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सारांश, सभी शास्त्रों का !
क्रमिक मार्ग के इतने बड़े शास्त्र पढ़ें या फिर सिर्फ ये नौ कलमें बोलें तो भी बहुत हो गया ! नौ कलमों में गजब की शक्ति है! ये नौ कलमें किसी शास्त्र में नहीं हैं पर हमारे जीवन में हम जिन भावनाओं का पालन करते हैं और जो हमेशा हमारे अमल में ही हैं, वे आपको करने के लिए देते हैं। इसलिए आप ये नौ कलमें तो अवश्य करना। ये नौ कलमें सारे वीतराग विज्ञान का सारांश हैं!
-दादाश्री
ISBN 978-81-89933-38-8
9788189 933388
दादा भगवान प्ररूपित
भावना से सुधरे जन्मोंजन्म
(नौ कलमें सारांश, सभी शास्त्रों का )
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दादा भगवान प्ररूपित
भावना से सुधरे जन्मोजन्म
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन अनुवाद : महात्मागण
प्रकाशक: अजित सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन
दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद- ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City,
Ahmedabad-Kalol Highway, Post Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
प्रथम संस्करण प्रत ३०००,
मुद्रक
भाव मूल्य: 'परम विनय' और
अगस्त २००८
'मैं कुछ भी जानता नहीं, यह भाव !
द्रव्य मूल्य: १० रुपये
लेसर कम्पोझ दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद- ३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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त्रिमंत्र
दादा भगवान कौन ? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के. और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं | है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत | से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली. उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित की गई हैं। इस पुस्तक में परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बोधित नौ कलमों को विस्तृत रूप से समझाया गया है। परम पूज्य दादाश्री कहते थे कि ये नौ कलमें तो सारे शास्त्रों का सारांश हैं। सुज्ञ वाचक के द्वारा ये भावनाएँ करने से उसके आनेवाले जन्मोजन्म सुधर जायेंगे।
___ 'अंबालालभाई' को सब'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे खुद भी भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी हैं और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर हैं।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिक्सचर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में दिये गये हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप से क्षमाप्रार्थी हैं।
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संपादकीय
कईओं ने तो पूर्व में नौ कलमों जैसी ही भावना की थी, जो आज के अनुसंधान में परिणमित होकर तुरंत ही वर्तमान वर्तन में चरितार्थ हो जाती
सुबह से लेकर शाम तक घर में या बाहर, लोगों के मुँह से ऐसा सुनने में आता है कि हम ऐसा नहीं करना चाहते हैं फिर भी ऐसा हो जाता है। ऐसा करना चाहते हैं मगर ऐसा नहीं होता। भावना प्रबल है. पक्का निश्चय है, प्रयत्न भी करते हैं, फिर भी नहीं होता है।
सभी धर्मोपदेशकों की साधकों के लिए हमेशा यह शिकायत रहती है कि हम जो कहते हैं, उसको आप आत्मसात् नहीं करते हैं। श्रोता भी हताश होकर अकुलाते हैं कि धर्म संबंधी इतना कुछ करने पर भी हमारे वर्तन में क्यों नहीं आता? इसका रहस्य क्या है? कहाँ रुकावट है? किस प्रकार इस भूल का निवारण हो सकता है?
परम पूज्य दादा भगवान (दादाश्री) ने इस काल के मनुष्यों की कैपेसिटी (क्षमता) को देखकर, उनकी योग्यतानुसार इसका हल एक नये ही अभिगम से, संपूर्ण वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। दादाश्री ने वैज्ञानिक तरीके से स्पष्टीकरण करते कहा है कि वर्तन तो परिणाम है, इफेक्ट है और भाव वह कारण है, कॉज है। परिणाम में सीधे ही परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। वह भी उसकी वैज्ञानिक रीति के अनुसार ही लाया जा सकता है। कारण बदलने पर परिणाम अपने आप ही बदल जाता है। कारण बदलने के लिए अब इस जन्म में नये सिरे से भाव बदलिए। उस भाव परिवर्तन के लिए दादाश्री ने नौ कलमों के अनुसार भावना करना सिखाया है। सभी शास्त्र जो उपदेश करते हैं, जिसका कोई परिणाम नहीं आता है, उसका सारांश नौ कलमों के द्वारा दादाश्री ने आमूल परिवर्तन की चाबी के रूप में दे दिया है। जिसका अनुसरण करके लाखों लोगों ने इस जीवन को तो सही मगर आनेवाले जन्मों को भी सुधार लिया है। वास्तव में इस जन्म में परिवर्तन नहीं होता है पर इन नौ कलमों की भावना करने से भीतर में नये कारण मूल से बदल जाते हैं और जबरदस्त अंतर शांति का अनुभव होता है। अन्य के दोषों को देखना बंद हो जाता है, जो परम शांति प्रदान करने का परम कारण बन जाता है। और उसमें भी
__ कोई भी सिद्धि प्राप्त करनी हो तो उसके लिए केवल खुद के अंदर विद्यमान भगवान के पास शक्तियाँ बार-बार माँगनी चाहिए। जो निश्चित रूप से फल देंगी ही।
दादाश्री अपने विषय में कहते हैं कि, 'हमने इन नौ कलमों का आजीवन पालन किया है, उसकी यह पूँजी है। अर्थात् यह हमारा रोज़मर्रा का माल (अनुभव ज्ञान) है, जो बाहर जाहिर किया है। मैं ने अपने भीतर ये नौ कलमें, जो चालीस-चालीस सालों से निरंतर चलती रहीं हैं, उन्हें आखिरकार लोककल्याण हेतु जाहिर किया है।'
कई साधकों को यह मान्यता दृढ़ हो जाती है कि मैं इन नौ कलमों की सारी बातें जानता हूँ और मुझे ऐसा ही रहता है, मगर उनसे पूछने पर कि आपके द्वारा किसी को दुःख होता है क्या? घर के या नज़दीकी रिश्तेदारों से पूछने पर वे 'हाँ' कहते हैं। उसका अर्थ यही होता है कि वे सही मानों में नहीं समझें हैं। ऐसा समझा हुआ काम नहीं आता है। असल में तो ज्ञानी पुरुष ने अपने जीवन में जो सिद्ध किया हो, वह अनुभवगम्य वाणी के द्वारा प्रदान किया गया होने के कारण क्रियाकारी होता है। अर्थात् वह भावना ज्ञानी पुरुष द्वारा दी गई डिज़ाइन (योजना) के अनुसार होनी चाहिए तभी काम देंगी और मोक्षमार्ग पर तेजी से प्रगति करायेंगी। और अंतत: ऐसा परिणाम दिलायेंगी कि खुद से किसी भी जीव को किंचित्मात्र दुःख नहीं हो, इतना ही नहीं पर नौ कलमों की प्रतिदिन भावना करने पर कितने ही दोष धुल जाते हैं और हम मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ पाते हैं।
- डॉ. नीरुबहन अमीन
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
भावना से सुधरे जन्मोजन्म
(नौ कलमें - सारांश, सभी शास्त्रों का)
उससे टूटे अंतराय तमाम मैं आपको एक पुस्तक पढ़ने के लिए देता हूँ। बड़ी पुस्तक नहीं, एक छोटी-सी! उसे पढ़ना जरा, यों ही!
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : एक बार इसे पढ़ लेना, पूरी पढ़ लेना। यह दवाई देता हूँ, यह पढ़ने की दवाई है। यह जो नौ कलमें हैं उसे सिर्फ पढ़ना ही है, यह कुछ करने की दवाई नहीं है। बाकी आप जो करते हैं वह सब सही है और यह तो भावना करने की दवाई है, इसलिए यह जो देते हैं उसे पढ़ते रहना। उससे तमाम प्रकार के अंतराय टूट जाते है।
पहले एक-दो मिनट यह नौ कलमें पढ़ लीजिए।
प्रश्नकर्ता : नौ कलमें... १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र
भी अहम् न दुभे (दुःखे), न दुभाया (दु:खाया) जाये या दुभाने (दु:खाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी
स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम
शक्ति दो। २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण
न दुभे, न दुभाया जाये या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाये ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम
शक्ति दो। ३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या
आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र
भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति न अनुमोदित किया जाये, ऐसी परम शक्ति दो। ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी
भी कठोर भाषा, तंतीली (हठीली) भाषा न बोली जाये, न बुलवाई जाये या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोले तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने
की शक्ति दो । ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री,
पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किचिंतमात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति
अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो।। ७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो।
समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो।
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
भावना से सुधरे जन्मोजन्म
८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष
अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। ९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की
परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आप दादा भगवान से माँगना। यह प्रतिदिन यंत्रवत् पढ़ने की चीज़ नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज़ है। इतने पाठ में समस्त शास्त्रों का सार आ जाता है।)
दादाश्री : प्रत्येक शब्द पढ़ चुके? प्रश्नकर्ता : हाँ जी, सब अच्छी तरह पढ़ लिया।
अहम् नहीं दुभे... प्रश्नकर्ता : १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (दुःखे), न दुभाया (दुःखाया) जाये या दुभाने (दु:खाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो।
मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो। कृपया इसे समझाइए।
दादाश्री : किसी का अहम् नहीं दुभे, इसलिए हम स्यावाद वाणी माँगते हैं। ऐसी वाणी हम में आहिस्ता-आहिस्ता उत्पन्न होगी। मैं जो वाणी बोलता हूँ न, वह मुझे यह भावना करने से ही फल प्राप्त हुआ है।
प्रश्नकर्ता : पर इसमें किसी का अहम् नहीं दुभाना चाहिए, इसका अर्थ ऐसा तो नहीं होता न कि किसी के अहम् का पोषण करना?
दादाश्री : नहीं। ऐसे किसी के अहम् का पोषण नहीं करना है।
यह तो किसी का अहम् नहीं दुभाना है ऐसा होना चाहिए। मैं कहूँ कि काँच के गिलास नहीं फोड़ना, उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि आप काँच के गिलास की सुरक्षा करना। वे अपनी जगह सुरक्षित ही पड़े हैं। इसलिए उसे फोड़ना नहीं। वे फूटते हैं तो आप अपने निमित्त से मत फोड़ना।
और आपको सिर्फ यह भावना करनी है कि मुझ से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो। उसका अहंकार भग्न नहीं हो, ऐसा रखना चाहिए। उसे उपकारी मानना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : काम-धंधे में सामनेवाले का अहम् नहीं दुभे ऐसा हमेशा नहीं रह पाता, किसी न किसी का अहम् तो दुभता ही है।
दादाश्री : उसे अहम् दुभाना नहीं कहते। अहम् दुभाना यानी क्या कि वह बेचारा कुछ बोलना चाहे और हम कहें, 'चुप बैठ, तू कुछ मत बोल।' ऐसे उसके अहंकार को दभाना नहीं चाहिए। और काम-धंधे में अहम् दुभाना यानी उसमें वास्तव में अहम् नहीं दुभता, मन दुभता है।
प्रश्नकर्ता : पर अहम् तो अच्छी वस्तु नहीं है, तो फिर उसे दुभाने में क्या हर्ज है?
