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कर्मसाहित्ये निष्णाताः प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाच सिद्धान्तमहोदधय आचार्य भगवन्तः
(ग्रन्थ ३८)
श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराः
मणिवर्य श्रीवीरशेखर विजयसूत्रिता
स्वोपज्ञ
प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता
भवस्थितिः (१)
दशपरिशिष्टपरिवृता
नमो तित्थम्म
भारतीय प्राच्यतत्व प्रकाशन समिति पिंडवाडा
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॥ श्रीशङ्केश्वरपाश्वनाथाय नमः। ॥ श्री प्रात्म-कमल-वीर-दान-प्रेम-हीरसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति पिंडवाडा संचालिताया प्राचार्यदेवश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरकर्मसाहित्यजनग्रन्थमालाया
. अष्टात्रिशो (३८) ग्रन्थः कर्मसाहित्ये निष्णाताः प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाच
सिद्धान्तमहोदधय आचार्य भगवन्तः
श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराः
गणिवर्यश्रीवीरशैखर विजयसूत्रिता
स्वोपज़प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः (१) दशपरिशिष्टपरिवृता
प्रकाशिका-भारतीय-प्राच्य-तत्त्व-प्रकाशन-समितिः पिण्डवाडा।
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प्रथम आवृत्तिःप्रति ५००
राजसंस्करण-७) रु०
वीर संवत् २५१३ विक्रम संवत् २०४३
* प्राप्तिस्थान * भारतीय प्राच्यतच्व प्रकाशन समिति
१/० रमणलाल लालचंद शाह १३५ / २३७ झवेरी बाजार, बम्बई २
भारतीय प्राच्यतश्व प्रकाशन समिति C/o शा. समरथमल रायचंदजी पिंडवाड़ा ( राज० ) स्टे. सिरोही रोड (W.R.)
भारतीय प्राच्यतश्व प्रकाशन समिति शा. रमणलाल वजेचन्द, C/o दिलीपकुमार रमणलाल मस्कती मार्केट,
अहमदाबाद २.
मुद्रक - ज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिंडवाडा स्टे. - सिरोहीरोड (W. R . )
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PAWAT
SSAD
मूलग्रन्यकृद् वृत्तिग्रन्यकृत्सम्पादकश्च
- प्रवचनकौशल्याधार-सिद्धान्तमहोदधि-सुविशालगच्छाधिपतिपरमशासनप्रभावक-कर्मसाहित्यनिष्णात-परमपूज्य-स्वर्गताऽऽचार्यदेवेशश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरविनीताऽन्तेवासिनिःस्पृहशिरोमणि-गीतार्थमूर्धन्य-परम-पूज्या-ऽऽ चार्यदेव-श्रीमद्विजयहीरसूरीश्वरशिष्य गणिवर्यश्रीललितशेखरविजयशिष्य. गणिवर्यश्रीराजशेखरविजय.
शिष्यः
गणिवर्यश्रीवीरशेखरविजयः
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First Edition
DELUXE EDITION
copies 500} DELUXE EDITION RS. 7 { A.D. 1987
AVAILABLE FROM
1. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti,
C/o. Shah Ramanlal Lalchand,
135/137 Zaveri Bazzar BOMBAY - 400 002
(INDIA) 2. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti C/o. Shah Samarathmal Raychandji, PINDWARA, 307022 (Raj.)
(INDIA) 3. Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti
Shake Rainanlal Vajechand, C/o Dilipkumar Ramanlal,
Maskati Market, AHMEDABAD-380002
(INDIA)
Printed by :Gyanodaya Printing Press
PINDWARA. (Raj.) 8t. Sirohi Road, (W.R.)
(INDIA)
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Acharyadeva-Shrimad-Vijaya-Premasurishwarji Karma-Sahitya-Granthmala
GRANTH NO. 38
BHAVASTHITIHI [1] Along With PREMA PRABHA Vrutti WITH TEN APPENDICES By GANIVARYA SHRI
VEERSHEKHAR VIJAYA MAHARAJA
5
Inspired and Guided by
His Holiness Acharya Shrimad Vijaya PREMASURISHWARJI MAHARAJA the leading authority of the day on Karma Philosophy.
कामो तित्थस्स
Published by
Bharatiya Prachya Tattva
Prakashana Samiti, Pindwara (INDIA)
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* प्रकाशकीय निवेदन ® हमें यह निवेदन करते हुए अपरिमित ह की अनुभूति हो रही है कि सन् १९६६ में अहमदाबाद में हमारी भारतीय प्राच्य-तत्त्व प्रकाशन समिति द्वारा सर्व प्रथम तत्प्रकाशित कर्म साहित्य के आद्य दो ग्रन्थरत्नों का विशाल कुकुमपत्रिका, अनेकविध पत्रिकाओं और पुस्तिकाओं आदि के द्वारा अत्यन्त विराटकाय एवं भव्य समारोह में विमोचन किया गया था । उस अवसर पर दोनों ग्रन्थरत्नों को गजराज पर विराजमान कर, विराट मानव समुदाय के साथ, अनेकानेक साजों से अलंकृत बडा भारी जुलूस निकाला गया था । सिद्धराज जयसिंह ने सिद्धहेम व्याकरण का भव्य जुलूस निकाला था,उसके बाद सम्भवतः यही सर्वप्रथम साहित्य-प्रकाशन का ऐसा भव्य जुलूस होना चाहिये । इन प्रकाशनों के उपलक्ष में प्रकाश हाई स्कूल में विशाल पैमाने पर प्राचीन तथा अर्वाचीन जैन साहित्य की विविध सामग्री की पृथक्-पृथक् विषयान्तंगत एक भव्य एवं विराट प्रदर्शनिका भी आयोजित की गयी थी एवं प्रबल जनाग्रह के कारण प्रदर्शनिका की अवधि दो तीन दिनों के लिए बढानी पड़ी थी। जुलस के उपरान्त प्रकाश हाई स्कूल के विशाल प्रांगण में सुशोभित मंडप
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प्रकाशकीय निवेदन में चतुर्विध संघ की प्रचुर उपस्थिति में नानाविध कार्यक्रमों के साथ ग्रन्थरत्नों का विमोचन किया गया, जिससे सामान्य जनता एवं बुद्धिजीवी लोग प्रचुररूपेण जैन साहित्य की
और आकृष्ट हुए, जैन साहित्य के दर्शन से भी लोग प्रभावित हुए तथा उक्त समिति के सदस्यों में भी अपूर्व उत्साह, ओज व उमंग का संचरण हुआ। ___ अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप स्वर्गीय परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर महाराज साहब से प्रेरित कर्मसाहित्य के २५ ग्रन्थ आज तक तैयार हो गये हैं तथा और भी तैयार हो रहे हैं । इनके अतिरिक्त अन्य भी अर्वाचीन एवं प्राचीन छोटे बडे लगभग २५ से ३० ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। पन्धविधान महाशास्त्र के सभी भाग मुद्रित होने से सम्पूर्ण बन्धविधान सटीक मुद्रित हो चुका है एवं आज आपके कर कमलों में 'भवस्थितिः (१)' का मुद्रण समर्पित कर रहे हैं ।
इसके साथ ही सत्ताविधान महाग्रन्थ के 'भाष्य. चूर्णि-वृत्तियुता मूलप्रकृतिसत्ता और उनका 'पूर्वाध', 'उत्तरार्ध:' तथा 'आद्यतृतीयांशा' 'भाष्ययुता मूलप्रकृतिसत्ता' 'चूर्णियुता मूलप्रकृतिसत्ता' 'मूलप्रकृतिसत्ता' 'कर्मप्रकृतिकोर्तनम्' 'मार्गणाः' 'जीव. भेदप्रकरणम्"काय स्थिति-भवस्थितिप्रकरणम्''द्रव्य.
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८]
प्रकाशकीय निवेदन
परिमाणम् (१)' 'द्रव्य परिमाणम् (२) ' ' क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम्' 'भवस्थितिः (२) ' ' प्रकरणानि, आदि का भी मुद्रण हम आपके कर कमलों में प्रस्तुत कर रहे है ।
इससे पूर्व भी हमारी संस्था द्वारा 'प्राचीनाः चत्वारः कर्मग्रन्थाः' 'सप्ततिका नामनो छुट्टो कर्मग्रन्थ' '१ थी ५ कर्मग्रन्थ' आदि छोटे बडे ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं।
f
आज तक इस समिति द्वारा प्रकाशित किये गये समस्त ग्रन्थरत्नों की आधार शिला दिवंगत परम पूज्य " आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वर महाराज साहब हैं, जिनकी सतत सत्प्रेरणा, मार्गदर्शन, प्रस्तुत : साहित्य का उद्धार करने की अदम्य उत्कंठा और कालोचित अथक परिश्रम से ही प्रस्तुत ग्रन्थस्त्नों का जन्म हुआ " है तथा इन्हीं महापुरुष के शुभाशीर्वाद से हम ग्रन्थरत्नों के प्रकाशन के महत्कार्य में उत्तरोत्तर साफल्य की ओर पदार्पण कर रहे हैं । इन्हीं महात्मा ने हमारी संस्था को कर्म साहित्य के इन ग्रन्थत्तों के प्रकाशन का लाभ देकर अनुगृहीत किया । अतः हम इनके ऋणी है और इस ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते। अतः ऐसे परमोपकारी महाविभूति आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर महाराज साहब का हम नतमस्तक कोटि-कोटि वन्दन करते हुए, इनके प्रति अवर्ण्य आभार प्रदर्शित कर रहे हैं ।
14
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प्रकाशकीय निवेदन
[६
प्रस्तुत ग्रन्थरत्न के प्रणेता परम पूज्य गणिवर्य श्री. धीरशेखरविजय महाराज साहब का हम सवन्दन आभार मानते हैं। आपके अथक, अविरत, अविरल, एवं सतत परिश्रम के फलस्वरूप ही हम इस ग्रन्थरत्न को पाठकों के करकमलों में समर्पित करने में सक्षम रहे हैं ।
मुद्रण करने में संस्था के निजी ज्ञानोदय प्रिन्टिंग प्रेस के मेनेजर श्रीयुत शंकरदास एवं उनके अन्य कर्मचारी गण भी धन्यवाद के पात्र हैं। ____ इसके अतिरिक्त जिस किसी ने भी जिस किसी भी तरह से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से ग्रन्थ-प्रकाशन में सहायता की हो, उन सभी महानुभावों के प्रति हम अपना हार्दिक आभार प्रदर्शित करते हैं ।
द्रव्यसहायक-शा. भबुतमलजो फुलचन्दजो के सुपुत्र अचलदास, पौत्र मीठालाल, अमृतलाल, सागरमल,रमेशकुमार,जोगातर परिवार (पिंडवाडा निवासी) ने श्रुतभक्ति से अनुप्रेरित एवं अनुप्राणित होकर इस ग्रन्थरत्न के मुद्रण में द्रव्यराशि के सम्यक सहयोग से यथोचित योगदान किया है, अत: हम इनके प्रति ऋणी एवं आभारी हैं।
नजदीक भविष्य में और प्रकाशन की आशा में
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१०]
. प्रकाशकीय निवेदन
भवदीय(i) पिंडवाडा स्टे. सिरोहीरोड (राजस्थान) शा. समरथमल रायचन्दजी (मंत्री) (ii) १३५/१३७ जौहरी
शा. लालचन्द छगनलालजी (मंत्री) बाजार बम्बई-२ . लपाछगनलालजा (मत्रा) भारतीय-प्राच्य-नत्त्व प्रकाशन समिति
* समिति का ट्रस्टी मंडल (१) शेठ रमणलाल दलसुखभाई (प्रमुख) खंभात (२) शा. खूबचंद अचलदासजी पिंडवाडा (३) शा. समरथमल रायचन्दजी मंत्री पिंडवाड़ा (४) शा. लालचंद छगनलालजी मंत्री पिंडवाडा (५) शेठ रमणलाल वजेचन्द अहमदाबाद । (६) शा. हिम्मतमल रुगनाथजी बेडा (७) शेठ जेठालाल चुनीलाल घीवाले बम्बई (८) शा. जयचन्द भबुतमलजी पिंडवाडा
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विषयानुक्रमणिका भवस्थितिः (१) १-४४
पृष्ठाङ्काः
c
४-२१
४
४.६
६.७
७-८ ८-१२ १३-१४
विषयाः वृत्तिकृन्मङ्गलश्लोकानि मूलग्रन्थारम्भमङ्गलादिचतुष्कसूचिकाऽऽद्यगाथामङ्गलादिचतुष्कम ओघत उत्कृष्ट-जघन्य मवस्थितिः प्रादेशत उत्कृष्ट भवस्थितिः नरकगत्योघादीनाम (१०) प्रथमादिसप्तनारकाणाम् (७) तिर्यग्गत्योघादीनाम प्रसंजि-पर्याप्तासंज्ञिनो: (२) देवभेदानाम् एकेन्द्रियौघादीनाम् द्वीन्द्रियौघादीनाम अप्कायौघादीनाम . (९) वनस्पतिकायौघादीनाम (३) सिंहावलोकन्यायेन शङ्का-समाधाने स्त्रीवेदस्य उक्तशेषाणां सप्तत्रिंशतः । (३०) प्रादेशतो जघन्यभवस्थितिः नरकगत्योघादीनां द्वितीयादिनरकषटकस्य (६) ज्योतिष्कादिसुराणां (२७) सर्वपर्याप्तादीना शेषत्रिपञ्चाशतः
(६)
१७-१८ १८.१६
२० २०-२१ २१.२९ २१-२३
२४-२८ २८.२६
(५३)
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१२ ]
विषयानुक्रमणिका
पृष्ठाङ्काः
३०-३१ ३४-४३
३४.३५
विषयाः भवस्थितिग्रन्थोपसंहारः परिशिष्टानि प्रथमे परिशिष्ट मूलगाथाः द्वितीये परिशिष्टे मूलगाथाद्यांशाः तृतीये परिशिष्टे साक्षिग्रन्थाः चतुर्थे परिशिष्ट साक्षिग्रन्थकाराः पञ्चमे परिशिष्ट -ऽतिदिष्टग्रन्थाः षष्ठे परिशिष्ट ऽतिदिष्टग्रन्थकारा: सप्तमे परिशिष्ट व्याकरणसूत्राणि प्रष्टमे परिशिष्ट न्यायाः नवमे परिशिष्ट भवस्थितिसम्बन्धि५ मूलमार्गणोतर११७ भेदप्रशियन्त्रम् दशमे परिशिष्ट उत्कृष्ट-जघन्यमवस्थितिप्रशियन्त्रम् उपसंहारः
४८.४१ ४२-४३
४४
ira
-
-
RE
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पृष्ठम् पङ्क्तिः
शुद्धिपत्रकम
अशुद्धिः ०सद०
न भ० यस्य शिवैः० पतिपादिता
१
१२
शुद्धिः स०
न भ० यस्या oशिवै. प्रतिपादिता इति ।
इति.
