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AAP
AKAS
CONGO
हल जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज
विरचितया प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्
-
-
प्रा
॥श्री-भगवतीसूत्रम् ॥
-
(सप्तदशो भागः)
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशकः
SE राजकोटनिवासी-श्रेष्ठिनी-शामजीभाई-वेलजीभाई वीराणी Eng'तथा कडवीपाई-वीराणी स्मारकट्रस्टप्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति वीर- संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् M प्रति १२०० २४९८ २०२८ १९७२
मूल्य-रू० ३५-०-०
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श्री RRH RT.यानबासी 'नासोद्धार समिति,
४. गरेडिया वा रोड, - २१४८, (सौराष्ट्र)
Publishcd by: Shri Akhil Bharat S, S. Jain Shastroddhara Samiti, Garcdia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India.
" नाम लेचिदिह नः प्रधयन्त्यबशी, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
हरिणीतच्छन्दः फारसे अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूयः ३. 34500
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત ૨૪૯૮ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૮ ઈસવીસન ૧૯૭૨
मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ,
ansiel 13, सावा.
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श्री भगवतीसूत्र भाग लत्तरहवें की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाा विषय ।
पृष्ठाङ्क ___ अठाइसवां शतक उद्देशक पहला १ जीवों के पापकर्म समार्जन का निरूपण
दूसरा उद्देशक २ अनन्तरोपपन्नक नारक जीवों के पापकर्म
समार्जन का निरूपण १२-१६ तीसरा उद्देशक से ग्यारहवां उद्देशक पर्यन्त ३ उद्देशकों की परिपाटि का कथन
१७-२० उन्तीसवें शतक का पहला उद्देशक ४ पापकर्म भोगने का एवं उनको नष्ट करने का कथन २१-३७
दूसरा उद्देशक अनन्तरोपपत्रक नारकादिको को आश्रित करके
पापकर्म प्रस्थापन आदि का कथन ३८-४७ तीसरा उद्देशक से ग्यारहवें पर्यन्तके उद्देशेका कथन नैरयिकों के अचरमत्व, पापकर्म भोगनेका कथन ४८-५०
तीसवें शतक का प्रारंभ-प्रथम उद्देशक जीवों के कर्मबन्ध होने के कारणों का कथन ५१-७४ ८ जीवों के आयुबन्ध का निरूपण ।
७४-९७ नैरयिकों के आयुबन्ध का निरूपण
९७-११८ क्रियावादि जीवों के भवसिद्धि आदि होने का कथन ११९-१३३
३० दुसरा उद्देशक ११ अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों के क्रियावादी
___ आदि होने का कथन १३४-१४६
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तीसरा उद्देशक १३ परंपरोपपत्रक नैरविकों के क्रियावादी
आदि होने का कथन १४७-१४९ चौथे उद्देशक से ग्यारहवें पर्यन्त के उद्देशक १३ उद्देशकों के परिपाटि का कथन
- १५०-१५४ इकतीसवें शतक का प्रथम उद्देशक १४ चार प्रकार के युग्मो का कथन
१५५-१७६ दुसरा उद्देशक १५ - कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नैरयिक
__ आदि के उत्पाद का कथन . १७७-१८८ ४. ?" तीसरा उद्देशक । १६ नीललेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नैरयिक , . , . आदिकों के उत्पात आदि का कथन १८९-१९४
चतुर्थ उद्देशक १७ कापोतलेश्यात्राले क्षुल्लक कृतयुग्म नैरयिकों के ..
उत्पात आदि का कथन १९५-२०२ .. पांचवां उद्देशक १८ , भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्म नैरयिकों
के उत्पात आदि का कथन २०३-२१० __छट्ठा उद्देशक १९. कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्म
नैरयिकों के उत्पात आदि का कथन । २११-२१४ . . . ., सातवां उद्देशक २०.. नीललेश्यावाले भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्म
नैरयिकों के उत्पात आदि का कथन २१६-२१५
आठवां उद्देशक २१, , कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक चार उद्देशेका कथन २१६-२१७
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नववे से बारहवें पर्यन्त के उद्देशों का कथन २२. अभवसिद्धिक नैरपिकों के एवं कुष्णादि लेण्या- . - -
युक्त लैरपिकों के उपपात आदि का कथन २१८-२१९
तेरहवें से सोलह पर्यन्त के उद्देशकों का कथन . २३ : कृष्णादि लेश्यायुक्त सम्पष्टि नारकों के
चार उदेशों द्वारा उत्पत्ति आदि का कथन २२०-२२२
सत्तर से वीसवें पर्यन्त के उद्देशकों का कथन २४ कृष्णादि चार लेश्यायुक्त मिथ्याष्टि २.
नारकों के चार उद्देशकों द्वारा कथन , २२३- .. १९ से २४ पर्यन्त के चार उद्देशक का कथन २५ कृष्णादि लेश्यायुक्त कृष्णपाक्षिक नैरपिकों ....... के उत्पत्ति आदि का चार उद्देशक द्वारा कथन २२४
२५ से २८ पर्यन्त के चार उद्देशकों का कथन २६ कृष्णादि चार लेश्यायुक्त शुक्लपाक्षिक क्षुल्लक .... कृतयुग्म नैरयिकों का चार उद्देशक से कथन २२५-२२७
बत्तीसवां शतक का प्रथम उद्देशक २५. १. नारकादि जीवों की उद्वर्त्तना का निरूपण
२२८-२३५ । दूसरे उद्देशक से २८ पर्यन्त के उद्देशक का कथन 34... कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म नैरयिक आदि के
उद्देशकों के निर्देशपूर्वक कथन :: २३६-२३८ तेतीसवें शतक का प्रथम उद्देशक __ २९ एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण
२३९-२५५ 'दूसरा उद्देशक ___३१ : अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण " २१६-२६५
तीसरा उद्देशक प्रथम अवान्तर शतक ३१ परंपरोपपन्नक एकेन्द्रिय से अचरम पर्यन्त के । ।
__एकेन्द्रियों का निरूपण ...२६६-२७२
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दूसरा एकेन्द्रिय शतक ३२ ष्णादि केश्यायुक्त एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण २७६-२८८
::: तीसरा ए केन्द्रिय शतक १३ नीळलेश्यायुक्त एकेन्द्रिय जीवों के
उत्पत्ति आदि का निरूपण २८९- . ३४. झापोतलेश्यायुक्त एकेन्द्रियों के
उत्पत्ति आदि कथनयुक्त चतुर्थ शतक २९०
पांचवां एकेन्द्रिय शतक ३५ “अवसिद्धिक एकेन्द्रियों का निरूपण २९०-२९४
छट्ठा एकेन्द्रिय शतक ३६ कृष्णलेश्यायुक्त भवसिद्धिक आदि एकेन्द्रिय
जीवों का निरूपण २९४-३०३ सातवां एवं आठवां एकेन्द्रिय शतक १७ नीललेल्यायुक्त भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के '..' एकादश उद्देशात्मक शतक का कथन ३०३-३०४ ३८ फापोतलेश्यायुक्त भवसिद्धिकों के ग्यारह ... ., उद्देशात्मक आठवें शतक का कथन ३०४-३०५
• नवां शतक ३९ अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों का निरूपण । ३०५-३०७ -.; . दशवां ग्यारहवां एवं बारहवें शतक का कथन ४० कृष्णलेश्यावाले अभवसिद्धिका एकादश उद्देशात्मक
दसवां एकेन्द्रिय शतक नीललेश्यायुक्त अभवसिद्धिक __एकेन्द्रियों का ग्यारह उद्देशात्मक ग्यारहवां शतक .., तथा कापोतलेश्यायुक्त अभवसिद्धिको का
वारदवां शतक का निरूपण ' ३०७-३११ चोतीसवें शतक का आरंभ
पहला अवान्तर शतक प्रथम उद्देशक - ११ ; विग्रहगति से एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण ३१२-३३२
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४१
४३
-
४४
४५
"सामान्य से अधःक्षेत्र उर्ध्वक्षेत्र का आश्रय
करके एकेन्द्रिय जीवों के उपपात का कथन४६ अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्विकाय आदि के अधोलोक में ग्रहगति से उत्पात आदिका कथन
४९.
४७- लोक के पोरस्त्यादि चरमान्स विषय
v
५०
५१
CP
५२
विग्रहगति से जीवों के उत्पात का निरूपण रत्नप्रमापृथिव्याश्रिव पृथिव्याद्ये केन्द्रिय
जीवों का निरूपण
शर्करामभा पृथिव्याशित एकेन्द्रिय जीवों के
५३
५४ C
उपपात आदि का कथन ३५८-३६८
CI
३३३-३५६
३५७
अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकाय के उत्पत्ति आदि का कथन ३९४-४१४ अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव का लोक के
दक्षिण चरमान्त में उत्पत्ति आदि का कथन बादर पृथ्वीकाय आदि के स्थान आदि का निरूपण दूसरा उद्देशक
अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों के भेद आदि का निरूपण ४४५-४६४
तीसरा उद्देशक
अनन्तरावगाढ से अचरम पर्यन्त के जीवों के
भेदों का कथन
दूसरा एकेन्द्रिय शतक कृष्णलेश्यायुक्त एकेन्द्रियों के भेदों का निरूपण तीसरा चौथा और पांचवां शतक
नील- कापोत एवं शुक्ललेश्यावाले एकेन्द्रिय जीवों के ग्यारह उद्देशात्मक शतकों द्वारा कथन
३६९-३७४ Bes
- -३७५-३९४
परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव के भेदों का निरूपण ४६५-४५० चौथे उद्देशक से ११ वें पर्यन्त के उद्देशक का कथन
४१४-४२४
४२४-४४४
४७१-४७२
४७३-४७८
४७९-४८१
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504
५५
५६ नीलादि व्यायुक्त भासिद्धिक एकेन्द्रियों के उद्देशात्मक शतक से निरूपण
12. पैंतीसवां शतक का प्रथम उद्देशक
५७
६०
छट्टा एकेन्द्रिय सम
कृष्णश्यायुक्त धवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के भेदों का कथन सातवें से १२ वें पर्यन्त के एकेन्द्रिय शतक.
- कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीन के
६१
उत्पत्ति आदि का निरूपण
५९ / / अवशिष्ट पन्द्रह भेद कृतयुग्म गोज आदि के उत्पत्ति आदि का निरूपण
६२. -
६३
राशि के क्रम से महायुग्मों का निरूपण -
६४
1
दूसरा उद्देशक प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति का निरूपण
""
उत्पत्ति का निरूपण
1
अचरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उत्पत्ति का निरूपण
६
प्रथमसमय प्रथमसमय कृतयुग्ण कृतयुग्म
एकेन्द्रिय के उत्पत्ति का निरूपण 'प्रथम प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय के
उत्पत्ति का निरूपण
प्रथमचरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति का निरूपण
६५
६६ W-20
#
४८२-४८९
४९०-४९५
तीसरे उद्देश ले ११ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन 'प्रथम समयादि कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उत्पत्ति आदि का कथन
"वरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के
४९६-५१५
.५११-५२८
५२९-५४३
५४४-५४९
५५०-५५४
५५५-५५७
५५७-५५८
५५९-५६
५६०-५६२
५६२-५६३
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६७ प्रथमअचरमसमय कृत्युग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय
___ जीव के उत्पत्ति का निरूपण ५६४-५६५ चरमचरण, एवं चरम अबरमतपय कृतयुग्म्य कृतयुग्म एकेन्द्रिय जी के उत्पतिमा निरूपण ५६६-५६९',
दूसरा एलेन्द्रियमहायुमार कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का निरूपण ५७०-५७४ ७. प्रथमसमय कृष्णलेश्चाबाले कृतयुग्म कृतयुग्म
- जीवों के उत्पत्ति का निरूपण ५७४-५७८
तीसरा एकेन्द्रिय महायुगा शतक ७१ नीललेयायुक्त कृतयुग्म कृपयुज एकोन्द्रिय
जोगों के उत्पत्ति का निरूपण ५७९-५८०
चतुर्थ एकेन्द्रिय महायुग्म शनक ७२ कापोतलेश्यायुक्त कृतयुग कृत्युष एकेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का निरूपण . ५८१- । ५ से १२ पर्यन्खो एकेन्द्रिय कारक ७३ भवसिद्धिक कम्युग्म कृतयुग एजेन्द्रिय
जीनों उत्पत्ति का निरूपण ५८२-५८५ ७४ कृष्णलेश्यानाले स्वसिद्धिक कलयुमन कुरुयुग्म
एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति का निरूपण ५८६ ७५. " नीललेश्य भासिद्धिक कृत्युग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय
जीतों की उत्पत्ति निरूपण ५८७ ७६ कापोदलेश्गाबाले भनिद्विका कालका कृतयुगग
एकेन्द्रिों की उत्पति का निरूपण ५८८-५८९ ७७ अभवसिद्धिवाले के श क का करन ५८९-५९०
छत्तीसवे शतक में प्रथा द्वीन्द्रिय महायुग्म शत के प्रथम उद्देशक
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___७८ कृतयुग्म कृतयुग्म हान्दिए जीनों के
उत्पन्ति हा निरूपण ५९१-५९७ २ से ग्यारक पर्यन्त के उद्देशक ७९. प्रथमसगण कृतयुग्म कृतयुग्म हीन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का निरूपण ५९८-६.३
२ से ४ हीन्द्रिय महागु शतक ८० कृष्णलेश्यावाले छत्तयुग्म कृत्युग्म वीन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति हा कथन
६०४-६०६ ५ से १२ पर्यन्त के द्वीन्द्रिय महायुग्म
शतकों का कथन ८१ भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म हीन्द्रिय .. जीवों के एवं अमरसिद्धि कृतयुग्म कतयुग्म
द्वीन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति का कथन ६०६-६१२
सडतीस त्रीन्द्रिय शतक कृतयुग्मकृतयुग्म त्रीन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति का कथन ६१३-६१५
अडतीसवां शतक कृतयुग्मकृत्युग्म चतुरिन्द्रिय जोदों के
उत्पत्ति का कथन ६१६-६१८ उन्चालीस शतक कृतयुग्मन युग्म असंतिएञ्चेन्द्रिय जीवों के
उत्पत्ति का कथन ६१९-६२१ चालीसवां शतक प्रथम उद्देशक कनयुग्मकृतयुग्म संक्षिपञ्चेन्द्रिय जी के
उत्पत्ति का कथन ६२२-६३९ - दुसरा उदेशक प्रथमसमय कृत्युग्म कृत्युग्ग संक्षिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन ६३९-६४३
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६४४-६४९
६५०-६५३
६५३
६५४-६५६
६५७-६५९
दूसरा कृष्णलेश संक्षिपञ्चेन्द्रिय महायुग्न शतक ८७, कृष्णलेश्यावाले कृत्युग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय
आदि जे उत्पति का कथन प्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियों
के उत्पत्ति का कथन अप्रथमसमय से लेकर चरमाचरम पर्यन्ध के
___ उद्देशकों का कथन तीसरा संज्ञिमहायुग्म शतक नीललेश्यायुक्त कृतयुग्मकृतयुग्म संक्षिपञ्चन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन
चतुर्थ संज्ञिमहायुग्म शत ९१ कापोतलेश्यावाले कृतयुग्मायुग्म संज्ञिपञ्चन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन
पांचवां महायुग्म शव ९२ . तेजोलेश्यावाले कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन
छट्ठा महायुग्म शत ९३ पालेश्यावाले कृनयुग्म कृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन
सातवां संज्ञिमहायुग्म शत ९४ शुक्ललेश्यावाले कृत्युग्मकृतयुग्म संक्षिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन
आठवां संशिमहायुन्म शव ९५ भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्पत्ति का कथन नववां संज्ञिमहायुग्म शत कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म
संक्षिपञ्चन्द्रिय जीवों के उत्पत्ति का कथन
६५९-६६१
६६२-६६५
६६५-६६८
६६९-६७१
६७१-६७२
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दसवां संज्ञिनहायुम शर ९७ नीललेश्यावाले कृतवत्यु संक्षिपञ्चेन्द्रिय
जीवों के उत्तति का कथन ६७३-६७५
११ ३ से १४ एयन्त के लिहायुगा शक ९८ भवसिद्धिक एनेकिन के सात शतकों का कथन ६७५-६७७
पन्द्रहवां संजिनहायुग्म शत ९९ अभवसिद्धिक कृतयुगकतयुग्म संक्षिपश्चेन्द्रिय ।
जीवों के उत्पत्ति का वाचन ६७८-६८४
दूसरा उद्देशक १०० मथमसमय अवसिद्धिक कृतयुग्मकृत्युग्म संहि
पञ्चेन्द्रिय जीवों के उत्तर का कथन ६८५-६८७
सोलयां संज्ञिमहायुग्म शत १०१ कृष्णलेश्यावाले अमनसिद्धिक कृत्युग्मकृत्युग्म
संक्षिपञ्चेन्द्रियों के उत्पत्ति का कथन ६८८-६९१
१७ से २१ पर्यन्त के महायुग्म शत १०२ नील, कापोत आदि छह लेश्यायुक्त ____ अभवसिद्धिों के उत्पति आदि का कथन ६९१-६९६
४१ वां शतक का प्रथम उद्देशा १०३ राशियुग्म का निरूपण
६९७-७१७ दूसरा उदेशा १०४ राशियुग्म योजने पितों के उत्पाद का निरूपण ७१८-७२२
तीसरा उद्देशा १०५ राशियुग्म द्वापरयुगामिनाले नैरपिनो के
उत्पाद का कथन ७२३-७२५ चौथा उद्देशा १०६ राशियुग्म सरोज नैवपिकों के उत्पाद का निरूपण ७२६-७२८
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१०७
१०८ कृष्णलेरयावाले ज्योग - द्वापरयुग्म करयोज राशिवाले नैररिकों के उत्पाद का कथन से १२ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन
१०९
११०
१११
११२
११३
११४
११५
५ वें से ठप के बार कृष्णलेश्वाराचे सिग्न छतयुग्म नैरों के
उत्पाद का कथन
११६
नीलेवावाले चार उद्देयतों के वैरविकों के
उत्पाद का कथन
१३ वे से नीस पर्यन्त के उद्देशक कापhadaयायुक्त नैरथिकों के उत्पाद का चार उद्देशक एवं तेजोलेश्याले नैरयिको के चार उदेशकों द्वारा कथन
२१ से २८ पर्यन्त के उद्देशक का कथन पद्मलेश शुक्ललेश्या से युक्त चार चार उद्देशकों का स्थन
२९ से ५६ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन भवसिद्धिकराशियुग्म कृतयुग्न नैरयिकों की उत्पत्ति का कथन
कृष्णलेायुव भवसिद्दिक राशिपुग्न कृतयुग्य नैरयिकों के उत्पत्ति का कथन
नील्लेश्या एवं कापोतलेश्यायुक्त सर्वविद्धिक राशियुग नैरथिकों के उत्पति का कथन
वेजोलेश्या पद्मायुक्त भवतिद्धिकों का चार चार उद्देशक
शुक्लश्वायुवा मनसिद्धिकों का घर
उदेशकों से कथन
७२९-७३१
_७३२-७३३
७३४-७३५
७३६-७३९
७३९-७४२
७४३-७४५
७४५-७४६
७४७
७४८
७४९
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________________
त्यन
११८
११९
१३०
१२१
५७ से ८४ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन अभवसिद्धिक राशियुग्म कृत्युग्म निरशिकों के
७५०-७५२ कृष्णलेश्यावाले अमनसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म
नैरयिकों के उत्पत्ति का कथन ७५३नीललेश्यावाले आदि लेश्यायुक्त आश्वसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकों के उत्पत्ति का कथन ७५४-७५७
८५ से ११२ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन सम्यग्दृष्टि आदि राशियुग्म कृतयुग्न नैरयिकों के
उत्पत्ति का निरूपण ७५७-७५९ कृष्णादि लेश्यायुक्त राशियुग्ध कृतयुग्म नैरयिकों के
उत्पत्ति का निरूपण ७५९-७६१ ११३ ३ से १४० पर्यन्तके उद्देशक का कथन मिथ्यादृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकों के
उत्पत्ति का कथन ७६२-७६३ १४१ से १६८ पर्यन्त के उद्देशक का कथन कृष्णपाक्षिक राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकों के
उत्पत्ति का कथन ७६४-७६५ १६९ से १९६ पर्यन्त के उद्देशकों का कथन शुक्लपाक्षिक यावत् शुक्लपाक्षिक शुक्ललेश्थ राशियुग्म
नैरपिकों के उत्पत्ति का कथन ७६६-७७२ भगवतीसूत्र के शतक एवं उद्देशकों का कथन ७७३-७७४ भगवतीसूत्र के उपदेश के प्रकार का कथन ७७५-७८०
१२२
१२३
१२४
१२५ १२६
॥ समाप्त ॥
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________________
“ असंख्यं जीवियं मा पमायए
""
શ્રી વિનેદકુમાર વીરાણી
(દીક્ષા લીધા પહેલાં શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા)
જન્મ
પેા સુદાન સા. ૧૯૯૨
દીક્ષા ખીચન – ( રાજસ્થાન ) સ’. ૨૦૧૩ વૈશાખ વદ ૧૨
તા. ૨૬-૫-૫૭ રવિવાર
નિર્વાણ
ફ્લાદી – ( રાજસ્થાન ) સાં ૨૦૧૩ શ્રાવણ સુદ ૧ તા. ૭–૮–૫૭ બુધવાર
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________________
--—આમુરબ્બીશ્રીઓ
1
શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ,
(સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણું–રાજકોટ
*
,
સ્વ. સુધીરભાઈ જયતીલાલ ઝવેરી
મુંબઈ
(સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદામ
ભાવસાર અમદાવાદ,
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ગેશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વિરાણુ-રાજકેટ.
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સારી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ મહેતાબચન્દ્રજીસા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દયના)
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आयमुरब्बीश्रीओ
श्रीमान् शेठ पोपटलाल मावजीभाई
__ महेता, जामजोधपुर
श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी
जांगडा, मु. जालना
.
.
.
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સાણિયા શેઠ પ્રભુદાસભાઇ મુલજીભાઈ દેશી તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સાં
રાજકોટ
F
दानवीर शेठश्री अगरचन्दजी मेरुदानजी सा.सेठिया, मु. बीकानेर
સ્વ શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
मालिया यादी मारवाड
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ
(સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ
અમદાવાદ.
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(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
સ્વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ
ધ્રાંગધ્રા
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શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ,
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આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ
સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાષચંદ્ર શાહુ ખંભાત,
श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा अजीतवाले ( सपरिवार )
વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૃલચ જી જવાહીરલાલજી મહિયા ૨ બાજુમા બેઠેલા ભાઇ મિશ્રીલાલજી મરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ્ર અઢિયા
स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलटा મદ્રાસ.
ગઢ કીશનલાલજી ફુલચંદ મા એ ગલે વાળા
श्रीमान् सेठी खीमराजजी सा. चोरडिया
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આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ
પટેલ ડાસાભાઈ ગાપાલદાસ સુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ)
शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया
** * *
સ્વ શેઠ - માણેક, નેમચંદ્ર માંગરોલવાળા ( · મુખઈ?)
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*
૧ અમીચંદભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ માટવિયા
સ્વસ્થ ન્યાયમૂતિ તીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા
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श्रीमान् शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी .
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आद्यमुरब्बीश्रीओ
श्रीमान् शेठ मणीलाल पोपटलाल वोरा अमदावाद, जन्म ता. १०-६-१९०४
श्रीमान् शेट लालाजी कपरचन्दजी
नाहटा, मु. देहली
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકેટ.
કોઠારી હરગોવિદ ચંદભાઈ
રાજકેટ,
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...
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શેઠશ્રી મણીલાલ જેઠુભાઇ
પાલનપુરવાળા
કપુરચદ નાહટા દહલીવાલા
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aagraatra
(સ્વ,) રોશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ ખાસી
शेठ श्री देवचंदभाई फोजीलालभाई चलाणी-सुरत
श्रीमान् शेठ जगजीवनभाई रतनसीभाई वगडिया, मु. दामनगर
અમુલખભાઈ મલુકચ દ પાલનપુરવાલા
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બા.બ્ર. શ્રી વિનોદયુનિનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
પરમ વૈરાગી અને દયાના પુંજ જેવા આ પુરુષનો જન્મ વિક્રમ સંવત ૧૯૨ પિ/સુદાન (આફ્રિકા)માં કે જયાં વીરાણી કુટુંબને વ્યાપાર આજ દિવસ સુધી ચાલુ છે, ત્યાં થયો હતો.
શ્રી વિનોદકુમારના પુણવાન પિતાશ્રીનું નામ શેઠશ્રી દુર્લભજી શામજી વીરાણી અને મહાભાગ્યવંતા તેમના માતુશ્રીનું નામ બેન મણિબેન વીરાણી. બનેનું અસલ વતન રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) છે. બેન મણિબેન ધાર્મિક ક્રિયામાં પહેલેથી જ રુચિવાળા હતા, પરંતુ શ્રી વિનેશકુમાર ગર્ભમાં આવ્યા પછી વધારે દઢધમી અને પ્રિય ધમી બન્યા હતા.
પૂર્વભવના સંસ્કારથી શ્રી વિનોદકુમારનું લક્ષ ધાર્મિક અભ્યાસ અને ત્યાગ ભાવ તરફ વધારે હોવા છતાં તેઓશ્રીએ નોન-મેટ્રીક સુધી અભ્યાસ કરી વ્યવહારિક કેળવણી લીધેલી અને વ્યાપારની પેઢીમાં કુશળતા બતાવેલી. - તેઓશ્રીએ યુનાઈટેડ કિંગડમ, ફ્રાન્સ, બેલજીયમ, હોલેન્ડ, જર્મની સ્વીઝર્લેન્ડ, તેમજ ઈટાલી, ઈજીપ્ત વગેરે દેશોમાં પ્રવાસ કરેલ સં. ૨૦૦૯ના વિશાખ માસ, સને ૧૯૫૩માં લંડનમાં રાણું એલીઝાબેથના રાજ્યારોહણ પ્રસંગે તેઓશ્રી લંડન ગયા હતા. કાશ્મીરનો પ્રવાસ પણ તેમણે કરેલ, દેશ પરદેશ ફરવા છતાં પણ તેમણે કઈ વખતે પણ કંદમૂળને આહાર વાપરેલ નહીં.
ઉગતી આવતી યુવાનીમાં તેઓશ્રીએ દુનિયાના રમણીય સ્થળો જેવાં કે કાશ્મીર, ઈજીપ્ત અને યુરોપનાં સુંદર સ્થળોની મુલાકાત લીધી હેવા છતાંએ તેઓને તે રમણીય સ્થળો કે રમણીય યુવતીઓનું આકર્ષણ થયું નહીં. એ એના પૂર્વભવના ધાર્મિક સંસ્કારને જ રંગ હતો અને એ રંગે જ તેમને તે બધું ન ગમ્યું અને તુરત ત્યાંથી પાછા ફર્યા અને સાધુ-સાધ્વીજીનાં દર્શન–કરવાને ઠેકઠેકાણે ગયા અને તેમના ઉપદેશને લાભ લીધે અને વૈરાગ્યમાં જ મન લગાડયું. હુંડાકાલ અવસર્પિણિના આ દુષમ નામના પાંચમાં આરાનું વિચિત્ર વાતાવરણ જોઈ તેમને કંઈક ક્ષે થતું કે તરત જ તેને ખુલાસો મેળવી લેતા અને ત્યાગ ભાવમાં સ્થિર રહેતા. દેશ પરદેશમાં પણ સામાયિક, પ્રતિક્રમણ, ચોવિહાર આદિ પચ્ચખાણ વિ. ધર્મકાર્ય તેઓ ચૂકયા નહી ઊંચી કેટિની યાને ત્યાગ કરી તેઓ સૂવા માટે માત્ર એક શેતર છે, એક એસીકું અને ઓઢવા એક ચાદર ફક્ત વાપરતા અને પલંગ ઉપર નહીં પણ ભૂમિ પર જ
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શયન કરતા. અને પહેરવા માટે એક ખાદીને લેશે અને ઝ વાપરતા, કઈ
વખતે કબજે પહેરતા બહુ ઠંડી હોય તે વખતે સાદે ગરમ કેટ પહેરી લેતા અને . સુહપત્તિ, પાથરણું, હરણ અને બે ચાર ધાર્મિક પુસ્તકની ઝોળી સાથે રાખતા
સંહાસમાં નહીં પણ જંગલમાં એકાંત જગ્યામાં ઘણે ભાગે શરીરની અશુચિ દૂર કરવા જતા, હાલતાં ચાલતાં, સંડાસ અને પેશાબ સંબંધમાં જીવદયાની બરાબર જતન કરતા,
દેશમાં કે પરદેશમાં જ્યારે તેમને કોઈની સાથે મળવાનું થતું ત્યારે તેમની સાથે અહિંસામય જૈનધર્મનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યા વગર રહેતા નહીં.
દીક્ષાર્થીઓને દીક્ષા લેવાની પ્રેરણા કરતા અને એમ જ કહેતા કે જીદગીને કઈ ભસે નથી “ગાંવ લીવિયં મા પમાયા” આયુષ્ય તૂટતાં વાર લાગતી નથી, જીવન ટર્ડ સંધાતું નથી માટે ધર્મકરણમાં સમયમાત્રનો પ્રયાદ ન કર જોઈએ.
ગેંડલ સંપ્રદાયના ઘણાખરા પૂ સુનિવર અને પૂ. મહાસતીજીને તથા બેટાદ સંપ્રદાયના પૂ આચાર્યશ્રી માણેકચંદજી મહારાજ અને દરિયાપુરી સંપ્રદાયના શાંત-શાસ્ત્રજ્ઞ પૂ. મુનિશ્રી ભાયચંદજી મહારાજ શ્રમJસંઘના મુખ્ય આચાર્યશ્રીજી આત્મારામજી મહારાજ તપમય જ્ઞાનનિધિ શાસ્ત્રોદ્ધારક બા, છ. પૂ. આચાર્યો મહારાજ શ્રી ઘલા '.જી મહારાજ વગેરે અનેક સાધુસાથ્વીના ઉપદેશને તેણે લાભ લીધેલ મુબઈમાં સં. ૨૦૧૧ સાલમાં શ્રી ધર્મસિંહજી મહારાજના સાંપ્રદાયના પંડિતરત્ન શ્રી લાલચંદજી મહારાજને પરિચય થા. લાલચંદજી મહારાજ પોતે, તથા સંચારપક્ષના ત્રણ પુત્ર અને બે પુત્રીઓ એમ કુલ ૬ બલકે આખા કુટુંબે સંયમ અગકાર કરેલ, તે જાણું તેમને અદૂભૂત ત્યાગભાવના પ્રગટ થઈ કે જે કદી ક્ષય પામી નહીં.
આ પહેલાં તેઓ જ્યારે માતા-પિતા સાથે પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી માણેકચંદજી મહારાજના દર્શને બોટાદ ગયેલા ત્યારે તેમને ઉપદેશની જે અસર થઈ તે મુખ્ય અસર પહેલી હતી અને બીજી અસર તે પૂજ્ય લાલચંદજી મહારાજના સહકુટુંબની દીક્ષા એ હતી. પ્રસંગો પૂર્વભવની બાકી રહેલી આરાધનાને પૂરી કરવાના નિમિત્ત હેઈને વખતોવખત તેઓ માતા-પિતા પાસે દીક્ષાની આજ્ઞા માગતા હતા અને તેને જવાબ તેમના પિતાશ્રી તમ્ફથી એક જ હતે. “જે હજુ વાર છે સમય પાકવા દીઓ જ્ઞાનાયાસ વધારે,
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સ. ૨૦૧૨ના અષાઢ સુધી ૧૫ થી શ્રી વિનોદકુમારે ગેડલ સંપ્રદાયના શાસ્ત્રજ્ઞ પૂ આચાર્યશ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ સાહેબ પાસે વેરાવળ ચાતુર્માસ દરમ્યાન ખાસ નિયમિત રીતે દીક્ષાની તૈયારી કરવા માટે તેમની પાસે જ્ઞાનાભ્યાસ કર્યો. તેની સાથે પૂ આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજના સંસાર પક્ષના કુટુંબી દીક્ષાના ભાવિક શ્રી જસરાજભાઈ પણ જ્ઞાનાભ્યાસ કરતા હતા. તેઓએ ત્યાં એ નિર્ણય કરેલ કે આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમ મહારાજ પાસે આપણે બન્નેએ દીક્ષા લેવી, પહેલાં વિનોદકુમારે અને પછી શ્રી જસરાજભાઈએ દીક્ષા લેવી, શ્રી જસરાજભાઈની દીક્ષાતિથિ પૂ૦ શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ સાહેબે સં. ૨૦૧૩ના જેઠ સુદ ૫ ને સોમવારે માંગરોલ મુકામે નક્કી કરી શ્રી જસરાજભાઈ વિનોદકુમારને રાજકેટ મળ્યા. શ્રી વિનોદકુમારે શ્રી જસરાજભાઈની યથાયોગ્ય સેવા બજાવી, માંગરોળ રવાના કર્યા અને પિતે નિશ્ચયપૂર્વક રિક્ષા માટે આજ્ઞા માગી પણ તેઓના પિતાશ્રીની એકને એક વાણી સાંભળીને તેમને મનમાં આઘાત થયો અને દીક્ષા માટે તેમણે બીજે રસ્તે શેધી કાઢો.
પૂજ્યશ્રી લાલચંદજી મહારાજ અને તેમના શિષ્યોને પરિચય મુંબઈમાં થયેલ હતું અને ત્યારબાદ કઈ વખત પત્રવહેવાર પણ થતું હતું. છેલ્લા પત્રથી તેમણે જાણેલ હતું, જે પૂ. શ્રી લાલચંદજી મહારાજ, ખીચન ગામે પૂ. આચાર્ય શ્રી સમરથમલજી મહારાજ સાહેબ પાસે જ્ઞાનાભ્યાસ અર્થે ગયા છે. પિતાને પિતાશ્રીની આજ્ઞા (દીક્ષા માટે) મળે તેમ નથી અને દીક્ષા તે લેવી જ છે આજ્ઞા વિના કેઈ સાધુ મુનિરાજ દીક્ષા આપે નહીં અને સ્વયમેવ દીક્ષા સૌરાષ્ટ્રમાં લઈને આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ પાસે જવામાં ઘણાં વિદને થશે, એમ ધારીને તેઓએ દૂર રાજસ્થાનમાં ચાલ્યા જવાનું નક્કી કર્યું.
તા. ૨૪-૫-૫૭ સં. ૨૦૧૩ના વૈશાખ વદ ૧૦ ને શુક્રવારના રોજ સાંજના તેમના માતુશ્રી સાથે છેલ્લું જમણ કર્યું. ભેજન કરી, માતુશ્રી સામાયિકમાં બેસી ગયા. તે વખતે કેઈને જાણ કર્યા વગર દીક્ષાના વિદામાંથી બચવા માટે ઘર, કુટુંબ, સૌરાષ્ટ્રભૂમિ અને ગોંડલ સંપ્રદાયને પણ ત્યાગ કરી તેઓ ખીચન તરફ રવાના થયા.
શ્રી વિનોદમુનિના નિવેદન પરથી માલુમ પડ્યું કે તા. ૨૪-૫–૫૭ના રોજ રાત્રે આઠ વાગે ઘેરથી નીકળી, રાજકેટ જંકશને જઈ જોધપુરની ટિકિટ લીધી તા. ૨૫-૫-૫૭ના સવારે આઠ વાગ્યે મહેસાણા પહોચ્યા ત્યાં અઢી કલાક ગાડી પડી રહે છે, તે દરમ્યાન ગામમાં જઈને લગ્ન કરવા માટેના વાળ રાખીને બાકીના કઢાવી નાખ્યાં અને ગાડીમાં બેસી ગયા મારવાડ જંકશન તથા જોધપુર જંકશન થઈને તા. ૨૬-પ-પ૭ની સવારે કા વાગ્યે ફલેદી,
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પĞાંચ્યા ત્યાંથી અંગે ચીને બીઝન ઉપાશ્રયમાં ઈ માં મશતા મુનિવરોના દન કે વદ નકાર કરી સુખશાતા પૂછી, બાર નીકળ્યા તે પાતાના સામાષ્ટિકના કપડાં દુર્ગા અને પછી પૃદ્મ શ્રી ક્રુનિવાની રાન્મુખ સામાયિક કરવા બેઠા, તેમાં ૮ વાવ નિયમ પન્નુવાfય સુવિદ્.. વિનિòળ ” ના ઇલે “ નાવલી પન્નુના વિવિધ વિવિદે ” આલ્યા ' તે શ્રી લાલચંદજી મહારા સાંભળ્યુ અને તેઓશ્રીએ પૃયુ કે વિનાદકુમાર ! વર્ષે આ શુ કરે છે તેના વાળ આખાને વાળ કોમિનિઃ એલી પાઢ પૃર કર્યું અને પછી વિનાપૂત્રક એ હાથ ડીને આવ્યા કે “રસાહેબ! ગે તેા મની જીયુ અને એ સ્વયમેવ દીા લઈ લીધી, તે ખરેખર છે અને તેમાં કાંઇ ફેરફાર થઈ શકે તેમ નથી. આ શિલાય પક્ષીની બીજી કોઇપણ પ્રકારની આજ્ઞા હાર તા ફરમાવે’
તેજ દિવસે અપેારના શાસ્રત પૃ. મુનિશ્રી સરથાલજી મહારાજ સાહેબે શ્રી વિનાદકુમાર મુનિને પેાતાની પાસે ખેલાવ્યા અને સાતવ્યા કે તમે એક સારા ખાનદાન કુટુંબની વ્યક્તિ છે, તમારી આ દીક્ષા અંગીકાર ડરવાની રીત ખરાખર નથી, કારણ કે તમારા માતા પિતાને આ હકીકતથી હું થાપ અને તેથી મારી સંપતિ છે કે રજોણની ડાંડી ઉપરધી ગ્રુપ કી નાખા જેથી તમે શ્રાવક ગણાવ અને જરૂર પડે તે શ્રાવકાના સાથે લઈ શકા, ત્રણવાર પૂ. મહારાજશ્રીએ સમજાવેલા પરંતુ તેમણે ત્રય વાત એક જ ઉત્તર આપેલ કે જે થયું, તે થયુ હવે મારે આગળ શું કરવુ તે કરાવે,
(1
શ્રી વિનેદમુનિના શ્રી સમરવાલજી જેવા મહાગુનિના શ્નના જવામ પછી ખીચનના ચતુર્વિધ સઘ વિચારમાં પડી ગયે અને મુનિશ્રી પર સસારીઓના ડાઇ પણ પ્રડાના નિષ્કારણ હુમલે! ન આવે તે માટે વિનાદપ્રુનિને જણાવવામા આવ્યું કે ગમારી સલામતી માટે તમારે જાહેર નિવેદન બહાર પાડવાની જરૂર છે” ત્યારે શ્રી વિનાઝુનિએ પેાતાના હસ્તાક્ષરે નિવેદન શ્રીસ ધ સમક્ષ પ્રગટ કર્યું, તેના સાર નીચે મુજ છે
મારા માતા-પિતા રોાહને વશ થઈને દીક્ષાની આજ્ઞા આપે તેમ ન હતું અને “ લંઘયલીવિના પમવત્' ને આધારે હું એક ક્ષણ પણ દીક્ષાથી વચિત રડ઼ી શકું તેને નથી, એમ મને લાગ્યું. શ્રી તાલચ દજી મહારાજ સાહેબ— વગેરેએ મને સારી દીક્ષા માટે ચારી પછી ગલ' ભરવાનું કરેલ પરંતુ મને
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સમય માત્રના પ્રમાદ કરવા ઠીક ન લાગ્યું, જેથી શ્રી અરિહંત ભગવના તમા શ્રી સિદ્ધ ભગવંતાની સાક્ષીએ સારા ગુરુ મહારાજ સમક્ષ પ્રવજ્યાને પાઠ ભણીને મારા અત્માના કલ્યાણ માટે દીક્ષા અ'ગીકાર કરી છે. સમાજને ખેાટ ખ્યાલ ન આવે કે મારી દીક્ષા ક્ષણિક જુસ્સાથી અગર ગેરસમજથી થઈ છે તેથી તથા સમાજમાં જૈનશાસનની પ્રભાવના થાય તે હેતુથી મારે મા વૃત્તાત પ્રગટ કરવા ઉચિત છે.
ઉત્તરાધ્યયનજી સૂત્રના ૧૯ મા અધ્યયન પર મને લાગ્યુ કે મનુષ્ય જીવનનુ ખરૂ કત્તા મેાક્ષફળ આપનારી દીક્ષા જ છે.
છેવટ સુધી મે' મારા બાપુ પાસે દીક્ષા માટે આજ્ઞા માગી ને તે વખતે પશુ પહેલાની જેમ વાત ઉડાવી દીધી અને અનંત ઉપકારી એવા મારા ખાપુજી સમક્ષ હું તેમને કડક ભાષામાં પણ કહી શકતા ન હતા અને બીજી માજુથી મને થયુ કે આયુષ્ય અશાશ્વત છે અને આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે જરાપણુ પ્રમાદ કરવા ઉચિત નથી, તેથી મેં વિચારીને આ પગલું ભર્યુ છે અને મને પૂર્ણ વિશ્વાસ છે કે શ્રી વીરપ્રભુ મહાવીર સ્વામીને સકળ સધ મારા આ કાર્યને અનુમેદશે જ * તથાસ્તુ ’.
રાજકોટમાં શ્રી વિનામાના ગયા પછી પાછળથી ખખ્ખર પડી કે વિનાદકુમાર દેખાતા નથી એટલે તપાસ થવા માડી ગામમાં કાંય પત્તો ન લાગ્યું એટલે મારગમ તારા કર્યા ત્યાંયથી પણ સંતાષકારક સમાચાર સાપડયા નહી. અર્થાત્ ત્તા મળ્યા જ નહીં, આપ ત્રિમાસણના પરિણામે તેમના પિતાશ્રીને બે મહિના પહેલાની એક વાતની યાદ આવી તે એ હતી કે તે વખતે શ્રી વિનેદકુમારે આના માગેલી કે “ ખાપુજી ! આપની આજ્ઞા હોય તે આ ચાતુર્માંસમાં ખીચન (રાજસ્થાન) જા` કારણ કે ખીચનમાં પૂ॰ ગુરુમહારાજ શ્રી સમરથમલજી મહારાજ કે જેએ સિદ્ધાંત વિશારદ છે અને અનેકાંતવાદના પૂરા જાણકાર છે, તેઓ ત્યાં મિરાજમાન છે જેએશ્રી પાસે શાસ્ત્રાભ્યાસ કરવા માટે શ્રી લાલચ દજી મહારાજ આદિ ઠાણા ૪ જવાના છે. તે મારી ઇચ્છા પણ ત્યાં તેમની પાસે જવાની છે.
ઃઃ
આ વાતચીતનું સ્મરણ પિતાશ્રીને આવવા સાથે તેઓ પ. પૂર્ણચંદ્રજી દકને પેાતાની પાસે એકલાવ્યા અને વિનેદકુમાર માટેની પેાતાની ચિંતા વ્યક્ત કરી. પતિનું આ વાતને સમન મળ્યું. તેએાશ્રીએ જણાવ્યું કે ચેડા સમય પૂર્વ વિનાનકુમારે મારી પાસે જાણવા માગ્યું હતુ કે, ખીચનમાં કેવા પ્રકારની
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સગવડ છે? આમ મારી સાથે વાર્તાલાપ થયા હતા. અને શ્લા પ્રમાણે એકમત થતાં તેમના પિતાશ્રીએ ખીચત તાર કરવા સૂચના કરી તા. ૨૭-૫-૫૭ ના રાજ પૃથ્વીરાજજી માલુ ખીચન (રાજસ્થાન) ઉપર તાર કર્યાં.
તા.૨૮-૫-૫૭ના રાજ જવાબ આવ્યે કે શ્રી વિનાદભાઈએ ખીચનમાં સ્વયમેવ દીક્ષા ગ્રહણુ કરી છે એટલે તેમના પિતાશ્રીએ રાવબહાદુરથી એમ. પી, સાહેબ શ્રી કેશવલાલભાઈ પારેખ અને પ'ડિતજી પૂર્ણ ચંદ્રજી દક એમ ત્રણેયને શ્રી વિનેદકુમારને પાછા તેડી લાવવા માટે ખીચન મેાકલ્યા તા. ૨૮-૫-૫૭ના રાજ રવાના થઇ તા. ૩૦-૫-૫૭ના રોજ સવારે લાદી સ્ટેશને પહેચ્યા. બળદગાડીમાં તેએ ખીચન ગયા કે જ્યાં સ્થવિર મુનિશ્રી શીરેામલજી મહુ રાજ પૂજ્ય પંડિતરત્ન શાસ્ત્ર વિશારદ શ્રી સમરથમલજી મહારાજ આદિ ઠાણા ૮ તથા પૂજ્ય તપસ્વી મહારાજ શ્રી લાલચદજી મહારાજ આદિ ઠા. ૪ બિરાજમાન હતા. કુલ્લે સાધુ-સાધ્વીની સંખ્યા અઠ્ઠાવીસથી ત્રીસની હતી.
પૂછપરછના જવામમાં શ્રી વિનેદમુનિએ કેશવલાલભાઈ પારેખને કહ્યુ કે “ મેં તેા દીક્ષા અ′ગીકાર કરી લીધી છે તેમાં કાંઈ ફેરફાર થાય તેમ નથી. તમે। અમારા વીરાણી કુટુંબના હિતેષી છે. અને જે સાચા હિતેષી હા તે! મારા પૂ મા અને ખાપુજીને સમજાવીને મારી હવે પછીની મેટી દીક્ષાની આજ્ઞા અઠવાડિયાની અંદર અપાવી દ્યો એટલુ જ નહીં પણુ “ સિર્વ જીવ કરૂં શાસન રસી’'ની ભાવનામાં અને આજ દિવસ સુધીના મારી ઉપરના ઉપકારના બદલામાં આગમને અનુલક્ષીને મારી ભાવના એ જ હાય કે, મારી દીક્ષા તેઓની દીક્ષાનુ' નિમિત્ત અને અને મારા માતા-પિતા સદ્ગતિને સાધે અર્થાત્ મારી સાથે દીક્ષા લીએ.
આવા દેઢ જવાબના પરિણામે તેજ સમયે શ્રી વિનાકુમારને પાછા લઇ જવાની ભાવનાને નિષ્ફળતા સાંપડી અને તા. ૩૧-૫-૧૭ ની રાત્રીના રવાના થઈ તા. ૨-૬-૫૭ના સવારે મહા પરીષહરૂપ ક્ષેત્રને અનુભવ કરી, શ્રી વિનાદકુમારના પિતાશ્રીને તમામ વાતથી વાકેફ કર્યાં..
થાડા વખતમાં લેાદીના શ્રી સથે પૂ શ્રી લાલચદજી મહારાજને ક્લેાદીમાં ચામાસુ કરવાની વિનંતી કરી તેના અસ્વીકાર થવાથી સંધ ગમગીન બન્યા એટલે નિર્ણય ફેરવ્યે અને અષાઢ શુર્દ ૧૩ ના રોજ ખીચનથી વિહાર કરી લેાદી આવ્યા.
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જૂ
દીક્ષા પછી અઢી મહિનાને આંતરે લાદી ચામાસા દરમ્યાન શ્રી વિનાદમુનિને હાજતે જવાની સન્ના થઇ અને તે માટે જવા તૈયાર થયા એટલે તેમના ગુરુએ કહ્યુ` કે ખટુ ગરમી છે, જરાવાર થાલી જાવ એટલે શ્રી વિનાદમુનિએ રજોહરણુ વગેરેની પ્રતિલેખના કરી તે દરમ્યાન ન રોકી શકાય એવી હાજત લાગી તેથી ફરી આજ્ઞા માગતાં જણાવ્યું કે મને હાજત બહુ લાગી છે તેથી જાઉ છુ', જલદી પાછે ફીશ કાળની ગહન ગતિને દુઃખદ્ રચના રચવી હતી. આજે જ હાજતે એકલા જવાના મનાવ ખન્યા હતા, હમેશાં તેા બધા સાધુએ સાથે મળીને દિશાએ જતા.
હાજતથી માકળા થઈ પાછા ફરતા હતા, ત્યાં રેલ્વે લાઇન ઉપર એ ગાયા આવી રહી હતી. ખીજી ખાજુથી ટ્રેઈન પણ આવી રહી હતી તેની વ્હિસલ વાગવા છતાં પણ ગાયા ખસતી ન હતી શ્રી વિનાદમુનિનુ હૃદય થરથરી ઉઠયુ અને મહા અનુકંપાએ મુનિના હૃદયમાં સ્થાન લીધું. હાથમાં રજોહરણુ લઈ જાનના જોખમની પરવા કર્યાં વગર ગાયાને ખચાવવા ગયા. ગાયાને તે ખચાવી જ લીધી પરંતુ આ ક્રિયામાં છકાય જીવની દયાના સાધનભૂત જે રજોહરણ કે વિનેદમુનિને આત્માથી વધારે પ્યારૂં હતું, તે રેલ્વે લાઈન ઉપર પડી ગયું. અને શ્રી વિનેદમુનિએ તે પાછું સંપાદન કરવામાં જડવાદને સિદ્ધ કરતાં રાક્ષસી એન્જિનને ઝપાટે આવ્યા અને પેાતાનું અલિદાન આપ્યું. અરિહં‘ત....અરિહંત ..એવા શબ્દો મુખમાંથી નીકળ્યા અને શરીર તૂટી પડયુ. રક્ત પ્રવાહ છૂટી પડયા અને ઘેાડા જ વખતમાં પ્રાણાંત થઈ ગયા, બધા લેક કહેવા લાગ્યા કે ગૌરક્ષામાં મુનિશ્રીએ પ્રાણ આપ્યા અ ંતિમ સમયે મુનિશ્રીના ચહેરા પર ભવ્ય શાન્તિ જ દેખાતી હતી
મેશાં તેઓ જે તરફ હાજતે જતા હતા તે તરફ લાદીથી પાકરણ તરફ જવાની રેલ્વે લાઈન હતી. આ લાઇન ઉપર રેલ્વે સત્તાવાળાઓએ ફાટક મૂકેલ નથી ત્યાં રસ્તા પણ છે એટલે પશુઆની અવરજવર હોય છે. અને વખતેા વખત ત્યાં ઢારા રેલ્વેની હડફેટે ચડી જવાના પ્રસંગ મને છે.
લેાદી સ`ઘે આ દુર્ઘટનાના ખખર રાજકાટ, ટૅલીફ઼ાનથી આપ્યા. જે વખતે ટેલીફાન આવ્યેા તે વખતે વિનેદમુનિના પિતાશ્રી મહાર ગયા હતા. અને માતુશ્રી મણિબેન સામાયિક-પ્રતિક્રમણમાં બેઠાં હતાં, માત્ર એક નાકર જ ઘરમાં હતા કે જેણે ટેલિફાન ઉઠાવ્યે પણ તે કાંઇ ટૅલીફાનમાં હકીકત સમજી શમ્યા નહીં અને સાચા સમાચાર મેડા મળ્યા. જેથી તેએ સ્પેશ્યલ પ્લેનથી લેાદી પાંચે તે પહેલાં અગ્નિસ`સ્કાર થઈ ગયા સૂચનાના ટેલીફોન
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-અર્ધો કલાક મેાડા પહાંચાળે સદેશેા સાપર પહાંચૈા અંત તે માતા-પિતાને શ્રી વિનેદમુનિના શરૂપે પણ ગ્રહના વ્હેવાના અને અનિા ઇનના પ્રસંગ મળત પરંતુ અંતરાય ક૨ે તેમ જીન્યુ નહીં,
1.
આથી પ્લેઇનના પ્રાગ્રામ પડતા મૂકવામાં આવ્યેા અને માતા-પિતા તા: ૧૪-૮-૫૭ના રોજ ટ્રેઇન મારફત લાદી પહેાગ્યાં, શ્રી દુર્લભજીભાઇ અને મણિબેને પૂજ્ય તપસ્વીશ્રી લાલચંદજી મહારાજ સાહેબના દર્શન કર્યા, i k » } ' આ પ્રસંગે શ્રી લાલચંદજી મહારાજ સાહેબે અવસરને પિછાણીન અને
ધૈયતુ એકાએક કય કરીને, શ્રી વિનેદમુનિના માતા-પિતાના સાંત્વન અર્થ ઉપદેશ શરૂ કર્યાં જેનેા ટૂંકમાં સાર આ પ્રમાણે છે—
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આશાદીપક “ હવે તેા રત્ન ચાલ્યુ. ગયુ! સયાના આલવાઈ ગયા ! ઝટ ઊગીને આથમી ગયા ! હવ એ દીપ ફરીથી આવી શકે તેમ નથી ’
શ્રી વિનાદપ્રુનિના સ’સારપક્ષના માતુશ્રી મણુિબેનને સુનિશ્રીએ કહ્યુ કેઃએન ! ભાવિ પ્રબળ છે. આ બાબતમાં મહાપુરૂષોએ પશુ હાય ધાઈ નાખ્યા છે એમ ‘સૌને મરણને શરણ થવુ' પડે છે, તેા પછી આપણા જેવા પામર પ્રાણીનું શું ગજું છે? હવે તા શાક દૂર કરીને આપણે એમના મૃત્યુના આદશ જેને માત્ર ધીરજ ધરવાની રહી.
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પૃ. શ્રી સમથાલજી મહારાજ સાહેમના અભિનય
છે'
પ્રાથમિક તેમ જ અલ્પકાળના પરિચયથી મને શ્રી વિનેદ્યકૃતિના વિષે અનુભવ થયા, કે તેમની ધર્મપ્રિયતા અને ધર્માભિષા ‘ગિલ્લાવાળુ ના પરિચય કરાવની હતી પ્રાપ્ત સમ્રારિક પ્રથ્રુ વાવ તરફ તેમની રુચિ દૃષ્ટિગોચર થતી ન હતી પરંતુ તે વીતરાગવાણીના સસથી વિષયવિસુખ ધર્મ કાર્યમ! સદા તત્પર અને તલ્લીન દેખાતા હતા. ખાસ પરિચયના અભાવે વૈરાગ્ય પણ તેમની ધારાથી તેમની ધĪનુગિતા તથા જીવનચર્યાથી કઠિન કાર્ય કરવામાં પણું ગભરાટના સ્થાને સુખાનુભાની વૃત્તિ લક્ષમાં આવતી હતી.
હવે
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1 ' શ્રી વિઞાદમુનિના જીવનના બે પ્રશ્નો ઉપસ્થિત થાય છે તેના ખુલાસે
કરવામાં આવે છે.
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પ્ર. ૧. તેમણે આજ્ઞા વગર સ્વયમેવ દીક્ષા કેમ લીધી?
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ઉત્તર –પંચમાં આરાનાં ભદ્રા શેઠાણીના પુત્ર એવ’તા ( અતિમુક્ત) કુમારને તેમની માતુશ્રીએ દીક્ષાની આજ્ઞા આપવાની તદ્દન ના પાડી એટલે તેણે
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સ્વયમેવ દીક્ષા લીધી. ત્યાર બાદ ભદ્રા શેઠાણીએ પિતાને કુમારને ગુરુને સોંપી દીધા તેજ રાત્રે તેણે બારમી ભિખુની ડિમા અંગીકાર કરી અને શિયાળના પરીષહથી કળ કરી નલીન ગુલ્મ વિમાનમાં ગયા તેવી જ રીતે શ્રી વિનોદકુમાર સ્વયં દીક્ષિત થયા.
પ્ર. ૨. આવા વૈરાગી જીવને આ ભયંકર પરીષહ કેસ આવે ?
ઉત્તર-કેટલાક ચરમ શરીરી જીવને મારણાંતિક ઉપસર્ગમાં આવેલ છે. જુઓ ગજસુકુમાર મુનિ, એના મુનિ, કેશવ શુન, કારણ કે તેમની સત્તામાં હજારે ભવનાં કર્મ હોવા જોઈએ ત્યારે તેમને એકદમ મોક્ષ જવું હતું, તે મારણ તિક ઉપસર્ગ આવ્યા વગર એટલાં બધાં કર્મ કેવી રીતે ખરે? બા. બ્ર. શ્રી વિનોદમુનિને આ પરીષહ આવે, જે ઉપરથી એમ અનુમાન થાય છે કે તે એકાવતારી જીવ હેય.
શ્રી વિનોદમુનિનું વિસ્તૃત જીવનચરિત્ર જુદા પુસ્તકથી ગુજરાતી ભાષા તથા હિન્દી ભાષ'માં છપાયેલ છે તેમાંથી પાર રૂપે અહી સક્ષેપ કરેલ છે.
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॥ শ্রীফলতলী।
(সুষমা চাঃ)
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासीलालवतिविरचितया प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
॥ श्री भगवतीसूत्रम् ॥
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(सप्तदशो भागः )
॥ अथाष्टाविंशतितमं शतकमारभते ॥
कर्मवक्तव्यता संचलितं सप्तविंशतितमं शतकं व्याख्यातम् अथ क्रमप्राप्तं तथाविधमेव अष्टाविंशतितमं शतकं व्याख्यायते, अत्रापि एकादशोद्देशकाः जीवां कादशद्वारानुगत पापकर्मादि दण्डकोपेताः सन्ति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्याष्टाविंशतितमशतस्य प्रथमोद्देशकस्येदं सूत्रम्- 'जीवा णं भंते' इत्यादि,
मूलम् - जीवा णं भंते! पावं कम्मं कहिं समजिजिंसु कहि समायरिंसु ? गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होजा१, ' अहवा तिखिखजोणिएसु य नेरइएसु य होज्जार, अहवा तिरिक्खजोणिएसु व मणुस्लेसु य होज्जा३, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा४, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएस य मणुरुलेसु य होज्जा५, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएस य देवेसु य होज्जा६, अहवा तिरिक्खजोणिएस य मस्लेसु य देवसु य होज्जा७, अहवा तिरिक्खजोणिएस य नेरइसु य मस्से य देवेसु य होज्जा८ । सलेस्सा पणं भंते! जीवा पावं कम्म कहिं समजिणिसु ? कहिं समायरिंसु ? एवं वेव । एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा। कण्हपक्खिया सुक्कपक्खिया । एवं जाव अणागारोवउत्ता । नेरइया णं भंते! पाव कम्मं कहि समजिपिसु ? कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! सव्वे वि तिरिखखजोणिपसु होज्ज त्ति एवं चेव अट्ठ मंगा भाणियव्वा । एवं सव्वत्थ अट्ट भंगा एवं जाव अणागारोवउत्ता वि । एवं जाव वैमाणियाणं । एवं णाणावरणिज्जेण दंडओ एवं जाव
भ० १
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भगवती
अंतराइए णं । एवं एए जीवादीया वैमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा' भवंति। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥ सू० १॥ अट्ठावीस मे सर पढमो उद्देसो समत्तो ॥ २८- १॥
1
छाया - जीवाः खलु भदन्त ! पापं कर्म कुत्र समार्जन कुत्र समाचरन ? गौतम ! सर्वेऽपि तावत् तिर्यग्योनिकेषु भवेयुः १ अथवा निर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु च भवेयुः २, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु च भवेयुः, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च देवेषु च भवेयुः ४, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु च मनुष्येषु च भवेयुः५, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिक पु च देवेषु च भवेयुः ६, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु च देवेषु च भवेयुः७, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु च मनुष्येषु च देवेंषु च भवेयुः सलेश्याः खलु भदन्त । जीवाः पापं कर्म कुत्र समार्जन कुत्र समाचरन् गौतम ! सर्वेऽपि तावत् तिर्यग्योनिकेषु भवेयुरिति एवमेवाष्टौ भङ्गा मणिताः । एवं सर्वत्र भङ्गाः, एवं यावदनाकारोपयुक्ता अपि । एवं यावद्वैमा निकानाम् । एवं ज्ञानावरणियेनापि दण्डकाः । एवं यावद् अन्तरायिकेण । एवमेते जीवादिकाः वैमानिकपर्यवसाना नवदण्डका भवन्ति । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति । सू० १ ॥
अष्टाविंशतितमश के मथमोदेशकः समाप्तः ||२८ - १॥
टीका- 'जीवा णं भंते!' जीवाः खल्ल भदन्त | 'पावं कम्' पापम्-अशुभं कर्म 'कहि' कुत्रकस्यां गती 'समज्जति' समाजन् गृहीतवन्तः कस्यां गतौ अठावीस वें शतकका पहेला उद्देशक का प्रारंभ
कर्मवक्ता सहित २७ वां शतक व्याख्यात हो चुका अब क्रमप्राप्त २८ वां शतक प्रारम्भ होता है । यहाँ पर भी ११ उद्देशक हैं । और ये उद्देशक जीवादिक ११ द्वारों में अनुगत पापकर्मादिक qush से युक्त हैं ।
'जीवा णं भंते! पाच' कम्मं कहि समज्जिणिसु' इत्यादि । टीकार्थ- गौतमस्वामीने इस सूत्रद्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है
અઠયાવીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ—
કના સંબંધમાં સત્યાવીસમું' શતક કહેવાઇ ગયું. હવે ક્રમથી આવેલા ચ્છા અઢાવીસમા શતકના પ્રારભ થાય છે, આ અઠયાવીસમા શતકમાં પણ ૧૧ અગીયાર ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે અને આ ઉદ્દેશાઓ જીવ વિગેરે દંડકા सहित ह्या छे - 'जीवा णं भते ! पाव' कम्म कहिं समज्जिर्णिसु' इत्याहि
ટીકા”—ગૌતમ સ્વામીએ આસૂત્રદ્વારા પ્રભુશ્રી ને એવુ' પૂછ્યું છે કે
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२८ उ.१ सू०१ जीवानां पापकर्मसमाज ननिरूपणम् । वर्तमाना जीवाः पापकर्मणां सावयवमकुर्वन्नित्यर्थः । 'कहिं समायरिसु' कस्यां गतो वर्तमाना जीवाः पापं कम समाचरन्-पापकर्माचरणं कृतवन्तः पापकर्महेतु समाचरणेन तद्विपाकानुभवनेन वा, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्ना१' सर्वेऽपि तावत् जीवा स्तिर्यग्योनिकेषु भवेयुः इह तिर्यग्योनिः सर्व जीवानां मातृस्थानीया तस्या बहुत्वात्, ततश्च सर्वेऽपि तिर्यग्भ्योऽन्ये नैरयिकाद् ये जीवा स्तिर्यग्योनिकेभ्यः समागत्योत्पन्नाः कदाचि. द्भवेयुः ततस्ते सर्वेऽपि तिर्यग्योनिकेषु अभूवन्निति व्यपदिश्यन्ते, वदयार्थः ये जीवा विविक्षितसमये नारकादयोऽभूदन् ते अल्पत्वेन समस्ता अपि सिद्धिगमकि 'जीवा णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समजिजणिस्नु' हे भदन्त ! जीवों ने किसगति में पापकर्म का उपार्जन किया है ? 'कहि समायरिसु' और किस गति में धर्तमान जीवों ने पापकर्म का आचरण किया? अर्थात् पापकर्म के हेतुओं के समाचरण से-सेवा ले-और तज्जन्य विपाक के अनुभव से पापकर्म का आचरण किया है? उसका फल भोगा है ? इस के उत्तर में प्रभुश्रीने उनसे ऐसा कहा है-'गोयमा! सम्वे वि ताव तिरिक्ख जोणिएलु होज्जा' हे गौतम ! समस्त जीव पहिले तियग्योनि मे रहें हुए हैं-इसलिये तिर्थग्योनि में होने के कारण वह योनि उनकी माता के स्थानापन्न हैं। क्योंकी तिर्य ग्योनि बहुत हैं। इसलिये तिर्थञ्चों से भिन्न जो नैरथिकादि जीव हैं वे सष तिर्यग्योलिकों में से आ करके उत्पन्न हुए हैं। इसलिये वे सब पहिले तिर्यग्योंनि कों में रहे हुए हैं ऐसा कहा जाता है। इस कारण तिर्य: 'जीवा णं भंते ! पाव' कम्म' कहि समज्जिणि सु' लगवन् वा छातिमा पापभनु पान यु छ ? 'कहिं समायरिंसु' भने ४ आतिभा २सा છએ પાપકર્મનું આચરણ કર્યું છે? અર્થાત્ પાપકર્મના હેતુઓના આચરણથી એટલે કે સેવનથી અને તેનાથી થનારા વિપાકના અનુભવથી પાપકર્મનું આચરણ કર્યું છે? અને તેનું ફળ ભેગવ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રર્શ્વશ્રી गौतम स्वामीन ४ छ है 'गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्त्रजोणिएसु होज्जा' હે ગૌતમ ! સઘળા જી પહેલાં તિર્યચનિમાં રહેલા છે, તેથી તિર્યંચનીમાં હેવાને કારણે તે નિ તેની માતાને સ્થાને ગણાય છે. કેમ કે-તિર્યંચની ઘણી છે. તેથી તિયાથી અન્ય જે નૈરયિકે વિગેરે જીવે છે, તે તિર્યએ. નિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થયેલા છે. તેથી તે બધા પહેલાં તિયચનિમાં રહેલા છે. એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે. આ કારણથી નિર્મચ
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भगवतीस्त्रे नेन तिर्यगतिप्रवेशेन च निर्लेपतया उत्ताः ततश्च तिर्यगतेरनन्तत्वेन अनि. लेपनीयत्वात् तत उवृत्ता स्तियश्च स्तत्स्थानेषु नारकादित्वेन उत्पन्नाः, ततस्ते विर्य गती नारकगत्यादिकारणिभूतं पापं कर्म समर्जितवन्त इति प्रयमो भगः । "यहवा तिरिक्खजोणिएसु च नेरइएस य होज्जार' अपना तिर्यग्योनिके च नरयिकेपु च भवेयुः, विविक्षितसमये ये मनुप्या देवा वा अभूवन् ले निर्लेपतया तथैवोदवृत्ताः तत्स्थानेषु च तिर्यग्नारकेभ्य आगत्योस्पन्नाःते च एवं पपदिश्यन्तेतिर्यग्नरयिकेषु अभूवन्नेते, ये च यत्राभूवन् ते तत्रैव कर्मोपार्जितवन्त इत्योंलभ्यते इति द्वितीयो भङ्गा२। 'अहवा तिरिक्ख जोगिए मु य मणुम्सेसु य होज्जा' अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु च भवेयुः विवक्षितसमये ये नैरयिका देवा वा प्रागति से निकले हुए जीव उन-२ स्थानों में-नारकादि रूप में जो "एत्पन्न हुए हैं सो वहाँ पर तिर्थश्चगति में उन्होने नारक नति आदि में प्राप्त होने के कारण भूतकाल में पापकर्म को उपार्जन किया है। ऐसा यह प्रथम भंग है। । 'अहवा---तिरिक्खजोगिए य नेरइए सुध होज्जार' अधवासमस्त जीव तिर्थ ग्योनिकों में और नैरपि कों में रहे हुए हैं-विधक्षित समय में जो मनुष्य अथवा देव हुए हैं ये उन स्थानों में तिर्यग्यो. निकों से या नारकों से आकर के उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ऐला कहा “जा सकता है कि ये पहिले तिर्यग्योनि कों में या नैरपितों में रहे हुए हैं, जो जहां रहा हुआ है उसने वहीं पर कर्म का उपार्जन किया है, ऐसा यह द्वितीय भंग है। 'अहवा तिरिक्खजोणिएस्तु यमगुस्सेसु य ગતિમાંથી નિકળેલા જીવો તે-તે સ્થાનેમાં નારક વિગેરે રૂપથી ઉત્પન્ન થયા છે, તેઓ તિર્યંચ ગતિમાં, નારક ગતિ વિગેરેમાં, ઉત્પન્ન થવાને કારણે ભૂતકાળમાં પાપકર્મનું ઉપાર્જન કર્યું છે એ પ્રમાણે આ પહેલો ભંગ છે. ૧ 'अहवा-तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य होज्जा' अथवा-सा । तिय"य
નિકેમાં અને નરયિકમાં રહેલા છે.-વિવક્ષિત સમયમાં જેઓ મનુષ્ય ' - અથવા દેવ થયા છે, તેઓ તે સ્થાને માં તિર્યંચ પેનકેથી નારકેથી આવીને ' ' ઉત્પન્ન થયા છે. તેથી એમ કહેવામાં આવે છે કે તેઓ પહેલાં તિયચ * મિકેમાં અથવા નરયિકેમાં રહેલા છે, જેઓ ત્યાં રહેલા છે, તેઓએ • ત્યાંજ કમનું ઉપાર્જન કર્યું છે, એ પ્રમાણે આ બીજો ભંગ કહે છે. ૨
. 'अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य होज्जा' अथवा सघा । , તિયાનિકેમાં અથવા મનુષ્યમાં રહેલા છે. તેથી ત્યાંથી નિકળીને
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२८ उ. १ सू०१ जीवानां पापकर्म समार्जननिरूपणम्
'ते तथैव निर्लेपतया उद्वृत्ताः तत्स्थानेषु च तिर्यङ् मनुष्येभ्य आगत्य समुत्पन्नाः तेचैवं व्यपदिश्यन्ते - तिर्यग्मनुष्योऽभून्नेते, ये च यत्राभूवन् ते तत्रैव कर्म उपा जितवन्त इति तृतीयो भङ्गः ३ इति । एवमेवाग्रेऽपि अनयैव भावनयाऽर्थो विधेयः । - चतुर्थ मङ्गनाह ' अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा' अथवा तिर्ययोनिषु च देवेषु च भवेयुरिति चतुर्थी भङ्गः ४, 'अहवा तिरिक्खजोणिपसु नेर मणुहसेसु य होज्जा' अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु च मनुष्येषु च भवेयुरिति पञ्चमो भङ्गः । ' अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य देवेसु होज्जा' अथवा - समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में या मनुष्यों में रहे हुए हैं इसलिये वहां से निकलकर जो जीव विवक्षित समय में नैरयिक या देव रूप से उत्पन्न हुए हैं वे उन-उन तिर्यश्च एवं मनुष्यों से आकर के उत्पन्न हुए है - इसलिये ऐसा कहा जाता है कि ये तिर्यञ्च या मनुष्यों से आकरके उत्पन्न हुए हैं । जो जीव जहाँ रहा हुआ है उसने बहीं पर कर्म का उपार्जन किया है। ऐसा यह तृतीय भंग है । इसी प्रकार से आगे भी ऐसा ही अर्थ समझना चाहिये, चतुर्थ भंग इस प्रकार से हैं- 'अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा' अथवा समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में और देवों में रहे हुए हैं। पंचम भंग इस प्रकार से है- 'अहवा तिरिक्खजोणिएस य नेरइए व मणुस्सेसु य होज्जा' अथवा-समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में और नैरधिकों में एवं मनुष्यों में रहे हुए हैं। छठा भंग इस प्रकार से है - ' अहवा - तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य देवेषु य होज्जा' अथवा-समस्त जीव
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વિવક્ષિત જે જીવ દૈયિક અથવા દેવ પણાથી ઉત્પન્ન થયા છે, તે તે તે તિયચ અથવા મનુષ્યાથી આવીને ઉત્પન્ન થયા છે. તેથી એવુ' કહેવામાં આવે છે. કેઆ તિય ચ અથા મનુષ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થયા છે. જે જીવા જ્યાં રહેલા છે, તેણે ત્યાંજ કમનું ઉપાર્જન કર્યુ છે. એ પ્રમાણે આ ત્રીજો ભંગ કહ્યો છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે જ સમજવુ
थोथे। लौंग या प्रमाणे छे - ' अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा' अथवा सघणा कवा तिर्यथ योनि मां अथवा हेवानां रहे है. એ પ્રમાણે આ यथे। लौंग उह्यो छे. 'अहवा तिरिकखजोणिएसु ये rse य मणुस्सु य होब्जा' अथवा सघणा भयो तिर्यययोनिभमा भने નૈરિયકામાં તથા મનુખ્યામાં રહેલા છે એ પ્રમાણે આ પાંચમે ભગ કહ્યો છે.
'अवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य देवेसु य होज्जा' अथवा सणा
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भगवती
होज्जा' अथवा तिर्यग्योनिकेषु नैरयिकेषु च देवेषु च भवेयुरिति षष्ठो मङ्गः ६ | 'अहा तिक्खिजोणिएस य मणुस्सेस्सु य देवेसु य होज्जा' अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु च देवेषु च भवेयुरिति सप्तमो भङ्गः ७ । 'अहवा तिरिक्खजोणिएस य नेरइएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा' अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरविकेषु च मनुष्येषु च देयेषु च भवेयु रिति- अष्टमो भङ्ग इति ।
तिर्यग्योनिकों में, नैरयिकों में और देवों में रहे हुए हैं। सातवां भंग इस प्रकार से है- ' अहवा-तिरिक्खजोणि एसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा' अथवा समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में मनुष्यों में और देवों में रहे हुए हैं। आठवां भंग इस प्रकार से है- ' अहवा-तिरिक्खजोणिएस य नेरइएस य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा' अथवा समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में नैरमिकों में, मनुष्यों में और देवों में रहे हुए हैं, इस प्रकार से ये आठ भंग हैं। इनमें प्रथम भंग तिर्यग्गति को ही लेकर हुआ है। अन्य तीन भंग तिर्यग्नारकों के, तिर्यग्र मनुष्यों के, तिर्यग्देवों के संयोग को लेकर हुए हैं। इस प्रकार से ये चार भंग हो जाते हैं । त्रिक संयोग को लेकर - तिर्यग्नारक मनुष्य के, तिर्यग्नारक देव के तिर्यग्मनुष्य देवके संयोग से त्रिक संयोगी भंग तीन होते हैं, इस प्रकार से सात भंग हो जाते हैं। चतुष्क संयोग में तिर्यग्नारक मनुष्य देव, इनके
જીવાતિય ચર્યાનિકેામાં નૈરિયકામાં, અને દેવામાં રહેલા છે, એ પ્રમાણે આ , छठ्ठी लंग ह्यो छे.
'अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा' अथवा સઘળા જીવા તિય ચ ચૈનિકમાં મનુષ્ચામાં અને દેવેશમાં થયા છે. એ रीते या सातभा लौंग उद्योछे, ' अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएस य मस्से य देवेसु य होज्जा' अथवा सधना को तियथयेोनिअमां, नैरथि भां, મનુષ્ચામાં અને દેવામાં થયા છે. આ રીતે આ આઠમા ભંગ કહ્યો છે. આમાં પહેલા ભગ તિય ગતિને લઇને કહેંચે છે અને માકીના ત્રણ ભંગે તિય ચ નારકાના, તિય ચ મનુષ્યાના, તિયગ્ દેવના સંચાગથી થયા છે. આ રીતે મા ચાર ભગા થઇ જાય છે. ત્રિક સચાગને લઈ ને તિયાઁચ મનુંષ્યના, તિય ગ્ નારકના તિયગ્ દેવના, સયાગથી ત્રિકસ ચેાગી ત્રણ ભગા હોય છે. આ રીતે સાત ભગા થઈ જાય છે.
ચતુષ્ક સયાગમાં—તિયગ્ર, તારક, મનુષ્ય દેવ, આના સચાગથી એકજ
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प्रेमयचन्द्रिका का श०२८ उ.१ सू०१ जीवानां पापकर्मसमार्जननिरूपणम् ७ तदेवमष्टौ भङ्गाः प्रदर्शिता स्तत्र प्रथयो भङ्गः केवलं तिर्यगत्यैव भवति ।१॥ अन्ये त्रयो द्विकसंयोगेन भवन्ति, तथाहि तिर्यग्नारकाभ्यां तिर्यमनुष्याभ्यां तिर्यग्देवाभ्यामिति त्रयो भङ्गा द्विकसंयोगिनः, एते सङ्कलनया जाताश्चत्वारः, तथा तिर्यग्नारकमनुष्यैः१, तिर्यग्नारकदेवैः२, नियमनुष्य देव३ रिति त्रयो भङ्गाः त्रिकसंयोगिनः, जाता सप्त । एक स्तियग्नारकमनुष्यदेवै रिति चतुष्कसंयोगी अष्टमो भगः८ । सङ्कलनया सर्वे अष्टौ भङ्गा । भवन्तीत्युत्तरम् । 'सलेस्सा णं मते ! जीवा पावं कम्मं कहि समजिणिसु कहि समायरिंसु' सलेश्या:-लेश्यासहिता जीवाः पापं कमें कुत्र कस्यां गतौ समाजन् कस्यां गतौ समाचरन् ? इति प्रश्ना. भगवानाह-हे गौतम ! 'एक चेच' एवमेव-पूर्व वदेव अष्टौ भङ्गान् कृत्वा उत्तरं कर्तव्यमिति । एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा' एवं कृष्णलेश्यावन्तो जीवा यावत् अलेश्या लेश्यारहिता जीवाः करुणं गतौ पाप कर्म समर्जितवन्त: समा. संयोग में एक ही भंग होता है। सब मिलाकर कुल आठ भंग हो जाते हैं। ऐसे थे आठ भंग गौतमत्वामी के प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री ने कहे हैं । 'सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समज्जिणिंसु कहिं समायरिंसु हे भदन्न ! समस्त लेश्या सहित जीवों ने पापकर्म का उपार्जन किस गति में किया है? किस गति में उसका समाचरण किया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा! एवं चेव' हे गौतम ! पूर्व के जैसे यहां आठ भंग बनाकर उत्तर समझना चाहिये, ‘एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा' हे भदन्त ! लेश्या सहित जीयों ने एवं लेश्या रहित जीवोंने किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया है ? और किस गति में उसका समाचरण किया है-फल भोगा है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा है-कि हे गौतम ! यहां पर भी आठ भंग बनाकर ભંગ હોય છેતમામ મળીને કુલ આઠ ભાગે થઈ જાય છે. એ પ્રમાણેના આ આઠ અંગે ગૌતમ સ્વામીને પ્રભુશ્રીએ તેમના પ્રશ્નના ઉત્તરમાં કહ્યા છે.
'सलेस्सा णं भवे । जीवा पाव कम्म कहिं समज्जिणि सु कहि समायरिंसु' भगवन् स वेश्यावा वामे / गतिमा पापभानु ઉપાર્જન કર્યું છે? કઈ ગતિમાં તેનું સમાચરણ કર્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री ४ छ -'गोयमा! एवं चेव' गीतमा ५i Bau प्रमाणे मा विषयमा मालगावा उत्तर समन्व। “एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा' હે ભગવન વેશ્યાવાળા છએ અને વેશ્યા વિનાના જીવોએ કઈ ગતિમાં પાપકર્મનું ઉપાર્જન કર્યું છે? અને કઈ ગતિમાં તેનું ફળ ભેગવ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે—હે ગૌતમ ! આ વિષયમાં પણ
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भगवतीसरे चरितवन्त इति प्रश्नः, अष्टभङ्गैरुत्तरं पूर्व वदेवेति, अत्र यावत्पदेन नीलकापोततेजः पद्म शुक्ललेश्यावता संग्रहो भवति । सर्वत्राऽऽलापप्रकारः स्वयमेव ऊहनीय इति । 'कण्हपक्खिण सुक्पविखया एवं' कृष्णपाक्षिकाः शुक्लपाक्षिका एवम्-एवमेव-पूर्वोक्तवदेव विज्ञेयाः। कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अणागारोवउत्ता' यावदनाकारोपयुक्ताः अनाकारोपयुक्तप्रकरणपर्यन्तमिति, अत्र यावत्पदेन सम्य
स्टि-मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्याष्टि-ज्ञान्याभिनिवोधिकज्ञानि-श्रुतज्ञानि यावकेवलज्ञान्यज्ञानि-मत्यज्ञानि-श्रुतज्ञानि-विभङ्गज्ञान्याहारसंज्ञोपयुक्त यशवन्नो संज्ञो. पयुक्तसवेदक-याबदवेदक-सकपायि-यावदकपायि-सयोगि-मनोयोगि-बाग्योगि-काययोग्ययोगि-साकारोपयुक्तानां संग्रहो भवतीति ।' उनका उत्तर समझना चाहिये, यहां यावत्पद से नीललेश्शाचालों का, कापोतलेश्यावलों का, पीतलेश्यावालों का, परश्यावालों का और शुक्ललेगावालों का प्रमाण हुआ है। इनमें मालार का प्रकार अपने आप उद्भावित करना चाहिये, 'काहपक्खिघा सुक्कपक्खिया एवं' कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक जीवों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कथन यावत् अलाकारोपयुक्त प्रकरण तक जानना चाहिये, यहां यावत् पद ले' सम्यग्दृष्टि, मिथाष्टि, सम्बग्मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी अभिनि. घोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी यावत् केशलज़ानी, अज्ञानी, मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी विभंगज्ञानी, आहार संज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त, सवेदक, यावत् अवेदक, सकपायो-यावत् अपायी, सयोगा, मनोयोगी, वाक् योगी, काययोगी और साकारोपयुक्त न पदों का संग्रह हुआ है। આઠ ભગો બનાવીને તેને ઉત્તર સમજી લેવું, અહિયાં ચાવત પદથી નીલ લેશ્યાવાળાઓનું કાપત લેશ્યાવાળાઓનું પીતલેશ્યાવાળાનું પર્વવેશ્યાવાળા એનું અને શુકલ લેફ્સાવાળાઓનું ગ્રહણ કરાયું છે. તેઓના આલાપાને ५४२ स्वयं मनावी सभा . 'कण्हपक्खिया सुक्कपक्खिया एव' કૃષ્ણપાક્ષિક અને શુકલપાક્ષિક જીવોના સંબંધમાં પણ એજ પ્રમાણે કથન થાવત અનાકારપગવાળાના પ્રકરણ સુધી સમજી લેવું. અહિયાં યાવત, પદથી “સમ્યદૃષ્ટિ, મિથ્યાષ્ટિ, સમ્યફમિથ્યાદષ્ટિ, જ્ઞાની, આભિનિબાધિક ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, भौघिशानी, अज्ञानी, भति अज्ञानी श्रुत अज्ञानी, वि. જ્ઞાની, આહાર સંજ્ઞોપગવાળા, યાવત્ પરિગ્રહ સંજ્ઞોપગવાળ, સવેદક,
નપુંસક વેદક, સકાથી, યાવત્ લેભકષાથી, સગી, મનેગી, વચનગી ___ मने सारोपयोगाणा-या प्रख ४२।या छे.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२८ उ.१ सू०१ जीवानां पापकर्मसमाजननिरूपणम् ।
सामान्यतो जीवाना कस्यां गतौ पापार्जनं भवतीति प्रदर्य विशेषतो जीवाना तदर्शयितुं प्रश्नयन्नाह-'नेरइयाणं' इत्यादि । 'नेरइयाणं भंते' नैरयिकाः खलु भदन्त ! 'पाचं कसं कहिं समज्जिणिसु सहि समायरिंसु' पापम्-अशुभं कम कुत्र-कस्यां गतौ हमार्जन छुन-कल्यां गतौ पापं कर्म समाचरन् कां गतिमानित्य कर्मणां संचयं कुर्वन्ति येन कर्मणा एतेषां नारकंगतौं गमनं भवतीति भन्नः। भगवाना-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वे विकास मिरेबग जोणिएसु होऊमति, एवंचेव उट्ट भंगा भाणियबा' सर्वेऽपि वात् जी लियोनिक्षेबु अभूवन उति एवं प्रकारेण अष्टायपि भङ्गा द्विनीयाटारबाट प्ररूपणीया इति । एवं समस्य वि अट्ठ भगा परमेव
साध से जीनों के द्वारा किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया जाता ह तय करके अब सुत्रकार इसी बात को विशेष रूप से प्रकट करते हैं, निजी स्वामी ने प्रसुश्री रहे ऐसा पूछा है और इया णं ! पाचं धन कहिं लज्जिणिस्तु कहिं सवास्तु' हे भदन्त ! नै जीनों किन गति में पापकर्म का उपार्जन किया है
और किस मति में रखा समाचरण किया है ? अर्थात् किस गति में रहकर थे दार्थों का संचय करते है कि जिस धर्म से इनका नरकंगति में गमन होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सव्वेदिता शिदिखजोणिएनुहोज्जा एवं चेव अभंगा भाणियव्वा हे गौत्तम ! समस्त जीच तिर्य ग्यानिक में रहे हैं इस प्रकार से यहां पूर्व के भार आठ भंग उत्तर रूप में कहना चाहिये, ‘एवं 'सव्वस्थ वि अमंगा ली कार से सर्वत्र सलेश्यादि नारक पदों में उत्तर
સામાન્ય રીતે જીવે દ્વારા કઈ ગતિમાં પાપકર્મનું ઉપાર્જન કરવામાં આવે છે, આ વિષય પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર આ વાતને વિશેષ રૂપથી બતાવે છે.–આમાં ગૌતમવામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે કે 'नेरइयाण मंते । पाव कम्म कहि समज्जिणि सु कहिं समायरिसु' मन નરયિક જીવોચ્ચે કઈ ગતિમાં પાપકર્મનું સમાચરણ કર્યું છે ? અર્થાત કઈ ગતિમાં રહિને તેઓ કર્મોનો સંચય-સંગ્રહ કરે છે કે જે કર્મથી તેઓ નારક ગતિમાં જાય છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छ छ ?--गोचमा सन्दे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा एवं चेव अद भगा भाणियठवा' है गौतम ! सा व तियय योनीमा २ छे, मा રીતે અહિયા પણ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે આઠ ભંગ ઉત્તર રૂપે સમજી લેવા. 'एवं सम्वत्थ वि अट्ट बंगा' से प्रभाथे सतश्याहि ना२३ ५हामा भर
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भगवतीने सर्वत्र , सलेश्यादिनारकपदेपु उत्तरपक्षे अष्टौ भङ्गाः कर्तव्याः ‘एवं जाव • अणागारोवउत्ता वि' एवं यावदनाकारोपयुक्ता अपि । अत्र यावत्पदेन कृष्णदेश्यादित आरभ्य साकारोपयोगयुक्तानां सर्वेषां महणं कर्त्तव्यमिति, सर्वत्र पदेषु अष्टौ भङ्गाः मरूपणीया इति । ‘एवं जाव वेभाणियाणं' एवं नारकवदेव यावद्वैमानिकानाम्, यावत्पदेन एकेन्द्रियादि सर्वजीवानां ग्रहणं भवति । एवं पाणावरणिज्जेण वि दंडओ' एवं पापकर्म दण्डकदेव ज्ञानावरणीयकर्मणा अपि दण्डको भणितव्यः । 'एवं जाव अंतराइएणं' एवं यावत् अन्तरायि केण कर्मणाऽपि दण्डको भणितध्या, यावत्पदेन दर्शनावरणीयादीनां संग्रही भवतीति । 'एवं एए जीवादीया वेमाणियपज्जवसाणा नन्दंडगा भवति' एवमेते जीवादिका पक्ष में आठ अंग कहना चाहिये, 'एवंजाब अणागारोवउत्ता वि' इसी प्रकार से यावत् अनाकारोपयुक्त तक के पदों में भी आठ भंग कहना प्याहिये, यहां यावत् पद ले कृष्णलेच्या से लेकर लाकारोपयुक्त तक के नरक पदों का ग्रहण हुआ है। 'एवं जाच वेमाणियाणं' नारक के जैसा थापत् वैमानिकों तक प्रत्येक दंडक में भी आठ भंग कहना चाहिये, थाहा यावत् पद ले एकेन्द्रियादि सर्व जीवों का ग्रहण हुआ है । 'एवं
जाणापरणिज्जेण वि दंडओ' पापकर्म दण्डक के जैसा ज्ञानावरणीय : फर्म के साथ भी ऐसा ही दण्डक कहना चाहिये, 'एवं जाव अंत.
राइयं' इसी प्रकार से यावत् अंतराय कर्म के लाथ भी ऐसा ही दण्डक कहना चाहिये, यहां यावत् पद से बर्शनावरणीय आदि कर्मों का संग्रह हुआ है । 'एवं एए जीवादीया वेमाणियपज्जवसाणा नय दंडगा उत्तर पक्षमा म18 218 मग सभोवा 'एव' जाव अणागारोवउत्ता वि' એજ પ્રમાણે યાવત્ અનાકારપગવાળાના કથન પર્યંતના પદમાં પણ આઠ આઠ અંગે સમજવા. અહિયાં યાત્પદથી કૃષ્ણલેશ્યાથી લઈને સાકાર योस सुधीन पह! घड ४२सया छे. 'एव' जाव वेमाणियाणं' ना२४न ४थन પ્રમાણે યાવત્ વૈમાનિકને પણ આઠ આઠ અંગો સમજવા- અહિયાં યાતત્યાંથી એક ઈદ્રિય વિગેરે સઘળા જ ગ્રહણ કરાયા છે.
- 'एव णाणावरणिज्जेण वि दडओ' पा५४भना ना ४थन प्रमाणे જ્ઞાનાવરણીય કર્મની સાથે એજ પ્રમાણેના દંડકે કહેવા જોઈએ અહિયાં થાવત્પદથી દર્શનાવરણીય વિગેરે કર્મોને સંગ્રહ થયે છે
एवं एए जीवदीया वेमाणियपज्जवसाणा नव दडगा भवति' माशते ७१ { લઈને વૈમાનિક સુધીના જેમાં આ નવ દંડકો થાય છે, તેમ સમજવું.
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प्रभैयचन्द्रिका टीका श०२८ उ. १ ०१ जीवानां पापकर्मसमाज 'ननिरूपणम् ११ 'वैमानिकपर्यवसानाः जीवादारभ्य वैमानिकान्तेषु नवदण्डका भवन्ति । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ तदेव भदन्त ! तदेवं भवन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! जीवानां कर्मोपार्जनविषये यद् देवानुमियेण कथितं तत्सर्वे सत्यमेवेति pavear गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥०१॥
॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा.. कलितललितकळापालापकमविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य ' पदभूषित - कोल्हापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री " भग aatसूत्रस्य " ममेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां अष्टाविंशतितमशतके प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥२८-१॥
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भवति' इस प्रकार से जीव से लेकर वैमानिकान्त जीवों में ये नौ दण्डक होते हैं। 'सेवं भंते! स्लेवं भंते ! त्ति जाब विहरह' हे भदन्त जीवों के कर्मोपार्जन के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब सर्वधा सत्य ही है२ ऐसा कह कर गौतमने प्रभु को बन्दना की और नमस्कार किया और फिर वे दा नमस्कार कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सू० १ ॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के अठावीसवें शतकका ॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥२८- १॥
'लेब' मंते ! सेव' भंते |त्ति जाव विरइ' है लगवन् भूवाना उभेना ઉપાર્જનના સબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે થન કર્યુ છે, તે સઘળુ યન સથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન આસ હાવાથી સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યો 'દના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ાસૂ ૧૫ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકરપૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના અઠયાવીસમા શતકને પહેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ઘરનાં
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॥ अथ द्वितीयोदेशकः मारभ्यते ॥
अथ क्रमप्राप्तं द्वितीयोदेशकमारभते- 'अनंतशेववनमा णं इत्यादि । मूलम् - अनंतशेववन्नगाणं भंते ! नेरइया पात्रं कम्म कहिं समज्जिर्णिसु कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोगिएसु होज्जा एवं एत्थ वि अट्ट भंगा । एवं अनंतरोववन्नगाणं नेरइयाईणं जस्स जं अस्थि लेस्सादियं अणागारोवजोगपज्जवलाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं । नवरं अणंतरेसु जे परिहारियव्वा ते जहा बंधिसए तहा इहंपि । एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ एवं जाव अंतराइएणं निश्वसेसं । एसो वि नवदंडग संगहिओ उसओ भाणियो । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति ॥सू० १॥
अट्ठावीस मे सए बीओ उद्देसओ सन्तो ॥ २८-२॥
छाया - अनन्तरोपपन्नकाः खलु भदन्त | नैरयिकाः पापं कर्म कुत्र समाजन् कुत्र समाचरन, गौतम ! सर्वेऽपि तावत् तिर्यग्योनिकेपु अभूवन् पदमत्रापि अष्टौ 'भङ्गाः, एवमनन्तरोपपत्रकानां नैरयिकादीनां यस्य यदस्ति देशादिकमनाकारोउपयोग पर्यवसानं तत्सर्वम् एतया भजनया गणितव्यं यावैमानिकानाम्, नवर- मनन्तरेषु ये परिहर्तव्यास्ते यथा वन्धिते तथा इहापि । एवं ज्ञानावरणीये- नापि दण्डका, एवं यावदान्तरायिकेन निरवशेषम् एषः अपि नवदण्डकसंग्रहीत प्रदेशको भणितयः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ||०२||
अष्टाविंशतितमे शतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ २९-२॥
टीका --- 'अनंतबवनगा णं भने । नेरइया' अन्तरोपनः प्रथमसमये जायमानाः ाः खल भदन्त | नैरयिकाः 'पात्र कम्म कर्हि ससज्जिर्णिसु' पापम्दूसरा उद्देशक का प्रारंभ
'अतरोवनगाणं भंते । नेरइया पावं कस्मे' इत्यादि
टीकार्थ - - हे भदन्त ! अनन्तरोपपत्रक वैरथियों ने पापकर्म का उपार्जन किस गति में किया है और किस गति में उसका दमाचरण નાખીજા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ
'अनंत रोववण्णगाणं भेवे ! पाव कम्म" इत्याहि
ટીકા હૈ ભગવત્ અનન્તરાપપન્નડ નૈયિકાએ પાપકની પ્રાપ્તિ કઈ ગતિમાં કરે છે ? અને કઈ ગતિમાં તેને ભેગવે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
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भगवतीसूत्रे
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अमेयचन्द्रिका टीका मा०२८ उ.२ सू०१ अनन्तरोपपन्नना. पापकर्मसमार्जनम् १३ अशुभं कर्म कुत्र-कस्यां गतौ सममितवन्त:-गृहीवन्तः 'कहिं समायरिंस' कुत्रकस्यां गतौ समाचरन् समाचरितवन्तः अनुभकर्मणां बन्धनं कस्यां गतों कृतवन्त इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वे वि ताब तिरिक्खजोगिएसु होज्जा' सर्वेऽपि अनन्तरोपपन्नकाः तात्र तिर्यग्योनिकेषु अभूवन एवं एत्य वि अट्ठ भंगा' एवमत्रापि अष्टौ सङ्गा मणिशा , ये चाष्टौ -अस्य शतकस्य प्रथमोद्देशके कथिता। तथाहि-सर्वेऽपि तावत् तिर्यग्योनिकेषु अभूवन् १ अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु चाभूवन् २ अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु चाभूवन ३, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च देदेषु चाभूबन ४, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरपिकेषु चाभूबन्५, अथवा तिर्यज्योनिकेषु च नरयिकेषु च देवेषु वाभूवन६, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च मनुष्येषु च देवेषु चाबन्छ, अथवा तिर्यग्योनिकेषु च नैरयिकेषु च अनुष्येषु च देवेषु चाभूवन्निति८ । 'एवं अनतरोकिया है-फलोपभोग किया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!
सव्वे वि तावतिरिक्खजोणिएलु होज्जा' हे गौतम! सलस्त अनन्तरो-पपन्नक जीवों ने पापकर्म का उपार्जन तिर्यग्योनिकों में जन्म लेकर किया है इस प्रकार से पूर्वोक्त कथन के जैसे आठ भंग उत्तर रूप में यहां कहना चाहिये, जैसे-समन्द अलनतरोपपदक नैरयिक नैरयिक पर्याय प्राप्ति के पहिले तिग्मति में थे १ अथवा-तिर्थ योनिकों में थे, और नैरथिकों में थे २ अथवा-तिर्यज्योलिकों में और मनुष्यो ने थे ३ अथवा तिर्यग्योनिकों और देवों में थे ४ अथा-तिर्यग्यो. निकों में नैरयिकों में और अनुष्यों में थे, ५ अथवा-तिर्थग्यो निकों में नैरशिकों में और देकों में थे, ६ अथवा लियोनिकों में मनुष्यों में और देवों में थे ७ अथवा तिर्यग्गोलिको नैथिको 'गीतम स्वामीन छ-'सव्वेवि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा' गौतम । સઘળા અનંતપન્નક જીએ તિર્ય નીમાં જન્મ લઈને પાપકર્મનું ઉપાર્જન કર્યું છે આ રીતે પહેલાં કહેલ પ્રકારથી આઠ ભંગ ઉત્તરરૂપે અહિયાંસમજવા જેમ કે-સઘળા અનંતર ૫૫નક નરયિકપર્યાય પ્રાપ્તિની પહેલાં તિર્યંચ ગતિમાં હતા ૧ અથવા તિર્યંચ નિમાં હતા અને નિરયિકમાં હતા. ૨ અથવા તિર્યંચનિકમાં અને મનુષ્યમાં હતા. ૩ અથવા તિયા
નીકોમાં સૈરયિકમાં હતા અને દેવમાં હતા ૪ અથવા તિર્યચનિકેમાં - અને નૈરયિકમાં અને મનુષ્યમાં હતા. પ અથવા તિર્યચનિકમાં જોર
વિકેમાં અને દેવામાં હતા ૬ અથવા તિર્યચનિકેમાં મનુષ્યમાં અને તમાં હતા. ૭ અથવા તિયચનિકમાં નરથિકમાં મનુષ્યમાં અને
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भगवतीसूत्रे वरन्नने रइयाई णं' एवम् अनन्तरोपपन्नकनैरयिकादीनाम् 'जस्स जं अस्थि सादियं यस्य नैरयिकादे येत् लेश्यादिकमस्ति वियते 'अणागारोवजोगपज्ज बसणं' अनाकारोपयोग पर्यवसानं लेश्यादित आरभ्य अनाकारोपयोगपर्यन्तम् 'तं सव्वं एयाए भयणाए साणियच्च' तत्सर्व लेश्यादिकं स्थानम् एतया भजनया भणितव्यं वक्तव्यमेव । कियत्पर्यन्तं वक्तव्यं तत्राह - ' जाव' इत्यादि, 'जाव वेमा - बियाणं' यावद्वैमानिकानाम् एकेन्द्रियादित आरभ्य वैमानिकान्तेषु सर्वत्र लेश्यादिकं यस्य यदस्ति तस्य तद् वक्तव्यमेवेति भावः । 'नवर' अणंतरेसु परिहरियन्त्रा ते जहा बंधि तहा इपि' नवरम् - केवलम् अनन्तरेपु - अनन्तरोपपन्ननार फादिषु यानि सम्यग्मिथ्यात्वमनोयोगबाग्योगादीनि पदानि परिहर्त्तव्यानि असंभवान्न प्रच्छनीयानि तानि यथा बन्धशतके पइविंशतितमे शतके द्वितीयोंमें मनुष्यों में और देवों में थे ८, 'एवं अणंतरोववन्न नेरहयाईणं' इस प्रकार अनन्तरोपपन्न गैरफि आदिकों के मध्य में 'जस्स जं अस्थि 'लेस्सादियं' जिस नैरयिक आदि के जो लेश्यादिक अनाकारोपयोग पद तक है 'तं सव्वं एयार भयणाए भाणियव्वं' वह सब लेश्घादिक स्थान इस अजना से यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये, यहां यावत् पद से 'एकेन्द्रिय आदि से लेकर वैमानिकान्त पदों में सर्पत्र जो लेश्यादिफ जिस के है उसके वह कहना चाहिये' यह पाठ ग्रहीत हुआ हैं। 'णवरं अणंतरेसु परिहरियध्या ते जहा बंधिसए तहा इपि किन्तु अनन्तरोपपन्न नारकादिको में सम्धमिध्यात्व मनोयोग, वागूयोग आदि जो पद है वे पूछने के योग असंभव होने से नहीं हैं । इनके विषय का कथन जैसा हमने वन्धि शतक में द्वितीय उद्देशक में हेवोभा हता. ८ एवं अनंतशेव घन्ननेरइयाई णं' भा अस्थी अनंतशेपपन्नः नैरयिष्४ विगेरेभां 'जस्स जं अस्थि लेस्सादियं' ? नैरयि विगेरेने > बेश्या विगेरे मनाउारोपयोग यह सुधीभां ह्या छे, 'त' सव्व' पयाए अयणाए माणियव्व' ते तमाम बेश्या विगेरे स्थाने। या लग्नाथी - विश्स्यथी થાવત્ વૈમાનિક સુધીના કથનમાં સમજી લેવા, અહિંયાં યાવપદથી એક ઇંદ્રિય વિગેરેથી લઈને વૈમાનિક સુધીના પદ્મમાં બધે જે લેષા વિગેરે જેને કહ્યા છે, તેને તેજ લૈશ્યા વિગેરે કહેવા જોઇએ. આ પાઠ ગ્રહણ કરાયેા છે. 'णवर' अणंतरेसु परिहरियव्वा ते जहा बंधिसए तहा इहपि' अनंतशयन નારક વિગેરેમાં સભ્યમિથ્યાત્વ, મનાયેાગ વચનચેગ વિગેરે જે પદો છે, તે અસ‘ભવ હાવાથી પૂછવાયેાગ્ય નથી, તેના સંબંધમાં ખંધિશતકમાં બીજા ઉદ્દેશા માં જે પ્રમાણે કથન કહેવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં સમજવું',
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प्रथद्रिका टीका श०२८ उ०२ सु०१ अनन्तरोपपन्नना. पापकर्मसमार्जनम् १५ देश कथितानि तथैवेहापि ज्ञातव्यानि । ' एवं नाणावर णिज्जेण चि दंडओ' एवं पापकर्म देव ज्ञानावरणीय कर्मणाऽपि दण्डको विधेयः, आलापप्रकार श्रेत्थम् 'अणं ववन्नगाणं भंते ! नेरइया नाणावर णिज्जं कम्मं कहि समज्जिर्णिसु कहि समायरिंसु ? गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोगिएसु होज्जा' इत्यादि सर्वत्र स्वयमेवनीय इति । 'एव जाव अंतराइएण निरवसेस' एवं ज्ञानावरणीयेन कर्मणा यथा दण्डको निरूपित स्तथैव यावत् आन्तरायिककर्मणाऽपि निरवशेषं सर्व दण्डकादि कर्तव्यम् अत्र यात्रत्पदेन दर्शनावरणीय वेदनीय- मोहनीया-युafraternist भवतीति । 'एसो वि नव दण्डगसंगहिओ उद्देसओ भाणि roat' एषोऽपि नवदण्डकसंगृहीत उद्देशकः पापकर्म ज्ञानावरणीयादित आरभ्य अन्तरायपर्यन्तो भणितव्य इति । 'सेव' भते ! सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त ! किया है वैसा ही वह यहाँ जानना चाहिये, 'एच'नाणावर णिज्जेण वि दंडओ' पापकर्म के दण्डक के जैसे ही ज्ञानावरणीयादिक कर्म के साथ भी दण्डक बनाकर कहना चाहिये, उसका आलाप इस प्रकार से है 'अनंत रोववन्नगाणं भंते । नेरइया नाणावर णिज्जं कम्मं कहिं समज्जिर्णिसु कहिँ समायरिंसु - गोयमा सम्बे वि ताव तिरिक्खजोणिएस होज्जा एवं जाव अंतराइएणं निरवसेस' ज्ञानावरणीय कम के साथ जैसा दण्डक बतलाया गया है उसी प्रकार से दंडक यावत् आन्तरायिक कर्म के साथ सम्पूर्ण रूप से करना चाहिये यहां यावत् पद से 'दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आयु, नाम और गोत्र 'इन कर्मो का संग्रह हुआ है । 'एसो वि नव दण्डगसहिओ उद्देसओ' भाणिव्वो!' नव दण्डक सहित यह उद्देश भी पापकर्म ज्ञानावरणी यादि से प्रारम्भ कर अन्तराय कर्म तक भणितव्य है । 'सेब' भंते!
'एत्र - णाणावर णिज्जेण वि दंडओ' पापना हुडेना अथन प्रभा જે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કની સાથે દડકા મનાવીને સમજી લેવા તેના भातायाना प्रकार भी प्रभाछे -- 'अणतविवण्णणं भते नेरइया णाणावरणिज्जं कम्म कहि समज्जिणि सु कहिं समायरिसु गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिपसु होज्जा एवं जाव अतराइएणं निरवसेस' ज्ञानावरथीय मनी સાથે જે પ્રમાણે દંડક કહ્યો છે . એજ પ્રમાણેના દંડક યાવત અંતરાય કર્મીની સાથે સ’પૂણું પણાથી કહેવા જોઇએ. અહિયાં યાવપદથી ‘દશ’નાવરણીય, વેદનીય, आयु, नाम, अने गोत्र, या उर्भ प्रकृतियों श्रश्वामां आवे छे 'एम्रो वि नत्र दंड सहिओ उद्देसओ भाणियव्वो' नव તો સહિત આ ઉદ્દેશે પણ પાક, જ્ઞાનાવરણીય કથી આરંભ કરીને અંતરાય કમ સુધી કહેવે જોઈએ.
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तदेव भदन्त ! इति, हे महन्त । अनन्तरोपपन्न नारकादीनां पापकर्मादि संग्रह विषये यद् देवानुमियेण कतिं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतम भगवन्तं बन्दते नगरवलि पन्दिता नमयित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भान् विहरतीति ॥०१॥
॥ इति श्री विश्वरिपात -जगद्द्दल्लम-मसिद्धवाचक- पञ्चमापाअतिललितकलापापविशुद्धाद्यपयन कन्ध निर्मापक, वादिमानमर्दक श्रधापनि कोल्हापुराम'जैनाचार्य ' पदभूषित-ल्हापुर राजगुरूबालमनार - जैनाचार्य - जैनधर्मदिनकर -पूज्यश्री पामिलालातिनिचितायां श्री ' सगचतीछत्रप चन्द्रिकायां
"
व्याख्यायाम् अष्टाविंशतिशत के द्वितीयोदेशकः समाप्तः ।।२८-२।।
सेवं भते ! प्ति' हे भदन्त । अनन्तरोपपन्नक नैरधिक आदिकों के पापकर्म आदि के उपार्जन समाचरण करने के विषय में जो आप देवानुमियने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है। इस प्रकार कहकर tantarita प्रभु की स्तुति-वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके फिर से और तब से आत्मा को वित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । मृ० १ ॥ जैनाचार्य जैनपलदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगपनी सूट" की मेष व्याख्णके अट्ठाइसवें शतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ २८-२ ॥
'सेन्द भते ! सेब भते । त्ति' हे भगवन् मनतरोपपन्नः नेरयिषु विगेरे ના પાપકમ વિંગેરે ના ઉપાન સમાચરણુ (ભેગવવુ) કરવાના વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કંથન કર્યુ છે. તે સઘળું કથન રાથા સત્ય છે. હૈ ભાગવત્ આપ દેવા પ્રયનું આપ્ત કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે શ્રૃહીને ગૌનમસ્તાયીએ પ્રભુશ્રીને વહના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર ફરીને તેએ સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મરાજમાન થયા !સ ૧૫
જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહેારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ગઠ્યાવીસમા શતકના ીને ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૨૮-શા
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मैन्द्रिका टीका २०२८ ७०३ ०१ उद्देशकपरिपाटिकथनम्
अथ तृतीयादारभ्य एकादशान्ता उद्देशका आरमन्ते अथ द्वितीयमुदेशकं व्याख्याय क्रमप्राप्तान् तृतीयाद्येकादशान्तान् उद्देश्कान् निरूपयन्नाह - ' एवं एएणं कमेणं' इत्यादि ।
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मूलम् - एवं एएणं कसेणं जहेब बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इहंप अट्टसु भंगेसु नेयव्वा । नवरं जाणियन्वं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं जाव अचरिमुद्देसो । सब्वे वि एए. एक्कारस उद्देगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ | सू० १ अट्ठावीस मे सए तइयाइ एगारस उद्देसगा समत्ता ॥ २८-३-११॥ अट्ठावीस इमं कम्मल सज्जनलयं समचं ॥२८॥
छाया - एवमेतेन क्रमेण यथैव बन्धिशतके उद्देशकानां परिपाटी तथैवेहापि अष्टसु भङ्गेषु नेतव्याः | नवरं ज्ञातव्यं यत् यस्पास्ति तत् तस्य भणितव्यं यावदचरमोद्देशः सर्वेऽपि एते एकादशोदेशकाः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इसिं यावद विहरति ॥ ० ॥
अष्टाविंशतितमे शतके तृतीयाधेकादश उद्देशकाः समाप्ताः ॥ २८-३-११॥ अष्टाविंशतितमं कर्मसमर्जनशतकं समाप्तम् ||२८||
टीका- ' एवं एएणं कमेणं' एवमेतेन क्रमेण - पूर्व पदर्शितप्रकारेण 'जदेव after उद्देसगाणं परिवाडी' यथेन बन्धिशतके षडविंशतितमें शव के उदेशकानां
अठाइसवें शतक का तीसरा उद्देशक का प्रारंभ
द्वितीय उद्देशक का व्याख्यान कर के अब सूत्रकार क्रम प्राप्त तृतीय उद्देशक से लेकर ११ वें उद्देशक तक के उद्देशकों का निरूपण करते हैं
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'एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसए' - इत्यादि ।
टीकार्थ - एवं एएणं कमेणं' पूर्व प्रदर्शित प्रकार से जैसी कि बन्धिशतक में - २६ वें शतक में उद्देशकों की - तृतीय चतुर्थ आदि ત્રીજા ઉદ્દેશ ના પ્રારભ
ખીજા ઉદ્દેશાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકા૨ ક્રમથી આવેલા આ ત્રીજા ઉદ્દેશાથી લઈને અગિયારમાં ઉંદેશા સુધીના ઉદ્દેશાઓનુ` કથન કરે છે, ' एवं एएणं कमेण जव बंधिसए' इत्यादि
ટીકાથ——પહેલા બતાવેલ પ્રકારથી જે પ્રમાણે "ધ શતકમાં અર્થાત્ છવીસમા શતકમાં ઉદ્દેશાઓની એટલે કે ત્રીજા અને ચેથા વિગેરે ઉદ્દેશા
भ० ३
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भगवती
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तृतीयचतुर्थादीनां परिपाटी क्रिया कथिता 'तब हं पि अभंगे तथैव तेनैव रूपेण इहापि अष्टाविंशतितमगतकेऽपि तृतीयानुदेशकोक्तेषु अष्टसु भने परिपाटी नेतव्या ज्ञातव्येति । पूर्वशतकापेक्षया 'नवरं जाणियन्त्र' नवर केवलं वैलक्षण्यं ज्ञातव्यम् किं तदित्याह - 'जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्त्र' जाव अचरमुदेसो' यत् लेश्यादि यादृशं यस्य जीवस्य नारकादेर्भवति तदेव तस्य - जीवस्य भणितव्यं नान्यमभ्यस्य कियत्पर्यन्तमित्याह - यावत् अवरमोद्देशः - अच रमोद्देशकान्तम् अनन्तरोपपन्नकः परस्परोपपन्नकानन्तरावगाढपरम्परावगाढानन्तराहारकपरम्पराहारकानन्तर पर्याप्तपरम्परपर्याप्तचरमपर्यन्तानां नवानामुद्देश. कानां संग्रहो भवतीति, 'सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा' सर्वेऽपि एते सामान्योउद्देशकों की परिपाटी प्रक्रिया की गई है 'तहेच' उसी प्रकार से 'इपि असु भंगेसु पन्त्रा' यहां अठाइसवें शतक में भी तृतीयादि उद्देशकों में उक्त आठ भंगो में परिपाटी जाननी चाहिये, यहां पूर्व की अपेक्षा यदि भिन्नता है तो वह 'नवरं जाणिकचं जे जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्त्र जाब अचरमुद्देखो' हम सूत्रपाठ द्वारा प्रगट की गई है, अर्थात् जो जैसी लेइयादिक जिस नारकादि जीव के हो वह वैसी इयादि उस नरकादि जीव को कहनी चाहिये - अन्य की अन्य को नहीं कहनी चाहिये, और ऐसा कथन यावत् अचरम उद्देशक तक करना चाहिये, यहाँ याचत् शब्द से- 'अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तरपर्याप्त, परम्परपर्याप्त और चरम इन नव उद्देशकों का संग्रह हुआ 'सव्वे वि एए एक्कारस उद्देगा' सामान्य उद्देशक से लेकर अचरम 'योनी - परिपाटी अनिया वामां आवे छे, 'तहेव' से प्रमाणे 'इहंपि अट्ठसु भगेसु यन्त्रा' मा अध्यावीसभा शतम्भां पृथु त्रीन विगेरे उद्देशाએમાં ઉક્ત આઠ ભંગામાં પ્રક્રિયા સમજવી અહિયાં પહેલાં કરતાં જો કાંઈ '२२ छे, ते नवर' जाणियव्व' ज जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्व जाव - अचरमुद्देसो' मा सूत्रपाठ द्वारा अगर रेस छे. अर्थात् ने नैरने के જે લેશ્યા વિગેરે કહેલ હોય તેને તેજ પ્રમાણેની લશ્યા વિગેરે કહેવા જોઈએ ખીજાની લેશ્યા વિગેરે બીજાને કહેવાના નથી. અને આ પ્રમાણેનું કથન અચરમના ઉદ્દેશા સુધી કહેવુ જોઇએ. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી અનન્તરે પપન્નક, ५२'थरेपियन्न}, अनंतरावगाढ, पर परावगाढ अनंतराशर, परपराहार,
અનન્તર પર્યાપ્ત, પર પરપર્યાપ્ત અને ચરમ પર્યાપ્ત આ નવ ઉદ્દેશાઓ अंडषु ४२राया छे. 'सव्वे वि एए एकारस उद्देसगा' लवथी सर्धने थरम उद्देशा
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२८ उ.३ सू०१ उद्देशकपरिपाटिकथनम् शिकत आरभ्याचरमपर्यन्ता एकादशोदेशका भवन्ति । ननु पथमभङ्गके सर्वे जीवाः तिर्यग्भ्य आगत्य समुत्पन्ना इति कथं संभवेत् आनतादिदेवानां तीर्थकरादि मनुष्यविशेषानां च तिर्यग्भ्य आगतानामनुत्पत्तेः एवं द्वितीयतृतीयादि भड़केऽष्टापि प्रश्नाः, इति चेदत्रोच्यते वाहुल्यमाश्रित्य एते भङ्गा ग्रहीतव्या इति । 'सेव भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरई' तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! गतप्रकरणे यंदेवानुपियेण कथितं तत् सर्वम् एवमेवउद्देशक तक इस प्रकार से यहां सर्वत्र ग्यारह उद्देशक हो जाते हैं।
शंका-प्रथम भंग में जो ऐसा कहा गया है कि समस्त जीव तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न हुए हैं-सो यह कथन कैसे संभवित हो सकता है ? क्यों की आमतादि देवों की एवं तीर्थकर आदि विशेष मनुष्यों की उत्पत्ति तिर्यग्गति से आये हुए जीवों में से नहीं होती है। अर्थात् तिर्यग्गति से आये हुए जीव आनतादि देवों के रूप से और तीर्थकरादि के रूप से उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार से द्वितीय तृतीयादि भंगो में भी यह प्रश्न होता हैं।
उत्तर-समस्त जीव तिर्यग्योनिको में से आकरके उत्पन्न हुए हैंविवक्षित पर्यायरूप से जन्मे हैं-ऐसा जो कहा गया है वह बाहुल्य को आश्रित करके कहा गया है इसलिये वाहुल्य को आश्रित करके इन भंगों को ग्रहण करना चाहिये, “से भंते! से अंते! त्ति जाव विहरई' हे भदन्त । गत प्रकरण में जो आप देशानुप्रियने कहा है वह સુધીમાં અહિયાં બધા મળીને અગિયાર ઉદ્દેશાઓ થઈ જાય છે.
શંકા--પહેલા ભંગમાં જે એવું કહ્યું છે કે-સઘળા જી તિયચ નિકમાંથી આવીને ઉત્પન થયા છે. તે આ કથન કેવી રીતે સંભવિત થઈ શકે છે? કેમ કે-આનત વિગેરે દેવે અને તીર્થકર વિગેરે વિશેષ મન
ની ઉત્પત્તી તિર્યગતિથી આવેલા છમાંથી થતી નથી. અર્થાત તિર્યંચ ગતિથી આવેલા છ આનત વિગેરે દેવપણાથી અને તીર્થકર વિગેરે રૂપથી ઉત્પન્ન થતા નથી. એજ રીતે બીજા અને ત્રીજા વિગેરે ભંગમાં પણ આ પ્રશ્નો સમજવા.
ઉત્તર--સઘળા જ તિર્યંચ નિકે માંથી આવીને ઉત્પન થયા છે. વિલક્ષિત પર્યાપ્ત પણાથી જમ્યા છે. એવું જે કહેલ છે, તે બહલ પણાને આશ્રય કરીને આ અંગે ગ્રહણ કરવા જોઈએ. _ 'सेव भते सेव भते ! त्ति जाव विहरइ' भगवन् माला प्र४२६માં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કરેલ છે, તે સર્વ કથન સર્વથા સત્ય છે.
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भगवती सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।।मू० १॥ ' ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा
कलितललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री . घासीलालबतिविरचितायां श्री "भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां अष्टाविंशतितमशतके तृतीयाघेकादशान्ता उद्देशकाः
समाप्ताः ॥२८-३-११॥
॥ अष्टाविंशतितम कर्मसमर्जनशतं समाप्तम् ।। सर्वथा सत्य ही है। ऐसा कहकर गौतमस्वामीने मभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये सू०१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत
"भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके अठावीसवें शतकका तृतीय उद्देशक से लेकर ग्यारह वे उद्देशक तक नौ उद्देशक समाप्त ॥
॥२८ वां शतक समाप्त ।
આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા તેઓ પિતાના સ્થાન પર - બિરાજમાન થયા. સુ. ૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચદ્રિકા વ્યાખ્યાના સત્યાવીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશથી અગીયારમાં
उदेशमा सुधाना न देशाम। सभा ॥३-११॥
અઠયાવીસમું શતક સમાપ્ત કરતા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२९ उ. १ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् २१ अथैकोनत्रिंशत्तमे शतके प्रथमोद्देशः मारभ्यते
पापकर्मादि वक्तव्यताऽनुगतमष्टाविंशतितमं शतकं व्याख्याय क्रममाप्तं तथाविधमेव एकोनत्रिंशं शतमारभते, अत्रापि च तथैव एकादशोदेशकाः सन्ति, तेषु चाद्यस्य उद्देशकस्येदं सूत्रम्- 'जीवाणं भंते! पाव कम्' इत्यादि ।
मूलम् - जीवा णं भंते! पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु ? समायं निट्टविसु१, समायं पट्टर्विसु, विसमायं निविंसुर, विसमायं पट्टविसु समायं निट्टविंसु३, विसमायं पट्टविसु विसमायं निविसु १४, गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु समायं निटुविसु, जाव अत्थेगइया विसमायं पट्टर्विसु विसमायं निट्टविंसु४ । से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगइया समायं पटूविसु समायं निट्टविसु तं चेव ? गोयमा ! जीवा चउव्विहा पन्नत्ता तं जहा अत्थेगड्या समाज्या समोववन्नगा १, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगार, अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा३, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगाः । तत्थ णं जे से समाज्या समोववन्नगा ते पणं पात्रं कम्मं लमायं पट्टर्विसु विसमायं निट्टविसु । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते पणं पावं कम्मं समायं पटुविसु विसमाई निद्वविंसु । तत्थ पणं जे ते. विसमाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं विसमायं पट्टविसु समायं निट्टविंसु३ । तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा तेर्ण पावं कम्मं विसमायं पटुर्विसु विसमायं निट्टविसु४, से तेणट्टेणं गोयमा ! तं चेत्र । सलेस्सा णं भंते! जीवा पावं कम्मं० एवं चैव एवं सव्वट्टासु वि जाव अणागारोवउत्ता । एए सव्वें विपया एयाए वक्तव्याए भाणियद्वा । नेरइया णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं निविसु ? पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइया समायं पटुविसु एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणि -
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भगवतीसूत्र यव्वं जाव अणागारोव उत्ता। एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियव्वं । जहा पावेण दंडओ एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु अह दंडगा भाणियव्वा जीवादीया वेमाणियपज्जवलाणा। एसो नवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥
एगूणतीसइमे सए पढमो उदेसो समत्तो ॥२९-१॥ . छाया-जीवाः खलु भदन्त ! पापं कर्म किं समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् १, समकं प्रास्थापयन् विपमझ न्यस्थापयन् २, विषमक प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् ३, विषमकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन् ४, गौतम ! अत्येकके समकं प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन्१, यावद् अस्त्येकके विषमकं मास्थापयन् विपमकं न्यस्थापयन्४, । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते अस्त्ये कके समकं प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् तदेव, गौतम ! जीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वस्त्येकके समायुप्काः समोपपन्नकाः १, अस्त्येकके समायुष्का विषमोपपन्नकाः२, अस्त्येक के विषमायुष्काः समोपपन्नकाः३ अस्त्येकके विषमायुष्का विषमोपपन्नका ४ । तत्र खलु ये ते समायुष्काः समोपपन्नका स्ते खलु पापं कर्म समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् १, तत्र खलु ये वे समायुष्का विषमोपपन्न का स्ते खलु पापं कर्म समकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थाश्यन् २, तत्र खलु ये ते विषमायुष्काः समोपपन्नका स्ते खलु पापं कर्म विषमकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् तत्र खल्ल ये ते विपमायुष्का विपमोपपन्नका स्ते खल पापं कर्म विषमकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन् । उत्तेनार्थेन गौतम ! तदेव । सले श्याः खलु भदन्त ! जीशः पापं कर्म-एवमेन, एवं सर्वस्थानेष्वपि यावदनाकारोपयुक्ताः । एतानि सर्वाण्यपि पदानि एतया वक्तव्यत्या भणितव्यानि । नैरयिकाः खलु भदन्त ! पापं कर्म कि समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन्, पृच्छा, गौतम ! अस्त्येकके समकं घास्थापयन् एवं यथैव जीवानां तथैव भणितव्यं यावत् अनाकारोपयुक्ताः । एवं गावद्वैमानिकानाम् यस्य पदस्ति तद् एतेनैव क्रमेण भणितव्यम् , यथा पापेन दण्डकः, एनेन क्रमेणाष्टास्वपि कर्मप्रकृतिषु अष्ट दण्डका भणितव्या जीवादिका वैमानिकपर्यवसानाः । एषो नवदण्डकसंगृहीतः प्रथमोद्देशो भणितव्यः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥० १॥
एकोनत्रिंशत्तमे शत के प्रथमोद्देशः समासः ॥२९-१॥
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चन्द्रिका टीका श०२९ उ० १ ०१ पापकर्मसंपादन निष्ठापन निरूपणम् २३
टीका -- 'जीवाणं भये' जीवाः खलु भदन्त ! 'पाव कम्म' पापम् - अशुभं कर्म 'किं समायं पर्विसु' समकसू - बहवो जीवाः युगपदित्यर्थः प्रास्थापयन्प्रस्थापितवन्तः प्रथमतया वेदयितु मारब्धवन्तः किम् तथा - 'समायं निर्विस' सममेव न्यस्थापन - निष्ठापितवन्तः नाशितवन्तः पापकर्मणो नाशमकुर्वन् इत्यर्थः, इति प्रथमो भङ्गः १, तथा 'समायं पट्टर्विसु विमायं निर्वसु २' समकं - युगपदेव अनेके जीवाः प्रास्थापन प्रस्थापितवन्तः युगपदने केन्यस्थापयन - निष्ठापितवन्त इति द्वितीयो भङ्गः २ तथा सिमाये पट्टदिसु समायं निह
,
२९ वां शतक के पहला उद्देशक
पापकर्म आदि की वक्तव्यता से अनुगत २८ वे शतक की व्याख्या करके अब कम प्राप्त २९ वां शतक प्रारम्भ होता है, यहां पर भी पूर्वोक्त जैसे ११ उद्देशक हैं । इनमें से आदि के उद्देशक का 'जीवाणं भंते! पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु' - इत्यादि
टीकार्थ - गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'जीवा णं भंते ! पावं कम्मं' हे भन्दत ! अनेक जीव जो पापकर्म को भोगते हैं और नष्ट करते हैं सो क्या वे उस पापकर्म को 'किं समायं पट्ठनिसु' भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं और 'समायं निट्टर्विसु' एक ही काल में वे उसका विनाश करते हैं ? अथवा वे उस 'समायं पटुविसु विममायं निवि२' पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं और એગણત્રીસમા શતકના પ્રારંભ-थडेतेा उद्देश.
પાપકમાં વિગેરે ના કથનના સંબંધમાં અઠયાવીસમા શતકનુ" કથન કરીને હવે ક્રમથી આવેલ આ એગણત્રીસમા શતકના પ્રાર’ભ કરવામાં આવે છે. આ એગણત્રીસમા શતકમાં પણ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે तेमां पडेला उद्देशानुं हेतु सूत्र नीचे प्रभा पाव' कम्म ं किं समाय' पट्टवि'सु' इत्याहि
કહ્યા
અગીયર ઉદ્દેશાઓ छे - 'जीवा णं भते
-- 'जीवाणं भंते लोगवे छे, भने
टीअर्थ--गौतभस्वाभीये प्रभुश्रीने मे पूछयु छे
पाव कम्म" हे भगवन् भने वो बेथे पाय तेन। क्षय पुरै छे तो शु' ते तेथे पाय भने 'समायं पट्टविसु' लोगववानी आरंभ शोउन सभयभां रे थे ? भने 'समाय' निदुविसु ' ४ ४ समयभां तेथे। तेने। विनाश १रे छे ११ अथवा तेथे 'समायं पट्टविसु विसमाय' निदृवि सु' પાપકને લે ગવવાને પ્રારભ એક સમયમાં કરે છે? અને તેના વિનાશ
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'anede
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'पि यथा भवति विषेषतयेत्यर्थः प्रस्थापितवन्तः, समकं निष्ठापितवन्त इति तृतीय: ३ तथा - 'विसमा पद्धर्विसु विसमायं निहर्विस' विषममेव यथा [ तथा स्थापितवन्तः तथा विषमं विषमतयैत्र निष्ठापितन्त इति चतुर्थी भङ्गः, हे भदन्त ! अनेके जीवाः पापं कर्म भोक्तुमेकस्मिन्नेव काले प्रयतमाना भवन्ति स्म तथा सममेककाले एताशं कर्म विनाशयन्ति स्म किम् ? अथवा एकदेव सर्वे जीवाः कर्मभोगाय मवर्त्तन्ते विपमतया अन्तकरणाय मवर्त्तन्ते, अथवा - दिपमतया प्रारभन्ते सममेव तत् कर्म विनाशयन्ति अथवा विषमतया पारमन्ये विपतयैव निवर्त्तन्ते ? किम् ? इति चतुर्णामपि भङ्गानां भाव इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोसा' दे गौतम ! 'अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु समाय निgy' अस्त्येक के जीवाः समकमेव मास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन् 'केचन अनेके जीवाः पापं कर्म भोगाय एकदैव प्रारभन्ते तथा तादृश कर्म उसका विनाश भिन्न-भिन्न काल में करते हैं ? अथवा 'विसमायं पर्वसु समायं निविसु' वे भिन्नकाल में उस पापकर्म का भोगना प्रारंभ करते हैं और एक काल में उसे विनिष्ट करते हैं ३ अथवा 'विसमा पट्टविसु, चिममायं निहविसु' भिन्न-भिन्न काल में वे उसका भोगना प्रारम्भ करते है और भिन्न-भिन्न काल में ही उसका विनाश करते हैं? इस प्रकार से ४ अंगो से युक्त प्रश्न गौनमस्वामीने प्रभुश्री से पूछा है, इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं - 'गोयमा ! अत्येगइमा समायं पट्टर्विसु समायं नि विसु' हे गौतम । कितनेक जीव ऐसे भी है जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक साथ करते हैं और एक ही साथ उसका विनाश करते हैं अर्थात् पापकर्म को एक ही साथ एक काल में भोगते हैं और एक ही
२४
बुद्धा बुद्धा अजमां रे १२ अथवा 'विसमाय पट्टविसु समायं निट्टवि सु તેઓ ભિન્ન કાળમાં તે પાપકમ ભેળવવાના પ્રારંભ કરે છે ? અને એક भणभां तेनो नाश रे छे ? अथवा 'विसमायं पट्टविसु समाय' निट्टविसु' તએ ભિન્ન કાળમાં તે પાપ કર્મોને ભેગવવાના પ્રારંભ કરે છે? અને એક કાળમાં તેના નાશ કરે છે ? ૪ આ પ્રમાણે ચાર ભગવાળા પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोमा ! अत्येगइ समाय पट्टविसु समायं निट्टविसु' हे गौतम! टवावे હૈ એવા હાય છે કે–જેએ એક સાથે પાપકમાં ભાગવવાના પ્રારંભ કરે છે. અને તેના વિનાશ પણ એક સાથે જ કરે છે. અર્થાત્ પાપકમને એક સાથે એક કાળમાં લેાગવે છે, અને એક સાથેજ એક કાળમાં તેના નાશ કરે છે,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.१ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् ५५ विनाशायापि युगपदेव प्रवर्त्तमाना भवन्तीत्यर्थः । 'जात्र अत्थेगइया विसमायं पट्टविसु विसमायं निर्विसु' यावत् अनेके विषमकं मास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन, अत्र यावत्पदेन अस्त्येकके समकं मास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन , अस्त्येकके विषमं प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् इत्यनयो द्वितीयतृतीयभङ्गय ग्रहणं भवति, एवं चत्वारोऽपि भगा उत्तरे समर्थिता भगवतेति । पुनः प्रश्नयन्नाह-'से केणढणं' - इत्यादि । 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते 'अत्थे.' गइया समायं पट्टविसु समायं निर्विसु त चेत्र' समकं मास्थापयन समकं 'न्यस्थासाथ एक काल में उसे नष्ट भी करते हैं ? 'जाव अत्थेगहया विसमायं पर्विस विसमायं निविस्सु' इसी रीति से यावत कितनेक जीव ऐसे भी हैं जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भिन्न-भिन्नकाल में करते हैं और भिन्न-भिन्न काल में ही उसका विनाश करते हैं। यहां यावत् शब्द से द्वितीय और तृतीय भंगों का ग्रहण हुआ है। वे द्वितीय तृतीय भंग इस प्रकार से हैं 'अस्त्येकके जीवा समकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयत्२ अस्त्येकके विषमकं प्रास्थापयन् समकं घस्थापयन्३' दोनों भंगों का अर्थ स्पष्ट हैं । इस प्रकार से प्रशुश्रीने यहां चारों भंगों का समर्थन उत्तर वाक्य में किया है।
सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ-अस्थेगड्या समायं पट्टविंसु संमायं निविसु' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि अनेक जीव ऐसे हैं जो पापशम को भोगने का प्रारम्भ एक साथ एककाल में करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ एक ही काल में करते हैं ? 'जाव अत्थेगइया विसमाय' पटुविसु विसमाय' निद्ववि'सु' मा · प्रमाण કેટલાક જી એવા પણ હોય છે, કે જેઓ જુદા-જુદા કાળમાં પાપકર્મ ભોગવવાને પ્રારંભ કરે છે, અને જુદા-જુદા કાળમાં તેને વિનાશ કરે છે. અહિયાં યાવત શબ્દથો બીજો અને ત્રીજે એ બે ભંગ ગ્રહણ થયા છે. તે
नामा प्रभारी छ-'अस्त्येकके जीवा समक प्रास्थापयन् विसमक न्यस्थापयन्२ अस्त्येकके विषमक प्रास्थापयन् समक न्यस्थापयन् ३' मा भन्ने ભંગને અર્થ સ્પષ્ટ છે. આ પ્રમ ણે પ્રભુશ્રીએ ઉત્તર વાક્યમાં અહિયાં ચારે ભંગને સ્વીકાર કર્યો છે.