दादाश्री : वह खुद ही अभी अहंकार स्वरूप है. इसलिए उसे नहीं दुभाना चाहिए। वह जो कुछ भी करता है, उसमें मैं ही सब कुछ हूँ, ऐसा वह मानता है। इसलिए नहीं दुभाना चाहिए। आप घर में भी किसी को नहीं डाँटना। किसी का अहंकार नहीं दुभे ऐसा रखना। किसी का अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। लोगों का अहंकार दुभाने पर वे आपसे अलग होते जाते हैं, फिर कभी आपको नहीं मिलते। हमें किसी को ऐसा नहीं कहना चाहिए कि, 'तू यूज़लेस (निकम्मा) है, तू ऐसा है, वैसा है।' ऐसे किसी का मान भंग नहीं करना चाहिए। हाँ, डाँटना ज़रूर, डाँटने में हर्ज नहीं है। कुछ भी हो पर किसी का अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। सिर पर प्रहार हो उसमें हर्ज नहीं पर उसके अहंकार पर प्रहार नहीं होना चाहिए। किसी का अहंकार भग्न नहीं करना चाहिए।
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कोई मज़दूर हो, उसका भी तिरस्कार नहीं करना। तिरस्कार से उसका अहम् दुभेगा। हमें उसकी ज़रूरत नहीं हो तो उससे कहें कि 'भैया, अब मुझे तेरा काम नहीं है' और यदि उसका अहंकार दुभता नहीं हो तो पैसे देकर भी उसे काम पर से फारिग कर देना। पैसे तो आ जायेंगे पर उसका अहम् नहीं दुभाना चाहिए। वर्ना वह बैर रखेगा, जबरदस्त बैर बाँधेगा! हमारा कल्याण नहीं होने देगा, बीच में आयेगा।
यह तो बहुत गहन बात है! अब इसके बावजूद किसी का अहंकार आपसे दुभाया गया हो तो यहाँ हमारे पास (इस कलम अनुसार) शक्ति माँगना। इसलिए जो हुआ उससे खुद का अभिप्राय अलग रखते हैं। फिर उसकी अधिक जिम्मेवारी नहीं रहती। क्योंकि अब उसका अभिप्राय अलग हो गया। अभिप्राय जो अहंकार दुभाने का था, वह इस प्रकार माँग करने से अलग हो गया।
प्रश्नकर्ता : अभिप्राय से अलग हो गया यानी क्या?
दादाश्री : 'दादा भगवान' तो समझ गये न, कि इस बेचारे को अब किसी का अहम् दुभाने की इच्छा नहीं है। अपनी खुद की ऐसी इच्छा नहीं है फिर भी हो जाता है। जबकि जगत के लोगों को इच्छा सहित हो जाता है। अर्थात् यह कलम बोलने से क्या होता है कि हमारा अभिप्राय बदल गया। इसलिए हम उनकी ओर से मुक्त हो गये।
अर्थात् यह शक्ति ही माँगनी है। आपको कुछ करना नहीं है, केवल शक्ति ही माँगनी है। इसे अमल में नहीं लाना है।
प्रश्नकर्ता : शक्ति माँगने की बात ठीक है पर हमें ऐसा क्या करना चाहिए कि जिससे दूसरों का अहम् नहीं दुखे?
दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं करना है। इस कलम के अनुसार आपको केवल बोलना है, बस! और कुछ करना नहीं है। हाल में जो अहम् दुभाया जाता है वह फल (डिस्चार्ज में) आया है। अभी जो होता है वह तो पहले डिसाइड हो गया है, उसे रोका भी नहीं जा सकता,
परिवर्तन करने जाना माथापच्ची है। पर यह कलम बोलें तो फिर जिम्मेवारी ही नहीं रहती।
प्रश्नकर्ता : और यह बोलना सच्चे दिल से होना चाहिए।
दादाश्री : वह तो सच्चे दिल से ही करना चाहिए। और जो मनुष्य करता है न, वह खोटे दिल से नहीं करता, सच्चे दिल से ही करता है। पर इसमें खुद का अभिप्राय अलग हो गया। यह एक तरह का बहुतबड़ा विज्ञान है, समझने जैसा।
इसके अनुसार कुछ करना नहीं है, आपको तो ये नौ कलमें बोलना ही है। शक्ति ही माँगना कि 'दादा भगवान, मुझे शक्ति दो। मुझे यह शक्ति चाहिए।' इससे आपको शक्ति प्राप्त होगी और जिम्मेवारी नहीं रहेगी। जगत कौन-सा विज्ञान सिखलाता है? 'ऐसा मत करो'। लोग क्या कहते हैं कि अरे भाई, मुझे नहीं करना है फिर भी हो जाता है। इसलिए आपका ज्ञान हमें 'फिट' (अनुकूल) नहीं होता है। यह जो आप कहते हैं, इससे आगे का बंद नहीं होता और आज का रूकता नहीं, इसलिए दोनों ओर से नुकसान है। अर्थात् 'फिट' हो ऐसा होना चाहिए।
भाव प्रतिक्रमण, तत्क्षण ही प्रश्नकर्ता : जब सामनेवाले का अहंकार दुखाया, तब ऐसा होता है कि यह मेरा अहंकार बोला न?
दादाश्री : नहीं, ऐसा अर्थ निकालने की ज़रूरत नहीं है। हमारी जागृति क्या कहती है? यह हमारा मोक्षमार्ग माने अंतर्मुखी मार्ग है। निरंतर अंदर की जागृति में ही रहना और सामनेवाले का अहम् दुभाया हो तो तुरंत उसका प्रतिक्रमण कर लेना, यही आपका काम है। आप तो इतने सारे प्रतिक्रमण करते हैं उसमें एक ज्यादा! हम से भी यदि कभी किसी का अहम् दुभाया गया हो, तो हम भी प्रतिक्रमण करते हैं।
इसलिए हररोज सुबह में ऐसा बोलना कि, 'मेरे मन-वचन-काया
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से किसी भी जीव को किंचित्मात्र भी दुःख नहीं हो।' ऐसा पाँच बार बोलकर घर से निकलना और फिर जो दुःख हो तो वह हमारी इच्छा के विरुद्ध हुआ है, उसका शाम को प्रतिक्रमण कर लेना ।
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प्रतिक्रमण यानी क्या? दाग़ लगते ही तुरंत धो डालना। फिर कोई हर्ज नहीं है। फिर क्या झंझट ? प्रतिक्रमण कौन नहीं करता? जिसे (अज्ञान रूपी) बेहोशी है, वे मनुष्य प्रतिक्रमण नहीं करते। बाकी मैंने जिनको ज्ञान प्रदान किया है, वे मनुष्य कैसे हो गये हैं? विचक्षण पुरुष हो गये हैं, प्रति क्षण सोचनेवाले। बाईस तीर्थंकरों के अनुयायी व थे। वे 'शूट ऑन साइट' प्रतिक्रमण करते थे। दोष हुआ कि तुरंत ही 'शूट'! और आज के मनुष्य ऐसा नहीं कर पायेंगे, इसलिए भगवान ने यह रायशी - देवशी, पाक्षिक और पर्युषण में संवत्सरी प्रतिक्रमण करना बताया है।
स्याद्वाद वाणी, वर्तन, मनन...
प्रश्नकर्ता : अब ज़रा 'किसीका भी अहम् नहीं दुभे (दुखे) ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की शक्ति दीजिए।' इसे समझाइए ।
दादाश्री : स्याद्वाद यानी सब लोग किस भाव से, किस 'व्यूपॉइन्ट' (दृष्टिकोण) से कहते हैं, हमें यह समझना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: सामनेवाले का 'व्यूपॉइन्ट' समझना वह स्याद्वाद कहलाता है ?
दादाश्री : सामनेवाले का 'व्यूपॉइन्ट' समझना और उसके मुताबिक व्यवहार करना, उसका नाम स्याद्वाद। उसके 'व्यूपॉइन्ट' को दुःख नहीं पहुँचे ऐसा व्यवहार करना। चोर के 'व्यूपॉइन्ट' को भी दुःख नहीं हो इस तरह आप बोलें, उसका नाम स्याद्वाद !
हम जो बात करते हैं, वह मुस्लिम हो कि पारसी हो, सभी को
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एक रूप से समझ में आती है। किसी का प्रमाण नहीं दुभता कि 'पारसी ऐसे हैं, स्थानकवासी ऐसे हैं।' ऐसा दुःख नहीं होना चाहिए ।
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प्रश्नकर्ता : यहाँ पर कोई चोर बैठा हो, उसे हम कहें कि चोरी करना अच्छा नहीं है, तो उसका मन तो दुभेगा ही न?
दादाश्री : नहीं, ऐसा मत कहना। हमें उसे कहना चाहिए कि 'चोरी करने का फल ऐसा आता है। तुझे ठीक लगे तो करना।' ऐसा कह सकते हैं। अर्थात् बात ढंग से करनी चाहिए। तब वह सुनने को तैयार होगा। वरना वह बात को सुनेगा ही नहीं और उलटे आप अपने शब्द व्यर्थ गँवायेंगे। हमारा बोला व्यर्थ जायेगा और ऊपर से वह बैर बाँधेगा कि बड़े आये नसीहत करनेवाले !
लोग कहते हैं कि चोरी करना गुनाह है। पर चोर क्या समझता है कि चोरी करना मेरा धर्म है। हमारे पास कोई चोर को लेकर आये तो हम उसके कंधे पर हाथ रखकर अकेले में पूछें कि 'भाई, यह बिजनेस (धंधा) तुझे अच्छा लगता है? तुझे पसंद आता है?' फिर वह अपनी हक़ीकत बतायेगा। हमारे पास उसे भय नहीं लगता । मनुष्य भय के कारण झूठ बोलता है। फिर उसे समझायें कि, 'यह जो तू करता है उसकी जिम्मेवारी क्या होती है? उसका फल क्या आता है, यह तुझे मालूम है?" 'वह चोरी करता है' ऐसा तो हमारे मन में भी नहीं होता और यदि ऐसा हमारे मन में होता तो उसके ऊपर असर होता । हर कोई अपने-अपने धर्म में है। किसी भी धर्म का प्रमाण नहीं दुभे, उसका नाम स्याद्वाद वाणी। स्याद्वाद वाणी संपूर्ण होती है। प्रत्येक की प्रकृति अलगअलग होती है, फिर भी स्याद्वाद वाणी किसी की भी प्रकृति को हरकत नहीं करती।
प्रश्नकर्ता: स्याद्वाद मनन अर्थात् क्या?
दादाश्री : स्याद्वाद मनन अर्थात् विचारणा में, विचार करते समय भी किसी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। वर्तन में तो होना ही नहीं
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चाहिए पर विचार में भी नहीं होना चाहिए। बाहर बोलें वह अलग लेकिन मन में भी ऐसे अच्छे विचार होने चाहिए कि सामनेवाले का प्रमाण नहीं दुभे। क्योंकि मन में जो (बुरे) विचार आते हैं, वे सामनेवाले को पहुँचते हैं। इसलिए तो इन लोगों के मुँह चढ़े हुए होते हैं। क्योंकि आपका विचार वहाँ पहुँचकर उन्हें असर करता है।
प्रश्नकर्ता : किसी के प्रति खराब विचार आये तो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए?