२/०सङख्य म् उ० ति प्रवे० प्येकनाभव त, •पृथ्वी
काम'ति० मश० 0माना वायरगोथमा स्वपज्ञ
०सङ्ख्यम् उ० तिः oप्रैवे० प्येकेनाभवति ०पृथ्वी०काम -"ति० ०मर्श माना, बायरगोयमा स्वोपज्ञकुर्वन्तु ०ऊणं प.
MMS
कर्वन्तु
०ऊर्ग
प.
» « MER
१०
सा
सा०
नं.पु १
नपुं०१
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यो कार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐ काराय नमो नमः ॥ ॥
अज्ञानतिमिरान्धार्ना, ज्ञानाञ्जनशलाकया । नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ॥
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प्रथ
गणिवर्यश्रीवीरशेखरविजयसविता स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः (१) दशपरिशिष्टपरिवृता
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- अर्ध्याञ्जलि :जिन्होंने' भवरूपी कूपसे संयमरूपी रज्जु द्वारा बाहर निकाला । और प्रव्रज्यादिन से लेकर बारह साल तक निजी निश्रा में रख कर ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा के साथ साथ ही संस्कृत-प्राकृतव्याकरण न्याय दर्शन तर्क काव्य कोश छन्द अलङ्कार प्रकरण आगम छेदादि विविधविषयक शास्त्रों के परिशीलन द्वारा सुधारस
पीलाया। जिन्होंकी सतत सत्प्रेरणा और कृपादृष्टिसे ही महागंभीर और अतिभगीरथ ऐसे कर्मसाहित्य के नव निर्माण में और सम्पादन में तथा प्राचीन कर्मसाहित्य के सम्पादन आदि में आज लगातार
२७ साल तक प्रयत्नशील रहा हूं। उन कर्मसाहित्य के सूत्रधार सिद्धान्तमहोदधि सच्चारित्र. चूडामणि परमशासनप्रभावक सुविशालगच्छाधिपति परमाराध्यपाद स्वर्गीय
श्राचार्य भगवंतश्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा
__
को परम पवित्र स्मृति में
भवदीय कृपैककाक्षी मुनिवीरशेखरविजय गणी
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सकलागम रहस्यवेदि सूरिपुरन्दर बहुश्रुत गीतार्थ-परज्योतिर्विद परमगुरुदेव
परम पूज्य आचार्य देवैश श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराजा
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कर्म साहित्य ग्रंथोना प्रेरक,मार्गदर्शक अने संशोधक सिध्धान्त महोदधि सुविशाल गच्छाधिपति कर्मशास्त्र रहस्यवेदी शासन शिरछत्र
स्व. परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद विजय प्रेम सूरीश्वरजी महाराजा
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ન:સ્પૃહ શિરોમણિ ગીતાર્થમૂર્ધન્ય | ગચ્છહિંત ચિંતક
સ્વઃ પરમ પૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ જય હીર સૂરીશ્વરજી મહારાજ
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॥ श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ श्री आत्म-कमल-वीर-दान-प्रेम-हीरसूरीश्वरसदगुरुभ्यो नमः॥
मुनिश्रीवीरशेखरविजयसत्रिता
स्वोपज्ञप्रेमप्रभावत्तिपरिकलिता भवस्थितिः
प्रेमप्रभावृत्तिः - दशितसकलजगज्जन भवस्थितिभ्रम भवस्थितिविनाशिम् । श्रीवीरतीर्थनाथं, नौमि सुरासुरनरनतांहिम् ॥ १॥ वीरात्रिपदीं प्राप्य, श्रुतनिधिमिदिशाङ्गय उदिता यैः। तान् गौतमादिगणधर-भगवत एकादश स्तोमि ।२।। यस्या-ऽस्त्यमृतमगुष्ठे, यो-ऽनेकलब्धिसंभृतः । 'प्रभोष्टार्थस्य दायं तं, स्मरामि गौतमं गुरुम ।। ३॥ वन्दे गणधरगुम्फित-मागममहदुदितं शिवकपथम् । सप्तनयसप्तभङ्गी-मिक्षेपचतुष्कसंकलितम् ॥४॥ श्रीशारदां हृदि स्मृत्वा. गुरुं नत्वा श्रुतोदधेः । 'कुर्वे प्रेमप्रभावत्ति, स्वोपजाया भवस्थितेः ।।।
एहि शिष्टजनसमयपरिपालनाय प्रारम्भेऽभीष्टदेवता. स्तुत्याविरूपमङ्गलादिचतुष्कसूचिका पथ्यार्यां निबध्नाति ग्रन्थकार:'खविअभवठिइसिरिमुहरि-पासं पणमिअ हियत्थमत्तसुया । 'वोच्छं भवठिइमोहे, गइइंदियकायवेअसण्णीसु।।१।।(गीतिः)
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२] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ मङ्गलादिचतुष्कमोघतो
(प्रे०) "खवि." इत्यादि, 'क्षपितभवस्थितिषीमुहरिपावं मुहरौ-मुहरिसंज्ञके तीर्थे स्थितः पावः त्रयोविंशतितमो जिनेश्वरो मुहरिपावः, श्रिया=निखिलत्रिलोकोजनानां चित्त. चमत्कारोत्पादिन्या हृदयप्रह्लादकारिण्या परमार्हन्त्यमहाप्रभावप्रकटकारिण्या-ऽष्टमहाप्रातिहार्यादिसंपदाचस्त्रिशदतिशयशोभया समग्रलोकालोकाखिलभावप्रत्यक्षकारिकेवलज्ञानलक्षम्या वा संयुतो मुहरिपावः श्रीमुहरिपार्श्व:क्षपिता विनाशिता भवस्य-संसारस्य नरकादिगतिरूपस्य नारकादिभवलक्षणसंसारसम्बन्धिनीति यावत् स्थितिः वासो येन स क्षपितभवस्थितिः, स चासौ भोमुहरिपावः क्षपितमुहरिपार्श्वस्तम , क्षपितभवस्थितिश्रीमुहरिषाश्वं प्रणम्य' प्रकर्षेण त्रिकरणयोगेन नत्वा-प्रणिपातं विधाय "प्राक्काले" (सि० ५-४-४७) इत्यनेन व्याकरणसूत्रेण प्राक्कालार्थे क्त्वाप्रत्ययस्य विधीयमानत्वेनोत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-"वोच्छं" 'वक्ष्ये मणिष्यामि शब्दतो निरूपणाविषयोकरिष्यामीति यावत् । किम् ? इत्यत पाह-"भवठिई" ति 'भवस्थिति' भवस्य नरकगत्यादिपर्यायरूपस्य भवे-नरयिकादिपर्यायरूपे वा स्थान स्थिति! =जघन्योत्कृष्टावस्थानकालात्मिका भवस्थितिः नरकगत्याद्यन्यतरैक भवसत्कजघन्योत्कृष्टकालावस्थानलक्षणा, ताम् , भवस्थितिम् =एकमवजघन्योत्कृष्टायूरूपाम् । कुत्रेत्यत पाह-"ओहे गहइंदियकायवेअसण्णीसु"ति'प्रोघे गतीन्द्रियकायवेदसंज्ञिपु' प्रोघे-नरकगत्यादिमार्गणाधिशेष विना सामान्यतः प्ररूपणायां तथा विशेषतो गतीन्द्रियकायवेदसंजिरूपमूलमार्गणापञ्चकसत्कसप्तदशाधिकशतोत्तरमार्गरणाभेदेष्विति । ननु किं स्वशक्तिसामर्थ्येन स्वमनसा वक्ष्य उताऽन्यथेत्यत पाह- "अत्तसुया" त्ति, 'प्राप्तश्रुतात्' “गम्ययपः कर्माधारे" (सि.२-२-७४) इति व्याकृतिवचनेनाऽऽप्तश्रुतमाश्रित्य,
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द्विधा भवस्थितिः] स्वोपन-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [३ न पुनः स्वतन्त्रतया स्वशक्तिप्रमावेन स्वमनीषिकयेति यावत् अनेन च ग्रन्थकृता स्वस्योद्धतत्वं निराकृतम् , स्वलघुता च प्रदर्शिता, ग्रन्थस्याऽऽदरणीयता चा-ऽऽविष्कृता । किमर्थमित्यत पाह"हियत्। ति 'हितार्थ हिताय = मोक्षाय हितार्थ स्वपरयोरित्याक्षिप्यते ततः स्व-परकल्याणार्थम् ।
तदेवं ग्रन्थकृता मङ्गलादिचतुकं प्रदर्शितम् । तद्यथा-"खविअ. भवठिइसिरिमुह रिपासं पणमिअ' इति गाथांशेन परमाभीष्टदेवता. प्रणतिलक्षणमेकान्तिकमात्यन्तिकञ्च भावमङ्गलं प्रकटीकृतम् , "वोच्छं .. .. " इत्यादिगाथोत्तरार्धेना-ऽभिधेयमभिव्यक्ती. कृतम् , "अत्तसुया' इति पदेन श्रद्धानुसारिणः प्रति गुरुपर्वक्रमरूपः सम्बन्धः प्रादुष्कृतः, तर्कानुसारिणः प्रति पुनरभिधेयाऽभिधायकरूपो-ऽनुक्तोऽपि गम्यत एव । "हियत्थं" इति पदेन च प्रयोजनमपि साक्षाद् व्यजितम् । तथाहि-प्रयोजनं द्विविधम् , अनन्तरपरम्परविभागात् , तद् द्विविधमपि द्वधा, ग्रन्थनिर्मात पठितप्रकारात् , तत्र प्रन्थनिर्मातुरनन्तरप्रयोजनं भव्यजन्तुप्रकृतग्रन्थबोधकारापणम् , ग्रन्थग्रन्थनरूपस्वाध्यायलक्षणाभ्यन्तरतपसा कर्मनिर्जरा वा, पठितुरनन्तरप्रयोजनं प्रकृतग्रन्थज्ञानम् , द्वयोरपि परम्परप्रयोजनं तु परमश्रेयःपदावाप्तिः ॥१॥
॥ इति मङ्गलादिचतुष्कम् ॥ अथ "यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायेनकमवजघन्योत्कृष्टायुः प्रमाणात्मिकां भवस्थित प्ररुरूपयिषरादौ तावत्तामोघतो जघन्योस्कृष्ट मेदतो द्विविधामपि पथ्यापूर्वार्धन प्राहतेत्तीसुदही जेट्ठा, भवे भवठिई लहू य खुड्डभवो । जेट्ठोघव्वऽत्थि णिरय-सुरदुपरिणदितसवेअसण्णीण।।२।(गी.)
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'४ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [भोघतो द्विधा-ऽऽदेशत चोत्कृष्ट
(प्रे) "तेत्तीसु०" इत्यादि, अोघतो 'ज्येष्ठा' उत्कृष्टा भवस्थितिः 'त्रयस्त्रिशदधयः' त्रयस्त्रिशत्सागरोपमप्रमाणा भवेत, अनुत्तरदेव-सप्तमनारकयोरन्यतरस्मिन्नेकस्मिन् भवे उत्कृष्टतस्तावत्कालावस्थायित्वात् 'मध्वी' जघन्या भवस्थितिः 'क्षुल्लक. भवः' षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाऽऽवलिकामितक्षुल्लकमवप्रमाणा मति, मनुष्य-तिरश्चोरन्यतरस्मिन्नेकस्मिन्नपर्याप्तभवे जघन्यतः स्तावम्मात्रकालस्थायित्वात् ।
॥ इत्योघतो जघन्योत्कृष्टभवस्थितिः ॥ ॥अथाऽऽदेशतः सप्तदशाधिकशतमार्गणाना.
