Book Title: Bhavsthiti Part 02
Author(s): Virshekharvijay
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसाहित्ये निष्णाताः प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च सिद्धान्तमहोदधय आचार्य भगवन्तः (ग्रन्थ ३९) श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराः मणिवर्य श्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः (२) दशपरिशिष्टपरिकलिता जमो तित्थाम भारतीय प्राच्यतत्व प्रकाशन समिति पिंडवाडा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री शङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः।। । श्री आत्म-कमल-वीर-दान-प्रेम-हीरसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति पिंडवाडा संचालिताया प्राचार्यदेव श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरकर्मसाहित्यजैनग्रन्थमालाया एकोनचत्वारिंशो (३९) ग्रन्थः कर्मसाहित्ये निष्णाताः प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च सिद्धान्तमहोदधय आचार्यभगवन्तः श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराः गणिवर्यश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता स्वोपज़प्रेमप्रभावत्तिसुशोभिता भवस्थितिः (२) दशपरिशिष्टपरिकलिता तित्थाम प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्य तत्त्व-प्रकाशन-समिति, पिण्डवाडा। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवृत्तिः प्रति ५०० राजसंस्करण-७) रु० वीर संवत २५१३ । विक्रम संवत २०४३ = * प्राप्तिस्थान * भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन समिति 9/0 रमणलाल लालचंद शाह १३५/१३७ झवेरी बाजार, बम्बई २ भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन-समिति _C/o शा. समरथमल रायचंदजी पिंडवाड़ा (राज.) ___ स्टे. सिरोही रोड (W.R.) भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन-समिति शा. रमणलाल वजेचन्द, C/o दिलीपकुमार रमणलाल मस्कती मार्केट, अहमदाबाद २. मुद्रकज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिंडवाडा स्टे.-सिरोहीरोड (W. R.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलग्रन्यकृद् वृत्तिग्रन्थकृत्सम्पादकश्च प्रवचनकौशल्याधार-सिद्धान्तमहोदधि-सुविशालगच्छाधिपतिपरमशासनप्रभावक-कर्मसाहित्यनिष्णात-परमपूज्य-स्वर्गताऽऽचार्यदेवेशश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरविनीताऽन्तेवासिनिःस्पृहशिरोमणि-गीतार्थमूर्धन्य-परम-पूज्या-ऽऽ चार्यदेव-श्रीमद्विजयहीरसूरीश्वरशिष्य ___गणिवर्यश्रीललितशेखरविजयशिष्य. गणिवर्यश्रीराजशेखरविजय शिष्यः गणिवर्यश्रीवीरशेखरविजय: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition) copies 500 } DELUXE EDITION RS. 7 { A.D. 1987 AVAILABLE FROM IT 1. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti, C/0. Shah Ramanlal Lalchand, 135/137 Zaveri Bazzar BOMBAY - 400 002 (INDIA) 2. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti C/0. Bhah Samarathmal Raychandji, PINDWARA, 307022 (Raj.) (INDIA) 3. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti Shalı Ramanlal Vajechand, C/o Dilipkumar Ramanlal, Maskati Market, AHMEDABAD-380002 (INDIA) Printed by :Gyanodaya Printing Press PINDWARA. (Raj.) St. Birohi Road, (W.R.). (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ach'uryadeva-Shrimad-Vijaya-Prem isurishwarji Karma-Sahitya-Granthinala GRANTH NO. 39 BHAVASTHITIHI [2] Along with PREMA PRABHA Vrutti WITH TEN APPENDICES By GANIVARYA SHRI VEERSHEKHAR VIJAYA MAHARAJA Inspired and Guided by His Holiness Acharya Shrimad Vijaya PREMASURISHWARJI MAHARAJA the leading authority of the day on Karma Philosophy. । नमो तित्थरम REQUIROR Published byBharatiya Prachya Tattva Prakasbana Samiti, Pindwara (India) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ® प्रकाशकीय निवेदन . हमें यह निवेदन करते हुए अपरिमित हर्ष की अनुभूति हो रही है कि सन् १९६६ में अहमदाबाद में हमारी भारतीय प्राच्य-तत्त्व प्रकाशन समिति द्वारा सर्व प्रथम तत्प्रकाशित कर्म साहित्य के आद्य दो ग्रन्थरत्नों का विशाल कुकुमपत्रिका, अनेकविध पत्रिकाओं और पुस्तिकाओं आदि के द्वारा अत्यन्त विराटकाय एवं भव्य समारोह में विमोचन किया गया था । उस अवसर पर दोनों ग्रन्थरत्नों को गजराज पर विराजमान कर, विराट मानव समुदाय के साथ, अनेकानेक साजों से अलंकृत बड़ा भारी जुलूस निकाला गया था । सिद्धराज जयसिंह ने सिद्धहेम व्याकरण का भव्य जुलूस निकाला था,उसके बाद सम्भवतः यही सर्वप्रथम साहित्य-प्रकाशन का ऐसा भव्य जुलूस होना चाहिये । इन प्रकाशनों के उपलक्ष में प्रकाश हाई स्कूल में विशाल पैमाने पर प्राचीन तथा अर्वाचीन जैन साहित्य की विविध सामग्री की पृथक्-पृथक् विषयान्तगत एक भव्य एवं विराट प्रदर्शनिका भी आयोजित की गयी थी एवं प्रबल जनाग्रह के कारण प्रदर्शनिका की अवधि दो तीन दिनों के लिए बढानी पड़ी थी। जुलस के उपरान्त प्रकाश हाई स्कूल के विशाल प्रांगण में सुशोभित मंडप Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७] प्रकाशकीय निवेदन में चतुर्विध संघ की प्रचुर उपस्थिति में नानाविध कार्यक्रमों के साथ ग्रन्थरत्नों का विमोचन किया गया, जिससे सामान्य जनता एवं बुद्धिजीवी लोग प्रचुररूपेण जैन साहित्य की और आकृष्ट हुए, जैन साहित्य के दर्शन से भी लोग प्रभावित हुए तथा उक्त समिति के सदस्यों में भी अपूर्व उत्साह, ओज व उमंग का संचरण हुआ। अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप स्वर्गीय परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर महाराज साहब से प्रेरित कर्मसाहित्य के २५ ग्रन्थ आज तक तैयार हो गये हैं तथा और भी तैयार हो रहे हैं । इनके अतिरिक्त अन्य भी अर्वाचीन एवं प्राचीन छोटे बडे लगभग २५ से ३० ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। बन्धविधान महाशास्त्र के सभी भाग मुद्रित होने से सम्पूर्ण बन्धविधान सटीक मुद्रित हो चुका है एवं आज आपके कर कमलों में "भव स्थितिः (२)' का मुद्रण समर्पित कर रहे हैं । इसके साथ ही सत्ताविधान महाग्रन्थ के 'भाष्य. चूर्णि-वृत्तियुता मूलप्रकृतिसत्ता' और उनका पूर्वार्ध:', 'उत्तरार्ध' तथा 'आद्यततीयांशा' 'भाष्ययुता मूलप्रकृतिसत्ता' 'चूर्णियुता मूलप्रकृतिसत्ता' 'मूलप्रकृतिसत्ता' 'कर्मप्रकृतिकोर्तनम्' 'मार्गणाः' 'जीव. भेदप्रकरणम्"कायस्थिति-भव स्थितिप्रकरणम्"द्रव्य. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] - प्रकाशकीय निवेदन परिमाणम् (१) 'द्रव्यपरिमाणम् (२)' 'क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम्' 'भवस्थितिः (१)' 'प्रकरणानि' आदि का भी मुद्रण हम आपके कर कमलों में प्रस्तुत कर रहे है। ___ इससे पूर्व भी हमारी संस्था द्वारा 'प्राचीनाः चत्वारः कर्मग्रन्था' 'सप्ततिका नामनी छट्टो कर्मग्रन्थ' '१ थी ५ कर्मग्रन्थ' आदि छोटे बडे ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए है। आज तक इस समिति द्वारा प्रकाशित किये गये समस्त ग्रन्थरत्नों की आधार शिला दिवंगत परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वर महाराज साहब हैं, जिनकी सतत सत्प्रेरणा, मार्गदर्शन, प्रस्तुत साहित्य का उद्धार करने की अदम्य उत्कंठा और कालोचित अथक परिश्रम से ही प्रस्तुत ग्रन्थरत्नों का जन्म हुआ है तथा इन्हीं महापुरुष के शुभाशीर्वाद से हम ग्रन्थरत्नों के प्रकाशन के महत्कार्य में उत्तरोत्तर साफल्य की ओर पदार्पण कर रहे हैं । इन्हीं महात्मा ने हमारी संस्था को कर्मसाहित्य के इन ग्रन्थरत्नों के प्रकाशन का लाभ देकर अनुगहीत किया । अतः हम इनके ऋणी है और इस ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते । अतः ऐसे परमोपकारी महाविभूति आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर महाराज साहब का हम नतमस्तक कोटि-कोटि वन्दन करते हुए, इनके प्रति अवयं आभार प्रदर्शित कर रहे हैं । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन प्रस्तुत ग्रन्थरत्न के प्रणेता परम पूज्य गणिवयं श्री वीरशेखरविजय महाराज साहब का हम सवन्दन आभार मानते हैं। आपके अथक, अविरत, अविरल, एवं सतत परिश्रम के फलस्वरूप ही हम इस ग्रन्थरत्न को पाठकों के करकमलों में समर्पित करने में सक्षम रहे हैं। मुद्रण करने में संस्था के निजी ज्ञानोदय प्रिन्टिंग प्रेस के मेनेजर श्रीयुत शंकरदास एवं उनके अन्य कर्मचारी गण भी धन्यवाद के पात्र हैं। इसके अतिरिक्त जिम किमी ने भी जिस किसी भी तरह से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से ग्रन्थ-प्रकाशन में सहायता की हो, उन सभी महानुभावों के प्रति हम अपना हार्दिक आभार प्रदर्शित करते हैं। द्रव्यसहायक-शा. मूलचन्दजी दलीचन्दजी सुपुत्र नेमीचन्द, कुन्दनमल, वर्द्धिचन्द पौत्र किशोरकुमार, अशोककुमार, हरेशकुमार, अलकेश, प्रपौत्र लालु, मितेश (पिंडवाडा निवासी) ने श्रुतभक्ति से अनुप्रेरित एवं अनुप्राणित होकर इस ग्रन्थरत्न के मुद्रण में द्रव्यराशि के सम्यक सहयोग से यथोचित योगदान किया है, अतः हम इनके प्रति ऋणी एवं आभारी हैं । नजदीक भविष्य में और प्रकाशन की आशा में Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] प्रकाशकीय निवेदन भवदीय(i) पिंडवाडा स्टे. सिरोहीरोड (राजस्थान) शा. समरथमल रायचन्दजी (मंत्री) (ii) १३५/१३७ जौहरी बाजार बम्बई-२ शा. लालचन्द छगनलालजी (मंत्री) भारतीय-प्राच्य-तत्त्व प्रकाशन समिति * समिति का ट्रस्टी मंडल * (१) शेठ रमणलाल दलसुखभाई (प्रमुख) खंभात (२) शा. खूबचंद अचलदासजी पिंडवाडा (३) शा. समरथमल रायचन्दजी मंत्री पिंडवाडा (४) शा. लालचंद छगनलालजी मंत्री पिंडवाडा (५) शेठ रमणलाल वजेचन्द अहमदाबाद । (६) शा. हिम्मतमल रुगनाथजी वेडा (७) शेठ जेठालाल चुनीलाल घीवाले बम्बई (८) शा. जयचन्द भबुतमलजी पिंडवाडा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०पाव शुद्धिः पाव भवस्थिति (२) सत्कं शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः २ १० हादयप्रह्लद० हृदयप्रह्लाद० हितार्थ हितार्थं ४ २० •तुप्कम् ०तुष्कम् क्षल्ल. क्षुल्ल० भेदैः भेदैः ६ १४ ... Turwr १, vUv dd काय यैव ०माणिविशत्ये स्यितिः काययैव माणि विश-त्ये० स्थितिः ७-१० १ ०माइ ८ ३६ ०माई १० ३/४ ०वीस पल्लं ०वीसं पल्लं, द्वयो द्वयो १२ [ १२ ८ १३ २० १५ १३ १५ १४ न्द्रिय सह-स्त्रा० काल तेइंदि० छम्म सा" न्द्रिय०सहस्रा० कालं तेइंदि० छम्मासा" ( स० द्वादश० १५ १८ १५ २२ १५ २८ द्वदाश० पत्र पत्र० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिः भवस्थिति (२) सत्कं शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम पक्तिः अशुद्धिः १७ १२ ११२ १७ १७ यथाक्त० १७ २३ पयाप्त. १६ १८ ०पूर्वाधन २० १३ ०रः प०/० वर्ष oद्रिय० २१ ४ ०धारण ०मा यण ०अपुo सूचि :एकेद्रियः १७२ यथोक्त. पर्याप्त० पूर्वार्धन ०प०/वर्ष ०न्द्रिय •धारण ०मारणं। ०य-ण० oअणु० सूचिःएकेन्द्रियः सर० सुर० सुरोध, स0/2 ए ३/बा., अप., सुरौघ०, सा०/M, ए०३/बा० अप.. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका भवस्थितिः -(२) १-३२ विषयाः पृष्ठाङ्का २-४ ५-२१ ५-१० ११ १२-२१ १२-१३ १३-१४ वृत्तिकृन्मङ्गलश्लोकादि मूलग्रन्थारम्भमङ्गलादिचतुष्कसूचिकाऽऽद्यगाथा मङ्गलादिचतुष्कम् प्रोघतो जघन्योत्कृष्टभवस्थितिः प्रादेशतो जघन्योत्कृष्टभवस्थितिः सर्वनरकवेवद्विविधभवस्थितिः (३८) शेषमार्गणाजघन्यभवस्थितिः (७५) शेषमार्गणोत्कृष्ट भवस्थितिः (७५) तिर्यग्गत्योघादीनाम् (७) एकेन्द्रियौघादीनाम् द्वीन्द्रियौघादीनाम् अप्कायौघादीनाम (६) वनस्पतिकायौघादीनाम पञ्चेन्द्रियौघादीनाम् स्त्रीवेदस्य प्रसंजिनः शेषपत्रिंशतः (३५) भवस्थितिग्रन्थोपसंहारः प्रकान्तरपरिशिष्टानि प्रथमपरिशिष्टे मूलगाथाः द्वितीयपरिशिष्टे मूलगाथाद्यांशाः तृतीयपरिशिष्ट साक्षिग्रन्थाः चतुर्थपरिशिष्टे साक्षिग्रन्थकार: १६-१७ १६ (१) १९-२० २०-२१ २२-२३ २४-३१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्काः १४ ] विषयानुक्रमणिका विषयाः पञ्चमपरिशिष्टे-ऽतिदिष्टग्रन्थाः षष्ठपरिशिष्टे-ऽतिदिष्टग्रन्थकारः सप्तमपरिशिष्टे व्याकरणसूत्राणि अष्टमपरिशिष्टे न्यायाः नवमपरिशिष्टे भवस्थितिसत्क५ मूलमार्गणोत्तर ११३ भेदप्रदशियन्त्रम् दशमपरिशिष्टे जघन्योत्कृष्ट भवस्थितिप्रदर्शियन्त्रम उपसंहारः २८.२६ ३०-३१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथ गणिवर्यश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः (२) दशपरिशिष्टपरिकलिता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: श्रयञ्जलि : जिन्होंने' भवरूपी कूप से संयमरूपी रज्जु द्वारा बाहर निकाला | और प्रव्रज्यादिन से लेकर बारह साल तक निजी निश्रा में रख कर ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा के साथ साथ ही संस्कृत - प्राकृतव्याकरण न्याय दर्शन तर्क काव्य कोश छन्द अलङ्कार प्रकरण आगम छेदादि विविधविषयक शास्त्रों के परिशीलन द्वारा सुधारस पीलाया । जिन्हों की सतत सत्प्रेरणा और कृपादृष्टिसे ही महागंभीर और अतिभगीरथ ऐसे कर्मसाहित्य के नव निर्मारण में और सम्पादन में तथा प्राचीन कर्मसाहित्य के सम्पादन आदि में आज लगातार २७ साल तक प्रयत्नशील रहा हुं । उन कर्मसाहित्य के सूत्रधार सिद्धान्तमहोदधि सच्चारित्र - चूडामणि परमशासनप्रभावक सुबिशालगच्छाधिपति परमाराध्यपाद स्वर्गीय - श्राचार्य भगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा की परम पवित्र स्मृति में भवदीय कृपैककाङ्क्षी मुनिवीरशेखर विजय गणी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलागम रहस्यवेदि सूरिपुरन्दर बहुश्रुत गीतार्थ - परज्योतिर्विद परमगुरूदेव परम पूज्य आचार्य देवैश श्रीमद् विजय दान सूरीश्वरजी महाराजा Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म साहित्य ग्रंथोना प्रेरक,मार्गदर्शक अने संशोधक सिध्धान्त महोदधि सुविशाल गच्छाधिपति कर्मशास्त्र रहस्यवेदीशासन शिरछत्र स्व. परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद विजय प्रेम सूरीश्वरजी महाराजा Page #21 --------------------------------------------------------------------------  Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નૈ:સ્પૃહ શિરોમણ ગીતાર્થમૂર્ધન્ય ગચ્છહિંત ચિંતક વઃ પરમ પૂજ્ય જ્ઞાચાર્યદેબ શ્રીમદ્ જય હીર સૂરીશ્વરજી મહારાજા Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री शळेश्वरपार्श्वनाथाय नमः॥ ॥श्री आत्म-कमल-वीरन्दान-प्रेम-हीरसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः॥ मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः प्रेमप्रभावृत्तिःदर्शितपकल जगज्जन-मवस्थितिभ्रम-भवस्थितिविनाशम् । श्रीवीरतीर्थनाथं, नौमि सुरासुरनरनताहिम् ॥१॥ वीरास्त्रिपदी प्राप्य, श्रुतनिधिभिदिशाङ्गय उदिता यैः। तान् गौतमादिगणधर-भगवत एकादश स्तौमि ॥ २ ॥ यस्या-ऽस्त्यमृतमगुष्ठे, योऽनेकलब्धिसंभृतः । अभीष्टफलस्य दायं तं, स्मरामि गोतमं . गुरुम् ॥ ३ ॥ वन्दे गणधरगुम्फित-मागममहदुदितं शिवकपथम् । सप्तनयसप्तमङ्गी-निक्षेपचतुष्कसंकलितम् ॥४॥ श्रीशारदा हदि स्मृत्वा, गुरुं नत्वा श्रुतोदधेः । कुर्वे प्रेमप्रभावृत्ति, स्वोपनाया भवस्थितः ॥ ५ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता [ मङ्गलादि एतर्हि शिष्टजनसमयपरिपालनाय प्रारम्भेऽभीष्टदेवतास्तुत्यादिरूपमङ्गलादि चतुष्कमूचिका पथ्यायाँ निबध्नाति ग्रन्थकार: खविअभवठिइसिरिमुहरि पासं पणमिअ हियस्थमत्तसुथा। वोच्छं भवठिहमोहे, गहई दियकायवेभसण्णीसु।।१। (गीनिः) (प्रे०) "खविअ." इत्यादि, 'क्षपितभवस्थितिश्री. मुहरिपाव' मुहरो-मुहरिसंज्ञके तीर्थे स्थितः पाश्च: त्रयो. विंशतितमो जिनेश्वरो मुहरिपार्श्व:, श्रिया=निखिलत्रिलोकी. जनानां चित्तचमत्कारोत्पादिन्या हादयप्रह्लदकारिण्या परमाहन्त्यमहाप्रभावप्रकटकारिण्या-5ष्टमहाप्रातिहार्यादिसंपदा चतु. स्त्रिंशदतिशयशोभया समग्रलोकालोकाखिलभावप्रत्यक्षकारिकेवलज्ञानलक्षम्या वा संयुतो मुहरिपार्श्वः श्रीमुहरिपार्श्वः, क्षपिता विनाशिता भवस्य संमारस्य नरकादिगतिरूप. स्य-नारकादिभवलक्षणसंसारसम्बन्धिनीति यावत् स्थितिः= वासो येन स क्षपितभवस्थितिः, स चासौ श्रीमुहरिपार्श्व: अपितमहरिपार्श्वस्तम् , क्षपितभवस्थितिश्रीमुहरिपाच प्रणम्य' Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्कम् ) स्वोपक्षप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [३ प्रकर्षेण त्रिकरणयोगेन नत्वा प्रणिपातं. विधाय “प्राक्काले' (सि० ५.४-४७) इत्यनेन व्याकरणसूत्रेण प्राकालार्थे क्त्वाप्रत्ययस्य विधीयमानत्वेनोत्तरक्रियामापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह. "वोच्छ” 'वक्ष्ये' मणिष्यामि शन्दतो निरूपणाविषयी. करिष्यामीति यावत् । किम् ? इत्यत आह- "भव ठिई" ति 'भवस्थिति' भवस्य-नरकगत्यादिपर्यायरूपस्य भवे वा= नरयिकादिपर्यायरूपे स्थान स्थितिः जघन्योत्कृष्टावस्थानकालात्मिका भवस्थितिः नरकगत्याद्यन्यतरैकमवसत्कजघन्योस्कृष्ट कालावस्थानलमणा, ताम् , भवस्थितिम्=एकभवजघन्योत्कृष्टायूरूपाम् । कुत्रेत्यत आह-ओहे गहई दियकायवेअसणीसु" ति ओघे गतीन्द्रियकायवेदसंज्ञिषु' ओघे-नरकगत्यादिमार्गणाविशेष विना सामान्यतः प्ररूपणायां तथा विशेषतो गतीन्द्रियकायवेदसंज्ञिरूपमूलमार्गणापश्चकसत्कत्रयोदशाधिकशतोत्तरमार्गणाभेदेष्विति । ननु किं स्वशक्तिसामर्थेन स्वमनसा वक्ष्य उता. ऽन्यथेत्यत आह-'अत्तसुया" ति, 'आप्तश्रुतात्' "गम्ययपः कर्माधारे" (सि.२.२-७५) इति व्याकृतिवचनेनाऽऽप्तश्रुतमाश्रित्य, न पुनः स्वतन्त्रतया स्वशक्तिप्रभावेन स्वमनीषिकयेति यावत् अनेन च ग्रन्थकृता स्वस्योद्धतत्वं . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] मुनिमीवीरशेखरविजयनिर्मिता [ मजलादिचतुष्कमोघा-55 निराकृतम् , स्वलघुता च प्रदर्शिता, ग्रन्थस्याऽऽदरणीयता আচৰিক্তরা। . किमर्थमित्यत आह-"हियथ"ति हितार्थ हिताय= मोक्षाय हितार्थ स्वपरयोरित्याक्षिप्यते ततः स्वपरकल्याणार्थम् । तदेवं ग्रन्थकृता मङ्गलादिचतुष्कं प्रदर्शितम् । तद्यथा"खविप्रमवठिइसिरिमुहरिपासं पणमिम" इति गाांशेन परमाऽभीष्टदेवताप्रणतिलक्षणमेकान्तिकमात्यन्तिकश्च भावमङ्गलं प्रकटीकृतम् , “वोच्छ...............' इत्यादिगाथोत्तरार्धेनाऽभिधेयमभिव्यक्तीकृतम् , "अत्तसुया" इति पदेन श्रद्धानुसारिणः प्रति गुरुपर्वक्रमरूपः सम्बन्धः प्रादुष्कृतः तर्कानुमारिणः प्रति पुनरभिधेयाऽभिधायकरूपोऽनुक्तो-पि गम्यत एव । "हियत्थं" इति पदेन च प्रयोजनमपि साक्षाद् व्यञ्जितम् । तथाहि-प्रयोजनं द्विविधम् , अनन्तर-परम्परविभागात् , तद् द्विविधमपि द्वैधम् , ग्रन्थनिर्मात-पठितृप्रकारात् , तत्र ग्रन्थ - निर्मातुरनन्तरप्रयोजनं भव्यजन्तुप्रकृतग्रन्थबोधकारापणम् , प्रन्थमन्थनरूपस्वाध्यायलक्षणाभ्यन्तरतपसा कर्मनिर्जरा वा, पठितुरनन्तरप्रयोजनं प्रकृतग्रन्थज्ञानम् , द्वयोरपि परम्परप्रयोजनं तु परमश्रेयापदावाप्तिः ॥१॥ ॥ इति मङ्गलादिचतुष्कम् ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशाभ्यां भवस्थितिः ] स्वोपा-प्रेमप्रमावृत्तिसुशोभिता मवस्थितिः ॥अथोचतो जघन्योत्कृष्ट भवस्थितिः॥ अथ “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायेनैकमवजघन्योस्कृष्टायुःप्रमाणात्मिका भवस्थिति प्रारूपयिषुरादौ तावत्ता. मोघतो जघन्योत्कृष्टमेदतो द्विविधामपि पथ्यापूर्वार्धन प्राहखुडुभवोऽस्थि भवठिई, हस्सा तेत्तीससागरा जेहा। (प्रे०) "खुडभवो" इत्यादि, ओषतः 'हस्वा' जघन्या भवस्थितिः 'क्षल्लकमवा' षट्पश्चाशदधिकशतद्यावलिकाप्रमितक्षुल्लकभवमाना-ऽस्ति,अपर्याप्ततिर्यग्मनुष्ययोजघन्यायुषस्तावन्मात्रत्वात् । 'ज्येष्ठा' उत्कृष्टा भवस्थितिः 'त्रयस्त्रिंशसागगः' त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा भवति, सप्तमनरका. ऽनुनरदेवयोरुत्कृष्टायुषस्तथात्वात् । ॥ इत्योघतो जघन्योत्कृष्टमवस्थितिः ।। ॥अथा-ऽऽदेशतस्त्रयोदशोचरशतमार्गणानां भवस्थितिः।। इदानीमादेशतो भवस्थिति चिकथयिषुरादौ शेषगाथोतरार्धेन नरक-देवमार्गणामेदानां द्विविधा-ऽपि तथा शेष. मार्गणानां जघन्या मवस्थितिरतिदिश्यतेसव्वणिरयदेवाणं, इहा-ऽरिप कायठिहसमियराण लहू ॥२॥ (गीतिः) __(प्र.) "सव्व०" इत्यादि, 'सर्वनिरयदेवानां नरकगत्योपरत्नप्रभा-शर्कराप्रमा-वालुकाप्रमा-पकप्रभा धूमप्रमा. तमाप्रमा-महातमाप्रमामेदमिन्नानां सर्वेषामष्टसङ्ख्याकाना नरक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] मुनिश्री वीरशेखर विजयनिर्मिता | नरक देवानां द्विधा मार्गणा मेदानां देवगन्योष भवनपति - व्यन्तर- ज्योतिष्क- सौधर्मे शान - सनत्कुमार• माहेन्द्र ब्रह्मलोक - लान्तक - शुक्र -सहस्राराSSनत प्राणता ऽऽरणा ऽच्युतरूपद्वादशकल्पवासि प्रथमादिनवग्रैवेयक- विजय- वैजयन्त जयन्ता ऽपराजित सर्वार्थसिद्धाख्यपञ्चानुत्तरभेदैः सर्वसङ्ख्यया त्रिंशत्सुरमार्गणाभेदानां चेति मीलितानामष्टात्रिंशन्मार्गणाभेदानां 'द्विधा' जघन्योत्कृष्टमेदभिन्ना द्विप्रकारा - ऽपि भवस्थितिः 'काय स्थितिसमा' काय स्थितिसमाना ऽस्ति, एकभविकत्वेन तयोरवयात् । • · यदुक्तं जीवसमासे एक्केक्कभवं सुर-नाश्याओ" (गा. २१३ ) इति । इदमुक्तं भवति - प्रस्तुतमार्गणानामेकभवतोऽधिकास्थानाभावेन कार्यस्थिति भवस्थित्योरेक्यमस्ति, तेन प्रोक्तमार्गणानां यैव काय स्थितिः सैव भवस्थितिः यैव भवस्थितिः सैव काय स्थितिर्भवति, ततो जघन्यकायस्थितिप्रमाणा जघन्यभवस्थितिरुत्कृष्टकाय स्थितिप्रमाणोत्कष्ट मवस्थितिश्च भवति । काय स्थितिश्वाऽनेनैव ग्रन्थकारेण प्राक् सवृत्तिका भणिताऽस्ति । · तदनुसारेण मवस्थितिरित्थं ज्ञेया नरकगत्योघ- प्रथमनरकयोर्जघन्यभवस्थितिर्दशसहस्रवर्षाणि, द्वितीयादिसप्तमान्तानां राणां