Book Title: Bharatiya Prachin Lipimala
Author(s): Gaurishankar H Oza
Publisher: Munshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RST - CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર -: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૧ ભારતીય પ્રાચિન લિપિમાલા : દ્રવ્ય સહાયક : પૂજ્ય આ. શ્રી ૐમકારસૂરિજી મ.સા.ના સમુદાયના પૂ. સાધ્વીજી શ્રી કૈવલ્યરત્નાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી ૐમકારસૂરિજી આરાધના ભવન એમ.એમ.જૈન સોસાયટી, સાબરમતી શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजित पृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१ शिल्परत्नम्भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार पर्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ न्यायप्रवेशः भाग - १ दीपार्णव पूर्वार्ध अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः पू. विक्रमसूरिजीम. सा. पू. जिनदासगणिचूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणिम. सा. पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा. पू. पद्मसागरजी गणिम. सा. पू. मानतुंगविजयजीम. सा. श्री बी. भट्टाचार्य श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारतीगोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराजदोशी श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री પૃષ્ઠ 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 028 414 192 824 288 520 578 278 252 324 302 038 196 190 202 | क्षीरार्णव | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર | श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 041. 480 228 043 6o 044 218 190 138 296 2io 049. 274 286 216 052 532 13 112 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાદક | પૃષ્ઠ ! 160 202 48 322 અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा. 164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः | सं श्री धर्मदत्तसूरि । 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता | . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 516 064 विवेक विलास सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् |सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य | 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 0748न सामुद्रिनi iय jथी J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१ ४४. श्री साराभाई नवाब 374 420 406 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 076 | જન વિને જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 114 08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં | ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ 238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ 194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ 192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ 260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ 238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ 260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી 910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી 336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી | 230 સં. | પૂ. મે વિનયની પૂ.સવિનયન, પૂ. पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560 088 . 322 114 089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 272 92 240 93 254 282 95 118 466 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ | भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 342 98 362 134 70 101 316 224 612 307 250 514 107 454 354 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 जैन लेख संग्रह भाग - १ जैन लेख संग्रह भाग - २ जैन लेख संग्रह भाग - ३ जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ जैन प्रतिमा लेख संग्रह पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाह कांतिसागरजी दौलतसिंह लोढा विशालविजयजी विजयधर्मसूरिजी राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह प्राचिन लेख संग्रह - १ बीकानेर जैन लेख संग्रह प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १ प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१ अगरचंद नाहटा जिनविजयजी जिनविजयजी गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स विजयदेव माहात्म्यम् पी. पीटरसन जिनविजयजी सं./ह सं./हि सं./ह सं./हि सं./ह सं./गु सं. गु सं./ह सं./हि सं./ह सं. गु सं./गु सं./गु अं. अं. अं. सं. पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा यशोविजयजी ग्रंथमाळा नाहटा धर्स जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 414 400 320 148 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्राचीन लिपिमाला THE PALÆOGRAPHY OF INDIA Aho! Shrutgyanam Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho! Shrutgyanam Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्राचीन लिपिमाला THE PALEOGRAPHY OF INDIA रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रचित by Rai Bahadur PANDIT GAURISHANKAR HIRACHAND OJHA MUNSHIRAM MANOHARLAL, NEW DELHI Aho! Shrutgyanam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MUNSHIRAM MANOHARLAL POST BOX 3715 54, RANI JHANSI ROAD, NEW DELHI-35 Book Shop: 416 NAI SARAK, DELH1-6 Third edition Novembre 1971 PUBLISHED FROM REVISED AND ENLARGED SECOND EDITION OF 1918 PUBLISHED BY SRI DEVENDRA JAIN FOR MUNSHIRAM MANOHARLAL NEW DELHI AND PRINTED BY SRI B.K. MEHRA AT TAJ OFFSET PRESS, DELHI Ahol Shrutgyanam Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE. a P TO the dawn of the nineteenth century the early history of India was practically a sealed book to the world. Little material for a true history of the country was available even to scholars who could understand and appreciate the different stages through which the people of this great and ancient country had passed during the last three or four thousand years. The political changes and social disintegration, which marked the eight or ten centuries preceding the arrival of the British in India, left little opportunity or inclination in people to study the history or the literature of their country. With the advent of the English and the gradual opening up of the different parts of the country, an interest in its history and literature was awakened, and scholars took to a study of Sanskrit literature and philosophy. This gave rise to a study of Indian archæology which has, since the beginning of the last century, brought to light much important material for a proper and systematic reconstruction of the history of India. A knowledge of Indian Paleography, however, is essential for a study of Indian arthæology. Ignorance of ancient Indian scripts and the consequent inability to read inscriptions on stone, copper plates and coins contributed not a little to the confused and incorrect ideas on Indian history, which prevailed in the country for a long time. Whatever light modern researches have cast on the dark pages of the early history of this country is due, to a large extent, to the labours of the pioneers among European scholars who succeeded in tracing out the various forms through which the Indian alphabets have passed. The complete reading of the Brahmi and Kharoshthi characters by Princep and others marks the beginning of much valuable work done by European and Indian scholars, without which our present knowledge of the early history of India would have been impossible. To a student of the early history of India a thorough acquaintance with the various alphabets in use in ancient India and their correlation is necessary. The great obstacle. however, to the cultivation of the study of Indian Paleography was the absence of a singin book dealing with the subject as a whole-a book by means of which the subject could be studied without the help of a teacher. The materials for such study are to be found in English and other European languages. Numerous facsimilies, transcripts, translations. dissertations, comments and criticisms have, from time to time, appeared in various Government publications and the journals of learned societies. The volume and expense of these publications, however, place them out of the reach of the ordinary student, who has no means of referring to them unless he happens to reside in a large town which has a good library. To meet this want, I published, as early as 1894 A.D., 'Prachina Lipimälä' or 'The Paleography of India' in Hindi. It was the first book of its kind in any language, and was much appreciated by European and Indian scholars. It gave an impetus to the study of the subject, and many Indian and European scholars found the book useful for a study of Indian Aho! Shrutgyanam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Palæography, The Indian Universities, too, included Palæography as an optional subject for the M A. degree, and the book was used by students going up for that examination. The demand was so great that the first edition was sold out in a few years, nd copies were not available even when twenty times the original price was offered for them. The book, therefore, appears to have supplied a widely-felt want, and I have, from time to time, received letters urging me to bring out a second edition of the book. In doing so, I have thoroughly revised and rewritten the whole of the subject matter. Archæology has made great progress in India during the last 25 years, owing to the important research work of various scholars and to the impetus given to the study of the subjcct by the reorganisation of the Archæological Department by Lord Curzon. A mere reprint of the first edition would, therefore, have rendered the book very incomplete as a work of reference. I have, therefore, incorporated in it the results of recent researches on the subject. The present edition has, in consequence, increased to thrice the bulk of the original book. The book naturally divides itself into two parts, the first Descriptive and the second Illustrative. The first part contains the following chapters : 1. The antiquity of the art of writing in Ancient India. II. The origin of the Brāhmi alphabet. III. The origin of the Kharashthe alphabet. IV. The history of the decipherment of ancient characters. V. The Brāhmi script (Plates 1--15). VI. The Gupta script (Plates 16-17) VII. The Kuțila script (Plates 18-23). VIII. The Nagari script (Platcs 24-27). IX. The Sārada script (Plates 28–31). X. The Bengāli script (Plates 32 --35). XI. The Western script (Plaies 36-40). XII. The script of the Central Provinces (Plates 41-42). XIII. The Telugu-Canarese script (Plates 43-51). XIV. The Grantha script (Plates 52- 56). XV. The Kalinga script (Plates 57–59). XVI. The Tamil script (Plates 60-62). XVII. The Vatteļuttu script (Plates 63-64). XVIII. The Kharoshthi script (Plates 65-70). XIX. Numerical symbols and figures of the Brāhmi and other scripts derived from it (Plates 71-76). XX. Numerical symbols of the Kharoshthi script (Plate 76, last chart). XXI. The principal Indian scripts of the present day (Plates 77-81). XXI. Evolution of the principal Indian scripts of the present day (Plates 82-84). XXIII. Evolution of the present Nagari numerals (Plate 84, last chart). XXIV. Writing materials, I have, where necessary, given the opinions of various writers and my reasons for agreeing with or dissenting from their views. Aho! Shrugyanam Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ An appendix follows containing a dissertation on the epochs of various eras used in India, viz: Saptarshi, Kaliyuga, Vira-Nirvana, Buddha-Nirvāua. Maurya, Selucidi. Vikrama, Saka, Kalachuri, Gupta, Gängeya, Harsha, Bhalika, Kollam, Nevara. ChalukyaVikrama, Simha, Lakshmanasana, Puduveppu, Räjyäbhisheka, Barhaspalya, Grahaparivritti, solar and lunar ycars, Hijri, Sāhūra, Fasli, Visayat, Amli, Bengali, Magi and Christian eras. The second part comprises 84 plates. The relation of the various plates to diferent chapters of the text has been detailed above. In the plates - 70 dealing with the various scripts, covering the period from the 3rd century B.C. to the 16th century A.D., the following method has been adopted : Vowels, consonants, consonants with vowel particles, conjunct consonants and special symbols or formations are selected from important inscriptions, copper-plates, coins and manuscripts of the period in question and arranged in proper order under the corresponding Nāgari characters. Then follow a few lines from the same sources in original for exercise in deciphering. The characteristies of each script and special formations are traced and explained in the chapter relating to the plate, which also contains a Vāgari transcript of the lines given for exercise. Extracts in original are not given for exercise in plates 60-64, as all inscriptions found in these characters are in Tamil language, and not Sanskrit, I trust that those interested in the subject will find in this book all that is required for the beginner, and that my book will arouse interest among my countrymen and induce them to follow this fascinating study, which has helped, and will continue to help, the restoration of an authentic history of India. Should it prove so, my labours will have been more than amply rewarded. RAJPUTAXA Museum, AIXEB: The 18th tuyul 1919. ? GAURISHANKAR HIRACHAND OJHA. Ahol Shrutgyanam Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho! Shrutgyanam Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. प्राचीन काल में आर्य जाति विद्या और सभ्यता में सर्वोच्च पद पा चुकी थी और एशिया खंड ही प्रायों की सभ्यता का मूल स्थान था जहाँसे बहुधा दुनिया भर में धर्म, विद्या और सभ्यता का प्रचार हमा. एशिमा में भारत, इरान और अमीरित्रावाले तथा यामिका में मिसरवाले बड़ी उमत दशा को पहुंचे थे, परंतु परिवर्तनशील समय किसी को सवेंदा एक दशा में नहीं रहने देखा अनेक राष्ट्रविप्लब होते होते ईरान, असीरिश्रा और मिसरवाले तो अपने प्राचीन साहित्य आदिके उत्तराधिकारी न रहे परंतु भारतवर्ष के आर्य लोगों ने वैसी ही अनेक प्रापसियो सहमे पर भी पनी प्राचीन सभ्यता के गौरवरूपी अपने प्राचीन साहित्य को बहुत कुछ पचा रात्रा और विद्या के संबंध में सारे भूमंडल के लोग थोड़े बहुत उनके भणी हैं. ऐस प्राचीन गौरवषाले भारतवर्ष का मुसल्मानों के यहां आने के पहिले का शृंखलाबद्ध इतिहास, जिसे माधुनिक काल के विद्वान् वास्तविक इतिहास कह सकें, नहीं मिलता. भारतवर्ष पड़ा ही विस्तीर्ण देश है. जहां पर प्राचीन काल से ही एक ही राजा का राज्य नहीं रहा किंतु समय समय पर अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय मौर अस्त होता रहा; विदेशियों के अनेक माकमणों से प्राचीन नगर नष्ट होते और उनपर नये वसते गये और मुसल्मानों के समय में तो राजपूताने के बड़े अंशको और कर भारतवर्ष के बहुधा सब हिंदू राज्य अस्त हो गये इतना ही नहीं किंतु बहुत मे प्राचीन नगर, मंदिर, मठ भादि धर्मस्थान तथा प्राचीन पुस्तकालय नष्ट कर दिये गये. ऐसी दशा में इस विशाल देश के शृंखलाबद्ध प्राचीन इतिहास का मिलना सर्वथा असंभव है, परंतु यह निर्विवाद है कि यहांवाले इतिहास विद्या के प्रेमी अवश्य थे और समय समय पर इतिहास से संबंध रखनेवाभमेक ग्रंय यहां लिखे गये थे. वैदिक साहित्य मार्यों की प्राचीन दशा का विस्तृत हाल प्रकट करता है. रामायण में रघुवंश का और महाभारत में कुरुवंश का विस्तृत इतिहास एवं उस समय की इस देश की या तथा लोगों के प्राचार विचार आदि का वर्णन मिलता है. भस्थ, वाय, विष्णु और भागवत मादि पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की प्राचीन काल से लगा कर भारत के युद्ध के पीछे की कई शताब्दियों तक की वंशावलियां, कितने एक राजाओं का कुछ कुछ वृत्तांत एवं मंद, मौर्य, शंग, काएक और मांजवंशी राजामों की नामावलियों तथा प्रत्येक राजा के राजस्वकास के वों की संख्या तक मिलती है. मांधों के पीछे के समय में भी अनेक ऐतिहासिक पुस्तक लिखे गये थे जिनमें से पापमहरचित 'हर्षचरित'; वाक्पतिराज का 'गउडवहो'; पद्मगुप्त(परिमलप्रपात 'मसाहसांकचरित'; विषहण का 'विक्रमांकदेवचरित'; संध्याकरनंदिरचित 'रामचरित'; करण तथा जोगराज की 'राजतरंगिणी'; हेमचंद्ररचित 'घाश्रयकान्य' तथा 'कुमारपासचारित' जयानक (जयरथ) का 'पृथ्वीराजविजय'; सोमेश्वर की 'कीर्तिकौमुदी'; अरिसिंहरचित 'सुकृतसंकीर्तम'; जयसिंहसरि का हमीरमदर्दन'; मेरुतुंग का प्रपंचिंतामणि'; राजशेखर का 'चतुविशतिप्रबंध; चंद्रप्रभसूरिभणीत प्रभाषकचरित'; गंगादेवीरचित 'कंपरायचरितम्' (मधुराविजयम्): जयसिंहसरि,पारिअसंदरगण तथा जिनमंडनोपाध्याय के भिन्न भिन्न तीन कुमारपालचरित'; जिनहर्षगणिका वस्तुपालचरित'; मयचंद्रसूरिप्रणीत 'मीरमहाकाव्य'; आनंदन का 'पल्लालचरित'; गंगाधर परिसरचित 'मंडलीकमहाकाव्य'; राजनाथ का 'अच्युलराजाभ्युदयकाव्य'; तथा मूषकवंशम्' मादि कई अंथ भव नक मिपुके हैं और नये मिलते जाते हैं. इनके अतिरक्त हिंदी, गुजराती और तामिक आदि भाषाओं में विले हुए हई ऐतिहासिक पुस्तक मिले हैं, परंतु ये सब पुस्तक भी इस विस्तीर्ण देश पर गज्य करमेनाले अनेक राजवंशों में से थोड़ेसों का कुछ इतिहास प्रकट करते हैं. इनमें पड़ी त्रुटि यह है कि बहुधा Aho! Shrutgyanam Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. संतों का तो अभाव ही है, और ये शुद्ध इतिहास की दृष्टि से नहीं किंतु काव्यरूप में अतिशयोक्ति से लिखे गये हैं. बुद्ध के समय से इधर का इतिहास जानने के लिये धर्मबुद्धि से अनेक राजवंशियों और धनाढ्य पुरुषों के बनवाये हुए बहुत से स्तूप, मंदिर, गुफा, तालाब, बावड़ी आदि पर लगाये हुए एवं स्तंभों और मूर्तियों के आसनों पर खुदे हुए अनेक लेख, जो मुसलमानों से बचने पाये, तथा मंदिर मट आदि के अर्पण की हुई अथवा ब्राह्मणादि को दी हुई भूमि के दानपत्र एवं अनेक राजाओं के सिके, जो सांप्रतकाल में सत्य इतिहास के मुख्य साधन माने जाते हैं, बहुतायत के साथ उपलब्ध होने से उनके द्वारा बहुत कुछ प्राचीन इतिहास मालूम हो सकता था; परंतु उनकी ओर कितने दृष्टि न दी और समय के साथ लिपियों में परिवर्तन होते रहने से प्राचीन लिपियों का पढ़ना भी लोग भूल गये जिससे इतिहास के ये अमूल्य साधन हर एक प्रदेश में कहीं अधिक कहीं कम, उपस्थित होने पर भी निरुपयोगी हो गये। देहली के सुल्तान फ़ीरोज़शाह तुरालक ने अशोक के लेखवाले दो स्तंभ ला कर देहली में खड़े करवाये उनपर के लेखों का आशय जानने के लिये सुल्तान ने बहुत से विद्वानों को एकत्र किया परंतु वे उन लेखों को न पढ़ सके. ऐसा भी कहते हैं कि बादशाह अक्बर को भी उन लेखों का माराय जानने की बहुत कुछ जिज्ञासा रही परंतु उस समय एक भी विद्वान ऐसा न था कि उनको पढ़ कर बादशाह की जिज्ञासा पूर्ण कर सकता. प्राचीन लिपियों का पढ़ना भूल जाने के कारण जब कहीं ऐसा प्राचीन लेग्य मिल आता है कि जिसके अक्षर पढ़े नहीं जाते तो उसको देख कर लोग अनेक कल्पना करते है. कोई उसके अक्षरों को देवताओं के अक्षर बतलाते हैं, कोई गड़े हुए धन का बीजक कहते और कोई उसको सिद्धिदायक यंत्र बतलाते हैं. इस अज्ञान के कारण प्राचीन वस्तुओं की कुछ भी कह न रही इतना ही नहीं किंतु टूटे हुए मंदिरों आदि के शिलालेख तोड़ फोड़ कर कहीं मामूली पत्थरों की तरह बुनाई के काम में लाये गये; कहीं उनकी भंग, मसाला आदि पीसने की सिलाएं बनाई गई ; और कहीं नये मंदिर, मकान आदि की सीढियां छपने आदि बनाने में भी वे काम में लाये गये जिसके अनेक उदाहरण मिले हैं. कई प्राचीन ताम्रपत्र तांबे के भाव येथे जा कर उनके बरतन बनाये गये, सोने खांदी के असंख्य सिक्के गलाये जा कर उनके जेवर बने और अब तक बनते जाते तांबे के प्राचीन सिके तो तक सालाना मनों गलाये जाते हैं. विद्या की अवनति के साथ हमारे यहां के प्राचीन इतिहास की बची खुषी सामग्री की यह दशा हुई. प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तकों का मिलना भी सर्व साधारण के लिये कठिन हो गया जिससे प्रायः १७५ वर्ष ही पहिले तक इस देश के मुसलमानों के पूर्व के इतिहास की यह दशा थी कि विक्रम, बापारावल, भोज, सिद्धराज जयसिंह, पृथ्वीराज, जयचंद, रावल समरसी ( समर सिंह ) आदि प्रसिद्ध राजाओं के नाममात्र सुनने में आते थे परंतु यह कोई नहीं जानता था कि वे कब हुए और उनके पहिले उन वंशों में फोन कौन से राजा हुए. भोज का चरित्र लिखनेवाले बदलाल पंडित को भी यह मालूम न था कि मुंज ( वाक्पतिराज ) सिंधुराज (सिंधुल ) का बड़ा भाई था और उसके मारे जाने पर सिंधुराज को राज्य मिला था, क्यों कि 'भोजप्रबन्ध' में सिंधुज (सिंधुराज ) के मरने पर उसके छोटे भाई मुंज का राजा होना लिखा है. जय भोज का इतिहास लिखनेवाले को भी भोज के वंश के इतिहास का सामान्य ज्ञान भी न था तब सर्व साधारण में ऐतिहासिक ज्ञान की अवस्था होनी चाहिये यह सहज ही अनुमान हो सकता है. ऐसी दशा में बड़वों ( भाटो ), जागों आदि ने राजाओं की ई. स. की १४ वीं शताब्दी के पूर्व की वंशावलियाँ गड़ंत कर सैंकड़ों मनमाने नाम उनमें दर्ज कर दिये और ये पुस्तक भी इतिहास के सबै साधन और जा कर बहुत गुप्त रखे जाने लगे अमुक्य समझे Aho! Shrutgyanam Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. इस देश पर सकार अंग्रेज़ी का राज्य होने पर देश भर में फिर शांति का प्रचार हुश्रा, कलकत्ता सकार अंग्रेज़ी की राजधानी बना और विद्या का सूर्य, जो कई शताब्दियों से अस्त सा हो रहा था, फिर उदय मा. पश्चिमी शैली से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू होने के साथ संस्कृत और देशी भाषामों की पढ़ाई भी होने लगी. कई अंग्रेजों ने केवल विद्यानुराग से संस्कृत पढ़ना शुरू किया और सर विलियम् जोन्स ने शाकुंतल नाटक का अंग्रेजी अनुवाद किया जिससे कविकुलगुरु कालिदास को यूरोप के सर्वोत्तम कवि शेक्सपिअर का पद मिला इतना ही नहीं किंतु हिंदुओं का संस्कृत साहित्य कितनी उच्च कोटि का है यह दुनिया को मालूम हुआ और क्रमशः यूरोप में भी संस्कृत का पठनपाठन शुरू हुमा. ई. स. १७८४ में सर विलियम् जोन्स के यत्न से एशिमा के इतिहास, शिल्प, माहित्य आदि के शोध के लिये कलकत्ते में 'एशियाटिक सोसाइटी षंगाज' नाम का समाज स्थापित हुआ. सब से ही भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की खोज का प्रारंभ हुमा मानना चाहिये, कई अंग्रेज़ और देशी विद्वानों ने समाज का उद्देश सफल करने को लेख लिखे जो ई. स. १७८८ में 'एशियाटिक रिसर्चेस' (एशिभासंबंधी शोध ) नामक ग्रंथमाला की पहिली जिल्द में प्रकाशित हुए और ई. प्त. १७६७ तक उक्त ग्रंथमाला की ५ जिल्दें प्रकट हुई. ई. स. १७६८ में उनका नया संस्करण चोरी से ही इंग्लंड में छापा गया. उनकी मांग यहां तक बड़ी कि पांच छः परसों में ही उनके दो और संस्करण छुप गये और एम. ए. लेबॉम् नामक विद्वान् ने 'रिपर्चेज एशियाटिकम' नाम से उनका फ्रेंच अनुवाद भी छाप डाला जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा हुई. ई. स. १८३६ तक उक्त ग्रंथमाला की २० जिल्दें छप गई फिर उसका अपना ता बंद हो गया परंतु ई. स. १८३२ से 'जर्नल श्रॉफ दी एशियारिक सोसाइटी ऑफ बंगाल' नामक उक्त समाज का सामयिक पत्र निकलना प्रारंभ शुभा जो अब तक साधर वर्ग की बड़ी सेवा कर रहा है. इस प्रकार उक्त समाज के द्वारा एशिया के प्राचीन शोध की और यूरोप में भी विद्वानों का ध्यान गया मौर ई.स. १८२३ के मार्च में लंडन नगर में उसी उद्देश से 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' नामक समाज स्थापित हुना और उसकी शाखाएं यंबई और सीलोन में भी स्थापित हई. ऐसे ही समय समय पर फ्रान्स, जर्मनी, इटली आदि यूरोप के अन्य देशों तथा अमेरिका, जापान आदि में भी एशियासंबंधी भिन्न भिन्न विषयों के शोध के लिये समाज स्थापित हुए जिनके जर्नलों (सामयिक परतकों) में भारतवर्ष के प्राचीन शोधसंबंधी विषयों पर अनेक लेख प्रकट हुए और होते ही जा रहे हैं. यूरोप के कई विद्वानों ने चीनी, तिब्वती, पाली, अरषी श्रादि भाषाएं पढ़ कर उनमें से जो कुछ सामग्री भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालनेवाली थी वह एकत्रित कर बहत कुछ प्रकाशित की. एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के द्वारा कार्य प्रारंभ होते ही कई विद्वान् अपनी अपनी साचे के अनसार भिन्न भिन विषयों के शोध में लगे. कितने एक विद्वानों ने यहां के ऐतिहासिक शोध लग कर प्राचीन शिलालेख, दानपत्र और सिकों का टटोलना शुरू किया. इस प्रकार भारतवर्ष की प्राचीन लिपियों पर विद्वानों की दृष्टि पड़ी. भारतवर्षे जैसे विशाल देश में लेखनशैली के प्रवाह ने लेखकों की भिनधि के अनुसार भिन्न भिन्न मागे ग्रहण किये थे जिससे प्राचीन ब्रामी लिपि से गप्त. कटिल. नागरी, शारदा, पंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग तामिळ अादि अनेक लिपियां निकली और समय समय पर उनके कई रूपांतर होते गये जिससे सारे देश की प्राचीन लिपियों का पहना कठिन हो गया था: परंतु चाल्स विलिन्स, पंडित राधाकांत शर्मा, कर्नल जेम्स टॉड के गुरु यति ज्ञानचंद्र, डॉक्टर बी. जी. बबिंगटन , वॉल्टर इलिश्रद्, डा. मिल, डबल्यू. ऍच. वॉथन् , जेम्स प्रिन्सेप आदि विद्वानों ने ब्राह्मी और उससे निकली हुई उपर्युक्त लिपियों को बड़े परिश्रम से पढ़ कर उनकी वर्ग Aho! Shrutgyanam Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. मालाओं का ज्ञान प्राप्त किया. इसी तरह जेम्स पिन्सेप, मि. नॉरिस तथा जनरल कनिंगहाम भादि विद्वानों के श्रम से विदेशी खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला भी मालूम हो गई. इन सब विद्वानों का यस्न प्रशंसनीय है परंतु जेम्स प्रिन्सेप का अगाध श्रम, जिससे अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि का तथा खरोष्ठी लिपि के कई अधरों का ज्ञान प्राप्त हुआ, विशेष प्रशंसा के योग्य है. (प्राचीन लिपियों के पड़े जाने के प्रसान्त के लिये देखो, इस पुस्तक के पृष्ठ ३७-४१), प्रारंभ में इस देश में प्राचीन शोध के संबंध में जो कुछ कार्य हुमा वह भिन्न भिन्न विद्वानों और समाजों के द्वारा ही होता रहा. ई.स. १८४४ में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने सारी तौर से भी इस कार्य का किया जाना आवश्यक समझ कर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में निवेदन किया और ई. स. १८४७ में लॉर्ड हार्डिज के प्रस्ताव पर बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स ने इस काम के लिये खर्च की मंजरीदी परंतु ई.स. १८६० तक उसका वास्तविक फल कुछ भी नहुमा. ई.स. १८६१ में संयुक्त प्रदेश के चीफ इंजीनियर कर्नल ए. कनिंगहाम ने इस विषय की योजना सरयार कर भारत के गवर्नर जनरल लॉ कनिंग की सेवा में पेश की जो स्वीकृत हो और सकार की ओर से 'आर्किश्रॉलाजिकन् सर्वे नामक महकमा कायम हुआ तथा जनरल कनिंगहाम उसके अध्यक्ष नियत हुए. सर्कार के इस का उपयोगी कार्य को हाथ में लेने से प्राचीन शोध के काम में बहुत कुछ उन्नति हुई. अनरल क गहाम ने उत्तरी और डॉ. जेम्स बजस ने पश्चिमी व दक्षिणी भारत में न शोधका कार्य किया. इन दोनों विद्वानों ने कई उसम रिपोर्ट छाप कर षड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की. ई.स. १८७२ से डॉ. बर्जेस ने 'इंडिअन् टिकेरी' नामक भारतीय प्राचीन शोध का मासिक पत्र निकालना प्रारंभ किया जो अब तक चल रहा है और जिसमें प्राचीन शोध मंबंधी लेखों के अतिरिक्त अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र और सिके छप चुके हैं. ई.स. १८७७ में गवर्मेट की तरफ से जनरल कनिंगहाम ने उस समय तक मौर्य वंशी राजा अशोक के जितने शिलालेस्व मालूम हुए थे उनका एक पुस्तक और ई.स. १८ में जे. ऍफ. फ्लीट ने गुप्तों और उनके समकालीन राजाभों के शिलालेनो तथा दानपत्रों का अनुपम ग्रंथ प्रकट किया. उसी वर्ष से मामिॉनॉजिकल सर्वे के महकमे ले 'ऍपिग्राफिमा इंडिका'नामक त्रैमासिक पुस्तक का छपना प्रारंभ हुमा, जिसमें केवल शिलालेख और दानपत्रही प्रकट होते हैं. इस समय इसकी १४ वी जिल्द छप रही है. प्राचीन इतिहास के लिये जिल्- रत्नाकर के समान है. ऐसे ही उसी महकमे की भोर से ई.स.१८६० से 'साउथ इंडिअन इन्रिक्रप्शन्स' नामक पुस्तक का छपना भी प्रारंभ हुआ, जिसमें दक्षिण के संस्कृत, तामिळ आदि भाषाओं के शिलालेख और दानपत्र छपते हैं और जिसकी हिस्सों में ३ जिल्दें भय तक लुप चुकी है. ये भी पड़े महत्व की हैं. प्राचीन विषयों के प्रेमी लॉर्ड कर्जन ने आर्किऑलॉकिन विभाग को विशेष उन्नति दी और साइरेक्टर जनरल मॉफ मामिॉलॉजी की अध्यक्षता में भारत के प्रत्येक विभाग के लिये अलग अलग सुपरिंटेंट नियत किगे. तब से प्राधीन शोध के इस विभाग का कार्य विशेष उत्तमता से चल रहा है और डाइरेक्टर जनरल एवं भिन्न भिन्न विभागों के सुपरिटेंडेंटों की सालाना रिपोटों में पहुतसे उपयोगी विषय भरे रहते हैं. प्राचीन ग्रोध के कार्य के संबंध में भिन्न भिन्न समाजों तथा सकार ने प्राचीन शिलालेख, दानपत्र, मिके, मुद्राऐं, प्राधीन मूर्तियां तथा शिल्प के उत्सम उसम नमूने मादि प्राचीन वस्तुओं का संग्रह करना भी शुरू किया और ऐसी वस्तुओं के बड़े बड़े संग्रह बंबई (एशियाटिक सोमाइटी में), कलकत्ता (इंडियन म्युजिमम् और एशियाटिक सोसाइटी बंगाल में), मद्रास, नागपुर, अजमेर, लाहौर, पशावर, मथुरा, लखनऊ आदि के म्यूजिश्रमों (अजायबघरों) में संग्रहीत हो चुके हैंबीर Aho! Shrutgyanam Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. पनमें से कई एक की सूचियां भी छप गई हैं. जनरल कनिंगहाम ने अपने संग्रह के भारतीय माचीन मिकों की चार जिल्दें। और लंडन के ब्रिटिश् म्यूज़िम् ने अपने संग्रह की सीम' जहदें छपवा. ऐसे ही पंजाब म्यजिम (लाहोर), इंडिअन् म्युजिम्मादिक मंग्रहों के सिकों की चित्रों सहित सधियां छप चुकी हैं. इद्धिमन् ऍटिकेरी, पार्किऑलॉजिकल सर्षे की मित्र भिन्न रिपोटौं, एशिमार्टिक सोसाइटियों के जर्नलों तथा कई स्वतंत्र पुस्तकों में भी कई सि प्रकट जप सकार अंग्रेजी की तरफ से प्राचीन शोध का प्रशंसनीय कार्य होने लगा तब कितने एक विद्यामी देशी राज्यों ने भी अपने यहां प्राचीन शोधसंबंधी कार्यालय स्थापित किये. भाषनगर दरबार ने अपने पंडितों के द्वारा काठियावाड़, गुजरात और राजपूताना के अनेक शिलालेख और दानपत्रों की नकलें तय्यार करवा कर उनमें से कई एक 'भावनगर प्राचीनशीधमंग्रह' (भाग प्रथम) और भावनगर इनस्क्रिप्शन्स' नामक पुस्तकों में प्रकट किये. काठियावाडके पोलिटिकल् एजेंट कर्नल वॉटसन का प्राचीन वस्तुओं का प्रेम देख कर काठियावाड़ के राजाभों ने मिल कर राजकोट में 'वॉटमन् म्यजियम' स्थापित किया जिसमें कई प्राचीन शिलालेखों, दानपत्रों, सिको और पुस्तकों आदि का अच्छा संग्रह है. माइसोर राज्य ने ऐसी वस्तुओं का संग्रह किया इतना ही नहीं किंतु प्राचीन शोध के लिये आर्किऑलॉजिकल विभाग स्थापित कर अपने विस्तत राज्य में मिलनेवाले हजारों शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों को 'एपिमाफिया कर्नाटिका' नामक ग्रंथमाला की कई बड़ी बड़ी जित्दों में प्रसिद्ध किया भोर ई.स.१८८५ से अपने प्राचीन शोध विभाग की मालाना रिपोर्ट भी, जो बड़े महत्व की हैं, छपाना प्रारंभ किया. या राज्य ने प्राचीन वस्तुगों का अच्छा संग्रह किया जिसके प्राचीन शिलालेख और दानपत्रों को प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. फोजल ने 'एंटिकिटीज़ मादी चंया स्टेट' नामक अमूल्य ग्रंध में प्रसिद्ध कर प्राचीन लिपियों का अभ्यास करनेवालों के लिये शारदा लिपि की बड़ी मामग्री एकत्रित कर दी. ट्रावनकोर तथा हैदराबाद राज्यों ने भी अपने यहां वैसा ही प्रशंसनीय कार्य प्रारंभ कर दिया है. उदयपुर (मेवाड़), झालावाड़, ग्वालिभर, धार, भोपाल, बड़ौदा, जूनागढ़, भावनगर आदि राज्यों में भी प्राचीन वस्तुओं के संग्रह हुए हैं और होते जाते हैं. इस प्रकार सर्कार अंग्रेजी की उदार सहायता, और एशिमाटिक सोसाइटियों, देशी राज्यों, माथारण गृहस्थों तथा विद्वानों के श्रम से हमारे यहां के प्राचीन इतिहाम की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध हुई है जिसमे नंद, मोय, ग्रीक, शातकणी ( अध्रिभृत्य), शक, पार्थिचन्, कुशन, क्षत्रप, अभीर, गुप्त, हण, योद्धेय, बैस, लिरिवि, परिव्राजक, राजर्षितुल्य, वाकाटक, मुखर (मीवरी),मैत्रक, गुहिक पापो. स्कट (पावड़े), चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार (पड़िहार), परमार, चाहमान (चौहान), राष्ट्रकट (राठौड़), कच्छपघात (कछवाहा), तोमर (तंवर ), कलचुरि (हैहय), कूटक, चंद्रात्रेय (चंदेल), यादव, गूर्जर, मिहिर, पाल, मेन, पल्लव, चोल, कदंब, शिलार, सेंद्रक, काकतीय, नाग, निकम, बाण, मत्स्य, शालकायन, शैल, मूषक, चतुर्थवर्ण ( रेडि) आदि अनेक राजवंशों का बहुत कुछ वृत्तांत, उनकी वंशावलियां एवं कई एक राजाओं का निश्चित समय भी मालूम होता है इतना ही नहीं, किंतु अनेक विद्वानों, धर्माचार्यों, धनाढयौं, दानी, वीर भादि प्रसिद्ध पुरुषों के नाम, उनके वृत्तांत तथा समय १. 'कॉइन्स ऑफ एन्श्यंट डिमा': 'कॉन्स मॉक मिडिएयर रिमा': 'कॉइम्स ऑफ वीडोसीधिअन्स'; और 'कॉइम्स ऑफ दी लेटर डासिथियन्स'. . 'दी कॉइन्स ऑफ दी ग्रीक र सोथिक् किग्ज़ ऑफ वाकदिा पंडांडिया', 'दी कॉन्स ऑफ दी मान्ध्र डाइ. नेस्टी, दी बेर्सन पत्रप्स, वी कुटक राइनेस्सी पॅड दी मोघि डाइनेस्टी': और 'दी कॉइन्स ऑफ वी गुप्त राइनेस्टीन'. Aho! Shrutgyanam Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. आदि का पता चलता है. ऐसे ही भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में चलनेवाले भित्र भित्र संवत्रों के प्रारंभ का निश्चय होता है. इसी तरह प्राचीन काल के देशों, जिलों, नगरों, गांवों आदि भूगोल से संबंध रखनेवाले नामों तथा उनके वर्तमान स्थलों का ज्ञान हो सकता है. प्राचीन शोध के संबंध में जो कुछ कार्य श्रम तक हुआ है वह बड़े महत्व का है तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि वह अब तक प्रारंभिक दशा में है और इस विशाल देश के किसी किसी अंश में ही हुआ है. आगे के लिये इतना विस्तीर्ष क्षेत्र बिना टटोला हुआ पड़ा है कि सैकड़ों विज्ञान बहुत वर्षों तक लगे रहें तो भी उसकी समाप्ति होना कठिन है. हमारे यहां प्राचीन शोध का कार्य बहुत ही आवश्यक है और जितने अधिक विद्वान् उधर प्रवृत्त हो उतना ही अधिक लाभकारी होगा परंतु अभी तक उसमें बहुत ही कम विद्वानों की रुचि प्रवृत्त हुई है. इसका मुख्य कारण यही है कि तत्संबंधी साहित्य इतने भिन्न भिन्न पुस्तकों में बिखरा हुआ है कि बंबई, कलकता जैसे बड़े शहरों को, जहां पर उत्तम पुस्तकालय हैं, छोड़ कर अन्यत्र उन सव पुस्तकों का दर्शन होना भी कठिन है. ई. स. १८६३ तक कोई ऐसा पुस्तक नहीं बना था कि केवल उस एक ही पुस्तक की सहायता से हिमालय से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से उड़ीसे तक की समस्त प्राचीन लिपियों का पढ़ना कोई भी विद्वान् आसानी के साथ सीख सके. इस अभाव को मिटाने के लिये मैंने ई. म. १८६४ में 'प्राचीन लिपिमाला' नामक छोटासा पुस्तक प्रकट किया, जिसको यहां के और यूरोप के विद्वानों ने उपयोगी बतलाया इतना ही नहीं किंतु उसको इस विषय का प्रथम पुस्तक प्रकट कर उसका आदर किया. उस समय तक इस विषय का कोई पाठ्य पुस्तक न होने के कारण विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं में प्राचीन लिपियों को स्थान नहीं मिला था परंतु उक्त पुस्तक के प्रसिद्ध होने के पीछे प्राचीन लिपियों का विषय विश्वविद्यालयों की एम. ए. की पढ़ाई में रक्खा गया और कलकत्ता युनिवर्सिटी ने इस पुस्तक को उक्त विषय का पाठ्य पुस्तक स्थिर किया. ऐसे ही अन्य युनिवर्सिटियों के विद्यार्थी लोग भी अपनी पढ़ाई में उक्त पुस्तक का सहारा लेने लगे. कई देशी एवं यूरोपियन विद्वानों ने उससे भारतीय प्राचीन लिपियों का पढ़ना सुगमता के साथ सीखा. थोड़े ही बरमों में उसकी सब प्रतियां उठ गई इतना ही नहीं, किंतु उसकी मांग यहां तक बड़ी कि बीस गुना मूल्य देने पर भी उसका मिलना कठिन हो गया. इसपर मेरे कई एक विद्वान् मित्रों ने उसका नवीन संस्करण छपवाने का आग्रह किया; परंतु गत २५ वर्षों में प्राचीन शोध में बहुत कुछ उन्नति हुई जिससे उसीको दुबारा छपवाना ठीक न समझ कर मैंने अब तक के शोध के साथ यह विस्तृत नवीन संस्करण तय्यार किया है जो प्रथम संस्करण से करीब तिगुने से भी अधिक बढ़ गया है. इसमें पहिले संस्करण से बहुत अधिक शिलालेखों, दानपत्रों और सिक्कों से वर्णमालाएं बनाई गई हैं और वे लिपियों के विकासक्रम के अनुसार जमाई गई हैं जिससे गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा ( कश्मीरी ), बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग, तामिळ आदि लिपियों का एक ही सामान्य लिपि ब्राह्मी से क्रमशः विकास कैसे हुआ एवं भारतवर्ष की सब वर्तमान आर्यि लिपियों की उत्पत्ति कैसे हुई यह आसानी से मालूम हो सकता है. इस बड़े ग्रंथ को देख कर कोई विज्ञान यह शंका न करें कि इतनी बहुत लिपियों का ज्ञान संपादन कर भारत के प्राचीन लेखादि का पढ़ना बहुत ही कठिन है, क्योंकि वास्तव में यह बात नहीं है केवल एक प्रारंभ की ब्राह्मी लिपि को समझते ही आगे के लिये मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है जिस का कारण यही है कि आगे की लिपियों में बहुत ही थोड़ा थोड़ा अंतर पड़ता जाता है जिससे उनके सीखने में अधिक श्रम नहीं पड़ता. मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि संस्कृतज्ञ विद्वान् छः मास से भी कम समय में इस पुस्तक के सहारे प्राचीन लिपियों के पढ़ने का ज्ञान अच्छी तरह E Aho! Shrutgyanam Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. संपादन कर सकता है. मेरे पास आकर पानेवालों में से एक विद्वान् ने तो उससे भी थोड़े समय में अच्छी तरह पढ़ना सीख लिया. मनुष्य की बुद्धि के सबसे बड़े महत्व के दो कार्य भारतीय ग्रामी लिपि और वर्तमान शैली के अंकों की कल्पना हैं. इस बीसवीं शतादी में भी हम संमार की बड़ी उन्नतिशील जातियों की लिपियों की तरफ देखते हैं तो उनमें उन्नति की गंध भी नहीं पाई जाती. कहीं तो ध्वनि मोर उसके सूचक चिहों (मदरों) में साम्य ही नहीं है जिससे एक ही चिक से एक से अधिक ध्वनियां प्रकट होती हैं और कहीं एक ही ध्वनि के लिये एक से अधिक चित्रों का व्यवहार होता है और अच। ये कोई शास्त्रीय मीनहीं. कहीं लिपि वर्णात्मक नहीं किंत चित्रात्मक ही है. ये लिपियां मनुष्य जाति के ज्ञान की प्रारंभिक दशा की निर्माण स्थिति से अब तक कुछ भी आगे नहीं बढ़ सकी परंतु भारतवर्ष की लिपि हजारों वर्षों पहिले भी इतनी उच्च कोटि को पहुंच गई थी कि उसकी उसमता की कुछ भी समामला संसार भर की कोई दूसरी लिपि अपना नहीं कर सकती. इसमें ध्वनि और लिखितवर्ण का संबंध ठीक वैसा ही है जैसा कि फोनोग्राफ की ध्वनि और उसकी चड़ियों पर के चित्रों के बीच है. इसमें प्रत्येक आर्य ध्वनि के लिये अलग अलग चित्र होने से जैसा बोला जाये वैसा ही लिखा जाता है और जैसा लिम्बा जाये वैसा ही पड़ा जाता है तथा वर्ष कम वैज्ञानिक रीति से स्थिर किया गया है. यह उसमना किसी अन्य लिपि में नहीं है. ऐसे ही प्राचीन काल में संसार भर की अंक विद्या भी प्रारंभिक दशा में थी. कहीं अदरों को ही भित्र भित्र को के लिये काम में लाते थे, तो कहीं इकाई के १ से तक के विक, एवं दहाइयों के १० से १० तक के है, और सैंकड़ा, हजार मादि के भिन्न भिन्न विथे. उन २० चित्रों से केवल एक लाख के नीचे की ही संख्या प्रकट होती थी और प्रत्येक चिक अपनी नियन संख्या ही प्रकट कर सकता था. मारतवर्ष में भी अंकों का प्राचीन क्रम यही था परंतु इस जटिज अंकका से गणिन विया में विशष उन्नति नहीं हो सकती थी जिससे यहाँवालों ने ही वर्तमान अंककम निकासा जिसमें १ से इतक के नव अंक और खाली स्थानसूचक शून्य इन दस चित्रों से अंकविया का संपूर्ण पवहार चल सकता है. भारतवर्ष से ही यह अंककम संसार भर ने सीखा और वर्तमान समय में गणित और उससे संबंध रखनेवाले अन्य शास्त्रों में जो उन्नति ई है वह इसी क्रम के कारण से ही है. इन्हीं दोनों बातों से प्राचीन कान के मारनीय भार्य लोगों की बुद्धि और विद्यासंबंधी उन्नत दया का मनुमाम होता है. इन्हीं दोनों विषयों एवं उनके समय समय के मित्र भित्र रुपांतरों के संच का यह पुस्तक है. हिंदी भाषा में इस पुस्तक के लिखे जाने के दो कारण हैं. प्रथम तो यह कि हमारे यहां के केवल संस्कत जाननेवाले बड़े बड़े पंडितों को जब कोर्ड १.०० वर्ष से अधिक प्राचीन विनालेख. दानपत्र, सिका या पुस्तक मिल जाता है तो वे जिस भाषा में वह लिखा गया हो उसके विद्वान होने पर भी उसको पढ़ नहीं सकते जिससे उसकी लिपि को तिलंगी या कनड़ी मादि कह कर टाल जाते हैं और उसका भाशय जान नहीं सकते. यह थोड़े खेद की बात नहीं है. यदि इस पुस्तक के सहारे थोडे से श्रम मे सारे भारतवर्ष की नहीं तो अपने प्रदेश की प्राचीन लिपियों का पढ़ना भी सीख जायें तो उनकी विद्वत्ता के लिये सोने के साथ सुगंधि हो जाय और हमारे यहां के प्राचीन शोध को सहा. यता भी मिले. जिन विद्यापीठों में केवल संस्कृत की पढ़ाई होती है वहां की उप श्रेणियों में यदि यह पुस्तक पढ़ाया जाये तो संस्कृत विद्वानों में जो इतिहास के ज्ञान की त्रुटि पाई जाती है उसकी कुछ पूर्ति हो जायणी, हिंदीगजाननेवाले जो विद्वान् प्राचीन शोष में अनुराग दिखाते हैं संत तो पड़े ही होते और पेवनागरी लिपि से भी भली भांति परिचित होते हैं. भले ही इस पुस्तक Ahol Shrutgyanam Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. के प्रारंभ के लेखों को म समझ सकें, तो मी लिपिपत्रों की सहायता से वे प्राचीन लिपियों का पढ़ना सीख सकते हैं. इसरा कारण यह है कि हिंदी साहित्य में अब तक प्राचीन शोधसंबंधी साहित्य कामाबसाही है. यदि इस पुस्तक से उक्त प्रभाव के एक अणुमान अंश की भी पूर्ति हुई सो मुझ जैसे हिंदी के तुच्छ सेवक के लिये विशेष प्रानंद की यात होगी. इस पुस्तक का क्रम ऐसा रखा गया है कि ई. स. की चौथी शताब्दी के मध्य के आसपास तक की समस्त भारतवर्ष की लिपियों की संज्ञा ब्रानी रक्खी है, इसके बाद लेखनप्रवाह स्पष्ट रूप से दो स्रोतों में विभक्त होता है, जिनके नाम "उत्तरी' और 'दक्षिणी' रक्ले हैं. उत्तरी शैली में गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा और थंगला लिपियों का समावेश होता है और दक्षिणी में पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग और सामिळ लिपियां हैं. इन्हीं मुरूप लिपियों से भारतवर्ष की समस्त वर्तमान ( उर्दू के भतिरिक्त) लिपियां निकली हैं. अंत में खरोष्ठी लिपि दी गई है. १ से ७. लिपिपत्रों के बनाने में कम ऐसा रखा गया है कि प्रथम स्वर, फिर पंजन, उसके पीछे क्रम से हलंत व्यंजन, स्वरमिलिप्त व्यंजन, संयुक्त व्यंजन, जिवाचलीय और उपध्मानीय के चित्रों सहित व्यंजन और अंत में 'ओ' का सांकेतिक चिक (यदि हो तो) दिया गया है. १से ५९और ६५ से ७० तक के लिपिपत्रों में से प्रत्येक के अंत में अभ्यास के लिये कुछ पंक्तियां भूकमेवादि से उद्धृत की गई हैं. उनमें शब्द समासों के अनुसार अलग अलग इस विचार से रफ्लेगये है कि विद्यार्थियों को उनके पड़ने में सभीसा हो. उक्त पंक्तियों का नागरी असरांतर भी पंक्ति कम से प्रत्येक लिपिपत्र के वर्णन के अंत में दे दिया है जिससे पढ़नेवालों को उन पंक्तियों के पढ़ने में कहीं संदेह रहजाय तो उसका निराकरण होसकेगा. उन पंक्तियों में जहां कोई अक्षर स्पष्ट है अथवाछूट गया है अचरांतर में उसको [ चिके भीतर, और जहां कोई अशुद्धि है उसका शुद्ध रूप ( ) वित्र के भीतर लिखा है. जहां मूल का कोई मंश जाता रहा है वहाँ......ऐसी विदियां बनादी हैं. जहां कहीं 'छा' और 'इन्ह' संयुक्त व्यंजन मूल में संयुक्त लिखे हुए हैं वहां उनके संयुक्त टाइप न होने से प्रथम अक्षर को हलंत रखना पड़ा है परंतु उनके नीचे बाड़ी लकीर बहुधा रख दी गई है जिससे पाठकों को मालूम हो सकेमा कि मूल में ये मदर एक दूसरे से मिला कर लिये गये हैं. मुझे पूरा विश्वास है कि एक लिपिपत्रों के अंत में दी हुई मूल पंक्तियों को पह लेनेवाले को कोई भी समय मेख पा लेने में कठिनता न होगी. लिपिपत्र ६० से ३४ में मूल पक्तियां नहीं दी गई जिसका कारण यह है कि उनमें सामिळ तथा बहेछुतु लिपियां दी गई हैं. वों की कमी के कारण उन सिपियो में संस्कृत भाषा लिखी महीं जा सकती, वे केवल तामिळ ही में काम दे सकती हैं और उसको तामिळ भाषा जाननेवाले ही समझ सकते हैं, तो भी बहधा प्रत्येक शताब्दी के लेखादि से उसकी विस्तृत वर्णमालाएं बना दी हैं, जिनसे तामिळ जाननेवालों को उन लिपियों के लेखादि केपरने में सहायता मिल सकेगी. क्षिपिपत्रों में दिये हुए अचरों तथा अंकों का समय निर्णय करने में जिन लेखादि में निश्चित संबत् मिले उनके तो वे ही संवत् दिये गये हैं, परंतु जिनमें कोई निमित संपत् नहीं है उनका समयबापा लिपियों के माधार पर ही या अन्य साधनों से लिखा गया है जिससे उसमें अंतर होना संभव क्योंकि किसी लेख या दामपत्र में निश्चित संपत् न होने की दशा में केवल उसकी लिपि के आधार पर ही उसका समय स्थिर करने का मार्ग निष्कंटक नहीं है. उसमें पीस पचाम ही नहीं किंतु कभी कभी तो सौ दो सौ या उससे भी अधिक वर्षों की चूक हो जाना संभव है पेसा अपने अनुभव से कह सकता हूं. Aho! Shrutgyanam Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. टिप्पणों में दिये हुए संस्कृत के अवतरणों को हिंदी से भिन्न बतलाने के लिये बारीक टाइप में छापना प्रारंभ किया था परंतु टाइप कमजोर होने के कारण छपते समय कई अचगें के साथ की मात्राएं, और विशेष कर 'उ' की मात्राएं, र गई जिससे परिशिष्ट में ऐसे अवतरणों के लिये पहिले से भिन्न टाइप काम में लाना पड़ा है. इस प्रकार के पुस्तक की रचना के लिये बहुत अधिक सामग्री एकत्र करने की आवश्यकता पड़ी. इस कार्य में मेरे कई एक विद्वान् मित्रों ने मेरी सहायता की है जिसके लिये मैं उनका उपकार मानता ई. उनमें से मुंशी हरविलास सारडा पी.ए., जज, स्माल काजेज कोर्ट, अजमेर, प्रसिद्ध इतिहासवेत्सा मुंशी देवीप्रसादजी जोधपुरवाले, श्रीर या पूणेचंद्र माहर एम.ए.,बी.एल., कलकत्ता, विशेष धन्यवाद के पात्र हैं. इस पुस्तक के संबंध में मेरे विधान मित्र परित चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पी. ए., हेड पंडित, मेयो कॉलेज, अजमेर, ने बड़ी सहायता की है जिसके लिये मैं उनका विशेष रूप से अनुगृहीत हूं. जिन विद्वानों के लेख और ग्रंथों से मैंने सहायता ली है उनके नाम यथास्थान दिये गये हैं. उन सब का भी मैं ऋषी हूं. पंडित जीयालायशर्मा ने लिपिपत्र बनाने और मि. जे. इंगलिस, मॅनेजर, स्कॉटिश मिशन प्रेस, अजमेर, ने इस पुस्तक को उत्तमता से अपने में पड़ा परिश्रम उठाया है इस लिये मैं उनको भी धन्यवाद देना अपना कर्तव्य समझता राजपूताना म्यूज़ियम्, अजमेर, । वि. सं. १९७५ श्रावण शुक्ला ६, ता. १३ मॉगस्ट ई. स. १९१८.. गौरीशंकर हीराचंद मोझा. www Aho 1 Shrutgyanam Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौएच. पूछ. १७-११ ३७-४१ ४१-६ ६२-१८ ७३-७६ ७७-७ ७-२ घरे -EE ८९-३ १०१-१२७ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्रार्थनता ग्राही लिपि की उत्पत्ति ... खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति प्राचीन लिपियों का पढ़ा जाना प्राह्मी लिपि गुप्त लिपि कुटिल लिपि नागरी लिपि शारदा लिपि बंगला लिपि पनिमी लिपि मध्यप्रदेशो लिपि तेलुगु-कनड़ी लिपि ग्रंथ लिपि कमिंग लिपि तामिळ लिपि चंहहरतु लिपि सरोष्ठी लिपि माझी और उससे निकली ईतिपियो प्राचीन शैली के अंक नवीन शखी के अंक शम्दों से अंक बतलाने की भारतीय गेली अक्षरों से अंकपतलाने की भारतीय लो खरोष्ठी लिपि के अंक ... भारतवर्ष की मुख्य मुख्य वर्तमान लिपिणं भारतवर्ष की मुख्य मुस्प वर्तमान सिपियों की उत्पत्ति वर्तमान मागरा भंको की उत्पति जेखन सामग परिशिष्ट (भारतीय संपत्) सप्तर्षि संवत् ( लौकिक संबद ) कलियुग संपत्... वीरनिवाण संवत् बुद्धनिर्वाण संबद मार्य संवत् सेल्युकिति संवत् विक्रम (मालब) संपत् एक संवत् ... कलचुरि (वेदि, त्रैक्टक) संवत् गुप्त (बलभी) संपत् गांगेय संवत् हर्ष संवत् माटिक (महिक) संवत् कोलम् ( कोलंब) संघ नेवार (नेपाल) संवत् जालुक्य विक्रम संवत् सिंह संवत् ... १०२-११४ ११५-११६ ११६-१२१ २२९-१२४ १२८-१२ १९६-९५३ १३-१४१ २५-१५८ १५-१६ १६१-१६५ १६४ १७०-१७ १७३-१७४ १७-१७६ १७६-१७७ १७८ १७५---१८० १८०-११ १८१-१२ १८२-१८४ Aho! Shrutgyanam Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखीपत्र १४-१८६ १८६-१८७ १८७-१८८ एम लक्ष्मणसेगसंषत् पुषवैप्पु संवत् . राज्याभिषेक संवत् वास्पिस्य संवत्सर ( १२ वर्ष का) वाईस्पत्य संवत्सर (६० वर्षका) प्रहपरिवृत्ति संवत्सर सौर वर्ष ... चांद्रवर्ष ... हिजरी सन् शाइर (अरबी.सर)सन् फसली सन् विलायती सन् अमली सन् बंगाली सन मगि सन् इलाही सन् ईसवी सन् परिशिष्ट में दिये पुए मिम मिल संबतों का सवी सन से संबंध १८६-१६० १५०-१६१ १६१ १६२ १६२ १५२-५६६ १६३-१४ १९४-१५ लिपिपत्र १-८४ माझी लिपि-लिपिपत्र १-१५). पिपत्र पहिला-मौर्यवंशी राजा अशाक के गिरनार के बयान पर के लेणसे. दूसरा-मौर्यवंशी पहा प्रशाक के अन्य लेखा से. तीसरा-रामगड पासुंतवलनगर प्रादि के लेखो से. चौपा-मष्प्रिोतु के सर के १० लेखो से. पांचवां--पभीसा मोर मथुरा के लखौ से. ठा-कुशन घंशी राजाओं के समय के मधुग, सारनाथ प्राधिके लेखों से. सातवां-शक उपधात श्रीर उसकी स्त्री दक्षामित्रा के नासिक के लेखों से. आठवां-पत्रपर्वशी राहावामन के गिरनार के चटान के लेख से. नयां-सासवान(प्रबंशी गजाम्रो नासिक के लेखो से. १० यां--पश्चिमी क्षत्र, कूटक ओर यांनवंशी राजाओं के लिकों से. ११ मां-वक्षिण की मिन भिन्न गुफामा के लेखों से. १२वां-ममगरसी और जगायपेट के लखों से. ११वां मोयियोलु से मिल दए पल्मयशी शिवस्कंदधर्मन के दानपत्र . १४ा-कॉरमुख से मिले हुए राजा जयवर्मन् के दानपत्र से. १५ वा होरहगल्लो से मिल हुए पल्लववंशी राजा शिवस्कंदवर्मन के दानपत्र से. (गुप्त लिपि-लिपिपत्र १६-१७). १६-गुप्तवंशी गजा समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के स्तंभ के खेख से. १७वां-गुप्तों क समय के मिन भिन्न लेख और दानपत्रो से. (कुटिल लिपि-लिपिपत्र १-२३). १८वा-राजा यशोधर्मन के समय के मंदसोर के तेल से १६वा-प्राचीन हस्तलिखित पुस्तको तथा लेखादि से. " Aho! Shrutgyanam Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र लिपिपत्र २० वां-मेधार के गृहिलवंशी राजा पराजित के समय के लेख से. . २२ बा-राजा हर्ष के दानपत्र तथा राजा अंशुवर्मन् , दुर्गगण प्रादि के लेलों से. * सौ-वंश के राजा मेरुधर्मन् के ५ लेखो से. २३ मां-प्रतिहारपंशी राजा नागभट, बाउक और कक्कुक के लेखों से. , (नागरी लिपि-लिपिपन्न २४-२७). २४ां-जाकवेष के दामपत्र, विजयपाल के लेख और हस्तलिखित पुस्तकों से. २५ो -देवल, धार, उदयपुर (ग्वालियर) र उजैन लेखों से. १६ वां-वंद्रदेव के दानपत्र, हस्तलिखित पुस्तक और आजल्लदेष के लेख से. २७ वां--परमार धारावर्ष, चाहमान याचिगदव और गुहिल समरसिंह के समय लेखों से. (शारदा लिपि-लिपिपता २८-३१). २८ चां-सराहा से मिली हुई सात्यकि के समय की प्रशस्ति से. २६षां-मुंगल से मिले हुए राजा विदग्ध के दानपत्र से. १०पां-मित्र भिम दानपत्रों और शिलालेखों से, ब-लू के राजा बहादुरसिंह के दानपत्र भार हस्तलिखित पुस्तकों से. (बंगला लिपि-लिपिपत्र ३२-३५). ३१वा-गाल के गजा नारायणपाल और विजयसम रेसमय के लेखों से. ३वा-गाल के राजा समासेन औरामरूप के पद के दानपत्रों से. ३४वां-बालभेद के दामपत्र और हस्तलिखित पुस्तकों से. ५ बा-काकोल के लक्ष और पुरुषोत्तमदेव के शनपत्र से. . (पश्चिमी लिपि-लिपिपत्र ३६-४०). १६ वा-राजा नरधर्मन और कुमार गुप्त के समय के मंदसौर के लेखों से. ३७ वा-सभी के राजा भ्रवसेन और धरसेन ( दूसरे ) के दानपत्रों से. ३८पां-गायलक सिंहादित्य और घनमी के राजा शीलादित्य (पांच) के दानपत्रों से. पां-फूटकपंधी वसिन और गुर्जरवंशी रणग्रह तथा वा (दूसरे ) के दामपत्रों से. ४०५-यालुपय युवराज ध्याश्रय (शीलादित्य) और राष्ट्रकूट कर्कराज के दानपत्रो से. (मध्यप्रदेशी लिपि-लिपियन ११-४२). ४१ वां-बाकावघंशी राजा प्रथरसेन (दूसरे) के तीन दामपत्रों से. ४२षां-पृधिषीसेन, महासुदेष और तिविरदेव के दानपत्रौ से. (तेलुगु-कनड़ी लिपि-लिपिपन्न ४३-५१), ४३ वां--पस्लषवंशी राजा विष्णुगोपधर्म और सिंहवर्मन् के दानपत्रों से. ४४ बो-कबयंशी राजा मृगशवर्मन भौर काकुस्थवर्मन के दानपत्रों से. ux पां---चालुक्यवंशी राजाओं के लख और दानपत्रों से. ४६ घां-दूर से मिल हुए चालुक्यवंशी राजा कार्तिवर्मन् ( दुसरे) के दानपत्र से. ४७ बा-डर से मिल दुए कूरवंशी गजा प्रभूतवर्ष (गोषिवराज तीसरे)के दामपत्र से ४८ -पूर्षी चालुक्यवंशी राज्ञा भीम (दुसरे) र श्रम्म ( दूसरे के दामपत्रों से. ४६ वा-धोकमेहिल से मिल हुए पूर्व चालुक्यवंशी राजराज के दानपत्र से. ५०E-काकतीयवंशी राजा रुद्रदेष और गणपति के समय के लेखो से. ११वां-जामय नायक, अभयेम और गायकवानपत्रों से. Ahol Shrutgyanam Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र (प्रेय लिपि-लिपिपल५२ ५५ लिपिपत्र ५२ वां-पल्लववंशी राजाओं के समय के १० लखो और करम के दानपत्र से. ५३ यां-पल्लव और पांड्यवंशी राजाओं के समय के लेग्ब और दानपत्रों से.. छां-पनघवंशी नन्दियमन् ( पालवमल ) और गंगायशो पृथ्वीपति ( दुसरे ) के दानपत्रों से ५५पी-कुलोत्तुंगचोस पर विक्रमचोड के लेखा तथा बाणवंशी विक्रमादित्य के दानपत्र से ५६ घां--पांडयवंशी सुंदरपांड्य के लेख और यादव विरूपाक्ष तथा गिरिभूपाल के दानपत्रों से (कालग लिपि-लिपिपन्न ५७-५६). ५७/-कलिंग नगर के गंगावंशी राजाओं के तीन दानपत्री से. ५८ वां--कलिंग नगर के गंगावंशी राजानों क दानपत्रों से. वां-कालग नगर के गंगावंशी राजा वनहस्त के पाकिमेडि के दानपत्र से. (तामिळ लिपि-लिपिपत्र ६०-६२). ६०षां-पल्लघवंशी राजाओं के तीन बानपत्रों के अंत के तामिळ अंशों से पां-पल्लवतिलक दंतिवर्मन और राष्ट्रकूट कृष्णराज (तीसर) के लेखों से. ६२ यां- राजेंद्रचोल, विरूपाक्ष और बालककामय के लेखादि के. (बटेकुन्तु लिपि-लिपिपत्र ६३-६४). ६३ वां-जटिलवर्मन् और घरगुरणपांड्य के लेखादि से. ६४ वां-श्रीयमवगोडे, भास्कररविधर्मन और धीरराघव के दानपत्रों से. (खरोष्ठी लिपि-लिपिपन्न १५-७०), १५ वां-मौर्यवंशी राजा अशोक के शहाजगढ़ो और मान्सेरा के लेखों से. ६६वां-हिंसुस्तान के प्रीक (यूनानी).शक, पार्थिवन् और कुशनवंशी राजाओं के सिकी से. ६७ वा-मथुरा तथा तक्षशिला से मिले हुए लखों से. ६८ पां-पार्थिन् राजा मंडोफरस और कुशनचंशी राजा कनिक के समय के खेतों से. यां-बाईक् ( अनपानिस्तान में), भारा, पाशा भार कल्दरा के लेखों से. ७० थां-तक्षशिला, फसहजंग, कनिहारा, पथियार और चारसड़ा के लखों से. (प्राचीन अंक-लिपिपत्र ७१-७६). ७१ घां-प्रायी और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक (१से इसक). ७२-माझी और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक (१से और १० से १०तक ७३ बां-भालो और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक (२० से १० तक). ७५ घt-ग्राही और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक (१.० से १०० तक). ७५ घां-माझी और उससे निकली लिपियों के प्राचीन शैली के अंक (१००० से ७००० तक); मिश्र. अंक, और ब्राह्मी से निकली हुई लिपियों के नवीन शखी के अंक (१से और 1. ७६-प्राली से निकली हुई लिपियों के नवीन शैली के अंक (१से और.), तथा खराठो सिपिक (वर्तमान लिपियां-लिपिपत्र ७७-८१). ७७ पां-वर्तमान शारदा (कश्मीरी), टाकरी और गुरमुत्री लिपियां. जां -पतमान कैथो, बंगला और मैथिल लिपियां पां-वर्तमान उडया, गुजराती और मोष्टी (मराठी) लिपियां ८० -धर्तमान शेलुगु, कनड़ी और ग्रंथ लिपियां. १ धो-धर्तमान मल्याळम् , तुलु और तामिळ खिपिया. (वर्तमान लिपियों की उत्परित-६२-८५), ८२ पां-पर्तमान नागरी और शारवा (कश्मीरी) लिपियों की उत्पत्ति. २३ मां-वर्तमान बंगला और कनड़ी लिपियों की उत्पत्ति. मां-पतमाम अंध और तामिळ लिपियों तथा नागरी अंकों की उत्पत्ति. Aho! Shrutgyanam Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक के संक्षप्त नामसंकेतों का परिचय. । ... यायिॉलॉजिकल संयं श्रॉफ उश्रा' को सालाना रिपोर्ट: ई. स. १६०२-३ से. . आ. सः . . मा.स: .. श्रा.स. रि; . . प्रा. स. उये. . प्रा.स. के.ई: . मा. सस.ई. ... धार्किग्रॉलॉजिकल मय श्रॉक बेस्टने दिला. ... मार्फियोगॉजिकल्स ऑफ सदर्न इंडिया. इलिभट् अनुवादेन हिस्ट्री ऑफ इंडिया' इंडिअन् पटिक्केरी. इंडिका ऑफ मंगास्थनीज़. ई.में: . . एपिप्राफित्रा का प. नि; . . . प सा. त्रि; . . ... साइक्लोपीरिमा टिमिका परिः . . . शिवारिक रिसनेज़ . ओं; . . . ... मेषडाटा ऑक्सोनियन्शिा (मार्यम् सीरीज), का .स.ई.रित का . स.रि ... कर्मिग्रहाम की धार्षिोलॉजिकल सर्वे' की रिपोर्ट. क; . . . . कनिग्रहाम राखत गल. का को प.. .., कमिग्हाम संगृहीत 'कॉइम्स ऑफ एरयंट इंडिया'. का कॉमि.. कनिंगहाम संगृहीत 'कॉरम्स ऑफ मिरिएकल इंडिया'. काम.योः . . ... .हमिन्हाम का 'महाबोधी'. की लि.इ.नो. ... कीलहॉर्न संगृहीत लिस्ट ऑफनिस्क्रिपशम्स ऑफ मॉदन दिमा'. की लि.ई.स. ... कीलहॉर्न संगृहीत लिस्ट ऑफ स्क्रिप्शन्स ऑफ सदन रंडिया'. को; मि.ए: . कोलक का पिसलोनिप्रस् एसेज'. गा; के प्रो. सी. ... पसी माईनर संगृहीत ‘दी कॉरन्स ऑफ प्रोक इंडासीधिक किज़ ऑफ पाकदिया डांडिया'. गौ सो.प्रा. . गौरीशंकर हीराचंद ओझा का सोलंकियों का प्राचीन इतिहास' ज.पो . सो. जर्मल मापदी अमेरिकन ओरिएंटल सोसाटी. ज.पः . . . ... 'जर्नल पशिनाटिक'. ज.ए. सो. धंगा; । } ... जर्नल मॉकी एशिवाटिए सोसाटी ऑफ बंगाल. ज. यंगा. ए. सो। । ज.ए. सो. पंध. ज. बंब एसो. ! ... अमंल ऑफ दी माँ 3 ऑफ दी रॉयल पशियाटिक सोसायटी म.वा..ग.ए.सो. ) जरों. . सो: ... जर्नल ऑफ दी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी. मा: . . . ... माज़ाटेलरका 'मारकाधेट', Aho! Shrutgyanam Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकों के संक्षिप्त नामसंकेतों का परिचय. दा.प्रा.सी:. . ... दावनकोर आर्किऑलॉजिकल सीरीज़. ड: कोई : . . मिस् डर का 'कॉनॉलॉजी ऑफ इंडिया'. साज़ डावरज़ का 'बुद्धिस्ट हिमा.' न्यु. कॉ; . . . ... न्युमिस्मॅटिक कॉनिकल. प्रिं . . . प्रिन्सप का 'टिकिटरीज़'. प्रा.रि.प्रा.स के. .... प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ दी किनॉलॉजिकल सर्वे मॉफ वेस्टन डिमा. फो(वा) पं.च से ... फोजल संपादित 'यदि क्विटीज़ और वी चंबा स्टेट'. फ्ली ; गु. . ... फ्लीट संपादित 'गुप्त इस्क्रिप्शन्स'. वास घे.. पर्जेस संपादित 'आर्किऑलॉजिकल सर्वे भाक्वेस्ट इंडिया' यसा ई.पे; . बर्नेल का 'साउथ इंडिअन् पेलिना प्राफी'. बाई: . . बार्नेट का टिकिटीज़ बॉएडिश्रा'. बी .रे. वे.. सम्युअल घोल का 'धुनिस्ट रेकर्ड माफ वो रेसन बर्स'. बु.नं क .त्रि; . युन्यु नजियो का 'कॅटलॉग माफ दी चाइनीज़ रेंसलेशन प्रॉक बुद्धिस्ट प्रिपिटक . .... चूलर का इंडिअन् पेलिओग्नाको'. छुई. स्टः . . बलर का 'डिअन सडोज' (संख्या ३). सिसिल पेंडाल का ‘जनी इन नेपाल' रंब. गे; .. बॉम्बे गज़रिअर भा.: . . . भावनगर निस्काशन्स. म. कॉ. थों; . . भंडारकर कॉममारशन वॉल्युम् . मूरि... सी. मूलर की रिपोर्ट श्रॉन् पन्श्यंट इस्किपशम्स ऑफ सीलोम' में हि.प.सं.लि; मॅक्सम्लर का 'हिस्टरी ऑफ याश्यंट संस्कृत लिटरेचर'. रा। पं. का .. ... गरस संशदित 'पेपिग्राफिया कोटिका', राक. कॉम.क्ष. । रेप्सन संपादित 'कॅटॅलॉग ऑफ दी कॉदस ऑफ दो मांध द्वाहनेटी, दाटक डाइने₹. के. कॉ.ऑ.. स्टी ऐंड ही योधि डाइनेस्ली'. रि. रा. म्यू. रिपोर्ट ऑस्दा राजपूताना म्यूज़िमम् , अजमेर रेयसन का 'पश्यंट इंडिया'. के ई. स्ट; . . बेबर का 'रिस्च सांडअन्. सा(स): : पॅडवर्ड सेंचा अनुवादित 'अल्बहनीज़ डिमा'. सु: ग.त; . . सुधाकर द्विवदा की 'गएकतरंगिणी'. सेक्रेड बुक्स ऑफ दीईट. स्मिा.हि. ... विन्सेंट ए. स्मिय का 'अलो हिस्ट्री ऑफ इंरिमा'. स्मिक काई. म्यु बिरसेट प. स्मिथ संपादित 'कॅटेंलॉग ऑफ दो कॉन्स नदी इंडिअन् म्युज़िपम्'. ६ के. पा .. ... हरप्रसाद शास्त्रो संगादेत 'कॅटलॉग ऑफ पामलीक एंड सिलेक्टेड पेपर मनुस्किस बिलॉगिंग टु दो दरबार लाइब्ररी, नेपाख'. हु सा.... ... हल्श संशदित साउथ इंडियन स्क्रिप्शन्स'. खाक. कॉ.पं.म्यू। ... वाइटहेड संपादित 'कॅटलॉग ऑफ दो कॉइन्स इन वी पंजाब म्यूज़िपम्, लार'. Aho! Shrutgyanam Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho! Shrutgyanam Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्राचीनलिपिमाला. १-भारतवर्ष में लिसने के प्रचार को प्राचीनता. भारतीय आर्य लोगों का मत यह है कि उनके यहां बहुत प्राचीन काल से लिखने का प्रचार चला माता है और उनकी लिपि (ब्रामी), जिसमें प्रत्येक अक्षर या चिन्ह एक ही ध्वनि या उच्चारण का सूचक है और जो संसारभर की लिपियों में सबसे सरल भोर निदोष, स्वयं ब्रह्मा ने बनाई परंतु कितने एक यूरोपिअन् विद्वानों का यह कथन है कि भारतीय आर्य लोग पहिले लिखना नहीं जानते थे, उनके वेदादि ग्रंथों का पठनपाठन केवल कधनश्रवणद्वारा ही होता था और पीछे से उन्होंने विदेशियों से लिस्वना सीखा. मॅक्समूलर ने लिखा है कि मैं निश्चय के साथ कहताई कि पाणिनि की परिभाषा में एक भी शन्द ऐसा नहीं है जो यह सूचित करे कि लिखने की प्रणाली पहिले से थी, और वह पाणिनि का समय ईसवी सन पूर्व की चौथी शताब्दी मानता है. बर्नेल का कथन है कि 'फिनिशिमन् लोगों से भारतवासियों ने लिखना सीखा और फिनिशिभन्' अचरों का, जिनसे दक्षिणी अशोकशिपि (ब्राह्मी) पनी, भारतवर्ष में ई.स. पूर्व ५०० से पहिले प्रवेश नहीं हश्रा और संभवतः ई.स. पूर्व ४०० से पहिले नहीं: प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बूलर, जो 'सेमिटिक' लिपि से ही भारतवर्ष की प्राचीन लिपि (ब्रामी) की उत्पत्ति मानता है, मॅक्समूलर तथा पर्नेल के निर्णय किये समय को स्वीकार न कर लिखता है कि ई.स. पूर्व ५०० के आसपास, अथवा उससे भी पूर्व, ब्राह्मी लिपि का पड़े श्रम से निर्माण करने का कार्य समाप्त हो चुका था और भारतवर्ष में 'सेमिटिक' अक्षरों के प्रवेश का समय ई.स. पूर्व ८०० के करीय माना जा सकता है, तो भी यह अनुमान अभी स्थिर नहीं कहा जा सकता. भारतवर्ष या सेमिटिक देशों के और प्राचीन लेखों के मिलने से इसमें परिवर्तन की भावश्यकता हुई तो अभी अभी मिले हुए प्रमाणों से मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि[भारतवर्ष ] में लिपि के प्रवेश का समय १. मात्र मासिकं तु समय सकिः बजाय बहः पावावर विमान पाहतारपनः पुरा(मानिहकतत्व' और 'ज्योति. स्तस्य' में हस्पति का वचन) बामरिचररि माहिति हम सचमन कोकमनाभरिन, सभा गमिः।(नारदस्मृति). बृहस्पतिरचित मनु के वार्तिक में भी ऐसा ही लिखा है (स.यु.६ जिल्ल २३, पृ. ३०४): और चीनी यात्री इयुएत्संग, जिसने ई.स. ६२६ से ६५५ तक इस देश की यात्रा की, लिखता है कि 'भारतवासियो की धर्णमाला के अक्षर प्रह्मा ने बनाये थे और उनके सप (रूपांतर) पहले से अब तक चले आ रहे हैं ' (बीबु.रे..वः जिल्द १, पृ.७७). १. में हि.प.सं.लि पृ. २६२ (अलाहाबाद का पा.) फिनिशिम फिनिशिमा के रहने वाले. पशिमा के उत्तरपश्चिमी विभाग के 'सारित्रा' नामक देश (तुर्कराज्य मैं) को प्रीक (यूनानी) तथा रोमन् लोग 'फिनिशिश्मा' कहते थे. वहां के निवासी प्राचीन काल में बड़े व्यवसायी तथा शिक्षित थे. उन्होंने ही यूरोप बालों को लिखना सिखलाया और यूरोप की प्राचीन तथा प्रचलित लिपियां उन्हींकी लिपि से निकली है. ५. नासा...पू... भरबी, इथियोपित, अरमाक, सीरिअर, फिमिशिमन, हि आदि पश्चिमी पशिया और माफ्रिका खंर की माषामौतथा उनकी लिपियों को 'सेमिटिक' अर्थात् बारबलप्रसिह नूह के पुत्र शेम की संतति की भाषाएं और लिपियर्या कहते ह. Aho! Shrutgyanam Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. अधिक प्राचीन सिद्ध होगा और उसके वास्ते शायद ई.स. पूर्व की १० वीं शताब्दी था उमस भी पूर्व का समय स्थिर करना होगा'. अब हमें यह निश्चय करना मावश्यक है कि भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता का पता कहां तक चल सकता है. भोजपत्र', ताड़पत्र' पा कागज पर लिस्बे हुए पुस्तक हजारों वर्ष रह नहीं सकते, विशेषत: भारतवर्ष के जलवायु में, परंतु पत्थर या धातु पर खुदे हुए अक्षर यमपूर्वक मिहासंघ रहें और हवा नया पारिश से बचने पायें तो बहुत समय तक पच सकते हैं. इस देश में जो प्राचीन शिलालेख विशेष संख्या में मिले हैं वे मौर्यवंशी राजा अशोक के समय के, अर्थात् ई.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी के हैं, और पाषाण के विशाल स्तंभों अधषा पदानों पर खुले ये पेशावर से माइसोर तक और काठिावाड़ से उड़ीसा तक अर्थात् करीब करीब सारे भारतवर्ष में मिल चुके हैं. इनसे पाया जाता है कि उस समय सारे भारतवर्ष में लिखने का प्रचार भली भांनिधा, जैसा कि इस समय है. इन लेखों में देशभेद से कितने एक अहरों की प्राकृति में कुछ भिन्नता पाई जाती है और किसी किसी अक्षर के कई रूप मिलते हैं, जिससे अनुमान होता है कि उस समय भी लिखने की कला इस देश में नवीन नहीं, किंतु सुदीर्घ काल से चली माती थी. अशोक से पूर्व के अभी तक केवल दो छोटे छोटे शिलालेख मिले हैं, जिनमें से एक अजमेर जिले के पड़ली गांव से मिला है और इसरा नेपाल की नराई के पिप्राधा नामक स्थान के एक स्तूप के भीतर से मिले हुए पात्र पर, जिसमें युद्धदेव की अस्थि रकथी गई थी, खुदा है. इनमें से पहिला एक स्तंभ पर खुदे हुए लेख का टुकड़ा है, जिसकी पहिली पंक्ति में 'वीर[]पभगव[1]' और दूसरी में 'वसुरासिति चास]'खुदा है. इस लेख का ८४ वां वर्ष जैनों के अंतिम तीर्थंकर बीर (महावीर) के निर्वाण संवत् का ८४ वां वर्ष होना चाहिये. यदि यह अनुमान ठीक हो तो यह लेख ई.स. पूर्व 1. बू; ई. पः पृ. १७ (अंग्रेज़ी अनुवाद). २. भोजपत्र पर लिखा हुश्रा सब से पुराना संस्कृत पुस्तक, जो अब तक मिला है, 'संयुकागम' नामक चौस सूत्र है. वह डॉ. स्टाइन् को खोतान प्रदेश के खलिए स्थान में मिला था. उसकी लिपि ई.स. की चौथी शताब्दी की मामी जाती है. . ताड़पत्र पर लिखे हुए पुस्तकों में सब से पुराना, जो मिला है, एक नाटक का कुछ चुटित अंश है. यह ई.ल. की दूसरी शताब्दी के आसपास का लिखा हुआ माना जाता है, और जिसको डॉ. लूडर्स ने छपवाया है (Kleinere Sanskrit-Texte, part I.). - कागज़ पर लिखे हुए सबसे पुराने भारतीय प्राचीन लिपि के चार संस्कृत पुस्तक मध्य पशिया में यारकंद नगर से १० मील दक्षिण 'कुगिभर' स्थान से वेबर को मिले, जिनका समय डॉ. हॉर्नली ने ई.स. की पांचवीं शताब्दी अनुमान किया है (ज. ए.सो. बंगा: जि. ६२, पृ.). 4. अशोक के लेख नीचे लिखे हुए स्थानों में मिले हैं: शहवाज़गढ़ी (पंजाब के ज़िले यूमफजई में): मान्सेरा (पंजाब के ज़िल हज़ारा में): देहली; लालसी (संयुक्त प्रदेश के ज़िल देहरादून में): सारनाथ (बनारस के पास): लारिमा अरराज अथवा रधिना, लौरिया नवंदगढ़ अथवा मधिश्रा और रामपुरवा (ताना उत्तरी बिहार के जिले चंपारन में): सहस्राम (बंगाल के जिले शाहाबाद में), निग्लिया और रुमिदेई (दोनी नेपाल की तराई में): धौली (उड़ीसा के ज़िल कटक में); जीगड़ (मद्रास के ज़िले गंजाम में): वैराट (राजपूताना के जयपुर राज्य में): गिरनार (काठियावाड़ में): सोपारा (संबई से ३७ मीश उत्तर थाना जिले में); सांबी (भोपाल राज्य में); रूपनाथ (मध्यप्रदेश में): मस्की (हैदराबाद राज्य में ) और सिद्धापुर (मासोर राज्य में). र लिपिपत्र पहिल में केवल गिरनार के लेख से अक्षर छांटे गये हैं और दूसरे में अशोक के अन्य लेखों से मुख्य मुख्य प्रक्षर. इन दोनों पत्रों को मिलाने से भिन्न भिन्न लेखों में अक्षरों को जो भिषता मीर एक अक्षर के कारुप पाये जाते है वे स्पए होंगे. .. बड़ली गांव से मिला हुआ लख, जो राजपूताना म्यूजियम (अजमेर) में है, ई.स. १९१२ मे मुझे मिला था. Aho! Shrutgyanam Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता. (५६७-८४) ४४३ का होगा. इसकी लिपि अशोक के लेबों की लिपि से पहिले की प्रतीत होती है. इसमें 'वीराय' का 'बी' अक्षर है. उक्त 'बी' में जो 'ई' की मात्रा का चिन्ह है वह न तो अशोक के लेखों में और न उनसे पिछले किसी लेख में मिलता है, अत एव वह चिन्ह अशोक से पूर्व की लिपि का होना चाहिये, जिसका व्यवहार अशोक के समय में मिट कर उसके स्थान में नया चिन्ह बर्ताव में आने लग गया होगा . ५ दूसरे अर्थात् पिभाषा के लेख से प्रकट होता है कि बुद्ध की अस्थि शाक्य जाति के लोगों ने मिलकर उस ( स्तृप ) में स्थापित की थी. इस लेख को वूलर ने अशोक के समय से पहले का माना है. वास्तव में यह बुद्ध के निर्वाणकाल अर्थात् ई. स. पूर्व ४०७ के कुछ ही पीछे का होना ई.स. चाहिये. ४. ३ इन शिलालेखों से प्रकट है कि ई.स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी में लिखने का प्रचार इस देश में कोई नई बात न थी. भरतर जा ) नार्कस' कहता है कि 'यहां के लोग रुई ( या सई के चिथड़ों को कूट कूट कर लिखने के वास्ने कागज़ बनाते हैं. मॅगेस्थिनीज़ लिखता है कि यहां पर " * महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषण ने भी इस लेख को श्रीर संवत् म का माना है. L अशोक के समय अथवा उससे पूर्व व्यंजन के साथ जुड़ने वाली स्वरों की मात्राओं में से केवल 'ई' की प्राचीन मात्रा लुप्त होकर उसके स्थान में नया चिन्ह काम में आने लगा ऐसा ही नहीं, किंतु 'श्री' की मात्रा में भी परिषर्तन हुआ होगा, क्योंकि महाक्षत्रप रुद्रदामन के गिरनार के लेख में 'श्री' की मात्रा तीन प्रकार से लगी है :- 'पी' के साथ एक प्रकार की, 'मी' और 'मी' के साथ दूसरे प्रकार की और यौ' के साथ तीसरी तरह की है (देखो लिपिपत्र मयां ) इनमें से पहिले प्रकार की मात्रा तो अशोक के लेखों की शैली की ही है ('ओ' की मात्रा की बाई तरफ एक और भाड़ी लकीर जोड़ी गई है ), परंतु दूसरे प्रकार की मात्रा की उत्पत्ति का पता अशोक के लेखों में नहीं लगता और में पिछले किली लेख में उसका प्रचार पाया जाता है, जिससे यही अनुमान होता है कि उसका रूपांतर अशोक से पूर्व ही हो गया हो और किसी लेखक को उसका ज्ञान होने से उसने उसका भी प्रयोग किया हो, जैसे कि कुटिल लिपि की 'श्रा को मांगा (जो व्यंजन के ऊपर लगाई आती श्री ) का लिखना इस समय से कई शताब्दी पूर्व से ही उठ गया है और उसके स्थान मैं जन की दाहिनी ओर एक बड़ी लकीर '' लगाई जाती है, परंतु कितने एक पुस्तकलेखकों को अब भी उसका है और जब ये भूल से कहीं 'आ' की मात्रा छोड़ जाते हैं और अंजन की दाहिनी ओर उसके लिखने का स्थान नहीं होता त उसके ऊपर कुटिल लिपि का चिन्ह लगा देते हैं. ● जिस पत्थर के पात्र पर यह लेख लदा है वह इस समय कलकले के 'इंडिअन म्यूज़िश्रम् ' में है. C. ज. रो. प. सो; सन् १८६ पु. ३८६. 1. बुद्ध का देहांत (निर्माण) ई.स. पूर्व ४८७ के क़रीब कुसिनार नगर में हुआ. उनके शरीर को चन्दन की लकड़ियों से जला कर उनकी जली हुई अस्थियों के हिस्से किये गये और राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अलकप्प, रामप्राम, पाषा, वेददीप और कुसिनार वालों ने उन्हें लेकर अपने अपने यहां उनपर स्तूप बनवाये. कपिलवस्तु शाक्यराज्य की राजधानी थी और बुद्ध वहीं के शाक्यजाति के राजा शुद्धोवन का पुत्र था अत एव पिमात्रा के स्तूप से निकली हुई अस्थि efreeस्तु के हिस्से की, और वहां का स्तूप बुद्ध के निर्वाण के समय के कुछ ही पीछे का बना हुआ होना चाहिये. ऐसा मानने में लिपिसंबंधी कोई भी बाधा नहीं आती. 4. ई. स. पूर्व ३२६ में भारतवर्ष पर चढ़ाई करनेवाले यूनान के बादशाह अलेक्ज़ेंडर (सिकंदर) के सेनापतियों में से एक मिश्रार्कस भी था. वह उसके साथ पंजाब में रहा और यहां से नाव द्वारा जो सेना लड़ती भिड़ती सिंधु के मुल तक पहुंची उसका सेनापति भी नही था. उसने इस पढ़ाई का विस्तृत वृत्तांत लिखा था, जिसका खुलासा परि अ ने अपनी इंडिका' नामक पुस्तक में किया. मॅक्समूलर का लिखना है कि 'मिश्रार्कस् भारतवासियों का कई से कागज़ बनाने की कला का जानना प्रकट करता है. हि. प. मं. लि. पृ. ३९७. ई.पू. ६. स. पूर्व ३० के ग्रामपाम सीरिया के बादशाह युकस (Bicleuka Nikator) ने मँगेरियनीज़ नामक Aho! Shrutgyanam Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानीनलिपिमाला. बस इस स्टेरिमा के अंतर पर पाषाण लगे हैं, जिनसे धर्मशालाओं का तथा दूरी का पता लगता है, नये वर्ष के दिन भाषी फल (पंचांग) सुनाया जाता है', जन्मपत्र मनाने के लिये जम्मसमय लिला जाता है और न्याय 'स्मृति के अनुसार होता है.' इन दोनों लेखकों के कथन से स्पष्ट है कि ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी में यहां के लोग सर्व (पा चिथों) से कागज बनामा जानते थे, पंचांग तथा जन्मपत्र बनते थे जैसे कि अब तक चले पाते हैं और मीलों के पत्थर तक लगाये जाते थे. ये लेस्बमकता की प्राचीनता के सूचक हैं, बौद्धों के 'शील' ग्रंथ में पौद्ध साधुनों (अमणों) के लिये जिन जिन बातों का निषेध किया गया है उनमें 'क्लारिका' (पपरिका) नामक खेल भी शामिल है, जिसे * पुसा. पालक भी खेला करते थे. इस खेल में खेलने वालों को अपनी पीठ पर या भाकाश में [अंगुलि से] लिखा हुमा महर झना पड़ता था, 'बिनय संबंधी पुस्तकों में 'लेख' (लिखने की कला) की प्रशंसा की है और पौख भार्यानों के लिये सांसारिक कलानों के सीखने का निषेध होने पर भी लिखना सीखने की उनके पास माशा, यदि कोई बौद्ध साधु (प्रमण) किसी मनुष्य को प्रात्मधात की प्रशंसा में कुछ लिखे (लेखं छिन्दति) तो उसे प्रत्येक अक्षर के लिये दुमत (पुष्कृत-पाप) होगा", और गृहस्थियों के ल. एको के वास्ते लिखने का पेशा सुख से जीवन निर्वाह करने का साधन माना गया है विद्वाम् को अपना राजदूत बना कर मौर्यवंशी राजा चंद्रगुप्त के दरबार (पाटलिपुत्र) में भेजा था. वह ५ वर्ष के लगभग यहां रहा और उसने इस देश के विषय में 'इंडिका' नामक पुस्तक ई.स. पूर्व की बौथी शताब्दी के अंत के मासपास लिखी, जो नट होगा परंतु दूसरे क्षेषकों ने उससे जो जो अंश उड़त किया है बाइ उपलध है. १. एक स्टेरिमस् (Stadiuun) ६०३ फुटांच का होता है ('स्टेडिमा,' 'स्टेडिनम् ' राम्पका गुपचन है. १ . पृ. १२५-२६. . . प. ६१. ५. ई. में पू. १२६. १. मगस्थिनीज़ो मूल 'स्मृति' (धर्मशाखा) शब्द के अर्थ 'याददाश्त का प्रयोग किया है, जिसपर से मिलने पक पूरोपियन् विद्वानों में यहां पर उस समय लिले एए कानून का होना मान लिया है, परंतु कूलर लिखा है कि मॅगस्थिनीज़ का भाशय 'स्मृति' के पुस्तकों से है (ई.पू. ६). . रिलायती कागज़ो के प्रचार के पूर्व यहां पर पिथों को कूट कूट कर उनके गूद से कागज बनाने के पुराने दिंगकारखाने की जगह थे, परन्तु पिलायती कागज़ अधिक सुंदर और सस्ते होने से बंद हो गये, तो भी घोडा (मेवार में) मादि में अब तक पुराने ढंग से कागल पनते हैं. . और धर्मग्रंप 'सुसंत' (सूत्रांत) के प्रथम संरके प्रथम मण्याय में जो बुर के कपोपकथन है 'शील' अर्थात 'प्राचार के उपदेश' कहलाते हैं. उसके संग्रह का समय शे. रायम् सेविड्ज़ ने ई.स. पूर्व ४५० के पास पास बक्त लाया है (दु. १.१०७), किंतु बौर लोग 'शील' को स्वयं दुर का बखान मानते हैं. ___E. प्रमजालसुत्त, १० सामप्रफलमुत्त, ४॥ ए.पू. १०८. १. जिस वर्ष पुर का निर्माण मा उसी वर्ष (ई.स. पूर्व ४८७ के भासपास) उनके मुख्य शिष्य काश्यप की इच्छानुसार मगध के पजा प्रजातक की सहायता से राजगृह के पास की सप्तपर्ण गुफा के बड़े दालान में योका पहिला संघ एका दुभा जिसमें ५००महतराज साधु) उपस्थित थे. वहां पर उपालि. जिसको स्वयं दुखने विनय का अदितीयकाता माना था, 'विन्य' सुनाया, जो पुर का कहा दमा 'विनय' माना गया. बौद्धों के धर्मग्रंथों के तीन विभाग 'विनय, "इस' (सूच) और 'अभिधम्म (भिधर्म) हैं, जिनमें से प्रत्येक को 'पिटक' कहते हैं. प्रत्येक पिटक में काम हैं और तीनों मिलकर बिपिटिक' कहलात हैं. विनय' मै बौन साधुओं के प्राचार का विषय है. मोशनमत में 'विनय के कितने एक मंश.स. पूर्व ५०० से पहिले के हैं. १. प. १०८: मिक्लुपाचित्तिय. २.२. २. हैदुई प. १०८ Aho! Shrutgyanam Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में लिखने के प्रचार की प्राचीनता. 'आतक' के पुस्तकों में रसानगी तथा राजकीय' पत्रों, करजा लेने वालों की तहरीरों तथा पोत्यक (पुस्तक)का', और कुटुंर संबंधी मावश्यकीय विषयों'. राजकीय मादेशों तथा धर्म के नियमों के सुवर्णपत्रों पर खुदवाये जाने का वर्णन मिलता है. दुख के पूर्वजन्मो की कथाओं को जातक कहते हैं. बौद्ध साहित्य में ऐसी प्रायः ४५० कयामों का २५ निपातों (अभ्यायो ) में बड़ा संग्रह है. प्रत्येक कथा के प्रारंभ में लिखा है कि जेतपन में मनाथपिडिक के भाग में या अन्यत्र जप दुर बिहार करते थे तब अमुक प्रसंग उठने पर उन्होंने यह कथा कही. कथा के पूर्ण होने पर पुर में बताया है कि रस समय के पमान) मनुष्यों में से इस कथा के समय पूर्व जन्म में कौन कौम किस किस शरीर में थे और अंत में अपना भी पता दिया है किस कथा का ममुक पात्र में भा. भास्प करहरी पर बीस जातकों के मित्र देहुए भार उनपर नाम भी विप है. एक पर सो जातक में माथा का एक पाद ज्यो का स्यों सुदा हुमा है. यह स्तूर इ.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी का है मतपय जातकों का इसस प्राचीन होना तो सिडही है, परंतु जिन राजाओं और नगरी का उनमें उमेश है ये नंद भीर मौर्यवंशी राजाओं के पहले और पात्रों के भावार म्यवहार भी बुख के पात पहले के जान पड़ते हैं, इससे यह मामला साहस नहीं है कि ई.स. एवं की ली शताब्दी या उससे भी पहले के समाज के चित्र जातकों की कथामो मेक्षित है. प्रोफेसर कॉयेल की संपादकता मे जातकों का अंगरेज़ी भाषांतर ६ जिलो में छप कर प्रकाशित हुआ है. मूल डॉक्टर फॉसबॉल ने रोमन लिपिमे प्रकाशित किया है. काशी के एक सेठ के गुलाम कराहक ने जाली चिट्ठी ( पण=पर्ण= पाप ) से अपने पापको सेटका पुन सरकारले एक दूसरे सठ की पुत्री से विवाह कर लिया. उस पत्र पर उसमे सेट ही की मोहर (मुरिका-मुद्रिका) भी जर तीवी (कढाहक जातक) सिला (तक्षशिला के विश्वविद्यालय के एक अध्यापक सपने पुराने पात्रों को पगण (पत्र) लिजा (महासतसोम है. एक राजा, जो राज्य छोड़कर बमवाली होगया था, एक ग्राम में जाकर रहा. वहां वालों ने उसका मातिथ्य प्रमा किया जिस पर उसने अपने भाई को. जो राजा था, एक पण भेजा कि इसका राजकर क्षमा कर दिया जाये (कामनातक), काशी के एक राजा ने अपने निकाले हुए पुरोहित को फिर बुलाने के लिये एक गाथा लिख कर पराल भेजा और जसपर राजमुरिका (राजमुद्रिका) से मोहर को (पुणणनदी जातक). पोतलि के राजा भरसक (अश्मक) के मंत्री मंदिसेन ने एक सालम (शासन) लिख कर दंतपुर के राजा कालिंग का माक्रमण रोका और कालिंग राजा लेख को सुन कर (लेख सुत्वा) रुक गया (बुशकालिंग जातक). सात राजामों ने काशी की घेरा देकर राजा प्राइस को पण मेला कि राज्य छोड़ो या लड़ो. उसके उत्तर में राजा के भाई असदिस (असाशीने पाणा पर अक्षर (मक्खरामि) खोदे (अधिन्दि) और पहचास ऐसे निशाने से मारा कि उनके भोजमपायों पर लगा. उसमें लिखा था कि भाग जाम्रो नही तो मारे जानोगे (प्रसदिस जातक.) मामी चोर (जैसमाजकल पुलिस क रजिस्टर में 'नंबरी' पदमाश होते हैं। लिखितको चोरो,' अर्थात् जिसके बारे मेंराजको भोर से लिखी मात्रा निकल चुकी हो, कहलाता था. ऐसे चोर बीरसंघ मे मा भाकर भरती होने लगे, तपर इस पणेने को रोका (महावा १.४३). . एक देवालिये ने अपने लेवालियों को करज़े की तहरीर पिण्णानि-अणपर्ण) लेकर गंगातीर पर माकर अपना पावना जाने के लिये बुलाया था (रुमातक). १. एक प्रमवार व्राह्मण का पुत्र अपनी विरासत सम्हालमे गया और सोने के पत्र पर अपने पुरखामों के लिखेपन बीजक महर (अक्वानि) पांच कर उसने अपनी संपत्ति का परिमाण जामा (कण्ड जातक). . काशी के राजा की रानी खेमा ने स्वम में स्वर्णमृग देखा और कहा कि यदि मुझे यह न मिला तो मैं मर जाऊंगी. इस पर गजा में सोने के पत्र पर एक कविता या कर मंत्री को दी और कहा कि इसे सारे नगरवासियों को सुना दो. उस कविता का भाव यह था कि जो कोई इस मृग का पता देगा उसे गांव और गहनों मे भूषित स्त्रियां दी आयेंगी (जातको ___.. राजा की मात्रा से कुछ जाति के पांच प्रधान धर्म (अहिंसा, अस्तेय. परस्त्रीगमननिषेध, मिध्यामाषानिदेष और मद्यपानमिपंध) सोने के पत्र पर पुषाये गये (कुरुधम्म जासक), बोधिसत्व की मात्रा से बिमिययम्म (विनिमयधर्म) मी ऐसे ही सुदवाये गये थे (तेसकुन जानको. Aho! Shrutgyanam Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रालिपिमाला. 'महावग्ग' (विनय पिटक का एक प्रन्य) में लेखा' (लिखना), 'गणना' (पहाडे) और 'रुप (हिसाब) की पढ़ाई का जातकों में पाठशालामो नया विद्यार्थियों के लिम्बने के फलक (लकड़ी की पाटी)का और ललितविस्तर में बुद्ध का लिपिशाला में जाकर अध्यापक विश्वामित्र से. चंदन की पार्टी पर मोने के वर्णक' (कलम ) से मिग्वना मीरखने का वृत्तान्त मिलता है'. ऊपर उद्धन किये हुए वचन ई.स. पूर्व की छठी शताब्दी के पास पास की दशा के पोधक है और उनसे पाया जाता है कि उस समय लिम्बने का प्रचार एक साधारण बात थी; त्रियां मथा बालक भी लिम्बना जानते थे और प्रारंभिक पाठशालानों की पढ़ाई ठीक वैसी ही थी जैसी कि अब तक हमारे यहां की देहानी खानगी पाठशालाओं की है, जिनमें लिखना, पट्टीपहाड़े और हिसाब पढ़ाये जाते हैं. अब हमारे यहां की प्रारंभिक पढ़ाई काग ई.स. पूर्व की छठी शताब्दी के आसपास से अब तक, अर्थात करीब २५०० वर्ष से.बिना कुछ भी परिवर्तन के ज्यों का स्यों चला पाया है सब भार्य ही क्या है कि बुद्ध के समय भी बहुत पूर्ववर्ती काल से जैसा ही चला जाता रहा हो. महाभारन', स्मृति (धर्मशास्त्र), कौटिल्य के अर्थशास्त्र, वात्स्यायन के कामसूत्र' मादि सामानों के साथ. ग्रंथों में, जिनमें व्यावहारिक विषयों का विशेष रूप से वर्णन मिलता है, लिस्वना' और लिखित पुस्तकों का उल्लेख बहन कुछ मिलना है. चाहरण पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी नामक व्याकरण का अन्य लिया, जिसमें 'लिपि' और 1 उपालि के मातापितामे राजगृह मे शिवार किया किबो को क्या काम सिखायें. उन्होंने निश्चय किया कि यद्यपि लेखा, गएमा और सप सिखाने से भविष्य में उसको लाभ होगा परंतु इस नीनो से क्रमशः अंगुली, छाती और प्रांखों को फ्रेश होगा, इससे उन्होंने उसे धीय मिक्स (भमए) माना मित्र किया क्योकि भ्रमण सदाचारी हो खाने पीने को उन्हें मन्छा मिलना है और सोने को अच्छे विचाने (महावा १,४६ ; मिक्पावित्तिय ६५.११. कलिंग के राजा खारवेल के हाथोगुफा के लेख में क मा का लश कप और गणना सीखना लिया (जम संचरण पाहामारfffeभाग ममजावा....... हाथीगुंफर पैर भी प्रदर स्किप शम्स.' भगवानलाल बजी मंदिन.पू. २६. गुलाम कटाइक रेट के पुत्र का फलक उठा कर उसके साथ पाठशाला जाया करता था वहीं उसने लिखना पढ़ना सीला किडाहक जातक.). : राजपूताना में अब भी लकड़ी की गोलीले मुंह की कलम को, जिससे पथे पो पर सुरती विद्या कर मार बनाना सीखते है, प्ररथा या परतना कहते हैं ललितविस्तर, अन्याय १० (अंगरेजी अनुवाद पू.१५१-५). . महाभारत के कर्ता ध्यास ने स्वयं गणेश को ही गल पुस्तक का लखक पनाया है (मादिपर्व, ...) सिष्ठधर्मसूत्र (१६.१०.१४-१५) मै म्यायकर्ता के पास लिखित प्रमाणा पेश करना और मनुस्मृति (८.१६८) में जामन् लिखवाये हुए लेखको अममाहित करना लिखा है. सारी स्मृतियों में जहां जहां खेलका विषय है उसकी परिसंख्या नहीं हो सकती, केवल दो उदाहरण दिये गये है. अर्थशास्त्र में बहुत जगह लिखने का वर्णन है, जिसमें से थोड़े से उदाहरण यहां दिये जाते हैं. वर्मा लिपि भत्यापपीत १.४.२) शामिपिभिवारपार ...): पर मंत्रिपरिषदा प्रेम मंचन (१.) माय मम्पहीयतः समरिराम्रोवराचनसमयी सम्मान (२). यह पिबला अवतरण शासनाधिकार में से है जिसमें राजशासनों के लिखने का ही विषय है. अर्थशास्त्र काकर्ता कौटिल्य मौर्य चंद्रगुप्त का मंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य ही था. . चौसठ कलानों में एकबारमा (१.३३)घर मे रखने की सामग्री में कपिरपुरुष (पृ.४५): भार्या के प्रतिदिन के कामों में प्रामद और खर्च का हिसाब रखना रेशनिकायमपिणावरम' (पृ.२३८). .. मॅक्समूलर.यूलर मादि कितने एक यूरोपिमा विज्ञान पाणिनि काम पूर्ष की चौथी शताम्मी में होना मानते और पाणिनीय व्याकरण के अद्वितीय हाता गोस्टका ने पाटिभि का बुद्ध से पूर्व होना माना है. इनमें से गोरहसकर का लिखना डीक जचता है, क्योकि पारिपनि मे गुत समय पछि कास्यायन ने उसके सूत्रों पर 'वार्तिक लिखे. इसका प्रमाण यह है कि पार्तिको में न केवल पाणिनि के कोने हुए प्रयोगों और मयों का रूपपीकरण है वरन गुत से नये प्रयोगों और नये अधों का भी विचार है, जो पाणिनिके पीचे व्यवहार में भाये होगे. पाणिनि से कमसे कम तीन पीढ़ी पीचे दाक्षायण व्यातिपाणिनि सत्रों पर संग्रह' नामक व्याल्यामरूप पंथ चा. भर्तृहरि ने अपने वास्यपदीय' Aho! Shrutgyanam Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रकार की प्राचीनता. 'लिबिशन्द (जिनका अर्थ 'लिखना'है) और 'लिपिकर' (लिखने वाला)था 'यवनानी" (जिसका अर्थ कात्यायन और पांजलि ने 'यवनों की लिपि किया है) शब्द बनाने के नियम दिये हैं और 'स्वरित' के चित्र तथा 'मंथ' (पुस्तक) का भी उल्लेख किया है. उसी पुस्तक से नामक ग्रंथ में लिखा है कि संग्रह के जो वाक्यपदीय' के टीकाकार पुण्यराज के लेखानुसार एक लाख श्लोक का था, अस्त हो जाने पर पतंजलि ने 'महाभाष्य' लिखकर संग्रह के माराय का संक्षेप किया. पतंजलि का समय इ.स. पूर्व की दूसरी शतामी निश्चित है. ऐसी दशा में पाणिनि और पतंजलि के बीच की शादियों का मन्टर होना चाहिये. १. विपिमानिमा ... सिपिसिविरबि ...(३२२१). ९. रहा .... "पाययन .... (४.१.४६). ३. बनमामिणाम् (५१.४६ पर वार्तिक ३). ४. परमाक्षिणामिति र परमानी शिभिः (४.१.४८ पर भाग्य) 1. बरिमाधिकारः (१.३.११). एक ही बात बार बार दोहरानाम परे इस लिये पाणिनि ने कुछ बातें शीर्षक की तरह स्थान स्थान पर लिख कर नियम कर दिया है कि इसके मागे यह सिलसिला चलेगा. इसको अधिकार कहते है और यह अधिकार स्खरित चिश से जलाया गया है. यह स्वरित वेद के उच्चारण के उदास, अनुदात्त, स्थरिन की तरह उचारल का ऊंचा या नीचा स्वर नहीं किंतु वर्ण पर का लिखित चिक है (सरिको नाम सरचिौपईयों' कसरधर्मःपा.१.३.११ परकाशिका) क्योंकि भाभ्यायी का सूत्रपाठ एकति या एकस्वर का पाठ माना जाता है, उसमें उदास मनुबात. स्वरिल का नहीं हो सकता था सच पाडात पतंजलि के महामाण्य के पहले मात्रिक पर कैयट की टीका). पतंजलि ने इस सूत्र (१.३.११) के ग्यारयान में यह शंका उठाई है कि स्थरिन से हम यह नहीं जान सकते कि यह अधिकार कहां तक जायेगा और इस शंका पर कात्यायम का समाधान लिखा है कि जितने सूत्रों तक अधिकार चलाना हो उतनी ही संख्या का पर्ण उसपर लिख दिया जाय (बानियों म हामनी धोमानिनिस्सिका कैयर सपररांस दिया है कि पा.सू. ५.१.३० पर ''मनुबंध लगा देने मे यह जाना जायगा कि यह अधिकार दो सूत्रों तक चलेगा. यो शिवसूबों में जो बलों का कम है उसके स्थानीय मान से म= =२,३-३, इत्यादि गिनती के संकेत पाणिनि के स्वरित चित्र में होना कारयायन ने मामा है. भागे बल कर यह भी कहा है कि जहां अधिकार अधिक संख्या के सूत्रों में जाने वाला है और मन वर्ष कम हैं वहां अधिकार जतलाने वाले सूत्र में पाणिनि ने 'मार (अमुक शब्द या सूत्र से पहले पहले) लगाया है (पतंजलि-धेरोमीपराहप चा. मीका भूगमा गोमागभिकारो रनमें कच कच कचम् : कात्यायन-भूमि प्रासच पतंजलि-भूमि प्रवचन कम. भूचास प्राममुभ नि सयभ). जहां पर 'प्रार' शब्द काम में नहीं लिया है और जहां पर सूत्रों की संख्या अल (वर्ण) से अधिक है (जैसे ३. १. ११ का अधिकार ५४१ सूत्रों पर है) वहां कोई और स्वरित चिऋ काम में माता होगा. इसीके अनुसार पाणिनि ने जहां यह अधिकार किया है कि 'रीश्वर' के पहले पहले सब निपात कहलावैगे (पागदरीकरा पाना पा. १.४.५६) वहां शुद्ध ईश्वर' शम्ध काम में न लाकर कृत्रिम रीवर काम में लिया है क्योंकि हर शब्द जहां माता है वहीं यह अधिकार समाप्त होता है (अधिरीपर१.४.६७), आग जहां ईश्वर शब्द आया है। पर मोसनकामी ३. ४.५३) यहां तक यह प्रधिकार नहीं चलता. यो रीलर शब्द काम में खाने से दो ही बाते प्रकट होती है, या तो पाणिनि ने अपने मागे के सूत्र तोते की तरह रट लिये थे इससे 'प्लर' पद का प्रयोग किया, या उसने अपना व्याकरण लिख कर तैयार किया जिसकी लिखित प्रति के सहारे अधिकार सूत्र के शम स्थिर किये. पाठकों से यह कहना व्यर्थ है कि हम दोनों अनुमानों में से कौन सा मानना उचित है. ऐसे ही पाणिनि ने अपने सूत्रों में अपने ही बनाये धातुपाठ में सफण मादि सात धातुओं को 1 च मानां ६.४.१२४) 'अक्षिति भादि६ धातु' (जचित्यारक पर ६.१.६) श्रादि उल्लेख किया है. वहां यह मानना उचित है कि पाणिनि ने सूत्र बमान के पहिले धातुपाठ रट रक्खा था, या यह कि धातुपाट की लिखित पुस्तक उसके सामने थी? 'ग्रंथ'शद पाणिनि ने रचित पुस्तक के अर्थ में लिया है। समुदाय यमो य१.३.७५: धिलत्य का ५३.38 जन पञ्च ४.३.११६ श्रादि). वेद की शाखामों के लिये, जो ऋषियों से कही गई है जिन्हें श्रास्तिक हिन्दू ऋषियों की बनाई हुई ना नहीं मानते) 'प्रोत' शब्द काम में लाया गया है, 'कृत नहीं मन प्रो कम ५.३.१०१) और 'प्रोक्त ' ग्रंथों में पुराणप्रोक्त शम्द के प्रयोग से दिखाया है कि कुछ वेद के ब्राह्मण पाणिमि के पहिले के थे और कुछ उन्हीं के काल के (पुराको माया. कम्पप ४.३.१०५ वार्तिक 'सल्पकात्यान), किंतु पाराशय (पराशर के पुत्र) और मंद के 'भिसूत्र, तथा शिलालि भार रुशास के 'नटसूत्रों' को न मालूम क्यों प्रोक्त' में गिनाया है. जो हो. भिक्षुशास्त्र' और 'मायशास्त्र' के दो दो मत्रग्रंथ उस समय विद्यमान थे (पारार्थमिसामियां मिरवयोः । कर्मन्दकामाचादिनि ४.३.११०-११) नवीन विषय पर पहिले पहिल बनाये हुए ग्रंथ को 'उपशात' कहा है (अपनाते ४.३.११५: सपशोधनम नहायाचिणासाची १.४.२१). किसी विषय को लेकर (अधिकृत्य) बमे एप ग्रंथों में 'शिशुक्रन्दीय' (बों के रोने के संबंध का ग्रंथ), 'यमसभीय' (यम की सभा के विषय का ग्रंथ), 'दो नाम मिला कर बना ग्रंथ' (जैसे 'अग्निकाश्यपीय':-यह नाम पाणिनि ने नहीं दिया) और 'इंद्र Aho! Shrutgyanam Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. पर भी पाया जाता है कि उस समय चौपायों के कानों पर सुब, स्वस्तिक आदि के और पांच तथा पाठ के अंकों के चित्र भी बनाये जाते थे और उनके कान काटे तथा छेदे भी जाने थे. पृष्ठ ७ वें के टिप्पण में दिये हुए ग्रंथों के अतिरिक्त 'महाभारत' ग्रंथ' और मापिशलि', स्फोटायन', गाग्र्य, शाकल्य', शाकायन', गालव, भारद्वाज', कास्यप", चाक्रवर्मण" और सेनकर नामक वैयाकरणों के नाम भी पाणिनि ने दिये हैं और उनका मन प्रकट किया है. पाणिनि से पूर्व यास्क ने निमत लिखा जिसमें मौषरायण, कौटुकी, शतषलाम मौहल्य, शाकपूणि, शाकटायन, स्थौलाष्टीबी, भाग्रायण, औपमन्यव. पोर्णवाभ, कारवक्य, कौस्स, गार्य,गालष, चर्मशिरम, नैटीकि, वार्ष्यायणि और शाकल्य नामक वैयाकरणों और निरुतकारों के नाम और मत का उल्लेख मिलता है, जिनमें से केवल गार्य, शाकटायन, गालव और शाकल्य के नाम पाणिनि में मिलने हैं, जिससे अनुमान होना है कि पाणिनि और यास्क के पूर्व व्याकरण और निमत के बहत मे ग्रंथ उपलब्ध थे, जिनमें से अयं एक भी उपलब्ध नहीं है. जननीय' (इन्द्र के : म पर ग्रंथ) के नाम दिये है और अंत में 'आदि' लगाकर बतलाया है कि ऐसे ग्रंथ बात से होगे (समयमभाई नमादिभ्वाचः ५.३.८, रस प्रकार पाणिनि ने केवल 'ग्रंथ' शब्द ही नहीं दिया धरन कई ग्रंथों के नाम और उनके विर का पता भी दिया है. पाणिनि के सूत्र 'इते बचे (४.३८७) के वार्तिक पर कात्यायन ने मान्यायिका का भी उहोरख किया है और भाष्यकार पतंजलि ने 'वासवदसा, सुमनोत्तरा' और 'भैमरथी' माल्यायिकाओं १. क सादियाएपविभिषिकरियपरसिकम्य इ. ३.११५: की सात ६.२. ११२. इन सूत्रों पर काशिकाकारों ने लिखा है कि पशुभा के स्वामि का संबंध बतलाने या उनका विभाग अतलाने के वास्ते दांतली आदि के जो बि उनके कानों पर किये जाने है उनको लक्षण कहते हैं. पाणिनि के इन सूत्रों के अनुसार भरकर्णः गौः' या मष्टक गौर' का अर्थ यही है कि जिस बैल या गौ के कान पर पहचान के लिये 'पाठ' का चिममा हो. ऐसे ही पाचकर्णी, स्वस्तिककधादिऐसे शादों का अर्थ'पाठ काम वाली'मादि नहीं हो सकता. जानवरों के कानों पर इस प्रकार के तरह तरह के चिश करने की प्रथा वदो के समय में भी प्रचलित थी. अधर्षवेव संहिता में तांबे के छुरे से दोनों कानों पर 'मिथुन' (सीपुरुष) का चि बनाने का विधान है (अथर्व. सं ६.१४१) और इसरी जगह कामो क छेदने और उनपर चिश करने की प्रथा को दुरा बतलाया है (१२. ५.६). मैत्रायणी संहिता में इस विषय का एक प्रकरण का प्रकरण है जिससे पाया जाता है कि रेवती नक्षत्र में यह कर्म करना चाहिये ता इससे समृद्धि होती है. केवल दाहिने कान पर भी चिश होता था और दोनों कानों पर भी, और उन चिमों के नाम से गौमों के नाम पड़ते थे स्थूणाकणी' (थंभे के विशवाली), "दाप्राक' (दांतली के चिमवाली 'कर्करिकी' (वीखा के चिवाली) मादि. भलग अलग पुरुषों के अलग अलग चिमहोते -वसिष्ट की 'स्थूणाकणी, जमदग्नि की 'कर्करिकणी' मादि, पाए के फल से या लोहे से चित्र करने का निषेध किया गया है: या तो वि तांबे से बनाया जाय या साठे को पानी में भिगोकर उसके रंठल से ( मैत्रायणी संहिता ४.२.६.). १. महार कोचपराक''''भार " (६.२.३८) . या मुख्यापिके (६.१.१२). ५. पारफोडायमस्य (६.१.१२३)... श्रीमो बाईप (८.३.२०). . खोपः भाकपा (८.३.१६). .. शाकामीच (३.४.१११). डा. ऑपर्ट ने जो शाकटायन का व्याकरण अभयचंद्रसूरि की टीका सहित अपवाया है वह पाणिमि के उल्लेख किये हुए प्राचीन शाकटायन का नहीं किंत जैन शाकटायन का नवीन व्याकरण है जो स. की नवीं शताब्दी में गएकूट (राठोड़) राजा अमोघवर्ष (प्रथम) के समय में बना था. म. इको इलोको मासस्य (६.३.६१.), सो भारद्वाजस्य (७.२.६३). रिमविरुणे: साम्य (१.२.२५), ११. चाचपण्य (६.१.१३०), १२. मिरेप संभवस्य (५.४.१२२.) . पाणिनि ने 'सकादिभी गोत्र (२.४.१३.) सूत्र से 'यास्क' नाम सिद्ध किया है. १४. देखा, क्रमशः, यास्का का निरुक-१.२.१७८२.१, ११.६.३,७१४.६:१.३.३.१०.१.३६१०.८.६६ १५.८.१०७.१५.१६ ८.५.३ १.१५.२; १.३.५६ ५.३.२: ३.१५.१ ४.३.२,१.२.८: और ६.२८. ३. . यह संभव नहीं कि यास्क अथवा पाणिनि ने इतने प्राचार्यों के एक विषय के ग्रंथ कंठस्थ करके उमका तारतम्य विचार कर नया निरुक्त अथवा व्याकरण बनाया हो यदि उस समय लिखना या लिखित ग्रंथ न थे तो क्या पासिमि और यास्करन सब प्राचार्यों के ग्रंथों को वेद के सूत्रों को तरह कंठस्थ करने वालों को सामने बिठाकर उनके मत सुनते गये प्रोगे और अपना निबंध बना कर स्वयं रटते और शिष्यों को रटाते गये हॉो? Aho! Shrutgyanam Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता. छांदोग्य उपनिषद्' में 'अक्षर' शब्द मिलना है तथा 'ई, 'ऊ' और 'ए' स्वर, ईकार, ऊकार और एकार शब्दों से मचित किये हैं और स्वरों का संबंध इंद्र से, ऊष्मन् का प्रजापति से और स्पर्शवणों का मृत्यु से बतलाया है". ऐसे ही तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्ण और मात्रा का उल्लेख मिलना ऐतरेय आरण्यक में ऊष्मन्, स्पर्श, स्वर और अंतःस्थ का; व्यंजन और घोष' का; णकार और षकार (मूर्धन्य) के नकार और सकार (दंत्य) से भेद" का नया 'संधि' का विवेचन मिलता है. ये सब बहुधा शांखायन मारण्यक में भी हैं. ऐतरेय ब्राह्मण में 'ॐ' अक्षर, को प्रकार, उकार और मकार वणों के संयोग से बना हा बतलाया है". शतपथ ब्रामण में 'एकवचन,'पहुवचन" तथा नीनों लिंगों के भेद का विवेचन मिलना है. तैत्तिरीय संहिता में ऐंद्रवायव नामक ग्रह (सोमपात्र) दोनों देवताओं (इंद्र और वायु) को एक ही दिये जाने के कारण का वर्णन करते समय लिखा है कि '[पहले धापी अस्पष्ट और अमियमित (विना व्याकरण के) थी. देवताओं ने इंद्र से कहा कि तुम इसका हमारे लिये व्याकरण (नियमबंधन) कर दो. इंद्र ने कहा कि मैं [इस काम के लिये यह वर मांगता है कि यह (सोमपात्र) मेरे तथा वायु के लिये एक ही लिया जाय. इससे पंद्रवायव ग्रह शामिल ही लिया जाना है, इंद्र ने वाणी को बीच में से पकड़ कर व्याकृत किया. इसलिये वाणी व्याकृत (व्याकरणवाली, नियमबद्ध) कही जाती है. यही कथा शतपथ ब्राह्मण में भी मिलती है परंतु उसमें 'वि+या+कृ' धातु के स्थान पर 'निर + बच्' धातु से बने हुए 'निर्वचन' और 'निरुक्त' शब्द काम में लिये हैं, और यह कहा है कि इंद्रने पशु, वयम् (पक्षी) और सरीसृपों (रैंगनेवालों) की वाणी को छोड़ कर ६. पाणिनि के सूत्रपाठ में एक जगह (१.४.७६) और गणपाठ में दो जगह ( ऋगयनादि १.३.७३, और वेतनादि ४.४ १२ मै) उपनिषद शब्द पाता है. २. रिकार रनि चार प्रसाब रति यस सत्मादिरिम र यथार (छांदोग्य उप.२.१.). 'अक्षर' शदनो संस्कृत के प्राचीन साहित्य में दोनों अर्थ में मिलता है अर्थात् ध्वन्यात्मक (उश्चारित) और संकेतात्मक । लिखित ), परंतु 'वर्ण' शब्द केवल सकतात्मक चिश के लिये 'वर्ण' धातु से-रंगना या बनाना) प्राता है और ईकार, ऊकार आदि में 'कार' ('कृ'धातु से करना) केवल वर्ण के लिये ; अतएव 'वर्ण' श्रीर 'कार' प्रत्ययवाले शब्द लिखित संकेतो के ही सूचक है. ३. निरोकार: चादित्य कारो निसन कारः (छांदोग्य उप.१.१३). .. सरेंसरा तन्द्रयात्मानः जमाणः प्रमायरामामः सम्पमा मोसममः यदि सत्यपाल केशर छांदोग्य ५. वरकरः। माका बलम् (तत्तिरीय उप.११). १. मस्य तस्मात्मनः प्राव नथमकपमस्थोनि मकर मजामः स्वरूप मानमत्यदन्य पदमनस्था कर्माम ऐ. मा. ३२.१). .. तस्य बानि कमामि मष्टर घो घोर मचात्मा य कषमार के प्राण (ऐ.पा.२.२.४) . सपदि विचिकत्सेत्सवकारंजाबीपकरारपति''''सपकारवायचषकारारमि (ये.पा.३.२.६). १. पूर्वमेवारपूर्वकपमुरमुत्तररूपं योऽवकारः पूर्वको तरारे अमारे वेन मग्धि बियल येन सरासर विजामान 'माचामा बिभबने..संधिविज्ञपरी सास (पे.पा. ३.१.५), सेभ्योऽभिसयसरी बजायनाकार उकारी मकार इमिनाभेकथा समभर न ददो मिनि (ऐ. प्रा.५.३२). ऐसा ही कौशीतकी ब्राह्मण (२६.५) और आश्वलायम श्रीतसूत्र (१०.४) में भी लिखा मिलता है. २१. यो मेकरोन परमं वाहालि (शतपथ ब्रा. १३.५.१.१८). १२. शारिक्षिता का सपत्रीयने नामन्यः स्पीनामन्यो अपं सक नामन्य में पाकिस्तानि च समानि पुरुषारानि नामानि चौमामालिनपुंजकबामानि (शतपथ ब्रा. १०.५.१.२). बाकस म परस्त्री पुमानमर्पसक (शतपथ बा. १०.५.१.३). १. बापराधपवासानदत ने. रेवा दमकन् 'रमा मो याकुरु रति सोऽमोहर ले मना चेक बाब भरमाता रति तस्मारडगावः सा गमते. कामिन्द्रो मचत इपक्रम्य याबरोनमारिय वाहता रामायके. सरकारसलदिन्द्राय मदतो ..... (तैत्ति . सं.६.५.७). Aho! Shrutgyanam Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. उसके चौथे मंश अर्थात् मनुष्यों की ही वाणी का निर्वचन (व्याकरण) किया क्योंकि उसकी ग्रह में से चतुर्थाश ही मिला था. उपर्युक्त प्रमाणों से पाया जाता है कि उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण और तैसिरीय संहिता के समयतक व्याकरण के होने का पता चलता है. यदि उस समय लिखने का प्रचार न होता तो श्याकरण और उसके पारिभाषिक शब्दों की चर्चा भी न होती, क्योंकि जो जातियां लिखना नहीं जानती वे छंदोबद्ध गीत और भजन अवश्य गाती हैं, कथाएं कहती हैं परंतु उनको स्वर, व्यंजन, घोष, संधि, एकराचन, बहुवचन, लिंग मादि व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान सर्वथा नहीं होता. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हिंदुस्तान में ही भली भांति मिल सकता है,जहां ३१३४१५३८६ मनुष्यों की भाषादी में से केवल १८५३६५७८ मनुष्य लिम्वना पढ़ना जानते हैं बाकी के २६४८७५८११ अभी तक लिखना पहना नहीं जानते २. उनमें किसीको भी व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों का कुछ भी ज्ञान नहीं है. व्याकरण की रचना लेखन कला की उन्नत दशा में ही होती है और उसके लिये भाषा का सारा साहित्य टटोल पड़ता है और उसके प्रथम रचयिता को उसके पारिभाषिक शब्द गढ़ने पड़ते हैं. भारतवर्ष की न असभ्य और प्राथमिक जातियों के यहां लिखित साहित्य नहीं है उनकी भाषात्री के व्याकरण बिना जानने वाले यूरोपिअन् विद्वानों ने अभी अभी पनाये हैं. ह, र ६ में गायत्री, उष्णिन, अनुष्टुभ, बृहती, विराज, त्रिष्टुभ् और अगती छंदों के नाम मिलते हैं. जसनेयि संहिता में इनके अतिरिक्त 'पंक्ति' छंद का भी नाम मिलता है मौर हिपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा, षट्पदा, ककुभ् श्रादि छंदों के भेद भी लिखे हैं'. अथर्ववेद में भिन्न भिन्न स्थानों में वृक्ष नामों के अतिरिक्त एक स्थान पर छंदों की संख्या ११ लिखी है. शतपथ ब्राह्मण में मुख्य छंदों की संख्या ८ दी है और तैत्तिरीय संहिता', मैत्रायणी संहिता, काठक संहितार तथा शतपथ ब्रामण में कई छंदों और उनके पादों के अक्षरों की संख्या तक गिनाई है. लिखना न जाननेवाली जानियां छंदोबद्ध गीन और भजन गाती हैं, और हमारे यहां की स्त्रियां, जिनमें केवल १५ पीछे एक लिखना जानती है" और जिनकी स्मरणशक्ति बहुधा पुरुषों की अपेक्षा प्रबल होती हैं, विवाह आदि सांसारिक उत्सवों के प्रसंग प्रसंग के, एवं चौमासा, होली भादि त्यौहारों के गीत और यहतेरे भजन, जिनमें विशेष कर ईश्वरोपासना, देवी देवताओं की स्तुति या बेदांत के उपदेश हैं, गाती हैं, यदि उनका संग्रह किया जाये तो संभव है कि वेदों की संहितामों से भी उनका प्रमाण बढ़ जाये, परंतु उनको उनके छंदों के नामों का लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होता. छंदःशास्त्र का प्रथम रचयिना ही छंदोबद्ध साहित्यसमुद्र को मथ कर प्रत्येक छंद के अक्षर या मात्रामों की संख्या के अनुसार उनके वर्ग नियत कर उनके नाम अपनी तरफ से स्थिर करता है, तभी लोगों में उनकी प्रवृत्ति होनी है. लिखना न जानने वाली जातियों में छंदों का नामज्ञान नहीं होता. वैदिक . शतपथ ग्रा. ४.१.३.१२, १५-- १६. २. इ.स. १६११ की हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट जिल्ब १, भाग २, पृ.७०.७२. ३. ऋग्वे. सं. ११०.१४.१६, १०.१३२.३.४). १. बजु. वाज. सं. (१.८ १४. १६; २३.३३, २८.२४ आदि! ५. प्रथ. सं. (८.६.१६). २. बिराउसमामि सदाहि (श.बा.०३.३.६). .. सर थमं पर सागरात वीfu... बदामरा जम गायनरी पदकामाचरा न पिरसरकारमा पर तेग जगमी सम्पदा करो (ते.सं.६.१.१.६-७). ८. मा..."चतुर्था सम्पा अशा चराणि भरनी चतुर्क मस्या मज मनातरादि इत्यादि (म.सं.१.११.१०) . भापी...."चतुर्थी हिमस्या पर पडसर गिर... जिसस्पारसन मनाचराचि । इत्यादि (का.सं.१०.४.) 1. वारणारा अगनी।।। .. "पदिराकानी.... |... दमारा विरार (श.प्रा. E.३.३.) स्वादि को जगह १५. हिन्दुस्तान की ई.स. १९११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट, जिल्द १. भाग २, पृष्ट ७०-७१. Aho ! Shrutgyanam Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता. तथा शौकिक संस्कृत का छन्दःशास बड़ा ही जटिल है, एक एक छंद के अनेक भेद हैं और उन भेदों के अनुसार उनके नाम भिन्न भिन्न हैं. ब्राह्मण और वेदों में मिलने वाले छंदों के नाम आदि उस समय में लेखनकला की उन्नत दशा के मुचक हैं. पक. ऋग्वेद में ऋषि नाभानेदिष्ठ हज़ार अष्टकणी गौएं दान करने के कारण राजा सावर्णि की स्तुति करना है. यहां पर 'अष्टकर्णी' शब्द का अर्थ यही है कि जिसके कान पर पाठ के अंक का चिन्ह हो. वैदिक काल में जुआ खेलने का प्रचार यहुन था. एक प्रकार के खेल में चार पासे होते थे जिनके नाम कला. वेता, द्वापर और कलि' थे और जिनपर क्रमशः ४,१,२,१ के अंक याचिकलिने या खुदे होते थे. चार के चिहवाला पासा या कृत जिताने वाला पासा था. ऋग्वेद में एक पूरा मूल मुभारी (कितव) के विलाप का है जिसमें वह कहता है कि एकपर पासे के कारण मैंने अपनी पतिव्रता स्त्री खो दी. यहां एकपर का अर्थ यही है कि जिसपर एक का चिह्न बना हुआ हो (अर्थात् हराने वाला पासा ). १. भरम में दरतंच एक ए: ( ऋग्वेन सं.