दादाश्री : हाँ, नहीं तो उसका मन बिगड़ेगा। और प्रतिक्रमण करने पर उसका बिगड़ा हुआ मन सुधर जायेगा। किसी के लिए भी बुरा या ऐसा-वैसा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए। सब अपना-अपना सम्हालिए, बस! और कोई झंझट नहीं।
धर्म का प्रमाण नहीं दुभे... प्रश्नकर्ता : २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाये या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो।
मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाये ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्यावाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो। इसे विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : किसी का भी प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। कोई भी ग़लत है, ऐसा नहीं लगना चाहिए। 'एक' संख्या कहलाती है कि नहीं कहलाती?
प्रश्नकर्ता : हाँ जी। दादाश्री : तो 'दो' संख्या कहलाती है कि नहीं कहलाती? प्रश्नकर्ता : हाँ, कहलाती है।
दादाश्री : तब 'सौ' संख्यावाले क्या कहेंगे? 'हमारा सही, आपका ग़लत।' ऐसा नहीं कह सकते। सभी का सही है। 'एक' का 'एक' के अनुसार, 'दो' का 'दो' के अनुसार, प्रत्येक अपने अनुसार सही है। अर्थात् हर एक का (व्यूपोइन्ट) जो स्वीकार करता है, उसका नाम स्याद्वाद। एक वस्तु अपने गुणधर्म में है और हम उसके गुणों का स्वीकार करें और दूसरों का अस्वीकार करें, यह ग़लत है। स्यावाद यानी प्रत्येक के प्रमाण अनुसार। ३६० डिग्री होने पर सभी का सही कहलाता है लेकिन उसकी डिग्री तक उसका सही और इसकी डिग्री तक इसका सही होता है।
कोई भी धर्म ग़लत है ऐसा हम नहीं बोल सकते। हरएक धर्म सही है, कोई ग़लत नहीं है, हम किसीको ग़लत कह ही नहीं सकते। वह उसका धर्म है। मांसाहार करता हो, उसे हम ग़लत कैसे कह सकते हैं? वह कहेगा, 'मांसाहार करना मेरा धर्म है।' तो हम 'मना' नहीं कर सकते। वह उसकी मान्यता है, उसकी बिलीफ है। हम किसी की बिलीफ का खंडन नहीं कर सकते। पर जो शाकाहारी परिवार में जन्मे हैं, यदि वे लोग मांसाहार करते हों तो हमें उसे कहना चाहिए कि, 'भैया, यह अच्छी बात नहीं है।' फिर उसे मांसाहार करना हो तो उसमें हम आपत्ति नहीं उठा सकते। हमें समझाना चाहिए कि यह वस्तु हेल्पफुल (सहायक) नहीं है।
स्याद्वाद यानी किसी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना। जितनी मात्रा में सत्य हो उतनी मात्रा में उसे सत्य कहें और जितनी मात्रा में असत्य हो उतनी मात्रा में उसे असत्य कहें, उसका नाम प्रमाण नहीं दुभाया। क्रिश्चिअन प्रमाण, मुस्लिम प्रमाण, किसी भी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। क्योंकि सभी धर्म ३६० डिग्री में समा जाते हैं। Real is the centre and all these are Relative views. (रीअल सेन्टर है और ये सारे रिलेटिव-सापेक्ष दृष्टिकोण हैं।) सेन्टरवाले के लिए रिलेटिव सारे व्यू समान हैं। भगवान का स्यावाद यानी किसी को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो, फिर चाहे कोई भी धर्म हो।
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अर्थात् स्यादवाद मार्ग ऐसा होता है। हर एक के धर्म का स्वीकार करना पड़ता है। सामनेवाला दो थप्पड़ मारे तो भी हमें स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि सारा जगत निर्दोष है। दोषी नज़र आता है, वह आपके दोष को लेकर नज़र आता है। बाकी, जगत दोषी है ही नहीं। लेकिन आपकी बुद्धि दोषी दिखाती है कि इसने ग़लत किया ।
अवर्णवाद, अपराध, अविनय...
प्रश्नकर्ता : ३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। इसमें जो अवर्णवाद शब्द है न, उसकी यथार्थ समझ क्या है?
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दादाश्री : किसी भी तरह जैसा है वैसा बताने के बजाय उलटा बताना, वह अवर्णवाद कहलाता है। जैसा है वैसा नहीं पर ऊपर से उससे उलटा । जैसा है वैसा चित्रण करें, ग़लत को ग़लत और सही को सही कहें, तो अवर्णवाद नहीं कहलाता। पर सारा ही ग़लत कहें तब अवर्णवाद कहलाता है। हरएक मनुष्य में कुछ अच्छा होगा कि नहीं होगा? और थोड़ा उलटा भी होगा। पर उसका सारा का सारा उलटा बताएँ, तब फिर वह अवर्णवाद कहलाता है। 'इस मामले में ज़रा ऐसे है, लेकिन दूसरे मामलों में बहुत अच्छे है,' ऐसा होना चाहिए।
किसी के बारे में हम जो कुछ जानते हैं उसके विरुद्ध में बोलें, जो गुण उसमें नहीं है ऐसे गुणों की हम से होनेवाली सारी बातें वह अवर्णवाद कहलाता है। वर्णवाद यानी क्या कि जो है वह कहना और अवर्णवाद यानी जो नहीं है वह कहना । वह तो भारी विराधना कहलाती है, बहुत बड़ी विराधना कहलाती है। सामान्य लोगों के संदर्भ में निंदा कहलाती है किन्तु महान पुरुषों का तो अवर्णवाद कहलाता है। महान पुरुष यानी जो अंतर्मुख हुए हैं वे । महान पुरुष यानी यह व्यवहार के महान हैं वे नहीं, प्रेसिडन्ट (राष्ट्रपति) हों वे नहीं । अंतर्मुख हुए पुरुषों
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का अवर्णवाद करना, वह तो बड़ा जोखिम है ! अवर्णवाद बड़ा जोखिमकारक है ! वह तो विराधना से भी बढ़कर है।
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प्रश्नकर्ता: उपदेशक, साधु आचार्यों के लिए ऐसा कहा है न?
दादाश्री : हाँ, वे सभी। वे भले ही राह पर हों या नहीं हों, ज्ञान हो या नहीं हो, यह हमें नहीं देखना है। वे भगवान महावीर के आराधक हैं न! वे जो भी करें, सही या गलत, पर भगवान महावीर के नाम पर करते हैं न? इसलिए उनका अवर्णवाद नहीं कर सकते ।
प्रश्नकर्ता: अवर्णवाद और विराधना में क्या अंतर है?
दादाश्री : विराधना करनेवाला तो उलटा जाता है, नीचे जाता है, अधोगति में और अवर्णवाद करनेवाला तो फिर प्रतिक्रमण करे तो गिरता नहीं, जैसा था वैसा, सामान्य हो जाता है। किसी का अवर्णवाद करें मगर फिर प्रतिक्रमण करें तो शुद्ध हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : अविनय और विराधना के बारे में समझाइये न?
दादाश्री : अविनय विराधना नहीं कहलाता। अविनय तो निम्न स्टेज है और विराधना तो सही मानों में उसके विरुद्ध गया कहलाता है। अविनय यानी मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, ऐसा । विनय नहीं करे, उसका नाम अविनय ।
प्रश्नकर्ता: अपराध यानी क्या?
दादाश्री : आराधना करनेवाला मनुष्य ऊपर चढ़ता है और विराधना करनेवाला नीचे उतरता है । पर अपराध करता हो तो दोनों ओर से मार खाता है। अपराध करनेवाला खुद आगे नहीं बढ़ता और किसी को बढ़ने भी नहीं देता । वह अपराधी कहलाता है।
प्रश्नकर्ता: और विराधना में भी किसी को आगे बढ़ने नहीं देता न? दादाश्री : पर विराधनावाला बेहतर। किसी को पता चला तो फिर
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मनुष्य के हाथ में है। इस अहंकार द्वारा सात से गुणा किया हो तो सात से भाग देना तब निःशेष होगा।
वह कहेगा न कि, 'क्या देखकर इस ओर चल पड़े? अहमदाबाद इस ओर होता होगा कहीं?' तब वह लौट भी आये मगर अपराधी तो लौटेगा भी नहीं और आगे भी नहीं बढ़ेगा। विराधनावाला तो उलटा चलता है इसलिए गिर पड़े न!
प्रश्नकर्ता : लेकिन विराधनावाले को लौट के आने का मौका तो है न?
दादाश्री : हाँ, लौट के आने का मौका तो है! प्रश्नकर्ता : अपराधवाले को लौट आने का मौका है क्या?
दादाश्री : वह तो लौट भी नहीं सकता और आगे भी नहीं बढ़ सकता। उसकी कोई कक्षा ही नहीं है। आगे बढ़े नहीं और पीछे जाये नहीं, जब देखो वहीं का वहीं, उसका नाम अपराधी।
प्रश्नकर्ता : अपराध की व्याख्या क्या है?
दादाश्री : विराधना बिना इच्छा के होती है और अपराध इच्छापूर्वक होता है।
प्रश्नकर्ता : वह कैसे, दादाजी?
दादाश्री : जिद पर अड़ा हो तो अपराध कर बैठता है। समझता है कि यहाँ विराधना करने जैसा नहीं है, फिर भी विराधना करता है। समझता हो फिर भी विराधना करे वह अपराध में जाता है। विराधना करनेवाला छूट जाता है पर अपराध करनेवाला नहीं छूटता। बहुत भारी अहंकार हो वह अपराध कर बैठता है। इसलिए हमें अपने आप से कहना पड़ता है कि, 'भैया, तू तो पगला है, बिना वजह (अहंकार का) पावर लेकर चलता है। यह तो लोग नहीं जानते मगर मैं जानता हूँ कि तू क्या है? तू तो चक्कर है।' ऐसे हमें इलाज करना पड़ता है। प्लस-माइनस करना पड़ता है, अकेले गुणा ही करते हो तो कहाँ पहुँचे? इसलिए हमें भाग करना होगा। जोड-बाकी नेचर के अधीन है, जबकि गुणा-भाग
प्रश्नकर्ता : किसी की निंदा करें उसकी गिनती किस में होगी?
