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भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि
(मौलिक चिन्तन प्रधान प्रवचन)
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भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि
(मालिक चिन्तन प्रधान प्रवचन)
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प्रवचनकर्ती आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी म0 की आज्ञानुयर्तिनी
स्व0 महासती उज्ज्वल कुमारी जी म0 की शिष्या साध्वी डॉ० दिव्यप्रभाजी (एम0 ए0, पी0 एच0 डी0)
प्रकाशक उमरावमल चोरड़िया, जयपुर प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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आत्म-आनन्द दीक्षा-जन्म शताब्दी समारोह
के शुभ उपलक्ष्य में
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वचनः साध्वी डॉ0 दिव्यप्रभाजी प्रवचन-स्थल : जयपुर वर्षावास सन् १९८९ काशन वर्ष : १९९२ वि0 स0 २०४९, प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी एव उमरावमल चोरड़िया अध्यक्ष : अ0 भा0 श्वे स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स (राजस्थान संभाग) १३, तख्ते शाही रोड़, जवाहरलाल नेहरू मार्ग, जयपुर : फोन . ५६१९४३ १६३७०४ प्राप्ति स्थान.- जैन पुस्तक मन्दिर, भारती भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर : मुद्रण व्यवस्था . प्रेमचन्द जैन, प्रेम इलैक्ट्रिक प्रेस, १/११, साहित्य कुंज, आगरा - २ फोटो टाइप सैटिंग . दिवाकर टैक्सटोग्राफिक्स, आगरा। लागत मात्र मूल्य . ५१.00 रु. इक्यावन रुपया।
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समर्पण
आचार्य भगवन्त के चरणो मे जिन शासन के श्रुतधर । कलिकाल के प्रभुवर |
तुम्हारे चरणो मे नमस्कार
कर लो इसको तुम स्वीकार ।
क्योंकि तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है
तव आशीष का सवेदन है।
पूज्यवर !
सोचती हूँ
यह मानतुंग का कीर्तन है
या तुम्हारा निकेतन है।
लगता है - तुम प्रतिमूर्ति हो मानतुग की मेरे हृदय आकाश तरग की
तुम्हारा कीर्तन मेरा वतन है
तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है।
मेरे भावो को स्वीकार करो
प्रभु से मेरी मनुहार करो तुम्हारा आशीष नित-नूतन है तुम्हारा ही तुम्हें, अर्पण है। सच ही तुम
मेरे जीवन के वरदान हो
इस कृति की मुस्कान हो तुम्हारा आसन शासन सनातन है तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है।
आत्म- आनन्द दीक्षा - जन्म शताब्दी वर्ष
लुधियाना
(६)
- साध्वी दिव्या
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श्रमण भक्ति परम्परा में आचार्य मानतुगरचित भक्तामर स्तोत्र का एक विशिष्टतम स्थान है। शताब्दियों से भक्तजनों का यह कण्ठाभरण रहा है और वे प्रात काल मे स्मरणीय स्तोत्रों मे मंगल पाठ करते आ रहे है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओ की सीमा से मुक्त यह स्तोत्र सर्वमान्य एव सम्मान्य है ।
अन्त साक्ष्य प्रमाणों के अभाव में कविवर आचार्य मानतुंग व इस स्तोत्र का समय निश्चित करना संभव नहीं है। श्रुति परम्परा से कई विद्वान इनका समय पालवी महाराज भोज का समय निर्धारित करते हैं, तो कई विहान महाकवि वाणमह के समय महाराजा हर्षवर्धन का समय मानते है तथा कई विद्वान इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी के आस-पास का स्वीकृत करते हैं। उद्भट विद्वान सिद्धार्द गणि (जिनका समय दशवी शताब्दी निश्चित है) ने उपदेश -माला टीका "हेयोपादेया" में भक्तामर का एक पद्य उद्धृत किया है, इसमे निश्चित है कि इनका मत्ता काल नवमी शताब्दी के पश्चात का तो नहीं है, इससे पूर्व कभी भी हो ।
परम्परागत दृष्टि से स्तोत्र की पद्य संख्याओं में भी अन्तर है। कुछ विद्वान अड़तालीस पद्य मानते हैं और कुछ चौवालीम । अष्टप्रातिहा की दृष्टि से पद्म अड़तालीस ही होने चाहिए।
स्तोत्र की प्रसिद्धि इतनी रही है कि प्रमुख ज्ञान भंडारों मे कम से कम दस से लेकर पचास से भी अधिक हस्त प्रतियाँ प्राप्त होती है। इसकी स्वर्णाक्षरी एव सचित्र प्रतियाँ तथा काव्य-मंत्र-यत्र गर्भित प्रतिया भी प्राप्त है।
इसका व्यापक प्रसार और लेखको का अत्यन्त प्रिय स्तोत्र से अनेक मनीषियों ने इस पर प्रचुर मात्रा मे संस्कृत भाषा में टीकाएँ और जन भाषा में वालाववोध लिखे हैं जो निम्न हैं
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भक्तामर स्तोत्र टीका
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प्रकाशकीय
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गुणरलसूरि ( रस १४२६ )
कनककुशल ( रस १६३२)
अमरप्रभ-रि
शान्तिसूरि मेघविजयोपाध्याय (१८वी सदी)
रलचन्द्र
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१२
१३
१४.
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इस स्तोत्र की चमत्कार प्रसिद्धि को ध्यान मे रखकर कथा, चरित्र, माहात्म्य पर भी
निम्न लेखको की कृतियाँ प्राप्त हैं -
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१ भक्तामर स्तोत्र कथा
भक्तामर स्तोत्र टीका
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भक्तामर स्तोत्र बालावबोध, मेरुसुन्दरोपाध्याय (१६वीं सदी)
भक्तामर स्तोत्र बालावबोध, शुभवर्धन गणि
लक्ष्मीकीर्ति
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२ भक्तामर स्तोत्र चरित्र
३. भक्तामर स्तोत्र पूजा
४ भक्तामर स्तोत्र माहात्म्य
५. भक्तामर स्तोत्र व्रतोद्यापन
६.
७
८
इस स्तोत्र के अनुकरण पर अनेक दिग्गज कवियो ने प्रचुर परिमाण मे पादपूर्ति स्तोत्र छाया स्तवन भी लिखे हैं: जो निम्न हैं.
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भक्तामर स्तोत्र पंचांग विधि,
समयसुन्दरोपाध्याय (१८वी सदी)
इन्द्ररत्न गणि चन्द्रकीर्तिसूरि हरितिलक गणि
क्षेमदेव
# १. नेमि भक्तामर स्तोत्र
२. ऋषभ भक्तामर स्तोत्र
३ शान्ति भक्तामर स्तोत्र
४. पार्श्व भक्तामर स्तोत्र ५. वीर भक्तामर स्तोत्र ६ सरस्वती भक्तामर स्तोत्र ७. भक्तामर प्राणप्रिय काव्य ८ भक्तामर पाद पूर्ति
९ भक्तामर पादपूर्ति स्तोत्र
१०
११
भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन
भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन
ब्रह्मरायमल्ल
विश्व- भूषण
श्रीभूषण
शुभशील
ज्ञानभूषण
सुरेन्द्र कीर्ति
सोमसेन
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भावप्रभसूरि समयसुन्दरोपाध्याय लक्ष्मीविमल विनयलाभ
धर्मवर्धनोपाध्याय
धर्मसिहसूरि
रत्नसिह
प हीरालाल
महा० म० प० गिरधर शर्मा
माल्लिषेण
रत्नमुनि
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५० दनारसीदास, 40 मराज और जानदान - MA: प्राप्त है। वर्तमान समय में तो इसके हिन्दी, गुजराती, दमा
" एव गधमय अनुवाद निकल चुक । क गटामीन प्रस्तुत सस्करण का इतिहास
इस स्तोत्र के कतिपय दैनिक पाटी भरा जीर आरामानी ! अवश्य है किन्तु इसके गस्य मे अनभितरामा जानकारी प्राप्त करने के इच्छुक थे और गर मा मर्मज्ञ की तलाश में थे। वार्ता के दौरान श्रीमानhisha a दिव्यप्रभा जी के गहन अध्ययन की जातपाल ' वाल्यकाल से ही भक्तामर-पाठी, लाराधिन और मानक आ . अनुभूति भी इन्हें हैं। इनके जीवन का सदल मी
याया ___ सयोग से वर्ष १९८९ का चार्तुमास अवर - 30477* आग्रह से सायीचर्या ने रविवार को इस पर प्रा
. इनके सत्रह (१७) प्रवचन (ए। प्रवचनों के आधार पर
'; इसका पुस्तक के रूप में सम्पादन किया।
ये प्रवचन वस्तुत दिव्यानभाजी म० मा० ... 1 2 1 चितन में गहगई है, अनुभूति है. और भक्त पदय unki ! २५ मा परम्परागत अर्थों पर म्बतत्र चितन प्रस्तुत करताप का प्रयल भी किया है। इनकी प्रतिपादनली मे
मीप्रमादि। हुआ है।
प्रवचनों के साथ ही जिज्ञासापरक प्रशों का समाधी दिया Moilo विस्तार से दिया था। उसका प्रस्तुतिकरण टेपरेकॉर्ड का आधार पर भी शामित कुमार चोरड़िया ने किया है जो परिशिष्ट में दिया गया है। __ इस अमूल्य उपहार के लिए हम चिदुपी मायाग्ला पॉ0 मुक्तिरभाजी, गायी io दिव्यप्रभाजी, साध्वी अनुपमाजी के भी अत्यन्त आभारी है। इसका व्यवस्थित प्रारूप तैयार करने में महामहोपाध्याय श्री विनय सागर जी की सेवाओं को भी धिरगृत नही किया जा सकता। श्री शान्ति कुमार चोरड़िया भी साधुयाद के पात्र हैं।
प्रस्तुत पुस्तक प्राकृत भारती के पुष्प-७६ के रूप में इस सयुक्त प्रकाशा को प्रकाशित करते हुये हमें हार्दिक प्रसन्नता है।
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पुस्तक को सकलित करने की विशेष प्रेरणा एव आग्रह श्री उमरावमलजी चोरड़िया का रहा, जिस कारण यह सकलन प्रस्तुत हो सका है। पुस्तक के सम्पादन तथा मुद्रण तकनीक की प्रस्तुति मे श्री श्रीचन्द जी सुराणा एव श्री प्रेमचन्द जी जैन, आगरा का पूर्ण योगदान रहा है।
अन्त मे हम आशा करते हैं कि भक्तामर स्तोत्र-पाठी एव आराधको के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी और गहन चितन के साथ "भक्तामर अमर हो" का मार्ग प्रशस्त करेगी। उमरावमल चोरड़िया
देवेन्द्रराज मेहता (अध्यक्ष)
(सचिव) ___ अ भा स्था जैन कान्फ्रेस (राजस्थान) प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ,
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प्राकथन
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जैन परम्परा, बोर एव देदान्न प नि ..... : सुप्रसिद्ध हैं। किन्तु यह भी भक्ति के म्याग में आया
41 जद तक मानव का अन्तईदय रविकोष रे अप्नाद
... " एव माध्य को कैसे स्पर्श कर मना न पापा के .. .. 'शक्रस्तव' (नमोत्युण) आदि स्तोर आनी
है." याचनामुक्त मात्र श्रद्धाप्रधान स्तुनिपरक चतदितिra.. ... मानते हैं, तथापि उसमें “आरोग्ग बोलिलाम मा .2-1 ११५० ".. मम दिसन्तु" के कुछ अश ऐसे हैं, जिनमें गकार गतिमा . . लगे हैं। उत्तरकालीन जैन साहिन्य तो मका और निष्कार इतना विराट रूप ले लेता है कि उसका मारियिक विद्याधर TET
जैन स्तोत्र साहित्य मे आचर्य श्री भद्रबाहु म्यागी माग दिन उवमाना स्पष्ट ही रोग, दुःख एव दुर्गति आदि की मुक्ति की भावरा के लिए काTITT! इसी धारा में नामोल्लेखपूर्वक तीर्थंकरों की भक्ति के ओकलान आगे चलकर आचार्य सिद्धसेन, आचार्य समन्तभद्र एव आचार्य गन्द्र : भक्ति-रचनाएँ दार्शनिकता को स्पर्श करती हुई अग्रगर होती है.जो आज HTTE
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गौरवानुभूति की हेतुता मे सर्वतोभावेन स्तुत्य हैं। जैन स्तोत्रमाला मे स्तोत्रो के जो विविध रूप उपस्थित हैं, उनमे भक्तामर स्तोत्र काफी महत्ता प्राप्त स्तोत्र है। उसके सबध मे अनेक चमत्कार प्रधान गाथाएँ जैन समाज मे सुप्रचलित हैं, जो भक्तामर स्तोत्र के प्रति तर्कातीत श्रद्धा का अद्भुत रूप लिए हुए हैं। यही हेतु है, हजारो भक्त प्रतिदिन भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हैं। अनेक महानुभाव तो ऐसे हैं कि प्रात काल भक्तामर स्तोत्र का पाठ किये बिना अत्यन्त पिपासित एव बुभुक्षित स्थिति मे भी मुख मे जल की एक बूद एव अन्न का एक कण भी नही डालते हैं।
यह भक्तामर के प्रति श्रद्धा का ही सुपरिणाम है कि उसके अनेक सस्करण अनेक रूपो मे प्रकाशित हो रहे हैं। प्रत्येक प्रकाशन की महत्ता एव गुणवत्ता अपनी एक विशिष्टता रखती है। अतः हम यहा श्रद्धास्निग्ध भक्तो द्वारा सपादित एव प्रकाशित उन सस्करणो मे अच्छे-बुरे की कोई कल्पना नही करते हैं। भक्त द्वारा अपने आराध्य प्रभु के गुणो के सगान के रूप मे अनुगुंजित हुए स्तोत्रो के प्रकाशनों में अच्छे-बुरे के विकल्प हो भी कैसे सकते हैं।
प्रस्तुत से यहा डॉ साध्वीरत्न श्री दिव्यप्रभाजी द्वारा परिभाषित एव सम्पादित भक्तामर स्तोत्र के सबध मे कुछ पंक्तियाँ उपस्थित कर रहा हूँ। यह सस्करण अपनी एक महती विशिष्टता रखता है। श्री दिव्यप्रभाजी ने अपनी प्रतिभा का श्लाघनीय उपयोग करके भक्तामर स्तोत्र के श्लोको मे अन्तर्निहित आध्यात्मिक भावना को प्रस्फुटित किया है। शब्द का महत्त्व अवश्य है किन्तु जब तक शब्द मे निहित भावार्थ एव परमार्थ की ज्योति को उद्भासित न किया जाए, तब तक भक्तहृदय लोकोत्तर दिव्य आलोक से आलोकित नही हो सकता, जो कि आध्यात्मिक शक्ति के जागरण के हेतु नितान्त आवश्यक है।
मैं नेत्र-ज्योति की क्षीणता के कारण स्वय पठन मे अशक्त हूँ। अत. प्राप्त पुस्तक मे से इतस्तत' जो सुन पाया हू उस पर से कह सकता हूँ कि श्री दिव्यप्रभाजी वस्तुत दिव्यप्रभा है। भक्तामर स्तोत्र के परमार्थ को उद्घाटित करने मे उन्होंने जो एक नई दिशा की ओर प्रयाण किया है, वह अन्तर्हृदय से श्लाघनीय है, समादरणीय है। सभव है, अभिधावादी तर्कशील मनीषी साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी की कुछ प्रकल्पित धारणाओ से सहमत न भी हो तथापि इतना तो कहना ही होगा कि उनका यह सुप्रयास कथचित् साधुतावाच्य अवश्य है। एतदर्थ वे शतसहस्रश साधुवादाह हैं। आशा ही नही विश्वास है स्तोत्रप्रिय भक्तजगत मे भक्तामर स्तोत्र का यह सस्करण भक्त की अन्तश्चेतना मे अन्तर्निहित परात्पर परमचैतन्य भाव को जागृत करने में अपना समुचित योगदान दे सकेगा। भक्त हृदय की श्रद्धा को अधिकाधिक उद्दीप्त कर पायेगा।
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मैं श्री दिव्यप्रभाजी के पति आगाMar अन्य अनेक स्तोत्रो को भी इसी प्रकार अपने पतिभा उनकी रचना का प्रवाह इधर-उधर की जपरु: निरन्तर गतिशील होता रहे, यही प्रभुचरणो मेरि
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वीरायतन राजगृह, दिहार देव प्रबोधिनी एकादशी १९९१
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सम्पादकीय
'भक्तामर' शब्द से आप अवश्य परिचित होगे लेकिन भक्तामर के रहस्यो से आप कितने परिचित हैं इसका मुझे पता नही और न ही इसका पता है कि इसके पारिभाषिक अर्थ से आप कितने परिचित हैं।
कुछ शब्द दो प्रकार के अर्थों की अभिव्यक्ति देते हैं- एक शाब्दिक अर्थ, दूसरा पारिभाषिक अर्थ। पारिभाषिक अर्थ का ज्ञान गुरु के बिना सहज नही है । गुरु या आचार्य से जब तक उसका ज्ञान नही किया जाता है तब तक उसका रहस्य अनावृत नही होता ।
दो शब्दो के योग से इस शब्द की रचना हुई है - भक्त+अमर। इसमे भक्त और अमर शब्द के शाब्दिक और रूढ़िगत अर्थ तो आपने कई बार सुने या पढ़े होगे । परन्तु, परम आदरणीय साध्वी डॉ0 दिव्यप्रभाजी ने किसी विशेष अनुग्रह से इन शब्दो के पारिभाषिक एव पारमार्थिक अर्थ प्राप्त किये हैं।
भक्त याने जीव- आत्मा और अमर याने वे जिनकी कभी मृत्यु नही होती अर्थात् परमात्मा । भक्तामर शब्द की इस व्याख्या को इन्होने स्तोत्र मे यथास्थान व्याख्यायित कर हमें वास्तविकता से परिचित कराया है। इतिहास के अनुसार समय, स्थान और स्थिति के कारण अर्थों की परिभाषाये बदलती रही हैं। ऐसे ही कुछ कारण थे जो भक्तामर स्तोत्र की मौलिक अर्थ विवेचना परिस्थिति के प्रभाव मे परिवर्तित होती रही। देश और काल के प्रभाव में शब्दार्थों ने करवट बदली और हम जैन पारिभाषिक शब्दावलि से कई गुना दूर निकल गये ।
जैसे सामान्यत' सुरगुरु शब्द का वृहस्पति अर्थ जैन परपरा को कैसे मान्य हो सकता है ? देवताओ के प्रकारो मे इनका कहाँ स्थान है ? कल्पात शब्द का युगान्त या कालपरिवर्तन अर्थ जैन अर्थ- परपरा के मापदंड में कैसे सही माना जाएगा? ऐसे कई शब्द हैं जो मात्र वैदिक परपरा की मान्यताओ की पुष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । साध्वी डॉ० दिव्यप्रभाजी अपने प्रवचनों मे इन शब्दों के जैन परपरागत मौलिक अर्थ प्रस्तुत कर एक रूढ़िगत मान्यता का वास्तविक निराकरण प्रस्तुत करती है । वृत्ति या व्याख्या के अनुसार इनकी पुष्टि न भी हो, परन्तु आगम से ये अर्थ अछूते नही हैं। इस प्रकार इन प्रवचनो से समाज को पुरातन के साथ नूतन दिशा का आलोक मिलने की सभावना है। वर्तमान समाज की जैन परिभाषा की जिज्ञासा को इससे काफी पुष्टि मिलती है।
समाज की जिज्ञासा को देखते हुए और श्रीमान् उमरावमल जी सा चोरड़िया के विशेष आग्रह से मुझे इसके सम्पादन का कार्यभार सौपा गया।
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यद्यपि भक्तामर जैसे महान स्तोत्र पर दिये गये प्रवचनो का सम्पादन मेरी जैसी अल्पज्ञा साध्वी के लिये विकट अवश्य था, परन्तु परम गुरुवर्या साध्वी रल डॉ० मक्तिप्रभाजी म0 सा0 की पावन प्रेरणा भरे आशीर्वाद से यह कार्य सहज हो गया। इस प्रकार इस ग्रन्थ की जन्मभूमि जयपुर है। _ऐसे तो इस स्तोत्र के साथ एक इतिहास ही जुड़ा हुआ है। अनभिव्यक्त ऐसी एक वास्तविकता से आज आपको अनुभूत कराने को मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ। आप यह तो जानते हैं कि साध्वी दर्शनप्रभाजी और साध्वी डॉ0 दिव्यप्रभाजी की मैं अनुजा हूँ। इनके प्रगतिमान कदम मेरे जीवन के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। साध्वी डॉ० दिव्यप्रभाजी बचपन से ही भक्त हृदया के साथ वैराग्यवासित भी रही हैं। इनके जन्म के समय में पिताश्री चीमनभाई को इनके दीक्षा लेने का भी संकेत मिल चुका था। ___ अब देखिये, भक्तामर स्तोत्र का इनके जीवन के साथ कैसे सम्बन्ध हुआ। बाल्यकाल से ही स्तोत्र की प्रेरणा कैसे मिलती रही। दादाजी के यह कहने पर कि जो भी पहले भक्तामर कण्ठाग्र करेगा उसे चाँदी की डिब्बी और चाँदी की माला दी जाएगी। तब पूरे परिवार के करीब १०-१२ बच्चों में इन्होंने सर्वप्रथम मात्र ५ दिन में ही स्तोत्र याद कर लिया था। तब इनकी आयु ७ वर्ष करीब थी। जहाँ तक मुझे याद है, ये अस्खलित स्तोत्र पाठ करती थीं। मेरे ससारी पिताजी ही इनके भक्तामर स्तोत्र के प्रथम गुरु रहे हैं। ९ वर्ष की उम्र में इन्होंने अपने पिताजी से स्तोत्र के सामान्य अर्थ सीखे थे। उस समय से प्रतिदिन इसके सम्बन्ध में कई जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों को पूछती रहती थी, जिनका आज वे स्वय बहुत अच्छा समाधान देती हैं। . इसके बाद करीब ई0 सन् १९६९ में आपको महान विभूति आत्मार्थी पूज्य गुरुदेव मोहनऋषिजी म0 सा0, आगम रत्नाकर पूज्य विनयऋषिजी म0 सा0 और परम गुरुवर्या अनुग्रहपूर्णा साध्वी रल उज्ज्वलकुमारी जी म0 सा0 के सान्निध्य मे चातुर्मास का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस अवसर पर आत्मार्थी पूज्य गुरुदेव द्वारा स्तोत्र की साधना के अभ्यास की और परम गुरुवर्या द्वारा इसके वैज्ञानिक अनुसधान की प्रेरणा मिली। इन प्ररणाओं में अपना पथ दर्शन करती हुई आप अपने अध्ययन क्षेत्र में आगे बढ़ी। ई० सन् १९७५ में आपने 'अरिहत' का अनुसधान प्रारभ किया। लोगो की दृष्टि में जो महानिबध था, वह आपके जीवन का साधनामय अभ्युत्थान रहा। कई बार इस खोज में जब आपका काम अटकता था तब आपको अज्ञात प्रेरणा मिलती रहती थी। इससे मनोबल और श्रद्धाबल बराबर दृढ़ होते गये। ई० सन १९८० में बालकेश्वर में "आरेहत नी आलखाण" विषय पर आपके बड़े मार्मिक १७ प्रवचन हुए थे। इसी वर्ष “दार्शनिक और पज्ञानिक परिवेश मे "चत्तारि सरण पव्वज्जामि" के विषय से मागलिक पर भी आपके कुछ प्रेरणास्पद प्रवचन होते रहे। पाचोरा चातुर्मास के पूर्व हम पारोला नामक एक गाँव में यावहाँ एक बार आपको भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते समय गाथा ३६ का भाव-पूर्वक
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स्मरण हो गया था। परमात्मा के चरण दर्शन से आप मे एक विशेष अनुभूति पैदा हुई। तब से आपके जीवन की दिशा प्रकट हुई। अनासक्त भाव, समरसता, आत्मदर्शन आदि गुण आप मे आविर्भूत हुए। यह सब देखते हुए परम गुरुवर्या पूज्य मुक्तिप्रभाजी म0 सा0 ने चातुर्मास काल मे आपको इसी स्तोत्र पर प्रवचन करने का आदेश दिया। आपने उस
आदेश को जीवन की मगल अभ्यर्थना समझकर स्वीकार किया, जो आज एक प्रवचन माला की माला के रूप मे आपके जीवन का उपहार बनने जा रही है। स्तोत्रकार ने स्तोत्र को भी माला कहा है, यह उस माला की बनी प्रवचन माला है।
लीजिए गले से लगाइये, हृदय में उतारिये और भाग्यशाली बनिये।
-साध्वी अनुपमा
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शुभाशंसा जैन धर्म के चारो सम्प्रदायो द्वारा मान्य 'भक्तामर स्तोत्र' आचार्य मानतुग सूरि का एक अद्वितीय एव चमत्कृत स्तोत्र है।
भक्ति का महत्त्व तो भक्त-हृदय ही समझ सकता है। अपने इष्टदेव के समक्ष हृदय खोलकर रख देने वाले भक्त-कवियो की परपरा की सूची बहुत लम्बी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन भक्त-कवियो के हृदयस्थ भाव जो स्तवन और स्तोत्र रूपी झरने बनकर बह निकले उसमे आज भी साधारण जन उसी तन्मयता से बहने लगते हैं।
आचार्य मानतुग सूरि के इस स्तोत्र से अनेक भक्त-जीवात्माओ के अध्यात्ममार्ग प्रशस्त हुए हैं। इसका एक-एक शब्द, वाक्य और श्लोक मनस्ताप को दूर करता है। इसका प्रत्येक पदविन्यास गूढ मत्र रहस्यो से युक्त है। सभी श्लोक भिन्न-भिन्न मनोरथो को पूर्ण करते हैं। जैन धर्म मे, विशेषतः मूर्तिपूजक सम्प्रदाय मे अनेक स्तोत्र हैं, पर श्री भक्तामर स्तोत्र के समकक्ष किसी को नही रखा जा सकता।
विदुषी डॉ. साध्वी श्रीमुक्तिप्रभाजी की प्रेरणा से डा. साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी ने उनके जयपुर चातुर्मास मे इस महास्तोत्र को अपने प्रवचनो के द्वारा इसकी महिमा से जन-जन को लाभान्वित करने का स्तुत्य प्रयास किया था। यह और भी प्रसन्नता का विषय है कि अब वे प्रवचन ग्रन्थस्थ होकर स्तोत्र महिमा में और अभिवृद्धि करेंगे। प्रत्येक श्लोक का सूक्ष्म एवं सरल विवेचन प्रशसनीय है। निस्सदेह 'भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि' से भव्यात्माओ को दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी। विजय इन्द्रदिन्नसूरि का धर्मलाभ (आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज) १९-१०-९१ जयपुर
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READLINE
मंगल-संदेश
जैन शासन मे साध्वियो की गौरवशाली परपरा रही है। भगवान महावीर के समय में साध्वियो की सख्या छत्तीस हजार थी। वर्तमान मे लगभग ग्यारह हजार साध्विया साधना कर रही हैं। भौतिकता-प्रधान युग मे इतनी बड़ी सख्या मे साध्वियो द्वारा किया जा रहा आध्यात्मिक अनुष्ठान अपने आप मे एक उपलब्धि है। साधना के तीन अग हैंदर्शन, ज्ञान और चारित्र। इन तीनो अगों की पुष्टि होने से ही आत्मोपलब्धि की दिशा मे गति सभव है।
वर्षों से मेरी आकाक्षा थी कि जैनशासन मे साध्वियो का कर्तृत्व उजागर हो। ज्ञान के क्षेत्र मे उनकी गति हो। जैन-साहित्य उनके अवदान से गरिमा-मण्डित हो। विगत दो-तीन दशको मे साध्वियो ने इस क्षेत्र में प्रस्थान किया है। उनकी गति भले ही मन्द हो, पर यह विकास का शुभ संकेत है।
डॉ साध्वी दिव्यप्रभाजी ने आचार्य मानतुग द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र को आधार बनाकर व्याख्यान दिए। भक्तामर स्तोत्र जैन-परपरा मे प्रसिद्ध तो है ही, इसके प्रति प्रगाढ़ आस्था है। श्रद्धा के साथ स्तोत्र का पाठ निश्चित रूप से श्रेयस्कर होता है। साध्वी द्वारा इस सदर्भ मे दिए गए व्याख्यान श्रद्धालुजनो की आस्था को पुष्ट आलम्बन देगे, ऐसा विश्वास
आचार्य तुलसी
जैन विश्व भारती, लाडनू ३४१ ३०६ (राजस्थान) १५ अक्टूबर १९९१
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भक्ति और शक्ति का समन्वित प्रभाव
भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य मे अरिहन्त आदिनाथ के प्रति आचार्य मानतुग की असीम आत्म श्रद्धा व्यक्त हो रही है। उनकी अमित आत्मशक्ति से स्फुरित प्रबल भावना द्वारा वेड़ियाँ तथा ताले टूटने का अद्भुत चमत्कार जन मानस को चकित कर रहा है। ___ महासती उज्ज्वल कुमारी जी की शिष्या साध्वी श्री दिव्य प्रभाजी द्वारा किये गए पद्यो के विस्तृत विवेचन मे अपूर्व हार्दिक श्रद्धा भक्ति एव दिव्य आत्म शक्ति प्रवाहित हो रही है।
चोरडिया जी द्वारा किये गए प्रकाशन से भक्तामर स्तोत्र के पठन-पाठन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलेगा और इससे भावुक भव्यो की भव्य भावना भी प्रवृद्ध होगी।
अ.प्र. मुनि कन्हैयालाल "कमल"
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आशीर्वचन
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कृति सदा आकृति की प्रकृति है। प्रकृति आकृति की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति अनुभूति की प्रतिमूर्ति है। प्रतिमूर्ति सस्कृति बनकर प्रवृत्तिमय होकर स्तुति बन जाती है। तव हृदय से जो प्रकट होता है वह स्तोत्र बन जाता है। भक्तामर स्तोत्र एक ऐसा ही प्रकट स्तोत्र है। भक्तिप्रिया साध्वी दिव्या ने भक्तामर स्तोत्र की साधना करके अपनी मुक्त भावतरगों द्वारा परमात्मा के चरणो में सहज समर्पण किया है। यही कारण है कि उसे इसमे से परमार्थ प्राप्त हुआ है।
यह परमार्थ सृष्टि का वरदान बने इस हेतु मैंने उसके सवेदनशील भावो को प्रवचन का रूप देने का आग्रह रखा। मेरे इस आग्रह को आदेश मानकर उसने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार ये प्रवचन उसके परमात्म-प्रेम की वह अनुभूत धारणा है कि प्रवचन को सुनते समय अतर्दर्शन और परमात्मदर्शन का कोई अवसर अवश्य आ जाता है। ___ सच कहूँ तो ये प्रवचन ही नही, जीवन दर्पण है, इसमे अपने आप को निहार लो। ये तो पावन अमृत है, इसका मधुर पावन पान कर लो। यह हृदय की उर्मि का झरना है। यदि प्यासे हो तो पान कर लो या फिर चाहे स्नान कर लो।
उलझने सब मिट जाएगी एक अमिट की याद रहेगी। नमन अरिहन्त को करलो तो ना कोई फरियाद रहेगी। आचार्य मानतुग की युग-युग तक आवाज रहेगी। दिव्या की परमार्थ भावना सदा-सदा आबाद रहेगी।
-साध्वी मुक्तिप्रभा
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विषय - सूची
१ भक्तामर स्तोत्र का परिचय २. परमात्मा का परिचय ३ आत्मा का परिचय ४. प्रभु मिलन
५ वन्धन
६ मुक्ति-वोध ७. प्रारम्भ
८ भाव-प्रभाव
९ आश्चर्य १0 दर्शन ११ निर्माण १२ परिवर्तन
१३ प्रसन्नता
१४ स्वरूप
११२
१२७
१५ वैभव १६ प्रतीक १७ समर्पण | परिशिष्ट १८ यादो के आईने मे- (प्रश्न उत्तर)
१४२
१५१
(२२)
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भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि
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(अहम्)
॥ १. भक्तामर स्तोत्र का परिचय |
भक्तामर स्तोत्र एक अपूर्व भक्तिस्तोत्र है। भक्ति एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, जिसके तीन केन्द्रविन्दु है -१ भक्त २ परमात्मा और ३ भक्ति। भक्त आत्मा और परमात्मा के वीच सम्बन्ध जोड़नेवाला प्रशस्त भाव भक्ति है। परमात्मा जैसे भाव "स्व" मे प्रकट करना परमार्थ भक्ति है।
स्तोत्र मे शब्द के द्वारा सवध को जोड़ा जाता है। सम्बन्ध के द्वारा "स्व" ओर "स्वीय" को प्रकट किया जाता है। इस प्रकार शब्द-दर्शन के द्वारा सबध-दर्शन और सवध-दर्शन के द्वारा स्वरूप-दर्शन की शृखला (Process Theory) बनती है।
भक्ति का मार्ग सिखाया नही जाता, उत्पन्न होता है। भक्ति से आनन्द की उत्पत्ति होती हे ओर आनन्द से कर्म की निवृत्ति होती है। अत भक्ति के द्वारा स्वतन्त्र सत्ता से अभेद होने पर "स्व-चेतना" का विकास होता है। इस प्रकार भक्ति की यह एक सरल व्याख्या है कि "जो सहज है, परम है, उसका अनुभव करना भक्ति है।"
क्रिया और भक्ति में बहुत बड़ा अन्तर है। क्रिया फल से वाघ देती है और भक्ति परम-स्वरूप से मिला देती है। इस प्रकार भक्ति परम-मिलन का महामन्त्र है। रागद्वेष से मुक्त कर वीतरागी बनानेवाला परम मन्त्र है। परमात्मा की सर्वोच्च भावनाओ की स्वीकृति का महातत्र है और "स्व" को "स्व" में विलीन करने वाला योजनामय यत्र है।
इस प्रकार भक्ति परमात्मा के प्रति प्रेम का अखण्ड स्रोत है। लेकिन यहा कोरा भावनात्मक प्रेम (Senumental attachment) सफल नही हो सकता है, यहाँ तो चाहिए वैज्ञानिक प्रेम (Scienufic attachment)। __ अब हम देखेगे-भक्ति भावो से ओत-प्रोत अपूर्व भक्तामर स्तोत्र का महत्व, विशिष्टता, सम्बन्ध, परिभाषा और सफलता।
ऐसे देखा जाए तो "भक्तामर स्तोत्र" शब्द स्वय ही परिचय का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उसका परिचय करने की अपेक्षा उससे परिचित हो जाना ही जीवन का साधनामय प्रथम एव अंतिम अध्याय है।
"भक्तामर" यह कितना प्रिय शब्द है। हमारे साथ कई वार सासारिक रिश्तो, सवधो के शब्द-नाम जुड़ते आये हैं, पर कभी हमारे साथ परमात्म शब्द सयुक्त हुआ देखा क्या?
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२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि "भक्तामर" यह एक ऐसा शब्द है जिसमे हम परमात्मा के साथ हैं या ऐसा कहें कि परमात्मा हमारे साथ है।
भक्त याने भक्त-आत्मा। "अमर" शब्द का अर्थ देव होता है और दूसरा अर्थ होता है मोक्ष, तीसरा अर्थ होता है जो अमर स्थान को प्राप्त कर चुके, वे परमात्मा-सिद्ध।
कुमार थावच्चा की जिज्ञासा "अमर" शब्द को अधिक स्पष्ट करती है।
पड़ौस मे सुबह जन्मे बच्चे का जन्म महोत्सव सुनकर थावच्चा कुमार अपनी माता से प्रश्न पूछता है क्या मेरे जन्म के अवसर पर भी इसी प्रकार महोत्सव मनाया गया था? माता के द्वारा अपने जन्मोत्सव पर त्रिखडाधिपति कृष्ण के आने की और इससे भी बढ़कर सम्पूर्ण द्वारिका मे जन्मोत्सव मनाने की बाते सुनकर उन्ही विचारो मे दिन व्यतीत करने वाला थावच्चा ढलती शाम मे कुछ और ही दृश्य देख रहा है और वह था सुबह जन्मे उस बच्चे की मृत्यु का। इस दृश्य ने कई नये प्रश्न उभारे।
मॉ । क्रन्दन क्यो? बेटा | मृत्यु के कारण। मॉ । मृत्यु क्या है? बेटा। सयोग का वियोग मे परिवर्तन। मॉ । लेकिन यह क्यो?
वत्स । यह तो निसर्ग का नियम है, सनातन सत्य है। जिसका जन्म उसकी मृत्यु अवश्य है।
हजारो वर्ष पहले की एक माता अपने प्यारे पुत्र को इन प्रश्नो का उत्तर देती हुई अध्यात्म गर्भित पूरा दर्शनशास्त्र पढ़ा रही है।
थावच्चा ने कहा-लेकिन माँ। जन्मोत्सव तो अच्छा लगता है। परन्तु यह मृत्युजनित रुदन कितना दुखमय है तो क्या मै भी मरूगा और यदि मै मरा तो क्या आप सब ऐसे ही रोओगे? मा इसका कोई उत्तर न दे पाई।
उत्सुक थावच्चा कुमार परमात्मा नेमिनाथ के समवसरण मे गये वहाँ जाकर कहते हैं-'परमात्मा । क्या ऐसा कोई उपाय है कि मृत्यु न हो?'
परमात्मा ने कहा-"हा है, यदि जन्म न हो।" चरम शरीरी ने पुन पूछा-"भन्ते। यह अवस्था कैसे सम्पादित की जाती है।" "वत्स! नये कर्मबन्ध को रोक कर और पुराने कर्म बन्धन से मुक्त होकर।" "भगवान्! यह अवस्था कैसी होती है?" देवानुप्रिय। सर्व कर्म-रहित "अमर" अवस्था है यह।
"अमर" याने वह स्थान जहॉ जाने पर मत्य नही होती अथवा "अमर" याने वह जा अब कभी भी मरनेवाला नही है, क्योकि मरता वह है जिसका जन्म होता है। जा
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भक्तामर स्तोत्र का परिचय ३ देह-पर्याय से ही सर्वथा रहित हे उनका तो जन्म क्या और मृत्यु क्या? ऐसे परमात्म भाव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर जो कृतकृत्य हो गये, उनके साथ जुडकर वैसा हो जाना कितना दुरूह है। "भक्तामर स्तोत्र" ऐसी परम सहजावस्था तक पहुंचाने का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर सफल रहा है।
भक्त अर्थात् जीव-आत्मा नवतत्त्वो मे प्रथम तत्त्व। "अमर" याने मोक्ष नवतत्त्वो मे अन्तिम तत्त्व। प्रथम तत्त्व की समापत्ति अन्तिम तत्त्व मे है। आत्मा सहज मुक्तावस्था मे परमात्मा हो जाता है या परमात्मा कहलाता है।
अत भक्तामर याने आत्मा-परमात्मा का मिलन, आत्मा-परमात्मा का दर्शन, आत्मा-परमात्मा का चिन्तन और अन्त मे परमात्मदशा प्राप्त करने की सर्वश्रेष्ठ सफल साधना है। योगीराज आनदघन प्रभु ने "अमर" शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है
अव हम अमर भये न मरेंगे। जा कारण मिथ्यात दियो तज, क्यूँ कर देह धरेगे अव हम मर्यो अनत वार विन समज्यो, अद सुख-दुख विसरेंगे। "आनन्दघन" प्रभु निपट अक्षर दो, नही समरे सो मरेंगे।
अब हम इन पक्तियो मे "अमर" शब्द की व्याख्या ओर अमर बनने के उपाय बताये हैं।
यह स्तोत्र “भक्तामर स्तोत्र" के नाम से पहचाना जाता है। इसका सफल कारण यही है कि इसमे परमात्मा के अनुपम गुणो का और वीतरागभाव का अपूर्व वर्णन प्रस्तुत है। इन गुणो को और वीतरागभाव को जो भी भक्त उत्कृष्ट भाव से अपने मे प्रकट करता है वह निश्चित रूप से अजर और अमर बनता है। कर्ममुक्त होता है। भक्त को अमर बनाने का अपार सामर्थ्य इस स्तोत्र मे होने से इसे "भक्तामर स्तोत्र" नाम से अभिप्रेत किया गया
इस स्तोत्र के रचयिता मानतुगाचार्य हैं, यह स्तोत्र के अंतिम श्लोक से सिद्ध है। परन्तु, इसके रचना-कालादि के बारे मे मिलने वाले अभिप्राय अनुमानजन्य अधिक होने से अस्पष्ट रहे हैं। इतिहास के अनुसार आचार्य मानतुग अनेक हुए हैं। अत इस स्तोत्र के रचयिता मानतुग के दारे मे निर्णय लेना दुरूह है। फिर भी अधिक जानकारियो के आधार पर घटनाभूमि धारा-अवन्तिका नगरी है। ११वी सदी के अतकाल मे भारत पर विदेशी आक्रमण आ जाने से हमारी कई महत्वपूर्ण कृतिया नष्ट-भ्रष्ट हो गई। अत आचार्य मानतुग के जन्म, दीक्षा, जीवन या देहविलय के बारे में आधारभूत विश्वसनीय जानकारी अप्राप्य रही है।
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४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
लोकमुख से प्रसिद्ध कथा ऐसी है कि एक बार मानतुगाचार्य धारा-नगरी मे पधारे। उस समय मन्त्री आदि उनके दर्शन को गये थे। राजसभा मे उनकी अनुपस्थिति ने राजा को उत्तेजित कर दिया। उन्होने आचार्य को राजसभा मे बुलाने का प्रयल किया परन्तु समाधिस्थ आचार्यश्री ने इस प्रस्ताव की उपेक्षा की। सेवक समाधिस्थ आचार्यश्री को उसी अवस्था मे उठाकर राजसभा मे लाते हैं। मौन खोलने का आग्रह करते हैं। आचार्य की निश्चलता को राजा ने अपना अपमान मानकर उन्हें लोहे की कील वध शृखलाओ मे जकड़कर कैदखाने मे कैद कर दिया।
देह के अनित्य और आत्मा के नित्य स्वरूप तान मे स्थित आचार्य पूरा दिन-रात १२ भावनाओ के चिन्तन मे व्यतीत करते हैं। आचार्य परमात्मभाव मे लगे बढ़ रहे थे और राजा बेचैनी मे आगे बढ़ रहा था। प्रभात का वह प्रथम प्रहर था। जब आचार्य श्री की चितन धारा मे उत्कृष्ट श्रद्धा भाव युक्त भक्तिभाव उत्पन्न हुआ।
विवाद किसी भी विषय का रहा हो परन्तु सभी सप्रदायो का सर्वमान्य प्रतिपादन यही है कि वह समय द्वन्द्व का था और आचार्यश्री की निश्चलता को तोडने का वह प्रयास था। परन्तु मुनि तो मुनि ही थे। उनके मन मे यह ससार तो परमाणुओ की रूपान्तर कथा मात्र हैं, जिनको देखकर परमार्थ की याद आ जाय वही तो मुनि है। स्नेह और सौजन्य की जीवन्त प्रतिमा है। उनके मन मे न कोई भेद है, न कोई खेद है। पृथ्वी पर रहते हुए परम मे विचरते हैं। अवनि मे रहते हुए अविनाशी मे एकतार रहते हैं। यद्यपि महापुरुषो के जीवन का मूल्याकन उनके देहसामर्थ्य, द्रव्य भण्डार या राज्यसत्ता के बहिरग साधनो द्वारा कभी नही आका जाता। उनकी पहचान तो उनके विपुल आत्म-समृद्धि के अतरग साधनो से ही होती है। ___ऐसे श्री मानतुगाचार्य ने राजा द्वारा डलवाई लोहे की बेडियो के बन्धन मे बन्धन-भेद की कला सिद्ध की और परमात्मा मे एकरूप हुए। इस एकाग्रता मे अभेद से नाद प्रकट हुआ, नाद से अश्राव्यध्वनि उद्भूत हुई और उन विशिष्ट ध्वनि तरगो से उत्पन्न स्तोत्र से लोहे की बेड़ियो के बन्धन टूटे। एक-एक श्लोक का सर्जन होता गया और एक-एक बड़ी टूटती गई। __ हमे विचार आ सकते हैं कि आचार्य के श्लोक सर्जन से लोहे की बेडियाँ कैसे टूट सकती हैं ? क्या शब्दो से लोहे की बेडियॉ कभी टूट सकती हैं ?
इस प्रश्न का सनसनाता उत्तर आज का विज्ञान देता है कि हमारी आवाज १८ हजार सायकल पर जाती है तब अश्राव्य हो जाती है। जैसे अश्राव्य ध्वनि को उत्पन्न करान वाले (Ultrasonicdnil) से सैकड के हजारवे भाग में अतिघन माना जाने वाला पदार्थ (हीरा) टूट जाता है। यदि अश्राव्यध्वनि से हीरा ट सकता है तो अश्राव्य शब्द शक्ति स लोहे की बेडी क्यों नही टूट सकती ? (Ultra Sound technology) का यह सिद्धान्त विज्ञान के क्षेत्र मे आशीर्वाद रूप बन गया है।
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भक्तामर स्तोत्र का परिचय ५ अव्यध्वनि के एक करोड़ वीस लाख कपन द्वारा खोपड़ी को खोले बिना, खून की एक बूँद गिराये बिना, दिमाग का Operation होता है। पानी और साबुन के बिना कपड़े धोये जाते हैं। बिना Refngerator के दूध और फल ताजे रखे जाते हैं । Washington Times के समाचार के अनुसार अमेरिका की Pensylvania University Hospital के एक Professor Dr Johan Dely और अन्य कुछ तबीबिओ ने इस पर अनुसधान शुरू किया है। उन्होने ऐसा सिद्ध किया है कि पारपरिक छुरी की अपेक्षा Ultra Sonic छुरी से Operation सरल रहता है। यह छुरी और कुछ नही परन्तु इसमे ध्वनि की सूक्ष्मातिसूक्ष्म लहरो को एक निश्चित प्रवाह मे तरगित करते हैं। रोगी के यकृत मे जिस स्थल पर खराव गाठ होती है उसके आस पास Ultra Sound को चलाने से अच्छे कोशो को नुकसान पहुँचाये विना शल्य क्रिया हो सकती है। सामान्यत उपयोग में ली जानेवाली छुरी का स्पर्श भी यहाँ नही होता है। डॉ जहोन के अनुसार २५ हजार डालर की कीमत वाले यत्र के विकास से यकृत की शल्यक्रिया निर्विघ्न और सरक्षात्मक हो गई है ।
दूसरे विश्वयुद्ध मे बोम्बर विमान बनाने वाले जर्मन निष्णातो ने देखा कि किसी विशेष कारण से विमान के तलभाग का जल्दी से नाश होता है । अनेक खोजो के बाद पता चला कि बोम्ब फेककर विमान दूर चला जाता है, फिर भी विस्फोट से आवाज की शक्ति सपन्न लहरें विमान के साथ टकराने से उसे नुकसान पहुँचता है।
रोगी को बिना वेहोश किए Lithotnpter भी शक्तिसपन्न ध्वनि संकेतो द्वारा पथरी (Stone) तोड़ने का काम करती है। रोगी को सीधा सुलाकर उसके कमर के नीचे रखी Highdrolic Tank मे गुर्दे (Kidney) पर सीधा प्रहार होता है। इसमे रोगी को न तो कोई पीड़ा होती है न किरणोत्सर्ग का कोई भय रहता है। इतना ही नही Stone तोड़ने की यह सम्पूर्ण प्रक्रिया Lithotripter Monitonng Unity मे Screen पर देख सकते हैं।
अत वैज्ञानिक दृष्टि से यह मान सकते हैं कि आचार्य श्री के ऐसे अपूर्व सर्जन से उनके लोहे की वेड़ियो के वधन टूट गये थे। परमात्मा के साथ भक्तिपूर्ण एकलीनता में उनका निजात्म स्वरूप प्रकट हुआ था। फलत लोहे की बेड़ियो के साथ परमार्थ को अवरुद्ध करने वाली उनके कर्मों की श्रृंखलाये भी टूट रही थीं।
ऐसा सब कुछ मान लेने पर भी एक प्रश्न होता है कि इन सबल कारणों से यह स्तोत्र श्रेष्ठ अवश्य है फिर भी इस श्रेष्ठता ने हममे क्या परिवर्तन किया ? लोहे की क्या, सूत के धागे का भी टूटने की जहा शक्यता नही हे वहाँ दर्शन- मोहनीय को तोड़कर परमार्थ की रहस्यात्मक अभेद धरा पर पहुँचने की तो आशा भी कैसे की जाय ? सर्जन किया मुनि ने, मुना परमात्मा ने, लोहे की बेड़िया टूटी मानतुगाचार्य की, हमे इस स्तोत्र से क्या लाभ? आचार्यश्री ने इस स्तोत्र से हमे क्या दिया ?