निरयभेदानां जघन्यभवस्थितिः क्रमश एक त्रि-सप्त Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [ . दश-सप्तदश-द्वाविंशतिसागरोपमाणि भवति, नरकगत्योघस्योस्कृष्टमवस्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, प्रथमादिसप्तनारकाणां क्रमादेक-त्रि-सप्त-दश - सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि-भवति, देवौघ-भवनपति-व्यन्तरसुराणां जघन्यभवस्थितिदशसहस्रवर्षाणि, ज्योतिष्कदेवस्य पल्योपमाष्टभागप्रमाणा, मौधर्मादिद्वादशकल्पवासि - प्रथमादिनवग्रैवेयक - चतुरनुत्तरसुराणां जघन्यभवस्थितिः क्रमात पल्योपम-साधिकपल्योपम-. द्वि-साधिकद्वि-सप्त-दश चतुर्दश-सप्तदशा-ऽष्टादशै-कोनविंशतिविशत्येकविंशति-द्वाविंशति-त्रयोविंशति-चतुर्विंशति-पञ्चविंशतिषड्विंशति-सप्तविंश-त्यष्टाविंशत्येकोनत्रिंश-त्रिश- देकत्रिंशसागरोपमाणि भवति,सर्वार्थसिद्धसुरस्य जघन्यभवस्थिति स्ति। उत्कृष्ट भवस्थितिः पुनर्देवौघस्य पश्चानुत्तरसुराणाश्च त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि, भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क द्वादशसौधर्मादिकल्पवासि प्रथमादिनवग्रैवेयकसुराणां क्रमशः साधिकैकसागरोपम-पल्योपमा ऽभ्यधिकपल्योपम-द्वि-साधिकद्वि-सप्ताऽभ्यधिकसप्त दश-चतुर्दश - सप्तदशा-ऽष्टादशै-कोनविंशतिविंशत्येकविंशति-द्वाविंशति-त्रयोविंशति-चतुर्विंशति-पञ्चविंशति. षड्विंशति-सप्तविंश-त्यष्टाविंश त्येकोनत्रिंश-त्रिश-देकत्रिंशसागरोपमाणि भवति । उक्तश्च श्रीप्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे स्थितिपदे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m. ar ट्स " : :::: ८ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिर्मित्ता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः[ नरक-देवमवस्थितिः र..EER "नेरइयाणं HEFEB दसवाससहस्साई उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाइं।... सागरोवम ।. रयणप्पभापुढविनेरहयाणं सक्करपभापुढधिनेरइयाणं , एगं सागरोवमं , तिन्नि सागरोवमाइं। वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं .. तिनि सागरोवमाइ, सत्त , पंकप्पभापुढविनेरइयाण धूमप्पमाढविनेरहयाणं सत्तरस, तमप्पभापुढविनेरइयाणं सत्तरस " बावीसं " अहेसत्तमापुढविनेहयाणं बावीसं तेत्तीसं . ... देवाणं " दसवाससहस्साई "" साइरेग सागरोवमं .. भवरणवासीरणं , " , " "" " वाणमंतराणं भंते ! देवाणं,,, पलिओवमं ।... जोइसियाणं देवाणं भंते! , , , पलिओवमट्ठभागो वाससयसहस्समन्महियं सोहम्मे णं भंते! कप्पे देवाणं ,,,,, पलिओवमं , दो सागरोवमाई. ,साइरेगाइदो ईसाणे , , " " साइरेग " " " " " सणकूमार, सत्त सागरोधमाई, " ,, दो " " " .. . " . " , साइरेगाइं दो , , साइरेगाइं सत्त, माहिद " " " " " " " " " सा दस बभलाए " " " च उदस लतए " " " " " . " " " " " " Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " "" .", सत्तर महासुक्के सत्तर सहस्सारे अट्ठारस आणए " " " " """""अट्रारस एगूणवीसं " " " " """""" एगूणवास वीस पारणे " " " " """""" वास . एक्कवीसं अच्चुए " , " , " , " """""" एगवास बावीसं हेट्रिमहेट्रिमगेवि जगदेवाणं भंते! , , , , , , बावीस तेवीसं ,, मज्झिम " " """""" तेवीस चउवीसं , उरिम " " " """चउवीस पणवीसं मज्झिमहेट्ठिम " " """""""पणवीस छन्वीसं , मज्झिम , """ सत्तावोसं " उवरिम " " " " अट्ठावीसं " उरिमट्टिम " " """" एगूणतीस मज्झिम " " ""एगूणतोस तीस " उवारम " " " " " " " तास एक्कतीसं विजयवेजयंतजयंतअपराजितेष "," एक्कतोस , तेत्तीसंग णं भंते! देवाण सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं पवाण " अजहन्नमणुक्कोसं ठिई पन्नत्ता' (प.४, सू०६४-९५-१००-१०१-१००मा० १, पत्र० १६८१२-१६९।१-१७०।२-१७४१२..१७६-१७७.१७८) इति। ""' छन्वीसं " " सत्तावीस " , अट्ठावीसं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिमिता [ गत्यादिभेदानां तथैव श्रीजीपसमासे-ऽपि गदितम् "एगं च तिणि सत्तय, दस सत्तरसेव हंति बावीसा। तेत्तीस उयहिनामा, पुढवीसु ठिई कमुक्कोसा ॥२०२।। पढमादि जमुक्कोसं, बीयादिसु सा जहणिया होइ । घम्माएँ भवणवंतर, वाससहस्सा दस जहण्णा ॥२०३॥ असुरेसु सारमहियं, सडढं पल्लं दुवे य देसूणा । नागाईणुक्कोसा, पल्लो पुण वंतरसुराणं ।।२०४।। पल्लट्ठभाग पल्लं च साहियं जोइसे जहणियरं । हेदिल्लक्कोसठिई, सक्काईणं जहण्णा सा ॥२०५।। दो साहि सत साहिय, दस च उदस सत्तरेव अट्रारा ।। एकाहिया य एत्तो, सक्काइसु सागरुवमाणा ॥२०६॥” इति । एवं जीवाजीवाभिगमसूत्र तत्त्वार्थसूत्र-घहत्संग्रहणी पञ्चसंग्रह-पञ्चसंग्रहमलयगिरिसूरिवत्यादिष्वपि । तत्त्वार्थसूत्र-तद्भाष्यप्रमुखाभिप्रायेण विजय. वैजयन्त-जयन्ता-ऽपराजिताभिधानां चतुर्णा देवानामुत्कृष्टा भवस्थिति त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा अवसातव्या । प्रत्यपादि च श्रीतत्त्वार्थसूत्रे "आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्ध च ।" (अ.४,सू.३८ भा.१,पत्र०३११) इति । ' तथैव तद्भाष्ये ऽपि-"विजयादिषु चतुर्वप्येकेना ऽधिका द्वात्रिंशत, सा-ऽप्येकेना-ऽधिका त्वजघन्योत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिशदिति ।" (अ.४,सू.३८।भा.१,पत्र.३११) इति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवस्थितिः ] स्वोपन-प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [११ ।। अथाऽऽदेशतो जघन्यमवस्थितिः ॥ साम्प्रतं शेषमार्गणानां जघन्यमवस्थितिमाह-"श्य. राण" इत्यादि, कायठिइसमा' इति पदं तुलादण्डन्यायेनेहाऽपि सम्बध्यते ततः 'इतरासाम्' नरक-देवभेदानामष्टात्रिंशतोऽनन्तरमेव द्विविधाया अपि भवस्थितेः प्रतिपादितत्वात्तान् विहाय तिर्यग्गत्योघादीनां पश्चसप्ततेः 'लध्वी' जघन्या भवस्थितिः काय स्थितिसमा कायस्थितितुन्या भवति, द्वयो रप्येक्येन कस्या अपि विशेषाभावात् ॥२॥ अथाक्तार्थेऽतिप्रसङ्ग निवारयितुमिच्छुराह गाथापूर्वार्धम् वरं अंतमुहुत्तं, थीए खुड्डुगभवो गपुसस्स । __ (प्र.) "णवरं" इत्यादि, णवरं केवलमयं विशेषा'स्त्रियाः' स्त्रीवेदस्य जघन्या भवस्थितिरन्तमुहर्त्तम् , 'नपुसकस्य' नपुसकवेदस्य चक्षुल्लकभवो भवति, द्वयोरपि वेदयोजघन्याऽऽयुषस्तथात्वात् । अपवादबीजन्तु-स्त्रीवेदी नपुसकवेदी वोपशमश्रेण्यामवेदी भूत्वा पतन्नेकसमयं सवेदी भूत्वा कालं कृत्वा देवलोके नियमतः पुरुषवेदित्वेनोत्पद्यते तदा स्त्रीवेद-नपुंसकवेदयोर्जघन्यकायस्थितिरेकसमयमाना प्राप्यते, भवस्थितेस्त्वेकमवसत्कायुर्वेदनरूपत्वेनैकमवजघन्यायुरूपत्वाद् द्वयोरपि वेदयोर्जघन्यभवस्थितियथोक्तमाना भवति । ॥ इत्यादेशतो जघन्य भवस्थितिः ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [ मुनिश्री वीरशेखर विजयनिर्मिता [ गत्यादिभेदानामुत्कृष्ट।। अथाऽऽदेशत उत्कृष्ट भवस्थितिः ॥ इदानीं सार्धगाथापश्चन शेषपञ्चसप्ततेर्मार्गणानामुत्कृष्टभवस्थिति व्याहतु काम आदौ शेषगाथोत्तरार्धेन तिर्यग्भेदचतुष्कस्य मनुष्य भेदत्रिकस्य च तामाहगुरुभवठिई तिपल्ला, तिरितिपणिदिति रियणराण | ३ (प्रे० ) " गुरु ०" इत्यादि, 'तिर्यकृत्रिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्नगणाम्' तिर्यक सामान्य पञ्चेन्द्रियतिर्यगोध-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय तिर्यक् तिरखी मनुष्यौघ-पर्याप्त मनुष्य मानुषीरूपाणां सप्तानां मार्गणानां 'गुरुमवस्थितिः 'ज्येष्ठा भवस्थितिः 'त्रिपल्या 'श्रीणि पल्योपमाणि भवति, युगलिकतियग्मनुष्ययोरुत्कृष्टत एकस्मिन् भवे यथोक्तकालं यावदवस्थानात् यथासंभवं च युगलिकतिर्यग्मनुष्यापेक्षयैव प्रकृतज्येष्ठभवस्थितेरुक्तमार्गणासु सम्भवात् । यदुक्तं श्रीजीवसमासे- 'नरतिरियाणं तिपल्लं च ।। २०८ ||" इति । तथा श्रीजीवाजीवाभिगमे - "तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमु, उक्को सेणं तिनि परिभवमाह । एवं मगुस्साणं वि ।" ( प्रति. ३, सू. २२२ / पत्र. ४०६ / २ ) इति । एवं श्री प्रज्ञापनादिष्वपि । न च श्रीप्रज्ञापनासूत्रे पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक्-पर्याप्तमनुष्ययोरुत्कृष्ट भवस्थितिरन्तमुहूर्तोनपन्योपमत्रयमाना भणिता, इह पुनः सम्पूर्णपन्योपमत्रयप्रमाणा, ततः श्रीप्रज्ञापनया सहास्य ग्रन्थस्य कथं न विरोधः ? इत्याशङ्कनीयम् यतो विवक्षाभेदेनोभयत्र भिभोक्तेरविरोधो वर्तते । तद्यथा - श्रीप्रज्ञापनासूत्रे करणपर्याप्तान् जीवान् प्रतीत्य प्रस्तुता गुरुभवस्थितिः प्रतिपादिता, 9 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्थितिः ] सोपज्ञ प्रेमप्रभावृत्तिसुशोमिता भवस्थितिः [ १३ तेन तत्र करणापर्याप्तसत्केनान्तमहर्तेनोना भणिता , इह पुनः पर्याप्तनामकर्मोदयवतो लब्धिपर्यातानाश्रित्य प्रोक्ता, तेनात्र यथोक्तमाना गदिता । इत्थं चात्र विवक्षाभेद एव, न पुनर्मतान्तरं विरोधो वा । एवमन्यत्रा-ऽपि ज्ञेयम् ।।३।। . इदानीमेकेन्द्रियौघादिमार्गणाषट्कस्योत्कृष्टभवग्थितिरेकया पथ्यार्यया निगद्यतेएगिदिय-पुहवीणं, वरिससहस्साणि होइ बावीसा। सा चेव होइ तेसिं, बायर-वायरसमत्ताणं॥४॥ (प्रे०)"एगिदिय०'इत्यादि, एकेन्द्रियपृथिव्योः एकेन्द्रियौध-पृथिवीकायौधयोरुत्कृष्टा भास्थितिविंशतिवर्षसहस्राणि भवति, 'तेषां बादरवादरसमाप्तानां तन्छन्दस्य पूर्ववस्तुपरामर्शित्वात्समाप्तशब्दस्य पर्याप्तपर्यायवाच्च वादरैकेन्द्रियपर्याप्तबादरैकेन्द्रिय बादरपृथ्वीकाय-पर्याप्तबादरपृथ्वीकायानामुत्कृष्ट भवस्थिति: 'सा चेच' अनन्तरोक्तैकेन्द्रियोघ पृथ्वीकायौषज्येष्ठमवस्थितिप्रमाणैव द्वाविंशतिसहस्रवर्षाणि भवति, इहैकन्द्रियभेदत्रयस्योत्कृष्टा भवस्थितिः पृथ्वीकायिकापेक्षया ज्ञातव्या, शेषाणामकायिकादीनां ज्येष्ठमवस्थितेः स्तोकत्वात् । तथा श्रीपञ्चसंग्रहमलयगिरिसरिवृत्तावपि भणितम् तत्र पर्याप्रबादरैकेन्द्रियाणां द्वाविंशतिवर्षसह खाण्युत्कृष्टा भवस्थितिः, सा च बादरपृथ्वोहा यकैकेन्द्रियापेक्षया द्रष्टव्या,न शेषकेन्द्रियापेक्षया, शेष केन्द्रियाणामेतावत्या भवस्थितेरभावात" (द्वा.२.गा.३५/भा.१,पत्र.७०.२) इति । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता [इन्दिय-कायभेदानामुत्कृष्ट ___तत्र च पृथिवीकायसामान्य-चादरपृथिवीकाययोर्यथोक्तमाना ज्येष्ठा भवस्थितिः श्रीप्रज्ञापनादिग्रन्थेषूदिता । तथा चोक्तं श्रीप्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे स्थितिपदे"पुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नणं मंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं बाससहस्साई ... . वायरपुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्मेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण बावीसं वाससहस्साई" (सू०६६/भा.१,पत्र.१७१-२) इति । पृथ्वीकायिकौघ-बादरपृथ्वीकायिकयोरुक्तप्रकृष्टकायस्थितिर्हि पर्याप्तबादरपृथिवीकायिका-ऽपेक्षया सम्भवति, अपर्याप्तवादरपृथ्वीकायिकस्योत्कृष्ट भवस्थितेरप्यन्तमुहूर्तमात्रस्थितिकत्वात् । तेन पर्याप्तबादरपृथिवीकायस्य ज्येष्ठभवस्थितिः सहस्रवर्षाणां द्वाविंशतिर्भवति । उक्तश्च श्रीमलयगिरिसूरिपादः पञ्चसंग्रहवृत्तौ.. ___ "तथाहि-उत्कृष्टा भवस्थिति दरपर्याप्तपृथिवीकायिकानां द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि (द्वा.२, गा. ३५।भा.१, पत्र० ७०-२) इति । तदेवं दर्शितनीत्या षण्णामप्येकेन्द्रियौघादीनामुत्कृष्टभवस्थितिविंशतिसहस्रवर्षप्रमाणा संगच्छति । यद्यपि श्रीप्रज्ञापनायां पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकस्य गुरुभवस्थितिरन्तमहानद्वाविंशतिसहस्रवर्षमाना भणिता, तथा-ऽपि सा विवक्षाभेदेन द्रष्टव्या, एतच्च प्रागेव पर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियभवस्थितिनिरूपणावसरे स्पष्टीकृतम् ॥४॥ एतहा कया गाथया द्वीन्द्रियौषादीनां षण्णां प्रकृष्टी भवस्थिति प्रतिपादयितुकाम आह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्थितिः ] खोपक्ष प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः । १५ बेईदियाइगाणं कमसो बारह समा अउणवण्णा। दिवसा त छम्मासा, तप्पज्जत्ताण एमेव ।।५।। (प्रे०) "इंदियाहगाणं" इत्यादि, द्वान्द्रियादिकानां' द्वीन्द्रिय आदी येषाम् , ते 'द्वीन्द्रियादिकाः. "शेष द्वा' ' (सि० ७।३।१७५) इत्यनेन वैकल्पिका कच्प्रत्ययः, तेषां द्वीन्द्रियादिकानां द्वीन्द्रियसामान्य- त्रीन्द्रियसामान्य-चतुरिन्द्रियसामान्यानामित्यर्थः क्रमशो द्वादश समाः' वर्षाणि, एकोनपश्चाशदिवसास्तथा षण्मासाः । द्वीन्द्रियौघस्योत्कृष्टा भवस्थिति दश वर्षाणि, त्रीन्द्रियौघस्यैकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियौषम्य च षण्मासा भवति । तथा चोक्तं श्रीप्रज्ञापनायां चतुर्थे स्थितिपदे'बेइंदियाणं भंते! केवयं काल ठिई पन्नता? गोयमा! जहानेणं प्रतो मुहुनं उकासेणं बारस संवच्छराइं ...... तेइं दियाणं भंते! केवरयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोशमा! जहन्नेणं अतोमुहत्तं उककोमेणं पगुणवन्न राइंदियाइं ... चरिदियाणं भंते! केवयं कालं ठिई पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं छम्म मा" (सू ६७ भा. १, पत्र.१७२-२) इति । एवं जीवसमासाद्यन्य. बा-ऽपि । तथा च श्रीजीवसमासः "ब रस अउणप्पन छप्पिय वासाणि दिवसमामा य । बेइदियाइयाणं' (गा. २.८) इति । "एवं" एवंशब्दस्य साम्यार्थकत्वाद् द्वदाशवर्षे कोनपश्चाशदिवसषण्मासा यथासंख्यं 'तत्पर्याप्तानाम् तच्छब्दस्य पूर्वप्रकान्तपरामर्शकारित्वात् पर्याप्तानां द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां गुरुभवस्थितिज्ञे या । यदुक्तं श्रीपञ्चसंग्रहवत्तौ- "तथा पर्याप्तद्वीन्द्रियाणा मुत्कृष्टा भवस्थिति दश वर्षाणि पर्याप्तत्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशदिवसाः । पर्याप्रचतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः ' (द्वा. २, गा. ३५ । भा. १,पत्र.७०.२) इति ।।५।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] मुनिश्री वीरशेखर विजयनिर्मिता [ काय भेदानामुत्कुष्टअधुनैकगाथया - suकायिकौघादीनां नवानां ज्येष्ठाभवस्थितिरुच्यते दगवाऊणं कमसो, वाससहस्साणि सत्त तिष्णि भवे । तिदिणा ऽग्गिरसेवं सिं, वायर वायरसमत्ताणं ॥ ६ ॥ (प्रे० ) "दगवाऊणं" इत्यादि, 'दकवाय्वोः' अप्कायोवायुकायौधयोः प्रकृष्टा मवस्थितिः क्रमशः सप्त वर्षसहस्राणि त्रीणि वर्षसहस्राणि च भवेत् । अष्कायिकसामान्यस्य सप्त सहस्रसंवत्सराणि (७०००) वायुकायिक सामान्यस्य च त्रिसहस्राब्दानि (३०००) ज्येष्ठा भवस्थितिर्भवति । उक्तच श्री प्रज्ञापनायां चतुर्थपदे - "भाउकाइयाणं भंते! केवइय कालं ठिई पत्ता?, गोयमा ! जहन्नेणं भतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सन्त बाससहरसाई, वाउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं तिन्निवाससहस्साईं," (सू.