दादाश्री : निंदा विराधना कहलाती है पर प्रतिक्रमण करने से धुल जाती है। वह अवर्णवाद के समान है। इसलिए तो हम कहते हैं न कि किसी की निंदा मत करना। फिर भी लोग पीछे से निंदा करते हैं। अरे, निंदा नहीं करनी चाहिए। यह वातावरण सारा परमाणुओं से ही भरा है, इसलिए सब कुछ उसे पहुँच जाता है। एक शब्द भी किसी के बारे में गैरजिम्मेवारीवाला नहीं बोल सकते और बोलना ही है तो कुछ अच्छा बोलिए। कीर्ति बयान करना, अपकीर्ति मत बयान करना।
अतः किसी की निंदा में मत पड़ना। प्रशंसा नहीं कर सको तो हर्ज नहीं, पर निंदा मत करना। मैं कहता हूँ कि निंदा करने में हमें क्या फायदा है? उसमें तो भारी नुकसान है। इस जगत में यदि कोई जबरदस्त नुकसान है तो वह निंदा करने में है। इसलिए किसी की भी निंदा करने के लिए कोई कारण नहीं होना चाहिए।
यहाँ निंदा जैसी वस्तु ही नहीं होती। हम समझने के लिए ये बातें करते हैं कि क्या सही और क्या ग़लत! भगवान ने क्या कहा? कि ग़लत को ग़लत समझ और अच्छे को अच्छा समझ। पर ग़लत समझते समय उस पर किंचित्मात्र द्वेष नहीं होना चाहिए और अच्छा समझते समय उस पर किंचित्मात्र राग नहीं होना चाहिए। गलत को गलत नहीं समझें तो अच्छे को अच्छा नहीं समझ सकते। इसलिए हम विस्तृत रूप से बात करते हैं। ज्ञानी के पास ही ज्ञान समझ में आता है।
अभाव, तिरस्कार नहीं किया जाये... प्रश्नकर्ता : ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया
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जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति न अनुमोदित किया जाये, ऐसी परम शक्ति दो।
दादाश्री : हाँ, सही है। हमें किसी के लिए अभाव हो, मान लीजिए कि आप ऑफिस में बैठे हैं और कोई आया तो आपको उसके प्रति अभाव हआ, तिरस्कार हुआ, तो फिर आपको मन में सोचकर उसका पछतावा करना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए।
इस तिरस्कार से कभी नहीं छूट सकते हैं। उसमें तो निरे बैर ही बंधते हैं। किसी के भी प्रति ज़रा-सा भी तिरस्कार होगा, इस निर्जीव के साथ भी तिरस्कार होगा तो भी आप नहीं छूट पायेंगे। अर्थात् किसी के प्रति जरा-सा भी तिरस्कार नहीं चलेगा। और जब तक किसी के लिए तिरस्कार होगा तब तक वीतराग नहीं हो पायेंगे। वीतराग होना पड़ेगा, तभी आप छूट सकेंगे।
कठोर-तंतीली भाषा नहीं बोली जाये... प्रश्नकर्ता : ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली (स्पर्धावाली, चुभनेवाली) भाषा न बोली जाये, न बुलवाई जाये या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोलें तो मुझे मृदुऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो।
दादाश्री: कठोर भाषा नहीं बोलनी चाहिए। किसी के साथ कठोर भाषा निकल गई और उसे बुरा लगा तो हमें उसको रूबरू कहना चाहिए कि 'भैया, मुझ से भूल हो गई, माफ़ी माँगता हूँ।' और यदि रूबरू में नहीं कह पायें ऐसा हो तो फिर भीतर पछतावा करना कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : और हमें सोचना चाहिए कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए। दादाश्री : हाँ, ऐसा सोचना चाहिए और पछतावा करना चाहिए।
पछतावा करें तो ही वह बंद होता है वरना यों ही बंद नहीं होता। सिर्फ बोलने से बंद नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : मृदु-ऋजु भाषा यानी क्या?
दादाश्री : ऋजु माने सरल और मृदु माने नम्रतापूर्ण। अत्यंत नम्रतापूर्ण हो तो मृदु कहलाती है। अर्थात् सरल और नम्रतापूर्ण भाषा हम बोलें और ऐसी शक्ति माँगे, तो ऐसा करते-करते वह शक्ति आयेगी। आप कठोर भाषा बोलें और बेटे को बरा लगा तो उसका पछतावा करना। और बेटे से भी कहना कि, 'मैं माफ़ी माँगता हूँ। अब फिर से ऐसा नहीं बोलूँगा।' यही वाणी सुधारने का रास्ता है और 'यह' एक ही कॉलेज है।
प्रश्नकर्ता : कठोर भाषा, तंतीली भाषा तथा मृदुता-ऋजुता, इनमें क्या भेद है?
दादाश्री : कई लोग कठोर भाषा बोलते हैं न कि, 'तू नालायक है, बदमाश है, चोर है।' जो शब्द हमने सुने नहीं हो, ऐसे कठोर वचन सुनते ही हमारा हृदय स्तंभित हो जाता है। कठोर भाषा ज़रा भी प्रिय नहीं लगती। उलटे मन में प्रश्न उठता है कि यह सब क्या है? कठोर भाषा अहंकारी होती है।
और तंतीली भाषा माने क्या? रात को आपका आपकी पत्नी के साथ झगड़ा हो जाए और वह सबेरे चाय देते समय प्याला पटककर रखे, तब हम समझ जाये कि अहो! रात की घटना अभी तक भूली नहीं है! यही तंत कहलाता है। फिर वह जो वाणी बोले वह भी ऐसी ही तंतीली (चुभनेवाली) निकलती है।
पंद्रह साल के बाद आपको कोई आदमी मिला हो (जिसके साथ आपका झगड़ा-टंटा हो गया हो) तब तक आपको उसके बारे में कुछ भी याद नहीं होता लेकिन उसके मिलते ही पुराना सबकुछ याद आ जाता है, ताजा हो जाता है। उसका नाम तंत कहलाता है।
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जा सकती हैं वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। आप मज़ाक उड़ाते हों, वह चेष्टा है। ऐसे हँसते हों वह भी चेष्टा कहलाती है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसी की हँसी उड़ाना, किसी का मज़ाक उड़ाना वे चेष्टाएँ कहलाती हैं?
दादाश्री : हाँ, ऐसी बहुत प्रकार की चेष्टाएँ हैं। प्रश्नकर्ता : तो यह विषय-विकार संबंधी चेष्टाएँ किस तरह से हैं?
दादाश्री : विषय-विकार के बारे में भी देह ऐसी जो-जो क्रिया करे, जिसकी तस्वीर ली जा सके, वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। जो क्रिया देह से नहीं हो, उसे चेष्टा नहीं कहते। कभी-कभी इच्छाएँ होती हैं, मन में विचार आते हैं, पर वे चेष्टाएँ नहीं होती हैं। विचार संबंधी दोष मन के दोष हैं।
स्पर्धा में जैसे तंत होता है न? 'देखो, मैंने कैसा बढ़िया खाना पकाया और उसे तो पकाना ही नहीं आता !' ऐसे तंत हो जाता है, स्पर्धा में आ जाता है। वह तंतीली भाषा (सुनने में) बहुत बुरी होती है।
कठोर और तंतीली भाषा नहीं बोलनी चाहिए। भाषा के सारे दोष इन दो शब्दो में समा जाते हैं। इसलिए फुरसत के समय में 'दादा भगवान' से हम शक्ति माँगते रहें। कर्कश बोला जाता हो तो उसकी प्रतिपक्षी शक्ति माँगना कि मुझे शुद्ध वाणी बोलने की शक्ति दो, स्याद्वाद वाणी बोलने की शक्ति दो, मुदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो, ऐसा माँगते रहना। स्यावाद वाणी यानी किसी को दुःख नहीं हो ऐसी वाणी।
निर्विकार रहने की शक्ति दो प्रश्नकर्ता : ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो।
दादाश्री : आपकी दृष्टि बिगड़ते ही आप तुरंत अंदर 'चन्दुभाई' (चन्दुभाई की जगह पाठक स्वयं को समझे) से कहना, 'ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा हमें शोभा नहीं देता। हम खानदान क्वॉलिटी के (गुणवाले) हैं। जैसी हमारी बहन होती है वैसे वह भी दूसरे की बहन है। हमारी बहन पर किसी की कुदृष्टि हो तो हमें कितना बुरा लगे! वैसे दूसरों को भी दुःख होगा कि नहीं? इसलिए हमें ऐसा शोभा नहीं देता। अर्थात् दृष्टि बिगड़ने पर पछतावा करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : चेष्टाएँ, इसका क्या अर्थ है? दादाश्री : देह से होनेवाली सारी क्रियाएँ, जिसकी तस्वीर खींची
'मुझे निरंतर निर्विकार रहने की शक्ति दीजिए।' इतना आप 'दादाजी' से माँगना। 'दादाजी' तो दानेश्वर हैं।
रस में लुब्धता न हो... प्रश्नकर्ता : ७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो। समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो।
दादाश्री : भोजन लेते समय आपको अमुक सब्जी, जैसे कि टमाटर की ही रुचि हो, जिसकी आपको फिर से याद आती रहे, तो वह लुब्धता कहलाती है। टमाटर खाने में हर्ज नहीं है पर फिर से याद नहीं आना नहीं चाहिए। वरना हमारी सारी शक्ति लुब्धता में चली जायेगी। इसलिए हमें कहना चाहिए कि, 'जो भी आये मुझे मंजूर है।' किसी भी प्रकार की लुब्धता नहीं होनी चाहिए। थाली में जो खाना आये, आम्ररस और रोटी आये, तो आराम से खाना। उसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं है। पर जो कुछ आये उसे स्वीकार करना, दूसरा कुछ याद नहीं करना।
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प्रश्नकर्ता: समरसी यानी क्या?
दादाश्री : समरसी यानी पूरनपूरी (दालवाली मीठी पूरी ), दालभात, सब्जी सब खाइए, मगर अकेली पूरनपूरी ही ढूँस-हँसकर नहीं खानी चाहिए।
कुछ लोग मिठाई खाना छोड़ देते हैं, तब मीठाई उस पर दावा करेगी कि मेरे साथ तुझे क्या अनबन है? दोष भैंसे का और दंड भ को! अरे, जीभ का क्या कसूर? कसूरवार तो भैंसा है अर्थात् अज्ञानता का कसूर है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन समरसी भोजन यानी क्या? उसमें भाव की समानता किस प्रकार रहती है?
दादाश्री : आप लोगों का ज्ञाति-भोज हो, उसमें जो भोजन बनाते हैं न, वह आपकी 'ज्ञाति' की रुचि अनुसार समरसी लगे वैसा भोजन बनाते हैं। और अन्य लोगों को आपकी 'ज्ञाति' का खिलाएँ तो उन्हें समरसी नहीं लगेगा, आप लोग मिर्च आदि कम खानेवाले हैं। समरसी भोजन प्रत्येक ज्ञाति का अलग-अलग होता है । समरसी भोजन यानी टेस्टफुल, स्वादिष्ट भोजन। मिर्च ज्यादा नहीं, फलाँ ज्यादा नहीं, सब उचित मात्रा में डाला हो ऐसी वस्तु । कोई कहता है कि, 'मैं तो सिर्फ दूध पीकर चला लूँगा।' यह समरसी आहार नहीं कहलाता। समरसी यानी भली-भाँति षट्स भोजन साथ मिलाकर खाओ, टेस्टफुल करके खाओ। (दूसरा) कडुआ नहीं खा पाओ तो करेले खाओ, खेकसा खाओ, मेथी खाओ पर कडुआ भी लेना चाहिए। कडुआ नहीं लेते इसकी वज़ह से तो सारे रोग होते हैं। इसलिए फिर क्विनाइन (कुनैन) लेनी पड़ती है ! उस रस की कमी होने से यह तकलीफ होती है। अर्थात् सभी रस लेने चाहिए।
प्रश्नकर्ता: उसका मतलब यह है कि समरसी लेने के लिए शक्ति माँगना कि हे दादा भगवान ! मैं समरसी आहार ले सकूँ ऐसी शक्ति दीजिए? दादाश्री : हाँ, आप यह शक्ति माँगना । आपकी भावना क्या है?
