ छ थुइ
१५३
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७ स्वामीएं
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१५३ १० थुइ १५३ | १६ ऊरफे १५३ १५ दिधी १५४ १२ जोइएं
ऊपर
निन्हव
लौकिक
यादिमां
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ग्रंथोमां
गुरुनाई चिन्तामणि
थुईनी
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परम्पराएँ
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थुई
स्वामीए
साक्षीथी
थुई
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________________
सर्वे
दीधी
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१५४ १७ | पश्चात्त्यरात्रौ ।
| पाश्चात्यरात्रौ १५५ चणैः
चूयाः १५५ रात्रिना रात्रीना १५५ १०. | पालिरात्रिने पाडलीरात्रीने १५५
नही १५५ १५ सर्व १५६ दिधी १५७ । १० थु १५७ नपर
कपर १५७ २० निर्णययोक्त निर्णयोक्त १५७ त्रणथुश्थी त्रणथईथी . थुएं उत्तरः
नुत्तर श्रुतस्तवः श्रुतस्तव १६० १७ | उत्तरः
नत्तर १० स्वामिजी स्वामीजी १६१ | २० सूत्रस्तव सूत्रतथास्तव १६२ २ निशथिमा निशीथमा १६६ १४ सिध्वस्तव सिक्ष्स्तव १६ए | प्रमाण प्रमाण १६ए नपर १६ए ६ उपर
ऊपर १७०५ | प्राप्ताः प्राप्तः
१५७
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२ | महिमिदयं
१४ | थुइ ५ केवल झोनोत्प त्तिनि
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२ कहीये
१७७ २ कोइ
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१८५ ५ च्यारथुइ १८५ १० प्राचार्योएं १८६ ५ प्राणीयो १८६ १७ पूर्वाचार्याएं
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११ वृहधृतिमां ते पाठः
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पाठः
१८८ ११ पाठः
१९० १४ थुइ
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श्रावश्यकें
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महिठियं थुई
केवलज्ञानोत्पतिरि तिनिः
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कल्पना
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चारथुई प्राचार्योएँ
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वृहद्वृत्तिमां
ते पाठ
पाठ
पाठ
थुई
ते पाठ
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पाठः
२०२ २०२
१५४ | १६ | प्राणिने प्राणीने १४ | कमलानो कामलानो १९५ कोनी
कोईनी १९५ | केवि
केवी १९५ केवि रीते
केवी रीते ते पाठः ते पाठ १एए
तिनीवा तित्रिवा २००
पाठ २०० तावतत्र
तावत्तत्र
परिहीयमान शाति
शान्ति २०४ हयिमान
हीयमान २०४ ११
याचर्यनी प्राचार्यनी २०७ १६
| प्राणि १०१० स्तुतिना
स्तुतीनाम् २१०
| स्तुतिना स्तुतीनाम् २१० कोई
कोई व्याख्या
व्याख्या १ए
मातपित्रादयः मातापित्रादयः १ए
निष्यादिता | निष्पादिता विधान
विधानं २१ए
सामान्येन कोक
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प्राणी
२१९
१५ सामान्यने
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निरस्य यावत्
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२२० १५ | कोश | कोई २२० १एनपर