'से केणट्रेणं भंते । एवं वुच्चइ' अत्थेगइया समाय पट्टविसु समाय निद्रविसु' सावन मा५ मा प्रभाए । २ । छ। ? ? भने । એવા હોય છે કે–જેઓ પાપકર્મને ભેગવવાને પ્રારંભ એકી સાથે અને એક કાળમાં કરે છે? અને તેને નાશ પણ એકી સાથે અને એક જ
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भगवतीले पयन् समकं मास्थापयन् विपमकं न्यस्थापयन् विषमकं प्रास्थापयम् समकं म्यस्थापयन् विषमकं मास्थापयन् विपमकं न्यस्थापयन इत्येवान्तरमश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, "गोयमा' हे गौतम ! 'जीया चउचिहा पन्नता' जीवा. चतुविधा:-चतुष्प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः तं जहा' वधथा-'अस्थेगइया समा. उया समोववन्नगा' अस्त्येक के समायुष्काः समायुप उदयापेक्षया समकालायु. कोदया इत्यर्थः, समोषपणकाः विवक्षितायुपः क्षये समकमेव भवान्तरे उपपन्नाः समोपपमकार, येचैवंविधास्ते समकमेव मास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन् । तथा अनेक जीव ऐसे भी हैं जो पापकर्म को भोगनेका प्रारम्भ तो एक काल में करते है और उसका अन्त भिन्न-भिन्न काल में करते १२ तथा अनेक जीव ऐसे हैं जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न काल में करते हैं और उसका अन्त एक काल में करते
३ तथा अनेक जीव ऐसे हैं जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भी भिन्न-भिन्न काल में करते हैं और विनाश भी उसका भिन्न-भिन्न काल में करते हैं ? ४ इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-"गोयमा! जीवा घउब्धिहा पन्नत्ता' हे गौतन ! जीव चार प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहां जैसे- अत्थेगया समानया समोववन्नगा१ अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगार' कितनेक जीव ऐसे होते हैं कि उदयकी अपेक्षा से जिनकी आयु समान है अर्थात् जिनकी आयुका उदय समान काल में हुआ है और उसविवक्षित आयु के क्षय होने पर एक ही समय में जिनका भवान्तर में उत्पाद हुआ है, ऐसे जो जीव होते हैं वें पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक साथ करते हैं और एक ही साथ સમયમાં કરે છે ? ૨ તથા અનેક જીવે એવા હોય છે કે પાપકર્મને ભેગવવાને પ્રારંભ જુદા-જુદા સમયમાં કરે છે અને તેને અન્ત એક કાળમાં કરે છે? ૩ તથા અનેક જીવો એવા હોય છે કે જેઓ પાપકર્મને ભેગ વવાને આરંભ જુદા-જુદા કાળમાં કરે છે ? અને તેને વિનાશ પણ જુદા
ह भ ४२ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ है-'गोयमा ! जीवा चउन्विहा पन्नत्ता' हे गौतम ! wो यार प्रा२ना हा छ. 'तं जहा'
मा प्रमाणे छे. 'अत्थेगइया सम्राउया समोववन्नगा १ अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा २' मा वो मेवा Bाय छे ४-उहयनी अपेक्षाथी रे એનું આયુષ્ય સરખું છે. અર્થાત્ જેના આયુષ્યને ઉદય સમાન કાળમાં થયે હોય છે, તે વિવક્ષિત આયુષ્યને ક્ષય થવાથી એક જ સમયમાં ભવાતરમાં જેઓને ઉત્પાદ ઉત્પત્તિ થયેલ હોય એવા જે જીવો હોય છે. તેઓ પાપ કર્મ ભોગવવાને પ્રારંભ એકી સાથે કરે છે, અને એકી સાથે તેને વિનાશ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.१ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् २७ 'अत्थेगइया समाउया विसमोचवन्नगा' अस्त्येकके जीवाः समायुपो विपमोपपन्नकाः 'अत्थेगइया विसमाउया समोचवन्नगा' अस्त्येकके जीवाः विषमायुपः समोपपभकाः, 'अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा' अस्त्येकके विपमायुषो विषमोपपन्नकाः तदेवं चतुष्पकारा जीवा भवन्ति । एतदेव स्पष्टपति-'तत्थ णं' इत्यादि, 'तस्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा तेणं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निर्विसु' तत्र खलु तेषु चतुर्यु जीवेषु ये ते समायुगः समोपपन्नकाश्च ते जीवा खल पापं कर्म समकमेव मास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन् इति । ननु आयु: कमैं वाश्रित्यैवमुपपद्यते न तु पापं कर्माश्रित्य, वद्धि न आयुष्कं कर्मण उदयापेक्षं मस्थाप्यते निष्ठाप्यते च ? इति चेदत्रोच्यते कर्मणामुदयस्य क्षयस्य च भवा. पेक्षत्वात् भवस्य चायुष्कापेक्षत्वाद् आयुः कर्माश्रित्य कथनं न विरुद्धमिति । अत एबोक्तम् 'तत्थ णं जे ते समाउया समोचवन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टर्विसु समायं निर्विसु' तत्र चतुर्विधजीवमध्यात् खलु ये जीवाः समायुष्का उसका विनाश करते हैं। 'अत्थेगहया समाउया विसमोववन्नगा' तथा-कितनेक जीव ऐसे होते हैं जो एक सी आयुवाले होते हैं और भिन्न-भिन्न समय में परभव में उत्पन्न होते हैं२ 'अत्थेगहया विस. माउया समोववन्नगा तथा-कितनेक जीव ऐसे होते हैं जो विषम आयुवाले होते हैं और परभव में साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। तथा 'अत्थेगया विसमाउया विसमाववन्नमा' कितनेक जीव ऐसे होते हैं कि जिनकी आयु बराबर नहीं होती है और भिन्न भिन्न समय में जो परभव में उत्पन्न हुए होते है। इस प्रकार से जीव चार प्रकार के होते है। इसी कथन का सूत्रकार स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं-'तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टर्षितु समायं ५५ रे छे. 'अत्यगइया समाउया विसमोववन्नगा' तथा टसा वा હોય છે કે-જેઓ એક સરખા આયુષ્ય વાળા હોય છે. અને જુદા-જુદા समयमा ५२सवमा Gurन थाय छे. तथा 'अत्येगइया विसमाउया समोववन्नगा' तथा डेटा छ वा हाय छे 8-मे विषय मायुष्यवाणा डाय छ, यसमा यी साथे ५न्न थाय छे. तथा 'अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा' मा ७। मेवा डाय छे 3-सानु मायु मरासर હત નથી. અને જુદા-જુદા સમયમાં જેઓ પરભવમાં ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. આ રીતે છ ચાર પ્રકારના હોય છે આજ કથનનું સ્પષ્ટીકરણ કરતા
छ-'तत्थ णं जे ते समाउथा समोववन्नगा वेणं पाव कम्म समाय पदबिसु समाय निदुविसु' भाभा । सरमा समयमा ५२सभाप
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भगवतीसूत्रे समोपपन्नकाः ते समकमेव मास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन चेति१ । 'तत्थ णं जे ते समाउया विसभोववनगा तेणं पावं कम्मं समायं पट्टविसु विसमायं निट्ठविसु' तत्र ये खलु समायुपो विषमोपपन्नाः समकालायुष्कोदया विषमतया परभवोत्पन्नाः मरणकालवैषम्यात् ते खलु समकं प्रास्थापयन् आयुएककमविशेपोदयसंपाद्यत्वात् पापकर्मवेदनविशेषस्य, विषयकं विपमतया न्यस्थापयन् सरणवैषम्येण पापकर्मवेदनविशेषस्य विषमतया निष्ठा संभवादिति द्वितीयः२ । तथा 'तत्य णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा तेणं पाव फम्म विसमायं पर्विसु समायं निहर्विसु' तत्र खलु ये जीवा विषमकालायुष्कोदयाः समकालभवान्तरोत्पत्तयः ते खलु जीवाः विषमं प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् निविलु' इनमें जो जीव लमान काल में आयुपके उद्यवाले होते हैं और समान समय में परभव में उत्पन्न हुए होते हैं ऐसे वे जीव एक ही काल में तो पापकर्म का भोगना प्रारम्भ करते हैं और उसका अन्त भी एक:ही काल में-साथ-साथ करते हैं १ । 'तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा तेणं पावं कम्म समायं पट्टविस्ट विसमायं निविसु' तथाजो जीव समान आयुष के उद्यवाले होते हैं और भिन्न-२ काल में परभव में जन्मे हुए होते हैं-ऐसे वे जीव पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक ही साथ करते हैं पर उसका अन्त भिन्न-२ समय में करते हैं। तथा-'तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा तेणं पावं कम्मं विसमायं पढविलु समायं निहिं सु३' जो जीव भिन्न-भिन्न समय में आयुष के उद्यवाले होते हैं और साथ-साथ में पर भव में उत्पन्न हुए होते हैं वे जीव पावं करमं विललायं पट्टविंसु समायं निर्विलु' पापकर्म को भोगने થયેલા હોય છે, એવા તે જીવ એક જ કાળમાં તો પાપકર્મ ભોગવવાનો પ્રારંભ १२ छ, मन तन मत५५ मे २४ मा मे साथे ४रे छे. १ तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा तेण पाव' कम्म समाय पदुविसु विसमाय निविंसु' तथा रे वे समान मायुष्यना या डाय छ, भने हा જદા કાળમાં પરભવમાં જન્મેલા હોય છે. એવા તે જીવો પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ એકી સાથે કરે છે. પરંતુ તેને અંત જુદા-જુદા સમયમાં કરે છે. तथा 'तत्थ ण जे ते विसमाउया समोववन्नगा तेण पावकम्म विसमायं पढ़विसु, समाय निझुविसु३' ? ०१ - समयमा मायुष्यना ध्यवाणा डाय छ, a wो 'पावं कम्म विसमाय पट्टविसु समाय' निट्ठविसु ४' पा५ કમ ભોગવવાને પ્રારંભ જુદા-જુદા સમયમાં કરે છે, પરંતુ તેને અંત એકી
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२९ उ. १ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् २६ इति तृतीयः ३ । 'तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा' तत्र खलु ये जीवा विषमायुष्काः विषमोपपन्नकाः 'तेणं पात्र कम्मं विसमायं पर्विसु विसमायं निट्टर्विसु' ते खलु जीवाः पापं कर्म विषमतया मास्थापयन् विषमतया न्यस्था का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न समय में करते हैं पर उसका अन्त एक ही साथ करते हैं । 'तत्थ णं जे ते विसमाज्या विमोचनमा 'तथा - जो जीव भीन्न-भिन्न समय में आयुष के उदयवाले होते हैं, और भिन्न-भिन्न समय में परभव में उत्पन्न हुए होते हैं 'तेणं पावं कम्मं विसमायं पवि विसमायं निवितु' ऐसे वे जीव पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न समय में करते हैं और उसका अन्त भी भिन्न-भिन्न समय में करते हैं । यहाँ ऐसी शंका हो सकती है कि जो तुम ऐसा कहते हो कि उदय की अपेक्षा जिनकी आयु समान है और जो परभव में साथ-साथ उत्पन्न हुए हैं ऐसे वे जीव पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और साथ-साथ ही उसका अन्त करते हैं - सो ऐसा यह कथन आयुकर्म को लेकर ही बन सकता है पापकर्म को लेकर नहीं - अतः पापकर्म का भोगना एक साथ और एक साथ ऊलका विनाश होना यह आयुकर्म के उदय की अपेक्षावाला कैसे हो सकता है ? सो इसका उत्तर इस प्रकार से हैकर्मों का हृदय या क्षय भापेक्ष होता है और भव आयुकर्म के
साथै ४ रे छे. 'तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा' तथा भव જુદા-જુદા-સમયમાં આયુષ્યના ઉદયવાળા હાય છે, અને જુદા જુદા સમયમાં य२लवमां उत्पन्न थयेला होय छे. 'येणं पाव' कम्म विस्रमाय निविं सु' એવા તે જીવા પાપકર્મોને ભાગવવાના આરંભ જુદા-જુદા સમયમાં કરે છે, અને તેને અંત પણ જુદા જુદા સમયમાં કરે છે,
આ કથનમાં એવી શકા થઈ શકે છે.-કેજે એવું કહેવામાં આવ્યુ કે ઉદયની અપેક્ષાએ જેએનુ આયુષ્ય સમાન છે, અને જેએ ' પરભવમાં એકી સાથે ઉત્પન્ન થયા છે, તે જીવા પાપકમાં ભાગવવાના પ્રારભ એક સાથે કરે છે, અને એક સાથે તેના અંત કરે છે.—તે આ પ્રમાણેનું કથન આણુ કર્મીને લઈને જ ખની શકે છે ૫૫કના સંબધમાં ખની શકતુ નથી. તેથી પાપકમ ભેગવવાનું એક સાથે અને તેને વિનાશ એક સાથે હોવાનુ આણુકમના ઉદયની અપેક્ષાથી કેવી રીતે થઈ શકે છે ? તેના ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-કમેન્દ્રના ઉદય અથવા ક્ષય ભવની અપેક્ષાથી હાય છે, અને ભષ
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भगवती
३०.
आधीन होता है, इसलिये आयुकर्म को आधीन करके ऐसा कथन विरुद्ध नहीं पडता है । इसीलिये ऐसा कहा गया है कि जो जीव समान आयुवाले हैं और समोपपन्नक हैं वे जीव पापकर्म को भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं । तथा - 'तत्थ ण जे सनाउया विसमोववन्नमा तेणं पावं क्रम्मं समायं पट्टविसु विसमायं निट्टविसु' ऐसा जो द्वितीय भंग के विषय में उत्तर दिया गया है, उसका तात्पर्य ऐसा है कि जिनजीवों की आयु समान है - समानकाल में आयुके उदयवाले हैं पर जुदे - जुदे समय में परभव में उत्पन्न हुए हैं वे सरणकाल की विषमता से पापकर्म को वेदन यद्यपि आयुष्कर्म के विशेपोदय से संपाद्य होने के कारण एक साथ करने पर भी उसका निष्ठापन विनाश-भिन्न काल में करते हैं । तथा - 'तत्थ णं जे ते विमाज्या समोववनगा, तेणं पात्रं कम्मं विसमाय पट्ट समायं निर्दितु' ऐसा जो तृतीय भंग के विषय में उत्तर दिया गया है सो उसका तात्पर्य ऐसा है कि जो जीव विषमकाल में-भिन्न भिन्न समय में आयुके उदयवाले हैं पर परभव में एक ही साथ उन्न हुए हैं ऐसे वे जीव पापकर्म को भोगना भिन्न-भिन्न समय में
આયુકત્ર'ને આધીન હૈાય છે. તેથી આયુકમને આધીન કરવાથી આ કથન વિરૂદ્ધ થતુ નથી. તેથી એવું કડેવામાં આવ્યું છે કે-જે જીતે સમાન આયુષ્ય વાળા હાય છે, અને સાથે જ ઉત્પન્ન થવાવાળા હૈાય છે, તેવા જીવા એકી સાથે પાપકમ ભેળવવાના પ્રારંભ કરે છે-અને એકી સાથે તેનેા વિનાશ ४. १, तथा 'तत्य ण जे समाज्या विश्वमोववन्नगा तेणं पाव' कम्म समाय पट्टषिसु विससाय निर्विसु' मा प्रमाने ने जीन लगना सभधभां उत्तर આપવામાં આવ્યો છે. તેનુ' તાત્પ એ છે કે જે થવાનું આયુ સમાન છે. સમાનક'ળમાં આયુના ઉદયવાળા છે, પરંતુ જુદા જુદા સમયમાં પરભવમાં ઉત્પન્ન થયા છે, તેએ મરણુ કાળના વિષમ પણાથી પાપકર્માંનુ વેદન- જોકે આયુષ્ય કર્મોના વિશેષાયથી સ`પાદિત થવાને કારણે એકી સાથે કરવાથી तेना विनाश हा हा सभयमां रे छे. तथा 'तत्थ णं जे ते विसमाउया समोघवन्नगा, वेण पाव' कम्नं विसमाय पटुविसु समाय निदुविसु' मा रीते જે ત્રીજા ભ'ગના સબ ધમાં ઉત્તર આપ્યા છે, તેનું તાત્પ એ છે કે-જે જીવે વિષમ કાળમાં એટલે કે જુદા જુદા સમયમાં આયુકમના ઉદયવાળા છે, પર’તુ પરભવમાં એટલે કે બીજા ભવમાં એકી સાથે જ ઉત્પન્ન થયા છે,
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अमेयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.१ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् ३१ परन् इति चतुर्थ ४ । 'से तेणटेणं गोयमा ! तं चेव' तत् तेनार्थेन गौतम ! सदेव हे गौतम ! एतेन कारणेन कथयामि यत् केचन जीवाः खलु पापं कर्म समकमेव प्रास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन्न् इत्यादिना, 'सलेस्साणं भंते ! जीवा पाव कम्म एव चेव सलेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः पाप कर्म कि समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् अथवा समकं मास्थाएयन् विषमतया न्यरथापरन् अथवा विषमतया प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् अथवा विषमतया मास्थापयत् विष. मतया न्यस्थापयन इति प्रश्ना, हे गौतम ! केचन सलेया जीवाः समकमेव करते हैं और उसका अन्त साथ-साथ करते हैं । चतुर्थ भंग के विषय में दिये गये उत्तर का तात्पर्य स्पष्ट है । 'ले तेणद्वेगं गोयमा ! तं चेव' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि कितनेक जीव पापकर्म का भोगना साथ साथ प्रारम्भ करते है और साथ साथ ही उसका अन्त करते हैं इत्यादि । 'ललेस्साणं भंते ! जीश पावं -कम्म एवं चेव' हे भदन्त ! जो लेश्यावाले जीव हैं-वे क्या पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और साथ लाथ ही उसका विनाश करते हैं ? १ अथवा-पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और विनाश भिन्न-भिन्न समय में करते हैं ? २ अथवा-पापकर्म का भोगना भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और विनाश साथसाथ करते हैं३अथवा पापकर्म का भोगना भी भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और विनाश भी उसका भिन्न-भिन्न समय में करते हैं ? ऐसा यह प्रश्न गौतमस्वामीने प्रभुश्री से लेश्यावाले जीवों એવા તે જી જુદા જુદા સમયે પાપકર્મને ભગવે છે. અને તેને અંત એકી સાથે જ કરે છે. ચોથા ભંગના સંબંધમાં કહેલ ઉત્તરનું તાત્પર્ય १५ष्ट १ छ. 'से तणतण गोयमा ! त चेब' मा रथी 3 गौतम । में से કહ્યું છે કે કેટલાક પાપકર્મને ભોગવવાનું એક સાથે પ્રારભ કરે છે. અને તેને અંત પણ એકી સાથે જ કરે છે. ઈત્યાદિ
'मलेस्साणं भंते जीवा पाव कम्म' एवं चेव' हे भगवन् वेश्या જે જીવે છે, તેઓ એક સાથે પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ કરે છે ? અને એકી સાથે જ તેને અંત કરે છે? ૧ અથવા–પાપકર્મને ઉપગ એકસાથે કરે છે, અને જુદા જુદા સમયમાં તેને વિનાશ કરે છે? ૨ અથવા પાપકર્મને ઉપગ જુદા જુદા સમયે કરે છે, અને તેને વિનાશ એકી સાથે કરે છે? ૩ અથવા પાપકર્મ ભેગવવાનુ જુદા જુદા સમયમાં કરે છે, અને તેને વિનાશ પણ જુદા જુદા સમયે કરે છે? આ પ્રમાણેને પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભશ્રીને
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मास्थापयन् समकमेव भ्यस्थापयन् , तथा एके केचन जीवा समक मास्थापयन् विषमतया न्यस्थापयन् तथा क्षेचन सलेश्यानीशः विषमतया मास्थापयन् समक म्यस्थापथन् तथा एके केचन सलेश्य जीवाः विषमतया मास्थापयल विषमतया म्यस्थापयन् इति चतुर्भङ्गयोत्तरम् । तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते समक' मास्थापयन् सलेश्यजीवाः समकं न्यस्थापयन् इत्यादि प्रश्नः, हे गौतम ! चतु. को लेकर पापकर्म के लोगने का और विनाश के विषय में पूछा है-सो प्रभु इसका उत्तर देते हुए उनसे कहते हैं-'गोयना' हे गौतम ! कितनेक लेश्यावाले जीच ऐसे भी होते हैं जो पापकर्म का भोगना एक ही साथ्य प्रारम्भ करते हैं और एक साथ उसका विनाश करते हैं। सथा-कितनेक जीव ऐसे होते हैं जो पापकर्म का भोगना लो साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं-पर विनाश उसका भिन्न-भिन्न समय में करते हैं ? तथा-कितने ललेश्य जीव ऐले भी होते हैं जो भिन्न-भिन्न काल में पापकर्म का भोगना प्रारम्भ करते हैं और एक ही काल में उसका विनाश करते हैं३ तथा-किननेक सलेश्य जीव ऐसे भी होते हैं-जो भिन्न-भिन्नकाल में पापकर्म का भोगना प्रारम्भ करते हैं और भिन्न भिन्न काल में ही उलका विनाश करते हैं। इस पर पुनः गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि किननेक सलेय जीव पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और साथ-साथ-ही उल्लका विनाश करते हैं इत्यादि, લેશ્યાવાળા જેને ઉદ્દેશીને પાપકર્મ ભેગવવાના તથા તેના વિનાશના સંબંધમાં
छे छे. या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छ --'गोयमा' ! के गौतम ! કેટલાક લેશ્યાવાળા જી એવા પણ હોય છે કે જેઓ એકી સાથે જ પાપકર્મને ઉભેગ કરે છે. અને તેને વિનાશ પણ એકી સાથે જ કરે છે. ૧ કેટલાક જ અવા હોય છે કે જેઓ પાપકર્મ ભેગવવાને તે એક સાથે પ્રારંભ કરે છે. પરંતુ તેને વિના જુદા જુદા સમયે કરે છે. ૨ તથા કેટલાક સલેશ્યર્લેશ્યાવાળા છો એવા પણ હોય છે કે-જેઓ જુદા જુદા સમયમાં પાપકર્મ ભેગવવાનો પ્રારંભ કરે છે અને એકી સાથે એક સમયે તેને વિનાશ કરે છે ૩, તથા કેટલાક વેશ્યાવાળા જી એવા હોય છે કે જે જુદા જુદા સમયમાં પાપકને ભેગવવાને આરંભ કરે છે, પરંતુ જુદા જુદા કાળમાં તેને વિનાશ કરે છે. ૪ તે ફરીથી આ વિષયમાં ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે-હે ભગવનું એવું આપ શા કારણથી કહે છે કે કેટલાક વેશ્યાવાળા જ પાપકર્મ ભેગવવાનું એક સાથે કરે છે, અને તેને અંત પણ એક સાથે જ કરે છે? ઈત્યાદિ.
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का टीका ०२९ उ. १ सू०१ पाक्कर्म संपादन निष्ठापन निरूपणम् ३३ विंधा जीवाः प्रज्ञप्ता इत्याद्युत्तरम् । एष एव ' एवं चैत्र' इति प्रकरणस्याभिप्राय इति । ' एवं ' सट्टासु वि जाव अणावारोवउत्ता' एवं यथा सश्यापदे कथितं श्यापदमाश्रित्य यथा यथा विचारः कृत स्तेनैव रूपेण सर्व पदेष्वपि कृष्णलेश्यादि पदेभ्य यावदनाकारोपयोगपर्यन्त पदान्याश्रित्य विचारः करणीयः, कृष्णलेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः पाप कर्म समक न्यस्थापयन् इत्यादिरूपेण आलापका ज्ञातव्याः | 'एए सव्वे वि पया ल्याए बत्तन्वयाए भाणियन्ना' एतानि लेइयादिनी सर्वाण्यपि पदानि एतया वक्तव्यतया भणितव्यानि । वक्तव्यता प्रकारस्तु सामान्यजीव प्रकरणवदेव चतुर्भङ्गीतया ज्ञातव्य छवि | सामान्यतो जीवमाश्रित्य इस प्रश्न के उत्तर देते हुए गोवामी से प्रभुश्री कहते हैं - हे गौतम । जीव चार प्रकार के कहे गये हैं- ऐसा कथन जो जीवके प्रकरण में कहा जा चुका है-वैसा ही कथन यहां पर भी उत्तर के रूप में जानना चाहिये, यही अभिप्राय ' एवं चेव' इस सूत्रपाठ का है । ' एवं सट्टा विजाय अणागारोवउत्ता' जैसा जैसा कथन सलेध पद को आश्रित करके किया गया है बैला - ही कथन यावत् अनाकारोपयुक्त पद तक के समस्त पदों को आश्रित करके कहना चाहिये, यहां आलापक 'कृष्णलेश्याः खलु भदन्त । जीवाः पाप कर्म समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन्' इत्यादि रूप में जानना चाहिये | 'एए सच्चे विपया या वक्तव्याए भणिघन्चा' ये लेइयादिक समस्त ही पद इस वक्तव्यता से ही जानना चाहिये । वक्तव्यता का प्रकार तो सामान्य जीव प्रकरण के जैसा ही चतुभगी रूप से समझना चाहिये,
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આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! જીવા ચાર પ્રકાર ના કહ્યા છે, એ પ્રમાણેનુ કથન જીવના સંબંધમાં જીવ પ્રકરણમાં જે કહેવામાં આવી ગયુ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પુણ્ उत्तर३ये समन्वु खेन अभिप्रायथी अलुश्री ' एव ं चैव' मा 'प्रभा सूत्रपाठ उडेल छे. " मन्दट्ठाणेसु वि जाव अणागारोवउत्ता' ? प्रभाचे નું કથન લેશ્યાવાળા આય કરીને કરેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન યાવતુ અનાકરાપચેગવાળા સુધીના સઘળા પદ્મના આશ્રર્ય કરીને કહેવા જોઇએ. તેના સમધમાં આલાપડે! આ प्रभाशे छे - 'कृष्णलेश्याः खलु भदन्त जीवा पाप कर्म समकं प्रास्थापयन् समक न्यस्थापयन् ' विगेरै ३५थी समन्वा मेध्ये 'एए सच्चे वि पया एयाए वतव्वयाए भाणियव्वा' मा बेश्या विगेरे सधना यहो या उथनथी समन्वा लेाखे અને કથનના પ્રકાર સામાન્ય જીવની જેમજ ચાર ભંગા ક સસજવા જોઇએ
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भ० ५
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भगवतीय विचारः कृतः, अथ जीवविशेपमाश्रित्य विचारयन्नाह--'नेरझ्या गं' इत्यादि, 'नेरइया णं भंते ! पावं कम्म कि समायं पट्टविस समायं निर्विसु पुच्छा' निरयिकाः खलु भदन्त ! पाप कर्म कि समकं प्रास्थापयन समकं न्यस्थापयन् ? अथवा समक मास्थापयन् विषमतया न्यस्थापयन् ? इत्यादि सम्पूर्णमपि प्रश्न पफरणं पृच्छया संग्राह्यम् । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइया समायं पढविसु समायं निविसु' अस्त्येकके नारकाः समकमेव इस प्रकार सामान्य जीव को आश्रित करके विचार किया-अय जीव विशेष को आश्रित करके विचार करने के निमित्त सूत्रकार कहते हैं'नेरयाणं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्टविंसु समायं निविसु' हे भदन्त । नैरयिक क्या पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल मेंलायर करते हैं और एक ही काल में-साथ२-में क्या उसका अन्त करते ६१ अथवा-पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं और उसका अन्त भिन्न-भिन्न काल में करते हैं अथवा उसका भोगने का मारंभ भिन्न-भिन्न काल में करते हैं और अन्त एक काल में करते हैं अथवा उसका भोगने का प्रारंभ भी वे भिन्न भिन्न काल में करते हैं और उसका अन्त भी भिन्न भिन्न काल में करते हैं? इस प्रकार से पृच्छा शब्द से गृहीत इस प्रश्न प्रकरण के कारण उत्तर रूप में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! हे गौतम ! 'अत्थेगड्या समायं पविंसु समायं निविंसु कितनेक नारक जीव ऐसे होते हैं जो पापकर्म का भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक ही साथ उसका अन्त આ રીતે સામાન્ય જીવને આશ્રય કરીને વિચાર કરવામાં આવેલ છે. - હવે જીવ વિશેષને આશ્રય કરીને વિચાર પ્રગટ કરવા માટે સૂત્રકાર
छ 8--'नेरइयाणं भवे ! पाव कम्मकि समायौं पटुविसु समायनिद्रविसु' હે ભગવન નૈરયિકે પાપકર્મને પ્રારંભ એક કાળમાં-એક સાથે કરે છે? અને તેને અંત પણ એકી સાથે જ કરે છે? અથવા–પાપકર્મને ભગવાને પ્રારંભ એક કાળમાં કરે છે? અને તેને અંત જુદા જુદા કાળમાં કરે છે? ૨ અથવા તેને જુદા જુદા સમયે ભગવે છે અને અંત એક કાળમાં કરે છે? ૩ અથવા તેને લેગ પણ જુદા જુદા સમયે કરે છે, અને અંત પણ જુદા જુદા સમયે કરે છે? આ પ્રમાણેનો ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન “શબ્દથી ગ્રહણ शन पूछेद छ, मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन डे छे 'गोयमा' !
गौतम ! 'अत्येगइया समाय पद्धविसु समाय निद्ववि' रेट पो सेवा હોય છે કે જેઓ આ પાપકર્મને જોગવવાને પ્રારંભ એક સાથે કરે છે, અને
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श.२९ उ.१ स०१ पापकर्म संपादननिष्ठापननिरूपणम् ३५ मास्थापयन् समकमेव न्यस्थापयन् ‘एवं जहेब जीवाणं तहेव भाणियन्वं जाव अणागारोवउत्ता' एवं यथैव जीवानां तथैव भणितव्यं यावदनारकारोपयुक्ताः, सामान्यतो जीवप्रकरणे येन प्रकारेण कथितं प्रश्नोत्तरादिकं तेनैव क्रमेण नारक. जीवप्रकरणेऽपि सर्व प्रश्नोत्तरादिक ज्ञातव्यम् , यावदनाकारोपयुक्तपकरणम् । सलेश्यनारकमधिकृत्य चतुर्भङ्गा वक्तव्याः कृष्णलेश्यनारकमधिकृत्य चतुर्भङ्गी वक्तव्या यावदनाकारोपयोगयुक्तनारकमधिकृत्य सामान्यजीवदण्डकचदेव सर्वत्र पदेषु चतुर्भडी वक्तव्या। 'एवं जाव वेमाणियाण एवं यावद्वैमानिकानाम् एवं यथा नारकदण्डके लेश्यादिद्वाराणि अनाकारोपयोगान्तानि पदान्याश्रित्य चतुकरते हैं । एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियध्वं जाव अणागारोवउत्सा' इस प्रकार से जैसे कथन जीव के सम्बन्ध में किया गया है-वैसा ही समस्त कथन नैरथिकों के सम्बन्ध में भी यावत् अनाकारोपयुक्त नैरयिक पद तक समझना चाहिये । अर्थात्-सामान्य जीव के प्रकरण में जिस प्रकार से प्रश्नोत्तरादिक कहा गया है उसी प्रकार से नारक जीव प्रकरण में भी सब प्रश्नोत्तर आदिक जानना चाहिये। और यह कथन यावत् अनाकारोपयुक्त प्रकरण तक समझना चाहिये । सलेश्य नारक को लेकर चतुभंगी कृष्णलेश्य नारक को लेकर चतुर्भगी, यावत् अनाकारोपयुक्त नारक को लेकर चतुभंगी सामान्य जीव दण्डक के जैसी समस्त पदों में कहनी चाहिये, 'एवं जाव वेमाणियाणं' जिस प्रकार से नारक दण्डक में लेश्यादिद्वार से लेकर अनाकारोपयोग तक के पदों को आश्रित करके चतुर्भगी प्रकट की गई है उसी प्रकार से तन मन्त पा सही साथे ४ ४२ छ. १ 'एवजहेव जीवाणं तहेव भाणियन्त्र जाव अणागारोवउत्ता' २ प्रमाणे २ रीत ना समयमा थन हेर छ, એજ પ્રમાણે સઘળું કથન નરયિકના સંબંધમાં પણ યાવત્ અનાકાપયુક્ત નરયિક પદ સુધી સમજી લેવું. અર્થાત્ સામાન્ય જીવના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે પ્રશ્નોત્તર વિગેરે કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે નારક જીવ પ્રકરણમાં પણ પ્રશ્નોત્તર સમજી લેવા. અને આ સઘળું કથન થાવત્ અનાકારે પગના પ્રકરણ સુધીનું અહિયાં સમજવું. વેશ્યાવાળા નારકને લઈને ચાર ભંગે, કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકે ને લઈને ચાર ભંગે, થાવત અનાકારપગવાળા નારક ને લઈને ચાર ભંગ સામાન્ય દંડકમાં ४६ प्रमाणे सघा मा सभावा. 'एव जाच वेमाणियाणं'२ प्रभो ना२४ ના દંડકમાં લેશ્યા વિગેરે દ્વારથી લઈને અનાકારે પગ સુધીના પદોને આશ્રય કરીને ચાર ભંગે કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે એક ઈદ્રિયવાળા પૃથ્વી
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भगवतीस्त्र भगी दर्शिता तथैव एकेन्द्रियपृथिव्यादित आरभ्य वैमानिकान्त सर्वदण्ड केषु लेश्यादित आरभ्य अनाकारोपयोगान्त सर्व पदानाश्रित्य सर्वत्र चतुर्भङ्गन्यादि विचारः कर्तव्य इति । दिशेपमाह-'जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणि'यन्त्र' यस्य जीवस्य यत् लेश्यादिकमस्ति विद्यते तस्य वत् लेश्यादिकम् एतेने'वोपरिदर्शितेनैव प्रकारेण चतुर्भङ्गन्यादिरूपेण भणितव्यं वर व्यमिति । कथमिवे. स्वाह-'जहा पावेणं दंडओ' यथा पापेन दण्डका चतुर्भगीकः कृतः, एवम् ‘एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु अट्टदण्ड गा पाणियबा जीवादीया वेमाणिय पज्जवलाणा' एतेनोपरिदर्शितेन क्रमेग प्रकारेणाप्यास्त्रपि कर्मपतिपु अप्टौ 'दण्डका भणितव्या जीवादिका वैमानिरूपर्यवसानाः ज्ञानावरणीयाघारभ्य अन्त. रायपर्यन्तेषु नारकवदेव जीवादारभ्य वैमानिकपर्यन्तेषु दण्ड के निर्यातव्य इति । एकेन्द्रिय पृथिवी आदिकों से लेकर वैमानिकान्त समस्त दण्डकों में लेश्याआदि से लेकर अनाशारोपयोगान्त तक अपने अपने योग्य सर्व पदों को लेझार सर्वत्र चतुभंगी का विचार करना चाहिये । 'जं जस्स अस्थि तं एएणं चेच कमेणं भाणियवं' परन्तु इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि जिस जीव के जो लेश्यादिक है वे उसी जीव के ऊपर में दिखाये गये प्रकार के अनुसार चतुर्भगी आदि रूप से कहना चाहिये 'जहा पावणं दंडओ' जैसा पाप के साथ चतुर्भगी कृत दण्डक कहा गया है वैसा ही दण्डक 'पएणं कमेणं अस्तु चि कारमपगडीसु' इसी फम ले आटों कर्म प्रकृतियों में भी अदंडगा भाणियाया' आठ दण्डक कहना चाहिये-'जीवादीधा बेमाणियएज्जबहाणा' अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक तक के पदों में जालावरणीय आदिकों के सम्बन्ध में आठ दण्डक पूर्वोक्त चार अंगोवाला घना-बना कर कहना चाहिये, કાયિકથી આરંભીને વૈમાનિકે સુધી સઘળા દડકેમાં લેસ્થા વિગેરે ને લઈને 'અનાકારા પગ સુધીના પદને લઈને બધે જ ચાર ભંગાત્મક વિચાર સમજ.
जं जस्स अस्थि त एएणं चेव कमेण भाणियव्यं' परतु को ध्यास ' અવશ્ય રાખવો જોઈએ કે-જે જીવને જે લેસ્થા વિગેરે કહ્યા છે. તે જીવને તે લેશ્યા વિગેરે ઉપર બતાવેલા પ્રકાર પ્રમાણે ચાર ભંગ પણાથી કહેવા नय. 'जहा पावेण दंडओं' प्रमाणे ५५४ ना स स यतुम11म 11 ह्या छ, मेरी प्रमाणुना एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु' मा भयो मा ४ प्रतियामा ५ 'अदुदंडगा माणियव्वा' मा का 'जीवादीया वेमाणियपनवसाणा' थी मारलीन वैमानि: સુધીના પદેમાં જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કર્મોના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત ચાર ભાગ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.१ सू०१ पापकर्मसंपादननिष्ठापननिरूपणम् ३७ 'एसो नवदण्डगसंगहिमो पढमो उद्देसो भाणियबो' एपः नवदण्डकसंगृहीतः प्रथमोदेशको भणितव्य इति । 'सेवं भंते ! से भंते । ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! अनेके जीवाः पापकर्मणामुपभोगं तत्समाप्तिंच सहैव-एककाले एव कुर्वन्तीत्यादिकं यद् देवानुभियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं बन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥मू० १॥ इति श्री विश्वविख्याव जगद्वल्लभाविपदभूपित वालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पदभूपित - पूज्यश्री 'घासीलाल' प्रतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका 'ख्या व्याख्यायां एकोनत्रिंशतमे शतके प्रथलोदेशकः समाप्तः ॥२९-१॥ 'एसो नव दंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियब्यो इस प्रकार से नवं दण्डक हिल यह प्रथम उद्देशक कहने के योग्य हैं। . 'वं अंते ! खेच भंते ! त्ति' हे भदन्त ! अनेक जीव पापकर्मों का उपभोग और उनका विनाश एक काल में ही करते हैं इत्यादि विषय जो आप देवानुप्रियने कहा है-यह सब लर्बधा सत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतम स्वामीने प्रशुश्री को बन्दना की-नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।मु०१॥ जैनाचार्य जनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "अगवतीतून"जी प्रबन्द्रिका व्याख्याले उनतीसवें शतकका
॥प्रथमद उद्देशक समात ॥ २९-१॥ पाणी २मा ४ी नावीन. ४ा नये 'एसो नव दडगसगहिओ पढमो उद्देसो भाणियो' मा प्रमाणे न सहित । ५मा देशवनय _ 'सेव भंते । सेव मते ! त्ति' बसवन् मने ! पापमान 64 ભંગ અને તેને ક્ષય એક કાળમાંજ કરે છે. ઈત્યાદિ વિષયમાં આપી દેવાનું. પ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન આત હોવાથી સર્વથા સત્ય જ છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેમને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજગૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ઓગણત્રીસમા શતકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ર૯-૧
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भगवती सूत्रे
अथ द्वितीयदेशकः प्रारभ्यते
अनेकेषां जीवानामेकस्मिन् काले कर्मभोगस्तत्परिसमाप्ति भवतीति प्रथमोदेश प्रदर्शितं द्वितीये तु अनन्तरोपपन्नकानां नारकादीनां तद्दर्शयिष्यति तद्नेन सम्बन्धेन आयात्स्य द्वितीयोदेशकस्येदं सूत्रम् - 'अनंतशेववनगाणं' इत्यादि । मूलम् - अनंत रोववन्नगाणं भंते! नेरइया पावं कम्मं किं समायं पट्टविसु समायं निट्टर्विसु पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु समायं निट्टविंसुर, अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु विसमायं निट्टर्विसुर । से केणणं भंते! एवं बुच्चइ अत्थे - गइया समायं पट्टर्विसु तं चेत्र, गोयमा ! अनंत रोववन्नगा नेरड्या दुबिहा पन्नत्ता तं जहा - अत्थेगइया समाज्या समोवचन्नगा१, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा२ । तत्थ णं जे ते समाज्या समोववन्नगा तेणं पावं कम्मं समायं पट्टर्विसु समायं निद्रविंसु १, तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा, ते पावं कम्मं समायं पट्टर्विसु विसमायं निविंसुर से तेण - द्वेणं तं चैव । सलेस्सा णं भंते! अणंतरोववण्णगा नेरइया पाव कम्मं एवं वेव । एवं जाव अणागारोवउत्ता । एवं असुरकुमाराणं एवं जाव वैमाणियाणं । नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । एवं नाणावरणिज्जेणं वि दंडओ, एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॥ सू० १॥
एगूणतिसइमे सए वीओ उद्देसो समत्तो ॥ २९ - २॥
छाया - अनन्तरोपपन्नकाः खलु भदन्त ! नैरयिकाः पापं कर्म कि समकं मास्थापयन समकं न्दस्थापयन् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येक के समकं प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् १, अरत्येकके समकं मास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन् २ । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते अरत्येकके समकं प्रास्थापयन् तदेव गौतम ! अनन्तरोपपत्रका नैरयिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - अस्त्येक के समायुष्काः समोपपलका १, अस्त्येकके समायुका विषमोपपन्नकाः २ । तत्र खल्ल ये ते
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अमेयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.२ सू०१ अ. ना. नाश्रित्य पा. प्रस्थापनादिकम् ३२ समायुष्काः समोपपन्नकाः ते खलु पापं कर्म समकं प्रास्थापयन् , समकं न्य स्थापयन् १, तत्र खलु ये ते समायुष्का विपमोपपन्नका स्ते खल्ल पापं कर्म समकं मास्थापयन् विषमक न्यस्थापयन् तत् तेनार्थेन तदेव । सलेश्याः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः पापं० एवमेव एवं यावदनाकारोपयुक्ताः एवममुरकुमाराः। एवं यावद वैमानिकाः । नवरं यत् यस्यास्ति तव तस्य भणितव्यम् । एवं ज्ञानावरणीयेनापि दण्डकः । एवं यावत् निरवशेष यावदन्तरायिकेन । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ॥सू० १॥
एकोनत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥२९-२॥ टीका-'अणंतरोवनगाणं भंते ! नेरइया' अनन्तरोषपन्नकाः-पथमसमये उत्पतिमन्तः खलु नरयिकाः 'पावं कम्मं किं समायं पट्टविसु समाय निस' पापं कम समकं मास्थापयन्-प्रस्थापितवन्तः समर्क-समकालमेव न्यस्थापयन्-निष्ठापित
दुसरा उद्देश का प्रारंभ अनेक जीवों का एक काल में भी कर्मभोग होता है और कर्म से मुक्त होते हैं इत्यादि विषय प्रथम्य उद्देशक में प्रकट करने में आया हैअब इस क्रमप्राप्त द्वितीय उद्देशे में अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादिकों के विषय में भी यही बाल प्रकट की जावेगी-इसी सम्बन्ध को लेकर सूत्रकार ने यह द्वितीय उद्देशक प्रारम्भ किया है
'अणंतरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया पावं कम्मं किं समायं'-इत्यादि
टीकार्थ-गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है कि 'अणंतरोववनगाणं भंते ! नेरच्या०' हे भदन्त ! जो अनन्तरोपपन्नक नैरयिक हैं वे क्या एक साथ ही पापकर्म को भोगना प्रारम्भ करते हैं ? अर्थात्
भील देशान। प्रार'અનેક જીવને એક કાળમાં કર્મભેગા થાય છે, અને કર્મથી યુક્ત થાય છે વિગેરે વિષય પહેલા ઉદેશામાં પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે. હવે આ ક્રમ પ્રાપ્ત બીજા ઉદેશામાં અનંતપન્નક નરયિક વિગેરેના સંબંધમાં પણ એજ હકીકત કહેવામાં આવે છે. એ સંબંધ ને લઈને સૂત્રકારે આ બીજા हेशान प्रारम ४२८ छ --'अणंतरोववन्नगाण भंते ! नेरइया पाव' कम्म' किं समाय त्यादि
टी -गौतमस्वाभास प्रभुश्रीन से पूछयु छ है-'अणंतरोववन्नगाणं भंते नेरइया' मावन मानत५-४२२यि? छे, तेगा ये समयमा એક સાથે જ પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ કરે છે? અથત ભગવે છે? અને
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भगवती पन्त:१, अथवा समर्क पास्थापगन्-स्थापितवन्तः विषमर्क-विषमतया न्यस्थापयन् निष्टापित्तवन्तः२. 'पुच्छा' पृच्छा-जन, अनेन संग्रामपदी यथा-अथवा विषमकं. विषमतया-स्थापयन् सबक व्यस्थापन३, अथवा विषयमा मास्थापयन् विषम न्यस्थापन् इति । भगवानाह-गोरमा' इत्यादि, 'गोयया' हे गौतम ! 'अस्थेगहया समायं पहुविसु समारं निम्सि' अस्त्येरके अनन्तरोपपन्नका जीवाः समक प्रास्थापयन् समक न्यस्थाएयन् १, अपना जीवा अनन्त. रोपपन्नकाः युगपदेव प्रथमतया पाएं कर्म वेदगितुमारब्धनन्त स्तथा युगपदेव निष्ठां नीतवन्तः इति प्रथम मङ्गः१, सधा-'अन्धेगइया समायं पट्टविसु निसमाय निविसु' समकं प्रास्थापयन् तथा निपगं यथा भवति तथा विपमतमा न्यस्थापयन् भोगते हैं ? और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं । (प्रश्रम समय में उत्पत्तिबाले जो नरषिक है वो अनन्तरोपपत्रक नरथिक है) अथवा वे पापकर्म का ओपना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और विनाश भिन्न-भिन्न लक्ष्य में करते हैं ? अथवा-पापहर्षका भोगने का प्रारंभ भिन्न-भिन्न समय में करते हैं और विनाश एक साथ करते हैं ?३ अथधा-पापकर्मका भोगना भी भिन्न-भिन्न समय में करते हैं और विनाश भी भिन्न-भिन्न साथ में करते हैं ?४ इसके उत्तर में प्रमुश्री उनसे कहते हैं-'गोधमा ।' हे गौतम ! 'अत्याच्या समायं पविंसु समाय निर्षिस्तु'कितनेक अनन्तनोपपन कलेषिक से हैं जो एक साथ ही पापम का भोगना प्रारंभ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं १ तथा-'अत्थेगहया समायं पट्टबिलु पिसमायं निर्विसु'
એક સાથે જ તેને ક્ષય કરે છે? પ્રથમ સમયમાં ઉત્પત્તિવાળા જે રિયિકે છે, તે અનંતરપાનક નરયિક કહેવાય છે. અથવા–તે પાપકર્મ ભોગવવાનું એક સાથે કરે છે? અથવા–પાપકર્મ ભેગવવાનું એક સાથે કરે છે ? અને તેને ક્ષય જુદા જુદા સમયમાં કરે છે? ૨ અથવા–પાપકર્મ ભોગવવાનું જુદા જુદા સમયે કરે છે? અને તેને વિનાશ એક સાથે કરે છે? ૩ અથવા પાપકર્મ જોગવવાનું પણ જુદા જુદા સમયમાં કરે છે ? અને તેને વિનાશ પણ જુદા જુદા સમયે કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा' है गीतम ! 'अत्थेगइया समाय पदविसु समाय' निद्रविसु' मा અનંતરો૫૫નક નરયિકે એવા હોય છે કે–જેઓ એક સાથે જ પાપકર્મ ભેગ વવાને પ્રારંભ કરે છે, અને તેને ક્ષય-વિનાશ પણ એક સાથે જ કરે છે. ૧ तथा 'अत्यंगड्या समाय पद्धर्विसु विसमायं निढवि मनत५५-४
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मैका टीका श०२९ उ.२ सू०१ अ. ना. नाश्रित्य पा, प्रस्थापनादिकम् ४१ एकसमये एव जायमानत्वात् भङ्गद्वयमेव भवति । अनन्तरोपपन्नत्वेन तृतीयचतु योङ्गयोरभाव इति । पुनः प्रश्नयन्नाह - 'सेकेण्डेणं' इत्यादि, 'सेकेण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ अथेगइया समायं पट्टर्विसु-तं चैन' तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते यत् अस्त्येक के समकं मास्थापयन् समकमेव व्यस्थापयन् तदेवेति तथा समकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन् इत्यवान्तरप्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'अनंतशेववन्नगा नेरइया दुविहा पन्नता' अनन्तरोपपन्ना नैरयिका द्विविधाः - द्विवकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा 'समाज्या समोववन्नगा' समायुष स्तुल्यायुष्कवन्तः अनन्तरोपपन्नकानां कितनेक अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ऐसे हैं जो एक साथ तो पापकर्मका भोगना प्रारंभ करते हैं पर उसका विनाश एक साथ नहीं करते - भिन्न - भिन्न समय में करते है, यहाँ ये दो ही भंग होते हैं, क्योंकि अन न्तरोपपन्नक जीवों में तृतीय और चतुर्थ ये दो भंग नहीं होते हैं ।
'सेकेणट्टेणं भंते ! एव वुच्चर, अस्थेगइया समायं पट्टविसु तं 'व' हे भदन्त ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कितनेक अनन्तरोपपन्नक नैरयिक जीव ऐसे होते हैं कि एक साथ पापकर्म को भोगना प्रारंभ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं ? तथा कितने अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ऐसे होते हैं जो एक साथ तो पापकर्म का भोगना प्रारंभ करते हैं पर भिन्न भिन्न समय में उसका विनाश करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा !' अनंतशेववन्नगा नेरइया दुबिहा पन्नत्ता' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक
નૈયિકા એવા હાય છે કે-જેએ પાપકમ ભાગવવાના પ્રારંભ તા એક સાથે જ કરે છે, પરંતુ તેનેા ક્ષય વિનાશ એક સાથે કરતા નથી. અર્થાત્ જુદા જુદા સમયે તેના ક્ષય કરે છે. અહિયાં આ એજ ભગા કદ્યા છે. કેમકેઅન તરાપપન્નક જીવામાં ત્રીજો અને ચેાથેા એ એ ભગા હૈાતા નથી.
1
सेकेणçणं भते व वुच्चइ. अत्थेइया समाय पट्टर्विषु तं चैत्र, હે ભગવન્ આપ એવુ” શા કારણથી કહેા છે ? કે કેટલાક અને તરાપપન્નક નૈયિક જીવે એવા હાય છે કે જેઓ એક સાથે પાપકમ ભાગવવાના પ્રારભ કરે છે, અને એકી સાથે જ તેનેા ક્ષય કરે છે ૧ તથા કેટલાક અન તરાપપન્નક નૈરયિક જીવે! એવા હાય છે કે જેઓ પાપકમ ભેગવવાને પ્રારભતા એક સાથે કરે છે. પરંતુ તેના વિનાશ જુદા જુદા સમયે કરે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभां अलुश्री हे छे - 'गोयमा । अणतरोषवन्नगा नेरइया दुबिहा पन्नत्ता' हे गौतम! अनंतशेपपन्नः नैरथिः
भं० ६
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समवायुरुयो भवति आयुपो वैपम्ये अनन्तरोपपन्नत्वमेव न स्यात्, आयुः प्रथमसमयवर्त्तित्वा तेपां समोपपन्नकाः मरणानन्तरं परभवोत्पत्तिमाश्रित्य ते च मरणकाले भूतपूर्वगत्या अनन्तरोपपत्रकाः कथ्यन्ते इति । 'अत्थेगया समाउया fantasant' अस्त्येक के समायुषो विषमोपपन्नकाः चिपमोपपन्नकत्वम् अत्रापि संभवति, मरणवैपम्यादिति । अनन्तरोपपन्नकेषु तृतीयचतुर्थभङ्गौ न संभ aaisalsa तृतीयचतुर्थी न दर्शितौ अनन्तरोपपन्नत्वादेवेति । 'तत्य णं जे ते समाउया समोचवन्नगा' तत्र तयो द्वयोरनन्तरोपपन्नयोर्मध्ये ये बनंन्तरोपपन्ननारकाः समायुषः समोपपन्नकाथ 'तेणं पावं कम्म समायं पट्टविस नैरकि दो प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे कि - 'समाज्या समोवनगा' एक वे जो तुल्य आयुवाले हो और सम्मानकाल में परभव में उत्पन्न हुए हैं तथा द्वितीय वे जो समकाल में आयुष के उदयवाले हों और परभव में भिन्न-भिन्न समय में उदय हुए हो २ अनन्तरोपपन्नक जीवों की आयुका उदय समान ही होता है । आयुकी विषमता में उनमें अनन्तरोपपन्नता ही नहीं बनती है । ये सब समोपपन्नक आयुके प्रथम : समयवर्ती होते हैं। तथा ये समोपपन्नक इसलिये कहे गये हैं कि ये मरण के अनन्तर ही परभव में उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये ये मरणकाल में भूतपूर्व गति से अनन्तरोपपन्नक कहलाते हैं । तथा द्वितीय भंग में मरण की विषमता से इनमें विष Honar कही गई है। यहां आदि के ये दो भंग ही संभवित हैतृतीय चतुर्थ नहीं। इसलिये वे यहाँ प्रकट नहीं किये गये हैं । 'तत्थणं मे अहारना होय छे, 'तं' जहा' ते या प्रमाने छे 'समाठया समो वनगा' मेथे समान आयुत्राणा होय छे भने समान अणभां પરભવમાં ઉત્પન્ન થયા હાય ૧ તથા-ખીજાએ કે જેએ સમાન કાળમાં સ્માયુના ઉદયવાળા થયા હાય ૨ અનંતાપન્નક જીવાના આયુષ્યના ઉદય સમાન જ હાય છે. આયુના વિષમણામાં તેએમાં અન'તરાપન્નકપણું જ ખનતું નથી. તેએ બધા સમેપપન્નક આયુના પ્રથમ સમયમાં રહેનારા હાય છે. તથા તેઓને સમેાપપન્નક એ માટે કહ્યા છે કે-તેએ મરણ પછી જ પરભવમા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેથી તેએ મરણુ કાળમાં ભૂતપૂર્વ ગતિથી
અન તરાપપન્નક કહેવડાવે છે. તથ ખીજા ભંગમાં મરણના વિષમપણાથી તેમાં વિષમાપપનકપણુ કહેલ છે. અહિયાં પહેલા અને બીજો એ બે ભગા જ સંભવિત કહ્યા છે. ત્રીજો અને ચેાથેા એ ભગે તેઓને હાતા નથી. तेथी ते मे लगो गडी उद्या नथी. 'तत्थ ण जे वे समाच्या समववन्नगा'
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२९ उ.२ सू०१ अ. ना. नाश्रित्य पा. प्रस्थापनादिकम् ४३ समायं निर्विसु' ते अनन्तरोपपन्नकाः खलु नारकाः पापम्-अशुभं कर्म समकमेव मास्थापयन् समक्रमेव न्यस्थापयन् चेति । 'तत्थ णं जे ते समाउया बिसमोववन्नगा' तत्र द्वयोर्मध्ये खलु ये नारकाः समायुषो विषमोपपन्नकाः 'तेणं पावं कम्मं समायं पट्टविंस विसमायं निर्विसु' ते खलु पापं कर्म समकमेव मास्थापयन् विषम-विषमतया न्यस्थापयन् इति ‘से येणटेणं तं चेच' तत्तेनार्थेन हे गौतम ! एवमुच्यते अस्त्येकके समकं प्रास्थापयन समकं न्यस्थापयन् , अस्त्ये. कके समकं प्रास्थापयन् विषमक न्यस्थापयन् , इति । 'सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोचवन्नगा नेरहया पा०' सलेश्याः खलु भदन्त ! अनन्तरोषपन्नका नारकाः समकं प्रास्थापयन् समझमेव न्यस्थापयन , अथवा समकमेव प्रास्थापयन् विषमकं जे ते समाउया समोववन्नगा' इनमें जो अनन्तरोपपन्ननारक समान आयुवाले और समोपपन्नक हैं तेणं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निविंसु' वे पापकर्म का भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ उनका विनाश करते हैं। तथा-'तत्थ णं जे ते समाउया विसमो. ववन्नगा-तेणं पावं कम्म समायं पविलु विसमायं निविंसु' जो अनन्तरोपपन्ननारक स्लमाल आयुवाले होते हुए भी भिन्न-भिन्न समय में परभव में उत्पत्तिकाले हैं-वे पापकर्म को एक साथ तो भोगते हैं पर उसका विनाश वे भिन्न-भिन्न समय में करते हैं 'से तेणटेणं तं चेव' इसलिये हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि कितनेक अनन्तः परोपपन्नक नैरयिक जीच ऐसे होते हैं जो पापकर्म का भोगना साथसाथ प्रारम्भ करते हैं और साथ-साथ-उसका विनाश करते हैं इत्यादि, 'सलेरलाणं संते ! अणंतरोपनमा नेरच्या पावं' हे भदन्त ! આમાં જે અનંતપન્નક નારક સમાન આયુવાળા અને સમાન કાળમાં उत्पन्न थापा डाय छ, 'पाव कम्म समायौं पट्टविसु समाय निदुविसु' તેઓ પાપકર્મ ભોગવવાનું એક સાથે જ કરે છે, અને તેને વિનાશ પણ એક साथे रे छ. तथा 'तत्थ णं जे खमाउया विसमोववन्नगा वेणं पाव कम्भ समाय पदविसु विसमाय' निद्रविसु' रे मन त५५न्न ना२४ समान આયુવાળા હોવા છતા પણ જુદા જુદા સમયમાં પરસવમાં ઉત્પન થવાવાળા હોય છે, તેઓ એક સાથે પાપકર્મને ભગવે તે છે, પરંતુ તેને વિનાશ જાદા नुह। समये ४२ छ, 'से तेण ट्रेणं त चेव' तथा ७ गौतम ! मे ये हो છે કે કેટલાક અનંતરપપન્નક નરયિક છો એવા હોય છે કે-જેઓ એક સાથે પાપકર્મને ભેગવે છે, અને એકી સાથે તેને વિનાશ કરે છે, ઈત્યાદિ
'सलेस्साणं भवे ! अणंतरोववन्नगा! नेरइया पाव" मगन् । લેશ્યાવાળા અનંતપન્નક નૈરયિક છે તેઓ પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ
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व्यस्थापयन् इत्यादि क्रमेण चतुर्भङ्गकः प्रश्नः, उत्तरमाह - ' एवं चैव त्ति' एवमेत्र यथैवानन्तरोपपन्नकनारकाणां द्विभङ्गकमेवोत्तरम् तथैव सलेश्यानन्तरोपपन्न केऽपि द्विभङ्गकमेवोत्तरम्, अरत्येक के समकं मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन तथा केचन सलेश्यानन्तरोपपन्ननारकाः समकं मास्थापयन विषमक व्यस्थापयन इति । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते सलेल्या अनन्तरोपपन्नका नारकाः केचन समक मास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् केचन तथाविधा नारकाः समकमेव प्रास्थापयन faun न्यस्थापयन् गौतम ! सलेश्या अनन्तरोपपन्ननारका हिमकारका भवन्ति जो सलेइ अनन्तरोपपन्नक नैरयिक हैं वे पापकर्म को एक साथ भोगना प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं क्या ? अथवा - एक साथ पापकर्म का भोगना प्रारम्भ करते हैं और विनाश उसका भिन्न-भिन्न समय में करते हैं क्या ? इत्यादि रूप से यहां चार भंगोवाला प्रश्न गौतमस्वामी की तरफ से उपस्थित किया गया है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'एवं चेव त्ति' हे गौतम । जिस प्रकारका उत्तर दो भंगो को लेकर अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों के प्रकरण में दिया गया है-ठीक वैसा ही उत्तर आदि के दो भंगों को लेकर यहां पर भी समझना चाहिये, इस प्रकार कितनेक सश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ऐसे होते हैं जो एक साथ पापकर्म का भोगना प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं तथा कितनेक सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरचिक ऐसे होते हैं जो पापकर्म का भोगना एक साथ तो प्रारम्भ करते हैं पर उसका विनाश भिन्न भिन्न काल में करते हैं । એક સાથે કરે છે? અને તેના વિનાશ પણ એક સાથે જ કરે છે { અથવાએક સાથે પાપકમાં ભાગવવાના પ્રારંભ કરે છે? અને તેને વિનાશ જુદા જુદા સમયે કરે છે? વિગેરે પ્રકારથી અહિયાં ચાર ભગાવાળા પ્રશ્ન ગૌતમ स्वाभी पूछे छे, भा प्रश्नमा उत्तरसां अनुश्री - ' एवं चेव त्ति' હું ગૌતમ ! જે પ્રમાણેના ઉત્તર અને ભુંગાના સખંધમાં અનંતરૈપપન્નક ઔરયિકાના પ્રકરણમાં આપેલ છે, એજ પ્રમાણેના ઉત્તર પહેલેા અને બીજે એ એ ભંગાને લઈને અહિયાં પણ સમજી લેવા, આ રીતે કેટલાક લેફ્યાવાળા અન તરાપપન્નક નૈરિયકા એવા હાય છે કે-એક સાથે પાકમ ભાગવવાના પ્રારભ કરે છે. અને એકી સાથે જ તેના ક્ષય વિનાશ કરે છે. તથાકેટલાક લેસ્યાવાળા અનંતરપપન્નક નૈરિયા એવા હાય છે, કે જેઓ પાપકમાં ભાગવવાના પ્રારંભ એક સાથે કરે છે. પરંતુ તેના ક્ષય વિનાશ જુદા જુદા કાળમાં કરે છે, હું ભગવાન્ આપ એવું શા કારણથી
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मैन्द्रिका टीका ०२९ उ. २ ०१ अ. ना. नाश्रित्य पा. प्रस्थापनादिकम् ४५ केचन समायुषः समोपपन्नकाः केचन समायुषो वोपपन्नाः तत्र ये ते समायुषः समोपपन्नका स्ते पापं कर्म समकं प्रास्थापयन समकं न्यस्थापयन् तथा तत्र खलु ये ते समायुषो विषमोपपन्नका स्ते समकं प्रास्थापयन विषमकं न्यस्थापयन्, एतेन कारणेन कथयामि यत् सलेश्यानन्तरोपपन्ननारकाः समक हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जो सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक हैं उनमें से कितनेक सलेइय अनन्तरोपपन्न नैरयिक पापकर्म का भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ उसका विनाश करते हैं ? तथा कितनेक अनन्तरोपपन्न नैरयिक पापकर्म का भोगना एक साथ तो प्रारम्भ करते हैं पर उसका विनाश वे भिन्न काल में करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री उनसे कहते हैं-हे गौतम ! सलेश्य अनन्तरोपपन्न नैरधिक दो प्रकार के होते हैं- कितने क समान आयुवाले समोपपन्नक और कितनेक समान आयुवाले विषमोपपन्नक, इनमें जो प्रथम प्रकार के सलेश्य अनन्तरोपपन्न नैरयिक हैं वे पापकर्म का भोगना एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ ही उसका विनाश करते हैं, तथा द्वितीय प्रकार के जो सलेश्य अनन्तरोपपन्न नैरयिक हैं वे पापकर्म का भोगना यद्यपि एक साथ प्रारंभ करते हैं पर उसका विनाश भिन्न भिन्न काल में करते हैं । इसीलिये हे गौतम ! मैंने पूर्वोक्त रूप से ऐसा कहा है कि कितनेक सलेशन अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ऐसे होते हैं कि जो पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ કહેા છે. કે-જે સલેક્ષ્ય અન તરાપપન્નક નૈયિકા છે, તે પૈકી કેટલાક લેમ્પાવાળા અન તરાપપન્નક નૈરિયકા પાપકમ ભેાગવવાને પ્રારભ એક સાથે કરે છે, અને તેને વિનાશ પણ એક સાથે જ કરે છે? તથા કેટલાક અનંત રોપપન્નક નૈયિકો પાપકર્મો ભેગવવાના પ્રારભતા એક સાથે કરે છે, પરંતુ તેના વિનાશ તે જુદા જુદા સમયે કરે છે, આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી તેઓને કહે છે કે હે ગૌતમ ! લેસ્યાવાળા અન તરાપપન્નક નૈયિકે એ પ્રકારના હાય છે. કેટલાક સમાન આયુષ્યવાળા સમેાપપન્નક અને કેટલાક સમાન આયુષ્યવાળા વિષમે પન્નક, આમાં જેએ પહેલા પ્રકારના લેશ્યાવાળા અનત રાપપન્નક નૈયિકા હેાય છે, તેઓ પાપકમ ભેાગવવાના પ્રારભ એક સાથે કરે છે, અને એક સાથે જ તેના વિનાશ કરે છે. તથા ખીજા પ્રકારના જેએ લેશ્યાવાળા અન તરાપપન્નક નૈયિકા છે, તેએ પાપકમાં ભાગવવાના પ્રારંભ જોકે એક સાથે કરે છે, પર'તુ તેના વિનાશ જુદા જુદા કાળમાં કરે છે, તે કારણુથી હું ગૌતમ ! મેં પૂર્વોક્ત પ્રકારથી એવું કહ્યુ છે કે-કેટલાક વૈશ્યાવાળા
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भगवतीने पापं कर्म प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् केचन सलेश्यानन्तरोपपन्ननारकाः पापं कर्म समकं प्रास्थापयन् विपमकमेव न्यस्थापयन्, एतदेव ‘एवं चेव' इति प्रकरणेन कथितमिति । 'एवं जात्र अणागारोवउत्ता' एवं लेश्यापदवदेव यावदनाकारोपयुक्ताः, अत्र यावत्पदेन कृष्णलेश्यापद्त आरभ्य साकारोपयोगपदपर्यन्तानां ग्रहणं भवति तथा च कृष्णपाक्षिकानन्तरोपपन्नकनारकादारभ्य अनाकारोपयुक्त पर्यन्तनारकविषये पापकर्मणः प्रस्थापने निष्ठापने च समानत्र रीति ज्ञेयेतिभावः । 'एवं असुरकुमाराणं' एवम्-नारकवदेव असुरकुमाराणामपि सर्वपदेषु एवमेव प्रक्रिया ज्ञातव्या । 'एवं जाच वेमाणियाणं' एवम्-असुरकुमारचदेव यावद्वैमानिकानाम्-चैमानिकपर्यन्तानाम् 'नवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स फरते हैं और उलका विनाश भिन्न भिन्न काल में करते हैं इण्यादि, 'एवंजाब अणागारोवउत्ता' लेयापद के जैसे ही यावत अनाकारो. पयुक्त पद तक भी यही कथन का क्रम जानना चाहिये, यहां यावत्पद से नरक योग्य कृष्णलेशका पद से प्रारम्भ कर साकारोपयोग पद तक के नैरयिकों का ग्रहण हुआ है-तथा च-कृष्णलेश्य अनन्तरोपपन्नक नारक से लेकर अनाकारोपयोगयुक्त तक के पद वाले नारकों के विषय में पापकर्म के भोगने में और उसके विनाश दारने में समान रीति जाननी चाहिये, “एवं असुरकुमाराणं' नारक की जैसी रीति ही असुरकुमारों के समस्त पदों में भी समझनी चाहिये, 'एवं जाव वेमाणियाणं' और इसी प्रकार की रीति यावत् वैमानिकों के विषय में पापकर्मों के भोगने में और उसके विनाश करने में जाननी चाहिये, परन्तु इसमें इतनी विशेपत्तामा ध्यान रखना चाहिये कि जो लेश्यादिक जिसके हो वही उसको कहना चाहिये। दण्डकों को रचना उन-उन पदों અનંતપપનક નરયિકે એવા હોય છે કે જેઓ પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ એક સાથે કરે છે, અને તેને વિનાશ જુદા જુદા સમયમાં કરે છે. ઈત્યાદિ
'एव जाव अणागारांवउत्ता' २०५हना ४थन प्रमाणे यावत् मनाકારપગવાળા પદ સુધી આ પ્રમાણે જ કથનનો ક્રમ સમજવો જોઈએ, અહીંયા યાવત્પદથી કૃષ્ણલેશ્યાપદથી આર ભીને સાકારોપયોગ પર સધીના નરયિકે ગ્રહણ કરાયા છે. તથા-કૃષ્ણ પાક્ષિક અને તાપનક નારકથી લઈને અનાકાપયુક્ત સુધીના પદવાળા નારકેના, વિષયમાં પાપકર્મને ભેગવવામાં અને તેને વિનાશ કરવામાં સરખી રીતે સમજવા. 'एव असुर कुमारणं' ना२४ना थन प्रमाणे ०८ मसु२४साना सा भां ५५ समा'एवं जाव वेमाणियाणं' मा प्रमाणुनीशत यावत् वैमानि। ના સંબંધમાં પાપકર્મ ભેગવવામાં અને તેનો વિનાશ કરવામાં સમજવી,
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sher द्रिका टीका ०२९ उ. २०१ अ. ना. नाश्रित्य पा. प्रस्थापनादिकम् ४७
भाणियन्व' नवरं यत् लेश्यादिकं यस्यास्ति विद्यते तदेव तस्य वक्तव्यम् तत्तत् पदमाश्रित्यैव तत्र दण्डको विधेय इति । ' एवं णाणावरणिज्जेग वि दंडओ' एवं पापकर्म प्रस्थापनवदेव ज्ञानावरणियकर्मणाऽपि दण्डको भणितव्य इति । ' एवं निरवसेसं जाव अतराइ जं' एव ज्ञानावरणीयदण्डकवदेव यावत् अन्तरायिकेनाऽपि निरवशेषो दण्डको भणितव्य इति । सेवं भते ! सेवं भते ! ति जान विहर' तदेव भदन्त ! सदेव भदन्त । इति यावद्विहरति है भदन्त ! कर्मप्रस्थापनादिविषये यद्देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेव इति कथयिस्वा गौतमो भगवन्त बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति इति ॥०१॥
इति एकोनत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥२९-२॥
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को लगाकर वहां करनी चाहिये । 'एवं णाणावर णिज्जेण वि दंडओ' dreaर्म के प्रस्थापन के जैसा ही ज्ञानावरणीय कर्म के साथ भी दण्डक कहना चाहिये, 'एवं निरवसेसं जाव अंतराइयं' और यह सब ज्ञानावरणीय के जैसा कथन यावत् अन्तराध कर्म तक करना चाहिये, 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरह' हे भदन्त ! कर्मप्रस्थापनादि के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है- वह सब कथन सर्वथा सत्य ही है इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभु को वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ सू० १ ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥२९-२॥
પરંતુ તેમાં એ વિશેષ પણાનું ધ્યાન રાખવું કે જે લેફ્યા વિગેરે જેને કહ્યા હાય તેજ વૈશ્યા વિગેરે તેને કહેવા જોઈએ. દડકાની રચના તે તે પ सगावीने उडी सेवी. 'एव' णाणावर णिज्जेण वि दंडओ' पायना स्थन प्रमाणे ज्ञानावरणीय ठर्मनी साथै पशु ही हेवा लेहये. 'एव' निरवसेसं जाव अंतराइय" अने ज्ञानावरणीय प्रभाशेतु स्थन यावत् अतराम्भ सुधी समन्वु . 'सेव भंते ! सेव' भंते ! त्ति जाव विहरइ' हे भगवन् उनी अस्थायन
વિગેરે વિષયમાં આપદેવાનુપ્રિયે જે કથન કયુ` છે. તે સઘળું કથન સાઁથા સત્ય જ છે આપ દેવાનુપ્રિયે આ વિષયના સ...બધમાં કહેલ કથન આસ હાવાથી સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યો વઢના કરીને તે પછી તેએ સયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા ।।સૂ. ૧૫ મીો ઉદ્દેશે! સમાપ્ત ૫૨૮–રા
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૪૦
भreates
तृतीयोदेशक आरभ्यैकादशान्ता उद्देशका आरभ्यन्ते द्वितीयोदेशकं निरूप्य क्रममाप्तान् तृतीयः देशकादारभ्य एकादशान्तान् उद्देशकान् निरुपयन्नाह - 'ए' इत्यादि ।
सूत्रम् - एवं एएणं गमएणं जश्चेत्र बंधिसए उद्देगपरिवाडी सच्चेव इह विभाणियचा जाब अचरिमो न्ति । अनंतर उद्देसगाणं उन्हं वि एका वक्तव्या, लेसाणं सत्तण्हं एक्का ॥सू० १॥ एगूणतील इमे लए तइयाइ एगारस उद्देसगा समत्ता ॥ २९ ॥ ३-११॥
एगूणतीसह कम्मपट्टणसयं समत्तं ॥ २९ ॥
छाया - एवमेतेन गमकेन यैव वन्धिशतके उद्देशकपरिपाटी सेवैहावि यावदचरम इति । अनन्तरोद्देशकानां चतुर्णामपि एका वक्तव्यता, शेषाणां सप्तानामेका ॥ सू० १ ॥
॥ एकोनत्रिंशत्तमे शतके तृतीयत एकादशान्ता उद्देशकाः समाप्ताः ॥ ॥ एकोनत्रिंशत्तमं कर्ममस्थापनशतकं समाप्तम् । २९ ॥
टीका- 'ए' एवम् द्वितीयोदेशकत्रदेव 'एए णं गमए णं' एतेन - उपरि प्रदर्शितेन गमकेन - गमकक्रमेण 'जन्चैव बंधिसए उसपरवाडी' यैव वन्धि
उद्देशक ३-११
द्वितीय उद्देशक का निरूपण करके अब सूत्रकार क्रम प्राप्त तृतीय उद्देशक से प्रारम्भ कर ११ ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त के उद्देशकों का निरूपण करते हैं- ' एवं एएण गमएणं जच्चे बंधिसए' - इत्यादि
टीकार्थ- उपर्युक्त गमक क्रम से जो पन्धिशतक में - २६ वें शतक मैं- उद्देशकों - ११ उद्देशकों की परिपाटी प्रणाली - दिखलाई गई है भीन्न उद्देशाने प्रारंल-
બીજા ઉદ્દેશાનુ' નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમથી આવેલ આ ત્રીજા ઉદ્દેશાથી પ્રારંભ કરીને અગીયારમા ઉદ્દેશાએ સુધીના નવ ઉદ્દેશાઓનુ नि३ रे -' एवं एएण गमरण जच्चेव बंधिसए' इत्याहि
टीडार्थ -- ५२४सा जमना प्रभाये गंधी शतम्भ भेटते है--२६ છવીસમાં શતકમાં અગિયાર ઉદ્દેશાઓની પરિપાટી–પ્રણાલી ખતાવવામાં
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प्रमेयचन्द्रिका तीफा ०२९ उ.२ सू०१ अ. ना. नाश्रित्य पा.प्रस्थापनादिकम् ४९ तके पविंशतितमे शतके उद्देशकानाम् एकादशसंख्यकानां परिपाटी-प्रणा. लीपदर्शिता 'सच्चे इह वि भाणियव्वा' सैव परिपाटी इहापि एकोनत्रिंशत्तमशता कस्य तृतीयाकादशान्तोद्देश केषु भणितव्या 'जाव अचरिमोसि' यावद् अचरम इति, अचरमः खन् भदन्त ! नारका कि समक' भास्थापयन् समक न्यस्थापयन् इत्यादि समपि प्रकरणं वक्तव्यमिति, यावत्पदेन पररूपरोपपन्ना-जन्तरागाहन परम्परावगाहा-ऽनन्तराहारक-- परम्पराहारका - ऽनन्तरपर्याप्त-परम्परपर्याप्तचरमोद्देशकपर्यन्तानामष्टानामुद्देशकानां संग्रहोऽत्र करणीयः 'अणंतरउद्देसगाणं चउण्हं वि एका बताया' अनन्तरोदेशकानाम्-अनन्तरपदविशिष्टानां चतुर्णाम्द्वितीय-चतुर्थ-पठा-मानास्-उपपन्ना-ऽगाढा-ऽऽहारफ- पर्याप्तोद्देशकानामवही परिपाटी इस २९वे शतक के तृतीय उद्देशक से लेकर ११३ उद्देशक पर्यन्त के उद्देशकों में बहनी अहिये, अचरम (अन्तिम) उद्देशक ग्यारहवां उद्देशक है तो यहां तक के उद्देशकों में पूर्वोक्त पद्वति के अनुसार सब कथन करना चाहिये, जसे कि-हे भदन्त ! जो नैरथिक अचरम होते हैं वे क्या पापकर्म का भोगना साथ-साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही था उसका विनाश करते हैं ? हत्यादि रूप से समस्त प्रकरण यहां कहना चाहिये, थारपद से यहां परम्परोपपन्न, अनन्तरायगाढ, परम्परावाढ, अनन्तराहारक, परम्पराहारक अलन्तरपर्याप्त, परम्पर पर्याप्त और चरम इन आठ उद्देशकों का संग्रह किया गया है। 'अणंतरउद्देशगाणं व उपहं दि एक्का बत्तव्यया' अनन्तर पद विशिष्ट चारों उद्देशको की द्वितीय उद्देशक, चतुर्थ उद्देशक, षष्ठ उद्देशक और आठवां उद्देश-इनकी-तथा--'उपपन्न, अवगाढ, आहारक एवं पर्यास આવી છે. એજ પ્રણાલી આ ૨૯ ઓગણત્રીસમા શતકના ત્રીજા ઉદેશથી લઈને અગિયારમા ઉદેશાઓ સુધીના સઘળા ઉદેશાઓમાં કહેવું જોઈએ અચરમ છેલ્લા) ઉદેશે અગિયારમે ઉદ્દેશ છે તે તે અગિયારમા ઉદેશા સુધીના ઉદેશાઓમાં પૂર્વોકત પદ્ધતિ પ્રમાણે સઘળું કથન કહેવું જોઈએ જેમ કે-હે ભગવન જે નરયિકે અચરમ હોય છે, તેઓ એક સાથે પાપ કર્મ ભોગવવાનો પ્રારંભ કરે છે ? અને એક સાથે જ તેનો ક્ષય કરે છે ? વિગેરે પ્રકારથી રામગ્ર પ્રકરણ અહિયાં કહેવું જોઈએ અહિયા યાવત્પદથી '५३ ५२५५न्न, मनतवाद, ५२५२॥4॥ढ, मन ता२४, ५२ ५ २४,
અનંતરપર્યાય, પરંપરપર્યાય અને ચરમ આ આઠ ઉદ્દેશાઓને સંગ્રહ થયેલ છે. - 'अणंतरउद्देसगाण च उण्हवि एका वत्तव्या' मनत२ ५४ी यु यारे उद्देशानु એટલે કે બીજા, ચોથા, છઠ્ઠા અને આઠમાં ઉદ્દેશાઓનું તથા ઉપપન્ન, અવ
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भगवतीस्त्रे पि एका समाना:क्तव्यता भणितव्या 'सेसाणं सतह एक्का' शेषाणां सप्तान समुच्चयोद्देशकपरम्परपद विशिष्टोपपन्नाधुदेशकचतुष्टक-चरमाचरमाख्या प्रथम तृतीय-पञ्चम-सप्तग-नवम-दशबैकादशानासुदेशकानामेका वक्तव्यता भणितम्या आलापमकारथ सर्वत्र बन्धिशतकीयोदेशकवदेव स्वयमेवोहनीय इति ।।सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगदल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचिवायां "श्री भगवतीस्त्रस्य" अमेयचन्द्रिकाख्ययां ध्याख्यायां एकोनशिलमे शतके तृतीयादारभ्यैकादशान्ता उदेशकाः समाप्त।
____एकोननिशत्तमं कर्म मस्थानशतक समाप्तम् ॥२९॥ इन उद्देशकों की वक्तव्यता समान है, तथा-'सेलाणं सत्ताह एक्को' शेष मातों-प्रथम, तृतीय, पंचम, लसम्म, नवम, दशम और एकादश इन उद्देशकों की वक्तव्यता एक सी है। यहाँ सब जगह आलापक प्रकार बन्धि शतकीच उद्देशकों के जैसे अपने आप उत्पन्न करना चाहिये, तृतीय उद्देशक से लेकर ११ वें तक के ९ उद्देशक का कथन समास सू० १॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसत्र" को प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके उनतीसवें शतकका तीसराउद्देशक से ग्यारहवां पर्यन्त के नव उद्देशक समाप्न ॥२९-३-११॥
२९ वां शतक समाप्त
साद गौडा२४ मने पर्याप्त ALEशायार्नु ४थन सरभु १ छ, तथा 'सेसाण सत्तण्ड एका' श्रीना साते गेटवे -पडसा, श्रीन, पांयमी सातमी, નવ, દશમે અને અગીયારમે આ સાતે ઉદેશાઓનું કથન એક સરખું છે. અહિયાં બધા જ ઉદ્દેશાઓમાં આલાપકનો પ્રકાર બધી શતકમાં કહેલા ઉદેશાઓ પ્રમાણે સ્વયં સમજી લે આ પ્રમાણે આ ત્રીજા ઉદેશથી લઈને અગીયારમાં ઉદ્દેશ સુધીનું કથન કહેલ છે સૂ૦ ૩-૧૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વાગ્યાના ઓગણત્રીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશા સુધીના અગીયાર ઉદ્દેશા સુધીના નવ ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૨૯-૩-૧૧
- ઓગણત્રીસમું શતક સમાપ્તા १ समुच्चय उद्देशक परम्पर पदयुक्त उपपन्न आदि ४ उद्देशक, चरम और असम उद्देशक इस प्रकार ७ सात उद्देशक हैं।
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ. १ सू०१ जीवानां कर्म रन्धकारणनिरूपणम्
अथ त्रिशमं शतकमारभये
व्याख्यातमेकोनत्रिशत्तमं शतकम् क्रमप्राप्तं त्रिंशत्तमं शतकमारभते, अस्य च पूर्वशतकेनायमभिसम्बन्धः - पूर्वशतके कर्ममस्थापनाचाश्रित्य जीवा विचा रिताः अत्र तु त्रिंशत्तमे शक्के कर्मबन्धादिकारण स्वरूपवस्तुवादमाश्रित्य जीवा एव विचार्यते, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य त्रिंशत्तमशतकस्य द्वादशोदेशकात्मकस्येदं प्रथमोद्देशादिसूत्रम् - ' कइ णं भंते' इत्यादि ।
५१
मूलम् – कइ णं भंते! लसोसरणा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समोसरणा पन्नत्ता, तं जहा किरियाबाई१, अकिरियाबाई २, अन्नाणिय वाई३, वेणइयवाई ४ । जीवा णं भंते! किं किरियावाई अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई ? गोयमा ! जीवा विरेयाबाई वि, अकिरियाबाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइवाइ वि सलेस्सा णं भंते! जीवा किं किरियावाई पुच्छा, गोयमा ! किरियाबाई वि, अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि४ | एवं जाव सुक्कलेस्सा | अलेस्साणं भंते ! जीवा पुच्छा, गोयमा ! किरियाबाई, नो अकिरियावाई नो अन्नाणियवाई नो वेणइयवाई | कण्हपक्खियाणं भंते ! जीवा किं किरियाबाई पुच्छा, गोयमा ! नो किरियावाई अकिरियावाई अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि । सुक्खसक्खिया जहा सलेस्सा। सम्मादिट्ठी जहा अलेस्सा | मिच्छाकण्हपक्खिया । सम्मामिच्छादिट्ठी णं पुच्छा, नो किरियाबाई नो अकिरियावाई अन्नाणियवाई वि वाईवि । नाणी जाव केवलनाणी जहा अलेस्ला । अन्नाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । आहारसन्नोवउत्ता परिग्गहसन्नोवउत्ता जहा सलेस्सा। नो सन्नोवउत्ता जहा
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भगवती
अलेस्सा | सवेदगा जाव नपुंसभवेदगा जहा सलेस्सा। अवेदगा जहा अलेस्मा । सकसाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा | अकलाई जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा | अजोगी जहा अलेस्सा। सागारोव उत्ता अणगारोवउत्ता जहा सलेस्ला । नेरइयाणं भंते! किं किरियाबाई पुच्छा, गोरमा ! किरियादाई वि जाव वेणइयवाई वि। सलेस्ला णं भंते! नेरइया किं किरियाबाई पुच्छा, एवं चैव । एवं जाब काउलेस्सा, कण्ह पक्खिया, किरिया विवजिया । एवं एएणं क्रमेणं जच्चैव जीवाणं तव्वया सचदेव नेरइयाणं वक्तव्यात्रि जाव अनागारोव - उता नवरं जं अस्थि तं भाणियनं, सेसं न भष्णइ । जहा नेरइया, एवं जान थणियकुमारा । पुढवीकाइयाणं संते ! किं किरियाबाई पुच्छा, गोयमा ! नो किरियाबाई अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, नो वेणइयदाई । एवं पुढविकाइचाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मझिलाई समोसरणाई जाव अणागारोव उत्तावि । एवं जाव चउरिंद्रियाणं सव्नट्राणेसु एयाई चैव मझिलगाई दो समोसरणाई । सम्मन्तनाणे हि वि एयाणि चैव मझिलगाई दो समोसरणाई | पंचिंदियतिरिक्खजोगिया जहा जीवा नवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं । मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं । वाणमंतरजोइसिय वैमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ सू० १ ॥
छाया - कति खलु भदन्त । समवसरणानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम । चत्वारि समवसरणानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - क्रियावादी अक्रियावादी अज्ञानवादी विनयवादी च । जीवाः खल्ल भदन्त । किं क्रियावादिनोऽक्रियावादिनः अज्ञानादिनः वैनयिकवादिनः ? गौतम ! जीवाः क्रियावादिनोऽपि अक्रियावादिनोऽपि आज्ञानिक
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ १०१ जीवानां कर्मवन्धकारणनिरूपणम् ५३ वादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खल सदन्त ! जी कि क्रियावादिनः पृच्छा, गौतम ! क्रियाशदिनोऽपि अक्रियानादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनो ऽपि वैनथिकवादिनोऽपि । एवं यावत् शुक्लले श्याः। अले श्याः खलु भदन्त ! जीवाः पृच्छा, गौतम ! क्रियावादिनः, नो अनियावादिनः, नो वैनयिकवादिनः। कृष्णपाक्षिकाः खल्ल भदन्त ! जीवाः कि क्रियावादिनः, पृच्छा, गौतम ! नो क्रियावादिनः, अक्रियावादिनः, अज्ञानिस्दादिलोऽनि वैयिकवादिनोऽपि । शुक्लपाक्षिकाः यथा सलेश्याः, सम्यग्दृष्टयो यथा अलेश्याः मिथ्यादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः । सम्यग्मथ्यात्ययः खलु पृच्छा, गौतम ! नो क्रिया: वादिनः नो अक्रियावादिनः, अज्ञानिकवादिनोऽपि चैनयिकनादिनोऽपि । शानिनो यावत् केवलज्ञानिना, । यथा अलेश्याः। अज्ञानिनो यावद् विभङ्गज्ञानिकों यथा कृष्णपाक्षिकाः। अहारसंक्षोपयुक्ता यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ता यथा सलेश्याः । नो संशोपयुक्ता यथा अलेश्याः । सवेदका यावत् नपुंसकवेदकाः यथा सठेक्या: । अवेदका यथा अलेश्याः । सकपायिनो यावत् लोभकपायिनो यथा सछेश्याः । अपायिनो यथा अलेश्याः सयोगिनो यावत् काययोगिनो यथा सलेश्याः । भोगिनो यथा अलेश्याः, लाकारोषयुक्ता अनाकारोपयुक्ता यथा सलेश्याः । नैयिकाः खलु मदन्त ! कि क्रियावादिनः ? पृच्छा, गौतम ! क्रियावादिनो यावत् वैनयिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं क्रियावादिन एक्मेव । एवं यावत् कापोरलेश्याः । कृष्णपाक्षिकाः क्रिया विधर्मिताः । एवमेतेन क्रमेण यैर जीवानां वक्तव्यता सैच नैरयिकाणां वक्तव्यताऽपि याददनाकारोपयुक्ताः । नवरं यदस्ति तद्भणितव्यम् , शेपं न भण्यते । यथा नैरयिकाः, एवं यावत् स्वनितकुमाराः। पृथिवीकायिकाः खल भदन्त ! किं क्रियावादिनः पृच्छा, गौता ! नो क्रियावादिनः, अक्रियावादिनो. ऽपि, अज्ञानिकवादिनोऽपि, नो चैनयिकवादिनः । एवं पृथिवीकायिकानां यदस्ति तत्र सर्वशपि एते द्वे मध्यमे समवसरणे यावत् अनाकारोपयुक्ता अपि । एवं यावत् चतुरिन्द्रियाणाम् , सर्वस्थानेषु एते ९व मध्यमे द्वे समवसरणे । सम्यग्ज्ञानिभिरपि एते एव मध्यमे द्वे समवसरणे । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा जीवाः। नवरं यदस्ति तद् भणितव्यम् । मनुष्या यथा जीवा स्तथैव निरवशेषम् । वानव्यन्तरज्यो. तिष्कवैमानिका यथा असुरकुमाराः ॥५० १॥
टीका--'कइ णं भंते ! समोसरणा पन्नत्ता' कति खलु भदन्त ! समवसरणानि मज्ञप्नानि अनेकमकारकपरिणामवन्तो जीवाः समवसरन्ति कथंचित
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पंछ
भगवती सूत्रे
तुल्यतया तिष्ठन्ति येषु मतेषु दर्शनेषु वा तानि समवसरणानि मानि दर्शनानि वा, तानि कति प्रकारकाणि भवन्तीति समवसरणविषयकः प्रश्नः, भगवानाह - तीसवें शतक का प्रथम उद्देशक का प्रारंभ
२९ वां शतक व्याख्यात हो चुका, अब क्रमप्राप्त ३० वां शतक प्रारम्भ होता है, इस शतक का पूर्व शतक के साथ ऐसा सम्बन्ध है कि उस पूर्व शतक में कर्मप्रस्थापनादि को लेकर जीवों का विश्वार किया है, परन्तु अब इस शतक में कर्मबन्ध आदि के कारणभूत वस्तुवादक आश्रित करके उन जीवो का विचार होता है । इस सम्बन्ध को लेकर यह ३० तीसवां शतक कहा जा रहा है । इसमें १२ बारह उद्देशक हैं । 'कह णं भंते । समोसरणा पण्णत्ता- इत्यादि
टीकार्थ- हे भदन्त ! समवसरण - किमने प्रकार के कहे गये हैं । 'अनेक प्रकारकपरिणामवन्तो जीवा, समयसरन्ति कथंचित् तुल्यतया तिष्ठन्ति येषु मतेषु दर्शनेषु वा तानि समवसरणानि' इस व्युत्पत्ति के अनुसार समवसरण शब्द से यहां मत या दर्शन गृहीत हुए है । क्यों की इन मतादिकों में अनेक प्रकार के परिणामोवाले मनुष्य प्राणी रहा करते
ત્રીસમા શતકના પ્રારંભ-“दुद्देश! पहेलो”
એગણત્રીસમુ ́ શતક કહેવાઈ ગયું'. હવે ક્રમ પ્રાપ્ત આ ત્રીસમાગ્રતકના પ્રાર'ભ થાય છે. પૂર્વ શતકની સાથે આ શતકના એ પ્રમાણે સધ છે --पूर्व शतम्भां કમ પ્રસ્થાપના વિગેરેને લઈને જીવેાના વિચાર કરવામાં આવ્યા છે—પર’તુ હવે આ શતકમાં કર્મ બંધના કારણભૂત વસ્તુવાદને આશ્રય કરીને તે જીવાના વિચાર કરવામાં આવશે, આ સબંધથી આ ૩૦ ત્રીસમું શતક કહેવાઈ રહ્યું' છે. આ શતકમાં ખાર ઉદ્દેશાઓ છે.
'कणं भते ! समोखरणा पन्नत्ता' इत्यादि
टीअर्थ--डे लगवन् समवसरणु-भत उटा अारना उद्या हे ? ' अनेक प्रकारक परिणामवन्तो जीवाः समवसरन्ति कथंचित् तुल्यतया तिष्ठति येषु मतेषु दर्शनेषु वा तानि समवसणानि' या व्युत्पत्ति अनुसार सभवस शब्दृथी અહિયાં મત—અથવા દન ગ્રહણ કરાયેલ છે. કેમ કે આ મત વિગેરેમાં અનેક પ્રકારના પરિણામવાળા મનુષ્ય પ્રાણી રહ્યા છે. આ રીતે ગૌતમસ્વામીએ
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प्रमेयद्रिका टीका श०३० उ. १ सू० १ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम्
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'मा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौदस ! 'चत्तारि समोसरणा पश्नत्ता' चत्वारि - चतुष्प्रकारकाणि समवसरणानि प्रज्ञप्तानि - कथितानि - इति । 'तं जहा ' तद्यथा 'किरियाबाई' क्रियावादिनः - क्रियाचारित्रपरिपालनात्मककार्यरूपा, साच कर्त्तारः मन्तरेण अनुपपद्यमाना कर्त्तारमाक्षिपन्ती आत्मसमवायिनीति वदन्ति एवं शीळा बाये ते क्रियावादिनः । अथवा क्रियैव प्रधानं न ज्ञानम्, नहि गुडमाधुर्यज्ञान बान् अनुभवति रसनया गुडास्वादम् अतो न ज्ञानं प्रधानम् अपि तु क्रियैव सर्वत्र प्रधाना एतादृश क्रियावादनशीलाः क्रियावादिनः । अथवा क्रियां - जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, ते चात्मास्तित्व प्रतिपत्तिहैं। इस प्रकार से गौतमने यह प्रश्न समवरण के सम्बन्ध में किया है। इसके उत्तर में प्रभुश्री उनसे कहते हैं- 'गोयमा ! चत्तारि समोसरणा पण्णत्ता' हे गौरम | समदरुण चार प्रकार के वहे गये हैं । 'तं जहा 'जैसे कि - 'किरियाबाई' क्रियावादि चरित्रको पालन करने रूप जो प्रकृति है उसका नाम क्रिया है । यह क्रिया कर्ता के बिना होती नहीं है । इसलिये कर्ता रूप आत्माकी सिद्धि इससे होती है । इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को माननेवाले जो हैं वे सब क्रियावादी हैं । अथवा क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान नहीं । कहीं गुड की केवल मधुरता का ज्ञानवाला व्यक्ति मात्र जिह्वा से गुडके आरबाद को थोड़े ही जानता है, गुड के आस्वाद को जानने के लिये उसके खाने रूप क्रिया की आवश्यकता होती है । अतः क्रिया ही सर्वत्र प्रधान है ज्ञान नहीं । इस प्रकार से जो क्रिया की प्रधानता माननेवाले हैं वे क्रियावादी हैं । अथवा जीवादि पदार्थों की अस्तित्व रूप क्रिया को माननेवाले जो हैं वे क्रियावादी हैं ।
સમવસરણના સંમ્ ધમાં પ્રશ્ન કરેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने उडे छे - 'गोयमा । चत्तारि समोरणा पण्णता' हे गौतम! सभवसरषु यार प्रहारना उस छ, 'त जहा' ते या प्रमाणे छे, - - ' किरिया वाई' प्रियावादी, थारित्रने पादान ४२वा ३५ अद्धति छे, तेतु' नाम दिया છે. આ ક્રિયા કર્તા શિવાય થતી નથી, કાઈ ગાળના કેવળ મધુરપણાના જ્ઞાન વાળા પુરૂષ જીભથી ગાળની મીઠાશના સ્વાદ થેાડા જ જાણે છે?ગાળના સ્વાદો જાણવા માટે તેને ખાવારૂપ ક્રિયાની જરૂરત હાય છેજ તેથી ક્રિયા જ સત્ર મુખ્ય છે, જ્ઞાન નહી. આ રીતે જેએ ક્રિયાને જ મુખ્ય માનનારા છે. તેઆ ક્રિયાવાદી કહેવાય છે. અથવા- જીવ વિગેરેના અસ્તિત્વવિદ્યમાનપણાની ક્રિયાને જે માનનારા છે, તે ક્રિયાવાદી કહેવાય છે,
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भगवतीसूत्रे
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लक्षणा अशीत्यधिकशतसंख्यकाः सूत्रकृताङ्गादिवो ज्ञातव्याः ततत्र किवादि सम्बन्धात् समवसरणमपि क्रियावादि, समवसरण समवसरणत्रतामभेदोपचारात क्रियावादिन एव समवसरणमिति, 'अकिरियावादी' अक्रियावादिनः न क्रिया अक्रिया, ai क्रियाया अभाव, न हि अनवस्थितस्य पश्यचिदपि पदार्थस्य क्रिया भवति क्रिया सत्वे चानवस्थितेरेव, अमावादित्येवं वदन्ति ये ते अक्रियाशदिनः, तथा चोक्तम्- 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थिवानां कुतः क्रिया । भूति येषां क्रिया सैन, कारकं संघ चोच्यते ॥ १॥ इति । अन्ये तु क्रियां 'जीवादिपदार्थः सार्थी नाम्ती' स्यादिकां वदितुं शीलं विद्यते येषां तेऽक्रियावादिनः, ते चात्मा दिपदार्थनास्तित्य प्रतिपत्तिलक्षणा चतुरशीति विकल्पाः ये सब क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को जाननेवाले हैं। इनकी संख्या १८० है । इनका स्वरूप सुत्रकृताङ्ग आदि से जाना जा सकता है। क्रियावादी के सम्बन्ध से मचाण भी क्रियावादी कहा गया है । क्यों की समवसरण और समयसरणवालों में अभेद का यहां उपचार किया गया है। अक्रियावादी अनवस्थित किसी भी पदार्थ में किया नहीं होती है । यदि वहां किया का सत्व माना जाय तो पदार्थ में अवस्थिति नहीं मानी जा सकती है क्योंकि इस स्थिति में वहां अनवस्थिति का अभाव हो जाता है । इस प्रकार से जो कहते हैं वे अक्रि यावादी हैं -- - तथा कहा भी है- 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इत्यादि ।
दूसरे ऐसा कहते हैं- 'जीवादिक पदार्थ नहीं है' इत्यादि रूप किया फो जो मानते हैं वे अक्रियावादी हैं। ये अक्रियावादी आत्मादि पदार्थ
આ સઘળા ક્રિયાવાદીએ આત્માના અસ્તિત્વને માનનારા છે આ ક્રિયવ’દીએની સખ્યા ૧૮૦ એકસેાએ સીની છે. આ ક્રિયાવાદિએનુ લક્ષણ સૂત્રકૃનાગ વિગેરે શાસ્ત્રોમાંથી સમજી લેવું. ક્રિયાવાદીના સ અધથી સમવસરણ પણ ક્રિયાવાદી કહેવામાં આવેલ છે. કેમ કે–સમવસરણુ અને સમવસરણવાળા એમાં અહિયાં અભેદ્યપણાને ઉપચ ૨ કરવામાં આવેલ છે. આ ક્રિયાવાદી-અનવસ્થિત કેાઇપણ પદાર્થીમાં ક્રિયા થતી નથી જે તેમાં ક્રિયાનું અસ્તિત્વપણુ. માનામાં આવે તે પટ્ટામાં અવિરતિ માની શકાય નહી. કેમ કે-એ સ્થિતિમાં ત્યાં અનવસ્થિતિના અભાવ થઈ જાય છે. આ રીતે જેએ કહે છે, તેએ આ डियावाही छे तथा उधु पशु छे- 'क्षणिका सर्वसस्कारा' इत्याहि
ખીજાએ એવુ કહ્યુ છે અે− જીવ વિગેરે કાઈ પદાર્થ નથી” ઈત્યાદિ પ્રકારથી જે ક્રિયાને માને છે. તેએ અક્રિયાવાદી છે. મા અક્રિયાવાઢિયા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३० उ.१ सू०१ जीवानां धर्मवन्धकारणनिरूपणम् ५७ स्थानान्तराद् ज्ञातव्या इति । अथवा अक्रियाशदि बौद्धा ये इत्थं कथयन्ति क्रियाया नान्यत्फलं केवलं चित्तशुद्धिरेव फसमिति ते बौद्धा अक्रियावादिन इति। 'अन्नाणियवाई' अज्ञानिकवादिनः कुत्सितं ज्ञानमज्ञानम् , तद् विद्यते येषां ते अज्ञानिका इत्थंभूतश्च ते वादिन इति अज्ञानिकवादिना, ते इत्यं प्रतिपादयन्तिय अज्ञानमेव श्रेयस्करम् , ज्ञानाद्धि तीनं कर्म ध्यते तथा अज्ञानपूर्वकं कृतं कर्म न बन्धाय भवति, तथा कस्यापि पुरुषस्य क्वचिदपि वस्तुनि सम्पूर्णरूपेण ज्ञान न भवति प्रमाणानां सम्पूर्णवस्तु विषयत्वात् , इत्येवमभ्युपगमवन्तोऽज्ञानिकवादिनः सप्तपष्ठिसंख्यकाः स्थानान्तरादवसेया इति । 'वेणइयचाई' वैनयिकवादिनः विनयेन के नास्तित्व को मानते हैं। इनके चौराली भेद हैं। ये भेद ग्रन्थान्तर से जाने जा लकते हैं। अथवा-अक्रियावादी बौद्ध हैं-इनका ऐसा कहना है कि क्रिया का और कोई फल नहीं है केवल चित्त की शुद्ध ही क्रिया का फल है। 'अन्नाणिगवाई' अज्ञानिकवादी-कुत्सित ज्ञान का नाम अज्ञान है, इस अज्ञानवाले जो है वे अज्ञानवादी हैं-इनका ऐसा कहना है कि अज्ञान ही श्रेयस्कर है क्योकि ज्ञान से तीन कर्म का बन्ध होता है। तथा-अज्ञानपूर्वक किया गया कर्म बन्ध के लिये नहीं होता है। तथा -किसी भी पुरुष को किसी भी वस्तु का सम्पूर्ण रूप से ज्ञाननहीं होता है । प्रमाण ही सम्पूर्ण वस्तु को विषय करनेवाला होता है। इस प्रकार की मान्यतावाले जन अज्ञानवादी है। इनकी संख्या ६७ सडसट की है। इनका स्वरूप नन्दीखून की ज्ञानचन्द्रिका टीका से समझना चाहिये।
આત્મા વિગેરે પદાર્થના અવિદ્યમાનપણને માને છે. તેઓના ૮૪ ચોર્યાશી ભેદે છે આ ભેદે અન્ય શાસ્ત્રોમાંથી સમજી લેવા
मथा--मठियावाही मौद्धो छ - ते मानु ४३ मे छे 8-ठियाने બીજું કાંઈ જ ફળ નથી કેવળ ચિત્તની શુદધી જ ક્રિયાનું ફળ છે 'अन्नाणियवाई' अज्ञानि:पाही. इत्सित ज्ञाननु नाम मशान छे, मी अज्ञान વાળા જેઓ હોય છે તેઓ અજ્ઞાનવાદી કહેવાય છે, તેનું કહેવું એવું છે છે કે-અજ્ઞાન જ કલ્યાણકારી છે. કેમકે જ્ઞાનથી તીવ્ર કર્મને બધ થાય છે. તથા અજ્ઞાન પૂર્વક કરવામાં આવેલ કર્મ બંધન કરનાર હોતુ નથી તથા કેઈપણ પુરૂષને કોઈપણ વસ્તુનું સંપૂર્ણ જ્ઞાન હોતું નથી. પ્રમાણ જ સમગ્ર વરતુને વિષય કરવાનું હોય છે. આ પ્રમાણેની માન્યતાવાળા મનુષ્ય અજ્ઞાન વાદી કહેવાય છે. તેઓની સંખ્યા ૬૭ સડસઠની છે, તેઓનું સ્વરૂપ નંદીસૂત્રની જ્ઞાનચ દ્રિકા ટીકામાથી સમજી લેવું.
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भगवतीसूत्रे चरन्ति, अथवा विनय एक प्रयोजनं येषां ते दैनयिकाः वैयिकाश्च ते वादिन इति वैनरिकवादिनः, विनय एव वा वैनयिक, तदेव ये स्वर्गादि हेतुपया वदन्ति इत्येवं शीलाच ते वैनयिकवादिनः, ते च स्वर्गादिसाधनं विनयमेव वदन्ति विनयस्यैव प्राधान्पेन स्वीकुर्वाणा: अनवधृतलिङ्गाचारशास्त्रः, विनयमविपत्तिलक्षणा: द्वात्रिंशत्यकारका स्थानान्तरात् सूत्रकृचाङ्गादिसुनात् अनगन्तव्या इति । बनाः भवति गाथा-'अस्थि ति सिरियवाई, वयंति नस्थितिऽकिरियवाइओ।
अगाणि य यन्नाणं, वेणइया विणयं वायति' ॥१॥ छाया----अस्तीति क्रियावादिनो वदन्ति, नास्तीत्य क्रियावादिनः ।
अज्ञानिका अज्ञानं, बनयिका विनयबादमिति ॥१॥ एते सर्वेऽपि यधप्यन्यत्र मिथ्यादृष्टयः कथिताः तथाप्यत्र क्रियावादिनः सम्यग्दृ टयो प्रायाः, क्रियावादिनी हि जीवादीनामस्तित्व स्वीकारेण सम्यग्दृष्टय एव स्वीकर्तव्या इति । 'जीवाणं संने ! किं किरियावाई, अभिरियावाई, अन्नाणियवाई, वेणझ्यवाई' जीवाः खलु भवन्त ! किं क्रियावादिनोऽक्रियावादिनोऽज्ञानि'वेणईयवाई' बैनथिकवादी-इनका मन्तव्य ऐसा है कि विनय ही स्वर्ग मोक्ष भादिका हेतु है। विनय को ही प्रधान रूप से मानते हैं। इनका कोई निश्चित आचार, लिङ्ग था शाखा नहीं होता है। सिर्फ ये तोविनय कोपी अहवार मानते हैं। थे ३२ छत्तीस प्रकार के होते हैं। इनका स्वरूप नन्दीपुत्रली ज्ञानचन्द्रिका टीका से जाना जा सकता है। इस विषय की शाथा ऐसी है-'अस्थिति सिरियवाह' इत्यादि के सब क्रियावादी अक्रियावादी आदि जान यषि अन्यत्र मिथ्याधि कहे गये हैं परन्तु फिर भी वहां पर नियावादी जीवादि के अस्तित्व को सम्यक् प्रकार से माननेवाला होने के कारण सरपष्ट रूप से गृहीत किया गया है। 'जीणं भरे! कि किरियावादी अकिनिषावादी अनाणियवादी
वेणइराबाई' वैनयिवाही-तमानी मान्यता वा छ -विनयर સ્વર્ગ મેક્ષ વિગેરેનું કારણ છે. તેઓ વિનયને જ પ્રધાન માને છે. તેઓને કોઈ નિશ્ચિત આચારલિંગ અથવા શાસન હોતું નથી કેવળ તેઓ વિનયને જ શ્રેયસ્કર-કલ્યાણકારક માને છે, તેઓ ૩૨ બત્રીસ પ્રકારના હોય છે. તેઓનું સ્વરૂપ-પ્રકાર નન્દીસૂત્રની જ્ઞાનચંદ્રિકા ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે. ત્યાંથી સમજી લેવું
'अथित्ति किरियावाई' या मा संघकालियापाहीय. अजियावाहीये। વિગેરેને જે કે અન્ય સ્થળે હિચ્યાદષ્ટિ કહેવામાં આવ્યા છે, પરંતુ અહિયાં કિયાવાદી જીવ વિગેરેના અરિતત્વને માનવાવાળા હોવાથી સમ્યગ્રષ્ટિ પણુથી વર્ણવેલ છે.
'जीवाणं भते ! किरियावादी अकिरियालाई अन्नाणियवादी, वेणइयवादी
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ १ १०१ जीपानां कर्मवन्धकारणनिरूपणम् ५१ कवादिनो वैनयिकवादिनो चेति समुच्चतो जीवमधिकृय प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । गोयमा' हे गौतम ! 'जीवा किरियाचाई वि' जीवा सामान्यतः क्रियावादिनोऽपि भवन्ति तथा-'अकिरियावाई वि' अक्रियावादिलोऽपि भवन्ति तथा-'अन्नाणियचाई वि' अज्ञानिकवादिनोऽपि भवन्त्रि तथा-'देणइयवाई कि वैनयिकवादिनोऽपि सवन्तीत्युत्तरम् । सामान्यतो जीवाश्चतुर्विधा अपि भवन्ति ताटश वसावर शादिति । जीवविशेषमधिकृत्य प्रश्नयन्नाह-'सलेरसा णं' इत्यादि । 'ललेस्सा णं भंते ! जीवा किं किरियाबाई पुच्छा' सलेश्या:-कृष्णनीलाधन्यतमलेश्यावन्तो जीवा कि क्रियावादिनो भरन्ति अथवा अक्रियावादिनो भवन्ति अथवा अज्ञानिकवादिनो भवन्ति, अथवा वैनयिकवादिनी भगन्तीति प्रश्नः पृच्छया वेणइयवादी' हे भदन्त ! जीव क्या क्रियावादी हैं ? या अभिशावादी है ? या अज्ञानवादी है ? या विनयवादी है ? ऐला यह प्रश्न सामान्य जीव को लेकर किया गया है, इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोवला! जीवा किरियावाई विहे गौतम ! जीव सामान्यतः क्रियावादी भी होते हैं। तथा 'असिरियावाई वि' अक्रियावादी भी होते हैं 'अन्नाणि. यवाई वि' अज्ञालवादी भी होते हैं । वेणायवाई छि' और वैनायिकवादी भी होते हैं। तात्पर्य कहने का यही है कि सामान्य से जीच चारों प्रकार के भी होते हैं। क्योंकि जीव का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है। जीव विशेष को लेकर प्रश्न-'ललेल्लाणं संते! जीवा किं झिरियावाई पुच्छा' हे भदन्त ! कृषण, नील आदि लेश्याओं में से कोई एक लेश्या वाले जीव क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं? या वैनथिकवादी होते ? उत्तर હે ભગવન જીવ શું કિયાવાદી છે ? અથવા અક્રિયાવાદી છે? અથવા અજ્ઞાનવાદી છે? અથવા વિનયવાદી છે ? આ પ્રમાણેને પ્રશ્ન સામાન્ય જીવને આશ્રય કરીને પૂછવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे हैं-गोयमा! जीवा किरियावाइत्ति' गौतम ! । सामान्यत: यापही ५४ डाय छे. 'अकिरियावाई वि' मठियावाही ५४ हाय छे. तथा-'अन्नाणियवाइ वि' मज्ञान वाही पडाय छे. 'वेणइयवाईवि' भने वैनयिवाही होय छे. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–સામાન્યથી છ ચારે પ્રકારના પણ હોય છે. કેમ કે જીવનો સ્વભાવ જ કંઈક એવો હોય છે. હવે જીવ વિશેષના સંબં. यम गौतमस्वामी प्रभुश्री ५छे छ-'सलेस्साणं भंते ! जीवा कि किरियावाई પુરછા હે ભગવાન કૃષ્ણનલ વિગેરે લેશ્યાઓ પૈકી કઈ એક વેશ્યાવાળે જીવ શું કિયાવાદી હોય છે ? અથવા આક્રિયાવાદી હોય છે ? અથવા અજ્ઞાન
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भगवतीपत्रे
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संगृह्यते, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'नोयमा' हे गौतम! 'किरियाबाई वि' क्रियावादिनोऽपि भवन्ति सलेश्या जीवाः, तथा 'अकिरियाबाई त्रि' अक्रिणवादिनोऽपि भवन्ति, तथा - 'अन्नाणियवाई वि' अज्ञानिकवादिनोऽपि भवन्ति तथा 'वेणइयवाई वि' वैमयिकवादिनोऽपि भवन्ति सलेन्यजीवानां तथा तथा स्वमात्यादिति । 'एव जाव सुकलेस्सा' एवम् सलेश्यजीवरदेव यात् कृष्णलेश्यजीवादारभ्य पद्मलेश्यजीव पर्यन्ताः सर्वेऽपि जीवाः चतुर्विधा अपि भन्दि तथास्वभावत्वादितिभावः । 'अलेस्सा णं भंते ! जीवा पुच्छा' अलेश्या:लेश्वारहिता जीवाः खल भइन्छ ! क्रियावादिनोऽक्रि पावादिनोऽज्ञानिकवादिनो नयवादिनो भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोया' हे गौतम! 'किरियाबाई' क्रियावादिनोऽलेश्या जीवा भवन्ति अलेश्याः प्रयोगिनः सिद्धार्थ भवन्ति तेचायोगिनः सिद्धार्थ क्रियावादिन एव में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! किरियाबाई वि, अकिरियाबाई वि अन्नागिरवाई वि, वेणइयवाई वि' हे गौतम सलेश्य जीव क्रियावादी भी होते हैं, अकिपाबादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और dafoneादी भी होते हैं । 'एवं जाव सुक्कलेस्सा' सलेश्य जीव के जैसे ही यावत् कृष्णलेश्य जीव से लेकर शुक्लले जीव तक समस्त जीव चारो प्रकार के भी होते हैं। क्योंकि इन जीवो का स्वभाव ही ऐसा होता है । 'अलेस्सा णं भंते ! जीवा पुच्छा' हे भदन्त ! जो जीव
यारहित है वे क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं? या वैनयिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! किरियाबाई' हे गौतम! अदेश्य जीव क्रियावादी
વાદી હાય છે ? અથવા વૈનિયકવાદી હૈાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने- 'गोयमा ! किरियावाई वि अकिरिया वाईवि अन्नाणियवाई वि. वेणइयवाई वि' डे गौतम ! श्यावाणा को डियावाही पशु હાય છે, અક્રિયાવાદો પણ હાય છે, અજ્ઞાનવાદી પણ હાય છે, અને વૈનविम्वारी पशु होय छे. 'एव' जाव सुक्कलेरघा' सेश्यवाणा भुवनाथन પ્રમાણે જ યાવત્ કૃષ્ણવેસ્યાવાળા જીવથી લઈને શુકલ લેસ્યાવાળા જીવ સુધીના સઘળા જીવા ચારે પ્રકારના પશુ હાય છે કેમ કે આ જીવાના સ્વભાવ જ भेवे। होय छे 'अलेस्साणं भंते! जीवा पुच्छा' हे भगवन् ? बेश्या વિનાના હાય છે, તે શુ ક્રિયાવાદી હાય છે અયવા અક્રિયાવાદ! હાય છે ? અથવા અજ્ઞાનવાદી હાય છે? અથવા વૈયિકવાદી હાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रभुश्रीने हे छे छे - 'गोयमा ! किरियावाई' हे गौतम ! बेश्या
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ. १ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम्
क्रियावादकारणीभूत यथावस्थितद्रव्यपर्यायात्मकार्थपरिच्छेदयुक्तत्वात् । अत्र खल यानि सम्यग्दृष्टियोग्यस्थानानि अलेश्पत्वसम्यग्दर्शनज्ञानिनो असंज्ञोपयुक्तवावेदकत्वादीनि तानि सर्वाण्यपि क्रिशवादे एव निक्षिप्यन्ते । यानि खलु मिथ्यादृष्टि स्थानानि मिथ्यात्वाज्ञानादीनि तानि शेष समवसरणत्रये निक्षिपते 'नो अकिरियादाई' अश्या जीवा अक्रियावादिनो नो भवन्ति द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु परिच्छेयुक्तत्वादिति । 'नो अन्नाणियवाई 'नो न वा अज्ञानिकवादिनः पूर्वोतयुक्तेरेव | 'नो वेणइयवाई' नो न वा चैनयिकवादिनो भवन्ति अश्या जीवा इति ! 'कण्डपक्याणं भंते । जीवा किं किरियात्राई पुच्छा' कृष्णपाक्षिकाः खलु होते हैं । अयोगी और सिद्धू ये अलेश्य जीव हैं। ये क्रियावादी ही होते हैं। क्यों की इन में कियाबाद के कारणीभूत यथावस्थित द्रव्य पर्यायात्मक पदार्थ के परिच्छेद से युक्तता है। यहां सम्यग्दृष्टि के योग्य अश्यत्व, सम्यग्दर्शन, ज्ञानी, नो संज्ञोपयुक्त और अवेदकत्व आदि स्थान हैं- सो इन सबका क्रियावाद में ही समावेश हुआ है तथा जो मिथ्यादृष्टि के योग्य मिथ्यात्व, अज्ञान आदि स्थान हैं सो इनका शेष समवसरण त्रय में समावेश हुआ है । 'नो अकिरियाबाई' अलेश्य जीव अक्रियाबादी नहीं होते हैं। क्योंकि ये द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु के ज्ञान से युक्त होते हैं । 'जो अन्नाणियवाई' इसी प्रकार वे अज्ञानिक वादी भी नहीं होते हैं । 'णो देणहवाई' वैनयिकबादी भी नहीं होते हैं। क्यों की ये द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुके ज्ञानवाले होते हैं । 'कण्ड्प क्खियाणं भंते! जीवा किरियाबाई पुच्छा' हे भदन्त ! जो कृष्णपाक्षिक વિનાના જીવે। ક્રિયાવાદી હૈાય છે. અચેાગી અને સિદ્ધ એ અલેશ્ય જીવ છે. એ ક્રિયાવાદી જ હાય છે કેમ કે તેએ ક્રિયાવાદના કારણભૂત યથા વસ્થિતદ્રવ્ય પર્યાયાર્થિ ક પદાથના પરિચ્છેથી યુક્ત હેાય છે અહિયાં સમ્યગ્ દૃષ્ટિને ચેન્ગ્યુ અલૈશ્યપણામાં, સમ્યકશનજ્ઞાની નેાસોપ્યુક્ત અને અવેઇક પણ વિગેરે સ્થાના છે તે સઘળાના ક્રિયાવાદમા જ સમાવેશ થાય છે. તથા જે મિથ્યાર્દષ્ટિને ચાગ્ય મિથ્યાત્વ, અજ્ઞાન. વિગેરે સ્થાના છે, તે સમાવેશ સમવરણુત્રયમાં થયેલ છે
પણ
'नो अकिरियाबाई' बेश्याविनाना कवा अडियावाही होता नथी. भ } तेथेो द्रव्य पर्यायात्म वस्तुना ज्ञानधी युक्त होय छे 'णों अन्नाणियवाई' भेर प्रमाणे अज्ञानवाही पर होता नथी. 'णो वेणइयवाइ' वैनयिवाही એ પ્રમાણેના હાતા નથી. કેમ કે તેઓ દ્રવ્ય પર્યાયાત્મક વસ્તુમાં જ્ઞાનવાળા હાય છે 'कहपक्खिया ण भते । जीवा किं किरियावाई पुच्छा' हे भगवन् ने કૃષ્ણપાક્ષિક જીવે છે, તેઓ શું કિયાવાદી હોય છે ? અક્રિયાવાદી હાય છે ?
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भगदतीसत्रे भदन्त ! जीदा कि क्रियावादिनो भवन्ति अक्रियावादिनो वा सवन्ति अज्ञानिकबादिनो या भवन्ति दैनयिकवादिनो वा भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संग्रहाते ! भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो किरियावाई' नो क्रियावादिनः कृष्णपाक्षिका भवन्ति यथावस्थितद्रव्यपर्यायात्मकवस्तुपरिच्छेदरहितत्वात् । 'अकिरियावाई वि अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' अक्रियावादिनोऽपि भवन्ति अज्ञानिकवादिनोऽपि भवन्ति तथा वैनयिकवादिनोऽपि भवन्तीति । 'मुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा' शुक्लपादिमाः जीवाः सलेश्यजीवरदेव क्रिया. वादिनोऽपि अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि भवन्तीति भावः 'सम्मादिट्ठी जहा अलेस्सा' सम्यग्दृष्टयो तथा-अलेश्याः तथैव क्रियावादिनो भवन्ति यथावस्थितद्रव्यपर्यायात्मवावरतुपरिच्छेदयुक्तत्त्वात् न तु अक्रियावादिनो भवन्ति न वा अज्ञानिकवादिनो, न वा चैनयिकवादिनो भवन्तीति जीव हैं वे क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं ? या वैनयिकवादी होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो किरियाबाई' हे गौतम कृष्णपाक्षिक जीव क्रियावादी नहीं होते हैं, क्यों कि ये यथावस्थित द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के वेदन से रहित होते हैं। इसलिये ये 'अकिरियाबाई वि अन्नाणियवाई वि वेणइयचाई वि' ये अक्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी हैं और चैनथिकवादी भी होते हैं, 'मुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा' शुक्लपाक्षिक जीव मलेश्य जीव के जैसे क्रियावादि भी होते हैं, अक्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और वैनयिकवादी भी होते हैं ! 'सम्मदिट्ठी जहा अलेस्था सम्यग्दृष्टि जीव अश्य जीव के जैसे यथावस्थित द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के परिच्छेदक होने से क्रियावादी ही होते हैं। अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनायकवादी અથવા અજ્ઞાનવાદી હોય છે? અથવા વિનયિકવાદી હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसुश्री ४ छे 3-'गोयमा ! णो किरियाबाई' 8 गौतम 1 BYપાક્ષિક જીવ કિયાવાદી હતા નથી, કેમ કે તેઓ યથાવસ્થિત દ્રવ્ય પર્યાયા(म परतुनी वहनाया हित डाय छे. 'अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' मठियावाही पY हाय छ, भज्ञानवाही पण हाय छ, भने वैनयिवाही ५४ डाय छे. 'सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा' सोश्य वन ४थन प्रभारी शुलपाक्षि ने पण सम वा 'सम्मादिद्वी जहा अलेस्सा' सभ्यराष्टि વાળા જી લેશ્યાવિનાના જીના કથન પ્રમાણે યથાવસ્થિત દ્રવ્ય પર્યાયાત્મક વસ્તના પરિચછેદક હેવાથી કિયાવાદી જ હોય છે, તેઓ અકિયાવાદી, અજ્ઞાન વાદી અને વૈનાયિકવાદી હોતા નથી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० ३.१ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम् ६३. भावः। मिच्छादिट्ठी जहा कण्ह पक्खिया' मिथ्यादृष्टयः कृष्णपाक्षिकवत् नो क्रियावादिनः किन्तु अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनायिकवादिनोऽपिभवन्तीति ! 'सम्मामिच्छादिट्ठी णं पुच्छा' सम्यग्मियादृष्टयो मिश्रष्टयः कि क्रियामादिनोऽक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनो वा भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो किरियावाई' नो क्रियावादिनः नो वा अक्रियावादिनो भवन्ति किन्तु 'अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' अज्ञानिकवादिनोऽपि भवन्ति वैनयिकवादिनोऽपि भवन्ति, मिश्रा दृष्टयोहि जीवाः साधारणपरिणामत्वान्नो आस्तिका नवा नास्तिकाः किन्तु अज्ञानिकवादिनोऽषि नयिकवादिनोऽपि भवन्तीति भावः । 'नाणी जाव केवलनाणी जहा अलेक्से' ज्ञानिनो यावत्केवलज्ञानिनो हि अलेश्यजीववदेव क्रियावा. नहीं होते हैं । 'विच्छादिही जहा काहपश्खिया' मिथ्यादृष्टि जीव कृष्णपाक्षिक के जैसे क्रियावादी नहीं होते हैं। किन्तु वे अक्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और वैनपिकवादी भी होते हैं। 'सम्माभिच्छादिहीणं पुच्छ।' हे भदन्त ! जो जीव मिश्रदृष्टि होते हैं वे क्या क्रियावादी हैं ? या प्रक्रियावादी होले हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं ? या चैनयिकवादी होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है'गोयमा! लो किरियापाई, नो अकिरियाबाई हे गौतम ! वे न क्रियावादी होते हैं और न अक्रियावादी होते हैं। किन्तु वे 'अन्नाणियबाई वि वेणइयचाई वि' अज्ञानवादी भी होते हैं और वैनयिकवादी भी होते हैं । क्यों की मिश्रष्टि जीव साधारण परिणामवाले होते हैं इसलिये वेन आस्तिक होते हैं और न नास्तिक होते हैं । 'नाणी जाव केवलनाणी जहा अलेरो ज्ञानी जीव यावत् केवल ज्ञानी जीव अलेश्य जीव के
'मिच्छादिदी जहा कणहपक्खिया' भिथ्याष्ट छ। पाक्षिन કથન પ્રમાણે કિયાવાદી હોતા નથી પરંતુ તેઓ અકિયાવાદી પણ હે ય છે. मज्ञानवाही ५० डाय छे गने वैनयिवाही ५ डाय छ 'सम्मामिच्छादिट्ठीणं पुच्छा' ३ लगवन् । भिटीवाय छ, तमाशुठियावाही હોય છે અથવા અકિરાવાદી હોય છે? અથવા અજ્ઞાનવાદી હોય છે? અથવા वनयिवाही लय छ १ मा प्रश्न उत्तरभां सुश्री ४ छे । 'गोयमा नो किरियावाई नो अकिरियावाई र गौतम । तेया ठियावाही होत नथी. तथा मठियावाही ५५ हात नथी 'अन्नाणियवाई वि वेणईयवाई' तमे। अज्ञान વાદી પણ હોય છે, અને વનચિકવાદી પણ હોય છે, કેમ કે મિશ્રદષ્ટિવાળા ७। साधारण परियामा डाय छे. 'नाणी जाव केवलनाणी जहा अलेस्से
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भगवतीने दिनो भवन्ति द्रव्यपर्यायात्मकयथावस्थिखवस्तुपरिच्छेदयुक्तत्वात् नो अक्रि. यावादिनो नो वा अज्ञानिकवादिनो नो वा वैनयिकवादिनो भवन्तीति भावः । अत्र यावत्पदेन आभिनियोधिर शानि श्रुतशान्यवधिज्ञानि मनापर्यवज्ञानिनां संग्रहः, एथेषां यथावस्थित वस्तुपरिच्छेदवत्वात् । 'अन्नाणी जाव विभंगनाणि जहा कण्हपक्खिया' अज्ञानिनो यावद् विसङ्गज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः, अध यावत्पदेन मस्यज्ञानि-श्रुताज्ञानिनो संग्रह, तनश्वाज्ञानि-मस्यज्ञानि-शुवाज्ञानिविभशानिनः सर्वेऽपि नो क्रियावादिनो भवन्ति किन्तु अक्रियावादिनोऽज्ञानि. जैसे क्रियावादी होते हैं, वे अक्रियावादी नहीं होते हैं, अज्ञानवादी भी नहीं होते हैं और न वैनायकवादी होते हैं। क्योंकि ये लघ द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु के यथार्थ बोधवाले होते हैं। यहां यावत्पद से
आभिनिघोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानी इन सबका ग्रहण हुआ है। ये सघ क्रियावादी होते हैं क्यों की इन में यथार्थ वस्तु की परिच्छेदकना का सदभाव रहता है । 'अन्लाणी जाव विभंगनाणी जहा काहपक्खिया' 'अज्ञानी थावत् विभङ्गज्ञानी कृष्णपाक्षिक के जैसे क्रियावादी नहीं होते हैं किन्तु ये अक्रियावादी होते है, अज्ञानबादी भी होते हैं और वैनयिकवादी भी होते हैं। यहां यावत्पद से मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी इन दो का संग्रह हुआ है ! अतः ये सब क्रियावादी नहीं होते है किन्तु शेष तीन समवसरणवाले होते हैं 'आहारलन्नोव उत्ता जाव परिग्गहसन्नोबउत्ता जहा सलेस्ला' जिस જ્ઞાની જીવ યાવત્ કેવળ જ્ઞાનવાળા જીવે અલેક્ષ જીવની જેમ કિયાવાદી જ હોય છે. તેઓ અકિયાવાદી હોતા નથી અજ્ઞાનવાદી હતા નથી તથા નચિકવાદી પણ કહેતા નથી કેમ કે આ બધા દ્રવ્યપર્યાયાત્મક વસ્તુના યથાર્ય બેધવાળા હોય છે અહિયાં યાવત્પદથી આમિનિબેધિકજ્ઞાની થતજ્ઞાની અવધિજ્ઞાની અને, મન:પર્યવજ્ઞાની આ સઘળા ગ્રહણ કરાયા છે. આ બધા ક્રિયાવાદી હોય છે. કેમ કે તેઓમાં યથાર્થ વસ્તુના પરિચ્છેદક પણાનો સદુभाव २ छ. 'अन्नाणी जाव विभ गनाणी जहा कण्हपक्खिया' अज्ञानी यातू વિર્ભાગજ્ઞાની કૃષ્ણપાક્ષિકના કથન પ્રમાણે કિયાવાદી હતા નથી પરંતુ તેઓ અકિયાવાદી જ હોય છે, અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે. અને જૈનયિ વાદી પણ હોય છે. અહિયાં યાવત્પદથી મતિજ્ઞાની અને શ્રત અજ્ઞાની ગ્રહણ કર યા છે. આ બધા કિયાવાદી હતા નથી, પરંતુ અકિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને वनयिवाही य छ, 'आहारसन्नोवउत्ता जाव परिगहसन्नोवउत्ता जहा
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ १०१ जीवानां कर्मवन्धकारणनिरूपण ६५ वादिनो वैनायकवादिश्च भवन्तीति । 'आहारसन्नोवउत्ता जाब परिग्गइसन्नोवउत्ता जहा सस्ता' आहारससंक्षोपयुक्ता यावत्परिग्रहसंज्ञोएयुक्ता यथा सटेश्याः, अत्र यावत्पदेन भय संज्ञा जैथुनसंज्ञयोः संग्रहः, तथा चैते सर्वेऽपि क्रियावादिलोऽपि भवन्ति अक्रियावादिनोऽपि भवन्ति अज्ञानिकवादिनोऽपि चैनयिकवादिनो. ऽपि सन्ति स्थानिविलक्षणपरिणामवत्वादितिभावः। 'लोसन्नोवउत्ता जहा अलेस्सा' नो संझोपयुक्ता जीवा अलेश्यजीवपदेव केवलं क्रियावादिन एव न तु अक्रियावादिनो पहा अज्ञानिकवादिनो न वा वैनरिकवादिनो भवन्तीति। 'सवेदगा जाब नघुपयवे हमा जहा सलेरता' सदका जीवा यान नपुंसमवेदका यथा प्रकार सलेक्ष्य जीय क्रियाचोदी भी होते हैं, अक्रिप्राधादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और बैनयिकवादी भी होते हैं, उसी प्रकार से आहारतज्ञ एयुक्त जीव यापत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त जीव भी चारों प्रकार के समवसरणाले होते हैं । यों कि इनका परिणाम विलक्षण प्रकार का होता है। यहां यावत् शब्द ले भयसंज्ञोपयुक्त और मैथुनसंज्ञोपयुक्त इनका ग्रहण हुआ है। तथा च-ये सब क्रियावादी भी होते हैं अक्रियाशादिभि होते हैं अज्ञानवादी भी होते है और बैनयिकवादी भी होते हैं। 'लो लपणोवउत्ता जहा अस्मा' नो संज्ञोपयुक्त जीव अले श्य जीव के जैसे क्षेवल क्रियावादी ही होते हैं। अक्रियावादी अज्ञानवादी और वैवधिकक्षादी नहीं होते हैं। 'लवेदगा जाच नपुंसमवेदगा जहा सलेरसा सवेदक जीद थावत् नपुंलकवेदक जीच रमलेश्य 'सलेला' सोश्य छ ? प्रमाणे ठियावाही पण काय छ, मठियावाही પણ હોય છે. અજ્ઞાનવાદી પણ હાથ છે. અને વિનાયકવાદી પણ હોય છે એજ પ્રમાણે આહાર સંજ્ઞોપગવાળા જી પણ યાવત પરિગ્રહ સંશોપ યુક્ત જીવ પણ ચારે પ્રકાર ના સમવસરણવાળા હોય છે. કેમ કે તેઓને પરિણામ વિલક્ષણ પ્રકારનું હોય છે. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી ભયસંશોપ
ગવાળા અને મૈથુનસંપગવાળા એ બે ગ્રહણ કરાયા છે. તથા આ બધા યિાવાદી પણ હોય છે અકિયાવાદી પણ હોય છે. અજ્ઞાનવાદી પણ होय २ वैयपाही ५५ डाय छे. 'नो खण्णोषउत्ता जहा अलेस्सा' ना સંજ્ઞોપયુક્ત જીવો અલેશ્યાવાળા જીવન કથા પ્રમાણે કેવળ ક્રિયાવાદી' જ खाय छे. मध्यावाही, अज्ञानवाही, मने पैनयिवाही खाता नथी 'सवेयगा जाव नपु सगवेयगा जहा प्लेस्सा' स४ ०१ यावत् नथुस ७१
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सश्याः यावत्पदेन स्त्रीवेदकपुरुषवेदकयोः संग्रहो भवति, ततश्चैते सर्वेऽपि क्रियावादिनोऽपि भवन्ति अक्रियावादिनोऽपि भवन्ति अज्ञानिकवादिनो वैनयिकचादिनश्वापि भवन्ति विलक्षण तादृश परिणामवत्त्वादिति । 'अवेद्गा जहा अलेस्सा' वेदाः सामान्यतो वेदरहिता जीवाः अलेश्य जीवव देव केवलं क्रियावादिनो भवन्ति न तु अक्रियावादिनो नो अज्ञानिकवादिनो नो वैनयिकवादिनी वा मनन्तीति भावः, 'सकसाई जाव लोभकलाई जहा सलेस्सा' सकपायिनो यादन् लोभकपाथिनः सले जीववदेव क्रिपवादिनो पे अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकयादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽवि तीति यावत्पदेव क्रोधरूपायि मानकपापि मायानपायिनां ग्रहणं भवतीति 'अकसाई जहा अलेस्सा' अकपाविनोऽश्वदेव केवलं क्रियाजीवों के जैसे क्रियावादी भी होते हैं पास भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और वैनयिकबादी भी होते है । क्योंकि इनके ऐसे ही विलक्षण परिणाम होते हैं। यहां यानपद से स्त्री वेदक और पुरुष वेदक इनका ग्रहण हुआ है। 'अवेदगा जहा अलेस्ला' सामान्य से वेद रहित जीव अलेश्य जीवों के जैसे केवल किषावादी ही होते हैं। अक्रियावादी नहीं होते हैं, अज्ञानवादी नहीं होते हैं और वेनfararat भी नहीं होते हैं । 'सकसाई जाव को बसाई जहा सलेस्सा' सकषायी जीव यावत् लोभकषायी जीव सुलेश्य जीवों के जैसे क्रियावादी भी होते हैं और अक्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी भी होते हैं और चैनषिकवादी भी होते हैं । यहाँ यावत् पद से क्रोध कषायी मान कषायी और पाया कपायी जीवों का ग्रहण हुआ है । 'अफसाई
લેશ્યાવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાત્રાદી પણ હાય છે, અક્રિયાવાદી પણ હાય છે, અજ્ઞાનવાદી પણ હાય છે, અને વૈયિકવાદી પણ હાય છે. કેમ કે તેના પરિણામે એવા વિલક્ષણ જ હાય છે. અહિયાં ચાવúદથી स्त्रीवेद्दत्राणा भने ५३षवेवामा ग्रहण हराया है. 'अवेद्गा जहा अलेस्सा' સામાન્યથી વેદરહિત જીવા અલેક્ષ્ય જીવેાના કથન પ્રમાણે કેવળ ક્રિયાવાદી જ હાય છે, અક્રિયાવાદી ાતા નથી તથા અજ્ઞાનવાદી પણ હાતા નથી અને वैनयिवाही पशु खाता नथी. 'सकलाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' કષાયવાળા જીવા ચાવત્ લેાલકષાયવાળા જીવા લેશ્યાવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી પણ હાય છે, અક્રિયાવાદી પણ હાય છે, જ્ઞાનવાદી પણુ હાય છે. અને નૈનિયકવાદી પણ હાય થ. અહિયાં યાવત્ પથી માનકષાય વાળા, માયાકષાયવાળા, અને લાભકષાયવાળા, જીવા ગ્રહણ કરાયા છે,
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० ३.१ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम् ६७ वादिनो न तु अक्रियाऽज्ञानिकनयिकवादिनो भवन्ति । 'सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्ता सयोगिनो यावत् पदेन सनोयोगिनो वचनयोगिनः काययोगिनः सलेश्यजीवनदेव क्रियावादिनोऽपि अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि भवन्तीति । 'अजोगी जहा अलेटला' अयोगिनो यथा अलेश्याः, अलेयजीववदेव अयोगिनः केवलं क्रियावादिनो मन्तिवतु अक्रियावादिनोऽ ज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च । 'सागारोवउत्ता अनाचारोउत्ता जहा सलेस्सा' सलेश्यजीववदेव साकारोपयोगयुक्ता अनाजारोपयोगयुक्ताः क्रियावादिनो यावद् वैनयिकवादिनो भवन्तीति । 'नेरइयाणं भंते ! किं किरियावाई पुच्छा' नैरयिकाः जहा अलेस्सा' अकषाधी जीव अलेश्य जीवों के जैसे केवल क्रियावादी ही होते है अक्रियावादी नहीं होते हैं, अज्ञानचादी भी नहीं होते और न वैलयिवादी भी होते हैं। लजोगी जाव कायजोगी जहा सलेला' लेश्य जीवों के जैसे सयोगी यावत् काययोगी जीव क्रियावादी भी होते है, अक्रियावादी भी होते है अज्ञानवादी भी होते हैं और वैथिकवादी भी होते हैं यहां चारपद ले मनोयोगी, वचनयोगी का ग्रहण हुआ है । 'अजोगी जहा अलेरला' अयोगी जीव अलेश्य जीवों के जैसे केबल क्रियावादी ही होते हैं । अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैतथिकवादी नहीं होते हैं। 'लागारोवउत्ता अना. गारोवउत्ता जहा ललेला' सलेश्य जीवों के जो साक्षारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव क्रियावादी भी होते है, अक्रियावादी भी होते है, अज्ञानयादी भी होते हैं और बैनयिकवादी भी होते हैं । 'नेरयाण भंते ! किं लिरियाबाई पुच्छा-'हे भदन्त ! नैरथिक जीव क्या क्रिया. 'अकसाई जहा अलेस्सा' 15 पायी ७३ वेश्या विनान वाना ४थन प्रभारी કેવળ કિયાવાદી જ હોય છે. અકિયાવાદી હોતા નથી. અજ્ઞાનવાદી પણ લેતા नथी. तथा वनयिवाही ५ हात नथी. 'सजोगी जानकायजोगी जहा सलेस्सा' લેશ્યાવાળા ને કથન પ્રમાણે સગી યાવતુકાય ગવાળા છ કિયાવાડી પણ હોય છે, અકિયાવાદી પણ હોય છે અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે, અને નિયિકવાદી પણ હોય છે. અહિયાં યાત્પદથી મનેયોગવાળા, અને વચનોગपापासी, ४२राया छे. 'अजोगी जहा अलेक्सा' मयाजी मोश्य वानी જેમ કેવળ કિયાવાદી જ હોય છે. અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈયિકવાદી डात नथी. 'सागारोव उत्ता अनागारोवउत्ता जहा सलेस्सा' अश्यावाणा वानी જેમ સાકારે પયુક્ત અને અનાકારોપયુક્ત જીવો કિયાવાદી પણ હોય છે. અકિયાવાદી પણ હોય છે. અને અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે. અને વૈનાયિક
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भगवतीसूत्रे खलु भदन्त ! किं क्रियावादिनोऽक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनविकवादिनी वेति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-पोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौतम ! 'किरियावाई,वि जाव वेणइयवाई वि' क्रियावादिनोऽपि याबद्वैनयिकवादिनोऽपि भवन्ति विलक्षणपरिणामवत्यात् अत्र यावत्पदेना क्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि, इत्यनयोः संग्रहः । 'सलेरहा णं भंते ! नेरच्या किं किरियावाई०' सलेश्याः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं क्रियावादिनो यावद् वैनयिकवादिन इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यने । उत्तरमाह--एवं-वेव' एवम्-सामान्यतो नारकदेव सलेश्यनारका अपि क्रियावादिनी यावद् बैनयिकवादिनो भवन्तीति । वादी होते हैं ? या अक्रियाशदी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं ? या वैनयिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! किरियावाई नि जाच वेणझ्यचाई चि' हे गौतम! नैरषिक जीव क्रियावादी सी होते हैं, अक्रियावादी भी होते है अज्ञानवादी भी होते है और चैनयिक्षवादी भी होते हैं । क्यों की इनके इसी प्रकार के विलक्षण परिणाम होते हैं। 'सलेस्लाणं भंते ! णेरड्या कि किरियामाई०' हे भदन्त । जो नैरयिक जीव लेश्य होते हैं वे क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं ? या चैनथिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रलुश्री कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम! सामान्य नारक के जैसे खलेश्य नारक भी क्रियावादी भी होते हैं, अक्रिया: वादी भी होते है, अज्ञानवादी भी होते हैं और नयिक्षवादी भी पाही पडाय छे. नेरइया णं भते ! किं किरियावाद पुच्छा' हे सगवन् नैर. યિક જીવે શું કિયાવાદી હોય છે ? અકિયાવાદી હોય છે? અથવા અજ્ઞાન વાદી હોય છે? અથવા વિનયિકવાદી હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
'गोयमा ! किरियानाई वि जाव वेणइयवाई वि' गौतम ! यि છ કિયાવાદી પણ હોય છે. અકિયાવાદી પણ હેય છે, અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે અને વનયિકવાદી પણ હોય છે. કેમ કે તેઓને એ પ્રમાણેનું विसक्षस परियाम य छे. 'सलेस्सा णं भवे ! णोरइया कि झिरियावाई 8 ભગવાન જે નરયિક જી લેશ્યાવાળા હોય છે તેઓ શું કિયાવાદી હોય છે? અથવા અક્રિયાવાદી હોય અથવા અજ્ઞાનવાદી હોય છે? અથવા वनयिवाही डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे -'एव चेव' હે ગૌતમ! સામાન્ય નારકના કથન પ્રમાણે લેફ્સાવાળા નારક પણ કિયાવાદી પણ હોય છે, અક્રિયાવાદી પણ હોય છે, અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે, અને
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प्रमेन्द्रका टीका श०३० उ. १ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम्
' एवं ' जाव काउलेस्सा' एवं सलेश्यनारकवदेव यावत्पदेन कृष्णनीलकापोतश्यावन्तः कृष्णलेश्यादिका नारकाः क्रियावादिनो यावद्वैनयिकवादिनो भवन्ति । 'eneraया किरिया विवज्जिया' कृष्णपाक्षिका नारकाः क्रियाविवर्जिताः कृष्णपाक्षिका नारका न क्रियावादिनोऽपितु अक्रियावादिनो यावद्वैनयिकवादिनो भवन्तीति भावः । ' एवं एए णं कमेणं जच्चैव जीवाणं वत्तन्त्रया' एवमेतेन - उपरि दर्शितप्रकारेण यैव जीवानां वक्तव्यता कथिता 'सच्चेव नेरइयाणं वत्तन्त्रयाचि' सैव नैरािणां वक्तव्यताऽपि भणितव्या कियत्पर्यन्तं जीववक्तव्यताऽत्र भणितव्या तत्राह - 'जाव' इत्याहि, 'जात्र अणागारोव उत्ता' यावदनाकारोपयोगयुक्ता एतदन्तप्रकरणं सर्वमिहापि ज्ञातव्यम् अज्ञानित आरभ्य साकारोपयोगयुक्तान्त सम्पूर्ण प्रकरणस्य संग्रहो ज्ञातव्यइति । 'नवरं जं अत्थि तं भणियच्च' नवरं यद् ज्ञानादिकं यस्यास्ति विद्यते तस्य तदेव भणितव्यम् 'सेसं न भष्णई' शेषं न होते हैं । ' एवं ' जाव काउलेस्सा' सश्यनारक के जैसे ही कृष्णलेइयावाले, नील श्यावाले और कापोतलेइयां वाले नैरथिक जीव क्रियावादी भी होते हैं यावत् वैनयिकवादी भी होते हैं । 'कहपक्खिया किरिया विवज्जिया' कृष्णपाक्षिक नारक क्रियावादी नहीं होते हैंकिन्तु क्रियावादी यावत् वैनधिकवादी होते हैं । 'एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया 'इस प्रकार से ऊपर में प्रकटित किये गये अनुसार जो जीवों की वक्तव्यता कही गई है, 'सच्चेव नेरइयाणं वक्तव्या वि' वही वक्तव्यता यहां नैरथिकों के सम्बन्ध में 'जाव अणागारोवउता' यावत् अनाकारोपयोगवाले नैरविकों के प्रकरण तक सब कहनी चाहिये । 'नवरं जं अस्थि तं भाणियव्वे' परन्तु इस वक्तव्यता में जो जिसके हो यही उसके कहना चाहिये। 'सेसं न भाइ' और
वाय छे. 'एव' जाव काउलेस्मा' श्यावाणा नारम्ना स्थन પ્રમાણે જ કૃષ્ણુલેફ્સાવાળા, નીલલેસ્થાવાળા, અને કાપાત લેશ્યાવાળા, નૈરયિક જીવે ક્રિયાવાદી પશુ હાય છે, યાવત્ નૈનિયકવાદી પણ હોય છે. જુન पक्खिया किरिया विवज्जिया' धृष्णुपाक्षिनाडियावाही होता नथी. परंतु मडियवाही यावत् वैनयिवाही होय छे. 'एवं एपणं कमेणं जच्चेव जीवाण बत्तव्वया' भी प्रमाणे उपर तावेव प्रारथी भवाना संबंधमा ने अथन उडेल छे, 'सच्चेव नेरइयाणं वत्तव्त्रया वि' मेन इथन महिया नैरथि है। ना संधी 'जाव अणागारेविउत्ता' यावत् अनारोपये. जवाजा नैरथिना 'अर पर्यन्त सघणु' स्थन डे' ले 'नवर' जं अत्थि त' भाणियनं' परतु मा स्थनमां ने स्थान लेना समधी होय ते स्थान तेने अहेवाले थे. 'सेसँ
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भगवती सूत्रे
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भण्यते यत् तस्य नास्ति तत् तस्य न वक्तव्यम् इति । 'जहा नेरहया एवं जाव थणियकुमारा' यथा नैरयिकाणां लेश्यादि विशिष्टानामविशिष्टानां च वक्तव्यता कथिता तथैव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमार पर्यन्तानां वक्तव्यता कथनीया इति भावः । 'पुढवीकाइया णं भंगे । किरियाबाई पुच्छा' पृथिवीकायिकाः खलु भद
किं क्रियावादिनोऽक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकदादिनो वेति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नो किरि याबाई' पृथिवीकायिका जीवाः क्रियावादिनो नो भवन्ति 'अकिरियाबाई वि अन्नाणियवाई वि' मिध्यादृष्टित्वात् पृथिवीकायिका अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनश्च भवन्ति वाग्योगाभावेन वादाभावेऽपि तद्वादयोग्य जीवपरिणामसद्भावात् 'नो वेणइयवाई' नो वैनयिकादिन रते भवन्ति तेषां दशग्योगाभावेन वादाभावेऽपि जो जिसके न हो वह उसके नहीं कहना चाहिये । 'जहाँ नेरइया एवं जाव धणियकुमारा' 'जैसा कथन नैरथिकों के सम्बन्ध में प्रकट किया गया है - वैसा ही कथन यावत् स्तनितकुमारी तक जानना चाहिये । 'पुढचीकाइयाणं भंते! किरियाबाई पुच्छा' हे भदन्त | पृथिवीकायिक जीव क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानवादी होते हैं ? वैनयिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयना ! नो किरियाबाई' हे गौतम! पृथिवीकायिक जीव क्रियावादी नहीं होते है 'अकिरियाबाई, वि अन्नाणिपवाई वि' किन्तु वे अक्रियावादी भी होते हैं और अज्ञानवादी भी होते हैं। क्योंकि ये मिथ्यादृष्टि होते हैं । यद्यपि वाकयोगी के अभाव से इनमें वादका अभाव है तब भी तत्तद्भाब के योग्य जीव परिणाम का लगभाव होने से इनमें इनका सद्भाव कहा गया है । 'नो वेणइयवाई' पृथिवीकायिक जीव
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भण्णई' ने हायते तेने हुनान लेसे. 'जहा नेरइया एवं जाव धणियकुमारा' नैरयिम्ना समं धमां ने प्रभाषेनु ं पृथन यु छे से प्रभाषेनु स्थन थावत् स्तनितकुमारी सुधी समक सेवु' ' पुढविकाइयाणं भवे ! किरियाबाई પુચ્છા' હું ભગવન્ પૃથ્વીકાયિક જીવ શુ' ક્રિયાવાદી હૈાય છે ? અથવા અ ક્રિયાવાદી હાય છે ? અથવા અજ્ઞાનવાદી હૈાય છે ? અથવા વૈનિયકવાદી હાય हे ? या प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! नो किरियाबाई' डे गौतम ! पृथ्वी अयि कुत्र डियावाही होता नथी. 'अकिरियावाई वि, अन्नाणि थवाई वि' परंतु तेथे। अडियावाही होय छे, भने अज्ञानवाही पशु डाय છે. કેમ કે–તેઓ મિથ્યાદષ્ટિ હાય છે, જોકે વચન ચૈાગીના અભાવથી તેઓમાં વચન વાદના અભાવ છે. તે પણુ તે તે ભાવને ચૈગ્ય જીવ પરિણામને
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shree fन्द्रका टीका श०३० उ. १ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम् तत्मयोजकजीवपरिणामसद्भावादवादिन इति कथितम् । एवं पुढवीकाइयां णं जं afrate सवत्थ वियाई दो मज्झिल्लाई समोसरणाई' एवं पृथिवीकायिकानां दस्ति तत्र सर्वत्रापि एते द्वे मध्यमे समवसरणे, पृथिवीकायिकानां यदस्ति सश्यादिपदं तत्र सर्वत्रापि मध्यमम् 'अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि ' इत्याकारकं समवसरणद्वयं ज्ञातव्यम्, सल्लेश्य - कृष्ण लेश्य-नीललेश्य- कापोतलेश्य तेजोलेश्य कृष्णपाक्षिक-सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि - सम्यग्मिथ्यादृष्टि - ज्ञान्याभिनि बोधिकज्ञा निश्रुतज्ञान्यधिकज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानि श्रुताज्ञानि विभङ्गज्ञान्याहारसंज्ञोपयुक्त यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्त सवेदकनपुंसकवेदकसकषायि यावल्लोभकषायि सयोगि -मनोयोग-वचनयोगि साकारोपयुक्ताः, इत्यादिषु यत्पदं सम्भवति तेषु पदेषु dafonवादी नही होते हैं। क्योंकि इनमें विनयवाद के योग्य परिणाम नहीं है । ' एवं ' पुढवीकायाणं जं अस्थि तस्य सव्वत्थ वि एयाई दो मज्झिरलाई सम्मोधरनाई' इसी प्रकार से पृथिविकायिक जीवों में जोजो लेश्यादिक पद संभवित होते होवें उन-उन समस्त पदों में ये दो ही - अमियाचादित्व और अज्ञानबादित्व- समवसरण कहना चाहिये । इस प्रकार सलेश्य कृष्णलेश्य, नीललेश्य फापोतलेइय, तेजोलेश्य, कृष्णपाक्षिक, शुक्ल पाक्षिक, सम्पदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अज्ञानी, मध्यज्ञान, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त, सवेदक नपुंसकवेदक, सकषायी, यावत् लोभकषायी, संयोगी, मनोयोगी, बचनशेगी, ताकारोपयुक्त, अनाकारोपयुक्त, इत्यादि
सहूलाव होवाथी तेयामां वयन योगनो सद्दभाव ह्यो छे. 'णो वेणइयवाई' પૃથ્વીકાયિક જીવ વૈનયિકત્રાદી હાતા નથી. કેમ કે તેએમાં વિનયવાદને ચેાગ્ય 'परिलाभ होतु' नथी. 'एव' पुढवीकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मज्जिललाई समसरणाई' मेन असा पृथ्वी अयि वोमां ने ने बेश्या વિગેરે પદા સભવિત ડાય છે, તે તે સઘળા પદૅમાં આ એજ અટલે કેઅક્રિયાવાદી પણુ અને અજ્ઞાનવાદી પણું સમવસરણુ કહેવા જોઈએ. આ रीते वेश्यावाणा, डूष्णुश्यावाणा, नीझसेश्यावाणा, अये तझेश्यावाजा, तेले. सेश्यावाजा, कृष्णणुपाक्षि, शुपाश्चि सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्या दृष्टि, ज्ञानी, मलिनिमोधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, औधिज्ञानी, अज्ञानी, भति મજ્ઞાની, શ્રુતઅજ્ઞાની, વિભગજ્ઞાની આહારસ'જ્ઞાપયેગી યાવત્ પરિગ્રહસ`જ્ઞાપयुक्त, सवे, नयुस, सषायी यावत् से भाषायी, सयोगी, मनोयोगी વચનયોગી, સાકારાન્ચે ગત્રાળા, અનાકારપ ચેગવાળા વિ
पैडी ने-ने
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भगवतीस्त्रे ७२ मध्यमं समवसरणद्वयं ज्ञ'तव्यमिति । क्रियत्पर्यन्तपदेषु समवसरणद्वयं मध्यमं ज्ञात. व्यम् , तबाह-'जाव' इत्यादि। 'जाव अणागारोवउत्ता वि' यावद् अनाकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयोगयुक्त पृथिवीकायिकपर्यन्तं मध्यमं समवसरणद्वयं ज्ञातव्यमिति । 'एवं जाव चउरिदियाणं' एवं पृथिवीकायिकवदेव अपकायिकादारभ्य चतुरिन्द्रियपर्यन्तानाम् 'मयहाणेसु एयाइ चेय मझिल्लाइं दो समोसरणाई सर्वस्थानेषु लेश्यादि सम्माविरुद्वारेषु एते एव मध्यमे द्वे समवसरणे ज्ञातव्ये । ननु द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिादि जीवानां सासादनमावेन सम्यक्त्वं ज्ञानं चेष्यते इति द्वीन्द्रियादि जीवेषु क्रियानादित्वमेव युक्तं तत्त्वसारस्वात् तत्कथमुच्यते मध्यममेव समवसरणद्वयमेतेपामित्याशंक्याह-सम्मत्त' इत्यादि, सम्मत्तनाणेहि वि एयाणि चेव पदों में से जो-जो पद इनमें संवित होते हो उन ले चावत् अनाकाशेष युक्त पृथिवीकायिक पद लक इन दो जय के सभसरणों काही काथन करना चाहिये। ___ जाव्य चाउरिदियाणं' पृथिवीकायिक के जैसे ही अपकायिक से लेकर चतुरिन्द्रियातक के जीवों के 'सबहाणेसु एयाइं चेव मन्झिल्लाई दो समोस्सरणाई' समस्त लेश्यादिक संभावित स्थानों में ये दो ही मध्य के लमवसरण इक्तव्य हुए हैं ऐसा जानना चाहिये।
शंका-दीन्द्रिय, तेइन्द्रिय जीवों के सासादन भाव से सम्यक्त्व और ज्ञान माने गये हैं अतः इनमें क्रियावादित्व रूप इन प्रवासरगही कहना चाहिये था, तो फिर आप इनमें मध्य के दो सनवतरण ही क्यों प्रकट कर रहे है?