६६/मा. १, पत्र. १७१ /२-१७२ / १ ) इति । 9 .... " तिदिणा" इत्यादि, 'अग्नेः' तेजस्कायस्योत्कृष्टा भवस्थितिः 'त्रिदिनाः' त्रयो दिवसा भवति । यदवादि श्रीमज्ञापनायाम् - "तेडकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई" ( प. ४, सू. ६६ | मा. १, पत्र. १७२१) " एवं " इत्यादि, एवं एवं शब्दः साम्यार्थे ऽपि वर्तते, तेन यथा ऽप्कायसामान्यवायुकायसामान्य- तेजः काय सामान्यानां यथाक्रमशः सप्तसहस्रवर्षाणि त्रिसहस्रवर्षाणि त्रयोऽहोरात्राभोत्कृष्टभवस्थितिः प्रतिपादिता तथ' व 'तेषाम् ' अकायादीनां 'बादर - बादरसमाप्तयोः' बादरौध-पर्याप्तबादर भेदयोरपि ज्येष्ठा भवस्थितिर्वेद्या । ܪ P Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थितिः ] स्वोपज्ञ- प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थिति: [ १७ किमुक्तं भवति - बादराप्कायिकौष-पर्याप्तवादराकायिकयोरुत्कृष्टा भवस्थितिः सप्तसहस्रवर्षमाना भवति । बादरवायुकायिकौ ध-पर्याप्तचादरवायुकायिकयोज्येष्ठा भवस्थितिस्त्रिसहस्रहायनमानाऽस्ति, बादरतेजः कायिकौध-पर्याप्तबादरतेजः कायिकयोर्गुर्वी भवस्थितिस्त्रयोऽहोरात्रा भवति । उक्तश्च श्रीमत्यां प्रज्ञापनायाम् - "बायरभाउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं सप्तवाससहस्सा इं... बायरने उकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नणं अतो मुहुसं एक्कोसेoर्ण तिन्नि राईदियाई,... .....बायरवा उकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं प्रतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि बाससहस्साई, ( प. ४, सू. ६६ | म . १. पत्र. ११२ ) इति । एषा च वादरा कायिकादीनां सामान्यानां ज्येष्ठा भवस्थितिरेवोदिता, तथाऽपि सा पर्याप्तवादरा कायिकादीनामपि द्रष्टव्या, अपर्याप्तबादराणामन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिकत्वेन पर्याप्तबादरापेक्षयैव बादरा कायिक सामान्यादीनामुत्कृष्टभवस्थितेः सम्भवात्, किश्च पश्च संग्रहवृत्तौ यथाक्तप्रमाणा प्रकृष्टा भवस्थितिः पर्याप्तवादरा कायिकादीनां श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादैः प्रोक्ता । तथा च तद्ग्रन्थ:- "बाबरपर्याप्राकायिकानां सप्तवर्षसहस्राणि, बादरपर्याप्ततेजस्कायिकानां त्रयो ऽहोरात्राः । पर्याप्तवादवायुकायिकानां त्रीणि वर्षसहस्राणि (द्वा. २. गा०३५ / मा. १, पत्र. ७०-२ ) इति । श्रीप्रज्ञापनायां तु पयाप्तभेदेषु करणपर्याप्तविवक्षयाऽन्त हर्मोना यथोक्तमाना ज्येष्ठभवस्थितिः पर्याप्तबादराकायिकादित्रयस्य गदिता, स च विवक्षाभेदः प्रागेव कथितः ॥ ६ ॥ ............... • Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] मुनिश्रीवीरशवरविजयनिर्मिता [ गत्यादिभेदानामुत्कृष्ट साम्प्रतं गाथापूर्वार्धन वनस्पतिकायभेदत्रयस्य ज्येष्ठा भवस्थितिः कथ्यतेवासा-ऽस्थि दस सहस्सा, वणपत्तेअवणतस्समत्ताणं । _ (प्रे०) "वासा" इत्यादि, 'वनप्रत्येकवनतत्समाप्ताना' पदैकदेशे पदसमुदायस्य गम्यमानत्वाद् वनशब्देन वनस्पतिकायग्रहणसम्भवात् समाप्तशब्दस्य पर्याप्तार्थत्वाच्च वनस्पतिकायौघस्य प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायसामान्यस्य पर्याप्तप्रत्येकशरीरवनस्पतिकायस्य चोत्कृष्टा भवस्थितिर्दश सहस्राणि वर्षाण्यस्ति । तथा चात्र वनस्पतिकायौघसत्कोत्कृष्टभव. स्थितौ श्रीप्रज्ञापनासूत्रवचनम्-वणफहकारया भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई,"(प. ४,सू. ६६मा.१, पत्र. १७२-२) इति । एषा च वनस्पतिकायसामान्यस्य गुर्वी भवस्थितिः प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायापेक्षया भवति, प्रत्येकशरीरवनस्पति. कायस्या-ऽपि सा पर्याप्तप्रत्येकशरीरवनस्पतिकायमाश्रित्य प्राप्यते, ततः प्रत्येकशरीरवनस्पतिकाय-तत्पर्याप्तमेदयोरपि यथोक्तमानव ज्येष्ठा भवस्थितिः सिध्यति । किश्च श्रीमलयगिरिसुरिपाद पनसंग्रहवत्तौ पर्याप्तप्रत्येक शरीरवनस्पतिकायस्य यथोक्तमाना प्रकृष्टा भवस्थितिः प्रतिपादिता । तदक्षराणि स्वेवम्- "पर्याप्तवादरप्रत्येकवनस्पतीनां दश वर्षसहस्राणि" (द्वा-२, गा.३।भा.१,पत्र.७..२)इति। तथा श्रीजोवसमासे तद्वृत्तौ च प्रत्येकवनस्पतिकायसामान्यस्य यथोक्तमाना प्रकृता भवस्थितिरुक्ता । तथा चोक्तं श्रीजीवसमासे-"बावीससत्त तिणि च,वाससहस्साण दस य उक्कोसा। पुढविदगानिल त्तेय. तरुसु तेऊ तिरायं च ॥२०७॥" इति । एवं तद्वत्तावपि । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्थितिः ] स्वो ज्ञ-प्रेमप्रमावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [ १६ .., सम्प्रति गाथोत्तरार्धेन पञ्चेन्द्रियौघादीनामुत्कृष्टां भवस्थितिममिधातुमाह- ... दुपणिदितसपुमणपुम-सण्णीणं जल हितेत्तीसा ||७|| . (प्रे०) "दुपणिदि." इत्यादि, 'द्विपञ्चेन्द्रियत्रसपु. नपुसकसंज्ञिना' द्विशब्दस्य द्वाभ्यामभिसम्बन्धोत, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति' इति न्यायाच्च पञ्चेन्द्रियौघ तत्पर्याप्तप्रसकायौघ-तत्पर्याप्त-पुरुषवेद-नपुसकवेद-संज्ञिलक्षणानां सप्तानामुत्कृष्टा भवस्थितिः 'जलधित्रयस्त्रिंशत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवति, सा च रथासंभवमनुत्तरसुरापेक्षया सप्तमपृथ्वी. नारकापेक्षया वा लभ्यते यतोऽनुत्तरसुरान् सप्तमपृथिवीनारकान विहाया-ऽन्येषां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणायांज्येष्ठभवस्थितेरप्राप्यमाणत्वात । तत्र पुवेदस्यानुत्तरसुरापेक्षयैव नपुंसकवेदस्य सप्तमनरकापेक्षयैव सा अवगन्तव्या, सप्तमनरके नपुसक. वेदस्यैवानुरत्तसुरेषु पु वेदस्यैव सम्भवातू शेषपश्चकस्य पुनरुभयापेक्षया प्राप्यते, शेषपश्चके पुनपुसकलक्षणवेदद्वयस्याऽपि समा. वेशेनाऽनुत्तरसुराणां सप्तमपृथिवीनरकाणां च सम्भवात् ॥७॥ . अधुना गाथापूर्वाधेन स्त्रीवेदासंझिनोरका मनस्थिति चिकथयिषुराह- ... थीअ पणवण्णपलिआ, भवे असणिस्स पुत्वकोडीउ। . (प्रे.) "थोअ" इत्यादि, स्त्रीवेदस्य प्रकृष्टा भवस्थितिः पञ्चपञ्चाशत्पन्यानिपल्योपमानि भवति, ततो-ऽधिकस्थिति. कमवस्यासम्भवात् । एषा च भवस्थितिर्देवीमधिकृत्य ज्ञेया, यतो मानुषीणां तिरश्चीनाञ्चोत्कृष्ट भवस्थितेः पल्योपमत्रय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] मुनिश्री वीरशेखरविजय निर्मिता [ गत्यादिभेदानामुत्कृष्टप्रमाणत्वेन तदपेक्षया यथोक्तभवस्थितेरलाभात् । देवीसत्का यथोक्तमान । ज्येष्ठभवस्थितिश्च श्रीप्रज्ञापनासूत्रादिषु प्रतिपादिता । तथा चात्र प्रज्ञापनासूत्रम् 'वैमाणियाणं भंते! देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं पलिभोवमं उक्कोसेणं पणपन्न पलिओ माई, ( पद. ४, सू. १०२ भा-१, पत्र. १७६०१ ) इति । "भवे" इत्यादि, 'असंज्ञिनो ज्येष्ठा भवस्थितिः पूर्वकोटिर्भवेत्, एषा च पूर्वकोटी पर्याप्तजलचरासंज्ञयपेक्षया विज्ञेया, न शेषासंज्ञिनोऽधिकृत्य, तेषामेतावत्या उत्कृष्ट भवस्थितेरभाषात् । तथाहि पर्याप्तजलचरासंज्ञिनो ज्येष्ठा भवस्थितिः पूर्वकोटि, पर्याप्तचतुष्पदस्थल चरा संज्ञिनश्चतुरशीतिवर्षसहस्राणि, पर्याप्तोरः परिसर्पस्थलचरासंज्ञिनस्त्रिपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि, पर्याप्तभुज परिसर्पस्थलचरासंज्ञिनो द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि, पर्याप्तखेचरासंज्ञिनो द्विसप्ततिवर्षसहस्राणि । यदुक्तम् "सम्मुच्चपुण्वकोडी, चडरासीई भवे सहस्साई । तेवण्णा बायाला, बावन्तरि चैत्र पक्खीणं ॥" इति । तेन पर्याप्तजलचरासंज्ञिमाश्रित्या संज्ञिसत्का पूर्वकोटिप्रमाणा गुरुमवस्थितिः प्राप्यते, न शेषासंज्ञयपेक्षया । माधोतरार्धेन प्रकृतशेषमार्गणानां प्रकृतज्येष्ठभवस्थितिः कथ्यते भिन्नमुत्तमियर गइ - इंदियकायपणतीसाए ||८|| (प्रे० ) " भिन्नमुत्त०" इत्यादि. 