ऊपर २१ ३ पाटीयां पाटियां २१
ऊपर २२२ निरस्प
यावत २३३ पव
पक को
कोई २३५ ११ एथ्वि पृथ्वी २३६ तनसग्ग तम्रोसग्ग
पुकरवर्दै पुस्करवर्दि २३ए तस्थ
तस्य शास्त्र
शस्त्र २४१ यपद्यमान पपद्यमान २४३ जाइए जोए
४५ २४५ ५ प्रतिवादीयोना प्रतिवादियोना २४ए १ | एक कहेवाथी ए कहेवाथी २५१ वाक्यनी वाक्यना २५१ अत्मारामेजा आत्मारामजी २५३ ११
मस्तक २५३ | १२ मुस्तके
मस्तके २५४ १७ | गाथाओ गाथाए
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को
कोई
मुस्तक
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________________
२५४ | १५ चैत्यवंदना २५५ २ कद २५६
चैत्यवंदना कही कम स्तथा
aam Ac७ - am
Frur rur rur rur or or or rrrrrrrrr or or or or r r
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राजने नपर शलनो वंनानो
कोई २६६ ६ पूर्वपक्षिना
निःकेवल
मुस्तक २६ए ३ कहेतेहे २६ए गर्दननी २६५ १७ | कोश
जंव
प्रतीयत्ते २७३ ए चत्य
शादीयोथी १२ चार थु २७२ चोथिथुइ २७२ १५ कोई
लोगया राजाने ऊपर शब्द वंदनानो कोई पूर्वपीना निष्केवल मस्तके कहतेहै गहनना
कोई
जंच प्रतीयते
चैत्य
२००
सादियाँथी चार थुई चोथी थुई | कोई
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________________
२५
२५ २०६
पृष्ट
| रुढी
रूढी
२०५। १ यानंदवियजी । यानंदविजयजी | पट्टन
पठन नपर
ऊपर चोथा चोथी २०६ थुज थुईज
पृष्ट संध्यात्रयइत्पर्थ : संध्यात्रयमित्यर्थः शए३ शक्रस्तवः शक्रस्तवः श्ए
जयचन् qug
रूढी रुढी २७ स्त्रात्र स्नात्र शए
सुगंधिवस्तना सुगन्धिवस्तुना श्त १७ नतांजलिः “तोंजलिः श्ए १७ कुजितपाणिद्वय कृजितपाणिदय श्वन स्नान
स्नात्र श्एन शुचिनि एए ६ चुलुकै शएए वर्षवृष्टि ३०४ रुढि
रूढी ३०४ रुढि ३०४ १२ । चारे
१२
धुत्वा
धृत्वा
१॥
शुचीनि चुलुकैः वर्षवृष्टिं
रूढी वारे
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________________
रूढी
जनी
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थई विधीतो
रूढी
३०४ | १४ | रुढी ३०६ ए जुनी ३०६ । २०
|विधितो २०७ ५ रूढि
हूवा उपर को मुदिश्य रुढिचालने
३०७
३०७
no
हुवां ऊपर कोई मुद्दिश्य रूढी चालले
ܘ 8
.
no
no
no
थई
प्रवर्ति ते प्रवर्तना
प्रवर्तिप्रवर्तना ते
तो
३१० ३१३ ३१४ ३१५ ३१७
| संपदी
प्रवाडीमानी वदना
संपदा प्रवामीमांमानी वंदना पढमं
३१७
| परम
बुझ
बुझा
३१ए ३१॥ कर्या ३२२ सुधी ३२५ करयोसतो ३२५ | बेपण ३२६ । ११ शिदारूपि
करया सूधी करया तो ले ए पण शिदारूपी
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________________
२५
३२६
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| कड्ढई कड्ढ संविग्गा करणिकं नांख्यो वन्दनान्ते
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कुर्वते
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३२६। १५ कई
१५ कर ३२७ २ संविग्जा
___G करणियं ३२ १४ नांरव्यां
३ वन्दनात्य ४ कत्थंत
साधुना नारंतर | पक्षपाति दर्शम पवांदिक तिहाणि वर्णवीजेथी परिपाटिमा
विधान ३३७ १५ को
| निःप्रयोजन ३५२ २१ कोनी ३४५ १७ कोइए
२१ अाधुनीक ३५० ६ सिर्षी ३५० Gबाश
n m