उत्तर-सतनाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई दो ललोપદે આ પૃથ્વીકાચિકેમાં સંભવિત હેતા હોય તેમાંથી અનાકારપગવાળા પૃથિવીકાયિક સબ ધી પદ સુધી આ બે મધ્યના સમવસરણેજ કહેવા જોઈએ ____ 'एव जाव चरिदियाणं' पृथ्वी:48ना ४थन प्रभार मयिथा - यार इन्द्रियाणा ७ सुधीना छवाने 'सबढाणेसु एयाइंचेव मजिल्लाई दो समोसरणाई' सा वेश्यादि समावित स्थानोमा म मे १ એટલે કે અક્રિયાવાદી અને અજ્ઞ નવાદીપણાના બે મથના સમવસરણ કહેવા લાયક રહ્યા છે તેમ સમજવું.
શંકા-બે ઈ દ્રિયવાળા અને ત્રણ ઈ દ્રિયવાળા અને સાસાદન ભાવથી સમ્યકત્વ અને જ્ઞાન માનવામાં આવેલ છે જેથી તેઓમાં ક્રિયાવાદી રૂપ સમવ સરણ જ કહેવું જોઈએ પરંતુ આપ તેઓમાં અને સમવસરણો કેમ કહો છે ?
उत्तर-'सम्मत्तनाणेहि वि एयाणि चेव मन्जिल्लगाइ दो समोसरणाईने
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ स०१ जीवानां कर्मवन्धकारणनिरूपणम् ७३ मज्झिल्लगाई दो सनोसरणाई' सम्यक्त्वज्ञानयोरपि एते एव मध्यमें वें समवसरणे ज्ञातव्ये क्रियावादविनयवादौ हि रिशिष्टतरे सम्यक्त्वादिपरिणाम स्यातां न तु सासादलरूपे इति भावः । यद्यपि द्वीन्द्रियादि चतुरिन्द्रियान्तेषु सम्यक्त्वं ज्ञानं च विद्यते तथापि अपर्याप्तावस्थायामेव तयोः सद्भावात् स्तोककालभावित्वेन विशिष्टरूपं लम्यक् ज्ञानं च नास्ति, अतः मध्यानमेव समवसरणद्वयमिति । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा जीवा' पञ्चेन्द्रियतियग्योनिका यथा जीवाः सामान्यजीववदेव पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः क्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनोऽपि भक्तीति । 'नटरं जं अस्थि तं भाणिय नवरं जीवापेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् सरणाई उद्यपि इनके सासादन भाव ले सम्यक्त्व और ज्ञान माने गये है:-परदे वहां अंश रूप से माने गये हैं इसलिये इनके सम्यक्त्व एवं ज्ञान में भी ये दो ही मध्य के लमवसरण होने कहे गये हैं, क्यों कि क्रियाबाद और विनयवाद ये दो विशिष्यतर सम्यक्त्वादि परिणामों के होने पर होते हैं। सासादन रूप सम्यक्त्व ज्ञान के होने पर नहीं होते हैं । यदपि द्वीन्द्रिय से लेकर चौहन्द्रिय तक के जीवों में सम्यक्रम और ज्ञान है परन्तु वे अपर्याप्त अवस्था में ही उनके सदभाव रूपले माने गये हैं -अत: उनमें इनका सदभाव बहत ही कम समयातक रहता है इसलिये ये विशिष्ट रूप में वहां नहीं हैं। इसी कारण यहां बीच के दो समवसरण माने गये हैं। पंचिंदियतिरिवख जोणिया जहा जीवा सामान्य जीव के जैसे पञ्चेन्द्रियतिथग्योनिकजी क्रियावादी भी होते हैं अक्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी श्री होते हैं और चैनचिकवादी भी होते हैं। 'नवरं ज अस्थि કે આ બે ઈદ્રિયાદિમાં સાસાદન ભાવથી સમ્યકત્વ અને જ્ઞાન માનવામાં આવેલ છે. તે પણ તે અહિયાં અંશ રૂપથી માનેલા છે તેથી તેઓને સમ્યકૂવ અને જ્ઞાનમાં પણ આ બેજ મધ્યના સમવસરણ હોવાનું કહેલ છે. કેમકે ક્રિયાવાદ અને વિનયવાદ એ બે વિશેષ પ્રકારના સમ્યક્ત્વ વિગેરે પરિણામે હોય ત્યારે હેય છે સાસાદનરૂપ સમ્યક્ત્વજ્ઞાન હોય ત્યારે હોતા નથી. જો કે છે ઈન્દ્રિયથી લઈને ચાર ઈ દ્રિયવાળા સુધીના જીવમાં સમ્યક્ત્વ અને જ્ઞાન છે, પરંતુ તે અપર્યાપ્તાવસ્થામાં જ તેના ભાવ રૂપથી માનેલા છે, તેથી તેઓમાં તેનો સદભાવ ઘણું જ ઓછા સમય સુધી રહે છે. તેથી તેઓ વિશેષ પ્રકારથી ત્યાં હોતા નથી. એ જ કારણથી ત્યાં મધ્યના બે સમવસરણે માનેલા છે
पंचिंदिन तिरिक्खजोणियाणं जदा जीवा' सामान्य नाथन प्रभाग પંચેન્દ્રિય તિયચનિવાળા જી ક્રિયાવાદી પણ હોય છે. અયિાवाही पर डाय छे.
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भगवतीसूत्रे
७४
यदेव लेश्यादिकं योग्यत्वात् सम्भवति पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां तदेव लेश्यादिकं भणितव्यं नान्यदिति । 'मणुग्ला जहा जीवा तहेव निरवसेसं' मनुष्या यथा जीवा स्तथैव निरवशेषं जीववदेव सर्वाऽपि परिपाटी मनुष्येषु वक्तव्येति । 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' असुरकुमारवदेव वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः क्रियावादिनो यावद्वैनयिकवादिनो भवन्तीति ॥०१॥
जीवनरकादि पञ्चविशतितमदण्डकेषु यत् समवसरणं यत्रास्ति तत् समत्रसरणं विभज्य तत्र तत्रोक्तम्, अथ तेष्देव जीवयदि पश्चविंशतितमदण्डकेषु आयुर्व. धं निरुपयन्नाह - 'किरिचावाई णं भंते ।' इत्यादि ।
मूलम् - किरियाबाई गं भंते! किं नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्खजोभियाउयं पकरेति ? मणुस्ताउयं पकरेति ? देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाज्यं पकरेंति, नो तिरिक्खजो - णियाउयं पकरेंति, मणुरुसाउयंनि पकरेति देवाउयं पिपकरेति । तं भाणियन्व' परन्तु जीव के कथन की अपेक्षा इनके कथन में यही विशेषता जाननी चाहिये कि इन पंचिद्रिय तिर्यग्योनिकों को जो पद संभवित होता हो वे ही पद उनमें कहने चाहिये - अन्य पद नहीं । 'मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं' मनुष्यों में जीव के जैसी ही समस्त परिपाटी कहनी चाहिये, 'वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' असुरकुमारों के जैसी परिपाटी बानव्यन्तरज्योतिषिक और वैमानिक इनमें कहनी चाहिये, अर्थात् ये सब क्रियावादी भी होते हैं अक्रियाबादी भी होते है अज्ञानवादी भी होते हैं और वैनयिकवादी भी होते हैं इत्यादि ॥ १ ॥
'नवर' ज अत्थि त' भाणियव्व" परंतु लवना स्थननी अपेक्षाथी तेखाना થનમાં એજ વિશેષપણુ` છે કે-આ પંચેન્દ્રિયતિય ચૈાનિકાને જે પદ્ય સ‘ભવિત થતા હાય એજ પદો તેઓમાં કહેવા જોઈ એ. તેથી અન્ય કહેવાના નથી. 'मणुस्वा जहा जीवा तहेव निरवसेसं' भनुष्योभां लवना उथन प्रभा ● स उनले मे. 'वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा' અસુરકુમારાના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કહેલ છે, એજ પ્રમાણે વાનબ્યન્તર ચૈતિક અને વૈમાનિકાના સબધમાં કહેવુ' જોઇએ, મર્થાત્ આ બધા ક્રિયાવાદી પણ હાય છે, અક્રિયાવાદી પણ હોય છે, અને વૃનિયકવાદી होय छे, ते सभवुः ॥०१॥
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प्रमेयद्रिका टीका श०३० उ. १ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम्
जइ देवाउयं पकरेंति ? किं भवणवालिदेवाउयं एकरेंति जाव वेमाणियदेवाउयं पकरेंति गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, नो जोइलिय देवाउयं पकरेंति, वैमाजियदेवाउयं पकरेंति । अकिरियाबाई णं भंते! जीवा किं नेरइयाउयं एकरेंति तिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! नेरइयाउचं पिपकरेंति जाव देवाउयं पि एकरेंति । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि । सलेहसाणं भंते! जीवा किरियावाई किं नेरइयाजयं पकरेंति, पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाज्यं पकरेति एवं जहा जीवा तहेव सलेस्सा वि चाहं वि समोसरणेहिं भाणियव्वा । कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउ पकरेंति, पुच्छा, गोथमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिख जोगियाउयं पकरेति, मणुस्साउयं पकरेंति नो देवाउयं पकरेंति । अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चारिवि आउचाई पकरेंति । एवं नीललेस्सा वि काउलेस्सा वि । तेउलेस्सा णं भंते! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयसा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिक्लजोणियाउयं पकरेति, मणुस्लाउयं पकरेति, देवाउयं पिपकरेति । जइ देवाउयं पकरेंति तहेब । तेउलेस्सा णं भंते! जीवा 'अकिरियाबाई किं नेरझ्याउयं पुच्छा, गोयसा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति मणुस्ताउयं पिपकरेंति तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, देवाउयं पिपकरेति । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइय - वाई वि जहा तेउलेस्सा, एवं पहरेस्ता वि सुकलेस्सा वि नायव्वा । सलेस्सा ंां संते ! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिक्ख० नो मणुस्स०
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भगवती सूत्रे
नो देवायं पकरेंति । कण्हपक्खिया णं भंते! जीवा अकिरियावाई किं नेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! नेरइयाउयं पिपकरेंति । एवं चउत्रिहं पि । एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । सुक्कपक्खिया जहा सलेस्ला । सम्मदिट्टी णं भंते ! जीवा किरियावाई किं नेरइयाउयं पुच्छा गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति मणुस्साउयं पकरेंति देवाउयं पिपकरेंति । मिच्छादिट्टी जहा कण्हपक्खिया । सम्मामिच्छादिट्ठी भंते! जीवा अन्नाणियवाई किं नेरझ्याउयं जहा अलेस्सा। एवं वेणइयवाई वि । णाणी आभिणिबोहियनाणी व सुयनाणी य ओहियनाणी य जहा सम्मद्दिही । मणपजवनाणी णं भंते! 'पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिक्ख० नो - मणुस्ल० देवाउयं पकरेंति । जइ देवाउयं पकरेति किं भवण? वासि० पुच्छा, गोयमा ! णो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति 'नो वाणमंतर० नो जोइसिय० वैमाणियदेवाउयं पकरेंति । 'केवलनाणी जहा अलेस्सा। अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा • कण्ह - विखया, सन्नासु चउसु वि जहा सलेह्या । नो सन्नोवउत्ता जहा गणपजवनाणी सवेद्गा जाव नपुंगवेयगा जहा सलेस्सा। : अवेयगा जहा अलेस्सा । सकसाई जाव लोभकलाई जहा सले: स्सा। अकलाई जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। अजोगी जहा अलेस्ता | सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा ॥ सु० २॥
- छाया - क्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवाः किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? देवायुकं प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! नो नैरधिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति नो तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्क"मपिं कुर्वन्ति देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । यदि देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति किं भवनवासि•
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ० १ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम्
देवायुकं प्रकुर्वन्ति यावद्वैवमानिकदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति १ गौतम ! नो भवनवासि देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति, नो वानव्यन्तरदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति नो ज्योतिष्कदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति, वैमानिकदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । अक्रियावादिनः खलु भदन्त 1 जीवाः किं नैरयिकायुक्क' प्रकुर्वन्ति तिर्यगू० पुच्छा, गौतम ! नैरथिका युष्कमपि प्रकुर्वन्ति यावद्देवायुष्कप्रपि प्रकुर्वन्ति । एवमज्ञानिकवादिनोऽपि, वैनयिक'वादिनोऽपि । सश्याः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति पृच्छा, गौतम । नो नैरथिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, एवं यथैव जीवा स्तथैव सश्या अपि चतुर्भिरपि समवसरणे भणितव्याः कृष्णलेश्याः खलु भदन्त जीवाः क्रियावादिनः कि नैरधिकायुष्कं प्रकुर्वन्दि पृच्छा, गौतम । नो नैरयिकायुकं प्रकुर्वन्ति, नो तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति नो देवायुष्क मकुर्वन्ति । अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च - चत्वारि अपि आयुष्काणि मकुर्वन्ति, एव नीललेश्या अपि, कापोतलेश्या अपि तेजोलेश्याः खल भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं नैरविकायुष्कं प्रकुर्वन्ति - पृच्छा, गौतम ! नो नैरधिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, नो विर्यग्योनिका प्रकुर्वन्ति, मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति, देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । यदि देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति तथैव । - तेजोलेश्याः खलु भदन्त । जीवाः अक्रियावादिनः किं नैरयिकायुकं पृच्छा, गौतम ! नो नैरयिकायुक्क मकुर्वन्ति, मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति, तिर्यग्योनिका.युष्कमपि प्रकुर्वन्ति, देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । एवमज्ञानिकवादिनोऽपि, वैनयिक वादिनोऽपि यथा तेजोलेश्याः । एवं पद्मलेश्या अपि शुक्ललेश्या अपि ज्ञातव्याः । `अलेरयाः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं नैरयिकायुष्कं पृच्छा, गौतम | नो नैराियुकं कुर्वन्ति, नो विर्यग्० नो मनु० नो देवायुकं प्रकुर्वन्ति । कृष्णपाक्षिकाः खलु भइन् ! जीवा अक्रियावादिनः किं नैरयिकायुष्क ं पृच्छा, गौतम ! - नैरयिका पुष्कमपि प्रकुर्वन्ति एवं चतुर्विधमपि । एवमज्ञानिकवादिनोऽपि, वैनयिक वादिनोऽपि । शुक्लपाक्षिका यथा सलेश्याः । सम्यग्दृष्टयः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः कि नैरयिकायुष्क पृच्छा, गौतम ! नो नैरयिकायुकं प्रकुर्वन्ति, नो तिर्यग्योनिका युवक मकुर्वन्ति, मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्यि देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । मिथ्यादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः । सम्यग्मिथ्यादृष्टयः खलु मदन्त ! जीवाः अज्ञानिकवादिनः किं नैरयिकायुष्कं यथा अलेश्याः । एवं वैनयिकवादिनोऽपि । ज्ञान आभिनिबोधिकज्ञानी च श्रुतज्ञानि च अवधिज्ञानी च यथा सम्यग्दृष्टिः । मनः पर्यवज्ञानिनश्च भदन्त ! पृच्छा, गौतम | नो नैरथिकायुकं प्रकुर्वन्ति नो तिर्यगू० मो मनुष्य देवायुक ं मकुर्वन्ति । यदि देवायुष्क' प्रकुर्वन्ति किं भवनवासि० पृच्छा,
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भगवतीसूत्रे गौतम ! नो भवनवासि देवायुष्क प्रकुर्वन्ति नो वानन्यन्तर० नो ज्योतिष्क वैमानिकदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । केवलज्ञानिनो यथा अलेश्याः । अशानिनो यावद् विभज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः। संज्ञासु चत्तस्वपि यथा सलेश्या:। नो संज्ञोप. युक्ता यथा मनःपर्यवज्ञानिनः । सवेदका यावत् नपुंयकवेदकाः यथा सलेश्याः । अवेदका यथा अळेश्याः । सकवायिनो यावत् लोकपायिणः यथा सलेक्या।। अक. पायिनो यथा अलेश्या। सयोगिनो यावत् काययोगिनो यथा सळेश्याः। अयोगिनो यथा अलेश्याः । साकारोपयुक्ताश्च, अनाकारोपयुक्ताश्च यथा सलेश्याः ॥१.० २॥ ___टीका-'किरियाई णं भंते ! जीवा' क्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवाः 'कि नेरइयाउयं पकरें ति' किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति नारक भवसम्बन्धि आयु.
नातीत्यर्थः अथवा 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति' तिर्यग्योनिकसम्बन्धि आयुष्क प्रकुर्वन्ति तादृशायुष्क मरन्धं कुर्वन्तीति, अथवा-'मणुस्साउयं पकरेंति' मनुष्यायुष्क प्रकृर्वन्ति अथवा 'देवाऽयं पकाति' देवाशुष्कं प्रकुर्वन्ति ? इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौतम ! 'नो नेग्इयाउयं पकरेति' नो नैरयिकायुष्क भकुर्वन्ति नारकभवसम्बन्धि आयुष्ककर्मवन्धनं कुर्वन्ती
जीव नारकादि २५ दण्डकों में जो-जो समवसरण जहां-जहां है वह-वह समवसरण वहां-वहां विभक्त करके प्रकट किया गया है। अब उन्हीं जीवादि २५ दण्डकों में आयु के धन्ध का निरूपण किया जाता है।-'किरियावाई णं भंते ! जीवा नेरच्याउयं पफरेंति। टीकार्थ-हे भदन्त जो जीव क्रियावादी है वे क्या नैरपिक आय. 'क का एन्ध करते हैं ? 'तिरिक्खजोणियाउयं परेंति' तिर्यश्चायुका. बन्ध मारते हैं ? 'मणुस्साउयं पकरेंति' मनुप्रायुका थन्ध करते हैं? 'देवाउयं पकरेंति' अथवा-देवायु का बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा नो नेरच्याउ परेंति' हे गौतम । क्रियाचादी जीच्च नैरयिक आयुका चन्ध नहीं करते है, 'जोतिरिक्खजोगिया- જીવ નારક વિગેરે દંડકમાં જે-જે સમવસરણ જ્યાં જ્યાં હોય છે, તે તે સમવસરણ ત્યાં ત્યાં જુદા જુદા પ્રગટ કરેલા છે હવે તે જીવ વિગેરે ૨૫ પચ્ચીસ દંડકમાં આયુના બંધનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.– 'किरियावाईण भंते ! जीवा कि नेरच्याउय पहरेति' ऽत्यादि
ટીકાર્થ – હે ભગવદ્ જે છ ક્રિયાવાદી છે, તેઓ શું નરયિક मायुध्यन मध ४२ छ १ 'तिरिक्खजोणियाउय पकरें ति तिय य माध्यता मध ४२ १ 'देवाउय पकरेंति' अथवा हैमायुष्यन। म ४६ छ ? भा 'प्रशन उत्तरमा प्रभु श्री ४७ छ -'गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरे'ति' गौतम ! (यापारी ७२४ि मायुष्यन। ५५ ४२ता नथी. 'णो तिरिक्खजोणिया
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प्रमेवचन्द्रिका टीका श०३० ३.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् त्यर्थः । 'नो तिरिक्खनोणियाउयं पकरे ति' नो-न का तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुवन्ति किन्तु 'मणुस्साउयं पकवि देवाउयं पकवि' मनु यायुष्म प्रकुर्वन्ति, देवायुष्कमपि कुर्वन्तीत्युत्तरम् । 'जइ देवाउथं पकरेति' यदि क्रियावादिनो जीवा देवायुष्क प्रकुन्ति लदा किं भवणवासि देवाउयं पकर ति जाव वेमाणिय देवाउयं पकरेंचि कि सवनवासिदेतायुष्क प्रकुर्वन्ति यावत् वैमानिकदेवायुष्फ प्रकुर्वन्ति यावत्पदेन वानव्यन्तरज्योतिष्कदेवयोः संग्रहः एषु कतमदायुर्वन्धं प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः | भावानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो भवणवासि देवाउयं पकरें वि' नो भवनगासि देवायुष्क प्रकुर्वन्ति 'णो वाणमंतरदेवाउयं पकरे वि' लो ना वामन्यन्तरदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति' 'णो जोइसियदेवाउयं पकरे ति' नो न वा ज्योतिष्पदे वायुष्क प्रकुर्वन्ति अपि तु 'वेमाणियदेवाउयं पकरें वि' वैमानिकदेवायुष्क प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनो उयं पकरेंति' तिर्यचआयु को बन्ध नहीं करते हैं, किन्तु 'मणुस्साउयं पि पकरेंति देवाउथं पि पकरें नि' मनुष्य आयुक्षा भी बन्ध करते हैं। 'और देवायु का भी बन्ध करते हैं । 'जइ देवाइयं पकरे ति किं भवणवासिदेवाज्यं पकरेंति जाव वेमाणियदेखाउयं पकरेंति' यदि वे देवायु का पन्ध करते हैं तो क्या लवनवासी देवों की आयुका बन्ध करते हैं या यावत् वैमानिक देवों की आयुका पन्ध करते हैं ? यहां यावत् शब्द से वानव्यन्तर और ज्योतिषिक इन दो का ग्रहण हुआ है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो भक्षणशालिदेवाउयं पकरे ति जो वाणमंतर देवाउयं पकरेंति' हे गीतल ! क्रियावादी जीव न भवनवासी देवों की आयुका बन्ध करते हैं न वानव्यन्तरदेवों की आयुका बन्ध करते हैं जो जोइसिय देवाउयं पकरेंति न ज्योतिषिक देवों की आयुका बन्ध करते हैं। अपितु 'वेमाणियावाउयं पकरें ति' वे वैमानिक देवोंकी आयुका बन्ध ज्य पकरें'ति' तिय'य मायुना मध ४२ता नथी. ५२तु 'मणुस्साउयं पकरें ति देवाउय पकरे ति' भनुष्य मायुना मा ४२ छे, मने देव मायुनी ५५ ४२ छ. 'जइ देवाव्य पकरे ति किं भवणवासी देवाउय पकरें तिने तमा દેવ આયુને બંધ કરે છે, તે શું તેઓ ભવનવાસી દેના આયુષ્યને બંધ કરે છે? યાવ વિમાનિક દેવેના આયુષ્યને બંધ કરે છે ? અહિયાં યાવત શબ્દથી વનવ્યન્તર અને જતિષ્ક આ બને ગ્રહણ કરાયા છે આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री छ8-गोंयमा! णों भवणवासिदेवाउय पकरें तिं णो वाण. मंतरदेवाउय पकरें ति गौतम! यावाही सवनासिवानी मायुષ્યને બધ કરતા નથી તથા વાનન્તર દેવેની આયુષ્યને બધ કરતા નથી. • 'णो जोइसिय देवाज्यपकरेति' यति वानी मायुध्यन। म ४२ता नथी
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भगवती
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- जीवा इति । 'अकिरिया वाई णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरें ति तिरिक्ख ० पुच्छा' अक्रियावादिनः खल्ल भदन्त ! जीवाः कि नैरथिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति तिर्य'ग्योनिका प्रकुर्वन्ति देवायुष्कं वा प्रकुर्वन्ति इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नेरइयाउयं पिपकरेति जाव देवाउयं पिपकरेंति' नैरयिकायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति यावद देवायुष्कर्माणि कुर्वन्ति अत्र यावत्पदेन तिर्यग्योनिकायुष्कमपि प्रकुर्यन्ति मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्तीस्थनयोः संग्रहो भवतीति । 'एवं अन्ना गियवाई वि, वेण्डबाई वि' एव-अक्रि. यावादिन इव अज्ञानिकवादिनोऽपि चैनयिकवादिनोऽपि नैरयिका मकुर्वन्ति, तिर्यग्योनिका युष्कमपि मकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'सलेस्साणं भंते ! जीवा किरियाबाई' सलेश्याः खल भदन्त । जीवाः क्रियावादिनः 'किं नेरइयाउयं करते है । 'अकिरियाबाई णं संते ! जीवा किं नेरहयाज्यं पकरेति तिरिक्ख० पुच्छा' हे भदन्त ? अक्रियावादी जीव क्या नैरयिक आयुका . बन्ध करते हैं ? या तिर्यग्योनिक की आयुका बन्ध करते हैं ? या मनुष्य आयुका बन्ध करते हैं ? या देवायुष्क का बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नेरइयाउयं पिपकरें नि०' हे गौतम! अक्रि यावादी नैरधिक की आयुका भी बन्ध करते हैं यावत् देवायुका भी बन्ध करते हैं। यहां यावत्पद से तिर्यग्योनिक की आयुका भी वे बन्ध करते हैं और मनुष्य आयुक्का भी वे बन्ध करते हैं ऐसा पाठ गृहीत हुआ है । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणहयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानवादी भी और वैनयिकवादी भी चारों गतियों के आयुष्क का बन्ध करते हैं । 'सलेल्या णं अंत ! जीचा किरियाबाई' हे भदन्त !
पर ंतु 'वैमाणियदेवाउय ं पकरे 'ति' तेथे वैमानि देवाना आयुष्या गंध उरे छे. 'अकिरियावा ईणं भते । जीवा किं नेरइयाजयं पकरेति तिरिक्ख० पुच्छा' हे लग વન્ અક્રિયાવાદી જીવ શુ' નૈરયિક આયુષ્યને બંધ કરે છે ? અથવા તિય 'ચ ચેાનિકના આયુષ્યના ખંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુને મોંધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુષ્યના બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोमा ! नेरइयाउय' वि पकरेंति' हे गौतम अडियावाही नैरयिता आयु ષ્યના પશુ અધ કરે છે, યાવત્ દેવ આયુષ્યના પણ અધ કરે છે. અહિયા ચાવપદ્મથી તેએ તિય ચયાનિકના આયુષ્યને પશુ અધ કરે છે. અને મનુષ્ય આયુષ્યના પશુ તેએ અધ કરે છે. એ પ્રમાણેના પાઠ ગ્રહણુ કરાયેા છે. 'एव अन्नाणियवाई वि. वेणइयवाई वि' ४ प्रमा अज्ञानवादी भने जैनयिठवाडी याशु यारे गतियाना आयुष्यतो गंध रे छे, 'सलेस्साणं भरते !
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sheefer टीका ०३० उ० १ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम्
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पकरेंदि पुच्छा' किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति तिर्यग्योनिका युष्कं मकुर्वन्ति मनुध्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति देवायुष्क प्रकुर्वन्ति ? इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोरमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं एवं जहेव जीवा तदेव सस्सा विचदि वि समोसरणेहिं भाणियव्वा' नो नैरविकायुष्क एवं यथैव जीवा स्तथैव सलेश्या अपि चतुर्भिः समवसरण भणितव्याः, यथा क्रियावादिनो जीवाः नैरयिकायुक्क न प्रकुर्वन्ति नो तिर्यगायुष्क' मकुर्वन्ति अपि तु मनुष्यायुष्कं कुर्वन्ति तथा देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति यदि देवायुष्क प्रकुर्वन्ति तदा किं वैमानिकान्तेषु आयुषो वन्धं कुर्वन्तीति प्रश्नः, नो भवनपत्यादिषु किन्तु मानव आयुर्वन्धं कुर्वन्तीत्युत्तरम् एतदेव 'जहेब जीवा तहेव dattara fकपावादी जीव क्या नैरधिक आयुका बन्ध करते हैं ? या तिर्यग्योनिक की आयुका कध करते है ? या मनुष्यायुं का बन्ध करते है ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - हे गौतम! 'नो नेत्याज्यं एवं जहेव जीवा तहेब सलेस्सा वि
उहि विमलरणेहिं भणियन्चा' जिस प्रकार क्रियावादी जीव नैरfungus at as नहीं करते हैं तिर्यग्योनिकायुष्क का वन्ध नहीं करते हैं, किन्तु मनुष्य आयुका बन्ध करते हैं देवायुष्क का बन्ध करते हैं - देवायुष्क में भी वे केवल वैमानिक देवों की ही आयुका बन्ध करते हैं भवत्यादिकों की आयुका बन्ध नहीं करते हैं उसी प्रकार से सलेश्य जीव भी नैरथिकायुष्क का बन्ध नहीं करते हैं इत्यादि प्रकार से चारों समवसरणवाले ललेश्य जीवों का सब कथन जीव के जैसा ही जानना चाहिये, यही बात 'जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि जीवा किरियावाइ' हे भगवन् सेश्यावाजा डियावाही वा शुं नैरयि न्यायु અને મધ કરે છે ? અથવા તિય ચચ્ચેનિકના આયુષ્યના અધ કરે છે ? અથવા મનુષ્યના આયુને ખધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુષ્યના બધ કરે છે? या अश्नना उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वामीने छे - गौतम ! 'नो नेरइयाउयं' एव जहेब जीवा तहे सलेस्स्रावि चउहिवि समोसरणेहिं भाणियन्त्र પ્રમાણે ક્રિયાવાદી છવા નૈયિક આયુષ્યને અંધ કરતા નથી, તિય ચાનિકના "આયુષ્યના બ ધ કરતા નથી, પરંતુ મનુષ્ય આયુને ખ ધ કરે છે, તથા દેવ આયુષ્યને 'ખ'ધ કરે છે, દેવ આયુમાં પણ તે કેવળ વૈમાનિક દવાના જ આયુને અધ કરે છે. ભવનપતિ વિગેરેના આયુષ્યના બંધ કરતા નથી, એજ પ્રમાણે લેશ્યાવાળા જીવ પણ નૈરયિકાયુષ્યનેા બંધ કરતા નથી. વિગેરે પ્રકારનું સઘળુ કથન જીવના પ્રકરણમાં કહ્યા અનુસાર અહીંયાં સમજવુ' એજ વાત ‘લદેવ નીવા
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भगवतीसूत्रे सस्सा चि' इत्यनेन प्रकरणेन दर्शितमिति । 'कन्हलेस्सा णं भंते ! जीवा fettered किं नेरइयायं पकरेंति पुच्छा' कृष्णलेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः कि नैरयिकायुकं प्रकुर्वन्ति यद्वा तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा देवायुकं प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । सगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम | 'नो नेरहयाउयं करें ति' नो नैरयिका युos प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनः कृष्णलेश्शः जीवाः तथा 'नो वरिषखजोणियाउयं पफरेंति' नो न वा तिर्यग्योनिका युष्कं प्रकुर्वन्ति अपि तु 'मनुस्सा करेंति' मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्वि किन्तु 'नो देवाउयं पकरे 'वि' नो देवायुकं प्रकुर्वन्ति, कृष्णलेश्याः जीवाः क्रियावादिनो देवनारकापेक्षया इस प्रकरण से स्पष्ट की गई है । 'कण्ट्लेस्सा णं अंत ! जीवा किरियावाई किं नेरयायं पकरेति पुच्छा ?' हे भदन्त | कृष्णलेवावाले क्रियावादी जीव क्या नैरयिक आयुका धन्ध करते हैं ? मा तिर्यगायु का वध करते हैं, या अनुष्य आयुका बन्ध करते हैं या देवायु का बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोपना' हे गौतम !' 'नो नेरयायं पकरे ति' कृष्णलेइयावाले क्रियावादी जीव नैरचिक आयुका बन्ध नहीं करते हैं तथा - 'नो तिरिक्खजोणिद्याजयं पकरेति' न वे तिर्यगाय का बन्ध करते हैं, अपितु वे 'मनुस्साज्यं परे ति०' मनुव्यायुका ही बन्ध करते हैं । 'णो देवात्र्यं पकरेति' देवायु का पन्ध नहीं करते हैं । ऐला जो यह कथन किया गया है कि कृष्णलेश्यावाले क्रियावादी जीव मनुष्य आयुक्का ही बन्ध करते हैं सो यह देव नारकों की
तव लेखावि' या सूत्रपाठथी स्पष्ट व छे. 'कण्हलेहसाणं भंते! जीवा किरियावा किं नेरइयाउय पकरेति पुच्छा' हे लगवन् दृष्युसेश्यावाजा डियाવાદી જીવા શું નૈરચક આયુષ્યના અંધ કરે છે ? અથવા તિયચ આયુના ખંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુના ધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુના અંધ उरे छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वाभीने है - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'नो नेरइयान्य' पकरेति' हे गौतम! ष्णुतेश्यावाजा डियावाही
वे नैरयिना आयुष्यनो अध उरता नथी. 'नो तिरिक्खजोणियाउ पक*તિ' તેઓ તિય``ચ ચાનીવાળાએના આયુષ્યના પશુ બંધ કરતા નથી પરંતુ तिथे 'मणुस्साय' करें ति' भनुष्य मायुना ४ अंध उरे छे. णो देवाउयं पकरेंति' ધ્રુવ આયુના તેએ અધ કરતા નથી આ પ્રમાણે જે આ કથન કર્યુ છે, કે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્રિયાવાદી જીવે મનુષ્ય આયુના જ અધ કરે છે, તે તે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ३० ४.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम्
टंं
विज्ञेया इति मनुष्यतिरचोः कृष्णादि त्रितय लेश्याकाले आयुर्वन्धाभावादिति || 'अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य, चत्तारि वि आउयाई पकरेंति' कृष्णलेश्या अक्रियावादिनः, अज्ञानिकवादिनः, चैनयिकवादिनश्थ जीवाः चत्वारि अपि आयुष्काणि नारकतिर्यग्मनुष्य देवसम्बन्धीनि प्रकुर्वन्ति चतुष्प्रकारकमपि आयुष्कर्म वध्नन्तीति भावः । ' एवं ' नीललेस्सा वि काउलेस्सा वि' एवं कृष्णलेश्यवदेव नीललेश्यावन्तः कापोतलेश्यावन्तश्च अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनथ जीवाः चतुष्प्रकारकमपि आयुष्ककर्म वध्नन्तीति भावः । क्रियावादिनो जीवास्तु केवलं मनुष्यायुष एवं बन्धं कुर्वन्तीति' 'तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावा किं नेरहयाउयं पकरें वि पुच्छा' तेजोलेश्याः खल भदन्त ! अपेक्षा से कहा गया हैं क्धों की मनुष्य और तिर्यञ्च कृष्णादि तीन लेश्या के सद्भावकाल आयुका कध नहीं करते हैं । 'अकिरियाबाई अन्नाणियचाई वेणहयवाईप चसारि वि आउयाई पकरेति अक्रियाबादी, अज्ञानवादी, चैनषिकवादी ये सब चारों भी आयुओं का बन्ध करते हैं । कृष्णलेषावाले अक्रियाबादी जीव 'अन्नाणियवाई' अज्ञानवादी जीव और 'वेणहवाई' बैनधिकवादी जीव चारों आयुओं का पन्ध करते हैं। 'एवं नीललेस्सा वि काउलेस्ला वि 'इसी प्रकार नीललेइयावाले और कापोतश्यावाले अक्रियावादी जीव, अज्ञानिकवादी जीव एवं वैनयिकवादी जीव चारों प्रकार की आयु का बन्ध करते हैं । और क्रियावादी जीव मात्र मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं 'तेउलेस्सा णं भंते! जीवा किरियाबाई किं नेरहयाउयं पकरेति पुच्छा' हे भदन्त । तेजोलेश्यावाले
કથન આ દેવ નારકોની અપેક્ષાથી કહેલ છે. કેમ કે-મનુષ્ય અને તિય ચ કૃષ્ણુ विगेरे प्रभु बेश्याना सलावाणमां आयुनो अधरता नथी. 'अकिरिया - बाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चत्तारि वि आउयाई पकरेंति' अडियावादी અજ્ઞાનવાદી, વૅનિયકવાદી એ ખધા ચારે પ્રકારના આયુષ્યના બંધ કરે છે, पॄष्णलुसेश्यावाणा अडियावाही व 'अन्नाणियवाई' अज्ञानवाही व अने 'वेणइयवाईय' वैनयिवाही लव यारे प्रहारना आयुनो बंध ४ छे, 'एव ं नीललेस्सा वि काउलेला वि' मेन अभाो नीससेश्यावाणा ने अश्या
વાળા જીવા અક્રિયાવાદી જીવ, અજ્ઞાનવાદી જીવ અને નૈનિયકવાદી જીવના કથન પ્રમાણે ચારે પ્રકારના આયુષ્યને મંધ કરે છે. અને ક્રિયાવાદી જીવ ठेवण मनुष्यायुना ४ अंध अरे छे. 'वेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाज्य' पकरेति' पुच्छा' हे भगवन् तेलेबेश्यावाजा वे मा
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भगवतीसूत्र जीयाः क्रियावादिनः किं नैयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिकायुष्क प्रन्ति अथवा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति यद्वा देवायुष्क प्रकुर्वन्तीत्येवं प्रकारेण प्रश्नः पृच्छया संगृह ते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' है गौवम ! 'नो नेरइयाउयं परेंति' नो नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति तेजो. लेश्याः क्रियावादिनः 'नो विरिक्खनोणियाउयं पकरेंति' नो तिर्यग्योनिकायुष्क भकुर्वन्ति, किन्तु 'मणुस्साउयं पकरें वि' मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति । 'देवाउयं पि एकाति' देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । 'जइ देवाउयं पकरें ति' यदि तेजोलेश्याः क्रियावादिनो जीवा देवसम्बन्धि आयुष्कं प्रकुर्वन्ति तदा किं भवनवासि देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् वैमानिकदेवायुष्क प्रकुर्वन्तीति प्रश्ना, उनरमाह-'तहेव' तथैव यथैव क्रियावादिजीवानां देवादी आयुर्वन्धो विरूपित स्तथैव तेजोलेश्य जीव जो की क्रियावादी है, वे क्या नैरयिकायुष्म का बन्ध करते हैं ? अथवा तिर्थग्योनिक की आयु का वध करते हैं ? अथवा मनुष्य आयु फा बन्ध करते हैं ? अश्या देवायु का बन्ध करते है इल प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! नो नेरच्याउयं पकरेति' हे गौतम ! वे नैर. 'यिक आयुका पन्ध नहीं करते हैं 'नो तिरिक्खजोणियाउय पकरें ति' तिर्यग्यानिक आयुक्का पन्ध नहीं करते हैं किन्तु के 'मणुस्लाउयं पकरेंति, देवाउयपि पारेति' मनुष्य आयुका बन्ध करते हैं और देवायु का भी घन्धकरते हैं । 'जह देवाउयं पकरेंति' यदि वे तेजोलेल्यावाले क्रियावादी जीव देवायुका बन्ध करते है तो क्या वे भवनकालि देशायुक्षा बन्ध करते हैं ? या यावत् वैमानिक देवायु का बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'तहेच' हे गौतम ! जिस प्रकार से क्रियावादी जीवों દિયાવાદી હોય છે. તેઓ શું નરયિક આયુષ્યને બંધ કરે છે? અથવા તિર્યંચાનિક આયુનો બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુનો બંધ કરે છે? કે દેવ આયુને બંધ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! नो नेरइयाउय पकरें ति' हे गौतम ! तसा नयि मायुष्यन मध ४२ता नथी. 'नो तिरिक्खजोणियाउय पकरें ति' तिय ययानि मायुष्यना मध ४२ नथी. परंतु तम्या 'मणुस्साउय पकरें ति, देवाउयपि पकरेंति' भनुष्य मायुना मध ४३ छे. मन हे मायुन। ५५ ५५ ४२ छे. 'जइ देवाउय पकरेंति तन्नवेश्यावाणा वन डे मायुनी मय ४२ छ, तो शु. तेमा ભવનવાસી દેવ આયુને બંધ કરે છે ? અથવા યાવત્ વૈમાનિક દેય આયુને १ ४२ ? २॥ प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्री ४ -'तहेव' गौतम ! જે પ્રમાણે ક્રિયાવાદી જીવને વૈમાનિક દેવ આયુને બંધ થવાના સંબંધમાં
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विचन्द्रिका टीका श०३० २.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् क्रियावादिनामपि वक्तव्यम् , भवनवासि वानव्यन्तरज्योतिष्कदेगयुष्कन कुर्वन्ति किन्तु वैमानिकदेवायुष्कं कुर्वन्तीति भावः । 'तेउलेस्सा ण भंते ! जीवा अकिरियावाई कि रइयाउयं पुच्छा तेजोलेश्याः खल भदन्त ! जीवाः अक्रिया वादिनः किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्कं वा प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरेंति' नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति तेजोलेश्या अक्रियावादिनो जीवाः किन्तु 'मणुस्साउयपि पकरेंगते' मनुष्यभवसमन्धि आयुष्कमपि प्रकुर्वन्ति तथा-'तिरिक्खजोणियाउय पि पकरे वि' तिर्यग्योनिकायुकमपि प्रकुर्वन्ति तथा-'देवाउयं पि पकको-वैमानिक देवायुका बन्ध होना कहा गया है उसी प्रकार से तेजो. लेश्यावाले क्रियावादीयों को भी वैज्ञानिक देवायुक्षा ही बन्ध कहा गया है। भवनवाली वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवायु का बन्ध करना नहीं कहा गया है । 'तेउलेस्लाणं भंते ! जीवा अकिरियावाई कि नेरच्याउयं पुच्छा' हे भदन्त । जो तेजोलेश्यावाले जीव अक्रियावादी होते हैं उसको क्या नैरयिक आयुका धन्ध होता है ? या तिर्यगायुका बन्ध होता है ? या मनुष्यायु का बन्ध होता है ? या देवायुका बन्ध होता है ? उत्सर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! नो नेरइयाज्यं पकरेंति' हे गौतम ! उनके नैरयिक आयुका बन्ध नहीं होता है, किन्तु- 'मणुस्लाउयं पि पकरेति' उनको मनुष्यायु का भी धन्ध होता है ? 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति' तिर्यगायुका भी बन्ध होता है 'देवाउयं पिपकरें ति' और કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણે -તેલેશ્યાવાળાકિયાવાદીને પણ વૈમાનિક દેવ આયુને બંધ કહેલ છે, ભવનવાસી, વાનવંતર, અને તિષ્ક દેવ मायन। म ४२वानु र नथी. 'तेउलेस्सा ण भते । जीवा अकिरियावाई कि नेरइयाउय' पुच्छा' 8 लगन तलेश्यावा ! यिावाही હોય છે, તેઓને શું નરયિક આયુને બંધ હોય છે? અથવા તિર્યંચ આયુને બંધ હોય છે? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ હોય છે? અથવા દેવ આયુષ્યને બંધ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
-गोयमा! नो नेरइयाउय पकरें ति' तमान थि: मायुनी म थत नथी. परंतु 'मणुस्साउय पि पकरेंति' तमान मनुष्य सायुनी पण
य छ, 'तिरिक्खजोणियाउयपि पकरेंति' तिय यमायुना पर मसाय छे. 'देवाज्यप पकरेंति' भने उपायुनी या महाय छ
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भगवती रेति' देवायुकमपि प्रकुर्वन्तीति भावः । 'एवं अन्नाणियबाई वि वेणइयवाई वि' एवम् अक्रियाशदि वदेव तेजोलेश्या अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि नैरयिकायुष्कं न अकुर्वन्ति किन्तु मनुष्यतिर्यग्योनिकदेवायुष्माणि प्रकुर्वन्तीति भावः । 'जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा नि नायना' यथा-येन प्रकारेण तेजोलेश्याः क्रियावादिनोऽक्रियावादिनचायुष्क कर्मबन्धनविपये निरू. पिता स्तथैव-तेनैत्र प्रकारेण पद्मलेश्याः क्रियावादिनो जीवाः पद्मलेश्या अक्रियावादिनच जीवा ज्ञातव्याः तत्र क्रियावादिनः पद्मळेश्याः नो नैरयिकायुष्कं प्रकुन्ति न वा विर्यगायुष्कं प्रकुर्वन्ति किन्तु मनुष्यायुष्कं देवायुष्कच प्रकुर्वन्ति, अक्रियावादिनः पालेश्यजीवास्तु नो नैरयिकायुष्क कुर्वन्ति, किन्तु तिर्यग्मनुष्यदेवायुरुक कुन्तीति । एवं शुक्ललेश्यजीवाः क्रियाऽक्रियाविभाग देवायुका भी जन्ध होता है एवं अन्नाणियचाई पि वेणइयवाई वि' अक्रियावादी के जैसे तेजोलेश्यावाले अज्ञानिकवादी भी और वैनयिकवादी श्री नरशिकायु का बन्ध नहीं करते हैं। किन्तु वे मनुष्यायु, तिर्यगायु और देवायु का बन्ध करते हैं। 'जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुक्सलेला वि लायन्ना जिस प्रकार से तेजोलेश्यायाले क्रियावादी
और अक्रियावादी आदि आयुष्कर्म के बन्ध के विषय में निरूपित किये गये है उसी प्रकार ने पद्मलेश्यावाले क्रियावादि जीव और पदमलेश्शायाले अक्रियावादी आदि जीव भी जानना चाहिये तथाथपदूसलेण्याबाले नियावादी जीव नैरथिकायु और वायु का बन्ध नहीं करते हैं किन्तु मनुष्यायु और देवायुका बन्ध करते हैं। परन्तु पद्मलेचाचाले अक्रियावादी आदि जीव नरथिकायु का बन्ध नहीं करते 'एवं' अन्नाणियवाई त्रिवेणइयवाई वि' यावाहीनी रेभ. ४ तनवेश्याવાળા અજ્ઞાનવાદી અને વનચિકવાદી પણ નૈરયિક આયુને બંધ કરતા નથી પરંતુ તેઓ મનુષ્ય આયુ, તિર્યંચ આયુ, અને દેવ આયુને બંધ કરે છે. 'जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुबास्सा वि नायव्वा' हे प्रमाणे तन्न 'લેશ્યાવાળા ક્રિયાવાદી અને અક્રિયાવાદીને આયુકર્મને બંધના સંબંધમાં નિરૂપિત કર્યા છે એજ પ્રમાણે પલેશ્યાવાળા કિયાવાદી જીવ અને પલેશ્યા વાળા અઝિયાવાદી જીવના સંબંધમાં પણ સમજવું તથા પદ્મવેશ્યાવાળા દિયાવાદી જીવ નૈરયિક આયુ અને તિર્યંચ આયુને બંધ કરતા નથી પરંતુ મનુષ્ય આ યુ અને દેવ આયુને બંધ કરે છે, પરંતુ પાલેશ્યાવાળા અક્રિયાબાદી જી નરયિક આયુને બંધ કરતા નથી, પરંતુ તિર્યંચ આને મg
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ २०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् विभिन्ना अपि क्रमशः पद्मलेश्यजीववदेव ज्ञातव्याः विवेचनीयाश्चेति भावः । 'अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किंणेरइया पुच्छा' अलेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति अधवा तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुवन्ति अथवा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्कं वा प्रकुर्वन्ति, इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरेंति नो तिरिक्खा० नो मणुस्प्ता० नो देवाउयं पकरेंति' नो नैरविकायुक अंकुन्ति अलेश्याः क्रियावादिनी जीवा नो सियशोनिकायुष्म कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुप्कं प्रकुन्ति नो-न वा देवायुषकमपि प्रकुर्वन्ति अलेश्याः खल मिद्धा अयोगिनश्च भवन्ति, तेषां चाविधेश्य आयुष्केभ्यो मध्यादेकाप आयुर्वन्धकत्वं हैं किन्तु तिर्यगायु का मनुष्यायु का और देशायु का हो बध करते हैं । इसी प्रकारले शुक्ललेश्यावाले क्रियावादि और अक्रियावादी आदि जीव क्रमशः पद्धलेशशायाले जीव के जैसे ही विवेचनीय है। 'अले स्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई कि जेरइया पुच्छा' हे भदन्त ! जो अलेश्य क्रियावादी होते हैं - क्या नैरयिक आयुका पन्ध करते हैं ? या तिथंगायु का बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुका पन्ध करते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? हमके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- गोयमा ! नों नेरच्याउथं पकरे ति नोतिरिक्खा० नो मणुस्सा नो देवाउयं पकरेति' हे गौतम वेन नारकायुका बन्ध करते है न तिर्यगायुका धन्ध करते हैं, न मनुष्यायुका बन्ध करते हैं और न देवायुका पन्ध करते हैं । क्यों कि अलेश्य अयोगी और सिध्ध होते हैं । अत इनमें चारों आयुओं के बीच में से किसी भी आयुकी बंधकता नहीं होती हैं। ધ્ય આયુને, અને દેવ આધુને જ બધ કરે છે. એજ રીતે શુકલ લેશ્યાવાળા કિયાવાદી અને અકિયાવાદી જી કમશઃ પદ્યલેશ્યાવાળા જીવની જેમ समपा. 'अलेस्सा णं भते ! जीवा किरियावाई किं ने इया पुच्छा' सावन જે અલેશ્ય જીવ યિાવાદી હોય છે, તેઓ શું રયિક આયુને બંધ કરે છે ? અથવા તિર્થં ચ આયુને બધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે ? અથવા દેવ આયનો બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! नो नेरइयाउय' पकरे ति' हे गौतमसा नायुनी ॥ ४२ता નથી તથા તિર્થં ચ આયુને પણ તેઓ બંધ કરતા નથી અનુષ્ય આયનો પણ તેઓ બંધ કરતા નથી. તથા દેવાયુને પણ બંધ કરતા નથી કેમ કેલેશ્યા રહિત અગી અને સિદ્ધજ હોય છે. તેથી તેને ચારે આ પૈકી કિંઈપણ આયુનું બ ધકપણું આવતું નથી કેમકે તેઓ તે ભવસિદ્ધિ
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भगवतीसूत्रे
न सम्भवति सिद्धिगमनयोग्यत्वात् 'कण्डपक्खिया णं भंबे ! जीवा अकिरियाबाई किं नेरइयाउयं पुच्छा' कृष्णपाक्षिकाः खल्ल भदन्त ! जीवा अक्रियावादिनो नैरयिकायुकं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिका युष्कं प्रकुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्कं प्रकुतदेव कुन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'नेरइयाउयं पिपकरेंति' नेरयिकायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'एवं चविहं पि' एवं चतुर्विधमपि आयुष्पकुर्वन्ति नैरयिकायुष्क कुर्वन्ति विर्यग्योनिका युष्कमपि प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि मकुर्वन्ति देवायुष्कमपि मकुर्वन्ति कृष्णपाक्षिकतया सिद्धिगमनस्य तदानीमसंभवेन चातुर्गतिकसंसारस्यैव सद्भावात् । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' एवम् अक्रियाक्योंकि ये तो सिद्धि में जाने के ही योग्य होते हैं । 'कण्हपक्खिमाणं अंते । जीवा अधिरियाबाई किं नेरइयाउयं पुच्छा' हे भदन्त ! जो कृष्णपाक्षिक जीव अक्रियावादी होते हैं वे क्या नैरधिकायुका बन्ध करते हैं? या तिर्यगाय का पन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुका बन्ध करते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नेरहयाउयं पिपकरेति एवं चव्विह पि' हे गौतम! वे नैरयिक आयुका भी बन्ध करते हैं । तिर्यगायुका भी बन्ध करते हैं। मनुष्यआयुका भी बन्ध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं । इस प्रकार ये चारों आयुओं का धन्ध करते हैं। क्योंकी कृष्णपाक्षिक होने से इनमें सिद्धिगमन की उस समय असंभवता रहती है अनाहन में चतुर्विध संसारका ही सद्भाव पाया जाता है । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेण
गतिमां भवाने योग्य होय छे. 'कण्हपक्खियाणं भंते ! जीवा अकिरियाबाई कि' नेरइयाज्यं पुच्छा' हे भगवन् के ष्णुपाक्षिक वा सञ्ज्यिावाही हाय છે, તેશુ નૈરયિક આયુને ખધ કરે છે ? અથવા તિય‘ચ આયુના ખધ છે ? અથવા મનુષ્ય આયુના બંધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુના બંધ કરે છે? આ प्रश्नमा उत्तरभां अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेति एवं चव्विहं पि' डे गौतम ! तेथे नैरयि आयुनो या गंध रे छे, तियथ मायुना બંધ કરે છે, મનુષ્ય આયુને પણ બંધ કરે છે. અને દેવ આયુના પશુ અધ કરે છે. આ રીતે તેએ ચારે પ્રકારના આયુને ખંધ કરે છે. કેમ કે કૃષ્ણુપાક્ષિક હાવાથી તેઓમાં સિદ્ધિ ગમનની ચૈગ્યતાના અભાવ રહે છે. તેથી तेथेोभां यारे प्रहारना संसारना सहुलाव रहे थे. 'एवं अन्नाणियवाई वि
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प्रमेयखन्द्रिका ठीका श०३० उ. १ सू०२ आयुर्ब न्धनिरूपणम्
वादि कृष्णपाक्षिकदेव अज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्व कृष्णपाक्षिका अवि जीवाः नारायुर्यग्योनिकायुर्मनुष्यायुर्देवायुरपि प्रकुर्वन्ति, तदानीं मोक्षगमनयोग्यताया अमावेन चातुर्गतिकसंसारस्यैव जनकत्वात् । 'सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा' शुक्लाक्षिक जीवा यथा सलेश्याः सलेश्यजीवचदेव शुक्लपाक्षिकाः चतुर्ष्वपि समवसरणेषु आयुर्वन्धं प्रकुर्वन्तीति भावः । ' सम्मदिट्ठीणं भंते ! जीवा किरियाबाई कि नेरइयाउयं पुच्छा' सम्यग्दृष्टः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः नैरायुष्कं कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुष्कं कुर्वन्ति मनुष्या
or कुर्वन्देिशयुकं वा कुन्तीति नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोसा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरेंति' नो नैरकायु
इयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानवादी कृष्णपाक्षिक जीव भी और वैनयिकवादी कृष्णपाक्षिक जीव भी अक्रियावादी कृष्णपाक्षिक के जैसे हो वारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु का बन्ध करते हैं । क्योंकि इस स्थिति में इनके मुक्ति में जाने की योग्यता नहीं होती है अतः इनमें चतुर्विध संसार में संसरण (परिभ्रमण) होने का ही सद्भाव पाया जाता है. 'सुक्कपक्स्विया जहा सलेस्सा' सलेइय जीव के जैसे ही चारों समयसरणो में शुक्लपाक्षिक जीव के आयु बन्ध कहना चाहिये । 'सम्मदिहीणं भंते ! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाज्यं पुच्छ।' हे भदन्त । क्रियावादी सम्यग्दृष्टि जीव नैरथिक आयुका बन्ध करते हैं ? या तिर्थमायुका बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुका बन्ध करते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री
वेणइयवाई वि' मे४ प्रमाणे अज्ञानवादी दृष्युपाक्षित्र अने वैनयिवाही दृष्यપાક્ષિક જીવ પણ કૃષ્ણપાક્ષિકની જેમજ નાકાયુ, તિર્યંચાયુ. મનુષ્યાયુ, અને દેવાયુના બંધ કરે છે. કેમ કે તે સ્થિતિમાં તેને મુક્તિ ગમનની ચેાગ્યતા હતી નથી. તેથી તેામાં ચાર પ્રકારના સ`સારમાં સ`સરણુ–પરિભ્રમણ હાવાને સભાવ २हे छे. 'कपविखना जहा सलेस्सा' बेश्यापाजा लवना स्थन प्रभाो ४ ચારે સમવસો માં શુકલપાક્ષિક જીવને આયુ અધ કહેવા જોઈએ.
'सम्मदिट्ठी ण भंते! कि ं किरियाबाई किं नेरइयाउय" च्छा' ક્રિયાવાદ સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા જીવે. નૈયિક આયુના "ધ કરે છે ? અથવા તિય ચ આયુને! ખાધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુના ધ કરેછે? અથવા દેવ આયુના બધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે ગૌતમ !
भ० १२
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कुन्ति 'नो तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेति' नो तिर्यग्योनिकायुष्कं पकुन्ति किन्तु 'मनुस्सा पकरेति देवाउयं पिपकरेंति' मनुष्यायुष्कं मकुर्वन्ति देवायुकमपि प्रकुर्वन्तीति भाव: । 'मिच्छादिट्टी जहा पविया' मिध्यादृष्ट योsक्रियावादिनो जीवाः कृष्णपाक्षिकवदेव-देवनारायुरपि कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकारपि कुर्वन्ति मयुरपि कुर्वन्ति, देशयुरपि कुर्वन्तीति भाव: । 'सम्मामिच्छादिट्टीणं भंते ! जीवा अन्नाणियवाई कि नेरइयाज्यं ०' सम्यग्मिध्यादयः, मियो हिजज्ञानवादिनो जीवाः किं नारकायुः कुर्वन्ति यद्वा विर्यग्योनिकायुः प्रकुर्वन्ति देवायु व मकुर्वन्तीति मनः, उत्तरमाह 'जहा अलेस्सा' यथा अश्याः अलेग्जीववदेव मिश्रदृष्टोऽज्ञानिकवादिनो नो नारायुर्न
कहते हैं - हे गौतम | वे नैरयिक आयुका बन्ध नहीं करते हैं, तिर्थश्चायु का बन्ध नहीं करते हैं किन्तु मनुष्यायुका बन्ध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं। 'मिच्छादिट्टी जहा कण्हपक्खिया' अक्रियावादी आदि मिथ्यादृष्टि जीव कृष्णपाक्षिक के जैसे नारकायुका भी वन्ध करते हैं, तिगायुका भी बन्ध करते हैं, मनुष्य आयुका भी वन्ध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं। 'सम्मामिच्छादिट्टी णं भंते । जीवा अन्नाणियवाई किं नेरइयाजय' हे भदन्त । अज्ञानवादी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जोब क्या नरकायुक्का बन्ध करते हैं? या तिर्थमायुष्क का बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुष्क का बन्ध करते हैं ? या देवायुका वंध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'जहा अलेस्सा' हे गौतम ! अलेश्य जीवों के जैसे अज्ञानवादी मिश्रदृष्टि जीव किसी भी आयुका
તે નૈયિક આયુને અધ કરતા નથી તિય ચ આયુના પણુ ખૂધ કરતા નથી પરંતુ મનુષ્યના આયુના 'ધ કરે છે. અને દેવ આયુના 'ધ કરે છે. 'मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया' अहियावादी मिथ्यादृष्टि लव કૃષ્ણુપાક્ષિકના કથન પ્રમાણે નારક આયુને પણ મધ કરે છે તિય`*ચ આયુના પણ બંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુના પણ અધ કરે છે. અને દેવ આયુને પણ अरे . ' सम्मामिच्छादिट्टीणं भवे । जीवा अन्नाणियवाई कि नेरइयाउयं ० ' ૐ ભગવત્ અક્રિયાવાદી સભ્યમિથ્યાર્દષ્ટિ જીવા શુ નારકાપુના અધ કરે છે? અથવા તિય ચ આયુના મોંધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને અધ કરે છે અથવા દેવ આયુના "ધ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી शीतभस्वाभीने हे छे - 'जहा अलेस्मा' हे गौतम! बेश्याविनाना लवोना કથન પ્રમાણે અજ્ઞાનવાદી મિથ્યાદૃષ્ટિ જીવા ફાઈ પણ અણુના ખૂંધ કરતા
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प्रमेयन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् वा तिर्यग्योनिकायु ने वा मनुष्यायु न वा देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्तीति मिश्रदृष्टिकाले सर्वायुषो बन्धाभाव एवेति । 'एवं वेगइयवाई वि' एवं मिश्रदृष्टिकाज्ञानिकवादिन इव मिश्रदृष्टिक वैनयिकवादिनोऽपि चतुर्विधान्यपि आयूंषि न बध्नन्तीति । इतः परं क्रियावादि ज्ञानवादि सूत्राणि कथयति-ज्ञानिप्रभृतिषु क्रियावादातिरिक्त. वादस्य विरुद्धत्वेनासंभवात् 'गाणी आषिणीवोहियनाणी य सुयनाणी य ओहिनाणी य जहा सम्मदिट्ठी' ज्ञानिन आभिनिबोधिकज्ञानिनश्च श्रुतज्ञानिनश्च अवधिज्ञानिनश्च यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टिवदेव इमे ज्ञानि प्रभृतयः न नारकायुः प्रकुर्वन्ति न वा तिर्यम्पोनिकायुष्क प्रकुन्ति किन्तु मनुष्यायुकं प्रकुर्वन्ति देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति इति । 'मणपज्जवनाणीणं भंते ! पुच्छा' मनापर्यवज्ञानिनश्च घंध नहीं करते हैं-न निरयायुका वे बंध करते हैं न तिर्यगायुका वे बंध करते हैं, ल मनुष्यायुका वे वंश करते हैं और न देवायुको वे बन्ध करते हैं क्यों कि इस अवस्था में किली भी आयुका बंध नहीं होता है। 'एवं वेणझ्यवाई चि' अज्ञानवादी मिनदष्टि के जैले मिश्रष्टिक वैनयिकवादी भी चारों प्रकार की आयुका बंध नहीं करता है। ___ अब यहां से आगे सूत्रकार क्रियावादी ज्ञानवादी के सूत्रों का कथन करते हैं-वयों सी ज्ञानी आदिकों में क्रियावाद के अतिरिक्तवाद की विरुद्ध होने से असंभवता है। 'णाणी आभिणि. घोहियनाणी २ सुयनाणी य ओहिनाणी य जहा सम्मदिट्टी' सम्यकदृष्टि जीव के जैले ज्ञानी, आभिनिवोधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी ये सब मनुष्यायु और देवायुका बंध करते हैं नरकायु और तिर्थ गायुका बंध नहीं करते है। 'मणपज्जवनाणी णं भंते! पुच्छा' हे भदन्त ! मनापर्यवज्ञानी क्या नैरपिक आयुका बंध નથી. તેઓ નારક આયુને બંધ કરતા નથી તિર્યંચ આયુને બ ધ કરતા નથી. મનુષ્ય આયુને બંધ કરતા નથી. અને દેવ આયુષ્યનો પણ બંધ કરતા નથી. કેમ કે આ અવસ્થામાં એકપણ પ્રકારની આયુને બાધ તેમને હેતે नथी. 'एवं वेणइयवाई विन्यज्ञानवाही भिष्टिवाणाना ४थन प्रभाव भिट વૈયિકવાદી પણ ચારે પ્રકારના આયુષ્યને બંધ કરતા નથી.
હવે સૂત્રકાર કિયાવાદી, જ્ઞાનવાદીઓના સંબંધમાં કથન કરે છે.–કેમકે જ્ઞાની વિગેરેમાં કિયાવાદ શિવાયના વાદનું વિરૂદ્ધ પણ હોવાથી અસંભવપણું છે. 'णा आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य, ओहिनाणी य जहा सम्मदिदी . સમ્યગદૃષ્ટિવાળા જીવના કથન પ્રમાણે જ્ઞાની. આભિનિધિકત્તાની, શ્રુતજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની આ બધા મનુષ્ય આયુ અને દેવ આયુને બંધ કરે છે. નારક भायु मन लिय' आयुन। म ४२ता नथी. 'मणपज्जवनाणी णं भंते ! पुच्छा
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भगवतीचे खल पृच्छा, मनापर्यवज्ञानिनः खलु भदन्त ! जीवाः कि नारकायुष् कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुष्क कुर्वन्ति मनुष्यायुप्फ चा कुर्वन्ति देवायु वा कुर्वन्तीति पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयया' हे गौतम ! 'नो नेरयाउयं पकरेंति' नो नैरयिकायुष्फ प्रकुर्वन्ति 'नो तिरिवख० नो तियंग्यो. निकायुष्क मकुर्वन्ति 'नो मणुस्स०' नो मनुष्पायुष्क प्रकुर्वन्ति चिन्तु 'देवाउयं पकरेंति' देवायुष्क प्रकुर्वन्ति चतुविधायुसंध्या मनापर्यवज्ञानिनः केवलं देवायुरेव वध्नन्ति न तु नारकतिर्यग्योनिकमनुष्यायुपो बन्धका भवन्तीति भावः। 'जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासि० पुच्छा' यदि मन पर्यवज्ञानिनो देवायुष्क कुर्वन्ति तदा किं भवनवासि देवायुष्क कुर्वन्ति वानव्यन्तर वायुष्क वा कुर्वन्ति ज्योतिष्कदेवायुष्क प्रकुर्वन्ति वैमानिकदेवायुप्फ प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृहाते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो शवणवासि देवाउयं पकरेंति' नो भवनवासिदेवसम्बन्धि आयुष्क प्रकुर्वन्ति 'गो वाणमंतर.' करते हैं ? या तिर्यगायुका बंध करते हैं ? या अनुयायुका बंध करते हैं ? या देवायुका बंध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रशुश्री करते हैं-'गोथमा ! नो नेरझ्याउयं पकरेंति नो तिरिक्ख०, नो मणुरल' हे गौतम! वे न नैरयिक आयुका बंध करते है, न शिर्षगायु का बंध करते हैं और न मनुष्यायुका बंध करते हैं। किन्तु 'देवाउपपकरें ति' देवायुका ही बंध करते हैं । 'जह देवा उयं पकाति, मनवासि० पुच्छा' यदि मनःपर्थवज्ञानी देवायशाही बंध काले लो क्या वे भवनवासी देवायुका बंध करते हैं ? या चानचन्तार देवायुको गंध करते है ? या ज्योतिष्क देवायुका बंध करते है ? या वैमानिस देवायुका बंध करते हैं ? उत्तर में सुश्री करते है-'गोयमा! हे गाव! 'णो भवહે ભગવન મન:પર્યવજ્ઞાની શું નરયિક આયુ બધુ કરે છે ? અથવા તિયચ આયુને બંધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે ! અથવા हवायुनम ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा श्री ई-गोयमा । नो नेरइयाउय पकरेति नो तिरिक्ख० नो मणुस्स' गौतम ! तेसो १२:५४ આયુને બંધ કરતા નથી. તથા તિર્યંચ આયુનો પણ બંધ કરતા નથી भनुष्य आयुन। ०५ ४२ता नथी. परंतु 'देवाउयपकरेंति' वायुनाय ४२ छ. 'जद देवाउय पकरें ति, किं भवणवानि पुच्छा' ले मन.५°वज्ञानी व આયુને જ બંધ કરે છે. તે શું તેઓ ભવનવાસી દેવ આયુનો બંધ કરે છે? અથવા વાનગૅતર દેવ આયુને બંધ કરે છે? અથવા તિષ્ક દેવ આયુને બંધ કરે છે ? અથવા વૈમાનિક દેવ આયુને બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३० ७.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम्
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नो न वा वानव्यन्तरदेव संवन्धि आयुष्कं वध्नन्ति 'नो जोइसिय०' नो न वा ज्योतिष्कदेवायुर्वन्ति किन्तु 'वैमाणियदेवाउयं पकरें ति' वैमानिकदेवसम्बन्धि आयुष बन्धा मनः पर्यवज्ञानिनो भवन्तीति । 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' केवल ज्ञानिनो यथा अलेश्याः केवलज्ञानिनोऽलेश्यवद्व्याख्येयाः केवलज्ञानिनां न कस्यापि आयुषो वन्धो भवति, तेषामायुर्वन्धकारणीभूतस्य मोहनीयादेः कर्म बीजस्य केवलज्ञानाग्निना दग्धत्वात् दग्धवीजानां चाङ्करोत्पत्तेरभावादिति । रागादिक्लेशसलिल सिक्तायां हि जीवभूमौ कर्मवीजानि अङ्कुराणि मसुत्रते, केवळज्ञाननिदाघतताया मुबरमायायां जीवभूमौ तु कर्मत्रीजानि न संसाराङ्कुरं णवासिदेवाउय पकरेंति' वे भवनवासी देवों की आयुका बंध नहीं करते हैं'' बाणमंतर' वानव्यन्तर देवों की आयुमा बंध नहीं करते हैं 'नो जोइसिय०' न ज्योतिषिक देशों की आयुका बंध करते किन्तु - 'वैमाणि देवाउय ०' वे वैमानिक देवायुका बंध करते हैं । 'केबलनाणी जहा अलेस्सा' अलेश्य जीवों के जैसे केवलज्ञानी जीव किसी भी आयुका बंध नहीं करते हैं। क्योंकि उनका आयु कर्म ध का कारण भूत जो मोहनीय आदि कर्म हैं वह केवलज्ञानरूप अग्नि के द्वारा दग्ध हो जाता है। जिस अंकुर का बीज दग्ध हो जाता है उससे फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है । यह मोहनीयकर्म का बीज है । जब जीव रूप भूमि रागादिक्लेश रूप जल से सिञ्चित होती रहती है तब उसमें कर्म बीज रूप अंकुर उत्पन्न होते रहते हैं । और जब वही जीव रूपी भूमि केवलज्ञानरूपी निदाघ से तप्तायमान होती उत्तरसां अनुश्री हे छे - 'गोयमा डे गौतम! 'णो भवणवासि देवाच्य पकरें'ति' तेथे। लवनवासी देवाना आयुष्या मंध उरता नथी, 'णो वाणमंतर ' वानव्यन्तर हेवाना व्यायुष्यनो अधरता नथी. 'नो जोइसिय' ज्योतिष्णु देवाना आयुष्य अधरता नथी. परंतु 'वेमाणिय देवान्य' तेथे वैभानि देव मानो धरेछे 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' बेश्या विनाना भवना થન પ્રમાણે કેવળજ્ઞાની જીવે. કોઈપણુ આયુનેા બંધ કરતા નથી કેમ કે તેઓનું આયુષ્ય ૪ ખંધના કારણભૂત જે મેાહનીય વિગેરે કમ છે, તે કેવળજ્ઞાનરૂપ અગ્નિદ્વારા ખળી જાય છે. જે કુરના ખી મળી જાય છે, તેનાથી કુર ઉગતા नथी. આ માહનીય કમ નું ખી છે. જ્યારે જીવ રૂપ ભૂમિ રાગ વિગેરે લેશ રૂપ પાણીથી સીંચાતી રહે છે, ત્યારે કમ બીજરૂપ અ’કુર તેમાં ઉત્પન્ન થતા રહે છે. અને જ્યારે એજ જીવ રૂપભૂમી કેવળજ્ઞાનરૂપી તાપથી તપાયમાન થતી ઉસર ભૂમિના જેવી બની જાય
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હું
भगवती सूत्रे
जनयन्तीति भावः, 'अन्नाणी जाब विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया' अज्ञानिनो यावद् विभङ्गज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः अत्र यावत्पदेन मत्यज्ञानि श्रुताज्ञानिनोः सग्रहः तथा चाज्ञानिनो यावद् विभङ्गज्ञानिनश्च नारकायुरपि प्रकुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुरपि मकुर्वन्ति मनुष्यायुरपि प्रकुर्वन्ति देवायुरपि प्रकुर्वन्तीति भावः । 'सन्नासु चउसु वि जहा सोल्सा' संज्ञासु चतसृष्वपि यथा सलेश्याः सलेश्यवदेव आहारादि चतुर्विधसंज्ञायुक्ता जीवा नारकायुष्कमपि कुर्वन्ति तिर्यग्योनिका युष्कमपि कुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि कुर्वन्ति देवायुष्कमपि कुर्वन्तीति भावः 'नो सन्नोंवत्ता जहा मणपज्जवनाणी' नो संज्ञोपयुक्ता यथा मनः पर्यवज्ञानिनः मनःपर्यत्रज्ञानवदेव नो संज्ञोपयुक्ता जीवा न नारकायुष्कं कुर्वन्ति नो वा तिर्यग्योनिकायुष्कं हुई ऊपर भूमि के जैसी पन जाती है तब उसमें धर्म रूपी बीज संसार रूप अंकुर को उत्पन्न नहीं कर पाते हैं । यही इस कथन का भाव है। 'अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया' यावत्पद गृहीत मत्यज्ञानी, ताज्ञानी और विज्ञानी कृष्णपाक्षिक के जैसे नरकायु का भी बंध करते है तिर्थ गायु का भी बंत्र करते हैं मनुष्यायुका भी बंध करते हैं और देवायुफा भी बंध करते हैं । 'सन्नासु चसु वि जहा सलेस्ला' सवेश्य जीवों के जैसे चारों आहारादि संज्ञाओं से युक्त हुए जीव नैरयिक आयुका भी बंध करते हैं तिर्यगायुका भी बंध करते हैं मनुष्यायु का भी बन्ध करते हैं और देवायु का भी घन्ध करते हैं । 'नो सन्नो उत्ता जहा पणपज्जवनाणी' को संज्ञोपयुक्त जीव मनःपर्यज्ञानीके जैसे केवल एक वैमानिक देवों की ही आयुका बन्ध करते
છે, ત્યારે તેમાં ક્રમ રૂપી ખી સ`સારરૂપ અકુરની ઉત્પત્તી કરી શકતા નથી. એજ આ કથનના ભાવ છે ' अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया' યાવપદથી મતિ અજ્ઞાની, શ્રુતઅજ્ઞાની, અને વિભગજ્ઞાની, કૃષ્ણપાક્ષિકના કથન પ્રમાણે નરક આયુના પણ બંધ કરે છે, તિયચ આયુના પણ ખંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુના પણ અધ કરે છે, અને દેવ આયુના પણુ અંધ रे छे. 'सन्नासु चउसु वि जहा सखा' वेश्यावाजा कोना स्थन प्रमाणे આહાર ભય મૈથુન અને પરિગ્રહ આદિ ચાર સંજ્ઞાથી યુક્ત થયેલા જીવા નૈયિક આયુના પશુ મધ કરે છે, તિયાઁચ આયુના પશુ ખધ કરે છે, મનુષ્ય આયુ પણુ ધ કરે છે, અને દેવ આયુષ્યને પણ બધ કરે છે. 'नो सम्तोवउत्ता जहा मणपजवनाणी' ने सज्ञाययोगवाजा भवेो, मनःपर्यव જ્ઞાની, જીવના કથન પ્રમાણે કેવળ એક વૈમાનિક દેવાના આયુષ્યના જ ખંધ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्कं कुर्वन्ति किन्तु वैमानिकदेवमात्रसम्बन्ध्यायुषो बन्धं कुर्वन्तीति भावः । 'सवेदगा जाव नपुंमगवेयगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावद नपुंसकवेदका यथा सलेश्याः सलेश्यजीववदेव सवेदकाः पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेदकाः नपुमकवेदकाश्च नारकायुरपि कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुरपि कुर्वन्ति मनुष्यायुरोप कुर्वन्ति देवायुरपि कुर्वन्तीति भावः । 'अवेदगा जहा अलेस्सा' अवेदका सामा न्यतो वेदरहिता जीवाः अलेश्यजीश्वदेव न नारकायुकं कुर्वन्ति न वा तिर्यग्योनिकायुष्क कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्क कुर्वन्ति न वा देशयुष्क वनन्तीति भावः । 'सकसाई जाव लोमकलाई जहा सलेस्सा' सहपायिनो यावत् लोभकषायिनो यथा सले श्याः यावत्पदेन क्रोधमानमायाकपायवतां ग्रहणं भवति तथा च सकपायिणो जीवा क्रोधमानमायालोभरपायिणश्च चत्वार्यपि नारकतियग्मनुष्यदेवायूंषि कुर्वन्तीति भावः । 'अकसाई जहा अलेस्सा' अपायिनो यथा अलेश्या: हैं। न नैरथिकायु का वे बन्ध करते हैं, न तिर्थ गायुला वे बन्ध करते हैं और मनुष्यायुका भी वे बन्ध नहीं करते हैं। 'सवेदगा जाव नपुंलगवेदगा जहा सलेम्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सवेदक जीव यावत् नपुंसकवेदक जीव नैरयिक आयुका भी धन्ध करते हैं, तिर्यगायुका भी बन्ध करते हैं, मनुष्यायका भी बध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं। 'अवेदगा जहा अलेस्ला' अवेदक जीव अलेश्य जीवों के जैसे किसी भी आयका बन्ध नहीं करते हैं। 'सकताई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सकषायी जीव यावत् लोभकषायी जीव चारों आयुओं का बन्ध करता हैं। यहां यावत्पद से क्रोध कषायी, मानकषायी, और मायाकषायी' इन तीन पदों का ग्रहण हुआ है । 'अकसाई जहा अलेस्ला' अलेश्य जीवों के जैले अकषायी કરે છે. તેઓ નરયિક આયો બાધ કરતા નથી. તિર્યંચ આયુને બંધકરતા नथी. मने मनुष्य मायुन ५ ५५ २ता नथी, 'सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा' जहा सलेस्मा' सेश्यावासा वाना थन प्रभारी सह । यावत् नस। દવાળા જીવ નરયિક આયુને પણ બંધ કરે છે, તિર્યંચ આયુને પણ બંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુનો પણ બંધ કરે છે અને દેવું આયુને પણ બંધ 3रे छे. 'अवेदगा जहा अलेस्सा' मवई श्या विनाना पोना थन प्रमाण पण सायना १५ ४२ता नथी. 'सकमाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सेश्यावा ना ४थन प्रभाये ४ायnt wो यावत् કોધ કષાય માનકષાય માયાકષાય અને લેભકષાયવાળા જીવો ચારે પ્રકારના આયુષ્યને બંધ કરે છે, અહિયાં યાત્મદથી “ફોધકષાયી, માનકષાયી અને
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भगवतीसूत्र अलेश्यजीवरदेव क.पायरहिता जीवाः न नारकायुष्क कुर्वन्ति न वा तिर्यग्योनिकायुष्क कुर्वन्ति न वा अनुष्यायुष्क कुर्वन्ति न वा देवायुप्ककुर्वन्ति इति भावः। 'सनोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा' सयोगिनो यावर काययोगिनश्च यया सलेश्याः, यावत्पदेव पनोयोगिनां वाग्योगिनां च संग्रहो भवति तथा च सामान्यतो योगवन्तो मनोयोगिनो वचोयोगिनः काययोगिनश्च सलेश्यजीववत् नारकायुष्कमपि कुर्वन्ति तिर्यग्यो निकायुष्कमपि कुर्वन्ति मनुष्यायुष्मपि कुर्वन्ति देवायुष्कमपि कुर्वन्तीति भावः । 'अजोगी जहा अलेस्सा' अयोगिनः सामान्यतो योगरहिताः सिद्धाः केवलिन रते अलेक्यवदेव आयुषां वन्ध का न भवन्तीति । 'सागारोवउत्ता अनागारोवउत्ता य जहा सलेम्सा' साकारोपयोगयुक्ता अनाकारोजीव किसी भी भायुका पन्ध नहीं करते हैं। सजोगी जाब कायजोगी जहा सलेला' लेश्य जीवों के जैसे सयोगी थावत् काययोगी जीव चारों आयुओं का बन्ध करते हैं। यहां चावत्पद से मनोपयोगी और धाग्योगी इन दो का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार सामान्य ले योगवाले जीव और मनोयोगवाले जीव बचन योगवाले जीव और काययोगवाले जीव ललेश्य जीवों के जैसे नारक आयुका भी चन्ध करते हैं, तिर्यगायुष्क का भी मनुष्यायुष्क का भी और देवा. युष्क का भी बन्द करते हैं। 'अजोगी जहा अलेसहा सामान्य से योग रहित सिद्ध जीव और केवली अलेश्य जीवों के जैसे किसी भी आयुका बंध नहीं करते हैं । 'सामारोवउत्ता अनागारोव उत्ता य जहा सलेस्ला' मलेश्य जीवों के जैसे साकारोपयोगयुक्त तथा अनाकारो भाया पाया
पाया पड राय छ 'अकमाई जहा अलेस्सा' वेश्या विनाना वाना थन प्रभारी ४ाय विनाना 4 या मायुना ॥ ४२ता नथी. 'सजोगी. जाव कायजोगा जहा सलेस्सा' લેશ્યાવાળા જીના કથન પ્રમાણે સગી યાવત્ કાય ગવાળા જીવે ચારે પ્રકારના આ યુને બંધ કરે છે. અહિયાં ચાવત્પદથી મનેગવાળા અને વચનગવાળાઓ ગ્રહણ કરાયા છે. આ રીતે સામાન્યથી ગવાળા જ અને મને ગવાળા છ વચનોગવાળા જી અને કાયયેગવાળા છે લેશ્યાવાળા જીવોની જેમ નારક આયુષ્યને પણ બંધ કરે છે. તિર્યંચ આયુ વ્યનો પણ બંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુષ્યનો પણ બંધ કરે છે, અને દેવ म युध्यने ५५४ मध ४२ छ 'अजोगी जहा अलेस्मा' सामान्यथा योगविनाना સિદ્ધ છે અને કેવલી અલેશ્ય ના કથન પ્રમાણે કઈ પન્ન આયુષ્યને म ४२ता नथी. 'सागारोपवत्ता अनागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा' वेश्यावाणा
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referrer श०३० उ० १ सू०३ नै० आयुष्क कर्मबन्धनिरूपणम्
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पयोगयुक्ता यथा सलेश्याः सलेश्श्वदेव साकारोपयोगयुक्ता स्तथा अनाकारोपयोगयुक्ता नारका युष्कमपि तिर्यग्योनिकायुष्कमपि मनुष्यायुष्कमपि देवायुकमपि कुर्वन्तीति भावः ||०२||
नारकदण्ड के सूत्राण्याह- 'किरियाबाई णं भंते' इत्यादि,
मूलम् - किरियावाई गं भंते! नेरइया किं नेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाजयं नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति मणुसाउयं पकरेंति नो देवाउयं पकरेंति अकिरियाबाई णं भंते । नेरइया पुच्छा, गोयमा ! नो नेग्ड्याउयं० तिविखजोणियाउयं पकरेंति मणुस्सा उयं पिपकरेंति नो देवाउयं पकरेंति, । एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। सलेस्सा णं भंते! नेरइया किरियावाई किं नेरइयाउयं० एवं सव्वे वि नेरइया जे किरियाबाई तें मणुस्साउयं एवं पकरेंति, जे अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइवाई ते सव्वासु वि नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति नो देवाउयं पकरेंति । नवरं सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहिं विसमोसरणेहिं न किंविवि करेंति जहेव जीवपए एवं जाव थणियकुमारा जव नेरइया | अकिरियावाई णं भंते ! पुढवीकाइया पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति । तिरिक्खजोणियाउयं० मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति एवं अन्नाणियवाई वि. । सलेस्सा णं भंते! एवं जं जं पयं अत्थि पुढवीकाइया f तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चैव दुविहं आउयं पयोगयुक्त जीव नारक आयुका भी बन्ध करते हैं तिर्थ गायुष्क का भी बन्ध करते हैं, मनुष्यायुष्क का भी बन्ध करते है और देवायुष्क का भी बन्ध करते है ||२||
જીવના કથન પ્રમાણે સાકાર પર્યેાગવાળા અને અનાકારાપયેાગવાળા જીવે નારક આયુના પણ અંધ કરે છે, તિહુઁચ આયુષ્યના પશુ ખધ કરે છે, મનુષ્ય આયુના પણ અધ કરે છે અને દેવાયુને પણુ અધ કરે છે, પ્રસૂરા
भ० १३
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भगवतीयत्र पकरेंति। नवरं तेउलेस्साए न किंपि पकरेंति। एवं आउकाइयाण वि, एवं वणस्सइकाइयाण वि । तेउकाइया वाउकाइया सव्वट्राणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु नो नेरइयाउयं पकरेति तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति णो मणुस्लाउयं णो देवाउयं पकरेंति । बेइंदियतेइंदियचउरिदिया णं जहा पुढवीकाइया णं नवरं सम्मत्तनाणेसु न एक पि आउयं पकरेंति। किरियावाई गं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया कि लेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! जहा मणपजश्नाणी । अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चउविहं पि पकरेंति । जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि । कण्हलेस्सा णं भंते ! किरियावाई पंचिंदियतिरिक्खजोणिया कि नेरड्याउयं पुच्छा, गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति नोतिरिक्खाउयं० नो अणुस्साउयं० नो देवाउयं पकरेंति, अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई चउन्विहं पि पकरेंत। जहा कण्हलेस्सा, एवं नीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि । तेउलेस्सा जहा सलेस्ला। नवरं अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य नो नेरइयाउयं पकरेंति । देवाउयं पि पकरेंति । तिरिक्खजोणियांउयं पि पकरेंति। मणुस्साउयं पि पकरेंति । एवं पम्हलेस्सा वि एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियवा। कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं चउव्विहं पि आउं पकरेंति । सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवनाणी तहेव वेमाणियाउयं पकरेंति । मिच्छादिट्री जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्टी ण य एकमपि पकरेंति जहेव नेरइया। नाणी जाव
ओहियनाणी जहा सम्मदिट्ठी। अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सेसा जाव अणागारोवउत्ता सव्वे जहा
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trafer टीका श०३० उ० १ सू०३ नै० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम् सलेस्सा तहा चेव भाणियव्वा । जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वतव्वया भणिया एवं मणुस्ताण वि भाणियदेवा । नवरं मणपज्जवनाणी नो सन्नोवउत्ता य जहा सम्मदिट्ठी तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियव्वा । अलेस्सा केवलनाणी अवेद्गा. अकसाई अजोगिय, एए न एवं पि आउयं पकरेंति, जहा ओहिया जीवा, सेसं तहेव । वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥सू० ३ ॥
छाया - क्रियावादिनः खलु भदन्त । नैरयिकाः किं नैरविकायुकं पृच्छा गौतम | नो नैरविकायुष्कं नो तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कं कुर्वन्ति नो देवायुकं प्रकुर्वन्ति । अक्रियावादिनः खल भदन्त ! नैरयिकाः पृच्छा, गौतम ! नो नैरविकायुकं० तिर्यग्योनिका युष्कं प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि कुर्वन्ति
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देवायुकं कुर्वन्ति । एवमज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खलु भदन्त | नैरयिकाः क्रियावादिनः किं नैरयिकायुष्कं ० एवं सर्वेऽपि नैरयिका ये क्रियावादिनस्ते मनुष्यायुष्कमेकं प्रकुर्वन्ति, ये अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिन स्ते सर्वस्थानेष्वपि नो नैरधिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, तिर्यग्योनिका युष्कमपि प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति, नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । नवरं सम्यग्मिथ्याविनः उपरितनाभ्यां द्वाभ्यामपि समवसरणाभ्यां न किञ्चिदपि प्रकुर्वन्ति यथैव जीवपदे । एवं यावत् स्तनितकुमारा यथैव नैरयिकाः । अक्रियावादिनः खलु भदन्त ! पृथिवीकायिकाः पृच्छा, गौतम ! नो नैरथिकायुष्कं कुर्वन्ति, तिर्यग्योनिका युष्कं मनुष्यायुष्कं० नो देवायुष्क मकुर्वन्ति । एवमज्ञानिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खलु भदन्त ! एवं यत् यत् पदमस्ति पृथिवी - कायिकानां तत्र तत्र मध्यमयो द्वयोः समवसरणयोरेवमेव द्विविधमायुष्कं प्रकु. वैन्ति | नवरं तेजोलेश्यायां न किमपि प्रकुर्वन्ति । एवमष्कायिकानामपि, वनस्पतिकायिकानामपि । तेजस्कायिकाः वायुकायिकाः सर्वस्थानेषु मध्यमयो द्वयोः समवसरणयो र्न नैरथिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, तिर्थग्योनिका प्रकुर्वन्ति, नो मनुष्यायुष्क नो देवायुकं प्रकुर्वन्ति । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां यथा पृथिवी - कायिकानाम् | नवर ं सम्यक्त्वज्ञानेषु न एकमपि आयुष्क प्रकुर्वन्ति । क्रियावादिनः खलु भदन्त ! पञ्चेन्द्रियवियग्योनिकाः किं नैरथिकायुकं मकुर्वन्ति, पृच्छा, गौतम । यथा मनःपर्यवज्ञानिनोऽक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिक
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भगवतीसूत्र १०० वादिनश्च चतुर्विधमपि प्रकुर्वन्ति । यथोधिका स्तथा सलेश्या अपि । कृष्णलेश्याः खलु भदन्त ! क्रियावादिनः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः किं नैरयिकायुष्क पृच्छा, गौतम ! नो नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति, नो तिर्यग्० नो मनुष्यायुष्क नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनी 'चैनयिकवादिनश्चतुर्विधमपि प्रकुर्वन्ति यथा कृष्णलेश्याः । एवं नीललेश्या अपि कापोतलेश्या अपि । तेजोलेश्या यथा सलेश्याः । नवरमक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च नो नैरयिंकायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुष्कमपि प्रकुबन्ति मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति । एवं पद्मश्या अपि एवं शुक्ललेश्या अपि भणितव्याः । कृष्णपाक्षिका त्रिभिः समवसरण श्चतुर्विधमपि आयुष्क प्रकुर्वन्ति । शुक्लपाक्षिका यथा सलेश्याः । सम्यग्दृष्टयो यथा मनःपर्यवज्ञानिनः तथैव वैमानिकायुष्क प्रकुर्वन्ति । मिथ्या दृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः । सम्यग्मिथ्यादृष्टयो न चैकमपि प्रकुर्वन्ति यथैव नैरयिकाः । ज्ञानिनो यावदवधिज्ञानिनो यथा सम्यग्दप्रयः। अज्ञानिनो यावद्विभङ्गज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः। शेषा यावदनाकारोपयुक्ताः सर्वे यथा सलेश्या स्तथैव भणितव्याः। यथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां वक्तव्यता भणिता एवं मनुष्याणामपि भणितव्या। नवर मनापर्यवज्ञानिनो नो संज्ञोपयुक्ताश्च यथा सम्यग्दृष्टयः तियेग्योनिका स्वथैव भणितव्याः । अलेश्याः केवलज्ञानिनोऽवेदका अकपायिनोऽयोगिनश्चते नैकमपि आयुष्क पकुर्वन्ति । यथा औधिका जीवाः, शेषं तथैव । वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा असुरकुमारासू०३॥ . टीका-'किरियानाई णं भंते ! नेरइया' क्रियावादिनः खलु भदन्त ! नैरयिकाः 'कि नेरइयाउयं पुच्छा' कि नैरयिकायुष्क नारकभवप्रयोजकमायुः प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिकायुष्फ प्रकुर्वन्ति अथवा मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति देवायुष्क वा प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि,
नारदण्डक शून्न कथन किरियावाई ण भंते ! नेरच्या किं नेरझ्याउयं'-इत्यादि
टीकार्थ-'किरियाबाई णं भंते ! नेरक्या' हे भदन्त ! क्रियावादी नैरथिक 'कि नेहयाउयं पुच्छा नारकभनके प्रयोजक आयुकर्म का बन्ध करते हैं ? या तिर्यगायुष्क का बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुष्कका बन्ध
નારકડક સંબંધી સૂત્રનું કથન– . किरियावाई णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं त्यहि
थ-'किरियावाईणं भंते ! नेरइया' हे समपन् ठियावाही नै२यि४ छ। कि नेरइयाउयं पुच्छा' ना२४ सय समाधी आयुष्या ५५ ४२ छ ? अथवा તિર્યંચ આયુષ્યને બંધ કરે છે ? અથવા મનુષ્યને આયુષ્યને બંધ કરે છે?
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प्रमैयन्द्रिका टीका श०३० उ०१ सू०३ नै० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम् १०१ 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं०' नो नैव नैरयिकायुष्क कुन्ति 'नो तिरिक्ख०' नो तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति 'मणुस्साउयं पकरेंति' मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति 'नो देवाउयं पकरें ति' नो-नैव देवायुष्क प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनो नारका यद्देवायु रकायु ने प्रकुर्वन्ति तत् नारकभवस्वभावादेव यच्च तिर्यगायु ने बध्नन्ति तत् क्रियावादस्वभावात् , केवलं मनुष्यायुरेव वनन्ति तथा स्वाभावादिति । 'अकिरियावाई णं भंते ! नेरइया पुच्छा' अक्रियावादिनः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं नारकायुः प्रकुर्वन्ति यद्वा तिर्यगायुः प्रकुर्वन्ति अथवा मनुष्यायुः प्रकुर्वन्ति यद्वा देवायुः भकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगकरते हैं ? या देवायुष्क का बन्ध करते हैं ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न के उत्तरमें प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा बोनेरयाउयं०, नोतिरिक्ख०' क्रिया. वादी नैरथिक नैरयिक आयुका बन्ध नहीं करते हैं, तिर्थ गायुष्क का बन्ध नहीं करते हैं किन्तु-'मणुहताज्यं पारेति' मनुष्यायु का बन्ध करते हैं। 'नो देवाउयं पकालि' देगयुको भी वे बन्ध नहीं करते हैं ! क्रियावादी नैरयिक जो नैरयिकायु का और देवायुका बन्ध नहीं करते हैं उसमें कारण नारकभव का स्वभाव ही है। तथा जो लियंगायुका वे षन्ध नहीं करते हैं इसमें कारण उनकी क्रियावादिता का स्वभाव है। केवल वे मनुष्यायुका ही बन्ध करते है-क्यों कि इस स्थिति में इसी आय के बांधने का उनका स्वभाव हो जाता है । 'अफिरियावाई गं भंते ! नेरइया पुच्छा' हे भदन्त ! अक्रियावादी भैरथिक क्या गैरकायुका बन्ध करते हैं ? या तिर्थगायु का चना करते हैं ? या मनुष्यायुका बन्ध करते है ? અથવા દેવ આયુષ્યને બંધ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है-'गोयमा ! नो नेरइयाउ० नो तिरिक्ख०' यही यि नायिक આયુષ્યનો બંધ કરતાં નથી તથા તિર્યંચ આયુષ્યને પણ બંધ કરતા नथी परतु 'मणुस्वायं परेति' मनुष्य समधी आयुश्यना म अरे छे 'नो देवाउय पकरेंति' ते व समाधी मायुध्यन ५५ કરતા નથી તેનું કારણ નારક ભવને તે પ્રકારને સ્વભાવ જ છે. તથા જે તિય ચાયને તેઓ બંધ કરતા નથી તેનું કારણ તેઓના કિયાવાદી પણાને સ્વભાવ જ છે તેઓ કેવળ મનુષ્ય આયુને જે બધ કરે છે. કેમ કે-આ સ્થિતિમાં मेरा भायुष्य माधवानी तमना वसा IS Mय छे. 'अकिरियावाई णं भंते ! नेरइया पुच्छा' है मगन् मठियावाही नयि। शुयि मायुनी मध કરે છે? અથવા તિય"ચ આયુષ્યને બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુષ્ય ને બંધ કરે છે? અથવા દેવ આયુષ્યને બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
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भगवती सूत्रे वानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नो नेरइयाउयं०' नो नैरयिकायुकम् अक्रियावादिनो नारकाः प्रकुर्वन्ति 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरे 'वि' तिर्यग्योनिका युष्कं कुर्वन्ति 'मणुस्साउयं विपकरेति' मनुष्यायुष्कमपि प्रकुन्ति 'नो देवाउयं पकरें 'ति' नो देवायुष्कं मकुर्वन्ति । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' एवम् - अक्रियावादि नारकवदेव अज्ञानिकवादिवैनयिकवादिनारका अपि न नारकदेवायुकं प्रकुर्वन्ति किन्तु तिर्यग्मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति इमे त्रयोsक्रियावादिनः तिर्यग्मनुष्यायुषामेव कर्त्तारो भवन्ति न तु नारकदेवायुप बन्धका भवन्तीति भावः । 'सलेस्सा णं भंते ! नेरइया किरियावाई' सलेश्याः खलु या देवायुका बन्ध करते हैं? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! नो नेरइयाउय, हे गौतम! अक्रियावादी नैरथिक नैरधिकायुष्क का यन्ध नहीं करते हैं 'नो देवाउय पकरेंति' देवायुष्क का धन्ध नहीं करते हैं, किन्तु' तिरिक्खजोनिया उयं पकरेति, मणुस्तायं पिपक'ति' तिर्थमायुष्क का बन्ध करते हैं और मनुष्यायुष्क का भी बन्ध करते हैं । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानिकवादी नैरचिक और वैनयिकवादी नैरथिक भी न नारकायु को बन्ध करते हैं और न देवायुका ही बन्ध करते हैं किन्तु 'तिरिक्खाउयं पकरेति मणुस्सायं पि पकरेंति' तिर्यगायु का बन्ध करते हैं और मनुष्यायु का भी धन्य करते हैं । इस प्रकार ये अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी नारक तिर्यग्मनुष्य आयुक्का ही पन्ध करने वाले होते हैं, नारक देवायुका नहीं' | 'सलेस्सा णं भंते । नेरइया
अनुश्री छे - 'गोयमा ! नो नेरइयाउय' हे गौतम! अट्ठियावाही नैरयिष्ठ नैरयिना आयुष्यना गंध उरता नथी नो देवाउय पकरेति' हेव समधी आयुष्यना मध कुरता नथी. परंतु 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति मणुस्सा उय' पकरे 'ति' तिर्यय आयुष्यना गंध ४रे छे, मने मनुष्य आयुध ४२ छे. 'एव अन्नाणियवाई विवेणइयवाई वि' ४ प्रमाये अज्ञानवाही नैरयि मने વૃનિયકવાદી નૈરિયેકા પણુ નારક આયુના બંધ કરતા નથી અને દેવ આયુને अणु गंध उश्ता नथी परंतु तेथे 'तिरिक्खाउय' पकरेति मणुस्साउयं पिपकरे ति' તિય ચ આયુષ્યને ખંધ કરે છે, અને મનુષ્ય આયુને પણ ખધ કરે છે. આ રીતે આ અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈનયિકવાદી નારકા તિયચ અને મનુષ્યના આયુને જ ખ ધ કરવાવાળા હાય છે નારક અને દેવ આયુને ધ કરવાવાળા હાતા નથી.
'स्वाणं भवे ! नेरइया किरियावाई' हे भगवन् ने नैरथि है। बेश्या -
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०३ नै आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम् १०५ भदन्त । नैरयिकाः क्रियावादिनः 'कि नेरइयाउयं०' किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति अथवा तियंग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्क वा पकुर्वन्तीति प्रश्नः । उत्तरमाह-'एवं सम्ये वि' इत्यादिना, 'एवं सम्वे वि मेरइया जे किरियावाई ते अणुस्साउयं एगं पकरेंति' एवं सर्वेऽपि नैरयिका ये क्रियावादिन स्ते एकमेव मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनां सर्वेषामेव नार. काणां क्रियावादस्वभावादेकस्यैव मनुष्यायुष्कस्य वन्धो भवति, नेतरायुषः । तत्र 'जे अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई ते सवठ्ठाणेसु वि नो नेरइयाउयं पकरेंति' ये अक्रियावादिनो नारका अज्ञानिकवादिनी वैनयिकवादिनश्च ते इमे प्रयः सर्वस्थानेषु लेश्यादि सर्वद्वारेष्वपि नो-नैव कथमपि नारकायुष्कमकुर्वन्ति तथा स्वभावत्वात, किन्तु 'तिरिक्ख जोणियाउयं पि पक रेंति मणुस्साउयं पि पकाति' तिर्यग्योनिकायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति तथा मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'नो किरियावाई' हे भदन्त ! जो नैरपिक सलेश्य हैं और क्रियावादी हैंवे 'किं नेरइयाउयं०' क्या नैरयिकायु का बन्ध करते हैं ? अथवा तिर्यगायका बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायु का बन्ध करते हैं? या देवायुका पन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'एवं सव्वे वि नेरइया जे किरियावाई ते मणुस्साउयं एग पकाति' इस प्रकार समस्त नैरयिक जो क्रियावादी हैं वे एक मनुष्धायु के ही वन्धक होते हैं, शेष तीन आयुओं के नहीं । क्यों कि क्रियावादिता में ऐसा ही स्वभाव होता है कि इसमें एक मनुष्यायु का ही बन्ध होता है। तथा-जो अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनायकवादी नारक है वे समस्त स्थानों मेंलेश्यादिक समस्त द्वारों में-भी किसी प्रकार से नारकायुष्क का बन्ध पाप डाय छे. अने लियाबाही हाय छ, तेसो 'किं नेरइयाउया शु નરયિક આયુને બંધ કરે છે? અથવા તિર્યંચ આયુને બંધ કરે છે અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુને બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा सश्री छ8-एव सव्वे नेरइया जे किरियावाई ते मणुस्साउयं एग पकरें ति' मा शत सा नयि २ यावाही छे, तम्या : મનુષ્ય આયુને બંધ કરનારા હોય છે. બાકીના ત્રણ આયુને બંધ કરતા નથી. કેમ કે કિયાવાદી પણામાં એ પ્રમાણેને સ્વભાવ હોય છે. કે તેમાં મનુષ્ય આયુને જ બંધ થાય છે. તથા જેએ અકિયાવાદી. અજ્ઞાનવાદી અને વૈનાયિકવાદી નારકે છે તેઓ બધા જ સ્થાનમાં લેશ્યા વિગેરે સઘળા દ્વારમાં પણ કોઈ પણ રીતે નારક આયુષ્યને બંધ કરતા નથી. પરંતુ તિય"ચ આયુને અને મનુષ્ય આયુને જ બંધ કરે છે. દેવાયુને પણ બંધ
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भगवती देवाउयं पकरेंति' नो नैव देवसम्बन्धि आयुकवन्ध कुर्वन्तीति । 'नवर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहि वि समोसरणेहि नवर' सम्यग्मिथ्यात्रिनो मिश्रष्टया उपरितनाभ्याप्रज्ञानिक वैनयिकवादिरूपाभ्यां द्वाभ्यामपि समवसरणाभ्याम् 'न किंचि वि पकरेंति' न किमपि आयुः प्रकुर्वन्ति 'जदेव जीवपए' यथैव जीपदे सम्यग्मिथ्याष्टिनारकाणां द्वे एवान्तिये समवसरणे अज्ञानिकवादिनश्च वैनयिक वादिनश्चत्याकार के भवतः तेषां चायुर्वन्धो न भवत्येव गुणरथानकस्वभावादत स्ते न किमपि आयुः प्रकुर्वन्तीति भावः मिश्रदृष्टः क्रियावादाक्रियावादयोरभावात् । ‘एवं जाव थणियकुमारा जहा नेरइया' एवं यारस्तनितकुमाग यथा नैरयिकाः नैरयिकत्रदेव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारपर्यन्ता जीवा नारकवदेव समवसरणविषये ज्ञातव्या इति । 'अकिरियावाई ण मंते ! पुढवीकाइया पुच्छा' नहीं करते हैं किन्तु तिर्यगायु क्षा एवं मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं, देवायु का भी पन्ध नहीं करते हैं । 'नघर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्ले दोहि वि समोलरणेहिं' परन्तु जो सम्परिमथ्यात्वी नारक हैं और जो अज्ञानिकवादी एवं चैनधिकवादी हैं ये किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं । 'जहेच जीव पर' जैसा कि जीय पद में सम्यग्मिथ्याके दो ही अन्तिम समवसरण अज्ञानवादी और वैनयिकवादी ये दो समवसरण होते हैं और उनमें आयुशन्ध नहीं होता है। क्यो की इस गुणस्थान फा-तृतीय गुणस्थान फा-ऐलाही स्वभाव होता है- इस लिये किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं। मिश्रप्टिमें न क्रिया वादिता होती है और न अक्रियावादिता होती है। 'एवं जाव धाणिय. कुमारा जहेव नेरड्या' असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के जीव नैरथिकों के जैसे ही समवसरण के विषय में ज्ञातव्य है। ४२ता नथी. 'नवर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्ले दोहि वि समोसरणेहि' पतु मा સમ્યગુમિથ્યાવાળા નારકે છે, તેઓ તથા અજ્ઞાનવાદી અને નાયિકવાદી છે तमा ५] मायुने। मध ४२ता नथी 'जहेव जीवपए' रे प्रभाये ७१ પદમાં સમ્યગૃમિથ્યાદષ્ટિવાળા નારકેને છેલ્લા બેજ સમવસરણ એટલે કે અજ્ઞાનવાદી અને વૈનાયિકવાદી આ બેજ સમવસરણ હોય છે. તેઓને આયુ બંધ રહેતો નથી. એ જ તેમનો સ્વભાવ હોય છે, તેથી કોઈ પણ આયુનો તેઓ બંધ કરતા નથી. કેમ કે-આ ત્રીજા ગુણ સ્થાનને એ જ રવભાવ હોય છે. તેથી તેઓ કેઈપણ આયુને બંધ કરતા નથી.મિશ્રદષ્ટિવાળાઓમાં ठियावाहीपा ५ तु नथी. तथा मठियावहिपापडातु नथी. 'एवं जाव थणियकुमारा जहा नेरइया' मेन्द्रियाणाथी सनस्तनितभार सुधान। જ સંબંધી બૈરયિકના કથન પ્રમાણે જ તેઓનું સમવસરણ કહેલ છે.
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प्रमेयवद्रिका टीका श०३० उ.१ १०३ २० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम् १०५ . अक्रियावादिनः खलु भदन्त ! पृथिवीकायिका जीवा कि नरयिकायुष्क" प्रकु . वन्ति तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्क वा प्रकुर्वन्ति देवायुष्क वा . अकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा . हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरेंति' नो नैरयिकायुक भकुर्वन्ति अक्रियावादिनः पृथिवीकायिकाः किन्तु 'तिरिक्खजोणियाउयं० मणुस्साउयं पकरेंवि तिर्यग्योनि कायुष्क प्रकुर्वन्ति तथा मनुष्यायुष्क च भकुर्वन्ति 'नो देवाउयं पहरेंति' नों देवायुष्क प्रकुर्वन्ति, अक्रियावादिनां पृथिवीकायिकजीवानां द्वे एव तिर्यग्मनुप्यायुषी भवतो न तु नारकवायुष्कौ भवत इति । एवं अन्नाणियवाई वि' एवं. मक्रियावादिनः पृथिवीकाथिकवदेव अज्ञानिकवादि पृथिवीकायिका अपि नो 'अकिरियावाई णं भंते ! पुढबीज्ञाझ्या पुच्छा' हे भदन्त ! अक्रियावादी पृथिवीकायिक जीव क्या नैरयिक आयु का बन्ध करते हैं ? या तिर्यगायु का बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुका पन्ध कारते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो नेरच्याउयं पकरेंति' हे गौतम ! अक्रियावादी पृथिवीकायिक जीव नैरथिक आयुको पन्ध नहीं करते हैं किन्तु-तिर्यगायु का बन्ध करते हैं, मनुष्यायु का बन्ध करते हैं, 'नो देवाउपकरेंति पर देवायुका भी वे पन्ध नहीं करते हैं। इस प्रकार अक्रियावादी पृथिवीकायिक जीवों के तिर्यगायु और मनुष्यायु इन दो आयुओं का ही घन्ध होता है नैरयिक और देवायुका बन्ध नहीं होता है। 'एवं अन्नाणियवाई वि' अज्ञानिकवादी पृथिवीकायिक जीव अक्रियावादी पृथिवीकायिक जीव के जैसे ही
'अकिरियावाई ण भंते ! पुढवीकाइया पुच्छा' नावन् मसिवायाsi. પૃથ્વીકાયિક જીવ શું નૈરયિક આયુષ્યને બંધ કરે છે અથવા તિર્યંચ આયુને બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે અથવા દેવ मायुनी मध ४२ छ ? माप्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री डे छ ?-'गोयमा ! नो. नेरइयाउय पकरेंति' गौतम ! गठियावाही पृथ्वी यि थिई मायनी બંધ કરતા નથી. પરંતુ તિર્યંચ આયુષ્યને બંધ કરે છે, અને મનુષ્ય मायुने। मध ४२ छे. 'नो देवाउय पकरे ति' ५२ तु तसा माध्यतामा બંધ કરતા નથી. આ રીતે અકિયાવાદી પૃથ્વીકાયિક જીવને તિર્ય આયુ અને મનુષ્ય આયુ આ બે આયુને જ બંધ હોય છે તેઓને नैरपि मन हे मायुनी मधात नथी. 'एव' अन्नाणियवाइ वि' मज्ञान' વાદી પૃથ્વીકાયિક જીવ, અક્રિયાવાદી પૃથ્વીકાયિક જીવના કથન પ્રમાણે જ નારક આયુ અને દેવ આયુને બંધ કરતા નથી. પરંતુ તિર્યંચ આયુ અને
so.
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नारकायुष्क प्रकुर्वन्ति न वा देवायुष्क प्रकुर्वन्ति किन्तु तिर्यग्योनिकायुष्क पक्क वन्ति तथा मनुष्यायुष्कमपि प्रकुन्तिीति भावः । 'सलेस्साणं भंते 10' सछेश्या खल भदन्त ! पृथिवीकायिकाः किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुष्क मकुर्वन्ति मनुष्यायुष्क भकुर्वन्ति देवायुकवा प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः, भगवानाह'एवं जं जं पयं अस्थि पुढवीकाइयाणं' एवं यत् यत् पदं-लेश्यादिरूपद्वारं पडू. विंशतितमशतकगतमयमोद्देशकस्थं पृथिवीकायिकजीवानाम् अस्ति 'तहि तहि मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु' तत्र तत्र पदेषु मध्यमयो ईयोः अक्रियावाद्यज्ञानिक वादिरूपयोः समवसरणयोः ‘एवं चेव दुविहं आउयं पकरे'ति' एवमेव उपरिदर्शित प्रकारेणैव द्विविधम्-द्विप्रकारम् आयुष्कम् तिर्यग्योनिकसम्बन्धि मनुष्ययोनिसम्म न्धि चेति आयुष्कद्वयमेव प्रकुर्वन्ति न तु नारकायुक देवायुकं वा प्रकुर्वन्तीति । 'नवरं तेउलेस्साए न किंपि पकरेंति' नवरम्-केवलं विशेष एतावानेव यत् तेजोनरकायु और देवायु का बन्ध नहीं करते हैं किंतु तिर्यगायु और मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं । अर्थात् इन आयुओं में से ही किसी एक आयुका बन्ध करते हैं। 'सलेस्सा णं भंते !' हे भदन्त ! सलेश्य पृथिवीकायिक जीव क्या नैरयिक आयुका पन्ध करते हैं ? या तिर्यगा. युका यन्ध करते हैं ? या मनुष्यआयुका बन्ध करते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जं जं पयं अस्थि पुढवीकाझ्याणं' हे गौतम! पृथिवीकायिक जीव में जो-जो लेश्यादि रूप पद संभवित हों, उन-उन पदों में वर्तमान पृधिवीकायिक जीवों के अक्रियावादी और अज्ञानवादी ये दो ही समवसरण होते हैं-सो इन दोनों समवसरणों में पूर्वोक्त अनुसार मनुष्यायु और तिर्यश्वायुका पन्ध ही उन पृथिवीकायिक जीवों के होता है नारकायुष्क મનુષ્ય આયુને જ બંધ કરે છે. અર્થાત્ આ બે આય પૈકી કઈ એક આયુને अध, ४२ छे. 'सलेस्सा णं भते ! भगवन् वेश्यावामा पृथ्वी४ि way નરયિક આયુને બંધ કરે છે ? અથવા તિર્યંચ આયુનો બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે? અથવા દેવ આયુને બંધ કરે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन / छ ,-'एवं जज पयं अस्थि पुढवीकाइयाणं' है गौतम ! पृथ्वीयि वामi वेश्या विगैरे प्राथी २२ પદે સંભવિત હોય તે તે પદમાં રહેનારા પૃથ્વીકાયિક અને અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી આ બેજ સમવસરણ હોય છે. તે આ બને સમવસરણમાં પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે મનુષ્ય આયુ અને તિર્યંચ આયુને બંધ જ તે પૃવીકાયિક જેને હોય છે. તેઓ નારક આયુ અને દેવ આયુને બંધ કરતા નથી.
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प्रमेद्रिका ढोका २०२९ उ.१ सु०३ नै० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम्
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लेश्या न किमपि आयुर्वन्धं प्रकुर्वन्ति पृथिवीकायिकजीवेषु देवोत्पत्तित्वेन अपर्याप्तावस्थायामेव तेजोलेश्या भवति, तत्सत्तायां नैवायुषो वन्धः, द्विगमे एव आयुषो बन्धसद्भावात् । 'एवं आउकाइयाण वि वणस्सइकाइयाण वि' एवं पृथिवीकायिकव देवाऽकायिकानां वनस्पतिकायिकानां च द्वयानाम् अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि समवसरण यो मध्ये यत् यत् पदं भवति तस्मिन् तस्मिन् पदे एव द्विप्रकारकं तिर्यग्योनिकसम्बन्धि मनुष्यभवसम्बन्धि चायुर्भवति एष्वपि पृथि atarnaadन अपर्याप्तावस्थायामेत्र तेजोलेश्या भवति, तेजोलेश्यायां चनायुषो बन्धो भवतीत्यादिकं सर्वं पृथिवीकायिकवदेव ज्ञातव्यमिति भावः । और देवrus का बन्ध नहीं होता है । 'नवर' तेउलेस्साए न कि पि करेति' परंतु तेजोलेश्या पद में वर्तमान पृथिवीकायिक जीवों के किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता है । पृथिवीकायिकों के अपर्याप्तावस्था में ही इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहिले तेजोलेश्या होती है, क्यों कि पृथिवीकायिक जीवों में देवों की उत्पत्ति हो सकने से वहां अपर्याप्तावस्था में तेजोलेश्या कही गई है। तेजोलेश्या की सत्ता में आयुका बंध नहीं होता है । तेजोलेश्या के चले जाने पर ही आयुका बंध होता है । ' एवं ' आउक्काइयाण वि वणस्सइकाइयाण वि' पृथिवीकायिक जीव के जैसे ही अपूकायिकों के वनस्पतिकायिकों के अक्रियावादी और अज्ञानिकवादी इन दो समवसरणों में जो जो पद संभवित हो उन-उन पदों में तिर्थ गायु और मनुष्यायु इन दो आयुओं का ही उनके बंध होता है, अन्य आयुओं का नहीं इनमें भी पृथिवीकायिकों 'नवर' तेउलेस्साए न किंपि पकरे ति' परंतु तेनेवेश्यावाणा पहमा रहेनारा પૃથ્વીકાયિક જીવાને કાઈપણુ આયુને ખ ધ થતે નથી. પૃથ્વીકાયિકાને અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં જ ઇન્દ્રિય પર્યાપ્તિ પૂરી થયા પહેલાં તેોલેશ્યા હાય છે. કેમકે પૃથ્વીકાયિક જીવેામાં દેવેની ઉત્પત્તી થતી હાવાથી ત્યાં અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં તેજોવૈશ્યા કહી છે. તેોલેશ્યાની સત્તામાં આયુને અંધ હાતા નથી. તેજોदेश्याना भवाथीन मायुना अंध थाय छे. 'एव' आउकोइयाण वि षणस्स 11 काइयाण वि' श्यावाजा पृथ्वी अयि लवना उथन प्रमाणे ४ श्यावाजा ખિકાને, લેશ્યાવાળા વનસ્પતિકાયિકાને અક્રિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી મા સમવસરણામાં જે જે પદે સંભવિત ઢાય તે તે પદોમાં તિર્યંચ આયુ અને મનુષ્ય આયુ આ એ આયુષ્યને જ અંધ ાય છે. ખીજા એ આયુના મધ હોતા નથી. તેનું કારણ પણ એજ છે કે આમાં પણ દેવાની
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भगवतीस्त्र अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनश्च अप्कायिकवनस्पतिकायिका द्विमकारकमेव आयुष्कं वध्नन्तीति भावः । 'तेउकाइया वाउकाइया सयट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोमु सरोसरणेसु नो नेरहयाउयं पकरेति' तेजस्कायिका वायुकायिकाथ सर्वस्थानेषु सर्वेष्वेव लेश्यादिद्वारेषु मध्यमयोयो समवसरणयोः अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि. रूपयोः नो नारकभवसम्बन्धि आयुष्कं प्रकुर्वन्ति । किन्तु 'तिरिक्खजोणियाउयं परेंति' तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति, 'णो मणुस्साउयं०' नो मनुष्य सम्बन्धि आयुष्क पकुर्वन्ति 'नो देवाउयं पकरेंति' नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति तेजस्कायिक के जैसे देवों की उत्पत्ति हो सकते से अपर्याप्तावस्था में ही तेजो. लेश्या का सद्भाव रहता है। तेजोलेश्या, के सभाव में आयुका बंध नहीं होता है इत्यादि सब कथन पृथिवीकायिक के जैसे पहां समझना चाहिये । अक्रियावादी और अज्ञानिकवादी अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारकी ही आयुका बंध करते हैं यही कहने का तात्पर्य है, 'लेडझाइया वाउकाझ्या सव्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसुनो नेरइथाउयं पकरेंति' तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव लेश्यावादिक सर्व स्थानों में अक्रियावादी रूप और अज्ञानिकवादी रूप समवसरणवाले होते हुए नारक भव सम्बन्धि आयु कर्म का बंध नहीं करते हैं किन्तु वे 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति' तिर्यगायु का ही बंध करते हैं। 'णो मणुस्साउयं नो देवाउयं पकरेंति' मनुष्यायु का बंध नहीं करते हैं और न देवायु का बंध करते हैं। ઉત્પત્તી હોવાથી અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં તેલેશ્યાને રાદુર્ભાવ હોય છે. તેજલેશ્યાના સદૂભાવમાં આયુને બંધ રહેતો નથી. વિગેરે તમામ કથન પ્રકાયિકના કથન પ્રમાણે અહિયાં સમજવું અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી અપકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક જીવ બે પ્રકારનાં આયુષ્યને જ બધ કરે છે. એજ આ કથનનું તાત્પર્ય કહ્યું છે. - उकाइया वाउकाइया सव्वदाणेसु मज्झमेसु दोसु समोसरणेसु नो मेरइयाउयं पकरेंति' ते४२४ायि: मने वायुय: वश्या विगेरे सा स्थानामा અકિયાવાદીપણા અને અજ્ઞાનવાદીપણાના સમવસરણવાળા થઈને નારક ભવ સંબંધી આયુકર્માને બંધ કરતા નથી. તથા દેવ આયુનો પણ બંધ ४२ता नथी.' ५२'तु 'तिरिक्खजोणियाउय पकरें ति' तिय" मायुनी १ ' 3 छ. 'णो मणुस्साउब नो देवाउयं पकरेंति' मनुष्य न्यायुनी ५ ४२त। નથી. તથા દેવ આયુને પણ બંધ કરતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०३ नै० आयुष्कर्मबन्धनिरूपणम् १०९ वायुकायिकजीवानां सर्वत्र पदेषु एकप्रकारकतिर्यगायुप एद वन्धनं भवति नान्यायुष इति भावः । 'बेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं जहा गुढविक्काइयाणं' द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानामायुर्वन्धो यथा पृथिवीकायिकानां प्रदर्शित स्तथैव ज्ञातव्या द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रियाणां पृथिवीकायिकवदेव तिर्यग्योनिकायुष्कस्य मनुष्यभवसम्बन्ध्यायुष्कस्य च बन्धनं भवति न तु इमे नैरयिकायुष्क कुर्वन्ति न वा देवायुष्कमेव कुर्वन्तीति भावः । 'नवर सम्मत्तनाणेषु न एक पि आउयं पकाति' नवर केवलमेतदेव वैलक्षण्यं यत् सम्यक्त्वज्ञानेषु सम्यक्त्वपदे ज्ञानपदे चेमे द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिया जीवा न एकमपि आयुष्क प्रकुर्वन्ति, द्वीन्द्रियादि चतुरिन्द्रियान्तजीवानां सास्वादनभावेन अपर्याप्तावस्थायामेव सम्यक्त्वं तथा ज्ञानं च भवति तत्कालस्याल्पत्वान्न कस्यापि आयुपो बन्धो भवतीति । 'किरियावाई णं भंते !" तात्पर्य कहने का यही है कि तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के सर्वत्र पदों में एक प्रकार के तिर्थ गायु का ही बंध होता है, अन्य आयुओं का नहीं । वेदियतेइंदिन चउरिदियाणं जहा पुढविस्काइयाण दो इन्द्रिय, तेहन्द्रिय चौइन्द्रिय जीवों के पृथिवीकायिक जीवों के जैसे तिर्थ ग्यानिक आयुष्क का और मनुष्य भव सम्बन्ध्यायुष्क का बंध होता है। नरकायु का और देवायु का इनके बंध नहीं होता है। 'नवरं सम्मत्तलाणेलु न एचपि आउयं पकरेंति' परंतु यहाँ विशेषता इतनी सी ही है कि सम्यक्त्व पद में और ज्ञान पद में ये वीन्द्रिय से लेकर चौइन्द्रिय तक के जील एक भी आयुका बंध नहीं करते हैं, क्यों कि इनके सम्यक्त्व और ज्ञान सास्वादन भाग हो अपर्याप्तावस्था में ही होता है। अतः अपर्याप्तावस्था का काल अत्यल्प होने से किसी भी आयुका बंध इनके अक्रियावादी और अज्ञानिकवादी रूप हालत में તેજરકાયિક અને વાયુકાયિક જીવોને સઘળા પદમાં એક પ્રકારના તિ આયુનેજ ધ હોય છે, તે શિવાયના બીજા આયુઓનો બંધ થતા नथी. 'वेइंदिय तेइदिय चउरिदियाणं जहा पुढवीकोइयाण' मेद्रियामा ત્રણ ઈદ્રિયવાળા, ચાર ઈદ્રિયવાળા પૃથ્વીકાયિક જીને પૃથ્વીકાયિક જીના કથન પ્રમાણે તિર્યચનિક આયુષ્યને અને મનુષ્ય સંબધી આયુને બંધ થાય છે. નારક આયુને અને દેવ આયુને બંધ તેઓને હોતો નથી. 'नवर' सम्मत्तनाणेसु न एक पि आउयं पारे ति' परतु मा ४थनमा विशेषा એ છે કે-સમ્યકત્વ પદમાં અને જ્ઞાનપદમાં આ બે ઈન્દ્રિયવાળાથી લઈને ચારે ઈન્દ્રિયવાળા સુધીના છ એક પણ આયુને બંધ કરતા નથી. કેમકે તેઓને સમ્યક્ત્વ અને જ્ઞાન સાસ્વાદન ભાવથી અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં જ
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भगवतीक्ष
११० क्रियावादिनः खलु भदन्त ! 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' पञ्चेन्द्रियतिर्थग्योनिका जीवाः 'कि नेरइयाउयं पकरें ति पुच्छा' किं नैरयिकायुक प्रकुर्वन्ति अथवा तिय ग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति अथवा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्क वा प्रकुर्वतीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहा मणपज्जवणाणी' यथा मनापर्यवज्ञानिना मनःपर्यवज्ञानिवदेव क्रियावादि पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः न नारकतिर्यग्योनिकमनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति किन्तु केवलं देवायुष्कमेव प्रकुर्वन्तीति भावः । 'अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चउनिहं पि पकाति' अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नारकायुष्कतिर्यग्योनिकायुष्क मनुष्यायुष्क देवायुष्क चतु. नहीं होता है। किरियावाईणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' हे भदन्त ! क्रियावादी पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव 'किं नेरच्याउयं पकरेंति पुच्छा' क्या नैरथिक आयुका बंध करते हैं ? अथवा-तिर्यगायुका वंध करते हैं ? अयवा-मनुष्यायुका बंध करते हैं ? अथवा-देवायुष्क मोबंध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहा मणपज्जबनाणी' हे गौतम! मनापर्ययज्ञानी के जैसे क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च न नारकायु का बंध करते हैं, न तिर्यगायु का बंध करते हैं, न मनुष्यायु का बंध करते हैं, किंतु वे केवल एक देवायु का ही यध करते हैं। 'अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइयवाईय चउन्विहं पि पकरेंति' अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी पञ्चेन्द्रिय तिर्य ग्यौनिक जीव चारों प्रकार की आयुओं का पंध करते हैं। नारહિય છે. તેથી અપર્યાપ્ત અવસ્થાને કાળ અત્યત થોડો હોવાથી તેને અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી પણામાં કેઈપણ આયુને બંધ હેત નથી.