'इतरगतीद्रिय कायपश्चत्रिंशतः उक्तनरकगत्योषाद्यष्टसप्ततिं विना गतीन्द्रियकाय सत्कानां शेषाणामपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां पञ्चत्रिंश Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्थितिः ] स्वोप-प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [ २१ द्भदानां ज्येष्ठा भवस्थितिः 'भिन्नमहूर्तम्' अन्तम हतप्रमाणा भवति.प्रोक्ताना मध्ये कतिपयानामपर्याप्तत्वेन कियतो ररूपत्वेन केषाश्चित्साधारणशरीरवनस्पतिकायमेदत्वेन चोत्कृष्टभवस्थितेरन्तमुहूर्तप्रमाणत्वात । यदुक्तं श्रीजीवसमासे 'एएसि च जहणं, उभयं साहारसव्वसुहमाण । अंतोमुहुत्तमाऊसव्वापज्जत्तयाणं च ॥२१॥" इति । एवं प्रज्ञापनासत्रादिग्रन्थान्तरसंवादोऽपि वक्तव्यः । शेषा अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादयः पश्चत्रिंशद्भेदा नामतश्चेमा:-अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगऽपर्याप्तमनुष्य-सूक्ष्मकेन्द्रियपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिया - ऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिया • ऽपर्याप्तवादरकेन्द्रियाऽपर्याप्तद्वीन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिया - ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रिया-ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-सूक्ष्मपृथिवीकाय-पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी. काया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकाया ऽपर्याप्तबादरपृथ्वीकाय-सूक्ष्मा. काय - पर्याप्तसूक्ष्माप्काया-ऽपर्याप्तसूक्ष्माकाया-ऽपर्याप्तबादरा. काय-सूक्ष्मतेजाकाय पर्याप्तसूक्ष्मतेजाकाया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मतेज. स्काया-ऽपर्याप्तवादरतेजस्काय-सूक्ष्मवायुकाय-पर्याप्तसूक्ष्मवायुकाया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मवायुकाया-ऽपर्याप्तवादरवायुकाय-साधारणशरीरवनस्पतिकाय - सूक्ष्मसाधारणशरीरवनस्पतिकाय-पर्याप्त सूक्ष्मसाधारणशरीरवनस्पतिकाया- ऽपर्याप्तसूक्ष्मसाधारणशरीर. वनस्पतिकाय-बादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाय-पर्याप्तवादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तवादरसाधारणशरीरवनस्पति. काया-ऽपर्याप्तप्रत्येकशरीरवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तत्रसकायाः। तदेवं गतीन्द्रियकायवेदसंझिलक्षणमूलसत्कोत्तरमेदानां ज्येष्ठा भवस्थितिः प्रतिपादिता ॥८॥॥इति भवस्थितिः ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] मुनिश्री वीरशेखर विजयनिर्मिता [ ग्रन्थसमाप्त्यासाम्प्रतं प्रस्तुत ग्रन्थसमाप्तिदर्शिका ग्रन्थोपसंहारस्वरूपा - मेकां पृथ्यायामाह सिरिवीरसेहर विजय- मुणिणा सिरिपेम सूरि संणिज्भे । देवमुरुपहावाओ, भवट्ठिई णिम्मिश्रा एसा । ९ ॥ (प्रे०) "सिरि०" इत्यादि, 'श्रीप्र मसूरिसान्निध्ये' श्रिया= रत्नत्रयीप्रमुखलक्ष्म्या सहिताश्च ते प्रेमसूरयः प्रगुरुगुरवो गच्छाधिपाः, श्रीप्र मसूरयः तेषां सान्निध्ये श्री मसूरिमान्निध्ये= एतावता - ऽस्माकं प्रप्रपितामह गुरुपादानां पुण्यनामधेयाना 'माचार्य भगवता श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वराणां परमपवित्र सान्निध्यवर्तिना श्री वीरशेखर विजयमुनिना' श्रिया = ज्ञानादिलक्ष्म्या युतश्वासौ वीरशेखरविजयः = तत्संज्ञकस्तच्चरणोपासकः क्षुल्लकः साधुः श्रीवीरशेखरविजयः स चासौ मुनिः श्रमणः श्रीवीरशेखरविजयमुनिः, तेन श्रीवीरशेखर विजय मुनिना 'देवगुरुप्रभावात् ' देवाऽर्हमिद्धरूपो गुरुवा ऽऽचार्यादिस्वरूपो गणधरादिश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरप्रभृतिस्वगुर्ववसानो वा देवगुरू, तयोः प्रभावात् = माहात्म्यात् देवगुरुप्रभावात् = देवगुर्वनुग्रहात् 'एषा' अनन्तरभणिता मवस्थितिः प्राग्वर्णितार्था 'निर्मिता' प्रणीता ॥ १६ ॥ F sarai ग्रन्थकारः स्वस्थ छानस्थ्येन मन्दमत्यादिना च किमपि स्खलनं स्यात्तद् दूरीकतु मनाः संविज्ञेषु बहुश्रुतेषु बहुमानयम विज्ञप्तिमेकया गाथया वितन्वन्नाऽऽहमंदमइअणुवओगा - इहेउणा किं पि आगमविरुद्ध । एत्थ सिभा करिअ किवं, मइ तं सोहन्तु सुअणिहिणो ॥ १० ॥ ॥ इति मूल ग्रन्थः समाप्तः ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्युपसंहार: ] स्वोप-प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः[ २३ (प्र०) "मंदमह." इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् प्रस्तुते भवस्थितिसंज्ञके प्रकरणे यत्तदोनित्यसम्बन्धाद् यच्छब्द आक्षिप्यते यत्किमपि भन्दमत्यनुपयोगादिहेतुना' मन्दा-जाडया चासो मतिः बुद्धिर्मन्दमति: अप्रगल्भशेमुषी न उपयोगा=चित्तैकाग्रता अनुपयोगः असावधानता, मन्दमतिश्चा-ऽनुपयोगश्च मन्दमत्यनुपयोगी, तौ आदौ येषाम् ; ते मन्दमत्यनुपयोगादयः, अत्राऽऽदिपदेन छामस्थ्य-दृष्टिदोषादयो ज्ञेयाः, त एव हेतुः, मन्दमत्यनुपयोगादिहेतुस्तेन मन्दमत्यनुपयोगादिहेतुना-ऽऽगमविरुद्धं शास्त्रबाह्य स्यात्तद् मयि ममोपरि कृपा प्रसादं कृत्वा विधाय श्रुतनिधयः श्रुतागमशालिनः शोधयन्तु अशुद्धपदनिराकरणेन शुद्धपदानयेन शुद्धिं कुर्वन्तु ॥१७॥ प्रेमप्रमाख्यवृत्त्या, . सुशोभिता प्रेमसूरिगणे ।। मुनिवीरशेखरेण, स्वोपज्ञभवस्थितिश्चैषा ॥१॥ कुशलं तया यदाप्तं,तेन कुशलमस्तु विश्वविश्वस्य। यत्किमपीह क्षुण्णं, स्यात्तच्छोध्यं बुधैविधाय कृपाम ।२।। ॥इति प्रेम प्रभावृत्तिः समाप्ता॥ इति .. .. स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता मुनिशीवारशेखर নিত্যানার भवस्थितिः समाप्ता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] मुनिवीरशेम्वरविजयनिर्मिता [१ परिशिष्टम् ॥अथ भवस्थितिसत्कानि दश परिशिष्टानि ॥ .. ॥ अथ प्रथमं परिशिष्टम् ।। ॥ मूलगाथाः ॥ - खविअभवठिइसिरिमुहरि-पासं पणमिम हियत्यमत्तसुया। वोच्छं भवठिहमोहे, . गइईदियकायवेएसु ॥ १ ॥ खुड्डभवोऽत्थि भवठिई, हस्सा तेत्तीससागरा जेट्टा । सव्वणिरयदेवाणं, दुहाऽस्थि कायठिइसमियराण लहू॥॥ णवरं. अंतमुत्तं, थोए खुड्डगभवो गपुसस्स । गुरुभवठिई तिपल्ला, तिरि-तिपरिणदितिरियणराणं ॥ ३ ॥ एगिदिय-पुहवीणं, परिससहस्साणि होइ बावीस।। सा चेव होइ तेसिं, बायर-बायरसमत्ताणं ॥ ४ ॥ बेइ दियाइगाणं, कमसो बारह समा अउणवण्णा । दिवसा तह छम्मासा, तप्पज्जत्ताण एमेव ।। ५ ।। .दनवाऊणं कमसो. वाससहस्साणि सत्त तिणि मवे। तिदिणा-ऽग्गिस्सेवं सिं, बायर-बायरसमत्ताणं ।।६।। वासा-ऽस्थि वस सहस्सा, वरणपत्तेमवणतस्समत्ताणं । दुपणिदितसपुमणपुम-सण्णीर्ण जलहितेत्तीसा ॥७॥ थीप पणवण्णपलिमा, भवे असण्णिस पुवकोडी उ । भिन्न मुहत्तमियरगइ-इदियकायपणतीसाए ॥८॥ सिरिवीरसेहरविजय-मुणिणा सिरिपेमसूरिसंणिज्मे । देवगुरुपहावामो, भवट्टिई णिम्मिया एसा ॥ ६ ॥ . मंदमहमपुवमोगा-इहे उणा कि पि आगमविरुद्ध। एत्य सिआ करिअ किवं, मइ तं सोहन्तु सुअणिहिणी। १०।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.३ परिशिष्टे] स्वोपज-प्रेमप्रभावृत्तिसुशोमिता भवस्थितिः [ २५ ॥ अथ द्वितीयं परिशिष्टम् ॥ ।। मूलगापायांशाः ॥ अकारादिक्रमेण मूलगायाद्यांश नु. गाथाद्यांशाः गाथाङ्काः पृष्ठाका अनु.गाथाद्यांशाः गाथाङ्काः पृष्ठान १ एगिदिय-पुहवीणं, ॥४॥ १३ | ६ दगवाऊणं कमसो, ॥६॥ १६ २ खविअभवठिइसिरिमुहरि-॥१॥२|७ बेइंदियाइगाणं, ॥ १५ ३ खुडुभवोऽस्थि भवठिई, ॥२॥ ५ ८ मंदमइअणुवमोगा-॥१०॥ २२ ४ गवरं अंतमुहुर्त, ॥३॥ ११-१२ पासाऽत्य दससहस्सागाणार८-१९ थीअ पणवण्णपलिमा,॥८॥१६-२० | १० सिरिवीरसेहरविजयना॥२२ ॥ अथ तृतीयं परिशिष्टम् ॥ ॥ साक्षिग्रन्याः ॥ अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगताना साक्षिग्रन्यानो . नामसूचिः- ... अनु. ग्रन्थनाम पृष्ठाडाः । अनु. ग्रन्यनाम पृष्ठाः १ जीवसमासः-६, १०, १२,१५,५ पञ्चसंग्रहमलयगिरिसूरिवृत्तिा१८, २१ १३, १४, १७, १८ २ जीवाजीवाभिगमसूत्रम्- १२ | ६ पञ्चसंग्रहवृत्तिः- १५ ७ प्रज्ञापनासूत्रम-७, १४, १५, ३ तत्वार्थसूत्रभाष्यम्- १० १६, १७, १८,२० ४ तस्वार्थसूत्रम- १०। ८ यदुक्तम् - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिमिता [ ४-५.६ परिशिष्टानि ॥ अथ चतुर्थ परिशिष्टम् ॥ ॥ साक्षिग्रन्थकार: ॥ ___ ग्रन्थकारनाम पृष्ठाङ्काः मलयगिरिसूरि:- १३, १४, १७. १८ ॥ अथ पञ्चमं परिशिष्टम् ॥ । प्रतिदिष्टग्रन्थाः ॥ ॥ अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानामतिदिष्टग्रन्थानां : . नामसूचि:- . अनु. ग्रन्पनाम पृष्ठाङ्काः अनु. ग्रन्थनाम पृष्ठाङ्काः १ जीवसमासः- १५, १८७पञ्चसंग्रहमलयगिरिसूरिवृत्तिः२ जीवसमासवृत्तिः -१८२ १६, १७, १८ ३.जीवाजीवाभिगमसूत्रम-१० ४ तत्त्वार्थसूत्रभाष्यम्- १०. ८ प्रज्ञापनासूत्रम्-१२४, १४२, ५ तत्त्वार्थसूत्रम्- १० १७, २०, २१ ६ पञ्चसंग्रहः- .१०' बृहत्संग्रहणी- १० ॥ अथ षष्ठं परिशिष्टम् ॥ ॥ प्रतिदिष्टग्रन्थकारः ॥ अनु. _ ग्रन्थकारनाम पृष्ठाङ्काः १. . . . . . मलयगिरिसूरि:- १०, १७, १६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ परिशिष्टे ] स्वोपज्ञ प्रेमप्रभावति सुशोभिता भवस्थितिः [ २७ ॥ अथ सप्तमं परिशिष्टम् ॥ ॥ व्याकरणसूत्रणि ॥ अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थ वृत्तिगतानां - व्याकरणसूत्राणां सूचि: अनु. व्याकरणसूत्रम् पृष्ठाङ्काः १ प्राक्काले (सि. ५-४-४७) ३ २ गम्ययपः कर्माधारे ( सि. २-२-७४) ३ ।। अथाऽष्टमं परिशिष्टम् ।। ।। न्यायाः ॥ अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थ वृत्तिगतानां न्यायानां सूचि: अनु. व्याकरणसूत्रम् पृष्ठाङ्काः ३ शेषाद्वा (सि. ७-३-१७५) १५ अनु. न्यायः १ तुलादण्ड:...... यथोद्देशं निर्देश: २ पृष्ठाङ्काः अनु. ११ ३ -- पृष्ठाङ्काः न्यायः व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति०-१६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] मुनिश्रीवोरशेखरविजयनिमिता [ नवम रिशिष्टे || अथ नवमं भवस्थित्युपयोगिन्यः ५ मलमार्गणाः कायः नरकगतिः तिर्यग्गतिः मनुष्य गतिः १ नरकगतिसामान्यम् १ तिर्यग्गतिसामान्यम् १ मनुष्यगतिसामान्यम् ७ प्रथमादिसप्तनरकाः २ पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सामान्यम् २ मानुषी ३ तिरश्ची ३ पर्याप्तमनुष्यः ४ पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतियंक ४ अपर्याप्तमनुष्य: ५ अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक २ ३ ४ ५ । । एकेद्रियः द्वीन्द्रिय: त्रीन्द्रियः चतुरिन्द्रियः पञ्चेन्द्रियः पृथ्वीकायः प्रप्काय: सामान्यम् पर्याप्तः अपर्याप्तः . १ सामान्यम् २ सूक्ष्मसामान्यम् ३ पर्याप्तसूक्ष्मः ४ अपर्याप्तसूक्ष्मः Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणायन्त्रम् ] स्वोपल-प्रेमप्रभावृतिसुशोभिता भवस्थितिः [२१ परिशिष्टम् ॥ (गाथा - तेषामुत्तर ११३ मार्गणाप्रदशियन्त्रम् बेदः संज्ञी स्त्रीवेदः २पुरुषवेद: इनपुसकदवेदः ..२=५१३ उत्तरमार्गणाः १ संजी २ असंजी देवगतिः ५ देवगतिसामान्यम् ३ भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्का: १२ सौधर्मादिद्वादशकल्पस्थाः ग्रेवेयकाः ५ अनुत्तराः तेजस्काय: वायुकायः वनस्पतिकाय: सकाय: १ सामान्यम • प्रत्येकवनस्पति. ३ पर्याप्तप्रत्येक० ४ अपर्याप्तप्रत्येक साधारणवन० १सामान्यम २ पर्याप्त ३ अपर्याप्तः ५ बादरसामान्यम् ६ पर्याप्तवादरः पर्याप्तबादरः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ दशमं परिशिष्टम् ॥ जघन्यो-त्कृष्टभवस्थितिप्रदर्शियन्त्रम् । (गा. २.८) ओघतो जघन्यभवास्थतिः क्षुल्लकभवप्रमाणा, उत्कृष्टभवस्थितिः ३३ सागरोपमाणि भवति । (मा. २) जघन्यप्रमाणम् | गतिः । इन्द्रियम् । कायः वेदः| संजी सर्वाः| गाथा १०००० वर्षाणि | नरक०प्र०नरक० सर भवनलव्यन्तर०५ १,३,७,१०,१७,२२सा. द्वितीयादि६नरक०६ है पल्यापमम ज्योतिष्कसुर १ १ पल्योपमम् सौधर्मसुर० १ सा.१ " ईशानसुर० १ २ सागरोपमे सनत्कुमारसुर० १. सा. २ ॥ | माहेन्द्रसुर० - १ ७ सागरोपमाणि ब्रह्मसुर० १ ब्रह्मसुराद्युत्कृष्टभव- लान्तकसुरादयः २० स्थितिः क्रमश: .. | चतुरनुत्तरसुरान्ताः । नास्ति सर्वार्थसिद्ध पुर० १ अन्तर्मुहूर्तम् । पर्या०२ योनि०२४ पर्याप्त०६ पर्याप्त | २४ । २क्षुल्लकभवः शेष०५ शेष०१३ | शेष... ३० नप.१] सर्व०२५१ । उत्कृष्टप्रमाणम् | नरकोघ. सप्तमनरक. पञ्चे., प.पञ्चे०२/ त्रस०प० त्रस० २ ३३ सागरोपमाणि । सुरोध, पञ्चानुत्तर०८ .२ संजी०१| १५ | २-७ १,३,७,१०,१७,०२स .क्रमशः मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिमिता [ दशमपरिशिष्ट _ १० wmanasammanganagamayaSITARONIANTICIPATERTANT ACTRESENT HamaraG R AMERHITTAMMERS Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पल्योनमानि साधिकसागरोपमम् भवनपतिसुर० पल्पोपमम् सा. २ सागरोपमे सा. २ " 19 ७ सागरोपमाणि सा. ७ १० १४ 19 १७ : ३१, २२००० वर्षाणि 19 १२ ४९ दिवसाः ६ मासाः ७००० वर्षाणि ३००० " ३ दिवसाः १०००० वर्षाणि ५५ पल्योपमानि पूर्वकोटिवर्षाणि मुं 99 पर्या. विना तिर्य० ४ 19 मनु० ३ ७ १ 17 " व्यन्तरसुर० ज्योतिष्कसुर ० १ सौधर्मसर० १ ईशानसुर० १ सनत्कुमारसुर०_ माहेन्द्रसुर० ब्रह्मसुर० लान्तकसुर० १ १ १ महाशुक्रसुरादयः १५ अप. पञ्चे. ति., अप. मनु. २ एके., बा.ए., प. बा. ए३ पृ., बा. पृ., प.बा., पृ. ३ द्वीन्द्रिय. प. द्वन्द्रय. २ त्रीन्द्रिय.प.त्रीन्द्रिय.२ चतुरिन्द्रिय. प. चतु. २ शेष० ८ अप्, बा. अप्.प. बा. प्रप्. ३ | वायु., बा.वा., प.बा.वा.३ तेज.. बा.ते., प.बा.ते. ३ वन., पत्ये.,प.प्रत्ये. ३ शेष० २५ स्त्री. १ प्रसंज्ञि. १ ७ १ १ १ १ १ १ av x w৩ ४ ४ ४ त १ १५ ६ ३ ३ ३ १ YYov ३५ 100 000 xx AN ४ ५ xww we ६ ६ ६ ७ ८ V55 भवस्थितियन्त्रम ] स्वोपज्ञ - प्रेमप्रभावृत्तिसुशोभिता भवस्थितिः [ ३१ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्रीवीरशेखरविजयनिर्मिता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिमुशोभिता भवस्थितिः दशपरिशिष्टपरिकलिता . समाप्ता Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ он ч Одоо бои