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साधूना निरन्तर पदपाती दर्शन पर्वादिक. तिबाणि वर्णवीजेजेथी परिपाटीमां विमा कोई निष्प्रयोजन कोईनी कोईए याधुनिक सिझर्षि बांश
m
m
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________________
३६३
साधोतिम् चतुष्पथं प्रेषयतात वीरनिर्वाण फूलनो हरिन कस्याथी संवेगियो
दमक पति
३०
३५१ | १५ | साधुतिम् ३५४ | ३ चतुःपथं ३५४ प्रेषयतात्
विरनिर्वाणे ३६४
६ फलनों ३६४ | जहीरन ३६७ | १२ कर्याथी ३६७ | १४ संवेगीयो ३६ए १७ दंडक ३७० १२ पत्ती
| १६ एकएव ३७१ a परति
७ दृष्टिनां ३७३ ६ नक्तिना
स
५ मानसीक ३७ए ७ अपावाद
५ योरिसीए
षमंगी ३१ | अपचाद
मते ३७३ | १० | संजात ३७४ १७ | चशब्दो
३७३
३७४ ३७८
एकामेव पठन्ति दृष्टीनाम् नक्तीना सर्वे मानसिक अपवाद पोरिसीए षड्जङ्गी अपवाद
३००
اسد الله
الله
मेत
संजाते चशब्दो
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________________
२७
३०५
| त्यपकाया ३५ चामीषम् ३०५ प्राग्वत्बजावा ३७६ मुख ३८ १४ नत्सर्गा ३ए अपपादे ३१ ७ चारुके ३५२ २० प्रदिदणयेत् ३४ ५ शारात्रिका ३५६ अन्येअपि ३७६
स्तुती ३६ १५ | रूपकार ३७७ सभ्यक्त ४०० प्रणिपात
ज्या चूणि | नधिकारीत्वा गृहस्थि गाथर्थः
प्रमाणे १०चत्यै ४०६ | १७ स्तवादिनां ४०७ १ निर्माताः
त्यप्काया चामीपाम् प्राग्वत्लावा नूख नत्सर्ग अपवादे चारके प्रदक्षिणयेत् प्रारार्तिका अन्यायपि स्तुतीः रुपकार सम्यक्त प्रणिपात
४००
ज्यां
४०१
४०२
४०३
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चणि नधिकारित्वा गृहस्थी गाथार्थः प्रमाण चैत्य स्तवादीनां निर्मिता
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________________
४०७
४०७
४०७
ყ ნ დ
४१३
४ १३
२८
२ दमकनिर्माता
३ प्रणिधानान्ताः
५ | शक्रस्ववाः
१४ गाथाया
८ सचाय पवती
४१३
८ मीत्यादि
४१३ १५ अर्हत ४१४ ७ सम्बंधीनां
४१५ १७ जेयरिहंते
४१७ ११ सोग
४ १८
४१
४ १९
४२०
४२०
४२०
२० नेमिमुनि ४२१ १ नेमिवै ४२१ २ मल्लीसित ४२१ २ पद्मन
४२१ १० यथारुची ४२२ ८ नाश्योक्तो
११ यहोरसं ६ समुह ११ चानुश्रेष्ठि १६ वंदे
१७ विंशतिंस्तवो
कनिर्मिता प्रणिधानान्ता
शक्रस्तवाः
गाथायाम् सचायं
पठति
मित्यादि
अर्हन्त सम्बंधिनाम् जे रिहन्त ने
अरिहन्ते
लोग
होरत्तं
समूह
नानुश्रेष्ठी चन्दे
विंशतिस्तवो
नेमिमुनी नमि
मल्लीप्रनू नीलपद्मज
यथारुचि
द्वाप्योक्तो
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________________
४ २३
४ १४
४२७
४१८
४३१
४३१
४३३
४ ३४
४३७
४५० ए संपन्ना
९ | प्राणधानं
३ मगर
२१ संनिनूताः
१५ | अधिकारतया कांक
करात
४ पूजादीक स्मारणादि
१६ दिक्षाप्रतिपत्ति
२
ܐܐ
४५१
२१ | लघुनाध्य ४६४ ६ सिद्धान्तवा
४६४
१५ ईर्या
४६५ २ ईर्या ४६५ ५ अरिहंतस्तवौ ११ ईर्ष्या
४ ६५
४६५
१७ ईर्ष्या
४६६
१९ नीकलेला
४ ६६ १७ कोइ ४ ६७ ११ निःकेवल ४६८ २० पंथीयोनी
४६९ २. डुःकर्म ४७१ ७ वितराग
प्रणिधानं
नगर
सन्ननूताः अधिकारितया किहांक
करत
पूजादिक
स्मरणादि दीक्षाप्रतिपत्ति
संपुन्ना लघुनाष्य सिद्धान्तेनवा
र्या
इर्या
अरिहंतस्तवः
इर्या
र्या निकलेला
कोई
दिनकेवल
पंथियोनी
डुष्कर्म
वीतराग