किरियावाई णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ७ मगवन् लिया. वादी ५येन्द्रिय तियय ७५ 'कि नेरइयाउयं पकरे ति पुच्छा' शुतमा
યિક આયુને બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય અને બંધ કરે છે? અથવા दुव मायुन। ५५ रे छ ? २मा प्रशना उत्तRi 'प्रसुश्री ४ छ है-'गोयमा! नही मणपज्जवनाणी' 3 गीतम ! मन:पय ज्ञानीना ४थन प्रमाणे यापही
ચેન્દ્રિયતિર્યય નારકની આયુને બંધ કરતા નથી. તિર્યંચની આયુને પણ બંધ કરતા નથી. મનુષ્ય આયુનો બંધ કરતા નથી. પરંતુ તેઓ કેવળ એક દેવ આયુને જ બંધ કરે છે,
, 'अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वेणईयवाई य चम्विह पि पकरेंति' मस्यिाવાહી. અજ્ઞાનવાદી અને વૈયિકવાદી પંચેન્દ્રિય તિર્યચનિવાળા જ ચારે
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प्रका टीका श०३० उ. १ सू०३ नै० आयुष्ककमैवन्धनिरूपणम्
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faraft on कुर्वन्तीति भावः । 'जहा ओहिया तहा सलेस्ता वि' यथा औधिकाः सामान्यतिर्यग्योनिकजीवा आयुष्कं बध्नन्ति तथैव तेनैव प्रकारेण सलेश्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका अपि आयुष्कं बध्नन्ति, अय भावः - क्रियावादिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः केवलं वैमानिकदेवायुकमेव वध्नन्ति तथा शेषाः सम वसरणत्रयवन्तस्तिर्यक् पञ्चेन्द्रिया चत्वार्यपि नरकाद्यायुषि चनन्ति | 'कण्हलेस्सा णं भंते । किरियाबाई पंचेंदियतिरिक्खजोणिया ' कृष्णलेश्या खल भदन्त ! क्रियावादिनः पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका 'किं नेरझ्याउयं पुच्छा' किं नैरयिकायुष्कं कुर्वन्ति मनुष्यायुष्कं वा कुर्वन्ति देवायुष्क वा कुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'जोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 1 का का भी वे बंध करते हैं, तिर्यगायु का भी वे बंध करते हैं, मनुष्यायु का भी वे बंध करते हैं और देवायु का भी वे बन्ध करते हैं 'जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि' जैसे सामान्य तिर्यग्योनिक जीव आयुष्क कर्म का बन्ध करते हैं उसी प्रकार से सलेइय पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव भी आयुष्क कर्म का बन्ध करते हैं, अर्थात् क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक मात्र वैमानिक देवायुकां बन्ध करते हैं और शेष तीन समवसरणवाले लिर्यच पंचेन्द्रिय चारों गतिका आयु बांधते हैं । 'कण्हलेस्सा णं भने । किरियाबाई पंचिदियतिरिक्खजोगिया' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले क्रियावादी जो पंञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव हैं - वे क्या 'नेरहयाज्यं पकरेति पुच्छा' नैरधिकायु का बन्ध करते हैं ? या तिर्यगायुका बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायु का बन्ध करते हैं ? या देवायु का बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते પ્રકારના આયુષ્યના ખધ કરે છે. તેઓ નારકેાના આયુષ્યના પણ માઁધ કરે છે, તિય ચઆયુના પણ તેઓ અંધ કરે છે મનુષ્ય આયુના પણ અધ કરે છે. અને देव आयुना पशु अध १२ छे. 'जहा ओहिया तहा सलेस्स्रा वि' ने रीते सामान्य જીવા આયુષ્ય કમના અધ કરે છે. એજ પ્રમાણે લેસ્યાવાળા પચેન્દ્રિયતિય ચચેાનિ જીવા પણ નારકના આયુના બંધ કરે છે. તેએ તિય ચ આયુને ખંધ કરતા નથી, પરંતુ તે મનુષ્ય આયુના મદ્ય કરે છે. અને દેવ ભવના આયુષ્યના अधूरे छे, 'कण्हलेस्सा णं भंते! किरियावाई पंचिदियतिरिक्खजोणिया ' હે ભગવન્ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્રિયાવાદી જે પંચેન્દ્રિયતિય ચર્ચાનિક જીવે છે. तेथे शु' किं नेरइयाउय पकरेति पुच्छा' नैरयि आायुना गंध उरे छे ? અથવા તિયચ આયુને! બધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને અંધ કરે છે? અથવા દેવ આયુના બંધ કરે છે. ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ
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'नो नेरइयाउ पकरेति' नो नैरयिकायुष्क' मकुर्वन्ति 'णो विरिक्ख० ' तिर्यग्योनिका प्रकुर्वन्ति णो मणुस्सायं ० ' नो मनुष्यायुष्कं मकुर्वन्ति 'णो देवाउयं पकरेति' नो देवायुवक प्रकुर्वन्ति 'अकिरियाबाई अन्नाणियवाई desert चउवि पि करेंति' अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिक वादिनं पचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः कृष्णश्याचन्त चतुर्विधं चतुःप्रकारमपि नार कति मनुष्यदेवायुकं कुर्वन्तीति भावः । 'जहा कण्हलेस्सा एवं नीललेस्सा वि यथा कृष्णलेश्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका स्वथैव नीललेश्या अवि कापतिक ठेवा अपि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका वक्तव्याः तथा च क्रियावादि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका न नारायुकं न तिर्यग्योनिकायुष्क' न मनुष्यायुष्कं न हैं - 'गोमा ! नो नेरझ्याउयं पकरेति, नो तिरिक्खाउयं पश्रेति 'हे गौतम ! कृष्णवेश्यावाले क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक न नैरथिक आयुका बन्ध करते हैं, न तियेायु का बन्ध करते हैं, 'नो माज्य पकरेति' न मनुष्यायु का बन्ध करते हैं, 'णो देवाउय पकरेति' और न देवायु का बंध करते हैं। 'अकिरियाचाई, अन्नाणियवाई, वेणइयवाई, पिपति' अक्रियावादी, मज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी कृष्णश्यावाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च चारों प्रकार की आयु का बंध करते हैं । 'जहा कण्हलेस्सा एवं नीललेस्सा वि काउलेस्ला वि' जिस प्रकार से कृष्णलेावाले पचेन्द्रियतिर्यक् कहे गये हैं उसी प्रकार से नीलखेड्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यश्च एवं कापोतिकलेश्यावाले भी कहने चाहिये अर्थात्ं क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च न नारकायुष्क का बन्ध करते हैं, न निर्य गायक का बन्ध करते हैं, न मनुष्यायुष्क का बन्ध करते हैं और न 'स्वामीने उडेछे - 'गोयमा ! नो नेरइयाउय पकरेति नो तिरिक्खजोणिया य-पकरेंति' हे गौतम! सॄष्णुसेश्यावाणा द्वियात्राही यथेन्द्रिय तिर्यथ वा નારકાના આયુના બંધ કરતા નથી. તથા તિર્યંચ આયુને અંધ કરતા નથી 'नो 'मनुस्सायं परे 'ति' भनुष्य मायुना पशु अंध उरता नथी. 'जो देवाय' पकरे'ति' तथा हेव आायुना पशु तेथे गंध उरता नथी. 'अकिरियावाई, अन्नाणिवाई वेणइयवाई, चउन्विहं पिपकरेति' अडियावाही अज्ञानवाही अने वैनयि વાંદી કૃષ્ણલેસ્યાવાળા પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચારે પ્રકારના આયુને બંધ કરે છે. 'जा कहलेखा एवं नीललेस्सा वि काउलेस्सा वि' ने प्रभाषे दृष्णुश्यावाजा પચેન્દ્રિય તિય ઇંચોનું કથન કર્યુ છે, એજ પ્રમાણે નીલેશ્યાવાળા પચેન્દ્રિય તિય ચ અને કાપેાતિકલેશ્યાવાળા પચેન્દ્રિય તિય ચનું કથન પણ કરવું જોઇએ’ અર્થાત્ નારકાયુના બંધ કરતા નથી, તિર્યંચયુને પણ અધ કરતા નથી. મનુષ્ય આયુના પણ બંધ કરતા નથી. તથા દેવ આયુના પણ ખંધ કરતા નથી. કેમ કે–
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प्रचद्रिका टीका श०३० उ. १ सू०३ ने० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम्
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देवायुor' प्रकुर्वन्ति । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यदा सम्यग्दृष्टयः कृष्णलेश्याद्यंशुभपरिणामवन्तो भवन्ति तदा ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका न किमपि आयुष्कः प्रकुर्वन्ति यदा तु तेजोलेश्यादि शुभ परिणामवन्तो भवन्ति सम्यग्दृष्टिक न्द्रियतिर्यग्योनिकाः तदा तु देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति, तत्रापि न भवनवासि देवांचा. jor किन्तु केवलं वैमानिकायुकमेव प्रकुर्वन्तीति भावः । तथा शेषा समवसेरणत्रयवन्तस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियाश्चत्वार्यपि नरकाद्यापि बध्नन्तीति । 'तेउलेस्सा नंदा सस्सा' तेजोलेश्या परिणामवन्तः सलेश्य जीववदेव ज्ञातव्याः क्रियावादि तेजोलेश्यावन्तः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः केवलं देवायुकमेव प्रकुर्वन्ति, शेषा स्त्रयोऽक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनस्तु त्रिविधमायुकं बध्नन्ति देवायुष्क का बन्ध करते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च जय कृष्ण आदि अशुभ लेहया के परिणामवाले होते हैं तब वे किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं । और जब ये तेजोलेश्यादि शुभ परिणामवाले होते हैं तब वे सिर्फ एक देवायुष्क का ही बंध करते हैं । देवायुष्क के बंध में भी वे भवनवासी आदि देवों की आयुष्क का बन्ध नहीं करते हैं किंतु एक वैमानिक आयुष्क का ही बन्ध करते हैं । और शेष तीन समवसरण - वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय चारों गति की आयुष्क बांधते हैं। 'तेउलेस्सा जहा सलेस्सा' तेजोलेश्वावाले क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च सलेश्य जीवों के कथन अनुसार केवल एक देवायुष्क का ही बन्ध करते हैं। बाकी के तीन अक्रियावादी, अज्ञानिकबादी और वैनयिकवादी. तेजोलेश्यावाले पचेन्द्रियतिर्यञ्च चारों प्रकार के आयु का बन्ध करते हैं। क्यों कि सलेश्य तिर्यक्पचेन्द्रिय जीवों के इसी સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા તિય ચા જ્યારે કૃષ્ણુલેશ્વા વિગેરે અશુમ વેશ્યાના પરિણામવાળા હાય છે, ત્યારે તેઓ કાઈ પણુ આયુનેા બંધ કરતા નથી અને જ્યારે તેઓ તેોલેશ્યા વિગેરે શુભ પરિણામવાળા હાય છે, ત્યારે તેએ કેવળ એક દેવ આયુષ્યના જ અધ કરે છે. દેવાયુષ્યના અંધમાં પણ તેએ ભવનવાસી વિગેરે દેવાના આયુના બંધ કરતા નથી. પર’તુ એક વૈમાનિક દેવના આયુષ્યના જ અધ કરે છે. અને ખાકીના ત્રણ સમવસરણવાળા તિયાઁચ પંચેન્દ્રિય ચાર ગતિની આયુને મધ ७रै छे. 'वेउलेस्खा जहा सलेस्सा' तेलेलेश्यावाणा प्रियावादी यथेन्द्रियतियय ससेश्य જીવાના કથન પ્રમાણે કેવળ એક દેવઆયુના જ ખંધ કરે છે, બાકીના અક્રિયાવાડી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈયિકવાદી તેોલેશ્ય વાળા પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચારે પ્રકારના આયુષ્યના બંધ કરે છે. કેમ કે-લેસ્યાવાળા જીવેાને આજ રીતનું પરિણામ
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भगवती सूत्रे
सश्यानां तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणामेवं विधस्त्ररूपतयोक्तत्वादिति । 'नवर' अकिरियाair वाई वेणइयवाई य णो णेरइयाउयं पकरेति' नवरं केवलमेतदेव वैलक्षण्यं यत् अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च न नैरयिकायुक प्रकुर्वन्ति किन्तु 'देवापि परे ति' देवायुष्कमपि मकुर्वन्ति, 'तिरिक्खजोणियाउयं पि करेंति' तिर्यग्योनिकायुष्कमपि मकुर्वन्ति । 'मणुस्साउयंवि पकरेंति' मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'एवं पम्हलेस्सा वि एवं सुकलेस्सा वि भाणियव्वा' एवमुपरोक्तक्रमेण पद्मश्यापरिणामवन्तः एवं शुक्ललेश्यापरिणामवन्तोऽपि भणितव्याः कथयितव्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति, एत्र मिमे चापि यदा क्रियावादिनः तदा केवलं देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति, यदा अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो चैनयिकवादिनश्च भवन्ति तदा त्रिविधमपि आयुष्क प्रकार के परिणाम होते हैं ऐसा पहिले कहा गया है। 'नवरं अकिरियाबाई, अन्नाणियवाई, वेणहयबाईय णो णेरइयाज्यं पंकरेति' किन्तु अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च नैरयिक आयु का बन्ध नहीं करते हैं। वे तो 'देवाच्यं पि पकरेति' देवायु का भी बन्ध करते हैं। 'तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति' तिर्यगायु का भी बन्ध करते हैं । 'मनुस्साउयं पकरेति' मनुष्य आयुका भी बंध करते हैं। 'एवं पम्लेस्सा वि एवं सुक्कलेस्सा विभाणियव्या' इसी प्रकार से पद्मलेश्या परिणामवाले पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और शुक्ललेश्या के परिणामवाले पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च भी जानना चाहिये, ये जिस समय क्रियावादी होते हैं तब केवल देवायु का ही यन्ध करते हैं और जब ये ' अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी होते हैं तब तीनों, प्रकार की आयुका बन्ध करते हैं। पर नारकायुक्का बन्ध नहीं करते हैं
हाय छे, ते प्रभा] पडेला उडेस ४ छे, 'नवर अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वेणइवाई णोंरइयाउ पकरे ति' परंतु यावादी अज्ञानवाही भने वैनयिवाही यथेन्द्रिय तिर्यग्य नैरयि आयुष्यना मध उरता नथी तेथे ते 'देवाय' पि पकरे ंति' देवमायुन। मौंध उरे छे, 'तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरे 'ति' तिय" यमायुना मध ४२ छे. 'मणुस्खाउय पिपकरेंति' मनुष्य आयुनो' पशु गंध रे छे. ' एवं पम्हलेस्सा वि एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा' थेट प्रभा यद्म વૈશ્યાના ણિામવાળા પંચેન્દ્રિય તિયચ અને શુકલ લેસ્યાના પરિણામવાળા પચેન્દ્રિય તિય ચના સબંધમાં પણ સમજવું. તેએ જ્યારે ક્રિયાવાદી હૈાય છે, ત્યારે કેવળ દેવ આયુના જ ધ કરે છે. અને જ્યારે તેએ અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈયિકવાદી હાય છે, ત્યારે તેએ ત્રણે પ્રકારના આયુને
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प्रमैयच्चान्द्रका टीका श०३० उ.१ ०३ नै० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम् ११५ नारकातिरिक्तं प्रकुर्वन्तीति । 'कण्णपक्खिया तिहिं समोसरणेहि' कृष्णपाक्षिका जीवाः पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः त्रिभिः समवसरणैः अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि चैनयिकवादिमिः पक्षः 'चउबिहंपि आउयं पकरेंति' चतुर्विधमपि नारकदेव तिर्यग्मनुष्यायुष्क कुर्वन्तीति । 'मुकपक्खिया जहा सलेस्सा' समवसरणत्रयवन्तः शुक्लपाक्षिका यथा सलेश्याः सलेश्यतिर्यपञ्चेन्द्रियजीववदेव शुक्लपाक्षिका अपि पञ्चेन्द्रियतियग्योनिका आयुश्चतुष्क कुर्वन्ति तथा क्रियावादि शुक्लपाक्षिक तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाः केदलं वैमानिकदेवायुष्कमेव बध्नन्ति 'सम्मदिट्टी जहा मण. पज्जवनाणी तहेव येमाणियाउयं षकरें ति' सम्यग्दृष्टयः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका जीवा मनःपर्यवज्ञानिवदेव केवलं वैमानिकायुष्कमेव प्रकुर्वन्तीति ! 'मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया' पिथयादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः कृष्णपाक्षिकजीववदेव मिथ्यादृष्टि जीवा अपि अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि चैनयिकवादिमि त्रिभिः समव'कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं कृष्णपाक्षिक पञ्चेन्द्रिय तिर्थग्योनिक जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिकवादी ही होते हैं और उस समय 'चलम्विहं पि आउयं पकरें ति' वे चारों प्रकार की आयुका बन्ध करते हैं। 'सुक्कपक्खिया जहा सलेस्ला' तीन समवसरणवाले शुक्लपाक्षिक पञ्चेन्द्रियतिथच लश्य तिर्यश्चपंचेन्द्रिय जीवों के जैसे देव तिर्यक् मनुष्य और नारक चारों आयुओं का वध करते हैं, और क्रियावादी शुक्लपाक्षिक तिर्थक् पंचेन्द्रिय जीव मात्र वैमानिक देवायु का वन्ध करते हैं। सम्मदिट्ठी जहा सणपज्जवनाणी तहेव वेमाणिया उयं पकरेंति' सम्यग्दृष्टि पञ्चन्द्रिय नियंग्योनिक जीव मनः पर्यवज्ञानी के जैसे केवल एक वैमानिक आयुका बन्ध करते है। 'मिच्छादिष्ट्री जहा काहपक्खिया' स्विथ्याइष्टि जीव कृष्णपाक्षिक जीवों के जैसे म २ छ, परतु ना२४ना मायुना ५ ४२ता नयी 'कण्हपक्खिया तिहि समोसरणेहि' पाक्षिा ५न्यन्द्रिय तिय ययानि स्यारे भठियावाही, मानवाही भने नयिवाही डोय छे, त्यारे 'चउहि पि आउय पकरे'ति' तसा यार प्रारना भायुना मध ४२ छे. 'सुक्कपक्जिया जहा सलेस्सा' शुसाक्षि: ५'येन्द्रिय तिय य यावा वोना थन माग દેવ, તિય ચ, અને મનુષ્ય આ ત્રણ પ્રકારના રમાયુષ્યને બંધ કરે છે નરયિક मायुनो ५५ ४२ता नथी सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवनाणी तहेव माणियाउय' पकरे ति' अभ्यष्टि ५न्द्रिय तिय ययानि wal, मन:पवज्ञानामा
वाना ४थन प्रभावण २४ वैमानि मायुना मध ४२ छ, 'मिच्छा विद्वी जहा कण्हपक्खिया' मिथ्याष्टा वाना थन प्रभावित
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भगवतीसूत्र सरणे देवनारकतिर्यग्मनुष्यायुष्क चतुर्विधमपि प्रकुर्वन्तीति । 'सम्मामिच्छादिही ण य एक पि पकरेंति जहेव नेरइया' सम्पमिथ्यादृष्टयो न चैकमपि आयुष्क प्रकुर्वन्ति यथैव नैरयिकाः मिथ्यादृष्टिनारकवदेव एपामपि आयुष्कवन्धो न भवतीत्यर्थः । 'नाणी जाव ओहिनाणी सम्मादिही' ज्ञानिनो यावत् अवधिज्ञानि नो. यथा सम्यग्दृष्टयः सम्पदृष्टिवदेव शानिनो मत्यादिज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च केवलं वैमानिकदेवायुष्कमेव प्रकुर्वन्ति न तु नारकतिर्यग्मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्तीति । 'अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा काहपक्खिया' अज्ञानिनो यावद्विभङ्गज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः यावत्पदेन मत्यज्ञानि श्रुताज्ञानिनोः संग्रहः तथा चाज्ञानिमत्यज्ञानि-श्रुताज्ञानि-विभङ्गज्ञानिनश्च कृष्ण पाक्षिकवदेव त्रिमिः समवसरणैरक्रियावाद्यज्ञानिकवादि-वैनयिकवादिरूपै चतुर्विधमपि आयुष्क प्रकुर्वन्तीति । 'सेसा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनथिकवादी अवस्था में, चारों प्रकार की आयुका घन्ध करते हैं। 'सम्मामिच्छादिवीण य एक्कंपि पकरेंति जहेव नेरच्या लग्यक् मिथ्यादृष्टि मिश्रदृष्टि-जीव नारक के जैसे एक भी आयुष्क कर्म का वन्ध नहीं करता है। 'नाणीजाव ओहिनाणी जहा सम्मादिट्ठी' ज्ञानी यावत् अपधिज्ञानी सम्यग्दृष्टि के जैसे केवल एक वैमानिक देवायुष्क का ही बन्ध करते हैं। नारक तिर्यश्च एवं मनुष्य आयुओं का बन्ध नहीं करते हैं । 'अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा काहपक्खिया' अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी कृष्ण पाक्षिक के जैसे अक्रियावादी, अज्ञानवादी, और वैनयिकवादी अवस्था में चारों प्रकार की आयुको वन्ध करते है । यहां यावत् शब्द से प्रत्यज्ञानी और अताजानी इन दोक्षा ग्रहण तुला है। लेसा जाव अणाપંચેન્દ્રિય તિર્યંચ અક્રિયાવાદી અગાનવાદી અને વૈનાયિકવાદી અવસ્થામાં ચારે घाना सायुज्यनी ५५ ४२ , 'सम्मामिच्छादिट्ठीण य एवं प पकरें ति' जहेव नेरइया' सभ्य मिथ्या दृष्टियाणा नाना ४थन प्रभार भिटिवाणा से १६ मायुष्य भने। '५ ४२॥ नथी. 'नाणी जाव ओहिनाणी जहा सम्मादिट्ठी' જ્ઞાનીયાવત્ અવધિજ્ઞાની સમ્યગૃષ્ટિવાળા જીવન કથન પ્રમાણે કેવળ એક દેવ આયુષ્યને જ બંધ કરે છે. નારક, તિર્યંચ અને મનુષ્ય સંબંધી યુને બંધ કરતા નથી.
'अन्नाणि जाव विभगनाणी जहा कण्हपक्खिया' अज्ञानी यावत् વિભાગજ્ઞાનવાળા કૃષ્ણપાક્ષિકના કથન પ્રમાણે અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને નયિકવાદી અવસ્થામાં ચારે પ્રકારની આયુને બંધ કરે છે. અહિયાં યાવત પદથી મતિજ્ઞાની અને શ્રતઅજ્ઞાની આ બે ગ્રહણ કરાયા છે.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ. १ सू०३ नै० आयुष्ककर्मबन्धनिरूपणम्
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जाव अणगारोवउत्ता सब्वे जहा सलेस्सा वहेन भाणियन्त्रा' शेपाः यावदनाकारो पयुक्ताः अनाकारोपयुक्तपदपर्यन्ताः सर्वेऽपि यथा सलेश्या स्तथैव भणितव्याः, तथाचेमे सर्वेऽपि आयुर्वन्धविषये सलेश्यवदेव तथाहि ये क्रियाशदिनस्ते तु केवलं वैमानिकायुकं बध्नन्ति, शेषाः समवसरणत्रयवन्तो जीवाश्चतुर्विधमपि आयुष्कं कुर्वन्ति, 'जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्सा विभाणियन्त्रा' यथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां वक्तव्यताऽनुपदमेव भणिता एवं मनुष्याणामपि वक्तव्यता भणितव्या, क्रियावादि प्रथमसमवसरणे केवलं देवायुकं कुर्वन्ति, अक्रियावादीत्यादि समवसरणत्रये तु चतुर्विधमपि आयुष्प्रकुननवीति । पञ्चेन्द्रिय तिर्यगपेक्षया यद्वैवलक्षण्यं तद्दर्शयन्नाह - 'बरं' इत्यादि, 'णवरं मणपज्जवनाणी नो सन्नोवउत्ता य जहा सम्पद्दिद्वीतिरिक्खजोणिया तद्देव भाणिगाववत्ता सव्वे जहा सलेस्ता तहेव भाणियव्वा" बाकी के समस्त जीव अनाकारोपयुक्त पद तक के सलेश्य जीवों के जैसे चारों प्रकार की आयुका बन्ध करते हैं । 'जहा पंचिदिया तिरिक्खजोणियाणं वक्तव्यया भणिया एवं मणुस्साणं वि भाणिबच्चा' जिस प्रकार से पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की यह वक्तव्यता कही गई है उसी प्रकार से मनुष्योंकी भी वक्तव्यता कहनी चाहिये, तथा च - क्रियावादी मनुष्य केवल वैमानिक देवायुका ही बन्ध करते हैं, तथा - अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी मनुष्य चारों प्रकार की आयुका बन्धे करते हैं । परंतु पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की अपेक्षा जो इस मनुष्य सम्बन्धी प्रकरण विशेषता है-वह ऐसी है कि- 'णचरं मणपज्जनाणी
'सेसा जाव अणागारोवउत्ता सव्वे जहा सलेस्सा तद्देव भाणियव्वा' ખાકીના સઘળા જીવા અનાકારાપચીંગ પદ સુધીના લેશ્યાવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ચારે પ્રકારના આયુષ્યને અધ કરે છે, અહિયાં યાવપદથી સોપચેગવાળાથી લઈને સાકારાપયેાગ સુધીના જીવા ગ્રહણ કરાયા છે.
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'जहा पचिदियतिरिक्खजोणियाण वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्सा वि भाणियव्वा' જે પ્રમાણે પચેન્દ્રિય તિર્યંચયેાનિકાના સખધમાં આ કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્યેાના સંબંધમાં પણ સમજવું એટલે કે-ક્રિયાવાદી મનુષ્ય કેવળ દેવ આયુના જ અધ કરે છે, તથા અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈનયિકવાદી, મનુષ્ય ચારે પ્રકારના આયુના "ધ કરે છે. પરંતુ પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનિકાની અપેક્ષાથી આ મનુષ્ય પ્રકરણમાં જે વિશેષપણુ` છે, તે એ रीते थे -'णवर' मणपज्जवणाणी नोसन्नो उत्ता य जहा सम्मदिट्ठी, तिरिक्ख
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भगवती सूत्रे roa' नवरं केवलं मनःपर्यवज्ञानिनः नो संज्ञोपयुक्ताश्च मनुष्या यथा सम्यग्दृष्टि तिर्यग्योनिका स्तथैव भणितव्याः एकं देवायुकमेव कुर्वन्तीत्यर्थः । 'अलेस्सा केवलनाणी अवेदगा अकसाई अजोगी य' अश्याः सामान्यतो लेश्यारहिताः केवलज्ञानिनः अवेदका अकपायिनोऽयोगिनश्च 'एए न एगंपि आउयं पकरें ति' एते अश्यादिकाः सर्वेऽपि न एकमपि आयुष्क प्रकुर्वन्ति । 'जहा ओहिया जीवा से तहेव' यथा औधिका जीवाः कथिताः शेषम् - कथितव्यतिरिक्त तथैव सामान्यतो जीवप्रकरणमतिपादितमेव ज्ञातव्यमिति । 'वाणमंतरजोइसियवेमा गिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवदेव क्रियावादिनः केवलं मनुष्यायुष्कं मकुर्वन्ति, अक्रियावादि वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमा निका स्त्रयस्तिर्यगायुष्कं मनुष्यायुष्कं च प्रकुर्वन्तीति भावः || ५० ३ ||
नो सन्नो उत्ताय जहा सम्मदिट्ठी, तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियव्वा' मनः पर्यवज्ञानी और नो संज्ञोपयुक्त मनुष्य सम्यग्दृष्टि तिर्यग्योनिकों के जैसे केवल वैमानिक देशयुका ही बन्ध करते हैं। 'अलेस्सा केवलनाणी अवेद्गा अकसाई अजोगीघ' सामान्यतः खेइपारहित, केवलज्ञानी, अवेदक और अकषायी एवं अयोगी 'एए न एगं चि आउयं पकरेंति' ये एक भी आयुकर्मका बन्ध नहीं करते हैं । 'जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव' जिस प्रकार से अधिक जीव है उसी प्रकार से सामान्यतः जीव प्रकरण में प्रतिपादित शेप कथन जानना चाहिये, 'दाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्तर, ज्योतिषिक एवं वैमानिक क्रियाबादी अवस्था में असुरकुमारों के जैसे केवल एक मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं। तथा-अक्रियावादी आदि वानन्तरज्योतिषिक एवं वैमानिक ये तीन तिर्यगायु और अलुष्यायु का बन्ध करते हैं । ३॥ जोणिया तव भाणियव्वा' भन. पर्यवज्ञानवाणा भने नी सज्ञोपयुक्त मनुष्य સમ્યગદૃષ્ટિવાળા તિય ચ ચેાનિકાના કથન પ્રમાણે કેવળ એક દેવ આયુના જ गंध ४रे छे. 'अलेस्सा केवलनाणी अवेद्गा अकस्लाई अयोगीय' सामान्य सेश्याविनाना, ठेवणज्ञानी, अवे भने उषाय विनाना भने योगी 'एए न एपि आउय पकरे ति' मा गधा मे आयुभन मंध ४श्ता नथी. 'जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव' ? प्रभाये भोधि भवना समधभां उथन કર્યું છે. એજ પ્રમાણે સામાન્ય રીતે જીવ પ્રકરણમા પ્રતિપાદન કરેલ ખાકીનું अर्थात् समभवु', 'बानमंतर जोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्तर, નૈતિક અને વૈમાનિક ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં અસુરકુમારાના કથન પ્રમાણે કેવળ એક મનુષ્ય આયુને જ અધ કરે છે. તથા અક્રિયાવાદી, વાનભ્યન્તર, ચૈાતિ
ને વૈમાનિક આ ત્રણે તૈિય ́ચ આયુ અને મનુષ્ય આયુના બંધ કરે છે ાસ ૩/
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० ११९
मूलम्-किरियावाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया . अभवसिद्धिया ? गोयमा ! भवालाद्धया नो अभवसिद्धिया। . अकिरियावाई गं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया पुच्छा गोयमा! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि। एव अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि।सलेस्लाणं भंते! जीवा किारयावाई किं भवासद्धिया पुच्छा, गोयमा ! भवासद्धिया नो अभवसिद्धिया । लेस्लाणं भंते ! जीवा आकरियावाई ? किं भवालद्धिया पुच्छा गोयमा! भवासाद्वया वि असवालद्धिगा वि । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि जहा सलस्सा। एवं जाव सुकलेस्ला । अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं भवसिद्धिया पुच्छा गायमा! भवसिद्धिया नो अभसिद्धिया । एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए। सुकपक्खिया चउंसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवासद्धिया। सम्मदिट्टी, जहा अलेस्सा। मिच्छादिट्टी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिदी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा । नाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया। अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया। सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा, नो सन्नोवउत्ता जहा सम्मदिट्टी, सवेयगा जाव नपुं: सगवेयगा जहा सलेस्सा । अवेदगा जहा सम्म हिट्ठी, सकसाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा अकसाई जहा सम्मदिट्ठीसजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा सम्मदिट्टी, सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। एवं नेर-- इया वि भाणियव्वा । नवरं नायव्वं जं अत्थि। एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा पुढवीकाझ्या लवटाणेसु वि
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अगवतीले मज्झिल्लेसु दोसु बि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि। एवं जाव वणस्लइकाइया वेइंदियतेइंदियचउरिदिया एवं घेव । नवरं लम्मत्ते ओहियनाणे आभिणिवोहियनाणे सुयनाणे एएसु चेव दोसु सज्झिमेसु समोलरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया । सैसं तं चैव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया नवरं नायव्वं जं अस्थि । मणुस्ला जहा ओहिया जीवा, वाणमंतरजोहस्तिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू० ४॥ — तीसइमे सए पढसो उदेसो लमत्तो ॥३०-१॥ ___ छाया-क्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवशः किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिकाः ? गौतम ! भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः । अक्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवाः किं भवसिद्धि काः पृच्छा, गौतम ! भत्रसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि। एक्मज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खल भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं भवसद्धिका पृच्छा, गौतम ! भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः । सलेश्याः खलु भदन्त ! जीवा अक्रियावादिनः किं भवसिद्धिका पृच्छा, गौतम ! भवसिद्धिका अपि अमवसिद्धिका अपि । एमज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि यथा सलेश्याः । एवं यावत् शुक्ललेश्याः। गलेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः किं भवसिद्धिकाः पृच्छा, गौतम | भवसिद्धिका नो अभव. सिद्धिकाः । एवमेतेनाभिलापेन कृष्णपाक्षिका विष्वपि समवसरणेषु भजनयां । शुक्लपाक्षिका चतुर्ध्वपि समवसरणेषु भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः । सम्यग्दृष्टयो यया अशाः । मिथ्यादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः । सम्पग्निथ्यादृष्ट पो द्वयोरपि समवसरणयो र्यया अलेश्याः । ज्ञानिनो यावत् केवलज्ञानिनो भवसिद्धिका नो अमवसिद्धिकाः । अज्ञानिनो यावद्विमङ्गज्ञानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः । संज्ञासु चतमुष्वपि यथा सलेश्याः । नो संज्ञोपयुक्ता यथा सम्यग्दृष्टयः । सवेदका यावअपुंपकवेदका यथा सलेमाः । अवेदका यथा सम्यग्दृष्टयः, सकपायिनो चावल्लोभकपायिनो यथा सलेश्णः । अपायिनो यया सम्यग्दृष्टयः। सयोगिनो यावत् काययोगिनो यथा सलेश्याः । अयोगिनो यथा सम्यग्दृष्टयः । साकारोपयक्ता अनाकारोपयुक्ताः यथा सलेश्याः। एवं नैरयिका अपि भणितव्याः, नवरं ज्ञातव्यं यदस्ति । एवमसुरकुमारा अपि यावत् स्वनितकुमाराः । पृथिवीकायिका
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प्रमेयन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२१ सर्वस्थानेष्वपि मध्यमयो ईयोरपि समवसरणयो भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका भपि । एवं यावद् वनस्पतिकायिकाः। द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया एकमेव नवरं सम्यक्त्वे औधिकज्ञाने आभिनियोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने एतयोरेव द्वयोर्मध्यमयोः समवसरणयो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः । शेपं तदेव । पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका यथा नैरपिकाः, नवरं ज्ञातव्यं यदस्ति । मनुष्या यथा औधिका श्रीवाः । वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा असुरकुमाराः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥२०४॥
विंशत्तमे शतके प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥३०-१॥ टीका-'किरियावाई णं भंते ! जीवा' क्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवा 'किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया' किं भवसिद्धिकाः तस्मिन्नेव भवे सिद्धिगमनयोग्या अथवा अभवसिद्धिका भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' भवसिद्धिकाः क्रियावादिनो भवन्ति नो-न तु अभवसिद्धिका भवन्ति ये ते क्रियावादिनस्ते तस्मिन्नेव भवे मोक्षमासादयन्ति न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति उत्तरम् । 'अकिरियावाई णं भंते ! जीवा' अक्रियावादिनः खलु भदन्त ! जीवाः 'किं भवसिद्धिया पुच्छा'
किरियाबाई गंभंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभयसिद्धिया'-इ०
टीकार्थ-किरियावाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धियाअभवसिद्धिया' 'हे भदन्त ! क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक होते हैं ? या अभवसिद्धिक होते है ? जिन में उसी भव में सिद्धिगति में जाने की क्षमता है वे भवसिद्धिक और इन से विपरीत जो हैं वे अभवसिद्धिक हैं। उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' हे गौतम ! क्रियावादी जीव भवसिद्धिक होले हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'अकिरियाबाई णं भंते। जीवा किं भवसिद्धिया पुच्छा' हे
किरियावाई ण भंते ! जीवा कि' भवसिद्धिया अभवसिद्धिया' त्याह
शा-किरियावाईणं भंते जीवा किं भवसिद्धिया अभवसिद्धियामाવન કિયાવાદી જીવે શું ભવસિદ્ધિક હોય છે ? કે અભવસિદ્ધિક હોય છે ? જેઓ જ ભવમા સિદ્ધિ ગતિમાં જવાના હોય તે ભવસિદ્ધિક કહેવાય છે તે શિવાયના અભાવસિદ્ધિક કહેવાય છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा । भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' गौतम ! याचाही १ मवसिद्धि હોય છે અભવસિદ્ધિકહેતા નથી.
'अकिरियावाई णं भंते ! जीवा कि भवसिद्धिया अभवसिद्धिया पुच्छा' है ભગવન જે જીવે અકિયાવાદી છે, તેઓ ભવસિદ્ધિક હોય છે? કે અભવસિદ્રિક
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भगवतीसूत्रे
૨
किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका वा भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगह्यते । भगवाजाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया 'दि' अक्रियावादिनो 'भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति । एवं अन्नाणियवाई विचेणइयवाई वि' एवम् भक्तियावादिवदेव यज्ञानिकवादिनोऽपि चैनयिकनादिनोऽपि भवसिद्धिका अपि सन्ति अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । | 'ससा णं भंते! जीवा किरियाबाई' सहपाः खल भदन्त । जीवाः क्रियावादिनः, 'कि भवसिद्धिया पुच्छा, किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका वेति प्रश्नः, पृच्छया संगृह्यते ! भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'भवसि - द्विया नो अभवसिद्धिया' भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्ति सलेश्याः क्रिया 'वादिनो जीवा इति । 'सकेस्सा णं भंते । जीवा अकिरियाबाई कि सर्वसिद्धिया अभ भदन्त ! जो अकिपाचादी जीव हैं वे क्या भवसिद्धिक होते हैं या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'नोमा ! भवसि - हिया वि अभवसिद्धिया वि' हे गौतम! अक्रियाचादि जीव भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । ' एवं अन्नाणियवाह वि घेणहयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानिकवादी भी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं इसी प्रकार के वैनयिकवादी भी होते हैं' । 'नलेस्सा णं भंते! जीवा किरियाबाई' हे भदन्त | सलेश्य क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक होते हैं ? या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवद्विया' हे गौतम! भवसिद्धिक होते हैं अवसिद्धिक नहीं होते हैं'। 'सलेस्मा णं भंते । जीवा अकिरियाबाई किं भवसिद्धिया पुच्छा' हे भदन्त ! अक्रियाबादी मले जीच क्या भवनिद्विक
होय हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छे - 'गोयना । भवसिद्धिया वि अभव मिट्टिया वि' हे गौतम अडियावाही छव लवसिद्धि पशु होय छे, भने अभवसिद्धि पशु होय . ' एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि' मान प्रभा અજ્ઞાનવાદી પણ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક બન્ને પ્રકારના ડેાય છે. વૅનविवाही पशु मे प्रभा भन्ने प्रशस्ता होय छे. 'सलेस्था णं भवे । जीवा ચિા1’હે ભગવન લેસ્યાવાળા ક્રિયાવાદી છવા નુ ભવસિદ્ધિક હોય છે ?
अलवसिद्धि होय हे ? या प्रश्न उत्तरमां प्रभुश्री हे छे - 'गोयमा ! सिद्धिया तो अभवसिद्धिया' हे गौतम! वेश्यावाणा प्रियावादी लवो लवसिद्धि होय छे, लवसिद्धि होता नथी. 'सलेम्सा णं भते । जीवा अकिरिवाई किं भवसिद्धिया पुच्छा' हे भगवन् गडिया ही बेश्याबाला वाशुं भवसिद्धि હાય છે? કે અભસિદ્ધિક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२३ वसिद्धिया' पुच्छा सलेश्याः खलु भदन्त ! अक्रि मावादिनो जीवा किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका भदन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृहाते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया दि अभवसिद्धिया वि' सलेश्याः अक्रियावादिनो, जीवाः भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभत्रसिद्धिका वा भवन्तीति । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' एवं सलेश्याऽ क्रिसावादि जीववदेव अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभवसिद्धिका अपि भवन्ति । 'एवं जाव सुकलेस्सा' यथा सलेश्याः क्रियावादिनोऽक्रियावादिनश्च सथिता स्तथैव यावत् शुक्ललेश्याः, अत्र यावत्पदेन कृष्णनीलकापोततेजः पद्मलेगाना: संग्रहो भवतीति तथाच छष्णलेश्यात आरभ्य शुक्ललेशान्ताः क्रियावादिनो जीवा भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्ति तथा अक्रियावादिनः कृष्णलेश्यात आरभ्य शुक्ललेग्यान्ताः सर्वेऽपि जीव भवसिद्धिकाश्च भवन्ति अभवसिद्धिकाश्चापि भवन्तीति भावः । 'अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं भवसिद्धिया पुच्छा' अलेश्याः सामान्यतो लेश्यारहिताः खल्ल भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः कि भवति. होते हैं या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा! भवसिद्धिथा वि अभवसिद्धिया वि' हे गौतम ! अक्रियावादी सलेश्य जीव भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानवादी जीव भी और वैनथिकवादी जीव भी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं । 'एवं जाव सुक्कलेस्ला कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यावाले क्रियावादी जीव भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। और कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के अक्रि. यावादी आदि जीव भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकार के 8- 'गोयमा ! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' ॐ गौतम ! मठियावाही श्यावाणा व ससिद्धि५५ उय छे भने मससिद्धि य हाय छे. एवं अन्नाणियबाई वि वेणइयवाई वि' मा प्रमाणे श्मशानवाही 04 मन पैन યિકવાદી જીવ પણ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક એમ બન્ને પ્રકારના હોય छ. 'एव जाव सुक्कलेस्सा' वेश्याथी सन शुस वेश्यावाठियावाही જીવ ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હેતા નથી. તથા કૃષ્ણલેશ્યાથી લઈને શુકલ લેડ્યા સુધીના અઢિયાવાદી જીવ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક भन्न १२ डाय छे. 'अलेक्सा भंते | जीवा किरियाबाई कि भवसिद्धिया पुच्छा' 8 सपन लियावाही असे२५ ७वशु स4 डाय छ ? अथवा
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भगवतीस द्धिका भवन्ति अभवसिद्धिका वा भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संग्रह्यते। भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! भासिद्धिया नो अमत्रमिद्भिया' अलेश्याः क्रियादिनो जीवाः भवसिद्धिका एव भवन्ति न तु अभवसिद्धिका सवन्तीत्युत्तरम् । 'एव एएणं अभिलावणं कहपक्खिया तिसु वि समोसरणेमु भयणाए' एवमनेन अभिलापेन पूर्वोदिवप्रकारेण कृष्णपाक्षिका जीवा स्त्रिप्वपि द्वितीयत्तीयचतुर्थेषु अक्रियावाद्यज्ञानिकवादी-वैनायकवादी रूपेषु समवसरणेषु भजनया-विकल्पेने ति भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि ज्ञातव्या इति । 'सुक्कपविखया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' शुक्लपाक्षिका जीवाः चतुर्वपि प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थेषु समवसरणेषु क्रियादाधक्रियावाद्यज्ञानिवादि वनायकचादि रूपेषु भवसिद्धिका एव भवन्ति, नो-न तु कथमपि अमवसिद्धिका भवन्तीति । 'सम्मदिट्टी जहा अलेस्सा, सम्यग्दृष्टयो जीवा यथा अलेश्यजीवा: होते हैं । अलेस्सा ण भंते ! जीवा किरियावाई किं भवसिद्धिया पुच्छा है भदन्त्य ! क्रियावादि अलेश्य जीव क्या लवमिद्विक होते हैं या अभय सिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया' हे गौतम ! अलेश्य क्रियावादी जीव भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया लिस्लु चिलमोसरणेसु भयणाए' इस प्रकार अभिलापद्वारा कृष्णपाक्षिक जीव अक्रियावादी अज्ञानिकबादी और वैनयिकवादी रूप तीनों समवसरणों में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'सुक्कपक्खिया चउसु वि समवसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' शुक्लपाक्षिक चारों समोसरणों में भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं 'सम्मदिट्टी जहा अलेस्सा' અભવસિદ્ધિક હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' गीतम! वेश्या विनाना यापही
मसिद्धि होय छे. मनसिद्धिडाता नथी 'एव एएणं अभिलावेणं कण्डपस्निया तितु वि समोसरणेसु भयणाए' मा प्रमाणे मा मनिसाथी કૃષ્ણપાક્ષિક જીવે અકિયાવ દી અજ્ઞાનવાદી, અને વનવિવાદી અવસ્થાઓમાં ससिद्धि डाय छे. समवसिद्धि होता नथी. 'सुकपक्खिया च उसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया' शुसाक्षि ७१ यारे समवसरमा ससिद्धि डाय छे समसिद्ध होता नथी 'सम्मादिद्री जहा अलेस्सा मलेश्य वाना સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે સમ્યગુ દષ્ટિવાળા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० २.१ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १५५' कथिता स्तथैव मासिद्धिका एक न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति । 'मिच्छादिट्टी जहा कण्हपक्खिया' मिथ्यादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः कृष्ण पाक्षिकवदेव मिथ्या दृष्टयोऽ क्रियावादीत्यादि सपन मरणत्रये विकल्पेन भवसिद्धिका अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'सम्मामिच्छादिट्ठी दो मु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा' सम्यग्मिथ्यादृष्टयो मिश्रदृष्टयः द्वयोरपि तृतीयचतुर्थयोरज्ञानिकवादि चैनयिकवादि समवसरणयोरलेश्यवदेव भवसिद्धिका भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'गाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानिनो यावत्केवलज्ञानिनश्च भवसिद्धिकाः, अत्र यास्पदेन मलिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानिनां संग्रहो भवति तथा च ज्ञानित गारभ्य केवलज्ञानिपर्यन्ताः सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव भवन्ति न तु जिस प्रकार से अश्य जीव कहे गये हैं उसी प्रकार से सम्पादृष्टि जीव भी भक्तिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'मिच्छा. दिही जहा माहपक्विया' मिथ्यादृष्टि जीव भी कृष्णपाक्षिकों के जैसे अक्रियावादी, अज्ञानिकबादी और वैनायकवादी अवस्था में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्रिक मो होते हैं। 'सम्मामिच्छा दिट्ठी दोस्तु वि संमोलरणेलु जहा अलेस्ता' अलेश्य जीवों के जैसे मिश्रदृष्टि जीव दो समवसरण अवस्था में-अज्ञानिकवादी और वैनयिकबादी स्थिति में-भज्ञलिद्धिक होते हैं ऐसा जानना चाहिये 'णाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानी यावत् केवल ज्ञानी जीव भवसिद्धिक ही होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत् पद से मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी और धनापर्यवज्ञानी
वो पय सवसिद्धि ४ाय छे. मससिद्धि त नथी. 'मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपश्जिया' मिथ्याटवाणा 4 १५५क्षिा ना ४थन प्रभारी અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વયિકવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય 2. सन मनसिद्धि पाय छे. 'सम्मामिच्छादिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा' वेश्या विनाना ४थन प्रमाणे भिष्टिपणा બે સમવસરણની અવસ્થામાં એટલે કે અજ્ઞાનવાદી અને વૈયિકવાદીપણાની અવસ્થામા ભવસિદ્ધિક હોય છે તેમ સમજવું । 'णाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानी यावत કેવળજ્ઞાની જીવે ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હોતા નથી અહિયાં થાવત્પદથી મતિજ્ઞાનવાળા શ્રવણ નવાળા અવધિજ્ઞાનવાળા અને મન:પર્યાવજ્ઞાન
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भगवतीसूत्रे अभवसिद्धिका इति भावः। 'अन्नाणी जाव विमङ्गनाणी जहा काहपक्खिया' अज्ञानिनो यावद्विभङ्गजानिनो यथा कृष्णपाक्षिकाः, अत्र यावत्पदेन मत्वज्ञानि श्रुताज्ञानिनः संग्रहो भवति तथाचाज्ञानित आरभ्य विमङ्गज्ञानिपर्यन्ताः सर्वेऽपि कृष्णपाक्षिकवदेव अक्रियावादित आरभ्य समवसरणत्रयेषु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपोति । 'सन्नासु चउसु वि जहा सलेरसा' संज्ञासु आहारादि परिग्रहान्तासु चतसृष्वपि यथा सलेश्याः सलेश्यवदेव चतुर्वपि आहारादि संज्ञावत्सु क्रियावादिनः भवसिद्धिकाः न तु अभवसिद्धिका अक्रियावादिन स्त्रिषु समवसरणेषु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपीति । 'नो सन्नोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी' नो संज्ञोपयुक्ता जीवा यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टिचदेव क्रियावादिनो इनका ग्रहण हुआ है। तथाच-ज्ञानी से लेकर केवलज्ञानी तक सब जीव भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'अन्नाणी जाब विभंगनाणी जहा काहपक्खिया' यावत्पद ग्रहीत मत्यज्ञानी, अताज्ञानी तथा अज्ञानी एवं विभंगज्ञानी ये सब कृष्णपाक्षिक के जैसे अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी एवं वैनयिकवादी की हालत में भवसि. द्धिक भी होते हैं और अभवलिद्धिक भी होते हैं। 'सन्नासु च उत्सु वि जहा सलेस्ला' आहार संज्ञा से लेकर परिग्रह संज्ञा तक की चार संज्ञाओं में भी सलेश्य जीवों के जैसे जीव क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते। तथा अक्रियावादी एवं अज्ञानवादी तथा वैनयिकवादी अवस्था में ये सब भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते है । 'नो सन्नोव उत्ता जहा વાળા જ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા જ્ઞાનથી લઈને કેવળજ્ઞાની સુધીના સઘળા wa सिद्ध डाय छ, मलसिद्धि ता नथी. 'अन्नाणी जाव विभंगनाणी जाव कण्डपक्खिया' मडियां सूत्रमा मावस अज्ञानी यात्५४थी મતિઅજ્ઞાનવાળા શ્રુતજ્ઞાનવાળા તથા વિર્ભાગજ્ઞાની એ બધા કૃષ્ણપાક્ષિક જીવન કથન પ્રમાણે અકિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈનાયિકવાદીપણામાં ભવસિદ્ધિક હોય છે, અભયસિદ્ધિક હોતા નથી.
'सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा' भाडा२ संज्ञाथी सन परिवह संज्ञा સુધીની ચારે સત્તામાં વેશ્યાવાળા ના કથન પ્રમાણે જીવ ક્રિયાવાદી પણામાં ભવસિદ્ધિક જ હોય છે, અભાવસિદ્ધિક હોતા નથી. તથા અક્રિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી તથા વનયિકવાદી અવસ્થામાં આ બધા ભવસિદ્ધિક પણ साय छे. मन मसिद्धि प डाय छे. 'नो सन्नोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी'
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मैन्द्रिका टीका श०३० उ० १ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि०
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नो संज्ञोपयुक्ता जीवा भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः । 'सवेदना जाब नपुं सगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावत् नपुंसक वेदकाः यथा सलेश्याः er या पदेन स्त्रीपुरुषवेदकयोः संग्रहः तथा च सवेदकादारभ्य नपुंसक वेद. कान्ताः सर्वेऽपि सलेश्यवदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः, अक्रियावादि प्रभृतयस्तु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । . 'अवेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदका यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टिवदेव सामान्यतो वेदरहिताः क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्तीति । 'सकसाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सकषायिनो यावत् लोभकपायिनो सम्मदिट्टि' नो संज्ञोपयुक्त जीव सम्यग्दृष्टि के जैसे क्रियावादी अबस्था होने से भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'सवेद्गा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदक से लेकर नपुंसक वेद तक समस्त जीव सलेश्य जीवों के जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते है अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत्पद से स्त्री वेदों और पुरुषवेदकों का ग्रहण हुआ है। तथा अक्रियावादी अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी अवस्था में ये सब भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'अवेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदक सम्यग्दृष्टि के जैसे ही क्रियावादी होने से भसद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सकसाई जाय लोभकसाई जहा सलेस्सा' सकषायी यावत् लोभकषायी जीव सलेश्य जीवों के जैसे ही क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां
ના સાયે ગવાળા જીવે! સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા જીવેાના કથન પ્રમણે ક્રિયાવાદી अवस्थामां लवसिद्धिए हाय है. अभवसिद्धिए होता नथी 'सवेद्गा जाव नपुचगवेद्गा जहा सलेस्सा' वेदवाना सवेह लोथी सधने नपुं सम्वेह सुधीना सधणा જીવે લેશ્યાવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક હોય છે અભસિદ્ધિક હોતા નથી. અહિયાં યાવપદથી વેઢવાળા અને પુરૂષવેદવાળા ગ્રહણુ કરાયા છે તથા અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈનયિકવાદી અવસ્થામાં सा गधा लवसिद्धि पायु होय छे, भने अलवसिद्धि पशु होय हे 'अवेयगा जाव सम्मदिट्ठि' अनेঃ४ त्र सभ्यद्दृष्टिवाणा ना उथन प्रमाडियावाही अवस्थाभां लवसिद्धि होय छे. अभवसिद्धि होता नथी 'सकलाई जाव लोभकसाई जहा स्वलेस्सा' सम्षायी यावत् सोल षायवाजा वे बेश्या• વાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભસિદ્ધિક હોય છે.
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भगवतीसूत्रे
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यथा सलेश्याः यावत्पदेन क्रोधमानमायाकपायिनां संग्रहः तथाचते सर्वेऽपि 'सलेश्यवदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो असवसिद्धिका अक्रियादि समवसरणाअयत्रन्तरतु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति । 'अफसाई जहा 'सम्मशिट्टी' अपायिनो यथा सम्यग्दृष्टयः 'सस्यदृष्टिवदेव भवसिद्धिका नो । अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः। 'सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा' ‘सयोगिनो यावत् काययोगिनश्च यथा सळेश्याः, यावत्पदेन मनोयोगिनो । वचोयोगिनश्च संग्रहः तथा च सयोगित आरभ्य काययोगिपर्यन्ताः सर्वेऽपि ., सलेश्यवदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका अक्रियायादि प्रमृत्य स्त्रयेऽपि भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भारः। 'अजोगी जहा सम्मट्टिी' अयोगिनो यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टि बद अयोगिनो भवसिद्धिका यावत् शब्द से क्रोध, मान, माया कषायवालों का ग्रहण हुभा है। तथा-अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी एवं वैनधिकवादी अवस्था में ये सब भवसिद्धिक ही होते हैं, अभयसिद्धिक नहीं होते हैं । 'अकसाई जहा सम्म दिट्ठी' अशषायवाले जीव सम्यग्दृष्टि जीवों के जैसे भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'मजोगी जाव कायजोगी जहा सलेला सयोगी यावत् कोययोगी सवेश्य जीवों के जैले क्रियावादी अवस्था में अवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां गावल्पद से 'मनोयोगी और बचोयोगी' इनका ग्रहण हुआ है। लथा ये लयोगी से लेकर यावत् काययोगी तक के समस्त जीव अक्रियावादी अवस्था में अज्ञानिकवादी अवस्था में भव. मिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'अजोगी जहा અભવસિદ્ધિક હોતા નથી. અહિયાં યાસ્પદથી કોધ, માન, માયા, એ કષાય વાળાઓ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા કિય વદી, અજ્ઞાત્વદી, અને નચિકવાદી અવસ્થામાં આ બધા ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હેતા નથી 'अकसाई जहा सम्मदिदि' २१४पायव
सभ्यपि वाना ४थन प्रमाणे माद्वि०४ डाय छे. मम साता नयी 'मजोगी कायजोगी जहा सलेस्सा' सयोगी याययोगमा सवेश्य छ ना ४थन પ્રમાણે કિયાવાદી અવસ્થામા ભવસિદ્ધિક જ હોય છે અભાવસિદ્ધિક હતા નથી અહિયાં યાવ૫દથી મને ગવાળા, અને વચન ગવાળા ગ્રહણ કરાયા છે. તથા આ સગીથી લઈને કાગવાળા સુધીના સઘળા છે અઝિયાવાદી અવસ્થામાં અજ્ઞાનવાદી અવસ્થામાં અને વૈયિકવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભવસિદ્ધિક પણ હાથ છે,
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_referrer श०३० उ. १ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि०
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एव न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः । 'सागारोवउत्ता अनागारोवउत्ता जहां 'सलेस्सा' साकारोपयुक्ता स्तथा अनाकारोपयुक्ता जीवाः सलेश्य जीववदेव क्रियाबादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः, अक्रियावादी प्रभृतयखयोऽपि भव'सिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । ' एवं नेरहया वि भाणियन्त्र' एवं सामान्यतो जीववदेव नैरयिका अपि जीवा लेश्यादिभि द्वारे र्भवसिद्धिका5भवसिद्धिकादिरूपेण भणितव्याः । 'नवरं नाथव्वं जं अस्थि' नवरं केवल सामान्य जीवमकरणापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यत् यत् लेश्यादिकं द्वारजार्त नारकस्य विद्यते तदेव द्वारजातमाश्रित्य भवसिद्धिकत्वादि विचारणीयमिति । 'एवं असुरकुमारा 'वि जाव यणियकुमारा' एवं नारकदण्डकवदेव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारसम्मदिट्ठी' सम्यकदृष्टि जीवों के जैसे अयोगी जीव भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सागारोवउत्ता अनागारोवता जहा सहसा 'साकारोपयुक्त तथा अनाकारोपयुक्त जीव सलेश्य जीवों के 'जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। तथा ये ही अक्रियावादी, अज्ञानिकवादि और वैनयिकवादी अवस्था में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। ' एवं नेरइया वि भाणियव्वा' सामान्य जीव के जैसे ही नैरयिक भी लेइयादि द्वारों को लेकर भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक रूप से कहना चाहिये। 'नवर' नायव्वं ज अस्थि' परन्तु सामान्य जीव प्रकरण की अपेक्षा से विशेषता केवल इतनी सी ही है कि जो लेइयादिक द्वार नारक के हो उसी द्वार को लेकर भवसिद्धिक आदिका विचार करना चाहिये 'एवं असुरकुमारावि जाव थणियकुमारा' नारक दण्डक के जैसे ही 'अजोगी जहा सम्मदिट्ठी' सभ्यगृहेष्टिवाणा लवना उथन प्रभाो गयोगी षो अवसिद्धि होय छे, अलवसिद्धि होता नथी 'सागारोवउत्ता अनागारोव उत्ता जहा सलेप्सो' साठारे पियोगवाणा भने अनायियोगवाजा कवी बेश्याવાળા જીવેાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક જ હોય છે, અભવસિદ્ધિક હૈ।તા નથી તથા આ ક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈનિયકવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભવસિદ્ધિક પણ હોય છે. 'ए' नेरइया वि भाणियव्वा' સામાન્ય જીવના કથન પ્રમાણે નેંરયિકા પણ લેશ્યા વિગેરે દ્વારાને લઈને ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક જ ઢાય છે. તેમ समवु' 'नवर' नायन्त्र' जं अस्थि' परंतु सामान्य व अभ्रणुनी अपेक्षाथी કેવળ એજ વિશેષપણુ છે કે-નારકતા જે લેસ્યા વિગેરે દ્વારા હાય એન્જ द्वाशेने सঘने अवसिद्धिः विगेरेनो वियार ४२वो लेई को, 'एव' असुरकुमारा
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भगवती सूत्रे
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- पर्यन्याः सर्वेऽपि क्रियावाद्य क्रियावादिभृतिसमवसरणेषु भवसिद्धिकत्वादि रूपेण प्राणीया इति । जीवनारक देवदण्डकान् विविश्य एकेन्द्रियादि दण्डकानू . विवेचयन्नाह - 'पुढवीकाइया राज्यास वि मन्झिल्लेसु दोसु वि समोसरणेसु 'भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' पृथिवीकायिका जीवाः सर्वस्थानेषु मध्यमयो -रक्रियावाधज्ञानिकनादिरूपयोः समवसरणयो र्भवसिद्धिका अपि भवन्ति अर्थ- सिद्धिका अपि भवन्तीति । ' एवं जाव वणस्सइकाइया' एवं पृथिवी कायिकच देव यावत वनस्पतिकायिका अपि माध्यमिकसमवसरणद्वये भवसिद्धिका अपि अभं 'afafe aft aafa, अत्र यावत्पदेना कायिकतेजस्कायिकत्रायुकायिकानां संग्रदो भवतीति । 'वेदिय से इंदियच उरिंदिया एवंचेव' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियअसुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक सब ही क्रियावादी, अक्रियावादी आदि अवस्थाओं में अवसिद्धिक आदि रूप से समझना चाहिये ।
इस प्रकार जीव नारक और देव दण्डकों की विवेचना करके अब सूत्रकार एकेन्द्रिय आदिक दण्डकों की विवेचना करते हैं- 'पुढवीकाइया
gya मल्लेसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिडिया बि 'पृथिवीकायिक जीव समस्त स्थानों में अक्रियावादी और अज्ञानवादी रूप दो समवसरणों में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'एवं जाच वणस्सइकाइया' पृथिवी कायिक के जैसे ही यावत् वनस्पतिकायिक भी माध्यमिक दो समवसरणों में भगसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं।
यावत् पद से 'अकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक' इनका संग्रह हुआ है । 'वेदिय, तेदिय चरिंदिया एवं चेव' द्वीन्द्रिय, वि जाव यणियकुमारा' ना२४ ना કથા પ્રમાણે જ અસુરકુમારાથી લઈને સ્નનિતકુમાર સુત્રીના સઘળા ક્રિયાવ દી, અક્રિયાવ'દી વિગેરે અવસ્થાઓમાં ભવસિદ્ધિક વિગેરે પણાથી સમજવા,
આ પ્રમાણે જી, નારક, અને દેવ દડકેતુ' વિવેચન કરીને હવે सूत्रभर मेड द्रिय विगेरे इंडोनु विवेशन रे छे– 'पुढवीकाइया सव्त्रट्ठाणे व मझिल्लेसु दो वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' પૃથ્વીકાયક જીવે સઘળા સ્થાનમાં અક્રિયાવી અને અજ્ઞાનવાદી રૂપ એ સમવસરણૈામાં ભવસિદ્ધિક પણ હૈય છે, અને અમલસિદ્ધિક પણ હાય છે. અહિયાં ચાવપદથી અખ઼ાયિક, તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક એ પદોના સ‘ગ્રહ थयो छे 'बेइंदिय, तेइदिय चउरिंदिया एवं चैव' में 'द्रियवाजा, भणु 'द्रियવાળા અને ચાર ઇંદ્રિયવાળા જીવો પણ પૃથ્વીકાયિક વિગેરના કથન પ્રમાણે
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प्रमेयचन्द्रिका का श०३० उ.१ सू.४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १३१ चतुरिन्द्रियजीवा अपि एकमेव-पृथिव्यादिवदेव ज्ञातव्याः। 'णपर संमत्ते ओहियनाणे आभिणियोहियनाणे सुयनाणे' नवरं केवल सम्यक्त्वे औधिकज्ञाने आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने च 'एएसु चेव' एतेषु एव सम्यक्त्वौधिक ज्ञानादि द्वारेषु 'दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' द्वयोमध्यमयोरक्रियावाद्यज्ञानिकवादिनो भवसिद्धिका एव द्वीन्द्रियादारभ्य चतुरिन्द्रियान्ता भवन्ति न तु अभवसिदधिका भवन्तीति ! 'सेसं तंचेव' शेष-मतिज्ञानादिपु यद्वैलक्ष्यं कथितं तदतिरिक्तं सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा नैरयिका नैरयिके सामान्य तेइन्द्रिय और चौहन्द्रिय जीव भी पृथिवीकायिक आदिकों के जैसे ही जानना चाहिये, अर्थात् ये सब अक्रियावादी और अज्ञानवादी अवस्थावाले होने के कारण भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसि. द्धिक भी होते हैं। 'नवर सम्भत्ते ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे केवल सम्यक्त्व में, औधिक ज्ञान में, आभिनियोधिज्ञान में
और श्रुतज्ञान में 'एएस्सु चेव' अर्थात् इन्ही सम्यक्त्व, औधिकज्ञान आदि द्वारों में 'दोसु मज्झिमेसु समोसरणेतु भवसिद्विया, नो अभवसिद्धिया' अक्रियावादिता एवं अज्ञानिकवादिता को लेकर ये द्वीन्द्रियादिक भवसिद्धिक ही होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। ऐसा समझना चाहिये। सेसं तं चेव' इस प्रकार भतिज्ञान आदि में जो वैलक्षण्य कहा गया है सो उसके सिवाय और सब कथन पूर्व के जैसा ही है । पंचिं. दियतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया' नैरयिक प्रकरण में सामान्य સમજવા. અર્થાત એ બધા અકિયાવાદી, અને અજ્ઞાનવાદી અવસ્થાવાળા
पाथी लवसिद्धि पर डाय छे मन मसिद्धि५ डाय छे. 'नवर' सम्मत्ते ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे' T१५ सम्ममा मौधिज्ञानमा ममिनिमाधिज्ञानमा मन श्रुतानमा 'एएसु चेव' २५2411 सभ्यत्य भने मौधिशान विगैरे द्वारामा 'दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' मठियावाही५५ अने अज्ञानवाहीपणाने मादीन्द्रिय વિગેરે ભવસિદ્ધિક જ હોય છે, અભવસિંદ્ધિક હોતા નથી તેમ સમજવું.
'सेस त चेव' मा शत भतिज्ञान विगेरेभा २ पाछे, કથન શિવાય બાકીનું તમામ કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે. '
'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' नाना प्र४२मा सामान्य જીવને અતિદેશ-ભલામણ કરેલ છે તેથી સ મ ને જીવન કથન પ્રમાણે
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SELEC-2
भगवतीसूत्र जीवस्यातिदेशः कृतोऽतः सामान्यजीववदेव पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि व्यवस्था ज्ञातव्येति । 'नवरं नायव्वं जं अस्थि' नवर ज्ञातव्यं यदस्ति पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो. निकानां यत्यत् पदजातं विद्यते तत्र तत्रैव भवसिद्धिकत्वादिकमवगन्तव्यमिति । 'मणुस्सा जहा ओहिया जीवा' मनुष्या यथा औधिका जीपाः सामान्यजीवप्रकरणवदेव मनुष्यप्रकरणमपि ज्ञातव्यमिति 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवदेव ज्ञातव्याः। 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त समवसरणचतुष्टयविपये यद्देवानुप्रियेण कथितं तत् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति जीव का अतिदेश किया गया है-इसलिये सामान्य जीव के जैसी ही व्यवस्था पञ्चन्द्रिय लियञ्चों की जाननी चाहिये 'नवरं नायव्यं जं अत्थि' परन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जो-जो पद हों वहीं-वही पद अवसिद्धिक आदिका कथन करना चाहिये, 'मणुस्सा जहा ओहिया जीवा' लामान्य जीव के प्रकरण के जैसा ही मनुष्य का प्रकरण जानना चाहिये। 'वाणमंतरजोइलियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्तर ज्यो. तिषिक और वैमानिकों को असुरकुमारों के जैसा जालना चाहिये 'सेच भंते ! सेवं भते । त्ति' हे भदन्त ! समवसरण चतुष्टय के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है यह सर्वथा सत्य ही है इस प्रकार ५'यन्द्रिय तिय यानु ४थन समय'. 'नवर नायव्वं जं अत्थि' ५२'तु પંચેન્દ્રિય તિર્યોમાં જે પદ કહ્યા હોય તેજ પદ ભવસિદ્ધિક વિગેરેના ४थनमा समj. 'मणुस्सा जहा ओहिया जीवा' सामान्य अपना प्र४२मा
हा प्रमाणे ४ मनुष्यना समयमा समापु. 'वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा' वानव्यन्त न्योति भने मानिटीना समधन थन અસુરકુમારના પ્રકરણ પ્રમાણે સમજવું.
'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भगवन् न्यारे प्रा२ना समक्स२पना સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે. તે સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવાન આપા દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદન કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ
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प्रका डोका श०३० उ. १ ०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि०
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कवि गौतम भगवन्तं चन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ सू० ४ ॥
॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ-प्रसिद्धवावक-पश्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बाळब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्य श्री घासीलालवतिनिरचितायां श्री " भग वतीसूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां त्रिंशत्तमेशतके प्रथमो
देशकः समाप्तः ||३०|१ ॥
कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ||४||
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या तीसवें शतकका || प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ३०-१॥
સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા "સૂજા
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર’”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ત્રીસમા શતકને પહેલો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫૩૦-૧૫
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- भगवतीसूत्रे ॥अथ द्वितीयोदेशका मारभ्यते ॥ प्रथमोद्देशकं निरूप्य क्रमप्राप्तं द्वितीयोदेशकं निरूपयन्नाह 'अणवशेववन्नगाणं' इत्यादि।
मूलम्-अणंतरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया कि किरियावाई पुच्छा, गोयमा! किरियावाई वि जाव वेणइयवाई वि। सले. स्ला संते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया कि किरियावाई० एवं चेव एवं जहेव पढमुदेसे नेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्वा । नवरं जं जस्ल अस्थि अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाणं तं तस्ल भाणियव्वं । एवं सव्व जीवाणं जाव बेसाणियाणं। नवरं अणंतरोववन्नगाणं जं जहिं अत्थि तं तर्हि भाणियनं । किरियावाई णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति, पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणिय उयं नो मणुस्लाउयं नो देवाउयं पकरेंति। एवं अकिरियावाई वि वेणइयवाई वि अन्नाणियवाई वि । सलेस्ला णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववन्नगा नेरइया कि नेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! लो नेरइयाउथं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया। एवं सव्वट्राणेसु वि अणंतरोववन्नगा नेरड्या न किंचि वि आउयं पकरेंति जाव अणागारोवउत्तत्ति। एवं जाव वेमाणिया । नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियध्वं । किरियावाई णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ? गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया। अकिरियावाई णं पुच्छा, गोयमा! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि, एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववन्नगा नेरइया किं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ०२ स०१ अनंत ने, क्रियावादिकत्वादिकम् १३५ भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ? गोयमा! भवसिद्धिया नो अभबसिद्धिया। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए नेरइयाणं वत्तव्यया भणिया तहेव इहवि भाणियव्वा जाव अणागारोवउत्त ति। एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जं जस्त अस्थि तं तस्स भाणियध्वं । इमं से लक्खणं जे, किरियावाई सुक्कपक्खिया सम्मामिच्छादिट्टी य एए सव्वे भवसिद्धिया नो 'अभवसिद्धिया सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि। सेवं भंते ! सेवं भंते!त्ति ॥सू.१॥
तीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥३०-२॥ __ छाया-अनन्तरोपपन्नकाः खलु भदन्त ! नरयिकाः किं क्रियावादिनः पृच्छा, गौतम ! क्रियावादिनोऽपि यावद्वैमानिकवादिनोऽपि । सलेश्याः खलु 'भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः किं क्रियावादिन, एवमेव एवं यथैव प्रथमोद्देशके नैरयिकाणां वक्तव्यता तथैवेहापि भणितव्या, नवरं यद्यस्यास्ति अनन्तरोपपन्नकानां नैरयिकाणां तत्तस्य भणितव्यम् । एव सर्वजीवानां यावद्वैमानिकानाम् । नवरमनन्तरोपपन्नकानां यद् यत्रास्ति तत्तत्र भणितव्यम् । क्रियावादिनः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः कि नरयिकायुष्क प्रकुन्ति०१ पृच्छा, गौतम ! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, नो तिर्यगायुष्कं नो मनुष्यायुष्कं नो देवाय कं प्रकुर्वन्ति । एव मक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि । 'सलेश्याः खलु भदन्त ! क्रियावादिनः अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः किं नैरयिकायुष्कं ? पृच्छा. गौतम ! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । एवं यावद्वैमानिकाः। एवं सर्वस्थाने प्वपि अनन्तरोपपन्नका नैरयिका न किञ्चिदपि आयुष्कं प्रकुर्वन्ति यावदनाकारोपयुक्ता इति एवं यावद्वैमानिकाः, नवरं यद् यस्यारित तत् तस्य भणितव्यम् । क्रियावादिनः खल भदन ! अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः किं भवसिद्धिका अभसिद्धिकाः१ गौतम ! भवसिद्धिका नो अंभवमिद्धिका । अक्रियावादिनः खल पृच्छा, गोतम ! भवसिद्धिका अपि अभव सिद्धिका अपि, एवमज्ञानिकवादिनोऽपि, वैनयिकवादिनोऽपि । सलेश्याः ग्वलु भदन्त ! क्रियावादिनोऽनन्तरोपपत्रकाः नैरयिकाः किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिज्ञाः ? गौतम ! भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः। एव मेतेन अभिलापेन यथैवोधिके उद्देशके नैरयिकाणां वक्तव्यता भणिता तथैवेहापि भणितव्या यावदनाकारोपयुक्ता इति । एवं यावद्वैमानिकानाम् नवरं यद् यस्यास्ति तत्तस्य
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भगवतीसरे मणितव्यम् । इदं तस्य लक्षणम्-ये क्रियावादिनः शुक्लपाक्षिकाः सम्पग्मिथ्यादृष्टिकी एते सवें भवसिद्धिका नो अपवसिद्धिकाः, शेपा सर्वे भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि । तदेव भदन्त ! तदेव मदन्त ! इति ॥ ०१
त्रिंशत्तमे शतके द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥३०-२॥ टीका-'अणंतरोक्वनगाणं भंते ! नेरइया' अनन्तरोपपानकार-प्रथमसमये समुत्पमाः ये ते अनन्तरोपपत्रकाः खलु भदन्त ! नैरयिका 'कि किरियावाई पुच्छा' कि क्रियावादिनो भवन्ति ? अक्रियावादिनो वा भवन्ति ? अज्ञानिकवादिनो बा भवन्ति ? वैनयिकवादिनो वा भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयसा' हे गौतम! 'किरियावाई वि जाव वेणइयवाई वि' क्रियावादिनोऽपि भवन्ति अनन्तरोपपन्नका नैरयिका यावत् वैनयिकवादिनोऽपि भवन्ति यावत्पदेन अक्रियावादिनामज्ञानिक वादिनां च संग्रहो भवतीति। 'सलेस्सा णं भरो ! अणंतरोबवन्नगा नेरड्या कि । प्रथम उद्देशक का निरूपण करके अप सूत्रकार क्रम प्राप्त द्वितीय उद्देशेका निरूपण करते हैं-'अणतरोववन्नगाणं भंते ! नेरक्या'-इत्यादि । टीकार्थ--'अणंतरोवचन्नगाणं भंते ! नेरहया' हे भदन्त ! अन
न्तरोपपन्न नरयिक क्या किरियाबाई पुच्छा' क्रियावादी होते हैं ? 'या अक्रियावादी होते है ? या अज्ञानिकवादी होते हैं ? या वैनयिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा! किरि. यावाई वि जाव वेणइयचाई वि' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक-प्रथम 'समयोत्पन्न-नैरयिक क्रियावादी भी होते हैं, अक्रियावादी भी होते हैं अज्ञानिकवादी भी होते हैं और वैनयिकवादी भी होते हैं। यहां यावतपद से इनही अक्रियावादी और अज्ञानिकवादी पदों का
vilon sदेशान। प्रा२लપહેલા ઉદ્દેશાનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમથી આવેલ આ બીજા ; देशानु नि३५४ ४२ छ.- अणतरोतवन्नगाणं भते । नेरझ्या' त्यादि
टा--'अणंतरोववन्नागाण भते ! नेरडया' 3 मापन मानत५५-५ नरयिर , किरियावाई पुच्छा' शुठियावाही हाय छ ? २५५41 स.पाही હોય છે અથવા અજ્ઞાનવાદી હોય છે ? અથવા વૈયિકવાદી હોય છે? આ zal :त्तरमा प्रमुश्री छे ४- गोयमा ! किरियावाई वि जाव वेणइयवाई वि' હે ગૌતમ! અનંતરો૫૫નક નૈરયિક અર્થાત પહેલા સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલ
બારક ક્રિયાવાદી પણ હોય છે, અને અકિયાવાદી પણ હોય છે, તથા અજ્ઞાન - વાદી પણ હોય છે. અને વનયિકવાદી પણ હોય છે. અહિયાં યાવત્પદથી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.२ सू०१ अनत० नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १३७ किरियावाई०' सलेश्याः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं क्रियावादिनोऽक्रियाधादिनोऽज्ञानिकवादिनो वा वैनयिकवादिनो वा भवन्तीत्यादि क्रमेण प्रश्ना, उत्तरमाह 'एवं चेव' पूर्वोक्तपकारेणैव हे गौतम! सलेश्या अनन्तरोपपन्ननारकाः क्रियावादिनो भवन्ति यावद् वैनयिकवादिनोऽपि भवन्ति एतदेव दर्शयन्नाह 'एवं. जहेव' इत्यादि, 'एवं जहेव पहमुद्देसए नेरइयाणं वत्तब्धया तहेव इहवि भाणियन्या' एवं यथैव त्रिंशत्तमशतकीय प्रथमोद्देशके नैरयिकाणां वक्तव्यता कथिता तथैव तेनैव प्रकारेण इहापि अनन्तरोपपनकनारकमकरणेऽपि सर्वापि वक्तव्यता मणितव्या । 'नवर जं जस्त अस्थि अनंतरोक्वन्नगाणं नेरइया णं तं तस्स भाणियन्त्र' 'नवरं केलं प्रथमोद्देशकापेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् यस्य जीवस्य यत् लेश्यादिकमनाकारोपयुक्तान्तं पदजातं विद्यते तस्य तदेव भणितव्यम् । एवं सबजीवाणं जाव वेमाणियाणं' एवमेव प्रथमोद्देशकवदेव सर्वजीवानाम् असुरकुमाग्रहण हुआ है। 'सलेस्ला णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरच्या किं किरियावाई.' हे भदन्त ! सलेश्य अनन्तरोपपन्न नरयिक क्या कियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या वैनथिकवादी होते हैं ? या अज्ञानिकवादी होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा। एवं चेव.' हे गौतम! सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक की वक्तव्यता जैसी ३० वे शतक के प्रथम उद्देशक में कही गई है उसी प्रकार से यहां पर भी वही सब वक्तव्यता कहनी चाहिये, 'नवरं जं जस्स अस्थि अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाणं तं तस्स भाणियन्वं' परन्तु अनन्तरो. पपन्नक नैरयिकों में जिनके जो लेश्यादिक पद अनाकारोपयुक्त पद पर्यन्त संभवित है उनको वही पद कहने चाहिये यही इस कथनमें प्रथम उद्देशक की अपेक्षा से यहां भिन्नता है ! 'एवं सन्धजीवाणं मडियावाही अन अज्ञानवाही में अहए। ४२ छे. 'सलेस्सा णं भते । अयंतरोववन्नगा नेरइया कि किरियावाई' लगवन् श्यामा गनत५५न्न નિરયિક શું કિયાવાડી હોય છે? અથવા અકિયાવાદી હોય છે? અથવા અજ્ઞાનવાદી હોય છે ? અથવા વૈનાયિકવાદી હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है-'गोयमा ! एवं चेव' गीतम! मनत५५-न नैयिनी समारे પ્રમાણેનું કથન ૩૦ ત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, से प्रभानु थन मडीयो ५५ ४ नये 'नवरं जं जस्त अस्थि अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाणं त तस्स भाणियव्वं' परंतु मनत५५न्न नविभां જેઓને જે લેડ્યા વિગેરે પદે અનાકારે પગ પદ સુધી થતા હોય તેઓના સંબંધમાં એજ પદ કહેવા જોઈએ. આજ પહેલા ઉદેશાના કથન ફરતાં
म० १८
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भगवती सूत्रे
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रादारभ्य वैमानिकपर्यन्तानां वक्तव्यता पठनीया आलापप्रकारस्तु स्वयमेव सर्वमोहनीय इति । 'नवर' अणंदरोवनगाणं जं जहिं अस्थि तं तहिं भाणियन्त्र'
terrari यद् यत्रास्ति लेश्यादिकं तत् लेश्यादिकं तत्र वक्तव्यम् । “किरियाबाईणं भंते ! अनंतशेववन्नगा नेरहया किं नेरइयाउयं पकरेति ? पुच्छा' 'क्रियावादिनः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं नैरयिका युष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्यो'निकायुकं कुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति देवायुकंवा मकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'नो नेर'या करेंति' अनन्तरोपपत्रकाः नैरयिकाः नैरयिकसंबन्धि आयुष्कं न कुर्वन्ति 'जाव वैमाणियाणं' इसी प्रकार से प्रथम उद्देशक की वक्तव्यता जैसीअसुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के समस्त जीवों की वक्तव्यता कहनी चाहिये, इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार अपने आप सर्वत्र 'कल्पित करना चाहिये, 'नवर' अणंतरोचचन्नगाण जं जहिं अस्थि तं तहिं भणियन्त्र" परन्तु अनन्नरोपपन्नकों के जहां पर जो लेइयादिक पद हों वे वहां पर कहना चाहिये, 'किरियाबाई णं भंते! अनंतरोवचन्नमा नेरइया कि नेरहयाउयं पकरेति पुच्छा' हे भदन्त ! क्रिया'वादी अनन्तरोपपन्न गैरयिक क्या नैरथिक आयुका चन्ध करते हैं ? या तिगायु का धन्ध करते हैं ? या मनुष्यायु का बन्ध करते है ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! नो नेरइयायं पकरेंति नो तिरिक्खाउयं पकरेति णो मणुस्साज्यं, णो देवयं' हे गी ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिक न नैरयिक आयुका बन्ध करते है न तिर्यगायु हा बंध करते है न मनुष्यायुका बन्ध गाडियां भिन्न यागु छे 'एव सव्वजीत्राण जाव वैमाणियाण' या अभा પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેલ નારક જીવે ના કથન પ્રમાણે પૃકાયિકાથી લઇને વૈમાનિક સુધીના સઘળા જીવોના સ ય્ ધમાં હેવું જોઈએ આ સ મધમાં આલાપ પ્રકાર સ્વયં બતાવીને સમજી લેવા 'णवर' अनंत रोववन्नगाण जं जहि अस्थित तहिं भाणियन्त्र' परतु थान तरेपिपन्ना नैरयिना सणधभां
यो ? बेश्या संमधी यह होय ते पहत्या डेवाले थे 'किरियवाई णं भंते ! अतरोन्नता नेरइयो कि नेवइयाउयं पकरेति पुच्छा' हे भगवन् प्रियावाही મન તરાપપન્નક નૈયિક શુ' નારિયેક આયુને ખંધ કરે છે ? અથવા તિયચ આયુના બંધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને ખધ કરે છે ? અથવ! દેવ
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युनो रे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री हे है है- गोयमा ! नो राज्यं परे तिनो तिरिक्खजोणिय उच' पकरे ति, णो मणुस्प्राउयं, णो देवाउयं
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ.२ सू०१ अनंत० नै. क्रियागादिकत्यादिकम् १३९ तथा 'नोतिरिक्खजोणिसाउयं पमरे ति' नो तिर्यग्योनिझामुष्कं प्रकुर्वन्ति, 'णो मणुस्साउय पकरें तिनो-नैव मनुष्यामुष्कं प्रकुर्व न्छ 'यो देशउ परे विनो-न वा देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति अनन्तरोपत्तेल्प सालत्वेन तत्समये कस्यापि आयुपो बन्धामावाद । 'एवं अकिरियाबाई वि अन्नाणियबाई वि वेगइयवाई वि' एवं क्रियावध नन्तरोपपन्नक नारकवदेव अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि दैनयिकवादि नारका अपि न नारकायुष्कं कुर्वन्ति न वा तिर्यग्योनिकायुकं कर्वन्ति न वा अनुष्यायुष्कं, न वा देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति इति भावः, हेतुरनन्तरोपपन्नत्वमेव एवमग्रेऽपि । 'सले स्सा णं भंते । किरियावाई अणंदरोवानगा नेरहवा कि नेरइयाउयं पुच्छा' सलेश्याः खल्लु भदन्त । क्रियावादिनोऽन्तरोपपन्नका नैरयिकाः किं नैरविकायुष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिकायुकं प्रकुर्वन्ति, मनुष्यायुप्कं वा प्रकुर्वन्ति, देवायुप्कं या करते हैं और न देवायु का बन्ध करते हैं। क्योंकि अनन्तरोत्पत्तिका काल अत्यल्प होता है इसलिये उस समय में किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता है। 'एवं अकिरियावाई वि अण्णाणियवाई वि वेणइयवाई वि' इसी प्रकार से अक्रियावादी, अज्ञानिक्षवादी और वैन. यिकवादी अनन्तरोपपन्न नैरयिक भी न नारकायुष्क का बन्ध करते हैं 'न तिर्यगायुष्क का वध करते हैं. न मनुष्यायुष्क का बन्ध करते हैं और न देवायुष्क का बन्ध करते हैं । इसमें कारण अनन्तरोत्पत्ति के काल की अत्यल्पता है। इसी प्रकार से आगे भी जानना चाहिये, 'सलेस्सा णं ! भंते ! फिरियावाई अणंतरोयचन्नगा नेरइया कि नेरच्याउयं पुच्छा' हे भदन्न! सलेश्य क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नरयिक क्या नरयिक आयुष्क का बन्ध करते हैं? या तिर्यगायुष्क पकरेंति' गीतम! याही मनत५५-४, २यि: आयुना ॥५४२ता નથી. તિર્થં ચ આયુનો બંધ કરતા નથી મનુષ્ય આયુને બંધ કરતા નથી, દેવ આયુને પણ બંધ કરતા નથી કેમ કે મન તર ઉત્પત્તિને કાળ અત્યંત અલ્પ હોય છે તેથી તે સમયે કઈ પણ આયુનો બંધ હોતે નથી “g अकिरियावाई वि वेणइयवाई वि अण्णाणियवाई वि' से प्रमाणे मठियावाडी, વિનાયકવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અનંતરે પપના નૈરયિક પણ નારકની આયુને બધ કરતા નથી. તિર્થં ચ આયુને બધ કરતા નથી મનુષ્ય આયુને બંધ કરતા નથી તથા દેવ આયુને બધ કરતા નથી કારણ કે અનંતરોત્પત્તિને કાળ અત્યંત અ૯૫ હેય છે. આજ પ્રમાણે આગળ પણ સમજવું.
'सलेस्सा ण भते ! किरियावाई अणंतरोववन्नगा नेरइया किं नेरइयाउय' gઝા? હે ભગવન વેશ્યાવાળા કિયાવાદી અનંતરો પપન્નક નિરયિક શું નરયિક આયુષ્યને બધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ કરે છે ? અથવા
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भगवतासूत्र प्रकुर्वन्ति इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरें ति' नो नैरयिका. युकं प्रकुर्वन्ति यावत् नो देवायुष्कं प्रकुवन्ति यावत् पदेन नो तियग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्तीत्यनयोः संग्रहो भवति, तथा च चतुष्यपि आयुष्केषु एकविधमपि आयुष्कं न प्रकुर्वन्तीति भावः । 'एवं जाव वेमाणिया' एवमनन्तरोपपन्नक क्रियावादि नारकवदेव असुरकुमारादारभ्य वैमानिकान्ताः सर्वेऽपि जीवा नेकविधमपि आयुष्कं वध्नन्तीति भावः । फलत एतदेव दर्शयति'एवं सम्बट्टाणे वि' इत्यादि। 'एच' सव्यहाणेसु वि अणंतरोववन्नगा नेरइया न किंचिवि आउयं पकरेंति जाव अणागारोवउत्त त्ति' एमनन्तरोपपन्नसलेश्यचदेव सर्व स्थानेष्वपि कृष्णादिलेण्याद्वारेष्वपि अनन्तरोपपन्नका नैरयिका न किमपि एकविधमपि आयुष्कं मकुर्वन्ति अनन्तरोपपत्रकानाम् एक प्रकारकस्यापि आयुपो बन्धनं न भवतीति । सर्वस्थानेषु एकमपि आयुर्न भवतीत्युक्तं तत् कियत्पर्यन्तं का बन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुष्क का बन्ध करते हैं ? या देवायुष्क का बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! नो नेरइयाउयं पकाति, जाब नो देवाउय पकरेंति' हे गौतम! सलेश्य क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिक न नैरयिक आयुष्क का बन्ध करते है, न तिर्यगायुष्क का बन्ध करते है, न मनुष्यायुष्क का बन्ध करते हैं और न देवायुष्क का बन्ध करते हैं । 'एवं जाव वेमाणिया' इसी प्रकार से अनन्तरोपपन्न नियावादी नैरयिक के जैसे असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के सप ही जीव किसी भी आयुका बन्ध नहीं फरते हैं। यही वात-'एवं सम्वट्ठाणेसु वि' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। अर्थात्-अनन्तरोपपन्न सलेश्य नैरपिक के जैसे ही ममस्त स्थानों में भी-कृष्णलेश्यादि द्वारों में भी अनन्तरोपपन्न नरयिक किसी भी आयुका वध नहीं करते हैं । ऐसा यह कथन 'जाव अणा. તિર્યંચ આયુને બંધ કરે છે? અથવા દેવ આયુષ્યનો બધ કરે છે? આ प्रश्नना उत्तम प्रभु श्री गौतभस्वामीन ४ ४-'गोंयमा ! नो नेरइयाउय पकरेंति जाव नो देवाउय पकरें ति' गीतम! वेश्यावाठियावाही मनत।પપનક નરયિક, નૈરયિકોના આયુષ્યને બંધ કરતા નથી, તિર્યં ચ આયુનો બધ કરતા નથી. મનુષ્ય આયુને બંધ કરતા નથી. અને દેવ આયુષ્યને પણ બંધ ४२ता नथी. 'एवं जाव वेमाणिया' मनत५५-13 यावाही २यिनी थन પ્રમાણે એક ઈદ્રિયવાળાથી લઈને વૈમાનિક સુધીના છ કેઈપણ આયુને બંધ ४२ता नथी- १ वात 'एव सबट्टाणे वि' मा सूत्रपा द्वारा प्राट ४२ छे. અર્થાત્ અનંતરે૫૫નક લેફ્સાવાળા નરયિક છે કેઈપણ આયુને બંધ
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प्रचन्द्रिका टीका २०३० उ. २ सू०१ अनंत० नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १४१ स्थानं ग्राह्यं तनाह - 'जाव अगागारोवउत त्ति' यावत् अनाकारोपयुक्त इवि कृष्णलेश्या दारम् अनाकारोपयोगान्तद्वारेषु एकविधस्यापि आयुषो बन्धनं न भवतीति भावः । ' एवं जात्र वेप्राणिया' एव यावद्वैमानिकाः न केवल मनन्तरोपपन्नक्रियावादिनारकाणामेव आयुर्वन्धो न भवति किन्तु असूर कुमारादारम्य वैमानिकान्तानन्तरोपपन्नकानां सर्वेषामेव जीवानामेकस्यापि आयुषो बन्धो न भवति एतदेव दर्शितम्, 'एवं जात्र वेमाणिया' इति प्रकरणेनेति । 'नवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियन्त्र' नत्ररम् असुरकुमारा दारम्य वैमानिकवेषु अनन्तरोपपन्नकेषु एतदेव वैलक्षण्यं यत् यस्य जीवस्य यत्स्थानं लेश्यादिकं विद्यते तस्य जीवस्य तस्मिन्नेव स्थाने आयुवो बन्धामावो
गारोवउत्तत्ति' भनाकारोपयुक्त द्वार तक जानना चाहिये, अर्थात् कृष्णलेश्या से लेकर अनाकारे।पयुक्त द्वार तक - अनन्तरोपपन्न नैरयिक किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते है । ' एवं ' जाव वैमाणिया' केवल अनन्तरोपपन्न क्रियावादी नैरयिक ही किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं ऐसी बात नहीं है किन्तु असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक . के जितने भी अनन्तरोपपन्न जीव हैं उन सब के भी किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता है । यही बात सूत्रकारने 'एवं जाव वेमाणिया' इस प्रकरण द्वारा प्रकट की गई है । 'नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियवं परन्तु इन अनन्तरोपपन्न असुरकुमार से लेकर अनन्तरोपपन्न वैमानिकान्त जीवों में यही विशेषता है कि जिस जीव के जो
उरता नथी या प्रभाषेनुं अथन 'जाव अणागारोवउत्तत्ति' अनाठाशपये ज દ્વાર સુધી સમજવુ.. અર્થાત્ કૃષ્ણુલેશ્યાથી લઇને અનાકારેપ ચેાગદ્વાર સુધી અન તરાપપન્નક નૈરિયેક કાઇપણુ આયુના બંધ કરતા નથી.
"एव' जाव वैमानिया' ठेवण અન તરાપપનક ક્રિયાવાદી નૈરયિક જ કોઇપણુ આયુના 'ધ કરતા નથી. એવી વાત નથી, પરંતુ એક ઇંદ્રિયવાળાથી લઈને વૈમાનિક સુધીના જેટલા અનતા૫પન્નક જીવા છે, તે સઘળાને पशु अपि मायुना मध यतो नथी. मेन वात सूत्रारे 'एव' जाव वैमाणिया ' या सूत्र द्वारा प्रगट उरेल छे. 'नवर' ज जस्स अस्थि त तस्स भाणियव्व પરંતુ આ અન તરીપપન્નક એક ઇન્દ્રિયવાળાથી લઈને અન તરે પપન્નક વૈમાનિક સુધીના જીવામાં એજ વિશેષ પણુ` છે કે-જે જીવને જે લેશ્યા વિગેર સ્થાના થતા હાય એજ સ્થાનમાં તેઓને આયુના બુધના અભાવ કહેવા
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emedies
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"
वक्तव्य इति । किरियाबाई णं भंते । अनंतशेववन्नगा नेरख्या किं भवसिद्धिया अनवसिद्धिया' क्रियवादिनः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका नैरयिकाः किं भवसिधिका भवन्ति अमवसिद्धिका वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' क्रियावादिनोऽनन्तरोपपन्नका नैरयिका भवसिद्धिका एव भवन्ति न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः । ' अकिरियाबाई णं पृच्छा' अक्रियावादिनः खलु पृच्छा, हे भदन्त । अक्रियावादिनोऽनन्तरोषपन्नका नैरयिकाः किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका वा भवन्तीति पश्नः पृच्छ्या संगृद्यते । भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'भवसिद्धिया वि अभत्रसिद्धिया वि' भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभवसिद्धिका अपि भवन्ति अक्रिया. वादिनोऽनन्तरोपपत्रका नारका इति । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि लेइयादिक स्थान सभावित हो उसी स्थान में उसके आयुके बन्द का अभाव कहना चाहिये, 'किरियाचाई णं भंते ! अणंतरोवचन्नगा नेरड्या . किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया' हे भदन्त ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरपिक क्या भवसिद्धिक होते है या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' हे गौतम! क्रिपावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक भवसिद्धिक होते हैं अभयसि द्धिक नहीं होते हैं । 'अकिरियावाईणं पुच्छा ।' हे भदन्त ! अक्रियावादी अनन्तरोपपन्ननैरयिक क्या भवसिद्धिक होते है ? या अभवसिद्धिक 'होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! भवसिद्वियापि अभवसिद्धिया वि' हे गौतम अक्रियावादी अनन्तपन्न नेरयिक भवसिद्धिक भी होते है और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'एवं अन्नाणियवाई
5. 'किरिया वाई णं भंते ! अनंतरोववण्णगा नेरइया कि भवसिद्धिया अभवसिद्धिया' हे भगवन् डियावाही गनतरोपयन्त नैरयि शुं लवसिद्धिए હાય છે ? અથવા અભત્રસિદ્ધિક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
छे - 'गोयमा । भवसिद्धिया नो अभत्र सिद्धिया' हे गौतम! डियावाही અનંતરાપપન્નક નૈયિક ભવસિદ્ધિક હાય છે, અભવસિદ્ધિક હાતા નથી
'अकिरियावा णं पुच्छा' हे भगवन् अडियावाही अनंतशेपपन्न નૈયિક શુ ભત્રસિદ્ધિક હાય છે ? અથવા અભવસિદ્ધિક હોય છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमां अनुश्री छे - 'गोयमा । भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' ગૌતમ ! અક્રિયાવાદી અનંતરાપપન્નક નૈરિયક ભવસિદ્ધિક પણ હાય છે, અને अलवसिद्धि या होय छे. 'एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि' अडिया
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.२ १०१ अनंत० नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १४३ एवमक्रियावाधनन्तरोपपन्नक नारकवदेव अज्ञानिवाघनन्तरोपपन्नका अपि ज्ञातव्या तथा वैनयिकवादिनोऽपि ज्ञातव्या इति । भवसिदधिका अपि अभवसिद्धिका अपीति । 'सलेस्सा णं भंते ! किरियाचाई अणंतरोववभगा नेरझ्या किं भव. सिद्धिया अभवसिद्धिया' सलेश्याः खल भदन्त ! क्रियावादिनोऽनन्तरोपपत्रका नरयिकाः किं भवसिद्धिका भवन्ति अथवा अभवसिद्धिका भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतप ! 'भवसिद्धिया नो अभाव सिद्धिया' भवसिद्धिका भवन्ति सलेश्याः क्रियावादिनोऽनन्तरोपपत्रका' नो अभवसिद्धिका भवन्ति इति । 'एवं एएणं अमिलावणं जहेव ओहिए उद्देसए नेरइयाणं वत्तव्यया भणिया तहेव इइ वि माणियन्या' एवमेतेन अभिलापेन यथैवास्य शतकस्य औधिके प्रथमे उद्देशके नैरयिकजीवानां वक्तव्यता कृष्णवि वेणइयवाई वि' अक्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिफ के जैसे ही अज्ञानवादी अनन्तरोपपन्न नैरयिक और वैनयिकवादी नैरयिक भी जानना चाहिये, अर्थात् ये भवद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववन्नगा नेरझ्या किं भवसिद्धिया अभवसिदूधिया' हे भदन्त ! सलेश्य क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक क्या भवसिदूधिक होते हैं या अभवसिदधिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' है गौतम! सलेश्य क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक भवसिधिक होते है अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'एव एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिय उद्देसए नेरइयाणं बत्तव्यया भणिया, तहेव इहवि भाणियव्या' इस प्रकार के अभिलाप से जैसी इस शतक के औधिक-प्रथम उद्देशक में नैरयिक जीवों की वक्तव्यता कृष्णलेश्या. વાદી અન તરાપપનક નૌરયિકના કથન પ્રમાણે જ અજ્ઞાનવાદી અનંતરો૫૫ન્નક નરયિક અને વૈયિકવાદી અનંતરા૫પત્રક નૈરયિકનું કથન પણ સસજવું અર્થાત્ माया सवसिद्धि: ५ हाय छ, भने सिद्धि५५ डाय छ 'सलेस्सा ण भते ! किरियाई अणंतरोववन्नगा नेरइया कि भवमिद्धिया अभवसिद्धिया ભગવન લેાવાળા ક્રિયાવાદી અનંતરે૫૫નક રયિક શું ભવસિદ્ધિક હોય છે? અથવા અભાવસિદ્ધિક હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा । भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' हे गीतमा सेश्यापणा यावाही અને તરોપનક નરયિક ભવસિદ્ધિક હોય છે અભાવસિદ્ધિક હોતા નથી.
'एव एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए नेरइयाण वत्तव्वया भणिया तहेव इहवि भणियव्वा' मा शते २मा मलिताथी म शतना मौधि
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भगवतीसूत्रे
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यदि द्वारेषु भणिता- कथिता, तथा इहापि द्वितीयोदेश के कृष्णले या आदि द्वारेषु वक्तव्यता भणितव्या कियत्पर्यन्त प्रथमोदेशक वक्तव्यता भणितव्या तत्राह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव अणागारोत्रउत्त त्ति' यावदनाकारोपयुक्ता इवि कृष्णलेश्यादित आरभ्य अनाकारोपयुक्ता नारकाः किं भवसिद्धिका अभवसिधिकाः, एतत्पर्यन्तमिति तत्र ज्ञानाज्ञानदृष्टिवेदादिकं सर्वमेव द्वारजातं वक्तव्यमिति । 'एवं जात्र वैमाणियाणं' एवं यावद्वैमानिकानाम् असुरकुमारादारभ्य वैमानिकान्ते सर्वत्रापि श्ादिद्वारेषु आलापको ज्ञातव्य इति । 'णवरं जं जस्स अत्थितं तस्स भाणियन्वं' नवरं यस्य जीवस्य यादृशं पदजातं विद्यते तस्य वाले आदि द्वारों में कही गई है उसी प्रकार से यहां पर भी द्वितीय उद्देशक में भी-कृष्णलेश्यावाले आदि द्वारों में कहनी चाहिये 'जाब अगोगारोवउत्तत्ति' और ऐसी यह वक्तव्यता अनाकारोपयुक्त पद तक कहनी चाहिये, तात्पर्य ऐसा है कि- कृष्णलेश्यावाले नैरयिक से लेकर अनाकारोपयुक्त पद तक के जितने भी अनन्तरोपपन्नक नैरफि हैं - वे क्या भवसिद्धिक होते हैं ? या अभवसिद्धिक होते हैं ? तो ऐसे प्रश्न के उत्तर में प्रथम उद्देशक गत वक्तव्यता यहां कहनी चाहिये, इसमें ज्ञानद्वार अज्ञानद्वार दृष्टिद्वार, वेदद्वार, आदि सब द्वार वक्तव्य है । ' एवं जाच वैमाणियाणं' इस प्रकार असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के जीवों में सर्वत्र लेश्यादिक द्वारोंमें आलापक जानना ' चाहिये 'णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्त्र" परन्तु जिस-जिस
પહેલા ઉદ્દેશામાં કૃષ્ણલૈયાવાળાના અતર્ભાવ કરીને નૈયિક જીવેનુ કથન કરવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણુ એટલે કે-આ ખીજા ઉદ્દેશામાં પણ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળાના અંતર્ભાવ કરીને કહેવું જોઇ એ
'जाव अणागारोव उत्तत्ति' थाने मे प्रभानु या प्रथन नाशयચેાગવાળાના પદ સુધી કહેવુ જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે કૃષ્ણલેસ્યાવાળા નરયિકથી લઈને અનાકારાપયેગ પદ સુધી જેટલા અનંતરાય પન્નક નૈયિકા છે તેએ શુ' ભવસિદ્ધિક હૈાય છે? કે અભવસિદ્ધિક ઢાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-આ સંબધમાં પડેલા દેશામા કહ્યા પ્રમાણેનું કથન કહેવું જોઈએ तेभा ज्ञानद्वार, दृष्टिद्वार, बेहद्वार, विगेरे सधना द्वारे। उहेवा लेई थे. 'एवं जाव પ્રમાણે એક ઇંદ્રિયવાળા જીવાથી લઈને વૈમાનિક मधे लेश्या विगेरे द्वारामां आसायड़ो समन्वा
આજ
वेमानिया' સુધીના જીવામાં 'नवर ज अस्थित
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.२ ०१ अनंत० नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १४५ जीवस्य तादृश तादृशमेव पदजासमन्तभव्य आलापकं विधाय वक्तव्यता भणित ध्येति इदमेव वैलक्षण्यं ज्ञातव्यमिति । 'इमं से लक्खणं' इदं तस्य भव्यत्वस्य लक्षणम् 'जे किरियाई सुक्कपक्खिया सम्मामिच्छादिट्ठी य एए सव्वे भवसिद्धिया' ये क्रियावादिनः शुक्लपाक्षिकाः सभ्यग्मिथ्यादृष्टय एते सर्वेऽपि. भवसिद्धिकाः 'नो अभवसिधिया नो अभवसिद्धिकाः, 'सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' शेषा:-क्रियावादि शुक्लपाक्षिका सस्य ग्मिथ्याष्टि व्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वे कृष्णपाक्षिकादयः अवसिद्धिका अपि भवन्ति अभव सिद्धिका अपि भवन्ति । भव्यत्वरयेदं लक्षणम् यत् क्रियावादिनः शुक्लपाक्षिका: सभ्यरिपथ्याष्टयश्च भव्या एव भवन्ति नासव्याः शेषाश्च भव्या अभव्या अपि भवन्ति सम्यग्दृष्टि ज्ञान्यवेदका कवायायोगिनां भव्यत्वं जीव के जैसा-२ पद है उस-२ जी के बैले-२ ही पद का अन्तर्भाव करके आलापक बनाकर वक्तगता कहनी चाहिये यही यहां विशेषता है। 'इमं से लखण' यह उस सव्यत्य का लक्षण है । 'जे किरियावाई सुक्कपक्खिया सम्मामिच्छादिट्ठी एए सव्वे भवसिद्धिया नो अभव. सिद्धिया' जो क्रियावादी शुक्लपाक्षिक सम्पग्मियादृष्टि हैं ये सब ही भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'लेसा सव्वे भवसि. द्विया वि, अभवसिद्धिया वि' क्रियावादी शुक्लपाक्षिक लम्यग्मिथ्यादृष्टि से भिन्न और जो सब कृष्णपाक्षिक आदि हैं वे भवलिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । अव्यत्वका यह लक्षण हैं कि क्रियावादी शुक्लपाक्षिक सम्यरिमथ्यादृष्टि भव्य ही होते हैं अभव्य नहीं। इन से अतिरिक्त और सब जीव भव्य भी होते हैं और अभव्य तस्स भाणियव्व' ५२२१२ प्रम हो डाय ते पन ते ते प्रमाના પદને અંતર્ભાવ કરીને આલાપક બનાવીને કથન કરી લેવું જોઈએ मे मड्डियां विशेष पा. छ. 'इमं से लक्खणं' मा व्यत्पनु सक्षम छ 'जे किरियावाई सुक्कपक्खिया सम्मामिच्छादिट्ठी' ने जियावाही शुलपाक्षि: सम्यमिथ्या दृष्टि छ, से सगा भवसिद्धि य छ 'नो अभवसिद्धिया' अम. सिडितानपी. 'सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' ક્રિયાવાદી શુકલપાક્ષિક સમ્યગમિાદષ્ટિથી જૂદા બીજા જે કૃણપાક્ષિક વિગેરે છે, તે ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભવસિદ્ધક પણ હોય છે. ભવનું આ લક્ષણ કહેલ છે, કે-કિયાવાદી શુકલપાક્ષિક સમ્યગમિાદષ્ટિ ભવ્ય જ હોય છે, અભવ્ય હેતાં નથી. તેના સિવાય બીજા
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भगवतीसूत्रे
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मसिद्धमेव अतो नोक्तमिति । 'सेव' भंते ! सेव' भते । त्ति' तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकनारकादीनां क्रियावाद्यादिविषये यत् कथितं देवाप्रियेण तत् सर्वथैव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमयतिवन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ ०२ ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद वल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' - पूज्यथी - घासीलालन विविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां त्रिंशत्तमे शतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥३०- २॥
भी होते हैं । सम्पष्टिज्ञानी, अवेदक अकषाय और अयोगी ये तो भ रूप से प्रसिद्ध ही हैं । अतः ये यहाँ नहीं कहे गये हैं 'सेवं भते । सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त अनन्तरोपपन्नक नारकादिकों की क्रियावादी शादि के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार करके फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ सू० १ ॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के तीसवें शतकका द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥३०- २॥
જીવા ભવ્ય હૈાય છે, અને અભવ્ય પણ હોય છે. સમ્યગદૃષ્ટજ્ઞાની, અવેદક અકષાય અને અચેાગી આ બધા તેા ભવ્યપણાથી પ્રસિદ્ધ જ છે. તેથી અહિયાં કહ્યા નથી.
'सेव भते । सेव भवे । त्ति' हे भगवन् अनंतशयन नारा विगेरेना ક્રિયાવાદી પણાના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કયુ છે, તે સઘળુ કથન સત્ય છે, હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયન્તુ' આ સંબધનું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા ાસૂ॰૧૫
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યુના તીસમા શતકનેા ખીજે ઉદ્દેશા સમાપ્ત શ૩૦-રા
맑
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प्रमैचन्द्रिका टीका श०३० उ. ३ सु०१ परंपरो. नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १४७ अथ तृतीयोदेशकः प्रारभ्यते
द्वितीयोदेशकं निरूप्य क्रमप्राप्तं तृतीयं निरूपयन्नाह - ' परंपरोववन्नगा' इत्यादि । मूलम् - परंपरोववन्नगाणं भंते! नेरइया किरियावाई० एवं जव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएस वि नेरड्याइओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं तहेव तियदंडगसंगहिओ । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥०१॥
तीस मे स तईओ उद्देसो समतो ||३० - ३ ||
छाया — परम्परोपपन्नकाः खलु भदन्त ! नैरयिकाः क्रियावादिनः० एवं यथैवधिक उद्देशकस्तथैव परम्परोपपन्नकेपु नैरयिकादिक स्तथैव निरवशेषं भणितथ्यम्, ara त्रिदण्डकसंगृहीतः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति । ० १ ॥ त्रिंशत्तमे शतके तृतीयोदेशकः समाप्तः
टीका – 'परंपरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया किं किरियावाई' परम्परोपपन्नका' खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं क्रियावादिनोऽक्रियावादिनो वा अज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - ' जहेब' इत्यादि, 'एवं जव ओहिओ उद्देसओ' एवं यथैवौधिक उद्देशकः 'तदेव परंपरोववन्न पसु वि' तथैव परतीसरे उद्देशे का प्रारंभ
द्वितीय उद्देशक का निरूपण करके अब क्रमप्राप्त तृतीय उद्देशक का निरूपण किया जाता है - 'परंपरोववन्नगाणं भते ।" इत्यादि
टीकार्थ- परंपरोववन्नगाणं भंते! नेरइया किरियावाई० 'हे भदन्त जो नैरयिक परम्परोपपन्नक हैं । द्वितीयादि समयोपपन्नक हैं वे क्या क्रियावादी होते हैं ? या अक्रियावादी होते हैं ? या अज्ञानिकवादी होते हैं ? या वैनयिकवादी होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' जहेव ओहियो ત્રીજા ઉદ્દેશાના પ્રાર ભ——
ખીજા ઉદ્દેશાનું નિરૂપણ કરીને હવે કમથી આવેલ આ ત્રીજા ઉર્દૂशानु नि३५ ४२वामा आवे छे. - ' पर परोववन्नगाणं भंते!' इत्याहि
टी अर्थ - 'पर' परोववन्नगाणं भवे ! नेरइया कि रियावाई' हे भगवन् भे નૈરિયેક પર પરાપપનક હાય છે, મીજા વિગેરે સમયમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા હોય છે, તે શુ' કિયાવાદી હાય છે ? અથવા અક્રિયાવાદી હોય છે ? અથવા અજ્ઞાનવાદી હાય છે ? અથવા વૈનયિકવાદી હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'जद्देव ओहिओ उद्देसओ तद्देव पर परोववन्नएसु वि' डे गौतम ! औधि४ उद्देशामां
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. भगवतीसूत्र म्परोपपन्न केषु अपि 'नेरइयाइओ तहेव निरवसेसं माणियव्य नैरयिकादिको वैमानिकान्त स्तथैव निरवशेष यथा स्यात् तथा भणितव्या, हे गौतम ! परम्परोपपनका नैरयिकाः क्रियावादिनोऽपि भवन्ति, अक्रियावादिनोऽपि भवन्ति अज्ञानिकवादिनोऽपि भवन्ति वैनयिकवादिनोऽपि भवन्तीति । सलेश्याः खलु भदन्त ! परम्परोपपन्ननारकाः किं क्रियावादिनो यावत् वैनयिकवादिनो भवन्तीति प्रश्नः, हे गौतम ! सलेश्याः परम्परोपपन्नका नैरयिकाः क्रियावादिनोऽपि भवन्ति यावद् वैनयिकवादिनोऽपि भवन्तीत्युत्तरम् एवं यावच्छुकललेश्याः परम्परोपपनकाः इत्यादिकं सर्व प्रथमोदेशकवदेव इहापि पठनीयम् एतदभिमायेण कथितं निरवशेष भणितव्यमिति । 'तहेव तिदंडगसंगहियो' तथैव प्रथमोद्देशकवदेव उद्देसो तहेव परंपरोयबन्नएसुवि' हे गौतम ! जैसा औधिक उद्देशक में कहां गया है उसी प्रकार से परंपरोपपन्नकों के सम्बन्ध में भी 'नेरड्याइओ तहेब निरवसे सं भाणियब्ध नरथिक से लेकर वैमालिक तक का समस्त कथन यहां पर करना चाहिये-तथा च-परम्परोपपन्नक नरयिक क्रियाचादी भी होते हैं, अक्रियावादी श्री होते हैं. अज्ञानिकवादी भी होते हैं
और वैनयिकवादी भी होते हैं । इसी प्रकार से 'हे भदन्त ! जो सलेश्य परम्परोपपन्नक नैरपिक हैं वे क्या क्रियावादी यावत् वैनयिकवादी होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भी 'हे गौतम! सलेश्य परम्परोपपत्रक नैरयिक क्रियावादी भी होते हैं और यावत् वैनयिकवादी भी होते हैं ऐसा उत्तर यहां समझना चाहिये इत्यादि समस्त कथन प्रथम उद्देशक के जैसे यहां कहना चाहिये इसी अभिप्रायसे 'निरक्सेसं भाणियव्वं' જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે પરંપરા પપનક નરયિકના સંબંધમાં ५g 'नेरइयाइओ तहेव निरवसेस भाणिय १२५४थी स वैमानि सुधान સઘળું કથન અહિયાં સમજી લેવું તે આ પ્રમાણે છે.–પરંપપપન્નક નૈરયિક કિયાવાદી પણ હોય છે. અકિયાવાદી પણ હોય છે અજ્ઞાનવાદી પણ હોય છે, અને વૈયિકવાદી પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે હે ભગવન જે લેફ્સાવાળા પરંપરપન્નક નરયિકે છે, તેઓ શું કિયાવાદી હોય છે ? યાવત્ વનયિકવાદી હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પણ છે ગૌતમ વેશ્યાવાળા પરંપપપત્રક
રયિક ક્રિયાવાદી પણ હોય છે, અને યાવતુ નાયિકવાદી પણ હોય છે. આ પ્રમાણે સમજવું. એ જ પ્રમાણે યાવત્ શુકલ લેશ્યાવાળા પરંપરા૫પન્નક નરયિકે પણ ક્રિયાવાદી હોય છે. અને યાવત્ નચિકવાદી પણ હોય છે. આ પ્રમાણેનું સઘળું કથન પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે અહિયાં સમજવું. मा मलिप्रायथी 'निरवसेसं भाणियव्व' मा प्रभाशेन सूत्रया४ ४ .
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मैन्द्रका टीका २०३० उ. ३ सू०१ परंपरो नै. क्रियावादिकत्वादिकम् १४९ त्रिदण्डकसंगृहीतः दण्डरूत्रयमित्थं भवति - नैरयिकादि पदेषु क्रियावायादिप्ररूपणा दण्डकः प्रथमः, आयुर्वन्धदण्डको द्वितीयो भव्यामन्यदण्डकश्च तृतीय इति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति जाव विहरई' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! परम्परोपपन्ननारकादीनां क्रियावाद्यादिविषये यद् देवानुमियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ म्र० १ ॥
इति श्री विश्वविख्यात जगवल्लभादिपदभूपित बालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य ' पदभूषित पूज्यश्री ' घासीलाल' व्रतिविरचितायां श्री “भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां त्रिंशत्तमे शतके तृतीयोदेशकः समाप्तः ||३० - ३ || ऐसा पाठ कहा गया है । 'तहेच ति दंडगसंगहिओ' प्रथम उद्देशक जिस प्रकार से त्रिदण्डक सहित कहा गया है उसी प्रकार यह उद्देशक भी त्रिदण्डक सहित है । वे त्रिदण्ड इस प्रकार से हैं - क्रियावादी आदिका 'प्ररूपक प्रथम दण्डक, आयुबन्ध का मरूपक द्वितीयदण्डक और भव्या'rorea प्ररूपक तृतीय दण्डक, सेवं । भते । सेव भंते! त्ति जाव विरह' हे भदन्त ! परम्परोपपत्रक नैरयिक आदि की क्रियावादिता आदि के विषय में जो आप देवानुमियने जो कहा है वह सब सत्य है २ इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को बन्दना की और उन्हे नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे तप एवं संयम से आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सू० १ || तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ ३०-३ ॥
'तत्र तिदंडगसंगहिओ' पडेला उद्देशासां ? प्रभाव हउ हेवामां આવ્યા છે, એજ પ્રમાણેના-ક્રિયાવાદી વિગેરેના નિરૂપણ સંબંધી પહેલે દંડક, આયુષ્મ ́ધના નિરૂપણુ સબધમાખીને દડક અને અભવ્ય તથા અભવ્યાત્મકના નિરૂપણના સ મધમાં ત્રીજો દડક સમજવે.
'सेव' भंते ! सेत्र भंते ! त्ति जाव विहरइ' हे भगवन् पर परेशयन्न નૈરયિક વિગેરેના ક્રિયાવાદી પણા આદિના સબધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે થન કર્યું" છે, તે સઘળું કથન સત્ય છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સવા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્ક ૨ ક્રર્યો. વંદના નમરકાર કરીને તપ અને સ યમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પ્રસૂ૦૧॥
॥त्रीले उद्देश सभाप्त ॥ ३०-३॥
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मनपा
भगवतीस्त्रे __अथ चतुर्थाधेकादशान्ता उद्देशकाः मारभ्यन्ते तृतीयोद्देशक निरूप्य क्रममाप्तान चतुर्थायेकादशान्तान् उद्देशकान् निरूपयनाह-एवं एएणं कमेणं' इत्यादि । ___ मूलम्-एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इहंपि जाव अचरिमो उद्देसो नवरं अणंतरा चत्तारि वि एकगमगा, परंपरा चत्तारि वि एक गमएणं, एवं चरिमा वि अचरिमा वि एवं चेव । नवरं अलेस्सो केवली अजोगी न भण्णइ । सेसं तहेव, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥सू० १॥
एएवि एकारस वि उदेलगा ॥४-११॥
तीलइमं समवसरणसयं समत्तं छाया-एवमेतेन क्रमेण यैव वन्धिशत के उद्देशकानां परिपाटी सैव इहापि यावदचरम उद्देशकः । नवरमनन्तराश्चत्वारोऽपि एकगमकाः परम्पराश्चत्वारोऽपि एकगमकेन, एवं चरमा अपि, अचरमा अपि एवमेव । नवरम् अलेश्यः केवली अयोगी न भण्यते शेष तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ।मु० १॥
एते एकादशापि उद्देशकाः ।४-११॥
त्रिंशत्तमं समवसरणशतं समाप्तम् ॥३०॥ टीका-एवं एएणं कमेणं जन्चेव वधिसए उद्देसगाणं परिवाडी' एवमेतेन क्रमेण यैव वन्धिशतके पइविंशतितमे शतके उद्देशकानां प्रथमोद्देशकादारभ्यैकादशोदेशकान्तानां परिपाटी प्रकाररूपा कथिता 'सच्वेव हपि जार अचरिमो
चौथा उद्देशाका प्रारभ - 'एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधितए उद्देसगाण'-इत्यादि
टीकार्थ--'एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी इस प्रकार इस क्रम से जो बन्धि शतक में छाइस २६ वे शतक में उद्देशकों की-प्रथम उद्देशक से लेकर ग्यारह वे उद्देशक तक के उद्देशको
यथा देशान। प्रारम-- 'एव एएणं कमेणं जच्चेव बधिसए उद्देसगाणं' त्यादि
टी –‘एवं एएणं कमेणं जच्चेव बधिसए उद्देसगाण परिवाडी 21 થિત કમથી બધી શતકમાં એટલે કે છવીસમા શતકમાં ઉદ્દેશાઓ-એટલે કે પહેલા ઉદ્દેશથી લઈને અગિયારમાં ઉદ્દેશા સુધીના ઉદેશાઓનો ક્રમ કહેલ છે,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.४ सू०१ उद्देशकपरिपाटिनिरूपणम् उद्देसो' सैव इहापि उदेश कानां परिपाटी वक्तव्या यावद अचरमोद्देश इति प्रथमो. देशकादारभ्य अचरमनामकैकादशोद्देशकपर्यन्तं सर्व वक्तव्यमित्यर्थः, उद्देशानां परिपाटी यथा-औधिकोद्देशको जीवनारकादीनां प्रथमः१, तत:-अनन्तरोपप. प्रका२, परम्परोपपन्नकः३, अनन्तरावगाढः४, परम्परावगाढ.५ अनन्तराहारक ६ परम्पराहारकः७, अनन्तरपर्याप्तक:८, परम्पर पर्याप्तक:९, चरम:१० अचरमश्र ११, इति । बन्धिशतका दत्रविशेष एताबानेव-यत् तत्र बन्धपदविशिष्टा उदेशकार, अत्र तु क्रियावाद्यादि पदविशिष्टा उद्देशका वक्तव्या इति । नवर केवलम् अन. न्तरा:-अनन्तरोपएनादिकाश्चत्वारोऽपि एकगमका:-सहशालापकाः अनन्तरोपपकी परिपाटी कही गई है 'लच्चेव इह पि जाव अचरिमो उद्देसो' वही परिपाटी यहां पर भी उद्देशकों की 'जाव अचरिमो उद्देसो' यावत् अचरम उद्देशक तक जाननी चाहिये, जीव नारक आदिकों का जो प्रथम उद्देशक है वह औधिक उद्देशक है ? १ अनन्नरोपपन्नक नारका दिकों का द्वितीय उद्देशक २ परम्परोपपन्नक नारकादिकों का तृतीय उद्दे. शक हैं ६ अनन्तरावगाढ नामका चतुर्थ उदेशक है, परम्परावगाढ नामका पांचवां उद्देशक है, अनन्तराहारक नामका छट्ठा उद्देशक हैं परम्पराहारक नामका सातवां उद्देशक है, अनन्तरपर्याप्त नामका आठवां उद्देशक है परम्परपर्याप्त नाम का नौवा उद्देशक है चरम नामका दसवां उद्देशक है और अचरम नाम का ग्यारहवां उद्देशक है । यन्धि शतक से यहां पर इतनी ही विशेषता हैं कि यहां क्रियावादी आदि पद विशिष्ट उद्देशक वक्तव्य हुए हैं और बन्धिशतक में बन्धि पद विशिष्ट 'सच्चेव इहं पि जाव अचरिमो उद्देसों' देशासाना मे०४ भ. 'जाव अचरमो उहेमो' થાવત અથરમ ઉદેશ સુધી સમજવું જીવ નારક વિગેરેના સંબંધમાં જે પહેલે ઉદેશે છે, તે ઔવિક ઉદ્દેશ છે. ૧ અને તરોપપન્નક જીવ નારક વિગેરે સંબંધી બીજો ઉદ્દેશ છે. ૨ પરંપરોપપનક જીવ નારક વિગેરેના સંબંધમાં ત્રીજે ઉદ્દેશે કહ્યો છે. ૩ અનંતરાવગાઢ નામને ચોથો ઉદ્દેશે કહ્યો છે. ૪ પરપરાવગાઢ નામને પાંચમો ઉદ્દેશ કહ્યો છે ૫ અનંતરાહારક નામને છો ઉદેશો કહ્યો છે. હું પરંપરાહારક નામને સાતમે ઉદ્દેશો કહ્યો છે. ૭ અનંતરપર્યાપ્ત નામનો આઠમો ઉદ્દેશ કહ્યો છે. ૮ પરંપરપર્યાપ્ત નામને નવમે ઉદ્દેશે કહ્યો છે. ૯ ચરમ નામને દસમે ઉદ્દેશે કહેલ છે. અને અચરમ નામનો અગિયારમો ઉદેશે કહે છે _બંધિશતક કરતાં અહિયાં એજ વિશેષપણું છે કે અહિયાં ક્રિયાવાદી વિગેરે પદ વિશિષ્ટ-પોથી યુક્ત ઉદેશે કહેવું જોઈએ અને બંધિશતકમાં
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भगवतीस
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नका जीवनरकादय:, इति द्वितीय: २, अनन्तरावगाढा : जीवनारकादय इति चतुर्थः ४ । अनन्तराहारका जीव नारकादयः, इति पृष्ठ: ६, अनन्तरपर्याप्ता जीव नारकादयः इत्यष्टमः । एवं क्रमेण चत्वारोऽनन्तरोदेशका वक्तव्याः | 'परंपरा बचारि वि एक्कगमए णं' परम्पराः परम्परोपपनकादयत्वारोऽपि उद्देशकाः एक गमन - सहशालापकेन वक्तव्याः परम्परोपपन्नका जीवनारकादय इति तृतीयो. देशकः । परम्परानगाढा जीवनारकाक्ष्य इति पञ्चमोगकः । परम्पराहारका जीव नारकादय इति सप्तम, परम्परपर्यावका जीवनारकादय इति नवमः, इत्येवं क्रमेण चत्वारः परम्परका उद्देशकाः सर्वेऽपि एकरूपेग नेयाः । ' एवं चरिमा वि' एवं चरमोदेशकः चरमाः खलु भदन्त ! नैरयिकाः क्रियावादिन्न एवं क्रमेण दशमोद्देशको ज्ञातव्यः | 'अचरिमा वि एवं' चेक' अचरमा नारकादयः क्रियावा दिनः किमित्यादिरूपेण एकादश देशको नेयः । तदित्य येकादशाऽपि उद्देशकाः
उद्देशक वक्तव्य हुए हैं । अनन्तर शब्द घटित चारों उद्देश एक गमक हैं- सदृश आलापचाले हैं। अनन्तर शब्द घटित चार उद्देशक द्वितीय उद्देशक, चतुर्थ उद्देशक, छट्टा उद्देशक और आठ देश है । परम्पर शब्द घटित चारों उद्देशक एक गमक है-परम्पर शब्द घटित तृतीय उद्दे शक, पंचम उद्देशक, सनम उद्देशक और नौवां उद्देशक ये चार उद्देशक हैं | इसी प्रकार से चरम और अचरम पद - विशिष्ट उद्देशक के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। यहां समस्त उद्देशकों में क्रियावादी अक्रिवादी आदि पदो को जोडकर आलापक प्रथम उद्देशक से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक के ११ ग्यारा उद्देशकों में कहना चाहिये । इम 'ધ પદ્મવાળા ઉદ્દેશાએ કહેવા જોઈએ. અનંતરશબ્દથી યુક્ત ચારે ઉદ્દેશાઓ એક ગમકવાળા છે. અર્થાત્ સમાન આલાપકાવાળા છે. અનંતર શબ્દથી યુક્ત ચાર ઉદ્દેશાઓ-ખીએ ઉદ્દેશે, ત્રીજો ઉદ્દેશેા હઠો ઉદ્દેશે અને આઠમે ઉદ્દેશે, આ ચાર ઉદ્દેશાઓ છે. પર પર શબ્દથી યુક્ત ચારે ઉદ્દેશાઓના शोऽगम छे. ते या प्रभाये छेत्रीले उद्देश, पांग्रभो उद्देशी, सातभा ઉદ્દેશે। અને નવા ઉદ્દેશ છે. આજ પ્રમાણે ચરમ અને અચરમપદથી યુક્ત ઉદ્દેશાઓના સબંધમાં પણુ સમજવુ, અહિયાં સઘળા ઉદ્દેશાએ માં ક્રિયાવાદી અક્રિયાવાદી, વિગેરે પદાને જોડીને આલાપકે આ પ્રમાણે કહેવા જોઈએ-જેમકે-હે ભગવન્ ચરમ અથવા અચરમ નૈરયિકા વિગેરે શુ ક્રિયાવાદી હાય છે? અથવા અક્રિયાવ ની હાય છે ? અથવા અજ્ઞાનવ દી હાય છે ? અથવા વૈચિકવાદી હોય છે? આ પ્રકારથી અહિયાં પહેલા ઉદ્દેશાથી લઈને અગિયારમા ઉદ્દેશા સુધીના અગિયાર ઉદ્દેશાએ કહેવા જોઇએ આ રીતે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.४ १०१ उद्देशकपरिपाटिनिरूपणम् १५३ संक्षेपविस्ताराभ्याम्हि पूर्वप्रकारेण षविंशतितमवन्धिशतकोक्तेन वक्तव्याः । 'णवर अलेस्सो केवली अजोगी न भन्नइ' नवर केवलम् अलेश्यो जीवः केवली अयोगी चैते कुत्रापि उद्देशके नो अणितव्या स्तेषामचरमत्वाभावेन प्रश्नान त्वात् तस्मश्नोत्तरयोरपयोजनवाच्चेति । 'सेसं सं चेव' शेषम्-कथितजीवातिरिक्तं सर्वमपि वस्तु बन्धिशतकवदेव ज्ञातव्यम् । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं मदन्त ! तदेवं पदन्त ! इति, हे भदन्त | जीवादीनां क्रियावागादिविषये यद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेव, इति कथयित्वा गौतमो प्रकार छाईस २६ वे एन्धिातक में जिस प्रकार उद्देशकों के कहने का कहा जा चुका है उसी प्रकार यहां भी संक्षेप और विस्तार से कहना चाहिये, यहां पर भी बंधिशतक के जैसे अचरम उद्देशक में अलेश्यों के सम्बन्ध में केवलियों के सम्बन्ध में, अयोगियों के सम्बन्ध में कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं करना चाहिये क्यों कि वे अचरम नहीं होते हैं अतः ये सब प्रश्न यहां नहीं उठते है। 'सेसचेव' बाकी का और सब कथन बन्धिशतक के ही जैसा है। 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जीवादिकों की क्रियावादिता आदिके विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब सर्वधा सत्य ही है २ इस प्रकार कह कर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, ૨૬ છવીસમાં બંધી શનકમાં ઉદ્દેશાઓ કહેવાના સંબંધમાં જે પ્રકાર કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનો પ્રકાર અહિયાં પણ સંક્ષેપથી અને વિસ્તારથી કહે જોઈએ. અહિયાં લેશ્યાના સંબંધમાં કેવલિયોના સંબંધમાં, અગીના સંબંધમાં કોઈપણ પ્રશ્ન કરવો ન જોઈએ. કેમ કે-કૃતકૃત્ય હોવાથી આ मा प्रश्नो तयाना समयमा उपस्थित थता नथी. 'सेसं त चेव' मानु બીજુ તમામ કથન બંધી શતકના કથન પ્રમાણે જ છે તેમ સમજવું.
सेव' भंते ! सेव भंते ! त्ति' सावन १ विना लियावा ! વિગેરેના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન્! આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા. વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા
भ० २०
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भगवतीले भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विष्टरतीति । 'पए एक्कारस वि उद्देनगा' एते एकादशापि उद्देशकाः सन्तीति ।मु०१॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा
कलितललितकलापालापकमविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, चादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालतिविरचितायां श्री "भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां त्रिंशत्तमे शतके चतुर्थों.
द्देशकः समाप्तः॥३०-४॥
इति त्रिंशत्तम समवसरणशतं समाप्तम् ॥३०॥ वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थानपर विराजमान हो गये 'एए एक्कारस उद्देसगा' इस प्रकार से ११ उद्देशक पर्यन्त के उद्देशकों समजले ने चाहिए ।।सू०१॥
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तीसवें शतकका
॥चौथा उद्देशक समाप्त ॥ ३०-१॥
॥३० वां शतक समाप्त ।। या पाताना स्थान५२ भिमान या. 'एए एक्कारस उद्देषगा' मा रीत અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસલ લજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ત્રીસમા શતકનો એ ઉદેશે સમાપ્ત ૩૦-કા
છે ત્રીસમું શતક સમાપ્ત H૩૦-જા
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ स०१ चतुर्युग्मनिरूपणम्
अथ एकत्रिंशत्तमशतकम्
अथ प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते त्रिंशत्तमशतकान्ते चत्वारि समवसरणानि कथितानीति चतुष्टयसाधात् चतुयुग्मवक्तव्यतानुगतमष्टाविंशत्युद्देशकयुक्तमेकत्रिंशत्तमं शतमारमते, तदनेन सम्बन्धे. नायातस्यैकत्रिंशत्तमशतकस्य प्रथमोद्देशकगतमिदमादिमं मूत्रम्-'रायगिहे जाव' इ.
मूलम्-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ णं भंते ! खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता ? गोयमा! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता तं जहा कडजुम्मे१, तेओए२, दावरजुम्मे३, कलिओगे४ । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता तं जहा कडजुम्मे जाव कलिओगे? गोयमा! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए से तं खुड्डाग कडजुम्में, जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे त्ति पज्जवसिए से तं खुड्डागतेओगे२, जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए से तं खुड्डागदावरजुम्मे३, जे णं रासी घउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए से तं खुड्डांग कलिओगे४, से तेणद्वेणं जाव कलिओगे। खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति किं नेरइएहितो उववजति तिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जति । एवं नेरइयाणं उववाओ जहा वकंतीए तहा भाणियव्यो। तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववनंति ? गोयमा ! चत्तारि वा, अट्ट वा, बारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववजति। तेणं भंते ! जीवा कहं उववजति ? गोयमा! से जहानामएं पवए पवमाणे अज्झवलाण० एवं जहा पंचवीसइमे सए अटुम उद्देसए नेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव आयप्पयोगेणं उबवजति, नो परप्पयोगेणं उववज्जति। रयणप्पभापुढवी खुड्डाग कडजुम्म नेरइया णं भंते ! कओ उत्रय
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84 ¿
भगवतीस
भगवतः
टीका -- 'रायगिहे जाव एवं वयासी' राजगृहे यावदेवमवादीत् यावत्पदेन परिषन्निर्गता, भगवता धर्मोपदेशः कृतः परि समागमनमभूत् पत्मविगता, ततो गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा पयु - पासीनः प्राञ्जलिपुटो गौतमः, एतदन्तमकरणस्य संग्रहो भवति । किमवादीत ? त्राह - 'कणं' इत्यादि, 'कह णं भंते! खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता' कति खलु भदन्त । क्षुद्रा युग्माः प्रज्ञप्ताः ? ते च महान्तोऽपि भवन्त्यतः क्षुल्लकशब्देन विशेषिताः तत्र चत्वारोऽष्टौ द्वादशेत्यादि संख्यावान् राशिः क्षुल्लकः कृतयुग्मोऽभिधीयते । प्रथम उद्देशक का यह आदि सूत्र है- 'रायगिहे जाव एवं वयासी'इत्यादि सूत्र ॥१॥
टीकार्थ - 'रायगिहे जाव एवं वयासी' राजगृह नगर में यावत् इस प्रकार से पूछा यहां यावत्पद से ऐसा प्रकरण गृहीत हुआ है- भगवान् महावीरस्वामी यहां पर पधारे, परिषदा धर्मोपदेश सुनने के लिये अपने-अपने स्थान से उनके पास आई, भगवान् ने धर्मोपदेश दिया, श्रर्मोपदेश सुनकर सभा विसर्जित हो गई, तब गौतम ने भगवान् को वन्दना की नमस्कार किया, बन्दना नमस्कार करके फिर गौतमस्वामीने प्रभुश्री की पर्युपासना करते हुए दोनों हाथ जोडकर ऐसा पूछा- क्या पूछा ? सो प्रकट किया जाता है- 'फइ णं भंते ! खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता' हे भदन्त ! क्षुद्रयुग्म कितने कहे गये है? ये वडे भी होते हैं । इसलिये यहां क्षुल्लक शब्द से इन्हे विशेषित किया गया है। इस प्रकार जो लघु संरूपावाली राशि विशेष है वह क्षुत्रकृतयुग्म है । चार, आठ, चारह
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शतना सूत्रार आरम ४२ . - 'रायगिहे जाव एब' वयासी' धत्याहि टी अर्थ - 'रायगिहे जाव एवं वयासी' रामगृह नगउभा ભગવાન્ મહાવીરસ્વામીનું સમવસરણ થયુ પરિષદ ભગવાનને વદના કરવા નગરની બહાર નીકળી ભગવાનની સમીપે આવી, ભગવાને તેને ધમ દેશના સ’ભળાવી ધદેશના સાંભળીને પરિષદાએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં, વંદના નમસ્કાર કરીને પરિષદા પાતપેાતાના સ્થાને પાછી ગઈ તે પછી ગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને વદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને પ્રભુશ્રીની પ थाना ४२तां थडा गौतमस्वामीशे प्रभुश्रीने या प्रमाये पूछयु - ' कइण भते ! खुड्डा जुम्मा पन्नता' हे भगवन् क्षुद्रयुग्भ डेटा उडेस है ? समराशीने युग्म કહેવામાં આવે છે, અને તે માટા પણ હાય છે. તેથી અહિયા ક્ષુલ્લક શબ્દથી તેને કહેલ છે. આ રીતે જે લઘુ સખ્યાવાળી રાથી વિશેષ હાય તે ક્ષુદ્રયુગ્મ છે. ચાર, આઠ, ખાર, વિગેરે સખ્યાવાળી રાશી ક્ષુલ્લકકુતયુગ્મ છે,
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steefat टीका श०३१ उ. १ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम्
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भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चनारि खुड्डा जुम्मा पद्मा' चत्वारः क्षुद्रा युग्माः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा ' तद्यथा 'कडजुम्मे' कृतयुग्म नामको राशिविशेषः । ' तेयोए' त्र्योजः 'दावरजुम्मे' द्वापरयुग्मः 'कलियोए' कल्योजः । ' से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ' तत्केनार्थेन सदन्त । एवमुकते 'चार खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता' चत्वारः क्षुद्रा युग्माः मज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'कडजुम्मे जाब कलिभोगे' कृतयुग्मो यावत् कल्योजः, अत्र यात्रत्पदेन ज्योज द्वापरयुग्मयोः संग्रहः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं रासी चक्करणं अवहारेणं अवहीरसाणे चउपज्जबसिए' यः खलु राशि: समुदायः चतुष्केणापहारेण चतुःसंख्यया विभज्यमानः चतुः पर्यवसितः चतुरवशिष्टो भवेत् 'से त्तं खुड्डा गरुडजुम्मे' स एषः क्षुल्लक कृतयुग्मः ' जेणं रासी चउक्केण अवहारेणं अवहीरमाणे ति पज्जवसिए सेत्तं खुड्डाग आदि संख्यावाली राशि क्षुल्लक कृतयुग्म है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा ! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता' हे गौतम! क्षुद्रयुग्मराशि चार प्रकार की कही गई है - 'त' जहा' जैसे - कडजुम्मे' 'कृतयुग्म 'तेयोए' ज्घोज 'दावरजुम्मे' द्वापरयुग्म, 'कलियोए' और कल्पोज, 'से केणट्टेणं अंते ! एवं वुच्चइ चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि क्षुद्रयुग्म चार प्रकार के कहे गये हैं ? और वे ऐसे आपने बतलाये हैं- कृतयुग्म यावत् कल्यो । यहां यावत् पद से त्र्योज और द्वापरयुग्म का ग्रहण हुआ है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा ! जे णं रासी चक्कणं अवहारेण अवहीरमाणे चउपज्जवलिए' हे गौतम ! जिमराशि में से चार चार का अपहार करते-करते अन्त में चार बचे रहे ऐसी वह संख्या क्षुद्र कृतयुग्म कही गई है ।
या प्रश्नना उत्तरसां प्रभुश्री हे छे !-'गोयमा ! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता' हे गौतम! क्षुद्रयुग्भराशी थार अारनी ऐस छे, 'त' जहा' ते भा प्रभा छे.- 'कडजुम्मे' कृतयुग्म 'वेयोए' यो 'दावरजुम्मे' द्वापरयुग्म 'कलियोए' भने ४स्था४' 'से केणट्टेणं भंते ! एव बुवइ चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता' हे भगवन् આપ એવું શા કારણથી કહેા છે કે ક્ષુદ્રયુગ્મ ચાર પ્રકારના કહ્યા છે ? અને તે મૃતયુગ્મ ચૈાજ દ્વાર૫ર અને યાવત્ કથ્થૈાજ સુધી આપે કહયા પ્રમાણે ના डेला है. मा प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री उडे छे - 'गोयमा ! जे णं रासी चक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए' हे गौतम! ने राशीभां यार यारने। भय હાર કરતાં કરતા છેવટે ચાર ખચે એવી સખ્યાને ક્ષુદ્રકૃતયુગ્મ કહેવામાં આવેલ છે.