इन प्रश्नो पर जब म सोचती हूँ तब निसर्ग की नि सीमता मे इस स्तोत्र का नामकरण मुझे एक चिर स्थायी और सतुलित समाधान प्रस्तुत करता है कि यहाँ किसी की
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६ भक्तामर स्तोत्र · एक दिव्य दृष्टि Monopoly नही है। सब का समानाधिकार है। "Pay the Price" मूल्य चुकाओ, चीज तुम्हारी ही है। "भक्त" और "अमर" ये दो अद्भुत शब्द रखकर आचार्यश्री ने सम्पूर्ण जैन दर्शन का तारतम्य प्रस्तुत कर दिया है। आगे "सम्यक् प्रणम्य" शब्द रखकर स्तवन और नमन का सामजस्य प्रस्तुत कर स्तोत्र की सफलता का उपाय बताया है। प्रथम नमस्कार कर फिर स्तवन करूँगा। जहॉ नमन होता है वहॉ स्तवन अपने आप ही हो जाता है। बिना नमन का स्तवन अधूरा है। हम स्तवन करते हैं परन्तु नमन नही करते हैं।
नमन द्वारा परमात्मा को दिए गए सम्मान के दान से एक बहुत बडा प्रतिदान मिलता है। यह प्रतिदान याने शाश्वत आत्मा का ज्ञान होता है। स्व-स्वरूप का अनादिकाल से रहा विस्मरण ही अनत दुःख का मूल है, और उसका स्मरण अनत सुख का बीज है। अत नमन का फल अक्षय है। नमन आत्म-निवेदन रूप भक्ति का एक प्रकार है। नमन द्वारा भक्त का परमात्मा के साथ तात्विक सबध स्थापित होता है। भाव और भक्ति से ढली हुई पलको वाला झुका हुआ मस्तक नमन है और सर्व समर्पण का अतिम दाव स्तवन है। इसीलिए आनदघन महायोगी कहते हैं-"कपट रहित थई आतम अरपणा" । कपट छोड़ दो, घमड छोड़ दो, दभ और पाखड भी छोड़ दो। जैसे हो वैसे यथावत् परमात्मा के सन्मुख प्रस्तुत हो जाओ, अर्पित हो जाओ। उनके चरण पकड़ लो। उन्हें कह दो-तेरे सिवा मेरा कोई नही है।
यह है-कपट रहित आतम अरपणा। यही है सच्चा स्तवन। ऐसे स्तवन से बेड़ियाँ टूटती हैं, अनादि काल का "स्व" को आवरण करने वाला मिथ्यादर्शन टूटता है, जनम-जनम के पाप टूटते हैं और वीर्य प्रकट होता है। प्रगटे हुए वीर्य से समस्त विषय-कषायो का नाश होता है। वीर्योल्लास और परिणाम का अभिषेक करने की अमाप क्षमता भक्तामर स्तोत्र मे है। ऐसे सत्व सम्पन्न परिणाम मे सबके श्रेय का स्वाभाविक नाद सुनाई देता है। ऐसा अश्राव्यकोटि का नाद समग्र चित्ततत्र की कार्यक्षमता मे अपूर्वता प्रकट करता है।
अत जिन्होने स्थलकाल के बाह्य स्वरूप की मर्यादाओ का त्याग कर दिया, उन्हें पुन स्थल और काल के लोह पिजर मे परने का निरर्थक प्रयास नही करना चाहिए, क्योंकि जा ससार की भव-प्रपचमूलक मर्यादाओ को पार कर गये, वे सीमाहीन बन गये। सीमाएं जब नि सीम तत्वो मे खो जाती हैं, वहाँ हद का विसर्जन होता है। जहॉ हद का विसर्जन होता ह वहाँ असीम का सर्जन होता है। जहॉ-जहॉ और जब-जब ऐसा होगा, वहाँ-वहा आर तब-तब मानतुगाचार्य का जन्म होगा और वहाँ-वहाँ भक्तामर स्तोत्र का सर्जन होगा आर वहाँ लोहे की बेड़ियाँ टूटेंगी।
इस प्रकार भक्तामर स्तोत्र भक्ति के प्रत्येक क्षण मे प्रत्येक भक्त को सदा सर्वदा स्वतत्र मूल्याकन देता है। चाहे वह कोई भी स्थल हो, चाहे वह कोई भी काल हो।
यह बात निश्चित है कि भक्तामर स्तोत्र का परमार्थ अत्यन्त भेदपूर्ण, सर्वथा गुप्त और अव्यक्त है। इसके परम को प्रगट करना परमार्थ है। परमार्थ मिलने पर इसके चितन,
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भक्तामर स्तोत्र का परिचय ७ मनन और ध्यान करने वालो को यह स्तोत्र अष्ट ऋद्धि, नव निधि, अनेक सिद्धि और अन्त मे अनत अव्यावाध आत्मिक सुख को देने वाला है। इसका गूढार्थ इतना उच्च शिखर पर पहुंचा हुआ है कि यह अज्ञानी की समझ मे ही नहीं आ सकता है। इस काव्य में अनेक मत्र हैं। इसका प्रत्येक चरण, पद और अक्षर चमत्कारी है। __ वसततिलका छद का इसमे प्रयोग है। छद याने आल्हाद, आनदजनक लय। इसके प्रत्येक श्लोक मे चार पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में पहला, दूसरा, चौथा, आठवा, ग्यारहवा, तेरहवा और चौदहवा ये सात अक्षर गुरु हैं। तीसरा, पाँचवॉ, छठा, सातवा, नववा, दशवा और वारहवा ये सात अक्षर लघु हैं। इस प्रकार प्रत्येक पंक्ति में कुल १४ अक्षर हैं जो चौदह गुणस्थानक या चौदह पूर्व के स्मृति-प्रतीक हैं। इस व्यवस्था में लघु अक्षर के बाद सयुक्ताक्षर, हो या उसके साथ अनुस्वार या विसर्ग जुड़े हो अथवा वहाँ पंक्ति की पूर्णता होती हो वहाँ वह लघु अक्षर भी गुरु माना जाता है।
स्तोत्र वह हे जिसमे स्तव और स्तुति दोनों हो। एक तो परमात्मा के गुणो का स्तवन करना और उनका स्तवन करते हुए स्वयं के अवगुणों को परमात्मा के सामने प्रकट कर परमात्मा के गुणों को आत्मसात् करना स्तुति है। "उत्तराध्ययन" के २९वें अध्याय में कहा है -
"थवधुइमगलेण भन्ते । जीवे कि जणयइ? थवथुइमंगलेणं नाण-दंसण-चरित्तदोहिलाभ जणयइ।
नाण-दसण-चरित्त-वोहिलाभ सपन्ने य णं जीवे अन्तकिरिय कप्पविमाणोववत्तिर्ग आराहणं आराहेइ।
स्तवन और स्तुतिरूप मगल से ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप बोधिलाभ की प्राप्ति होती है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप बोधिलाभ से सपन्न जीव ससार का अत कर निर्वाण प्राप्त करता है, या कल्प विमान मे आराधना करने वाला होता है।
इस स्तोत्र मे श्लोक १ और २ लक्ष्य को निश्चय से प्राप्त करने का ध्येय प्रकट कर जीवन की महान् साधना का रहस्य प्रस्तुत करते हैं।
तीसरे श्लोक मे परमात्मा के सन्मुख होने पर साधक के लिए अनिवार्य स्व-पहचान का ध्येय प्रस्तुत है।
४ से ७ तक के श्लोको मे साधक को परमात्मा से अपना सम्बन्ध स्थापित करने की सफल कला दर्शायी है।
श्लोक ८ मे सबंध स्थापित होने के बाद की साधक की स्थिति का वर्णन है।
श्लोक ९ को जिनेश्वर की आराधना से समस्त दुरितों को दूर करने के सामर्थ्यवाला दताया है।
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भक्तामर स्तोत्र
एक दिव्य दृष्टि
श्लोक १० से ३७ तक मे परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण अर्थात् परमात्मा सामने ही हो, ऐसा परमभाव प्रस्तुत है।
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श्लोक ३८ से ४७ तक मे विविध भय, जो जीव की आन्तरिक कषायो के प्रतीक हैं, उनके निवारण के उपाय प्रस्तुत किये हैं।
श्लोक ४८ मे स्तोत्र करने का फलितार्थ अतिम ध्येय (मोक्ष) लक्ष्मी की प्राप्ति बताया
है।
आज हम स्तोत्र से परिचित हुए हैं। स्तोत्र का ध्येय परमात्मा का परिचय देना और हमारा अपना परिचय प्रकट करना है । अत हम अव परमात्मा का परिचय करने का प्रयत्न करेंगे।
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श्लोक १-२
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O
२. परमात्मा का परिचय
आज दूसरे प्रवचन के माध्यम से हम परिचय के द्वितीय परिच्छेद को अनावृत करेंगे। अत आज के प्रवचन का विषय है "परमात्मा का परिचय"।
यद्यपि परमात्मा का परिचय हमारा अपना परिचय है फिर भी यह इतना गहरा है, जिसके विना सारी साधना अधूरी है। कितने ही जन्म वीते हम अनेक परिचयो से जुडते गये, अनेक परिचयो से टूटते गये, लेकिन हम कभी नही मिला पाये, एक शाश्वत नित्य
और स्थायी परमात्म परिचय को, कभी नहीं जुटा पाये परमात्म-सवध को। ___ जो सम्पूर्ण इन्द्रियातीत हैं, सम्पूर्ण देहातीत हैं, समस्त वाह्य पर्यायों से जिनका सर्वथा सम्वन्ध-विच्छेद हो चुका है, उन्हें हमारी बुद्धि, शब्द या इन्द्रियो के विषय बनाकर परिचय पाना अत्यन्त दुरूह है इसीलिए आचाराग सूत्र मे कहा है
"सव्वे सरा णियट्टति। तक्का तत्थ ण विज्जई। मई तत्य ण गाहिया।
ओए अप्पइट्ठाणस खेयण्णे। से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तसे, ण चउरंसे, ण परिमडले। ण किण्हे, न णीले, ण लोहिए, ण हालिदे, ण सुक्किल्ले। ण सुटिभगधे,ण दुरभिगन्धे। ण तिते, ण कडुए, ण कसाए, ण अविले, ण महुरे। ण कक्कडे,ण मउए, ण गुरुए, ण लहुए, ण सीए,ण उण्हे, ण गिद्धे,ण लुक्खे। ण काउ, ण रूहे, ण संगे। ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा परिणे सण्णे। उवमा ण विज्जए। अस्वी सता।"
-आचा शु १, अ ५, उद्दे ६, सु ५९२-५९४ (परम-आत्म-स्वरूप का वर्णन करने मे) सद शब्द लौट आते हैं, (जिनको जानने मे कोई तर्क सफल) नहीं होता है। बुद्धि द्वारा भी अग्राह्य है।
(वह अत्यन्त) आभा-(मय) होता है, वह अप्रतिष्ठान (मोक्ष) मय है, उसकी (फेवल) (ज्ञाता) (द्रष्टा) अवस्था होती है।
(परम-आत्मा) न वड़ा है, न छोटा है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल है।
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१० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
न काला है, न नीला है, न लाल है, न पीला है और न सफेद है। (वह) न सुगन्धमय है, न दुर्गन्धमय है। (वह) न तीखा है, न कडुवा है, न कषैला है, न खट्टा है, न मीठा है।
(वह) न कठोर है, न कोमल है, न भारी है, न हलका है, न ठण्डा है, न गर्म है, न । चिकना है, न रूखा है।
(वह) न लेश्यावान है, न उत्पन्न होनेवाला है, उसको किसी मे आसक्ति नहीं है। (वह) न स्त्री है, न पुरुष है और न इसके अतिरिक्त (नपुसक) है। (वह) ज्ञाता है, संज्ञा है-(सर्वत चैतन्यमय है।) (उसके लिए कोई) तुलना नही है, (वह) एक अमूर्तिक सत्ता है।
अत परमात्मा को पहचानने के लिए, पाने के लिए हमे अपनी देहातीत, इन्द्रियातीत अवस्था तक पहुंचना होगा।
प्रारम्भ मे कहा जा चुका है कि स्तोत्र मे "स्तवन" और "स्तुति" दोनो होते हैं। "भक्तामर स्तोत्र" इस व्याख्या को सिद्ध करने में बहुत अधिक सफल रहा है। प्रथम दो श्लोको मे परमात्मा का परिचय है। तीसरे श्लोक मे भक्त स्वय का परिचय देता है। और आगे दोनो के परिचयो की भेद-रेखा का पूर्ण विराम है। अभेद की प्रयोगशाला मे प्रवेश है।
इस प्रकार मोक्ष-मार्ग मे प्रवृत्तमान, परम वीतराग परमात्मा के आश्रयवान् और हम सर्व की स्वरूप प्राप्ति मे परम प्रेरणा रूप मानतुगाचार्य के हृदय मे प्रभात के प्रथम प्रहर मे पधारे, परम स्वरूप को प्राप्त, परम परित्राता परमात्मा। बधन की वेदना विस्मृति मे खो गई। स्मृतिलोक मे पधारे आदीश्वरनाथ। तात्विक सबध का प्रारभ हुआ। आत्मप्रदेशो मे निर्मलता आ गई। अनाहत नाद मे स्तोत्र का सर्जन हुआ। नाद अश्राव्यध्वनि मे उद्भूत होता गया। उद्भूतता भाषा मे प्रकट हुई
भक्तामर-प्रणतमौलि-मणिप्रभाणामुद्योतकं दलित-पापतमो-वितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुग युगादावालम्बन भवजले पतता जनानाम् ॥१॥
यसस्तुतः सकलवाड्मयतत्त्वबोधादुद्भूत-बुद्धि-पटुभिःसुरलोकनाथैः।
स्तोत्रैर्जगत्रितय-चित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि त प्रथम जिनेन्द्रम् ॥२॥
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का सरिचय ३३
परम तत्त्व के अनुसधान ने तने पर होंगे बाते इ समाधान इस श्लोक का नरनार्य करता है
प्रथम जिनपादयुग सम्यक् प्रणन्य, अहं तोये
प्रथम सम्यक् प्रणाम करके (फिर बाद में) ने भी लुति
जिन चरणो ने प्रथम ननस्कार करते हैं। ये चरन युक्त कैसे हैं ? उन परफ्युमन क स्वरूप परिचय, वर्णन, विशिष्टता, नहत्त्व और परिमान यहाँ प्रस्तुत है
१ भक्तामर प्रणतमालिमणिप्रभाणामुद्योतकम्
भक्त देवो के प्रकृष्ट भाव से नने हुए नुकुटों के नपियों की कन्ति के उद्यत (कारो) को करने वाले,
२ दलितपापतमोवितानम्
पापरूपी तमस् अर्थात् अन्धकार के विस्तार को, तनूह को नष्ट करने वाले,
३ भवजले पतता जनानाम् आलम्बनम्
ससार रूपी सागर के अर्थात् जल ने पडे हुए-गिरते हुए ननुष्यों के आलवन रूप, आधारभूत ।
जिन चरणों में नमस्कार कर रहे हैं और जिनकी हम स्तुति करने जा रहे हैं, वे कौन हैं ? कैसे हैं?
सकलवाङ्मयतत्त्वबोधात्
उद्भूतबुद्धिपटुभि
सुरलोकनाथ
जगत्त्रितयचित्तहरै
उदारे
स्तोत्र
यसस्तुत
युगादी
ส
प्रथम जिनेन्द्रम्
किल
अहं अपि
तोप्पे
समस्त शास्त्रों के तत्त्वज्ञान से
उत्पन्न हुई बुद्धि से चतुर- ऐसे देवेन्द्रो द्वारा
तीनो जगत् के चित्त को हरण करने वाले ऐसे
-
उत्कृष्ट गभीर अर्थवाले
स्तोत्रो - स्तवनों के द्वारा
जो सम्यक् स्तवन के पात्र हैं,
युग की आदि मे
उन
प्रथम तीर्थंकर की
निश्चय से मैं भी स्तुति करूंगा
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१२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
अव हम एक-एक शब्द का खोलकर उसे समझने का प्रयास करे१ भक्त-आत्मिक सम्यक् परिणति भक्ति की जानी है। रोमी भक्ति जिमके हृदय
मे हो वह भक्त है। इसीलिए कहते हैं
"भतिभर निटभरेण हिअय" २ अमर-इस शब्द के यहाँ चार अर्थ होते हैं
१ जिसको मृत्यु न हो वे अर्थात् परमात्मा। इनका मम्यक् स्मरण,
आलवन ग्रहण, प्रणमन आर उग पद की उपलब्धि। २ जो इनके प्रति श्रद्धाभावो को प्रकट कर स्वय में वीतरागभावो को
उभारता है वह स्वय अगर ऐसे परम पद को प्राप्त होता है। ३ अमर-इमे यदि अवस्था का द्योतक माने तो यह निर्वाण या मोक्ष
तत्व का प्रतीक है।
४ सामान्य मे यह देव पद का द्योतक है। ३ प्रणतमोलि-मोलि-मुकुट-जो मस्तक पर धारण किया जाता है। प्रणत याने
प्रकर्प भाव से झुका हुआ। साधक का मस्तक झुका हुआ है। ४ मणिप्रभा-यह हमारे नाभि मे स्थित मणिपूर चक्र का प्रतीक है। जिसे साधना में
वडा महत्वपूर्ण माना गया है। ५ पादयुग-पाद याने चरण ओर युग याने जुडा हुआ।
इस प्रकार इसमे मस्तक से लेकर चरण तक की एक गुप्त महासाधना का सकेत है। जिसके माध्यम से साधक अपनी ऊर्जा को प्रकट कर अनन्त कर्मों का क्षय कर सकता है।
और उनके (कर्मों के) प्रभाव से प्रकट लोहे की वेडियो के बन्धन भी इस साधना से सहज टूट सकते हैं।
हमारी चेतना पैर से लेकर मस्तिष्क तक सवेदनशील है। इसी कारण डॉक्टर सवेदना का परीक्षण पैर मे पीन (pim) लगाकर करते हैं।
हम नमस्कार करेंगे तो कहाँ करेगे ? माथे पर क्या? नही | चरणो मे चरणो मे क्यो करते हैं कभी आपने सोचा है क्या? और झुकाया क्या जाता है ? मस्तक हमारे हाथ
और पैरो मे से विद्युतकण (Electron) पैदा होते हैं। साधना के समय हम में से ऊर्जा पैदा
होती है लेकिन दोनो पैरो को जमीन से सीधा स्पर्श कर रखते हैं तो सारी ऊर्जा धरती में -- पा जाती है। बिजली जब गिरती है तो जमीन मे समा जाती है। इसी प्रकार यह ऊर्जा भी
· में समा जाती है। कायोत्सर्ग मुद्रा ऊर्जा को शरीर मे समा देने की विशेष मुद्रा है
ए इसका महत्व रहा है। पद्मासन मे बैठकर वाहिना हाथ नीचे दाहिना हाथ ऊपर रखकर गोलाई मे हथेलियो को जमाने से ऊर्जा अगुलियो और अगूठो के माध्यम से Flow होती है। मस्तक इस ऊर्जा को अपने मे Absorb करता है, सम्पादित करता है।
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परमात्मा का परिचय १३ इसीलिए महापुरुषों के चरणो मे झुकने से उनकी देहपर्याय से निकलती विशिष्ट ऊर्जा को नमा करने वाला अपने मस्तक से इन्हें धारण करता है। आशीर्वाद भी हाथो से दिया जाता है क्योकि ऊर्जा वहाँ से निकलती है। यह सारी आभा आशीर्वाद के द्वारा मस्तक मे प्रवाहित की जाती ह।
सिर से पैर तक विस्तृत शरीर मे ६00 अरव कोशिकाएँ हैं। ७ हजार २00 शिगएँ,७0 हजार माइल विस्तार मे व्याप्त हैं। सात चक्र है। आठ ग्रन्थिया हैं।
आचाराग सूत्र के श्रुतस्कन्धी अध्ययन १ के उद्देशक २ मे जीव की सवेदना के ३२ अग वताये हैं। इसका क्रम भी पर से लेकर सिर तक दिया है। जैसे-१ पैर,२ टखने, ३ जघा, ४ घुटने, ५ उरू, ६ कटि, ७ नाभि, ८ उदर, ९ पार्श्व-पसाल, १0 पीठ, ११ छाती, १२ हृदय, १३ म्तन, १४ कन्धे, १५ भुजा, १६ हाथ, १७ अगुली, १८ ख. १९ ग्रीवा (गर्दन), २0 टुड्डी, २१ होठ, २२ दॉत, २३ जीभ, २४ तालु, २५ गला, २६ कपोल, २७ कान, २८ नाक, २९ ऑस, ३० भोह, ३१ ललाट, ३२ शिर।
रक्षाकवच स्तोत्र जिन पजर मे सिर से पैर तक २४ मुख्य सवेदना-स्थानो मे २४ तीर्थकरा की प्रतिष्टा कर ऊर्जा को तरगित और प्रवाहित करने की माधना दर्शायी है।
यही साधता परिक्रमा "मालिमणिप्रभाणाम्-पादयुग" पद मे निहित है। परमार्थ की दूसरी दृष्टि से देखने पर१ भक्तामरप्रणतालिमणिप्रभाणामुद्योतकम्-यह पद परमात्मा के अनत
पूजातिशय का द्योतक है। २ दलितपापतमोवितानम्-यह पद अपायापगमातिशय की ओर संकेत करता है। ३ भवजले पतता जनानाम् आलम्बनम्-यह पद ज्ञानातिशय का सूचक है। जीव
तो अभी कर्मों से आवृत होने से अज्ञानी हे अत परमात्मा के ज्ञान का आलवन
ग्रहण करता है। ४ सकलवाङ्मय तत्त्ववोधात्-यह पद द्वादशागी का प्रतीक है। आर द्वादशागी
परमात्मा के त्रिपदीरूप वचनातिशय से प्रकट होती है। इसका तीसरा परमार्य ह-'प्रणत" शब्द का अर्थ है प्रकर्षभाव मे नमस्कृत। तात्पर्य से यह उमस्कार महामन्त्र से गर्भित है। १ "युगादा-प्रथम जिनेन्द्रम्"-यह पद शब्दो से परमात्मा ऋषभदेव की 'अरिहत" पयाय का स्वरूप प्रस्तुत करता है। अत 'प्रणत" शब्द "नमो
अरिहताण" नत्र से गर्भित है। २ वर्तमान ने य परमात्मा सिद्ध स्वरूप है" और "अमर" पद परमात्मा के
निपाण कल्याण के दाद की धिनिवाला है अत “प्रणत" शब्द "नमो सिखाप" का घेतक है।
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१४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ३ अहं स्तोष्ये-शब्द मे निहित "मै" स्तुति करने वाला के अभिवाचक आचार्य
श्री मानतुग स्वय उस काल के इतिहास प्रसिद्ध आचार्य है। वर्तमान मे हम उनसे अभेद कर स्तोत्र चैतन्य जगाते हैं अत "प्रणत" शब्द मे "नमो आयरियाण"
निहित है। ४-५ आचार्य मे उपाध्याय और साधु के सहज गुण निहित होते हैं अत इसी से
"नमो उवज्झायाण" और "नमो लोए सव्वसाहूण" ये दो मत्र निहित हैं। परमार्थ से चौथा रहस्य है-इसमे निहित नवतत्त्वात्मक विश्लेषण। भक्त जीव है प्रथम तत्त्व। उसका प्रतिपक्षी तत्त्व अजीव है। जब तक जीव अमर याने मोक्ष पद को नही प्राप्त करता है तब तक कर्म-पुद्गल-अजीव से सतत सबधित रहता है।
"सम्यक् प्रणम्य" शब्द पुण्य का द्योतक है, क्योकि पुण्य के नव प्रकारो मे सर्वश्रेष्ठ सर्वथा महत्त्वपूर्ण नमस्कार पुण्य है। “दलित पापतमो वितानम्" पद पापतत्व का द्योतक
जीवाजीव की पारस्परिक क्रीडा-रति से जीव मे अजीव का आनव होता है।
'सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुग"-पद जीव के इस भौतिक खेल को बद करने रूप सवर तत्त्व की ओर इगित करता है।
समस्त पापकर्मों को “दलित” करना अपने आप मे “निर्जरा तत्त्व" हैं। जीव-अजीव का परस्पर सायोगिक सबध "बधतत्त्व' है। "अमर" पद अतिम "मोक्षतत्त्व" का प्रतीक है। पाचवे रहस्य मे इसमे परमार्थ से षड्द्रव्य निहित हैं। १ आलम्बन-याने सहारा। जो गति मे सहायता प्रदान करे वह धर्मास्तिकाय है।
परमात्मा के चरणो का आलम्बन हमारे मोक्षमार्ग की गति मे सहायता प्रदान
करता है। २. “अहम् किल स्तोष्ये"-यहॉ किल शब्द निश्चय का सूचक है। अधर्मास्तिकाय
स्थिरता करने वाला है। आराधना मे नैश्चयिक स्थिरता लाने वाला स्तोत्र
हमारी आध्यात्मिकता का अधर्मास्तिकाय है। ३ आकाशास्तिकाय याने (Space) देने वाला। अर्थात् विस्तार। यह वितानम्
शब्द से परिलक्षित होता है। ४ पाप आदि पुद्गल होने से पुद्गलास्तिकाय है। ५ भक्त याने जीव। अजीव कभी भक्ति करता नही अत भक्त शब्द जीवास्तिकाय
६ “युगादौ'' मे प्रयुक्त “युग" शब्द विशेष काल का सूचक है।
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आत्मा का परिचय १५ इस प्रकार ये दो श्लोक परमार्थ से पड्द्रव्यात्मक लोक स्वरूप होकर भी लोकाग्र का परम कारण स्वरूप हैं। "स्तोप्ये किलाहमपि त प्रथम जिनेन्द्र" का परमार्थ इस प्रकार है
'तं' याने उन। किसी तीसरे पुरुष के लिए इस "त" का प्रयोग हुआ है। ध्याता और ध्यान में ध्येय निश्चित होने पर भी सामने अस्पष्ट है। "भक्तामर स्तोत्र" मे यही एक ऐसा स्थान है जहाँ परमात्मा परोक्ष म रहकर साधक का ध्येय रहा है। आगे जाकर "त" का स्थान प्रत्यक्ष रूप विविध सवोधनो से परिलक्षित हो जाता है।
प्रथम शब्द सामान्यत से प्रथम आदीश्वरनाथ का द्योतक हे और विशेष से यह प्रणाम और स्तुति में प्रणाम को प्राथमिकता देने के रूप मे भी अधिक अर्थ सगत होता है। नवकार मत्र की चूलिका मे नमस्कार को “पढम हवइ मगलम्" से प्रथम मगल कहा है। अर्थात् 'त जिनेन्द्र प्रथम सम्यक् प्रणम्य'-उन जिनेन्द्र को प्रथम नमस्कार कर वाद मे "किल'"-निश्चय से “अहं स्तोष्ये" स्तुति करूँगा। __ स्तोत्र होने से इसमें स्तुति मुख्य हे फिर भी मुख्य से प्रथम का महत्त्व दर्शाना इस श्लोक का अभिप्राय रहा है। जैसे विद्यार्थी का परीक्षा में सफल होना मुख्य हे परन्तु इससे प्रथग पढ़ना अनिवार्य है। भोजन मुख्य है परन्तु प्रधम आटा, चूल्हा अनिवार्य है। साधक के लिए मोक्ष मुख्य है परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रथम कर्मक्षय आवश्यक है। इस प्रकार परम-मिलन के लिए स्तोत्र मुख्य है परन्तु प्रथम नमस्कार अनिवार्य है। ___"जिनेन्द्र" शब्द से तीर्थकर पद का संकेत है। वैसे "जिन" या "तीर्थकर" में विशेष अन्तर रही है। शान की दृष्टि से एक समान हैं। अन्तर सिर्फ तीर्थकर के विशेष तीर्थकर नामक का है। इस कर्म के प्रभाव से इनके द्वारा कई जीव पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति मे सफल रहते हैं। अत यहाँ गिनो के (अनेक केवलियो के) स्वामी जिनेन्द्र ऐसा कहा गया है।
"किल" याने निश्चय से। साधना में निश्चयात्मक परिवल का अत्यन्त महत्व है। दृढ़ता से साधक परिस्थितियो से प्रभावित नहीं होता है।
जव साधक किसी भी साधना का प्रारभ सकल्प के साथ करता है तो उसे सफलता निश्चित रूप से मिल सकती है। "मैं निश्चय से स्तुति करूँगा" ऐसा सकल्प करते हो आचार्यश्री फे ध्यान ने परमात्मा पधारते हैं।
भक्त का मस्तक झुका हुआ है, आँखे बन्द , अन्तर्मन मे, समस्त आत्मचेतना मे, समस्त आत्मप्रदेशो मे परमात्मा का एक-रूप ध्यान है। परमात्मा ने भक्त के मस्तक पर हाथ रया और कहा
"वत्स I में स्तुति करूना-ऐसा निश्चय करने वाला तू हे कौन ? तेरा परिचय दे।"
भक्त परमात्मा को क्या उत्तर देगा, कते परिचय देगा? यह हम "भक्तामर स्तोत्र" के तीसरे श्लोक के माध्यम से देखो।जो भी भक्त है वे सव परमात्मा के इस प्रश्न को स्वय के माध्यम से समझने का प्रयास करेगे।
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श्लोक - ३
३. आत्मा का परिचय
बदलती हुई परिस्थितियाँ, सासारिक घटनाएँ इतनी तीव्रता से, इतने वेग से आती-जाती हैं कि बीच मे रिक्तता की कोई स्थिति ही नही बन पाती है। ये परिस्थितियाँ या घटनाएँ कुछ अनुकूल होती हैं, कुछ प्रतिकूल होती हैं। राग-द्वेष के माध्यम से हम इनमे घुल-मिल जाते हैं।
इसे सोचने के लिए बल प्रदान करने वाला आध्यात्मिक जगत् इस पार्थिव जगत से बिलकुल भिन्न है। हा, फिर भी कही कोई ऐसा रेखातट है जहाँ ये दोनो स्पर्श-रेखाएँ एक दूसरी से मिलती हैं। डॉयलॉग करती हैं। ज्यामिति रेखागणित मे जिस तरह स्पर्शरेखा होती है ऐसी स्पर्शिता अध्यात्म के साथ हमारी होती है। ऐसे अवसर को जीवन मे Chance कहा जाता है, मौका कहा जाता है। यदि उस अवसर को हम हाथ से खोते हैं तो बहुत बड़ी उपलब्धि को अपने जीवन से खो देते हैं।
घटनाओ के माध्यम से हम देख रहे हैं कि एक ऐसे क्षेत्र मे मानतुगाचार्य का प्रवेश हुआ है जिस क्षेत्र मे सिर्फ मानतुगाचार्य का ही नही सम्पूर्ण जैन धर्म का विरोध चल रहा था। अवन्तिकानरेश के एक मन्त्री ने मानतुगाचार्य को आमन्त्रण दिया था कि आप मेरी नगरी मे पधार कर किसी न किसी प्रकार जैन धर्म, जैन शासन का कुछ न कुछ प्रभाव इस क्षेत्र मे पडे, ऐसा कुछ कीजिए। और विनती को मान्य करते हुए मानतुगाचार्य अवन्तिका नगरी मे पधारे। मैने आप से पहले ही कहा था कि प्रभात के प्रथम प्रहर मे उनका पदार्पण हुआ था। आते ही सत अपने नियमानुसार ईर्यापथिकी क्रिया मे लगते हैं। ईर्यापथिकी साधना मे तल्लीन आचार्यश्री को राजा किस कारण से बदी बनाते हैं, यह जानना बड़ा महत्वपूर्ण है।
राजा का यह मानना था कि जब मेरी सभा को मै सम्बोधित करे तो सभा के सभी मन्त्री मेरे सामने होने चाहिये। उस समय एक मन्त्री के वहाँ नही रहने से पूछताछ करने पर पता चला कि कोई जैन सन्त आ रहे हैं, उनकी अगवानी करने के लिये, उनका स्वागत करने के लिए वे वहाँ गये हैं। बस मात्र इतनी ही घटना से दूसरे मत्रियो ने राजा के कान भरे कि सन्त का सम्मान तो राज्य की ओर से होना चाहिए। लगता है, मन्त्री कुछ न कुछ
राजनीति खेल रहे हैं। इस प्रकार के समाचार सुनकर महाराजा भोज गुरु को राजसभा में । बुलाते हैं पर सत वहाँ पधारते नही हैं। अपने नियमानुसार ईर्यापथिकी साधना मे लीन हैं
और उनको उसी निश्चलता मे उठाकर कैदखाने मे बद कर दिया जाता है।
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आत्मा का परिचय १७ और घटनाओ का हो जाना हमारे लिये कोई विशिष्ट वात नहीं है। हालाकि भावावेश में कभी-कभी लगता है कि सतो के ऊपर ऐसे उपसर्ग हमारे सवेदनशील मानस को उद्वेलित अवश्य कर देते हैं, परन्तु घटनाओ को घटनाओ के स्थान पर छोडकर हमे इसे समझना है।
"भक्तामर स्तोत्र" को अब हम द्विगुणित रीति से देखेंगे। पार्थिव जगत की दृष्टि से घटनाएं कैम-कसे वर्तुल लाती है और कैसे मानतुगाचार्य घटनातीत होते जाते हैं। दूसरे धगतल पर आध्यात्मिक जगत में जहाँ हम पहुँच जाते हैं तो परमात्मा से भेंट करते-करते अपने आध्यात्मिक विकास की ओर आचार्यश्री कैसे आगे बढ़ रहे हैं। दोनो चीजो को हमे एक गाथ देखता है क्योंकि हम दोनो जगत में जीना चाहते हैं। पार्थिव जगत हमारे सामने ह और आध्यात्मिक जगत की ओर हम आगे बढ़ना चाहते हैं। इन दोनो का सामजस्य स्थापित किये बिना हम आध्यात्मिकता को अपने जीवन से नहीं जोड़ सकते हैं। केवल आध्यात्मिकता में जी भी हमारे लिये कठिन है क्योंकि घटनाएँ सतत हमारे साथ घटित कोती जाती है।
हम देख रहे हैं कि प्रभात के प्रथम प्रहर मे ध्यानस्थ आचार्यश्री को लोहे की वेड़ियो फी गृखलाआ मे वाधकर, अवन्तिका के बाहर एक अँधेरी कोठरी रूप कारागृह मे रखा जाता है। वहाँ दो पहरेदार हैं। आचार्यश्री ने अपना ध्यान खोला नहीं। लक्ष्य मे जरूर आया कि एक उपसर्ग से मै बाधित हो रहा हूँ। तत्क्षण ही उन्होने अपने गुरु मत्र के माध्यम से परमात्मा क साथ एकरूपता स्थापित करने का प्रयास किया और उनका प्रयास सफल रहा। यह स्थिति हमारे सामने मौजूद है। आचार्यश्री ने वेडियो के वधन को विस्मृति मे खो दिया और स्वय अन्तध्यान मे लीन हो गये। उनके स्मृति लोक मे पधारे आदीश्वर नाथ। पेडिया के बन्धा टूटते गये। उनके भीतर से एक नाद प्रकट हुआ। वह नाद इतना अद्भुत धा कि वह अश्वाव्य ध्वति मे तरगित होकर प्रकट होता गया। उसकी प्रकटता "भक्तामर स्तोत्र"फे माध्यम से हमारे सामने उपलब्ध है।
तं प्रथम जिनेन्द्र प्रणम्य किल अहम् अपि स्तोष्ये" अर्थात् “उन परमात्मा के चरणो प्रणाम करके मैं निश्चय ही स्तुति करूँगा"स्तुति के पहले भक्त ऐसा दढ़ सकल्प करता
आ परमात्मा के चरणों के ध्यान में लीन होता है। लीनता आने पर दीनता टूटती है, भेद मिटता है। अभेद से आत्मप्रदेशो में निर्मलता आती है और परम आनदधाम परमात्मा ध्यानालोक मे पधारते हैं। "त" याने "दह" जो धा अव प्रकट हो गया, सामने आ गया।
भक्तो चरणो मे मस्तक रखा। परमात्मा ने झुकते मस्तक पर हाथ रखकर कहादास ! म स्तुति करूँगा" ऐसा कहने वाला तू कौन है ? तेरा परिचय दे।
मत झुझताया।जीवन का यह प्रथम अवसर था कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी उससे परिचय Tी रहे है। उसने कहा
परनाला आपसे क्या परिचय दूं? ससार के किसी भी प्राणी को मेरा आडम्दर भरा परिचय आसानी से दे सस्ता हूँ परन्तु परमात्मा आप तो मर्दत हो। सनर
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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
का कोई भी रहस्य आप से अप्रकट नही है। तीनो कालो की, तीनो लोको की सर्व जीवो की सभी पर्यायो के ज्ञाता हो । आपसे मेरा क्या छिपा है ? मेरे सभी पापो को आप जानते हो। आपको मै क्या अपना परिचय दूँ ? आज कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति यदि मुझे पूछ ले कि तू कौन है तो मेरे पास बहुत सारा परिचय है, मै सेठ हूँ, फैक्ट्री का मालिक हूँ, डॉक्टर हूँ, वकील हूँ, बैरिस्टर हूँ, बहुत बडा व्यापारी हूँ। मेरे पास कई तरह के परिचय मौजूद हैं। परमात्मा ये तो आप माग रहे है, आप से क्या छिपा हुआ है मेरा ? इस जन्म की ही नही अपितु जन्म-जन्म की सारी करतूते आप जानते हैं। दुनिया का कोई पाप नही जो मैने छोडा हो । जगत् का कोई व्यक्ति नही जिसके साथ मैने सम्बन्ध नही किया हो। और, यह सब कुछ आप जानते हैं। कितना पुण्य किया, कितना पाप किया, कितनी निर्जरा की, कितना धर्म किया, कितना कर्म किया, कितने सम्बन्ध स्थापित किये, कितने सम्बन्ध बॉधे, कितने बिगाडे, कितने छोड़े, कितने तोडे, कितने खेल खेले । परमात्मा आपसे क्या छिपा है ? बताइये ना । छोड़ दीजिए प्लीज, मेरा परिचय मत मागिये । आपसे कुछ छिपाना भी चाहता नही और परिचय दूँगा तो वह मेरे लिए लज्जाजनक होगा। मै तो आपका परिचय पाकर मोक्ष पाना चाहता हूँ । यद्यपि मेरे लिए यह भी दुरूह हो रहा है।
परमात्मा ने कहा-वत्स । तू मेरा परिचय दे सके या नही दे सके, तू मुझसे परिचित हो सके या नही हो सके, अब मुझे कोई चिन्ता नही । मेरे परिचय की तू चिन्ता मत कर, मै तेरे साथ हूँ, सदा साथ रहूँगा, लेकिन मुझे चिता है कि तू अपने आपको जानता है या नही ? तू अपना परिचय मुझे दे।
अब मानतुगाचार्य को भूल जाइये, और आप आगे बढ़िये, आप भक्त हो, आपको सम्पूर्ण अधिकार है। यह मत सोचिये कि सारी क्षमता मानतुगाचार्य मे ही निहित है। मै यह सोचती हूँ कि जितनी उनमे शक्ति थी, उतनी ही शक्ति हम मे निहित है, लेकिन हम उस शक्ति को उजागर नही कर पाये हैं । " भक्तामर स्तोत्र" का आलम्बन लेकर अपनी अन्तश्चेतना को आज हम जागृत करेंगे। जब तक "कोऽहम् " की आग प्रकट नही होगी, तब तक परमात्मा से तात्त्विक सम्बन्ध सभव नही है । मै कौन हूँ, मै कहाँ से आया हूँ और मै कैसी हूँ, यह सोचना अत्यन्त आवश्यक है।
अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी को हम अपना परिचय देगे । माध्यम आचार्यश्री का लेंगे। आचार्यश्री हम सब को साथ लेकर चलते हैं। अत आचार्य श्री का परिचय हम सबका परिचय हो जायेगा। भक्त कहता है - प्रभु । बहुत ध्यान देकर सुनिये। यह है मेरा परिचय
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ । स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जन. सहसा ग्रहीतुम् ? ॥३ ॥
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आत्मा का परिचय १९ विवुधार्चितपादपीठ - विवुध का एक अर्थ देव है परन्तु विशेषार्थ है विशिष्ट
बहुजन अर्चित पादपीठ याने पूजित चरणासन वुद्ध्या विना अपि - वुद्धि विहीन होने पर भी, विगतत्रप
लज्जा रहित स्तोतु समुद्यतमति स्तुति करने के लिए तत्पर हुई है वुद्धि जिसकी ऐसा जलसस्थितम् जल मे अच्छी तरह से पड़े हुए इन्दुविम्वम्
चन्द्र के प्रतिविम्ब को वालं विहाय
वालक को छोड़कर अन्य क जन दूसरा कौन मनुष्य सहसा
अचानक ग्रहीतुम् - पकड़ने के लिए इच्छति
इच्छा करता है, चाहता है। ___ जो सामने आता है वह सम्बोधित होता है। भक्त आज पहली वार परमात्मा से मिल रहा है। "विवुधार्चितपादपीठ" जिनका पाद-पीठ विवुधो से अर्चित है, पूजित है। पादपीठ का मतलब होता ह-चरणासन। जिस पर पैर रखकर परमात्मा सिहासन पर आरूढ़ होते है उसको कहा जाता है पादपीठ। अर्चित का मतलब है पूजित। चरणासन पूजित इसलिये होता है कि नमन चरणो मे ही किया जाता है। क्योंकि चरणो से ही शुभ Vibrauon तरगित होते रहते हैं। इसीलिए परमात्मा के चरण सदैव पूजनीय होते हैं। चरण आसन पर रखे जाते हैं, अत चरणासन भी पूजित होता है। सर्व जीवो से अर्चित ऐसा न कहकर विदुधो से अर्चित ऐसा क्यो कहा? सामान्यत विबुध का अर्थ देव किया जाता है। परन्तु "भक्तामर स्तोत्र के वास्तविक अर्थ मे विबुध का अर्थ देव नहीं होता है। विवुध का अय होता है विशिष्ट दुधजन। ___ अब मैं आपसे पूछती हूँ विदुध आप है या नहीं? आप अपने को क्या मानते हैं विवुध या अवुध ? मान लीजिए, आप अपने को विवुध मानते हैं और आप समवसरण में पहुँच जाते है तो क्या आप परमात्मा के चरणो की पूजा नहीं करेंगे? उनको नमन नहीं करेंगे? अगा ही करेंगे? यदि करोगे तो विवुध का अर्थ सिर्फ देव क्यों लेते हैं? क्या उनको ही अधिकार है परमात्मा के पादपीठ के अर्चन करने का ? हमें कोई अधिकार नहीं है। हमें सम्पूर्ण अधिकार है-परमात्मा के पादपीठ के अर्चन, पूजन का और नमन का। उसका पूजा कैसा होता है ? भावपूर्दक नमस्कार परमात्मा का पूजन है। इस प्रकार विदुध जनों से अर्पित है पादपीठ जिलश ऐसे कौन है ? परमात्मा देवाधिदेव। "भक्तामर स्तोत्र" की
औक पतिया ने लोक सम्बोधर मिलेगे। प्रत्येक सम्बोधन एक विशिष्ट तत्त्व का अमानवाते हैं। मम्बोधनों में कुछ न कुछ रहस्य है, कुछ न कुछ परमार्य है।
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२० भक्तामर स्तोत्र . एक दिव्य दृष्टि
हे विबुधार्चित पादपीठ परमात्मा! लीजिए, मै परिचय प्रस्तुत करता हूँ। परिचय मै दूंगा, लेकिन मै निराश होकर आप के द्वार से लौटने वाला नही हूँ
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ।
स्तोतु समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥ १. बुद्धया विना-मेरा पहला परिचय यह है कि मै बिना बुद्धि का हूँ क्योकि मै न तो आपको जानता हूँ और न मै अपने आपको जानता हूँ परन्तु मै इतना अवश्य जानता हूँ
कि
“जो जाणादि अरहत दव्वत्त-गुणत्त-पज्जत्तेहि।
सो जाणादि अप्पाण, मोहो खलु जादि तस्स लय॥ जो अरिहत परमात्मा को द्रव्य-गुण-पर्याय की दृष्टि से अर्थात् पूर्णरूप से जानता है, वही अपने आत्म-स्वरूप को (भी) जानता है (और) उसी के राग-द्वेषादि मोहनीय कर्मों का वास्तव मे नाश होता है।
जीवन मे कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब बुद्धि बिगडती है और तब उन क्षणो मे व्यक्ति बडे से बडा पाप भी सहज कर डालता है। ___स्मृति का जब नाश होता है तब बुद्धि बिगडती है इसीलिए गीता मे कहा है"स्मृते शात् बुद्धिनाश " स्मृति याने स्मरण । स्मरण आत्मा का। मै कौन हूँ उसका सच्चा भान, भ्रांति का टूटना, सम्यक् से जुड़ना है। ___ मै डॉक्टर नही, वकील नही, सेठ नही, बेटा नही, बाप नही, मॉ नही, पली नही, पति नही, मै तो सत, चित, आनन्द और सहज स्वरूप हूँ। मै ज्ञानमय, दर्शनमय और चारित्रमय हूँ।
अफसोस, जगत् को जानने वाला स्वय को ही नही जानता है। दुनियाभर की बाते करने वाले को घर मे से निकाला गया है।
"जो जानता है अन्तर् को, उस अन्तर्यामी को भूल गये।
__ अफसोस गजब घर वाले ही, घर के स्वामी को भूल गये॥ विगतत्रप -परमात्मा। मुझ मे बुद्धि तो नही है परन्तु प्रभु। मुझे लज्जा-शर्म भी तो नही है। नालायक, बेशर्म या निर्लज्ज उनको कहा जाता है जो अपने पर किये जाने वाले उपकारो का विस्मरण कर दे। परमात्मा। पूर्वाग्रह, पैसा, परिवार, प्रज्ञा, प्रतिष्ठा और पदवीप्रबध रूप इस प्रतिभासित जगत के साथ सबध स्थापित कर मैने आपके पवित्र, शाश्वत, ध्रुव और नित्य ऐसे सम्यक् आत्मधर्म का विस्मरण कर दिया।
काच के पात्र की तरह अत्यन्त नाजुक, प्रत्येक पल मे टूटने की आशका/भय वाले सासारिक प्रावधानो की प्रतिपालना मे मै अपने निजरूप को, आपके वीतरागधर्म को भूल गया और फिर भी आज लज्जा का त्यागकर तेरे सामने आया हूँ।
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आत्मा का परिचय २१ माता-पिता का इकलौता पुत्र कभी विरासत में मिली पूरी निधि को लेकर माता-पिता से अलग रहने लगे और फिर कभी कमभाग्य से यह सब कुछ खो बैठे तव माता-पिता के सामो आवे तो पिता उसे देखकर क्या कहेंगे-"नालायक! सब कुछ लेकर चला गया और आज गरज होने पर यहाँ पुन आ रहा है, तुझे शर्म नहीं आती है?"
इम समय माता ने पुत्र की दशा देखी और कहा-"वेटा। आओ। मैं तुम्हें माफ करती हूँ। तुझमें बुद्धि नहीं, शर्म नहीं, फिर भी वेटा हमारे प्रति रही तुम्हारी श्रद्धा ही मेरे लिए काफी है।
प्रभु तू मा है। सत्पय जननी है। विश्वमैया है। तेरी स्तुति जैसे महान् भगीरय कार्य में ऐसी वालिशता कैसे काम आएगी? मैं जानता हूँ फिर भी मुझे इसमें तेरे प्रति स्तुति के लिए उघत मेरी मति ही आकर्षित करती है, इसीलिए कहता हूँ कि सारे पूर्वाग्रह, पूर्वस्मरण और पूर्व-कथित प्रेमभावों से मुक्त होकर "स्तोतु समुद्यतमति " वाला हूँ।
ऐसा होता हूँ तव जगज्जीवन । हृदयेश्वर। तेरा विराट परम स्वरूप का एक छोटा सा प्रतिविम्द मेरे भक्तिजल से भरे हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित हो रहा है। मेरे एक मात्र शक्ति केन्द्र आप हो प्रभु जैसे बच्चा माँ की गोद में बैठकर सहसा उसके अद्भुत वात्सल्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है वैसे ही प्रभु। मैं भी निर्दोष भाव (वालमाव) से तेरे निर्दोष वीतराग स्वरूप के दर्शन-स्पर्शन और प्राप्ति का साहस करता हूँ।
"वाले" शब्द से मैं अपने मे रही सहज सुलभ निर्दोष वृत्ति का आविर्भाव करता हूँ। जल में पड़ा चन्द्र विम्ब तो सदा चचल रहता है परन्तु प्रभु। आप तो सस्थित हैं। आपके प्रतिबिम्द से उत्पन्न विधुत चुवकीय Vibrauon शक्तिभावो से मुझ में प्रवल तरंगे प्रवाहित हो रही हैं, उत्पन हो रही हैं Influx हो रही है। इससे मेरी सारी मूलवृत्तिया Instunts यथार्थभाव में परिणत हो रही हैं। यह परिवर्तन मुझे अपने सहज स्वभाव की
और प्रेरित कर रहा है। आपके प्रतिविम्बित होने से मुझने एक ऐसा स्पदन उठ रहा है जिसने सारे मानसिक आवेग--तगाव (Tension) समाप्त हो रहे हैं। इससे सर्जित-पर्यावरण मेरे दशों प्राणशक्तियों से अवरुद्ध शक्तिप्रवाह को आदोलित कर रहा है।
झा आदोलनों के अभियोग से अवतरित आपकी स्तुति से दने हुए विशुद्ध वायुमडल में जन्मो के बंधे कर्मों की निर्जरा हो रही है।
इस आन्य आलनिर्मलता रूप अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रभु। दालसहज शिदीपभापों के दिता कान आप इस महान प्रतिदिम्ब को अपने हृदय न स्यामित कर साहायो कि आप समस्त दोषों से रहित हो।
स लोक की दूसरी पक्ति ने कुल ५ तकारों का प्रयोग हुआ है जो क्रम से , 1५1, तरा , ३ सन्मयता. सल्लीनता और ५ तत्समता -एक विशेष साधना
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२२ भक्तामर स्तोत्र . एक दिव्य दृष्टि
आचाराग सूत्र श्रु १. अध्य ५, उद्दे ६, सूत्र ५७८ मे परमात्मरूप प्रकट करने की पाँच "तकार" की महत्वपूर्ण साधना पद्धति दर्शायी है१ तद्दिट्ठीए - सर्वाग्रहो को त्याग कर तरण तारणहार की दृष्टि मे
एकरूप हो जाना। २ तम्मुत्तीए - परम स्वरूप मे तन्मय हो जाना। ३ तप्पुरक्कारे - परमात्मा को सदा आगे रखकर चलना अर्थात् उनके
आदेश या आज्ञा के अनुसार जीना। ४ तस्सण्णी - परमात्मा के स्वरूप को अपने मन मे, अपने चित्त मे,
अपने स्मरण मे निरतर रखना। ५ तन्निवेसणे - सदा सर्वदा उनके पास- उनके चरणो मे रहना।
युग-युग तक चिरतन रहे, “भक्तामर स्तोत्र" द्वारा स्तुति करने वाले प्रत्येक भक्त का परिचय बन जाय ऐसा परिचय देकर अब मानतुगाचार्य मिलन की प्रथम रूपरेखा द्वारा अंतिम की आराधना मे लीन हो रहे हैं। हम भी परमात्म-मिलन की ओर आगे बढ़ेगे और चौथे श्लोक के द्वारा मिलन का मत्र पढ़ेगे।
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श्लोक - 6
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४. प्रभु - मिलन
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समस्त आवरण ओर अन्तराया से परिमुक्त मोह आर क्षोभ के जीतने वाले परमात्मा से अव्यावाध समाधि-स्वरूप का सधान हो रहा है।
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विरह की वे भावात्मक घड़िया परिचय में पल्लवित होकर मिलन के रचनात्मक प्रवाह में बदल रही है-प्रवाहित हो रही हैं। राजा को आचार्यश्री का मिलन हुआ हे और आचार्यश्री का परमात्मा का मिलन हो रहा है। मिलन-मिलन में भी अन्तर है। एक मिलन विवाद उठा रहा था तो एक मिलन जनम-जनम का विवाद मिटा रहा था। एक उठ उठ कर रूट रहा था, एक मिट-मिट कर अमिट वन रहा था।
बेडियां टूट रही थी, सिर्फ लोहे की ही नहीं, परमात्म भाव मे बाधक कर्मों की भी। केवल ५६ अक्षरा की अक्षर माला में भक्त अपना सम्पूर्ण परिचय परमात्मा के सामने पेश करता है। स्थान कोई भी होगा, काल कोई भी होगा, व्यक्ति कोई भी होगा। लेकिन भक्त हृदय का व्यक्तित्व " भक्तामर स्तोत्र" के तृतीय श्लोक से अतिरिक्त नही हो सकता। ऐसी एक चिरन्तन परिचय माला को परमात्मा के चरणो मे प्रस्तुत करते हुए मुनिश्री को परिस्थिति का बन्धा नही रोक पाया।
इधर आप जानते हैं आचायश्री को बेड़िया के बधन मे डालकर पुलकित हो रहे राजा को जब इस बात का पता चला कि आचार्यश्री के अन्त करण से सस्कृत मे एक स्तोत्र प्रकट ही रहत है आर जैसे-जैसे एक-एक श्लोक का उच्चारण होता है बसे-वैसे आचार्यश्री के जगा पर लटकती हुई किलेबन्द देड़ियाँ टूटती चली जा रही है। उसने सोचा कि जिन शब्दों के माध्यम से ये बेड़िया टूटती चली जा रही है, क्या नहीं इन इलोका को आलेखित किया जाय ताकि ने भी भविष्य में इनका उपयोग कर सकूँ। उन्होंने नहिया (लेखक) को दुलाया। उसने ताड़पत्र पर लिखना शुरू किया।
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२४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
वक्तु गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्ककान्तान् कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या।
कल्पान्त-काल पवनोद्धत नक्र-चक्र, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥४॥
गुणसमुद्र।
- (हे गुणो के समुद्र।) हे गुणसागर वुद्धया
बुद्धि के द्वारा सुरगुरु प्रतिम
बृहस्पति के समान अपि
कौन मनुष्य?