१०. ६२७). २. देखो ऊपर पृ.८, शिप्पण १. ३. कलिः गया भरभि सजिहाना वापरः । उतिरता भर्मात कन मंचशी परन् । चरे। (ऐतरेय मा. ७. १५). (कलि नामक पासा] सो गया है. द्वापर स्थान छोड़ चुका है, ता अभी रूका है, क्त चल रहा है तिरी सफलता की संभाषना है। परिश्रम करता जा). नातानिन पनि माग न हनं वापरं न च तो मिभिसामास्मिस्तान घिमि माणिकम् । (महाभारत, बिराटपर्ष, कुंभकोण संस्करण, ५०. ३७): (इस पर टीका ...चकारान चेनापि समुहीयते, कमारी रान मारप्रमिकाः पाएका:) 'हमयामांरेतायाभा द्वापरोयानां शकलोयानां चभिभूरयामा (तसि.सं.५.३.३). 'रामाय कि हाifeनगद साथै कल्पिन वापरायाधिकल्पिनमा कटाय ममास्था ( यजु. वाज. सं. ३०.१८). शतपथ ब्राह्मण (५.५.४.६) से जामा जाता है कि कलि का ही नाम अभिमू था (रुष वा अधानमिभूतिरेप रिमनियामभिभति औरतैत्तिरीय प्राह्मण ३.४.१.१५ को यजु, वाज. सं. ३०.१८ से मिलाने से स्पष्ट है कि कलि-अमिभू-अक्षराज. ये यसद के प्रन्यों में दिए हुए माम पक दूसरे पांच पासे पाले खेल के सूचक हैं जिसमें कलि पर ५ का अंक होता था और वह सब को जीतता (अमिभू) था. 'पच से पक कतिः सः (तैत्ति ना .५.११ १. थ और पोथलिजका संस्कृत कोश (बाबुरा). ५. सन बनमामो रिजिनाति (आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, ५.२०.१); त में दक्षिणं पस्ने गयो में सब चामिः (अव.सं.७.५० (५२)) सतु पिता को कम कम मम (अथ.सं.७.५० (५२), २) विपदमागादिभीमाश मिधातो. (ऋग्वे. सं. १. ४१.ह.). माता शिशिनाथाचरेषा संयन्त्रमेनं सई तर भिमति परिक.च बजाः साधु कति (छान्दोग्य उपनि., ५.१. ४. ६.) इसका शंकराचार्य का भाग्य-जमो नाम पयो पूनसमये प्रविशतुरः स पदा कम छने परसानां नर्म रिजिनाय सदमिनरे रिकामा परशः सामापरहिमामामः संपत्ति में पनवनि,' इस पर मानवगिरि की टीका से जान पड़ता कि एक ही पामे के चारों ओर ५,३,२,१ अंक बने होते थे. वैदिक काल में एक ही पासे के चारों ओर अंक होते थे, या एक एक अंक पाला पासा अलग होता था यह गौण विषय है. वैदिक समय के पासे घिभीदक (बहेडा) के फल के होते थे (ब. सं.७.८६.६.१०.३४.१). उनके चौरस न होने तथा पासों के लिये यहुपचन आदि का प्रयोग (चपरेषा ऊपर देखो) यही दिखाता है कि पासे का एक पार्श्व ही अंक से चित्रित होता होगा. राजसूय यज्ञ में यजमान के हाथ में पांच पासे 'भिभरभितू जीसने वाला है) इस मय (यजु. वाज. सं.१०.२८) से दिए जाते थे. फिर वहीं वनभूमि में जुड़ा खिलाया जाता था. या तो वेही पांच पास इलाये जाते थे (शतपथ प्रामए, ५. ४.४.२३) या कृतादिचार पासे का) एत' कराया जाता था जिसमें राजा के बाद से कृत और सजात (उसी गोत्र के जमादार ) से कलि का पासा डलवाते, जिससे सजात की हार हो जाती (क्योंकि सजातों पर ही राजा की प्रधानता दिखामा उद्देश्य था) और उसकी गौ, जो जुए में लगाई थी, जीत ली जाती. (युमभूमी हिर निधामा भिजोति...साचिय ति..... दीवमित्यारा कतादिना निदध्याबाजभनि भ्यः, समानाय कतिम् गाममा धमिकात्यायन श्रौतसूत्र, १५ १५-२०). त' शब्द बार के अर्थ में भी इसी से आने लगा, जैसे शतपथ ब्राह्मण में चतुझी मेम कसे नायना' (१३.३.२.१) तैतिरीय प्राण में 'येरेवार सोमाः कत मन' (१.१५.११.१). अणे. सं. १०.३४. सापकपरकशोरकतामय कामाभरोभम् (मुग्वे. सं.१०.३४.२). - एक-पर,हा-पर-सा के अर्थ स्पष्ट है. पाणिनिके एक खुध परसाकारणा. परिषा २.१.१०) से जाना जाता किम-परि, काका-परि, और संख्यावारक राम्दों के साथ 'परि' के समास से बने एप (एकपरि, विपरि, मादि। Aho! Shrutgyanam Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलम प्राचीनलिपिमाला. अधर्ववेद में जुए में जीत की प्रार्थना करने का एक मूक्त' है जिसमें लिखा है कि मैंने तुम से संलिखित (अर्थात् जुए के हिसाब में तेरी जीत का लिखा हाधन) और संम्धु (जुए में धरा हुआ धन) जीत लिया. इससे पाया जाता है कि पशुओं के कानों की तरह पासों पर भी अंक रहते थे और मुए में जीते धन का हिसाब लिखा जाता था. यजुर्वेद संहिता (वाजसनेथि) के पुरुषमेध प्रकरण में जहां भिन्न भिन्न पेशे वाले बह गिनाये है वहां 'गणक' भी लिखा है, जिसका अर्थ गणिन करने वाला (गा धातु से) अर्थात् ज्योतिषी होता है. उसी संहिता में एक. दश (१०), शत (१००), सहस्र (१०००), अयुन (१००००), नियुत (१०००००), प्रयुत (१००००००), अर्बुद (१०००००००), न्यद (१००००००००), समुद्र (१०००००००००), मध्य (१००००००००००), अन्त (१०००००००००००) और परार्ष (१००००००००००००) तक की संख्या दी है। और ठीक यही संख्या तैतिरीय संहिता में भी मिलनी है। सामवेद के पंचविंश ब्रामण में यज्ञ की दक्षिणाओं का विधान हैं, जिसमें सबसे छोटी दक्षिणा १२ [कृष्णल] भर सोना है और आगे की दक्षिणाएं छिगुणित क्रम से बढ़ती हुई २४, ४८, ६३, १६२, ३८४,७२८, १५३०, ३०७२, ३१४४, १२२८८, २४५७७, ४६१५२, १८३०४, १९६६०८ और ३६३२१६ भर तक की बनलाई हैं. इसमें श्रेदीगणित का बड़ा अच्छा उदाहरण है और इस प्रकार का लाम्चों का गणित लिखने और गणित के ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता. शमपथ ब्राह्मण के अग्निचयन प्रकरण में हिसाब लगाया है कि ऋग्वेद के अक्षरों से १२००० बृहती (३६ अक्षर का) छंद प्रजापति ने बनाये अर्थात् ऋग्वेद के कुल अक्षर (१२०००४ ३६=) ४३२००० हुए. इसी तरह यजु के ८००० और माम के ४००० बृहनी छंद बनने से उन दोनों के भी ४३२००० अक्षर हुए. इन्हीं अक्षरों से पंक्ति छंद (जिसमें आठ आठ अक्षरों के पांच पद अर्थात् ४० अक्षर होते हैं) बनाने से ऋग्वेद के (४३२००० ४०=) १०००० पंक्ति छंद हभ और उनने ही यजु और साम के मिल कर हुए. एक वर्ष के ३६० दिन और एक दिन के ३० मुहूर्त होने से वर्ष भर के मुहर्त भी १०८०० होते हैं अर्थात् तीनों वेदों से उसने पंक्ति छंद दुबारा बनते हैं जितने कि वर्ष के मुहूर्त होते हैं. उसी प्रामण में समपविभाग के विषय में लिखा है कि रामदिन के ३० मुहूर्त, एक मुहूर्त के १५ तिम, एक क्षिप्र के १५ एतहि, एक एतर्हि के १५ इदानीं और एक इदानीं के १५ प्राण होते हैं प्रथोत् गतटिन के (३०४१५४१५४१५४१५८) १५१८७५० प्राण होते हैं. इस गणना के अनुसार एक प्राण एक सेकंड के के लगभग आता है. शब्द काम में आते थे. इस सूत्र के व्याख्यान में कान्यायन और पतंजलि ने लिखा है कि जुधारियों के (सांकेतिक) रववहार में ये प्रयोग काम में आते थे और इनका भाव यह है कि पहले का सा जुना नहीं हुआ (अर्थात् खेल में हार गये). अक्षौर शलाका शब्दों से 'परि' का समास एकवचन में ही होता है. इससे सिद्ध है कि द्वि-परि का अर्थ 'दो पासो से पहले का सा खेल नहीं हुमा' यह नहीं है किंतु 'दो के अङ्क से पहले का सा खेल न हुना' (अर्थात् हार हुई) यही है. ऐसे एकपरि ( या पक-पर), द्विपरि (या द्वापरि, या द्वापर) या त्रिपरि शन्द ही हारने के सूचक है क्योंकि बार (रुत) में तो जीत ही होता थी. काशिका ने 'पंचिका' नामक पांच पासों के खेल का उल्लेख करके लिखा कि उसमें अधिक से अधिक (परमेश) चतुपरि शब्दास अर्थ में ] बन सकता है, क्योंकि पांच में तो अय ही होता है. १. अथर्व, सं., ७.५० (५२). . बर्गमा सिधिसभमत भगषम (अथर्ष. सं. ७.५० (५२)..). .. पामय गायकमभिकारक मासे (यजु. षाज. सं.३०, २०), यजु, वाज. सं १७.२. ५. है. सं. ४. ४०. ११.४, ७.१२०.१. यही संख्या कुछ फेर फार के साथ मैत्रायो (२८.१४) और काठक (३६.६) संहिता में मिलती है. .. पंचर्षिय प्रा. १८.३. .. शतपथ ग्रा: १०४.२.२२-२५. ८, एनपथ प्रा. १२.३.२.१. Aho! Shrutgyanam Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखन के प्रचार की प्राचीनता. लिखना न जानने वालों को न तो परार्ध तक की संख्या का ज्ञान होता है और न उनको 'प्रयुत,'युन' आदि बड़ी संख्याओं के सूचक शब्दों के गढ़ने या जानने की आवश्यकता होती है. ऐसी संख्या का जानना लिग्बना जानने के पीछे भी केवल उस दशा में होता है जब गणिनविद्या अच्छी अवस्था को पहुंच जाती है. ग्रीक लोग जब लिखना नहीं जानते थे उस समय उनको अधिक से अधिक १०००० नक का ज्ञान था और रोमन् लोग ऐसी दशा में केवल १००० तक ही जानते थे. इस समय भी हमारे यहां के जो मनुष्य लिखना नहीं जानते वे पहुधा १०० तक भी अच्छी सरह नहीं गिन सकते; यदि उनसे पचासी कहा जावे मो वे कुछ न समझेंगे और यही प्रश्न करेंगे कि पचासी कितने होते हैं? जब उनको यह कहा जायगा कि 'चार यीसी और पांच' तभी उनको उक्त संख्या का ठीक ज्ञान होगा. वे२० तक की गिनती जानते हैं जिसको 'बीसी' कहते हैं। फिर एक बीसी और सात (२७), चार वीसी और पांच (८५), इस तरह गिनने हैं. यदि हम यह चेष्टा करें कि लिखना न जानने वाले दो पुरुषों को पिठला कर एक से कहें कि 'तुम कोई एक लंबा गीन गानो' और दूसरे से कहें कि 'यह जो गीत गाता है उसके तुम अक्षर गिन कर बनलायो कि वे कितने हुए और फिर छत्तीस छत्तीस अक्षरों से एक छंद बनाया जाये तो उन अक्षरों से ऐसे कितने छंद होंगे?' यदि वह गीत एक या दो पृष्ठों में लिखा जावे इतना छोटा भी हो तो भी वह न तो अक्षरों की और न छंदों की संख्या ठीक ठीक बतला सकेगा, नो ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जैसे पुस्तकों के, जो १००० पृष्ठ में भी लिख कर पूरे नहीं होते और जिनके सुनने में कई दिन लग सकते हैं, अक्षरों की तथा उनसे बन सकने वाले छंदों की गिनती बिना लिखित पुस्तक की तथा गणित की सहायता के करना मनुष्य की शक्ति के बाहर है. अत एव यह मानना पड़ेगा कि जिसने तीनों वेदों के अक्षरों की संख्या और उनसे बनने वाले बृहनी और पंक्ति छंदों की संख्या बतलाई है उसके पास उक्त तीनों वेदों के लिखित पुस्तक अवश्य होंगे, वह छंदःशास्त्र से परिचित होगा और कम से कम भाग तक का गणित भी जानता होगा. ऐसे ही ऊपर लिखे हुए यज्ञ की दक्षिणा तथा समयविभाग आदि के विषयों से अंकविद्या की उन्नत दशा का होना मानना ही पड़ता है. का के प. लिम्वना न जानने की दशा में भी छंदोबद्ध मंत्र, गीत, भजन आदि बन सकते हैं और बहुत समय तक वे कंठस्थ भी रह सकते हैं परंतु उस दशा में बड़े बड़े गयग्रन्धों का बनना और सैंकड़ों बरसों तक उनका अक्षरशः कंठ रहना किसी तरह संभव नहीं. वेदों की संहिताओं में कितना एक अंश और ब्राह्मणों का बहुत बड़ा माग गद्य ही है और वे वेदों के टीकारूप हैं. लिग्बना न जानने और वेदों के लिखित पुस्तक पास न होने की दशा में ब्राह्मण ग्रंथों आदि की रचना की कल्पना भी असंभव है. ऊपर हम बनला चुके हैं कि ई.स. पूर्व छठी शताब्दी के पास पास पाठशालाएं विद्यमान थीं. पाणिनि और यास्क के समय अनेक विषयों के ग्रंथ विद्यमान थे. उनसे पूर्व ब्राह्मण और वेदों के समय में भी व्याकरण की चर्चा थी, छंदःशास्त्र बन चुके थे, अकविया की अच्छी दशा थी, वेदों के अनुव्याख्यान भी थे, गणक (गणित करने वाले) होते थे, जानवरों के कानों और जुए के पामों पर अंक भी लिखे जाते थे, जुए में हारे या जीन हुए धन का हिसाब रहता था और समय के एक सेकंड के १७ के हिस्से तक के सूक्ष्म विभाग बने हुए थे; ये सब लिम्बने के स्पष्ट उदाहरण हैं. प्राचीन हिंदुओं के समाज में वेद और यज्ञ ये दो वस्तु मुख्य थीं, और सब मांसारिक विषय वहीं तक सम्हाले जाते थे जहां तक वे इनके सहायक होने थे. यज्ञ में वेद के पुसक मंत्रों के शुद्ध प्रयोग की बड़ी आवश्यकता थी. इस लिये उनका शुद्ध उच्चारण गुरु के मुग्ध से ही पढ़ा जाता था कि पाठ में स्वर और वर्ण की अशुद्धि. जो यजमान के नाश के लिये Ahol Shrutgyanam Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्राचीनलिपिमाला वज्र की तरह समर्थ मानी जाती धी', पिलकुल न होने पाये. इसी लिये बैदिक लोग न केवल मंत्रों को, परंतु उनके पदपाठ को, और दो दो पद मिला कर क्रमपाठ को, और इसी तरह पदों के उलट फेर से घन, जटा आदि के पाठ को स्वरसहिन कंठस्थ करते थे. गुरु मंत्र का एक एक अंश शिष्यों को सुनाना और वे उसे ज्यों का त्यों रट कर कंठस्थ करते, फिर पूरा मंत्र सुन कर उसे याद कर लेते. ऋग्वेद के समय में वेदों के पढ़ने की यही रीति थी और अबतक मी कुछ कुछ चली आती है, परंतु यह पठनशैली केवल वेदों के लिये ही थी, अन्यशास्त्रों के लिये नहीं. वेदों के पठन की यही रीति, जिससे स्वरों का शुद्ध ज्ञान होता था, बनी रहे और श्रोत्रिय ब्राह्मणों का भादर घट न जाय, इसी लिये लिखित पुस्तक पर से वेदों का पढ़ना निषिद्ध माना गया है, परंतु लिग्वितपाठक को अधमपाठक' कहना ही सिद्ध करता है कि पहिले भी वेद के लिखित पुस्तक होते थे और उनपर से पड़ना सरल समझ कर लोग उधर प्रवृत्त होने थे.इसी लिये निषेध करना पड़ा कि प्राचीन रीति उच्छिन्न न हो और स्वर मादि की मर्यादा नष्ट न हो. इस लिये वेद के पुस्तक लिम्बने का पेशा करना और पुस्तकों को बेचना पाप माना गया है। वेद के पुस्तक विस्मृति में सहायता के लिये अवश्य रहते थे और व्याख्यान, टीका, व्याकरण, निमत, प्रातिशाख्य प्रादि में सुभीते के लिये उनका उपयोग होता था. वेद के पठनपाठन में लिखित पुस्तक का अनादर एक प्राचीन रीति हो गई और उसीकी देखादेखी और शास्त्र भी जहां तक हो सके कंठस्थ किये जाने लगे, और अबतक जो विधा मुखस्य हो वही विद्या मानी जाती है'. कोई श्रोत्रिय पुस्तक हाथ में लेकर मंत्र नहीं पड़ता था, होता स्तोत्र जवानी सुनाता और उदाता समय समय पर साम भी मुग्न से सुनाता. भवतक भी मच्छे कर्मकांडी सारी विधि और सारे मंत्र मुख से पढ़ते हैं, ज्योतिषी या वैद्य या धर्मशास्त्री फल कहने, निदान करने और व्यवस्था देने में श्लोक सुनाना ही पांडित्य का लक्षण समझते हैं, यहां तक कि वैयाकरण भी वही सराहा जाता है जो विना पुस्तक देखे महाभाष्य पड़ा दे. वेदमंत्रों के शुद्ध उचारण की और यज्ञादि कमरों में जहां जो प्रसंग पड़े वहां तस्दण उस विषय के मंत्रों को पढ़ने की मावश्यकता तथा वेदसंबंधी प्राचीन रीति का अनुकरण करने की रुधि, इन तीन कारणों से हिंदों की परिपाटी शताब्दिों से यही हो गई कि मस्तिष्क और स्मृति ही पुस्तकालय का काम दे. इसी लिये मूत्रग्रंथों की संक्षेपशैली से १. रामदासरतो वो बामिया पथको मतमय भासम बारव हो सजनामिति पर्वमश: खरतो घराभात ॥ पतंजलिका महाभाष्य, प्रथम प्राधिक) १. ऋग्वेद, ७.१०३. ५. 'एक मैदक दूसरे की बोली के पीछे या बोलता है जैसे गुरु के पीचे सीखने वाला' (परेमियो बन्यसागर वदति निक्षमाः). पशान्तावासादास्पोखरिपूर्वका । पररे कामिना दापि न म मनम । (कुमारिल का तंत्रवार्तिक, १.३.) गीतोषोशिकम्पो तथा सिसिपाडकः । पनचंचोलंपकपकपडे घाटकाधमाः । (यायल्क्य शिक्षा). .. दकिपिपरीषदेदानां च का दाना सेवकाय ते निरगामिन (महाभारत, अनुशासनपर्व, ६३. २८). महाभारत में जिस प्रसंग में यह श्लोक है वह दानपात्र ब्राह्मणों के विषय में है. यहां पर 'घेदानां दूषकाः' का अर्थ 'बेड़ों में क्षेपकमादि मिलाने वाले'ही है, क्योकि इस श्लोक से कुछ ही ऊपर इमस मिलता हुआ 'ममचाभी का है जिस का अर्थ 'प्रतिक्षापत्र या इकरारनामों में घटा बढ़ा कर जाल करने वाले है. • पुजारमा पापिया परहसमतं चमन । कार्यकाक्षेतु संपान मारियान सहनम् । (चाणक्यनीति). • जो लोग मौतसूत्र, समयाचार(धर्म)सूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्पसूत्र और व्याकरण मादि शानों के सूत्रों की संक्षिप्त महाली को देख कर यह मटकल लगाते हैं कि लेखनसामग्री की कमी से ये इतने संक्षिप्त और हिमाये गये और पिछले बचाकरणो मेमाची मात्रा की किफायतको पुनोस्सबके समान हर्षदायक माना भूल करते हैं. यदि लेखमसामग्री की कमी से ऐसा करते तो प्रामण ग्रंथ इतमे विस्तार से पा लिखे जाते? यह शैली केवल इसी लिये काम में लाई गई कि Aho! Shrutgyanam Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनत रचना हुई और इसी लिये ज्योतिष, वैद्यक आदि के ग्रंथ भी बहुधा रलोकबद्ध लिम्बे जाने लग, और दो और, कोश के सदृश ग्रंथ भी रलोकबद्ध लिग्वे गये कि कंटस्थ किये जा सके और अंकगणित नथा बीजगणित के नियम और उदाहरण भी श्लोकों में लिखे गये. लोकबद्ध कोशों को देख कर यदि कोई यह अटकल लगावे कि इनकी रचना के समय हेग्यप्रणाली न थी अथवा लेखनसामग्री की कमी थी, या लीलावनी के श्लोकबद्ध नियमों और उदाहरणों से यह कहा जाय कि हिसाब जपानी ही होते थे तो यह कहना वैसा ही है जैसा कि यह कहना कि व्याकरण के सूत्र. कल्पसूत्र, ब्राह्मण नया वेदों तक की रचना जबानी ही हई. रचनाकाल में सब ग्रंथ विचारपूर्वक लिखकर ही बनाये गये, केवल अध्ययनप्रणाली में कंठस्थ करना ही मुख्य समझा जाता था. हिंद लोग प्राचीन रीतियों का धर्म की तरह भाग्रहपूर्वक पालन करते हैं और उनमें भरसक परिवर्तन नहीं करने. कपड़े से बने हुए कागज़ का बहुन प्रचार होने पर भी मंत्र, यंत्र आदि को भोजपत्र पर लिखना ही अब तक पवित्र माना जाता है. सस्ती और सुंदर छापे की पुस्तके प्रधलित हुए एक शताब्दी बीतने आई तो भी पूजापाठ में हस्तलिखित पुस्तकों का ही बहुधा प्रचार है और जो कर्मकांडी छपी हुई पद्धनि लेकर विवाह आदि कराने जाना है उसका बहधा मनावर होता है. जैसे आजकल कर्मकांडी या पौराणिक छुपी पुस्तकों पर से पढ़ते हैं परंतु कर्म या पारायण के समय बहुधा हस्तलिम्वित पुस्तक ही काम में लाते हैं वैसे ही प्राचीन काल में विचार, स्वाध्याय और व्याख्यान के लिये लिखित पुस्तक काम में आते थे, परंतु पदाना, मंत्रपाठ और शास्त्रार्थ मुल्य विद्या की पुरानी रीति से होता था. बलर लिखना है' कि 'इस अनुमान को रोकने के लिये कोई कारण नहीं है कि वैदिक समय में भी लिखित पुस्तके मौग्विक शिक्षा और दूसरे अवसरों पर सहायता के लिये काम में ली जाती थीं बोलिंग कहता है कि 'मेरे मन में साहित्य के प्रचार में लिम्वने का उपयोग नहीं होता था परंतु नये ग्रंधों के बनाने में इसको काम में लेने थे. ग्रंथकार अपना ग्रंथ लिन्न कर बनाता परतु फिर उसे या तो स्वयं कंठस्थ कर लेता या औरों को कंठस्थ करा देना. कदाचित् प्राचीन समय में एक बार लिग्वे ग्रंथ की प्रति नहीं उतारी जाती थी परंतु मूल लिग्विन प्रति ग्रंथकार के वंश में उसकी पवित्र यादगार की मरह रवी जामी और गुप्त रहनी थी. यह भी संभव है कि ग्रंथकार अपने ग्रंथ को कंठस्थ करके उसकी पनि को स्वयं नष्ट कर देना जिससे दसरे उसका अनुकरण न करें और अपने आप को ब्राह्मण जाति के विरुद्ध काम करने का दोषी न बनना रॉप लिखता है कि 'लिखने का प्रचार भारतवर्ष में प्राचीन समय से ही होना चाहिये क्योंकि यदि वेदों के लिखित पुस्तक विद्यमान न होने तो कोई पुरुष प्रानिशाख्य बना न सकता.' प्राचीन काल में हिंदुस्तान के समान लेग्वनसामग्री की प्रधुरना कहीं भी न थी. ताड़पत्र समय पर पुस्तक देखना न पड़े और प्रसंग का विषय याद से सुनाया जा सके. इस तरह शास्त्र का प्राशय कंठस्थ रखने के लिये ही कितने एक विस्तृत गद्य प्रन्धों में भी मुख्य मुख्य बातें एक या दो कारिकाओं (संग्रहश्लोको) में उपसंहार की तरह लिली जाती थी, जैसे पतंजलि के महाभाग्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कई जगह १. गोलस्टकर की 'मानवकल्पसूत्र' के संस्करण की अंग्रेज़ी भूमिका (अलाहाबाद की छपी). पृ. ६६. इस विस्तृत भूमिका का मुख्य उद्देश मेषसमूलर के इस कथन का खंडन ही है कि वैदिक काल में लेखनप्रणाली न थी.' Amol Shrutgyanam Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. और भोजपत्र प्रकृति ने यहां बहुत प्रचुरता से उत्पन्न किये हैं. मिसर के पपायरस की तरह उन्हें खेती करके प्राप्त करने की यहां आवश्यकता न थी. भारतवासी रुई से कागज बनाना भी ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी से पहिले जान गये थे. पुराणों में पुस्तक लिखवा कर दान करने का बड़ा पुण्य माना गया है. चीनी यात्री घुम्त्संग यहां से चीन को लौटते समय बीस घोड़ों पर पुस्तकें लाद कर अपने साथ ले गया जिनमें ६५७ भिन्न भिन्न पुस्तक' थे. मध्यभारत का श्रमण पुण्योपाय ई.स. ६५५ में १५०० से अधिक पुस्तक लेकर चीन को गया था, ये बौद्ध भिक्षु कोई यूरोप या अमेरिका के धनाक्ष्य तो थे नहीं कि यहां तोड़े खोल कर पुस्तक मोल लें. उन्हें जितने पुस्तक मिले वे गृहस्थों, भिक्षुओं, मठों या राजाओं से दान में मिले होंगे. जब दान ही दान में इतने ग्रंथ उनको मिल गये तो सहज ही में अनुमान हो सकता है कि लिखित पुस्तकों की यहां कितनी प्रचुरता थी. १. 'पायरस' बरू (सरकंडा) की जाति के एक पौधे का नाम है, जिसकी खेती मिसर में नाइल नदी के मुहानों के बीच के दलदल वाले प्रदेश में बहुत प्राचीन काल से होती थी. यह पौधा. चार हाथ ऊंचा और इसका डंठल तिधारा या त्रिकोण प्राकृति का होता था, जिसमें से 4 इंच से रंच तक की लंबाई के टुकड़े काटे जाते थे. उनकी छाल (न कि गूदे से, देखो पं.सा.नि. जिल्द ३३, पृ. ८११) से बहुत कम चौड़ाई की चिंधियां निकखती थी. उनको लेई आदि से एक दूसरी से चिपका कर पत्रा बनाया जाता था. ये पत्रे पहिले दबाये जाते थे फिर उनको सुखाते थे. जब वे बिलकुल सूख जाते तब हाथीदांत या शंख से घोट कर उनको चिकना और समान बनाते थे, तभी वे लिखने योग्य होते थे. इस प्रकार तय्यार किये हुए पत्रों को यूरोपवाले यायरस्' कहते हैं. उन्हीं पर पुस्तकें. चिट्टियां तथा आवश्यकीय तहरीर आदि लिखी जाती थी, क्योंकि उस समय कागज़ का काम ये ही देते थे. इस प्रकार तय्यार किये हुए कई पत्रों को एक दूसरे के साथ चिपका कर उनके लंबे लंबे खरड़े भी बनाये जाते थे, जो मिसर की प्राचीन कारों में से मिल पाते हैं. वे या तो लकड़ी की संदूकों में यलपूर्वक रक्खी हुई लाशों के हाथों में रक्खे हुए या उनके शरीर पर लपेटे हुए मिलते हैं. मिसर मै ई.स. पूर्व २००० के पास पास तक के ऐसे खरहे (पायरस) मिले हैं, क्योंकि यहां वर्षा का प्रायः प्रभाव होने से ऐसी वस्तु अधिक काल तक नष्ट नहीं होती. लिखने की कुदरती सामग्री सुलभ न होने से ही बड़े परिश्रम से उक्त पौधे की छाल की चिधियों को सिपका चिपका कर पत्रे बनाते ये तिस पर भी उसकी खेती राज्य के हाथ में रहती थी. यूरोप में भी प्राचीन काल में सेलमसामग्री का अभाव होने से चमड़े को साफ कर उसपर भी लिखते थे. ई. स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी में ग्रीक लोगों ने मिसर से बने बनाये 'पॅपायरस' अपने यहां मंगवाना शुरू किया. फिर यूरोप में उनका व्यवहार होने लगा और भरतों के राजत्यकाल में इटली आदि में वह पौधा भी बोया जाने लगा. जिससे यूरोप में भी 'पंपायरस' तय्यार होने लगे. ई.स. ७०४ में अरयों ने समरकंद नगर विजय किया जहां पर उन्होंने पहिले पहिल कई और चीथड़ों से कागज़ बनाना सीखा, फिर दमास्कस ( दमिश्क ) में भी कागज़ बनने लगे. ई.स. को नवीं शताब्दी में अरबी पुस्तके प्रथम ही प्रथम कागजों पर लिखी गई और १२ वीं शताब्दी के आस पास अरबों द्वारा कागज़ों का प्रवेश यूरोप में हुआ. फिर पायरस' का बनना बंद होकर यूरोप में १३ वीं शताब्दी से कागज़ ही लिखने की मुख्य सामग्री हुई. २. देखो ऊपर पृ. ३, और टिप्पण ७. . स्मिः अ. हिपृ. ३५२ (मृतीय संस्करण). - बु.नं: क. बु, थि: पृ.४३७. Aho! Shrutgyanam Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-ब्राह्मी लिपि को उत्पत्ति. मौर्यवंशी राजा अशोक के लेखों तथा ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी से लगाकर ई.म. की तीसरी शताब्दी के आसपास नक के कितने एक सिकों आदि से पाया जाता है कि उस समय इस देश में दो लिपियां प्रचलित धीः एक नो नागरी की नाई बाई तरफ से दाहिनी ओर लिस्त्री आने वाली सार्वदैशिक, और दूसरी फारसी की तरह दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाने वाली एकदैशिक. इन लिपियों के प्राचीन नाम क्या थे इस विषय में ब्राह्मणों के पुस्तकों में तो कुछ भी लिम्वा नहीं मिलता. जैनों के 'पनवणामूत्र' और 'समवायांगसूत्र' में १८ लिपियों के नाम मिलते हैं, जिनमें सब से पहिला नाम 'भी' (ब्राह्मी) है, और भगवनीमूत्र में 'यंभी' (ब्राधी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीग लिथिए) मूत्र का प्रारंभ किया गया है. बौद्धों के संस्कृत पुस्तक 'ललितविस्तर में ६५ लिपियों के नाम मिलते हैं जिनमें सब से पहिला 'ब्रामी' और दूसरा 'खरोष्ठी' है. चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार होने के पश्चात् ई.स. की पहिली से पाठवीं शताब्दी तक हिंदुस्तान से कितने ही बौद्ध श्रमण अपने धर्म के प्रचार के निमित समय समय पर चीन में गये और उन्होंने बौद्धों के अनेक संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों के चीनी भाषा में अनुवाद किये या उस काम में सहायता दी. चीन में १. बंभी. जवणालि (या जवणालिया), दोसापुरिया ( या दोलापुरिसा), खट्टी (या स्वरोठी), पुक्खरमारिया, भागवड्या, रहाराया ( या पहराइया), उयअंतरिश्खिया (या उयंतरकरिया), अक्सरपिट्ठिया (या अक्खरपुंठिया), सेत्र गइया (या वेगइया), गि[णि? गहश्या (या गिगहत्तिया), कलित्रि (या अंकलिक्खा), गणितलिधि (या गणियलिवि), गंधवालिवि. आईसलिवि (या पायसलिाव ), माहेसरी (या माहेस्सरी), दामिली और पोलिही. ये नाम पत्रमणासूत्र की दो प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों से उद्धत किये गये हैं. २. 'ललितविस्तर' में बुद्ध का चरित है. यह ग्रंथ कय बना यह निश्चित नहीं. परंतु इसका चीनी अनुवाद स ३०८ में हुआ था. .. प्राझो, स्वरोष्ठो. पुष्करसारी, अंगलिपि, बंगलिपि, मगधलिपि, मांगल्यलिपि, मनुष्यलिपि, अंगुलीयलिपि, शकारिलिपि, ब्रह्मवल्लीलिपि, द्राविडलिपि, कनारिलिपि, दक्षिणलिपि. उमलिपि, संख्यालिपि, अनुलोमलिपि, अवधनुलिपि, दरदलिपि, खास्थलिाप, चीनलिपि, हुणलिपि, मध्याक्षरविस्तरलिपि, पुष्पलिपि, देवलिपि, नागलिपि. यक्षलिपि, गन्धर्व लिपि, किन्नरलिपि. महोरगलिपि, असुरलिपि. गरुहलिपि, मृगचक्रलिपि, चक्रलिपि, वायुमरुलिपि. भामदेवलिपि, अंतरिक्षदेवलिपि, उत्सरकुरुद्वीपलिपि, अपरगौडादिलिपि, पूर्वविदेहलिपि. उत्तेपलिपि, निक्षेपलिपि, विक्षेपलिपि, प्रक्षेपलिाप, सागरलिपि, घनलिपि लेखप्रतिलेखलिपि, अनुतलिपि, शास्त्रावर्तलिपि. गणावर्तलिपि, उत्पावर्तलिपि, विक्षेपावर्तलिपि, पावलिखितलिपि, तिरुत्तरपदसन्धिलिखितलिपि, दशोत्तरपदसन्धिलिखितलिपि, अध्याहारिणीलिपि, सर्वरुरलंग्रहणीलिपि. विद्यानुलोमलिपि, विमिश्रितलिपि, ऋषितपस्ततलिपि, धरणीप्रेक्षणालिपि, सौषधनियम्बलिपि, सर्वसारसंग्रहणोलिपि और सर्वभूतरुट्प्रहणीलिपि (ललितविस्तर, अध्याय १०). इनमें से अधिकतर नाम कल्पित है. .ई. स. ६७ में काश्यप मातंग चीन के बादशाह मिंग-टी के निमंत्रण से यहां गया, और उसके पीछे मध्यभारत का श्रमण गोमरण भी वहां पहुंचा. इन दोनों ने मिलकर एक सूत्रग्रंथ का अनुवाद किया और काश्यप के मरने के बाद गोभरण ने ई.स. ६८ और ७० के बीच ५ सूत्रों के अनुवाद किये. मध्यभारत के श्रमण धर्मकाल ने चीन में रह कर ई.स. २५० में 'पातिमोक्ख' का धर्मप्रिय ने ई.स. ३८२ में 'दशसाहनिका प्रज्ञापारमिता' का कुमारजीव ने ई.स. ४०२ र ४१२ के बीच 'सुखावतीव्यूह' (छोटा), 'बनच्छेदिका' आदि कई ग्रंथो का; श्रमण पुण्यता और कुमारजीव ने मिलकर ई.स.४०४ में सर्वास्तिवादविनय' का मध्यभारत के श्रमण धर्मजातयशस् ने ई.स. ४८९ में 'अमृतार्थसूत्र' का: बुद्धशांत ने ई.स. ५२४ र ५३६ के बीच १० ग्रंधों का और प्रभाकरमित्र ने ई.स. ६२७ और ६३३ के पीच ३ ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया. मध्यभारत का श्रमण पुण्योपाय (नाथी या नी ? ) ई. स. ६५५ में बौद्धों के दोनो संप्रदायों ( महायान और हीनयान) के त्रिपिटक से संबंध रखने वाले १५०० से अधिक पुस्तक, जो उसने हिन्दुस्तान और सीलोन (सिंहलद्वीप. संका) में संग्रह किये थे, लेकर चीन में गया. दक्षिण का भ्रमण यज्रयोधि और उसका शिष्य प्रमोधवश स. ७१६ में चीन में गये. बयोधी ने.स.७२३ और ७३० के बीच ४ ग्रंथों का अनुवाद किया और वह ई.स. ७३२ में ७० वर्ष की अवस्था में मरा, जिसके बाद अमोघष ने ई.स. ७४१ में हिन्दुस्तान और सीलोन की यात्रा की. ई.स. ७४६ में वह फिर श्रीन में पहुंचा और उक्त सम् से लगा कर उसकी मृत्यु तक. जो ई.स. ७७४ में हुई. उसने ७७ ग्रंधों के भीनी अनुवाद किये. Aho! Shrutgyanam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. भी बौद्ध धर्म के तत्वों को जानने के लिये संस्कन और प्राकृत का पठन पाठन होने लगा और वहां के बहुतेरे विद्वानों ने समय समय पर अपनी भाषा में बौद्ध धर्म के संबंध में अनेक ग्रंथ रचे जिनमें हमारे यहां की कई प्राचीन बातों का पता लगता है. ई.स. ६६८ में बौद्ध विश्वकोष 'फा युभन् पुलिन्' बना, जिसमें 'ललितविस्तर' के अनुसार ६४ लिपियों के नाम दिये हैं, जिनमें पहिला ब्रास्त्री और दूसरा खरोष्ठी (किन-लु-से-टो-क-लु-से-टो स्व-रो-स-ट-खरोष्ठ) है और 'खरोष्ठ' के विवरण में लिखा है कि चीनी भाषा में इस शब्द का अर्थ 'गधे का होठ' होता है. उसी पुस्तक में भिन्न मिलिपियों के वर्णन में लिखा है कि 'लिखने की कला का शोष तीन देवी शक्ति वाले भाचार्यों मे किया, उनमें से सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि (ब्राह्मी)बाई भोर से दाहिनी भोर पड़ी जाती है. उसके बाद किम-तु (किम-लु-से-दो स्वरोष्ठ का संक्षिप्त रूप) है, जिसकी लिपि दाहिनी मोर सेलाई भोर पड़ी जाती है और सब से कम महत्व का सं-की है, जिसकी लिपि (चीनी) ऊपर से नीचे की तरफ पढ़ी जाती है. ब्रह्मा और खरोष्ठ भारतवर्ष में हुप और स्सं-की चीन में. प्रमा और खरोष्ठ ने अपनी लिपियां देवलोक से पाई और रसं-की ने अपनी लिपि पत्नी मादि के पैरों के चिों पर से बनाई.५ उक्त चीनी पुस्तक के लेख से स्पष्ट हो गया कि जो लिपि बाई से दाहिनी ओर लिखी जाती है उसका प्राचीन नाम'मानी' और दाहिनी से बाई मोर लिखी जाने वाली का 'स्वरोष्ठी' था, 'ब्रामी। लिपि इस देश की स्वतंत्र और सार्वदेशिक लिपि होने से ही जैन और बौद्धों के ग्रंथ भी उसी में लिखे जाने लगे और इसी से उन्होंने लिपियों की नामावलि में इसको प्रथम स्थान दिया. जब कितने एक यूरोपिअन् विद्वानों ने यह मान लिया कि हिंदू लोग पहिले लिखना नहीं जानते थेतब उनको यह भी निश्चय करने की आवश्यकता हो कि उनकी प्राचीन लिपि (ब्रानी) उन्होंने स्वयंचमाईचा इसरों से ली. इस विषय में भिन्न भिन्न विद्वानों ने कई भिन्न भिम अटकलें लगाई जिनका सारांश नीचे लिखा जाता है. डॉ. ऑफ्रेर मूलर का अनुमान है कि सिकंदर के समय यूनानी लोग हिन्दुस्तान में आये उन. से यहां वालों ने अक्षर सीखे. प्रिन्सेप और सेना ने भी यूनानी लिपि से ब्रामी लिपि का बनना अनुमान किया और विलसन् ने यूनानी अथवा फिनिशिमन लिपि से उसका उदय माना. हलवे ने लिखा है कि हामी एक मिश्रित लिपि है जिसके पाठ व्यंजन तो ज्यों के स्यों इ.स. पूर्व की चौथी शताब्दी के 'अरमहक' भत्तरों से; व्यंजन, दो प्राथमिक स्वर, सब मध्यवर्ती स्वर और अनुरवार मारिमनो-पाली(खरोष्ठी) से; और पांच जन तथा तीन प्राथमिक स्वर प्रत्यक्ष या गौणरूप से प्रक्ष नामक श्रमख ई. स. दर में चीन गया और ई. स. और २० केबीस उखने और एक दूसरे श्रमण ने मिल कर 'महायानबुरिषदपारमिताखून' तथा तीन दूसरे पुस्तकों का चीनी अनुवाद किया. ये घोड़े से नाम केवल उदाहरणार्थ दिये गये हैं. १. . पै; जिल्द ३४, पृ.२१. २. ई.प., जिल्द ३४, पृ. २१. ३. प्राली लिपि वास्तव में 'नागरी' (देवनागरी) का प्राचीन रूप ही है. नागरी'माम कब से प्रसिशि में माया बह मिश्वित नहीं परंतु तांत्रिक समय में 'नागर (नागरी)नाम प्रचलित था, क्यों कि 'नित्यायोडशिकार्णव' की 'सेतुबंध' नामकटीका का कर्ता भास्करामंद एकार ()का त्रिकोण रुए 'नागर' (नागरी) लिपि में होना बतलाता है (कोरबरदुरमो सेसोपन तन् । मासरमिया साम्प्रदायिक रेकारखा चिकोचाकारसनगमान । ई.प.जिल्द ३५, पृ. २८३). 'वातुलागम' की टीका में लिखा है कि शिव मंत्र (ही) के अक्षरों से शिव की मूर्ति नागर' (नागरी) लिपि से बन सकती है। दूसरी लिपियों से बन नहीं सकती (मिमाम्रकारकनिः भामरहिरिभिसारथित पत्र । सिरितलिपिभिकारपियो । जिल्द ३५, पृ. २७१). युरोपिमन् विद्वानों ने 'माहो' लिपि का पालोरिमन पाली,' 'साउथ (दक्षिणी) अशोक' मा 'सार' लिपि आदिमामों से भी परिचय दिया है परंतु हम इस लेख में सर्वत्र 'प्राली' नाम का ही प्रयोग करेंगे. ...: जिद ३५, पृ. २५३. ५. ज. पाई.स. १८पृ. २६८, Aho! Shrutgyanam Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राह्मी लिपि की उत्पत्ति यूनानी लिपि से लिये गये हैं, और यह मिश्रण ई.स. पूर्व ३२५ के पास पास ( अर्थात् सिकंदर के इम देश में आने के बाद) हुआ माना जाता है.' कस्ट' का मानना है कि एशिया के पश्चिम में रहने वाले फिनिशियन लोग ई. स. पूर्व की भाठवीं शताब्दी में लिखना जानते थे और उनका पाणिज्यसंबंध इस देश (हिन्दुस्तान) के साथ रहने तथा उन्हींके अक्षरों से ग्रीक, रोमन तथा सेमेटिन भाषाओं के अक्षर बनने से मनुमान होता है कि ब्राह्मी लिपि भी फिनिशिअन् लिपि से बनी होगी, ___ सर विलिश्रम जोन्स ने सेमिटिक से प्राली की उत्पति होना अनुमान किया, जिसका कॉप्पर तथा लेप्सिअस्' ने अनुमोदन किया, फिर वेबर' ने सेमिटिक और ग्रामी अक्षरों के बीच कुछ समानता दिखला कर उसी मत को पुष्ट किया जिसको पेनकी', पॉद', स्टरगाई', मॅक्समूलर', ऋडिख मूलर', साइस', हिट्नी आदि विवानों ने थोड़े बहुत संदेह के साथ स्वीकार किया, स्टिवन्सन् ' का अनुमान है कि ब्राह्मी लिपि या तो फिनिशिअन् लिपि से पनी हो या मिसर के अक्षरों से. पॉल गोल्डस्मिथ्' का मानना है कि फिनिशिअन् मसरों से सिलोन (सिंहलबीप, लंका) के अधर घने और उनसे भारतवर्ष के; परंतु ई.मूलर का कथन है कि सीलोन में लिखने का प्रचार होने के पहिले भारतवर्ष में लिखने का प्रचार था. बर्नेल का मत यह है कि फिनिशिमन से निकले हुए अरमहक अक्षरों से ब्रामी अक्षर बने, परंतु आइज़क टेलर लिखता है कि भरमहक और ब्रामी भक्षर परस्पर नहीं मिलते. लेनोमैट कहता है कि फिनिशिमन् अक्षरों से भरय के हिमिनरेटिक अक्षर बने और उनसे ब्राह्मी. डीके" का मन यह है कि ब्राह्मी लिपि असीरिमा ९ की 'क्युनिफॉर्म लिपि से किसी प्राचीन दक्षिणी मेमिटिक लिपि के द्वारा, जिससे हिमिअरेटिक लिपि निकली, बनी है. ___ आइज़क् टेलर लिखता है कि 'ब्राह्मी लिपि किसी अज्ञात दक्षिणी सेमिटिक लिपि से निकली स्तव में वह किस लिपि से निकली यह अब तक मालूम नहीं हया परंतु रोमन या हॅडमोट या ओर्म आदि के खंडहरों में उस (मूललिपि) का पता एक न एक दिन लगना संभव है। __ऍडवर्ड क्लॉड १८ लिखता है कि फिनिशिअन् से सेविअन् (हिमिश्ररेटिक) लिपि निकली और उससे ब्राह्मी. १. ज.रॉ. प. सौ जिल्ब १६, पू ३२६, ३५६. . . जि. ३५ पृ. २५३. .. Indische skinzen, p. 225-960. ४.ई.एँ,जि. ३५, पृ. २५३. ५. ज. बॉ...ॉ.ए. सो; जि. ३, पृ.७५.. पॅकेडमीई.स.१८७७ ता. जमघरी. ७. मरि...सीः पृ. २४. यसा.इ. पू... .टेमा .जि. २.प्र.३१३. १५. पॅसे मॉन फिनिशिअन् श्राल्फाबेट : जि.प. पू. १५०. . Zeitschrift der Deutschen Morgenlandijaben Gesellschaft, Bend, XXX1, 39#. १२. असीरिया के लिये देखो पू.१, टि. ३. ११. यूरोपिअन विद्वानों ने 'क्युनिफॉर्म' उस लिपि का नाम रक्खा है जिसके अक्षर तीर के फल की मारुति के कई चिठीको मिलाने से बनते हैं. इस बहुत प्राचीन और विचित्र लिपि के लेख असीरिमा, बाबीलन तथा ईरान आदि में मिलते हैं. ईरान के प्रसिद्ध बादशाह दारा ने अपना वृत्तान्त इसी लिपि में (तीन भाषाओं में हिस्तान नामक स्थान के बटाम पर खुदवाया था. ४. फिनिशिमन लिपि से निकली हुई लिगियों में से हिमिश्ररेटिक (सायनन्), इथियोपिक, कूफी और अरबी आदि दक्षिणी, और अरमक, सीरिक और चाल्डिअन् उत्तरी सेमिटिक लिपियां कहलाती है. ४. अरब के एक प्रदेश का नाम जिसका प्रधान नगर मस्कत है. १६. अरब के दक्षिण तट पर का एक इलाका जो मोमन से पश्चिम की तरफ है. १०. ईरान के समुद्र तट पर का एक प्राचीन शहर. १८. स्टोरी ऑफ वी पाल्फाबेद पृ.२०७. Aho! Shrutgyanam Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. ई.स. १८६५ में बूलर ने 'भारतवर्ष की ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति' विषयक एक छोटी पुस्तक अंग्रेज़ी में लिखी, जिसमें वेबर का अनुकरण कर यह सिद्ध करने का यत्न किया गया कि ब्राधी लिपि के २२ अक्षर उत्तरी सेमिटिक लिपियों से लिये गये और बाकी के उन्हींपर से बनाये ग अर्थात् कितने एक अक्षर प्राचीन फिनिशिश्मन अक्षरों से, कुछ मामय के राजा मंशा के लेम्ब के फिनिशिअन् अक्षरों से और पांच अक्षर असीरिया के तोलों पर खुदे हुए अक्षरों से मिलने हुए यतलाये हैं. इसमें बहुत कुछ बचतान की गई है जिसके विषय में आगे लिखा जायगा. बूलर के उक्त पुस्तक के प्रकट होने के बाद चार और विद्वानों ने भी प्रसंगवशात् इस विषय में अपनी अपनी संमति प्रकट की है. उनमें से प्रॉ. मॅक्डॉनल्ड बेलर के मन को स्वीकार करता है. डॉ. राइस विजज़' ने इस विषय के भिन्न भिन्न मतों का उल्लेख करने के पश्चात् अपनी संमति इस तरह प्रकट की है कि 'मैं यह मानने का साहस करता हूं कि इन [भिन्न भिन्न ] शोधों के एकीकरण के लिये केवल यही कल्पना हो सकती है कि ब्राह्मी लिपि के अक्षर न नो उत्तरी और न दक्षिणी सेमिटिक अक्षरों में बने हैं, किंतु जन अक्षरों से जिनसे उत्तरी और दक्षिणी सेमिटिक अक्षर स्वयं बने हे अधोत् युफ्रेटिस नदी की वादी की सेमिटिक् से पूर्व की किसी लिपि से.' डॉ. यानेंट' बूलर का ही अनुसरण करता है और प्रो. रॅपसन्" ने उपयुक्त मांअब के लेग्न की फिनिशिनम् लिपि से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति मानी है. इस प्रकार कई यूरोपिअन् विद्वान ब्राणी लिपि की उत्पत्ति का पता लगाने के लिये हिवरेटिक (मिसर की), क्युनिफॉम् (असीरिया की), फिनिशिअन, हिमिअरेटिक (सेषिअन्), अरमइक्, और खरोष्ठी लिपियों में से अपनी अपनी रुचि के अनुसार किसी न किसी एक की शरण लेने है. आइज़क टेलर इनमें से किसी में भी ब्राह्मी से समानता न देख मोमन , हॅ.माँट या ओर्मज़ के खंडहरों में से किसी नई लिपि के मिलने की राह देखता है और डॉ. राइस डेविज युफ्रेटिस नदी की वादी में से सेमिटिक लिपियों से पूर्व की किसी अज्ञात लिपि का पता लगा कर उपर्युत भिन्न भिन्न मतों का एकीकरण करने की आशा करता है. यदि ऊपर लिम्वी हई लिपियों में से किसी एक की ब्राधी के साथ कुछ भी वास्तविक समानता होती तो सर्वथा इतने भिन्न मत न होते; जिस लिपि में समानता पाई जाती उसीको सब स्वीकार कर लेते, परंतु ऐसा न होना ही उपयुक्त भिन्न भिन्न कल्पनाओं का मूल हवा जो साथ ही साथ उन कल्पनाओं में हठधी का होना प्रकट करता है. ___ यह तो निश्चित है कि चाहे जिन दो लिपियों की वर्णमालाओं का परस्पर मिलान करने का उद्योग किया जावे तो कुछ अक्षरों की आकृतियां परस्पर मिल ही जाती हैं चाहे उनके उच्चारणों में कितना ही अंतर क्यों न हो. यदि वाली लिपि का वर्तमान उर्व लिपि के टाइप (छापे के अक्षरों) से मिलान किया जाये तो ब्राह्मी का 'र' । (अलिफ) से, 'ज' (ऐन) से, और 'ल' (लाम्) से मिलता हुआ है. इसी तरह यदि ब्राह्मी का वर्तमान अंग्रेजी (रोमन) टाइप से मिलान किया जावे तो 'ग' A.(ए) से, 'ध'D(डी) से, 'ज'E (ई) से. 'र' (आइ) से, 'ल' (जे) से, “उ'L(एल)से.'' 0 (ओ) से, 'प' (यू) से, 'क' x (क्म्) से और 'ओ' z (जेंड्) से बहुत कुछ मिलता हुआ है. इस प्रकार उर्दू के तीन और अंग्रेजी के दश अक्षर वामी से प्राकृति में मिलने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मी लिपि उदया अंग्रेजी से निकली है क्यों कि समान उच्चारण वाले एक भी अक्षर में (सिवाय उर्द के 'लाम्' और ब्राली के 'ल'क) समानता, जो लिपियों के परस्पर संबंध को निश्चय करने की एक मात्र कसौटी है, पाई नहीं जाती, १. मक् हि.सं.लि. पृ १६. * वा: प. पू.२२५. Ahol Shrutgyanam Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाली लिपि की उत्पत्ति ई.स. पूर्व की सातवीं शताब्दी के आसपास फिनिशिअन् लिपि सं ग्रीक (यूनानी) अक्षर बने, जो प्रारंभ में दाहिनी ओर से बाई ओर को लिखे जाते थे, परंतु पीछे से बाई ओर से दाहिनी ओर लिखे जाने लग जिससे कुछ अक्षरां' का मन बदल गया. इस फेरफार के पीछे उनसे पुराने लॅटिन और लॅटिन से अंग्रेजी (रोमन) अत्तर यन. यों फिनिशिअन और वर्तमान अंग्रेजी (रोमन) अक्षरों का लगभग २६०० वर्ष पूर्व का संबंध होने पर भी उनका परस्पर मिलान किया जाये तो A (ए), B (वी), 0 (डी), E (ई), (एच), K (के), 1 (ऍल), M (ऍम् ), N (पॅन् ),P (पी), Q (क्यू), R (आर) और (टी) में १३ अक्षर अपने मूल फिनिशिअन अक्षरों से बहुत कुछ मिलते हुए हैं. इसी तरह अशाक के समय की ब्रामी लिपि का उपर्युक्त हिअरेटिक, फिनिशिअन् प्रादि लिपियों के साथ मिलान करने पर यदि ब्राह्मी उनमें से किसी से निकली हो तो उस लिपि के साथ ब्राधी की समानता, अंग्रेजी और फिनिशिअन् के बीच की समानता से बहुत अधिक होनी चाहिये थी क्यों कि वर्तमान अंग्रेजी की अपक्षा ब्राह्मी का फिनिशिअन् के साथ करीब २२०० वर्ष पहिले का संबंध होता है; परंतु ग्राभी का उक्त लिपियों के साथ मिलान करने से पाया जाता है कि: इजि । मिसर) की हिअरदिक लिपि का एक भी अक्षर समान उचारण वाल ब्राह्मी अक्षर स नहीं मिलता, असोरिश्रा' की क्थुनिफॉर्म' लिपि से न तो फिनिशियन् आदि सेमिटिक लिपियों का और न ब्राह्मी का निकलना संभव है. वह लिपि भी प्रारंभ में चित्रात्मक थी परंतु पीछे से ईरानियों ने उसे पास्मक बनाया तो भी उसके अक्षर चलती हुई क़लम से लिखे नहीं जा सकते. उसका प्रत्येक अधर नार के फल की सी श्राकृति के कई चिम्सों को मिलाने से बनता है. वह भी एक प्रकार से चीनी लिपि की मां चित्रलिपि सी ही है और उसका लिखना सरल नहीं किंतु विकट है. फिनिशिन लिपि की वर्णमाला में २२ अक्षर हैं जिनमें से केवल एक गिमेल (ग) अचर (मोभर के लख का) ब्राह्मी के ग से मिलता है, प्राचीन ग्रीक (यूनानी) लिपि के दो अक्षर ‘गामा' (ग) और पीटा (4) ब्राझी के 'म' और 'थ' से मिलते हैं. मिसन, सिर में यहुन सूचक चित्र बना भिक विद्वान , फिनिशिअन् के अक्षर है' 'वाम् ' 'का' और 'रेश' से क्रमशः निकले हुए चार ग्रीक (यूनानी) अक्षरों 'यप्सिमन्, 'वानो, 'कप्पा' और 'हो' का रुख बदल गया, पीछे से ग्रीक लिपि में वाओ' का प्रचार न रहा. १. मिसर में यहुत प्राचीन काल में जो लिपि प्रचलित थी वह अक्षरात्मक नहीं किंतु चित्रलिपि थी. उसमें अक्षर नथे किंतु केवल आशय सूचक चित्र बनाये जाते थे जैसे कि मनुष्य ने प्रार्थना की' कहना हो तो हाथ जोड़े हुए मनुष्य का चित्र बना दिया जाता था. इसी तरह कई भिन्न भिक्ष चित्रों द्वारा कोई पक विषय बतलाया जाता था. उसके पीछे उसी चित्रलिपि से वात्मक लिपि बनी जिसको यूरोपिनन् विद्वान् 'हिअरेटिक' कहते हैं. उसीसे फिनिशियन् लिपि का निकलना माना जाता है. .. पशिश्रा के पश्चिमी भाग में युफेटिज़ नदी के पास का एक प्रदेश जो तुर्क राज्य में है. प्राचीन काल में यह बड़ा प्रतापी राज्य था जिसकी राजधानी निवेवा थी. इस राज्य का विस्तार बढ़ता घटता रहा और एक समय मेडिया, पर्शिमा (ईरान), अनिश्रा, सीरिया आदि देश इसीके अंतर्गत थे. ऐसा पाया जाता है कि यह राज्य प्राचीन बायीलन के राज्य में से निकला और पीछा उसीम मिल गया. मुसलमानों के राजत्वकाल में बड़ी आबादी वाला यह राज्य ऊजड़ सा हो गया. 'क्युनिफॉर्म' लिपि यहीं के लोगों ने प्रचालित की थी. . यदि केवल प्राकृति की समानता देखी जावे तो फिनिशिधन का दाले' (द) ब्राह्मी के 'पसे, 'ते'(त) 'थ' से (कुछ कुछ), 'पॅन' (प) 3'से, 'साधे' (स)'क' से (कुछ कुछ) भार 'तान्त ) 'क' से (ठीक) मिलता हुश्रा ६. यह समानता डीक वैसी ही है जैसी कि ऊपर (पृ.२० में) बतलाई हुई वर्तमान अंग्रेज़ी शरप (छापे के अक्षरो)के १० अक्षरो की बाली के १० अक्षरों से. ग्रीक धीरा (थ) फिनिशिअन् 'तेथ' से निकला है जिसका मूल उभारण'' था और उसीस अरबी का 'तोय' (1) निकला. ग्रीक में 'त' का उधारण न होने से फिनिशिनन् 'सो'का ग्रीक में टाओ (2) ममाया गया और तेथ को धीटा(थ), फिनिधिमन में ''या'ध' का उचारयाही था. Aho! Shrutgyanam Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाना. हिमिभरिदिक' लिपि के २२ अक्षरों में से केवल एक 'गिमेल' (ग) अचर रेड़ा करने पर प्रास्त्री के 'ग' से मिलता है. भरमाक' लिपि में सभी केवल एक गिमल अक्षर 'ग' से मिलता है. खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला के ३७ अक्षरों में से एक भी अधर ब्राश्री लिपि से नहीं मिलता, लिपियों के इस मिलान को पद कर पाठक लोग यह प्रश्न किये बिना न रहेंगे कि जब बूलर फिनिशिभन् लिपि के १२ अखरों से ब्रानी के २२ अक्षरों की उत्पत्ति बतलाता है तब तुम इन लिपियों के.समान उबारया माये अचरों में से केवल एक गिमेल' (ग) अचर की ब्रानी के 'ग' से समानता होना प्रकट करते हो यह क्या पात है? इसके उत्सर में मेरा कथन यह है कि पृष्ठ २३ में प्राचीन अक्षरों का एक नकथा' दिया है जिसमें मिसर के हिमरेटिक, फिनिशिअन, हिमिभरिटिक (सेविअन्) और भरमहक लिपियों के प्राचीन अदर दिये हैं श्रीर उनके साथ ही साथ समान उच्चारण वाले खरोष्ठी तथा ब्रामी भक्षर भी दिये है. उनका परस्पर मिलान करने से पाठकों को मालूम हो ही जायगा कि सेमिटिक और ब्राह्मी लिपि में चास्तषिक समानता लितनी सी है, तो भी उनको यह जिज्ञासा रह जायगी कि समान उच्चारण वाले अचर तो परस्पर मिलते नहीं, ऐसी दशा में चूलर ने फिनिशिभन् के २२ अच से, जो ब्रानी के १८ उचारणों का ही काम दे सकते हैं, ब्रानी के २२ अक्षरों का निकलमा कैसे पता था. इस लिये इम बहार के मिलान का कुछ परिचय यहां करा देते हैं. सांटिक और ब्राह्मी लिपि की बनावट में बड़ा अंतर यह है कि फिनिशिचन् प्रादि अक्षरों का ऊपर का भोग बहुधा स्थूल होता है और नीचे का भाग खड़ी या तिरछी लकीर से बनता है परंत प्राची अधरों में से अधिक अचरों का ऊपर का भाग पतली लकीर से प्रारंभ होता है और भी मा कर स्थूलपनता है. इस वैषम्य के एकीकरण के लिये बूलर ने यह मान लिया कि 'हिंदुभाने [कितने एक] सेमिटिक अधरों को उलट दिया है अर्थात उनका ऊपर का हिस्सा नीचे और नीचे का १. मुसल्मानी धर्म के प्रादुर्भाव से बहुत पहिले दक्षिणी अरब में फिनिशिअन् से कुछ ही मिलती हुई एक प्रकार की सिपि प्रचलित थी जिसको 'हिमिरिटिक' कहते है. उन लिपि के प्राचीन लेख वहां के 'सबा' नामक राज्य में विशेष मिलने के कारण उसी लिपि को 'सेमिभन्' भी कहते है। २. पीक (यूनानी) लोग जिस प्रदेश को सीरिआ कहते थे करीब करीब उसाकी प्राचीन सेमिटिक भाषा में 'मरम्' कहते थे. उसके अंतर्गत पशिमा के पश्चिम का 'मेसोपोटमिश्रा' प्रदेश था, सिवाय पेलेस्टाइन के. वहां की भाषा और विपि को भरमा या अरमिअन् कहते हैं. इस नकशे में बस खड़ी पंक्तियां बनाई गई है, जिनमें से परिता पंक्ति में समिटिक वर्णमाला के अहरों के नाम तथा उनकी ध्वनि के सूचक अक्षर नागरी में दिये है। दूसरी पंक्ति में मिसर की हिमरेटिक खिपि के मार दिये हैं (प.नि जिल्द १, पृ. ६०० से-नशं संस्करण) तीसरी में प्राचीन फिनिशिश्नन् भक्षर (प.मि जि. १, पृ. ६०० से चौथी में मोमब के राजा मेशा के ई.स. पूर्व की नवीं शताब्दी के शिलालेख से फिनिशियन् अक्षर (ए. ब्रि, जि. ३७, पृ. ६०२ से-दसवां संस्करण)ी पांचवी में हिमिभरटिक लिपि के अक्षर (प. शि, जि. ३३, पू.१०२ से.) छठी में सकारा(मिसर में),रीमा (परब में) भादि केई स. पूर्व की पांचवीं शताम्दी के शिला लेखा से भरमा भक्षर ( ; जि. २५, पृ. २८सके सामने के मेट से); सात में मिसर के पायरसी से भरमक अक्षर ( जि. २४, पू. २६ से); भावी मैडॉ. सर डॉन मार्शल के उद्योग से तक्षशिला से मिले प्रए इ.स. पूर्व की चौथी शताब्दी के भरमहा लेख के फोटो (ज.रॉ.प. सो, ई.स. १५९५, पृ. ३४० के सामने के खेट) से अक्षर छांटे गये है। नी में समान उचारण वाले वरीष्ठी भक्षर अशोक के लेखों से लिये है, और इसी मे समान उचारण वाले प्राह्मी लिपि के मक्षर अशोक के लेखा से उद्धृत किये गये हैं. जैसे अंग्रेजी में (सी), K (के) और (क्यू) ये तीन अक्षर 'क' की धनि के सूचक है और उर्दू में 'से' 'सीन्' श्रीर स्वाद-स' की धनि के सूचक है ऐसे ही फिनिशिचन् अक्षरों में भी माठ अक्षर ऐसे हैं जो चार ही प्रशारण का काम देते है अर्थात् 'है' और 'थ' (जिससे अरबी का 'हे' और अंग्रेजी का 'पंच' निकला) इन दोनों से', 'ध' (जिससे भरवी का 'तोय') और 'ता' (जिससे 'ते' निकला) दोनों से '', 'काफ' और 'कॉफ्' से 'क,'ऐसे ही 'सामरु' (जिससे भरपी का सीन) और 'स्साधे' (जिस से 'खान' निकला) से 'स'का बजारण होता है। जिससे फिनिशिमन् २२ मारनामी के १८ उचारणों का ही काम दे सकते है। - देखो आगे पृष्ठ २३ मे दिया हुभा नाथा. देखो लिपिपत्र पहिला.. Ahol Shrutgyanam Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाशी विपि की उत्पत्ति सेमिरिक वर्णमाकामों के अधरों का नक्शासमान उचारण पाने खरोष्ठी तथा प्रासो अक्षरों सहित. -- কিনিক্ষিন हिमित्र मरमहक. सेमिटिक प्रदरों के नाम तथा उधार ममान उचारसबाल खरोष्ठी तथा बामी भवर (अशोक के लेखों से) तदशिला क । रेटिंक. सकारा, वायरमों मोभनक रिटिक्टीमा प्रादि के से. प्राचीन. शिला लेख सं. | (सेविषन) सेखो मे . खरोही. प्रामी. V གྱི སྤྱི གྱི ཚེ ཕྱི ཀྱིའི 2144K 4 fxxxxxxxपानप्रप्र४ Any 95555770 MANN 355/572 nan2mmi_222/0LU 17706b 72NI YYYEEEE 222/CULU Er hon 72777777 vi 04 MAINAL 06. 71) oraer ༔ ༔ ༔ གྱི སྤྱི ི ི ི ༔ ༔ ༔ གྱི རྒྱུ ༔ لم يعالج | ३) ५ 6106 1984129574+ how/४४५४ -१५५ 15418119 565/11 #23## 2133 17740DOPI 297370 2273277 hort gar | ११P250 3 ++ 944477714१६ w (ww/sol levler hrlman + xxxbhhkhada ما باید ۲ ir १६०० x w0-0 - TOSTI Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राचौमासिपियाला. ऊपर कर दिया है अथवा [बड़] अक्षरों को आड़ा कर दिया है और [कितने एक ] के कोणों को खोल दिया है। फिनिशिअन् और ब्राधी की लेखन प्रणाली एक दूसरे से विपरीत होने के कारण बहुत में अक्षरों की परस्पर समानता बतलाने में बाधा पड़ती थी जिसके लिये बूलर ने यह मान लिया कि 'ब्राह्मी लिपि का रग्ब पलटने से (अर्थात् जो लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जानी धी उसे पीछे मे बाई ओर म दाहिनी ओर लिखने से) कितने एक [संमिदिक] अक्षरों का रुख ग्रीक अक्षरों की नाई दाहिनी ओर से बाई और को बदल गया". जब इन फेरफारों से भी काम न चला तब बूलर ने २२ अक्षरों में से प्रत्येक की उत्पत्ति पतला ने के समय बहुत से और फेरफार भी मान लिये जिनमें से मुख्य ये हैं: कहीं लकीर को कुछ इधर उधर ] हटा दिया, जहां लकीर न थी वहां नई खींच दी, कहीं मिटा दी', कहीं यदादी ,कहीं घटा दी, कहीं नीचे लटकती हुई लकीर ऊपर की तरफ़ फिरा दी, तिरछी लकीर सीधी करदी, आड़ी लकीर खड़ी करदी,दो लकारों के बीच के अंतर को नई लकीर से जोड़ दिया", एक दूसरी को काटने वाली दो लकीरों के स्थान में बिंदु बना दिया", बाईं तरफ मुड़ी हुई लकीर के अंत को ऊपर बढ़ा कर गांठ बनादी, त्रिकोण को धनुषाकार बना दिया, कोण या कोणों को मिटा कर उनके स्थान में अधेवृत्त सा बना दिया मादि. इतना करने पर भी सात अक्षरों की उत्पत्ति तो ऐसे अक्षरों से मामनी पड़ी कि जिनका उच्चारण बिलकुल बेमेल है. ऊपर बनलाये हुए फेरफार करने पर फिनिशिअन् अक्षरों से ग्रामी अक्षरों की उत्पसि ब्लर में किस तरह सिद्ध की जिसके केवल चार उदाहरण नीचे दिये जाते हैं : १-अलेफ से 'अ - * त्र २-हश से घ -SH OLDM ३-योध् स य -1 FLLL ४-मेम् संम -yyb४ इन चारों अक्षरों की उत्पसि में पहिला अक्षर प्राचीन फिनिशिअन् लिपि का है और अंतिम अक्षर अशोक के लेखों से है. बाकी के मय अक्षर परिवर्तन की बीच की दशा के सूचक मनुमान किये गये हैं कहीं लिखे हुए नहीं मिले. इन रूपान्तरों का विवरण यह है कि: २. ब्राह्मी लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती थी या नहीं यह विचार भागे किया जायगा. २. सू .प; पृ.११. . अलेफसे 'अ' की उत्पत्ति में पे, पृ. १२. .. जान से 'ज'की उत्पत्ति में 'ज' के बीच की माड़ी लकीर. जान से 'ज'की उत्पत्ति में; हेव से 'घ' की उत्पत्ति में. हेथ से 'घ' की उत्पत्ति में. ८. ज़ाइन से 'ज' की उत्पत्ति में ज़ाइन के ऊपर और नीचे की दोनों आड़ी लकीरों के बाई तरफ बाहर निकले दुए अंशों का कम करना. २. यो से 'य' की उत्पत्ति में. . नन् सनकी उत्पत्ति में; योघ से 'य' की उत्पत्ति में. १९. दालथ से 'ध' की उत्पत्ति में. १९. बाब से 'य' की उत्पत्ति मे. . तेथ् से 'थ' की उत्पत्ति में. १४. मेम् से 'म'की उत्पत्ति में. ५. दालेय से 'ध' की उत्पत्ति में. . मेमू से 'म' की उत्पत्ति में. १२. दालेय (2) से 'घको : देथ् हि) से 'च' की; तेथ । त) से 'थ' की: सामेस्स् (स) से '' की के (फ) से 'प' की. साध (स) से 'च' की और जाफ. ( स 'ख' की. . ए.सा.नि:जि. १, पृ. ६०० में तथा डो.. रॉउिज संपादित और परिवर्धित जैसनिअस के हित ग्रामर (व्याकरण) मे इस अक्षर का नाम चय(च) लिखा है (पृ.१३) परंतु ई की छपी हुई हिम प्राइमरी रीडर' नामक छोटी पुस्तक में, जिसमें हिन्न अक्षरों के नाम तथा उधारण अंग्रेजी और मराठी (नागरी लिपि) दोनों में दिये हैं, इसका नाम 'हेप' (पृ.१) श्रीर इसका वनिसूयक चिमह(पृ.) दिया है. इसीसे ग्रीक (यूनानी अक्षर 'एटा' बना जिससे अंग्रेजी का (ऍछ) अक्षर, जो 'ह' की ध्वनि का सूचक है. तथा इससे अरथी कार ), जो 'ह' का सूचक है, निकला है. मत पर हमने इस प्रक्षर का नाम 'हिम प्राइमरी रीडर' के अनुसार 'हे' लिखा है. Aho! Shrutgyanam Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी लिपि की उत्पति २५ १- लेफ के पहिले रूप का रुख बदलने से दूसरा रूप बना दूसरे की खड़ी लकीर को दा हिनी तरफ हटाने से तीसरा ना. उत्तपर से चौथा रूप बन गया. २- हे के पहिले रूप की खड़ी लकीरों को समान लंबाई की बनाने और तीनों घड़ी लकीरों को सीधी करने से दूसरा रूप बना. इस प्रकार सीधे बने हुए खड़े अक्षर को बड़ा करने से तीसरा रूप बना, जिसके ऊपर के भाग की थाड़ी लकीरों को मिटा देने से चौथा रूप बना. फिर बाई ओर की पहिली खड़ी लकीर को लंबी कर देने से पांचवां रूप बन गया. ३- योध की सब तिरछी लकीरों को सीधी करने से दूसरा रूप बना, जिसका रुख बद लने से तीसरा रूप बना. हम खड़े अक्षर को बड़ा करने से चौथा रूप बना. उसकी नीचे लटकती हुई लकीर को ऊपर की तरफ़ फिरा देने से पांचवां रूप बना, जिसकी मध्य की खड़ी लकीर को लंबी करने से छठा रूप बना और उसपर से सानवा. ४- मेम् के नीचे वाली बाई ओर मुड़ी हुई लकीर को ऊपर की तरफ बढ़ा कर ग्रंथि बना देने से दूसरा रूप बना. फिर ऊपर के बाई तरफ के कोण वाले हिस्सों को मिटा कर उनकी जगह अर्धवृत सी रेखा बना देने से तीसरा रूप बना. उसके ग्रंथि वाले भाग को बढ़ा कर ऊपर निकालने से चौथा रूप बन गया. बूलर के माने हुए अक्षरों के ये फेरफार ऐसे हैं कि उनके अनुसार अक्षरों का तोड़ मरोड़ करने से केवल फिनिशिअन से ब्राह्मी की उत्पत्ति बतलाई जा सकती हैं ऐसा ही नहीं, किंतु दुनिया भर की चाहे जिस लिपि से किसी भी लिपि की उत्पत्ति आसानी से सिद्ध हो सकती है. उदाहरण के लिये तक्षशिला के अरमहक लिपि के लेख के अक्षरों से तथा वर्तमान अंग्रेजी टाइप (छापे के अक्षरों) से ब्राह्मी लिपि के अचर कितनी आसानी से बनाये जा सकते हैं यह बतलाया जाता है तक्षशिला के लेख से- १- अलफ से ' अ ' -X X प्र २- बेथ से 'ब 500 ३- गिमेल से 'ग'-^^ ४- दालेध से द-455 से ह - AV KU ५ ६- घाव में 'व - 7 JLB इन ६ अक्षरों के रूपांतरों में प्रत्येक का पहिया रूप तक्षशिला के लेख से लिया गया है और अंतिम रूप अशोक के लेखों के अनुसार है. बीच के परिवर्तन कूलर के माने नियमों के अनु सार अनुमान किये गये हैं, जिनका ब्यौरा इस तरह है हुए १ - अलेफ के पहिले रूप के ऊपर के तथा नीचे के कोनों को कुछ चौड़े करने से दूसरा रूप बना, उसकी दाहिनी तरफ की दोनों तिरछी लकीरों को सीधी करने से तीसरा रूप बन गया. २- बेध के पहिले म्प के ऊपर की छोटी सी खड़ी लकीर को मिटाने से दूसरा रूप बना की बाई तरफ़ एक खड़ी लकीर खींचने से तीसरा रूप बन गया. उस. ३-गिनेल 'ग' से मिलता ही है. ४- दालेथ के पहिले रूप के नीचे की खड़ी लकीर के साथ बाई तरफ़ एक बड़ी लकीर जोड़ने से दूसरा रूप बना और उस नई जुड़ी हुई लकीर के बाएं किनारे पर जरासी छोटी खड़ी लकीर जोड़ने से तीसरा रूप बन गया. ५ - हे के पहिले रूप को उलट देने से दूसरा रूप बना; उसका रुख पलटने से तीसरा रूप यम गया जो अशोक के सारनाथ के लेख के 'ह' से मिलता हुआ है और चौथा रूप गिरनार के लेख से है. Aho! Shrutgyanam Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. ६-चाव के पहिले रूप को उलटने से दसरा रूप बना, जिसका रुख पलटने से तीसरा बना, फिर उसकी दाहिनी तरफ की झुकी हुई लकीर के स्थान में ग्रंथि बना देने से चौथा रूप धना. __ वर्तमान अंग्रेजी छापे के अक्षरों से१-'ए' से 'अ' AAHH २-'बी' से 'ब' BB0 ३-'मी' से 'च' C d d ४-'डी' से 'द' D 202 ६-'गफ' से 'फ' FEbb इनमें में प्रत्येक अक्षर के रूपांतरों में पहिला रूप वर्तमान अंग्रेजी छापे का अक्षर और मं. तिम रूप अशोक के लेखों से है. पीच के कलरूप वूलर के सूत्रों के अनुसार अनुमान किये हैं जिनका विचरण इस तरह है १-'ए' से पहिले रूप के ऊपर के कोण को खोल देने से दूसरा रूप बना, जिसकी दोनों तिरछी बड़ी लीरों को सीधी करने से तीसरा रूप हुश्रा और उससे चौथा. २-'वी की धीच की लकीर को मिटाने से दसरा रूप और उसकी दाहिनी तरफ़ की धक रेखा को सीधी करने से तीसरा बना. ३-'सी'की दाहिनी तरफ एक स्वड़ी लकीर जोड़ने से दूसरा रूप बन गया और उससे तीसरा. ४.-'ही' की बाई ओर की बड़ी लकीर को मिटाने से दूसरा रूप बना, जिसके बाई तरफ के किनारों के साथ एक एक छोटी खड़ी लकीर जोड़ने में तीसरा रूप बन गया. ५--ई की बीच की लकीर मिटा देने से दूसरा रूप; उसकी दाहिनी तरफ की दोनों लकीरों की तिरछी करने में लीमरा रूप और उसमे चौथा बन गया ६-ॉफ को उलटने से दूसरा रूप बना, जिसके नीचे की दाहिनी तरफ की दो आड़ी लकीरी को एक खड़ी लकीर से जोड़ देने से तीसरा रूप और उससे चौधा बन गया. तक्षशिला के अरमइक लेख मे तथा अंग्रेजी के छापे के अक्षरी से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति बताने में फिनिशिचत की अपेक्षा अधिक सरलना होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनसे प्रामी अबर यने हैं. ऐसी दशा में बलर का मत किसी तरह स्वीकार नहीं हो सकता क्योंकि फिनिशिअन के गिमेल (ग) और ब्राह्मी के 'ग' को छोड़ कर अन्य किसी समान उचारण वाले अक्षर में समा।ता नहीं है. बृलर का मारा पन्न बींचतान ही है. इसीसेलर की भारतवर्ष की प्राधी लिपि की उत्पत्ति के छपने के बाद 'बुदिस्ट इंडिया' नामक पुस्तक के कर्ता डॉ. राइस डेविडज को यह माना पड़ा कि 'ब्राह्मी लिपि के अक्षर न तो उत्तरी और न दक्षिणी सेमिटिक अक्षरों से बने हैं, ऐसे ही'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटॅनिका' नामक महान अंग्रेजी विश्वकोश में इस विषय में यह लिखा गया कि 'बूलर का कथन यद्यपि पाण्डित्य और चतुराई से भरा हुभा है तो भी यह मानना पड़ता है कि पर अधिक निश्चय नहीं दिलाता. इस लिपि का उद्भव कहां से हमा इसका निर्णय निश्चित रूप से करने के पहिले इसके प्राचीन इतिहास के और भी प्रमाणों का ढूंढना आवश्यक है, और ऐसे प्रमाण मिल सकेंगे इसमें कोई संदेह नहीं यदि ब्राहली और खरोष्ठी दोनों लिपियां फिनिशिअन् से, जिर.की उत्पत्ति ई.स. पूर्व की १० वीं राताब्दी के पास पास मानी जाती है, निकली होती तो ई.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में, अर्थात् अशोक के समय, उनमें परस्पर यहुत कुछ समानना होनी चाहिये थी जैमी कि अशोक के समय की । देखो ऊपर, पृ.२. प., नि: जि. ३३, पृ.६०३. Aho! Shrutgyanam Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्मी लिाय की उत्पत्ति. ग्रानी से निकली हुई ई.स. की पांचवीं और छठी शताब्दी की गुप्त और तेलुगु-कनड़ी लिपियों के बीच पाई जाती है, परंतु उन दोनों (ब्राह्मी और खरोष्ठी) में एक भी अक्षर की समानता का न होना भी यही सिद्ध करता है कि ये दोनों लिपियां एक ही मूल लिपि मे सर्वथा नहीं निकलीं, अर्थात् खरोष्ठी सेमिटिक से निकली हुई है और ब्राधी समिटिक से नहीं. फिनिशियन लिपि से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति मानने का सिद्धान्त कहां तक प्रामाणिक और स्वीकार करने योग्य है इसका विचार यहां तक किया गया. अब बुलर के इस दूसरे कथन की समीक्षा भावश्यक है कि 'ब्राह्मी लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई और लिखी जानी थी.' बृलर को फिनिशिअन् लिपि से ब्रानी की उत्पति सिद्ध करने के यत्न में कितने एक पत्रों का रुख बदलने की आवश्यकता थी. ई.स. १८९१ में जनरल कनिंगहाम ने 'कॉइन्स ऑफ एनयंद रिमा'नामक भारतवर्ष के प्राचीन सिकों के विषय का एक पुस्तक प्रकट किर। जिसमें एरण' से मिले हए की एक तांबे के सिक्के भी छापे. उनमें से एक पर का ब्राह्मी लिपि का मोव 'धमपालस', दाहिनी ओर से बाई ओर को पढ़ा जाता है. इस उलटे लेख के तिनके के सहारे को बूलर नेते महत्व का माना और इसीके आधार पर अपनी 'ब्राह्मी लिपि की उत्पति' विषयक पुस्तक में लिखा कि सेमिटिक से प्राधी लिपि की उत्पति सिद्ध करने के प्रमाणों की स्टंखला को पूर्ण करने के लिये जिस कड़ी की त्रुटि थी वह वास्तव में यही है तथा उस सिक्के को ई.स. पूर्व ३५० के पास पास का मान कर यह सिद्धांत कर लिया कि 'उस समय ब्राह्मी लिपि दाहिनी भोर से बाई भोर तथा बाई ओर से दाहिनी ओर (दोनों तरह) लिखी जाती थी. इस कल्पना का मुख्य आधार परण का मिका ही है. क्योंकि अब तक कई शिलालेख पस देश में ऐसा नहीं मिला कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फारसी की नाई उलटी लिग्वी एई मिली हो। किसी सिले पर लेख का उलटा पा जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि सिके पर उभरे हुए श्रदर सीधे पाने के लिये सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं अर्थात् जो लिपियां बाई ओर से दाहिनी ओर (जैसे कि ब्राह्मी और उससे निकली हुई सब लिपियां और अंगरेजी भी) लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिके की इबारत की पंक्ति का प्रारंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु यदि खोदनेवाला इसमें चूक जाय और उप्पे पर बाई ओर से खोदने लग जाय तो सिके पर सारा लेख उलटा पा जाता है, जैसा कि एरण के सिके पर पाया जाता है. यदि यह एक ई.स. १८९४ में मैन 'माचीनलिपिमाला' का प्रथम संस्करण छापा, जिसकी एक प्रति डॉ.बूलर को भर की. इसकी पहुंच स्वीकार करने के सारो बूसर ने लिखा कि तुम आह्मी लिपि को भारतवासियों की निर्माण की हे स्वतंत्र लिपि मानते हो यह ठीक नहीं. ब्राह्मी लिपि सेमिटिक लिपि से निकली हुई है. इसके उत्तर में मैंने लिखा कि 'यदि बाली और खरोष्टी दोनो लिपियां एक ही मूल लिपि की शाखे है तो ७०० वर्ष के भीतर ही उनमें परस्पर एक भी अक्षरको समानता न रही इसका क्या कारण है सो श्राप कृपा कर सुवित्त कीजिये.' परंतु इसका कुछ भी उत्तर वेन मके और म अब भी कोई द सकता है. १. मध्य प्रदेश के सागर जिले का एक प्राचीन नगर. ३. क कॉ. प. पु.१०१: प्लेट ११, मंगया १८. . ई. स्ट; संख्या ३, पृ. ३(ई.स. १८६५). ईस्ट; संस्था ३, ४३. इलर ने लिखा है कि 'अशोक के लेखों में दाहिनी और मे बाई ओर लिखने के विक बहुत कम मिलते है. जोगड और धौली के लेलों में 'श्री' उलटा है: और जौगइ तथा देहली के सिवालिक स्तंभ के लेख में 'ध' कचिस् उला मिलता है ( ई.प: पृ.), परंतु ये नो मामूली लेखकों के हस्तदोण या देशभेद के गुच्छ अंतर है. क्योकि 'मो' की मोक्रति, एक खड़ी लकीर के ऊपर के छोर से बाई ओर को और नीचे के छोर से दाहिनी ओर को एक एक मादी लकी. रखीचने से, बनती है. यह संभव है कि असावधान लेखक पहिले खड़ी लकीर खींच कर बाड़ी लकीरें खीचने में गलती कर जाधे. 'ध' की आकृति धनुष के सरश होने के कारण उसकी प्रत्येचा चाहे दाहिनी तरफ़ रहे या बाई तरफ इसमें मा. सूती अनपढ़ लेखक शायद ही फर्क माने. देशभेद से भी कभी कभी किसी प्रक्षर की मारुति उलटी लिखी मिलती है जैसे कि.स.की छठी शताब्दी के यशोधर्मन् के लेख मैं 'उ' भागरी के 'उ'का सा है (देखो लिपिए १८ यां) परंतुलसी शताबी के गालक सिंहादित्य के दामपत्र में उससे उत्तरी (लिपिपत्र ३८). धर्तमान बंगला लिपिका' स्टा Aho! Shrutgyanam Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. दो अक्षरों को ही उलटा मोदना भूल कर सीधा खोद दे तो केवल वे ही अक्षर सिक्के पर उलटे मा जायेंगे. २८ 4 ऐसी गलतियां कभी कभी हो जाने के उदाहरण मिल आते हैं मातवाहन (आंध्र) वंश के राजा शातकर्णी के भिन्न प्रकार के दो मिकों पर शतकणिस (शातकर्णे) सारा लेख एरा के सि की नई उलटाया गया है'. पार्थिवन् अब्दगसिस् के एक सिक्के पर के बरोठी लेख का एक अंश उलटा आ गया है अर्थात् नागरी की नई बाई ओर से दाहिनी ओर है (र; ई. कॉ; पृ. १५). विक्रम संवत् १६४३ के बने हुए इंदोर राज्य के पैसे पर 'एक पाव आना इंदोर यह लेख उल्टा आगया है. महाक्षत्रप रंज (राजुल ) के एक सिर्फ पर खरोष्टी लेख की तरफ के ग्रीक अक्षर Y और E से बने हुए मोनोग्राम में अन्तर उलटा आगया है परंतु दूसरे सिकों पर सीधा है? ५. एक प्राचीन मुद्रा पर श्रीरमपकुल' लेग्ज़ है, जिसमें 'श्री' और 'प' ये दो अक्षर उलटें आ गये हैं। ऐसे ही पटना के ᄇ . 1 से मिली हुई एक मुद्रा पर के 'अगपलश' ( अंगपालस्य ) लेख में 'अ' उलटा आगया है : ऐसी दशा में गरण के सिर्फ पर के उलटे लेख के आधार पर यह मान लेना कि 'ब्राह्मी लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती थी किसी तरह आदरणीय नहीं हो सकता". प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. हुल्श ( Hultzsch ) ने लिखा है ' कि 'बूलर एरण के सिक्के को, जिस पर के अक्षर दाहिनी ओर से बाई ओर हैं, ब्राह्मी के सेमिटिक लिपि से निकलने का प्रमाण मानता है, इसमें मैं उससे सहमत नहीं हो सकता. यह जानी हुई बात है कि सिके पर अक्षर ठीक आने के लिये ठप्पे पर उनको उलटा ग्वोदना चाहिये; इस बात को हिन्दुस्तानी ठप्पा खोदने वाले अक्सर भूल जाते हैं.' डॉ. फ्लीट ने भी ऐसा ही मन प्रकट किया है. , ब्राह्मी लिपि के न तो अजर फिनिशियन या किसी अन्य लिपि से निकले हैं और न उसकी बाई ओर से दाहिनी ओर लिखने की प्रणाली किसी और लिपि से बदल कर बनाई गई है. यह भारतवर्ष के आयों का अपनी खोज से उत्पन्न किया हुआ मौलिक आविष्कार है. इसकी प्राचीमता और सुंदरता से चाहे इसका कर्ता ब्रह्मा देवता माना जा कर इसका नाम त्राची पड़ा, लिखा जाता है ( लिपि प ८ ) परंतु पहिले ऐसा न था ( लिपिपत्र ३२-३५). पृ. ४. प्लेट १, संख्या ६ और ११. 7. क. कॉ. श्री. २. ई. पॅ जि. २६, पू. ३३६. २. पूर नाम के प्रत्येक अंश के प्रारंभ के सांकेतिक दो या तीन वर्णों को मिला कर जो एक विलक्षण चिह्न बनाया जाता है उसे अप्रेस में मोनोग्राम एकाक्षर) कहते हैं. ४. गा: को श्री. सी. पृ. ३७, संख्या ५. i. अ. रॉ. ए. सो; ईस. १९०१, पृ. १०४ संख्या ६. 7). कः श्र. स. रिजि. १५, प्लेट ३ संख्या २. ई. स. १८६५ में डॉन मार्टिनो डी जिल्वा विक्रमसिंघे ने रॉयल परिश्राटिक सोसाइटी के जर्नल (त्रैमासिक पत्रिका) में एक पत्र प्रकाशित कर यह बतलाना चाहा था कि 'सीलोन में कई शिलालेख प्राचीन ब्राह्मी लिपि के मिले हैं, जिनमें से दी में अक्षर उलटे हैं, परंतु उनकी छापों के अभाव में उनका विवेचन नहीं किया जा सकता' ज. रॉ. ए. सो. ई.स. १८२५ पू. ६५-६८) और ई. स. १९०१ में एक लेख उसी जर्नल में फिर छपवाया जिसमें उलटा खुदा हुआ कोई शिलालेख तो प्रका शित में किया किंतु उनकी छाप शीघ्र प्राप्त करने का यत्न करने की इच्छा प्रकट की, और अशोक के गिरनार के लेख में 'प्र' के स्थान में पं 'ष' के स्थान में 'ते' श्रादि जो अशुद्धियां मिलती हैं उनपर से यह सिद्धांत निकाला कि 'ब्राह्मी लिपि का रुख बदलने में से अक्षर इस तरह लिखे गये' (ज. रॉ. ए. सो. ई. स. १६०१, पृ. ३०१-५) परंतु गिरनार के सारे लेख को भ्यानपूर्वक पढ़नेव जे को यह अवश्य मालूम हो जायगा कि उसके लिखनेवाले को संयुक्ताक्षरों का ठीक ठीक ज्ञान न था और iamrer में प्रथम आने वाले 'र्' (रेक ) तथा द्वितीय आने वाले 'र' का अन्तर तो वह समझता ही न था जिससे उसने संयुक्ताक्षरों में ऐसी ऐसी अनेक अशुद्धियां की हैं. यदि इन अशुद्धियों पर से ही यह सिद्धांत स्थिर किया जा सकता हो कि ये लिपि के उत्तर लिखे जाने के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं तो बात दूसरी है. ई. स. १३०३ में डॉ. राइस डेविल्ज़ ने विक्रमसिंघे के ऊपर लिखे हुए पत्र और लेख के हवाले से मान लिया कि ब्राह्मी लिपि उमदी भी लिखी जाती थी (डे, कु. ई. पू. ११५ ), परंतु साथ में यह भी लिख दिया कि 'अब तक उलटी लिएका कोख प्रसिद्ध नहीं हुआ.' २.२ पृ. ३३६. १. ई. ऐ. केजी अनुवाद की भूमिका, पृ. ३-४. 6. गाः कॉ. प्री. सी. पृ. ६७, सख्या ६. Aho! Shrutgyanam Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ब्राह्मा लिपि की उत्पत्ति चाहे साक्षरसमाज ब्राह्मणों की लिपि होने से यह ब्रानी कहलाई होपर इसमें मंदेह नहीं कि इसका फ़िनिशिअन में कुछ भी संबंध नहीं. आदर्श लिपि में यह गुण होना चाहिये कि प्रत्येक उच्चारण के लिये असंदिग्ध संकेत हो जिमसे जो बोला जाप वह ठीक वैसा ही लिखा जाय और जो लिखा जाय वह ठीक वैसा ही पढ़ा जाय. उच्चारित अक्षर और लिखित वर्ण के इस संबंध को निभाने के उद्देश्य का विचार करें तो ब्राह्मी लिपि सर्वोत्तम है और इसमें और सेमिटिक लिपियों में रात दिन का सा अंतर है. इसमें स्वर और व्यंजन पूरे हैं और स्वरों में इस्व, दीर्घ के लिये तथा अनुस्वार और विसर्ग के लिये उपयुक्त संकेत न्यारे न्यारे हैं; व्यंजन भी उच्चारण के स्थानों के अनुसार वैज्ञानिक क्रम में जमाये गए हैं. इसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है और आर्य भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिये इसमें किसी प्रकार के संशोधन या परिवर्तन की अपेक्षा नहीं है. व्यंजनों के साथ स्वरों के मंयोग को मात्रा के चिहों से प्रकट करने की इसमें ऐसी विशेषता है जो किसी और लिपि में नहीं है. साहित्य और सभ्यता की अति उच्च अवस्था में ही ऐसी लिपि का विकास हो सकता है. वैदिक और प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के ६३ या ६४ मूल उच्चारणों के लिये केवल १८ उच्चारणों के प्रकट करने वाले २२ मंकनों की दरिद्र सेमिटिक लिपि कैसे पर्याप्त होती? मेमिटिक लिपि में और उसमे निकली सभी लिपियों में स्वर और व्यंजन पृथक पृथक नहीं हैं. स्वरों में हस्व दीर्घ का भेद नहीं. न उनके अक्षर विन्यास का कोई भी क्रम है. एक उच्चारण के लिये एक से अधिक चिम हैं और एक ही चिन्ह एक नहीं, किंतु अनेक उचारणों के लिये भी है. व्यंजन में स्वर का योग दिखलाने के लिये मात्रा का संकेत नहीं. परंतु स्वर ही व्यंजन के आगे लिखा जाता है और संयुक्त ध्वनि के लिये वणी का संयोग नहीं. स्वर भी अपूर्ण हैं. ऐसी अपूर्ण और क्रमरहित लिपि को ले कर, उसकी लिखावट का रख पलट कर. वणों को तोड़ मरोड़ कर, केवल अट्ठारह उच्चारणों के चिक उसमें पाकर बाकी उच्चारणों के संकेत स्वयं गढ़ कर, स्वरों के लिये मात्राचिक बना कर, अनुस्वार और विसर्ग की कल्पना कर, स्वर व्यजनों को पृथक कर, उन्हें उच्चारण के स्थान और प्रयत्न के अनु सार नए क्रम से सजा कर मांगपूर्ण लिपि बनाने की योग्यता जिस जाति में मानी जाती है. क्या वह इतनी सभ्य नहीं रही होगी कि केवल अट्ठारह अक्षरों के संकेतों के लिये दूसरों का मुंह न ताक कर उन्हें स्वयं ही अपने लिये बना ले? ऍडबर्ड थॉमस का कधन' है कि 'ब्रामी अक्षर भारतवासियों कही बनाये हुए हैं और उनकी सरलता से उनके बनाने वालों की बड़ी बुद्धिमानी मकट होती है। प्रॉफेसर डॉसन का लिखना है कि 'ब्राधी लिपि की विशेषनाग सब तरह विदेशी उत्पत्ति से उसकी स्वतंत्रता प्रकट करती हैं और विश्वास के साथ आग्रहपूर्वक यह कहा जा सकता है कि मयतर्क और अनुमान उसके स्वतंत्र आविष्कार ही होने के पक्ष में हैं.' ___ जेनरल कनिंगहाम का मत यह है कि ब्राह्मी लिपि भारतवासियों की निर्माण की हुई स्वतंत्र लिपि है. प्रोफेसर लॅसन्' ब्राह्मी लिपि की विदेशी उत्पसि के कथन को सर्वधा अस्वीकार करता है. हिन्दुस्तान का प्राचीन इतिहास अभी तक घने अंधकार में छिपा हुआ है. पुराने शहरी और पस्तियों के चिन्ह वर्तमान धरातल से पचासों फुट नीचे हैं. क्योंकि बार बार विदेशियों के आक्रमणों से पुराने स्थान नष्ट होते गये और उन पर नए बसते गए. सारा देश एक राजा के अधीन न होने से क्रमबद्ध इतिहास भी न रहा. प्राचीन इतिहास का शोध अभी हमारे यहां आरंभिक अवस्था में है मो भी उससे जितना कुछ मालूम हुअा है वह बड़े महत्व का है. परंतु अधिक प्राचीन काल के ...: जि. ३५, पृ. १३. .. यु. क्रॉ ई.स. १८८३, नंबर ३. .. अ. रॉ. य. सो; ई.स.१८८१, पृ.१०२. और ई. जि. ३५, पृ. २५३. ४. काकों. प. जि. १. पृ.५२. t. Inticiie Alertaink niden Erstinap100611807). Aho ! Shrutgyanam Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. अवशेषों तक अभी वह नहीं पहुंच सका है. अभी तक प्राचीन शिलालेख जो मिले है ई. स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी से पहिले के नहीं है, परंतु साहित्य में प्रत्यक्ष या गौष रीति से लेखनकला के जो हवाले मिलते हैं वे बहुत प्राचीन समय तक जाते हैं. उन सब से सिद् होता है कि लेखनकला सर्वसाधारण में प्रचलित, एक पुरानी बात थी जिसमें कोई अनोखापम न था. जितने प्रमाण मिले हैं, चाहे प्राचीन शिलालेखों के अक्षरों की शैली, और चाहे साहित्य के उल्लेख, सभी यह दिखाते हैं कि लेखनकला अपनी प्रौढावस्था में थी. उसके भारम्भिक विकास के समय का पता नहीं चलता. ऐसी दशा में यह निमयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कैसे हुमा और इस परिपक रूप में, कि जिसमें ही हम उसे पाते हैं, वह किन किन परिवतनों के बाद पहुंची मिसर आदि में जैसे भावों के संकेतरूप चित्र हुए और वे शब्दों के संकेत हो कर उनसे अधरों के संकेत बने, इस तरह यहां भी किसी चित्रलिपि से ब्राश्री लिपि बनी, या प्रारम्भ से ध्वनि केही सूचक चिन्ह बना लिये गये, यह कुछ निमय के साथ नहीं कहा जा सकता. निश्चय के साथ इतना ही कहा जा सकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं वहां तक ब्राली लिपि अपनी प्रौद अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में भाती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता. प्रार. शाम शास्त्री ने 'देवनागरी लिपि की उत्पत्ति के विषय का सिद्धांत' नामक एक विस्तृत लेख' में यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि देवताओं की मूर्तियां बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकोतिक विमों द्वारा होती थी जो कई त्रिकोण तथा चक्रों मादि से बने हुए यंत्र के, जो 'देवनगर' कहलाता था, मध्य में लिखे जाते थे. देवनगर के मध्य लिखे जाने याले अनेक प्रकार के सांकेतिक चित्र कालांतर में उन उन नामों के पहिले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य उनका स्थान होने से उनका नाम 'देवनागरी' हुभा. वह लेख बड़ी गवेषणा के साथ लिखा गया है और युक्तियुक्त अवश्य है, परंतु जब तक यह सिद्ध म हो कि जिन जिन तांत्रिक पुस्तकों से अवतरण उद्धृत किये गये हैं वैदिक साहित्य के समय के पहिले के, या कम से कम मौर्यकाल से पहिले के, हैं, तब तक हम उनका मत स्वीकार नहीं कर सकते. मान् जगन्मोहनवर्मा ने एक लंबा चौड़ा लेख लिख कर यह बतलाने का यम किया है कि 'वैदिक चित्रलिपि या उससे निकली हुई सांकेतिक लिपि से प्राली लिपि का विकास हुमा, परन्तु उस लेख में कल्पित वैदिक चित्रलिपि के अनेक मनमाने चित्र अनुमान कर उनसे मिन अक्षरों के विकास की जो कल्पना की गई है उसमें एक भी अचर की उत्पत्ति के लिये कोई भी प्राचीन लिखित प्रमाण नहीं दिया जा सका. ऐसी दशा में उनकी यह कल्पना रोचक होने पर भी प्रमावरहित होने से स्वीकार नहीं की जा सकती. बाबू जगन्मोहनवर्मा ने दूसरी बात यह भी निकाली है कि '' 'ठ,'','ढ' और 'ए' ये पांण मूर्धन्य वर्ण पार्यों के नहीं थे. वैदिक काल के भारंभ में अनायों की भाषा में मूर्धन्य वर्गों का प्रयोग जब भार्यों ने देखा तब वे उनके कानों को बड़े मनोहर लगे, अतएव उन्होंने उन्हें अपनी भाषा में ले लिया.' इसके प्रमाण में लिखा है कि 'पारसी आर्यों की वर्णमाला में मूर्धन्य वर्षों का सर्वथा अभाव है और धातुपाठ में थोड़े से धातुभों को छोड़ कर शेष कोई धातु ऐसा नहीं जिसके मादि में मूर्धन्यवर्ण हो', परंतु पारसी आर्यों के यहां केवल मूर्धन्यवों का ही प्रभाव है यही महीं किंतु उन की वर्णमाला में 'छ,'भ' और 'ल' वर्ण भी नहीं है और वैदिक या संस्कृत साहित्य में ''से प्रारंभ होने वाला कोई धातु या शब्द भी नहीं है, तो क्या 'छ, 'म', 'ल' और 'घ' वर्ष १. ई., जि. ३५, पृ. २५३-६७ २७०-१० १११-२४. १. सरस्वती ई.स. १९१४, पृ. ३७०-७१. .. सरस्वती.ई.स. १५९३ से १५१५ तक कई जगह Aho! Shrutgyanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वराष्ठा लिपि की उत्पत्ति भी अनार्यों से ही लिये गये? 'ट''''' और 'ण' से प्रारंभ होने वाले बहुत से धातु हैं. और जिनमें मूर्धन्य वपों का प्रयोग हुभा हो ऐसे हजारहां शब्द वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं. ग्रीक पापों की भाषा में '' और ''ही हैं, 'स' और 'द' का सर्वथा अभाव है और सेमिटिक अनार्यों की लिपियों में मूर्धन्य वर्गों का सर्वथा मभाव पाया जाता है (देखो पृ. २३ में छपाइमा नक्शा); इसी से ग्रीकी ने फिनिशियन् अक्षर 'भाव' ('सका सूचक) से टामो ('द'), और दालेथ ('द') से डेल्टा (') बनाया. ऐसी दशा में पानू जगन्मोहनवर्मा का यह दुसरा कथन भी भादरणीय नहीं हो सकता. -खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति. मौर्यवंशी राजा अशोक के अनेक लेखों में से केवल शहबाज़गड़ी और मान्सेरा के चटानों पर खुदे हुए लेख स्वरोष्ठी लिपि में हैं, जिनसे पाया जाता है कि यह लिपि ई.स. पूर्व की -पश्चिमी सीमांत प्रदेश के आस पास, अर्थात पंजाब के गांधार' प्रदेश में, प्रचलित थी. अशोक से पूर्व का इस लिपि का कोई शिलालेख अब तक नहीं मिला, परंतु ईरानियों के कितने एक चांदी के मारे सिक्कों पर ब्राह्मी या स्वरोष्ठी लिपि के एक एक अक्षर का ठप्पा लगा हुआ मिलता है, जिससे अनुमान होता है कि पंजाब की तरफ चलने वाले ये ईरानी सिक्के संभवतः सिकंदर से पूर्व के अर्थात् ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी के हों; क्योंकि सिकंदर के विजय से ईरानियों का अधिकार पंजाब पर से उठ गया था. १. 'ट' से प्रारंभ होने वाले भातु टंच. टल, टिक, टिप्, टीक और ट्याल है.. २. '' से प्रारंभ होने वाले धातु डप, डम् , डंब, भ, डिप. डिम् और डी है. क. 'ढ' से प्रारंभ होने माला धातु दौक है ४ पाणिनि ने धातुपाठ में बहुत से धातु 'स' से आरंभ होने वाले माने हैं ( णो नः पा. ६ । १ । ६५, उपसर्मा इसमासेऽपि खोपदेशस्य पा.८१४१४) १. युरोपिभन् विद्वानों ने 'खरोष्ठी लिपि का वाकट्रिमन वाट्रिान् पाली, मारिनोपाली. नोर्थ (उत्तरी) अशोक. काबुलिन् मौर गांधार मादि नामों से भी परिचय दिया है, परंतु हम इस लेख में खरोष्ठी' नाम का ही प्रयोग करेंगे. खरोष्ठी नाम के लिये देखो ऊपर पृ.१८. १. राजा अशोक के लेख जिन जिन स्थानों में मिले हैं उनके लिये देखो अपर पृ. २, टिप्पस ५. उक्त दिप्पण में दिये दुप स्थानों के नामों में अलाहाबाद ( प्रयाग) का नाम भी जोड़ना चाहिये. जो वहां छपने से रह गया है. .. प्राचीन काल में 'गांधार देश में पंजाब का पश्चिमी हिस्सा तथा अफगानिस्तान का पूर्वी हिस्सा अर्थात् उत्सर पश्चिमी सीमान्त प्रदेश के जिले पेशावर और रावलपिंडी तथा अफगानिस्तान का ज़िला काबुल गिना जाता था. . ईरान के प्राचीन चांदी के सिके गोली की आकृति के होते थे जिनपर ठप्पा लगाने से वे कुछ चपटे पड़ जाते थे परंतु बहुत मोटे और भद्दे होते थे. उनपर कोई लेख नहीं होता था किंतु मनुष्य आदि की भही शकलो के उप्पे लगते थे. ईरान के ही नहीं किंतु लीदिमा, प्रीस, मादि के प्राचीन चांदी के सिके भी ईरामी सिक्कों की नई गोल, भदे, गोली की शकल के चांदी के टुकड़े ही होते थे. केवल हिंदुस्तान में ही प्राचीन काल में चौकुंटे या गोल चांदी के सुंदर चपटे सिके, जिन्हें कार्षापण कहते थे, बनते थे. कॉरिथित्रा वालों ने भी पीछे से चपटे सिक्के बनाये जिसकी देखा देखी दूसरे देशवालों ने भी चपटे सिक्के बनाये (क; कॉ. ए. पू. ३ .. प्रोफेसर रेपसन् ने कितने एक ईरानी चांदी के सिओके चित्र विवरण सहित छापे हैं (ज. रॉ. ए. सोः ई.स. १८६५, पृ. ६५-७७, तथा पृ.८६५ के सामने का मेट, संख्या १.२५) जिमयर ब्राझी लिपि के 'यो''', ''. 'अ' और 'गो' अक्षर और खरोष्ठी लिपि के 'म'. 'मे', 'मं,'ति' ' और '' अक्षरोके उप्पे खगेप है Aho 1 Shrutgyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. अशोक के पीछे इस लिपि का प्रचार बहुधा विदेशी राजाओं के सिको तथा शिलालेग्व आदि में मिलता है. सिना में वाट्रिमन् ग्रीक' (यूनानी), शक', क्षत्रप', पार्थिमन्', कितने एक कुरानवंशी राजा, तथा औदंबर आदि सनद्देशीय वंशों के राजाओं के मिका पर के दूसरी तरफ के माकन लेख इस लिपि में मिलते हैं. इस लिपि के शिलालेख तथा नाम्रलेग्वादि ब्राह्मी की अपेक्षा बहुत ही थोड़े और बहुधा बहुत छोटे छोटे मिले हैं जो शक , क्षत्रप, पार्थिअन्' और .. यूनान के बादशाह सिकंदर ने ई. स. पूर्व ३२६ में हिंदुस्तान पर चढ़ाई कर पंजाब के कितने गक हिस्से और सिंध पर अपना अधिकार जमाया. ये इलाके तो यूनानियों के अधिकार में १० वर्ष भी रहने न पाय परंतु हिंदुकुश पर्वत के उत्तर के पारिश्रा। बलरय ) देश में यूनानियों का गज्य दृद्ध हो गया. जहां के राजा युथिहिमस् के समय मभवनः उसके पुत्र उमदिअस की अधीनता में ई.स. पूर्व की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ के आसपास फिर यूनानियों को बढ़ाई इस देश पर हुई और कावुल तथा पंजाब पर फिर उनका अधिकार हो गया, और ई.स. पूर्व की पहिली शतादी के अंत से कुछ पहिले तक कई यूनानी गजाओं का राज्य, घटता बढ़ता, बना रहा. उनके सिके. अफगानिस्तान तथा पंजाब में बहुत से मिल आते हैं जिनपर एक और प्राचीन ग्रीक (यूनानी) लिपि के, तथा दूसरी ओर बहुधा खरोष्ठी लिधि के प्राकृत लेख है। (गा. क. श्री. सी. किं. बा.: प्लेट ३-३५. हा कॅ. कॉ. पं. म्यू: जिल्द लट ३-६, श्रीर स्मि, कॅ: कॉ.ई म्युः शेर-६). १. शक लोगों ने यूनानियों से धादिया का राज्य छीना जिसके पीछे वे हिंदुकुश पर्वत को पार कर दक्षिण की ओर बढ़े और उन्होंने पश्चिम में हिरात से लगा कर पूर्व में सिंधु तक का देश अपने अधीन किया फिर ये क्रमशः प्रागे बढ़ते गये उनके सिकों पर भी एक ओर यूनानी और दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि के लेख है (गाः के. पी सी किं. या ई: प्लेट १६२१. हा कॅ. कॉ. पं. म्यूः जिल्द सेट १०-१४, और स्मिः कॅ. कॉ. इं. म्युः सेट ८६). , 'क्षत्रप शब्द संस्कृत शस्ली का सा दाखने पर भी संस्कृत कानही किंतु प्राचीन दंगनी भाषा का है, जिसमें क्षत्र या क्षत्र शब्द का अर्थ 'लिला' और 'पाप' का अर्थ जिले का हाकिम होता है. ये क्षत्रप भी बहुधा शक ही थे और प्रारंभ में शक राजाओं की तरफ से ज़िलों के हाकिम या सामंत रहे परंतु पीछे से स्वतंत्र भी हो गये. देश भेद के अनुसार सापों के दो विभाग किये जा सकते है.--'उत्तरी अर्थात् तक्षशिला, मथुरा आदि के और पश्चिमी अर्थात् मालवा, राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ और दक्षिण के. उत्तरी सत्रों में से मनिगुल के युव जिहानिस मास के पुत्र खरमोस्त तथा रंजुबुल (राजुल) आदि के सिकों पर और पश्चिमी क्षत्रपों में से केवल भूमक, नहपान, और चपन के सिक्कों पर खरोष्टी लेख मिलते हैं (बाकी सब के सिक्को पर दूसरी और प्राली के लेख है). ५. पार्थिअन् राजा भी शक जाति के ही होने चाहिये, परंतु पार्थिा की मरफ से पाने के कारगा उनको पार्थिअन् कहते हैं. उनका राज्य कंदहार, सीस्तान, पश्चिमी पंजाब और सिंध तक घटना बढ़ता रहा. उनके मित्रों पर भी दूसरी तरफ खरोष्ठी लिपि के लेख है (गा के.कॉ. ग्री. ली. कि. वा.ई मेट २२-२.३, हाः कॅ.कॉ.पं. म्यू: जि. लेट २५.१६. स्मि; कॅ.कॉ. ई. म्यू: प्लेट 1. कुशनवंशी मध्य एशिया से इस देश में प्राये. कल्हण अपनी राजतरंगिणी में इस वंश के राजाओं को तुरुक (तुर्क) पतलाता है और उनके सिको पर की उनकी तस्वीरों की तुकी पोशाक कल्हण के लेख की पुएि करनी है. इनका राज्य बहुत विस्तृत हुअा और इनमें राजा कनिष्क बड़ा ही प्रतापी हुआ. इस वंश के गजाओं में से कुजुल कडफसिम , कुजुलकर कडफसिस् और वेम कडफसिस् इन तीन के सिक्का पर खरोष्ठी लेख मिलते है और कनिष्क हुनिष्क और पारसदेव के सिक्कों की दोनों ओर ग्रीक लेख ही है। गाः के. कॉ. पी. सी. कि. बा.: सेट २५-२६. हर: के. कॉ. पं. म्यु: जि., मटे १७२०. स्मिः कै. कॉ. ई. म्यूः प्लेट ११-१४. . औदुंबर और कुनिंदवंशी गजानों के पंजाब से मिलने वाले सिक्कों पर दूसरी तरफ खगेष्ट्री लिपि के नख मि .. शक वंशी राजा मोग ( मोन)के राजन्यकाल का उसके क्षत्रप पतिक का, जो क्षत्रप लिनक कु.सुलक का पुत्र था. एक ताम्रलेख ( सं. ७८ का ) तक्षशिला से मिला है (ए. जि. पृ. ५५-४६). . मथुरा के महाक्षत्रप राजुल के राज्य समय उसकी अनमहिषी (मुख्य गणी ) नदसीअकम ने मथुग में बौद्ध स्तूप तथा सर्वास्तिवादी बौद्धों के लिये संधाराम (मठ) बनवाया जिसका लेख एक धंभे के सिंहाकृति वाले सिरे पर सिंहों के शरीर पर खुदा हुश्रा मथुरा से मिला है. राजुल के पुत्र आदि के नथा उस स्तूप के उत्सय में शामिल होने वाले की अन्य पुरुषों के भी छोटे छण्टे लेख उसके साथ खुदे हुए है जिनमें से एक ऊपर कहे हुए पतिक का भी है (..: जि. पृ. १४१४७). क्षत्रप गएकपक्षक (?) के पुत्र कधिशिन इनप का एक लेख माथिकिमाल (रावलपिड़ी में करीब २० मील दक्षिण-पूर्व) के स्तूप में से मिले हुए पीतल के डिन्धे के ढक्कन पर खदा हुअा है (प.: जि. १२, पृ. २६, पार्थिान् राजा गाँडोफरस के राज्य वर्ष २६ (सं. १०३) का एक शिलालेख तख्तीवही (पंजाब के ज़िले युसफज़ई में) से मिला है (ज.प. स. १८९०, भाग, पृ. ११६ ) Aho! Shrutgyanam Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति कुशनवंशी' राजाओं के समय के हैं इनमें से कितनं एक में राजाभों के नाम मिलते हैं, और दूसरों में साधारण पुरुषों के ही नाम हैं, राजाओं के नहीं. ये यौद्ध स्तूपों में रक्खे हुए पत्थर आदि के पात्रों और सोने, चांदी या तांबे के पत्रों परः अथवा चटानों और शिलाओं या मृर्तियों के आसनों पर खुदे हुए मिले हैं. इनमें से अधिकतर गांधारदेश से ही मिले हैं. और वहां भी विशेषकर तक्षशिला (शाहढेरी, पंजाब के जिले रावलपिंडी में) और चारसडा (पुष्कलावती) से. पंजाय के बाहर अफ़गानिस्तान में बर्डक (ज़िले बईक में) तथा हिड्डा (जलालाबाद से ५ मील दक्षिण) आदि में, और मथुरा में, मिले हैं, अन्यत्र' नहीं. । शमवंशी राजाओं के समय के खगेठी लिपि के लेख अधिक संख्या में मिले है. राजा कनिष्क के समय का एक शिलालेख (सं. २९ का ज़ेदा ( जिले यसफज़ई में) से (ज.एई. स. १८६०, भाग १, पृ. १३६); एक तात्रलेख (सं.१२.का) सुपविहार (पंजाब के बहावलपुर राज्य में) से (इ.एँ: जि. 10, पृ. ३२६: धौर जि.१. पृ. १२८); एक लेख मारिकियाल से (कः पा. स.सि.जि ५, पृ.१६० के सामने का सेट) और पेशाबर के कनिष्कबिहार के स्तूप से मिले हुए डिन्ये पर खुदे हुए तीन छोटे छोटे लेख । श्रा. सः ई. स. १३०६-१०, पृ. १३६-३८) मिले है. श्रारा नामक नाले : बारानीलाथ से २ मील पर-पंजाब में) के अंदर के एक पुगने कुए में से पाझप्प के पुत्र कनिष्क के समय का एक शिलालन (सं.४. का मिला है। ई. में: जि. ३७. पृ. ५८;. हुविक के समय का एक लेख । सं. ११ का वडक अफरानिम्तान में के स्तुप में से मिले हुण. एक पीतल के पात्र पर खुदा है (ए.ई.जि. २१, पृ २१०-११). पंजतार ( ज़िले युसफज़र्जा में से एक शिलालम्ब (सं. १२२ कर । किसी गुशन | कुशन ) वंशी राजा के समय का (क; श्रा. स. रि: जि ५, पृ. १६२, और रेट १६, संख्या ४), नथा महाराज राजातिराज देवपुत्र खुशन (कुशन. उतनाम के राजा या कुशन बंशी किसीराजा का एक लखम२३६का रायपत्र पर खुदा हुश्रा तक्षशिला से मिला है (ज. रॉ. ए. सो.ई. स.१६१४, पृ. ६७५-७६ आर.स. १६१५. पृ.११२ के सामने का लेट:. न हिदा के स्तूप से मिले हुए मिट्टी के पात्र पर सं. २८ का लरस (ज, सें. ए. स. स. १६१५, पृ. ६२, और उस के सामने का प्लेट:शकदर्ग(पंजाब के ज़िले अटक में) से मिला हुआ (सं.४० का) शिलालेख १६.प: जि. ३७, पृ. ६६); हिंद ( युसफजई जिले में ) का ( सं. ११ का । लेख ( क: आ. स. गि: जि ५ पृ. ५८: सेट १६, संख्या २. : फतहग (ज़िले अटक में)का (सं. ६८ का) शिलालेख ज. ए:ई. स. १८९०, भाग १, पृ. १३0) मुचर (ज़िले युसफजई में) से मिला हुश्रा (म. ८२) का शिलालेख (ई.एँ; जि. ३७. पृ. ६४); बोज पहाड का ( सं २०२ का लेख (ज. प. स. १८६४, भाग २, पृ. ५१४ पाजा (ज़िले यूसफजई में) का (सं. १९१ का) शिला लेख (ई.एँ; जि. ३७, पृ. ६५); कलदर्रा नदी ( पश्चिमोत्तर सीमांन प्रदेश में दाई के पास में से मिला हुअा (सं. ११३ ) का शिलालेख {ई.एँ: जि. ३७, पृ. ६६); स्कारहरी । चारसट्टा अर्थात् हश्ननगर से - मोल उत्तर में से मिली हुई हारिती की मूर्ति के श्रासनपर खुदा हुश्रा ( सं. १७ का लग्न । आ. सः ई. स.२६०३४: पृ. २५.५: सेट ७०, संख्या ६); देवाई ( ज़िले यूसफजई में) का (सं २०० का ) शिलालेख ( ज.ए: ई. स. १८६४. भाग २, पृ ५० ): लोरिअन् तंगाई। जिले स्वात में) से मिली हुई बुद्ध की मूर्ति के प्रासन पर खुदा हुना। सं. ३२८ का लेख प्रा. स.ई. स. १६०३-४: पृ. २५५: प्लेट ७०. संख्या ४) हश्ननगर ( पेशावर ज़िले की चारमडा तहसील में से मिली हुई बुद्ध की..( अपने शिष्यो सहित) मूर्ति के आसन पर स्थुदा हुआ (सं. ३८४ का) लेख (ए. ई: जि. २२, पृ. २०२) ये सब साधारण पुरुषों के संवत् वाले लख हैं. इन लेखों में जो संवत् लिखा है वह कौन सा है यह अभी तक पूर्णतया निश्चित नहीं हुना, परंतु हमारी संमति में उनमें से अधिकतर लेखों का संवत् शक संवत् ही होना चाहिये. बिना संवत् वाले लेख ये हैं - तक्षशिला के गंगू नामक स्तूप से मिला हुश्रा सुवर्णपत्र पर खुदा हुघा लेखकः प्रा. स. रि: जि.२. पू. १३०. और सेट ५) माणिकिसाल के स्तर से मिले हुए छोटे से रौप्यपत्र पर खुदा हुश्रा छोटा सा लेख '.ई. जि. १२. पृ ३०१) तक्षशिला के स्तर से मिला हुआ नाम्रपत्र गर का लेख ( क; आ. स रि: जि. २, प्लेट ५६, संख्या ३: ज. ए. सी. बंगा; ई. स. १६००, पृ. ३६४ : तक्षशिला के स्तूप से मिले हुए पात्र पर का लेख (प.ई: जि.८, पृ. २६६), मरेग (कालाहिसार से १० मील पश्चिम में ) के पक चौटे प्राचीन कुप में तीन तरफ एक एक छोटा लेख ( कः प्रा. स. गि: जि. २ प्लेट ५६); चारसता (पुश्कलावती) के स्तूपों से मिले हुए ५ छोटे छोटे लेख, जिनमें से मिट्टी की हंडियात्रा पर (श्रा सः १६०२-३, पृ. १६३) और दो मूर्तियों के श्रासनों पर (आ. स. १९०२-३, पृ. १६७. १७६ खुदे हुए हैः कन्हिवाग और पठ्यार ( दोनों जिले कांगड़ा में से एक एक छोटा लेख (चटान पर खुदा). ई: जि. ७, पृ. ११८ के सामने का प्लेट): युसफज़ा जिले में सहरीबहलोल से दो, और सड़ो से एक शिलालेख, (कः श्रा. स. रिः जि. ५, सेट १६. संख्या.५ और और मांधार शैली की मूर्तियों के आसनों पर के छोटे छोटे लेख ( श्रा. सः ई. स. १६०३-४; सेट ७०. संख्या २, ३, ५, ६, ७और =). . केवल अशोक के सिद्धापुर ( माइसोर राज्य में) के स्लेख (संख्या १) के अंत की अर्यात १३ षी पंक्ति में 'पोम लिखित' के बाद खरोष्ठी लिपि में 'लिपिकरेण' खुदा है (.; जि. ३, पृ. १३८ के सामने का लेट), जिससे अनुमान होता Aho! Shrutgyanam Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. खरोष्ठी लिपि की लेखन शैली फारसी की नाई दाहिनी ओर से बाई ओर होने से निश्चित है कि यह लिपि सेमिटिक वर्ग की है, और इसके ११ अक्षर-'क', 'ज', 'द', 'न', 'ब', 'य", 'र', 'व', 'प, 'म' और 'ह' समान उच्चारण वाले मरमइक अक्षरों से बहुत कुछ मिलते सेमिटिक लिपि संबंधी आधुनिक शोध से अनुमान होता है कि असीरिया और थापालन में क्यूनिफॉर्म लिपि का प्रचार होने पर भी राजकीय और न्यौपार के कामों में अरमइक लिपि काम में पाती थी. हवामनी (अकॅमीनिअन्) वंश के बादशाहों के समय ईरान के राज्य का प्रताप बहुत बड़ा और दूर दूर के देश १७ उक्त राज्य के अधीन हो गये. उस समय के अरमइक लिपि के अनेक शिलालेख मिसर, अरव और एशिया माइनर में मिले हैं और एक ईरान में तथा एक हिंदुस्तान है कि उस लेख का लेखक 'पडपंड ) पंजाय की तरफ का होना चाहिये, जिसको खरोष्ठी लिपि का भी ज्ञान होगा जिसे जतलाने के लिये ही उसने ये अंतिम पांच अक्षर उस लिपि में लिखे हो. इसी तरह मरत के प्रसिद्ध स्तूप के द्वार पर कहीं एक एक अक्षर सरोट्रो काखदा हुआ मिला है(क; भ. स्तूः लेटये पंजाब की तरफ से आये हुए शिल्पियों के खोदे हुए होने चाहिये. १. खरोष्ठी का 'क' तक्षशिला के लेखातथा पंपायरसों के कॉफ' से मिलता हुआ है। देखो पृ. २३ परछपा हा माशा). ५. 'ज' सकारा, दीमा प्रादि के लेखों के 'जान' से मिलता हुआ है. .. 'द' तक्षशिला के लेख, 'पायरसो तथा सहारा आदि के लेखों के 'दाल से मिलता है. .. 'न'तक्षशिला के लेख, शायरसों तथा सकारा आदि के लेखों के नून् ' से मिलता है. ५. 'ब' तक्षशिला के लेम्ब, पंपायरसों तथा सकारा आदि के लेखों के 'बेथ् से मिलता है. ६ 'य तक्षशिला के लेख, पंपायरसों तथा सकारा आदि के लेखों के योध्' से मिलता है. .. 'र' तक्षशिला के लेख तथा पंपायरसो के रेश्' से मिलता है. .. '' तक्षशिला तथा सकारा आदि के लेखों के 'वार' से मिलता है. <. ' को उलटा करने पर यह पायरसों तथा सक्कारा आदि के लेलों के शिन्' से मिलता है. ... 'स' तक्षशिला और सक्कारा के लेखों के साधे से मिलता है. ११. 'इ' तक्षशिला के लेख के 'हे' से मिलता हुआ है. १९. ज. रॉ. प. सोः स. १९१५, पृ. ३४६-४७. १०. आर्य जाति के हखामन (कमोनि) नामक ईरानी राजवंशी ( जो ई. स. पूर्व की वीं शताब्दी में हुआ हो) के नाम पर से उसके वंशज, ईरान के बादशाह, हवामनी वंशी कहलाते हैं. पहिले ईरान का राज्य मीडिया के अधीन था और हवामन के वंशज साइरस ( कुरु कुरुष-कै खुसरो) ने, जो प्रारंभ में अनशान (ईसन में ) का स्वामी या शासक था, मीडिया के राजा अस्स्यगिस (रविगु) को छलबल से परास्त कर समस्त ईरान और मीडिया पर अपना साम्राज्य ई. स. पूर्ष ५५८ के आस पास जामाया, जिसकी समाप्ति ई.स. पूर्व ३३१ में यूनान के बादशाह सिकंदर ने बादशाह दारा (तीसरे) को परास्त कर की. ___. हखामनी वंश के साम्राज्य के संस्थापक साइरस ने ईरान, मोडिया, लोडिमा ( पशिप्रा माइनर का पूर्यो आधा हिस्सा ), पशिप्रा माइनर का पश्चिमी हिस्सा जिसमें यूनानियों के कई उपनिवेश थे, प्रायोनिया ( मीडिया से परिश्रम का एशिया माइनरका समुद्रतट का प्रदेश), खोया, समरकंद, बुखारा,अफरानिस्तान तथा गांधारमादिदेश अपने अधीन किये. उसके पुत्र कंसिस् (कंबुजोय) ने मिसर देश विजय किया. सिस् के पुत्र दारा (प्रथम) ने ग्रीस के प्रेस तथा मसीइन् श्रादि हिस्सों पर अपना अधिकार जमाया और पूर्व में हिदुस्तान में प्रागे बढ़कर सिंधुतट का प्रदेश अपने अधीन किया. ५ मिसर में सकारा, सेरापित्रम् तथा पॅबिडॉस आदि स्थानों में श्ररमहरु लिपि के लेख मिले हैं जिनमें से सकारा का लेख ई. स. पूर्व ४८२ का है ( पेलिभाम्राफिक सोसाइटीज़ मोरिएंटल सीरीज, प्लेट ६३), १. अरब में हजाज से उत्सर के टोमा नामक स्थान में कुछ बरमहा लिपि के लेख मिले है, जिनमें से एक.स. पूर्व ५०० के प्रासपास का माना जाता है, टीमा में अरमहक भाषा का व्यवहार करने वाले व्यापारियों की बारादी थी (प.त्रिजि. २१, पृ.६४७). 1. पशिमा माइनर-टर्की के पशिभाई राज्य का पधिमी हिस्सा जो टर्की के यूरोपी राज्य से मिला हुआ है. १८. ईरान के सेवकलेह (तेहरान और तेडीज़ के बीच) नामक स्थान में एक लेख मिला है (.; जि.२४, पृ. २८७), Aho! Shrutgyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरोही लिपि की उत्पत्ति में तलशिला नगर से भी मिल चुका है. मिसर से हवामनियों के राजत्यकाल के उसी लिपि के बहुतेरे पंपायरम मिले हैं और एशिमा माइनर से मिले हुए ईरानी नत्रपों (सत्रपों ) के कई सिकों पर उसी लिपि के लेख मिलते हैं, जिनसे पाया जाता है कि इखामनी वंश के ईरानी बादशाहों की राजकीय लिपि और भाषा परमहक ही होनी चाहिये. व्यापार के लिये भी उसका उपयोग तक होना पाया जाता है.. हिंदुस्तान का ईरान के साथ प्राचीन काल से संबंध रहा और हवामनी वंश के बादशाह साइरस ( ई. स. पूर्य ५५८-५.३० ) ने पूर्व में बढ़ कर गांधारदेश विजय किया और ई. स. पूर्व ३१६ के कुछ ही बाद दारा ( प्रथम ) ने मिंधु तक का हिंदुस्तान का प्रदेश अपने अधीन किया जो ई. स. पूर्व ३३१ तक, जय कि यूनान के आदशाह सिकंदर ने गॉगमेला' की लड़ाई में ईरान के यादसाइ दारा (श्रीसरे) को परास्त कर ईरानी राज्य पर नाम मात्र के लिये अपना अधिकार जमाया, किसी न किसी प्रकार बना रहा. अत एव संभव है कि ईरानियों के राजन्यकाल में उनके अधीन के हिंदस्तान के इलाकों में उनकी राजकीय लिपि अरमहक का प्रवेश हुश्रा हो थोर पुसीसे बरोष्ठी लिपि का उद्भव हुमा हो, जैसे कि मुसलमानों के राज्य समय फारसी लिपि का, जो उनकी राजकीय लिपि थी, इस देश में प्रवेश हुआ और उसमें कुछ वर्ण बढ़ाने से उर्व लिपि बनी. अरमहक लिपि में केवल २२ अक्षर होने तथा स्वरों की अपूर्णता और उनमें स्व दीर्थ का भेद न होने एवं स्वरों की मात्राओं का सर्वथा अभाव होने से वह यहां की भाषा के लिये सर्वथा उपयुक्त न थी तो भी राजकीये लिपिहोने के कारण यहां वालों में से किसी ने ई.स. पूर्व की पांचों शताब्दी के आसपास उसके अक्षरों की संख्या बढ़ा कर. कितने एक को प्रावश्यकता के अनुसार यदल नथा स्वरों की मात्राओं की योजना कर उसपर से मामूली पढ़े लिखे लोगों, न्यौपारियों नधा महल्कारों के लिये काम पलाक खरोष्ठी लिपि बना दी हो. संभव है कि इसका निर्माता चीन बालों के लेग्यानुसार ग्बरोष्ट नामक भाचार्य। (ब्राह्मण) हो. जिसके नाम पर से इस लिपि का नाम खरोष्ठी मा. और यह भी संभव है किनक्षशिला जैसे गांधार के किसी प्राचीन विद्यापीठ में इसका प्रादुर्भाव हुआ हो. जिनने लेस्त्र प्रबसक इस लिपिके मिले। इनसे पाया जाता है कि इसमें स्यों नथा उनकी मात्रामों में ट्रस्व दीर्घ का भेद न था. संयुक्ताक्षर केवल थोड़े ही मिलते हैं इतना ही नहीं, किंतु उनमें से कितने एक में संयुक्त व्यंजनों के अलग अलग रूप स्पष्ट नहीं पाये जाते परंतु एक विलक्षण ही रूप मिलता है जिससे कितने एक संयुक्ताक्षरों का पड़ना अभी तक मंशययुक्त ही है. बौद्धों के प्राकृत पुस्तक . जिनमें स्वरों के इस्व दीर्घ का विशेष भेद नहीं रहता था और जिनमें संयु .. इ. रॉ. ह. मो. ई. स. १६१५, पृ. ३५० के सामने का प्लेट. .. मिसर ई. स. पूर्ष ५०० से लगा करई म पूर्व २०० तक के अरमरक लिपि के पंपायरस मिले हैं. ७. : जि. २४, पृ. २८७. । ज. रॉ ए. सोई स. १६६५ पृ. ३५६-१७. १. गोगमेला । प्ररथैला ) दकी के पशिभाई राज्य का एक नगर. जो मोसल और बगदाद के बीच में है 5. खरोष्ठ के लिये देखो ऊपर, पृ. १८ .. खरोष्टी लिपि के शिलालेखादि के लिये देखो ऊपर पृ. ३२.टि. 5-6: श्रार पृ. ३३. टि... + हिडा के स्तूप ( संख्या १३) से मिले हुए खरोष्ठी लेखपाले मिट्टी के पात्र के भीतर खरोष्ठी लिपि में लिखे हुए कितने एक भोजपत्र एक पत्थर पर लिपटे हुए मिले थे परंतु बहुत प्राचीन होने के कारण ये बच सके (परिमाना टिका. पू. ५६.६०, ८४. ६३. १११, १९६). ये सबसे पुराने हस्तलिखित भोजपत्र ये.ई.स.की तीसरी शताब्दी के पास पास की 'धम्मपद' की एक प्रति खोतान से मिली है जिसमें स्वरों की मात्रामों में कुछ सुधार किारा पाया जाता है (ई.पे पृ. १८१६). Aho! Shrutgyanam Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. सानों का प्रयोग विरलही होता था, इसमें लिखे हुए मिले हैं, परंतु यह लिपि संस्कृत ग्रंथों के लिखने के योग्य नहीं थी. शुद्धता और संपूर्णता के विचार से देग्वा जावे तो इसमें और ग्रामी में उतना १. कलकत्ता हाई कोर्ट के भूतपूर्व अङ्ग फई शजिटर नामक विज्ञान ने दी पुराण टेक्स्ट ऑफ दी मिस्टीज़ मोफ दी कलि पज' (कलियुग के अयशों के संबंध के पुगणों के मूल पाठ नामक पुस्तक में यह वनखाने का यन किया कि पुराण के ये पाट मूल में खरोष्ठी लिपि में और पीछे से उस पर से माली में लिये गये होंगे. इसके प्रमाण में लिखा है कि विष्णुपुराण में बाधा अशोकवर्धन नाम मिलता है परंतु उसकी एक हस्तलिम्पित प्रति (KVs) में प्रयोशाक. वर्धन पाठ. यहां पर लेखक में 'शो' की गलती से 'यो' पढ़ कर घसा ही लिखा. वाट उसने | श किसी दूसरे ने यह गलती देखी श्रीर उस प्रति में 'शो लिखा था यदा-दिया. परंतु 'यो' का कारा नहीं और अशुभ नाम अयोशाक या रहा भार जब वह प्रति (k Vs लिखी गई तब तक वैसी ही नक्ल होती रही. हिंदुम्नान की केवल संगाष्ठी लिपि में ही 'यो मौर. 'शो' अक्सर एक से लिखे जान है मत पय यह प्रायः निश्चित ही है कि विधापुराया में यह अंश अयश्य मूल खरोष्ठी हस्तलिखित प्रति स लिया गया होगा' (पृ. ८४ ). इसी तरह विष्णुपुराण की एक प्रति (ey V1 में :कौशल' के स्थान पर कोयल' और वायुपुराण को एक प्रति ( V) में 'शालिशूक' के स्थान पर 'शालियुक' मिला. इन तीनों स्थानों में श' के स्थान पर 'य' लिखा है. इसी तरह मत्स्थपुगण की एक हस्तलिखित प्रति (djM) में काशयाः' के स्थान पर कालेयाः' और वायुपुराण में कहीं कहीं 'शुंगभृत्य' के स्थान पर 'शुंगकृत्य पाठ मिला (पृ. ४) इन थोड से लेखक दोषों पर से मि. पाजिटर ने यह अनुमान कर लिया कि लेखक ने 'श'को 'य' या 'ल.'और 'भ' को 'क' पढ़ लिया और यह अशुखता खरोष्ठी में ब्राह्मी में नकल करने से ही हुई होगी. परंतु सगेष्टी लिपि के जितने लख अब तक मिल है जन सय में, सिवाय पईक के पात्र पर के लेख के, 'श'और 'य' में स्पष्ट भेद पाया जाता है। देखा लिपिपत्र हy... 301. 'श'और 'ल' में, और 'भ'जथा'क' में भ्रम होने की संभावना बहुत ही कम है क्योंकि उनमें स्पष्ट होता. स्वरोष्ठी लिपि में यास्तथ मे भ्रम उत्पन्न कराने वाले अक्षरों में से 'ण' और 'न.' में विशेष भेव पहुधा न मिलता. तथा', 'न' और ' इन तीन अक्षरों में परस्पर भेद मालूम करना मामूली लेखक के लिये कठिन है. इसी तरह स्थगे तथा उनकी मात्राओं में इस्यही का मेद म होने तथा विसर्ग और इलंत व्यंजनों का प्रभाष होने से वीर्य रूपगं तथा उनकी मात्राीपथं विसर्ग.हलंत व्यंजन तथा संयुक्त पंजमों की शुरु नकल होना सर्वथा असंभव है. इस लिये यदि पुराणों के ये अंश खरोष्ठी से पानी में माल किये गये होते तो उनमें 'श्रा...' 'ऊ', और 'श्री'मार तथा उनकी मात्रानो का तथा विसर्ग भार हलंत व्यंजनों का सर्वथा अभाष होता भीर 'म' तथा 'ण एवं त' और 'अक्षरी वाले शब्दों में इजारा गलतियां मिलती क्योंकि पुस्तकों की नपस करने वाले संस्कृत के विशन नहीं किंतु मामूली पड़े हुए लोग होते हैं और असावे मूल प्रति में देखते हैं ऐसा ही लिख डालते हैं। मक्षिकास्थाने मक्षिका अन एव पुराणों के हस्तलिखिन राजवंशवर्णन के अंश जिस स्थिति में हमें इस समय मिलते है उस स्थिति में सबंधा न मिलते किंतु कातंत्र व्याकरण के प्रारंभ के संधियो मक के पांच पादों के सूत्रों की जो दशा हम गजपताने की 'सीधो की पांच पाटियों में देखते हैं उससे भी युरी दशा में मिलन. परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि वे प्रारंभ से ही प्राली लिपि में लिख गये और उसकी म माली तथा उससे निकली हुई भिन्न भिन्न लिपियां में समयानुसार होती रही. मि. पाजिटर ने खगष्ठी से पालो में नक्ल कर में जहां हजारों भशुचियां होने का समय था उन अक्षरों का तो तनिक भी विचार न किया. एसी अशा मै हम उस कथन को किसी सरह आदर गीय नहीं मान सकते. प्रसिद्ध पुरातत्ववेता डॉ. संन कॉमो ने भी उक्त पुस्तक की समालो. राजपूतान में विद्यार्थियों का पहिले कातंत्र व्याकरण पढ़ाया जाता था और उस प्राचीन परिपाटी के अनुसार अब सकभी पुराने ढंग की पाठशालामी में उसके प्रारंभ के संधि विश्यक पांच पाद राय जाते हैं. कामंत्र ज्याकरण के प्रथम सूत्र का पहिला शब्द सिको सिको वर्णनमाम्नाथः ।हान से उमको 'सीघोहते है और उक्त पांच पाही को सीधी की पांच पाटी करते हैं. संस्कृत न जानने वालों के द्वारा उनकी नकल तथा पढ़ाई होते होते इस समय उनकी कैसी दुर्दशा होगई है और मूल में तथा उनमें कितना अंतर पड़ गया है. यह पतलाने के लिये उनके प्रारंभ के योग से सूध नीच उड़न किये जाते है कातंक सिजो वर्णसमाम्नायः । तत्र चमुशादी स्वराः । प्रश समानाः । तेषां ही झावोन्यस्य सयणीं । मोधो साधो बरना समानुनाया । मधुबनुदासा उम्मेयारा । इसे समाना । मुनुभ्यावरणो मसीसमरणा । कानंग प्रबों हस्थः । परो दीर्भः। स्यरोवर्णयों नाम ।पकारादीनि सन्ध्यक्षरारिए । कार्यानि व्यञ्जनानि । मोधी परको समा। पारा वीरया साग वरणाविणज्यो नामी । ईकरावेणी संघकाणी ।कारी नायू.षिणज्योमामी। कान वर्गाः प प । मोधी ते विरमा पंचा चा । Aho 1 Shrutgyanam Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ प्राचीम लिपियों का पढ़ा जाना. ही अंतर पाया जाता है जितना कि इस समय छुपी हुई नागरी की पुस्तकों तथा राजपूताने के अधिकतर रजवाड़ों के मामूली पड़े हुए महल्कारों की लिस्वावटों में, ई.स. की तीसरी शताब्दी के पास पास तक इस लिपि का का प्रचार पंजाब में बना रहा, जिसके बाद यह इस देश में से सदा के लिये मस्त हो गई और इसका स्थान प्राली ने ले लिया, तो भी हिंदुकुरा पर्वत से उत्सर के देशों नया चीनी तुर्किस्तान आदि में, जहां बौद्ध धर्म और भारतीय सभ्यता त हो रही थी, कई शताब्दी पीछे तक भी इस लिपि का प्रचार बना रहा. प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. सर मॉरल स्टाइन ने चीनी तुर्किस्तान प्रादि प्रदेशों से असाधारण श्रम कर जो प्राचीन वस्तुएं एकत्रित की हैं उनमें इस लिपि में लिखे हा पुलक और लकड़ी की लिखित तपितया मादि पहनाप सामग्री भी है. ४-प्राचीन सिपियों का पक्षा जाना. भारतवर्ष के विमान ई. स. की १४ वीं शताब्दी के पहिले ही अपने दश की प्राचीन लिपि प्रास्त्री तथा उससे निकली हुई ई. स. की छठी शताब्दी तक की लिपियों का पदना भल गये थे, परंतु पिकली अर्थात् ७थीं शताब्दी से इधर की लिपियां, संस्कृत और प्राकृत के विद्वान्. जिनको प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों के पढ़ने का अभ्यास था. यत्न करने से पड़ सकते थे .