मुत्कृष्टमवस्थितिः॥ प्रथा-ऽऽदेशतो भवस्थिति निरूपयितुकाम प्रादौ तावदुत्कृष्टां भवस्थितिमभिदधन् यास्वोघवदस्ति सा. ता मार्गणा संगृह्याह 'शेषेण गाथोत्तरार्धेन-"जेद्रो." इत्यादि, निरय-सुर-द्विपञ्चेन्द्रिय. त्रस-वेद संज्ञिनां' "द्वन्द्वादोश्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते” इति न्यायेन द्विशब्दस्य चतुभिः सम्बन्धाद् निरयस्य-निरयगति. सामान्यस्य सुरस्य-सुरगतिसामान्यस्य द्विपञ्चेन्द्रिययो:=पञ्चे. न्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिययोद्वित्रसयो:-त्रसकायसामान्य-पर्याप्त त्रसकाययोद्विवेदयोः-पुरुषवेद-नपुसकवेदयोद्विसंज्ञिनो:-संज्ञिसामान्य. पर्याप्तसंजिनोश्चेति सर्वमीलितानां दशानां मार्गणानां ज्येष्ठा भव. स्थितिरोघबदस्ति, यथौघ उत्कृष्ट भवस्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा मणिता तथा ऽऽसामपि विज्ञेया, प्रोघवदिहा-ऽप्यनुत्तरसुर. सप्तमनारकयोरन्यतरस्य प्रवेशात् ॥२॥
सम्प्रति रत्नप्रमादिप्रथमादिसप्तनारकेभेदानां नरकगत्य . वान्तरमेवरूपाणामुत्कृष्टां भवस्थिति वक्तुकाम पाहैका पथ्याम् िपढमाइगरिणरयाणं, कमसो एगो य तिणि सत्त दस । सत्तरह य बावीसा, तेत्तीसा सागरा णेया ।।३।।
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मवस्थिति: ] स्वोपज्ञ प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [५ (प्रे० ) "पढमाइग०" इत्यावि, प्रथम प्रावो येषां ते प्रथमादिकाः, "शेषाद्वा" (सि०७-३-१७५) इत्यनेन समासान्तः कचप्रत्ययः, ते च ते निरयाश्च प्रथमादिकनिरयास्तेषां रत्नप्रभा - शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा• प्रङ्कप्रभा - धूमप्रमा-तमः प्रमा-महातमः प्रभासंज्ञक -- सप्तपृथ्वीगतानां सप्तनैरयिकभेदानां 'क्रमशः' क्रमेणैकः, चकारः पादपूयै, एवमग्रे ऽपि श्रयः सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिशत् ' सागराः 'पदैकदेशे ऽपि पदसमुदायोपचारात्सागरोपमाः 'ज्ञेया" प्रकृतत्वादुत्कृष्ट भवस्थितिरवसातव्या । किमुक्तं भवित- प्रथमरत्नप्रभाभिधपृथ्वीनरकस्योत्कृष्ट मवस्थितिरेकः सागरोपमः "अर्थवशाद्वचनविपरिणामः" इति न्यायादिह बहुवचनान्त: सागरोपमशब्द एकवचनान्तत्वेन विपरिणतः । द्वितीयशर्कराप्रमाख्यपृथिवीमारकस्य त्रीणि सागरोपमाः, तृतीय वालुकाप्रभा पृथ्वीने रयिकस्य सप्त सागरोपमाः, चतुर्थपङ्कप्रभासंज्ञकपृथिवीनिरयस्य दश सागरोपमाः, पञ्चमधूम प्रभाभिख्यपृथ्वीनारकस्य सप्तदश सागरोपमाः, षष्ठतमः प्रभानामक पृथिवीनं रयिकस्य द्वाविंशतिः सागरोपमाः, सप्तममहातमः प्रभानामधेयपृथ्वीनिरयस्य त्रयस्त्रित्सागरोपमाः, ततो ऽधिककालस्या ऽनवस्थानात् ।
तथा च पतिपादिता प्रथमादिनिरयाणामुत्कृष्टा भवस्थितिर्जीव समासे
" एगं च तिनि सत य, दस सत्तरसेव हु ति बावीसा | तेत्तीस दहिनामा, पुढवीसु ठिई कमुक्कोसा ॥ २०२॥” इति । तथा वाचक मुख्यैस्तच्वार्थ सूत्रे ऽपि - " तेष्वेक-त्रि-सप्त- दश- सप्तदश - द्वाविंशनि-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्वानां परा स्थितिः । " इति । प्रत्र 'तेषु' इतिपदेन रत्नप्रभाख्यप्रथमपृथ्व्यादिनरकेष्विति बोध्यम् । एवमन्यत्र पञ्चसंग्रह - बृहत्संग्रहणी प्रमुख ग्रन्थेष्वपि गविताऽस्ति ।
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६] मुनिश्री वीरशेखर विजयसूत्रिता [ गति संज्ञि भेदोत्कृष्ट
इयमपि ज्येष्ठा भवस्थिति: सामान्यतो भणिता । विशेषतः पुनस्तत्तत्पृथिवी प्रस्तटेषु पृथक्पृथग्जातीया भवति । सा चेह ग्रन्थगौरवादिहेतुना नाऽधिकृता, ग्रन्थान्तरतो ऽवसातव्या ||३||
इदानीं तिर्यग्गत्योघादिमार्गणानामुत्कृष्टां भवस्थितिमाह - तिरियस परिगदितिरिय-रगरतप्पज्जत्तजोगिणीणं च । तिणि पलिओवमारिण अ - मरणतप्पज्जारण पुव्व कोडी उ ॥ ४ ॥ (गीतिः) ( प्रे० ) " तिरियस्स" इत्यादि, 'तिरश्वः' तिर्यग्गत्योघस्य 'पञ्चेन्द्रिय तिर्यङनर तत्पर्याप्तयोनिमतीनां च एते कृतेतरेतरद्वन्द्वा: षष्ठ्या निविष्टाः, तच्छन्दश्च "द्वन्द्वादौ श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते " इति न्यायात् द्वाभ्यामप्यभिसम्बध्यते, ततश्चायमर्थ:पञ्चेन्द्रियतिरश्व:: [: = पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गतिसामान्यस्य नरस्य = मनुष्यगतिसामान्यस्य तत्पर्याप्तयोः तच्छब्दस्य पूर्ववस्तु परामर्शका रिस्वात्पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय तिर्यक्-पर्याप्त मनुष्ययोः, तद्योनिमत्योः - तिर्यग्योनिमती-ममुष्य योनिमत्योश्च चकारः समुच्चयार्थकः, ज्येष्ठा भवस्थितिस्त्रीणि पत्योपमाणि भवति, युगलिक भवे ततोऽधिकायुः स्थिते र भावात् । यदुक्तं श्रीजीवसमासे - "नरतिरियाणं तिपल्लं च ॥ २०३ ॥ ' इति . तथा श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रे ऽपि "तिरिक्खजोणियाणं नकोसेण तिन्नि पनि भावमाई, एवं मरगुस्सावि (प्रति. ३,सू. २२२ / पत्र. ४०६-२) तथा बृहत्संग्रहण्याम्-"गब्भनरतिपलिआऊ" ( गा० २६०) इति । इदमुक्तं भवति तिर्यग्गत्यो घस्योत्कृष्टा मवस्थितिह पञ्चेन्द्रिय तिर्यगपेक्षयैव त्रिपत्योपमानि प्राप्यते, शेषतिर्यग्भेदानां ततो न्यूनायुष्कत्वात् ।
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भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ ७
प्रदर्शिता चोत्कृष्टमवस्थितिस्त्रिपल्योपममिता पञ्चेन्द्रिय. तिरश्चः श्रीप्रज्ञापनासूत्रे-"पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केव. इयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई"इति । एवं जीवाजीवाभिगमादिसूत्रेष्वपि ।
पञ्चेन्द्रियतिर्यकसामान्यस्य मनुष्यसामान्यस्य चोत्कृष्ट भवस्थितिस्तत्पर्याप्तभेदापेक्षयव संभवति, तदपर्याप्तभेदयोरन्तमुहूर्त. मात्रस्थितिकत्वात्।
पर्याप्तपञ्चेन्द्रिबतिर्यगुत्कृष्टभवस्थितिरपि पर्याप्तगर्भज. चतुष्पदस्थलचरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यगपेक्षयाऽवाप्यते । ___ तस्य चोत्कृष्टभवस्थितियथोक्तमाना प्रतिपादिता मलधारिहेमचन्द्रसूरिभिर्जीवसमासवृत्ती- “पर्याप्तगर्भजस्थल घराणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कृष्ट मायुः''(गा.२१०/पत्र०२८६)इति । ___ तथा पञ्चसंग्रहवृत्तौ मलयगिरिमरिपादः-"चतुष्पदस्थल चराणां त्रीणि पल्योपमानि" (गा. ३५. पत्र. ७१-१) इति ।
तिरश्ची-मानुष्योरुत्कृष्टाभवस्थितिस्त्रिपल्योपमप्रमिता तु देवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपचका-ऽवसर्पिणीप्रथमारकोत्सपिणोषष्ठारकगतपञ्च. भरतपञ्चैरावतसत्कयुगलिन्यपेक्षया संघटते, तेषां तावदायुष्कत्वात् ।
उक्तश्च जीवाजीवाभिगमसूत्रे त्रिविधाख्यायं द्वितीयप्रतिपत्तौ- 'तिरिकग्वजोणित्थीणं भंते केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता १, गो. जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई । --मणु. स्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णता?' गोयमा! खेत्तं पडुच्च जह० अंतो० उक्को तिम्णि पलिओवमाई," (सू०४७/पत्र०५३ २/५४-१) इति। अधुना गाथाशेषेणा-ऽसंज्ञिमार्गणाभेदद्वये प्रकृतमाह-"अमण."
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८) मुनिश्रीवीरशेरविजयसूषिताः [गति-संज्ञि भेदोत्कृष्टइत्यादि, 'प्रमनस्तत्पर्याप्तयोः' प्राकृतत्वात् द्विवचनस्य बहुवचनम्' (सि०८-३-१३०) इत्यनेन द्विवचनस्य स्थाने बहुवचनम् , अमनसः =प्रसंज्ञिसामान्यस्य तत्पर्याप्तस्य-पर्याप्तसंज्ञिनश्चोत्कृष्टा भवस्थि. ति: 'पूर्वकोटि: "पूर्वकोटिवर्षमाना भवति, प्रसंजिना पूर्वकोटिबर्षायुष्कतोऽधिका-ऽऽयुषोऽभावात् ।
एषा-ऽपि संमूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यगपेक्षया प्राप्यते । सा च प्रज्ञापनायां यथोक्ता दर्शिता ।
तथा च तद्ग्रन्थः-"संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं. पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी,......" -- " (सू० १८/पत्र०५७३-१) इति । ___ इमा-ऽपि पर्याप्तापेक्षया बोध्या, अपर्याप्तानां सर्वेषामप्युत्कृष्ट भवस्थितेरन्तर्मुहूर्ततोऽनधिकत्वात् ॥४॥
एतहि देवगतिसत्कैकोनत्रिशदुत्तरभेदानामुत्कृष्ट भवस्थिति पथ्यात्रियेण प्रतिपादयतिभवणस्स साहियुदही, पल्लं वंतरसुरस्स विण्णेया। पलिओवममन्भहियं जोइसदेवस्स गायब्वा ॥५।। सोहम्माईण कमा, अयरा दो साहिया दुवे सत्त । अब्भहिया सत्त य दस, चउदस सत्तरह णायव्वा ।।६।। एत्तो एगेगहिया, गायव्वा जाव एगतीसुदही । उवरिमगेविज्जस्स उ, तेत्तोसाऽणुत्तराण भवे ॥७।।
(प्रे०) "भवणस्स" इत्यादि, 'भवनस्य' 'ते लुग्वा' (सि. ३-२-१८८) इति सूत्रेणोत्तरपदलोपदर्शनेन भवनपतिदेव. स्योत्कृष्टा भवस्थितिः, 'साधिकोदधिः' सातिरेकसागरोपमो भवति, ततोऽधिकायुस्स्थितेरसंमवात् । उक्तश्च जीवसमासे-"प्रसुरेसु
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भवस्थितिः ] स्वोपा-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः ।
सारमहियं" (गा०२०४/पत्र. २००) इति । तथा प्रज्ञापनासूत्रे. ऽपि-"मवणवासीण देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण दस बाससहस्साई, उक्कोमेणं साइरेगं सागरोवम' (सू०१७ /पत्र०१७०-२)इति । एवमन्यत्रा-ऽपि ।
इदानी व्यन्तरदेवमागंणायाः प्रस्तुतं स्तौति- “पल्लं" इत्यादि, 'व्यन्तरसुरस्य' व्यन्तरदेवस्योत्कृष्टभवस्थिति: 'पल्वं'. "देवो देवदत्तः" इति न्यायात् पल्योपमं भवति, तथैवोपलम्भात् । उक्तश्च जीवसमासे-'पल्लो पुण वंतरसुराणं ॥२०४॥" इति ।
तथा प्रज्ञापनायामपि.-"वाणमंतराणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं इस वाससहस्साई उकासेणं पलिओवमं," (सू० १९०/पत्र १७४-२) इति ।
एवमन्यत्रा-ऽपि । अधुना ज्योतिष्कसुरमार्गणाया पाह-"पलिओवम." इत्यादि, ज्योतिदेवस्य' ज्योतिष्कसुरभेदस्योत्कृष्ट भवस्थितिः 'पल्योपममभ्यधिक' साधिकपल्योपममिता ज्ञातव्या। यदुक्तं जीवसमासे'पल्लं च साहियं जोइसे' (गा. २०५) इति । "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इति न्यायेन "जोइसवरिसलक्खाहियं पलिय". इति वचनाद् वर्षलक्षाभ्यधिकपल्योपमप्रमाणा ज्ञातव्या,शास्त्रेषु तथैवोपलम्भात् । उक्तश्च प्रज्ञापनायाम्-"जोइसियाणं देवार्ण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिभोवमट्ठभागो उक्कोसेणं पलिभोवम वाससयसहस्समन्माहियं,' (सू० १०१/पत्र. १७४.२) इति ।
एवमन्यत्राऽपि।
इयमपि चन्द्रापेक्षयाऽवगन्तव्या, सूर्यादीनां सहस्रवर्षाधिकपल्योपमादिकत्वात् । यदुक्तम्
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१०] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ देवभेदोत्कृष्ट
"पलियं च परिसलक्ख, चंदाणं सूरियाण पलियं तु । परिससहस्सेणऽहियं, गहाण पलिओवमं पुण्णं ॥ नक वित्ते पलियद्धं, तारयदेवाण पलियच उभागो । समि देवीणं माउं, उक्कोसं होइ पलियद्ध॥ ॥” इति ।