आपके शशाङ्ककान्तान्
चन्द्रमा के समान उज्ज्वल-ऐसे, गुणान्
गुणो को वक्तु
कहने के लिए-कहने मे क्षम
समर्थ है ? कल्पातकाल पवनोद्धतनक्रचक्रम् - प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है
मगरमच्छो का समूह जिसमे ऐसे अम्बुनिधि
- समुद्र को भुजाभ्याम्
- भुजाओ के द्वारा तरीतुम्
- तैरने के लिए क अलम्
- कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नही। आचार्यश्री को दो विरुद्ध समुद्र के दर्शन हो रहे हैं। एक है गुणसमुद्र परमात्मा और दूसरा हे विकल्पो से भरा समुद्र। एक है क्षीर समुद्र, दूसरा है लवण समुद्र। क्षीर समुद्र दीखता जरूर हे पर वह दूर नजर आ रहा है, अत क्षीर-अमृत का पान नही कर रहा है। वह क्षीर समुद्र का पान करना चाहता है परन्तु लवण समुद्र मे जहाँ वह खड़ा है, बहुत लम्बा चाडा है, उसे साधक को स्वभुजा से ही पार करना है। कितना विकट है यह कार्य । कितना भयानक हे, कितना विशाल है यह समुद्र ? , सुधर्मास्वामी ने जदूस्वामी को परमात्मा की पहचान कराते हुए समुद्र की उपमा दी
'मे पत्रया अखसागरे वा महोदही वा वि अणतपारे"
-सूय अ ६, गा ८
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प्रभु-मिलन २५ वे (परमात्मा महावीर) प्रज्ञा के अक्षय सागर हैं, महाउदधि हे-समुद्र के समुद्र इसमे समा जात है, वे अनतपार हैं, अपरपार हैं, फिर भी अनत इसे पा जाते हैं। ऐसे तो अनत मिलकर भी इन एक को नहीं पा सकते हैं फिर भी अनतानत इन्हें पाकर स्वय अनत हो गये, अपरपार हो गये।
जम्बू। यदि प्रज्ञा से तुम महावीर को समझने का प्रयास करोगे तो महावीर को नहीं समझ पाआगे। चाहे जम्वू स्वामी हो, चाहे सुधर्मा स्वामी हो, चाहे मानतुगाचार्य हो, चाहे आउन्दघन हो, चाहे म हूँ, चाहे आप हो, लेकिन सबके सामने यही परिस्थिति आयेगी कि परमात्मा के गुण अनत हैं, नहीं गाये जा सकते हैं।
योगिराज अनदघन कहते हैं"गाय न जाणू, रिझाय न जाणू, ना जाणू सुरभेदा"
में न तो गा सकता हूँ, न वजा सकता हूँ, न खुद रीझ सकता हूँ, न तुझे रिझा सकता हूँ। ऐसी मेरी परिस्थिति मे हे गुणसमुद्र। "ते शशाककान्तान् गुणान् बुद्ध्या, वक्तु
सुरगुरु-प्रतिमोऽपि क क्षम । प्रश्न किया हे यहाँ पर कैसे समर्थ हो सकते हैं? कौन किमलिये? ते शशाककान्तान् गुणान् "ते" का मतलव तव, “तव" का मतलब तेरे। गुणा को उन्होंने यहाँ "शशाककान्तान्" शब्द से उपमित कर दिया है। तेरे गुण चन्द्रमा असतिल है।
सोचती हूँ यहाँ "वुया" व "शशाककान्तान्" शब्द के लिए हम तीसरे श्लोक और चौधे श्लोक को मिलाते चले जाये। दोनो मे "वद्धया" शब्द का प्रयोग है। तीसरा लोफ "वुया विनापि" शब्द से शुरू होता हे और यहाँ दूसरी पंक्ति मे “प्रतिमोऽपि बुदया" शब्द है। दुद्धि से किस प्रकार गुण गान करने में समर्थ हो सकते हैं क्योकि बुद्धि
नही। अत “बुद्ध्या' शब्द को पहले समझने का प्रयास करें। मै तो विना दुद्धि का हूँ लकिन बहुत से तेरे भक्त बुद्धिशाली हैं। हे भगवन् । सृष्टि मे अनेक तेरी भक्ति करने के अधिकारी है। जिसके हृदय मे भक्ति है, वे तेरे भक्त है। जो भी भक्त हे तेरी भक्ति करने के सम्पूर्ण अधिकारी हैं। म भले विना बुद्धि का हूँ लेकिन क्या कोई बुद्धिमान तेरी भक्ति कर मकता ह ? तेरे गुणो को गा सकता है ? तो कहते हैं बुद्धि से, बुद्धि-सम्पन्न यहाँ कोन माने - है। मुरगुरु याने देवो के गुरु। हालाकि देवो के गुरु का अर्थ वृहस्पति किया जाता है घर नदयों के गुरु न कही वृहस्पति की गिनती नहीं है। गुरु का अर्थ स्वामी होता कार देवा फस्दानी का मतलद शक्रेन्द्र, सौधर्मेन्द्र। बारह देवलोक के इन्द्र की यहाँ
सनी ,क्योकि जद-जव परमात्मा को कोई भी ज्ञान होता है, दीक्षा होती है, JER:, ति होता है, कोई भी कल्याणक होते हैं उस समय शकेन्द्रादि आते हैं कार माजी स्तुति करने है। तद मानतुपाचार्य के मामने प्रश्न आया ने मनुष्य होकर सीकर मसानो क्या इन्द्रादि देव कर सकते हैं ? तो कहा प्रतिमोऽपि वुया"
31जी दुति पाले रोई भी। वक्तु" याने फहन के लिये "क क्षम ।"
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२६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि अर्थात् समर्थ नही होते हैं। "गुणान्" कैसे गुणान्, तो कहते हैं “शशाककान्तान् गुणान्" "शशाक' शब्द चन्द्र का पर्यायवाची है। तीसरे श्लोक मे इन्दु बिम्बम् चन्द्र परमात्मा का प्रतीक था। चौथे श्लोक मे उपमान स्वय उपमित हो रहा है। ___ चन्द्र को इतना महत्व मानतुगाचार्य ने क्यो दिया है ? चन्द्र जैसे निर्मल। यो देखा जाय तो गुण और चन्द्रमा दोनो मिलते ही नही। चन्द्रमा इतना निर्मल नहीं है जितने परमात्मा के गुण निर्मल हैं। फिर भी उन्होने चन्द्र शब्द से गुणो को उपमित कर लिया है। इसका क्या कारण था? आप जानते हैं कि चन्द्र का मन के साथ बहुत निकट का सम्बन्ध है। किसी भी ज्योतिषी के पास अपना टेवा लेकर जावो और वह यह कहता है कि आपका चन्द्र बहुत प्रबल है तो आप समझेगे कि आपका मन शक्तिशाली है और यह कहे कि आपका चन्द्र निर्बल है तो इसका मतलब है कि इस दुनिया की घटनाए कुछ भी होगी लेकिन आप अपने मन से पराजित होते जायेगे।
इसके अतिरिक्त दूसरी जगह “चन्द्र' शब्द का प्रयोग देखेगे-सिद्धो के गुणो के लिए, सिद्ध शिला के लिए। सिद्धो के स्वरूप का वर्णन करते समय “चदेसु निम्मलयरा", चन्द्र से भी निर्मल | इस प्रकार "चन्द्र" शब्द का हमारे साथ बहुत निकट का सम्बन्ध है। योगशास्त्र के अन्दर विशुद्धि चक्र मे चन्द्र का ध्यान करने का विधान है। कभी तेज गरमी या तीव्र धूप मे बैठकर विशुद्धि चक्र का ध्यान करोगे तो आप जैसे Air-Condition मे बैठे हो वैसी ही शीतलता महसूस करोगे।
ऐसी एक योग विधि है जिसका कोई भी प्रयोग कर सकता है। और इसकी प्रतीति भी कर सकता है कि जो प्रतिबिम्बित होता है वही मै हूँ और कोई नही। ___हे गुण समुद्र' मै तेरी परिचर्या इसलिये कर रहा हूँ कि तू जैसा है वैसा का वैसा मै भी गुणो का स्वामी हूँ। मुझ मे अनन्त ज्ञान है, अनन्त दर्शन है, अनन्त वीर्य है लेकिन जैसे बादल से सूर्य ढका रहता है वैसे मेरे समस्त गुण आवृत हैं। मै तेरे अधीन इसलिये हो रहा हूँ कि तू सर्वथा कर्मो से मुक्त है। तेरा स्मरण करके मुझे अपने कर्म तोडने हैं, इसलिए हे परमात्मा। तेरे गुणो का स्मरण कर मै अपने गुणो को आविर्भूत करना चाहता हूँ।
एक बात निश्चित है कि परमात्मा के अनन्त गुणो मे से एक गुण की भी याचना कर आप गुण प्राप्त नही कर पायेगे, लेकिन उनके गुणो का स्मरण करके हम मे जो गुण आवृत हैं उनको अनावृत करेंगे, उनको चीरेंगे, उनको फाडेगे, उनको खोलगे और भीतर से हम अपने आप को परमात्म स्वरूप मे पायेगे। इन दो पक्तियो मे भक्त मानतुगाचार्य हमे इतना ऊपर उठा लेते हैं कि हमे लगता है, हम भी अनन्त गुण के स्वामी हैं, हम भी
। । से कुछ कम नहीं हैं। प्रश्न इतना ही है कि उनके गुण प्रकट हो चुके हैं, हमारे गुण अप्रकट हैं। अब अगली पक्तियो मे इस आवरण के कारणो को समझाते हैं
कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र। को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम्॥
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प्रभु-मिलन २७ देखिए, जैसे स्वय के गुणो को प्रकट करने का प्रयास किया जाता है, एक बहुत वडा व्यवधान आ जाता है " कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्र ।" कल्प का अन्त याने प्रलयकाल । प्रलय काल का मतलब आरे का विसर्जन काल। यह सामान्य अर्थ है लेकिन इसका विशिष्ट अर्थ भी है।
कौनसा कल्प और कोनसा अन्तकाल है, जिस अन्त काल मे पवन उद्धत होता है । नक्र चक्र का मतलव होता है मगरमच्छ, मत्स्य वगेरह जो कि उस समय ऊपर आयेंगे। एमे विकट समय मे यदि समुद्र को भुजाओ के द्वारा कोई तिरना चाहे तो क्या तिरा जा सकता है? प्रलयकाल की तो बात क्या करें, आज भी भुजाओ के बल पर ऐसे समुद्र को पार नही कर सकते हैं।
अव प्रश्न हे आचार्यश्री ने यहाँ पर "कल्पात " शब्द का प्रयोग क्यो किया ? कोन से कल्पात काल की उनके दिल मे चर्चा थी ? कौन सा पवन हमारे साधना काल में उद्धत होता है? आर कौन से मगरमच्छ आकर हमारी साधना का विध्वस कर देते हैं ? ऐसी जो चीजे हैं उनको यदि आज नाथ लिया जाय तभी हम आगे बढ़ पायेगे अन्यथा हमारी यात्रा यही पर अवरुद्ध हो जायेगी, रुक जायेगी।
एसा मत समझना कि जिनेश्वर की आराधना या उनका मार्ग हमने कभी नही पाया। इस अनन्त जन्म की यात्रा मे कई बार ऐसे काल बीत गये, उनकी सेवा भक्ति पूजा करने का कई बार मौका मिला होगा, लेकिन हमारी यह कमजोरी रही कि हमारे कल्प का जब-जब अन्त काल आता गया, उस उद्धत पवन के सामने, उन उद्धत मगरमच्छा के माना हम स्वयं अपनी भुजाओ के दल पर तेरने के लिये कूद पड़े थे और मगरमच्छों के तु मे ॐ स्वाहा हो गये थे। मुनिश्री को आज गलती महसूस हो रही है और उन्होंने कहापरमात्मा । कई बार तेरी आराधना करके भी न गिर पड़ा हूँ। तेरा जिसने एक बार भी ध्यानपूर्वक मान कर लिया, उसका पुन ससार परिभ्रमण नही हो सकता, इस बात की सम्पूर्ण प्रतीति होने के बावजूद भी इस आत्मा ने कई बार परिभ्रमण किया है। कौन सी गलती हो रही है? कौन सी कमजोरी ह? जिस कमजोरी का इस जन्म ने "भक्तानर "के माध्यम से हमे खोल देनी है। आचार्यश्री के माध्यम से हमें इन समस्याओं की सुलझाना है। कल्प शब्द का प्रयोग हमारे यहाँ कई बार होता है।
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__२८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
एक महत्वपूर्ण कल्प शब्द से हम सम्बन्धित हैं जो हम मे रात-दिन उठता रहता है। जिसे हम कल्पना भी कहते हैं। इसी से सकल्प-विकल्प शब्द निकले हैं। इन विकल्पो के अन्तकाल की चर्चा आचार्यश्री का ध्येय रहा है। कल्प के अन्त पर जो स्थिति है वह निर्विकल्प स्थिति है।
ऐसी निर्विकल्प स्थिति के लिए जब साधक निकलता है तब उसे कौन अवरुद्ध करता है ? तो कहते हैं पवन उद्धत होता है और बडे-बडे भयकर मगरमच्छ उठते हैं। पवन याने मन। जब मन उद्धत होगा तो समस्त इन्द्रियाँ और प्राण उद्धत होगे और उनके उद्धत होने से अध्यवसाय दूषित होते हैं। और, जब अध्यवसाय दूषित होते हैं तो ससार के सारे विषम आवेग रूप मगरमच्छ उसको आकर घेर लेते हैं। अनेकानेक विकृतियो से मन उद्वेलित हो जाता है। इस निर्विकल्प (कल्पात) स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक को अनेक प्रयास करने पड़ते हैं। परमात्मा का स्मरण या शरण-ग्रहण इस साधना मे परम सहयोगी रहकर सफल करता है। “भक्तामर स्तोत्र" का यह श्लोक इसकी अभिव्यक्ति है।
प्रभु । ऐसे इस महासमुद्र को मुझे भुजाओ से पार करना है। यह कैसे सभव है ? यहाँ "क अलम्" शब्द से प्रश्न को विराम देकर यह आशा सूचित कर रहे हैं कि “परमात्मा। मै अवश्य इसे पार करूँगा क्योकि मुझे सामने तुझ स्वरूप गुणसमुद्र नजर आ रहा है। तेरे इस झलकते प्रतिबिम्ब के सहारे मै इसे अवश्य पार कर लूंगा। तेरे गुणो का स्मरण कर, शरण-ग्रहण कर तेरे चरणो मे नमन कर तुझ-मुझ मिलन के मन्त्र को अन्तर्मन मे प्रस्थापित करता हुआ जन्म-जन्म के बन्धनो से मुक्ति पा लूंगा।"
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श्लोक - ५
।। ५.बन्धन
L0ससार मे घटनाओ का, विषमताओ का आना अत्यन्त सहज एव स्वाभाविक है। व्यक्ति के जीवन में कुछ ऐसी विशिष्ट परिस्थितिया आती हैं जिन्हें व्यक्ति चाहते हुए भी नहीं रोक पाता है लेकिन घटनाओ मे भी घटनातीत होकर घटनाओ से किसी प्रकार से विचलित नहीं होना, साधना है। ऐसी उच्चकोटि की महान साधना का जीवन में प्रकट हो जाना, यही तो साधना का रहस्य है। जिस रहस्य को आचार्यश्री ने स्तोत्र द्वारा ससार के सामने प्रस्तुत कर दिया है। ___ मात्र वाह्य घटनाओ से ही परिचित नही रहते हुए उनके भीतरी अन्तस्थलो की ओर पहुँचगे, जहाँ पटनाओ मे रहते हुए आचार्यश्री घटनातीत हो गये। देह मे रहते हुए दहातीत हो गये। पार्थिव मे रहते हुए अपार्थिव के दर्शन कर लिये। आज "भक्तामर स्नोत्र'' को सिर्फ रहस्य का प्रतीक मानकर चमत्कारो से भरपूर मान लिया है। यद्यपि इसम चमत्कार है, इस बात में कोई शका नही है। व्यक्ति जो चाहता है वे सारे मनोवाछित इस ' स्तोत्र'' से पूर्ण होते हैं। ससार मे ओर कोई नही दे सके, ऐसी अनुपम उपलब्धि भी "भक्तामर स्तोत्र" के अर्न्तगत निहित है। जो चमत्कारो का भी चमत्कार है ओर वह यही है कि देह में रहते हुए भी देहातीत स्थिति का अनुभव करना। बधन मे रहते हुए भी निर्वन्ध की स्थिति का अनुभव करना। वर्तमान स्थिति मे देख रहे हैं-कर्म क्षेत्र मे व्यक्ति का अपना गामजाम्य बहुत कष्ट भरा होता जा रहा है। ऐसी स्थिति मे जीवन के वे रहस्य जो हमे अआदिकाल से नहीं मिल पा रहे हैं, उन्हें भक्ति के माध्यम से खोलने का काम आज भक्तामर स्तोत्र" कर रहा है।
जो परमात्मा के अमीम प्रेम के वधन मे वध गया, उसे वेड़ियो के बधन कैसे बाँध मक हैपिला यदि दधन में बंधे नही तो मिलन कैसे सफल हो? परमात्मा के प्रति होने ५ ली नhि का (धा मुक्ति का महामत्र है-सिद्धि का परम सूत्र है, योगो से जुड़ाकर 1.3 की ओर ले जाने वाला यत्र है, चौदह राजुलोक के सर्व शुभभावो की स्वीकृति का
दफ प्रति होने वाले इस साधना-वन्धन ने साधक मे पहले “को अह" मैं कौन
जसा उलाजी जिज्ञासा अनुसंधान का आधार दनी । अनुसघान आत्मा का । तर सो अहं" रूप साकार हो गया और आचार्यश्री के मुख से निकला
सोऽह तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश फतुं स्तव विगतशक्तिरपि प्रवृत्त ।
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मुनीश ।
___३0 भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्, नाभ्येति किं निजशिशो परिपालनार्थम् ॥५॥
= हे मुनीश्वर । (साधुओ के स्वामी)
= वह अहम्
= मै तथापि = फिर भी भक्तिवशान् = भक्ति के कारण विगतशक्ति = शक्ति रहित अपि
= (होते हुए) भी तव स्तव कर्तुम् = तुम्हारी स्तुति करने के लिए प्रवृत्त
= तत्पर हूँ, मृगी
= हरिणी प्रीत्या
= प्रीति से आत्मवीर्यम् = अपने सामर्थ्य को अविचार्य = बिना विचारे निजशिशो ___= अपने बच्चे की परिपालनार्थम् = रक्षा करने के लिए किम्
= क्या? मृगेन्द्र न अभ्येति = सिह का सामना नही करती? (अर्थात् अवश्य करती है)
परमार्थ -हे मुनीश। ईश याने स्वामी। हे मुनियो के स्वामी। नाथ। केवल मेरे (मानतुग के) ही नही परन्तु सभी मुनियो के स्वामी । जिन्होने भी बाह्य-आभ्यतर दोनो ग्रन्थियो को और सासारिकता को छोड़ दिया, उन सर्व के स्वामी। एक मानतुग जैसे हजारो हजार मानतुग तेरे शासन पर न्यौछावर हो गये। हजारो साधु-साध्वियो का तू ही एक नाथ। तेरे विना सभी अनाथ हाय, जिनके पास तू नही, तेरी आज्ञा नही, तेरी शीतल छाया नहीं वह सत होकर भी भिखारी है। मेरे स्वामी! शासन का कोई सत तेरी शीतल छाया से दूर न रहे। । सो अहम् वह मै। कितना गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है इस "सो अहम्" मे । तीसरे श्लोक मे स्वय का परिचय देने वाला कह रहा है कि विना बुद्धि का, विना शर्म का, विना विचार का और विना शक्ति का “वह मै"।
"आचाराग सूत्र" मे निहित “सो अहम्' शब्द भी व्यापक अर्थ मे प्रज्ञापित है
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"सव्वाओ दिसाओ सव्याओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसचरइ सोऽहम्।"
-आचाराग श्रुतस्कध १, अध्ययन १, उद्देशक १ १ जो सब दिशाओं और सव अनुदिशाओ से आकर अनुसचरण करता है, वह मै
२ दूसरी व्याख्या होती है- इस परिभ्रमण या बुद्धिहीन अवस्था को जो मिटाता है, ___ वह भी मैं हूँ।
जो परिभ्रमण करता है, जन्म-मृत्यु, सयोग-वियोग, सुख-दुःख की अनुभूति करता है, वह मैं हूँ। प्रगतिमय भी मैं हूँ, पतनमय भी मैं हूँ, जो बधनो मे बधा है वह भी मैं हूँ, जो यधना से सर्वथा मुक्त हो सकता हे वह भी मै हूँ। निश्चय दृष्टि से अभी भी अनत ज्ञान-दर्शन स्वरूप मुक्तात्मा भी मै हूँ।
तुरन्त का जन्मा एक सिह शिशु एक बार एक चरवाहे के हाथ चढ़ा। उसने उसे भड़ बकरियों के समूह मे छोड़ दिया। वह सिह का बच्चा बकरियो के साथ बे-बे करना मीरा गया।घास खाने लगा, छोटे-मोटे कुदके मारने लगा, उसे कभी इस बात का पता नही चला कि वह इस रीत-भात के लिए योग्य नही है। __ एक दिन इस समूह के सामने दहाड़ता हुआ सिह आया। सब बकरियाँ भाग गई, लकिन वह सिह शिशु उस वनराज के सामने अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। देखते ही उसक मन मे कुछ अगम्य प्रश्न उठने लगे--मै कौन हूँ? मै बकरी नही, मै बे-बे करने वाला हो, घास खाने वाला नहीं, कुदके मारने वाला नहीं।
ना ना ना मैं-मैं उसमे से कुछ नहीं हूँ। तो मै कौन हूँ? - मै वही हूँ। वह सिह ही मे हूँ। वही मेरा स्वरूप है।
जोर से दहाड़ता हुआ बड़ी छलाग मार कर वह सिह के पास जाकर खड़ा हो गया और कहने लगा "तू ही मै हूँ और अत में ही मैं हूँ। यह धुन उसे लग गई।
सच्चिदानद स्वरूप आत्मा। अनतज्ञानी। अनतदर्शी। अनत चारित्री । महासतिमा। सचमुच सिह। बकरियों के समूह में फस गया। क्षुद्र याचनाओं में दीन हो ६५ करता है, विषय-कपाय की घास खाता है, जीवन के क्षणिक सुखों के लिए कुदके
नाही परमात्मा का झलकता हुआ प्रतिविम्ब उसे यह समझाता है कि इस प्रवृत्ति के तू योग्य
तथापि तव भक्तिवशात्" तयापि याने फिर भी।जैसा हूँ वैसा फिर भी “तव" तेरा
'ने प्रयुक्त विविध शब्दो के सयोग से "तव" शब्द के यहॉ तीन महत्वपूर्ण
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३२
भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
१ सोऽहम् तथापि तव बुद्धिहीन, शर्महीन, विचारहीन और शक्तिहीन वैसा मै, फिर भी तेरा हूँ। समर्पण के चरम शिखर पर पहुॅचा हुआ साधक परमात्मा से अपनी कपट रहित अवस्था मे स्व-आलोचना करता है। रागद्वेष से सर्वथा रहित सपूर्ण वीतरागदशा मे लीन परमात्मा को ऐसा कहना "मै तेरा ही हूँ” (अन्य किसी का अव हो नही सकता ) विचित्र तो लगता है परन्तु भक्ति की परमोच्चदशा में यह क्षम्य है।
?
तव भक्तिवशात् - तेरी भक्ति के अधीन हो, तेरे विशिष्ट परमार्थ भाव से प्रभावित होकर में भक्त तेरा, और मुझसे की जाने वाली भक्ति भी तेरी । यहाँ समर्पण की सर्वोच्चता का अन्तिम अभियान निखरता है।
३
तव स्तव कर्तुं प्रवृत्त - तेरी स्तुति करने के लिए तत्पर हूँ । सन्नद्ध हूँ। वृत्त याने अवस्था, दशा, प्रकृति । हे परमात्मा । मै आज प्रकर्ष भाव से, प्रमोदभाव से और प्रसन्न भाव से अपनी सासारिक अवस्था का विसर्जन कर तुझ स्वरूप मे लीन होकर निजम्वरूप को प्रकट कर रहा हूँ। तेरी स्तुति करने के लिए चित्त प्रसन्न अवस्था वाला मे तुझे पाकर धन्य हो गया।
मृगी प्रीत्या आत्मवीर्य अविचार्य निजशिशो परिपालनार्थं मृगेन्द्र कि न अभ्येति । सामान्य रूप से इसका अर्थ हे हरिणी प्राति से अपने वत्स की रक्षा करने के लिए अपन सामर्थ्य की विचारे बिना क्या सिंह का सामना नही करती अर्थात् अवश्य करती है।
उदाहरण ऐसा है एक वन के भीतर एक हरिणी अपने बच्चे को लेकर लाड़-प्यार के साथ उसे पाल रही थी। अचानक एक वनराज मिह आता है, हरिणी के बच्चो को पकड़ने का प्रयास करता है। वह हरिणी से उसके बच्चे की छीना-झपटी करता है। हरिणी अपने उच्च की रक्षा के लिए मिह का मुकाबला करती है। आचार्य श्री किसको सुना रहे थे ? मुझे नही, आपको नहीं, राजा को नहीं, विद्वान को नही, नगर जनो को नही, वे तो स्तुति कर सवे एक मात्र परमात्मा के प्रति। उन्होंने परमात्मा से प्रश्न पूछा - परमात्मन् । क्या जिस समय उस हरिणी के बच्चों को झपटने के लिये प्रयास करता है, उस समय पुरी उस बनरा का मुकाबला नहीं करेंगी ?
इस प्रकार आचार्यश्री ने इन पक्तियों में आत्मा के परमात्म स्वरूप को समझाने के सुन्दर रूपक योजना प्रस्तुत की है जैसे
एक
मृगी
हरिणी माता का प्रतीक परमात्मा
शिशी
मुन्द्र
बच्चा - आत्मा मिर-विषय-कपाय
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बन्धन ३३ । परमाला । अनादिकाल से विषय-कषाय के सिह मुझ पर (आत्मा पर) आक्रमण कर रहे हैं। ऐसी अवस्था मे हे विश्वजननी तू क्या चुपचाप देखती रहेगी और तेरा भक्तआत्मा क्या लाचार, विवश और मजबूर होकर इन विषय-कषायो का शिकार बनता रहगा? परिभ्रमण करता रहेगा? अर्थात् ऐसा नही हो सकता है। मा । तू तेरे शिशु को शीघ्र ही इस शिकारी से बचाकर परिभ्रमण से सर्वथा मुक्त कर। तुझ स्वरूप मे स्थिर कर।
इस श्लोक में प्रीति, शक्ति और भक्ति इन तीन शब्दो का अर्थ बडा महत्व रखता है। अनन्त शक्तिमान् भक्त विना परमात्मा के स्वय को शक्तिहीन मानता है। शक्ति का प्रयोग आत्मा के लिए प्रयुक्त है। भक्ति का प्रयोग परमात्मा के लिए प्रयुक्त है अत "तद मक्तिवशात्" तेरी भक्ति के प्रभाव से ऐसा शब्द प्रयुक्त है। और प्रीति शब्द मे माता-पुत्र के नह-सम्वन्ध द्वारा दोनो के लिए इसका प्रयोग किया है। यहाँ भी इस शब्द द्वारा आत्मा-परमात्मा क साधना-सम्बन्ध को दर्शाया गया है। वस्तुत आत्मा की मौलिक नायक कर्म रहित अवस्था ही परमात्म स्वरूप है। आत्मा जब अपने इस निर्विकार निर्विकल्प स्वरूप का ध्यान कर वीर्योल्लास प्रकट करती है, तब ससार के विषय-कषाय मे यह मुकादला कर सकती है। वधनों से मुक्त होती है। कर्मों से रहित होती है।
मौतर यदि वारूद भरा होगा, वाहर की हलकी सी चिनगारी भी विस्फोट कर सकती है। मीनार में विषय-कपाय जिसके नष्ट हो जाते हैं, उसे बाहर का विकारी पर्यावरण कैसे विकृत कर सकता है? इस प्रकार हे परमात्मा। तेरे प्रति रहा मेरा अनुराग ही मेरी मुक्ति का अभियान है।
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श्लोक-६-७
६.मुक्ति-बोध
बन्धन दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य-बधन और भाव-बधन। बधन आखिर बधन ही है। बधन से मुक्ति अनिवार्य हो, ऐसा हम सब चाहते हैं। पूर्व मे हमने देखा-भक्त भगवान को, आत्मा परमात्मा को अपनी भक्ति के बधन मे बाधने का प्रयास कर रहा है। द्रव्यरूप से आचार्यश्री ४८ बेड़ियो के बधन में बधे हुए थे। जिसमे से ५ बेड़ियो के बधन टूट चुके हैं, शेष वेड़ियों के बधन उनके अगोपाग पर लटक रहे हैं, लेकिन अभी तक आचार्यश्री ने कमी भी परमात्मा को इस बात के लिए उपालभ नही दिया कि-प्रभु। तेरे भक्त को ये बेड़ी के बधन क्यो? अभी तक नहीं और शायद कभी भी नही। सभी बेड़ी के बधन टूट भी जायेगे लेकिन आचार्यश्री कभी भी परमात्मा से अनुनय-विनय नही करेंगे कि मुझे बेड़ी के वधन से मुक्त कर दो। भक्ति की विवशता जब चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाती है, तब बाह्य वधन अपने आप टूटते चले जाते हैं।
यह सोचकर हमे आश्चर्य हो सकता है कि सिद्ध भूमि में विराजमान परमात्मा का क्या इतना प्रभाव हो सकता है कि उनके स्मरण से बेड़ी के बधन टूट जायें ? जो सदा स्वात्म मे स्थिर है, स्व-आनद मे लीन है, उसका मिलन क्या, मिलन का बधन क्या? आज तक जीव ने कई सम्बन्ध बाधे, कभी तो किसी सम्बन्ध ने उसे ऐसी प्रसन्नता प्रदान नही की? आत्मा-परमात्मा के बीच मे ऐसा कौन सा नाता है ? कैसा यह सम्बन्ध है ? कौनसा ऐसा प्रबल निमित्त है जो भक्त के लिए प्रेरणादायी बन जाय और मिलन से बधन तथा बधन से मुक्ति दिला दे। __ आचार्यश्री ने परमात्मा से कहा कि इन बेड़ियो से मुझे कोई परेशानी नहीं है। ऐसे चघन तो कई वार आये और आते रहे, जुड़ते रहे, टूटते रहे हैं। मुझे चिन्ता है ससार के वचन की और अब मुझे इससे मुक्ति का मार्ग भी मिल गया है और वह मार्ग है तुम्हारे पवनो में बच जाने का। जब तक भक्ति का वधन भक्त के ऊपर नहीं आयेगा, तब तक वह द्रव्य-वधनों से मुक्त नहीं हो पाता है। भक्ति का मार्ग अत्यन्त Dehcate है लेकिन यह Short Cut भी है और इसी कारण सर्वश्रेष्ठ है, जिसे अपनाकर आचार्यश्री कदम-ब-कदम आगे बढ़ रहे हैं। धीरे-धीरे परमात्मा के वधन मे अधिक वधते हुए वे इस जात को निश्चय स्थिति पर पहुंच रहे हैं जहाँ वचन भी निर्वन्ध की परिणति बन जाते हैं। निबन्द के चयन में यह एक बहुत बड़ी ताकत है, वह कभी भी हमे वधनो से मुक्त कर । मरना है। जदार्य श्री मुक्ति पय पर आगे बढ़ने के लिये, सारे वचनो को तोड़ने के लिये
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मुक्ति - बोध ३५ एक विशिष्ट दया प्रणाली में मयुक्त होते हुए परमात्मा के चरणो ने भक्ति से विवश हो घुमानमा भादा नमस्तक झुका हुआ हा अन्त करण में परमात्मा का आदान और निरिमन्त्रण की मनन माधना क द्वारा अन्नश्चतना जिनकी जागृत हो रही है, सम्यक्त्व fal जान-प्रदान सम-रूप से फैल चुका है, यधार्थ-वोधि की जिनको प्रतीति हो चुकी म आचार्यश्री म एक अभेद स्वर प्रकट होता है
अल्पश्रुत श्रुतवता परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते वलान्माम्।
यत्कोकिल किल मधा मधुर विरोति,
तच्चामचूतकलिका - निकरेकहेतुः ॥६॥ अल्पश्रुतम्
- अल्पज्ञानी, (आर) शुतवताम
- ध्रुतधरो के (आप) परिदामधाम
-- परिहास का पात्राप्रसन्नता का धाम
माम
दुर्भा एव
बलाद
मुघरी कुम्न फिल गांव
- आपकी भक्तिही - दलपूर्दक - जबरन - लिफर रही है, -- पियम - मचमुच
गपुर info
-
धुरन्धर में
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३६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
मे सोचती हूँ अल्पज्ञानी और अज्ञानियो से तो पूरा ससार भरा है। क्या परम श्रुतधर इन सवकी मजाक कर सकते हैं ? और यदि ऐसा सही है तो फिर करुणा कौन करेगा?
कोशकारो के अनुसार "हास" शब्द के दो अर्थ हैं१ हसी - मजाक, २ प्रसन्नता। विशेष मे इस पर "परि" उपसर्ग लगा है। “परि" शब्द उपसर्ग के रूप मे धातु या सज्ञाओ से पूर्व लगकर सर्वत , चारो ओर, इधर-उधर, इर्द-गिर्द, बहुत, अत्यन्त अर्थ मे प्रयुक्त होता है। अव इसके प्रयोग देखे
परि + वार-चारो तरफ से जहाँ वार होते हैं, जैसे-सुख-दुःख के, प्यार-तिरस्कार के, अच्छे-बुरे आदि से घिरा हुआ।
इसी प्रकारपरिग्रह ___ - चारो तरफ से पकड़ा हुआ, घिरा हुआ परिभ्रमण
- अत्यन्त भटकनेवाला परिक्रिया
- बाड़ लगाना परिक्रम
- प्रदक्षिणा लगाना परिचय
- जान - पहचान मजाक के अर्थ मे "हास" शब्द के पूर्व "उप' उपसर्ग प्रसिद्ध था। धीरे-धीरे "परिहास" शब्द भी इसी अर्थ में व्यापक हुआ, वरना दोनो उपसर्ग अपने अलग-अलग रूप मे ही व्यापक हैं और दोनो के अर्थ मे अन्तर भी है।
जैसे परिहार-उपहार। यहा परिहार याने छोड़ना-तिलाजलि देना है और उपहार याने आहुति-भेटादि। परिक्रम-उपक्रम। परिक्रम याने चारो ओर घूमना, प्रदक्षिणा करना और उपक्रम आरभ-शुरू करना।
इन सबको देखकर यहाँ "हास" शब्द प्रसन्नता वाचक मानकर परि उपसर्ग लगने से "सर्वत प्रसन्नता के पात्र" ऐसा अर्थ अधिक उचित लगता है। और इस प्रकार परमात्मा से अभिप्रेत होकर पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार होता है
(आप परम वीतराग हो) अल्पज्ञानी और श्रुतधर (इन सव) के आप सर्वत प्रसन्नता के (अनन्य) पात्र हो, अत है प्रमु सचमुच तुम्हारी भक्ति मुझे हठात् मुखरित करती है।
ममा में कही भी जायेगे-कोई किसी न किसी रूप मे दुखी है, कोई किसी न किसी में तकलीफ पा रहा है। पाम स्वरूप ही ऐसा है, जिसके चारों तरफ केवल आनन्द ही आनद है, प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। आप "लोगम्स" में बोलते हो-"तित्थयरा मे पनीयन्तु। नोयंकर मुझ पर प्रसन्न होओ। उनकी प्रसन्नता, उनका आनन्द प्रसाद हम मप्रान ही नीचे देखो,ऊपर देखो, मुख पर देखो, चरण देखो, उनकी वाणी देखो,
मायादेवा, उनके दि देवो, जो भी देखोगे, जहाँ मी देखोगे वही प्रसन्नता
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मुक्ति- वोध ३७ पा आगे| आर यदि उनका स्मरण करके प्रसन्नता नही मिलती है तो समझ लेना कि हमारी भक्ति में कहीं न कही कमी है।
"चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु पूजा अखंडित एह रे"
उक्त स्तवन का एक ही फलितार्थ है कि व्यक्ति मे कहीं न कही चित्त की प्रसन्नता प्रस्फुटित होनी चाहिये।
परमात्मा प्रसन्नता के धाम हैं और हम उनसे प्रसन्न होना चाहते हैं । प्रसन्न का स्मरण फरंग तो हमे प्रसनता मिलेगी। दुखी का साथ करेंगे तो दु ख मिलेगे। प्रसन्नधामका साथ करेंगे तो प्रसनता अपने आप मे प्रस्फुटित हो जायेगी। यह बात निश्चित है कि परमात्मा की प्रसन्नता हमका नही मिलती है। हम मे ही प्रसन्नता है। यह प्रसन्नता प्रसन्न-धाम के पास पहुंच करके सम्पूर्ण अनावृत हो सकती है।
जग कहते हैं-"माम् त्वद्भक्तिरेव बलात् मुखरीकुरुते " मुझे तुम्हारी भक्ति ही "बलात्" याने जवरदस्ती " मुखरीकुरुते" याने वोलने के लिये विवश कर रही है। "माम्" याने मुझ । “माम्” कहने वाले सिर्फ मानतुगाचार्य नहीं, सिर्फ दिव्यप्रभा नही, नाम करने वाले आप सब हो सकते हो। याद रखिए, इसके शब्दो के निर्मित अर्थ मे वध नाजोगे तो भक्तामर आपको आज नही, कभी भी नही मिल सकेगा। लेकिन भावो से एकरूपता स्थापित करोगे तो भक्तामर आप मे आज भी जीवत हो उठेगा। आचार्यश्री ने 'मामू" शब्द को रखकर सब भक्तजनो को अपने साथ कर लिया है। उन्होने यह समझाया कि "माम्" याने मुझे। "मुझे " से मतलब जो भी "भक्तामर " का स्तवन करेगा उनको "त्वद् भक्तिरेव" तुम्हारी ही भक्ति, और किसी की नही । "बलात् मुखरीकुस्ते" जबरदस्ती वाचाल करती है।
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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
"मुखरीकुरुते " चाहता तो हॅू मौन रहकर तेरी आराधना करूँ परन्तु बलात् मेरी वाचा प्रकट हो रही है। परमात्मन् ' मै न तो बोलता हूँ, न गाता हॅू लेकिन मेरे से जवरदस्ती बोला जा रहा है।
३८
पूर्व में हमने देखा था - भक्त विवश हो रहा था लेकिन विवशता की एक सीमा होती है । विवशता मिट जाती है लेकिन बलात् असीम होता है।
इस प्रकार "बलात् " शब्द भक्ति को एक चरम सीमा तक ले जाता है ।
१ " बलात् " शब्द का प्रयोग कर आचार्य श्री यह कहना चाहते हैं कि ऐसे तो मौन रहकर ही तुम्हें मना सकता हूँ परन्तु तुम्हारे प्रति रही हुई भक्ति बलात् ही मुझे मुखरित कर रही है।
२ तू वीतराग है, अनुपम है, तू तुझ मे ही लीन है, तू चाहने न चाहने के सारे द्वन्द्वो से भी मुक्त है, फिर भी मैं बलात् ही तुझे अपने हृदय मे बाध रहा हूँ।
o आचार्य श्री एक बहुत सुन्दर दृष्टात बताते हैंयत्कोकिल किल मधी मधुरं विरौति ।
तच्चारुचूतकलिका - निकरैकहेतु ॥
जैसे आम्रवृक्ष के ऊपर जब मजरी आती है तब मजरी के उस समूह को देखकर कोकिल पक्षी कूजना शुरू कर देता है और वह समय मधौ याने वसन्त ऋतु का होता है। कोकिल को कौन कहने जाता है कि अब वसन्त ऋतु आ गई है, लेकिन आम्र-मजरी को देखकर कोकिल समझता है कि वसन्त ऋतु आ गई है।
ओ आनन्द के धाम' आपकी पूर्ण वीतरागता से मै अपनी निज स्वाभाविकता को अभिप्रेरित कर रहा हूँ। सर्वतः प्रसन्न तेरी शान्तमुद्रा को हृदय में स्थापित कर चित्त को प्रसन्न कर रहा हूँ ।
ससार के इस सम्यक्त्व उपवन मे मेरे जीवन की धर्म वसन्त पुरबहार खिल रही है, मै कितना भाग्यशाली हूँ। तुम तो पचम काल में मेरे सामने साक्षात् हो रहे हो और भक्तिबल से मैं प्रत्यक्ष स्तुति कर रहा हूँ। पचम काल मे ऐसी परमार्थ भक्ति एव आत्मानुभव धर्म का यह कैसा मधुर मौसम है ।
आपके सद्गुणो की, वीतरागभावो की, आत्मिक प्रसन्नता की मजरियाँ देखकर मेरा आत्म-कोकिल कूक उठता है, कुहुकता है । मेरी कूफ है मुक्ति की । परमात्मन् । इस कूक मे कूक मिल जाये, मिलन का बघन हो जाय और बधन की मुक्ति हो जाय ।
अब मैं तेरे बधन में बँध गया। अपने कर्मों की, अपने पापो की, अपनी जन्म-परम्पराओं की मुक्ति का अभिप्रयोग मागता हूँ। ऐसे परार्थ भाव मे लीन आचार्यश्री के भीतर से वाणी प्रस्फुटित होती है।
त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्ध, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
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मुक्ति - वोध ३९ आक्रान्तलोकमलिनीलमशेपमाशु,
सूर्याशुभिन्नमिव शावरमन्धकारम्॥७॥ त्वत्मातवन - आपके स्तयन में नगरपाजाम - दहधारी जीवो का-प्राणियो का भवन्ततिमप्रियम् - परम्परागत भयभवान्तरां से वघा हुआ पापम
- पापकर्म साझान्नलाम् - समात लोक में फैले हुए-ससार भर में व्याप्त अलिनालम
- प्रमर के समान काला मूर्या मित्रम - मूर्य की किरणों से छिन्न-भित्र (लुन) किया हुआ शावरम
- गतिविपयक-रात्रि में होने वाले अपाम
- अन्धकार के
- ममान अरोपम
- मद का मद सणात
-- क्षण भर में-शीघ्रातिशीघ्र सयम
-- दिशाशको -पहाजाना ह।
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४० भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि होता है, परम्परा। पाप कैसे हैं तो कहते हैं कि सतति रूप। ससार मे स्त्री-पुरुष बध्य हो सकते हैं लेकिन पाप कभी बध्य नही हो सकते हैं। एक पाप दूसरे पाप को, दूसरा पाप तीसरे पाप को लाता ही जाता है। पाप की अपनी एक विशिष्ट परम्परा है और उस परम्परा का विच्छेद करना है। परमात्मा के सिवाय यह कैसे सभव है?
व्यक्ति जब दुःखी होता है तब सोचता है, मुझे दुःख क्यो आया? एक बात निश्चित है कि कोई किसी को दुःख नही दे सकता है। ___हमारे कर्म अशुभ हो तभी हम दुःखी हो सकते हैं। दुःखी होते हैं कर्म से, लेकिन कर्म कौन देता है ? क्या हमे कोई जबरदस्ती कर्म देता है ? नही न। तो फिर कर्म कहा से आते हैं ? तो कहते हैं-पाप से कर्म आते हैं। हमारी गलती यह है कि हम दुःख हटाने का प्रयास करते हैं लेकिन पाप हटाने का प्रयल नही करते हैं। हमारी पाप की फैक्ट्री सतत चालू रहती है। पाप आते हैं, कर्म लाते हैं, कर्म आते हैं, दुःख लाते हैं। इसलिये आचार्यश्री ने परमात्मा से दुःख का नाश नही मागा किन्तु पाप का नाश मागा। देखिए, कितना सुन्दर आयोजन बताया उन्होने। ऐसा कभी नही कहा कि तेरे जैसा भगवान मेरे साथ हो और मुझे कोई राजा बेड़ियों मे बाध दे? उन्होने ऐसा भी नही कहा कि तू आकर के इन बेड़ियो को तोड़ दे।
पाप तो अनादिकाल से हैं। इन्हें तोड़ने के लिये कितने घटे चाहिये- ४ घटे, ८ घटे, १२ घटे।
हमारे पास वैसे तो कोई शक्ति नही है कि अनादिकाल के पापो को क्षण भर मे तोड़ सके, लेकिन क्षण भर में अनादिकाल के पापो को बाध सकते हैं, यह ताकत हम मे अवश्य है। इस ससार को क्षण भर मे बाध सकते हैं इतनी ताकत तो हम मे है, लेकिन अनादिकाल से सलग्न ससार को क्षण भर मे तोड़ने का बल हम मे नही है।
आचार्यश्री कह रहे हैं-अनादिकाल के पापो का क्षण भर मे नाश हो सकता है। हम आचार्यश्री से प्रश्न पूछेगे कि जो अनादिकाल से पाप करते आये हैं, उनको क्षण भर मे कैसे तोड़ सकते हैं? यह कैसे सभव हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्यश्री ने आगे की पंक्तियो मे दिया है
आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु
सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्॥ एक बहुत सुन्दर उदाहरण द्वारा आचार्यश्री यहाँ समाधान
सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त भवरे जैसी अमावस्या की काली हटाने के लिये कितने घटे चाहिये? १२, १५ घटे के अधकार को सर मे नष्ट कर देती है। उसी प्रकार अनादिकाल के पाप • कृपा रूपी किरण के द्वारा क्षणमात्र मे नष्ट हो सकते हैं।
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मुक्तिबोध ४१ प्रथम श्लाक में परमात्मा के लिए एक विशेषण का प्रयोग किया गया "उद्योतकम् " - उद्यात करनेवाले, प्रकाश करनेवाले। जो प्रकाश करता है, आलोक जगाता है वह इन्कार को तोड़ता है, अत प्रथम श्लोक मे कहा है “दलितपापतमो वितानम्" पाप के सर का नाश करनेवाले। आप ध्यानपूर्वक देखेगे तो इस श्लोक मे उस विशेषण का पाथ यहाँ पाओगे।
अब यहाँ आग“सूर्य अशु भिन्न” शब्द है । अशु का मतलब होता है किरण। सूर्योदय ॐ पहल उजाला शुरू हो जाता है। उसके बाद सूर्योदय होता है। करीब-करीब हमारे यहाँ उन उजाल की २४ मिनट की मर्यादा मानी गई है। अत कहते हैं-सूर्य की किरणे निकलने के माथ ही अधकार को क्षण भर में छिन्न-भिन्न कर देती हैं, भेद कर देती हैं, तोड़ देती हैं और अधकार को प्रकाश में परिवर्तित कर देती हैं।
इमालिए कहा है- " भत्तीइ जिणवराण खिष्पति पुव्वसचिया कम्मा" परमात्मा के • वन से दह और आत्मा मे रही हुई अभेद बुद्धि छिन्न-भिन्न हो जाती है। इसे ही भेदविज्ञान करते हैं। यह दह मेरे से सर्वथा भिन्न है। बेड़ियो के बघन तो देह पर लटक रहे हैं। न देह 11 है, न में देह का हूँ। देह में उत्पन्न कोई भी अवस्था मेरी नहीं है।
इस भेद विज्ञान से अनादिकाल का मिथ्यात्व टूटता है, सम्यक्त्व प्रकट होता है। जब
पर आत्मा में भेद बुद्धि प्रकट होती है, देह का अध्यास छूटता है तब आत्मा का
दर्शन स्वरूप प्रकट होता है। कहा है
ち
"छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म,
नहीं भोक्ता तू तेहनो एज धर्म नो मर्म ।
एज धर्मथी मोक्ष छे तू छे मोक्ष स्वरूप,. अनत दर्शन ज्ञान तू अव्याबाध स्वरूप” ॥ 'अमनिद्धि" में कहा है
*ट दर्द नु स्वप्न पण जागृत थता समाय,
तन विभाव अनादिनो ज्ञान घता दूर थाय ।
अ कि दर्दों का स्वप्न जगने पर क्षणभर मे ही टूट जाता है। उसी प्रकार ज्ञान होते ही * दे काल की विभाव पर्याय, देह में रही हुई आत्मबुद्धि क्षणभर मे ही दूर हो जाती है। श्री निापतिसूरिजी महाराज ने “किकर्पूरमय स्तोत्र” बनाया है जिसके अन्तर्गत एनीहरण प्रस्तुत किये हैं
--
विश्वव्यापितमो हिनस्ति तरणिर्दालोपि कल्पाङ्कुरो ।
शरिद्रयाणि गजावली हरिशिशु काष्टानि वन्हे कण || (श्लोक ६ ) कारण तुरत का प्रति सूर्य भी क्षणभर में नाश कर सकता है।
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। ७.प्रारम्भ
प्रारम्भ की श्रेष्ट होता है जिसमें पूर्णाहुति निहित हो। जिस प्रारम्भ से सफलतापूर्वक
हो सकता है, उस प्रारम्भ से हमाग कोई सम्बन्ध नही होता। जिस प्रक्रिया के ग मानना का मकन मिलता हो उसी का हम अपने जीवन में प्रयोग करते हैं, जिस मानि गहने सफलता दृष्टिगोचर होती हो उसके लिए हम प्रयल करते हैं।
आटव श्लोक का प्रारभ भक्तामर स्तोत्र का प्रारम्भ है। आठवे श्लोक का प्रारभ भक्त मटान के मिलन का प्रारभ है। आठवें श्लोक का प्रारभ हमारे निज स्वरूप की पहचान
गरम और आटवे लाक का प्रारभ हमारी अनादि काल की जो खोज चल रही है म पूर्ण उपलब्धि का प्रारभ है। इस प्रकार यह श्लोक दहुत महत्व का श्लोक है। ७ "पासक परमाला के साय भेद रहा है। मे अलग हूँ, परम स्वम्प मुझ से अलग है। ", "द तक अलगाव हैं तद तक हम जिस पूर्णाहति की आकाक्षा करते हैं वह परिपूर्ण " मम दम आकाक्षा के माय अनुरा। और अनुराग के साथ उपलब्धि, ये हमार्ग
मार्धकता।
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४२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि २. कल्पाकुरो दारिद्र्याणि - कल्पवृक्ष का अकुर मात्र भी दारिद्र्य का नाम
कर सकता है। ३. गजावली हरिशिशु सिह का बच्चा भी गजपंक्ति का नाश क
सकता है। ४ काष्ठानि वन्हे कण. अग्नि का कण भी काष्ठ समूह का नाश क
सकता है। ५ पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहे - अमृत की एक बूंद भी रोग समूह का नाश क
सकती है। यद्वत्तथा
उसी प्रकार विभो ते मूर्ति
परमात्मा तेरा स्वरूप त्रिजगति कष्टानि - तीनो जगत के कष्टों का हतु क्षम
- नाश करने में समर्थ है। यह तो वैधानिक सिद्धान्त है कि जहॉ तू आ गया, तेरा स्तवन आ गया, तेरी भक्ति हे गई वहाँ अनादि काल के, जन्म-जन्म के, भव-सततिरूप सन्निबद्ध पाप क्षण मे ही क्षय के प्राप्त होते हैं। हे परमात्मन् । जिसका आत्मा रूपी कोकिल कूजेगा उस कूज मे तेरी कृपा के कूज मिल जायेगी, मिलन का बधन हो जायेगा, बधन मे मुक्ति का मार्ग मिल जायेगा। इस मार्ग पर हमारे कदम बढ़ते जायेगे और मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत होता जायेगा। अगले रविवार को वास्तविक स्तोत्र की भूमिका का प्रारभ हो रहा है।
मुनिश्री परमात्मा के साथ Adjust हो गये, Agreement हो चुका है, भक्तपरमात्मा से बध चुका है, बंधन से मुक्ति का मार्ग मिल गया है। अब मुक्ति मार्ग पर प्रयाण के प्रारभ को हम आठवे श्लोक के द्वारा हम मे अनुस्यूत करेंगे।
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___ ४२ भक्तामर स्तोत्र . एक दिव्य दृष्टि २ कल्पाकुरो दारिद्र्याणि - कल्पवृक्ष का अकुर मात्र भी दारिद्र्य का ना
कर सकता है। ३. गजावली हरिशिशु - सिह का बच्चा भी गजपंक्ति का नाश क
सकता है। ४ काष्ठानि वन्हे कण
अग्नि का कण भी काष्ठ समूह का नाश क
सकता है। ५ पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहे - अमृत की एक बूंद भी रोग समूह का नाश क
सकती है। यद्वत्तथा
उसी प्रकार विभो ते मूर्ति
परमात्मा तेरा स्वरूप त्रिजगति कष्टानि - तीनो जगत के कष्टो का हर्तु क्षम
- नाश करने में समर्थ है। यह तो वैधानिक सिद्धान्त है कि जहाँ तू आ गया, तेरा स्तवन आ गया, तेरी भक्ति गई वहाँ अनादि काल के, जन्म-जन्म के, भव-सततिरूप सन्निबद्ध पाप क्षण मे ही क्षय व प्राप्त होते हैं। हे परमात्मन्। जिसका आत्मा रूपी कोकिल कूजेगा उस कूज मे तेरी कृपा व कूज मिल जायेगी, मिलन का बधन हो जायेगा, बधन मे मुक्ति का मार्ग मिल जायेगा। इ मार्ग पर हमारे कदम बढ़ते जायेगे और मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत होता जायेगा। अगर रविवार को वास्तविक स्तोत्र की भूमिका का प्रारभ हो रहा है।
मुनिश्री परमात्मा के साथ Adjust हो गये, Agreement हो चुका है, भक्तपरमात्मा से बध चुका है, बधन से मुक्ति का मार्ग मिल गया है। अब मुक्ति मार्ग पर प्रया के प्रारभ को हम आठवे श्लोक के द्वारा हम मे अनुस्यूत करेंगे।
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४४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि सता
- सत्पुरुषो के, सज्जन पुरुषो के चेत हरिष्यति - चित्त को हरण करेगा ननु
- निश्चय से उदबिन्दु
- जल की बूंद नलिनीदलेषु - कमलिनी के पत्तो पर मुक्ताफलद्युतिम् - मोती की कान्ति को उपैति
- प्राप्त करती है। सर्वश्रेष्ठ सम्बोधन "नाथ।" शब्द के द्वारा यहॉ परमात्मा के मिलन का प्रारभ हो रहा है। नाथ शब्द रखकर भक्त अपना सर्वस्व समर्पित कर रहा है। हे नाथ! तेरे बिना अभी तक मै अनाथ था, तुझे नाथ कहते ही मेरी अनाथता समाप्त हो गई और नाथत्व प्रकट हो गया, क्योंकि नाथ ही नाथ बनाता है, अनाथत्व मिटाता है।
प्रारभ मे “इति मत्वा" शब्द भी अत्यन्त महत्वपूर्ण सम्बन्ध को प्रस्तुत करता है। "इति" याने "ऐसा" और "मत्वा" याने "मानकर"।"ऐसा मानकर" कहते ही प्रश्न उठता है "कैसा मानकर?" इस प्रश्न का उत्तर ऊपर के सात श्लोको से ही अभिव्यक्त होता है। आत्मा-परमात्मा के पूर्व सम्बन्ध का संकेत सुदृढ़ कर यह शब्द समापत्ति की योजना को अनावृत करता है।
पूर्व नियोजित सात श्लोको मे मेरा और आपका मेरे द्वारा माना हुआ सम्बन्ध इस प्रकार है। आप मेरे लिये
१ उद्योत करने वाले, २ घने अधकार रूप पापो के विस्तार का नाश करनेवाले, ३ ससार रूप समुद्र मे गिरते हुए प्राणियो के परम आलम्बन, ४ देवेन्द्रो द्वारा सस्तुत, ५ जिनका चरणासन विबुधो द्वारा अर्चित है, ६ गुणो के सागर हैं, और ७ आपके स्तवन से अनादिकालीन परम्परा का सर्जन करनेवाले पापो का क्षण मे
ही नाश होता है।
मै स्वय को आपका १ निश्चय से स्तुति करनेवाला (ऐसी प्रतिज्ञावाला) २ बिना बुद्धि का ३ बिना लज्जा का ४ स्तुति करने के लिए समुद्यत मतिवाला
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४६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि मोती की शोभा को प्राप्त होती है वैसे मेरे मुख से निकले ये शब्द स्तवन की शोभा को प्राप्त होते हैं।
ननु याने निश्चय से यह तेरे "चेतो हरिष्यति" चित्त का हरण करेगा ही। क्योकि तुझे ही सुनाने को, मनाने को यह स्तवन कर रहा हूँ।
जहाँ भाव होता है वहाँ प्रभाव होता है। ऐसी विशिष्ट उपलब्धि से वंचित सामान्य व्यक्ति इस परिस्थिति से अनभिज्ञ होने से इसका अनुभव नही कर पाता है और इसी भ्रान्तिपूर्ण मिथ्यादृष्टि से वह इसे ही गलत भी मान सकता है। ऐसी एक सफल मानसदशा की विलक्षण अभिव्यजना हम भाव-प्रभाव नामक प्रवचन मे गाथा ९ के द्वारा प्राप्त करेंगे।
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इन्क - ९
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८. भाव-प्रभाव
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द्रव्य एक महज एवं स्वाभाविक तत्त्व है। द्रव्य का आना, द्रव्य का होना, द्रव्य का द्रव्य का द्रव्य से सम्बन्ध बनना यह बहुत स्वाभाविक होता चला जा रहा है। काल व्यतीत चुके हैं लेकिन हम यह देख रहे हैं कि द्रव्य घटनाओ को उद्वेलित है और घटनाएँ हजारों भावों को उभारती हैं। भावकर्म हमारी अपनी ही
चनरूप है। ये भाव हमें स्वभाव से विभाव मे परिवर्तित करने का प्रयत्न इस समय घटनाओ के निमित्त से ही आत्मद्रव्य की पहचान कर निजभाव और माय द्वारा भीतर से घटनातीत होने की कला हमें भक्तामर स्तोत्र से उपलब्ध
۲۰۰۴ ۱
द द्रव्य, भक्ति भाव है और स्तवन से टूटना प्रभाव है । द्रव्य से भाव वडा है और २ प्रभाव यहा है। द्रव्य की कोई कीमत नहीं होती । चन्दनवाला के उड़द के वाकुले नृत्य था, लेकिन चन्दना के भाव मूल्यवान थे और उन भावो से भी बढ़कर प्रभाव था। इस प्रकार द्रव्य की अपेक्षा भावो का और भावो की अपेक्षा अधिक है।
और प्रभाव के इस महत्त्व को आचार्यश्री ने बहुत अच्छी तरह से समझाते हुए
आस्ता तव स्तवनमस्त- समस्त-दोष, त्वत्सकथाsपि जगता दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ ९ ॥
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४८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
दुरितानि -- पापो को, अपराधो को हन्ति
- हनन करती है, नष्ट करती है सहस्रकिरण - सूर्य
- दूर (है फिर भी उसकी) प्रभा एव
-- कान्ति ही पद्माकरेषु - सरोवरो मे जलजानि
- कमलो को विकासभाजि - विकसित, प्रफुल्लित कुरुते
- कर देती है। दूर-दूर आकाश मे रहा हुआ सूर्य किरणो को सर्वत फैलाता है। उनमे से कुछ किरण सरोवर के बन्द कमलो को खोल देती हैं। इस उदाहरण द्वारा यहाँ परमात्मा के प्रभाव की अद्भुतता प्रकट की गई है।
हे परमात्मा! तेरे भक्ति प्रभाव के कारण यह तेरा स्तोत्र शब्द, अर्थ, रचना और भाव आदि समस्त सम्बन्धित दोषो से रहित हो रहा है, समस्त दोषो का अस्त हो रहा है। भाषा-लालित्य, भाव-प्रधानता, तत्त्व-दुर्बोधता आदि अनेक कारणो से तेरा स्तवन सुगम्य नहीं हो सकता है। फिर कइयो को भक्ति रस के आस्वादन का भी बोध नही होता है। इन सभी दृष्टिकोणों से तेरा यह निर्दोष स्तवन कितना आस्वाद्य और आह्लादजनक हो रहा है। इसका महत्वपूर्ण कारण मेरे ऊपर तेरा अभूतपूर्व प्रभाव है। ___ स्तवन की इन सुगम्यता से अनभिज्ञ यदि तेरी अनुभूत जिदगी के प्रसगो का चिन्तन करे तो भी वह सर्व दुरितो से मुक्त हो सकता है। क्योकि, तत्त्व को पृष्ठभूमि मे रखकर समत्व द्वारा प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थितियो को तुने अनुकूल बनाली है। इसी विशेषता से ही तू सृष्टि का महान तत्त्व है। __ सामान्य व्यक्ति तत्त्व की अगम्यता के कारण अनुकूल को प्रतिकूल बनाता है। तून प्रतिकूलताओ को अनुकूल बनाकर चेतना का विस्तार और विकास किया। तू सिद्धलोक मे मुझसे सात राजुलोक दूर है। अजर, अमर, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अकषायी
और अकर्मी है। तेरे गुणो की स्तुति करने वाला मै इस मृत्युलोक पर जन्म-मृत्यु का महायात्रा के चक्कर काट रहा हूँ, फिर भी तेरे स्तति-गान और जीवनकथा-श्रवण का यह अचिन्त्य प्रभाव है कि मेरे पाप-कर्म और अनिष्टो का नाश हो रहा है।
भक्त के हृदय की भक्तिभावपूर्वक की उर्मियॉ, स्पदन, तरगे (Vibration) तेरे निरजन, निर्लेप, चैतन्य, सिद्धावस्था तक पहँचकर तेरे वीतरागत्व का स्पर्शकर इस आत्मकमल को विकसित करती हैं। इस प्रकार तू दूर भी है परन्तु तेरी कृपा किरण मर आत्म-कमल को विकसित करती है।
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५० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
कमल
भक्तात्मा
पानी की बूँदे
शब्द
मोती
स्तवन - स्तोत्र
यहाँ बेड़ी का बधन आ जाना द्रव्यस्थिति है । उस द्रव्यस्थिति में घटनाओ के द्वारा स्वय को विचलित न होने देना, स्वय में स्थिर रहना तथा परमात्मभाव मे एकाग्र रहना भाव है। भाव जब परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करते हैं तब परमात्मा के प्रभाव से बेडियो के बन्धन टूटते हैं। वर्तमान युग मे हमारी स्थिति ऐसी विचित्र है कि हम परमात्मा के प्रभाव को चुनौती देते हैं, परन्तु स्वय के भावो का कोई भरोसा नही है। बिना भावो का प्रभाव सभव नही है।
इन्ही प्रभावो को मुख्य लक्ष्य बनाकर हम भक्तामर स्तोत्र का मूल्याकन या आराधन करते हैं। भावो का अभाव प्रभाव के उद्देश्यो को पूर्ण नही कर पाता है। इसी अधूरेपन से कभी अधीरता बढ़ती है, कभी टूटती है। ऐसा अद्भुत स्तोत्र प्राप्त होने पर ऐसा क्यो होता है ? इस आश्चर्य का उत्तर श्लोक १० के द्वारा समझने का प्रयत्न करेंगे।
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श्लोक-१०
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घटनाओं का होना बहुत स्वाभाविक है केवल आचार्यश्री पर ही नही, हम सबके ऊपर घटनाओं का नहीं आना ससार का एक आश्चर्य है, घटनाओं का आ जाना ससार की एक स्वाभाविकता है। ससार का कोई भी प्राणी, कोई व्यक्ति, कोई जीव ऐसा नहीं होगा जिसके ऊपर घटनाओं ने कभी प्रहार न किया हो। __घटनाओं मे घटनातीत रहना ससारियों के लिये आश्चर्य है। इसी कारण आचार्यश्री की वेड़ियों का टूट जाना हमारे लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य हो गया। जो हममें नहीं होता
और किसी विशेष मे वह हो जाना, आश्चर्य है। ___आश्चर्य को विशेष परिप्रेक्ष्य मे देखने पर हमें अद्भुतता प्राप्त होती है, वह यह कि आश्चर्य आचार्यश्री को भी धा और आश्चर्य तत्समय उपस्थित जनसमुदाय को भी था। लेकिन दोनों के आश्चर्य में बड़ा Differencc धा, अन्तर था। लोगों को आश्चर्य था विना साधनो के अनायास वेड़ियो के बंधन टूटने का और आचार्यश्री को आश्चर्य था परमात्मा के वीतराग दर्शन का। वीतरागी का वीतरागत्व रागी के लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य होता है। ___अधिकाश बाल-जीव परमात्मा की वाह्य विभूति से प्रभावित होते हैं और इस विभूति को देखकर इस प्रकार सोचते हैं कि हम उनको नमस्कार करेंगे तो हमें भी ऐसी विभूति प्राप्त होगी। इस वाह्य विभूति से परमात्मा का महत्त्व समझना हमारी सबसे बड़ी भ्रान्ति है। क्योंकि. परमात्मा की आन्तरिक विभूति उनका सबसे बड़ा वैभव है। सर्वश्रेष्ठ विभूति इस ससार की हमारे अरिहन्त और सिद्ध के पास होती है और वह है उनका वीतरागत्व। हमारा यह सबसे बड़ा सौभाग्य है कि सबसे पहले वीतरागता का दान, वीतरागता की समझ, वीतरागता के ख्याल, वीतरागता के सिद्धान्त और वीतराग बन जाने का सन्मार्ग हमे परमात्मा ने प्रस्तुत किया।
गौतम स्वामी ने परमात्मा महावीर से एक दार पूछा था-हे परमात्मन् । आप परमात्मा दन गये, हम सदको उपदेश देते हैं, लेकिन हम भी कभी परमात्मा दन सकते हैं क्या? परमात्मा ने कहा-दनना और होना इन दोनों में दड़ा Difference है। कोई परमात्मा दनता नहीं है,परमात्मा हो जाता है। तुम स्वय परमात्मा हो। आत्मा से परमात्मा हो जाना, अपने ही स्वभाव में आ जाना है।गौतम जिसने आत्मा का इस दाह्य वातावरण के साथ अभेद कर रखा है उसे शरीर पर होने वाली क्रियाओं की भावात्मक प्रतिक्रिया होती है। वह सारी देह पर्याय को आत्माम्प मानकर देह-स्वभाव को आत्ल पद में आरोपित करता है। परमाला पद याने इन भावात्मक प्रतिक्रियाओं से रहित हो जाना है।
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५२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
हम परमात्मा की आराधना इसलिए करते हैं कि-हम सतत राग और द्वेष से भरे हुए हैं। हमने कभी उनके जैसा वीतरागत्व का अनुभव नही किया। वीतराग अच्छे लगते हैं लेकिन वीतरागपना किसी को नही भाता है। परमात्मा ने कहा-राग और द्वेष को छोड़े बिना किसी का मोक्ष नही होगा। इस वीतराग धर्म की अंतिम शर्त है-राग और द्वेष का त्याग करो। ___ एक आश्चर्य हमें यह भी हो सकता है कि आचार्यश्री को बेडी के बधन क्यो आये? कितने पुण्यवान होते हैं सत, कौन उनको बेडी मे बाँध सकता है ? आचाराग सूत्र में कहा है-“एस वीरे पससिए जे बद्धे पडिमोयए" अर्थात्-वही वीर प्रशंसित होता है जो बद्ध को मुक्त करता है। हर समय वह यही सोचता है कि मै किस मार्ग पर चल कर बधनों से मुक्त हो जाऊँ और अन्यो को बन्धनो से मुक्त करूँ। जिसने सर्वथा सतत बधनो से मुक्त होने के लिये प्रयास किये उनको क्यो बेड़ी के बधनो मे बाधे गये?