म. १३५ में देहली के सुल्तान कीरोजशाह तुगलक ने बड़े उत्साह के साथ टोपरा' तथा मेरर से अशोक के लेग्यों चाले हो विशाल स्तंभ उठषा कर असाधारण श्रम' से देहली में लाकर एक (समालक संभ)को फीरोजशाह के कटरे में और दूसरे को 'फरक शिकार (शिकार का महल) के पाम' मष्टा करवाया. उस ने उन संभों पर के लेखों का भाशय जानने के लिये बहुत से विवानों को एकत्र किया परंतु किसी से के पदेन गये. यह भी प्रसिद्धि है कि बादशाह अकबर को भी उक्त लेखों का प्राशय जानने की बहुत छ जिज्ञासा रही परंतु उस समय एक भी विठान ऐसा न था कि उनको पा कर बादशाह की जि. ज्ञासा पूर्ण कर सकता. हिंस्तान में अंगरेजों का राज्य होने पर फिर विद्या के मूर्य का उदय हुमा और प्राचीन वस्तुभों का मान होने लगा. भारीख १५ जनवरी सन् १७८४ ई. को सर विलियम जोन्स की प्रेरणा से एशिक्षा स्वंह के प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र, सिके.तिहाम. भूगोल. भिदा भिन्न शास्त्र.रीत रवाण, शिल्प भादि विद्या से संबंध रखने वाले सभी विषयों का शोध करने के निमिक्त शिप्राटिक सोसा. चना करते समय उक्त कथन का विरोध किया है (इ.: जि. ५. पृ. १६६। यह निश्चित है कि ग्रामसा में खरोष्ठी लिपिको अपने धर्मग्रंथों में कभी स्थान नहीं दिया क्योंकि वह उनक लिखे जाने के योग्य हीनधी र जिनने लख मदनस लिपिके मिले हैं उनमें एक भी ऐसा नहीं है जो ब्राह्मणों के धर्म से संबंध रखता हेर. . .. पंजाब के शिले अंबाला में { सबालक में १. टोपरा का (सबालक) स्तंभ किस प्रकार महान परिश्रम तथा उत्साह के साथ देहली में लाया गया इमका वृत्तास समकालीन लेखक शम्स--शीराज ने तारीख-ए-फीरोजशाही में किया है (हि.जि ३. ४०.५३। .यह स्तंभ देहली में 'रिज'नामक पहाड़ी पर गदर की यादगार के स्थान के पास है .. कमा .स. रिएजि .१, पू. १६३. Aho! Shrutgyanam Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ༣ད प्राचीलिपिमाला 'ही' नामक एक समाज भारतवर्ष की उस समय की राजधानी कलकत्ता नगर में स्थापन हुआ, और बहुत से यूरोपियन तथा देशी विद्वान अपनी अपनी मधि के अनुसार भिन्न भिन्न विषयों में उक्त समाज का उद्देश्य सफल करने की प्रवृत्त हुए कितने एक विज्ञानों ने ऐतिहासिक विषयों के शोध में लग कर प्राचीन शिलालेख, शनपत्र, सिक्के तथा ऐतिहासिक पुस्तकों का टटोलना प्रारंभ किया. इस प्रकार भारतवर्ष की प्राचीन लिपियों पर प्रथम ही प्रथम विद्वानों की दृष्टि पड़ी. ई. स. १७५ में चार्म विल्किन्स में दीनाजपुर जिले के बदाल नामक स्थान के पास मिला हुआ एक स्तंभ पर का हेल' पढ़ा. जो बंगाल के राजा नारायणपाल के समय का था उसी वर्ष में पंडित राधामी नेपाली के अशोक के वाले स्तंभ पर खुदे हुए अजमेर के चौहान राजा देव (आना) के पुत्र बीसलदेव (विग्रहराज-बी) के तीन लेख पड़े जिनमें से एक [ विक्रम ] सं. ५२० वैशाख शुनि १५' का है. इन सब की लिपि बहुत पुरानी न होने से ये आसानी के साथ पदे गये. परंतु उसी वर्ष में जे. एच. हॅरिंग्टन ने बुद्धगया के पास वाली नागार्जुनी' और वराबर की गुफाओं में उपर्युक्त लेखों से अधिक पुराने, मौरी वंश के राजा अनंतवर्मन् के तीन ले पाये, जिनकी लिपि गुप्त के समय के लेखों की लिपि से मिली हुई होने के कारण उनका पढ़ना कठिन प्रतीत हुआ, परंतु चार्ल्स विल्किन्स ने ई. स. १७०५ से ८ अ कर के उन तीनों लेबों को पढ़ लिया जिससे गुप्तलिपि की अनुमान आधी वर्णमाला का ज्ञान हो गया. ईस १८१८ से १८२३ तक कर्मस जेम्स टॉड ने राजपुताना के इतिहास की खोज में लग कर राजपुताना तथा काठियावाड़ में कई प्राचीन लेखों का पता लगाया जिनमें से ई. स. की ७ वीं शताब्दी से लगा कर १५ वीं शताब्दी तक के कई लेख उक्त विज्ञान इतिहास लेखक के गुरु पनि ज्ञानचंद्र ने पड़े और जिनका अनुवाद या सारांश कर्मल दॉड के 'राजस्थान नामक पुस्तक में कई जगह छुपा है. बी. जी. विंग्टन ने मामलपुर के कितने एक संस्कृम और तामिळ भाषा के प्राचीन लेखों को पढ़ कर ई. स. १८२८ में उनकी वर्णमाला प्यार की इसी नरर वॉल्टर इलियट ने प्राचीन कड़ी अक्षरों को पहचाना पीर ई. स. १८३३ में उनकी वर्णमालाओं को विस्तृत रूप से प्रकट किया. . म. १८३४ में फसान ट्रॉयर ने इसी उद्योग में लग कर अलाहाबाद (प्रयाग) के अशोक के लेग्य वाले स्तंभ पर खुदे हुए गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के लेख का कुछ अंश पढ़ा और उसी वर्ष में डॉ मिल ने उसे पूरा पढ़कर है. स. १८३७ में मिटारी के स्तंभ पर का स्कंद का लेख " भी पड़ लिया. मि. ११३१. यह लेख फिर भी कृप चुका है ( ऍ. : . . . १६६-६४ ). + ई. स. १७८१ में चार्ल्स बिल्किस ने मुंगेर से मिला हुआ बंगाल के राजा देवपाल का एक दानपत्र पढ़ा था, परंतु वह भी .स. १ से कृपा ( ए. रि. जि. १, पृ. १२३). यह ताम्रपत्र दूसरी बार शुद्धता के साथ छप चुका है पैः जि. २१, पृ. २४५-५७ ). ७. प. शि. जि. १. पू. ३७६-२ का भि. प. जि. २, पु. २३२-३७. ई. जि. १६, पृ. २१. गरावर का ए.रि. जि. २. पू. १३७. ज. ए. सो. यंगाः जि. पू. ६७४ प्लेट ३६. सं १५, १६, १७. ई. : जि. १३. पू. ४२८. फ्लीः गु. ई: पु. २२२-२३. नागार्जुनी गुफा के २ लेख. ए. रि. जि. २, पृ. १६८. अ. ए. सो. बंगा जि. १६, प्र. ४०२: प्लेट १०. फ्ली: गु. ई पू. २२४-२७. 1. 5. गुमवंशी राजाओं के समय की प्राचीन लिपि को गुप्तलिपि कहते हैं. नजॅक्शन्स ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी (जि. २. पू. २६४-६६:१३, १५, १७ और १८ ) मज. प. सो बंगाः जि. ३. पू. ११८. ... जि. ३, पृ. ७३. ज. ए. सी. गंगा: क्रि. ३, पृ. ३३२. ज. ए. सी. अंगा. जि. ६. पू. ६. फ्ली: गु. पू. ६-१०. फ्ली: गु. ई. पू. ५३-५४. Aho! Shrutgyanam Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपियों का पढ़ा जाना. ई. स. १८३५ में डबल्यू एच. वॉयन ने वल्लभी के कितने एक दानपत्र पड़े ई. स. १८३७-३८ में जेम्स प्रिन्सेप ने देहली, कहा और एरण के स्तंभों तथा सांची और अमरावती के स्तूपों और गिरनार के चटान पर के गुप्तलिपि के लेख पढ़े'. कप्तान ट्रॉपर, डॉ. मिल नया जेम्स प्रिन्सेप के अम से चार्म विल्किन्सन् की गुप्तलिपि की अधरी वर्णमाला गुप्तवंशी राजाओं के समय के शिलालेख, ताम्रपत्र और सिक्कों के पढ़ने में सुगमता हो गई. ब्राह्मी लिपि गुप्तलिपि से पुरानी होने के कारण उसका पढ़ना बड़ा दुस्तर था. ई. स. १७६५ में सर चार्ल्स मेलेट ने इलोरा की गुफाओं के कितने एक छोटे छोटे लेवों की छापं नय्पार कर सर विलियम जोन्म के पास भेजी. फिर ये लापं विल्फर्ड के पास पढ्न को भेजी गई परंतु जब वे पढ़ी न गई तो एक पंडित ने कितनी एक प्राचीन लिपियों की वर्णमालाओं का पुस्तक विल्फर्ड को बतला कर उन लेग्वों को अपनी इच्छा के अनुसार कुल का कुछ पढ़ा दिया. विलफडे ने इस तरह पढ़े हुए वे लेख अंग्रेजी अनुवाद सहित सर विलियम जोन्स के पास भेज दिय. बहुत परसों तक उन लेखों के शुद्ध पढ़े जाने में किसी को शंका न हुई परंतु पीछे से उनका पढ़ना और अनुबाद कपोल कल्पित सिद्ध हुए. बंगाल एशिमाटिक सोसाइटी के संग्रह में देहली और अलाहाबाद के स्तंभो नया वंडगिरि के चटान पर खुदे हुए लेखों की छापें आ गई थी परंतु विल्फई का यत्न निष्फल होने से कितने एक वर्षों तक उन लेवों के पढ़ने का उद्योग न हुआ उन लेग्वों का प्राशय जानने की जिज्ञासा रहने के कारण जेम्स प्रिन्सेप ने ई.स. १८३४-३५ में अलाहाबाद रधिया और मथिमा के स्तंभों पर के लेखों की छापें मंगवाई और उनको देहली के लेव से मिला कर यह जानना चाहा कि इनमें कोई शब्द एकला है वा नहीं. इस प्रकार उन चारों लेग्वों को पास पास रग्ब कर मिलाने से तुरंत ही यह पाया गया कि वे चारों लेख एक ही हैं. इस यान से प्रिन्सेप का उत्साह बढ़ा और उसे अपनी जिजामा पूर्ण होने की दृढ़ अाशा बंधी. फिर अलाहाबाद के संभ के लेग्न से भिन्न भिन्न आकृति के अन्तर्ग को अलग अलग छांटने पर यह विदित हो गया कि गुप्तानरों के समान उनमें भी कितने एक 'अक्षरी के साथ स्वरों की मात्राओं के पृथक् पृथक् पांच चिन्न लगे हुए हैं, जो एकत्रित कर प्रकट किये गये. इससे कितने एक विद्वानों को उक्त अक्षरों के यूनानी होने का जो भ्रम' था वह दर हो गया. स्वरों के चिझ को पहिचानने के बाद मि. प्रिन्सेप ने अक्षरों के पहिचानने का उद्योग करना शुरू किया और उक्त लेख के प्रत्येक अक्षर को गुप्तलिपि से मिलाना और जो मिलता गया उसको वर्णमाला में क्रमवार रखना प्रारंभ किया, इस प्रकार बहुत से अक्षर पहियान में आ गय. १. ज. ए सो. बंगाः जि ५,५.४७७ .. ज. प. सो. बंगाः जि. ६, पृ. २१८, ४५५, जि. ७, पृ. ३६, ३३७, १२८ ६३३. १. ज. ए. सो. बंगा; जि. ३, पृ. ७. प्लेट ५. ४. अशोक के लेखों की लिपि मामूली देखने वाले को अंग्रेज़ी या ग्रीक लिपि का भ्रम उत्पन्न करादे गेसी है. टीम कोरिअद् नामक मुसाफिर ने अशोक के देहली के संभ के लेख को देख कर ऍल. हिंटकर को एक पब में लिखा कि 'मै इस देश (हिंदुस्तान) के देसी (वेहली) नामक शहर में पाया जहां पर अलेक्जेंडर दी ग्रेट' सिकंदर) ने हिंदुस्तान के राजा पोरस को हराया और अपनी विजय की यादगार में उसने एक बृहत् संभ खड़ा करवाया जो अब तक यहां विद्यमान है' (करस वॉयजिज़ एंड ट्रॅवल्स, जि. ६. पृ.४२३ः कः प्रा. स.रि जि.स.पृ १६३). इस तरह जय टॉम कोरिअद ने अशेक के लेखबाले स्तंभ को बादशाह सिकंदर का खड़ा करवाया हुआ मान लिया तो उस पर के लेख के पढ़े न जाने तक दूसरे यूरोपिअन् यात्री आदि का उसकी लिपि को ग्रीक मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. पादरी एहवई दरी ने लिखा है कि टॉम कोरिघट मे मुझ से कहा कि मैंने देली ( देहली ) में ग्रीक लेख वाला एक बहुत बड़ा पापाण का स्तंभ देखा जा 'अलेरुज डर दी ग्रेट' में उस प्रसिद्ध विजय की यादगार के निमित्त उस समय वहां पर खड़ा करनाया था' (क: प्रा. स. रि: जि. !. पृ. १६३-६४). इसी तरह दूसरे लेखकों में उस लेख को प्रीक लेख मान लिया था. Aho! Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीमलिपिमाला. १ पादरी जेम्स स्टिवन्न् ने भी प्रिन्सेप की नई इसी शोध में लग कर क, 'ज, 'प' और अक्षरों' को पहिचाना और इन अक्षरों की सहायता से लेखों को पढ़ कर उनका अनुवाद करने का उद्योग किया गया परंतु कुछ तो अक्षरों के पहिचानने में भूल हो जाने कुछ वर्णमाला पूरी ज्ञात न होने और कुछ उन लेबों की भाषा को संस्कृत मान कर उसी भाषा के नियमानुसार पहने से वह उद्योग निष्फल हुआ. इससे भी प्रिन्सेप को निराशा न हुई. ई.स. १८४६ में प्रसिद्ध विद्वान् लॅसन में एक वाकट्रिशन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में ऍथॉलिस का नाम पढ़ा. ई. स. १८३७ में मि. प्रिन्सेप ने सांची के स्नृपों से संबंध रखने वाले स्तंभों आदि पर खुदे हुए कई एक छोटे छोटे लेखों की एकत्र कर उन्हें देखा तो उनके अंत के दो अक्षर एकसे दिखाई दिये और उनके पहिले प्रायः 'स' अक्षर पाया गया जिसको प्राकृत भाषा के संबंध कारक के एक वचन का प्रत्यय ( संस्कृत 'स्प मे ) मान कर यह अनुमान किया कि ये सब लेख अलग अलग पुरुषों के दान प्रकट करते होंगे और अंन के दोनों अचर, जो पढ़े नहीं जाने और जिनमें से पहिले के राथ 'आ' की मात्रा और हमरे के साथ अनुस्वार लगा है उनमें से पहिला अक्षर 'दा' ' और दसरा'नं' ( दानं ) ही होगा. इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' के पहिचाने जाने पर वरं प्राला संपूर्ण हो गई और देहली, अलाहाबाद, सांची, मधिया, रथिना, गिरनार, धौली आदि लेख सुगमना पूर्वक पढ़ लिये गये. इससे यह भी निश्चय हो गया कि उनकी भाषा जो पहिले संस्कृत मान ली गई थी यह अनुमान ठीक न था परन उनकी भाषा उक्त स्थानों की प्रचलित देशी ( प्राकृत भाषा थी. इस प्रकार प्रिन्सेप आदि विद्वानों के उद्योग से ) ब्राह्मी अक्षरों के पड़े जाने से पहले समय के सब लग्यों का पढ़ना सुगम हो गया क्योंकि भारतवर्ष की समस्त प्राचीन लिपियों का मल यही माती लिपि है. कर्नल जेम्स टॉड ने एक बड़ा संग्रह बाक्ट्रियन ग्रीक, शक, पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के प्राचीन सिक्कों का किया था जिनकी एक ओर प्राचीन ग्रीक और दूसरी रोष्ठी लिपि ओर खरोष्ठी अक्षरों के लेख थे. जनरल वेंडुरा ने ई. स. १८३० में मानिकमाल के स्तृप को खुदवाया तो उसमें से कई एक सिके और दो लेम्ब खरोष्ठी लिपि के मिले. इनके अतिरिक्त सर अलेक्जेंडर बर्न्स आदि प्राचीन शोधकों ने भी बहुत से प्राचीन सिके एकत्र किये जिनके एक ओर के प्राचीन ग्रीक अक्षर तो पड़े जाने थे परंतु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़ने के लिये कोई साधन न था. इन अक्षरों के लिये भिन्न भिन्न कल्पनाएं होने लगीं ई. स. १८२४ में कर्नल जेम्स टॉड ने करफिसेस के सिके पर के इन अक्षरों को ससेनिअन प्रकट किया ई.स. १८३३ ७ में एपॉलॉटॉरेंस के सिके पर के इन्हीं अक्षरों को प्रिन्सेप ने पहलवी माना और एक दूसरे सिके पर की इसी लिपि को तथा मानिकिल के लेन की लिपि को भी पाली (ब्राह्मी) बनलापा और उनकी आकृति टेढ़ी होने से यह अनुमान किया कि छापे और महाजनी लिपि के नागरी अचरों में जैसा अंतर है वैसा ही देहली आदि के अशोक के लेखों की पाली (ब्राह्मी लिपि और इनकी लिपि में है, परंतु पीछे से स्वयं प्रिन्सेप को अपना अनुमान अयुक्त जंचने लगा C १. ज. प. सो. बगाः जि. ३, पु. ४८५ न को पढ़ लिया था और द को पहिचाना न था. . त्रि. प. जि. १. पू. ६३-६६ 1. ज. ए. सो. बंगाः जि. २, पू. ३१३. 5 अ. प. सो. गंगा, जि. ३. पू. ३१८. こ 1. 3 4 ए. रि. जि. १८. पृ. ५७. जपली. बंगाः जि. २, पृ. ३१३ ३१६. ज. प. सौ. गंगा; जि. ३. पू. ३९६. Aho! Shrutgyanam Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्मी लिपि. ** ई. स. १८३४ में कसान कोर्ट को एक स्तूप में से इसी लिपि का एक लेख मिला जिसको देख कर प्रिन्सेप ने फिर इन अक्षरों को पहलवी माना'. अफ़ग़ानिस्तान में प्राचीन शोध के कार्य में लगे हुए मि. मेसन को जब यह मालूम हो गया कि एक ओर ग्रीक लिपि में जो नाम है ठीक वही नाम दूसरी ओर की लिपि में है, तब उसने मिनॅन्टर, ऍपॉलॉडॉटस, हर्मिनस, बॅसिलेअस (राजा) और सॉटेरस (त्रातर् ) शब्दों के खरोष्ठी चिह्न पहिचान लिये और वे प्रिन्सेप को लिख भेजे. मि. प्रिन्सेप ने उन चित्रों के अनुसार सिक्कों को पढ़ कर देखा तो उन चित्रों को ठीक पाया और ग्रीक लेखों की सहायता से उन ( खरोष्ठी ) अक्षरों को पढ़ने का उद्योग करने पर १२ राजाओं के नाम तथा ६ खिताब पढ़ लिये गये. इस तरह खरोष्ठी लिपि के बहुत से अक्षरों का बोध होकर यह भी ज्ञात हो गया कि यह लिपि दाहिनी ओर से बाई ओर को पढ़ी जाती है. इससे यह भी पूर्ण विश्वास हो गया कि यह लिपि सेमिटिक वर्ग की है परंतु इसके साथ ही उसकी भाषा को, जो वास्तव में प्राकृत थी, पहलबी मान लिया. इस प्रकार ग्रीक लेखों के सहारे से खरोष्ठी लिपि के कितने एक अक्षर मालूम हो गये किंतु पहलवी भाषा के नियमों पर दृष्टि रख कर पढ़ने का उद्योग करने से अक्षरों के पहिचानने में अशुद्धता हो गई जिससे यह शोध आगे न बढ़ सका. ई. स. १८३८ में दो बाकट्रिशन ग्रीक राजाओं के सिकों पर पाली ( प्राकृत ) लेख देखने ही सिक्कों पर के खरोष्ठी लिपि के लेखों की भाषा को पाली (प्राकृत ) मान उसके नियमानुसार पढ़ने से प्रिन्सेप का शोध आगे बढ़ सका और १७ अक्षर पहिचान में आ गये. प्रिन्सेप की नई मि. नॉरिस ने इस शोध में लग कर इस लिपि के ६ अक्षर पहिचान लिये और जनरल कनिंगहाम ने बाकी के अक्षरों को पहिचान कर खरोष्ठी की वर्णमाला पूर्ण कर दी और संयुक्काचर भी पहिचान लिये. ५- ब्राह्मी लिपि. ई. स. पूर्व ५०० के आसपास से लगा कर ई. स. ३५० के आसपास तक ( लिपिपत्र १-१४ ). ब्राह्मी लिपि भारतवर्ष की प्राचीन लिपि है. पहिले इस लिपि के लेख अशोक के समय अर्थात् ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी तक के ही मिले थे, परंतु कुछ बरस हुए इस लिपि के दो छोटे छोटे लेख', जिनमें से एक पिद्मावा के स्तृप से और दूसरा वर्ली गांव से मिले हैं जो ई. स. पूर्व की पांचव शताब्दी के हैं. इन लेखों की और अशोक के लेखों की लिपि में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है, जैसा कि ई. स. की १४ वीं शताब्दी से लगा कर अब तक की नागरी लिपि में नहीं पाया जाता; परंतु दक्षिण से मिलने वाले भहिप्रोलू के स्तूप के लेखों की लिपि में, जो अशोक के समय से बहुत पीछे की नहीं है, ९. ज. प. सो. बंगा; जि. ३, पृ. ५५७,५६३. १. देखो ऊपर पू. २. २. विषा के लेख में दीर्घ स्वरों की मात्राओं का अभाव है और बलों के लेख में 'ई' की मात्रा का जो चिह्न है वह अशोक और उसके पिछले किसी लेख में नहीं मिलता (देखो ऊपर पृ. २-३, और पृ. ३ का टिप्स २). Aho! Shrutgyanam Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला पिप्रावा. बी और अशोक के लेखों की लिपि से बहत कुछ भिन्नता पाई जाती है जिससे अनुमान होता है कि भहिमाल के लेखों की लिपि अशोक के लेखों की लिपि से नहीं निकली किंतु उस प्राचीन प्राली से निकली होगी जिससे पिप्रावा, पी और अशोक के लेखों की लिपि निकली है. यह भी संभव है कि भट्टिमोलु के स्तृप की लिपि ललितविस्तर की 'द्राविड लिपि' हो क्योंकि वे लेख द्रविड देश के कृष्णा जिले में ही मिले हैं. अशोक से पूर्व के जैन 'समवायांग मूत्र' में तथा पिछले बने हुए 'ललितविस्तर' में ब्राह्मी के अतिरिक्त और बहुतसी लिपियों के नाम मिलते हैं, परंतु उनका कोई लेख अब तक नहीं मिला जिसका कारण शायद यह हो कि प्राचीन काल में ही वे मब अस्त हो गई हों भार उनका स्थान अशोक के समय की ब्राह्मी ने ले लिया हो जैसा कि इस समय संस्कृत ग्रंथों के लिखने तथा छपने में भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों की भिन्न भिन्न लिपियों का स्थान बहुधा नागरी में ले लिया है. ई.स. पूर्व की पांचवीं शतान्दी से पहिले की ब्राली का कोई लेख अबतक नहीं मिला; अतएव इस पुस्तक की ब्राह्मी लिपि का प्रारंभ ई. स. पूर्व ५०० के पास पास से ही होता है. हस्तलिखित लिपियों में सर्वत्र ही समय के साथ और लम्बकों की लेखन रुचि के अनुसार परिवर्तन हुआ ही करता है. ब्रामी लिपि भी इस नियम से बाहर नहीं जा सकती. उसमें भी समय के साथ बहुत कुछ परिवर्तन हुआ और उससे कई एक लिपियां निकली जिनके अचर मूल अक्षरों से इतने बदल गये कि जिनको प्राचीन लिपियों का परिचय नहीं है ये यह स्वीकार न करेंगे कि हमारे देश की नागरी, शारदा (करमीरी), गुरमुखी (पंजाबी), बंगला, उडिया, तेलुगु, कनडी, ग्रन्थ, तामिळ आदि समस्त वर्तमान लिपियां एक ही मूल लिपि प्राली से निकली हैं. ब्राह्मी लिपि के परिवर्तनों के अनुसार हमने अपने सुभीते के लिये उसके विभाग इस तरह किये हैं ई. स. पूर्व ५०० के आस पास से लगा कर ई. स. ३५० के आस पास तक की समस्त भारतवर्ष की लिपियों की संज्ञा ब्रानी मानी है. इसके पीछे उसका लेखन प्रवाह दो मोतों में विभक्त होता है जिनको उत्तरी और दक्षिणी शैली कहेंगे. उत्तरी शैली का प्रचार विंध्य पर्वत से उत्तर के तथा दक्षिणी का दक्षिण के देशों में बहुधा रहा तो भी विंध्य से उत्सर में दक्षिणी, और विंध्य से दक्षिण में उत्तरी शैली के लेख कहीं कहीं मिल ही आते हैं. उत्तरी शैली की लिपियां ये हैं १. गुप्तलिपि---गुप्तवंशी राजाओं के समय के लेखों में सारे उत्तरी हिंदुस्तान में इस लिपि का प्रचार होने से इसका नाम 'गुप्तलिपि' कल्पित किया गया है. इसका प्रसार ई.स. की चौथी और पांचवीं शताब्दी में रहा. २. कुटिललिपि-इसके भक्षरों तथा विशेष कर खरों की मात्राओं की कुटिल प्राकृतियों के कारण इसका नाम कुटिल रकबा गया यह गुप्तलिपि से निकली और इसका प्रचार ई.स. की छठी शताब्दी से नवीं तक रहा, और इसीसे नागरी और शारदा लिपियां निकली. ३ नागरी-उत्तर में इसका प्रचार ई. स. की हवीं शताब्दी के अंत के पास पास से मिलता है परंतु दक्षिण में इसका प्रचार ई. स. की आठवीं शताब्दी से होना पाया जाता है क्योंकि दक्षिण के राष्टकूर (राठौड़) वंशी राजा दंतिदुर्ग के सामनगढ़ (कोल्हापुर राज्य में) से मिले हुए शक संवत् ६७५ (ई. स. ७५४ ) के दानपत्र' की लिपि नागरी ही है और दक्षिण के पिछले कई राजवंशों है . जि. ११, पृ. ११० से १५३ के सामने के सेट. Aho ! Shrutgyanam Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राझी लिपि. के लेखों में इसका प्रचार ई. स. की १६वीं शताब्दी के पीछे तक किसी प्रकार मिल पाता है. दक्षिण में इसको 'नंदिनागरी' कहते हैं. प्राचीन नागरी की पूर्वी शास्वा से बंगला लिपि निकली, और नागरी से ही कैथी, महाजनी, राजस्थानी (राजपूताने की) और गुजराती लिपियां निकली हैं. ४. शारदा-इस का प्रचार भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों अर्थात् कश्मीर और पंजाब में रहा. ई.स. कीसवीं शताब्दी के राजा मेरुवर्मा के लेखों से (देखो लिपिपत्र २२वां) पाया जाता है कि उस समय तक तो पंजाब में भी कुटिल लिपि का प्रचार था, जिसके पीछे उसी लिपि से शारदा लिपि बनी. उसके जितने लेख अब तक मिले हैं उनमें सब से पुराना लेख सराहां (पंचा राज्य में) की प्रशस्ति है, जोई.स.की दसवीं शताब्दी की अनुमान की जा सकती है. इसी लिपि से वर्तमान करमीरी और टाकरी लिपियां निकली हैं और पंजाबी अर्थात् गुरमुखी के अधिकतर अक्षर भी इसीसे निकले हैं. ५. बंगला-यह लिपि नागरी की पूर्वी शाखा से ई.स. की१० वीं शताब्दी के पास पास निकली है. बदाल के स्तंभ पर खुदे हुए नारायणपाल के समय के लेख में, जो ई.स. की १० वीं शतान्दी का है, बंगला का झुकाव दिखाई देता है. इसीसे नेपाल की ११ वीं शताब्दी के पाद की लिपि, तथा वर्तमान पंगला, मैथिल और उडिया लिपियां निकली हैं. दक्षिणी शैली की लिपियां प्राचीन ब्राधी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली हैं जो चत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेग्वों में, नथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, काली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है. दक्षिणी शैली की लिपियां नीचे लिखी हुई हैं---- १. पश्चिमी-यह लिपि काठिावाड़, गुजरात, नासिक, खानदेश और सतारा जिलों में, हैदराबाद राज्य के कुछ अंशों में, कौंकण में तथा कुछ कुछ माइसोर राज्य में, ई.स.की पांचवीं शताब्दी के भास पास से नवीं शताब्दी के पास पास तक मिलती है. ई. स. की पांचवीं शताब्दी के आस पास इसका कुछ कुछ प्रचार राजपूताना तथा मध्य भारत में भी पाया जाता है. इसपर उत्सरी लिपि का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है. भारतवर्ष के पश्चिमी विभाग में इसका अधिकतर प्रचार होने के कारण इसका 'पश्चिमी' यह नाम कल्पित किया गया है २. मध्यप्रदेशी-यह लिपि मध्यप्रदेश, हैदराबाद राज्य के उत्सरी विभाग, तथा बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों में ई. स. की पांचवीं शताब्दी से लगा कर आठवीं शताब्दी के पीछे तक मिलती है. इस लिपि के अक्षरों के सिर चौकुंटे या संदूक की सी प्राकृति के होते हैं जो भीतर से बहुधा वाली, परंतु कभी कभी भरे हुए भी, होते हैं. अक्षरों की प्राकृति बहुधा समकोणषाली होती है, अर्थात् उनके बनाने में प्राड़ी और खड़ी रेखाएं काम में लाई गई हैं, न कि गोलाईदार, इस लिपि के तानपन्न ही विशेष मिले हैं, शिलालेख बहन कम. ३. तेलुगु-कमी-यह लिपि बंबई इहाते के दक्षिणी विभाग अर्थात् दक्षिणी मराठा प्रदेश, शोलापुर, बीजापुर, बेलगांव, धारवाड़ और कारवाड़ जिलों में, हैदराबाद राज्य के दक्षिणी हिस्सों में, माइसोर राज्य में, एवं मद्रास इहाते के उत्तर-पूर्वी विभाग अर्थात् विज़गापहम् , गोदावरी, कृष्णा, कर्नूल, पिलारी, अनंतपुर, कडप्पा, और नेल्लोर जिलों में मिलती है. ई. स. की पांचवीं शताब्दी से १४ वीं शताब्दी तक इसके कई रूपांतर होते होते इसीसे वर्तमान तेलगु और कनडी लिपियां बनीं. इस इसका नाम तेलुगु-कनकी रक्खा गया है. ४, ग्रंथलिपि-यह लिपि मद्रास इहाने के उत्सरी व दक्षिणी प्रार्कट, सलेम्, ट्रिचिनापली, मदुरा और तिनेवेल्लि जिलों में मिलती है. ई.स की सातवीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक इसके कई रूपांतर होते होते इससे वर्तमान ग्रंथलिपि बनी और उससे वर्तमान मलयालम और तुलु लिपियां Aho! Shrutgyanam Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्राचीनलिपिमाला. निकली. मद्रास हाते के जिन हिस्सों में तामिळ लिपि का, जिसमें वर्षों की अपूर्णता के कारण संस्कृत ग्रंथ लिखे नहीं जा सकते, प्रचार है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इसी लिपि में लिखे जाते हैं इसीसे इसका नाम 'ग्रंथलिपि (संस्कृत ग्रंथों की लिपि) पड़ा हो ऐसा अनुमान होता है. ५. कलिंग लिपि-यह लिपि मद्रास इहाते में विकाकोल और गंजाम के बीच के प्रदेश में वहां के गंगावंशी राजाओं के दानपत्रों में ई स. की ७ वीं से ११ वीं शताब्दी के पीछे तक मिलती है. इसका सबसे पहिला दानपत्र गांगेय संवत् ८७ का मिला है जो गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन् का है. उसकी लिपि मध्यप्रदेशी लिपि से मिलती हुई है. महरों के सिर संदूक की प्राकृति के, भीतर से भरे हुए, हैं और अक्षर बहुधा समकोणवाले हैं (लिपिपत्र ५७ में दी हुई राजा देवेंद्रवर्मन् के दामपत्र की लिपि को लिपिपत्र ४१ से मिला कर देखो); परंतु पिछले ताम्रपत्रों में अक्षर समकोणवाले नहीं, किंतु गोलाई लिये हुए हैं और उनमें नागरी, तेलुगु-कनही तथा ग्रंथलिपि का मिश्रण होता गया है. ६. तामिळलिपि-यह लिपिमद्रास इहाते के जिन हिस्सों में प्राचीन ग्रंथालिपि प्रचलित थी वहां के, तथा उक्त बहाते के पश्चिमी तट अर्थात् मलबार प्रदेश के तामिळ भाषा के लेखों में ई. स. की सातवीं शताब्दी से बराबर मिलती चली पाती है. इस लिपि के अधिकतर अचर ग्रंथलिपि से मिलते हुए हैं (लिपिपत्र ६० में दी हुई लिपि को लिपिपत्र ५२ और ५३ में दी हुई लिपिनों से मिला कर देखो); परंतु 'क', 'र' आदि कुछ अक्षर उत्तर की ब्राह्मी लिपि से लिये हुए हैं. इसका रूपांतर होते होते वर्तमान तामिळलिपि बनी इस वास्ते इसका नाम सामिळ रक्खा गया है. बढळत-यह तामिळ लिपि काही भेद है और इसे त्वरा से (घसीट) लिखी जाने वाली तामिळ लिपि कह सकते हैं. इसका प्रचार मद्रास इहाते के पश्चिमी तट तथा सब से दक्षिणी विभाग केई.स. की ७ वीं से १४ वीं शताब्दी तक के लेखों तथा दानपत्रों में मिलता है परंतु कुछ समय से इसका प्रचार नहीं रहा. नाशी हिपिके वैदिक काल में ग्रामी लिपि के ध्वनिसूचक संकेत या अक्षर नीचे लिखे अनुसार र माने जाते थेस्वर. दीर्घ. माई ऊ - [?] प्लुता. मा३ है। ऊ३ ३३ [३१] संध्यवर. ए ऐ बो भी इनके प्लुत, ए३ ऐ३ मोर औ३ १. माजकल'' और 'ख'का उचारण बहुधा सब लोग 'रि' और 'लि' के सारा करते हैं. दक्षिा के कब खोग ''मीर''केसे विलक्षण उच्चारण करते हैं और उत्तर भारत के कितने एक वैदिक '' और ''के से उच्चारहबरते। परंतु वास्तव में ये तीनों उच्चार कलिपत ही है. 'ऋ' और 'ल', 'र' और 'ल' के स्वरमय उच्चारण धे जोविना किसी और स्वर की सहायता के होते थे, परंतु बहुत काल से ये लुप्त हो गये हैं. भरतो केवल के प्रारसं. केत रह गये है. १. 'ल' स्वर वेद में केवल 'मल'प्रातु में मिलता है और संस्कृत साहित्य भर में उक्त धातु को छोड़कर कही इसका प्रयोग नहीं मिलता. याकरती ने तोतले बोलने वाले बच्चों के ''के अशुद्ध उच्चारध मनुकरम मै इसे माना है, तो भी इसके प्लुत का प्रयोग मानने को बे तय्यार नहीं हैं, स्पोकि इसका व्यवहारहीनहीं है. यह यजुर्वेद के प्रातिशास्त्र में अन्य स्थरो से समानता करने के लिये 'ख'के दीर्ष और प्लुस रूप माने हैं परंतु उनका प्रयोग कहीं नहीं मिलता. इव सकार वाले शब्द के करिपत संबोधन में प्लुत 'स्व३' का होमायाकरण और कुछ शिक्षाकार मानते है. तो भी वास्तव में भास का निमाधिक सरभर्यात् प्लसके लिये दोसर भागेकाबलगाते हैं परंतु पहरीति प्राचीन नहीं बन पाती. दसके लिये समाग का अंक नहीं लगाया आता परंतु मामी और समान नागरी में Aho! Shrutgyanam Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगवाह. व्यंजन. माझी जिपि अनुस्वार. ' विसर्ग. : जिह्वामूलीय. क उपध्मानीय भूप ख + स्पर्श. क प さ त 5 ध प फ * (ग्वम् या गुं) गं ळ ब Aho! Shrutgyanam स्व *फ भ न म 就 उनके लिये स्वतंभ संकेत और मात्राएं मिलती है वैसे ही प्राचीन काल में प्लुत स्वरों के लिये भी कोई विशेष चिल रहे होंगे जिनका अब पता नहीं चलता. जैसे वर्तमान नागरी में 'श्रो' और 'औ' के, और गुजराती तथा मोडी (मराठी) में 'प' दे','ओ' और 'औ' के मूल संकेत न रहने से 'अ' पर ही मात्रा लगा कर काम चलाया जाता है (ओ, औ, श्रो, भौ-गुजराती) वैसे ही प्लुत के प्राचीन चिह्नों के लुप्त होने पर दीर्घ के आगे ३ का अंक लगाया जाने लगा हो. वस्तुतः संस्कृत साहित्य में भी प्लुत का प्रयोग क्रमशः बिलकुल उठ गया. संबोधन, वाक्यारंभ, यशकर्म, मंत्रों के अंत, यश की आशाएं, प्रत्युत्तर, किसी के कहे हुए वाक्य को दोहराने, विदारणीय विषय प्रशंसा, आशीर्वाद, कोप, फटकारने, सदाचार के उल्लंघन आदि अवसरों पर वैदिक साहित्य और प्राचीन संस्कृत में प्लुत का प्रयोग होता था (पाणिनि ८ २ ८२-१०८), परंतु पीछे से केवल संबोधन और प्रणाम के प्रत्युतर में ही इसका व्यवहार रह गया. पतंजलि ने व्याकरण न पढ़नेवालों को एक पुरानी गाथः अद्भुत करके डराया है कि यदि तुम अभिवादन के उसर में प्लुत करना न जानोगे तो तुम्हें खियों की तरह सादा प्रणाम किया जायगा. इस से यह तो स्पष्ट है कि स्त्रियों की बोलचाल से तो उस समय प्लुत उठ गया था परंतु पीछे से पुरुषों के व्यवहार से भी वह जाता रहा. केवल कहीं कहीं वेदों के पारायण में और प्रतिशास्यों तथा व्याकरणों के नियमों में उसकी कथा मात्र बची ३. 'ओ' और 'श्री' के प्लुत, कहीं पूरे संध्यक्षर का लुत करने से, और कहीं 'इ' और 'ड'को केवल 'अ' के प्लुत करने से बनते थे, जैसे अग्ने३ या अग्नाश र १. अनुस्वार नकार (अनुनासिक) का स्वरमय उधारण दिखाता है. बेदों ने जब अनुस्वार 'र', '' 'प' और 'ह' के पहिले जाता है तब उसका उधारण 'ग' से मिश्रित 'गुं' या 'ग्वं सा होता है जिसके लिये वेदों में सि है. यह यजुर्वेद में ही मिलता है. शुक्लयजुर्वेद के प्रातिशाज्य में इसके इस्व, दीर्घ और गुरु तीन भेद माने गये हैं जिनके पा म्यारे चित्रों की कल्पना की गई है. प्राचीन शिलालेखादि में कभी कभी 'वंश' की जगह 'वंश' और 'सिंह' के स्थान मे 'सिह' खुदा मिलता है. अनुस्वार का 'श' के पहिले पेसा उधारण आर्यकंठों में अब भी कुछ कुछ पाया जाता है और कई बंगाली अपने नामों के हिमांशु सुधां आदि को अंगरेजी में Himangshu, Sudiangah (हिमांग एथ आदि लिख कर के उच्चारण की स्मृति को जीवित रखते है. 'क' और 'स' के पूर्व विसर्ग का उच्चारण विलक्षण होता था और जिह्वामूलीय कहलाता था. इसी तरह 'प' और 'फ' के पहिले विसर्ग का उच्चारण भी भिन्न था मौरा उपध्मानीय कहलाता था. जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के प्यारे म्यारे विश के जो कभी कभी प्राचीन पुस्तकों, शिलालेखों और ताम्रपत्रों में मिट भाते हैं, जो अक्षरों के ऊपर, बहुधा उनसे जुड़े हुए, होते हैं, और उसमें भी अक्षरों की मां समय के साथ परिवर्तन होना पाया जाता है (देखो खिपिपत्र १७२१ २२ २३ २८, २४ आदि) बोपदेव ने अपने व्याकरण में अनुस्वार को 'बिंदु' विवर्ग को 'डिबिंदु जिवामूलीय को 'बज्राकृति' और उपध्मानीय को 'राजकुंभाकृति ' कह कर उनका स्वरूप बतलाया है. । C रुग्वेद में दो स्वरों के बीच के 'उ' का उच्चारण 'ळ' और जैसे ही आये हुए 'व' का उधारण व्ह होता है. इन दोनों के लिये भी पृथक् चिह्न हैं. 'ळ' का प्रचार राजपूताना, गुजरात, काठिश्राधाड़ और सारे दक्षिण में अब भी है और उसका संकेत भी अलग ही है जो प्राचीन 'ळ' से ही निकला है. '' को आज कल 'लू' और 'इ' को मिला कर (ब) लिखते हैं, परंतु प्राचीन काल में उसके लिये भी कोई पृथर विनियत होगा, क्योंकि प्राचीनते-जी ग्रंथ और तामिळ लिपियों के लेखों मे'' के अतिरिक एक और 'कृ' मिलता है. वैसा ही कोई चिह्न के के लिये प्राचीन वैदिक पुस्तकों में होना चाहिये. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. अन्तस्थ. य र ल व ऊष्मन्. श ष स ह यम. कुं खुं गुं धुं इस तरह वैदिक साहित्य में अधिक से अधिक ६४ (ऋग्वेद में ६४ और यजुर्वेद में ६३ ) ध्वनिमूचक संकेत अर्थात् वर्ण थे, परंतु पीछे से साधारण मनुष्यों एवं जैन और बौद्धों में, जिन प्रारंभिक साहित्य प्राकृत में था, ४६ या ४७५ अक्षर व्यवहार में आते थे.ई.स. की चौथी । याज्ञवल्क्य के अनुसार उत्तर भारत के यजुर्वेदी लोग संहितापाठ में टवर्ग के साथ के संयोग को छोड़ कर और सर्वत्र 'ए' को 'ख' बोलते हैं, जैस षष्ठी-खठी। इसीसे मिधिला, यंगाल, पंजाय आदि के संस्कृता तथा अन्य लोग भी संस्कृत एवं 'भासा'मैं बहुधा 'ब'को 'ख' बोलने लग गये. इसी धैरिक उच्चारण से प्राकृत में 'क'के दो रूपछ(छ) और श (ख) हो गये. १. वर्गों के पहिल चार वर्षों का अब किसी वर्ग के पांचवें वर्ण से संयोग होता है तब उस मनुनासिक वर्ण के पहिले वैदिक काल में एक विलक्षण प्वनि होती थी जिसे यम कहते थे, जैसे 'पली' में '' और '' के बीच में इस तरह वीस यम झेने चाहिये, परंतु प्रातिशाख्यो मै तथा शिक्षाओं में चार ही यम माने है और उनके नाम या संकेत 'कुं', 'सुं', 'गुं' और 'ए' दिये हैं. इसका तात्पर्य यह है कि धर्गों के पहिले अक्षरो अर्थात् क, ख, दत, पके संयोग से जो यम उत्पन्न होता था यह ''कहलाता था, और उसके लिये एक चिनियत था. इसी तरह सछ, ठ, प.फ के संयोग से उत्पन्न होने बाल पम के लिये 'स्' प्रकृति का चिक, गज, उ, व, बके संयोग से बने हुए यम के लिये 'ग्' प्रकृति का कोई तीसरा चिक, और घ, म. ४, ध, भ के संयोग से उद्धृत यम के लिये '' प्रकृति का कोई और चिनियत था. ये चित्र कैसे थे इसका पता न तो शिलालेखादि में औरम पुस्तकों में मिलता है, किंतु व्याकरणधाले इन यमो को क, ख, ग, घ से बतलाते परनी- पत् (मूल व्यंजन) क् (यम) नी पतकमी सना - सर (, ) (,) ना सस्थाना अग्नि अग् (" , ) ग् (,) नि= अग्नि यश यज् (, , ) ग् (,) - यान गृभ्णामि= पृथ् ( ,) ५ (,) शामि- गृभ्णामि. .. ऋग्वेद में २१ स्वर (लके दीर्घ और प्लुत को छोड़ने से), ४ अयोगवाह (अनुस्वार, विसर्ग, जिलामूखीय और उपध्मामीय), २७ स्पर्श वर्ण (पांचों वर्गों के २५ और 'ळ' तथा 'ह'), ४ अंतःस्थ, ४ ऊष्मन् और ४ यम, मिलकर ६४ वर्ण होते हैं. ४. यजुर्वेद में वर्णसंख्या बहुधा ऋग्वेद के समान ही है, केवल 'ळ' और 'क' का प्रयोग इसमें नहीं होता परंतु उस में अनुस्वार का रूप अलग होता है. इसीसे इसमें ६३ वर्ण काम मै पाते है. जैनो के रष्टिवाद में, जो लुप्त हो गया है, प्राली अक्षरों की संख्या ४६ भागी है, ( स, १६, २८१), जोम, मा, उ, ऊ, ए, ऐ, मो. मो, भ, मा, क, ख, ग, घ, कच, छ, ज, म, अर... दबतथ, द, ध, न. प. फक भ, म, थ, र, ल, व, श, ष,स,ह और ळ (या )होने चाहिये. अपनत्संग अक्षरों की संख्या ३७पतलाता है(बी.रे.के. व, जिल्द १, पृ.७८), जो 'भ' से 'ह' तक के ४५ अक्षर तो ऊपर लिखे अनुसार और बाकी के दो अक्षर 'क' और '' होने चाहिये. बौद्ध और जैनों के प्राकृत ग्रंथों में ऋ.. ल. स्तू इन चार स्वरों का प्रयोग नहीं है. प्राकृत साहित्य मेंकी आवश्यकता ही नहीं रहती. जहां संस्कृत शब्द के प्रारंम में 'ऋ' होता है वहां प्राकृत में 'रि' हो जाता है (ऋपमन रिखम. ऋक्ष रिछ या रिक्स), और जहां व्यंजर के साथ 'ऋ'की मात्रा लगी होती है वहां 'भू' के स्थान में '', '' या 'उ'हो जाता है (मृगन्मग, तृषा-तिसा, मृदंग-मुइंग; निभृत-निहुम). ये चारों वर्ष (भू, भू, टू. ) भाभी साधारण लोगों के व्यवहार में नहीं पाते और प्रारंभिक पढ़ने वालों की 'बारखड़ी' (बादशाक्षरी) में भी इनको स्थान नहीं मिलता. यह प्रारंभिक पठनशली आधुनिक नहीं है, किंतु अशोक के समय अर्थात् ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में भी ऐसी ही थी, क्योकि युद्धगया के अशोक के समय के बने हुए महाबोधी मंदिर के पास युद्ध के चंकम अर्थात् भ्रमणस्थान में दोनों ओर ११, ११ स्मो की दो पंकियां हैं उन स्तंमा की कुंभियो (प्राधार) पर शिल्पियों ने एक एक करके 'अं' को छोड़ कर ''सेट' तक के अक्षर सोदे हैं. उनमें भी ये चारों स्वर नहीं है. यद्यपि सामान्य लोगों के व्यवहार में ये चार घणं नहीं पाते थे तो भी वर्णमाला में उनको स्थान अवश्य मिलता था, क्योंकि जापान के होयुज़ी नामक स्थान के योद्ध मठ में रक्खी हुई ई. स. की छठी शताम्दी की 'उम्णोषविजयधारणी' नामक ताड़पत्र पर लिखी हुई बौद्ध पुस्तक Aho! Shrutgyanam Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी लिपि. शताब्दी के पीछे, लेखनशैली में अक्षरों के रूपों में परिवर्तन होते होते संयुक्ताक्षर 'ष' में 'क' और 'ष' के मूल रूप अस्पष्ट होकर उसका एक विलक्षण ही रूप 'क्ष' बन गया तब बौद्धों ने 'क्ष' को भी वषों अर्थात् मातृकाओं (सिद्धमातृकाओं) में स्थान दिया. इसी तरह पीछे से संयुक्ताक्षर 'जन' के 'ज' और 'त्र' के रूप अस्पष्ट होकर उसका एक विलक्षण रूप'ज्ञ'यन गया तब उसको भी लोगों ने वणों में स्थान दिया. तंत्रग्रंथों में 'क्ष' और 'ज्ञ' की वर्णी अर्थात् मातृकाश्री में संज्ञा की गई है परंतु ये दोनों सर्वथा वर्ण नहीं किंतु संयुक्तवर्ण हैं और उनके घटक दो दो अक्षरों के मूलरूप न रहने पर एक ही विलक्षण नया संकेत बन जाने से ही उनकी वर्षों में गणना हुई है जैसे कि वर्तमान काल में नागरी की वर्णमाला में 'त्र' की भीर, लिपिपत्र पहिसा. यह लिपिपत्र गिरनार पर्वत के पास के चटान पर खुदे हुए मौर्यवंशी राजा अशोक के लेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छापों से बनाया गया है. यह लेख मौर्यराज्य के पश्चिमी विभाग का होने से वहां की ब्राह्मी लिपि को प्रकट करता है. इसमें स्वरों की मात्राओं के चित्र इस प्रकार मिलते हैं 'आ' की मात्रा एक छोटीसी आड़ी लकीर (-) है जो व्यंजन की दाहिनी तरफ बहुधा अक्षर के ऊपर की ओर (देखो, खा, रा) परंतु कभी कभी मध्य में भी, (देखो, जा,मा, घा) लगाई जाती है. 'ज' के साथ 'आ' की मात्रा का योग केवल 'ज' के मध्य की लकीर को कुछ अधिक लंबी कर के बतलाया है जिससे कभी कभी 'ज' और 'जा' में भ्रम हो जाता है, 'इकी मात्रा का नियत चिश है जो व्यंजन की दाहिनी और ऊपर की तरफ लगता है (देखो, नि), परंतु कहीं कहीं समकोण के स्थान पर गोलाइदार या तिरछी लकीर भी मिलती है (देखो, टि, लि). 'ई' की मात्रा का नियत चिड़ है, जो व्यंजन की दाहिनी ओर ऊपर की तरफ़ जोड़ा जाता है (देखो, टी, ही), परंतु कहीं कहीं आड़ी सीधी लकीर को तिरछा कर दिया है, और समकोण के स्थान में गोलाई मिलती है (देखो, पी, मी); 'थी' बनाने में 'थ' के साथ केवल दो तिरड़ी लकीरें ही लगा दी गई हैं. अशोक के पूर्व के चली गांव के लेख में 'वीराय' के 'बी' अक्षर के साथ 'ई' की मात्रा का चित्र (है, जो अशोक के समय में लुस हो चुका था और उसके स्थान में ऊपर लिखा हुआ नया चिक बर्ताव में आने लग गया था (देखो, ऊपर पृष्ठ ३ और वहीं का टिप्पण २). के अंत में जिस लेखक ने वह पुस्तक लिखी है उसीके हाथ की लिखी हुई उस समय की पूरी वर्णमाला है जिसमें इन चार वणों को स्थान दिया गया है (देखो, लिपिपत्र १६), पेसे ही हराकोल से मिले हुए ई.स. की १२ वीं शताब्दी के दौर तांत्रिक शिलालेख में प्रत्येक वर्ष पर अनुस्वार लगा कर पूरी वर्णमाला के बीज बनाए हैं जिनमें भी ये चारो वर्ण हैं (लिपिपत्र ३५ ) और उदयादित्य के समय के उज्जैन के शिलालेख के अंत में खुदी हुई पूरी वर्णमाला में भी ये चारों वर्ष दिये हुए है ( देखो लिपिपत्र २५). १. वर्तमान '' में मूल घटक दोनों अक्षरों में से एक अर्थात् 'र' का चिह तो पहिचाना जाता है, परंतु त्' का नहीं, किंतु 'स' और 'श' में दोनों ही के मूल अक्षरों का पता नहीं रहा. इतना ही नहीं, 'ज्ञ' मे तो वास्तविक उमारण भी नष्ट हो गया. दक्षिणी लोग कई कोई इसे 'न' बोलते है ( देखा बंई के अंगरेजी पत्र ज्ञानप्रकाश का अंगरेज़ी अक्षारांतर Dnan Prakash) औरं उत्सर में '' का स्पष्ट :ग्य' उच्चारण है, केवल कुछ संस्कृतक्ष 'गम्य के सदृश उच्चारण करते है. ऐसी दशा में जब हम संकेतों से मूल अक्षरों का भान नहीं होता तब उच्चारण और वर्णशान की शुद्धि के लिये 'ष' और 'जज' लिखना और छापना ही उचित दै. Aho! Shrutgyanam Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला 'उ', और 'ज' के चित्र क्रमशः एक और दो माड़ी (- =) या खड़ी (1॥) लकीरें हैं जो व्यंजन के नीचे को लगाई जाती हैं. जिन व्यंजनों का नीचे का हिस्सा गोल या आड़ी लकीरवाला होता है उनके साथ खड़ी, और जिनका खड़ी लकीरवाला होता है उनके साथ आड़ी (दाहिनी ओर) सगाई जाती हैं ( देखो, तु, धु, नु, सु, कू,जू,). 'ए' और 'ऐ' के चिह क्रमशः एक और दो आड़ी लकीरें (- = ) हैं जो बहुधा व्यंजन की बाई ओर ऊपर की तरफ़ परंतु कभी कभी मध्य में भी लगाई जाती हैं, (देखो, के, देणे, थै). 'ओ' का चिक दो बाड़ी लकीरें हैं (--) जिनमें से एक व्यंजन की दाहिनी ओर को 'मा' की मात्रा की मांई, और दूसरी बाई ओर को 'ए' की मात्रा के समान लगाई जाती है (देखो, प्रो, मो). 'भी' क चिक इस लेख में नहीं है किंतु उसमें 'यो के विक से इतनी ही विशेषता है कि बाई मोर को ए ; के स्थान में दो माड़ी लकीरें (%) होती हैं जैसे कि लिपिपत्र पाठवें में 'पो में अनुस्था का चिक एक बिंदु ( . ) है जो बहुधा अक्षर की दाहिनी ओर ऊपर की तरफ रक्ता जाता है ( देखो अं). विसर्ग का चिक इस लेख में तथा अशोक के दूसरे लेखों में भी कहीं नहीं मिलता, परंतु ई. स. की दूसरी शताब्दी के लेखों में वह मिलता है जो वर्तमान विसर्ग के चिक के सहरा ही है और जैसे ही अक्षर के पास भागे लगता है (देखो, लिपिपत्र ७, मूल की पहिली पक्ति में 'राज्ञः'.) अशोक के समय ऋ, ऋ, ल और लू की मात्राओं के चित्र कैसे थे इसका पता नहीं लगता इतना ही नहीं, किंतु पिछले लेखों में भी 'ऋ' और 'लु' की मात्राओं के चित्रों का कहीं पता नहीं है. 'ऋ' की मात्रा का चिक पहिले पहिल ई. स. की दूसरी शताब्दी के लेखों में मिलता है (देखो, लिपिपत्र ६ में मथुरा के लेखों के अक्षरों में 'P', 'गृऔर 'कृ'; लिपिपत्र ७ में 'कृ' और 'कृ': और लिपिपत्र पाठवें में 'कृ', 'ग' और 'वृ'), संयुक्त व्यंजनों में कितने एक स्थानों में पहिले उच्चारण होनेवाले को ऊपर और पीछे उच्चारण होनेवाले को उसके नीचे जोड़ा है (देखो, म्य, म्हि, वे, स्ति, स्थ) जो शुद्ध है, परंतु कहीं कहीं दूसरे को ऊपर और पहिले को नीचे लिखा है (देखो, त्र, स्या, व्यो, स्टा, ना ) जो अशुद्ध है, और यह प्रकट करता है कि लेखक शुद्ध लिखना नहीं जानता था. हमने उन अक्षरों के ऊपर वर्तमान नागरी के शुद्ध अक्षर जान कर दिये हैं, जैसे खुदे हैं वैसा अक्षरांतर नहीं किया. 'क' में 'र' को अलग नहीं जोड़ा किंतु 'क' की खड़ी लकीर को 'र' का रूप देकर उसके साथ प्राड़ी लकीर जोड़ दी है. ऐसे ही 'ब्र' में 'ब' की बाई तरफ की खड़ी लकीर को भीतर दवा कर उसमें कोण बना दिया है. ऐसे रूप अशोक के किसी वसरे लेख में अथवा पिछले लेखों में कहीं नहीं मिलते. संयुक्त व्यंजनों में पहिले आनेवाले 'र' (रेफ) तथा पीछे आनेवाले 'र' का भेद तो इस लेख का लेखक जानता ही न था जिससे उसने संयुक्त व्यंजनों में जहां जहां 'र' श्राया उसको सर्वत्र पहिले ही लिखा है और उसको (चिह से बतलाया है जो उसके लिखे हुए 'र' का अग्रभाग है (देखो, और वे). इस लेख में 'ई', 'ऊ', 'ऐ', 'ओ', 'उ', 'ठ', 'श', और 'ष अक्षर नहीं है. 'ई' का रूप होना चाहिये, जिससे मिलता हुआ रूप क्षत्रपों के सिकों में (देखो, लिपिपत्र १०); अमरावती के लेख में (देखो, लिपिपत्र १२ ) और कई पिछले लेखों में मिलता है. 'ऊ', हस्थ 'उ' के नीचे दाहिनी भोर एक और पाडी लकरि जोडन से यनता था जैसा कि भरहुत स्तूप के लेखों से उद्धृत किये हुए Ahol Shrutgyanam Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामी लिपि अक्षरों में (लिपिपत्र ३) दिया गया है. 'ऐ', 'ए' के अग्रभाग के साथ बाई ओर एक बाड़ी लकीर जोड़ने से बनना था जैसा कि हा गुंफा के लेख में मिलता है ( देखो, लिपिपत्र ३). 'औ' का प्राचीन रूप अशोक के लेखों में अथवा गुप्तों के समय के पूर्व के किमी लेख में नहीं मिलता. उसका अशोक के समय का रूप होना चाहिये. 'क' बुद्धगया मंदिर के स्तंभ पर मिलता है जिसकी माकृति । है.'' का रूप बिलकुल वृत्त ० है और वह देहली के सवालक स्तंभ पर के अशोक के लेख में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २).'श' और 'प'अशोक के खालसी के लेख में मिलते हैं (देखो, लिपिपत्र २). इस लेख में बहुतेरे अक्षरों के एक से अधिक रूप मिलते हैं. संभव है कि कुछ तो उस समय भिन्न भिन्न रूप से लिखे जाते हो परंतु यह भी हो सकता है कि उक्त लेख का लेखक जैसे शुद्ध लिखना नहीं जानता था वैसे ही बहुत सुंदर अक्षर लिखनेवाला भी न था;क्योंकि इस लेख की लिपि वैसी सुंदर नहीं है जैसी किमयोक के देहली के सवालकस्तंभ और पंडरिया (रुमिंदेई) के स्तंभ के लेखों की है, और जैसे उनमें भक्षर तथा स्वरों की मात्राओं के चिक एकसा मिलते हैं वैसे इस लेख में नहीं हैं. यह भी संभव है कि लेखक सिद्धहस्त न हो और स्वरा से लिखता हो जिससे अत्तर एकसा नहीं लिव सका, इसीसे कहीं सीधी खड़ी लकीर को तिरछा ( देखो, उ, झ, न और प के दूसरे रूप) या गोलाईदार (देखो, ग और फ के दूसरे रूप) कर दिया है और कहीं गोलाईदार को तिरछा (देखो, 'म'का चौथा रूप और 'य' का तीसरा रूप) बना दिया है. लिपिपत्र पहिले की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरातर इयं धमलिपी देवामं प्रियेम प्रियदसिना रामा लेखापिता धन किषि जीवं पारभित्या प्रजाहितब्ध न च समाजो कतव्यो बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवामं प्रियो प्रियदसि राजा अस्ति पि तु एकचा समाजा साधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिमो रामो पुरा महामसम्हि देवानं प्रियस प्रियदसिनो रामो अनुदिव य. लिपिपत्र दूसरा. यह लिपिपत्र देहली के सवालकस्तंभा, खालसी, जोगमुर और सिद्धापुर' के घटानों तथा रधिमा, सारनाथ और सांधी के स्तंभों पर खुदे हुए अशोक के लेखों के फोटों से बनाया गया है और इसमें बहुधा के ही भक्षर लिये गये हैं जिनमें लिपिपत्र पहिले के अक्षरों से या तो कुछ भिन्नता पाई जाती है या जो लिपिपत्र पहिले में नहीं मिले. यह भिन्नता कुछ तो देशभेद से है और कुछ लेखक की रुचि और स्वरा से हुई है. देहली के सबालक स्तंभ के लेख की लिपि बड़ी सुंदर और जमी हुई है और वह सारा लेख सावधानी के साथ लिखा गया है. उसमें 'मा' में 'मा' की मात्रा का धिक ऊपर नहीं किंतुमध्य में लगा १. ई. जि. १३, पृ. ३०६.१० के बीच के सेट. मा.स. स. जि.१,सेट ६७-६६. ४. पं. जि.२.पू. २४८-४९ के बीच के सेट. ... जि.२,पू. ३६ के पास का प्लेट, ६. . ई. जि. २, पृ. ४५०-६० के बीच के सेट. ४. जि.३, पृ. १३८-४० के बीच के सेट. . पं. जि.८, पृ. १६८ के पास का प्लेट. Ano! Shrutgyanam Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. है . 'द' का मध्य भाग कहीं कहीं गोलाईदार नहीं किंतु समकोणवाला है. 'ध' को कहीं कहीं उलटा भी लिखा है. 'ज' के मध्य की दाहिनी तरफ की आडी लकीर को कुछ अधिक लंबा कर 'जा' बनाने से'ज' और 'जा' में भ्रम होने की संभावना रहती थी जिसको स्पष्ट करने के लियेही लेखक ने 'ज' के मध्य की लकीर के अंत में बिंदी बनाकर फिर 'श्रा की मात्रा का चिझ लगाया है. जिन अक्षरों का ऊपर का भाग खडी लकीरवाला है उनके साथ 'ई' की मात्रा गिरनार के लेख की इ की मात्रा के समान लगाई है परंतु कुछ नीचे की तरफ से, जिससे'ई की मात्रा का रूप बन जाता है (देखो, 'पिं' और 'ली में 'इ' और 'ई' की मात्रामों का भेद). अनुस्वार का चिक कहीं अक्षर के ऊपर परंतु विशेष कर भागे ही घरा है (देखो, 'पिं' और ' भ्यु') खालसी के चटान के लेख की लिपि भद्दी है और त्वरा से लिखी हुई प्रतीत होती है जिससे अक्षर सर्वत्र समनहीं मिलते और स्वरों की मात्राओं में कहीं कहीं अंतर पड़ गयाहै (देखो, ता, शा','तुखे, 'गे' और 'ले'). एक स्थान में 'ए' का रूप'ठ' से मिल गया है. 'घ' और 'ल का नीचे का भाग कहीं कहीं गोल नहीं किंतु समकोणवाला बना दिया है (देखो, 'घ', और 'ल' का दूसरा रूप), 'छ' के ऊपरी भाग में V आकृति का सिर बना दिया है जिससे अनुमान होता है कि उस समय किसी किसी लिपि में अक्षरों के सिर भी बनते हों, जिसका कुछ आभास भहिमोलु के लेखों में स्वरों की मात्रारहित व्यंजनों में होता है. ''का नीचे का भाग कलम को उठाये बिना ही (चलती कलम से लिखा है. ऐसे ही 'ज'को भी कहीं कहीं लिखा है जिससे पीच की आडी लकीर के स्थान में ग्रंथि हो गई है. अशोक के लेखों में केवल एक यही लेख ऐसा है कि जिसमें 'श' और 'ष' के रूप मिलते हैं, जोगड़ के लेख में श्रोउलटा लिखा है और एक स्थान में स'को चलती कलम से लिख दिया है जिससे मध्य में गांठ बन गई है (जोगड के लेख के इस 'स' को गिरनार, सवालक स्तंभ और खालसी के लेखों के 'स' से मिलाकर देखो). सिद्धापुर के लेख में कहीं कहीं 'अ', 'फ', 'म' और 'र' की आकृतियां कुछ विलक्षण बनी हैं. रधिना के लेख में 'ड के नीचे बिंदी बनाई है. गिरनार के लेख और अशोक के अन्य लेखों के अक्षरों में कहां कहां अंतर है यह लिपिपत्र दसरे में दिये हए अक्षरों को लिपिपत्र पहिले के अदरों से मिलाने से स्पष्ट हो जायगा. प्रत्येक अक्षर की भिन्नता का विवेचन करने की आवश्यकता नहीं. लिपिपत्र दूसरे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर देवानं पिये पियदसि लाम हेवं पाहा सौसति वस अभिसितेन मे इयं धमलिपि लिखापिता हिदतपालते दुसंपटिपादये अंमत अगाया धमकामताया अगाय पलीखाया अगाय सुसूसाया अगेन भयेना भगेन उसाहेना एस खा मम अनुसथिया धमाघेखा धमकामता चा सुवे सुवे वढिता वढौसति वा पुलिसा पि १ मे उकसा चा गेण्या चा मभिमा चा अनुविधीयंती १. देखो ऊपर पृ. २७ का दिप्पण६ ५. ये मूल पंक्तियां देहली सयालक स्तंभलेख से है. Aho! Shrutgyanam Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माझी लिपि. लिपिपत्र तीसरा यह लिपिपत्र रामगढ़, घोसुंडी', बेसनगर (विदिशा), नागार्जुनी गुफा', नानाघाट', भरहुता और सांधी के स्तूपों और हाथीगुंफा के लेखों से तय्यार किया गया है और मुख्य मुख्य प्रक्षर ही दिये गये हैं. उक्त लेखों में से पहिले ७ में कोई संवत् नहीं है, केवल हाधीगुंफा के लेख में मुरिय काल (मौर्य संवत्) १६४ ( गत) दिया है, अतएव इस लिपिपल का समय अनुमान के आधार पर ही दिया गया है. घोसुंडी के लेख में 'ले में 'त्' के साथ 'रको जोडने में 'त के नीचे की दाहिनी ओर की तिरछी लकीर को कुछ संया कर दिया है ( इसी तरह बेसनगर के लेस्व के 'ने में भी), 'प्रा में 'र' नीचे की तरफ जोडा गया है और '' में 'ष के प्रारंभ की सीधी खड़ी लकीर को भाधिक लंबा कर 'र' का रूप उसीमें बता दिया है. सनगर (विदिशा) के लेख में 'या' और 'द्र' में 'रको अधिक लंबी वक्र रेखा का रूप देकर नीचे की तरफ जोडा है. नानाघाट के लेख में 'ई:: बनाया है जिसमें तीन बिंदी तो इ की हैं और चौथी अनुस्वार की है. 'थो में 'ओ की मात्रा की दोनों तरफ की पाड़ी लकीरों को जोड़ कर एक ही लकीर बना दी है जो 'ध' से ऊपर अलग ही लगाई है परंतु 'लो' में 'भो की मात्रा की दोनों लकीरों को जोड़ कर एक कर दिया है और उसे 'ल' के अग्रभाग के साथ ही ठीक ठीक जोडा है. 'प्र', 'ब्र' और 'ब' में 'र' को नीचे की तरफ जोड़ा है जो 'उ'की माता का भ्रम उत्पन्न कराता है. भरहुत के लेख में 'वि' के साथ की 'इ' की मात्रा के अन भाग को दाहिनी तरफ बढ़ा कर उसमें संदरता लाने का यत्न किया है और 'गी' के साथ की'ई' की मात्रा की दोनों खड़ी लकीरों को कुछ बाई ओर झुकाया है. १. मा. स. ई.स. १९०३-४ प्लेट ४३ वां (B)... २. उदयपुर के विक्टोरिमा हॉल में रबखे हुए उक सेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छाप से. 1. आ. स. ई.स. १६०-३, प्लेट ४६ बां. इ. जि. २०, पृ. ३६४-५ के पास के प्लेट, अ. भा. स.के. जि.प्लेट ५१, लेख सं. १-२. .. जि.१४. पू. १३६ - बू.पे झट २. पंक्ति १८, अक्षर संख्या ४१. ८. पेप्सेट २, पक्ति २१-२२, और पं. भगवानलाल इंद्रजी संपादित 'हाधीगुंफा पंधी प्रदर इन्स्क्रिपशन्स्' के सायापोट, लेख संख्या १. १. यदि मौर्य संवत् का प्रारंभ मौर्यवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त के राज्याभिषेक अर्थात् ई. स. पूर्ष ३२१ से माना जावे तो उक लेख का समप (३२१-१६) ई.स. पूर्व १५७ होगा. १. डॉ.दूसरनेस चिक::को'माना (स.पे, पृ. ३४) और कोई कोई यूरोपिमन विद्वान् इसे यूलर के कथनातुसार ही पढ़ते हैं (प.जि.८, पृ.१०) परंतु वास्तव में यह ''ही है. '' की तीन बिवियों के साथ अनुस्वार की चौथी हिंदी लगने ही ऐसा रूप बनता है और चार बिंदी होने से ही उनको समान रेखा में लिखा है. अब तक केवल निम्न लिखित ५ लेखो में ही यह चिट मिला है जहां सर्वत्र'' पढ़ना ही युक्त है मानाघाट के खेल में-'नमो दस (मा. स. के.जि.५, प्लेट ५१, पंक्तिपहिली). बुद्धगया के रोस्यों में-दागिमित्रास (काम.यो पलेट १०, संख्या १-१०). मथुरा के लेखा मे-'गोतिपुत्रलद्रपाल...'] ( जि.२, पृ. २०१ के पास का पोर, शेख संख्या ६). मासिक के लेख में-'मदेवपुतस ग्राग्निवतस' (ऐ.जि. पू.१०). इन पांचों लेखों में यह विश ' शब्द के प्राकृत रूप रंच' में प्रयुक्त हुआ है जहां 'ईद' पढ़ना ठीक नहीं हो सकता. नानापाट के लेख का कर्ता जहां प्राकृत में अनुस्वार की मावश्यकता नहीं थी वहां भी मनुस्वार लगाता है ( नमो सकसनबासुदेवान......बतुंनं पं लोकपालानं ) तो वह 'इंद्र' के प्राकृत रूप को 'इंद' लिख कर 'ईद' लिणे यह संभव हीनही. Aho! Shrutgyanam Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्राचीनलिपिमाला. सांची के लेख के 'की' में 'ई' की मात्रा की दोनों लड़ी लकीरों को दाहिनी भोर झुकाया है. हाथीगुंफा के लेख में अक्षरों के सिर बनाने का यत्न पाया जाता है परंतु वे वर्तमान नागरा अक्षरों के सिरों जैसे लंबे नहीं किंतु बहुत छोटे हैं. ये सिरे पहिले पहिल इसी लेख में मिलते हैं. 'मि' और और 'लिं' में 'इ' की माला भरहुत स्तूप के उपर्युक्त 'वि' के साथ लगी हुई' की मात्रा के सहा है और 'बी' में 'ई'की मात्रा की दाहिनी मोर की खड़ी लकीर को भी वैसा ही रूप दिया है. 'ले' में 'ल' के अग्रभाग को दाहिनी ओर नीचे को झुकाया है और 'गो' में 'मो' की मात्रा नानाघाट के लेख के 'थो के साथ की 'ओ' की मात्रा की माई व्यंजन के ऊपर उसे स्पर्श किये बिना एकहीमाडी लकीर के रूप में धरी है. लिपिपत्र तीसरे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर 'सुगनं रजे रओ गागौपुतस विसदेवस पौतेख गोतिपुप्तस श्रागरजुस पुतण वारिपुतेन धनभूतिन कारितं तारना(ण) सिलामता र उपण. धंमस नमो इंदस नमी संकंसनवासुदेवानं रंदख......मा...तानं चतुंनं र लोकपालानं यमवरमकुबेरवासवामं नमो कुमारवरस वेदिसिरिस र... लिपिपत्र चौथा. यह लिविपन्न महिमोलु के स्तूप से निकले हुए पत्थर के ३ पात्रों के ढलानों पर खुदे हुए हैं लेखों से तथा स्फरिक के एक छोटे से टुकड़े पर, जो वहीं से मिला था, खुदे हए लेख से तय्यार किया गया है. 'अ' मे 'सं' तक के अक्षर उक्त नौ लेखों से और अंतिम ६ अक्षर ('ग' से 'हि' तक) स्फटिक पर के लेस्त्र से लिये हैं, जिसकी लिपि पहिले तीन लिपिपत्रों की शैली की (ब्राह्मी) है. पाषाण के पात्रों पर खदेहएईलेखों की लिपि में 'घ''द'.'भ','मल','ष' और 'ळ'इन७अक्षरों में पहिले तीन लिपिपलों के अहरों से भिन्नता है (इन अक्षरों को लिपिपत्र १ से ३ तक के अक्षरों से मिलाकर देखो). दूसरा भेद यह है कि प्रत्येक व्यंजन जब स्वरों की मात्रा से रहित होता है तब उसके साथ दाहिनी मोर एक बाड़ी लकीर लगाई गई है जैसे अशोक के लेखों में 'श्रा' की मात्रा लगाई जाती थी. यह लकीर बहुधा व्यंजन के अप्रभाग से सटी रहती है परंतु कभी कभी कुछ नीचे की तरफ और कभी मध्य में लगाई जाती है. 'ज' के साथ जब स्वर की कोई माला नहीं होती तब वह अशोक के लेखों के 'ज' के समान होता है (बीच की आडी लकीर स्वरचिकरहित दशा की है ); परंतु जब उसके साथ कोई स्वर की मात्रालगी रहती है उस समय उसका रूप बहुधा मिलता है (देखो, जु, जू,जे, जं). इन भेदों से पाया जाता है कि उक्त लेखों की लिपि पिपावा, बी और अशोक के लेखों की लिपि से नहीं निकली किंतु उस मृल लिपि से निकली होगी जिससे स्वयं पिप्रावा, बर्ली और अशोक के लेखों की लिपि निकली है'. संभवतः यह द्रविड (द्राविडी) लिपि- हो. १. ये पहिली तीन पंक्तियां भरहुत के स्तूप के लेख से हैं (इ. जि. १५, पृ. १३६, 2. यहां से तीन पंक्तियां नानाघाट के लेख से हैं (आ.स.वै. जि.५, प्लेट ५१, लेख संख्या १), २. . जि. २, पृ. ३२८-२९ के बीच के प्लेट. . देखो ऊपर पृ.४२. ५. मटिमोलु के उक्त र लेजो के अतिरिक्त इस शैली की लिपि (द्राविडी) का और कोई शिलालेख अब तक नहीं मिला, परंतु अध्रिवंशी राजा गौतमीपुत्र श्रीयशातकार्यि के एक प्रकार के सिक्के पर एक तरफ 'रो गोतमिपुतस सिरिया Aho 1 Shrutgyanam Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माझी लिपि इस लिपि में 'मा'की मात्रा का चिकबधा है परंतु कहीं कहीं कोण के स्थान में गोलाई भी मिलती है (देखो, का, खा, ता), 'ऊ' की मात्रा में भी अशोक के लेखों से मिलता है (देखो, जू, लू, बू) परंतु बाकी की मात्राओं में विशेष अंतर नहीं है. केवल कहीं कहीं सीधी लकीर को तिरछा या गोलाईदार बना दिया है. ---- Aधे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर 'कुरपितुनो र कुरमातु च कुरष च सिवका च म. जुसं पणति फाळिग घमुगं च बुधसरिरानं मिखेतु. रमनवपुलवकरच पपितकर मजस. 'उतारी पिगहपुतो काणोठी. "घरहदिनाम गोठिया मजूसप पपुगो च तेमकम येम कुविरको राजा अंकि. नेगमा वछो चघो अतो गंभी तिसो रेतो अचिना भिका असयो को केसो महो सेटोदि लिपिपत्र पांचवां. यह लिपिपत्र पभोसा के २ लखों, मथुरा के छोटे छोटे ४ जैन लेखी तथा महाक्षत्रप शोडास के मथुरा के लेख मे तय्यार किया गया है. एमोसा के लेखों के अक्षरों में 'अ' की दाहिनी तरफ की खड़ी लकीर को नीचे के छोर से बाई तरफ मोड़कर ऊपर की ओर कुछ बढ़ा लिया है, जैसे कि ई.स. की दूसरी शताब्दी से दक्षिण के लेखों में मिलता है. 'री' में 'ई' की मात्रा और 'यू' में 'ऊ' की माला में पहिले के लिपिपत्रों से भिन्नता है (देखो, 'री' और 'पू'), मथरा के लेखों में 'स्व' और 'म के नीचे के भाग में त्रिकोण बनाया है, तीसरे 'वका सिर त्रिकोण प्राकृति का (भीतर से स्वाली) बनाया है जिससे उसकी आकृति विलक्षण हो गई है.'ळ की आकृति सांची के'ळ' से कुछ विलक्षण है जिसका कारण कलम को उठाये बिना पूरा प्रदर लिखना ही होना पाहिये. महाक्षत्रप शोडास से लेख में 'ड' का रूप नागरी के 'ड' से किसी प्रकार मिलता हआ है. लिपिपत्र पांचवें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर नमो परहतो वर्धमानस्य गोतिपुषस पोठयशकवालवाळम......कोशिकिये शिमिचाये पायागपटो प........... सातकणिस' और दूसरी ओर .......गोतम(मि)पुतष हिरुपमहातकणिष' लेख है (प के. कॉ.भा . हम दोनों लेखो की लिपियों में स्पष्ट अंतर है. पहिले लेख की लिपि आंधों के लेख और सिक्कों की ही लिपि है और सरी तरफ के लेख की लिपि संभव है कि भहितालुके लेखो की द्राविडी लिपि का परिवर्तित रूप हो (देखो, का कॉ. ए प्लेट १६. सिका संख्या ८; रा; कॉ: 'लेट ३, सिक्का संस्था ५). १. जि. २, पृ. ३२८ के पास का प्लेट, लेख संख्या १ (A). , तीसरा, लेख संख्या ६. ... ४. पं. " पृ. २४२, २४३ के पास के२पोट. मि.१, पृ. ३१७ के पास का प्लेट, सेवा, ३३, जि.२ पृ. २०० के पास का प्लेट, लेख. १,५और जि. २. पृ. २०० के पास का प्लेट, लेख संख्या २. 6t.जि.१, पृ.३६७ के पास का पोट ३३. Aho ! Shrutgyanam Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. समनस मारखितास प्रवासिस छोपुचस सावकास उतरदासकस पसाद तोरनं 'अधिचाया रानो शोन कायनपुचस्य वंगपालस्य पुचस्य रमे (मी) तेवखोपुनस्य भागवतस्य पुचेण वैहिद पुत्रेण च (श्रा) वाढसेनेन कारितं. लिपपत्र छुटा यह लिपिपत्र कुशनवंशी राजाओं के समय के मथुरा, सारनाथ' और चारगांव' से मिले हुए लेखों से तय्यार किया गया है. मथुरा के कई एक लेखों से अक्षर छांटे गये हैं, जिनमें कई अक्षरों के एक से अधिक रूप मिलते हैं जो भिन्न भिन्न लेखकों की लेखन रुचि की भिन्नता प्रकट करते हैं. पहिली 'इ' में तीन बिंदियों के स्थान पर तीन आडी रेखाएं बना दी है और दूसरी 'इ' में दो आड़ी लकीरों के आगे दाहिनी ओर एक खड़ी लकीर बनाई है. 'उ' (पहिले) की दाहिनी ओर की आड़ी लकीर को नीचे की तरफ़ मोड़ा है. यही मोड़ बढ़ने पर नागरी का 'उ' बनता है (देखो, लिपिपत्र ८२ में नागरी 'उ' की उत्पत्ति) दूसरा व तीसरा 'ए' नागरी 'ए' से कुछ कुछ मिलने लगा है. 'य' के पांचों रूप एक दूसरे से भिन्न है. 'न' के दूसरे रूप के मध्य में गांठ बनाई है जो कलम को उठाये बिना पूरा अर लिखने से ही बनी है. वैसा ही 'न' लिपिपत्र १२, १६, ३६, ३७, ३८, ३६ आदि में मिलता पहिले 'प' ल' और तीसरे 'प' के रूप नागरी के 'प' 'ल' और 'प से किसी प्रकार मिलते हुए हैं. 'वा', 'रा' और 'षा' में 'आ' की मात्रा की भाजी लकीर खड़ी या तिरछी हो गई है. 'इ' और 'ई' की माताओं के मूल चिह्न मिट कर उनके नये रूप बन गये हैं (देखो, शि. थि, वि, सी ). 'प' और 'ऐ' की मात्राएं नागरी के समान बन गई हैं. संयुताचरों में दूसरे माने वाले 'य' का मूल रूप नष्ट हो कर नागरी के 'च' से मिलता जुलता रूप बन गया है, परंतु सारनाथ के लेख में उसका मूल रूप और चारगांव के लेख में दोनों रूप काम में लाये गये हैं. लिपिपत्र छठे की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर महाराजस्य राजतिरा[ज]स्य देवपुचस्य वाहिणिष्कस्य सं ७ हे १ दिन १०५ एतस्य पूर्व (ख) हिकियातो गातो नागभुतिकियाती कुलातो गणिश्च च बुशिरिस्य शिष्ये रायको चासनिकस्य भगिनि अश लिपिपत्र सातवां. यह लिपिपत्र महाक्षत्रप नहपान के जामाता शक उषवदात ( अपभदस) और उसकी श्री वृक्षमित्रा के नासिक के पास की गुफाओं (पांडव गुफाओं) के ४ लेखों" से तय्यार किया गया है. १. ग्रॅ. इंजि. २. पु. २०० के पास का प्लेट, लेख, ६. २. फॅ. ; जि. २, पृ. २४३ के पास का प्लेट. ऍ. ई जि. १, पृ. ३०० से ३१७ के बीच के प्लेट, और जि. २, पृ. २२० से २०६ के बीच के प्लेटों के कई लेखों से. १७६ के पास का प्लेट, लेख, ३ (A). K. मा. स. ई. ई.स. १६०८.६. प्लेट ५६ ४. वॅ. इंजि. प. पू. 4. ये मूल पंक्तियां पॅ. २०. १० ५=१५. ये अंक प्राचीन शैली के हैं, जिसमें शून्य का व्यवहार न था. ; जि. १. मथुरा के लेख, १६ से हैं. ०. सं- संघरसर = संवत्. चिन दहाइयों के नियत ये (देखो, आगे अंकों का विवेचन ). १९. प्लेट ५२ हे हेमंत दि= दिवसे. उसमें २० से ६० तक के लिये . : जि. प. प्लेट ४ लेख संख्या १०१ प्लेट ७ संख्या ११ प्लेट ५ से. १२ प्लेट सं. १३. आ. स. वै. इंजि. ४, संख्या ५, ७, ८ और १० (A) (नासिक ). Aho! Shrutgyanam Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राही लिपि इसी लिपिपत्र के आधारभूत एक लेख में हलंत व्यंजन पहिले पहिल मिलता है, जिसको सिरों की पंक्ति से नीचे लिखा है. इसके अतिरिक्त हलंन और सखर व्यंजन में कोई अंतर नहीं है. 'म' के साथ की 'अ' की मात्रा नागरी की 'ऊ' की मात्रा से मिलती हुई है, 'णों' में 'या' की मात्रा रंफ के साथ लगाई है. और स्वरों की संधियां बहुधा नहीं की है। लिपिपत्र सातवें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिडाम रामः क्षहरातस्य वचपस्य नापामस्य जामापादौनीकपुषेण उपषदातेन विगोशतमासदेम मद्या(द्यो) बार्णासायां सवर्णदानतीर्थकरेण देवताभ्यः ब्राह्मणे भ्यश्च षोडशग्रामदेन अनुवर्ष बाह्मणशतसहस्त्रीभोजापयिषा प्रभासे पुख्यतौर्ये ब्राह्मणेभ्यः अष्टभार्थीप्रदेन भरुकछे दशाधुरे गोवर्धने शोरगे च चतुशालायसधप्रतिश्रयप्रदेन आरामसडागउदपानकरेण स्वापारदादमणतापीकरणादाहनुकानावापुण्यसरकरेण एतासां च नदी. लिपिपत्र पाठवां यह लिपिपत्र उपर्युक्त अशोक के लेखवाले गिरनार के पास के चटान की पिछली तरफ़ खुदे हर महाक्षत्रप रुद्रदामन के लेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छाप से बनाया गया है, यह लेख शक संवत् ७२(ई.स. १५०) से कुछ पीछे का है. इस लेख में 'पौ' के साथ जो 'औ' की मात्रा जुड़ी है वह तो अशोक के लेखों की शैली से ही है और 'यो के साथ की मात्रा उसीका परिवर्तित रूप है जो पिछले लेखों में भी कुछ परिवर्तन के साथ मिल पाता है, परंतु 'नौ' और 'मा' के साथ जो 'औ' की मात्रा जुड़ी है वह तो अशोक के लेखों में और न उनसे पिछले किसी लेख में मिलती है अमएष संभव है कि वह चिा अशोक से पूर्व का हो'. हलत व्यंजन इसमें भी पंक्ति से नीचे लिखा है. लिपिपत्र आठवें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर অবলম্বনালদিনা বয়সমিমাঘল माना मरेंद्रकन्न्यास्वयंवरानेकमा ल्यप्राप्तदाना महक्षचपेण रुद्रदाम्ना वर्षसहस्राय गोब्रा......य॑ धम्मकीर्त्तिवृद्धयर्थ च अपौडयित्वा करविष्टिप्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जमै स्वस्मात्कोशा[त] महता धनाघेम अनतिमहता च कालेन विगुणदृढतर विस्तारायाम सेतु विधा......सुदर्शनतरं कारितमिति...स्मिन्नर्थे महाक्षचपस्य मतिसचिवकर्मसचिबैरमात्यगुणममुद्युक्तरप्यतिमहत्वानेदस्यानुत्साहविमुखमसिभिः 1. ये मूल पंक्तियां : जि.८, प्लेट, लेन संख्या १० से हैं. देखो. ऊपर पृ. ३, हिप्पण २. AholShrutgyanam Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. लिपिपत्र नवा यह लिपिपत्र वासिष्ठीपुत्र पुलमायि मादि अांध्रवंशी राजाओं के नासिक के पास की गुफामों के ७ लेखों से तय्यार किया गया है. वासिष्ठीपुत्र पुलमायि के लेख में 'नु' के साथ की 'उ की मात्रा के अंत में एक माड़ी लकीर और लगी हुई है और 'व' में 'ए' को ऊपर और 'ह' को नीचे लिखा है जो लेखकदोष है. गौतमीपुत्र यज्ञशातकर्णि के लेख में पहिले 'त' को बिना कलम उठाये ही पूरा लिखा है जिससे उसकी माकृति मथुरा के लेखों के दूसरे 'न'(लिपिपत्र ६)से ठीक मिलती ही यह दोष अन्यत्र भी पाया जाता है. लिपिपत्र नवें की मूलपंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिंह(क) रत्री वासिठिपुतस रपुळसायिस संवहरे रकुनवौसे १०८ गिम्हाण पखे बितोये २ दिवसे तेरसे १०३ राजरो गोसमीपुतस हिमवतमेरुमदरपवतसमसारस पसिकसकमुळकसुर ठकुकुरापरात अनुपविद. भाकरावतिराजस विभाइवत पारिचातसयकलगिरिमच लिपिपत्र दसवां यह लिपिपत्र पश्चिमी क्षत्रप',चैकूटक तथा मांध्रवंशी राजाओं के सिक्कों पर के लेखों से तय्यार किया गया है. क्षत्रपों के छोटे सिखों पर लंया लेख होने से कितने एक सिकों पर के कोई कोई अक्षर अधिक सिकड़ गये हैं जिससे उनकी प्राकृति स्पष्ट नहीं रही (देखो 'य' का तीसरा रूप 'स' का दूसरा स्वप; 'का तीसरा, चौथा और पांचवा रूप; 'क्ष'का पांचवां रूप; 'ज्ञ' का दूसरा रूप), और कहीं कहीं खरों की मात्राएं भी स्पष्ट होगई हैं. कूटकों के सिक्कों में 'न,य', 'ह','त','त्र', 'व्य' और 'रण के रूप विलक्षण मिलते हैं. मांधों के सिकों के अक्षरों में से अंतिम तीन अक्षर (प, हा, हि ) उपर्युक्त गौतमीपुत्र वासिष्ठीपुत्र पुलुमाधिके लेखों से-प. जि. नासिक के लेख, प्लेर, संख्या २, पोट २, संख्या ३; प्लेट ६, संख्या ४१ पलेट ३, संख्या १. मा. स.के. जि. ४, प्लेर ५२, नातिककी लेख संख्या १४, १५ जेट ५३ संख्रा १२.१३. गौतमीपुत्र स्वामिश्रीयशसकर्णि मामवाले एक लेख से-.: जि.स.मासिक के लेख, लेटर, संख्या २३. मा.स. जि.४ पलेट ४४, (नासिक के लेख) संख्या १६. गौतमीपुष शतकर्थिके२लेको से-पै.जि., मासिक के लेख. प्लेट २, संख्या ४,५. मा. स.थे. जि., प्लेट ५३, मासिक की लेख संख्या १३, १४. पदिौतमीपुत्र स्वामिश्रीयशासकर्षि, गतिमीपुष शातकर्णि से मिन और पुराणों में दरांप्रबंशी राजामौ की नामावली का २७ वां राजा यायातकर्णि हो तो उसके लेख का समय ई. स. की दूसरीमही किंतु तीसरी शताम्दा होना ..मल पनियां चासिडी पुलमाथि के मालिक के लेस से उशत की गई है ( जि.नासिक के लेखो की प्लेट १, संख्या २. मा.स.के.जि.अ. प्लेट ५२. मासिक की लेख सं. २४). बांसवाहाराज्य के सिरवानिमा गांव से मिले हुए पश्चिमी वायपों के २४०० सिहो, राजपूताना म्युज़िमम (अजमेर) मेरा अधिक सिको तथा प्रा. रापसम् संपादित त्रिटिश म्युज़िमम में रक्खेहरमन, पत्रपभोर करको के सिकों की सूची की पुस्तक के प्लेट. ६-१७ से. * राजपूताना म्युजियम में रखे हुए अटक वंशी राजाओ के सिको तया प्रॉ. रापसन् को उपर्युक्त पुस्तक के पोट १८ से. ___. मॉ. रापसम की उपर्युक्त पुस्तक के प्लेट- से. Aho! Shrutgyanam Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी लिपि श्रीयज्ञशातकर्णि के द्राविडी लिपिवाले लेख से लिये हैं और दूसरों से भिन्न होने के कारण अंत में अलग दिये हैं. लिपिपत्र १० वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर राधो क्षहरातस नहपानस . राज्ञो महाक्षत्रपप्स घ्समोतिकपुत्रस सष्टमस. राज्ञो महाक्षचपस ईसरदत्तस वर्षे प्रथमे . राज्ञो महाक्षचपस दामसेनस पुषस राज्ञः क्षचपस यशोदामः . राज्ञो महानचपस दामसेनमुषस राशो महाक्षचपस दामजद श्रियः . राज्ञो महाक्षसपस रुद्रसेनपुषस राज्ञो महापचपस भदानः. ग क्षषपस रुद्रसेनपुचस राक्ष क्षचपस यशदान:. राज महाक्षचपसस्वम(स्वामि)रुद्रद(दा)मपुषस लिपिपत्र ११ घां. इस लिपिपत्र में भाजा, पित्तलखोरा, महाड आदि दक्षिण की भिन्न भिन्न गुफाओं के कई लेखों से मुख्य मुख्य अक्षर ही उद्धृत किये गये हैं. भाजा के लेख में ''को त्वरा से लिखने के कारण उसकी प्रवृति वृत्त सीन बन कर उससे भिन्न बन गई है. महाड के लेख में 'म'की आकृति दो अलग अलग अंगों में विभक्त हो गई है. वास्तव में ये दोनों अंश जुड़ने चाहिये थे. कन्हेरी के लेख के 'लो' के साथ लगी हई 'ओ की माला (कलम को उठाये बिना मात्रा सहित अक्षर लिखने के कारण ) गांठवाली बन गई है और दक्षिणी शैली के पिछले कई लेखों में ऐसाही 'लो मिलता है (देखो लिपिपत्र ३६, ४३, ४४, ४६, ४७ श्रादि). यदि कलम को उठा कर माता का विक लगाया जाता तो 'लो' की माकृति लिपिपल छठे में मधुरा के लेखों से दी हुई ‘लो की आकृति से मिलती हुई होनी चाहिये थी. कार्लि के लेख में 'न' अक्षर की जो प्राकृति मिलती है वह भी कलम को उठाये बिना पूरा अक्षर लिखने से ही बनी है परंत कलम को ऊपर की तरफ़ न बढ़ा नीचे की तरफ यहाकर आड़ी लकीर खींची है जिससे ग्रंथिवाला रूप (जैसा कि लिपिपत्र ६, ३६, ३७, ३८, ३६ आदि में है ) न बन कर यह नया विलक्षण रूप पन गया है, जिसके परिवर्तित रूप लिपिपत्र १३ और १४ में मिलते हैं. जुन्नर के लेख में 'मि' में जो 'म' का रूप मिलता है उसीके परिवर्तित रूप से लिपिपत्र १३ और १४ में दिये हुए 'म' के विलक्षण रूप बने है, जो अन्य लेखा नहीं मिलने. ' और 'स' के सिर त्रिकोण आकृति के (भीतर से खाली) बने हैं और कहीं 'इ' और 'ई' की मात्राओं में सुंदरता लाने का यन करने से उनकी प्राकृतियां पहिले से अधिक विलक्षण हो गई हैं (देखो, रि, रि, लि, वी), 'व्य' में प्रथम 'य' तो प्राचीन रूप का और दूसरा व नागरी मे मिलता हुया है जो कलम को उठाये बिना ही पूरा अक्षर लिखने से बना है. नासिक के लेखों के अक्षरों में 'म्' के साथ लगी हुई 'ॐ' की मात्रा के दोनों छोर एक दूसरे के साथ मिज्ञ गये हैं और 'न्ये' में 'य' को 'न' की खड़ी लकीर के मध्य में जोड़ा है. कूडा के लेम्खों के .. ये मूल पंक्तिय क्षत्रपों के सिक्कों पर के लेखो से है। .. भाज-श्रा. स. के. जि. ५, पलेट ४५, लेखसंख्या ७. पित्तलखोरा--प्रा. स. के. जि.४, प्लेट १४. लेनसं.६.महायु-प्रा.स. व..जि.४, प्लेट ५६, लेखसं.२,३,४. सेलारवाडी--प्रा. स.के. जि.४, प्लेट४८लेखसंख्या रह. बेडसा-प्रा. स.वे.ई:जि. ४. प्लेट ४७, लेखसंख्या ३. कम्हेरी-पा. स. के. जि.५, प्लेट ५१, लेखसंख्या २, ३६.५, १४, १५. कालि-श्रा. स. वे. नि.५, पलेट ४७, ४८.५६,५४, सेखसंख्या ३, ५, ६, ११, १३, १७. १६, २०, २१, २२. जबर-प्रा. स.के. जि.४, प्लेट ४-५२, लेखसंख्या २-६,१०,१४,१५,२०,२४, २५, २८. नासिक-'. जि. नासिक के लेखो कर प्लेट ५, लेखसंख्या १८ प्लेट ३, सं.६ प्लेट, सं.८ प्लेट ४. सं. २३. मा.स.के. जि.४, प्लेट ५४, लेखसंख्या १६, २२, २४, २५ (नासिक). कुडा-पा. स. चे. जि.४, प्लेद ३५--३६ लेखसंस्था १, ५, ६, २१, १३, २०, २४. Aho! Shrutgyanam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. अक्षरों में 'अ', 'क', 'रादि खड़ी लकीर वाले अक्षरों की नथा 'पु' में 'उ की मात्रा की खड़ी लकीर को लंबा कर नीचे के भाग में पाई ओर ग्रंथि मी बना कर अक्षर में अधिक सुंदरता लाने का या स्पष्ट पाया जाता है, लिपिपत्र ११ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिधं श्रोतराहस दांतामिसियकस योगा कम धमदेवपुसस इंद्रामिदसस धमात्मना इमं लेणं पवते तिरंगहुम्हि खा. मित अभंतरं च लेणस चेतियघरी पोढिया प मातापितरो उदिस इम लेप कारितं सवबंधपुजाय पातुदि. शस भिखू संघस नियातितं सह पुतेन धमरखितम. __ लिपिपत्र १२ वा. यह लिपिपत्र अमरावती के कई एक लेखों तथा जग्गयट के लेखों से तय्यार किया गया है. अमरावती के लेखों के अक्षरों में की तीन विंदिओं के स्थान में तीन माड़ी लकीरें बनाई है इतना नहीं किंतु उनको वक्र भी बनाया है और 'जा' में श्रा' की मात्रा को नीचे की ओर झुकाया है. जग्गयपेट के लेखों में 'अ', 'क', 'अ' आदि अक्षरों की खड़ी लकीरों को नीचे की ओर बहुत बड़ा कर उनमें बाई और घुमाव डाला है. और 'ल' की खड़ी लकीर को ऊपर की ओर बढ़ाकर घुमाया है, ऐसे ही'', 'ई'को और कहीं 'उ की मात्राओं को भी 'इ' के चित्र की तीन बिंदियों के स्थान में अधिक मुड़ी हई लकीरें बनाई है. 'इ के पहिले रूप की इन तीनों लकीरों को चलती कलम से जोड़ कर लिखने से वर्तमान तामिळ लिपि के 'इ' का पूर्वरूप बन जाता है (देखो, लिपिपत्र ८४ में तामिळ लिपि की उत्पात में 'इ' का तीसरा रूप). Amar की मृत पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिध। रो(ओ) माढरिपुतस स्वाकुता(ण) सिरिविरपुरिसदसस संवछर २• वासापर्व ६ दिवसं १० कमाकरथे गडदुरे चावेनिस नाकचंदस पूतो गामे महाकाडसरे भावेसनि सिधा आपण मातरं नागिलनि पुरतो कातुनं घरनिं लिपिपत्र १३ वा. यह लिपिपत्र मामिडवोल स मिले हुए पल्लववंशी शिवस्कंदवर्मन् के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसमें 'ए', 'ज', 'न', 'न', 'म' और 'स अक्षर विलक्षण है. 'ए' की त्रिकोण श्राकृति मिटकर नया रूप बना है जो त्वरा से लिखने के कारण ऐसा हुआ है. कलम उठाये बिना ही'त को पूरा लिखने से उसके बीच में ग्रंथि बन गई है। 'न' कालि के लेख में मिलनेवाले है ये मूल पंक्तियां द्राग्निदत्त के लेख से हैं (.: जि. नासिक के लेखों का प्लेट ५. लेखसंख्या १८.) ५. प्रा.स.स. जि. १, प्लेट ५६, लेखसंख्या १. १३, १६, १७, १८, ३०. ३१. ३०.४०. ४१, ४५, ५३. ३. प्रा. स. स. जि. १, प्लेट ६२, ६३, लेखसंख्या २-३. ४. ये मूल पंक्तियां प्रा. स.स. पसेट ६३, लेख प्रख्या ३ से है. है; जि.६, पृ.८४ से के बीच के ५ प्लेटो से. 4. 'स' का ऐसा ही रूप कन्हेरी के एक लेख में भी मिलता है (देखो,लिपिपत्र ११ में). Aho ! Shrutgyanam Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी लिपि उक्त अक्षर का कुछ परिवर्तित रूप है, 'म जुन्नर के लेख के 'मि में जो 'म' अक्षर है उसका विकार मात्र है. 'सकी बाई तरफ लगनेवाली चक्र रेखा को अक्षर के मुख्य अंश से अलग कर उसको दाहिनी तरफ अधिक ऊपर बढ़ाने से यह विलक्षण 'स' बना है. लिपिपत्र १ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर--- चौपुराती यवमहाराजी भारदायसगात्तो पलवामं सिबखंदवम्मो धंभकडे वापतंग्रामपयति बम्हेहि दामि मह बेजयिके धंमायवलवधनिके य बम्हनानं अगिवेससगी लिपिपत्र १४ वां. यह लिपिपल कोंडमुडि से मिले हुए राजा जयवर्मन् के दानपन से तय्यार किया गया है. इसमें 'ई' की खड़ी लकीर को तिरछा कर दिया है. 'ड' और 'न' में स्पष्ट अंतर नहीं है. 'ज', 'म', 'म' और 'सअक्षर लिपिपत्र १३ के उक्त अवरों से मिलते जुलन ही हैं इतना ही नहीं किंतु इस दानपन्न की लिपि बहुधा वैसी ही है जैसी कि लिपिपत्र १३ वे की है. लिपिपत्र १४ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर विजयखंधावारा नगरा कूदानों महेश्वर पादपरिगडिनो बहरफलायमसगोतो राजा सिरिजयवमा पानपति कूदूरे वापत अंन्हे दामि अंन्हवेजायके वायवनिके र बम्हनानं गोतमसगोममायापरस मवगत जस ८ मानवस लिपिपत्र १५ वा. यह लिपिपत्र हीरहडगल्ली से मिले हुए पल्लववंशी राजा शिवस्कंदवर्मन् के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इसमें 'इऔर 'थ' की प्रिंदिओं के स्थान में • चिक लगाये हैं. 'ए की प्राकृनि नागरी के 'व' (बिना सिर के ) से कुछ कुछ मिलती हुई बन गई है. 'व' की बाई तरफ की खड़ी लकीर को भीतर की ओर अधिक दबा कर बीच में गोलाई दी है. 'ब' का यह रूप दक्षिण की शैली की पिछली लिपियों में बराबर मिलता है. 'म् को पंक्ति से नीचे लिखा है और उसके ऊपर के दोनों श्रृंगों के साथ सिर की छोटी लकीरें नहीं जोड़ी जो सस्वर साथ मुड़ी हुई मिलनी हैं. 'गा' के साथ 'श्रा' की मात्रा नीचे की तरफ से खंगाई है. लिपिपत्र १५ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिचम् ॥ काचिपुरा अग्निट्यो (त्यो)मबाजपेयस्समेधयाजी धम्ममहाराजाधिरामा भारहायो पस्लवाण सिवमंदवमो धम्ह विसये सवत्य राजकुमारसेनापतिरटिकमाविकदेसाधिकतादिके गामागामभोजके वलवे गोवलवे अमरेभरणधिकते ।. देखो, लिपिपत्र ११ में कार्मि के लेखों के प्रक्षरों में 'म'. १. देखो. लिपिपत्र ११ में अभर के लेखो का 'मि'. १. पहिला प्रहर'को' है परंतु मुख में स्पए नहीं है, . . जि. ६. पू. ३१६ से १७के बीच के ४ पोटों से. . .: जि.१, १.३.७ बीच के प्लेरों से. Ahoi Shrutgyanam Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६--गुप्तलिपि, ई. स. की चौथी और पांचवीं शताब्दी ( लिपिपत्र १६-१७ ). गुप्तों के राज्य के समय सारे उत्तरी भारत में ब्राह्मी लिपि का जो परिवर्तित रूप प्रचलित था उसका कल्पित' नाम 'गुप्तलिपि रक्खा गण है. यह लिपि गुप्तवंशी राजाओं के, जो उसरी भारत के बड़े हिस्से के स्वामी थे, लेखों में, एवं उनके समकालीन परिवाजक और राजर्षिनुरुप वंशियों तथा उच्छुरुप के महाराजाओं के दानपत्रादि में, जो अधिकतर मध्यभारत से और कुछ मध्यप्रदेश से मिले हैं, पाई जाती है. ऐसे ही उक्त समय के अन्य राजवंशियों तथा साधारण पुरुषों के लेखादि में भी मिलती है. राजपूताना मध्यभारत' तथा मध्यप्रदेश में गुप्तकाल में भी कहीं कहीं दक्षिणी शैली की (पश्चिमी) लिपि भी मिल जाती है, जिसका एक कारण यह भी है कि लेख को लिखने के लिये बहुधा सुंदर अक्षर लिखनेवाला पसंद किया जाता है और वह जिस शैली की लिपि का ज्ञाता होता है उसीमें लिखता है. देशभेद और समय के साथ भी अक्षरों की आकृति में कुछ अंतर पड़ ही जाता है और उसी के अनुसार लिपियों के उपविभाग भी किये जा सकते हैं परंतु हम उनकी आवश्यकता नहीं समझते. t गुप्तों के समय में कई अक्षरों की आकृतियां नागरी से कुछ कुछ मिलती हुई होने लगीं, सिरों के चित्र जो पहिले बहुत छोटे थे बढ़ कर कुछ लंबे बनने लगे और स्वरों की मात्राओं के प्राचीन चिन लुप्त हो कर नये रूपों में परिणत हो गये हैं. गुप्तलिपि का ही नहीं परंतु पृ. ४२-४४ में ब्राह्मी लिपि के विभागों के जो नाम रक्खे गये हैं वे बहुधा सब ही कल्पित है और मक्षरों की ति देश याउन लिपियों से निकली हुई वर्तमान लिपियों के नामों से ही उनके नामों की कल्पना की गई है. इसी तरह उनके लिये जो समय गाना गया है पद भी अनुमानिक ही है क्योंकि कई अक्षरों के वे ही रूप अनुमान किये हुए समय से पहिले और पीछे भी मिलते हैं. राजपूताने में बहुधा लेख उत्तरी शैली के ही मिलते हैं परंतु गंगधार (झालावाड़ राज्य में ) से मिला हुआ वि. सं.४८० ई.स. ४२३) का लेख (फ्ली: १७), जो मंका है कि लिपि का है और बयाने ( भरतपुरराज्य से ) के किले ( विजयगढ़) में विष्णुवर्धन के पुंडरीक यक्ष के ग्रुप (= स्तंभ ) पर खुदे हुए लेख (फ्ली: गु. ई लेखसंख्या ५२ ) में, जो वि. सं. ४२८ ( ई. स. ३७२ ) का है. दक्षिणी शैली का कुछ मिश्रण पाया जाता है. 8. मध्यभारत में र्भ गुप्तकाल के लेख बहुधा उत्तरी शैली के ही मिलते हैं परंतु कहीं कहीं दक्षिणी शैली के भी मिल आते हैं जैसे कि दूसरे का सांवी का सेकसी गु. २) नरवर्मन का मंदसोर से मिला हुआ माल (विक्रम) सं. ४६१ का ( पॅ. ई० जि. १२, पृ. ३२०-२२ ) और कुमारगुप्त के समय का मालव ( विक्रम ) सं. ५२६ का (फ्ली; गु. ई: लेखसंख्या १८) लेख. उदयगिरि से मिला हुआ चंद्रगुप्त ( दूसरे ) के समय का एक लेख [ फ्ली, गु. ई; लेख संख्या ६ ) उत्तरी शैली की लिपि का है, परंतु वहीं से मिला हुआ उसी राजा के समय का दूसरा लेख ( फ्ली; गु. इं: लेखासंख्या ३) दक्षिणी शैली का है और वहीं से मिले हुए तीसरे लेख की ( फली : गु. ई लेखसंख्या ६९ ), जो गुप्त संवत् २०६ ( ई. स. २५-६ ) का है, लिपि उत्तरी शैली की होने पर भी उसमें दक्षिणी शैली का कुछ कुछ मिश्रण पाया जाता है. इस प्रकार एक ही स्थान के लेखों में भिन्न शैली की लिपियों का मिलना यही बतलाता है कि उनके लेखक मिन लिपियों के ज्ञाता थे न कि देशभेद ही इस अंतर का कारण था. मध्यप्रदेश में भी गुप्त के समय उत्तरी शेती की लिपि का प्रचार था परंतु कोई कोई लेख दक्षिणी शैली के भी मिलाते हैं; जैसा कि दर से मिला हुआ समुद्रगुप्त के समय का लेख ( फ्ली: गु. ई लेखसंख्या २). परंतु वहीं से मिले हुए बुधगुप्त और गोपराज के लेल उत्तरी शैली के हैं (फ्ली; गु. ई संख्या ११ और २०). Aho! Shrutgyanam Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त लिपि लिपिपत्र १६ वा. __यह लिपिपत्र गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के स्तंभ के लेग्य से तरयार किया गया है. इसमें 'इ' का चिर दो चिंदियों के आगे एक खड़ी लकीर है. 'उ' की खड़ी लकीर में वक्रता है और नीचे की बाड़ी लकीर गोलाई के साथ दाहिनी तरफ ऊपर की ओर मुड़ी है, जैमा कि दक्षिणी शैली की लिपियों में पाया जाता है. इ. द.त.द.प.भ, म और 'ष' (पहिले) के रूप नागरी से कुछ मिलने लगे हैं. ष (दूसरे) और 'म' रूपों की प्राकृतियां कुछ विलक्षण है. लिपिपत्र १६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अनगंतर महाराजश्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराजश्रीघटेात्कचपीवस्य महाराजाधिराजश्रीचन्द्र गुप्तपुत्रस्य लिच्छविदीहिचस्य महादेव्यां कुमार३. यामुल्फा त्यसस्य महाराजाधिराजश्रौसमुद्रगुप्तस्य सर्कथिवीविजयजनितोदयव्याप्तनिखिलायनितमा कीर्तिमिताम्वदशपतिवनगमनावातललि/डि-लि)तसुखविचरणामाचष्ठाण व भुवो बाहरयमुच्छ्रितः स्तम्मः यस्य । गदानमुजविलमप्रशमशास्त्रवाक्योदयैरुप[परिस याच्छ्रितमनेकमार्ग यश: पुनाति भुवनयं पशुपतेर्जटान्तर्गहा लिपिपत्र १७ वा. यह लिपिपत्र गुप्तों के राजस्वकाल के उदयगिरिर, मिहरोली, बिलसद', करंडांडा और कुहार के शिलालेखों तथा महाराज लक्ष्मण और जयनाथ के दानपयों से प्यार किया गया है और इसमें कंवल मुख्य मुरूप अक्षर ही उद्धत किये गये हैं. उदयगिरि के लेख में पहिले पहिल जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के चित्र मिलते हैं, जो क्रमश: 'क' और 'पा' के ऊपर उक्त अक्षरों से जुड़े हुए लगे हैं. मिहरोली के लेख में कितने एक अक्षर समकोणवाले हैं. 'स्थि' और 'स्पे' में 'स की आकृति कुछ विलक्षण हो गई है. ऐसे ही 'स्थि में थ अक्षर का रूप 'छ' से मिलता हुआ है न कि ' से. बिलसद के लेख में स्वरों की उन मात्राओं में, जो अक्षरों के ऊपर लगती हैं, अधिक विकास पाया जाता है और उन्हीं के परिवर्तन से कुटिल लिपि में उनके विलक्षण लंबे रूप यने हैं. रंडांडा के लेख में 'म की आकृति विलक्षण बनाई है. महाराज लक्ष्मण के पाली गांव के दानपत्र में कहीं कहीं सिरों तथा खड़ी, आड़ीया तिरछी लकीरों के अंतिम भाग को चीर दो हिस्से बनाकर अक्षरों में संदरता लाने का यत्न किया है. 'म' के नीचे के ग्रंथिवाले हिस्से को पाई सरफ बढ़ा कर लंबी लकीर का रूप दिया है और 'ब्र में 'र' को नागरी की' की मात्रा के समान ग्रंथिल बनाया है. जयनाथ के दानपत्र में 'इकी तीन बिंदिनों में से ऊपर की चिंदी के स्थान में आड़ी लकीर बनाई है. ''के इसी रूप के परिवर्तन से पीछे से नागरी की 'इ' बनी है (देखो लिपिपत्र ८२ में है की उस्पति). तोरमाण के कुड़ा के लेख के अक्षरों में 'ग' की गई तरफ की खड़ी लकीर को बाई ओर ऊपर की तरफ मोना लिससे उक्त अचर का रूप वर्तमान नागरी के 'ग से मिलता हुना बन गया है, केवल सिर की आड़ी लकीर का ही अभाव है. । पसी।गु. पोट१. २. पली: गु प्ले ट(A). .. पली; गु. प्लेट २१ (A) ४. क्लीपोट... .शि.१०.७१के पासपोर. ६. . जि. १, पृ. २४० मा पोट. ...समरा दानपा-६ जि. २, पृ. १६४ पासका क्षेट; और जयनाथ का हारपत्र-पसी.फोर. Ano! Shrutgyanam Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीफलिपिमाला. लिपिपत्र १७ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अचरांतर ओं स्वस्ति जयपुरात्परम्माहेश्वरः श्रीमहाराजलक्ष्म. रणः कुशली फेलापर्वसिकाग्रामे प्राह्मणादीन्प्रतिपासिकटुम्बिनः समाज्ञापयति विदितं वोस्त यथेष ग्रा. मो मया मनापिन्त्रीराममश्च पुरयाभिवृदये कौत्सस ७-कुटिल लिपि, १.स.की छठी से नवी शताम्ली । लिपिपत्र २३). ई. स. की छठी से नवीं शताब्दी तक की बहुधा सारे उसरी भारनवर्य की लिपि का, जो गुलिपि का परिवर्तित रूप है, नाम 'कुटिललिपि कल्पना किया गया है. 'कुटिलाक्षर नाम का प्राचीन प्रयोग भी मिलता है परंतु वह भी उसके वणों और विशेष कर मात्राओं की कुटिल प्राकृतियों के कारण रखा गया हो ऐसा अनुमान होता है इस लिपि के अक्षरों के सिर बहुधा - ऐसे होते हैं परंतु कभी कभी छोटी सी पाडी लकीर से भी वे बनाये जाते हैं. अ, श्रा, घ, प, म, घ, ष और 'स'का ऊपर का अंश दो विभागवाला होता है और बहुधा प्रत्येक विभाग पर सिर का चिन्ह जोड़ा जाता है. पह लिपि मंदसोर मे मिले हुए राजा यशोधर्मर के लेखों', महानामन के बुद्धगया के लेखों', १. ये कुल पंकियां पाली गांव से मिले हुए महाराज लक्ष्मा के दानपत्र (.:जि.२, पृ. ३६४ के पास के पलेट) से उबुत की गई हैं. २. देवल (युक्त प्रदेश में पीलीमीत से २० मील पर) गांव से मिली हा वि.सं. २०४६ (ई.स. १९२) की प्रशस्ति में 'कृटिलाशराणि' (विनाहर मनोनच शिक्षिका मौन रनि । कटिहाराणि पिदुमा शादित्याभिधाम । पं. जि. १, पृ२१) और विकमांकदेवचारस में 'कुटिललिपिभिः' (नो कापश्यैः करिधिभिम गिद १८.४२) लिखा मिलता है. उनसे कुटिल' शब्द क्रमशः अक्षरों तथा लिपि का विशेषण है. परंतु उनमें उस समय की नागरी की, जो कुटिल से मिलती हुई थी, 'कुदित संशा मानी है. मेवान के गुहिलवंशी राजा अपराजित समय की वि.स.७१८ (ई.स. ६६१)की प्रशस्तिके अपरोको विकटाक्षर'कहा है (पोभन पूटमुरकीक विकरा . जि. ५, पृ. ३२), और अपद के लेख में (पली: गु. लेखसंख्या ५२) 'विकाक्षराणि' लिखा मिलता है. 'विकट' और 'कुटिल' दोनो पर्याय है और अक्षरों की प्राकृति के सूखक है. .. मुटिललिपि में अक्षरों की खड़ी रेखाएं नीचे की तरफ़ बाई मोर मुड़ी हुई होती है और स्वरों की मात्रा अधिक रेटी मेवी तथा संधी होतीसी से उसका नाम कुटिल पदा. राजा यशोधर्मन् तीन सेलमंदसोर से मिले हैं जिनमें से एक मानव(पिकम) सं. ५८L (NA)का पली; गु. ग्लेड २१ B,C, और २२). ___ महानामम् नामवाले दो लेख पुरगया से मिले हैं (फली। गु.। प्लेट ४१ A और B) जिनमें से एक में सषत् २६६ है. यदि यह गुम संवत् माना जाये तोरसका समय सम-होगा. Aho! Shrutgyanam Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटिल लिपि. मोखरियों के लेख और मुद्रा, वर्णलात के समय के बसंतगढ़ के लेख, राजा हर्ष के दानपत्रादि', नेपाल के अशुवर्मन के लेखों, मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा शीलादित्य और अपराजित के लेखों, मगध के गुप्तवंशी आदित्यसेन और जीवितगुप्त (दुसरे) के लेखों, कुदारकोट के लेख झालापण से मिले हुए राजा दुर्गगण के लेखों कोटा के निकट कस्वा ( कण्वाश्रम) के मंदिर में लगी हुई राजा शिवगण की प्रशस्ति, बनारस से मिले हुए पंथ के लेख कामां ( कामवन ) से मिले हुए यादवों के लेख, जाखामंडल की प्रशस्ति", चंदा राज्य से मिले हुए राजा मेरुवर्मन के लेखों", राजपूताना और मालव से मिले हुए प्रतिहार (पड़िहार ) वंशियों के लेखादि ६३ 1. मौखरी ( मुखर) वंशी राजा ईशानधर्मन् का हड़ाहा का शिलालेख वि. सं ६११ ( ई. स. १५४) का है (सरस्वती ई. स. १६१६. पृ. १-५३ ) श्रासीरगड़ से मिली हुई ईशानधर्मन् के पुत्र शवर्मन् की मुद्रा में कोई सवत् नहीं है । क्ली गु इंसेट ३० 4 ) अनंतवर्मन के बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफाओं के लेखों (फ्ली: गु. ई. प्लेट ३० B.३१ और E) में भी संवत् नहीं मिलता परंतु उसका ई. स. की छठी शताब्दी के अंत के आस पास होना अनुमान किया जा सकता है. जनपुर का लेख भी जिसका प्रारंभ का हिस्सा बचने नहीं पाया, संभवतः उपर्युक्त ईशानवर्मन के समय का हो (फली गु. ईप्लेट ३२ ). ५. यह लेख वि. सं. ६८२ (ई.स. १२५-६) का है (ऍ. इं; जि. ६, पृ. ११० के पास का लेट). बैसवंशी राजा हर्ष का बंसखेडा का दामपत्र हर्ष संवत् २२ (वि. सं. ६२६-१ ) का (ऍ. ई. जि. ४, पृ. २१० के पास का प्लेट ) और मधुवन से मिला हुआ दानपत्र हर्ष संवत् २५ ( ई. स. ६३१ ) का है ( पॅ. पं; जि. १. पृ. ७२-७३ ). सोनपत से मिली हुई उक्त राजा की मुद्रा (फ्ली: गु. ई ट ३२ ) में संवत् नहीं है. 5. अंशुवर्मन के समय के लेखों में से एक में संवत् ३१६ ( या ३१८१) है (ई. ए. जि. १४, पृ. ६८ : ज. ने; ४. ७४) जिसको गुप्त संवत् माना जावे तो उसका समय ई. स. १३५-६ (या ६३७-८१) होगा. उसके दूसरे लेखों में संवत् ३४, ३६.४५ (१) और ४८ मिलते हैं (बं; ज. ने: पृ. ४. ई. एँ: जि. ६. पृ. १७०-७१). यदि इन संवतों को हर्ष संवत् माने तो इनका समय ई. सं. ६४० से ६५४ तक स्थिर होगा. 1. मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा शीलादित्य ( शील ) के समय का एक शिला लेख वि. सं. ७०३ ( ई. स. ६४६ ) का मेवाड़ के भीम इलाके के सामोली गांव से मिला है जो मैंने राजपूताना म्युजियम ( अजमेर) को भेट किया. यह लेख अभी तक छुपा नहीं है. राजा अपराजित का लेख वि. सं. ७१८ (ई.स. ६६१ ) का है ( ऍ. जि. ४, पू. ३० के पास का सेट ). 4. आदित्य सेन के समय के तीन लेखों में से दो में संवत् नहीं है ( ली: गुई लेट २८, और पृ. २१२ ) परंतु तीसरा को शाहपुर से मिली हुई सूर्य की मूर्ति के आसन पर खुदा है [ [ ] संवत् ६६ (ई.स. ६७२) का है फ्री २) आदित्यसेन के प्रयोत्र जीवितगुस ( दूसरे के समय का एक लेख देवनांक से मिला है वह भी बिना संवत् का है (की; गु. सेट २६ B ). ● कुवाकोट के लेख में संवत् नहीं है परंतु इसकी लिपि यादि से उसका समय है. स. की सातवीं शताब्दी अनुमान किया जा सकता है (ऍ. ई जि. १, पृ. १८० के पास का सेट ). 5 झालरापाटण से मिले हुए राजा दुर्गगण के दो लेस एक हो शिला पर दोनों ओर खुदे है जिनमें से एक वि.सं. ७४६ (ई.स. ६) का है ( ई. : जि. ५, पृ. १८१-८२ के बीच के प्लेट ) ८. शिवगण की कणस्था की प्रशस्ति वि. सं. ७६५ ( ई. स. ७३८ ) की है (ई. जि. १६, पृ. ५८ के पास का प्लेट ). इस लेख में संपत नहीं है परंतु इसकी लिपि ई. स. की ७ वीं शताब्दी के आस पास की अनुमान की जा सकता है (ऍ. इंजि. ६, पृ. ६० के पास का सेट ). ११. इस लेख में संयत् नहीं है परंतु इसकी लिपि है. स. की आठवी शताब्दी की अनुमान की जा सकती है (ई. जि. १०, पृ. ३४ के पाल का प्लेट ). १९. मड़ा के लक्खामंडल नामक मंदिर की प्रशस्ति में संवत् नहीं है परंतु उसकी लिपि ई. स. की आठवीं शताब्दी के आसपास की प्रतीत होती है (ऍ. इंजि. १, पृ. १२ के पास का प्लेट ). i १९. मेरुवर्मन के पांच लेखों में से एक शिला पर वो पॅ. चं. स्टे प्लेट ११) और चार पित्तल की मूर्तियों के श्रास मो पर खुदे हुए मिले हैं (वॉ ऍ. बं. स्टे प्लेट १०) उन सब में संवत् नहीं है परंतु लिपि के आधार पर उनका मगय ई. स. की आठवीं शताब्दी माना जा सकता है. ܪ १४. प्रतिहार राजा नागभट का बुचकला का लेख वि. स. ८७२ (ई.स. १५) का (पॅ. हं. जि. ६, पृ. २०० के पास प्लेट ); बाउक का जोधपुर का वि. सं. ८६४ ( ई. स. ८३७) का ( अ. रॉ. ए. सो ई. स. १८६४ पृ ४) कक्कुक का घटिमाले का वि. सं. ११८ ( ई. स. ८६१) का ( अ. रॉ. प. सो; ई. स. १८६५ पृ. ५१६ ); भोजदेव ( प्रथम ) का वि. सं. १०० का दानपत्र (ऍ. ई; जि. ५ . २११-२ ); और ५ शिक्षा लेख ; जिन में से देवगढ़ का वि. स. ११६ ( ई. स. ८६२ ) का Aho! Shrutgyanam Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्राचीनलिपिमाला. राथा कई अन्य लेखों में ; एवं जापान के होर्युजी नामक स्थान के बौद्ध मठ में रक्खी हुई 'प्रज्ञापारमिताइदपसूत्र' और ' उपविजयधारणी तथा मि. नाचर की प्राप्त की हुई हस्त लिखित पुस्तकों में भी मिलती है. लिपिपत्र १ बा यह लिपिपत्र मंदसोर से मिले हुए राजा यशोधर्मन् (विष्णुबर्द्धन) के मालव (विक्रम ) मं. ५८६ (ई. स. ५३२) के शितालेख से तरयार किया गया है. इसमें 'अ' वर्तमान दक्षिणी शैली के नागरी 'अ से मिलता हश्रा है. 'श्री' पहिले पहिल इसी लेख में मिलता है. 3.च, ड. द. न. द, न, प, म, र, ल. प.स और 'ह' अक्षरों के रूप वर्तमान नागरी के उल्ल अक्षरों से मिलने जुलते ही हैं. हलंत व्यंजनों को सिरों की पंक्ति से नीचे नहीं किंतु सस्वर व्यंजनों के साथ समान पंक्ति में ही लिखा है परंतु उनके सिर उनम जुड़े हुए नहीं किंतु विलग ऊंचे धरे हैं और त्'केवीचे मागरी की उ की मात्रा का साचिन और बढ़ा दिया है. 'श्रा की मात्रा तीन प्रकार की मिलती है जिनमें से एक प वर्तमान नागरी की 'आ' की मात्रा से मिलता हुआ है (देखो. ना, मा), 'इ' को मात्रा धार कार से लगी हैं जिनमें से एक वर्तमान नागरी की 'इ' की मात्रा के समान है (दखो, 'कि', 'ई' की मात्रा का जो म्प इस लेख में मिलता है उसका अंत नीचे की तरफ़ और बढ़ाने से वर्तमान नागरी की 'ई' की मात्रा बन जाती है (देखो, 'की'). 'उ' और ' की मात्राएं मर्ग के समान हो गई है। देखो. दु. रु., वृ.), 'ए' की मात्रा नागरी से मिलती हुई है परंतु अधिक लंबी और कुटिल प्राकृति की है. (देखा, 'ने'). 'ऐ' की मात्रा की कहीं नागरी माई दो तिरछी. परंतु अधिक लंबी और कुटिल, रेखाए मिलती हैं और कहीं एक वैसी रेखा और दूसरी व्यंजन के सिर की बाई तरफ नीचे को झुकी हुई छोटी सी रेखा है ( देखो, 'मैं'), 'श्रो' की मात्रा कहीं कारी से किसी प्रकार मिलती हुई है (देखो. तो, शो). 'क्ष' में ' और 'ष', और 'ज्ञ में ' और 'अस्पष्ट पहिचान में आते हैं लिपिपत्र १८ वे की मूल पंसियों का नागरी अक्षरांतर--- अथ अयति अनेन्दः श्रोयशोधर्मनामा प्रमदयनमिवान्तः शता च)सैन्यं विभाह्य व्रणतिस लयभइँयोजभूषां विधत्ते तरुणतरुलतावद्दौरकौौविनाम्य । श्राजी जितौ विषयते जगतौम्पुनश्च श्रीविष्णवईनमराधिपतिः स एव प्रख्यात औलिकरलाञ्छन अात्मअशो(वंश) येनादितो दिमपदं गमितो गरौयः ॥ प्राचा नपानसुबहतश्च मनुदोचः सामा युधा च वशगान्प्रविधाय येन नामापरं (प. जि. ४, पृ. ३१०), ग्वालियर से मिले हुए तीन लखो में से एक वि. स. १३२(ई.स. ८७४ | का (प.जि. १, पृ. २४६-७),सरा वि.सं. १३३ (ई.स ८७७) का (प.ई. जि. २:पृ. १६० के पास का प्लेट। और तीसरा बिना संबन का(प्रा.स .स. १९०३-४, प्लेट ७२और पहोत्रा से मिला हुमा हर्ष संपन् २७६ । ई.स.८८२) का लेख प्रतिहार वंशी राजा भोज के लेखों तथा उसके पीछे के महेन्द्रपाल (प्रथम), महीपाल, प्रादि के लेखों की लिपियों में कई म्पट अंतर नहीं है तो भी लिपियों के विभागों के कल्पित समय के अनुसार मोजदेष (प्रथम 'तक के लेखों की लिपि की गणगा कुरिललिपि में करनी पड़ी है. ..मामाइन सीरीज़) जि. १. भाग ३रा . आ. स.(पीरअस सीरीज़ जि. २२वी. १. पली; गु.ई: प्लेट २२. Aho! Shrutgyanam Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटिल लिपि प्रगति कान्तमदो दरापं गाजाधिराजपरमेश्वर इत्युदृढम् । खिग्धश्यामाम्बुदाभैः स्थगितदिनकृतो यञ्चमामाञ्यधुमेरम्मी मेध्यं लिपिपत्र १६ बां. यह लिपिपत्र 'उष्णीषविजयधारणी' नामक ताड़पत्र पर लिखी हुई पुस्तक के अंत में दी हुई पूरी वर्णमाला', मि. यावर के प्राप्त किये हुए प्राचीन हस्तलिम्वित पुस्तकों, मौखरी शर्ववर्मन् की आसीरगढ़ से मिली हुई मुद्रा', मौखरी अनंतवर्मन् के २ लेखों तथा महानामन के बुद्धगया के लेख' से तय्यार किया गया है. 'उष्णीषविजयधारणी' के अंत की वर्णमाला के अक्षरों में अ, उ, ऋ, क, व, ग, घ, ङ, च, ज, ट, ड, ढ, ण, त, थ, द, न, प. म, य, र, ल, ब, श,ष, स और 'ह'नागरी के उन दरों से बहुत कुछ मिलतेहए हैं और 'व' तथा'ब में भेद नहीं है. इ की तीन बिंदियों में से नीचे की बिंदी को वर्तमान नागरी के 'उ की मात्रा का सा रूप दिया है. इ का यह रूप ई.स. की १३ वीं शतान्दी नक कहीं कहीं मिल पाता है. 'ऋ', 'ऋ', 'ल और 'तृ' पहिले पहिल इसी में मिलने हैं. वर्तमान नागरी के 'ऋ' और 'ऋ' इन्हीं से बने हैं परंतु वर्तमान 'ल' और 'लू' के मूल संकेत मन हो चुके हैं जिससे अब 'ल के साथ 'ऋ' और 'ऋ' की मात्राएं लगा कर काम चलाया जाना है, 'ओ की आकृति नागरी के वर्तमान ' से मिलती हुई है परंतु उसका सिर बाई तरफ अधिक लंबा हो कर उसका बांया अंत नीच को मुड़ा है. 'श्री' का यह रूप पिछले लेखों तथा प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में भी मिलता है और कोई कोई लेखक अब तक 'ओं लिखने में ऊ के ऊपर रेफ तथा अनुस्वार लगा कर इस प्राचीन 'ओ' की स्मृति को जीवित रखते हैं. ', 'ज और 'टके सिरों के दाहिनी तरफ के अंत में + चिक लगाया है. वह अथवा उसका परिवर्तित रूप पिछले लेखों में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २१, २३, २४, २८, २8.. ३१,३२, ३, ३४). वर्तमान नागरी के 'ऊ में, 'हु की आकृति बना कर उसके मागे विंदी लगाई जानी है जो इसी चिह का स्थानांतर है और 'ङ' तथा 'ड की प्राकृति एकसा बन जाने पर उन अक्षरों का भेद बतलाने के लिये ही लगाई जाने लगी है. 'ओं का सांकेतिक चिह नागरीके के अंक सा है जो वास्तविक ‘ओं' नहीं किंतु कल्पित चिझ है. यह कई रूपांतरों के साथ पिछले लेखों तथा प्राचीन जैन, बौद्ध और ब्राह्मणों के हस्तलिखिन पुस्तकों के प्रारंभ में मिलता हैं. महानामन् के लेख में 'ऊ को उके साथ चिक जाड कर बनाया है परंतु अन्यत्र बहुधा समकोणवाला नहीं किंतु गोलाईदार चिक मिलता है जिसका अग्रभाग नीचे की ओर झुका हश्रा होना है (देखा, इसी लिपिपत्र में उष्णीषविजयधारणी के अंत की वर्णमाला का 'क' और लिपिपत्र २४, २५. २८. ३१.३४, ५ में भी). 'त्'का रूप उपर्युक्त यशोधर्मन् के लेख (लिपिपत्र १८ में) के'त का सा ही है परंतु इसमें सिर की गाड़ी लकीर को दाहिनी ओर झुका कर बहुत नीचे बड़ा लिया है संभव है कि नागरी का वर्तमान हलंत का चिक इसीमे निकला हो और व्यंजन के ऊपर लिग्वे जाने की अपेक्षा नीचे लिखा जाने लगा हो. 'ये', 'य' से मिलना हमा है और रेफ को पंक्ति से ऊपर नहीं किंतु सीध में लिखा है और ये मथा 'य' में भेद बतलाने के लिये ही 'य' के नीचे के दाहिनी ओर के अंश को गोलाई के साथ ऊपर बढ़ाया है. ऐसा ही 'र्य अन्य लेखों में भी मिलता है (देखो, लिपिपत्र १७, २०, २१, २२, २८, २६), । '. ऑ: (आर्यन् सीरीज़ ) जि. २, भाग ३, पले. १-४. .. मा. स.ई. (पीरिअल सीरीज़ सि.२२ वी के कई प्लेट. . स्ली: गु. . पली: गु लेट ३१ A और B. १ फली : गु. है। प्लेट ४५A. प्लेट ३० A Aho! Shrutgyanam Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्राचीन लिपिमाला. लिपिपत्र १६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं श्रसौत्सर्व्वमहौक्षितामनुरिव शत्रु स्थिसेहैशिकः श्रीमान्मत्तगजेन्द्रखेलगमनः श्रीयज्ञवर्मा नृपः यस्याहृतसहखने विरहक्षामा सदैवाध्वरैः पौलोमी चिरमश्रुपातमलिनं (ना) धते कपोलश्रियं । श्रीशार्दूलन्टपात्मजः परहितः श्रौपौरुषः श्रूयते लोके चन्द्रम लिपिपत्र २० व. यह लिपिपत्र उदयपुर के विक्टोरिया हॉल में रक्खे हुए मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा अपराजित के समय के वि. सं. ७१८ ( ई. स. ६६१ ) के लेख की अपने हाथ से तथ्यार की हुई छाप से मनाया गया है. इसके 'थ' और 'श' नागरी के 'ध' और 'श' से मिलते जुलते ही हैं केवल ऊपर की गांठें उलटी हैं. 'य' के प्राचीन और नवीन (नागरी के सदृश ) दोनों रूप मिलते हैं. 'मा' की मात्र र प्रकार से बनाई है. 'जा' और 'हा' के ऊपर 'आ' की मात्रा / ऐसी लगी है, जिसकी स्मृति अब तक कितने एक पुस्तकलेखकों को है क्योंकि जब वे भूल से कहीं 'आ' की मात्रा छोड़ जाते हैं और व्यंजन की दाहिनी ओर उसको लिखने का स्थान नहीं होता तब वे उस के ऊपर चिह्न लगा देते हैं. इस लेख में अक्षरों तथा स्वरों की मालाओं में सुंदरता लाने का यन कर लेखक ने अपनी चितनिपुणता का परिचय दिया है (देखो, जा, टा, रा, धि, रि, हि, ही, ते, ले, नै, वै, यो, कौ, शौ, सौ, त्य, म, व्य, श्री ). लिपिपत्र २० वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर राजा श्रगुहिलान्वयामलपये। राशी स्फुरद्दीधितिध्वस्तध्वान्तसमूहदुष्टसकलव्यालावलेपान्तकृत् । श्रीमानित्यपराजितः क्षितिभृतामभ्यर्चितो मूर्धभिः (fr) स्वच्छतयेव कौस्तुभमशिजतो जगद्भूषणं ॥ शिवात्मवाखडितशक्तिसंपडुर्यः समाक्रान्तभुजङ्गशत्रु [:] | तेमेन्द्रवत्स्कन्द इ प्रणेता तो महाराजवराहसिंह: जनगृहीतमपि यवर्जितं धवलमप्यनुरञ्जितभूतलं स्थिरमपि प्रविकासि दिशो दश भूमति लिपिपत्र २१ वां. यह लिपिपत्र बंसखेडा से मिले हुए राजा हर्ष ( हर्षवर्द्धन ) के दानपत्र, नेपाल के राजा अंशुवर्मन् के लेख', राजा दुर्गगण के झालरापाटण के लेख, कुदारकोट के लेख तथा राजा शिवगण के कोटा के लेख से तय्यार किया गया है. हर्ष के दानपत्र से प्राचीन अक्षरों की पहिली पंक्ति के 'ह' से 'म' तक के अक्षर उद्धत किये हैं और अंतिम पांच अक्षर ('घ' से 'श्री' तक ) उक्त दानपत्र के अंत के हर्ष के हस्ताक्षरों से लिये गये हैं जो चित्रलिपि का नमूना होने के साथ ही साथ उक्त राजा की चित्रविद्या की निपुणता प्रकट करते हैं. झालरापाटण के लेख में विसर्ग की दोनों बिंदियों को १. ये मूल पंक्तियां मौखरी { सुखर ) वंशी राजा अनंतवर्मन् के नामार्जुनी गुफा के लेख से उद्धृत की गई हैं (फली गु. ई । प्लेट ३१ A. ) २. ऍ. जि. ४, पृ. २१० के पास का प्लेट. ४. ई. ऍ, जि. १०, पृ. १७० के पास का प्लेट મ झालरापाद्रव ( छावनी ) में रखते हुए मूल लेखन की अपने हाथ से तय्यार की हुई दोनों ओर की छापों से. *ऍ जि. १, पू. १८० के पास का प्लेट. ६. ई. : जि. १६, पृ. ५८ के पास का प्लेट. Aho! Shrutgyanam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटिल लिपि. लिखा है. कुदारकोट के लेख में हलंत का चिझ ऊपर से तथा वर्तमान चिक के समान नीचे से भी पनाया है. कोटा के लेख में 'अ(पहिला) वर्तमान नागरी 'अ' से बहुत कुछ मिलता हुआ है और 'त्' को चलती कलम से लिख कर हलंत के चिक को मूल अक्षर से मिला दिया है जिसमे उसका रूप कुदारकोट के लेख के 'त्' से भिन्न प्रतीत होता है. लिपिपत्र २१वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं नमः शिवाय ओं नमः स्स(स)कालसंसारसागरोतारहेतवे । तमोगाभिसंपातहस्तालंबाय शम्भवे ॥ श्वेतहौपानुकाराx कचिदपरिमितैरिन्दु पादैः पतद्विनित्यस्यै लिपिपत्र २२ बां. यह लिपिपल चंबा के राजा मेरुवो के ५ लेखों से तय्यार किया है. उक्त लेग्वां में से गंगाव का लेख शिला पर खुदा है और बाकी के पित्तल की मूर्तियों पर'. मूर्तियों पर के लेखों से उद्धृत किये हुए अक्षरों में कितने एक अक्षरों के एक से अधिक रूप मिलते हैं जिसका कारण यह है कि ये सब लेख एकही लेखक के हाथ से लिवे नहीं गये और कुछ अक्षर कलम को उठाये बिना लिग्ने हों ऐसा प्रतीत होता है. 'न' का पहिला रूप नागरी के'1' से मिलता हुआ है, उक्त अक्षर का ऐसा रूप अन्यत्र भी मिलता है (देखो लिपिपत्र २२ में बुचकला के लेख के अक्षरों में), 'न' के तीसरे रूप में बीच की ग्रंथि उलटी लगाई है, 'रका दूसरा रूप उलटा लिखा गया है, 'य'को 'व के समान लिखा है और रेफ को पंक्ति के ऊपर नहीं किंतु पंक्ति की सीध में लिखा है. लिपिपत्र की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं प्रासाद मेरुसहशं हिमवन्समृभिः कृत्वा स्वयं प्रपरकर्म शुभैरनेकैः तमन्द्रशाल रपिसं मवमाभमामा प्राग्नौयकैर्विविधमण्डपनैः कचिवैः । तस्याग्रतो दृषभ पौ". नकपोलकायः संश्लिष्टवक्षककुदोबतदेवयानः श्रीमेरुवर्मचतुरोदधिकौतिरेषाः मासायिनः सततमात्मफ लिपिपत्र २३ वा. यह लिपिपल प्रतिहार राजा नागभट के समय के बुचकला के लेख, प्रतिहार बाउक के जोधपुर के लेख तथा प्रतिहार करकुक के घटिनाले के लेख से तय्यार किया गया है. बुचकला के लेख में 'न' नागरी के 'म से मिलता हुआ है, 'ह' की आकृति नागरी के 'र' के समान है और 'प्त में 'त' उलटा जोड़ा है. जोधपुर के लेख के अधिकतर भक्षर नागरी के समान हो गये हैं. है. ये मल पंक्तियां कोटा के लेख से है (.; जि. २६, पृ. ५-के पास का प्लेट). २. फो .. स्टे: प्लेट ११. । फो।एँ.चं. स्टेप्लेट १०. ४. ये मूल पंनियां नंदी की मूर्ति के लेख से उद्धत की गई हैं ( फोः ५. चं स्टे प्लेट १०). इनमें अशुद्धियां बहुल है इस लिये उन्हें मूल के साथ ( ) बिल के भीतर नहीं किंतु टिप्पणों में शुद्ध किया है. t. "साद. "धन्मूर्णिन. . "शाला. . "चिता. . नयनाभिरामा. १०. विधमण्डपर्ने का २. 'एमा पी' १९. "वक्षाककुचनदेवयानं. १७. चतुरुदधिकीतिरेषा. १४. मातापित्रो. .. जि.६ पृ.२०० के पास का प्लेट. १५. राजपूतामा पुजिनम् । अजमेर ) में रक्खे हुऐ मूल लेख की अपने हाथ से तय्यार कर हुई छाप से ... प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता जोधपुर के मुन्शी देवीप्रसाद की भेजी हुई छाप से. Aho! Shrutgyanam Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्राचीन लिपिमाला विपपत्र २३ में की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-ओं नमो विष्णवे । यस्मिन्विशति भूतानि यत स्थिती मते सब पायावृषीकेशी निर्गुणगुरूच यः ॥ गुणा पुरुषको म पण्डितैः । गुणको शिरमयन्ती स्वर्गवासकरी यतः ॥ qa: ziurgiu stat(84) SANTICTONİCONĄ) | DE ८- नागरीलिपि ई. स. की १० वीं शताब्दी से ( लिपिपत्र २४-२७/ जैसे वर्तमान काल में भारतवर्ष की आर्य लिपियों में नागरी का प्रचार सब से अधिक है। और सारे देश में इसका आदर है वैसे ही ई. स. की १० वीं शताब्दी के प्रारंभ से लगा कर अव तक भारत के अधिकतर हिस्सों अर्थात् राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, मध्यभारत, युक्तप्रदेश और मध्यप्रदेश में तो इसका अटल राज्य बना रहा है. बिहार और बंगाल में भी १० शताब्दी तक तो यही लिपि रही जिसके पीछे इसीके कुछ कुछ परिवर्तित रूप अर्थात् बंगला लिपि का प्रचार रहा, जो इसकी पुत्री ही है. पंजाब और कश्मीर में इसकी बहिन शारदा का प्रचार १० वीं शताब्दी के आसपास से होने लगा. दक्षिण के भिन्न भिन्न विभागों में जहां तेलुगु कनडी, ग्रंथ और तामिळ लिपियों का प्रचार रहा वहां भी उनके साथ साथ इसका भादर बना रहा. इसीसे उत्तरी और दक्षिणी कोंकण तथा कोल्हापुर के शिलारवंशी राजाओं के शिलालेखों और दानपत्रों, दक्षिण (मान्यलेड) के राष्ट्रकूटों ( राठीकों) के कई दानपत्रों, गुजरात के राष्ट्रकूटों के कुछ दानपत्रों, पश्चिमी चालुक्यों' तथा उपदेश और देवगिरि के यादवों के शिलालेख और दानपत्रों एवं विजयनगर के तीनों राजवंशों के कई दानपत्रों में नागरी लिपि मिल जाती है. बिजयनगर के राजाओं के दानपत्रों की नागरी लिपि ' मंदि नागरी' कहलाती है और अब तक दक्षिण में संस्कृत पुस्तकों के लिखने में उसका प्रचार है. की गई है. जि. ५. पू. २७७-८ जि. १, पू. ३३-५ ज. मंच. प. सो, जि. १२, पृ. २१६, ३३३. जि. १३ पृ. २-५ : आदि. १. ये मूल पंक्तियां प्रतिहार बाउक के उपर्युक्त जोधपुर के लेख से उत २. जि. ३, पू. २७१.६, २६७-३०२. जि. १२, पृ. २६१-५ ई. जि. १३, पृ. १३४-६. ङ. पै. ई. जि. ३, पृ. १०५-१०. जि. ४. पू. १०-२ २०१६. जि. ५, पृ १६२-६. जि. ६, पृ. २४२-६., जि. ७, पृ. ३६-४९. जि. प. पू. १८४८. जि. ६, पृ. पू. १४६-५२ : २६४-७ जि. १३, यू. १३४.६ 5. पं. पं जि ६, पृ. ८७६४. ई. ४. ऍ. ई जि. ३, पृ ४-६, ३०५.६ 4. ऍ. इंजि. ए. पू २१७-२१ २२५८. ● पं. इंजि. १, पृ. ३४१-४. जि. ३, पृ. २१६-२०. पं. पं.जि. १४. ७-२४-३०४९-५. जि. १५. पू. ३५६-६०: मादि. २६३७. जि. १०. पू. १-६. ई. ए. जि. ११. पृ. १११-३, १५७-६०. शि. १२. बू ई. पे. प्लेट ५. अक्षरों की पं ि५. जि. १३, पृ. ६६-८. जि. १४. पृ. १६६-२००. जि. १४. पू. १४१-४२. जि. १६. पू. २१-४; आदि. ई. जि. १२, पृ. १२६-७. 1 जि. १७, पृ. १२०-२२ : आदि. पृ. ३१५.६. अ. बंब. प. सो; जि. १२. पू. ६ जि. ३. पू. ३७६ १२०-२४ १५१-८ २४०-५९. जि. ४, पू. १२.२२ ९७२.८. जि. ७, पृ. ८०-८३. जि ६ पृ. ३३१.६. जि. ११. पृ. ३५४-३६. जि. १२, पृ. १७१-८५. जि. १३. पृ. १२६-३१. ६. जि. १३. पू. १२०-३२. १५६.६०: आदि. Aho! Shrutgyanam Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरी लिपि उत्तरी भारत में नागरी का प्रयोग ई.स. की १०वीं शताब्दी के प्रारंभ के मासपास से मिलता है और यह पहिले पहिल कन्नौज के प्रतिहारवंशी राजा महेंद्रपाल ( प्रथम ) के विवादघौली से मिले हुए वि. सं. १५५ के दानपत्र' में मिलती है. तदनंतर उप्ती वंश के अन्य राजानी' मेवाड़, वागड़ मादि के गुहिलवंशियों'; सांभर, अजमेर, नाडौल, जालौर, चंद्रावती ( मालू ) भादि के चाहमान (चौहान)वंशियों; कनौज के गाहरवालों, हांदी, धनोप, पदाऊ भादि के राष्टकटों; काठियावाड़, लाट और गुजरात (अपहिलमाका) के चौलुक्यों (सोलंकियों); भानू और मालवा मादि के परमारों'; ग्वालियर. दबकुंड, नरवर मांदि के कच्छपघात (कछवाहा) वंशियों: जेजाकभुक्ति (जझौटी बुंदेलखंड) के चंद्राय(चंदेल)वंशियों": त्रिपुरी (वर), रमपुर मादिके हैहय (कलचुरि) वंशियों" मादिभनेक राजबाशेयों के शिलालेखो और वानपत्रों में एवं साधारण पुरुषों के लेखों में अबतक पराबर मिलती है. ई.स. की१०वीं शताब्दी की उत्तरी भारतवर्ष की नागरी लिपि में, कुटिल लिपि की नाई, म, भा, घ, प,म, य, प और सके सिर दो अंशों में विभात मिलते हैं. परंतु ११वीं शताब्दी से ये दोनों अंश मिलकर सिर की एक लकीर बन जाती है और प्रत्येक अक्षर का सिर उतना लंबा रहता है जिननी है, ई.एँ, जि. १५, पृ. ११२ के पास का प्लेट. ५. .: जि. ३, पृ. १७३-६; २५४-८. जि. ३, पृ. २६६-७. जि.६, पृ. ५-२०. ई.एँ: शि-१२, पृ. ११३-३. सि.१५.५.१४०-१. जि.१६,पू. १७४... जि.२८,पू. ३४-५. सि.रा. म्यु.अ .स.१६१५-६, पृ. २-३. लेखसंख्या :आदि. .. . जि. २, पृ.४२०-२१. ; जि.२६, पृ. ३४७-५६. जि.३६, पृ. १६१. भा. पृ.६७.३६, करमा स..रिकि २३, प्लेट २०.२१. ज.मे: पृ. २. ज.बंगा. ए. सो शि. ५५ भाग प्रथम, पृ. २६,४१, ५८ जि.५६, भाग प्रथम, पृ.७६ प्रादि. पै. जि. २, पृ. ११.६-२५. मि. ४, पृ. ३१३.४. जि.स. पू. ६५-३, १५५... जि. ११. पृ. २७.६७. कि.१२.१.५१.६१. ५ : जि. १८, पृ. २१८. जि. २०, पृ. २०४-१२, जि. ४१, पृ. १८,८७-. ज. बंगा. ए. सो; जि. ४५, भाग १, पृ. ४. : ४६. का .म.ई. रि: जि. ६, प्लेट २१ कि.१० प्लेट ३२, मादि. .. .: जि. २, पृ. ३५६-६३. जि.४, पृ. १००.९३३, जि.५, पृ.११४-८. जि.७, पृ.८.१००, जि. पू. १५३.६. जि.2, पृ. ३२३.६. जि. ११, पृ. २१-२५. ई. ए, जि. १५, पृ. ६-१२. जि.१५ पृ. १२-२१:१३०-४३.. गा. ए. सो.जि.२७, भाग १, पृ. २४२. जि. ११. भाग १, पृ. १२३. जि. ६६, भा. १, पृ. १०८, ११४, १२८. . . जि. १, पृ. ६४-६. जि. १०, पृ. २०-२४. .; जि.३०, पृ. १७५, मादि #. जि.६, पृ. २५.३९ २८०-७, २८६.३०१, ३१७.६ मि.१, पृ. ४२१-४४१६.४६. जि. प. १०३. जि. पू. २००-१२, ११६-१२. जि.६, पृ. ४.१० जि. १०, पृ. ७-६, जि.:११, पृ..४४-६. ई. शि.६, पृ. १६१.२१२. जि.१०, पृ. १५६. शि. १, पृ. ७१-७२ : ९४२-४३. जि. ११, पू. २०१३. जि १८, पृ. २-४ १०८-१०, ११२-४।३४३: ३४७. जि.२१, पृ.१७७. मा. स. उमे. जि. १. पृ. १७०-७१. भा.. १७२-२५. Wioner Zaitsetrift. Vol. V.p.300; Vol. VII. p.88: मादि ...: जि. १,पू. २३१-६. जि.स.पू. १८२-८. जि. पू. ४०-५०. जि.८, पृ. १०१-१२, २०३-११४.... जि.t, पृ. १२-१५; १०६-१३, १९०-३. . शि. ६,पृ. ५१.२६ ५३-४. जि. पू. १६०. जि. १६. पृ. २५४.६. जि. १.प.४८.५५. जि.२०, पृ.३.८४ ३११-२. जि. २२, पृ. 50. जि.४५, पृ.७७-८. ज.बंगा. प. से: जि.५.प्र. ३७८, जि.७, पृ. ७३६. ज.भ.को. सो; जि., पृ. २५, ३२. बंब. गे: जि. १, भाग १, पृ. ४७२-३. ज.ब.प. सो; जि. २३, पृ.७५-८०. . . जि.२, पु. २३७-४०. ई. जि.१५, पृ. ३६.४१, २०२-३. ज.बंगा. ए. सो; जि.स.पू. ३८३: प्रादि. १०. . जि. १, पृ. १२९, १२४.८ १३६, १४०.४७; १५३: १९७-९०२, २०८-११, २१५.७%, २९१०; २९७.८ ७.. जि. १, पृ. १५७-७०, ५, जि. १६, पृ. २०२.८. जि. १८, पृ. २३७-८. जि. २५, पृ. २०६८. कामा. स. रिजि . १०, मेट ३२, संख्या ६-१०.जि.२९, पृ.२४, २५,४६,५०, ५५, ५२, ३, ७, ११-४, और प्लेट १०, A, B.C: १२ A. DEF,G;२७. D,G. ज.बंगा.प.सो; जि.६, पृ. ८. जि. १७, भाग,पू.२९, ३१७ मावि. . पै. जि. १, पृ. ३४- ५ ०.२०७६१५५-६२. जि. २, पृ.३.५ १.-१५, १८१७५.८% ०४.१० . मैं; जि.१७, पृ. १३८-४०. जि. १८ पृ. २१०.१८. जि. २०. पृ.६४. जि. २२, पृ.८२. का . स. रिजि .२९. पृ. १११, पोर . ज.रंगा.ए. सो; जि.८.पु. ४८५ जि..१, पृ. ११६, मादि. Aho! Shrutgyanam Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रानीनलिपिमालाकि अक्षर की चौड़ाई होती है. ११वीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी से मिलती जुलती ही है और १२ वीं शताब्दी मे वर्तमान नागरी यन गई, केवल 'इ', और 'ध में ही कहीं पुरानापन नज़र आता है ( देवो. लिपिपत्र २६ में जाजल्लदेव के लेख के 'अक्षर) और व्यंजनों के साथ जुड़नेवाली ए, ऐ, श्री और श्री की मात्रात्रों में कभी कभी यह अंतर पाया जाना है कि 'एकी मात्रा श्यंजन के पूर्व खड़ी लकीर के रूप में सिर की लकीर से सटी रहती है. 'ऐ की मात्रा में एक तो वैसी ही खड़ी लकीर और दूसरी तिरछी रेखा व्यंजन के ऊपर लगाई जाती है (देखो, लिपिपत्र २७ में धारावर्ष के लेख से दिये हुए अक्षरों में 'ने' और 'लै); 'ओ की मात्रा दो खड़ी लकीरों से बनाई जानी है जिनमें से एक गांजन के पहिले और दूसरी उसके पीछे ( 'श्रा की मात्रा की नाई ) रहनी है, और 'नो में वैसी ही दो लकीरें मथा एक चक्र रेखा व्यंजन के ऊपर रहती हैं (देग्यो, लिपिपस २७की मृल पंक्तियों की दमरी पंक्ति में वंशाद्धरण में 'शो', और पहिली पंक्ति में 'भीम में भी नथा 'चौलुक्य में 'चौ). उक्त ४ स्वरों की इस प्रकार की मात्राएं शिलालेग्वादि में कहीं कहीं ई स. की १५ वीं शताब्दी नक और हस्तलिखित पुस्तकों में १६वीं शताब्दी के पीछे तक मिल आती हैं, जिनको राजपूनाना के पुस्तकलेग्वक 'पड़ी मात्राएं'(पृष्टमात्रा) कहते हैं. ई.स.की१२ वीं शताब्दी से लमा कर अध नक नागरी लिपि यहधा एक ही रूप में चली आती है तो भी लेखनशैली और देशभेद से कुछ अंनर रह ही जाना है, जैसे कि जैन लेखकों के इ, उ, छ, झ, ठ, इ. ल और क्ष अक्षर (इ, उ, ब, क, ग, म, ल, द), और दक्षिणवालों के अ, झ, ण, भ और क्ष अक्षर (अ, झ, ज, भ और क्ष) नागरी के उन अक्षरों अब भी भिन्न हैं. दक्षिण में वर्तमान नागरी से अधिक मिलनी हुई लिपि उत्तरी भारतवर्ष की अपेक्षा पहिले, अर्थात् ई. स. की आठवीं शताब्दी से, मिलनी है. पहिले पहिल वह राष्ट्रकूट (राठौड़) वंश के राजा दमिदुर्ग के सामनगढ़' से मिले हुए शक संवत् ६७५ (ई. स. ७५४ ) के दानपत्र में; उसके बाद राष्टकूट राजा गोविंदराज (दूसरे के समय के धुलिपा से मिले हुए शक सं. ७०२ (ई.स. ७८०) के दानपत्र में; तदनंतर पैठण और वणीगांव से मिले हुए राष्ट्रकूट गोविंद (तीसरे ) के दानपत्रों में, जो क्रमशः शक संवत् ७१६ और ७.० ( ई. स. १६४ और ८०८ ) के हैं। बड़ौदे से मिले हुए गुजरात के राष्ट्रकूट धुवराज (धारावर्ष, निरुपम) के श. सं. ७५७ (ई. स. ८.५) के दानपत्र में और राष्टफूट अमांघवर्ष और उसके शिलारवंशी सामंत पुल्लशक्ति (प्रथम और द्वितीय) के समय के कन्हेरी के लेखों में, जो क्रमश, श. सं. ७६५ (१) और ७७३ (ई. स. ८४३ और ८५१) के हैं, पाई जाती है और उक्त समय के पीछे भी दक्षिण की लिपियों के साथ साथ बराबर मिलतीचली आती है. उपर्युक्त सब ताम्रपत्र और शिलालेख भिन्न भिन्न पुरुषों के हाथ के लिखे हुए होने से उनकी लेखनशैली कुछ कुछ निराली है परंत उनकी लिपि को नागरी कहने में कोई संकोच नहीं है. इस प्रकार नागरी लिपि ई.स. की वीं शताब्दी के उत्तरार्ष से विस्तृत रूप में लिखी ही मिलती है परंतु उससे पहिले भी उसका व्यवहार होना चाहिये क्योंकि गुजरात के गूर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) के कलचुरि संवत् ४५६ (ई. स. ७०६) के दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि के दानपत्र में उक्त राजा के हस्ताक्षर 'स्वहस्तो मम श्रीजयभट नागरी लिपि में ही है. . जि.प. पू१६.७के बीच के प्लेट. १. जि.११.पू. ११० से ११३ के बीच के प्लेट. . .. ऐं, जि. ३, पृ.१०६ और १०७ के बीच के प्लेट. ४..: जि ११, पृ.१५८ और १६१ के बीच के प्लेट.. : जि. १३. पृ. १३६ और १३५. जि. २०.१ ५२१-२. टिप्पण ५. .. ई. : जि. २. पू.२५८ के पास का क्लेट. .एँ: जि. १५. पृ. २०० और २०१ के बीच के प्लेट. दू... पे: प्लेट ५. अक्षरों की पंक्ति ५. और पू. ५१, AholShrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागरी लिपि लिपिपत्र २४ वा. यह लिपिपत्र मारपी से मिले हुए राजा जाइंकदेव के गुप्त संवत ५८५ (ई. स. १०४ ) के दानपत्र', अलवर से मिले हुए प्रतिहार राजा विजयपाल के समय के बि. स. २०१६ (ई. स. ६५६) के शिलालेख' और नेपाल से मिली हुई हस्तलिखित पुस्तकों से तय्यार किया गया है. जाइकदेव के दानपत्र के अक्षरों की प्राकृति कुटिल है परंतु लिपि नागरी से मिलती हुई ही है, केवल ख, घ, छ. ड, थ, ध, न, फ और म अक्षर पर्नेमान नागरी से कुछ भिन्न हैं. लिपिपत्र २४ वें की मुलपंक्तियों का नागरी अक्षरांतर पष्टिवरिष वर्षसहस्राणि स्वर्गे निति भूमिदः । श्रालेता [चानुमंता च तान्येव नरकं वसेत् । स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेतुन) वसुंधरा । गर्वा शससहसस्य इ(ह)तुः प्राप्नोनि कित्वि(ल्बि)षं ॥ विंध्याटवीष्व लिपिपत्र २४ बां. यह लिपिपत्र छिंदवंशी लल्ल के वि. सं. २०४६ (ई.स. १६२) के देवल कं लेन' सं, परमार राजा भोजरचित 'कृर्मशतक' नामक दो काव्यों से, जो धार से शिलाओं पर खुदे हए मिले हैं, और परमार राजा उदयादित्य के समय के उदयपुर तथा उजन' के लेखों से, तय्यार किया गया है देवल के लेख में 'अ नागरी का सा बन गया है क्योंकि उसकी खड़ी लकीर के नीचे के अंत में याई ओर से तिरछी रेखा जोड़ी है. यही तिरछी रेखा कुछ काल के अनंतर 'अ' की घाईनरफ़ की तीन तिरही लकीरों में से तीसरी बन गई जो वास्तव में अक्षर में सुंदरता लाने के विचार से जोड़ी जाती थी. कर्मशतक के अक्षरों में 'ई' और 'ई' में ऊपर की दो बिंदियों के बीच की पत्र रेखा, उन्हींके नीचे की तीसरी बिंदी के स्थानापन्न ७ चिह के अंत का बाई तरफ से दाहिनी नरमायदा हुना घुमाव, एवं 'ऊ' और 'ओ' के नीचे के भागव. वैसा ही पुमाव, केवल सुंदरता के विचार से ही है. उदयादित्य के उदयपुर के लेख में 'इ' की जो आकृति मिलती है वह तीन बिंदीवाले इका रूपानर है और उसे सुंदर बनाने के विचार से ही इस विलक्षण रूप की उत्पत्ति हुई है. उदयादित्य के उज्जैन के लेख के अंत में उस समय की नागरी की पूरी वणमाला, अनुस्वार, निसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के चिहां सहित खुदी है, जिसस ई. स. का ११वी शताब्दी में ऋ, ऋ,ल और लू के रूप कैसे थे यह पाया जाता है. १. ई.: जि. २, पृ. २५८ के पास का प्लेट. १. उदयपुर निवासी कुंवर फतहलाल मेहता की भेजी हुई उक्त लेख की छाप से. ___. ए. पेप्लेट ६, प्राचीन अक्षरों की पंक्ति ७ से.. ६० भिन्न भिन्न लेखकों की लेखम शैली भिन्न मिलती है. कोई सरल अक्षर लिखता है तो कोई टेढ़ी मेढ़ी प्राकृति के अर्थात् कुटिल. पेसी दशा में लिपिविभाग निश्चय रूप से नहीं हो सकते. ४. ये मूल पंक्तियां जाकदेव के उपर्युक्त दानपत्र से है. .ए. जि.१, पृ. ७६ के पास का प्लेट. . पं. जि. ८. पृ. २५% और २६० के बीच के ३ प्लेट. ८. . जि १, पृ. २३४ के पास का प्लट. १. उज्जैन में महाकाल के मंदिर के पोहे की एक छत्री में खड़ी हुई शिला पर खुदा दुई प्रशस्ति भी अपने हाथ से तय्यार की दुई छाप से. यह शिला उदयादित्य के समय की किसी प्रशस्ति की अंतिम शिला है जिसमें ८० के पीछे के घोड़े से श्लोक है. समे संषत् नहीं है, परंतु पत्थर का जो अंश खाली रह गया उसपर प्रशस्तिलेखक के हाथ से ही लिखी हुई पूरी वर्णमाला तथा नाग के प्रथिल चित्र के भीतर धातुओं के प्रत्यय आदि खुदे है जैसे कि धार से मिले हैं) और अंत के नाक में "सदादिलदेरस नामशरिका "खुदा है जिससे डङ्ग प्रशस्ति का उदयादित्य के समय का होना पाया जाता है. Aho! Shrutgyanam Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्राचीनलिपिमाला. लिपिपत्र २५ व की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर श्रारामोद्यामवापौष देवतायसनेषु च । कृतानि क्रियमाणामि यस्याः कर्माणि सर्वदा । दीनानाथविपन्नेष करुणाग्विसचेतसः । सत्वेष भुनते यस्या विग्रसंघा दिने दिने। प्रत्यं विविक्तमनयोः परिवईमानधर्मप्रव(ब)न्धविगलत्कलिकाला लिपिपत्र २० बां. यह लिपिपत्र कन्नौज के गाहडवालवंशी राजा चंद्रदेव और मद पाल के वि. सं. ११५४ ( ई. स. १०६%) के दानपत्र', हस्तलिखित पुस्तका" नया हैहय( कलचुरि )वंशी राजा जाजल्लदेव. के समय के शिलालेख से तय्यार किया गया है. चंद्रदेव के दानपत्र की के परिवर्तित रूप से वर्तमान नागरी का पना है (देखो, लिपत्र ८२ में' की उत्पत्ति). 'धा में'श्रा की मात्रा की खड़ी लकीर को'ध के मध्य से एक नई भाई लकीर खींच कर जोड़ा है, जिसका कारण यह है कि 'ध' और 'व' के रूप यहा एकसाबन गर ये जेससे उनका अंतर बतलाने के लिये 'ध बहधा विना सिर के लिखा जाता था, यदि कोई कोई सिर ३ लकीर लगाते थे तो बहुत ही छोटी. ऐसी दशा में 'ध के साथ 'आ की मात्रा सिर की आड़ी लकीर साध जोड़ी नहीं जाती थी, क्योंकि ऐसा करने से 'धा' और 'बा' में अंतर नहीं रहता. इसी लिय'धा देसाथ की 'श्रा की मात्रा मध्य से जोड़ी जाती थी. चंद्रदेव के दानपत्र के अक्षरों की पंक्ति के अंत का 'म' उक्त दानपत्र से नहीं किंतु चंद्रदेव के वंशज गोविंदचंद्र के सोने के सिक्के पर के लेख से लिया गया है और इसीसे उसको अंत में अलग धरा है. जाजल्लदेव के लेख में हलंत और अवग्रह के चिन्ह उमके वर्तमान चिन्ह के समान ही हैं. उक्त लेख के अक्षरों के अंत में 'इ और 'ई' अलग दिये गये हैं जिनमें से बीजोत्या (मेवाड़ में ) के पास के चटान पर खुदे हुए चाहमान (चौहान ) वंशी राजा सोमेश्वर के समय के वि. सं. १२२६ (ई.स. ११७० ) के लेन से लिया गया है और 'ई' चौहान वंशी राजा पृथ्वीराज (तीसरे) के समय के वि. सं. १२४४ (ई.स. ११८७) के वीसलपुर (जयपुर राज्य में ) के लेख से लिया गया है. उक्त दोनों अक्षर के ऐसे रूप अन्यत्र कहीं नहीं मिलते. लिपिपत्र २६ चे की मूल पंक्तियों क नागरी अक्षरांतर तह श्यो है हर बासौद्यतोजायन्त हैहणः ।......त्यसेनप्रिया सती ॥३॥ तेषां हैहयभूभुजां समभवई से (गे) स चेदीश्वरः श्रीकोकाम इति स्मरप्रतिकृतिर्विस्व(व)प्रमोदा यतः । येनायं बिसौ(शौ)था......मेन मातुं यशः स्वौयं प्रेषितमुच्चकैः कियदिति (म्रोमांडमन्तः क्षिति ॥ ४॥ अष्टादशास्य रिपुकुंभिवि लिपिपत्र २७ वा. यह लिपिपत्र आबू के परमार राजा धारावर्ष के समय के वि. सं. १२६५ (ई.स. १२०८) केमोरिभागांव के लेख',जालोर के चाहमान (चौहान)राजाचाचिगदेव के समय के वि.सं. १३ .. ये मूल पंक्तियां राजा लल्म के समय के उपर्युक्त देवल के लेख से हैं. २. ई. जि. १८, पृ. ११ के पास का लेट .. पू. प्ले ६, अक्षरों की पंक्ति १५-१६. ४. . जि. १, पृ. १४ के पास का प्लेट. .. ये मूल पंक्तियां हैहयवंशी राजा जाजमदेव के रखपुर के लेख से हैं (प. जि. १, पृ. ३४ के पास का पोट), ६. राजपूताना म्यूज़ियम (अजमेर ) में रक्ले हुए उक्त लेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छाप से. Ahol Shrutgyanam Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारदा लिपि. ७३ १२६४ ) के सूंघा नामक पहाड़ के लेखर और मेवाड़ के गुहिलवंशी रावल समर सिंह के समय के चीरवा गांव से मिले हुए बि. सं. १३३० ( ई. स. १२७३ ) के लेख से तय्यार किया गया है. ओरिया गांव के लेख में '' के सिर नहीं है परंतु 'घ' को 'व' से स्पष्ट रूप से भिन्न बतलाने के लिये q के ऊपर बाई ओर ( ऐसी लकीर जोड़ दी है. यह रूप पिछले नागरी के लेखों तथा पुस्तकों में मिल खाता है. सूंघा के लेख की लिपि जैन है. उसके 'छ', 'ठ' आदि अक्षरों को अब तक जैन लेखक वैसा ही लिखते हैं. 'राणा' को, 'ए' लिखके बीच में आड़ी लकीर लगा कर बनाया है. यह रूप कई लेखों में मिलता है और अब तक कई पुस्तकलेखक उसको ऐसा ही लिखते हैं. चीरवा के लेख में 'ग' को 'प्र' कासा लिखा है और अन्य लेखों में भी उसका ऐसा रूप मिलता है, जिसको कोई कोई विद्वान् 'ग्र' पढ़ते भी हैं परंतु उक्त लेख का लेखक बहुत शुद्ध लिखनेवाला था अत एव उसने भूल से सर्वत्र 'ग्ग' को '' लिख दिया हो यह संभव नहीं. उसने उस समय का 'ग्ग' का प्रचलित रूप ही लिखा है जिसका नीचे का अंश प्राचीन 'ग' का ही कुछ विकृत रूप है, जैसे कोई कोई लेखक वर्तमान नागरी के 'क्त' और' को 'क्त' और 'ऋ' लिखते हैं जिनमें वर्तमान ' क ' नहीं किंतु उसका प्राचीन रूप ही लिखा जाता है. लिपिपत्र २७ वें की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर संवत् १२६५ वर्षे ॥ वैशाखशु १५ भौमे । चौलुक्यवंशोवरण परमभहारकमहाराजाधिराज श्रीमद्भौमदेवप्रवर्द्धमानविजयराज्ये श्रीकरणे महामुद्रामात्यमहं०भाभूप्रभृतिसमस्त पंचकुले परिपंथयति चंद्रावती नाथमांडलिकसुर शंभश्रीधारावर्षदेवे एकातपत्रवाहकत्वेन ८ शारदा ( कश्मीरौ ) लिपि. ई. स. की १० वीं शताब्दी के आसपास से ( लिपिपत्र २८ से ३१ ). शारदालिपि पंजाब के अधिकतर हिस्से और कश्मीर में प्राचीन शिलालेखों, दानपत्रों, सिक्कों" तथा हस्तलिखित पुस्तकों में मिलती है. यह लिपि नागरी की नांई कुटिल लिपि से निकली है ई. स. की ८वीं शताब्दी के मेरुवर्मा के लेखों से पाया जाता है कि उस समय तक तो उधर कुटिल लिपि का ही प्रचार था, जिसके पीछे के स्वाहम् (सह ) गांव से मिली हुई भगवती की मूर्ति के आसन पर खुदे हुए सोमट के पुत्र राजानक भोगट के लेख की लिपि भी शारदा की अपेक्षा कुटिल से अधिक मिलती हुई है. शारदालिपि का सब से पहिला लेख सराहां की प्रशस्ति' है जिसकी लिपि ई. स. की १०वीं शताब्दी के आसपास की है. यही समय शारदा लिपि की उत्पत्ति का माना जा सकता है. १. जोधपुर निवासी मेरे विज्ञान मित्र मुन्शी देवीप्रसाद की भेजी हुई छाप से. ९. क्षीरबा गांव के मंदिर की भीत में लगे हुए उक्त लेख की अपने हाथ से तय्यार की हुई छाप से. २. ये मूल पंक्तियां उपर्युक्त ओरिया कांच के लेख से हैं. ४. कश्मीर के उत्पल वंशी राजाओं के सिक्कों में. ४. देखो, लिपिपत्र २२ षां. फो; ऍ. स्टे पृ. १५२, प्लेट १३. कांगड़ा जिले के कीरग्राम के वैजनाथ (वैद्यनाथ ) नामक शिवमंदिर में जालंधर (कांगड़े) देखो, लिपिपत्र २८ वां Aho! Shrutgyanam Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्राचीन लिपिमाला. पहिले शारदालिपि के लेख बहुत ही कम प्रसिद्धि में आये थे और ई. स. १९०४ तक तो एक भी लेख की प्रतिकृति प्रसिद्ध नहीं हुई थी, परंतु सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. फोजल ने ई. स. १९११ में बड़े श्रम के साथ चंया राज्य के शिलालेख और दानपत्रों का बड़ा संग्रह कर 'ऍटिकिटीज़ ऑफ चंबा स्टेट' नामक अपूर्व ग्रंथ प्रकाशित किया जिसमें प्राचीन लिपियों के अभ्यासियों के लिये शारदा लिपि की अमूल्य सामग्री है. लिपिपत्र २८ वां. यह लिपिपत्र सराहां की प्रशस्ति से तय्यार किया गया है. इसमें 'ए' के लिकोण की सिर के स्थान की आड़ी लकीर की बाई ओर चिक और जोड़ा है जो वास्तष में 'ए' की मात्रा का एक प्रकार का चिक है और कुटिल तथा नागरी लिपि के लेखों में ए, ऐ, श्री और औ की मालाओं में भी कभी कभी मिलता है. पीछे से यही चिक लंबा होकर खड़ी लकीर' के रूप में परिणत होगया (देखो, लिपिपत्र ३१ में बहादुरसिंह के दानपत्र का 'ए'). वर्तमान शारदा 'ए' में इस खड़ी लकीर के अतिरिक्त 'ए' के ऊपर भी नागरी की 'ए' की माता सी मात्रा भौर लगाई जाती है (देखो, लिपिपन्न ७७), 'द' के मध्य में ग्रंथि लगाई है.'श' और 'स' में इतना ही भेद है कि पहिले का सिर पूरे अक्षर पर है और दूसरे का दो अंशो में विभक्त है. 'त् तथा 'म्' में मूल अक्षरों के चित्र स्पष्ट नहीं रहे. 'ओ' की मात्रा का चिह्न कहीं भी है (देखो, 'यो'), 'औ' की मात्रा कहीं उक्त पिक के अतिरिक्त व्यंजन के सिर के अंत में 7 चित्र और जोड़ कर बनाई है ( देखो, 'मौ') और रेफ पंक्ति से ऊपर नहीं किंतु सीध में लगाया है. लिपिपत्र २८ ३ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतरकिष्किन्धिकाधीशकुले प्रसूता सोमप्रभा नाम बभूव तस्य । देवी जगषणभूतमूर्तिविलोचनस्येव गिरीशपुत्रो । अपूर्वमिन्दुम्प्रविधाय वेधास्सदा स्फुरस्कान्तिकलामुक्त संपूर्णविम्ब(बिम्ब) के राजा जयचंद्र (जयचंद्र) के समय की दो प्रशस्तियां लगी है. जनरल कनिंगहाम ने बाबू (राजा) शिवप्रसाद के पठनानुसार उनका समय क्रमशः लौकिक ( सप्तर्षि ) संवत् ८०और गत शककाल ७२६ (इ. स. ८०४) माना था(क; मा. स.रि; जि. ३, पृ. १८०.८९ प्लेट ४२). फिर डॉ.बूलर ने ये प्रशस्तियां यापी (. जि. १, पृ.१०४-७, ११२-५) और पहिली का संषत् [सौकिक संघरसर ८० ज्येष्ठ शुक्ल १रविवार और दूसरी का गत शककाख ७[२६] होगा स्थिर किया. फिर उसी माधार पर इन प्रशस्तियों को शारदा लिपि के सबसे पुराने लेख, एवं उक्त लिपि का प्रचार ई. स. ८०० के आस पास से होना, मान लिया ( ई. पू.५७ ) प्ररंतु ई.स. १८मा में डॉ. कीलहॉर्न ने गणित कर देखा तो शक संवत् ६२६ से १४२६ तक की पाठ शताब्दियों के गत २६ वेंधों में से केवल शकसंवत् ११२६ ही एक ऐसा वर्ष पाया जिसमें ज्येष्ठ शुक्रको रविवार था. इस माधार पर उन विज्ञान ने इन प्रशस्तियों का ठीक समय शक संवत् ११२६ लौकिक संवत् ८० होना स्थिर किया (इ.एँ; जि.२०, पृ. १५४ ) और डॉ. फोजल ने मूल प्रशस्तियों को देखकर डॉ. कीलहॉर्न का कथन ही ठीक पतखाया ( फो। .. स्टे; पृ. ४३-४). ऐसी दशा में ये प्रशस्तियां न तो ई. स. ८०४ की मानी जा सकती है और न शारदा लिपि का प्रचार ई. स. के पास पास होना स्वीकार किया जा सकता है, दूसरी बात यह भी है कि जनरल कनिंगहाम ने जयचंद्र से पांच राजा जयचंद्रसिंह की गहीमसानी है. स. १३१५ में और ८ ये राजा रूपचंद्र की गद्दीनशीनी ई. स. १३६ में होना और उस (रूपचंद्र) काफ़ीरोज़ तुगलक (ई.स. १३६०-७०) के अधीन होना लिखा है (कॉ . मि. पृ.१०४). ऐसी दशा में भी जयचंद्र का ई. स. ८०४ में नहीं किंतु १२०४ में विद्यमान होना ही स्थिर होता है. फो। .. स्टे प्लेट १५. १. देखो, लिपिपत्र १ की मूल पंक्तियों में से दूसरी पंक्ति में 'विध'का 'हे', उसी पंक्ति में 'शत्रुसैन्य 'का'', और उसी लिपिपत्र में 'वो' और 'मौ. १. यही बड़ी सकीर नागरी में पड़ीमात्रा' (पृष्ठमाला) होकर ए, ऐ, मो और मौ की मात्रावाले मंजनो के पूर्व Aho! Shrutgyanam Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारदा लिपि. बदमं यदीयममूत्तराङ्गण्ट किताङ्गायष्टिः । नानाविधालसतिसन्निदेशविशेषरम्या गुणशालिनी या । मनोहरत्वं मुसरामबाप सचेतसा सत्कविभारतीय ॥ शृङ्गारसिन्धाx किमियन वेला किंवा मनोभूतरुमवरौ स्यात् वसन्तराजस्य नु राज्यलक्ष्मीस्त्रैलोक्यसौन्दर्य लिपिपत्र २६ बां. यह लिपिपत्र राजा विदग्ध के सुंगल गांष के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसमें 'पिलक्षण है. कहीं कहीं 'प' और 'म' में स्पष्ट अंतर नहीं है, 'ब' तथा 'ष' में भेद नहीं है, 'ए' की मात्रा तीन प्रकार से लगी है जिनमें से एक आड़ी लकीर है (देखो, 'णे') और 'थे', '', 'स्था' और 'स्थि' में 'ध' का रूप विकृत मिलता है. लिपिपन्न २९ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-- ओं स्वस्ति ॥ श्रीधरप(म्प)कावासकास्परममहारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरीमधुगाकरवर्मदेवपादानुध्यात[:] परमव(अ)ह्मण्या मिखिलसच्छासनाभिप्रवृत्तगुरुवृत्तदेवतानुरत्तसमधिगतशास्त्रकुशलतया समाराधितविजनदयो नयानुगतपौरुषप्रयोगावाप्तनिवर्गसिद्धिः सम्यगर्भिताभिकामिकगुणसहिततया फलित व मार्गतरू[:] । सर्वसत्वा (रस्था)श्रयमी(णौ)यो मापनाबायर आदित्यवशो(वंशो)जव[:] परममाहेश्वरी(रः) श्रीभागमतौदेण्या(या) समुत्पाः ] लिपिपत्र वां यह लिपिपल सोमषर्मा के कुलैत के दानपत्र', चंबा से मिले हुए सोमवर्मा और मासट के दान पत्र राजानक नागपाल के देखीरीकोटी (देनिकोटि)के शिलालेखाभारिणांव के शिलालेख तथा जालंधर के राजा जयचंद्र के समय की शक संवत् ११२६८-लौकिक संवत् २०(ई.स. १२०४) की कांगडा जिले के कीरग्राम के वैजनाथ ( वैद्यनाथ ) के मंदिर की दो प्रशस्तियों से तय्यार किया गया है और इसमें मुख्य मुरूप अक्षर ही दिये गये हैं. कुलैत के दानपत्र में 'च'के पाई तरफ के भंश के नीचे के भाग में गांठ सी लगाई है और '' की खड़ी लकीर के मध्य में ग्रंथि बनाकर उसके और 'फ' के बीच अंतर को स्पष्ट किया है. वैजनाथ की प्रशस्तियों के 'ई'को, खत मदर के प्राचीन रूप में खड़ी कभी कभी लगने लगी और बंगला, मैथिक तथा उडिया लिपियों में वाहिनी तरफ नीचे गांठवाली षक रेशा के रूप में उसका अब तक प्रयोग होता है (देखो, लिपिपत्र ७८ और 5 में उक्त लिपियों की वर्णमालाओं में के, के, को और कौ). १. कोएँ, चं. सेप्लेट १७ से. १. इन तीन लकीरों में से पहिली की प्राकृति देती है और दूसरी व तीसरीसदी लकीरे हैं जिनमे स एक अनावश्यक है. . गुद्ध पाठ 'मोषणादयः' होना चाहिये. फो। . छ. स्टे प्लेर २४ से. ५. फो। ..से प्लेट २५ से. फो .. स्ले प्लेटले. . . जि. २०१के पास के प्लेट से. . इन प्रशस्तियों के समय के लिये देखो ऊपर प.. दिपए .. .। प्लेट माचीन मरों की पति प्रथम से. Aho ! Shrutgyanam Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्राचीनलिपिमाला. लकीर के दोनों पार्श्व में लगनेवाली विर्दियों को उक्त लकीर के परिवर्तित रूप के ऊपर लगा कर, बनाया है और उसीसे वर्तमान शारदा का 'ई' बना है. 'ते' और 'ये' में 'ए' और 'ऐ' की मालाएं क्रमशः एक और दो भाड़ी लकीरें व्यंजन के ऊपर लगा कर बनाई हैं. टाकरी लिपि में 'ए' और 'ऐ' की मात्राएं अब तक ऐसी ही लगाई जाती है (देखो लिपिपत्र ७७ ) लिपिपत्र ३० दें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर नमरिशवाय ॥ जयति भुवनकारणं स्वयंभूर्जयति पुरन्दरनन्दनो सुरारिः [] जयति गिरिसुता निरुदेहे। रितभयाप हरी हरख देवः ॥ श्रौ बरप (म्प) कावास कात्परमब्रह्मण्यो ललाटटघटितविकटकुटि प्रकट कुटि (डि) त काट का सौम टिकाश तसा मा लिपिपत्र ३१ व. यह लिपिपलू के राजा बहादुरसिंह के दानपत्र', अथर्ववेदर ( पिप्पलादशाखा) और शाकुतल नाटक की हस्तलिखित पुस्तकों से तय्यार किया गया है. अथर्ववेद की पुस्तक के अक्षरों का 'इ' प्राचीन 'इ' के ७° इस रूप को नीचे के अंश से प्रारंभ कर चलती कलम से पूरा लिखने से ही ऐसा बना है, उसीसे वर्तमान शारदा का 'इ' बना है. शाकुंतल नाटक से उद्भूत किये हुए अक्षरों में से अधिकतर अर्थात् अ, आ, ई, ऊ, ऋ, ओ, औ, क, ख, घ, च, छ, झ, ञ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, य, र, श, ष, स और ह अक्षर वर्तमान कश्मीरी से मिलते जुलते ही हैं (उक Heart at fafter ७० में दी हुई वर्तमान शारदात्रिपि से मिला कर देखो ). लिपिपत्र ३१ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर स्वस्ति ॥ रामरामराम पराक्रम पराक्रम पदक्षदक्षाकति मतांतरण र सहतांतः करणरण विशारद शारदहिमकरानुकारियशः पूरपूरितदिगंतर परमभहार कमहाराजाधिराजश्रीबहादर सिंहदेवपादाः ॥ ॥ महाश्रीयुवराजप्रतापसिंहां महामंचिवर नारायणसिंहः ॥ श्रोचंपक पुरस्य महापं १. ये मूल पंक्तियां राजा सीमवर्मा के कुलैत के दानपत्र से है. ६. आ. स. रि ई. स. १६०३-४, प्लेट ७१ से. अनुवाद के साथ दी दुई उक्त पुस्तक के एक पत्रे की प्रतिकृति से. ४. पे लेट ६, प्राचीन अक्षरों की पंक्ति ८ से. *. ये सूल पंक्तियां कूल के राजा बहादुरसिंह के दान पत्र से हैं. १. हार्वर्ड ओरियंटल सिरीज में छपे हुए अथर्ववेद के अंग्रेजी Aho! Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.-बंगला लिपि. ६. स. की ११ वीं शताब्दी के पास पास से (लिपिपत्र ३२ से ३५). बंगला लिपि भारतवर्ष के पूर्वी विभाग अर्थात् मगध की तरफ़ की नागरी लिपि से निकली है और बिहार, बंगाल, मिथिला, नेपाल, भासाम तथा उडीसा से मिलनेवाले किसने एक शिलालेख, दानपत्र, सिको या हस्तलिखित पुस्तकों में पाई जाती है. बंगाल के राजा नारायणपाल के समय अर्थात.स.की दसवीं शताब्दी तक तो उधर भी नागरी लिपि का ही प्रचार रहा. जत राजा के लेखों में केवल 'ए', 'ख' मादि कुछ अक्षरों में बंगला की ओर झुकाव नजर माता है. ई. स. की ग्यारहवीं शताब्दी के पावर्षशी राजा विजयपाल के देवपारा के लेख में ए, ख, मत, म, र, ल और समें नागरी से थोड़ी सी मिलता है और कामरूप के पैयदेव के दानपल', मासाम से मिले हुए बल्लभद्र के दानपत्र और हस्राकोल के लेख की लिपियों में से प्रत्येक को नांगरी (लिपिपत्र २४-२७) से मिलाया जाये तो भइहे, ऋ, ए, ऐ, ख, घ, झ, ञ, द, थ, प, फ, र, श और ष में अंतर पाया जाता है इस प्रकार लखनशैली में क्रमशः परिवर्तन होते होते वर्तमान बंगला लिपि बनी. लिपिपत्र ३२ वां. यह लिपिपत्र बंगाल के राजा नारायणपाल के समय के बदाल के स्तंभ के लेख और विजयसेन के देवपारा के लेख से तय्यार किया गया है. बदाल के लेख से सो मुख्य मुख्य अक्षर ही लिये गये. उनमें 'म' और 'मा' की प्रारंभ की छोटीसी खड़ी लकीर न लगने से उनके रूप नागरी के'' से बन गये हैं. संभव है कि यह भिन्नता दानपत्र खोदनेवाले की गलती से हुई हो. देवपारा के लेख में अपग्रह की प्राकृति वर्तमान नागरी के इ सी है, विसर्ग के ऊपर भी सिर की भाडी लकीर लगाई है, 'प' तथा 'य' में विशेष अंतर नहीं है और '' और '' में कोई भेद नहीं है. विपिपत्र ३२खें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर तस्मिन् सेनाम्बवाये प्रतिसुभटशतोत्सादन(ब)प्रवादी स (अ)ह्मक्षत्रियाणामअनि कुलशिरोदाम सामन्तसेमः । उहीयन्ते यदीयाः स्खलदुदधिजलोलोलशीमेषु सेतोः कच्छान्तेष्वप्सरोभिईशरथतमयस्पर्धया युद्धगाथाः ॥ यस्मिन् सगरचत्वरे पटुरटतूर्योप १. देखो लिपिपत्र ३२. १. मेमॉयर्स ऑफ पशिमाटिक सोसाइटी मॉफ बंगाल, जिस्व ५, मेट २४ की अंतिम पंक्ति में वैशा'का 'ख' ... जि. पू. ३०८ के पास का सेर. . . जि. २, पृ. ३५२ और १५३ के बीच के ४ मेट ...जि.२, पू.१४और के बीच केरमेट. अ.वंगा. प. सोई.स. १६०८, पृ.४६२. . . जि. . १९१ के सामने का खेट. म. , जि. १, पृ. ३०८ के पास का सेट. १. ये भूत पंकियां पारा के लेख से हैं. Aho! Shrutgyanam Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. लिपिपत्र ३३ बां. पह लिपिपत्र बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के तर्पडिघी के दानपत्र से और कामरूप के वैद्यदेव के दानपत्र से तय्यार किया गया है. उन दोनों में 'इ और 'ई' में विशेष अंतर नहीं है. वैद्यदेव के दानपत्र का 'ऐ', 'प' से नहीं, किंतु 'इ' में कुछ परिवर्तन करके बनाया है, अनुस्वार को प्रक्षर के ऊपर नहीं किंतु आगे थरा है और उसके नीचे हलंत की सी तिरछी शकीर और लगाई है, 'ऊ' और 'ऋ' की मात्राओं में स्पष्ट असर नहीं है, 'व' और 'ब' में भेद नहीं है और सिर सीधी लकीर से नहीं किंतु ८ ऐसी लकीर से बनाये हैं, जिसका अधिक विकास उडिया लिपि के सिरों में पाया जाता है, लिपिपन्न ३३ वेंकी मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं ओं नमो भगवते वासुदेवाय ॥ स्वस्ति ॥ चम्ब(म्बारमानस्तम्भः कुम्भः संसारवी(को)जरक्षायाः । हरिदन्तरमि. समूर्तिः क्रीडायोची हरिज(ज)यति ॥ एतस्य दक्षिणदृशो वंशे मिहिरस्य जातवाम(न) पूर्व(ब) । विग्रहपाली उपसिः सव्वारा)कारविहीसं सिवः । यस्य वंशक्रमेणाभूत्सचि किया गया है. बालमैत्र के दानपत्र में लियिपत्र ३४ वा. यह लिपिपत्र प्रासाम से मिले हुए वल्लभद्र के दानपत्र' और हस्तलिखित पुस्तकों से तय्यार किया गया है. बस्लभेद्र.के दानपत्र में कहीं कहीं 'म' और 'ल' में, एवं '' और 'य' में, स्पष्ट अंतर नहीं है और 'व' तथा '4' में भेद नहीं है. विसर्ग की दोनों बिंदियों को चलती कलम से लिख कर एक दूसरे से मिला दिया है. लिपिपत्र ३४ थे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं को नमो भगवते वासुदेवाय । यहण्डमण्डलतटौप्रकटालिमामा वर्णावलौव खदले खलु मग लस्य । सम्बो(म्बो)दरः स जगतां यशसा प्रसारमानन्दतां घुमपिना सह यावदिन्दः ॥ पातालपरवल. सलाहिवमुरपतिष्योर्विष्णोः पुनातु शतष्टितनातनु. लिपिपत्र ३५ धां. यह लिपिपत्र इस्राकोल से मिले हुए बौद्ध तांत्रिक शिलालेख तथा उड़ीसा के राजा पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र से तय्यार किया गया है. हस्राकोल के लेख में प्रत्येक वर्षे पर मनुस्खार लगा कर पूरी वर्णमाला के बीज बनाये हैं, जिनके अनुस्वार निकाल कर यहां भक्षर ही दिये हैं. पुरुषोत्तमदेव के १. पं. जि.१२पृ. और के बीच के मेरों से. १. पै. जि. ३.पू. ३५०और ३५३ के बीच मेरो से. । ये मून पंक्तियां पैयदेव के उपयुक्त वामपन से हैं. .. जि. प. १५२ और के बीच के मेटौसे. . ई.प.मेर६. प्राचीन अक्षरोकी पंक्ति १०-१५से. १. मूल पलियां पावके दानपन से हैं. • ज.गा.प.सोई.स.१७०८पृ. ४३२ से. .. जि. . पास पेट से. Aho! Shrutgyanam Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी लिपि. दामपत्र के मक्षरों में से अधिकतर के सिर - ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति वैद्यदेव के उपर्युक्त दानपत्र के अक्षरों के सिरों से हुई हो. वर्तमान उड़िया लिपि के अक्षरों के सिर पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र के सिरों से अधिक घुमाववाले हैं और उनका अंतिम भाग अधिक नीचा होता है परंतु वे सिरे उक्त दानपत्र के प्रबरों के सिरों ही के विकसित रूप हैं. लिपिपन्न ३५ वें की मूल पंक्तियों का अक्षरांतर श्री जय दर्गायै नमः । वीर श्रीगणपति गउडेश्वर नवकोटिकर्नाटकलवर्गेश्वर श्रीपुरुषोत्तमदेव महाराजाकर । पोते. श्वरभटङ्गु दान शासन पटा । र ५ अमेष दि १० अंसोमवार ग्रहण ११-पश्चिमी लिपि. ई.स. की पांचवी से नौ शताब्दी तक (लिपिपत्र ३६ से ४०). पश्चिमी लिपि का प्रचार गुजरात, काठियावाड़, नासिक, खानदेश तथा सतारा जिलों में, हैदराबाद राज्य के कुछ अंशों और कोंकण आदि में ई. स की पांचवीं से नवीं शताब्दी तक रहा (देखो, ऊपर पृष्ट ४३)., ई.स. की पांचवीं शताब्दी के आसपास इसका कुछ कुछ प्रचार राजपूताना, मध्यभारत और मध्यप्रदेश में भी पाया जाता है ( देखो, ऊपर पृ. ६०, टिप्पण २,३,४), यह क्षिपि गुप्तों, बलभी के राजानों, भड़ौच के गूर्जरवंशियों, बादामी और गुजरात के चालुक्यों, कूटकों, राष्ट्रकूटों, गुजरात के कलचुरियों आदि राजवंशों के कितने एक शिलालेखों या दानपत्रों में तथा साधारण पुरुषों के लेखों में मिलती है. उत्तरी शैली की लिपियों के पड़ोस की लिपि होने से इसपर उनका प्रभाव पड़ा है. दक्षिणी शैली की लिपियों में घ, प, फ, ष और स उनके पुरान रूपों के अनुसार ऊपर से खुले हुए होते हैं (देखो, लिपिपत्र २६-५८); 'ल' की खड़ी लकीर बहुधा ऊपर की तरफ से बाई ..ये मूल पंक्तियां पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र से हैं. २. ली; गु. : लेख संख्या ५, १५, १८. है, जि. ३, पृ. ३१०-२. जि.८, पृ. १६०-६६, जि.१९, पृ.८१-४:१०६-१७; १७८-८०. ना. म. ई. स. १६०२३,पृ.२३५-४, फ्ली: गु. लेख संख्या ३०-३६. जि ७, पृ.६६-६. जि.८, पृ. ३१.३. जि. ६, पृ.२३८-६ श्रादि. । . जि.२ पृ.२०-२१. जि.५, पृ. ३६-४१. ई. जि.५, पृ. ११३-४ जि, १३, पृ.७७-६ श्रादि. ५. पं. जि. ३, पृ ५१-२. ई. ए: जि.७, पृ. १६३-४. जि. पू. १५-६. जि.६, पृ. १२४. जि. १६, पृ. ३०६१०. ज.ब.प. सो, जि. १६, पृ..-३, आदि. ..; जि. १० पृ.५३. जि. ११, पृ. ९२०-१. ज. पंज. प. सौ: जि. १६, पृ. ३४७. केवटेपल्स ऑफ वेस्टर्न इंडिया पृ. ५८; आदि. * . जि. ३, पृ. ५५.७. जि.८ पृ. १६५-६, इ. शि. १२, पृ. १५८-६२. ज. बंब. प. सो; जि. १६ पृ. १०६.५१०१ भावि. प. प.ई.जि. प. २६७-६. जि.१०, पृ.७४-७५, मादि. . . जि.११, पृ.१७-८. Aho! Shrutgyanam Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. ओर मुड़ कर नीचे को झुकी हुई रहती है (देखो, लिपिपत्र ३६-४८, ५२-५७) और भ, भा, ई.कम और र अक्षरों की खड़ी लकीरों तथा बहुधा उ, ऊ और ऋकी मात्राओं के नीचे के अंश बाई तरफ मुड़ कर घुमाव के साथ ऊपर की ओर बढ़े हुए रहते हैं (देखो, लिपिपत्र ३६-४, ५२-५८). यही ऊपर की ओर बढ़ा हुआ अंश समय के साथ और ऊपर बढ़ कर सिर तक भी पहुंचने लगा जिससे तेलुगु-कनडी तथा ग्रंथ लिपियों में श्र, पा, ई, क, भ और रकी आकृतियां मूल अक्षरों से पिलकुल विलक्षण हो गई. इसके अतिरिक्त दक्षिण के लेखक अपने अक्षरों में सुंदरता लाने के विचार से खड़ी और बाड़ी लकीरों को बक्र या खमदार बनाने लगे जिससे ऊपर की सीधी माड़ी लकीर की प्राकृति बहुधा , नीचे की सीधी पाड़ी लकीर की ~ और सीधी खड़ी लकीर की आकृति ऐसी बनने लगी तथा इन लकीरों के प्रारंभ, मध्य या अंत में कहीं कहीं ग्रंथियां भी बनाई जाने लगी. इन्हीं कारणों, तथा कितने एक अक्षरों को चलती कलम से पूरा लिखने, से दक्षिण की लिपियों के वर्तमान अक्षर उनके मूल ब्राह्मी अक्षरों से बहुत ही विलक्षण बन गये लिपिपत्र ३६ बां. यह लि पेपत्र मंदसोर से मिले हुए राजा नरवर्मन् के समय के मालद (विक्रम ) संवत् ४६१ (ई. स. ४०४. ) और वहीं से मिले हुए कुमारगुप्त के समय के मालव (विक्रम ) संवत् ५२६ (ई. स. ४७२) के लेखों से तय्यार किया गया है. नरवर्मन् के समय के लेख में 'य' प्राचीन और नवीन (मागरी का सा) दोनों तरह का मिलता है. दचिणी शैली के अन्य लेखों में 'य' का सरा ( नागरी का सा) रूप केवल संयुक्ताक्षर में, जहां 'य' दूसरा अक्षर होता है, प्रयुक्त होता है परंतु यह लेख उत्तरी भारत का है, इसलिए इसमें वैसे रूप का भी केवल 'य' के स्थान में प्रयोग 'र' का दूसरा रूप 'उ' की मात्रा सहित 'र' को चलती कलम से लिखने से बना है, शुद्ध रीति से लिखा हुश्रा रूप तो पहिला ही है. ' में दो बिंदियों के ऊपर की सीधी बाडी लकीर को वक्र रेखा बना दिया है. लिपिपत्र ३६ में की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिद्धम् सहसशिरसे तस्मै पुरुषायामितात्मने यतुस्समुद्रपर्यवतोयनिद्रालवे नमः औम्मलिषगवासाने प्रशले कृतसशिने स्कषष्टयधिक प्राप्ते समाशतचतुष्टय(ये) प्रारक(ट्का)ले शुभे प्राप्ते मनस्तुष्टिकरे मृणाम् मधे(हे) प्रहने शास्त्र कृष्णस्यानुमते सदा मिष्यन्नवीडियवसा लिपिपत्र ३७ वा. यह दानपत्र बलभी के राजा धुवसेन' के गुरु सं. २१० (ई. स. ५३६ ) के और धरसेन (दूसरे) के गुप्त सं. २५२ (ई. स. ६७१ ) के दानपत्रों से तय्यार किया गया है, धरसेन (दूसरे) के दानपत्र में अनुस्वार और विसर्ग की बिंदियों के स्थान में साड़ी लकीरें मनाई - १. मेरे विद्वान् मित्र देवदत्त रामकृप्या भंडारकर की मेजी हुक खेल की छाप से. १. पती गु. मेट ११ से. ये मूल पहिया नरवर्मन के मंदसोर के खेल से हैं, .. . जि.११, पृ. १५० के पास के पेट से. .. जि.८, पृ. ३०२ और ३० के बीच के मेटोले. Aho 1 Shrutgyanam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी लिपि हैं (देखो 'या' और 'रः) और हलंत अक्षर को उसके पहिले अक्षर के नीचे लिल्ल है (देखो 'पत्' 'शत्' और 'सेत्'). लिपिपत्र ३७ की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर स्वस्ति वसभि(भौ)तः प्रसभप्रणतामित्राणां मैपकायामगुलबलसपतामण्डलाभोगसंसातासमहारशतलन्धमतापः प्रताप:' प्रतापोपनतदानमामार्जयोपार्जितानुरागोतामोलभूत मिषश्रेणौवकावाप्राज्यभिः(श्री) परमम(मा)ोचरः श्रि(श्री)सेना. पसिमटाईस्तस्य सुलत्यादरजोरणावमतपविचि(पोशातशिरा: लिपिपत्र ३८ यां. यह लिपिपत्र पालीताना से मिले हुए गारुलक सिंहादिस्य के गुप्त सं. २५५ (ई. स. ५७४) के दानपत्र और बलभी के राजा शीलादित्य (पांचवें)के गुप्त सं.४०३ (ई.स. ७२२) के वानपल से प्यार किया गया है. शीलादित्य के दानपत्र में के चार इकड़े किये हैं, जिनमें से नीचे की दो रेखाएं तो दो पिवित्रों के स्थानापन्न हैं और ऊपर की दो तिरछी रेखाएं, सीधी माड़ी लकीर के खमदार रूप के ही हिस्से हैं जो जुड़े हुए होने चाहिये थे. 'ए' का रूप विलक्षण बना है परंतु वह लिपिपल ३७ में दिये हुए 'ए' का त्वरा से लिखा हुमा विकृत रूप ही है. 'ऐ' में ऊपर की स्वमदार माड़ी रेखा का खम के पूर्व का हिस्सा 'ए' के अप्रभाग की बाई मोर जुड़नेवाली रेखा का गोलाईदार रूप ही है और बाकी का भाग 'ए' का है. '' में ऊपर का भाषा भाग 'ल' (दूसरे ) का रूप है और नीचे का आधा भाग 'ल' (तीसरेका कुछ विकृत रूप है. इस तरह दो प्रकार के 'ल' मिलकर यह रूप बना है. लिपिपत्र ३८ की मूल पंक्तियों का नागरी अन्नरांतर भों स्वस्ति फाप्रसवणारप्रसाष्टकसम्मोद्भताम्यक्ष्याभिभूतापहिषाममेकसमरा तसंपातात्यन्त विजयिना(ti प्रभूतयश कोयलझारालमृताध्ययभुवा गारुलकामा पंकशा(वंशा)सुरक्रमेणाविर्भूतो दीनानाधाश्रितार्थिवान्धरजनोपजीव्यमानविमविस्तर तहरिपाक्षीण फाक्षचायतयैका. लिपिपत्र ३६ वा. यह लिपिपत्र त्रैकूटकवंशी राज दर्हसेन के कलरि संवत् २०७ ( ई. स. ४५६ ) के, गर्जरबंशी रणग्रह के कलचुरि सं. ३६१ (ई. स. ६४०) के और दर (दूसरे ) के कलचुरि सं. ३६२ - ये मूत्र पहियां परसन (दूसरे) दानप से ह. २ 'प्रतापः' शब्द पहां पर समापश्पक है १.प.जि.११, ५.१ और के बीच के प्लेटोसे. . ज.ब.ए.सो.मि.१९, पृ. ३६५ के पास के क्षेट AB.से. मूल पक्लिो गालक सिंहादित्य के दामपन से है. ...नि. १०, १.५३ के पास के मेट से. . . जि. प. २१ के पास के मेट से. ....जि.प. और पीच के मेटरों से. Aho! Shrutgyanam Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. (ई.स. ६४१)के दानपत्रों से तय्यार किया गया है. रणग्रह के दानपत्र का 'ए' लिपिपत्र ३८ में दिये हुए बलभी के राजा शीलादित्य के दानपत्र के 'ए' से मिलता हुआ है. लिपिपल ३६ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर इत्युक्तच भमवता वेदव्यामेन व्यासेम घष्टिवरिष(वर्ष)सहस्राणि स्वगर्गे मोदनि भूमिदा(दः) आता चानुमन्ता र ताम्येव नरके पसे त्] विग्याटोवतोयात शुष्ककोटरवासिनाः] कि(क)ष्णाइयो हि जायन्ते भूमिदानापहारकाः लिपिपत्र १० बां. यह लिपिपत्र नवसारी से मिले हुए चालुक्य युवराज श्याश्रय (शीलादित्य) के कलचुरि सं. ४२१ (ई. स. ३७०) के दानपत्र और गुजरात के राष्ट्रकूट ( राठौड़ ) राजा कर्कराज ( सुवर्णवर्ष ) के शक सं. ७३४ (ई. स. ८१२) के दानपत्र से तय्यार किया गया है. कर्कराज के दानपत्र के '' की प्राकृति नागरीके 'द की सी है जिसमें, संभव है कि, ग्रंथि से नीचे निकला हा अंश'' से उक्त अक्षर को भिन्न बतलाने के लिये ही हो. 'ई' का ऐसा ही या इससे मिलता हुआ रूप लिपिपन्न ३७ और ३८ में भी मिलता है. लिपिपत्र ४०वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-- ओं स वोव्याधसा येन(धाम) यवाभिकमलङकृतं । हरश्च यस्थ कान्तेन्दु कलया स(क)मलङकृतं । स्वस्ति स्वकीयान्क्यवश(वंश)कर्ता श्रीराष्ट्रकूटामलषडश(वंश)जम्मा । प्रदामशर. समरैबोरी गोविन्दराजः क्षितिपो बभूव ॥ यस्या.."माचयिनः प्रियसाइसरय मापालवेशफलमेव १२- मध्यप्रदेशौ लिपि. है. स. की पानी से नीं शताद के आस पास तक (लिपिपत्र ४१-४२). मध्यप्रदेशी लिपि का प्रचार मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड, हैदरायाद राज्य के उत्तरी विभाग तथा मईसोर राज्य के कुछ हिस्सों में ई.स. की पांचवीं से नवीं शताब्दी के आस पास सक रहा, यह लिपि गुप्तों, वाकाटकवंशियों'. शरभपुर के राजाओं, महाकोशल के कितने एक सोम(गुप्तोवंशी , यमन पंक्रिया रणग्रह के दानपत्र से है.. . ज.ब.प. सौ. जि. १६. पृ.२ र ३ के बीच के सेरो मे. . ई.पै. जि. १२. पृ. १५८ और १६१ के बीच के सेटों से. ४ ये मुल पंक्तियां गुजरात के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज के दानपत्र से है 1. फती गु.ई. लेख २-३. इन्हीं लेम्बा की सिपि पर से वाकाटको मादि के दामपत्रों की लिपि निकली हो. ५. ए. शि. ३, पृ. २६०.६२. जि. ६, पृ. २७०-७१. ई. एँ; जि. १२, पृ. २४२-५. पली; गु. लेखसम्या ५३-६. आ. स. चे. जि. ४. मेट ५६. लेखसंख्या ४, मंट ५७ लेखसंख्या ३. . ऐं. जि.१, पृ.२८३-४. फली; गु.ई: लेख संख्या ४०-४१. Aho! Shrutgyanam Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदशी लिपि राजाओं तथा कुछ कर्दयों के दानपत्रों या शिलालेखों में मिलती है. इसलिपि के दामपत्र अधिक और विस्तृत रूप में मिलते हैं, शिलालेख कम और बहुधा छोटे छोटे. इसके अक्षर लंबाई में अधिक और चौड़ाई में कम होते हैं, उनके सिर चौकूट या संदूक की प्राकृति के बहुधा भीतर से खाली, परंतु कभी कभी भरे हुए भी, मिलते हैं और अक्षरों की प्राकृति बहुधा समकोणवाली (देखो, ऊपर पृ.४३). इससे इस लिपि के अचर साधारण पाठक को विलक्षण प्रतीत होते हैं परंतु इन दो बातों को छोड़ कर देखा जाये तो इस लिपि में और पश्चिमी लिपि में बहुत कुछ समता है. इस लिपि पर भी पश्चिमी लिपि की नाई उसरी शैली का प्रभाव पड़ा है. लिपिपत्र । यह लिपिपत्र वाकाटकवंशी राजा प्रवरसेन(दसरे) के दृदिशा सिवनी' और चम्मक के दानपत्रों से नय्यार किया गया है. दूदिया तगा सिवनी के दानपत्रों के अक्षरों के सिर चौकट और भीतर से ग्वाली हैं तथा अधिकतर अक्षर समकोणवाले हैं. परंतु चम्मक के दानपत्र के अक्षरों के चौकुंटे सिर भीतर से भरे हुए हैं और समकोणवाले अक्षरों की संख्या कम है. दूदिमा के दानपन्न से उद्धृत किये हुए अक्षरों के अंत में जो 'इ', 'ऊ और 'श्री अक्षर दिये हैं वे उक्त दानपत्र नहीं हैं. ''अजंटा की गुफा के लेग्वसंख्या ३ की पंक्ति १७ से' और 'श्री महासदेवराज के रायपुर के दानपत्र की १० वी पंक्ति में लिया है. उस नीनों दानपत्रों में कोई प्रचलित संवत् नहीं दिया परंतु यह निश्चित है कि प्रवरसेन(दसरा) गुप्तवंशी राजा चंद्रगुप्त दूसरे ( देवगुप्त) की पुत्री प्रभावतीगुप्ता का पुत्र था और चंद्रगुप्त दूसरे के समय के लेख गुप्त संवत् ८२ से १३ (ई.स. ४०१-१९) तक के मिले हैं. ऐसी दशा में प्रवरसेन (दूसरे) का ई.स. की पांचवीं शतान्दी के प्रारंभ के पास पास विद्यमान होना निश्चित है. लिपिपत्र ४१चे की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर दृष्टम् प्रवरपुरात् अमिष्टोम(मा)प्तो-मोक्थ्यषोडश्यनिरो(रा)पवाजपेयपृहस्पतिसवसाद्यस्कचतुरश्वमेधयाजिनः विष्णुशक्षसगोयस्य सम्राट (जो) वाकाटकानामहाराजश्रोप्रवरसेनस्य सुनो। समोर अत्यन्तस्वामिमहाभैरवभक्तस्य सभारसविवेशितशिलि लिपिपत्र ४२ धां. यह लिपिपल बालाघाट से मिल हुए वाकाटकवंशी राजा पृथिवीसेन(दूसरे) केर, खरिधर से मिले हुए राजा महासुदेव के और राजीम मे मिले हुए राजा तीवरदेव के दानपत्रों से तय्यार किया गया है, तीवरदेव के दानपत्र में 'इ' की दो बिंदिनों के ऊपर की बाड़ी लकीर में विलक्षण मोड़ डाला है. खरिअर और राजीम के दानपत्रों का समय अनुमान लगाया है क्योंकि उनका निश्चित समय स्थिर करने के लिये अब तक ठीक साधन उपलब्ध नहीं हुए. १. पै. जि.७, पृ. १०४-६. जि.८, पृ. १७२-३. पल्लीगु. लेखसंख्या ८१.. १. प. जि. २१.१६३. रा .का जि. पू.२०० के पास का प्लेट. ...: जि.३, पृ.२६० और २६१ के बीच के सेट क्ली: गु प्लेट ३५ धां. 1. फ्ली; गु. सेट ३४. १ मा.स.के. जि.४, प्लेट ५७. . पलीगुप्लेट २७. म. ये मूल पंक्तियां प्रवरसेन (दूसरे) वृदिमा के मानपत्र से ई. १. . जि. ६, पृ.२७०और २७१ के बीच के प्लेटों से. १०. . है: जि. पृ. १७२ और १७३ के बीच के प्लेटी से. १. फ्ली; गु. प्लेट ४५ से. AhoriShrutgyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानिलिपिमाला तापपन्न ४२ वें की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर--- स्वस्ति शरभपुराहिकमोपनतसामन्तमकुरघडामणिप्रभामसेकान्नधौतपादयुगलो रिपुविलासिनौसौमन्तीहरण हेसुब्बसुवसुधागोमद परमभागवतो मातापिचि(४)पादानुध्यातश्रीमहासुदेवराजः क्षितिमण्डाहारौयनवन करतत्प्रावेश्यशाम्लिकयो प्रतिवासिकुटम्बिनम्समाचापयति । विदितमस्त वो यथास्माभिरेतद्वामहयं (चि)दशपतिसदनसुखप्रतिष्ठाकरो(र) यावद्रविशशिताराकिरणप्र १३- लेस्लुगु-कनड़ी लिपि. ई. स. की पांचवी शताब्दी से (लिपिपत्र ५३ से ५३) तेनुगु-कनड़ी लिपि का प्रचार बंबई इहाते के दक्षिणी विभाग में, हैदराबाद राज्य के दक्षिणी हिस्सों में, माईसार राज्य में तथा मद्रास इहाते के उत्तर-पूर्वी विभाग में ई. स. की पांचवीं शताब्दी के आसपास से पाया जाता है (देखो, ऊपर पृष्ठ ४३). इसमें समय के साथ परिवर्तन होते होते अक्षरों की गोलाई बढ़ने लगी और त्वरासे लिखने के कारण ई. स. की ११ वीं शताब्दी के आसपास इसके कितने एक अक्षर और १४ वीं शताब्दी के आसपास अधिकतर अक्षर वर्तमान तेलुगु और कनड़ी लिपियों से मिलते जुलते यम गये. फिर उनमें थोडासा और परिवर्तन होकर वर्तमान तेलुगु और कनाड़ी लिपियां, जो परस्पर अमृत ही मिलती हुई हैं, बनीं; इसलिये इस लिपि का नाम तेलुगु-कमड़ी कल्पना किया गया है. यह लिपि पल्लवों, कदंबा, पश्चिमी तथा पूर्वी चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, गंगावंशियों, काकतीयों आदि कई राजवंशों तथा कई सामंतवंशों के शिलालेख तथा दानपत्रों में एवं कितने ही साधारण पुरुषों के लेखों में मिलती है. उक्त लेखादि की संख्या सैंकड़ों नहीं कि हजारों को पहंच चुकी है, और वे ऍपिग्राफिया इंडिका. ऍपिग्राफिया कर्नाटिका, इंडिअन ऍटिकरी आदि प्राचीन शोधसंबंधी अनेक पुस्तकों में छप चुके हैं. लिपिपत्र ४३ वा. यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा विष्णुगोपवर्मन् के उरघुपल्लि' के, तथा उसी घंश के राजा सिंहवर्मन के पिकिर' और मंगलूर' गांवों से मिले हुए दानपत्रों से तय्यार किया गया है. विष्णुगोपधर्मन् के दानपत्रों के अक्षरों के सिर मध्यप्रदेशी लिपि की नाई बहुधा चौकूटे और भीतर से खाली है और समकोणवाले अक्षरों की संख्या कम और गोलाईदार या स्वमदार लकीरवालों की अधिक है. तोभी इसकी लिपि मध्यप्रदेशी और पश्चिमी लिपि से बहुत कुछ मिलती हुई है. सिंहवर्मन १. ये मूल पंक्तियां महादेव के सरिअर के दानपत्र से है. १. ई. जि. ५, पृ. ५० और ५१ के बीच के पोटोस. . प. जि. ८, पृ. १६० और १६१ के बीच के प्लेटों से. .: ज... १५४ और १४६ बीच के पोटो से. Aho! Shrutgyanam Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेलुगु-काई लिपि के दानपत्रों के अक्षरों के सिर चौकूट नहीं किंतु छोटी सी बाड़ी लकीर से यने हुए है. इस लिपिपत्र की लिपियों का समय केवल अनुमान से ही लिखा है. लिपिपत्र ४३वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर जितं भगवता श्रीविजयपलक्कडस्थामात् परमब्रह्मएयस्य स्वबाह बस्लार्जितोजितक्षावतपोनिधेः विधितसर्वमयांदस्य स्थितिस्थितस्यामितात्मनो महाराजस्य श्रीस्कन्दवर्मणः प्रपौत्रस्याचितशक्तिसिडिसम्पन्नस्य प्रतापोपनतराजमण्डलस्य महाराजस्य वसुधातलैकवीरस्य श्रीवौरवमणः पौनस्य देवहिल लिपिपत्र ४४ वा. यह लिपिपत्र देवगिरि से मिले हुए कदंबवंशी राजा मृगेशवर्मन् ' और कास्थवर्मन् के दानपत्रों से तय्यार किया गया है. इनके अक्षरों के सिर चौकुंटे परंतु भीतर से भरे हुए हैं और कितने ही अक्षरों की आड़ी लकीरें विशेष कर बमदार बनती गई हैं (देखो, मृगशवर्मन् के दानपत्रों में इ,ख, ज, ट, ड, घ, य, भ, म, व और है, और काकुस्थवर्मन् के दानपत्र में इ. स्व, च, द, द, ल मादि), लिपिपत्र ४४ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिद्धम् ॥ अयत्य ईस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहिते रतः रागाधरिहरोनन्तीमन्तज्ञानदृगौश्वरः ॥ स्वस्ति विजयवैज[य] त्याः] स्वामिमहासेनमातगणानुद्ध्या(ध्या)ताभिषिक्तानां मानव्यसगोचाणां हारितिपुचाण(णां) अ(प्रा)गिर सो प्रतिकृतम्बाध्य ध्यायचर्चकाना(ना) सहर्मसदंबाना(न) कदंबाना अनेकजन्मान्तरीपार्जितविपुलपुण्यस्कन्धः पाहवार्जित. लिपिपत्र ४५ वा. यह लिपिपत्र चालुक्यवंशी राजा मंगलेश्वर के समय के शक सं. ५०० (ई.स. ५७८ ) के शिलालेख, उसी वंश के राजा पुलुकेशिन (दृमरे ) के हैदराबाद (निज़ाम राज्य में) से मिले हुए शक सं. ५३४ (ई.स. ६१२ ) के दानपत्र और पूर्वी चालुक्य राजा सर्वलोकाश्रय ( विजयसिद्धि, मंगियुवराज ) के राज्यवर्ष दूसरे (ई. स. ६७३) के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. मंगलेश्वर १. ये मूल पंक्तियां उम्बुपल्लि के दानपन से हैं. १. ई. जि. ७. ५ के सामने के प्लेट से. प: जि. ६, पृ. २४ र २५ के योच के प्लेटो से. .. ये मूल पंक्तियां मृगेशवर्मन् के दानपत्र से है. . भियनामा' के 'ना' के पीछे ठीक वैमा ही निह है जैसा कि मृगेश बर्मन के दानपत्र से दिये दुए अक्षरों में 'हि'पिसर्ग के नीचे की बिदी के स्थान में पाया जाता है. संभव है कि यह अनुस्वार का चिह हो न कि 'म्'का) जो अक्षर के ऊपर नहीं किंतु मागे घप हो. इस प्रकार का चिङ्ग क्र दानपत्र में तोन जगह मिलता है. अन्यत्र अनुस्वार बानियत चि सर्वत्र अक्षर क ऊपर ही धरा है. ६. यहां भी ठोस यहां चित है जिसका विवेचन टिप्पण ८ में किया गया है. * जि. १०, पृ. ५८ के पास के प्लेट से. म ; जि ६, पृ. ७२ और ७३ के बीच के प्लटों से. . ..जि.८, पृ.२६८ और २३६ के बीच के प्लटों से. Aho! Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोनलिपिमाला. के लेख की लिपि स्थिरहस्त से लिखी गई है. पुलुकशिन के दानपत्र की लिपि में 'अ' और 'या' की खड़ी लकीर को बाई ओर मोड़ कर उक्त अक्षरों के सिरों तक ऊपर बड़ा दिया है जिससे ये अदर लेख के उक्त अक्षरों से कुछ कुछ भिन्न प्रतीत होने लगे हैं और इन्हीं के रूपांतर से वर्त. मान कनड़ी और तेलुगु के 'अ' और 'या' बने हैं (देखो, लिपिपत्र ८३ में कनड़ी लिपि की उत्पसि). 'अक्षर, जिमका प्रचार दक्षिण की भाषाओं में मिलता है, पहिले पहिल इसी दानपत्र में मिलता है. सर्वलोकाश्रय के दानपत्र की लिपि में 'इ' की दो बिंदियों के ऊपर की लकीर के प्रारंभ में ग्रंथि बनाई है और उसका घुमाव बढ़ा दिया है. इसीको चलती कलम से पूरा लिखने से वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियों का 'इ' बनता है (देग्यो, लिपिपत्र ८३), 'क' की खड़ी लकीर को मोड़ कर मध्य तक और 'रकी को सिरे तक ऊपर बढ़ा दिया है. इन्हीं रूपों में घोड़ा मा और परिवर्तन होने पर वर्तमान कनड़ी और तेलुगु के 'क' और 'र' पने हैं. लिपिपव ४५वे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतरस्वस्ति ॥ श्रीस्वामिपाद नुदध्या(ध्या)तानाम्मानव्यसगीचाणाडहा(णां हा)रितीपुत्ताणाम् बमिष्टोमामिचयनवाजपेयपौण्डौकबहु सुवर्णाश्वमेधावभृथस्वानपषिचीकृतशिरसा चस्क्यानां वंशे संभूतः शक्तिचयसंपन्नः परक्यवंशाम्बर पूर्णचन्द्रः अनेकगुणगणालंकृतशरीर लिपिपत्र ४६ वा. यह लिपिपत्र पश्चिमी चालुक्यवंशी राजा कीर्तिवर्मन ( दूसरे ) के केंदूरगांव से मिले हुए शक सं. ६७२ (ई. स. ७५०) के दानपत्र से तम्यार किया गया है. इसकी लिपि स्वरा से लिखी हई (घसीट) है और कई अक्षरों में प्राड़ी या खड़ी लकीरें खमदार हैं (देखो, ह, ए, घ, च, ज, डड, थ. द, ध प, फ. य, भ, म, व, ह, का और दा ). ' को 'क' के मध्य में दोनों तरफ बाहर निकली हुई धक रेखा जोड़ कर बनाया है. लिपिपत्र ४६वें की मूल पंक्तियों का मागरी अक्षरांतर तदागामिभिरस्मइंश्यैरन्यैश्च राजभिरायुरैश्वर्यादीनां विलसितमचिरांशुचञ्चलमवगच्छद्भिराचन्द्रार्कधरार्णवस्थि मि. समकालं यशश्चिकौर्षभिस्स्वदत्तिनिर्विशेषं परिपालनीयमुक्तच भगवता बेदव्यासेन व्यासेन बहुभिर्वसुधा भुना राजभिस्मगरादिभिः यस्य यस्य य. दा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं स्वन्दातुं सुमहछका दःखमन्यस्य पालनं दानं वा पा लिपिपत्र ४७ वा. यह लिपिपत्र राष्ट्रकूट (राठौड़ोवंशी राजा प्रभूतवर्ष ( गोविंदराज तीसरे ) के कहब गांव से मिले हुए शक सं. ७३५ (ई. स. ८१३ ) के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि भी ये मूल पंक्तियां भंगलेवर के समय के लेख से हैं. ... ईजि . प. पू. २०४ और २०५ के बीच के पलेटी से. .: जि. १२, पृ. १५ और १५ के बीच के प्लेटो से Aho! Shrutgyanam Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेलुगु कनड़ी लिपि. घसीट है. 'ई की दो बिंदियों के बीच की खड़ी लकीर को नीचे से बाई ओर घुमा कर सिर तक ऊपर बढ़ाने से ही उक्त अक्षर का यह रूप बना है. 'व' (ऋग्वेद के 'व्ह' का स्थानापन्न ) पहिले पहिल इसी दानपत्र में मिलता है जिसके मध्य भाग में एक बड़ी लकीर जोड़ने से दक्षिण की लिपियों का 'र' बना हो ऐसा प्रतीत होता है. इस दानपत्र से दिये हुए अक्षरों के अंत में 'ळ', 'कह और '' अक्षर दिये हैं वे इस दानपत्र से नहीं हैं. 'ळ' और 'ळ्ह' पूर्वी चालुक्य राजा विजयादिव्य दूसरे के एडुरु के दानपत्र' से और '' उसी वंश के राजा अम्म (प्रथम) के मछलीपटन (मसुलिफ्टम्, मद्रास इहाने के कृष्णा जिले में ) के दानपत्र से है. लिपपत्र ४७ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर राष्ट्रकूटकुला माल गगन मृगलाइम: बुधजन मुखक मांशुमाली मनोहर गुण गणालंकारभारः कक्षराजनामधेयः तस्य पुत्रः स्ववंशाने कट संघात परंपराभ्युदय कारणः परमरिषि षि) ब्राह्मणभक्तितात्पर्य कुश ल: समस्त गुणगणाधिव्बोनी(?टानं) विख्यात लोक निरुपस्थिरभावनि (वि) जितारिमण्डल: यस्यैम (व) मासीत् ॥ जित्वा भूपारिवर्ग नायकुशलतया येन राज्यं लक्षं यः लिपिपत्र ४८ वां यह लिपिपन पूर्वी चालुक्यवंशी राजा भीम दूसरे ( ई. स. ६३४ से ६३५ तक ) के पागनदरम् के दानपर से और उसी वंश के अम्म दूसरे ( ई. स. ६४५ से ६७० तक ) के एक दानपत्र से तय्यार किया गया है. इन दोनों दानपत्रों की लिपि स्थिरहस्त और सुंदर है. लिपिपन्न ४८वें को मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर स्वस्ति श्रीमत सकलभुवन संस्तूया (य) मान मानव्यगी। गोवाणा (णां) हारीतिपुत्राणां कौशिकीवर प्र सादलब्धराराज्यानां माधु (तु) परिपालितानां स्वामि[महासेनपादानुध्यानानां भगवन्नारायणप्रसादम्मामादितवर राहलाच (छ) नेक्ष पक्षण व शौक्क लिपिपत्र ४८ वां यह लिपिपत पूर्वी चालुक्यवंशी राजा राजराज के कोरुमेषित से मिले हुए एक सं. ६४४ ( ई. स. १०२२ ) के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि घसीट है और इसके अ, आ, इ, ई, उ, स्व, ग, घ, ज, उ ड, ढ, त, थ, ध, न, य, य, र, ल और स वर्तमान कनड़ी या तेलुगु लिपि के उक्त अक्षरों से मिलते जुलते ही हैं. अक्षरों के सिर बहुधा V ऐसे बनाये हैं और अनुस्वार १.ऍ. जि. ५, पृ. १२० और १२२ के बीच के प्लेट की क्रमशः पंक्ति १२ और १० से. ९. ऍ. ई. जि. ५. पू. १३२ के पास के प्लेट की पंकि ३२. ४. ई. : जि. १३. पू. २४ और २४६ के बीच के प्लेटों से. *. ये मूल पंक्तियां भीम (दूसरे) के दानपत्र से. हैं. 65 ई. ऍ जि. १३, पृ. २१४ और २१५ के बीच के प्लेटों से. ई. ऍ; जि. १४. पू. ५० और ५३ के बीच के प्लेटों से. Aho! Shrutgyanam Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्राचीमलिपिमाला. को कहीं अक्षर की दाहिनी ओर ऊपर की तरफ़ और कहीं अक्षर के सामने मध्य में धरा है, इस दानपत्र से दिये हुए अक्षरों के अंत में जो अ, आ, व, र, ऊ, वा और उ अक्षर दिये हैं वे इस मानपत्र से नहीं है, उनमें से म, मा, ख और र ये चार महर जान्हवी(गंगावंशी राजा अरिवर्मन् के जाली दानपत्रासे लिये गये हैं. इस पुस्तक में जाली दानपत्रों से कोई लिरिपत्र नहीं बन गया परंतु उक्त अक्षरों के ऐसे रूप अन्यत्र नहीं मिलने और उनका जानना भी आवश्यक होने से ये यहां दिये गये हैं. बाकी के तीन अक्षरों में से 'ज' और 'खा' पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्द्धन पांचवें (कलिविष्णुबर्द्धन) के दानपन से और अंतिम 'उ' एहोले के नारायण के मंदिर के शिलालेख से लिया गया है. लिपिपत्र ४६ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर--- श्रीधामः पुरुषोत्तमस्य महतो नारा. यणस्य प्रभो भोपकरुहारभूम जगतस्मष्टा स्वयंभूलतः भरे माममसनुरनिरिति यः तस्मान्मुनेरचितस्सोमो वंशकर मर्धा शुरुदिन[:] श्रीकपट(एठ)एडामणिः । तस्मादासीत्सधामूळधो बध. नुतस्ततः (जा)तः पुरूरा नाम चक्रवती [ौं] स लिपिषत्र ५०वां. पह लिपिपत्र काकतीयवंशी राजा रुद्रदेव के शक सं. १०८४ (ई.स. १९५२) के अनंकोंरके शिलालेख' और उसी वंश के राजा गणपति के समय के शक सं. ११३५ (ई.स. १९१३) के मोल के शिलालेख से तय्यार किया गया है. अनंकोंड के लेख से मुख्य मुख्य अक्षर ही दिये गये हैं. इस लिपिपत्र में दिये हुए अक्षरों में से अ. भा...उ. सो, औ, ख, ग.च.छ.ज... है, ण, तप, धन, व, भ, म, य, र, ल, श और स वर्तमान कनड़ी या तेलुगु के उक्त अक्षरों से बहुत कुछ मिलते जुलते हैं. पेनोलू के लेग्न के 'श्री' में 'शी' बना कर उसके चौतरफ़ चतुरस्र साधना कर उस के अंत में प्रथि लगाई है. यह सारा चतुरस्रवाला अंश 'र'काही विलक्षण रूप है 'या' और 'स्थ में '8' और '५' का केवल नीचे का प्राधा हिस्सा ही पनाया है. बोलू के लेख के अक्षरों के अंत में ऋके तीन रूप और ऐ अक्षर अलग दिये हैं. उनमें से पहिला ''चालुक्य. बंशी राजा कार्तिधर्मन् (दूसरे) के यकलरी से मिले हुए शक सं. ६७४ (ई.सं.७५७) के दानपत्र' से, इसरा बनपल्ली से मिले हुए अन्नधम के शक सं. १.०० (११३०१) के दानपत्र से, और तीसरा 'पर' तथा 'ऐ'दोनों चालुक्यवंशी राजा पुलकोशिन् [प्रथम] के जाली दानपत्र" से लिये गये हैं. १. ई. एं; जि. पृ. ११९ और के बीच के प्लेटो ले. .. .; जि.१३, पृ. १८६और के ग्रीन कलर मे. . लिपिपत्र में दिये दुप अक्षरों के अंतिम मदर के ऊपर पलती से भागरीका अप गया है जो अशुद्ध उसके स्थान में पाठक'' पढ़ें ४. ई. जि.पू. ७५ के पास के प्लेट से. . ये मूल पंक्तियां राजगड (दूसरे के दाम है. ...। जि-११.१२और के बीच के प्लेटों से... .लि.५, पृ. १४६ र १७ के बीच के प्लेटों से. *. * ज.,.२०५ के पास के प्लेट - B, परि ६५ से. १. जि.प. के पास के पट : A, पाक १०. २१ जि.पू. के पास की घोडे,कमय पहिर Aho! Shrutgyanam Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ लिपि लिपिपत्र ५०चे की मल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर एषां वंशे रघुणां क्षितिपतिरभवजयश्शीर्य के लि(लि)स्फजखमा सतोप्रतिकरटिघटाशातनो बेसराजः । चके विकासबाहुस्तदनु व. सुमतीपालनं मोलभूपस्तत्पुत्रो रुद्रदेवस्तदपरि च सपोत्तंसरत्नं बभूव ॥ ततस्तत्सोद लिपिपत्र ५३ वा. यह लिपिपत्र दोनेडि से मिले हुए पीठापुरी के नामयनायक के शक सं. १२५६ (ई. स. १३३७ ) के दानपत्र, वनपल्ली से मिले हुए अन्नम के दानपत्र तथा कोंडवी से मिले हुए गाणदेव के शक सं. १३७७ के दानपत्र से तय्यार किया गया है. वनपल्ली और कोंडवीडु के दानपत्रों से मुख्य मुख्य अक्षर दिये गये हैं. दोनेडि के दानपत्र के क, प्र (ज्ञ में ), द, प, फ, व और हमें थोड़ा सा परिवर्तन होने से वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियों के वे ही अत्तर बने हैं. चे जो उलटे अर्धग्रस का सा चिह्न लगा है वह 'क'और 'पका अंतर बतलाने के लिये ही है. पहिले उसका स्थानापन्न चित्र 'फ' के भीतर दाहिनी ओर की बड़ी लकीर के साथ मटा रहता था ( देखो, लिपिपत्र ४८, ४६, ५०) और वर्तमान कनड़ी तथा तेलुगु लिपियों में उसका रूप शंकु जसी प्राकृति की बड़ी लकीर में बदल कर अक्षर के नीचे लगाया जाता है. अनुस्वार अक्षर के ऊपर नहीं किंतु आगे लगाया है. ई. स. की १४ वीं शताब्दी के पीछे भी इस लिपि में और थोड़ा सा अंतर पड़ कर वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियां बनी हैं. यह अंतर लिपिपत्र ८० में दी हुई लिपियों का लिपिपत्र ५१ से मिलान करने पर स्पष्ट होगा. लिपिपत्र ५१वें की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-- श्रोउम्युि)मामहेश्रराभ्यां न(न)मः । पायाछः करिवदनः कुलोतनिजदानस्तुताविवालिगणे । निमदशि मुहरपिधत्ते क(िगो) यः कन(ण)तालाभ्यां ॥ श्रीविष्णुरस्तु भवदिष्टफलप्रदा १४-ग्रंथ लिपि ई. स. की ७ वी शताब्दी मे (लिपिपत्र ५२ से ५६ ). इस लिपि का प्रचार मद्रास इहाते के उत्सरी व दक्षिणी प्रार्केट, सलेम, द्विचिनापली, मदुरा और निवेल्लि जिलों में तथा द्रावनकोर राज्य में ई.स की सातवीं शताब्दी के पास पास से , ये मूल पंक्तियां चबालू के लेख से हैं. १. ' जि.५, पृ. २६५ और २६७ के बीच के प्लेटों से. ०. .: जि. ३, पृ. ६२ और ६३ के बीच के प्लेटों से. . ई. जि. २०, पृ. ३६२ और ३६३ के बीच के प्लेटों से ५. ये मूल क्लियां नामरनायक के दोमेडि के दानपत्र से हैं. Aho ! Shrutgyanam Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. मिलता है और इसमें क्रमशः परिवर्तन होते होते वर्तमान ग्रंथ लिपि बनी (देखो, ऊपर पृ. ४३-४४ ). मद्रास इहासे के जिन हिस्सों में तामिळ लिपि का, जिसमें वर्णों की अपूर्णता के कारण संस्कृत ग्रंथ लिखे नहीं जा सकते, प्रचार है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इसी लिपि में लिखे जाते हैं इसीसे इसका नाम ' ग्रंथ लिपि' (संस्कृत ग्रंथों की लिपि ) पड़ा हो यह पल्लव, पांड्य, और चोल राजाओं, तथा चोलवंशियों का राज्य छीननेवाले वेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा राजेंद्र चोड़ के वंशजों, गंगावंशियों, बाणवंशियों, विजयनगर के यादवों आदि के शिलालेखों या ताम्रपत्रों में मिलती है. यह लिपि प्रारंभ में तेलुगु कनड़ी से बहुत कुछ मिलती हुई थी ( लिपिपत्र ५२ में दी हुई राजा राजसिंह के कांचीपुरम् के लेख की लिपि को लिपिपत्र ४३ में दी हुई पल्लववंशी विष्णुगोपवर्मन् के उरुपल्लि के दानपत्र की लिपि से मिला कर देखो ), परंतु पीछे से चलती कलम से लिखने तथा खड़ी और आड़ी लकीरों को वक्र या मदार रूप देने (देखो, ऊपर पृ. ८० ) और कहीं कहीं उनके प्रारंभ, बीच या अंत में ग्रंथि लगाने के कारण इसके रूपों में विलक्षणता बाती गई जिससे वर्तमान ग्रंथ लिपि वर्तमान तेलुगु और कनड़ी लिपियों से बिलकुल भिन्न हो गई. १० लिपिपत्र ५२ वां. यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा नरसिंहवर्मन् के समय के मामल्लपुरम् के छोटे छोटे ६ लेखों', उसी वंश के राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम् के कैलासनाथ नामक मंदिर के शिलालेख तथा कूरम से मिले हुए उसी वंश के राजा परमेश्वरवर्मन् के दानपत्र ' से तय्यार किया गया है नरसिंहवर्मन के लेखों में '' के तीन रूप मिलते हैं, राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम् के लेख के 'अ ं की बाई तरफ के गोलाईदार अंश को मूल अक्षर से मिला देने से 'अ' में ग्रंथि बन गई है. 'म' के उक्त तीन रूपों में से इसरा मुख्य है और उसीको त्वरा से लिखने से पहिला और तीसरा रूप बना है जिनमें ग्रंथि मध्य में लगाई है. विसर्ग के स्थानापन्न दोनों आड़ी लकीरों को एक खड़ी लकीर से जोड़ दिया है. राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम् के लेख के लिखनेवाले ने अपनी लेखनकला की निपुणता का खूब परिचय दिया है. 'अ' की खड़ी लकीर को दाहिनी ओर घुमा कर सिर तक ऊपर बढ़ा दिया है, 'आ' की मात्रा की खड़ी रेखा को सुंदर बनाने के लिये उसमें बिलक्षण घुमाव डाला है (देखो, डा, या, मा, ळा ) परमेश्वरवर्मन के क्रूरम के दानपत्र की लिपि स्वरा से लिखी हुई है उसमें 'ए' और 'ज के नीचे के भाग में ग्रंथि भी लगी है और अनुस्वार को अक्षर के ऊपर नहीं किंतु आगे धरा है. लिपिपल ५२ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर/ नरसिंहधर्म्मणः स्वयमिव भगवतो नृपतिरूपावती वर्णस्य नरसिंहस्य मुहुर वजित चोळ (ल) केरळ (ल) कळ (ल) भूपाण्यस्य सहस्त्रबाहोरिव समरशन निर्विष्टसहस्रबाहु - कर्म्मणः परिथळमणिमंगलशूर मारप्रभू सिर गविद श्शि ( शिर्श) १. ऍ. ई. जि. १०, पृ. ६ के पास का प्लेट, लेख संख्या २ १०. " हु, स. ई. ई जि. २, भाग २, प्लेट ६. 8. ये मूल पंक्तियां कुरम के दानपत्र से है. १ . सा. ई. ई; जि. २ भाग ११-२. Aho! Shrutgyanam Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंच शिधि. लिपिपत्र ५३ वां. यह लिपिपल मावलीपुरम् के अतिरणचंडेश्वर नामक गुफामंदिर के लेख', कशाकड़ि से मिल हुए पल्लव राजा मंदिवर्मन के दानपत्र और पांड्यवंशी राजा परांतक के समय के नारसिंगम के लेम्ब' से, जो गत कलियुग संवत् ३८७१ (ई.स. ७७०)का है, तय्यार किया गया है. नांदेवर्मन् के दामपत्र के अक्षरों में से इ, ख, ग, ज, न और व वर्तमान ग्रंथ लिपि के उक्त अक्षरों में कुछ कुछ मिलने हुए हैं लिपिपत्र की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर लंकाजयाधरिसरामपराक्रमश्रीस्वृत्ताश चकुलसंक्षयधूमकेतुः वातापिनिञ्जयविल डम्मितकुम्म जम्मा वौरस्तसोनि जयि यो) नरसिंहवर्मा । तस्मादजायत निजायसवाहुदण्डस्वचाशनी रिपिकलस्य महेन्द्रवर्मा यस्मात्प्रभाभृत्यलम लिपिपत्र ५४ वां. यह लिपिपत्र पल्लवमा राजा नंदिवर्मन् ( पल्लवमल्ल ) के उदय दिरम् के दानपत्र और गंगावंशी राजा पृथ्वीपति (दस) के बहीं के दानपत्र से तय्यार किया गया है. नंदिवर्मन् के दानपत्र के अक्षरों में से अ, इ, उ, ए, ख, ग, घ, च, ज. ठ. ड. ढ, ण, न, थ, ध, प, च, भ, म, य, व, प और स वर्तमान ग्रंथ लिपि से कुछ कुछ मिलते हुए हैं. लिपिपत्र ५४वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर-- श्रिी स्वस्ति सुमेरुगि[रिमूर्धनि प्रयायोगबबासनं जगत्र तोयविभूतये रविशशांकनेबद्दयमुमासहितमादरादयचन्द्रलमी(क्ष्मी प्रदम् दं) सदाशि. धमरवमामि शिरसा जटाधारिणम ॥ श्रीमान नेकरण विभुमिषु यसवाय राज्यप्रदः परहि लिपिपत्र ५५ घां यह लिपिपत्र राजा कुलोत्तुंगचोडदेव के चिदंयरम् के लेख, विक्रमचोड़ के समय के शेविलिमेह के लेख और बागवंशी राजा विक्रमादित्य दूसरे (विजयवाहु) के उदयेंदिग्म् के दानपत्र" से तय्यार किया गया है. इस लिपिपत्र में दिये हुए अक्षरों में से कई एक वर्तमान ग्रंथाक्षरों से मिलने जुलते हैं (इस लिपिपत्र को लिपिपन्न ८० में दी हुई वर्तमान ग्रंथ लिपि से मिला कर देखा ) *, ए..मि. २, पृ. १२ के पास के प्लेट से. .. सा.ई.ई: जि. २, भाम ३, प्लेट १३-१४, पनि १-११४ से . . कि.८, पृ. ३२० के पास का प्लेट, लेखसंख्या १ से. ४. ये मूल पंनियां कशाकृडि के दानपत्र से है. ५. ई. जि.स.पू. २७१ और २७६ के बीच के प्लेट, पंक्रि १-१.५ से. सा.. शि. १. भाग ३, प्लेट १६, पंक्ति १.७१ से.. • मूल पंक्तियां विधर्मन के उदयविरम् के दानपत्र से है. . . लि.५, पृ. १०४ के पास का प्लेट, हेख A से. . जि.६, पृ. २१८ के पास के प्लेट से. ... जि.३, पृ. ७६ भौर के बीच के फोटोसे. Aho! Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. लिपिपत्र ५५ वें की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांनर शिक्षौ)रोदम् मषितम् मनोभिरतुलम् (ल) देवासुरे दर्श हित्वाप्ति रामाद्रिरिव यस्तचाधिकम् (कं) राजते यो भोगि गोन्द्र निविष्टमूत्ति(सि) निशम् भूयो मतस्याये रखे []: सुर ) न्दवन्दितपत ( द ) बदम्बः स ( स ) लिपिपन ५६ व. यह लिvिer visयवंशी राजा सुंदरपांडेय के श्रीरंगम के लेख', भालंपुंडि से मिले हुए विजयनगर के यादव राजा विरूपाक्ष के शक सं. १३०५ ( ई. स. १३८३) के दानपत्र' और वहीं के श्रीगिरिभूपाल के शक सं. १३४६ ( ई. स. १४२४) के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इस लिपिपत्र में दिये हुए अक्षरों में से अ, आ, इ, उ, ऊ, ऋ, ए, ओ, क, ख, ग, घ, ङ, च, ज. ठ, ड, ए, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह और ळ वर्तमान ग्रंथ लिपि के उक्त अक्षरों से मिलते जुलते ही हैं. ई.स. की १४ वीं शताब्दी के पीछे थोड़ा सा और अंतर पड़ने पर वर्तमान ग्रंथ लिपि बनी. लिपिपत्र ५६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- हरिः ओम् स्वस्ति श्रीः येनासौ करुणामनीयत दशां श्रीरंगपत्मा (आ) कर कृत्वा तम् भुवनान्तरप्रणयिनं करणा १५ - कलिंग लिमि. ई. स. की ७वीं से ११ वीं शताब्दी तक ( लिपिपत्र ५७ से ५६. कलिंग लिपि मद्रास इहाते के चिकाकोल और गंजाम के बीच के प्रदेश में कलिंगनगर के गंगावंशी राजाओं के दानपत्रों में ई. स. की ७ वीं शताब्दी के आस पास से ११ वीं शताब्दी के आस पास तक मिलती है. इसका सब से पहिला दानपत्र, जो अब तक मिला है, पूर्वी गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन का गांगेय संवत् ८७ का है. उसकी लिपि में मध्यप्रदेशी लिपि का अनुकरण पाया जाता है क्योंकि अक्षरों के सिर संदूक की आकृति के भीतर से भरे हुए, हैं और कई अचर समकोण वाले हैं ( देखो, ऊपर पू. ४४ ) पिछले दानपत्रों में अक्षर समकोणवाले नहीं किंतु पश्चिमी एवं तेलुगु-कनड़ी लिपि की नई गोलाईदार मिलते हैं और उनमें तेलुगु कनड़ी के साथ साथ कुछ ग्रंथ तथा नागरी लिपि का मिश्रण भी पाया जाता है. • १. ये मूल पंक्तियां उददिरम के दानपत्र से है. ऍ. ई. जि. ३. पृ. १४ के पास के सेट से. पॅ.जि. ३, पृ. २२८ के पास के प्लेट ले. जि.पू. ३१२ और ३१२ के बीच के प्लेटोले W ये मूल पंक्तियां श्रीरंगम के लेख से हैं. Aho | Shrutgyanam Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंग लिपि. लिपिपत्र ५७ वां. यह लिपि पूर्वी गंगावंशी राजा इंद्रधर्मन के अध्युतपुरम् के दानपत्र, राजा इंद्रवर्मन् (दुसरे) के काकोल के दानपत्र और राजा देवेंद्रवर्मन् के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. अच्युतपुरम् के दानपत्र के अक्षरों के सिर मध्यप्रदेशी लिपि की नांई संदूक की आकृति के भीतर से भरे हुए, हैं और अ, ब, क, र आदि अक्षर समकोणवाले हैं. 'न' नागरी का सा है और बाकी के अचर मेलुगु कमड़ी से मिलते हुए हैं. चिकाकोल के दानपत्र के अक्षरों के भी सिर चौकडे, भीतर से भरे हुए हैं, और 'म' ग्रंथ लिपि की शैली का है. लिपिपत्र ५७ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर श्री स्वस्ति सर्व्वरमणीयाद्दिय कलिङ्गमगात्सकलभुवमनिर्माण कसूत्रधारस्य भगवतो गोकर्णस्वामिनञ्चरणकम लयुगल प्रणामादपगत कस्सिको विमयमयसम्पदामाधारः स्वासिधारापरिस्पन्दाधिगतस कैलक लिङ्गाधिराज्य तुरुदधितरङ्गमे खलावनितल प्रविततामलयशा: चमेकसम. लिपिपत्र ८. यह लिपिrs पूर्वी गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन् दुसरे ( अनंतन के पुत्र ) के गधि संवत् [२]५१० और २५४० के दो दानपत्रों से तय्यार किया गया है. पहिले दानपत्र के अक्षरों में 'अ' तीन प्रकार का है जिनमें से पहिले दो रूप नागरी हैं और तीसरा रूप मेलुगु- कनड़ी की शैली का है और लिपिपत्र ४६ में दिये हुए 'अ' के दूसरे रूप से मिलता हुआ है. उ, ए, ग ( पहिला ), ज (दुसरा), त (दूसरा ), द और न ( पहिला और दूसरा ) नागरी से मिलने हुए ही हैं. दूसरे ताम्रपत्र के अक्षरों में से अ, आ, इ, द, ध और घ नागरी के ही हैं. लिपिपत्र ५ वें की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर- स्वस्ति अमरपुरानुकारिता [:] सर्वतु (से) मुखरमयाविजयबत [:] कलिङ्गा(ज) नगराधिवासका [त्] महेन्द्रालामलशिखर प्रतिष्ठितस्य सचराचरगुरो[:] सक लभ्रुयर्मानिर्माकसू अधारस्य शशाङ्कचूडामणि() 43 १. ए. ई. जि. ३, पृ. १२० और २६६ के बीच के प्लेटों से. २. ई. ऍ जि. १३. पृ. १२२ और १२३ के बीच के प्लेटों से इस लिपिपत्र में चिकाकोल के दान का संवत् गांगद सं. १४६ कृपा है जिसको शुद्ध कर पाठक १४८ पढ़ें. ५. पं. इंजि. ३, प्र. १३९ और १३३ के बीच के प्लेटों से. ४. ये सूक्ष पंक्तियां राजा इंद्रवर्मन् के अच्युतपुरम् के दामपत्र से हैं. ४. ई. जि. १३. पू. २७४ और २७५ के बीच के सेटों से. 4. ७. ये मूल पंक्तियां देवेंद्रवर्मन के गांगेय संवत् [२]४१ के दानपत्र से है. Aho! Shrutgyanam जि. १८. पू. १४४ और १४५ के बीच के सेटों से. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचामलिपिमाला. लिपिपत्र ५६ वां. यह लिपिपत्र गंगावंशी राजा वजूहस्त के पाकिमेडी के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इस दानपत्र का लेग्वक उत्सरी और दक्षिणी शैली की भिन्न भिन्न लिपियों का ज्ञाता रहा हो और उसने इसमें अपने लिपिसंबंधी विशेष ज्ञान का परिचय देने के विचार से ही भिन्न भिन्न लिपियों का मिश्रण जान दूझ कर किया हो ऐसा अनुमान होना है. प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. कीलहॉर्न ने इस दानपत्र का संपादन करने समय इसके अक्षरों की गणना कर लिया है कि प्रायः ७.. अचरों में से ३२० नागरी में लिम्चे हैं और ४१० दक्षिणी लिपियों में प्राचीन लिपियों के सामान्य बोधवाले को भी इस लिपिपत्र के मूल अवरों को देखते ही स्पष्ट हो जायगा कि उनमें अ (पहिला), प्रा ( पहिला),ई, उ, ऋ, क ( पहिले नीन रूप), ग (पहिला), १ (पहिला), ज (पहिला), ह (इसरा), ए (पहिला), त ( पहिला), द ( पहिला व दसरा). न (पहिला), प (पहिला), भ (पहिला), म (पहिला), र (पहिला व दूसरा), ल (पहिला), व ( पहिला), श ( पहिला व इसरा), प (पहिला), स (पहिला) और ह (पहिला व दूसरा) नागरी के ही हैं. दक्षिणी शैली के अक्षरों में से अधिकतर तेलुगु-कनड़ी हैं और ग्रंथ लिपि के अक्षर कम हैं जैसे कि 'ग' ( पांचयां), ए (चौथा और पांचवां) और म (दुसरा). लिपिपत्र ५६वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर ओं म्बस्त्यभरपुरानुकारिणः सर्वर्तुसुखरमणौयाविजयवतः कलिका(ज)नगरवामकान्महेन्द्रासनामलशिखरप्रतिष्ठितस्य सचराचरगुरोस्सकलभुवननिर्माणकसधारस्य शशासाचूडामणेभगवतो गोकर्णस्वामि १६---सामिळ लिपि. ई. म की सातवीं शताब्दी से (लिपिपत्र ६०-६२) यह लिपि मद्रास के जिन हिस्सों में प्राचीन ग्रंथ लिपि प्रचलित थी वहां के तथा उलहाने के पश्चिमी तट अर्थात् मलबार प्रदेश के तामिल भाषा के लेखों में पल्लव, घोल, राजेन्द्रचोड आदि पूर्वी चालक्यवं राष्टकट आदि वंशों के शिलालेखों तथा दानपत्रों में एवं साधारण पुरुषों के लेखों में स. की सातवीं शताब्दी से मिलनी है इस लिपि में ' से 'श्री' तक के स्वर. और व्यंजनों में केवल क.ऊ, च, अट, प.ल.म, प, म, य र, ल, वन,ळू, र और म के चिह है. ग, ज, 'इ. द.प और श के उच्चारण भी । एं जि .३, पृ. २२२ और ०२३ के बीच के प्लेटो से. ..एं. जि. पू. २२० ३. अब तक जितने लेग्स प्राचीन तामिळ लिपि के मिले है उनमें 'श्री' अक्षर नहीं मिला परंतु संभव है कि जैसे के सिर की दाहिनी ओर नीचको भुकी हुई बड़ी लकीर लगा कर 7 यमाया जाता था (देखो, लिपिपत्र ६० में पल्लववंशी रात्र मंविधर्मन् केकशाकदि के दामपत्र के प्रज्ञरी में देखा ही चिस'मो' के साथ औरत होगा क्योकि वर्तमान तामिळ मे जो चिश'' बनाने में भाग लिया जाता है वही 'नौ' बनाने में 'मो'के भागे रक्सा आता है जो उस प्राचीन शिकारुपांतरही है. Aho 1 Shrutgyanam Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिळ लिपि तामिळ भाषा में मिलते हैं परंतु उन अक्षरों के लिये स्वतंत्र चित्र नहीं हैं. 'ग' की ध्वनि 'क' से, 'ज' और 'श की 'च' मे, 'द की 'त से और 'व' की 'प'से व्यक्त की जाती है जिसके लिये विशेष नियम मिलते हैं. संयक्त व्यंजन एक दूसरे से मिला कर नहीं किंत एक सरे के पास लिखे जाते है और कई लेग्बों में हलंत और सस्वर व्यंजन का भेद नहीं मिलता, तो भी कितने एक लेखों में संयुक्त व्यंजनों में से पहिले के ऊपर बिंदी, वक्र या तिरछी रेखा लगा कर हलंत को स्पष्ट कर जमलाया है. अनुस्वार का काम अनुनासिक वर्षों से ही लिया जाता है इस लिपि में पंजन वर्ण केवल १८ ही है जिनमें से चार (ळ,ळ,र और ण) को छोड़ देवेनो संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होनेवाले व्यंजनों में से तो केबल १४ ही रह जाने हैं. ऐसी दशा में संस्कृत शब्द इसमें लिखे नहीं जा सकते, इसलिये जब उनके लिखने की आवश्यकता होती है नब वे ग्रंथलिपि में ही लिखे जाते हैं. इसलिपि के अधिकतर अक्षर ग्रंथ लिपि में मिलते हुए ही हैं और ई, क. और र आदि अक्षर उत्सरी ग्रामी से लिये हों ऐसा प्रतीत होता है; क्योंकि उनकी बड़ी लकीरें सीधी ही है. नीचे के अंत से याई ओर मुड कर ऊपर को बड़ी हुई नहीं है, अन्य लिपियों की नाई इसमें भी समय के साथ परिवर्तन होते होते १० वीं शताब्दी के आस पास कितने एक और १४ वीं शताब्दी के पास पास अधिकतर अक्षर वर्तमान तामिळ से मिलने जुलते हो गये. फिर धोडासा और परिवर्तन होकर वर्तमान तामिळ लिपि बनी. लिपिपत्र से ५६ तक के प्रत्येक पत्र में पाठकों के अभ्यास के लिये मूल शिलालेखों या दानपत्रों से पंक्तियां दी हैं परंतु लिपिपत्र ३० से १४ तक के पांच लिपिपत्रों में वे नहीं दी गई, जिसका कारण यही है कि संस्कृतज्ञ लोग उनका एक भी शब्द समझ नहीं सकते उनको केवल वे ही लोग समझते हैं जिनकी मातृभाषा नामिक है या जिन्होंने उक्त भाषा का अध्ययन किया है तो भी बहुधा प्रत्येक शताब्दी के लेवादि से उनकी विस्तृत वर्णमालागं बना दी हैं जिनसे नामिळ जाननेवालों को उस लिपि के प्राचीन लेग्नादि पक्षने में सहायता मिल सकेगी. लिपिपत्र १० वां यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा परमेश्वरवर्मन के करम के दानपत्र तथा उसी वंश के राजा नंदिवर्मन् के कशाकूड़ि और उदयेंदिरम्' के दानपत्रों के अंत के तामिळ अंशों से तय्यार किया गया है. करम के दानपख के अचरों में से अ, आ, इ, उ, श्रो, च, ञ, ए, न, न, प, य और व (पहिला) ग्रंथ लिपि के उक्त अत्तरों की शैली के ही है. 'अ' और 'जा' में इतना ही अंतर है कि उन की खड़ी लकीरों को ऊपर की तरफ दोहराया नहीं है. इस अंतर को छोड़कर इस ताम्रपत्र के 'अ' और लिपिपत्र ५२ में दिये हुए मामल्लपुरम् के लेखों के 'अ' (इसर) में बहुम कुछ ममानता है. कट, र और व (दुसरा) उसरी शैली की ब्राह्मी लिपि से मिलने हुए हैं. कशाकडि के दानपत्र का 'अकरम के दानपत्र के 'अ' की ग्रंथि को लंबा करने से बना है. उदयदिरम के दानपत्र में हलंत और सस्वर व्यंजन में कोई भेद नहीं है. लिपिपत्रक यां यह लिपिपत्र पल्लवतिलकवंशी राजा इंतिवर्मन् के समय के निरुवेलर के लेख ', राष्ट्रकट १. हुसा . ई. जि. ३. भाग ३, सेट १२, पंक्ति ५७-८८ से. ..हु सा. जि. ३, मागवलेष्ट १४-५, पंक्ति १०५-१३३ से. ६ .५: जि.८, पृ. २७७ के पास के लेट की पति १०५-१० से, ४. प.ई: शि. ११, पृ. १५७ के पास के प्लेट से. Aho! Shrutgyanam Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. राजा करपारदेव (कृष्णराज तीसरे) के समय के तिरुकोवलूर' और वेल्लोर' के लेखों से तय्यार किया गया है. इसमें क.स. प. प. य और च में लिपिपत्र ६० से कुछ परिवर्तन पाया लिपिपत्र ६२ वां. यह लिपिपल राजेन्द्र चोल(प्रथम) के तिरुमले के चटान पर खुदे हए लेग्य : पगन (वर्मा में) से मिले हुए वैष्णव लेस्व', विजयनगर के राजा विरूपाक्ष के शोरेकावुर के शक सं. १:०० (ई. स. १६८७) के दानपत्र और महामंडलेश्वर पालककायम के शक सं. १४०६ (ई.स.१४८२) के जंबुकेश्वर के शिलालेख से तय्यार किया गया है. तिरुमले के चटान के लेख का ई उत्तरी शैली की ब्राह्मी का है क्योंकि उसकी दो बिंदियों के बीच की खड़ी लकीर का नीचे का अंश बाई भोर मुड़ कर ऊपर की तरफ बढ़ा हुआ नहीं है. यह ई प्रायः वैसा ही है जैसा कि मथुरा से ले हुए संवत् ७६ के लेख में मिलता है. और महाक्षत्रप ईश्वरदस के सिक्कों (लिपिपत्र १. और अमरावती के लेखों (लिपिपन्न १२) के ई से भिन्न है क्योंकि उनमें खड़ी लकीर का ीचे का अंश बाई ओर ऊपर को मुड़ा हुश्रा मिलता है. विरूपाक्ष के दानपत्र और वालककाम के लेख के अक्षरों में से अधिकतर वर्तमान नामिळ अक्षरों से मिलने जुलते हो गये है. १७-बट्टेलतु लिपि. की सातवीं शताब्दी के अन्त के आसपास से (सिपिपत्र ६३ से ६४). यह लिपि तामिळ लिपि का घसीट रूप ही है और इसके अक्षर पहुधा गोलाई लिये हुए या प्रथिदार होते हैं इसका प्रचार मद्रास इहाते के पश्चिमी तट तथा सब से दक्षिणी विभाग में ई.स. की ७वीं शताब्दी के अंत के भासपास से चोल, पांख्य आदि वहां के राजवंशों के शिलालेखों और दानपत्रों में मिलता है. कुछ समय से इसका व्यवहार बिलकुल उठ गया है. लिपिपत्र ६३ पां. या लिपिपत्र जटिलवर्मन् के समय के मामले के शिलालेख, उसी राजा के दानपत्र" और घरगुणपांडय के भंबासमुद्रम् के लेख से तयार किया गया है. मामले के लेस्व का 'अ' और 'श्री' करम के दामपत्र (सिपिपत्र ६०) के उक्त अक्षरों के कुछ विकृत और घसीट रूप हैं. मुख्य अंतर १. जि ७. पृ. १४४ के पास के लेट, लेखG से १.१. जि.४, पृ. ६२के पास के लेट से. .. '.:जि.स.प्र. २३२ के पास के लेट से. ५. प.ई.कि.७, पृ. १६४ के पास के सेट (सेखसंख्या २७) से. *. . ई: जि.८, पृ.३०२ और ३०३ के बीच के मेटों से. 4. सिपिपत्र ६२ में वाकलकामयप गया है जिसको शुश कर पाठक बालककायम पढे. .. . जि. ३, पृ.७२ के पास के पेट के नीचे के भाग से. ८. जि. २, पृ. ३२१ के पास के सेट चौधे में. इसी लेख की काप उसी जिल्द के पृ. २०४ के पास के क्षेत्र संख्या २०) में छपी है परंतु उसमे ६ स्पष्ट नहीं भायः. 1. जि. पृ. ३२० के पास के मेट, लेख दूसरे से..... :जि. २२, पृ.७०ौर के बीच के प्लेटो से. १५. जि. ३, पृ.१० के पास के प्लेट से. Aho! Shrutgyanam Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरोमी लि F यही है कि बाहर की ग्रंथि भीतर की ओर बनी है. '' करम के दानपत्र के के नीचे के अंश को भाई और न मोड़ कर दाहिनी ओर मोड़ने और घसीट लिखने में बना हो ऐसा प्रतीत होता है. उ और लिपिपत्र ९० में दिये हुए उक्त अचरों के प्राचीन तामिन्द्र (देखी लिपि ६२ ) का ३० में दिये हुए उ अथरों के दी अंधिवाले या कटात, म. प म प, र, ल, व, मीट रूप ही है जटिलमेन के दानपत्र का पसी रूप मात्र है. 'ए' और 'ओ लिपिपत्र घसीट रूप हैं लिपि यह लिपिपत्र मांळ्ळि से मिले हुए श्रीवल्लवगौड के कोल्लम ( कोलंब ) संवत् १४६ (ई. स. १७१ ) के दानपत्र', कोचीन से मिले हुए भास्कररविवर्मन के दानपत्र और कोटयम् से मिले हुए वीरराघव के दानपत्र से तरपार किया गया है. उसकी लिपि में लिपि ३३ की लिपि से जो कुछ अंतर पाया जाता है वह त्वरा से लिखे जाने के कारण ही समयानुसार हुआ है. कायम के दानपत्र में जो ई. स. की १४वीं शताब्दी के आसपास का माना जा सकता है, 'ए' और 'ओ' के दीर्घ और दूस्व रूप मिलते हैं वर्तमान कनही, तेलगु, मलयाळम् और तामिळ लिपियों में भी 'ए' और 'ओ' के दो दो रूप अर्थात् ह और दीर्घ मिलते हैं, परंतु १४वीं शताब्दी के आसपास तक के तेलुगु कनड़ी, ग्रंथ और तामिळ लिपियों के लेखों में यह भेद नहीं मिलता; पहिले पहिल यह वीरराघव के दानपत्र में ही पाया जाता है. अतएव संभव है कि इस भेद का है. स. की १४ वीं शताब्दी के आसपास तामिळ लिपि में प्रारंभ हो कर दूसरी लिपियों में उसका अनुकरण पीछे से हुआ हो. नागरी लिपि में 'ए और ओ में स्व और दीर्घ का भेद नहीं है इस लिये हमने 'ए' और 'ओ' के ऊपर आड़ी लकीर लगा कर उनको दीर्घ 'ए' और दीर्घ 'ओ' के सूचक बनाया है. • १८ - खरोष्ठी लिपि. ई. स. पूर्व की चौथी शताब्दी स है स की तीसरी शताब्दी तक ६५ से ७० ). 1 G% स्वरोष्ठी लिपि आये लिपि नहीं, किंतु अनार्य (सेमिटिक) अease fafe में निकली हुई प्रतीत होती है (देखो, ऊपर पृ ३४-३१) जैसे मुसलमानों के राज्यसमय में ईरान की फ़ारसी लिपि का हिंदुस्तान में प्रवेश हुआ और उसमें कुछ अदर और मिलाने से हिंदी भाषा के मामूली पड़े लोगों के लिये काम चलाऊ उर्दू लिपि बनी वैसे ही जब ईरानियों का अधिकार पंजाब के कुछ अं पर हुआ तब उनकी राजकीय लिपि अरम का वहां प्रवेश हुआ, परंतु उसमें केवल २२ अक्षर, जो आर्य भाषाओं के केवल १८ उच्चारणों को व्यक्त कर सकते थे, होने तथा स्वरों में स्व टी काभेद और स्वरों की मात्राओं के न होने के कारण यहां के विद्वानों में से खगेन्द्र या किसी और ने ९. ऍ. ई. जि. ६. पू. २३६ के पास के प्लेट से. ९. ऍ. ई : जि.ए. पू. ७२ के पास के प्लेट के ऊपरी अंश से..ई: जि. ४. पृ. २६६ के पास के प्लेट सं. Aho! Shrutgyanam Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. नये अक्षरों तथा हस्व स्वरों की मात्राभों की योजना कर मामूली पड़े हुए लोगों के लिये, जिनको शुद्धाशुद्ध की विशेष मावश्यकता नहीं रहती थी, काम चलाऊ लिपि बना दी ( देखो, ऊपर पू. ३५.३३ ). यह लिपि फारसी की नाई दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती है और आ. ई, ऊ, ऋ, ऐ और श्री स्वर तथा उनकी मात्राओं का इसमें सर्वथा अभाव है. संयुक्त व्यंजन भी बहुत कम मिलते हैं, जिनमें भी कितने एक में तो उनके घटक व्यंजनों के अलग अलग रूप स्पष्ट नहीं होते किंतु उनका एक विलक्षण ही रूप मिलता है, जिससे कितने एक संयुक्त व्यंजनों का पढ़ना अभी तक संशययुक्त ही है. इसके लेख भारतवर्ष में विशेष कर पंजाब से ही मिले हैं अन्यल बहुत कम. यह लिपि ईरानियों के राजस्वकाल के कितने एक चांदी के मोटे और भद्दे सिकों, मौर्यवंशी राजा अशोक के शहयाज़गड़ी और मान्सेरा के घटानों पर खुदे हुए लेखों, एवं शक, क्षत्रप, पार्थिमन् और कुरानवंशी राजाओं के समय के बौद्ध लेखों और माकट्रिअन् ग्रीक, शक, क्षत्रप, पार्थिअन्, कुशन, औदुंबर आदि राजवंशों के कितने एक सिकों पर या भोजपलों पर लिखे हए प्राकृत पुस्तकों में मिलती है. लिपि के शिलाओं आदि पर खुदे हुए लेखों की, जो अब तक मिले हैं, संख्या बहुत कम है. ई.स. की तीसरी शताब्दी के पास पास तक इस लिपि का कुछ न कुछ प्रचार पंजाब की मरफ बना रहा जिसके बाद यह इस देश से सदा के लिये उठ गई और इसका स्थान प्रात्मी ने ले लिया ( विशेष वृत्तान्त के लिये देखो, ऊपर पृ. ३१-३७). लिपिपत्र ६५ वा. यह लिपिपत्र मौर्यवंशी राजा अशोक के शहबाजगदी और मान्सेरा के लेखों से तय्यार किया गया है. उक्त लेखों से दिघे हुए अक्षरों में सब स्वर 'अ' के साथ स्वरों की मात्रा लगा कर ही पनाये हैं और कितने एक अक्षरों की बाई भोर भुकी हई रवड़ी लकीर के नीचे के अंत को मोड़ कर कुछ ऊपर की ओर बढ़ाया है। देखो, 'म' (तीसरा), 'ख' (दूसरा), 'ग(दूसरा), 'च (तीसरा), ' (दुसरा), 'म' (पौधा), 'प(दूसरा), 'फ' (दसरा), 'ब(तीसरा), 'र' (तीसरा), 'व' (दूसरा), और'श'(सरा). "ज' (सरे) की खड़ी लकीर के नीचे एक भाड़ी लकीर मोर जोड़ी है. 'म' (चौथे) को बाई मोर अपूर्ण वृत्त और 'म' (पांचवें) के नीचे के भाग में तिरछी लकीर अधिक लगाई है. 'र' (दूसरे) की तिरछी खड़ी लकीर के नीचे के अंत से दाहिनी ओर एक माड़ी लकीर' और लगाई है. यह लकीर संयुक्ताक्षर में दूसरे आनेवाले 'र' का धिक है परंतु उक्त लेखों में कहीं कहीं यह लकीर विना मावश्यकता के भी लगी हुई मिलती है और वर्डक से मिले हुए पीतल के पात्र पर के लेख में तो इसकी भरमार पाई जाती है जो उक्त लेखों के लेखकों का शुद्ध लिखना न जानना प्रकट करती है. इन लेखों में 'इ की मात्रा एक खड़ी या तिरछी १. खरोष्ठी लिपि के लेखो के लिये देखो ऊपर पृष्ठ ३२, टिप्पण , और पृष्ठ ३३, टिप्पण १.२. २. ऍ. जि. १, पृ. १६ के पास का प्लेट. ज.एई.स. १८९० में छपे हुए प्रसिश फ्रेंच विज्ञान सेनार्ट के नोट्स् डी पेपिनाफे इंडियने (संल्पा)नामक लेख के अंत के मान्मेरा के लेखों के २ सेट : और 'डाइरेक्टर जनरल प्रॉफ आर्किमालॉजी इन डिमाके मेजे हुए अशोक के शहबाज़गढ़ी के लेखो के फोटो से, । . जि.२, पृ.१६ के पास के सेट की पंक्ति में 'देवनं प्रियो प्रियदशि रय में 'रय के 'र' के नीचे 'र' की सूचक जो प्रादी लकीर लगी है यह बिलकुल स्पष्ट है. यहां पर के साथ दूसरा रा ही नहीं सकता. ऐसी दशा में दस लकीर को या तोर'का अंशही या निरर्थक मानना पड़ता है. अशोक के उललेखों में ऐसी ही 'र' सूचक निरर्थक लकीरें अन्यत्र जहाँ 'र' की संभावना नहीं है वहां भी लगी हुई मिलती है (जैसे कि उक्त पहिली पंक्ति में 'सनमामि' भैप'के साथ, जहां 'पर' (पा) शब्द मैं 'र'का सर्पधा प्रभाव है, आदि). ५. अब तक राजपूताना के कई महाजन लोग जिनको अक्षरों काही मान होता है और जो संयुक्ताक्षर तथा स्वरोकी माधाओं का शुर लिखना नहीं जानते, अपनी लिखावट में ऐसी माशियां करने के अतिरिक्त स्वरों की मात्राएं या तो Aho ! Shrutgyanam Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरोष्ठी लिपि. लकीर है जो प्रचर के ऊपर के भाग या मध्य को काटती हुई लगती है (देखो, ६, कि, स्त्रि, चि, शि, हि.णि. ति, मि. शि और सि). 'उ' की मात्रा सीधी आड़ी या घुमावदार लकीर है जो अचर के नीचे के अंत (या कभी कुछ ऊंचे) से बाई ओर जुड़ती है (देखो, उ, गु, बु, तु, धु, नु, यु, और हु). 'ए' की माला एक तिरछी या खड़ी लकीर है जो बहुधा अचर के ऊपर के भाम के साथ और कभी कभी मध्य में ऊपर की तरफ जुड़ती है (देखो, ए,जे, ते, ने, दे.ये और षे) 'भो' की मात्रा एक तिरछी रेखा है जो बहुधा अक्षर के मध्य से बाई ओर को झुकती हुई लगती है (देखो, ओ, थो, नो, मो और सो, परंतु 'यो' में उसका झुकाव दाहिनी ओर है), अनुस्वार का चिझ एक माड़ी सीधी या वक्र रेखा है जो बहुधा अक्षर के अंत भाग से सटी रहती है (देखो. अ, धं, रं, और पं) परंतु कभी कभी अक्षर की खड़ी लकीर के अंत से कुछ ऊपर उक्त खड़ी लकीर को काटती हई भी लगती है (देखो, त्रं, नं और हं). 'म' (प्रथम) के साथ का अनुस्वार का चिक 'म' से विलग नीचे को लगा है, 'म (दूसरे) में दाहिनी ओर भिन्न रूप में जुड़ा है और यं के साथ उसके दो विभाग करके 'य' की नीचे को झुकी हुई दोनों तिरछी रेखाओं के अंतों में एक एक जोड़ा है. इन लेखों में रेफ कहीं नहीं है. रेफ को या तो संयुक्ताक्षर का दसरा अक्षर बनाया है (जैसे कि 'सर्व को 'सन) या उसको पूर्व के अक्षर के नीचे 'र' के रूप से जोड़ा है (प्रियदशी' को 'प्रियदशि', 'धर्म' को 'भ्रम आदि). संयक्ताचर में दसरे 'र' के लिये एक भाड़ी, तिरछी या कुछ गोलाईदार लकीर है जो व्यंजन के नीचे के अंत के साथ दाहिनी ओर जुड़ती है, परंतु कहीं कहीं पर का योग न होने पर भी ऐसी लकीर अधिक जुड़ी हुई मिलती है जिससे यह संदेह रह जाता है कि कहां यह अनावश्यक है और कहां ठीक है ('प्रियद्राशि पढ़ें या पियदशि'; 'सत्रप्रपंडनिया 'सवपषंडनिश्रादि). संयताधिरों में कहीं कहीं भिक वणों के रूप स्पष्ट नहीं हैं (देखो, स्त्रि). लिपिपत्र ६५ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर देवनं प्रियो प्रियदशि रय समाप)पंडनि अनि च पुजेति दनेन विविधये च पुजये नी घुसथदन व पुत्र व देवनं प्रियो मजति यथ किति सलवढि सिय सबप्रापघंडनं मलवढि तु लिपिपत्र ६६ घा. यह लिपिपत्र ग्रीक (यूनानी), शक. पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के सिको' से नय्यार किया गया है. ग्रीकों के सिक्कों से लिये हुए अक्षरों में कहीं कहीं 'त', 'द और 'न' में स्पष्ट बिलकुल नहीं लगाते अथवा बिना किसी विचार के उनका प्रयोग करते हैं अर्थात् जहां मात्रा की भावश्यकता नहीं होती वहां कोई भी मात्रा लगा देते है और जहां मात्रा की अपेक्षा रहनी है वहां उसे या नो छोर जान हैं या अशुद्ध मात्रा लगा देते हैं. एसी लिखावटों के अक्षरों को राजपूतानावाले कवळा अक्षर (केवल अक्षर संकेत) कहते है और पुरानी महाजनी लिस्वाद विशेष कर पेसी ही मिलती है. ऐसी लिखावटों से ही 'काकाजी अजमेर गया' (ककज अजमर गय) के स्थान में काकाजी माज मर गया' पढ़े जाने की कथा प्रसित है. १. देलो, ऊपर पृष्ठ ६८ टिप्पण .. ये मूल पंक्तियां अशोक के शहबाज़गढ़ी के लेख से हैं (ई.ई: जि. १ पृष्ट १६ के पास के प्लेट से). १. प्रीको (यूनानियों के सिक्के-गा . कॉ. श्री सी. कि. पा. : मेट ४-१५. मिः : कें. कॉ..म्यु: प्लेट ५.६. बहाः कॅ. कॉ. पं. म्यु; प्लेट १.६. शक, पार्थिअन् और कुशनचांशयों के सिक-गा: कॅ. कॉ. पी.सी. किं. वा.ई: प्लेट १६-२३५ सि . का.. म्यु: प्लेट ८-८. व्हा . कॉ. पं. म्यु : प्लेट १०-१७. Aho ! Shrutgyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्राचीनलिपिमाला अंतर नहीं है(देखो, 'त का चौथा रूप, 'द का दूसरा रूप और 'न' का तीसरा रूप ). कहीं कहीं 'म' के नीचे आडी लकीर या बिंदी और 'ह' के नीचे भी विंटी लगी मिलती है 'खें के साथ के रेफ को अचर के नीचे लगाया है परंतु उसको ग्रंथि का सा रूप देकर मंयुक्ताक्षर में आनेवाले दूसरे से भिन्न बतलाने का यत्न पाया जाता है और शक, पार्थिअन आदि के सिबों में यह भेद अधिक स्पष्ट किया हया मिलता है (देखो 4), शक पार्थिन प्रादि के सिकों से जो मुख्य मुख्य अक्षर ही लिये गये हैं उनमें कई अक्षरों की लकीरों के प्रारंम या अंत में अंथियां लगाई हैं के संभव है कि, अक्षरों में सुंदरता लाने के लिये ही हों. 'फ की ऊपर की दाहिनी ओर की लकीर नीचे की ओर नहीं किंतु ऊपर की तरफ बढ़ाई है. लिपिपन्न ६६वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांमर महरजम प्रमिकस हेलिययस. महरजस प्रमिकम जयपरस अर्खेबियस. महरजम बतरस मेमद्रस. महरजम अपडितस फिलसिनस. महरजस पत्तरस जयंसस हिपुस्वतस. मदरअस चतरस हेरमयम रजतिरजस महतस मोअस. महरजस रजरजस महतस अयस. महरजस रबरजस महतस अयिखिषस. लिपिपत्र ६७ यां. यह लिपिपत्र दाप राजुल के समय के मथुरा से मिले हुए सिंहाकृतिवाले स्तंभसिरे के लेखों, तक्षशिला से मिले हुए क्षत्रप पतिक के तानलेव' और वहीं से मिले हुए एक पत्थर के पानपर के लेख से तय्यार किया गया है. इस लिपिपत्र के अक्षरों में 'उ की मात्रा का रूप प्रथि बनाया है और 'न' तथा 'ए' में बहधा स्पष्ट अंतर नहीं पाया जाता. मथुरा के लेबों में कहीं कहीं 'त , 'न' तथा 'र' में भी स्पष्ट अंतर नहीं है. लिपिपल ३७वे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिरिसेम सिहरबिनेन च भतरेहि सखशिखर अयं युवो प्रलियवितो सबबुधन पुयर' तखशिलये मगरे उतरेड प्रचु देशो लेम नम अत्र 'शे पतिको अप्रतिठवित । मूल पंक्तियां प्रीक भादि राजाओं के सिकों पर के लेलों से हैं. ३. ए.ई.: जि. ६. पृष्ठ १३६ और १४६ के बीच के सेटों से. ..... जि.५, पृष्ठ ४६ के पास के लेट से. इस ताम्रलेख में अक्षर रेखारूप में नहीं सुदे है किंतु विदियो से बनाये हैं. राजपूताने में ई. स. की १४ वी शताब्दी के बाद के कुछ ताम्रपत्र ऐसे ही बिदियों से खुदे हुए भी देखने * माये जिनमें से सब से पिछला २० वर्ष पहिले का है. की तांबे और पीतल के बरतनों पर उनके मालिको के नाम इसी नर्विदियों से खरे हुए भी देखने पाते हैं. ताम्रपत्रादि तुधा सुनार या लुहार खोदते हैं. उनमें जो अच्छे कारीगर होते है सोजैसे अन्दर स्याही से लिखे होते है वैसे ही खोद लेते हैं परंतु जो अच्छे कारीगर नहीं होते या शमीण होते है ये ही बहुधा स्याही से खिले हुए अक्षरों पर विदियां बना देते हैं. यह त्रुटि खोदनेवाले की कारीगरी की ही है. ४. पॅ. जि. पृष्ट २६६ के पास के लेट से. ५. 'सिविखेन' से लगाकर 'पुयए' तक के लेख में तीन बार 'ण' या 'न' आया है जिसको दोनों ही सरह पद असते . स्पोकि उस समय के मासपास के खरोष्ठी लिपि के कितने एक लेखों में 'ग' और 'य'मे स्पष्ट मेव नहीं पाया जाता. .. महां तकका लेख तक्षशिला के पत्थर के पात्र से है. .. वहां से तमाकर अंत तक का लेस तक्षशिला से मिले हुए ताम्रलेख से लिया है. Aho! Shrutgyanam Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरोर्ड लिपि लिपिपत्र ६८. यत् लिपिपन्द्र पार्थिवंशी राजा गंडोफरस के समय के तख्त-द-वाही के शिलालेख, कुरानवंशी राजा कfeos के समय के सुपविहार ( बहावलपुर राज्य में ) के ताम्रलेख, शाहजी की ढेरी ( कनिष्क बिहार ) के स्तृप से मिले हुए कांसे के पात्र पर के राजा कनिष्क के समय के तीन लेखों और भेडा के शिला लेख मे तप्यार किया गया है. सुरविहार के ताम्रलेख में 'य' और 'स्प के नीचे का संधिदार अंश 'य' का सूचक है. 3 लिपिपत्र ६८वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर महरजस्य रजतिरस्य देवपुत्रस्य कनिष्कस्य संवत्सरे एकद मे मं १०१ सिकस्य ममस्य दिवसे चठविशे दि २० ४ ४° उन दि से भिवस्य नगदतस्य संखके (?) टिस्य चर्यदमवतशिष्यस्य चर्यभवप्रशिष्यस्य यटिं श्ररोपयतो इह दमने विरस्वमिनि लिपिपत्र ६६ वां यह लिपिपत्र वर्हक से मिले हुए पीतल के पात्र पर खुदे हुए कुरानवंशी राजा हुबिधक के समय के लेख, कुशनवंशी वाष्प के पुत्र कनिष्क के समय के धारा के लेख" और पाजा तथा कलदरा के शिलालेखों से तप्यार किया गया है. वक के पाम्रपर का लेख बिंदियों से खुदा है और उसमें कई जगह अन्तरों के नीचे के भाग से दाहिनी ओर र सूचक आड़ी लकीर निरर्थक लगी है, जैसे कि भगवद" (भगवद-भगवत् ), अग्रभग्न (अग्रभाग- अग्रभाग), नतिय १०१ १. अ. ए. ई. स. १८६०. भाग १, पृ. ११६ और मेट ( देखो, ऊपर पृ. ३२, टिप्पण १ ). ९. ई. एँ. जि. १०. पू. ३२५ के पास के प्लेट से श्र. स. रि.ई. स. १६०६-१०, प्लेट ५३. ये लेख भी बिंदियों से खुदे हैं. ४. ज. ए: ई. स. १८६०, भाग १. पृ. १३६ और प्लेट. 1. पंडित भगवानलाल इंद्रजी ने इनको 'ष' और 'स्स' पढ़ा है (ई. फॅ जि. ११. पू. १२८ ) परंतु इनको ' और स्य पढ़ना ही ठीक होगा यह वृतांत लिखते समय मेरे पास एक गुप्तलिपि के शकृत लेख की बाप आई जिसमें 'खन्दसे ठिस्य' स्पष्ट है. संस्कृतमिश्रित प्राकृत लेखों में 'स्स' के स्थान में 'य' बिसकि-प्रत्यय का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. . ११.. २१० और २११ के बीच के प्लेटों से 4. ये सुल पंक्तियां सुपविहार के ताम्रलेख से हैं. . १०१ = १०+१=११. २०४४ = २०+४+४=२८. ८ ११. ई. ऍ; जि. ३७, पृ. ५म के पास का प्लेट, लेख दूसरा ११० ई. ऍ, जि. ३७. पू. ६४ के पास का प्लेट, लेख दूसरा १२. ई. ऍ जि. ३७. पृ. ६६ के पास का प्लेट, लेख पहिला. १६. भारतवर्ष की किसी प्राचीन प्राकृत भाषा में 'भगवत्' का 'भगवद' और 'अग्रभाग' का 'अभन्न रूप नहीं शेता. ऐसी दशा में जैसे अशोक के खरोष्टी लेखों में 'रथ' (देखो, ऊपर पृ. ६६ ) के 'र' के नीचे ऐसी ही लकीर लगी है वहा रे किसी तरह पढ़ा नहीं जा सकता बैसे ही भगवद' और 'अग्रभम' आदि पढ़ना अशुद्ध ही है. अशोक के लेखों में (देखा, लिपिपत्र ६५ ) जैसे 'ज' ( दूसरे ), और 'म' ( बौधे ), तथा श्रीकों के सिक्कों में ( लिपिपत्र ६६ ) ज ( पांच ठे सातवें) त ( दूसरे, तीसरे और चौथे), 'न' ( पहिले व दूसरे ), 'म' ( पहिले) और 'स' पहिले) के नीचे दोनों तरफ निकली हुई बाड़ी लकीरें बिना किसी श्राशय के लगी मिलती हैं वैसे ही इस लेख में इस लकीर का होना समय है, जो कसम को उठा कर दोनों तरफ निकली हुई न बना कर चलती कलम से दाहिनी ओर ही बना दी जान पडती है. इसलिये इस रेखा को पूरे 'ग' का अंश ही मानना चाहिये ऐसे हो 'मि' के साथ ऐसी लकीर कहीं कहीं निरर्थक लगी है जहां उसको या तो 'मि' का श्रंश ही मानना चाहिये अथवा उसको 'भिम' पढ़ना चाहिये. जहां 'र' की संभावना हो वहीं पढ़ना चाहिये. ; Aho! Shrutgyanam 2 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमासा. (नतिग-ज्ञातिक), भवन (भवगम्भावक), संभतिग्रन ( संभतिगन ) मादि में. इस लेख में कितने एक अक्षर ऐसे हैं जिनका एक से अधिक तरह पढ़ा जाना संभव है. उनपर एक से अधिक अक्षर लगाये हैं. 'मु में 'म का रूप खड़ी लकीर सा बन गया है. कहीं कही 'स' और 'र', तथा 'य और 'श' में स्पष्ट अंतर नहीं है और 'न' तथा 'ण' में भेद नहीं है चाहे सो पड़ लो. लिपिपत्र ६६ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर इमेन कुशलमुलेन महरजरजतिरजहोवेकस्य अग्रभगए ' भवतु . मदपिदर मै पुयर भवतु भदर मे इष्टममरेगस्य पुयर भवतु शोथ मे भुय मनिगमित्र संमसिगन पुयए भवतु महिश च वग्रमरेगस्य अग्रभगुपडियश भवतु सर्वसत्वम लिपिपत्र ७० वा. यह लिपिपत्र तक्षशिला से मिले हुए रौप्यपत्र के लेख, तहजंग', कनिहारा' और पथियार' के शिलालेखों तथा चारसहा से मिले हुए तीन लेखों से, जिनमें से दो मिट्टी के पात्रों पर स्याही से लिखे हुए हैं और तीसरा एक मूर्ति के नीचे खुदा है, तय्यार किया गया ई. तक्षशिला के रौप्यपत्र पर का लेख बिंदियों से खदा है. लिपिपल ७०वें की मूल पंक्तियों का मागरी अक्षरांतर स १..२.१.४३ पयस अषडस मसस दिवसे १०४१"श दिवसे प्रदिस्तवित भगवतो धतुबो उरकेन खोतफ्रिअपुषन बहलिरन नोचचर नगरे वस्तबेन तेन इमे प्रदिलवित भगवतो धतुषो धमरउर तशि[स]र तनुवर बोधिसत्वगामि महरजस रजसिरजस १. ये मूल पंक्तियां बर्डक के पात्र के लेख से हैं. १. इन मूल पंक्तियों में जिन जिन अक्षरों के नीच 'र' की सूचक माड़ी लकीर निरर्थक लगी है उसके स्थान में हमने र' नहीं यदा परंतु जिन अक्षरों के नीचे बह खगी है उनके नीचे...ऐसा दिखगा दिया है. .. अ. रॉ. ए. सो; ई. स. १६१५, पृ. २१२ के पास के मेट से. .. ज. प. स. १८६० भाग १, पृ. १३० और प्लेट. . .: जि.