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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तमारी कोईकोई कांई उत्तरम् तेपाठ प्रादीथी तेपाठ सुता দায়
१२
कांई
४७३ | १६ चूर्णी ४७७ १२ तमारि ४७७ १५ कोइको
कांश មច ១ उत्तरः ४०१
तेपातः
प्रादिथी ४७३
तेपातः ४४
३ स्तुता មចម ४ बुझाणं ४४
| कांड
व्रती ४६
यतीयोने ४६ १३ चोथिथुइ មថថ
प्रत्यनिक ४ए
जणित्तानं ४ए ४ समाचारीयो ए
| सादि ४ए।
तेपातः ४ए ११ अर्हत ४ए
पृथक्ते ४ए५
| दिदा पए | दिदा
१२
वृती थतियोने चोथीथुई प्रत्यनीक नणित्तातं समाचारियो सादी तेपाठ अर्हन्त पृथक्त्वे | दीदा दीक्षा
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________________
४९६
१२ | देवसाि नणितं
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१३ शान्त्यादिनां | ५०० याधुनीक ११ सानिध्यना
५००
५०० १६ सानिध्य ५०० १९ सानिध्य ५०३ १२ लौकीक
५०७ ७ अर्थः ५०७ ११ गाथार्थः ५०० १७ निःफल
५१०
१२ | अर्थः
५१०
१४ प्रवृतिमां ५१० १४ लौकीक
५१२ ६ पाठः ५१४ २ वर्त्ति
५१५
५१५ ४ । पाठः
५१
३१
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२ तिथीयोनी
सामायक
५२०
१६ गोगो ५२१ १ सूरिश्वर ५११ ३ विचारत्राकरे ५२१ १५ विश्रुद्ध
देवसाची गणितं शांत्यादीनां आधुनिक सांनिध्यना
सान्निध्य
सान्निध्य
लौकिक
अर्थ
गाथार्थ
निष्फल
अर्थ
प्रवृत्तीमां
लौकिक
पाठ
वर्त्ती तिथियाँनी
पाठ
सामायिक
गोगा
सूरीश्वर विचाररत्नाकरे विशु-छ
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________________
| यदादिक पाठ
-
अर्थ सूतीने
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सृलिने
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५२३ | १३ | याददिक ५२५ १४ पाठः ५२७
अर्थः ५२७ ५२ए १७ पाठः ५३० प्रत्यायेरूप ५३२
लखि ५३५ लोकीक ५३५ तिनकि ५३५ उत्तरः ५३६ पाठः ५३७ | आदिमा ५३७ ५३ चोथीसहित ५४१ १३ त्रारुप ५४२ आदिमा ५४२ २१ सूधि ५४४ साघवः ५४५
नवेदसमर्थः ५४५ ५४७ | चरित्ताय ५४७ मित्यदि ५५१ ६ कहीये
&
पातः
पाठ प्रत्ययिरूप सखी लोकिक तिनकी उत्तरम् पाठ
आदीमां पाठ चोथीथईसहित त्रणरूप यादीमा सूधी साधवः नवेदसमर्थः उन्बा चरित्ताया मित्यादि कहिये
नन्हा
१५मत्या५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५५१ १४ सुत्रना ५५२ ६ | आदिमां ५५४ निर्धरा
५५५
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चिंतियेत्
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सूत्रना प्रादीमा निर्जरा चिन्तयेत् पारि रात्रीना तनं अश्यारं दृश्यते पाठ
आदिमां थुई उत्तरम् पान पाठ उत्तरम् पाठ चरिम पाठ निष्केवल वंदनामां पाठ
५५५ पारि ५५५ १७ रात्रिना ५५६
तर्नुतं
अरायं ५६४ दृश्यते ५६६ पाठः ५७१ यादिमां ५७११ ५७१ उत्तरः
पाठः ५७२ पाठः
उत्तरः ५७३ पाठः
वरिम १ए पातः ५७६
निःकेवल ५७६ वंदमांना ५७७ । १४
पातः ५७ए । | ससा
थु
५७१
५७३
५७३ ५७३
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संशा
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________________
पाठ उत्तरम् धिकारः त्रण
५०१ ५७२ ५७२
ร