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भगवतीसूत्रे तेभीए' यः खलु राशिः चतुष्केण अपहारेण अपहियमाणस्त्रिपर्यवसितो भवेत् स एप क्षुल्लक योजः । 'जे णं रासी चउकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए' यः खलु राशिश्चतुष्कणापहारेणापहियमाणो द्विपर्यवसितो भवेत 'सेत्तं खुड्डागदावरजुम्मे स एष. क्षुल्लकद्वापरयुग्मः 'जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे एगपज्जवसिए सेत्तं खुड्डाग कलिओगे' यः खलु राशिः चतुष्केणापहारेण अपहियमाण एक पर्यत्रसितो भवेत् स एप क्षुल्लक कल्योजः 'से तेणटेणं जाव कलिओगे' तत्तेनार्थेन गौतम ! एमुच्यते चत्वारः क्षुल्लक युग्मा, तपथा-कृतयुग्मयोजो द्वापरयुग्मः कल्योज इति । 'खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते' क्षुल्लककृत युग्मनायिकाः खलु भदन्त ! 'को उववनंति'
'जेणं रासी चउक्केणं अवहारेणं अबहीरमाणे तिपज्जवसिए सेत्त खुडडागतेओए' जिस संख्या में ले चार-चार का अपहार करते-२ अंत में तीन बचें ऐसी वह संख्या क्षुल्लक योज कही गई हैं । 'जे णं रासी चउक्केणं अवहारेणं अबहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं खुड्डाग दावरजुम्मे जिस संख्या में से चार-चार का अपहार करते-करते अन्त में दो बचे रहे ऐसी वह संख्या क्षुल्लक द्वापरयुग्म है । 'जे णं राती चउक्केणं अबहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवलिए खेत खुड्डागकलि.
ओगे' तथा जिस संख्या में ले चार-२ का अपहार करते २ अन्त में एक घचारहे ऐसा वह संख्या क्षुद्र कल्योज है। 'से तेणोण जाव कलि
ओगे' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि क्षुल्लक युग्म कृतयुग्म से लेकर कल्योज तक के भेद से चार प्रकारका होता है।
'जेणं रासी चउक्केणं अवहारेणं अवहीरमाणे ति पज्जवसिए सेत्त खुड्डागते ओए' જે સંખ્યામાં ચાર ચારને અપહાર કરતાં (બહાર કરતાં કરતાં) છેવટે ત્રણ भये सवा सयाने ४ व्या४ ४ छ 'जेणं रासी चउक्केणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवस्त्रिए से तं खुडागदावरजुम्मे २ सयामाथी या२-या२ माछ। ४२ai ४२di अन्तमा मे मये ते सयाने सुसा२५२ युग्म ४ छे. 'जे गं रासी चउक्केणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगएज्जवसिए सेत्तं खुड्डागकलिओगे तथा જે સંખ્યામાંથી ચાર ચારને અપહાર કરતાં કરતાં અન્ડમાં એક બચે એવી
सध्यान क्षुद्रक्ष्यो०४ ४उवाय छे. 'से तेणद्वेणं जाव कलिओगे' ते १२५थी હે ગૌતમ! મેં એવું કહ્યું છે કે-મુલ્લકયુમ, કૃતયુગ્મથી લઈને કાજ સુધીના ભેદથી ચાર પ્રકારનું હોય છે,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ खू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम् कुता-कस्मात्स्थानविशेषादागत्य नरकावासे उत्पद्यन्ते 'कि नेरइएहितो उवव. ज्जति तिरिक्खजोगिएहितो पुच्छा' किं नैरयिकेभ्य आगन्योत्पद्यन्ते किंवा तिर्य ज्योनिकेश्य आगत्योत्पद्यन्ते मनुष्येभ्यो वा भागस्योत्पद्यन्ते देवेभ्यो वा आग. स्योत्पचन्ते इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइएहितो उववज्जति' नो नैरयि केल्य आगत्योत्पधन्ते क्षुल्लककृतयुग्यनैरयिकाः 'एवं नेरइयाणं उच्चायो जहा दक्कीए तहा भाणियो एवं नैरयिकाणामुपपातो यथा व्यु क्रान्तौ पज्ञापनायाः पष्ठे पदे कथित स्तथैव इहापि भणितव्यः प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे अर्थात् एवं प्रतिपादितम्-नारका ने नैरयिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते न वा देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु पञ्चेन्द्रिय
'खुड्डाग कडजुम्मनेरयाणं अंते ! को उववज्जति' हे भदन्त ! क्षुद्र कृतयुग्मराशि प्रमाण नैरयिक कहां ले-किल स्थान विशेष सेआकर के उत्पन्न होते हैं-नरकावाल में ले जन्म लेते हैं-'किनेर एरितो उववज्जति, तिरिक्ख जोणिएहितो पुच्छ।' क्या नरयिकों में से आकर के जन्म लेते हैं ? या तिर्यग्योनिकों में से आकर के जन्म लेते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के जन्म लेते हैं ? या देवों में से आकर के जन्म लेते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो नेरइएहितो उपवज्जति' क्षुद्र कृतयुग्मराशि प्रमाण नरयिक नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं एवं रहयाणं उवचाओ जहा वरतीए तहा भाणिय. व्वो' इस प्रकार से नरयिकों के उत्पाद जैसा प्रज्ञापना के छठे पद रूप व्युत्क्रन्ति पदमें कहा गया है वैसा ही यहां पर कहना चाहिये-तथाचनारक न नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं, न देवो में से
'खड्डागकडजुम्मनेरइयाणं भवे ! को उक्वज्जति' मगन् । क्षुदत યુમરાશિવાળા નૈરયિકો કયાંથી એટલે કે કથા સ્થાન વિશેષથી આવીને G५-1 थाय छे ? 'कि नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्व० पुच्छा' शु. નૈરયિકમાંથી આવીને જન્મ લે છે? અથવા તિર્યંચ નિકામાંથી આવીને જન્મ લે છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને જન્મ લે છે ? અથવા દેવામાંથી भावाने सन्म से छे १ मा प्रश्नन। उत्तरमा प्रसुश्री हे छे -'गोयना नो नेरइएहितो। उबवज्जति' क्षुदनयुपराशी प्रभा नया , यि माथी भावी 6 था नथी 'एव नेरइयाण उबवाओं जहा वक्कतीए तहा भाणिચાવો આ પ્રમાણે નરયિકને ઉત્પાદ જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠ્ઠાં વ્યુત્કાન્તિપદમાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં કહેવું જોઈએ અર્થાત્ નારક નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તથા માંથી આવીને પણ
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भगवती तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते नारकाः, तथा गर्भजमनुप्येभ्य श्वागत्योत्पद्यन्ते नारका इति । तेणं भंते ! जीवा एगसमएण केवइया उश्वजति' ते खलु भद. न्त ! क्षुल्लककृतयुग्मनारक जीवा एकसमयेन-एकस्मिन् समये इत्यर्थः किय. न्त:-कियत्संख्यका उत्पधन्ते १ इति प्रश्नः परिमाणविषयका, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि वा, अट्ट वा, बारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति' चत्वार स्तादृशा नारका एकसमयेन उत्पद्यन्ते, अष्टौ वा, द्वादश वा, पोडश वा, संख्याता वा, असंख्याता वा ताशा नारकाः एकसमयेन समुत्पद्यन्ते इति । 'तेणं भंते ! जीवा कई उववज्जति' ते खलु क्षुल्लककृतयुग्मनारकजीवा नरकावासे कथं केन प्रकारेण उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा नामए पवए पत्रमाणे स यथा नामकः प्लयका-कूदकः उच्छलनशीलः कोऽपि आकर के उत्पन्न होते हैं, किन्तु पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं तथा-गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते है 'ते णं भंते ! जीवा एग समएणं केवया उववज्जति' हे भदन्त क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाण नारक एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! चत्तारि वा, अट्ट दा, पारस वा सोलस वा, संखेज्जा चा, अस खेज्जा वा उवधज्जति' हे गौतम क्षुल्लक कृयुतग्म प्रमाण नारक एक समय में चार या आठ या चारह या सोलह या संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । तेणं भने ! जीवा कहं उववज्ज. ति' हे भदन्त ! वे क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाण नैरयिक जीव नरकावास में किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! से जहा नामए पवए परमाणे' जैसे कोई कूदनेवाला व्यक्ति कूदता ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય छ. तथा गम मनुष्यामाथी मावीने ५न्न थाय छे. 'ते ण भते | जीवा एगसमएणं केवइया उपवञ्चति' 8 लगवन् क्षुद तयुभ प्रभावामा ना२४ એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે ४-'चत्तारिवा अदुवा वारस वा संखेम्जा वा असंखेज्जा वा उजवनंति' गीतम! ફુલલક કૃતયુમ પ્રમાણ ના૨ક એક સમય માં ચાર અથવા આઠ અથવા બાર अथवा सण अथवा ज्यात मया मध्यात 61-1 थाय छे. 'ते णं भंते जीवा कई उववज्जति' मात्र ते सु कृतयुम प्रजा २थि: 91 न२:વાસમાં કઈ રીતે ઉત્પન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा से जहा नामए, पवए पवमाणे' म ७ हवापाले ३५ हत।
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ. सू०४ चतुर्युग्मनिरूपणम् प्लवमानः-उत्प्लबमानः कूर्दन् सः 'अज्झवसाण' इत्यादि, 'एवं जहा पंचवीसइमे सए अट्ठम उदेसए' इत्यादि, एवं यथा पञ्चविंशतितमे शतेऽष्टमोद्देशके, इत्यादि, तथाहि-अध्यवसाययोगनिर्वतितेन करणोषायेन प्लश्मानाः पळवकाइव भविष्य. काले तं भवं परित्यज्य पुरतोऽग्रेतनं भवापसंपद्य विहरन्ति । तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कथं शीघ्रा गतिः ? कथं च शीघ्रो गति विषयः प्रज्ञप्न: ? गौतम ! तधया नामकः कश्चित्पुरुषः तरुणो वलवान् यावत् त्रिप्तमयेन वा विग्रहेणोत्पद्यन्ते तेषां जीवानां नारकाणां तथा शीघ्रा गतिः प्रवर्तते तथा शीघ्रो गतिविषयः प्रज्ञप्तः । हुआ अपने पूर्व के स्थान को छोड़कर आगे के स्थान को प्राप्त करता है-इसी प्रकार से नारक भी पूर्व के भव को छोड़कर अध्यवसाय रूप कारण के वशसे आगामीनारक के भयको प्राप्त करते हैं 'एवं जहा पंचवीसहमे सए अट्ठम उद्देसए.' इत्यादि रूप से पच्चीसवें शतक के आठवें उद्देशक में 'नरहयाणं वत्तव्यया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव आयप्पओगेणं उववज्जति नो परप्पओगेणं उववज्जति' नैरथिकों के सम्बन्ध में जो वक्तव्यता कही गई है वही वक्तव्यता यहां पर भी कहनी चाहिये यावत् वे आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं परप्रयोगसे उत्पन्न नहीं होते हैं। 'हे भदन्त ! उन जीवों की शीघ्र गति कैसी है ? और उस शीघ्र गतिका विषय कैसा होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गौतम जैसे कोई तरूण वलवान् पुरुष चौदहवें शतक में प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार हो यावत् तीन समयवाले विग्रह से वे नारक उत्पन्न होते है, इस प्रकार की शीध्र गति उन नारक जीवों की होती है। और ऐसा ही उनकी કૂદતે પિતાના પહેલાના સ્થાનને છેડીને આગળના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. એજ પ્રમાણે નારક પણ પૂર્વભવને છોડીને અધ્યવસાય રૂ૫ કારણને વશ થઈને भावना ना२४ सपने प्रात ४२ छे. 'एवं जहा पंचवीसइसे सए अमउद्देसए' विगैरे प्रहारथी ५२च्यासमा शतनामामा देशामा 'नेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इहवि भाणियवा जाव आयप्पभोगेण उववज्जति नो परप्पओगेण उववजति' નૈરયિકના સંબંધમાં જે કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ. યાવત્ તેઓ આત્મ પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે. પર પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થતા નથી. હે ભગવન્ તે છાનું શીઘગમન કેવું હોય છે? અને તે શીઘગમનને વિષય કેટલે ને કે હોય છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે છે. ગૌતમ! ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે એટલે કે–જેમ કે યુવાન બલશાલી પુરૂષ હાય યાવત ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી તે નારકે ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતની શીધ્રગતિ તે નરક જીવોની હોય છે, અને
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भगवतीसूत्रे ते खलु भदन्त ! नारका जीवाः कथं परभवायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! अध्यवसा ययोगनिवर्तितेन करणोपायेन, एवं खलु ते नारकाः परभवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । तेषां नारकाणां खलु भदन्त । कथं गतिः प्रयत्तते ? गौतम ! आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षरेण एवं खलु तेषां नारकाणां गतिः प्रवत्तेते । ते खलु नारकजीवा: किमात्मा समुत्पद्यन्ते परद्धा वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मा समुत्पद्यन्ते नो परद्धा समुत्पद्यन्ते । ते खलु भदन्त ! नारकाः किमात्मकर्मणा समुत्पद्यन्ते परकर्मणा वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मकर्मणा समुत्पद्यन्ते नो परकर्मणा समु स्पद्यन्ते । ते खल्ल भदन्त ! नारकाः किमात्मप्रयोगेण उत्पद्यन्ते ? परमयोगेण उत्प. शीघ्र गतिका विषय होता है। हे भदन्त ! नारक जीय परभवीय आयु. के का वध कैसे करते हैं ? गौतम ! अध्यवसाय योग से निवर्तित करणोपाय से वे नारक परभव की आयुष्य का वध करते हैं । अर्थात हिंसादि अशुभ परिणाम से नारक आयुष्य का वध करते हैं । हे भदन्त ! उल नारकों की गति किस कारण ले होती है ? हे गौतम ! उन नारक जीरों की गति आयु के क्षपसे, भव के क्षय से और स्थिति के क्षय से होती है । वे नारक जीव क्या आत्मद्धि से उत्पन्न होते हैं ? या परद्धि से उत्पन्न होते हैं। हे गौतम! वे नारक जीव आत्मद्धि (भात्म शक्ति) से उत्पन्न होते हैं परद्धि से उत्पन्न नहीं होते हैं । हे भदन्त ! वे नारक क्या आत्मकर्म ले उत्पन्न होते है ? था परफर्म से उत्पन्न होते है ? गौतम वे नारक आत्मकर्म से उत्पन्न होते हैं, परकर्म से उत्पन्न नहीं होते हैं हे भदन्त ! वे नारक क्या आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते है ? या परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? हे તેઓની શીધ્રગતિનો વિષય એ જ હોય છે હે ભગવાન નારક જીવ પરભવના આયુષ્યને બંધ કેવી રીતે કરે છે? હે ગૌતમ! અધ્યવસાય વેગથી નિવર્તિત કરવાના ઉપાયથી તે નારકે પરભવ આયુષ્યનો બંધ કરે છે. અર્થાત્ હિંસા વિગેરે અર્થાત્ પ્રાણાતિપાત વિગેરે અશુભ પરિણામથી નારક આયુને બંધ કરે છે. હે ભગવન તે નારકની ગતિ ક્યા કારણથી થાય છે ? હે ગૌતમ! તે નારક જીની ગતિ અયુને ક્ષયથવાથી ભવને ક્ષય થવાથી અને સ્થિતિનો ક્ષય થવાથી થાય છે. તે નારક છે આદમઅદ્ધિથી ઉત્પન થાય છે? અથવા અન્યની દ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તે નારક છ આત્માદ્ધિ (આત્મ શક્તિ)થી ઉત્પન્ન થાય છે. અન્યની શકિતથી ઉત્પન્ન થતા નથી હે ભગવન તે નારકે શું આત્મકર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પરકમથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તે નારકે આત્મકથી ઉત્પન્ન થાય છે, પર કર્મથી ઉત્પન થતા નથી, હે ભગવન્તે નારકે શું આત્મપ્રગથી ઉત્પન્ન થાય છે?
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ सू०४ चतुर्युग्मनिरूपणम् धन्ते ? गौतम ! आत्ममयोगेणोत्पद्यन्ते नो परमयोगेण उत्पद्यन्ते । इत्यादिकं सर्व पञ्चविंशति शतकीयाप्टमोद्देशके नैरयिकाणां यथा वक्तव्यता तथैव इहापि नारकाणां वक्तव्यता ज्ञातव्या एतदाशयेनाह-एवं जहा' इत्यादि, ‘एवं जहा पंचवीस मे सए नेरइयाणं वत्तत्रया तहेव इह वि भाणियन्या जाव आयपोगेण उववज्जति णो परप्पयोगेण उववति' एवं यथा पञ्चविंशतितमे शते अष्टपोद्देशके नैरयिकाणां वक्तव्यता तथैवेहापि भणितव्या क्रियत्पर्यन्तं पञ्चविंशतिशतकीयाष्टमोद्देशकस्य नारकवक्तव्यता इहाध्येतव्या तबाह-'जाव' इत्यादि । यावदात्मपयोगेणोत्पद्यन्ते. नो परमयोगेणोत्पद्यन्ते, एतत्पर्यन्तं पूर्व वक्तव्यता वक्तव्येति । सामान्यतः क्षुल्लक कृतयुग्मप्रमाणकनारकाणामुत्यातादिकं मदर्य विशेषतः शुद्रकृतयुग्मादि नारकाणां वक्तव्यतां दर्शयन् माह-'रयणप्पभाए' इत्यादि, 'रयणप्षमा पुढनी खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! को उज्जति' रत्नपभापृथिवी क्षुल्लककृतयुग्मगौतम । वे नारक आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं । इत्यादि सर्व कथन २५ वें शतक के आठवे उद्देशक में नैरयिकों के सम्बन्ध में जिस प्रकार कहा गया है लो वही भव यहां पर भी कहना चाहिये । इसीलिये सूत्रकार ने 'एवं जहा पंचवीसहमे सए नेरहयाणं वत्तव्यया तहेव इहचि माणिय या जाच आयपओगेण उववज्जति णो परप्पओगेण उधवजंलि 'ऐला सूत्रपाठ कहा है। इस प्रकार सामा. न्यतः क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमागधाले नारकों का उत्पाद आदि मकार कह कर अब विशेषतः क्षुद्र कृतयुग्मादि प्रमाणवाले नारकों की वक्तव्यता को दिखाने के निमित्त सूत्रमार कहते हैं-इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'घणयमा पुढची खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उबधज्जति' हे अदनत ! शुद कृतयुग्नराशि प्रमाणवाले रत्नप्रभा કે પર પ્રગથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તે નારકે આત્મ પ્રગથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરપ્રયાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી વિગેરે તમામ કથન પચ્ચીસમા શતકના આઠમા ઉદ્દેશામાં નૈરયિકાના સ બ ધમાં કહેવામાં આવેલ छ त ते सघणु ४थन मडिया ५ सभा यु. तेथी सूत्रारे एवं जहा प चवीस इमे सए नेरइयाण वत्तव्वया तहे। इह वि भाणियबा जाव आयप्प. योगेण उपवज्जति णो परम्पओगेण उववज्जत' के प्रमाणे सूत्र५४ छे. આ રીતે સામે ન્યત શુદલકકૃતયુગ્મ મ ણવ ળા નારકોના ઉત્પાદ વિગેરે પ્રગટ કરીને હવે વિશેષરૂપે શુદયુગ્મ વિગેરે પ્રમાણુવાળા નારકોનું કથન કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે.-આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું छ ४-'रयणप्यभा पुढवी खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भते ! को उववज्जति'
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भगवतीसूत्रे नारकाः खलु भदन्त ! कुतः-कस्मात्स्थानविशेषादागत्य रत्नप्रभापृथिव्यां समु. त्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'एवं जहा' इत्यादि, ‘एवं जहा ओहिय नेरइयाणं वत्तवया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियन्ना' एवं यथा औधिकनारकाणां वक्तव्यता कथिता सैव सर्वापि वक्तव्यता इदापि रत्नप्रभा पृथिवीनारकाणामपि भणितव्या, कियत्पर्यन्तमौधिकनारकीया वक्तव्यता भणितव्या तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव नो परप्पओगेण उववज्जंति' यावत् नो परमयोगेणोत्पधन्ते एत. स्पर्यन्तम् तथाहि-रत्नपभा क्षुल्लक कृतयुग्मनारकाः खलु भदन्त | कुत उत्पद्यन्ते पृथिवी के नैरयिक कहां से आकर के उत्पन्न होते है ? अर्थात् रत्नप्रभा पृथवी में किस स्थान से आकरके जीव नारकनी पर्याय से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'एवं जहा ओहिय नेरयाणं वत्तव्वधा सच्चेव रयणप्पभाए पुढवीए वि भाणियव्वा' हे गौतम ! जैसी सामान्य नैरयिकों के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही गई है वही घक्तव्यता रत्नप्रभा पृथवी के नैरथिकों के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिये । और यही वक्तव्यता 'जाव नो परपओगेण उवचज्जति' यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं 'यहां तक के प्रकरण तक कहनी चाहिये । अर्थात्-'रत्नप्रभा पृथिवी के क्षुल्लक कृतयुग्मराशि प्रमाण नारक हे भदन्त ! किस स्थान से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरपिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं? या तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से या देवों में से आकर उत्पन्न હિ ભગવદ્ શુદ્ર કૃતયુમ રાશી પ્રમાણવાળી આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકે કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જીવ કયા સ્થાનથી આવીને નારકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
22-'एवं जहा ओहिय नेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेत्र रयणप्पभाए पुढवीर वि भाणियवा' 3 गीतम! सामान्य नौयिटीना समयमा प्रमाणे ४थन ४२વામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણેનું કથન રતનપ્રભા પૃથ્વીના નારકોના સબંધમાં ५५ ४ न मन ४थन 'जाब नो परप्पओगेण उववज्जति' यावत् તેઓ પરપ્રયાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી. આ કથન સુધીનું તે પ્રકરણ કહેવું જોઈએ. અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ક્ષુલ્લક કૃતયુમરાશિ પ્રમાણ નારક છે ભગવન કયા સ્થાનથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નરયિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચ નિમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અથવા દેવામાંથી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ सू०४ चतुर्युग्मनिरूपणम् १६७ कि नरयिकेभ्य इत्यादि प्रश्नः, गौतम ! नो नैरयिकेभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु पञ्चे. न्द्रियतिर्यग्योनि केभ्य आगत्य समुत्पधन्ते तथा गर्भज मनुष्येभ्य आगत्योत्पधन्ते। ते खलु रत्नप्रभानारकाः कथमुत्पद्यन्ते, गौतम ! स यथानामकः कश्चि-पुरुषः एलवका प्लवमानः अध्यवसाययोगनिर्वतितेन करणोपायेन पूर्वभवं परित्यज्य अग्रिमभवे उत्पद्यन्ते । तेषां नारकाणां कथ शीवा गतिः कथ शीघ्रो गतिविषयः पज्ञप्तः ? गौतम ! स यथानामकः कश्चित्पुरुषः तरुणो बलवान यावत् त्रिममयेन वा विग्रहेणोत्पद्यन्ते तेषां खल जीवानां तथा शीघ्रा गति भवति तथा शीघ्रोगति होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! वे न नैरथिकों से आकर के उत्पन्न होते हैं और न देवों में से आशर के उत्पन्न होते हैं. किन्तु पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। हे भदन्त ! वे रत्नप्रभा नारक किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! जिस प्रकार कोई प्लवक पुरुष कूदता-२ अपने पूर्व के स्थान को छोडकर आगे के स्थान पर पहूंच जाता है, इसी प्रकार से नारक भी अपने पूर्व भवको छोड़कर अपने अध्यवसाय रूप कारण के दाश से आगामी नारक भवको प्राप्त करते हैं। हे भदन्त ! उन नारक जीवों की शीघ्र गति कैपी होती है? और कैसा उस शीघ्रगति का विषय-होता है ? हे गौतम ! जसे कोई तरुण बलवान पुरुष जैसे किं चौदहवें शतक के प्रथम उद्देशक में આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! તે નારકે નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. કિંતુ દેવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અને પંચેન્દ્રિય તિર્યા ચાનિકમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે તથા ગર્ભજ મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે. હે ભગવન તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકે કઈ રીતે ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! જે પ્રમાણે કોઈ કૃદના પુરૂષ કૂદતે કૂદતો પિતાના પહેલાના સ્થાનને છેડીને આગળના સ્થાન પર પહોંચી જાય છે. એ જ પ્રમાણે નારકે પણ પિતાના પૂર્વ ભવને છોડીને પિતાના અધ્યવસાય રૂપ કારણ વશ આગામી નારક ભવને પ્રાપ્ત કરે છે. હે ભગવન તે નારક જીવોની શીધ્રગતિ કેવી હોય છે અને તે શીધ્ર ગતિનો વિષય-સમય હોય છે ? હે ગૌતમ! જેમ કેઈ તરૂણ બળવાન પુરૂષ જેમ કે ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે એ નારક ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ રીતની તેઓની શીઘગતિ હોય છે. અને તે
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भगवतीय विषयश्च कथितः । ते खलु भदन्त ! नारकाः कथं परमवायुष्कं कुर्वन्ति ? गौतम | अध्यवसाययोगनिति तेन करणोपायेन एवं खलु रत्नप्रभापृथिवी नारकाः परभवायुष्कं कुर्वन्ति । तेपां क्षुल्ल कृतयुग्मरत्नप्रभानारकजीवानां कथं गतिः प्रवर्तते ? गौतम ! आयु.क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण एवं खलु तेषां गति: मवर्तते । ते रत्नप्रमानारकाः आत्मद्धर्या उत्पद्यन्ते परद्धा बोत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मद्धर्थी उत्पद्यते नो परद्धर्थी समुत्पद्यन्ते । ते खलु रत्नमभा नारकाः किमात्गकर्मणा समुत्पधन्ते परकर्मणा वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्म कर्मणैव समुत्पधन्ते नो परकर्मणा । ते खलु भदन्त ! रत्नप्रभानारकाः किमा कहा गया है उसके अनुमार वे नारक तीन समय बाली विग्रह गति से यहां उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की उनकी शीघ्रगति होती है और उस शीघ्रगति का ऐसा विषय होता है। हे भदन्त! वे नारक परभव आयुका बन्ध कैसे करते है ? हे गौतम ! अध्यवसाय योगले निर्मित करणोपाय से परमव की आयु का वध करते हैं अर्थात् प्राणातिपात रूप अशुभ कर्म से नरक आयुका बनाश करते हैं। हे भदन्त ! क्षुल्लक कृतयुग्मराशि प्रमाणरूप रत्नप्रभा नारक जीवों की गति किस कारण से होती है ? गौतम ! आयु के क्षय से भर के क्षय से और स्थिति के क्षय से उनकी गति होती है, हे भदन्त ! वे रत्नप्रभा के नैयिक आईि से उत्पन्न होते हैं ? या पद्धिले उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे आत्मदि से उत्पन्न होते हैं, पहिले नहीं । हे अदनन्द ! वे रत्नप्रभा के नैरयिक क्या आत्मकर्म से उत्पन्न होते हैं या परकर्स ले उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे रत्नप्रभा के नरयिक आत्मकर्म से उत्पन्न होते हैं, શીઘ્રગતિને એ વિષય હોય છે. હે ભગવન તે નારકો પરભવના આયુષ્યને બંધ કેવી રીતે કરે છે ? હે ગૌતમ! અધ્યવસાયોગથી નિવર્તિત કારણના ઉપાયથી પરભવના આયુષ્યને બંધ કરે છે. અર્થાત્ પ્રાણાતિપાત વિગેરે અશુભ કમથી નારક આયુને બધ કરે છે. હે ભગવન મુલક કૃતયુમરાશી પ્રમાણ રૂપ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક જીવની ગતિ ક્યા કારણથી થાય છે? હે ગૌતમ! આયુના ક્ષયથી ભવનાક્ષયથી અને સ્થિતિના ક્ષયથી તેઓની ગતિ થાય છે. હે ભગવન્ તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈરવિકે આત્મઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા પરનીત્રાદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે, હે ગૌતમ ! તેઓ આત્મદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે પરવદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાતા નથી. હે ભગવન તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના રયિકે શું આત્મ કર્મથી ઉત્પન થાય છે? અથવા પરના કર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તેઓ આત્મકર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરકમથી નહીં.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ १०४ चतुयुग्मनिरूपणम् स्मपयोगेण उत्पद्यन्ते परमयोगेण वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मप्रयोगेणवोत्प चन्ते, एतत्पर्यन्तमौघिकनारकप्रकरणं रत्नममा पृथिवीनारकमकरणे भणितव्य मिति । 'एवं सक्करप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाए' एवं रत्नपभाव देव शर्करामभा. यामपि यावत् अधःसप्तम्यां नारकपृथिव्याम् ‘एवं उबवाभो जहा वक्तीए' एव मुपपातो वर्णनीयो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे उपपातो नारकाणा मुपपादित इति । 'असन्नी खलु पदमं दोच्चं व सरीसवा तइय पक्खी गाहाए उववाएयच्या' असंज्ञी खल्लु प्रथमां द्वितीयां च सरीसृपाः तृतीयां पक्षिणः (यान्ति) इत्यादि गाथाभ्याम् उपपातयितव्याः असंज्ञिनां प्रथमनरके उपपातो भवति पर कम से नहीं । है गौतम ! वे रत्नप्रभा के नैरपिक क्या आस्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? या पर प्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम | वे रत्नप्रभा के नैरयिक आत्मप्रयोग से ही उत्पन्न होते हैं परप्रयोग से नहीं। 'यहां तक का यह सब प्रकरण जो कि औधिक नारक के प्रकरण में कहा गया है यहाँ रत्नप्रभा पृथिवी के नारक के प्रकरण में कहना चाहीये । 'एव सक्करप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाए' इसी प्रकार की वक्तव्यता द्वितीय शर्करा पृथिवी से लेकर अधासप्तमी पृथिवी के नारकों के उत्पाद के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिये, अर्थात् प्रज्ञापना के व्यु. स्क्रान्ति नामक छठे पद में जैसा नारकों के उत्पाद का वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन यहां पर भी करना चाहिये, 'असन्नी खलु पढमं दोच्च व सरीमवा तइय पक्खी' गाहाए उबवाएयव्या' इत्यादि गाथा द्वारा यह वहां पर प्रकट किया है कि असंज्ञी जीवों का प्रथम नरक तक उपपात હે ભગવન તે રત્નપ્રભાપૃથ્વી ના નારકે શું આત્મ પ્રગથી ઉત્પન્ન થાય છે ? કે પરપ્રયાગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! રતનપ્રભા પૃથ્વીના નારકો આત્મપ્રગથી ઉત્પન થાય છે. પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી. આટલા સુધીનું આ તમામ પ્રકારણ કે જે ઔવિક નારકના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકના પ્રકરણમાં કહેવું नसे. एवं सकरप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभागनु ४थन બીજી શર્કર પૃથ્વીથી લઈને અધ સપ્તમી પૃથ્વીના નારકેના ઉત્પાદના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. અર્થાત્ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં એટલે કે છઠ્ઠા પદમાં નારકના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, એ જ प्रभानु वान मडियां ५५४ ४२ मे 'असन्नी खलु पदम दोच्चंव सरीसवा तइय-पक्खीगाहाए उववाएयव्वा' विगेरे गाथा यां या ४थन પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. કે-અસંજ્ઞી અને પહેલા નરકમાં ઉત્પાત હોય
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भगवती सर्पोदीना मुपपातो द्वितीयनरके भवति पक्षिणामुपपात स्तुतीय नरके भवतीत्यादि गाथाद्वयवर्णित क्रमेण सप्तमनारकपर्यन्तं तत्तज्जीवालामुपपातो दर्शनीयः तथाहि
'असभी खल पढम दोच्चं व सरीसवा तइय पक्खी, सीहा जंति चउत्थि, उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥१॥ छहि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सत्तमि पुढवि ।
एसो परमोवाओ, घोद्धव्यो नरग पुढवीणं ।।२॥ इति छाया--असंज्ञी खल्ल प्रथमां, द्वितीयां च सरीसपा तृतीयां पक्षिणः ।
सिंहा यान्ति चतुर्थी , उरगाः पुनः पञ्चमी पृथिवीम् ॥१॥ पप्ठी च स्त्रियः, मत्स्या मनुजाश्च सप्तमी पृथिवीम् ।
एष परमोपपातो बोद्धव्यो नरकपृथिवीनाम् ।।२।। इति । 'सेस तं चेत्र' शेषम्-उपपातादि व्यतिरिक्त सर्व तदेव औधिकनारकमकरणे होता है। सरीसृपों का अर्थात् भुजपरिसपोशा उपपात द्वितीय नरक तक होता है और पक्षियों का उपपात तृतीय नरक तक होता है, सो यही उत्पाद का वर्णन सप्तम नरक पर्यन्त के जीवों का यहां पर भी दिखाना चाहिये, जैसे-असंज्ञी जीव प्रथम पृथिवी तक ही जाते हैं सरीसृप अर्थात् भुजपरिसर्प दूसरी पृथिवी तक जाते हैं, पक्षी तीसरी पृथिवी तक जाते हैं, सिंह चौथी तक जाते हैं उरग-सर्प पांचवी पृथिवी तक जाते है, स्त्रियां छठी पृथिदी तक जाली है, और मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं तक जाते है यह उत्कृष्ट उपपात कहा गया है जघन्यसे तो अपनी मर्यादित पृथिवी से नीचे की पृथिवीमें भी जा सकते हैं ॥२॥ यह प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्ति पद की दो गाथाओं का भाव है । 'सेसं
છે. સર્ષ વિગેરેને ઉત્પાત બીજ નરકમાં થાય છે. અને પક્ષિઓને ઉત્પાત ત્રિીજા નરકમાં થાય છે. તે આ પ્રમાણેના ઉત્પાતનું વર્ણન સાતમાનારક સુધીના જીવન સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે અહિયાં પણ સમજી લેવું. જેમકેઅસંસી જીવ પહેલી પૃથ્વી પર્યન્ત જ જાય છે. સરિસૃપ અર્થાત્ ભુજપરિસર્પ બીજી પૃથ્વી પર્યત જાય છે. પક્ષિયો ત્રીજી પૃથ્વી પર્યા જાય છે. સિંહ ચેથી પૃથ્વી સુધી જાય છે. ઉરગ-સર્ષ પાંચમી પૃથ્વી પર્યત જાય છે, પ્રિયે છઠિ પૃથ્વી પર્યન્ત જાય છે અને માછલા અને મનુષ્યો સાતમી પૃથ્વી સુધી જાય છે. આ ઉત્કૃષ્ટ ઉ૫પાત કહેલ છે. જઘ ન્યથી તે પિતાની મર્યાદિત પૃથ્વીથી નીચેની પૃવીમાં પણ જઈ શકે છે. मा प्रज्ञापनानी मे थाना अछे 'सेस तहेव' 241 S५यात विगैरे वर्णन
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प्रमेन्द्रका टीका २०३१ उ. १ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम्
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यत् कथितं तदेव सर्वं शर्करामभात आरभ्य सप्तमी पृथिवी नारकेषु वक्तव्यमिति रत्नममादिगत क्षुल्लक कृतयुग्मनारकाणामुत्पादादिकं दर्शयन माह - 'खुड्डाग तेओग नेरइया' इत्यादि ।
'खुड्डाग तेओग नेरइयाणं भंते ! कओ उत्रवज्जंति' क्षुल्लक ज्योज नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुतः - कस्मात्स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'उववाओ' इत्यादि, 'उनवाओ जहा वक्कंतीए' उपपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः षष्ठे पदे यथा नारकाणामुपपातः कथित स्तेनैव रूपेणात्रापि उपपातो न नैरयिकादिभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि के - भ्यो गर्भजमनुष्येभ्यश्चागत्य समुत्पद्यन्ते एवं वर्णनीयः । ' ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उचवज्जंति' ते खलु भदन्त ! क्षुल्लकत्रयोज नारकजीवा एकसमयेन एकस्मिन् समये कियत्संख्यकाः समुत्पद्यन्ते ? इति मनः, भगवानाह तहेव' इस उपपातादि वर्णन के अतिरिक्त और सब वर्णन औधिक नारक प्रकरण में जैसा कहा गया है वही सब वर्णन शर्कराप्रभा से लेकर सप्तमी पृथिवी के नारकों तक में कहना चाहिये ।
'खुड्डाग तेओग नेरइयाणं भंते! कओ उचवज्जंति' हे भदन्त ! क्षुल्लक ज्योजराशि प्रमाण नैरयिक नरकाचासमें कहां से आकर के उत्पन्न होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'उबचाओ जहा वक्कनीए' हे गौतम ! प्रज्ञापना के छड्डे व्युत्क्रांति पद में जैसा नारकों का उपपात कहा गया है वैसा ही वह यहां पर भी कहना चाहिये, अर्थात् वे नरयिक आदिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में से और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ऐसा वर्णन यहां पर करना चाहिये । 'ते णं भंते ! जीवा एसमएणं केवढ्या उववશિવાયનું' ખીજું સઘળુ વન બૌધિક નારકના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. તે તમામ વધુ ન શકે`રાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈ ને સાતમી તમતમા પૃથ્વીના નાકાના સ મ ધમાં કહેવું જોઈ એ.
खुड्डागतेयोग नेरइयाणं भंते ! कथ उववज्जति' हे भगवन शुहसान રાશિપ્રમાણવાળા નૈરયિકા નરકાવાસમાં કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ अश्नना उत्तरमां अलुश्री हे छे है- 'उववाओ जहा वक्कंतीए' हे गौतम! अज्ञायना સૂત્રમાં છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં નારકાના ઉત્પાદ જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહેવા જોઇ એ. અર્થાત્ તે નૈરિયકા વિગેર માંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ પ ંચેન્દ્રિયતિય ચ ચેાનિકામાંથી અને ગજ મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, એ પ્રમાણેનુ' વધુન અહિયાં
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भगवतीने 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! "तिनि त्रा, सत्त वा, एकारस वा त्रयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति' पञ्चदश वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, क्षुल्लक योजनारका एकदा समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसं जहा कडजुम्नस्स' शेपं-परिणामातिरिक्तं सर्व कुत आगत्योत्पद्यन्ते कथमुत्पधन्ते कथं शीघ्रा गतिः आत्मप्रयोगेण वा परपयोगेण वा उत्पधन्ते, इत्यादिकं सर्वं यथा कृतयुग्मनारकस्य कथितं तथैवेदापि ज्ञातव्यम् , आलापप्रकारश्च सर्वत्र स्त्रयमेमोहनीयः। एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्या मवगन्तव्यम् । येन रूपेण औधिकक्षुल्ल योजनारकस्य कथितं तेनैव ज्जति' हे भदन्त ! क्षुल्लक जराशि प्रमाणवाले वे नारक एक समय में वहां कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा उववज्जति' हे गौतम ! वे नारक वहां एक समय में तीन था लाल या ११ ग्यारह 'पन्नरस वा संखेज्जावा असंखेज्जा वा उबवज्जति' या पन्द्रह या संख्यात या असंख्यात तक उत्पन्न होते है ? 'सेलं जहा कडजुम्मस्स' इस परिमाण कथन से अति रिक्त और सब-कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? कैसे उत्पन्न होते हैं ? उनकी शीघ्र गति कैसी होती है ? कैसी उनकी शीघ्रगति का विषय होता है ? वे वहां आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं या पर प्रयोग से उत्पन्न होते हैं हत्यादि सब जैसा कृतयुग्मराशि प्रमाण नारकों के विषय में कहा गया है वैसा ही वह सब कथन यहां पर भी करना १२ नये 'तेणं भवे ! जीवा ! एगसमएणं केवइया उववज्जति' समपन् ક્ષુલ્લક જરાશિ પ્રમાણવાળા તે નારકો એક સમયમાં ત્યાં કેટલા ઉત્પન थाय छ ? उत्तरमा प्रभुश्री छ -'गोचमा! तिन्नि वा सत्तवा एक्कारस वा उववज्जति' है गौतम! ते ना२३। त्यो मे समयमांत्र अथवा सात अथवा अभिया२ ‘पन्नरस वा सखेज्जा वा असखेज्जा वा उववज्जति' अथवा ५४२ मथवा सध्यात अथवा मसभ्यात सुधाना Gcपन्न थाय छे. 'सेसं जहा कडजुम्मस्स' मा परिणाम ४थन शिवायनु भा तमाम ४थन-मेटी“કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય છે ? તેઓનું શીધ્ર ગમન કેવું હોય છે ? તેઓના શીઘ્ર ગમનને વિષય કે હોય છે તેઓ ત્યાં આત્મ પ્રગથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થાય છે? વિગેરે સઘળું કથન જે પ્રમાણે કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમાણુ નારકના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું તમામ કથન અહીંયાં પણ કહેવું જોઈએ આ સંબંધમાં मापन २ २१य मानावीन वाय. 'एव जाव अहे सत्तमाए' જે પ્રમાણે ઔધિક ક્ષુલ્લક જરાશિ પ્રમાણે નરયિકના સંબંધમાં કહેવામાં
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम् रूपेण रत्नप्रभा क्षुल्लक योजनारकादारभ्य सप्तमीपृथिवी क्षुल्लक पोजनारक विषयेऽपि सर्वमवगन्तव्यमिति । आलापादिकश्च सर्वत्र स्वयमेवोहनीय इति । 'खुड्डाग दावरजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति' क्षुल्लकद्वापरयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुता-कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नारकावासे समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह-एवं जहेव' इत्यादि, 'एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे' एवं यथैव क्षुल्लककृतयुग्मः क्षुल्लककृतयुग्मनारकाणामुत्पादादिकं येन प्रकारेण पूर्व प्रतिपादितं तेनैव प्रकारेण संक्षेपविस्तराभ्यामिहापि सर्वमवगन्तव्यम् । 'नवरं परिमाणं दो वा, छ वा, दस वा, चौदस वा, खेज्जा वा, असं. खेज्मा वा, नवरं परिमाणं द्वौ वा षड् वा, दश वा, चतुर्दश वा संख्येया वा, चाहिए, आलापप्रकार इस सम्बन्ध में अपने आप उद्भावित करना चाहीये, एवं जाव अहे लत्तमाए' जिल रूपले औधिक क्षुल्लक योजराशि प्रमाण नैरयिकों के सम्बन्ध में कहा गया है उसी रूप से रत्नप्रभा क्षुल्लक योजराशी प्रमाण नैरयिकों से लेकर सप्तमी पृथिवी के क्षुल्लक योजराशि प्रमाणवाले नैरथिकों के विषय में भी सब कथन करना चाहिये । तथा इस सम्बन्ध में आलापादिक सर्वत्र अपने आप उद्भावित करना चाहिये।
खुड्डाम दावर जुम्मनेरयाणं भंते ! को उववज्जति' हे भदन्त ! जो नैरथिक क्षुल्लकद्वापर युग्मराशि प्रमाण हैं वे नरकावास में कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? हलके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेव खुड्डाण काजुम' हे भौतम ! जैसा कथन क्षुल्लक कृतयुग्म गशि प्रमाणवाले नैरमिकों के उत्पातादि के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही वह लमस्त कथन संक्षेप और विस्तार से यहां पर भी આવેલ છે એજ પ્રમાણે રત્નપ્રભાના ક્ષુલ્લક જરાશિ પ્રમાણવાળા નૈરવિકથી લઈને સાતમી પૃથ્વીને ક્ષુલ્લક જરાશિ પ્રમાણવાળા નરયિકના સંબંધમાં પણ સઘળું કથન કહેવું જોઈએ. તથા આ વિષયમાં આલાપ વિગેરે બધે જ સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ.
'खुड्डाग दावरजुम्मनेरइया णे भते ! को उववज्जति' है पर ૌરયિક ક્ષુલ્લક દ્વાપરયુગ્મપ્રમાણુવાળા છે, તેઓ નરકાવાસમાં કયાંથી આવીને Brपन्न थाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छे -'एवं जहेव खड्डाग कड जुम्मे' गौतम क्षुद कृतयुग्मराशी अभावमा यिोनी पाठ વિગેરેના સ બ ધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એ જ પ્રમાણેનું ते ४थन सस ५ मने विस्तारथी मडिया ५ ४ नये. 'नवर परिमाण दो वा छ वा चोदस वा संखेज्जा वा असखेज्जा वा' ते ४थन ४२di l यिनमा
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भगवती असंख्येया वा' क्षुल्लक कृतयुग्ममकरणात् वैलक्षण्यं केवल परिमाणविषये तत्पदर्शितमेव, अन्यत्सर्वम् उत्पादादिकं कृतयुग्मप्रकरणादेवायसेयमिति । 'सेसं तं चेव जाव अहे सत्तमाए' शेषम्-परियाणातिरिक्तं तदेव यदेवोत्पादादिकं 'क्षुल्लककृत्युग्ममकरणे कथितं तदेव इहापि क्षुल्लकद्वापरयुग्मप्रकरणेऽपि । कृतयुग्मप्रकरणं कियत्पर्यन्तमिह ज्ञातव्यं तबाह-'जाय' इत्यादि, 'जाव अहे सत्त. माए' यावद्ध सप्तम्यां रत्नप्रभा क्षुल्लकद्वापरयुग्मादारभ्य अधःसप्तमी पृथिवी पर्यन्तं क्षुल्लक द्वापरयुग्मनारकविपये सर्व ज्ञातव्यमिति । 'खुड्डाग कलिओग नेरइयाणं भंते ! को उवज्जति' क्षुल्लकल्योजनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत:कहना चाहिये । 'नवरं परिमाणं दो बा छ वा दस वा चौदस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा' उस कपल से इस कथन में यदि कोई विशेषता है तो वह परिमाण को लेकर ही है अतः यहां पर नैरयिकों का उत्पाद परिमाण दो या छह या दश या चौदछ या संख्यात या असंख्यात है। बाकी का और जब क्षुल्लकवापर युग्मराशि प्रमाणवाले नैरषिकों का कथन क्षुल्लक कृमयुग्मराशि प्रमाणवाले नैरयिकों के जैसा ही है । अतः वह उनके प्रकरण से ही जानना चाहिये । इसलीए सूत्रकार ने इस सम्बन्ध में "लेख तं चेव जाव अहे सत्तमाए' ऐप्सा सूत्र पाठ कहा है। इसलिए कृतयुग्म प्रकरण रत्नप्रभा के क्षुल्लक द्वापरयुग्म राशि प्रमाणघाले नैरपिको ले लेकर अधःमतभी पृथिवी तक के क्षुल्लक द्वापरयुग्मराशि प्रमाणवाले नैयिकों में कहना चाहिये। ___'खुड्डाग कलियोग नेहाणं भंते ! को उववज्जति' हे भदन्त ! जो नैरपिक क्षुल्लक कल्पोजराशि प्रमाणयाले हैं वे कहां से आकर के જે કંઈ વિશેષપણુ હોય તો તે પરિણામના સંબંધમાં જ વિશેષપણુ છે. તેથી અહિયાં નરયિકેને ઉત્પાદ, પરિણામ બે અથવા છ અથવા દસ અથવા ચૌદ અથવા સ ગ્યાત અથવા અસંખ્યાત છે. બાકીનું બીજુ તમામ કથન ક્ષુલ્લક દ્વાપરયુમરાશિ પ્રમાણુવાળા નૈયિની જેમ જ છે તેથી તે સઘળું કથન તેને એટલે-કુલકદ્વાપર યુમરાશિ પ્રમાણવાળા નિરયિકોના પ્રકરણમાંથી જાણી स. तथा सूत्रा२ मा विषयमा 'सेस त चेव जाव अहेसत्तमाए' मा प्रमाणे સૂત્રપાઠ કહેલ છે. તેથી કૃતયુગ્મ પ્રકરણ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ક્ષુલ્લક દ્વાપર યુગ્મ રાશિ પ્રમાણવાળા નરયિકથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધીના સુલકદ્વાપર યુગપરાશિ પ્રમાણુવાળા નરયિકાના સંબંધમાં કહેવું જોઈએ
___ 'खुड्डाग कलिओग नेरझ्याण मंते ! कओ उववजंति' भगवन् २ नैरયિકો ભુલક જરાશી પ્રમાણુવાળા છે, તેઓ કયાંથી આવીને નરકાવાસમાં
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trafat afat श०३१ उ. १ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम्
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कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पयन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'एवं जहेब' इत्यादि, 'एवं जहेब खुड्डागकडजुम्मे' एवं यथैव क्षुल्लककृतयुग्ममकरणे नारकाणामुत्पत्ति दर्शिता तथैव इहापि क्षुल्लककल्योज नारकाणां न नैरयिकेभ्य उत्पत्तिः किन्तु पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्यः तथा गर्भजमनुष्येभ्यथा.
ये समुत्पत्तिर्भवतीति । 'नवर' परिमाणं एको वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा संखेज्जा वा, असं खेज्जा ना उनवज्जंति' नवरस् केवलं परिमाणं कृतयुग्म नारकाद्विलक्षणं तदिदम् एको वा, पञ्च वा, नव वा, त्रयोदश वा संख्याता वा, नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेत्र खुड्डाग कडजुम्मे' हे गौतम । जैसा कथन क्षुल्लक कृमयुग्म प्रकरण में नारको' के उत्पाद के विषय में किया गया है उसी प्रकार से वह प्रकरण इस क्षुल्लक फल्योज नारकों के प्रकरण से उत्पाद के विषय में भी कहना चाहीये। इस प्रकार क्षुल्लक कल्पोज नारक नैरधिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं और न देवें में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु वे पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं, और गर्भज मनुष्यों में से आकर के वहाँ उत्पन्न होते हैं । 'नवरं परिमाणं एकको वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उबवज्जंति' यहां पर कृतयुग्म नारकों के प्रकरण से यदि कोई विशेषना है तो वह परिमाण की अपेक्षा से ही है, अतः यहां पर क्षुल्लक कल्योज नारकों का प्रमाण एक समय में उत्पत्ति का एक अथवा पांच अथवा नौ अथवा
उत्पन्न थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री छे - ' एवं जहेव खुड्डा गकडजुम्मे' हे गौतम! क्षुस्सा द्रुतयुग्भ प्रभावाजा नारजना संयधमां ने પ્રમાણેનુ' કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણે તે પ્રકરણ આ ક્ષુલક કલ્ચાજ નારક સબંધી પ્રકરણુ તેમના ઇત્પાદના સંબોંધમાં પણ કહેવું જોઇએ, આ રીતે ક્ષુલ્લક કલ્યાજ નારક નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી તેમ દેવામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ તે પચેન્દ્રિય તિર્યંચ ચેનિકામાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે, અને ગજ મનુષ્યામાંથી આવીને નરકાવાસમા ઉત્પન્ન થાય છે
'नवर' परिमाणं एको वा पांचवा नव वा वेरसवा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति' गडियां भी कृतयुग्न नारोना अरमां ने अर्ध विशेषपायु છે, તે તે પરિણામના સૌંધમાં જ છે, તેથી અહિયાં ક્ષુલ્લક લ્યેાજ નારકાની ઉત્પત્તિનું પ્રમાણુ એક સમયમાં એક અથવા પાંચ અથવા નવ અથવા
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भगवतीस्त्रे असंख्याता था, समुत्पधन्ते । 'सेसं तं चैव' शेपम्-परिमाणातिरिक्तमुत्पादादिकं सर्व तदेव क्षुल्लककृतयुग्मनारकमकरणकथित सेवेति । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावद् रत्नप्रभा क्षुल्लककल्योजनारकादारभ्य अधःसप्तम्यां क्षुल्लककल्योज पर्यन्त नारकाणाम् इयमेव व्यवस्था ज्ञाता । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति जाब विहरइ' तदेवं सदन्त ! तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! क्षुल्लककृतयुग्मादि नारकादीनामुत्पादादिविषये यद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति पन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥६० १॥
एकत्रिंशत्तसे शके प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥३१-१॥ तेरह अथधा संख्यात अथवा अमंधात तक होता है । 'सं तं चेव' इस परिमाण के अतिरिक्त और लय उत्पाद आदि का कथन जैसा क्षुल्लक कृतयुग्म नारकों के प्रकरण में किया गया है-वैसाही यहां पर भी करना चाहिये । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इस प्रकार रत्नप्रभा के क्षुल्लक कल्योज नारों से लेकर अधासप्तमी पृथिवी केक्षुल्लक कल्योज नारकों के सम्बन्ध में भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये, 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाद बिहरह' हे भदन्त ! क्षुल्लक कृतयुग्म नारकों के उत्पाद आदि के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सर्वधा सत्य ही है २ इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया, बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थानपर विराजमान हो गये ॥स० १॥
प्रथम उद्देशक समाप्त-३१-१ इस मय समयात अथवा मसण्यात सुधी डोय छे. 'सेमत चेव' मा પરિણામના કથન શિવાય બાકીનું ઉત્પાદ વિગેરે સઘળું કથન સુલકકૃતયુગ્મ નારકેના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે તે પ્રમાણે અહિયા પણ સમજવું.
'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा रीते २त्नप्रभा पृथ्वीना शुस भयो। નારકોથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના કુલક કલ્યાજ નારકેના સંબંધમાં પણ આજ કથન સમજવું
'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति जाव विहरई' ७ भगवन् क्षुस तयुम વિગેરે નારકના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયમાં આ૫ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાને સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂત્રો
પહેલે ઉદેશે સમાપ્ત ૩૧-૧
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ सू०१ कृष्णलेश्यानित ने, उत्पातादिकम् १७७.
अथ द्वितीयोद्देशकः मारभ्यते - प्रथमे उद्देशके सामान्यतः क्षुल्लक कृतयुग्मादिनारकाणामुत्पातादिः कथितः, द्वितीयेतु कृष्ण लेश्याश्रय उत्पादादि वक्तव्यः, तदनेन सम्बन्धेनायातस्य द्वितीयो देशकरयेदं सूत्रम्-'कण्ह छेस्स०' इत्यादि ।
मूलम्-कण्हलेस्स खुड्डाग कडजुम्स नेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति, एवं चेव जहा ओहिय गमो जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति । नवरं उववाओ जहा वकंतीए धूमप्पभा पुढवी नेरइयाणं सेसं तं चेव । धूमप्पभा पुढवी कण्हलेस्स खुड्डागकडजुम्म नेरइया णं भंते! कओ उववज्जति एवं चेव निरवसेसं। एवं तमाए वि, अहे सत्तमाए वि। नवरं उववाओ सव्वत्थ जहा वकंतीए । कण्हलेल्ल खुड्डाग तेओग नेरइयाणं भंते ! .कओ उववज्जति ? एवं चेव नवरं तिन्नि वा, सत्त वा, एकारस वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, सेसं तं चेव। एवं जाव अहे सत्तमाए । कण्हलेस्स खुड्डाग दावरजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति एवं चेव । नवरं दो वा, छ वा, दस वा, चोदस वा सेसं तं व। धूमप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाए । कण्हलेस्स खुड्डाग कलिओग नेरझ्याणं भंते ! कओ उववज्जति । एवं चेव नवरं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा सेसं तं चेव। एवं धूमप्पभाए वि तमाए चि अहे सत्तमाए वि, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥सू. १॥
छाया-कृष्णलेश क्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? एवमेव यथा औघिको गमो यावत् नो परप्रयोगेणोत्पद्यन्ते । नवरमुत्पातो यथा व्युत्क्रान्तौ धूगममा पृथिवी नैरयिकाणाम् । शेष तदेव । धूमप्रभा पृथिवी कृष्णलेश्य क्षुल्लक कृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते एवमेव निरखो. पम् । एवं तमायामपि अघ सम्यामपि । नहरमुपपातः सत्र यथा व्युत्क्रान्तौ । कृष्ण लेश्य क्षुल्लक व्योज नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? एवमेव नवर त्रयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्येया वा, असंख्येया वा, शेष
भ० २३
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भगवती सूत्रे
देव । एवं यावदधः सप्तम्यामपि । कृष्णलेश्य क्षुल्लकद्वापरयुग्मनैरथिकाः खलु दन्त ! ga उत्पन्ते, एवमेव नवरं द्वौ वा पहवा, दश वा, चतुर्दश वा, शेपं तदेव धूमप्रभायामपि यावदधः सप्तम्याम् । कृष्णलेश्य क्षुल्लककल्योज नैरयकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? एवमेव । नवरम् एको वा, पञ्च वा, नववा, त्रयोदश वा संख्येया पा, असंख्येया वा । शेषं तदेव । एवं धूमप्रमायामपि तमायामपि अधःसप्तम्यामपि । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥ सू० १ ॥ एकत्रिशत्तमे शते द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३१-२॥
टीका -- द्वितीयस्तु उद्देशकः कृष्णलेश्याश्रयः सा च कृष्णलेश्या पञ्चमी षष्ठी सप्तमीष्वेव पृथिवीषु भवतीति कृत्वा सामान्यदण्डकः तथा पञ्चमीषष्ठी सप्तमी पृथिव्याश्रितं दण्डकत्रयं चात्र भवतीति, अतः कृष्णलेश्याश्रय एवात्र विचारोऽवधीयते । दूसरे उद्देशेका प्रारंभ
प्रथम उद्देशक में सामान्यतः क्षुल्लक कृतयुग्मराशिवाले नारकों का उत्पाद आदि कहा गया है । अब इस द्वितीय उद्देशक में कृष्ण लेश्या के आश्रय से उनका उत्पातादि कहना है सो इसी अभिप्राय सेएस द्वितीय उद्देशक को प्रारम्भ सूत्रकार करते हैं
'कण्हलेस्स खुड्डागकडजुम्मनेरयाणं भंते !' इत्यादि ।
टीकार्थ - - यह द्वितीय उद्देशक कृष्णलेश्यावाले क्षुद्र कृनयुग्मराशि प्रमाण नैरधिकों से सम्बन्धित है । कृष्णलेश्पा पाँचवी छुट्टी और सातवीं पृथिवीयों में ही होती है । इसलिये एक सामान्य दण्डक है तथा पांचवी छट्टी और सातवी पृथिवीयों के आश्रित तीन दण्डक यहाँ है । अतः कृष्णलेश्या के आश्रयवाला ही विचार यहां प्रदर्शित किया जाता है
એકત્રીસમા શતકના ખીજા ઉદ્દેશાના પ્રારભ
પહેલા ઉદેશામાં સામાન્યતઃક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ વિગેરે રાશિવાળા નારકીના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબધમાં કથન કરેલ છે. હવે આ ખીજા ઉદ્દેશામાં કૃષ્ણ લેશ્યાના આશ્રયથી તેએાના ઉત્પાદ વગરેના સબધમાં કથન કરવામાં આવશે એજ અભિપ્રાયથી સૂત્રકાર આ ખીજા ઉદ્દેશાના પ્રારંભ કરે છે.
'कण्हलेस खुड्डाकडजुम्मनेरइया णं भते ! त्याहि
टीअर्थ -: —આ ખીજા ઉદેશેા કૃ'ઝુલેસ્યાવાળા ક્ષુદ્ર કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણ વાળા નૈરિયેકાના સબ ધમાં કહેલ છે. કૃષ્ણેલેસ્યાના આશ્રયવાળી પાંચમી છઠ્ઠી અને સાતમી પૃથ્વીયાના ત્રણ દડકા અહિયાં કહ્યા છે. જેથી કુષ્ણલૈશ્યાના આશ્રયવાળા જ વિચાર અહિયાં પ્રગટ કરવામાં આવે છે,——
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प्रमेयमन्द्रिका का श०३० उ.२ १०१ कृष्णलेश्याश्रित नै. उत्पातादिकम् १७९ . 'कण्हलेस्स खुइडागाडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उबवति' कृष्णलेश्य क्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! चुतः कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नारकावासे उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्ना, उत्तरमाह-एवं चे' इत्यादि, एवं चैव जहा ओहिओ गमो' एवमेव यथा औधिको गमः औधिकगमवत् एतच्छतकीय प्रथमोद्देशकक्षुल्लककृतयुग्मनारकमूत्रनदेव कृष्णलेश्यक्षुल्लक नारकस्यापि उत्पादादिकं वक्तव्यम, तथाहि-ल नार केम्प आगत्योत्पधन्ते कृष्णलेश्यक्षुल्लक कृतयुग्मनारकाः किन्तु तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य गर्भज मनुष्येभ्यश्चागत्योत्पद्यन्ते इति । तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कथं शीघ्रा गतिः कथं शीघ्रो गतिविषयः प्रज्ञ. . 'कहलेस्स खुड्डाग कडजुम्म नेरक्याण भंते ! को उववज्जति' हे भदन्त ! क्षुद्र कृतयुग्मराशि प्रमाण कृष्णलेश्यावाले नैरयिक कहां से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'एवं चेव जहा ओहिओ गमो' हे गौतम ! जैसा विचार इस शतक के प्रथम उद्देशक में क्षुल्लक कृतयुग्म नारक के सूत्र में किया गया है वैसा ही विचार कृष्णलेश्याचाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारक के उत्पाद आदि का भी करना चाहिये । जैसे-कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारक नैरथिकों में से आकर के नरकावास में उत्पन्न नहीं होते हैं। और न 'देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। हे भदन्त । उन नारक जीवों की गति कैसी तीत होती है। और कैसा उस तीव्र गति का विषय होता है ? हे गौतम ! जैसे कोई
__ 'कण्हलेस खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भते । कओ उववज्जति' है ભગવન શુદ્ર કૃતયુગ્મ રાશી પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નિરયિકે ક્યાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે"एवं चेव जहा ओहिओ गमो' 3 गौतम! मी शतना पडता शामा रे પ્રમાણેને વિચાર શુક્લક કૃતયુગ્મ નારકના સૂત્રમાં કરવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણેને વિચાર કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક કૃતયુગ્મ નારકના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબ ધપાં પણ કહેવા જોઈએ. જેમ કે-કૃષ્ણલેશ્યાવાળા મુલક કૃતયુગ્મ નારક નરયિકમાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. તથા દેશમાંથી આવીને
પણ તેઓ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ તેઓ પંચેન્દ્રિયતિર્યંચ નિમાંથી - ' આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. તથા ગર્ભજ મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે.
હે ભગવન તે નારક જીવની ગતિ કેવી તીવ્ર હોય છે અને તે તીવ્ર ગતિનો
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भगवतीसूत्र त: ? गौतम ! यथा कश्चित् तरुणो बलवान पुरुषो यावत् त्रिप्तमपके र विग्रहेण समुत्पद्य ते तेषां दलु जीवानां तथा शीघ्रा गतिः तथा शीघ्रो गतिविपयः प्रज्ञप्ता ते जीवाः कथं परभवायुष्कं कुर्वन्ति गौतम ! अध्यवसाययोगनिर्तितेन करणोपायेन एवं खलु परमवायुष्कं कुर्वन्ति, इति । तेषां जीवानां कथं गतिः प्रवर्तते गौतम ! आयुःक्षण भरक्षयेण स्थितिक्ष येण गतिः वर्तते इति । ते जीवाः किमात्मा समुत्स्यन्ते परद्धर्था वा समुत्पधन्ते ? गौतम ! आत्मद्धर्षव समुत्प. धन्ते न परद्धर्श समुत्पद्यन्ते । हे भदन्त ! ते जीवा आत्मकर्मणा समुत्पद्यन्ते परकर्मणा वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मक्रमणैव सगुत्पद्यन्ते न परकर्मणा समुत्प पलवान पुरुष जैसा कि चौदहवें शतक के प्रधान उद्देशक में कहा गया है उसके अनुसार वे लारक तीन समयवाली विग्रहमति से यहां नरकावास में उत्पन्न हो जाते हैं ऐसी उनकी तीव्रगति होती है और उस तीव्र गति का ऐसा विषय होता है। हे भदन्त ! वे नारक परभव की आयु का पन्ध कैसे करते हैं ? हे गौतम अध्यवसाययोग से निर्वर्तित करणोपाय से वे नारक परभव की आयु का बन्ध करते हैं । हे भदन्त ! उन नारक जीवों की गति किस कारण से होती है ? हे गौतम ! उनकी गति आयु के क्षय से भय के क्षय से और स्थिति के क्षर से होती है । है भदन्त । वे जीव क्या आत्मद्धि से उत्पन्न होते हैं ? या पद्धि से उत्पन्न होते हैं? हे गौतम ! वे आत्मद्धि से उत्पन्न होते हैं परद्धि से नहीं हे भदन्त ! वे जीव क्या आत्म कर्म से उत्पन्न होते हैं या परकर्म से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे नारस जीव आत्मकर्म से ही उत्पन्न होते हैं पर. વિષય કે હોય છે? હે ગૌતમ જેમ કઈ બલવાન પુરૂષ જેમ કે-ચૌદમા શતકને પહેલા ઉદ્દેશામાં કથન કરવામાં આવેલ છે તે અનુસાર તેવા નારા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં નારકાવાસમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે એવી તીવ્ર ગતિ તેમની હેાય છે અને એ તીવ્રગતિને એ વિષય હોય છે. હે ભગવનું તે નારકે પરભવના આયુષ્યને બંધ કેવી રીતે કરે છે? હે ગૌતમ! અધ્યવસાય
ગથી નિવર્તિત કરણના ઉપાયથી નારકો પરભવના આયુષ્યને બંધ કરે છે તે ભગવન તે નારક જીવની ગતિ ક્યા કારણથી હોય છે? હે ગૌતમ ! તેઓની ગતિ આયુના ભયથી ભવના ક્ષયથી અને સ્થિતિના ક્ષયથી થાય છે. હે ભગવન તે જ શું આમઝદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પરત્રદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તેઓ આત્માદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે. પશ્ચિમી ઉત્પન્ન થતા નથી. હે ભગવન તે જ આત્મકમંથી ઉત્પન થાય છે? ચ થવ પરકર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ તે નારક છે પિતાના કર્મથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. પર
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प्रमैयबन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ सू०१ कृष्णलेश्याश्रित नै. उत्पातादिकम् १८५ धन्ते । हे भदन्त । ते जीवा आत्मप्रयोगेण समुत्पद्यन्ते परमयोगेग वा समुत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मपयोगेण समुत्पद्यन्ते न परप्रयोगेण समुत्पद्यन्ते । एतदाश येनैवाह-'जात्र नो परपोगेणं उज्जति' इति । 'नवरं उववाओ जहा वकंतीए धूमपदभा पुढपी मेरइयाणं' लबरम्-केवलमुपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनाया: षष्ठपदे येन रूपेणोपपावः कथित स्तेनै वरूपेणोपरातो धूम बना पृथिवी नैरयिफाणां ज्ञातव्यः, एतदेवौधिकामापेक्षा चैलक्षण्यम् अन्यत्सर्वमौधिकगमवदेवेति भावः । अत्र कृष्णलेश्यायाः प्रकरणम् , सा च धूपप्रभायां भरतीति, तत्र संशि
म से नहीं ! हे भदन्त ! के नारक जीव क्या आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं या परपयोग से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे जीप आत्म प्रयोग से ही उत्पन्न होते है परमयोग से नहीं। यहां तक का यह सय प्रकरण जो कि औधिक नारक के प्रकरण में कहा गया है यहां पर भी वही प्रकरण कहना चाहिए, इसी आशय को लेकर सत्रकार ने 'जाव नो परप्पओगेणं उववज्जति' ऐसा सूत्रपाठ कहा है। परन्तु औधिक 'नारक प्रकरण की अपेक्षा इस प्रकरण में जो विशेषता है वह एक उम्पाद 'परिमाण में है-यही बात-'नवरं उववाओ जहा वक्कंतीए धमप्पभा पुढवी नेरल्याणं' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है । अर्थात् प्रज्ञापना सूत्र के ६४ व्युत्क्रान्ति पद में जिस रूप से धूमप्रभा पृथिवी नैरयिकों का उत्पात कहा गया है उसी रूप से वह उत्पाद यहां पर भी कृष्ण लेश्यावाले नैरयिकों का कहना चाहिये, बाकी का और सब कथन औधिक गम के जैसा ही है। यहां कृष्णलेश्या का प्रकरण है । यह कृष्णलेश्या કર્મથી નહીં હે ભગવન તે નારક જીવે શુ આત્મ પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થાય છે ? હે ગૌતમ ! તે જીવે આત્મપ્રગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી આ કથન સુધીનું આ સઘળું પ્રકરણ કે જે ઓધિક નારકના પ્રકરણમાં કહેલ છે, તે જ પ્રકરણ અહિયાં પણ सभा. मा मभिप्रायथी सूत्र१२ 'जाव नो परप्पओगेण उबवज्जति' मा પ્રમાણેને સૂત્રપાઠ કહ્યો છે. પરંતુ વિક નરક પ્રકરણના કથન કરતાં આ પ્રકરણમાં જે વિશેષપણુ છે, તે એક ઉપાદ અને પરિણામમાં જ છે. से बात 'नवरं उबवाओ जहा वक तीए धूमप्पभा पुढवी नेरइयाणं' मा सूत्र. પાઠદ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. અર્થાત્ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં જે પ્રમાણે ઉત્પાદના સંબંધમાં કથન કરેલ છે. તે જ પ્રમાણેને તે ઉત્પાદ અહિયાં પણ ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નૈવિકેના સંબંધમાં કહે જોઈએ. બાકીનું બીજ સઘળ કથન ઔદિક ગમના કથન પ્રમાણે છે અહિયાં કૃષ્ણલેશ્યાનું પ્રકરણ
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भगवती सूत्रे
सरीसृपक्षिािन् विहाय तदितरे एक समुत्पद्यते, अब स्वब ये जी ॥ उत्पद्यन्ते तेषामेवोत्पादः पठनीय इति । 'सेसं तं चैव' शेषम् - उपपातव्यतिरिक्तं सर्वे तदेव औधिवदेवेति भाव: । 'धूमप्पमा पुढनी कण्हलेस्स खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाण संते ! कओ उत्रवज्जंति' धूननमा पृथिवीकृष्णलेश्पक्षुल्लक कृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त कुमः कस्मात् स्थानविशेषादागत्य समुद्यन्ते ? इवि प्रश्नः । उत्तरमाह - ' एवं चेत्र' इत्यादि, 'एवं चेव निरवसेसं' एवमेव-औधिकगमवदेव निश्वशेषं ज्ञातव्यम् इति । ' एवं तमाए वि अहे सत्तमा ए वि एवं धूममभा पृथिवी सम्बन्धि कृष्णचेश्य क्षुल्लकनारकविषये यथा कथितं तथैव तमारूपपृष्ठ नारकपृथिवीसम्बन्धि नारकविपयेऽपि एवं पूर्ववदेव अधः सप्तम्यामिति, धूमप्रभा आदि में होती है, यहां असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी एवं सिंह इनका उत्पाद होता नहीं है अतः इन्हें छोड़कर बाकी के जीव यहां उत्पन्न होते हैं । इसलीए जो जीव यहां उत्पन्न होते हैं उनका ही यहाँ उत्पाद कहना चाहिये, 'सेसं तं चेत्र' इस प्रकार उत्पाद के सिवाय और स कथन औधिक गम के जैसा ही यहां पर जानना चाहिये, इसीलिए धूमप्पभा पुढवी कण्हलेस्स खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते! कओ उववज्जंति 'इस प्रश्न का उत्तर प्रभुश्री ने 'एवं चेव निरवसेसं' इस सूत्र पाठ द्वारा दिया है । ' एवं तमाए वि अहे सत्तमाए वि' इसी प्रकार का कथन तमःप्रभा में भी और अधःसप्तमी पृथिवी के नारकों के सम्न्ध में भी जानना चाहिये, परन्तु प्रज्ञापना के ६ठे व्युत्क्रान्ति पद में जैसा यहाँ नारकों का उत्पाद कहा है वहां वैसा ही छे, या दृष्णुचेश्या धूमप्रलाभां होय छे. मडियां असंज्ञी, सरीसृप, (સર્પ) પક્ષી અને સિ’હું આટલ્રાને ઉત્પાદ થતા नथी. તેથી આટલાને છેડીને ખાકીના જીવે અહિયાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જે જીવેા मडियां उत्पन्न थय छे तेमोन उत्पादन अडियां वाले 'सेसं त' ચૈત્ર’ આ રીતે ઉત્પાદના કથન શિવાય બાકીનુ સઘળું કથન ઔદ્યિક ગમના अथन प्रम४ मडियां समन्धुं तेथी. 'धूमप्पभा पुढत्री कण्हलेस्स खुड्डा - कम्मरइयाण भने ! कओ उववज्जति' આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરેલ છે. આ 'प्रश्नना उत्तरमां ' एवं ' 'चेव निरवसेसं' या प्रभा अनुश्री मे छे. 'एव' तमाए वि अहे सत्तमाए वि' मात्र प्रभाषेनु' उथन तमः प्रलाथी वर्धने अधःसप्तमी પૃથ્વી સુધીના નારકેાના સંબંધમાં પણ સમજવું, પરંતુ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં છઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પટ્ટમાં જે પ્રમાણે જ્યાં નરકના ઉત્પત કહ્યો છે, ત્યાં એજ प्रभा उत्पात वाले.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ १०१ कृष्णलेश्यानित नै. उत्पातादिकम् १८३ सप्तमनारक पृथिवी सम्बन्धि नार केऽपि सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'नवर उव. पाओ सम्वत्थ जहा वक्तीए नवर' वैलक्षण्यं केवलमुपपातो यथा व्युत्क्रान्ती मापनायाः षष्ठपदे कथित स्तथैव ज्ञातव्य इति । 'कण्हलेस्स खुड्डाग तेओग मेरइयाणं भंते ! को उववनंति' कृष्णलेश्य क्षुल्लकन्योजनैरयिकाः खल भदन्त ! कुतः कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'एवं चेव' एवमेव एवं-यथा पूर्वप्रकरणे उपपागदिः कथित स्तथैव इहापि सातव्यः । केवलं परिमाणविषये वैलक्षण्यं विद्यते तदर्शयति-णिवरं' इत्यादि, ''णवरं तिन्नि वा, सत्त वा, एक्कारस वा, पनरस वा, संखेज्जावा, असंखेज्जावा' नवरत्रयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदा चा, संख्याता वा, असंख्याता वा ते जीवा एकसमयेन समुत्पद्यन्ते नरकावासे 'सेसं तं चेव' शेपं परिमाणातिरिक्तं सर्वं तदेव औधिकारणकथितमेव । ‘एवं जाव अहे सत्तमाए वि' एवं यावद् उत्पाद कहना चाहीये, कण्हलेस्स खुड्डाग तेभोग नेरइयाणं भंते !! हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले क्षुद योजराशि प्रमाण नैरयिक कहां से
आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम ! पूर्व प्रकरण में जैसा कथन उत्पात आदि के सम्बन्ध में किया गया है उसी प्रकार का कथन यहां पर भी जानना चाहीये । परन्तु 'णवरं तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरसवा संखेज्जा वा असंखेनावा' यहां तीन अथवा सात या ११ या १५ या संख्यात या असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं 'सेसं तं चेवर इस प्रकार परिमाण से अतिरिक्त और सब कथन औधिक प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहीये । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' वि' और ऐसा ही सब कथन यावत् सातवी पृथिवी तक जानना चाहिये,
कण्हलेस्स खुडाग ते ओग नेरइया णं भते । मगर एसेश्यावा શુ જરાશિ પ્રમાણે નૈરયિકે જ્યાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે ?
मा प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'एवं चेव' के गौतम ! मागा પ્રકરણમાં ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે,
शतः मुथन मडियां ५Y समा. परंतु 'णवर तिन्नि वा सत्त वा एकारस वा पन्नरस वा सखेज्जा वा असंखेज्जा वा' महियांत्र अथवा सात मथवा અગિયાર અથવા પંદર અથવા સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત નરયિકે ઉત્પન્ન थाय छे. 'सेन त चेव' । परिणाम द्वा२ शिवाय माडीनुसघणु ४थन
मोबिल ४२मा प्रभारी वामां आवे छे, मे प्रमाण समर'. 'एवं . जाव अहे सत्तमाए' वि' मन मा प्रभानु सघणु थन यावत् सातमी
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भगवतीमंत्रे
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अधः सप्तम्यामपि सामान्यतः कृष्णलेइयक्षुल्लक योजनारकाणामुपपातः परिमाणश्च सामान्यतो दर्शित तथैव धूमपमा पृथिवीतमापृथिव्यधः सप्तमी पृथिश्री विद्यमानानां कृष्णश्यक योजनारकाणामपि उपपातपरिमाणादिकं सर्वमपि ज्ञातव्यमिति भावः । ' कण्हलेस खुड्डागदावरजुम्मनेरइयाणं भंते । कओ उदवज्जंति' कृष्ण केश्शुल्ककद्वापरयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त । कुतः - कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यन्ते ? इति उत्पादादिविषयक प्रश्न', भगवानाह - ' एवं चेव' एवं कृतयुग्मनारकादीना मुपपावादिविषये अधिक मकरणे यत् कथितं तदेव सर्वम् इहापि अनुसन्धेयमिति । 'नवर' दोवा, छ बा, दस वा चोस वा सेसं तं चैव' नवर केवलम् परिमाणे वैलक्षण्यं पूर्वमररणाअर्थात् कृष्णलेश्याचाले क्षुल्लक पोज नारकों का उत्पाद और परिमाण जैसा सामान्य से प्रकट किया गया है उसी प्रकार से धूमप्रमा पृथिवी तमप्रमापृथिवी और सातवी अधालसभी इनमें विद्यमान कृष्णलेड्यावाले क्षुल्लक योजनारकों का भी उपपात परिमाण आदि सब जानना चाहिये ।
'कण्हलेस्स खुड्डाग दाचरजुम्म नेरहयाणं भंते ! कओ उववज्जंति' हे भदन्त ! कृष्णश्यावाले क्षुद्रद्वापरयुग्म प्रमाण नैरधिक किस स्थान से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? ऐसा यह प्रश्न उत्पाद दि विषयक है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' एवं चेव' हे गौतम! जैसा कृत युग्म नारकादिकों के उत्पाद आदि के विषय में औधिक प्रकरण में कहा गया है वही सब यहां पर भी कहना चाहिये । 'नवरं दो वा, छ वा, दसवा चौद्दमवा सेसं तं चेच' परन्तु पूर्व प्रकरण की अपेक्षा परि
પૃથ્વી સુધી સમજવું. અર્થાત્ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક ચૈાજ નારકોના ઉત્પાદ અને પરિણામ જેમ સામાન્ય રીતે કરેલ છે એજ પ્રમાણે ધૂમપ્રભા પૃથ્વી, તમ:પ્રભા પૃથ્વી, અને સાતમી તમઃતમા પૃથ્વીમાં રહેનારા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લકઐાજ નારકાના સંબંધમાં પણ ઉપપાત, પરિણામ વિગેરે સંબ ધીં કથન સમજવું.
' कण्हलेस खुइडागदावरजुम्मनेरइया ण भवे ! कओ उववज्जंति' डे ભગવન કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા ક્ષુદ્રદ્વાપર યુગ્મ પ્રમાણુ નૈરયિા કયા સ્થાનમાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રમાણેના ઉત્પાદ વિગેરેના સબ ધર્માં ગોતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પ્રશ્નકર્ચી છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे - ' एवं चेत्र' हे गीतम । श्रुतयुग्न नार વિગેરેના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયમા ઔધિક પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં मावेस छे, मेस स्थन मडियां च अहेवु ले थे. 'नवर' दोषा छ वा चोहस्रवा सेस' त' 'चेव' परंतु पडेलाना अरथुनी अपेक्षाथी परिलाभभां मे
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प्रमेन्द्रका टीका श०३१ उ. २ सू०१ कृष्णलेश्याश्रित नै. उत्पातादिकम् १८५ पेक्षया इदम्, यत् एकसमये ते नारकाः द्वौ वा, पट् वा, दश वा, चतुर्दश वा संख्याता वा, असंगता वा समुत्पद्यन्ते । एतदन्यत्सर्वं पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् । 'धूमप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाएं' यथा सामान्य तो नरकावासे समुत्पद्यमानानां परिमाणादिः कथितः कृष्णलेय क्षुल्लकद्वापरयुग्मनारकाणां तेनैव रूपेण धूमप्रभायां पञ्चमी पृथिव्यां तमायां षष्ठपृथिव्यामघःसमी पृथिव्यामुत्प द्यमानानामपि कृष्णलेश्यद्वापरयुग्मप्रमाणकानां नारकाणामुपपातपरिमाणादिकं सर्वमपि ज्ञातव्यमिति भावः । ' कव्हलेस्स खुड्डागकलिओगनेरहयाणं भंते ! कओहिंतो उववज्र्ज्जति' कृष्णलेश्य क्षुल्लककल्यो जनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुतः कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यते ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'एव' चैत्र' इति 'एवं' चैत्र' एवमेत्र - यथा कृष्णलेश्य क्षुल्लक कृयुग्मनारकाणामाण में भिन्नता ऐसी है कि यहां पर एक समय में वे नारक दो अथवा छह, या दश, वा चौदह या संख्यान या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इसके सिवाय और सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही है । 'धूमप्पभाए विजाव अहेसत्तमाए' जैसा सामान्य से नरकावास में उत्पद्यमान कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लकद्वापरयुग्म नैरथिकों का परिमाण आदि कहा गया है उसी प्रकार से वह सब उत्पात परिमाण आदि कृष्ण लेइयावाले क्षुल्लक द्वापरयुग्म नैरयिकों का धूमप्रभा से लेकर यावत् अधःसप्तमी पृथिवी में भी कहना चाहिये ।
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'कण्हलेस खुड्डाग कलियोग नेरइयाणं भंते! 'कओर्हितो उवजंति' हे भदन्त | कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कल्योज प्रमाण युक्त नैरधिक कहां से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' एवं ' चेव' हे गौतम | जैमा कृष्णलेइयावाले क्षुल्लक પ્રમાણેનુ જુદા પણું છે. કે—અહિયા એક સમયમા તે નારકા એ અથવા છ અથવા દસ અથવા ચૌદ અથવા સ ખ્યાત અથયા અસ`ખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે આ શિવાય ખા'નુ' ખીજું સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે. 'धूमपभाए विज्ञाव अहे खत्तमाए' सामान्य यो नरभवासभां उत्पन्न थवाવાળ કૃષ્ણવેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લકદ્વાપર યુગ્મ નૈરયિકાના પરિણામ વિગેરેના સમધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામા આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે તે ઉત્પાદ પરિણામ વિગેરે સઘળું કથન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લકદ્વાપર યુગ્મ નૈરિયકનું ધૂમપ્રભા પૃથ્વીથી લઈ ને યાવત્ અધઞપ્તમી પૃથ્વી સુધી કહી લેવુ.
'कण्हलेस्स खुड्डागकलि ओगनेरइयाणं भंते । क प्रोहि॑ितो उववज्जति' હું ભગવન કૃષ્ણલેસ્યાવાળા ક્ષુલ્લકયેાજ પ્રમાણુવાળા નૈરિયકે કયાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને
भ० २४
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भगवतीस्त्र . 'मुपपातादिः कथित र तेनैवरूपेण कृष्णलेश्यक्षुल्लककल्योज प्रयाणयुक्तनारका
णामपि उपपातादिको ज्ञातव्यः । किन्तु क्षुल्लककृतयुग्मनारकापेक्षया यद्वैलक्षज्य • ताश चल्योजनमाणकनारकस्य विद्यते तदर्शयति-'णवरं' इत्यादिना, पर "एको वा, पंच वा, नब बा, तेरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा' नवर' केवल 'मेको वा पञ्च वा, नव वा, प्रयोदश चा, संख्याता वा, असंख्याता वा नारको • एकसमये नरकावासे समुत्पयन्से 'सेसं तं चेव' शेष परिमाणातिरिक्त सर्वमपि रदेव-कृतयुग्मनारकवदेव ज्ञातव्यमिति । 'एवं धूमप्पभाए वि तमाए वि अहे सत्तमाए वि एवं सामान्यतः कृष्णलेश्य क्षुल्लककल्योजनारकाणां यथा उप. “पातादिः कथित रतेनैव रूपेण धूमप्रभायां पञ्चमनारकपृयिव्यामपि कृश्णलेश्य कृतयुग्म नारकों का उत्पात आदि कहा गया है वैसा ही कृष्णलेश्या चाले क्षुल्लापल्योज प्रमाण युक्त नारकों का भी उपपात आदि जानना बाहिये। किन्तु क्षुल्लक कृतयुग्म नारकों की अपेक्षा जो क्षुल्लक कल्पोज प्रमाण युक्त नारकों में अन्तर है वह 'नवर एक्कोवा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है, तथाच वहां वे नारक एक समय में एक अथवा पांच, या नो या तेरह या संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। सेस तं चेव' परिमाण से अतिरिक्त और सब कथन कृतयुग्म नारकों के जैसा ही जानना चाहिये । 'एवं धूमप्पभाए वि तमाए वि अहे सत्तमाए वि'
सामान्य से कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कल्योज प्रमाणयुक्त नारकों के जैसा र उपपात आदि कहा गया है उन्ली रूप से पंचमनारक पृथिवी जो धूमप्रभा
छ छ ,-'एवं चेत्र' गौतम ! वेश्यापार क्षु कृतयुभ नाना સંબંધમાં જે પ્રમાણે ઉત્પાદ વિગેરેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન કૃણલેશ્યાવાળા કલ્યાજ પ્રમાણુવાળા નારકેના સંબંધમાં પણ ઉપપાત વિગેરે સંબંધી કથન સમજવું.
‘પર તુ શુલિક કૃયુમ નારકે કરતાં ભુલક કાજ પ્રમાણવાળા નારકોના ४यनमा ३२३२ छ, ते 'नवर एको वा पंच वा नत्र वा तेरसवा सखेज्जा वा असंखेज्जा वा' मा सूत्रपा४थी प्रगट ४२१ छ. तथा त्यो त नार। मे। સમયમાં એક અથવા પાંચ અથવા નવ અથવા તે૨ અથવા સંખ્યાત અથવા
सध्यात त्पन्न थाय छे. 'सेस त चेव परिणाम द्वारथी अन्य मानु सघणु ४थन कृतयुभ ना२ना ४थन प्रभाथे सभा'. 'एवं धूमप्पभाए वि .. तमाए वि अहे सक्तमाए वि' सामान्य वेश्या क्षुदा ४८या प्रमाणात નારકના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન તેમના ઉપપાત વિગેરે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ सू०१ कृष्गलेश्याश्रित नै. उत्पातादिकम् १८७० क्षुल्लककल्योजनमाणकनारकाणामपि उपपारपरिमाणादिः ज्ञातव्यः । एवमेव क्रमेण तमायां षष्ठनार कपृथिव्यामपि नारकाणामुपपानादि तिव्यः तयैव अधासप्तम्यां सप्तमनारकपृथिव्यामपि उपपातादिदेणनीयो नारकाणामिति । यधपि परिमाणे संख्याता असंख्पाता इति कथितं तथापि कृतयुग्ममकरणे संख्याता अपि चतुरवशिष्टा एक, योजे पशिष्या एव द्वयवशिष्टा एका वशिष्टा एव संख्याताः असंख्याताश्चेति । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति हे भदन्त | कृष्णलेश्य क्षुल्लककृतयुग्मादि नारका णामुपपातादिविषये यद् देवानुप्रियेण कथितं तदखिलमपि एवमेव सर्वथा सत्यहै उप्तमें भी कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक करघोज प्रमाणयुक्त नारकों का भी उपपात एवं परिमाण आदि कहना चाहिये। इसी क्रमासे ६वी तमा नाम की पृथिवि में भी नारकों का उपपात आदि जानना चाहिये।
और इसी प्रकार सातवी अधासप्तमी तमस्तमा नारक पृथिवी में भी नारकों का उपपात आदि जानना चाहिए । यद्यपि परिमाण में संख्यात और असंख्यात ऐसा कहा गया है तो भी कृतयुग्म प्रकरण में सं. ख्यात असंख्यात भी चतुर चिशिष्ट ही होते हैं और व्योज में वे तीन अवशिष्टवाले ही द्वापरयुग्म में वे दो अवशिष्टवाले ही और कल्पोज में वे एक अवशिष्टवाले ही संख्यात एवं असंख्यात होते हैं। 'सेव भंते ! सेव भंते । त्ति' हे भदन्त ! कृष्णलेश्या युक्त क्षुल्लक कृतयुग्म राशिवाले नारकों के उत्पात आदि के विषय में जो आप देवानुप्रियने સંબંધી કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન પાંચમીનારક પૃથ્વી કે જે ધૂમપ્રભા છે, તેમાં પણ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા શુકલક કલ્યાજ પ્રમાણવાળા નારકેના ઉપપાત પરિણામ વિગેરે સંબંધી કરવું જોઈએ. આજ કમથી છઠી તમા નામની નારક પૃથ્વીમાં પણ નારકને ઉ૫પાત વિગેરે સમજ. અને આજ પ્રમાણે સાતમી અધસપ્તમી તમસ્તમાં નારક પૃથ્વીમાં પણ નારકોના ઉ૫પાત વિગેરેના સંબંધમાં કથન સમજવું. જો કે પરિણામમાં સખ્યાત અને અસર ખ્યાત એ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તે પણ કૃતયુગ્મ પ્રકરણમાં સંખ્યાત અને અસંખ્યાત પણ ચાર વિશિષ્ટજ હોય છે. અને જરાશિમાં ત્રણ શેષવાળા, દ્વાપરયુગ્મમાં બે શેષવાળા, અને કાજમાં એક શેષવાળા જ સંખ્યાત અને અસંખ્યાત હોય છે.
__'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' लगवन् वेश्यावामा क्षुद तयुग्म વિગેરે રાશિવાળા નારકના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિચે
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भगवतीस्त्र ટી. मेवेति कविता गौतमो भगवन्त बन्दते नमस्पति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन सपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥म० १ । ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा- . कलितललितकलापालापकाविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्माषक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालव्रतिविरचितायां श्री “भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां एकत्रिंशत्तमे शतके
द्वितीयोदेशकः समाप्तः॥३१-२॥ कहा है वह लब सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतम ने भगवान को बन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप ले आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।०१।।। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके एकतीसवें शतकका
॥द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ જે કથન કરેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું તે કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરી તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂત્ર જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકનો બીજો ઉદેશે સમાપ્ત ૩૧-રા
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प्रमेयद्रिका टीका (०२१ उ. ३ ८०१ नीललेश्याश्रित नै. उत्पादिकम् १८९ अथ तृतीयोदेशकः प्रारभ्यते
कृष्णलेश्याश्रितं द्वितीयोदेशकं व्याख्याय क्रमप्राप्त ं नीललेश्याश्रयं तृतीयमुदेशकमारभते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्य तृतीयोदेशकस्येदं सूत्रम् -' नीळलेस्स खुड्डागकडजुम्म' इत्यादि ।
. मूलम् - नीललेस्स खुड्डाकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डा (गकडजुम्मा | नवरं उववाओ जो वालुयपभाए, सेसं तं चैव । वालुयप्पभा पुढवी नीलले खुड्डा गकडजुम्मनेरइया एवं चैव । एवं पंकप्पभाए त्रि । एवं धूमप्पभाए वि । एवं चउसु वि जुम्मेसु । नवरं परिमानं जाणियव्वं । परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए, सेसं तव । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥ सू० १॥
एक्कत्तीस मे सर तइओ उद्देसो समत्तो ॥ ३१-३॥
?
छाया--नीललेश्य क्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पयते ? एवं यथैव कृष्णलेश्य क्षुल्लक कृतयुग्माः । नवरमुपपातले यो वालुकाप्रभायास् शेषं तदेव । वालुकापभापृथिवीनीललेश्य क्षुल्लक कृतयुग्मनैरयिका एवमेव । एवं षङ्कपमायामणि, एवं धूपमायामपि एवं चतुर्ष्वपि युग्मेषु, नवरं परिमाणं ज्ञातव्यम्, परिमाणं यथा कृष्णलेश्पोदेशके, शेषं तदेव । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ॥ सू० १ ||
sa एकत्रिंशत्तमे शतके तृतीयदेशकः समाप्तः ॥ ३१-३॥ टीका -- तृतीयोदेशकन्तु नीललेश्याश्रयकः नीललेश्या व तृतीयचतुर्थपञ्च शतक ३१ उद्देशक ३-
कृष्णश्याश्रित द्वितीय उद्देशक की व्याख्या करके अब क्रम प्राप्त Areasure तृतीय उदेशक प्रारम्भ किया जाता है, इसका यह प्रथम सूत्र हैं 'नीललेस खुड्डाग कडजुम्म' इत्यादि
टीकार्थ - - यह तृतीय उद्देशक नीललेश्याश्रमवाला
| नीललेश्या
એકત્રીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશાના પ્રાર ભ~~
કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા ખીજા ઉદ્દેશાનુ કથન કરીને હવે કમથી આવેલ આ નીલसेश्या युक्त श्री उद्देशाना आरंभ अश्वामां आवे छे. 'नीलखुड्डाग कडजुम्म' इत्यादि
ટીકા આ ત્રીજો ઉદ્દેશેા નીલલેશ્યા યુક્ત છે. નીલલેશ્યા ત્રીજી ચેાથી
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भगवतीपत्र मीप्वेव नारकपृथिवीषु भवतीत्यतोऽन सामान्यदण्ड कः तथा तृतीय चतुर्थपञ्चमी पृथिवीदण्डको भवतीति 'नीललेरसखुड्डागाडजुम्मनेरइया णं भंते ! नील. लेश्यक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! 'को उपवज्जति' कुत:कस्मात् स्थानविशेषादागत्योत्पधन्ते ? इति प्रश्ना, भगवानाह-एवं जहेव' इत्यादि, ‘एवं जहेत्र कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मा' एवं यथैव कृष्णलेश्यालकक कृतयुग्माः यथा द्वितीयोद्देशके कृष्गलेश्य क्षुल्लक कृतयुग्मममाणकजीवाना. मुत्पादः कथित स्तेनैव रूपेग नील लेश्यक्षुल्लककृतयुग्मप्रमाणकजीवानामुपपातादि वक्तव्य इति । 'लबरउववाओ जहा वालयप्पभाए' नवरं केवलमुपपातो यथा वालुकाप्रभायाम् , अत्र खल नीललेश्या प्रक्रान्ता सा च नीळलेश्या बालु. तृतीय चतुर्थ और पंचमी नारक पृथिवी में ही होती है । इसलिये यहां एक लामान्य दण्डक है । तथा तृतीय चतुर्थ और पंचमी पृथिवी के आश्रित तीन दण्डक हैं।।
'नीललेस्स खुड्डाग कडजुम्म नेरयाणं भंते ! कओ उपवज्जति' हे भदन्त ! नीललेघावाले क्षुल्लक कृमयुग्मराशि संपन्न नैरयिक किस स्थान विशेष ले आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेव कण्हलेस्त खुड्डाग कडजुम्न' हे गौतम! जिस प्रकार से द्वितीय उद्देशक में कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाण संपन्न जीवों का उत्पात आदि वक्तव्य हुआ है उसी प्रकार से यहां नीललेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाण युक्त जीवों का उत्पात
आदि भी वक्तव्य हुआ है। 'नवर उववाओ जहा बालुपमाए' परन्तु विशेष यह है कि बालुकाप्रभा में जैसा उपपात कहा गया है वैसा ही उपपात यहां पर कहना चाहिये, यहां नीलले या प्रक्रान्त है। यह
અને પાંચમી નારક પૃથ્વીમાં હોય છે. તેથી અહિયાં એક સામાન્ય દંડક કહેલ છે. તથા ત્રીજી, ચોથી અને પાંચમી પૃથ્વી સંબંધી ત્રણે દંડકે કહ્યા છે. - 'नीललेस्वखुड्डागकडजुम्मनेरइयो णं भते । कओ उववज्जति' ભગવદ્ નીલલેશ્ય ક્ષુલ્લક કૃતયુગ્મ રાશીવાળા નરયિકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે। 'एव. जहेव कण्हलेस बुड्डागकडजुम्म' गीतम!प्रभारी भी देशमा કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભુલકકૃતયુગ્મ પ્રમાણવાળા જીના ઉત્પાદના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં નીલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક કૂતયુગ્મ प्रभाव वाना पा विगैरे समयमा डी . 'नवरं उबवाओ जहा वालुयप्पभाए' ५२'तु मडिया विशेषा से छे ?-वायुप्रभा पृथ्वीमा रे પ્રમાણેને ઉપપાત કહ્યો છે, એ જ પ્રમાણેને ઉપપાત અહિયાં પણ સમજો.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.३ सू०१ नीलले श्याश्रित नै. उत्पातादिकम् .१९१ काप्रभायां मारक पृथि भवतीति तत्र वालुकाममायां ये जीवा उत्पधन्ते तेषा - मेघात्र उत्पादो वक्तव्य रते जीवा असंज्ञि सरीसृपवर्जिता भवन्तीति । कृष्णडेश्य क्षुल्लककृतयुग्मजीवानां व्युत्क्रान्त्या व्युत्क्रान्तिपदं प्रज्ञापनायाः षष्ठं पदम् , तस्यानुसारेणोपपात: कथित इह तु बालुकापभायामिवोपपातः कथित एतदेवोभयो _लक्षण्यं भवतीति । 'सेसं तं चैव' शेपमुपपातातिरिक्तं सर्व परि'माणादिकं तदेव कृष्णलेश्यक्षुल्लककृतयुग्मजीवर देव ज्ञातव्यमिति । 'चालय. प्पभापुढवी नीललेस्स खुड्डाग कडजुम्मनेरइया एवं चे' वालुकाममापृथिवी नीललेश्यक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिका एवमेव वालुकाममाश्रित नीललेश्य कृतयुग्मनारकाणामपि वक्तव्यता औधिकनीकलेश्यकृतयुग्मनारकवदेव ज्ञातव्याः। 'एवं पंझप्पभाए वि धूमप्पभाए चि' एवमेव यथा बालुकापभाश्रित नीललेश्य नललेश्या तृतीय नारफपृथिवी बालुका आदि में होती है इसलिये बालुकाप्रभा में जो जीव उत्पन्न होते हैं। उनका ही यहां उत्पाद कहना चाहिये यहां असंज्ञी और सरीसृप ये जीव उत्पन्न नहीं होते हैं इनके सिवाय बाकी के जीव उत्पन्न होते हैं। कृष्णसेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्मराशि संपन्न जीवों का प्रज्ञापना के छठा व्युत्क्रान्ति पद में धूमप्रभा पृथिवी के कथन अनुसार उत्पान कहा गया है। परन्तु यहाँ बालु काप्रभा के अनुसार उपपात कहा गया है। यही दोनों में विलक्षणता है। 'सेस तं चेव' उपपात से अतिरिक्त और सब परिमाण आदि का कथन कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म जीवों के जैसा ही है। 'बालुपप्पभापुढवी नीललेस्स खुड्डागकड. जुम्म नेरइया एवं चेव' बालुका प्रमाश्रित नील लेश्यावाले कृतयुग्म राशि અહિયાં નલલેશ્યાપદ યુક્ત તે કથન કહેવાનું છે. આ નલલે ત્રીજી નારક પૃથવીવાલુકા પ્રભામાં હોય છે. તેથી વાલુકાપ્રભામાં જે જી ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓનો જ ઉત્પાત અહિયાં કહેવું જોઈએ. અહિયાં અસંજ્ઞી, સરીસૃપ (સર્પ) અને સિ હ આ જી ઉત્પન્ન થતા નથી. આમના શિવાય બાકીના જી ઉત્પન્ન થાય છે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા શુકલક કૃતયુમવાળા જીવે ને ઉત્પાદ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠ્ઠા બુકતિ પદમાં કહ્યો છે પરંતુ અહિયાં વાલુકાપ્રભામાં કદા પ્રમાણે ઉપપાત કહેલ છે આજ તે કથન કરતાં આ કથનમાં વિશેષ पा छ. 'सत चेव' ५५ातन थत शिवाय पीना परिणाम विरे સંબધી કથન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક કૃયુ... જેના કથન પ્રમાણે જ છે. 'वालुयप्पभा पुढवी नीललेस्स खुड्डागकडजुम्मनेर इया एवं चेव' पाjal યુક્ત નિલલેશ્યાવાળા કૃતયુમરાશી પ્રમાણુ યુક્ત નારકેનું કથન પણ કૃષ્ણ श्यावाणा तयुग्म २।११प्रमाणुवा ना२३१ना ४थन प्रमाणे छे. 'एवौंपक
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भगपती क्षुल्लककृतयुग्मनारकस्य वक्तव्यता तथैव पद्धपमा नारकपृथिव्या धूमममा पृथिच्याश्रितनारकाणामपि वक्तव्यता ज्ञातव्या । ‘एवं च उसु वि जुम्मेमु' एवम् क्षुल्लककृतयुग्णवदेव चतुर्वपि युग्मेषु कृतयुग्मयोजद्वापरयुग्मल्योजरूपेष्वपि नीललेश्यनारकाणां वालुकाममा पङ्खामा धूमप्रभा तृतीयचतुर्थपञ्चमी पृथिव्या. श्रितानां वक्तव्यखा ज्ञातव्या । 'नवर परिमाणं जाणियध्वं' नवरं केवलं परिमाणं मिन्नभिन्नरूपेण तत्तत् युग्मे ज्ञातव्यं चतुरष्टद्वादश प्रभृति क्षुल्लक कृतयुग्मादि
रूपं ज्ञातव्यमित्यर्थः । परिमाणं तत्तद्युग्मं ज्ञातव्यमिति तत्र केन रूपेण ज्ञातव्यम् , तत्राह-'परिमाणं' इति, 'परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए' परिमाण यथा ' प्रमाण युक्त नारकों की भी वक्तव्यता औधिक नीललेश्यावाले कृतयुग्म
राशि प्रमाणयुक्त नारको के जैस्ली ही है। एवं पंऋपभाए विधृमप्पभाए घि' जैसी बालुकाप्रमाश्रित नीललेश्य क्षुल्लक कृतयुग्मवाले नारक की वक्तव्यता है वैसी ही वक्तव्यता पङ्कप्रभा नारक पृथिवी के और धूमप्रापृथिवी के नारकों की भी है । 'एवं चउसु विजुम्मेसु क्षुल्लक कृतयुग्म के जैसा ही चारों युग्मों में-कृतयुग्म, योज, द्वापर और कल्पोज-इन युग्मों में भी बालुकाप्रमा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा इन तीन पृथिवियों के आश्रित हुए नीललेश्यावाले नारक जीवों की वक्तव्यता जाननी चाहिए । 'नवर परिमाणं जाणियन्वं' परन्तु उस-उस युग्म में परिमाण भिन्न-भिन्न रूप से जानना चाहिये । और वह परिमाण चार, आठ, बारह आदि क्षुल्लक कृतयुग्मादि रूप होता है ऐसा सम. जना चाहिये, इसी बात को 'परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देनए' इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट किया गया है अर्थात्-कृष्णलेश्योद्देशक में जमा पभाए वि धूमप्पभाए वि' वायुप्रमा युटत नीवेश्यावाणा क्षुल्सर कृतयुभ નારકેનું કથન જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન પકભા નારક પૃથ્વીના અને ધૂમપ્રભા નારક પૃથ્વીના નારકના સંબંધમાં પણ કહેલ છે. 'एव चउसु वि जुम्मेसु' शुल्स तयुना ४थन प्रमाणे ४ २ २ युमोमा ५५ એટલે કે-કૃતયુગન, વ્યાજદ્વાપર અને કલ્યાજ આ યુએમાં પણ વાલુકાપ્રભા પંકપ્રભા, ધ્રુમપ્રભા, આ ત્રણ પૃથ્વીના આશ્રયવાળા નીલલેશ્યાવાળા નારક જીનું કથન સમજવું.
'नवर परिमाणं जाणियव्य' ५२d a युमामा परिणाम मnઅલગ હેવાનું સમજવું અને તે પરિણામ ચાર, આઠ, બાર વિગેરે ક્ષુલ્લક इतयुम विगेरे पापाणु: .य छे. तम सभा 1 'परिमाण जहा कण्हलेस्त्र उद्देसए' मा सूत्रद्वारा समावेश छे. अर्थात वेश्यावा -
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द्रिका टीका श०३१ उ. ३ सू०१ नीललेश्याश्चित नै उपपातादिकम १९३ कृष्णश्योदेशके कथितं तथैव ज्ञातव्यम्, तथाहि शुल्लर कृतयुग्मनारकाणां परिमाणं चत्वारो वा, अष्टौ वा, द्वादश वा, षोडश चा, संख्याता वा, असंख्याता वा, समुत्पद्यन्ते । त्रयोजनीललेश्यनारकाखयो वा, सप्त वा एकादश वा, पञ्चदश ना, संख्याता वा असंख्याता वा जायन्ते एक समये । द्वापरयुग्म नीळलेश्यनारकाः हौवा, षड् वा, दशवा, चतुर्दश वा संख्याता वा, असंख्याता वा एकसमयेन जाय. न्ते । कल्योज नोललेश्यनारका एको वा, पञ्च वा, त्रयो वा दश वा संख्याता वा, असंख्याता वा जायन्ते एकसमये । एवं क्रमेण कृष्णलेश्योदेशके प्रोक्तप्रकारेण परिमाणं ज्ञातं भवतीति । ' सेसं तहे ' शेषं परिमाणातिरिक्तं सर्वमुपपातादिकं
परिमाण कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये-जैसे- क्षुल्लक कृतयुग्म चारकों का परिमाण चार अथवा आठ अथवा बारह अथवा सोलह अथवा संख्यात अथवा असंख्यात है एक समय में ये नारक इतनी संख्या में वहां उत्पन्न होते हैं। ज्योज नीललेश्य नारक तीन अथवा सात अथवा ग्यारह अथवा पन्द्रह अथवा संख्यात अथवा असंख्यात एक समय में उत्पन्न होते हैं । द्वापरयुग्म नीललेइयावाले नारक दो अथवा छह अथवा दश अथवा चौदह अथवा संख्यात अथवा असं रूपात एक समय में उत्पन्न होते हैं । कल्पोज नीललेइप नारक एक अथवा पाँच अथवा नौ अथवा तेरह अथवा संख्यात अथवा असंख्यात एक समय में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार से कृष्णलेश्योद्देशक में कहे गये अनुसार परिमाण जाना जाता है । 'सेस' तहेव' परिमाण से अतिरिक्त और
શ માં જે પ્રમાણે પરિણામ કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ પરિણામ અહિયાં સમજવું. જેમ કે-ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ નારકનું પરિણામ ચાર અથવા આઠે અથવા માર અથવા સેાળ અથવા સંખ્યાત અથવા असण्यात छे.-भे સમયમાં આ નારક આટલ્લી સંખ્યામાં ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. ચૈાજ નીલલેશ્યા નારક ત્રણ અથવા સાત અથવા અગિયાર અથવા પંદર અથવા સખ્યાત અથવા અસાત એક સમયમાં ઉપન્ન થાય છે. મૈં પરયુગ્મ નીલકેશ્યાવાળા નારકા એ અથવા છ અથવા દસ અથવા ચૌદ અથવા સખ્યાત અથવા અ સખ્યાત એક સમયમાં ઉત્પન્ન થાય છે, કચેાજ નીલલ્લેશ્યાવાળા નારકા એક અથવા પાંચ અથવા નવ અથવા તેર અથવા સખ્યાત અથવા અસ ખ્યાત એક સમયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એ રીતે કૃષ્ણુલેશ્વા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે परिणाम समन्वु लेा 'सेख' तद्देव' परिणाम शिवाय भाठीतु उत्पाद સબધી કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું.
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भगवतीस्त्रे
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पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति | 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इवि हे अदम्य ! नीललेइक्षुल्लक कृतयुग्मादि नारक विपये यद् देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वं सर्वथैव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमः यति वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति || १|| इति श्री - विश्वविख्यात जगदवल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालन विविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकत्रिंशत्तमे शतके तृतीयोदेशकः समाप्तः १३१-३ ॥
सब उत्पाद आदि पूर्वोक्त जैसे ही जानना चाहिये 'सेवं भंते ! सेबं अंते ! स्ति' हे भदन्त ! नीललेइप क्षुल्लक कृतयुग्मादि नारकों के विषय मैं जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है। ऐसा कह फर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया, बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये | || सू० १ ॥
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल जी महाराजकृत "भगवती सूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तीसवें शतकका तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ ३१-३॥
'सेव' भंते ! सेव' भंते ! त्ति' हे लगवन् नीससेश्या वाणा शु मृतयुग्भ વિગેરે નારકાના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન' સથા સત્ય છે, હે ભગવન્ આપનુ કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી અને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરજમાન થયા. સૂ૦૧
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પુજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકને ત્રીજો ઉદ્દેશે સમાપ્ત ॥૩૦–રા
節
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प्रमयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.४ सू०१ कापोतलेश्यानित न. उपपातादिकम् १९५
___ अथ चतुर्थीदेशकः प्रारभ्यते 'तृतीयाद्देशकं निरूप क्रममाप्तं चतुर्थमुद्देशकं कापोतलेश्याश्रयं निरूपयति तस्येदं सूत्रम्-‘काउलेस्स' इत्यादि ।
मूलम्-काउलेस्स खुड्डाग कडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जंति एवं जहेव कण्हलेसखुड्डागकडजुम्म० नवरं उववाओ जो रयणप्पभाए, सेलं तं चेव। रयणप्पभा पुढवी काउयलेस्स खुड्डाग कडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति एवं चेव एवं सकरप्पभाए वि एवं वालुयप्पभाए कि, एवं चउसु वि जुम्मेसु । नवरं परिमाणं जाणियध्वं परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ . एकतीसइमे सए चउत्थो उदेसो समत्तो ॥३१-४॥
छाया--कापोतलेश्यक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते एवं यथैव कृष्णले श्यक्षुल्लककृतयुग्म० नवरमुपपातो यो रत्नप्रमायाम, शेष तदेव। रत्नप्रभापृथिवी कापोतलेश्यक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यते ? एवमेव । एवं शर्करामभायामपि एवं वालुकामभायामपि एवं चतुर्वपि युग्मेषु । नवरं परिमाणं ज्ञातव्यम् , परिमाणं यथा कृष्णलेश्योद्देशके शेष तदेव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥मू०१॥
एकत्रिंशत्तमे शतके चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥३१-४॥ - टीका--अयं चतुर्थोदशक: कापोतलेश्याश्रयः सा च कापोतलेश्या प्रथमद्वितीयतृतीयरत्नपभाशकरापमा वालुकापभापृथिवीष्वेव भवतीति कृत्वाऽत्र सामान्यदण्डको रत्नप्रमादिदण्डकत्रयं च भवतीति। सम्प्रति अक्षरार्थ विवृणोमि . 'काउलेस्स खुड्डाग कडजुम्मनेरइया णं भंते ! कोहितो उववज्जति' कापोत
शतक ३१ उद्देशक ४-- तृतीय उद्देशक का निरूपण करके अब क्रम प्राप्त चतुर्थ उद्देशक का जो कि कापोतलेश्या के आश्रित है निरूपण किया जाता है। _ 'काउलेस्स खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाण भंते !' इत्यादि
ચોથા ઉદેશાને પ્રારંભ - ત્રીજા ઉદેશાનું નિરૂપણ કરીને હવે કમથી આવેલ આ ચોથા ઉદેશાન २४ पातोश्या युद्धत छ. तेनु नि३५ ४२पामा मावे छे.-काउलेस्सखुड्डाग. कन्जुम्मनेरइया णं भंते !' त्या:
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भगवतीले लेश्यक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुतः-करमा स्थानविशेषादागत्य उत्पद्यन्ते ? इनि प्रश्नः, भगवानाह-'एवं जहे।' इत्यादि, एवं जइत्र कण्हलेसस खुड्डाग कडजुम्म०' एवं यथैव कृष्णलेश्रक्षुल्लकुयुग्मनैरयिकब देव इहापि परिणामादि तिव्यः तथाहि-कापोतलेश्यक्षुल्लकनैरयिकाः कुत उत्पबन्ते ?
टीकार्थ-यह चतुर्थ उद्देशक कापोतलेश्या के आश्रित है। यह कापातलेश्या प्रथम, द्वितीय तृतीय नारको में होती है। प्रथम नरक का नाम रत्नप्रभा है। द्वितीय नरक का नाम शर्करा प्रभा है। तृतीय नरक का नाम पालु काप्रभा है। इस प्रकार यहां एक सामान्य दण्डक है और रत्नप्रभादि सम्बन्धी तीन दण्डक है 'काउलेस्ल खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओहिंतो उवयज्जति' हे भदन्त ! कापोतलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्मराशि प्रमित नरयिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'एवं जहेव कण्हलेस्ल खुड्डाग कडजुम्म०' हे गौतम ! जैसा कृष्णलेश्यावाले क्षुद्र कृतयुग्म नैरयिकों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही यहां पर कहना चाहिये। अर्थात् जब गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा-हे भदन्त ! कापोतलेघावाले क्षुल्लक नैरयिक कहां से उत्पन्न होते हैं ? तो उत्तर में प्रभुश्री ने उनसे ऐसा कहा-कि हे गौतम ! कापोत लेश्यावाले क्षुल्लकनैरयिक नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं। देवों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु पश्चेन्द्रिय1 ટીકાર્થ-આ ચેાથે ઉદ્દેશ કાપત લેશ્યા યુક્ત કહેલ છે. આ કાતિલેશ્યા પહેલા, બીજા અને ત્રીજા નારકમાં જ હોય છે. પહેલા નરકનું નામ રત્નપ્રભા છે. બીજા નરકનું નામ શર્કરા પ્રભા છે ત્રીજા નરકનું નામ વાલુકાપ્રભા છે. આ રીતે અહિયાં એક સામાન્ય દંડક કહેલ છે, અને રત્ન प्रभा विशेष संयम ऋ
। छे. 'काउलेम्सखुड्डागाडजुम्मनेरइया ण भंते ! क ओहिंतो उववज्जति' 8 लगवन् पात सेश्यापार क्षुदas કૃતયુમરાશિ યુક્ત નિરયિક કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે?
मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४३ छ -'एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडગુno' હે ગૌતમ ! કૃષ્ણલેશ્યાવાળા શુરવક કૃતયુગ્મ રિયિકોના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયાં સમજવું. અર્થાત્ ગૌતમસ્વામીએ જ્યારે એવું પૂછ્યું કે-હે ભગવન કાપેતલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક નિરયિકે કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી તેઓને કહે છે કે-હે ગૌતમ ! કાપત લેશ્યાવાળા મુલક રયિક નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. દેવોમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.४ सू०१ कापोतलेश्याधित ने. उपपातादिकम् १९७ हे गौतम ! यथानामकः कश्चित् प्लपका ब्लवमानोऽध्यवसायनिर्वर्तितेन करणोपायेन स्वस्थानं परित्यज्य आगामिस्थानान्तरं प्रतिपद्यते एवमेव जीवोऽध्यवसाययोगनिर्वतिरोन करणोपायेन पूर्वकालि कभवं परित्यज्य भवान्तरमासादयति । हे भान्त ! तेपां जीवानां कथं शीघ्रा गति भवति कथं शीघ्रश्च गतिविषयः प्रज्ञप्तः हे गौतम ! यथानामका कश्चित् तरुणो बलवान् यावत् त्रिसनय केन विग्रहेणोत्पधन्ते तथा शीघ्रा गति भवति तथा शीघ्रश्च गतिविषयः प्रज्ञप्तः । ते जीवा भदः न्त ! कथं पाभवायुष्कं मरन्ति गौवम ! अध्यवसाययोगनिवर्तितेन करणो. तिर्ययोनिकों से आकर के उत्पन्न होते है और गर्भन मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। हे भदन्त ! वे वहां किस प्रकार से आकर के उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! जिस प्रकार कोई कूदनेवाला व्यक्ति कूदता कूदता पूर्व के स्थान को छोड़कर आगे के स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार ले नरयिक भी पूर्ववर्ती भव को छोड़कर अध्यवसाय रूप कारण के वश से आगे के भय को प्राप्त करलेते हैं। हे भदन्त ! उन जीवों की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उस शीघ्रगति का विषय कैसा होता है ? जैसे कोई तरुण वलान र बौदहवे' शतक में प्रथम उद्देशक में कहे गये अनुसार हो, तो जैसा वहां कहा गया है उसके अनुदार वे नैरयिक तीन समयवाली विग्रहगति से वहां नरकाचाल में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार की उनकी शीघ्र गति होती है और ऐसा ही उनकी गीघ्र गति का विषय होता है। हे भदन्त । वे नारक परभव की आयु का बन्ध कैसे करते हैं ? हे गौतम ! अध्यवसाय પચેન્દ્રિય તિર્યચનિકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે તથા ગર્ભ જ મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. હે ભગવન્ તેઓ ત્યાં કઈ રીતે આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આના ઉત્તરમાં હે ગૌતમ ! જે પ્રમાણે ઠાઈ કૂદવાવાળો પુરૂષ કૂદતો કૂદતો પહેલાના સ્થાનને છેડીને આગળના સ્થાન પર પહોંચી જાય છે, એજ પ્રમાણે નરયિકે પણ પહેલાના ભવને છોડીને અધ્યવસાયરૂપ કારણને વશ થઈને આગળના સ્થાન પર પહોંચી જાય છે. હું કરૂણ નિધાન ભગવન તે જીનું શીઘગમન કેવા પ્રકારનું હોય છે? અને તે શીધ્ર ગમનને વિષય કે હોય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! જેમ કેાઈ તરૂણ બળવાન “પુરૂષ ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદેશામાં કહ્યા પ્રમાણે તે નૈરયિકો ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતની તેઓની શીઘ્રતિ હોય છે. અને તેઓના શીધ્ર ગમનને વિષય પણ એજ પ્રમાણે હોય છે. હે ભગવન તે નારકે પરભવના આયુષ્યને બંધ કેવી રીતે કરે છે ?
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भगवतीने पायेन एवं खलु ते जीवाः परमवायुष्कं प्रकुन्ति । हे भदन्त ! पां जीवानां कापोतलेश्याश्रयाणां कथं गति भवति गौतम ! मायुःक्षयेण भवक्षयेण स्थिति क्षयेण एवं गति भवति । हे भदन्त ! ते जीवाः कापोतलेश्याश्रया किम् आत्मऋद्धयोत्पधन्ते परमाव्या वा उत्पबन्ते ? हे गौतम ! आत्मत्राद्धया समुत्पद्यन्ते नो परक्रया, हे भदन्त ! ते कापोतलेश्या जीवाः किमात्मकर्मणा उत्पद्यन्ते परकर्मणा वा ? हे गौतम ! आत्मकर्मणा जायन्ते नो परकर्मणा । हे भदन्त ! कापोतलेश्या जीवाः किमात्मप्रयोगेणोत्पद्यन्ते परमयोगेग वा हे गौतम ! आत्मयोग से निर्तित करणोपाय से वे नारक परभव की आयुका बन्ध करते हैं। हे भदन्त ! कापोतलेश्यावाले उन जीवों की गति कैसी होती है ? गौतम! आयु के क्षय से, भय के क्षय से और स्थिति के क्षय से होती है। हे भदन्त ! कापोतलेश्याश्रयवाले वे जीव क्या आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? या परऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे जीव वहाँ से आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते है, परऋद्धि से उत्पन्न नहीं होते हैं। हे भदन्त ! वे कापोतलेश्यावाले जीव क्या आत्मकर्म से उत्पन्न होते हैं ? या परकर्म से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे जीवात्मकर्म से ही उत्पन्न होते हैं परकर्म से उत्पन्न नहीं होते हैं । हे भदन्त ! वे कापोतलेश्यावाले जीव क्या
आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? या परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे जीव आत्मप्रयोग से ही उत्पन्न होते हैं परप्रयोग
ગૌતમ ! અધ્યવસાય થી નિવર્તિત કરવાના ઉપાયથી તે નારકે પર ભવના આયુષ્યનો બંધ કરે છે હે ભગવન કાપતલેશ્યાવાળા તે જીની ગતિ કેવી હે ય છે ? હે ગૌતમ ! આયુષ્યના ક્ષયથી ભવના ક્ષયથી અને સ્થિતિના ક્ષયથી તેઓની ગતિ થાય છે. હે ભગવન કાપતલેશ્યાના આશ્રય વાળા તે જીવે શું આત્માદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે? કે પરદ્ધિથી ઉત્પન થાય છે. હે ગૌતમ ! તે છે ત્યાં આત્માદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થતા નથી. હે ભગવન તે કાપતલેશ્ય.વાળા જી આત્મકર્મથી ત્યાં , ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા પરકમથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! તે
આત્મકર્મથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. પરકમથી ઉત્પન્ન થતા નથી. તે ભગવન તે કાપતલેશ્યાવાળા જ શું આત્મ પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પર પ્રયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ! તે આત્મપ્રગથી • જ ઉત્પન થાય છે, પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી. વિગેરે પ્રકારથી કૃષ્ણ ડલેશ્યાના સંબંધમાં કહેલ સઘળું કથન અહિયાં કહેવું જોઈએ.
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प्रमैखद्रिका टीका श०३१ उ.४ ६०१ कापोतलेश्याश्रित नै, उपपातादिकम् १९९ प्रयोगेणोत्पद्यन्ते नो परप्रयोगेणेत्यादिकं सर्वं कृष्णलेश्यप्रकरणोदितमिह ज्ञातयम् इति । 'नचरं उदचाओ रयणप्पभाए' नवरं केवलं पूर्वापेक्षया बैलक्षण्यमिदं यत् कापोतलेश्य जीवानामुपपातो यथा रत्नम मायां कथितः तथैव सामान्यदण्ड के उपपातो वर्णनीय इति । 'सेसं तं चेच' शेषमुपपातातिरिक्त सर्व परिमाणादिकं तदेव कृष्णलेश्यनारकीय द्वितीयो देशकवदेव ज्ञातव्यमिति । सामान्यदण्डकः कापोत लेश्यजीवानामिति । 'रयणस्यभा पुढवी काउलेस्स खुड्डाकडजुम्म नेरइया र्ण भंते! कभी उववज्जंति' रत्नप्रभा पृथिवी कापोतले श्यक्षुल्लक कृतयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! कुतः - कस्मात् स्थानविशेषादागत्य रत्नप्रभायामुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह - ' एवं ' इत्यादि, 'एवं चेव' एवमेव यथैव सामान्यदण्ड के कापोतले श्नारकजीवानामुत्पत्तिः कथिता तथैव रत्नप्रभामथमनारकाश्रित कापोसे नहीं । इत्यादि सब यह कृष्णलेश्योदित प्रकरण यहां कहना चाहिये 'नवर' उबचाओ रयणपभाए' परन्तु पूर्व की अपेक्षा से यही
क्षय है कि कापोतलेइयावालों का उपपात जैसा रत्नप्रभा में कहा गया है वैसा ही सामान्य दण्डक में उपपात कहना चाहिये । 'सेस' तं 'चेव' उपपात से अतिरिक्त और सब परिमाण आदिक कृष्णलेश्य नारक के द्वितीय उद्देशक के जैसे ही जानना चाहिये | ऐसा यह सामान्य दण्डक कापोत लेइयावाले जीवों का है। 'रत्नप्रभा पुढत्रीकाउलेस्स खुड्डाग पडजुम्म नेरइयाणं भंते कओ उववज्जति' हे भदन्त ! कापोतवा लेश्यावाले क्षुद्रकृतयुग्मराशि प्रमित रत्नप्रभा के नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के रयणप्पभा रूप नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'ए' चेव' हे गौतम ! सामान्यदण्डक में कापोत लेइयावाले नारक जीवों का जैसा उपपात कहा
'नवर उत्रवाओ रयणप्पभाए' परंतु पसाना उरतां हि भेग विसક્ષણુપણુ છે કે-કાપેાતલેશ્યાવાળાઓને ઉપપાત જે પ્રમાણે રત્નપ્રભામાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેના ઉપપાત સામાન્ય દંડકમાં કહેવા જોઈ એ, 'सेस त चेव' यातना उथन शिवाय माडीनु परिणाम विगेरे उधन કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકના બીજા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવુ' એ પ્રમાણે આ સામ ન્ય. દકિ કાપેાતલેસ્યાનાં સ ખ ધમાં કહેલ છે.
'रण'पभा पुढवी काउलेक्स खुड्ड़ागकडजुग्म नेरइयाणं भवे ! कओ વવજ્ઞતિ' હે ભગવન્ કાપાતલેસ્થાવાળા, ક્ષુદ્ર કૃતયુગ્મ રાશિથી યુક્ત રત્ન પ્રભાના ઔરચિકા કયા સ્થાન વિશેષમાંથી આવીને રત્નપ્રભા રૂપ નરકાવાસમાં उत्यन्न थाय छे ? म अनना उत्तरमा प्रलुश्री छे - 'एव चेव' ३
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भगवतीमत्र उलेश्यजीवानामपि उम्पातो ज्ञातव्यः, न नैगयिकादारगत्य उत्पद्यन्ते किन्तु एथे. न्द्रियतिर्ययोनिदेश्य आगत्य समुत्पधन्ते रत्नममायाँ कापोतळेश्याश्रया नारकाः, तथा गर्भजमनुष्येभ्यश्चागत्योत्पद्यन्ते नो देवेभ्य आगत्य कापोतलेश्याः रत्नप्रभायामुत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्व सामान्यदंड स्वदेव रत्नपमा दंडकेऽपि ज्ञातव्यमिति 'एवं सक्करप्पभाएवि एवं रत्नप्रभावदेव शर्कराममायामपि द्वितीयनारकथिव्यां कापोतछेश्य नारकजीवानामुपपातादि ज्ञातव्यः ‘एवं बालयप्पभाए वि' एवं रत्न प्रभादंडकवदेव बालकाममायामपि तृतीयनारफपृथिव्यां कापोतलेश्याश्रयजीवा. नामुपपातादि तिव्यः । 'एवं चउसु वि जुम्मेसु' एवं चतुष्यपि कृतयुग्मयोजगया है उसी प्रकार से वह प्रथम नारकाश्रित कापोतलेश्य जीवों का भी जानना चाहिये, तथा च-वे नरयिमों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं और ल देशों में से आकर के उत्पन्न शेते हैं किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्य योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से
आकर के उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार का यह कथन जैसा कि सामान्य दण्डक में कापोतलेश्याश्रित नारक जीवों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही सब कथन इनका रत्नप्रभा दण्डक में भी कहना चाहिये, 'एवं सक्करप्पभाए वि एवं वालुयप्पभाए वि' रत्नप्रभा दण्डक के कथन जैसा कथन शर्क राप्रभा दण्डक में और बालुकाप्रभा दंडक में भी उन कापोतलेश्य नारक जीवों के उत्पाद आदि का जानना चाहिये।
'एवं चउस्सु वि जुम्मेलु' इसी प्रकार से कृतयुग्म, योज द्वापरयुग्म और कल्योज रूप चारों युग्मों में भी उत्पात आदि समझना चाहिये ગૌતમ! સામાન્ય દડકમાં કાતિલેશ્યાવાળા નારક જીવન ઉ૫પાત જે રીતે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે પ્રથમ નરકોવાળા કાપતેતેશ્યાવાળા જીવે ને ઉપપાત પણ સમજ. તથા તેઓ નૈરયિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તથા દેવમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અને ગર્ભજ મનુબેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણેનું આ કથન જે રીતે સામાન્ય દંડકમાં કાતિલેશ્યા વાળા નારક છના સંબંધમાં કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે તે સઘળું કથન આ २९ मा ४४मां ५५ ४ नये. 'एवं सकरप्पभाए वि' २त्नमाना કથન પ્રમાણેનું કથન શર્કરા પ્રભા દંડકમાં પણ તે વેશ્યાવાળા નારક છે ના ઉપપાત વિગેરેના સંબંધમાં સમજવું.
___ 'एवं घरसु वि जुम् मेसु' मा प्रभार तयुभ व्यास वा५२ युग्म, भने यो ३५. सारे युग्भमां पर अत्यात विशेष समावा. 'नवरं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.४ सू०१ कापोतलेश्याश्रित नै, उपपातादिकम् २०१ द्वापरयुग्मकल्योजरूपेषु युग्मेवपि उपपातादि तिव्यः । 'नवरं परिमाण जा. जियवं' नवरं केवलं तचत् युग्मेषु विशिष्टपरिमाणं चतुरष्ट द्वादशमभूति क्षुल्लक कृतयुग्मादि स्वरूपं ज्ञातव्यम् ! केन रूपेग चतुरष्टादिकं परिमाणं ज्ञातव्यं तत्रादपरिमाणं' इत्यादि, 'परिमाणं जहा कण्ह लेस्ल उद्देमा, परिमाणं यथा कृष्णलेश्यो.
शके कथितं तथैव इहापि रिविच्य ज्ञातव्यमिति, तथाहि कृतयुग्मकापोतलेश्यस्य चत्वारोऽष्टौ वा, द्वादश चा, पोडश वा, सख्शाता वा, असंख्याता था. व्योजका. पोतलेश्यस्य वयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्याता वा, अस। ख्याता वा, द्वापरयुग्मकापोतछे श्यस्य द्वौ बा, षड् वा, दश वा, चतुर्दश वा, एल्योज कापोतलेश्यस्य तु एको वा, पञ्च चा, नव वा, त्रयोदश वा, संख्याता 'नवर परिमाणं जाणियच' परन्तु उन-उन युग्मों में चार, आठ, द्वादश, आदि क्षुल्लककृतयुग्मादिरूप विशिष्ट परिमाणपू”क्त जैसा ही जानना चाहिये, यही बान-'परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए' इस सूत्र द्वारा पुष्ट की गई है । किल रूप से यह चार आठ आदि रूप परिमाण जानना चाहिये ? तो इसके लिये 'परिमाणं जहा कह लेस्स उद्देसए' ऐसा कहा गया है कि कृष्णलेश्या उदेश में जो परिमाण कहा गया है वह यहां पर भी भिन्न-भिन्न रूप से जानना चाहिये । जैसेकायम राशिप्रमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव एक समय में चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं योजराशि पमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात एक साथ उत्पन्न होते हैं। द्वापरयग्म राशि प्रमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव एक साथ दो, छह, दश परिमाण जाणियव्य' ५२'तु त युमामा यार, आ४, १२, बिरे नुसार કતયુમ વિગેરે રૂપ વિશેષ પરિણામ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું એજ पात-'परिमाण जहा कण्हलेस्स उद्देसए' मा सूत्रा द्वारा पुष्ट ४२वामा - અ વેલ છે કઈ રીતે આ ચાર, આઠ, વિગેરે પ્રકારનું પરિણામ સમજવું. १। २ सय ‘परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्दसए' मा सूत्र५४ र छ. આ સૂત્રપાઠથી એ કહ્યુ છે કે-કૃષ્ણલેશ્યાના ઉદ્દેશામાં જે પરિમાણ કહેવામાં આવેલ છે, તે અહિયા પણ જુદા જુદા પ્રકારથી સમજવું જેમ કે-કૃતયુઆ 'રાશિયુક્ત કાતિલેશ્યાવાળા નરક જી એક સમયમાં ચાર, આઠ, બાર, સોળ સ ગ્યાત અથવા અસ ખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે એ જરાશિ પ્રમિત કાપત લેશ્યાવાળા નારક જી ત્રણ, સાત, અગીયાર, પંદર સંખ્યાત અથવા અ સંખ્યાત એક સાથે ઉત્પન્ન થાય છે. દ્વાપર યુમરાશિ પ્રમાણુ કાપતલેશ્યા
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भगवतीसरे पा, असंख्याता वेति। 'सैस तं चेत्र, शेष परिमाणातिरिक्तं सर्व तदेव सामान्य. दंडकपरिपठितथेच ज्ञातव्यमिति । 'सेवं मंते! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त । सदेवं सदन्त ! इति, हे भदन्त ! कापोतलेश्यजीवानां चतुर्धपि दंडकेषु येन
रूपेण उपपातादिकं देवानुपियेण कथितं तत् सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति । कथयित्वा गौतमो भगवन्तं चन्दसे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा 'आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥५० १॥
इति एकत्रिंशत्तमे शतके चतुर्थो देशका समाप्तः ॥ ३१-४॥ 'चौदह, लपात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । कल्पोज राशिमित कापोतलेश्याबाले नारक जीव एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात अथवा असं पान एक साथ उत्पन्न होते हैं । 'सेस तचेव' परिमाण से अतिरिक्त और लय कथन सामान्य दण्डक के जैसा ही कहा गया जानना चाहिये, 'सेव सते ! सेब भते ! त्ति' हे भदन्त ! कापोत. लेश्यावाले जीवों के चारो दण्डकों में जिप्तरूप से उपपात आदिक आपदेवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही हैं। इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना, नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू० १॥
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ -३१-४ ॥ વાળા નારક છે એકી સાથે બે, છ, દસ અને ચૌદ સંધ્યાત અથવા અ સ ખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે કાજ રે શિ પ્રમાણ કાતિલેશ્યાવાળા ન રક છે એક, પાંચ, નવ, તેર સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત એક સાથે ઉત્પન્ન थाय छे. 'सेन त चेव' परिणाम शिवायनु माडीनु' सघणु ४थन सामान्य દંડકમાં કહ્યા પ્રમાણે જ કહ્યું છે, તેમ સમજવું.