७ पृ. ११८ के पास के लेट से. • मा. स.रि स. १९०२-३, पृ. १८३. लेख A और C. .. मा. स.रि ई.स.१७०३-४, प्लेट ६७, मूर्ति प्रथम के नीचे २. ये मूल पंक्तियां तक्षशिला से मिले दुप रौप्यपत्र के खेल से . अर्थात् १६. .. अर्थात् १५. Aho ! Shrutgyanam Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९-मामी और उससे निकली हुई लिपियों के अंक. (लिपिपत्र ७५ से ७६ के उत्तराई के प्रथम खंड तक) प्राचीन शिलालेखों, दानपत्रों, सिको तथा हस्तलिखित पुस्तकों के देखने से पाया जाता है कि लिपियों की तरह प्राचीन और पर्याचीन अंकों में भी अंतर है. यह अंतर केवल उनकी प्राकृति में ही नहीं किंतु अंकों के लिखने की रीति में भी है. वर्तमान समय में जैसे १ से नक अंक और शून्य इन १. चिो से अंकविया का संपूर्ण व्यवहार चलता है वैसे प्राचीन काल में नहीं था. उस समय शून्य का व्यवहार ही न था और दहाइयों, सैंकड़े, इजार आदि के लिये भी अलग मिकथे. अंकों के संबंध में इस शैली को 'प्राचीन शैली और जिसमें शून्य का व्यवहार है उसको 'नवीन शैली' कहेंगे प्राचीन शैली के अंक प्राचीन शैली में १ से हतक के अंकों के चिक; १०, २०, ३०,४०, ५०, ६०, ७०,८०और है.इन : दहाइयों के लिये अलग चिक; और १०० तथा १००० के लिये एक एक अलग चिक नियन था (देखो. लिपिपत्र ७१ से ७५ के पूर्वार्द्ध के प्रथम खंड तक में). इन २०चिकी से ERREE नक की संख्या लिरवी जा सकती थी. लास्व, करोड़, अरब आदि के लिये जो चिक थे उनका पता अब तक नहीं लगा क्योंकि शिलालेख अथवा दानपत्रों में लाख पा उसके आगे का कोई चिक्र नहीं मिला. इन अंकों के लिखने का क्रम १ से १ तक तो वैसा ही था जैसा कि अब है. १. के लिये नबीन शैली के अंकों की नई और नहीं किंतु एक नियत चिज ही लिखा जाता था। ऐसे ही २०, ३०, ४०, ५०, ६०.७०,८०,१०, १०० और १००० के लिये भी अपना अपना चिक मात्र लिखा जाता था (देखो, लिपिपत्र ७१ से ७५ के पूर्वार्द्ध के प्रथम खंड तक में). ११ से १६ क लिम्बने का क्रम ऐसा था कि पहिले दहाई का अंक लिख कर उसके भागे काई का अंक रक्खा जाता था, जैसे कि १५ के लिये १० का चिक लिस्व उसके आगे ५; ३३ के लिये ३० और ३; ६३ के लिये ६० तथा ३, इत्यादि (देखो, लिपिपत्र ७५ में मिश्र अंक). १. प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. सर ओरल स्टान मे अगाध परिश्रम के साथ तुर्कस्तान से जो अमूल्य प्राचीन सामग्री प्राप्त की है उसमें कुछ खरड़े ऐसे भी हैं जिन पर भारतवर्ष की गुतलिपि से निकली हुई तुर्कस्तान की ई. स. की छठी शताब्दी के मासपास की आर्य लिपि में स्वर, म्यंजन, स्वरों की १२ मात्राओं ( और ल ल को छोड़ कर) की पारबडी (द्वादशाक्षरी) तथा किसी में प्राचीन शैली के अंक भी दिये हुए हैं (ज. रॉ. ए. सो।.स. १६११, पृ. ४५२ और ४५८ के बीच के प्लेट १ से ४ तक), एक खर में १ से २००० तक के वहां के प्रचलित प्राचीन शैली के विक्री के पीछे वो और चित्र ★ ऐसे हैं (ज. रों. ए. सो ई.स. १८११. पृ. ४५५) जिनको प्रसिद्ध विद्वान डॉ. होर्नले ने कमशः १०००० र १००००० लिमामा है, परंतु हमको उन चिशा को १०००० और १००००० के सूचक मामले में शंका की है. संभव है कि इनमें से पहिला चिळ १००000 का सूचक हो और दूसरा केवल समाप्ति (विराम) का चिश हो. उसको अंच सक विक मानमा संदिग्ध ही है. Aho! Shrutgyanam Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. २०० के लिये १००का मित्र लिख उसकी दाहिनी मोर, कभी ऊपर कभी मध्य और कभी नीचे की तरफ़ाडी (सीधी. तिरछी या वक) रेखा जोड़ी जाती थी'३०० के लिये १०० के चित्र के साथ वैसे हीदोलकीरें जोड़ी जाती थीं. ४००से१०० तक के लिये १०० का चिन्ह लिख उसके साथ क्रमशः४ सेह मक के अंक एक छोटी सी पाड़ी लकीर से जोड़ देते थे. १०१ से ६६६ तक लिखने में सैंकड़े के अंक के आगे दहाई और इकाई के अंक लिखे जाते थे, जैसे कि १२६ के लिये १००,२०,83; ६५५ के लिये १००,५०,५. यदि ऐसे अंकों में दहाई का अंक नहीं हो तो सैंकड़े के बाद इकाई का अंक रवा जाता था, जैसे कि ३०१ के लिये ३००,१. (देखो, लिपिपत्र ७५ में मिश्र अंक). २००० के लिये १००० के चिह की दाहिनी ओर ऊपर को एक छोटीसी सीधी बाड़ी (या नीचे को मुडीई) लकीर जोड़ी जाती थी और ३०००के लिये वैसी ही दो लकीरें. ४००० से १००० तक और १०००० से १०००० तक के लिये १००० के षिक के आगे ४ से 8 तक के और १० से १० तक के चित्र क्रमश: एक छोटी सी लकीर से जोड़े जाते थे (देखो, लिपिपत्र ७५), ११००० के वास्ते '१००००लिख, पास ही १००० लिखते थे. इसी तरह २१००० के लिये २००००, १००० १६... के लिये १००००, १००० लिखते थे. ऐसे ही 88888 लिखने हो तो १००००, १०००,६००, ६०, लिखते थे. यदि सैकड़ा और दहाई के अंक न हो तो हजार के अंक के आगे इकाई का अंक लिखा जाता था, जैसे कि ३००१ लिखना हो तो ६०००, १. ___ उपर्यक प्राचीन अंकों के चिहीं में से १, २, और ३ के चिक तो क्रमशः --- और = आड़ी. लकीरें हैं जो अब तक व्यापारियों की बहियों में रुपयों के साथ आने लिखने में एक, दो और तीन के लिये व्यवहार में पाती हैं. पीछे से इन लकीरों में वक्रता आने लगी जिससे १ की लकीर से वर्तमान नागरी आदि का बना, और २ तथा ३ की वक्र रेखाओं के परस्पर मिल जाने से वर्तमान नागरी आदि के २और के अंक बने हैं. बाकी के चित्रों में से कितने एक अक्षरों से प्रतीत होते हैं और जैसे समय के साथ अक्षरों में परिवर्तन होता गया वैसे ही उनमें भी परिवर्तन होता रहा. प्राचीन शिलालव और दानपत्रों में से १००० तक के चिह्नों के, अक्षरों से मिलते हुए, रूप नीचे लिखे अनुसार पाये जाते है -अशोक के लेखों में इस अंक का चिह'क' के समान है. नानाघाट के लेख में उसपर गोलाईदार या मोगदार सिर बनाया है जिससे उसकी आकृति 'क' से कुछ कुछ मिलती होने लगी है. कुशनवंशियों के मथुरा आदि के लेखों में उसका रूप 'क' जैसा मिलता है. क्षत्रपों और मांधवंशियों के नासिक आदि के लेखों में एक ही विशेष कर मिलता है परंतु उन लेखों से उद्धत किये हुए चिंकों में से चौथे में 'क' की स्वड़ी लकीर को बाई तरफ मोड़ कर कुछ ऊपर को चढ़ा दिया है जिससे उसकी प्राकृति 'प्कृ सी प्रतीत होती है. पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों में 'क' की दाहिनी ओर मुड़ी हई खड़ी लकीर, चलती कलम से पूरा चिझ लिग्वने के कारण, 'क' के मध्य की प्राडी लकी से मिल गई जिससे उक्त सिक्कों से उद्धन किये मिहीं में से दो अंतिम चिक्रों की प्राकृति 'म के ममान बन गई है. जग्गयपेट के लेखादि से उदत किये ए चिन्हों में चार के चिक के एक और 'म रूप मिलते हैं; गुसों आदि के लेग्नों में भी एक और से ही मिलते हैं. पल्लव और शालकायन वंशियों के दानपत्रे किये ६ चिन्हों में से पहिला 'क' दसरा प्कीनीसरा और चौथा एक, । यह रीति र स ला लिपिक के पनाही भी लगाई जातीपणा में 1०००) १. यह रीति स पूर्व की दूसरी शताब्दी और उसके पीछ के ईशलावादिमिलनी अशा कलेला में संस कुछ भिन्नता पाई जाती है (देखो लिपिपत्र के पूर्व में अशोक के लम्खों सदिय दुध २०७ अंक के तीन रूप). २. पिले लेखों में कहीं की रहनकार नहीं भी लगाई जाती थी (दखो, लेपिपत्र के उत्तराई में मिस मित्र लेखों से उजत किये हुए अंकों में और 30 तथा प्रतिहारकवानपत्रों में 100.) AhoiShrutgyanam Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा 'क' और छठा 'म' के समान है, नेपाल के लेखों में 'क', और मिन मिन्न लेख में दानपत्रों की पंक्ति में 'रक मिलता है ( देखो, लिपिपत्र ७१ और ७२ के पूर्वार्द्ध की तीन पंक्तियां) ४ का मूल चित्र 'क' सा था जिस पर सिर की गोलाईदार या कोणदार रेखा लगाने से उसकी प्राकृति कुछ कुछ 'क' से मिलती हुई पनी, लेखकों की भिन्न भिन्न लेखनशैली, सुंदरता लाने के यरन और चलती कलम से पूरा अंक लिखने से उपर्युक्त भिन्न भिम रूप पने हैं. आगे के अंकों का इस प्रकार का विवेचन करने में लेख बहुत पर जाने की संभावना होने के कारण बहुधा भिन्न भिन्न अक्षरों के नाम मात्र लिखे जायेंगे जिनको पाठक लिपिपल ७१ से ७५ के पूर्वार्द्ध के प्रथम खंड लक में दिये हुए अंकों से मिला कर देख लेवें. ५-इस अंक के चित, ता, पु, हु, रु, तू, ता, ना, न, ढ, हू और ह अक्षरों से मिलते हुए पाये जाते हैं. के लिये 'ज', स (१), फ, फ्रा, फा, फ और हा से मिलते जुलते चिम मिलते हैं. तो भी जग्गयपेट, गुप्तों और पल्लय आदि के लेखों से दिये हुए इस अंक के चिठीक तरह किसी अक्षर से नहीं मिलने, वे अंकसंकेत ही हैं. उनको अक्षरों में मिलाने का यत्न करना बैंचतान ७ के चिह ग्र.गु और ग से मिलते जुलते हैं. के बिहहा , ह, हा, उ, पु, ट, टा, र, व और द्रा से मिलते हुए है, परंतु कुछ चिह ऐसे हैं जो अक्षर नहीं माने जा सकने, -नानाघाट के, कुशनवंशियों के भौर क्षत्रपों तथा सांध्रवंशियों के लेखों में जो के चिह मिलते है उनकी किसी प्रकार अक्षरों में गबना नहीं हो सकती. पीछे से अंतर पड़ने पर उसके चिहो , उ और ओं (के कल्पित चिह्न)से बनते गये. १०-मानाघाट के, कुशनवंशियों के, क्षत्रपों तथा मांधों के लेखों; सत्रयों के सिक्कों, जग्गयपेट के लेखों तथा गुप्तादिकों के लेखादि में भो १० का अंकसंकेत ही है क्यों कि उसकी किसी बचर से समानता नहीं हो सकती परंतु पीछे से उसकी भानिये,ह.ह, ख और लू से मिलती हुई बन गई. २०--का चिह्न 'थ' या ओ पीछे के परिवर्तनों में भी उसी मचर के परिवर्तित रूपों के सहरा बना रहा. ३० का चित्र 'ल' के सहरा ही मिलता है. ४० का चिह्न 'प्स' और 'ससे मिलता हुआ मिलता है. ५०--का चिह्न किसी अक्षर से नहीं मिलता. केवल भिन्न भिन्न लेखादि से उद्धत किये हुए इस अंक के पिहों में से दूसरा दक्षिणी शैली के 'ब' से मिलता है. ६०-का चिह्न 'प', 'पु' या 'प्र' से मिलता हुभा है. ७०---का चिह्न 'स', 'म', रो, 'मा', 'प्र' या '' से मिलता है. ८०-का चिहन उपध्मानीय के चिह्न से मिलता हुआ है (देखो, लिपिपन्न १७ में उदयगिरि के लेल के अक्षरों में उपध्मानीय का चिन). 8.--का चिहन किसी अक्षर से नहीं मिलता. यदि उपध्मानीय के चिइन के मध्य में एकमाती लकीर और बढ़ा दी जाये तो उसकी माकृति चन्नपों के सिकों से उद्धृत किये हुए इस चिहून के दूसरे रूप से मिल जायगी Aho! Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०॥ प्राचीनलिपिमाला. १००-मामाघाट के लेख में इस अंक का चिहन'सु' अथवा 'म' से मिलता हुआ है क्यों कि उक्त दोनों अक्षरों की प्राकृति उस समय परस्पर बहुत मिलती हुई थी. पिछले लेखों में सु. स,से,स्रो औरों से मिलते हुए रूप मिलते हैं, परंतु नासिक के लेखों और क्षत्रपों के सिकों में सके जो रूप मिलते हैं उनकी उस समय के किसी अक्षर से समानता नहीं है. २००-अशोक के लेखों में मिलनेवाले इस अंक के तीन चिहनों में से पहिला 'सु' है, परंतु दुसरे दो रूप उस समय के किसी अक्षर से नहीं मिलते. नानाघाट के लेख का रूप 'आ' के समान है. गुप्तों बादि के लेखों का दूसरा रूप 'ला' से मिलता हुमा है और भिन्न भिन्न लेखादि से खद्भुत किये हुए इस अंक के दो रूपों में से दूसरा 'सू' से मिलता है. नासिक के क्षेलों, सपों के सिकों, वसभी के राजाबों तथा कलिंग के गंगावंशियों के दानपत्रों में मिलनेवाले इस अंक के रूप किसी अक्षर से नहीं मिलते. ३००-का अंक १..के अंक की दाहिनी ओर २ बाड़ी या गोलाईदार लकीरें लगाने से बनता है. १०० के सूचक अक्षर के साथ ऐसी दो लकीरें कहीं नहीं लगती, इसलिये इसकी किसी मात्रासहित प्रचर के साथ समानता नहीं हो सकती. ४०० से १०० तक के चिन, १०० के चिह्न के भामे ४ से 8 तक के अंकों के जोड़ने से बनते थे, उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. १०००-का चिहन नानाघाट के लेख में 'रो' के समान है. नासिक के लेखों में 'धु' अथवा '' से मिलता हुमा है और वाकाटकवंशियों के दानपत्रों में उनकी लिपि के 'चुके समान है. २०००और ३००.के चिन, १००० के चिहन की दाहिनी ओर ऊपर को क्रमशः एक और दोभाड़ी लकीरें जोड़ने से बनते थे. इसलिये उनकी किसी अचर से समानता नहीं हो सकती. ४००० से १००० तक के अंक, १००० के चिहन के आगे क्रमशः ४ से ६ तक के, और १०००० से १०००० तक के अंक, १०००के भागे १० से १० तक की दहाईयों के चिहन जोड़ने से बनते थे इसलिये उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. अपर प्राचीन शैली के अंकों की जिन जिन अक्षरों से समानता बतलाई गई है उसमें सब के सब बचर उत अंकों से ठीक मिलते हुए ही हों ऐसा नहीं है. कोई कोई अक्षर ठीक मिलते बाकी की समानता ठीक वैसी जैसी कि नागरी के वर्तमान अक्षरों के सिर हटाने के बाद उनका मागरा के वर्तमान अंकों से मिलान करके यह कहा जाय कि २ का अंक 'र' से, ३ 'स' से, ५ '५' से, ६ 'ई' से, ७ 'उ' की मात्रा से और 'ट' से मिलता जुलता है. १, २, ३, ५०.० और १.के प्राचीन उपलब्ध रूपों और शोक के लेखों में मिलनेवाले २०० के दूसरे व तीसरे रूपों (देखो, लिपिपत्र ७४) से यही पाया जाता है कि ये चिड्न तो सर्वथा अधर नहीं थे किंतुकही थे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ेगा कि प्रारंभ में १ से २००० तकसपक चारतब में कही थे. यदि अक्षरों को ही भिन्न भिन्न अंकों का सूचक माना होता तो उनका कोई क्रम अवश्य होता और सब के सब अंक अक्षरों से ही बतलाये जाते, परंतु ऐसा न होना यही पतलाता है कि प्रारंभ में ये सब अंक ही थे. अनायास से किसी अंक का रूप किसी अक्षर से मिल जाय यह बात दसरी है। जैसे कि वर्तमान नागरी का २ का अंक उसी लिपि के ''से, और गुजराती के २(२) और ५ (५) के अंक वक्त लिपि के र (२) और १. एक, दो और तीन के प्राचीन चिश तो स्पष्ट ही संख्यासूचक हैं और भन्योक की लिपि में बार का चित्र जो'' साक्षर से मिलता हुमागासंभव है किचौराहे या स्वस्तिक का सूचक हो. ऐसे ही और अंकों के लिए भी कोई कारणपोगा. Aho! Shrutgyanam Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प (५) से बिलकुल मिलते हुए हैं. कभी कभी अक्षरों की नाई अंकों के भी सिर बनाने से उनकी प्राकृतियां कहीं कहीं अक्षरों सी बनती गई.. पीछे से अंकचिह्नों को अक्षरों के से रूप देने की चाल बढ़ने लगी और कितने एक लेखकों ने और विशेषकर पुस्तकलेखकों ने उनको सिरसहित अक्षर ही बना डाला जैसा कि बुद्धगया से मिले हुए महानामन् के शिलालेख नेपाल के कितने एक लेखों तथा प्रतिहारवंशियों के दानपत्रों से पाया जाता है. तो भी १, २, ३, ५०, 10 और 80 तो अपने परिवर्तित रूपों में भी प्राचीन रूपों से ही मिलते जुलते रहे और किन्ही अक्षरों में परिणत न हुए. शिलालेखों और ताम्रपत्रों के लेखक जो लिखते थे वह अपनी जानकारी से लिखते थे, परंतु पुस्तकों की नकल करनेवालों को तो पुरानी पुस्तकों से ज्यों का त्यों नकल करना पड़ता था. ऐसी दशा में जहां वे मूल प्रति के पुराने अक्षरों या अंकों को ठीक ठीक नहीं समझ सके वहां थे अवश्य चूक कर गये. इसीसे हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में जो भंकसूचक अक्षर मिलते हैं उनकी संख्या अधिक है जिनमें और कई अशुद्ध रूप दर्ज हो गये हैं. लिपिपत्र ७२ ( पूर्वार्द्ध की अंतिम तीन पंक्तियों) और ७४ ( उत्तरार्द्ध की अंतिम दो पंक्तियों) में हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों से अंकसूचक अक्षरादि दिये गये हैं वे बहुत कम पुस्तकों से हैं: भिन्न भिन्न हस्तलिखित पुस्तकों में वे नीचे लिखे अनुसार मिलते हैं १-ए, स्व और #. २-वि, स्ति और न. इ-त्रि, श्री और म:, ४-५, ई, भा, एक, एक, एक, , कि (के), , , और पु. ५-तृ, तू, तो, ई, ह और नृ. ६-फ, फे, , प्र, भ्र, घे, व्या और फ्ल. ७-ग्र, ग्रा, ग्री, ग्ी गर्गा और भ्र. ८-इ, ई, हो और द. ह-श्री. ई, ई, उं, ऊँ, अ और . १०-लू, ल, ळ, एट, डा, अ और सी. २०-थ, था, थे, थो, घ, घे, प्व और व. ३०-ल, ला, ले और लो. ४०-स, र्स, ता, तो और न. ५०-8, 6.6.६0 और . 1. ली; गु. है: सेट ३६ A. २, फ्ली; गु. मेट ४६ A. . ई.एँ; जि. 1, पृ. १६३-८०. . . : जि. ५, पृ २०६१ जि. १५, पृ. ११२ और १४० के पास के प्लेट: और राजपूताना म्युज़िसम में रक्खा दुमा प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (दूसरे) के समय का वि.सं. १००३ का लेख. यह लेख मैंने 'पंपिमाफिमा इंडिका' मे छुपने के लिये भेज दिया है. . 'सूर्यप्रनप्ति'नामक जैन ग्रंथ का टीकाकार मलयगिरि, जो ई. स. की १२वीं शताब्दी के मासपास मा, मूत पुस्तक के 'कू' शब्द को ४ का सूचक बतलाता है (पत्र समन्दोपादानात प्रासादरीया रस्यभेम पर मुह परचम रा सना -.; जि. ६. पृ.४७) १. यह चतुरन चि उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र ४९). 'क' के पूर्ष इसका प्रयोग करना यही बतलाता है किसस समय इस चिश का ठीक ठीक हान नहीं रहा था. + 'क' के ऊपर का यह चिहन जिलामूलीय का है (देखो, क्षिपिपत्र १६). Aho 1 Shrutgyanam Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्राचीनलिपिमाला ६०-चु. ७, घु, धु. थु, थ, धू, घ, ई और शु. ७०-चु, चु, थू थू, और त. ८०-२७.40DO. और पु. ६०-83,38,3 और छ. १००-सु, मू, लु और अ.. २००-मु, म, में, श्रा, लू और बूं. ३००-स्ता, मा, ला, सा, सु, सुं और सू. ४००-लो, स्तो और स्ता. ऊपर लिग्वे हुए अंकसूचक संकेतों में १, २ और ३ के लिये क्रमशः ए, द्धि और त्रि; स्व, स्ति और श्री; और ओं, न और मः मिलते हैं; वे प्राचीन क्रम के कोई रूप नहीं है किंतु पिछले लेखिकों के कल्पित हैं. उनमें से ए, दि और त्रि तो उन्ही अंकों के वाचक शब्दों के पहिले अक्षर हैं और स्व, स्ति और श्री तथा ओं, न और मः मंगल वाचक होने से इनका प्रारंभ के तीन अंकों का सूचक मान लिया है. . एक ही अंक के लिये हस्तलिखित पुस्तकों में कई भिन्न अक्षरों के होने का कारण कुछ तो प्राचीन अक्षरों के पढ़ने में और कुछ पुस्तकों से नकल करने में लेखकों की रालमी है, जैसे २० के अंक का रूप 'थ' के समान था जिसकी आकृति पीछे से 'घ' से मिलती हुई होने से लेखकों ने ' को 'घ'.फिर 'घ' को 'ख' और 'प' पहा होगा. इसी तरह दूसरे अंकों के लिये भी अशुद्धियां हुई होंगी । प्राचीन शिलालग्बों और दानपत्रों में सप अंक एक पंक्ति में लिखे जाते थे परंतुहस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में चीनी अक्षरों की मांई एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं. ई.स. की छठी शताब्दी के पास पास के मि. वावर के प्राप्त किये हुए पुस्तकों में भी पन्नांक इसी तरह एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं. पिछले पुस्तकों में एक ही पत्रे पर प्राचीन और नवीन दोनों शैलियों से भी अंक लिखे मिलते हैं पत्रे की दूसरी तरफ के दाहिनी ओर के ऊपर की तरफ के हाशिये पर तो अक्षरसंकेत से, जिसको अक्षरपल्ली कहते थे; और दाहिनी तरफ के नीचे के हाशिये पर नवीन शैली के अंकों से, जिनको अंकपल्लि कहते थे. इस प्रकार के अंक नेपाल, पाटण (अपहिलवाड़ा), खंभात और उदयपुर (राजपूताना में) आदि के पुस्तकभंडारों में रक्खे हुए पुस्तकों में पाये जाते हैं. पिछले हस्तलिखित पुस्तकों में अक्षरों के साथ कभी कभी अंक, तथा खाली स्थान के लिये शून्य भी लिखा हृया मिलता है, जैसे कि 33=, १००८.१०२, १३१ ला, १५०-४, २०१ आदि. नेपाल के बौद्ध, नथा गुजरात, राजपूताना आदि के जैन पुस्तकों में यही अक्षरक्रम ई.स. की १६ वीं शताब्दी तक कहीं कहीं मिल पाता है और दक्षिण की मलयालम् लिपि के पुस्तकों में अब तक अक्षरों से अंक 1. यह चिक उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र २१, २५, ४७). १. यह चिझ उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र ३८, ४२,४४). मलयालम् लिपि के पुस्तकों में बहुधा अब तक इस प्रकार अक्षरों में अंक लिखने की रीति चली आती है. ऍच. गंडर्ट ने अपने मलयालम भाषा के व्याकरण (दूसरे संस्करण) मे अक्षरों से बतलाये जाने वाले अंकों का ब्यौरा इस तरह दिया है १न. २ . ३-न्य क्र. ५ . ६हा (ह). -ग. प्र. २ (१). १०८म. २०य. ३०४. ४० . ५०ब. १०-व. ७०-() 00=च. १०=ह. १००=अ. (ज.स.ए. सो; ई.स. १८६६, पृ. ७९०), हममें भी प्राचीन अक्षरों के पढ़ने में सलता होना पाया जाता है जैसे कि ६ का सूचक 'हा'. 'फ'को 'ह' पढ़ने से ही दुमा है. उस लिपि में 'फ' और 'ह' की श्राकृति बहुत मिलती है (देखो, सिपिपत्र २) ऐसे ही और भी अशुद्धियां हुई है. Aho! Shrutgyanam Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक १०६ बतलाने का प्रचार बना हुआ है; परंतु उनके देखने से पाया जाता है कि उनके लेखक सर्वधा प्राचीन क्रम को भूले हुए थे और 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' की नाई केवल प्राचीन पुस्तकों के अनुसार पत्रांक लगा देते थे. शिलालेख और दानपत्रों में ई.स. की छठी शतान्दी के अंत के पास पाम तक तो केवल प्राचीन क्रम से ही अंक लिखे मिलते हैं. पहिले पहिल गर्जरवंशी किसी राजा के ताम्रपत्र के दूसरे पत्रे में, जो [कलचुरि ] संवत् ३४६ (ई.स. ५६५ ) का है, नवीन शली से अंक दिये हुए मिलते हैं अर्थात उसमें क्रमशः ३, ४ और ६ के अंक हैं. उक्त संवत् के पीले कहीं प्राचीन शैली से और कहीं नवीन शैली से अंक लिखे जाने लगे और १० वीं शताब्दी के मध्य तक प्राचीन शैली का प्रचार कुछ कुड़ रहा; फिर तो उठ ही गया और नवीन शैली से ही अंक लिखे जाने लगे. उसके पीछे का केवल एक ही लेख एसा मिला है, जो नेपाल के मानदेव के समय का [नेवार ] सं. २५६ (ई.स.११३६ ) का है और जिसमें अंक प्राचीन शैली से दिये हैं. भारनरर्ष में यंकों की यह प्राचीन शैली कब से प्रचलित हुई इसका पता नहीं चलता परंतु अशोक के सिद्धापुर, सहस्राम और रूपनाथ के लेखों में इस शैली के २००,५० और ६ के अंक मिलते हैं जिनमें से २०० का अंक' तीनों लेखों में बिलकुल ही भिन्न प्रकार का है और ५० तथा ६ के दो दो प्रकार के रूप मिलने हैं. २०० के भिन्न भिन्न तीन रूपों से यही कहा जा सकता है कि ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में तो अंकों की यह शैली कोई नवीन बात नहीं किंतु सुदीर्घ काल से चली पाती रही होगी यदि ऐसा न होता तो अशोक के लेतों में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल ही भिन्न तीन रूप सर्बधा न मिलने अशोक से पूर्व उक्त अंकों के चिह कैसे थे और किन किन परिवर्तनों के बाद उन रूपों में परिणत हए इस विषय में कहने के लिये श्रम तक कोई साध उपलब्ध नहीं हुआ. कई विद्वानों ने जैसे ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न भिन्न कल्पनाएं की हैं वैसे ही इन प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति के विषय में भी की हैं जिनका सारांश नीचे लिखा जाता है प्रथम ई.स. १८३८ में जेम्स प्रिन्सेप ने यह अनुमान किया कि ये अंक उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर हैं, जिसको बोके श्रादि कितने एक यूरोपियन विद्वानों ने स्वीकार भी किया. ३. यद्यपि शिलालेखो और दानपत्रों में प्राचीन शैनी के अंको का प्रनार १०वीं शताब्दी के मध्य तक कुछ न कुछ नाया जाता है तो भी तापनी के लेखक ई. स. की आठवीं शताब्दी से ही उस शैला के अंकों के लिखने में गलतियां करने लग गये थे बलभी के राजा शीलादिस्य (छठे) के गुप्त सं.४४र के दानपत्र में १०० के साथ जुड़नेवाले ४ के अंक के स्थान मे ४० का अंक जोड़ दिया है। ई.प: जि.६ पृ.१६ के पास का प्लेट), और पूर्वी गंगावंशी राजा देवंद्रवर्मन् के गांगेय सं. १८३ के कानपत्र में 20 के स्थान पर का और ३ के स्थान पर ३० का चिन ('लो', 'ल'काघसीट रूप) लिखा है और २०के लिये के आगे बिंदी लगा कर एक ही दानपत्र में प्राचीन और नवीन शैली का मिथ्रण भी कर दिखाया है। एँ : जि. ३. पृ. १३३ के पास का लेट). २. तामिळ लिपि में अब तक अंक प्राचीन शैली में ही हिले जाते हैं, नवीन शैली के अंकों का प्रचार अब होने लगा है. थोड़े समय पूर्व के छपे हुए पुस्तकों में पक प्राचीन शैली से ही दिये हुए मिलते हैं परंतु अब नवीन शैली से देने लगे है. तामिळ अंकों के लिये देखो, लिपिपत्र ८९ में तामिळ लिपि. * अशोक के लेखों में मिलनेवाले २०० के अंक के भिन्न भिन्न ३ चिनों के लिये देखो लिपिपत्र ७४ का पूर्वार्द्ध. उन चिहनों में से दूसरा सहक्षाम के लेन से है. करीब 5०० वर्ष पीछे उसीका किंचित् बदला हुधा रूप फिर मथुरा से मिली हुई गुप्त सं. १३० (ई.स. ५४६) की एक पौर मुर्सि के नीचे के लेख (मी; गु. मेट४० D) में मिलता है। बीच में कहीं नहीं मिलता. कभी कभी लेखकों को अक्षरों या अंकों के प्राचीन चिह्नों की स्मृति रहने का यह अद्भुत उदाहरण है. Ahol Shrutgyanam Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. पंडित भगवानलाल इंद्रजी ने इन अंकों के उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर होने न होने के विषय में कुछ न कह कर भारतवर्ष के प्राचीन अंकों के विषय के अपने लेख में ई. स. १७७ में लिखा है कि 'अंकों की उत्पत्ति के विषय में मेरा विश्वास है कि मैं निश्चय के साथ यह प्रतिपादन कर सकता कि पहिले तीन अंकों को छोड़ कर बाकी सब के सब अक्षरों पा संयुक्ताक्षरों के सूचक है और भिन्न भिन्न वंशों के लेखों और [भिन्न भिन्न ] शताब्दियों में उन(अंको)की प्राकृतियों में जो अंतर पाया जाता है उसका मुख्य कारण उक्त समय और वंशों के अक्षरों का अंतर ही है.. डॉ. चूलर ने उस लेख के साथ ही अपनी संमति प्रकट करते समय लिखा है कि 'प्रिन्सेप का यह पुराना कथन, कि अंक उनके मूचक शब्दों के प्रथम अक्षर हैं, छोड़ देना चाहिये. परंतु अब तक इस प्रश्न का संतोषदायक मसाधान नहीं हुश्रा. पंडित भगवानलाल ने आर्यभट और मंशशास्त्र की अक्षरों द्वारा अंक सूचित करने की रीति को भी जांचा परंतु उसमें सफलता न हुई (अर्थात् अक्षरों क्रम की कोई कुंजी न मिली); और न मैं इस रहस्य की कोई कुंजी प्राप्त करने का दावा करता हूं. मैं केवल यही प्रतलाऊंगा कि इन अंकों में अनुनासिक, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का होना ।ट करता है कि उन(अंकों को ब्राह्मणों ने निर्माण किया था, न कि वाणिश्राओं (महाजनों)ने र न बौद्धों ने जो प्राकृत को काम में लाते थे'२ मॉ. कर्न: ई. स. १८७७ में 'इंडिअन् ऍटिक्करी' के संपादक को एक पत्र के द्वारा यह सूचित किया कि 'मैं सामान्यतः बूलर के इस कथन से सहमत हूं कि अंक ब्राह्मणों ने निर्माण किये थे'. ई. स १८७८ में बर्नेल ने लिखा कि 'अंकसूचक शब्दों के आदि अक्षरों से इन[अंक] पिनों की उत्पत्ति मानना बिलकुल असंभव है क्योंकि उनकी दक्षिणी अशोक (ब्राह्मी) अक्षरों से, जो अंकसूचक शब्दों के आदि अक्षर हैं, पिलकुल समानता नहीं है. परंतु बनल ने ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति फिनिशिअन् अक्षरों से होना तो मान ही रक्खा थाः इससे इन अंकों की उत्पत्ति भी बाहरी स्रोत से होना अनुमान करक लिखा कि 'इस (अंक) क्रम की इजिप्ट ( मिसर) के डेमोटिक अंकक्रम से सामान्य समानता, मेरे विचार में, इस कामचलाऊ अनुमान के लिये बस होगी कि अशोक के अंकक्रम की उत्पत्ति उसी (डिमोटिक् ) क्रम से हुई है, परंतु इसका विकास भारतवर्ष में हुआ है. फिर इ.सी. बेले ने 'वर्तमान अंकों का वंशक्रम' नामक विस्तृत लेख में यह बतलाने का यत्न किया कि भारतीय अंकशैली का सिद्धान्त मिसर के हिएरोग्लिफिक अंकों से निकला है, तो भी भारतीय अंकचित्रों में से अधिकतर फिनिशिअन् , बाकादिअन् और अक्कडिअन् अंकों या अक्षरों से लिये हुए हैं; परंतु कुछ थोड़ेसों की विदेशी उत्पत्ति प्रमाणित नहीं हो सकती'. इस पर ई. स. १८९६ में बेलर ने लिखा कि 'येले का कथन, यह मानने से बड़ी आपत्ति उपस्थित करता है कि हिंदुओं ने [अंक] भिन्न भिन्न चार या पांच स्रोतों से लिये, जिनमें से कुछ तो बहुत प्राचीन और कुछ बहुत अर्वाचीन हैं. परंतु उसके लेख के साथ प्रकट किया हुआ मिसर और भारत के अंकों के मिलान का नक्शा और उन दोनों में सैकड़ों के अंकों के बनाने की रीति की समानता के बारे में उसका कथन, भगवानलाल की कल्पना को छोड़ देने और कुछ परिवर्तन के साथ बर्नेल के कथन को, जिससे वार्थ भी सहमत है, स्वीकार करने को प्रस्तुत करता है. मुझे यह संभव मतीन 1.4; जि.६, पृ.४४. . ई.एँ जि. ६, पृ. ४८. ..एँ जि. ६, पृ. १४३. ४. सा... पू. ६०. ..प: सा. पे ... अ. रा. प. सो. (न्यू सीरीज़) जि.१४, पृ. ३३४ से मौर जि.१५, १.१ से. Aho! Shrutgyanam Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंक. होता है कि ब्राह्मी अंकों के चित्र मिसर के हिएरेटिक अंकों से निकले हैं और हिंदुओं ने उनका अचरों में रूपांतर कर दिया, क्योंकि उनको शब्दों से अंक प्रकट करने का पहिले ही से अभ्यास था तो भी ऐसी उत्पत्ति का विवेचन अभी तक बाधा उपस्थित करता है और निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता. परंतु दूसरी दो महत्व की बातें निभय समझना चाहिये कि (१) अशोक के लेखों में मिलने वाले [अंकों के] भिन्न रूप यही बतलाते हैं कि इन अंकों का इतिहास ई स. पूर्व की तीसरी शताब्दी से बहुत पूर्व का है। (२) इन चिकों का विकास ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा हुआ है क्योंकि उनमें उपध्मानीय के दो रूप मिलते हैं जो निःसंशय शिक्षा के आचार्यों के निर्माण किये हुए हैं '१. ई. स. १८६८ में फिर कूलर ने डा. बर्नेल के मत को ठीक बतलाया परंतु उसमें इतना बदलने की संमति दी कि भारतीय अंक मिसर के डेमोटिक् क्रम से नहीं किंतु हिगरेटिक से निकले हुए अनुमान होते हैं, और साथ में यह भी लिखा कि 'डॉ. बर्नेज के मत को निश्चयात्मक बनाने के लिये ई. स. पूर्व की तीसरी और उससे भी पहिले की शताब्दियों के और भी [भारतीय ] अंकों की खोज करने, तथा भारतवर्ष और मिसर के बीच के प्राचीन संपर्क के विषय में ऐतिहासिक अथवा परंपरागत वृत्तान्त की खोज, की अपेक्षा है. अभी तो इसका सर्वथा अभाव है और यदि कोई मिसर के अंकों का भारत में प्रचार होना बतलाने का यत्न करे तो उसको यही अटकल लगाना होगा कि प्राचीन भारतीय नाविक और व्यापारी मिसर के अधीनस्थ देशों में पहुंचे होंगे अथवा अपनी समुद्रयात्रा में मिसर के व्यापारियों से मिले होंगे. परंतु ऐसी अटकल अवश्य संदिग्ध है जयनक कि उसका सहायक प्रमाण न मिले.' इस तरह डॉ. पर्नेल भारतवर्ष के प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति मिसर के हिमोटिक अंकों से; बेले उनका क्रम तो मिसर के हिएरोग्लिफिक अंकों से और अधिकतर अंकों की उत्पत्ति फिनिशिश्नन्, याकट्रिनन् और अकेडिअन् अंकों से, और बूलर मिसर के दिएरेटिक अंकों से बना लाता है. इन विद्वानों के कथनों का भारतीय अंकों के क्रम और माक्रतियों से मिलान करने से पाया जाता है कि हिएरोग्लिफिक प्रकों का क्रम भारतीय क्रम से, जिसका विवेचन ऊपर पृ. १०३-४ में किया गया है, सर्वथा भिन्न है, क्योंकि उसमें मूल अंकों के चित्र केवल तीन, अर्थात् १.१० और १००थे. इन्हीं तीन चिकों को वारंवार लिखने से 8 तक के अंक बनते थे. १ से १ तक के अंक, एक के अंक के चिक (खड़ी लकीर) को क्रमशः १ से बार लिखने से बनते थे. ११ से १६ तक के लिये १० के चिक की याई ओर क्रमशः १ से १ तक खड़ी लकीरें खींचते थे. २० के लिये १० का चिक दो बार और ३० से १० तक के लिये क्रमशः ३ से 8 बार लिखा जाता था. २०० बनाने के लिये १०० केचि को दो बार लिखने थे, ३०० के लिये तीन चार आदि (देखो, पृ.११३ में दिया हमा नकाशा). इस क्रम में १००० और १०००० के लिये भी एक एक चित्र था और १००००० के लिये ई. पे, पृ. ८२. १. सहसा संक्या । पू. १५६ (द्वितीय संस्करब ). इससे पूर्व जल पुस्तक से जहां जहां इवाले दिये हैं वे प्रथम संस्करण से है. ...वि शि. १७.६२४. Aho! Shrutgyanam Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. मैंटक और १००....के लिये हाथ फैलाये हुए पुरुष का चित्र बनाया जाता था. मिसर का सब से पुराना काम यही था जो बहुत ही जटिल और गणना की बिलकुल प्रारंभिक दशा का सूचक है. इससे फिनिशियन् क निकले हैं जिनका क्रम भी ऐसा ही है, केवल १.के वित को बारंबार लिखने की जटिलरीति को कुछ सरल बनाने के लिये उसमें २० के अंक के लिये नवीन चिशमनाया गया, जिससे ३० के लिये २० और १०० के लिये २०, २०, २०, २० और १. लिखने पड़ते थे. इस क्रम के ४ मूल अंकों में से १ का चित्र तो एक बड़ी लकीर है और १०, २० और १०० के तीन चित्रों में से एक भी उक्त अंकों के सूचक भारतीय अंक चिनों से नहीं मिलता ( देखो, पृ.११३ में दिया हुश्रा नकशा). इस लिये बेले का कथन किसी प्रकार स्वीकार नहीं किया जा सकता और इससे दूलर को भी यह लिखना पड़ा था कि मेले का कथन बड़ी भापति उपस्थित करता है. पीछे से मिसरवालों ने किसी विदेशी सरल अंककम को देख कर अथवा अपनी बुद्धि से अपने भहेहिएरोग्लिफिक क्रम को सरल करने के लिये भारतीय अंकक्रम जैसा नवीन क्रम बनाया, जिसमें १ से १ तक के लिये ९, १० से १० तक की दहाइयों के लिये ६, और १०० तथा १००० के लिये एक एक चित्र स्थिर किया. इस काम को 'हिएरेटिक' कहते हैं और इसमें भी अंक दाहिनी भोर से बाईभोर लिखे जाते हैं. हिरेटिक और भारतीय अंकों का प्राकृतियों का परस्पर मिलान किया जाये तो अंकों के २० पिकों में से केवल ह का चिन दोनों में कुछ मिलता हुमा है; पाकी किसी में समानता नहीं है. दूसरा अंतर यह है कि हिएरेटिक अंकों में २०० से ४०० तक के बंक १०.के अंक की पाई तर क्रमशः १ से ३ खड़ी लकीरें रखने से पनते हैं परंतु भारतीय अंकों में २०० और ३०० के लिये क्रमशः १ और २ माड़ी लकीरें १०० के अंक के साथ दाहिनी ओर जोड़ी जाती हैं और ४०० के लिये वैसी ही ३ लकीरें १००केक के साथ जोड़ी नहीं जाती किंतु ४ का अंकही जोड़ा जाता है. तीसरा अंतर यह है कि हिएरेदिक में २०००से ४००० बनाने के लिये १००० के 'बंक के कुछ विकृत रूप को माया रख कर उसके ऊपर क्रमशः २ से ४ तक खड़ी लकीरें जोड़ी जाती हैं परंतु भारतीय अंकों में २०.. और ३००० के अंक तो १००० के अंक की दाहिनी घोर क्रमशः १ और २ माड़ी लकीरें जोड़ने से बनते हैं परंतु ४००० के लिये वैसी ही तीन लकीरें नहीं किंतु ४ का अंक ही जोड़ा जाता है (देखो, पृ. ११३ में दिया हुभा नक्शा.) हेमोरिक अंक हिपरोरिक से ही निकले हैं और उन दोनों में अंतर महत कम है (देखो, पृ.११३ में दिया दुमा नक्शा ) जो समय के साथ हुआ हो. इन अंकों को भारतीय अंकों से मिलाने में पही पाया जाता है कि इनमें से केवल ६ का अंक नानाघाट के 8 से ठीक मिलता है. चाकी किसी अंक में कुछ भी समानता नहीं पाई जाती. अपर के मिलान से पाया जाता है कि मिसर के हिपरेटिक और उससे निकले हुए रिमाांकि अंकों का क्रम तो भारतीय कमसे अवश्य मिलता है क्योंकिं १ से १००० तक के लिये २. चिक दोनों में हैं परंतु उक्त २० चिकों की मारुतियों में से केवल की भाकृति के सिवाय किसी में सामनता नहीं है, और २०० तथा ३००, एवं २००० और १००० बनाने की सति में भी अंतर है और ४०० तथा ४००० बनाने की रीति तो दोनों में बिलकुल ही मिस । ए.सा.जि जि. १७, पृ. ६९५. Aho! Shrutgyanam Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t + 19. 11 96 20 3. ४० ५० 9. ce t. 300 २०० *** ४०. ५०० 900 हिएरोलिफिक आदि सेमिटिक गंकों से भारतीय प्राचीन शैली के अंकों के मिलान कान. 1000 2+++ ३००० ४... हिसरोलिफिक फिनिशिष्यन् हिसरेटिक डैमोटिक अशोक के नानापाट कुशनवंशियों समयों तथा T लेखों से के लेख से के लेखों से लेखों से H HI MA EXE H EK 12 ก In በዛሉ มิกก 0000 00000 การ กกล กกกกกกก 0000 0000 000000 000 H f0n。.5.=.= -H HH | 22JJ U 2.4 #8 24,44 III I молу холу V HOL 3.0 ΠΕΡΙ 阴即 14 999 ILL -AAAA 20, N 99 (2) A -H HHH -HHH HHHH 19 ᄋᄅᄉ스십대 799 튀어 is xx * * * modding ľ oda 45 * سم بدست اما عا ا ا ا ا ا ا + e GO |ԱԴՐ Է Aho! Shrutgyanam ■F ~ 4 P 8x 0 A II = $ H H x 17h T 牙 M 1 Mi e de 8 งป ५५५ 6 6 6 VYY XX 1000 10 @ 44 hAPP FO βρες 274 77 ២២ ន ។ } XRE DOCOC 3 *. + 5.6 HI 가 199 199 4444 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्राचीमनिपिमालामिसर और भारत दोनों के प्राचीन अंकों में १००० तक के लिये २० चिक होने से केवल दो ही अनुमान हो सकते हैं कि या तो एक ने दूसरे का क्रम अपनाया हो अथवा दोनों ने अपने अपने अंक स्वतंत्र निर्माण किये हों. यदि पहिला भमुमान ठीक है तो यही मानना पड़ेगा कि भारतवासियों ने हिपरेटिक या डिमोटिक क्रम से अपना अंककम नहीं लिया क्योंकि जैसे भारतीय अंकों में १ से ३ तक के लिये प्रारंभ में क्रमशः १ से ३ माडी ( एक दूसरी से विलग) लकीरें थीं वैसे ही हिएरोग्लिफिक अंकों में १ से 8 तक के लिये क्रमशः १ से ६ (एक दूसरी से बिलग) सड़ी लकीरें थीं. पीछे से भारत की जन अंकसूचक लकीरों में वक्रता माकर २ और ३ की लकीरें एक दूसरी से मिल गई जिससे उनका एक एक संमिलित चिक बन कर नागरी के २और ३ के अंक बन गये. भरबों ने ई. स. की 8 वीं शताब्दी में भारत के अंक ग्रहण किये तो ये अंक ठीक नागरी (संमिलित) रूप में ही लिये. इसी प्रकार हिपरोग्लिफिक अंकों की २ से ४ तक की खड़ी लकीरें पीछे से परस्पर मिल कर २,३ और ४ के लिये नये (मिलवां) रूप बन गये, जो हिपरेटिक और उनसे निकले हुए रेमोटिक अंकों में मिलते हैं. यदि भारतवासियों ने अपने अंक हिएरेटिक या डिमोटिक से लिये होते तो उनमें २और ३के लिये एक दूसरी से विलग २और ३ माडी लकीरें न होती किंतु उनके लिये एक एक संमिक्षित पिडही होता. परंतु ऐसा न होना यही सिद्ध करता है कि भारतवासियों ने मिसरवालों से अपना अंकक्रम सर्वथा नहीं लिया. मतएष संभव है कि मिसरवालों ने भारत के अंककम को अपनाया हो; और उनके २, ३, ४,७,८,६, २०, ३०,४०, ५०, ६०,७०, ८० और .के अंकों को बांई तरफ से प्रारंभ कर दाहिनी ओर समास करने की रीति भी, जो उनकी लेखनशैली के बिलकुल विपरीत है. इसी अनुमान को पुष्ट करती है. दूसरी बात यह भी है कि डेमोटिक लिपि और उसके अंकों की प्राचीनता का पता मिसर के २५ वे राजवंश के समय भयोत है. स. पूर्व ७१५ से १५६ से पहिले नहीं चलता. मिसरवालों ने अपने भई हिएरोग्खिफि अंकक्रम को कब, कैसे और किन साधनों से हिएरेटिक क्रम में पलटा इसका भी कोई पता नहीं चलता, परंतुहिएरेटिक और डिमोटिक अंकों में विशेष अंतर न होना यही बतलाता है कि उनकी उत्पत्ति के बीच के समय का मंतर अधिक नहीं होगा. अशोक के समय अर्थात् ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल भिन्न ३ रूपों का मिलना यही प्रकट करता है कि ये भंक सुदीर्घकाल से चले माते होंगे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि प्राचीन शैखी के भारतीय अंक भारतीय भायों के स्वतंत्र निर्माण किये हुए हैं. पृष्ठ ११३ पर अंकों का एक नक्शा दिया गया है जिसमें हिएरोग्लिफिक, फिनिशिमन्, हिपरेटि और डेमोटिक अंकों के साथ अशोक के लेखों, नानाघाट के लेख, एवं कुरानवंशियों के तथा खत्रपों और प्रांधों के लेखों में मिलनेवाले भारतीय प्राचीन शैली के अंक भी दिये है. उनका परस्पर मिलान करने से पाठकों को विदित हो जायगा कि हिरोखिफिक मादि विदेशी अंकों के साथ भारतीय अंकों की कहां तक समानता है. १ इस नशे में हसदी पलियां बनाई गई है, जिनमें से पहिली पंक्ति में वर्तमान नागरी के अंक दिये हैं। दूसरी पंक्ति में मिसर के हिपरोग्लिफिक अंक (प.नि जि.१७, पृ. ६२५); तीसरी में फिनिशिअन् अंक (ए. नि: जि. १७. पू. ६२५): सभी में हिपरटिए अंक (१ से ३०० तक प. वि जि. १७, पृ. ६२५ से और ४०० से ४००० तक .स संख्या ३, प्लेट ३३ गा में डेमोटिक अंक (1सा संख्या ३, र ३), छठी में अशोक के लेखों में मिलनेवाले अंक (लिपिपत्र, ७२, ७४); सातवीं में नामाचार लेखक (खिपिपत्र ७१, ७२.७४, ७५) आठवीं में कुरानवंशियों के लेखों में मिलनेबाले अंक (लिपिपा ७२, ७२), और नी में छत्रपों तथा आंध्रों के मासिक मादि के लेखों से अंक उत किये गये हैं (लिपिपत्र ७१,७२, ७७, ७). Ahol Shrutgyanam Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवीन शैली के अंक नवीन शैली के काम में १ सेहतक के लिये ९ अंक और लाजी स्थान का सूचक शून्य • है. इन्हीं १. चिकों से अंकविया का समस्त व्यबहार चलता है. इस शैली में प्राचीन शैली की नाई प्रत्येक अंक नियत संख्या का ही सूचक नहीं है किंतु प्रत्येक अंक इकाई, दहाई, सैंकड़े भादि प्रत्येक स्थान पर आ सकता है और स्थान के अनुसार दाहिनी ओर से वाई भोर हटने पर प्रत्येक अंक का स्थानीय मूल्य दसराना पड़ता जाता है, जैसे ११११११ में छुनों अंक १ के ही हैं परंतु पहिले से (दाहिनी ओर से आने से) १, दूसरे से १०, तीसरे से १००, चौथे से १०००, पांचवें से १०००० और छठे से १००००० का बोध होता है. इसीसे इस संख्यासूचकक्रम को दशगुणोत्तर संख्या कहते हैं, और वर्तमान समय में पहुधा संसार भर का अंकक्रम यही है. यह अंककम भारतवर्ष में कब से प्रचलित हुना इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता. प्राचीन शिलालेखों तथा दानपत्रों में ई. स. की छठी शतान्दी के अंत के मास पास तक तो प्राचीन शैली से ही अंक लिस्खे मिलते हैं. नवीन शैली से लिखे हुए अंक पहिलेपहिल कारि सं. ३४६१ (ई. स. ६६५) के दानपत्र में मिलते हैं, जिसके पीछे ई.स. की १० वी शताब्दी के मध्य के पास पास तक कहीं प्राचीन और कहीं नवीन शैली के अंकों का व्यवहार है. उसके बाद नवीन शैली ही मिलती है. परंतु ज्योतिष के पुस्तकों में ई. स. की छठी शताब्दी से बहुत पूर्व इस शैली का प्रचार होना पाया जाता है क्योंकि शक सं. ४२७१ ( ई. स. ५०५) में वराहमिहर ने 'पंचसिद्धांतिका' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें सर्वत्र नवीन शैली से ही दिये हैं. यदि उस समय नवीन शैलीका व्यवहार सामान्प रुप से न होता तोपराहमिहर अपने ग्रंथ में नवीन शैली से अंक न देता. इससे निश्चित है कि ई. स. की पांचवीं शताब्दी के बंत के मासपास तो नवीन शैली से अंक लिखने का प्रचार सर्वसाधारण में था परंतु शिक्षालेल और दानपत्रों के लिखनेवाले प्राचीन शैली के हरे पर ही चलते रहे हों जैसा कि इस देश में हर पात में होता पाया है. वराहमिहर ने 'पंचसिद्धांतिका' में पुलिस, रोमक, बसिष्ठ, सौर (सूर्य) ६. संखडा से मिले हुए गूर्जरबंधी किसी राजा के उक्त दामपत्र में संषत् ‘संवत्सरयताये (2) पदयात्वारियो(राजु)त्तरके । ३४६' दिया है. जी. भार.के ने अपनी स्मिन् मैथमेटिक्स' (मारतीय गणितशास्त्र) मामक पुस्तक में उक्त ताम्रपत्र के विषय में लिखा है कि यह संदेहरहित नहीं है' और टिप्पण में खिला है कि 'ये अंक पीधे से जोड़े गये हैं' (पू. ३१). मि.के का यह कथन सर्वथा स्वीकार करने योग्य नहीं है, क्योंकि उस दामपत्र को संदिग्ध मानने के लिये कोई कारण नहीं है और न कोई कारण मि.के में ही बतलाया है. इसी तरह अंकों के पीछे जोड़ने का कथन भी स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि जब संवत् शब्दों में दिया ही था तो पीबे से फिर उसको अंको में बनाने की आवश्यकता ही नथी. हरिसाल हर्षदराय धुष ने, जिसने उसका संपादन किया है, मूल ताम्रपत्र को देखा था परंतु का विद्वान् को इन अंको का पीछे से बनाया जाना मालूम नहुमा और न उसके फोटो पर से ऐसा पाया जाता है मि.के की भारतीय गणितयात्रा को नवीन ठहराने की बैंचसामने ही इस और ऐसी ही और प्रमाणपन्य कल्पनामों की परिकर दी जिसका एध परिचय मागे दिया जायगा. दो और को दोनों में संवत् देने की परिपाटी प्राचीन है और कई सेवावि में मिलती है, जैसे कि पार(चार)गांव से मिले पुए राजा दुविक के लेख में हुधिरक(क)स्य स(संवत्सर पतरिय ४०'(मा.स. सि .१९०-1, सेट ५६); गिरनार के पास के चटान पर खुप महाक्षत्रप कद्रदामक लेख में 'वर्षे रिसप्ततितमे ७०३'(..जि. पू.४२) यादि. . कॉ.पू. १८.सग.तापू. १३. 'वंशवाय' की टीका में भामरामेवराहमिहरकी मयुगक सं.. ( स. ५८७ ) में होना लिया है वह विनास योग्य नहीं है (सुग.त: पृ. १६). माचिस(२६) एबकासमा रंकादी (पंचसिसिका, मण्याय १. भा). रोमान तिथि(मार पंचम (परिहार | माहिती ww.yामा (पंख )मादि. Aho! Shrutgyanam Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाबीमालिपिमासा. और पितामह इन पांच सिखात अंधों का तो करणरूप से वर्णन किया है और लादाचार्य (माटदेष), सिंहाचार्य, सहाचार्य के गुरु( जिसका नाम नहीं दिया ), भार्यमट', मयुम्न' और विजयनंदिन के प्रसंगवयात् नाम तथा मत दिये हैं, जिससे पाया जाता है कि ये ज्योतिष के भाचार्य पंचसिद्धांतिका' की रचना से पूर्व के हैं, परंतु खेद की बात यह है कि न तो पराइ. मिर के वर्णन किये हुए पांच सिद्धांतों में से एक भी भय उपचौर , मार्यभट (प्रथम)के सिवाय काटाचार्य मादि किसी प्राचार्य का कोई ग्रंथ मिलता है, जिससे उनकी अकोली का निर्णय हो सके. इस समय 'पुविधसिद्धांत' नामक कोई ग्रंप उपलध नहीं है परंतु महोत्पल ने वराहमिहर की बहत्संहिता की दीका में की जगह पुलियसिखात' से बचन बद्धृत किये हैं और एक स्थला में 'भूजविणसिद्धांत' के नाम से एक रखोक भी उदत किया है. उन दोनों में अंक वर्तमान शेखी से ही मिलते हैं. इससे पाया जाता है कि वराहमिहर से पूर्व भी इस शैली का प्रचार था. ययाती (यूसफजई जिले, पंजाब में) गांव से अंकगणित का एक पर निखाइमा प्राचीन पुस्तक जमीन से गहामा मिला है जिसमें अंकनबीन शेती से ही दिये हैं. प्रसिद्ध विशन डॉ. होर्नले ने उसकी रचना का काम ई. स. की तीसरी अथवा चौथी शताब्दी होना अनुमान किया है. इस पर डॉ. मूलर ने लिखा है कि 'पदि हॉर्नेले का अंकगणित की प्राचीनता का यह बहुत संभावित अनुमान ठीक हो तो बस [ अंककम ] के निर्माण का समय ई.स.के प्रारंभकास अथवा उससे भी पूर्व का होगा'.अभी तक तो नवीन शेती के अंकों की प्राचीनता का यहीं तक पता चलता है. है. पंपोजाबाको शाखाहीशाररंग (पंच०१३). १. बागचादरोशी समनपुरे चासो । ठमरने का विचार रिमायोऽमितिः (१४१४), १. पनामा निभिरभि र मारासबवे रिकप्रति नगारपाभा (१४1). ४. प्रजा भूसनये नोचे पीरजरी (१४८). ५. जो 'सूर्यसिद्धांत' इस समय उपलब्ध है महबरामिहर का वर्णन किया हुमा नाम का सिद्धांत नहीं किंतु उससे भिन्न और पिछता है. ६. आर्यभर (प्रथम) ने, जिसका जन्म. स. ४७६ में ( कॉ. प. ३४.. सग.त; पू. २) हुमा था, 'आर्यभटीय' (मार्यसिद्धांत ) नामक ग्रंथ बमाया, जिसको गॉ. कर्म ई.स. १८७४ में हॉलर देशम नगर मै पपवाया है. उसमें अंकन तो शब्दों में और न को में दिये है किंतु सर्पब मरों से दिये हैं जिनका क्रम नवीन शैली से ही है. . शिसोपाः परिवारमा: ( २५-४११) परममियभिमरपिरनमेंदुभिः (१२) निब शंकर बालकमा दीक्षितरचित 'भारतीय ज्योतिम्धारण, पृ. १२) मादिः ये पचन 'पुखिसिद्धांत' से मोस्पत में उपत किये है. मानिसमापिने परिपाः (१५ )। भानो मेरे परितो बहिना (पही, पृ. ११३). यह बचन महोत्पल के अनुसार, 'मलपुलिशसिद्धांत' से है. १. ए.८२. मि.के ने ई.स. १९०७ के एशिमाटिक सोसाटी बंगाल के जर्मन में (पृ.४७५-५०८) नोट्स भोन अन् मेंथेमेटिक्स' (भारतीय गणितशाल पर टिप्पण) नामक विस्तृत लेख में यह बतलाने का यत्न किया है कि भारतीय गणित शास्त्र अब तक जितना प्राचीन माना गया है उसमा प्राचीन नहीं है और उसी लेख में भारतवर्ष के मधीन शली के (वर्तमान) अंको के विषय में लिखा है कि हम पूर्ण सत्यता के साथ कह सकते हैं कि विमों के गणित शास्त्र भर में ई. स. की दसवीं शतादी के पूर्व नवीन शली के (वर्तमान)अंकों के व्यवहार की कल्पना का तनिक भी चिकनहीं मिलता'(पृ.४६३). मि. के के पूस कथन में कुछ भी यास्तविकता नहीं है केवल हठधर्मी ही है क्योकि ई. स.कोठी शताबी के प्रारंभ के आचार्य वराहमिहर * - दियन गरिरममदारमतीन पिसमा (पंचसिद्धांतिका १२१५). समापिर(२०)सायं कासमपाच परम.. कसारीपतिः।), रोमन यशात लिपि (N)मात पंw.in)परिषीमात् । सरकतें रिपो(५७मनामध्यमासः (पं. सि . रमन दोधाकापंचपकः १८५.) । दिदिम(PANभासाः परविवार (२६५४७) प्रहयाः (पं. सिं१ । १५), रामाशात मुनयः शामिपी हिरे सपनो परिक्षा ( २५९६ ) कायम राम्पा (बागहीसंहिता, समर्पिचार, श्लोक ३ ). क्या उपर्युक्त उदाहरण, जिनमें कई जगह शून्य (.)का भी प्रयोग हुमा है. वराहमिहर के समय अर्थात् ई. स. की छठी शताम्दी के प्रारंभ में नवीन शैली के अंको का प्रचार होना नहीं पतलाले! Aho! Shrutgyanam Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक शुन्य की योजना कर नव अंकों से गणित शास्त्र को सरल करनेवाले नवीन शैली के अंकों का प्रचार पहिलेपहिल किस विज्ञान ने किया इमका कुछ भी पता नहीं चलता. केवल पही पाया जाता है कि नवीन शैली के अंकों की सृष्टि भारतवर्ष में हुई. फिर यहां से भरयों ने यह क्रम सीखा और भरवों से उसका प्रवेश यूरोप में हमा, जिसके परिले वाशिमम्, हि, पीक, भरय मावि एशिमा और यूरोप की जातियां वर्णमाला के अक्षरों से अंकों का काम लेती थी. भरयों के यहां खलिफ बलीद के समय (ई.स. ७०५-७१५) तक अंकों का प्रचार म पा जिसके बाद उन्होंने भारतवासियों से अंक लिये. इस विषय में 'एन्साइक्लोपीरिमा त्रिनिका' नामक महान् अंग्रेजी विश्वकोश में लिखा है कि 'यह सर्वथा नि:संशयकिहमारे (मंग्रजी) बर्नमान दशगुणोत्तर काम की उत्पत्ति .''भारतीय है. संभवतः खगोलसंबंधी उन सारणियों के साथ, जिनको एक भारतीय राजदूत ई. स. ७७३ में बगदाद में लाया था, भारतवासियों से उमका प्रवेश भरकों में दुभा. वस्तुतः और सातवीं शताब्दी के लझ । तथा ब्रह्मगुप्त के अंगों में सैकड़ो जगह नवीन शैली से दिये हुए अंक मिलते हैं जिनको देखे बिना ही यह मनमानी कल्पना की गई है. प्राचीन लेख और वामपनों में पर्याप अंक विशेषकर शब्दों में दिये जाते तो भी है. स. की छठी शताब्दी के अंत के मास पास से कहीं नवीन शैली से दिये हुए भी मिलते हैं. मि.के .स. १४ से लगाकर ८८२ तक के १६ लेलो की सूची अपने उस लस मे को है जिनमे कमवीन शखी से दिये हुए है परंतु उनमें से प्रत्येक के अंकों में कुछ न कुछ दूषण लगा कर एक का भी ठीक होना स्वीकार नहीं किया (पृ. ४८२-८६ ) जिसका कारण यही है कि ये लेख उक्त कथन के विरुद्ध १० वीं शताब्दी से बहुत पूर्व के लेखों में भी ममीन शैखी के अंको का प्रचार होना सिख करते हैं. कोई कोई ताम्रपत्र जाली भी पने होते है क्योकि उनसे भूमि पर अधिकार सहसा है परंतु शिलालेखों का पापा भूमि से संबंध होता ही नहीं इस लिये उनको कृत्रिम बनाने की मावश्यकता ही नहीं रहतो. शेरगड (कोटाराज्य में) के दरवाजे के पास की तिवारी की सीदियों के पास एक ताक में लगे हुए सामंत देवदत्त कि. सं.४७( स. ११)के लेख को मैंने देखा है उसमें नवीन शैली के संघ के अंक बहुत स्पर है. डॉ.प्लीट ने उसके संबर के अंश की प्रतिकति छापी है (.; जि. १४, पृ. ३५१ ) जिसमें भी संवत् केक स्पष्ट है (डॉ.क्सीर ने पड़ा है वह अगर है). प्रतिहार नागभट के समय के दुखकला (जोधपुर राज्य में ) के वि. सं. ८७२ (.स. १५के शिलामेव के संवत् के अंक ( . जि. २००के पास का सेट), ग्वालियर से मिलए प्रतिहार मेजदेव के समय के ई. स. ७० के पास पास के शिला लडके (जिसमें संवत् नहीं दिया ) १ से २६ तक लोकांक (मा स...स.१६०३. ४. सैर ७२) और वहाँ से मिले हुए उसी राजा के समय के बि.सं. १३३ (ई.स २०७)के शिलालब में दिये हुए ६३३, १८७और ५० अंक सब के सप नवीन शैली से ही है (.: जि.१, पृ. १६० के पास का मेंट).इन सबलेको की असम प्रतिकृतियां कपी हैं. उसमें दिये हुए अंकों को कोई विज्ञान संशययुक्त नहीं कह सकता. ऐसी दशा में मि.के की उपयुक "पूर्ण सरयता" मै वास्तविक सत्यता का अंश कितना है इसका पाठक लोग स्वयं विचार कर सकेंगे. १. पहिले अक्षरों से १ से १ तक भेक, उनके बाद के समक्ष से १० से १० तक की दहाइयों के अंक मार बाकी के महरों से १००, २०० भावि के अंक बतलाये जाते थे. अब वर्णमाला के अक्षर पूरे हो जाते तब फिर उन्होंने अपर विक लगा कर १००० तक सूचित करने के लिये उनको काम में लाते थे. ग्रीक लोगो में १०००० तक के लिये अक्षर संकेत ये परंतु रोमन लोगों में १००० तक के ही. रोमन अक्षरो स अंक लिखने का प्रसार अब तक यूरोप में कुछ इधमा हुमा है और पापा घड़ियों में घंटों के अंकों और पुस्तकों में कभी कमी सन् के अंक तथा प्लेटों की संख्या मादि में उसका व्यवहार होता है. भरपों में भारतीय अंक प्रहण करने के पहिले भारी से हो अंक बतलाये जाते थे, जिसको 'मजद' (हि वर्णमाला के पहिले अक्षरों के बारणों-काष, ज और वसा कहते हैं. उन्होंने यह प्रकरसंकेत प्रकों से सीखा था. भरपी से फारसी में उसका प्रयोग होने लगा और हिंदुस्तान के मुमसमानों के समय के फारसी लेखी तथा पुस्तकों में कभी कभी अंकसूबक अक्षरों से शम्ब बना कर सन् का अंक बतलाया हुआ मिलता है, जैसे कि 'यात् फीरोज़ (फीरोज़ का देहांत)-हिजरी सन् ७४० 'मसजिद जामिजल शर्क-हिजरी सन् ८५२ श्रादि (क ई पू. २२६), १.प.शिजि. १७, पृ. ६२५, टिप्पण २. मानवादि रिमोसन( जह ज(११) समसः प ORशाकिमि(४) हरज़रोमचिरें चिनीचा मो पिरंप(१५५)परराधि(१) मोररमाvि) चिनिबदमम बस्मिज रिवरखीच. (e) बोमाचिरेर(५१)मिस रिपीन बोनापहरहनकाNिI(शिष्यधीवायवतंभ, उत्तराधिकार), : मरापि अपनवमुनिसरबर(vernmमिना मनिमः । भोगन हिमारपरहरणपिचमाः (Reet) ॥ १९॥ (प्रस्फुटसिद्धांत, मध्यमाधिकार ). Ahol Shrutgyanam Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. ई. स. की नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में प्रसिद्ध भबुज़फ़र मुहम्मद मल् खारिज्मी ने अरबी में उक्त क्रम का विवेचन किया और उसी समय से उसका प्रचार भरवों में बढ़ता रहा.' _ 'यूरोप में शून्यसाहित यह पूरा [अंक क्रम ई. स. की १२ वीं शताब्दी में अरबों से लिया गया और इस कम से बना हुमा अंकगणित 'भल्गोरिदम' (अल्गोरिथम् ) नाम से प्रसिद्ध हुआ. यह (अल्गोरिदमम् ) विदेशी शब्द 'मल्खारिज़मी' का अक्षरांतर मात्र है जैसा कि रेनॉड ने अनुमान किया था, और उक्त परम गणितशाखवेता के अनुपलब्ध अंकगणित के पुस्तक के कैंब्रिज से मिले हुए अद्वितीय हस्तलिखित लॅटिन अनुवाद के, जो संभवतः पायमिवासी ऐडेलही का किया हुभा है, प्रसिद्ध होने के बाद वह (अनुमान) प्रमाणित हो गया है. स्वारिज्मी के अंकगणित के प्रकारों को पिछले पूर्वीय विद्वानों ने सरल किया और उन अधिक सरल किये हुए प्रकारों का परिचमी यूरोप में पीसा के लेभोनार्डो ने और पूर्वी में मॅक्तिमा प्लॅनुडेस ने प्रचार किया. 'जिरो' शब्द की उत्पत्ति भरवी के 'निफर शब्द से, लियोमाडों के प्रयुक्त किये हुए 'ज़िफिरों शब्दवास, प्रतीत होती है। भारतीय अंकों से भरयों के और उनसे यूरोप के अंकों की सर्वमान्य उत्पत्ति के विरुद्ध मि. के ने उपयुक्त लेख के प्रारंभ में ही लिखा है कि 'यह कहा जाता है कि हमारे अंकगणित के अंकों की उत्पत्ति भारतीय है. पीकॉक, सल्स, बोके, कँटोर, घेले, चूलर, मॅकडोनेल और दूसरे लेखक प्रायः निश्चय के साथ यही कहते हैं और विश्वकोशों नया कोशों का यही कथन है. तो भी इस समय जो सामग्री उपलब्ध है उसकी सावधानी के साथ परीक्षा करने से यह पाया जाता है कि उन(अंकों)की भारतीय उत्पत्ति की कल्पना उचित प्रमाण से रहित है. सी परीक्षा यही बतलाती है कि उन कपनों में से बहुत से निस्सार हैं' (बंगा.ए.सो.ज; ई.स. १९०७, पृ. ४७५ ). भरपी में अंकों को 'हिंदसे कहते हैं जिसका पतक के विद्वान हिंद ( हिंदुस्तान ) से लिये जाने के कारण ऐसा कहलाना मानते हैं, परंतु मि. के का कथन है कि 'राम्दव्युत्पतिशास्त्र का बड़ा ज्ञाता फीरोज अववि (ई.स. १३२६-१४२४ ) 'हिंदसह' शब्द की उत्पत्ति 'अंदाजह से होना बतलाता है, जिसका अर्थ परिमाण है. हरेक पादमी विचार सकता है कि यह काफी अच्छा प्रमाण है परंतु भारतवर्ष के विषय में लिखनेवालों में से अधिकतर ने इसे स्वीकार नहीं किया' (पृ. ४८६), इसी तरह इन सिना के वर्गसंख्याविषयक नियम में लिखे हुए 'फी भरतरीक प्रदिसे' और उसीके घनसंख्याविषयक मियम में दिये हुए 'अलिहसाब अहिदसे' में 'हिंदसे' शब्दों का हिंद (हिंदुस्तान ) से कोई संबंध न बतलाने का यत्न किया है (पृ. ४६.). मि. के का यह कथन भी स्वीकार करने योग्य नहीं है और वैसा ही है जैसा कि उपर्युक्त यह कथन कि 'हिंदुओं के गणितशास्त्र भर में ई.स. की दसवीं शताब्दी के पूर्व नवीन शैली के ( वर्तमान ) बंकों के व्यवहार की कल्पना का तनिक भी चिक नहीं मिलता' (देखो, ऊपर पृ. ११६, टिप्पण). ऐसे कयनों का प्रतिवाद कर लेख को बढ़ाने की हम प्रापश्यकता नहीं समझते. प्रसिद्ध विद्वान् अल्वेरुनी ने, अपनी भारतवर्ष संबधी तहकीकात की भरवी पुस्तक में. जो ई. स. १०३० के पास पास लिखी गई थी, लिखा १. अरयों के द्वारा भारतीय अंकों का यूरोप में प्रवेश हुश्री उससे बहुत पहिले अर्थात् ई. स. की ४ थी शताम्बी के आस पास निमो-पिथागारिनन् नामक अध्यारम विधा के उपदेशक, संभवतः अलक्जरिमा (मिसर में) की तरफ भारतीय अंको का ज्ञान प्राप्त कर, उनका यूरोप में ले गये परंतु उनका प्रचार मधिक म बढ़ा और ये सार्वदेशिक न हुए. यूरोप में भारतीय अंकों का वास्तविक प्रचार स्पेन पर भरोका अधिकार होने के बाद भरपो के द्वारा ही मा. इसीस यूरोप वर्तमान अंको को 'अरेपिए (अरबों के) अंक' कहते हैं १. प.नि जि.१७.पू. ६२६. Aho! Shrutgyanam Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि 'हिंदूलोग अपनी वर्णमाला के अक्षरों को अंकों के स्थान में काम में नहीं लाते जैसे कि हम हि वर्णमाला के क्रम से भरची अक्षरों को काम में लाते हैं. हिंदुस्तान के अलग अलग हिस्सों में जैसे अक्षरों की माकृतियां भिन्न हैं जैसे ही संख्यासूचक चित्रों की भी, जिनको अंक कहते हैं, भिन्न है. जिन अंकों को हम काम में लाते हैं वे हिंदुओं के सबसे सुंदर अंकों से खिने गये हैं...जिन भिन्न भिन्न जातियों से मेरा संपर्क रहा उन सबकी भाषाओं के संख्यासूचक क्रम के नामों (इकाई, दहाई सैंकड़ा भादि ) का मैंने अध्ययन किया है जिससे मालूम हुमा कि कोई जाति हजार से भागे नहीं जानती. भरय लोग भी हजार तक नाम ] कानते हैं. इस विषय में मैंने एक अलग पुस्तक लिखा है. अपने अंकमाम में जो हजार से अधिक जानते हैं वे हिंदू हैं."वे संख्यासूचक क्रम को १८ चे स्थान तक ले जाते हैं जिसको 'परार्द्ध' कहते हैं. ...... अंकगणित में हिंदू लोग अंकों का उसी तरह प्रयोग करते हैं जैसे कि हम करते हैं. मैंने एक पुस्तक लिख कर यह बतलाया है कि इस विषय में हिंदू हमसे कितने भागे पड़े हुए हैं'. मलबेरुनी का, जो भरथों सथा हिंदुओं के ज्योतिष और गणितशास्त्र का पूर्व ज्ञाता था और जिसने कई परस तक विस्तान में रहकर संस्कृत पड़ा था इतना ही नहींत जो सस्कत अनुष्टुभ् छंद भी बना लेता था और जिमको इस देश का व्यक्तिगत अनुभव था, यह कथन कि 'जिन अंकों को हम काम में लाते हैं वे हिंदुओं के सय से सुंदर अंकों से लिये गये है,' मि. के के विचार में ठीक न जचा परंतु १५ वीं शताब्दी के भासपास के शब्दव्युत्पस्तिशाल के ज्ञाता फ्रीरोज़ अबदी का, जो गणितशास्त्र का ज्ञाता न था, 'हिंदमह' शब्द की उत्पत्ति 'अंदाज़ा' शब्द से बतलाना ठीक जच गया जिसका कारण यही है कि पहिले का लेख मि. के के विरुद्ध और दूसरे का अनुकूल था. 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटमिका' नामक महान् अंग्रेजी विश्वकोष की १७वीं जिल्द के ६२६ में पृष्ठ पर नानाघाट के लेख के, भारतीय गुफामों के लेखों केभार १०वीं शताब्दी के नागरी के अंक दिये और उनके नीचे ही शीराज में लिखी हई १०वीं शताब्दी की एक भरपी पुस्तक के भी अंक दिये हैं जो वस्तुतः प्राचीन नागरी ही हैं। उनमें केवल ४ के अंक को टेढ़ा और ७ को उलटा लिखा है वाकी कोई अंतर नहीं है. अरबी, फारसी और उर्दू तक के अंक, उन लिपियों की लेखनशैली तथा सेमेटिक अंकों के अनुसार दाहिनी भोर से बाई भोर न लिखे जा कर हिंदरीति से ही बाई ओर से दाहिनी भोर अब तक लिखे जाते हैं. ऐसी दशा में प्रवेरुनी और मि. के में से किसका कथन यथार्थ है यह पाठक लोग स्वयं जान सकेंगे. शम्दों से अंक पतलाने की भारतीय शैली. आर्य लोगों में वेदमंत्रों में स्वरों की प्रशद्धि यजमान के लिये नाश का हेतु मानी जाती थी इस लिये वेदों का पठन गुरु के मुख से ही होता था और थे रट रट कर स्वरसहित कंठस्थ किये जाते थे (देखो, ऊपर पृ. १३-१४). उसी की देखादेखी और शास्त्र भी कंठस्थ किये जाने खगे और मुखस्थ विद्या ही विद्या मानी जाने लगी. इसी लिये सूत्रग्रंथों की संक्षिप्त शैली से रचना हुई कि वे भासानी से कंठ किये जा सके और इसी लिये ज्योतिष, गणित, वैद्यक और कोश प्रादि के ग्रंथ भी श्लोकबद्ध लिखे जाने लगे. अन्य विषय के ग्रंथों में तो अंकों का विशेष काम नहीं रहता था परंतु ज्योतिष और गणित संबंधी ग्रंथों में लंबी लंबी संख्याओं को १. सा . जि. १, पृ. १७४, १७७. Aho! Shrutgyanam Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाना. रहोकों में लाने में कठिनता रहती थी जिसको सरल करने के लिये संभवत: शालोंकेमाचापोंने संपावक सांकेतिक शब्द स्थिर किये हों. ये सांकेतिक शब्द मनुष्य के चंग, इंदों अथवा उनके परणों के महर, देवता, साहित्य के अंग, प्रह, ममत्र आदि एवं संसार के भनेक निरिचा पदापों की संवा पर से कपित किये गये हैं. प्रत्येक नाम के लिये संस्कृत भाषा में अनेक शब्द होने से प्रत्येक संख्या के लिये कई दाद मिलते हैं जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते है•म्प, ख, गगन, माकारा, अंबर, पत्र, वियत्, व्योम, अंतरिक्ष, नभ, पूर्ण, रंभ भादि. मादि, शशि, व विधु, छ, शीतांशु, शीनररिम, सोम, शशांक, सुपारा, मन, भूमि, चिनि, बरा, रा, गो, पसंपरा, पृथ्वी, एमा, परणी, बसुधा इना.क. मही, रूप, पितामह, नायक, मानुपादि. व्यम, गमला, अस्थिन, नासत्य, इल, कोचन, नेत्र अधि, रवि, रज, नयन, चण, पच, बाह कर, कर्ण, च, भोड, गुल्फ, जानु, जंभा, मय, मंड, युगल, युग्म, अयम, कान, रविद्रो मादि. राम, ण, लिगुण, लोक, त्रिजगत्, सपन, काल, त्रिकाल, विगत, त्रिनेत्र, सहोदरा, अग्नि, पाहि पार :, वैचामर, पहन, तपन, हुताशन, ज्वलन, शिखिन्, माह होतबादि. द, ले, सहा सागर, अधि, जलधि, उदधि, जलनिधि, अंबुधि, केंद्रवर्ण, नामम, पुग, तुर्प, कल, य. भाप, विश (दिशा) बंधु, कोड, वर्ण मादि. ५माण, शर, सापक, पु, भूत, पर्य, प्राण, पोष, अर्थ, विषप, महाभून, तत्प, दिप, रल आदि. रस, अंगा, काय, ऋतु, मासा, दर्शन, राग, भरि, शासतर्क. कारक मादि. नग, ART, मृत, पर्वत, शैल, पद्रि, गिरि, अषि, मुनि, भत्रि, पार, स्पर, पातु, परब, सुरग, वाणि, कंद, धी. कसत्र, भादि. सबसु, महि, नाग, गज, दंति,दिग्गज, हस्तिन् , मातंग, कंजर, बिप, सर्प, तप, सिद्धि, भूति, अनुष्टुभ. मंगल आदि. अंक, नंद, निधि, ग्रह, रंध्र, छिद्र, बार, गो, पवन आदि. १०-दिश, दिशा, माशा, अंगुलि. पंक्ति, ककुभ्, रावणशिरम्, अवतार, कर्मन् मादि. ११-रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, भर्ग, शूलिन्, महादेव, अक्षौहिणी भादि. १३-रवि, सूर्य, अर्क, मार्तड, घुमणि, भानु, आदित्य, दिवाकर, मास, राशि, व्यय भादि १३-विश्वेदेवाः, काम, अतिजगती, अघोष आदि. १४-मनु, विद्या, इंद्र, शक्र, लोक आदि. १५=तिधि, घर, दिन, अहन्, पक्ष प्रादि. १०-अप, भूप, भूपति, अष्टि, कला श्रादि. १७-अत्यष्टि. १८-धृति. १६ अतिधृति. २०-नख, कृति. २१= उस्कृति, प्रकृति, स्वर्ग. २२-कृती, जाति. २३ विकृति. २४ - गायत्री, जिन, अहत्, सिद्ध श्रादि. २५ = तत्व. २७-नक्षत्र, खडभ मादि. ३२-दंत, रद आदि. ३३ - देव, अमर, त्रिदश, सुर भादि. ४०-नरक. ४८-जगती. ४६-तान. Aho! Shrutgyanam Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार शन्दों से अंक बतलाने की शैली बहुत प्राचीन है. वैदिक साहित्य में भी कभी कभी इस प्रकार से अंक बतलाने के उदाहरण मिल भाते हैं जैसे कि शतपथ और सैसिरीय ब्राह्मणों में ४ के लिये 'कृत' शब्द, कात्यायन' और लाव्यायन श्रौतसूत्रों में २४ के लिये गायत्री' और ४० के लिये 'जगती' और घेदांग ज्योतिष में १, ४, ८, १२ और २७ के लिये क्रमश: 'रूप', 'अय', 'गुण', 'युग' और 'भसमूह' शब्दों का प्रयोग मिलता है. पिंगल के छंदःसूत्र में तो को जगह अंक इस तरह दिये हुए हैं. 'मूलपुलिरासिद्धांत' में भी इस प्रकार के अंक होना पाया जाता है. घराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका (ई.स. ५०५), ब्रह्मगुप्त के 'प्रा. स्फुटसिद्धांत'(ई.स.६२८), लक्ष के शिष्यधीवृद्धिद' (ई.स. ६३८ के पास पास) में तथा ई र की सातवीं शताब्दी के पीछे के ज्योतिष के प्राचार्यों के ग्रंशों में हज़ारों स्थानों पर शन्दों से अंक बसलाये हए मिलते हैं और अब तक संस्कृत, हिंदी, गुजराती भादि भाषाओं के कवि कभी कभी अपने ग्रंथों की रचना का संवत् इसी शैली से देते हैं. प्राचीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों में भी कभी कभी इस शैली से दिये हुए अंक मिल माते हैं. मि.के ने भारतीय गणितशास्त्र' नामक अपने पुस्तक में लिखा है कि 'शब्दों से अंक प्रकट करने की शैली. जो असाधारण रूप से लोकप्रिय हो गई और अब तक प्रचलित है.स. की नीं शताब्दी के प्रासपास संभवतः पूर्व की भोर से [इस देश में ] प्रवृत्त हुई' (पृ. ३१). मि. के का यह कथन भी सर्वथा विश्वास योग्य नहीं है क्योंकि वैदिक काल से लगा कर ई. स. की सातवीं शमान्दी तक के संस्कृत पुस्तकों में भी इस शैली से दिये हुए अंकों के हजारों उदाहरण मिलते हैं. यदि मि.के ने घराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका' को ही पढ़ा होता तो भी इस शैली के असंख्य उदाहरण मिल पाते. अक्षरों से अंक बतलाने की भारतीय शैली. ज्योतिष आदि के श्लोकबद्ध ग्रंथों में प्रत्येक अंक के लिये एक एक शब्द लिखने से विस्तार बड़ जाता था जिसको संक्षेप करने के लिये अक्षरों से अंक प्रकट करने की रीतियां निकाली गई. उपलब्ध ज्योतिष के अंधों में पहिले पहिल इस शैली से दिये हुए अंक आर्यभट (प्रथम) के मार्यभटीय' (भार्यसिद्धांत ) में मिलते हैं जिसकी रचना ई.स. ४६६२ में हुई थी. उक्त पुस्तक में अक्षरों से अंक नीचे लिखेअनुसार बतलाये हैं १. हुहोमसोम शर्मा (श.बा.३. ३.२.१). . चरबारः सोभा शाहत (ते. ग्रा१.५१९.१). .. रच्छिा बानोचम्पा मारतास पर टीका-जापनीचपना गावागहरसमामायापििनर्मायो रांचवा . मारास पर टीका-जगत्या सम्बका रासप प्राषिः । भगत्यचरसमाना पाचवारिमाको भाति (का.भी. पदेवर का संस्करण : पृ. १०१५). मारोपनाचिरा पासपोरपार जमनीपा राना (ला. श्री. स. प्रपाठक, कंडिका ४, सूत्र ३१), इस पर टीकामाचीसंपतिः । ... बनोसपा पारवारिकत्।। कमीन परवीनम् (याजुष, २३१ मार्च,दिरं पायवतम् ( याजुष, १३ मार्च, ४); रिक्षाभ्यो नाकार (मार्च, १६) पमहका सपरं सार (याजुष, २५) रिभ भासून ( याजुष, २० ). . समगसरा ( मंदाक्रांताकी यति). चारित्ययः (शार्दूलविक्रीडित की यति). सरभिरमाः (सषक्षमा की पति), परमः (अजंगषिमित की पति)-पिंगलछवासूत्र ..देखो, ऊपर पृ. ११६ रि.. . देखो, ऊपर पृ. ११६ दि. *... देखो, ऊपर पृ. ११७ टि... .देखो, ऊपर पू. ११७.टि. + १. रममावती की मन कासम रिमाल ( धौलपुर से मिले हुए बाहमान संगमहासेन के वि. सं. ८८ के शिलालेखसे(., जि.१५, पू. ). १. मिरिरहला मका (वीजाक्य मम्म दूसरे के समय के श.सं.८६७ के दानपन से..मि.७.११६) पीपरारिमारीपराधिकारी साबिसराभा नमाम्य (मार्यमटीय, माया), Aho! Shrutgyanam Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ प्राचीमलिपिमाला. -१. स्व= २. ग्-३. ४. ५. ८- ६. ७. ज्-८. ६. पू.१०. द.११. ८-१२. ८-१३. -१४. ए-१५. त्-१६. ८-१७. ६-१८. ५-१६. २-२०, ५-२१. २-२२. २३. म्२४. म् - २५. =३०. र-४०. ल=५०. ६.३०. ५-७०. =८०. म्-१.. -१००० - १. १-१००, ३= १००००. भू-१०००.००. ल-१००००००००. ए-१००००००००००. ऐ-१००००००००००००. मो-१००००००००००००००. श्री १००००००००००००००००. इस शैली में स्वरों में दूस्व दीर्घ का भेद नहीं है. व्यंजन के साथ जहां स्वर मिला हुआ होता है यहां व्यंजनसूचक अंक को स्वरसूचक अंक से गुणना' होता है और संयुक्त व्यंजन के साथ जहां स्वर मिला होता है यहां उक्त संयुस व्यंजन के प्रत्येक घटक व्यंजन के साथ वही स्वर माना जाता है जिससे प्रत्येक व्यंजन सूचक अंक को उक्त स्वर के सूचक अंक से गुण कर गुणनफल जोड़ना पड़ता है। इस शैली में कभी कभी एक ही संख्या भिन्न अक्षरों से भी प्रकट होती है. ज्योतिष के प्राचार्यों के लिये भार्यभट की यह शैली बहुत ही संक्षिप्त अर्थात् घोड़े शब्दों में अधिक अंक प्रकट करनेवाली धी परंतु किसी पिछले लेखक ने इसको अपनाया नहीं और न यह शैली प्राचीन शिलालेखों तथा दानपत्रों में मिलती है, जिसका कारण इसके शब्दों का कर्णकद होना हो अथवा आर्यभट के भूभ्रमणवादी होने से भास्तिक हिंदुओं ने उसका बहिष्कार किया हो. आर्यभट (दूसरे ) ने, जो ललल और ब्रह्मगुप्त के पीछे परंतु भास्कराचार्य से पूर्व अर्थात् ई.स. की ११ वीं शताब्दी के भासपास हुमा, अपने प्रार्यसिद्धांत' में १ से 8 तक के अंक और शून्य . के लिये नीचे लिखे अक्षर माने हैं: -- १. 'क'-xx-५४१००-५००. दु'- उ२३४ १००००=२३००००६ 'ए'- ल-१५४ १००००००००=१५००००००००. २. 'धू ( + )- ४ +४ =२४ १०००000+co४९०००००0%D२००००००+८००००००० - प९००००००. 'स्यु' (स+यु)- ४ + २४-१x१००००+३०४ १००००-२००००+ ३०००००-३२००००. _ 'बम'-४ +मx-xxt+२५४१-५+२५-३०; यही अंक (३०) '' से भी सूचित होता है (स्मीयः मा.१), कि-४-१४१००-१००, यही अंक 'ह' से भी प्रकट होता है. . भार्यभट प्रथम ने 'पगरविभवाः एव विनिविदास कमिशहरमप्राक.' इस भाषी पायों से महायुग में होनेवाले सूर्य ( ४३२००००) और चंद्र (५७७५३३३६ ) के भगण तथा भूनम (१५८२२३७५००) की संस्था दशगुषोत्तर संख्या के क्रम से बतलाई है जिसका म्यौरा नीचे अनुसार है'वयगियिशुमन' शिशिधुपलायु सयु ३२०००० ५०० घृ = ४०००००० शि - Vooo ३०० २३०००० ४३२००००. यि - ३००० १५०००००००० ५०००० ८२000000 ७००००० ५७०००००० १५८२२३७४०० ५७७५३३३६ .. कशाकररथपूर्ण पर्वा परमारभाबका । नमो समय समाचार गोवा (भार्यसिद्धांत, मधिकार ) * 'ल' में 'सू' स्पर नहीं है किंतु 'अ't (ExtexT). + गल' में सस्वर है (४).' Aho! Shrutgyanam Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ इस क्रम में केवल व्यंजनों से ही अंक सूचित होने हैं, स्वर निरर्थक या शून्पसूचक समझे जाते हैं और संयुक्त व्यंजन के घटक व्यंजनों में से प्रत्येक से एक एक अंक प्रकट होता है. संस्कृत लेखकों की शब्दों से अंक प्रकर करने की सामान्य परिपाटी यह है कि पहिल शब्द से इकाई दूसरे से दहाई, नीसरे से सैंकड़ा आदि अंक सूचित किये जाते हैं (अंकानां चामतो गतिः), परंतु भार्यभट ने अपने इस क्रम में उक्त परिपाटी के विरुद्ध अंक बतलाये हैं अर्थात् अंतिम अक्षर से इकाई, उपांत्य से दहाई इत्यादि. इस क्रम में १ का अंक क, ८, प, या य अक्षर से प्रकट होता है जिससे इसको 'कटपयादि' क्रम कहते हैं. कभी कभी शिलालेखों', दानपत्रों, तथा पुस्तकों के संवत् लिखने में अंक 'कटपयादि' क्रम से दिये हुए मिलते हैं परंतु उनकी और धार्यभट (दसरे) की उपर्युक्त शैली में इतना अंतर है कि उनमें 'अंकानां वामतो गतिः' के अनुसार पहिले अक्षर से इकाई, दूसरे से दहाई प्रादि के अंक घतलाये जाते हैं और संयुक्त व्यंजनों में केवल अंतिम व्यंजन अंक सूचक होता है न कि प्रत्येक व्यंजन. १. मार्यसिद्धांत में नहीं है, परंत दक्षिस में इस शैली के अंकों में उसका प्रयोग होता. जि.५, पृ.२०७) है इस लिये यहां दिया गया है. २. सभी पाहिार मुरसिम चा! HREE गारखा। श्रा. सि. . १. कनक मर (२८ )बिभोग (प्रा. सिः१।५०1. स्टभत्रोकमा) क मा १ व २० मि९ि४में विध (प्रा. सि; ५५). . राधराय(सर) गपिते मकवर्षे.... राषवाव र संच माम( जि. ६.पू. १२१), श्रीमान्को हमनरें भनि ५४ ) गरि विदित्य वर्ग सोपाहो (ई.एँ जि.२, पृ. ३६०), समालोक (२०१५, कान्द सर पनि मचि मिया .. मायालोकः १३५ शकाचे परिमपति * चौसषाधान (प.ई: जि.६.२६). सत्यलोक ३i मकस्याम्द क्रोधिमवरमा शुभ (ग. जि. ३, पृ ३८) . खगोयाममा २)"न कन्याशने सति । भवानमयोनिजांना देदा दीपिका लक्षावि पद ५सिहमक । सदाशित न दिमवायार्थ पितः ॥ (ई.एँ: जि. २१. पृ. ५०). इस दो श्लाकों में पद्गुरुशिष्य ने अपनी वेदार्थदीपिका' नामक 'सर्वानुक्रमणी' की टीका की रचना कलियुग के १५६५१३२ दिन व्यतीत होने पर करना बतलाया है, इस गणना के अनुसार उक्त टीका की रचना कलियुग संघत ५२८४ - शक सं. ११०६ - वि. सं. २२४२ (तारीख २४ मार्च, ई. स. १९८४ ) में होना पाया जाता है. इसी पत्र के टिप्पण में 'शत्यालोके' के सत्या में 'के लिये १ का अंक लिया गया है और क' तथा 'ह' को छोड़ दिया है. ऐस ही उसी टिप्पण में 'तत्वलोके' के 'स्व' के ''के लिये ४ का अंक लिया है, 'त्' के लिये कुछ नहीं. ऐसे ही टिप्पा ६ में 'स्या' और 'न्मे में प्' और 'म्' के लिये क्रमशः १ और ५ के अंक लिये हैं बाकी के अक्षरों को छोड़ दिया है. Aho! Shrutgyanam Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. ऊपर वर्णन की हुई अक्षरों से अंक सूचित करने की शैलियों के अतिरिक्त दक्षिण में मलबार और तेलुगु प्रदेश में पुस्तकों के पत्रांक लिखने में एक और भी शैली प्रचलित थी जिसमें 'क' से 'ळ' तक के अक्षरों से क्रमशः १ से ३४ तक के अंक, फिर 'बारखड़ी' ( द्वादशावरी) के क्रम से 'का' से 'का' तक था की मात्रासहित व्यंजनों से क्रमशः ३५ से ६८ तक, जिसके बाद 'कि' से 'कि' तक के इ' की मात्रासहित व्यंजनों से ६६ से १०२ तक के और उनके पीछे के अंक 'ई', 'उ' आदि स्वरसहित व्यंजनों से प्रकट किये जाते थे'. यह शैली शिलालेख और ताम्रपत्रादि में नहीं मिलती. अक्षरों से अंक प्रकट करने की रीति आर्यभट (प्रथम) ने ही प्रचलित की हो ऐसा नहीं है क्योंकि उससे बहुत पूर्व भी उसके प्रचार का कुछ कुछ पता लगता है. पाणिनि के सूत्र १.३. ११ पर के कात्यायन के वार्तिक और कैट के दिये हुए उसके उदाहरण से पाया जाता है कि पाविनि की अष्टाध्यायी में अधिकार 'स्वरित' नामक वर्णात्मक चिह्नों से बतलाये गये थे और वे वर्ष पाणिनि केशवसूत्रों के क्रम के अनुसार क्रमशः सूत्रों की संख्या प्रकट करते थे अर्थात् उ=३ आदि .. ०१०२ ૨૦ लिपिपत्र ७१ वां. 2 इस लि पत्र में दो खंड हैं, जिनमें से पहिले में अशोक के लेखों', नानाघाट के लेख, कुरानवंशियों के सम के मधुरा आदि के लेखों, क्षत्रप और आंध्रवंशियों के समय के नासिक आदि के लेखों जों के सिकों, तथा जग्गयपेट के लेखों एवं शिवस्कंदवर्मन और जयवर्धन के दानपत्रों से१से तक मिलनेवाले प्राचीन शैली के अंक उद्धृत किये हैं. दूसरे खंड में गुप्तों तथा उम8 के समकालीन परिवाजक और उच्छकल्प के महाराजाओं आदि के लेख व दानपत्र, वाकाटक ", पल्लव तथा शालव या वंशियों" एवं वलभी के राजाओं" के दानपत्रों, तथा नेपाल के शिलालेखों से वे ही अंक उद्धये गये हैं. १. ब. सा. ई. पू. ८० वर्मा के कुछ हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में 'क' से 'कः' तक से १ से १२ तक, 'ख' से ' तक से १३ से २०५. 'ग' से 'गः' तक से २५ से ३६ इत्यादि बारखड़ी के क्रम से अंक बतलाये हैं. सीलोन ( लंका ) के पुस्तकों के ऐसे ही पत्र में वर स्वरसहित जनों से भी अंक बतलाये हुए मिलते है जिसके 'क' से 'का' तक से क्रमशः १ से १६, 'स्व' से 'खः' तक से १७ से ३२ आदि श्रंक बतलाये जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं तब फिर 'क', '२ का' आदि से आगे के अंक सूचित किये जाते है ( बू) ई. पे . ५.०७. लु व्यंजन ९. देखो, ऊपर पृ. ७ टिप्पण ५ और वे ई. लि. पृ. २२२. २. ऍ. ई जि. २. पृ. ४६० के पास का लेट. ई. ऍ जि. २२. पू. २६ के पास का प्लेट. लिपिपत्र ७९ से ७६ तक में जो i उप अंक दिये गये है ये बहुत भिन्न भिन्न पुस्तकों में छुपी हुई खाद की प्रतिकृतियों से लिये गये हैं इसलिये पत्र के टिप्पणी में हम बहुधा पत्रांक देंगे, जिससे पाठक उसके पास या उनके बीच के प्लेट समझ लेवें. * श्री. स. वे. ई जि. ५२ * पॅई; जि. १, पृ. ३८८-६३, जि. २, पृ. २००-२०६, ३६८ जि. १०, पृ. १०७. ई. एँ; जि. ३७, पृ. ६६. 4. आा. स. वे. ई जि. ४, प्लेट ५२-५५. पं. ६ जि. प. पू. ६०-६० ( प्लेट १-८ ). * बांसवाड़ा ज्य ( राजपूताना ) के सिरवाणिमा गांव से मिले हुए पश्चिमी क्षत्रपों के २४०० सिकौ, राजपूताना म्यूज़ियम ( अजमेर) रक्खे हुए १०० से अधिक सिक्कों से तथा रा; कॅ. कॉ. आ. क्ष; प्लेट १-१७. श्री. स. स. ई ; जि. १, प्लेट ६१०३. ऍ. ई. जि. १, पृ. ६: जि. ६, पृ. ४-६ ३१६-६, २. फ्ली. गु. ई. प्लेट १-४, ६, १२, १५, १६, ३६, ३८, ३६, ४१. ऍई जि. ६, पृ. ३४४. ए. फ्ली; गु. ई प्लेट २६, ३४. ११० ऍ. ई: जि. प. पू. १६२, २३५, जि. ६६ पृ. ५६. ई. : जि. ५, पृ. ५०-५२ १४४-३६, १७६-७७ १९. ऍ. इंजि. २, पृ. ३२१, जि. ५, पृ. ११३ जि. ११, पृ. ८३, १०६-१६ १७६. सी गु. ई फोट २४-२४. ई. पं जि. ५. पू. २०७८ जि. ६, पृ. १४-६: जि. ७, पृ. ६६-७८. शा. सः रि: ई. स. १६०२-३, पू. १३५. ज. संच. प. सो; जि. १२ पू. ३६३. १. पं. जि. ६ . १६४-७८. Aho! Shrutgyanam Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ लिपिपत्र ७२ वा. इस लिपिपत्र में दो खंड है जिनमें से पहिले में कलिंग के गंगावंशियों के दानपत्रों, मतिदारवंशियों के शिलालेख व दानपत्रों', भिन्न भिन्न लेख और दानपत्रों, मि. याषर के पास किये हुए हस्तलिखित पुस्तकों', नेपाल के बौद्ध ग्रंथों तथा जैन पुस्तकों से१से ह तक के प्राचीन शैली के अंक उद्धृत किये गये हैं. दूसरे खंड में अशोक के लेखों, नानाघाट के लेख', कुशनवंशियों के समय के मथुरा मादि के लेखों,क्षसपों और मांध्रवंशियों के समय के नासिक आदि के लेखों, चत्रपों के सिकों तथा जग्गयपेट के लेखों एवं पश्लव शिवस्वंदवर्मन् मादि के मानपत्रों से प्राचीन शैली के १० से १० तक के अंक दिये गये हैं. लिपिपत्र ७९ वा. इस लिपिपत्र में दो खंड हैं जिनमें से पहिले में गुप्तों और उनके समकालीम राजामों के लेखादि,वाकाटक श्रादि वंशियों तथा वलभी के राजामों और शाकायनवंशियों के दामपत्रों, नेपाल के लेखों तथा कलिंग के गंगावंशियोंकेशनपत्रो से १० से.तकमाचीन गली के अंक है . जि. ३, पृ. १२६, १३३, जि.४, पृ. १५५, १६७. ई.एँ; कि. १३. पृ. १९१, १२३. २. पं. जि.५, पृ. २०६.५ जि.१५, पृ. ११२, १४०. आठका अंक जोधपुर से मिले हुए प्रतिहार बाउक के वि. सं. ४ (ई.स. ३७) के लेख से, जो राजपूताना म्यूजिभ्रम् (अजमेर) में रक्षामा लिया गया है। ___.. २का अंक पं. जि. १०, पृ. ५१ से. ४का ऍ जि .५, पृ.८ से. और के. जि.७, पृ.५ से. का ऐ.: जि.५. पृ.८ से. का पहिला रूप पं. जि.११, पृ. ३०४ से और दूसराज. प. सो। जि.१६, पृ.१००. ४. यावर मनुस्किपू, मूमिका, पृ. २६, टेबल ४ था. ५. पू. ई. पे; मेट 1, पक्कि २०-२३, २६ ई. जि.६, पृ.४४, पलि . १. ई.प्लेट , पक्ति २४-२५. इ.५ जि.६, पृ. ४४, पति ८. • ईएँ जि. २२, पृ. २६८ ( सहस्राम). . जि.३, पृ. १३८. ८. प्रा. स. के. जि. ५, प्लट ५१. ८. पं. जि. ३, पृ. ३०-६३; जि. २, पृ. २००-२०१; जि.१०, पृ. १०७. मा. स.रि.स. १९०८-८, प्र . १. देखो, ऊपर पृ. ११४. दिप्पा ६. ११. देखो, अपर पृ. १२४, टिप्पण ७. १९. श्रा. स. स. जि.१ प्लेट ६२-६३. जि. पू. ८, ३१६. १६. पली: मु. प्लेट २-४, ६, १२, १५, १६, ३६, ३८, ३१. ११. .: जि.८, पृ. २८७ जि.1, पृ. ४४जि .१. १०. क्ली.गु प्लेट २७, ३४. १५. . जि., पृ. २३ जि.१५, पृ.८३, १११, ११३, १७६. ई.। जि.५, पू. २०७, २० जि. पू. ११,१५ पृ. ६६.७३, ७५, ७, जि. ६.पृ.१३६ जि.१४, पृ. ३२८. फ्ली। गु. पोट २४-२४. मा. स.रि ई.स.१६०१प्र.२३४. ज.ब.प.सो जि.११, पृ. ३६३. भा. पृ.५६. १ . जि.३, पृ. १२६, १३३, जि. पृ. १६७. ई. जि. १३. पू. १५१, १२३. Aho! Shrutgyanam Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्राचीनलिपिमाला. दिये गये हैं और दूसरे में प्रतिहारवंशियों के दानपत्रादि, भिन्न भिन्न लेखों व दानपत्रों', मिपावर के पुस्तकों', नेपाल के बौद्ध पुस्तकों तथा जैन पुस्तकों से वे दी अंक दिये गये हैं लिपिपत्र ७४ वा. इस लिपिपत्र के दो खंड है जिनमें से पहिले में अशोक के लेखों, नानाघाट के लेख, मासिक के लेखों", क्षत्रपों के सिक्कों, गुप्तों तथा उनके समकालीन राजाओं के लेखादि" तथा बलभी के राजाओं के दानपत्रों से १०० से ७००नक के प्राचीन शैली के अंक दिये गये हैं और दूसरे में नेपाल के लेखों, कलिंग के गंगावंशियों और प्रतिहारों के दानपत्रों, भिन्न भिन्न लेवादि एवं पौद्ध और जैन पुस्तकों से १०० से १०० तक के अंक दिये हैं. लिपिपत्र ७५ पां. इस लिपिपत्र के तीन खंड किये गये है जिनमें से दो पूर्वार्द्ध में है. उनमें से पहिले में नानाघाट के लेख,नासिक के लेखों तथा वाकाटकों के दानपत्रों से १००० से ७०००० तक के प्राचीन शैली के अंक दिये गये हैं और दूसरे में भिन्न भिन्न शिलालेखों तथा दानपत्रों से १५ से २४४०० तक के मिलवां अंक दिये हैं. १ .जि ५. पृ. २०६. . , जि. १५. पृ. ११२. २४० और राजपूताना म्युज़िश्रम में रक्त हुए कनौज के प्रतिद्वार राजा महेंद्रपाल (दूसरे) के समय के परतापगढ़ (राजपूताना) से मिले हुए वि.सं.१००३ (ई. स. ६४६ ) के लेख से. ..१०का पहिला रूप .जि.६, पृ.२६६ से; दूसरा ऐं. जि. ११, पृ. ३०४ से; तीसराई, जि.७, पृ. २४५ से. २०का पहिला रूप . जि ४. पृ. २१० से इसरा ऍ. जि.८, पृ. २३२ से; तीसरा ऐं. जि. १०, पृ.५१ से. ४० का पहिला रूप में, जि.६, पृ. २६६ से; दूसरा पं. जि. ११, पृ. २२१ से. ५० का पहिला रूप जि. ११. पृ.१६ से; दूसरा . जि. ५. पृ.८ से. ६० जि. ६. पृ. २६ से. ७० ज.बंब. प. सो; जि. १६, पृ. १०० से. ८०का पहिला एप जि. ११, पृ. ३०४ से दूसरा पं. जि. ६, पृ. १३६ से. १० का पहिला रूप : जि. २, पृ.२१ सेः इसराएँ जि.५ पृ. ४२ से; तीसरा . जि.१०, पृ. ७४ से; चौधा :जि. ७. पृ. २४६ से .. देखो. ऊपर पृ. १२५, टिप्पण ४. . देखो. ऊपर पृ. १२५, टिप्पण ५. देखो, ऊपर पृ. १२५, टिप्पण ६. १. ई. जि. पू. १३८. ई., जि. ६, पृ. १५६ : जि. २२. पू. २६८. . भा.स.के. जि.५ प्लेट १ . प्रा. स. जि.४, प्लेट ५३. ० देखो, ऊपर पृ. १२४ टिप्पण ७. १. फ्ली: गु : प्लेट ६,१९. १४,१६, ३६, ३८, ३६, ६०,६१. ऐं : जि. ८, पृ. २८७, जि.1.पृ. ३६. ११. ए. जि. ३, पृ. ३२१, जि. ११, पृ.८३, १०७, १११, ११३. ; जि. ५, पृ. २०६५जि. ६, पृ. १८. जि.., पृ.६७, ७. मा. स. रिःई. स. १९०२-३, पृ. २३५. ज संच. ए. सो: जि.११, पृ. ३६३: जि. २०, पृ. 10t. १९. . जि. ६, पृ. १६४-७ . .: जि. ३, पृ. १३३ ई.पै; जि. १३. पृ. १२३ । १४. प. जि. ५. पृ. २०६. .एँ: जि. १५, पृ. ११२, १४०. १. २०० का पहिला रूप ऍ. जि. ११, पृ. २२१ से; इसराएँ जि.११.पू. ३०४ से. ४००. जि.८,पृ. २३२. ६०० ज. बंब. . सोजि. १६. पू. १०८. ७०० राजपूताना म्यूज़िम् (अजमेर) में रक्खे उप मेषार के गुहिल राजा शीलादित्य के समय के सामोली गांव (मेवाड़ में) से मिले हुए वि. सं. ७०० (ई.स. ६४६) के लेख से. ८०० ' । नि. १२, पृ. २०३ से. १५. देखो, ऊपर पृ.१२५, टिप्पण ५. १०. देखो, अपर पू. १२५, टिप्पन ६. - मा.स.के. जि.५, सेट ५२. १९. प्रा. स.के. जि.४, पोट ५२-43. स. पली: गु. पोट ३३. Aho! Shrutgyanam Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंक. उत्तरार्द्ध में किसी गूर्जर राजार, राष्ट्रकूट (राठौड़) दंतिदुर्गर और शंकरगण के दानपलों, प्रतिहार नागभट और पाउक' के लेखों, राष्ट्रकूट दतिवर्मन् के दानपत्र', प्रतिहार भोजदेव के दो लेखों', प्रतिहार महीपाल के लेख तथा पुष्कर के लेख से नवीन शैली के सेसिक के अंक, शुम्पसहित, दिये हैं. लिपिपत्र ७६ वा. इस लिपिपल के पूर्वार्द्ध में चौलुक्य (सोलंकी) मूलराज और शिलारा अपराजित के दानपत्रों, परमार मोज के शिलाओं पर खुदे हुए 'कर्मशतक २', सलचुरि कर्ण और चौतुक्य त्रिलोचनपाल के दामपलों, कलचुरि जाजल्लदेव के लेख, अजमेर से मिली हुई चौहानों के ऐतिहासिक काव्य की शिलाओं में से पहिली शिला, पख्याली से मिले हुए हस्तलिखित अंकगणित के पुस्तक एवं बौद्ध पुस्तकों १८ से नवीन शैली के शुम्पसहित १ सेह तक के अंक दिये गये हैं. उत्तराई के दो खंड किये गये हैं जिनमें से पहिले में शारदा लिपि के लेखों५, बंगला लिपि के लेख व दानपत्रों और तेलुगुकनडी लिपि के लेखादिरासे नवीन शैली के शून्यसहित १ से सक के अंक दिये गये हैं. दूसरे खंड में खरोष्ठी लिपि के अंक दिये हैं जिनका विवेचन मागे किया जापगा. __ ; जि. ११. पू. ११२. १. प.: जि.. पृ. २००, . राजपूताना म्युज़िमम् । अजमेर में रखे दुप प्रमिहार बाउक के वि. सं. ८८४ लेक से. . .: जि. ६, पृ. २८२. .. पहिले के अंक मेरे विद्वान् मित्र हरविलास सारदा से मिली दुई उक्त लेख की उत्तम छाप से और दूसरे के , . : जि. १६, पृ. २६४. .. राजपूताना म्युज़िमम् (भमर मे रखे हुए वि. सं. १८२ के पुष्कर से मिले हुए लेख से. १. जि. ६. १६३. . प. जि. ३. पृ.२७३. १५. . जि.८, पृ. २४८-६०. . . जि. २, पृ.१०७. . .: जि.१२,पू. २०२. ५. जि. १, पृ.१४. १६. राजपूताना म्युज़िमम् (अजमेर) में रक्खी हुई शिला से. १६. पेः प्लेट (B), पंक्ति ९-१० (IX.X). इ. पे: प्लेट । (B), पंकि११५(XI, XII) १९. फो; .चं. स्टे प्लेट १६,१७, २०, २३, २४, २५, २६, २५, २६, ३०, २२, २३, ४०. स. प. जि.२, पृ. ३५२; जि... पृ. १८२-४ जि. १२, पू. ६. २८.२६, ४१. ई. जि.१०, पृ. ३४२. ज.गा.. सोई.स.१८१६, भाग १, प्लेट १-२०१५९०, प्लेट ७. १. पहिली पंक्ति . जि. पू. २७.८ मि.,पृ. ६२ (0), २१४: जि... पृ. १४९, जि.६, पृ. २३६. . नि.... १३८ जि. ११पृ. १२६ बसरी पंकि पासा..पे ट५से. Aho! Shrutgyanam Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०-सरीही लिपि केक. (हिपिपत्र के उत्तराईका द्वितीय सं). खरोष्ठी लिपि के अंक एक लिपिकी माई विदेशी है. भरपी और फारसी की नाई खरोष्ठी हिपि दाहिनी ओर से बाई और लिखी जाती है परंतु उसके अंक परपी और फारसीके अंकों की नाई गई और से दाहिमी मोर नहीं लिखे जाते किंतु दाहिनी ओर से बाई और लिखे जाते हैं जिसका कारण यही है कि अंक प्रावी और फारसीके अंकों की नई भारतीय अंकों से नहीं निकले किंतु सेमिरिक फिनिशियन (पा हमसे निकले हुए परमाक) को से निकले हुए प्रतीत होते हैं. ई. स. पूर्ष की तीसरी शताब्दी से भारतवर्ष में इन अंकों का कुछ पता लगता है. अशोक के शहबाजमड़ी के लेख की पहिली धर्माज्ञा में १और के लिये क्रमशः एक (1) और दो (1) खड़ी लकीरें, तीसरी में के लिये पांच (m) और १३वीं में ४ के लिये चार (1) खड़ी लकीरें मिलती हैं. ऐसे ही मशीक के मासेराके लेख की पहिली धर्माज्ञामें १और के लिये क्रमश: एक (1) और दो (1), और तीसरी में पांच के लिये पांच (1) खड़ी लकीरें खुदी हैं. इससे पाया जाता है कि उस समय हकतो तक के लियेशन कों का वही कम हो जो फिनिशिवम् में मिलता है, शोकके पीछे शक, पार्थिचन और कुशनशियों के समय के स्वरोष्ठी लेखों में ये अंक विशेष रूप से मिलते हैं. उनमें १, २, ३, ४, १०, २० और १०० के लिये पृथक पृथक् चिक है (देखो, लिपिपत्र ७६ में खरोष्टी अंक). इन्हीं ७चिकों से 8 तक के अंक लिखे जाते थे. इन मंकों में से 8 तक के लिये यह क्रम था कि ५ के लिये ४ के अंक की बाई मोर १७६ के लिये ४और २,७ के लिये ४ और ३८ के लिये दो बार ४; और के लिये ४,४ चौर १ लिखे जाते थे. ११ से १६सक के लिये १०कीबाईभोर उपयुक्त क्रम से १सेककेक लिखे जाते. २० से २६ के लिये २० की पाई भोर १ से तक के और ३० के लिये २० और १० लिखे जाते थे... १से 8 तक के बंक २०, १० और १ से हलक के अंकों को मिलाने से बनते थे, जैसे कि ७४ के लिये २०, २०, २०, १०और ४और E के लिये २०, २०, २०, २०,१०,४,४और १. - १००के लिये वक्त चित्र के पूर्व १ का अंक रखा जाता था. २०० के लिये १०० के पूर्व १ का और ३०० के लिये ३ का कंक लिखा जाता था. ४०० के लिये १०० के पूर्व ४काधिक लिया जाता था या चार खड़ी लकीरें बनाई जाती थी इसका कुछ पतानहीं चलतापयोंकि ३७४ के भागे का कोई अंक अब तक नहीं मिला अशोक के पीछे के उपर्युक्त ७षिकों में से १, २और ३ के लिये क्रमशः १,२और ई वडीलकीरें है जो फिनिशियन क्रम से ही है.४ के अंक का पिक है जोई.स. पूर्व के सेमिटिक लिपि के किसी लेख में नहीं मिलमा.संभव है किग्राहली के ४के अंक (+)कोही टेडा लिखने से यह चिक बना हो.१०का चित्र फिनिशिमन् के १०के माई चिक को खालिखने से बना हो ऐसा प्रतीत होता है (देखो, ऊपर पृ.११३ में दिया मामका). उसी (फिनिशिन) चिम से पल्यारावालका एवं सीमा के लेख का उक्त अंक काधिक बना है, २० का चि फिमिशिमन अंकों में मिलने पाले २० के अंक के ४ चिजों में से तीसरा है. .. म संवत् बाले मेलो के लिये देखो. ऊपर पृ. १२, टिप्पण और पृ. ३०, टिप्पण १. Ano! Shrutgyanam Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष की वर्तमान लिपियां. १०० का पिक फिनिशिम अंकों के १०० के चिक के ४ रूपों में से चौपे से मिलता हुमा है, केवल उसके पूर्व एक की खड़ी लकीर अधिक लगी है. ऐसी दशा में इन चिहों में से ४ के चिक के सिवाय सब का फिनिशिमन से निकला हुमा होना अनुमान होता है. लिपिपत्र ७६ के उत्तराई का द्वितीय खंड इस संर में ५ खड़ी पंक्तियां हैं जिनमें से पहिली और चौथी में वर्तमान नागरी अंक है और दूसरी, तीसरी तथा पांचवीं में उन्हीं के सूचक स्वरोष्ठी अंक हैं. दूसरी पंक्ति में अशोक के शहवाजगदी और मान्सेरा के लेखों से और तीसरी तक पांचवीं में शक, पार्षिभ और कुशनवंशियों के समय के संवत्वाले खरोष्ठी लेखों से अंक दिये गये हैं. २१-भारतवर्ष की मुस्थ मुख्य वर्तमान लिपियां {लिपिपत्र ७७ से ८५) भारतवर्ष की समस्त वर्तमान मार्य लिपियों का मूल ग्रामी लिपि ही है. ये भिन्न भिन्न शिपियां किन किन परिवर्तनों के बाद बनी यह लिपिपत्र १ से १४ तक में दी हुई भिन्न मिन लिपियों से मालूम हो सकता है. उन सब में नागरी सार्वदेशिक है और बहुपा सारे भारतवर्ष में उसका प्रचार बना हुमा है इतना ही नहीं किंतु यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान आदि में जहां जहां संस्कृत का पठनपाठन होता है वहां के संस्कृतज्ञ लोगों में भी उसका भादर है. हिंदी, मराठी तथा संस्कृत के पुस्तक उसी में छपते हैं. बाकी की लिपियां एकदैशिक हैं और भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों में से किसी न किसी में उनका प्रचार है. लिपिपत्र ७७ वां इस लिपिपत्र में शारदा (करमीरी ), टाकरी और पुरमुखी ( पंजाबी) लिपियां तथा उनके अंक दिये गये है. शारदा लिपि-करमीर देश की अधिष्ठात्री देवी शारदा मानी जाती है जिससे वह देश 'ग्रारदादेश' या 'शारदामंडल' कहलाता है और उसीपर से वहां की लिपि को 'शारदा लिपि बाहते हैं, पीछे से उसको 'देवादेश' भी कहते थे. मूख शारदा लिपि ई. स. की दसवीं शताब्दी के पास पास 'कुटिल लिपि से निकली और उसका प्रचार करमीर तथा पंजाब में रहा. उसीमें परिरसन होकर वर्तमान शारदा खिपि बनी जिसका प्रचार अब करमीर में बहुत कम रह गया है. उसका स्थान पहुधा नागरी, गुरमुखी या टाकरी ने ले लिया है. राकरी लिपि-यह शारदा का घसीट रूप है, क्योंकि इसके इ, ई, उ, ए, ग, घ, च, अ, ड, त, थ, द, ध, प, भ, म, य, र, ल और ह अचर वर्तमान शारदा के उक्त अक्षरों से मिलते - देखो, अपर पृ. १२८. . इन खेलों के लिये देको, कपर पृ. १२, टिप्पण,६: और पू. ३, दि.१, २. .. फो.. स्टेप.४३ Ahol Shrutgyanam Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्राचीनलिपिमाला. सुचते हैं. बाकी के मदरों में जो अंतर है वह विशेष कर स्वरा से तथा चलती कलम से पूरा अचर लिखने से ही हुआ है 'ख' के स्थान में 'ष' लिखा जाता है. जंमू तथा पंजाब के सारे उत्तरी पहाड़ी प्रदेश में ( शायद शिमला जिले को छोड़कर ) इसका प्रचार है और यह भिन्न भिन्न विभागों में कुछ कुछ मित्रता से लिखी जाती है जो जंमू के इलाके में प्रचलित है उसको 'डोगरी ' और जो चंपा राज्य में लिखी जाती है उसको 'चमेली' कहते हैं. जब महाजन आदि मामूली पड़े हुए लोग, जिनको स्वरों की मात्रा तथा उनके ह्रस्व दीर्घ का ज्ञान नहीं होता, इसको लिखते हैं तब कभी कभी स्वरों की मात्राएं या तो नहीं लगाई जातीं या उनके स्थान पर मूल स्वर भी लिख दिये जाते हैं इसीसे टाकरी का पढ़ना बाहरवालों के लिये बहुत कठिन होता है और जो शिलालेख इस समय उसमें खोदे जाते हैं उनका पढ़ना भी बहुधा कठिन होता है. 'टाकरी' नाम की उत्पत्ति का ठीक पता नहीं चलता परंतु संभव है कि 'ठाकूरी' ( ठक्कुरी ) शब्द से उसकी पनि हो अर्थात् राजपूत ठाकुरों (ठक्करों) की लिपि अथवा टांक (लवाणा ) जाति के ब्यौपारियों की लिपि होने के कारण इसका नाम टाकरी हुआ हो. गुरमुखी लिपि - पंजाब के महाजनों तथा अन्य मामूली पड़े हुए लोगों में पहिले एक प्रकार की लंबा नाम की महाजनी लिपि प्रचलित थी, जिसमें सिंघी की नाई स्वरों की मात्राएं कगाई नहीं जाती थीं और जो अब तक वहां पर कुछ कुछ प्रचलित है. ऐसा कहते हैं कि सिक्खों के धर्मग्रंथ पहिले उसी लिपि में लिखे जाते थे जिससे वे शुद्ध पढ़े नहीं जाते थे, इसलिये गुरु अंगद (ई.स. १५३८-५२ ) ने अपने धर्मग्रंथों की शुद्धता के लिये स्वरों की मात्रावाली नई लिपि, जिसमें मारी के समान शुद्ध लिखा और पढ़ा जाये, बनाई, जिससे उसको 'गुरमुखी' अर्थात् 'गुरु के मुख से निकली हुई' लिपि कहते हैं. इसके अधिकतर अक्षर उस समय की शारदा लिपि से ही लिये गये हैं क्योंकि उ, ऋ, ओ, घ, ख, छ, ट, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, भ, म, य, श, ष और स अचर अब तक वर्तमान शारदा से मिलते जुलते हैं. इसके अंक नागरी से लिये गये हैं. सिक्खों के धर्मग्रंथ इसीमें fed और कापे जाते हैं इतना ही नहीं किंतु नागरी के साथ साथ इसका प्रचार पंजाब में बढ़ रहा है। लिपिपत्र ७८. इस पत्र में वर्तमान कैथी. बंगला और मैथिल लिपियां तथा उनके अंक दिये गये हैं. कायस्थ (कायथ ) (कायथी ) कहते उपयोग नहीं होता 'ब' को 'ब' से है. कैथी लिपि-यह लिपि वास्तव में नागरी का किंचित् परिवर्तित रूप ही है. अर्थात् महत्कार लोगों की स्थरा से लिखी जानेवाली लिपि होने से इसको 'कैथी हैं. जैसे मामूली पड़े हुए लोगों की लिपियों में संस्कृत की पूरी वर्णमाला का वैसे ही इसमें भी ङ और न अक्षर नहीं है, और व तथा 'व' में अंतर नहीं भिन्न बतलाने के लिये टाइप के अक्षरों में 'ब' के नीचे एक बिंदी लगाई जाती है. अ, ख और झ नागरी से भिन्न हैं जिनमें से 'अ' तो नागरी के '' को चलती कलम से लिखने में ऊपर ग्रंथि बन जाने के कारण 'अ' सा बन गया है और 'स्व' नागरी के 'ष' का विकार मात्र है. पहिले यह बिपि गुजराती को नांई लकीर स्वींच कर लिखी जाती थी परंतु टाइप में सरलता के विचार से सिरसूचक लकीर मिटा दी गई है. बिहार की पाठशालाओं में नीचे की श्रेणियों में इस लिपी की छपी हुई पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं. देशभेद के अनुसार इसके मुख्य तीन भेद है अर्थात् मिथिला, मगध और भोजपुर की कैथी. " फो: ऍ. नं. स्टे, पू. ४७. Aho! Shrutgyanam Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष की वर्तमान लिपियां पंगला लिपि-मंग (बंगाल) देश की लिपि होने के कारण इसको बंगला कहते हैं. प्राचीन बंगशा लिपि प्राचीन पूर्वी नागरी से निकली है (देलो, अपर पृ. ४३) और उसीमें परिवर्तन होते होते वर्तमान बंगला लिपि बनी. इस लिपि में नागरी के समान अदर पूर्ण हैं और इसका साहित्य भारतवर्ष की सब भाषाओं के साहित्य से बढ़ा हुआ है जिसका कारण यही है कि भारतवर्ष में सार अंग्रेजी का राज्य सब से पहिले बंगाल में हुआ जिससे विद्या का सूर्य वहां सबसे पहिले फिर उदय मा. यह लिपि सारे बंगाल और मांसाम में प्रचलित है. पहिले संस्कृत पुस्तक भी इसमें अपने लग गये थे परंतु अब वे बहुषा नागरी में ही छपते हैं. बंगभाषा के पुस्तक आदि ही इसमें छपते हैं. मैथिल लिपि-मिथिला (तिरहुत) देश के ब्राह्मणों की लिपि, जिसमें संस्कृत ग्रंथ लिस्खे जाते हैं. 'मैथिल' कहलाती है. यह लिपि वस्तुत: बंगला का किंचित परिवर्तित रूप ही है और इसका अंगला के साथ वैसाही संबंध जैसा कि कैपी का नागरी से है. मिथिला प्रदेश के अन्य लोग मागरी या कैथी लिखते हैं. लिपिपत्र ७ वां इस लिपिपत्र में उडिसा, गुजराती और मोडी ( मराठी ) लिपियां दी गई हैं. उड़िया लिपि-उद्र (डिया या उड़ीसा ) देश की प्रचलित लिपि को उक्त देश के माम पर से उड़िया कहते हैं. यह लिपि पुरानी बंगला से निकली हो ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि इसके अधिकतर अचर हसाकोल के लेख के अक्षरों से मिलते शुष हैं और ए, ऐ, प्रो और श्री तो वर्तमान बंगला ही. इस लिपि के अचर सरसरी तौर से देखनेवालों को विलक्षण मालूम देंगे परंतु इस विलक्षणता का मुख्य कारण कुछ तो अचरों को चलती कलम से लिखना और कुछ उनके गोलाईदार लंबे सिर ही हैं जिनका दाहिनी ओर का कांश नीचे को झुका हुमा रहता है. ये सिर भी बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के सपैडिधी और कामरूप के वैयदेव के दानपत्रों में मिलनेवाले ऐसे सिरों (दखो, लिपिपत्र ३३) के परिवर्द्धित रूप या विकास मात्र हैं. इन सिरों को इटा कर देखा जाये तो मूल अदर बहुत ही सरल है. इस लिपि में स्वरों की मात्राओं के चिज भी बंगला शैली के ही हैं. गुजराती लिपि-गुजरात देश में प्रचलित होने के कारण इसको गुजराती करते हैं. सारे गुजरात, कारिभावाड़ और कच्छ में इसका प्रचार है. काठियावाड़ के हालार विभाग के बहुत से बोगों की भाषा कच्छी से मिलती हुई हालारी है और कच्छवालों की कच्छी है परंतु उन लोगों की लिपि गुजराती ही है. यह लिपि भी कैथी की नाई नागरी का किंचित् विकृत रूप ही है. अर, सच, ज.म, फ और बये पाठ अक्षर त्वरा से लिखे जाने के कारण नागरी मे अब भिन्न बन गये हैं उनमें से 'ख' तो 'प' से बना है और '' तथा 'झ जैन शैली की नागरी से लिये हैं. इन पाठों अक्षरों का विकासक्रम नीचे बनलाये अनुसार है २५= अ अ म २५. ६४ . = ष ५ ५ ५. यच व 4. or ज WWor. ॐ ॐॐॐ % फफ ५ . ५% व १ ५ . गुजराती लिपि के अक्षर पहिले सिर की लकीर खींच कर लिखे जाते थे और गोपारी लोग अब तक अपनी पहियों तथा पत्रों में वैसे ही लिखने हैं. परंत टाहप बनानेवालों ने सरलता के लिये सिरों के चिक मिटा दिये तव से वे बिना लकीर भी लिखे जाते हैं. ____मोडी लिपि-नसकी उत्पत्ति के विषय में पूना की तरफ के कोई कोई ब्रामण ऐमा प्रसिद्ध करते हैं कि हेमारपंत अर्थात् प्रसिद्ध हेमाद्रि पंडित ने इसको लंका से लाकर महाराष्ट्र देश में प्रय वित किया, परंतु इस कथन में भी सत्यता नहीं पाई जाती क्योंकि प्रसिद्ध शिवाजी के पहियो Ahot Shrutgyanam Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता. शिवाजी ने जब अपना नया राज्य स्थापित किया तब नागरी को अपनी राजकीय लिपिबमाया परंतु खसके प्रत्येक मचर के ऊपर सिर की लकीर बनाने के कारण कुछ कम स्वरा से बह लिली जाती थी इस लिये उसको त्वरा से लिखी जाने के योग्य बनाने के विचार से शिवाजी के चिटनीस (मंत्री. सरिश्तेदार) पालाजी अवाजी ने इसके अक्षरों को मोड (तोड़मरोड़कर नई लिपिसय्यार की जिससे इसको 'मोड़ी' कहते हैं. पेशवानों के समय में विषल्कर नामक पुरुष ने उसमें कुछ और फेर फार कर अक्षरों को अधिक गोलाई दीर यह लिपि सिर के स्थान में लंबी लकीर खींच कर लिखी जाती है और बहुधा एक अथवा अधिक शन्द या सारी परिपती कलम से लिखी जाती है. इसमें तथा '' और 'उ' की मालाभों में ट्रस्व दीर्थ का भेद नहीं है और न हलत व्यंजन हैं. इसके मदरों में से ' और 'ज' गुज . 'ख', 'प','' और ''प्राचीन तेखगु-कनड़ी के उतचरों से लिये दो ऐसा पाया जाता है. '' और '' के रूप एकसा है। उनके बीच का भेद बतलाने के लिये'' के बीच में एक चिंदी लगाई जाती है. अ, उ, क, ज, प, ल, व, स और के रूपों में नागरी से अधिक अंतर पड़ा है. बाकी के अक्षर नागरी से मिलते जुलते ही हैं. बंई इहाते की मराठी की प्रारंभिक पाठशालाओं में इसकी छपी हुई लियो की पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं. इसकः प्रचार महाराष्ट्र देश की कचहरियो में है और मराठी बोलनेवाले बाधा पत्रव्यवहार या हिसाब में से काम में लाते हैं. बंबई हाते के बाहर के मरहटों के राज्यों में भी इसका कुछ कुछ प्रचार. राजपूताने में इस लिपि में खुदे हुए दो शिलालेख भी देखने में माये जो मरहटों के समय के लिपिपत्र ८० वा. इस जिपिपत्र में तेलुगु, कनड़ी और ग्रंथ लिपियां दी गई हैं. तेलुगु और कनड़ी लिपियां-ये दोनों लिपिपत्र ४३ से ५१ में दी हुई प्राचीन तेनुग-कनी लिपि से निकली हैं. इनके अधिकतर अक्षर परस्पर मिलते जुलते ही हैं. केवल ख, कषक, तास और इ में अंतर है इन दोनों लिपियों में 'ए' और 'मोकेस्व तथा दीर्ष, दो दो भेद हैं. नागरी लिपि में यह भेद न होने से हमने दीर्घ 'ए' और दीर्ष 'श्रो' के लिये नागरी के 'ए' और 'मो' के ऊपर माड़ी लकीर लगा कर उनका भेद पतवाया है. तेलुगु लिपि का प्रचार मद्रास दाते के पूर्वी समुद्रतट के हिस्से. हैदराबाद राज्य के पूर्वी तथा दक्षिणी हिस्सों एव मध्यप्रदेश के सबसे दक्षिणी हिस्से में है. कनड़ी लिपि का प्रचार बहुधा सारे माइसोर राज्य, वर्ग, नीलगिरि प्रदेश, माइ. सोर के निकट के पश्चिमी घाट प्रदेश और बंबई हाते के दक्षिणी कोने (बीजापुर बेलगांव तपा धारवाड़ जिलों और खसरी कनमा प्रदेश) में है. 'तेलुगु' नाम की उत्पत्ति संभवतः 'त्रिलिंग' (सिलिंग, तिलिंगाना) देश के नाम पर से हो; और कनड़ी की कार (प्राचीन 'कोट') देश के नाम से है. ग्रंथ लिपि-दक्षिण के जिन हिस्सों में तामिक लिपि, जिसमें अचरों की न्यूनता के कारण संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती, प्रचलित है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इस लिपि में लिखे जाते हैं इससे इसको अंध लिपि (संस्कृत ग्रंथों की लिपि ) कहते हैं. यह लिपि लिपिपत्र ५२ से १. मोरनीस (पेट नधोस)-चिट्टी भवीस, जैसे कि फसनीस ( फटनदीस)-फदं नवीस २.ई.एँ जे.३४,१.२७-2. Aho! Shrutgyanam Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान लिपियों की उत्पत्ति. ५६ शक में दी हुई प्राचीन ग्रंथ लिपि से निकली है. पहिले संस्कृत पुस्तक भी इसी लिपि में छपने क्षग गये थे परंतु अब बहुधा नागरी में छपने लगे हैं. लिपिपत्र ८१वां इस लिपिपत्र में मलयाळम् , तुझु और तामिळ लिपियां दी गई हैं. मलयाळम् लिपि-मलयाळम् अर्थात् केरल देश की लिपि होने से इसको मलयाळम् या केरल लिपि कहते हैं. यह लिपि ग्रंथ लिपि का सीट रूप ही है और इसके प्रदर यसीट रूम में भी ग्रंथ लिपि से मिलते हुए हैं. इसका प्रचार दक्षिणी कनड़ा प्रदेश के दक्षिणी विभाग, सारे मक्षबार और कोचीन एवं ट्रावनकोर राज्य के अधिकतर हिस्से ( त्रिचंद्रम् से उसर के) में है. तामिळ भाषा बोलनेवाले बहुधा संस्कृत पुस्तक लिखने में ग्रंथ लिपि की नई इसका प्रयोग करते हैं. तुलु लिपि-ग्रंथ लिपि से निकली हुई मलयाळम् लिपि का ही यह किंचित् परिवर्तित रूप है. इस लिपि का प्रचार दक्षिणी कनड़ा प्रदेश के तुझु भाषाभाषी लोगों में संस्कृत ग्रंथ लिखने में ही है. तामिळ लिपि-यह लिपि लिपिपत्र ६०-६२ में दी हुई प्राचीन तामिळ लिपि में बनी है. 'तामिळ' शब्द की उत्पत्ति देश और जातिसूचक 'द्रमिल (द्रविड़) शब्द से हुई है. सामिळ 'भाषा आये लोगों की संस्कृत भाषा से बिलकुल भिन्न है तो भी उसके अचर आये लिपियों से ही लिये गये हैं (देखो, ऊपर पृ. ४४,६५), इस लिपि में व्यंजन वर्ण केवल १८ होने से संस्कृत भाषा इस में लिखी नहीं जा सकती इसलिये संस्कृत शन्दों का जहां प्रयोग होता है वहां ये ग्रंथ लिपि में लिखे जाते हैं. इसमें 'ए' और 'ओ' के दो दो रूप अर्थात् इस्व और दीर्घ मिलने है ( देखो. ऊपर प. १७). इसका प्रचार मद्रास इहाते के मद्रास से कुछ ऊपर तक के, दक्षिणपूर्वी हिस्से अर्थात् उसरी मार्कट, चिंग्लेपन, दक्षिणी आर्कट, सलेम्, कोइंबाटोर, ट्रिचिनापोली, तंजौर, मदुरा और ति यति जिलों एवं ट्रावनकोर राज्य के दक्षिणी अंश (त्रिवंद्रम् से नीचे नीचे) और पदुकोटा राज्य में है. २२-भारतवर्ष को मुख्य मुख्य वर्तमान लिपियों की उत्पत्ति (लिपिपत्र ८२ से के उत्तरार्ध के प्रथम खंड तक) भारतवर्ष की नागरी, शारदा, बंगला, तेलुगु, कनड़ी, ग्रंथ, तापिळ. आदि समस्त वर्तमान (उई को छोड़ कर) लिपियों का मूल 'ब्राह्मी लिपि है, परंतु ये लिपियां अपनी मूल लिपि से इतनी भिन्म हो गई है कि जिनको प्राचीन लिपियों से परिचय नहीं हैं वे सहसा यह स्वीकार भी न करेंगे किये सब लिपियां एक ही मूल लिपि से निकली हैं. लेखनप्रवाह सदा एक ही स्रोत में नहीं बहता किंतु लेखकों की लेखनरूचि के अनुसार समय के साथ भिन्न भिन्न मार्ग ग्रहण करता रहता है। इसीसे सब देशों की प्राचीन लिपियां पलटती रही हैं. हमारे यहां की भित्र भिन्न लिपियां एक ही मूल स्रोत की शाखा प्रशाखाएं हैं जिनके विकास के मुख्य कारण ये हैं (अ) अचरों को भिन्न भिन्न प्रकार से मुंदर बनाने का यन करना. Aho ! Shrutgyanam Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्राचीनतिधिमासा. (प्रा) अखरों पर सिर की भाडी लकीर लगाना. (१) कलम को उठाये बिना अचर को पूरा लिखना. (ई) स्वरा से लिखना. लिपिपत्र ८२ से ८४ के उत्तरार्ध के प्रथम वंड तक में भारतवर्ष की ६ मुख्य लिपियों का विकासक्रम बतलाया गया है जिसमें प्रत्येक अचर के जो रूपांतर विषे हैं उनमें से अधिकतर लिपिपत्र १ से १४ तक से ही लिये गये हैं. सिपिपत्र ५२ वां. इस लिपिपत्र में वर्तमान नागरी और शारदा (करमौरी ) लिपियों की उत्पत्ति बनलाई गई है. नागरी लिपि की उत्पत्ति नागरी मादि जितनी लिपियों की उत्पत्ति लिपिपत्र २ से ८४ में दी है उनमें पहिले वर्तमान लिपि का प्रत्येक अक्षर दे कर उसके बाद = चिक्र दिया है. उसके पीछे अशोक के समय से लगा कर वर्तमान स्म पनने तक के सब रूपांतर दिये हैं. प्रत्येक रूप अनेक लेखादि में मिलता है और प्रत्येक लेखादि का पता देने से विस्तार पहुत बह जाता है प्रतएव केवल एक स्थल का पता दिया जायगा. -इसका पहिला रूप अशोक के गिरनार के पास के चटान के लेस (लिपिपत्र १) से लिया गया है (बहुधा प्रत्येक लिपि के प्रत्येक अचर का पहिला रूप उसी लेख से लिया गया है इसलिये भागे पहिले रूप का विवेचन केवल वहीं किया जायगा जहां वह रूप किसी दूसरे स्थल से लिया गया है), दुसरा रूप मथुरा के लेखों (सिपिपत्र ६) से लिया है जिसमें '' की बाई ओर के नीचे के अंश में दो बार कोण बनाये हैं. तीसरा रूप कोटा के लेख (लिपि पत्र २१) से है जिसमें 'अ' की बाई और के नीचे के अंश को अद्धवृत्त का सा रूप देकर मूल अक्षर से उसे विलग कर दिया है. गैषा रूप देवल के लेख (लिपिपत्र २५) से और पांचषां चीरवा के लेख (लिपिपत्र २७) से लिया गया है. इठा रूप वर्तमान नागरी है. (लिपिपत्र २से ८४ तक में प्रत्येक प्रदर की उत्पत्ति में अंतिम रूप वर्तमान अक्षर ही है इसलिये उसका भी भागे विवेचन न किया जायगा). इस प्रकार प्रत्येक बार की उत्पत्ति का विवेचन करने से विस्तार बह जाता है इस लिये मागे 'पहिला रूप', 'दूसरा रूप' आदि के लिये केवल उनकी सख्या के पहिले अक्षर 'प', 'ए' आदि लिखे जायंगे और उनके आगे जिस लिपिपत्र या लेख से वह रूप लिया है उसका अंक या नाम मात्र दिया जायगा और जहां बहुत ही आवश्यकता होगी वहीं विवेचन किया जापगा. प्रत्येक रूप में क्या अंतर पड़ा यह उक्त रूपों को परस्पर मिला कर देखने से पाठकों को मालुम हो जायगा अ-का यह रूप दक्षिण में लिखा जाता है. इसके पहिले तीन रूप पूर्व के ' के समान हैं; चौ. १८ (इसमें बाई ओर का नीचे का अर्धवृत्त सा अंश मूल अक्षर से मिल गया है): पां. गौधे का रूपांतर ही है. - ७ ( जयनाथ का दानपत्र-इसमें ऊपर की बिंदी के स्थान में सिर की साड़ी लकीर, और नीचे की दोनों विदियो को भीतर से खाली बनाया है);ती. २६ चौ. २०; पी. चौथे के समान. Aho I Shrutgyanam Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान सिपियों की पत्ति. उ-दू.