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समरसी आहार लेने की आपकी भावना हुई, वही आपका पुरुषार्थ । और मेँ शक्ति दूँ, इससे आपका पुरुषार्थ परिपक्व हो गया।
प्रश्नकर्ता : किसी भी रस में लुब्धता नहीं होनी चाहिए वह भी सही है?
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दादाश्री : हाँ, अर्थात् किसी को ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि मुझे खटाई के सिवा और कुछ रूचिकर नहीं लगता। कुछ कहते हैं कि, 'हमें मीठा खाये बगैर मज़ा नहीं आता।' तब तीखे का क्या कसूर? कुछ कहें, 'हमें मीठा रूचिकर नहीं लगता, अकेला तीखा ही चाहिए।' यह सब समरसी नहीं कहलाता। समरसी यानी सब 'एक्सेप्टेड (स्वीकार्य)', कम-ज्यादा मात्रा में पर सब एक्सेप्टेड ।
प्रश्नकर्ता : समरसी आहार और ज्ञान, इन दोनों के बीच क्या कनेक्शन है? ज्ञानजागृति में जो आहार समरसी आहार नहीं हो वह नहीं लिया जा सकता?
दादाश्री : समरसी आहार के लिए तो ऐसा है न कि हमारे (ज्ञानप्राप्त) महात्माओं को लिए तो अब 'जो हुआ सो व्यवस्थित' है, फिर उनको क्या खाना और क्या नहीं खाना, उसका कहाँ झगडा है? यह तो आम लोगों को बताया है और हमारे महात्माओं को भी थोड़ा विचार में तो आयेगा कि हो सके उतना समरसी आहार लेना चाहिए ।
प्रकृति का गुणन - भाजन
प्रश्नकर्ता : प्रकृति समरसी होनी चाहिए ऐसा है क्या?
दादाश्री : प्रकृति यानी क्या? तेरह से गुणा की गई चीज़ तेरह से भाग करने पर प्रकृति पूर्ण होगी। अब किसी सत्रह से गुणा की गई चीज़ को तेरह से भाग करने पर क्या होगा ? यानी यह तो अलग ही तरह का गुणन-भाजन किया।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् तेरह से गुणा किया तेरह से भाग करना ?
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दादाश्री : ऐसा करने पर ही नि:शेष होगा। प्रश्नकर्ता : उसका उदाहरण क्या ले सकते हैं?
दादाश्री : प्रकृति यानी पहले जो भाव किये थे, वे किस आधार पर किये? जो जो आहार खाया उसके आधार पर भाव किये, अब वे भाव मानो कि तेरह से गणा किया। उस भाव को उड़ा देना हो तो तेरह से भाग करने पर नि:शेष होगा। और नये सिरे से भाव उत्पन्न नहीं होने दिया तो वह खाता बंद हो गया। नई इच्छाएँ नहीं हैं. इसलिए खाता बंद हो गया। खाता बंद होना चाहिए न?
वहाँ प्रकृति की शून्यता... प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा का ज्ञान तो दिया, अब यह हमारी प्रकति शून्यता प्राप्त करे उसके लिए ये नौ कलमें बोलें, वह हेल्प करती हैं क्या?
दादाश्री : उससे हेल्प तो होगी ही। जितने से गुणा किया उतने से भाग करना। मुझे डॉक्टर कहते हैं कि, 'यह खाना'। मैंने कहा, 'डॉक्टर, यह बात दूसरे मरीज़ को कहना। यह हमारा गुणा अलग तरह का है। वह मुझे भाग करने को कहे तो उसका किस प्रकार मेल हो?
प्रश्नकर्ता : आप तो ऊपर से अधिक मात्रा में मिर्च लेकर भाग करते हैं?
दादाश्री : हाँ, पूरा कर लेना है।
यह नीरुबहन से मैं कहता हूँ, 'आप कहो तो सुपारी खाऊँ?' और सुपारी खाते समय कहता हूँ कि यह खाँसी करने की दवाई है। तब वह कई बार तो मना करती हैं तो रहने देता हूँ और फिर कहती हैं कि 'लीजिए' तब लेता हैं। इसलिए खाँसी होती है। और (आमतौर पर) मैं सुपारी नहीं खाता हूँ, मुझे किसी चीज़ की आदत नहीं है पर मेरे भीतर भरे हुए माल के हिसाब से खाई जाती हैं न!
हमारा यह 'अक्रम विज्ञान' है! ये जो होता है वह पिछली आदतें पड़ी हुई हैं इसलिए होता है। अब यह शक्ति मांगो। फिर लुब्ध आहार खा लिया उसमें कोई हर्ज नहीं पर इस कलम अनुसार बोलने से आप उस करार में से मुक्त हो जाते हो।
प्रश्नकर्ता : हमारी जो प्रकृति है, उसे यदि गुणा करेंगे तो वह बढ़ जायेगी। इसलिए उसका भाग करना चाहिए। प्रकृति का प्रकृति से भाग करना चाहिए, इसे ज़रा समझाइए।
दादाश्री : अब यह कलम बार-बार बोलने से उसमें भाग होता रहेगा और कम होता जायेगा। यह कलम नहीं बोलने पर (प्रकृति रूपी) पौधा अपने आप पनपता रहेगा। इसलिए यह बार-बार बोलने पर कम हो जायेगा। इसे बोलते रहने से प्रकृति का जो गुणा हुआ है वह टूट जायेगा और आत्मा का गुणा होगा और प्रकृति का भाग होगा। इसलिए आत्मा की पुष्टि होगी। समय मिलने पर ये नौ कलमें रातदिन बोल-बोल कीजिए, फुरसत मिलने पर बोलना। हम तो सारी दवाइयाँ दे देते हैं, सबकुछ समझा देते हैं, फिर आपको जो करना हो सो करना।
प्रत्यक्ष-परोक्ष, जीवित-मृतक हुए... प्रश्नकर्ता : ८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी
दादाश्री : मिर्च लेते समय मैं सब से कहता हूँ कि यह खाँसी की दवाई करता हूँ और खाँसी आये तो दिखाता हूँ कि देखो, आई न खाँसी !
प्रश्नकर्ता : उसमें भाग करना कहाँ आया?
दादाश्री : वही भाग करना कहलाता है। मिर्च नहीं ली होती तो भाग करना पूरा नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रकृति में जो भरा हुआ है, उसे अब पूरा करना है?
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इसलिए यह कलम बोलते रहने पर दोष नहीं लगता। आप हुक्का पीते जायें और बोलते जायें कि 'यह नहीं पीना चाहिए, नहीं पिलाना चाहिए या पिलाने के प्रति अनुमोदन नहीं किया जाये ऐसी शक्ति दो।' तो इससे सारे करार खतम होते जाते हैं, वरना पुद्गल का स्वभाव तुरंत पलटी मार देने का है। इसलिए ऐसी भावना करनी चाहिए (वरना दोष छूटेंगे नहीं)।
जगत कल्याण करने की शक्ति दो प्रश्नकर्ता : ९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। हम यह कल्याण की भावना करें, तो वह किस प्रकार काम करेगी?
दादाश्री : आपका शब्द ऐसा निकले कि सामनेवाले का काम हो
जाये!
अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो।
दादाश्री : अवर्णवाद यानी किसी मनुष्य की बाहर इज्जत अच्छी हो, रूतबा हो, कीर्ति हो, उसके बारे में उलटा बोलकर उसकी इज्जत नीलाम करना, उसे अवर्णवाद कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : इसमें मृतकों को भी हम जो क्षमापना करते हैं, हम जो संबोधन करते हैं, वह उनको पहुँचेगा क्या?
दादाश्री : उन्हें पहुँचाने का नहीं है। इसमें ऐसा कहना चाहते हैं कि जो आदमी मर गया है, आज उसका नाम लेकर आप गालियाँ दो तो आप भयंकर दोष के भागी बनते हो। इसलिए हम मना करते हैं कि मरे हुए का भी नाम मत देना (कुछ उलटा मत बोलना)। बाकी पहुँचाने नहीं पहुँचाने का तो सवाल ही नहीं है। कोई बुरा आदमी हो
और वह सबकुछ उलटा करके मर गया हो पर उसका भी पीछे से बुरा मत बोलना।
रावण के बारे में भी उलटा नहीं बोल सकते, क्योंकि वह अभी भी देहधारी है (दूसरे जन्म में)। 'रावण ऐसा था और वैसा था' बोलें न, तो वह 'फोन' उसे पहुँच जाये (आपके स्पंदन उसका आत्मा जहाँ कहीं भी हो वहाँ पहुँच जाते हैं)।
हमारे कोई सगे-संबंधी मर गये हों और लोग उनकी निंदा करते हों तो हमें उसमें हाँ में हाँ नहीं मिलानी चाहिए। और ऐसा हुआ हो तो हमें फिर पछतावा करना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी मृतक के बारे में ऐसी बात करना भयंकर अपराध है। जो मर गया है उसे भी हमारे लोग नहीं छोड़ते। ऐसा करते हैं कि नहीं करते लोग? ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा हम कहना चाहते हैं। उसमें बड़ा भारी जोखिम है।
उस समय पहले से बँधे अभिप्राय अनुसार यह बोल देते हैं।
प्रश्नकर्ता : आप पौद्गलिक या 'रीअल' (आत्म) कल्याण की बात करते हैं?
दादाश्री : पुद्गल नहीं, हमें तो 'रीअल' की ओर ले जाये उसकी आवश्यकता है। फिर 'रीअल' के सहारे आगे का (मोक्ष तक का) काम हो जाता है। यह 'रीअल' प्राप्त हो तो 'रिलेटिव' प्राप्त होगा ही। सारे संसार का कल्याण करो ऐसी भावना करनी है। यह मात्र गाने के लिए नहीं बोलना है, ऐसी भावना रखनी है। यह तो लोग इसे केवल गाने के लिए गाते हैं, जैसे श्लोक बोलते हैं ऐसे।
प्रश्नकर्ता : ऐसे ही फ़िजूल बैठा रहे उसके बजाय ऐसी भावना करे तो उत्तम कहलाये न?
दादाश्री : अति उत्तम। बुरे भाव तो निकल गये! उसमें जितना हो पाया उतना सही, उतनी कमाई तो हुई!
प्रश्नकर्ता : उस भावना को मिकेनिकल भावना कह सकते हैं? दादाश्री : नहीं। मिकेनिकल कैसे कहलाये? मिकेनिकल तो जो
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
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जरूरत से ज्यादा यों ही खुद को ख्याल नहीं रहे ऐसे बोलता रहे तब मिकेनिकली कहलाये।
इसमें कुछ करना नहीं है प्रश्नकर्ता : इसमें लिखा है कि 'मुझे शक्ति दो, शक्ति दो', तो ऐसा पढ़ने से हमें शक्ति मिल जायेगी?
दादाश्री : बेशक! ये 'ज्ञानी पुरुष' के शब्द हैं!! प्रधानमंत्री की चिट्ठी हो और यहाँ के एक व्यापारी की चिट्ठी हो तो उसमें फर्क नहीं? क्यों आप कुछ बोले नहीं? हाँ, इसलिए यह 'ज्ञानी पुरुष' की बात है। इसमें बुद्धि चलाये तो मनुष्य पागल हो जाये। ये बातें तो बुद्धि से परे हैं।
प्रश्नकर्ता : पर अमल में लाने के लिए उसमें लिखा है उस अनुसार करना होगा न?