सेव' भंते ! सेव भते । त्ति' है सावन पातोश्यावा वाना न्यारे દંડકમાં જે પ્રમાણે ઉપપાત વિગેરે આપી દેવાનુપ્રિયે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવન આ૫ દેવનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમવામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧
| | ઉદ્દેશ સમાપ્ત .૩૧-૪
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.५ खू०१ भव. कृत. नै. उपपातादिकम् २०३
अथ पञ्चमोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ म्लम्-भवसद्धिय खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जंति ? किं नेरइय०? एवं जहेव ओहिओ गमओ तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पओगेणं उववज्जंति । रयणप्पभापुढवी भवसिद्धिय खुड्डाग कडजुम्मनेरइया णं भंते !० एवं चेव निरवसेसं एवं जाव अहे सत्तमाए । एवं भवसिद्धिय खुड्डाग तेओग नेरइया वि, एवं जाव कलिओग त्ति नवरं परिमाणं जाणियव्वं, परिमाणं पुवभणियं जहा पढमुद्देसए । सेवं भंते! सेवं भंते !त्ति।१। ___ छाया-भवसिद्धिक क्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यः, एवं यथैवौधिको गमक स्तथैव निरवशेषं यावन्नो परमयोगेणोत्पद्यन्ते । रत्नप्रभा पृथिवीभवसिद्धिकक्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! एवमेव निरवशेषम् एवं यावद्धः सप्तम्याम् । एवं भवसिद्धिकक्षुल्लकव्योजनैरयिका अपि, एवं यावत्कल्पोज इति, नवरं परिमाणं ज्ञातव्यं परिमाणं पूर्वभणितं यथा प्रथमोदेशके । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । म० १॥
टीका-'भवसिद्धिय खुड्डाग कडजुम्मनेरइयाणं भंते' भवसिद्धिक क्षुल्लककृतयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! 'कभी उववज्जति कि नेरइय०' कुत:-कस्मात् स्थानविशेषादागत्योत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते तियग्योनिकेम्यो वा आग-य नरकावासे समुत्पद्यन्ते मनुष्येभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते देवेभ्यो वा
शतक ३१ उद्देशक-५ 'भवसिद्धिय खुड्डागकडजुम्न नेरयाणं भते!' इत्यादि
टीकार्थ-'भवसिद्धिय खडागकडजुम्म नेरझ्याणं भते!' हे भदन्त ! भवसिद्धिक क्षुटकमयुग्म नैरयिक 'कओहितो उववज्जति' किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अर्थात् जो भवसिद्धिक नैरयिक क्षुद्र कृतयुग्मराशि प्रमित हैं वे कहाँ से आकर के नरकावास में उत्पन्न
પાંચમાં ઉદ્દેશાને પ્રારંભ'भवसिद्धिय खुडागकडजुम्मनेरइयाणं भंते ! त्या ___टी -'भवसिद्धिय खुड्डागकुडजुम्मनेरइयार्ण भते ! हे भगवन् ससिद्धि क्षुद्र कृतयुग्म नराय: 'कओहितो उववज्जति' या स्थान विशेषथी मावीन ઉત્પન્ન થાય છે? અર્થાત જે ભવસિદ્ધિક નિરયિક ક્ષુદ્ર કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમાણ છે, તેઓ કયાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
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भगवतीसूत्र २०४ आगत्योस्पद्यन्ते ! इति प्रश्नः, भगवानाह-एवं जहेच' इत्यादि, ‘एवं जद्देव ओहिओ गमओ तहेव निरवसेस जाव नो परप्पयोगेणं उबवज्जति' एवं यथैव औधियो यमकस्तथैव निरवशेष यावन्नो परमयोगेणोत्पद्यन्ते औधिकप्रकरणे यथोत्पादादिकं कथितं तथैव इहापि ज्ञातव्यम्, तथाहि-कुन उत्रद्यन्ते इति प्रश्नस्य न नैरयिकेभ्य आगत्य उत्पध-ते न वा देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तथा गर्भजमनुष्येभ्य आगत्य समुत्स्यन्ते, इत्युत्तरम् । ते खलु भवसिद्धिकाः क्षुल्लककृतयुग्मनारकाः भदन्त ! एकसमये कियन्त उत्पद्यन्ने ! गौतम ! चत्वारो वा, अष्ट वा, द्वादश वा, पोडश वा, संख्याता वा, असंख्याता वा एकसमये जायन्ते । ते खलु भदन्त ! भवसिद्धिकक्षुल्लककृत. होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री फहते हैं-'एवं जहेब निरवलेस जाव नो परप्पयोगेणं उबवज्जति' हे गौतम ! औधिक प्रकरण में जैसाजिस रीति से उत्पाद आदि का कथन किया है उसी रीति से वह सब यहां पर भी जानना चाहिये, जले-यह प्रश्न किया गया है कि भव सिद्धिक कृतयुग्म नैरयिक कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? तो वहां ऐसा उत्तर में कहना चाहिये कि वे न नैर्शयकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और न देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको में से आकर के उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं । हे भदन्त ! ये क्षुल्लक कृतयुग्मराशि प्रमित भवसिद्धिक नैरयिक एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं-? हे गौतम! एक समय में वे चार, या आठ, या बारह, या सोलह या प्रभुश्री गीतमस्वामी ४ छ -'एव जहेव ओहिओ गमओ तहेव निरवसेस जाव परप्पओगेणं उववज्जति' के गौतम ! मोधिनी प्र४२मा प्रमाणे ५६ વિગેરે સંબંધી કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે સઘળું કથન અહિયાં પણ સમજવું જેમ કે -જ્યારે એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું કે-ભવસિદ્ધિક કયુમ નૈરયિક કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? તે તેનો ઉત્તર એ છે કે, તૈઓ નરયિકવાથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી તથા દેવામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ પરિદ્રય તિર્યંચ ચોનિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. તથા ગર્ભજ મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. હે ભગવનું આ ક્ષલિક કૃતયુમરાશિ પ્રમાણવાળા ભવસિદ્ધિક નિરયિકે એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે? હે ગૌતમ ! એક સમયમાં તેઓ ચાર, અથવા આઠ અથવા બાર અથવા સેળ અથવા સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે. હે ભગવદ્ આ ક્ષુલ્લક કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમાણવાળા ભવસિદ્ધિક નરયિકે કેવી રીતે
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प्रन्द्रका टीका श०३१ उ.५०१ भव. कृत. नै. उपपातादिकम्
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युग्मनारकाः कथमुत्पद्यन्ते ? हे गौतम! स यथानामकः कश्चित् प्लवमानोऽव्यवसायनिर्वर्तितेन करणोपायेन एष्यति काले पूर्वस्थानं परितवाग्रेतनं स्थानमुपसद्य विहरति एवमेत्र इमे नारकाः प्लाका इवाध्यवसायनिवर्त्तितेन करणोपायेन पूर्व भवं परित्यज्य भवान्तर मासादयन्ति तेषां खलु भवसिद्धिक क्षुल्लककृतयुग्मनारकजीवानां कथं शीघ्रा गतिः कथं शीघ्रो गतिविपयः प्रज्ञप्तः हे गौतम! स यथानामकः कश्चित्पुरुषः तरुगो बलवान् यावत् त्रिसमयेन वा विग्रहेणोत्पद्यन्ते तेषां खलु जीवानां तथा शीघ्रा गतिः तथा शीघ्रो गतिविषयः प्रज्ञप्तः । ते खलु भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्मनारकजीवाः कथं परभवायुकं कुर्वन्तीति । हे संख्यान या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । हे भदन्त ! ये क्षुल्लक कृन युग्मराशिप्रमिन भवसिद्धिक नैरयिक कैसे उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम! जैसे कोई प्लवक कूदता - कूदता अध्यवसाय विशेष से निर्वर्तित करणोपाय से आगामी काल में पूर्व स्थान को छोड़कर आगे के स्थान को प्राप्त करता है, इसी प्रकार से ये कारक प्लवक के जैसे ही व्यवसाय से र्तित करणोपाय द्वारा पूर्व भव को छोड़कर पर भव को भवान्तर को प्राप्त कर लेते हैं । हे गौतम! भवसिद्धिक क्षुल्लककुनयुग्म नारक जीवों की कैसी शीघ्र गति होती है ? और इस शीघ्र गति का विषय कैपा होता है ? हे गौतम! जैसे कोई तरुण बलवान् पुरुष चौदहवे शतक में प्रश्न उद्देशन में कहे गये अनुसार हो तो जैसा वहां कहा गया है उसके माफिक वे नैरपिक तीन समय वाली विग्रह गति से वहां नरकावासमां में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार की उनकी शीघ्र गति होती है और ऐसा ही उनकी शीघ्र गति का विषय होना ઉત્પન્ન થાય છે ? હે ગૌતમ ! જેમ કોઈ કૂદવાવાળે કૂદતા કૂદતા અધ્યવસાય વિશેષથી નિવૃતિ ત કરણના ઉપાયથી આગામી કાળમાં પૂર્વ સ્થાનને છેડીને આગળના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે એજ રીતે આ નારક દાવાળાની જેમ જ અધ્યવસાય વિશેષથી નિવૃર્તિત કારણે પાયદ્વારા પૂર્વ ભવને ઘેાડીને પરભવને ભવાન્તર અત્ બીજા ભવને પ્રાપ્ત કરી લે છે હું ભગવન ભવસિદ્ધિક ભૂલ્લક મૃતયુગ્મ નારક જીવાની શીઘ્ર ગતિ કેવી હેાય છે? અને તે શીઘ્ર ગતિના વિષય ધ્રુવા હૈાય છે ? હે ગૌતમ ! જેમ કોઈ તન્નુ ખલવાન પુરૂષ ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે હાય તા ત્યાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે તે નારકેા ત્રણ સમયવળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં નારકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે આ રીતની શીઘ્રગતિ હાય છે અને એજ પ્રમાણે તેના શીઘ્ર ગમનના વિષય હાય છે.
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भगवती
ilan] ! अध्यवसाययोग निर्वर्तितेन कारणोपायेन एवं खलु ते जीवाः परभवायुकं कुर्वन्तीति । तेषां खलु मदन्त । जीवानां कथं गतिः प्रवर्तते गौतम ! आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण एवं खलु गतिः प्रवर्तते इति । ते खलु भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्मनारक जीवाः किम् आत्मऋद्वया उत्पद्यन्ते परऋद्धयानोत्पद्यन्ते इति, हे गौतम! आत्मऋद्ध्या समुत्पद्यन्ते न परऋद्धया समुत्पद्यन्ते । ते खड भवसिद्धिक क्षुल्ल कृतयुग्मनारकजीवाः किमात्मकर्मणा उत्पद्यन्ते पर कर्मणा वा उत्पद्यन्ते हे गौतम! आत्मकर्मणैव उत्पद्यन्ते न परकर्मणोत्पद्यन्ते । ते खलु भव. सिद्धिकक्षु लककृतयुग्मनारकजीवाः भदन्त ! आत्मप्रयोगेण उत्पद्यन्ते परप्रयोगेण है । हे भदन्त ! वे भवसिद्दिक क्षुल्लक कृनयुग्म नारक जीव परभव की आयु का बन्ध कैसे करते हैं ? हे गौतम! अध्यवसाय योग से निर्वर्तित कारणोपाय से वे परभव की आयु का बन्ध करते हैं । हे भदन्त ! उन जीवों की गति कैसी होती ? हे गौतम! आयु के क्षप से भय के क्षत्र से और स्थिति के क्षय से होती है । हे भदन्त ! वे भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्म नारक जीव क्या आत्मद्धि से उत्पन्न होते. हैं या परर्द्धि से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम! वे आत्मद्धि से ही उत्पन्न होते है परद्धि से उत्तान्न नहीं होते हैं हे भदन्त । भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्म नारक जीव क्या आत्म कर्म से उत्पन्न होते हैं या परकर्म से उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम | वे आत्म कर्म से ही उत्पन्न होते हैं परकर्म से उत्पन्न नहीं होते हैं । हे भदन्त ! वे भवसिद्धिक क्षुल्लक कुनयुग्म नारक जीव क्या आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं या
હે ભગવન્ તે ભસિદ્ધિક ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ નારક જીવ પરભવની આયુષ્યના અંધ કેત્રી રીતે કરે છે ? હે ગૌતમ ! અવસાય ચૈાગથી નિવૃતિ ત કરણેાપાયથી તેએ પરભવના આયુષ્યને મધ કરે છે. હે ભગવન્ તે જીવેાની ગતિ કેવી રીતે હોય છે ? હું ગૌતમ ! આયુના ક્ષયથી ભવના ક્ષયથી અને સ્થિતિના ક્ષયથી તેઓની ગતિ થાય છે હે ભગવન તે ભવસિદ્ધિક ક્ષુલ્લક કૃતયુગ્મ નારક જીવે શુ' આત્મઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા પરઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? હે ગૌતમ ! તેઓ આત્મઋદ્ધિથી જ ઉત્પન્ન થાય છે પરઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થતા નથી. હું ભગવન્ તે ભત્રસિદ્ધિક ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ નરક જીવા આત્મક થી ઉત્પન્ન થાય છે કે પરકમથી ઉત્પન્ન થાય છે ? હું ગૌતમ ! તેઓ આમ કમ થી જ ઉત્પન્ન થાય છે. પરકમાંથી ઉત્પન્ન થતા નથી. હું ભગવન્ તે ભવસિદ્ધિક ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ નારક જીવા શુ' આત્મ પ્રત્યેાગી ઉત્પન્ન
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.५ सु०१ भव. कृत, नै, उपपातादिकम् २०७ था, उत्पद्यन्ते? गौतम ! आत्ममयोगेणोत्पद्यन्ते, एतदन्त सर्वं यावत्पदेन संगृहीत भवतीति । 'रयणप्पभापुढवी भवसिद्धिय खुड्डागकडजुम्मनेरइयाणं भंते' रत्नप्रभा पृथिवी भवसिद्धिकक्षुल्लककृतयुग्मनेरिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नरयिकेभ्य स्तियग्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्योति प्रश्ना, उत्तर माह-एवं चेव' इत्यादि, 'एवं 'चेव निरवसेस' एवमेव-मौधिकगमवदेव निरवशेषम् औघियगवदेव सर्च यावत् नो परययोगेणोत्पद्यन्ते ज्ञातव्यमिति । 'एवं जाब अहे सत्तमाए ‘एवं यावदधः सप्तम्याम्, यावत्पदेन शर्कराप्रभात आरभ्य तमान्तपृथिव्याः संग्रहः, तथा च पर प्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? गौतम वै आत्म प्रयोग से ही उत्पन्न होते हैं पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं । यहां तक यह सय यहां यावत् पद से गृहीत हुआ है ! 'रयणप्पमा पुढवी भवसिद्धिय खुड्डाग क.डजुम्म नेरइयाण भंते !' हे अदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी के क्षुद्रकृत. युग्म गशिप्रमित भवसिद्धिक नैयिक कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिको से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं? या देवों में आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं चेव निरवसेस' हे गौतम! असा सामान्य गम कहा गया है वैसा ही यहां वह सम्पूर्ण रूप से यावत् वे पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं यहां तक कहना चाहिये। ‘एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी प्रकार का कथन अधः सप्तमी पृथिवी तक समझना चाहिये, यहां यावत् पद से शर्कराप्रभा થાય છે? કે પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થાય છે ? હે ગૌતમ ! તેઓ આ પ્રયોગથીજ ઉત્પન્ન થાય છે. પરપ્રયોગથી ઉત્પન્ન થતા નથી આ અહિ સુધીનું સઘળું કથન અહિયાં યાત્ પદથી ગ્રહણ કરેલ છે,
___ 'रयणप्पभा पुढवी भवसिद्धिय खुड्डाग कडजुम्म नेरइयाणं भते । 3 ભગવાન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના શુદ્ર કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમાણુવાળા ભવસિદ્ધિકનરયિક કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈરયિકમાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યંચ નિકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छ -'एवं चेव निरवसेस है ગૌતમ! સામન્યગમ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે અહિયાં સંપૂર્ણ પણે યાવત્ તેઓ પરપ્રયોગથી ઉત્પન્ન થતા નથી આત્મપ્રયોગથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથન સુધીનું સઘળું કથન કહેવું જોઈએ,
___एव जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभानु थन मधासमी पृथ्वी सुधा એ સમજવું. અહિયાં ચાવ૫દથી શર્કરામભાથી લઈને તમ પ્રભાપુથ્વી નામની
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भगवतीस्त्र यथा रत्नप्रभा पृथिव्याश्रित नारकाणामुत्पादादिः कथितः तथैव शर्करामभाधध। सप्तमीपृथिवी पर्यन्ताभिन भवसिद्धिक्षुल्ला कृतयुग्मनारकाणामपि उत्पादादितिव्य इति । एवं भवसिद्धिक खुड्डागयोगनेरइयावि' एवं भवसिद्धिक शुल्लक कृतयुग्मनारकरदेव भवसिद्धिक क्षुल्लययोजनारकाणामपि उत्पादादि तिध्य इति । ‘एवं जाव कलियोगत्ति' एवं यावत् कल्योज इति भवसिदिक क्षुल्लकन्योजनारकर देव भवसिद्धिक्क्षुल्लक द्वापरयुग्मनारक भवसिद्धिक क्षुल्लक प्रयोजनारकयोरपि उत्पादादि तिव्य इति । 'नवर परिमाण जाणियध्वं' नवरं ' से लेकर तमा पृथिवी नाम की ६ठी तक की पृथिवियों को ग्रहण हुआ है। तथा च-जैसा कयन रत्नप्रभा पृथिवी के आश्रित नारकों के उत्पा. दादि के सम्बन्ध में लिया गया हैं वैसा ही कथन शर्कराप्रभा से लेकर अधासप्तमी पृथिवीयों के आश्रित क्षुल्लक कृतयुग्म राशि प्रमाण भवसिद्धिक नैरयिकों के उत्पाद आदि के लम्बन्ध में भी कहना चाहिये । ‘एवं भवसिद्धिक खुड्डाग तेयोग ने हया दि' क्षुल्लक कृतयुग्म ‘राशिमित भवलिद्धिक नैरयिकों के जैसा ही क्षुद्र योज राशिप्रमित
भवसिद्धिक भी जानना चाहिये, अर्थात् उनके उत्पादादि जैसा ही इनका भी उत्पादादि कहना चाहिये । 'एवं जाव कलिओगत्ति' और ऐसा ही उत्पादादि का कथन यावत् क्षुद्रकल्पोज राशिपमित भवसिद्धिक नैरयिकों में भी करना चाहिये, यहां यावत् शब्द से क्षुद्र द्वापर युग्म राशिप्रमित अवसिद्धिक नैरधिकों का ग्रहण हुआ है । 'नवर परि. છઠ્ઠી પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વીથ ગ્રહણ કરાઈ છે. તથા–જે પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને આશ્રય કરીને નારકના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં કથન કરવામાં
આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન શર્કરામભાથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી " સુધીની પૃથ્વીમાં રહેલા યુલક કૃતયુગ્મ રાશિપ્રાણ ભવસિદ્ધિક નૈરફિકે.
ना 6416 विगेरेना विषयमा ५५ नु न .एवं भवसिद्धिक खुड्डाग 'तेयोग नेरइया वि' क्षु तयुग्म शशिप्रभाएर नैयिछीना ४थन प्रमाणे જ ક્ષુદ્ર જ રાશિપ્રમાણ ભવસિદ્ધિક નરયિકેનું કથન પણ સમજવું અર્થાત્ તેઓના ઉત્પાત વિગેરે પ્રમાણે જ આમના ઉત્પાદ વિગેરે પણ સમજવા . 'एवं जाव कलिओग त्ति' मन ॥ प्रमाणे या विशे२ स4 धाथन
થાવત્ ક્ષુદ્ર કાજ રાશિ પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક તૈકયિક સ બંધમાં પણ કહેવું • જોઈએ. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી મુદ્ર દ્વાપર યુગ્મરાશિપ્રમાણ ભવસિદ્ધિક , नयि। अड़य थये छे. 'नवरं परिमाण जाणियव परतु मधे भिन्न-भिन्न
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ सू०१ भव. कृत. ने. उपपातादिकम् २०९: केवलं सर्वत्र परिमाणं भिन्न भिन्न रूपेण ज्ञातव्यम् । 'परिमाण पुष्व मणियं जहा पढमुद्देसए' परिमाणं पूर्व भणितमेव ज्ञातव्यम् यथा एतच्छतकीय प्रथमोद्देशके कथितम् चत्वारो वा, अष्टौ वा, इत्यादि कृतयुग्मस्य । प्रयो वा, सप्त वा, इत्यादि योजस्य । द्वौ वा, षड् वा इत्यादि द्वापरयुग्मस्य । एको वा, पञ्च वा इत्यादि कल्योजस्येति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! भवसिद्धिक क्षुल्लक कृतयुग्मादि नारकाणां सामान्यानां रत्नप्रभा याश्रितानां च उत्पादपरिमाणादिकं यथा देवानुपियेण कथितं तत्सर्व सर्वथैव माणं जाणियन्वं' परन्तु सर्वत्र परिमाण भिन्न-भिन्न रूप से जानना चाहिये, जैसा कि इस शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है-कि कृतयुग्म राशिप्रमित नैरथिकों का परिमाण एक समय के उत्पाद का चार आठ आदि रूप हैं, योज राशिमित नैरपिकों का परिमाण एक समय के उत्पाद का तीन अथवा सात आदि रूप है। द्वापर युग्मराशि प्रमित नैरयिकों का परिमाण दो, छह आदि कल्योज राशिप्रमित नैरयिकों का परिमाण एक पांच आदि रूप है। 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भदन्त । क्षुल्लक कृतयुग्मादि राशिप्रमित भवसिद्धिक नैरथिको के उत्पादादि के सम्बन्ध में जो सामान्य रूप से तथा रत्न प्रभादि आश्रित इन्हीं नैरयिकों के उत्पादादि के सम्बन्ध में जो विशेष પણાથી સમજવું. જેમ કે-આ શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યું છે કે-કૂતયુગ્ય રાશિપ્રમાણ રિયિકેનું પરિણામ (એક સમયના ઉત્પાદનું) ચાર, આઠ, વિગેરે રૂપ છે. એજ રાશિપ્રમાણુવાળા નૈરયિકનું પરિમાણ એક સમયના ઉત્પાદનું. ત્રણ અથવા સાત વિગેરે રૂપે છે. દ્વાપર યુગ્મ રાશિ પ્રમાણ નરથિનું परिभा-2-2418 विगैरे ३थे छे. तम सम
'सेव भते । सेव' भते ! त्ति' 8 लगवन् क्षुत तयुभ शशिप्रभार વાળા ભવસિદ્ધિક નૈરયિકના ઉત્પાત વિગેરેના સંબંધમાં સામાન્ય રૂપથી અને વિશેષ રૂપથી આપવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે. તે સઘળું કથન સર્વથા
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भगवती, सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भवन्त वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च संयमेन तपसा आत्माने भावयन् विहरतीति ॥ सू०१॥ ' ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा- .
कलितललितकलापालापकमविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बाळब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां एकत्रिंशत्तमे शतके
पश्चमोद्देशकः समाप्तः॥३१-५॥ रूप से आप देवानुमियने कथन किया है वह सब सर्वथा सत्य ही है, ऐसा कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू० १॥.
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीमत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके एकतीसवें शतकका :
पंचम उद्देशक समाप्त ॥३१-५॥ સત્ય જ છે. ર આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમ સ્કાર કર્યા વંદન નમસ્કાર કરીને તેઓ સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકનો પાંચમો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૧-પા
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.६-२८ स०१ लेश्यायुक्त नै. उपपातादिकम् २११ ... अथ षष्ठोदेशकादारभ्य अष्टाविंशतिरुद्देशकाः पारभ्यन्ते ॥
मूलम्-कण्हलेस्स भवसिद्धि य खुड्डागकडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति एवं तहेव ओहिओ कण्हलेस्स उद्देसओ तहेव निरवसेसं, चउसु वि जुम्मेसु भाणियबो जाव अहे सत्तम पुढवी कण्हलेस्स खुड्डागकलिओगनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति तहेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥३१-६॥ ' 'नीललेस्स भवसिद्धिया चउसु वि जुम्मसु तहेव भाणि.
यव्वा, जहा ओहिए नीललेस्स उद्देसए । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥३१-७॥ -'काउलेस्स भवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव उववाए. यव्वा, जहेव ओहिए काउलेस्स उद्देसए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरई ॥३१-८॥
__ 'जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसया भणिया, एवं अभव. .सिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा । जाव काउलेस्स
उद्देसओ ति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' ॥३१-९-१२॥ ' एवं सम्मट्टिीहिं वि लेस्ला संजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगी कायव्वा, नवरं सम्मदिट्ठी पढमबितिएसु वि दोसु वि उद्देसए सु अहे सत्तमा पुढवीए न उववाएयव्वा, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥३१-१३-१६॥
मिच्छादिट्टीहि वि चत्तारि उद्देसगा कायवा, जहा भव. सिद्धियाणं से भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥३१-१७-२०॥
एवं कण्हपक्खिएहिं वि लेस्सा संजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायब्वा जहेव भवसिद्धिएहि सेवं भंते सेवं भंते ति।३१-२१-२॥
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· २१६ ....
भगवती सुक्कपक्खिएहि एवं चेव चत्तारि उदेसगा भाणियव्वा जाव चालुयप्पभापुढवि काउलेस्त सुक्कपक्खियखुड्डागकलिओग नेरइयाणं कओ उक्वजति, तहेव जाव नो परप्पओगेणं उववज्जति। सेवं भंते सेवं भंते ! ति सव्वे वि एए अट्ठावीसं उद्देसगा।३१.२८॥
। एकतीसइमं उववायसयं समत्तं ॥३१॥ , छाया-कृष्णलेश्यभवसिद्धिक क्षुल्लककृतयुग्मनयिरकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? एवम् यथैव, औधिकः कृष्णलेश्योद्देशकस्तथैव-निरवशेष चतुर्वपि युग्मेषु भणितव्यः यावदधः सप्तमपृथिवी कृष्णलेश्यक्षुल्लक कल्योजनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते तथैव, तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥३१।६।।
नीललेश्यभवसिद्धिकाश्चतुष्यपि युग्मेषु तथैव भणितव्याः यथा-औधिक नीललेश्योदेशके । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति यावद्विहरति ॥३१॥७॥ कापोतलेश्य भवसिद्धिका श्चतुष्यपि युग्मेषु तथैव उपपातयितव्याः यथैवौधिके कापोतलेश्योद्देशके । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त इति यावद्विहरति ॥३१ ॥८॥ ___यथा भवसिद्धिकैश्चत्वार उद्देशका भणिताः एवम् अभवसिद्धिकैरपि चत्वार उद्देशका भणितव्याः यावत्कापोतलेश्योद्देशक इति । तदेवं भवन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥३१॥९.१२॥ • एवं सम्यग्दृष्टिभिरपि लेश्यासंयुक्तैश्चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः नवरं सम्यग्दृष्टिः प्रथम द्वितीययोरपि द्वयोरपि उद्देशकयोरधः सप्तमपृथिव्यां न उपपातयितव्यः शेष तदेव, तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥३१।१३-१६॥ __मिथ्यादृष्टिभिरपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः यथा भवसिद्धिकानाम् । 'तदेव भदन्त । तदेव भदन्त ! इति ॥३१।१७-२० .. एवं कृष्णपाक्षिकैरपि लैश्यासंयुक्तैश्चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः यथैवभवसिद्धिकः । तदेवं भवन्त ! तदेवं भवन्त ! इति ॥३१॥२१-२४॥
शुक्लपाक्षिकैः-एवमेव चत्वार उद्देशका भणितव्याः यावद् बालुकाप्रभा पृथिवीकापोतलेश्य पाक्षिक क्षुल्लक कल्योज नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते, तयैव-यावद् नो परप्रयोगेणोत्पद्यन्ते । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति । सर्वेऽपि एतेऽष्टाविंशतिरुद्देशकाः ॥३१-२५ २८॥
एकत्रिंशत्तममुपपातशतं समाप्तम् ॥३१॥ __ टीका-'कण्हलेस्स भवसिद्धिक खुड्डाग कडजुम्म नेइयाणं भंते' कृष्ण
श्यभवसिद्धिकक्षुल्लक कृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! 'को उववज्जति' कृत
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प्रमैचन्द्रिका टीका श०३१ उ.६-२८ सू०१ लैश्यायुक्त नै उपपातादिकम् २१३
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उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यस्तिर्यग्योनिकेभ्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्यो वा आगत्योत्पधन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - ' एवं जहा ' इत्यादि । एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्स उस तव निरसेस' चउसु वि जुम्मेसु भाणियन्दो, एवं यथैव औधिकः कृष्ण aarttarः तथैव निरवशेष चतुर्ष्वपि युग्मेषु कृतयुग्म त्रयोज द्वापर कल्योज - युग्मेषु भणितव्यः । कियत्पर्यन्त मौधिक गमवक्तव्यता ? तत्राह - ' जाव' इत्यादि । 'जाब अहे सत्तम पुढची कण्हलेस खुड्डागकलिओगनेरइयाणं भन्ते ! कभ | उतवज्जेति यावदधःसप्तमपृथिवी कृष्णलेश्य क्षुल्लक कल्योजनैरयिकाः खलु शतक ३१ उद्देशक ६ - २८ तक
'कण्हलेस्स भवसिद्धिय खुड्डाकडजुम्म नेरयाणं भंते!' इत्यादि टीकार्थ :- हे भदन्त | कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक क्षुद्र कृतयुग्म प्रमाण प्रमित नैरथिक 'कओ उववज्जंति' किस स्थान विशेष से आक रके नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों में से आकरके वे वहाँ उत्पन्न होते हैं ? या तिर्यग्योनिकों में से आकर के वे वहां उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर वहां उत्पन्न होते हैं ? या देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं' एवं ' जहेव ओहिओ कण्हलेस्स उद्देसओ तहेव निरवसेस चउसु वि जुम्मेसु भाणियन्बो' हे गौतम ! औधिक कृष्णलेश्या के उद्देशक में जिस प्रकार से कहा गया है उसी प्रकार से चारों युग्मों में भी कहना चाहिये, वे चार युग्म - कृतयुग्म, ज्योज, द्वापर और कल्योज-ये हैं । यह औधिक गमवक्ता यावत्, अधः सप्तमी नारक पृथिवी के कृष्ण लेश्य છઠ્ઠા ઉદ્દેશાના પ્રારભ—
'कण्हलेस भवसिद्धिय खुड्डाग कड़जुम्म नेरइयाणं भंते !' इत्यादि
ટીકાૐ ભગવત્ કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક ક્ષુદ્રકૃતયુગ્મ પ્રમિત નૈરયિક 'कओ उववज्जति' या स्थान विशेषथी आवीने नरावासमा उत्पन्न थया छे ? શુ‘તે નૈરિયકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચામાથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા લેામાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने हे छे }-'एवं जहेब ओहिओ कण्दलेस्स उद्देसओ तहेव निरवसेसं
उ वि जुम्मे भाणिव्वो' हे गौतम! गौधिः पृ॒ष्णुलेश्याना उद्देशामां ने પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે ચારે યુગ્મામાં કહેવું. જોઇએ. તે ચાર યુગ્મ તે નૃતયુગ્મ ચૈાજ દ્વાપર અને કયેાજ એ પ્રમાણે છે. ઔધિક ગમ સ`ખ"ધી કથન ચાવત્ અધઃસની નારક પૃથ્વીના કૃષ્ડવેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લક
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भंगवतीस्त्र भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते, कि नैरयिकेभ्यस्तिर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्यो वा, इत्यादि प्रश्नः ? यावत्पदेन धूमप्रभातमः पृथिव्याश्रितनारकाणां संग्रहो भवतीति प्रश्न: ? तहेव' तथैव-औधिकमकरणवदेव सर्वमुत्तरं ज्ञातव्यम् । 'सेवं भंते ! सेवं -भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! यद् देवानुपियेण कथितम्, • सत्सर्व सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं नमस्कृत्य यावद्विहरतीति। .
पष्ठोद्देशका समाप्तः ॥३१॥६॥ 'क्षुल्लक कल्योज प्रमित नैरयिक वहां कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों में से आकर के वहाँ उत्पन्न होते हैं ? या तिर्यग्योनिफो में से आकर के वे वहां उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर वे वहां उत्पन्न होते है ? या देवों में से आकर के वहां उत्पन्न होते है ? इत्यादि कहना चाहिये । 'तहेव' हे गौतम! वे वहां पञ्चेन्द्रिय तिर्यः -योनिकों में से आकर के भी उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से : आकर के भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार औधिक प्रकरण के जैसा ही • यहां सब उत्तर जानना चाहिये, यहां यावत्पद से धूमप्रभा और तमः "प्रभाः पृथिवी में रहे हुए नैरयिकों का संग्रह हुआ है । 'सेव भते! सेव भते!न्ति' हे भदन्त | जो आप देवानुप्रियने यह कहा है वह सब सत्य ही है । ऐसा कहकर गौतम ने भगवान को वन्दना की और नमस्कार किया, बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा ' को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥ षष्ठ उद्देशक समाप्त ॥ ३१-६॥ કજ પ્રમિત નૈરવિક ત્યાં ક્યાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું નરયિકેમાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યમાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવमाथी मावीन. त्या पन्न. थाय छ १ मा ४थन सुधी ४ नये. 'तहेव' હે ગૌતમ!તેઓ ત્યાં પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ મિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અને ગર્ભજ મનુષ્યમાંથી પણ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે ઔધિક પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે અહિયાં તમામ ઉત્તરે સમજવા અહિયાં યાવત્પદથી २६ना पृथ्वी विरेभा रहेसा नै२यि। यह ४२सया छे. सेव भते ! सेव भवे ! त्ति' 3 साल मा५ हेवानुप्रिये २ ४थन ४रेस छ, ते सघणु जयन સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તેઓ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, સૂ૦૧
Iછઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૧-દા
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चन्द्रिका टीका श०३१ उ. ७ लु०१ लेश्जायुक्त नै उपपातादिकम्
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'नीकले सभवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियन्ना, जहेव ओहिए नीलसोसए' नीललेश्यभवसिद्धिका नारकाः चतुर्ष्वपि कृतयुग्म ज्योज द्वापरयुग्म कल्योजात्मकयुग्मेषु तथैव भणितव्या, यथा औधिकनीलले श्योद्देश के भणिताः । एतस्मिन्नेव शतके तृतीयोदेश के नीललेश्यामधिकृत्य युग्म चतुष्टयेषु नारकाणामुत्पातादिर्यथा प्रतिपादित स्तेनैव रूपेण नीललेश्य भवसिद्धिक नार कानां चतुष्वपि युग्मेषु तथैव वक्तव्यता विज्ञेया, सेव भंते ! सेवं भंते । ति जाव विहर' तदेव भदन्त ! तदेव सदन्त ! इति यावद्विहरति ॥०१॥
इति सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥ ३१-७॥
'नीललेस्स भवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु - तहेव भाणियव्वा' - इ. tara - arrested अवसिद्धिक नैरयिक चारों युग्मों में औधिक नीललेइयोदेशक में कहे अनुसार कहना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि इसी शतक में तृतीय उद्देशक में नीललेश्या को अधिकृत करके कृतयुग्म, ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्पोज इन चार युग्मों में नारक जीवों का उत्पात आदि जैसा कहा गया है उसी रूप से नील
यावाले भवसिद्धिक नैरयिकों की वक्तव्यता भी चारों ही युग्मों में कहनी चाहिये । सेव भरते ! सेव भते ! त्ति जोय विहरह' हे भदन्त ! आपका यह कथन सर्वथा सत्य ही हैं २ | यह कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर वे संयम औरतपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।. ॥ सप्तम उद्देशक समाप्त ॥ ३१-७ ॥
સાતમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ
'नीललेस्स भवसिद्धिय चसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियव्वा' त्याहि ટીકા”—નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક નૈરયિકા ચારે યુગ્મામાં ઔવિક નીલવેશ્યાના ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવુ' જોઈ એ
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આ કથનનું તાત્પ એ છે કે-આ એકત્રીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દે શામાં નીલેશ્યાના અધિકારથી કૃતયુગ્મ, ચૈાજ, દ્વાપરયુગ્મ અને કયેાજ યુગ્મામાં નારક જીવાના ઉત્પાદ વિગેરે સ'ખ'ધી જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવેલ. છે. એજ પ્રમાણે નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક નૈરયિકાના સ’ધમાં ચારે યુગ્મામાં કથન કરવુ જોઇએ.
'सेव भ' ! सेव' भते ! त्ति जाव विहरइ' हे लगवन् यायनुं या विषय સબધતુ કથન સવથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપનું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તપ અને સંયમથી પાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થફા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫
+3
॥सात भी उद्देश। सभारत ॥३१-७
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भगवतीस्त्रे _ 'काउलेस भवसिद्धिया चउसु जुम्मेसु' कापोत लेश्या भवसिद्धिका नारका: चतुर्ध्वपि कृतयुग्म-योज-द्वापरयुग्मेषु । 'तहेव उववारयन्या जहेब ओहिए काउलेस्सोद्देसए' तथैव तेनैव रूपेण उपपातयितव्याः यथैव-औधिके कापोतलेश्यो देशके उपपातिताः । एतच्छतकीय चतुर्थोदेशके कापोतलेश्याश्रित नारकाणां युग्म चतुष्टयमधिकृत्य यथा-यथा उत्पादपरिमाणादिकः कथितः तत्सर्व मिहापि अनुसन्धेय इति । 'सेव भते ! सेन भते ! ति जाव विहरइ' तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति । इत्यष्टम उद्देशकः समाप्तः ॥८॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकत्रिंशत्तमे शतके अष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥३१-८॥
आठवें उद्देशेका प्रारंभ 'कउलेस्स भवसिद्धिया चउसु जुम्मेलु' कापोतलेश्यावाले भव. सिद्धिक नैरयिकों का चारों युग्मों में 'तहेव उवधाएयव्या जहेव
ओहिए काउलेस्लो इसए' औधिक कापोतलेश्या उद्देशक में कहे गये अनुसार उपपात आदि का कथन करना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि इस शतक के चतुर्थ उद्देशक में कापोतलेश्या को आश्रित करके नारकों का कृतयुग्मादि चारों युग्मों में जिस-जिस प्रकार से उत्पाद परिमाण आदि का कथन किया गया है वही सब कथन यहां पर भी लगाना चाहिये सेवं भंते । 'सेव भंते ! त्ति जाव विहरई'
આઠમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ– 'काउलेस्स भवसिद्धिया चउसु जुम्मेसु' पात वेश्यावा लपसिद्धि यिनु यारे युग्मामा 'तहेव उववाएयव्वा जहेव ओहिए काउलेस्सोदेसए' भोधि पात वेश्यावाणा देशमा । प्रभारी ५पात विगेरे સંબંધી કથન કહેવું જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–આ એકત્રીસમા શતકના ચેથા ઉદ્દેશામાં કાતિલેશ્યાને આશ્રય કરીને નારકેનું કૃતયુમ વિગેરે ચારે યુગ્મમાં જે-જે રીતે ઉત્પાદ, પરિમાણ વિગેરેના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ સઘળું કથન અહિંયાં પણ કહેવું જોઈએ. 'सेव भते । सेव भते । ति जाव विहरई' है भगवन् मापवानुप्रिये इस
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प्रचन्द्रिका टीका २०३१ उ.८ सू०१ लेश्यायुक्त नै उपपातादिकम्
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हे भदन्त | आप देवानुप्रिय के द्वारा कहा गया यह सब विषय सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया । चन्दना नमस्कार करके तप एवं संघम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सू० १॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के एकतीसवें शतकका ॥ अष्ठम उद्देशक समाप्त ॥ ३१-८॥
આ તમામ વિષય સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં વંદ્યના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજ માન થયા. સૂ॰૧૫
"
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકના આઠમા ઉદ્દેશે સમાપ્ત શા૩૧-૮
भ० २८
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भगवतीचे अथ नवमोद्देशकादारभ्य द्वादशान्ता उद्देशकाः 'जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारिउद्देपया भणिया' यथा भवसिद्धिकैर्भवसिद्धिकान् नारकानाश्रित्य यथा चत्वार उद्देशकाः कथिताः। एवं अभवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देसा भाणियध्या' एवम् अभवसिद्धिकैरवि-अभवसिद्धिका नाश्रित्यापि चत्वार उद्देशका भणितव्या कियस्पर्यन्तं तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाव-काउलेस्सा उद्देसोत्ति' यावत्कापोतलेश्योद्देशक इति, यावत्पदेन प्रथमस्य सामान्यनैरयिकाणां कृष्णलेश्य नीललेश्यनैरयिकाणां संग्रहो भवतीति । 'सेव भंते ! सेवं
नव वें उद्देशक से बारह पर्यन्त के उद्देशेका कथन 'जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि उद्देसया भणिया' जिस प्रकार भवसिद्धिक नारकों को आश्रित करके चार उद्देशक कहे गये हैं 'एवं अभवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्या' इसी प्रकार अभव्यसिद्धिक नैरयिकों को आश्रित करके भी चार उद्देशक कहना चाहिये-यावत्कापोतलेश्या उद्देशक तक । यहां यावत्पद से सामान्य नैरयिकों का कृष्णलेश्यावाले नैरयिकों का एवं नीललेश्यावाले नैरयिकों का ग्रहण हुआ है । 'सेव भंते ! सेवं भते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आप देवानुप्रियने यह विषय कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । ऐसा
નવમા ઉદ્દેશથી બારમા સુધીના ઉદ્દેશાઓને પ્રારંભ– 'जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसया भणिया' रे प्रमाणे सिद्धि ना२हीने उद्देशाने या उद्देशा॥ ४ामा यावा छ, 'एव अभवसिद्धिए हिं वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा' मे प्रमाणे मनसिद्धि नयिहाने ઉદેશીને પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ. યાત્કાતિલેશ્યા ઉદ્દેશક પર્યન્ત કહેવું જોઈએ. અહિયાં યાવત્પદથી આ એકત્રીસમા શતકના સમાન્ય ઉદ્દેશાના કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નરયિકે અને નીલલેશ્યાવાળા નરયિકે ગ્રહણ કરાયા છે. ___'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' है मगवन् मापवानुप्रिये मा विषयमा જે કહ્યું છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.९-१२०१ लेश्यायुक्त नै उपपातादिकम् २१९
भंते! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥ नवम दशमैकादश द्वादशो देशकाः समाप्ताः ॥९-१०-११-१२ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्या नैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् एकत्रिंशत्तमशतकस्य नवोदेशका दारभ्य द्वादशान्ता उद्देशकाः समाप्ताः ॥९-१२॥
कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || लू० १ ॥
'जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके इकतीसवें शतक का नववें उद्देशक ९-से लेकर १२ तक समाप्त ॥ ९-१२ ॥ ને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તેએ સયમ અને ૧૫થી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજ માન થયા. પ્રસૂ॰૧ા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકના નવમા ઉદ્દેશાથી માર ઉદ્દેશા સુધીના ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૩૧-૯-૧રા
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भगवतीने : : : त्रयोदशादारभ्य पोडपान्ता उद्देशकाः
'एवं सम्प्रद्दिहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायना' एवं भवामवसिद्धिकनारकवदेव सम्यग्दृष्टिभिरपि नारकैः कृष्ण-नील कापोतलेश्यासंयुक्तैः चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः। सम्यग्दृष्टिकक्षुल्लककृतयुग्मनारकाः खल भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? कृष्णलेश्य सम्यग्दृष्टि क्षुल्लककृतयुग्मनारकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते २, नीललेश्य सम्यग्दृष्टि नारकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ३, कापोतलेश्य सम्यग्दृष्टिनारकाः कुत उत्पद्यन्ते ४,
तेरहवें उद्देशक से सोलहवें पर्यन्त के उद्देशक का कथन 'एवं सम्मदिट्ठी वि लेस्सा लजुत्तेहि चत्तारि उद्देलगा कायव्वा'
भवलिदधिक, एवं अभवसिद्धिक नारफ के जैसे कृष्ण, नील कापोतलेश्या संयुक्त सम्पदृष्टि नारकों को लेकर भी चार उद्देशक कहना चाहिये-जैसे हे भदन्त ! क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित सम्यग्दृष्टिक मारक किस स्थान विशेष से आकर के नरकाबास में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि हे भदन्त । कृष्णलेश्यावाले क्षुल्लककृतयुग्म राशिप्रमित सम्पः
दृष्टि नारक किस स्थान विशेष से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं १२ । इत्यादि नीललेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित सम्यग्दृष्टिक नारक हे भदन्त । किस स्थान विशेष से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि ३ कापोतलेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित सम्यग्दृष्टि नारक हे भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकर नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि ४ इस क्रम से ये चार उद्देशक जानना चाहिये। 'नवरं सम्पदिद्धि एहमबितिएस्लु वि दोसु धि उद्देमएसु
તેરમા ઉદ્દેશથી સોળમા સુધીના ઉદ્દેશાને પ્રારંભ– 'एव सम्मदिद्विहिं वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा' त्याle
ટીકાઈ–ભવસિદ્ધિક નારકના કથન પ્રમાણે કૃષ્ણ નીલ, કાપતલેશ્યાવાળા સમ્યગદષ્ટિ નારકોને ઉદ્દેશીને ચાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ, જેમ કે-હે ભગવદ્ કણુલેશ્યાવાળા મુલક કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમિત સમ્યગદૃષ્ટિવાળા નારકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? ૨ નીલલેશ્યાવાળા ક્ષુલ્લકકૃતયુમ રાશિપ્રમિત સમ્યક્ દષ્ટિવાળા નારકે ક્યા સ્થાન વિશેષથી આવીને નારકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? ૩ કાપતલેશ્યાવાળા ભુલક કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમિતસમ્યગ્દષ્ટિવાળા નારકે ક્યા સ્થાન વિશેષથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? ૪ ML भयो यार शाय। सभल वा. 'नवर सम्मदिट्टि पहमबीसिएसु दोसु
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१३-१६ २०१ लेश्यायुक्त नै. उपपातादिकम् २२१ एवं क्रमेण चत्वार उद्देशकाः ज्ञातव्याः । 'नवरं सम्मदिट्ठीपहमबितिपसु वि दोसु वि उद्देसएसु' नबरं केवलं सम्यग्दृष्टिनारकः, प्रथम द्वितीययोरपि द्वयोरपि उद्देशकयोः । 'अहे सत्तमा पुढबीए न उवा एयब्बो' अधः सप्तमी पृथिव्यां सप्तमनरकभूमौ न उपपातयितव्यः, प्रथमद्वितीयोद्देशके सम्यग्दृष्टिनारका सप्तम. नारकभूमौ न उपपातयितयः । कापोतलेश्याश्रयः प्रथम-द्वितीय तृतीयनरकेषु गच्छति नान्यत्र, नीललेश्यः तृतीय चतुर्थ-पञ्चमनरके गच्छति नान्यत्र, कृष्ण लेश्या-पञ्चम-पष्ठ सप्तमनर कोषु गच्छति नान्यत्र, किन्तु कृष्णलेश्या-सभ्यग्दृष्टिः सप्तमे न गच्छति पञ्चम षष्ठ नरकेषु गच्छत्येवेति भगवता कथितम् । कृष्णलेश्यस्य सप्तम्यां गमनस भदेल सल्यष्टिप्रभावात् तनिषेधो युक्त एव नील कापो अहे सत्तमा पुढवीए न उववाएयच्छो' परन्तु प्रथम और द्वितीय उद्देशक में सम्यग्दृष्टि नारक का अधालनमी पृथिवी में उत्पाद नहीं होने के कारण उसका वहां लताद नहीं कहना चाहिये तात्पर्य इस कथन को ऐसा है कि कापोतलेश्यावाला लभ्यष्टि नारक प्रथम तृतीय, चतुर्थ
और पंचभ इन नरकों में जाता है अन्य नरकों में नहीं जाता है नीललेश्यावाला सम्धष्टि नारक तृतीय चतुर्थ और पंचम इन नरकों में जाता है । अन्यन नहीं जाता है कृष्णश्यावाला नारक 'यद्यपि पञ्चम, षष्ठ और सपनाम इन नरकों में जाता है अन्यत्र नहीं जाता है किन्तु कृष्णलेश्यावाला संम्यग्दृष्टि नारक रूपम नरक में नहीं जाता पंचम और ६ठे नरक में तो जाता ही है ऐसा भगवान ने कहा हैं। कृष्णलेश्यावाले का सप्तम नरक में गमन संभव है परन्तु सभ्य ग्दर्शन के प्रभाव से वहां जाने का निषेध किया गया है तो यह कथन उद्देसएसु अहे खत्तमा पुढवीए न उववाएयव्वा' ५२ ५९मा मने भील ઉદ્દેશામાં સમ્યગદષ્ટિવાળા નારકને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં ઉત્પાત ન થવાના કારણે ત્યાં તેને ઉત્પાત કહેવો ન જોઈએ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-કાપોતિક લેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નાક પહેલા બીજા અને ત્રીજા નરકમાં જાય છે. તે શિવાય ના બીજા નરકમાં જતા નથી. નીલલેક્ષાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નારક ત્રીજા, ચોથા, અને પાંચમા નરકમાં જાય છે. તે સિવાય અન્યત્ર જતા નથી કરાલેશ્યાવાળા નારકે જે કે-પાંચમા, છઠ્ઠા અને સાતમા નરકમાં જાય છે, અન્યત્રજતા નથી. પરંતુ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા સમ્યગદૃષ્ટિ નારક સાતમા નરકમાં જતા નઈં. પહેલા અને છઠ્ઠા નરકમાં તે જાય જ છે. તે પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. કૃષ્ણલેશ્યાવાળાનું સાતમા નરકમાં ગમન સંભવિત છે. પરંતુ સમ્ય ગદર્શનના પ્રભાવથી ત્યાં જવાને નિષેધ કરેલ છે, તે આ કથન એવય જ છે,
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भगवतीसूत्र तयोस्तु तत्र सप्तम्यां प्राप्तिरेव नास्ति, अतो न तनिषेधः कृत इति एतदेव वैकक्षण्यम् ‘सेस तं चेव' शेषम्-कथितव्यतिरिक्तम् अन्यत्सर्वं पूर्व प्रदेव ज्ञातव्यमिति । 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति । ' इति श्री - विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालनविविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकत्रिंशत्तमे शतके त्रयोदशोदेशकादारभ्य पोडशोदेशकान्ता
___ उद्देशकाः समाप्ताः ॥३१।१३।१६।। युक्त ही है । नील और कापोतलेश्यावालों की तो वहाँ प्राप्ति ही नहीं है। इसलिये वहां इसका निषेध नहीं किया गया है । 'सेस त घेव' इस भिन्नता के अतिरिक्त और सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही है । 'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' हे भदन्न ! जैसा आप देवानुमियने कहा है वह सब कथन सत्य ही है २ ऐसा कहकर गौतमस्थामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
॥शतक ३१ उद्देशक १३ से १६ तक समाप्त ॥ ३१-१३-१६ ॥ નીલ અને કાપતિક વેશ્યાવાળાઓની તે અહિયાં પ્રાપ્તિ જ થતી નથી. तथा भने निषेध नथी. 'सेस' त चेत्र' मा ५२ 38 मिन्न ! शिवाय બાકીનું તમામ કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું. ___'सेवं भते ! सेवं भते ! त्ति' 3 मशवन् मापवानुप्रिये २ प्रमाणे આ વિષયમાં કથન કર્યું છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવાન આપવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂપા
એકત્રીસમા શતકા તેરમા ઉદ્દેશથી સોળમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૧૩-૧૬
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sheet ठीका श०३१ उ. १७-२४०१ लेश्यायुक्त नै उपपातादिकम् २२३
'मिच्छादिट्ठीहि विचार उद्देसगा कायच्या, जहा भवसिद्धियाण, मिध्यादृष्टिभिरपि लेश्यास युक्तै चत्वार उद्देशकाः सामान्योद्देशकाः कृष्ण-नील कापोतलेश्याश्रयाः त एते चत्वार उद्देशकाः कर्त्तव्याः यथा भवसिद्धिकानां चत्वारः कथिता इति । सेव भ ! सेवं भंते ! ति, तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति सप्तदशा -ऽष्टादशै-कोनविंशति विंशत्युद्देशकाः समाप्ताः ३१।१७/२०
'मिच्छादिट्टि िविचत्तारि उद्देसमा कायच्चा जहा भवसिद्धियाणं' बेश्या संयुक्त मिध्यादृष्टि नारकों के भी चार उदेशक भवसिद्धिक नारकों के जैसे कहना चाहिये, एक सामान्य उद्देशक कृष्णलेश्याश्रय द्वितीय उद्देशक २ नीललेश्याश्रय तृतीय उद्देशक ३ और कापोतलेइया श्रथ चतुर्थ उद्देशक ४ 'सेव' भ'ते ! सेव' भते ! त्ति' हे भदन्त आप देवानुप्रिय के द्वारा कहा गया यह रूप कथन सर्वथा सत्य ही है २ इस प्रकार कह कर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ||सू० १ ॥ ॥ शतक ३१ उद्देशक १७ से २० तक समाप्त ॥ ३१-१७- २० ॥
સત્તરમા ઉદ્દેશાથી વીસમા સુધીના ઉદ્દેશાઓના પ્રાર ભ—
'मिच्छादिट्टि िविचत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहा भवसिद्धियाणं' त्यहि ટીકાલેશ્યાવાળા મિથ્યાષ્ટિવાળા નારકેમાં પણુ ભત્રસિદ્ધિક નારકાના કથન પ્રમાણે ચારે ઉદ્દેશાએ કહેવા જોઈએ. એક સામાન્ય ઉદ્દેશક ૧ કૃ લેશ્યાવાળા સમધી બીજો ઉદ્દેશે ૨ નીલલેસ્યા સમાઁધી ત્રીજો ઉદ્દેશ ૩ અને કાપેાતલેશ્યા સબધી ચેાથા ઉદ્દેશે!. ૪ આ ચાર ઉદ્દેશાઓ સમજી લેવા.
'सेवं भवे । सेवं भवे । त्ति' के लगवन् आपट्टेवानुप्रिये ने महेस मा તમામ આ કથન સથા સત્ય જ છે. હું ભગવન્ આપદેવાનુપ્રિયે કહેલ આ વિષયનું સઘળુ કથન સવથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા, સૂ॰૧૫
સત્તરમા ઉદ્દેશાથી વીસમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૩૧-૧૭–૨૦ા
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भगवतीस्त्रे थथ एकोनविंशतिदारभ्य चउविंशतित्युद्देशकाः धारयन्ते ॥ ‘एवं कण्डपविखएहि नि लेस्सासंजुत्तेहिं चचारि उद्देसगा कारना' एवं भवसिद्धिकादिवदेव कृष्णपाक्षिकारकैरपि लेश्यायुक्तः कृष्ण-नील-कापोतयुक्त श्वत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः परिपठनीयाः, सामान्योदेशका प्रथमः कृष्णलेउपा. थिनो द्वितीयः नीललेश्याश्रय चतुर्थ, एते चत्वार उद्देशकाः पठनीयाः ? इत्याह'जहेव भवसिद्धिएहि यथैव भवसिद्धिकं भवद्धिकनारकाश्रितलेल्याश्रिताश्चश्वार उद्देशकाः हापि-तथैव चत्वारो ज्ञातव्या इति । सेन मी ! सेवं भंते ! त्ति, तदेव अवन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥२१-२२-२३-२४ उद्देशकाः समाप्ताः ॥
एकवीसवें उद्देशक ले चौबीदने पर्यन्त के उद्देशनका कथन 'एमाहपशिखएहि चि लेस्लामजुत्तेहिं चसारि प्रदेशमा कायवा' टीकार्थ-भलिद्धिक आदि नारकों के जैसे कृष्ण, नील, कापोत लेश्या युक्त कृष्णपाक्षिक कारकों के सी चार उध्वाक कहला चाहिये। इनमें एक पहला सामान्य उद्देशक है कृष्णलेण्याश्रित हित्तीय उद्देशक है। नीललेमाश्रित उत्तीय उद्देशक है। और कापोतमाश्रित चतर्थ उद्देशक है । 'खेवं अंते ! सेब भंते !त्ति' हे भदन्त ! जैसा आप देवाननिय ने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे वंयम और तप ले आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥० १॥
॥ शतक ३१ उद्देशक २१ ले २४ तक समाप्त ।। એકવીસમા ઉદેશથી ચોવીસમા સુધીના ચાર ઉદેશાને પ્રારંભ– , ' एवं कण्डपक्विपहि वी लेम्प्या सजुत्तेहिं चत्तारि उदेसगा कायवा' या
ટીકાઈ– ભવતિ દ્ધિક વિગેરે નારકના કથન પ્રમાણે કૃષ્ણ, નીલ, કાપત, લેશ્યાવાળા કૃષ્ણપાક્ષિક નારના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદેશાઓ સમજી લેવા. તેમાં એક સામાન્ય પહેલો ઉદ્દેશે ૧ કૃષ્ણલેશ્યા સંબંધી બીજો ઉદ્દેશે કહ્યો છે. નીલલેશ્યા સંબંધી ઉદ્દેશો કહ્યો છે.
सेव भते । सेव ! भंते ! ति मगन गाय हेवानुप्रि२२ प्रभातु यन કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર ક્ય વંદના નમસ્કાર કરીને તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજ માન થયા. સૂ૦૧ી એકવીસમા ઉદ્દેશાથી ૨૪ વીસમા ઉદેશા સુધીના ચાર ઉદેશાઓ સમાપ્ત
૩૧-૨૧ થી ૨૪
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प्रचन्द्रका टीका श०३१ उ. २५-२८ स्०९ लेश्यायुक्त ने उपपातादिकम् २२५ -
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खलु
'क्पविखहिं, एवं चैव चचारि उद्देगा भाणियन्त्रा' शुक्लपाक्षिकैः एवमेव चत्वार उद्देशका भणितव्याः, शुक्लपक्षिक क्षुल्लक कृतयुग्मनारकाः भदन्त ? कुत उत्पद्यन्ते, एवं क्रमेण - प्रथम उद्देशकः शुक्लपाक्षिककृष्णलेश्य क्षुल्लककृतयुग्मादि नारकाः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते २ इति द्वितीयोदेशकः २ नीलेश्य शुक्लपाक्षिक क्षुल्लककुयुग्मादिनारकाः खलु भदन्त ! कुत उत्प यन्ते ? इति तृतीयोदेशकः ३ कापोतलेश्य शुक्लपाक्षिक क्षुल्लककृतयुग्मादि नारकाः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते । इति चतुर्थीदेशका ४ एवं क्रमेण चस्त्रार उद्देशका संपद्यन्ते । कियत्पर्यन्तं वक्ता उद्देशकास्तत्राह - 'जान' इत्यादि ।
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'सुपरहिं एवं देव चत्तारि उद्देखया भाणिचव्वा' इसी प्रकार से शुक्लपाक्षिक नारकों के भी चार उद्देशक कहना चाहिये, जैसेक्षुल्लककृतयुग्मादि राशिप्रति शुक्लाक्षिक नारक हे भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? ऐसा यह प्रथम उद्देशक है क्षुल्लक कृतयुग्मादि राशिप्रमित कृष्णलेइपावाले शुक्लपाक्षिक नैरधिक हे भदन्त ! किस स्थान से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते है ? ऐसा यह द्वितीय उद्देशक है । क्षुल्लककृतयुग्मादि राशि प्रमित नीललेावाले शुक्लपाक्षिक नैरयिक हे भदन्त । किस स्थान विशेष से आकर के नरकावाल में उत्पन्न होते हैं ? ऐसा यह तृतीय उद्देशक है | क्षुल्लक कृतयुग्मादि राशिप्रमित कापोतलेइयावाले शुक्लपाक्षिक नैनकि हे भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकर के नरकाપચ્ચીસમાથી અઠયાવીસ સુધીના ઉદેશાએાના પ્રારભ~~ 'सुकर करहिं एवं चेत्र चत्तारि उद्देगा भाणियव्वा' इत्यादि ટીકા-એજ પ્રમાણે શુકલપાક્ષિક નારકેાના સબંધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ જેમ કે-ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ આદિ રાશિપ્રમિત શુકલ - પાક્ષિક નારક હૈ ભગગન કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રમાણેના આ પહેલો ઉદ્દેશ છે ૧
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ક્ષુલ્લક કૃતયુગ્મ આદિ રાશિપ્રમિત કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા શુકલ પાક્ષિક નૈરયિકે હે ભગવન્ યા સ્થાન વિશેષથી આને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? . એ પ્રમાણેના આ ખીન્ને ઉદ્દેશેા છે. ર
ક્ષુલ્લકકૃતયુગ્મ આદિરાશિ પ્રમિત લેશ્યાવાળા શુકલપાક્ષિક હૈ ભગવન કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને નકવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? એ પ્રમાણેના ત્રીને ઉદ્દેશો કહ્યો છે ૩
ક્ષુલ્લક મૃતયુગ્મ વિગેરે રશિપ્રમિત કાપાતલેશ્યાવાળા શુકલપાક્ષિક નૈરચિકા
भ० २९
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भगवतीले
'जाव चालुयष्पभा पुढविकाउलेस्स सुकपक्खियखुड्डाग कळिओगनेरइयाणं भंसे ! कभी उववज्जति' यावद् वालुकाममा पृथिवी कापोतलेश्य शुक्ळपाक्षिक क्षुल्लक करयोजनारकाः कुत उत्पद्यन्ते यावत्पदेन रत्नप्रभा - शर्करमभापृथिवी सम्वन्धिकापोत लेश्यनारकाणां तथा कापोतलेश्यानां कृतयुग्म ज्योज- द्वापरयुग्मघटितानां शुक्ल पक्षिय नारकाणां ग्रहणं भवति । पूर्वोदेशक कथितोत्पादप्रकाराः संग्रहीतव्याः यावत्-नो परप्रयोगेण उत्पद्यन्ते एतत्पर्यन्तम्, एतदाशयेनैव कथितम् ।
'तत्र जाव नो परप्ययोगेण उववज्जंति' तथैव यावत् नो परमयोगेणोत्पधन्ते, पूर्वोक्तं सर्वमहाऽनुसन्धेयम् । सेव भंते । सेवं भंते । त्ति' तदेव भदन्त | भदन्त । इति यावद्विहरति ॥
बास में उत्पन्न होते हैं ४ ऐसा यह चतुर्थ उद्देशक है। ये चारों उद्देशक 'जाव वालुवप्पभा पुढची काउलेस्स सुक्कपक्खिय खुट्टाग कलिओग नेरछ्याणं भते ! कओ उचवज्जंति' इस सूत्रपाठ तक कहना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि - हे भदन्त ! यावत् वालुकाम भागत क्षुल्लक कल्योज राशिप्रमित कापोतलेश्यापाले शुक्लपाक्षिक नारक कहां से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते है ? यहां यावत्पद से रत्नप्रभा एवं शर्करा प्रभापृथिवी सम्बन्धी कापोतलेइयावाले नारकों का तथा कृतयुग्म ज्योज, एवं द्वापरयुग्मराशिप्रमित कापोतलेइयावाले शुक्लपाक्षिक नारकों का ग्रहण हुआ है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - हे गौतम | 'तव जाव नो परगेणं उवयज्जंति' पूर्व के जैसा उत्तर जानना चाहिये । यावत् હે ભગવન કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને નરકવામમાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણેના આ ચેાથે ઉદ્દેશેા કહ્યો છે. ૪
भायारे देशा। 'जाव वालुय पभा पुढवी काउलेस्स सुकपक्खियखुड्डाग कलिओग नेरइयाणं भवे । कभ उवत्रअंति' मा सूत्रपात सुधी हेवु लेई थी. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-હે ભગવન યાવત્ વાલુકાપ્રભા પતના ક્ષુલ્લક કલ્ચાજ રાશિપ્રમિત કાપે તલેશ્યાવાળા શુકલપાક્ષિક નારકે! કયાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અહિયાં ચાપથી રત્નપ્રભા અને અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના નારકો તથા મૃતયુગ્મ ચૈાજ અને દ્વાપરયુગ્મ રાશિ પ્રમિત કૃષ્ણે નીલલેશ્યાવાળા શુકલપાક્ષિક નારકો ગ્રહણ કરાયા છે.
આ ઉપર પૂછેલ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે કે ગૌતમ! 'तद्देव जव नो परप्पओगेण उववज्जंति' पडेल ह्यां अमा अडियां उत्तर સમજવા ચાવત્ તે પરપ્રચેગથી ઉત્પન્ન થતા નથી.
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प्रमेयंद्रिका टीका श०३१ उ.२५-२८०१ लेश्यायुक्त नै उपपातादिकम् २२७
'सव्वे विएए अट्ठावीस उद्देगा' सर्वेऽपि एते उपर्युक्ता अष्टाविंशतिरुदेशा भवन्तीति इत्येकत्रिंशत्तमे शतके - २८ उद्देशकाः समाप्ताः ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषांकलितकलित कलापाळापकमविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्तं - 'जैनाचार्य ' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासिलालवतिविरचितायां श्री " भगवतीसूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् अष्टाविंशत्युदेशात्मकमेकमुपपादशतं समाप्तम् ॥
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वे पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं । 'सेव' भंते ! सेव भंते! प्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने कहा हैं वह सब कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम स्वामी ने प्रभुश्री को चन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । 'सव्वे वि एए अठ्ठावीस उद्देगा' इस प्रकार से ये सब २८ उद्देशक समाप्त हो जाते हैं । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेघ चन्द्रिका व्याख्याके अठाईस उद्देशक सहित ॥। ३१ वां शतक समाप्त ॥
'सेव' भते ! सेव' भते । त्ति' हे भगवन आपदेवानुप्रिये के उथन यु છે, તે સઘળું કથન સČથા સત્ય છે. હું ભગવન આપદેવાનુપ્રિયનું કથન સવ થા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્ર્વને વંદના કરી તેએને નમ સ્કાર કર્યાં. વઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સયમ અને તપથી પેાતાના આમાને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, સૂîા 'सव्वे वि एए अट्ठावीसं उद्देसगा' मा रीते मधा भजीने अध्यावीस ઉદ્દેશાએ થાય છે.
'જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી પૂજય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકત્રીસમા શતકના પચ્ચીસમા ઉદેશાથી ખઠયાવીસમા ઉદ્દેશાોનું કથન સમાપ્ત ૫૩૧-૨૫ થી રા Uએકત્રીસમુ' શતક સમાપ્ત ॥૩૧॥
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સ્ટે
भगवती सूत्रे
॥ अथ द्वात्रिंशत्तमं शतकम् ॥
( १ २८ उद्देशकाः )
एकत्रिंशमे शतके नारकादि जीवानामुत्पादादिः कथितः, द्वात्रिंशत्तमे तु शतके नरकादि जीवानामेव उद्वर्त्तना कथ्यते इत्येवं सम्बन्धेन आयातस्याऽष्टात्रिंशत्युद्देशक प्रमाणस्येदमादिमं सूत्रम् -
'खुड्डाकडजुम्मनेरइयाणं भंते' इत्यादि ।
मूलम् - खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! अनंतरं उव्वहित्ता कहिं गच्छति, कहिं उबववज्जंति किं नेरइएस उववज्जंति तिरिक्खजोगिएसु उववज्जंति उव्वट्टणा जहा वक्कंतीए ।
ते णं भंते! जीवा एक्समएणं केवइया उव्वहंति ? गोयमा ! वारिवा, अटू वा, बारस वा, सोलस वा संखेज्जा - असंखेजा वा उठति । ते भंते ! जीवा कहं उच्चर्वृति, गोयमा ! से जहानामए पए एवं तहेव ।
1
एवं सो चैत्र गमओ जाव आयप्पयोगेणं उव्वहंति नो परपयोगेणं उवहंति । रयणप्पभापुढवि खुड्डागकडजुम्म० एवं रयणपभाए वि एवं जाव अहे सत्तमाए । एवं खुड्डागतेओग खुड्डागदावरजुम्म खुड्डागकलिओगा ।
नवरं परिमाणं जाणियव्वं सेसं तं चेत्र । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥
कण्हलेस कडजुम्म नेरइया एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसर अट्ठावीस उद्देगा भणिया तहेव उच्चट्टणा सए वि अट्ठावीस उद्देगा भाणियव्वा निरवसेसा ।
नवरं उव्वहंति त्ति अभिलावो भाणियच्वो सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते! चि जाव विहरइ ॥३-१-२८॥ बत्तीसइमं उवहणा सयं समत्तं ॥ ३२ ॥
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प्रमैयन्द्रिका टीका ०३२ उ.१ १०१ नारकादि जीवानामुहर्तनानि० २२९
छाया-क्षुल्लककृत्युग्मनेरयिकाः खलु भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गच्छन्ति कुत्रोत्पधन्ते, किं नैरपिकेषु उत्पधन्ते तिर्यग्योनिकेषु, उत्पधन्ते, उद्वर्तना यथा व्युत्क्रान्तौ । ते खल्लु भदन्त ! जीवा एक समयेन कियन्त उद्वर्तन्ते ? गौतम ! चत्वारोवा, अष्टौ वा, द्वादन वा, पोडप वा, संख्यासावा, असंख्याता वा, उद्वर्तन्ते। ते खलु भदन्त ! जीवाः कथमुद्वर्तन्ते, गौतम ! स यथानामकः प्लवकः, एवं तथैव, एवं स एव गमको याबद्-आत्ममयोगेण-उद्वर्तन्ते, नो परप्रयोगेण उद्वर्त्तन्ते । एवं रत्नप्रभारथिवीक्षुल्लाकृतयुग्म, एवं रत्नमभायामपि एवं यावदधः सप्त. म्याम् । एवं क्षुल्लक-योज • क्षुल्लकद्वापरयुग्म-क्षुल्लककल्योजाः। नवरं परिमाण ज्ञातव्यम्, शेष तदेव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥सू०१॥ - द्वात्रिंशत्तमशतके प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥३२॥१॥
· कृष्णलेश्य-कृतयुग्म-नैरयिकाः, एक्मेतेन क्रमेण यथैव उपपातशतेऽष्टाविंशतिरुद्देशका भणिता स्तथैव-उद्वर्तनाशतेऽपि अष्टाविंशति रद्देशका मणितध्या निरवशेषाः । नवरम् उद्वर्तन्ते इत्यमिलापो भणितव्यः, शेषतक्षेच। तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति ॥ 'द्वात्रिंशत्तममुद्वर्तनाशतं समाप्तम् ॥३२॥
टीका-'खुड्डागाड जुम्म नेरइयाणं भंते ! क्षुल्लककृतयुग्म राशिरूपनैरयिकाः खलु भदन्त । 'अणंतरं उपट्टिता कहिं गच्छन्ति' अनन्तरम्-नारकमवसमाप्ती
--शतक ३२ उद्देशक १-२८३१ वे शतक में नारक जीवों का उत्पाइ आदि कहा अब इस ३२ वें शतक में उन्ही कृतयुग्मादि राशिममित नैरपिकों की उद्वर्तना कहनी है, सो इली सम्बन्ध को लेकर इस शना का प्रारम्भ हुआ है। इसमें २८ उदेशक हैं। 'खुड्डा काडजुम्मलेर इयाण ते !' इत्यादि
टीकार्थ-'खुड्डामकडजुम्न नेइयाण भंते! हे भदन्त ! क्षुल्लकन. युग्मराशिप्रमित नैरधिक नारक अवकी समाप्ति होते ही नरकभव में से
બત્રીસમા શતકનો પ્રારંભ–ઉદેશે પહેલ– એકત્રીસમા શતકમાં નારક વિગેરે જીના ઉત્પાદ વિગેરેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ બત્રીસમા શતકમાં એજ કૃતયુગ્મ વિગેરે રાશિ વાળા નરયિકેની ઉદ્વર્તના કહેવામાં આવશે. એ સંબધને લઈને આ શતક ને પ્રારંભ કરવામાં આવ્યું છે. આ શતકમાં અઠયાવીસ ઉદેશાઓ છે.
'हुड्डाग कड़जुम्न नेरइयाणं भंते !' त्या
टी - 'खुड्डाग कडजुर मनेरइया णं भंते ! 8 14 भुम द्रुत યુમ શિપ્રમિત નરયિક. નારક ભવની સમાપ્તી થતાં જ નારક ભવથી
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भगवतीले सत्याम् अन्तररहितम् उद्वर्त्य-निःमृत्य 'कहिं गच्छन्ति' कुत्र गच्छन्ति कहिं उपवज्जति' कुत्रोत्पद्यन्ते ? हे भदन्त ! इमे नारकभवसमाप्तो अनन्तरम्-अन्तर. रहितं कस्मिन् भवे गच्छन्ति, कुत्र चोत्पद्यन्ते-कि नेरइएसु उववज्जति तिरिक्ख. जोणिएसु उववज्जति' किं नरयिकेषु उत्पद्यन्ते ? अथवा-तियग्योनिके पृत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'उव्वट्टणा' इत्यादि' 'उबट्टणा जहा बक्तीए' उद्वर्तनी यथा व्युत्क्रान्ती, प्रज्ञापनायाः पृष्टपदे यथा-उद्वर्तना कथिता, तथैव इहापि नारकाणामुदत्तना ज्ञातव्या । अर्थतः सा चैवम्
नरगाओ उध्वट्ठा, गम्भे पज्जत्तऽसंखजीवीमु' इति ।
नरकात् उवृत्ता गर्ने पर्याप्ता संख्यजीविषु, इतिच्छाया। ___अयं भावः-ते नारका नरकान्निर्गत्य पर्याप्तसंख्यातवर्षायुष्क मनुष्येपू स्पधन्ते, तथा-तिर्यग्योनिकपुत्पद्यन्ते इति । 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं निकल करके कहां पर जाते हैं ? कहां उत्पन्न होते हैं ? तात्पर्य यह है कि नारक नरक पर्याय से निकलते ही उसी समय किस भाव में जाते हैं और कहां उत्पन्न होते हैं ? 'किं नेरइएसु उववज्जति' क्या नरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? या 'तिरिक्खजोणिएस उपवति' तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उबट्टणा जहा वक्कंनीए' हे गौतम ! प्रज्ञापना के ६ठे पद में जिस प्रकार से उद्वर्तना कही गई है, उसी प्रकार से यहां पर भी नारकों की उद्वर्तना करनी चाहिये, घह इस प्रकार से है-- ___'नरगाओ उन्धा गम्भे पज्जत्तसंखजीवीस्तु' तात्पर्य ऐसा है-वे भारक नरक से निकल करके पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुः ज्यों में और तिग्मोनिकों से उत्पन्न होते हैं। तेणं भंते ! जीवो एगનીકળીને ક્યાં જાય છે? અર્થાત્ કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-નારક, નારક પર્યાયથી નીકળીને એ વખતે ક્યા ભવમાં જાય છે? भने ४यां उत्पन्न याय छ १ 'किं नेरइएसु उबवज्जति' शुतमा १२यिमा उत्पन्न याय छ १ मथवा 'तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति' तिय ययानिमा ५ थाय छ १ मा प्रशना उत्तरमा प्रभुश्री मीनभान ठे-'उच्चट्टणा जहा वक्तीए' હે ગૌતમ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠા વ્યુત્કાતિ ૫દમાં જે પ્રમાણે ઉદ્વર્તન સંબંધી કથન કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં નારકની પણ ઉદ્વર્તન કહેવી જોઈએ. તે કથન આ પ્રમાણે છે –
'नरगाओ उबट्टा गम्भे पज्जत्तऽसखजीवीसु' मा ४थननु तात्पर्य' એ છે કે-તે નારકો નરકથી નીકળીને પર્યાપ્તક સખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા अनुध्यामा मन तिय ययानिकीमा पन थाय छे. 'ते गं भंते ! जीवा एगममरणं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३२ उ.१ सू०१ नारकादि जीवानामुहर्तनानि० २३१ केवाया उबटुंति' ते खलु नारका भदन्त ! एकसमयेन एकस्मिन् समये इत्यर्थ। कियत्संख्यका उद्वर्तन्ते इति प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा, इत्यादि । गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि वा, अट्ट वा, बारस बा, सोलस वा, संखेज्जावा असंखेज्जावा, उबईति' क्षुल्लक-कृतयुग्म-नारका श्वरवारो दा, अष्टौवा, द्वादश बा, पोडश वा, संख्याता वा असंख्याता वा, एकसमये उद्वर्तन्ते' इति । 'ते णं मंते ! जीवा कई उबटुंति' ते खलु भदन्त ! क्षुल्लक कृतयुग्म-नारका जीवाः कथं केन प्रका. रेण उद्वर्तन्ते इति प्रश्नः । भावानाह-गोयमा' हे गौवन ! 'से जहानामए पत्रए एवं तहेव' स यथानामका प्ला , एवं तथैव-पूर्वोक्तवदेव ‘एवं सो चेव गम यो जाव-आयप्पओगेग उन्नति' एवं स एव भमको यावद् आत्मपयोगेण उद्वर्तन्ते नो परमयोगेगोत्पद्यन्ते । अयं भावः क्षुल्लक-कृतयुगम-लारकाः कथमुत्तन्ते इति समएणं केवड्या उबवज्जति' हे अदन्त ! वे जीव एक लमय में कितने उत्पन्न होते हैं अर्थात् वे जीव नरक ले एक समय में कितने निकलते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! चत्तारि बा अहवा, बारस वा, सोलस वा स खेज्जा वा असंखेज्जा वा उमट्टति' हे गौतम! चार अथवा आठ अथवा बारह अथवा सोलह अथवा संख्यात या असंख्यात नारक जीव एक समय में वहां से निकलते हैं।
'तेणं अंते ! जीवा कह उन्वति' हे अदन्त ! क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित नारक जीव किस प्रकार से उतना करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! ले जहानामए परए एवं तहेच' हे गौतम ! जैसे कोई कूदनेवाला मनुष्य जैसाकि पच्चील वें शतक के आठवे उद्देशक में कहा गया है उसी के अनुसार यहां गमक कहना चाहिये, अर्थात् क्षुल्लक कृतयुग्म नारक किस प्रकार से उद्वर्तना करते हैं ? तो केवइया उववज्जति' हे मन ७३॥ ॐ समयमा पनि थाय छ ? અર્થાત્ એક સમયમાં નરકવાસમાંથી કેટલા નીકળે છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! चतारि वा, अट्ट वा, बारस वा, सोलसवा, संखेज्जा वा, असखेज्जा वा उबटुंति' गौतम। या२ अथवा 18 अथवा मा२ अथवा सेण अथवा સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત નારક જીવ એક સમયમાં ત્યાંથી નીકળે છે.
'तेणं भते जीवा कह उच्चति' है मगन्ते क्षुद तयुम्भ राशि પ્રમિત નારક જી કઈ રીતે ઉદ્વર્તન કરે છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा 1 से जहा नामए पवए एवं तहेव' 3 गौतम ! म पावाणी પુરૂષ જેમ કે પચ્ચીસમા શતકના આઠમા ઉર્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છેએજ પ્રમાણેના ગમકે અહિયાં કહેવા જોઈએ અર્થાત્ ક્ષુલ્લક કુતયુગ્મ
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२३२
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भगवतीस्त्र पश्नस्य पतिवचनावमरे पञ्चविंशतिशतकस्याऽष्टमोद्देशकस्य भाव इहानुकरणीयः अर्थद्वारेण स एव उद्देशक इह पठनीयः । 'रयणप्पभापुढवि खुड्डांगकडा०' रत्नप्रभा पृथिवी क्षुल्लक-कृतयुग्म प्रमाणका नारकास्तुत उद्वर्य कुत्र गच्छन्ति जुत्रोत्पद्यन्ते कि नैरयिकेषु उत्पधन्ते तिर्यग्योनिकेछु बोत्पधन्ते इत्यादि क्रयेण प्रश्नः ।
उत्तरमाह-एवं' इत्यादि । 'एवं रयणप्पमाएवि' एवं सामान्यतः क्षुल्लककृतयुग्मनारकाणाम् यथोद्वर्तना कथिता, तथैव-रत्नप्रभा पृथिवी नारकजीवाना. मपि उद्वर्तना वक्तव्या । ‘एवंजाब अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् ,
यथा-रत्नममा प्रथमनारकपृथिवी सम्बन्धिनारकाणामुद्वर्तना कथिता इस प्रश्न के उत्तर में पच्चीस वें शतक के आठवें उद्देशकका भाव यहां वक्तव्य है वही उद्देशक यहां पठनीय है। 'रयणपभा पुढवी खुड्डाग कड' हे सदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी के क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाणक नारक वहां से उद्वर्तना करके कहां जाते हैं और कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या के नैरपिकों से नैरपिकों में उत्पन्न होते हैं या तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम । 'एवं रयणपाए वि' जिस प्रकार की उद्वर्तना सामान्य क्षुल्लक कृत युग्म नारकों की कही गई है उसी प्रकार की उद्वर्तना रत्नप्रभा पृथिवी के नारक जीवों की भी वाहनी शहिये । 'एवं जाय हे सत्तमाए' जैसी उद्रतना रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी के नारकों की कही गई है वैसी ही ऊद्रतना शर्कशाप्रमा नाम की द्वितीय पृथिवी क्षुल्लक कृत युग्म राशिप्रमाणक नारकों से लेकर अघालनमी पृथिवी के क्षुल्लक નારક કઈ રીતે ઉદ્વર્તન કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પચ્ચીસમાં શતકના આઠમા ઉદ્દેશાનું કથન અહિયાં કહેવું જોઈએ. તેમ સમજવું
'रयणप्पभा पुढवी खुड्डाग कड० ले मापन रत्नमा थाना क्षु કૃતયુગ્ય પ્રમાણુવાળા નારકે ત્યાંથી ઉદ્વર્તનો કરીને કયાં જાય છે? અને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? શું ? તેઓ નરયિકમાંથી નીકળીને નરયિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચ નિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? मा प्रश्न उत्तरमा मुश्री ४ छ8-8 गौतम ! 'एवं रयणप्पभाए बि' २ પ્રમાણેની ઉદ્ધના સામાન્ય મુલક કૃતયુગ્મ નારકા વિશે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેની ઉઢના રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક જીવોની પણ કહેવી नये एवं जाव अहे सत्तमाए' २नमा पृथ्वीना ना ना २ પ્રમાણે કહી છે, એ જ પ્રમાણેની ઉદ્ધતના શર્કરા ભા નામની બીજી પૃથ્વીના
લક કૃતયુંમ રાશિ પ્રમાણુ નારક જીવાથી લઈને અધઃસસમી પૃથ્વીના
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प्रमेयचन्द्रिका का श०३२ उ.१ सू०१ नारकादि जीवानामुद्वर्तनानि० २३३ तेनैव रूपेण शर्करामभा द्वितीय नारकपृथिवी सम्बन्धि क्षुल्लक-कृतयुग्म-राशिप्रमाणकनारकादारभ्यापासप्तमी नारक पृथिवी सम्बन्धि क्षुल्लक-कृतयुग्मराशिप्रमाणक नारकजीवपर्यन्मजीवानामपि-उतना वक्तव्या प्रकारश्च पूर्वप्रद. शित एव ग्राह्यः । एवं खुड्डागतेओग खुड्डागदावरजुम्म खुड्डाग कलिओगा' एवं क्षुल्लकम्योज क्षुल्लक द्वापरयुग्म, क्षुल्लक कल्योजराशि प्रमाणा अपि जीवा ज्ञातव्याः। 'नवरं परिमाणं जाणियब्छ' नवर केवल परिमाणं भिन्न भिन्न रूपेण क्षुल्लक कृतयुग्मादिनारकाणां ज्ञातव्यम् ।
तथाहि-क्षुल्लक-कृतयुग्मनारकाणां परिमाणम्-चत्वारो वा, अष्टौ वा, द्वादशवा-पोडश वा, संख्याता वा, अस ख्याता वेति कथितम्, तथा क्षुल्लकयोजनारकाणां यो वा, सन वा, एकादश वा, (श्चदश चा, संख्याता था, असंख्याता वा, इत्येवं क्रमेण वक्तव्यम् । एवं-क्षुल्लक-द्वापरयुग्मनारकाणाम्, कृतयुग्म राशिप्रमाण नारक जीवों तक की भी कहनी चाहिये । इस सम्बन्ध में प्रकार पूर्व पद में दिखा ही दिया गया है ! 'एवं खड्डाग तेओग खुड्डाग दावर जुम्म खुड्डाग कलिओगा' इसी प्रकार से क्षुल्लक योज, क्षुल्लक द्वापरयुग्म और क्षुल्लक कृतयुग्म राशिप्रमित जीवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, 'नवर परिमाण जाणियन्वं' परन्तु क्षुल्लक कृतयुग्लादि नारकों का परिमाण भिन्न-२ रूप से जानना चाहिये। जैसे-क्षुल्लक कृतयुग्म नारकों का परिमाण चार, आठ, बारह सोलह, संख्यान या असंख्यात कहा गया है । क्षुल्लक व्योज नारकों का परिमाण तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह संख्यात या असंख्यात कहा गया है । क्षुल्लक द्वापरयुग्म नारकों का परिमाण दो, छह, दश, चौदह, સુકલક કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણે નારક જીવ સુધીની કહેવી જોઈએ આ સંબં ધમાં પહેલા બતાવેલા પ્રકાર પ્રમાણેને પ્રકાર સમજે. - एवखुड्डाग तेओग खुड्डागदावरजुम्मखुड्डाग कलिओगा' मा પ્રમાણે ક્ષુલ્લક જ, ક્ષુલ્લક દ્વાપરયુગ્મ અને મુલક કજરાશિપ્રમિત लवान सभा १ सभापु . 'नवर परिमाण जाणियव्व' परंतु क्षुल्स કૃતયુગ્મ વિગેરે નારકોનુ પરિણામ જૂદા જુદા પ્રકારનું સમજવું જેમ કેમુલક કૃતયુગ્મ નારકનું પરિમાણ ચાર, આઠ, બાર, સેળ, સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત કહેલ છે. મુલ્લક જ નારકેનું પરિમાણ ત્રણ, સાતે, અગિયાર પંદર, સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત કહેલ છે. ક્ષુલ્લક દ્વાપરયુગ્મ
भ० ३०
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भगवतीय दौ घा, षड् वा, दश वा, चतुर्दश वा, संख्याता वा, असंख्याता का, क्षुल्लककल्योजनारकाणाम् एको वा, पञ्च वा नव वा, त्रयोदश वा, संख्याता वा, अस. ख्याता वा, इत्येवं क्रमेण वक्तव्यम् । 'नवर परिमाणं जाणियध्य' इत्यस्यायमेव भावो मूलसूत्रे इति । 'सेस तं चेव' शेपं परिमाणातिरिक्तं सर्व कृतयुग्मनारक वदेव ज्ञातव्यम् ।
रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धि ज्योज-द्वापरयुग्म कल्योज नारकवदेव शर्करा प्रभात आरभ्याऽधः सप्तमी पृथिवी सम्बन्धि योज-द्वापरयुग्म-कल्योजनारकाणा मपि एवमेव परिमाणे वैलक्षण्यम्, तदन्यत्सर्व रत्ननमा मथमनारक पृथिवी संख्यात अथवा असंख्यात कहा गया है । क्षुल्लक कल्पोज नारकों का परिमाण एक, पांच, नौ, तेरह संख्यात अथवा असंख्यात कहा गया है। सो इस क्रम से इनका परिणाम कहना चाहिए, इस प्रकार से 'नवरं परिमाणं जाणियध्वं' इस सूत्र का यही भाव मूलसूत्र में प्रदशित किया है । 'सेसचेव' परिमाण से अतिरिक्त और सब कधन कृतयुग्म नारक के जैसा ही जानना चाहिये । रत्नप्रभा पृथिवीं सम्बन्धी योज, द्वापर युग्म और कल्योज राशिप्रमित नारकों के जैसा ही शर्कराप्रभा से लेकर अधासप्तमी पृथिवी सम्बन्धी नारकों के भी परिमाण में इसी प्रकार से वैलक्षण्य जानना चाहिये । इसके सिवाय और सब कथन रत्नप्रभा प्रथम नारक पृथिवी के जैसा ही जानना चाहिये, 'सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा यह विषय નારકેનું પરિમાણ છે, છ, દસ, ચૌદ સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત કહેલ છે. ક્ષુલ્લક કલ્યાજ નારકેનું પરિમાણ એક, પાંચ નવ, તેર સ ખ્યાત અથવા અસંખ્યાત કહેલ છે. તે આ કમથી આમનું. પરિમાણુ કહેવું જોઈએ. 'नवरं परिमाणं जाणियव्व" मा सूत्री मामा भूतसूत्रमा मतावस छे. ... 'सेस त चेव' परिभाष शिवायनु भी सघणु थन तयुभ ना२४॥ કથન પ્રમાણે જ સમજવું. રત્નપ્રભા પૃથ્વી સંબંધી જ, દ્વારપયુગ્મ, અને કાજ રાશિપ્રમિત નારકેના પરિમાણમાં પણ આજ પ્રમાણેનું વિલક્ષણ્ય સમજવું. આ શિવાય બાકીનું સઘળું કથન રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેલી નારક પૃથ્વી સંબંધી જ વિગેરેના કથન પ્રમાણે કહેલ છે.
_ 'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' है मगवन् मा विषय समयमा मा५ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે સઘળું કથન એજ પ્રમાણે છે, હું ભગવાન
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प्रमैयर्यान्द्रका टीका श०३२ उ.१ २०१ नारकादि जीवानामुद्वर्तनानि० २३५ वदेव सर्वमवगन्तव्यमिति । 'सेवं मते ! सेवं भंते ! तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति पूर्ववत् ॥५० १॥
इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वरळम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा__ कलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य -जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् द्वात्रिंशत्तमशतकस्य
प्रथमोद्देशक समाप्ताः॥३२-१॥ आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है ऐसा कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर के फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥१० १॥
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत • "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके बत्तीसवें शतक का
प्रथम बद्देशक समाप्त ॥३२-१॥ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગીતસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન બિરાજમાન થયા. પ્રસૂન જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના બત્રીસમા શતકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩ર-૧
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भगवतीसूत्र अथ द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते 'कण्हलेस्स कडजुम्म नेरइया' कृष्णलेष्य कृतयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! अनन्तरेमुद्वर्त्य कुत्र गच्छन्ति, कुत्रोत्पद्यन्ते, किं नैरपिके पृस्पधन्ते तिर्यग्योनिकेषु वोत्पधन्ते ? इत्यादि रूपेण प्रश्नः ? उत्तरमाह-‘एवं' इत्यादिना, एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अहावीसं उद्देमगा भणिया, तहेव-उबट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्या निरससेसा' एवमेतेन क्रमेण यथैव उपपातशत के अष्टाविंशतिरुद्देशाका भणिता स्तथैवोद्वर्तना शतकेऽपि-अष्टाविंशतिरुदेशका मणितव्या निरवशेषाः।
तत्र कृतयुग्मनारकस्य प्रथमउत्तनोदेशकः १, कृष्ण लेश्यकृतयुग्मस्य द्वितीयोद्देशकः २, नीललेश्यकृतयुग्मस्य तृतीयोद्देशकः ३, कापोतलेश्यकृतयुग्मस्य
शतक ३२ उद्देशक २-२८ टीकार्थ-'
कलेस्स कडजुम्म नेरझ्या०' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले कृनयुग्म राशिप्रमित नरयिक नारक भव की समाप्ति होते ही नरक भव से निकल कर कहां जाते हैं ? और कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या नेरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? या तियज्योनिको में उत्पन्न होते हैं इत्यादि उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'एवं एएणं कमेणं जहेच उववायसए अट्ठाधीस उदेसमा भणिया तहेव उवणासए वि अट्ठावीस उद्देसगा भाणियव्या निरचसे सा' इस प्रकार इस क्रम से जैसे उपपात शतक में २८ उद्देशक कहे गये हैं उसी प्रकार ले उतना शतक में भी २८ उद्देशक कहना चाहिये, इनमें-कृतयुग्मादि नारक का प्रथम उद्वर्तनोद्देशक है? कृष्णलेग्यावाले कृतयुग्मादि नारक का द्वितीयोद्देशक है, नील
मी शानो पार - 'फण्हलेसकड़जुम्म नेरक्या' त्यादि
ટીકાથું–હે ભગવદ્ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમિત નરયિક, નારક ભવની સમાપ્તિ થતા નરકભવથી નીકળીને ક્યાં જાય છે? અને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? શું નરયિકમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચ નિમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'एच् एएण जहेन उववायत्रण अट्ठावीस उद्देसगा भणिया तहेव उबट्टणासए वि अट्ठावीस उद्देसगा भाणियव्व। निरवसेसा' गरी । मया 6५पात शतमा જે પ્રમાણે અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ કહેવામાં આવ્યા છે એ જ પ્રમાણે આ ઉદ્વર્તના શતકમાં પણ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ. આમાં કૃતયુમ નારકને પહેલે ઉદ્વર્તના ઉદ્દેશે કહ્યો છે. કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુમ નારક સંબંધી બીજો ઉદ્દેશે કહ્યો છે. નીલેશ્યાવાળા કૂતયુગ્મ નારક સંબંધી ત્રીજે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३२ ३.२ सू०१ नैरयिज्ञाणामुपपातनिरूपणम् २३७ चतुर्थोदेशका ४, तदेवं लेश्याश्रिवाश्चत्वार उद्देशकाः ४, एवं अवसिद्धिकनारकस्य चत्वार उद्देशकाः निर्विशेषणस्य लेश्यात्रयविशेषणपहितस्य च ८, एवमेव-चत्वार उद्देशका अभवसिद्धिकस्य १२, सस्यग्दृष्टेलेश्यासंयुक्तस्य चत्वार उद्देशकाः १६, एवमेव-मिथ्याद्रघटेर्लेश्यायुतस्य चत्वार उद्देशकाः २१, एवं शुक्लपाक्षिकस्यापि चत्वार उद्देशका भवन्ति २८, तदेवं सर्वसङ्कलनया-एकत्रिशत्तमोपपातशतकवत द्वात्रिंशत्तमोद्वर्तनाशत केऽपि अप्टाविंशतिरदेशका भवन्तीति, 'नवरं उदृति अमिलावो भाणियबो' नवरं-केरलं विशेष एतावानेव, यत् उपपातकशतके लेश्यावाले कृतयुग्मादि नारकका तृतीय उद्देशक है । कापोतलेश्यावाले कृतयुग्मादि नारक का चतुर्थोद्देशक है । इस प्रकार ले ये लेश्याश्रित चार उद्देशक हैं । इसी प्रकार से अलिद्धिक नारक के चार उद्देशक हैं इनमें पहिला उद्देशक सामान्य अवसिद्धिक नारक का है और तीन उद्देशक कृष्णनील, कापोतलेश्थात्रय विशेषण विशिष्ट असिद्धिक नारक के हैं। इसी प्रकार से चार उद्देशक अवसिद्धिक नारक के हैं १२ लेश्या संयुक्त सस्थरष्टिनारक के चार उद्देशक हैं। १६ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि नारक के चार उद्देशक है कृष्णपाक्षिक नारक के चार उहे. शक हैं और शुक्लपाक्षिक नारक के भी चार उदेशक हैं सब मिलकर इस प्रकार से थे २८ उद्देशक है। जिस प्रकार से ३१ उपपात शतक में २८ उद्देशक हैं उन्ली प्रकार से इस ३२ में उतना शतक में भी २८ उद्दे. शक हैं । अन्तर केवल दोनों में इतना साही है कि उपपान शतक में जैसे उपपात पद जोड़कर अभिलाष कारा जाता है उसी प्रकार यहाँ उपઉદ્દેશે કહ્યો છે. કાપલેશ્ય વાળા કૃતયુમનારક સ બ ધી ચેાથે ઉદ્દેશ કહેલ આ રીતે લેશ્યાસંબધી ચાર ઉદ્દેશા કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક નારક સંબંધી ચાર દંડક કહ્યા છે તેમાં પહેલે દંડક સામાન્ય ભવસિદ્ધિક નારક સંબધી છે. અને ત્રણ દંડકે કૃણ, નીલ, કાપિત, એ ત્રણ વેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક નારકોના છે. એ જ પ્રમાણે ચાર ઉદ્દેશાઓ અભાવસિદ્ધિ નારક સંબંધી કહ્યા છે. ૧૨ તથા લેણ્યા યુક્ત સમ્યક્ દૃષ્ટિવાળા નારક સંબધી ચર ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે. ૧૬ વેશ્યાવાળા મિથ્યા દષ્ટિવાળા નારક સંબધી ચાર ઉદેશાઓ કહ્યા છે કૃષ્ણ પાક્ષિક નારક સ બંધી ચાર ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે, અને શુકલપાક્ષિક સબ ધી પણ ચાર ઉદેશાઓ કહેલા છે જે પ્રમાણે ૩૧ એકત્રીસમા ઉપપાત શતકમાં અઠયાવીસ ઉદ્દેશ એ છે, એ જ પ્રમાણે અ, બત્રીસમા ઉદ્વર્તાના શતકમાં પણ અડાવીસ ઉદ્દેશા એ છે આ બનને માં અ નરકેવળ એટલું જ છે કે -ઉપ પાત શતકમાં જેમ ઉપયત પદ્ધ જોડીને અભિવાપ કહેવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં
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રરંટ
भंगवतीने उत्पद्यन्ते इति यत्र कथ्यते, तत्र-तत्र सर्वत्रैव उद्वर्तन्ते इत्येवमभिळापः करणीयः एतावदेव द्वयोः शतकयो लक्षण्यम्, 'सेसं तं चेव' शेषम्-उद्वर्तन्ते इति विशेषणादतिरिक्तं सर्व तदेव उपपातशतवदेव ज्ञातव्यम् । ___ 'सेवं भाते ! सेव माते ! ति जाव-विहर' तदेवं भदन्त । तदेव भदन्त ! इति यावद्विहरति इति पूर्ववत् ।।२८॥ इति श्री- विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां द्वात्रिंशत्तमे-उत्तनाशत के द्वितीयोदेशकादारभ्याऽष्टाविंशति
पर्यन्ता उद्देशकाः समाप्ताः ॥२-२८॥
___ द्वात्रिंशत्तममुद्वत्तना शतकं समाप्तम् ॥३२॥ पात के स्थान में उतना शब्द जोड़कर अभिलाप कहना चाहिये, 'सेसत चेव' बाकी और लब कपन उपपात शतक के जैसा ही है। 'सेव भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरई' हे भदन्त ! जैसा आप देवानु प्रिय ने यह विषय कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तप ले आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥२ ले लेकर २८ उद्देशक समाप्त ॥
॥३२ वां शतक सम्मान॥ 6५५तना स्थान ना ५६ भूमीर ममियायो ४ न 'सेस त वेव' माडीतुं मी तमाम ४थन ५५ात शतम ड्या प्रभारी छे.
__ 'सेव मते ! सेव भते 1 त्ति जाब विहरई' सावत् मापवानुप्रिये આ વિષયમાં જે પ્રમાણે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપદેવાનુપ્રિયતુ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા. વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના બત્રીસમા શતકના બીજા ઉદ્દેશથી અઠયાવીસમાં
ઉદ્દેશા સુધીના ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૩ર-રથી ૨૮
બત્રીસમું શતક સમાપ્ત .
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम्
अथ त्रयस्त्रिंशत्तमं शतकमारमतेद्वात्रिंशत्तमे-उद्वर्तनाशतके नारकाणासुद्वर्तना कथिता, उदृत्ताश्च नारकाः एकेन्द्रियादिषु नोत्पद्यन्ते, केच ते, एकेन्द्रिया यत्र नारका नोत्पधन्ते ? इत्यस्यां शङ्कायामेकेन्द्रियाः प्ररूपयितव्याः भवन्ति, तेषु च तावद् एकेन्द्रियाः प्रथमतः परूपणीया, इत्ये केन्द्रियमरूपणापरकं त्रयस्त्रिंशत्तमं शतकं द्वादशावान्तरशतोपेतं व्याख्यातुमारभते, तस्य चेदं सूत्रम्-इविहाणं अते !' इत्यादि।
मूलम्-काविहा णं अंते ! एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा! पंचविहा एगिदिया पन्नता तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया। पुढवीकाइयाणं संते! कविहा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य । सुहुम पुढवीकाइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता? । गोयमा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-पज्जत्तसुहुमपुढवीकाइया य अपजत्त सुहुमपुढविकाइया य । बाथरपुढविकाइया गं भंते ! काविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! एवं चेच । एवं आउकाइया वि घउक्कएणं भेएणं माणियव्वा एवं जाव वणस्लइकाइया। अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइयाणं संते! कसम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! अट्ट कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ तं जहा-नाणावरणिज्ज जाव अंतराइयं। पज्जत्तसुहमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्म० पगडीओ पन्नताओ ? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । अपज्जत बायरपुढविकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! एवं चेव ८। पज्जत्तवायरपुढवीकाइयाणं अंते ! कइ कम्मपगडीओ एवं चेव ८ । एवं एएणं कमेणं जाव- बायरवणस्सइ. काइयाणं पज्जत्तगाणं त्ति। अपज्जत्तसुहुमपुढविक्काइयाणं भंते! कहकम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! लत्तविहबंधगा वि अट्ट
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भगवती विह बंधगा वि । लत्त बंधमाणा आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति । अह बंधमाणा पडिपुन्नाओ अटु कम्मपगडीओ बंधति । पज्जत्तसुहमढवीकाइयाणं अंते ! कइ कम्मएवं क्षेत्र नम्वे जार पज्जतसुहमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधति एवं चैव । अपज्जन्तसुहसपुढवीकाइया णं भंते ! कइकस्मपगडीओ वेदेति ? गोयला! चोदस कम्मपगडीओ वेदति ? तं जहा-नाणावरणिज्जं जान अंतराइयं लोइंदियवज्झं चखिदियझं घाणिदियत्रज्झं जिभिदियवज्झं इथियवेदवझं पुरिसवेदवझं, एवं बउरणं भेएणं जाव-ज्जत्तबायरवणस्तइकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा! एवं चेव चोद्दस कम्मपगडीओ वेदेति। सेवं भंते! सेवं भंते!त्ति ॥सू.१॥ . छाया-ऋतिविधाः खलु भनन्त ! एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पश्वविधा एकेन्द्रियाः तद्यथा-पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः। पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौनस ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञाप्ताः? गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा पर्याप्सुक्ष्म पृथिवीकायिकााश्च, अपर्याप्तसक्षमपृथिवीकायिकाश्च, वादर पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! एक्मेत्र, एवम् अकायिका अपि चतुष्केण भेदेन भणितव्याः, एवं यावद्वनस्पतिकायिका अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! सप्त विधवन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपि । सप्तवनन्त-आयुर्वर्जाः सप्त कर्म प्रकृती बंधनन्ति, अष्टवन्तः परिपूर्णा अप्ट प्रकृतीबंधनन्ति !
पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्म० एवमेव, एवं सर्वेयावत्, पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त । कति कर्म प्रकृतीबंधनन्ति ? एवमेव । अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त । कति प्रकृतिवेदयन्ति गौतम । चतुर्दशकर्म प्रकृतीवें दयन्ति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं यावदन्तरायिकं श्रोत्रेन्द्रियबध्यम् चक्षुरिन्द्रियबध्यम्-घ्राणेन्द्रियबध्यम, जिह्वन्द्रियवरम्, स्त्रीवेदबध्यम्। पदावेदबध्यम् । एवं चतुष्केन भेदेन यावत्पर्याप्तवाटर-नापतिकायिका
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प्रमेयाग्द्रिका टीका श०३३ उ.१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् २४१ खल भदन्त । कति कर्मप्रकृतीवें दयन्ति । गौतम ! एवमेव चतुर्दश कर्मपकृतीवेदयन्ति-तदेव भदन्त । तदेव भदन्त । इति ॥३३॥१'
टीका-'कइविहा णं भंते ! एगिदिया पत्ता' कतिविधाः खलु भदन्त ! एकेन्द्रियाः पज्ञप्ताः १ हे भदन्त एकेन्द्रियजीवानां कियन्ती भेदा भवन्तीति प्रश्न: ? भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, गोयमा ! हे गौतम ! 'पंचविहा एगिदिया पश्नत्ता' पञ्चविधा:-पञ्चप्रकारा एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञाप्ताः-कथिताः। तत्र प्रकारभेदमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पुढविक्काइया जाव
॥ शतक ३३ उद्देशक १--- ३२ वें शतक में नारकों की उर्तना के सम्बन्ध में कथन किया गया है। नारक से उद्वृत्त हुए नारक एकेन्द्रियादिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः वे एकेन्द्रियादिक कौन हैं कि जिन में नारकों की उत्पत्ति नहीं होती है इस शंका की उपस्थिति में एकेन्द्रियादिक प्ररूपण के विषय भूत बन जाते हैं । सो सबसे पहिले एकेन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा करनेवाला यह ३३ वां शतक कि जो ११ उद्देशकों वाला हे व्याख्या युक्त किया जाते है।
'कइविहा णं भंते ! एनिदिया पन्नत्ता'-इत्यादि सूत्र-१
टीकार्थ--'काविहा णं भंते ! एगिदिया पण्णत्ता' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये है ? 'गोयमा ! पंचविहा एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम ! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसा-पुढविकाझ्या जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिक
तत्रीसमा शतना प्रारम-५ अशी બત્રીસમા ઉદના શતકમાં નારકેની ઉદ્વર્તના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે, નરકથી નીકળેલા નારક એકેન્દ્રિય વિગેરેમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. તેથી તે એક ઈન્દ્રિયવાળાઓ કયા છે? કે જેમાં નારકની ઉત્પત્તિ થતી, નથી. આ શંકાના સમાધાન માટે એક ઈન્દ્રિય વિગેરેની પ્રરૂપણ કરવાની જરૂરત લાગે છે, તેથી સૌથી પહેલાં ઈન્દ્રિયવાળા જીની પ્રરૂપણ કરવાવાળા આ તેવીસમા શતકને કે જે અગિયાર ઉદેશાઓવાળું છે તેનું કથને કરવામાં અવે છે –
'कइविहाणं भंते ! एगि दिया पन्नत्ता' त्याह
टी -'कइविहाणं भंते ! एगि दया पन्नत्ता' लगवन् मेद्रियाणा છે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
छ -'गोयमा ! पचविहा एगिदिया पन्नत्ता' 3 गौतम ! ४ ४ दिया ei पाय प्रा२ना अडवाभा माया छे. 'त जहा' ते मा प्रभारी छे.--
भ० ३१
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भगवती वणस्सइकाइया, पृथिवीकायिका याचद् वनस्पतिकायिकाः। अत्र यावत्पदेन अप्कायिक, तेजस्कायिक वायुकायिकानां संग्रहो भवति ।
तथा च-पृथिव्यादिवनस्पत्यन्त भेदेन पञ्च प्रकारा एकेन्द्रियजीवा भवन्ति, एतेषां स्पर्शनेन्द्रियमात्र भवति, रसनादीन्द्रियाणामभावात् । यद्यपि-मन इन्द्रिय कायानां सर्व जीवसाधारण्यात् सर्वाण्यपि इन्द्रियाणि सामान्यजीवानां सन्ति, तथापि-एकेन्द्रियजीवेषु स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तेन्द्रियाणामनुक्रमस्वाद् एकेन्द्रिय संज्ञा भवतीति ।
'पुढविक्काइया ण भंते । काविहा पनत्ता' पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त । फतिविधा:-कतिप्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा!' हे गौतम ! 'दुविहा पनत्ता' पृथिवीकायिका द्विविधाःद्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इत्युत्तरम् । तत्र प्रकारमेदमेव दर्शयति-तं जहा' से लेकर बनस्पतिकायिक तफ अर्थातु-पृथिवीकायिक, अफायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, और वनस्पतिकाधिक इन पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों को केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, शेष कर्ण, चक्षु, रसना, घाण, ये इन्द्रियां नहीं होती हैं। यदयपि मन, इन्द्रिय और काय ये सब, जीवों के होते हैं क्यों कि ये सर्व जीव साधारण हैं अतः सब इन्द्रिया सामान्य जीव में हैं फिर भी एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय के अतिरिक्त और सब इन्द्रियां होती नहीं हैं इस कारण उनकी एकेन्द्रिय संज्ञा होनी है।
'पुढविक्काइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता' हे भदन्त ! पृथिवी. कायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' पृथिवीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा' 'पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया' पृथ्वी यिस्था. वन वनस्पतिय સુધી અર્થાત્ પૃવીકાયિક, અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક. અને વનસ્પતિ કાયિક, આ પાંચ પ્રકારના એક ઈન્દ્રિયવાળા જીને કેવળ એક સ્પર્શન ઇન્દ્રિય જ હોય છે બાકીની કાન, નાક, આંખ રસના (જીભ), આ ઈદ્રિય હોતી નથી. જો કે મન ઈ દ્રિય અને શરીર સઘળા ને હોય છે. કેમ કે તે સર્વ જીવ સાધારણ હોય છે. તેથી આ ઈન્દ્રિયે બધાને હોય છે તે પણ એક ઈદ્રિયવાળા જીવમાં સ્પર્શને ઈન્દ્રિય શિવાય બીજી કઈ પણ ઈદ્રિ હોતી નથી. તેથી તેઓની એક ઈદ્રિય એવી સંજ્ઞા છે
'पुढविक्काइयाण भंते ! कइविहा पन्नत्ता' 3 भवन् पृथ्वीय छ। टमा १२॥ ४७या छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' पृथ्वीयि 2 ॥२॥ ४सा छे. 'त' जहा'
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ उ. १ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम्
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इत्यादि । 'तं जहा ' तथा 'हुम पुढवीकाया य वायरपुढवीकाइया य' सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च वादरपृथिवीकायिकाश्च । स्त्र- 'सुमपुढवीकाइया णं भंते ! कविता' सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त । कविविधाः कतिप्रकारका भवन्तीति इनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पत्ता' सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधा: - द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः प्रकारमेव दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि । तं जहा ' तद्यथा - ' पज्जत सुहुमपुढवीकाइयाअपज्जत सुमपुढवीकाइया य' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाश्च तथा - अपर्याप्त सूक्ष्म: पृथिवीका विकाश्च तथा पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवा द्विविधा भवन्तीत्युत्तरम् 'बायरपुढचिकाइया णं भंते । कइविहा पन्नत्ता' वादर पृथिवी - कायिकाः खलु भदन्त ! कविविधाः मज्ञप्ता ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि 'गोथमा ।' हे गौतम! ' एवं चेत्र' एश्मेव सुक्ष्मपृथिवीकायिकजीवस्य यथा - पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन द्वैविध्यं कथितम् तथैव-यादरपृथिवीकायिक जैसे- 'सुम पुढचीकाइया व बायर पुढचीकाइया य' सूक्ष्म पृथिवीकायिक और बादरपृथिवीकाधिक 'सुहुम पुढचीकाथिया णं भते ! कहविहा पन्नत्ता' इनमें से सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव हे भदन्त ! कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोघमा ! दुबिहा पन्नता' हे गौतम ! सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । 'त' जहा' जैसे- 'पज्जत सुमपुढवीकाया य अपज्जत हुन पुढवीकांइया य' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक और अपर्याय सूक्ष्मपृथिवी कायिक | 'घायर पुढविक्काइयाण ते ! कहविहा पण्णला' हे सदन्त ! पादरपृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ? एवं' वेब' सूक्ष्म पृथिवीकायिक के जैसे बादर पृथिवीकायिक 'सुहमपुढवीकाइया य बायरपुढविकाइया य' सूक्ष्म पृथ्वी आयएमने मार पृथ्वी अयि 'सुहुम पुढवीकाइवाणं भते ! कइविहा पन्नत्ता' તેમાં સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવ હે ભગવન્ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા छे ? उत्तरसां अनुश्री - 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! सूक्ष्म पृथ्वी अयि भवेो मे अहारना हेवामां आव्या छे, 'त' जहा' ते या प्रभा छे. 'पज्जत सुमपुढवीकाइया य अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइया य' पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वी अयि भने अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वी अयि 'वायर पुढवीकाइयाणं भते | कहविहा વળત્તા' હું ભગવન ખાદર પૃથ્વીકાયક જીવેા કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા छे? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने छे - 'गोयमा ! एव चैव' હે ગૌતમ | સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયના કથન પ્રમાણે ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવ પણ પર્યાપ્ત અને
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भगवतीमा जीवानामपि पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन द्वैविध्यं ज्ञातव्यमिति । ‘एवं आँउक्काइया वि चउक्कएणं भेएणं भाणियवा' एवं-पृथिवीकायिकवदेव, अकायिका अपि चतुष्केग भेदेन भणितव्या। सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् 'एवं जाव-त्रणस्सइकाइया' एवं यावद् वनस्पतिकायिकाः, अत्र यावत्प
देन तेजस्कापिक-वायुकायिकयोः संग्रहो भवति । तथा च-पृथिव्य. 'एकायिकययोर्यथा चत्वारो भेदाः कथिताः तथैव-तेजस्कायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्तैकेन्द्रियजीवानामपि सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तात्मकाश्चत्वारो मेदा ज्ञातव्या इति । अथ कर्मप्रकृतिविषयकं सूत्रमाह-'अपज्जत' इत्यादि, 'अपमत्त "मुहुमपुढवीकाइयाणं भंते' अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपग'डीओ पन्नत्ताओ' कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। एवं आउक्काइया वि चउक्कएण भेएणं भाणियन्त्रा' पृथिवीकायिक के जैसे अपकायिक भी सूक्ष्म, यादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के मेद
से चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये । 'एवं जाव वणस्सइकाइया' • इसी प्रकार से यावत् वनस्पतिकायिक भी सूक्ष्म, चादर, पर्याप्त और
अपर्याप्त के भेद ले चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये यावरंपद से तेजस्कायिक और वायुकाधिक इन दो का ग्रहण हुआ है। तथा च पृथिवीकायिक के जिस प्रकार से चार भेद कहे हैं उसी प्रकार से तेजस्कायिक से लेकर वनस्पतिकायिकान्त एकेन्द्रिय के भी चार चार भेद हैं ऐसा जानना चाहिये। ___ 'अपज्जन्त सुहम पुढवी काइयाण भंते ! कइम्म पगडीभी पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी भर्यासना मेथी ४१२ना हा छ. 'एव आउक्काइया वि चउक्कएण भेएणं भाणियव्या' पृथ्वी विना थन प्रमाणे मयि ५५ सूक्ष्म, ४२, पर्यात અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજવું. 'एवं जाव वणस्सइकाइया' मा प्रमाणे यावत वनस्पतिथि: ५५ सूक्ष्म બાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહ્યા છે. તેમ સમજવું. અહિયાં યાવત્પદથી તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક એ બે ગ્રહણ કરાયા છે. તે આ પ્રમાણે–પૃથ્વીકાયિકના ચાર ભેદે જે રીતે બતાવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે તેજસ્કાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના એક ઈન્દ્રિયવાળા 'જીવના પણ ચાર ભેદ સમજવા.
'अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयाण भते । कइ कम्मपगडीओ पनत्ताओ' 3 ભગવદ્ અપર્યાપક સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીને કેટલી કર્મ પ્રકૃતિ કહેવામાં
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• प्रयचन्द्रिका टीका श०३३ उ. १ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम्
રહે
'गोमा' हे गौतम ! 'अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' अष्टकर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः'कथिताः । प्रकारभेदमेव दर्शयति- 'तंज'हा' इत्यादि । 'त जहा ' तद्यथा - 'नाणावैरणिजं जाव - अंतराइयं' ज्ञानावरणीयं यावद् आन्तरायिकम् । अत्र यावत्पदेन 'दर्शनावरणीय वेदनीय - मोहनीयायु- नाम - गोत्राणां सग्रहो भवति । तथा चज्ञानावरणीयादारभ्यान्तरायिकपर्यन्ता अष्टौ कर्मप्रकृतयोऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भवन्तीत्युत्तरमिति । 'पज्जसमुहुम पुढवीकाइया णं भंते! कइ कम्मपंग'डीओ पन्नताओ' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां खलु भदन्त ! कति संख्यकाः कर्म प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'अट्ठ कम्मपगडीओ' अष्ट कर्म प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः एतेषामष्टौ "कर्मप्रकृतयो भवन्तीत्युत्तरम् । प्रकारभेदमेव दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि । 'तं जहाँ ' तद्यथा - 'नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं' ज्ञानावरणीयं यावत्पदेन दर्शनावरणीय कर्मप्रकृतियां कही गई है ? 'गोधमा । अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम! उनके आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं। 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं' ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायिक यहां यावत्पद से दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयु नाम और गोत्र इन कर्मप्रकृतियों का ग्रहण हुआ है । 'पज्जन्त सुहुमपुढवीकाइया भते ! कह कम्मपगडीओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवो के कितनी कर्मप्रकृतियें कही गई हैं ? उत्तर में भगवान कहते हैं 'गोला ! हे गौतम ! ' अड्ड कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं । 'तं जहा ' वे इस प्रकार हैं'नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं' ज्ञानावरणीयसे लेकर अन्तराय कर्म की आठों कर्मप्रकृतियां कही गई है। जैसे - ज्ञानावरणीय, मावेस छे ? उत्तरमां अनुश्री - ' अटु कम्मपगडीओ पन्नताओ' डे गौतम ! तेथेने अहम् अमृतियो डी छे 'त' जहा' ते या अभा
'नाणावरणिज्ज जाव अंतराइय' ज्ञानावरणीय यावत् अतराय मंडियां यावत्पढ्थी इर्शनावरणीय, भोडनीय, वेहनीय, नाम, गोत्र, अने आयु કર્મ પ્રકૃતિયા ગ્રહણ કરવામાં આવી છે,
पण्णत्ताओ'
'पञ्ज्रत्तसुहुमपुढत्रीकाइया णं अंते ! कइ कम्मपगडीओ ભગવત્ પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયક જીવને કેટલી કમ પ્રકૃતીચે કહેવામાં मावेत ? उत्तरमा प्रश्र - 'गोयमा ! डे गौतम ! 'अठ्ठ कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ' या प्रतीय वामां आवे छे. ते या प्रभा छे.- 'नाणावर णिज्ज जाव अतराइय' 'ज्ञानावरीयांथी सर्ध ने अन्तराम्भ सुधीनां
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भगवतीस्त्र - वेदनीय, मोहनीयायु नीमगोत्राणां ग्रहणं भवति । 'अपज्जत्त वायग्पुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' अपर्याप्तवादरपृथिवीकाथिकजीवानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं चेत्र एवम्-यथा अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवानामष्टौ ज्ञानावरणीयादारभ्यान्तरायपर्यन्ताः कर्ममकृतयः कथिता स्तथैव अपर्याप्तवादरपृथिवीकायिकजीवानामपि ज्ञानावरणीयादिकाः अष्टौ कर्म प्रकृतयो ज्ञातव्या इति । 'पज्जत्तवायरपुढ़वीकाइयाणं भंते ! कइ कम्म पगडीओ०' पर्याप्त चादरपृथिवीकायिकजीवानां भदन्त ! कति कर्ममकृतयः पज्ञप्ता इति प्रश्नः, भगवानाह-एवं चेव' एवमेव, एवम्-यथा-अपर्याप्त बादर 'पृथिवीकायिकानाम्, ज्ञानावरणीयादिका अष्टौं कर्मप्रकृतयो भवन्ति, तथैवपर्याप्त नादरपृथिवीमायिकजीवानामपि ज्ञानावरणीयादिका अष्टौ कर्ममकृतयो दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीक, आयु, नाम गोत्र और अन्त. राय 'अपजस जादर पुढयीकाइया ण भंते ! कहकम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! अपर्याप्त धादर पृथिवीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही गई है ? 'गोथमा! एवं चेव' हे गौतम |
अपर्याप्त सूक्ष्म पृथियीकाधिक जीवों के जैसे अपर्याप्त वादर पृथिवी. कायिक जीवों के भी ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं। 'पजत पाघर पुढवीकाइयाण भले ! कह कामपगडीओ०'हे भदन्त ! पर्याप्त बाद पृथिवीकाधिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? 'गोयना ! 'एवं चेव' अपर्याप्त बादपृथिवीकायिक जीवों के भी ज्ञानाचरणीधादिक आठ कर्मप्रकृत्तियां कही पाई है। 'एवं एएण कमेणं આઠે કમ પ્રકૃતી કહેવામાં આવેલ છે, જેમ કે-જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મોહનીય, આયુ નામ, ગોત્ર અને અનારાય.
___'अपजत्त बायरपुढलीकाइयाण मते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' 3 ભગવન અપર્યાપ્ત બાહર પૃથ્વીકાયિક જીવને કેટલી કમ પ્રકૃતિ કહેવામાં मावी छ ? उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोंयमा ! एव चेव गौतम ! २५५. આંમ સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવોના કથન પ્રમાણે અપર્યાપ્તક બાદર પૃથ્વીકાયિક - જેને પણ જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ કર્મ પ્રકૃતિ કહેવામાં આવી છે.
'पज्जत्त बायर पुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ' 3 ભગવદ્ પર્યાપ્ત બાદર પૃથિવીકાયિક જીને કેટલી કમપ્રકૃતી કહેવામાં भाव 2. 'गोयमा ! एव चेव' परत मा२ पृथिवीयि वान पर જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ કર્મપ્રકૃતી કહેવામાં આવેલ છે,
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treat टीका ०३३ ४.१ ०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम्
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भवन्तीति ज्ञातव्यम् । ' एवं एएणं कमेणं जाव - वायरवणस्सहकायाणं पञ्जरानाणं ति' एवम् - एतेन क्रमेण पृथिवीकायिकप्रकरण कथितप्रकारेण यावद् वादरबन - स्पतिकायिकानां पर्याप्तकानामिति । अत्र यावत्पदेन अपर्याप्त पर्याप्त भेद युक्त सूक्ष्मवादराऽष्कायिकानाम् अपर्याप्तपर्याप्तभेदयुक्तमुक्ष्मवादरतेजस्कायिकानाम् अपर्याप्तपर्याप्त भेदभिन्न सूक्ष्मवादरवायुकायिकानाम् अपर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानां च संग्रहो भवति । पर्याप्तवादश्वनस्पतिकायिकाः सूत्रे एवं गृहीताः ।
अथ कर्मप्रकृतिबन्धविषये सूत्रमाह- 'अपज्जत' इत्यादि । 'अपज्जत सुहुमपुढवीकाsयाणं भंते !' अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवाः खल भदन्त ! 'कइकम्मपगडीओ बंधति' कति प्रकारकाः कर्म प्रकृती वैध्नन्ति । कियत्सख्यकानां कर्मप्रकृतिनां वन्धका इमे भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गौयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'सत्तविहबंधगावि अडविहबंधगावि' सप्तविध- सप्तमकारक कर्मप्रकृतीनां वन्धका अपि - अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवा भवन्ति । तथाstarरक कर्मकृतीनां बन्धका अपी भवन्तीति ।
जाव बायर वणहसइकाइयाणं पज्जन्तगाणं सि' इसी क्रम से यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये। यहां यावत् शब्द से अपर्याप्त पर्याप्त भेद युक्त सूक्ष्म बादर अष्कायिकों का अपर्याप्न पर्याप्त भेद युक्त सूक्ष्म बादर तेजस्कायिकों का अपर्याप्त पर्यासभेद युक्त सूक्ष्म बादर वायुकाधिकों का और अपर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकाथिको का संग्रह हुआ है । पर्याप्न वादर वनस्पतिकायिकों सूत्र में ही आ गया है ।
अब आठ कर्मप्रकृतियों के बन्ध के विषय में सुत्र कहते है- 'अपजत्त' इत्यादि 'अपज्जत्त सुमपुढवीकाइयाणं भंते! कह कस्म पगडीओ वर्धति' हैं भदन्त ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं ? 'गोधमा । सत्तविह बंधमा वि अविबंधगा वि'
'एवं एएण कमेण जाव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ति' भा ક્રમથી ચાવત્ શબ્દથી પર્યાપ્તક ખાદર વનસ્પતિકાયિકના કથન સુધી સમજવુ, અહિયાં યાવત્ શબ્દથી પર્યાપ્ત, અપર્યાપ્ત, ભેદ યુક્ત સૂક્ષ્મ બાદર અકાયિકના અપર્યાપ્તપર્યાપ્તક ભેદ યુક્ત સૂક્ષ્મ માદર તેજસ્કાકાને અપર્યાપ્તપર્યાપ્ત ભેદવાળા સૂક્ષ્મ ખાદર વાયુકાયિકાના અને અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિકાના સંગ્રહ થયા છે. પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાયિકેતુ' કથન તે સૂત્રમાંજ કર્યું છે 'अपज्जत हुम पुढवीकाइयाणं भंते! कइ कम्मपगडी ओो बधंति' ભગવન્ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવ કેટલી કમ પ્રકૃતિયાના અધ ४२ छे ? या प्रश्नता उत्तरमा अनुश्री छे है - 'गोयमा ! सत्तविधगावि
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भगवतीसूत्रे,
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तत्र - 'सचबंधमाणा आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधेति' सप्तप्रकारक कर्म प्रकृती वैनन् आयुष्कर्माविरिक्ताः सप्त ज्ञानावरणीयादिकाः कर्मप्रकृतिध्नन्ति ! 'अ माणा पडिपुन्नाओ अह कम्मपगड़ीओ बंधेति' अष्टकर्मप्रकृती नन्तः परिपूर्णाः समस्ता अपि अष्टापि कर्मपकृती वैध्नन्ति । सर्वासामपि कर्म प्रकृतीनां बंधनं कुर्वन्तीति भावः । 'पज्जत्त मुहमपुढविकाइयाणं भंते !" पर्याप्तं सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवाः खलु भदन्न ! 'कति कर्मप्रकृती वैध्नन्तीति प्रश्नः, हे iter ! अपसून पृथिवीकायिक जीव सात कर्म प्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं और आठ कर्मप्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं 'सत्त वधमाणा आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधंति' जब वे सात कर्म प्रकृतियों का बन्ध करते हैं तब आयुकस के सिवाय वे सात कर्म प्रकृतियों का ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, और अन्तराय इनका - घन्ध करते हैं 'अट्ठ बंधमाणा पडिपुन्नाओं अटु कम्मपगडीओ वंर्धति' और जब वे आठ कर्म प्रकृतियों का बन्ध करते हैं तो पूरी की पूरी आठों कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
- 'पज्जन्त्त सुहुम पुढचिक्कायाणं भंते! कहकम्म०' हे भदन्त ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वध करते हैं ? 'गोमा ! एवं चेत्र' हे गौतम! अर्थात लक्ष्य पृथिवीकायिक भी सात प्रकार की कर्म प्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं और आठ प्रकार की
ભ્રવૃવિ વંધનાનિ” હે ગૌતમ ! અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક છત્ર સાતકમ પ્રકૃતિચાના પશુ અધ કરે છે, અને આઠ કમ પ્રકૃતિયાના પણ બંધ કરે છે,
'सत्तबधमाणा आउबजाओ सत्तकम्मपगडीओ बंधंति' न्यारे तेयो સાત ક્રમ` પ્રકૃતિયાના અધ કરે છે, ત્યારે તેઓ માયુકમને છેડીને એટલે है - ज्ञानावरणीय, हर्शनावरथीय, वेहनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, भने भतराय मा सात प्रतियोना गंध रे छे. 'अटूब धमाणा पडिपुन्नाओ अट्ठ कम्म पगडीओ बघ'ति' भने क्यारे तेथे आठ अमृतियोोध मेरे छे, त्यारे પૂરેપૂરી આઠે કર્મ પ્રકૃતિયેાના બંધ કરે છે.
'पन्नत्त सुहुम पुढविक्काइयाणं भरते ! कइ कम्म० ' से लगवन् पर्याप्त સુક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક છત્ર કેટલી ક્રમ પ્રકૃતિયેના ખ'ધ કરે છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छे- 'गोयमा । एवं चेत्र' हे गौतम! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी थिए अनी જેમ જ પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક પણુ સાત પ્રકારની કમ' પ્રકૃતિયાને બંધ કરે છે, અને આઠે ક્રમ પ્રકૃતિયાના પશુ બંધ કરે છે, જ્યારે તે સાત
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sheet टीका (०३३ उ. १ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् 'भगवानाह - 'एवंचेव' एवमेव अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिका अपि सप्तविधवन्धका अपि, अष्टविधवन्धका अपि । तत्र सप्तबध्नन्तः आयुर्वज ज्ञानावरणीयादिकाः सप्त कर्मप्रकृतीर्वघ्नन्ति, अष्ट वनन्तः परिपूर्णा अष्ट कर्मप्रकृती घ्नन्तीति । एवं सव्वे जाव - पज्जत वायर वणस्सह काइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधंति एवंचेव' एवं सर्वे यावत् पर्याप्तवादर वनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वध्नन्ति एवमेव पूर्वोक्तदेव प्रश्नोत्तराणि ज्ञातव्यानि अत्र यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्माकायिक, पर्याप्त सूक्ष्माsप्काचिकाऽपर्याप्तवादराकायिक, पर्याप्तवादराकायिकाsपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक पर्याप्त वादर तेजस्कायिकाऽपर्याप्तसूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक अपर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकानां कर्मप्रकृतियों के भी धक होते हैं। सात कर्ममकृतियों के बन्धक होने पर वे आयु कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। और आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होने पर वे परिपूर्ण आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । 'एवं सव्वे जाव पज्जत्त वायरवणस्सइकाइयाणं भंते ! कह कम्मपगडीओ बंधंति, एवं चेव' इसी प्रकार समस्त यावत् पर्याप्त चादर वनस्पतिकाधिक हे भदन्त ! कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं ? हे गौतम! इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त जैसा ही उत्तर जानना चाहिये, यहां यावत्पद से 'अपर्याप्त सूक्ष्म अष्काधिक, पर्यातक सूक्ष्म अष्कायिक, अपर्याप्तं बादर अकायिक, पर्याप्त वादर अष्कायिक, अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक, पर्याप्त सूक्ष्म- तेजस्कायिक, अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक, पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाधिक, पर्याप्त सूक्ष्म वायुક્રમ પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે, ત્યારે તે આણુ કર્મીને છોડીને બાકીની જ્ઞાના વરણીય વિગેરે સાત કમ પ્રકૃતિયાના ખધ કરે છે, અને જ્યારે આઠ કમ પ્રકૃતિયાના ખંધ કરે છે, ત્યારે તે પૂરેપૂરી અઠે આઠ કમ પ્રકૃતિયાના अध उरे छे. 'ए' सव्वे जाव पज्जत्तत्रायरवणस्स इकाइयाणं भवे ! कई कम्मपगडीओ बंधंति एव चेव' प्रभासणा यावत् पर्याप्त मार વનસ્પતિકાયિક હે ભગવન્ કેટલી કમ પ્રકૃતિયાના અધ કરે છે ? હે ગૌતમ ! આ સમંધમાં પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ પ્રશ્ન અને ઉત્તર સમજવા. અહિયાં યાદથી અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અષ્ઠાયિક, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અકાયિક અપર્યાપ્ત આદર અકાચિક, પર્યાપ્ત ખાદર અપ્લાયિક, અપસ, સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિક, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિક અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક પર્યાપ્ત ખાદર તેજસ્થાયિક, અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વાયુકાયિક પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વાયુ
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भगवती
संग्रहो भवति । तथा च अपर्याप्त सूक्ष्माऽकायिकादारभ्याऽपर्याप्तबादर वनस्पतिजीवपर्यान्तानां कर्मबन्धविषये पृथिवीकायिकवदेव व्यवस्था ज्ञातव्या आळापत्रकारस्तु स्वयमूहनीयः एतदग्रेतन पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकसूत्रं सूत्रकारः स्वयमेवाह - 'पज्जत वायरवणस्सइकाइया णं' इत्यादि, 'पज्जतमायरarrasकाइयाणं भंते! कइ कम्मपगडीओ वंर्धति' पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृती वध्नन्ति १ उत्तरमाह - ' एवं चेत्र' एवमेव पर्याप्त बादरपृथिवीकायिकवदेव कर्मप्रकृतिबन्धनविषये व्यवस्था ज्ञातव्येति ।
अथ कर्म प्रकृतिवेदन चिपये माह-' अपनत्त०' इत्यादि । 'अपज्जत सुहुमपुढवि कायिक, अपर्याप्त चादर वायुकायिक, पर्याप्त चादर वायुकायिक, अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाधिक, पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और अपर्याप्त चादर वनस्पतिकायिक 'इन सब के प्रश्नोत्तरोका प्रहण हुआ है । जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म अकायिक से लेकर अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के कर्मबन्ध के विषय में पृथिवीकाधिक के जैसी ही व्यवस्था जाननी चाहिये । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित करना चाहिये ।
पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक के विषय में सूत्रकार स्वयं सूत्र कहते हैं 'पज्जन्त' इत्यादि 'पज्जन्त बायरवणस्सइकाइयाणं भते ! कह कम्पगडीओ बंधत' हे भदन्त ! पर्याप्त वादर वनस्पतिकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है ? ' एवं 'चेव' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में पर्याप्त बाद पृथिवीकायिक के जैसे ही कर्म प्रकृति के बन्ध के विषय में व्यवस्था जाननी चाहिये ।
'अपज्जन्त सुम पुढविक्काइयाण' भते !' हे भदन्त ! अपर्या माथि, अपर्याप्त, नाहर, वायुभय, पर्याप्त माहर वायुभय, अपर्याप्त
સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક, પર્યાપ્ત સુક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક, અને અપર્યાપ્ત ખદર વનસ્પતિકાયિક આ સઘળા ગ્રહણ કરાયા છે. તથા અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અપૂ કાયિકથી લઈ ને અપર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવાના ક્રમ મધના સબધમાં પૃથ્વિીકાયિકના કથન પ્રમાણે આલાપના પ્રકાર સ્વય′ અનાવીને સમજી લેવા. પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાયિકના સંબંધમાં સૂત્રકા૨ નીચેના 'सूत्रपाठ हे छे. 'पज्जत्तवायरवणस्सइकाइयाणं भते ! कइ कम्मपगडी तो बंधंति' હું ભગવન પર્યંપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક જીવ કેટલી કમ` પ્રકૃતિયાના અધ ४२ १ उत्तरमा अनुश्री डे छे डे- 'एव' 'चेव' हे गौतम! या समधिभ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના કથન પ્રમાણે જ કમ પ્રકૃતિના સમધમાં
ईथन सभ
क
'ret सुम पुढवीकाइयाणं भते' हे भगवन मथर्यास सूक्ष्म पृथ्वी
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प्रमैयन्द्रिका टीका श०३३ उ.१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् २५१ काइयाणं भंते' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकारिकजीवाः खलु भदन्त ! 'कइ कम्म पगडीओ वेदेति' कति कर्मप्रकृती वेदयन्तीति वेदनविषयः प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा!' हे गौतम ! 'चोदस कम्मपगडीओ वेदेति चतुर्दश कर्ममकृती वैदयन्ति, अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवा इति । प्रकारभेदमें। दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा-नाणावरणिज्जं जाव-अंतराइयं' ज्ञानावरणीयं यावद् आन्तरायिकम् । यावत्पदेन दर्शनावरणीय वेदनीय. मोहनीय आयु-नाम-गोत्राणां संग्रहो भवति । तथाचेमा ज्ञानावरणीयादिका अष्टकर्मप्रकृतयः ८ । तथा-'सोइंदियवज्झ' अंत्रेन्द्रिय वध्यम्, श्रोत्रेन्द्रियं बध्यं हननीयं-- सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीव 'कइ कम्मपगडीओ वेदेति कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? 'गोयमा! चोदसकम्म पगडीओ वेदेति' हे गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। 'त जहा' जो इस प्रकार से हैं-'णाणावरणिज्ज जाव अंतराइय' ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय तक यहां यावत् पद से दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय, आयु, नाम, और गोत्र इनका ग्रहण हुआ है। __इस प्रकार इन ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मप्रकृतियों का वे वेदन करते हैं तथा 'सोइंदियवज्झ' श्रोत्रेन्द्रिय वध्य श्रोत्रेन्द्रिय, वध्य हनन करने योग्य जिस कर्म के हो वह श्रोगेन्द्रिय अध्य कर्म कहलाता है जिस के उदय से जीव को श्रोत्रोन्द्रियको माप्ति न हो सके उस कर्म का नाम श्रोत्रेन्द्रिय घध्य कर्म है उस श्रोगेन्द्रिय वध कर्म का वेदन करते हैं, इसी प्रकार आगे भी समझ लेना आय व 'कइ कम्मपगडीओ वेदेति' टसी भी प्रतियानु वन रे छ १ 'गोयमा ! चोदसकम्मपगडीओ वेदेति' गौतम! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी કાયિક જીવ ચૌદ ૧૪ કર્મપ્રકૃતિનું વેદન કરે છે
'त जहा' या प्रभारी छ -'णाणावरणिज्जं जाव अंतराइय' ज्ञानापर. યથી લઈને અન્તરાય સુધી અહિયાં યાવત પદથી દર્શનાવરણીય, મોહનીય, વેદનીય, નામ, ગોત્ર, અને આયુ આ કર્મ પ્રકૃતિ ગ્રહણ થઇ છે. આ રીતે આ જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ કમ પ્રકૃતિનું તેઓ વેદન કરે છે. તથા 'सोइदियवझ' श्रोनेद्रिय पध्य-श्रीन्द्रियनु नन ४२वा योग्य रे भाय છે તે બોન્દ્રિય વધ્ય કર્મ કહેવાય છે. જે કમના ઉદયથી શ્રોત્રેન્દ્રિયની પ્રાપ્તિ ન થઈ શકે તે કર્મનું નામ શ્રોન્દ્રિય વધ્ય કર્મ છે. એ શ્રોત્રેન્દ્રિય વધ્ધ કર્મનું વેદન કરે છે તેમ સમજવું આ શ્રેગ્નેન્દ્રિય વધ્ય કમ भतिज्ञानावर विशेष ३५ डाय छे. 'चक्खि दियवज्झ' तथा यक्ष छद्रियपक्ष्य
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- भगवतीले हननयोग्यं यस्य कर्मण स्तन् । यदुदयात् जीवस्य श्रोत्रेन्द्रियं न लभ्यते तत्कर्म श्रोत्रे. न्द्रिय वध्यं कथ्यते-एवं सर्वत्र वोध्यम्, एतन्मतिज्ञानावरणविशेष इत्यर्थः, एवम्'चक्खि दियवज्झ' चक्षुरिन्द्रियवध्यम्, चक्षुरिन्द्रिय हननीयं तत्-दर्शनावरणा विशेषः १० । 'घाणिदियवज्झ" घ्राणेन्द्रिय वध्यम्, घाणेन्द्रिय हननीयम् ११ ।' 'जिभिदियवज्झ' जिह्वेन्द्रिय वध्यम् जिवेन्द्रिय हननीयं १२ । स्पर्शनेन्द्रिय वध्यन्तु तेषामपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां नास्ति, यतः स्पर्शनेन्द्रियवध्यत्व स्वीकारे-एकेन्द्रियवहानिपसङ्गस्यादिति। 'इन्थिवेयवझ- स्त्रीवेदवध्यम् , यदुदयात् स्त्रीवेदो न लभ्यते तत् स्त्री वेदहननीयं कर्म १३ । 'पुरिसवेदव" पुरुपवेदवध्यम् , यदुदयात् पुरुषवेदो न लभ्यते, तत्कर्मपुरुषवेदहननीयम् १४.। नपुंसकूवध्यंतु एकेन्द्रियाणां नास्ति-नपुंसकवेदवृत्तित्वादिति। एवमेताश्चतुदेशकमप्रकृतयो भवन्ति । चाहिये यह श्रोत्रेन्द्रिय कर्म मतिज्ञानावरण विशेष रूप. होता है। 'चक्खिदियवज्झं तथा चक्षु इन्द्रिय वध्यकर्मका वे वेदन करते हैं। यह चक्षुरिन्द्रिय वध्घका दर्शनावरणीयकर्म विशेष रूप होता है। 'घाणि दियवज्झ" तथा घ्राणेन्द्रिय अध्यकर्म का वे वेदन करते हैं। 'जिभिदियवज्झ" जिवेन्द्रिय वध्यकम का वेदन करते हैं। स्पर्शनेन्द्रिय अध्यकर्म का वेदन उन अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के नहीं है, क्यों कि.इनके. यदि स्पर्शनेन्द्रिय अध्यकर्म का वेदन स्वीकार किया जाय तो इनमें एकेन्द्रियता की हानि का प्रसंग प्राप्त होगा। 'इस्थिवेदवज्झ' इसी प्रकार से ये अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव स्त्रीवेद वष्यकर्म का भी वेदन करते हैं। जिस के उद्य से स्त्री वेद प्राप्त न हो वह स्त्री वेद वध्यकर्म है। 'पुरिलवेदज्झ' पुरुष वेद वध्य कर्म का वेदन करते हैजिस के उदय से पुरुष वेद प्राप्त न हो सके वह पुरुष वेद वध्यकर्म है, કર્મનું દાન કરે છે. આ ચક્ષુ ઈદ્રિયાવરણ કર્મ દર્શનાવરણ વિશેષ રૂપ डाय छे. 'धाणिदियवज्झ' तथा प्रायद्रियापथ्य मनु वेहन ४३ छ. जिभिदियवज्झ' लवद्रियqध्य मनु वेहन ४२ छ. ते मर्याप्त सूक्ष्म પૃથ્વીકાયિકાને સ્પર્શેન્દ્રિયવધ્ય કર્મનું વેદન હોતું નથી. કેમ કે તેઓને જે સ્પર્શનેન્દ્રિયવધ્ય કર્મનુ વેદન સ્વીકારવામાં આવે તો તેમાં એકન્દ્રિય पशानी हानीना अस उपस्थित थ 'इथिवेयवज्झ' मा०८ प्रमाणे मा અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવો સ્ત્રીવેદવધ્ય કર્મનું પણ વેદન કરે છે. જેના
यथी सीव प्राप्त न थाय त श्रीवहनध्य में उवाय छे. 'पुरिसवेदवज्झ" પુરૂષ વેદવષ્ય કમનું દાન કરે છે. જેના ઉદયથી પુરૂષદ પ્રાપ્ત ન
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प्रमैयचन्द्रिका टीका झा०३३ उ.१ लू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम्
२५३ : किं चतुर्दश कर्मप्रकृतीनां वेदनं केवलपपर्याप्तमुक्ष्मपृथिवीकायिकानामेव भवती त्याशङ्कायामाह-'एवं चउक्कएणं' इत्यादि । 'एवं चउक्कएणं भेदेणं जावपज्जत्त वायरवणस्सइकाइयाण भंते ! कइ कम्मपगडीओ वेर्देति' गोयमा !'एवं चेव, चोद्दसकम्मपगडीभो वेदेति' एवं चतुष्केग भेदेन पर्याप्तापर्याप्तभेद भिन्नमूक्ष्मवादरभेदेन यावत् पर्याप्तवादरबनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्म प्रकृतीवेदयन्ति ? गौतम ! एवमेव-अपर्याप्त पृथिवीकायिकवदेव-- इनके नपुंसक वध्यकर्म नहीं है, क्यों कि एकेन्द्रियों में नपुंसक वेद वृत्तिता होती है । इस प्रकार से ये चौदह १४ कर्म प्रकृतियां है जिन्हें ये अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव वेदन करते हैं । इन चौदह कर्म प्रकृतियों का वेदन इन्ही अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के होता- हो सो वात नहीं है किन्तु हन चौदह कर्म प्रकृतियों का वेंदन 'एवं च. क्केण भेदेण जाव पज्जत्त बोयर वणस्लइकाइयाण मते ! कइकम्म पगडीओ वेदेति' स्वक्षम, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त इन भेद वाले समस्त एकेन्द्रिय जीव होते है, इसलिये सूत्रकारने यहाँ ऐसा कहा है यह चौदह प्रकृतियों का वेदन पर्याप्त बाद वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये। गौतमस्वामी ने इसी बात को प्रभुश्री से इस रूप में यावत् पूछा है कि हे भदन्त ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव कितनी कम प्रकृ. तियों का वेदन करते हैं? उन्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! एवं चेव चोइस जम्मपगडीओ वेदेति' हे गौतम ! अपर्याप्त पृथिवीकायिक થઈ શકે તે પુરૂષ વેદવધ્ય કર્મ કહેવાય છે. તેઓને નપુંસકવેદવય કમ હેતું નથી કેમ કે-એકેન્દ્રિયામાં નપુસકવેદપણુ હોય છે. આ રીતે આ ચૌદ ૧૪ કર્મ પ્રકૃતિએ કહી છે જેનું આ અપર્યાપ્ત સૂકમપૃથ્વીકાયિક જીવ વેદન કરે છે. આ ચૌદ કમ પ્રકૃતિનું વેદન આ અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ પૃિથવીકયિકને જ હોય છે, એ વાત નથી પરંતુ આ ૧૪ ચૌદકર્મ પ્રકૃતિ योनु वहन एवं चउक्केणं भेएणं जाव पज्जत्त वायरवणस्सइकाइयाणं भते । कइ कम्म पगडीओ वेदेति' सूक्ष्म, मा६२, पर्याप्त मने अपर्याप्त मा हो સઘળા એકેન્દ્રિયોને હોય છે. તેથી સૂત્રકારે અહિયાં એવું કહ્યું છે કે–આ ચોદ પ્રકૃતિનું વેદન પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાય સુધી સમજવું. ગૌતમ સ્વામીએ એજ વાત પ્રભુશ્રીને એ રીતે પૂછે છે કે-હે ભગવન પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિ કાયિક જીવ કેટલી કર્મ પ્રકૃતિયાનું વેદન કરે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! एव चेव चौदसकम्मपगडीओ वेदेति' હે ગૌતમ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાવિક જીના કથન પ્રમાણે જ તેઓ યાવત્
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भगवतीस चतुर्दश कर्मपकृतीवेदयन्ति । यावत्पदेन, पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादारभ्य अपर्याप्त, पर्याप्त सूक्ष्मवादरभेदभिन्नाकायिक, तेजस्कायिक-वायुकायिक पर्याप्तापर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः अप्तिापर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकान्त जीवानां संग्रहो ज्ञातव्याः। पर्याप्त चादरवनस्पतिकायिक सूत्रंतु पूर्वमुक्तमेव, एते स एकेन्द्रियाश्चतुर्दश कर्मप्रकृतीनां वेदका भवन्तीति भावः। आळापप्रकाराश्च स्वयमेवोहनीया इति । ___'सेवं भते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हेभदन्त । जीवो के जैसे ही वे यावत् वनस्पतिकाधिक जीव १४ कम प्रकृतियों का ही वेदन करते हैं । यहां यावत्पद से पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक से लेकर अपर्याप्त पर्याप्त, सूक्ष्म, बादर, भेद वाले अपकायिक, तेज. स्कायिक, वायुकाधिक अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तेजस्कायिक इन सब जीवों का ग्रहण हुभा है। पर्याप्त वादर वनस्पतिकायिक मूत्र तो पहिले कह ही दिया है। इस प्रकार ये सब एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म पर्याप्त सूक्ष्म अपर्याप्त, बादर अप. याप्त अकायिक जीव, इसी प्रकार से सूक्ष्म पर्याप्त आदि भेद वाले तेजस्कायिक जीव वायुकायिक जीव और वनस्पतिकायिक जीव-प्वोक्त १४ कम कृतियों के वेदक होते है। इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित करना चाहिये 'से भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त । जैसा आप देवानुप्रिपने एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृतियों के બાદર વનસ્પતિ કાયિક જીવ ચૌદ ૧૪ કર્મપ્રકૃતિનું જ વેદન કરે છે. અહિયાં યાવત્પદથી પર્યાપ્તક સૂમ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અપર્યાપ્ત સૂકમ ખાદર ભેટવાળા અપ્રકાયિક તેજસકાયિક વાયુકાયિક તથા અપર્યાપ્તક બાદર વનસ્પતિકાયિક આ સઘળા જ ગ્રહણ કરાયા છે પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિ કાયિક સૂત્ર પહેલાં કહેવામાં આવી ગયું છે. આ રીતે આ સઘળા એક ઈન્દ્રિયવાળા છે સૂફમ પર્યાપ્ત. સૂક્ષમ અપર્યાપ્ત, બાદર પર્યાપ્ત બાહર અપર્યાપ્ત, અષ્કાયિક જીવ આજ રીતે સૂમ પર્યાપતક વિગેરે ભેટવાળા તેજસ્કાર વિક જી, વાયુકાયિક છે અને વનસ્પતિકાયિક જીવે ઉપર કહેલ ૧૪ ચૌદકર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે. આ સંબંધમાં આલાપકે સ્વયં બનાવીને સમજી લેવા.