सम्प्रति वैमानिकदेवानां प्रकृतमाह-"सोहम्माईण" इत्यादि, 'सौधर्मसुरप्रभतीनां महाशुक्रसुरान्तानां सप्तकल्पदेवानामुत्कृष्टभवस्थितिः 'कमात्' क्रमशः "अयरा" इति पदमितः सर्वत्र सम्बध्यते ततः द्वौ' द्वौ सागरोपमौ "मर्थवशाद्वचनविपरिणाम!' इति न्यायादिह बहुवचनान्तोऽपि सागरोपमशब्दो द्विवचनान्तो गृह्यते, 'साधिको द्वो' व्याख्यानात् पल्योपमाऽसङ्घय यभागेनाऽभ्य. धिकं सागरोपमद्वयं 'सप्त' सप्त सागरोपमाः, 'अभ्यधिकाः सप्त' पल्योपमाऽसङ्ख्येयभागेना-ऽभ्यधिकाः सप्त सागरोपमाः, चकारः समुच्चयार्थः, स चोत्तरत्र 'सप्तदश' इत्यस्य प्रान्ते प्रयोज्य:, 'दश' दश सागरोपमाः 'चतुर्दश' चतुर्दश सागरोपमाः, 'सप्तदश' सप्तदश सागरोपमा ज्ञातव्याः, तथैव दर्शनात् ।
___यदुक्तं बृहत्संग्रहण्यां तथा जीवसमासे"दो साहि सत्त साहिय,दस चउदस सत्तरेव-.-" (बृहत्सं० गा.१२/जीवस० गा.२०६) इति।
एवं प्रज्ञापनादिग्रन्थेष्वपि ।
ततश्चायमर्थः-सौधर्मसुरस्य द्वे (२) सागरोपमे, ईशानसुरस्य पल्योपमासङ्ख्यभागाधिके द्वे (२) सागरोपमे, सनरकुमारस्य सप्त (७) सागरोपमाणि, माहेन्द्रसुरस्य पल्योपमासङ्ख्य भागाभ्यधिकानि सप्त (5) सागरोपमाणि, ब्रह्मलोकसुरस्य दश (५०) सागरोपमाणि, लान्तकसुरस्य चतुर्दश (१४) सागरोपमाणि, महाशुनसुरस्य सप्तदश (१७) सागरोपमाण्युत्कृष्टभवस्थितिभवति ।
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भवस्थितिः ] स्वोपश-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ ११
अथ सहस्त्रारप्रमुखाणा सुराणामुत्कृष्टभवस्थिति कथयति"एत्तो" इत्यादि, 'क्रमात्' इति पदं पूर्वतोऽनुवर्तते, ततः 'एतस्मात्' महाशुक्रसुरस्योदितत्वात्तत ऊवं सहस्रारप्रमुखाणां सुराणाम् उत्कृष्टभवस्थितिः क्रमश: 'एकैका-ऽधिकाः'एक केन सागरो. पमेणा-ऽधिकाः वृद्धि नीताः सागरोपमाः 'ज्ञातव्या' यत्तदोनित्यसापेक्षत्वादने यावच्छब्दस्य वक्ष्यमाणत्वात्तावज्ज्ञातव्या यावदेकत्रिशदुदधयः' यावदेत्रिंशत्सागरोपमारिण 'उपरितनवेयकस्य' सर्वग्रेवेयकाणासुपरि स्थितस्याऽऽदित्यसंज्ञकस्य नवमवेयकसुरस्येति ।
अयम्भावः-महाशुक्र सुरस्य सप्तदशसागरोपमेष्वेकस्य सागरोपमस्य प्रक्षेपे-ऽष्टादश (१८) सागरोपमाणि सहस्रारसुरस्य भवति, अनया रीत्या नवमवेयकसुरं यावन्नेतव्यम तद्यथा-प्रानत. सुरस्यकोनविंशतिः (१६) सागरोपमाणि, प्राणतसुरस्य विशतिः (२०) सागरोपमाणि, पारणसुरस्यैकविंशतिः (२१) सागरोपमाणि, अच्युतसुरस्य द्वाविंशतिः (२२) सागरोपमाणि, सुदर्शनसंज्ञकप्रथमवेयकसुरस्य त्रयोविंशतिः (२३) सागरोपमाणि, सुप्रतिबद्धाख्यद्वितीयग्रेवेयकसुरस्य चतुर्विशतिः (२५) सागरोपमाणि. मनोरमनामतृतीयप्रैवेयकसुरस्य पञ्चविंशतिः (२५) सागरोपमाणि,सर्वभद्राऽभिधानचतुर्थग्रेवेयकसुरस्य षड्विशति(२६)सागरोपमाणि,विशालाऽभिधपञ्चमवेयकसुरस्य सप्तविंशतिः (२७) सागरोपमाणि, सुमनसाख्यषष्ठप्रैवेयकसुरस्या-ऽष्टाविंशतिः । (२८) सागरोपमाणि, सौमनसाख्यसप्तमग्रंवेयकसुरस्यकोनविंशत् (२९) सागरोपमाणि, प्रीतकरसंज्ञकाष्टमणैवेयकसुरस्य त्रिशत् (२०) सागरोपमाणि, प्रादित्यनामनवमवेयकसुरस्यकत्रिंशत् (३१) सागरोपमाण्युत्कृष्टभवस्थितिर्भवति ।
यदुक्तं वृहत्संग्रहण्याम्...................सुक्को, तदुवरि इक्किक्कमारोवे ।।१२॥" इति
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१२] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ गतीन्द्रियकायभेदोत्कृष्ट
तथा जीवसमासे-ऽपि"- । एक्काहिया य एत्तो, सक्काइसु सागरुवमाणा ॥२०६।।" इति । ____एवं प्रज्ञापनाद्यन्यग्रन्थेष्वपि ।
प्रधुना-ऽनुत्तरसुराणां प्रस्तुतकायस्थितिमाचक्षते-"तेत्तीसा" इत्यादि, 'अनुत्तराणां' बहुवचनात्पञ्चानां विजय वैजयन्त-जयन्ताऽपराजित-सर्वार्थसिद्धसंज्ञकानामनुत्तरसुराणां प्रत्येक 'त्रयस्त्रिशत्' प्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि 'भवेत्' उत्कृष्ट भवस्थितिः स्यात्, तथैव प्रज्ञापनादिषूपलम्भात्। तथा चात्र प्रज्ञापनासूत्रम्-"विजयधैजयंत-जयंत-अपराजितेसुण भते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं साग. रोवमाई... । सव्वसिद्धगदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! प्रजहण्णुक्कोस तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता, (सू.१०२/पत्र०१७८-२) इति ।
तुशब्दो विशेषद्योतनपरः । विशेषश्चायं तत्त्वार्थसूत्रतद्भाष्यकारादीनामभिप्रायेण विजयाद्यनुत्तरसुरचतुष्कस्य प्रत्येक मुत्कृष्टभवस्थितित्रिंशत्सागरोपमाणि भवति ।
यदुक्तं तत्त्वार्थसूत्रे-"प्रारणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्ध च ।" (अ०४,सू०३४/भा०१,पत्र-०३११)इति
तथैव तद्भाष्ये-ऽपि-"विजयादिषु चतुर्वप्येकनाऽधिका द्वात्रिंशत् साप्येकेनाऽधिका त्वजधन्वोत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिशदिति ।" (अ०४,सू०३८/मा०१,पत्र०३११) इति ।
एवं सामान्येन देव दानामुत्कृष्टभवस्थितिः प्रोक्ता, विशेषतस्तु प्रतिप्रस्तटे भिन्न-भिन्नप्रकारा साऽस्ति । सा चेह ग्रन्थः गौरवभयान्नोक्ता बहत्संग्रहण्यादिषु दर्शनीया ॥५-७॥
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भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेममप्रमावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ १३
एतो केन्द्रिय-पृथ्वीकायमेदषट्क उत्कृष्टभवस्थितिमेकयापथ्यार्यया प्राहएगिदिय-पुहवीणं, वरिससहस्सारिण होइ बावीसा । सा चेव होइ तेसि, बायरबायरसमत्ताणं ॥८॥
(०) "एगिदियः" इत्यादि, 'एकेन्द्रियपृथिव्योः' एकेन्द्रियसामान्य-पृथिवीकायसामान्ययोरुत्कृष्ट भवष्यतिविंशतिवर्षसहस्राणि भवात, 'सा चैव' द्वामितिसहस्रवर्षमानवोत्कृष्टभवस्थितिः 'तयोर्बादर-बादरसमाप्तयोः' तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरा. मशित्वात् तयोः एकेन्द्रिय-पृथिवीकाययोः प्रत्येकं बादर-पर्याप्तबादर. भेदयोरेतायता बावरकेन्द्रिय-पर्याप्तबादरैकेन्द्रिय-सदरपृथ्वीकाय. पर्याप्तबादरपृथ्वीकायानां भवति । एकेन्द्रियाणाञ्च पृथ्वीकाया. (पेक्षयोत्कृष्ट भवस्थितिः प्राप्यते,शेषाप्कायादिभेदानामेतावत्या उत्कृष्ट. मवस्थितेरभावात् । प्रतिपादिता च यथोक्तज्येष्ठभवस्थितिः पृथ्वीकायस्य प्रज्ञापनायाम्-'पुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उनकोसेणं बावीसं वाससहस्साई" (सू० ९६/पत्र० .१७१-२) इति । पृथ्वोकायसामान्यस्या-ऽप्युत्कृष्टस्थिति दरपृथ्वीकायापेक्षया भवति। सा-ऽपि तत्रैव प्रज्ञापनायां तथैव दर्शिता । तथा च तद्ग्रन्थ:'बायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुन्। उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई, सू. ९६/पत्र. १७१-२) इति । तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र-ऽपि- से किं तं बादरपुढविकाइया?-, ....ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई।" (प्रति०१, सू०१४-१५/पत्र०२२-१)इति । एवमन्यत्रा-ऽपि ।
बादरपृथ्वीकायस्योक्तोत्कृष्ट भबस्थितिः पर्याप्तबादरपृथ्वी कायापेक्षया भवति, अपर्याप्तबादरपृथ्वीकायिकोत्कृष्ट मवस्थितेरन्त
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१४ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ इन्द्रिय कायभेदोत्कृष्ट - मुहूर्तमात्रत्वात् । उक्ता च पर्याप्तबादरपृथ्वीकायस्योत्कृष्टा भवस्थितिमलयगिरिमरिपादैः पञ्चसंग्रहवृत्तौ-“उत्कृष्टा भवस्थितिबर्बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकानां द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि ।" (गा० ३५ मलयगिरिवृत्तिः /पत्र०७०-२) इति ॥८॥
अधुना विकलेन्द्रियभेदषटकस्योत्कृष्टा भवस्थितिरेकया पथ्यार्यया प्रतिपाद्यतेबेइंदियाइगाणं, कमसो बारह समा अउणवण्णा । दिवसा तह छम्मासा, एवं तेसि समत्ताणं ।।।
(प्रे०) "बेह दियाइगाणं" इत्यादि, 'द्वीन्द्रियादिकानां' द्वीन्द्रिय प्रादिर्येषाम्. ते द्वीन्द्रियादिकाः, शेषाद्वा" (सि०७-३-१७५) इत्यनेन कचप्रत्ययः, तेषां द्वीन्द्रियौघ-त्रीन्द्रियौघ चतुरिन्द्रियौघानामुत्कृष्ट भवस्थितिः क्रमशो द्वादश 'समाः' वर्षाण्येकोनपञ्चाशाद् दिवसास्तथा षण्मासा भवति । तथाहि द्वीन्द्रियसामान्यस्योत्कृष्टभवस्थितिवश वर्षाणि, त्रीन्द्रियसामान्यस्योत्कृष्टभवस्थितिरेकोन. पञ्चाशवहोरात्राः,चतुरिन्द्रियसामान्यस्य च षण्मासा भवति ।
उक्तश्च प्रज्ञापनायाम्-"बेइदियाणं भते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारससंवच्छराई, ........तेइंदियाणं भंते ! केवयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं एगूणवन्न राइंदियाई,-चउरिदियाणं भंते ! केवइयं कालंटिई पन्नचा ?, गोयमा!, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं छम्मासा, (सू०९७/पत्र०१७२-२) इति ।
तथैव जीवाजीवाभिगमसूत्रे ऽपि-“से किं तं बेइंदिया ? ....ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि,से किंतं तेइंदिया?, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णराइंदिया; ....से किं तं चउरिदिया? -ठिती उक्कोसेणं छम्मासा-'इति ।
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भवस्थिति। ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थिति: [ १५ (प्रति०१,सू.२८-२९-३०/पत्र०३०.२/३२-१-२) इति । तथा जीव. समासेऽपि-'बारस अउणप्पन्न, छप्पिय वासाणि दिवसमासा य। बेइंदियाइयाण-..." (गा०२०८) इति । एवमन्यत्रा-ऽपि ।
एवंशब्दस्य समानवाचित्वाद् यथौघानामुक्ता तथैव 'तेसि समाप्ताना'तच्छब्दस्य पूर्वप्रस्तुतस्य परामर्शविधायकत्वात् पर्याप्तानां द्वीन्द्रियादीनामपि बोध्या । तद्यथा-पर्याप्तद्वीन्द्रियस्योत्कृष्टभव. स्थितिादश वर्षाणि,पर्याप्तत्रीन्द्रियस्योत्कृष्टभवस्थितिरेकोनपञ्चाशदिवसाः, पर्याप्तचतुरिन्द्रियस्योत्कृष्ट मवस्थितिः षण्मासा भवति ।
उक्तञ्च पञ्चसंग्रहमलयगिरिमरिवृत्ती
"पर्याप्तद्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टा भवस्थितिवादशवर्षाणि । पर्याप्तत्रीन्द्रियाणामेकोनपनाशद्दिवसाः। पर्याप्रचतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः।" (गा०३५ मलयगिरिवृत्तिः /पत्र०७०-२) इति ॥६।।
प्रथा-ऽप्कायौघादिनवकायभेदानामुत्कृष्ट भवस्थिति वक्तुकाममाह पथ्यार्याम्दगवाऊणं कमसो, वाससहस्सारिण सत्त तिण्णि भवे । तिदिणा-ऽग्गिस्सेवं सिं, बायर-बायरसमत्ताणं ॥१०॥
(प्रे०) "दग०" इत्यादि, 'दक-वाय्वोः' प्रकायौघ-वायु कायौघयोरुत्कृष्ट भवस्थितिः क्रमशः सप्त त्रीणि सहस्रवर्षाणि भवेत् ।
इदमुक्तं भवति-प्रकायिकसामान्यस्योत्कृष्टभवस्थितिः सप्त. सहस्र (७०००) वर्षाणि वायुकायिकसामान्यस्योत्कृष्ट भवस्थितिस्त्रिसहस्र (३०००)वर्षाणि भवति ।
उक्तञ्च प्रज्ञापनायाम्-"प्राउकाइयाणं भंते ? केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं सत्तवास. सहस्सा........बाउकाइयाणं भंते ! केवइय कालं ठिई पन्नत्ता ?