६; ती. में नीचे के अंत को अधिक मोड़ा है;चौ. १८. ए-. १६ (उष्णीषविजयधारणी); ती. १६ (महानामन् का लेख); चौ १७ (करंडा पाल); सं. २५ (कूर्मशतक). क-दू. कुशनवंशियों के खेतों से; ती. =; चौ. १९; पां. २३. ल-प. २ (खालसी); दृ. ६ ; ती. २१ (दुर्गगण का लेव); थी. २६ (जाजलदेव का लेख ). ग . और ती.१%3 चौ १६. प . ती. २३ ( जोधपुर का लेख); पौ. २५ उदेपुर का लेख), पा. २५ (खज्जैन का मेस). ---प. बुद्धगया के स्तंभ से; दू. १८ ('शो' में); ती. २५ (उजन का लेव). ब-१.६; ती. २५ ( उज्जैन का लेस) छ-पू. ६; ती. २५ ( उज्जैन का लेव); चौ. मीसरे से बना. ज-.७; ती. २१ (भालरापाटन का लेम्ब); चौ २५ ( उज्जैन का लेख.) क-क' का यह रूप जैन शैली की नागरी लिपि में प्रचक्षि .६६ (वासिष्ठीपुत्र काल);ती. २१(कोटा का लेख ), हा-'झ' का यह रूप दक्षिणी शैली की नागरी में प्रचलित है. इसके पहिले तीन रूप पूर्वके' के समान हैं. पी. २६ (हस्तलिखित पुस्तकों से): पां.चौपे से बना म-1; ती. १६ ('ज' में) --- १६;ती. २१ (झालरापाटन का लेख) 1-८. २ (अशोक का देहली का लेख); दू. ती. २५ ( उज्जैन का लेख) -:' का यह रूप जैन शैली की नागरी में प्रचलित है. इ. सी. १६; चौ. १८पा चौथे से बना; छ. २७ (सूषा के लेख की पाक के अंत में) -पहिले तीन रूप पूर्व के 'ड' के समान; चौ. २७. __-नागरी लिपि की वर्णमाला में केवल यही अक्षर ऐसा है जो अपने मूल रूप में बना रहा है. केवल सिर की बाड़ी लकीर बड़ी है. ए-दू. ६,ती दूसरे से पना ( देखो, लिपिपन्न ६ में 'ण' का चौधा रूप); चौ. १८, पो. १६ (एणीवविजयधारणी). --'प' का यह रूप दधिषी शैलीकी नागरी में प्रचालित और मागरी के 'ण' के 'ए' जैसे बंश को चलती कलम से मिलवां लिखने से बना है. त-द. पहिले का रूपांतर (देखो, लिपिपत्र ४);ती. २७. प .ती, १८ चौ. २५ ( उज्जन का लेख). ६-१.५ (पभोसा का लेख): ती.५ (शोशस का मथुरा का लेख); थी ६:प. १८ क. १६ (उष्णीवविजयपारणी ).. प-. २०; ती. २५ (उज्जैन का लेख); चौ. २७ (भोरिभा का लेख). म--- सी. २०. प-दू.५ (शाडाम का लेख);ती. १६. क-दू. १८% सी. १७ ( पाली का दानपत्र ); चो. सीयडोनी के लेख से -दू २०: ती. २३ (जोधपुर का लेख ); चौ. १६% पा. चौलुक्य भीमदेव के दानपत्र से. र' और '' में भेद न रहने से 'व' को स्पष्ट पतलाने के लिये 'ब' के भीतर पिंदी लगाई जाने गी जो पीछे से कुछ तिरछी लकीर के रूप में परिणत हो गई. रहा है. वो Aho! Shrutgyanam Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. भ-दू. ३ ( नानाघाट का लेख ) ; ती. ५ ( शोडास का लेख ) ; चौ. १६ : पां. २६ ( जाजलदेव का लेख ). 'भ' का यह रूप दक्षिणी शैली की नागरी लिपि में प्रचलित है. पूर्व के 'भ' के पांचवें रूप में बाईं ओर के अंश में ऊपर की तरफ़ ग्रंथि लगाने से यह बना है. महू. ५ ( शोडास का लेख ); ती. १६; पो. १८ ('म्' में). १;ती. दूसरे रूप को चलती कलम से पूरा लिखने से बना (देखो, लिपिपत्र ६ में मथुरा के लेखों के 'द' और 'स्व' में ); चौ. १६ (बुद्धगया का लेख ). - दू. १८ ती. २०; बौ. २३ ( जोधपुर का लेख ). ल - दू. ६ : ती २१ (दुर्गगण का लेख ); चौ. २० ( ओरिया का लेख ) ब-दू. ली. ५ ( मथुरा के चार जैन लेख ) चौ. २३ : प. २४. श- प. २ ( अशोक का खालसी का लेख ); तू. ६ ती. १८ चौ. १६ (उष्णीषविजयधारणी); प. २०. १३३ प-प. ३ ( घोसुंडी के लेख के 'र्ष' में ); दू. ६: ती. १८ चौ. तोरमाण के लेख से. स तू. ५ ( मथुरा के जैन लेख ) ; ती. १७ ( करंडांडा का लेख ) ; चौ. विलसद के लेल से : पां. १६ ( उष्णीषविजयधारणी ). ह-दू. ५ ( शोडास का लेख ) ; ती. ८ चौ. असद के लेख से ; पां. २५ ( उज्जैन का लेख ). ---प. दू. ७: सी. दूसरे का रूपांतर ( देखो लिपिपत्र ५० में चेोलू के लेख का 'ळ' ). - प. ७. ८ती. १६; सौ. १६ ( उष्णीष विजय धारणी ); पां. २७ (चीरवा का लेख ) ज्ञ-प. ८ दू. पहिले का रूपांतर ; ती. २७ (ओरिया का लेल ). वर्तमान नागरी लिपि के ई. छ. ओ और औ ये चार अक्षर उनके मूल अक्षरों के रूपांतर नहीं हैं. 'ई', 'इ' के ऊपर रेफ का सा चित्र लगा कर ; 'लु', लू के साथ की मात्रा जोड़ कर; 'ओ' और 'औ', 'अ' के साथ क्रमशः उक्त स्वरों की मात्राएं लगा कर बनाये जाते हैं. 'क' और 'ऐ' प्राचीन अक्षरों के रूपांतर ही हैं. '' प्राचीन 'ऋ' के स्थानापन्न हो ऐसा पाया जाता है ( देखो, लिपिपत्र १६ में दी हुई 'उष्णीषविजयधारथी' के अंत की वर्णमाला का 'ऋ' ) वर्तमान 'मों' में जो 'ओ' का रूप ॐ लिखा जाता है वह प्राचीन 'औ' का रूपांतर हे ( देखो, लिपिपन्न १८ १६, २१ और ३५ में दिया हुआ 'औ' ), परंतु उज्जैन के लेख के अंत की पूरी वर्णमाला ( लिपिपत्र २५ ) में 'ओ' का रूप वैसा ही दिया है जिससे अनुमान होता है कि ई. स. की ११ वीं शताब्दी के उत्तराई में नागरी के लेखक 'मी' के स्थान में 'ओ' के प्राचीन रूप का व्यवहार करने और 'भी' के लिये नया चिक लिखने लग गये थे. 'झ' का वर्तमान नागरी रूप किसी प्राचीन रूप से नहीं बना, नवीन कल्पित है. शारदा ( कश्मीरी ) लिपि की उत्पत्ति शारदा लिपि नागरी की बहिन होने से उसके उत्पतिक्रम में दिये हुए प्रत्येक अचर के रूपों में से कुछ ठीक वे ही हैं जो नागरी की उत्पत्ति में दिये हैं. इसलिये उन रूपों का वर्णन १. नागरी में इस प्रकार के 'ई' की कल्पना का कुछ कुछ पता ई. स. की छठी शताब्दी से लगता है. 'उम्दीपविजय धारी' के अंत की वर्णमाला में 'इ' पर बिंदी ( खिपिपत्र १२ ) और राजा भोज के 'कूर्मशतक' मे रेफ साबि मिलता है ( लिपिपत्र ५५ ). Aho! Shrutgyanam Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान लिपियों की उत्पत्ति १५० नकर याकी काही किया जायगा भ-ची. तीसरे से यना ( बाई ओर का अधवृत्त सा अंश मूल मत्सर से मिल जाने से) -द. १८ सी. २४. चौ. सीसरे से पना (ऊपर की दोनों बिंदियों को गलती कलम से लिखने से): पां. १ ( अथर्ववेद ), ई-प. १० (ई से मिलता हमा); १६ (भासीरगड़ की मुद्रा) ती. ३० ( पैजनाथ की प्रशस्ति) उ नागरी के समान. पती . २८ चौ ३१ (अथर्ववद ). ओ प. १ : द. ६: नी. दूसरे का रूपानर ; चौ. १७ ( देखो, 'भो में): पां. चौथ बन नीचे का अश ऊपर की ओर अधिक बढ़ जाने से बना. क-पां. २९. स्व.-ची. २८. ग--नागरी के समान घ-ती. दुसरं मे बना. --द. पहिले से बना. -ती. चौ. २६ छ-द... ज-ती. २८ श्री. २६. #-ची. तीसरे से पना: पां. १ (शाकुंतल ). प्र-ती दुमरे से बना: चौ. तीसरे को चलती कलम से लिखने से नीचे गांठ बन गई. ट-ती. २१ (दुगेगण का लेख) मूल रूप में बना रहा. 3-जैन शैली की नागरी के ' के समान. दु-दू.१९ ( उणीवविजयधारणी);ती. ३० (सामवर्मन का दामपत्र). ण-चौ. २६. त--टू. ती. ८, ची. २०. थ-चौ. ३१. द पा. १८ ध-दू. ती. १६. न-नागरी के समान (प्रारंभ की ग्रंथि को छोड़ कर). प-नागरी के समान. फ द. १(शाकुंतल ). ब-नागरी के समान भ-चौ. १८. म-नागरीके समान (सिररहित). य, र, ल, प-चारों नागरी के समान, श-..ची. तीसरे से बना प-मागरी के समान. स.--चौ. तीसरे से बना. ह-ती. दूसरे से यना. वर्तमान शारदा लिपि के अक्षर अपने प्राचीन रूपों से नागरी की अपेक्षा अधिक मिलते हुए हैं और उनमें पूरे स्वर वर्ण उनके प्राचीन चित्रों से ही बने हैं. लिपिपत्र ८३ वा. इस लिपिपत्र में बंगला और कनड़ी लिपियों की उत्पत्ति बतलाई गई है. बंगला लिपि की उत्पत्ति बंगला लिपि प्राचीन नागरी की पुत्री है इस लिये उसकी उत्पत्ति में दिये हुए प्रत्येक अक्षर के भिन्न भिन्न रूपों में से कितने एक मागरी के उक्त रूपों से मिलते हैं अत एव उनको छोड़ कर बाकी का ही विवेचन किया जायगा और जो अलर नागरी के समान हैं वा जिनके वर्तमान रूप के पूर्व के सब रूप नागरी की उत्पत्ति में बतलाये हुए रूपों के सहरा हैं उनको भी नागरी के समान कहंगे. अ-दक्षिणी शैली की नागरी के समान ( मध्य की भाडी लकीर तिरछी), 1--पां. जैन शैली से. उ-नागरी के समान. ए-चौ. ३२ (देवपारा का लेख), मो-चौ. १८. क-पां. चौधे से बना Ano! Shrutgyanam Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. -ती. २१ (दुर्मगण का लेग); नी. राष्ट्रकट गोविंद (तीसरे) के दानपत्र से; पां. ३२ (देवपारा का लेख). ग-ती. ६: चौ. ३२. -नागरी के समान. कु-ती. १६ ( उणीपविजयभारणी): चौ. ५ (हनाकोल का लेग्व ) च ती. ४. छती . १६ (उष्णीषविजयधारणी), ज-नागरी के समान. मती . १९ (उषपीपविजयधारणी); मौ. नीसरे का रूपांतर: पां. ३४ (बालभेंद्र का दानपत्र). न-ती. ३५ (हस्राकोल का लेख). ट-ती. २६ (जोधपुर का लेग्य) .१९ ( उज्जैन का लेस्त्र), ड-नागरी के समान. -नागरी के समान. ण-पां. कन्हेरी के लेख सेछ.३४ (पल्लभेंद्र का दानपन), न-चौ. ३ (तड़िधी का दानपत्र): पां. ३४ ( हस्तलिखित पुस्तके). यत्रो . ३६. द-- चौ. ३२. घ-- नागरी के समान. -नागरी के ममान. ए.चौ. तीसरे से बना. क- नागरी के समान. वनागरी के समान. भ-सी. १८, मौ. २३ (जोधपुर के लेन्च के भू' में ). म-नागरी के समान य नागरी के 'ममान. रती . ३२ ( देवपारा का लेग्य); चौ. ३४ (घल्लमेंद्र का दानपत्र). ल नागरी के समान, व नागरी के समान. श-चौ. २५ ( देवल का लेग्न); पां. ३२ (देवपारा का लेख) प-जागरी के समान. स-चौ. ३२ (देवपारा का लेख ). इ-नागरी के समान, वर्तमान बंगला लिपि के स्वर मूल स्वरों से बने हैं : केवल ई' नागरी की नाई इ से बना है कनकी लिपि की उत्पत्ति अ-दू.४५ : ती. ४७; ची. ४६; प. ५० (चमोल का लेख). -द. ४० ( कर्कराज का दानपत्र ); सी. ४५ ( पुलुकेशिन का दानपत्र); ची. ४५. (हुतूर का दानपत्र). ई-प. ३६ (मंदसौर कालेग्व); द. पहिले से बना; सी. ४७,चो. ५० (अनंकोंडा का लेख), ए-दह ( वासिष्ठीपुत्र के लेख); नी. १५७ चौ. ४५ ( डलूर का दानपत्र); पां. ve (राजा अम्म का दानपत्र). ओ-द..( वासिष्ठीपुत्र के लेख);ती. ५०, क- द. ९ (वासिष्ठीपुत्र के लेख); ती. ४४ (देवगिरि का दानपख); चो. ४७; पां. ५. (चतोल का लेग्व), - ( वासिष्ठीपुल के खेसा ); ती. १:ची ४५ ग-द. ६ ( वासिष्ठीपुत्र के लेख); ती. ५. (उरुवुपहिल का दानपत्र). घ-दह ( चामिष्ठीपत्रके लेख); ती.४४ (देवगिरि का दानपत्र); चौ.४५ (बलर का दानपत्र): पां. ५. (अनंकोंडा का लग्ब ). F....द. ४४ ( काकुस्थवर्मन के दानपत्र के 'घो में); ती. दूसरे से बना. च. द. (वासिष्ठीपत्र के लेव),ती. ४६ चौ. ४८: पां. ५०(ब्रोल का लेख), क-दु. ८: ती. ४० चौ. ५० (चेनोलू का लेख) ज-दू. ४३ नी. ४७; थी. ४८ (राजा भीम का दानपत्र), झ-द. ६ (वासिष्टीपुत्र के लेख):ती. दूसरे से मना; चौ. तीसरे से बना; पां. ५०. Aho! Shrutgyanam Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्तमान लिपियों की उत्पनि ब-इ.७: नी. ४४ ('ज्ञा' में ); चौ. ४८ ('ज्ञा' में). ट-द. ४५ ( वादामी का लेख): ती. दूसरे से बना; चौ. ४८; पां. ५१ (दोनेपुंडी का दानपत्र). ठ-द. ५१ ४--प. २ वालसी; द. नी. ४४ (मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ. ५० ह .ती. ४७ : चौ. ५०. द. १२ ती. ४५; चौ. ४८; पां. ४६. न--इ.६:सी. ४७; ची. ४८. य--द.४४ ( काकृस्थवर्मन का दानपत्र);नी.४७. द-प. ० ( जोगड़ ); दू.७; नी. ४३ (पिकिर का दानपत्र ): श्री. ४८ : पां. ५०. ध- ६ (गौतमीपुत्र शातकर्णी के लेख ): नी. १३ चौ. ४६: पां. ५० न-द. ४३ ( उस्खुपल्लि का दानपत्र):ती. ४५ ( मंडलर का दानपख); चौ. ५०. प-दूह( वासिष्टीपुरख के लग्व): ती १५:ची. ५० : पां ५११ गजा गाणदेव का दानपन). फ.--१.८:ती. ४३: नौ ४५: पां. ५०. 4-- द. ४३ ( विष्णुगोपधर्मन का दानपत्र ): सी. ४३ (मिंहवर्मन का दानपत्र ); चौ. ४७. भ-इ. ४४ ( मृगशवर्मन का दानपव:ती. ४८ चौ. ४६ ; पां. ५०. म-द. ६; ती. ४४ ( मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ. ४६ : पां. ५०. य-द.७; ती. ४३, चौ. १५; पां. ४८. र-दू. ७; ती. ४३ चौ. ४७; पां. ४८. ल-दू.८: नी. ४४ मृगेशवर्मन् का दानपत्र); चौ. ४८. ३-.६ती . १३; चौ ४६; पां. ५०. श. प. २ ( स्वालसी): दू.७; ती ४४ ( मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ ४५; पां. ५० प प. ३ ( योमुंडी के 'र्ष में ); द.४४; ती. ४५ : चौ. ४०; पां. ५१. स-दू.१७ती . ४८. ह दृ.9; ती. १३ चौ. ५०: पां. ५१. ळ प. ७; दू ४७; ती. ५०; चो. ५१ ( बनपल्ली का दानपत्र). वर्तमान कनड़ी लिपि का ''प्राचीन उसे नहीं बना किंतु 'अ' के साथ 'उ' की मात्रा जोड़ने से बना है. उसी उसे 'ऊ' यना है, ' का कोई प्राचीन रूप नहीं मिलता. मंभव है कि उपएणीपविजयधारणी के अंत की वर्णमाला के 'ऋ' जैसे ही अक्षर में विकार हो कर वह बना हो. 'ऐ' और 'मी उनके शचीन रूपों में ही बने हैं. 'ऐ लिपिपत्र ३८ के ऐसे, और 'मी' लिपिपत्र ४३ और ५० में मिलनेवाले'ओं से बना है. लिपिपत्र ४ वा. इस लिपिपत्र में ग्रंथ और मामिळ लिपियों की उत्पति दी गई है। ग्रंथ लिपि की उत्पत्ति. ग्रंथ लिपि की उत्पत्ति में पहुया प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ के कुछ रूप वे ही हैं जो कनड़ी लिपि की उत्पत्ति में दिये गये हैं, इस लिये ऐसे रूपों को छोड़ कर वाकी के स्पों ही का विवेचन किया जायगा. श्र-सी. ५२ (मामल्लपुरम् के लेख); चो. ५४ ( उददिरम का दानपत्र); पां. ५६ इ-पां. ५३ (नंदिवर्मन् का दानपत्र). .. वर्तमान तेलुगु लिपि कनड़ी मे हुन मिलती दुई है. जिन क्षगं में विशेष अंतर है येउ, रु. क, त, श और इहै. इनमें से उसके प्राचीन कप मचना है। विकासक्रम के लिय देखा. क्रमशः लिपिपत्र ४४,५७ और ५० मे मिलने चाहेक भक्षर के रूप). 'क' कनड़ी की उत्पत्ति में दिये हुए उक्त अक्षर के पांच रूप की प्राड़ी लकीर और नीचे के कृत को चलती कलम से कुछ अंतर के साथ लिखने से बना है. त' के बाई ग्रार के अंत में प्रधि और लगा दी है. 'श' पीर ''मी कमड़ी की उत्पति में दिये हुए उक अक्षरों के उपाय रूपों के विकार मात्र हैं. Ahol Shrutgyanam Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्राचीनलिपिमाला इ-ती. मरे में चना. उ -दू. नी. ११(जुन्नर): धो. तीसरे से बना, पां. ५६. ए-ती. ५.(कांचीपुरम का लम्ब); चौ. ५ (नंदिवर्मन् का दानपत्र); पां. ५२ ( परमेश्राधर्मन् का दानपल): छ. ५४ ओ-दू. ती.४३ (देखा, सिंहवर्मन् के दानपत्र का 'श्री'): चौ. ५.. 2- सी. ५४ ( उद्यंदिरम् का दानपत्र): पी. ५.० ( श्रीरंगम का लेख ); पां. ५६ (गिरिभपाल का दानपख) ख-६.७ मी. ५३; चौ, ५४ (उदयेदिरम् का दानपत्र ). ग...ती. ४५ ( बादामी का लेव); चौ. ५३; पां. ५ (नंदिवर्मन् का दानपत्र). घ.-ती. ५४ -ती. ५२ ('क' में); ची ५ः ('ग' में). च सी. ५२(करम् का दानपख):चा. ५३ (नारासिंगमगलम्ब):पां.५४(पृथ्वीपति का दानपत्र) छ. दु.६ सी. ४५ (सर्वलोकाश्रय का दानपत्र); चौ. ५३: पां. चौथे से बना. ज.. ती.४३:ची. ५२(कांचीपुरम् का लेख). पां.चौथे से बना (चलती कलम से लिखने से): २.५४. झती . दसरे से बना; चौ तीसरे से बना. अती . ५२ (कांचीपुरम् के लेख के 'ज्ञा में): चौ. ५२ (कूरम् के दानपत्र के 'ज' में); पां. ५३ (नंदिवर्मन् के दानपन के 'ज्ञा में) र दू. ५५ (नंदिवर्मन् का दानपल). ठ मृल ब्रानी के समान, --सी, ५२: चौ.५४; पां. ५५ (शविलिमेड का लेख ), ह. ४१ती. ५४. या-मी. ५२ (मामल्लपुरम् के लेख); चौ. ५३ (मावलीपुरम का लेख): पां. चौरे से बना. ----सी. ५२: पौ. ५६. 4- ११ (काली के खेव);ती. ५२ (कांचीपुरम् का लेव): चौ. ५२ (कूरम् का दानपख): पां. चौथे से बना. द-दू. ५०( मामल्लपुरम् के लेख):ती. ५३ चौ. ५६. पती . ४३ (पिकिर का दामपत्र ): चौ. ५२ (कांचीपुरम् का लेख), न-द. १. (जग्गयपेट के लेम्प ): ती. ५६(करम् का दानपत्र); चौ. ५४ (पृथ्वीपति का दानपद); पां. ५६. प.-ती. ५४. फ-ती. ५३; चौ. ५६ (श्रीरंगम् का लेख). ब-द. १३ नी. १५; चौ. ५२ ( कांचीपुरम का लेख ), पां. ५२ (कूरम् का दानपत्र ). भ-द. ५२ (मामल्लपुरम् के लेव);ती. ५. (कांचीपुरम् का लेख); चौ. ५२ (क्रूरम् का दानपत्र); प ५६ (श्रीरंग का लेख), मती . ५२ (कूरम् का दानपत्र ): चौ. ५४ (पृथ्वीपति का दानपत्र ). य-दू. ६ (वासिष्ठीपुत्र का लेख ). र-चौ. ५५ (चिदंबरं का लेख). ल-६.६:ती. ५२ (कांचीपुरम का लेख): मा. ५० (करम का दानपत्र ). न-ती, ५२ (करम् का दानपत्र ): ची ५४ ( पृथ्वीपति का दानपत्र ). श-ती. ५२ ( कांचीपुरम् के लम्ब के 'शू' में); चौ. ५३; पां. ५४ ( पृथ्वीपति का दानपत्र ). प-जी ५३ (नंदिवर्मन का दानपत्र ): चौ. ५५; पां. ५ म-टु, १२: ती. ५३ (नंदिवमेन का दानपत्र): नौ. ५३ (नारसिंगम् का लेख); पां. ५४ (पृथ्वीपति का दानपत्र), ह ती. ५२ (करम का दानपत्र): ची. तीसरे से बना. -द. ५२:नी ; मी. ५४(नंदिवर्मन् का दामपत्र); पां. ५५ (उदयेंदिरम का दानपत्र). Aho! Shrutgyanam Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरी अंको की उत्पति. नामिळ लिपि की उत्पत्ति. तामिळ लिपि की उत्पत्ति में पहधा प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ के कुछ रूप वही है जो ग्रंथ लिपि की उत्पत्ति में दिये गये हैं; इस लिये उनको छोड़ कर बाकी के रूपों ही का विवेचन किया जायमा, च-ची. ६१( तिकवेळ्ळरे का लेब); पां. ३०(कूरम् का दानपत्र), इ-द.६ ती.१२ (जागयपेट के लेव); चौ. ६० (कूरम् का दानपत्र: दूसरे की तीनों वक्र रेखाओं को चलती कलम से मिला कर लिखने से ). ई-प. ६२: द. पहिले से बना. उ-ग्रंथ लिपि के समान. ए-ती. १४; ची ६० (कशाकूधि का दानपत्र). ऐ--दू. (हाथीगुंफा का लेख):ती. ४५ ('ए' के साथ 'ए' की मात्रा जोड़ने से, लिपिपत्र ३८ के 'गे' की नई). यो--ती. ६० ( उदयेंदिरम् का दानपत्र); चौ. ६२ (तिरुमले के चटान का लेख) क-दू.६० कुरम् का दामपत्र):ती. ६१ (वेल्लोर का लेख); ची. ६२(जंयुकेश्वर का ख) ङ-दृ. पहिले से बनाः ती. दसरे से रना; चौ. ६२ (विरूपाक्ष का दानपत्र) च-दृ. ६०(कृरम् का दानपत्र);ती. ६२ (चिरूपान का दानपत्र) अ-ती. ३८ (सिंहादिल्य के दानपत्र के 'ज्ञा' में); चौ. ६२ (विरूपान का दानपन्न ). ट-दृ. ६० (उदयेंदिरम् का दानपत्र). ए-.-गंध लिपि के समान. त-ग्रंथ लिपि के समान न-चौ. ६२ (विरूपाक्ष का दानपत्र). पदू. ७. म-दू. ६ती . ५८ (देवेंद्रवर्मन का दानपत्र ); ची. तीसरे से बना. य-ग्रंथ लिपि के समान. र--चौ. ५६ (श्रीरंगम् का लेख). ख-दृ. ६० (कूरम् का दामपत्र ); ती. ६१ (तिरुवेकळरे का लेख). च-ग्रंथ लिपि के समान. २३–वर्तमान नागरी अंकों की उत्पत्ति. (लिपिपत्र के उत्तरार्द्ध का द्वितीय खंड । जैसे वर्तमान नागरी लिपि ब्राही लिपि में परिवर्तन होसे होते यनी है वैसे ही वर्तमान नागरी के अंक भी प्राचीन ब्राह्मी के अंकों के परिवर्तन से बने है. --प. ७१(नानाघाट का लेख):६. ७१ ( गुप्तों के लेख):ती, चौ. ७२ (बौद्ध पुस्तक): पां. ७५ (प्रतिहार भोजदेव का दूसरा लेख ). २-५.७१ (कुशनवंशियों के लेख): दू.७१ (गुप्ता के लेख)ती. ७२ (मि. यावर के पुस्तक). ३-प. ७१ (कुशनवंशियों के लेख):दती .७१ ( गुप्तों के लेव); चौ. १२ ( मि. यावर के पुस्तक; तीनों बकरेनाओं के परस्पर मिल जाने से ), ४-५.७१ (अशोक के लेख): द. ७१ (नानाघाट का लेख); सी. ७१ (कुशनचशियों के खोस); चो. ७१ (गुप्तों के लेख ). Aho! Shrutgyanam Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ "C" प्राचीनलिपिमाल राशियों के लेख तो दूसरे से बना (ई ओर की खड़, लकीर हिनी ओर बनाने से ). के. ७९ (कुरानशियों के लेख ) ७०१ कुशनधियों के लेख ) ; दू. ७१ ( चत्रयों के सिके ): नो. ७१ ( वलभी के राजाओं के दानपत्र ) 「 प. दू. 9) ( कुशन वंशियों के लेख ) ; तो ११ ( चत्रों के सिक्के ); चौ. ७१ ( कुशनवंशियों के लेख); पां. ७१ ( गुप्तों के लेख ) ६- प. ७ ( नानाघाट का लेख ) : दू. ७१ ( कुशनवंशियों के लेख ) ; नी. ७१ (आंधों के नासिक के ) नौ ७५ ( राष्ट्रकूट दंतिवर्मन का दानपत्र ); पां. चीधे के ऊपर की अंधि को उलटा लिखने से; . ७६ ( कलचुरि कर्ण का लेख ) सा. ७६ (चौलुक्य त्रिलोचनपाल का दानपत्र): आ. ७३ ( अजमेर का लेख ). के अंक के सातवें और आठवें रूपों में " विशेष अंतर नहीं है २४ - लेखनसामग्रौ. ताड़पत्र. भाडपत्र ताड़ ( नाम, नाली ) नामक वृक्ष की दो भिन्न जातियों के पत्रे हैं. ताड़ के वृच दक्षिण में तथा समुद्रतट के प्रदेशों में विशेष रूप से और राजपूताना, पंजाब आदि में कम होते हैं. टिकाउ होने तथा धन्य में अद्भुत मिल आने के कारण प्रारंभिक काल से ही ताड़ के पत्रे पुस्तक आदि लिखने के काम में जाने थे. ताड़ के पत्रे बहुत बड़े बड़े होते हैं; उन्हें संधियों में से काट कर अधिक लंबी परंतु चीड़ाई में एक से चार इंच तक को ही, पट्टियां निकाली जाती हैं जिनमें से जितनी लंबाई का पत्रा बनाना हो उतना काट लेते हैं. पुस्तक लिखने के लिये जो ताड़पत्र काम में जाते थे उनको पहिले सुन्या देते थे, फिर उनको पानी में उबालते या भिगो रखते थे. पीछे उनको फिर सुखा कर शंख, कोड़े या चिकने पत्थर आदि से घोटते थे. मामूली कामों के जिये जो पत्रे पहिले काम में लाये जाते थे या अब लाये जाते हैं वे इस तरह तय्यार नहीं किये जाने. कश्मीर और पंजाब के कुछ अंश को छोड़ कर बहुधा सारे भारतवर्ष में ताड़पत्र का पहुत प्रचार था. पश्चिमी और उत्तरी भारतवाले उनपर स्पाही से लिखते थे परंतु दक्षिणवाले 3. बांडों की जातक कथाओं में 'पर' ( पत्र, पत्ता, पन्ना ) का उल्लेख कई जगह मिलता है (देखो, ऊपर पृ. ५, टिप्पण २२५ जो ताड़पत्र का ही सूचक होना चाहिये. हुएन्त्संग के जीवनचरित से, जो उसीके शिष्य थूली का बनाया हुआ है, एाया जाता है कि युद्ध के निर्माण के वर्ष में बौद्धों का जो पहिला संघ एकत्र हुआ ( देखो, ऊपर पृ. ४, त्रिपण उसमें बद्ध कर 'त्रिपिटक' तादपत्रों पर प्रथम लिखा गया था ( बील अनुवादित हुएन्त्संग का जीवनचरित, पृ. २१६ ९७ ) ऐसा कह सकते हैं कि भारतवर्ष में लिखने के लिये सबसे पहिले ताड़पत्र ही काम में श्राया हो और प्रारंभ में उसपर दक्षिणी शैली से लदे की नीव गोल मुंह की शलाका से अक्षर कुचरना ही प्रतीत होता है क्योंकि 'लिख्' धातु का मूल घर्म कुचरना रगड़ना या रेखा करना ही है- स्याही से लिखने के लिये 'लिए' धातु ( लीपना रंग पोतना ) अधिक उपयुक्त है. असंभव है कि ताम्रपत्रों पर स्याही से लिखने की उत्तरी प्रथा पीछे की हो. संस्कृत साहित्य के कई शब्द और मुहावरे सबसे प्राचीन पुस्तकों का ताड़पत्र पर ही होना सूचित करते हैं, जैसे कि एक विषयका पुस्तक 'ग्रंथ' या 'सूत्र' कहलाता था जो ताड़पत्रों के एक गांठ या एक डोरी से बंधे हुए होने का स्मरण दि लाता है. वृक्ष के पत्रों के संबंध में ही पुस्तक के विषयों का विभाग स्कंध, कांड, शाखा धनी आदि शब्दों से किया गया है. (पक्ष) और प ( पक्षा ) शब्द भी वृक्षों के पत्रों के ही स्मारक है. Aho! Shrutgyanam Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनसामग्री. १४३ तीखे गोल मुख की शलाका को उनपर दवा कर अचर कुरेदते थे. फिर पत्रों पर कजल फिरा देने से प्रचर काले बन जाते थे. कम लंबाई के पत्रों के मध्य में एक, और अधिक लंबाईवालों के मध्य से कुछ अंतर पर दाहिनी और बाई ओर एक एक, छिट किया जाता था. पुस्तकों के नीचे और ऊपर उसी अंदाज़ के सूराखवाली लकड़ी की पाटियां रहती थीं. इन सूराम्वों में डोरी झाली जाने से एक माप की एक या अधिक पुस्तकें एकत्र बंध सकती थीं. पढ़ने के समय डोरी को हीला करने से प्रत्येक पत्रा दोनों ओर से प्रासानी के साथ उलटाया तथा पढ़ा जा सकता था. सुंदर सस्ते कागजों के प्रचार के साथ ताड़पत्रों का प्रचार कम होता गया और अब तो बंगाल में कोई कोई 'दुर्गापाठ लिखने में ही उन्हें काम में लेते हैं भारत के सब से दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी हिस्सों की प्रारंभिक पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिखने में या रामेश्वर, जगदीश आदि के मंदिरों में जमा करायेहए रुपयों की रसीद देने आदि में ताड़पत्र ष भी काम में आते हैं. दक्षिण की उष्ण हवा में ताड़पत्र के पुस्तक उतने अधिक समय तक रह नहीं सकते जितने कि नेपाल आदि शीत देशों में रह सकते हैं. अब तक मिले हुए स्याही से लिम्ले ताइएन के पुस्तकों में सब से पुराना एक नाटक का कुछ श्रुटित अंश है जो ई.स.की दूसरी शताब्दी के आस पास का है. मि. मॅकार्टने के काशगर से भेजे हए ताइपत्रों के टुकड़े ई. स. की चौथी शताब्दी के हैं. जापान के होरियूज़ि के मठ में रक्खे हुए 'प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र' तथा 'उष्णीषविजयधारणी' नामक बौद्ध पुस्तक', जो मध्य भारत में वहां पहुंचे थे, ई. स. की ६ठी शताब्दी के आस पास के लिखे हुए हैं. नेपाल के ताड़पत्र के पुस्तकसंग्रह में ई. स. की ७वीं शताब्दी का लिखा हुआ 'स्कंदपुराण, कैंब्रिज के संग्रह में हर्ष संवत् २५२ (ई.स.८५६) का लिखा हुभा 'परमेश्वरतंत्र और नेपाल के संग्रह में नेवार सं.२८ (ई. स. १०६-७) का लिखा हुआ' संकावतार' नामक पुस्तक है. ई. स. की ११ वीं शताब्दी और उसके पीछे के तो अनेक ताडपत्र के पुस्तक गुजरात, राजपूताना, नेपाल आदि के एवं यूरोप के को पुस्तकमंग्रहों में रक्खे हुए हैं. दक्षिणी शैली के अर्थात् लोहे की तीक्ष्ण अग्रभागवाली शलाका से दया कर यनाये हुए असरवाले पुस्तक ई स. की १५ वीं शताब्दी से पहिले के अब तक नहीं मिले जिसका कारण दक्षिण की उष्ण हवा से उनका शीघ्र मष्ट होना ही है. भूर्जपत्र ( भोजपत्र). भूर्जपत्र (भोजपत्र)-'भूजे' नामक वृच की, जो हिमालय प्रदेश में बहुतायत से होता है, भीतरी छाल है. सुलापता तथा नाममात्र के मूल्य से बहुत मिलने के कारण प्राचीन काल में वह पुस्तक, पन आदि के लिखने के काम में बहुत आता था. अलुथेफनी लिखता है कि मध्य और उत्तरी भारत के लोग 'ज' (भूर्ज) वृक्ष की छाल पर लिखते हैं, उसको 'मृर्ज' कहते हैं. वे उसके प्रायः एक गज लंबे और एक बालिश्त चौड़े पत्रे लेते हैं और उनको भिन्न भिन्न प्रकार से तय्यार करते हैं. उनको मजबूत और चिकना बनाने के लिये वे उनपर तेल लगाते हैं और [घोट कर ] चिकना करते हैं, फिर उनपर लिखते हैं.' भूर्जपत्र लंबे चौड़े निकल आते हैं जिमको काट कर लेखक अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न लंबाई चौड़ाई के पत्रे ताने और ) १ देखो, ऊपर पृ. २, टिप्पास १. १. ज.ए. सो. बंगा: जि. ६६, पृ. २१८. प्लेट ७. संख्या १, टुकड़े मे .. पं. म. (मार्यन् सीरीज): प्लेट १-४. ४. ह. पा; अंग्रेजी भूमिका, पृ. ५२, और अंत का प्लेर. . के. पा: अंग्रेजी भूमिका. प्र. ५२. १. कॅ. पा; पृ. १४०. . सा . जि. १, पृ.१७१. Aho! Shrutgyanam Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमा ला. उनपर स्याही से लिखते थे, ताइपत्रों का अनुकरण कर भूर्जपत्र की पुस्तकों के प्रत्येक पने का मध्य का हिस्सा ग्वाली छोड़ा जा कर उसमें छेद किया जाता था. पुस्तक के ऊपर और नीचे रक्त्री जानेवाली लकड़ी की पाटिनों में भी उसी अंदाज सवेद रहता था. इस प्रकार मय पत्रों के वेदों में रोरी पोई आकर पाटिया पर लपेट ली जाती थी. मुगलों के समय से कश्मीरवाले भूर्जपत्र के पुस्तकों पर वर्तमान किनायों की नई चमड़े की जिल्द भी पांधने लगे सस्ते और सुंदर कागजों के प्रचार के साथ भूर्जपत्र पर पुस्तकें लिखने की प्रथा कम होती गई और अष तो केवल जिंदुओं में तावीज़ों के लिये यंत्र लिखने के काम में उसका प्रचार रहा है जिससे हरेक पड़े शहर में पन्सारियों आदि की दुकानों पर वह मिल पाता है. भूर्जपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें विशेष कर कश्मीर में मिलती हैं और कुछ उड़ीसा आदि में. हिंदुस्तान में पूना आदि के तथा यूरोप के कई प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकमग्रहों में भूपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें सुरक्षित हैं जो बहुधा कश्मीर से ही ली गई हैं. भूर्जपत्र पर लिन्त्री हुई सय से पुरानी पुस्तक, जो अब तक मिली है, बीतान से मिला हुश्रा बरोष्ठी लिपि के 'धमपद (प्राकृत) का कुछ अंश है. यहाई स. की दूसरी या तीसरी शताब्दी का लिया हुआ होना चाहिये 'संयुक्तागमसूत्र' (संस्कृत)ई. स. की चौथी शताब्दी का लिम्बा हा मिला है. मि. बाबर के पुस्तक ई स. की टी शताब्दी के आस पास के और बलशाली का अंकगणित ई. स. की ८ वीं शताब्दी के पास पास का लिम्बा हुआ प्रतीत होता है. ये पुस्तक स्तुपों के भीतर रहने या पत्थरी के बीच गड़े रहने से ही इतने दीर्घकाल तक बचने पाये हैं परंतु स्खुले रहनेवालो मृर्जपत्र के पुस्तक ई, स. की १५ वीं शताब्दी के पूर्व के महीं मिलते जिसका कारण यही है कि भूर्जपत्र, ताड़पत्र या कागज़ जितना रिकाउ नहीं होता. कागड़. पह माना जाता है कि पहिले पहिल चीन वालों ने ई. स. १०५ में कागज बनाया, परंतु उससे ४३२ वर्ष पूर्व अर्थात् ई. स. पूर्व ३२७ में, निवास, जो सिकंदर यादशाह के साथ हिंदुस्तान में भाया था, अपने व्यक्तिगत अनुभव से लिखता है कि 'हिंदुस्तान के लोग रुई को कूट कर लिखने के लिये कागज बनाते हैं. इससे स्पष्ट है किई स. पूर्व की चौथी शताब्दी में भी यहांवाले कई पाचीथड़ों से कागज यनाते पे, परंतु हाथ से बने हुए कागा सस्ते और सुलभ नहीं हो सकते. यहाँ पर साड़पत्र और भूर्जपत्र (भोजपत्र) की बहुतायत होने और नाममात्र के मूल्य से उनके बहत मिल जाने से कागजों का प्रचार कम ही होना संभव है. यूरोप के बने हुए सस्ते और सुंदर कागजों के प्रचार के पहले भी इस देश में चीथड़ों से कागज़ पनाने के कई कारग्वाने थे और अब भी है परंतु यहां के अने कागज निकने न होने से पुस्तक लिखने की पकी स्याही उनमें और पार फैल जाती थी. इस लिये उनपर गेहूं या चावल के घाटे की पतली लेई लगा कर उनको सुखा देते ५ जिसमे थे करड़े पड़ जाते थे, फिर शरय श्रादि से घोटने से वे चिकने और कोमल हो जाते . देखो. ऊपर पृष्ठ २. रिपए २. • पाए : २०६ पम विषय में मयसम्रलर लियता है कि निकास भारतवासियों का कई स कागज़ बनाने की कला का सामना प्रकट करता है (देस्रो, उपर.३, रि.), और यूलर निभास के कथन का प्राशय अनी सरह कट कर तय्यार किये हुए करके करहों के ' पस होना मानसा ई. १८) जो भ्रमपरित है क्योंकि 'पट' अप तक पनते हैं और ये पर्वधा फर कर नहीं बनाये जाते ( उनका विवेचन आगे किया जायगा.निमार्क का अभिप्राय कागज़ों से ही है. Aho! Shrutgyanam Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनसामग्री १४२ पर तभी उनपर पुस्तक लिखे जाते थे. जैन लेखकों मे काम की इतकें लिखने में जिली हुई पुस्तकों का अनुकरण किया है, क्योंकि उनकी लिखी हुई पुरानी पुस्तकों में लाशों की पुस्तकों की नई प्रत्येक पक्ष का मध्य का हिस्सा, जहां डोरी डाली जाती थी, बहुधा काही छोड़ा हुआ मिला है जिसमें कहीं हिंगलू का वृत्त और चतुर्मुख बापी आदि के रंगीन या खाली चित्र मिलते हैं. इतना ही नहीं, ई. स. की १४वीं शताब्दी की लिखी हुई पुस्तकों में प्रत्येक पने और ऊपर नीचे की पाटियों तक में छेद किये हुए भी देखने में आये हैं यद्यपि उन छेदों की कोई आवश्यकता न थी. भारतवर्ष के जलबायु में कागज बहुत अधिक काल तक नहीं रह सकता. कागज पर लिखी हुई पुस्तकों में, जो अब तक इस देश में मिली हैं, सब से पुरानी ई. स. १२२३-२४ की बनाई जाती है', परंतु मध्य एशिया में चारकंद नगर से ६० मील दक्षिण 'कुगिभर' स्थान से जमीन में गड़े हुए भारतीय गुप्त लिपि के ४ पुस्तक मि. बेवर को मिले जो ई. स. की पांचवीं शताब्दी के आस पास के होने चाहियें इसी तरह मध्य एशिया के कारागर आदि से जो जो पुराने संस्कृत पुस्तक' मिले हैं वे भी उतने ही पुराने प्रतीत होने हैं. रुई का कपड़ा. रुई का कपड़ा जिसको 'पट' कहते हैं प्राचीन काल से लिखने के काम में कुछ कुछ माता था और अब तक भी आता है. उसे भी कागजों की तरह पहिले आटे की पतली लेई लगा कर सुखाते हैं, फिर शंख यादि से घोट कर चिकना बनाते हैं तब वह लिखने के काम में जाता है. जैनों के मंदिरों की प्रतिष्ठा के समय अथवा उत्सवों पर रंगीन चावल आदि अत्रों से जो भिन्न भि मंडल बनाये जाते हैं उनके पटों पर बने हुए रंगीन नकशों का संग्रह जैन मंदिरों या उपासरों में पुस्तकों के साथ जगह जगह मिलता है ब्राह्मणों के यहां 'सर्वतोभद्र, 'लिंगतोभद्र' आदि १. अजमेर के सेठ कल्याणमल ढड्डा के यहां हस्तलिखित प्राचीन जैन एवं अन्य पुस्तकों का बड़ा संग्रह है. उसमें ज्योतिषसंबंधी पुस्तकों तथा विषयों के संग्रह का २६२ पत्रों का एक पुस्तक है जिसके पत्रांक प्राचीन और नवीन शैली दोनों तरह से दिये हुए हैं. उसके प्रारंभ में दो पत्रों में उक्त संग्रह की पत्रांसहित विषयसूची भी लगी हुई है जो वि. सं. १४२६ (ई.स. १३७२ ) में उक्त संग्रह के लेखक श्रीलोकहिताचार्य ने ही तय्यार की थी. उक्त पुस्तक के प्रत्येक पत्र के मध्य के खाली छोड़े हुए हिस्से में बने हुए हिगलू के वृत्त में सुराख बना हुआ है और ऊपर नीचे की पाटियों में भी वहीं के ९३५ पत्र के एक दूसरे पुस्तक में, जिसमें भिन्न भिन्न पुस्तकों का संग्रह है और जो १४ वी शताब्दी के आस पास का लिखा हुआ प्रतीत होता है (संवत् नहीं दिया), इसी तरह सुराख बने हुए हैं. गुजरात सिंघ और खानदेश के सामग्री पुस्तक संग्रहों की सूचियां भूसर संग्रहीत माग १. पू. ३८; पुस्तकसख्या १४७. देखो, ऊपर पृ. २, दि. ४. ४. ज. प. सो. बंगा, जि. ६६, पृ. २१३-२६०, इन पुरसकों में से जो मध्य पशिक्षा की गुप्तकाल की लिपि में दे दे तो मध्य एशिया के ही लिखे हुए हैं, परंतु कितने एक जो भारतीय गुप्त लिपि के हैं ( सेट ७, संख्या ३ के a, b, c, c,f टुकड़े संस्था ५८, ११. ट १३, १५, १६ ) उनका भारतवर्ष से ही वहां पहुंचना संभव है जैसे कि होर्युजी के मट के ताड़पत्र के और मि० बायर के भीजपत्र के पुस्तक यहीं से गये हुए है. दूसरा किसने एक यूरोपियन विज्ञानों ने यूरोप की नई भारतवर्ष में भी कागजों का प्रचार मुसलमानों ने किया ऐसा अनुमान कर मध्य परिक्षा से मिले हुए भारतीय गुरु लिपि के पुस्तकों में से एक का भी यहां से यहां पहुंचना संदेहरहित नहीं माना परंतु थोड़े समय पूर्व डॉ० स ऑरल स्टाइन को चीनी सुरसान से चीथड़ों के बने हुए है. स. की दूरी शादी के जो काम मिले उनके आधार पर बनें ने है कि यह संभव है कि लो (मुसमानों के बहुत पहिले हिंदुस्तान में कागज़ का प्रचार होगा परंतु उसका उपयोग कम होता था ( बा: पं. पू. २२६-३० ). 1. अजमरे के बीसपंथी असाय के बड़े धड़े के दिगंबर जैन मंदिर में २० से अधिक पट रक्खे हुए हैं, जिनपर ढाई डीप सीन लोक तेरा द्वीप, अंबू द्वीप आदि के सहित रंगीन चित्र है उनमें से किसने एक पुराने और ये Aho! Shrutgyanam Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्रीलिपिमाला. मंडलों के पद पर बने हुए रंगीन नको तथा 'मातृकास्थापन', 'ग्रहस्थापन' के सादे नश्ये मिलते हैं जिनके प्रत्येक को में स्थापित किये जानेवाले देवता आदि का नाम स्याही से यथास्थान दिला रहता है. राजपूताने में 'भडती' या 'गुरडे' लोग कपड़े के लंबे लंबे खरड़ों पर लिखे हुए पंचांग रखते हैं जिनमें देवताओं, अवतारों आदि के रंगीन चित्र भी होते हैं. वे गांवों और खेतों में फिर कर जहां के लोगों को पंचांग सुना कर और उनके साथ के रंगीन चित्रों का हाल कह कर अपनी जीविका चलाते हैं. दक्षिण में माईसोर आदि की तरफ के ब्यौपारी लोग कपड़े पर इमली की गुठली की लेई लगा कर पीछे उसको काला करते हैं और उससे अपने हिसाब की 'वही' बनाते हैं जिसको 'तिम्' कहते हैं और उसपर खड़िया से लिखते हैं. ऐसे दो तीन सा वर्ष तक के पुराने सैंकड़ों कहिते शृंगेरी के मठ में मिले हैं। जिनमें मठ के हिसाब, शिलालेखों और ताम्रtat wife की नकलें, तथा गुरुपरंपरा आदि बातें लिखी हुई हैं. पाटण (अपहिलवाड़ा) के एक जैन पुस्तकभंडार में श्रीममरिरचित 'धर्मविधि' नामक पुस्तक, उदयसिंह की दीक्षा सहित, १३ इंच लंबे और ५ इंच चौड़े कपड़े के ६३ पत्रों पर लिखा हुआ विद्यमान है। कपड़े के प चना कर उनपर पुस्तक लिखे जाने का केवल यही एक उदाहरण मिला है. लकड़ी का पाटा और पारी. भारतवर्ष में पत्थर की स्लेटों के प्रचार के पहिले प्राचीन काल से ही विद्यार्थी लोग पाटों पर लिखना सीखते थे. ये पाटे लकड़ी के होते थे और चारों कोनों पर चार पाये उसी लकड़ी में से निकाले हुए होते थे, पाठों पर मुलतानी मिट्टी या खड़िया पोत कर खुला देते थे. फिर उनपर ईंटों की सुरली बिछा कर तीखे गोड मुख की लकड़ी की कलम से, जिसको राजपूताने में 'बरतना ' 'बा' (वर्णक) कहते हैं, मिलते थे, अपादों के स्थान में स्लेटों का प्रचार हो गया है तो भी कितने ही ग्रामीण पाठशालाओं के विद्यार्थी अब तक पार्टी पर ही 'पहाड़े', 'हिसाब आदि लिखते हैं. उपोतिषी लोग अब तक बहुधा जन्मपत्र और वर्ष कल आदि का गणित पार्टी पर कहने के बाद कागजों पर उतारते हैं. बच्चों की जन्म कुंडलियां तथा विवाह के समय लग्न कुंडलियां प्रथम पाटे पर गुलाल बिछा कर उसपर ही बनाई जाती हैं. फिर वे कागज़ पर लिखी जाकर यजमानों को दी जाती हैं. लकड़ी की बनी हुई पतली पाटी (फलक ) पर भी प्राचीन काल में विद्यार्थी लिखते थे. बौद्धों की जातक कथाओं में विद्यार्थियों के फड़क का उल्लेख मिलता है. अब भी उसपर मुलतानी मिट्टी या खड़िया पोलने बाद स्याही से लिखते हैं. अब तक राजपूताना आदि के बहुत से दुकानदार विक्री या रोकड़ का हिसाब पहिले ऐसी पाडियों पर लिख लेते हैं, फिर अवकाश के समय उसे बहियों में दर्ज करते हैं. विद्यार्थियों को सुंदर अक्षर लिखना सिखलाने के लिये ऐसी पाटियों को बहुधा एक तरफ़ लाल और दूसरी ओर काली रंगवाते हैं. फिर सुंदर अक्षर लिखनेवाले से उनपर हरताल से वर्णमाला, बारखडी ( द्वादशाक्षरी ) यदि लिखवा कर उनपर रोग्रन फिरा देते हैं सबसे छोटा १ फुट ५ इंच लंबा और उतना ही चौड़ा, और सबसे बड़ा १४ फुट लंबा और ५ फुट ७ इंच बड़ा है. कितने ही अन्य स्थानों में भी ऐसे अनेक पट देखने में आये हैं. 1. माइसोर राज्य की आकिलोजिकल सर्वे की रिपोर्ट, ई. स. १६१६, पृ. १८. १० पी. पीटर्सन की मुंबई इहारी के संस्कृत पुस्तकों की खोज की पांचवीं रिपोर्ट, पृ. ११३. इस प्रकार गणित करने की खाल को ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों में 'धूलीकर्म' कहा है. 6. देखो ऊपर पू. ३, और इसी प्रठ का टिप्पण २. Aho! Shrutgyanam Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ सेखनसामग्री जिससे उनपर के हरताल के अक्षर पके हो जाते है. फिर विचाी लोग डिमा को पानी में घोल कर मर (बस) की कलम से उनपर लिखने का अभ्यास करते हैं जिसको 'पाटोघोटना' कहते हैं. इस तरह का समय तक उनपर लिखने से विद्यार्थियों के पदर सुंदर बनने लग जाते हैं. प्राचीन पुस्तकों की मदद करनेवाले अर्थात् पुस्तकलेखक लकड़ी की सादी या रंगीन पाटी पर, ऊपर से करीब ४ांच छोड़ कर, डोरी लपेटते हैं और उसमें चार पांच इंच लंबी पतली पाकड़ी लगा देते हैं, जिससे मूल प्रति का पत्रा दया रहता है. उस पाटी को हुटनों पर रख जमीन पर बैड कर पुस्तकों की नकल करते हैं. रेशमी कपड़ा. रेशमी कपड़ा भी सूती कपड़े की माई प्राचीन काल में लिखने के काम में लाया जाता था परंतु उसके बहुत महंगे होने के कारण उसका उपयोग बहुत कम ही होना होगा. भरपेक्नी लिखता है कि मैंने यह सुना कि रेशम पर लिखी हुई काबुल के शाहियावंशी हिंदू राजामों की वंशावली मगरकोट के किले में विद्यमान है. मैं उसे देखने को बहुत उत्सुक था परंतु कई कारणों से यह जसलमर कपात ज्ञानकोष' नामक जैन पुस्तकहर में रेशम की एक पट्टी पर स्याही से लिखी हुजैन सूत्रों की सूची देखी थी। यरोप तथा अरबमादि एशिया के देशों में प्राचीन काल में लेखनसामग्री की सलमताभ होने से यहां क लोग जानवरों के चमड़ों को साफ कर उनपर भी लिखते थे परंतु भारतवर्ष में ताड़पत्र, भोजपत्रमादि प्राकृतिक लेग्वनसामग्री की प्रचुरता तथा सुलभता एवं जैनों में पर्ममात्र, तथा वैदिक काल के पीछे के ब्राह्मणों के मृगचर्म के अतिरिक्त और चमड़ा, अपवित्र माना जाने के कारण लिखने में उसका उपयोग शापद ही होता हो. तो भी कुछ उदाहरण ऐसे मितभाने हैं जिनसे पाया जाता है कि चमड़ा भी लिखने के काम में कुछ कमाता होगा. बौद्ध ग्रंथों में चमड़ा लेखनसामग्री में गिनाया गया है. सुगंधु ने अपनी पासवदत्ता' में अंधकारयुरू भाकाय में रोहुए तारों को स्याही से काले किये हुए चमड़े पर चंद्रमा रूपी खडिमाके टुकड़े से कमाये हुए यून्यबिंदुओं (पिदियों) की उपमा दी है। जेसलमेर के महत् ज्ञानकोष' नामक जैन पुस्तकमंहार में बिना लिए एक चर्मपत्र का हस्तलिखित पुस्तकों के साथ मिलनाडॉ.मूलर बताता है. तारपत्र, भूर्जपस (भोजपत्र) या कागज पर लिखामाबेलपातकाल तकपचा नहीं रहताइस लिये जिस घटना की पादगार चिरस्थायी करना होता उसको जोग पत्थर पर खुदवाते थे और भर भी खुदवाते हैं. ऐसे लेख घटान, स्तंभ, गिला, मूतियों के मासन या पीठ, पत्थर के पात्रों या 'उम १. ऐ.पू . ३. कवायन की भामका पू. २७. . . . पिरषातो पिरान विग्निीषन नमोनोपाधि नचिरचारपवाभिमानापिनासब दशा हॉल का संस्करण, प. १०२) Aho! Shrutgyanam Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्राचीन लिपिमाला के इकनों पर खुदे हुए मिलते हैं. पत्थर पर खुदे हुए लेखों को 'शिलालेख' और जिनमें राजाओं आदि का प्रमायुक्त वर्णन होता है उनको 'प्रशस्ति' कहते हैं. जिस आधार पर लेख खुदवाना होता वह यदि समान और चिकना न हो तो पहिले टोकियों से छील कर उसे समान बनाते फिर पत्थर आदि से घोटकर वह चिकना बनाया जाता था. जिस भाप का लेख लिखना होता इसकी रचना कोई कवि, विज्ञान, राजकीय अधिकारी' या अन्य पुरुष करना. फिर सुंदर चर लिखनेवाला लेखक एक एक अथवा दो दो पंक्तियाँ स्याही से पत्थर पर लिखता और उनको कारीगर (सुधार) खोदला जाता था. इस प्रकार कमरा सारा पत्थर चोदा जाता' इस प्रकार से तैयार किये जाने हुए शिक्षालेख मैंने स्वयं देखे हैं. सिलने के पूर्व पंक्तियां सीधी लाने के लिये यदि पत्थर अधिक लंबा होता तो न की पतली डोरी को गेरू में भिगो कर उससे पंक्तियों के निशान बनाने जैसे कि लकड़ी के लड्डे को चीर कर सकने निकालनेवाले खाली लोग लड़े पर बनाते हैं, और पत्थर कम लंबाई का होता तो गज या लकड़ी की पट्टी रख कर उसके सहारे टांकी आदि से लकीर का निशान बना लेते. मंदिर, बावडी आदि की भीमों में लगाये जानेवाले लेख पत्थर की छोटी बड़ी पहियों (शिक्षाओं पर खुदवाये जाकर बहुधा ताकों में, जो पहिले पना लिये जाते थे, लगाये जाते थे. ऐसे लेखों के चारों ओर पुस्तकों के पत्तों की नाई हाशिमा छोड़ा जाता था. कभी कभी खोदे जानेवाले स्थान के चारों और लकीरें खुदी हुई मिलती हैं. कभी वह स्थान पाच इंच से एक इंच या उससे भी अधिक खोद कर हाशिये से मीचा' किया हुआ मिलता है. अधिक सावधानी से खुदवाये हुए लेखों में कभी पत्थर की चटक उड़ गई तो उसमें पत्थर के रंग की मिधातु भर कर उस स्थान को समान बनाते थे और यदि अदर का कोई अंग चटक के साथ बड़ जाता तो उसको पीडा उस धातु पर खोद लेते थे. पहुचा शिलालेखों के प्रारंभ में और कभी अंत में कोई मंगल सूचक सांकेतिक चित्र शब्द या किसी देवता के प्रदानसूचक १. यह हाल साबधानी के साथ सत्कार किये हुए लेख का है कई लेख सरदरे पत्थरों पर बेपरवाही के साथ बोवे हुए भी मिलते है. १. जिन शिलालेखों में राजा की तरफ़ की किसी आशा आदि का उल्लेख होता उन्हें राजकर्मबारी ही तय्यार करते थे. २. लेखक बहुधा ब्राह्मण, कायस्थ, जैन साधु या सूत्रधार ( सिलाघर ) लोग होते थे. लेखों के हिंदुओं के हमड़े हुए होते हैं और पत्थर मानों का अनुकरण कर उभरे हुए ही लेख मेरे देखने में आये है एक तो ४. अशोक के विरमार के ले (ई.स. १३१६ ) के के चारों ओर लकीरें हैं ( . . जि. १२, पृ. २४ के पास का लेट ) 4 वसंतगढ़ (सिरोही राज्य में) से मिले हुए परमार राजा पूर्णपाल के समय के वि. सं. १०६६ (ई. स. १०४२) के लेख का, जो राजपूतानाम् आ है खुश हाशिये से करीब पाय व नीचा है और यहीं हुए (राज्य में ) के दो शिलालेखो का खुदा हुआ अंश प्रायः एक इंच नीचा है, उनमें से एक ( खंडित ) परमार राजा चामुंडराज के समय का बि. सं. १९५७ (ई.स. ११०१) का और दूसरा परमार राजा विजयराज के समय का वि. सं. १९१६ ( ई. स. १११०) का है. राजपूताना म्यूजियम (अजमेर) में अजमेर के चौहान राजा बिमहराज बीसलदेव र की तथा सोमेखर पंडितरचित 'तिमि राजन की दोहोरी हुई है. इन चारों बातु भरी हुई है और कहीं उसपर अक्षर का अंश भी हुआ है. विज्ञों में स्वस्तिक ( आ. स. स. ई. जि. ९. ६६ मा. स. . में कई जगह इ १३, १४ आदि), चक्र ( धर्मचक्र ) पर रहा हु त्रिशूल (जिरण: आ. स. वे. 'झ' का सांकेतिक चिह्न देखो. लिपिपत्र १६, २१, २३ आदि के साथ दी जि. ७. सेट ४२ सेस संख्या ५, ६, ७, १२, जि. ४, सेट ४५ लेख संख्या १०, १५ आदि), हुई मूल पंक्तियों के प्रारंभ में) तथा कई अन्य अक्षर पत्थर के भीतर जाते है परंतु मुसमानी के रीया फारसी के लेखों के अक्षर पर असर नहीं होता टोकियों से दिया जाता है कोई कोई हिंदू मु वाले लेक भी बनाने लग गये परंतु ऐसे बहुत ही कम मिलते हैं अब तक ऐसे केवल दो मन में और दूसरा बाड़ी (बलपुर राज्य में मै. ये दोनों मुसाम के समय के हैं. की १४ धर्माशाओं में से प्रत्येक के चारों ओर की दी हुई है. बि. सं. १२७३ राज्य में) से मिले हुए लेख ( जम्भजमेर मे रखा हुआ है मिलते है जिनका आशय ठीक ठीक हात नहीं हुआ ( आ. स. घे. ; जि ४, सेट ४४, भाजा का सेवा ७१ मैट ४५ कूडा १,६,१६ मेट ४६, फूड के ले २०, २२, २४, २१). - शब्दों में जिम ( ज १२. पू. ३२० के पास का सेट लिपि ७११.१२.१५ आदि के साथ ही हरे Aho! Shrutgyanam Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनसामग्री १४६ शब्द मिलते है. वर्तमान लेखनशैली के अनुसार उनमें पदच्छेद अर्थात् प्रत्येक शब्द का अलग अलग लिखना नहीं मिलता परंतु पंक्ति की पंक्ति बिना स्थान छोड़े जिली जाती थी. कभी कभी शब्द अलग अलग भी लिखे मिलते हैं परंतु किसी नियम से नहीं. विराम के चित्रों के लिये hen एक और दो स्वड़ी लकीरों (दंड) का बहुधा प्रयोग होता था. रतोकार्ष पतताने अथवा शब्दों या वाक्यों को अलग करने के लिये एक, और श्लोकांत या विषय की समाप्ति के लिये दो खड़ी लकीरें बहुधा बनाई जाती थीं. कहीं कहीं प्रत्येक पंक्ति में भाषा या एक श्लोक दी लिखा हुआ मिलता है और कभी कबिताबद्ध लेखों में श्लोकांक भी पाये जाते हैं. कभी अंत में अथवा एक विषय की समाप्ति पर कमल फूल" या कोई अन्य चित्र भी खोदा जाना था. लेखक जय मूलपेशियों के प्रारंभ में), 'स्वस्ति' ( लिपिपत्र १७ की मूलपंक्तियों के प्रारंभ में 'ओ' के सांकेतिक चिह्न के बाद), 'हरि श्रोम् स्वस्ति श्री' (जि. ए, पृ. १४ के पास का सेट ) आदि. विज्ञ से ) पंक्षियों के ( 1. 'सांकेतिक विसे नमः शिवाय' (सिपि २१ की पंक्रियों के प्रारंभ में), औसत नमो विष्णुये विचित्र २३ की पंक्रियों के प्रारंभ में), 'नमो अरहतो वर्धमानस्य ( लिपिपत्र की प्रारंभ में), 'ओ ( सांकेतिक चिना से ) औौ नमो वीतरागाय (राजपूताना म्यूजियम में हुए परमार राजा विजयराज के समय के वि. सं. ११६६ के शिलालेख के प्रारंभ में ) 'ओ ( सांकेतिक भिना से ) नमो बुद्धाय' (के.जि. १२. पु. २८ के पास का सेट) औ नमोरत्रयाय (शेरगढ का लेख ई. जि. १४, पृ. ४५) आदि लेखों के अंत में कभी कभी 'श्री', 'शुभं भवतु', 'श्रीरस्तु' आदि शब्द मिलते हैं और कभी कभी ' ॥ छ ॥' लिखा हुआ मिलता है. यह ''प्राचीन 'थ' अर का कांतर प्रतीत होता है जो वास्तव में धर्म या सूर्य का सूक होना चाहिये. १. अशोक के देहली (ई. जि. १०. पू. ३०६ से ३ १० के बीच के सेट जि. १६, पृ. १२२ और १२४ के बीच के क्षेत्र ), रक्षा, मथिमा, रामपुरवा (ऍ. जि. ए . २५० से २५२ के बीच के सेट ), परिक्षा. निग्लिया .जि . पू. ७ के पास का मेट) और सारनाथ ( . इंजि. प. पू. १६८ के पास का सेट ) के स्तंभों के लेखो कालसी के बदाम की १ से ८ तक की धर्मशाऔ ( जि. २. पू. ४५० और ४४६ केवी के दो ट), एवं कितने एक अन्य लेखों में (मा. स. वे. ई: जि. ४. मेट ५१, संख्या ५, १०, १५, १६ सेट ४३ लेखसंख्या १३ १४: सेट ५४, लेख संख्या ११ ले ५३ ले संख्या ४. ई। जि. म. प्र. १७६ के पास का मेट, लेख) शब्दों या समासवाले शब्दों के बीना स्थान छोड़ा हुआ मिलता है. इन विरामचिसी के लिये कोई निति नियम नहीं था की चिता आवश्यकता के लगाई जाती थी और कहीं आवश्यकता होने पर भी छोड़ दी जाती थीं. कहीं लेख की प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में ( बेरावल से मिले हुए दशमी संवत् ६५७ केलेज में प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में दो दो बड़ी लकीरें है। ऍ. इंजि. ३. पू. ३०६ के पास का लेट) और कहीं अंत में भी (अजमेर म्यूजियम में रक्सी हुरे चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य की शिलाओं में से पहिली शिक्षा की बहुचा प्रत्येक पंक्ति के अंत में एक या दो बड़ी बड़ी है ऐसी लकीरें बिनाश्ता है. के * हम विरामसूचक लकीरों में भी अक्षरों की नई सुंदर लाने का यह करना पाया जाता है. कहीं कड़ी लकीर के स्थान में अर्धवृत, कहीं उनके ऊपर के भाग में गोलाई या सिर की सी आड़ी लकीर और कहीं मध्य में घड़ी लकीर लगी हुई मिलती है. मौरी के नागार्जुनी गुफा के लेख की प्रत्येक पंक्ति में आधा ही है और की गुफा के एक लेख ( भा. स. षे. ई. जि. ४. प्लेट ५६, लेखसंख्या ४ ) तथा गुलवाड़ा के पास की गुफा के घटक के लेख ( श्री. स. . जि. ४, प्लेट ६० ) में एक एक लोक ही खुदा है. 4. समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के प्रशोक के लेखवाले स्तंभ पर खुदे हुए लेख के श्लोकबद्ध अंश में (ली: गु. : खेड १) तथा वालियर से मिले हुए प्रतिहार राजा भोजदेय के शिलालेख ( अ. स. ई. ई.स. १६०३-४, प्लेट ७२ ) में लोकांक दिये है. जोधपुर से मिले हुए प्रतिहार राजा वाक के लेख में जो राजपूताना म्यूज़ियम् (अजमेर में संघ के पूर्व कम हुआ है. .जि. २, परसाबगढ़ राजपूताने में ) से मिले हुए कनौज के प्रतिहार राजा महेंद्रपाल ( दूसरे ) के समय के वि. सं. १००३ (ई.स. १४३) के शिलालेख में, जो राजपूताना म्यूज़ियम् (अजमेर) में रखा हुआ है, ९४ वीं और ३० वीं पंक्तियों में इस (O) बने हुए हैं. १. संतगढ़ (सिरोही राज्य में) से मिले हुए परमार राजा पूर्णपाल के समय के वि. सं. २०३२ (ई.स.१०४२) के शिलालेख के अंत में, तथा ऊपर जगह भिन्न भिन्न प्रकार के चित्र बने हुए हैं कितने एक लेखों के ऊपर के जाती हिस्सों में शिवलिंग, मंत्री पत्नी या चंद्र आदि के चित्र भी मिलते हैं. है श्रीमान विग्रहराज के हर्षनाथ के लेख की ३३ वीं पंक्ति में विषय की समाप्ति पर फूल खुदा है पृ. १२० के पास का भेट ). Aho! Shrutgyanam Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. किसी अक्षर या शब्द को भूल से छोड़ जाता तो वह अदर या शब्द या तो पंक्तिके ऊपर या नीचे अथवा हाशिये पर लिखा जाता था और कभी वह अक्षर या शब्द किस स्थान पर चाहिये था यह बतलाने के लिये या x चिक भी मिलता है जिसको 'काकपद' या 'हंसपद कहते हैं। भूल से अधिक लिखा दुधा अक्षर, शब्द, मात्रा या अनुस्वार प्रादिया तो टांकी से उड़ा दिया जाना या उस पर छोटी छोटी खड़ी या तिरछी हाकीर या लकीरें बना कर उसे काट दिया जाता था. कई लेखों के अंत में उनके लगाये जाने या उनसे संबंध रखने वाले स्थानों के बनने का संवत्, ऋतु, मास, दिन, पक्ष, तिथि मादिर एवं उनके रचयिता, लेखक और खोदनेवालों के नाम भी दिये हए मिलते हैं। मंदिर आदि की दीवारों के ताकों में लगाये जानेवाले लेख बहुधा एक ही छोटी या पड़ी शिला पर खुदे हुए होते हैं परंतु कभी पांच तक पर भी खुदे हुए मिलते हैं. ये लेख प्राकृत, संस्कृत, कनड़ी, तेलुगु, मामिळ, प्राचीन हिंदी प्रादि भाषाओं में हैं. पुस्तकें भी चिरस्थायी रखने के लिये कभी कभी चटान या शिलाओं पर खुदवाई जाती थीं, २. बुद्धगया से मिले हुए अशोकचल के लपमणसेन संवत् ५२ के लेख की पहिली पंक्ति में 'तथागतो ह्यषवत्' में 'तो' लिखना रह गया जिसको पाक्त के ऊपर लिखा है और नीचे चितधनाया है (एँ : जि. १३. पृ २८ के पास का प्लेट). वि. सं. १२०७ को महावन की प्रशस्ति की बौं पंक्ति में तस्याभूतनयो नयोनतमतिः' में दूसरा 'नयो' लिखना रह गया जिसको पंति के मीये लिखा है. उसी प्रशस्ति की ११ वी पंक्ति में [८] श्लोक का चतुर्थ चरण लिखना रह गया जो पाई पोर के हाशिये पर लिखा गया है और जहां वह चाहिये था उस स्थान पर पंक्ति के ऊपर.0 चिक किया है. ऐसे ही उसी प्रशस्ति की २०ी पंक्ति में [१७] लोक रह गया वह भी या ओर के हाशिये पर लिखा है और जहां वह चाहिये था यहां पंक्रि के ऊपर ४ विश किया है और वही विक हाशिये पर (अंत में ) दिया है. जि. २. पृ. २७६ के पास का प्लेट), २. विल्हारी के लेन की पहिली पंक्ति [ श्लोक १ में पहिल सरगपतिः प्रस्फार खुश था परंतु पीछे से '• पोतः' का विसर्ग टांकी से उड़ा दिया है तो भी नीचे की विदी का कुछ अंश दीखता है ( जि. १, पृ. २५४ के पास का प्लेट), बसा लेख की पांच पंक्ति[लोक में 'लोलोमालिसशापर्यतपते.' खुदा या परंतु पीछे से 'शाउर्व 'के 'शा' के साथ लगी'मा' की मात्रा की सूचक सदी लकीर का तिरकी लकीर से कार दिया है. कणस्था के लेखकी १६षी पंक्ति में 'यतिसीमर्थशम्पहीन पुस था परंतु पीछे 'मर्थ' के दोनों अक्षरों के ऊपर पांच पांच छोटी सी लकीरें बना कर उन्हें कार दिया है (ई. जि. १६. पृ. ५८ के पास का पलेट). ३. माहीं पुराने लेखों में संवत् के साथ और दिन ( कनिकस्य सं५३ १ दि १-ऐ. जि. १. पू. ३८१ ); कहीं वल, मास नीर दिन ('सबसरे पचविणे हेमंतमसे त्रितिये दिषस बीशे'. जि. १. पू. ३८); कहीं मास, पक्ष और तिथि (बदामोद शिसप्ततितो ७०२मार्गशीर्षालप्रति जि. पू. ४२) मिलते है. कहीं संघ के स्थान में राज्य (सन् जुलूस) भी मिलते हैं. शी शताब्दी के पीछे के लेखों में मात्रामवत, मास, पक्ष. तिथि आदि मिलते हैं. ४. अधूणा (बांसवाड़ा राज्य में) के मंडलेसर के मंदिर में लगे हुए परमार चामुंडराज के वि. सं. ११३६ फाल्गुन सुदि ७एक बार के कविताब लेख में उसका रचयिता चंद्र, लेखक पालभ्यजाति का कायस्थ मासराज और रणोद नेवाला चामुंडक होना लिखा है .. कुंभलगढ़ (मेवाड़ में के कुंभस्वामी (मामादेव के मंदिर में वागाहुना महाराणा कुंभकर्स का लेख पड़ी पड़ी पांच शिलानी पर खुदा दुमा था जिनमे मे ४ के टुकड़े मिल गये है. प्राग्वार (पोरवार) मेष्ठी (सेठ) लोलाक (लोलिग) मे धीमोल्पा ( मेवाड़ मे) के निकट के जैन मंदिर के पास के एक चटान पर 'उन्नतशिखरपुराण' भामक दिगंबर जैन पुस्तक वि. सं. १२९६ (ई.स. १९७०) में खुदवाया जो भब तक विद्यमान है. यीजीस्यों के विद्यानुरागी स्वर्गीय राष कृष्णसिंह ने उसपर तथा उसके पास के दूसरे चटान पर बने हुए उस जैन मंदिर के संबंध के ही विशाल लेखापर मी (जो उसी संवत् है और जिसमें वाहमान से लगाकर सोमेश्वर तक की सांभर मीर अजमेर के चौहानों की पूरी बंशावली और लोलाक के वंश का वर्णन है) मेरे माह से पक्के मकान बनवा कर उनकी रक्षा का सुप्रबंध कर दिया है. चौहान राजा विग्रहराज (बीसलदेष) के पनाये दुप 'हरकेलिनादक' की दो शिला, सीमेश्वर कविरखित 'ललितविग्रहराजनाटक की दी शिक्षा तथा चौहानों के किसी ऐतिहाप्तिक काव्य की पदिली शिला, ये पांचों अजमेर के ढाई दिन के झोपड़े से ( जो प्रारंभ में वीसलदेव की बनाई पाठशामा यी) मिली है और इस समय अजमेर के राजपूताना म्यूज़िमम में रक्सी हुई है. मालवे के प्रसिय विद्वान् राजा भोजरचित 'शतक' नामक दो मास काम्प (दै. जि. प.२४५--६०) और राजकवि मदनरचित 'पारि. बातमंजरी(मिजयभी नाटिका'-पै. जि. स. १०१-१७, ये तीनो पुस्तक भार (मालये मै ) में कमल मौला मामक Aho ! Shrutgyanam Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रएर लखनसामग्री अकीक, स्फटिक मादि कीमती पत्थरों पर भी खुदे हुए छोटे छोटे लेख मिले हैं'. बौद्ध लोग पत्थर की नाई मिट्टी की ईटों पर भी अपने धर्मसंबंधी सूत्रों भादि को खुदवाते थे. मथुरा के म्यूजियम में कितने एक बड़ी बड़ी ईटों के टुकड़े रखे हुए हैं जिनकी मोटाई पर एक तरफ की लंबाई की भोर ई. स. पूर्व की पहिली शताब्दी के आसपास की लिपि में मदरों की एक एक पंक्ति खुदी हुई है. अनुमान होता है कि ये इंटे दीवार मादि में एक पंक्ति में लगाई गई होंगी कि उनपर खुदा हुमा भाशय क्रम से पढ़ा जावे. गोरखपुर जिले के गोपालपुर गांव से तीन इटें भखंडित और कुछ के टुकड़े मिले हैं जिनके दोनों ओर बौद्ध सूत्र खुदे हैं, ये ईटें ११ से रंच तक लंबी और ४, से ४६ इंच तक बोली हैं और उनकी एक भोर १२ से १० और दूसरी तरफ ११ से १ तक पंक्तियां ई. स. की तीसरी या चौथी शताब्दी की लिपि में खुदी हुई हैं. नैनीताल जिले के तराई परगने में काशीपुर के निकट के उौन नामक प्राचीन किले से दो ईटें मिली हैं जिनमें से एक पर सस्प राज्ञोः श्रीपतिविमिसरा' और दूसरी पर 'राज्ञो मावृमिस. पुस' लेख खुदा हुमा है. ये लेख ई.स. की तीसरी शताब्दी के प्रासपास के होने चाहिये. कधी ईटों पर लेख खोद लेने के बाद वे पकाई जाती थी. ईटों के अतिरिक्त कभी मिट्टी के पात्रों पर भी लेश खदवाये जाते थे और मिट्टी के लों पर भिन्न भिन्न पुरुषों, नियों भादि की मुद्राएं लगी हुई मिलती हैं, जिनके पावर उमोहए होते हैं. पुरुषों की मुद्राओं के अतिरिक्त कितने एक दलों पर बौद्धों के धर्ममंत्र 'ये धर्महेतुप्रभवा.' की मुद्रा लगी हुई भी मिलती है. यरतन एवंदेले लेख के खुदने और मुद्रा के लगने के बाद पकाये जाते थे. सोना. बौद्धों की जातक कथामों में कभी कभी कुटुंबसंरंधी मावश्यक विषयों, राजकीय आदेशों तथा धर्म के नियमों के सुवर्ण के पत्रों पर सुदवाये जाने का उल्लेख मिलता है, परंतु सोना बहुमूल्य होने के कारण उसका उपयोग कम ही होता होगा, तनशिला के गंगू नामक स्तूप से खरोष्ठी लिपि स्थान । जो पहिले राजा भोज की बनवाई हुई सरस्वतीकंठाभरण नामक पाउशाला थी से शिलाओं पर खुद हुए मिले हैं. मेवाड़ के महाराणा कुंभकर्ण (कुंभा) ने कीर्तिस्तंभों के विषय का कोई पुस्तक शिलाओं पर खुदवाया था जिसकी पहिली शिला का प्रारंभ का अंश चित्तौड़ के किले से मिला जिसको मैंने वहां वे उठवा कर उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के म्यूज़ियम् में रखवाया है. मेवाड़ के महाराणा राजसिंह (प्रथम ) ने, तैलंग भट्ट मधुसूदन के पुत्र रणछोड़ भट्ट रचित 'राजप्रशस्ति' नामक २४ सगौ का महाकाव्य बड़ी बड़ी २४ शिलानों पर खुदवाकर अपने बनवाये हुए सजसमुद्र' नामक विशाल तालाब के सुंदर बंद पर २५ ताकों में लगवाया जो अब तक वहां पर सुरक्षित है. ६. स्फटिक के टुकड़े पर खुदा हुआ एक लोटा लेख भट्टिप्रोलु के स्तूप से मिला है (प.जि.२, पृ३२८ के पास का प्लेर.) पशियाटिक सोसाइटी बंगाल के प्रासडिंग्ज, ई.स. १८६६, पृ. १००-१०३. बु. पू. १२२ के पास का प्लट .. इन लेखों की प्रतिकृतियां ई. स. १९०१ ता. ६ डिसंबर के 'पायोनिप्रर'नामक अलाहाबाद के दैनिक अंग्रेज़ी पत्र में प्रसिर हुई थी. . बलभीपुर ( वळा, काठियावाड़ मे ) से मिले हुए मिट्टी के एक बड़े पात्र के टुकड़े पर [२००] ४०७ श्रीगुहसेन. घर" लेख है (.: जि.१४, पृ. ७५), यह पात्र वलभी के राजा गुहसेन (दूसरे के समय का गुप्त सं. २४७ (ईस. ५६६-७)का होना चाहिये. प्रा.स रि, ई.स. १९०३-४, प्लेट ६०-६२. १. देखो, ऊपर पृ.५ और उसी पृष्ठ के टिप्पण इ. ७, ८. महाबलीपुर ( बला, काठिभावाड़ में से मिले हुए मिट्टी के एक यके पात्र के डको पर [२००] : श्रीगुड़सेन Aho! Shrutgyanam Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादीमलिपिमाला. केलेल्याला एक सुपर्ण का पत्रा' जनरल कनिंगहाम को मिला था. पर्मा के प्रोम जिले के माया नामक गांव के पास से दो सोने के पत्रे खुदे हुए मिले हैं. उनमें से प्रत्येक के प्रारंभ में 'ये धर्महेतुमभया' श्लोक और उसके पीछे पाली भाषा का गद्य है. उनकी लिपि ई. स.की चौथी या पांचवीं शताब्दी के आस पास की है और उसमें कई अचर दक्षिणी शैली के हैं. सांवी. की नई कभी कभी चांदी के पत्रों पर भी लेख खुदपाये जाते थे. ऐसा एक पत्रा महिमोल के तप से और दूसरा तक्षशिला से मिला है. जैन मंदिरों में चांदी के गट्टे और यंत्र मिखते हैं. सवर्ण तांबा. लेखन सामग्री के संबंध में धातुओं में तथा सब से अधिक काम में आता था. राजामों तथा सामंतों की फसे मंदिर, मठ, ब्राह्मण, साधु आदि को दान में दिये हुए गांव, खेत, कुए भादि की सनदें तार पर माचीन काल से ही खुदवा कर दी जाती थी और अब तक दी जाती हैं जिनको 'दानपत्र', नपत्र', 'ताम्रशासन या 'शासनपत्र कहते हैं. दानपत्रों की रचना अमात्य (मंत्री), सांधिविग्रहिक बलाधिकृत (सेनापति) या अक्षपटलिक आदि अधिकारियों में से कोई स्वयं करता या किसी विद्वान् से कराता था. कहीं उस काम के लिये एक अधिकारी भी रहता था. फिर उसको सुंदर अक्षर लिखनेवाला लेखक तांबे के पन्ने पर स्याही से लिखता और सुनार. ठठेरा, मुहार या कोई शिरूपी उसे खोदता था. कभी कभी ताम्रलेख रेखारूप में नहीं किंतु पिदिनों से खुदे हुए भी मिलते हैं. जिस पुरुष की मारफत भूमिदान की सनद तय्यार करने की राजाज्ञा पहुंचाती उसको 'दूतक' कहते थे. दूतक का नाम बहुधा दानपत्रों में लिखा रहता है. दक्षिण से मिले १. कमा. स.रिजि .२, पृ. १३० और सेट ५६. १. प.जि.५, पृ. १०१और उसी के पास का प्लेट. 8. ज.र.ए. सोः ई. स. १६१४. पृ.९७५-७६ और.स. १६१५, प्र. १९२के सामने का प्लेट. .. जैन मंदिर में मूर्तियों के साथ पूजन में रखे हुए चांदी के गहे गोल प्राकृति के होते है जिनपर 'नमोकार मंत्र' (नमो अरिहंताएं ) आठ दल के कमल और मध्य के वृत्त, इन नय स्थानों में मिल कर पूरा खुदा हा होने से उसको 'नषपदजी का गट्टा' कहते हैं. ऐसे ही चांदी के गहों पर यंत्र भी खुदे रहते हैं. अजमेर में श्वेताम्बर संप्रदाय के मूंतों के मंदिर में चांदी के ४ नघपद के गट्टे और करीब एक फुट लंये और उतने ही चौड़े चांदी के पत्र पर अधिमंडलयंत्र' सुवा हैवाही के बड़े मंदिर (खेतांबरी) में ही बीज' तथा 'सिद्धचक्र' यंत्रो के गट्टे भी रक्खे हुए है. . 'सांधिधिग्रहिक' उस राजमंत्री को कहते थे जिसको संधि मुलह) और 'विप्रह' (युख) का अधि. कार होता था. - 'अक्षपटलिक' राज्य के उस अधिकारी को कहते थे जिसके अधीम हिसावसंबंधी काम रहता था परंत कभी इस शब्द का प्रयोग राज्य के दफ्तर के अध्यक्ष के लिये भी होता था. अतएव संभव है कि वातर और हिसाब दोनों ही कहीं कहीं एक ही अधिकारी के अधीन रहते हो. . कश्मीर के राजा ताम्रपत्र तय्यार करने के लिये 'पट्टोपाध्याय' नामक अधिकारी रखते थे. यह अधिकारी भक्षपटलिक के अधीन रहता था ( कल्हणकत राजतरंगिणी, तरंग ५.लो. ३६७-१८). .. देखो. ऊपर पृ.१००, टिप्पस ३. दूतक कमी कभी राजकुमार, राजा का माई, कोई राज्याधिकारी आदि होते थे. कभी राजा स्वयं प्राझा देता था. राजपूताने में ई.स.की १४ वीं शताब्दी के पास पास से ताम्रपत्र राजस्थानी हिंदी में लिखे जाने लगे तो भी इतक का नाम रहता था (प्रत दुप). Aho! Shrutgyanam Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनसामग्री १५३ हुए किसी किसी दानपत्र के अक्षर इतने पतले हैं कि वे पहिले स्याही से लिखे गये हों ऐसा प्रतीत नहीं होता. संभव है कि ताये के पत्रों पर पहिले मुलतानी मिट्टी या ऐसाही कोई और पदार्थ पोतने के राद दक्षिणी शैली के ताड़पत्रों की नई उनपर तीखे गोल मुंह की लोहे की कलम से लेखक ने अक्षर बनाये हों जिनको खोदनेवाले कारीगर ने किसी तीक्ष्ण औजार से खोदा हो. उसरी हिंदुस्तान से मिलनेवाले दानपत बहुधा एक या दो पत्रों पर ही खदे मिलते हैं परंतु दक्षिण से मिलनेवाले अधिक पत्रों पर भी खदेहए मिलते हैं, जैसे कि विजयनगर के वेंकटपतिदेव महाराय का मदुरा से मिला हुआ शक सं.१५०८ (ई.स.१५८६)का दानपत्रह पत्रों पर भोर हॉलंड देश की लेखन यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) के म्यूजियम में रक्खा हुमा राजेंद्र चोल के २३ में राज्यवर्ष का दानपत्र २१ पत्रों पर खुदा हुआ है. दो से अधिक और 8 से कम पत्रों पर खुदे हुए तो कई एक मिल चुके हैं. कभी कभी ऐसे ताम्रपत्रों की एक तरफ के याई मोर के हाशिये पर या ऊपर पत्रांक भी खदे मिलते हैं. जो दानपत्र दो या अधिक पत्रों पर खुदे रहते हैं उनका पहिला और अंशका पत्रा बहुधा एकही श्रोर अर्थात् भीतर की तरफ से खुदा रहता है. ऐसे दानपत्रों के प्रत्येक पत्रे में यदि पंक्तियां कम लंबाई की हों तो एक, और अधिक लंबाई की होतो दो. छेद होते हैं जिनमें सांये की कड़ियां डाली जाती हैं जिनसे सब पने एकत्र रहते हैं. कभी कभी ताम्रपलों को एकत्र रखनेवाली कड़ी की संधि पर साये का लोंदा लगा कर उसपर राजमुद्रा लगाई जाती थी, जिसके साथ के लेख के अक्षर उभड़े हुए मिलते हैं. कभी कभी एक ही पत्रे पर खुदे हुए दानपत्र कीबाई भोर राजमुद्रा, जो अलग ढाली जाकर बनाई जाती थी, जुड़ी हुई मिलती है. कभी कभी राजमुद्रा पत्रे पर ही खोदी जाती थी, जिसके साथ कोई लेख नहीं होता. कितने एक ताम्रपत्रों के अंत में राजाओं के हस्ताक्षर खुदे हुए रहते हैं जिनसे उनके लेखनकला के ज्ञान का भी पता लगता है. साम्रपत्र छोटे बड़े भिन्न भिन्न लयाई चौड़ाई के पतले या मोटे पत्रों पर खुदवाये जाने थे जो तांबे के पाट को कूट कूट कर बनाये जाते थे. कई ताम्रपत्रों पर हथोड़ों की चोटों के निशान पाये जाते हैं. अब जो ताम्रपत्र बनते हैं वे तांये की चहरों को काट कर उनपर ही खुदवाये जाते हैं, ताम्रपत्र खोदने में यदि कोई अशुद्धि हो जाती तो उस स्थान को कूट कर बराबर कर देते और फिर इसपर शुद्ध प्रचर खोद देते. ताम्रपत्रों पर भी शिलालेखों की तरह कुछ कुछ हाशिया छोड़ा जाता और कभी कभी किनारे ऊंची उठाई जाती थी. दानपत्रों के अतिरिक्त कभी कोई राजाज्ञा' अथवा रतप, मठ मादि बनाये जाने के लेख तथा ब्राह्मयों और जैनों के विविध यंस भी ताये के त्रिकोण, १. '.. जि. १२, पृ. १७१-५. १ डॉ० बर्जेस संपादित 'तामिल पड संस्कृत इन्स्क्रिप्शन्स,' पू. २०६-१६. १. राजमुद्रा में राज्यचिश, किसी जानवर या देवता का सूचक होता है. भिन्न भिन्न वंशो के राज्यवित्र भित भिन्न मिलते हैं जैसे कि बलभी के राजाओ का नंदी. परमारों का गरुड, दक्षिण के चालुक्यो का यराइ, सेनवंशियों का सदाशिव आदि. * राजपूताना म्यूज़िश्रम में रक्खे हुए प्रतिहार राजा भोजदेव के वि. सं. १001ई. स. ८४३) के दानपत्र की बड़ी राजमुद्रा अलग बनाई जाकर ताम्रपत्र की बाई श्रीर झाल कर जोपी है. प्रतिहार महेन्द्रपाल (प्रथम) और विनायकपाल के दामपत्रों की मुद्राएं भी इसी तरह जुड़ी हुई होनी चाहिये (ई. पै, जि. १५. पृ. ११२ और १४० के पास के सेट. इन सेटों में मुद्रा की प्रतिकृति नहीं दी परंतु बाई ओर जहां वह जुड़ी थी वह स्थान खाली पाया जाता है) .. मालवे के परमारों के दानपत्रो में राजमुद्रा बहुधा दूसरे पत्रे के बाई और के नीचे के कोण पर लगी होती है. t. राजपूताना म्यूज़िमम् (अजमेर) में रक्खे हुए दानपत्रों में से सबसे छोटाच लया और संच चौड़ा है और तोल में १२ तोले है. सब से बड़ा प्रतिहार राजा मोजदेव का दौलतपुरे (जोधपुर राज्य में) से मिला हुश्रा मुद्रासहित २ फुट इंच लंबा और १ फुट ४ांच चौड़ा तथा तोल में १६ सेर (३६ पौंड) के करीब है. ये दोनों एक एक पत्रे पर ही खुदे हैं. • सोहगौरा के ताम्रलेख में राजकीय आशा है ( ए. सो. थंगा. के प्रोसीडिड्स ई. स. १६४, प्लेट) ८. तक्षशिला के ताम्रलेख में क्षत्रप पतिक के बनाये यौद्ध स्तूप पर्व मठ का उल्लख है (.जि.४, पृ. ५५-५६). .. राजकोट के सुप्रसिद्ध स्वगीय वैद्य याचा मेहता के घर की देषपूजा में तांबे के एक छोटे बड़े यंत्र मेरे देखने Aho ! Shrutgyanam Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्राचीनलिपिमाला गोवा या चतुरस पलों पर खुदे हुए मिलते हैं. सांबे मादिके बरतनों पर उनके मालिकों के नाम खुदाये जाने की प्रथा भी प्राचीन है. कभी कभी तांबे के पत्रों पर पुस्तकें भी खुदवाई जाती थी, पीतल. जैन मंदिरों में पीतल की बनी हुई बड़ी बड़ी कई मूर्तियां मिलती हैं जिनके पासनों पर और छोटी मूर्तियों की पीठ पर लेख खुदे रहते हैं. ऐसे लेखोंवाली १००० से अधिक जैन मूर्तियां मेरे देखने में आई हैं जिनपर के लेख ई. स. की ७ वीं से १६ वीं शताब्दी तक के हैं जैन मंदिरों में पीतल के गोल गहे रक्खे हुए मिलते हैं जिनपर 'नमोकार मंत्र और यंत्र खुदे रहते हैं. कांसा. कई मंदिरों में लटकते हुए कांसे के घंटों पर भी उनके भेट करनेवालों के नाम और भेट करने का संवत् भादि खुदा हुमा मिलता है. लोहा. लोहे पर भी लेख खोदे जाने के कुछ उदाहरण मिल आते हैं. देहली (मिहरोली) के कुतुब मीनार के पास के लोह के स्तंभ पर राजा चंद्र का लेख खुदा है जो ई. स. की ५ वीं शतान्दी का है. भानू पर अचलेश्वर के मंदिर में खड़े हुए लोहे के विशाल त्रिशूल पर वि. सं. १४६८ फागुन सुदि १५ का लेव बुदा हुमा है. चितौड़ आदि कई स्थानों में लोहे की तोपों पर भी लेख खुदे हुए मिलते हैं. सोने, चांदी, सांवे और सीसे के सिकों के ठप्पे लोहे के ही पनते थे और उनपर असर उलटे खोदे जाते थे. काली स्याही कागज पर लिखरे की काली स्वाही (पसी) दो तरह की होती है पकी और कची. पकी स्याही से पुस्तकें लिखी जाती हैं और कबीस्थाही सेपौपारी लोग अपनी रही आदि लिखते हैं, पकी स्याही बनाने - -- मैं माये. मंगल का त्रिकोण यंत्र कई लोगों के यहां मिलता है. अजमेर के संभवनाथ के जैन ( श्वेताम्बर ) मंदिर में छोटी बाल जैसा बड़ा एक गोल यंत्र रक्खा हुआ है, जिसको 'वीसस्थानक' का यंत्र कहते है, . त्रिपती ( मद्रास हाते में) में तांबे के पत्रों पर खुदे हुए तेलुगु पुस्तक मिले है ( वी; सा. ई. ये: पृ. ८६). हुए. मसंग के लेख से पाया जाता है कि 'राजा कनिष्क ने प्रसिद्ध विद्वान् पार्श्व की प्रेरणा से कश्मीर में चौरसंघ एकत्रित किया जिसने मूत्रपिटक पर उपदेशशास्त्र' विनयपिटक पर 'विनयविभाषाशास' और अभिधर्मपिटक पर 'मभिधर्मविभाषाशाख'मामक लाख लाख श्लोको की टीकाएं तैय्यार की. कनिष्क ने इन तीनों टीकामों को ताभ्रफलको परसुदवाया और उनको परपरकी पेटियों में रख कर उनपर स्तूप बनवाया'(यीबु. रे. वे. यः जि. १, पृ. १५४. हुपत्संग की भारतीय यात्रा पर थॉमस बॉटर्स का पुस्तक, जि. १, पू. २७१ - ऐसी भी प्रसिदि है कि सायण के दमान्य भी तांबे के एत्रों पर खुवधाये गये थे (सिम्लर संपादित ऋग्वेद, जि. प. पू. XVII ). ९. मात्र पर मालगढ़ के जैन मंदिर में पीतल की बनी हुई ४ विशाल और कुछ छोटी भूर्तिये स्थापित हैं जिनके मासनो पर ई. स. की २४ वीं और १६वीं शताब्दी के लेख खुदे हुए है. अभ्यत्र भी ऐसी मूर्तियां देखने में बाती है परंतु इतनी एक साथ नहीं. Aho! Shrutgyanam Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेजमसामग्री १५५ के लिये पीपल की लाख को, जो मन्य वृदों की लाख से उसम समझी जादी है, पीस कर मिट्टी की हरिमा में रक्खे हुए जल में डाल कर उसे आग पर चढ़ाते हैं. फिर उसमें मुहागा और लोरपीस कर डालते हैं. उबलते उपलते जब लाख का रस पानी में यहां तक मिल जाता है कि कागज पर उससे गहरी लाल लकीर बनने लगती है तब उसे उतार कर छान लेते हैं. उसको चलता (मबहक) कहते हैं. फिर तिलों के सेल के दीपक के कजल को महीन कपड़े की पोटली में रख कर अलते में उसे फिराते जाते हैं जब तक कि उससे सुंदर काले भदर बनने न लग जावें. फिर उसको दवात (मसीभाजन) में भर लेते हैं. राजपूताने के पुस्तकलेखक भय भी इसी तरह पकी स्याही बनाते हैं. संभव है कि ताड़पत्र के पुस्तक भी पहिले ऐसी ही स्याही से लिखे जाते हों. कची स्याही कजल, कत्था, वीजापोर और गोंद को मिला कर बनाई जाती है परंतु पत्रे पर जल गिरने से स्याही फैल जाती है और चौमासे में पत्रे परस्पर चिपक जाते हैं इस लिये उस. का उपयोग पुस्तक लिखने में नहीं किया जाता. भूर्जपत्र ( भोजपत्र ) पर लिखने की स्याही बादाम के छिलकों के कोयलों को गोमूत्र में उचाल कर मनाई जाती धी'. भूर्जपत्र उष्ण हवा में जल्दी खराब हो जाते हैं परंतु जब में परे रहने से थे बिलकुल नहीं बिगड़ते इस लिपे करमीरवाले जब मैले भूर्जपत्र के पुस्तकों को साफ करना चाहते हैं जब उनको जल में डाल देने हैं जिससे पत्रों एवं अधरों पर का मैल निकल कर वे फिर स्वच्छ हो जाते हैं और न स्याही हलकी पड़ती है और न फैलती है. मूर्जपत्र पर लिखे हुए पुस्तकों में कहीं अक्षर आदि अस्पष्ट हों तो ऐसा करने से भी स्पष्ट दीखने लग जाते हैं: काली स्याही से लिखे हुए सब से पुराने अक्षर ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी तक के मिले हैं: १. बूलर की कश्मीर आदि के पुस्तकों की रिपोर्ट, पृ. ३० २. द्वितीय राजतरंगिणी का कर्ता जोनराज अपने ही एक मुकदमे के विषय में लिखता है कि '[ मेरे दादा लोलराज ने किसी कारण से अपनी दस प्रस्थ भूमि में से एक प्रस्थ भूमि किसी को बेची भीर अपने नोनराज श्रादि बालक पुत्रों को यह कह कर उसी वर्ष वह मर गया. नीनराज आदि को असमर्थ देख कर भूमि खरीदनेवाले एक के बदले जबर्दस्ती से दसों प्रस्थ भोगते रहे और उसके लिये उन्होंने यह जात बना लिया कि चियपत्र (बैनामे ) में लिखे हुए भूषस्थमेकं विकीतं' में 'म' के पूर्व रेखारूप से लगनेवाली 'ए' की मात्रा' को 'द' और 'म'को 'श' बना दिया, जिससे विकयपत्र में भूमस्थमेक' का भूप्रस्थदशक' हो गया. मैंने यह मामला उस राजा । जैनोलामदीन जैन-उल-प्रावदीन ) की राजसभा में पेश किया तो राजा ने भूर्जपत्र पर लिखे हुए वियपत्र को मंगवा कर पढ़ा और उसे पानी में डाल दिया तो नये अक्षर धुल गये और पुराने ही रह गये जिससे भूप्रस्थमेक' ही निकल पाया इस [ न्याय ] से राजा को कीर्ति, मुझको भूमि, जाल करनेवालों को श्रद्भत दंड, प्रजा को सुख और दुष्टों को भय मिला (जोनराजन राजतरंगिणी, श्लोक १०२५-३७) सले यह पाया जाता है कि या तो कश्मीरवाले तीन पीढ़ी में ही पक्की स्याही बनाने की विधि भूल गये थे, या भूर्जपत्र पर की स्याही जितनी पुरानी हो उतने ही अक्षर रद हो जाते थे या अधिक संभव है कि पंडित लोलराज की पुस्तक लिखने की स्याही. जिससे विक्रयपत्र लिखा गया था, पक्की धी और दूसरी स्याही, जिससे जाल किया गया, कची थी. . सांची के एक स्तूप में से पत्थर के दो गोल डिब्य मिले हैं जिनमें सारिपुत्र और महामोगलान की हडियां निकली है. एक रिबे के दकन पर 'सारिपुतस' खुदा है और भीतर उसके नाम का पहिला अक्षर 'सा' स्याही से लिखा हुमा है. दूसरे --- ----- ------- शारदा (कश्मीरी) एवं अन्य प्राचीन लिपियों में पहिल की मात्रा का चिज छोटी या बड़ी खड़ी लकीर भी था जो व्यंजन के पहिले लगाया जाता था ( देखा, लिपिपत्र २८ मे 'शे'.२६ मे दे':३०में दिये हुए अरिगांव के लेरा के अक्षरों में 'ते'). + कश्मीरी लिपि में 'म' और 'श' में इतना ही अंतर है कि 'म' के ऊपर सिर की लकीर नहीं लगती और 'श' के खगती है (देखो. लिपिपत्र ३१), बाकी-कोई भेद नहीं है. Aho! Shrutgyanam Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला रंगीन स्याही. रंगीन स्याहियों में लाल स्याही मुख्य है. यह दो तरह की होती है. एक तो अलता की और दूसरी हिंगलू की, जो उसको गोंद के पानी में घोल कर बनाई जाती है. हस्तलिखित वेद के पुस्तकों में स्वरों के चिक, और सब पुस्तकों के पत्रों पर की दाहिनी और बगई ओर की हाशिये की दो दो खड़ी लकीरें अलता या हिंगल से बनी हुई होती हैं. कभी कभी अध्याय की समाप्ति का अंश, एवं 'भगवानुवाच', 'ऋषिरुवाच' प्रादि वारय तथा विरामसूचक खड़ी लकीरें लाल स्याही से बनाई जाती हैं. ज्योतिषी लोग जन्मपत्र तथा वर्षफल के लंबे लंबे स्वरड़ों में बड़े हाशिये, माड़ी लकीरें तथा भिन्न भिन्न प्रकार की कुंडलियां लाल स्याही से ही बनाते हैं. सूखे हरे रंग को गोंद के पानी में घोल कर हरी, जंगाल में जंगाली और हरिताल से पीली स्याही भी लेखक लोग चनाते हैं. कभी कभी पुस्तकों के अध्याय आदि समाप्ति के अंशों में वे इन रंगीन पहियों का उपयोग करते और विशेष कर जैन पुस्तकों में उनसे लिखे हुए अक्षर मिलते हैं. यह ॥ सय पुस्तकलेखक जिन अक्षरों या शब्दों को काटना होता उनपर हरिताल फिस देते अथवा स्या से उनके चारों ओर कुंडल या ऊपर बड़ी लकीरें बना दिया करते थे. सोने और चांदी की स्याही सोने और चांदी के परकों को गोंद के पानी में घोट कर सुनहरी और रुपहरी स्थाहियां बनाई जाती हैं. इन स्याहियों से लिखने के पहिले पन्ने सफेद हो तो उन्हें काले या लाल रंग से रंग लेते हैं. फिर कलम से उनपर लिम्व कर अकीक या कौड़े आदि से घोटते हैं तष अक्षर चमकीले निकल पाते हैं. ऐसी स्याहियों का उपयोग विशेष कर चित्रकार लोग चित्रों में करते हैं तो भी श्रीमंत लोग प्राचीन काल से उनका उपयोग पुस्तकादि लिखवाने में कराते थे जिसके उदाहरण मिल पाते हैं. के ढक्कन पर 'महामोगलानस' चुदा है और भीतर 'म' अक्षर स्याही का लिखा हुआ है. सारिपुष और महामोगलान दोनों बुद्धदेव (शाक्य मुनि) के मुख्य शिष्य थे. सारिपुत्र का देहांत बुद्धदेव की मौजूदगी में हो गया था और महामोगलान का बुख के निर्वाह के बाद हुआ था. यह स्तूप ई.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी का बना हुआ माना जाताई (कनिंगहाम का मिलमा टोप्स', पृ. २६५-३०८). यदि ये डियो उक्त स्तूप के बनने के समय नये बनाये जा कर उनमें वे हडिया रक्सी गई थीं ऐसा माना जाये तो ये स्याही से लिखे हुए अक्षर ई. स. पूर्व की तीसरी शताची के होने चाहिये परंतु यदि यह माना जाये कि ये बिम्ब किसी अन्य स्तुप से निकाले जाकर सांची के स्तूप में रक्खे गये ये तो उक्त स्याही के अक्षरों के लिखे जाने का समय ईस पूर्व की पांचवीं शताब्दी होगा. १. अजमेर के सेठ कल्याणमल ढढा के पुस्तकसंग्रह में बहुत सुंदर अक्षरों में लिखा हुया 'कल्पसूत्र' है जिसका पहिला पत्रा सुवर्ण की स्याही से लिखा हुआ है. यह पुस्तक १७ वीं शताब्दी का लिखा हुआ प्रतीत होता है. सुवर्ण की स्याही से पूरे लिखे हुए दो जैन पुस्तकों का सिरोही राज्य के जैनपुस्तकसंग्रहों में होना विश्वस्त रीति से सुना गया है परंतु ये मेरे देखने में महीं आये. वि.सं.१९२२ के करीब मेरे पिता ने उदयपुर के पंरित सदाशिव से एक छोटा पत्रा सोने की स्याही से और दूसरा चांदी की स्याही से लिखवाया, दोनों अब तक विद्यमान हैं और रंगीन कागज़ो पर लिखे हए है, सोने की स्याही से लिखी हुई फारसी की एक किताब अलवर के राज्यपुस्तकालय मे है पेसा सुना जाता है. ऐसी ही फारसी की एक किताब सेठ कल्याणमल दट्टा के यहां मिरवी रक्खी हुई है परंतु उसपर मुहर लगी हुई होने के कारण रसका नाम मालूम नहीं किया जा सका. सेउ कल्याणगल ढहा के यहां कई हस्तलिखित पुस्तकों के संरकी देशी छीट के पदे की एक पुरानी किनाब है जिसम ‘यंत्रावचूरि' नामक पुस्तक १६ पत्रो (३८ पृष्ठ) पर चांदी की स्याही से बड़े ही सुंदर अक्षरों में लिखा हुआ है. जिसके प्रत्येक पृष्ट के चारो तरफ के हाशिय रंगीन लकीरों से बनाये गये हैं. हाशियों पर जो बात लिखी है वही काली स्याही से है बाकी सब चांदी की स्याही से है. चांदी की स्याही से लिखा हुआ हिस्सा कागजको पहिल लाल या काला रंगने के बाद लिखा गया है. पुस्तक में संवत् नहीं है परंतु यह ई. स. की १५वीं शताब्दी के श्रासपास का लिखा हुआ प्रतीत होता है. पत्रे इतने जीर्ण हो गये है कि हाथ देने से टूटते है. दोदो पृष्ठों के मीच रेशम के टुकरे रक्खे घे भी बिलकुल जीर्णशीर्य हो गये हैं. Aho! Shrutgyanam Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखनसामग्री कलम. विद्यार्थी लोग प्राचीन काल से ही लकड़ी के पार्टी पर लकड़ी की गोल तीखे मुंह की कलम (वर्णक) से लिग्यते चले आते हैं. स्याही से पुस्तकें लिखने के लिये न ( यरू) या बांस की कलमें ( लेखिनी) काम में पाती हैं. अजंटा की गुफाओं में जो रंगों से लेख लिखे गये है महीन बालों की कलमों ( वर्तिका) लिखे गये होंगे. दक्षिणी शैली के ताडपत्रों के अक्षर कुखरने के लिये लोहे की तीखे गोल मुख की कलम (शलाका) अब तक काम में आती है. कोई कोई ज्योतिषी जन्मपत्र और वर्षफल के स्वरड़ों के लंबे हाशिये तथा भाड़ी लकीरें बनाने में लोहे की कलम को अब तक काम में लाते हैं, जिसका ऊपर का भाग गोल और नीचे का स्याही के परकार जैसा होता है, परकार. ज्योतिषी लोग जन्मपत्र और वर्षफल में भिन्न भिन्न प्रकार की कुंडलियां बनाने में लोहे के बने हुए पुराने ढंग के परकार अब तक काम में लाते हैं. प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में कभी कभी विषय की समाप्ति प्रादि पर स्पाही से बने कमल' मिलते हैं वे परकारों से ही बनाये हुए हैं. वे इतने छोटे होते हैं कि उनके लिये जो परकार काम में आये होंगे वे बड़े सूक्ष्म मान के होने আযে, रेलाटी. कागज़ों पर लिखे जामेवाले पुस्तकों के पलों में पंक्तियां सीधी और समानांतर लाने के लिये लेखक लोग 'रेवापाटी' काम में लाते हैं. लकड़ी की पतली पाटी पर दोनों भोर होरा लपेट कर डोरों की पंक्तियां समानांतर की जाती हैं. फिर एक ओर के सब डोरे एकत्र कर उनके मध्य में एक पतली तीन चार इंच लंबी लकड़ी डाल कर उसको घुमाते हैं जिससे दूसरी तरफ की डोरों की समानांतर पंक्तियां दृढ़ हो जाती हैं और इधर उधर हटती नहीं. कोई कोई, पाटी में लंबाई की तरफ के दोनों किनारों के पास, समानांतर छेद कर उनमें डोरा डालते हैं. इस प्रकार की पाटी को 'रेखापाटी कहते हैं. कोई कोई उसे 'समासपाटी' भी कहते हैं. किसने एक जैन साधुओं के पास बड़ी सुंदर रेखापाटी देखने में माती हैं. वे कागज के मजबूत पुढे या कुछी की बनी हुई होती हैं और उनके दोनों ओर भिन्न अंतरवाली डोरों की समानांतर पंक्तियां पाटी के साथ रोगन से चिपकी हुई होती हैं जो कभी हिल ही नहीं सकती. रेखापाटी पर कागज रख प्रत्येक पंक्ति पर अंगुली दवा कर चलाने से कागज की लंबाई में डोरों के निशान पर जाते हैं. इस प्रकार एक तरफ निशान हो जाने के बाद कागज़ को उलटा कर पहिले के निशानों के मध्य में उसी तरह निशान बना लिये जाते हैं. इससे दो पंक्तियों के बीच का अंतर दो अंशों में विभक्त हो जाता है जिनमें से ऊपरबाले में अचर लिखे जाते हैं और नीचे का खाली छोड़ दिया जाता है जिससे हस्तलिखित पुस्तकों की पंक्तियां समानांतर होती हैं. ऐसे ही कागज़ की दाहिनी और थाई भोर जितना हाशिया रम्बना हो उतना स्थान छोड़ कर एक एक खड़ी लकीर खींच ली जाती है जिसपर पीछे से लाल स्याही १. मेमॉयर्स ऑफ दी पशियाटिक सोसाइटी श्रॉफ बंगाल, जि. ५, सट ३७ में ताड़पत्र पर लिखे हुए पंचरसा' नामक पुस्तक के एक पत्रे की जो प्रतिकृति पर है उसमें दो कमल बने हुए है, पक १९और दूसरा ६ पखड़ी का ये कमल इतने छोटे और उनकी परिधि की वृत्तरेखाएं इतनी पारीकरें कि जिस परकार से ये बनाये गये है उसकी बड़ी समता का अनुमान भली भांति हो सकता है. Aho 1 Shrutgyanam Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. से हाशिये की दो दो लकीरें बनाई जाती हैं. ताडपत्रों पर लिखी हुई पुस्तकों में पंक्तियां सीधी लाने के लिये पहिले उनपर काली या रंगीन स्पाही की बहुत बारीक लकीरें खींच ली जाती थीं अथवा लोहे की पारीक तीखे गोल मुंह की कलम से उनके निशान कर लिये जाते थे. भूर्जपत्रों पर भी ऐसा ही करते होंगे. कांबी ( रूल). इस समय स्याही की लकीरें खींचने के लिये गोल रूल का प्रचार हो गया है परंतु पहिल उसके लिये लकड़ी की गज़ (कथा) जैसी चपटी पट्टी काम में आती थी जिसके ऊपर और नीचे का एक तरफ का किनारा बाहर निकला हुमा रहता था. उसके सहारे लकीर खींची जाती थी. ऐसी पट्टी को राजपूताने के लेखक 'कांपी' (कंवा ) कहते हैं. वह रूल की अपेक्षा अच्छी होती है क्यों कि रूल पर जब स्याही लग जाती है तब पदि उसे पोछ न लिया जाये तो घूमता हुआ रूल नीचे के कागज़ को बिगाड़ देता है परंतु कांधी का वह अंश जिसके साथ कलम सटी रहती है बाहर निकला हुभा होने से कागज़ को स्पर्श ही नहीं करता जिससे उसपर लगी हुई स्याही का दारा कागज पर कभी नहीं लगता. पुस्तकलेखक तथा ज्योतिषी लोग लकीरें खींचने के लिये पुरानी शैली से प्रय तक कांधी काम में लाते हैं. १. ताड़पत्रों पर पंक्तियां सीधी और समानांसर लाने के लिये खींची हुई लकीरों के लिये देखो, मेमॉयर्स ऑफ दी पशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, जि. ५, प्लेट ३६. Aho! Shrutgyanam Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट. भारतीय संवत् भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों में समय समय पर भिनभिन संवत् चलते रहे जिनके प्रारंभ आदि का हाल जानना प्राचीन शोध के अभ्यासियों के लिये आवश्यक है, इस लिये उनका संक्षेप से विवेचन किया जाता है. १ सप्तर्षि संवत् को लौकिककाल, लौकिक संवत्, शास्त्र संवत्र, पहाड़ी संवत्' या कथा संवत्' भी कहते हैं. यह संवत २००० वर्ष का कल्पित चक्र है जिसके विषय में यह मान लिया गया है कि महर्षि नाम के सात तारे अम्विनी से रंवमी पर्यंत २७ नक्षत्रों में से प्रत्येक पर क्रमशः सो सौ वर्ष तक रहते हैं २००० वर्ष में एक चक्र पूरा हो कर दूसरे चक्र का प्रारंभ होता है, जहां जहां यह संवत् प्रचलित रहा या है वहां नक्षत्र का नाम नहीं लिखा जाता, केवल १ से १०० तक के वर्ष लिखे जाते हैं. १०० वर्ष पूरे होने पर शताब्दी का अंक छोड़ कर फिर एक से प्रारंभ करते हैं. कश्मीर के पंचांग तथा कितने एक पुस्तकों में कभी कभी प्रारंभ से भी वर्ष लिखे हुए मिलते हैं. कश्मीरवाले इस संवत् का प्रारंभ कलियुग 1 संयत् शब्दका संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ वर्ष है कभी कभी इसके और भी संक्षिप्त रूप 'संघ', 'सं' या 'सव' और 'स' ( प्राकृत लेखों में ) मिलते हैं. संवत् शब्द को कोई कोई विक्रम संवत् का ही सूजक मानते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है. यह शब्द केवल 'वर्ष' का सूचक होने से विक्रम संवत्, गुप्त संवत् आदि प्रत्येक संवत् के लिये आता है और कभी कभी इसके पूर्व उक्त संवतों के नाम भी (विक्रम संवत्, बलभी संवत् आदि ) लिखे मिलते हैं. इसके स्थान में वर्ष, द, काल, शक आदि इसी अर्थवाले सब्दों का भी प्रयोग होता है. सप्तर्षि नामक ७ तारों की कल्पित गति के साथ इसका संबंध माना गया है जिससे इसको 'सप्तर्षि संपत् ४. कश्मीर आदि में शताब्दियों के अंकों को छोड़ कर ऊपर के वर्षों के अंक लिखने का लोगों में प्रचार होने के कारण इसको 'लौकिक संवत्' या 'लौकिक काल' कहते हैं. ५. विद्वानों के शास्त्र संबंधी ग्रंथों तथा प्रयोतिःशास्त्र के पंचांगों में इसके लिखने का प्रसार होने से ही इसको शास्त्र संवत् कहते हों. ४. कश्मीर और पंजाब के पहाड़ी प्रदेश में प्रचलित होने से इसकी पहाड़ी संवत् कहते हैं. 5. इस संवत् के लिखने में शताब्दियों को छोड़ कर ऊपर के ही वर्ष लिखे जाने से इसे कम संवत् कहते हैं (मप) परदारादिक) युक्तास्पद नृणा Q. तया तु यो स्कंध १२ एकेक ये दो दिन निशितेन श्रध्याय २. लोक २७-२८. विष्णुपुराण, अंश ४. अध्याय २४, श्लोक ५३-५४ ) पुराण और ज्योतिष के संहिताग्रंथों में सप्तर्षियों की इस प्रकार की गति लिखी है वह कल्पित है. 'सिद्धांततरधिषेक' का कर्ता कमलाकर भट्ट भी ऐसी गति को स्वीकार नहीं करता (परमगतिरायन या कथित संहिता कायमेन हि पुरासदत्र तज्ज्ञातेन त प्रवृतः॥ सिद्धांतत्वविषेष महत्यधिकार श्लोक ३२). श्रीसर्विचारानुमतेन तथाच संवत् १६ श्रीयाका १७१५ कर गतान्दा (द) १०२८ दिनगः ४१२०१० श्रीविक्रमादित्य १८५० गन्दा (वा) १२२) २३४७०५११०.... कलेव ४८६४ शेषवर्षाणि ४२७१०६ ( विक्रम संवत् १८५० का पंचांग, ई. जि. २०, पृ. २५० ). ४३५१ मंगलसरे) लिखितयन्याल जि. २०. पू. १५१ ) Aho! Shrutgyanam Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्राचीमलिपिमाला के २५ वर्ष पूरे होने पर ' ( २६ वे वर्ष से ) भानते हैं परंतु पुराण तथा ज्योतिष के ग्रंथों में इस का प्रचार कलियुग के पहिले से होना माना गया है. ४ ( अ ). 'राजतरंगिणी' में कल्हण पंडित लिखता है कि इस समय लौकिक [ संवत् ] के २४ वें ( वर्तमान ) वर्ष में शक संवत् के २०७० वर्ष बीत चुके हैं।' इस हिसाब से वर्तमान लौकिक संवत् और गत शक संवत् के बीच का अंतर (१०००-२४०) १०४६ ४६ है. अर्थात् शताब्दी के अंकरहित सप्तर्षि संवत् में ४६ जोड़ने से शताब्दीरहित शक (ग) पर जोड़ने से चैवादि विक्रम (गत), २५ जोड़ने से कलियुग (गत) और २४ पा २५ जोड़ने से ई. स. (वर्तमान) माता है. ( आ ). चंबा से मिले हुए एक लेख में विक्रम संवत् (गत ) १७१७, शक संवत् १५८२ (गत) और शास्त्र संवत् ३६ बैशाख वति (वदि) १३ बुधवार' लिखा है. इससे भी वर्तमान शास्त्र संवत् और [ गत ] विक्रम संवत् ( १७१७-३६ = १६८१ ८१ ) तथा शक संवत् ( १५८२-३६१५४६-४६ ) के बीच का अंतर ऊपर हिंखे अनुसार ही जाता है. (इ) पूना के दक्षिण कॉलेज के पुस्तकालय में शारदा ( कश्मीरी ) लिपि का 'काशिकावृत्ति' पुस्तक है जिसमें गत विक्रम संवत् १७१७ और सप्तर्षि संवत् ३६ पौष पति ( यदि ) १. कलेर्गतेः सायकनेत्र (२५) वर्ष : सप्तर्विषयस्त्रिदियं प्रयाताः । लोके हि संवत्सरपतिकायां सप्तर्षिमानं प्रवदन्ति सन्तः ॥ (डॉ. बूतर की कश्मीर की रिपोर्ट: पू. ६० ). ९. ई. ई पृ. ४. .. लौकिकान्दे चतुर्विशे शककालस्य सांप्रतम् । सप्तत्याभ्यधिकं यातं सहस्रं परिवत्सरा ( राजतरंगिणी, तरंग १, श्लोक ५२ ).. ४. सप्तर्षि संवत् के वर्ष वर्तमान और कलियुग, विक्रम तथा शक संवतों के वर्ष पंचांगों में गत लिखे रहते हैं. सा० १२ एप्रिल ई. स. १६१८ को जो वैश्रादि विक्रम संवत् १६७५ और शक संवत् १८४० प्रवेश हुआ उसको लोग वर्तमान मानते हैं. परंतु ज्योतिष के हिसाब से वह गत है, न कि वर्तमान. मद्रास इहाते के दक्षिणी विभाग में अबतक शक संवत् के वर्तमान वर्ष लिले जाते हैं तो वहां का वर्ष बंबई इहाते तथा उत्तरी भारतवर्ष के पंचांगों के शक संवत् से एक वर्ष आगे रहता है. * शुद्धि' (सुदि) और 'यदि' या 'यदि' का अर्थ शुक्लपक्ष और बहुल ( कृपख ) पक्ष माना जाता है परंतु वास्तव में इन शब्दों का अर्थ 'शुपक्ष का दिन' और 'बहुल (कृष्ण) पक्ष का दिन है. ये स्वयं शब्द नहीं हैं किंतु दो दो शब्दों के संक्षिप्त रूपों के संकेत मात्र हैं जिनको मिला कर लिखने से ही उनकी शब्दों में गलना हो गई है. प्राचीन लेख में संवत्सर (संवत्) पक्ष और दिन या तिथि ये सब कभी कभी संक्षेप से भी लिखे जाते थे जैसे संवत्सर के संक्षिप्त रूप संवत्, संघ, संभादि मिलते हैं (देखो, ऊपर पृ. १५६, दि. १) वैसे ही ग्रीष्मः (प्राकृत में गिलाण) का संक्षिप्तरूप 'श्री', या 'यू' और 'गि ' ( प्राकृत लेखों में ); 'वर्षा' का 'व' 'हेमन्तः' का 'हे' 'बहुल पक्ष' या 'बहुल' (कृष्ण) का ' 'शुक्लपक्ष' या 'शुरू' का 'शु' 'दिवसे' का 'दि' और 'तिथि' का ति' मिलता है. 'बहुल' और 'दिवसे' के संक्षिप्त रूप 'ब' और 'दि' को मिला कर लिखने से 'यदि' और उससे 'यदि' ( वबयोरैक्यम् ) शब्द बन गया, ऐसे ही 'शुक्र' के 'शु' और 'दिवसे' के 'दि' को साथ लिखने से 'शुद्धि' और उससे 'सुदि ' ( 'श' के स्थान में 'स' लिखने से ) बन गया. कश्मीरवाले 'दिवस' के स्थान में 'तिथि' शब्द का प्रयोग करते रहे जिससे उनके यहां बहुधा 'शुति' श्रीर 'पति' शब्द मिलते हैं. रेहली के अशोक के स्तंभ पर अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव ( विमहराज ) के तीन लेख हुए हैं जिनमें से दो संवत् १२२० वैशाख १५ के हैं. उन दोनों में शुत ख़ुदा है ( संवत् १२१० पैशात १२. ई. प. जि. २६, पृ. २७-१८ ). व्याकरण के पिछले श्राचायों ने 'शुद्धि' और 'यदि' (वदि ) शब्दों की उत्पत्ति न जान कर ही उनकी श्रव्ययों में गणना कर दी है. यदि ' या ' शूति' और ' यदि ' या ' यति ' ( वति) के पीछे 'तिथि' शम ( श्रावणशुदि है क्योंकि 'यदि' और 'यदि' में चिचक 'दिवस' राम मंजूर है. केवल उपशब्दों के ही संचित रूप खाद में मिलते है ऐसा ही नहीं किंतु अन दूसरे शब्दों के भी संक्षित रूप मिलते हैं, जैसे कि 'ठकुर' का ''महन्तम' का 'महं' श्रेष्ठिन' का 'श्रे' 'ज्ञातीय' या 'शांति' का 'शा', 'उस' ( पुत्र का प्राकृत रूप ) का 'ड' ( पै. इं; जि. प. पू. २१६-२२ ) आदि अनेक ऐसे संक्षिप्त रूपों के साथ कहीं कुंडल (०) लगाया मिलता है और कही नहीं भी. पंच तिथी लिखना भी ' १. श्रीमन्नृपतिविक्रमादित्य १७१७ श्री शालिन के १५८२५६ वैशाखद (ई. २०. १४९ Aho! Shrutgyanam Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् ३ रविवार और तिष्य (पुष्य) नक्षत्र लिखा है। इससे भी सप्तर्षि और विक्रम संवत् के पीच का अंतर ऊपर लिखे अनुमार ( १७१५-१६-१६८१८१)ही पाता है. ___ सप्तर्षि संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से होता है और इसके महीने पूर्णिमांत है. इस संवत् के वर्ष बहुधा वर्तमान ही लिखे जाते हैं. प्राचीन काल में इस संवत् का प्रचार कश्मीर और पंजाब में था परंतु अब कश्मीर तथा उसके आस पास के पहाड़ी इलाकों में ही, विशेष कर ज्योतिषियों में, रह गया है. २. कलियुग संवत् कलियुग मंचन को भारतयुद्ध संवत् और युधिष्ठिर संवत् भी करते हैं. इस संवत् का विशेष उपयोग ज्योतिष के ग्रंथों का पंचांगों में होता है तो भी शिलालेखादि में भी कभी कभी हममें दिये हुए वर्ष मिलते हैं। इसका प्रारंभ ई.स. पूर्व ३१०२ नारीख १८ फरवरी के प्रात:काल में माना जाता है. चैत्रादि विक्रम संवत् १९७५ ( गत) और शक संवत् १८४० (गत) के पंचांग में गन कलि ५०१६ लिया है. इस हिसाब से चैत्रादि गत विक्रम संवत् में (५०१६-१९७५=).४४, गत शक सवत में (५०१६-१८४०%)३१७६, और ई.स. में ३१०१ जोड़ने से गत कलियुग संवत् आना है. दक्षिण के चालुक्यनंशी राजा पुलकेशि (दूसरे ) के समय के, एहोळे की पहाड़ी पर के जैन मंदिर के शिलालेख में भारतयुद्ध से ३७३५ और शक राजाओं (शक संवत्) के ५५६ वर्ष बीनने पर उक्त मंदिर का बनना बतलाया है। उक्त लेख के अनुसार भारत के युद्ध (भारतयद्ध संवत) और शक संवत् के बीच का अंतर (३७५३-५५६%) ३११७ वर्ष पाता है ठीक यही अंतर कलियुग संवत् और शक संवत् के बीच होना ऊपर बतलाया गया है, अतएव उक्त लेख के अनुसार कलियुग संवत् और भारतयुद्ध संवत् एक ही हैं. भारत के युद्ध में विजयपाने से राजा युधिष्ठिर को राज्य मिला था जिससे इस संवत् को युधिष्ठर संवत्' भी कहते हैं. पुराणों में कलियुग का श्रीनृपत्रिक्रमादित्यराज्यस्य गताब्दाः ११७ श्रीसप्तर्विमते संवन ३६ पो बति ३ स्वौ तिष्यनक्षत्रे (१.; जि.२०. पृ १५२ ). २. कभी कभी गत वर्ष भी लिखे मिलते हैं, जैसे कि करयटरचित देवीशतक' की टीका के अंत में यह श्लोक है बमुमुनिगगगोदधिसमकाले याते कलेस्तथा लोके । द्वापञ्चाशे वर्षे रचितेयं भीमगुप्तनृप ।। (इ.; जि.२०, पृ. १५४ यहां पर गत कलियुग संवत् ४०७८ श्रीर लौकिक संवत् ५२ दिया है जो गत है (याते' दोनों के साथ लगता है) क्योंकि वर्तमान ५३ में ही गत कलियुग संवत् ४०७८ आता है. परंतु पैसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। हिंदुओं की कालगणना के अनुसार कलियुग एक महायुग का १० वा अंश मात्र है. महायुग में ५ युग माने जाते हैं जिनको कृत, ता. द्वापर और कलि कहते हैं. कलियुग ४३२००० वर्ष का, द्वापर उससे दुगुना अर्थात् ८६४००० वर्ष का, वेता तिगुना अर्थात् १२६६००० वर्ष का और कृत चौगुना अर्थात् १७२८००० वर्ष का माना जाता है. इस प्रकार एक महायुग. जिसको चतुर्युगी भी कहते हैं, कलियुग से १० गुना अर्थात् ४३२०००० वर्ष का माना जाता है. ऐसे ७१ महायुग का एक मन्यंतर कहलाता है. १४ मन्तर और ६ महायुग अर्थात् १००० महायुग (-५३२००००००० वर्ष) को एक कप या ब्रह्मा का दिन कहते है और उतने ही वर्षों की रात्री भी मानी गई है ___'अष्टाचत्वारिंशदधिकत्रिशतो[त्त] रेषु चतुःसहस्त्रेषु कलियुगसंवत्सरेषु परावृत्तेषु सत्सु । स्वराज्यानुभवकाले पंचमे साशरणसंवत्सरे ( गोवा के कदमवंशी राजा शिववित्त [षष्ठदेव दूसरे के समय के दानपत्र से. ई. जि. १४, पृ. २१०). ___५. त्रिंशत्सु लिसहस्रेषु भारतादाहनादितः [ 1 ] सप्ताब्दशतयुक्तेषु श(गोतेषब्दषु पश्चमु[1] पञ्चासत्सु कनो काले षट्सु पश्चतासु च[1] समासु समतीतासु शकानामपि भूभुमाम् (प.ई. जि. ६, पृ.७). .. डॉ. कीलहॉर्न संगृहीत दक्षिण के लेखों की सूची, पृ. १६२, लेखसंख्या १०१७. च [1] समासु समतासहसेषु भारतादाहवादितः सर] के समय के दानपत्र सत्सु । स्वराज्यानुभव कोलहॉर्न संग माम् (..शिग तेषब्दषु पर Aho! Shrutgyanam Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्राचीनलिपिमाला [प्रारंभ] कृष्ण के स्वगौरोहण से अर्थात् भारत के युद्ध के पीछे माना है परंतु उसको पहले विज्ञान ने स्वीकार नहीं किया. वराहमिहिर लिखता है कि युधिष्ठिर के राज्यसमय सप्तर्षि मा मत पर थे और उस राजा का शककाल (संवत् ) २५२६ वर्ष रहा अर्थात् उसके संवत् के २५२६ वर्ष बीनने पर शक संवत् चला. इससे महाभारत के युद्ध का द्वापर के अंत में नहीं किंतु कलियुग संवत् के (३१७६-२५२६) ६५३ वर्ष व्यतीत होने पर होना मानना पड़ता है. कल्हण पंडित कश्मीर के राजाओं के राज्यसमय के विषय में लिखते हुए कहता है कि 'द्वापर के अंत में भारत [ युद्ध ] हुआ इस दंतकथा से विमोहित हो कर किनने एक [ विद्वानों ] ने इन राजाओं का राज्यकाल ग़लत मान लिया है.......जब कलि के ६५३ वर्ष व्यतीत हुए तब रुपांडव हुए" अर्थात् भारत का युद्ध हुआ. यह कथन वराहमिहिर के उपर्युक्त कथन के अनुसार ही है. पुराणों में परीक्षित के जन्म ( महाभारत के युद्ध ) से लगा कर महापद्म (नंद) के राज्याभिषेक तक १०५०५ वर्ष होना भी लिखा मिलता है. महापद्म (नंद) के वंश का राज्य १०० वर्ष तक रहा जिसके पीछे मौर्य चंद्रगुप्त ने राज्य पाया चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक ई. स. पूर्व ३२९ के आसपास होना निश्चित है अतएव पुराणों के उपर्युक्त कथनानुसार भारत युद्ध का ई. स पूर्व (३२१ + १००+१०५०= ) १४७१ के आस पास होना मानना पड़ता है. पुराणों में दी हुई भारत के युद्ध से लगा कर महापद्म (नंद ) तक की वंशावलियों में मिलनेवाली राजाओं की संख्या' देखने हुए भी यह समय ठीक प्रतीत होता है. पदेन भगवान विष्णु पुराण अंश ४२४४५). विष्णुर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसी दिवं गतः । तदा विशत्कलिलोकं पोप यद्धमते जनः ( भागवत. स्कंध १२ अध्याय २ श्लोक २६. ) महाभारत से पाया जाता है कि पांडवों ने विजयी होने के बाद १५ वर्ष तक तो राजा ( धृतराष्ट्र) की आज्ञा के अनुसार सब कार्य किया. फिर भीम के बाग्बाण से खिन्न हो कर राजा चिरक्क हुआ तब युधिष्ठिर स्वतंत्र राजा बना, फिर ३६ वर्ष और यादवों के स्वर्गवास की खबर आई तब परीक्षित को राज्यसिहासन पर पिला कर पांडवों ने दीपदी सहित महाप्रस्थान किया' (पं. पॅ जि. ४०, पृ. १६३-६४ ) इस हिसाब से तो कृष्ण का स्वर्गारोहण, पांडवों का महाप्रस्थान एवं पुरा का कलियुग का प्रारंभ भारतयुद्ध से १२+७६०) ५१ वर्ष बाद होना चाहिये. ९. सन्मामु मुनयः शासात पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपती | पद्विकपचद्वियुतः शककालस्तस्य राज्यस्य ( वाराही संहिता, सप्तविचार, श्लोक ३). . भारतं द्वापरान्तेऽभूद्वार्तयेति विमोहिताः । केचिदेतां मृरा तेषां कालसङ्ख्या प्रचक्रिरे ॥ ४८ ॥....॥ शतेषु षट्सु सार्द्धेषु त्र्यधिकेषु च भूतले । कलेर्गतेषु वर्षाणामभवन्कुरुपाण्डवाः ॥ ५९ ॥ ( राजतरंगिया, तरंग १ ) ४. भारत का युद्ध हुआ उस समय परीक्षित गर्भ में था इसलिये उसका जन्म भारत के युद्ध की समाप्ति से कुछ ही महीनों बाद हुआ होगा. अध्याय २७३, श्लोक ३६. वायु). यावत्परीक्षितो जन्म यावनेदाभिषेजन्म पायदाभिषेचनम् । नुवर्ष * महापाभिषेकात्तु यावज्जन्म परीक्षितः । एवं सहस्त्रं तु ज्ञेयं पंचाशदुत्तरं ( मत्स्यपुराण पुराण, अ. ६६, लो. ४१५. ब्रह्मांडपुराण, मध्यम भाग, उपोद्धात पाद ३. श्र. ७५, लो. २२७ चनम् । एतद्वर्षसहस्त्रं तु ज्ञेयं पचदत्तरं विष्णुपुराण, अंश ५ . २४.२२) आरभ्य सहस्रं तु तं पंचदशोत्तरम् (भागवत. स्कंध १२ श्र. २, श्लो. २६) इस प्रकार परीक्षित के जन्म से लगा कर महापद्म (नंद) के राज्याभिषेक तक के वर्षों की संख्या मत्स्य, वायु और ब्रह्मांडपुराण में २०५०, विष्णु में १०१५ और भागवत में ११९५ दी है. अधिकतर पुराणों में १०५० दी है जिसको हमने स्वीकार किया है. ८ चंद्रवंशी श्रजमीढ के पुत्र ऋक्ष का वंशज और जरासंध का पुत्र सहदेव भारत के युद्ध में मारा गया. फिर उसका पुत्र ( या उत्तराधिकारी ) सोमाधि ( सोमापि ) गिरिब्रज का राजा हुआ जिसके पीछे २१ और राजा हुए. ये २२* राजा कहलाये. इस वंश के अंतिम राजा रिपुंजय को मार कर उसके मंत्री शुनक ( पुलिक) ने अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बनाया. प्रद्योत के वंश में ५ राजा हुए जिनके पीछे शिशुनाग वंश के २० राजा हुए. जिनमें से १० राजा महमंदी का * ब्रह्मांडपुरा में बृहद्रथवंशी राजाओं की संख्या २२ और मत्स्य तथा वायु में ३२ दी है. विष्णु और भगवत मै संख्या नहीं दी. किसी पुराण में २२ से अधिक राजाओं की नामावली नहीं मिलती इसीसे हमने बृहद्रवंशी राजाओं की संख्या २९ मानी है. Aho! Shrutgyanam Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत्. १६३ भारत युद्ध के समय संबंधी ऊपर उद्धृत किये हुए भिन्न भिन्न मतों पर से यही कहा जा सकता है कि पहिले के कितने एक लेखकों ने कलियुग संवत् और भारतयुद्ध संवत् को एक माना है। परंतु भारत का युद्ध कलियुग के प्रारंभ में नहीं हुआ. ३- वीरनिर्वाण संवत. जैनों के अंतिम तीर्थंकर महावीर (वीर, वर्द्धमान) के निर्माण (मोक्ष) से जो संवत् माना जाना है उसको 'वीरनिर्वाण संवत् कहते हैं. उसका प्रचार पहुधा जैन ग्रंथों में मिलता है तो भी कभी कभी उसमें दिये हुए वर्ष शिलालेखों में भी मिल जाते हैं. (अ) श्वेतांबर मस्तुंगसरि ने अपने 'विचारश्रेणि' नामक पुस्तक में वीरनिर्वाण संवत् और विक्रम संवत् के बीच का अंतर ४७० दिया है। इस हिसाब से विक्रम संवत् में ४७०, शक संवत् में ६०५ और ई. स. में ५२७ मिलाने से वीरनिर्वाण संवत् आता है. (आ) वेतांबर देय उपाध्याय के शिष्य नेमिचंद्राचार्य रचित 'महावीरचरियं' नामक प्राकृत काव्य में लिखा है कि 'मेरे (महावीर के ) निर्वाण से ६०५ वर्ष और ५ महीने बीतने पर शक राजा उत्पन्न होगा इससे भी वीरनिर्वाण संवत् और शक संवत् के बीच ठीक वही अंतर आता है जो ऊपर लिखा गया है. (इ) दिगंबर संप्रदाय के नेमिचंद्र रचित 'त्रिलोकसार' नामक पुस्तक में भी वीरनिर्वाण मे ६०५ वर्ष और ५ महीने बाद शक राजा का होना लिखा है. इससे पाया जाता है कि दिगंबर संप्रदाय के जैनों में भी पहिले वीरनिर्वाण और शक संवत् के बीच ३०५ वर्ष का अंतर होना स्वीकार किया जाता था जैसा कि वेतांवर संप्रदायवाले मानते हैं, परंतु 'त्रिलोकसार के टीकाकार माधवir trainerr में लिखे हुए 'शक' राजा को भूल से 'विक्रम' मान लिया जिससे कितने एक पिल्ले दियंगर जैन लेखकों ने विक्रम संवत् से २०५५ ( शक संवत् से ७४० ) वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण होना मान लिया जो ठीक नहीं है. दिगंबर जैन लेखकों ने कहीं शक संवत् से ४६१, कहीं ६७६५ और कहीं १४७६३ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण होना भी लिखा है परंतु ये मत स्वीकार योग्य नहीं हैं. पुत्र महापा] ( नंद ) पा. इस गणना के अनुसार महाभारत के युद्ध से लगा कर महापद्म की गद्दीनशीनी तक ३७ राजा होते हैं जिनके लिये १०५० वर्ष का समय कम नहीं किंतु अधिक ही है क्योंकि औसत हिसाब से प्रत्येक राजा का राजस्वकाल २८ वर्ष से कुछ अधिक ही आता है. १. विकमरारंमा परउ सिरित्रीरनिव्वुई भगिया । सुन्न मुशिअजुतो विक्रमकाल जिएकालो || किमकालाजिनस्य वीरस्य कालो जिनकालः शून्यमुनिवेदयुक्तः चत्त्रारिशतानि सप्तत्यधिकवर्षाणि श्रीमहावीरविक्रमादित्ययोरतरमित्यर्थः ( विचारश्रेणि). यह पुस्तक ई. स. १३१० के आस पास बना था. ९. हि वामास पंचहि वाहि पंचमासेहिं । मम निव्ययागयरस उ उपजिस्मइ सगो राया ॥ ( महावीरचरियं ). यह पुस्तक वि. सं. ११४१ ( ई. स १०८४ ) में बना था. ५. प्रणह्यस्सयत्रस्तं पनामास जुदं गमिश्र वीर निम्बुइदो सगराजो० ( त्रिलोकसार, श्लो. ८४८). यह पुस्तक त्रि. सं. की ११ बीं शताब्दी में बना था. इरिवंशपुराण में भी वीरनिर्वाण से ६०५ वर्ष बीतने पर शक राजा का होना लिखा है और मेघनंदि के श्रावकाचार में भी ऐसा ही लिखा है ( . ऍ, जि. १२ पृ. २२ ). श्रीनाथनिर्वृतेः सकाशात्मा गया पखात् मकराना (लोकसार के उप युंक श्लोक की डीहा ). दिगंबर जैन के प्रसिद्ध तीर्थस्थान अवरायेलगोला के एक लेख में वर्धमान वीर निर्वाण संवत् १४६३ में विक्रम संवत् १८८८ और शक संवत् १७५२ होना लिखा है जिसमें बोरनिर्वाण संवत् और विक्रम संवत् का अंतर ६०५ आता है (इं. एँ, जि. २४, पृ. ३४६ ) इस अशुद्धि का कारण माधवचंद्र की अशुद्ध गणना का अनुसरण करना ही हो. * श्रीरभियां सिद्धिगदे पर काल उपरा हवा] वरे सिद्धे सहस्त्रमि () () से उदास विर Aho! Shrutgyanam Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्राचीनलिपिमाला. ४--युद्धनिर्वाण संघ बौद्धों में बुद्ध (शाक्यमुनि) के निर्माण से जो संवत् माना जाता है उसको 'बुद्धनिर्वाण संवत्' कहते हैं. यह बौद्ध ग्रंथों में लिखा मिलता है और कभी कभी शिलालेखों में भी. बुद्ध का निर्वाण किस वर्ष में हुमा इसका यथार्थ निर्णय अब तक नहीं हुआ. सीलोन' (सिंहलदीप, लंका ), ब्रह: और स्याम में बुद्ध का निर्वाण ई. स. से ५४४ वर्ष पूर्व होना माना जाता है और ऐसा ही आसाम के राजगुरु मानते हैं. चीनषाले ई. स. पूर्व ३३८ में उसका होना मानते हैं. चीनी यात्री फाहियान ने, जोई.स. ४०० में यहां माया था, लिस्वा है कि इस समय तक निर्धाण से १४६७ वर्ष व्यतीत हुए हैं। इससे युद्ध के निषोण का समय है.स. पूर्व (१४६७-४०%) १०६७ के पास पास मानना पड़ता है, चीनी यात्रीएएमसंग ने निर्वाण से १०० वर्ष में राजा अशोक (ई.स. पूर्व २३६ से २२७ तक) का राज्य दूर दूर फैलना बतलाया है। जिससे निर्वाणकाल ई. म. पूर्व की चौथी शताब्दी के भीष श्राता है. डॉ. भूलर ने ई. स. पूर्व ४८३.२ और ४७२.१ के योग , प्रॉफिसर कर्न ने ई. स. पूर्व ३८ में, फर्गसन ने ४८१ में. जनरल कनिंगहाम में ४७८ में, मॅक्समूलर ने ४७७ में. पंडित भगवानलाल इंद्रजी ने ६६८ में (गया के लेख के आधार पर), मिस् उफने" ४७७ में, डॉ. बार्नेट ने९४८३ में, डॉ. फ्लीट ने १९४८२ में और वी. ए. स्मिथ ने ई.