दादाश्री : नहीं, इसे पढ़ना ही है। अमल में अपने आप आ जायेगा। इसलिए यह (नौ कलमों की) किताब आप अपने साथ ही रखना और रोज़ाना पढ़ना। आपको इसके अंदर के सारे ज्ञान की जानकारी हो जायेगी। रोज़ बार-बार पढने से आपको इसकी प्रेक्टिस हो जायेगी, तद्प हो जाओगे। आज आपको मालूम नहीं होगा कि इसमें मुझे क्या फायदा हुआ मगर आहिस्ता-आहिस्ता आपको यथार्थ रूप से बैठ जायेगा।
यह शक्ति माँगने पर फिर उसका फल वर्तन के रूप में नज़र आने लगेगा। इसलिए आप 'दादा भगवान' से शक्तियाँ माँगना। और 'दादा भगवान' के पास अपार, अनंत शक्ति है, जो माँगो सो मिले ऐसी। अर्थात् इसे माँगने से क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : शक्ति प्राप्त होगी।
दादाश्री : हाँ, इन कलमों को पालने की शक्ति आने के बाद फिर उसका पालन होगा। वैसे यों ही पालन नहीं होगा। इसलिए आप यह
शक्ति बार-बार माँगते रहना। दसरा कुछ नहीं करना है, ये जो लिखा है वैसा झट से हो जाये ऐसा नहीं है और होगा भी नहीं। आपसे जितना हो सके उतना समझना कि इतना हो पाता है और इतना नहीं हो पाता। जितना नहीं हो पाता उसके लिए क्षमा माँगना और साथ-साथ यह शक्ति माँगना, इससे शक्ति प्राप्त होगी।
माँगो शक्ति, सिद्ध करो काम एक भाई से मैं ने कहा कि, 'इन नौ कलमों में सब समा गया है। इसमें हमनें कुछ बाकी नहीं छोड़ा है। आप ये नौ कलमें रोज पढना।' इस पर उसने कहा, 'पर यह नहीं होगा।' मैंने कहा, 'मैं करने को नहीं कहता। करने की आवश्यकता नहीं है। आप नहीं होगा' ऐसा क्यों कहते हो? आपको तो इतना कहना है कि, 'हे दादा भगवान, मुझे शक्ति दो।' शक्ति माँगने को कहता हूँ। तब कहते है, 'फिर तो इसमें मज़ा आयेगा।' (संसार में) लोगों ने तो करना ही सिखाया है।
फिर मुझे कहते हैं, 'ये शक्तियाँ कौन देगा?' मैंने कहा, 'शक्तियाँ मैं दंगा।' आप चाहे सो शक्तियाँ देने को मैं तैयार हूँ। आपको खुद को माँगना ही नहीं आता, इसलिए मुझे इस तरह से सिखाना पड़ता है कि इस तरह शक्ति माँगना। ऐसा नहीं सिखाना पड़ता? देखिए न, सब सिखाया ही है न! यह मेरा सिखाया ही है न! इस बात पर से वे समझ गये। फिर कहते हैं कि इतना तो होगा, इतने में सब आ गया।
प्रश्नकर्ता : पहले तो यही शंका होती है कि शक्ति माँगने से मिलेगी कि नहीं?
दादाश्री: यह शंका ही ग़लत साबित होती है। अब यह शक्ति माँगते रहते हो न! इसलिए आपमें यह शक्ति उत्पन्न होने के बाद वह शक्ति ही कार्य करवायेगी, आप खुद मत करना। आप करोगे तो अहंकार बढ़ जायेगा। फिर 'मैं करने जाता हूँ लेकिन होता नहीं है' ऐसा होगा, इसलिए केवल शक्ति माँगो।
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
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प्रश्नकर्ता : इन नव कलमों में हम शक्ति माँगते हैं कि ऐसा नहीं किया जाये, नहीं करवाया जाये और अनुमोदन नहीं किया जाये, उसका मतलब यह है कि भविष्य में ऐसा नहीं हो, उसके लिए हम शक्तियाँ माँगते हैं या फिर यह हमारा पिछला किया-कराया धुल जाये इसलिए है?
दादाश्री : पिछला धुल जाये और शक्ति उत्पन्न हो। शक्ति तो है ही, पर वह शक्ति (पिछले दोष) धुलने पर व्यक्त होती है। शक्ति तो है ही मगर व्यक्त होनी चाहिए। इसलिए दादा भगवान की कृपा माँगते हैं। यह अपना (पिछला) धुल जाये तो शक्ति व्यक्त हो जाये।
प्रश्नकर्ता : यह सब पढा तब मालूम हुआ यह तो जबरदस्त बात है। छोटा आदमी भी अगर समझ जाये तो उसकी सारी जिन्दगी सुखमय गुज़रे।
दादाश्री : हाँ, (आज तक) समझने लायक बात ही उसे प्राप्त नहीं हुई। यह पहली बार स्पष्ट समझने लायक बात प्राप्त होती है। अब यह प्राप्त हो जाये तो हल निकल आये।
दादाश्री : हाँ, उसका मतलब इतना ही है कि, 'आप इसमें सहमत नहीं है', ऐसा कहना चाहते हैं। अर्थात् आप उससे अलग हैं और हुक्का पीना जब अपने आप बंद हो जाये तब ठीक है। अब आप उससे चिपके हुए नहीं हैं, वह आपसे लगा हुआ है। उसकी अवधि समाप्त होने पर चला जायेगा, ऐसा कहना चाहते हैं। एक ओर हुक्का गुड़गुड़ाते हों और एक ओर यह भावना बोलें तो (धीरे धीरे) गुड़गुड़ाना उड़ जायेगा और इस भाव की शुरूआत होती जायेगी।
अब लोग कहते है कि 'आइए साहिब, पधारिए।' पर वहाँ भी मन में क्या होता है कि 'इस वक्त कहाँ से आ टपके?' आप हुक्का गुड़गुड़ाते हैं पर भीतर में यह नहीं होना चाहिए' ऐसा होता है। जबकि वे लोग इससे उलटा कहते हैं। बाहर 'आइए, पधारिए' कहते हैं और फिर भीतर (मन) में कहते हैं कि, 'ये कहाँ से आ टपके?' तो वे सुधरा हुआ बिगाड़ते हैं, जबकि आप बिगड़ा हुआ सुधारते हैं।
प्रश्नकर्ता : पूरे 'अक्रम विज्ञान' का अजूबा ही यह है कि बाहर बिगड़ा हुआ है और अंदर सुधार रहे हैं।
दादाश्री : हाँ, इसलिए हमें संतोष रहता है न! कि भले ही यह घान (कढ़ाई में एक बार में तली गई वस्तु) बिगड़ गया तो बिगड़ गया पर यह नया घान तो अवश्य अच्छा होगा। एक घान बिगड़ा सो गया, पर नया तो अच्छा होगा! तब वे लोग क्या कहते हैं कि 'यह जो घान है उसी को ही सुधारना है।' अब छोड उसका पीछा. जाने दे यहाँ से. नया भी बिगड़ जायेगा। यह तो घान भी गया और तेल भी गया।
प्रश्नकर्ता : आज जो बिगड़ा है, उसके जिम्मेवार आज हम नहीं है। वह तो पिछले जन्म का परिणाम है।
दादाश्री : हाँ, आज हम जिम्मेवार नहीं है। आज वह सत्ता औरों के हाथ में है। जिम्मेवारी हमारे हाथ नहीं है न! इसमें परिवर्तन होनेवाला नहीं है और बिना वज़ह हाय-हाय क्यों लगा रखी है? वहाँ तो गुरु
इन नौ कलमों में से अपने आप हम से जितनी कलमों का पालन होता हो, उसमें हर्ज नहीं है पर जितना पालन नहीं होता हो, उसका मन में खेद मत रखना। आपको तो केवल इतना ही कहना है कि मुझे शक्ति दो। उससे शक्ति का संग्रह होता रहेगा। भीतर शक्ति जमा होती रहेगी। फिर कार्य अपने आप होगा। शक्ति माँगने पर नौ कलमें सेट हो जायेगी। अर्थात् आप सिर्फ बोलेंगे तो भी बहुत हो गया। बोला यानी शक्ति माँगी और इसलिए शक्ति प्राप्त हुई।
भावना से भावशुद्धि प्रश्नकर्ता : ऐसा होता है कि, हुक्का पीते जाते हैं पर अंदर चलता रहता है कि नहीं पीया जाये, नहीं पिलाया जाये कि पीने के प्रति नहीं अनुमोदन किया जाये...
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
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महाराज भी कहते हैं कि, 'अगर ऐसा नहीं हुआ तो तुम्हें यहाँ घुसने नहीं दूंगा।' तब वह क्या कहता है कि, 'साहिब, मुझे करना तो बहुत कुछ है मगर होता नहीं है, उसका क्या करूँ?' अर्थात् यह नासमझी की बातें चलती है सभी।
प्रश्नकर्ता : यह तो प्रकृति एकदम से कुछ उलटा-सीधा कर डालती है न, तब भीतर जबरदस्त सफोकेशन (घटन) होता है।
दादाश्री : अरे, यहाँ तक होता है कि पाँच-पाँच दिन तक नहीं खाते। अरे, गुनाह किसका और किसे मारता रहता है? पेट को किस लिए मारता है? गुनाह मन का और मारता है पेट को। कहता है कि, 'तुम्हें नहीं खाना है', तब उसमें देह बेचारा क्या करे? फिर शक्ति चली जाये न बेचारे की! अगर उसने खाया होगा तो दूसरा कुछ काम कर पायेगा। इसे हमारे लोग कहते हैं कि भैंसे के दोष का दंड भिश्ती को क्यों देते हो? दोष भैंसे का (मन का) है और इस भिश्ती का (देह का) बेचारे का क्या दोष है?
और बाहर झाड़-बुहार करने से क्या फायदा है, जो हमारी सत्ता में ही नहीं है? बिना वज़ह शोर मचाने का अर्थ क्या है? पर अंदर का सारा कचरा बुहारना पड़ता है, अंदर का सारा धोना पड़ता है। यह तो बाहर का धो डालते हैं, गंगाजी जायें तो देह को बार-बार डुबकियाँ खिलाता हैं। अरे, देह को इबोने से क्या सिद्ध होगा? मन को डुबो न! मन को, बुद्धि को, चित्त को, अहंकार को, सारे अंत:करण को, इन सभी को डुबोना है। इसमें साबून कभी भी इस्तेमाल नहीं किया, फिर बिगड़ जायेगा कि नहीं बिगड़ जायेगा?
उम्र छोटी हो तब तक सुचारु रूप से चलता है। फिर दिन-बदिन बिगड़ता है, फिर कचरा जमा होता जाता है। इसलिए हमने क्या कहा कि तेरे आचार (यहाँ) बाहर रखता जा और यह नौ कलमें लेता जा। जो भी झूठ है उसे बाहर रखता जा और इन नौ कलमों की भावना करता जा, उससे आनेवाला जन्म उत्तम हो जायेगा।
प्रश्नकर्ता : यह 'ज्ञान' प्राप्त नहीं किया हो, वे लोग भी इस प्रकार से आचार का परिवर्तन ला सकते हैं न?