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१६]
मुनिश्री शेखर विजयसूत्रिता [ शेषभेदोत्कृष्ट
गोयमा । जहन्नेणं प्रतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्निवास सहरसाई (सू०९६ / पत्र० १७१-२-१७२ - १ ) इति ।
प्रथाग्निकायसामान्यस्याऽऽह - 'तिदिणा ०" इत्यादि, 'प्रग्ने' अग्निकाय सामान्यस्योत्कृष्ट भवस्थितिः 'त्रिदिनाः' त्रयो ऽहोरात्री भवति । तथा चात्र प्रज्ञापनासूत्रम्"ते कायाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अं तो मुहुत्तं उक्को सेणं तिन्नि इंदियाई" (सू०६६/१०९७२ - १ ) इति । जीवाजीवाभिगमेsपि से किं तं बादरतेडकाइया ?
ठिती जहन्नेणं अतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राई दिखाई......." (प्रति० १, सू०२५/१० २= ) इति ।
suranceायादिभेदत्रयस्य प्रत्येकं बादर-पर्याप्तबावरभेदयोराह - " एवं " इत्यादि, 'एवम्' एवंशब्दः साम्यार्थी, तत एवं= art-seaterविसामान्यानामुत्कृष्ट भवस्थितिरुक्ता तथैव 'तेषां बादरबादरसमाप्तानां तच्छब्दस्य पूर्ववस्तुपरामशकत्वात् प्रष्काय-वायु'काया-निकायानां प्रत्येकं बांदर पर्याप्तबादरभेदयोरपि भवति ।
किमुक्तं भवति - यथा - ऽष्काय सामान्यस्योत्कृष्ट भवस्थिति: सप्तसहस्त्र हायनान्युक्ता तथैव बादराऽष्काय पर्याप्तबादरा- उप्काययोरप्युत्कृष्टभवस्थितिः सप्तसहस्रसमा भवति, एवं बादरवायुकायपर्याप्तबादरवायुकाययोरुत्कृष्ट भव स्थितिस्त्रिसहस्रवर्षमाना बादर तेजस्काय ---- पर्याप्तबादरते जस्का । ययोरुत्कृष्ट मवस्थितिस्त्रिदिवसप्रमाणाऽस्ति यतः सामान्यभेदानामपि बांदरभेदापेक्षयोत्कृष्टामवस्थितिर्भवति बादराणाश्च यथोक्त मवस्थितिर्दशिता प्रज्ञापनासूत्रे । तथा च तद्ग्रन्थ : - " बादरभाउकाइयांण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं मंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्त वाससहरसाई - काइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अतो मुहुतं उक्को सेणं तिन्नि
Poe · वायर
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मवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ १७ राईदियाई बायरवाउकाइयाणे पुच्छा गोयमा !जहन्मेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साई"(सू०९६/पत्र० १०२) इति ।
तथा जीवाजीवाभिगमेऽपि- . "से किं तं बायरआडक्काइया ? ----ठिती जहण्नेग अतोमुहुरी उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई, ............. से कि तं बादरतेउकाइया ? .......ठितो जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राईदियाई,.............. से कि तं बादरवाउक्काइया ?.......-ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक कोसेणं तिनि वाससहस्साई" (प्रति० १, सू० १७-२५.२६/ पत्र ०२४/२-२८-२९),इति । एवमन्यत्रा ऽपि ।
बावराणामपि यथोक्तोत्कृष्ट भवस्थिति: पर्याप्तबादरापेक्षया संभवति, अपर्याप्तबादराणामुत्कृष्ट भवस्थितेरन्तमुहूर्तमानत्वात् ।
___ उक्ता च यथोक्तज्येष्ठभवस्थितिः पर्याप्तबादराणां पत्रसंग्रहमलयगिरीयवृत्ती
"बादरपर्याप्ताकायिकानां सप्तवर्षसहस्राणि, बादरपर्याप्रतेजस्कायिकानां त्रयोऽहोरात्राः । पर्याप्तबादरवायुकायिकानां त्रीणि वर्षसहस्राणि, (गा० ३५/पत्र०७०-२) इति ॥१०॥ इदानीमेकया गाथया शेषमार्गणाभेदानामुत्कृष्टभवस्थिति दर्शयतिवासाऽत्थि दस सहस्सा, वरणपत्तेअवणतस्समत्ताणं । थी. पणवण्णपलिआ, सगतीसाए मुहत्तंतो ॥११॥
(०) "वासा" इत्यादि, 'वनप्रत्येकवनतत्समाप्ताना' पदैकवेशेना-ऽपि पदसमुदायस्या-ऽभिधानदर्शनाद् वनशब्देन वनस्पतिरुच्यते ततो वनस्पतिकायसामान्यस्य प्रत्येकवनस्पतिकायसामान्यस्य पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायस्य चोत्कृष्टभवस्थितिर्दशसहस्राणि वर्षा मस्ति, तथैव शास्त्रेषूपलम्मात् ।।
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१८ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ शेष भेदोत्कृष्ट
यदुक्तं वनस्पतिसामान्यस्य प्रज्ञापनायाम्- "वणफइ. काइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नता? गोयमा ! जहन्नेणं मतो. मुहु उक्कोसेणं दस वाससहस्साई, (सू०९६/पत्र०१७२-२) इति ।
प्रत्येकवनस्पतिकायस्य जीवसमासवृत्तौ-(गा.२०७/पत्र.२०५) "बाररप्रत्येकतरूणां दशवर्षसहस्राणि" इति ।
पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायस्य पञ्चसंग्रहवृत्तौ-- "पयांप्तबादरप्रत्येकवनस्पतीनां दशवर्षसहस्राणि" (गा०३।मा०१, पत्र०७०-२) इति । एवमन्यग्रन्थेष्वपि । । उक्तार्थसंक्षेपसंग्राहिणी वृहत्संग्रहणीसत्का गाथेमा
"वाबीससगति दसवाससहसगणितिविणबेडआईसु। बारसवासुणपणदिण छमासतिपलिमठिई जिट्ठा ॥ ॥"
(चन्द्र० गा० २५६/२८४/४५६) इति । - अथ सिंहावलोकन्यायेना-ऽन्त्यदीपकन्यायेन वा परोत्थशङ्कासमाघानं विधीयत-ननु भक्ता सर्वत्र पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादीना. मुत्कृष्ट भवस्थितिस्त्रिपल्योपमादीनि परिपूर्णानि प्रोक्ता, प्रज्ञापनासूत्र-जीवाजीवाभिगमसूत्रादिषु पुनरपर्याप्तसत्कान्तसुहूर्तेनोना दशिता । तथा चात्र प्रज्ञापनासूत्रम्-"पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ?,...पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं मंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई तोमुहुत्तणाई, (सू०९८)....... पज्जत्तमणुस्साणं पुच्छा, गोबमा ! जहन्नेणं संतोमुहुत्तं उक्कोसे तिनि पलिभोवमाभतोमुहुतूणाई (सू०६)...... संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खिजोणियाणं...पज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं मंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुषकोडी अंतोमुहुत्तूणा । (सू०१८) पज्जत्तयबायरपुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं मंतोमुहुत्तं
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भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ १६
उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई -- बायरभाउ. काइयाणं पज्जत्तयाण य पुच्छ। गोगमा! जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कासे सत्त वाससहस्साई मंतोमुत्तूणाई........... बायरतेउ. काइयाणं............पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं मंतोमुहुसं उकोसेणं तिनि गइंदियाई अंतोमुहुत्तूणाई। ....बायरवाउकाइ. याणं ...पज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेण तोमुहुत्तं उक्कोसेणं निनि वाससहस्साई मंतोमुहुत्तूणाई।....वायरवणफइकाइयाणं.... पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेर्ण अंतोमु उनकोसेणं दस वाससहम्साईतोमुहुत्तूणाई(सु. ६६)...वेइ दियाणं....पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेगं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छरा अंतोमुहुत्तूणाई। तेदियाणं...........पज्जत्तयाणं पुच्छा,गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहु उक्कोसेणं एगुणवन्न राईदिया अंतोमुहुत्तू. गाई। चउरिदियाणं-पज्जत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं मतोमुहुत्त उक्कोसे छम्मासा अंतोमुहुत्त णाई (सू०१७) (पत्र० १७१-२/१७४०२) इति । एवं जीवाजीवाभिगमे-ऽपि । तथैव पर्याप्तनारक-देवतानामपि । ततस्तेन सह प्रकृतग्रन्थस्य कथं न विरोध इति चेत् , उच्यते-प्रज्ञापनासूत्र-जीवाजीवाभिगमसूत्रादिषु पर्याप्तत्वेन करणपर्याप्ता गृहीता इह पुनर्लब्धिपर्याप्ताः पर्याप्त. नामकर्मोदयवन्तो विवक्षिताः । लब्धिपर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मो. दयवन्तो हि करणाऽपर्याप्ता अपि भवन्ति, करणापर्याप्तावस्थायामपि पर्याप्तनामकर्मोदयभावात् । तेनेहा--ऽपर्याप्तसत्कमन्तर्मुहूर्त न त्यक्तम्।
___ एवमन्यग्रन्थेष्वपि । तदेवमत्र विवक्षाकृत एव भेवः, न पुनविरोधो मतान्तरं वेति।
एवमन्यत्र पर्याप्तसूक्ष्माशु त्कृष्टभवस्थितिप्रसङ्ग तथा जघन्य. भवस्थित्यादिप्रस्तावेऽपि विज्ञेयम् ।
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२० ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ शेषभेदोत्कृष्ट
अधुना स्त्रीवेदस्योत्कृष्ट भवस्थितिमाह "थीअ" इत्यादि, 'स्त्रिया:' स्त्रीवेवस्योत्कृष्टभवस्थितिः 'पञ्चपञ्चाशत्पल्याः' पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमाणि भवति, · अपरिग्रहीतैशानदेवलोकदेव्या उत्कृष्टायुषस्तावन्मात्रत्वात् ।।
यदुक्तं श्रीप्रज्ञापनायाम-"ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियदेवीणं पुच्छा, गोयमा,! जहन्नेण साइरेगं पलिओवमं उक्कोसेणं पणपनाई पलिभोवमाई," (पद.४,सू० १०२/मा.१, पत्र.१७६.२) इति ।
तथा जीवाजीवामिगमसूत्रे-"इत्थी गं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ?, गोयमा! एगेणं आएसेणं ... ........ उक्कोसेणं पण्णपन्न पलिमोषमाई"(प्रति.२,सू.४६/पत्र.५३) इति ।
तथा चाऽस्य मलयगिरिवृत्ति:-'स्त्रिया भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता १भगवानाह-गौतम !, 'एकेनादेशेन' आदेशशब्द इह प्रकारवाची 'आदेशो त्ति पगारो' इति वचनात् एकेन प्रकारेण, .............. उत्कृष्टतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतदीशान. कल्पापरिगृहीतदेव्यपेक्षम्।' (पत्र०५३-२) इति ।
तथा बृहत्संग्रहण्यामपि-....--"पणपन्ना य देवीणं ॥१५॥" (जिन गा.१७॥१३) इति । एवं तद्वृत्तावपि ।
तथा चन्दर्षिप्रणीतबृहत्संग्रहणी--"परिगहिआणियराणि य, सोहम्मीसाण देवीणं ॥१॥' .....उक्कोसा । पलियाई....... पंचवण्णा य ॥१२॥" इति । एवं तवृत्तावपि ।
तथैव पञ्चसंग्रहमलयगिरिसरिवृत्तावपि-"ईशानकल्पे.... . ....अपरिगहीतदेवीनाम् .....------उत्कृष्टा पञ्चपञ्चाशत्पल्यो. पमानि ।" (द्वा.२,गा०३५/भा. १,पत्र. ७२-१) इति।
प्रथा-ऽवशिष्टानामपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादिसप्तत्रिंशभेदा नामुत्कृष्टभवस्थिति गाथाशेषेण प्राह-"सग." इत्यादि, 'सप्त.