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ร
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५७
३४ ५०० १३ पाठः ५१ | उत्तरः
| धिकार त्रिणि त्रिणि सामाचारीयो
पाठः ७ प्रादिमां | पाठः
| पूवोक्त ५०ए | नि केवल ५नए विरकु एए. | धादिमां पए पाठः
पाठः ५९३ ५ए३ आदिमा ५ए३ नपर ५एव | सादि ५ए६ नपर ५६ ५ए६ ए यादिमां ५ए६ १० उपरता
सामाचारियो पाठ प्रादीमा पाठ पूर्वोक्त निष्केवल विरहक
आदीमा पान पान पाठ
आदीमां ऊपर सादी ऊपर तमे
एए१
पातः
سه م
م
तेम
प्रादीमा
कपरला
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________________
३५
५९७ Ա - Ա 8 ԿԵ սա ६०० ६०१
पाठ मभ्याम् अनेके यादीमा
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पाठ
१
६०२
१ पाठः
मभ्यूह्य अनेका
आदिमां पाठः
पातः ५ सप्नाय
गहा | पाठः
विधिः G कोई
अादिनी | स्थापत पाठः
पान ससाय गाहा पाठ विधि कोई यादीनी स्थापन पाठ प्राश्री
प्राधि
REA
पाठ पात
पाठः | १५ | पाठः
लेष्ट्रादिना ६१७ | सम्मत्त्यात् ६१७७
चतुर्दश ६१ ए पंचदश ६१७ | १३ उत्तरः ६१७ । १५ उत्तरः
लोष्टादिना सम्मतेः चतुर्दशः पंचदशः उत्तरम् नुत्तरम्
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--------------------------------------------------------------------------
________________
६१
६१९
६ १७
६१.
६२०
६ ११
६११
६२१
६२२ ए द ६१२ १५ कोइ १९७ कोइ
६१२
उत्तरः
उत्तरः
आदिमां
१७ | यादिमां
१२ पाठः
३६
५ कही ये
१२ पाठः
१९ प्राणीयोना
६२३
कल्पना
६२३ १९ पाठः ६२४ १० केवलिना
६ २४ १३ पाठः
६२५ ५ सवणु ६२५ १२ प्रतितत्वात् ६१६ ११ तात्पर्यः ६२६ ११ कोइ ६२६ २० कांइ
६१८ ७ कोइ
६१८
६१८
वाणिनो
१९ | जांणिने
उत्तरम्
उत्तरम्
प्रादीमां
यादीमां
पाठ
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पाठ
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पाठ
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६२ १६ । कंथचित् कथंचित् पए १ए नज
नेज ६३० ३ | श्रुतदेवि श्रुतदेवी ६३० १० देवीवेत्येतासां | देवीत्येतासाम् ६३० २० पर्यातान्तर | पर्यायान्तर
कोश ६३१ प्रासायपीए अासायगाए ६३१ | तेः
जीनवाणी जिनवाणी
लीखी लखीने ६३२ जिनवणिने | जिनवाणीने ४ कोई
कोई उपदेशा उपदेश श्रयामागे " श्रयामापो | अषणं
दूषणम् उषण
दूषण को | यानंदावजय थानन्दविजय ७ निष्यादितो निष्पादितो विद्वता विद्वत्ता मागी
मांगी १एमागी मांगी ६४० ११ | तीर्थकर्ता तीर्थका
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नियुक्तिनु पाठः
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कर्म संझी नियुक्तिनु पाठ मागधी कहिये नगवन् कहिये कोई
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मागधि ६४४
कहीये ६४५ '२. नगवान् ६४५ ६ कहीये
६ को ६४७ १ को
२ निःकेवल
को | उत्तरः देवतादिनां धारीयो
श्राश्यक ६४७ नियूक्ति ६५० | कोई
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निष्केवल कोई उत्तरम् देवतादीनां धारियो आवश्यक नियुक्ति
कोई
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कोश
६५१ १७ चोयी चोथी ६५१ थुइ ६५२ ३ प्रतिक्रमणप्रतिक्रमण