दादाश्री : हाँ, सभी परिवर्तन ला सकते हैं। सभी को यह बोलने की छूट है।
प्रश्नकर्ता : कुछ उल्टा हो जाये तो बाद में उसे धो डालने के लिए ये कलमें एक जबरदस्त उपाय है।
दादाश्री : यह तो बड़ा पुरुषार्थ है। अर्थात् यह महानतम विज्ञान हम प्रकाश में लाये हैं ! पर अब लोगों को समझ में आना चाहिए न! इसलिए फिर अनिवार्य किया कि इतना तुम्हें करना है। भले ही समझदारी नहीं हो मगर इतना (नौ कलमों की दवाई) पी जाइए न!
प्रश्नकर्ता : अंदरूनी रोग खतम हो जाते हैं।
दादाश्री : हाँ, खतम हो जाते हैं। 'दादाजी' कहें कि 'पढ़ना' तो बस उसे पढ़ना ही है, तो भी बहुत हो गया! यह तो पचाने हेतु नहीं है। यह तो पुड़िया घोलकर पी जाना और फिर आराम से घूमने के समान है।
प्रश्नकर्ता : यह बात सही है कि इसमें भाव करने से पात्रता बढ़ती है? ____दादाश्री : भाव ही वास्तविक पुरुषार्थ है। बाकी सभी फ़िजूल की बातें हैं। कर्तापद वह तो बंधनपद है और यह भाव छुडानेवाला पद है। 'ऐसा कीजिए, वैसा कीजिए, फलाँ कीजिए', इसलिए फिर लोग उसमें बंध गये।
भावना फल देगी, अगले भव में प्रश्नकर्ता : जब ऐसा प्रसंग उपस्थित हो कि हमसे किसी के अहंकार का प्रमाण दुभाया गया, ऐसे प्रसंग पर यह कलम बोल सकते हैं कि किसी के भी अहम् का प्रमाण नहीं दुभाया जाये....?
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
भावना से सुधरे जन्मोजन्म
दादाश्री : तब तो हमें 'चन्दुभाई' से कहना कि, 'भैया, प्रतिक्रमण करो, उसे दुःख हुआ है इसलिए।' और अन्य छोटी-छोटी बातों की झंझट में मत पड़ना। बाकी, ऐसे ही किसी का अहम् दुभाया जाये, उतने भारी लक्षण (आप में) नहीं होते। और किसी को थोड़ा भी दुःख हुआ हो तो हमें 'चन्दुभाई' के पास प्रतिक्रमण करवाने चाहिए।
यह तो भावना करने की है। अभी एक जन्म शेष रहा न? इसलिए यह भावनाएँ फल देंगी। तब तो आप भावनारूप ही हो गये होंगे। जैसी भावनाएँ लिखी गई हैं वैसा ही वर्तन होगा, मगर अगले भव में! अभी बीज बोया है और अभी आप कहें कि 'लाइए, उसे भीतर से कुरेदकर खा जायें।' तो वह नहीं चलेगा।
प्रश्नकर्ता : परिणाम इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में आयेगा?
दादाश्री : हाँ, अभी एक-दो जन्म शेष रहे हैं। उसके खातिर यह बीज बोते हैं, इसलिए अगले जन्म में 'क्लियर' (स्वच्छ) हो जाये। यह तो जिसे (अच्छे) बीज बोना हो उसके लिए है।
प्रश्नकर्ता : तो यह निरंतर यानी जब-जब प्रसंग उपस्थित हो उसके अनुसार?
दादाश्री : नहीं, उस प्रसंग को और इस भावना को कुछ लेनादेना नहीं है। प्रसंग से क्या लेना-देना? प्रसंग तो निराधार है बेचारा! और यह भावना तो आधारित वस्तु है। यह भावना तो साथ आनेवाली है और प्रसंग तो चला जायेगा।
प्रश्नकर्ता : पर प्रसंग के आधार पर ही यह भावना की जा सकती है न?
है। और यह तो भावना करनी है, अभी उसका संयोग प्राप्त होना (अगले जन्म में) बाकी है।
प्रश्नकर्ता : पर उस प्रसंग की वजह से खुद के भाव बदलते हैं, तब यह भावना प्रयोग में लाकर फिर से भाव परिवर्तन करना है न?
दादाश्री : अभी जो करते है वह कुछ मदद नहीं करेगा। पूर्व में जितना किया होगा वह आज मदद करता है। हाँ, ऐसा हो सकता है कि पूर्व में थोड़ा-बहुत किया हो तभी इस भव में सारा परिवर्तन होता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् पिछले जन्म के भाव के अनुसार ही परिणाम के रूप में आज का प्रसंग आता है?
दादाश्री : वही परिणाम आता है, दूसरा नहीं आता। भाव यानी बीज और द्रव्य यानी परिणाम । बाजरे का एक दाना बोयें तो इतनी बड़ी बाल आती है न!
ये कलमें तो सिर्फ बोलनी ही हैं, प्रतिदिन भावना ही करनी है। यह तो बीज बोना है। बोने के बाद जब फल प्राप्त हो तब देख लेना। तब तक खाद डालते रहना। बाकी, इस प्रसंग (व्यवहार) में ऐसे कोई परिवर्तन लाना नहीं है, कुछ भी।
अर्थात् ये नव कलमें क्या कहती हैं? 'हे दादा भगवान! मुझे शक्ति दो।' अब लोग क्या कहते हैं? 'यह तो पालन की जा सके ऐसी नहीं है।' पर ये करने के लिए नहीं हैं। अरे, नासमझी की बातें क्यों करते हो? इस संसार में सभी ने कहा कि, 'करो, करो, करो।' अरे, करने को होता ही नहीं, समझने का ही होता है। और फिर 'मैं ऐसा नहीं करना चाहता और (ऐसा जो हो गया) उसका पछतावा करता हूँ', ऐसे 'दादा भगवान' के पास माफ़ी माँगनी है। अब यह नहीं करना चाहता' ऐसा कहा न, वहीं से हमारा अभिप्राय अलग हुआ, यानी हम मुक्त हुए! यह मोक्षमार्ग का रहस्य है, जो जगत के लक्ष्य में होता नहीं न!
दादाश्री : नहीं, प्रसंग से कोई लेना-देना नहीं है। भावना ही साथ आयेगी। यह प्रसंग निराधार है, वह तो चला जायेगा। कितना भी अच्छा प्रसंग हो पर वह भी चला जायेगा। क्योंकि वह संयोग प्राप्त हो चुका
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प्रश्नकर्ता : लोग 'डिस्चार्ज' में ही परिवर्तन चाहते हैं. परिणाम में ही परिवर्तन लाना चाहते हैं।
ऐसे जो भाव होते हैं वह भी भावना है, वह भाव नहीं है। वास्तव में भाव वही है जो चार्ज होता है।
दादाश्री : हाँ, अर्थात् जगत को यह लक्ष्य मालूम ही नहीं है। इसकी समझ ही नहीं है। मैं उसे (ग़लत) अभिप्राय से मुक्त करना चाहता हूँ। आज 'यह ग़लत है' ऐसा आपका अभिप्राय हो गया, क्योंकि पहले 'यह सही है' ऐसा अभिप्राय था और इसलिए संसार खड़ा रहा है। अब यह ग़लत है' ऐसा अभिप्राय होने पर मुक्त हुआ। अब किसी भी संयोग में फिर यह अभिप्राय बदलना नहीं चाहिए।
अर्थात् भावकर्म से यह संसार खड़ा हुआ है। हमसे कोई कार्य नहीं हो, फिर भी भाव तो वह कार्य हो ऐसा ही रखना चाहिए। हमारे यहाँ (अक्रम मार्ग में) भावकर्म (चार्ज) को उड़ा दिया है। बाहर के लोगों को भावकर्म करना चाहिए। इसलिए जिसे जो शक्ति चाहिए, वह शक्ति दादा भगवान के पास माँगनी चाहिए। ___ प्रश्नकर्ता : इस दुनिया के दूसरे लोगों को यह शक्ति माँगनी चाहिए, तो हमारे महात्मा जो शक्ति माँगते हैं, भावना करते हैं, वह किसमें जाता है?
दादाश्री : हमारे महात्मा जो माँगते हैं, वह उनके डिस्चार्ज में है। क्योंकि भावना के दो प्रकार है, चार्ज और डिस्चार्ज। जगत के व्यवहार में लोगों को भी भावना होती हैं और यहाँ हमें भी भावना होती हैं पर हमारी भावना डिस्चार्ज के रूप में है और उन्हें चार्ज-डिस्चार्ज दोनों रूप में होती हैं। लेकिन हमें शक्ति माँगने में क्या नुकसान है?
ये नौ कलमें रोजाना बोलने से आहिस्ता-आहिस्ता किसी के साथ झगड़ा-टंटा कुछ भी नहीं रहेगा। क्योंकि खुद का भाव टूट चूका है (नहीं रहा है)। अब जो 'रीएक्शनरी' (प्रत्याघाती) है, उतना ही शेष रह गया है। वह आहिस्ता-आहिस्ता कम होता जायेगा।
महात्माओं के लिए, वह चार्ज या डिस्चार्ज? प्रश्नकर्ता : भाव और भावना, इन दोनों के बीच में क्या अंतर है?
दादाश्री : वे दोनों 'चन्दुभाई' में आ गया। पर आप सही कहते हैं, भाव और भावना में अंतर है।
प्रश्नकर्ता : भावना पवित्र होती है और भाव तो अच्छा भी होता या बुरा भी होता है।
दादाश्री : नहीं, भावना पवित्र होती है ऐसा नहीं है। भावना तो अपवित्र को भी लागू होती है। किसी का मकान जला डालने की भावना हो सकती है और किसी का मकान बना देने की भावना भी हो सकती है। अर्थात् भावना का उपयोग दोनों ओर हो सकता है। लेकिन भाव चार्ज है और भावना डिस्चार्ज है।
हमें जो भीतर होता है कि मुझे ऐसा करना है, वैसा करना है,
प्रश्नकर्ता : बाहर के लोग नौ कलमों की शक्ति माँगे, तो वह भाव कहलाता है और महात्मा शक्ति माँगे वह भाव नहीं कहलाता?
दादाश्री : बाहर के लोगों के लिए वह भाव कहलाता है और हमारे महात्माओं के लिए यह भावना है। बात सही है, उनको वह भाव कहलाता है, चार्ज कहलाता है और महात्माओं को डिस्चार्ज कहलाता है, भाव नहीं कहलाता।
भाव, एक्जेक्ट डिजाइन अनुसार प्रश्नकर्ता : ये नौ कलमो में जैसा कहा है वैसी ही हमारी भावना है, इच्छा है, अभिप्राय है, जीवन है तो चलेगा न?
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भावना से सुधरे जन्मोजन्म
दादाश्री : पहले जो करता था वैसा ही प्रतित होता है, मगर वैसा है नहीं। उस (नौ कलमोंवाली भावना की) ओर मन का झुकाव है लेकिन वह झुकाव निश्चित रूप से इस प्रकार होना चाहिए, डिजाइन अनुसार होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : डिजाइन अनुसार यानी किस प्रकार, दादाजी?