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मवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ २१ त्रिंशतः' उक्तोद्धरितानामपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां सप्त. त्रिशतः 'मुहूर्तान्तः' अन्तर्मु हुत्तं भवति, अपर्याप्तत्वेन वा सूक्ष्मत्वेन वा साधारणवनस्पतिकायत्वेन वा यथोक्तस्थितितोऽनधिकत्वात् ।
उक्तञ्च जीवसमासे"एएसिं च जहण्णं, उभयंसाहार सव्वसुहमाणं । अंतोमुहुत्तमाऊ, सब्वापज्जत्तयाणं च।।२११॥” इति ।
- शेषसप्तत्रिंशतभेदाश्चेमे-अपर्याप्तञ्चेन्द्रियतिर्यग-ऽपर्याप्त. मनुष्य - सूक्ष्मैकेन्द्रिय- पर्याप्तसूक्ष्मकेन्द्रियाऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिया । ऽपर्याप्तबादरैकेन्द्रिया- ऽपर्याप्तद्वीन्द्रिया-ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिया-ऽपर्याप्त. चतुरिन्द्रियाऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रिय - सूक्ष्मपृथ्वोकाय -पर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकाया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकाया-ऽपर्याप्तबादरपृथिवीकाय-सूक्ष्माप्काय. पर्याप्तसूक्ष्मा काया-ऽपर्याप्तसूक्ष्माप्काया-ऽपर्याप्तबादराप्काय-सूक्ष्म. तेजस्काय-पर्याप्तसूक्ष्मतेजस्काया-ऽपर्याप्तसूक्ष्मतेजस्काया-ऽपर्याप्तबादरतेजस्काय-सूक्ष्मवायुकाय-पर्याप्तसूक्ष्मवायुकाया ऽपर्याप्तसूक्ष्मवायुकाया-ऽपर्याप्तबादरवायुकाय-साधारणशरीरवनस्पतिकाय-सूक्ष्म. साधारणशरीरवनस्पतिकाय - पर्याप्तसूक्ष्मसाधारणशरीरवनस्पतिकाया - ऽपर्याप्रसूक्ष्मसाधारणशरीरवनस्पतिकाय - बादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाय • पर्याप्तबादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाया. ऽपर्याप्तबादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तप्रत्येकशरीरवन. स्पतिकाया-ऽपर्याप्तत्रसकाया-ऽपर्याप्तसंश्य-ऽपर्याप्तासंजिरूपाः॥१२॥
॥इति मार्गयानामुत्कृष्टमपस्थितिः ॥ ॥ अथ सप्तदशाधिकशतमार्गणानां जघन्यमवस्थितिः ।
साम्प्रतं गाथाचतुष्केण सर्वेषां सप्तदशोत्तरशतमार्गणाभेवानां जघन्यमवस्थिति प्रतिपादयन्नादौ तावदेकया पथ्यार्यया सर्वनरकभेदानामष्टानां सुरभेदत्रिकस्य चेत्येकादशभेदानां जघन्यमवस्थिति प्रकटयति
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२२ ]
मुनिश्रीवीरशेखर विजयसूत्रिता [ नरक - सुरमेद जघन्यहस्सा गिरयज्जरि रय- सुर- भवरणदुगारण दससहस्ससमा । दुइआइ गरिरयाणं सा पढमाइरिणरयाण जा जेठ्ठा ॥ १२ ॥ (गी.) पलियस्स अट्ठभागो, जोइसिअस्स पलिओवमं णेया सोहम्मसुरस्स भवे, ईसारणस्सऽब्भहियपल्लं ॥ १३ ॥ दोणि हवेज्जा जलही, सणकुमारस्स दोणि अब्भहिया । माहेंदस्स हवेज्जा, सत्त भवे बम्भदेवस्स ॥१४॥ लंतगदेवाईणं, सा बम्हसुराइगारण जा जेट्ठा । पज्जत्तजोरिणीपुम थीणंत मुहुत्त मियरखुड्डुभवो ॥ १५ ॥ (गीति :) (प्रे) "हस्सा" इत्यादि, 'निरयाऽऽद्यनिरय- सुर- भवन. द्विकानाम्' निरयस्य = नरकगतिसामान्यस्याऽऽद्य निरयस्य = रत्नप्रभाभिधाऽऽद्यनरकस्य सुरस्य – देवगतिसामान्यस्य भवनद्विकस्य = 'देवो देवदत्तः' इति न्यायेन भवनशब्देन भवनपतेर्ग्रहणाद् भवनपतिसुरस्य व्यन्तरसुरस्य प्रत्येकं 'ह्रस्वा' जघन्या मवस्थिति: 'दश सहस्रसमा: ' दशसहस्रवर्षाणि भवति, तथंवाऽऽगमोपलब्धाद् । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां चतुर्थे स्थितिपदे"नेवइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहरसाई, यापुढविनेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा !
·
जहन्नेणं दसवासमहम्साई,
6000 --- ...
497
-
.......
***...
देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा !
जहन्नेणं दसवास सहरसाई,
100
भवणवासीणं देवाणं भंते! के बइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयना !
........00 -
जहन्नेणं दसवास सहरसाई, वाणमंत राण देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवास सहस्साइ" (सू. १४-१५-१००/१०१६८/२-१७०/२) इति ।
172...... 1.
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अवस्थिति: ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभा वृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ २३ एवं जीवाजीवाभिगमसूत्र तत्त्वार्थ सूत्र - बृहत्संग्रहणी - जीवसमासादिग्रन्थेष्वपि ।
तत्र नरकगति सामान्यस्य प्रथमनरकापेक्षया सुरसामान्यस्य भवन पतिसुर-व्यन्तरसुरापेक्षया प्रकृत भवं स्थिति बोध्या । उक्ता च प्रथमनरक भवनपति - व्यन्तराणां यथोक्तभवस्थितिबृहत्संग्रहण्याम्
२०२ ॥ | "
........... कणिट्ठा दसवास सहस्स पढमाए ॥ "दसवास्रसहस्स रयणा ||२३४ | | ( २२० ) दस भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं । ||४||" इति । एवं तवार्थ सूत्र - जीवसमास पञ्च संग्रह मलयगिरिरिवृत्या• दिष्वपि ।
46
....
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1.
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इयश्व जघन्यभवस्थितिरपि नरकगति सामान्यादीनां सामान्येन प्रतिपादिता, न पुनविशेषेण प्रतिप्रस्तटादिभेदेनेह ग्रन्थगौरवादिकारणेण गृहोता, साऽपि बृहत्संग्रहणी प्रमुख ग्रन्थान्तरतो विस्तरार्थिना जिज्ञासुना ऽवगन्तव्या । एवमुत्तरत्रा-ऽपि ।
श्रथ द्वितीयादिशेषनरकभेदषट्कस्य जघन्यभवस्थित गाथोत्तरार्धेनाऽऽह - ''दुह आहग०" इत्यादि, द्वितीयादिकं निरयाण' " "दुइआइग०" शर्कराप्रभादिपृथ्वीगतानां षण्णां नारकभेदानां 'सा' प्रकृतत्वाज्जघन्यभवस्थितिः ः सा भवति सा पुनः का ? इत्याह- 'पढमाइ . " इत्यादि, 'प्रथमादिनिरयाणां रत्नप्रभादिपृथ्वीस्थानां प्रथमादीनां नैरयिकभेदानां या प्राकू “पढमाइगणिरयाणं. कमसो एगोय तिणि सत्त दस । सत्तरह य बावीसा, तेतीसा सागर। रोय | | | ३ || " इति गाथया 'ज्येष्ठा' उत्कृष्टा भवस्थितिर्दशितेति ।
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२४ ] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ निरय देवभेदजघन्य- इदमुक्तं भवति-शर्कराप्रमापृथिवीनरयिकाणां जघन्यमवस्थितिरेक सागरोपमम् , वालुकाप्रभानरकपृथिवीनारकाणां त्रीणि सागरोपमाणि, पप्रभानरकपृथिवीनिरयाणां सप्त सागरोपमाणि, धूमप्रमापृथिवीनरयिकाणां दश सागरोपमाणि तमःप्रमानारकाणां सप्तदश सागरोपमाणि, तमस्तमःप्रमायाश्च द्वाविंशतिः सागरो. पमाणि मवति । उक्तश्च त्रैलोक्यदीपिकायाम्
'जा पढमाए जिट्ठा,सावीआए कणिद्विआ मणिमा। तरतमजोगा एसो,दसवाससहस्स रयणाए।।२३४।। (२२०) इति।
तथा जीवसमासेऽपि-(गा.२०३)" "पढमावि जमुक्कोस, बीयादिसु सा जहणिया होइ।" इति ।
एवमन्यत्र प्रज्ञापना-तवृत्ति-जीवाजीवाभिगम-तवृत्तितत्वार्थसूत्र-पश्चसंग्रहमलयगिरिसूरिवृत्त्यादिष्वपि ॥१२॥ .. इदानीं ज्योतिष्कसुरस्य प्रकृतमाह-"पलियस्स" इत्यादि, 'ज्योतिष्कस्य' ज्योतिष्कदेवस्य जघन्यमवस्थितिः 'पल्यस्य' पल्यो. पमस्य 'अष्टभागः' प्रष्टमश्चा-ऽसौ भागश्चाऽष्टभागः पृषोदरादिस्वादिह पूरणप्रत्ययलोपः, पल्योपमाष्टमागप्रमारणा भवति ।
उक्तश्च जीवसमासे-पल्लट्ठभाग पल्लं च साहियं जोइसे जहज्णियरं ।(गा.२०५/पत्र.२०१) इति ।
____ एवं प्रज्ञापनाद्यन्यग्रन्थेष्वपि । एषा-ऽपि तारकदेवतापेक्षया बोध्या, तारकदेव-देवीनां जघन्यायुज्कस्य तथात्वात् ।
___ उक्तश्च पञ्चसंग्रहमलयगिरिसूरिवृत्तिसाक्षिणि ग्रन्थे"पलिओवमट्ठभागो,तारयदेवाण तह य देवीणं । होइ जहन्न माउं ॥" (द्वा० २, गा० ३५/भा० १, पत्र०७२-१) इति ।
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भवस्थिति: ] स्वोपज्ञश-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थिति: [ २५ एवमेव जीवसमासवृत्तिसाक्षिण्यपि ।
इदानीं सोधर्मदेवस्याऽऽह - "पलिओवमं" इत्यादि, 'सौधर्मसुरस्य' प्रथमकल्पोत्पन्नदेवस्य जघन्यभवस्थितिः पत्योपमं ज्ञेया, तथात्वात् । उक्तश्च श्रीप्रज्ञापनायां चतुर्थे स्थितिपदे
"सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेर्ण पलिओवमं” (सू०१०२/पत्र०१७६-१ ) इति । एवं ग्रन्थान्तरेष्वपि ।
अर्थशानदेवस्याऽऽह - "भवे" इत्यादि, 'ऐशानस्य' ऐशानसुरस्य जघन्यमवस्थिति: 'श्रभ्यधिकपल्यं' सातिरेकं पत्योपमं भवेत् , तज्जघन्यायुषस्तावन्मात्रत्वात् । उक्तश्च चतुर्थपदे"ईसाणकरपे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं" (सू०१०२/पत्र०१७६-२ ) इति ।
¿
एवमन्य ग्रन्थेष्वपि ॥ १३॥
साम्प्रतं सनत्कुमारदेवस्या ऽऽह - "दोण्णि" इत्यादि, 'सनतकुमारस्य' सनत्कुमारसंज्ञक तृतीय कल्पवासिदेवस्य जघन्यमवस्थिति: 'द्वौ' द्विसङ्ख्याको 'जलधी' सागरोपमो भवति, जघन्यायुष एतावन्मात्रत्वात् । यदुक्तं श्रीश्यामाचार्य पादैः- “ सणकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दो सागरोषमाई” (प्रज्ञा. प. ४, सू०१०२ / पत्र. १७६-२ १७७ - १ ) इति । तथैव ग्रन्थान्तरेष्वपि ।
प्रथमाहेन्द्रकल्प देवस्या - Sऽह - " दोण्णि" इत्यादि, 'माहेन्द्रस्य 'द्वावभ्यधिक' माहेन्द्र देवलोकवतिदेवस्य जघन्यमवस्थितिः साधिकौ द्वौ सागरोपमौ भवति, जघन्यायुषस्तावन्मात्रत्वात् । उक्तश्च प्रज्ञापनाचतुर्थपदे - " माहिन्दे कप्पे देवार्ण पुछा, गोया ! जहोणं साइरेगाई दो सागरोबमाइ" ( सू०१०२ / पत्र० १७७- १ ) " इति ।
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२६ ] मुनिश्रीवोरशेखविजयमूत्रिता [ देवभेदजघन्य
तथैवा-ऽन्यशास्त्रेष्वपि ।
अधुना ब्रह्मदेवलोकवासिदेवस्या.ऽऽह-"सत्त" इत्यादि, 'ब्रह्मदेवस्य' "समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दास्तदेकदेशेष्वपि व्यवहियन्ते" इति न्यायेन ब्रह्मलोककल्पदेवस्य जघन्यमवस्थितिः सप्त सागरोपमा
भवति, जघन्यतस्तदायुषस्तथात्वात् । तथा चाह प्रज्ञापनाकार:___ "बंमलोए कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई" (प्रज्ञा.प.४.सू.१०२/पत्र०१७७-१) इति ।
एवं शास्त्रान्तरेष्वपि ॥१४॥
सम्प्रति लान्तकसुरादीनां जघन्य भवस्थिति गाथापूर्वाद्धना. ऽऽह-"लंतग." इत्यादि, 'लाम्तकदेवादीनां 'व्याख्यानतो विशेष. प्रतिपत्तिनहि संदेहादलक्षणना" इति न्यायमाधिस्य सर्वार्थसिद्धदेवस्य जघन्यभवस्थितेरभावात्तद्वर्जानां लान्तकसुर प्रमुखचतुरनुसर. सरपर्यवसानानां देवानां जघन्य भवस्थितियथाक्रमं सा भवति, या पूर्व "सोहम्माईण कमा" (गा. ६) इत्यादिषष्ठसप्तम ( ६ ७) गाथाद्वयेन 'ब्रह्मसुरादिकानां ब्रह्मदेवकल्पवासिदेवादीनां 'ज्येष्ठा' उत्कृष्टा भवस्थितिः प्रतिपादिता।
प्रतिपादितं च जीवसमासे"हे टिल्लुक्कोसठिई, सक्काई णं जहण्णा सा ॥२८५॥" इति ।
इदमुक्तं भवति-लान्तकदेवस्य जघन्यभवस्थितिर्दश सागरो. पमाः, महाशुक्रत्रिवंशस्य चतुर्दश सागरोपमाः, सहस्रारसुरस्य सप्तवश सागरीषमाः,प्रानतसुरस्या-ऽष्टादश सागरोपमाः प्राणत. गीर्वाणस्यकोनविंशतिः सागरोपमाः, प्रारणसुषाभुगो विशतिः सागरोपमाः, पच्युतदेवस्यकविंशतिः सागरोपमाः,, प्रथमवेयकविबुधस्य द्वाविंशतिः सागरोपमाः, द्वितीयग्रेवेयकसुमनसस्त्रयो. विशतिःसागरोपमाः तृतीयप्रैवेयकामरस्य चतुविशतिः सागरोपमाः,
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भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ २७ चतुर्थग्रेवेयकसुधाशिनः पञ्चविंशतिः सागरोपमाः, पञ्चमवेयक. निर्जरस्य षड्विंशतिः सागरोपमाः,षष्ठप्रैवेयकाऽमर्त्यस्य सप्तविंशतिः सागरोपमाः, सप्तमप्रेवेयकदेवस्या-ऽष्टाविंशतिः सागरोपमाः, अष्टमग्रैवेयकसुपर्वण एकोनत्रिंशत्सागरोपमाः, नवमवेयकनाकिन. स्त्रिशत्सागरोपमाः, विजय-वैजयन्त-जयन्ता-ऽपराजितगीर्वाणानां प्रत्येकमेकत्रिंशत्सागरोपमाणि भवति, तेषां जघन्यायुःप्रमाणस्यै. तावन्मात्रत्वात् । यदुक्तं प्रज्ञापनायाम-"लंतए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं इस सागरोषमाई, ..... महासुक्के कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं चउदस सागरोषमाई,........ -. ....सहस्सारे कप्पे देवाणं पुच्छा,गोथमा जहन्नेणं सत्तर सागरो. वमाई, . ... प्राणए कप्पे देवाणं पुच्छा' गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठारस सागरोषमाई, -- -पाणए कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा । जहन्नेणं एगूणवीसं सागरोवमाई .....भारणे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं वीसं सागरोवमाई अच्चुए कप्पे देवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एगवीसं सागरोवमाई .. हेटिमहेट्ठिमः गेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्ने] बावीसं सागरोषमाई............ हेटिममझिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमाई.... हेद्विमप्रवरिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं च उवीस सागरोवमाई .........मज्झिमहेट्रिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं पणवीस सागरोवमाई मज्झिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेगं छन्वीसं सागरोवमाई, मज्झिम उवरिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छ। गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावीसं सागरोवमाई, - - उचरिमा हटिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेण अट्ठावीसं सागरोवमाई......----उरिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं एगूणतीस सागरोवमाइ',उपरिमनवरिमगेविज्जग
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२८ ] मुनिश्रीवीरशेरविजयसूत्रिता [ शेषभेदजघन्यदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं तीसं सागरोवमाई... विजय. वेजयंतजयंतअपराजितेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई" (सू०१०२/पत्र० १०७. १७८) इति।
एवं जीवाजीवाभिगम-तवृत्याविष्वपि ।
समवायाङगे पुनर्विजयादिचतुरनुत्तरनाकिनां द्वात्रिंशर. सागरोपमप्रमाणा बघन्यमवस्थितिरभिहिता। तथा च तद्ग्रन्थः-(सू० १५१/पत्र०१४०-२)
"विजयवेजयंतजयंतअपराजियाण देवा केवायं कालं ठिई पन्नता?,गोयमा! जहन्डेणं बतीसं सागरोषमाइ"इति ।
अथ शेषगाथार्द्धन शेषभेदानां जघन्यभवस्थिति दर्शयितुकाम प्रादौ तावत्पर्याप्तमेवानां योनिमत्योद्विवेदयोश्चा-ऽऽह-"पज्जत्त." इत्यादि, 'पर्याप्तयोनिमतीपु'स्त्रीणां' पर्याप्तानांपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक-पर्याप्तमनुष्यरूपगतिभेदद्वय- पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय-पर्याप्तबाद. रैकेन्द्रिय-पर्याप्तद्वीन्द्रिय-पर्याप्तत्रीन्द्रिय-पर्याप्तचतुरिन्द्रिय-पर्याप्तपञ्चेन्द्रियलक्षणेन्द्रियभेदषट्क - पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकाय • पर्याप्तबादर पृथ्वीकाय-पर्याप्तसूक्ष्माप्काय-पर्याप्तबादराप्काय-पर्याप्तसूक्ष्मा. ग्निकाय-पर्याप्तबादराग्निकाय -पर्याप्तसूक्ष्मवायुकाय-पर्याप्तबादर. वायुकाय-पर्याप्तसूक्ष्मसाधारणशरीरवनस्पतिकाय -पर्याप्तबादरसाधारणशरीरवनस्पतिकाय-पर्याप्त प्रत्येकशरीरवनस्पतिकाय-पर्याप्त. प्रसकायरूपकायभेदद्वादशक - पर्याप्तसंज्ञि - पर्याप्ताऽसंजिलक्षणानां द्वाविंशतः पर्याप्तभेदानां योनिमत्योः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमतीमनुष्ययोनिमत्याख्ययोः स्त्रियोः-पुरुषवेदस्य स्त्रीवेदस्य चेति षविशतेर्भवानां प्रत्येक जघन्यमवस्थितिः अन्तर्मुहूर्तम् अन्तर्मुहूर्त. माना भवति.पर्याप्त-योनिमती-स्त्री-पुवेदानां ततो न्यूनायुषो-असंभवे सति जघन्यायुषो यथोक्तप्रमाणत्वात् ।
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भवस्थितिः ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ २६
यदुक्तं प्रज्ञापनायाम्-पज्जत्राए गं पुच्छा, गो० ! ज० ०..." (सू० २४८/पत्र० ३६३-२) तिरिक्खजोगिणी गं भंते ! तिरिक्सा.