इस विशेष आश्चर्यजनक घटना का प्रभाव शक्रेन्द्र पर पडता है और शक्रेन्द्र का आसन चलायमान होता है। वे आचार्यश्री के पास आते हैं। नमस्कार की मुद्रा मे उनके पैर पकड़ लेते हैं।
स्पर्श का अनुभव कर आचार्यश्री ने कहा-“कौन हो तुम?"
उन्हे ने कहा-"मैं परमात्मा महावीर का भक्त हूँ। उनके शासन का प्रेमी हूँ, उनके । सतो का दास शक्रेन्द्र हूँ।"
"तुम किसलिए यहाँ आये हो?
"मै जैन शासन का चमत्कार बताने के लिये, आपकी बेड़ी के बधन तोड़ने के लिये और आपके अरमानो को पूर्ण करने के लिये।" ___ "क्या तुम मेरे अरमानो को पूर्ण करोगे और शासन का चमत्कार बताओगे? शासन तो अपने आप मे स्वय चमत्कारिक है और हर समय रहेगा, उसका चमत्कार बताने वाले तुम कौन हो, शासन स्वय परमात्मा देवाधिदेव से प्रभावित है।"
"भन्ते। मैं तुम्हारी बेडी के बधन तोडना चाहता हूँ।"
"लेकिन बेड़ी के बधन क्यो आये शक्रेन्द्र ? इसके कारण को देखो ना कोई किसी को बेडी के बधन में नही बाध सकता। कहा भी तो है
"शु करवाथी पोते सुखी, शु करवाथी पोते दुःखी।
पोते शु क्याथी छे आप, तेनो मागो शीघ्र जवाब ॥" हम सुखी और दुखी क्यो होते हैं, इसका उत्तर किसी से मत मागो, अपने आप मे ढूँढ़ लो। यदि तुम यह समझते हो मुझे कोई दुःख दे रहा है लेकिन किसी की ताकत नही कि
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आश्चर्य ५३ आपको दुःख दे सके। किसी की ताकत नहीं कि आपको सुख दे सके। सुख और दुख के सम्पूर्ण उत्तरदायी तुम स्वय हो। स्वय के कर्म के प्रभाव से सुख और दुःख की अनुभूतियाँ जीवन में प्रकट होती हैं और इन अनुभूतियों को समझकर उसके साथ सामञ्जस्य स्थापित करना जीवन की कला है।
दुख का कारण दूसरे को मानना यह हमारी सबसे बड़ी भ्रान्ति है। कोई भी व्यक्ति, परिस्थिति, वस्तु या अवस्था हमारे सुख-दुःख के कारण नही हो सकते हैं। अनुकूलता का अनुभव सुख है और प्रतिकूलता का अनुभव दुःख है, परन्तु यह तव जब हमारा अनुभव बाह्य पर्यावरण तक आश्रित हो। अनुभव जव निजस्वरूप का भोक्ता हो जाता है, सुख-दुःख का द्वन्द्व टूट जाता है, भ्रान्ति और भय मिट जाता है। माने जाने वाले सुख-दुःख के कारण हम स्वय ही है, हमारे कर्म हैं।
शक्रेन्द्र, बेड़ी के वधन इसलिए आये क्योंकि मेरे साथ कर्मों के वधन निहित थे। जहाँ कर्मों के वधन हैं वही वेड़ी के वधन हैं, जैसे ही कर्मों के वधन टूटते हैं वैसे ही वेड़ी के वधन अपने आप टूटते जाते हैं। यदि आप मेरी सेवा ही करना चाहते हो, कुछ तोड़ना ही चाहते हो तो बेड़ी के वधन नहीं, मेरे कर्मों के बधन तोड़ दीजिए।
शफ्रेन्द्र ने कहा-भन्ते । ससार मे ऐसा कौनसा व्यक्ति है जो किसी के कर्म के वधन को तोड़ सकता हो? क्या कोई व्यक्ति, क्या कोई तत्त्व ऐसा आपने देखा है ? किसी के भी कर्मों को कोई भी नहीं तोड़ सकता। स्वय के कर्मों के बधन स्वय को ही तोड़ने पड़ते हैं।
भन्ते । मैं देड़ी के वधन को तोड़ सकता हूँ, कर्मों के बधनों को तोड़ने में समर्थ नहीं हूँ।
आचार्यश्री ने कहा-शक्रेन्द्र । तुम जहाँ से आये वहीं लौट जाओ। मुझे तुम्हारी किसी भी प्रकार की सेवा-सहायता की आवश्यकता नहीं है। मैं उनका ध्यान कर रहा हूँ, मैं उनकी शरण मे जा रहा हूँ जिनकी शरण में जाने से, जिन की भक्ति करने से मेरे कर्मों के दधन टूट सकते हैं। उनके ध्यान की एकाग्रता में सर्व प्रकार की घटनाएँ मुझमें समभाव लाती है। जहाँ विषमता है, वहाँ कर्म है। जैसे ही विषमता टूटेगी, समता आयेगी, वहाँ पर कर्म का क्षय होना प्रारम्भ हो जायेगा। कर्मक्षय की बहुत बड़ी कला वीतराग परमात्मा के प्रति समर्पण और समता की है। जहाँ विषमता है, वहा कर्म है। जहाँ समता है वहाँ कर्म का क्षय है। शकेन्द्र आश्चर्यचकित होकर स्वस्थान लोट पड़े।
इन आश्चयों को अब हम क्रम से देखेंगे१ पाला आश्चर्य आचार्यश्री पर देड़ी के दधन आना। २ दूसरा आश्चर्य देड़ी के दधन तोड़ने का प्रयास नहीं करना। ३ तीसरा आश्चर्य किसी दैवीय चमत्कार को दताने के लिये स्तोत्र का सर्जन नहीं
फरना। __४ चोया आश्चर्य भादनाओ को उभारकर अभियक्त करना।
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५४ भक्तामर स्तोत्र - एक दिव्य दृष्टि ५. पाँचवॉ आश्चर्य परमात्मा के साथ तात्त्विक सम्बन्ध स्थापित करना और उनके
प्रभाव से बेड़ियो के बधनो का टूटना।
कर्म पुद्गल द्रव्य है, आत्मा चेतन द्रव्य है। इस चेतन द्रव्य के ऊपर पुद्गल द्रव्य ने अपना अधिकार जमाया है, अपना प्रभाव जमाया है, लेकिन जैसे-जैसे परमात्मा का प्रभाव आता गया कर्म का प्रभाव क्षय होता गया और जैसे कर्म का प्रभाव हटता गया परमात्मा का प्रभाव पूरित होने लगा, जिसे हम आश्चर्य मानते हैं। आचार्यश्री के लिए वह कोई आश्चर्य नही है। इसे सहज और स्वाभाविक मानकर आचार्यश्री ने परमात्मा के साथ तात्त्विक सबध के द्वारा अपने जीवन मे किस प्रकार परिवर्तन किया ? किस प्रकार आत्मा अपनी वर्तमान स्थिति मे आगे बढ़ कर प्रगति करता है। इसे हम श्लोक के माध्यम से समझेगे
नात्यद्भुत भुवन-भूषण भूतनाथ!,
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रित य इह नात्मसम करोति? ॥१०॥ भुवनभूषण - हे विश्व के शृगार। भूतनाथ
- हे जगन्नाथ-हे प्राणियो के स्वामिन् । भूतैः
- विद्यमान गुणैः
- गुणो के द्वारा भवन्तम्
- आपकी/आपको अभिष्टुवन्त.
- स्तुति करनेवाले/प्रीति करने वाले/भक्ति करनेवाले
- पृथ्वी पर भवत
- आपके
- सदृश, समान भवन्ति
- हो जाते हैं अति
- अधिक, बहुत अद्भुतम्
- आश्चर्यजनक, विचित्र, विलक्षण - नहीं है - अथवा - निश्चय से - उस
क्या
मुवि
तुल्या
किम्
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आश्चर्य ५५ - जो (मालिक)
- इस लोक मे आश्रितम् - अपने अधीन सेवक को भूत्या
- विभूति से, धन-सम्पत्ति से, ऐश्वर्य से आत्मममम् - अपने समान
- नहीं करोति
- करता है यहा पर दो सम्बोधन चिह्नो द्वारा परमात्मा को सम्बोधित किया गया है। १ भुवनभूषण और २ भूतनाध
दोनो ही सम्बोधन विशिष्ट सम्बन्ध का सामजस्य प्रस्तुत करते हैं।
भुवनभूपण से मतलद है-हे परमात्मा आप इस लोक के भूषण हो, अलकार हो। आपसे यह भूवन सशोभित होता है। लोक से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर जो लोकोत्तर हो गये. लोक के अग्रभाग मे सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुके उनका फिर लोक के साथ क्या सम्बन्ध हो सकता है ? ऐसा प्रश्न हम सबको हो सकता है। भक्तामर स्तोत्र इस प्रश्न का उत्तर देकर लोकोत्तर का लोक पर रहा प्रभाव दर्शाता है। श्लोक सात के द्वारा यह बताया कि परमात्मा से लोक आलोकित होता है। श्लोक आठ और नौ के द्वारा बताया परमात्मा से लोक प्रभावित होता है और यहाँ बता रहे हैं परमात्मा से लोक सुशोभित होता है। परमात्मा के आलोक से हमारा पापान्धकार हटता है। परमात्मा के प्रभाव से हमारे वीतरागभाव का अभाव हटता है और परमात्मा-सुशोभन से हमारी अनादिकालीन कर्मजन्य अशोभनीयता हटती है। जद मिथ्याभाव का अभाव और समभाव का आविर्भाव होता है तव ही भक्त परमात्मा के आलोक, प्रभाव और सुशोभन का अनुभव करता है।
दूमरा सम्दोधन है-हे भूतनाय भूत का मतलद है जीव। जो अपने आप मे सभूत है, जिसका कभी निर्माण नहीं हुआ है और जो भूत अतीत से, अनादिकाल से और सदा रहने वाला है। आचाराग सूत्र में कई जगह जीव के लिए "भूयाणं!" शब्द का प्रयोग हआ है। भूतनाय याने समस्त जीवराशि के नाय। जिनके दिना सद अनाय।
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(क) अपाए १, अप्प , उद६, सु १२२ (४) , swY 2 २. मु ४४४ (1) - य ६ रहे . मु ६८३ ६८४
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५६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
भुवि का मतलब होता है पृथ्वी। हम रहते हैं पृथ्वी पर और परमात्मा है सिद्धक्षेत्र मे। सिद्ध कोई स्थान नही है सिद्ध स्थिति है। इस सिद्ध स्थिति को उपलब्ध करनेवाले जहाँ स्थिर हो गए वह क्षेत्र सिद्ध क्षेत्र है, जो इस पृथ्वी से सात राजुलोक दूर है। हमारी शक्ति नहीं कि इतने दूर रहे हुए स्वरूप को हम भीतर ला सके। सिद्धशिला मे रहे हुए सिद्ध भगवन्त को हम प्रतिदिन "नमो सिद्धाण" कहकर नमस्कार करते हैं। क्या हमारे नमस्कार उन तक पहुंचते हैं ? "अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि" कहकर हम सिद्ध की शरण स्वीकार करते हैं। कहाँ हैं वे सिद्ध जिनकी शरण को हम स्वीकार करते हैं ? यहाँ से जो सात राजु दूर हैं। जो न कभी हमे प्रत्यक्ष होते हैं। जिनसे न तो कभी मिलन होता है। जिनके साथ न कोई वार्तालाप होता है, न कोई सगोष्ठी होती है, लेकिन फिर भी हम हमेशा कहते चले जा रहे हैं कि सिद्ध की शरण मै स्वीकार करता हूँ। भूवि शब्द रखकर आचार्यश्री आत्मा का और परमात्मा का बाह्य Difference बता रहे है, लेकिन आगे चलकर ये वाह्य Difference की छोरो को तोड़ रहे हैं।
भेद-रेखाओ को तोड़ने के लिए महत्वपूर्ण शब्द है "भवत तुल्या भवन्ति"। इसमे "भवत तुल्या भवन्ति" का मतलब है आपके ही तुल्य-समान (प्रभुता को) प्राप्त करते हैं। इसमें बहुत बड़ी बात कह दी।आत्मा के चरम विकास का अभियान इस पंक्ति मे निहित है। स्वरूप के मिलन या दर्शन की ओर प्रयलशील साधक को उसी की उपलब्धि की आनन्दमयी अनुभूति एक बहुत बडी सफलता है।
में पहले ही कह चुकी हूँ कि महावीर ने कहा-यहाँ किसी की Monopoly (एकाधिकार) नहीं है। यह स्थिति सर्वाधिकार की स्थिति है। इसे कोई भी उपलब्ध कर सकता है। आगम में इस स्थिति के २० कारण बताये हैं।
अरिहत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसु। वच्छलयाय तेसि, अभिक्ख-णाणोवओगे य॥१॥ दसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारे। खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पमावणया।
एएहिं कारणेहिं, तित्ययरत्त लहइ जीवो ॥३॥ १ अरिहत।
२ मिद्ध
३ प्रवचन-शुनसान। ८ गुरु-धर्मदेगक आचार्य। ५ म्यादा अर्यत मठ दर्ष की उम्रवालं जातियाविर, ममवायागादि के शाता
शुर-दर और दीम वर्ष की दीक्षा याले पर्यायावर, यह तीन प्रकार के ग्या मायु।
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आश्चर्य ५७ ६ वहुश्रुत-दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता/उपाध्याय। ७ तपस्वी-उत्कृष्ट तप करने वाले मुनि।
इन सातो के प्रति वत्सलता धारण करना अर्थात् इनका यथोचित
सत्कार-सम्मान करना, गुणोत्कीर्तन करना। ८ वारवार ज्ञान-अगादि श्रुतों का उपयोग करना। ९ दर्शन-सम्यक्त्व की विशुद्धता। १० ज्ञानाधिक का विनय करना। ११ छह आवश्यक करना अर्थात् चारित्रपद का आराधन। १२ उत्तरगुणो और मूलगुणो का निरतिचार पालन करना। १३ क्षणलव अर्थात् क्षण-एक लव प्रमाण काल मे भी सवेग, भावना एव ध्यान का
सेवन करना। १४ तप करना। १५ त्याग करना अर्थात् दानादि धर्म का पालन करना। १६ नया-नया सूत्रार्थ का ज्ञान ग्रहण करना। १७ समाधि-गुरु आदि चतुर्विध सघ को साता उपजाना। १८ वैयावृत्य करना। १९ श्रुत की भक्ति करना और २० प्रवचन/शासन की प्रभावना करना। इसी को तत्त्वार्थ सूत्र मे १६ कारणो मे निहित कर दिया गया है।
"दर्शनविशुद्धिविनयसपन्नता शीलव्रतेप्वनतिचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसवेगा शक्तितस्त्यागतपसी सघसाधुसमाधिर्वयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्यकृत्त्वम्या"
-तत्त्वार्थसूत्र-अ ६, स २३ १ दर्शन विशुद्धि का अर्थ है दीतराग के कहे हुए तत्त्वो पर निर्मल और दृढ़ रुचि। २ सानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति योग्य रीति से दहुमान रखना
दिनयसपन्नता है। ३ अहिसा, सत्यादि मूलगुण रूप द्रत हैं और इन द्रतो के पालन में उपयोगी ऐसे जो
अभितह आदि दूसरे नियम है वे भील हैं, इन दोनों के पालन में कुछ भी प्रमाद न
करना यही लगतानतिचार है। ४ तरपपिण्पक शान मे सदा जारित रहन-यह अक्षय ज्ञानोपयोग है।
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६
था।
५८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ५ सासारिक भोग जो वास्तव मे सुख के बदले दुःख के ही साधन बनते हैं, उनसे
डरते रहना अर्थात् कभी भी लालच मे न पडना, अभीक्ष्ण सवेग है। थोडी भी शक्ति को बिना छिपाये आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान आदि दानो को विवेकपूर्ण देना, यथाशक्ति त्याग है। कुछ भी शक्ति छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास करना-यह यथाशक्ति तप है। चतुर्विध सघ और विशेषकर साधुओ को समाधि पहुंचाना अर्थात् वैसा करना
जिससे कि वे स्वस्थ रहें-सघसाधुसमाधिकरण है। ९ कोई भी गुणी यदि कठिनाई मे आ पडे, उस समय योग्य रीति से उसकी
कठिनाई को दूर करने का प्रयत्न ही वैयावृत्यकरण है। १० अरिहत भक्ति। ११ आचार्य भक्ति। १२ बहुश्रुतभक्ति। १३ प्रवचन भक्ति। १४ सामायिक आदि षड् आवश्यको के अनुष्ठान को भाव से न
छोडना-आवश्यकापरिहाणि है। १५ अभिमान छोडकर ज्ञानादि मोक्ष मार्ग को जीवन मे उतारना तथा दूसरो को
उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना-मोक्षमार्ग-प्रभावना है' १६ जैसे बछडे पर गाय स्नेह रखती है, वैसे ही साधर्मियो पर निष्काम स्नेह रखना
प्रवचनवात्सल्य कहलाता है। __इस प्रकार परमात्म स्वरूप हम पा सकते हैं अर्थात् हम स्वय परमात्मा हो सकते हैं। न कारणो मे से प्रथम और द्वितीय कारण को भक्तामर स्तोत्र मे और विशेषरूप से इस लोक मे महत्व देते हुए कहा है-"भूत गुणै भवन्तम् अभिष्टुवन्त "। इन शब्दो की राख्या इस तरह से होती है। भूत शब्द का अर्थ होता है विद्यमान। यह गुण शब्द का
शेषण होता है। भवन्तम् अर्थात् आपकी। अभिष्टुवन्त का अर्थ है स्तुति करनेवाला। झ मे विद्यमान गुणो से तेरी स्तुति करने वाला तुझ समान हो जाता है। __भूत शब्द का आगम देशीय प्रज्ञापित अर्थ है जीव। जीव स्वय के गुणो से तुम्हारा भिष्टुवान बन जाता है। अभिष्टुवान शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ष्टु धातु को अभि" उपसर्ग लगकर यह शब्द बना अभिष्टु। इसमे वान् प्रत्यय लगने पर अभिष्टुवान् ब्द बना, जिसका बहुवचन होता है-अभिष्टुवन्त । सदा तेरे समीप रहकर तेरी स्तुति वात्सल्य) करने वाला तुझ स्वरूप को प्राप्त करले तो इसमें न अति अद्भुत न कोई बड़ा आश्चर्य है। क्योंकि, आत्मा का वास्तविक स्वरूप परमात्म-स्वरूप है। यह आत्मा की
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आश्चर्य ५९ अपनी महज स्थिति है। परमात्मा के प्रति की जानेवाली स्तुति, भक्ति या वात्सल्य आत्मा को परस्वरूप वैभाविक स्थिति से मुक्त कर निज-सहज आनन्दमय स्थिति का प्रथम वोध कराती है और अन्त मे आत्मा तत्स्वरूपमय हो जाती है। ___ अत यह कोई विशेष आश्चर्य नही। फिर भी यदि सामान्य अवोध इसे आश्चर्य माने भी तो इससे बड़ा ससार का कोई आश्चर्य भी नही है कि जिनकी हम भक्ति करते हैं, जिनको हम नमस्कार करते हैं वह हम ही हैं। हम से वह अलग नही है और हम उससे अलग नहीं हैं।
इस श्लोक मे भकार शब्द की अभिव्यजना वडी रोचक और रहस्यभरी है। इसमे कुल ११ "म" का प्रयोग हुआ है। जो स्तोत्र के विशेष सम्बन्ध से सन्दर्भित है। भकार की रहस्य भरी कड़ी इस प्रकार है१ भक्त
- भक्तामर स्तोत्र का प्रारम्भ, २ भगवान
- भक्त जिससे सम्बन्ध वाधता है, ३ भक्ति
- भक्त और भगवान को जोड़नेवाली, ४ भन्ते।
- भगवान से जुड़ जाने पर भक्त द्वारा भगवान को किया
जानेवाला सवोधन है। जिमका अर्थ सर्व भयो का या
भवो का अत करनेवाले भगवान्। ५ भाव-प्रभाव - भाव भक्त के हों तो प्रभाव भगवान का हो सकता है। ६ भेद-विज्ञान - एक ऐसा ज्ञान जिसमे देह और आत्मा की भिन्नता की
अनुभूति प्रकट होती है। भक्तामर स्तोत्र में इसे सिद्ध
करने की क्षमता है। ७ भाषाचरिम स्तोत्र की सम्पूर्ण सार्थकता है। जिसके बाद कुछ कहने
को वाकी नहीं रहता। ८ भाव चरिम - हमारे भावों का अर्घ्य म्वीकार करनेवाले ऐसे आराध्य।
जिसके बाद हम अपने भावों की अजलि का कही अभिषेक नहीं करते हैं, या ऐमा कहो जिसके बाद
दूसरा आराध्य अद हो नहीं सकता है। ९ भूतनाय -- इस शब्द के द्वारा हम से अतिरिक्त अन्य जीव सृष्टि के
माघ भी परमात्मा का सम्दन्ध स्थापित होता है। १० भद्र
- भक्ति करने पर भक्त की प्रकृति भद्र याने सरल होती है।
भद्र याने कुशल रहता है। ११ मुल्लो-मुज्ज - इममा अर्थ है दाग्दार। ऐमे परमाला क भयानरम
मिलने के लिए प्रयुक शास्त्रीय :ब्द।
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20 भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___आत्मा-परमात्मा की अभेद स्थिति की उपलब्धि का क्रम आगे के श्लोको से सयोजित होगा। जो हमारा अपना निज स्वरूप है फिर भी हमसे अगम्य है। हम उससे अनभिज्ञ या अनजान हैं, आइये हम श्लोक ११ के द्वारा उस स्वरूप के "दर्शन" करेंगे। अनजान को जानेगे और अनभिज्ञ को पाएगे।
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श्लोक - ११
१०. दर्शन
a
अनुभूतिधारा की अखड श्रेणी मे प्रवेश पाने पर परमानन्द अवस्था का अनुभव होता है। परमात्मा के माथ के अभेद वधन ने देह के वधन का भेद प्रकट किया। ससार के सर्व दधनो की प्रियता टूट चुकी। परम आनन्द के दर्शन हुए। इस दर्शन में प्रसन्नता मूलक सारी अनुभूतियाँ जो आज तक अनछुयी थी वह एक रूप हो गई, प्रकट हो गई। ___ जजीरो से जकड़ी हुई मम्पूर्ण दैहिक अवम्याओं से सर्वथा पर होकर परमात्मा के दशी में लीन आचार्यश्री को जो उपलब्धि हो रही थी उसे पाने के लिए हमें आचार्यश्री के साथ मानसिक अभेद करना होगा और उसके द्वारा हम हमारे भीतर रहे हुए उस अद्भुत परमात्र स्वरूप के दर्शन करेंगे। इस दर्शन से आचार्यश्री की धारा प्रवाह निरन्तरता हमे उप प्रवाह मे दायेगी जहाँ आचार्यश्री की अपूर्व वाचा प्रकट हुई
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीय, नान्यत्र तोपमुपयाति जनस्य चक्षु । पीत्वा पय शशिकरघुतिदुग्धसिन्धो ,
क्षार जल जलनिधे रसितु क इच्छेत् ? ॥११॥ अनिमेषविलोकनीयम् - दिना पलक झुकाए हुए देखने योग्य अर्यात
___टकटकी लगाकर दर्शन करने योग्य (ऐसे) भवन्तम्
- आपको दृष्ट्या
- देख करके जनस्व
- मनुष्य का पा अन्यत्र
- और कही पर - सन्तोष को, परितोष को
- नही उपवाति
- प्राप्त करता है, पाता है दुग्धसिन्यो - हीर सागर के शभिकरपुति - चन्द्रमा नी किरण के समान कातिवाली मुत्र पर
- जल,हर, दुघ के
- नेत्र
तोपम्
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क्षारम्
६२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि पीत्वा
- पीकर
- कौन (पुरुष) जलनिधे
- (लवण) समुद्र के
- खारे जलम्
- पानी को रसितुम्
- चखने के लिए इच्छेत्
- इच्छा करेगा अनिमेषविलोकनीयम् शब्द बड़ा Romantic (प्रेमास्पद) है। निमेष अर्थात् आँख की पलके। अनिमेष अर्थात् पलक झपके बिना। विलोकनीय अर्थात् दर्शनीय, देखने योग्य। यहाँ एक ऐसे व्यक्तित्व से हमारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है जिनको पहले शायद कभी नही देखा। और अब जब कभी देख लिया तो फिर पलक झपकी ही नही जाती है। कितना रहस्य भरा है। ऐसे तो भारतीय संस्कृति की प्रत्येक प्रेम गाथाएँ इन शब्दों को बड़ी भावुकता के साथ चरितार्थ करती है। प्रेम की सफल अभिव्यक्ति की चरम-सीमा इन्ही शब्दो मे प्रदर्शित होती है। दिखने वाला और देखने वाला दोनो के प्रत्यक्षीकरण की वास्तविकता को यह प्रकट करता है। समस्त सासारिक प्रेम सम्बन्धो से ऊपर उठे हुए प्रत्येक भक्त कवि ने इस महत्व को उद्घोषित किया है। जैसे एक जगह कबीर कहते हैं
"नैनन की करी कोठरि, पुतलि पलग बिछाय।
पलकन की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय॥" भक्ति की यह चरम सीमा हमारे इस निज एकान्त साधना मे एक कोलाहल उत्पन्न करती है कि हम ही जिनको अनिमेष पलको से देखते रहे, वे क्या करते हैं ? जो दिखते हैं वे देखते हैं या नही? उनके अनन्त-आत्मदर्शन मे हम कहॉ छिपे हैं ? दर्शनावरणीय कर्म मे छिपा हमारा निज स्वरूप हम मे ये प्रश्न उठाता है कि१ हम उनको देखे या वे हमे देखे? २ हम उनके दर्शन करें या उनके अनन्त दर्शन मे हम समाहित हो जाय, जिसमे हमारी
अनन्त अपूर्व अनुभूति प्रकट हो जाय?
प्रस्तुत श्लोक भेद का अभेद कराता है। भेद मे प्रश्न होता है, अभेद होने पर यह सारा भेद मिट जाता है। परम और हम भिन्न नही अभिन्न हैं। परमात्मा से विभक्त हैं तब तक भिन्न है। भक्त हो जाने पर अभिन्न हैं।
भक्ति की प्रारभिकता मे (अभेद से पूर्व) दोनों का एक दूसरे को देखना भी प्रिय-दर्शन है। एक भक्त ने दर्शन की इस विशिष्ट शैली को प्रस्तुत करते हुए बडा रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक बार कुछ यात्री किसी विशिष्ट महापुरुष के दर्शन हेतु यात्रा की योजना बना रहे थे। यात्रियो के नामो का लेखन हो रहा था। एक अन्धा भी अपना नाम
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दर्शन ६३ लिखाने आया। कुछ तथाकधित भक्तो ने उसका मजाक किया- "सूरदास । तुम्हें दिखता तो नहीं है, तुम क्यो चल रहे हो?"
प्रम को सुनकर उस अन्धे ने बड़ा मधुर और दार्शनिक उत्तर प्रस्तुत किया। उसने कहा
"मित्र में उन्हें देखू या न दे पर वे तो मुझे देखेंगे न।"
महापुरुष और अन्य पुरुष में यही तो अन्तर है। अन्य पुरुष हमारे देखने पर भी देखा-अनदेखा करते हैं। परम पुरुष या महापुरुष वही है, हम उन्हें देखे या न देखे वे हमें अवश्य देखते हैं। वे अपनी अनन्त कृपादृष्टि से हमे सीचते हैं। उनका हमारी ओर देखना ही वास्तविक दर्शन है। मैं इसी दर्शन के लिए तुम्हारे साथ सयुक्त हो रहा हूँ।
गुजरात के एक भक्त कवि ने दर्शन की विशिष्ट परिकल्पना प्रस्तुत की हैं किएक बार एक भक्त महापुरुष मे दर्शन देने की प्रार्थना कर रहा था
"आखनी मामे आख तो माड़ो।
अमृत नी रसधार झरे छे, आवो-आवो पासे आवो।
तमने जोई आख ठरे छे।" भक्त की अत्यन्त मनुहार स्वीकार करते हुए परम स्वरूप वहाँ प्रकट होते हैं। दर्शन करने के लिए आया हुआ भक्त उन्हें देखकर आँखें दद कर देता है। आप कैसे दर्शन करते हो, आँख बन्द कर या खोलकर? अक्सर दर्शन करते समय हम अपनी आँखों को बन्द कर लेते है। ऐसा क्यो होता है ? आचार्यश्री जिन्हें 'अनिमेष विलोकनीय' कहते हैं उन्हें देखकर हम आँखें क्यो बन्द कर लेते हैं, कभी नहीं सोचा क्या आपने?
परम स्वरूप के इस प्रश्न का भक्त के द्वारा दिया उत्तर प्रत्येक भक्त का उत्तर है। उसने
भनो । तेरी अनन्त आत्मिक अनुभूति के दर्शन कर इन चर्मचक्षुओं से तेरी अनना-विभूति को झेलकर में इसे अनन्त, आत्म-प्रदेशों में सम्पूर्णत आत्मसात् कर लेता सदन में आपका रूप और आपका यात्मल्य इन दो विशिष्ट शक्तियों का परिचय होता है। मेरी सोरदद होने का मतलद यह नहीं कि में आपका रूप-दरूप सेल नहीं मका। परनो परम स्वरूप आपका वात्सल्य इतना अधिक है जिसे मैं अपने में समा नहीं सका। अत साज मेरी आँखे दर होई।
पदि ने कहा है कि'ए सम के तमगर रियायु नहीं, STER तीन मयु नही ।
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६४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
तमने जोया पछीथी आ दशा कायम रही,
कोई पण वातावरणमा मारू मन परोवायु नही ||”
योगिराज आनन्दघनजी ने चर्म-नयन और दिव्यनयन (आत्मचक्षु) का भेद प्रस्तुत कर दर्शन (मार्ग) की महिमा बतायी है
चरम नयन करी मारग जोवता, भूल्यो सकल ससार रे,
जे नयणे करी मारग जोइए,
नयन ते दिव्य विचार रे
चर्म चक्षुओ से देखना, देखना है और दिव्य नयनो से देखना दर्शन है। जिसने परमात्मा को नही देखा उसने कुछ नही देखा,
जिसने परमात्मा के दर्शन किये उसने कुछ देखा और,
जिसने परमात्मा को आँखो मे समाया उसने सब कुछ देखा ।
उसके लिए अब ससार मे कुछ भी दर्शनीय नही है । यहाँ सारी तुलनाये मिट जाती हैं। सारी उपमाएँ भी समाप्त हो जाती हैं। वह अतुलनीय, अनुपम और अपूर्व आत्मसात् हो जाता है।
एक जगह आनन्दघन जी ने यह भी कहा है
“सामान्ये करी दरिसण दोहिलु निर्णय सकल विशेष
मद मे घेर्यो रे अधो केम करे, रवि शशि रूप विलेख "
सामान्य बुद्धि से आपके दर्शन कैसे हो सकते हैं क्योंकि कोई व्यक्ति अधा हो और उसे मदिरा पिलाकर सूर्य चन्द्र का वर्णन करने के लिए कहने पर क्या हो सकता है ? इसी प्रकार ज्ञानावरणीय से आवृत व्यक्ति यदि मोहमदिरा पी ले और उसे आपका वर्णन करने का कहा जाय तो क्या हो सकता है ?
ससार मे हम जब किसी भी सुन्दर व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ को देखते हैं तब उससे पूर्व देखे हुए व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ से उसकी तुलना करते हैं। इससे यह अच्छा या बुरा है, अधिक या कम है। सामान्यत तर और तम के विभाग बनते जाते हैं और हमारी अनादिकालीन वासनाये बदलती स्थिति या परिवर्तित विविधता में अपनत्व स्थापित करती हैं। परिणामत प्रेम के दर्शन के पात्र और पदार्थ परिस्थिति के साथ बदलते जाते हैं।
हम कभी तो सुन्दरता कपड़ो मे देखते हैं तो कभी Make-up में, कभी कमरो के Furnitures मे तो कभी सुन्दर भोजन मे देखते रहते हैं । परन्तु, हमने कभी भावो की सुन्दरता नहीं देखी। जिसे देखने के बाद कुछ दर्शनीय नही रहता है ।
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दर्शन ६५ आचार्यश्री इन सब भक्त कवियों से भी ऊपर उठकर, इन शब्दों का प्रयोग कर हमें अनन्त निज स्यम्प की ओर मन्दर्भित करते हैं। सम्पूर्ण विश्वास Guarantee के साथ वे हमारी ममम्त चेतना को अपने परम प्रिय परमात्मा के निर्मल प्रेम से ऊर्जान्वित करते हैं।
पलको में आचार्यश्री का आशय कोरी क्रियात्मक सवेदनाओ की अतृप्ति नहीं परतु सम्पूर्ण भायात्मक सयोजना का चिर सतोष है। ____ अनिमप नयनों मे देखते रहना, हमारे जीवन में कई बार गुजरा होता है लेकिन वह अतृप्ति और असतोप की अमिटता है। यहाँ परम तृप्ति और पूर्ण सतोष की सत्यान्वितता
और, इसीलिए आगे कहा है "भवन्तम् दृष्ट्वा जनस्य चक्षु अन्यत्र तोप न उपयाति।" अन्यत्र में क्या अर्थ है ? कई दार हम अपने सासारिक विधानो से इसका अर्थ लगाते हैं, अब दूगरी जगा देखने योग्य नहीं हैं। दूसरा क्या है ? पराया क्या है ? किस Illusion (भम) नरमे घेर रखा है जिसे अब हमसे नही देखा जाता है। आचार्यश्री ने इस पंक्ति में गूढ़ गस्य भर दिया है। वे करते हैं जिन्हें तू अनिमेष देख रहा है वह दूसरा कोई नही तू स्वय
। परम ज्योतिर्मय अनन्त पानदर्शन म्यरूप है। आनन्द से भरपूर अप्रतिम है। आचाराग मेका
"जे अणण्णदसी से अणण्णारामे
जे अणण्णारामे से अणपणदंसी।" जिस आन्य (आत्मा) के तू दर्शन कर रहा है उसी अनन्य (आत्मा) में तू रमण करता (प्रसर रहता है) और जिस अनन्य (आत्मा) मे तू प्रसन्न रहता है उसी अनन्य (आत्मा) के न दर्शन कर रहा है। अर्थात् जिसे देख रहा है वह त म्यय है।
सत तरे अतिरिक्त जो भी कुछ है वह सर्व अन्यत्र है, अदिलोकनीय है, अदर्शनीय
से अभी तक नहीं देख सक्ने के कारण ससार में अतृप्निमय अनेक दर्शन करते रहे। जतिपल प्रेम पत्र परिवर्तित होते रहे। अनन्त दानदिक इस धोखे में सदा पर्दे के पीछे 3-7सदा राम्यमय रहा। दमने दड़ा घोखा ससार में और क्या हो सकता है ? हम र अपने से ही एने तो जा रहे थे।
परमाला लाज तुम्हें देखकर ये सारे रहस्य खुल गये। जो अव्यक्त या व्यक्त हो मागेका महिला या प्रकट हो गया। जो अनुप्न या सतुष्ट हो गया। सट 17 जया दो अन्य से प्रेम करेगा? चन्द्रमा की शुभ्र किरणों की
र समुद्र मधुर जलपी पुरने के पश्चात लवण समुद्र के द्वारे पानी
'
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लोक - १२,१३,१४
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निर्माण
कागगृह के दरवाजे के पास सभा खचाखच भरी हुई है। सभी को कौतूहल है, सभी को आश्चर्य । परन्तु, विश्वास या महाकवि को। उनका मानना था कि परम की कृपा, भक्त की अस्मिता का सौन्दर्य है। अम्मिता का मौन्दर्य किसी व्यक्ति का सौन्दर्य नहीं है। अस्मिता की आवाज किसी व्यक्ति की आवाज नहीं हैं। अस्मिता का ज्ञान किसी व्यक्ति का शान नहीं है। अम्मिता का आनन्द किमी व्यक्ति का आनन्द नहीं है। इस आनन्द की चरम मीमा भति।।
दखाता परमात्मा का मिलन-म्यान है, मानतुगाचार्य की आत्मा परमात्मा के मिलन का दिन,आचार्यश्री का हृदय परमाला के विराजने का सिहासन है, निर्मित होता हुआ स्तोत्र पग्माल-मिलन का मंत्र।
दटती देशियों में पलकती विजय आचार्यश्री के सत्त्व की विजय है, आचार्य के परमात्मा की विजय और आचार्य के परमात्मा के शामन एव धर्म की विजय है।
परमात्मा के शुभ दानों में आचार्यश्री का ध्यान परमात्मा की पवित्रमयी देहदृष्टि पर गई। पुजीत पवा एण्यमय परमाणुओ पर गई जो पुद्गलात्मक तो ये फिर भी परम औदारिक र र अत्यन्न पवित्र थे। इस देह का ऐसा अदभुत यह निर्माण था कि जो अदितीय, अपार और अतुलनीय था। इसी देह में अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनन मान्य स्वरूप वीतराा परम आला दिराज रही थी। इस देह-निर्माण का ऐमा क्या रहस्य जो हम ओक, जीपारिकारीरधारियो को प्राप्त न हो सका?
आपके घेता-माम में भी पदि या प्रश्न उभरता हो तो चलिये अट आचार्यश्री में साम्य पारपाटन फरादे
चै शान्तरागमचिभि परमाणुभिस्न्व, निर्मापितत्रिभुवनेक - ललामभून तावन्त एव खलु तेऽप्पणव पृथिव्या,
पत्ते समानमपर नहि रूपमस्ति ॥१२॥ त्रिभुवन लाल - हैनन ल के जनुन ला '
६ गारपिपि पामि-: पाईन्
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निर्माण ६९ जो ममत्य में मे मति का त्याग करता है वह ममत्व का त्याग करता है। परमात्मा इस कपन का सफल चरितार्य प्रस्तुत करते हैं। राग की रुचियों में जो शान्त हो जाता है या ऐसा का कि राग की रुचि जिनकी समाप्त हो जाती है, वे ही तो परमात्मा हैं। __ आचार्यश्री या एक विशिष्टता और विलक्षणता भी प्रस्तुत करते हैं। वे मात्र राग
और उसकी रुचि को समाप्त करने की दात पर ही नहीं रुकते परन्तु इसे साधना में लाकर प्रयोग से सफल कर दिखाते हैं।
प्रत्येक आत्माओं की देह का निर्माण अपने-अपने कर्मों के अनुसार होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म में संचित और निस्ति कर्मों के अनुसार जीव जन्म धारण करता है। सामान्य केवली और तीर्थकरों के केवलज्ञान में या वीतरागत्य में कोई अन्तर नहीं होता ., परन्तु तीर्थंकर के ध्ययन, जन्म, दीक्षा, शान और निर्वाण के पाच विशेष अवसर कल्याणक माने जाते हैं। ये आत्माएं परमात्म भव के पूर्व तीसरे जन्म में ही "सवि जीव कर शामनरसी" की भावना मे जगत के सकल जीवों के मोश हो जाने की भावना और पूर्वकषित २० विशेष कारणों की आराधना कर तीर्थकर नामकर्म का निकाचन करते हैं इम तीर्थकर नामकर्म के उदय मे ये अनुपम देहराशि और उत्कृष्ट दैवीय दंभव को प्राप्त करते हैं।
इस श्लोक की सर्वोपरिता यह है कि चेतन और पुद्गल का सामजस्य ही समार में जीया है। जीवन का यह रहस्य अनादि अनन्त है। परम वीतराग प्रभु का जीवन भी इसी प्रकार पंतन-पुदगल का मेल-जोल है फिर भी अन्य सर्व सामान्य प्राणियों से इनमें जो विशिष्टता। उसे या गापा स्पष्ट करती है। आत्मा के राग भाव या विराग भाव का असर दे- नर्माण के समय में देह पर होता है। तत्सम्बन्धी पुद्गल-परमाणुओं का कामिक चयन ताई दीतराग परमात्मा के राा की रचि मर्दया शान्त-गमाप्त हुई रहती है अत उनके हरिण मे नियोजित परमाणु भी वैसे ही होते हैं। यही कारण है कि वीतरागता आत्मा सम्बन्धी तत्व होने पर भी दैहिक आभा भी इसे प्रकट करने में अपनी नहीं रहती है।
आचार्यश्री इस अद्भुत रहस्य को प्रकट कर आगे काने है कि वे परमाणु ही सृष्टि में स्तो जिनसे आपका निर्माण हो गया तो पट दूसरा ऐमा अदभुत न तो निर्मित होता है, नोतिरता है।
स रणीत अनुग्न मौन्दर्य फिनना आपको इसे एक मक्त हो यो यो मेला
द सुन्दरी परत नही देता प्रति उत्तर ममता का निष्टुर सुन्दरता से मेरे लगनानी सुन्दर
ती मुलामी गुन्दर रीपादन गन्दा
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निर्माण ७१ क ज्यातिर्मय चक्रों का असर हमारे सूक्ष्म मन पर और उसका असर जीवन पर होता है। दाधष्टि और आतरिक चेतना के दीच भी गहरा सम्बन्ध दना रहता है। आज का विमान भी शुभ-अशुभ पड़ियों के गणित को मानता है। R C A Sound System के आममान विभाग के अनुसार शुभ घड़ी मे Negativc Isotops और अशुभ घड़ी में POIN Otop ददते IINegauncicotops मानव के मन में आनद, उल्लास और दिव्यक्ति भरत । तया PostIncolops मानव मन को निराशाजनक उत्तेजनाओं से भरत।
शानिमाज अनुमार हमारे मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की विद्युत तर होती हैअन्का, दटा. टेटा, घेटा आदि आदि। जब हम में अल्फा तग्गे दढ़ती है तद हम आनन्द मे भर जाने मार मारे अपमाट समाप्त हो जाते हैं, कठिनाई दूर हो जाती हैं, जद देटा तरंगे ददनी अवमाद मे भर जाते हैं, हम में उत्तेजनाए उभरने लगती हैं।
हर प्रकार मन्तिनीय विद्युत-तरंगो के द्वारा आदमी कभी मुख का अनुभव करता .और कभी दुरा का अनुभव करता।
प्रश्न होता किम आनन्द को उपलब्ध कम करें ? अल्मा तरगों का उत्पादन कसे हमा ?
मारो के गम्निष्क ने निम्तर ये अल्का तरगे प्रवाहित होती रहती हैं परिणामत ग्य आनटिन राने हैं और उनके पाम आने वाले का अवसाद भी आनन्द में परिवर्तित जाता। मापुर पपया का कर देते हैं। उस समय ध्यान देह पर्याय से मम्पूर्णत घट है। ममतता आनन्द से भर जाती है। उस समय वाणी : ात, श्याम मात, मन र समृदा करना शात हो जाता है। विश्राम की इस मघन स्थिति में मस्तिष्क में , 3 रंगों का संचामा रोला । ये तरगें मापक के आनन्द विभोर कर देती हैं। ___ भी व्यनि जद
म शिकट दैटना। तद उसे अब आनन्द का अनुभव
स्पद है उस समय? युए भी नहीं, फिर उनन्द की अनुभूति कमे ht Prमज जरामाधान या फिलिम मारपदे मम्निक में
तरी उम्दा आमनम दैटोदा, में, देता मोपित Pintment * और आन्दी नुनि करारी है। आज के निक IIT
मा जिस पर हर रो, लता है कि देशानिइ उगन r ef STO
Medic: Incote.cof Techno३... .. 3.: MITTAरिया जिम म निष डी rar
Tv _Ary ? सपाल र हात हैलो दल्न
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७२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि भूमिका का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे स्थूल और सूक्ष्म के सम्बन्धो का ज्ञान जागृत होता है। इस ज्ञान से दोनों का समन्वय और दोनो का भेद स्पष्ट झलकने लगता है लेकिन Conscience activity के बिना यह सभव नही है। इसलिए कहा है
Stand up, power will come, glory will come, punty will come and everything that is excellent will come when the sleeping soul is arisen to do conscience activity
चेतना का विकास साधना का अभियान है। वीतराग की अपेक्षा वीतरागत्व कही अधिक सुन्दर है परतु बिना उस साधना के वीतरागत्व के दर्शन दुर्लभ हैं। अब हम देखें यह वीतरागत्व कितना Dynamic है। इसी बल पर वीतराग विश्व के आध्यात्मिक उत्थानचक्र को गतिमान रखते हैं। कट्टर शत्रु को भी अपनी गद्दी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बनाते हैं। पतित को प्रेरणा देकर पावन करते हैं, थके हुए को गति देते हैं, सोये हुए को उठाते हैं, उठे हुए को चलाते हैं, चलते हुए को मंजिल पर पहुंचाते हैं।
इस प्रकार सुन्दर, प्रिय, नजाकत, राग की रुचियो से रहित, अत्यन्त पवित्र परमाणुओं से निर्मापित नयनहारि परमात्मा की देहपर्याय मे विशिष्ट दर्शनीय परम आभावान् मुखाकृति के दर्शन कर उस मनोहारिता को दर्शाते हुए कहते हैं
वक्त्रं क्व ते सुर - नरोरग- नेत्रहारि, निःशेष-निर्जित-जगत्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥१३॥ सुरनरोरगनेत्रहारि - देव, मनुष्य और भवनवासी नागकुमार जाति
के देवेन्द्र (धरणेन्द्र) आदि के नेत्रो को हरण
करनेवाला निःशेषनिर्जितजगत्रि- सम्पूर्ण रूप से तीनों लोकों के उपमानो को तयोपमानम्
जीतने वाला अर्थात् उपमा रहित।
तुम्हारा वक्त्रम्
मुख, आनन क्व
कहां? (और) कलंकमलिनम्
काले काले धब्बों से मलिन, निशाकरस्य
चन्द्रमा का बिम्ब
मण्डल, बिम्ब क्व
- कहाँ,
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यत
निर्माण ७३ - जो (दिम्द) - दिन में
जीर्ण-शीर्ण हुए टेसू (ढाक) के पत्र के समान
दामो पाण्पनाशकल्पम्
फीका,
भवति
- होता है। यह गाया परमात्मा की अनुपम विलक्षणता का अपूर्व उदाहरण है। विभिन्न उपमानों में परमात्मा को उपमित कर आनंदित होते हुए आचार्यश्री परमात्मा का मुख दर्शन कर अन्य कवियों की भांति इमे चन्द्र से उपमित करते हुए अचानक अटक गये। दिलोकनीय परमात्मा की कमनीय काया की आकर्षक, मनभावन मनोहारिता में मुग्ध हो गये। माम्य, शीतल, शक्तिप्रेरक और आहलादक वदन की आभा से प्रभावित हो गये।
उपमा के अनुमगन में पाये गये व्योमपितारी सकलक विधु के आखो के सामने आते ही दिन में निम्तेज एव फीके पहुए विवर्ण दने हुए पलाम के पत्रवत् दिम्द की ओर जाता है। और, पुन गदा सुधावी, समुञ्चल, सर्दय पीतल, निर्मल, सर्वदा हितकारी, सोत्तम प्रकााण, धगतविहारी, निष्कलक, ओजस्वी आत्मविधु के मुखचन्द्र के दर्शन m ar उपपा के ऊपर उपमेय का दताकर उन्हें श्रेष्ठ सिन्द कर रहे हैं।
अतुलनीय की तुलना कसे ? अनुपम को उपमा कौन सी ? परम वीतरागी चतन्यधन जियो न तो कपाय पी कानिमा और न कर्मों का मालिन्य। ऐसे समुन्दर परमात्मा के लिए पद के दान कर प्टि पर उसका प्रभाव देखने हेतु दृष्टिपान करते हैं तो दर । जालोर , देव-देवेन्द्रों, पृष्मी नाक के नर-नरेन्द्रों और अघोलंक के भात सयो को परमाला र गुलदान से प्रसन्न और प्रभावित हात पाा है। इन मदक यो प्रदल आउपण परमामा ।
आचार्यश्री नगद लिए "नेवारि" पद का उपयोग दिया।जा प्रेम-भक्ति परमोत्यर्पता का समापनेत याारण में होता । क्या आखाकी सगानी भरोधाले परमा?
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७४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
__ ये सश्रितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेक,
कस्तान निवारयति सचरतो यथेष्टम्॥१४॥ त्रिजगदीश्वर।
- तीन लोको के स्वामी। सपूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलापशुभ्रा. - पूर्णमासी के चन्द्र-मण्डल की
कलाओ के सदृश समुज्ज्वल तव गुणा
- आप के गुण त्रिभुवनम्
- तीन लोको का लमयन्ति
उल्लघन करते हैं अर्थात् त्रिभुवन मे
व्याप्त हैं।
- जो एकम्
एक अर्थात् अद्वितीय नाथम्
त्रिभुवन के स्वामी को सश्रिता
आश्रय करके रहने वाले यथेष्टम्
स्वेच्छानुसार अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसार
सम्पूर्ण लोक मे विचरण करने से तान् क
- कौन (पुरुष) निवारयति
निवारण कर सकता है अर्थात् रोक
सकता है ? कोई भी नही। यह कैसा आश्चर्य, १३वे श्लोक मे जिसको स्पष्टत अस्वीकार कर रहे थे उसका यहा सहर्ष स्वीकार हो रहा है ? सहज उभरते हुए इस आश्चर्य की यथार्थता यह है कि आचार्यश्री की इच्छा परमात्मा के मुख को चन्द्र के साथ उपमित करने की नहीं है, परंतु मुखदर्शन की इस विशिष्टता को वर्णित करने में अक्षम हो रहे हैं। बिना उपमा के इसे समझाना या दर्शाना दुरूह है और चन्द्रमा के अतिरिक्त दूसरा कोई उपमान ठीक नहीं बैठ रहा है अत श्लोक १३ मे परमात्मा के गुणो के लिए सर्वकलाओं से विकसित एव विलसित पूर्णमासी चन्द्र को उपमान के रूप में पसन्द करते हैं। परमात्मा के सर्वलोक में व्याप्तत्व के सिद्धान्त को गुणों के द्वारा सिद्ध करते हैं। अनतगुण सम्पन्न परमात्मा के गुण यथेच्छ अप्रतिबध रूप से सपूर्ण लोक में व्याप्त हैं।
इस श्लोक में परमात्मा का सार्वभौमत्व प्रकट करने के साथ-साथ इसमें सम्बन्ध प्रेरणा भी व्यक्त की है। यह पद्य परमात्मा की शरण के सर्वोच्च स्वीकार की सफल
सचरत
उनको
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निर्माण ७५ अभिव्यक्ति है। जगत के सर्व जीव स्वेच्छा से व्यवहार करना चाहते हैं, परतु प्रत्येक जीव की इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती है। कार्य-कारण की विशेष शृखलाओं में आबद्ध आत्माए सर्वशक्तिसम्पन्न होने पर भी कर्मों से असमर्थ हैं। परतु, फिर भी परमात्मा की शरण ग्रहण करनेवाला अप्रतिबध हो जाता है। उसे सृष्टि के कर्म-कषायादि कोई भी विरुद्ध तत्त्व प्रतिबंधित नहीं कर पाते हैं। वे यथाशीघ्र अपने अन्तिम गन्तव्य मुक्तावस्था को उपलब्ध कर सकते हैं। इसे आचार्यश्री ने परमात्मा के गुणों से सिद्ध कर दिया। परमात्मा के गुणो ने परमात्मा की शरण ग्रहण की और फिर वे इस सृष्टि मे विचरने के लिये निकले। इस समय उन्हें यथेच्छ विचरण करते हुए कौन रोक सकता है?