दादाश्री : ये भावना में जो लिखा है उसके अनुसार, यथार्थ रूप से। बाक़ी वैसे तो मुझे साधु-संतो को परेशान नहीं करना है ऐसा होता है, फिर भी उन्हें परेशान करते हैं। उसका कारण क्या है? डिजाइन अनुसार नहीं है इसलिए। वह डिजाइन अनुसार हो तो ऐसा नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : ये नौ कलमें हैं, उन्हें समझदारी से जीवन में लानी चाहिए?
दादाश्री : नहीं, ऐसे कुछ समझदारी से लाना नहीं है। हम क्या कहते हैं कि यह हमने जो कहा है ऐसे शक्ति माँगो केवल। वह शक्ति ही आपको वहाँ एक्जेक्टनेस में लाकर रख देगी। आपको अपनी समझदारी से कुछ नहीं करना है। यह तो हो ही नहीं सकता, मनुष्य नहीं कर सकता। यदि समझदारी से करने जाये तो होनेवाला नहीं है। कुदरत को सौंप दीजिए। इसलिए 'हे दादा भगवान ! शक्ति दो।' ऐसे शक्ति माँगने से शक्ति अपने आप प्रकट होगी, बाद में यथार्थ रूप से होगी।
यह तो बहुत ऊँची वस्तु है। लेकिन जब तक समझ में नहीं आता तब तक सब ऐसा ही!
मैंने ऐसा किसलिए कहा होगा कि शक्ति माँगना, शक्ति दो ऐसा? खुद डिजाइन नहीं कर सकता। मूल डिजाइन कैसे बना सकता है? अर्थात (आज) यह इफेक्ट है। यह जो शक्ति माँगते हैं, वह कॉज़ है और इफेक्ट बाद में आयेगी। वह इफेक्ट भी किसके द्वारा आती है? दादा भगवान के द्वारा प्रबंधित। इफेक्ट भगवान के शु (द्वारा) आनी चाहिए।
अर्थात् नौ कलमों के अनुसार शक्ति माँगते रहे तो अपने आप ही फिर नौ कलमों में रहेंगे, कई सालों तक...
संसारी संबंध से मुक्त होने के लिए प्रश्नकर्ता : ये जो नौ कलमें दी हैं वह विचार, वाणी और वर्तन की शुद्धता के लिए दी हैं न?
दादाश्री : नहीं, नहीं। अक्रम मार्ग में इसकी ज़रूरत ही नहीं है। ये नौ कलमें तो आपके अनंत अवतार के सबके साथ जो भी हिसाब बँधे हुए हैं, उन हिसाबों में से मुक्त होने के लिए दी है। आपके बहीखाते शुद्ध करने के लिए दी है।
इसलिए ये नौ कलमें बोलने से (लोगों से बंधे) तार छूट जायेंगे। लोगों के साथ जो तार जुड़े हुए हैं, वे ऋणानुबंध आपके मोक्ष में बाधक हैं। इसलिए इन तारों से छूटने के लिए ये नौ कलमें हैं।
इन्हें बोलने से आपके आज तक के जो दोष हुए हैं, वे सारे ढीले हो जायेंगे। और फिर इसका परिणाम तो आयेगा ही। सारे दोष जली हुई रस्सी के समान हो जाते हैं, जिसे यों हाथ लगाते ही ढेर हो जायेंगे।
प्रश्नकर्ता : दोषों के प्रतिक्रमण करने के लिए हम नौ कलमें प्रतिदिन बोला करें तो उसमें भी शक्ति मिलेगी क्या?
दादाश्री : आप नौ कलमें बोलें वह अलग है और इन दोषों का प्रतिक्रमण करें वह अलग है। जो दोष होते हैं, उसके प्रतिक्रमण तो रोज़ाना करने चाहिए।
अनंत अवतार से लोगों के साथ राग-द्वेष के जो हिसाब हुए हों, वे सारे ऋणानुबंध इन नौ कलमों को बोलने से छूट जायेंगे। यह बहुत बड़ा प्रतिक्रमण है। इन नौ कलमों में सारे संसार का प्रतिक्रमण आ जाता है। इन्हें अच्छी तरह करना। हमने आपको दिखा दिया है, फिर हम तो अपने देश (मोक्ष) में चले जायेंगे न!
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आजीवन वर्तना नौ कलमों की, दादा को
ऐसा है न, इस काल के हिसाब से लोगों में (पूरी) शक्ति नहीं है । जितनी शक्ति है उतना ही दिया है। इतनी भावना करेंगें उनको अगले जन्म में मनुष्यत्व नहीं चला जायेगा, इसकी गारन्टी देता हूँ। वर्ना आ अस्सी प्रतिशत मनुष्यत्व रहे नहीं ऐसा हो गया है।
हमारी इन नौ कलमों में उच्चतम भावनाएँ निहित हैं। सारा सारांश इनमें समाया हुआ है। ये नौ कलमें हम जो आजीवन पालन करते आये हैं, उसकी यह पूँजी है। अर्थात् यह हमारा रोज़मर्रा का माल है जो जाहिर किया है, अंततः लोगों का कल्याण हो उसके खातिर । कईं सालों से, चालीस-चालीस सालों से निरंतर ये नौ कलमें प्रतिदिन हमारे भीतर चलती ही रही हैं। जो लोगों के लिए मैंने जाहिर की है।
प्रश्नकर्ता : आज तो हम 'हे दादा भगवान ! मुझे शक्ति दो । ' ऐसा बोलते हैं लेकिन आप ये नौ कलमें किसे संबोधित करते थे?
दादाश्री : वह 'दादा भगवान' नहीं मगर कोई और नाम होगा, उसे ही संबोधित करके कहते थे। उसे 'शुद्धात्मा' कहो कि चाहे जो कहो । वह उसे ही संबोधित करके कहते थे ।
क्रमिक मार्ग के इतने बड़े शास्त्र पढ़ें या फिर सिर्फ नौ कलमें बोलें तो भी बहुत हो गया ! नौ कलमों में गज़ब की शक्ति है! लेकिन यह समझ में नहीं आती न! वह तो हमारे समझाने पर समझ में आयेगी और इसकी कीमत समझ में आई है ऐसा कब कहूँ कि खुद मुझसे आकर कहे कि 'ये नौ कलमें मुझे बहुत अच्छी लगीं।' ये सारी नौ कलमें समझने लायक हैं।
ये नौ कलमें किसी शास्त्र में नहीं हैं पर हमारे जीवन में हम जिन भावनाओं का पालन करते हैं और जो हमेशा हमारे अमल में ही हैं, वे आपको करने के लिए देते हैं। हमारी जो वर्तना है उसी प्रकार ये कलमें लिखी गई हैं। इन नौ कलमों के अनुसार हमारा वर्तन होता है, फिर भी
भावना से सुधरे जन्मोजन्म हमारी गिनती भगवान में नहीं होती। भगवान तो, जो भीतर हैं वही भगवान! बाकी, किसी मनुष्य से ऐसा वर्तन नहीं हो सकता ।
ये नौ कलमें चौदह लोक का सार है। सारे चौदह लोक का जो दही हो, उसे मथकर यह मक्खन निकालकर रखा है। इसलिए ये सभी कितने पुण्यवान हैं कि (अक्रम मार्ग की) लिफ्ट में बैठे-बैठे मोक्ष में जा रहे हैं! हाँ, बशर्ते कि हाथ बाहर मत निकालना !
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ये नौ कलमें तो किसी जगह होती ही नहीं। नौ कलमें तो पूर्ण पुरुष ही लिख पायें। वे (आमतौर पर) होते ही नहीं न, वे हों तो लोगों का कल्याण हो जाये !
वीतराग विज्ञान का सारांश
यह भावना करते समय कैसा होना चाहिए? पढ़ते समय हर एक शब्द नज़र के सामने दिखना चाहिए। जैसे 'आप पढ़ते हैं' ऐसा 'दिखाई दे' तब आप अन्य जगह पर मग्न नहीं होते हैं। यह भावना करते समय आप अन्यत्र नहीं होने चाहिए। हम एक क्षण के लिए भी अन्यत्र नहीं होते हैं। उसी मार्ग पर आपको आना पड़ेगा ! जिस जगह हम हैं वहीं पर! यह भावना करने से पूर्ण होते जाओगे। भावना तो इतनी ही करने योग्य हैं।
हाँ, जो मन-वचन काया की एकता से बोलें वही भावना है। इसे अवश्य करना । इसलिए अब आप ये नौ कलमें तो अवश्य करना । ये नौ कलमें सारे वीतराग विज्ञान का सारांश हैं! और प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान सभी उसमें समा गया हैं। ऐसी नौ कलमें किसी जगह नहीं निकली थीं। जैसे यह ब्रह्मचर्य की पुस्तक नहीं निकली थीं, उसी तरह ये नौ कलमें भी नहीं निकली थीं। यदि ये नौ कलमें पढ़ें और भावना करें तो दुनिया में किसी के साथ बैर नहीं रहे, सभी के साथ मैत्री हो जाये। ये नौ कलमें तो सभी शास्त्रों का सारांश है।
जय सच्चिदानंद
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________________ PAN दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 11. चिंता 2. सर्व दुःखों से मुक्ति 12. क्रोध 3. कर्म का विज्ञान 13. प्रतिक्रमण 4. आत्मबोध 14. दादा भगवान कौन? 5. मैं कौन हूँ? 15. पैसों का व्यवहार 6. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 16. अंत:करण का स्वरुप 7. भूगते उसी की भूल 17. जगत कर्ता कौन? 8. एडजस्ट एवरीव्हेयर 18. त्रिमंत्र 9. टकराव टालिए 19. भावना से सुधरे जन्मोजन्म 10. हुआ सो न्याय English 1. Adjust Everywhere 16. Money Ahimsa (Non-violence) 17. Noble Use of Money Anger 18. Pratikraman Apatvani-1 19. Pure Love Apatvani-2 20. Shree Simandhar Swami Apatvani-9 21. Spirituality in Speech 7. Avoid Clashes 22. The Essence of All Religion 8. Celibacy: Brahmcharya 23. The Fault of the Sufferer 9. Death: Before, During & After... 24. The Science of Karma 10. Flawless Vision 25. Trimantra 11. Generation Gap 26. Whatever has happened is 12. Gnani Purush Shri A.M.Patel Justice 13. Guru and Disciple 27. Who Aml? 14. Harmony in Marriage 28. Worries 15. Life Without Conflict दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मैगेज़ीन प्रकाशित होता है। प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाई वे, पोस्ट : अडालज, जि, गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जि. राजकोट. फोन : 99243 43416 वडोदरा : दादा भगवान परिवार, (0265)2414142 मुंबई : दादा भगवान परिवार, 9323528901-03 पूणे : महेश ठक्कर, 9822037740 बेंगलूर : अशोक जैन, 9341948509 कोलकता : शशीकांत कामदार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 951-734-4715, E-mail : shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4. Halesia Drive. Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel. : 4166753543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada :+1416-675-3543 Australia:+61421127947 Dubai :+971506754832 Singapore: +65 81129229 Malaysia :+60 126420710 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org