जोगित्ति कालमो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहन्नेणं मंतोमुहुत्तं • मणुस्सी वि एवं चेव । (सू०२३२/पत्र. ३७४-१) इति ।
एवमेव जीवाजीवाभिगमे तथाऽन्यत्रा-ऽपि।
तथा जीवाजीवाभिगमे स्त्रीपु सोर्जघन्यभवस्थिति:"इत्थी गं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता १, गोयमा! एगेणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं.... ... ... पुरिसस्स णं भते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जह० अंतोमु०" (सू०४६-५३/पत्र. ५३/१-६५/२) इति ।
अथोक्तशेषमार्गणानामाह-"इयर" इत्यादि, 'इतरक्षुल्लकभवः' इतरासाम= उक्तोद्धरिताना तिर्यग्गत्योधादित्रिपञ्चाशन्मार्गणानां जघन्य भवस्थितिः क्षल्लकभव: क्षुल्लक भवप्रमाणा भति, अन्यतरापर्याप्तजीवभेदस्य प्रवेशेन तथालामात् । शेषमार्गणारचेमाः-तिर्यग्गत्योघ-पञ्चेन्द्रियतिर्यगऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग• मनुज्योघा-पर्याप्तमनुष्यरूपगतिभेदपञ्चके-केन्द्रियौघ - सूक्ष्मैकेन्द्रियाऽपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय-बादरैकेन्द्रिया-ऽपर्याप्तबादरैकेन्द्रिय -द्वीन्द्रियोघा-ऽपर्याप्तद्वीन्द्रिय -त्रीन्द्रियौघा • ऽपर्याप्तत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियोघा. ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रिय - पञ्चेन्द्रियौघा • ऽपर्याप्तपञ्चेन्द्रियरूपेन्द्रियभेदत्रयोदशकौघ-बादरा-ऽपर्याप्तबादर-सूक्ष्मा-ऽपर्याप्तसूक्ष्मभेदभिन्नपृथ्वीकायपञ्चका-कायपञ्चक-तेजस्कायपश्चक-वायुकायपश्चकसाधारणशरीरवनस्पतिकायपञ्चक-वनस्पतिकायोध-प्रत्येकवनस्पतिकाया-ऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाय-त्रसकायौघा-ऽपर्याप्तत्रसकायरूपकायभेत्रिंशत्क-नपुंसकवेद - संज्य-ऽपर्याप्तसंज्य -संश्य-ऽपर्याप्ता. संज्ञिरूपसंक्षिभेदचतुष्कलक्षणास्त्रिपश्चाशन्मार्गणाः ॥१२-१५॥
॥ इति भवस्थितिः ॥
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३०] मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता [ग्रन्थसमाप्त्वा
साम्प्रतं प्रकृतग्रन्थसमाप्तिसूचिको ग्रन्थोपसंहारात्मिकामेकां पथ्यार्यामाहसिरिवीरसेहरविजय-मुगिणा सिरिपेमसूरिसंणिज्झे । देवगुरुपहावाओ, भवट्ठिई सुत्तिआ एसा ॥१६॥
(प्रे०) "सिरि०" इत्यादि, 'श्रीप्रेमसूरिसान्निध्ये' श्रिया= रत्नत्रयीप्रमुखलक्ष्म्या सहिताश्च ते प्रेमसूरयः प्रगुरुगुरवो गच्छा धिपाः श्रीप्रेमसूरयः, तेषां सान्निध्ये श्रीप्रेमसूरिसान्निध्ये एता. बता-ऽस्माकं प्रपितामहगुरुपादानां पुण्यनामधेयानामाचार्यभगवतां श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वराणां परमपवित्रसान्निध्यवर्तिना श्रीवीरशेखर. विजयमुनिना' श्रिया=ज्ञानादिलक्ष्या युतश्चासौ वीरशेखर विजयः =तत्संज्ञकस्तच्चरणोपासकः क्षुल्लकः साधुः श्रीवीरशेखरविजयः स चासौ मुनि:-श्रमणः श्रीवोरशेखर विजयमुनिः,तेन श्रीवीर शेखरविजयमुनिना 'देवगुरुप्रभावात् देवश्चाऽहत्सिद्धरूपो गुरुश्चाऽऽचार्यादिस्वरूपो गणधरादिश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरप्रभृतिस्वगुर्वव. सानो वा देवगुरू तयोः प्रभावात-माहात्म्यात देवगुरुप्रभावात= देवगुर्वनुग्रहात 'एषा' अनन्तरमणिता भवस्थितिः प्राग्वणितार्था 'सूत्रिता' रचिता ॥१६॥
इदानीं ग्रन्थकारः स्वस्य छाद्मस्थ्येन मन्दमत्यादिना च किमपि स्खलनं स्यात्तद् दूरीकर्त मनाः संविज्ञेषु बहुश्रुतेषु बहुमानगर्मा विज्ञप्तिमेकया गाथया वितन्वन्ना-ऽहमंदमइअणुवओगा-इहेउणा किं पि आगमविरुद्ध । एत्थ सिआ करिअकिवं,मइ तं सोहन्तु सुअरिणहिणो॥१७॥
॥ इति मूल ग्रन्थः समाप्तः ।।
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धुरसंहारः] स्वपक्ष प्रेमप्रभावत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ ३१ __(प्रे०) "मंदमह" इत्यादि, 'प्रत्र' अस्मिन् प्रस्तुते भवस्थिति संज्ञके प्रकरणे यत्तदोनित्यसम्बन्धाद् यच्छन्द प्राक्षिप्यते यत्किमपि 'मन्दमत्यनुपयोगाविहेतुना'मन्दा जाड्या चासौमति:-बुद्धिर्मन्द. मतिः अप्रगल्भशेमुषी न उपयोग:-चित्तैकाग्रता अनुपयोगः= असावधानता,मन्दमतिश्चा-ऽनुपयोगश्च मन्दमत्यनुपयोगौ तौ प्रादौ येषाम्, ते मन्दमत्यनुपयोगादयः, अत्रा-ऽऽदिपदेन छामस्थ्य-दृष्टि. दोषादयो ज्ञेयाः, त एव हेतुः, मन्दमत्यनुपयोगादिहेतुस्तेन मन्दमत्य. नुपयोगादिहेतुना-ऽऽगमविरुद्ध शास्त्रबाह्य स्यात्तद् मयि ममो. परि कृपां-प्रसादं 'कृत्वा' विधाय श्रुतनिधया श्रुतागमशालिन: शोधयन्तु-प्रशुद्धपदनिराकरणेन शुद्धपदानयनेन शुद्धि कर्वन्तु ।१७।।
प्रेमप्रभाष्यवृत्त्या, विराजिता प्रेमसूरिगणे । मुनिवीरशेखरेण, स्वोपज्ञभवस्थितिश्चैषा ॥१॥ कुशलं तया यदाप्तं, तेन कुशलमस्तु विश्वविश्वस्य । यत्किमपीह क्षुण्णं, स्यात्तच्छोध्यं बुधैविधाय कृपाम् ॥२॥
॥ति प्रेमप्रमावृत्तिः समाप्ता।
इति
स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता भवस्थितिः
समाप्ता
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मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता
स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता
भवस्थितिः
समाना
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दश परिशिष्टानि स्वोपक्ष प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता मवस्थिति[३५
प्रथ
भवस्थितिसत्कानि
दश
परिशिष्टानि
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३४ ]
मुनिश्री वीरशेखर विजयसूत्रिता [ प्रथमपरिशिष्टे
॥ अथ प्रथमं
मूल
खविअमव ठिइसिरिमुहरि - पासं पणमिअ हियत्थमत्तसुया । वोच्छं भवठि मोहे, गइदियकायवे असण्णी ॥ १॥ ( गीतिः ) तेत्तीसुदही जेट्ठा, भवे भवठिई लहू य खुडुभवो । जेोधव्वऽत्थि णिरय सुरदुपर्णिदितसवेअसण्णीणं || २ || (गीतिः) पढमाइगणिरयाणं, कमसो एगो य तिष्णि सत्त दस । सत्तरह य बावीसा, तेतीसा सागरा णेया ||३|| तिरियस्स पणिदितिरिय णरतप्पज्जतजोणिणीणं च । तिण्णि पलिओमाणि अ-मणतापज्जाण पुव्वकोडी उ || ४ || ( गी०) भवणस्स साहियुदही, पल्लं वंतरसुरस्स विण्णेया । पलि ओवममन्महियं, जोस देवस णायव्वा ॥५॥ सोहम्माईण कमा, अयरा दो साहिया दुवै सत्त । अन्महिया सच य दस, चउदस सत्तरह णायव्वा ॥३॥ एतो एगेगहिया, णायव्वा जाव एगतीसुदही | तेत्तीसाऽणुत्तराण भवे ॥७॥
·
उवरिमगेविज्जस्स
एगिंदिय-पुहवीणं
वरिससहस्साणि होइ बावीसा ।
सा चैव होड़ तेसिं, बायर वायरसमत्ताणं ॥८॥ बेइंदियाइगाणं, कमसो बारह समा अउणवण्णा । दिवसा तह छम्मासा, एवं तेसिं समत्ताणं ॥९॥
उ,
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मूलगाथा ] स्वोप-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ ३५
परिशिष्टम् ॥ गाथा: दगवाऊगं कमसो, वाससहस्साणि सत्त तिण्णि भवे । तिदिणा-ऽग्गिस्सेवं सिं, बायर-बायरसमत्ताणं ॥१०॥ वासाऽस्थि दससहस्सा, वणपत्तेअवणतस्समत्ताणं । थीअ पणवण्णपलिा , सगतीसाए मुहुत्तंतो ॥११॥ हस्सा णिरयऽज्जणिरय-सुर-भवणदुगाण दससहस्ससमा । (गी.) दुइआइगणिरयाणं, सा पढमाइणिरयाण जा जेट्ठा ॥१२॥ पलियम्स अट्ठभागो, जोइसिअस्स पलिओवमं गेया। सोहम्मसुरस्स भवे, ईसाणस्सऽमहियपन्लं ॥१३॥ दोणि हवेजा जलही, सर्णकुमारस्स दोण्णि अन्महिया । माहेदस्स हवेज्जा, सत्त भवे बम्भदेवस्स ॥१४॥ लंतगदेवाईणं, सा बम्हसुराइगाण जा जेट्ठा । पज्जत्तजोणिणीपुम-थीणंतमुहुत्तमियरखुडभवो॥१५॥(गीतिः) सिरिवीरसेहरविजय-मणिणा सिरिपेममूरिसंणिज्झे । देवगुरुपहावाओ, भवट्टिई सुत्तिआ एसा ॥१६॥ मंदमहअणुवओगा-इहेउणा किं पि आगमविरुद्धं । एत्थ सिआ करिअ किवं, मह तं सोहन्तु सुअणिहिणो ॥१७॥
॥ इति मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता भवस्थितिः ॥
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३६ ]
अनु०
१
~
४
५.