ये एक नाथ सश्रित-जिन्होने आप एक का ही आश्रय लिया है। ता यथेष्ट सचरत -उनको यथेच्छ विचरण करते हुए। क निवारयति-कौन रोक सकता है ?
यह प्रश्न कर उन्होंने एक बहुत बड़ा समाधान प्रस्तुत किया कि परमात्मा के गुणो को कोई नहीं रोक सकता। अर्थात् वे इस सृष्टि में व्याप्त हैं। यथायोग्य भक्तात्मा इन गुणो को धारण करता है। तभी वह सच्चे अर्थ में परमात्मा की शरण ग्रहण करने मे सफल हो सकता है।
दर्शन से वे ही सफल हैं जो परिवर्तन पाते हैं। कहा, कौन सा और कैसा परिवर्तन आवश्यक है और यह कैसे हो सकता है ? उसे हम ध्यान के माध्यम से "परिवर्तन" विषय का विश्लेषण करेंगे, और हमारे हृदय का भी परिवर्तन करेंगे।
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श्लो. १५:१६
१२.परिवतेन
परिस्थितियो का परिवर्तन सृष्टि का क्रम है परतु हृदय का परिवर्तन सृष्टि का सामजस्य है। परिस्थितियो का परिवर्तन प्रकृति का न्याय है। परन्तु हृदय का परिवर्तन प्रकृति का प्रकट होना है, विभाव से स्वभाव मे आना है। न्याय का चाहा-अनचाहा स्वीकार होता है परन्तु प्रकट चाह-अनचाह से ऊपर रहता है। विसगतियो से परिपूर्ण इस जीवन मे क्रम का विकास होता रहता है। सामजस्य सगति या विसंगति मे समानरूप से रहता है।
यहा हृदय परिवर्तन का मतलब वृत्ति और भावों का परिवर्तन है। वरना आजकल डाक्टर भी Surgery द्वारा HeartChange करते हैं। परतु यहाँ हमारी चेतना, भाव और वृत्तियो का परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन से वास्तव मे हृदय सजीव होता है, जीवत होता है, गतिवान होता है। यह पौद्गलिक या पार्थिव हृदय की बात नहीं है। परतु आत्मिक भावो के स्रावो का कथन है। ____ भक्ति वृत्ति परिवर्तन की शल्य चिकित्सा है। आचार्य श्री भक्तामर स्तोत्र द्वारा भक्ति का पथ प्रदान कर रहे हैं।
परमात्मा मे एकरूप होकर उनके सहज स्वाभाविक निर्विकार स्वरूप के दर्शन पा रहे हैं। परमात्मा के तेजोमय स्वरूप मे लीन उनके मुख से निकला
चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दरादिशिखरंचलितं कदाचित्॥१५॥ (भगवन्)
- (हे प्रभो) यदि
- अगर - तुम्हारा
- मन त्रिदशाङ्गनाभि
देवाङ्गनाओ के द्वारा अर्थात् देवलोक की अप्सराओ
द्वारा मनाक् अपि
किचित भी, थोड़ा भी
मन
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परिवर्तन ७७ विकारमार्गम् - बुरे भाव की ओर, विकार मार्ग की ओर अर्थात्
वैभाविक परिणति की ओर न नीतं
खीचकर नहीं लाया गया अत्र किम् चित्रम् - तो इसमें आश्चर्य ही क्या है कल्पान्तकाल
प्रलयकाल/निर्विकल्प अवस्था चलिताचलेन
पर्वतों को चलायमान करनेवाला मरुता
- पवन/दूषित वातावरण कदाचित्
- कभी भी चलितम्
- चलायमान हो सकता है?
(अर्थात् कभी नहीं) हे महाप्रभु। कितना अद्भुत है आपका निर्विकार वीतराग स्वरूप। अकाट्य प्रबलतावाली वैषयिक अभिव्यक्तियाँ आपको विचलित नहीं कर पाती हैं क्योंकि आप विषयातीत हैं। ___ इस सृष्टि में ऐसे दो विरुद्ध तत्त्व हैं, जिनका कभी सामजस्य नहीं हो पाता। युगो बीत गये परतु ये लड़ते ही रहे हैं-एक रागभाव और दूसरा विरागभाव। रागी विरागी को विचलित करने के प्रयत्न करता है परन्तु जिसने आत्मा की सहज स्थिति का अनुभव कर लिया उसे रागी विचलित नहीं कर सकता है।
हमारे मन में एक प्रश्न हो सकता है, ऐसा क्या है जो वे विचलित नहीं हो सकते हैं? इसका कारण आचार्यश्री ने इस श्लोक में अन्तिम पंक्तियों द्वारा प्रस्तुत किया है।
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ?
प्रश्न चिन्ह के साथ उत्तर की विलक्षणता यहा झलकती है। पद चार मे हमने कल्पात काल के उद्धत पवन के विषय में सोचा था, वहां कल्प की विभिन्न व्याख्याएँ आ चुकी हैं। कल्प के अन्त काल मे पवन उद्धत होता है। यहा लिखा है चलित होता है। उद्धत जो भी होगा, निश्चल नहीं रह सकता है, वह चलित होता है और इस चलायमान स्थिति मे वह जिसका भी स्पर्श करता है उसे भी विचलित करता है। सृष्टि में ऐसा कौनसा तत्त्व है जो इस स्थिति में विचलित न हो। यहाँ असामान्य पवन से मेरुपर्वत के शिखर का विचलित न होने का कहा है। जिसका संकेत है कि विकल्पों के द्वारा मन को विचलित करनेवाले विकारी पुद्गल आपके निर्विकार स्वरूप को कैसे कपायमान कर सकते हैं?
विस्तार से परमात्मा को मेरुपर्वत की उपमा से विभूषित किया है।'
१
सुपगडंग सुतं, श्रुतस्कघ १, अ ६, गाथा १० से १४
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७८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
आगम मे आत्म-प्रदेशो के ऐजन (कपन) के बारे मे कहा है। बाह्य वातावरण का मानव के मन पर प्रभाव होता है तब द्रव्यमन भावमन को प्रभावित करता है। भावमन आत्म-प्रदेशो को कपित करता है और फिर कर्म का बन्धन होता है। इस प्रकार कषाय और योग के अनुबध से ही कर्म बन्धन होता है। वीतरागी परमात्मा पर बाह्य वातावरण का प्रभाव ही नही होता और न ही उनके आत्मप्रदेशो मे कपन होता है, तो फिर विकारी भावो का उत्पन्न होना और विचलित होना सभव ही कैसे हो सकता है ?
अब दूसरा प्रश्न है, निर्विकारी परमात्मा के लिये तो इस बात को स्वीकार कर लेवे, परतु इससे हमे क्या? हम तो सतत विकारो से प्रभावित होते रहते हैं। आज विकारी वातावरण बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक वातावरण एक बम्ब-विस्फोट की भांति हमे भीतर से छिन्न-भिन्न कर रहा है। प्रति समय हम मे एक नयी सृष्टि की सरचना हो रही है। हमे ऐसे वीतराग का पूर्ण शुभत्व जानकर भी क्या लाभ ? यह प्रश्न ससार के समस्त रागियो का प्रश्न है और इसका उत्तर हमे भक्तामर स्तोत्र से पाना है। साथ मे मनोविज्ञान के सिद्धान्तो का भी निरीक्षण करना होगा, क्योंकि प्रत्येक विकारी भावो के कारण हमारी मानसिक अभिव्यक्तियों निहित हैं। ___सामान्यत हमारे भीतर दो प्रणालिया काम कर रही हैं। एक है रासायनिक प्रणाली
और दूसरी है विद्युत्-नियत्रण प्रणाली। ये दोनो प्रणालिया आदमी के आचार और व्यवहार का नियन्त्रण करती हैं। यदि रासायनिक प्रणाली को समझ लिया जाए तो जीवन का क्रम बदल सकता है। रासायनिक प्रणाली मे अन्त स्रावी ग्रन्थिया काम करती हैं। उनके साव रक्त मे मिलते हैं और आदमी के व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं। इन नावो मे ध्यान की विद्युत् नियत्रण प्रणाली से परिवर्तन किया जा सकता है। उसके काम-क्रोधादि विकारो की उत्पत्ति के सूक्ष्म कारणो को हम नही जान सकते हैं, परन्तु इस स्थूल शरीर मे इन विकारो की उत्पत्ति का कारण तो खोज सकते हैं। यह निश्चित है कि किसी अन्त नावी ग्रन्थि का ऐसा नाव रक्तगत हुआ है जिससे विकार उभरते हैं। परमात्मा के ध्यान के द्वारा अन्त स्रावी ग्रन्थियो के नाव बदले जा सकते हैं और जब वे बदलते हैं तब आवेग समाप्त हो जाते हैं। रसायन बदलते हैं तो काम-क्रोधादि विकारो वाली आदते भक्ति, सवेग आदि मे बदल जाती हैं। अन्यथा आदत का बदलना असभव है। __इसी प्रकार विद्युत्-नियत्रण का परिवर्तन होता है। हमारे स्नायु सस्थान मे पर्याप्तमात्रा मे विद्युत् है। उसी विद्युत् के कारण हमारी सक्रियता बनी रहती है। उन विद्युत् के प्रकपनो को बदलने पर आदते बदल जाती हैं।
परमात्मा के ध्यान का सबसे बड़ा प्रभाव है कि इससे हमारी विद्युत् प्रणाली मे बहुत बडा परिवर्तन आ सकता है। उनके शान्त परमाणुओ का ध्यान करने से हमारे विद्युत् तन्त्र मे उभरती अशुद्ध तरगे शुद्धता मे तरगित हो जाती हैं।
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परिवर्तन ७९
इस बात को लेकर एक मनोवैज्ञानिक ने प्रयोग किया। उसने बिल्ली के मस्तिष्क को शान्त करने के लिए उसके सिर पर एक इलेक्ट्रोड लगाया और चूहे के मस्तिष्क को उत्तेजित करने के लिए उसके सिर पर भी इलेक्ट्रोड लगाया। उससे दोनों के मस्तिष्कीय विद्युत् मे परिवर्तन घटित हुआ । फलस्वरूप बिल्ली चूहे के सामने शान्त खड़ी हो गई और चूहा उस पर झपटने लगा, आक्रमण करने लगा। कितनी उल्टी बात। इस प्रकार आक्रमण के केन्द्र को बदलकर उसमे उपशमन लाया जा सकता है और उपशमन के केन्द्र को बदलकर उसमें आक्रामकता लाई जा सकती है। वीतरागी का ध्यान करने से आक्रामकता उपशमन में परिणमित होकर परिवर्तित हो जाती है।
इसी प्रकार शेर और खरगोश पर भी प्रयोग किया गया । वृत्तियो की अपेक्षा से शेर खरगोश बन गया और खरगोश शेर बन गया। शेर पर खरगोश आक्रमण करने लगा।
ये कल्पित कहानिया नहीं, प्रयुक्त प्रयोग हैं। इनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि आदमी को बदला जा सकता है रासायनिक परिवर्तनो के द्वारा और विद्युत् प्रकपनो के परिवर्तनों के द्वारा। यह असंभव नही है। परमात्मा के ध्यान मे परिवर्तन की महान शक्ति है।
इसी कारण आचार्य श्री इस तथ्य को नैसर्गिक परिवर्तन के एक महान सिद्धान्त को अगले श्लोक में प्रस्तुत कर रहे हैं।
नाथ ।
त्वम्
निर्धूमवर्ति अपवर्जिततैलपूर चलिताचलानाम्
मरुताम्
जातु
न गम्य
निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूर, कृत्स्न जगत्त्रयमिद प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुता चलिताचलाना, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ | जगत्प्रकाश ॥ १६ ॥
स्वामिन्
इदं
कृत्स्न
जगत्त्रयम्
-
-
-
आप
धुवा और वर्तिका (बाती) से रहित
लबालब तेल से रहित
पहाड़ों को डावाडोल करनेवाली
हवाओ से
कदाचित् कभी भी
प्रभावित होने योग्य नहीं हो, अर्थात् प्रवेश पाने के योग्य नहीं हो
इस
समस्त
तीनो लोकों को
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८०
भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
प्रकटीकरोषि
जगत्प्रकाश
-
अपर
दीप
असि
यहा पर "दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ। जगत्प्रकाश द्वारा परमात्मा को अपूर्व परम दीपक के रूप मे सबोधित किया है। प्रथम तीन पंक्तियो मे सामान्य दीपक के कुछ दुष्प्रभावित कारणो को प्रस्तुत कर परमात्मा को दीपक से अनुपम प्ररूपित किया, परतु अतिम पंक्ति मे वृत्ति परिवर्तन करानेवाले इस महान तत्व को दीपक से बढ़कर कोई दूसरा उपमान न देखकर अपूर्व दीपक के रूप मे प्रज्ञापित किया।
प्रकट कर रहे हो, आलोकित कर रहे हो
(d) विश्वभर को प्रकाशित करने वाले (आप)
अपूर्व
दीपक
-
हो
11
आप दीपक हो परन्तु दीपक से सम्बन्धित कारणो से रहित हो-इन कारणो मे भी बड़ा रहस्य है
४
१ निर्धूम - सामान्य दीपक प्रकाशित होता है पर उसमे निरतर धुवाँ होता है। आप अपूर्व दीपक हो । आप मे कोई धुँवा नही है क्योकि धुवॉ कालिमा, धुधलापन, व्याकुलता और गरमी का प्रतीक है।
परम प्रभु तू घाति कर्म से सर्वथा रहित है। ये चारो कर्म धुवे की भाति हैं।
१ ज्ञानावरणीय कर्म -कालिमा का प्रतीक है, स्वय ज्योतिर्मान ज्ञान स्वरूप आत्मा इस कर्म के प्रभाव से अधकारमय है । आप ज्ञानावरणीय कर्म से रहित हो अत सदा ज्योतिर्मय हो ।
२ दर्शनावरणीय कर्म- जो धुधलापन का प्रतीक है क्योकि जीव की यथास्थिति रूप वास्तविक बोध में बाधक कारण है। आप इस कर्मावरण से सर्वथा रहित हो अत अनन्तदर्शी हो ।
३ मोहनीय कर्म - इसका मुख्य काम जीव को आकुल व्याकुल कर देना है | अनन्त अव्याबाध आनद स्वरूप आत्मा इसी कर्म से बेचैन होकर प्रबल भ्राति मे अनादिकाल व्यतीत करता है। आप वीतरागी हो अत मोहनीय रजित रागद्वेषादि से सर्वथा रहित हो ।
अतराय कर्म-आत्मा इस कर्म के कारण उल्लास रहित होकर नि सत्त्व बन जाता है। अत: आप अनन्तवीर्य सम्पन्न हो ।
२. वर्तिका (बाती) से रहित - मोह और मिथ्यात्वभाव रूप बाती से भी तू रहित है। ३ अपवर्जिततैलपूर -याने लबालब तेल से रहित । तैल चिकनापन का प्रतीक है । गोद और तैल दोनो चिकने पदार्थ गिने जाते हैं पर गोद का चिकनापन पानी से साफ हो जाता है, तैल का नही । इसीलिए स्नेह - रागभाव को तेल की उपमा दी गई है। परमात्मा तू परम वीतरागी है । अत राग रूपी तैल से तू सर्वथा रहित है।
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८२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि दीपक के ज्योतिर्मय भाव-स्पर्श से हमारा चैतन्य दीपक भी तत्स्वरूप ज्योतिर्मान हो सकता है। तब फिर हम मे और परमात्मा मे कोई अन्तर नही हो सकता है। परिवर्तन का यह कितना महान् सिद्धान्त है। हम भी सर्वथा विकार रहित, कर्म-कषाय रहित हो सकते हैं। मात्र साधना-भक्ति द्वारा उनके महान् भाव-स्पर्श की आवश्यकता है। परम मे सभी चरम को परम बनाने की महान सिद्धि/शक्ति है। हम स्वय परमात्म स्वरूप हैं, हम मे और उन मे कोई फर्क नही है।
सर्वथा ससारी सर्वदा कर्मों से घिरा हुआ यह जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। कितना अद्भुत सिद्धान्त है यह। सदा ज्ञानावरणीय से आवरित आवरण मुक्त हो सहज केवलज्ञान प्रकाश से अनन्तज्ञानमय होता है। अनन्त दर्शन को प्रकट करता है। सर्वथा व्याकुलता रहित निज सहज अव्याबाध आत्मिक स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है।
परिवर्तन का यह सिद्धान्त जैन दार्शनिक धरातल पर अत्यन्त मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। सामान्यत व्यक्ति स्वय को कर्मवधन मे बधा हुआ मानकर अत्यन्त लाचार और विवश मान रहा है। फलत: वह कछ नही कर पाता है। जब भी कोई द ख की अनुभूति को वह पाता है तो उसे कर्मोदय मानकर सात्वना पाता है। कर्मोदय से जीव सुख-दुःख की अनुभूति अवश्य पाता है। परन्तु, कर्मों के उदय के पूर्व व्यक्ति इसके परिवर्तन मे स्वतत्र है। वह उसे बदल सकता है, समाप्त कर सकता है, या पहले भी उदय मे ला सकता है। कर्म बधन से उदय के बीच के इस अवसर को कर्म-सिद्धान्त मे अबाधाकाल यानि Extension Period कहते हैं। "जो किया है वह भोगना ही पडेगा।" इस सामान्य सिद्धान्त मे कर्मशास्त्र एक बहुत बड़ा अपवाद सिद्धान्त भी समझाता है। कर्म-सिद्धान्त मे इसे उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा और सक्रमण कहते हैं। हम आज यहा जिस परिवर्तन पर सोच रहे हैं वह हमे इस अपवाद से बहुत कुछ प्रदान करता है। सक्रमणकरण यह परिवर्तन का प्रमुख सिद्धान्त है।
आगम मे इसे इन शब्दो मे कहा हैचउविहे कम्मे पण्णत्ते, त जहा१. सुभे नाममेगे सुभविवागे, २ सुभे नाममेगे असुभविवागे, ३. अंसुभे नाममेगे सुभविवागे, ४. असुभे नाममेगे असुभविवागे।
-ठाण ४।६०३ इसमे दूसरा और तीसरा-ये दोनो विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और सक्रमण के सिद्धान्त के प्ररूपक हैं। एक होता है शुभ, पर उसका फल अशुभ होता है। दूसरा अशुभ होता है पर उसका फल शुभ होता है। बँधा हुआ है पुण्य कर्म, पर उसका फल पाप होता है। बँधा हुआ
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परिवर्तन ८३ है पाप कर्म, पर उसका फल पुण्य होता है। कितनी विचित्र बात है। यह सारा सक्रमण का सिद्धान्त है। सक्रमण का सिद्धान्त पुरुषार्थ का सिद्धान्त है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि
अशुभ शुभ मे और शुभ अशुभ मे बदल जाता है। सक्रमण से कर्म-परमाणुओ मे परिवर्तन किया जा सकता है।
सक्रमण का यह सिद्धान्त कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है। आज के वैज्ञानिक इस प्रयल मे लगे हुए हैं कि "जीन" को यदि बदला जा सके तो पूरी पीढ़ी का परिवर्तन हो सकता है। सक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है। आधुनिक “जीव विज्ञान" की जो नई वैज्ञानिक धारणाए और मान्यताएँ आ रही हैं, वे इसी सक्रमण सिद्धान्त की प्रतिपादनाए हैं।
इस श्लोक मे ५ लकार हैं जो क्रमश लक्ष्य, लगन, लय, लीन और लाभ का प्रतीक है। परमात्म-भक्ति का प्रथम लक्ष्य बनता है, बाद में भक्त की परमात्मा मे लगन लगती है, जहा लगन होती है वहा साधक उस रूप मे लय होता है। लयता लीनता से ही पल्लवित होती है और अन्त मे-लीनता तत्स्वरूप हो जाने का अनन्य लाभ प्राप्त कराती है। __ परिवर्तन के इस महान सिद्धान्त को आचार्यश्री के द्वारा इस गाथा मे प्राप्त कर हम अपने मे एक अपूर्व परिवर्तन कर सके तो भक्तामर स्तोत्र हमारे लिये भी सफल स्तोत्र है। सहज परिवर्तन की दिशा मे प्रगतिशील साधक की लोक पर जो प्रतिक्रिया होती है उसे हम प्रसन्नता के रूप मे देखते हैं। बिना प्रसन्नता के अनुष्ठान निरर्थक है। इसकी सार्थकता अब हम परम-आत्मिक "प्रसन्नता" नामक प्रवचन से सम्पादित करेंगे।
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प्रसन्नता ८५ हे वत्स आत्मा अनत आनद से सम्पन्न है, परिपूर्ण है, उसी में तू अपने मन को लगा, चित्त को रमा, उसी मे अपने अध्यवसायो को सजोये रख।
भक्तामर स्तोत्र परम प्रसन्न स्वरूप परमात्मा से मिलन कराकर उस प्रसन्न स्रोत मे भक्त को अनुस्यूत करता है। इसी विलक्षणता ने इस स्तोत्र की गरिमा बढ़ायी है। काल के परिवर्तन मे भी इसकी यह विशिष्टता आज भी यथावत् है। आज भी भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने वाला समस्त दलितो से मुक्त हो, प्रसन्न होता है। कोई इसे स्तोत्र का चमत्कार मानता है, कोई इसे परमात्मा का प्रसाद मानता है तो कोई इसे कर्मक्षय द्वारा क्षायिक भावो की उपलब्धि मानता है। परतु, एक बात निश्चित है कि यह स्तोत्र प्रत्येक काल, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक वातावरण में प्रसन्नता प्रदान करने का गुण प्रकट करता रहता है।
यदि इसे चुनौती ही माने पर एक बात अवश्य ध्यान रहे कि बिना चित्त-शुद्धि के यह प्रसन्नता नहीं मिल सकती। बिना प्रसन्नता के क्षोभ नहीं मिट सकता। प्रत्येक आक्रमणों से क्षुब्ध होने वाला प्राणी चिरप्रसन्नता का पात्र नहीं बन सकता, क्योंकि जिस हृदय में स्थायी प्रसन्नता आती है वहां खिन्नता समाप्त हो जाती है। फलत प्रसन्न व्यक्ति के पास जो भी आता है, प्रसन्न हो जाता है। ___ आचार्यश्री भक्तामर स्तोत्र द्वारा हमें यही सिखाते हैं-परम के स्वरूप को अपने भीतर प्रकट करो, उदित करो। यह उदय ऐसा उदय है जिसका कभी अस्त नही होता है। सम्पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ इस प्रसन्न स्वरूप की अपने भीतर प्रतिष्ठा करो। अनुकूलता का भेद भूल जाओ। प्रतिकूलताएँ अपने आप अनुकूल होती जाएंगी। इन्ही भावों को उनकी भाषा मे अब देखे
नास्त कदाचिदुपयासि न राहुगम्य. स्पष्टीकरोषि-सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः,
सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र । लोके ॥१७॥ मुनीन्द्र।
- हे मुनीश्वर (आप) कदाचित्
- कभी भी अस्तम्
- अस्त अवस्था को
- नहीं उपयासि
- प्राप्त होते हो
- न राहुगम्य
राहु ग्रह के द्वारा ग्रसने योग्य (राहु नवग्रहो मे एक ग्रह है जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर सक्रमण काल मे अपनी छाया डालता है। तब उनका ग्रहण हुआ माना जाता है।)
न
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असि
८६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि असि
- हो
- न अम्भोधरोदर
- बादलो के उदर मे जिसका महाप्रभाव निरुद्धमहाप्रभाव
अवरुद्ध हो सका है (अत) लोके
- इस लोक मे सूर्यातिशायि महिमा - सूर्य से भी अधिक महिमा को आप धारण
करने वाले
- हो। यहा पर सूर्य के साथ परमात्मा की तुलना करने का प्रयास किया गया है। यद्यपि तुलना उनकी होती है जो समान हो। भक्तामर स्तोत्र की अद्भुत शैली यही है कि इसमे पहले तुलना करने का प्रयत्न कर फिर अतुलनीय बताकर पुन उन्ही उपमा को प्रतीक बनाकर परमात्मा को विश्लेषित किया गया है।
इसे हम तीन तरह से देखेगे१ सामान्य याने जागतिक सूर्य। २.परमात्मारूप सूर्य। ३ आत्म सूर्य।
१ सामान्य सूर्य-सूर्य जो प्रतिदिन उदित होकर सृष्टि के प्राणियो को नवचेतना, स्फूर्ति और आवश्यक ऊष्मा प्रदान करता है। मानव सृष्टि ने अपने मानस-विकास मे इसे अधिक मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण माना है। चूंकि इसके अभाव मे मानवीय ऊर्जा की तरगो मे परिवर्तन आना असभव है।
उदित होते हुए सूर्य की कई लोग पूजा अर्चना करते हैं, नमस्कार करते हैं। इसकी विविध तरह से पर्युपासना कर जगत ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। सर्व प्रवृत्तियो का प्रेरक बल यह सूर्य शुद्ध तेजोलेश्यावान् है। इसी कारण इसे रोग, अधकार और गदगी रूप अनिष्टों को दूर करने वाला माना है।
इस सृष्टि के प्राणियो को सूर्य की इतनी अधिक आवश्यकता होने पर भी इसका अभाव भी होता है। यह अभाव नित्यसृष्टि मे नियमित हो जाने से हम इसे अनुभव का विषय नही बना सके हैं, परतु जब एक भावसूर्य की हमे उपलब्धि होती है तब अभाव-सूर्य के अभाव का हमे उद्बोध होता है। इसी विशिष्ट ध्यान प्रणाली मे लीन कविश्री ने जागतिक सूर्य मे चार अभाव दर्शाये हैं
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प्रसन्नता ८७
१ यह अस्त होता है। २ राहु से ग्रसित होता है। ३ बादलो के उदर में इसका महाप्रभाव अवरुद्ध हो सकता है। ४ यह दिन मे प्रकाश देता है, रात में नही। यह खुले स्थानो को पूर्ण रूप से आलोकित करता है, आच्छादित स्थानो को नही।
अब इस सामान्य सूर्य की परमात्मारूप सूर्य के साथ तुलना कर इन दोनों सूर्यों का हमारी अपनी चेतनसृष्टि पर होने वाले प्रभाव को देखेंगे।
हे विश्वविभु आप सूर्य से भी अधिक महिमा को धारण करने वाले हो क्योंकि सूर्य मे पाये जाने वाले चारो अभाव आप मे सम्पूर्ण भावरूप हैं। १ सूर्य उदय भी होता है अस्त भी होता है परतु हे प्रभु। आप कभी अस्त नही होते हो।
केवलज्ञान पूर्ण है। इस पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में कभी अभाव नही आता है। क्योंकि
आप शाश्वत हो, नित्य हो, ध्रुव हो। २ राहु ग्रह से सूर्य ग्रसित होता है जिसे ससार ग्रहण कहता है। हे परमात्मा। ससार के किसी भी जड़ परमाणु से आप ग्रसित नही होते हो। सर्वथा द्वेष से रहित होने से आपका कोई दुश्मन नही है। इसलिए आपके आत्मतेज को अवरुद्ध करे ऐसा कोई
राहु इस सृष्टि मे नही है। ३ सघन बादलो के समूह मे सूर्य का प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है। परमात्मा। आप
अनिरुद्ध हो। सर्वथा कर्म रहित हो। कर्मरूपी बादलो का अश मात्र भी आपको अब
रोक नही सकता है। आपका परम चैतन्य सूर्य नित्य आवरण रहित होता है। ४ सर्व दूषणो से रहित है परमात्मा। जागतिक सूर्य एक साथ सृष्टि के कुछ विभाग को
आलोकित करता है लेकिन आप समस्त लोकालोक को एक ही साथ आलोकित करते हो। इन विशिष्टताओ के कारण आपको “आइच्चेसु अहिय पयासयरा" सूर्य से भी अधिक प्रकाश करने वाला माना है।
इन दोनो सूर्यों के स्वरूप का विश्लेषण करने पर एक प्रश्न होता है कि जगत का सूर्य कुछ समय, क्षेत्र या अस्त की मर्यादा मे बधा हुआ भी कुछ समय, कुछ क्षेत्र या अस्तित्व की स्थिति मे आवरण रहित अवस्था मे हमारे दैहिक और मानसिक अवतरणो में परिवर्तन
और परिवर्धन लाकर हमे प्रसन्नता प्रदान करता है, परतु जिन परमात्मरूप सूर्य की महिमा की हम चर्चा करते हैं वे हममे क्या परिवर्तन कर सकते हैं ? हमारी मानसिक प्रसन्नता को कैसे वर्धमान कर सकते हैं ? उनके इस महत्त्व का स्वीकार भी कर लें, परतु उनका हमारे साथ क्या सम्बन्ध है ? इसे समझे बिना भक्तामर स्तोत्र से हमारा कोई सबध स्थापित नहीं होता है।
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८८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___ हमारी आत्मा स्वय एक सूर्य है जो सदा अस्तित्वमय है। शाश्वत, नित्य और ध्रुव है। योग के अनुसार शरीर मे षट्चक्र हैं। इनमे मणिपूर चक्र जो नाभिस्थान मे रहता है इसे सूर्यचक्र भी कहते हैं। मानवीय प्राण नाभिकेन्द्र से स्पंदित होते हैं। समस्त प्राणधारा विशेष ऊर्जा से व्यवस्थित रहती है। “नमो अरिहताण" या "अहं" की विशेष ध्वनि से साथ श्वासोश्वास को विधियुक्त मणिपूर या सूर्यचक्र मे पूरित करने से हमारी अत तरगो का विशेषत बाह्य प्रकाश तरगो के साथ सबध स्थापित होता है। मणिपूर चक्र का भक्तामर के साथ के सबध को हमने स्तोत्र की प्रथम गाथा के विवेचन मे भी सयोजित देखा था। ____ मन के सस्कार मणिपूर चक्र से सयोजित होते हैं। बाह्य वातावरण का प्रभाव मन पर पडता है, इससे हमारे मन के सस्कारो मे परिवर्तन आता है। सर्वथा विकारो से रहित आत्मा अनायास इस विकारी दुनिया का प्रवास करने निकलता है। इसी के द्वारा हममे क्रोधादि विकार रूप कषाये प्रकट होती हैं। सर्वथा शब्द, रूप, स्वादादि में सतत रमनेवाले इन भावो का परिवर्तन कैसे सभव हो सकता है ? इसका उपाय साधना मे सस्कार परिवर्तन से बताया है। यह सूर्य चन्द्र से सम्बन्धित है। यदि हम सूर्य या मणिपूर चक्र मे स्पंदित प्राण धारा की तरगो का सबध किसी शान्त, विकार रहित तरगो से सयोजित कर देते हैं तो सस्कारो मे परिवर्तन आ जाता है। और, सस्कारो का परिवर्तन हमारे जीवन के समस्त क्रियासूत्रो का परिवर्तन है।
ऐसी शात, विकार रहित तरगे मात्र परमात्मा वीतराग प्रभु मे ही निहित हैं, इसी कारण साधना मे हम इन्हें परम आराध्य देव मानते हैं। मत्र और ध्यान साधना की विशेष विधि से बाह्य तरगों मे प्रवाहित सस्कार अतरग मे परिवर्तित किये जा सकते हैं। यह परिवर्तन आत्मवृत्ति का परिवर्तन है। वृत्ति का परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन है। परमात्मा की परम प्रसन्नता का वह विशेष पात्र बन जाता है। उसकी वे विशेष निष्क्रिय क्षमताएँ सक्रिय हो जाती है।
आत्मा द्रव्यरूप से नित्य है, अस्तित्वमय है। फिर भी विभिन्न पर्यायो मे वह परिवर्तित होता रहता है, बदलता रहता है। यह सदोदित ही है। इसका अस्त नही होता। फिर भी अज्ञान के कारण भ्रामक धारणा मे दैहिक-जन्म-मृत्यु आदि को जीव स्वय की जन्म मृत्यु मानता है। इसलिए महायोगी श्रीमद् राजचद्रजी ने कहा है
"देह-जीव एकरूप भासे छे अज्ञान वडे क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे, जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुख, मृत्यु, देह नो स्वभाव जीव-पद मा जणाय छे
जड़ ने चेतन बनने . परमात्मा का ध्यान हमें इस भ्रमपूर्ण मिथ्यादर्शन से मुक्त कर सहज आत्मदशा मे सयोजित करता है।
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प्रसन्नता ८९
विकाररूप राहु से ग्रसित हो जाने के कारण इसका निर्विकार सहज तेज आवरित हो जाता है। निर्विकार परम तेजरूप परमात्मा - सूर्य से सम्बन्ध स्थापित करने पर निर्विकार स्थिति प्रकट हो जाती है।
कर्मरूप बादलो के आवरणों में छिपा यह निज स्वरूप अप्रकट रहता है । सर्वथा कर्म रहित परमात्मा का सम्बन्ध होने पर कर्मों के कारणरूप अन्य सर्व सम्बन्ध छूट जाते हैं और आत्मा स्वय कभी कर्मरहित स्थिति प्राप्त कर परमात्म स्वरूप प्राप्त करता है।
क्षयोपशम भावों मे कभी सहज रूप से आलोकित होता है, कभी कर्मकषायो से अवरुद्ध होता है। लेकिन परमात्मारूप सूर्य का तेज प्राप्त कर शुद्ध निरजन आत्म चैतन्य को प्रकट करता है, प्रकाशित होता है।
इस पर से हम यह सोच सकते हैं कि जागतिक सूर्य के प्रकाश की गति एक सेकण्ड मे एक लाख छियासी हजार मील की है, तो आत्मरवि की गति कितनी तीव्र हो सकती है। ध्यान कें द्वारा वह शीघ्र ही अनन्तवीर्य सम्पन्न वीतराग का सान्निध्य प्राप्त कर तत्स्वरूप को प्राप्त कर सकता है।
जैन कथा साहित्य मे परमात्मा महावीर के परम शिष्य प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी का आत्मलब्धि के द्वारा सूर्य की किरणे पकड कर अष्टापद पर्वत पर आरोहण का विशेष प्रसग आता है। कुछ समय पूर्व कई श्रोता इस कथन मे शका करते थे कि यह कैसे सम्भव हो सकता है ? क्या सूर्य की किरणे भी पकड़ी जा सकती हैं ?
अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने जब प्रथम बार यह घटना सुनी तो सोचा । जैनो के इस कथन मे अवश्य कुछ तथ्य है। उन्होने खोज शुरू की और इसे सफल करते हुए प्रथम बार मरीनर ४ को मगल ग्रह की ओर छोड़ा। उसके चार Solar Panel के Bulbous पर सूर्य की किरणे गिरते ही वे अणुशक्ति के रूप में रूपातरित होती रही। इस प्रकार मरीनर ४ ने बत्तीस करोड़ माईल का प्रवास मात्र सूर्य की किरणें पकड़ कर किया था। यह मरीनर ४० न लोहे से निर्मित था। प्रश्न होता है यदि ४० टन लोहे का आकाश जहाज ३२ करोड़ माईल का प्रवास सूर्य की किरणें पकड़कर कर सकता है तो अनन्त लब्धि सम्पन्न गौतम स्वामी क्यो नहीं अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर सकते ?
विदेशो मे कुछ ऐसे भी देश हैं जहाँ ६ महिने तक सूर्य का अस्त नहीं होता है और इसी प्रकार ६ महिने उदय भी नही होता। ऐसे देश मे ६ महिने निरतर दिन होते हैं, ६ महिने निरतर रात होती हैं। बड़े दिन और बड़ी रात हो वहाँ भी अस्त तो है, परन्तु जिस आत्मा ने परमात्मारूप सूर्य को अपने अन्त करण मे प्रकट कर लिया उनका कभी अस्त नही होता ।
सूर्य की तरह चन्द्र को भी उपमा का एक विशिष्ट साधन मानकर आचार्य श्री अगली पंक्ति में इन्हीं विचारधाराओं को चन्द्र के साथ वर्धमान करते हुए कहते हैंनित्योदय दलित- मोह-महान्धकार, गम्य न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ।
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तव
९० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प-कान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ॥१८॥ (भगवन्)
-(हे परमात्मा।)
-- आपका मुखाब्जम्
- मुख-कमल नित्योदयम् - सदा उदय रहनेवाला-रात-दिन उदय रहनेवाला दलितमोहमहान्धकारम् - मोहरूपी महान्धकार को नाश करनेवाला अनल्पकान्ति - अधिक कान्तिवान-अत्यन्त दीप्तिवान न राहुवदनस्य गम्यम् - राहु-ग्रह के मुख मे प्रवेश नही करता न वारिदानाम् गम्यम् - बादलो मे छिप नही सकता है जगत्
- सम्पूर्ण विश्व को विद्योतयत्
- विशेष रूप से प्रकाशित करता हुआ अपूर्वशशाकबिम्बम् - अलौकिक चन्द्रमण्डल विभ्राजते
- शोभा देता है। यह श्लोक गाथा १७ से बहुत कुछ अभिन्न है। वहाँ अस्त नही होने का कहा है, यहाँ नित्य उदित रहने का कहा है। इसी प्रकार अन्य सारी तुलनाएँ समझ लेनी चाहिये।
चन्द्र शीतलता का प्रतीक है। सर्वत्र प्रिय है। सहस्रार चक्र मे सिद्धशिला का ध्यान चन्द्र के आकार मे कर सिद्ध परमात्मा से एकरूपता साधी जा सकती है। ग्रीष्म की मौसम मे ऐसा ध्यान करने से पूरे बदन मे शीतलता का अनुभव होता है। _ वैसे ही भक्तामर स्तोत्र मे चन्द्रमा का महत्व अधिक ही रहा है। चन्द्र मन का प्रतीक है। इसी कारण मानसिक विकारो से पीड़ित मानव समाज भक्तामर स्तोत्र के नित्य पारायण से आह्वाद प्राप्त करता है। इन दोनो गाथाओ के समाहार रूप गाथा १९वी हैं।
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा?
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ। निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरैर्जलभारननैः॥१९॥
- हे स्वामिन्। तमस्सु युष्मन्मुखेन्दुदलितेपु - आपके मुख-रूपी चन्द्रमा के द्वारा हर तरह के
प्रगाढ़ अन्धकारो को नाश किये जाने पर
नाथा
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शर्वरीषु शशिना किम्
वा
अन्हि विवस्वता किम् निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके जलभारन जलधरै कियत् कार्यम्
प्रसन्नता ९१ - रात्रि मे - चन्द्रमा से क्या प्रयोजन? - अथवा
दिन मे-दिवस मे - सूर्य से क्या प्रयोजन? -- परिपक्व धान से वनो के सुशोभित हो जाने पर - भूलोक मे-पृथ्वी मे - पानी के भार से नीचे की ओर झुके हुए - बादलो के द्वारा - कितना सा काम निकलता है ? अर्थात् कुछ भी
नही।
परमार्थ की दृष्टि से प्रस्तुत गाथा भक्तामर स्तोत्र की एक अपूर्व गाथा है। निमित्त कारण का अत्यन्त महत्व प्रस्तुत करनेवाले इस स्तोत्र मे झलकता निश्चयात्मक स्वरूप यह इस गाथा की विशिष्टता है। आत्मा जब तक परमात्मा की भक्ति बाह्य रूप से करता है वह परमात्मा से सर्वथा भित्र है। भक्ति की चरम सीमा मे यह भिन्नता समाप्त होती है। और भिन्न अभिन्न बन जाता है।
यहा धान्य की फसल पक जाने पर पानी की निरर्थकता बताकर साधक की एक उच्चदशा का आलोकन कराया है। साधक कहता है- हे परमात्मा । तुझे सूर्य कहूँ या चन्द्र ? मै स्वय भी एक सूर्य हूँ लेकिन वह, जिसका सहजस्वरूप अप्रकट है। इसीलिये वह अनुदीय है। एक बार साधना की परिपक्वता आने पर मेरा आत्मसूर्य या आत्मविधु स्वय प्रकाशमान-उदीयमान हो जाएगा। परिपक्वता के लिये ही प्रभु तेरा स्मरण कर मैं प्रकाशमान होने का प्रयास करता हूँ। जब मैं स्वय प्रकाशमान हो जाऊँगा, तब तुझ मे और मुझ मे क्या फरक रहेगा? अर्थात कुछ नही। ___ गौतम स्वामी के बारे मे ऐसा कथन है कि एक बार १५00 तापस सन्यासियो को दीक्षित कर वे परमात्मा महावीर के पास आ रहे थे। मार्ग मे नूतन दीक्षितों को धर्म, आत्मा
और परमात्मा का स्वरूप समझा रहे थे। यह सब सुनते-सुनते ही नये मुनियो को पूर्ण केवलज्ञान हो गया था, और वे केवलियो की सभा मे जा बैठे थे।गौतमस्वामी छदमस्थ थे, उन्होने कहा-आपको वहा नहीं बैठना है, तब परमात्मा महावीर ने कहा-गौतम। वे वहीं सही हैं, अब मुझ मे और उन मे कोई अन्तर नहीं है। __इस गाथा मे साधक परमात्मा से अपनी छद्मस्थदशा की सवेदना प्रकट कर परम की कृपा से शीघ्र पूर्ण-ज्ञान की शुभकामना करता है।
"जीवलोके" शब्द साधक की ऐसी ही दशा का द्योतक है और ऐसे मे परमात्मा की अत्यन्त आवश्यकता का संकेत है। जीवन में साधना की खेती के पक जाने पर प्रभु तेरी
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९२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि क्या आवश्यकता है, पर अभी तो सिर्फ साधना के बीज बोये हैं। तू नही बरसेगा, तेरी कृपा नही होगी तो इस भयानक दुष्काल मे ये बीज सड़ जायेगे, जल जाएगे।
परमात्मा की इस प्राप्ति की आवश्यकता को और विकसित करते हुए मुनिश्री कहते
हैं
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाश,
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु। तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥ २० ॥ कृतावकाशम् - अनन्त पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञानम्
- केवलज्ञान यथा
- जिस प्रकार त्वयि
- आप मे विभाति
- शोभायमान है तथा
- वैसा (उस प्रमाण से) हरिहरादिषु - हरिहरादिक अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि मे नायकेषु
-- नायको मे, लौकिक देवताओ मे न एवम्
- वैसा है ही नही, अर्थात् सर्वथा ही नही स्फुरन्मणिषु - झिलमिलाती मणियो मे (महान रत्नो मे) तेज
- दीप्ति, कान्ति, चमक-दमक यथा महत्त्व याति जैसा महत्व प्राप्त करते हैं किरणाकुलेऽअपि __ - रश्मि राशि से व्याप्त होने पर भी काच शकले - कॉच के टुकड़ो मे-कॉच के हिस्सो मे
- तो न एवम्
- प्राप्त ही नही करता कृतावकाश शब्द यहा बडा महत्वपूर्ण शब्द है। कृत याने किया है। अवकाश के यहा दो अर्थ घटित होते हैं
१ प्रकाश और २ अवसर (Chance)।
हे परमात्मा! अवसर प्रदान करनेवाला जैसा ज्ञान तुझ मे सुशोभित होता है वैसा अन्य मे नही होता है, क्योंकि तुझ मे प्रकट यह ज्ञान दूसरो के ज्ञान को मुख्य अवतरण बन जाता है। परमात्मा का ज्ञान अन्य के अज्ञान को हटाने का अवसर है।
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मन्ये
त्वयि
प्रसन्नता ९३ ज्ञान के साथ शुद्ध सम्यग् दर्शन भी होता है। इसकी उपलब्धि को निखारते हुए आगे कहते हैं
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदय त्वयि तोषमेति। कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि॥२१॥ नाथ। ___ - हे भगवन्।
- मैं मानता हूँ किहरिहरादय - विष्णु और महादेव आदि लौकिक देव दृष्टा - हमारे द्वारा देखे गये एव वर
- यह अच्छा ही हुआ येषु दृष्टेषु - जिनके देख लेने पर हृदय - (मेरा) हृदय
- आप में तोषम् - सन्तोष को एति - प्राप्त होता है भवता वीक्षितेन - आप को देख लेने से
क्या (होता है ?) येन
जिससे भुवि
भूमण्डल में (पर) अन्य कश्चित् - अन्य कोई (देव) भवान्तरे अपि जन्म-जन्मान्तर में भी मनो - मन को-चित्त को-हृदय को
- नही हरति - हरण कर सकता
इस गाथा में परमात्मा की उपलब्धि को सतोष का एक अनोखा रूप दे दिया है। इसकी महत्वपूर्ण पंक्ति है
दृष्टेषु येषु हदयं त्वयि तोषमेति
तुम्हें देख लेने पर हृदय में सतोष होता है। सतोप सदा प्रसन्नता लाता है। योगिराज । आनदघनजी ने कहा
किम्
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९४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कयु, पूजा अखडित एह रे।
परमात्मा के पूजन का यदि कोई फल है तो वह है चित्त की प्रसन्नता। उनकी पूजा की जाय, स्मरण किया जाय, नमन किया जाय। और, यदि चित्त प्रसन्न नही होता है तो पूजा निष्फल है। पूजा अखडित कैसे हो सकती है ? तो कहते हैं कि वह चित्त की प्रसन्नता से होती है। द्रव्य-स्मरण निरतर नही होता है, पर भाव-स्मरण निरतर होता है और ऐसा निरतर ध्यान निरतर प्रसन्नता लाता है।
परमात्मा के कृपा प्रसाद से प्रसन्न और पुलकित व्यक्ति विश्वास के क्षणो मे सर्व आकर्षणो से मुक्त होकर एक विशेष स्वरूप मे सलीन हो जाता है। प्रसन्नता की यह परिपूर्ण सफलता स्वरूप की उपलब्धि है। इसे हम “स्वरूप" नामक विवेचन से प्राप्त करेंगे।
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श्लोक २२ से २७
१४.स्वरूप
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-
स्वरूप स्वभाव है। जो स्वय से कभी विलुप्त नही होता है वही तो स्वरूप है। जो निरतर प्रज्वलित रहता है, और प्रकटित होता है। स्व अनन्त है, अत स्व के रूप भी अनन्त हैं। अकेले के लिए, अकेले के द्वारा, अकेले की उपलब्धि मे अनन्त को समा देना स्वरूप को पा जाना है। ___स्वरूप याने अपनी चेतना का साक्षात्कार। समग्र विभाजनो मे छटी-बटी ऊर्जा निज-सहज मे जब वापस लौटती है तब स्वरूप का बोध होता है। इस बोध मे वाधक स्वय मे स्वय को भूल जाना है। स्वरूप मे लौटना याने अपने आपको पाना है। स्वरूप से अनभिज्ञ रहना याने अपने आपको खोना है। सपनो का सौदागर बना हुआ व्यक्ति कल्पना और भ्रांति मे सिमटकर अपनी समग्र ऊर्जा को विभाजित कर अवबोध से रहित होता है। __ स्वरूप को पाना ही अस्तित्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है। स्वरूप मे रम जाना सच्ची समाधि है और स्वरूप के आनन्द मे स्वय को देखते रहना सम्यक् सम्बोधि है। स्वरूप का आदर करने से स्वरूप की उपलब्धि होती है। जो स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है उसे अपने अस्तित्व का बोध हो जाता है। ___ स्वरूप से यह तथ्य झलकता है कि मानी हुई सत्ताए केवल भ्रम के आधार पर जीवित हैं। जब तक प्राणी अपनी प्रसन्नता के लिए अपने से भिन्न की खोज करता है तब तक वह स्वय से ही धोखा करता है। स्वय से ही अचिन्हित रहता है।
स्वरूप का अनुसधान परमात्मा बनने की प्रक्रिया है, परन्तु प्रश्न होता है कि इस स्वरूप को, जो अपना ही निजरूप है कैसे प्रकट किया जाय ? महापुरुषों ने इसका समाधान दिया कि चैतन्य में प्रतिष्ठित होने पर ही स्वरूप उपलब्ध हो सकता है।
जब तक व्यक्ति चैतन्य से बाहर होता है वह वासना से प्रभावित होता है। वासनामय वातावरण मे आन्दोलित होता है और वासना के ऊर्चीकरण से तरगित होता है। परिणामत उसकी ऊर्जाए विरुद्ध दिशा मे प्रगति करती हैं। और उसे अस्तित्व बोध से रहित करती हैं। ___ स्वरूप की अनुभूति से रहित होकर वृत्ति को सजोते रहना-यह अपने आप से नैतिक अपराध है। सृष्टि ने इस अपराधी मनोवृत्ति का एकमात्र दण्ड स्वानुभव से रहित होना बताया है। वृत्तियो से व्याकुल चित्त को पवित्र वातावरण भी पावनता नहीं दे सकता
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९६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि है। महापुरुषो का सान्निध्य और उनके स्वरूप का चिन्तन साधना क्षेत्र मे स्वरूप जगाने की सबसे बड़ी चुनौती है।
स्वरूप की उपलब्धि जन्म और मृत्यु से पर होने की प्रक्रिया है। फिर भी आचार्यश्री ने परम पुरुष के जन्म को महत्त्वपूर्ण बताते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वह जन्म भी महान् है जिसमे स्वय के स्वरूप को उजागर कर अन्य अनेक आत्माओ को स्वरूप का पथ-दर्शन कराया जाय। इसी को आचार्यश्री इस पद द्वारा समझाते हैं।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुत त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहनरश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्॥२२॥ स्त्रीणाम् शतानि - स्त्रियो के शतक अर्थात् सैकडो स्त्रिया शतश - सैकडो पुत्रान् -- पुत्रो को जनयन्ति - जन्म देती हैं (परन्तु) त्वदुपमम् - आपके समान सुतम् - पुत्र को अन्या - दूसरी अर्थात् आपकी माता के अतिरिक्त और कोई भी जननी -- माता न प्रसूता
नही जन सकी, नही उत्पन्न कर सकी सर्वा
- सभी दिश
दिशाएँ भानि - नक्षत्रो को, ताराओं को दधति - धारण करती हैं (किन्तु) प्राची एव दिग् - पूर्व दिशा ही, केवल पूर्व दिशा ही स्फुरदशुजालम् - प्रकाशमान किरणो के समूह वाले सहस्ररश्मि - सूर्य को, जनयति - जन्म देती है।
परमार्थ से इस श्लोक में चेतना के अनूठे भव्यत्व को उद्घाटित किया गया है। देहसामर्थ्य के दृष्टिकोण से मोक्षमार्ग के दाता, महामगलकारी परमात्मा को गर्भरूप में धारण करनेवाली माता भी सामर्थ्यवान् होती है। परमात्मारूप अद्वितीय पुत्र को अवतीर्ण
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स्वरूप ९७ करने वाली माता भी असामान्य होती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए यहा पर परमात्मा की तुलना सूर्य से और माता की तुलना पूर्व दिशा से कर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
अब हम सोचेगे कि इस श्लोक के साथ हमारा और परमात्मा का क्या सबध है ? हम में आचार्य सहित भक्ति करनेवाले हम सब आ जाते हैं। देह-सामर्थ्य और भक्ति सामर्थ्य की यहा तुलना की जा रही है। भक्ति एक स्रोत है, प्रवाह है, प्रक्रिया है, गति है, गत्यात्मकता है। भक्ति स्वय मातृस्वरूपा है। भक्ति को वात्सल्य का ही रूप माना है। ऐसी भक्ति जव समस्त रोमो में रम जाती है, आत्मप्रदेशो मे छा जाती है तव चैतन्यरूपा हो जाती है, ऐसी चेतना माता है और यह माता अपने मे परमात्म स्वरूप को जन्म देती है (प्रकट करती है)। ___ भक्ति के अतिरिक्त अन्य कौन सी भावस्थिति है जो परमात्मा को प्रकट कर सके ? जैसे अन्य दिशाए अन्य नक्षत्रो को धारण कर सकती हैं पर रविराज को प्रसव करने का सौभाग्य तो सिर्फ प्राची को ही मिला है वैसे ही भक्ति से ही भगवान प्राप्त होते हैं। परम वात्सल्य भरे हृदय मे ही परमात्मतत्त्व प्रकट हो सकता है, अतिरिक्त भावस्थिति मे नही।
प्रस्तुत महाभावो को हृदय मे धारण करना आसान नही है। गहराई मे उतरने पर ही इसका अनुभव हो सकता है। इन भावो का स्वीकार कर लेने पर प्रश्न होता है कि जो कभी नही सोचा वह हुआ और हमारी अनन्त चेतना मे वह परम प्रकट हुआ तो इसका क्या प्रयोजन या परिणाम हो सकता है ? उनको प्राप्त करने से क्या लाभ है ? जिसके अभाव मे हमने क्या खोया था जो भावमय होने पर पा लिया? __इसके उत्तर मे आचार्यश्री स्वय साक्षी बनकर हमारे सामने आते हैं। हम प्रारम्भ से देख रहे हैं कि सभी के मोक्ष की कामना करनेवाले आचार्यश्री के सामने विविध परिस्थितियो का सर्जन आत्मिक-परिवर्तन मे किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नही कर रहा है। परिस्थितियो का आना और व्यक्ति की दृढ़ता मे परिवर्तन हो जाना, यह तो ससार का नियम है लेकिन मुनि, सन्त जब साधना के क्षेत्र मे प्रवेश करते हैं तब ऐसी सासारिकता का त्याग करके ही आगे बढ़ते हैं। भक्तामर स्तोत्र इस तरह की हमे सम्पूर्ण प्रतीति कराता है कि परिस्थिति का, प्रतिकूलता का वातावरण बना देना, यह बहुत सहज
और स्वाभाविक है। लेकिन भक्तामर स्तोत्र अपनी सर्वोपरि अद्भुतता प्रकट करता है वह यह कि परिस्थिति की प्रतिकूलता व्यक्ति की आत्मिक अनुकूलता में कभी भी बाधा उत्पन्न नहीं कर सकी, दल्कि प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति को व्यक्ति अपनी साधना के बल पर अनुकूल बनाता चला जाता है।
यहा पर वेड़ियो के दधनों का टूटने का महत्त्व जितना हम मानते हैं उससे भी अधिक महत्व है आचार्यश्री की निर्द्वन्द्वता का, आचार्यश्री की निश्चलता का, आचार्यश्री की दृढ़ता का। उन्होने प्रत्येक प्रतिकूलता को अनुकूल बनाया। इसीलिए यदि आप अन्वेषण
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९८ भक्तामर स्तोत्र - एक दिव्य दृष्टि करेंगे तो पूरे भक्तामर स्तोत्र मे एक शब्द या एक भी पद्य ऐसा नही मिलेगा जिसमे उन्होने परमात्मा से ऐसी प्रार्थना की हो कि हे परम प्रभु! तुम मेरे आराध्य हो फिर भी मै बेडियो के बधन मे बधा हूँ। पहले तो बधना ही नही चाहिये और यदि बध गया तो वे बधन एक साथ टूट जाने चाहिये। मै एक-एक गाथा गाऊ और बधन टूटते जायँ . लेकिन ऐसा कोई पद्य इसमे नहीं है। बल्कि ऐसे भाव हमें अवश्य मिलते हैं कि वे तथ्य प्रस्तुत करते हैं। अभी दो दिन से हमारे यहा कर्म सगोष्ठी चल रही थी। कई विद्वानो ने विचारो और सिद्धान्तो का सामजस्य कर कर्म की theory पर विचार प्रस्तुत किये। मैं कभी सोचती हूँ हम किसी एक महापुरुष के जीवन की गहराई में उतर जायें तो हमे कर्म सम्बन्धी सारे प्रश्नो का समाधान मिल सकता है।
आचार्यश्री हमे स्पष्ट समझाते हैं कि बेड़ियो के बधन आये क्यो? कौन किसको बेडियो मे बाध सकता है? यही राजा इसी मुनि को क्यो बेड़ी पहनाते हैं ? हमारे पास इसका एक ही उत्तर है कर्म से। आचार्यश्री कहते हैं- कर्म के माध्यम से बेड़िया आयी हैं, जिस क्षण ये कर्म टूटेंगे, बेड़िया भी टूट जाएँगी। है कोई आश्चर्य इस बात का? बधन के माध्यम निमित्तरूप राजा है, पर अब तोड़ने के माध्यमरूप निमित्त परमात्मा है। इस प्रकार आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध की, मिलन की, चिन्तन की और अन्त मे परमात्मा बन जाने की एक विशिष्ट प्रणाली वर्तमान युग मे कही मिल सकती है तो वह भक्तामर स्तोत्र
है।
जिनके अन्तर्मानस मे परमात्मा का तात्त्विक मिलन हो चुका है, हृदय मे निर्मलता आ चुकी है और जिनकी आत्मा विशुद्धि के क्षेत्र मे निरन्तर प्रगति करती हुई चली जा रही है। ऐसे आचार्यश्री के अनाहत नाद मे परमात्मा का स्वरूप प्रस्तुत होता है--
त्वामामनन्ति मुनयः परम पुमासमादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र | पन्था :॥२३॥ मुनीन्द्र।
- हे मुनियों के नाथ!