___ 'सेव भंते ! सेव' मते ! ति मगवन् मा५ वानुप्रिये थे। द्रिय અને કર્મ પ્રકૃતિચાના બંધ સંબંધમાં અને તેના વેદનના સંબંધમાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.१ १०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् २५५ एकेन्द्रियाणां कर्मप्रकृति वन्धनवेदनविषये यत्कथितम्-तत्सर्वं सत्यमितिकथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरतीति ।मु० ॥३३॥१॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकपविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां त्रयस्त्रिंशत्तमें शतके
प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥३३-१॥ पन्धन एवं उनके वेदन के विषय में जो कहा है वह सब सत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आस्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीमत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तेतीसवें शतकका
प्रथम उद्देशक समाप्त ॥३३-१॥
જે કથન કર્યું છે. તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિય કંથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજગૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૩–૧
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भगवतीने
अथ द्वितीयोदेशक मारभ्यते
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मूलम् - इविहा णं भंते! अनंतशेववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अनंतशेववन्नगा एगिंदिगा पन्नत्ता । तं जहा - पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । अर्णतरोवदन्नगाणं ते! पुढवीकाइया कइविहा पन्नत्ता गोयमा ! दुबिहा पन्नता तं जहा - सुहुमपुढवीकाइया य बायरपुढ विकाइया य। एवं दुपएणं भेषणं जाव वणस्सइकाइया । अणंतरोववन्नग सुहुमढवीकाइयाणं संते ! कइकम्मपगडीओ पन्नताओ, गोयमा ? अटू कम्स पगडीओ पन्नत्ताओ तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव- अंतराइयं । अणंतरोववन्नग बायरपुढवीकाइया णं भंते! : कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ । गोयमा ? अट्ट कम्मपगड़ीओ पन्नत्ताओ तं जहा - नाणावरणिज्जं जान अंतराइयं । एवं जाव अतरोववन्नग वायरवणस्लइकाइयाणं त्ति । अनंतशेववन्नगं सुमढवीकाइयाणं ते! कइकम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! आउवज्जाओ लत कम्मपगडीओ बंधंति । एवं जाव अनंतरोववन्नगं वायरवणस्स इकाइयति । अनंतशेववन्नग सुहुमपुढवीकाइयाणं संते ! कहकम्म पगडीओ वेदेति ? गोयमा !
उस कम्मपगडीओ वेदेति तं जहा - नाणावरणिज्जं तहेंब जाव पुरिसवेदवज्झं । एवं जाव अनंतशेववन्नग बायरवणस्सइकाइयं त्ति । सेवं भंते सेवं भंते ! ति ॥ सू० २ ॥
छायाः कतिविधाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधा अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः । अनन्तरोपपन्नकाः खलु भदन्त । पृथिवीकायिका कविविधाः प्रज्ञप्ताः १ गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - सूक्ष्मपृथिवीकायिकाव, वादरपृथिवीकायिकाच । एवं द्विपदेन भेदेन याचवनस्पतिकायिकाः अनतपसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम अष्ट कर्मकृतः मङ्गताः । तद्यथा - ज्ञानावरणीयं यावदन्तरायिकम् । अनन्तरोपप
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प्रमैडिका टीका श०३३ उ.२ ०१ अनन्तरोपपन्नक ए० निरूपणम् २५७ wearदरपृथिवीका विकानां भदन्त । कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम 1 अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा - ज्ञानावरणीयं यावदान्तरायिकम् । एवं यात्र दनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खल भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वध्नन्ति १ गौतम | आयुर्वः सप्तकर्म प्रकृतीर्वध्नन्ति एवं यावदनन्तरोपपन्नकवादर वनस्प तिकायिका इति । अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खल भदन्त ! कति कर्मकृती वैदयन्ति ? गौतम । चतुर्दश कर्मप्रकृतीर्वेदयन्ति । तद्यथा - ज्ञानावरणीयम् तथैव यावत् पुरुषवेदवध्यम् । एवं यावदनन्तरोपपन्नक बादरवनस्पतिकाfor इति । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥ ०२ ॥
टीका- 'कइविहाणं भंते ! अनन्तशेववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता' कतिविधाः कतिप्रकारकाः खलु भदन्त ! 'अणंतरोवदन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता' अनन्तरो पपद्मकाः, अनन्तरम् ये उत्पत्तेः प्रथमसमये एवं वर्त्तन्ते ते अनन्तरोपपनाः, एकसमयोपपन्नका इत्यर्थः एतादृशा एकेन्द्रियाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः । इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचवा अणतरोववन्नगा एर्गिदिया पन्नत्ता' पञ्चविधाः - पञ्चमकारका अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः कथिताः । 'तं जहा' तद्यथा - 'पुढवीकाइया|| शतक ३३ उद्देशक द्वितीय ॥
'कइविहाणं' भते ! अनंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? टीकार्थ - 'कविहा णं भंते ! अनंतशेववन्नगा एगिंदिया पन्नता' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं? जो उत्पत्ति के प्रथम समय में रहते है वे अनन्तरोपपन्नक कहे गये हैं । अर्थात् जिन्हे उत्पन्न हुए एक समय ही हुआ है वे ही अनन्तरोपपन्नक हैं। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा पंचविहा अनंतशेववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता' हे गौतम । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच ાખીજા ઉદ્દેશાના પ્રારંભ
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'कइविहाणं भवे ! अनंतशेववण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता' त्याहि.
टीडार्थ' - 'कइविहाण भते ! अणतरोववण्णगा एर्गिरिया पण्णत्ता' ભગવત્ અનન્તરાપપન્નક એકેન્દ્રિય જીવ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે'? જેમની ઉત્પત્તી પ્રથમ સમયમાં જ છે, તેઓને અનન્તરે પપન્નક કહેવામાં આવે છે. અર્થાત્ એક સમયમાં જ જે જીવે ઉત્પન્ન થાય છે,-એકી સાથે જેએ ઉત્પન્ન થાય છે, એ જ, અનંતરપપન્નક છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી - 'गोपमा ! पंचविहा अनंतशेववण्णगा एगिंदिया पण्गचा' हे गौतम! મન'તશપપન્નક એકેન્દ્રિય જીવે। પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે, 'લ' ગદ્દા
भ० ३३
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भगवती जाव-वणास्सइकाइया' पृथिवीकायिका याननस्पतिकायिकाः । यावस्पदेन अकायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिकानां संग्रहो मदति । 'अणंतरोववन्नगाणं भंते ! पुढविक्काइया कइविहा पन्नत्ता' अनन्तरोपपन्नकाः खलु मदन्त । पृथिवीकायिका एकेन्द्रियाः कतिविधा:-कति मकारकाः मज्ञप्ता ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' द्विविधा प्रज्ञप्ता, अनन्तरोपपन्ना पृथिवीकायिकाः एकेन्द्रियाः। 'तं जहा' तद्यथा'सुहुमपुढवीकाइया य-बायरपुढवीकाइया य सूक्ष्मपृथिवीकापिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाश्च एवं दुपएणं भेएणं जाव-वणस्सइकाइया' एच द्विपदेन भेदेन यावत, यावत्पदेन अफायिकाः, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिका अपि प्रकार के कहे गये हैं । 'जहा' जो इस प्रकार से है-'पुढवीकाझ्या जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । यहां यावत् पद से 'अकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक' इन जीवों का ग्रहण किया गया है । 'अणंतरोघवन्नगाणं भंते ! पुढवीकझाइया काविहा पन्नत्ता' हे भदन्त ! अणंतरोपपन्नक पृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक पृथिवीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसा-'सुहुम पुढविक्काइया य०' सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव और बादर पृथिवीकायिक जीव 'एवं दुपएणं भेएण जाव वणस्सह काइया' इसी प्रकार से यावत् वनस्पतिकाधिक जीवों तक के दो दो भेद कहना चाहिये-अर्थात् अनन्तरोपन्नक, अप्कायिक तेजस्कायिक, वायुकायिक ते प्रमाण छ-'पुढविकाइया जांव वणस्सइकाइया' पृथ्वीयि यावत् १५.
थि: १२४यि, पाथि , मन नपतिथि: 'अणंतरोववन्नगाण भते! पुढविक'इया कइविहा पन्नत्ता' हे सगवन् मनत५५न्न पृथ्वी यि । કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે है-'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता', गौतम ! मनत५पन्न पृथ्वीय वा मे २ना ४वामा मा०या छे. 'त जहा' तमा प्रभारी छ.-'सुहुम पुढवी काइया य बायरपुढवीकाइया य' सूक्ष्म पृथ्वी थिम माह२ पृथ्वी
यि ७१ 'एव दुपएण भेएणं जाव वणस्सइकाइया' का प्रमाणे यावत् વનસ્પતિકાયિક જી સુધીના બે ભેદ કહેવા જોઈએ. અર્થાત્ અનંતર૫૫નક અષ્કાયિક તેજસ્કાયિક વાયકાયિક, અને વનસ્પતિકાયિકના સૂક્ષમ અને બાદર એ બેજ ભેદો હોય છે. કેમ કે જે અનંતાપપન્નક એકેન્દ્રિય
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३३ उ. २ सू०१ अनन्तरोपपन्नक ए० निरूपणम् २५९ प्ररूपणीयाः, अनन्तरोपपन्न के केन्द्रियाणाम् पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदयोरभावेन चतु विषभेदाऽसम्भवात् द्विपदेन सूक्ष्मवादरभेदेनेति कथितम् । सामान्यत एकेन्द्रियाः प्रत्येकं चतुष्प्रकारका भवन्ति सूक्ष्माव - वादराय, सूक्ष्मा अपि द्विविधाः - पर्याप्त कापर्यातका तथा पर्याप्तकवादरा :- अपर्याप्तकवादराय । परन्तु - अनन्तरोपपन्नानां पर्याप्तत्वाऽपर्याप्तत्वभेदो नास्ति । अतोऽत्र द्विपदेन - द्विमकारकेण भेदेनेति कथितम् । 'अणतशेववन्नगमुहुमपुढ वीकाइया णं भंते -!' अनन्तरोपपत्रक सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त | 'कइकम्म पगडीओ पन्नत्ताओ' कति प्रकारकाः कर्मप्रकृतयः मज्ञप्ताः कथिता ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि ।
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और वनस्पतिकायिक के सूक्ष्म बादर से दो दो भेद होते हैं, क्यों कि जो अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव होते हैं उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद नहीं होते हैं । इसलिये इनके प्रत्येक के जैसे चार भेद पहिले बताये गये हैं वैसा ये चार भेद इनमें नहीं होते हैं । सामान्य एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं, इनमें सूक्ष्म जीव भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के और बादर जीव भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के बतलाये गये हैं । परन्तु अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद नहीं होते हैं । इसी अभि प्राय को प्रकट करने के लिये 'एवं दुपएण' भेएणं' ऐसा सूत्रपाठ सूत्र कारने कहा है । 'अनंतशेववन्नग सुहुम पुढवीकाइयाणं भते !" हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीवों के 'कइ कम्म पगडीओ पन्नताओ' कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? उत्तर में
‘જીવા હાય છે તેમાં પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ એ ભેદા હોતા નથી. તેથી પ્રત્યેકના ચાર ભેદો પહેલા તાન્યા છે, એ પ્રમાણેના ચાર ભેદે આમનામાં હોતા નથી. સામાન્ય એકેન્દ્રિય જીવ સૂક્ષ્મ અને આદરના ભેદ્યથી એ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. આમાં સૂક્ષ્મ જીવ પણું પર્યાપ્ત અને અપ્
પ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલા છે પરંતુ અનન્તરાપપન્તક એક ઇન્દ્રિય વાળા જીવેાના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એવા બે ભેદો હોતા નથી, આજ अभिप्राय मताववा भाटे 'एव' दुपण भेग' या प्रभानो सूत्रपाठ सूत्रारे ह्यो छे. 'अणतरोववन्नगसुहुम पुढवीकाइयाणं भवे !' डे लगवन् अनतरोपपन्न! सूक्ष्म पृथ्वी अयि लवाने 'कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' डेंटली उर्भ अद्भुतियो કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ગૌતમસ્વામીને પ્રભુશ્રી કહે છે ફ
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भगवती 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' अष्टेति-अष्टमकारका कर्मप्रकृतयः प्राप्ताः कथिताः । 'तं जहा' तद्यथा-'नाणावरणिज्जं जाव-अंतराइय' शामावरणीयं यावदान्तरायिकम्, यावत्पदेन दर्शनावरणीय-वेदनीय-मोहनीयनाम-गोत्राणां पण्णां कर्मप्रकृतीनां ग्रहणं भवति । 'अणंतरोवनगवायर पुढवीकाइयाणं भंते !' अनन्तरोपपन्नक वादरपृथिवीकायिकजीवानां भदन्त ! 'कइ कम्म पगडीओ पन्नत्ताओ' कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः ? । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ कम्मपगडीओ पनत्तानो' अष्ट कर्म प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-'नाणावरणिज्ज जाव-अंतराइयं ज्ञानावरणीय यावदान्तरायिकम् । यावत्पदेन दर्शनावरणीय-वेदनीय-मोहनीय-आयु-नामगोत्राणां-संग्रहो भवतीति । 'एवं जाव-अणंतरोववन्नगवायरवणस्सइकाइयाणति' प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! उनके आठ कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? 'त जहा' जो इस प्रकार से है-'नाणावरणिज्जं जाव अंतराइय' ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायिक यहां यावत् पद से २ 'दर्शनावरणीय वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नाम ६ और गोत्र ७ इन छ कर्मप्रकृतियो का ग्रहण हुआ है। 'अर्णतरोववन्नगवायर पुढवीकाइयाणं भंते ! हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक चादर पृथिवीकायिक जीवों के 'कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? 'गोयमा ! हे गौतम ! 'अट्ठ कम्मपगडीओ' आठ कर्म प्रकृतियां कही गई हैं । 'त जहा' जैसे 'नाणावरणिज्ज जाव अंतराइय" ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायिक यहां पर भी यावत् पद से 'दर्शनावरणीय २ वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नाम, ६ और गोत्र ७ 'इन छह कर्म प्रकृतियों का ग्रहण हुआ है । 'एवं जाव अणंगोयमा! अट्र कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' है गौतम तभाने माह भ प्रतिये। वाम मावस छे. 'त' जहा' ते मा प्रभारी छे.__ 'नोणावरणिज्ज जाव अंतराइयं' ज्ञानावरणीय यावत् अतराय यावत् પદથી દર્શન વરણીય, મેહનીય, વેદનીય, નામ, ગોત્ર, અને આયુષ્ય આ छ ४ प्रतिय। अह । छे. 'अणतरोववन्नगा वायर पुढवीकाइयाणं भते! 3 सपन मनत५पन्न मा४२ पृथ्वीपि वा 'कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' ही में प्रकृतियो वाम मावी छ । उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ ४-'गोयमा! 3 गौतम ! 'अट्टकम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' मा ४ प्रतिया
स्वामी मावत छ. 'त जहा' ते मा प्रभारी छ 'नाणावरणिज्ज जाव अंतराइय" " જ્ઞાનાવરણીય યાવત્ દર્શનાવરણીય, મેહનીય, વેદનીય, નામ શેત્ર અને આસ
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प्रेमयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.२ सू०१ अनन्तरोपपन्नक ऐ० निरूपणम् ३६१ एवं यावत्-अनन्तरोपपन्नक वादरवनस्पति कायिकानामिति । अत्र यावत्पदेन अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवादराऽकायिकानाम् अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवादरतेजस्कायिकानाम् अनन्तरोपपन्नकमूक्ष्मवादरवायुकायिकानां संग्रहो भवति, 'अणंतरोववन्नग सुहम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधति' अनन्तरोपपत्रक सूक्ष्मपृथिवी कायिकैकेन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृति वंधनन्ति ? भगवानाइ'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अउज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति आयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-वेदनीय-मोइनीयनाम-गोत्राऽन्तरायरूपा बध्नन्ति उत्पत्तेः प्रथमसमये आयुष्कर्मणो बन्धाभावात सरोववन्नगा पायरवणस्सहकाइयाणत्ति' इसी प्रकार का कथन यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिकों तक के जीवों के जानना चाहिये, यहां यावत्पद से 'अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म घादर अफायिक, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मवादरतेजस्कायिक, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पादर वायुकायिक और सूक्ष्म बादरवनस्पतिकायिक इन सब का ग्रहण हा है। 'अणंतरोववन्नगा सुहुम पुढवीकाइयाण भते! कह कम्मपगडीओ बंधंति' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिकों को कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध होती हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! आउवजनाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीव आयुकर्म को छोड़कर शेष 'सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शना. वरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम गोत्र और अन्तराय इन सात कर्म
सा मा भी प्रतिया डोय छे. 'एव जाव अणंतरोववन्नगा बायरवणस्सइ. काइयाण त्ति' मा प्रभारी नु ४थन यावत् अनतरायप-न मा२ वनस्पति કાયિક સુધીના જીના સંબંધમાં પણ સમજવું. અહિયાં યાત્પદથી અનંતરોપપન્નક સૂક્ષ્મબાદર અષ્કાયિક અનંતરપપનક સૂમ બાદરતેજસ્કાયિક, અનંતપન્નક સૂમ બાદરવાયુકાયિક, અને સૂક્ષ્મબાદરવનસ્પનિકાયિક या मधा ग्रह ४२राय छे. 'अणंतरोववन्नगसुहुमपुढवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वधति' 3 सगवन् मन तरे।५पन्न सूक्ष्म जीवित કેટલી કમ પ્રકૃતિને બધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે ४-'गोयमा! आउवज्जाओ सत्त कम्प्रपगडीओ बधति' है गीतमा અનંતરોપપન્નકસૂમ પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિય છે આયુકર્મને છેડીને બાકીની સાત કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે, અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મેહનીય, નામ, ગેત્ર અને અંતરાય આ સાત કર્મ પ્રકૃતિને તેઓ
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भगवतीमत्रे तत्काले तद् बन्धनं न भवति ! अपितु-अवशिष्टानां सप्तानामेव भकृतीनां बन्धनं भवति । एवं जाच अणंतरोवचनगवायरवपस्सइकाइयत्ति' एवम् अनन्तरोपपः मामूक्षः पृथिवीकायिकवदेव यावद्-अनन्तरोपपन्ना बादरवनस्पितिकायिका अपि आयुष्कवर्जाः सप्तैन कसैप्रकृतीर्वनन्तीति । अत्र यावत्पदेन, अनन्तरोपपन्नकवादरपृथिवीकायिकाऽनन्तरोपपन्नकमूक्ष्मवादराऽकायिकाऽनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवादरतेजस्कायिकाऽनन्तरोपपन्नामूक्ष्मवादरवायुकायिकऽनन्तरोपपत्रकसूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः संवृधन्ते । 'अणखरोवनगसुहुमपुढवीकाइया णं भंते ! 'अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! 'कइ कमपण्डीओ वेदेति, कति प्रकृतियों का वे बन्ध करते हैं । आयुकर्म का ये बन्ध इसलिये नहीं करते है कि इनके उत्पत्ति के प्रथम समय में आयुकर्म का बन्ध नहीं होता हैं इसलिये उस काल में उनके आयुका बन्ध नहीं होता है । अतः अवशिष्ट लान फर्मप्रकृतियों का ही इनको पन्ध होना कहा गया है । 'एवं जाच अणंतरोधयन्नग धायरवणस्सइकाइयत्ति' अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिक के जैले ही थावत् अनन्तरोपपन्नक बादर धनस्पतिकायिक जीवों के भी आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों का ही पन्ध होता है ऐसा जानना चाहिये। यहां यावत् पद से 'अनन्तरोपपन्नक कादर पृथिवीकाधिक, अनन्त शेषपन्नक सूक्ष्म एवं चादर तेजस्कायिक, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म धादरवायुकायिक और अनन्तरोपपन्नक सक्षम वनस्पतिकाधिक इन सब का ग्रहण हुआ है। 'अणंतरोववन्नग मुहम पुढवीकाइया णं भंते ! कह कम्मपगडीओ वेदें नि' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्न क सक्षः पृथिवीकायिक जीव कितनी બંધ કરે છે. તેઓ આયુકર્મને બંધ એટલા માટે કરતા નથી કે–તેઓને
યુકર્મ બંધ પહેલેથી જ થઈ જાય છે તેથી તે અવસ્થામાં તેઓને આયુકમને બંધ રહેતો નથી, તેથી બાકીની સાતકર્મ પ્રકૃતિનો જ બંધ આમને हाय छ 'एवं जाव अणतरोववण्णगवायरवणस्वइकाइयत्ति' मनत५पन्न સૂન પૃથ્વીકાયિક જીવની જેમજ યાવતુ અનંતરેપનક બાદર વનસ્પતિ કાયિક જીવોને પણ આયુકમને છોડીને બાકીની સાતકર્મ પ્રકૃતિને જ બંધ હોય છે, તેમ સમજવું. અહિયાં યાવત્પદથી “અનંતરો પપત્રક બાર પૃથ્વીકાયિક અનંતરે૫૫ન્નક સૂક્ષ્મ અને બાદર પૃથ્વીકાયિક, અનંતપપનક સૂમ બાદર વાયુકાયિક અને અનંતાપપનનક સૂમ વનસ્પતિકાયિક આ अशा यह राय छे. 'अर्णतरोववन्नग सुहुमपुढत्रीकाइयाणं भवे.! कह कम्मपगडीओ वेदेति' सावन मनत५पन्न४ सूक्ष्म पृथ्वी4४ ४१
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३३ ३.२ १०१ अनन्तरोपपन्नक एक निरूपणम् २६३ कर्ममकृती र्वेदयन्ति ? इति प्रकृतीनां वेदनविषयका प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' -इस्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! चउहस कम्पपगडीओ वेदेति चतुर्दश प्रकारिका: कर्मप्रकृती वैदयन्ति। 'तं जहा' तयथा-'नाणावरणिज्ज' ज्ञानावरणीयम्, 'वहेच जाव' पुरिसवेयवझ' तथैव यावत्पुरुष वेदवध्यम् । ज्ञानावरणीयादारभ्याऽन्तराय पर्यन्तमष्ट ८, तथा श्रोत्रेन्द्रियवध्य-चक्षुरिन्द्रियबध्यं-घ्राणेन्द्रियवध्य-जिहूवेन्द्रिय बध्यं-स्त्रीवेदवध्यं-पुरुषवेदबध्यम् । (६) १४ एतेषा मनन्तरोपपन्नामुक्ष्मपृथिवी कायिकानां चतुर्दश कर्ममकृतीनां वेदनं भवति । येन कर्मणा स्पर्शनेन्द्रियस्य लामो न भवति तादृशं रूपशेन्द्रियवध्यं कर्म-एकेन्द्रियाणां न भवति । तथास्वे च-- एकेन्द्रियत्वस्यैव व्याघावमलङ्गात् । तथा-नपुंसकवकर्माऽपि नास्ति नपुंसकवेद. मात्रस्यैव-एकेन्द्रिये सत्त्वात् । 'एवं जाव आंतरोचवन्नग बायर-वणस्सइकाइयत्ति' कर्म प्रकृतियोंक्षा वेदन करते है ? 'गोयमा! च उद्दल कम्मपगडीओ वेदेति' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीमायिक जीव चौदह कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं। 'त जहा' वे चौदह कर्मप्रकृतियों ये हैं-'नाणावरणिज्ज' ज्ञानावरणीय १, 'तहेव जाव पुरिलवेयवज्झ' तथैव यावत् पुरुष वेद वध्य यहां यावत् शब्द से यह समझाया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म से लेकर अन्तराय पर्यन्त आठ प्रकृतियां तथा श्रोगेन्द्रिय अध्य९ चक्षुरिन्द्रिय अध्य १० घ्राणेन्द्रिय वध्य ११ जिहवे. न्द्रिय वध्य १२, स्त्रीवेद बध्य १३, और पुरुषवेद वध्य १४, एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शनेन्द्रिय वध्य कर्म नहीं होता हैं, यदि इस बध्य कर्मका उनके उद्य माना जावे तो उनमें एकेन्द्रियत्व का सद्भाव नहीं बन सकता तथा नपुंसकवेद वध्य कर्म भी इनके नहीं होना है। 'एवं जाव अणंल
टसी म प्रतियानु वहन ४२ छ. १ 'गोयमा ! चउद्दस कम्मपगडीओ वेदेति' હે ગૌતમ! અનંતરે૫૫નક સૂક્ષ્મ પૃવીકાયિક જીવ ચૌદ કર્મપ્રકૃતિનું वहन ४२ छ. 'तौं जहा' ते यो प्रतियो -या प्रमाणे छ –'नाणावरणिज्ज' शाना१२॥य तहेव जाव पुरिसवेयवज' तथैव यावत् ५३५ ३६ने छोडीन અહિયાં યાત્પદથી એ સમજાવ્યું છે કે-જ્ઞાનાવરણીય કર્મથી લઈને અંતેરાય સુધીની આઠ કર્મ પ્રકૃતિ તથા શ્રોત્રેન્દ્રિયાવરણ ચક્ષુ ઈદ્રિયાવરણ ૧૦ ઘાન્દ્રિયાવરણય ૧૧ જીન્દ્રિયાવરણ ૧૨ સ્ત્રીવેદાવરણ ૧૩ અને પુરૂષ વેદા વરણ ૧૪ એકેન્દ્રિય જીવને સ્પર્શનેન્દ્રિયાવરણ કર્મ હેતું નથી કેમ કેજે આ આવરણ તેમાં માનવામાં આવે તે તેઓમા એકેન્દ્રિય પણાને સદ્ભાવ જ બની શકે નહીં તથા નપુંસક વેદાવરણ પણ તેઓમાં હેતું નથી, કેમ કે-એકેન્દ્રિમાં નપુંસકવેદ માત્રને જ સદ્દભાવ રહે છે,
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भगवती एवं यावद्-अनन्तरोपपन्नक वनस्पतिकायिका अपीति । अत्र यावत्पदेन अनत्तरो. पपन्नकवादरपृथिवीकायिकाऽनन्तरोपपन्नकम्माप्कायिकैकेन्द्रियादारभ्याऽनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवनस्पतिकायिकैकेन्द्रियान्तजीवानां ग्रहणं भवति । एते सर्वेऽपि एके. न्द्रिया ज्ञानावरणीयादि पूर्व प्रदर्शित चतुर्दशकर्ममकृतीनां वेदका भवन्तीति भावः। _ 'सेवं भते ! सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त रोववन्नगा बायरवणस्सइकाइयत्ति' इसी प्रकार से यावत् अनन्तरोपपन्नक चादर वनस्पतिकायिक जीव भी इन्हीं १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं ऐसा जानना चाहिये, यहां यावत् पदसे अनन्तरोपपन्नक बादर पृथिवीकायिक 'अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म अकायिकैकेन्द्रिय से लेकर अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मवनस्पतिकायिकैकेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों का ग्रहण हुआ है ये सब भी एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयादि पूर्व प्रदर्शित नौदह कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं । 'सेव भंते ! सेव भंते ! हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक विशेषण विशिष्ट ऐसे सूक्ष्म बादर भेवाले पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृतियों के सत्व, वन्ध एवं वेदन के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह
'एव' नाव अणेतरोववन्नग बायरवणस्सइकइयत्ति' मे प्रभा યાવત અનંતર ૫૫નક બાદર વનસ્પતિકાયિક જીવ પણ આજ ચૌદકર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે. તેમ સમજી લેવું જોઈએ. અહિયાંયાવત્પદથી અનંતરે૫૫નક સૂક્ષમ અકાયિક એકેન્દ્રિયથી લઈને અનંતર ૫૫નક બાદરવાયુકાયિક એકેન્દ્રિયસુધીના છ ગ્રહણ કરાયા છે. એ બધા એકઈ દ્રિયવાળા જ જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે પહેલા કહેલ ૧૪ ચૌદકર્મ પ્રકૃતિના વેદક હોય છે. तम समा.
'सेव भंते ! सेव भंते !
चिसावन मानत५५न विशेष એવા સૂક્ષમ અને બાદર ભેટવાળા પૃથ્વીકાયિકે થી લઈને વનસ્પતિકાયિક એક ઈન્દ્રિય જીવોના કર્મ પ્રકૃતિના સત્વ, બંધન અને વેદનના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવાન
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३३ उ.२ सू०१ अनन्तरोपपन्नक १० निरूपणम् २६५ अनन्तरोपपमकसूक्ष्मवादरभेदमिन्नानां पृथिव्यादि वनस्पतिकायिकान्तानामे केन्द्रियजीवानां कर्मप्रकृतिसत्वबन्धनवेदनविषये यद् देवानुप्रियेण कथितम्, तत्सर्वम् एवमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं बन्दवे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसाऽऽन्मानं भावयन् विहरतीति ॥३३-२॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा. .
कलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजयदत्त'जैनाचार्य पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य -जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचितायां श्री "भगवतीमूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् त्रयस्त्रिंशत्तमशतकस्य
द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥३३-२॥ सषसर्वथा सत्य ही है २ । ऐसा कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। बन्दना नमस्कार कर वे संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या तेतीसवें शतक का
दूसरा उद्देशक समाप्त ॥३३-२॥ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના - સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકને બીજો ઉદેશે સમાપ્ત ૩૩-રા
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rrenter
मूलम् -कइविहाणं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ती ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नता तं जहांपुढवीकाइया एवं चक्कओ भेओ जहा ओहि उद्देसए । परंपरोववन्नग अपज्जत सुमपुढवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ एवं एएवं अभिलावेणं जहा ओहि उद्देसए तव निरवसेसं भाणियव्वं जाव चउद्दल वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति ॥३३-३॥॥
अनंतशेवगाढा जहा अनंतशेववन्नगा ॥३४-४॥ परंपरोवगाढा जहा परंपरोववन्नगा ॥३३ - ५॥ परंपराहारगा जहा अनंतशेववन्नगः ॥३३ -६ ॥ परंपराहारगा जहा परंपरोववन्नगा ॥३३-७॥ अनंतर पज्जन्तगा जहा - अनंतशेववन्नगा ॥३३-८|| परंपरपज्जत्तगा जहा परंपरोक्वन्नगा ॥ ३३९॥ चरिमा वि जहा - परंपरोववन्नगा तहेव ॥३३ - १०॥ एवं अचरिमा वि ||३३ - ११॥
एवं पए एगार उद्देगा । सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति - जाव विहरई ॥३३ - ११॥
पढमं एगिदियलयं समत्तं ॥
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छाया - कतिविधाः खलु भदन्त ! परम्परोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतमं । पञ्चविधाः परम्परोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा- पृथिवीकायिकाः, एवं चतुष्को भेदो यथा - औधिकोदेशकः । परम्परोपपन्नकोऽपर्याप्त समपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । एवमेतेनाऽभिलापेन यथा - औधिको देश के तथैव - निरवशेषं भणितव्यम्, यावच्चतुर्दश वेदयन्ति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ॥३३ ३
अनन्तरावगाढाः यथा परम्परोपपन्नकाः ||३३|४ | परम्परावगाढाः यथापरम्परोपपन्नकाः ||३३|५|| अनन्तराहारका यथा - अनन्तरोपपन्नकाः ॥ ३३॥६॥
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ उ० ३ ०१ परम्परोपपन्नकाद्ये. निरूपणम्
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परम्पराहारका यथा परम्परोपपन्नकाः || ३३:७ अनन्तरपर्याप्तकाः यथा अनन्तरोपपन्नकाः ||३३|८|| परम्परपर्याप्तकाः यथा- परम्परोपपन्नकाः ||३३|९|| चरमा अपि यथा- परम्परोपपन्नकाः तथैव | |३३|१०| एवम् - अचरमा अपि ||३३|११| एवमेते - एकादश देशकाः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति यावद् विहरति ||३३|११॥
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त्रयस्त्रिंशत् शतकस्य प्रथममे केन्द्रियशतकं समाप्तम् ||
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टीका- 'कविहाणं भंते !' कतिविधाः - कियन्तः खलु भदन्त ! ' परंपरो'वन्नगा एगिंदिया पन्नता' परम्परोपपन्नका एकेन्द्रिया जीवाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम | 'पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता' पञ्चविधाः - पञ्चमकारकाः परं परोपपन्नकाः एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः के ते पश्च तत्राह - 'तं जहा ' इत्यादि 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढचीकाइण एवं चउकओ भेभो जहा ओहिउदेसए' पृथिवीकायिका एवं चतुष्को भेदः यथा-औधिके सामान्ये एतस्यैव शतकस्य प्रथमोद्देशके । - शतक ३३ उद्देश तृतीय टीकार्थ- 'कविहाणं' भते । परंपरोवबना एमिंदिया पत्ता 'हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रियजीव कितने कहे गये हैं ? 'गोयमा ! पंचविहा परं परोववन्नगा एनिंदिया पन्नत्ता' हे गौतम ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'त' जहां' वे इस प्रकार से हैं- 'पुढवी काइया एवं चक्क भेओ जहा ओहिउदेए' पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकाधिक और वनस्पतिकाधिक इन सब के चार-चार भेद होते है । जैसा कि औधिक उद्देशक में कहा गया है । अर्थात् पृथिवीकायिक सूक्ष्म और बादर के भेद से मूल में दो प्रकार के कहे हैं, ॥श्री उद्देशाने आल—
'कविण भंते! पर परोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' इत्यादि
ટીકા—હૈ ભગવત્ પરપરાપપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવા કેટલા डेवामां भाव्या हे ? या प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री डे छे - 'गोयमा ! प चविहा परपरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम! पर परोपपन्न ४ ४. द्रियवाजा लवो पांयप्रहारना वासां भाव्या छे. 'त' जहा' ते या प्रभा ४. - ' पुढवीकाइया एवं चउक्कओ भेओ जहा ओहि उद्देसए' पृथ्वी अयि४, અલ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક આ બધાના ચાર ચાર ભેદે હૈાય છે. તે જે પ્રમાણે ઔધિક ઉદ્દેશમાં કહ્યા છે, તે પ્રમાણે સમજવા, એટલે કે—પૃથ્વીકાયિક સૂક્ષ્મ અને માદરના ભેદથી એ પ્રકારના છે. સૂક્ષ્મમાં
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भगवतीले पृथिवीकायिका यावद् वनस्पतिकायिकाः। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिक भेदाद् एकेन्द्रिया पञ्च प्रकारका भवन्ति । चतुष्को भेद इति पृथिवीकायादारभ्य वनस्पतिकायपयज्तानां पश्चानां चत्वारो भेदा यथा-सुक्ष्मा, बादराः, अप प्तिका पर्याप्त काश्चेति, चतुर्भेदमिन्ना पञ्चविधा अप्ये केन्द्रिया औधिकोदेशवत् पठनीयाः 'परंपरोवचन्नग अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाणं भंते !' परम्परोपपन्न काऽपर्याप्तमूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवानां भदन्त ! 'कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः । भगवानाह-'एवं एएणं' इत्यादि । “एवं एए णं अभिलावेणं जहा ओहिए उद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियचं' एवमेतेन उपरि प्रदर्शिताभिलापेन, यथा-औधिके, एतत् शतकीय प्रथमोद्देशके कथितम्, तथैव निरवशेष सर्वमपि भणितव्यम् ।
कियपर्यन्तमौधिकोदेशक इह पठनीयस्तत्राह-'जाव चउद्दसवेदेति! यावत्सूक्ष्म के भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद हैं तथा बादर के भी पर्याप्त और अपर्याप्त दो भेद है। इस प्रकार से पांचो प्रकार के एकेन्द्रिय जीव चार-चार भेद वाले होते हैं । _ 'परंपरोववन्नग अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाणं भते ! कह कम्मपग डीओ पन्नत्ताओं' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीका. यिक के कितनी कर्म प्रकृतियाँ कही गई हैं ? 'एवं एएणं अभिलावेण जहा ओहिए उद्देसए तहेव निरवलेस भाणियन्वं' हे गौतम! इस अभिः लाप द्वारा जैसा औधिक उद्देशक में-इसी शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है चैला ही कथन यहां पर करना चाहिये और वह कथन 'जाव चउद्दस वेदेति' यावत् वे १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એવા ભેદ હોય છે. તથા બાદરમાં પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એવા બે ભેદો થાય છે. આ રીતે પાંચ પ્રકારના એક ઈન્દ્રિય વાળા જીવો ચાર–ચાર પ્રકારના ભેદવાળા હોય છે.
‘पर परोववन्नग अप्पज्जत्त सुहमपुढवीकाइयाण भते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' में लगन् ५२५२५पन्न अपर्याप्त सक्षम पृथ्वीविहीन ४४ी ॐ प्रतिया ४ही छ ? 'एवं एएणं अभिलावेण जहा ओहिए उद्देसए तहेव निरवसेस भाणियव गौतम ! म मनिसा५ । मौधि४ हेशामांએટલે કે આ શતકના પહેલા ઉર્દશામાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું सघ ४धन महियां ही . मन थन यावत् 'जाब घउद्दस बेदेति' तमा यो प्रतियोवन ४३ छे. मा ४थन सुधी ४३ .
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.३ सू०१ परम्परोपपन्नकाये. निरूपणम् २६९ चतुर्दश कर्मपकृती वेदयन्ति, एतत्पर्यन्त मौधिकोद्देशकइह एठनीयः । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! परम्परोपपत्रक केन्द्रियविषये यद्देवानुपियेण कथितं तत्सर्व सर्वथैव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ त्रयस्त्रिंशत्तमे शते प्रथमे-एकेन्द्रियशते एकादशोदेशकयुते
तृतीयोद्देशकः समाप्तः ३३।३। 'अणंतरोवगाढा जहा-अणंतरोवचनगा' अनन्तरावगाढा एकेन्द्रियजीवाः यहां तक कहना चाहिये । 'सेव भंते ! सेव भते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आप देवानुप्रियने परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय के विषय में यहां कहा है वह सब सर्वथा लत्या है । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू०१॥
तेतीसवें शतऋका तृतीय उद्देशक समाप्त ॥३३-३॥ _ 'अणंतरोवगाढा जहा अणंतरोववन्नगा' इत्यादि । टीकार्थ-अनन्तरावगाढ एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कथन जैमा अन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही है। प्रथम समय वे अवगाढ हुए जीव ही अनन्तरादगाढ कहे गये हैं। 'सेवं भंते ! सेवं भते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा यह कथन आप देवानुप्रियने
'सेव भंते ! सेव भवे ! त्ति' & समवन माय वानुप्रिये ५२ ५५पन्न એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવના સબ ધમાં જે કથન કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧
॥त्री देशी समाप्त ॥33-3॥
ચેથા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ 'अणतरोवगाढा जहा अणतरोववन्नगा' या
ટીકાર્થ—અનંતરાવગાઢ એક ઇન્દ્રિય જીવોના બંધનું કથન અનંતરાપપત્રક એકેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ કથન પ્રમાણે જ છે, પહેલા સમયમાં અવગાઢ થયેલા જીવ જ અનંતરાવગાઢ કહેવાય છે.
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भगवतीस्त्रे यथा-अनन्तरोपपन्नकाः कथितास्तथैव-ज्ञेया अनन्धरावगाढा एकेन्द्रियाः। प्रथमसमयावगाढा अनन्तरावगाढा झथ्यते । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।३३-४॥ - 'परंपरोबगाढा जहा-परंपरोक्वन्नगा' परम्परावगाढाः यथा-परम्परोपपन्नकाः। परम्परोपपन्नकवदेव-परम्पराबणा केन्द्रियाणामपि वक्तव्यत्ता ज्ञातव्या। अत्र सर्वापि वक्तव्यता परम्परोपपन्नकैकेन्द्रियप्रकरणवदेव ज्ञातव्येति संक्षेपः॥ इति पञ्चमोद्देशकः ॥३३५॥
'अणंतराहारगा जहा-अगतरोवबन्नगा' अनन्तराहारकाः एकेन्द्रियजीवा अनन्तरोपपन्न केन्द्रियवदेव ज्ञातव्याः ॥३३॥६॥ इतिषष्ठोदेशकः ॥ किया है वह सब सर्वथा सत्य ही है ऐसा कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। · · तेतीसवें शतक का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥३३-४॥
'पर परोधगाढा जहा पर परोक्वन्नगा' पर परावगाढ एकेन्द्रियों की घक्तव्यता परम्परोपपन्नक एकेन्द्रियों के जैसी ही है।
॥३३ वें शतक का पंचम उद्देशक समाप्त ॥ • . तथा 'अणंतराहारणा जहा अणंतरोववन्नगा' अनन्तरोपपन्नक एके -- 'सेव भते । सेव भते ति 8 14 सापहेप्रिये सामनतरा. - ગાઢ જીવના સ બ ધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગોતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧
થે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૩-૪
___पयमा उद्देशान। प्रार:'परंपरोगाढा जहा पर परोववन्नगा' त्याह
ટીકર્થ–પરંપરાવગાઢ એકેન્દ્રિય જીનું કથન પરંપરા૫પન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવોના કથનપ્રમાણે સમજવું.
પાંચમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩-પા
! देशान। प्रार'अणंतराहारगा जहा अणंतरोववन्नगा' त्या ટીકાથ-અનંતરે પપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવના કથન પ્રમાણે અનંતરા
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shreefont टीका श०३३ उ. ६-९ सू०१ परम्परोपपत्रकाद्ये, निरूपणम् ૨૦.
'परंपराहारगा जहा - परंपरोववन्नगा' परम्पराहारका यथा - परम्परोपपन्नका एकेन्द्रिया स्वथैव ज्ञातव्याः । परम्परोपपन्नकै केन्द्रियपकरणवदेव, ज्ञातव्यमिति भावः | ३३|७|| इतिसप्तमोद्देशकः ॥
'अनंतर पज्जतगा जहा - अनंतरोचयन्नगा' अनन्तरपर्याप्त के के द्रियजीवां अनन्तरोपपन्न के केन्द्रियवदेव पृथिव्यादि यावद् वनस्पतिपर्यन्तपञ्चभेदभिन्ना तथा - सूक्ष्मवादरभेदभिन्ना ज्ञातव्याः ||३३ ८ अष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥
'परंपरपज्जत्तगा जहा - परंपरोदवन्नगा' परम्पर पर्वातका एकेन्द्रिया परम्पशेपपन्न केन्द्रियवदेव पृथिव्यादि वनस्पत्यन्त पञ्च भेदभिन्नाः, तथा सूक्ष्मवादरन्द्रियों के जैसी वक्तव्यता अधनराहारक एकेन्द्रिय जीवों की है ऐसा जानना चाहिये || ३३ वे शतक का षष्ठ उद्देशक समाप्त ॥
'परंपराहारगा जहा परंपरोधवन्नगा' परम्परोपपत्रक एकेन्द्रियों के जैसी वक्तव्यता परम्पराहारक एकेन्द्रिय जीवो की है ।
३३ वे शतक का सप्तम उद्देशक समाप्त ॥
'अणं तरपज्जत्तमा जहा अणतरोववण्णा' अनन्तरोपपन्न के एकेन्द्रियों के जैसी वक्तव्यता अन्तरपर्यातक एकेन्द्रिय जीवों की है । | ३३ वे शतक का अष्टम उद्देशक समाप्त ॥
'पर' परपज्जन्तगा जहा पर परोचकाना' पर परचर्याप्तक पृथिवी હારક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવનું કથન સમજવું. ાસૢ૦૧૫
छठी उद्देश! समाप्त ॥३३-६॥ સાતમા ઉદ્દેશાને પ્રાર ભ~~~
'परंपराहारगा जहा पर परोववन्नगा' त्यिाहि
ટીકા પર’પાપપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે પરપરાહારક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવાનુ કથન સમજવું. પ્રસ્॰૧૫
॥सातभा उद्देशा समाप्त 33-७॥
આઠમા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ~~
'अतरपज्जत्तगा जहा क्षणतरोववन्नगा' इत्याहि
ટીકા—અન તરાપપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે અન‘તપર્યાપ્તક એઈન્દ્રિય જીવાનુ કથન સમજવું' સૂ૦૧૫
॥मा भी उद्देश। सभाप्त ॥३३-८॥
નવમા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ— 'पर' परपज्जतगा जहा पर परोववन्नगा' त्याहि
ટીકા
પર પરપર્યાપ્તક પૃથ્વીકાયિક એકઈન્દ્રિયવાળા જીવના કથનથી
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भगवतीय भेदभिन्ना श्चतुर्दश कर्मप्रकृतिर्वेदनान्तं सर्वं परम्परोपपन्नकमकरणवदेव ज्ञातव्यम् इति । ३३।९। नवमोद्देशकः समाप्तः ॥
'चरिमा वि जहा-परंपरोक्वन्नगा' चरमा अपि एकेद्रियजीवाः परम्परोपपन्नकवदेव प्रथमं पृथिव्यादिवनस्पत्पन्तपञ्चभेदाः, ततः प्रत्येकं पृथिव्यादयः सूक्ष्म बादरभेद भिन्नाः सर्वे परम्परोपपन्नकमकरणवदेव ज्ञातव्या इति ॥३३॥१०॥
दशमोद्देशकः समाप्तः ॥ कायिक एकेन्द्रिय जीव से लेकर परस्परपर्याप्तक वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तक पांच भेदराले ये परम्परपर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म पादर के भेदसे प्रत्येक दे। २ प्रकार के होते हैं और ये सब कथन परम्प. रोपपन्नक एकेन्द्रिय प्रकरण के जैसा हो जानना चाहिये।
३३ वे शतक का नवम उद्देशक समाप्त ॥ . 'चरिमा वि जहा परंपरोववन्नगा' चरम एकेन्द्रिय जीव भी परम्प. रोपपन्नकों के जैसे पूधियीकायिक आदि के भेद से वनस्पविकायिक तक पाँच भेद वाले हैं । और प्रत्येक पृथिवीकायिक आदि जीव सूक्ष्म चादर के भेदसे युक्त हैं। तथा ये सब १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं इस प्रकार का सब कथन परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिव के प्रकरण के जैसा ही समझना चाहिये । ॥ ३३ वें शतक का दशवां उद्देशक समाप्त ॥ લઈને પરંપરપર્યાપ્તક વનસ્પતિકાયિક એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવના કથન સુધી પાંચ ભેદેવાળા આ પરંપરપર્યાપ્તક એક ઈદ્રિયવાળા જ સૂક્ષ્મ અને બાદરના ભેદથી દરેકના બન્ને પ્રકાર હોય છે. અને આ બધાં ૧૪ ચૌદકર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે એ પ્રમાણેના આ કથન સુધીની સઘળું કથન પરંપરાપપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવન પ્રકરણના કથન પ્રમાણે જ સમજવુસના
નવમે ઉદ્દેશો સમાપ્ત ૩૩
દસમા ઉદેશાને પ્રારંભ– 'चरिमा वि जहा पर परोववन्नगा' या
ટીકાઈ–ચરમ એકઈન્દ્રિયવાળા જી પણ પરંપર૫૫નક જીના કથન પ્રમાણે પૃથ્વીકાયિક વિગેરેના ભેદથી વનસ્પતિકાયિક જીવના કથન સુધી પાંચ ભેદ ચુત કહ્યા છે. અને દરેક પૃથ્વીકાયિક છે સૂફમ બાદર ભેટવાળા કહ્યા છે. તથા આ બધા ૧૪ ચૌદમ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે. આ પ્રમાણેનું સઘળું કથન પરંપરા પપન્નક એક ઈન્દ્રિય જીવન પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું. સૂ૦૧૩
દસમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૩-૧
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areer टीका श०३३ उ.११ ०१ परम्परोपपन्नकायें. निरूपणम् २७५ : ' एवं अवरिमापि' एवं परम्परोपपन्नक पृथिव्याधे केन्द्रियवदेव अवरमपृथि केन्द्रियजीवां अपि ज्ञातव्या इति ||३३|११ ॥
'एवं एए एक्कारस उद्देसगा' एवमुपर्युक्त प्रदर्शितक्रमेण - एकेन्द्रियजीवानामें कादश सामान्य एकेन्द्रियजीवानां प्रथम औधिकोदेशकः १, अनन्तरोपपन्नकाना मेकेन्द्रियाणां द्वितीयोदेशकः २ || परम्परोपपन्नकानां तृतीयोदेशनः ३॥ अनन्तगाढानां चतुर्थ : ४, परम्परावगाढानां पञ्चमोदेशकः ५, अनन्तराहारकाणा में शतक ३३ उद्देशन ११
1
चाहिये ।
'एवं' अचरिमा वि' परम्परोपपनक पृथिव्यादि एकेन्द्रिय जीवों के जैसा ही अचरम पृथिवी आदि एकेन्द्रिय जीवों का कथन जानना | ३३ वें शतक का ११ वां उद्देशक समाप्त ॥ 'एव' एए एक्कारल उद्देखगा' इस प्रकार उपर्युक्त प्रदर्शित क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय जीवों के ११ उद्देशक हैं- इनमें प्रथम उद्देशक सामान्य रूप से एकेन्द्रिय जीवों का हैं । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों का द्वितीय उद्देशक है । परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों का तृतीय उद्देशक है । अनन्तरावगाढ एकेन्द्रिय जीवों का चतुर्थ उद्देशक है । परम्परावगाढ ાઅગિયારમા ઉદ્દેશાના પ્રારભ—
'एव' अचरिमा वि' त्याहि
ટીકા”—પર પરોપપન્નક પૃથ્વીકાયિક એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે જ અચરમપૃથ્વીકાયિક વિગેરે એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવાનુ` કથન સમજવું ાસૂ॰૧॥
"I
uઅગિયારમા ઉદ્દેશો સમાપ્ત ।।૩૩ ૧૧ મારમા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ—
' एवं एए एक्कारस उद्देसगा' इत्याहि
ટીકા—આ રીતે ઉપર ખતાવેલ ક્રમ પ્રમાણે એક ઇન્દ્રિયાળા જીવાના સમધમાં અગિયાર ૧૧ ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે. તેમાં પહેલે ઉદ્દેશો સામાન્ય પણાથી એક ઈન્દ્રિય જીવાના સબ'ધમાં કહેલ છે. ૧ અનતાપપન્નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવેના સમધમાં ખીન્ને ઉદ્દેશેા હ્યો છે. ર પરંપરાપપન્નક એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવેના સંબધમાં ત્રીજો ઉદ્દેશે! કહેલ છે. ૩ અન તરાવ ગાઢ એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવાના સમધમાં ચેથા ઉદ્દેશેા કહેલ છે. છું પરપ રાયગા, એકેન્દ્રિયવાળા જીવેના સંબંધમાં પાચમે ઉદ્દેશે। કહેલ છે. પુર
भ० ३५
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२७५
भगवती केन्द्रियाणां पष्ठोद्देशकः ६। परम्पराहारकाणां सप्तमोद्देशकः ७। अनन्तरपर्याप्त काना मष्टमोद्देशकः । परम्परपर्याप्तकानामे केन्द्रियाणां नवमोद्देशकः ९। चरमैकेन्द्रियाणां दशमोद्देशकः १० अचरमै केन्द्रियाणामेकादशोद्देशकः ॥११॥ तदेवमेते सङ्कलनया-एकादशोद्देशका भवन्तीति ॥
_ 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरई' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद विहरति । हे भदन्त ! अनन्तरावगादै केन्द्रियादारभ्याऽचरमै केन्द्रियपर्यन्तजीवानां विषये यद् देवानुप्रियेण कथितम्, तत्सर्वं सर्वथैव सत्यम्, इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं बन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।' इति त्रयस्त्रिंशत्तमें शतके प्रथममे केन्द्रियशतं समाप्तम् । इति श्री-विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपित्यालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबेतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां
व्याख्यायां त्रयस्त्रिंशत्तमे शतके एकादशोद्देशकः समाप्तः ।३३-११॥ एकेन्द्रिय जीवों का पांचवा उद्देशक है, अनन्तराहारक एकेन्द्रिय जीवों का ६ठा उद्देशक है। परम्पराहारक एकेन्द्रिय जीवों का सातवा उद्देशक हैं । अनन्तर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवों का आठवां उद्देशक है । परम्पर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवों का नौवां उद्देशक है । चरम एकेन्द्रिय जीपों का १० वां उद्देशक है । तथा-अचरम एकेन्द्रिय जीवों का ११ वां उद्देशक है। इस प्रकार से ये ११ उद्देशक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में इस प्रथम एकेन्द्रिय शतक में है। 'सेव भंते ! सेवं भंते !क्ति' हे भदन्त ! अनन्तरावगाढ एकेन्द्रिय से लेकर अचरम एकेन्द्रिय पर्यन्त
અનંતરાહારક એક ઈન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં છઠ્ઠો ઉદ્દેશે કહેલ છે. ૬ પરંપરાહારક એક ઈન્દ્રિય જીવના સંબંધમાં સાતમો ઉદેશે કહેલ છે. ૭ અનંતર પર્યાપ્ત એક ઈન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં આઠમો ઉદ્દેશો કહેલ છે. ૮ પરંપરપર્યાપ્તક એક ઈન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં નવમો ઉદ્દેશો કહેલ છે. ૯ ચરમ એક ઈન્દ્રિય જીના સંબંધમાં ૧૦ દસમે ઉદેશે કહેલ છે. ૨૦ તથા અચરમ એક ઈન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં અગિયારમે ઉદ્દેશે કહેલ છે. ૧૧ આ રીતે આ અગિયાર ઉદેશાઓ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં આ પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં કહેલ છે.
'सेव भते ! सेव भंते ! त्ति' मशवन अनतरामा छन्द्रियाणा જીવાથી લઈને અચરમ એકેન્દ્રિય સુધીના જીના સંબંધમાં આપી દેવા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.११ सू०१ परम्परोपपन्नक ये. निरूपणम् २७५ के जीवों के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना और नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तेतीसवें शतक का अग्यारहवां उद्देशक समाप्त ॥३३ - ११॥
|| प्रथम एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥
પ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સંથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળુ* સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં, વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પેતાના આત્માને ભાવિત કરતા થયા પાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, પ્રસૂ૦૧૫
જૈનાચાર્ય. જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકના અગિયારમેા ઉદ્દેશે સમાપ્ત ૫૩૩-૧૧૫ ૫પહેલુ એકઈન્દ્રિય શતક સમાપ્ત પ્ર
फ
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२७६
भगवती
अथ द्वितीयमेकेन्द्रियशतम्
अथ यस्त्रिंशत्तमे शते प्रथमशतं व्याख्याय क्रममाप्तं द्वितीय शतमारभते, तस्येदं सूत्रम् 'कविहाणं भंते' इत्यादि ।
मूलम् - इविहाणं भंते! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता । तं जहापुढवीकाइया जाव - वणस्सइकाइया । कण्हलेस्सा णं भंते ! पुढवाइया कइविहा पन्नत्ता ? गोयना ! दुविहा पन्नत्ता | तं जहा - सुहुमपुढवीकाइया व वायरपुढवीकाइया य । कण्ह -- लेस्साणं भंते! सुमपुढवीकाइया कइ विहा पन्नत्ता ? गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं चउक्क भेओ जहेव ओहि उद्देसए जॉव वर्णस्सइकाइयति ।
कण्हलेस्ला अपनत्तसु हुमपुढवीकाइया णं भंते! कइकम्सपगडीओ पन्नताओ ? एवं चेव एएणं अभिलावेणं जहेव-ओहि उद्देस तव पन्नताओ तहेव वेदेति सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति
कइविहाणं भंते! अनंतशेववन्नग कण्हलेस्ल एगिंदिया पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा अतरोत्रवन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया | एवं एएणं अभिलावेणं तहेब दुपयो भेओ जाव वणस्स इकाइयन्ति । अणंतरोववन्नग कण्हलेस्स सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते! कइकम्मपगडीओ पन्नत्ताओ ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा - ओहिओ अनंतशेववन्नगाणं उद्देसओ तहेव जाव वेदति । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति ।
कड़वा भंते! परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नता । तं जहा - पुढवीकाइया० एवं एएणं अभिलावेणं तदेव उक्कओ भेओ जाव वणस्सइकाइयन्ति ।
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श.२ सू० कृष्णलेश्यायेकेन्द्रियनिरूपणम् २८७ ___ परंपरोववण्णग कण्हलेस्स अपज्जत्त सुखमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोक्वन्नग उद्देसओ तहेब जाव वेदति। एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहि एगिदियसए एकारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेललाए वि भाणियव्वा जाव अचरिमकण्हलेसा एगिदिया ।सू० १॥
विइयं एगिदियसयं ललतं छाया--कतिविधाः खलु भदन्त ! कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ? पञ्चविधाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-पृथिवी झायिकाः यावद् वनस्पतिकायिका, कृष्णलेश्याः खलु भदन्त ! पृथिवीकायिका कतिविधाः मज्ञप्ताः ? द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-सुक्ष्म पृथिवीकायिकाश्च पादरपृथिवी फायिकाश्च ।
कृष्णलेश्याः खलु भदन्त ! सुक्षमपृथिवीकायिकाः कतिविधाः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! एवमेतेनाऽमिलापेन चतुष्क भेदो यथैव-औधिकोद्देशके यावद् वनस्पतिकायिका इति। -- कृष्णलेश्यापर्याप्त सम्रक्ष्मपृथिवीकाविकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञताः ? एवमेव एतेनापिला पेन यथैव-औधिकोदेशके तयैव प्रज्ञताः । तथैव. बंधनन्ति, तथैव, वेदयन्ति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । - कविविधाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्य केन्द्रियाः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पञ्चविधा अनन्तरोपपनका कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः, एवमेतेन अभिलापेन तथैत्र-द्विपदो भेदः, यावर् वनस्पतिकायिका इति । अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्य सूक्ष्म पृथिवीकापिकानां भदन्त । कति कर्मभन्यः प्रज्ञप्ताः ? एवमेतेनाऽभिला. पेन यथा औषिकोऽनन्तरोपपन्न कानाम्, उद्देशकस्तथैव याबद्वेदयन्ति । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ।
कतिविधाः खल्ल भदन्त ! परम्परोपपन्नकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रिया: मज्ञप्ताः ? गौतम ! पश्वविधाः परम्परोपपन्न काः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता तयथा-पृथिवीकायिका:०, एवमेतेनाऽमिलापेन, तथैव-चतुष्कभेदो यावद् वनस्पतिकायिका इति। . परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या पर्याप्त सुहमपृथिवीकायिकानां भदन्त । कति कर्म प्रकृतयः प्रज्ञप्ता: ? एवमेतेनाऽभिलापेन यथैव औधिकः परम्परोपपन्नको
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૨૦૮
भगवती सूत्रे
देशकस्तथैव यावद् वेदयन्ति । एवमेतेनाऽविलापेन यथैव - औधिकै केन्द्रियश ते एकादश उदेशका भणिता स्तथैव - कृष्णलेयशतेऽपि भणितव्याः जाव अचरम कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः ॥०१॥
इति द्वितीयमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥
टीका- 'कविहाणं भंते । कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता' कतिविधाः कति प्रकारकाः खलु भदन्त ! कृष्णलेश्या एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविद्या कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नता' पञ्चविधाः पञ्चप्रकारकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ता - कथिताः । ' तं जहा ' तद्यथा - 'पुढवीकाइया जाव - वणस्सइकाइया ' पृथिवीकायिकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियजीवा याचद वनरपतिकायिकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियजीवाः । अत्र यावत्पदेना कायिक-तेजस्कायिक- वायुकायिकानां संग्रहो भवति । तथा च पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिभेदेन कृष्णलेश्यै केन्द्रियजीवा, पञ्चप्रकारका भवन्ति इति ।
३३ वे शतक में प्रथम एकेन्द्रिय शतक व्याख्यात करके अब क्रम प्राप्त द्वितीय शतक प्रारंभ किया जाता है
'कह विहाणं भंते ! कण्हलेल्स एगिंदिया पण्णत्ता' इत्यादि । टीकार्थ- 'कविहाणं मते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता' हे भदन्त ! कृष्णलेयाबाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर मैं प्रभुश्री कहते हैं- 'पंचविहा कण्हलेस्सा एनिंदिया पण्णत्ता' हे गौतम! कृष्णलेश्वावाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा ' जो इस प्रकार से है - 'पुढत्रीकाइया जाव वणरसहकाइया' पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, यहां यावत् शब्द से 'अष्काधिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक' इन जीवों का ग्रहण हुआ है । इस प्रकार पृथिवीખીજા એકેન્દ્રિય શતકના પ્રાર'ભ~
તેત્રીસમા શતકમાં પહેલા એકન્દ્રિય શતકનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર मुभथी आवेला या जील मेन्द्रिय शतन आरंभ रे छे - 'कइ विहा भते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता' त्याहि
टीडार्थ - 'कइविहाणं संवे । कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णचा' हे भगवन् કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકઇન્દ્રિય જીવા કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. આ प्रश्नमा उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने छे - 'गोयमा ! पचविद्या कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता' हे गौतम । द्रुष्ट्णुवेश्यावाणा मेन्द्रिय लोयांथ अारना वासां भाग्या छे. 'त' जहा' ते या प्रभाये छे 'पुढवीकाइया जाव षणरसइकाइया' पृथ्वी थिए, वायुअयि यावत् च्यते
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thereferrer श०३३ अ. २०२८०१ कृष्णलैश्याद्ये केन्द्रियनिरूपणम् २७९
'कलेसाणं भंते! पुढवीकाइया कइ विहा पश्नत्ता' कृष्णलेश्याः खलु भदन्तं ! पृथिवीकायिकाः कतिविधाः - कतिपकारका भवन्तीति घन: ? भगवानाह - 'गोयमा !' इत्यादि । 'गोवमा' हे गौतम! 'हुविदा पत्नत्ता' कृष्णलेश्या, पृथिवीकायिका एकेन्द्रियजीवाः द्विविधा: - द्विप्रकारका भवन्ति । मकारभेदमेव दर्शयति'तं जहा ' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा - 'सुमपुहवीकाइया य-धायरपुढवीकाइया ' सूक्ष्म पृथिवीकायिकाश्च कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः वादरपृथिवीकायिकाश्च ।
'कण्हलेस्सा णं अंते ! सुहुमपुढचीकाइया कहविहा पन्नत्ता' कृष्ण. art खलु भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका एकेन्द्रियजीवाः कतिविधाः कति प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयसा' हे गौतम ! 'एवं एं अमिळावेणं चकओ भेजो बहेब - ओहिए जान वणस्वइकाइयत्ति' एवमुपरिकायिक, अकाfes और वनस्पतिकाधिक के मेद से कृष्णले श्यावाले एकेन्द्रिय पांच प्रकार के होते है ।
'कण्हलेस्लाण' भते | पुढची काहया कविता पण्णत्ता' हे भदन्त ! कृष्णलेश्वावाले पृथिवीकाधिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं- 'गोमा ! दुबिहा पन्नत्ता' हे गौतम ! कृष्ण लेश्यादाले पृथिवीकाधिक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । 'त' जहा' जैसे 'हुम पुढची काइया बादरपुढवीकाइया' सूक्ष्म पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक 'कण्हलेस्साणं भंते! माझ्या कविता पन्नत्ता' हे भदन्त ! कृष्णलेयावाले सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं चक्रुओ भेओ जहेब ओहियसर जाब वर्णसह काइयन्ति' हे गौतम ! इस उपर में प्रदर्शित प्रकारवाले अभिलाप વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિકના ભેદથી કુષ્ણુલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીવેા પાંચ પ્રકારના હાય છે.
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'कण्हलेस्साणं भ'ते | पुढचीकाइया कइविहा पन्नत्ता' हे भगवन् दृष्युलेश्याવાળા પૃથ્વીકાયિક જીવા કેટલા પ્રકારના કહેલા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतमस्वाभीने हे छे - 'गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता' हे गौतम! કૃષ્ણલેશ્યાવાળા પૃથ્વીકાયક એકેન્દ્રિય જીવે એ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. 'त' हा ' ते या प्रभाषे हे 'सुहुमपुढवीकाइया वाढरपुढवीक' इया' सूक्ष्म पृथ्वी भने महर पृथ्वी अयि 'कण्हलेरसाण भते ! सुहृम पुढवीकाइया कवि पण्णत्ता' हे भगवन सॄष्ट्युसेश्यावाजा सूक्ष्म पृथ्वी अयि प्रभारना !डेवाभां भाव्या हे ? उत्तरमा प्रभुश्री उडे eer' अभिलावेण चउक्कओ भेओ जहेव ओहियवए जाव
वाटेला
- 'गोयमा ! एव' वणस्सइकाइयत्ति'
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भगवतीस
दर्शितप्रकारेण अभिलापेन चतुष्को भेद: यथैत्र-औधिको देश के कथित स्वधवात्रापि वक्तव्यः । यावद्वनस्पतिकायिका इति । कृष्णलेश्य पृथिवीकायिकै केन्द्रिया दारभ्य कृष्णले वनस्पतिकायिकै केन्द्रियान्ताः सूक्ष्म-वादरापर्याप्तक-पर्या तकरूप चतुष्टयभेदवन्तो विज्ञेया इवि ।
' कण्हलेस अपज्जत सुमपुढवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' कृष्णलेल्यापर्यासमुक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति संख्यकाः कर्मप्रकृतयः शप्ताः ? इति प्रश्नः, उत्तरगाह - ' एवं चेच' इत्यादि । ' एवंचेत्र - एषणं अभिलाषेण जदेव - भहिउद्देसए तहेब पन्नताओ' एवमेव एतेनाऽभिलापप्रकारेण यथैत्र औधिकोद्देश प्रथमोद्देशके कथिताः - अौ कृतयस्तथैवेहापि अष्टौ से अधिक उद्देश में कहे गये अनुसार सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव यावत् सूक्ष्म वनस्पतिकाय तक सब एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म बादर अपर्याप्तक और पर्यातक के भेद से चार-चार प्रकार के जानना चाहिये, अर्थात् कृष्णलेइयावाले पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय से लेकर कृष्णलेयाबाले वनस्पतिकाधिक एकेन्द्रिय जीव तक पूर्वोक्त सूक्ष्म बादर अपप्तक पर्याप्त रूप से चार-चार प्रकार के कहे गये है ।
'कण्हलेस अपज्जन्त सुतुमपुढचीकाइया णं भंते! कह कम्पगडीओ पन्नताओ' - हे भदन्त | कृष्णलेइयावाले अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के किननी कर्मप्रकृतियां कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- ' एवं एएणं अभिलावेणं अहेब ओहि उद्देसर तहेव पन्नताओ' हे गौतम । इस अभिलाप से जिस प्रकार औधिक उद्देशक में प्रथम उद्देशक में आठ कर्ष प्रकृतियों का सत्य कहा गया है उसी હૈ ગૌતમ ! આ ઉપર બતાવેલા પ્રકારવાળા અભિલાપાથી ઔધિક ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવા યાવતુ સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ કાય સુધિના સઘળા એકઈન્દ્રિયવાળા જીવે સૂક્ષ્મ માદર અપર્યાપ્તક અને પર્યાપ્તકનાભેદથી ચાર-ચાર પ્રકારના સમજવા. અર્થાત્ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા પૃથ્વીકાયક એકઇન્દ્રિયથી લઈને કાયિક, વાયુકાયિક, અને વનસ્પતિકાયિક એકઈન્દ્રિયવાળા જીવા ક્તિ પ્રકારથી ચાર-ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે.
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'कन्हलेस अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाणं भौंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' हे भगवन प्लुटोश्यावाणा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीश्रयि बाने કેટલી ક્રમ પ્રકૃતિયા કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે - 'एव एणं अभिलावेणं जद्देव ओहि उद्देसए तद्देव पन्नत्ताओं' से गौतम !
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steerat ahet श०३३ अ. श०२ सु०१ कृष्ण लेश्याद्ये केन्द्रियनिरूपणम् २८१ ज्ञानावरणीयादिकाः कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, 'तहेब बंधंति, तहेव वेदेति' तथैव औधिकप्रथमो देशवदेव, कर्मकृती वैध्नन्ति तथैच-वेदयन्ति । वन्धनसूत्रे सप्तविधं बन्धका वा, अष्टविधबन्धका वा, सप्तविध बन्धकाः आयुर्वर्ज सतकर्मप्रकृति वन्धका अष्टविधबन्धकाः परिपूर्णाविधकर्ममकृति बन्धका भवन्ति । वेदनसूत्रे ज्ञानावरणीयाकर्मकृतयः, तया श्रोत्रेन्द्रियवध्यादिकाः स्पर्शेन्द्रियवध्यत्रजचतखः, तथानपुंसक वेदवध्य वेदद्वयं एवं चतुर्दशकर्म प्रकृतीनां वेदका भवन्ति इति भावः ।
'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति । हे भदन्त ! प्रकार से यहां पर भी आठ कर्म प्रकृतियों का सत्व जानना चाहिये, 'तहेव बंधति, तच वेदेति' तथा बन्धन सूत्र में जैसा कहा गया है कि ये जीव जब सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं तब आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियों को बांधते है और जब आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं - तब ये पूरे के पूरे आठ कर्मों को बांधते हैं तथा २ इसी प्रकार से ये उनका वेदन भी करते हैं । इस वेदन में ये ज्ञानावरणादिक आठ कर्मप्रकृतियों का, श्रोत्रेन्द्रि वध्य चक्षुरिन्द्रिय वष्य घ्राणेन्द्रिय वध्य जिवेन्द्रिय वध्य स्त्रीवेद वध्य पुरुषवेद वध्य इन. चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं । स्पर्शनेन्द्रिय बध्य का वेदन इनको नहीं होता है, क्योंकि इनको तो स्पर्धानेन्द्रिय का उदय होता है । तथा नपुंमक वेदवाले होने से इनके उसके बध्य का भी अभाव रहता
આ અભિલાપથી ઔધિક ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે પહેલા ઉદ્દેશામાં આઠ ક પ્રકૃતિયા હાવાના સ’ધમાં કથન કર્યુ` છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ આઠ ક્રમ પ્રકૃતિચેાનુ` વિદ્યમાન પણુ' સમજવુ.
'तत्र बंधंति' तहेव वेदे 'ति' तथा गन्ध सूत्रमां के प्रमा उथन ४२ વામાં આવ્યુ છે કે- જીવેા જયારે સાતકમ પ્રકૃતિયાના અધ કરે છે, ત્યારે તે આયુક`ને છોડીને બાકીની સાતકમ પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે. અને જયારે આટકમ પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે, ત્યારે તેએ પુરેપૂરી આઠકમ' પ્રકૃતિને મંધ કરે છે. એજ પ્રમાણે તેઓનુ` વેદન પણ કરે છે. આ વેદનમાં તેએ જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ કમ પ્રકૃતિયાનુ` શ્રોત્રેન્દ્રિયાવરણનુ` ચક્ષુ ઇન્દ્રિયાવરણનું, ઘ્રાણેન્દ્રિયાવરણનું, જીવા ઈન્દ્રિયાવરણુનુ સ્ત્રીવેદ્યાવરણનું, પુરૂષવેદ્ય વરણનુ આ રીતે આ ચૌદક પ્રકૃતિયાનું વેદન કરે છે. તેને સ્પશનન્દ્રિયાવરણનુ વેદન હાતુ' નથી. કૅમ કે તેઓને તે સ્પર્શેન્દ્રિયના ઉદય હાય છે; તથા નપું સક વેઢવાળા ઢાવાથી તેએના આવરણના અભાવ રહે છે.
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. . भगवतीस्त्र कृष्णलेश्य केन्द्रियजीवविषये भवता यद्यत् कथितम्, तत्सर्व सर्वथैव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते-जमस्यति, बन्दित्वा-नमस्यित्वा च संयमेनतपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति ।।सू० १॥ जयस्त्रिशत्तम शतकीय द्वितीयशतके प्रथम औधिकोद्देशकः समाप्तः ।३३।२।१।।
प्रयस्त्रिंशत्तमशतकस्य द्वितीयऽवान्तरशतकस्य द्वितीयरुदेशको व्याख्यायते__टीका-'कहविहा ण भंते ! अणंतरोबचन्नगा कण्हलेस्स एगिदिया पन्नत्ता' कतिविधाः कति मकारकाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः येपा मुत्पत्ती प्रथमसमयो जातस्ते कृष्णलेश्या एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ता:-कथिता ? इति प्रश्नः । भगवा. नाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम | 'पंचविहा अतरोववन्नगा कण्ह. है। 'सेव भंते ! शेव भते ! त्ति' हे भदन्त ! कृष्णले बाबाले एकेन्द्रिय जीव के विषय में आप देवानुप्रिय ने जो कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे सयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । ॥३३ वें शतक के द्वितीय अन्तर शतकका प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ अव द्वितीय अवान्तर शतक का द्वितीय उद्देशक की व्याख्या की जाती है __ 'कइविहा णं भंते ! अणंतरोववनगा'-इत्यादि।
टीकार्थ—'काविहा णभंते ! अणंतरोववन्नमा कण्हलेस्स एगिदिया पन्नत्ता' हे भदन्त ! अनन्नरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? जिन्हे उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है वे
'सेव भवे ! सेव' भवे ! त्ति' 3 HI11 पडेश्यावा सन्द्रियाणा જીવના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપદેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. માસૂ૦૧
બીજા એકેન્દ્રિય શતકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત
- બીજા અવન્તર શતકને પ્રારંભ– 'कइविहाण भंते ! अणंतरोववण्णगा' छत्यादि
टीज-काविहाण भंते ! अतरोववण्णगा कण्हलेस्स एगिदिया पन्नत्ता' 3 ભગવન અનંતરાયપન્નક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? પહેલા સમયમાં જેઓની ઉત્પત્તી થાય છે. એવા જ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श.२ सू०१ कृष्णलेश्यायेकेन्द्रियनिरूपणम् २८३ लेस्सा एगिदिया पन्नता' पञ्चविधा:-पश्चप्रकारकाः पृथिवीकायिकादिवनस्पति कायिकान्ता अनन्तरोपपन्नकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः । ‘एवं पएणं अभिलावेणं तहेव-दुपभो भेो जाव-वणस्सइ काइयत्ति' एवमेतेनाऽमिलापेन-उक्तमकारेण-तथै-मपमोद्देश वदे। द्विपदो भेदः, सूक्ष्मवादररूपो भेदो वर्णनीयो यावद-वनस्पतिकायिका इति । ____अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यपृथिवीकायिकत आरभ्याऽनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्य वनस्पतिकायिकान्तै केन्द्रियजीवेषु मुक्ष्म-बादरभेदेन द्विपदो भेदो ज्ञातव्यः । अत्र चतुर्भेदो न दर्शितः, अनन्तरोपपन्नकानाम्-एकसमयमात्रवृत्तित्वेन पर्याप्तापर्याप्तकभेदाऽभावेन चतुष्पकारकत्वस्याऽसम्भवात् इति ।
'अगंतरोक्वन्नगकण्हलेसमुहमपुढवीझाइया णं भते। कइ कम्मपगडीयो पन्नताओ' अनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्यमूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति अनन्तरोपपत्रक हैं। 'गोयमा । पंचविहा पन्नत्ता' हे गौतम अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। ये पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकाधिक तक होते हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं तहेव दुपओ भेओ, जाव वणस्तइकाइयति' इस अभिलाप द्वारा प्रथमोद्देशक के जैसे अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के एकेन्द्रिय जीव-सूक्ष्म
और चादर के भेद से दो पदराले-दो भेदवाले कहना चाहिये, यहां अपर्याप्त और पर्याप्त भेद नहीं होता है। क्योंकि यहां अनन्तरोपप. भकका काल एक समय मात्र का है, इसलिये इन में चतुष्प्रकारता संभ. वित नहीं है । 'अणंतरोबधन्नग क्षणहलेस्ल सुहमपुढवासाश्याण भते ! का कम्मपगडीओ पन्नताओ' हे अदन्त ! अनन्तरोपपलक कृष्णलेश्या અનંતરોપનક કહેવાય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને
छ -'गोयमा ! पचविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! मान तरी५यन Bey. લેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જી પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. તે પૃથ્વી आयिया सधन पनपति यि सुधाना पाय २ समपा. 'एवं एएणं अभिलावेणं तहेव दुपओ भेओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' मा अलिसा५ प्रमाणे પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે અન તરાપપબક કૃણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીવે પૃથ્વીકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના એકેન્દ્રિય જીવે સૂમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના એટલે કે બે ભેટવાળા સમજવા, આમાં અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્ત એ બે ભેદ હોતા નથી. કેમ કે અહિયાં અનંતરપાક પણાને કાળ એક સમયમાત્રને કહ્યો છે. તેથી તેમાં ચાર પ્રકારપણું સંભવતું નથી,
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૨૮ઈ
भगवतीले कर्ममकृतयः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः । भगवानाह-'एवं एएणं' इत्यादि । 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा-ओहिओ अणंनरोक्वन्नगाणं उद्देसओ तहेव जाव-वेदेति' एवमेतेन अभिलापेन यथा-औधिकोऽनन्तरोपपन्नकानामुद्देशकः तथैव-तेनैव रूपेण इहापि सर्व ज्ञातव्यम् यावद्वेदयन्ति । एतच्छतकीयप्रथमशतवदेवात्र द्वितीयशतेऽपि-अनन्त रोमन्ना कृलेश्य सूक्ष्म पृथिवी काकै केन्द्रियाणां कर्मप्रकृति विषये ज्ञातव्यम् । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्यैकेन्द्रियपृथिवीकायिकादिविषये यद् देवानुवाले सूक्ष्म पृथिवी कायिकों के कितनी कमप्रकृतियों का सत्त्व कहा
गया है ? 'एवं एएणं आभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोववन्नगाणं ____उद्देसओ तहेव जाव वेदें नि' हे गौतम ! इस प्रकार से इस अभिलाप
द्वारा ये अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जैसा कि प्रथम शतक में कहा गया है उस के अनुसार आठ कर्म प्रकृतियों के सस्व वाले होते है उसके अनुसार आठ कर्मप्रकृतियों के ये बन्धक होते हैं । सात कर्मप्रकृतियों की बंधकता में आयुकर्म का धन्ध वे नहीं करते हैं क्योंकि उत्पत्ति के प्रथम समय में आयुकर्म का वन्ध नही होता है अतः ये आठ कर्मप्रकृतियों के बंधक नहीं होते हैं । वेदन ये १४ कर्मप्रकृतियों का करते हैं। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति हे भदन्त ! अनन्तोषपन्नक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय पृधिवीकायिकादि
'अणतरोववण्णग कण्हलेस्स सुहुम पुढवीकाइयाण भते । कइ कम्मपगडीओ grazગો’ હે ભગવન અનંતરો૫૫નક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીને .टली ४ प्रतिया हायानुयु छ ? उत्तरमा प्रमुश्री छे , ‘एवं 'एएण अभिलावेण जहा ओहिओ अतरोवनन्नगाण उद्देसओ तदेव जाव वेदेति', गौतम ! २मा प्रमाणे 21 मलिता५ ॥२॥ म। मन तरी५५-न કૃષ્ણલેશ્યાવાળા સૂમ પૃથ્વીકવિક એકેન્દ્રિયના સંબંધમાં જે પ્રમાણે પહેલા શતકમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે આઠ કર્મ પ્રકૃતિયોના સવવાળા હોય છે તથા તે સાત કર્મપ્રકૃતિયોને બંધ કરવાવાળા હોય છે. સાત કર્મ પ્રકૃતિના બંધક પણામાં તેઓ આયુકર્મને બંધ કરતા નથી. કેમ કે તેઓને આયકર્મ બંધ પહેલેથી જ થઈ જાય છે. તેથી તેઓ આઠ કર્મપ્રકૃતિને બંધ કરતા નથી અને તેઓ ચૌદકમ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે. તેમ સમજવું.
'सेव भते ! सेव भते ! त्ति' हे सगवन् सनत५५-13 वेश्याવાળા એકેન્દ્રિય પૃવીકાયિક વિગેરેના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श. २ सू०१ कृष्णलेश्याद्येकेन्द्रियनिरूपणम् २८५ प्रियेण कथितम् तत्सर्वं तथैव सत्यमिति कथयित्वा भगवान् गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दिला - नमस्थित्वा संयसेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति ॥ म्र० १ ॥
इति द्वितीयेऽवान्तरशतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः ||३३|२|२||
'कइविहाणं भंते ! परंपरोववन्नमा कण्हलेस्पा एगिंदिया पन्नत्ता' कतिविधाः - कति प्रकारकाः खलु भदन्त ! परम्परोपपन्नकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रिय जीवाः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । गोयमा ।' हे गौतम | 'पंचविदा परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता' पञ्चविधाःपञ्चप्रकारकाः परम्परोपपन्नकाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः मज्ञप्ताः - कथिताः । प्रकके विषय में जाँ आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ | ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ सू० १ ॥ | ३३ वे शतक के द्वितीय अवान्तर शतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ - द्वितीय एकेन्द्रिय शतक का तृतीयादि उद्देशक
'कविहाणं भंते! परंपपन्ना कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्पाचाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोया ! पंचविहा परंपरोववन्नगा कण्हलेमा एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम! परंपरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा '
કયુ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ' આ વિષય સંબંધનું સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેમેને નઝ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તેએ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાનપર બિરાજમાન થયા. સૂ॰૧ા
ખીજા અવાન્તર શતકનેા ખીજો ઉદ્દેશેા સમાપ્ત શા૩૩––રા ખીજા એકેન્દ્રિય શતકનેા ત્રીજા વિગેરે ઉદ્દેશાઓ
'क'इविहॉ ण' भंते ! पर' परोववन्नगा कण्हलेस्सा एगि दिया पण्णत्ता' इत्याहि ટીકા હૈ ભગવત્ પર પાપપન્નક કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા એકઈ દ્રિય જીવા કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી કહે છે }-‘गोथमा ! प'चविधा पर परोववन्नगा कण्हलेस्सा एगि दिया पन्नत्ता' हे गौतम! પર'પરોપપનક કૃણુવેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીવા પાંચ પ્રકારના કહેવામાં
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૨૮ર્થ
भगवती सूत्रे
रणभेदमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढवीकाइया, एवं एएणं अभिलावेणं तद्देत्र - चउक्कओ भेश्रो जाव वणरसइकाइय त्ति' पृथिवीकायिक एवमेतेनाऽभिलापेन तथैव एतच्छकीय प्रथमशतकवदेव चतुष्कः- चतुष्प्रकारकः सूक्ष्मवादराऽपर्याप्तापर्याप्तरूपो भेदो वक्तव्यः यावद् वनस्पतिकायिका इति ।
' परंपरोदन कण्हलेस अपज्जत सुहुमढवीकाइया णं भंते !' परम्परोपपन्न करणश्यापक सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' कति-कति प्रकारकाः कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - ' एवं एए' इत्यादि । ' एवं एएणं अभिकावेणं जहेब ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ तहेब जाव वेदेति' एवम् एतेनाऽभिलापेन यथैवधिकः सामान्यजैसे - 'पुढबीकाइया - एवं एएणं आभिलावेण तहेव चउक्कभ भेओ जाव वण सहकाइयत्ति' पृथिवीकाथिक इस प्रकार से इस अभिलाप द्वारा इसी शक के प्रथम शतक में कहे गये अनुसार इन परंपरोपपन्नक कृष्णलेावाले एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के ४-४ भेद सूक्ष्म, बादर अपर्याप्त और पर्याप्तक रूप से कहना चाहिये ।
'परंपरावन्न कण्णलेस्स अपजस सुमपुढवीकायाणं भंते ! कह कम्मपगडीओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेइया वाले अप सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के कितनी धर्मप्रकृतियों का सत्व कहा गया है ? 'एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ पर परोववन्नग उद्देसओ लहेब जात्र वेदेनि' हे गौतम | इस अभिलाप द्वारा जैसा माया छे. 'त जहा ' ते मा प्रभा - 'पुढवीकाइया - एवं एएणं' अभिलावेण तहेव चक्कओ भेओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' पृथ्वी मा प्रमाणे या અભિપ્રાય દ્વારા એકેન્દ્રિય શતકના પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે પ્રમાર્ગુ આ પરપપપન્નક કૃદેશ્વાવાળા એકેન્દ્રિય પૃથ્વી કાયિકેાથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવાના ૪-૪ ચ'ર-ચાર ભેદો સૂક્ષ્મ, ખાદર, અપર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ રીતે થાય તે તેમ સમજવું. 'पर'पवन कण्डलेस्स अप्पजत्त सुडुम पुढत्रीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' हे भगवन् परं परोपपत्र कृष्णुतेश्यावाणा पर्यास सूक्ष्म पृथ्वीथिने डेंटली धर्म प्रवृतियो वास छे ? 'एवं एए अमिलावेण जहेब ओहिओं पर परोपपन्नग उद्देषओ तहेव जाव वेदेति' डे ગૌતમ ! આ આભિલાપ દ્વારા સામાન્ય રૂપથી પહેલેા ઉદ્દેશે જે પ્રમાણે કહેવામાં
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चन्द्रिका टीका २०३३ अ. श. २०१ कृष्णलेश्याद्येकेन्द्रियनिरूपणम् २८७ रूपः प्रथमोदेशकः कथित स्वथैव तेनैव प्रकारेण इहापि ज्ञातव्यो यावद् वेदय यन्ति इति । अत्र यावत्पदेन - तेषां जीवाना मष्टकर्मप्रकृतयो भवन्ति, ते च सप्त अष्टौ वा वनन्ति चतुर्दश च वेदयन्तीति संग्रहो वाच्यः । ' एवं एरणं अभि लावेणं जब ओहिए एगिदियसए एक्कारस उद्देसमा भणिया तब कण्हलेस्स स विभाणियव्वा जाव अचरिम कण्हलेस्सा एगिदिया' एग्स्-एतेन अभिलापेन यथैव औधिके एकेन्द्रियशते एकादशोदेशका भणिता स्तथैव कृष्णलेश्यशतेऽपि एकादशोदेशका भणितव्या यावद् अचरम कृष्णलेल्या एकेन्द्रियाः ।
औधिककृष्णले श्यै केन्द्रियानन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यै केन्द्रियरूपो देशद्वयव देव सामान्य रूप प्रथम उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से यहां यावत् वेदन सूत्र तक जानना चाहिये, वहां यावत् पद से इस कथन का संग्रह हुआ है कि-'उन जीवों में आठ कर्म प्रकृतियां होती हैं, वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । १४ चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते है । 'एवं एएणं अभिलाषेण जहेव ओहिए एगिंदिवस एक्कारस उद्देगा भणिया तच चणस्स सए वि भाणियव्वा जाव अचरिम कण्हलेस्ला एगिंदिया' इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा जैसे सामान्य रूप एकेन्द्रिय शतक में ११ उद्देशक कहे गये हैं उसी प्रकार से कृष्णलेड्यावाले एकेन्द्रिय शतक में ११ उद्देशक कहना चाहिये, जैसे सामान्य रूप कृष्णलेश्यावालों का एक सामान्य उद्देशक, अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेइयावालों का द्वितीय उद्देशक है, इसी प्रकार से पर परोपपत्रक कृष्णलेइद्याबाले एकेन्द्रियों का तृतीय प्रदेशक
वेहन ४रे छे. 'एवं
આવ્યા છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ યાવત્ વેઇન સૂત્ર સુધીનું કથન સમજી લેવુ. અહિયાં યાવતપથી નીચે પ્રમાણેના કથનનેા સ’ગ્રહ થયા છે, જેમકે-તે જીવાને આઠ કમ પ્રકૃતિએ હાય છે તે સાત અથવા આઠે अध रे छे तथा थौ अमृतियो जव ओहिए एवंदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव भाfotoat जाव अरिम कण्ड्लेस्स एगि दिया' या अलिसा રૂપ એકેન્દ્રિય શતકમાં જે પ્રમાણે અગિયાર ૧૧ ઉદ્દેશાએ કહેવામાં આવ્યા છે. એજ પ્રમાણેના અગિયાર ઉદ્દેશાઓ આ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા શતકમાં પણ અચરમ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિયના કથન સુધીના ૧૧ ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈ એ. જેમ કે-સામાન્ય કૃષ્ણલેશ્યાવાળાના એક સામાન્ય ઉદ્દેશે. ૧ અને
અન તરાપપન્ના કૃષ્ણલેશ્યાવાળાના ખીન્ને ઉદ્દેશ છે . એજ પ્રમાણે પર‘પાપપદ્મક કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એકન્દ્રિયાના સTMબધમાં ત્રીજો ઉદ્દેશા કહ્યો છે.
કમ પ્રકૃતિયાના एएण अभिलावेण
कण्ह लैस्सए वि द्वारा सामान्य
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૨૮૮
भगवतीस
परम्परोपपन्नका३, अनन्तरावगाढः४, परम्परावगाढ५, अनन्तराहारका६, परम्पराहारकः७, अनन्तरपर्याप्तकः८, परम्परपर्याप्तकः९, चरम:१०, अचरम:११, इत्येते एकादशोदेशकाः येदितव्या इति भावः ॥१० १॥ इति श्री- विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्ररय" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां त्रयस्त्रिंशत्तमे एकाशोद्देशक समाप्तः ॥३३-११॥
इति द्वितीयमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३३-२॥ है। अनन्तरावगाढ कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियों का चतुर्थ उद्देशक हैं। परम्परावगाढ कृष्णलेश यावाले एकेन्द्रिय का पांचवा उद्देशक है । अनन्तराहारक कृष्णलेल्यावाले एकेन्द्रियों का छठा उद्देशक है परम्पराहारक कृष्णलेश्शाचाले एकेन्द्रियों का ७ वां उद्देशक है। अन्तर पर्याप्तक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियों का ८ वां उद्देशक है । परम्परपर्याप्तक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियों का ९ वां उद्देशक है । चरम कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियों का १० वां उद्देशक है और अचरम कृष्णलेश्यावाले एके न्द्रियों का ११ उद्देशक है। इस प्रकार से ये ११ उद्देशक यहां जानना चाहिये। जैनाचार्य जैनधर्मनिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीस्त्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तेतीसवें शतक का
ग्यारहवां उद्देशक समाप्त ॥३३-॥ ॥३३ वें शतक का द्वितीय एकेन्द्रिय शतक समाप्त॥ અનંતરાવગાઢ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી એથે ઉદ્દેશો કહ્યો છે. ૪ પરંપરાગઢ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી પાંચમે ઉદ્દેશો કહો છે ૫ અનંતરાહારક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી છઠ્ઠો ઉદ્દેશ કહો છે ૬ પરંપરાહારક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી સાતમો ઉદ્દેશ કહ્યો છે. છ અનંતર પયત: કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિયોના સંબંધમાં આઠમ ઉદ્દેશે કહ્યો છે. ૮ પરંપરપર્યાપ્તક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી નવમો ઉદેશે કહ્યો છે ૯ ચરમ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય સંબંધી દસ ઉદેશે કહ્યો છે. અને અચરમ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીના સંબંધમાં અગિયારમે ઉદ્દેશ કહ્યો છે. આ રીતે આ ૧૧ અગિયાર ઉદેશાઓ અહીંયાં સમજવા. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકનો અગીયારમો ઉદેશ સમાપ્તાહ૩ ૧૧
છે બીજુ એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત છે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श०३-४ नीललेश्यकेन्द्रियजीवनिरूपणम् २८९
तृतीयचतुर्थशते आरभ्यतेमूलम्-जहा कण्हलेस्सहिं भणियं एवं नीललेस्सेहि वि समं. भाणियव्वं सेवं भंते ! लेवं भंते ! ति ॥३३-३॥
एवं काउलेस्लेहि वि सयं भाणियव्वं । नवरं काउलेस्से त्ति अभिलावो भाणियवो ॥३३-४॥ ____ छाया-पथा कृष्णलेश्य भणितम् एवं नीलले श्यैरपि शतं भणितव्यम् , तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥३३-३॥
एवं कापोतलेश्यैरपि शतं भणितव्यम् । नवर कापोतलेश्य इत्यभिलापो मणितव्य इति ॥३३-४॥
टीका-'जहा कण्डलेसेहि भणियं यथा-येन प्रकारेण कृष्णलेश्यै भणितं शतम्, 'एवं नीललेस्सेहिं वि सयं भाणियव्यं' एवम् -अनेनैव प्रकारेण नील. लेश्यरपि शतं भणितव्यं विवेचनीयम् ॥३३-३॥
-तृतीय चतुर्थ शतक का आरम्भ'जहा कण्हलेस्लेहि भणिय एवं नीललेस्सेहि सम वि भाणियन्छ', जैसा कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में शतक कहा गया है उसी प्रकार से नीललेश्यावालों के सम्बन्ध में भी शतक कहना चाहिये 'सेव भते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय ने जैसा यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ ऐसा कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आस्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ॥ ३३ वें शतक का तृतीय अवान्तर शतक समाप्त ॥ ' '
बी-ये.या सन्द्रिय शत:नेप्रारम-- 'जहा कण्हलेसेहि भणिय एवं नीललेस्सेहि वि सम भाणिय, કૃણલેશ્યાવાળા જીના સ બ ધમાં જે પ્રમાણે અગિયાર ઉદેશાત્મક શતક કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે નીલલેશ્યાવાળા જીના સંબંધમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદેશાવાળુ શતક કહેવું જોઈએ.
सेव' भते । सेव भते । त्ति' 8 लगवन मा५ वानुप्रिये २ प्रभारीनु' કથન આ વિષયમાં કહ્યું છે, તે સઘળું કથન સત્ય છે. હે ભગવન અપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કર્યા પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂત્રના
વાંતર શતક સમાપ્ત
भ० ३७
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भगवती ___ एवं काउलेस्से हि वि सयं भाणिय' एवम्-कृष्णलेश्यशतकवदेव कापोतछेश्यैरपि शतं भणितव्यम् । 'नवरं काउलेस्से ति भाणियबो' नवर' (कापोतछेश्यः) इत्यभिलापो भणितव्यः । पूर्वशते यत्र कृष्णनीलपदे निवेश्याऽऽलापका कुंत स्वत्र स्थाने (कापोतः) इतिपदं निवेश्य आलापका भणितव्याः। अन्यत्सर्व पूर्व वदेव ज्ञातव्यमिति ॥३३-४॥ - प्रयस्त्रिंशच्छतके एकेन्द्रियाणां तृतीयमेकेन्द्रियशतं चतुर्थमेकेन्द्रियशतं च समाप्तम् ॥३३-३-४॥
पञ्चमशतकः प्रारभ्यते मूलम्-कइविहा गं अंते ! एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता तं जहां-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया भेओ चउकओ जाव वणस्तइकाइय त्ति । भवसिद्धिय अपज्जत्त सुहुमपुटवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नन्ताओ ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धियसयं पि भाणियव्वं । ___ एवं काउलेस्लेहिं वि सयं भाणियच-नवर 'काउलेस्से त्ति भभिलावो भाणियवो' कृष्णलेश्यावालों के शतक के जैसा ही शतक कापोतलेश्यावालों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये, परन्तु पूर्व शतक में जहां 'कृष्ण' और 'नील' पद को विशेषित करके आलापक किया गया है-वहां 'कापोत' ऐसा पद रखकर आलापक कहना चाहिये, याकी का और सब कथन पहिले के जैसा ही जानना चाहिये, .
॥३३ वें शतक का चतुर्थ अवान्तर शतक समाप्त ॥ 'एव' काउलेस्सेहि वि सय भाणियन्त्र नवर' 'कण्हलेस्से वि अभिलावो माणिययो' वेश्यावा वाना शतना ४थन प्रमाणे ४ अपातलेश्यावा જીના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ પરંતુ પહેલાના શતકમાં જ્યાં જ્યાં '' भने 'नीट' ५४थी ४थन ४२वामां भाव्यु छ, त्यो त्यो पात' मे - પ્રમાણેનું પદ રાખીને આલાપકે કહેવા જોઈએ તે શિવાયનું બીજું સઘળું કથન પહેલાના કથન પ્રમાણે જ સમજવું.
ચેથું અવાજતર શતક સમાપ્ત
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प्रथचन्द्रिका टीका २०३३ अं. २०५ भवसिद्धिक केन्द्रियाः
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उद्देगपरिवाडी तहेब जाव तहेव अचरिमो ति । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति ॥ सू०९ ॥
पंचमं एगिंदिययं समत्तं ॥ ३३५॥
छाया - कविविधाः खलु भदन्त । भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः । गौतम ! पञ्चविधा भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - पृथिवीकायिका यावद् वनस्पतिकायिकाः, भेदचतुष्को यावद् वनस्पतिकायिका इति । भवसिद्धि · काऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? एवमेतेनाsभिलापेन यथैव प्रथम मेकेन्द्रियशतं तथैव भवसिद्धिकशतमपि भणितव्यम् । उद्देश परिपाटी तथैव यावद् अचरम इति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति । पञ्चममे केन्द्रियशवं समाप्तम् ॥३३-५॥
टीका- 'कविह्ना णं भंते । भवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता' कतिविधा: - कतिप्रकाराः खलु भदन्त । भवसिद्धिकाः - सिद्धिगमनयोग्याः भवक्रमेण ये वे भवसिद्धिका एतादृशा एकेन्द्रियजीवाः कति प्रकारका भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! ' पंचविदा' पञ्चपकारकाः 'भवसिद्धिया एगिंदिया पत्ता ' भवसिद्धिका एकेन्द्रिय जीवाः प्रज्ञप्ताः- कथिताः, 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढची काइया जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिका यावद्
'कविहाणं भंते ! भवसिद्धिया एनिंदिया पण्णत्ता' हे भदन्त ! भवसिद्धिक एकेन्द्रियकितने प्रकार के कहे गये है ? जो एकेन्द्रिय भव क्रम से सिद्धि गमन योग्य होते हैं - वे एकेन्द्रिय भवसिद्धिक कहे गये है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! पंचचिहा भवसिद्धिया एगि दिया पण्णत्ता' हे गौतम ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा ' जो इस प्रकार से हैं 'पुढवीकाइया जाव वणस्सह પાંચમાં અવાન્તર શતકના પ્રાર્`ભ~~
'कविहान भंते! भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता' हे भगवन् लवसिद्धि એકેન્દ્રિય જીવા કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે ? જે એકેન્દ્રિય જીવા ભવક્રમથી સિદ્ધિ ગમનને ચેાગ્ય હેય છે, તે એકેન્દ્રિયા ભવસિદ્ધિક કહ્યા છે, प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गीतमस्वामीने छे - 'गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता' हे गौतम! लवसिद्धि मेहेन्द्रिय लव यांच अारना अडेवाभां आया है, 'त' जहा' ने भी प्रभा छे, 'पुढवीकाइया
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२९३
भगवतीस्त्र वनस्पतिकायिकाः, यावत्पदेन अकायिकाः, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, एतेषां संग्रहो भवति । तथा च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिभेदेन भवसिद्धिका एकेन्द्रियजीवाः पश्चप्रकारका भवन्तीति । 'भेभो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' भेदश्चतुष्को यावद्वनस्पतिकायिक इति । यथा-औषिके प्रथमशते एतेषा मवान्तरश्चतुः प्रकारको भेदः सूक्ष्मवादराऽपर्याप्तपर्याप्तरूपः कथित स्तथैव भवसिद्धिक पञ्चमशतेऽपि वक्तव्यः, 'भवसिद्धिय अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइया णं भंते ! कई कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' भवसिद्धिकाऽपर्याप्तमुक्ष्मपृथिवीकायिकजीवानां खल्ल भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयो भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं एएणं, इत्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धिय काझ्या' पृथिवीकाधिक यावत् वनस्पतिकायिक, यहां यावत् पद से 'अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक' इनका ग्रहण हुआ है। तथा च-पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक वायुकायिक, और वनस्पतिकायिक के भेद से भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के होते हैं। 'भेमो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' जिस प्रकार से औधिक प्रथम शनक में इनके चार भेद-सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त रूप से कहा है भेद भवसिद्धिक पश्चम शतक में भी कहना चाहिये। - 'भवसिद्धिय अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइया णं भंते ! कइकम्म पगडीओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! भयसिद्धिक अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियों का सत्व कहा गया है? 'एवं एएणं अभिलावेण जहेव पदमिल्लग एगिदियसयं तहेव
जाव वणस्सइ काइया' पृथ्वी थि: यावत् वनस्पति यि महियां यावत्पथी ' અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક, અને વનસ્પતિકાયિક ગ્રહણ કરાયા છે. - તથા પૃવીકાયિક, અષ્ઠાયિક, તેજસ્કાયિક વાયુકાયિક અને વનસ્પતિ કાયિકના ભેદથી ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવે પાંચ પ્રકારના હોય છે.
'भेओ चउक्कओं जाव वणस्सइकाइयत्ति' २ प्रभारी मौधि-4sal શતકમાં તેઓના ચાર ભેદ એટલે કે–સૂક્ષ્મ, બાદર, અપર્યાપ્તક અને પર્યાપ્તક એ પ્રમાણેના ચાર ભેદે કહ્યા છે, તેજ પ્રમાણે એ ચાર ભેદે આ मसिद्धि पायम शतमi डे मे. 'भवसिद्धिय अपजत्त 'पुढवीकाइयाण भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ सावन ससिद्धि मपात सूक्ष्म वी४ि वाटी प्रतिया डाय छ १ 'एव एएण भमिकावण' जहेव पढमिल्लग एगिदियसयौं सहेब भवसिद्धियमयपि भाणियव्य"
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द्रिका टीका श०३३ अ. श०५ भवसिद्धिक एकेन्द्रियाः
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सयं पि भाणियच्च' एवम् अनेन प्रकारेण एतेनाऽभिलापेन यथैव प्रथम मे केन्द्रियशतं तथैव भवसिद्धिकशतमपि सर्वे भणितव्यम् । प्रथममेव औद्यधिकं शतमिहापि अनुसन्धेयम् ।
'उद्देसग परिवाडी तहेव जव अवरिमोत्ति' उद्देशकानां परिपाटी व्यवस्थाऽपि तथैव यथा प्रथमशते कथिता यावत् अचरम इति सा च औघिकोनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नकानन्तरावगाढ- परम्परावगाढा - नन्तराहारक परम्पराहारका नन्तरपर्याप्तक-परम्परपर्याप्तक- चरमाऽचरमेत्येकादशसंख्यारूपा विज्ञेयेति
२
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'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति । हे भदन्त ! भवसिद्धिकै केन्द्रियाणां विषये यद् देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् सर्वथैव भवसिद्धियलयं पि भाणिपव्वं' इस प्रकार से इस अभिलाप द्वारा जैसा प्रथम एकेन्द्रिय शतक कहा गया है वैसा ही भवसिद्धिक शतक भी पूरा कहना चाहिये । तथा 'उद्देसक परिवाडी तहेव जाव अचरिमोत्ति' उद्देशको की व्यवस्था भी यहां प्रथम शतक के जैसी अचरम उद्देशक तक कहनी चाहिये, इस व्यवस्था में पहिला औधिक उद्देशक है, द्वितीय अनन्तरोपपन्नन उद्देशक है, तृतीय परम्परोपपद्मक उद्देशक हैं, चतुर्थ अनन्तरावगाढ उद्देशक है पांचवां परं परावगाढ उद्देशक है, छठा अनन्तराहारक उद्देशक है। सातवां परंपराहारक उद्देशक है ८ वां अनन्तरपर्यातक उद्देशक है, ९ वां परपरपर्यातक उद्देशक है। १० वां चरम उद्देशक है । ११ व अचरम उद्देशक है । ऐसा जानना
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આ રીતે આ અભિજ્ઞાપ દ્વારા જે રીતે પહેલુ' એકેન્દ્રિય શતક કહેવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે આ ભસિધ્ધિકશ-ક પણ પૂરેપૂરૂ' કહેવું જોઈ એ. 'उद्देसक रिवाडी तव जाव अचरिमत्ति' उद्देशासानी व्यवस्थ-भ पशु અહિંયાં પહેલા શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે અચરમ ઉદ્દેશા સુધી સમજી લેવી. આ ક્રમથી પહેલે ઔઘિક ઉદ્દેશા કહેલ છે. ૧ ખીજો અન તરે પપન્નક નામને ઉદ્દેશેા છે. ૨ ત્રંજો પરંપરાપપ ક ઉદ્દેશ છે. ચેાથેા અનંતરાવગાઢ નામને ઉદ્દેશા કહેંચે છે. પાંચમા પર'પરાવગાઢ નામના ઉદ્દેશે। કહેલ છે. છઠો અનંતરાહારક નામને! ઉદ્દેશેા યા છે. સાતમે પરંપરાહારક નામનેા ઉદ્દેશે કહચેા છે. આઠમે અનંતરપર્યાપ્તક નામના ઉદ્દેશા કહ છે. નવમે પરપર પર્યાપ્તક નામના ઉદ્દેશા કહયા છે. દસમા ચરમ નામને ઉદ્દેશે! કઢા છે, અને અગિયારમા અચરમ નામના ઉદ્દેશા કહેલ છે તેમ સમજવું.
'सेव ं भंते ! सेव ं भवे! ति' डे लगवन लवसिध्धि मेडेन्द्रियोना સ'ખ'ધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણેનુ કથન કર્યું છે, તે સઘળું' કથન સ થા
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२९४
भगवतीस्त्र सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तुपमा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।मु० १॥
इति त्रयस्त्रिंशत्तमे शत के पञ्चममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३३-५॥
मूलम्-इविहा गं अंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता। तं जहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । कण्हलेस्ल भवसिद्धिय पुढवाकाइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहमपुढवीकाइया य बायरपुढवीकाइया य । कण्हलेस्ल भवसिद्धिय सुहुमपुढवीकाइया गंभंते ! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-पजतगा य अपज्जत्तगा य एवं बायरा वि । एवं एएणं अभिलावेणं तहेव चडको भेओ भाणियव्यो । कण्हलेस भवसिद्धिय अपजत्तग सुहुमपुढवीकाइया णं भंते! का कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देलए तहेव जाव वेदति । काविहा णं भंते ! अगंतरोववन्नगा कण्हलेल्ला भरसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्तइकाइया। अणंतरोवचाहिये 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति हे भदन्त ! भवसिद्धिक एके. न्द्रियों के विषय में जो आप देशानुप्रिय ने कहा है वह सघ सर्वथा सत्य ही है। ऐसा कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥३३वें शतक के पांचवा अवान्तर शतक समाप्त ॥ સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયતું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર ક્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પસૂ૦૧
રીત૨ શતક સમાત ! ૧૩-૫.
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प्रमैयान्तिका ठीका श०३३ अ. श०६ कृ. भ. एकेन्द्रियजीय नि० २९५ वनगा कण्हलेस्स भवसिद्धिय पुढविकाइयाणं भंते ! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहुमपुढवाकाइ. या य बायरपुढवीकाइया य । एवं दुपओ भेओ। अणंतरोववनग कण्हलेस्ल भवसिद्धिय सुहमपुढवीकाइयाणं भंते ! कई कम्मपगडीओ पन्नताओ? एवं एएणं अभिलावणं जहेव
ओहिओ अणंतरोववन्नग उद्देलओ तहेब जाव वेदति। एवं एएणं अभिलावेणं एकारल शि उद्देलगा तहेब भाणियत्वा जहा ओहियलए जाव अचरिमो त्ति सू० १॥
छटुं एगिदियलयं लमत्तं ॥३३-६॥ छाया-कतिविधाः खल्ल भदन्त ! कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रिया प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधाः कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः। कृष्णलेश्यभवसिद्धिकपृथिवीकायिकाः खल भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम । द्विविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च वादरपृथिवी कायिकाश्च । कृष्णलेश्य भव सिद्धिकसूक्षपृथिवीकायिकाः खल्ल भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्तकाश्चापयोतकाश्च । एवं चादरा अपि । एवम्एतेनाऽभिलापेन तथैव चतुष्को भेदो भणितव्यः ।
कृष्ण लेश्यभवसिद्धिकाऽपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकारिकानां भदन्त ! कति कर्मः प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । एवमेतेन अभिलापेन यथैवौधिकोद्देशके तथैव यावद् वेदयन्ति। कतिविधाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः मज्ञप्ता ? गौतम । पञ्चविधा अनन्तरोएपन्नकाः यावद्वनरपतिकायिकाः । अनन्तरोपपन्नक कृष्णळेश्य भवसिद्धिकपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः पज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तधथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाश्च एवं द्विपदो भेदः अनन्तरोपपन्नककृणलेश्यभवसिद्धिकमूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कतिकर्मप्रकृतयः पज्ञताः। एवमेतेनाऽमिलापेन यथैव औधि. कोऽनन्तरोपपन्नकोद्देशः तथैव यावद्वेदयन्ति । एवमेतेनाऽमिलापेन एकादशाऽपिन उद्देशकास्तथैव भणितव्याः, यथा-भौधिकशते यावदचरम इति ॥३३॥६॥
॥ षष्ठमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥
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भगवती
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टीका-'कइ विहाणं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता' कविविधा?-कसिमकारकाः खलु भदन्त ! कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रिय जीवाः प्रज्ञप्ता:-कविताः ? इति प्रश्नः । भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंवविहा कण्डलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता' पश्वविधा:पञ्चप्रकारकाः कृष्णलेश्यावन्तो भवसिद्धिका एकेन्द्रियजीवाः प्राप्ताः-कथिता इत्युत्तरम् । प्रकारभेदभेव दर्शयति । 'तं जहा' तद्यथा-'पुढश्रीकाइया जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिका यावद् वनस्पतिकायिकाः । तथाच कृष्णलेश्य भवसिद्धिक पृथिवीकायिक-कृष्णलेश्यभवसिद्धिका कायिक कृष्णलेश्यभवसिद्धिक तेजस्कायिक-कृष्णलेश्यमवसिद्धिक वायुकायिक-कृष्णलेश्यभवसिद्धिकवनस्पतिकायिकथेदात् एकेन्द्रियाः पञ्चप्रकारका सवन्तीति ।
--छटा अवान्तर शतक-- ___ 'काविहा गं अंतें । कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता ?' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले अवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम ! कृष्णश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-पुढवीकाइया जाव वणलाइकाइया' पृथिवीकायिक यावत् वनस्पति कायिक, तथा च-कृष्णलेश्य भवसिद्धिक पृथिवीकायिक १, कृष्ण छेश्य भवसिद्धिक अप्कायिक २, कृष्णलेश्य भवसिद्धिक तेजस्कायिक ३, कृष्णलेश्य भवसिद्धिक वायु कायिक और कृष्णलेश्य भवसिद्धिक वनस्पतिकायिक के भेद से एकेन्द्रिय पांच प्रकार के होते हैं।
'७४ भवान्तर शतने प्रा -- __'कइविहा ण भते ! कण्हलेस्ला भवसिद्धि या एगिदिया पण्णत्ता लगवन् કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિધ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ -'गोयमा ! पचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता' 3 गीतम! वेश्यावा सिधि शन्द्रिय व पांय प्रारना हवामां माव्या छ. 'त जहा' ते ॥ प्रभारी छ. 'पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया' पृथ्वी थि:थी सन यावत् वनस्पति કાયિક સુધિના સમજવા. એટલે કે કાલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિક ૧ કુણુલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક અષ્કાયિક ૨ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક તેજસ્કાયિક, ૩ કૃષ્ણલેક્ષાવાળા ભવસિદ્ધિક વાયુકાયિક છે અને કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક વનસ્પતિકાયિક ૫ આ પ્રમાણેના ભેદથી એકેન્દ્રિય પાંચ પ્રકારના
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प्रमेयवम्बिकाटीका श०३३ अ. श०६ क. भ. एकेन्द्रियजीव नि० ३९७ - 'कण्हलेस्सभवसिद्धिय पुढवीकाइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता' कृष्णलेश्य भवसिद्धि कपृथिवी कायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः -ऋतिपकारकाः प्राप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा!' हे गौतम ! 'दुविधा पन्नत्ता' द्विविधाःद्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-'सुहुमपुढवीकाइया सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च पादरपृथिवीकायिकाश्च । _ 'कण्हलेस्स भवसिद्धिय सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइविहा पन्नत्ता कृष्णळेश्य भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खल्ल भदन्त ! कतिविधा:-कतिप्रकारकाः मज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' विविधा:-द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः । प्रकारभेदमेव दर्शयति-तं-जहा' इत्यादि 'तं नहा' तद्यथा-'पात गाय अपज्जत्तगाय' पर्याप्तकाश्चाऽप्तिकाश्च । __ 'कण्हलेस्ल भवसिद्धिय पुढवीकाइया णं भंते ! काविहा पनत्ता' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक पृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'मोयमा दुविहा पत्ता ,-तं जहा-सुहमपुढवीकाइया य-बायर पुढवीकाइया य' हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। जैसे सूक्ष्मपृथिवीज्ञायिक और चादरपृथिवीकायिक ! 'कण्हलेस भवसिद्विय सुहुमपुढवीकाझ्या गं भंते ! काविहा पपणत्ता' हे भदन्त ! कृष्णलेश्य भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक कितने प्रकार के कहे गये है ? 'गोयमा ! दुविहा पमन्ता' हे गौतम ! कृष्णालेश्यावाले भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहां-जैसे 'पज्जत्तगाय, अपज्जत्तगा ये पर्याप्त और अपर्याप्तक 'एवं बाथरा वि' कृष्णलेश्या. पाले भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक के जैसे ही कृष्णलेश्यावाले भवडाय छे. कण्हलेस्स पुढवीकाइयाण' भवे ! कइविहा पण्णत्ता' गवन કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિક જીવ કેટલા પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યા छ १ 'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' 3 गौतम ! वेश्यावण मसिद्ध पृथ्वी
यि में प्रा२ना ४ मा मा०या छे त जहा' ते मा प्रभारी छ. 'सुहमपुढवीकाइया वायरपुढवीकाइया य' सूक्ष्मपृथ्व यि मने मा१२ पृथिवी
यि 'कण्हलेक्स भवसिद्धिय सुहुमपुढवीकाइया णं भंते । कइंविहा पणत्ता' 'હે ભગવાન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક સૂમ પૃથ્વીકાયિક કેટલા પ્રકારના ४ा छ ? 'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! सश्यावामा सिद्धि पृथ्वीय मे १२ना अपामा मा०या छे. 'त'जहा' ते मे ५४२ मा प्रभारी छ. 'पज्जत्तगा य अपज्ञत्तगा य' ५र्यात भने अपर्याप्त 'एवं वायरा वि .
भ०३८
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भगवती सूत्रे
' एवं वायरा वि' एवं कृष्णलेश्य भनसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव' कृष्णलेश्य भवसिद्धिक वादरपृथिवीकायिका अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विविधा भवन्ति । 'एएणं अभिलावेणं तदेव चउक्कओ भेदो भाणियन्बो' एतेन उपरि दर्शितेन अभि छान प्रकारेण तथैव यथैव औघिकै केन्द्रियप्रकरणे चतुष्को भेदो वर्णितः पृथि व्यादि वस्पतिकायिकान्तानां तथैव तेनैव प्रकारेण कृष्णलेश्यभवसिद्धिकप्रकरणे पृथिव्याद्ये केन्द्रियाणां चतुष्प्रकारको भेदो भणितव्यो वर्णयितव्यः सूक्ष्मवादरपर्याप्ताsपर्याप्तरूपः ।
1
'कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जत्तगट हुमपुढवीकाइयाणं भंते! कइकम्मपगडीओ पन्नताओ' कृष्णलेश्यभवसिद्धिकाऽपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिकानां भदन्त | कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता ? भगवानाह - ' एवं एएणं' इत्यादि ।' 'एवं एएणं अभिलासिद्धिक बाद पृथिवीकायिक भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के होते हैं । 'एवं एएणं अभिलावेणं तहेब चक्कओ भेओ भाणियो' जिस प्रकार से पृथिव्यादि से लेकर वनस्पतिकायिकान्त जीवों के चार भेद कहे गये हैं उसी प्रकार से कृष्णलेश्य भवसिद्धिक के इस प्रकरण में पृथिव्यादि एकेन्द्रियों के चार-चार भेद वर्णित करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म, बादर, पर्यातक और अपर्याप्त रूप से समस्त कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव चारचार प्रकार के होते हैं । 'कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जन्त्त सुहुमपुढवी काइया भंते! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक अपक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' एवं एएण લેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયિક જીવાના કથન પ્રમાણે જ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા ભસિદ્ધિક ખદર પૃથ્વીકાયિક સંબધી કથન પણ પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક नो लेडी मे प्रहार सभवु. 'एव' एएणं' अभिलावेण तदेव चउक्कओ भेओ भाणियन्वो' अपृथ्वी अ४ि विगेरेथी सहाने वनस्पति अयि सुधीना જીવાના સંબધમાં ચાર ભેદ્ય કહેવામાં આવ્યા છે. એજ પ્રમાણેના ચાર ભે ક્રુષ્ણુલેસ્યાવાળા ભવસિદ્ધિકના આ પ્રકરણમાં પૃથ્વીકાયિક વિગેરે એકેન્દ્રિયાનુ' પણ વર્ણન કરી લેવુ. કહેવાનું તાત્પય એ છે કે-સૂક્ષ્મ, ખાદર, પર્યાપ્ત અને ઋષપ્તિકના ભેદથી સઘળા કષ્ણુલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવા ચાર-ચાર પ્રકારના હાય છે.
'कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जत्तग सुदुमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्म पगडीओ पन्नत्ताओं' हे भगवन दृष्येश्यावाजा भवसिद्धि अपर्याप्त सूक्ष्म
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अंमैयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श०६ कृ. भ. एकेन्द्रियजी० नि० २९९ वेणं जहेव ओहिउद्दसए तहे व जाव वेदेति' एवमेतेन-उपरि प्रदर्शितेन अमिला. पेन प्रकारेण तथैव औषिके प्रथमे एकेन्द्रियादेश के कथितं तथैव-तेनैव प्रकारेण इहापि भवसिद्धिकपकरणेऽपि सर्व वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमौधिकमकरणं वक्त. व्यम् १ तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाव वेदेति' यावद् वेदयन्ति, कति कर्मपकतयो भवन्तीति प्रश्नादार चतुर्दशर्मप्रकृती र्वेदयन्ति. एतत्पर्यन्तं वक्तव्यम् । तथाहि-कृष्णलेश्य भवसिद्धिकापर्याप्तक सूक्ष्मपृथिवीकायिकादारभ्य कृष्णलेश्य भवसिद्धिकपर्याप्तकवादरवनस्पतिकायिकान्ता अपि एकेन्द्रियजीवाश्चतुर्दश कर्मप्रकृतीनां वेदकाभवन्तीति यावत्पदग्रह्यम् औधिक प्रकरणमिति । अभिलावेण जहेव ओहिय उद्देसए तहेव जाव वेदेति' हे गौतम ! जिस प्रकार से इस अभिलाप द्वारा जैसा कथन औधिक उद्देशक मेंप्रथम एकेन्द्रिय उद्देशक में कहा गया है, उसी प्रकार से यहां इस भवसिद्धिक प्रकरण में भी वही सब कथन कहना चाहिये, और वह सब प्रकरण गत कथन वेदन सूत्र तक का यहां कहना चाहिये, तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि कृष्णलेश्यावाले भसिद्धिक अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां होती हैं ? इम प्रश्न से लेकर चौदह कर्म प्रकृतियोंका वे वेदन करते हैं यहां तक का सब कथन पहाँ पर वहां का ज्यो का त्यों करना चाहिये, तथा इसी प्रकार का कथन कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक पर्यातक पादर वनस्पतिकायिक नक के समस्त एकेन्द्रिय जीव १४ कर्म प्रकृतियों को वेदन करते हैं। પૃથ્વીકાયિક જીને કેટલી કર્મપ્રકૃતિ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
छ -'एवं एएण अभिलावेण जहेव ओहिय उद्देसए तहेव जाव वेदेति' હે શેતમા જે પ્રમાણે આ અભિલાપ દ્વારા અઘિક ઉદ્દેશામાં એટલે કે પહેલા એકેન્દ્રિય ઉદેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં આ ભવસિદ્ધિક પ્રકરણમાં પણ તે સઘળું કથન સમજી લેવું. અને તે પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ સઘળું કથન વેદનસૂત્ર સુધીનું અહિયાં કહેવું જોઈએ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક અપયશ્ક સૂમ પૃવીકાયિક જીને કેટલી કર્મપ્રતિ હોય છે ? આ પ્રશ્નથી લઈને ૧૪ ચૌદ કર્યપ્રકૃતિનું વદન કરે છે. આ કથન સુધીનું તે પ્રકરણનું કથન જેમનું તેમ અહિયાં સમજી લેવું. જોઈએ તથા આજ પ્રમાણેનું કથન કૃષ્ણવેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પર્યાપ્તક બાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના સઘળા એકેન્દ્રિય જી ચૌદકમ પ્રકૃતિન વેદન કરે છે આ પ્રમાણેનું આ સઘળું કથન ઔધિક પ્રકરણ અહિયાં યાવત શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. તેમ સમજવું.
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भगवतीसूत्र ३०० -'. 'कईविहा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नता' कतिविधा:-कतिप्रकारकाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः कृष्णलेश्या भवसि. द्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहा अणवरोववन्नगा' पञ्चविधा:-पंचप्रकारकाः अनन्त. रोपपन्नकाः कृष्णलेश्य भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः 'जाव' यावत्, यावत्पदेन पृथिवीकायिका अकायिका स्वेजस्कापिका वायुकायिका वनस्पतिकायिका इति पञ्चभेदवन्तो भवन्तीति । 'अणंतरोववन्नग कण्हलेस्स भवसिद्विय पुढवीकाइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता ?' अनन्नरोपपन्नक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक पृथिवी. कायिकाः खलु भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? 'गोयमा!' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । 'जहा' तयथा-'सुहुमपुढवीकाइया वादरपुढवीकाइस प्रकार समस्त यह औधिक प्रकरण यहां यावत् हान्द से गृहीत हुआ है।
काविहार्ण भंते! अर्णतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नता' हे भदन्त ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नमा० जाव वणस्सइकाइया' हे गौतम ! अनन्तरोपप भक कृष्णलेश्याचाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव यावत् वनस्पतिकायिक तक पांच प्रकार के कहे गये हैं। तथा च-ये एकेन्द्रिय जीव पृथिवीकायिक अकाधिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के भेद से पांच प्रकार के होते हैं । 'अणंतरोववन्नग कण्हलेस्स भवसिद्धिय पुढवीकाइया ज भते! कविहा पणत्ता' हे मदन्त ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले भवलिद्धिक पृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! ये दो प्रकार के कहे
- 'कइविहा ण भंते ! अगंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता' હે ભગવદ્ અનંતરા૫૫નક કૃષ્ણલાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જી કેટલા प्रारना उवामा माया छ ? 'गोयमा ! पंचविहा अणतरोवन्नगा जाव वणस्सइकाइया' गौतम ! मनत५५न्न वेश्या सिद्धिन्द्रिय જો યાવત વનસ્પતિકાયિક સુધી પાંચ પ્રકારના કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે સમજેવા. પૃથ્વીકાયિક, અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિयिनी मेथी पांय ४२ना सभरवा. 'अणतरांववण्णा कण्हलेस भवसिद्धिय पुढवीकाइयाणं भते ! कइविहा पण्णत्ता' लगवन् मनत२१५५-४युसेश्यावा ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિક જીવે કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतभरपामीन ४७ छ -'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' 8 गौतम ||
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श० कृ. भ. एकेन्द्रियजीव नि० ३०१ इया य' 'मूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च वादरपृथिवीकायिकाश्च । एवम् अनन्तरोपपन्नका: कृष्णलेश्या भवसिद्धिका अकायिकाः सूक्ष्माश्च भवन्ति, बादराश्च भवन्ति । एवं तेजस्कायिका अपि सूक्ष्माश्च वादराश्व, एवं वायुकयिका अपि मूक्ष्माश्च वादरा श्व एवमेव बनस्पतिकायिका अपि सूक्ष्मा भवन्ति बादराश्च भवन्ति 'एवं दुपओ भेश्रो' एवं द्विपदो भेदो भवति । पर्याप्तत्वाऽर्याप्नुस्वभेदेन चातुर्विध्यं नं भवति, अनन्तरोपपन्नात्वा देवेति । अनन्तरोएपन्नक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक पृथिवीकायिकादारभ्य अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक वनस्पतिकायिकान्तेषु सर्वेषु द्विपदो भेदोऽवगन्तव्य इति । __'अनन्तरोववन्नग कण्हलेस्स भवसिद्धिय सुहुमपुढवीकाइया णं भंते ! कर गये हैं। 'त जहा' जैसे-सूक्ष्म पृथिवी कायिक और बादर पृथिवीकायिक इसी प्रकार से अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक अप्कायिक - जीव भी सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। तेजस्का. यिक वायुकायिक और वनस्पतिकारिक जीव भी इसी प्रकार से सूक्ष्म
और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। ये सब पर्याप्त और अपर्याप्तक भेद वाले नहीं होते हैं अतः ये खब४-४ भेद वाले नहीं कहे गये हैं। स्पोंकि अनन्तरोपपनस जीवा में ये भेद नहीं होते हैं। इस प्रकार अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक वनस्पतिकायिक से लेकर अनन्तरोपपन्नक कृष्णरुष भवसिद्रिक वनस्पतिकायिकान्त - सष एकेन्द्रिय जीवों में दो ही भेद होते हैं। ___'अनन्नरोवना कण्हलेल अवसिद्धिय लुहमपुढवीकाइया ण અનંતપન્નક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક છે બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા छे. 'त' जहा' त मा प्रभारी छे -सू६५ पृथायि भने मा४२ पृ21814 આ રીતે અન ત૫૫નક, કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક અષ્કાયિક જીવ પણ સૂક્ષમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે તેજસ્કારિક વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક છે પણ આજ પ્રમાણે સૂફ અને બારના ભેદથી બબ્બે પ્રકારના હોય છે. આ બધા પર્યાપ્ત અને અપર્યાખના ભેદવાળા હોતા નથી. તેથી આ બધા ૪-૪ ચાર-ચાર ભેદોવાળ કહ્યું નથી. કારણ કે-અનંતરોપ ૫૫ન્નક જીવે માં આ ભેદ હોતા નથી આ રીતે અને તોપનક કુસુલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિાથી લઈને અનંતરે પપત્તક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક વનસ્પતિકાયિક સુધીના બધા એકેન્દ્રિય માં બેજ ભેદ હોય છે. ___ अणतरोववण्णग कण्हलेस्स भवसिद्धिय सुहम पुढवीकाझ्या गं भते !.कडू
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३०२
भगवती सूत्रे
कम्पगडीओ पन्नत्ताओ' अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेग्यभवसिद्धिकसूक्ष्म पृथिवीकायिकानां भदन्त कवि कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'एवं एएणं' इत्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेणं जक्षेत्र ओहियो अनन्तरोववल्लगउद्देओ तहेव जाव वेदेव' एवमेतेन अभिलापेन यथैवधिकोऽनंतरोपपन्नकोदेशकः कथितस्तथैवाऽत्रापि वर्णयितव्यो याद्वेदयन्ति । कर्मप्रकृतीनां सत्ता, बन्धनं वेदनं च अधिकाऽनन्तरोपपन्नकोद्देशक कथितमेव वेदितव्यम् इति भावः
' एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारसवि उद्देसगा तदेव भाणियव्वा, जहा ओहिय सर जाव अचरमेत्ति' एवमेतेन अभिलापेन एकादशाऽपि उद्देशका स्तथैव भणितया यथा औधिकशते यावत् अचरम इति । एवम् उपरिदर्शितप्रकारेण परंपरोपभंते ! कइकम्म पगडीओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णऐश्य भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवों के कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई है ? 'गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ अनंतगेववन्नग उद्देसओ तहेब जाव वेदेति' हे गौतम! इस सम्बन्ध में जैसा इस अभिलाप द्वारा औधिक उद्देशक - सामान्य रूप से अनन्तरोपपत्रक उदेशक कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर 'भी यावत् वेदन सूत्र तक सब कथन करना चाहिये । अर्थात् कर्मप्रकृतियों की लत्ता, उनका बन्धन और वेदन जैसा औधिक अनन्तरोपपद्मक उद्देशक में कहा गया है वही सब यहां पर भी समझना चाहिये ।
'एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारस वि उद्देसमा तहेव भाणियव्वा' जहाँ ओहिय सए जाव अचरिमोत्ति' हम प्रकार अभिलाप द्वारा ११ उद्देशक उसी प्रकार से कहना चाहिये जैसे कि वे औधिक शतक में
कंम्मपगडी पचाओ' हे भगवन अनंतशेपपन ष्णुश्यावाणा लवसिद्धि સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિ જીવાને કેટલી કમ`પ્રકૃતિયા કડેવામાં આવેલ છે ? 'गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेण जहेव ओहिओ अनंतशेववण्णग उद्देसओ तहेव 'जाव वेदेति' हे गौतम! म सधमां ? प्रमामा अलिस द्वारा ઔઘિક ઉદ્દેશામાં એટલે કે સામાન્ય રૂપથી અનંતરે પપન્નક ઉદ્દેશા કહેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ યાવત્ “વેદન સૂત્ર સુધી સઘળુ કથન કહેવુ' જોઈ એ. અર્થાત્ કમ પ્રકૃતિયેાની સત્તા, તેમનુ બંધન અને તેમનુ' વેઢન જે રીતે ઔદ્યિક ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એ સઘળુ કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું.