स. पूर्व ४८७ या ४८६ में नियोण होना अनुमान किया है. बुद्धनिर्वाण संवतवाले अधिक लेख न मिलने तथा विद्वानों में इसके प्रारंभ के विषय में मतभेद होने पर भी अभी तो इसका प्रारंभ ई. स. का प्रारंभ स. पूर्व ४८७ के पास पास होमा स्वीकार करना ठीक जचता है, परंतु वही निश्चित है ऐसा नहीं कहा जा सकता. ५--मौर्य संवत् उदयगिरि ( उडीसे में कटक के निकट ) की हाथी गुंफा में जैन राजा खारवेल (महामेघवाहन) का एक लेख है जो मौर्य संवत् ( मुरियकाल ) १६५ का है. उक्त लेख को छोड़ कर और कहीं सिद्धीदो उप्परमो समरिधश्रो अहवा (पाठान्तरं)।। (प्रिलोकप्राप्ति--देखो. 'जैनहितैषी मासिक पत्र, भाग १३, अंक १२, दिसंबर १९१७, पृ.४३३). १. भगवति परिनिवृते सम्वत् १८१३ कार्तिकवाद १ बुधे ( गया का लेख. जि. १० पृ. ३४३ ). २. कॉर्पस् इन्रिकाशनम् शिरम् ( जनरत् कर्भिग्रहाम संपादित), जि. १, भूमिका, पृ. ३. १० मि : जि. २, यूसफुल टेबल्स, पृ. १६५. . यी बु. रे..व जि.१ की भूमिका, पृ. ७५. ५. बी बु.रे.के.व जि.१. पृ. १५०. ६..एँ जि. ६, पृ.१५४. .. सारक्लोपीविमा ऑफरविमा, जि.१, पृ.४६२ ८. कॉर्पस स्किपशनम् टिकरम् जि.१ की भूमिका, पृ. ६. १ में हि. ए. सं. लि पृ. २६८. १. ई.एँ; जि. १०, पृ. ३४६. ११. था; . पू. ३७. १. ज. रॉ. ए, सोईस. १९०६, पृ. ६६७. १४. स्मि; अ.हि. पृ. ४७ (तीसरा संस्करण). .. पनंतरियसठिबससते राममुरिपकाले बोछिनेच चोयठअगसतिकुतरियं (पंडित भगवानलाल इंद्रजी संपादित 'दी हाधी गुफा पेंड भी मदर इस्क्रिप्शन्स् ), डाकटर स्टेन कॉमो ने स.१९०५-६ की पार्किनालाजिकल सर्वे की रिपोर्ट में लिखा है कि इस वर्ष कलिंग के राजा खारबेल के प्रसिद्ध हाथी गुफा के लेख की नकल (प्रतिकृति ) तय्यार की गई... यह लेख मौर्य संवत् १६५ का है'(पृ.१६६ . उक पुस्तक की समालोचना करते हुए डॉक्टर पलीट ने उक्त लेख के संवत् संबंधी मंश के विषय में लिखा कि 'उत लेख में कोई संवत् नहीं है किंतु यह यह बतलाता है कि खारवेल में कुछ मूल पुस्तक और १४ वे अभ्याय अथवा जैनों के सात अंगो के किसी अन्य विभाग का पुनराहार किया, जो मौर्य काल से उच्छिम हो रहा था (ज. रॉ. ए. सोई. स. १६९०, पृ. २४३-४४). . फलीट के इस कथनानुसार मा.लहर ( जि. १५. माझी लेखों की सूची.. १६१) और बी. ए. स्मिथ ने (स्मि . हिपृ. २०७,दि.९) उक्त लेख में कोई संषर न होग. मान लिया है, परंतु थोड़ेही समय पूर्व पश्चिमी भारत के प्रार्षिभालॉजिकल विभाग के विद्वान सुपरिटेंडेंट राखालदास बनर्जी ने उक्त लेख को फिर प्रसिद्ध करने के लिये उसकी प्रतिकृति तय्यार कर पढ़ा है. उनके कथन से पाया गया कि उसमें मौर्य संवत १६५ होना निर्विवाद है. ऐसी शा में डा. फ्लीट आदि का कपन ठीक नहीं कहा जा सकता. Aho! Shrutgyanam Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संवत् का उल्लेख नहीं मिलता. मौर्य राज्य की स्थापना की थी अत यदि यह अनुमान ठीक हो तो इस भारतीय संवत १६५ नंद वंश को नष्ट कर राजा चंद्रगुप्त ने ई. स. पूर्व ३२६ के आस पास एव अनुमान होता है कि यह संवत् उसी घटना से पता हो. संवत् का प्रारंभ ई. स. पूर्व ३२१ के आस पास होना चाहिये. ६- सल्यकिडि संपत् ई. स. पूर्व ३२३ में धूनाम के बादशाह सिकंदर ( अलेक्जेंडर) का देहांत होने पर उसके सेनापति राज्य के लिंग आपस में लड़ते रहे. अंत में तीन राज्य मकवूनिया ( मसिडोनिया, ग्रीस में ), मिसर और सीरिया (बाबीलन ) कायम हुए. सीरिया का स्वामी सेल्युकर निकाटॉर बना जिसके अधीन बारुट्रिआ आदि एशिया के पूर्वी देश भी रहे. सेल्युकस के राज्य पाने के समय अर्थात् ता १ अक्टोपर ई. स. पूर्व ३१२ से उसका संवत् (सन् ) चला जो बाट्रिया में भी प्रचलित हुआ हिंदुस्तान के काबुल तथा पंजाब आदि हिस्सों पर बाट्रिया के ग्रीकों (यूनानियों) का आधिपत्य होने के बाद उक्त संवत् का प्रचार भारतवर्ष के उन हिस्सों में कुछ कुछ हथा हो यह संभव है. यपि अब तक कोई पेसा ले नहीं मिला कि जिसमें इस संवत् का लिखा जाना निश्चयात्मक माना जा सके तो भी इस संवत् के साथ लिखे जानेवाले मसीडोनिअन (यूनानी ) महीने शक तथा कुशन वंशियों के समय के कितने एक खरोष्ठी लेखों में मिल जाते हैं. जिन लेखों में ये विदेशी महीने मिले हैं ये विदेशियों के खुदवाये हुए हैं. उनमें दिये हुए 'वर्ष किस संवत के हैं इसका अब तक ठीक निर्णय नहीं हुआ तो भी संभव है कि जो लोग विदेशी मसीडोमिन् (यूनानी) महीने लिखते थे वे संवत् भी विदेशी ही लिखते होंगे चाहे वह सेल्युकिडि ( शताब्दियों के करहित ), पार्थिवन्' या कोई अन्य (शक ) संवत् हो ७- विक्रम संवत् विक्रम संवत् को मालव संवत् (मालव काल ) भी कहते हैं. इसके संबंध में यह प्रसिद्धि चली जाती है कि मालवा के राजा विक्रम या विक्रमादित्य ने शकों का पराजय कर अपने नाम का संवत् चलाया. धौलपुर से मिले हुए चाहमान ( चौहान ) महासेन के विक्रम संवत् ८ ( ई. स. ८४१ ) १. लोरिन तंगाई ( स्वात जिले में ) से मिली हुई बुद्ध की मूर्ति के आसन पर खुदे हुए सं. १ के खरोष्ठी लेख ( स ३१८ प्रोटवदस दि २७ श्रा. स. र ई.स. १६०३-४, पृ. २५१ ) तथा हश्तनगर ( पुष्कलावती ) से मिली हुई बुद्ध की ( अपने शिष्यों सहित ) मूर्ति के आसन पर खुवे सं. ३८४ ( सं ३८५ प्रोटवदस मसल दिवसांम पंचमि ५ . जि. १२, पृ. ३०२ ) के लेख में दिया हुआ संवत् कौनसा है यह अनिश्चित है. संभव है कि उनका संवत् मौर्य संवत् हो. १ मसी महीनो के नाम क्रमशः हाइपरबेरेटिभम् (Hyperberetous विष पि (Apellmus), fire (Audves), fefewer (Puritius), freze, ( Dystrus), fee (Xanthicus). आमिसिअस् ( Artemisius), डेसिअस् ( Dains), एनमस् ( Praemus ), लोअस् (Lous ) और गॉपिपास (Gurus) है इसे पहिला हाइपरे अंग्रेजी ऑक्टोबर के और अंतिम गोविस सेप्टेंबर के स्थाना है. अब तक इन मेसीन महीनों में से मह४१) वि के समय 1 के सं ५१ के वर्डक से मिले हुए पात्र पर के लेख में पैं. इंजि. ११, प्र. २१०), डेसिस् । ऋहसिक. कमिक के समय के सं. ११ के बिहार के ताम्रलेख में ई. जि. १०. पू. ३२६. जि. १९. पृ. १२८ ) और पमस् ( क्षत्रप प्रतिक के तक्षशिला से मिले हुए सं. ७८ के ताम्रलेख में पॅ. इंजि. ४, पृ. ५५ -लेखों में मिले हैं. • ↓ S क. पार्किन् संवत् का प्रारंभ इ. स. पूर्व २४७ के मध्य के आस पास होना माना जाता है (पृ. ४६ ) " मालकालाच्छरदा श्रशित्संयुतेष्वतीतेषु नवम शतेषु ( ग्यारसपुर का लेख ; ; श्र. स. रि. जि. १०. ले ११ ) Aho! Shrutgyanam Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राचीनलिपिमाला. के शिलालेख में पहिले पहिल'म संवत के साथ विक्रम का नाम जुड़ा हमा मिलता है. उसके पहिले के अब तक के मिले हुए लेखों में विक्रम का नाम तो नहीं मिलता किंतु संवत् नीचे लिखे अनुसार भिन्न भिन्न रीति से दिया हुआ मिलता है (१) मंदसौर से मिले हुए नरवर्मन् के समय के लेख में-'श्रीमालवगणाम्नासे प्रशस्ते कृतसंझिने [0] एकषष्ट्यधिक प्रासे समाशतचतुष्टये [1] प्रावृक्कादिका)ले शुभे प्रासे', अर्थात् 'मालवगण के प्रचलित किये हुए प्रशस्त कृत संज्ञावाले ४६१ वें वर्ष के लगने पर वर्षा ऋतु में', जेप्रम् (अजमेर) में रक्खे हुए नगरी (मध्यमिका, उदयपुर राज्य में) के शिलालेख में-कृतेषु चतुपु घर्षशनेष्वे काशीत्युत्तरेष्वस्यां मालवपूर्वायां [४०]:०१ कार्तिक शुक्लपञ्चम्याम्', अर्थात 'कृत [नामक] ४८१ वि घर्ष (संवत) में इस मालवपूर्वी कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन' (1) मंदसौर से मिले हुए कुमारगुप्त ( प्रथम ) के समय के शिलालेख में-'मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये । विनवत्यधिकेन्दान म्रि(मोती सेव्यधनस्तने ॥ सहस्यमासशुक्लस्य परास्तेहि त्रयोदशे, अर्थात् 'मालवों के गा (जाति) की स्थिति से ४६३ वर्ष बीतने पर पौष राषत १३ को. (४) मंदसौर से मिले हुए यशोधर्मन् (विशुवर्द्वन् । के समय के शिलालेख में-'पञ्चसु शतेषु शरद यातवेकानवतिसहितेषु । मालवगणस्थितिवशात्कालज्ञानाय लिखितेषु ५ अर्थात् 'मालव गण (जाति)की स्थिति के वश से कालज्ञान के लिये रिखे हए ५८९ वर्षों के बीतने पर'. (५) कोटा के पास के कस्वा के शिव मंदिर में लगे हए शिलालेख में-'संवत्सरशतोतः सपंचनवत्यरर्गलैः[समभिर्मालवेशानां, अर्थात 'मालवा या मालव जाति के राजाओं (राजा) के ७६५ वर्ष बीतने पर' इन सब अबतरणों से यही पाया जाता है कि (अ) मालव गण (जाति) अथवा मालव (मालवा ) के राज्य या राजा की स्वतंत्र स्थापना के समय से इस संवत् का प्रारंभ होता था. (मा) अषतरण १ और २ में दिये हुए वर्षों की संझा'कृत' भी थी. १. घिनिकि गांव ( काठिाबाद) से मिले हुए दानपत्र में विक्रम संवत् ७६४ कार्तिक कृष्णा अमावास्या. आदि. त्यवार, ज्येष्ठा नक्षत्र और सूर्यग्रहया लिखा है ( जि. १२, पृ. १५५ ) परंतु उन तिथि को आदित्यवार, ज्येष्ठा नक्षत्र भीर सूर्यग्रहण न होने, और उसकी लिपि इतनी प्राचीन न होने से डॉ. प्लीट और कीलहॉर्न ने उसको जाली ठहराया है. .. वसु नब भिटो वर्षा गतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य [1] वशाखस्य सिताया(यां) रविवारयुतद्वितीयायां (.एँ; जि.१६, पृ. ३५.) ३. '.: जि. १२, पृ. ३२०. . फ्लो ; गु. पृ. ३. . पली; गु. पृ. १५४. . .५ जि. १६, पृ. ५६. ७. मैनालगढ़ ( उदयपुर राज्य में ) से मिले हुए अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज ( पृथ्वीभव) के समय के लेख के संवत् १२२६ को मालवा के राजा का संवत कहा है (मालवेरागतवत्सर(रे) शतैः द्वादशेश्च प्राइविंशपूर्वकः) (ज.प. सो: बंगा. जि. ५५, भाग १. पृ.४६). ८. संवत के साथ 'कृत शब्द अब ना केवल ४ शिलालेखों में मिला है. डॉ. फ्लीट ने इसका अर्थ 'गत' अर्थात् गुजरे हुशवर्ष] अनुमान किया था परंतु गंगधार के शिलालेख में 'कृतेषु' और 'यातेषुबात) दानो शन्न होने से उस अनमानको ठीकन माना. मंदसौर के लेख में 'कृतसंहिते' लिखा है (देखो. ऊपर अवतरण ) उसमें ‘कृत' वर्ष का नाम होना पाया जाता है. जैस प्राचीन लेखो में १२ वर्ष ( महाचैत्रादि ) और ६० वर्ष ( प्रभवादि) के दो मिन भिन्न याई स्मन्यमान (चक) मिलते है वैसे ही वैदिक काल में वर्षे का एक युगमान (चक्र) भी था (देखो, आर. शामशाररीका गवामयन'. ३, (३८). इस युगमान के वर्षों के नाम वैदिक काल के जुए के पासो की नाई (देखो, ऊपर पृ. और इसी के टिप्पण३-५) कृत. वेता, द्वापर और का , और उनकी रीति के विषय में यह अनुमान होता है कि जिस गत वर्ष में ४ का माग देने से कुछ म थवे उस वर्ष की हत',३ बच्चे उसकी 'नेता', २ पचे उसको 'वापर' और । यो उमको 'कनि' संज्ञाहेती हो. जैनो के 'भगवतीसूत्र' में युगमान का पेसा ही उल्लेख मिलता है. इसमें लिखा कि गुम पार है यजुम्म (रुत), रोज (ता), वावरतुन (पर) और लिग (कलि) जिस संस्था Aho! Shrutgyanam Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संघ (३) इसकी मासपक्षयुत तिथिगणना भी 'मालवपूर्वी, अर्थात् मालवे ( या मालवों ) की गणना के अनुसार की, कहलाती थी. जयपुर राज्य के नगर (कर्कोटक नगर ) से कुछ सिके ऐसे मिले हैं जिन पर 'मालवाला) जय(यः) २ लेख होना बतलाया जाता है. उनकी लिपि ई. स. पूर्व २५० से लगा कर ई. स. २५० के बीच की अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारंभ के पास पास की मानी गई है. हन स्किों से अनुमान होना है कि मालव जाति के लोगों ने जम प्राप्त करके उसकी यादगार में ये सिके चलाये हों, समुद्रगुप्त ने मालव जाति को अपने अधीन किया था. इससे भी यह अनुमान होता है कि मालवों का उपर्युक्त विजय गुप्तों से पूर्व ही हुशा था. यह भी संभव है कि मालव जाति के लोगों में । अवंति देश को जीत कर अपना राज्य वहां जमाया हो और उसीसे वह देश पीछे से मालव (मालवा) कहलाया हो एवं वहां पर मालव जाति का राज्य स्थिर होने के समय से प्रचलित होने के कारण यह संवत् 'मालवकाल' या 'मालक संघन्' कहलाया हो. कुछ विद्वानों का मत यह है कि इस संवत् का नाम वास्तव में मालव संवम् ही था परंतु पीछे से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त (दूसरे)का, जिसके पिद 'विक्रम' और 'विक्रमादित्य' आदि मिलते हैं, नाम इस संवत् के साथ जुड़ जाने से इसका नाम विक्रम संवत् हो गया हो. यह कल्पना तभी ठीक कही जा सकती है जब इतिहास से यह सिद्ध हो जावे कि चंद्रगुप्त (इसरे) के पहिले विक्रम नाम का कोई प्रसिद्ध राजा नहीं हुआ, परंतु हाल (सातवाहन, शालिवाहन) की 'गाथासप्तशति' से यह पाया जाता है कि उस पुस्तक के संगृहीत होने के पूर्व विक्रम नामका प्रसिद्र राजा हुमाथा'. हाल का समय इ. स. में ४ का भार देने से ४ बने ( अर्थात् कुछ न बचे) उसका नाम कन, ३ बजे उसका ता.२ ववे उपकाद्वापर और १ वचे उसका कलि है' यह यगमान जिन ४ लेखों में 'मृत' संज्ञा का प्रयोग हुआ है नीचे लिले अनुसार ठीक घट जाता है (१) विजयमंदिरगढ़ (बयाना ) के लेख के वर्ष ४२८ को गत मान कर ४ का भाग देने से कुछ नहीं वत्रता इससे उसका नाम 'कृत हुअा. (२) मंदसौर के वर्ष ४६१ को वर्तमान प्राप्ते ) कहा ही है इस लिये गत वर्ष ४१० है जेई 'क्रत ही है (३) गंगधार ( झालावाड़ राज्य मै) के लेख के वर्ष ४८० को मत ही लिखा है जिससे वह 'कृ'ही है. (४) नगरी के लेख के वर्ष ४८१ को वर्तमान माने तो गत ८० होता है जो कुस' ही है ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि मालवा और राजनाने में कृतादि युगगणना की प्राचीन शैली का प्रचार १.स. की पांचयीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक बना हुआ था. .. संभव है कि मालय की गणना चैत्रादि पूर्णिमांत हो. २. का प्रा. स. रिजि . ६, पृ. १८२. .. प्ली: गु.ई ... ८. चंद्रगुप्त (दूसरे के सिक्कों पर एक तरफ उस राजा के नाम काले लख और दूसरी और 'श्रीविक्रमः', 'विक्रमादित्यः', सिंहविक्रमः', 'अजितविक्रमः' आदि उसीके विरुदसूचक लेख हैं (जॉन ऍलन संपादित, गुप्तों के सिकों को मुचि.) ___५. संवाहणासुहरसतोसिएण देन्तेण तुह करे लक्खं । नलगोगा विकमाइच्चरित्र सिक्खि ग्रं निस्सा (गाथा ४३४. वेयर का संस्करण) इस गाथा में विक्रमादित्य की दानशीलता की प्रशंसा है. * कविणं भते जुम्मा परमात्ता ? गोयम चत्तारि जुम्मा परमात्ता । तं जहा । कथानुम्म तेयोले दाबरसम्म कलिनुगे । ने जायेगा भते ? एवं उच्चयि जाब कलिनुगे गोयम ! जेरा रासी चयुक्केगा अबहारेणं अबहरिमारणे वयुपञ्जवसिये से त कयजुम्मे 1 जणं रासा चकरा: भवहारेणं अवहरिमाणे तिपज्जवसिये से तं तेयोजे । जेणं रासी चयुक्केण अवहारेण अवहरिमायो दुपत्रमिये से ते दाबरजुम्म । जेगां रालो च्युसणं अवहारेणं अवहरिमाणे एकपज्जवसिये से तं कलिनुगे । से तेणघेणं गोयम (१६७१-७२, भगवती सूत्र. गवामयन' पृ. ७२. ___ कृतेषु चतुर्यु वर्षशतेष्वष्टाविशेषु ४०० २०८ फास्गुणान बहुलस्य पञ्चदशामतस्यां पूर्वायां (फ्ली; गु. ई; पृ. २५३ ) * शिलालेखादि में विक्रम संवत् के वर्ष वहुधा गत लिखे जाते हैं (पं. ई, जि. १, गृ. ४०६ ) वर्तमान बहुत कम. जय कभी वर्तमान वर्ष लिखा जाता है तब एक वर्ष अधिक लिखा रहता है. यातेषु चतुर्पु कि(क)तेषु शतेषु सोस्ये(म्ये)वा(शा)शीतसोत्तरपदेविड़ वत्सारेषु । शुझे लयोदशदिने भुवि कार्तिकाय मासस्य सर्चमनचित्तसुखावहस्य ।। (ली; गु. पृ. ७४). Aho! Shrutgyanam Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्यानलिपिमाला. की दूसरी शताब्दी से इधर का नहीं माना जा सकता. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि या के लेख में उक्त वंश के म के पास का नक्शा भंडारकर १. 'गाथासप्तति' के अंत में सातवाहन को कुंतल देश का राजा, प्रतिष्ठान (पैठण) नगर का अधीश, शतकम् ( शासकर्णि) उपासवनाला. दीपिकाएं का पुष, मलयवती का पति और हालादि उपनामघाला लिखा है। प्रो. पीटर्सन की इ.स. १५-६ तक की रिपोर्ट पृ ३४६ । शिलालेखों में आंध्र (ध्रभृत्य वंश के लिये सातवाहन नाम का प्रयोग मिलता है. नानाघाट के लेख में उक्त वंश के मूल पुरुष सिमुक को सातवाहन कहा है और उलवंश के राज्य का अंत ई म. २२५ के पास पास होना ( स्मि: अहि. ई:पृ. २९८ के पास का नक्शा) माना जाता है. ऐसी दशा में गाथासप्तशति' का समय म सग से पूर्व काही होना चाहिये. दंषद रामकृष्ण भंडारकर मे विक्रम संवत्संबंधी अपने लेख में 'गाथासप्तशति के राजा विक्रम के विषय में लिखते हुए उक्त पस्तक के रचनाकाल के संबंध में लिखा है कि 'क्या गाथासप्तशति वास्तव में उतना पुराना ग्रंथ है जितना कि माना जाता है'......वाण के हर्षचरित के प्रारंभ के १३ वे श्लोक में सातवाहन के द्वारा गीतों के कोश' के यनाये आने का उल्लेख अवश्य है परंतु इस 'कोशको हाल की सप्तशति मानने के लिये कोई "रए नहीं है जैसा कि प्रों बेबर ने अच्छी तरह बतलाया है. उसी पुस्तक में मिलनेवाले प्रमाण उसकी रचना का सबहुत पीछे का होना बतलाते हैं. यहां पर केवल दो बातों का विचार किया जाता है. एक तो उस (पुस्तक) में कृष्ण और राधिका का (REE और दूसरा मंगलवार (३।६१) का उल्लेख है. राधिका का सब से सराना उर जो मुझे मिल सका वह पंचतंत्र में है जो इ. स. की पांचवीं शताब्दीका बना हुआ है. ऐसे ही विधियों के साथ या सा- य व्यवहार में बार लिखने की रीति वीं शताब्दी से प्रचलित हुई, यद्यपि उसका सबसे पुराना उदाहरण बुधगुप्त के .y४ परण के लेख में मिलता है यदि हम गाथासप्तशति के हाल का समय छठी शताब्दी का प्रारंभ मानें तो अधिक अनुचितम होगा'(आर.जी भंडारकर कोम्मेमोरेशन वॉल्यम, पृ.८-८८) हम उक्त विद्वान् के इस मधन से सब सहमत नहीं हो सकते क्योंकि बारामट्ट सातवाहन के जिस सुभाषितरूपी उज्वलरत्नों के. कोश ( संग्रह, जामे की प्रशंसा करता है (अविनाशिनमाम्यमकरोत्सातवाहनः विशुद्धजातिभिः कोशं रत्नेरिव सुभाषितः ॥ १३) यह गाथासमशति' ही है, जिसमें सुभाषित रूपी रत्नों का ही संग्रह है. यह कोई प्रमाण नहीं कि प्रो. बबर ने उसे गाथासप्रशति नहीं माना इस लिये वह उससे भिन्न पुस्तक होना चाहिये. वेबर ने ऐसी ऐसी कई प्रमाणशून्य कल्पनाएं की है जो अब मानी नहीं जाती. प्रसिद्ध विद्वान डॉक्टर सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने भी वेबर के उक्त कथन के विरुद्ध याणमट्ट के उपर्युक्त लोक कामबंधनाल की समशसि से होना ही माना है (बंगे: जि १, भा. २, पृ.१७१. ऐसा ही डॉ०लीट ने (ज. रों. ए. सोईस १६१६, पृ.८२०) और 'प्रयंचितामणि' के कर्ता मेरुतुंग ने माना है (प्रबंधचिंतामणि, पृ. २६) पांच! शताक्षी के बने हुए पंचतंत्र' में कृष्ण और राधिका का उल्लेख होना तो उलटा यह सिद्ध करता है कि उस समय कृपया और राधिका की कथा लोगो मे भलीभांति प्रसिद्ध थी अर्थात् उक्त समय के पहिले से चली आती थी. यदि ऐसा न होता तो पंचतंत्र का कर्ता जसका उल्लेखही कैसे करतार ऐसे ही तिथियों के साथ या सामान्य व्यवहार में चार लिखने की रीति का ६ वी शताबी में प्रचलित होना बतलाना भी ठीक नहीं हो सकता, क्यों कि कच्छ राज्य के अंधो गांव से मिले हुए क्षत्रप रुद्रदामन के समय के शिक] संवत् ५२ । ई. स. १३० ) के ४ लेखा में से एक लेख में गुरुवार' लिखा है ( में द्विपंचाशे ५० २ फागणावएलस द्वितीया वी२ गुरुवास(२] सिंहलपुत्रस सोपशतस गोत्रसर स्वर्गीय प्राचार्य बलमजी हरिदत्त की तरयार की हुई उक्त लेख की छाप से) जिससे सिद्ध हैं कि ई. स. की दूसरी शताब्दी में बार लिखने की रीति परंपरागत प्रचलित थी. राधिका और बुधवार के उरलेख से ही गाथासप्तशति' का छठी शताब्दी में बनना किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता डॉ. सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने भी गाथासप्तशति के कर्ता हाल को आंध्रभृत्य वंश के राजाश्री में से एक माना है (बंब. गें; जि. १, भा. २, पृ. १७१ ) जिससे भी उसका धभृत्य ( सातवाहन) वंशियों के राजत्वकाल में अर्थात् स. की पहिखी या दूसरी शताब्दी में बनना मानना पड़ता है. केवल 'गाथासप्तशति' से.ही चंद्रगुप्त दूसरे से पूर्व के राजा विक्रम का पता लगता है इतना ही नहीं किंतु राजा सातवाहन । हाल ) के समय के महाकवि गुणाव्य रचित पैशाची। कश्मीर तरफ की प्राकृत भाषा के वृहत्कथा' नामक ग्रंथ से भी. जिसकी प्रशंसा बागाभट्ट ने अपने हर्षचरित के प्रारंभ के १७वें श्लोक ( समुद्दीपितकंदए। कृतगौरीप्रसाधना । हरलीलेव ने कम्य विस्मयाव वृहत्कथा ) में की है वह पुस्तक अब तक नहीं मिला परंतु उसके संस्कृत अनुवाद रूपी सोमदेव भट्ट के कहासरित्सागर में उजैन के राजा विकसिंह ( लंबक है. नरंग , पाटलीपुर के राजा विक्रमतुंग (लंबक ७, तरंग १) आदि विक्रम नाम के राजाओं की कई कथाएं मिलती है. इस पुस्तक को भी वेबर ने ई. स. की छठी शताब्दी का माना है परंतु डॉ. सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने उपर्युक्त सातवाहन के समय का अर्थात् ई. स. की पहिली या दूसरी शताब्दी का माना है (वंब. गें; जि. १ भा.२, पृ. १७०-७१) और काव्यमाला के विद्वान संपादक स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. दुर्गाप्रसाद धार पाहांग परब ने उसका इ. स. की पहिली शताब्दी में बनना बतलाया है इतना ही नहीं किंतु वेयर के मामे हुए उसके समय के विषय में लिखा है कि "वेयर पंडित 'हिस्टरी ऑव संस्कृत लिटरेचर' नामक पुस्तक में गुणाढ्य का ई. स. की छठी शतादी में होना बतलाता है और दशकुमारचरित के रचयिता प्राचार्य दंडी का भी ठी शताब्दी में होना स्वीकार करता है। किंतु आचार्य दंडी काव्यदर्श में 'भुलभापामयी प्राहुरद्भुतार्थी वृहत्कथाम् ' में 'माहुः पद से सहत्कथा का अपमे से बहुत Aho! Shrutgyanam Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् सो विक्रम , जिसका नाम इस संवत् के साथ जुड़ा है, मालव जाति का मुखिया या राजा हो, अथवा चंद्रगुप्त (दूसरे) से पहिले का उससे भिन्न कोई राजा हो. विक्रम संवत् का प्रारंभ कलियग संवत् के (५०१६-१९७५) ०४४ बर्ष व्यतीत होने पर माना जाता है जिससे इसका गत वर्ष १ कलियुग संवत् ३०४५ के बराबर होता है. इम संवत् में से ५७ या ५६ घराने से ईसवी सन् और १३५ घटाने से शक संवत् आता है. इसका प्रारंभ उत्तरी हिंदुस्तान में चैत्र शुक्ला १ से और दक्षिण में कार्तिक शुक्ला १ से होता है जिससे उत्तरी ( चैत्रादि ) विक्रम संवत् दक्षिणी ( कार्तिकादि ) विक्रम संवत् से ७ महीने पहिले प्रारंभ होता है. उत्तरी हिंदुस्तान में महीनों का प्रारंभ कृष्णा १ से और अंत शुक्ला १५ को होता है, परंतु दक्षिण में महीनों का प्रारंभ शुक्ला १ से और अंत कृष्णा अमावास्या को होता है. इस लिये उसरी विक्रम संवत् के महीने पूर्णिमांत और दक्षिणी के अमांत (दीत ) कहलाते हैं शुक्ल पक्ष तो उत्तरी और दक्षिणी हिंदुस्तान में एक ही होता है परंतु उत्तरी हिंदुस्तान का कृष्ण पक्ष दक्षिणी से १ महीना पहिले रहता है अर्थात जिस पक्ष को हम उत्तरी हिंदुस्तानवाले वैशाख कृष्ण कहते हैं उसीको दक्षिणवाले चैत्र कृष्ण लिखते हैं. काठियावाड़, गुजरात तथा राजपुताने के कुछ अंश में विक्रम संवत् का प्रारंम अाषाढ शुक्ला १(अमांत) से भी होता था जिससे उसको प्राचीन होना प्रकट करता है इस लिये दंडी और गुणाढय दोनों छठी शताब्दी में हुए ऐसा वेवर पंडित ने किस आधार पर माना यह मालूम नहीं होता. श्रथवा प्रायः युरोपिअन् विद्वानों का यह स्वभाव ही है कि भारतवर्ष के प्राचीनतम ग्रंथों एवं उनके रचयिताओं को अर्वाचीन सिद्ध करने का जहां तक हो सके वे यत्न करते हैं और उनका प्राचीनत्य सिद्ध करने का रद प्रमाण मिल भी जावे तो उसको 'प्रक्षिप्त' कह कर अपने को जो अनुकूल हो उसीको आगे करते हैं (अर्थात ठीक बतलाते हैं) (बई के निर्णयसागर प्रेस का छपा हुआ 'कथासरित्सागर', नीसरा संस्करण, भूमिका, पृ.१) 1. 'ज्योतिर्विदाभरण' का कर्त्ता कालिदास नामक ज्योतिषी उक्त पुस्तक के २२ अध्याय में अपने को उज्जैन के राजा विक्रम का मित्र (श्लोक १६) और 'रघुवंश' आदि तीन काव्यों का कर्ता बतला कर ( मो. २०) गत कलियुग संवत् ३०६८ ( वि. सं. २४) के वैशाख में उक्त पुस्तक का प्रारंभ और कार्तिक में उसकी समाप्ति होना (श्लो. २३) लिखता है. उसमें विक्रम के विषय में यह भी लिखा है कि उसकी सभा में शंकु, वररुचि, मणि, अंशु, जिष्णु, त्रिलोचन, हरि, घरखर्पर और अमरसिंह आदि कवि (श्लो. ८); सत्य, वराहमिहिर, श्रुतसेन, यादरायण, मणिस्थ और कुमारसिंह आदि ज्योतिषी थे (श्लो ). धन्वन्तरि, क्षपएक, अमरसिंह, शंकु, वेतालमट्ट, घटसर्पर. कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि ये नब विक्रम की सभा के रत्न थे. उसके पास ३००००००० पैदल, १०००००००० सवार, २४३०० हाथी और ४००००० नाव धी (लो. १२), उसने ६५ शक राजा को मार कर अपना शक अर्थात् संवत् चलाया (श्लो. १३) और रूम वेश के शक । राजा को जीत कर उज्जैन में लाया परंतु फिर उसको छोड़ दिया' (लो. १७). यह सारा कथन मनघडंत ही है क्यों कि 'ज्योतिर्विवाभरण' की कविता मामूली है और रघुवंश आदि के कर्ता कविशिरोमणि कालिदास की अलौकिक सुंदरतावाली कविता के आगे तुच्छ है. ऐसे ही गत कलियुग संयत् ३०६८ (वि. सं. २४) में उक्त पुस्तक की रचना करने का कथन भी कृत्रिम ही है क्यों कि उसी पुस्तक में श्रयनांश निकालने के लिये यह नियम दिया है कि 'शक संवत् में से ४४५ घटाकर शेष में ६० का भाग देने से अयनांश आते हैं' (शाकः शराम्भोधियुगोनितो हृतो मानं खतरपनाशकाः स्मृताः।१११८). विक्रम संवत् के १३५ वर्ष बीतने पर शक संवत् चला था अत एव यदि वह पुस्तक वि. सं. २४ में बना होता तो उसमें शक संवत् का नाम भी नहीं होना चाहिये था. चास्तव में वह पुस्तक श. सं. १९६४ (वि. सं. १२६६ई. स. १२४२) के आसपास का बना हुआ है । देखो, शंकर बालकृमा दीक्षित का 'भारतीय ज्योतिःशाख', पृ. ४७६). ऐसी दशा में उक्त पुस्तक का विक्रमसंबंधी सारा कथन कल्पित ही मानना पड़ता है. २. वास्तव में विक्रम संवत् का प्रारंभ कार्तिक शुक्ला १ से और शक संवत् का चैत्र शुक्ला से है. उत्तरी हिंदुस्तान के भी पंचांग शक संवत् के आधार पर बनने से उनमें वर्ष चैत्र शुक्ला १ से प्रारंभ होता है, जिससे वहांवालों ने पीछे से विक्रम संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से भी मानना शुरू कर दिया हो. उत्तरी भारत के लेखों में संवत् दोनों तरह से (कार्तिकादि और चैत्रादि ) मिल पाते हैं. ई.स. की १२ वीं शताब्दी तक के लेखों में कार्तिकादि संवत् अधिक परंतु १३ वी से १६वीं शताब्दी तक के लेखों में वैशदि अधिक मिलते है (.एँ; जि. २०, पृ. ३६६). .. 'पृथ्वीराजरासे में दिये हुए कितनी पक रनाओं के अशुद्ध संवतों का ठीक होना सिद्ध करने की खींचतान में स्वर्गीय पंडित मोहमलाल विष्णुलाल पंड्या ने पृथ्वीराज के जन्म संवत् संबंधी दोहे (एकादस से पंच दह विक्रम साक अनंद ! तिहि रिपु जय पुर हरन का भय प्रिथिराज नरिंद । मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या संपादित पृथ्वीराजरासा' श्रादिपर्व, पृ.१३%), के 'अनंद' शब्द पर से 'अनंद विक्रम शक' (संवन् ) की कल्पना कर लिखा है कि विक्रम साक अनन्दको Aho 1 Shrutgyanam Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. 'बापासादि। संवत्' कहते घे राजपुताने के उदयपुर आदि राज्यों में राजकीय विक्रम संवत् भव श्रावय कृष्णा (पूर्णिमांत) से प्रारंभ होता है. --शक संवत् . सक संवत् के प्रारंभ के विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर (पैठण) के राजा शालिवाइन (सातवाहन, हाल ) ने यह संयत् चलाया कोई इसका प्रारंभ शालिवाहन के जन्म से मानते हैं. जिनप्रभसूरि अपने 'कल्पप्रदीप नामक पुस्तक में लिखता है कि प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में रहनेवाले एक विदेशी ब्राह्मण की विधवा बहिन से सातवाहन (शालिवाहन) नामक पुत्र उत्पन्न हुधा. उसने उन के राजा विक्रम को परास्त किया. जिसके पीछे उसने प्रतिष्ठानपुर का राजा बन कर तापी नदीक का देश अपने अधीन किया और वहां पर अपना संवत् प्रचलित किया". कम से अनन्द विक्रम क अथवा विक्रम अमंद साक करके उसका अर्थ करो कि नव-रहित विक्रम का शक अथवा विक्रम का नवरहित शक ः ह १००-६018 अर्थात् विक्रम का यह शक कि जो उसके राज्य के वर्ष 101 से प्रारंभ हुआ है। यही थोड़ी सी श्रे.: उत्पेक्षा (?) करके यह भी समझ लीजिये कि हमारे देश के ज्योतिषी लोग जो सैकड़ों वर्षों से यह कहते चले आते हैं और आज भी वृद्ध लोग कहते हैं कि विक्रम के दो संवत् थे कि जिनमें से एक तो अब तक प्रचलित है और दूसरा कुछ समय तक प्रचलित रहय अप्रचलित हो गया है.........अतएव विदित हो कि विक्रम के दो संवत् है। पक तो सनम्ब जो आज कल प्रचलित है और दूसरा आनन्द जो इस महाकाव्य में प्रयोग में पावा है '(पृथ्वीराहरासा. आदि प.पू. १३६). पं. मोहनलाल पंड्या का यह सारा कथन सर्वथा स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि रासे के 'अनंद' शब्द कामर्थ 'श्रानंददाराक 'या'शुभ' ही है जैसा कि भाषा के अन्य काव्यों में मिलता है उसको वास्तविक अर्थ में न लेकर 'विक्रम में राज्य के १० या ६५ वे वर्ष से चलनेवाला अनंद विक्रम संवत् 'अर्थ निकालना हठधर्मी से खाली नहीं है. ज्योतिषियों ने विक्रम के दो संबतो का होना कभी नहीं माना और न किसी वृद्ध पुरुष को ऐसा कहते हुए सुना. पं. मोहनलाल की यह कल्पना भी ठीक वैसी ही है जैसी कि 'राजप्रशस्ति' में खुदे हुए 'भाषारासापुस्तकेस्य' के 'भाष नगर प्राचीनशोधसंग्रह' में छपे हुए अशुद्ध पाठ 'भाषारासापुस्तकेस्य' पर से 'भीखारासा' नामक ऐतिहासिक पुस्तक की कृष्टि खड़ी कर दी गई. पं. मोहनलाल पंड्या के इस मनघत कथन के आधार पर डॉ. प्रीअर्सन (स्मि; अ. हि. है; पृ.४२, टिणण २), बी. ए. स्मिथ (स्मि; अ.हि. पृ. ३८७ टिप्पण २) और डॉ. धार्नेट ने ( वा; ए. ईपृ. १५) 'अनंद विक्रम संवत्'का ई. स. ३३ से चलना माना है परंतु हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि राजपुताने में विक्रम के दो संपतों का होना कभी माना नहीं गया, न यहां से मिले हुए शिलालेखो, दानपत्रों, हस्तलिखित पुस्तकों, भाटो तथा चारणों के लिए भाषा कविता के ग्रंथों या ख्यातों में कहीं भी अनंद विक्रम संवत् का उल्लेख मिलता है, न 'पृथ्वीराजरासे' के उपर्युकदोहे में 'अनंद विक्रम संवत्' की कल्पना पाई जाती है और न 'पृथ्वीराजविजय'महाकान्य से, जो चौहानों के इतिहास का प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तक है, वि. सं. १२२० (ई.स. ११६३ ) के पूर्व पृथ्वीराज का जन्म होना माना जा सकता है. १. आषाढादि विक्रम संवत् शिलालेखों तथा पुस्तकों में मिलता है. अड़ालिज (अहमदाबाद से १२ मीस पर) की बाघड़ी के लेख में 'श्रामन्नपविक्रमसमयातीता(त)भाषाढादिसंवत् १५५५ वर्षे शाके १४९०....माघमासे पंचम्यां लिपी बुधवासरे' (.: जि. २८, पृ. २५१), डंगरपुर राज्य के रेसां गांव के पास के शिवमंदिर के लेख में-श्रामन(न)पविक्रमार्क(क)राज्यसमयातीतसंवत् १६ आपादादि २३ वर्षे याके १४८८ प्रवर्तमाने । युवास्पनाम्नि संवत्सरे....वैशाखमासे । कृष्णपक्षे । प्रतिपति(ति)या ! गुरुवासरे.' डुगरपुर राज्य से मिले हुए कई शिलालेखों में 'आषाढादि' संवत् लिखा मिलता है. 'प्रभासक्षेत्रतीर्थयात्राक्रम' नामक पुस्तक के अंत में-'संवत् १५ प्राषाढादि ३४ बरखे (वर्षे ) श्रावधशुदि ५ बू(भी)मे लिखा मिला है ( ई. में; जि- १८, पृ. २५१ ) २. त्र्यकेन्द्र(१४६३)प्रमिते वर्षे शालिवाहनजन्मतः । कृतस्तपसि मार्तडोऽयमलं जयतूद्गतः (मुहूर्तमार्तड, अलंकार, श्लोक ३). २. यह पुस्तक ई. स. १३०० के आस पास बना था. ४. ज. प. सो. बंध : जि. १०, पृ. १३२-३३. * गगन पाणि पुनि द्वीप ससि ( १७२०) हिम रुत मंगसर मास । शुक्ल पक्ष तेरस दिने बुध वासर दिन जाम ॥२६६ ॥ मरदानो अरु महा बली अषरंग शाह नरिंद । तासु राज महिं हरखतूं रख्या शास्त्र अनंद ॥ २७॥ ( पराग के शिष्य रामचंद्र रचित 'रामविनोद' नामक पुस्तक ). Ahol Shrutgyanam Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संपत्. ११ अन्वेस्नी लिखता है कि 'विक्रमादित्य ने शक राजा को परास्त कर यह संवत् पक्षाया। इस प्रकार इसके प्रबलित किये जाने के विषय में भिन्न भिन्न मत है. पहिले पहिल यह संवत् काठियावाड तथा कच्छ से मिले हुए पश्चिमी चत्रपों के शिका संवत् ५२ से १४३ तक के शिलालेखों में तथा उन्हीं के सिक्कों में, जो शक] संवत् १००(ई.स. १७) के पास पास से लगा कर ३१० (ई.स. ३८८) से कुछ पीछे तक के हैं, मिलता है. उक शिलालेखों में केवल 'वर्षे (संवत्सरे) लिखा मिलता है, 'शक' भादि कोई माम 'बर्षे' (संवत्) के साथ जुगाभा नहीं है, और सिकों में तो कही मिलते है ('वर्षे' भी नहीं.) संस्कृत साहित्य में इस संवत् के साथ 'शक' नाम जुड़ा हुमा (शककाल) पहिले पहिल' बराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका' में शक संवत् ४२७५ (ई.स. ५०५) के संबंध में मिलता है, और शक संवत् ५००(ई.स. ५७८) से लगा कर १२६२ (ई.स.१३४०) तक के शिलालेखों और दामपत्रों में 'शकनृपतिराज्याभिषेकसंवत्सर', 'शकनृपतिसंवत्सर', 'शकनृपसंवत्सर, शकपकाल', शकसंवत्', 'शकवर्ष', 'शककाल' ११, 'शककालसंवत्सर'१२, 'शक' और 'शाक'१० शन्दों का प्रयोग इस संवत् के वास्ते किया हुमा मिलता है जिससे पाया जाता है कि ई. स. ५०० के पास पास से लगा कर शक संवत् १२६२ (ई.स. १३४०)तकतो यह संवत् किसी शक राजा के राज्याभिषेक से चला दुभा या किसी शक राजा अथवा शकों का पलाया दुभा माना जाता था और उस समय तक शालिवाहन का नाम इसके साथ नहीं जुड़ा था. १. सा . जि २, पृ. ६. ५. राहो पाटनस समोतिकपुत्रस राको रुद्रदामस जयदामपुत्रास वर्षे द्विपंचाशे ५९२ फागुणबहुलस द्वितीय बी २ मदनेन किहलपुत्रेण. बहराज्य के अंधौ गांव से मिले हुए हापों के लेखों की स्वर्गीय भाचार्य वक्षमजी हरिदत्त की तय्यार की कापों पर से. राको महाक्षत्रएस्प गुरुभिरभ्यस्तनाम्नो बर्षे विसप्ततितमे ७०२ ( महाशप बद्रदामन के गिरनार के पास के अशोक लेखापाले बहान पर के लेख ले.प. जि.८, पु.१२). .. सिंहसूरिरचित 'लोकषिमाग' नामक संस्कस गध में उक्त पुस्तक का शमाद (शक संवत् ) ३. में बनना लिखा(संवत्सरे तु वाविप कांचीरासिंहवर्मयः । भगीत्यग्ने राकाम्दानां सिझमेत छतत्रये ॥ (मोक्षषिमाग नामक ११ प्रकरण के अंत की प्रशस्ति, श्लोक ४) परंतु यह मूल मंथनहीं किंतु सर्मनदि नामक मुनिनाए प्राकृत ग्रंथका परिषरित संस्कृत अनुवाद भीर स.की ग्यारहवीं शताब्दी के पीछे का बना तुमा क्यों किसमें यतिवृषमरचित 'त्रिलोकपविशति,' राष्ट्रका राजा भमोघवर्ष के समय अर्थात् ई.स.कीबी शताब्दी के बने हुए उत्तरपुराण' तथा स.की २१ीं बतावीकेमास. पास के बने हुए मेमिचंद्ररचित 'त्रिलोकसार' से भी श्लोक उजत किये हुए मिलते है संभव है फिसर्वमंदिका मूल प्राकृत अंध शक संवत् १८० में बना हो, परंतु उसमे इस संवत् के साथ 'शक' नाम माहुमा था पा नहीं सक जप तक मूल पंधन मिलभाये तब तक निस्चयनहीं सकता. ऐसी दशा में ११वीं शताब्दी के पीछे बने तुप लोकषिभाग' के 'सकाम' को शक संवत् का सबसे प्राचीन उमेख नहीं कह सकते. ४. सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चेलशुक्लादी (पंचसिशांतिका १।८. देखो, ऊपर पृ. ११६, रिप्पय *. ५. शकनृपतिराज्याभिषेकसंवत्सरेण्यतिक्रांतेषु पञ्चसु शतेषु (इ. जि. १०, पृ. ५८ के पास का बेट) . शकनृपतिसंवत्सरेषु चस्त्रिाधिकेषु पञ्चस्वतीतेषु भाद्रपामावास्यायां सूर्यग्रहणनिमित्तं (ई. जि. ६, ७३ ). .. एकनृपसंवत्सरेषु शरशिरिखमुनिषु व्यतीतेषु जे(ज्ये)टमासशुरूपचदरम्यां पुष्यनक्षले चंद्रवारे (६. जि. १२. पृ. १६). ८. गकनृपकालातीतसंवत्सरस(ग)तेषु सप्तमु(स) (षो)दयोचरेषु वैशाखव(4)हलामावास्पामावित्पाहणपर्वहि (.: जि. ३, १०) २. शकसंवत् ८१२ वैशाखशुद्धपीयर्णमास्यां महावैश्याल्यां (.: जि. १, पृ. ५६), १. एकादयोचरषट्छतेषु शकवर्षेष्यतीतेषु....कात्तिकपौरर्णमास्यां (1.4 जि.६, पृ. ६). ११. सप्तस(प)त्या नवत्या च समायुक्तेसु(७) सप्तसु [1] (श)ककाळे(जे) श्व(ष्म तीतेषु मन्मपाइयवत्सरे (ज. प. सो. बं. जि. १०, १९. पंचसप्तत्यधिकशककालसंवत्सरशतवटूके व्यतीते संवतात) १७५....माघमासरथसप्तभ्यां (ई. शि. ११, पृ. १९९). ११. एक १९५७ मन्मथसेक्स्सरे श्रावहाबहुल ३.गुरो (की लि.ई.स. पू. ६३, लेखसंख्या ३४८). १४. शाके ११२८ प्रभवसंवत्सरे श्रावणमासे पोपर्णमास्वां ( जि. पू. ३४३). Aho! Shrutgyanam Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन लिपिमाला. इस संवत् के साथ जुड़ा हुआ शालिवाहन (सातवाहन ) का नाम संस्कृत साहित्य में ई. स. की १४वीं शताब्दी के प्रारंभ के आस पास से और शिलालेखादि में पहिले पहिल हरिहर गांव से मिले हुए विजयनगर के यादव राजा बुक्कराय ( प्रथम ) के शक संवत् १२७६ ( ई. स. १३५४ ) के दानपत्र में मिलता है; जिसके पीछे शालिवाहन का नाम लिखने का प्रचार बढ़ता गया. विद्वान् राजा सातवाहन (शालिवाहन) का नाम 'गाथासप्तशती' और 'बृहत्कथा' से साचरवर्ग में प्रचलित था अत एव संभव है कि ई. स. की १४वीं शताब्दी के आस पास दक्षिण के पितानों ने उत्तरी हिंदुस्तान में जलनेवाले संवत् के साथ जुड़े हुए राजा विक्रम के नाम का अनुकरण कर अपने यहां चलनेवाले 'शक' ( शक संवत् ) के साथ दक्षिण के राजा शालिवाहन ( सातवाहन हाल ) का नाम जोड़ कर 'पालिवाहनशक शालिवाहन शक' 'शालिवाहन शकवर्ष 'शालिवाहन शकाब्द' आदि से इस संवत् का परिचय देना प्रारंभ किया हो. ४ ५ १७२ う शालिवाहन, सातवाहन नाम का रूपांतर मात्र है और सातवाहन (पुराणों के 'अनृत्य) वंश के राजाओं का राज्य दक्षिण पर ई. स. पूर्व की दूसरी शताब्दी से ई. स. २२५ के आस पास तक रहा था, उनकी राजधानियों में से एक प्रतिष्ठान मगर ( पेठा, गोदावरी पर) भी थी और उनमें सातवाहन (शालकर्पि, हाल ) राजा बहुत प्रसिद्ध भी था अतएव संभव है कि दक्षिण के विवानों ने उसीका नाम इस संवत् के साथ जोड़ा हो, परंतु यह निश्चित है कि सातवाहनवंशियों में से किसीने यह संवत् नहीं चलाया क्यों कि उनके शिलालेखों में यह संवत् नहीं मिलता किंतु भिन्न भिन्न राजाओं के राज्यवर्ष (सन् जुलूस) ही मिलते हैं और सातवाहन वंश का राज्य अस्त होने के पीछे अनुमान ११०० वर्ष तक शालिवाहन का नाम इस संवत् के साथ नहीं जुड़ा था. इस लिये यही मानना उचित होगा कि यह संवत् शक जाति के किसी विदेशी राजा या शक जाति का चलाया हुआ यह संवत् किस विदेशी राजा ने चलाया इस विषय में भिन्न भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न अटकलें लगाई है. कोई तुरुक (तुर्क, कुशन) वंश के राजा कनिष्क को कोई चत्रप नहपान की, १. देखो, ऊपर पृ. १७० और टिप्पण ३, ४. २. नृपशालिवाहन शक १२७३ ( की लि. ई. स. ई. पू. ७८ लेखसंख्या ४५५) इससे पूर्व के धाया से मिले हुए देवगिरि के यादव राजा रामचंद्र के समय के शक संवत् १९१९ (ईस. १२६० ) के दामपत्र की छपी हुई प्रति मैं ( की। लि. ई. स. ई. पू. ६७, खसंख्या ३७९ ) में 'शालिवाहन शके १९१२' छपा है परंतु डॉ. फ्लीट का कथन है कि एक ताम्रपत्र का पता नहीं है और उसकी कोई प्रतिकृति प्रसिद्धि में आई और जैसे थाना से मिले हुए ई. स. १९७२ के दानपत्र में शालिबाइन का नाम न होने पर भी नल में जोड़ दिया गया वैसा ही इसमें भी हुआ होगा (ज. रॉ ए. सो; ई. स. १११६, पृ. ८१३). ऐसी दशा में उक्त ताम्रपत्र को शालिवाहन के नामवाला सब से पहिला लेख मान नहीं सकते. देखो इस पृष्ठ का दि. २. शालिवाहन शक १४५८मा विहस्य साहले चतुयतेः शालिवाहन शक १४७६ १०.६४ ). १४ १२६६ त्रासयुक्त संख्याते गणितक्रमात् ॥ श्रीमुखीसरे आये माये चातिरके शिव थंब. जि. १२. पू. ३८४ ). 4 रात्रा महातियां (पु)यकाले शुभे दिने (ज. प. सो 4. सातवाहन खालवाहन शालिवाहन. 'शालो हाले मास्यनंद सानपानार्थिने ( म अनेकार्यकोश). सालाहाम्म हालो ( देशीनानमाला वर्ग ८ श्लोक ६६) शालिवाहन, शालवाहन, सालवाहगा, सालवाहन, सालाडण, सातवाहन. हालेत्येकस्य नामानि ( प्रबंधचिन्तामणि, पृ. ८ का टिप्पण ). गाथासप्तशती के अंत के गद्यभाग में सातवाहन राजा को शासक (शातकणि) भी कहा है ( डॉ. पीटर्सन की ई.स.१६ की रिपोर्ट . ३४६) पुराणों में मिलनेवाली सृत्य (सातवाहन वंश के राजाओं की नामावली में शातकाल, शातकर्ण यशश्रीशातकर्णिकुंतला आदि नाम मिलते है. वास्स्यायन के 'कामसूत्र' में शातकर्णि सातवाहन का कर्तश ( कैंची ) से महादेवी मलयवती को मारना लिखा है- कर्तर्या कुतः पातकादिः यातवाहन महादेवी मलपती [जयान ] ( निर्णयसागर प्रेस का छपा हुआ पृ. १४५ ). नासिक से मिले हुए वासिष्ठीपुत्र पुळुमाथि के लेख में उसके पिता गौतमीपुत्र सातकर्णिका शक, यवन और परहों को नष्ट करमा तथा लबरात वंश ( अर्थात् क्षत्रप महान के वंश ) को निरवशेष करना लिखा है ( ई. पू. ६०) उसी लेख से यह भी पाया जाता है कि उसके अधीन दूर दूर के देश थे. गौतमीपुत्र शतक सातवाहन वंश में प्रतल राजा हुआ था अतएव संभव है कि शक संवत् के साथ जो शातिवाहन (सातवाहन का नाम जुड़ा है वह उसीका सूचक हो और 'गाथासप्तशती', 'बृहत्कथा', तथा 'कामसूत्र' का सातवाहन भी वही हो. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् कोई शक राजा ननस् को और कोई शक राजा अय (म=Azes) को इसका प्रवर्तक मानते हैं परंतु ये सब अनुमान ही हैं, निश्चित रूप से इसके प्रचारक का नाम अब तक ज्ञान नहीं हुमा. गत शक संवत् में ३१७६ जोड़ने से कलियुग संवत्, १३५ जोड़ने से गत चैत्रादि विक्रम संवत् और ७८ (अंत के करीब तीन महीनों में ७)जोड़ने से ई. स. भाता है. यह संवत् बहुधा सारे दक्षिण में (तिमेवेरिल और मलबार प्रदेशों को छोड़ कर) प्रचलित है. उत्सरी हिंदुस्तान में पंचांग, जन्मपत्र और वर्षफल मादि में विक्रम संवत् के साथ यह भी लिखा जाता है और वहां के शिक्षालेखादि में भी कभी कभीसके वर्ष लिखे मिलते हैं. इसका प्रारंभ चैत्र शुक्खा १ से होता है. इसके महीने उसरी हिंदुस्तान में पूर्णिमांत, और दक्षिण में अमांत माने जाते हैं. दक्षिण के जिन हिस्सों में सौर मान का प्रचार है वहां इसका प्रारंभ मेष संक्रांति से होता है. करण ग्रंथों के आधार पर पंचांग बनानेवाले सारे भारतवर्ष के ज्योतिषीसी संवत का माश्रय देते हैं. पंचांगों में इसके वर्ष गत ही लिखे रहते हैं. शिलालेख और दानपत्रों में भी विशेष कर गत वर्ष ही लिस्खे मिलते हैं वर्तमान वर्ष कम. -कलचुरि संवत् कलचुरि' संवत् को 'दि संवत्' और 'कूदक संवत्' भी कहते हैं. यह संवत् किस राजा ने चलाया इसका कुछ भी पता नहीं चलता. डॉ. भगवानलाल इंग्रजी ने महाक्षत्रप ईश्वरदत्त को' और डॉ. प्लीट ने अभीर ईश्वरदत्त या उसके पिता शिवदस' को इसका प्रवर्तक बतलाया है. रमेशचंद्र मजुमदार ने इसको कुरान(तुर्क)वंशी राजा कनिष्क का चलाया हुमा मान कर कनिक, वासिष्क, इविष्क और बासदेव के लेखों में मिलनेवाले वर्षों का कलचुरि संवत् का होना अनुमान किया है. परंतु ये सब अटकलें ही हैं और इनके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है यह संवत् दक्षिणी गुजरात, कोंकण एवं मध्यप्रदेश के लेखादि में मिलता है. ये लेख गुजरातभादि के चालुक्य, गुर्जर, सेंद्रक, कलचुरि और त्रैकूटक वंशियों के एवं चेदि देश (मध्यप्रदेश के उत्तरी हिस्से) पर राज्य करनेवाले कलचुरि(हैहयवंशी राजाभों के हैं. इस संबत्वाले अधिकतर लेखकलारियों (हयों) के मिलते है और उन्ही में इसका नाम 'कलचुरि' या 'चदि' संवत लिखा मिलता जिससे यह भी संभव है कि यह संवत् उक्त वंश के किसी राजा ने चलाया हो. त्रिपुरी के कलपुरि राजा नरसिंहदेव के दो लेखों में कलचुरि संवत् १०७. और 808 और तीसरे में विक्रम संवत् १२१६० मिलने से स्पष्ट है कि कलचुरि संवत् १०६, विक्रम संवत् १२१६ के निकट होना चाहिये. इससे विक्रम संवत् और कलचुरि संवत् के बीच का अंतर (१२१६-808-) ३०७ के लगभग पाता है. डॉ. कीलहान ने कलचुरि संवत्वाले शिलालेख और दानपत्रों के महीने, तिथि और पार भादि को गणित से जांच कर ई. स. २४६ तारीख २६ ऑगस्ट अर्थात् वि. सं. ३०६ १ कलचुरिसंवत्सरे ८१३ राजश्रीमत्पृथ्वीदेवरािज्ये) ( एँ; जि. २०, पृ. ८४). कलचुरिसंवत्सरे ११० राजश्रीमत्पृथ्वीदेवविजयराज्ये (का मा. स. रिजि. १७, प्लेट २०). २. नवस(ग)तयुगलान्दाधिक्यगे चेदिदिष्टे जान]पदमवतीमं श्रीगयाकरणदेवे । प्रतिपदि शुचिमासश्वेतपक्षेछवारे शिवचरणसमीपे स्थापितेयं प्रशस्तिः ॥ ( ; जि. १८, पृ. २११). चेदिसंवत् ११३ (ई.एँ, जि. २९, पृ.८२). १. ढेकूटकानां प्रबर्द्धमानराज्यसत्वत्सरगतद्वये पञ्चचत्वारिंशदुत्तरे ( केघटेपल्स ऑफ वेस्टर्न रिमा, पृ. ५८ और मेट ). ...रॉ. ए. सोः ई. स. १६०५, पू. ५६६. डॉ. भगवानलाल इंद्रजी ने नासिक के लेखबाले अभीर रेश्वरसेन और महाशत्रप सिरदर को. जिसके केवल पहिले और दूसरे राज्यवर्ष के सिक्के मिलते हैं. एक ही माना था • अ. रॉ.ए. सो; ई. स. १६०५, पृ. ५६८० ई. जि. ४६,पृ. २६६-७०. ८ . जि. १८, पृ. २१२-१३. ...ईं; जि.१८, पृ. ११४. Ahol Shrutgyanam Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाता. माग्विन शुक्ला ११ से इसका प्रारंभ होना निश्चय किया है जिससे वर्तमान चेदि संवत् में २४८-४६ जोड़ने से ईसवी सन् , और ३०५-६ जोड़ने से गत चैत्रादि विक्रम संवत् पाता है. इस संपत्वाला सब से पहिला लेख कलचुरि संवत् २४५ (ई. स. ४६४) का और अंतिम १५८" (ई.स. १२०७ ) का मिला है, जिसके पीछे यह संवत् अस्त हो गया. इसके वर्ष बहुधा बर्तमान लिखे मिलते हैं. १०-गुप्त संवत् इस संवत् के लिये शिलालेखादि में 'गुप्तकाल', 'गुसवर्ष भादि शब्द लिखे मिलते हैं जिससे पाया जाता है कि यह संवत् गुप्तवंशी किसी राजा ने चलाया हो. इस विषय का लिखित प्रमाण तो मष तक नहीं मिला, परंतु समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के लेख में गुप्त वंश के पहिले दो राजामों (गुप्त और घटोत्कप) के नामों के साथ केवल 'महाराज'' बिरुद और घटोत्कच के पुत्र चंद्रगुप्त (पहिले) के नाम के साथ 'महाराजाधिराज' विरुद लिखा रहने तथा चंद्रगुप्त (प्रथम) के पौत्र और समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त ( दूसरे ) के समय के गुप्त सं.८२ से ६३ तक के शिलालेखों के मिलने से विद्वानों का यह अनुमान है कि गुप्तवंश में पहिले पहिल चंद्रगुप्त (पहिला) प्रतापी राजा हुना हो और उसके राज्य पाने के समय से यह संवत् चला हो. गुप्तों के पीछे काठिमावास में सभी के ...: जि. १७, पृ. २१५. . . जि. १. पृ. २६६. ५ मानिसमा से लगा कर माघ के प्रारंभ के मासपास तक अर्थात् जमघरी मास के लगने से पहिले के कुछ महीनों में ही इ.स. और वर्तमान कलधुरि संवत् का अंतर २४८ रहता है पाकी अधिकतर महीनों में २४६ रहता है। ..करी से मिलामा ताम्रपत्र (केवरपरस मोफ बेस्टन विभा, पृ.५८). १. कमा . स. विजि . २९. प. १०२, मेट २७. ..: जि. १७. पू. २१५. टिप्पण ५. १. संवत्सराणामधिके एते तु विनिरन्यैरपि षडभिरेव । रालो दिने प्रौष्ठपदस्य षष्ठ गुप्तप्रकाले गणनां विधाय ........वर्षयतेष्टालिये गुप्तानां काल....(गिरनार के पास के अशोक के लेखवाले बदाम पर खुपे हुए स्कंदगुप्त के समय के लेख से. ती; गु. है। पू. ६०, ६१). मोरपी (काठिमावाद में) से मिले हुए गुप्त संवत् ५८५ के दानपत्र में पंचाशीत्या युतेतीते समानां सतपंचके । गौते दवाबदो नृपः सोपरागेकमंडले' (. जि. २.१ २५८). वर्षगते गुप्तानां सचत:पंचाशदुत्तरे भूमिम् । सासति कुमा गुप्ते मासे ज्येष्टे द्वितीयायाम् (सारनाथ से मिली हुई बुद्ध की मूर्ति के पासन पर का लेख. मं. कॉ. घों, पृ. २०३). गुप्तान समतिकांते सप्तपंचाशदुत्तरे । शते समाना पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति ( सारनाथ से मिली हुई न की मूर्ति के पासन पर का लेख. मं. कॉ. बों; पृ. २०३). परिमाजक महाराज हस्तिन् के गुप्त संवत् १६१ के दानपत्र में 'एकनवत्युत्तरेन्दशते गुप्तनृपराज्यभुक्तौ श्रीमति प्रबर्धमानमहाचैत्रसंबवि)त्सरे माधमासबहुलपक्षतृतीयायाम् ' ( फ्ली; गु. ई. पू. १०७ ) लिखा मिलता है, मौर अपनी अपने मूल भरवी पुस्तक में गुबत्काल, या 'गुखितकाल' (गुप्तकाल) ही लिखता है (पली; गु.ई भूमिका, पृ. २९, १०) .. 'पिय 'महाराज' का प्रयोग सामंत के लिये होता था. मेयाड़ के गुहिल राजा अपराजित के समय के वि.सं. के लेख में उसको 'राजा' और उसके सेनापति बराहसिंह को 'महाराज' लिखा है (., जि.४, पृ. ३१), परंतु कौज प्रतिहारों के बामपनों मैं यही विष उन प्रबल स्वतंत्र राजानों के नामों के साथ लगामा भी मिलता है (ई.; जि. १५, पृ. ११२, १४०: , जि. ५, पृ. २११-१२). . क्ली; गु. पृ. २५. फ्ली; गु. पृ. ३१-३२. ... चंद्रगुप्त ( दूसरे)का सबसे पिला शिलालेख गुप्त संवत् ३ का और उसके पुत्र कुमारगुप्त (पहिले)का सब से पहिला शिलालेख गुप्त संवत् १६ का मिला है. जिससे चंद्रगुप्त (दूसरे) राज्य की समाप्ति गुप्त संपत् ५ के भासपास होनी चाहिये. गुम संवत् का प्रारंभ चंद्रगुप्त (पहिले) के राज्य पाने के समय से मानने से उन तीन राजाओं ( चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त दूसरे )का राजत्वकाल करीब ५ वर्ष मानना पड़ता है जो सरसरी तौर से देखने वालों को प्राधिक प्रतीत होगा परंतु तीन राजाओं के लिये यह समय अधिक नहीं है क्यों कि महर, जहांगीर और शाहजहां नवीन पादशाहो का राजत्वकाल १०१ (ई.स. १४४६-१६४८) वर्ष होता है. Aho! Shrutgyanam Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् राज्य का उदय हुभा जिसके मस्त होने के पीछे यहांवालों ने गुप्त संवत् का ही माम 'बलमी संवत्' रक्खा . अल्बेरुनी लिखता है कि वलभीपुर के राजा बलम के माम से उसका संवत् पलमी संवत् कहलाया. यह संवत् शक संवत् के २४१ वर्ष पीछे शुरू हुमा है. शक संवत् में से ६ का धन और ५का वर्ग (२१६+२५-२४१) घटाने से वलभी संवत् रह जाता है. गुप्तकाल के विषय में लोगों का कथन है कि गुप्त लोग दुष्ट [और] पराक्रमी थे और उनके नष्ट होने पर भी लोग उनका संवत् लिखते रहे. अनुमान होता है कि बलभ उन (गुप्तों) में से अंतिम था क्यों कि बल भी संवत की नाई गुप्त संवत् का प्रारंभ भी शक काल से २४१ वर्ष पीछे होता है. श्रीहर्ष संघत् १४८८, विक्रम संवत् १०८८, शककाल ६५३ और बलभी तथा गुप्तकाल ७१२ ये सय परस्पर समान हैं. इससे विक्रम संवत् और गुप्तकाल का अंतर (१०८८-७१२%) ३७६ माता अर्थात् गुप्त संवत् में ३७६ मिलाने मे चैनादि विक्रम संवत्, २४१ मिलाने से शक संवत् और ३१९-२० मिलाने से ई.स. पाता है. गुजरात के चौलुक्य अर्जुनदेव के समय के वेरावल (काठियावाड़ में) के एक शिलालेख में रसूल महंमद संवत् (हिजरी सन् ) ६६९, विक्रम संवत् १३२०, वलभी संवत् ६४५ और सिंह संवत् १५१ आषाढ़ कृष्णा १३ रविवार लिखा है. इस लेख के अनुसार विक्रम संवत् और बलभी (गुप्त) संवत् के बीच का अंतर (१३२०-६४५ = ) ३७५ माता है परंतु यह लेख काठियावाड़ का होने के कारण इसका विक्रम संवत् १३२० कार्तिकादि है जो चैत्रादि १३२१ होता है जिससे क्षेत्रादि विक्रम संवत् और गुप्त ( बलभी) संवत् का अंतर ३७६ ही पाता है जैसा कि ऊपर लिखा गया है. चैत्रादि पूर्णिमांत विक्रम संवत् और गुप्त ( बलभी) संवत् का अंतर सर्वदा ३७६ वर्ष का और कार्तिकादि अमांत विक्रम संवत् और गुप्त ( वलभी) संवत् का अंतर चैलशुक्ला १से पाश्विन कृष्णा अमावास्या तक ३७५ वर्षे का और कार्तिक शुक्ला १ से फाल्गुन कृष्णा अमावास्या तक ७६ वर्ष का रहता है. गुस संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से और महीने पूर्णिमांत हैं. इस संवत् के वर्ष बहुधा गत लिम्बे मिलते हैं और जहां वर्तमान लिखा रहता है यहां एक वर्ष अधिक रहता है. १. काठियावाड़ में गुप्त संवत् के स्थान में वलभी संवत्' लिखे जाने का पहिला उदाहरण ऊना गांव (जूनागढ़ राज्य में से मिले हुए कनौज के प्रतिहार राजा महेंद्रपाल के चालुक्यवंशी सामंत बलवर्मन् के बलभी संवत् ५७४ (ई. स. ८१४) माघ शुद्ध ६ के दानपत्र में मिलता है ( . ई: जि. ८. पृ.६) १. अल्बरुनी ने 'बलभी संवत्' को वलभीपुर के राजा वलभ का चलाया हुआ माना है और उक्त राजा को गुप्त वंश का अंतिम राजा बतलाया है परंतु ये दोनों कथन ठीक नहीं है क्योंकि उक्त संवत् के साथ जुड़ा हुआ 'वलभी' नाम उक नगर का सूचक है न कि वहां के राजा का, और न गुप्त वंश का अंतिम राजा वलभ था. संभव है कि गुप्त संवत् के प्रारंभ से ७०० से अधिक वर्ष पीछे के लेखक अल्बेरुनी को 'बलभी संवत्' कहलाने का ठीक ठीक हाल मालूम न होने के कारण उसने ऐसा लिख दिया हो अथवा उसको लोगों ने ऐसा ही कहा हो. .. सा; अ.: जि. २, पृ. ७. फ्ली: गु: भूमिका, पृ. ३०-३६ ४. रसूलमहमदसंवत् ६६२ तथः श्रीनृवि क्रमसं १३२० तथा श्रीमद्वलभीसं ५५ तथा श्रीसिंहसं १५१ वर्षे आषाढवादि १३ खो (.५: जि. ११, पृ. २४२), बेरायल के उक्त खेख के विक्रम संवत् को कार्तिकादि मानने का यह भी कारण है कि उसमें लिखा हुमा हिजरी सन् ६६२ चैत्रादि विक्रम संवत् १३२० मार्गशीर्ष शुक्ला २ को प्रारंभ हुआ था, अतएव हि. स. ६६२ में जो आपराद मास माया यह चैत्रादि वि. सं. १३२९ ( कार्तिकादि १३२०) का ही था. खेड़ा से मिले हुए बलभी के राजा धरसेन ( चौथे) के गुप्त संवत् ३३० के दानपत्र में उक्त संवत् में मार्गशिरमास अधिक होना लिखा है ( सं. ३०० ३० द्विमार्गशिरशु२. ई. ए. जि. १५, पृ. ३४० ). गत गुरु संघत् ३३० गत विक्रम संवत् ( ३३०+३७६%) ७०६ के मुताबिक होता है गत विक्रम संवत् ७०६ में कोई अधिक मास नहीं था परंतु वि. स. ७०५ में मध्यम मान से मार्गशिर "म अधिक भाता है इस लिये उक्त ताम्रपत्र का गुप्त संवत् ३३० बर्तमान (३२१ गत) होना चाहिये. Ahol Shrutgyanam Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. पहिले यह संवत् नेपाल से काठियावाड़ तक चलता था. इसका अंतिम लेख बलभी (गुप्त) संवत् ६४५ (ई. स. १२६४) का मिला है जिसके पीछे इसका प्रचार विलकुल हो उठ गया. ११-गांगय संवत् कलिंगनगर (मुखलिंग, मद्रास हाते के गंजाम जिले में पाकिमेडी से २० मील पर) के गंगावंशी राजामों के कितने एक दानपत्रों में 'गांगेय संवत्' लिखा मिलता है. यह संवत् गंगावंश के किसी राजा ने चलाया होगा परंतु इसके पलानेवाले का कुछ भी पता नहीं चलता. गंगावासयों के दानपत्रों में केवल संवत्, मास, पक्ष और तिथि (या सौर दिन)दिये हुए होने तथा धार किसी में न होने से इस संवत् के प्रारंभ का ठीक ठीक निश्चय नहीं हो सकता.. __मद्रास हाते के गोदावरी ज़िले से मिले हुए महाराज प्रभाकरपद्धन के पुत्र राजा पृथ्वीमूल के राज्पवर्ष (सन् जुलस)२५वें के दानपत्र में लिखा है कि मैंने मितवर्मन के प्रिय पुत्रदाधिराज की. जिसने अन्य राजाभों के साथ रह कर इद्रमवारक को उखाड़ने में विजय पाकर विशुद्ध यश प्राप्त किया था, प्रार्थना से पिपाक नामक गांव ब्रास्पषों को दान किया'९. यदि उक्त दानपत्र का इंद्रभधारक पक नाम का वेंगी देश का पूर्वी चालुक्य (सोलंकी) राजा हो, जैसा कि डॉ. फ्लीट ने अनुमान किया है, तो उस घटना का समय है. स. ६६३ होना चाहिये, क्यों कि उक्त सन् में बेंगीदेश के चालुक्य राजा जयसिंह का देहांत होने पर उसका छोटा भाई इंद्रभहारक उसका उत्तराधिकारी हुमा था' और केवल ७ दिन राज्य करने पाया था. ऐसे ही यदि बाषिराज को बेंगीदेश के पड़ोस के कलिंगनगर का गंगावंशी राजा इंद्रवर्मन् (राजसिंह ), जिसके दानपत [गांगेय ] संवत् ८७ और ६१ के मिले हैं, अनुमान करें, जैसा कि गॅ. सीट मे माना है, तो गांगेय संवत् ८७ ई. स. ६६३५ के जगमग होना चाहिये. परंतु इंद्रमारक के साप के युद्ध के समय तक इंद्राधिराज ने राज्य पाया हो . मागेपवस्स(वंशसंबछ(सरगतप्रयेकपबास(ग)त (कलिंग के गंगावंशी राजा सत्यवर्मदेव के गांगेय संवत् ३५१ के दानपत्र से... जि. १४, पृ. १२). मासोपवरण (वय)प्रपर्वमानविनयराज्यसंवकरसतातथि चतुरोतरा ( "संवत्सरयतानि सीखि चतुरुचराणि) (गंगावंशी महाराज राजेद्रवर्मन् के पुत्र मनतवर्मदेव गांगेय संवत् ३०४ के दामपत्र से. ए. जि. अ.ए.सो. जि. १६, पृ. ११६-१७. * गौः सो.प्रा. भाग,पृ. १४२. .. एँ जि.१७, १२०. .डॉ० पार्नेट ने ई. स. ५६० से गांगेय संवत् का चसना माना है ( वा ५. पृ. ६५) परंतु उसके लिये कोई प्रमाण नही दिया. रेखा मानने के लिये कोई प्रमास भव सक न मिलने से मैंने डॉ. दानेंद को लिखा कि 'मापने ई. स. १० से गांगेय संबद का बलमा जिस आधार पर माना है बह कृपा कर मुझे सूचित कीजिये.' इसके उत्तर में विद्वान् ने अपने ता. २ पमिल है. स. १९१८ प में लिखा कि 'एन्साकोपीरिमा प्रिटेंनिका मेबपे हुए डॉ. पतीट के हिंदु कॉनॉलॉजी' (हिंदुओं की कालगणना) नामक लेख के आधार पर यह लिखा गया है'. डॉ. पलीट ने अपने उक्क लेख में लिखा है कि लेखों में जो भित्र मित्र वृत्तान्त मिलते हैं उनसे गंगावेशी राजामौ की उत्पति पश्चिमी भारत में होना पाया जाता है और उनके संवत् का प्रारंभ ई. स. ५६० से होना मामा जा सकता है जबकि सत्याभय भुवराज-द्रवर्मन में, जो गंगावंश के पहिले राजा राजसिंह द्रवर्मन् का पूर्वपुरुष और संभवतः उसका वादा था, चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन् (पहिले)के अधीन कोंकर प्रदेश में शासन करना प्रारंभ किया था' (प. मि दि. १३, पृ.४५६:१९ संस्करण). ऑक्सीट का उपर्युक्तधन भी ठीक नहीं माना जा सकता क्यो कि उसका सारामाधार सत्याभव भुपराज-धर्म के गोवा से मिले हुए बामपर पर ही है, जिसका सारांश यह है कि रेवती शीप में रहनेवाले चार शिक्षा अधिपति (शासक)पूरशी सस्याभय-भुवराज-द्रवमन् पृथ्वीराम महाराज (चालुक्य राजा मंगबीबर) की मात्रा से विजयरावसंघस्सर २०भर्याद शाम ५३२ माघ मुदि १५ के दिन बेटाहार देश का कारेलिका गांव शिवार्य को दान किया' (ज.प. तो. जि. १०, पृ. १६४). प्रथम तो इस दामपत्र से सत्याभय भुवराज-इपर्म का गंगावंगी होना ही पाया नहीं जाता क्यों कि वह अपने को पूरबंशी सिखाता है और बापूरवंश तथा गंगापंश Aho! Shrutgyanam Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संपत्. ऐसा पाया नहीं जाता. इस लिये उपर्युक ई. स. १६३ की घटना गांगेय संवत् ८७ से कुछ पूर्व की होनी चाहिये. यदि ऊपर के दोनों अनुमान ठीक हो तो गांगेय संवत् का प्रारंभ ई, स. (१६६-८७ =) ५७६ से कुछ पूर्व अर्थात् ई. स. ५७० के पास पास होना चाहिये, परंतु जब तक अन्य प्रमाणों से इस संवत् के प्रारंभ का ठीक मिणेय महोतब तक हमारा अनुमाम किया सुमा इस संबत् के प्रारंभ का यह सन् भी अनिश्चित ही समझना चाहिये. गांगेय संबत्वाले दानपत्रों में सबसे पहिला गांगेय संवत् ८७ का और सबसे पिछला ३५१ का है. यह संवत् ३५० वर्ष से कुछ अधिक समय तक प्रचलित रह कर भस्त हो गया. १२-हर्ष संवत् यह संपत् थानेश्वर के पैसवंशी रामा हर्ष ( श्रीहर्ष, हर्षवर्द्धन, शीलादिस्य) के राज्यसिंहासन पर बैठने के समय से चला हुमा माना जाता है परंतु किसी लेख में इस संवत् के साथ हर्ष का नान सुहामाय तक नहीं मिला. स्वयं राजाहर्ष के दोनों दानपलों में भी केवल 'संपत'ही लिखा है. मल्बेरुनी लिखता है कि 'मैंने कश्मीर के एक पंचांग में पता है कि श्रीहर्ष विक्रमादित्य से ६६४ वर्ष पीछेमार यदि मस्येही के इस कथन का अर्थ ऐसा समझा जाये कि विक्रम संवत् ६६४ से हर्ष संवत् का प्रारंभ हुमा है तोहर्ष संवत् में ६६३ जोड़ने से विक्रम संवत् तथा ६०३-७ जोरने से ईसवी सन होगा. नेपाल के राजा अंशुवर्मन के लेख में संवत् ३४ प्रथम पौष शुक्ला २ लिखा है. संभव है कि जह लेख का संवत् हर्ष संघत् हो. कैंब्रिज के प्रोफेसर ऍडम्स और विएना के डॉक्टर आम ने हर्ष संयात् • ई. स. ६०६ (वि. सं. १६३ ) मान कर गणित किया तो 'ब्रह्मसिद्धांत के अनुसार ई. स. ६४० मर्थात् वि. सं १९७ में पौष मास अधिक माता है. इससे भी वि. सं. और हर्ष संवत् के बीच का अंतर (३६७.३४%) ६६३ तथास. और हर्ष संवत् का अंतर ३०६ माता जैसा कि ऊपर लाया गया है. यह संवत् पहुधा संयुक्त प्रदेश तथा नेपाल में करीब ३०० वर्षे प्रचलित रह कर अस्त हो गया, भल्बेनी ने विक्रम संवत् १०८८ के मुताधिक जिस भीहर्ष संवत् १४८८ का होना लिया है (देखो, अपर प. १७५)ह इस वर्ष संवत् से मिल होना चाहिये परंतु उसका प्रचलित होना किसी शिलालेख, दानपत्र या पुस्तक से पाया नहीं जाता. - - का एक होना अब तक कहीं लिखा नहीं मिला. दूसरी भापति यह है दि. उस वामपत्र में लिखे हुए राज्यवर्ष २० को डॉ. फ्लीट ने उक सामंत का राज्यवर्ष मानकर उसके राज्य (शासन)का प्रारंभ शक संवत् ( ५३२-२००) ५१२ अर्थात् ई.स. ५० होना स्थिर कर वहीं से गांगेय संवत् का प्रारंभ मान लिया है, परंतु रेवती बीप मंगलीहर में ही विजय किया धा (गी। सो. प्रा. पृ. २३) स लिये उकवानपत्र का राज्यषर्ष उक्त सामंत का नहीं किंतु उसके स्वामी मंगभीश्वर का ही होना चाहिये जैसा कि डॉ० सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर का मानना है. सोसरी बात यह है कि उक सामत का कोकण से गंजाम जिले में जाकर मषीन राज्य स्थापित करना मानने के लिये भी कोई प्रमाण नहीं मिलता. पेसी दशा मे डॉ. फ्लीट का गगिय संवत्संबंधी कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता. ६. बलसंडा से मिले हुए राजा हर्ष के कान पत्र में 'संवत् २० १ (२२) कार्तिक पदि १' (. जि. पृ.२११) और मधुपम से मिले हुए दानपत्र में 'संवत् २० ५ (२५) मार्गशीर्षत्रादि ( जि. १.१.७९) लिकाई. ३. संवत् १०४(318) प्रथमपोषकदितीयायाम् (की लि... पु. ७५, लेखसंसा.), Aho! Shrutgyanam Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्राचीनलिपिमाला. १३-भाटिक ( मट्टिक) संवत् भाटिक (मटिक) संवत् जैसलमेर के दो शिलालेखों में मिला है. भट्टि या भट्रिक (भाटी) नामक राजा जैसलमेर के राजाओं का प्रसिद्ध पूर्वज था जिसके नाम से उसके वंशज भाटी कहलाये. यह संवत् राजा भधिक (प्राटी) का चलाया हुआ होना चाहिये जैसलमेर के लक्ष्मीनारायण के मंदिर के शिलालेख में, जो वहां के राजा वैरिसिंह के समय का है, वि. सं. १४६४ और माटिक संवत् ८१३ लिखा है। जिससे वि. सं. और भाटिक संवत का अंतर (१४६४-८१३%) ३८१ आता है. वहीं के महादेव के मंदिर के लेख में, जो रावल भीमसिंह के समय का है, वि. सं. १६७३, शक संवत् १५३८ और भाटिक संवत् ११३ मार्गशीर्ष मास लिखा है. इस हिसाब से वि.सं. और माटिक संवत के बीच का अंतर (१६७३-६४ ) १८० माता है. इन दोनों लेखों से पाया जाता है कि भाटिक संवत् में ६८०-८१ मिलाने से विक्रम संवत् और ६२३-२४ मिलामे से ई. स. नाता है, अभी कत जैसलमेर राज्य के प्राचीन लेखों की खोज बिलकुल नहीं हुई जिससे यह पाया नहीं जाता कि कब से कब तक इस संवत् का प्रचार रहा. १४.-कोलम् ( कोलंब ) संवत् इस संवत् को संस्कृत लेखों में कोलंब संवत् (वर्ष) और तामिळ में 'कोल्लम् मांड' (कोल्लम्-पश्चिमी, और आई-वर्ष) अर्थात् पश्चिमी [ भारत का ] संवत् लिखा है. यह संवत् किसने और किस घटना की यादगार में चलाया इस विषय में कुछ भी लिखा हुमा नहीं मिलता. इसके वर्षों को कभी 'कोल्लम् वर्ष और कभी 'कोल्लम के उर्व से वर्ष लिखते हैं, जिससे भनुमान होता है कि भारत के पश्चिमी तट पर के मलबार प्रदेश के कोल्लम् (किलोन, द्रावनकोर राज्य १. वारण रामनाथ रहनू ने अपने इतिहास राजस्थान में भाटीजी (भाडिक, भाटी) का समय वि. सं. ३३६-३१२ लिया . २३२) जो सर्वथा मानने योग्य नहीं है. ऐसे ही भारीजी और देवराज के बीच के राजामों की नामावली पर्व देवराजकाममय बि. सं.१०४ से १०३० लिखा हे (प. २३८)वह भी ठीक नहीं है, क्यो कि जोधपर से मिलेप प्रतिहार बाउक के पि. सं. ८६४ के लेख से पाया जाता है कि महिक (भाटी) देवराज को याउक के पांखये पूर्वएयर शीलक परास्त किया था। की लि. ई. मो. ई.पू. ४७, लेखसंख्या ३३०), पाठक वि. सं. REY में विद्यमान था. पाक से शीलकसक (शीलुक, कोट, भिलादिस्य, कक मीर बाउक) प्रत्येक राजा का राजस्वकालमीसत हिसाब से २० वर्ष मामा जाये तो शीलुक का घि. सं. १५ के पास पास विद्यमान होना स्थिर होता है और उसी समय मटिक (भाटी) देवराज भी विद्यमान होना चाहिये. देषराज का ७षां पूर्वपुरुष मष्टिक (भाटी)धा (भाटी मंगलराष, मजमराब, केहर, तनो या तनुजी, विजयराज और देवराज-मेजर अर्सकिन् का जैसलमेर का गॅजेरिभर, प.-१०, और देवल संख्या ५), यदि इन राजामो का राज्यसमय भी श्रीसत हिसाब से २० वर्ष माना जाये तो भहिक (भाटी) की गारीमशीनी का समय वि. सं. १८०के करीब मा जाता है. इसलिये भाटिक (भहिक) संवत्को राजा भधिक का असया ला मामले में कोई वाधा नहीं है, चाहे वह उह. राजा के राज्याभिषेक से चला हो वा उस राजा ने अपने समय की किसी अन्य घटना की यादगार में चलाया हो. १. संवत् श्रीविक्रमार्कसमयातीतसंवत् १४६४ वर्षे भाटिके मंवत् ८१३ प्रवतमान महामांगल्य........चंद्रे (प्रॉ. श्रीधर पार. भंडारकर की संस्कृत पुस्तकों की तलाश की ई. स. १९०४-५ और १९०५-६ की रिपोर्ट, पृ. ६५). स्वस्ति श्रीनृपविक्रमादिता(त्य)प्तमयाात(तीत संवत् १९७३ रामाश्वभूपती वर्षे शाके १५३८ यसुरामशरके प्रवत्तमन(र्तमान) भाटिक र मान)शिर....( उपर्युक्त रिपोर्ट, पृ. ६). श्रीमत्कोलंबवर्षे भवति गुणमणिश्रेणिरादित्यवर्मा बञ्चीपालो (रजि.२, पृ. १६०). Aho 1 Shrutgyanam Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत्. में) नामक प्राचीन नगर से, जिसको संस्कृत लेखक 'कोलंबसन' लिखते हैं, संबंध रखनेवाली किसी घटना से यह संवत् चला हो मलवार के लोग इस को 'परशुराम का संवत्' कहते हैं तथा १००० वर्ष का चक्र, अर्थात् १००० वर्ष पूरे होने पर वर्ष फिर से प्रारंभ होना, मानते हैं और वर्तमान चक्र को चौथा चक्र बतलाते हैं परंतु ई. स. १८२५ में इस संवत् या चक्र के १००० वर्ष पूरे हो जाने पर फिर उन्होंने से वर्ष लिखना शुरू नहीं किया किंतु १००० से आगे लिखते चले जा रहे हैं जिससे GE १. कोल्लम् ( किलोन ) एक प्राचीन नगर और बंदरगाह है. दक्षिणी भारत के पश्चिमी तट पर का व्यापार का प्रसिद्ध स्थान होने के कारण पहिले मिसर, यूरप श्ररथ, चीन आदि के व्यापारी वहां माल खरीदने का श्राया करते थे. ई. स. की ७वीं शताब्दी के स्टोरिअन पादरी जेसुजवस ने किलोन का उल्लेख किया है. ई. स. ८५९ के श्रय लेखक ने 'कोलमम नाम से इसका उसेल किया है इंपीरियल गंटियर ऑफ इंडिया, जि. २१ पृ. २२ ). २. यंबई गॅज़ेडिअर, जि. १, भाग १, पृ. १८३, टिप्पण १. १. बल लिखता है कि इस संवत् का ई. स. ८२५ के सेप्टेयर से प्रारंभ हुआ है. ऐसा माना जाता है कि यह कोलम ( किलोन ) की स्थापना की यादगार में चला है ' ( ब सा. ई. पे पू. ७३ ), परंतु कोल्लम् शहर ई. स. १४ से बहुत पुराना है और ई. स. की ७ वीं शताब्दी का लेखक उसका उल्लेख करता है (देखो इसी पृष्ठ का दिप्पल १ ) इ लिये ई. स. ५२४ में उसका बसाया जाना और उसकी यादगार में इस संवत् का चला जाना माना नहीं जा सकता. 4 नकोर राज्य के आर्किमालॉजिकल सर्वे के सुपरिंटेंडेंट डी. ए. गोपीनाथ राय का अनुमान है कि ई.स. २५ मे मस्वान् सपीर ईशी नामक ईसाई ग्यौपारी दूसरे ईसाइयों के साथ कोल्लम में आया हो और उसकी यादगार में यहां के राजा में यह संवत् चलाया हो......[ उस समय ] सारा मलबार देश वस्तुतः एक ही राजा के अधीन था और यदि उसने आशा दी हो कि मरुवान् सपीर ईशो के जहाज़ से कोलम् में उतरने के दिन से लोग अब नया ] संवत् गिना करें तो सारे मलेनाडू (मलबार ) के, जिसका वह शासक था, लोगों ने अवश्य उसे शिरोधार्य किया होगा' (दा. मा. सी; जि. २, पृ. ७६, ७८ ७६ और ता० ८ फरवरी ई. स. १६१८ के पत्र के साथ गोपीनाथराव का मेरे पास भेजा हुआ कोलम् संवत् का वृत्तान्त) गोपीनाथ राव का यह कथन भी ठीक नहीं कहा जा सकता. उक्त कथन का सारा दारसदार कोट्यं के ईसाइयों के पास से मिले हुए बट्टेळुन्तु लिपि के ताम्रलेख हैं जिनसे पाया जाता है कि मस्वात् सपीर ईशा ने कोलप मैं तिरेिस्सापलि (ईसाइयों का गिरजा बनाया और [ मलवार के राजा ] स्थाणुरवि के राज्यमय उसकी तरफ के चहां के शासक अडिगल तिरुपडि ने राजमंत्री विजयराघवदेवर श्रादि की सलाह से उस गिरजे को कुछ भूमि दी और उसकी सहायता के लिये वहां के कुछ कुटुंब भी उसके अधीन कर कुछ अधिकार भी दिये. एक ताम्रलेखों में कोई संवत् नहीं है केवल राजा के राज्यवर्ष हैं. गोपीनाथ राव ने उनकी लिपि को ई. स. ८६० और ८७० के बीच की अनुमान कर उसीपर से ई. स. ६२५ में मरुवान् सपीर ईशो के कोलम् में आने, स्थारवि के समय उसकी अवस्था ७० या ७५ वर्ष की होने और उसके कोलम् आने की यादगार में मलबार के राजा के कोल्लम् संवत् चलाने की कल्पना कर डाली परंतु न तो ई. स. ८२५ में मरुवान् सपीर ईशे के कोल्लम में आने का प्रमाण है और न ई. स. ८६० और केवी स्थारपि के विद्यमान होने का कोई सतई निस्थानम् के लेख में स्वातुर और रा केसरीवर्मन के नाम हैं परंतु राजकेसरीवर्मन को उक्त नाम का पहिला खोलवंशी राजा मानने के लिये भी कोई प्रमाण नहीं है. चोलवंश में उस नाम के कई राजा हुए हैं. किसी लेख या ताम्रपत्र में कोई निश्चित संवत् न होते की दशा में उसकी लिपि के आधार पर उसका कोई निश्चित समय मान लेना सर्वथा भ्रम ही है क्योंकि उसमें पचीस पचास ही नहीं किंतु सौ दो सौ या उससे भी अधिक वर्षों की भूल होना बहुत संभव है- जैसे के कोट्टयम् से ही मिले हुए वहेतु और मलयाळम् लिपि के वीरराघव के दानपत्र को बर्नेल ने ई. स. ७७४ का अनुमान किया था परंतु तामिळ आदि दक्षिण की भाषाओं और वहां की प्राचीन लिपियों के प्रसिद्ध विद्वान् राय बहादुर बी. वैकव्या ने इसी ताम्रपत्र का समय सप्रमाण ई. स. की १४ वीं शताब्दी बतलाया है (ऍ. इंजि. ४, पृ. २६३ ) कोई ऐसा भी कहते हैं कि मलबार के राजा बेरुमान पेरुमाल ने अपना देश छोड़ कर मक्के को प्रस्थान किया तब से यह संवत् चल' हो. 'तुहफतुल्मजाहिदीन नामक पुस्तक का कर्ता उसका हिजरी सन् २०० (ई.स. १५-१६) में मुसलमान होना बतलाता है. अश्व के किनारे के जनहार नामक स्थान में एक कर है जिसकोमलबार के अबदुर्रहमान स्यमिरी की कम बतलाते हैं और ऐसा भी कहते हैं। कि उसपर के लेख में बेरुमान का हिजरी सन् २०२ में वहां पहुंचना और २१६ में मरना लिखा है । ई ऍ, जि. ११. १. ११६डॉ. ई. पू. ७४ ), परंतु मलवार गॅज़ेटियर का कर्ता मि. इस लिखता है कि उल लेख का होना कभी प्रमाणित नहीं हुआ (मलबार गॅज़ेटियर, पृ. ४१ ). मलबार में तो यह प्रसिद्धि है कि बेहमान बौद्ध हो गया था ( गोपीनाथ राव का भेजा हुआ कोल्लम् संवत् का वृतांत), इस लिये बेरुमान के मुसल्मान हो जाने की बात पर विश्वास नहीं होता और यदि ऐसा हुआ हो तो भी उस घटना से इस संवत् का चलना माना नहीं जा सकता क्यों कि कोई हिंदू राजा मुसलमान हो जाये तो उसकी प्रजा और उसके कुटुंबी उसे बहुत ही घृणा की दृष्टि से देखेंगे और उसकी यादगार स्थिर करने की कभी चेष्टा न Aho! Shrutgyanam Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्राचीनलिपिमाला. इस संवत् को १००० वर्ष का चक्र मान नहीं सकते. वीर रवि रविवर्मन् के त्रिवंद्रम से मिले हुए शिलालेख में कलियुग संवत् ४७०२ (वर्तमानात ४५०१) और कोल्लम् संवत् ७७६ दोनों लिखे हुए हैं। जिससे भी यही पाया जाता है कि गत कलियुग संवत् और कोल्लम संवत् के बीच का अंतर (४७०१-७७६ ) ३६२४ है. डॉ. कीलहॉर्न ने कोल्लम मंत्रत्वाले कई शिलालेखों में दिये हुए संवत्, संक्रांति, वार आदि को गणित से जांच कर कोल्लम् संवत् में ८२४-२५ मिलाने से ई. स. होना निश्चय किया है (ई. जि. २५, पृ. ५४ ) और दीवान पहादुर ऍल. डी. स्वामिकन्तु पिल्ले ने ई. स. में से २५ घटाने से कोल्लम् संवत् का पनना माना है (इंडियन कॉनॉलॉजी, पृ. ४३ ). ; यह संवत् मलधार से कन्याकुमारी तक और तिनेवेक्ति जिले में अब तक प्रचलित है. उसरी मलबार में इसका प्रारंभ कन्या संक्रांति ( सौर आश्विन ) से और दक्षिणी मलवार तथा तिवेलि जि में सिंह संक्रांति ( सौर भाद्रपद) से होता है. इसका वर्ष सौर है और मलधार में महीनों के संक्रांतियों के नाम ही हैं; परंतु तिनेवेल्लि जिले के लौकिक रूप से हैं (चैत्र को 'शिशिरे या 'चितिरै' कहते हैं बालों का मे है इस संवत् के वर्ष पहुधा वर्तमान ही लिखे जाते हैं. लेख कोल्टम् । गत १४६ का मिला है. में उनके नाम चैत्रादि महीनों वहां का सोर चैत्र मलवारइस संवत्वाला रूप से पुराना १५ नेपाल डॉ. भगवानलाल इंद्रजी को नेपाल से जो वंशावली मिली उससे पाया जाता है कि दूसरे ठाकुरी वंश के राजा अभयमल्ल के पुत्र जयदेवमल ने नेवार संवत् चलाया. उसने कांतिपुर और ललितपन पर राज्य किया और उसके छोटे भाई धानंदम ने भलपुर ( भाटगांव ) बसाया और वह वहीं रहा. इन दोनों भाइयों के समय कर्णाटवंश को स्थापित करनेवाले नान्यदेव ने दक्षिण से आकर नेपाल संवत् या शक संवत् ८११ आपण हृदि ७ को समग्र देश (नेपाल) करेंगे कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि शंकराचार्य के स्वर्गवास से यह संवत् ता है का भेजा हुआ कोल्लम् संयत् का कांत ) यदि शंकराचार्य का जन्म ई. स. अम (विक्रम संवत् ८७५= कलियुग संवत् ३८ ) मैं और देहांत ३८ वर्ष की अवस्था में ( केरलोत्पत्ति के अनुसार ) माना जाये तो उनका देहांत ई. स. (७+३= ) ८२६ में होना स्थिर होता है यह समय कोल्लम् यत् के प्रारंभ के निकट आ जाता है परंतु ऐसा मानने के लिये मारवाल की जनश्रुति के सिवाय कोई अन्य प्रमाण नहीं है. ऐसी दशा में यही कह सकते हैं कि यह संवत् किसने किस घटना की याद गार में चलाया यह अब तक अनिश्चित ही है. १. दा. आ. सी. जि. ए. पू. १८. ९. ऍ. हं; जि. ६, पृ. २३४. ● डॉ. भगवानलाल इंग्रजी को मिली हुई नेपाल की वंशावली में जयदेवमल्ल का नेवार ( नेपाल ) संवत् चलाना लिखा है परंतु जगह लिखता है कि राजा नेपाल में यह संवत्प्रतिकिया ई. ई. पू. ७४) राघवदेव का नाम डॉ. भगवानलाल इंद्रजी की वंशावली तथा नेशल के इतिहास के अंग्रेजी पुस्तकों में नहीं मिलता परंतु नेपाल के राजा जयस्थितिमल (ई.स. १३८०-१३६४) के समय की लिखी हुई वंशावली की पुस्तक में जो प्रॉ. सेसिल डाल को नेपाल से मिला, उरू राजा का नाम मिलता है और नेपाल से मिले हुए हस्तलिखित संस्कृत पुस्तकों के अंत में मिलनेवाले वहां के राजाओं के नाम और संतों को देखते हुए राघवदेव का यह संवत् चलाना अधिक • शंकराचार्यस्तु विक्रमार्कसमपादती पंचचार स केरलदेशे काली...पाच प्रायदि आहुः । निधिनागेभव धन्दे विभवे मासि माधवे । शुक्रे तियो दशम्यां तु शंकरायोंदयः स्मृतः ॥ इीत ३८८ ...तथा च शंकरमंदारसोरभे नीलकंठमा पिएमा राम् अतिपातका एकादशाधिकगतोनचतुः सदस्य ३८८ श्वर शास्त्री का 'विधासुधाकर' पू. २२६, २५७ Aho! Shrutgyanam Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् विजय कर दोनों मल्लों (जयदेवमल और प्रानंदमल्ल)को तिरहुत की तरफ निकाल दिया इस कथन के अनुसार शक संवत् और नेवार संवत् के बीच का अंतर (८११-१-):०२ और विक्रम संवत् तथा नेवार संपत् के बीच का अंतर (१४६-६=)६३७ आता है. नेपाल से मिले हुए दामोदर भट्ट रचित 'नवरत्नम्' नामक पुस्तक के अंत में शक संवत् १६०७ मार्गशिर वदि अष्टमी, मघा नचत्र, सोमवार और नेपाल संवत् ८०६ लिखा है. इसके अनुसार शक संवत् और नेपाल संवत् के बीच का अंतर (१६०७-८०६) ८०१ माता है. डॉ.कीलहोंने ने नेपाल के शिलालेखों श्रीर पुस्तकों में इस संवत् के साथ दिये हुए मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र आदि को गणित से जांच कर ई. स.८७९ तारीख २० अक्टोबर अर्थात चैत्रादि वि.सं.६६ कार्तिक शुक्ला १ से इस संवत् का प्रारंभ होना निश्चय किया है. इससे गत नेपाल संवत् में ८७८-७६ जोड़ने से ई. स., और ६३५-३६ जोड़ने से वि. सं. होता है. इसके महीने अमांत हैं और वर्ष बहुधा गत लिखे मिलते हैं. यह संवत् नेपाल में प्रचलित था परंतु जब से नेपाल पर गोखों का राज्य हुश्रा ( ई. स. १७६८ ) तब से राजकीय लिखापढ़ी में इस संवत् के स्थान पर शक संवत् प्रचलित हो गया है परंतु पुस्तकलेखक प्रादिप्रय तक इसको काम में लाते हैं. १६-चालुक्य विक्रम संवत् . कल्याणपुर (कल्याणी, निज़ाम राज्य में) के चालुक्य (सोलंकी) राजा विक्रमादित्य (छठे) ने अपने राज्य में शक संवत् को मिटा कर उसके स्थान में अपने नाम का संवत् चलाया, मालवे के प्रसिद्ध विक्रमादित्य के संवत् से भिन्न बतलाने के लिये शिलालेखादि में इसका नाम 'चालुक्य विक्रमकाल' या 'चालुक्य विक्रमवर्ष' मिलता है. कभी इसके लिये 'वीरविक्रमकाल', 'विक्रमकाल' और 'विक्रमवर्षे' भी लिखा मिलता है. यह संवत् उत राजा के राज्याभिषेक के वर्ष से चला हुआ माना जाता है. चालुक्य राजा विक्रमादित्य (छठे ) के समय के येवूर गांव से मिले हुए शिलालेख में चालुक्य विक्रमवर्ष दूसरा, पिंगल मंवत्सर, श्रावण शुक्ला १५ रवि वार चंद्रग्रहण लिखा है. बाईस्पस्यमान का पिंगल संवत्सर दक्षिणी गणना के अनुसार शक संवत् 888था अत एव गत शक संवत और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् के बीच का अंतर (886-२=)६६७, गत विक्रम संवत् भीर संभव प्रतीत होता है. राघवदेव ठाकुरी वंश (प्रथम ) के राजा जयदेव का पूर्वज होना चाहिये. डॉ. भगवानलाल इंद्रजी को मिली हुई बंशावली में जयदेवमल का ई. स. ८८० में विद्यमान होना लिखा है परंतु उसका ठीक समय ई. स. १२५२ और १९६० के बीच होना चाहिये. ; जि. १३. पृ. ४१४. नेपाल में पहिले गुप्त संधत् और उसके पीछे हर्ष संवत् चलता था. जिसके बाद नेवार ( नेपाल ) संवत् चला. २. करो (शके ) १६०७ मार्गशिरवदि अष्टमी मघानक्षत्रे सोमदिने........नेपाल संवत् ८०६ (हा के. पा, पृ. १६५). .ई. जि. १७, पृ. २४६. ४. श्रीमच्चास्यविक्रमकालद १२नेय प्रभवसंवत्सरद० (ज ए. सो. बंग; जि. १०, पृ. २६०). इस शिलालेख की माया ५ श्रीमञ्चालुक्पविक्रमवर्षद रेनेय पिंगलसंवत्सरद० (ई. जि.८, पृ. २०) ' श्रीवीरविक्रमकाळ(लनामधेयसंवत्सरेकविंशतिप्रमितेष्वतीतेषु वर्तमानधातुसंवत्सरे ० (ज.ए.सो. मि. १०. पृ. १६७), .. श्रीबिकु(क)मकालसंवत्सरेषु षट्सु अतीतेषु सप्तमे दुंदुभिसंवत्सरे प्रवत्र्तमाने ( जि. ३, पृ.३०८), ८. गिरिभवलोचन३७प्रमितविक्रमवर्षजनन्दनाख्यवत्सर० ( की लि.ई.स. पू. ३८. लेखसंख्या २१२). 6. ए. जि.स. पृ.२० ( देखो इसी पृष्ठ का टिप्पख ५). Aho! Shrutgyanam Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ प्राचीनलिपिमाला. वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर १९३२ तथा ई. स. और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर १०७५-७६ आता है अर्थात् वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् में १०७५-७६ मिलाने से ई.स. बनता है. कुर्तकोटि से मिले हुए लेख में चालुक्य विक्रमवर्ष ७ दुंदुभि संवत्सर पौष शुक्ला ३ रथि वार उत्तरायण संक्रांति और व्यतीपात लिखा है. दक्षिणी वाहस्पत्य गणना के अनुसार दुंदुभि संवत्सर शक सं. १०.४ था। इससे भी गत शक संवत् और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर (१००४७-६७ पाता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है. इस संवत् का प्रारंभ चैत्रशुक्ला १ से माना जाता है. यह संवत् अनुमान १०० वर्षे चल कर अस्त हो गया. इसका सब से पिछला लेख चालुक्य विक्रम संवत् ६४२ का मिला है. १७–सिंह संवत् यह संवत् किसने चलाया यह भय तक निश्चित रूप से मालूम नहीं हुआ. कर्नल जेम्स टॉड ने इसका नाम 'शिवसिंह संवत्' लिखा है और इसको दीय बेट (काठियावाड़ के दक्षिण में) के गोहिलों का पलाया हुमा बतलाया है. इससे तो इस संवत् का प्रवर्तक गोहिल शिवसिंह मानना पड़ता है. भावनगर के भूतपूर्व दीवान विजयशंकर गौरीशंकर अोझा ने लिखा है कि 'श्रीसिंह का नाम पोरबंदर के एक लेख में मिल पाता है जिसमें उसको सौराष्ट्र का मंडलेश्वर लिखा है, परंतु पीछे से उसने अधिक प्रबल हो कर विक्रम संवत् १९७० (ई.स. १९१४) से अपने नाम का संवत् चलाया हो ऐसा मालूम होता है; परंतु पोरबंदर का वह लेख अब तक प्रसिद्धि में नहीं माया जिससे मंडलेश्वर सिंह के विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता. डॉ. भगवानलाल इंद्रजी का कथन है कि 'संभवतः ई. स. १९१३-१९१४ (वि. सं. ११६९-७०) में चौलुक्य ] जयसिंह (सिद्धराज) ने सोरठ ( दक्षिणी काठियावाड़) के [राजा] खंगार को विजय कर अपने विजय की यादगार में यह संवत् चलाया हो. परंतु यह कथन भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्यों कि प्रथम तो ई. स. १९१३-१४ में ही जयसिंह के खेंगार को विजय करने का कोई प्रमाण नहीं है. दूसरी आपत्ति यह है कि यदि जयसिंह ने यह संवत् चलाया होता तो इसका नाम 'जयसिंह संवत्' होना चाहिये था न कि सिंह संवत् क्यों कि संवतों के साथ उनके प्रवर्तकों के पूरे नाम ही जुड़े रहते हैं. तीसरी बात यह है कि यदि यह संवत् जयसिंह ने चलाया होता तो इसकी प्रवृत्ति के पीछे के उसके एवं उसके वंशजों के शिलाखेखों तथा दानपत्रों में मुख्य संवत् यही होना चाहिये था परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि यह संवत् जयसिंह का चलाया हुआ नहीं है. काठियावाड़ से बाहर इस संवत् का कहीं प्रचार न होना भी यही साबित करता है कि यह संवत् काठियावाड़ के सिंह नाम के किसी राजा ने .. .एँ: जि. २२, पृ. १०६. २, इ. जि. १, पृ. ६७-८. ३. कर्नल जेम्स टॉड का 'ट्रॅयल्स इन् चेस्टर्न इंडिया', पृ. ५०६ और टिप्पण. .. 'भाषनगर प्राचीन शोध संग्रह, भाग १, पृ. ४-५ (गुजराती); अंग्रेजी अनुवाद, पृ.२.३. ४. चंय.ग; जि. प. भाग १, पृ. १७६. . गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी) राजा भीमदेव के दानपत्र में, जिसमें कच्छ मंडल (कच्छ राज्य) के सहसचाप गांव की कुछ भूमि दान करने का उल्लेख है, केवल 'संवत् १३' लिखा है जिसको उसके संपादक डॉ. फ्लीट ने सिंह संवत् भनुमान कर उक्त दानपत्र को विक्रम संवत् १२६२ या १२६३ का मामा और चौलुक्य भीमदेष (दूसरे)का, जिसने वि.सं. १२३५ से १२६८ तक राज्य किया था, ठहरा दिया (ई. जि.१८पू.१०८-१.); परंतु ऐसा करने में उन विद्वान् ने धोखा खाया है क्योंकि न तो वह दानपत्र भीमदेव (दूसरे)का है और न उसका संवत् १३ सिंह संवत् है जैसा कि माना गया है वास्तव में वह दामपत्र बीलुक्य ( सोलंकी) भीमदेव ( पहिले) का है और उसका संबत् वि. सं. १०६३ है परंतु शताम्बियों के अंक Aho! Shrutgyanam Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत्. १८३ चलाया होगा जिसका नाम इसके साथ जुड़ा हुआ है और जैसा कि विजयशंकर गौरीशंकर ओझा का अनुमान है. मांगरोल की सोडवी बाव (बावडी ) के लेख में विक्रम संवत् १२०२ और सिंह संवत् ३२ आम्चिन यदि १३ सोम बार लिखा है जिससे विक्रम संवत् और सिंह संवत् के बीच का अंतर १२०२-३२- ) ११७० जाता है. इस हिसाब से ई. स. में से १९१३-१४ घटाने से सिंह संवत् होगा. १ चौलुक्य राजा भीमदेव ( दूसरे ) के दानपत्र में वि. सं. १२६६ और सिंह संवत् १६ मार्गशिर यदि १४ गुरु बार लिखा है. इससे भी वि. सं. और सिंह संवत् के बीच का अंतर (१२६६-१६=) ११०० आता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है. चीलुक्य अर्जुनदेव के समय के उपर्युक्त १३२० और सिंह संवत् १५१ आषाढ कृष्णा १३ वेरावल के ४ संवत्वाले शिक्षालेख में वि सं. लिखा है. उक्त लेख का विक्रम संवत् १३२० (१०) दोड़कर के ऊपर के ही अंक लिखे गये है. ऐसा मानने का कारण यह है कि उनके पसे १२ वर्ष पहले डॉ. बूसर ने श्रीलय भीमदेव (पहिले) का वि. सं. २००३ कार्तिक शुदि १५ का दानपत्र प्रसिद्ध किया (जि. ६, पृ. ९६३-४ ) जिसमें उसका लेखक कायस्थ कांचन का पुत्र बटेश्वर और दूतक महासांधिविग्रहिक शर्मा होना लिखा है. डॉ. के प्रसिद्ध किये हुए संवत् २३वाले दानपत्र का लेखक भी यही कायस्थ कांचन का पुत्र बटेश्वर और तक पह महासांधिविग्रहक शर्मा है इसलिये ये दोनों दानपत्र एक ही राजा के है यह निश्चित है ऐसी दशा में डॉ. वा दानपत्र का संवत् ६३ विक्रम संवत् २०६३ ही है न कि १९६२ या १२६३. शिलालेख और दानपत्रों के संतों में कभी कभी शताब्दियों के अंकों को छोड़ कर केवल ऊपर के ही अंक दिये हुए मिलते हैं जो विज्ञानों को में बाल देते हैं. 4 देवदत रामकृष्ण भंडारकर ने कोटा राज्य के नामक स्थान से मिले हुए महाराजाधिराज जयसिंह के ले 'संवत् १४हुआ होने से लिखा है कि यदि यह जयसिंह चौलुक्य सिद्धराज जयसिंह है और संवत् १४ उसका चलाया हुआ संवत् [ जिसको जयसिंह का चलाया हुआ मान लिया है ] है तो उस [ लेख] का समय ई. स. ११९८ [ वि. सं. १९८५ ] आता है. उक्त लेख का जयसिंह कोई दूसरा जयसिंह हो सकता है परंतु वह उक्त नाम के चालुक्य राजा से पहिले का नहीं हो सकता क्यों कि अक्षरों पर से उस लेख का [ई. स. की ] १२ वीं शताब्दी से पहिले का होना पाया नहीं जाता' ( प्रो. दि. मा. स. के. ई. ई.स. १६०५-५, पू. ४८). भटू के लेख का संवत् भी सिंह संवत् १४ नहीं किंतु बि. सं. १३१४ होना चाहिये जिसमें भी शादियों के अंक छोड़ दिये गये हैं. वह लेख या तो मालवे के महाराजाधिराज जयसिंह दूसरे (जयतुगिदेव ) का, जिसके समय का रायगढ़ का लेख वि. सं. १३१२ भाद्रपद सुदि ७ ( की लि. ई. नॉ. ई. पू. १२. लेखसंख्या २९३ ) का मिला है, या उसके छोटे भाई जयवर्मन् का, जिसका दानपत्र वि. सं. १९१७ का मिला है (पॅ.जि. ६, पृ. १२०-२१), होना खहिये. कोटा और झालावाड़ के इलाके पहिले मालवे के परमारों के अधीन थे जिनके लेख ई. स. की ११ वीं से १३ वीं शताब्दी के वहां पर मिलते हैं. ऐसे ही उक्त विद्वान् ने जोधपुर राज्य के बाड़ी गांव से मिले हुए कटुराज के समय के एक लेख का संवत् ३१ पढ़ा है और उसको सिंह संग्रह मान कर विक्रम संवत् १२०० मे कलराज का नाडोल का राजा होता माना है तथा उरू कटुराज को बाहमान (चौहान) अश्वराज (भाराज) का म कटुकराज बतलाया है (ऍ. इंजि. ११, पृ. २४ ६६) वह लेख बहुत बिगड़ी हुई दशा में हैं इस लिये उसके शुद्ध पड़े जाने के विषय में हमे शंका ही है. यदि इसका संवत् ३२ हो तो भी वह सिंह संवत् नहीं किंतु वि. सं. १९३२ होना चाहिये. क्योंकि डोके बान के लेख में कहीं सिंहसंग नहीं है. स्वराज के पुत्र कटुकराज के सेवाड़ी के दूसरे लेख में वि. सं. ११७९ (.; जि. ११, पू. ३१०३२) ही लिखा है और बि. सं. १९८६ से १२०१ तक के कई शिक्षा चौहान राजा रायपाल के समय के नाडोल और नारलाई से मिले हैं (ऍ है, जि. १६. पू. ३४-४३.) जिनसे पाया जाता है कि त्रि. सं. १९८६ से १२०२ तक नाडोल का राजा रायपाल या न कि कट्टराज ऐसी दशा में सिंह संवत् ११ (वि. सं. १२०० ) में कद्रराज का नाडोल का राजा होना संभव नहीं हो सकता. काठियावाड़ से संबंध रखनेवाले लेखों में सिंहसं मानने की चेष्टा करने के केवल उपयुक्त तीन ही उदाहरण अब तक मिले हैं जिनमें से एक में भी सिंह संवत् नहीं किंतु शताब्दियों के अंकरहित व से. केही वर्ष है. १. श्रीमद्विक्रमसंवत् १२०२ तथा श्रीसिंह श्रीविक्रमसंवत् १२९६ को •. देखो ऊपर पृ. १७५ और उसीका टिप्पण ४. २२ आश्विननदि १३ सोमे ( भावनगर प्राचीन शोध संग्रह, भाग १, पृ. ७). लोकि मार्ग यदि १४ गुरा (ई. जि. १८४११२) Aho! Shrutgyanam Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला. कार्तिकादिर इस लिये चैत्रादि और भाषासादि १३२१ होगा जिससे विक्रम संवत् और सिंह संवत् के बीच का अंतर (१३२१-१५१-) ११७० ही माता है. इस संवत्वाचे थोड़े से शिलालेख काठिमापार से ही मिले है और चौलुपय भीमदेव (दूसरे) के उपर्युक वि. सं. १२६६ के दानपत्र में विक्रम संवत् के साथ सिंह संवत् दिया है जिसका कारण यही है कि वह दामपत्र काठियापार में दान की भूमि के संघ का है. इस संवत् का प्रारंभ भाषा एपणा १ (समांत) से है और इसका सबसे पिछका ख सिंह संबत् १५१ का मिला है. १८-लम एसेन संवत् यह संवत् बंगाल के सेमवंशी राजा पक्षालसेन के पुत्र लक्ष्मणसेन के राज्याभिषेक (जन्म) से पला दुमा माना जाता है, १. देखो, ऊपर पृ. १७४ और उसी का टिप्पण ५. ..ई.स. १९९८- के आसपास (.., जि. १८, पु. ७) देहली के गुलाम सुलतान इतनुहीन ऐबक के समय परितमार हिलजी ने नदिमा पर पढ़ाई कर उसे ले लिया और वहां का राजा लक्ष्मणसेन भाग गया. इस बढ़ाई का चांस मिनहाज उस्सिराज (जन्म इ. स. १९६३-देहांत ई. स १९४५ के पीछे) ने 'तबकास-इ-मासिरी' नामक इतिहास पुस्तक में इस तरह लिखा है कि 'राय लखामणिमा ( लक्षमणलेन) गर्भ मे या उस वक उसका पिता मर गया या. उसकी माता का देहांत प्रसववेदना से दुमा और ललमणिमा जन्मते ही गाड़ी पर बिठलाया गया. उसने ८० वर्ष राज्य किया' (सपकात--नासिरी का अंग्रेजी अनुवाद मेजर रापर्टी का किया मा. पृ. ५५५). लपमएसेम संबत् का प्रारंभ ई.स. १९१४ मैं दुमा जैसा किमाणे लिखा गया है, इस लिये बगितभार खिलजी की लक्ष्मणसेन परकी भविभा कीबदाई लक्मएसेम संपत् ( १९६८-१९१४-) में हुई, जब कि लक्षमणसेन की उम्र वर्ष की थी और इतने ही वर्ष उसको राज्य करते हुए थे. समारत'नामक संस्कृत पुस्तक में लिखा कि परंपरागत जनश्रुति से यह प्रयाद सुनने में माता किमान (बशाललेन, लपमणसेन का पिता) मिथिला की कड़ाई में मर गया. अब ऐसा संबाद फैला उसी समय विक्रमपुर में लपमण का जन्म हुमा' (प्रवादः श्रूयते चात्र पारम्परीयाचारीया | मिथिले युद्धपात्रायां बल्लालाभून्मृतध्वनिः । तदानी विक्रमपुरे लक्ष्मणो जातवादसौ ! साभारत, बाएवज.प.सो.बंगा; ई. स. १८६३). यह कम मिनहाज की सुनी हुई बात से मिलता जुलताही परंतु इससे पाया जाता है कि सामनसेनका जन्म हुमा उस समय वहालसेन के मिपिता में मर आने की बाली पक्रवाह हीदी पी. संभव किस पवार के उड़ने से विक्रमपुर में लक्ष्मणसेन गद्दी पर बिठला दिया गया हो और उसके जन्म की खबर पाने पर शासन में मिधिका में रहते समय पुषजन्म की पुरी में यह संबत् बहाया हो. साकसेन मे शक संवत् २०६५ (है. स. ११६६) में 'दामसागर' नामक ग्रंथ रमा निखिलचक्रतिलक श्रीमन्मालसेनेन । पूणे गरिएनवदशमिते एकवर्षे दानसागरो रचितः ।।दामसागर; ज. प. सौ. रंगाः ई. स. १८९६, माग १, पृ. २३), डॉ. राजेंद्रमास मित्र में बंगाल के सेनवंशी राजामौके समय का निर्णय करने में दामसागर की सहायता ली और उसकी रचना का लोक भी टिप्पण में उपत किया ( पूर्णे शशिनषदरामिते एकाम्दे-ज. प. सो. बंगाई. स. १८६५, पृ. १३७) परंतु उसका अनुवाद करने में गलती की और शक संवत् २०६९ के स्थानपर २०१५ (ई. स. १०६७ ) लिख कर बहालसेन का समय ई.स. २०४६ से ११०६ तक मान लिया जो ठीक नहीं है. पतालसेमरचित 'मद्भुतसागर' नामक बने पंथ के प्रारंभ की भूमिका में लिखा है कि गौरेंद्र (पल्लालसन) ने शक संवत् १०१०(१.स.१९६८) में प्रभुतसागर'काप्रारंभ किया परंतु उसके समास होने के पूर्वही उसने अपने पुष (लएमएसेन) को राज्यसिंहासन पर पिटलाया और अपने ग्रंथ को पूर्ण करने का मार उस पर झाला. फिर गंगा में अपने मान के जल प्रवाह से यमुना का संगम बना कर अपनी स्त्री सहित स्वर्ग को गया (अर्थात् मरा) और लचमणसेन के योग से 'मद्भुतसागर' पूर्ण इमा'(याके बनवखेन्यूम्दे पारेभेप्रतसागर । गोरेन्द्रकुमारालानस्तम्भवाहुमहीपतिः ।। अन्येऽस्मिन्मसमाप्त एष तनयं साबापरणामहादोषापर्षशि बीपणामिनाले निष्पत्तिमभ्यर्थ्य सः । नानादानचिताम्बुसंचलनतः पूर्णत्मनासंगम गापा विरचय निर्गरपुर मार्गानुपातो गतः ।। मामलपमहानभूपतिरतिकाम्यो पदुपोगतो निष्पमोप्रतसागरः कृतिरसौ बालामभूमीभुणः। अद्भुतसागर). परिसरमसेन के जन्मसमय (ई.स. १९५ में शासन की अवस्था २० वर्ष की माने तो अद्भुतसागर के प्रारंभ के Aho! Shrutgyanam Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् १८५ अबुलफजल ने 'मकबरमामे' में तारीख इलाही के प्रसंग में लिखा है कि'बंग (बंगाल)में लछमनसेन (लक्ष्मणसेन) के राज्य के प्रारंभ से संवत् गिना जाता है. उस समय से अब तक ४६५ वर्ष हुए हैं. गुजरात और दक्षिण में शालिवाहन का संवत् है जिसके इस समय १५०६ और तथा देहली प्रादि में विक्रम का संवत् चलता है जिसके १६४१ वर्ष व्यतीत हुए हैं. इससे शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१५०६-४६५%) १०४१ पाता है. डॉ. राजेंद्रलाल मित्र को मिले हए 'स्मृतितत्वात नामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में 'ल. सं. ५०५ शाके १५४६' लिखा है. इससे भी शक संवत् और लदमणसेन संवत् के बीच का अंतर (१५४६-५०५ = ) १०४१ आता है जैसा कि अबुलफ़ज़ल ने लिखा है. नेपाल से मिले हुए 'नरपतिजयचर्या टीका' ( स्वरोदयदीपिका) नामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में शाके १५३६ ल स ४६४ लिखा है. यदि यह शक संवत् वर्तमान माना जाये तो गत १५३५ होगा. इससे भी शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर अबुलफजल के लिखे अनुसार ही माता है. उपर्युक्त तीनों प्रमाणों के मापार पर शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर १०४१ होता है, परंतु तिरछत के राजा शिवसिंहदेव के दानपत्र में, जो जाली है, ल. सं. २६३ श्रावण सुदि गुरु वार लिह अंत में सन् ८०७ (१८०१) संवत् १४५५ शाके १२१ लिखा है, जिससे शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१३२१-२६३ = )१०२८ भाता है. 'द्विजपत्रिका की तारीख १५ मार्च ई.स. १८६३ की संख्या में लिखा है कि 'बल्लालसेन के पीछे उनके बेटे लक्ष्मणसेन ने शक संवत् १०२८ में बंगाल के सिंहासन पर बैठ कर अपना नया शक समय उसकी अवस्था ६७ वर्ष होनी चाहिये. पसी दशा में प्रारंभ किए हुए बड़े ग्रंथ को समाप्त करने की शक्ति उसमें न रही हो जिससे राजपूतों की रीति के अनुसार विस्तर में मरना पसंद न कर पूर्ण वृद्धावस्था में धीरता के साथ प्रात्मघात करना पसंद सिया हो यह संभव है (गौः सो. प्रा. भाग १, पृ. ६५, टिप्पण) उपर्युक्त दोनों पंधों की रचना के श्लोकों से सो यही पाया जाता है कि ई. स. ११६६ के पीछे तक बहलालसेन जीवित था जिसके पीछे लषमणसेन ने स्वतंत्रतापूर्वक राज्य किया हो. ___ राखालदास बेनर्जी ने 'लक्ष्मणसेन नामक लेख में (ज.प. सो. अंगाई. स. १९१३, पृ. २७१-१०) यह सि करने की कोशिश की है कि लयमणसेन का राज्य ई. स. १९७० के पूर्व ही समाप्त हो चुका था, बल्तिभार खिलजी की मविमा की पढ़ाई के समय वहां का राजा सममरणसेन म था, 'वानसहमर' और 'प्रभुतसागर' की रचना के संवत् विषयक जो श्लोक मिलते हैं वे पिछले क्षेपक होने चाहिये, तथा 'मद्भुतसागर' की रचना के संवत् संबंधी श्लोक तो केवल एक ही प्रति में, जो डॉ. रामकृष्ण मोपाल भंडारकर को मिली, मिलते हैं.' उनके कथन का मुख्य प्राधार गया से मिले हुए दो शिलालेख है जिन में से पहिले के अंत में-'श्रीमल्लक्ष्मणसेनस्यातीतराज्ये सं ५१ भाद्रादिने २६' (पं. जि. १२. पृ. २६) और दूसरे के मन में-'श्रीमस्लमहासेनदेवपादानामतीतराज्ये सं ७४ वैशाख्वादि १२ गुरी' ( जि. १२. पृ. ३०) लिला है. इनमें से पहिले लेख के अतीतराज्ये' पद से लक्ष्मणसेन संवत् ५१ (ई.स. १३७० ) से पूर्ष लक्ष्मणसेन का राज्य प्रतीत' (समाप्त) हो चुका यह मान कर यख्तियार खिलजी की चढ़ाई के समय अर्थात् ११६६ (१२०० माना है) में लक्ष्मणसेन का विद्यमान ने होना बताया है परंतु हम उक्त कथन से सहमत नहीं हो सकते क्यों कि नविश्रा की चढ़ाई मिन्हाज उरिसराज की जीवितदशा की घटना थी, उक्त बढ़ाई के पीछे यह यंगाल में रहा था और बस्ति श्रार खिलजी के साथ रहने वालों से उसने वह हाल सुना था ऐसा वह लिखता है. ऐसे ही दानसागर और 'अभुतसागर' में मिलनेवाले उनकी रचना के समय संबंधी श्लोको को इपक नहीं कह सकते. अद्भुतसागर की एक ही प्रति में वे श्लोक मिलते हैं ऐसा हो नहीं कि राजपूताने में उसकी तीन प्रति देखने में आई उन सब में ये श्लोक है ऐसी दशा में बल्लालसेन का शक संवत् १०६५ (ई. स. ११६६ ) के पीछे तक जीवित रहना पाया जाता है. गया के लेखो के प्रतीतराज्ये सं' को 'मतीतराज्यसं' (जैसा कि राजालदास बेनर्जीके उन लेख में छपा है, पृ. २७१, २७२ ) पढना और 'अतीत' को 'राज्यसंवत्' का विशेषण माम कर 'गतराज्यवर्ष' अर्थ करना ही उचित है तब वे लेख लघमणसेन के राजस्वकाल केही माने जा सकते है। १. ज.ए.सो. बंगा; जि.५७, भाग १. पृ. १-२. २. नोटिसिज़ माफ संस्कृत मनुस्किप्ट्स, जि. ६, पृ. १३ .. हा क. पाः पृ. १०६. .. ई. : जि. १४. पृ. १५०. १६.१. Ahol Shrutgyanam Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमाला चलाया. वह बहुत दिन तक चलता रहा और अब सिर्फ मिथिला में कहीं कहीं लिखा जाता है.' ई.स. १७७८ में डॉ. राजेंद्रखाल मित्र ने लिखा कि 'तिरहुत के पंडित इसका प्रारंभ माघ शुका १से मानते है. इसका प्रारंभ ई. स. ११०६ के जनवरी (वि.सं. ११०२-श. सं. १०२७) से होना चाहिये इन पिछले तीमा अवतरणों के अनुसार शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के पीच का अंतर १०२८ या उसके करीब पाता है. मिथिला देश के पंचांगों में विक्रम, शक और लक्ष्मण सेन संवत् तीनों लिखे जाते हैं परंतु उनमें शक संवत् और लवमणसेन संवत् के बीच का अंतर एकसा नहीं मिलता किंतु लदमणसेन संवत् १ शक संवत् १०२३-२७, १०२७-२८, १०२६-३० और १०३०.३१ के मुताबिक भाता है. डॉ. कीलहोंने ने एक शिलालेख और पांच हस्तलिखित पुस्तकों में लदमणसेन संवत् के साथ दिये हुए मास, पख, तिधि और वार को गणित से जांच कर देखा तो मालूम हुमा कि गत शक संवत् १०२८मार्गशिर सुदि १(ई.स. ११०६ तारीख २६ अक्टोबर) को इस संवत् का पहिला दिन अर्थात् प्रारंभ मान कर गणित किया जाये तो उन ६ में से ५ तिथियों के पार ठीक मिलते हैं। परंत गल शक संवत् १०५१ अमांत कार्तिक शुक्ला १(इ. स. ११९६ तारीख ७ अक्टोबर) को इस संवत् का पहिला दिन माम कर गणित किया जाये तो छभों तिथियों के बार मिल जाते हैं. ऐसी दशा में अबुलफज़ल का कथन ही ठीक है. इस हिसाब से लक्ष्मणसेन संवत् में १०४०-४१ जोड़ने से गत शक संवत्, ११७५-७६ जोड़ने से गत चैत्रादि विक्रम संवत् और १११८-१९ जोड़ने से ईसवी सन् होगा. यह संवत् पहिले बंगाल, बिहार और मिथिला में प्रचलित था और अब मिथिला में इसका कुछ कुछ प्रचार है, जहां इसका प्रारंभ माघ शुक्ला १से माना जाता है. १६-पुरुषैप्पु संषत् है. स. १३४१ में कोपीन के उत्तर में एक टापू ( १३ मील लंबा और १ भील चौड़ा ) सनद्र में से निकल पाया, जिसे 'बीपीन' कहते हैं, उसकी यादगार में वहां पर एक नया संपत् पता जिसको पुडप्पु (पुछनई; मावादी; मलपाळम् भाषा में) कहते हैं. कोचीन राज्य और उप ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच जो संधि हुई वह तांबे के ५ पत्रों पर खुदी हुई मिली है जिसमें पुडवेषु संवत् ३२२,१४ मीनम् (मीन संक्रांति का १४ वां दिन-ई. स. १६६३ तारीख २२ मार्च ) लिखा है। यह संवत् कोचीन राज्य में कुछ कुछ चलता रहा परंतु अब उसका प्रचार पाया नहीं जाता. २०-राज्याभिषेक संवत् राज्याभिषेक संवत्, जिसको दक्षिणी लोग 'राज्याभिषेक शक' या 'राजशक कहते हैं. मराठा राज्य के संस्थापक प्रसिद्ध शिवाजी के राज्याभिषेक के दिन अर्थात् गत शक संवत् १५९६ (गत चैत्रादि वि. सं. १७३१) आनंद संवत्सर ज्येष्ठ शुक्ला १३ (नारीख जून ई. स. १६७४ ) से . ज. सो.बंगा, जि.४७, भाग १, पृ. ३६ ... जि. १६ पृ.५. .. १. दा.मा. सी, जि. १, पृ. २६. . का. जि. १६, पृ. ६. पृ. ७६. दा.पा.सी जि.पप्र. २८.२६. Aho! Shrutgyanam Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् चला था. इसका वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला १३ से पलटता था और वर्तमान ही लिखा जाता था. इसका प्रचार मराठों के राज्य में रहा परंतु अब यह लिया नहीं जाता. २५ --थाईस्पत्य संघरसर ( १२ वर्ष का ). यह बाहेस्पत्य संवत्सर १२ वर्ष का चक्र है और इसका संबंध वृहस्पति की गति से है. इसके वर्षों के नाम कार्तिकादि १२ महीनों के अनुसार हैं परंतु कभी कभी महीनों के नाम के पहिले 'महा लगाया जाता है जैसे कि 'महाचैव', 'महावैशाख आदि. सूर्य समीप आने से बृहस्पति अस्त हो कर जब सूर्य उससे आँगे निकल जाता है तब (२५ से ३१ दिन के बाद) जिस नक्षत्र पर फिर वह (वृहस्पति) उदय होता है उस नक्षत्र के अनुसार संवत्सर (बर्ष) का नाम नीचे लिख क्रम से रकवा जाता है कृतिका या रोहिणी पर उदय हो तो महाकार्तिक (कार्मिक); मृगशिर या माद्री पर महामार्गशीर्ष ( मार्गशीर्ष ); पुनर्वसु या पुष्प पर महापौषः अश्लेषा या मवा पर माहमाघ ; पूर्वाफाल्गुनी, उसराफाल्गुनी या हस्त पर महाफाल्गुनः चित्रा या स्वाति पर महाचैत्र; पिशाखा या अनुराधा पर महावैशाख ; ज्येष्ठा या मूल पर महाग्येट; पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा पर महापाषान; श्रवण या धनिष्ठा पर महाश्रावण ; शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराभाद्रपदा पर महाभाद्रपद मौर रेवती, अश्विनी या भरणी पर उदय हो तो महाअाश्वयुज (आश्विन)सवत्सर कह जाना है। इस पर में १२ वर्षों में एक संवत्सर क्षय हो जाता है. प्राचीन शिलालेख और दानपत्रों में वाहस्पत्य संवत्सर दिये हए मिलते हैं, जो सब ई. स. की ७ वी शताब्दी के पर्व के हैं. उसके पीछे इस का प्रचार सामान्य व्यवहार से उठ गया और केवल पंचांगों में वर्ष का नाम नलाने मेंही गया जो अब तक चला जाता है. २२-याईस्पस्य संवत्सर । ६० वेप का), यह वाहस्पत्य संवत्सर ६० वर्ष का चक है. इसमें वर्षों की संख्या नहीं किंतु १ से ३० तक के नियत नाम ही लिखे जाते हैं. मध्यम मान से बृहस्पति के एक राशि पर रहने के समय को 'बाईस्पस्य संवत्सर' (वर्ष) कहते हैं जो ३६१ दिन, २ घड़ी और ५ पल का होता है, और सौर १. नक्षत्रेण सहोदयमुपगच्छति येन देवतिमन्त्री र तासह वक्तव्यं वा भाइ || बागि कति मान्या या वयानुषोगीनि । क्रमशस्त्रिभं तु पञ्चममुपान्त्यमन्त्यं च यदूर्षम् ॥ ( वाराही संहिता: अध्याय , श्लोक 1-२). १. १२ सौर वषों में ११ बार गुरु प्रस्त होकर फिर उदय होता है इसलिये १२ वर्ष में एक याईस्पत्य संबस्तर क्षय हो जाता है. जैसे कि पं. श्रीधर शिवलाल के वि. सं. १६६५ के पंचांग में वरनाम पोष' लिखा है परंतु १६६६ क पंचांग में 'घर्षनाम फाल्गुन' लिखा है जिससे माघ (महामाघ ) संवत्सर क्षय हो गया. १. भरतपुर राज्य के कोट नामक गांव से मिले एप शिलालेख में महाचैत्र' संबाला(सिम्पपई.स.१६१६. १७, पृ.२), परिक्षाजक महाराज हस्सिन के गुप्त संवत् १६३ ( ई. स. ४८२-३) के दानयन में महाआयुज' संवत्सर (त्रिषष्टयुत्तरेन्दयते गुप्तनृपराम्पभुक्तो महाश्वयुजसंवत्प(स)रे चेनमास एकमतदिनीयायाम-की गु पृ.१०२) और कवचं सो राजा मृगेशवर्मन् के राज्यवर्ष तीसरे के दानपत्र में 'पोष' संवत्सर-श्रीमृगेरामो प्रात्मनः राज्यस्य तलाये वा पापे संवत्सरे कार्तिकमासबहुलपक्षे दशम्यां तिथौ (ई. जि. ७, पृ. ३५) शादि. पं. श्रीधर शिवलाल के वि.सं. १६७४ के पंचांग में वर्ष नाम प्राश्विन और १६७५ के पंचांग में 'सर्वनाम कार्तिक' लिखा है, ये वर्षनाम २२ बरसषाले बाईस्पत्य संवत्सर के ही है. ४. बृहस्पतेमध्यमराशिभोगात्संवत्सरं साहितिका वदन्ति (भास्कराचार्य का सिद्धांतशिरोमणि १।३०). Ahoi Shrutgyanam Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ प्राचीनलिपिमाला. वर्ष ३६५ दिन, १५ घड़ी, ३१ पल और ३० विपल का होता है, अतएव वाहस्पस्य संवत्सर सौर वर्ष से ४ दिन, १३ घड़ी और २३ पल के करीय छोटा होता है जिससे प्रति ८५ वर्ष में एक संवत्सर क्षय हो जाता है. इस चक्र के ६० वर्षों के नाम ये हैं १प्रभव, २ विभव, ३ शुक्ल, ४ प्रमोद, ५ प्रजापति, ६ अंगिरा, ७ श्रीमुख, ८ भाव, ह युवा, १. धाता, ११ ईश्वर, १२ पहुधान्य, १३ प्रमाथी, १४ विक्रम, १५ वृष, १६ चित्रभानु, १७ सुभानु, १८ तारण, १९ पार्थिव, २० व्यय, २१ सर्वजित्, २२ सर्वधारी, २३ विरोधी, २४ विकृति, २५ खर, २६ नंदन, २७ विजय, २८ जय, २६ मन्मथ, ३० दुर्मुख, ३१ हेमलंब, ३२ विलंबी, ३३ विकारी. ३४ शार्वरी, ३५ प्रय, ३६ शुभकृत् , ३७ शोभन, ३८ क्रोधी, ३६ विश्वावसु, ४० पराभव, ५१ प्लषंग, ४२ कीलक, ४३ सौम्य, ४४ साधारण, ४५ विरोधकृत, ४६ परिधावी, ४७ प्रमादी, ४० मानंद. ५६ राक्षस, ५० अनल, ५१ पिंगल, ५२ कालयुक्त, ५३ सिद्धार्थी, ५४ रौद्र, ५५ दुर्मति, ५६ दुंदुभि, ५७ रुधिरोद्वारी ५८ रलाच, ५६ क्रोधन और ६० क्षय. बराहमि दर में कलियुग का पहिला वर्ष विजय संवत्सर माना है परंतु 'ज्योतिषतत्व' के की ने प्रभवना है. उत्सरी हिंदुस्तान में इस संवत्सर का प्रारंभ बृहस्पति के राशि बदलने से माना जाता है परंतु व्यवहार में चैत्र शुक्ला १ से ही उसका प्रारंभ गिना जाता है. उसरी विक्रम संवत् १७५ के पंचांग में 'प्रमोद संवत्सर लिखा है जो वर्ष भर माना जायगा, परंत उसी पंचाग में यह भी लिखा है कि मेषा के समय (चैत्र शुक्ला ३ को) उसके १० मास, १६ दिन ४२ घड़ी और १५ पल व्यतीत हो चुके थे और १मास, १३ दिन, १७ घड़ी और ४५ पल बाकी रहे हैं। वराहमिहिर के मत से उत्तरी बाहेस्पस्य संवत्सर का नाम मालूम करने का नियम यह है इष्ट गत शक संवत् को ११ से गुणो, मुणनफल को चौगुना कर उसमें ८५८९ जोड दो. फिर योग में ७५० का भाग देने से जो फल आये उसको इष्ठ शक संवत् में जोड़ दो, फिर योग में ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि क्रम से गत संवत्सर की संख्या होगी। दक्षिण में पार्हस्पत्य संवत्सर लिखा जाता है परंतु वहां इसका बृहस्पति की गति से कोई संबंध नहीं है. यहांषाले इस बाईस्पस्य संवत्सर को सौर वर्ष के बराबर मानते हैं जिससे उनके यहां कभी संवत्सर क्षय नहीं माना जाता. कलियुग का पहिला वर्ष प्रमाथी संवत्सर मान कर प्रतिवर्ष चैत्रगुतः १ से क्रमशः नवीन संवत्सर लिखा जाता है. दक्षिणी वाहस्पत्य संवत्मर का नाम मालूम करने का नियम नीचे अनमार है इष्ट गत शक संवत् में १२ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि वर्तमान संवरसर होगा; अथवा गत इष्ट कलियुग संवत् में १२ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो शेष रहे वह प्रभवादि गत संवत्सर होगा। ( अय चलादी नर्मदोत्तरभागे बार्हस्पत्यमानेन प्रभवादिषष्ट्यब्दानां मध्ये ब्रह्माविंशतिकायां चतुर्थः प्रमोदनामा संवत्सरः प्रवर्तते तस्य मेपाकी प्रवेश समये गतमासादिः १०।१६। ४२ ! १५ भोग्यमासादिः १ । १३ । १७ । ४५ (झंयालाल ज्योतियरत्त का बनाया हुआ राजपूताना पंचांग वि.सं. १६७५ का). २. गतानि वर्षाणि शकेन्द्रकालाव्रतानि रुदैर्गणवेचतुर्भिः । नवाष्टपंचाष्टयुतानि कृत्या विभाजयेच्छून्यपरागरामेः । फलेन युक्तं शकभूपकाल संशोध्य पाल्या........पाः क्रमशः समाः स्युः (वाराही संहिता, अध्याय , श्लोक २०-२९ ). उदाहरण-विक्रम संवत् १९७५ में वाहस्पत्य संवत्सर कौनसा होगा? गत वि.सं. १६७५गत शक संवत् (१९७५-२१५) १८४०.