- मुनि लोग त्वाम्
- तुमको १.परमम् पुमासम् - परम पुरुष, उत्कृष्ट पुरुष, लोकोत्तर
पुरुष २. आदित्यवर्णम् - सूर्य के समान दैदीप्यमान ३ अमलम्
- निर्मल, कर्म-मल रहित ४. तमस परस्तात् -- (अज्ञानरूप) अन्धकार से परे ५.त्वाम् एव
- तुमको ही
मुनय
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सम्यक् उपलभ्य मृत्युम् जयन्ति
स्वरूप ९९ - भलीभाँति (पूर्ण रूप से) - प्राप्त करके - मृत्यु को जीतते हैं (क्योंकि आप स्वय
मृत्युजय हो) - मोक्ष पद का, निर्वाण पद का, मुक्ति पदा
शिवपदस्य
का
पन्था
W
अन्य
- कोई दूसरा शिव
- प्रशस्त कल्याणकारी - मार्ग, रास्ता अथवा पथ
- नही है। (और) त्वामव्यय - विभुमचिन्त्य - मसख्यमाद्य, ब्रह्माण - मीश्वर - मनन्त-मनङ्गकेतुम्। योगीश्वर विदित - योग-मनेक-मेक,
ज्ञानस्वरूपममल प्रवदन्ति सन्त ॥२४॥ (भगवन्!)
- (परमात्मन्) सन्त
- सन्त पुरुष त्वाम्
- आपको अव्ययम्
- अव्यय, अक्षय, व्यय रहित ७ विभुम्
- व्यापक, उत्कृष्ट ऐश्वर्यवान् ८ अचिन्त्यम्
- अचिन्त्य, अदभुत, कल्पनातीत असंख्यम्
- असख्य, सख्यातीत १० आद्यम्
- आदि-पुरुष, आदि तीर्थकर, पच परमेष्ठी
में आदि अर्थात् अरहत देव ११ ब्रह्माणम्
- ब्रह्मा, ब्रह्म अर्थात् आत्मा, उसमें ही रमण
करने वाले, सकल कर्म रहित सिद्ध
परमेष्ठी १२ ईश्वरम्
- ईश्वर अर्थात् कृत्कृत्य, समस्त देवों के
स्वामी १३ अनन्तम्
- अन्त रहित, अनन्त गुण युक्त, अनन्त चतुष्टय सहित
9
0
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900 भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
१४. अनगकेतुम्
१५
१६
योगीश्वरम्
विदितयोगम्
१७
१८. एकम्
१९. ज्ञानस्वरूपम्
२०. अमलम् प्रवदन्ति
अनेकम्
२१ विबुधार्चित
बुद्धिबोधात्
त्वम् एव बुद्ध
२२. भुवनत्रयशकरत्वात्
२३. धीर !
त्वम् शंकर. (असि)
शिवमार्ग विधे
विधानात्
बुद्धस्त्वमेवविबुधार्चितबुद्धिबोधात्,
त्व शंकरोऽसि भुवनत्रय - शकरत्वात् । धातासि धीर । शिवमार्गविधेर्विधानात्,
धाता असि
-
- योगीश्वर, सयोगी केवली
-
२४. त्वम् एव
व्यक्तम्
पुरुषोत्तम
असि
-
व्यक्तं त्वमेव भगवन् । पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥
1
- एक,
- ज्ञानस्वरूप, ज्ञानमय,
- निर्मल, कर्म-मल रहित
कहते हैं
-
—
कामदेव को नाश करने के लिए उससे बढ़कर केतु समान
- गणधरो, विबुधजनो, विद्वानो द्वारा पूजित हे परमात्मा ।
ज्ञान के विकास से, ज्ञान के प्रकाश से
-
योगवेत्ता, योग विशारद, योग को अच्छी
तरह परखने वाला या जानने वाला
अनेक, सहस्र नामधारी अद्वितीय
-
―
तुम ही शकर (हो), कल्याणकारी हो ।
- हे धैर्य धारण करनेवाले प्रभो ।
-
-
मोक्ष मार्ग की विधि के
-
- विधान करने से अर्थात् प्रतिपादन करने
से
―
केवलज्ञानी
तुम ही बुद्ध हो ।
तीनो लोको के (भव्यात्माओ को ) सम शम करने से ।
विधाता हो ।
ही
तुम
- प्रकट रूप से
- पुरुषोत्तम
- हो ।
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स्वरूप १०१ भक्तामर स्तोत्र में भक्तामर शब्द कहा सिद्ध होता इसकी हम खोज कर रहे हैं। आज परम स्वरूप का वर्णन करते हुए तीन श्लोकों के माध्यम से आचार्यश्री हमें सम्पूर्ण भक्तामरस्तोत्र की सार्थकता प्रदान कर रहे हैं।
त्वा आमनन्ति मुनय -मुनि तुम्हें इस प्रकार मानते हैं। यहा से श्लोक का प्रारम्भ हो रहा है। आप जानते हो आठवे श्लोक में हमने मत्वा शब्द का प्रयोग किया था। हमारे सामने दो चीजें हैं--ज्ञात्वा और मत्वा । जानना और मानना। ये दोनों चीजे महत्त्व की हैं। यदि ज्ञात्वा को आप अपने जीवन मे महत्त्व देंगे और मत्वा को नहीं देगे तो भी आपकी साधना अधूरी है और यदि मत्वा को आप अपने जीवन मे महत्त्व देगे और ज्ञात्वा को नहीं देंगे तो भी आपकी साधना अधूरी है। जैन दर्शन ने ज्ञात्वा और मत्वा दोनों को महत्व दिया है। लेकिन जब हम निश्चयनय के आधार पर परम स्वरूप के वर्णन के लिये आगे बढ़ते हैं तो हम सिर्फ ज्ञात्वा की याने जानने की प्रणाली पर हम आगे बढ़ते हैं और यदि किसी भी वस्तु/पदार्थ को सिर्फ जानने के रूप में ही आगे बढ़ेगे, लेकिन मानेगे नहीं तो हमारा जानना अधूरा रहेगा। आमनन्ति का मतलब होता है आपको मानते हैं। श्लोको के माध्यम से हमने परमात्मा के स्वरूप को जानने का प्रयास किया था लेकिन यहाँ आचार्यश्री सोचते हैं जानना तो ज्ञान का स्वभाव है और मानना दर्शन का स्वभाव है। ज्ञान के द्वारा जिस वस्तु को जाना जाता है दर्शन के द्वारा उसी वस्तु को स्वीकार किया जाता है। जानने में हम कहते हैं- परमात्मा । तू ज्ञानी है मै जानता हूँ, परमात्मा। मै अज्ञान से युक्त हूँ यह मै जानता हूँ। परमात्मा । तू महान है मै लघु हूँ। परमात्मा तू कर्म से रहित है, मैं कर्म से युक्त हूँ, यह मै जानता हूँ। इससे क्या होगा, जान लिया हमने। सोचो तो सही, हमने जान लिया कि मुनि मानतुगजी जैसे कोई आचार्य थे, जिन्होंने परमात्मा का स्मरण किया था, उनकी देड़ियो के बन्धन टूट चुके थे। पर भाई । हमारे तो सूत के धागे भी नही टूटते हैं। हम क्यों गाते हैं भक्तामर स्तोत्र ?
परमात्मा कितने ही महान हैं, परमात्मा को मानने वाले मुनि कितने ही महान हैं लेकिन मुझे उससे क्या? यह मैंने जान लिया। इस श्लोक की विशिष्टता यही है कि यह हमें जानने से मानने तक आगे बढ़ाता है। आचार्यश्री के साथ अभेद करने पर ही हम इन पद्यों को समझ सकेगे और स्वीकार कर हमारे भीतर रहा परमात्मस्वरूप प्रकट कर पायेंगे। ___कहते हैं, मुनि आपको मानते हैं। प्रश्न है, मुनि याने कौन ? कविश्री को हम यहा मुनि मानकर चलते हैं। अब वे कौन से मुनि की यहा बात करते हैं, जिसने परमात्मा को जैसे. माना है वैसे मुझे मानना है ? त्वा शब्द के द्वारा-आमनन्ति शब्द के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित हो गया। आचार्यश्री के साथ अभेद करने पर हमारे साथ त्वा आयेगा। दूसरे श्लोक की तीसरी पंक्ति में "तं जिनेन्द्रम्" शब्द का प्रयोग हुआ है। त याने उन। उनका मतलब क्या ? कहने वाले के सामने जो नहीं है उन तृतीय पुरुष की दात करता है। त्या कहते ही दे सामने हैं। तीसरे श्लोक के दाद ही यह परिवर्तन शुरू हो गया है और तब से वे Dirculv परमात्मा से ही दात करते आ रहे हैं।
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१०२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
मुनि किसे कहते हैं ? जिसने ससार का त्याग कर दिया क्या वे सब मुनि वन गये? मुनि याने जिनके मन मे यह ससार सिर्फ परमाणुओ की रूपातर कथा मात्र है और कुछ नही। उनको यदि ससार की व्याख्या पूछी जाय तो वे इतना ही कहेंगे। ऐसे मुनि आपको जो मानते है वह आपका स्वरूप है। ___आचार्यश्री की मान्यता को अब हम श्लोक के माध्यम से देखेगे और हमारे स्वरूप मे प्रकट करेंगे। तीन श्लोको के माध्यम से यहा परमात्मा के २४ विशेषण प्रस्तुत किये हैं। तीर्थंकर भी २४ होते हैं और दिन के घटे भी २४ होते हैं। इस प्रकार २४ के साथ हमारा व्यावहारिक और आत्मिक सबध रहा है। प्रतिघटे मे एक-एक तीर्थंकर को प्रस्तुत विशेषणो से स्मरण करना यह भी एक आराधना का क्रम है। विशेषणो का सर्कल बनाले
और एक के बाद दूसरे तीर्थंकरो से इसे सयुक्त करते जाएँ तो बड़ा आनद आयेगा इस अनुष्ठान मे। १ परमम् पुमासम्-आप परम पुमास हो। परम किसको कहते हैं ? जिनके लिये
चरम और कुछ नही रहता है। चरम के बाद परम। जो पहले परम था, अभी परम है और जो परम रहने वाला है। परम वह कहलाता है जो जिसे भी मिले
उसे परम बना देवे। २ आदित्यवर्ण-सूर्य के जैसी प्रभावाले। सूर्य का वर्णन कई बार आ चुका है।
आचार्यश्री ने सूर्य और चन्द्र को महत्त्व देकर हमारे हृदय और बुद्धि के साथ इसका सम्बन्ध स्थापित किया है। साथ ही सूर्य का मणिपूर चक्र से साधना मे भी
सम्बन्ध स्थापित होता है। ३ अमलम्-निर्मल हो। सर्वथा कर्ममल से रहित हो। आपका जो स्मरण करता है
वह भी निर्मल होता जाता है। ४ तमस परस्तात्-हे परमात्मा आप अन्धकार से परे हैं, और आपका जो स्मरण
करता है वह भी अज्ञानरूप अन्धकार से पर हो जाता है। यहा परमात्मा को सिर्फ विशेष्य के रूप मे ही न देखकर इनके साथ अभेद करने से हमारे जीवन में परिवर्तन आ सकता है। Power Contact मे आयेगे तो Battery charge होगी, नही तो Batterydown | जिस बिजली का Connection ही सही नही
है वहा सिर्फ Bulbs का Decoration कुछ नही कर पाता है। ५ अब कहते हैं आप मृत्युजय हो और 'सम्यक् उपलभ्य मृत्यु जयन्ति'- तुमको
जो भलीभाँति प्राप्त करते हैं वे मृत्यु को जीतते हैं। तुझे अच्छी तरह से प्राप्त करके-यहा भलीभांति-सम्यक् याने अच्छी तरह से क्यो कहा? परमात्मा को
पाने का इससे अच्छा दूसरा तरीका भी कौन सा हो सकता है? परमात्मा के प्रति किये जानेवाले प्रेम भी दो तरह के हैं- 1 Sensitive और दूसरा Scientific प्रथम प्रेम मात्र अनुराग भरा होता है जिसमे व्यक्ति अपनी परिस्थितियो के
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स्वरूप १०३ अनुसार भावनाओ का निर्माण कर परमात्मा से अपना प्रेम-सयोजन स्थापित करता है। इसमें परिस्थिति के हट जाने पर प्रेम में भी अभाव आना शुरू हो जाता है। दूसरे प्रेम मे प्रेमी परिस्थितियों से ऊपर उठा हुआ होता है। परिस्थिति से उसे कोई मतलब नहीं, कोई सरोकार नहीं है। यहा सिर्फ परमात्मा के प्रति भक्तिपरक प्यार है। यह प्यार स्वय एक अधिकार बन जाता है जहा किसी भी प्रकार की याचना या विवशता नहीं होती है। अध्यात्म विज्ञान से भरा प्रेम स्वय एक प्रयोग है। इसे किसी और Guarantee की आवश्यकता नहीं होती है। परमात्मा के साथ ऐसे उत्तम प्रेम में उन्हें प्राप्त करना याने सम्यक् प्राप्त करना है।
क्या होता है इन्हें प्राप्त करके ? यह प्रश्न साधना मार्ग मे प्रवेश करने के पूर्व का है। जिनकी प्राप्ति की खोज की जा रही है, अनुसधान चल रहा है वे आखिर कौन हैं और उन्हें प्राप्त कर क्या हो सकता है ? इसका उत्तर भक्तामर स्तोत्र है, और उसकी सम्पूर्ण सार्थकता प्रस्तुत श्लोक की ये पंक्तिया हैं। जो कहती हैं कि परमात्मा को प्राप्त कर वह होता है जो ससार मे अन्य कइयो को प्राप्त कर कभी नहीं होता है। हमने कइयों को प्राप्त किये पर उनसे वह नहीं पाया जो परमात्मा से प्राप्त करने पर पाया है। इसी झखना में अनेक उपाय किये पर सारे निरर्थक रहे। मागलिक में इसीलिये 'सरण पव्वज्जामि' शब्द का प्रयोग होता है। मैं शरण का स्वीकार करता हूँ। स्वीकार तब होता है तब अन्य विकल्प नही रहते हैं। ___अब कहते हैं उन्हें प्राप्त करने से होता क्या है ? इसके उत्तर में कहा है-"मृत्यु जयन्ति" परमात्मा को प्राप्त करने से मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है। मृत्यु को जीतने के लिये कौन प्रयलशील नही है ? मृत्यु पर विजय पाने के लिये अनेक निष्फल उपाय किये जाते हैं। परमात्मा स्वय मृत्युजय हैं उन्हें प्राप्त करने वाला स्वय मृत्युजय हो जाता है। परमात्मा की प्राप्ति स्वय सजीवनी मत्र है। मृत्यु पर विजय जन्म की विजय है। और जन्म पर विजय सारे ससार की विजय है।
प्रश्न होता है इन्हें प्राप्त कैसे किया जाय? इसका उत्तर भक्तामर स्तोत्र के प्रथम श्लोक के “सम्यक् प्रणम्य" शब्द द्वारा मिलता है। नमन तो हमने कई वार किये पर सम्यक् नहीं किये और इसी कारण परमात्मा भी हमें सम्यक् रूप से प्राप्त नहीं हुए। जैसे नमस्कार वैसी उपलब्धि। जद तक परमात्मा सम्यक् रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं तब तक न तो मिध्यात्व हटता है, न सत्य प्रकट होता है, न परमात्मा ही मिलते हैं। और जब यह सद कुछ न होगा तो देड़ियाँ कहा से टूटेगी? प्रणाम करते हैं तद तक परमात्मा हम से अलग है, उसकी उपलब्धि होने पर हम ही परमात्मा हैं। परमात्मा के प्रति किये जानेवाले सम्यक् प्राप्ति से "भक्त-अमर" पद को प्राप्त करता है। पुन याद करें "भक्तामर' शब्द को। भक्त याने आत्मा अमर याने देव नहीं परतु वह जिसने मृत्यु को जीत लिया है, जो मृत्यु से ऊपर उठा हुआ है। इसी को योगिराज आनदघनजी कहते हैं
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१०४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
अब हम अमर भये न मरेंगे जा कारण मिथ्यात दियो तज
क्यूकर देह धरेंगे। अब हम मरते क्यो हैं ? इसका एक कारण बताते हैं आनदघनजी। प्रश्न होता है न कि व्यक्ति मरता क्यो है ? हमारे पास इसका एक ही उत्तर है कि मरना पड़ता है, नही चाहते हुए भी मरता है क्योंकि जन्म लिया है। प्रश्न है फिर जन्म क्यो लेते हैं ? -आनदघनजी इसका महत्वपूर्ण कारण प्रदान करते हैं। वह कारण यदि समझ लेगे तो मै समझती हूँ कि हम सब उस व्याख्या/व्युत्पत्ति को समझकर हम भी कभी अमर पद प्राप्त कर लेगे। जिसको अमर होना होगा वे “अब हम अमर भये न मरेंगे" का अवश्य चिन्तन करेंगे।
अब हम अमर भये न मरेंगे मर्यो अनत बार बिन समझयो अब सुख दुःख विसरेंगे आनदघन प्रभु निपट अक्षर दो
नही समरे सो मरेंगे . अब हम स्वय को नही समझने के कारण ही मृत्यु होती है। परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से उस अमर स्थिति की उपलब्धि हो जाती है। अमर याने देव नही-परमात्मा, भक्त याने आत्मा। भक्त किसी देव पर आधारित नही है, वह स्वतत्र तत्त्व है। इसीलिये जो मृत्यु से पर हो चुके, रागद्वेष से रहित हो चुके उन वीतरागी सच्चिदानद परमात्मा के साथ आत्मा का जो सबध स्थापित कर दे उस स्तोत्र का नाम है भक्तामर स्तोत्र। जो आत्मा को परमात्मा बना देता है। प्रत्येक भक्त इस अमर स्थिति को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा हो सकता है। "त्वामेव सम्यगुपलभ्य" कहकर यहा सत्त्व और परिणति का अभिषेक करते हैं। तुम्हें प्राप्त करने वाला अमर पद को प्राप्त कर लेता है। आ गई यहा भक्तामर शब्द की व्याख्या। यहा आकर यह शब्द सिद्ध हो जाता है।
"शिवपदस्य अन्य पथा न शिव" कहकर और इसे स्पष्ट कर रहे हैं कि अमर बनने का, मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का, मुक्तिमार्ग का सम्यक् प्रणाम और सम्यक् उपलब्धि से बढ़कर अन्य दूसरा कोई मार्ग 'शिव' याने सुखकर कल्याणकर नही है। परमात्मा को प्रणाम किये बिना उनकी प्राप्ति नही है। और उन्हें प्राप्त किये बिना सारे तप, जप या अन्य सारे ही अनुष्ठानरूप मार्ग अधूरे हैं। __इस अधूरेपन को मिटाने के लिये आचार्य परमात्मा का विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमे सापेक्ष दृष्टिकोणो को लेकर विविध धर्मों मे परमात्मा के लिये प्रयुक्त उनके अनेक वाचक शब्द अभिधेय होते हैं। सभी वाच्य अर्थों से परमात्मा का स्वरूप सहज स्पष्ट है। इसे ही प्रयुक्त करते हुए कहा है
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स्वरूप १०५ परमात्मा आप अव्यय हो। अव्यय का मतलब क्या होता है ? व्यय का मतलब समझेगे तो अव्यय समझ मे आयेगा। व्यय का मतलब होता है खडन, व्यय का मतलव होता है विनाश, व्यय का अर्थ होता है टुकड़ा, व्यय का मतलब होता है नाश और व्यय का मतलब होता है अनित्यता, अशाश्वतता। इन सबसे आप परे हो इसीलिए आप अव्यय हो। आप शाश्वत हो, नित्य हो, ध्रुव हो, अक्षय हो, अविनाशी हो, पूर्ण आत्मस्वरूप को आप उपलब्ध कर चुके हो। आपकी सर्वोपरि विशेषता है कि आप अव्यय की स्थिति को प्राप्त कर चुके हो और
आप अव्यय की स्थिति को प्राप्त करा सकते हो। ७ आप विभु हो। विभु का अर्थ क्या होता है ? विभु याने व्यापक। आप अपने
अनत ज्ञान और दर्शन के द्वारा इस सृष्टि लोक मे व्याप्त हो। इस व्यापक सृष्टि मे रहनेवाला कोई भी जीव आपके ज्ञान और दर्शन का आराधक होगा उसके अन्दर भी आप ज्ञान और दर्शन प्रकट करनेवाले हो। इसीलिये आप व्यापक हो। आप ज्ञान-दर्शन से भी व्यापक हो और प्रत्येक भक्त आत्मा के ज्ञान दर्शन को उजागर करने के कारण अन्त करण मे वसने के कारण आप विभु हो। आप अचिन्त्य हो। हम सभी मिलकर परमात्मा का चिन्तन करेंगे तो भी हम उनका चिन्तन नहीं कर सकते हैं, ऐसे वे अचिन्त्य है। आप अचिन्त्य तो हैं, पर हमारी आत्मा भी अचिन्त्य, अगम्य है इसे आप हम मे प्रकट कर देते हो ऐसा
हमारा आपका सबध है। ९ आगे कहा है आप असख्य हैं। सख्यातीत हैं। आपके जिस किसी भी गण को
जिस किसी भी भक्त ने जीवन मे उतार लिया है उसने आपका स्वरूप प्राप्त कर
लिया। गुणो के द्वारा अनेक हृदयो मे प्रतिष्ठित होने से आप असख्य हैं। १० आगे कहते हैं आप आद्य हो। आद्य का मतलब क्या होता है प्रथम। यह
आदिनाथ परमात्मा की स्तुति तो है ही। उनका तो मोक्ष हो चुका। अब ये हमारे आद्य कैसे हो सकते हैं ? ससार का एक जीव जव मोक्ष मे जाता है तब एक जीव अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि मे आता है तब से हे परमात्मा। मेरे आत्मविकास की आदि के प्रथम मार्गदर्शक आप हो। साथ ही हे परमात्मा। मेरी भक्ति, प्रीति और अनन्य वात्सल्य के आप ही एक मात्र स्वामी हो। मेरी
समस्त आराधना मे, अनुष्ठान मे प्रथम आप हो। ११ उसके दाद कहते हैं आप ब्रह्मा हो। ब्रह्मा उनको कहते हैं जिसने इस सृष्टि का
विधान बनाया हो। परमात्मा आप मेरे मोक्ष मार्ग के विधाता हैं। इसीलिए आप मेरे ब्रह्मा हो। आप ईश्वर हो। ईश्वर किसको कहते हैं जो ऐश्वर्य से युक्त हो। हे परमात्मन् । आप अनत आत्मिक ऐश्चर्य के चिदानद वीतराग म्वरूप ऐश्वर्य को प्राप्त कर चुके हो और अन्यो को प्राप्त कराने वाले हो।
१२
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१०६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि १३ कहते हैं आप अनत हो। आपका ज्ञान अनन्त है। आपका दर्शन अनन्त है।
आपके गुण अनन्त हैं। अनत अनत समृद्धि के आप भडार हो। अनत के हृदय मे
प्रतिष्ठित होकर आप अनत स्वरूप हो। १४ अनगकेतु भी आप हो। परमात्मा विकार से रहित है। और हम विकार से युक्त
हैं। हम कभी प्रार्थना की भाषा में कहते हैं-परमात्मा तू महान् है, हम लघु हैं। तू विकारो से रहित है, मै विकार से युक्त हूँ। क्या मतलब होता है ऐसा कहने का? भक्तामर स्तोत्र कहता है परमात्मा तू विकारो से रहित है और "त्वामेव सम्यगुपलभ्य" तू जिसको प्राप्त हो जाता है वह भी विकारो से रहित हो सकता है। यदि कोई साधक चाहता है कि मैं अपने स्वाभाविक स्वरूप को उजागर करू, विकार मुक्त हो जाऊँ तो परमात्मा का स्मरण कर वह विकार रहित हो सकता है। कल परसो कर्म सगोष्ठी मे भार्गव साहब ने कहा था कि हमारे जैसे ससारी साधुओ को पूछते हैं क्या आप मे विकार उत्पन्न नही होते है ? उन पूछनेवालो को मै कहता हूँ अरे भाई विकारो की साधुओ मे उत्पत्ति तो होती है पर अभिव्यक्ति नहीं होती। उत्पत्ति होते ही मार देते हैं। अभिव्यक्ति नही होने देते हैं। मै उन्हें आज कहूंगी कि “सम्यगुपलभ्य'-जिस किसी भी साधु को मेरे परमात्मा सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो चुके हैं उनमे विकार उत्पन्न नही हो सकते हैं। जिनकी उत्पत्ति ही नही उनकी अभिव्यक्ति या उन्हें समाप्त करने का प्रश्न ही नही उठता। सासारिक दृष्टिकोण से इस बात को आप नही मानेगे, लेकिन जिसको अनुभूति है वह है और है। इसका कोई निराकरण शायद आपके पास नही हो सकता है। एक बात निश्चित है कि जब बन्दूक मे बारूद या गोली न हो तो उसे कितनी ही बार घुमायी जाय, बजायी जाय पर उससे विस्फोट नहीं हो सकता है। बाहर का कोई भी पदार्थ व्यक्ति मे विकृति पैदा नही कर सकता। विकार हमारी स्वय की कमजोरी से उत्पन्न हो सकते हैं। निर्विकार परमात्मा जिसको सम्यक् उपलभ्य हो जाते हैं उनमे विकार कभी भी प्रवेश नहीं कर
सकते। १५ अव कहते हैं-योगीश्वर। इसके दो अर्थ होते हैं- जो योगियो के ईश्वर हैं और
जो योग के ईश्वर हैं। परमात्मा तो अयोगी केवली गुणस्थान के बाद आगे बढ़े हैं। कोई योग तो उनके रहे नही है फिर योगीश्वर उन्हें यहा क्यो कहा गया है? कहते हैं परमात्मा आप तो अयोगी हो पर जो योग मे रहते हैं उनकी क्या स्थिति है ? तो कहते हैं अपने योगो का जिन्होंने गोपन किया मतलब मन-वचन और
काया की गुप्ति के जो धारक है हे प्रभु। आप उनके ईश्वर हो। १६ तीन गुप्ति के धारक तो साधु-साध्वी होते हैं तो क्या आप उन्ही के परमात्मा हो।
इनके अतिरिक्त जो भक्त हैं उनका परमात्मा के साथ कैसे सबध होगा?
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१७
स्वरूप १०७
इसीलिये आगे कहते हैं - " विदित योगम्" । विदित योग का क्या मतलब होता है ? जिन्होने तीनो योगो का गोपन नही किया है प्रभु। आप उनके योगो को भी विदित याने जानते हो, जाननेवाले हो । ससार के सभी जीवो के मन वचन और काया के आप ज्ञाता हो, द्रष्टा हो । मै यह समझती हूँ कि परमात्मा के अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन को जिसने स्वीकार लिया है, मान लिया है उसके लिये ससार मे ऐसा कोई एकान्त स्थान नही जहा वह पाप कर सके । उसकी दृष्टि मे हर समय रहेगा कि वीतरागी, अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शी मेरे सर्व योगो को जिसे ससार नही देखता उसे जानते और देखते हैं ।
१९
अब कहते हैं आप अनेक हैं। अनेक कैसे ? परमात्मा । अनेकान्त धर्म की प्ररूपणा आपके बिना कौन कर सकता है ? ससार के अनतधर्मी पदार्थों के अनेक स्वरूप के आप ज्ञाता और द्रष्टा हो। हम तो ससार को एक ही Angle से देखते हैं और जिस Angle से देखते हैं उसे उसी Angle से इतना सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि हमारे जैसा विद्वान इस ससार मे कोई नही है । लेकिन परमात्मा के अनेकान्त दर्शन की दृष्टि से देखेगे तो समझेगे कि परमात्मा अनन्त धर्म को एक पदार्थ मे देखते हैं अत एक ही पदार्थ अनेक रूपी, अनेक पर्याय नजर आता है ।
दूसरी तरह से अनेक आत्माए परमात्मा स्वरूप हैं। इस प्रकार आप अनेक स्वरूप हैं।
१८ अनेक कहने के बाद उलटा आ गया आप एक हो । अब एक कैसे हो सकते हैं ? आत्मा का उपयोग स्वरूप एक है। यहा आकर हम और परमात्मा एक हैं । अत बिलकुल अभेद हो गया। मेरे और तेरे मे कोई भेद नही है । मेरे और तेरे का भेद टूट रहा है, जैसे द्रव्यरूप से आत्मा का स्वरूप मेरा है वैसा ही द्रव्यरूप से आत्म स्वरूप तेरा है। मेरे और तेरे आत्मस्वरूप मे कोई अन्तर नहीं है ।
आप ज्ञान स्वरूप हो। ज्ञानावरणीयादि सर्व कर्मों का क्षय होने से आपके समस्त आत्मप्रदेश विशुद्ध ज्ञानस्वरूप हैं।
२० अमलम् याने आप निर्मल हो । अन्त कर दिया है, समाप्त कर दिया है कर्म का मल जिसने ऐसे आप हो ।
२१
अब परमात्म स्वरूप को व्याख्यायित करनेवाली तीसरी गाथा का प्रारंभ हो रहा है । " बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात् " में कहते हैं " विबुधार्चित बुद्धिबोधात्" । देखिये अब एक मजे की बात कहू आपको। आप अपनी किताब के पन्ने खोलेंगे तो अर्थों के माध्यम से विबुधार्चित शब्द जो पहले भी तीसरे श्लोक मे - " विबुधार्चित पादपीठ' रूप में आ चुका है। यहा है 'विबुधार्चित बुद्धिबोधात् ।' बुद्धया विनाऽपि की व्याख्या में हमने देखा था बुद्धि का मतलब
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१०८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
स्मृति । बुद्धि का मतलब हमारा अपना स्मरण। कोई कितना ही विद्वान हो लेकिन जिसे अपने स्वरूप का बोध नहीं है उसके ज्ञान की जैन दर्शन में कोई Valueनहीं है। स्वय का बोध पाने के लिए हमारे तीर्थंकर मनीषी जब तक केवलज्ञान नही होता तब तक मौन रहते हैं और हमारे जैसे पाटे पर बैठकर बोलते रहते हैं। तो बुद्धिबोधात् का अर्थ होता है स्वय का बोध हो जाना। और, स्वय का बोध होने के साथ-साथ अब सबध करे विबुधार्चित का। बुद्धिबोधात् का मतलब परमात्मा से है परन्तु विबुधार्चित का मतलब किससे है ? विबुधार्चित को इस पक्ति मे पाकर हमारे विद्वान महानुभाव अर्थ करते हैं-गणधरो के द्वारा अर्चित, विद्वानो के द्वारा अर्चित। मै कहती हू तीसरे श्लोक मे आपको यह अर्थ देने मे क्या आपत्ति थी? लेकिन वहा पादपीठ शब्द पड़ा था इसलिये हमने देव अर्थ कर लिया। मै आपसे पूछती हूँ आप जब परमात्मा के समवसरण मे जाएगे और जिस पादपीठ पर परमात्मा का पैर रहेगा क्या आप उसको नमस्कार नही करेंगे? क्या देव ही करेंगे, मानव नही? क्यो हम विबुध का अर्थ ऐसा करें? बोधिलाभ की प्राप्ति के लिये, सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये जिस किसी ने भी प्रयास किया ऐसे विशिष्ट बुद्धिवाले विबुध होते हैं और उनके द्वारा आप अर्चित हो, पूजित हो। आप स्वय ज्ञान को उपलब्ध हो। इस प्रकार हमारे आपके सम्बन्ध से आप बुद्ध हो। अब कहते हैं "त्व शकरोऽसि भुवनत्रय शकरत्वात्" तीनो भुवन का शकर करने के कारण आप शकर हो। शकर शब्द का अर्थ है शम् करने के कारण आप
शकर हो। सम करते हैं अर्थात् समान करते हैं इसीलिये।सम किसमे करेंगे भक्तो मे ही करेंगे न जो भक्ति नही करते उनको सम नही करते मै स्पष्ट कहती हू। भक्त को वे सम नहीं करते तो हम उनको मानते ही क्यो ? हम उनको नमस्कार करते ही रहे, करते ही रहे और हमारे नमस्कार का यदि वे स्वीकार नहीं करते तो हम नमस्कार क्यो करेंगे? हम भक्तामर गाते ही रहे 'त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु' और हम यह कहते ही रहे क्षणात् क्षयमुपैति
तेरी प्रार्थना करने से क्षणभर मे अनन्त पापो का क्षय हो जाता है और फिर भी क्षणमात्र पाप भी यदि सरकता न हो तो हम उनकी स्तुति क्यो करे? हम जिस Challenge से आगे बढ़ते हैं उसकी हमे यहा सम्पूर्ण खात्री मिलती है, Guaranteeमिलती है कि वे शकर है। सम करते हैं इसलिये शकर होते हैं।
अब हम देखेगे शम् याने जिसे वे करते हैं, वह शम् क्या है ? शम् का अर्थ होता है कल्याण, मगल, सुख, शान्ति, प्रसन्नता, आनन्द। परमात्मा इसके करनेवाले होने से शकर है।
सम का पहला अर्थ उत्पत्ति के अनुसार वे सम मे केवलज्ञान, कल्याण, मगल, सुख, शान्ति, प्रसन्नता, आनन्द की उत्पत्ति करनेवाले हैं।
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स्वरूप १०९
शम् का दूसरा अर्थ शमन करना है। शमन करना, समाप्त करना, बुझा देना है। कहते हैं “शमन हो गया रोशनी का याने बुझा दी गई रोशनी या रोशनियाँ बुझ गयी।" परमात्मा किसका शमन करते हैं तो कहते हैं ससार के सारे अमगल का। शकर के बारे मे कहा जाता है समुद्र का जब मघन हुआ था उसमे से जहर और अमृत दोनो निकले थे। वे जहर तो सारा स्वय पी गये और देवो को अमृत वाटा । जो भी भक्त परमात्मा का स्मरण करता है उसके अमगल का नाश हो जाता है।
२३ अब कहते हैं " शिवमार्ग विधे विधानात् धाता असि" हे परमात्मा । शिवमार्ग याने मोक्षमार्ग की विधि/विधान बताने के कारण आप विधाता भी हो ।
२४ अब कहते हैं " त्वम् एव व्यक्त पुरुषोत्तम असि । आप व्यक्त पुरुषोत्तम हो । व्यक्त का मतलब क्या? व्यक्त याने प्रकट होने वाले। हम मे आप प्रकट होते हो, बाहर नहीं, हमारे भीतर । आत्मा में ही परमात्म पद रहा हुआ है। उसे भक्तामर स्तोत्र के द्वारा हम प्रकट करते जाएगे । अत हे परमात्मा । आपका परमात्म तत्त्व प्रकट हो चुका है और आप हम में उसे प्रकट करते हैं।
हमे
इस महान स्वरूप को मात्र सुनकर ही आराधना की पूर्णाहुति नही होती है, इसकी सम्यक् उपलब्धि करनी है। इसका हमे स्वीकार करना है। स्वीकार स्वीय होता है। स्वय से सबंधित होता है। स्वीकार का सर्वश्रेष्ठ उपाय नमस्कार है । अध्यात्म की भाषा मे नमस्कार करना शक्ति को निमत्रण देना है। जो झुकता है, वह पाता है।
नमस्कार कर्तव्य नहीं, भाव है। यदि आपको कोई पूछे कि आप नमस्कार मंत्र क्यो बोलते हो? तो आप क्या उत्तर देंगे? मैं जैन हूँ, मेरा कर्तव्य है नमस्कार मंत्र बोलने का। मेरा कर्तव्य है नमस्कृत्य को ननस्कार करने का । करना चाहिये इसलिये करता हूँ। बोलना चाहिये इसलिये बोलता हूँ। इस प्रकार करना चाहिये, या करना पड़ता है इसलिये किया जानेवाला नमस्कार व्यर्थ है। पर, इसका सही उत्तर है- परनाला नमस्कृत्य है, मेरा ही स्वरूप है, परम स्वरूप है। नमस्कार करता नहीं, उनको देखकर मुझसे नमस्कार हो जाते हैं। नमस्कार मेरे समर्पण का प्रतीक है। इसीलिये मंत्र में 'नमामि अरहताण' नहीं 'नमो अरहताण' है। भावों के साथ व गीली पलकों के साथ नमा हुआ मस्तक नमन है। ऐसे ही नमस्कार से बेडिया टूटती हैं, ऐसे ही ननम्कार से पाप छूटते हैं और ऐसे ही नमस्कार से स्वत्त्व प्रकट होता है। नमस्कार समर्पण का अन्तिम अध्याय है। ऐसे ही भादों के साथ आज हम आचार्यश्री के साथ सपने परन आराध्य को नमस्कार करेंगे।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! तुभ्यं नम. क्षितितलामलभूषणाये! तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय ! तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥ २६ ॥
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११०
भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
नाथ ।
त्रिभुवनार्तिहराय
तुभ्यम्
नम
क्षितितलामलभूषणाय
तुभ्यम्
नम
त्रिजगत परमेश्वराय
पृथ्वी तल के निर्मल उज्ज्वल अलकार रूप
तुम्हें / तुमको
नमस्कार हो
तीन जगत के
परम पद मे स्थित अरहत प्रभु
तुम्हें / तुमको
नमस्कार हो
जिनेश्वर
भवरूपी समुद्र या समुद्र जितने विशाल भवो
का शोषण करने वाले
तुभ्यम्
तुम्हें / तुमको
नम
नमस्कार हो ।
हे नाथ! आप तीनो लोको की अर्ति याने पीडा, व्यथा, वेदना, यातनाओ का हरयाने हरण करने वाले हो। कितना बडा चमत्कार। भावपूर्वक नमस्कार से सर्व दुखो का नाश | सिर्फ दुःख का नाश ही नही करते हैं आप क्षिति के निर्मल अलकार हो । हमारी शोभा हो, सुख और आनद के कारण हो । परम ऐश्वर्य स्वरूप हो और समुद्र जितने विशाल अनेक भवो का शोषण कर सहज सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति करने वाले हो । ऐसे हे परमात्मा' आपको पुन - पुन नमस्कार हो ।
तुभ्यम्
नम
जिन
भवोदधिशोषणाय
-
-
मुनीश । यदि नाम
-
-
-
1
हे नाथ!
तीनो लोको की पीड़ा-व्यथा-वेदना कष्ट को हरण करने वाले
तुम्हें तुमको
नमस्कार हो
-
भावपूर्वक इन नमस्कार से परमात्मा के गुण हममे प्रकट होते हैं और दोषो का क्षय होता है । अत कहते हैं
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं सवितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपात्त- विविधाश्रय जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ हे मुनीश्वर ।
हमे ऐसा लगता है कि
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निरवकाशतया अशेष गुणै वसति
अत्र को विस्मय उपात्तविविधाश्रयजातगर्वै
-
-
-
स्वरूप
सघनता से, ठसाठस, अवकाश रहित
समग्र गुणो से
आप आश्रितो
-
इसमे क्या आश्चर्य है
अनेक स्थानो पर आश्रय प्राप्त करने से जिनको
गर्व (घमंड) हो रहा है ऐसे वे
दोषै कदाचित् अपि
स्वप्नान्तरे अपि
न ईक्षित असि
( अत्र को विस्मय )
तो इसमे क्या आश्चर्य है
परमात्मा के अनन्त गुणों को इस गाथा मे 'निरवकाशतया' शब्द से व्याख्यायित किये हैं। निरतर रूप सर्वांगव्यापी गुणों को परमात्मा का आश्रय स्थान बताकर परम का परम स्वरूप बताया। दूषणों को बेचारे बताये जो स्वप्न मे भी परमात्मा के पास नही आ सकते हैं। ऊर्ध्वकरण Sublimation द्वारा आत्मिक गुणो का विकास करने के लिए परमात्मा की हम भी शरण ग्रहण करते हैं।
दोषो से अवगुणों से
-
१११
कोई भी समय - किसी भी समय
स्वप्न और प्रतिस्वप्नावस्थाओ मे भी नही देखे गये हो
पूर्ण भावों के साथ किये गये नमस्कार और शरण ग्रहण से आत्मिक वैभव उजागर होता है। परमात्मा के बाह्य वैभव की हम अपने अन्तर् मे प्रतिष्ठा कर आत्म-वैभव कैसे वर्धमान करें, इसके लिये अब हम आगे के श्लोको को "वैभव” नामक प्रवचन से देखेगे ।
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श्लोक-२८-३७
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१५. वैभव
•
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"वैभव" शब्द बड़ा आकर्षक, मोहक और नैतिक शब्द है। इसके मूल मे "विभु" शब्द निहित है। अधिकाश विभु को भूलकर हम वैभव के जिन आयामो या रूपो की परिकल्पना करते हैं वे मात्र व्यावहारिक स्तर पर निर्भर हैं। वास्तव मे वैभव को समझने के लिए विभु को समझना आवश्यक है । इतना और अधिक कहू तो वैभव पाने के लिए विभु बनना जरूरी है। विभु बनकर ही वैभव पाया जाता है। ऐसा वैभव जीवन की एक अप्रतिम उपलब्धि है।
मनुष्य अनेक साधनो को जुटाता है और उन जुटाये गये साधनो के द्वारा स्वय के अधिकारो की सुरक्षा चाहता है। ऐसा वैभव बाहर से तो बडा आकर्षक और मनोहर लगता है परन्तु यह आकर्षण सार्वभौम नही हो सकता। सीमाओ मे बँधा वैभव असीम से कैसे मिलता है ? वह आकर्षणो की मर्यादा मे बँधा हुआ पदार्थो के माध्यम से सयोजन स्थापित करने का प्रयास करता है। सामाजिक मूल्याकनो की सीमा मे बधा मानव इन वैभव के मूल्यो को और महत्वो को मान तो लेता है, स्वीकार भी लेता है परंतु सयोजित करता है। जिसका सयोजन नही होता, उसकी याचना होती है । याचना की परिस्थिति सदा वैभव से विरुद्ध रही है।
वैभव दो हैं - आन्तरिक और बाह्य । विकसित हुआ आन्तरिक वैभव बाह्य वैभव को प्रकट करता है। सामान्यत बाह्य वैभव निर्मूल्य होता है तथापि आन्तरिक वैभव उस बाह्य वैभव का मूल्याकन भी बढ़ा देता है। परमात्मा के लिए परमात्मपन स्वय मे एक वैभव है। परतु भक्तामर स्तोत्र यह सिद्ध कर देता है कि भक्त के लिए उसकी भक्ति भी एक बहुत बड़ा वैभव है जो परमात्मपने के वैभव से कुछ कम नही है । बाह्य मूल्याकनो के द्वारा आन्तरिक आत्म-वैभव का मूल्याकन नही किया जा सकता है।
प्रारभ के २७ पद्यो द्वारा परमात्मा के आन्तरिक वैभव का विस्तार से वर्णन आ चुका है। अब आनेवाली १० गाथाओ मे परमात्मा के बाह्य वैभव को प्रस्तुत किया जा रहा है। परमात्मा का इस बाह्य वैभव से कोई अर्थ / सम्बन्ध नही है । यह बात भी निश्चित है कि इस बाह्य वैभव से ही परमात्मा को महान मान लेना भक्ति का अधूरापन है।
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प्रस्तुत पद्य में वक्तव्य परमात्मा का वैभव प्रातिहार्य के नाम से प्रसिद्ध है। जैन भक्ति परपरा मे इन प्रातिहार्यों को तीर्थंकर परमात्मा के विशेष महिमा-बोधक चिन्हो के रूप मे माने गये हैं। इस महिमा को महत्त्व देकर कई स्थानो पर इनका विशेषण के रूप में भी उपयोग किया गया है जैसे
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वैभव ११३ तिजयपहुत्त पयासय अठ्ठ-महापडिहेरजुत्ताणं---
इन अष्टमहाप्रातिहार्यों को परमात्मा की प्रमुख आराधना का प्रतीक मानकर इन्हें विशिष्ट महत्त्व दिया गया है।
इन आठ महाप्रतिहार्यों को क्रमश आठ महाऋद्धि के दाता या प्रतीक भी माना है। जैसे
१ धृति - धैर्य, २ मति- ३ कीर्ति - प्रतिष्ठा ४ कांति - सर्वत्रप्रियता, ५ बुद्धि-चातुर्य सम्पन्न ६ लक्ष्मी -अर्थ वैभव,७ मेधा -प्रज्ञा ८ विद्यासाधन - ज्ञान सम्बन्ध।
प्राचीन जैन मान्यता के अनुसार तीर्थकरों को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही इन्द्रप्रतिहार आकर अशोकवृक्ष, चामर, छत्र आदि आठ प्रातिहार्यों का निर्माण करते हैं जो नियमित रूप से परमात्मा के साथ रहते हैं। पूर्णज्ञान स्थिति से सम्पन्न परमात्मा का स्तुतिगान करनेवाले आचार्यश्री भी आज इसे पूर्णाभिव्यक्ति देकर भक्तामर स्तोत्र को सजा रहे हैं। गहराई से इनका चिन्तन करने पर अनुभव होता है कि आचार्यश्री देवनिर्मित प्रातिहार्यों को लक्ष्य में रखकर अपने हृदय मे प्रतिष्ठित परमात्मा को नयी चुनौती दे रहे हैं। मैं न तो देव हू और न तो ऐसे प्रातिहार्यों का निर्माण करता हूँ। परतु मेरी तो समस्त चेतनाएँ आपको सदा मौन निमत्रण देती रही हैं। मेरी समस्त आत्मिक अभिव्यक्तियां अपने भावो के माध्यम मे आपका आह्वान करती रही है। भक्ति की चरम सीमा मे भावों का सयोजन पाकर इन देव-निर्मित पौद्गलिक प्रातिहार्यों के साथ प्रतिस्पर्धा मे उतर कर स्वीकृति को चुनौती दे रहे हैं
उच्चैरशोकतरु-सश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममल भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितान,
बिम्ब रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति॥२८॥ उच्चै
- अत्यत ऊँचे अशोकतरुसश्रितम् - अशोक वृक्ष के आश्रय मे विराजमान उन्मयूखम्
ऊपर की ओर देदीप्यमान किरणों को बिखराने
वाला ऐसा भवत
आपका अमलम्-रूपम्
निर्मल रूप, उज्ज्वल रूप स्पष्टोल्लसत् किरणम् स्पष्ट रूप से ऊपर की ओर चमकती-दमकती
हुई दीप्तिमान किरणो वाला अस्ततमोवितानम्
नष्ट कर दिया है समस्त अन्धकार के जाल को जिसने ऐसे
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वैभव ११५ आविष्कार कर भक्तात्मा अत्यन्त घनसमूह श्यामल कर्म समुदाय को आत्मप्रदेशों से निर्जरित करता है। फलत ध्यान के इस बाह्य आलबन द्वारा निज स्वरूप का दर्शन होता
भावनाओ के विशाल अशोक वृक्ष की रचना होते ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने का आसन ध्यान-पटल पर आता है और इसे देख आचार्यश्री कहते हैं
सिहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपु. कनकावदातम्। बिम्ब वियद्विलसदशुलतावितान,
तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहमरश्मे ॥२९॥ मणिमयूखशिखाविचित्रे - मणियों की किरणो के अग्रभाग से विविध रग
वाले
सिहासने
सिहासन पर कनकावदातम्
स्वर्ण जैसा सुन्दर तव वपु
तुम्हारा शरीर तुह्रोदयादिशिरसि
उन्नत उदयाचल के शिखर पर वियद्विलसदशुलतावितानम् - जिसकी किरणो का विस्तार आकाश मे
शोभायमान हो रहा है (ऐसे) सहस्ररश्मे
सूर्य के बिम्बम् इव
- बिम्ब याने मडल के समान विभ्राजते
- सुशोभित हो रहा है सिहासन का वास्तविक अर्थ है उत्कृष्ट विशुद्ध पुण्यासन। वैसे तो परमात्मा अपने निजस्वरूप मे, परम स्वरूप में सदा प्रतिष्ठित रहते हैं। फिर भी यहां एक विशेष सिहासन पर परमात्मा के विराजने का जो वर्णन है यह भक्त के साथ एक विशेष भावात्मक सम्बन्ध की प्रतीक योजना है। भक्ति की स्थिति में प्रत्येक भक्तात्मा का भावमण्डल परमात्मा के विराजने का एक उत्कृष्ट आसन है।
अब हम परमार्थ से इसे देखेगे-मणि याने नाभि और मयूख याने किरणें, शिखा याने अग्रभाग विचित्रे याने विविध। -परमार्थ से इन शब्दों की व्याख्या से अभिप्राय हैमणिपूर चक्र जो नाभि मे स्थित है वहा से भावो की विविध विशेष किरणें प्रस्फुटित होकर ऊपर की ओर आरोहण करती हैं। इन किरणों का अग्रभाग हृदय को छूता हुआ पूरी चेतना मे फैल जाता है। ऐसा यह भक्ति भाव का सिहासन जो नाभि मे स्थित है उस पर भक्तात्मा परमात्मा को प्रतिष्ठित करता है।
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११६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___अब और आगे बढ़े-कहते है-हे परमात्मा। ऐसे इस भावासन पर आपके विराजने से मेरा नाभिमडल रूप सिहासन अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। अब यहाँ से उठने वाली विविध भावनाओ वाली किरणो की शिखा आपमय होकर सपूर्ण चेतना मे व्याप्त हो रही है। प्रभु! सम्पूर्ण आत्मप्रदेश पवित्र हो रहे हैं।
सिहासन पर परमात्मा के प्रतिष्ठित होते ही उन पर शुभ्र चॅवर दुलाये जाते हैं। मानस चक्षुओ द्वारा इन चॅवरो का ध्यान आते ही मुनिश्री के मुह से निकला
कुन्दावदात-चलचामर-चारु-शोभ, विभ्राजते तव वपु कलधौतकान्तम्।
उद्यच्छशाङ्क-शुचिनिर्झर-वारिधार
मुच्चैस्तट सुरगिरेरिव शातकौम्भम्॥३०॥ कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभम् - कुन्द नामक पुष्प के समान अत्यन्त शुभ्र
दुरते हुए चॅवरो के कारण सुशोभित कलधौतकान्तम्
- स्वर्ण के समान कान्तिवाला तव वपु
- आपका शरीर उद्यच्छशाइशुचिनिझरवारिधारम् - उदीयमान चन्द्रमा के समान धवल
शुभ्र-श्वेत जलप्रपात की धारा जहा
गिर रही है ऐसे सुरगिरे
- सुमेरु पर्वत के शातकौम्भम्
- स्वर्णिम् उच्चस्तटम्
- उन्नत तटो के समान विभ्राजते
- शोभा देता है। हे परमात्मा। आपका स्वर्णिम देह दुरते हुए चमरो से उसी भॉति शोभा दे रहा है जैसे स्वर्णमय सुमेरु पर्वत पर दो निर्मल जल के झरने झर रहे है।
परमात्मा। आपकी आत्मा मे परम शात आनद का एक झरना निरन्तर बह रहा है। उस अखड स्रोत मे मेरी समस्त भाव रश्मिया आत्म विभोर हो रही हैं। हे परम स्वरूप आज अत्यन्त भावपूर्ण शुभ्र भावयुक्त नमस्कार-रूप चँवर ढुला रहा हूँ। तेरे चरणो में झुककर भावों की गहराई मे उतरता हूँ और पुन ऊपर उठकर अपने उच्च शुद्ध निजस्वरूप का दर्शन करता हूँ।
चमर के साथ ही देदीप्यमान तीन छत्रो के द्वारा परमात्मा के तीनो जगत के प्रति रहे परमेश्वरत्व को प्रकट किया जा रहा है
छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्तमुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्।
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वैभव ११७ मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभ,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्॥३१॥ शशाकान्तम्
- चन्द्रमा के समान उज्ज्वल मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम् - मणि मुक्ताओं के समूह की झालरो से बढ़ गई
है शोभा जिसकी ऐसे तव उच्चै. स्थितम्
- आपके ऊपर स्थित स्थगितभानुकरप्रतापम् - रोक दिया है सूर्य की किरणों का आतप
जिन्होने ऐसे छत्रत्रयम्
(एक के ऊपर एक क्रमश ) तीन छत्र त्रिजगत
- तीनों लोको के परमेश्वरत्वम्
- परमेश्वरपने को प्रख्यापयत्
- प्रख्यात करते हुए, प्रकट करते हुए विभाति
- शोभायमान हो रहे हैं। हे परमात्मा। अंतरिक्ष मे रहे निरालबी तीन छत्र के दर्शन होते ही मेरा भव-ताप समाप्त हो रहा है। आपकी परम शात मुद्रा को अत'करण में धारण कर प्रभु भक्ति के आवेश में अपने मन-वचन और काया के तीन छत्र बनाकर तीनों योगों द्वारा तेरा विशुद्ध अयोग दर्शन पा रहा हूँ। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की रत्नत्रय रूप मिली तेरे पावन सौगात स्वरूप छत्रत्रय प्रभु मेरे परम सौभाग्य का अवसर है।
छत्रत्रय मे परमात्मा की स्थापना होते ही स्वरूप ध्यान की एकाग्रता मे परमात्मा की जयघोषणा का एक दुन्दुभिनाद उठता है
गम्भीरताररवपूरित-दिग्विभागस्त्रैलोक्यलोक-शुभसङ्गम-भूतिदक्षः।
सद्धर्मराजजय-घोषण-घोषक सन्
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी॥३२॥ गम्भीरताररवपूरितदिग्विभाग - गम्भीर-धीरोदात्त-मधुर ध्वनि से गुजायमान
दिग्मण्डल जिसने ऐसा ... त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्ष ~ तीनों लोकों के प्राणियों को सत्समागम
(शुभ-सम्मेलन) का वैभव प्राप्त कराने में
समर्थ, ऐसा सद्धर्मराजजयघोषणघोषक - सद्धर्मराज याने तीर्थकर देवों का जय
जयकार की उद्घोषणा करता हुआ
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वैभव ११९ गन्धोदबिन्दु-शुभमन्दमरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव पतति ते वचसा ततिर्वा ॥३३॥ गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमरुत्पपाता - सुगंधित जल की बूंदो से युक्त एव सुखद
मन्द-मन्द पवन के झोको के साथ गिरनेवाली उद्धा
- ऊर्ध्वमुखी-ऊपर को मुख है जिसका ऐसी दिव्या
- देवलोकोत्पन्न, पारमार्थिकी मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात - मदार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात तथा सन्तानकादिकुसुमोत्कर वृष्टि सन्तानक आदि वृक्षो के फूलो की वर्षा
दिव
- आकाश से पतति
- गिरती है ~ अथवा/मानो
- आपके वचसां
- वचनो की तति
- पंक्ति हो पतति
- फैलती है हे परमात्मा। मानो आपके वचनो की साक्षात् पंक्ति रूप दिव्य फूलो की निरन्तर वर्षा होती है। यह वर्षा शीतल-मन्द-सुगध समीर के साथ महक फैलाती है।
भक्त द्वारा श्रद्धा के फूल परमात्मा के चरणो मे चढ़ाने से उसकी आत्मा का आवरण हटता है और तुरन्त ही ऊर्ध्वलोक की विशेष वृक्षावली से सम्बन्धित वे फूल आत्मलोक के वास्तविक फूल बनकर वास्तविकता प्रकट करते हैं, आत्मिक गुण बढ़ाते हैं।
जैसे-उद्धा शब्द भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है ऊर्ध्वमुखी। ऊर्ध्वमुखी याने समवसरण मे जो फूल बरसते हैं उनके डठल नीचे (अधोमुखी) रहते हैं। अत्यत परमार्थ से भरा यह उद्धा शब्द भव्य जीवो का प्रतीक है। समवसरण मे आनेवाले भक्तात्मा फूलवत् है। जो भी आता है ऊर्ध्वगामी-स्थिति को पा जाता है। पतित भी पावन होता है। इस प्रकार प्रत्येक चेतन आत्मा के विकास का अभियान यह "उद्धा" शब्द है।
हे परमात्मा इन विशेष पुष्यों को प्राप्त करनेवाला सचमुच भाग्यशाली है। परमात्मा तू देवाधिदेव तरु है। तेरे वाणी रूप पुष्पो के साथ इन दैवीय फूलों की तुलना कर मुझ में पारमार्थिक फूलो का प्रादुर्भाव हो जाता है। जैसेदैवीय फूल
वाणी पुष्प १ सुदर-मनोहर
माधुर्य प्रसाद गुण युक्त
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वैभव १२१ प्रोद्यदिवाकर-निरन्तर-भूरि-सख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥३४॥ प्रोद्यदिवाकरनिरन्तरभूरिसख्या - प्रकृष्ट रूप से एक साथ ही पास-पास उदय
___होने वाले अनेक सूर्यों के समान ते विभो
- हे प्रभो। तुम्हारे शुम्भप्रभावलयभूरिविभा - नितान्त शोभनीक प्रभा-मण्डल (भा-कान्ति,
उसका मण्डल-गोलाकार-वह भामण्डल)
की अतिशय जगमगाती हुई ज्योति लोकत्रयद्युतिमताम् - तीनो लोको के सभी दीप्तिमान पदार्थों की द्युतिम्
- द्युति को अक्षिपन्ती
- पराजित/निरस्त करती हुई। सोमसौम्या अपि - चन्द्रमा सदृश सौम्य-शीतल होने पर भी दीप्त्या
- अपनी कान्ति से निशाम् अपि
- रात्रि को भी जयति
- जीतती है। • अनेक सूर्यों के समान तेजस्वी, फिर भी उष्णता, प्रचण्डता और आतप से सर्वथा रहित ऐसे भामण्डल की प्रभा का निखार इसमे प्रस्तुत किया है। भामण्डल के लिए यहाँ प्रभावलय शब्द का प्रयोग किया है।
यह भामडल किसी धातु विशेष से निर्मित नही होता है। यह पौद्गलिक तैजस् शरीर का स्वरूप है। सूक्ष्मतम तैजस् वर्गणाओ से यह निर्मित होता है।
वस्तुत यह व्यक्ति की समस्त भावधारा की समायोजना का एक रूप है परतु इसे विशेष और सामान्य तौर पर दो भागो मे विभाजित किया जाता है।
OccultScienceके अनुसार भा-मण्डल [Halo] यह महान व्यक्तियो के सिर के पीछे गोलाकार में पीले रंग के चक्र जैसा होता है। तीर्थंकरो का प्रभावलय उनकी परम
औदारिक अनुपम देह से निकलती हुई कैवल्यरश्मियो का वर्तुलाकार मडल है। उनकी दिव्यप्रभा के आगे कोटि कोटि सूर्यों का प्रभाव भी हतप्रभ हो जाता है। सामान्य व्यक्तियो मे यह इतना तेजस्वी और पीले रग मे चक्राकार रूप नही होता है। सामान्य व्यक्तियो के पीछे पायी जानेवाली भावधारा को आभा-मडल [Aura) कहते हैं। यह सबल और निर्बल दो तरह का होता है। जिनका चरित्र अच्छा हो, जिनका आत्मबल अधिक हो उनका Aura (आभामडल) सबल और जिसकी नैतिक भावधारा हीन हो उसका आभामडल {Aura] निर्बल होता है। यह व्यक्ति की भावधारा का प्रतीक है।
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१२२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
सामान्य व्यक्तियो का आभामडल परिवर्तनशील होता है। यह भावधारा नित्य बदलती रहती है। व्यक्ति की भावधारा मे यह परिवर्तन आकर्षण-विकर्षण के कारण होता है। बाह्य तत्त्वो के प्रभाव मे व्यक्ति अपनी नियत भावधारा मे नही रहता है। सृष्टि के तत्त्व सतत उसकी भावधारा पर सक्रमण कर उसे विचलित करते रहते हैं। ___ असामान्य और निर्मल भावधारावाले व्यक्तियो पर अशुद्ध वायुमडल का सक्रमण नही होता है। यह अपने आप मे इतना सशक्त होता है कि यह अन्य भावधारा से प्रभावित नही होता, बल्कि यह अधिक बलवान होकर स्वय अन्यो को अपने से प्रभावित भी करता है। सम्पूर्ण वायुमडल को तरगित कर रूपातरित करता है। यही कारण है कि महापुरुषो का सान्निध्य हमे अल्फा तरगो से प्रभावित कर प्रसन्नता प्रदान करता है। इसमे से निकलती हुई तैजस्-रश्मिया अलौकिक और शान्त होती हैं।
एक ऐसी भी मान्यता है कि तीर्थंकरो के भामडल की निर्मल प्रतिच्छाया मे भव्यात्मा अपने पूर्वजन्म के तीन भव वर्तमान का एक और आगामी जन्म के तीन भव ऐसे सात भवो को देख सकता है।
नित्य उदित सृष्टि के सूर्य की किरणे विशेष काच मे सन्निहित कर लेने पर उस पर Solar Ras (सूर्य किरणे) ऊर्जा के रूप मे तरगित होकर आज अनेक कार्यों मे प्रगतिमय विकास का रूप ले रही है। तीर्थकरो का भामडल चैतन्य ऊर्जा से आदोलित होता है। अत इसके दर्शन से हमारी आवृत चेतनाशक्ति का शुद्ध मतिज्ञान श्रुतज्ञान के रूप मे अनावृत होकर विशुद्ध जातिस्मृति ज्ञान के रूप मे फलितार्थ होना सहज है।
भामण्डल के चिन्तन मे लीन आचार्यश्री को अचानक दिव्यध्वनि की सघन गर्जना सुनायी देती है और वे कहते हैं
स्वर्गापवर्ग-गममार्ग-विमार्गणेष्ट सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्या.।
दिव्यध्वनि-र्भवति ते विशदार्थसर्वभाषास्वभाव-परिणाम-गुणै प्रयोज्य ॥ ३५॥
___ - देवलोक अपवर्ग
निर्वाण लोक को गममार्ग
- जाने के लिए विमार्गणेष्ट
- बताने मे अभीष्ट-सहायक त्रिलोक्या
तीनो लोको को सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटु - सम्यक् धर्म के तत्त्वो के कथन करने मेनिपुण
-- विस्तृत, स्पष्ट
स्वर्ग
विशद्
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अर्थ
वैभव १२३ - पदार्थों (द्रव्य गुण पर्याय और उनके भाव) को
बताने मे सक्षम तथा सर्वभाषा
- सभी भाषाओ के स्वभाव
- गुण को परिणाम
- परिणत होने के
गुणो से प्रयोज्य
युक्त
- आपकी दिव्यध्वनि
- अलौकिक वाणी भवति
- होती है। अनादिकालीन वासना, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग, अनध्यवसाय, सशयादि का सर्वथा नाश करने में समर्थ परमात्मा की दिव्यवाणी भव्यजीवो के भवसमाहार का सवल साधन है। मालकोष राग मे दी जानेवाली इस देशना मे सर्व जीवसृष्टि की रक्षा सन्दर्भित रहती है। इसीलिये प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है___ सव्वजगजीव-रक्खणदयट्ठयाए पावयण भगवया सुकहिय अत्तहिय पेच्चाविय आगमेसिभई सुद्ध णेयाउय अकुडिल अणुतरं सव्वदुक्खपावाणविउसमण
यह प्रवचन भगवान ने जगत् के समस्त जीवो की रक्षा-दया के लिए समीचीन रूप मे कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक-आगामी जन्मो मे शुद्ध फल के रूप मे परिणत होने से भव्य है तथा भविष्यत् काल मे भी कल्याणकर है-निर्दोष है और दोषों से मुक्त रखनेवाला है, न्याययुक्त है, अकुटिल है, अनुत्तर-सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखो और पापों को उपशान्त करनेवाला है।
देव-देविया, मनुष्य-स्त्री-पुरुष या अन्य जो भी जीव परमात्मा की देशना मे आते हैं उन सर्व की अपनी-अपनी भाषा और भावो मे यह तद्रूप परिणत होती जाती है। यह देशना अर्धमागधी मे होने पर भी १८ लौकिक भाषा और ७00 लघु-भाषाओ मे आसानी से सयोजित हो जाती है।
पहले तो लोग इस तथ्य में आशकित होते थे परतु आज भी यू एन ओ मे कोई भाषण होता है तो वह अपने आप पाच भाषाओ मे अनुवादित हो जाता है।
१ रशियन २ अग्रेजी ३ जर्मन ४ चाइनिश ५ फ्रेच __ देशना की सर्वोपरि विशेषता यही है कि यह सदा समस्त तत्त्वो और तत्त्वो के अर्थों से गर्भित रहती हैं। __ दिव्यध्वनि मे स्पंदित भक्त के मानस चक्षओ मे दैवीय सुवर्णकमल का अवतरण होता
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पदानि
१२४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
उन्निद्रहेमनवपङ्कज-पुञ्जकान्ति पर्युल्लसन्नख मयूख-शिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र । धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥ जिनेन्द्र!