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--------------------------------------------------------------------------
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६६०
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३ए ६५४ | २१ । कायात्सर्ग | कायोत्सर्ग ६५४ । १ नयी ६५५ १० | नय्या
नप्पा ६५५ १० अर्वाचिन अर्वाचीन
१५ सवे ६५७ | चायोनी चार्योनी ६५७ पूवोक्त पूर्वोक्त
मुोमां मूखोमां ६६० | ११ आवश्शक यावश्यक उपर
ऊपर ७ श्रुतस्मृद्धि श्रुतसमृद्धि
श्रामणादयो श्रमणादयो एिवधाना एिवधाना देवायुकादिक' देवायुष्कादिकं निमेषै निर्निमेषै योगीनी योगिनि सबवयणा
सञ्चवयणा जोगवानोनो जोगवानोतुं उर्लबोधि उलनबोधि समुदायमली समुदायबलेकरीने
मीचाती मिचाती ६६७ १५ कोई कोई ६७० ४ | स्विस्त
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५ | विशेषण पनि विशेषणना अनि प्राय
प्राय शुनानाशुन शुनाशुन समकारियां शमकारिण
कपर वचपाठ वचःपाठ | विन्ड
ब्बिन् प्रशसनीय प्रशंसनीय थारमशाक्षिक बारमशादी परशाक्षिक परशादी अनुमोदनिय अनुमोदनीय | विया दिदा दीदा दिदा
दीदा ११ अप्रतित अप्रतीत अंगिकृत थकीकत
दित्तं जिनस्तुति जिनस्तुतिः सावेरि सोवीर स्त्रशै
स्टेश स्वांत स्वांता
बुडतां ब्रूडतां २० | गुरुवः
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गुरवः
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४१ G, नंगर्नगो |नंगनंगो $ ច ១
स्वपारः स्त्वपारः नेमुखां | निर्मला लक्ष्मीः लक्ष्मीम् रैवत
रेवते १०७ १२ गुणोघैः
गुणोधैः शृणुकृतः
लघुकृत' दीर्घःशतु दीर्घस्तु १४ यातोपदा यातोर्थपदाम्
विगाह्य अवगाह २० प्रमाणीक प्रामाणिक पाठः
पाठ ច ច यद्वाख्यानं यव्याख्यानं ६०८ यतु ६८७ कुशग्रीय
कुशाग्रीय ६०८ शेमुखीशेमुको | शेमुषीको ६७८ उषयति दूषयति ६८८ देशना देशाना ६० अरघदघटी घरघट्टघटी ६८ नस्वासौ नवसौ ६८० मृश्वन
मृत्खन ६७८ कन्य ६ए । १२ वृति वृत्ति
७८
यस्तु
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Page #537
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४२ ६ए। २० | पंचांगामा पंचांगीमा ६ए०१ मननवे अनुनवे ६० ६९० करा
करी ६१ ११ पिताम्बर पीताम्बर ६९१ ११ कुलिगनु कुलिंगनु ६१
श्रुताननां ६ए।
बुझिमवर्येषु ६ए। | १३ करा ६ए३ पूर्वघर पूर्वधर ६ए ३ प्राणीयोनु प्राणियोनु ६०५ महानिधिः महानिधि ६५५ विनवैः विनवं ६५५ १ए धमकाट धर्मकोटि ६ए५ ६ युत्
कांई कोई अने थुई विगेरे दीर्घात शब्द, अगर केटलाएक प्राचीन शब्द एवा डे के, जे बोलचालमा
आवेडे. तेनी सुधारणा बाहियां करवानी जरूर जणाती नथी. माटे केटलेक ठेकाणे तेमने तेम राख्याने.
यत्
Page #538
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________________ जाहेर खबर. आ पुस्तक बपावी प्रसिध करवामां श्री रतलाम, जालोर, आहोर, राजगढ, शीवर्गजनी गवणी, खीमेल, कूशला, निमाडा, अने कूगशी विगैरे नगरनिवासी श्रावकोए घणोज आश्रय प्राप्योरे; ते घणुं स्तुतिपात्र बे. __ या ग्रंथ श्री अमदावाद मध्ये पांजरा पोलमां शा. लखमीचंद जेठानाने त्यांथी मलशे.