V
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
मुनिश्रीवीरशेखर विजय सूत्रिता [ परिशिष्टानि ॥ अथ द्वितीयं परिशिष्टम् ॥
प्रकारादिक्रमेण गाथाद्यांशाः
गाथाङ्काः
गाथाद्यांशाः
ए
एगिदिय-पुहवी, एत्तो एगे गहिया,
ख
खविअभवठिइसिरिमुहरि ॥१॥
त
तिरियस्स पणिदितिरिय तेत्तीसुदही जेट्ठा,
पढमा इगरिणरयाणं, पलियस्स अट्ठभागो,
ዞረ
॥७॥
॥१०॥
दगवाऊणं कमसो, दोणि हवेज्जा जलही, ॥ १४ ॥ ०
प
ब
बेइंदियाइगाणं,
भ
भवणस्स साहियुदही,
म
मंदमइअणुवओगा.
ल
लंगदेवाईणं,
॥४॥
॥२॥
॥३॥
॥ १३॥
।।९।।
॥५॥
।।१७।।
।। १५ ।।
व
वासा - ऽत्थि दस सहस्सा, ॥११॥
स
सिरिवीर सेहर विजय ॥१६॥
सोहम्माईण कमा
॥६॥
ह हस्सा णिरयज्जणिरय. ॥१२॥
पृष्ठाङ्काः
१३
६
३
१५
२२
४
२२
१४
८
३०
२२
१७
३०
ሪ
२२
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परिशिष्टानि ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः [ ३७
॥ अथ तृतीयं परिशिष्टम् ॥
साक्षिग्रन्थाः अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानां साक्षिग्रन्थानां नामसूचिःअनु० ग्रन्थनाम पृष्ठाङ्काः । अनु० ग्रन्थनाम पृष्ठाङ्का। १ चतुर्थपदम् (प्रज्ञा०)-२५ | १० पञ्चसंग्रहमलयगिरिसूरि. २ जीवसमासः-५, ६, ८,१२, | वृत्तिः -७,१४,१५,१७,२०,२४,
१०, १२, १५, २१,२४२ ,२६ / ११ पञ्चसंग्रहवृत्तिः -१८, ३ जीवसमासमलधारिहेमचन्द्र- | १२ प्रज्ञापनासूत्रम्-७,८,९,१२ सूरिवृत्तिः -७,
१३२,१४,१५,१६२, १८, ४ जीवसमासवृत्तिः-१८,
२०,२२,२५,२७,२६ ५ जीवाजीवाभिगमसूत्रम्-६, १३ बृहत्संग्रहणी.१०,११,२०,२३
७,१३,१४,१६,१७,२०,२६, १४ बृहत्संग्रहणी(चन्द्रषिप्रणी. ६ जीवाजीवाभिगमसूत्रमलय. ता)-६,१८,२०,२३,
गिरिसूरिवृत्तिः-२०, १५ भवस्थति (प्रकृत) ग्रन्थः७ तत्त्वार्थसूत्रभाष्यम्-१२,
२३, २६, ८ तत्त्वार्थसूत्रम्-५,१२,
१६ यदुक्तम्-९, 1 त्रैलोक्यदीपिका
१७ वचनम्-६, (बृहत्संग्रहणी)-२४, । १८ समवायाङ्गम्-२८,
॥अथ चतुर्थ परिशिष्टम्॥
साक्षिग्रन्थकाराः प्रकारादिक्रमेण भवस्थिति ग्रन्थवृत्तिगतानां साक्षिग्रन्थकृतां
नामसूचि:अनु० ग्रन्थकारनाम पृष्ठाङ्काः | अनु० ग्रन्थकारनाम पृष्ठावा। १ चन्द्रर्षिः-२०,
४ मलयगिरिसूरिः-७,१४,२०२, २ प्रज्ञापनाकार:-२६, ५ वाचकमुख्यः-५, ३ मलधारिहेमचन्द्रसूरिः-७, ६. श्यामाचार्यः-२५॥
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'..
३८ )
मुनिश्रीवीरशेखविजयसूत्रिता [ परिशिष्टानि' ॥भय पचमं परिशिष्टम् ॥
प्रतिदिष्टप्रन्थाः अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानामतिदिष्टप्रन्थानां
नामसूचिःअनु० ग्रन्थनाम पृष्ठाङ्काः । अनु० ग्रन्थनाम पृष्ठाङ्काः १ अन्यग्रन्थः-१८,१९,२४,२५, । १० पञ्चसंग्रहः-५, २ अन्यत्र-१,१३,१५,१७,२४,२९/ ११ पञ्चसंग्रहमलयगिरिसरि. ३ अन्यशास्त्रम् -२६, .
वृत्तिः -२३,२४,
१२ प्रज्ञापनासूत्रम - ४ ग्रन्थान्तरम्-६,२३, २५,२ ५ जीवसमासः-२३,२
८,१०,१२२,१३,१६,१८,१९,२४२, ६ जीवसमासवृत्तिः २५,
१३ प्रज्ञापनासूत्रवृत्तिः-२५,' ७ जीवाजीवाभिगमसूत्रम्-७,
१४ बृहत्संग्रहणी-५ १२, २३२ १८,१६,१२३, २४,२८,२९, १५ बृहत्संग्रहणीवृतिः-२०२, ८ जीवाजीवाभिगमसूत्रवृत्तिः-1 १६ शास्त्रम -९, २४,२८,
१७ शास्त्रान्तरम-२६ ९ तत्त्वार्थसूत्रम्-१२,२३,२४, १८ समवायाङ्गम-२८
॥ अथ षष्ठं परिशिष्टम् ॥
प्रतिविष्टग्रन्थकारा: प्रकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानामतिदिष्टग्रन्थकृतां
नामसूचिःअनु० ग्रन्थकारनाम पृष्ठाङ्काः | मनु० ग्रन्थकारनाम पृष्ठाङ्का! १ तत्त्वार्थसूत्रकारः-१२ । २ तत्त्वार्थसूत्रभाष्यकार:-१२
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परिशिष्टानि ] स्वोप-प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता भवरिथतिः [ ३९
॥ अथ सप्तमं परिशिष्टम् ॥
व्याकरणसूत्राणि भकारादिक्रमेण मवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानां व्याकरणसूत्राणां सूचिः
अनु व्याकरणसूत्रम् पृष्ठाङ्काः । अनु० व्याकरणसूत्रम्पृष्ठाङ्काः १ गम्ययप: कर्माधारे ( सि० ४ प्राक्काले (सि०५-४-४७)२
२-२-७४) २ २ ते लुग्वा (सि.-३-२-१०८) ५ शेषाद्वा (सि०७-३-१७५) ३ दिवचनस्य बहवचनम (सि. ६. १४ ८.३.१३०) ॥अया-5ष्टमं परिशिष्टम्॥
न्यायाः अकारादिक्रमेण भवस्थितिग्रन्थवृत्तिगतानां न्यायानां सूचिः
अनु० न्यायाः पृष्ठाङ्काः। अनु० न्यायाः पृष्ठाङ्काः
१ अन्त्यदीपकः-१८ । ६ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः-६ '२ अर्थवशाद्वचनपरिणामः५,१०७ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति
३ द्वन्द्वादौ श्रूयमारणं पदं प्रत्येक. न हि संदेहादलक्षणता-२६ : मभिसम्बध्यते-४,६ ८ समुदायेषु प्रवृत्ताः शन्दा अब. ४ देवो देवदत्तः-९,
यवेष्वपि व्यवह्रियन्ते-२६ ५ यथोद्देशं निर्देश:-३, | सिंहावलोकनम्-१८
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४०J मुनिश्रीधीरशेखरविजयसूत्रिता [ नवम परिशिष्टे
अथ नवमं भवस्थित्युपयोगिन्यः
५ मूलमार्गणाः
इन्द्रियम
काय:
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नरकगतिः
तिर्यग्गतिः
मनुष्यगति:
१ नरकगतिसामान्यम् १ तिर्यग्गतिसामान्यम् ७प्रथमादिसप्तनरकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सामान्यम
३ तिरश्ची ४पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक ५ अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यक
१ मनुष्यगतिसामान्यम २ मानुषी ३ पर्याप्तमनुष्यः ४ अपर्याप्तमनुष्यः
एकेन्द्रियः द्वीन्द्रिय: त्रीन्द्रियः चतुरिन्द्रियः पञ्चेन्द्रियः पृथ्वीकायः प्रप्काय:
__सामान्यम् पर्याप्तः अपर्याप्तः
१ सामान्यम् २ सूक्ष्मसामान्यम ३ पर्याप्तसूक्ष्म: ४ अपर्याप्तसूक्ष्मः
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मार्गणायन्त्रम् ] स्वोपश-प्रेमप्रमावृत्तिपरिकलिता मवस्थितिः [ ४१ परिशिष्टम् (गाथा १)
तेषाभुत्तर ११७ मागणाप्रशियन्त्रम्
बेद:
६ ११७ उत्तरमार्गणाः
१ स्त्रीवेदः. २ पुरुषवेद:. ३ नसक्वंद:
देवगति:
१ देवगतिसामान्यम
३ भवनपति-ध्यन्तर-ज्योतिष्का: १० सौधर्मादिद्वादशकल्पस्था: ९ ग्रंवेयकाः ५ अनुत्तरा:
तेजस्काय: वायुकायः वनस्पतिकाय: सकाय: संजी
१ सामान्यम
प्रत्येकवनस्पति० ३ पर्याप्तप्रत्येक अपर्याप्तप्रत्येक सामान्यम पर्याप्त : अपर्याप्त: साधारणवन.
५बादरसामान्यम्
पर्याप्तबादरः
प्राप्तिबादर:
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सर्वाः गाथा.
सवाल:
प.
स.
अथ दशमं परिशिष्टम् उत्कृष्ट-जघन्यभवस्थितिप्रमाणप्रदर्शियन्त्रम् । (गा.२.१५) ओघत उत्कृष्टभवस्थितिः ३३ सागरोपमाणि, जघन्यभवस्थितिः क्षुल्लकभवप्रमाणा-ऽस्ति । (गा. २) उत्कृष्टप्रमाणम्
गतिः इन्द्रियम् कायः वेदः । संज्ञी ३३ सागरोपमाः | नरकौघ., सप्तमनरक.
पु. संज्ञि०२ सुरोघ८, पञ्चानुत्तर०८
मंजि० १,३,७,१०,१७,२२सा. क्रमश:प्रथमादि६नरक.६ ३ पल्योपमानि
अपर्श.विना तिर्य०४ .
___, , मनु०३ साधिकसागरोपमः । भवनपतिसुर. १ पल्योपमम् व्यन्तरसुर०
ज्योतिष्कसुर० २सागरापम सा. २
ईशानसुर० ७ सागरोपमा: सनत्कुमारसुर०
माहेन्द्रसुर० ब्रह्मसुर०
लान्तकसुर. १७:३१ | महाशुक्रसुरादयः १५ २२००० वर्षाणि
एके.,बा.ए.,प.बा.ए.३ पृ.,बा.पृ., प.बा.पृ. ३ दीन्द्रिय ,प.दीन्द्रिय.
सा.
"
सौधर्मसुर०
मुनिश्रीवीरशेखरविजयसूत्रिता । दशमपरिशष्टे ।
सा. ७
LA
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स्वी .१
४६ दिवसा:
रात्रीन्द्रिय.प.त्रीन्द्रिय... ६ मासाः
____चतुरिन्द्रिय.,प.चतु.२... ७२०० वर्षाणि
अप..बा.अ.प.बा.अप्.३ ३००० "
वायु.,बा.वा.,प.बा.वा.३ ३ दिवसा:
तेज.,बा.ते.,प.बा.ते.३ १.८०० वर्षारिण
वन., प्रत्ये.,प. प्रत्ये. ३ ५५ पल्यापमानि पूर्वकाटिवीण
प्र.प.प्र.२ अन्तमुहूर्तम् अप.पञ्चे.ति.,प.मनु.२०
शेष८८ शेष. y
शेष०२ जघन्यप्रमाणम् नरक०.प्रनरक.
सर०भवन०व्यन्तर० १.१७.१०,५७,२सा द्वितीयादिदनरक०६
पल्योपमम् | ज्योतिष्कसुर० १ १पल्योपमम्
ईशानसुर० २ सागरोपमे
सनत्कुमारसुर०
माहेन्द्रसुर. ७ सागरोपमाः | ब्रह्मसुर० ब्रह्मसुराद्युत्कृष्टभव• लान्तकसुरादयः.. स्थितिः क्रमश: वतुरनुत्तरसुरान्ता: नास्ति
सर्वार्थसिद्धसुर० १ अन्तर्मुहूर्तम पर्यार,योनि०२४ पर्याप्त ६ पर्याप्त १२ पु.स्त्री पर्या०२६ क्षल्लकभव:
शेष शेष. १३ | शेष.
• न.पुर शेष०४
भवस्थितियन्त्रम् ] स्वोपज्ञ-प्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः
सौधर्मसुर०
सा.१
"
सा.२
"
[ ४३,
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मुनिश्रीवीरशेखरविजयमत्रिता
स्वोपज्ञप्रेमप्रभावृत्तिपरिकलिता भवस्थितिः दशपरिशिष्टपरिखता
समाप्ता
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________________ ТРА), К. С. СТР. - 2000 за си у JOVOVOVOVO