- हे जिनेन्द्र। उनिद्रहेमनवपङ्कजपुजकान्ति - ताजे खिले हुए सुवर्ण कमल के समूह के
समान सुन्दर कान्ति को धारण करने वाले पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ - सब ओर तरगित नखो की कान्तिमान
किरणो की अग्रभागीय आभा से मनोहर तव पादौ
- आपके युगल चरण
जहाँ
कदम धत्त
रखे जाते हैं तत्र
- वहाँ
- देव-समुदाय पद्मानि
- कमलो को परिकल्पयन्ति
- रचते जाते हैं, विकुर्वित करते जाते हैं। समवसरण की धर्मसभा मे देव समुदाय-विकुर्वित खिले हुए नूतन स्वर्ण-कमलो की रचना करते हैं। अनन्त चतुष्टय के स्वामी, चौतीस अतिशयो से युक्त, अष्ट महाप्रतिहार्य
और नव केवल लब्धियो के धनी अरिहत परमात्मा स्वर्ण-कमलो पर चरण रखकर पधारते हैं। वीतरागता से व्याप्त सम्पूर्ण वातावरण परमात्मा के पधारने से परमानन्दमय हो जाता है। सहजात्मस्वरूप की अतरग और बाह्य विभूति तीनो लोको के जीवो के आकर्षण का एकमात्र आधार बन जाती है। भाव विभोर युक्त तरगो से लहराते विशुद्ध वायुमडल मे ऊर्ध्व गुरुत्वाकर्षण के स्पदन धर्म सत्ता की महाघोषणा फैला रहे हैं। पवित्र पर्यावरण आत्मप्रदेशो मे कपन फेलाकर समस्त चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाता है।
विवुधा शब्द पुन हमारा ध्यान देव से भक्तो की तरफ जोड़ देता है और भक्तात्मा परमात्मा से कहता है क्या देव-विकुर्वित सुवर्ण-कमलो पर पद-न्यास कर समवसरण में पचारोगे? ये कमल तो विशेष समय मे विकुर्वित होते हैं परतु हे परमात्मा। मेरा हृदय-कमल नित्य नवोदित, सदा मुदित, भावो से सतत विकसित, भक्ति से विलसित हैं और सदा-सर्वदा तेरे चरणो ने समर्पित है। प्रभु। पधारो न इस हृदय-कमल मे। विकुवित कमल जड़ और नेग हृदय-कमल चतन्यगुण सपन्न है।
विवुधा
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अनाहत नाद श्रद्धा-भक्ति
१२६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ३२ दुदुभि
बुद्धि-चातुर्य-दक्षता पुष्पवृष्टि लक्ष्मी प्रभामण्डल मेधा-प्रज्ञा दिव्यध्वनि सुवर्णकमल समस्त ऋद्धि-सिद्धि
विद्या
समर्पण-परिवर्तन हृदय मे प्रतिष्ठा
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१२८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
अब आगे के १0 श्लोक कर्म से सम्बन्धित है। इनमे प्रथम ९ पद्य मुख्य हैं , जिनमे कर्म के दो विभाग बहुत ही स्पष्टत व्याख्यायित किये गये हैं। कर्म दो प्रकार के है-घाति और अघाति।
आत्मगुणो का जो घात करते हैं वे घातिकर्म हैं। ये आत्मा के गुणो का आवरण करते हैं, आत्मा के बल-वीर्य को रोकते हैं, आत्मा को विह्वल करते हैं। इन सारे कारणो को लेकर इन कर्मों को घातिकर्म कहते हैं। आठ कर्मों मे ये घातिकर्म चार हैं१ ज्ञानावरणीय
२ दर्शनावरणीय ३ मोहनीय और
४ अतराय। घातिकर्म क्षय करने मे सरलता रहती है। अत इन्हो रोका जा सकता है, हटाया या क्षय किया जा सकता है।
जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से पाठ याद नही होता है परन्तु इसे दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ या सौ बार रटने से ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम अथवा क्षय होने से याद हो जाता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का भी होता है। प्रयत्न से इसे आंशिक रूप मे रोककर पूर्णत खपाया जा सकता है। ___ यद्यपि मोहनीय कर्म अत्यन्त बलवान् है परन्तु फिर भी वह जैसी तीव्रता से आता है वैसी तीव्रता से हट भी सकता है। इत इसे भोला भी माना जा सकता है। __ अतराय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होने से उससे प्रवर्तन होता है, वीर्य प्रकट होता है। वीर्य के दो प्रकार हैं
१ अभिसंधि और २ अनभिसधि।
अभिसधि याने आत्मा की प्रेरणा से वीर्य का प्रवर्तन और अनभिसधि याने कषाय से वीर्य का प्रवर्तन। __ ज्ञान का कार्य जानना है, दर्शन का कार्य देखना है और वीर्य का कार्य प्रवर्तमान होना है। ज्ञान दर्शन मे भूल नही होती है परन्तु उदयभाव मे रहे हुए दर्शनमोह के कारण भूल होने से भ्रान्ति के कारण सब गलत प्रतीत होता है। इसी कारण वीर्य भी विपरीत रूप परिणत होता है। यदि सम्यक्रूप मे परिणमन हो तो आत्मा सिद्ध पर्याय को पाता है। जब तक योग है, आत्मा अपनी वीर्यशक्ति से निरतर परिणमन करता रहता है। इसीलिये ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अतराय ये तीन प्रकृति उपशमभाव मे नही हो सकती हैं,क्षयोपशमभाव मे ही होती हैं। यदि ये प्रकृति उपशमभाव मे होती तो आत्मा जड़वत् हा रहती।
इनमे अन्तराय को क्षायिकभाव की दृष्टि से देखने पर अनतवीर्यलब्धि उत्पन्न होता है। (इसमे अवान्तर चार लब्धिया और मानी जाती हैं परन्तु वे सब इसी वीर्यलब्धि म शामिल हैं) वीर्य के प्राप्त होने पर आत्मा उन लब्धियो का उपयोग पुद्गल द्रव्यरूप
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प्रतीक १२९
परिणमित करने में समर्थ है फिर भी कृतकृत्य ऐसे परम पुरुष में सम्पूर्ण वीतराग स्वभाव होने पर उसका उपयोग असंभव है। उपदेशादि के दानरूप उनकी प्रवृत्ति पूर्वबध के उदयमान परिणामों से योगाश्रित होती है।
पद्यों के दो विभाग हैं- प्रथम विभाग में कथित चार श्लोक इन चार घातिकर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाच पद्य अघातिकर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। घातिकर्म मे प्रधान मोहनीयकर्म है और अघातिकर्म में प्रधान वेदनीय कर्म है। इन दोनो कर्मों का प्रतिनिधित्व कर यह घाति अघाति का भेद स्पष्ट करता है।
प्रथम विभाग में बताया गया है कि परमात्मा का नाम स्मरण करने से आने वाले उपसर्ग रुक जाते हैं और शेष पाच पद्यों मे कहा है कि आने वाले उपसर्गों से परमात्मा का स्मरण पार उतार देता है। यहाँ जो अन्तर है वही घाति अघाति का स्पष्टीकरण है। घातिकर्म आत्मा जब चाहे तब तोड़ सकता है, रोक सकता है। घातिकर्म देहस्पर्शी ही नहीं आत्मस्पर्शी भी होते हैं। प्रथम चार उपसर्गों में भय बताया जाएगा जो आत्मा के भावों का स्पर्श करता है। जब कि शेष श्लोकों में सग्राम, वाडवाग्नि, रोग, जजीर बधन ये शरीरस्पर्शी हैं। ये वेदनाप्रधान हैं। अघातिकर्म भोगने ही पड़ते हैं। ये न तो सर्वथा रोके जाते हैं और न इनका सर्वथा क्षय होता है।
अघातिकर्म में वेदनीय मुख्य है और अन्य आयुष्य, नाम और गोत्र भी इसमें सम्मिलित हैं । यहाँ अब इन कर्मों का स्वरूप विभिन्न प्रतीको के माध्यम से बताया जाएगा। और वे श्लोक सर्व कर्मों के प्रतीक बन, कर्मक्षय के उपाय प्रस्तुत कर मोक्षमार्ग का नेतृत्व करेंगे।
समस्त घातिकर्म का नेतृत्व करते हुए एक मदोन्मत्त हाथी को काम, मान और अन्तरायकर्म का प्रतीक बताते हुए आचार्य श्री कहते हैंश्च्योतन्मदाविल-विलोल - कपोलमूल मत्तभ्रमद् भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धत - मापतन्त,
दृष्ट्वा भय भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥
आपके शरणागत पुरुषों को
भवदाश्रितानाम्
श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम्
ऐरावताभम्
उद्धतम्
-
झरते हुए मद-जल से जिसके गण्डस्थल ( गण्ड प्रदेश) मलीन हो रहे हैं और जिन पर मँडराते हुए चचल-मत्त भौंरे अपने गुअन से जिसका क्रोध बढ़ा रहे हैं ऐसे
ऐरावत हाथी के समान आकार वाले उद्दण्ड, 'अवश
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१३२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
क्रमयुगाचलसश्रितम् - दोनो चरणरूपी पर्वत के आश्रित (भक्त) पर न आक्रामति
- आक्रमण नही करता। मोह कर्मराज है। सर्व कर्मों का नेतृत्व उसके हाथो मे है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय ज्ञान-दर्शन पर आवरण का काम करते हैं। अतराय कर्म का कार्य आवरण करना नहीं है। यह आत्मा के गुणो का आवरण नही करता पर यह आत्मा के वीर्य-बल को रोकता है। ये तीन आत्मघाती प्रकृतिया हैं। मोहनीय भी घाती प्रकृति है। यह न तो आवरण लाती है, न कुछ रोकती है। इसका कार्य है विह्वल करना, व्याकुल करना, मूर्छित करना।
हे परमात्मा । बद्धक्रम याने छलाग मारने के लिये उद्यत ऐसा मोह का प्रतीक रूप सिह जो काम और मान के प्रतीक सम हाथी पर अपना नेतृत्व करता है। ऐसा यह मोह रूप सिह भी आपके आश्रित भक्त पर आक्रमण नही करता है। जैसे सिह छलाग मारता है वैसे ही आपके अनाश्रित ऐसे मुझ पर यह मोह-कर्म शांति मे छलांग मारकर मुझे हतप्रभ करता रहा है।
निश्चय दृष्टि से आपके प्रति रहा हुआ राग भी वीतराग भाव मे त्यजनीय है, फिर भी हे परमात्मा । तेरे प्रति रहा हुआ प्रशस्त राग मेरे लिए परम साधन है। राग केशरी सिह है। वनराज सिह सदा भय का प्रतीक रहा, परन्तु वही सिह जब सर्कस का सिह बना लिया जाता है। तब वह रिग मास्टर के इशारे पर कार्यक्षम रहकर अत्यधिक कमाई भी करा देता है। नाश करने वाला सिह कार्य कुशलता से अर्थ सहयोग का साधन बन जाता है। वैसे ही हे प्रभु । राग भी सिह है। वह ससार मे तो भयानक है पर अध्यात्म क्षेत्र मे वही सिद्धि सहयोग का परम कारण बन जाता है। ___ इसी प्रकार कषायो मे क्रोध को सिह की उपमा दी गई है। सिह की गणना सौम्य प्राणियो मे नही है। वह क्रूर और घातकी प्राणी माना जाता है। क्रोध के उदयभाव मे व्यक्ति की आकृति भी प्रकृति के अनुसार उत्तेजित, उग्र और क्रूर-सी हो जाती है। ___मैं अनादिकाल से कर्म मोहनीय से आबद्ध हैं। प्रभु । आज तेरे चरणो का आश्रय ग्रहण करने से अब वह मुझ पर आक्रमण नही कर सकता।
ऐसा सोचते हुए आचार्यश्री को ससार की भयानक माया को पराजित करने की इच्छा होती है, वे कहते हैं
कल्पान्तकाल-पवनोद्धत-वन्हि-कल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं,
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥४०॥ कल्पान्तकालपवनोद्धतवन्हिकल्पम् - प्रलयकाल की महावायु के तेज थपेड़ों
से उत्तेजित हुई आग के समान
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प्रतीक १३३ ज्वलितम्
- जलती हुई उज्ज्वलम्
- रक्तवर्णी/लालिमा युक्त उत्स्फुलिङ्गम्
- चारों ओर ऊपर को उठती हुई
चिनगारियों वाली अशेषम् विश्वम्
- सारे ससार को जिघत्सुम् इव
- नाश करने/खा जाने की इच्छुक ऐसी सम्मुखम्
- सामने-समक्ष में आपतन्तम्
आती हुई दावानलम्
दावाग्नि को-जगली आग को त्वन्नामकीर्तनजलम् - आपके नाम का कीर्तन (स्मरण) रूपी
जल (अशेषम्)
(सम्पूर्ण रूप से) शमयति
- शान्त कर देता है-बुझा देता है। दावानल के अति बीभत्स रूप को प्रतीक बनाकर यहाँ माया को चित्रित किया गया है। समस्त ससार को अपनी लपेट मे लेकर यह सर्वनाश की घोतक है। माया समस्त कषायो मे साथ रहती है। आत्मा के सहज स्वाभाविक रूप को यह आवृत करती है। ___ यह दावाग्नि दर्शनावरणीय कर्म का भी प्रतीक है। जैसे दर्शनावरणीय कर्म यथास्थिति को समझने नहीं देता है वैसे ही दावाग्नि अपनी प्रचडता में फैलकर, व्यापकता मे उद्धत होकर वास्तविकता से वंचित कर देती है। इसकी विकरालता, घातिकर्म की उन्मत्तता से एकरूपता दिखाती है।
फिर भी परमात्मा के स्मरण रूप जल से यह दावाग्नि रूप माया निष्फल हो जाती है। शान्त हो जाती है। आगे कहते हैं
रक्तेक्षण समद-कोकिल-कण्ठनील, क्रोधोद्धत फणिनमुत्फणमापतन्तम्।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्कस्त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुस.॥४१॥
- जिस (के) - मनुष्य के - हृदय में
LE
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१३४
भक्तामर स्तोत्र . एक दिव्य दृष्टि
आपके नाम रूपी नागदमनी ( है वह
मनुष्य )
शका रहित होता हुआ
लाल आँखो वाले
उन्मत्त कोयल के कण्ठ के समान काले
क्रोध से उद्ध
सामने आते हुए
ऊपर की ओर फन उठाये हुए
सर्प को
दोनो पैरो से
लॉघ जाता है।
एक विशेष सर्प से हम आतकित हैं, पीडित हैं। जब तक वह सर्प वश मे नही होगा हर समय उसके द्वारा डसने की भय / आशका बनी रहती है। साधना के लिये कदम बढ़ाते साधक को यह कैसी विचित्र चुनौती है ? यह तो मार्ग मे फन उठाये बैठा है। उसका उल्लघन कैसे सभव हो सकता है ?
त्वन्नामनागदमनी
निरस्तशङ्क
रक्तेक्षणम् समदकोकिलकण्ठनीलम्
क्रोधोद्धतम्
आपतन्तम्
उत्कणम्
फणिनम्
क्रमयुगेन
आक्रामति
-
-
-
-
-
-
नागदमनी होती है जो सर्प को वश मे करती है, उसका दमन करती है। यह एक जडी विशेष है। परमात्मा का नाम एक ऐसी नागदमनी है जो ज्ञानावरणीय जैसे विकराल फणिधर को भी वश मे कर लेती है। परमात्मा के नाम-स्मरण से साधक इस भय का उल्लघन कर अपना पथ प्रशस्त कर सकता है।
सर्प क्रोध और लोभ का भी प्रतीक है। सामान्यत ऐसा माना जाता है कि जिनकी धनादि मे अधिक मूर्च्छा होती है वे मरकर सर्प होते हैं। पूर्वकाल मे कई ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनमे धनादि के स्थान पर सर्प कुडली मारकर बैठा रहता है और उसे किसी को भी नही छूने देता है।
इस प्रकार यह क्रोध का भी प्रतीक माना है । स्पष्टत प्रस्तुत श्लोक मे सर्प वर्णन मे क्रोधी व्यक्ति को चित्रित किया हुआ भी पा सकते हैं। चंडकौशिक सर्प के आख्यान मे इसे पूर्वजन्म में तापस होने और क्रोध में मृत्यु हो जाने पर सर्प होने की कथा भी लोक प्रचलित
है।
सर्प चाहे क्रोध का, चाहे लोभ का, चाहे ज्ञानावरणीय कर्म का प्रतीक मानें पर यह निश्चित है कि परमात्मा के नाम स्मरण से हम इसे उल्लघ सकते हैं।
इस प्रकार मोहनीय कर्मप्रधान घातिकर्म का वर्णन यहाँ समाप्त होता है।
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प्रतीक १३५ घातिकों के सम्पूर्ण नाश की इस प्रक्रिया के बाद अब आचार्यश्री कहते हैं कि अपराजेय कर्मरूपी शत्रु अवश्य ही दुर्जेय है परन्तु परमात्मा का स्मरण इन पर विजय प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। इसका समाहार करते हुए कहते हैं
वल्गत्तुरङ्ग-गजगर्जित-भीमनादमाजौ बल बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यद्दिवाकरमयूख-शिखापविद्ध,
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ आजौ
- सग्राम मे, युद्ध स्थल मे त्वत्कीर्तनात्
- आपके कीर्तन से (आपके गुणो के
स्मरण से) वल्गत्तुरङ्गगजगर्जितभीमनादम् - हेषारव करते हुए, उछलते हुए घोडो
और गर्जना करते हुए हाथियो की
भयकर आवाज हो रही है जिसमे ऐसी बलवताम्
पराक्रमी-शक्तिशाली सेनाओ से युक्त अरिभूपतीनाम्
- शत्रु राजाओ की
- सेना उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धम् - उदीयमान दिवाकर की किरणो के
अग्रभाग से भेदे गये तम इव
अन्धकार के सदृश
- शीघ्र ही भिदाम् उपैति
- विनाश को प्राप्त होती है। हे परमात्मा । जैसे सूर्योदय होते ही घने अन्धकार का शीघ्र ही नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके स्मरण से, गुण कीर्तन से, अपराजेय ऐसे कर्मरूपी शत्रुओ का सर्वथा नाश हो जाता है। यहाँ शत्रु कर्म का प्रतीक है।
घातिकर्म रोके जाते हैं, उनका क्षय होता है, परन्तु अघाति कर्म मे ऐसे कोई उपाय संभव नहीं हैं। इनको अनिवार्य रूप से उदय मे आने पर भोगने पड़ते हैं। यहाँ पर प्रस्तुत चार श्लोक वेदनीयादि अघाति कर्म के प्रतीक हैं। इनमें और उपरोक्त श्लोकों मे यही अन्तर है। ऊपर में कहा गया है कि प्रभ के नाम स्मरण से उपसर्ग रोके जा सकते हैं, प्रस्तुत पघाम बताया है कि उपसर्ग के समय में कछ समय तक परमात्मा में लीन रहने से इन उपसर्गों को पार किये जा सकते हैं।
जस घातिकर्मों का प्रतिनिधित्व मोहनीयकर्म करता है वैसे ही अघाति कर्मों का प्रातानाधत्व वेदनीय कर्म करता है। इसकी स्पष्ट झलक अब हम आगे के पधों में पायेंगे
वलम्
आशु
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१३६
भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
कुन्ताग्रभिन्न गजशोणित- वारिवाह, वेगावतार-तरणातुरयोध - भीमे । युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥ ४३ ॥
त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिण
कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारतरणातुरयोधभीमे
-
भवत. स्मरणात्
युद्धे
विजितदुर्जयजेयपक्षाः
जयम् लभन्ते
इस श्लोक मे वेदनीयकर्म मे असातावेदनीय को अत्यत ही स्पष्ट रूप से चरितार्थ करते हुए इस पर विजय प्राप्त करने मे परमात्मा के चरण कमलो के माध्यम से शरण ग्रहण की विशिष्टता बतायी है ।
-
-
आपके चरण रूपी कमलवन का सहारा लेने वाले बरछी व भालो के नुकीले अग्रभाग से भेदित, क्षत-विक्षत हाथियो के रक्त रूपी जल प्रवाह मे वेग से तेजी से उतरकर आगे बढ़ने मे उतावले ऐसे योद्धाओ से भयकर
युद्ध मे
कठिनता से जीता जा सके ऐसे शत्रु
पक्ष को जीत लिया है जिन्होने ऐसे
इस श्लोक की सर्वोपरि विशिष्टता यह है कि इसमे परमात्मा के चरणो को एक-दो कमल के उपमान से नही अपितु सम्पूर्ण कमलवन की उपमा से उपमित किया है । जीवन सग्राम है, युद्धभूमि है। यहाॅ सातत्य रूप से निरन्तर युद्ध चल रहे हैं। राग और द्वेष के प्रतीक समान युद्ध से सम्बन्धित ये दोनो श्लोक राग द्वेष के महायुद्ध से बचने का परम उपाय वीतराग के चरणो में नमस्कार और शरण ग्रहण रूप बताते हैं।
आगे कहते हैं
जय को प्राप्त होते हैं । (विजय प्राप्त करते हैं।)
-
अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण-नक्र-चक्रपाठीनपीठ-भयदोल्वण- वाडवाग्नौ । रङ्गत्तरङ्ग-शिखरस्थित-यानपात्रास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ ४४ ॥
आपके
स्मरण करने से
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भीपण
पीठ मवद्
प्रो १६९ सम्मोनियों
सनुद में सुमित
क्षोभ के पाप्त
भयानक ऐसे नक
नगर नछे घडियालेका चक्र
समूह तय पाठोन
भीनकाय नछतिये विशिष्ट प्रकार के नल्यो से
भयकर (तथा) उल्वण
- प्रकट वाडवाग्नि
- वडवानल से युक्त रगत्तरगशिखरस्थितयानपात्रा - उछलती-लहराती ऊपर नीचे को होती
हुई लहरो के शिखर पर डगमगा रहे, विचलित हो रहे हैं जहाज जिनके ऐसे
पुरुष त्रास
- आकस्मिक भय को विहाय
- छोड़कर द्रजन्ति
-- आगे बढते चले जाते हैं। यह श्लोक गोत्र कर्म का प्रतीक है। ससार रूपी समुद्र मे जीवन रूपी जहाज अपने गन्तव्य स्थान पर जाने के लिये बडी तीव्रता से गति को साधकर प्रगति करता है परन्तु इस महायात्रा के मध्य में गोत्र कर्म की ऊँची नीची तरगे उठकर कभी मान-अपमान या आकर्षण-घृणा की भावनाओं से उत्पन्न विषय वासना रूप मत्स्य से टकराता है। इस टकराव से कारण भवजन्य दर्भावना की वाडवाग्नि उत्पन्न होती रहती है।
एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पानी मे भी आग उत्पन्न हो सकती है। बिजली दो प्रकार की होती हैं१ धनात्मक और
२ ऋणात्मक। पानी से भरे मेघ जब आपस में टकराते हैं तो उसमे रही दोनो तरगो मे सघर्ष होने से बिजली पैदा होती है।
मनुष्य का सिर विद्युत् का धनात्मक केन्द्र है और पैर ऋणालक केन्द्र है। सृष्टि मे उत्तरी ध्रुव मे धनात्मक बिजली अधिक है और दक्षिण मे ऋणात्मक बिजली अधिक है। पा कारण है दक्षिण की ओर पैर करके और उत्तर की ओर सिर रखकर सोने व्यक्तियों को हृदय तथा मस्तिष्क की बीमारियाँ अधिक होती हैं। बिजली का नियम
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१३८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि यदि एक ही प्रकार की बिजली आमने सामने आती है तो एक दूसरे से मिलती नही पर अलग होकर हटना चाहती है और यदि परस्पर विरोध वाली हो तो दौड़कर मिलना चाहती है। यदि मनुष्य का सिर दक्षिण की ओर है तो सिर की धनात्मक विद्युत् तरगे और दक्षिणी ध्रुव की ऋणात्मक विद्युत् तरगे एक दूसरे से समायोजन स्थापित कर मिलती हैं। परन्त, यदि मनुष्य का सिर उत्तर मे हो तो सिर का धनात्मक ग्रहण और उत्तर दिशा की धनात्मक विजली तरगे हट जाएँगी, परिणामत व्यक्ति रोगो से ग्रस्त हो सकता है। __ यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु के समय व्यक्ति को उत्तर की ओर सिर कर भूमि पर लेटाया जाता है। ऐसा करने से प्राण सुगमता से निकलते हैं। जब बिजली की गति पर हो जाती है तब वह भूमि मे शीघ्र उतर जाती है। भूमि बिजली को त्वरा से अपनी ओर खीच लेती है।
राग और द्वेष इन बिजली तरगो की तरह आमने सामने आकर एक दूसरे मे सामजस्य स्थापित कर लेते हैं। इससे हमारे वीतराग भाव बलात् विस्थापित हो जाते हैं। यह टकराव भयकर है इससे दुर्भावनाओ की वाडवाग्नि उत्पन्न होती है जो सर्वनाश का खतरा बन जाती है। आत्मा रूपी यात्री वीतराग का स्मरण कर इसे पार कर सकता है। आगे कहते हैं
उद्भूतभीषण-जलोदर-भारभुग्ना , शोच्या दशामुपगताश्च्युतजीविताशा ।
त्वत्पाद-पङ्कज-रजोऽमृतदिग्धदेहा
मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपा ॥४५॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना - उत्पन्न हुए भयकर 'जलोदर' के भार
से या वजन से झुके हुए
शोचनीय (चितायुक्त) दशाम्
अवस्था को उपगता
- प्राप्त च्युतजीविताशा
जिन्होने जीवन की आशा छोड़ दी हो
शोच्याम्
ऐसे
त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा - (और) आपके पाद-पद्मो की रज
(धूलि) रूपी अमृत से लिप्त कर लिया
है अपने शरीर को जिन्होंने ऐसे मा
- मनुष्य मकरध्वजतुल्यरूपा
कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले भवन्ति
हो जाते हैं।
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१३८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि यदि एक ही प्रकार की बिजली आमने सामने आती है तो एक दूसरे से मिलती नहीं पर अलग होकर हटना चाहती है और यदि परस्पर विरोध वाली हो तो दौड़कर मिलना चाहती है। यदि मनुष्य का सिर दक्षिण की ओर है तो सिर की धनात्मक विद्युत् तरगे और दक्षिणी ध्रुव की ऋणात्मक विद्युत् तरगे एक दूसरे से समायोजन स्थापित कर मिलती हैं। परन्तु, यदि मनुष्य का सिर उत्तर मे हो तो सिर का धनात्मक ग्रहण और उत्तर दिशा की धनात्मक बिजली तरगे हट जाएँगी, परिणामत व्यक्ति रोगो से ग्रस्त हो सकता है।
यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु के समय व्यक्ति को उत्तर की ओर सिर कर भूमि पर लेटाया जाता है। ऐसा करने से प्राण सुगमता से निकलते हैं। जब बिजली की गति पर हो जाती है तब वह भूमि मे शीघ्र उतर जाती है। भूमि बिजली को त्वरा से अपनी ओर खीच लेती है।
राग और द्वेष इन बिजली तरगो की तरह आमने सामने आकर एक दूसरे मे सामजस्य स्थापित कर लेते हैं। इससे हमारे वीतराग भाव बलात् विस्थापित हो जाते हैं। यह टकराव भयकर है इससे दुर्भावनाओ की वाडवाग्नि उत्पन्न होती है जो सर्वनाश का खतरा बन जाती है। आत्मा रूपी यात्री वीतराग का स्मरण कर इसे पार कर सकता है। आगे कहते हैं
उद्भूतभीषण-जलोदर-भारभुग्ना , शोच्या दशामुपगताश्च्युतजीविताशा ।
त्वत्पाद-पङ्कज-रजोऽमृतदिग्धदेहा
मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपा ॥४५॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना - उत्पन्न हुए भयकर 'जलोदर' के भार
से या वजन से झुके हुए शोच्याम्
शोचनीय (चितायुक्त) दशाम्
अवस्था को उपगता
प्राप्त च्युतजीविताशा
जिन्होने जीवन की आशा छोड़ दी हो
ऐसे
त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा - (और) आपके पाद-पद्मो की रज
(धूलि) रूपी अमृत से लिप्त कर लिया
है अपने शरीर को जिन्होने ऐसे मा
मनुष्य मकरध्वजतुल्यरूपा
- कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले भवन्ति
- हो जाते हैं।
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प्रतीक १३९
जीवन की आशा आयुष्य कर्म है। अधाति कर्मों ने इसे भी स्थान दिया है क्योकि यह भी मोक्ष मे बाधक होता है। यहाँ वेदनीय की प्रधानता मे जीवन मृत्यु का रहस्य बताकर रोग मुक्ति का उपाय परनाला के चरणों को बताया है। प्रत्येक गंगो का मूलाधार पेट माना जाता है अत यहाँ इसकी प्रधानता । निरोगिता या कम रहितता की अवस्था प्राप्ति की सफलता दर्शायी है।
साथ ही इसमें जलादर से अतिरिक्त दो और भी अवस्थाएं चित्रित की है१ शोच्या दशामुपगता -याने किसी भी चिन्ना की अवस्था को प्राप्त आर २ च्युतजीविताशा - जिसके जीने की जाशा समाप्त हो चुकी है ऐसा भी मानव । प्रधन जलोदर से दहिक रोग से, दूसरे कि रोग से और तीसरे में जीवन से सम्बन्धित समस्या में भी परवाला का सारण एक विशेष समाधान की दिशा प्रदान करता
ह।
अब अंतिम कम की प्रधानता का परिलन्ति करते हुए कहा हे आपादकण्ट-मुरुशृङ्खल-वेष्टिताना, गाढ बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजा । त्वन्नाममन्त्रमनिश मनुजा स्मरन्त सद्य स्वय विगतवन्धभया भवन्ति ॥ ४६ ॥
आपादकण्टम् उरुशृखलवेष्टितागा
गाढम्
वृहन्निगडकोटिनिघृष्टजघा
मनुजा त्वन्नाममन्त्रम्
अनिशम्
स्मरन्त
सध
स्वयम् विगतबन्धभया भवन्ति
-
-
-
-
(पेरी) से लेकर (गले) तक लम्बी चौड़ी बड़ी-बड़ी दृढ़ साकलो से-जजीरो से जकड़ दिया है शरीर का अग अग जिनका ऐसे, खून अधिक मजबूत रूप से बड़ी-बड़ी बेड़ियो तथा लौह शृङ्खलाओ के अग्रभाग से किनारो से रगड़ कर छिल गई हैं जघाये जिनकी ऐसे
मनुष्य
आपके नाम रूपी मन्त्र को निरन्तर (सतत - अन्तराल
रहित - अनवरत )
स्मरण करते हुए (जपते हुए) तत्काल अति शीघ्र
अपने आप - खुद-ब-खुद
बन्धन के भय से सर्वथां रहित
हो जाते हैं।
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इस
१४० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
प्रस्तुत पद्य नामकर्म की प्रधानता के साथ सर्वकर्म से जुडा हो, ऐसा लगता है। नामकर्म विशाल है इसकी प्रकृतियाँ अनेक हैं। यही हमारी देहजन्य निर्माणशैली का कारण है। इसे Creative कर्म माना जाता है। आपका स्मरण करने वाला इस कर्म से सर्वथा रहित हो जाता है। अब उपरोक्त सर्व कर्मों का सयोजन स्थापित करने वाला पद्य है
मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहिसग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम्।
तस्याशु नाशमुपयाति भय भियेव, यस्तावक स्तवमिम मतिमानधीते॥४७॥
- जो मतिमान्
- बुद्धिमान (प्रज्ञावान पुरुष) तावकम्
आपके, इमम् स्तवम्
स्तोत्र को, अधीते
पढ़ता है, तस्य
उसका मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि- - मदोन्मत्त हाथी, सिह, दावाग्नि, सर्प, सग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम् सग्राम, सागर, जलोदर तथा बन्धन से
उत्पन्न हुआ भयं
भय भिया
भयभीत होकर
-- मानो आशु
- शीघ्र ही नाशम् उपयाति
- विनाश को प्राप्त करता है आत्मा इस स्तोत्र के पढ़ने से और आपके प्रति श्रद्धावान होने से सर्वथा ससार-भय से और कर्म से मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण से यहा कुल ९ उपसर्गों का वर्णन है।जो इस प्रकार विभक्त किये जा सकते हैं१ हाथी
तिर्यंच सम्बन्धी २ सिह
इव
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प्रतीक १४१ ३ दावाग्नि
नेसर्गिक ४ सर्प
तियच सम्बन्धी ५ युद्ध
मनुष्य सम्बन्धी ६ युद्ध ७ वाडवाग्नि
नर्गिक ८ जलोदर
कर्मकृत ९ वधन
कमकृत इस विभाजन से यहा तिर्यचकृत तीत, Tणकृत दो, काकृत दो आर निसर्गकृत दो-कुल नो उपसर्ग हैं जो अन्य अनेक उपसर्गों का प्रतिनिधित्व कर अणे मे सहायभूत कर लेते हैं।
परमात्मा के शरण ग्रहण मे हा उपमर्गों का महज शमा हो जाता है। शरण-ग्रहण समर्पण-प्रधान होता है अत अव ममपण विषय के द्वारा अन्तिम श्लोक को आचार्यश्री के अनुग्रह से अनावृत करने का प्रयास करंग।
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श्लोक ४८
| १७. समर्पण T
अध्यात्म पथ पर समर्पण साधना की नीव है। समर्पण हृदय की एक विशिष्ट दशा है जो आत्मा को परमात्मा से, मुमुक्षु को तत्त्वज्ञान से, योगी को योग से, सयमी को सयम से, भक्त को भगवान से, तुच्छ को महान से अभिन्न कर देती है अत समर्पण वास्तविक साधना का एक मात्र अनन्य साधन है।
समर्पण के सम्बन्ध मे सोचने पर प्रश्न होता है कि किसके प्रति समर्पण की यह बात है? क्या ससार के प्राणियो ने कभी किसी को समर्पण नही किया है? यदि किया है तो उसने क्या पाया? और इस समर्पण के बाद भी कौनसा अभाव लगा जो आचार्यश्री भक्तामर स्तोत्र के द्वारा हम मे इसका सद्भाव जगा रहे हैं ?
इन सारे प्रश्नो का समाधान पाने के लिए प्रथम हमे यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि समर्पण तो प्रत्येक जीव अनेक बार करते रहे हैं। परन्तु यह समर्पण योग्य तत्वो के प्रति नही रहा, अत समर्पण के पात्र, समर्पण के तत्व नित्य परिवर्तित होते रहे। ___यहाँ आचार्यश्री परम तत्त्व के साथ समर्पण की बात कर रहे हैं। परमात्मा से समर्पण करने का अर्थ होता है अपने आप को समर्पण होना। आत्मा की सबसे बड़ी गल्ती मात्र एक ही है कि उसने अपने आपका विश्वास खोकर ससार के अनेक व्यक्ति और पदार्थों को वह समर्पित होता रहा। ___ अपने आपको खोकर बहुत कुछ प्राप्त करना, इससे बड़ी भूल और कौनसी हो सकती है? अपने आप पर विश्वास नही करने से अपने कर्तव्य पर भी विश्वास नही रहता। कर्तव्य का विश्वात खोने से जो भी किया जाता है वे सारे कर्तव्य के नाम पर चलने वाले अकर्तव्य ही तो रहेगे।
इसी कारण महापुरुषो की दृष्टि मे घटनाएँ हमे बहुत कुछ सिखा देती हैं कि ससार की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर विश्वास करना बहुत बडी भूल है। इसी भूल के कारण शुद्ध सहज चैतन्य स्वरूप आत्मा इस अनादिरूप ससार मे परिभ्रमण करता है। स्वय की नित्य स्वतत्र सत्ता का भान होने पर भ्रम रहता है। भ्रम के टूटने पर व्यक्ति स्वय से जुड़ जाता है। क्योंकि किसी का टूटना किसी से जुड़ जाना होता है, किसी का न होना किसी का होना हो जाता है।
परम सत्ता के प्रति समर्पित होता है तो वह समर्पण ऐसे ही नही होता है। इसमे इष्ट के साथ तादात्य स्थापित करना होता है। सृष्टि मे, घटनाओ मे जैसा होता है, उसे सहर्ष स्वीकार कर प्रसन्न रहने का अभ्यास करना ही परम सत्ता के प्रति समर्पित होना है।
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समर्पण १४३ भक्तामर स्तोत्र का अन्तिम श्लोक समर्पण का परम अध्याय है। साधना का यह आखिरी दाव है। चेतना के विकास की अन्तिम परिणति है।
इस अन्तिम श्लोक के प्रारभ के पूर्व, आचार्यश्री के साधना की प्राणतरगों से ऊर्जान्वित अग पर लटकती ४७ वेड़ी के बन्धन टूट चुके हैं। अटूट ऐसी आत्मनिष्ठा सफलता के चरम शिखर तक पहुँच चुकी है। परम पवित्र देहपर्याय म से ति मृत अत्यत पावन भाव तरगे सम्पूर्ण वायुमडल को विशुद्ध बना रही हैं।
यहाँ पर मनीषियो को इस आनदमय वातावरण मे नया चिन्ता, नया बल और नयी शक्ति मिलती है। उन्होने राजा से कहा-महाराज चुनोती का अवसर हो आप अपनी इम कोतूहलप्रिय जनता को मुनिश्री की अन्तिम वेडी खोलो का अवसर दा यदि कोई महानुभाव विना शस्त्र, विना स्पर्श, मात्र अपनी साधना के बल पर मुनिधी की इस अन्तिम वेडी को खोलना चाहता हो तो आप उन्हे आदेश प्रदान करें। ___राजा को भी विद्वानो की यह वात पसन्द आयी। इसी आधार पर किसी आचीन्हें साधक का पता चलेगा। किसी से भी यदि चुनाती वरदान वा जाय ऐसा मोचकर उन्हाने उद्घोषणा की। सिर्फ कुछ क्षणो का अवसर दिया गया। परन्तु जनसभा में से कोई भी इस चुनौती को झेलने का साहस नहीं जुटा पाया। लज्जित बने हुए राजा ने विद्वज्जन से इसकी असमर्थता प्रकट करते हुए आचार्यश्री को ही वेड़ी खोलने का निवेदन प्रस्तुत किया।
यहाँ कर्मों के निर्मूलन के महान उपायो को आत्मसात् करते हुए आचार्यश्री पूर्ण प्रसन्नता की मुद्रा में विराजमान ह और उनके भीतर से प्रस्फुटित होता ह
स्तोत्रम्रज तव जिनेन्द्र । गुणेर्निवद्धा, भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्र-पुष्पाम्।
धत्तेजनो य इह कण्ठगतामजन,
त 'मानतुङ्ग'मवशा समुपैति लक्ष्मी ॥४८॥ जिनेन्द्र।
- हे जिनेन्द्र
- इस विश्व मे य जन
- जो मनुष्य
भक्ति पूर्वक मया
- आपके
प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि गुणो से/धागो से
भक्त्या
- मेरे द्वारा
तुत
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लक्ष्मी
समर्पण १४५ निबद्धा
बनायी हुई Dथी हुई रुचिर वर्ण .
मनोज्ञ अक्षरो वाले, सुन्दर-सुन्दर रग अलकारो से युक्त विरगे
पुष्पो से युक्त कठगता धत्ते
भावपूर्वक जपता है कठ मे धारण
करता है अथवा
पहनता है मानतुगम्
आचार्य मानतुग का ऊँचे सन्मान वाले नाम निर्देश वाचक शब्द भक्त को मोक्ष लक्ष्मी पुण्य-वेभव
अभ्युदय प्रस्तुत श्लोक मे प्रयुक्त शब्द विशेष का पूर्व श्लोको के साथ वड़ा रहस्यमय सम्बन्ध हे
१ जिनेन्द्र शब्द का सम्बोधन प्रारभ मे श्लोक २,३६ और ३७ मे आया है। पहले मे सम्बन्ध जोडकर ३६ मे चरण कमल के वर्णन मे और ३७ मे परमात्मा के वाह्य वैभव की पूर्णाहुति मे प्रयुक्त है।
२ मया शब्द श्लोक २ के अह से जुड़ा हुआ है। प्रारभ की भूमिका मे जो अह, अह (Ego) का प्रतीक था वह श्लोक ८ मे "मया" बन गया। वही "मया" यहाँ अतिम गाथा मे दर्शाया है कि में नही करता हूँ परन्तु आपकी परम भक्ति से यह मेरे द्वारा हो जाता है।
भक्त की ऑखे बद हैं। भावो मे समर्पण है। मुद्रा प्रसन्न है। मस्तक झुका हुआ है। परमात्मा ने कहा-वत्स । बोल तुझे क्या चाहिये? भक्त ने कहा
सर्व जीवों का कल्याण हो, सर्व जीव मोक्ष को प्राप्त हों,
सर्व भक्त अमर पद को प्राप्त करें। आचार्यश्री स्वय को उपसर्ग रहित स्थिति मे अनुभूत कर कायोत्सर्ग पालकर खड़े होते हैं। जयनिनादो से राजधानी गूंज उठती है। सम्पूर्ण वायुमडल विशुद्ध बन जाता है। जय घोषणाओ के नाद विश्रुत और व्यापक होते हैं।
परमात्मा आदिनाथ की जय! मुनिश्री मानतुगाचार्य की जय! जिन शासन की जय!