१८४०x११=२०२४०, २०२४०x४०६६०, ८०८६०+arta Reve, Ext : ३७४०-२३ ,१८५०+२३१८४० -३, शेष ३, जो गत संवत्सर है. इसलिये वर्तमान संवत्सर अर्थात् मोद. ३. प्रमायी प्रथम वर्ष कल्पादी ब्रह्मा स्मृत । तदादि षष्टिाछाके शेषं चांद्रोऽत्र वासरः ।। व्यावहारिकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्यादिकर्मसु । योज्यः सवत्र तत्रापि वो वा नर्मदोत्तर (पैतामहसिखांत). Aho! Shrutgyanam Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत्. १८६ उत्तरी हिंदुस्तान के शिलालेखादि में बार्हस्पत्य संवत्सर लिखे जाने के उदाहरण बहुत ही कम मिलते हैं परंतु दक्षिण में इसका प्रचार अधिकता के साथ मिलता है. लेखादि में इसका सबसे पहिला उदाहरण दक्षिण के चालुक्य ( सोलंकी ) राजा मंगलेश ( ई. स. ५६१-६१०) के समय के बादामी ( महाकूट ) के स्तंभ पर के लेख में मिलता है जिसमें 'सिद्धार्थ' संवत्सर लिखा है? २३ --- प्रपरिवृत्ति संघरसर. ग्रहपरिवृत्ति संवत्सर ६० वर्ष का चक्र है जिसके ६० वर्ष पूरे होने पर फिर वर्ष १ से लिखना शुरू करते हैं. इसका प्रचार बहुधा मद्रास इहाते के मदुरा जिले में है इसका प्रारंभ वर्तमान कलियुग संवत् ३०७६ ( ई. स. पूर्व २४ ) से होना बतलाते हैं. वर्तमान कलियुग संवत में ७२ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो बचे वह उक्त चक्र का वर्तमान वर्ष होता है; अथवा वर्तमान शक संवत् में ११ जोड़ कर ६० का भाग देने से जो यथे वह वर्तमान संवत्सर होता है. इसमें सप्तर्षि संवत् की नाई वर्षों की संख्या ही लिखी जाती है. २४ - सौर वर्ष. सूर्य के मेष से मीन तक १२ राशियों के भोग के समय को सौर वर्ष कहते हैं. सौर वर्ष बहुधा ३६५ दिन, १५ घड़ी, ३१ पल और ३० विपल का माना जाता है ( इसमें कुछ कुछ मत भेद भी है ). सौर वर्ष के १२ हिस्से किये जाते हैं जिनको सौर मास कहते हैं. सूर्य के एक राशि से दूसरी में प्रवेश को संक्रांति ( मेष से मीन तक ) कहते हैं. हिंदुओं के पंचांगों में मास, पक्ष और तिथि आदि की गणना तो चांद्र है परंतु संक्रांतियों का हिसाब सौर है. बंगाल, पंजाब आदि उत्तर के पहाड़ी प्रदेशों तथा दक्षिण के उन हिस्सों में, जहां कोल्लम् संवत् का प्रचार है, बहुधा सौर वर्ष ही व्यवहार में खाता है. कहीं महीनों के नाम संक्रांतियों के नाम ही हैं और कहीं चैत्रादि नामों का प्रचार है. जहां चैत्रादि का व्यवहार है वहां मेष को वैशास्त्र, वृष को उयेष्ठ आदि कहते हैं. सौर मान के मासों में १ से २६, ३०, ३१ या ३२ तक दिनों का ही व्यवहार होता है, तिथियों का नहीं. बंगालबाले संक्रांति के दूसरे दिन से पहिला दिन मिनते हैं और पंजाब आदि उत्तरी प्रदेशों में यदि संक्रांति का प्रवेश दिन में हो तो उसी दिन को और रात्रि में हो तो दूसरे दिन को पहिला दिन ( जैसे मेषादिन १, मेषगते १, मेवप्रविष्टे १ ) मानते हैं. २४- चांद्र वर्ष. दो चांद्र पक्ष का एक चांद्र मास होता है. उत्तरी हिंदुस्तान में कृष्णा १ से शुक्ला १५ तक ( पूर्णिमांत ) और नर्मदा से दक्षिण में शुक्ला १ से अमावास्या तक ( अमांत) एक चांद्र मास माना उदाहरण - शक संवत् १८४० में बार्हस्पत्य संवत्सर कौनसा होगा? १८४०+१२०२८५२. ३०, शेष ५२ इसलिये वर्तमान संवत्सर ५९ वां कालयुक्त. गत शक संवत् १८४० कलियुग संवत् (१८४०+३१७१= ) ५०१६, २०१६+१२=५०३३, ५=८१, शेष ५१ गत संसर : इस लिये वर्तमान = ५२ वां कालयुक्त संवत्सर. १. उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमानराज्य वर्षे प्रवर्त्तमाने सिद्धार्थे वैशाखपीयर्णमास्याम् (ई. एँ, जि. १६, पृ. १८ के पास का लेट ). ९. मूल सूर्यसिद्धांत के अनुसार ( पंचसिद्धांतिका ) २. भूल गणना अमांत हो ऐसा प्रतीत होता है. उत्तरी भारतवालों के वर्ष का एवं अधिमास का प्रारंभ शुक्ला १ से होना तथा श्रमावास्या के लिये ३० का अंक लिखना यही बतलाता है कि पहिले मास भी वर्ष की तरह शुक्ला १ से प्रारंभ हो कर अमावस्या को समाप्त होता होगा. Aho! Shrutgyanam Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनलिपिमालाजाता है. ऐसे १२ चांद्र मास की एक चांद्र वर्ष कहलाता है. चांद्र वर्ष ३५४ दिन, २१ घड़ी, १ पक्ष और २४ विपल के करीब होता है. हिंदुओं के पंचांगों में मास, पद, तिथि मादि बांद्र मान से ही हैं. चांद्र वर्ष सौर वर्ष से १० दिन, ५३ घड़ी, ३. पत और ३ विक्ल छोटा होता है. सौर मान और चांद्र मान में करीब ३२ महीनों में १ महीने का अंतर पड़ जाता है. हिंदुओं के यहां शुद्ध चार वर्ष नहीं किंतु चांदसौर है और चांद्र मासों तथा ऋतुओं का संबंध बना रखने तयाँ चांद्र को सौर मान से मिलाने के लिये ही जिस नांद्र मास में कोई संक्रांति न हो उसको अधिक (मल) मांस और जिसवांद्र मास में दो संक्रांति हो उसको क्षय मास मानने की रीति निकाली है. हिंदमात्र के श्राद्ध, व्रतमादि धमे कार्य तिथियों के हिसाब से ही होते हैं इस खिये बंगाल आदि में जहां जहां सौर वर्षे का प्रचार है वहां भी धर्मकार्यों के लिये चांद्रमान की तिथियों आदि का व्यवहार करना ही पड़ता है. इसीसे वहां के पंचांगों में सौर दिनों के साथ चांद्र मास, पद, तिधियां आदि भी लिखी रहती हैं. २६-हिजरी सन्. हिजरी सन का प्रारंभ मुसलमान धर्म के प्रवर्तक पैरांबर मुहम्मद साहब के मजे से भाग कर मेंदीने को कूच करने के दिन से माना जाता है. अरबी में 'हिजर' धातु का अर्थ 'अलग होना', 'छोड़ना' आदि है इसी लिये इस सन को हिजरी सन् कहते हैं. प्रारंभ से ही इस सन् का प्रचार नहीं मा किंतु मुसलमान होनेवालों में पहिले पैगंबर के कामों के नामों से वर्षे बतलाये जाते थे जैसे कि पहिले वर्ष को 'यंजन' अर्थात् याज्ञा' (मके से मदीना जाने की)का वर्षे, इसरे को हुक्म का वर्षे (उस वर्ष में मुसलमान न होनेवालों से लड़ने का हुक्म होना माना जाता है) मादि. खलीफा उमर (ई. स. ६३४ से ६४४ सक) के समय यमन के हाकिम बूमूसा अशभरी ने खलीफा को भी भेजी कि दरगाह से (श्रीमान् के यहां से)शावान् महीने की लिखी हुई लिखावटें आई हैं परंत जनसे यह मालूम नहीं होता कि कौनसा ( किस वर्ष का) शाबान है? इस पर खलीफा ने कोई सन् नियत करने के लिये विद्वानों की संमति ली और अंत में यह निभय हमा कि पैगंबर के मका छोड़ने के समय से (अर्थात् तारीख १५ जुलाई ई. स. ६२२-वि. सं ६७६ श्रावण शुक्ला २ की शाम से) इस सन् का प्रारंभ माना जावे यह निश्चय हि.स. १७ में होना माना जाता है। हिजरी सन का वर्ष शुद्ध चांद्र वर्ष है. इसके प्रत्येक मास का प्रारंभचंद्रदर्शन (हिंदुओं के प्रत्येक मास की शुक्ला २) से होता है और दूसरे चंद्रदर्शन तक मास माना जाता है. प्रत्येक तारीख सायंकाल से प्रारंभ हो कर दूसरे दिन के सायंकाल तक मानी जाती है. इसके १२ महीनों के नाम ये हैं १ मुहरेम्, २ सफर, ३ रबीउल अव्वल, ४ रबीउल् आखिर या रबी उस्सानी, ५ जमादिउल् अध्वल, ६ जमादिउल् आखिर या जमादि उस्सानी, ७ रजय, शाबान, ६ रमजान, १० शव्वाल, ११ ज़िल्काद और १२ जिलहिज्ज. चांद्र मास २६ दिन, ३१ घड़ी, ५० पल और ७विपल के करीब होने से चांद्र वर्षे सौर वर्ष से १० दिन, ५३ घड़ी, ३० पल और विपल के करीव कम होता है. तारीख १५ जुलाई ई. से. १९२२ (वि. सं. १९७६ श्रावण कृष्णा ६) की शाम को इस सन् को प्रारंभ हुए १३०० सौर वर्ष होंगे. उस समय हिजरी सन् १३४० तारीख २० जिल्काद का प्रारंभ होगा अत एव १३०. सौर वर्षों में ३६ चांद्र वर्ष, १० महीने और १६ दिन बढ़ गये. इस हिसाब से १० वर्ष में ३ बांद्र वर्ष २४ दिन और घड़ी पड़ जाती हैं. ऐसी दशा में ईसवी सन् (या विक्रम संवत्) और हिजरी सन् का कोई निश्चित अंतर नहीं रहता. उसका निश्चय गणित से ही होता है, १. सूर्यसिद्धांत के अनुसार. १. नवलकिशोर प्रेस (लखनऊ) की छपी हुई 'माईन अचरी' तर, पृ. ३३७. १. 'गयासुल्लुगात' में 'अजायबउल्बुवान' के हवाले से हिजरी सन् १७ में यह निईय होना लिसा (नवलकिशोर प्रस का छपा, गयासुल्लुगात', पृ. ३२५), Aho! Shrutgyanam Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् __ हिंदुस्तान में मुसल्मानों का अधिकार होने पर इस सन् का प्रचारास देश में हुमा मौर कभी कमी संस्कृत लेखों में भी यह सन् मिल पाता है. इसका सबसे पहिला उदाहरण महमद अजनबी के महमूदपुर (लाहोर) के सिकों पर के दूसरी ओर के संस्कृत लेखों में मिलता है। जो हिजरी सन् ४१८ और ४१६ (ई. स. १०२७ और १०२८) के हैं. २७-शाहूर सन् शाडूर सन् को 'मूर सन्' और 'भरपी सन्' भी कहते हैं. 'शार सम्' नाम की उत्पत्ति का ठीक पता नहीं लगता परंतु अनुमान है कि अरबी भाषा में महीने को'शहर' कहते हैं और उस का पहपवन 'शहर' होता है जिसपर से 'शाहूर' शद की उत्पत्ति हुई हो । यह सन् हिजरी सम् का प्रकारांतर मात्र है. हिजरी सन् के बांद्र मास इसमें सौर माने गये हैं जिससे इस सन्का वर्ष सौर वर्ष के बराबर होता है और इसमें मौप्तिम और महीनों का संबंध बना रहता है. इस.सन में ५६६-६०० मिलाने से ई. स. और १५६-५७ मिलाने से पि. सं. बनता है इससे पाया जाता है कि तारीख १ मुहर्रम् हिजरी सन् ७४५ (ई.स. १३४४ नारीख १५ मई-वि. सं. १५०१ ज्येष शुका २) से, जब कि सूर्य मृगशिर महल पर आया था इसका प्रारंभइमा है. इसका नया वर्षे सूर्य के मृगशिर मचत्र पर आने के ( मृगे रविः) दिन से बैठता है जिससे इसके वर्ष को 'मृग माल' भी कहते हैं. इसके महीनों के नाम हिजरी सन् के महीनों के अनुसार ही हैं. यह सन् किसने चलाया इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता परंतु संभव है कि देहली के सुलतान मुहम्मद तुगलक (इ. स. १३२५-१३५१) ने, जिसने अपनी राजधानी देहली से उठा कर देवगिरि ( दौलताबाद) में स्थिर करने का उद्योग किया था, दोनों फरलों (रबी और खरीक) का शासित नियत महीनों में लिये जाने के लिये इसे दक्षिण में चलाया हो' जैसे कि पीछे से मकबर बादशाह ने अपने राज्य में फतली सन् चलाया. इस सन् के वर्षे अंकों में नहीं किंतु अंक सूचक अरबी शब्दों में ही लिखे जाते हैं. मरहठों के राज्य में इस सन् का प्रचार रहा परंतु भवतोइसका नाममात्र रह गया है और मराठी मांगों में ही इसका उल्लेख मिलता है। १. देखो, ऊपर पृ. १७५ और उसीका टिप्पण ४. १, ऐश्वर पॉमस रचित 'क्रॉनिकस्स प्रोपदी पठान किंग्ज् प्राफ् देहली', पृ. ५८. , डफ रचित 'हिस्टरी ऑफ दी महराज' जि. १, पृ.४०, टिप्पण: * ई.स. १८६३ का संस्करण. ४. इस सन् के वर्ष लिखने में नीचे लिखे अनुसार अंकों के स्थान में उनके सूचक अररी शम्दों का प्रयोग किया जाता है. मराठी में अरबी शब्दों के रूप कुछ कुछ बिगड़ गये हैं जो ( )चिके भीतर जे. टी. मोलेस्वर्ष के मराठीअंग्रेज़ी कोश के अनुसार दिये गये है। -अ (अहो, इहदे);२-अना (रस)३८ सलालइ ( लगी -परखा; भ्यासा (खम्मस), ६-सित्ता (सिन-लिर); ७=सबा (सया);समानिमा (सम्मान); सतना (तिस्सा); १०-मशरा मह मशर, प्रस्ना (इसने) अशरः १३सलासह (सलास) अशर, १४ प्ररखा असर: २० प्रशरीन: ३०-सलासीन (समासीन); ४० प्ररन् । ५० खम्सीन् । ६० सिसीन् (लिन), ७०-समीन ( सम्बन); ८०-समानीन् (सम्मानीन); -तिसईन् (तिस्पेन), १००-माया ( मया ); २०० मतीन ( मयातैन); ३०० सलास माया (सजास मया); ४००-परवा माया; १०००-अलफ् ( अलक)। १००००अशर अल इन अंकसूचक शब्दों के लिखने में पहिले शम्से इकाई, दूसरे से दहाई, तीसरे से सैकड़ा और चौथे से हज़ार बतलाये जाते है जैसे कि १३१३ के लिये 'सलासो अत्रे सहास माया ष प्रक्षा' . ज्योतिषपरिषद के नियमानुसार रामचंद्र पांडुरंग शास्त्री मोघे वाकर के तय्यार किये हुए शक संवत् १८४ (बैवादि वि. सं. १६७४) के मराठी पंखांग में वैशाख कृपया १३ (श्रमांत पूर्णिमांत उपेक्ष कृष्णा १३) शुक्रबारको 'मुगाई। लिखा है और साग में फसली सन १३२८ श्री सन १३९६ सूर सन 'तिसा अशर सलासें मया व अलक' लिखा है (तिसा- अधर-१०% समासै मया-३०० व और, अझफ-१०००. ये सब अंक मिलाने से १३१४होते है). Ahoi Shrutgyanam Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्राचीनलिपिमाला. २८ - फसली सन् हिंदुस्तान में मुसलमानों का राज्य होने पर हिजरी सन् उनका राजकीय सन्हुआ परंतु उसका वर्ष शुद्ध चत्रि होने के कारण सौर वर्ष से वह करीब ११ दिन छोटा होता है इससे महीनों एवं फसलों का परस्पर कुछ भी संबंध नहीं रहता. दोनों फलों (रबी और खरीफ़ ) का हासिल नियत महीनों में लेने में सुभीता देख कर बादशाह अवबर मे हिजरी सन् ६७१ ( ई. स. १५६३ = वि. सं. १६२० ) से यह सन् जारी किया. इसीसे इसको फसली सन् कहते हैं. सन् तो हिजरी (६७१) ही रक्खा गया परंतु महीने सौर (या चांद्रसौर) माने गये जिससे इसका वर्ष सौर ( या चांद्रसौर ) वर्ष के बराबर हो गया. अत एव फसली सन् भी शाहूर सन् की नांई हिजरी सन् का प्रकारांतर मात्र है. पहिले इस सन् का प्रचार पंजाब और संयुक्त प्रदेश में हुआ और पीछे से अब बंगाल आदि देश अक्बर के राज्य में मिले तब से वहां भी इसका प्रचार हुआ. दक्षिण में इसका प्रचार शाहजहां बादशाह के समय में हुआ. अब तक यह सन् कुछ कुछ प्रचलित है परंतु भिन्न भिन्न हिस्सों में इसकी गणना में अंतर है. पंजाब, संयुक्त प्रदेश तथा बंगाल में इसका प्रारंभ आश्विन कृष्णा १ ( पूर्णिमांत ) से माना जाता है जिससे इसमें ४६२-६३ मिलाने से ई. स. और ६४६-५० मिलाने से विक्रम संवत् बनता है. दक्षिण में इसका प्रचार बादशाह शाहजहां के समय हिजरी सन् १०४६ ( ई. स. १६३६ = बि. सं. १६६३ ) से हुआ और वहां इसका प्रारंभ उसी सन् से गिना गया जिससे उत्तरी और दक्षिणी फसली सनों के बीच करीब सवा दो वर्ष का अंतर पड़ गया. बंबई इहाते में इसका प्रारंभ शाहूर सन की नई सूर्य के मृगशिर नक्षत्र पर आने के दिन से ( तारीख ५, ६ या ७ जून से ) माना जाता है और महीनों के नाम मुहर्रम आदि ही हैं. मद्रास इहाते में इस सन् का प्रारंभ पहिले तोडि (कर्क) संक्रांति से ही होता रहा परंतु , स. १८०० के आसपास से तारीख १३ जुलाई से मामा जाने बा और ई. स. १८५५ से तारीख १ जुलाई से प्रारंभ स्थिर किया गया है. दक्षिण के फसली सन् में ४६०-६१ जोड़ने से ई. स. और ६४७-४८ जोड़ने से वि. सं. बनता है. २६ - विलायती सन्. [fement सन् एक प्रकार से बंगाल के फसली सन् का ही दूसरा नाम है. इसका प्रचार उड़ीसा बंगाल के कुछ हिस्सों में है. इसके मास और वर्ष सौर है और महीनों के नाम चैत्रादि नामों से हैं. इसका प्रारंभ सौर आश्विन अर्थात् कन्या संक्रांति से होता है और जिस दिन संक्रांति का प्रवेश होता है उसीको मास का पहिला दिन मानते हैं. इस सन् में ५६२-६३ ओड़ने से इं. स. और ६४६-५० जोड़ने से वि. सं. बनता है. ३० - अमली सन् सन् विलायती सन् के समान ही है. इसमें और विलायती सन् में अंतर केवल इतना ही है कि इसके नये वर्ष का प्रारंभ भाद्रपद शुक्ला १२ से और उसका कन्या संक्रांति से होता है. इस संवत् का पक्ष के बीच में ही प्रारंभ होने का कारण ऐसा बताया जाता है कि उक्त तिथि को उड़ी के राजा इंद्रद्युम्न का जन्म हुआ था. इस सन् का प्रचार उड़ीसे के न्यौपारियों में तथा वहां की कचहरियों में है. ३१ - बंगाली सन्. बंगाली सन् को 'बंगान्द' भी कहते हैं. यह भी एक प्रकार से बंगाल के फसवी सन् का प्रकारांतर मात्र है. बंगाली सन् और फसली सन् में अंतर इतना ही है कि इसका प्रारंभ भाम्विन Aho! Shrutgyanam Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारतीय संवत् कृष्णा १ से नहीं किंतु उससे सात महीने बाद मेष संक्रांति (ोर बैशाख)से होता है और महीने सगा है जिससे उनमें पच और तिथि की गणना नहीं है. जिस दिन संक्रांति का प्रवेश होता है उसके दूसरे दिन को पहिला दिन मानते हैं. इस सन में ५६३-६४ जोड़ने से ई. स. और ६५०-१ जोड़ने से वि. सं. वमता है. ३२--मगि सम्. मगि सन् बहुधा बंगाली सन् के समान ही है. अंतर केवल इतना ही है कि इसका प्रारंभ बंगाली सन् से ४५ वर्ष पीले माना जाता है. इस लिये इसमें ६३८-३६ जोड़ने से ई.स. और ६९५१६ जोड़ने से वि. सं. वमता है. इसका प्रचार बंगाल के चिटागांग जिले में है. भनुमान होता है कि वहांवालों ने बंगाल में फसली सन् का प्रचार होने से ४५ वर्ष पील समको अपनाया हो. इस सन् के 'मगि' कहलाने का ठीक कारण तो ज्ञात नहीं हुआ परंतु ऐसा माना जाता है कि आराकाम के राजा ने ई. स. की हवीं शताब्दी में चिटागांग ज़िला विजय किया था और ई. स. १६६६ में मुगलों के राज्य में वह मिखाया गया तब तक वहां पर सराकानियों अर्थान् मगों का अधिकार किसी प्रकार बना रहा था. संभव है कि मगों के नाम से यह मगि सन् कदलाया हो. ३३-इलाई सन्. बादशाह अक्सर के धर्मसंबंधी विचार पलटने पर उसने 'दीन-इ-इलाही' नाम का नया धर्म चलाने का उद्योग किया जिसके पीछे उसने 'इलाही सन् चलाया. अबदुल कादिर चदायुनी, जो अक्बर के दरबार के विद्वानों में से एक था, अपनी 'मुंनरवचुत्तवारीख' में लिखता है कि 'बादशाह अक्वर ने हिजरी सन् को मिटा कर तारीख-इ-इलाही नाम का नया मन् चलाया जिसका पहिला घर्ष बादशाह की गद्दीनशीनी का वर्ष थार वास्तव में यह सन् बादशाह अक्षर के राजावई २६ अर्थात् हिजरी सन् २ (ई. स. १५८४) से चला परंतु पूर्व के वर्षों का हिसाब लगा कर इसका मारंभ अक्चर की गहरी नशीनी के वर्ष से मान लिया गया है. अक्वर की गद्दीनशीनी तारीख २ रवीउस्सानी हिजरी सन् १६३ (ई. स. १५५६ तारीख १४ फरवरी-वि. सं. १६१२ फाल्गुन कृष्पा ४) को हुई थी परंतु उसी दिन से इसका प्रारंभ माना नहीं गया किंतु उसमे २५ दिन पीछे तारीख २८ रपी उस्मानी हि.स. १६३ (ई.स. १५५६ तारीख ११ मार्च-वि. सं. १६१२ चैत्र कृष्णा अमावास्या) से, जिस दिन कि ईरानियों के वर्ष का पहिला मदीना फरषरदीन लगा, माना गया है. इस सन् के वर्ष सौर हैं और महीनों तथा दिनों (तारीखों) के नाम ईरानी दी है. इस में दिनों (तारीखों) की संख्या नहीं किंतु १ से ३२ तक के दिनों के नियत नाम ही लिखे जाते थे. .. प. त्रि: जि १३, पृ. ५००, ११वां संस्करण, क ई पृ. इलाही सन् के १२ महीनों के नाम ये है-१ फरवरदी;२ वर्दियदिश्त ३ सुर्वाव: ४ तीर;५ अमरदा : ६ शहरेषर: ७ मेहराचा (प्राथान): प्राज़र (आदर). १०३:११बहमन् : १२ अरफंदिचारमः ये नाम ईरानियों के यफ्रजर्द सन् के. ही लिये गये है. ४ ईरानियों का वर्ष सौर वर्ष है. उसम तीस तीस दिन के १० महीने ई और १२ वे नहीन में ५ दिन गाथा (बहुनबद्. ओश्तवट. स्पैतोमट्. बहुदाध और हिश्तोयश्त ) के मिलाकर ३६५ दिन का वर्ष माना जाता है और. १२० वर्ष में अधिक मास महीनों के क्रम से जोड़ा जाता है जिसको कपीसा' कहते हैं, परंतु इलाही सन के महीने कुछ दिन के, कुछ ३० के, कुछ ३१के और एक ३२दिन का भी माना जाता था और वर्ष ३६५ दिन का होता था पधं चौथे घर्ष दिन और ओए दिया जाता था. महीनों के दिनों की संख्या किस हिसाब से लगाई जाती थी इसका ठीक हाल मालूम नहीं हो सका. १ से ३२ तक के दिनों के नाम ये हैं.. १ अङमन्च : २ बहमन्ः ३ उर्दिबहिश्ता ४ शहरेवर, ५ स्पंदारमा ६ खुदाद. ७ मुरदाद (समरवाद)। ८ देपादरः। बाज़र (मादर);१० श्रावां (भाषान ): ११ सुरशेवः १२ माह (म्होर): १३ तीर: १४ गोश; १५ वेपमेहरः १६ मेहर: १७ सरोशः १८ रश्नहः १६ फरवरदीनः २० बेहरामः २१ रामः २२ गोषादः ३ देपदीन; २४ दीन; २५ अर्द (अशीशंग ); २६ प्रास्ताद २७ श्रास्मान; २८ ज़मिश्रा: २६ मेहरेस्पंद; ३० अनेरा; ३१ राज़: ३२ शब. इनमें से ३० तक माम तो ईगनियों के दिनों । तारीखों ) के ही हैं और अंतिम दा नये रक्खे गये है. Aho! Shrutgyanam Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्राचीनलिपिमाला. इम मन् में १५५५-५६ मिलाने से ई. म. और १६१२ मिलाने से विक्रम संवत् बनता है. यह सन् अक्वर और जहांगीर के समय तक चलता रहा परंतु शाहजहां ने गही बैठतेही(ई.स. १६२८) इस सन् को मिटा दिया. यह सन् केवल ७२के करीब ही प्रचलित रहा और अक्षर तथा अहांगीर के ममय की लिखावटों, मिकों तथा इतिहास के पुस्तकों में लिखा मिलता है. ३४.--ईसघी सन् ईमधी मन् ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईमा मसीह (जीसम् क्राइस्ट) के जन्म के वर्ष में चला हमा माना जाता है और ईसा मसीह के नाम से इसको ईसवी सन् कहते हैं. ई. म. की पांचवीं शताब्दी तक तो इम मन् का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था. ई. स. ५२७ के आमपास रोम नगर (इटली में) के रहनेवाले डायोनिसियम् एक्सिगुनस् नामक विद्वान् पादरी ने मजहबी सन् चलाने के विचार से हिसाय लगा कर १६४ में श्रोलिपिड्के चौथे वर्ष अर्थात् रोमनगर की स्थापना मे ७९५ में वर्ष में ईसा मसीह जन्म होना स्थिर किया और वहां से लगा कर अपने समय तक के वर्षों की संख्या नियत कर इस इयों में इस मन् का प्रचार करने का उद्योग किया, ई.स.की छठी शताब्दी में इटली में, पाठ । में इग्लैंड में, आठवीं तथा नवीं शताब्दी में फ्रान्स, बेनजिनम्, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में और ई. स. १००० के आस पास तक यूरोप के समस्त ईसाई देशों में इसका प्रचार हो गया, जहांकाल गणना पहिले भिन्न भिन्न प्रकार से थी, अब तो बहुधा सारे भूमंडल में इसका, कहीं कार कहीं ज्यादा, प्रचार है. सन् के अंकों को छोड़ कर बाकी सब बातों में यह रोमन लोगों का ही गई है. रोमन लोगों का पंचांग पहिले जुलियस सीजर ने स्थिर और ठीक किया था ईसा मसीह का जन्म किस वर्ष में हुमा यह अनिधित है. इस सन के उत्पादक डायोनिसिश्रम एक्सिगुभस् ने ईसा का जन्म गेम मगर को स्थापना से ७५ पर्ष (वि.सं.५७ ) में होना मान कर इस संवत् के गत वर्ष स्थिर किये परंतु अब बहुत से विमानों का माममा यह है कि ईसा का जन्म ई. स. पूर्व ८ से ४ के बीच हुआ था न कि ई. स. १में (दीन्य पन्सारको पीडिमा, एच.सी. गो' नील संपादित; पृ. ५७०) २. ग्रीस (यूमान ) देश में जेभस (जुपिटर इंद्र) प्रादि नेवताओं के मंदिरो के लिये पवित्र माने जानेवाले पोखि.. पस पर्फत के मागे के मैदान में प्राचीन काल से ही प्रति चौथे वर्ष शारीरिक बल की परीक्षा के दंगल हुमा करते थे जिमकी 'मोलिपिङ्ग गेम्स्' कहते थे. इसपर से एक दंगल से दूसरे दंगल के बीच के ४ वर्षों की संज्ञा 'भोलिपिमर' हुई. पहिले इस देश में कालगणना के लिये कोई सन् (संवत् ) प्रचलित न था इस लियेई. स. पूर्ष २६४ के मासपास सिसिली नामक द्वीप के रहनेवाले रिमे अस् नामक विद्वान् ने हिसाब लगा कर जिस ओलिंपिमद् में कॉरोइबस् पैदल दौड़ में जीत पाया था उसको पहिलामोतिपिम मान कर ग्रीकों में कालगणना की नीष ठाती. यद पहिला श्रीलिपिमई.स. पूर्व ७७६ में होना माना गया. • प्रीको की माई रोमन लोगों में भी प्राचीन काल में कालगणना के लिये कोई सन पलित न था इस खिये पीछे से रोम नगर की स्थापना के वर्ष से सन् कायम किया गया, परंतु जिस समय यह सन् स्थिर किया गया उस समय रोम नगर को बसे कई शताब्दियां बीत गुकी थी इस लिये वहां के इतिहास के मित्र भित्र पुस्तको मे रोम की स्थापना से जो सन् लिखा गया है उसका प्रारंभ एक्सा नहीं मिलता रोमन इतिहास का सबसे प्राचीन लेग्तक फॅविमस् पिफ्टर (है. स. पूर्व २२०) इ.स. पूर्व ७४७ से; पॉलिविएस् (ई. ख. पूर्व २०४-१२२) ७५० से पॉसिबम् कॅटो (ई. स. पूर्व २३४१४६ ) ७४१ से; बॅरिस क्लॅपम ७४२ से और टेरेरिस् दरों (ई. स. पूर्व ११६-२७ ) ई.स. पूर्व ७५३ से इस सन् का प्रारंभ मानता है. वर्तमान इतिहास लेखक घरी का अनुकरण करते हैं. . प्रारंभ में रोमन लोगों का वर्ष ३०४ दिन का था जिसमें मार्च से डिसेंबर तक के १० महीने थे. जलाई के स्थानापमास का नाम 'किन्क्रिलिस्' और मागस्ट के स्थानापत्र का नाम 'सेक्सिलिम्'था. फिर नुमा पाँपिलिअस् (इ. स. पूर्व ७१५-१७९) राजा ने वर्ष के प्रारंभ में जॅन्युअरी (जनवरी) और अंत में फेलभरी (फरवरी) मास बड़ा कर १२ चांद्र मास अर्थात् ३५४ दिन का वर्ष बनाया.इ.स. पूर्व ४५२ से चांद्र वर्ष के स्थान पर सौर वर्ष माना जाने लगा जो ४५ दिन का ही होता था परंतु प्रति दूसरे वर्ष ( एकांतर से ) कमशः २१ और २३ दिन बड़ाते थे, जिससे ४ बर्ष के १४६५ दिन और १ वर्ष के ३६६ दिन होने लगे. उनका यह वर्षे वास्तविक सौर वर्ष से करीब Aho! Shrutgyanam Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संवत् उसके पीछे जो अंतर पड़ा उसको पोप ग्रेगरी ने ठीक कर दिया. इम मन् का वर्ष मौर है जिसका प्रारंभ तारीख १ जनवरी' मे होता है और जो ३६५ दिन के १२ महीनों में विभक्त है. प्रति चौधे वर्ष १ दिन' फरवरी मास में बढ़ा दिया जाता है. ईसाइयों का दिन (नारीख) मध्य रात्रि से प्रारंभ हो कर दूसरे दिन की मध्य रात्रि तक माना जाता है. इस मन में ५७५६ जोड़ने से वि.सं. धनता है. हिंदुस्तान में अंग्रेजों का राज्य होने पर इसका प्रचार इम देश में भी हुश्रा और यहां का राजकीय मन् यही है. लोगों के ममान्य व्यवहार में भी इसका प्रचार बहुत कुछ है. १ दिन अधिक बड़ा था. इस वर्षगणना से २६ वर्ष में करीब २६ दिन का अंतर पड़ गया जिससे प्रीको के वर्षमान का अनुकरण किया गया जिसमें समय समय पर अधिक मास मानना पड़ता था. इससे भी अंतर बढ़ता ही चला और जुलियस सीज़र के समय वह अंसर १० दिन का हो गया जिससे उसने ई. स. पूर्व ४६ की ४५५ दिन का वर्ष मानकर यह अंतर मिटा दिया, किंक्टिलिस् मास का नाम अपने नाम पर से 'जुलाई रक्खा और आगे के लिये अधिक मास का मगड़ा मिटा कर ३६४ दिन का वर्ष नियत कर जैन्युअरी. मार्च, मे, जुलाई, सेवर और गबर महीने तो ३१, ३१ दिन के, वाकी के, फेब्रुअरी ( फरवरी के सिवाय, ३०, ३० दिन के और फेब्रुअरी २६ दिन का, परंतु प्रति चौधे घर्ष ३० दिन का, स्थिर किया. जुलिनस् सीज़र के पीछे ऑगस्टर ने, जो रोम का पहिला बादशाह हुश्रा, सवस्टाइलिस मास का नाम अपने नाम से ऑगस्ट रक्ला और उसको ३१ दिन का, फेब्रुअरी को २८ दिन का, सप्टेंबर और नवेयर को ३०, ३० दिन का और विसंघर को ३१ का बनाया. सी परिवर्तन के अनुसार ई. स. के महीनों के दिनों की संख्या अब तक चली आ रही है. १. झुलिस सीज़र का स्थिर किया हुश्रा ३६५ दिन का सौर वर्ष बास्तविक सौर वर्ष से ११ मिनिट और १४ सैकंड पड़ा था जिससे करीब १५८ वर्ष में १ दिन का अंतर पड़ने लगा. इस अंतर के बढ़ते बढ़ते ई. स. ३२५ में मेष का सूर्य, जो अलिअस् सीज़र के समय २५ मार्च को पाया था, ता०२१ मार्च को आ गया और ई. स. १५८२ में ११ मार्च को मा गया. पोप ग्रेगरी (१३ वे) ने सूर्य के चार में इतना अंतर पड़ा हुआ देख कर ता०९२ फरवरी. स. १५८२ को यह प्राक्षा दी कि इस वर्ष के अक्टोबर मास की चौथी तारीख के याद का दिन १५ अक्टोबर माना जावे. इससे लौकिक सौर वर्ष बास्तविक सौर वर्ष से मिल गया. फिर आगे के लिये ४०० वर्ष में ३दिन का अंतर पड़ता देख कर उसको मिटाने के लिये पूरी शताब्दियों के वर्षों (१६००.१७०० आदि) में से जिनमें ४०० का भाग पूरा लग जाये उन्हींमै फेब्रुअरी के २६ दिन मानने की व्यवस्था की. इस व्यवस्था के बाद अंतर इतना सूचा रहा है कि करीब ३३२० वर्ष के बाद फिर दिन का अंतर पड़ेगा. पोप ग्रेगरी की माला के अनुसार रोमन केथोलिक संप्रदाय के अनुयायी देशों अर्थात् ली, स्पेन, पोर्तुगाल प्रादि में तो ता०५ ऑक्टोबर के स्थान में १५ अक्टोवर मान ली गई परंतु प्रोटेस्ट संप्रदाय के अनुयायी देशवालो ने प्रारंभ में इसका विरोध किया तो मी अंत में उनको भी लाचार इसे स्वीकार करना पड़ा. जमीवालों ने ई.स. १६६६ के अंत के १० दिन और कर १७०० के प्रारंभ ले इस पणना का अनुकरण किया. इग्लेंड में ई. स. १७५९ में इसका प्रसार हुभ्रा परंतु उस समय तक एक दिन का और अंतर पड़ गया था इसलिये ता०२ सेप्टेबर के बाद की तारीख (३) को १४ मेटेवर मानना पड़ा. रशिमा, प्रीस मादि ग्रीक चर्च संप्रदाय के अनुयायी देशों में केवल अभी अभी इस शैली का अनुकरण हुमा है. उनके यहां के दस्तावेज़ आदि में पहिले दोनों तरह अर्थात् जुलिअस एवं प्रेगरी की शैली से तारीखें लिखने रहे जैसे कि २० एप्रिल तथा ३ मे आदि. ई.स.का प्रारंभ नारीख जनवरी से माना जाता है परंतु यह गणना अधिक प्राचीन नहीं है.सके उत्पारक डायोमिसिअस ने इसका प्रारंभ तारीख २५ मार्च से माना था और वैसा ही ई. स. की १६ व शताब्दी के पीले तक युरोप के अधिकतर राज्यों में माना जाता था. कान्स में ई. स. १६६३ से वर्ष का प्रारंभ तारीख १ जनवरी से माना जाने लगा. इंग्लैंड में स. की सातवीं शताब्दी से किस्टमर के दिन (नारीख २५ डिसेंबर) से माना जाता था. १२वीं शताब्दी से २५ मार्च से माना जाने लगा और ई. स. १७५२ से. जब कि पोप ग्रेगरी के स्थिर किये हुए पंचांग का अनुकरण किया गया, तारीख १ जनवरी से सामान्य व्यवहार में वर्ष का प्रारंभ माना गया ( इसके पूर्व भी अंग्रेज़ अंधकारों का ऐतिहासिक वर्ष तारीख जनवरी से ही प्रारंभ होता था) 1. जिस वर्ष के अंकों में ४ का माग पूरा लग जाय उसने फेब्रुमरी २६ दिन होते हैं. शतादियों के वर्षों में से जिसमे ४००का भाग पूरा लाजाय उसले २५और बाकी के २८ जेसे कि ई.स.१६०० और १००० के २१,१ दिन और २७००, १८०० और १९०० के २८, २-दिन. Aho 1 Shrutgyanam Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट में दिये हुए भिन्न भित्र संवतों का ईसवी सम् से संबंध. शताब्दी के अंक रहित सप्तर्षि संवत् - ई.स. २४-२५ (शतब्दी के अंक रहित). कलियुग संवत् (गत)-- ३१०१-३१००-ईसवी सन्. वीरनिर्वाण संवत् -५२७२६-ईसवी सन्. बुद्धनिर्वाण संवत्-४८७(१)-ईसवी सन्. मौर्य संवत्-- ३२० (१) ईसवी सन्. सेल्युकिर्डि संवत् -- ३१२-११-ईसवी सन् चैत्रादि विक्रम संवत् (मत).. ५७५६ - ईसवी सन्. शक संवत् (गत + ७८-७९%ईसवी सन्. कलचुरि संवत् + २४०-४६ = ईसवी सन्. गुप्त संवत् +३१९-२० ईसवी सन्. गांगय संवत् + ५७० (?)-ईसवी सन् हर्ष संवत् + ६०६-७-ईसवी सन्. माटिक संवत् +६२३-२४ = ईसवी सन् कोल्लम् संवत् । ८२४-२५ = ईसवी सन् नेवार संवत् + ८७८-७९ = ईसवी मन्. गजुक्य विक्रम संवत् + १०७५-७६ -ईसपी सन्. सिंह संवत् + १९१३-१४-ईसवी सन् लक्ष्मणसेन संवत् + १९१८-१९-ईसवी सन्. पडुवैप्पु संवत् + १३४०-४१-ईसवी सन्. राज्याभिषेक संवत् + १६७३-७४ = ईसवी सन्. शाहूर सन् + ५६६-६०० = ईसवी सन् उसरी फसली सत् + ५६२-६३= ईसवी सन्. दक्षिणी फसली सन् + ५६०-११= ईसवी सन्. विलायती सन् + ५६२-६३ - ईमवी सन. अमली सन् + ५६२-६३-ईसवी सन्. बंगाली सन् + ५६३-६४ -ईसवी सन्. मगि सन् + ६३८-३६ ईसवी सन्. इलाही सन् + १५५५-५६ ईसर्व सन्. Aho! Shrutgyanam Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध 1 ३५ कहते ह ८ ३२ परा ३७ तृषिमपि ६२७ मत्स्योरा ३० रुपये ३३ श्रणकरा ४२ "वदत् ते. " 1 २० ३३ १. " **** 1 ** १४ ३४ इसस २६ २७ पारम् १८३७ म् यज्य . २२ २७ पहिला २७ ३४ और २६ ६ रात दिन १२ सहित्य शुचिपच शुद्धियों में से बहुत सी तो छपते समय मात्राओं के टूटने या हिल जाने या अक्षरों के निकलने से हुई है. संभव है कि कितनी एक प्रतियों में इनमें से कुछयां हुई और उसी कारण से दूसरी हो गई हो इसलिये पाठकों से निवेदन है कि अर्थ के अनुसार उन्हें सुधार कर पढ़े ३५ ३२ २३ पश्चिम ४७ २४ ३१ जामाया ४८ ५५ ३६ सप्ततरं ४२ पृष्ठ २यते प्रसन 37 अणकारा 'वदत्. ते ११७९४१६२८१४. ११६:१४१८२८२४ ७ ई. स. पूर्व ३२६ ५ हुई १३ गोलाइदार ३७ लकरि २ नागरा ४५ १६ 'नौ' और 'मा AAAAAAAAAAAE २६ १= पांचवा ३४ अकूटक २११४ ર ५ मतापि १३ पूषय "पावर" ... 'रचितं 'युद्धा' 'रचितं यज्य युज्य पहिलो शुद्ध कहते है BBBBBBBBBBBBB पराण ... तृषमृषि मृत्योरा स्पर्षरूपं समाक्षर पृष्ठ घृते प्रवृत्तानां इससे ओर दिन रात साहिल पश्चिमी जमाया CRE हुई ई. स पूर्व २१६ लकीर मोलाईदार नागरी पांच रयितुं रवितुं युज्य 'नौ' और 'मौ' प्रेकूटक जटा गुहा मातापि पूर्षेयमु पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध ३२ ३२ सपत् १५ २५ आड कर ७४ ६ 23 ७५ T R १४ ७६ ७ २३ सी: गु. इ ३ ३८ जि. पृ १७२ ८४ ६ "गोप्रद परम ८५१६ जयत्यहं १८ 'स्वाध्य ? agia जिनमें स ७ सुरारिः י २६ श्री श्री श्री अंश मे ८६ १६ जसी ६६ ३० " वालककायम १ स्व ६८ ६६ १६ संयुक्राक्षिरों १०१ ३५ सभव है १०३ २८ ३० ११६ १२ कारण: १०४ २ १०६ ९० हाईयो ६ किन्ही ११० १६ बर्नेल १९११ २४ अक ११६ ३२ हिंमाटिक चिह्नों के शंका की है 21 ३४ सामनता १९४ २२ हिरोलिफि २६ हिरांट २ चित्र के साथ Aho! Shrutgyanam सहाचार्य रम्यदये १६ 73 २० तद्गरुवा संवत् जोड़ कर श्री और श्री अंशों में सवि ... जिनमें से मुमरि. ली; गु. ५: जि. ६, पृ. १७२ 'गोमद परम' जयत्य ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ ... ... ..... स्वाध्या "कारी जैसी ... *** ... शुद्ध. बालककामय हस्य संयुक्ताक्षरों संभव है चिके शंका है वि के साथ द किन्हीं बल ஜின் डिमॉरि समानता हिपरोलिफिक हिपरेटि सिंहाचार्य व्युदये लघुगुरुणा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्रद्युम्नो ... षियन्मुनि .... चतुर्युगेनैते ... चैत्रशु ... घुगणात ... मृता वसुपक्षाः ... खेद्रिय ...अंत के मिले हुए गुणिते ... सूची ... मंते जगह गाथासप्तशति गुणिते ... सूनुनल उपर्युक्त पृष्ठ पति अशुद्ध ११६ २१ प्रद्यम्नो १७ वियन्मुनि १६ चतुर्यगेनैते ३८ चत्रशु ६१ धगणात् ध्दता घसुरक्षा ५० खेदिय १४ मत के २४ मिल हुए .: ४१ गणिते ४२ गणिते ११७ ४३ सूनचल १४ उपयुक्त ११६ २० के पार १० वीं १२० १० अखिन . १ जंधा ३२ गया-पस्तान् " १८ गतस्थ ४२ बगऽवर्ग १२९ २५ युध १२५ ३३ टिप्पण में १९८ १९ २० १३० ३१ लिपी १३९ ६ सघीट १३६ ५ चो. १८ ., खो. २० १४३ १२ लिखते हैं। १४४ १८ १५ थीं शताब्दी . १६ टिकाउ , ५ और १४५ ४० अजमेरे १४७ १० महंगे २४६ २१ धर्मपात्रो १५० २० पीतः १५७ २४ पखड़ी १५१ ३३ रात्री " २५ तेवनले १५२ २४ तासात के और १०वीं ... अश्विन अंधा गुणाभ्यस्तान् ... गतस्य बर्गेऽबर्ग शुद्धिपत्र (पृष्ठ पंक्ति अशुभ २६३ २६ सुन्न .. सुनं १६५ ३६ मालकाला ... मालबकाला |२१ ११ दाननि ... 'दामानि , २८ घशीखस्य ... वैशाखस्य १४७ १६ गाथासप्रति ... गाथासप्तशती " १६ मीने लिखे .... उनमें नीचे लिखे १६७ स ली; गु.: .... क्ली; गु. .. ३१ सृषि ३५ मते .... गाथासप्रशती. उपामवनाला .... उपनामबाला , ४४ पांडुरंग ... काशीनाथ पांडुरंग ... ४७ काव्यदर्श ... काव्यादर्श | १६६ २६ नाव .. ना १८१० या ११वे ....१० या ११वें , ३१ श्रामन(म्न)प ... श्रीमन(न्नप , ३२ प्रतिपति(त्ति)या ... प्रतिपति(ति)यौ १७१ २७ उद्धत ... उद्धृत १७१ र रथसप्तभ्यां ... रथसप्तम्यां १७२ ३२ पत्रा १७३ २३ उम्ही उन्हीमें १७४ २० षष्ठ १७५ ४२ चाहय ... चाहिये १७६ २० गांगेय ... गाङ्गेय १७२ १२ अमी कत ... अभी तक , ३३ प्रवतमान ... प्रवर्तमाने १८० १६ हीत ... इति १८१ ५ सपत् ... संवत् । ११ माहमाघ .... महामाघ , २४ र्वष मासकेमैणव ... वर्ष मासक्रमेणव , ३१ त्रिषणयु .... त्रिषष्ट्यु । ३६ स्मृत .. . सवत्र ... सर्वत्र , ४० नर्मदोत्तेर नर्मदोत्तरे १६० २८ प्रस ... प्रेस ११२ १२ सयुक्त ... संयुक्त ११ बनता ... बमता १६६ २ शतदी ... रातादी , २० पप्यु ... पुरुषेप्यु ख्युष टिप्पण ५ में ... लिपि घसीट ... चौ. १८ सौ. २७ लिखते हैं। .... १३ वीं शताब्दी ... टिकाऊ ... भार ... मजमेर महंगे ... धर्माबाओं ... पतिः ... पैसड़ी ... हेचमेषु शासति Aho! Shrutgyanam Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युनिपत्र. लिपिपत्रो का शुद्धिपत्र लिपिपत्र पंक्ति अशुद्ध शुख सिपिपत्र पंक्ति अशुद्ध , तीसरा ३ प्रा शे ४४ वां ८१ ते र बृने ... पांचवां १४ यश स' यस ४५ वा दानतो ... दामपत्रों .... सातवां १ नाशिक नासिक १६ या १५ ऊखा.ऊ ... ऊखा . उ १३ वां ५ डणत १० वा ४ चट २१वां ११ न १२ वां । वायलकामय ... पालककामम २० यो १५ स्परां... स्थाओं १८ शकलकामय... वालककामय ३१वां ११ न्यो । के ... न्द्रो भ्रा के ___वां । शहबाजगढ़ि ... शहवाज़गड़ी ३२ वां १५ स स ... त .. . ७ म्य अस्त ... म्य वस्त ____३३ वा । राजा वैद्यदेव ... वैद्यदव , ४० व १५ ये र यो ... ये रै यो , ६७ यांबड ... १वां । दानों ... दामपत्रों ., ७०वा ४ जह ... अप्रट डत त ब Aho! Shrutgyanam Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho! Shrutgyanam Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपिपत्र पहिला. яаҳат хят яйт т атак а ги чи (ईसवी मन पूर्व की रो मतान्दो) # # + + K L < Po7. 1. ". . KRBKK Полили даф фE & E & Hн таас << oүү уу? 22 153} тття RP Poo9 папт u v ob ó b l l l l l T EX soli नि टो ढी यो पो मी न ध न म क जू के टे णे घे J & Ğ o ť zo i ė į į È & 7 c I o गा नो ना त्र त्पा मा म्य दिव व्या या ति सि सा Тf figgy : б{{x4 ": DXvе >tai I >CI fћ 7th :-D ttt & s. XING {{this t. d are th J Out C si lxer uk 731 1 Cl> {% я скъ+d 188 соак >6E CI CL 7&t fуг хи 1x 76: СLL LILI. 1, 5, 86с. Aho! Shrutgyanam Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate 11 लिपिपत्र दूसरा. ита' ҳтят ҳття й ҳа аёт й етя fаа хv qa qa qat. (£ ж. қа т атқh zar=1). देहली के शिवालिक स्तंभ के लेख में, 4 था श्री ख स ज ट द ध म म जा पिं भी य य यू няі тако; ар - 2 स्वालमी के चटान के लेख मे. ХЯТоса аль хеевск тут र म श ष ष स ह ता शा शि तु खे मे ले य म ФАле Ерикс КулоЕ बोगर के सेस्स में. fazтұе. xfvҰг. атат. чі. гль , , чбу; г – и п 28 с. CL>x J£ - Я, se Eья я-8 : D-8,rt 1 л съALJA XLeC> 81A НAL D8 Ғ8AI Яла WIL Y AU & XL L XAL till and LE I > 88 ЯцLoL D'SLT D8+. от РР ҮҮ? ? У ? ? ??рү8 ХТО 9 ГК Р 818 рт?P Y+7 8 р Aho 1 Shrutgyanam Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate 111. v ती & द रामगढ़. यि नागार्जुनो गुफा. लिपिपत्र तौसरा. रामगढ़, घोसुंडी आदि के लेखों से उद्धृत किये हुए मुख्य मुख्य अक्षर. ( ई. स. पूर्व की दूसरी शताब्दी ). घोसुंडी, ष स उन्ह है 14 उ शु बी 9 $ ४५ [ S उत्त ऊ स्ख 而 भरजत स्तर के लेखों में. प्रा A ग ज 2 ∈ I 1 d स ४. 61 T K K ए र 酒 fa गी 3 माना घाट के लेखों से. 忙 म स सु * थो लो कं ม अ लहर 4 व् च + ५१ है h 4 बेसनगर प चहकततर सांची 谢 मे से Aho! Shrutgyanam 2197 27 AT 1929107 اد fu ळी इ Ww भ 可 འ 100 उ न र र घि भिं P लिं बो रो ले गो मो X 3 1 L X 1 8 ? √ JY & J n \ Ï C# -> 60 हाथी गुंफा. ऐ क 赍 04 f wळ ४४ IYZ २९६रह समयमा कर 31 TUY TY7TD Tehps Ith BIUK नाम 177 P Y&.trঐ JIY Y1d RR.D ९ CP TICHITREK AT तदःः -T+PRT THAP TYP B Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plato IV लिपिपत्र चौथा. भरिमोलु के सूप के १० सेखों में (म. पूर्व की दूसरी शताब्दी। Y1 039 Puv_+] KK KK A८ [ CORRIAS मन - क का खा जा दा ना पा रा रा कि टि मिचि चि. ¿CCEfT 6 T r r P O T C One कि बी जु न एव मन यू FFt 2 E MAq के खे को गो गो टो की दो नी पो दानी रो +7 + (II I T FRUARVE trtai & trend tied tof de Il CIM GEAFA d Qourri ind GI OLAF EIN FEATF PEL LAT Ć MLA Fo- o ri ToCRE h_G FATTERI CIL OFF TE .१ Y! Py 4.] 17 VP 49 ४८ R+FFPK b/t →11 -? Aho! Shrutgyanam Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hlolu V. त्रु त J. ह :: 44. U Ww F ह भ བ व 5 लिपिपत्र पांचवां पभोसा और मथुरा के लेखे से उद्धृत किये हुए मुख्य मुख्य अक्षर. (ई. म. पूर्वको पहिलो शताब्दी के आसपास). पiter के ? लेखों मे ل بنا RI द र सा 你 री पू मे कढ त ? ] ४ ४ ४ पु र्च 3 ख 2253 お श ส द प मथुरा के ४ जैन लेखों में. 霏 21 Ap ध फ R ४ महालय शाम के समय के मथुरा के जैन र मे. श्र 商 ज น T न द ध न प्र प्र क ह ०१ त० १01 पो fz शि गो तो मो के हो त = ४ च ம थ र र र र व प U ३ J8A 8 ¿ Aho! Shrutgyanam व च इ บ स्व S J 4 भ म * X w " prc J दि घो शो इ च { KLAYE 3 3 d g 18 Ad81 4 Uotn+fus -Fafarda yenu...... সখনল ४৬।ইন৩ प्रत हुए कैपाए हरहरू+& पक्ष क fuzz & inbut y१% 17 frond प्रজ= ०८ १४५zz yebuz= ffa ছ४ন पृष्ठ على أهم पुतळsu jऊतार X YYQ& Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate 11. लिपिपत्र छठा. कुशमवंशी राजाओं के समय के मथुरा, सारनाथ आदि के लेखों में ई.म. को पहिलो व दुमरी मादो। मथुरा के खां मे. र C 4 d उ स य क E EFC ० १ ० ०6 Y x XnOIloidi voorry x 8 or chUJNA AAUHUpd र १ ह ह क जा जा शा गाना वा रा षा णि यि वी मो in u zo u E È E LE I hof 6 à 8 8 4 द तु तु दू से वे गो लो ग य . व्यं मिस स्प 52)A AXA 23. सूरी ता पारनाथ के लेखी म. चार गांव के लेख से १ . ५. स. 65 x1EY PRIYA43. ETAH 1 - 2 - H. H y dia nit Yay instdfco x tta 104 Huy म FYतले! HE. Aho! Shrutgyanam Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपिपत्र सातवां. शक उपवास और उसकी स्वौ दक्षमिचा नाशिक के लेखों मे. (ई. म. की दूसरी शताब्दी). HH : LL AZ 720 3 DळE CO26 Ih FOU O ILEGA ४LIJAyus क म जा जा टा दा मा नि थि रि लि दो मो दु ख ई भू 4 PEEL Pt १९+ भू मू त थे ले पो न ग्रा ज्ञः त्य च ना ना .र्ण स्य KHET.. . Xx 2 Rex S9 4964 t quy mult EX5 1193E LEA26L Fanhaiy? 1LOTP HATT436171 285 : १५ - 1.3 J४? THE TELnb Puray. ल 25 एस. एम. १५.1: Herbyत) 204] Nida Tujh d dharSapa y puyat *s* nEO_201731 :0-0517XI 7 +10 ALL Aho! Shrutgyanam Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate V111. त्र फु इ लिपिपत्र पाठवा. क्षत्रप वंशी राजा रुद्रदामा के गिरनार के चटान पर के लेख से. (ई.स. की दूसरी शताब्दी रम्म Δ च ग द व व 買 3 द श स फ म र ठ र रु ७ घल घ घ 80 WJ bEET C हो चोफि ਚ k* $? 5 म F घ प ΕΙ है दृ च 要 भ न £ म 湯 का जा 21 मा મ J৯৯০ব&f PC ४ R 7 C : स पृथ की पं कु भु रु डू मू F फ ग्र ま द पे नव गा के है है है 5 J ट्रु होटेल J } } 0 } ± 11 8 एल # 744 O च ट्र 寶 所 र्या घ्र मा ङ् द प है की हु म y 201 य र ܕ 2 UJ8JZI jE3JUzfzg & ४०१४०६१. £f 433fzyw857787945 ४७zUI fदुरई बधाgu ए ०४५ ও 3 yůz ƒàÿízüm: yelvi Ei मृसुहुत ४७5 OFUL सुहे४७ & fol ঈওতনউসwধ সই ঠক भत्ताह 5388 tỷ ở xa qua xả ở Đô 1832108,$ 7J46832110. 10882882. Aho! Shrutgyanam 6 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XX. लिपिपत्र नवमा. सातवाइन(चान्ध्र)वंशी राजाओं के मासिक से मेलों से (ई. म. को मरो शताम्हो). वामिहीपुषपुळुमाधि के लेखों के स+:- LA021 2020 W उE EP COĆIAño ¿OOIU भ म य य र ल व म ह क मा वा गि जिरि चि बि, त ४ ४ ४ 6737 वो दु ख तु न स ल भू सू से से नो मो मो र हा छ ४१ 3 सदन त J४.५ स्ट . गौतमीपुरयाशातकणी के नेत्र से, स न द प ले प्रो PU गोतमोपुषशातकणी' के र खेसों से. र म ग र च ट र :.00 ठ ठ ड र न O त त त र र ध प . भ प रा हो र भू खे धो ली वा 200 ल त छ र ४ Ram Ji BRAdyAJ १५९४७ 87t 18 ०८१ २६.1 Undds - 2 3RD oCE TER 66४५८-४४६४-४JUsAw. Bit pe HilforsetyottsUJAH S982 AbhiyaFEdyo dALISHUL.FL१४४ - Aho! Shrutgyanam Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate.x. लिपिपत्र वा. पश्चिमी क्षषप, पैङ्कटक और पां-वंशी राजाओं के सिक्कों में उद्धृत किये हुए मुख्य २ पक्षर है. स. की दूसरो से पांचवी शताब्दी). पश्चिमी पचयों के सिक्कों से (ई. स. की दूसरी से चौथी शताब्दी तक). . & EO ¿ IIIVV V V V V cu w y 264 nc24 A Na Bilio Ě Ě y y n t t d £ £ Y wो जो जो जो जः च च द्र द्र ब ईर्षे श्रि व स्य म स्व. १६ 55 5 3 3 3 3 3 1 3 153 a. x पटकों के विडों से (t. स. की दीं मनाम्दी). भांत्रों के विकों मे (इ. स. को २री व श्री शताब्दी). E ETIYEJU H o cha į i te w 10 AU४८ ४ ४ ४ व ५ पर TRE, WSXXV tuulu 5 xotguu u*&+93 ५ ८५० vsJUNTATIyoy {} vsJzUN EXNIN YJN li { fun ways vilguw zxxzygu se vijgwN EVE?g': 15 xį. HTYAN J5 EAN A2y: J vn.vx v५४ Aho! Shrutgyanam Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plute 97. लिपिपत्र ११वां. दक्षिण की भिन्न २ गुफ़ाओं के कई लेखे से उद्धृत किये हुए मुख्य र अक्षर. (ई.स. को दूसरी मे चौथो शनाम्दी). भाजा. पित्तलखोरा. द. द दा. उ ग ५ ५ पर 50०० ४ भेलारवाडी बेडमा ब. भो. म र स दे. ८० ह कन्हेरी. काली aushonuvy I znuo o { कालो १८ - ४११ त ४८ 2 nu भ प ल व व स दि ति मि रि रि लि री पु तो य. , ७ 2/७४१५५ नाधिक कूड़ा. र जा स मू मि ट्रा थे. अका रि सि लि वी पु रे . C4 R- :: ८ ६ ४३६ ५ do ahju h 8 hufe II tu oxrother dhv४:४ Ush R४ 3 - In genj & flu show ut o xhUhJ LEN :X af I f}h vagoyqu sh? mu 200 skh typ4 dxjabi Aho! Shrutgyanam Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate xIL. लिपिपत्र १२ वा. अमरावती और जम्गय्य पेट के सेसों से. (.स.को दूसरी व तीसरी शताम्दी). मरावती के लेखों से उद्धृत किये हुए मुख्य मुख्य अक्षर (ई. स. को दुमरी शताब्दो.) ६ -- d६६६ जग्गय्य पेट के लेखों से (t.स. की तीसरी शताबी के श्रामपास). ससस 679200WGoटटT ४PER 1 D२ ० ० RP S, R२१ ? Reinhlole 1760 Rehl? & El a stamhledy zase athlpa fping Sax olif y gog 5 smso s 9 192 nts HTFA Qatar Raty NOR ४ार! مووی میر | ل ل vas waja Bhup Aho 1 Shrutgyanam Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plare.III. Plate XIII. लिपिपत्र १३वां. मयिडयोल में मिले हुए पानववंशो शिवस्कंदवर्मन् के दामपत्र मे. (ई.स. को चौथो शताब्दी के प्रारंभ के आसपास), सुस 27 LIm CO25 3 302 ८0 0 ट ट.८ DOd) U VD0 लव ३ व स ह ह ह मा जा दा रा हा गि लि सि । 1144 5 6 7 8 टा पो टु कू के के जो जो मो लो भो न न । ४६६१ ट करा ---dur BYSTE लाय. RE 2028/ one या भूट U T 2 203 bp. Pally aw DJटाट ४७ Aho! Shrutgyanam Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I'lute 271. farqua 88aT. BEFFE ff T11 407H I 190 h. (t... 87 frut thi 1 7* rare.) 99427272290 R22 CcOEL 2555 {oo & Z Z U uvoon of cabaoAY Y Eusma32aJ9985& Bedjaos 295 +353 yangjeszjo33 90 39-огитт гv cev. sig yeua? tej auš ogrejen za gyrarey yaz027o anaz gugugi mujy 1323P% 4 5209 Aho! Shrutgyanam Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate Xv. लिपिपत्र १५वा. हौरागलो से मिले हुए पल्लवयंशी राजा शिवस्कंदवर्मन के दानपद में (t.. को चौथी शताब्दी के प्रारंभ के पासपास.) मक ... LdHOW ६८ र 025 202066 hoOL 00 JUBy 01 28001 हा वि जी कु गु लू के का गा रे नी त्य त्य स CD XN १६ १४01122 Bugyi FB45 H2G88E2iw.leading Kgxiyeare ejan gonn Res2८ d HY, TAJI NAAPEEJ.. ART+xzd2way.gly 2x2x REY days TMY म मा Aho! Shrutgyanam Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XVI. H प A 3 1 ८ त C र स ए A6 लिपपत्र २. गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के अलाहाबाद के स्तंभ के लेख से. (ई.स. की चौथी शताब्दी के मध्य के आसपास) 4 4 1 0 4 क ख ठे 不 Qu l तব० दा छ 378 O ०८ Da * * $ DC द ध wwo ki স ५० म ० 0 3 1876 f CD 2+ খি मि को वी शो ब ख ग में ধ ধी प् JEEF 8 A & W गु 2 प c ཞ ཊཱིཿ བ ,9༥ མ་ मेष गो दो फो को दी घ 00 का प 10 नु 3 7 3 1 7 6 mo ** च ज ज ज ट पी 司 D प प रु ts h me Wwf ह 1 3 3 5 Aho! Shrutgyanam Debu g धू भू तू दे ॐ र्के है है के है इ हुँ འ ས ་ के भू घनतম = ६ com जा 6 पृ ल टा ~ AAJ कप 5 F 9 फ व टे च्छ ม न हू घु ठि छ ऊ है दु USTENY ytiza usteg wagstiza esse OrES বहुत फাএभु নবই35 45z8 উফ2 पृশमुठ USTEOFESSমञ फट মধy১४. CHŽ SNYE EaN Eff zaug কতবনরজদलं ইইমমAটপরজনমকफলदेপহ8তামকম10 থক পভামমীনঃ अञ्जु मृ-युद्ध कVE BAYANAHZ 24পূমja০ fনসaরসইখ: चकीत वक्तुळांचा Une cunts ch K ~ फा 1) पु ने لو - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plote XVII. लिपिपत्र १०वां. गुप्तों के समय के मिश्र भिन्न लेख और दानपत्रों से उद्धृत किये हुए मुख्य मुख्य अक्षर (ई. म. को पांचवीं शताब्दी). उदयगिरि के लेख मे. मे ये वो x क ४ पा. 2.] $ & म कुमारगुप्त T र रवा के समय के विमद के शंभ के लेख मे स्त् जा शादिविली गु प धू र स क ई ई ई ह से है तू पपू क जयनाथ के मिनी (देही) के लोहस्तंभ के लंग्स में. चि शी ¥ ओ यं चि य श्रि 38 के है है मैं है 韩 दानपत्र मे कुमारगुप्त के समय के करडांडा के लेख से (गुप्त सं. ११७ = ९. स. ४३६-३७). म ET चि गुं पु मू व ध म ने त्यां স- বअथ स ह ह है ( गुप्त म पाली गांव से मिले हुए महाराज लक्षण के दानपत्र से (गुप्त सं. १५८.स. ४००-७८) ( . . ४८.२). सं. ८.६८ई, म ४१५-१७) 電 मेलो की तु श्री ले ये है है हो सु 11 a অ श्रा ख त फ य て ल T ञ्जे উ41 √√ I যফচএ ওमुं श्र श्रा इ श्री ह 項 दुनि. श्र A 50 3 रु 12} पा Aho! Shrutgyanam किं श्री इस राजा तोरमाण के छुड़ा के लेख मे. 최 ଜଷ 첫 ज 機 ग रा स मोर्च. स सु 50 जी जी राज भट ৩ ধ इমশাসসफेवঃ ঔসফষিল মঃ উষল ইনসম্বীমিস উরইীষাও वিড: মই ৪2 ধ সম্ভষछु স সা সককসিद्ध चलुীवृद्धो नृत्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ptate xVIII. लिपिपत्र १८वां. राजा यशोधर्मम् (विष्णुवईन) के समय के मंदसोर केसेस मे. (वि.सं. ५८८ ई.स. ५१२). में मु . 200 w BE c ₹ ३ ० ० स व श न च स म त् म् मा म मा मा कि मि कि मि - मम - ww dod न' RAR लि की नी दु Y भू म् + वृने में मै घो तो युन । सभ974 शो जो वो रथ को छ ज म छि णि द्रः म ठिा वा म० EduR THE AUD 0 ५५, so Yuz nFR14 : A jariy gonflak aur ao XY. Lal TARTY मुटे 28 BEIR En, BAAHATAu8. H_01_y_ga Infन भु sareCHE_nfor nferent Aur पर cyr HAMAKi valu soul ER Fघर Ti TeOTEJAJ Bo20 % ༧གླུ ” པཱུབ3 སྨྱའིa@ན་སོ་ , " NEཤུལ་? ལསུཾ Aho! Shrutgyanam Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XIX लिपिपत्र १५वा. माचीन हस्तलिखित पुस्तकों तथा लेखों से (ई.स. कोरडी शतादी) होर्युजी के मठ (जापान में) से मिली हुई 'उपोषविजधारणी' की तारपा पर लिसो हो पुस्तक के अन्त में दो हुई पूरी वर्णमाला, म मु रुम र ११० से 7 में मक पद पर ८ र ८० , ० वन ५ रू २ सय र ल म प स स ७ गायर माहस को मिली हुई भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों से मुख्य मुख्य अक्षर. पामिरगढ मे मिलीई मौखरी वर्मन् की मुद्रा में मुख्य मन घबर. स भ भ म र रे हा न्य ता स स र उ म म म । म मौखरी अनंतवर्मन् के २ लेखों से. दू यो च र्मा Fon महानामन् के बुद्धगया के ले. (१.५८) को श्री. ऊ ए क य य त् चं .. ए कर | ७ सुकाई गई है। रामर कसरत है सिमसार - गे म: How to .य: BA के TATARA गरे ठोः A SENH Land q in goku मा : पाद: स: FIR में - Ahol Shrutgyanam Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pate xx लिपिपत्र २-वां. མིནtg ནི •fཤ་མ་ ན།! ཀfrf༥ ནེ མ་འ། ཆེ ནུuཙ རྩེ ཤིg#. fa.ཊ. ༑ཥཏྟཾ་ བྷརཊ | ( 9 རྣ༢ འ ཡ ༩ } ༡ རྟ ལ བ ༢༥ ༦ ཡ a { } { ༩ 4 ན ] ༦ ༡ { པ टा ग । रा घि नि रिलि को की गु दु भु र म धू भू *, 3 @ . : དུ རྒྱུ ཡུ བུ རྒྱུ चि छ पिझ त्यं स्य भ प्र धिं यं यं र्धा व्या श्री स्य स्फु औ ཊནཾ ཀློའུ%༩༥༥༥ ཚེས ༩ @བོ88 % $ མཎལ ཚུ་ ན པ རྟཎ ནོ༔ – སྤྱིརོའི རྫས་རྗེ: 3,Q རྣམ རྒྱ ༧ མུ46:4ཏ, x༔ ནི ཡི d * ལྟ ཀཔཉྩནོ རྡོn སྣུ༥༩ཕྱི༥ ངོ19 ༢༠༽ ཛཱི (རཱུ ༦: ༤༦ ཚྭ ཅ༤ » ༩ ཚེ རེནྡཐ ནཱ༔ ༄༅༠ ཧི{ ནོ vi༣ བ(༥) ཡཾ : ༤༥ མཉམཔི ༤༥༠ ཚེ ༢༡ལ སg རུ༔ ཎྜིན༠༡༤ པི པའིf% ི ༤༩ ནཱམནི། ཏུ ལ པ ས བ བ ༽ Aho 1 Shrutgyanam Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XX. लिपिपत्र २१वा. गमा रु के दामपत्र तथा राजा अंशुवर्मा, दगगण भादि के लेखों मे. (ई. म. को मामवीं और पाठवीं शताब्दी). बंमखेड़ा में मिले हुए राजा हर्ष के दानपत्र में मस्य मुख्य अक्षर ( हर्ष म.२२ = ई. म. ६२८), लउ र ६५५ ५ ५ ५ नरादाबा पान के राजा अंशुवर्मा के नेत्रव में मुख्य मुख्य अक्षर (हर्ष म.Lt.म.१४५५). ८ र प ध ब भ प ष म दू झि जा त्यू व्या ा चि हा खि, ८२२न 4 महिम राजा दुर्गगण के दानरापाटन के लेख मे मुख्य मुख्य अचर (वि. सं. १ = ई. स. ६८५.). ज, २० 57 गुश प उ १८M 65 ५ द ध न क भ य स दुः र पू जा , त्यं पी 4 x ओं, 0र (मल द.१५ टीम अ - पा ४ ( ल खुदारकोट के मेख में मुख्य मुख्य अक्षर (ई.म. की भासवीं शताम्दी). 3 ए ऐ ओ क य ह ना था इ चि था सो 3 ट यान स दा त् न. 3) - राजा शिवगण के कोटा के लेख में मुख्य मुख्य प्रवर (वि. म. २५-ई. म. ३८). 1515 45ws V° 5 ना ५० ༠༢ - ༢༠ wཆལམཾ ན༡ ནཱའི་ ནམ་ད་ ༢༤༢༤༡༥་ལམཱུ་ལ ༢ ཉེས देवयानुकरदिपिदैः ॥ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXII. त्र राजा मेरुवर्मा के गूंगांव के लेख मे मुख्य मुख्य अक्षर दा षा कि लो लिपिपत्र २२वा. चंबा के राजा मेरुवर्मा के ५ लेखों से. (ई.स. की आठवीं शताब्दी श तू ( 8 8 P/ एस AA३ र र् य で で ल व व व म र १ ले व प पी 전 दु म पिकल को मूर्तियों पर खुदे हुए राजा मेरुवर्मा के लेखों से. श्रा ऋश्रा चा श्रा ए क क ज ན ྲ རྟ གཱ ཥ རྒྱ ཆ ན ྅༡༥༥ཊ༨༥?རྭ य च द द द घ ध न मू न न म प म भू 5मुं ॐ है ल म ग ট ষ ম ল दृ प सु Aho! Shrutgyanam মক} প म वर वर य द क रूम भম सा देने क्रि 司 यी स न्त न ि ধ श्री এ দ দ वू हि घ्ा झখি भ SW H म फ का व 5 མཱ ཐ चि 'शि पो ट का प्रो. যধ চূক? ৩ ফ্লশহ মজমঘই दिমসमुজঃ ७ হङ्घ सूर्य वे के एंड्र्यू झालरखितं মবমফনম फ्र ফী এবণজমএইইনবঃ সীববিবম~মঘমঃকবিউঃস সমসদী ঘষদ মकरोल का यः संश्लिष्ट्रयষक कुरो इদये যहमः ঘ্রীমদবমাहुইবকীহিইকঃ মজবখঃ সহদমমফলमु Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXI लिपिपत्र २३वां. प्रतिहार वंशी राजा नागभट, बाउक और ककुक के लेखों मे. (ई. म. को नवीं शताम्दी). प्रतिहार राजा मागभट के बुनकमा के लेख में भस्थ मुख्य अक्षर (वि. मं. ८०२ -- ई. स. १५). * पा . क प न म ह न भ वे ा न ई श्री को, w म मुसु ८६ फीd. म पनिहार सातक के जोधपुर के लेख मे ( वि. म. ८४=t.स.८०). भॐ उ १ क प 3 कटर (ल ३८ ८ ८ ८ एम म र व घमद, 9. इन् । सुन की की सील प्रतिकार कल्लुक के घटियाला के लेख में (वि. म. ८१८ ई. म. ८१). मनाता 3 ॐ 35 ए क र मा . को हिसाव टा मिहिन सुका ८५% - म मिती रहे। म हटाइयो नी (enमाग | Yev) पुरुह की नम एलः ल कोहरमन की मुनामकरी : अतः सीया 'क' म मयहीदा रहमा ५ Aho! Shrutgyanam Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXI. लिपिपत्र २४वां. जाईकदेव के दानपण, विजयपाल के लेख और हस्तलिखित पुस्तक से. (ई. म. को दमवीं शताब्दी.) मोरबी में मिले हुए राजा कारक देव के दामपत्र में ( गुप्त मं. ५८५= t. म. . *४) ९०७ द सरर पर+5 CM लतपय वरन पर मरयलट ६ र ११ ४ ५ ६५ ० २४य दरका दाय ___ प्रतिहार राजा विजयपाल के समय के अलवर के न्ने स्व में ( वि. मं. १२६ = ई. स. ८..). । ऊ 5 व २ प ६ ० र ६ का ३ मेपाल में मिले हुए हमाणिखित पुस्तक में (.म. की दमवीं शताब्दी के त्रासपास). मु९३४ र CG ७ अ व राय एयर ९८० उबर ३ क म घलम मक ५ ६६५५सल सुरु ५६ ८६ मार मार राव नक वये। सूर ५३८ वा यो उ सुरक्षा नवं स्तम ५सया : पा रहा हय९८६५ - Aho! Shrutgyanam Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Photo X.XV. Plate.x.x. लिपिपत्र २५वा. देवल, धार, उदेपर और उज्जैन के लेखों से मुरथ मुस्थ अक्षर. (ई.स. को १०वीं और ११वीं शताब्दी). हिंदी के देवल के लेख से (वि. सं. १९४८- = t...८६). अभई त् ॥ ० ६ ६ मे ६ हा गुदा पार से मिली हुई शिलाकों पर खरे ए राजा भोजरचित 'धर्मशतक बार (.स. की ११वीं शताब्दी). र र क ए भी थ भ ा धो दो मो त्व को छ र ल स शव वाहा ९ परमार राजा उदयादित्य के उदेपुर के लेख से (t. स. को ११वीं मतामो) र 3 दह हर र ह न झा सवा उदयादित्य के समय के उन के लेख के अंत में खुदी हुई पूरी वर्णमाला (t. स. की ११वीं शताब्दी अ आ इ उ ऊ च पृ ११ र ऐअ अ ° : ४ ७ करार छ ड स क ड रु त्रट ठ र ढात व द व न प ३ । उ म य २ ल व श ष स द. मारा माशामताबी दतमाय नमबु । ईका किटमा (H. (साः कमीत रा॥ सोमावियषु कहि - गर्ने यो दुत या विययया कि हि॥ ७ विवि कमजयोः परिव ई भाऊत ५६३ विगल केलि काल Aho! Shrutgyanam Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXVI. लिपिपत्र २६वां. चंद्रदेव के दानपत्र, हनलिखित पुस्तक और जानलदेव के लेख मे. (*. म. को ११वीं बार १२वीं शताब्दो), कबीज के गाइडवाल राजा चन्द्रदेव के दानपत्र से मुख्य मुख्य अक्षर (वि. सं. ११५४ = ई. स. १०८.८). 7 श्री ५ धा म हा भा हे वि 0 वि श्री ज्ण स्तु. ए ह ज ५ । म स का का दिल्लई थी ल न म. हस्तलिखित पुस्तकों में मुख्य मुख्य अहर (t.म. को ११वीं शताब्दी). . ई स ल ल ए ऐ श्री श्री श्री ५ प रूई म स ट र ऐ उ अ अ ा प छ छ ज ज १ म उ. ३६त पर रु श च स उ उ तू गृ है पण गा म बैहय वंशी राजा आजादेव के समय के लेख से ( कसरि सं.प्य ई.म.१९९४). अमा ६ है । क वा २ अ ट ठ ड ल त छद ? व न प पर ले लि स्य च न य म य में लि र ल र्ण क व ल ष स य श्री टा. तु । उ .. तह व्या हि ह य या सी धाता का यह है ट्या-----------.----..त्यासन - या सत॥३॥ तेषी देहयतून डी समन व ई से स ते दीय रः यो को कल इति स्म प पतिका निस्विप मोदी यतः। ये नाय वि तासो या ............. (मन मातु या स्वीय पषिनमुचाकेः कि यदि ति व माड मनः हिति ॥४॥ मना दास्य पिपुकु (नति - Aho! Shrutgyanam Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXVII. लिपिपत्र २७वां. परमार धारावर्ष, चाहमान चारिगदेव और गहिल समर सिंह के पेखों से. (ई.स. की १३वीं शतानी). पाबू के परमार राजा धारावर्ष के समय के बोरिया के स्नेख से (वि. सं. १२६५ = ई. म. १२०८ ) अ ७ र ९ क रद ग घ च छ ट ठ ड ढ ण त व छ र ध न प त म य र ल व श ष स ह ह तू तु ८ मे ले कि च ज ई मा १ ३ भां र्यु र म उ रूनि ले कि द श , ता ३६ साथ यूर जालोर के चाहमान चातिगदेव के ममय के सूंधा के लेख से (वि. सं. १३२१ = ई. स. १२६४ ). दू र घ छ । थ प फ भ हो छ ण स्था तप. इब २ ठ६४ क्सकी हम ला १५ म मेवाड़ के गुलिवंगी रावल समरसिंह के समय के चोरवा लेख में (वि. सं. १३३ = ई. म. १२७३ ) स ७ 3 व 5 m दस २ स द सु * हि का हे त्यां न वि दु च णि णे of व तो भयो | हा हि लाह दा विहरी मी वसा जल संवत् १२६५ वार्ष। विशाख शु १५ स्तोमा चालुका ताशा द र ण प र मस हारक महाराजाधिराज श्री महामार त - वईमान वि क य राए श्रीक र ग महामु हा मा य म ... लातूपतिसम सपंचकुलपरियति रात ती नाप्तमा लिक सुरशंथी मरा वर्षादाव एकात पववाह कविन Aho! Shrutgyanam Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXVIII. लिपिपत्र २८वां. सराहा (चंवा राज्य में ) से मिली हुई सात्यकि के ममय को प्रशस्ति से. (ई.म. की १०वीं शताब्दो) भ मु , ॐ v ८ 0 3 3 8 र न 4 ८ ८ ८ ८ र ल 4 म त र इ त् त् म् जा टा णा धाना पा मा कि थी यी गुन र भ८ , ' पर हम किटो सु पू : मू + सू से शे दै टी हो यो लो गी मी मी म ५ स म ले मरे ले ले र नच 'गे' मा के 335 5 5 ₹ छ ध न म य युव श्री ति स्फु म किप त्रों, + कल कवीमले पम् उ मस पर नए उप मु रही हग हुआ मामुले व मुख मा सह (वय 'पराम, र म र कलि कलम 2- मHि पर, र वरीय पर रह किया:॥ नमसाल उम/ - राम(राम गुल्मलन टर' 47 प म प म35 में मर 374. ममि व टिम तय पने उमरी पम र रमन रहली भन्नाट Aho! Shrutgyanam Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XxIx. लिपिपत्र वां. मुंगल से मिले हुए रामा विदग्ध के दामपप से ई.स. की १९वीं शताब्दी). ५ सु ७० उvक ब ww रुक Co सल3 58 म न न ४८८ रु 5 या र र ल व म बस 5 में u V VE पा या हा गि भि शो कु टु मु र दू पू ५ ह । खे पदा ॥h लाइम ५५ कु. ए.ल दे मे थी यो यो पो ति या ा ज्ञा हा हा गड प य च । र 2 2 4 है ए5 6 7 8 न्न न म जि प घे घे र्य व व हे स्त्र स्था स्थि कु १५ ओं. 3 व परिस, ई उ ट प पू सुर भूपू ११ स॥ सीसर का प य क र मरकर (GE' प सी सहग कर सर, र पचासन परसपर मणि - त्यस्य स न प य उगु रा प उ ए उ उ ए, उस पति उमऊ मलउद सर 0 उपिसह मह रही रयान ग पैर सपथग'रापुश्यन सिसिः समसिउरिका के गुमाउ उट' . 36 सन 3 का सराय हम टीप मधमा मुरियन पायो सागमरे सर व Aho! Shrutgyanam Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plast Axx. लिपिपत्र ३०वा. भिन्न भिन्न दानपयों और शिलासों से उकृत किये हुए मुख्य मुख्य अक्षर. (ई.म. को ११वीं मे १३वीं शताब्दी नक), च ए ० कुलेत में मिले हुए राजा मोमवर्मा के दानपर में (ई. म. की ९१वीं शताब्दी). ड प न फ र दु भु शू दे य ज यिं र्थि 5 ७ र ८ र ५ मुम् F र्य रूप, इ. पू, चंबा में मिले हुए मोमवर्मा और पामठ के दानपत्र में (ई.भ. की ११वीं शताब्दी म च ए का न दे ई न को व्य न्द मे र्षि ा र्यि स टा. मा म प ५ है ५ , है हम राजाना नागपाल के देवीरीकोठी के लेख से ई.स. १९८०). ख च न ध खा शा री टु व वै लो मी या वा म ४प. ए - 3 0 " म स ल में मृv 3 भारिगांव के लेख से (इ. स. ११८७ ). ण ५ स था ना मा कि स ते के के म्धी हे छि श्री श्व यु म्प.. ' सम्म ' म क क उ से किसी म . बैजनाथ (कांगड़े में ) के मंदिर की प्रशस्ति से ( शक सं. ११२६ ई. स. १२°४ . 0 र म पु मु. 3, ल तू . उं रमपटा स्याउ कुवरकर सूर्य F23 परनरें मनर: Fer'3 शरम् उरिक 45 -रि3 मटru८र काम में मीमर कायम क रस फूट लसC3CC उ विक र उपक CIC 5 6 कमेंक 3 भर Aho! Shrutgyanam Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXI. लिपिपत्र ३१वां. कूम के राजा बहादरसिंह के दामपत्र और हस्तलिखित पुस्तकों से मुख्य मुख्य अक्षर. (ई.स. की १६वीं शताब्दी). पूस के राजा बहादुरसिंह के दामपत्र से (१.स. १५५८ ). VB क भए 35 मम पनि छि5 म A 5 म माहिर है ५ दु म पु म मु. अथर्ववेद (पिपलादमाखा) की हस्तलिखित पुस्तक से (ई.स. की १६वीं शताम्ही). र ए च ज द ध म भ य व श १ ह त् जा था वि तो र ठ य प म 4 ऊ ए r वि डी यस सू , ५ मे . पो पो २ मि बू थ दो भा के , की ए. पत्र मन 02C में की ___गानल नाटक को हस्तलिखित पुस्तक से (इ. स. की १६वीं शताब्दी), म 36 F, BB क प ५ र म क ल ए . N 3 ष म ७ 7 ५८ 4 म य २ प म में फरक ४ उि वyि" तम वम त म ५२ कम पर कम ही हारकं' 3 निउं3ाल मतलक बलरविम 5म वडि - मकर इक नियमारपनि उ रिगंउ परमक भऽ र एसिर मीप र भिंड में यमः॥ ॥ममीय व स T154मि5: भऽ महिवार समयलभिंडः। ॥मी संपक म५. Aho! Shrutgyanam Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate .XXXII. लिपिपत्र श्वां. बंगाल के रामा नारायणपाल चौर विजयसेन के समय के सेखों से. (१.स. को १०ीं और ११वीं शताब्दी). राजा नारायणपाल के समय के बराल के लाभ के लेस से मुख्य मुख्य चार (t.स.की मनाही). ज्जा २१२ र ५११ १ २ भी १ । राजा विजयशेन के समय के देवपारा के लेख रे (रं. ब. की ९९वीं शताब्दी). म मा दूर 33 कयदा व छ ड ८. 21 3 य २ न य द न न श य २२ त ल व . घभ इन इमदा न समझ M ई में वि ( २ का (का का इला झि झ 9 FFK P २ सु (ज (अवस्य मु य ( इ. उमिन भेनाबवाय घमिलादनवा वादा म् व्इा रलिया शनि कतागायदाश माशवल २। डडीयाच याया सनद्रवडताना तना छ (मगः कब्जा(वघ्वमाग लिईरथन यच्चया यवशायाan यमन मरवर २६२४ायाय - Aho! Shrutgyanam Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXIII. लिपिपत्र वा. पास के राजा लक्ष्मण सेन और कामरूप के बैखदेव के दामपनों से. (ई.स. की १९वीं शताब्दी). राजा सभाणसेन के तरिधी के दामपत्र से ( ल मोमेन सं. २ - १. स. ११९२ ). 52 0 5 एउम्र का रूप के राजा वैचदेव के दानपत्र से (t.स.की १२वीं मनाम्दी). 934 महजधव 38 MA६४ घ घ ६ भ घR SY ष म त् मा मि को कु र ए ए भ क र घन ६६११ मा भिघात न गे दे शे से है पो लो यो वं ला या पक चिज कि ६लल घाला घी १९६४ * मी हा जो गति को पा । न H of 4 oिv ह - . Ind24 ९ : नाभा ६१ वृषवाय ॥ वद ॥ भूतमानः कः वनातवानकाधाः । दतिक्षाममातुः 80 धावा क्षतप्रधान झलक्षा ११ मिक्षित जामवन घनः ।। ( धाता मध: धाकावन: घa] 1 कृमिलाइनति Aho 1 Shrutgyanam Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXIV. लिपिपत्र ३४वां. वल्लभेन्द्र के दामपण और इस्तलिखित पुस्तकों से. १.स. को १२वीं शताबी). भासाम से मिलेजए वनभेन्द्र के रामपत्र मे ( शक मं. १९०७ = t. ४. १९८५). अ आ कू) ड का द६ स 503 3 वय वयन घ घास म घ नत चाव सस द टू ६ ॐ छ मत बनवला सा (श का प झा एवं न हि पणी यं व टि ४ णोः स से ओं. भ3 45 वी व ला सुप्तु १ इस्तलिखित पुस्तकों से मुख्य मुख्य प्रवर (ई, अ. की १२वीं सताम्दी). अ भू भी $ 855 को भी पी व प . जे 8 स य य 286 3G से स स भ म र स स स स खा. ल उ5 मत बम में आ १ ॐ नामा शव दामयताच ॥ याडमडलहायकशानिमाना वलीवनीव अयन अन मम्मना। स्वायच8 स छठ यानी शुमान मान्न - छठी कामना सद यावधि 8 ॥ घानानघवनउना यि वन त्यत्तुि(खा 8 घनाइ छ उपिउनाअनु Aho! Shrutgyanam Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXy. लिपिपत्र ३५वां. इसाकोल के लेख और पुरुषोत्तम देव के दानपच से. (ई. म. को १२वीं और १५वीं गनाम्दी; इसाकोस से मिलेजए लेख में खुरी हुई पूरी वर्णमाला (ई.स. को १२वीं शताब्दी ). श्रा द ई उ ऊ र ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं आः य था . २० उ उ स र ? 2 1 33 झा क के 3 तक 5 र ६० उठल 5 ८ ८ व २५ र रु म य र ल ट ल व सहक ?. उड़ीसा के राजा पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र से (इ. स. १५८३). ६1 1553100६५१ ETSMAA६६ धू६१6368625TS" M HE MERI | 478 1596 1363 काकाल mm6QSc६६ Anी । 65l68 Sax घi san x क' GHa६० : HTTIS HAGT Aho! Shrutgyanam Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXVI. लिपिपत्र ३६वां. राजा मरवर्मन और कुमारगुप्त के समय के मंदसौर के लेखों से (ई.म. की पांचवीं शताब्दी). राजा मरवर्मन् के ममय के मंदसौर के नेग्स में (मालव मं. ४६१ - ई. म. ४). स. 2025 व ६८ da0 02 03 0 त ल ४ | JU084 श र ष म स ह म णा मा श षा नि नि लि जो भी गु 9 4 ม ม ม ช” 2 3 8 6 8 8 89 ) मु पु : र ५ गृ ह ह तृ न घे ने मे से तो नो णो लो यस 308 (४ीह थी 6583351, H. भुभवंगी राजा कुमारगुप्त के समय के मंदौर के लेख से (वि. म. ५२८ - ई. स. ४०२). 2ME ८ ८ ८ 00dd 25 NH 3 (878 - ५.४८५४३१3527 ३४: 889067 ४ dhaxy BF 84 WHOKTAJA un HgFD J6 से 1455 38, ४ Y3 AHI ८ ११२ Aho! Shrutgyanam Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ platr XXXVII. लिपिपत्र ३७वां. बलभी के राजा ध्रुवसेन और धरसेन । दूसरे) के दामपत्रों से. ई. म. को कठी शताब्दी पाशीताना मे मिले इए ध्रुवमेन के दानपत्र से । गुप्त सं. २१० = ई. म. ५२८ -३० ). ॐ d c2 0 2 0& DJQ0८ क - भरमेन (टूमर) के दानपत्र से ( गुप्त म. २५२ - ई. स. ५७१-२ ). dian DUE TO.C0 मय 2000 रुट ४ UJJAY ८६ ना णां रा ति मि जी पी तु म रु यूपू भ . भू रहे 18 नए यूर 334 मे में गो भा मो नी हा का छु नि छः ण्ड व 3 प्र ते स , 6 द ब्दो व्ध में पूर्ण यं हि र्य श्री छि स्था न पत् शत् मेन् कु. य ४१ धन- २०१४ नु ]มอบมฆ14y 10 มม 81 61198f0ะ युनय- युमान है - धरुन 87 BDfdf5B: 2728: सुरे20, नई ट22 - 18TAf Aho! Shrutgyanam Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXVIII. लिपिपत्र ३८वां. गारुलक सिंहादित्य चौर वम्लभी के राजा शीलादित्य ( पांचवें ) के दानपों से. (ई.स. की छठी बार पाठवीं शताब्दी). पालीताना में मिले हुए गारुलक सिंहादित्य के दानपत्र मे ( गुप्त सं. २५५= ई. म. ५१४). पा र उ ५ र ४ फ . स क स र र षा हा भि री गु @ 2 0 2 2 1 2 th नु से में यो हो ? छे मा प्य of यि भी श्री स्यू को ४पु. कु स मूहका यू १५. बलभो के राजा शीलादित्य ( पांचवें ) के दानपत्र में ( गुप्त मं. ४०३ - ई. स. १२२ ). 40 2 20॥ ८८८०८८७ म त। 0 ट 000 ० ० स u र र स स स स स द द स प म ।। न् वा रा मि J_se SUNN000 से ए८।४ में 38 89 29s . © ३१ FY UYE 2074/27 - 8 DAYF ANJAAR 21 Jeis YHADHYQgQgagurji PDF 055 X 308 Mar 23°/6°ई.ट . JXB81234J: FTP 720Quar Aho! Shrutgyanam Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XXXIX लिपिपत्र ३६वां. कूटक वंशी राजा दई मेन और गुर्भर शौ रणग्रह तथा दह ( दूसरे) के दानपत्रों से. म. की पांच और मानवीं शताम्दी). पारडी से मिले हुए फूटक वंशी राजारईमेन के दानपत्र में (कलर सं. २०७-१.स.). सन 20 टकर 0217x e JAAN24 संरखेड़ा में मिले हुए गुर्जरवंशी रणग्रह के दामपत्र भे ( ककरि सं. ३८१ - ई. स. ६४० ). पप 25 26 2 cm UD 0 ८४ य र म व ब म र जा ५ दू ब यो न दि जा च त्यु श्री. 0 3 2 1 0 9 3 3 1 0 8 8 2 2+ (8 संस्थेड़ा में मिले हुए गुर्जर वंशी राजा दर ( दूसरे ) के दानपत्र से ( कलपुरि सं. ३८.२ = ई. स. १४२ ) Htte 0 0 0 20 2 ल ४ . @ By६६ M2 टेट या राम ४०१४१०८ER मृत ४८१ ४८ ले ४ 22 433 2 BAC8d ) 156 - 85 (82302 Fu 35 Aho! Shrutgyanam Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XI लिपिपत्र ४ वा. चालुक्य युवराज श्याश्रय (शौलादित्य) और राहबाट कर्कराज के दानपनों मे. (ह. की मामवीं और नहीं सताम्दी) नबमारी से मिले जए चालुक्य पुत्रराज स्थाश्रय (शीमादित्य) के दानपत्र से (कसरि में, ४२१ = ई. म. ६८२ ). स 182 6 9 205 000४० ON OR 955888Fधल. गुजरात के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज ( सवर्णवर्ष) के दामपत्र से (शक मं. १४ =t. स. ८१२). 2 015 c 6 त८८८८०८३0 त ४ u Je ९४ RAH८८ तकom88 बाल दु थे र पो बो भा जा च सूर्य न स्य श्री शिवी. B3 3rd J . eggon 6 .१३४९ I/RS_FYze In Ve६तं ॥ ४५ ४१ - VDF 3 ४९४६ छु । E 3: ४018 Fe: 8. - ४.७६ - ७ ८ Y FUe Re ४० Aho! Shrutgyanam Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XLI. लिपिपत्र ४१वां. वाकाटक वंशी राजा प्रवरसेम (दूसरे के लोग दालमों में. (२. स. की पांरवीं शताब्दी), दूविधा के मिले हुए राजा प्रवरसेम ( मरे । केहानपच से. स १dia E EEETA 89 2990388103 Y AUR F- - More EGLUS FR ब ELE. का का ज्ञा ज्ञा स्त्र र त्यं न मां २ ए छिप. र ज पी. .:: है. सिवनी में मिने हुए राजा प्रवरसेन ! सूमो । के दामपत्र में... ., फ भ ल ट म थि ये भो पा को घा न प्रा में 4 E a ] 10 T ags Cam पस में भिमे हुए राजा प्रवरम । मरे । के दामपत्र मे. TECEBO90 ना Go na هو V YSTATA K ISS YATHEE AAJLAYA AUR JEJCEB FIRBEBEDES BRAH - day ge: LETELYNJALYAN शु भ SEA BHATIYAFF RAJE BAN-2 - P 09 a 46 नज 290 त 900 त Aho! Shrutgyanam Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate xLII. लिपिपत्र ४श्वां. पृथियौसेन, महासुदेव और तिविरदेव के दानपयों से. (ई. म. को पाचवीं में पाठवीं शताब्दी तक ). बालाघाट मे मिन्ने हुए वाकाटक व गो राजा पृथिवीसेन ( दूसरे के दानपत्र मे (ई. स. की पांचवों गनाम्दी). 95208232y5 . स्वरिभर में मिले हर राजा महासुदेव के दानपत्र में हैं. स. को मानवीं शताम्दी के ग्राम पार). crowcy 2 della E 30a 220 - म । य र ल व श ष म १ मा मा वि भी कुट नु म BEDA 2n 911 भ 5 की मो मो को क्षिरे छे का इ प्र of Er xका - BH राजोम से मिले हुए राजा निविरदेव के दानपब से (६. म. को पाठवीं शताब्दी के कामपाम). अप र ए स च ज ट ड न प फ न यि ज्ञा च ब यो को. भE at E EL. 3820 HEM . Clau FD JETE IN PARLIFETRINA KAajlGAYE JA HRES RFLUTELA|| BA is En El]] afE LABELngali an, Jagga Agai L} {AraBaag HA BEng: _32 3 4 ] {_16 (83389gal_JE A2ng al2s agjaggaglag RR SHITR nav T ( IT OUL Ef Ano! Shrutgyanam Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plak XL111 लिपिपत्र ४३वां. पल्लव वंशी राजा विषाणगोपवर्मम् और सिंहवर्मन् के दामपनों से. (ई.. म. को पांचवीं शताब्दी) पणच वंगी राजा विष्णगोपबर्मन के उरुचुपपि गांव के दामपत्र में. सर 2022 2 Dar 1020 2020829 रे से गौ तो पो हा का छ वा न ई मर्ग श्री दा यि स्थ. नहy. पभव वंशी राजा मिशवर्मन् के पिकिर गांव के दानपच से मुख्य मुख्य अक्षर. उE BL02_2900MAHE. पचत्र बंशी राजा हिवर्मन के मंगलूर गांव के दानपत्र म मख्य मान्यं अदर, 24 UCL ८८, २१ # &%85 8EU23 D2.-.", U SYU YE DEFanta: 823-४ ४0JE. 3*38: बीY) 450202TEXTyy &ETEY 4 20481931 Y १४१ Aho! Shrutgyanam Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XL/H. लिपिपत्र ४४वा. कदंब वंशी राजा मगेशवर्मन् पौर कास्यवर्मन के दामपनों से. (.स. बीबी मादी). देवगिरि से मिले कदंग बंशी राजा मगेश्वर्मन के रामप में, सन ) 293E (2, 0ट 20 रन 1 1 0 0 0 0 0 ४ dodar 27 iv 028 Yo R1 देवगिरि मिलेजए करंब वंशी राजा काकुचवमन के दो दानपत्री से मुख्य मुख्य प्रवर. 292020120A म च र नन मन नो के पू म . + को मप्र . ४ 0 100 ८४ A Hisg. Re |Sauja gyge: h32y9_156 . डाटा A gas in BEAUBEY 83 - 25 2230 1688 3200 टालियु 1227 2 h RFE Cay यह ३. है Aho! Shrutgyanam Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XLV लिपिपत्र ४५वां. चालुक्य वंशी राजाओं के लेह और दानों से. (म. की रही और सातवीं मनामी). चालय वंशी राजा मंगलीवर के समय के बादामी के लेब में शक म .ई.म. ५७८). Hf JdEC 3000 2008 ६ ल ४ cus,0860688 री मी म पृ १ क मी यो पो न ग ई स ग छ यं यं श्री हि. EODEO ___ वास्तु क्य वंशी रामा पुलकेशी (दुसरे) के वैदराबाद के दानपत्र मे (गक में. ५४४ = ई. म. १९९). GOOGW ८र 50 टOM ६. पूरी पान का राजा मलीकाश्रय ( मंगियुवराज ) के चेंडर के दानपत्र में (t. म.१०३) ॐ612005 ₹ 20 ट न टा र कु म टू गृ गो पा र ज ब द भ ई. © 201522 १॥ -8023RghagJAUG" WAVE7334 प्र deeWASETIC E d ge - प्रस183.538 Jठ 3R-[: 5 5 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XLVI. fafqqa 8at. केंडर से मिले हुए पश्चिमी चालुक्य वंशी राजा कीर्तिवर्मन (दुमरे । के दानपत्र मे. (2. H. ( {. 4. 4 ) ೮ ೮ ? ? # # 1 ನಿ ೩ | ಬ ತ ತ ೯೯ ೬ ೭ ಓ ಓ ಇ 3 3 3 ಡಿ ಓ 0 0 X 3 ಬಿ ಟಿ ಇ ಟ ತ 3 Anne ತ ತ ರ 3 | 4 ಶ ಶಿ ಸ ಸ र का गा जा दा भि लि बि की दो नौ सु ಈ ೧ ೪ ೪ ನಿ ೩ ಕಿ 2 4 ಓ न ಓ ಓ मु घू म + ಬಿ • 2 k * ಕೆ ಸಿ & ಇ ನ 1 2 3 ಬಿ ಕೆ & ಆ + 8 + ಕ ಕ # ೩ ಸ ೫. ತಗಹಿತಿ ರ2B5v804289೭೧ 8ಎ೩ತಿರ್ / ತಿನ ಆತ ಗg೮೬೩ಕೆ ತral-3ಒಣದ ತು488 4:424Xಇಡಿ ಬರಿದೆ Jತು+ ಶಿಗೆ ಪತಿ ಶLyಳು # ೩೩೩ ೧೩ತಿತ್ತ. ಶf P೬೫೩೧೮೭೩: ತ೩ ೩ ೫ ತು೧ ಇತಿಶ್ರೀ 38 38 ಚತಿ ಇ೭3) * - ಆತ್ಮಶ :ವಿಶ೩) ನಸ ಸ * * - Aho 1 Shrutgyanam Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XL121 लिपिपत्र ४७वां. कडब से मिले हुए राष्ट्रकूट वंशौ राना प्रभूतवर्ष (गोविंदराज तोमरे) के दानपच से. (म. में ७३५ - ई म. ८१३ । ? . C - ऐ भ 3 La 3 SEE ट ड ढ द श न थ द द ध न प फ ब भ भ म ८ ८ ८ ८, ८तर 50 ट ट त ट टJEJ ले छ / 0 0 0 1 6ठन ८W८ com क न न का टा या ला नि 13 E on eA8034 व AO CU वै हैं मो लो नो यो मो मो क ६ मा १ ज ड र a 8) On a cा में है तब 2 ( स न नं ०ध गर्ग ई र्मि श्री थिय म प प. क छ नबलपy कटु ? CnIGOR (5IIT : JOEन - UjR(E0% तर ARCH ENT U 170: BIPE. ता5 IaL: शयः पुनातु VCD 5 TIP2/जला प्रशा: 08/साहाताला - e: Ya h as wars FREE: ४ा १६.51 daver: BIEARS are 2005er-gen alA PE3. es: Aho! Shrutgyanam Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plute ILPHI. लिपिपत्र ४८वा. पूर्वो चालुक्य वंशी राजा भीम (दूसरे) और चम्म {दूसरे) के दानपनों मे (ई.स. की १ वीं शताब्दी). पामनवरं म मिन ए राजा भीम (दूमर) के दानपत्र से {ई. म. की १०वीं शताम्दी का पूर्वार्द्ध). GOD Cd506८रता 60 ८00 I 29 Jल WOODad 6 ५ म ह क त् म् ण णा ला या या ति सि री छ स , 9 G falmey w w888 ६ मई में पूर्वी चालुक्य वं गो राजा अश्म (दूमरे) के दानपत्र में (ई. म. को १ वीं शमाम्दी का उत्तरार्द्ध). 6 Cyc यि कु ठरत र क ज्ञा 8 क ) न पू भू हा छ पा ध . 29 H REE ty 8 . J APU JAIN 08& 8888 RJ TIPSPN9GOराया तो न Hey dawn Aho! Shrutgyanam Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate XLIX लिपपत्र ४८वां. कोस्मेलि से मिस्ले पर पूर्बो चाल करवंशी राशा राजराज के दामपत्र में (ई. म. की ११वीं शताब्दी GOOcd218 U 2 टट DooG get aare C ४ भी मो श! न ४/४/ 28-26 178) 3.80 88980 क चू मू दृ 4 में से 2 में ये है नो ॐ ॐ ॐ & Fox धो भो मो मो वो भी क को च बी ३ Fo_ SM) 0 हैं। शी Y 83 वर्ग म्मा स्य स्त्र म्मा स्मन पावर ॐ का . Dr. * By: १४808 08 - NEY .४४राहा २४ ४४ :2 AYXXIIM81988 38*889XJ& ४.5.23/23 - 2001: 3 /3/5XSTS :N४: ६४: १४30 N/ / / Aho! Shrutgyanam Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate L. 13 श्रा श्र दू क भ ळ. ७ ३ बँट्वट ँह्र 23 दु श्रा म उ డ డ काकतीयवंशी राजा रुद्रदेव के श्रमकांडा के लेख मे 3 ए श्री घ ट ठ ड पू čis झ ट लुक र हवँ भत ह छेद a c 地 लिपिपत्र ५०वा. काकतीयवंशी राजा रुद्रदेव और गणपति के समय के लेखों से. (ई.स. की १२वीं और १२वीं शताब्दी). काकतीयवंशी राजा गणपति के समय के पेमोलू के लेख से (श. सं. १२२५ ई. स. १९१३). 蓁 हूँ उ ऊ T क स म च 百 & पृ उ धुँ .π र छछ ह के है है है है भ्रां 2. af त् ন का प V न ब ਮੈਂ लॅ । शु शa ಬದ 6 फ ची श. स सं. २०७४ ई. स. ११.६२ । घ ध गो err घ Ес ё по G D Aho! Shrutgyanam ਸਂ स्थ एरQD OD គ 韩 घ ध र कि रि वि दोरी घर ६५५ 8 थे तु छी दुন ০ठूं wasall K म अ. है 63 তু ऋ ऋ. మరికి డూ చూ हे ৯ॐ० क्षण খট ১তs ঘসतुत ६ क० त० तु येा ले 133 व 13 acto वह व् हाय हा ० ही তহGood Co F663 . Ecessing ত wetin ढलुकेट √ - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Protei. लिपिपत्र ५१वां. मामय मायक, अन्नयम और गाणदेव के दामपनों मे. (ई. म. की १४त्रों और १५वीं शताब्दी). पोठापुरी के नामय माधक के दोनेडि के दानपत्र में (श. सं. १२५८ = ई. म. १३५०). eese 502C &036 6 2) Yaab ४0 d + र क र दा मा वि रि र गो म भ न ६४ 20080Pawaa 20 णे मी पो क्षि ना छ ना को श्री श्री मनु म्या सौ. ४ । 5 ye r ape श्रा वनपनो में मिन्ने अत्रम के दानपत्र में मुख्य माय अक्षर (श. म १३०० ई. म. १३०८). र २ फ म क न टा षा पू ये हो न शो, && joirefभा कोण्डवीड़ के राजा गाणदेव के दानपत्र से (श. म. १३७१ - ई. म. १७५५). अ ट च प व ह न ढा ना नि नो झ ट बा श्री ey ca ra श्री. 68 ई- Dev 20 200 12 vargs 18 DAPOO 0086। ANGR_dve6880 हळूತಾಲಬೈಂ|! 18ವಿಟ್ಟರಸ್ತು ಬೆವದಿಡ್ಡಿಷ್ಣdl@ಾ Aho 1 Shrutgyanam Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LIT. लिपिपत्र ५२वा. परनववंशी राजाओं के समय के १० लेखों और काम के दानपत्र से. (ई.स. को सातवीं शताब्दी) पहावंशी राजा नरसिंहवर्मन के समय के मामलपुर के छोटे छोटे । मेखों म. म त यि र पश्व राजा राजसिंह के ममघ के कांचीपुरं के कैलासनाच नामक मंदिर के नेरद से. 403UAGOBUWo a & है मम में मिले हुए पनववंशी राजा परमेश्वरवर्मन् के दानपत्र में. 6 72 6 2007 ~ om 6 0 0 5 hui Zi_027 ४ Ted० ७ १८ १४ ण फ क श ना न म मे. सिं ती कु ३३० BF तो हो पा ३ छ को aun cusn pg च या -xom, 88 2 52-8-068 . No P18 का ६८) - - evancers NXT982 24°EJap* toms xomxivegam848 L Aho! Shrutgyanam Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LIII. लिपिपत्र ५३वां. पल्लव और पाण्यवंशी राजाओं के समय के लेख और दानपचों से. (ई.स. को वीं शताब्दी). मावन्नीपुरं के अतिरणचंडेवर नामक गफामंदिर क ल रण में ई. म. को वों शताब्दी). 20dol ८०१ कशाकूड़ि से मिले हुए पश्व राजा दिवर्मा के दानपत्र में (ई.स. को वीं शताब्दी). हा ( 02 2. CBMW १ . + 1 24 १ ८४ था रि पो कु तु षु ५ 3 KUTTot मी क स हि छ जा च ठ | e) ३ ३ ॐ ह भू र दृ । के के तो को a tor of ड त्या त्य न्द्र ई - श्री स्थि. पाण्याव शो राजा परान्तक के समय के नारसिंग के लेख में (कलियुग में. ३८११-ई. म. ७७१, ए क च ज न च म म वा हा मी गृ री य य एषाः, इन 5 381251202 3. mercifil & 2n7HO T I JOISIS* 1218184206 1 1 967॥ १०॥ ॐ Rela KETHIP या ४०८© Ujajes Aho 1 Shrutgyanam Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LIV. लिपिपत्र ५४वां. परमववंशी नन्दिवर्मा ! पनयमन) और गंगावंशी पृथ्वीपति (दूसरे) के दानपत्रों से (९. म. को प्वी और वीं शताब्दी). पनववंशो नन्दिवर्मा (पनवमन) के उदयेन्दिर के दानपत्र में (ई. म. की ८वीं मनाम्दी). . RRA tor - > arra 02 त व श ष 02 ल ल म -2008 मा गि भी वो कु म . म । hr bra daq 6 18 8? Go w so con ra 28 228 vom/207 f- sath गंगावंशी राजा पृथ्वीपति ( दूसरे) के उद येन्दिर के दानपत्र से (इ. स. को १०वीं शताबो). म आर 2 20 21 22 23 23950 ग्य ८५ १ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate Ly. लिपिपत्र ५५वां. कुलोसंगचोड और विक्रम चोड के लेखो तथा विक्रमादित्य के दामपत्र से. ई.स. की २१वीं और १२वीं शताब्दी). प कुलोतुंग तोड क चिदंबरं के लेख से (६. म. को ११वीं शताब्दी). द भ म य र श स ह के को क च टया १62) To Ne28 श्रीः. 7: विक्रमोड के समय के शेविलि मेडु के लेख से (ई. म. ११२४). 2010 8 20 cry १८J 21 2S 2,8 nel 21280 &कु र ? 8 कम बाणवंशी राजा विक्रमादित्य (विजयबाऊ) दूसरे के उदयोंदिर के दानपत्र में (ई. म. कीवी मसान्दी) भा 21 22 23 28 025 min - R8 क क न म चि ११ 3 yes_ i_v थ जो त्या था न 23 EN 2) दो र न्द प्रा . 3 °378 *3078 85 801508028 2 870 17 S24000130 OF8. 22 oul 13382 2892०४ 2018gyaNoun H9 2-3: YUVR A J Ty: Rd Ano! Shrutgyanam Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LVI. लिपिपत्र ५६वां. पाण्यवंशो मंदरपाग्य के लेख और यादव विरूपाक्ष तथा गिरिभूपाल के दामपनरों मे. प.को १३वीं से १५वीं मनाम्दो तक पाण्यवंशी राजा सन्दरपाश के श्रीरंग के लेख (ई. म. को १०ौं शताब्दी). HT 2 2 2 0 20 21 22 23 2020 675085 25 20 2108 ] @ 231228 20 208 ITF 18828 J०७% 902102TG27TH,158 च चि गए न्द मम प्रिपर्णा स्यं र्यि श्री स्व. न ! 2 888cा र भान पूणित से मिले हुए विजयनगर के यादव राजा विरूपाक्ष के दान पत्र में {ग. मं. १३०५. ई. म. १९८३). मां व म ब म र गळ * न का घि मी कुरा चूक का. १ya.ence & 2nd T, UTका विजयनगर के यादव गिरिभूपाल के दानपत्र में (शक. म. १०४..म.१४२४), म 2-0 JJGTE 2.1 2200 ) -37 230 201: 28 2022 OTGUJ கya8நயத PUT FஉTHI: F2407 38 °2255T STAarushi 7 Aho! Shrutgyanam Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate L!!! लिपिपत्र ५श्वां. कलिंग नगर के गंगावंशी (पूर्वी राजाओं के तीन दानपषों से. (ई. म. की छवीं और वी शताब्दी। पूर्वी गंगावंशी राजा इन्द्रवर्मन् के अध्यनपुर के दानपत्र में मांगेय म.८१-ई. न. को वीं शताब्दी!). ३ या द व क ख ग घ च ज र उ न द ध न प फ व सन 120 EC 23 2 ने 21 200 भ म र व श न था या लि णे सू ने गो गौ ङ्गा . BA27 G) and E6. पूवी गंगात्रं शो राजा इन्द्र वर्मन (दूमरे) के चिकाकोन के दानपत्र मे गांगे ग मं. १.४६ = ई. म. को 9वीं शराब्दी!). 190WECen02000 5 ल म य र ग घ म म् ला वि जे हे ग्रा र छ मा के छ . Ycv AU080820 O g 00 गावं सो राजा देवेन्द्र वर्मन् (गुणार्णव के पुत्र के दामपत्र में गांगेय सं. १८३० ई.स. को ८त्री भामाब्दी !!. CAU८20702 0न 230 9 अन्य 1 8013@ian A3 da aajne 300 hਟ ਓਰ ਗੁ6 e 2017 ON YE. DAY20077078687SI ਰਪੂਰ ਖe ਸ਼ਰੋ ਨੂੰ ਨ ੪ Aho! Shrutgyanam Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate L7111 गंगावंशी देवेन्द्रवर्मन् (अनंतवर्मन् के पुत्र) दूसरे के दानपत्र से (गांगेय नं. [२]५० ई.स. को स्त्रीं शताब्दी ? ?). 實 ए‍ @ ग अ ऊ & str श्र すく R * 3 लिपिपत्र ५८वां कलिंग नगर के गंगावंशी (पूर्वी) राजाओं के दानपत्रों से. (ई.स. की वी शताब्दी) M ळ ह् ए 25 गो रो डेत्या ४ क क क क ख F F F F 2 3 3 近 त ई छ द र যা6 न प फ भ 可 य य य र र ल 2 WWU S & J W W T U Sa नल 5 ঘ SCH य ह का या 3 টটি the so gre ट्टा है यह छ त म म प व 7 स 8 8 awas 23 8 सर हु IC लि शि पी गु भु चु सू सू ভ & যৗকराध hola LUC ग म ग द नन न दा घटन Aho! Shrutgyanam थ द द ध ०८ द हा ड्ड से R OF to C र्मा य राजा देवन्द्रवर्मन् (दूसरे ) के विजागापट्टम् के दानपत्र से ( गांगेय सं. २५४ = ई. स. की धौं शताब्दी ?). च ट व к {33 श्र र क ख ग प त थ थ द ध न फ भ 5 5 87 बदल50 6 20 w टा 30 g فت & wa. ७ . २०४ চদ জবघृথঘটথা Res&zwS7 ब हूंজউঘসখK 8উकेशসখ%% ঘিg - QQQ Gary Ganga F7 ४४ बजे सुछछली Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LIx. लिपिपत्र ५८वां. कलिंग नगर के गंगावंशी राजा वहस्त के पाकिमेरि के दानपच से. (ई.स. की १९वीं पताम्बो के मथ के अासपास मला म २० छ र त Fd a न र ट ६EE 240८ र ल त. Mom mभा त क 55 ७ ८ ८ र ८, न त रन 423 ट ७ शुरट म 8 य ग ww U0 ल ल) C. वटा 79 व ना क वा गु ८ म म न ह का ट द द ट ट र टा था . co८/ रा धि TO a सुक र ण त्थ RE_Fas6 2 त्र हा न , 6 E श्री. १ प म यो ई 4 264444 9 80/Fons टाटा ठyadgril यः & ८) एटा दम288820 22.50 Y Vs U' / 24/टा त - १/Y इयर' 80 कला Aho! Shrutgyanam Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pleate Lx. व इ म मु३ १ 84 cy 93 पत्रवंशी K उ लिपिपत्र हवा. बंशी राजाओं के तीन दानपत्रों के अंत के तामिल अंगों मे कीरों शताब्दी). 32 万 ऱ A ए राजा परमेश्वर के रम के दानपत्र से (ई.स. की शाद कूरम 9वीं शताब्दी). टु तु पु न्ह ॐ ऽ का 4 ↓ 3 45 E* प 5 on on C 夏 T ग अ श + ही तु लुट 5 C on 24 है छु ་ 8 9 4 5 m ý ist म् मु मे 물 GOI ঙJ হতা । % ory of any श का या 46 4: क ग घ के है। a भु मे ३ न्हे छु ५ ঙ ঘ জog on are ध अ का € - ट तिरि पा श क पखववंशी राजा नदिवर्मम् के काकूजि के दानपत्र से (ई.स. की वीं शताब्दी). H प म ग जम द স9 f hd dayal राज के डा08 2 को टो रं की पी रो म ककु a ool afl au ap 3 ও 砌 ए टिति मा 5 द ष्ण के क्र က प व ण्ट Aho! Shrutgyanam वंशी राजा मन्दिवर्मन् (पवन) के उददिरम् के ज्ञानपत्र ते (ई.स. को प्वीं शताब्दी). ध म " म : ce e জ1 १ 87 8 19 भूमा प र Asia! 406 ट्ट प्प त्सु रि. लु SS कहा uu ss य म ० ब को काति f পা কণাকধ ह थि य मे कर ना र का या द टु तु कू 莖 14 या 5 के } g the ap as } * भ 6 इ jS Dj 0010 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plato LXI पणवतिलकवंशी राजा दन्तिर्मन के समय के लिये केले में ई. स. को ८वीं शताब्दी), 家 I दू उ क ङ न ट UT म य य र ल 4 त्रु ३ १ क श J coom के Q 10 व 伤 శ 7 प 207 45007 कुटु सु मु रुवु · नू कुऽशु पुछद्म খ ফ श लिपिपत्र इवां पतिलक दन्तिवर्मन् धीर राष्ट्रकूट करणराज : नौसरे) के लेखों से. (ई. म. की नवीं और दमदीं शताब्दी) श्र रात्रकूट राजा कण्णरदेव राज तोमरे के समय के केस से ई.स. की वीं शताब्दी). i श्रा र 3 す क ङ ३ ञ 2 रा न न यु 3 2 77 খJও< any oh n व व ६ रु कू চমR भु न 69 कल्ट दू 无 म के 3 छ ल म एस का मा ल कि मि তাটা ঙ ঠো pm or Ho থট पे ने रेकको তএom of ইন प ॐ र टु पू ॐ ৬গু क A न प लू मृ कु ঙ ङ व 하 न 刃 无 द मा या f 白 कु टु शु 5 J न पो टटा psাআ?? 습 वे ₹ GU তষ হয় কথা াPage #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Place LXII. लिपिपत्र श्वां. राजेन्द्र चोल, विरूपाक्ष भोर यावलकामय के लेखादि से. (ई.स. को १२यों में १५वीं शताब्दी). राजेन्द्र वोल (प्रथम) के तिरमले के चटान पर खु ए नेख मे (.म. को ११वीं भताचौ). अ र + उ ऊ ए ओ क ड च न अ ट ग त म प म 43.2 ११ १२ 168 (1303 IN UP 84 गुन/M. पगम (बर्मा में ) में मिलेगा वैष्णव नेख में (.म. को १३वीं शताब्दी के पासपा). 443 - c-- 6] muo Ww ? avroMP) ७१ 2017 2046) 20. विजयनगर के राजा विरूपात के शो कावुर के दामपत्र मे । ग. मं. १३०८.. भ. १४८०. १५ @ 27 28 5) म अ ८ ८ ] 8500 wJ02) PB 389 9 90966 महामंजम्ने चार वाकन कामय के जंच के घर के लेख में ग, म. १४. ४६.म. १४८२). 32705/8L- cण कULD TV 2pool pu02/215000 PT Aho! Shrutgyanam Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXIII लिपिपत्र श्वां. जटिलवर्मम् भौर घरगुण पांझ के लेखादि से. (स. को वीं और वीं शताब्द।। जटिलवर्मन के समय के बाणेमले के लेख में है. म. को वीं शताब्दी). BY26U४032 20 25 3 १ NUM1925 1925 wevP720 २०७३/ww x v१ ११.०५.33 जटिलवर्मन के दामपत्र म (t. म. को ८वीं शताब्दी). /a ५Y.06 200४ 3८२ ८,८७? स व क ल र २ चा ना मा ा कि टि की नी 55 V - 2000029 240938UAWore onvw बरगुणपांच के बाभमद्र के लेख में ई. म. की.वीं शताब्दी। 20Uon R, 21 १.४ 833 न म प म य र ल व क न. क र र ग ग का टा 22 ८७ ) 102) JMP33500 रा मा वि री कु चु दु तु न न म न व मै पी. - 0942,22, 200M Aho! Shrutgyanam Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plute LXIV 지 व お तु स्तु ३) र प ऊ お ङ धयुথ৯x৯790332 MA म র अध्य ని मांबलि ने जिने हुए योत्रगो के दानपत्र से ( कोलम् सं. १४८ =ई. म. ८७३). र ञ ट एस प म म य T श्रीवल्लवंगोडे, भास्करमविवर्तन और वौरगघन के दानपत्र से. (ई.स. की १०वीं में १४वीं शताब्दी के आसपास तक). इ य T र श कर ना या 翔 चि रि " য হ - 2 रु छु कृ पे टै 쮸 को T पो रा. লু হষ থso পং यु ड कोचिन में मिले हुए भास्करर विवर्तन के दानपत्र मे (ई.स. की ११वीं शताब्दी के आसपास). T इ ई उ ङ. च ञ द ए त न प you yo स उ लिपपत्र ६४वा. ॐ न्न ल १५ འ 3 B 21 चु टु म नू के पे बे 뜕 मपदऊধ यू यूनुখনত ず पू 文 ₹ ल कृ कार्य मे मिले हुए वर के अन्य में ई. म की 8वीं शताब्दी के आमपाम ). ū न्द्र 2) Q त तु भु रु र टा ן वि की श्री 匪 ২ ২ওত५० ব สุ 不 यू ता ना ७० टि ति ङ च अ ट ल या Aho! Shrutgyanam यि फि 葱 नू ये ४२५zawa र वी го को टं 츄 स्ट म ਕਿ मि तो . 3 新 प ०२२ वि ये ती यां रो. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pleic LXV. fafaqa #чаї. #захі? тях щитія я ляцяліг їх ініt + шат а. it. ч. чі птиттягт, YұУУУУРу++7 999 ЧЯТТЯръ5-SS + 35, 333 5555FPPTF 22х Боuuu улл127 уу 17ЛПТТЕР 2222 758x28791 +91. 533 य त न द व पं चो मी मो मो यो मा नं ५ नं मं में лучј читая РКТУt, уц лу1.201# 3 5842Ҳл 892% 59TEZP A2 лh h 379 - 515 hүn тя711 555 Уг -to gy on 579 Тут 55 + 5 17ХP 39Tr27 от 777 * Ahiol Shrutggyanam Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXVI. लिपिपत्र हवा. freeiя i = (цитат), из, чifi wя қий амit & fааt а. (t. . ці і ұча даrt if a. 4 ? хага аж). от (ar) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXVII लिपिपत्र १७वा. मथुरा तथा तक्षशिला से मिले पुर लखो मे. है. म. पूर्व को पहिलो गमाब्दी ई.मको पहिलो शताबी तक). सय राजुल के समय के मथुरा के सिंहाकनिषाले स्तंभामरे के लेसी से. 92727227192b764433Y YYSIS 3 4 53,75556NT FUUM 10721177057222425756Y मागे मे जो मो हो । र २ प्र 4 सि हो स , है100L/LY 12. miths मशिना में मिले हर समय पनिक के मामले में. 7377513179317 FU11772 'नि लिशि हुए पु ल म दे थे रे की झा भी पं में रं र म ई hath 73 4 7 mEY तशिमा में मिले हुए पत्थर के पात्रपर के लेख में, एच.- कि ति वि पि - मि १५ पु त रे मे तो वो यं म 75Ytmethy,4477 . . (742 TIC, 29-5472% PARY 52 2 ndhe 327777" 97961 19h - 20 UY T5 56 Aho! Shrutgyanam Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपिपत्र sai. पार्थिवंशी राजा गंडोकर और कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय के लेखों से. (ई.स. को पहली शताब्दी) Pints LXVII. पार्थिवंशी राजा गंडाफर के समय के तिमाही के लेख म. ब म म य य र व 775SH.५७J770T72+Yy8844 ए ए र न फ र 3 3 न तदगिमा के कुशमवंशी राजा कनिष्क के ममय के मुविहार के तालेख म. क दव स्व स्व ग ह ज ट ठ त त द द द न प ? 7 7 7 2 3 7 3 3 9 5 4 3 Y + } > > 5 5 5 9 ħ प 피 भ भ म म य य य य T र 何 व व स स म चह ह ए AYS BURNSAS4413] }}}22 2 亿 ठि िति दिदि मिमि भिमि थिमि हि कु कु टुलु स दे HAT 8 5 F & & M 5 Ý A Z Z 3 8 } } { ♪ }{ ६ मेरो मे तो रोहिं सिं नं नं मं र प ये वं ह व्य 1510136334৬५६६ में है कि के है ३३४ R प द स्तूप व स हि मि गबु पु में बो से निकले हुए पात्र के लेख से. प यं घोडा के लेख से. ज्ञ T ‍ फ 3351 37gsb 337 547489५ S व म 3 격 द 1. बद Aho! Shrutgyanam च म fiszz A537 51913 384 ZZF3 पुकार ३४५४५५ ३४५२० 6 izij xx3 5 1931 3 33 377 1 3. Bi>ZUS A33 343 93 33549 3515 $3 fforeh gus 27 Boys in 33t6375855 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXIX. लिपिपत्र वां. чі. ( **qifasia R), что, чтят чат таті з ва ғ. ( . f ett zart ). वर्षक से मिले हुए पोमल पर हरे हुए हुशनशी राजा हुविक के समय के लेख थे. і? 2 2 2 29Pexy117Ч1 553FET топлі 17??лт?? 21% + % ү रि हिल गु दु मु मु बुर मे रे ले वे जो यो मो यं रं में 527812гггггг 445члмл 7 л 4. si try гі? е? % FREE 2,5; 2) 311 3 - at हममयंशी राजा पाच के पुत्र कनिम्न के समय के धारा के कोख से. 27930-12 Fithясгә әә, . पाजा के क्षेस मे. жиҳr & Big a. о Вялг?ч? (1 + + Т?Р, 1л. 87) 29F%) $35277777772° phen rz 20p 5e4°5-22 75727 22p 6 75 +5° 29 727 22p fe95 32vел от 4 ул 537 4гд? 222 лhh bgъез еvеn уо Aho! Shrutgyanam Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate L.XX. Plate L.XX. लिपिपत्र ७०वा. - - तक्षशिला, पतजंग, कनिहारा, पर्षियार और पारसहा के लेखों से. (ई.स. को दूसरी मताम्दी) तरथिला में मिनेहए रौप्यपत्र के मेस में. 222222273 74555571 P70 - 770 2 218 दि हिलि पि मिलि वि मि खु तु के रे मे से गो तो 526hya , h6260 pm मी यो रोचो म . . म नि 4 स 179 2 2 2 167 फताजंग केस मे. कनिधारालेख से. पांच बार के लेख मे. 3 स त न य म से सो प्रो. प स स ५ कि. क न र म णि पु. 347EARSmut P?TRE पारसा में मिले हुए। लेखों में, 2 १ ५ १ 0 23861204६१ 178 PP }x7 275 . F492 22 12331, - 71124247/20723273 27307554750 - 703103 1797 24780 p 137 % 24 17517 11723_1290१६२ 7737 hrs 22 Aho! Shrutgyanam Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pluste LXXI. १ ३ " ५ AN ६ 9 U ५ २ mo & चोक के वामाचार सेब से केसे. ५- १० पूर्व १०० पूर्व की भोसरी को दूसरो साष्टो. + m e HII of ब्राह्मौ और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक. (१ से ८ तक ). I it iil S 7 7744 11 कुमयों के मंच के ०० को पहिलो मरा आदि के अंकों से शताब्दी. == ))) > २ हों तथा उनके मकान परिवाजको पल्प के महाराज को आदि के गा फूफुफुफ 15PP हदहट 777 बाकाव के दाम पत्रों से. लिपिपत्र ७१ बां. দ93317 13 पांचव माब्दी नए और बंदियों के समय के नासिक ई०ए० की चादि कोचों के दूसरी शताब्दी 5 ՈՒ = SCCSSIC थु <335 J बसभी के राजाओं के पत्र चोर शशांकासन राजों के नसे. है. म. की ई० ख० को दानपत्रों से. ई.स. को दामपत्रों से ई.स. को . म. को से नेपा के लो हवीं शताब्दी व शताब्दी सेठ मनाब्दों ((( è cc ccc If yo " ***** *********gy トヤ と า no S 93 333 3591 चों के सिखों से. रे.स. की दूसरी पोशाब्दी ព ՄԻ ԷՆ Aho! Shrutgyanam S ११ 35335 333 448458 पेट की क हिम्मतच राज पर दानपत्र ऐ ई० को मताब्दी ンンソン ~~~~ रवीं से चाटव शताब्दी तक 1999 99g ११] уници 15050 533 155 2236622 555 233 क्रू कुकग्य हटव ८० B 13 3 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXII १ २ ३ ४ 2049 d U ५/ の कलिंग में के दान मे. इ. स. को० (1) wie ext (3) [e मताब्दी १० १०/ २० ३० 26 33 5 मोद के लिथियम ब्राह्मौ और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीनशैली के अंक. (१ से ८ और १० से ८० तक ). ८६५५ 3 ... पूर्व की भोसरी मताब्दी ४० ५० GJ ६०/ ૩૯ cof Col प्रि दानप मं०म० को बाबों 33 ० S क मामा के. पूर्व को भी मताम्बो. F भি व दामों में. ई. म० को शताब्दी स त శాభా बी म. ई.स. की को एसा दी. ху मन के प्र 2262 42 S S उन 37 २२१९ ३३३३ ६५५३ ५५ पू लू ठ ሼ ५५ कुनमियों के समय के मथुरा चादिकं हे खों से. देवकी पहिलो व दूसरी शताब्दी. αααααααιαα ५६८८ ege যया ५५५×× 1666 8 सचिन पुसको मं. चोंच रंगियों के समय के मासिक चादि को मफ़ाटों के छंकों से १०० की दूसरी मनाब्दी 8 XxX OCCC Aho! Shrutgyanam नेप रोड पुसकों से. 6 ड ज झ ड तू तू हर्य है दू यू ई এএ 지퍼 श्री ग्रा र्का दू 33 को दूसरो DCDCX उ गमाब्दी 60 ~ 22 प्रभ CJ जैन को जरमय के हो के.ए. तथा पत्रचादि के दामों से. को चौथो शताब्दी ok oc एकै प * फ् प्र ॐ पू 00 this in Ey خوره In Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate L.XXIII. लिपिपत्र ७३वां. मानी और उससे मिकसो हुई लिपियों के प्रागैन शैली के अंक (१• से तक). नमो और पनके भमकाहीन बाबारकों के रिशमशरि महाराबाजों। रामर . संसादिम. प. कीची 1.स.कोरवीं से स्टी इनादी. बमाब्दी माइंकायम | पास निमासभी रामालादाम. कॉों | संकों में मारपनों से. १.स.कोरौं रामपर.. k.स.कोम्बोपी . . .। हैवी मनान्दी. स.कीडीरवी सना- कोरी में मनादी) कबी) महादो. loc ech cc w ic uic Engwa 10 पृ २०००88 00068 ३० Jul एy 030 ०५ Do 0 ® B२९-८ B9% ८०/000 प्रमिषारोरामपरी भिभिन र दामपनों में. *. t..कीरी ९.ह.कीरों में ही चीरवी मादी समायो. सतिचिन पुसको से. बाबरसा पुमको में. पास से मिरर रस कोठी एतको से. मनादी. मेर पुसको रे. पुल र का of op! C लाईल 10 | vबलले लला की Y यू । प्राप 06066 दवस क BBCS038 | हूपू "3000 Ahol Shrutgyanam Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXIV. लिपिपत्र ७४वां. गगनी और उससे निकली हुई लिपियों के प्राचीन शैली के अंक. (१.. से.. तक). .स. पूर्व को पानावार को बाधिक रोगों से. म. पूर्व म.की। कोहरौ लोकरी शादो. मोना उनके हाँसिलो मे. समकालोम राजाको १.म.को दूसरी चौथोमसान्दी. .म.कोचीयो स्टी मादी बीराजाची दानपत्रों में १. काठमे चाडी नाही | M २. | स नसनम 12 सभ My narranJY73, ५५ a 3317 फसिभिल एसों से. भित्र भिड सेकादि. बसिना शमियाजा .सीपी/ .tw/ बरीमनाबी. नों () प्रक्षिकारों के रामपी से. ई.प.कीरीचौरी मताब्दी म. ५ मे बो र पुस्तकों में जंग पुसको के. Tww. a --- -- सात मासा Ahol Shrutgyanam Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXV. १००० २००० ३००० ८००० लिपिपत्र ७५. माओ और उससे निकली हुई लिपियों के प्रायोग चोर नवोन शैली के अंक ५००० में ४ 245 0 ५ proof Ric २००० To 50019 मनावर | के लेख से ई. स. पू. की सलोन ताब्दी T اللعبه Fp प्राचीन शैली के अंक (१००० से ००००० तक, चोर मिश्र चं). wifeक कं मे. ई.म. की शताब्दी. ४ 10৮66 ११ ११' फ् tb ८७८ वाकाटको कं दानपत्र मे. ई. म. शताब्दी. 97 24 ล์ T मर्जर राष्ट्रकूट प्रतिहार राष्ट्रकूट दोमपदतिको भागभट ए. ई. स. दानपद में दानपत्र से संच से まだば、 ई. स. ७५.० ई.. 3 mm 24305 ४२८ V=TFSE 40474507 ५१३ कला हउ 4434 9+ ब्राह्मी से निकली हुई लिपियों के नवीन शैली के अंक (१८ तक और ). D 解资 00 56 ५९ 6 = 3 2x OCF 29 203 १२६ of HOP ४९ V= XP १ R मित्र अंक भित्र भित्र जिब्रालेस र | १०१ ? - . ई. ७. ८५०० ४ प्रतिहार राष्ट्रकु प्रतिहार क के निर्मा को सोमदेव के भोजदेव कोधपुर के दाम मे ऐसे. कस्ले कसे ई. स. स... के बाबा 1 ৩2 Aho! Shrutgyanam rচৌ اس ·60 7 mer १००९. T १००९ T= १९२T8 १०.. Tan ("" Rp १.... Fac घ घ घ घ 60 १२... FacT ० • To L प्रतिहार महोपा के परे से. स. १९० घ 2/73 م 02 हर ེ་་ ई.. ett. { ৮থ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXVI. RAJ २ v ॐ चो ५०० や 3 ४ छ शताब्दी १०१० ५ शिलारा परमार राज के पराजिम के कर्म के दान हम सं. ०८०.०९९० ई. को श शताब्दी ११ माझी से माझी से निकली गई विधियों के मन मे ची के दाम पत्र . ई. १५९. लिपिपत्र ७६ वा. माझी से निकली हुई लिपियों के तथा खरोष्ठी लिपि के क. १८ तक चर ). मारदा हिदि के से. ई० को र २|33333 ই ३ pes 60 7 २ र ૬ १ ० S occ এট এ ० गंगा लिपि के दामों से रेस की शव से १९ब्दी > 90 ३ 330 3 ४ त Sad! ९९९ ४ पंथ जतन 3 कक्षपरि कर्म के दाम www. .. १४९. हा Y or 1 2 ५ 2 85 ० १११/११ १२ १ ३३ ४४ ४४ ял ६९ 2 करि नेपाल जादेव ७1 है. कोशी को से १४ ब १५ ची मादी शताब्दी. 0 ୭୯ ० -कमी . rape ga 5 GW2 ६६ swab Aho! Shrutgyanam 77 के से. ०११६० पासपास. ૧ ૧. Hoecom Cocএ এএ 733 333 पुसको से लीके बद Ε पुष्तक से पुस्तक 2333 3333 खरोडी लिपि के म पार्थिवम् चर कुन यों के समय के भित्रभित्र 33" イ 7 # 23 तुम से थे ॰~Kতা x2773711 0 १ 33 ८० १ 3 m নabaraz 어 N C ९ ९ १.० #IX IX XX पुस्तक. शक के लेखों (11) १०० 1137199 21 3 3 merol 2 S , ८ ८ १० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LX.XVII. लिपिपत्र ७७वां. वर्तमान शारदा (कश्मीरौ ), टाकरौ और गुरमुखौ (पंजाबी) लिपिया. द्वारा कश्मीरी) लिपि. प्रअ उ ऊ ८८ट से उF ग्रं प्रः क प ग भएमळ एा म005 मल उ यस 1 4 ठरु म य र ल व म ष म ८ क कि की कु कृ के कै के के कं कः ० 3 उर ५१ 5 ७० टाकरी निषि. 76665822 ऊं मैं 56 ५ गम 83,28332023 R. J यय.८६ nud ल2 छा ल 36 ४ि४४.४४ ४४ 336) ७२ ४ ५ १560 पा गुरमुखी (पंजाबी) लिपि. र उ ज स ए को श्री अः क ख ग घ टि टी रटे मे उ imi रवता २५ m ਚ ਛ ਜ ਝ ਞ ਟ ਠ ਡ ਢ ਣ ਤ ਥ ਦ ਧ ਨੂੰ ੫ Paal x_0 W ਬ ਭ ਮ कु कू रि दी ਯ ਰ ਲ ਵ ਸ਼ ਖ ਸ ਹ ਖ਼ ਰੀ ਜ਼ ਫ਼ ਕੀ के के को को के के: १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ये रे १२३४५६ 2 to old Aho! Shrutgyanam Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHEI.XXVUR लिपिपत्र ७८वा. वर्तमान कैथो, मंगला और मैविस्त लिपिया. कंचौ मिपि. श्रश्राईजएए श्री श्री अं श्रः कपघय ५ ७६८७ थय14 ४ फवमय र ल ५ श ष म र का कि को कु कू के के को सो 1 स 8 chi कि की कु कू के कै को को १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८८ बंगला लिपि. অ আ ই ঈ উ ঊ ঋ ৯ এ ঐ ও ঔ অং অঃ ক খ গ ঘ ঙ চ ছ জ ঝ ঞ ট ঠ ড ঢ ণ ত থ দ ধ ন প ফ । व भ म य र ल व श ष म र का' कि को कु कू के ব ভ ম য র ল ব শ ষ স হ ক কি কী কু কু কে কৈ কো কৌ কঃ কঃ 1 ২ ৩ ৪ ৫ ৬ ৭ ৮ ৯ ৩ য় मैथिन लिपि. अ आ पा र ई ए ऊ म ल ल ए २ श्री श्री अं अः । ज अज् - ४ ममत. तु. ०333 : क -//ठ ज टत १५ नमकतम एतत सह का कि की कु कु 666 6का को । २३४९१४ Aho! Shrutgyanam Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plnic LXXI.Y. लिपिपत्र वां. वर्तमान उड़िया, गुजराती और मोडौ मराठौ) लिपियां. उड़िया सिपि. यथा 088836368.2030sa ୫ ଚ ଛୁ କ : ୨ ୪ ୦ ଡ ଢ ଣ ତ ଥ ଦ ଧ ନ ଯ ଫ କୈ ଉ ମ ଯ ର ଲ କ ଶ ଷ ସ ଜ୍ କ କ କ କୁ ଦୂ କେ को को १ २ ३ ४ ५ । . ८ । 6078 9 m ४ 899 र गुजराती मिपि. અ આ ઇ ઈ ઉ ઊ ઋ ક – એ ઐ ઓ ઔ અં અઃ ક ખ ગ. ધ ડ ર છ જ ઝ ઝ ટ ઠ ડ ઢ ણ ત થ દ ધ ન પ ફ બ કે ક. કુ કે કે કે ભ મ ય ર લ વ શ ષ સ હ ળ કો को को कं कः १ २ ३ ४ ५ ६ . . ४४: १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८४ मोडी (मराठी) सिपि. शि ; भऋ ल ल 0 0 D j : ती ग घ उ उ छ ? झ उउ ढ ण त छ छ छन म भ म ए ए ए रा षछ छ ४ प स पी पी ली गि ने प्रेम मं.प्रः १२३४८६ ७ ८ Aho! Shrutgyanam Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plutt LIXX. लिपिपत्र ८०वा. वर्तमान तेस्लुगु, कनड़ी और ग्रन्थ लिपिया तेलगु लिपि. २ॐs 21 22 2 3 2022382 2 da४८८६४६ Om ens XP cachant a భ మ య ర के को को को 3 °F ఱ ల ళ వ శ ష స హ १ २ ३ ४ ५ १ . ८ ० ७ 3 ४ ६ ० కా కి కీ కు కూ . अ ಅ आ रहै उ ಆ ಇ ಈ ಉ ऊ ಊ च ಋ कमडी लिपि. * ए ए ಋ ಎ ಏ ओ ಒ ओ ऐ ಓ ಐ श्री क ख ग ಔ ಕ ಖ ಗ. ಫ ಬ ಚ ಛ ಜ ಝ ಞ ಟ ಠ ಡ ಢ ಣ ತ ಥ ದ ಧ ನ ಪ फ ब भ म य र ल व श ष स ह क का कि को क ಫ ಬ ಭ ಮ ಯ ರ ಲ ವ ಶ ಷ ಸ ಹ ಳ ಟಿ ಕಾ ಕಿ ಕೀ ಕು कू के के के को को को १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ 5 ॐ ॐ, 30 50९ ०.०२.४ १६.2.0 F 0. ग्रन्थ लिपि. BOU. 22618883 G003 2016PAT 2,2618 வநவஜவமஜக கு+ 0 2029ணதய உயரு प फ ब भ म य र ल व श ष म ळ का कि की வமவ ஜயாய வபா ஷ ஸ ஹ உகாதிக் 40060050611056 5212POETभक Aho! Shrutgyanam Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXX7 fafqu II, ?. a fafaqt கா TET frfi. (12 (35 ஐ 000 ஐ உஉற 8 3 ng 3 63) வெ றே கவ 63 வ ஜயணowஹமை யே न प फ ३ भ म य र ल व श ष स ह ळ ळ २ का कि को ന പ ഫ ബ ഭ മ യ ര ല വ ശ ഷ സ ഹ ഴ ള റ കാ കി കി * * * * * * * 1 * 3 4 { • = . கதகெ கே கை கெல்கே) கொ.உ உருஸ் छु लिपि. ஹஸளை 238ஐஐஏலாவை nu ஒ வ ம ஸ ஹாயாய ஸபையாய பஸாஉனனின் டைஓரை, 10 11 ரை तामिळ लिपि. அ ஆ இ ஈ உ ஊ எ ஏ ஐ ஒ ஓ ஔ க ங ச ஞ டணத நபமயரலவழளறனகா கி கீ * * * * * * * கு கூ கெ கே கை கொ கோ கௌக உங ச ருசா எ அ க ய யக உயாத Atio| Shrutgyanam Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXX17. | = त्रत्र प अ = त्रत्रत्रम. इ = 53. क +7 तक क ख - 2 ग्व ख गगग [A 2990 2 12102538181 लिपिपत्र दव. वर्तमान नागरी चौर शारदा (कश्मौरी) लिपियों की उत्पत्ति व्याघघ ङ = ८ ड ड च-dठ उच छं छ ज = EEE ऊज 5- PPT झ - HP स झ झ ञ - म अरुञ ट - ८८८ ट ॥ ॥ ॥ 621 ग - 400 गग = 224 1ळ = क ळळ WW LL553 N B = 123333 |क = + * कुक्कक पि = 2 भावाप CC dd Jop 幼 नागरी लिपि की उत्पति = ठ ठ ठ ब तर १११ रु = द द ड ड ढ 1 = ढ ए = I YV ए UI = I Ymaण ष = त = A त त त थ - 068 थ व वध 122 प - ७ फ - ७२०५१ एफ ५११८८६दळ-८६८ळ पप 4 व ब भन्ततत स सभ भन्तततत लक्ष म - ४४४ म ययय र = |J र र र ल चलललल a = 64444 व श = शश ए - EE ए ए -PNV J The hকऊ জাठ ए - ८८८ए O=0 कट ११६.5 मढ रुम 4 = Irकलল उ = 17633 8-0688 स र=१११८२ U=0000 न-1 नन साहसराम स Aho! Shrutgyanam ह -७० टू ह शारदा (मौरी) तिथि की उत्पति क्ष = दे दा क्ष ज्ञ प-८०पय ६=७८६ ठ = 5 444 व ठ तन 35 भ= ४४ মम य-स्थ्य T=IT ल = J |व = 0 8 म - |ष = ६ ष ल क्ष् व hauha XABO भक्तम्भ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plac LXXX114. K V 19 ? 42 लिपिपत्र दावा. वर्तमान बंगला भोर कमको लिपियों को उत्पति. बंगला लिपि को जापति ತ =H Y Y Y Y 3/-} * 35- # = 56 5 5 5 549+h } x =02 7 3 = _ _ ೯ = ( C Q = T 9 4 »೦ ಕೆ -1 73 3 3 = ? = + # # # # # = & 4 = 2 FR @ 216 = T Y YT 5} = ೧ ೧ ೧ ೧ - A 5 | z = W UR Q q 2 4t =೧ 8 9 = [ 7 S & = > ೭೦ Z 5 - 4 5 | - ( d 8 FA ಈ * ಹ ಳ ವ * 1 1 1 ವ . =E ESS & v= U qq. ಅ 17 cಲಿ 6 "L kP 서 AM AAAA IN ೨h Tx3-2-0% ) 2 5 B ox H ( @ h HK MOH p 4 N Y Cb 04 4 AS FRE 0 X 3 ವ U & F G HY V +& ಈnt aff #1 ತh, ಆ ಆ ಆ ಅಝ++: F ಹುಝಫ - ೨೨ ಪ | ಇ-', ಇಇಇ - hh ಇ ಆರ್ ಓ °00 ಐ ಟಿಬ ಈ = - 3• •, à ಈ °C (Lಜದ ಟಭ - 4 ರ 2YJY ಎ -4 ರಿರದ ವರ 20 8 ರ ಮ °Y Y ತುಮಮ ಬಿ 22 ಬ ಡ = { { ಓಓಡಿ ಯ ತಮ ಕ =+ + + ಕ ಕ ಕ ಢ = ಒ೭ ದಿಢ ರ • | | | | | | ಖ =? 29ಖ ]ಣ - 1 $ 7 ಇ] • ಎ ೩೮ ಲ ಗ = ೧ ಗ ಗ ತ •à3 5 6 ತ ವ =4 6 4 ಆವ ವ ಸು = & W Uಚು ಫಥ - ಥ ಥ ಶ = A H 6 ಶ! ಜ = { ಓಬ _ದ = ೭ಓದಪ = ತಿ ಔ +ವ ಚ=4 ತಿತಿ ಬೆಚಧ -00 ರ ಶರಧ |ಸ - ಸಿ ಸಿ ಸ ಟ-6 ಹಿ ಹಿ ವ ವ ನ = 1 | ತ ನ ನ ಹ = SUB ಹ ಜರ್ಿ ವ = ! !! ವಿದಳ - ಪ್ರಳ CWO Aho 1 Shrutgyanam Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate LXXXIV. fafqua cal वर्तमान पंथ और तामिळ लिपियों तथा नागरी अंकों को उत्पत्ति. dalaly et cala. | F = X Y Z HH-EE621 2-22922 No = J• J· ·•••• 12=LL 222 20-A-32604=CS4 200 =0 12-121.24 +ƒ‹Û¥529-62929 = с 2=27&2 510469 வயாவி = h g w-o a aco cow 2 2532 P=CERR 21-1822221-00 o aw 20 do co 2205 - Linh BI5 622 322 300-1 1044200D |=PP FI |1=021 18=hh my yoz != ni & Zn 200 8=88888 Www 12=222222) 10 =1 J Jam @-JJEE |67=I I Ma760076007/621-6 ŏ 02121 |UT=A ~ ( Govt 28 - E/ 24 28 28 28 |RN=&WE WON 1am-u i5 2namam तामिळ लिपि को उत्पत्ति. |2 = 444 44121|L=CLL == 0 |FF = ↑ ↑ F 2=LL 222 167=477 7a28 2=22 Œ= + + 75 15-552 Jedd & G= h h h SO jm-I IM6000 S=λ S 115=15 ப=ப்ப LD=888 LOLD E-JEE A B JJO ज |Q=J LOGJ 1621=0 8 0 21621 Aho! Shrutgyanam नागरी अंकों की उत्पत्ति. A |||||1. fwa · ))) 4♡AH()}} (π Jt I wo for ६ ६ 7996 =17755 ~PR3? ہم ? १ осми 2057 มอย Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???