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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
विशाल भक्त समुदाय के साथ आचार्यश्री स्वस्थान लोटते हैं। यहां राजा लहियो (प्रतिलिपिकारी) से सारी ताड़पत्रिया इकट्ठी कर स्वस्थान लोटते हैं। गुप्तमंत्री के साथ कक्ष में प्रवेश कर दरवाजा बंद करते हैं। मंत्री से बेड़ियां पहनकर फिर सामने स्तोत्र रखकर बोलते है
१८६
भक्तामर प्रणतमालि-मणिप्रभाणामुद्यातक दलित- पापतमो-वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुग युगादावालम्वन भवजले पतता जनानाम् ॥ य सस्तुत सकलवाङ् मयतत्त्ववोधादुद्भुत-बुद्धि-पटुभि सुरलोकनाथे । स्तोत्रर्जगत्त्रितयचित्त- हररुदारे,
स्तोष्ये किलाहमपि त प्रथम जिनेन्द्रम् ॥
पने पहले भी कहा था कि उपासना के तीन प्रकार माने जाते हैं
१ प्रतिस्पर्धा
२ पुनरावृत्ति ३ भक्ति
Competition Repetition समर्पण (Dedication)
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समर्पण १४७ एक बहू दूसरी बहू से कहती है-सास बड़ी लड़ती थी पर स्तोत्र पाठ से वश मे हो गयी।
ये सारा Repetition है। इसमे हम स्तोत्र के रचयिता को repeat करते हैं। स्तोत्र के आराधक को Repeat करते हैं। और कभी Shp हो गये तो? तो कहेंगे भक्तामर स्तोत्र सही नहीं है। ये सारी कल्पनाये हैं। यही है न हमारा Mensuration या certification ? ____Dedication मे अभिभावक अकेला है। वह भक्त है क्योंकि उसके हृदय मे भक्ति है। वह दूसरो को नहीं देखता है कि कोई चला या नहीं? कोई पहुंचा या नहीं? इस सम्बन्ध मे उसे न तो कौतूहल है और न सशय है ।वह पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ता हैपरमात्मा मेरे हैं, उन्हें मुझे ही पाना है। मुझ मे ही प्रकट करना है। यह मेरा अपना ही रूप है, स्वरूप है। यह है समर्पण, भक्ति।
किसी मॉ से यह पूछो, तुम अपने बेटे को इतना प्यार क्यो करती हो और वह यदि यह कहे कि यह तो मेरा फर्ज है तो उसका मातृत्व अधूरा है। पर यदि वह यह कहे कि मेरे हृदय मे मातृत्व है, मै प्यार करती नही मेरे से हो जाता है तो वह वात्सल्य है। यह मा का अपने बच्चे के प्रति Dedication है।
जहाँ भक्त का Dedication है वहाँ परमात्मा का Radiation है। जहाँ भाव है, वहाँ प्रभाव है। ___ हमारी स्थिति ऐसी है कि हम सद्गुरु की कृपा का, परमात्मा के अनुग्रह का और स्तोत्र का प्रभाव तो चाहते हैं परन्तु हम मे समर्पण के कोई भाव नहीं रहते हैं। ___यहाँ राजा भी Repetition कर रहा था। मुनि कौन हैं ? उनके परमात्मा कैसे हैं ? स्तोत्र क्या है या स्तोत्र का मूल्याकन क्या है ? ऐसा कुछ भी नही समझने वाला नरपति स्तोत्र को उसी प्रकार Repeat करता है। जैसे Cassette Recorder मे Cassette repeat होती रहती है। इसीलिये कहा है
"स्तोत्रार्थ स्तोत्र चैतन्य यो न जानाति तत्त्वत , शतलक्षजपतोऽपि स्तोत्रसिद्धिं न ऋच्छति।"
स्तोत्र चैतन्य जव तक न प्रकट हो वह सिर्फ स्तोत्र है। स्तोत्र को, स्तोत्र के चैतन्य को जो तत्त्व से नही जानता है उसे उसका करोडो की सख्या मे जाप करने पर भी पूर्ण फल नही मिलता है। ___ भाषावर्गणा से अधिक सूक्ष्म श्वासोश्वास वर्गणा है परन्तु मनोवर्गणा तो श्वासोश्वास वर्गणा से भी अधिक सूक्ष्म है और मनोवर्गणा से भी अधिक सूक्ष्म कर्मवर्गणाए हैं। उनके क्षयोपशम से अतर्मुखी वृत्ति प्रकट होती है। सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। उसी नाम है स्तोत्र चैतन्य। तभी अप्रकट प्रकट होता है। अतीन्द्रिय की अनुभूति होती
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१४८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___ ताडपत्रो पर टूटे-फूटे अक्षरो मे लिखे स्तोत्र को लेकर पढ़ते हुए राजा की आँखे खुली हैं, मन मे कौतूहल है। पर कोई बेडी नही टूटी। बडा रज हुआ। सारी बेडिया खोलकर उठ खड़ा हुआ। राजसैनिक को भेजकर मनीषी वर्ग को बुलाया। उनसे कहा-तुम्हारे मुनि की यह monopoly नही चलेगी। यही श्लोक उन्होने गाया। तो कीलबन्ध बेडियॉ टूटती गयी और मेरे तो बिना कील की बेड़ियाँ भी नही टूटी।
प्रत्युत्पन्नमति विपश्चितो ने कहा-महाराज | मुनिश्री की बेडी के बधन टूटने मे स्तोत्र के साथ उनकी भक्ति और भक्ति के आराध्य परमात्मा का प्रभाव था। राजन्। आराधना तीन तरह की होती है
१ प्रतिस्पर्धाजन्य २ पुनरावृत्तिजन्य और ३ भक्तिजन्य। राजन्। आपमे पुनरावृत्ति है, भक्ति नही। पुनरावृत्ति से कभी साधना नही फलती है।
इस वार्तालाप से राजा को अपनी गलती महसूस हुई और वे समर्पण के लिये तैयार हुए। श्रद्धा और भक्ति से नम्र बने राजा के साथ विद्वद्वर्ग उपाश्रय पहुंचता है, परन्तु सयोग से उपसर्गजन्य स्थान से आहार नही लेने की धारणा से आचार्यश्री वहाँ से विहार कर पधार गये थे। आगन्तुक बहुत खिन्न होते हैं। यह कैसा मेरा और नगरवासियो का हीनभाग्य। मुनिश्री को कितनी उमग से लाया था। यहाँ आकर भी एक पानी की बूंद या आहार कण लिये बिना ही वे पधार गये। वे निराश होकर, हताश होकर वही पर बैठ अश्रु बहाते हैं। अन्त मे राजा के आग्रह से दोनो रथारूढ होकर जिस दिशा मे आचार्यश्री विहार कर पधारे थे उस दिशा मे प्रस्थान करते हैं। कुछ दूरी पर पहुंच रहे आचार्यश्री की सेवा मे राजा नतमस्तक होकर अपने अपराध की क्षमा मागता है। पश्चात्ताप से अश्रुसिक्त होकर आचार्यश्री के चरणो का प्रक्षालन करता है। पूर्ण समर्पण के भावो के साथ नतमस्तक राजा के मस्तक पर आचार्यश्री ने हाथ रख कर कहा
तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा साधना पथ प्रशस्त हो। तुम शीघ्र ी भक्त होकर भगवान बन जाओ।
समर्पित राजा ने आचार्यश्री से अर्थपूर्ण भक्तामर स्तोत्र को सुना और इसी प्रकार स्तोत्र का रहस्य जानने की अभ्यर्थना व्यक्त की। आचार्यश्री ने भक्तामर स्तोत्र का पूर्ण रहस्य समझा कर उन्हें प्रथम नवकार मत्र का दान कर बाद मे स्तोत्रारभ कराया।
भक्तामर-प्रणतमौलि-मणिप्रभाणा* मुद्द्योतक दलित्-पापतमो-वितानम्।
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समर्पण १४९ सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बन भवजले पतता जनानाम् ॥
य सस्तुत सकलवाङ्-मयतत्त्ववोधादुद्भूत-बुद्धि-पटुभि सुरलोकनाथै । स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्त-हरैरुदारै ,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथम जिनेन्द्रम्॥ बोलो परम स्वरूप को प्राप्तआदिनाथ भगवान की जय हमारे परमार्थ के परम प्रेरणा स्वरूप सद्गुरुदेव मुनिश्री मानतुगाचार्य की जय स्वय प्रभावितजिन शासन की जय!
ॐ शांति शांति शांति---
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परिशिष्ट १५१ प्रश्न १-'भक्तामर स्तोत्र और आधुनिक विज्ञान' इस विषय के आपके प्रवचन से ध्वनि द्वारा बेडियाँ टूटने के वैज्ञानिक सिद्धान्त को तो सुना, परन्तु यह ध्वनि विज्ञान हमारी ऊर्जा को कैसे तरगित कर सकता है? यह समझना चाहता हूँ।
उत्तर-भक्तामर स्तोत्र २६८८ अक्षरो का स्तोत्र है। ये सारे अक्षर यौगिक अक्षर हैं। यौगिक अक्षर अणु और परमाणु से भी बहुत अधिक सूक्ष्म होते हैं। अणु और परमाणु से भी बढ़कर कार्य यौगिक अक्षरो से बनने के प्रमाणो से हमारा वैभव भरा अतीत साक्षी है। ऐसे तो शब्द जड द्रव्य है, परन्तु उन जड़ अक्षरो को जब महायोगी अपनी प्राणचेतना के द्वारा ध्वनि प्रकम्पनो को अपनी विशिष्ट विद्युतीय शक्ति तरगो से आपूरित करते हैं, तव वे यौगिक अक्षर मत्र या स्तोत्र बन जाते हैं। ऐसे मत्र और स्तोत्र सृष्टि के रहस्य, चमत्कार या अन्य ऐसे ही कई रूपो मे समायोजित हो जाते हैं।
सम्पूर्ण सृष्टि ध्वनि प्रकम्पनों से भरी हुई है। इन कम्पनो को Frequency कहते हैं। विद्युत चुम्बकीय तरंग Electro-Magnetic Radiation युक्त कम्पनो से ही सृष्टि का वातावरण समायोजित रहता है। ये तरगे दो प्रकार की होती हैं
१ अनुदैर्ध्य और २ अनुप्रस्थ। इनमे केवल अनुप्रस्थ तरगो का ध्रुवण हो सकता है।
ध्वनि के कम्पनो द्वारा विद्युत धारा मे उसी आवृत्ति तथा रूप के कपन उत्पन्न करने के यत्र को Microphone कहते हैं। इन विद्युत् कपनो की प्रबलता के उपकरण को प्रवर्धक कहते हैं। इस प्रवर्धित धारा के द्वारा पुन ध्वनि उत्पादन करने के यत्र को Telephone कहते हैं। इन यत्रो के द्वारा क्षीण ध्वनि भी हजारो Male तक सनाई देती है। ध्वनि के इस सचरण मे समय बहुत ही कम लगता है, क्योंकि यह ध्वनि के रूप मे गमन नही करती बल्कि विद्युतधारा के रूप मे और रेडियो तरगो के रूप ने प्रकाश के वेग से स्थानातरित होती हैं। ऐसी ही पुनरुत्पादित ध्वनि की प्रबलता वातं यत्र को Loud speaker कहते हैं।
ये ध्वनि दो तरह की होती है१ अक्षरात्मक ध्वनि और २ अनक्षरात्मक ध्वनि दूसरी तरह से-श्राव्यध्वनि और अश्राव्य ध्वनि।
जिन ध्वनि तरगो को हमारे कान पकड़ सकते हैं उसे हम श्राव्य ध्वनि कहते हैं, और जिस ध्वनि की कम्पन युक्त तरगो को हमारे कान नही पकड़ सकते हैं, वह अश्राव्यध्वनि है। सामान्यत हमारे कान प्रति सैकन्ड मे १६ से लेकर ३२,७६८ कपन युक्त तरगो को पकड़ सकते हैं, इससे अधिक कम्पन (Frequency) और लम्बी तरगे अश्राव्य (Ultrasonic या Supersonic) हो जाती हैं।
सामान्यत हम इसे इस प्रकार समझ सकते हैं, जैसे- मान लीजिये कि हम कमरे में बैठे हैं, जहाँ रेडियो, टेलीविजन या माइक की कोई व्यवस्था नही है
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१५२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
स्थिति मे हम कमरे मे बैठे व्यक्तियो की और कमरे के आसपास से आनेवाली आवाजो को सुन सकते हैं, इससे अतिरिक्त की नही । परन्तु हम यह भी समझते हैं कि अतिरिक्त काफी कुछ ध्वनियाँ तरगित हो रही हैं परन्तु हम उन्हें नही सुन सकते हैं। यदि इन तरगो को पकड़ा जाय तो वे यहाॅ पर भी सुनी जा सकती हैं। इसका प्रमाण यह है कि इस समय कोई श्रवणध्वनि यत्र माइक, रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेलीविजन आदि द्वारा भारत से ही नही विदेशो से Broadcast होती हुई आवाज भी हमे सुनाई देने लगती है। इस Technique मे ये ध्वनि यत्र उन तरगो को पकड़कर हमारे कान पकड़ सके वैसी तरगो रूपान्तरित कर देते हैं ।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ध्वनि तरंगो का रस therapy को अब हमे अपने मे रूपातरित करने का मार्ग खोजना है। सामान्यत ये ध्वनि तरंगे दो प्रकार की हैं
१ साधारण वार्तालाप रूप और २ मानस तरगे ।
इनमें दोनो की लम्बाई और शक्ति (Length and Strength) मे बहुत अन्तर है। जिसकी लम्बाई कम है उसमे शक्ति अधिक है। प्रथम सामान्य वार्तालाप मे हमारी ध्वनि तरगे १० फीट दूर तक जाती हैं। इसमे विचार तरगें Wave Length कम हैं परन्तु इसकी Strength बहुत है । परिणामत वार्तालाप की ध्वनि तरंगो को आँधी, तूफान, वर्षा या अन्य आवाजो से प्रत्याघात या चोट पहुँचने से ये बिखर भी जाती है, परन्तु विचार तरगो पर इन सबका कोई असर नही होता। बल्कि कभी तीव्रता मे हजारो मील दूर की सफर ये बिना किसी बाधा के पार कर लेती हैं।
सामान्य शब्द अक्षर हैं पर योगीपुरुष जब इसे अपने चिन्तन की तरगो मे रूपातरित करते हैं तब ये अक्षर मत्र या स्तोत्र बन जाते हैं। भक्त साधक भक्तिपूर्ण एकाग्रता मे जब इस स्तोत्र की अक्षर तरगो के माध्यम से स्तोत्रकार में निहित चिन्तन तरगो को स्वय की शक्ति तरगो मे समायोजित करता है तब स्तोत्र परिणाम प्रकट करता है ।
रेडियो मे जो कार्य Crystal या Aerial करते हैं, आध्यात्मिक प्राणशक्ति के जगाने मे वही कार्य स्तोत्र करते हैं। आकाशवाणी आपने देखी होगी, यहाॅ पर स्पष्ट दिखाई देता है, कि शब्द तरगो को पहले विद्युत् तरगो मे बदला जाता है। यह graph M
manasm
इस प्रकार विद्युतीय रूप मे रूपातरित होता है । फिर रेडियो का Aerial विद्युत तरगो को पकड़कर शब्दों में बदल देता है और हम तक आसानी से पहुॅचा देता है । महापुरुष मन्त्र स्तोत्रो मे स्वय की शक्ति को रूपातरित करते हैं, हम स्तोत्र के माध्यम से इसे पकड़कर आराधना द्वारा स्वय की शक्ति में परिणत कर सकते हैं।
पन्नवणा सूत्र मे सिद्धान्त के अनुसार इन्ही विचारधारा को बहुत अच्छे तरीके से समझाया गया है।
जीव पहले भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है । तत्पश्चात् वह उस भाषा को बोलता है अर्थात् गृहीत भाषाद्रव्यो का त्याग करता है । जीव कायिकयोग से (भाषा योग्य पुद्गलो को) ग्रहण करता है तथा वाचिकयोग से (उन्हें ) निकालता है।
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परिशिष्ट १५३ जीव जिन द्रव्यो को भाषा के रूप मे ग्रहण करता है उन्हें सान्तर (वीच मे कुछ समय का व्यवधान डालकर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातारबीच-बीच मे व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यो का सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असख्यात समयो का अन्तर करके ग्रहण करता है। यदि कोई लगातार बोलता रहे तो उसकी अपेक्षा से जघन्य एक समय का अन्तर समझना चाहिए। जैसे- कोई वक्ता प्रथम समय मे भाषा के जिन पुद्गलो को ग्रहण करता है, दूसरे समय मे उनको निकालता तथा दूसरे समय मे गृहीत पुद्गलो को तीसरे समय मे निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय मे सिर्फ ग्रहण होता है, वीच के समयो मे ग्रहण और निसर्ग- दोनो होते हैं, अन्तिम समय मे सिर्फ निसर्ग होता है। जैसे
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इसमे जो अन्तर है उसे ही कम्पन रूप मे हम अनुभूत करते हैं। रेडियो आदि इसी पद्धति की विज्ञान आविष्कृत एक यात्रिक योजना है।
प्रश्न २-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भक्तामर स्तोत्र हम में कैसे परिवर्तन ला सकता
उत्तर-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भक्तामर को मैं Healing Process therapy की मान्यता देती हूँ। Healing therapy का विज्ञान एक ऐसी चिकित्सा देता है कि जहा हमारा प्राण-प्रवाह रुद्ध, अवरुद्ध हो चुका हो वहाँ के द्वारा प्राणऊर्जा आदोलित की जाती है। यह प्राणऊर्जा शब्द, रूप, रस, गध और स्पर्श, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य इन दस विभागों में विभक्त है। चित्त शक्ति के द्वारा ये प्राणऊर्जा इन दशो विभागों मे निरतर रचनात्मक कार्य करती रहती है। स्तोत्र में सहयोजित वर्णमाला एक स्वीकारात्मक Positive एव रचनात्मक Constructive आदोलनों को जगाने मे बहुत अधिक सफल है। इसी कारण यह मानसिक या शारीरिक किसी भी रोग या प्रतिक्रिया से मुक्ति दिलाता है।
महापुरुष स्वय की प्राणशक्ति को साधना के बल पर व्यवस्थित कर लेते हैं। वही व्यवस्थित प्राणऊर्जा आन्दोलित होकर विविध शक्तियो के रूप मे परिणत होती रहती है। व्यक्ति की प्रत्येक गति इसी प्राणशक्ति आयाम के द्वारा विविध प्रयोजनो मे पर्यवसित या सीमित की जा सकती हैं। स्नायविक शक्ति प्रवाह (Nerve Current), गुरुत्वाकर्षण, चुबकशक्ति, विचारशक्ति, विविध शारीरिक क्रिया शक्ति आदि प्राणऊर्जाओ की विविध विकसित अवस्थाये हैं। ये आध्यात्मिक और आधिभौतिक दोनो रूपों में प्रयुक्त होती रहती हैं। यही कारण है कि महापुरुषों की योगविद्याएँ विज्ञान के सदर्भ में परिणति पाती रहती
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१५४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
वर्तमान में व्याप्त दिव्यदृष्टि विद्या (Clairvoyancc), मानसिक सक्रमण (Tclepathy), आत्मवाद (Spintualism), वशीकरणविद्या (Hypnousm) आदि सर्व प्राणायाम शक्ति की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। प्रयोगकर्ता अपनी सूक्ष्मतम अनावृत प्राणशक्ति को ही तीव्रता के साथ उपयोग मे लेता है। अपने प्राणो.के विशिष्ट स्पदनो को वह किसी आधार से समायोजित करता है। ये आधार मन्त्र या स्तोत्र अधिक रहे हैं। अक्षर ध्वनियाँ बनकर हमारी अनावृत ऊर्जा को प्रकट करने मे परम सहयोगी सिद्ध होती हैं।
स्नायु प्रवाह दो प्रकार के होते हैं। एक ज्ञानात्मक या अन्तर्मुखी और दूसरे गत्यात्मक या बहिर्मुखी। इसमे ज्ञानात्मक स्नायु प्रवाह केन्द्र की ओर ले जाता है और मस्तिष्क को सवाद पहुंचाता है। दूसरा गत्यात्मक स्नायु प्रवाह केन्द्र से दूर मस्तिष्क के अगो मे सवाद पहुंचाता है । यद्यपि अत मे दोनो ही मस्तिष्क मे मिल जाते हैं। वहाँ ये स्नायु प्रवाह एक बल्व की तरह अडाकार पदार्थ मे समाप्त हो जाते हैं। इसे मेडूला (Medulla) कहते हैं। यह रहता है मस्तिष्क मे परन्तु मस्तिष्क से अछूता और असलग्न रहकर एक तरल पदार्थ के रूप मे तैरा करता है। इससे सिर पर चोट लगने पर भी उसकी शक्ति तरल पदार्थ मे फैल जाने से बल्व को आघात नही पहुँचता है। ___अब हम बहिर्मुखी स्नायु प्रवाह की परिस्थिति का निरीक्षण करेंगे जिसका प्रभाव हम
अन्य विधाओ के माध्यम से देखते हैं। विद्युत्गति इसका मुख्य कारण है। वस्तुत विद्युतगति समस्त परमाणुओ की अनवरत एक दिशा मे गतिशील अवस्था मात्र है। किसी भी स्थान मे स्थित समस्त वायु परमाणु यदि एक ही ओर अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित किये जायें तो वह स्थान महाविद्युत् धारायन्त्र Batteryवत् हो जाता है।
दोनो स्नायु समूह पर विद्युत् का प्रयोग करने से उन दोनो मे धनात्मक और ऋणात्मक दो विपरीत शक्तियाँ उद्भूत होती हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि हमारी अपनी इच्छा शक्ति आत्मशक्ति (Will power) वनकर स्नायु प्रवाह में परिणत होकर विद्युत् रूप बन जाती है।
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परिशिष्ट १५५ अब पिच्चुटरी ग्रन्थि से स्रावित दूसरे प्रवाह का प्रभाव भी देखे। महापुरुष, जिनमे निरतर सद्भावनाये सप्रेषित (Flow) होती रहती हैं और उनकी पिच्चुटरी ग्रन्थि से A C T H नामक हार्मोन्स स्रावित होता है। ये नाव अन्य में उद्भूत S T H नामक हार्मोन्स को प्रभाव रहित कर देता है। परिणामत महापुरुषो की ऊर्जा को Absorbकरने से व्यक्ति रोग रहित भी होता है और दूषित भावनाओ से भी मुक्ति पाता है। इसी को भारतीय भाषा में आशीर्वाद, वरदान, कृपा या अनुग्रह का रूप माना जाता है। यह सृष्टि परिवर्तन का एक प्राकृतिक नियम बन जाता है। भारत की यह धरोहर सपूर्ण विश्व मे एक अनन्यता का रूप बनी हुई है।
भक्तामर स्तोत्र मे भक्ति द्वारा ऊर्जान्वित साधक की पिच्चूटरी ग्रन्थि से ACTH नामक हार्मोन्स निकलना शुरू होता है, परिणामत उसकी प्राणऊर्जा मे अल्फा तरगे आदोलित हो जाती हैं और वह समस्त मानसिक पीड़ाओ से मुक्त हो जाता है। स्वय आनद से भर जाता है और उसके पास जो भी आता है, प्रसन्न हो जाता है। मै समझती हूँ इससे बड़ी तात्कालिक उपलब्धि और क्या हो सकती है ?
प्रश्न ३-दिव्यदृष्टि विद्या (Clairvoyance), मानसिक सक्रमण (Telepathy), आत्मवाद (Spiritualism) के बारे में विस्तार से समझना चाहता हूँ। __उत्तर-दिव्यदृष्टि, मानसिक सक्रमण, आत्मवाद ये सब चित्त की निर्मल प्राणधारा से उत्थित प्राणवायु की उत्तरोत्तर उच्च से उच्चतर या उच्चतम स्पदन प्रणालियाँ हैं। प्रयोगकर्ता मनोवृत्ति द्वारा अपनी चुवकीय मानसिक शक्ति को तीव्र गति से प्रयोग में लाता है। यह कई बार तो अनुभूतिपरक रहता है और कई बार प्रयोगकर्ता स्वय ही अपनी इस विशिष्ट शक्ति से अनभिज्ञ रहता है। योगीपुरुषों मे ये शक्तियाँ व्यापक रूप से प्रयुक्त होती रही हैं। वर्तमान युग मे जो प्रयोग प्रसिद्ध हैं वे इन विभिन्न सिद्धान्तो के नाम से प्रचलित होते रहे हैं।
१ दिव्यदृष्टि (Clairvoyance)-प्रयोगकर्ता अपनी विशिष्ट सम्मोहन शक्ति से सपन्न होकर किसी भी पात्र को सम्मोहित करने की चेष्टा करता हुआ उसे निर्देश देता है "तुम दिव्यदृष्टि को प्राप्त कर चुके हो, तुम प्रत्येक वस्तु का साक्षात्कार कर सकते हो, तुम्हारी चैतन्य शक्ति समस्त ब्रह्माण्ड में व्यापक हो रही है इत्यादि सम्मोहक वचनों का पात्र पर असर होता है और वह प्रयोगकर्ता के निर्देशन के अनुसार दृष्टिसापेक्ष हो जाता है।
हैदराबाद कुसुम इण्डस्ट्रीज वाले श्रीमान् रतिलाल मेहता दिव्यदृष्टि का अपना एक अनुभूत प्रसग बताते हुए कहते थे कि तिब्बत के लामा लोग साधन विशेष से मस्तिष्क के विशेष अग को उत्तेजित कर दूसरे के प्राणमय कोष Ethernc body को देखने की दिव्यदृष्टि प्राप्त करते हैं। उनके अनुसार इसमे विशेष दो जड़ी-बूटियो का प्रयोग होता । - एक तो दातेदार औजार जैसी और दूसरी शलाका जैसी। इसमे प्रारभ में पहली
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१५६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
को विशेष मत्रो से अभिमंत्रित करके उसकी आरी से ललाट की हड्डी को काटकर उसमे छेद करते हैं। बाद मे दूसरी शलाका रूप जड़ी-बूटी अभिमंत्रित कर छेद मे डाली जाती है। ते समय इसे मस्तिष्क के विशेष भाग से टकराकर डाली जाती है जिससे वह उत्तेजित हो जाय और वह व्यक्ति दिव्यदृष्टि से सपन्न हो जाय ।
२. मानसिक सक्रमण - यह भारत की मानी हुई विद्या है। इसमे आपस मे दूर रहे दो सबंधित व्यक्ति बिना किसी साधन प्रयोग के एक दूसरे को सदेश (Message) देते-लेते हैं। इस व्यापक सृष्टि मे हजारो मील दूर ये सदेश बिना किसी व्यवधान के अपनी यात्रा सफल कर पहुँचते हैं और पुन वहॉ का सदेश लेकर वापस लौटते हैं।
सामान्यत. कई बार व्यक्ति अपने विशिष्ट आवेगो के कारण दूर तक अपने भावो को फैला सकता है । परन्तु उसे इस बात की प्रामाणिकता का अनुभव बिना प्रयोग के नही होता है । उदाहरणत व्यक्ति भोजन तो करता है, और उन पदार्थों का फल भी पाता है, फिर भी समस्त पाचन तन्त्र से वह अनभिज्ञ रहता है। आहार को पचाने के लिए पाचनतन्त्र से काम लेने पर भी वह पाचनतन्त्र से अनभिज्ञ रहता है उसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी मानसिक सक्रमण की प्रक्रिया से गुजरता अवश्य है, पर समझता नही है । अनजान मे भी कई बार वह प्यार के अधिकारो मे स्नेही मुझे इस समय याद कर रहा है ऐसा अनुभव करता है। इसी प्रकार बिना किसी कारण प्रसन्न या उदास भी होता है। अपनी आसपास की अवस्था या परिस्थिति में वह प्रसन्नता, आनद या उदासीनता का कारण ढूँढ़ने का प्रयास करता है।
प्रयोग के जानने वाले यथोचित रूप मे प्रयोग के माध्यम से सदेश देते-लेते हैं। इसमे दो प्रयोगकर्ता दूर रहकर अपने निश्चित किये हुए समय मे मन्त्र स्मरण, स्तोत्र स्मरण, तालयुक्त प्राणायाम आदि द्वारा एक दूसरे से सबध स्थापित कर सदेश देते-लेते हैं। यह तालयुक्त प्राणायाम हाथ की कलाई मे अगूठे की ओर नब्ज देखने वाली नाडी की धड़कन की गति के अभ्यास से सिद्ध होता है।
इसमें सुखासन में बैठकर नाडी की गति को १ से ६ तक गणनापूर्वक पूरक, १ से ३ तक आभ्यतर कुभक, पुन १ से ६ तक रेचक, फिर १ से ३ तक बाह्यकुभक किया जाता है | इसमे प्रति समय दोनो मे नियोजित मन्त्र स्मरण अनिवार्य है । मन्त्र से उत्पन्न ध्वनि प्राणवायु से सबध स्थापित कर विशिष्ट रूप से ऊर्जान्वित होकर दूर तक जाती है और वहाॅ से प्रतिध्वनि के रूप मे सदेश लेकर वापस लौटती है, इसे बिना तार का यन्त्र (Wireless telegram) कहते हैं। इसमे प्राणवायु Telephone है और निर्धारित मन्त्राक्षर उसके Number हैं। इसे Transmigrals या Transmission System भी कहते हैं । इस प्रकार मानसिक सक्रमण के द्वारा अपनी विचार तरगे दूर-दूर भेजी जा सकती हैं।
विचार तरगो की गति मे ईथर (Ether) नामक एक व्याप्त तत्व की सहायता रहती है । यह ईथर तत्व तरगो की गति मे सहायता प्रदान करता है। सामान्यत विचारो की गति
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परिशिष्ट १५७ की अपेक्षा विचार तरगो की गति सात गुना अधिक है। एक क्षण मे अनुमानत ये पृथ्वी की ४0 बार परिक्रमा लगाती हैं। इस कारण मानसिक सक्रमण मे व्यक्ति आपस मे विचार सप्रेक्षण करने में सफल रहता है। दोनो अभियोक्ता अपने मनरूपी Acnal द्वारा विद्युत शक्ति की सहायता से अथवा अपनी योगजन्य प्राणशक्ति से अपनी विचार नरगो को विद्युत् तरगों में परिवर्तित कर देते हैं। ये विद्युत् तरगे Space path (आकाश मार्ग) द्वारा निर्धारित जगह पहुँचकर पुन उसी क्रिया द्वारा विचार तरगो मे परिवर्तित होकर सामने वाले को सदेश देकर और लेकर पुन विद्युत् तरगो मे रूपातरित होकर लौट आती हैं।
३ आत्मवाद (Spiritualism) इस प्रयोग मे प्लानचेट का उपयोग किया जाता है। इस पद्धति में पान के आकार के लकडी के एक पतले तख्ते पर दो तरफ धातु के दो पहिये लगाये जाते हैं। किनारे पर पेन्सिल लगाई जाती है, इसे प्लानचेट कहते हैं। ___ इस पर अगुली रखने से अगुली रखने वाले व्यक्ति के Magnetic power याने चुबकीय शक्ति से वह घूमने लगती है। कभी-कभी स्टील की कटोरी, छोटी टेबल पर या प्रायमस (स्टोव) पर भी अगुलियाँ रखकर यह प्रयोग किया जाता है। चुबकीय अनुसधान के अनुसार प्रयोगकर्ता के चित्त की एकाग्रता एव चित्तशुद्धि के कारण प्रश्नो के योग्य उत्तर मिलते रहते हैं।
प्राचीन विचारधारा के अनुसार प्रयोगकर्ता द्वारा मृत आत्माओ का इसमे आव्हान होता है और प्रश्नो के उत्तर बहुधा उनके ही द्वारा दिये जाने की व्यापक मान्यता भी वह प्रचलित है। इस विचारधारा मे मृत आत्मा मृत्यु के समय अपने किसी दूरस्थ सबन्धी से कोई बात नहीं कह पाया हो तो वह अपनी प्रबल विचार शक्ति द्वारा ऐसे कुछ प्रयोगो के माध्यम से अपना काम कर सकते हैं। परन्तु, वस्तुत ऐसा नही है। Personal Magnetism द्वारा उस प्लानचेट विधुत् साधन पर प्रयोगकर्ता अपनी विचारधारा आवर्तित करता है और अत मे वही आवर्तित विचारधाराए, ईथर की सहायता से उत्तर बनकर लौट आती हैं।
प्रश्न ४-भक्तामर स्तोत्र के सम्बन्ध में कई मत्र, यंत्र, ऋद्धि आदि प्रसिद्ध हैं । उनके बारे में आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भक्तामर स्तोत्र स्वय एक मत्र है, क्योंकि यह मन का समस्त प्रतिकूल किवा विघटन की स्थिति मे त्राण याने रक्षा करता है। मन का जो रक्षण कर सकता है, वही तो मत्र कहलाता है। व्यक्ति अपने जीवन के सभी प्रयत्नों में पूर्ण सफलता की इच्छा रखता है। हमारे यल का, प्रयल का रक्षण करता है वह यत्र कहलाता है। भक्तामर स्तोत्र प्रत्येक प्रतिकूल या विपरीत स्थिति में भी एक सफल योजना के साथ साधक का रक्षण कर उसे अनुकूलता का आनद प्रदान करता है, अत यदि आप मेरा अभिप्राय जानना चाहते हैं मैं कहूँगी कि इस स्तोत्र का प्रत्येक पद अपने आप में एक योजनामय यत्र है।
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१५८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
मंत्र-यत्र - ऋद्धि आदि सबका काम उनके अधिष्ठाता देव को सिद्ध कर उनसे अपनी मनोकामना को पूर्ण करवाना है । भक्तामर स्तोत्र मे परम आराध्य को अधिष्ठान के रूप मे स्वीकार कर समापत्ति का सार्थक प्रयोग बताया गया है । मत्र से गर्भित इस स्तोत्र स्तुति से भी अधिक नमस्कार को महत्व देकर साधक को पुण्य के महापुजा स्वामी बनाया गया है। इस स्तोत्र का एक-एक अक्षर ही महामत्र है। इसके लिए स्वतंत्र रूप से मत्र को जोड़ करके मत्र का आकर्षण बनाये रखने का कारण मात्र तत्कालीन परिस्थिति की विवशता ही रही होगी । जो एक महान मत्र है या फिर ऐसा कहें अनेक मत्र शास्त्र जिसमे प्रतिष्ठित हैं ऐसा यह स्तोत्र महापुण्य का पुज है। इसके अक्षर-अक्षर मे मन्त्रत्व ध्वनित होता है ।
यह अनुभवसिद्ध है कि सपूर्ण भावो के साथ नाभि से उत्थित स्वर युक्त शब्द महापुरुषो के योग से महामंत्र तत्र का स्वरूप या साधन बन जाता है । भक्तामर स्तोत्र बिना किसी बाधा के इस प्रमाणोपेत पूर्ति का आधार है। इसके प्रत्येक अक्षर के उच्चारण मे मत्र के आन्दोलन उत्पन्न करने की क्षमता है। इस आन्दोलन से विशिष्ट वातावरण और विशुद्ध वायुमंडल का निर्माण होता है।
भक्तामर स्तोत्र की मूल सरचना के साथ अन्य किसी भी पद्धति का समावेश नही हो पाता है। न तो स्तोत्रकार को किसी भी देवी-देवता को आव्हान करना पडा है, और न किसी पदार्थ विशेष से यत्र-तत्र के रूप मे लोगो को आकर्षित करने का उपाय अपनाना पडा है। अपने विशुद्ध चित्त तत्र मे परमानदस्वरूप परमात्मा का ध्यान कर समस्त विकृतियो से रहित हो जाना, यही इस स्तोत्र का परमार्थ है, सफलता का रहस्य है । परन्तु समय पर इतिहास करवट बदलता है । मानवीय अभीप्साये अभिव्यक्ति का रूप लेने के लिये अन्य कई आकर्षण के आयामो से जुड़ती रहती हैं। उनकी पूर्ति के लिये स्तोत्र से अतिरिक्त ऋद्धि चाहिये, मत्र चाहिये, यत्र चाहिये, तत्र चाहिये, देवी- देवता का आव्हान चाहिये । तरह-तरह की वृत्तियो द्वारा उपलब्ध विविध प्रकार के यत्र आज इस स्तोत्र की महानता का कारण बन रहे हैं।
यत्र के सम्बन्ध मे षट्खडागम के चतुर्थ खड मे " वेयणमहाधिकारे कहि अणियोगद्दार" नामक अधिकार मे ४४ महाऋद्धिया आती हैं । यत्रो मे इन्ही महाऋद्धियो को प्रमुखता देकर यत्र निर्माण की एक प्राचीन पद्धति रही है । षट्खडागम के मत्र ४४ हैं परन्तु इन्ही ४४ पर से ४८ यत्र बनाये गये हैं । षट्खडागम दिगम्बर मान्यतावाला ग्रन्थ है और इनकी सख्या विवरण मे ४८ पद्य मान्य हैं । अत सभाव्य मान्यता के अनुसार यह किसी दिगम्बर मुनि या आचार्य से प्रणीत होने चाहिये । इन ऋद्धिसूत्रो के साथ कुछ बीज मत्र भी जोड दिये गये हैं।
इसके अतिरिक्त हरिभद्रसूरिजी म सा की ओर से भी एक अलग ही पद्धति से ४८ * त्र उपलब्ध होते हैं। हरिभद्रसूरिजी महाराज कौन से हैं? इसका निर्णय दुरूह है, परन्तु
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परिशिष्ट १५९ यह तो निश्चित है कि ये श्वेताम्बर मान्यता वाले हैं। यह ४८ यत्र विधि उपरोक्त यत्र विधि से बहुत कुछ अलग है। दोनो ही यत्र विधि के मानने वाले अपने-अपने रूप में इसे वास्तविक मानते हैं।
एक तीसरा मत परम्परागत मान्यता वाला है। इसमे यत्र तो नहीं है परन्तु मत्र अवश्य हैं। इनकी संख्या १९ हैं। इनमे प्रस्तुत मत्रो मे उपरोक्त कथित ४४ ऋद्धि मत्रो का एव अतिरिक्त कुछ विद्याओ का समावेश किया गया है। परन्तु, स्तोत्र की सफलता उसके पधो मे ही निहित है। यत्रप्रिय युग मे आकर्षण बनाये रखने हेतु इन प्रचलित मान्यताओ को स्वीकृति दी गई हो, ऐसा स्पष्टत प्रतीत होता है।
स्तोत्र मे ऊर्जान्वित अक्षर विशुद्ध Vibration उत्पन्न करते हैं और ये आदोलन हमारी मनोकामना के अनुसार फल देना प्रारभ करते हैं। साधना करते समय साधक के अग मे से निकलते स्रावो को किसी विशेष पदार्थ मे किसी विशेष पद्धति से संचित करके उससे अपने कार्य को सिद्ध करने की प्राचीन प्रणाली मत्र-यत्र के आकर्षण का कारण रही है। ताड़पत्र, भोजपत्र, सुवर्णपत्र, ताम्रपत्र या रजतपत्रो पर यत्र का आलेखन कर इस शक्ति का उपयोग किया जाता है। विशेष परिस्थितियो मे भक्तामर स्तोत्र की चमत्कारिक विस्तृति को वर्धमान करने हेतु इन आचार्यों ने इस प्रणाली का प्रचार किया। इस सृष्टि में कुछ धातुएँ, सूत, कुकुम, धागा, केशर, कपूर आदि भावान्वित पदार्थ माने जाते हैं। इस कारण इनका उपयोग कर साधक की एकाग्रता और आकर्षण को बढ़ाया जा सकता है। __ अत मे, यदि आप मेरे निजी अभिप्रायो को ही समझना चाहते हो तो मेरे लिए यह अनुभवसिद्ध है कि भक्तामर स्तोत्र स्वयंसिद्ध मत्र है, यत्र है। परम शक्ति-पुज है। परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण के भावो मे ये सब कुछ इसी मे निहित हैं। इसके लिए अन्य किसी विधि-विधान-प्रयोग या पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। केवल भावपूर्वक स्तोत्र के पारायण से ही इसमे पूर्ण सफलता उपलब्ध है। किसी भी लौकिक मनोकामना के लिए इस स्तोत्र का उपयोग करना इस साधना सृष्टि के साथ मैं अन्याय समझती हूँ। किसी प्रकार की प्रतिकूलता का आना यह हमारे ही पापकर्म का कारण है। भावपूर्वक नमस्कार के साथ किया जाने वाला स्तोत्र पाठ इन पाप और कर्मों की निर्जरा करता है और विशिष्ट पुण्य का सपादन भी।जो सहज मिलता है उसे मागकर क्यो लिया जाय? परम समर्पण के भावों मे दृढ़ मन स्थिति के सामने परिस्थिति का कोई मूल्य नहीं होता है। परिस्थिति में परिवर्तन यह ससार का नियम है और मन स्थिति की दृढ़ता से परिस्थिति पर विजय, यह साधना का नियम है। अत नमस्कार के भावो के साथ नियमित स्तोत्र पाठ जीवन की सफलता का एक सार्थक प्रयोग है।
प्रश्न ५-अधिकांश लोग चमत्कारों के कारण भक्तामर स्तोत्र को मानते हैं। इस बारे में आपका क्या अभिप्राय है? क्या वर्तमान काल में आपको इस स्तोत्र के चमत्कार का कोई अनुभव हुआ है?
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परिशिष्ट १६१ बम्बई रहते थे। उस समय पहली बार उन्होने प्रवचन के द्वारा इस स्तोत्र का महत्व सुना। फलत उनके मन मे स्तोत्र के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। तद्भूत जिज्ञासाओ के शमन के लिए ये प्रतिवर्ष हमसे सपर्क करते रहे। इस चातुर्मास की पूर्णाहुति पर लाल भवन मे इन्होने शीलव्रत एव नियमित भक्तामर स्तोत्र पारायण का नियम लिया। जयपुर से अहमदाबाद लौटने के तीन-चार दिन बाद अचानक पेट मे भयकर दर्द हुआ। बढ़ती हुई इस वेदना ने दो-तीन दिन बाद अस्पताल मे भयकर रूप ले लिया। परिणामत डॉक्टरो ने इसकी काफी गभीरता बताई। इनकी धर्मपली श्रीमती मधुकान्ताजी घबरा गईं। इसी समय प्रवीण भाई ने कहा कि तुम घबराओ मत, परन्तु भक्तामर स्तोत्र के ४६ वे पद्य का पाठ कर इसका अभिमत्रित जल मुझे पिलाओ। मुझे विश्वास है कि इससे मुझे आराम हो जायेगा। अपने परिचर्या काल मे भी आप नियमित स्तोत्र पाठ पारायण करते रहे। इसी दृढ़ता, एकाग्रता एव परमात्मा के प्रति रही श्रद्धा ने डॉक्टरो की घबराहट के बीच मे भी स्वस्थता का सफलता पूर्ण समाधान प्रस्तुत किया।
यह तो अहमदावाद की घटना है, परन्तु अभी-अभी चातुर्मास काल मे अमरजैन मे डॉ पारस सूर्या के पास करीब २२ वर्षीय लड़की का एक केस आया था। इसकी अस्वस्थता का निदान करते हुए डॉ ने तरह-तरह के इलाजो से उपचार किया। खून की कई बोतले चढ़ने के बाद भी जब कोई परिणाम नही आया तब स्वय डॉ ने अतिम उपचार करते हुए उसके पिता से कहा कि अंतिम इलाज अब हो रहा है। अब तो इस बेटी के प्रारब्ध पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। आप एक काम कीजिए। पास मे लालभवन मे साध्वी जी म सा से सम्पर्क करें। जो इलाज दवा से नही होता है वह दुआ से हो सकता है। _____ डॉ सूर्या जी के इस इलाज को अजमाने के लिए वे भाईसाब लालभवन आये और पू दर्शनप्रभाजी म सा से बात करते हुए उन्होने अपनी चिता व्यक्त की। उनकी अभिव्यक्ति को सुनकर पू दर्शनप्रभा जी म सा ने उन्हें खड़े रहकर भक्तामर स्तोत्र का पाठ कर अभिमंत्रित जल लड़की को पिलाने का कहा। प्रयोग के कुछ ही घटो मे पुत्री को स्वस्थ हुई जानकर वे प्रसन्न हुए। डॉ पारस को भी उन्होने इस वास्तविकता से अनुभूति करवाई।
आज भी डॉ पारस जी कहते हैं- जब मुझे किसी के भी इलाज मे अधिक खतरे की सभावना लगे तब मै नवकार मन्त्र का स्मरण कर इलाज करता हूँ तो दर्दी स्वस्थता पाते हैं, मैं आश्वासन पाता हूँ। यह मेरी अपनी अनुभूति है। और इससे मै यह मानता हूँ कि आराधना से साधक की ऊर्जा मे परिवर्तन सभव है। ____ आबू पर्वत पर Sunset Point है। प्रात काल यह बहुत ही सूना रहता है। अनुयोग प्रवर्तक पू श्री कन्हैयालालजी महाराज शाहपुरा के सेवाभावी गजेन्द्र मेहता के साथ परिभ्रमण करते हुए स्थंडिलभूमि के लिए पर्वत की एक उपत्यका पर पारे थे। लौटने की तैयारी मे थे उसी पस्त दहाड़ता हुआ एक शेर लपलपाती हुई ऑखो के साथ सामने खड़ा हो गया।शेर को सामने देखकर वातावरण भयाक्रान्त हो गया। राजेन्द्र मेहता
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१६२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि महाराज श्री के निकट खड़ा हो गया। उसी वक्त महाराज श्री ने इस स्तोत्र के ३९वे पद का पाठ शुरू किया। कुछ ही मिनिटो मे वह शेर सर्कस के शेर की तरह यत्रवत् वापस लौट गया।
एक बार हम लोग केकडी से जैतारण जा रहे थे। एक रास्ता रोड-रोड से ब्यावर होते हुए था और दूसरा रास्ता कच्चा था जो बीच-बीच मे जगलो और खेतो से होता हुआ जैतारण पहुँचता था। वह थोड़ा कम होने से हमने उस पर चलना तय किया। चलते हुए हम खरवा से गोला पहुंचे। गोला से आहार-पानी करके हमे आगे चलना था। आहार-पानी की व्यवस्था वहॉ कम होने से रात्रि विश्राम वहाँ करने का इरादा नही था। गोला से हमने प्रस्थान किया तब प्रारभ के ३-४ कि मी तक तो हमे कोई न कोई मिलता रहा। बाद मे पगडडी से होकर रास्ता आगे मिलेगा ऐसा वहा के लोगो के कहने से हमने पगडडी पर चलना शुरू किया। परन्तु, आगे चलकर पगडडी पूर्ण हो गई। शाम होने मे कुछ ही समय बाकी था। वापस लौट नही सकते थे। खेत और कूए की परिसीमाएं समाप्त हो चुकी थी। अपरिचित और अनभिज्ञ हमने वहॉ वटवृक्ष के नीचे कुछ समय सोचने मे ही गुजारा। जब कोई रास्ता नजर नहीं आया तब हमने भक्तामर स्तोत्र का पाठ शुरू किया। इसी वक्त हमारी आवाज को सुनकर एक आदिवासी महिला वहाँ आयी और कहने लगी तुम शहर के आदमी ऐसे जगलो मे क्यो आये? आगे कहाँ जाना चाहते हो? यहाँ तो जगली जानवरो का बहुत उपद्रव है। उसके यह कहते ही कहते एक भालू सामने आकर खड़ा हो गया। वह महिला घबराकर कहने लगी, मै भी अपना साधन छोडकर आयी हूँ अब क्या होगा?' हमने उसकी घबराहट को दूर करते हुए उसे चुप रहने का संकेत दिया और हमने नमोकार मन्त्र और स्तोत्र पाठ शुरू किया। भालू चुपचाप लौट गया। आदिवासी महिला आश्चर्य और कौतूहल के साथ देखती रह गई और शहर तक हमे रास्ता बताती हुई चलती रही। रास्ते में हमने उसे जानवरो को नही मारने के बारे मे समझाया। प्रेम से परमात्मा का स्मरण करो। ये प्राणी भी प्रेम से वश मे होते हैं। अभय देने से अभय मिलता है। बातचीत के दौरान चलते हुए हम लोग सुमेर नाम के गाँव मे पहुँचे। छोटे से कस्बे में रात गुजारना हमने उचित समझा। रात मे वह आदिवासी महिला कई आदिवासी लोगो के साथ आयी और हमारा अपनी भाषा मे टूटा-फूटा परिचय देने लगी। उन सबको समझाने पर उन्होने जानवरो को नही मारने की प्रतिज्ञा की।
ई.सन् १९७१ की यह घटना है। हम आकोला (महाराष्ट्र) से इदौर (मध्यप्रदेश) की ओर विहार करते हुए जा रहे थे। खडाला से आगे करीब ४० कि मी पर जगल आता है, वहाँ हमने पहाड़ की एक चोटी पर बने हुए मकान में विश्राम लिया। वहाँ के लोगो ने हमे इस बात की चेतावनी अवश्य दी थी कि पास के तालाब में पानी पीने के लिए आने वाले शेर इस रास्ते से गुजरते हैं, इसलिए हम कोई भी इस चोटी पर कभी नही रहते हैं। यदि किसी खास मौके पर रहने की आवश्यकता होने पर हम अग्नि का प्रबध रखते हैं। हमने उसे कहा कि अब समय भी नहीं है कि हम स्थानातर करें, अत अपने इष्ट स्मरण से
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१६४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि हुए लोग नीचे उतरे। इतने मे किसी का ध्यान गढ्ढे मे होने वाली हलन-चलन की ओर गया। बच्चा भीतर से बाहर निकलने का खुद ही प्रयास कर रहा था। अत बाहर ऊपर की ओर इस प्रकार की हिलचाल हो रही थी। सबंधियो ने बडी हिम्मत से गड्ढे को खोदने का साहस जुटाया और वास्तविकता का पता लगाया। बच्चे का प्रारब्ध समझो या स्तोत्र का चमत्कार, पर बच्चा गढे से बाहर निकल सका। जो बिलकुल असभव लगता था, वह सहज सभव हो सका। आज भी वह बच्चा बडा होकर अपने परिवार के साथ विदिशा मे रहता है। वह कहता है, पता नही मुझे कहॉ से इतना बल और शक्ति मिल रही थी कि मै बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था। इधर नौवा भक्तामर होते-होते ही बच्चा मिल जाने की खुश खबरी से वातावरण तनावरहित हो गया था।
इसी प्रकार पाली में एक अजीब सा प्रसग हुआ। समाज के अध्यक्ष श्रीमान् घीसुलालजी मुथा के पुत्र मिलापचद जी रहते हैं। प्रात काल घर से दुकान जाते हुए पता नही कौन किस प्रकार कहाँ उनको ले गया। परिवार वालो को पता लगते ही खोज-बीन चालू हो गई। तनावपूर्ण वातावरण मे भी मिलापचद जी की भाभी श्रीमती कमलादेवी भागी हुई स्थानक (रघुनाथ स्मृति भवन) मे हमारे पास आयीं। हमने उन्हें आश्वासन देकर नमोकार मन्त्र की माला और एक भक्तामर, पुन एक माला और भक्तामर इस प्रकार जाप क्रम जारी रखने को कहा। जाप के प्रभाव से समझो चाहे भाग्य परन्तु मिलापचद जी वापस लौट आये। ___ एक विचित्र अनुभव हमे और हुआ है। एक बार हम खपोली से विहार कर चोक की ओर जा रहे थे। प्रात काल वर्षा हो जाने से विहार देर से हुआ। आहार-पानी लेकर हम लगभग ११/३० बजे खपोली से रवाना हुए। ३ कि मी पार कर लेने पर देखा तो हमसे दशेक कदम पीछे एक अजीब सी महिला चल रही थी। जिसकी लबाई सात-आठ फीट थी। आकृति भी अजीब सी थी। जमीन को नही छूती हुई वह तेज चलती थी, लेकिन चलते वक्त उसके दोनो हाथ स्थिर रहते थे।हमने हिम्मत कर जोर से स्तोत्र पाठ का स्मरण किया
और करीब १२ कि मी का वह पथ हमने जाप से सपन्न किया। चोक पहुंचने से पूर्व ही कुछ दूरी पर हमने देखा तो पीछा करती हुई वह महिला अदृश्य हो गई थी। यह प्रसग इतना अविस्मरणीय है कि याद आते ही लगता है जैसे आज अभी घट रहा हो।
भक्तामर स्तोत्र के द्वारा अरिहत परमात्मा की भक्ति करने का सुअवसर आज के युग मे उपलब्ध करना यही सबसे बड़ा चमत्कार है। मुझे इसकी उपलब्धि ही बड़े चमत्कारी ढग से हुई है। अरिहत परमात्मा पर अनुसधान करते समय एक बार ऐसी रुकावट आ गई कि आगे कोई रास्ता ही नही सूझ रहा था। अनेक प्रयासो के बाद भी जब काम न जम सका तब निराश होकर मै जाप करती हुई सो गई। रात के करीब ३ बजे स्वप्न मे ही पद्य ३६ का जाप मेरे से हो रहा था। वीतराग परमात्मा के परम शरण स्वरूप चरणो पर अपना मस्तक रखकर नमस्कार की मुद्रा मे समर्पित हो रही थी और मुझे कोई
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परिशिष्ट १६५ ठाणाग सूत्र की प्रति खोलकर वह पद वृत्तिसहित पढ़ा रहा था, वह पद जिसकी मै खोज कर रही थी। उसकी प्रसन्नता मे मेरी नीद खुल गई। प्रात काल की आराधना कर तुरत ही मै अवसर पाकर जैन साहित्य विकास मडल पहुँची। श्री प्रताप भाई मेहता के सहयोग से भडार जो प्रतिदिन दश बजे खुलता है उसे ७ बजे ही खुलवाया गया। स्वप्न मे देखी हुई वे पाक्तियाँ झिलमिलाती हुई मेरे जीवन को छू गई। मेरे जीवन की प्रगति का विकास वही से प्रारभ हुआ। जीवन की सपूर्ण सफलता का यह शुभारभ था। यह अभूतपूर्व प्रेरणा मेरे जीवन का सयोजन बन गई। आज भी यही ३६वा पद मेरे सपूर्ण जीवन का आधार है। भक्तामर स्तोत्र के ऊपर पायी हुई सारयुक्त उपलब्धियो का मूलाधार यह पद है। यह पद मेरे जीवन की निधि है, संनिधि है और उपलब्धि है।
किसी भी भौतिक वस्तुओ की उपलब्धि के लिये आराधना कर आराध्य से मॉगने के विचारो के मै खिलाफ हूँ। क्योंकि, बाह्य प्रसगो की अपेक्षा भी भक्तामर स्तोत्र की सर्वोपरि विशिष्टता तत्काल कषाय उपशमन करने की है। इससे बडा चमत्कार ओर क्या हो सकता है ? बिना मागे ही स्तोत्र पाठ के द्वारा मैने कई बार अभीष्ट सफलता पाई है। कई बार साप्रदायिक वातावरण के कारण सघो मे जब आपसी टकराव होते हैं तब दोनो पक्षो को शान्ति और समाधि पदान कर मानसिक अशान्ति दूर करने मे भक्तामर स्तोत्र बडा सफल रहा है। ऐसे तो कई प्रसग आये हैं लेकिन एक नवीन प्रसग भी सुन लीजिए। ____ जोधपुर महामदिर मे दो विरोधी पक्ष हमे महामदिर के आगमन का निमत्रण दे गये। स्वीकृति देकर हमने वहाँ पहुचना अनिवार्य समझा। परन्तु, एक पक्ष को बाद में असतोष हुआ और उन्होने हमारे वहाँ नही पहुँचने के अनेक प्रयास किये। सघ की ऐक्यता को बनाने और साप्रदायिक दूषणो को हटाने के उद्देश्य से हमने विरोधी वातावरण मे भी स्थानक मे प्रवेश किया। हम सबने और सघ के कई लोगो ने सघ की शान्ति हेतु उस दिन
आयंबिल किये। दोपहर को एक घटा शान्ति जाप और एक घटा भक्तामर जाप करवाया। विरोधी शात तो हो गये लेकिन प्रशात नहीं हो पाये। अत उसी दिन से प्रतिदिन जाप चालू रखे। धीरे-धीरे सारे विरोध और अवरोध समाप्त हो गये। आज भी वहाँ प्रतिदिम स्तोत्र पाठ चालू है।
एक बार एक सुनसान पथ पर सामने से आता हुआ एक ट्रक हमारे व्हिा नार रुक गया। ट्रक मे से दो-तीन पहलवान जैसे आदमी नीचे उतरे। उनी नुन्ना से भरी निगाहें, उनकी भावनाओ को छिपा नही सकीं। हमने तुरत ही उ दक माण और नमस्कार महामन्त्र के जाप शुरू किये। आपको व्या ताएका हुनको पहलवान न तो कुछ बोल पाये और न कुछ कर गद
ह न उन रास्ता काटकर आगे निकल गये।
जिसके अक्षर-अक्षर मे रहस्य भरे हुए है जितनी महानताएँ अनुभव में ला उतई
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