' एवं एएणं' अभिलावेण एक्कारसवि उद्देसवा तहेव भाणियव्वा' जहा ओहियसए जाव अचरिमोत्ति' मा प्रमाणे मा मलिदाय द्वारा अगियार - આ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવા. એટલે જે પ્રમાણે ઓશિક
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श०७-८ नौल-कापोतलेश्यैकेन्द्रियाः ३०३ पक्षक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिका अचरम भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकान्ता एकादशोद्देशका औधिकोदेशकवदेव अणितव्याः॥
इति पाठमेकेन्द्रियशातं समाप्तम् ॥ ३३॥६॥
अथ सप्तममष्टमं च शतम् ॥ मूलम्-जहा कण्हलेस भवसिद्धिएहि सयं भणियं एवं नीललेस्स भवसिद्धिएहिं विलयं भाणियव्वं ॥सू०१॥
सत्तमं एगिदियलयं समत्तं ॥३३-७॥ छाया-यथा कृष्णलेश्यभवसिद्धिकैः शतं भणितम्, नीललेश्य भवसिद्धि कैरपि शतं भणितव्यम् ॥ सप्तममेकेन्द्रियशवं समाप्तम् ॥३३॥७॥
एवं कापोतलेश्य भवसिद्धिकैरपि शतम् ॥ अष्टममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥ ___टीका-'जहा कण्हलेस्समवसिद्धिएहि सयं मणियं' यथा-येन प्रकारेण कृष्णलेश्यभवसिद्धिकैः शतं भणितम् । कृष्णलेश्यभवसिद्धिकस्य शतं कथितम् ‘एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहिं वि सयं भाणिय' एवमेव नीललेश्वभवसिद्धिकरपि यावत् अचरम उद्देशक तक कहे गये हैं। उसी प्रकार से परम्परोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले भरसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि से लेकर अचरम भवप्तिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकाधिक तक के ११ उद्देशक औधिक उद्देशक के जैसे कहना चाहिये।
॥६ठा एकेन्द्रिक शतक समाप्त ॥
-- ७ व ८ वां शतक -- 'जहा कण्हलेस्स भवसिद्धिएहि सय भणियं'
जिस प्रकार से कृष्णलेश्य भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्यन्ध में शतक कहा गया है एवं नीललेस्सभसिद्धिएहि वि सयं भाणियन्वं' इसी प्रकार से नीललेश्व अवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्ब. શતકમાં યાવતુ અચરમ ઉદ્દેશા સુધી કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે પરંપરપપન્નક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક સુધીના અગિયાર ૧૧ ઉદેશાઓ ઔધિક ઉદેશામાં કહ્યા પ્રમાણેના સમજવા પસૂ૦૧૫
| છઠું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત છે
સાતમા એકેન્દ્રિય શતક ને પ્રારંભ– 'जहा कण्हलेस्म भवसिद्धिएहि सय भणिय"
જ પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં शत अपामा भावेद छे. 'एवं नीललेस्स भवसिद्धिएहि वि सयं भाणियव्य"
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६०
. . . . . . . . . . भागवतोरने शतं भणितव्यम् । यथा कृष्णलेश्यभवसिद्धि सस्य एकादशीदेशकात्मकशतमधीतं तथैव नीललेश्यमवसिद्धिकस्यापि एकादशोदेशकयुक्तं शतमध्येतव्यम् । आलापप्रकारस्तु पूर्वव देवोहनीय: नवरं कृष्णलेश्यभवालिद्विवस्थाने 'नीललेश्य भवसि. द्धिक इति पदं निवेश्य शतं भणितव्यम् ॥
॥इति सप्तममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३३७ एवं काउलेख्स भवसिद्धिएहिं वि लयं ॥सू०१॥ . .
अट्रमं एनिदियसयं समत्तं ॥३३-८॥ न्ध में भी शतक कहना चाहिये, तात्पर्य यही है कि जैता कृष्णलेश्य,
भवसिद्धिक का ११ उद्देशात्मक शतक कहा गया है वैसा ही नीललेश्य .. भवसिद्धिक का भी ११ उद्देशकों से युक्त शतक कहना चाहिये।
इस सम्बन्ध में आलापक प्रकार पूर्व के जैसा ही उद्भावित करना चाहिये, परन्तु आलापक प्रकार में केवल कृष्णलेश्य भवसिद्धिक के स्थान में नीललेश्य भवसिद्धिक ऐसा पद निवेशित करके शतक कहना चाहिये।
॥७ वां एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥ 'एवं काउलेस्स भवसिद्धिएहि घि सयं'
'इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का भी आठवां शतक बनाना चाहिये। એજ પ્રમાણે નીલહેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયોના સંબંધમાં પણ શતક સમજવુ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જે પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિ જીના સંબંધમાં અગિયાર ઉદ્દેશાત્મક શતક કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું નલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિકના સંબંધમાં પણ અગિયાર ઉદ્દેશાયુક્ત શતક કહેવું જોઈએ. આ સંબંધમાં આલાપકનો પ્રકાર પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ બનાવીને કહી લેવો. આલાપના પ્રકારમાં કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિકના સ્થાને નલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એ પ્રમાણેનું પદ મૂકીને શતક સમજવું. એજ તેમાં અને આ કથનમાં ભિન્ન પણ સમજવું. સૂ૦૧
પસાતમું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્તા
આઠમા એકેન્દ્રિય શતકને પ્રારંભ– ‘एवं काउलेस्स भवसिद्धिएहिं वि सय' त्यादि ' . આજ પ્રમાણે કાતિલેશ્યાવાળા ભસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીના સંબંધમાં ५Y BY: शत: सभा.
. , . '
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श. ९ अभवसिद्धिकै केन्द्रियाः
'एवं काउलेस मासिद्धिएहि विसर्प' एवमेव कापोतलेश्य भवसिद्धिकेके न्द्रियजीवाना मपि शतमष्टमं निर्मातव्यम् । नीललेश्यभवसिद्धिकमकरणमपि एकादशोद्देशात्मकं ज्ञातव्यम्, आलापप्रकाराः स्वयमेवोहनीया इति ॥ सू० अष्टम मे केन्द्रियशवं समाप्तम् ॥ ३३-८।। ॥ अथ नवमं शतम् ॥
मूलम् - इविहाणं भंते! अभवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता ? गोमा ! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहापुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । एवं जहेव भवसिद्धिय 'सयं भीणयं तव अभवसिद्धियसयं वि भाणियव्वं । नवरं नव उद्देगा चरम अचरमोदेसगवजा सेसं तहेव ॥सू० १ ॥ नवमं एगिंदिय सयं समत्तं ॥३३-९॥
३०५
छाया - कतिविधाः खलु भदन्त ! अभवसिध्दिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधा अभवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः । एवं यथैव भवसिद्धिकशतं भणितं तथैवाभवसिद्धिक'शतमपि भणितव्यम् | नवरं नवोदेश काश्चरमा चरमोदेशकर्जाः, शेषं तथैव' ॥ म्. नवमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ||३३|९||
जैसा नीललेश्य भवसिद्धिक प्रकरण ११ उद्देशात्मक है वैसा ही कापोतले भवसि द्विक प्रकरण भी ११ उद्देशात्मक है इस सम्बन्ध .में आलाप प्रकार अपने आप उद्भावित करना चाहिये ।
| ३३ वे शतक का आठवां एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥ -- नौवां शतक --- 'कइविहाणं भतै ! अभवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता' इत्यादि
અર્થાત્--જે પ્રમ ણે નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક જીવાનું અગિયાર દેશા ત્મક પ્રકરણુ કહ્યુ` છે. એજ પ્રમાણે અગિયાર ઉદ્દેશાઓવાળું કાપાતલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક જીવે નું પણું પ્રકરણુ સમજવુ. આ સબંધમાં આલાપકના પ્રકાર સ્વય' બનાવીને સમજી લેવા પ્રસૂ૦૧૫
તાઆઠમુ એકેન્દ્રિય શતક સમપ્તા 1ાનવમા એકેન્દ્રિય શતકનેા પ્રાર'ભ
'कविहाणं भते ! अभवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता' इत्याद्दि
भ० ३९
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'३०६
भगवती सूत्रे
टीका- 'कविहाणं भने । अभवसिद्धिया एगिंदिया पन्नता' कतिविधाः ख भदन्त ! अभवसिद्धिका एकेन्द्रियाः यज्ञशा:- कथिताः ? 'गोयमा' पंचविद्या अभयसिद्धिया एगिंदिया पन्नचा' हे गौतम | अभवसिद्धिका एकेन्द्रियाः पंचविधाः मज्ञप्ता', 'तं जहा ' तथा 'पुढवीकाध्या जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिका यावनस्पतिकायिकाः अत्र यावत्पदेन अध्कापिका स्तेजस्कायिका पायुकायिका एतेषां संग्रहो भवति । तथा च पृथिवीकायिकाऽपकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकचनस्पतिकायिकभेदात् पञ्चमकारका अभवसिद्धिकै केन्द्रिया भवन्ति । एवं जहेब भवसिद्धियसये भणियं एवं अभवसिद्धियसथं वि भाणियनं' एवं न भवसिद्धिशतं भणितं तथैव अभवसिद्धिकशतमपि भणितव्यम् । सिद्धिकतापेक्षा यद चैलक्षण्यं तदिह दर्शयन्नाह - 'नवरे' इत्यादि ।
टीकार्य - हे भदन्त ! एकेन्द्रिय अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिंदिया 'पद्मत्ता' हे गौतम! अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'त' जहा' वे ये हैं- 'पुढवीकाया जाव वणस्स इकाइया' पृथिवीकायिक - यावत् वनस्पतिकायिक, यहां यावत् पद से 'अच्कायिक, तेजस्कायिक . और वायुकाधिक इनका ग्रहण किया गया है तथा च पृथिवीकायिक कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, और वनस्पतिकायिक के भेद से अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के होते हैं । 'एवं' जहेव' भवसिद्रिय संघ भणिय एवं अभवसिद्धियलय वि भाणियन्त्र' जैसा भवसिद्धिक शतक कहा गया है उसी प्रकार से अभवसिद्धिक शतक भी कहना चाहिये किन्तु उसकी अपेक्षा जो इस शतक में भिन्नता
ટીક —હૈ ભગવત્ અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવા કેટલા પ્રકારના वामां आव्या छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री आहे - 'गोयमा ! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिदिया पण्णचा' हे गौतम! अलवसिद्धि शेन्द्रि लव यांच प्रारना उडेवासां भाव्या हे 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे. 'पुढवीकाइया जाव वणस्खइकाइया' पृथ्वी अयि यावत् वनस्पतियि यावत्यस्थी अच्यतेસ્કાયિક વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિકનું ગ્રહણ થયેલ છે. એટલે કે— પૃથ્વીકાયિક અપ્રકાયિક, તેજસ્કાલિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિકના ભેદથી अलवसिद्धि मेन्द्रिय वा पांय प्रहारना होय हे 'एव जद्देव भवसिद्धिय सय भणिय अभवसिद्धियसय वि भाणियव्वं' लवसिद्धि शतम्भां ने प्रभा वामां આવેલ છે, જ પ્રમાથે અવસિદ્ધિક શતક પણ સમજી લેવું. પરંતુ તે
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मैयद्रिका टीका २०३३ अ. श. ९ अभवसिद्धिकै केन्द्रियाः
'नवरं नव उद्देसमा चरम अचरम उद्देसगावज्जा' नवरं नवउद्देशाश्रमाचरमोदेशकवः चरमाचरमदशमैकादशोदेशकरहिताः औधिका भवसिद्धिकोऽनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नकाऽनन्तरावगाढ परम्परात्र गाठानिन्वराहारक परम्पराहारकाऽनन्तरपर्याय परम्पर पर्याप्तरूपानचैवोदेशकाः अमवसिद्धिकशते पठनीयाः । चरमाचरमोदेशकौ तु इह न संभवतः । अभवसिद्धि कस्वभावत्वा देवेति ॥ ॥ नवममे केन्द्रियशतं समाप्तम् ||३३|९|| अथ दशममेकादशं द्वादशं च शतम् ।
मूलम् - एवं कण्हलेस अभवसिद्धियलयं पि
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दसमं एगिंदियलयं समत्तं ॥३३-१०॥ नीललेस अभवसिद्विय एर्गिदिएहि वि सयं ॥३३ - ११॥ है वह 'नवर' नव उद्देसमा चरम अचरम उद्देगवज्जा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। यहां चरम उद्देशक और अचरम उद्देशक ये दो उद्देशकों को छोड़कर बाकी के नौ उद्देशक होते हैं । इनमें एक औधिक अभवसिद्धिक उद्देशक १ अनन्तरोपपन्नक द्वितीय उद्देशक २ परम्पशेषपपन्नक तृतीय उद्देशक ३ अनन्तरावगाढ चतुर्थ उद्देशक ४ परम्पराव गाढ पांचवां उद्देशक ५ अनन्तराहारक छठा उद्देशक परम्पराहारक सातवां उद्देशक ७, अनन्तर पर्याप्तक ८ वां उद्देशक और परम्परपर्यातक ९ व उद्देशक हैं, ये नौ ही उद्देशक इस अभवसिद्धिक शतक में पठनीय है । अभवसिद्धिक स्वभाव होने के कारण यहां चरम और अचरम ये दो उद्देशक स भवित नहीं हैं । ९ वां एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥ अथन ४२तां या शतम्मां नुहायाशु छे, ते 'नवर' नत्र उद्देसगा चरम अचरम उद्देस्वगवज्जा' मा सूत्र पाउद्वारा अगर उस अडियां थरम उद्देशो मने અચરમ ઉંદેશા આ બે ઉદ્દેશાને છેડીને ખાકીના નવ ઉદ્દેશાઓ થાય છે. આમાં એક ઔઘિક અભવસિદ્ધિક ઉદ્દેશે ૧ અનન્તરે પપન્નક સબંધી ખીજે ઉદ્દેશે ૨ પર પરાપન્નકસંખ'ધી ત્રીજો ઉદ્દેશ ૪ અનંતરાવગાઢ સબંધી ચેાથે ઉદ્દેશેા ૪ પર’પરાવગાઢ સબંધી પાંચમા ઉદ્દેશે ૫ અન તરાહારક સંબંધી છઠો ઉદ્દેશે! ૬ પર પરાહારક સખ ધી સાતમે! ઉદ્દેશેા છ અનંતપર્યાપ્તક સબંધી આઠમા ઉદ્દેશે। ૮ અને પર પર પર્યાપ્તક સબંધી નવમે ઉદ્દેશે। ૯ આ નવ જ ઉદ્દેશાએ આ અભસિદ્ધિક શનકમાં હેન્ના જોઈ એ અભવસિદ્ધિક સ્વભાવ હોવાથી અહિયાં ચરમ અને અચરમ એ એ ઉદ્દેશાઓ સભવતા નથી ાસૢ૦૧ા ાનવસુ એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્તાા
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३०८
भगवती
काउलेस्स अभवसिद्धिययं ॥ ३३-१२ ॥
एवं चत्तारि वि अभवसिद्धिय सयाणि णव णव उद्देसगाणि भवंति । एयाणि वारस एगिंदियस्याणि भवंति ॥ ३१-१२॥
I
तेत्तीमइमं सयं समत्तं ॥ ३३ ॥
छाया एवं कृष्ण लेश्याभवसिद्धिकै केन्द्रियशतमपि ॥ ३३॥१०॥ नीलेश्याऽभवसिद्धिकै केन्द्रियैरपि शतम् ||३३|११|| कापोतश्याऽभवसिद्धिकशतम् ||३३|१२|| एवं चत्वार्यपि अभवसिद्धिकशतानि नवनवं देशकानि भवन्ति । एवम् एतानि द्वादश एकेन्द्रियशतानि भवन्ति ||३३|१०-११-२॥ ॥ त्रयस्त्रिंशत्तमं शतं समाप्तम् ॥ ३३ ॥
टीका- ' एवं कण्हलेस अभवसिद्धियसयं' एवम् अधिकाऽभवसिद्धिक शतमिव कृष्णले श्याऽभवसिद्धिकै केन्द्रियशतमपि ज्ञातव्यम् ||३३|३०|| दशम मे केन्द्रियशतं समाप्तम् ॥१०॥
'नीललेस्स अभवसिद्धिय एगिदिएहिं वि सयं' एवं कृष्णलेश्याभवसिद्धि के केन्द्रियशतमिव नीललेश्याभवसिद्धिकै केन्द्रियैरपि शतं ज्ञातव्यम् ||३३|११|| - ॥ १० व १२ वां एकेन्द्रिय शतक - ॥ 'एवं कण्हलेस अभवसिद्धिय एगिंदियस पि -३३-१०
औधिक अभवसिद्धिक शतक के जैसा ही कृष्णलेश्य अभवसिद्धिकएकेन्द्रिय शतक भी है, ऐसा जानना चाहिये, 'नीललेस्स अभवसिद्धिय एगिदिएहिं विसय ' कृष्णलेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक के जैसा ही नीललेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक है । ३३-११।
અગિયરમા એકેન્દ્રિય શતકના પ્રારંભ——
' एवं ' कण्हलेस अभवसिद्धिय सयं पि' इत्यादि
ટીકા —ઔઘિક અભવસિદ્ધિક શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે જ કૃલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયાનું શતક પણ એજ પ્રમાણે છે તેમ સમજવું,
'नीललेस अभवसिद्धिय२गि दि१हिं वि सय" दृष्युसेश्य मलवसिद्धि એકેન્દ્રિય શતકના કથન પ્રમાણે જ નીલલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય' શતક સમજવું, પ્રસૂ॰૧૫
અગિયારમું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श.१०-१२ कृ० लेश्यावन्तोऽभवसिद्धिकाः ३०९
'काउलेस्स अभवसिद्धियसयं' एवमेव नीललेश्याभवसिद्धकशतमिव कापोतं. लेश्याभवसिद्धिकशतमपि ज्ञातव्यम् ॥१२॥
'एवं चत्तारि वि अभवसिद्रियसयाणि' एवम्-उपरिदर्शित-क्रमेण चत्वा. यपि अधिकामवसिद्धिक-कृष्ण-नील-कापोतलेश्यकाभवसिद्धिकरूपाणि अमवसिद्धिकानां शतानि 'णवणवउद्देसगा भवंति' नबनवा देशकानि-नवनवोद्देशकासमकानि औधिकाभवसिद्धिको द्देशमाश्रित्य अनन्तरोपपन्नकपरम्परोपपन्नकानन्तरात्रगाढ परम्परावगाढानन्तराहारक परम्पराहारकानन्तरपर्याप्तक परम्परपर्याप्तक रूपाणि भवन्ति । अभवसिद्धिस्वभावात्, चरमाचरमरूपौ दशमैकादशद्देशौ न भवत
'काउलेस्त अभवसिद्धिय सयं-नीललेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक के जैसा कायोरलेश्य अभवसिद्धिक शतक है ॥ ३३-१२॥___ एवं चत्तारि वि अभवसिद्धिय सयाणि' इस प्रकार चार शतक अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक है ? दूसरा कृष्गलेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक हैं २ तीसरा नीललेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक है ३ चौथा कागेतलेश्य अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक है ४ इन शतकों में 'णव णव उद्देसगा भवंति' प्रत्येक शतक में ९-९ उद्देशक हैं। औधिक को आश्रित करके अर्थात् इस को लेकर अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ अनन्तराहारक परम्पराहारक, अनन्तरपर्यातक और परम्पर पर्याप्तक ये और नौ उद्देशक होते हैं । अभव.
'काउलेस्स अभवसिद्धियसय નીલલેશ્યાવાળા અભાવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય શતકના કન પ્રમાણે કાપતલેશ્યાવાળા અભ-સિદ્ધિક એકેન્દ્રિયાનુ શતક પણે સમજવું. ૧૩૩-૧રા
'एव चत्तारि वि अभवसिद्धिया सयाणि' मा प्रमाणे यार शती અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીના સંબંધમાં કહેવામાં આવ્યા છે. તેમાં એક સામાન્ય પણાથી અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય શતક કહેલ છે. કૃષ્ણલેથાવાળા એકેન્દ્રિય અભવસિદ્ધિક જીવ સ બ ધી બીજુ શતક કહ્યું છે. ૨ નીલલેશ્યાવાળા અભાવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય સંબધી ત્રીજુ શતક કહેલ છે ૩ કાપતલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય સંબધી ચે શું શાક કહેલ છે. જ मा १२ शतीमा ‘णव णव उद्देसगा भवंति' नप नव देशामा ४ामा આવ્યા છે ઔધિક ભવસિદ્ધિક ઉદ્દેશાને આ શ્રા કરીને અનંતરો પપન્નક પરંપરાપાક. અને તરાવગાઢ પરંપરાગઢ, અનંતર હારક, પરંપર હારક અન તર પર્યાપ્તક, અને પરંપર પર્યાપ્તક, આ પ્રમાણેના તે ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે.
અભવસિદ્ધિક સ્વભાવવાળા હોવાથી આ એકેન્દ્રિયોને ચરમ અને અચરમ
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भगवती इति । एवं एवाणि वारस एर्गिदिवसयाणि भवति' एवमुपरिपरिदर्शितक्रमेण एतानि पूर्वोक्तानि द्वादशै केन्द्रियशतानि भवन्ति ।
सामान्यत एकेन्द्रियाणां प्रथमं शतम् ? | कृष्णलेश्य नीललेश्य कापोतलेश्वानां त्रय इति मिलित्वा चत्वारि ४, तथा औधिकभवसिद्धि के केन्द्रियैः कृष्णलेश्य नीललेश्य कापोतलेश्यै त्रीणि शतानि ८ । तथा अभवसिद्धिकानामपि चत्वारि औधिक कृष्णनील कापोतरूपाणि इति सर्व सङ्कलनया द्वादशशतानि भवन्ति । अष्टसु शतेषु प्रत्येकस्मिन् एकादश एकादशोदेशकाः, अभवसिद्धिकानां चतुर्णां तु सिद्धि स्वभाववाले होने से इन एकेन्द्रियों के चरम और अचरम रूप १० वां और ११ वां ऐसे ये दो उद्देशक नहीं कहे गये हैं । ' एवं ' एयाणि वारस एििदवसयाणि भवति' इस प्रकार से एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में १२ एकेन्द्रिय शतक होते हैं
सामान्य रूप से एकेन्द्रियों का प्रथम शतक एवं कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले एकेन्द्रियों के तीन शतक-मिलकर चार शतक होते हैं-तथा-च- औधिक भवसिद्धिक एकेन्द्रियों को लेकर कृष्णलेश्पावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेइयावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के ३ शतक-मिलकर आठ शतक होते हैं। तथा अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के भी चार शतक हैं- एक औधिक और तीन कृष्ण, नील, कापोतश्याओ को लेकर सब मिलकर १२ शतक होते है । इनमें
રૂપ ૧૦ દસમે અને ૧૧ અગિયારમે એ એ ઉદ્દેશાએ કહેવામાં આવેલ નથી. ' एवं एयाणि बारस एगिदिया सयाणि भवंति' વાળા જીવેાના સંબંધમાં ૧૨ માર એકેન્દ્રિય શતકે! કહેયા છે. આ પ્રમાણે એકઇન્દ્રિય
સામાન્ય પશુથી એકેન્દ્રિયેાનુ' પહેલું શતક અને કૃષ્ણલેશ્યાવાળા, નીલ લેશ્યાવાળા, કાપાતલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિયાના ત્રણ શતકા મળીને ચાર શતકા થાય છે. તથા ઔધિક ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયાને લઈને કૃષ્ણદ્દેશ્યાવાળા નીલલેસ્યાવાળા અને કાપેાતિક લેશ્યાવાળા ભવચિદ્ધિકના ત્રણ શતકા મળીને આઠે શતકા થાય છે. તથા અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયેાના સ’બોંધમાં પણ ચાર શતક કહેવામાં આવેલા છે. તે આ રીતે સમજવા-એક ઔવિક સ'ખ'ધી અને કૃષ્ણલેશ્યાયુક્ત, નીલલેશ્યા યુક્ત અને કાપાતલેશ્યા યુક્ત એમ ત્રણ શતકા થાય છે, બધા મળીને ખાર શતકા થાય છે આમાં આઠ શતકામાં દરેક શતકામાં ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે. ચાર અભવ
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प्रमेrefद्रका टीका श०३३ अ. श. १०-१२ कृ० लेश्यावन्तोऽभवसिद्धिका ३११ नवनचैवोदेशकाश्चरमाचरसवर्जिता इति । तदेवोदेशकानां सर्वसंकलनया चतुविंशत्यधिकशतमुद्देशकानां भवतीति ॥
इति श्री विश्वविख्यात जगदबल्लभ प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलिवळलितकला पालाप कम विशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदेश'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् त्रयस्त्रिंशत्तमशतकस्य
दशममेकादश द्वादशशतानि
समाप्तानि ॥१०-११-१२॥ समाप्तं च त्रयत्रिशत्तमं शतकम् ।.
आठ शतकों में प्रत्येक शतक में ११-११ उद्देशक हैं। चार अभवसिद्धि कों के नौ-नौ उदेशक हैं । यहाँ अचरम उद्देशक छूट जाते हैं । इस समस्त उद्देशकों की संख्या १२४ होती है । ११ व १२ ब एकेन्द्रिय शतक समापन ॥
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके तेतीसवें शतक का दसवां ग्यारहवां और बारहवां अवान्तरशतक समाप्त | ३३-१०-१२। || प्रथम एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥ | ३३ वां शतक समाप्त ॥
સિદ્ધિકાના નવ-નવ ઉદ્દેશાએ થાય છે. તેમાં ચરમ ઉદ્દેશક અને અચરમ ઉદ્દેશક એ એ ઉદ્દેશાઓ છેાડી દેવામાં આવેલ છે. આ રીતે આ બધા ઉદ્દેશા એની કુલ સખ્યા ૧૨૪ એકસોને ચાવીસની થાય છે. પ્રસૂ૦૧૫ જૈનાચાય . જૈનધમ દિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર”ની મેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકના દસ અગીયાર અને ખારમ્' અવાન્તરશતક સમાપ્ત ૫૩૩-૧૦-૧૨૫ ાએકેન્દ્રિય શતક સમાપ્તા ।તેત્રીસમું શતક સમાપ્તા
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भगवती अथ चतुस्त्रिंशत्तमं शतकम् । प्रयस्त्रिंशत्तमे शतके एकेन्द्रियजीवानां निरूपणं कृतम्, चतुस्त्रिंशत्तमेऽपि शतके एकेन्द्रियजीवा एच विग्रहगत्यादि प्रकारान्तरेण निरूप्यन्ते । तदनेन सम्म न्धेनायातस्य चतुस्त्रिंशच्छतकस्य द्वादश शतोपेतस्य इदमादिस सूत्रम्-'कइविहाणं भंते !' इत्यादि।
मूलम्-कइविहा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा एगिदिया पन्नत्ता। तं जहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । एवं एएणं चेव चउक्कएणं भेएणं भाणियन्वं जाव वणस्सइकाइया। अपजत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते अपजत्त सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! कइसमएण विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ, एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा, एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहा उज्जुयायया लेढी १, एगओ वंका २, दुहओ वंका ३, एगयओ खहा४, दुहओ खहा५, चकवाला६, अद्धचक्कवाला७, उज्जुयायताए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा। एगयओ वंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहणं उववज्जेज्जा। दुहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिलमइएणं विग्गहेणं उववजेजा । से तेणट्रेणं गोयमा! जाव उववज्जेजा। अपजत्तसुहुमपुढवीकाइएणं भंते! इमीले रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चस्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तसुहमपुढवी
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प्रमेयमन्द्रिका टीका शा०३४ अ. श०१ विग्रहगत्या एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३१३ काइताए उश्वजित्तए से णं भंते ! कइ समहएणं विगहे उवबजेजा? गोथमा! एमससइएण वा सेसं तं चैव, जाश से , तेणद्वेणं जाव विमहेण उववजेजा। एवं अपज्जतसुहुमपुढवी• काइओ पुरथिमिल्ले परिमंते, समोहणावेत्ता पचस्थिलिल्ले चरिमंते वादरपुढवीकाइएसु अपजत्तएसु उववाएयवो ताहे तेसु व पजत्तएसु ४ । एवं आउक्काइएसु चत्तारि आलावगा सुहमहि अप्पजत्तएहि१, ताहे पज्जत्तएहि बायरेहि२, अपजत्तएहिं३, ताहे पजत्तएहिं उबवायत्रो ४ । एवं चेव सुहुमतेउकाइएहि वि अपज्जत्तपहि१, ताहे पज्जत्तएहिं उवधायकोर। अपजत्तसुहमपुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्तखेत्ते अपजत्तवायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? सेसं तं चेव । पज्जत्तबाथरतेउकाइयत्ताए उववाएयव्बो ४ वाउकाइएसु सहुमबायरेसु जहा आउक्काइएसु उववाइओ तहा उववाएयव्वो ४ । एवं वणस्सइकाइएसु वि ॥२०॥सू०१॥
छाया-कनिविधाः खनु भदन्त ! एकेन्द्रियाः प्राप्ताः ? गौतम! पञ्चविधा एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः। एवमेतेनैव चतुष्केण भेदेन मणितव्याः, यादवनस्पतिकायिकाः । अपर्यापन सूक्ष्मपथिवीकाचिकाः खल भदन्त । एतस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, समवहत्य यो मध्य एतस्या रत्नाभायाः पृथिव्याः पश्चिमे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकारिकतया उपपत्तुम्, म खल भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहण उत्पद्यत ? गौतम ! एकसामयिकेन, वा, द्विमामयिकेन वा, मिसामयिकेन या. ग्रिहेणोत्र येत । तरकेनार्थेन भदात ! एमुच्यते एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा यावत उपधेत ? एवं खलु गौतम! मया सप्त श्रेयः प्रज्ञप्ताः। तद्यथामज्वायता श्रेणिः,१ एकनो वक्रा२, द्विधातो वक्रा३, एकतः खा४, द्विधातः खा५,
म० १०
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भगवती सूत्रे चक्रवाला६ अर्द्धचक्रवाला १ ऋज्वायतया श्रेण्या उत्पचमानः एक सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत । एकतो वक्रया श्रेष्योत्पद्यमानः द्विसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत । द्विधावो मानः सामयिकेन दिग्रहेणोत्पद्येत, तत्तेनार्थेन गौतम । यावद उत्पद्ये । अपर्याप्नक्ष्मपृथिवीकायिकाः खल भदंत ! एतस्याः रत्नप्रभाया पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, समवहत्य यो भव्यः एतस्या रत्नमभायाः पृथिव्याः पाचार चरमान्ते पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उत्पत्तुम् स खलु rea कति सामयिकेन चिमण उत्पद्येत ? गौतम ! एकसामयिकेन वा शेर्पा' देव, यावततेनार्थेन यावद् विग्रहेणोत्पद्येत । एवम् पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः पौरस्त्ये चरमान्ते समवधात्य पाश्चात्ये चरमान्ते वादरपृथिवीकायिकेषु अपर्याप्त केषु उपपातयितव्यः, तदा तेष्वेव पर्याप्तकेषु ४, एवम् अष्कायिकेषु aart notest: सूक्ष्मैर पर्याप्त कैा तदा पर्यायके बाद अपर्याप्त के तदा पर्याप्तः उपपातयितव्यः । एवमेव मुक्ष्मतेजस्कायिकैरपि अपर्याप्तः तदा पर्याप्त कैरुपपातयितव्यः अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त । एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, समवहत्य यो व्यो मनुष्यक्षेत्रे अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकतया उत्पत्तुं स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन, विग्रहेणोत्पद्येत, शेप तदेव । एवं पर्याप्तवादर तेजस्कायिकतया उपपातयितव्यः वायुकायिकेषु सूक्ष्मवादरेषु यथा अष्कायिकेषु उपपातित स्तथा उपपातयितव्यः, एवं वनस्पतिकायिकेष्वपि ॥२०॥०-१
टीका- 'कविहाणं भंते ! एनिंदिया पन्नत्ता' कतिविधाः - कतिप्रकारका
३४ व शतक
३३ वे शतक में एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण किया अब इस ३४ वें शतक में भी उन्ही एकेन्द्रिय जीवों का निरूपण विग्रह गति आदि रूप प्रकारान्तर से किया जावेगा । इसी कारण इस ३४ वें शतक का कथन जो कि १२ शतकों वाला है सूत्रकार करते हैं - 'कइविहाणं भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता' इत्यादि ।
ચેાત્રીસમા શતક ના પ્રારભ—પહલેા ઉદ્દેશ
તેત્રીસમા શતકમાં એકેન્દ્રિયાનુ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ' છે, હવે આ ૩૪ ચાત્રીસમા શતકમાં પણ એ એકેન્દ્રિય જીવાતું જ વિગ્રહ ગતિ વિગેરે પ્રકારાન્તરથી નિરૂપણ કરવામાં આવશે, એ કારણથી આ ૩૪ ચેાત્રીસમા શતકનું अथन सूत्रकार पुरे छे. आ शत बार शतम्भवाणु छे - 'कइविहाणं भंते ! एगिदिया पण्णत्ता' इत्यादि
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का टीका श०३४ अ. श०१ विग्रहगत्या एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३१५
खलु भदन्त ! एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः कथिताः ? | भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ? 'पंचविदा एनिंदिया पन्नता' पञ्चविधा:- पञ्चप्रकारका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढवीकाइया जाव वणस्सइ काइया' पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः, अत्र यावत्पदेन अकायिकतेजFofos वायुकायिक वनस्पतिकायिक भेदात्पञ्चप्रकारका एकेन्द्रिया भवन्तीति । 'एवं एएणं चैव चउकएणं भेएणं माणियव्वा जाव वणस्स इकाइया' एवम् एतेनैव चतुष्केण भेदेन भणितव्या यावद्वनस्पतिकायिकाः अत्रापि यावत्पदेन पृथिवीकायिकाकायिकतेजस्कायिकशयुकायिकानां सग्रहः सूक्ष्माः पृथिवीकायिकाश्च बादराः पृथिवीकायिकाचेत्येवं द्वौ भेदौ । ततः अपर्याप्तकाः सूक्ष्माः पृथिवीकायिकाच्च, पर्याप्तकाः सूक्ष्माः पृथिवीकायिकाश्च, अपर्याप्दका वादरपृथिवी
टीकार्थ - 'कइविहा f भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता' हे भदन्त ! एकेद्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा ! पंचविहा एगिंदिया पन्नत्ता' हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं 'त' जहा' जैसे - 'पुढवीकाइया जाच वणस्सइकाइया' पृथिवीकाधिक यावत् वनस्पतिकायिक यहां यावत् शब्द से अष्काधिक तेजस्काधिक और वायुकायिक इन एकेन्द्रिय जीवों का ग्रहण हुआ है 'एवं एएणं चेत्र चक्कण भेएण भाणियव्या जाव वणस्सह काइघा' इस प्रकार पृथिवी कायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के एकेन्द्रिय जीवों के चार-चार भेद कह लेना चाहिये जैसे- लक्ष्मपृथिवीकाधिक १ वादपृथिवीकायिक २ सूक्ष्मपृथिवी के दो भेद अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक और पर्यातक सूक्ष्म पृथिवीकायिक पादर पृथिवीकाधिक के भी दो भेद - बादर
अर्थ - 'इविहाणं भते ! एगिदिया पन्नत्ता' हे भगवन् 'यो केन्द्रिय लवा टसा अझरना वामां आव्या छे ? 'कइविहा' इत्यादि प्रहरषु नसनाडीने सक्ष्य पुरीने समन्वु ले मा प्रश्नता उत्तरमा प्रभुश्री आहे - 'गोयमा पचविधा एगि दिया पण्णत्ता' हे जातम! मेरेन्द्रिय बुवा यांय अहारना કહેવામાં माया छे. 'त' जहा' ते या प्रमाये छे. 'पुढत्रीकाइया जाव वणस्नइकाइया' 'पृथ्वी अयि मने वनस्पति अ ' एवं एरण चैव चकएवं भाणियव्वा जाव वणरसइकाइया' मा रीते पृथ्वी अस्थिी ने वनસ્પતિકાય સુધીના એકેન્દ્રિય જીવેાના ચાર-ચાર ભેદે સમજવા જેમ કેસૂક્ષ્મ પૃથ્વીંકાયિક ૧ ખાદર પૃથ્વીકાયિક ર સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયના અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક અને પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક એ પ્રમાણે ખાદર પૃથ્વીકાયના પણ-ખાદર અપર્યાપ્તક પૃથ્વિકાયિક અને ખાતર પર્યાપ્તક
ભેદ તથા
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भगवतीसूत्र कायिकाः, पर्याप्ता वादरपृथिवीकायिका इत्येवमेकस्य पृथिवीकाधिकस्य चत्वारो भेदा भवन्ति । एवमेह अकायिकादारभ्य वनस्पटिकायिकान्तानामपि चतुष्को भेदः करणीय इति । 'अपज्जत सुहुमपुढवीकाइएणं भंते !' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खल्ल भदन्त ! 'इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्या रत्नमभायाः पृथिव्या, 'पुरथिमिल्छे चरिमरो' पौरस्त्ये चरमान्ते, पूर्वदिशाया अन्तिमे, भागे, 'समबहए' समबहतः, मारणान्तिकसमुद्घातं प्राप्तः। 'समोहणित्ता' समव. हत्य,-मारणान्तिकसमुद्धातं कृत्वा मृत्वेत्यर्थः, 'जे भविए' यो भव्य-योग्यः, 'इमीसे रयणप्पभाए, पुढलीए' एतस्या, रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'पंचस्थिमिल्ले चरिमंते' पाश्चात्ये-चरमांते, पश्चिमदिशाया अन्तिमे भागे इत्यर्थः 'अपज्जत्तसुहुम पुढशीकाइयत्ताए उचवज्जित्तए' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकतया उत्पत्तम् अपर्याप्त सक्षम पृथिवीकायिकजीवरूपेण उत्पत्तुम्, योग्य इति पूर्वेण सम्बंधः, अपर्यातक पृथिवीकायिक और बादर पर्याप्तक पृथिवीकायिक इस प्रकार से पृथिवीकायिक जीवों के चार भेद होते हैं। इसी तरह से अपकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के भी चार २ भेद कर लेना चाहिये। ____ 'अपज्जत्त सुहमपुढवी काइयाणं भते! हे मदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव 'इमीसे रयणप्पभाए पुढपीए' इस रत्नप्रना. पृथिवी के 'पुरथिमिल्ले चरिमंते' जो कि पूर्वदिशा के अन्तिम भाग में 'समयाहए' मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त हुआ है और 'समोहणित्ता जे भविए हमीसे रयणाभाए पुढवीए' मारणान्तिक समुद्घात करके वह इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'पच्चस्लिमिल्ले चरिमंते' पश्चि. मदिशा के अन्तिम भाग में 'अपज्जत्त सुहमपुढधीकाइयत्ताए' अपर्या. प्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है 'सेणं भते! कई પૃશવકાયિક આ રીતે પૃથ્વીકાયિક જીના ૪ ચાર ભેદો થાય છે. એ જ પ્રમાણે અષ્કાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવોના પણ ચાર-ચાર ભે સમજવા જોઈએ.
'अपज्जत्त सुहुमपुढविकाइएण भंते !' ७ सन् ४४ अपर्याप्त सूक्ष पृथ्वीयि । 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' 21 २नमा पृथ्वीना 'पुरथिमिल्ले चरिमंते !' २ पूशाना अतिम भागमा 'समह पए' भा२णान्ति समुहात प्राप्त ४२ छ भने 'समोहणित्ता जे भनिए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' भारान्ति समुधात ४शन ते मा २त्नमा पृथ्वीना 'पच्चस्थिमिल्ले' पश्चिम दिशाना मन्तिम मामा 'अपज्जत्त सहमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जेज्जा' मर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी थि४५ थी ५: थवान योग्य छे. 'से णं भंते ।
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प्रमैयर्चान्द्रका टीका शे०३४ अं. श०१ विनहगत्या एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३१७ 'से णं भले!" स खल्ल भदन्त ! योऽपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिको जीवः रत्नम. भायाः पूर्शन्ते मागे मारणांतिकसमुदातेन मृत्वा तस्या एव पश्चिमदिग्विभागे उत्पत्ति योग्यो विद्यते स जीवः, 'कइसमइएणं विगाहेण उवज्जेज्जा' कतिसाम यिकेन विग्रहेण उत्पद्येत । मरणोत्पत्त्योर्मध्ये क्रियान् समया भवन्तीत्यर्थः। 'भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगसमइएग वा, दुसमइएण at, विसाइएण वा विग्गणं उक्वज्जेज्जा' एकसामयिकेन बा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पधेत । विग्रहे वक्रगतो च तस्य सद्भावाद गतिरेव विग्रह: विशिष्टो वा ग्रहः-विशिष्टस्थानप्राप्ति रूपा गतिः विग्रह स्तेन, अथवा विग्रहो विलम्बस्तेन विग्रहेण, विग्रहयेव विशिनष्टि-एकसामयिकेन एका एक एव समयो धिने यत्रासौ एकसामयिक स्तेन एकसामयिकेन विग्रहेणेत्यर्थः एवं ही समयौ विधेते यत्रासौं द्विसामयिक स्तेन त्रयः समया विद्यते यत्रा स्तै त्रिसामयिक स्तेनेत्यर्थः । पुनः प्रश्नयन्नाह-से केणडेणं' इत्यादि । 'से केणटेणं समहएणं विगहेणं उववज्जेज्जा' वह जीव कितने समय की विग्रह गति से उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न का तात्पर्य ऐसा है कि कोई सक्षम अपर्याप्तक पृथिवीकायिक जीव जो कि रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्वदिशा के अन्तिम भाग में स्थित है। अब वह वहां से मारणान्तिक समुद्घात करके यदि पश्चिम दिशा के अन्तिम भाग में उसी पृथिवी के उत्पन्न होने के योग्य है तो वह कितने समय वाले विग्रह से वहां उत्पन्न होगा? अर्थात् मरण और उत्पत्ति के बीच में उसे कितना समय लगेगा? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! एगसमाएण वा दुसमइएण वा तिसमइएणचा बिग्गहेणं उपवज्जेजा' हे गौतम ! वह एक समयवाले विग्रह से भी वहां उत्पन्न हो सकता है, दो समय वाले विग्रह ले भी वहाँ उत्पन्न हो सकता है और तीन समय वाले विग्रह से भी वह वहां कइसमइएण विगहेण उत्रवज्जेज्जा' ते ७१ 241 समयनी वियड गतिथी ત્યા ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નનું તાત્પર્ય એવું છે કે—કેઈ સૂમ અપર્યાપ્તક પ્રવીકાધિક જીવ કે જે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ દિશાના છેલલા ભાગમાં રહેલ છે હવે તે ત્યાંથી મારા તિક સિદ્ઘ ત કરીને જે પશ્ચિમદિશાના છેલલા ભાગમાં એજ પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય છે તો તે કેટલા સમયવાળા વિગ્રહથી ત્યાં ઉત્પન્ન થશે ? અર્થાત્ મરણ અને ઉત્પત્તિ માં તેને કટલે સમય લાગશે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે ४ छ -'गोयमा ! एगसमइएण वा, दुखमइएण वा, तिरामइएणवा विगहेण उववज्जेम्जा' हे गौतम! a मे समयवाणा विरथी ५ त्या Gurd
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भंगवती भंते ! एवं बुच्चइ' तत्केनार्थेन हे भदन्त ! एनमुच्यते, 'एगसमइएणवा, दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा' एकसामयिकेन द्विसामयिकेन त्रिसामयिकेनवा विनहेणोत्पधेत । अत्र यावत्पदेन 'तिसामइएणवा विग्गहेणं' इत्यस्य संग्रहः, इत्यवान्तर प्रश्नः । भगवानाह-'एवं' इत्यादि । ‘एवं खलु गोयमा ! मए सत सेढीओ पन्नत्ताओ' एवं खलु हे गौतम ! मया सप्त श्रेणयः प्रज्ञप्ताः । एत्तत्मकरणं लोकनाडी प्रस्तीयभावनीयम् । श्रेणीना मति सक्षमतया दुर्विज्ञेयत्वात् असर्वज्ञेन जन्ममरणयोश्च ज्ञानुमतिदुष्करत्वात् एतादृश्य श्रेणी जन्म मरणं च प्रतिपादता भगवता स्वस्मिन् केवलित्वं सूचर्या बभूव 'मए' इति वदता । सप्त श्रेणीरेव विभागशोदर्शउत्पन्न हो सकता है । "से केण्टेणं भंते ! एवं बुच्चा एगसमइएण वा दुसमइएणवा जाव उववज्जेज्जा' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह एक समय वाले विग्रह से अथवा दो समय वाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न हो सकता है ? ऐसा यह अवान्तर प्रश्न है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं खलु गोयमा मए सत्तसेढीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही हैं। यह प्रकरण लोकनाडी को प्रस्तुत करके अर्थात् लोकनाडी का आकार (नशा) बना करके समझना चाहिये। श्रेणियाँ अति सूक्ष्म हैं इससे उनको जानना बहुत ही कठीन है । वे दुर्विज्ञेय हैं असर्वज्ञ जीव जन्म
और मरण को जान नहीं सकता है। अतः ऐसी श्रेणियों को एवं जन्म मरण को प्रतिपादन करने वाले भगवान् ने अपने में केवलित्व का सर्वज्ञत्वका सूचन 'मया' इस पद द्वारा किया है वे सोत श्रेणियां इस થઈ શકે છે બે સમયવાળા વિગ્રહથી પણ ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. भने त्रा समयवाणा विडथी ५ त्यांप-न थ.य छे. 'से केणट्रेण भंते ! एव वुच्चइ एगसमइएणण वा' जात्र उववज्जेज्जा' लगवन् આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે તે એક સમયવાળા વિગ્રહથી ત્યા ઉ પન્ન થઈ શકે છે. અથવા બે સમયવાળા વિગ્રહથી અથવા ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહથી પણ ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે? આ રીતના આ અવતર પ્રશ્નના उत्तम असुश्री गौतमस्वामीन छेडे-'गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ' હે ગૌતમ! મે સાત શ્રેણી કહી છે. શ્રેણ અત્યંત સૂક્ષમ છે. તેથી તેને સમજવું ઘણું કઠણ છે કારણ કે તે દુવિય છે. અસર્વજ્ઞ જીવ જન્મ અને મરણ ને જાણી શકતા નથી. તેથી એવી શ્રેણિયાને અને જન્મમરણનું પ્રતિપાદન કરવાવાળા ભગવાને પિતાનામાં કેવલિપણાન-સર્વજ્ઞપણાનું સૂચન “માએ मे ५६ वा ४यु छे. ते सात श्रेणिय। २मा प्रमाणे छ.-'उज्जुयायया सेढी'
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ विनहगत्या पकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३१९ यन्नाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'उज्ज्जुयायया सेढी' ऋज्वायता श्रेणिः सरला लम्बायमाना या श्रेणिः सा ज्यायता श्रेणिः 'सेढी' ति शब्दः सर्व. प्रापि अन्वेतपः 'एगयओ बंका' एकतो का एकतः कुटिछेत्यर्थः 'दुहमो चंका' द्विधात उभयतो वक्रेति तृतीया श्रेणि रिति३ । 'एगपओ खहा एकता खा-एकस्मिन् भागे प्रस नामकनाडी रहीताकाशवती श्रेणिः४ दुहओ खा' द्विधात उभयता खाउभय पार्श्वयो स्वसनाडी रहिताकाशवत्री श्रेणिः ५, 'चकवाला' चक्रवाला, मण्डलाकारसमाना ६, 'अद्ध चक्कनाला' अर्द्धचक्रवाला-अर्द्धमण्डलाकारेत्यर्थः ७। ता एताः सप्तश्रेणयो भवन्तीति । अथ यदर्थमियं श्रेणिर्दशिता तत्कार्य दर्शयतिप्रकार से हैं-'उज्जुयाययासे ढी' ऋज्वायता श्रेणि-जो सीधी लम्बी श्रेणि है वह ऋज्वायता श्रेणी है ! श्रेणि यह शब्द सर्वत्र लगा लेना चाहिए-'एगयओ वंका' एक तरफ जो श्रेणि वक्र होती है वह एकतो यका श्रेणी है। 'दुहओ वंका' द्विधावक श्रेणी जो-श्रेणी दोनों तरफ चक्र होती है वह द्विधा वक्र श्रेणी है । 'एगयओ खहा' एक तरफ जो श्रेणि त्रस नाडी से रहित होती है और केवल आकाशवाली होती है ऐसी वह एकतः खा श्रेणी हैं । 'दुहओ खा' दोनों तरफ जो श्रेणि प्रस नाडी से रहित होती है और केवल अकाशवाली होती है वह द्विधा खा आणि है। 'चक्कवालो' जो श्रेणि मण्डलाकारवाली होती है वह चक्रवाला श्रेणि है । जो श्रेणि उर्द्ध मण्डलाकारवाली होती है वह श्रेणि अर्द्ध मण्डलाकार वाली होती है, वह श्रेणी अर्द्ध चक्रवाला हैं । इस प्रकार से श्रेणियां सात होती हैं ! 'उज्जु आययाए से ढीए उवधज्जमाणे एगसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' जो पृथिवीकायिक जीव ऋज्वायत श्रेणि से उत्पन्न होता हैं वह एक समय वाले વા વાયતા શ્રેણી કે જે સીધી લાંબી શ્રેણિ છે શ્રેણિઆ શબ્દ બધે જ લગાડી देवानन्ये 'एगयओवका' मे त२६ २ श्रेणी isी थाय छे. 'दुहओवका' દ્વિધાવક શ્રેણી કે જે શ્રેણી બને તરફથી વાંકી હોય છે, તે પ્રિધાન શ્રેણી हेवाय छे. 'एगयओ खहा' से त२५ २ श्रेणी सना पिनानी काय छ, स व माशवाणीय छ, सवीत मेत: मा श्रेणी छे. 'हलोखा' બને તરફથી જે શ્રેણી ત્રસનાડી રહિત હોય છે અને કેવળ આકાશવાળી હોય છે, તે દ્વિધા ખા શ્રેણી કહેવાય છે નવાઝા જે શ્રેણી મંડલાકાર વાળી દેય છે, તે ચકવાલા શ્રેણિ કહેવાય છે જે શ્રેણિ અર્ધ મલાકારવાળી હોય છે, તે અર્ધ ચકવાલા શ્રેણી કહેવાય છે. આ રીતે સાત શ્રેણી થાય छे. 'उज्जु आययाए सेढोए उबवजमाणे पगसमएणं विगहेण उववज्जेज्जा'
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भगवतीस्त्रे । 'उज्जु भाययाए' इत्यादि, 'उज्जु आश्याए सेढीए उबवज्जमाणे एगसमएणं विगहेणं उबवज्जेज्जा' ज्वायतया श्रेण्या उत्पद्यमानो जीव एक सामयिकेन विग्रहेण उत्पधे । यदा मरण स्थानापेक्ष्या उत्पत्तिस्थानं समāण्यां भवति, तदा ऋज्वायता श्रेणि भवति । तथा ज्वायत श्रेण्या गच्छतो जीवस्य एक सामयिक की गति भवतीति भावः । 'एगभो वंकाए सेहीए उववज्जमाणे दूसमइएणं विग्गहेण उबवज्जेन्जा' एकतो वक्रया श्रेण्या उम्पद्यमानो जीवो द्विसामयिकेन विग्र . हेण उत्पद्यत । यदा तु मरणस्थानापेक्षया समुत्पत्ति स्थानमे करतरे विश्रेण्यां वर्तते तदा एकतो चक्रा गतिः स्पात, तत्र च समयद्वयेन गति भवति इतिभाव । 'दहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे ति समइएणं विग्गहेणं उबवज्जेज्जा, द्विधानो वक्रया श्रेण्या उत्पधमानो जीव स्त्रिसामयिकेन विभहेण उत्पद्येत। यदा तु मरण विग्रह से उत्पन्न होता हैं-तात्पर्य इसका ऐसा है कि जब मरण स्थान की अपेक्षा उत्पत्ति स्थान समणि में होता है तब ऋज्वायत श्रेणि होती है। इस ऋज्वायत श्रेणि से गमन करता हुआ जीव एक समय की गति वाला होता हैं। 'एगओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमह. एणं विग्गण उवधज्जेज्जा' और जब जीव एक तो वक्र श्रेणि से उत्पन्न होता है तब वह दो समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि जब मरणस्थान से समुत्पत्ति स्थान एक प्रतर में विश्रेणी में होती है तब एकतो वक्रागति होती है । इस श्रेणि में समय द्वय से गति होती है । 'दुहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमहएणं विग्गहेणं उववज्जेजa' जीव जब विधायक श्रेणि से उत्पन्न होता है तय
જે પૃથ્વીક યિક જીવ જવાયત શ્રેણીથી ઉત્પન્ન થાય છે તે એક સમયેવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે.
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્યારે મરણ સ્થાનની અપેક્ષાથી ઉત્પત્તિ સ્થાન સમ શ્રેણીમાં હોય છે, ત્યારે ત્રાજવાયત શ્રેણી કહેવાય છે. આ ત્રાજવાયત श्रेया तो मेवा १४ समयनी गतिवाणी डाय छे. 'एगओ व काए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएण विमाहेण उवबज्जेज्जा' भने न्यारे 4 એક વકશ્રેણિથી ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે બે સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્યારે મરણ સ્થાનમાં ઉત્પન થતી એક પ્રતરમાં વિશ્રેણિમાં હોય છે ત્યારે એકતે વફા ગતિ થાય છે. આ श्रेरिमा मे समयथी गति थाय छे. 'दुइओं वकाए सेढोए उबवज्जमाणे तिसमइएण विग्गहेण उववज्जेज्जा' ७१ क्यारे द्विधा श्रेणीथी अपन्न थाय छ,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ उ.१ अ, श,१ १.१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३२१ स्थानात्समुत्पत्ति स्थानम् अधस्त ने उपरितने वा मतरे विश्रेण्यां भवेत् तदा द्वि. चक्राश्रेणिः स्यात्, तत्र च समयत्रयेन समुत्पत्तिस्थानस्य प्राप्तिर्भवेदिति भावः । ___'से तेणटेणं गोयमा! जाव उववज्जेज्जा' तत्तेनार्थेन हे गौतम ! यावद् उपघेत । अत्र यावत्पदेन एवमुच्यते, एकसामयिकेन वा, विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, विग्रहेणोत्पन्नस्य प्रकरणम्य संग्रहो भवति । 'अपज्जत्त सुहुम पुंढवीकाइया णं भंते !' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्था :रत्नमभायाः पृथिव्याः, 'पुरस्थिमिल्ले चरिमते समोहए' पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः मरणान्तिकसमुद्घातेन समवहननं कृतवान् मृत इत्यर्थः । 'समोहणित्ता जे भविए इमीसे रथणप्पभाए पुढवीए' समवहत्य वह तीन समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह है कि जब मरण स्थान से समुत्पत्ति स्थान नीचे के अथवा ऊपर के प्रतर में विश्रेणी में होता है तब द्विवक्रा श्रेणी होती है ! वहां तीन समय में समुत्पत्ति स्थान की प्राप्ति होती है। 'रखे तेणटेणं गोयमा ! जाच उवचज्जेज्जा' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वह एक समय वाले दो समय वाले अथवा तीन समय वाले विग्रह से वह उत्पन्न हो सकता है। - 'अपज्जत्त सुहम पुढवीकाझ्या णं भंते !' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव इमीसे रयणप्पभाए पढवीए' इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'पुरस्थिमिल्ले चरिमंते' पूर्वदिशा के अन्तिम भागमें 'समोहए' मरा 'रूमोहणित्ता' और मरकर वह 'जे भथिए इमीले रय
ત્યારે તે ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહ (શરીર)થી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તા એ છે કે-જયારે મરણું સ્થાનથી ઉ૫ત્તિસ્થાન નીચેના અથવા ઉપરના પ્રતરમાં વિશ્રેણીમાં હોય છે. ત્યારે “દ્વિધાdવક્રમ શ્રેણું થાય છે ત્યાં ऋण समयमा उत्पत्ति स्थाननी प्राति थाय छे. 'से वेणट्रेण गोयमा ! जाव उचवज्जेज्जा' ते १२४थी गौतम । में से यु छ -ते से समयवाणा બે સમયવાળા અથવા ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહ-શરીરથી ઉપન થઈ શકે છે,
'अपज्जत्त सुहुम पुढवी काइयाण भ ते | सन् १४ मपनि सूक्ष्म वीयि ४१ 'इभीसे रयणपभाए पुढवीए' मा २त्नमा थ्वीना 'पुरथिमिल्ले चश्मिते' पूर्व हिशान मतम सागमा 'समोहए' भ२५ पामे 'समोहणित्ता' भने भ२ पामीन 'जे भविए इभीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्च.
५० ४१
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भगवती सूत्रे मारणान्तिक युद्धात कृत्वा यो भव्यः-योग्यः एतस्या रत्नप्रमायाः पृथिव्याः 'area चरिमंते' पाश्चात्ये चरमान्ते, 'पज्ञत्त सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उज्जत' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकारिकतया उत्पत्तुम्, 'से णं भंते ! कइसम - एवं चिग्गदेणं उज्जेना' स खलु भदन्त ! जीवः - कति सामयिकेन विग्रहेणो-स्वद्येतेति मनः । सगवानाह - 'जोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगसम इचा से संचे' एकसामयिकेन वा शेष ं तदेव प्रतिवचनावसरे पूर्वमकरणव अवाध्येतव्यम् । ऐ गौतम । एकसामविकेन वा विग्रहेण द्विसामयिकेन वा विग्रहेण विसामयिकेन वा, विग्रहेण उत्पद्येत । कियस्पर्यन्तं पूर्वमकरणम् इद्द ज्ञातव्यं तत्राह - 'जाव' इत्यादि । जाव से तेणट्टेणं' यावत्तत्तेनार्थेन, अयमाशयः सामायिकेन त्यारभ्य 'से केणोगं' इत्यादि प्रश्न स्तदुत्तरं चात्र पूर्ववद्वाच्यम् । 'सेतेाद्वेणं जाव विग्गणं उववज्जेज्जा' यावद हे गौतम! तत्तेनार्थेन एवमुच्यतेएकसामयिकेन वा द्विसामयिकेन वा त्रिसामायिकेन वा, विग्रद्देण उत्पद्येत इति २ ।
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पाप पुढची पञ्चस्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तसुहुम पुढत्रिकाइय साप उचयज्जितए' इसी रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम दिशा के अन्तिम भाग में पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो 'से णं भंते! कहसमहणं विग्गणं उववज्जेज्जा' हे भदन्त ! वह कितने समय वाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! एसइएण वा सेसं तं चेव' हे गौतम ! वह वही एक समयवाले विग्रह से अथवा दो समय वाले विग्रह से अथवा तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है । 'जाव से तेणद्वेणं जाव विग्गहेणं उवयज्जेज्जा' ऐसा यह सच कथन वहां तक कर लेना चाहिये कि जहाँ गौतमस्वामी के पूछने पर प्रभुश्री ने गौतमस्वामी से ऐसा कहा है कि हे गौतम ! मैंने इस कारण से ऐसा कहा है कि वह
त्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्त सुहुमपुढवीक इयत्ताए उववज्जित्तए' मा रत्नप्रभा પૃથ્વીના પશ્ચિમ દિશાના છેલ્લા ભાગમાં પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિક પણાથી उत्पन्न थताने येग्य होय तो- 'सेणं' भवे ! कइसमइरण विग्गहेण उत्रवज्जेज्जा' હે ભગત્રમ્ તે કેટલા સમયવાળા વિગ્રહ (શરીર)થી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभु श्री हे छे - गोयमा । एगसमएण वा सेख तचेत्र' હે ગૌતમ ! તે ત્યાં એક સમયવાળા વિગ્રહ (શરીર)થી અથવા એ સમયવાળા विश्ररुथी उत्पन्न थाय छे 'जाव से तेणट्टेण जाव विगाहेण उववज्जेज्जा' मा પ્રમાણેનુ તે સઘળુ" કથન ત્યાં સુધી કહેવુ જોઈએ જયાં સુધી ગૌતમસ્વામીના પૂછવાથી પ્રભુશ્રી એ ગૌતમ્વામીને એવુ કહ્યુ છે કે-હે ગૌતમ! મેં
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प्रलयचन्द्रिका ठीका श०३४ ६.१ अ. श.१ ०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३३३
‘एवं अपज्जत्त सुहुम पुढपीकाइओ पुरथिमिल्ले चरिमंते सयोहणावेत्ता पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते बायरपुत्रीकाइसु अपज्जत्तएम उदवाएययो' एवं यथाअपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकस्य रत्नममापृथिव्याः पूर्वभागात् समवहननानन्तरं रत्नप्रभापृथिव्याः पश्चिमभागे पर्याप्त सक्षमपृथिवी कायिकेषु उपपातो दर्शिन तथा अपर्याप्त सूक्ष्म पृयिवीकायिकः तं पौरस्त्ये चरमान्ले समवघात्य-तस्य समुद्घातं करियित्वा पाश्चात्ये चरमान्ते वादरपृथिवीकायिकेषु अपर्याप्तके पु उपपातयितव्यः । अपर्याप्त मूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वचरम भागे समबहतः समवहत्य यः खलु रत्नपसायाः पश्चिमे भागे अपर्याप्त बाहर एक समयवाले दो लमयवाले अथवा तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है।२
'एवं अपज्जत लुहमपुढविक्राइओ पुरथिमिल्ले चरिमंते लमोहणा. वेत्ता पच्चथिमिल्ले चरिमंते बायर पुढवीकाइएस्सु अप जत्तएप्लु उपधाएययो' जैसा अपर्याप्त स्मृक्षन पृथिवी कायिक सा रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व भाग से समुद्धात होने के अनन्तर रत्नममा पृथिवी के पश्चिम भाग में पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकारिकों में उपपात दिखाया है उली प्रकार से-वैसा ही-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकका पूर्व दिशा के बहमान्त में समुद्घात करवा कर पश्चिमदिशा के चरमान्त में अपर्याप्त वाद पृथिवीकाथिकों में उत्पाद दिखलाना चाहिये । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार ऐसा है-हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक जीव रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरम भाग में मरा और मरकर वह रत्नप्रभापृथिवी के पश्चिम भाग में अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न તે કારણથી એવું કહ્યું છે કે-તે એક સમયવાળા, બે સમયવાળા અથવા ત્રણ સમયવાળા વિગ્રડ (શરીર)થી ઉત્પન્ન થાય છે.
"एवं अपज्जत्त सुहुम पुढविकाइओ पुरथिमिल्ले चरिमते सभोहणावेत! पच्चस्थिमिल्ले चरिमते! बायरपुढविकाइएसु अपज्जत्तएसु उववाएयव्यो' અપર્યાપ્તક સૂફમ પૃશ્વિકાયિકને રતનપ્રભા પૃવિના પૂર્વ ભાગથી સમુદઘાત થયા પછી રતનપ્રભા પૃવિના પશ્ચિમ ભાગમાં પર્યાપ્તક સૂફમપૃથ્વીકાયિકામાં ઉપપાત જે પ્રમાણે બતાવ્યું છે, એજ પ્રમાણે અપર્યાપ્તક સૂમ પૃથ્વિકાયિક ને પૂર્વ દિશાના ચરમાન્ડમાં સમુદુઘાત કરાવીને પશ્ચિમ દિશાને ચરમાતમાં અપર્યાપ્તક બાદર પૃવિકાયિકોમાં ઉત્પાદ બતાવો જોઈએ. આ સ બ ધમાં આલાપને પ્રકાર આ પ્રમાણે ને છે-હે ભગવન કોઈ અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મપ્રશ્વિી કાવિક જીવ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વે ચરમ ભાગમાં મરણ પામે અને મરણ
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भ
ફક
पृथिवीकायिकेषु समुत्पत्तु योग्यः स खलु भदन्त । कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यते ? हे गौतम ! यदि ऋज्वायतया श्रेण्या उत्पद्यते, तदा एकसामयिकविग्रहेण, एकतो वक्रया जायमानो द्विसामयिकेन विग्रहेण द्विधातो वक्रया जायमानखिपामयिकेन रिग्रहेण जायते इत्यादिकं पूर्ववदेव सर्वज्ञ | तव्यमिति ३ । त। तेसु चैत्र पज्जत्तए १ तदा तेष्वेव पर्याप्तकेषु उपपातो वक्तव्यः ।
तथाहि - हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्न पृथिवीकायिकः रत्नममायाः पश्चिमे चरमान्ते पर्याप्तवादर पृथिवीकायिकतया उत्पत्तियोग्यो भवेत् । स खलु कियसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत ? हे गौतम! एकसामयिकेन वा द्विसामयिकेन वा, सामयिकेनवा, विग्रहेण उत्पथेत इत्यादिकं सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति ४ । होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? गौतम । यदि वह ऋज्वायत श्रेणि से वहां उत्पन्न होता है तो एक समय वाले विग्रह से, एकतो वक्रा श्रेणि से यदि उत्पन्न होता है तो दो समय वाले विग्रह से और यदि वह वहां द्विधा तो वा श्रेणी से उत्पन्न हुआ है तो वह तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है इत्यादि सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही जानना चाहिये ३ |
'ताहे तेसु चैव पज्जत्तएस' हे भदन्त । कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्वचरम भाग में मरा और मर कर वह रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमभाग में पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह किनने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम! वह वहां एक પામીને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના છેલ્લા ભાગમાં અપર્યાપ્ત ખાદર પૃથિવિકાયિકેમાં ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય થયા હોય તેા હૈ ભગવન્ તે ત્યાં કેટલા સમય વાળા વિગ્રહ (શરીર) થી ઉત્પન્ન થાય છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમાં જો તે ૠજવાયત શ્રેણીથી ત્યા ઉપન્ન થાય છે, તે એક સમયવાળા વિગ્રહથી (શરીર)થી, એકતાવકા શ્રેણીથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે તે ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે. વિગેરે પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યાં પ્રમાણે જ સમજી લેવું. ૩
'ताहे तेसु चैव पज्जत्तएसु' हे भगवन् अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्विअधि४ જીવ રત્નપ્રભાપૃથ્વીના પૂર્વ ચરમ ભાગમાં મરણ પામે અને મરીને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વિના પશ્ચિમ ચરમભાગમાં પર્યાપ્ત માદર પૃથ્વિકાયિકામાં ઉત્પન્ન થવાને થયા યા હાય તેા હે ભગવન્ તે કેટલા સમવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય
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प्रमेयमन्द्रिका ठीका श०३४ उ.१ अ. श.१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३२५ __'एवं आउक्काइएस्सु चत्तारि आलावगा-सुमेहिं अपज्जत्तएहि १, ताहे पज्जत्तएहि २, वायरेहिं अपज्जत्तरहिं ३, ताहे पज्जत्तएहि उववाएयवो ४, एवं पृथिवी कायवदेव अप्कायिकेषु चत्वार आलापकाः, सूक्ष्मपर्याप्तकैः १, तदा पर्याप्तकैः २, वादरैः अपर्याप्तकै ३, तदा पर्याप्तकैः ४, उपपातयितव्यः । हे भदन्त ! अपर्याप्तसूक्ष्म पृथिवीकायिकः अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वचरमान्ते समवहतः समवहत्य रत्नप्रभायाः पश्चिमे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्माकायिकतया समुत्पत्तियोग्यः स कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत ? इति प्रश्नं कृत्वा हे गौतम ! एक सामयिकेन यावत् त्रिसामयिकेन पिनहेगोत्पधेत । इत्याधुतरं पूर्ववदेवेति प्रथम समय वाले विग्रह से अथवा दो समय वाले विग्रह से अथवा तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है । इत्यादि सब कथन पूर्व के जैसा ही जानना चाहिये ।४॥ ___ 'एवं आउक्काइएस्सु चत्तारि आलावगा सुहुमेहिं अपज्जत्तएहिं १ ताहे पज्जत्ता शायरेहि अपज्जत्तएहिं ३ ताहे पज्जत्तएहि उववाएयवो४' इसी प्रकार से अप्कायिकों के चार आलापक कहलेना चाहिये। जैसे-हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकोयिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा और मरकर वह रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक रूप से उत्पत्ति के योग्य हुआ तो हे भदत्त ! वह वहाँ :कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! वह वहां एक समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! તે હા એક સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા બે સમયવાળા વિગ્રહથી અથવા ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહથી ઉતપન થ ય છે વિગેરે સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું જ
एवं आउक्काएसु चत्तारि आलावगा सुहमे हि अपज्जत्तएहि उपवाएरवो।' આજ પ્રમાણે અષ્ઠાયિકાના સ બ ધમાં ચાર આલાપકે કહેવા જોઈએ જેમ કે હે ભગવન કોઈ અપર્યાપ્ત સૃહમ આપકાયિક જીવ આ રત્નપ્રભા પ્રથિવીના પૂર્વ ચરમાન્ત ભાગમાં મરણ પામે અને મરણ પામીને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમન્ત ભાગમાં અપર્યાપ્ત સૂકમ અપ્લાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને
ગ્ય થવો હોય તે હે ભગવનું તે ત્યાં કેટલા સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! તે ત્યાં એક સમયવાળા વિગ્રહથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. બે સમયવાળા વિગ્રહથી
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સરદ
भगवती
आकापकः १, हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः रत्नप्रभा पूर्वचरमान्ते समवहत्य रत्नप्रभा पश्चिमचरमान्ते पर्याप्त सूक्ष्माकायिकतया उत्पत्ति योग्यः सकियत्सामयिकविग्रहेण उत्पद्येत १, गौतम ! एकसामयिकेन वा यावत् त्रिसा मयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत इत्यादिकं पूर्ववदेवेति द्वितीय आलापक: २, हे मदन्त अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिको रत्नप्रभा पूर्वचरमान्ते समवइत्य रत्नप्रभा पश्चिम चरमान्ते अपर्याप्तवादरापूकायिकतया उत्पत्तियोग्यः स कियत्सामायिकेन विग्रहेणोत्पद्येत ? उत्तरम् एवमेवेति तृतीय आलापक: ३ हे भदन्त ! अपर्याप्त तीन समय वाले विग्रह से भी होता है इत्यादि रूप से प्रश्न और उत्तर पूर्वोक्त अनुसार जानना चाहिये ऐसा यह प्रथम आलापक है । हे भदन्त । कोई पर्यंत सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव रत्नप्रभा के पूर्व चरमान्त में मरा और रत्नप्रभा के ही पश्चिम चरमान्त में पर्याप्त सूक्ष्म अष्कायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम! वह वहां एक समय वाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो समय वाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है । तीन समय वाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और चार समय वाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है ऐसा यह द्वितीय आ लापक है २ । हे भदन्त ! कोई अपर्धातक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में बादर अपर्याप्त रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त | वह वहां कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होगा ? गौतम इस विषय में उत्तर जैसा ऊपर कहा गया है
પણ ઉત્પન્ન થાય છે, અને ત્રણ સમવવાળા વિગ્રહથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, ઈત્યાદિ પ્રકારથી પ્રશ્ન અને ઉત્તર પહેલાં કહ્યાં પ્રમાઘે સમજવા. એ પ્રમાણેના આ પહેલેા આલાપક કહ્યો છે.
તે
હે ભગવન્ કાઈ અપર્યાપ્તક કાયિક જીવ રત્નપ્રભા પૃથિવીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણ પામે અને રત્નપ્રભા પૃથિવીના જ પશ્ચિમ ચક્રમન્તમાં પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય બન્ચે હાય તે! હે ભગવન્ ત્યાં એક સમયવાળા વિગ્રહથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, એ સમયવાળા વિશ્રહથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, એજ પ્રમાણેના આ બીજો આલાપણ કહેલ છે. ૨. હું ભગવન કેાઈ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અપ્સાયિક જીવ રત્નપ્રભાપૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણ પામે અને મરણ પામીને તે રત્નપ્રભાપૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ખાદર અપર્યાપ્તક રૂપથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય થયેા હેાય તે હે ભગવત્ તે ત્યાં કેટલા સમયના વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ ३.१ अ. श.१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३२७ सूक्ष्म पृथिवी कायिकः रत्नममा पूर्वचरमान्ते समवहत्य रत्नप्रभा चरमान्ते पर्याप्त बादराफायिकखया उत्पत्ति योग्यो विद्यते स कियत्सामयिकेन विग्रहेण समुत्पघेत इति प्रश्नस्योत्तरं पूर्ववदेवेति चतुर्थ आळापकः ४, तदेवं चत्वार आलापका अपकायिकेषु समुत्पद्यमानस्य भवन्तीति । 'एवं चेव सुहुमतेउकाइएहि वि अपज्ज: तपहि ताहे पज्जत्तएहि उपाएयचो' एवमेव सूक्ष्मतेजस्कायिकैरपि अपर्यप्तकै स्तदैव पर्याप्तकै रूपपातयितव्यः । ___ तथाहि-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! रत्नमभापूर्वचरमान्ते समवहत्य रत्नभभायाः पश्चिमचरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक: वैसा ही है। ऐसा यह तृतीय आलापक है। हे भदन्त ! कोई अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीज्ञायिक जीच रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा
और वह रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में पर्याप्त बादर अकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो वहां पर वह कितने समय; थाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! इस सम्न्ध में भी उत्तर कार में कहे गये अनुसार ही जानना चाहिये। इस प्रकार से यह चतुर्थ आलापक है। यही बात 'सुहुमेहि अपज्जत्तएहि' आदि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। 'एवचेव सहमतेउकाइएहिं वि अपज्जत्तएहिं ताहे पजत्तएहि उवाएयव्यो' इसी प्रकार से सक्षमतेजस्कायिक अपर्याप्त और पर्याप्त में उपयोग कहना चाहिये। जैसे-हे भदन्त ! कोई अपर्याप्तक પ્રભુશ્રી કહે છે કે-ગૌતમ ! આ સંબધ ને ઉત્તર ઉપર કહ્યો છે તે જ પ્રમાણે છે તેમ સમજવું એ રીતે આ ત્રીજે આલાપક કહેલ છે. ૩
હે ભગવન કોઈ અપર્યાપ્તક અચ્છાયિક જીવ રત્નપ્રભાપૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્ડમાં મરણ પામે અને મરીને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં પર્યાપ્તબાદર અકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય બન્યા હોય તે તે ત્યાં કેટલા સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! આ સંખ ધમાં પણ ઉત્તર ઉપર કહયા પ્રમાણે જ समन. माशते । न्याय। गासा५४ ४३८ छ ४ मे पात 'सहमे हिं अपजत्तएहि' विशेरे सूत्र५४ ६॥२प्रगट रेत छ
व सहम तेउ काइरहि वि अपज्जत्तपहिं ताहे पज्जत्तहि उववाएयव्वों' એજ પ્રમાણે સૂકમ તેજસ્કાયિક અપર્યાપ્ન અને પર્યાપ્તમાં કહેવા જોઈએ. એટલે કે-અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના ભેદને લઈને સૂમ તેજક યિકનું કથન કરવું જોઈએ અયિકના કથન પ્રમાણે જ આ તેજસ્કાયિકના કથનમાં પણ ચાર આલાપક થાય છે. જેમ કે-હે ભગવન કેઈ અપર્યાપ્તક સૂમ તેજરકાચિક
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।
मगवतासूत्र तया समुत्पत्तियोग्यो विद्यते स कियत् सामयिक विग्रहेण उत्पद्यते त्यादि क्रमेण पूर्वोदित प्रश्नोत्तराभ्यां प्रथम आलापकः १, स एव पर्याप्त सक्षम तेज स्काथिकेषु समुत्पत्तियोग्यः इत्यादि क्रयेण द्वितीय आलापका ज्ञ तव्यः । अप. ज्जत्त सुहुम पुढवीकाइएणं अंते !' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खल भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए पुरस्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' एतस्या रत्नपभाया सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव रत्नप्रभा के पूर्व चरमान्त में मरा और मर कर वह रत्नप्रभापृथिवी के पश्चिम चरमान्त में सूक्ष्म तेजस्कायिक के अपर्याप्त रूप से उत्पत्ति के योग्य हुआ तो वह हे भदन्त ! कितने समय . वाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता हैं ? इत्यादि कम से पूर्व में कहे गये प्रश्न और उत्तरों को लेकर यहां प्रथम आलापक कह लेना चाहिये । हे भदन ! कोई अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव रत्नप्रभा के पूर्व चरमान्त में मरा और मरकर वह रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चर. मान्त में पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों में उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो वह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है इत्यादि क्रम से द्वितीय आलापक होता हैं यहां जो बादर अपर्याप्त और बादर पर्याप्त में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में इलके जो दो भंग नहीं कहे गये हैं उसका कारण वहां बादर तेजस्कायिकों का अभाव है । 'अपज्जत्त सुहुम पुढवी काइएण भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्तक सूक्ष्न पृथिवीकायिक जीव इस
જીવ રત્મપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાતમાં મરે અને મરીને તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાતમાં એજ રૂપથી ઉત્પત્તિને ચગ્ય થયેલ હોય ને તે હે ભગવદ્ કેટલા સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે? વિગેરે કમથી પહેલા કહેલા પ્રશ્નો અને ઉત્તરે લઈને અહિયાં પહેલે આલાપક કહે જોઈએ.
હે ભગવન કેઈ અપર્યાપ્તક સૂક્ષમ તેજસ્કાયિક જી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વચરમાતમાં મરણ પામે અને મરીને તે રત્નપ્રભા પૃથ મીના પશ્ચિમચરમાન્તમાં પર્યાપ્ત સૂમ તેજસકાયિકમાં ઉત્પન્ન થવાને એગ્ય બન્યો હોય તે તે હે ભગવાન કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? વિગેરે કમથી બીજે આલાપ સમજે. અહિયાં જે બાદર અપર્યાપ્ત અને બાદર પર્યાપ્તમાં ઉત્પન્ન થવાના સમ્બન્ધમાં તેના જે અંગે કહ્યા નથી. તેનું કારણ એ છે કે ત્યાં બાદર તેજસ્કા थिोनी मसाव छ 'अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइएण भते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरस्थिमिल्ले चरिमते समोहए भगवन् मयत सूक्ष्मपृथ्वीयि लव
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प्रमेयचन्द्रिका मा ०३४ अ. श०१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३२९: पृथिव्याः पौरस्न्ये चरणान्ते समबहतो मारणान्तिकसमुद्घातेन मृन इत्यर्थः । 'समोहणित्ता जे भविए अणुस्सखेत्ते' समवहत्य-मृत्या, यो भव्यो योग्यः मनुष्य क्षेत्रे, 'अपज्जत वायरसेउकाइयत्ताए उपयज्जितए' अपर्याप्त वादरतेजस्कायिक सया उत्पत्तुं योग्य इति पूर्वेण सम्बन्धः 'से णं भंते ! कइशाम इएणं विग्गहेणं उस
जेज्जा' स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेणोत्पच तेति प्रश्नः । उत्तरमाइ. 'सेसं त चेव' शेष तदेव पृथिवीकायिकामारिकेषु उत्पत्तिविषये अदुत्तरितं तदेवः एकसामयिकेन बा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयि के न वा, विग्रहेणोल्पधेत इत्या. दिकं सर्व पूर्ववदेवेति । एवं पिज्जत वायरते उक्काइयत्ताए उवाएयबो' एवम् रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरसान्त में दश समोहणिरा! जे अधिए मणुराम खेत्ते अपज्जत्त घायर ते नसाइयत्ताए उबज्जित्तए' और भरकर घर मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बाद तेजस्ज्ञायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ 'लेणं भंते ! समाइएणं विरगणं उपज्जेज्जा' तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयक्षाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! 'सेख तं चे' पृथिवी कायिकों में उत्पत्ति होने के विषय में जो उत्तर दिया गया है वही उत्तर यहाँ पर भी समझना चाहिये अर्थात वह वहाँ एक समयबाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो समय चाले विग्रह से भी उत्पन्न रोताद और तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है । 'एवं पज्जत्त बाथरतेउनकाइयत्ताए उच्चपाएयव्यो' इसी प्रकार से यहां ऐसा भी कह लेना चाहिये कि हे अदला! कोई अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व घरमान्त में मरा
मा रत्नमा पृथ्वीना पूर्व य२मान्तमा भरणामे मन 'समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपाजत्त बायरते उकाइयात्ताए उववज्जित्तए' मने मरीन ते मनुष्यક્ષેત્રમાં અપર્યાપ્ત બાદર તેજરકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય થયેલ હોય तो 'से णभंते ! कइ समइएण' विग्गहेण उववज्जेज्जा' । सन् ते त्यां કેટલા સમયવાળી વિગ્રગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छे 2-गौतम ! 'सेस तचेव' पृथयम 64न्न यवाना स धमा જે પ્રમાણે ઉત્તર કહે છે, તે જ પ્રમાણેનો ઉત્તર અહિયાં પણ સમજો અર્થાત્ તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન થ ય છે, બે સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, અને ત્રણ સમયવાળીવિગ્રહ ગતિથી ५ अत्पन्न थाय छ, 'रव पज्जत्तवायरवे उकाइयात्ताए उववाए यव्यो' से प्रभारी અહિયાં એવું પણ કહેવું જોઈએ કે-હે ભગવન કોઈ અપર્યાપ્શક સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવ આ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વચરમાતમાં મરણ પામેલ હોય
भ० ४२
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ICTATEMBER
भगवती पूर्वदर्शित क्रमेण पर्याप्त वादरतेजस्कायिकतया उपपातयितव्यः, यथा-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीवस्य, अपर्याप्त पादरतेजस्कायिकेषु उपपातो दर्शित. स्तथैव पर्याप्त बादरतेजस्कायिकेऽपि उपपातो वर्णनीयः, इति ४ 'चाउकाइए मुहुमवायरेसु जहा आउक्काइएसु उवाइओ तहा उपवाएयधों' पृथिवीकायिका सूक्ष्म बादरपर्याप्तापर्याप्त केषु यथा अप्कायिकेषु उपपातितः तथा उपपातयितव्या४ अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिकेषु १, पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिकेषु२. अपर्याप्त
और मरकर वह मनुष्यक्षेत्र में पर्याप्त बाद तेजस्कायिकरूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हैं भदन्त ! वह बहा कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! जैसा कथन ऊपर किया गया है वैसाही कथन यहां पर भी जानना चाहिये अर्थात् वह यहां एक समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है। इस प्रकार से ये ४ आलाप तेजस्कायिकों की उत्पत्ति के विषय में हो जाते हैं। "वाउकाइए सुहुमबायरेसु जहा आउक्काइएसु उवाइओ तहा उववाएयव्वो' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्नक सूक्षा पृथिवीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा और मर कर वह इसी रत्नप्रभापृथिवी के पश्चिम चरमान्त में सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिकों में उत्पत्ति के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समय वाले અને મરીને તે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાલિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય બનેલ હોય તે હે ભગવન તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે. ગૌતમ ! ઉપર જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ સમજવું. અર્થાત–તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન થાય છે, બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને ત્રણ સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રમાણેના આ ચાર આલાપ તેજસ્કાયિકની ઉત્પત્તિના સંબંધમાં થઈ જાય છે
'वाउकाइए सुहमवायरेसु जहा आउक्काइएसु उववाइओ तहा उववाएयव्वो' 8 लगवन् अपर्याप्त सूक्ष्म वायुयि ७१ मा રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણ પામે અને મરીને તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમચરમાન્તમાં સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્તક વાયુકાયિકમાં ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય બનેલ હોય તે હે ભગવન તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श१ सू०१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३३१ वादरवायुकायिकेषु ३. पर्याप्त वादरवायुकायिकेषु ४ अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिकस्योपपातं वदता चत्वार आलापका ज्ञातव्या इति । 'एवं वणस्सइकाइएसु वि विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! वह वहां जैमा ऊपर में उत्तर रूप में कहा गया है वैसा ही यहां पर जानना चाहिये । ऐसा यह प्रथम आलापक है । इसी प्रकार से-'हे भदन्न ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा और मर कर वह उसी रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भी यही पूर्वोक्त रूप से समाधान हे गौतम ! जानना चाहिये । इसी प्रकार से-'हे भदन्त ! कोई सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा और मरकर वह उसी रत्न प्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त बादरवायकायिकों में उत्पत्ति के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भी हे गौतम ! वही 'पूर्वोक्त रूप से समाधान जानना चाहिये इसी प्रकार से-'हे भदन्त ! कोई सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकाधिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व કે-હે ગૌતમ! જે પ્રમાણે ઉપર ઉત્તર વાકય રૂપે કહેલ છે, તે પ્રમાણે તે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેમ સમજવું. આ પ્રમાણેને આ પહેલે આલાપક કહેલ છે આજ પ્રમાણે ભગવાન કેઈ અપર્યાપ્તક સૂમ વાયુકાયિક જીવ આ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરે અને મરીને તે એજ રનપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં સૂરને પર્યાપ્ત વાયુકાયિકોમાં ઉત્પન્ન થવાને
ગ્ય બન્યા હોય તે હે ભગવન તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! પૂકત કથન સમાધાન રૂપથી ઉત્તર રૂપે સમજવું.
એજ પ્રમાણે હે ભગવન્ કઈ સૂમ અપર્યાપ્તક વાયુકાયિક જીવ આ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાતમાં મરણ પામે અને મરણ પછી આજ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાતમાં અપર્યાપ્તક બાઇર વાયુકાયિકોમાં ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય થયેલ હોય ? તે હે ભગવાન તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિઝ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પણ છે ગૌતમ! પહેલા કહેલ તે ઉત્તર સમાધાન રૂપે સમજો . હે ભગવન કેઈ સહમ અપર્યાપ્તક વાસ.
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भगवती सूत्रे
२० एवम् अकायिकवदेव वनस्पतिकायिकेषु अपर्याप्तसूक्ष्मेषु पर्याप्तसूक्ष्मेषु 'अप्तवादरेषु पतनादरेषु चापर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकस्योपपातो वक्तव्यः ४, प्रकारस्तु पूर्व व देवेति भावः ||०१ ॥
SADB
चरमान्त में मरा और मरकर वह उसी रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में पर्याप्त पादश्वायुकायिकों में उत्पत्ति के योग्य हुआ तो 'हे भद्रन्त ! वह वहां कितने समयथाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? 'हे गौतम इस प्रश्न के उत्तर में भी यही पूर्वोक्त रूप से समाधान जानना चाहिये । इस प्रकार से यहां ये चार आलापक होते हैं । " एवं treasure वि' २० अकाधिक के जैसे ही वनस्पतिकायिकों 'मैं भी अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक का उपपात कहना चाहिये । जैसे
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भदन्त ! कोई पर्यायक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा और मरकर वह उसी रत्नप्रभा पृथिवीके पश्चिम बरमान्त में अपर्याप् सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों में उत्पत्ति के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले चिग्रह से उत्पन्न " होता है ? हे गौतम । इस प्रश्न के उत्तर में वही पूर्वोक्त समाधान जानना चाहिये | ऐसा यह प्रथम आलापक है। इसी प्रकार से पर्याप्त - सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में अपर्याप्त बादर
કાયિક જીવ શ્મા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમન્તમા મરછુપામે અને પછી તે એજ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમામાં પર્યાપ્ત માન્નુર વાયુકાયિકામાં ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય થયેલ હાય તે હું ભગવન્ તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રઢગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે કે હુ ગૌતમ ! આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પણ આ પૂર્ણાંકત રૂપથી સમાધાન સમજવું.
या रीते गडियां या यार आता है। थाय छे 'एवं वणस्लइकाइएस वि' j♭૨ અકાયિકના કથન પ્રમાણે વનસ્પતિકાયિકામાં પણુ અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિકના ઉપપાત કહેવા જોઇએ. જેમ કે-હે ભગવન્ કાઈ અપર્યાપ્તક સુક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક જીવ આ રત્નપમા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણુપામે અને મરીને તે આજ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ કાયિકામાં ઉત્પત્તિને ચાગ્ય થયેલ હાય તો હું ભગવત્ તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પડેલા કહ્યા પ્રમાણેનું સમાધાન સમજવું. આ રીતે આ આ પહેલે આલાપક કહેલ છે. આજ પ્રમાણે પર્યા
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प्रमैयचन्द्रिका टीका:श०३४ अ. श० १ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनि०
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मूलम् - पज्जन्त सुकुमपुढवीकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए, एवं पज्जस सुहुमपुढवीकाइ ओ वि पुरथिमिले रिमंते समोहणावित्ता, एएणं चैव कमेणं एएस चेव बीससु ठाणेसु उवाएयत्रो जाव वायरवणरसइकाइएसु पज्जतरसु वि ४० । एवं अपज्जत बायरपुढवीकाइओ वि ६० । एवं पज्जतबायरपुढवीकाइओत्रि ८० । एवं आउकाइओ विचउसुवि गमसु पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहर, एग्राए चैव वतव्वया एएस वीसह ठाणेसु उववायव्वो १६० । सुहुम तेउका इओ वि अपज्जत्तओ पजराओ य एएस चेत्र वीलइ ठाणेसु उचवाएयव्वो । अपज्जन्त बायर उकाइए णं भंते ! सणुरुलखेते लमोहर समोहणिसा जे सविए इसीले स्यणप्पभार पुढवीर पच्चत्थिमिल्ले रिमंते अपज्जत सुहुमपुढवीकाइबताए उश्वजितए से णं भंते! कइ लमहर्ण विग्गणं उज्जेज्जा, सेसं तहेब जाव से तेणट्टेणं । एवं पुढवीकाइएस चउठिवहेसु वि उबचाएयव्त्रो । एवं आउकाइए चहेसु वि । तेडकाइएस सुहुमेसु अपज्जत्तएसु पज्जचयसु य एवं चैव उपचाएयत्रो । अपज्जन्त वापरते उक्काइए णं भंते! मगुस्सखेत्ते समोहर समोहणित्ता जे भविए मणुस्खे से अपज्जत बायर ते उकाइयत्ताए उबवज्जित्तए से भंते! कह सामएणं० सेसं तं चेत्र । एवं पज्जन्तवायर
वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने के महन्थ में और पर्याप्त बादर वनस्पतियों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में भी इसके तीन आलापक जानने चाहिये | १||
તક સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિકામાં ઉત્ત્પન્ન થવાના સબધમાં અપર્યાપ્તક ભાદર વન સ્પતિકાયિકામા ઉત્પન્ન થવ ના સબ ધમા અને પર્યાપ્તક માદર વનસ્પતિ કાચિ કામાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં પણ આના ૩ ત્રણુ આલાપક સમજી લેવા, સૂ.૧
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भगवती सूत्रे
तेक्वाइयता वि उववायव्वो । वाउकाइयत्ताए य वणस्सइ काइयता एय जहा पुढवीकाइएस तहेब चकपणं भेएणं उववाएयन्त्रो । एवं पज्जत्तवायरते उकाइओ वि समयखेत्ते समोहाता एए वे वीसइ ठाणे उववाएयव्त्रो जहेब अपहणावेत्ता ज्जतओ उवाइओ, एवं सव्वत्थ वि बायरते उकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते उबवायव्वा समोहणावेय
वि २४० । वाउक्काइया वणस्लइकाइया य जहा पुढवीकाइया तहेव चउक्कषणं भेएणं उवत्राण्यव्वा जाव पज्जत ( ४०० । बायरराणसइकाइएणं भंते ! इमीसे स्वगप्पभाए पुढवीए पुर त्थिमिले चरिमंते समोइए समोहणिता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवी पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते ! पज्जत्तबायरवणस्स इकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं, सेसं लहेब जाब से लेणट्टेषां । अपज्जन्त सुहुमपुढवीकाइएर्ण भंते! इमीले रयणप्पसार पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए लमोहणिता जे भविए इनीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरस्थिमिल्ले वरिमंते अपज्जत सुहुमपुढवीका इयत्ताए उववजित्तए से भंते! कइ समइएणं सेसं तहेव निरवसेसं । एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते सव्वसु वि समोहया पच्चत्थि - मिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाइया जे य समयखेत्ते समोया पच्चत्थिमिले चरिते समयखेत्ते य उबवाइया, एवं एएणं चैव कमेणं पञ्चत्थिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया पुरथिमिले चरिमंते समयखेन्ते य उववाहयव्वा तेणैव गमए णं एवं एएणं गमए नं दाहिणिल्ले चरिमंते समोहयाणं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४. श.
१०२ विग्रहगत्योत्पातनि० ३३५ उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेते य उवाओ एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयव्या लेणेच गमएणं ॥सू० २। ___ छाया--पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! एतस्या रत्नप्रभाया:पृथिव्याः एवं पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽपि पौरस्त्थे चरमान्ते समवधात्य एतेनैव क्रमेण एतेष्वेव विंशतिस्थानेषु उपपातयितव्यः, यावद्वादरवनस्पतिकायि केषु पर्याप्तकेष्वपि४०, एवमपर्याप्त बादरपृथिवी कायिकोऽपि६०, एवं पर्याप्तवादर पृथिवी-कायिकोऽपि ८०, एनम् अपशायिकोऽपि चतुष्वपि अमकेषु पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः एतया एव बक्तव्यतया एरोवेव विंशतिस्थानेषु उपपातयितव्यः । १६०, सूक्ष्मतेजस्कायिकोऽपि अपर्याप्तकः पर्याप्तकश्च एतेष्वेव विंशतिस्थानेषु उपपातयितव्यः । अपर्याप्तवादरतेजकायिकः खलु भदन्त ! मनुष्यक्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्यः एतस्याः रत्नभायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उत्पत्तुं स खलु भदन्त कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्तयेत' शेष तथैव यावत्तत्तेनार्थे । एवं पृथिवीकायिकेषु चतुर्विधेष्वपि उपपातयितव्यः । एवमप्कायिकेषु चतुर्विधेष्वपि । तेजस्कायिकेपु सूक्ष्मेषु अपर्याप्तकेषु पर्याप्तकेषु च एवमेव उपपावयितव्यः। अपर्याप्तवादरतेजस्कायिकः खलु भदन्त ! मनुष्यक्षेत्रे समवहतः समरहत्य यो भव्यो मनुष्यक्षेत्रे अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकतया उत्पत्तुं स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन० शेष तदेव । एवं पर्याप्त बादर तेजस्कायिकतयाऽपि उपपातयितव्यः । वायुकायिकतया च यथा पृथिवीकायिकेपू तथैव चतुष्केन भेदेन उपपातयितव्यः । एवं पर्याप्त वादरतेजस्कायिकोऽपि समय क्षेत्रसमघात्य एतेष्वेव विशतिस्थानेषु उपपातयितव्यः यथैव अपर्याप्तक उपपातितः एवं सावित्रापि बादरतेजस्कायिकाः अपर्याप्तकाश्च पर्याप्तकाश्व समय क्षेत्र उपपातयितव्याः समयघातयितव्या अपि २४०॥
वायुकाथिका वनस्पतिकायिकाश्च यथा पृथिवी कायिकाः तथैव चतुष्केन भेदेनोपपातयितव्याः, यावत् पर्याप्ताः ४००, बादरवनस्पतिकायिकः खलु भदन्त ! एतस्मा रत्नभायाः पृथिव्या पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समवहत्य यो भव्य एतस्या रत्नपभायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये चरमान्ते पर्याप्त वादरवनस्पति कायिकतया उत्पत्तुं स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन० शेष तथैव यावत् तत्तेनाथेन, अपर्याप्त सूक्ष्मथिवीकायिकः खलु भदन्त ! एतस्या रत्नप्रभायापृथिव्या: पाश्चात्ये चरमान्ते समनहत समवहत्य यो भन्यः एतस्या रत्नमभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उत्पत्तु स खलु भदन्त ! कति
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भगवती सूत्रे
सामयिकेन, शेर्पा तथैव निश्वशेषम् । एवं यथैत्र पौरस्त्ये चरमान्ते सर्वपदेष्वपि समवहताः पाश्चात्ये चरमान्ते समक्षेत्रे चोपपातिताः, ये च समयक्षेत्रे समवदताः पाश्चात्ये चरमा समयक्षेत्रे चोपपातिनाः, एश्मे तेनैव क्रमेण पाश्चात्ये चरसान्ते समयक्षेत्रे च समवहयाः पौरस्त्ये चरमान्ते समयक्षेत्रे चोषणवतिव्याः तेनैव गंमकेन । एवमेतेन नमकेन दाक्षिणात्ये चरमान्ते समदहतानाम् औत्तरे चरमान्ते समयक्षेत्रे चोपपातः, एचमेव चौत्तरे चरमान्ते समय क्षेत्रे च समनहताः दाक्षिणात्ये atara क्षेत्रे चोपपातयितव्या स्तेनैव सकेन सू०२ ॥ पुढवीकाइए णं भंते'
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टीका- 'पज्जत पर्याप्त सूक्ष्मपृविनीकायिकः खलु भदन्त ! 'इसीसे रयण पभाए पुढवीए' एतस्या रत्नमायाः पृथिव्णः पूर्वे चरमान्ते समवहतः समरहस्य एतस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पश्विमे चरमान्ते पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी कायिकतया समुत्पत्तियोग्यो विद्यते स खलु मदन्त ! कति सामयिकेन दियोत्पद्येत इत्यादिक सर्व प्रश्न वाक्यं पूर्वयदेव अत्रापि वक्तव्यम् । उत्तरमाह - ' एवं ' इत्यादि ।
ܬ
'पज्जत हुएपुढची काहए णं संते । इमीले रघणपभाए पुढचीए' इ०
टीकार्थ- 'पज्जन्स हुम पुढची काहए णं भंते !' हे भदन्त ! कोई पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक जीच 'इमीले रचनभाए पुढईबीए' इस रत्नापृथिवी के पूर्व चरमान्त (पूर्व भाव के अन्त में) मरा और मर कर वह इस्ली रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरमान्त (पश्चिम भाग के अन्तिम ) में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पत्ति के योग्य हुआ तो हे अदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रधाक्य पूर्व के जैसा यहां कहना चाहिये अब उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- ' एवं एज्जत्तमपुर बीकाहओ वि पुरथिमिले चरि
'पज्जत्त सुहुमपुढचीकाइए णं भंते ! इमीखे रयणप्पसार पुढवीए' इत्याहि अर्थ- 'पज्जन्त सुद्दम पुढवी काइरणं भते । ' हे भगवन् अर्थ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी व 'इमीसे रयणप्पभाएभाए पुढवीए' मा रत्नप्रभा पृथ्वीना પૂચરમાન્ડમા-પૂર્વ સાગના અન્તમાં મરણુપામે અને મરીને તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં-પશ્ચિમ ભાગના અન્તમાં પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મપૃથ્વી કાચિક પણાથી ઉત્પન્ન થત્રાને ચાગ્ય અનેલ હાય તા હૈ ભગવન ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? વિગેરે તમામ પ્રશ્નવાચે પહેલાં કહ્યાં પ્રમાણેના અહિયાં સમજવા આના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'एव पज्जत हुमपुढवीका इओ वि पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एण
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प्रमेयवन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनि० - ५
एवं पज्जत्तसुहुमपुढवीकाहओ वि पुरथिमिल्ले चरिमते. समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएस्सु चेव वीसइसु ठाणेसु उववाएयवो' एवम् अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽपि ज्ञातव्यः, तं रत्नप्रभायो: पौरस्त्ये चरमान्ते समवधात्य मारणान्तिकसमुद्घातं कारयित्वा एतेनेष अप र्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोक्तेनैव क्रमेण-प्रकारेण एतेष्वेव विंशती स्थानेषु तानि विंशतिस्थानानि यथा-पृथिव्यादयः पञ्च ते सक्षम वादरभेदादश, तेषां प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकभेदकरणा ते विंशति भवन्ति, इति विंशतिः स्थानानि, तथाहिपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य अपर्याप्त मूक्ष्मपृथिवीकायिका, पर्याप्त सूक्ष्म मते समोहणावेत्ता एएणं चेच क्रमेणं एएसु चेव बीला ठाणेसु उर्व थाएयचो' हे गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीज्ञायिक के जैसे ही पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक को भी जानना चाहिये । अर्थात्-स पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक का रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात पाकर इसी अपर्याप्त मूक्ष्मपृथिवीकाधिक के सम्बन्ध में कथित प्रकार के अनुसार इन्हीं पूर्वोक्त पीस स्थानों मेंपृथिव्यादि पांचो के सूक्ष्म यादर पर्याप्त अपर्याप्त रूप स्थानों में--यावत् चादर वनस्पतिकायिक के पर्याप्तक तक उसे उत्पन्न कराना चाहिये। कहने का भाव ऐसा है-पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक एकेन्द्रिय जीव के ५ भे होते हैं। ये पांचो ही सूक्ष्म और बादर के भेद से १० भेदवाले होने ले बील भेद हो जाते हैं । पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकों के इन २० स्थानों में इस प्रकार से उत्पन्न करना चाहिये । हे भदन्त ! कोई पर्याप्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथियी चेव कमेग' एएसु चेव वीसइसु ठाणेसु उववाएयत्रो' गौतम ! सुपारत સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિકની જેમજ પર્યાપ્તક સૂફમ પૃથ્વીકાય પણ સમજવા અર્થાત આ અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાતમાં મારણન્તિક સમૃદુઘાત કરીને–આ પ્રકરણમાં અપર્યાપ્ત સૂફ ન પૃથ્વીકાયિકના સંબં ધમાં કહેવા પ્રકારથી આ પૂર્વોકત સંસ્થાનમાં-પૃથિવી વિગેરે પાંચેના સમ. બાદર, પર્યાપ્ત અપર્યાપ્ત રૂપ સ્થાનમાં-માવત્ બાદર વનસ્પતિકાય સુધી એકેન્દ્રિય જીવના પાંચ ભેદો થાય છે, આ પાંચેના સૂક્ષ્મ અને બાદર ભેથી ૧૦ ભેદ થઈ જાય છે, આ દસ ભેદના પણ દરેકના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તક એવા ભેદો થવાથી ૨૦ વીસ ભેદ થઈ જાય છે પર્યાપ્તક સૂમ પૃથ્વીકાયિકના આ ૨૦ વીસ સ્થાનમાં આ પ્રમાણેની ઉત્પત્તિ કહેવી જોઈએ
भ० ४३
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भगवतीय पृथिवीकायिका, अपर्याप्त बादर पृथिवीकाविका पर्याप्तवादरपृथिकायिका एवं पृथिवीकायिकस्य चत्वारो भेदाः ४, अपर्याप्तसूक्ष्माकायिकः पर्याप्तमूक्ष्माका यिका,अपर्याप्त वादराकायिका, पर्याप्त पादराकायिका, एते चत्वारोऽप्कायिकस्य मेदाः ८. अपर्याप्तसूक्ष्मतेजस्कायिका, पर्याप्तसूक्षमतेजस्कायिकः, अपर्याप्त वादर तेजस्कायिकः पर्याप्वादरतेजस्कायिकः ४. एते चत्वारस्तेजस्कायिकस्य भेदाः, १२, अपर्याप्तसूक्ष्मवायु कायिका, पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिकः २, अपर्याप्तवादर वायुकायिकः ३, पर्याप्त वादरवायुकायिका ४, एते चत्वारो भेदा वायुकायिकस्य १६, अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिका, १ पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकः, २, के पूर्व चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात करके मरा और मरकर वह उसी रत्नप्रभा पृधिची के पश्चिम चरसान्त में अपर्याप्तक सक्षम पृथिवी कायिक में उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह ले उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में 'हे गौतम! वह वहाँ एक समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है। ऐसा ही पूर्वोक्त समाधान जानना चाहिये । ऐसा यह प्रथम आलापक है । इसी प्रकार से इस पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक को पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीझायिक में उत्पन्न कराने के सम्बन्ध में भी आलापक कह लेना चाहिये । यह द्वितीय आलापक है। इसी प्रकार से इस पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक को अपर्याप्न बादर पृथिवी कायिक में उत्पन्न कराने के सम्बन्ध में भी तृतीय आलापक कह लेना
હે ભગવન કેઈ પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવ આ રતનપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાતમાં મારણાનિક સમુવાત કરી પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં અપર્યાપ્તક સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય બનેલ હોય તે હે ભગવન્ તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! તે ત્યાં એક શ્રમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત ન થાય છે, અને ત્રણ સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમ નું પહેલા કહેલ સમાધાન સમજવું. આ પહેલે આલાપક કહેલ છે. ૧ આજ પ્રમાણે આ અપર્યાપક સૂથમ પૃવીકાયિકને પર્યાપક સૂક્ષ્મપ્રકાયિકમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં પણ આલાપકે કહેવા જોઈએ. આ રીતે આ બીજે આલાપક કહેલ છે. ૨ આજ રીતે અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકને અપર્યાપ્તક બાદર પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન
કરાવવાના સમયમાં પણ વીર આલાપ મહા રોજ પ્રમાણે આ અપર્ચામ*
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प्रमेयमन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ ३ विग्रहगत्योत्पातनि० ३३९ अर्याप्तवादरवनमतिकायिकः ३, पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकः ४ एते चत्वारो भेदा वनस्पतिकायिकस्य २०, एतेषु विंशतिस्थानेषु उपपातयितव्यउपपातः करणीयः । कियत्पर्यन्तमुपपातयितव्य रतत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाव चाहिये । इसी प्रकार इस पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक को पर्याप्त पादर पृथिवीकायिक में उत्पन्न कराने के सम्बन्ध में भी आलापक कह लेना चाहिये । यह चतुर्थ आलापक है। इस प्रकार ये पृथिवीकायिकके ४ भेद हैं। इसी प्रकार से अपमायिक के अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त बादर अप्रकायिक और पर्याप्त बादर अका. यिक ये चार भेद होते हैं। इसी प्रकार से तेजस्कापिक अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक
और पर्याप्त पादरतेजस्कायिक ये चार भेद होते हैं। इसी प्रकार से वायुकाधिक के अपर्याप्त सूक्ष्मवायुकाधिक पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त चादर वायुकायिक पर्याप्त बादर वायु कायिक ये ४ चार भेद होते हैं। इसी प्रकार से वनस्पतिकायिक के अपर्याप्त वक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक अपर्याप्त पादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक ये ४ चार भेद होते हैं । सो इन २० स्थानों में पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक को उत्पन्न कराना चाहिये। यही बात यहां यावસૂક્ષમ પૃથ્વીકાધિકને પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન કરાવવાના સંબંધમાં પણ આલાપક કહે જોઈએ. આ ચે આલાપક કહેલ છે આ રીતે પૃથ્વીકાયિકેમાં ચાર ભેદ કહેલા છે, સૂક્ષ્મ અને બાદર
આજ પ્રમાણે અપ્લાયિકમાં અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ અકાયિક, પર્યાપ્ત સૂમ અષ્કાયિક, અપર્યાપ્ત બાદર અકાયિક, અને પર્યાપ્ત બાદર અષ્કાયિકના ચાર ભેદ થાય છે. આ જ પ્રમાણે તેજસ્કાયિકમા અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ તેજસ્કાયિક પર્યાપ્ત સૂમ તેજસ્કાયિક અપર્યાપ્ત બાદર તેજરકાયિક પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક આ પ્રમાણેના ચાર ભેદ થાય છે. આ જ પ્રમાણે વાયુકાયિકમાં અપર્યાપ્ત સૂમ વાયુકાયિક, પર્યાપ્ત સુકમ વાયુકાયિક, અપર્યાપ્ત બાદર વાયુકાયિક અને પર્યાપ્ત બે દર વાયુકાયિડના ભેદથી ૪ ચાર ભેદ સમજવા. આજ પ્રમાણે વનસ્પતિકાયિકમાં અપર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિકાયિક, પર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિ કાયિક અપર્યાપ્તક બાદર વનસ્પતિકાયિક, પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક એ રીતના ૪ ચાર ભેદો થાય છે. તે આ ૨૦ વીસ સ્થાનમાં પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ
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भगवतीसरी वायरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु वि' यावत् पर्याप्त वनस्पतिकायिकेष्वपि, यावत् पदेन अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्तवादरवनस्पति कायिकान्तस्य ग्रहणं भवति । तथा च आलापप्रकारः, पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! एतस्मा रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पू चरमान्ते समवहतः सम. वहत्य एतस्या एव रत्नमभायाः पश्चिमे चरमान्ते अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकतया समुत्पत्तियोग्यो विद्यते स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेण उत्पद्यते । हे गौतम ! एकसामयिकेन वा, द्विसापयिकेन वा, त्रिसामकेन वा, विग्रहेणोस्पयेत, तस्नान भदन्त ! एवमुच्यते, एकसामयिकेनेत्यादि । गौतम ! मया सप्त श्रेणयः ज्वायतादिकाः मज्ञप्ताः । तत्र प्रथम श्रेण्या उत्पत्तिमासादयन् एकसामयिकेन द्वितीचया गन्छन् द्विसामयिकेन विग्रहेण, तृतीयया गच्छन् स्पद से प्रकट की गई है । अब गीतमप्रभु से ऐसा पूछते हैं-हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि एकलमधवाले विग्रह से यावत् तीन समयबाले विग्रह से वह वहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! मैंने सान श्रेणियां कही हैं-उनमें एक ऋज्यायत श्रेणि हैं दूसरी एकत्तोचक्राश्रेणि है। तीसरी द्विधावका श्रेणि है चौथी एकातः खा श्रेणि है। पांचवीं विधाखा श्रेणि है छट्टी चक्रवाल श्रेणि है और लानवी अर्धचक्रवाल अणि है। इनमें जो जीव प्रथम श्रेणि से उत्पत्ति स्थान में जाता है वह वहां एक समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है द्वितीय श्रेणि से जो जीव उत्पत्तिस्थान में जाता है वह दो समय वाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है। लथा-तृतीय श्रेणी से जी उत्पत्ति स्थान में जाता है वह तीन सध्ययाले विग्नह से वहां उत्पन्न પૃથ્વીકાયિકની ઉત્પત્તી કહેવી જોઈએ. આ સઘળું કથન અહિયાં યાવત્ પદેથી પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. + ' હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને એવું પૂછે છે કે...હે તાગવન આપ એવું કયા કારણથી કહે છે કે એક સમયવાળી વિગડગતિથી યાવત્ ત્રણ સમય વાળી વિગ્રહગતિથી તે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ મેં સાત શ્રેણી કહેલ છે. તેમાં એક ત્રાજવાયત શ્રેણી છે. ૧ બીજી એક વક શ્રેણી છે ૨ ત્રીજી ક્રિયાને વક્ર શું કહી છે. ૩ ચેથી એકતઃ ખ શ્રેણી છે. ૪ પાંચમી દ્વિધાતેખા શ્રેણી કહેલ છે. ૫ છઠ્ઠી ચક્રવાલ શ્રેણી કહેલ છે. હું અને સાતમી અર્ધ ચકવાલ શ્રેણી છે. ૭ તેમાં જે જીવ પહેલી શ્રેણીથી ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં જાય છે, તે ત્યાં એક
સ્થાનવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. બીજી શ્રેણીમાં જે જીવ ‘પત્તિ સ્થાનમાં જાય છે, તે બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન
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प्रन्द्रिका टीका श०३४ अ. शं १ सू०२ वित्रहगत्योत्पातनि०
ફેર
त्रिसामायिकेन दिग्रहेण उत्पद्यन्ते । तचेनार्थेन एवं मुच्यते, एक सामयिकेनेत्या दिकं सर्वम् अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिवदेव ज्ञातव्यम् । एवं पप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त चादरवनस्पति कायिकान्तेषु उपपातालापकाः स्वयमेव ऊहनीयाः । एवमेव अग्रेऽपि सर्वत्रालाप प्रकारः स्वयमेवोहनीय इति तदेव मादितथत्वारिंशद्गमका अभवन् ४० ।
' एवं अपज्जत्त वायरपुढवीकाइओ त्रि' एवम् अपत वादरपृथिवीकायिकोऽपि पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकवदेव, अपर्याप्त बादरपृथिनीकायिकोऽपि अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीत आरभ्य पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्तेषु सर्वत्रोपपा
होता है इस कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि वह वहां एक समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न हो जाता है दो समवाले विग्रह से भीन्न हो जाता है और तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार यहां सब कथन सूक्ष्म अपर्यापक पृथिवीकायिक के जैसा ही जानना चाहिये। पर्या सूक्ष्मपृथिवीकाषिक के अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकामिक से लेकर पर्याप्त बादरवनस्पतिकाचिक तक में उपपात होने के सम्बन्ध में अलापक अपने आप उभावित कर लेने चाहिये। इस प्रकार से मिलकर सब गमक ४० हो जाते हैं । 'एव अपउजन्त बादरपुहवी साइओबि' इसी प्रकार से अपर्याप्त बादरपृथिवीकविक को भी पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक के जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक से लेजर पर्याप्त यादवनस्पतिकायिकतक के ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં જાય છે, તે ત્રણ થાય છે. તે કારણથી હું ગૌતમ ! એવુ કહેલ છે કે-તે ત્યા એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પશુ ઉત્પન્ન થાય છે, એ સમયાળી વગ્રહમતિથી પણ ઉત્પન્ન થય છે, અને ત્રણ સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પશુ ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે અહિયાં સઘળું કથન સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયિકના કથત પ્રમાણે સમજવું તથા અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પર્યાસ સૂક્ષ્મ પૃથ્વીાયિકથી લઈને પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાય સુધીમાં ઉપાત થાના સબ ધમાં આલાપકે સ્વયં ખનાવીને સમજી લેવા. या रीते वारुणीते हु ४० याजीस गमे यह भय छे 'एव' अपज्जत्त बदर पुढवीक इओ वि' मे प्रभा अपर्याप्त आहर पृथ्वीय पशु पर्याप्त સૂમપૃથ્વીકાયિકના કંપન પ્રમાણે અપર્યાપ્ત સૂલમ પૃથ્વીકાયિકથી લઈ ને પર્યાપ્ત માદર વનસ્પતિકાય સુધીના સઘળા જીવમાં ઉત્પત્તિ સમજવી. આ સબધમાં
થાય છે તથા-ત્રીજી શ્રેણીથી જે છત્ર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન
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भगवतीस्त्रे तयितव्यः । उपपातपकारश्च पूर्ववदेव सर्वत्र स्वयमेवोहनीय इति ! ६०, 'एवं पज्ज. त्तवावर पुढवीकोइओ वि। ८० एम् अपर्याप्त वादरपृथिवीकायिकवदेव पर्याप्त वादरपृथिवीकायिकोऽपि विंशति स्थानेषु अपर्याप्त मूक्ष्म पृथिवीकायिकत
आरभ्य पर्याप्त बादरबनस्पतिकायिकायिकान्तेषु अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव उपपातयितव्य इति । ८०, 'एवं आउक्काइओ वि चउसु वि गमएसु पुरत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' एवं पृथिवीकायिकवदेव अकायिकोऽपि चतुर्वपि गमकेषु, अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्मापर्याप्त वापर पर्याप्त वादर रूपेषु रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, 'एयाए चेव वत्तव्यया एएस चेव वीसइटा. णेसु उववाएयबो' एतयैव वक्तव्यतया एतेष्वेव विंशति स्थानेषु अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्त रूपेषु उपपातयितव्या, समस्त जीवों में उत्पन्न कर लेना चाहिये । इस सम्बन्ध में उपपात सम्बन्धी आलापक प्रकार अपने आप उभावित कर लेना चाहिये ६०, 'एवं पज्जत्त घायर पुढवीकाइओ वि' ८० इसी प्रकार से अपर्याप्त पादर पृथिवी काधिक के जैसे ही पर्याप्त घादर पृथिवीज्ञायिक भी २० स्थानों में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक से लेकर पर्याप्न पादरवनस्पति काधिकतक के जीवों में उत्पन्न करा लेना चाहिये ८० । 'एवं आउक्काइओ वि व उस्लु वि गमएल पुरस्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' इसी प्रकार अकायिक जीव भी अपर्याप्त सूक्ष्म पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त पादर
और पर्याप्त बादर रूप चारों गमकों को आश्रित करके रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरमान्त में समुद्घात पूर्वक 'एघाए चेव वत्तव्यथाए एएसु चेव वीसट्ठाणेसु उवधाएयायो' इसी वक्तव्यता द्वारा ऊपर में प्रदर्शित बीस स्थानों में उत्पन्न कराना चाहिये। तात्पर्य कहनेका यही हैं कि 6यात विषना मादायीन प्रा२ स्वयं मनवीन सम सेवा. 'एव पज्जत बायर पुढवीकाइओ वि' मा अपर्याप्त मा४२ यिना ४थन प्रभारी । પર્યાપ્તક બાદર પૃશ્વિકાયિક પણ ૨૦ વસે થનમાં અપર્યાપ્ત સમ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને પર્યાપ્ત બોદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવમાં ઉત્પન્ન થયાના સંબંધમાં ४थन सभ ले. ८० 'एवौं आउकाइयो वि चउसु वि गभएमु पुरथिमिल्ले चरमते । स मोहए' 410 प्रभा माथि ७५ ५५ ५५र्यात सूक्ष्म. पति સૂકમ, અપર્યાપ્ત બાદર. અને પર્યાપ્ત બ દર રૂપ ચારે ગમેને આશ્રય કરીને २त्नाला पृथ्वीना पूर्व यरमा-तम समुद्धात पूर्व 'एयाए चेव वत्तव्वयाए एएसु चेव वीसइ ठाणेसु उववाएयव्वो' मा ४थन प्रमाणे ५२ पावसा वीस કથાનેમાં ઉત્પત્તિ કહેવી જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પ્રકાયિકના
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प्रमेयचन्द्रिका का ०३४ अ. श.१ १०२ विग्रहगत्योत्पातनि० ३४३ - पृथिवीकायिकवदेव अफायिकस्यापि वक्तव्यता मणितव्येति । अफायिकस्य सूक्ष्म बादरपर्याप्तापर्याप्त भेदभिन्नस्य चतुष्कस्य पृथिवीकायिकादिवनस्पतिका. यिकान्त विंशतिस्थानेषु उपपातकरणेन अशीतिमैदा भवन्ति । अशीय रीति भेद भिन्न पृथिवीकायिकाऽकायिकयोः संमेलनात् षष्टयाधिकशतमेदा सन्धि १६० । _ 'सुहुमतेउकाइओ बि अपज्जत्तमो पज्जत्तमो य एएमु चेव बीसदठाणेसु उपवाएयचो' सूक्ष्मतेजस्कायिकोऽपि अपर्याप्तका पर्याप्तकश्च, एतेवेच विंशति स्थानेषु अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकान्तेषु उपपातयितव्यः अपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकयोरपि विंशतिस्थानेषु अपर्याप्त सक्षमपृथिवीकायिशवदेव रत्नममायामुपपातो वर्णनीय इति तदेवं चत्वारिंशद् भेदा भवन्ति ४० (२००) । पृथिवीकायिक की जैली ही वक्तव्यता अपूकायिक जीव की है। इस प्रकार सूक्ष्मवादर पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशिष्ट होने ले चार प्रकार के अपमायिक जीव के पृथिवीकाधिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के २० स्थानों में उत्पाद कराने के कथन से ८० भेद हो जाते हैं। ८०-८० भेद युक्त हुए पृथिवीकाधिक और अकायिक के सम्मेलन से १६० भेद हो जाते हैं। __ 'सुहमतेउकाइओ वि अपज्जत्तओ पज्जत्तो य एएस चेव वीसइ. ठाणेसु उववाएयवो' अपर्याप्त पर्याप्तक सूक्ष्मतेजस्कायिक भी इन्हों घीस स्थानों में अपर्याप्त सक्षमपृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्त दादर वनस्पतिकायिक तक के जीवों में-उत्पादयितव्य है। अतः इन दोनों प्रकार के तेजस्कायिक जीवों का अपर्याप्त समस्पृथिवीकाधिक के जसा २० स्थानों में रत्नप्रभापृथिवी में उपपात वर्णित कर लेना चाहिये। કથન પ્રમાણેનું જ કથન અપકવિક જીવનું છે. આ રીતે સૂમ બાદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદવાળા હોવાથી ચાર પ્રકારના અયિક જીવોના પૃથ્વિીકાયિાથી લઈને વનસ્પતિકાય સુધીના ૨૦ વીસ સ્થાનેમા ઉત્પાત થવાના કથનથી ૮૦ એંસી ભેદે થઈ જાય છે ૮૦- ૮૦ એંસી એંસી મેદવાળા પૃવીયિકને મેળવવાથી કુલ ૧૬૦ એકસોસાઈઠ ભેદો થઈ જાય છે. . 'सुहुम तेउकाइओ वि अपज्जत्तओ य एएसु चेव वीसइ ठाणेसु उववाएय व्वो' मर्याप्त, पर्यात, सूक्ष्म त य: ५ मा वास स्थानमा અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વિીકાયિકથી લઈને પર્યાપ્તક બાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવોમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં કહેવું જોઈએ, તેથી આ બન્ને પ્રકારના તેજરકાયિક જીને અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વિીકાથિકની જેમ ૨૦ વીસે સ્થાનોમાં રતનપભા પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં કહેવું જોઇએ. આ રીતે
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भगवती सूत्रे
वादरतेजस्कायिकानां मनु क्षेत्रादन्यत्रासम्भवात् मृक्ष्वपर्यानाप योरेव द्वौ भेदौ कथितौ चदरपर्यातापर्याप्तयो स्तेजस्कायियो हो भङ्गौ मनुष्यक्षेत्रम् अधिकृत्याधिमसूत्रे कथयिष्येते इति । तदेवाह - 'अपज्जत वायरउ - काइएणं भंते !' अपर्याप्त चादर तेजम्कायिकः खलु भदन्त । 'मणुम्स खेत्ते समोहए' 'मनुष्यक्षेत्रे समवहत', 'समोदणित्ता जे भविए इसी से स्यणप्पभाए पुढवीए' समद्दत्य यो भव्य एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत सुमपुढवीका इयत्ताए उवरज्जित्तए' पाश्चात्ये- पश्विमे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्न पृथिवीकायिकतया पृथिवीकायिकरूपेणेत्यर्थः उत्पत्तुम् ' से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा' स खलु मदन्त ! कवि सामयिकेन इस प्रकार से यहां ४० चालीस भेद होते हैं । ४० । बाइरतेजस्कापिकों का मनुष्यक्षेत्र से बाहर संभव नहीं है वहीं पर इनका सद्भाव है इसलिये यहां उनके सूक्ष्न पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त ऐसे दो ही भेद कहे हैं। बाकी के इनके यादर पर्याप्त और बादर अपर्याप्त से दो भङ्ग मनुष्य क्षेत्र को अधिकृत करके सूत्रकार आगे के सूत्र में कह रहे हैं- 'अपज्जन्त वायर तेउकाइए णं भंते! 'हे भदन्न ! कोई अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक मनुष्य क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करके मरा ' और समोहणित्ता' मरकर 'जे भविए' हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थि मिल्ले चरिते अपजस सुमपुपुढची काहयत्ताए ज्ववज्जित्तए' इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ 'से णं अंते ! कसमइए णं विग्गणं उववज्जेज्जा' तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह से અહિયાં ૪૦ ચાળીસ ભેદા થાય છે માદર તેજસ્કાયિકાના મનુષ્યક્ષેત્રની બહાર સાંભવ હાતા નથી. અનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ તે આના સદ્દભાવ છે, તેથી અહિયાં તેએ ના સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત અને સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત એવા એ જ ભેદો કહ્યા છે. બાકીના તેના માદર પર્યાપ્ત અને ખાદર અપર્યાપ્ત એ રીતે એ ભંગે મનુષ્ય ક્ષેત્રને અધિકૃત કરીને સૂત્રકાર આગળના સૂત્રમાં કહેશે. 'अपज्जत्त त्रायर तेङकाइरणं भंते! हे भगवन् अर्थ पर्यास बाहर तेस्माथि મનુષ્યક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્ધ ત કરીને મરણપામે અને મરીને તે 'इमी से रअप्पा पुढत्रीए पच्चात्थिमिल्ले चरिमते अपज्जत सुहूम पुढवी काइयत्ताए उववज्जित्तर भविए' मा रत्नला पृथ्वीना पूर्वयरभान्तभ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी पाथी उत्पन्न थवाने योग्य थयो होय 'से ण' भते ! कड् समइएण विग्गण' उबवज्जेज्जा' तो हे भगवान् ते त्यां डेंटला सभयवाणी
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प्रका डीका श०३४ अ. श. १ २०२ विग्रहगत्योत्पातनि०
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विग्रहेणोत्पद्येत ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'सेस' इत्यादि, 'सेतं तदेव जाव से तेणट्टेणं' शेषम् - प्रश्नातिरिक्तमुत्तरं तदेव समुत्पद्यमानस्य पृथिवीकायिकस्य यत् कथितं तदेव यावत् तत्तेनार्थेन०, हे गौतम ! एकसामयिकेन वा, यावत् त्रिसाम यिकेन वा, विग्रहेण उत्पद्येत तत् तेनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, एकसामयिकेन वा, यावत् त्रिसामयिकेनेत्यादि । हे गौतम ! मया खलु सप्तश्रेणयः कथिताः, इत्यादिकं सर्वमनुसन्धेयमिति । एवं पुढवीकाइएस चउबिसु उपचारयन्चो' एवम् - प्रदर्शितक्रमेण पृथिवीकायिकेषु चतुर्विधेष्वपि सूक्ष्मवादरपर्याप्त भेदभिन्नेषु अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकस्य उपपातो वर्णनीयः वर्णनमकारस्तु स्वयमेवोहनीयः ।
'एवं आकाइए चन्तुि वि' एवं यथा चतुर्विच पृथिवीकायिकेषु उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-से से तहेच जाब से तेणद्वेणं' हे गौतम ! वह वहां पर एक समयवाले विग्रह ले अथवा दो समग्रवाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ पर सब उत्तर रूप कथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिये ! हे भदन ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ! हे गौतम! मैंने सात श्रेणि कही हैं । यहां पर भी उत्तर रूप में सब कथन पूर्वके जैश्वा ही लगा लेना चाहिये 'एवं पुढवीकाइएछु चउच्विहेतु उववाएयन्त्रों' इस प्रकार प्रकट किये गये क्रम से अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक के उत्पाद का सूक्ष्मचादर पर्याप्त अपर्याप्त भेद विशिष्ट पृथिवीकायिकों में उपपात कर लेना चाहिये, तथा इस सम्बन्ध में वर्णन करने का प्रकार- अपने आप उद्भावित कर लेना चाहिये । 'एवं आउकाहएसु चउव्विहेतु वि' जिस रीति से વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-એક तद्देव जाव से तेणट्टेण' हे गौतम! त्यां सभयवाजी विग्रहगतिथी અથવા એ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે અહિયાં સઘળુ ઉત્તર વાકય રૂપ કથન સમજી લેવું. હું ભગવત્ આપ એવું શા કારણથી કઢા છે ? આ પ્રશ્નના ૐ ગૌતમ ! મે સાત શ્રેણીયા કહી છે, વિગેરે સઘળું કથન અહિયાં પણ उत्तर ३षॆ पडेसां ह्या प्रमाधेनु अथन समल से 'एव पुढवीकाइपसु 'चउव्विसु उजवाएयन्त्रो' मारीने उपर अगर ४रवामां आवेला उभी अपर्याप्त માદર તેજસ્કાયિકાના ઉત્પાદનુ-સૂક્ષ્મ, માદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદવાળા પૃથ્વિકાયિકેનું વર્ણન સમજી લેવું. તથા આ વિષયનું વર્ણન કરવાની રીત स्वय' समछ सेवी, 'एव आउकाइए चउव्विद्देसु वि' ने शतथी यार प्रहारना
ઉત્તરમાં
भ० ४४
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भगवती अपर्याप्त बादरतेजस्कायिकस्योपपातो दर्शित स्तथैव अष्कायिकेषु चतुर्विधेषु अपर्याप्तादि भेदभिन्नेषु अपर्याप्तबादरतेजस्कायिकस्योपपातोऽपि वर्णयितव्यः इति । 'तेउक्काइएसु सुहु मेसु अपउजत्तएसु एज्जत्तरसु य एवं वेव उववाएययो' सूक्ष्मतेजस्कायिकेषु अपर्याप्त केषु पर्याप्तकेषु च एकमेव पूर्वप्रदर्शितक्रमेणव उपपातयितव्यः। अपर्याप वादरतेजस्कायिकस्यापर्याप्तसक्षमतेजस्कायिकेषु खथा पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकेषु पूर्वोक्तरूपेणैवोपपातो वर्णनीय इति भावः। 'अपज्जत्तवायरतेउकाइएणं भंते ! मणुम्सखेत्ते समोहए' अपर्याप्त वादरतेजस्का. यिकः खलु भदन्त ! मनुष्यक्षेत्रे समवहतः 'समोहणिता जे भविए मणुस्सखेते अपज्जत्त बायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए' समनहत्य मारणान्तिकसमुद्घातं चतुर्विध पृथिवीकाथिकों में अपर्याप्त पाइरतेजस्कायिक का उपपात दिखाया गया है उस्ली रीति ले अपर्याप्तादि मेहवाले चतुर्विध अपकायिकों में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक के उत्पादका वर्णन कर लेना चाहिये । 'तेउवाइएस्सु सुहुमेसु अपज्जत्तएलु य एवंचेव उववाएयवो' इसी प्रकार से अपर्याप्तक और पर्याप्तक सूक्ष्मतेजस्कायिकों में भी बादर अपर्याप्त तेजस्कायिक के उत्पाद का वर्णन कर लेना चाहिये। अर्थात् अपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकों में एवं पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकों में पूर्व में दिखाए गए क्रमके अनुमार बादर अपर्याप्त तेजस्कायिकके उत्पादका कथन कर लेना चाहिए।
'अपज्जत्त बाथरतेउकाहणं मंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त बादरतेजस्मायिक जीव मनुष्य क्षेत्र में मरा 'अमोहणित्ता પૃથ્વીકાયિકમાં અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકનો ઉપપાત બતાવવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણે અપર્યાપ્ત વિગેરે ભેદવાળા ચાર પ્રકારના અMાયિકમાં अपर्यास २ ते४४यिका पातु वन सभ ले. 'उकाइएसु सुहुमेसु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव उववएयवो' मा प्रमाणे અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તક તેજસ્કાચિકેમાં પણ બાદર અપર્યાપ્ત તેજસાયિકના ઉત્પાદનું વર્ણન કરી લેવું. અર્થાત્ અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ તેજરકાયિકમાં અને પર્યાપ્ત સૂફમ તેજછાયિકોમાં તથા અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકમાં અને પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકમાં પહેલાં બતાવેલા ક્રમ પ્રમાણે બાદર અપર્યાપ્ત તેજસ્કાયિકના ઉત્પાદનું કથન કરી લેવું જોઈએ.
'अपज्जत्त बायरतेउकाइएण भते ! मणुस्खे त्ते समोहए' 8 लगवन् । अपर्याप्त माह तेयि ७३ मनुष्य क्षेत्रमा भर पाम 'समोहणित्ता जे
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श. १ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनि०
कृत्वा यो भन्यो मनुष्यक्षेत्रे अपर्याप्तवादरतेजस्कायिकता - तेजस्कायिकरूपेणोत्यत्तुम् - से णं भंते ! कइ समइएणं' स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेणे उत्पद्यतेति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'सेस' इत्यादि । 'सेसं तं चेत्र' शेष' प्रश्नव्यतिरिक्तम् उत्तरं सर्वमपि तदेव अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकमकरणकथितमेव । 'एवं पज्जत्त वायर ते उकाइयत्ताए वि उववाएयन्या' एवं पर्याप्तवादरतेजस्कायिकतयाऽपि उपपातयितव्याः । यथा अपर्याप्तवादर तेजस्कायिकस्य मनुष्यक्षेत्रे समवहतस्यापर्याप्त वादरतेजस्कायिकरूपेण उपषातो दर्शित स्तथैवापर्याप्तवादर तेजस्कायिकस्य मनुष्यक्षेत्रसमवहतस्य पर्याप्तवादरतेजस्कायिकरूपेणाSपि उपपातो वक्तव्यः प्रक्रिया पूर्ववदेवोहनीयेति भाव: । 'वाउकाइयत्ताए य 'जे भविए मणुस्खे से अपज्जन्त बायरते उकाहसाए उववज्जिन्तर' और मरकर वह मनुष्य क्षेत्र में ही अपर्याप्त बादरले जस्कायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो 'से णं भंते! कसम एणं०' हे भदन्त ! वह कितने समघवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं - 'सेसं तंचेव' हे गौतम! इस सम्बन्ध में उत्तर रूप लप कथन अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक के प्रकरण में कहे अनुसार ही समझना चाहिए । 'एवं पज्जन्तघाघर तेउकाइयत्ताए बि उवचारयन्बो' जिस प्रकार से मनुष्यक्षेत्र में समवहत अपर्याप्त पादरतेजस्कायिकका अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से मनुष्यक्षेत्र में उपपात दिखाया है, उसी प्रकार से मनुष्धक्षेत्र में समवहत अपर्याप्त बादतेजस्कायिकका पर्याप्त बादरतेजस्काधिक रूप से भी उपपात कह लेना चाहिये । इस सम्बन्ध में प्रक्रिया पूर्व के जैसी ही उद्भावित कर लेनी
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भवि मणुस्खेत्ते अपज्जत्त नायर देउकाइयत्ताए उववज्जित्तए' ने भरीने ते મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ અપર્યાપ્ત દર તેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય થયે होय ते 'सेण भंते! कइ समइएण ' डे भगवन्ते वा समयवाजी विश्रड गतिथी त्यां उत्पन्न थाय छे ? मा प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री - 'सेंस त' चेव' हे गौतम! या सभ्णन्धमा उपयात ३५ सघणु उथन अपर्याप्त સૂક્ષ્મ પૃથ્વિીકાયિકના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવુ,
'एष ं पज्जत्त वायरसेकाइयत्ताए वि उदवाएयन्त्रो' ने अभाये मनुष्य ક્ષેત્રમાં સમહત અપર્યાપ્ત ખાદર તેજસ્કાયિકના ઉપપાત અપર્યંસ ખાદર તેજÆાયિકપણાથી ખતાવેલ છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં સમત અપર્યાપ્ત ખાદર તેજસ્કાયિકના ઉપપાત-પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક પણાથી
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भगवती सूत्रे
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वणस्स इकाइयत्ताए य जहा पुढवीकाइएस तदेव चक्करणं भेएणं उबवायचो' 'वायुकायिकतया च वनस्पतिकायिकतया च यथा- पृथिवीकायिकेषु तथैव भेद चतुष्टयेन सूक्ष्मवादरतेजस्कायिकस्य यथा पृथिवीकायिकेषु उपपातः कथितस्तथा सुक्ष्म चादर पर्याप्तापर्याप्त चतुष्कभेदेन वायुकायिकरूपेण वनस्पतिकायिकरूपेण उपपातो वर्णनीय इति । 'एव पज्जत्त वायर उकाइओ वि समयखेत्ते समोहणावेत्ता एएसु चेत्र वीसठाणे उपवाएययो' एवमपर्याप्तवादरतेजस्कायिकदेव पर्याप्त वादरतेजस्कायिकोऽपि विज्ञेयः तं समयक्षेत्रे समवघात्य एतेष्वेव विंशतिस्थानेषु अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त बादर वनस्पतिका विकान्तेषु विंशतिस्थानेषु उपपातयितव्यः, उपपातकारस्तु पूर्वदर्शित क्रमेणैव ज्ञातव्य इति । क इव ? इत्याह- ' जहेब अपज्जतओ उचवाइओ' यथैत्र, चाहिये | 'वाउकाइयत्ताए य वणस्सइकाइयत्ताए य जहा पुढवीकाइएस सहेव चक्कणं भेएणं उचवाएयच्ची' अपर्याप्त घादरतेजस्कायिकका जैसा - पृथिवीकापिकों में उपपात कहा है उसी प्रकार से इसके उपपात का वर्णन सूक्ष्म बादर पर्याप्त और अपर्याप्त भेदोवाले वायुकायिकों में और वनस्पतिकायिकों में भी कर लेना चाहिये। 'एवं पज्जत्तषाय रतेउ काइओवि सममयखेत्ते समोहणावेत्ता एएस चैव वीसठाणेसु उबवाएयन्यो' अपर्याप्त पादर तेजस्कायिक के जैसा ही पर्याप्त वादर तेजस्कायिकका भी कथन जानना चाहिये । अर्थात् समयक्षेत्र में उसका मारणान्तिक समुद्घाक से मरण करवाकर इन्हीं बीस स्थानों में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्न बादरवनस्पतिकायिक तक 'के जीवों में उसका उत्पात करवाना चाहिये ! उत्पात करवाने कीरीति पहिले प्रकट ही की जा चुकी है । 'जहेब अपज्जत्तओ उबवाइओ' પણ સમજી લેવે. આ સબ ધમાં આલાપને પ્રકાર પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ समक सेवा. 'बाउकाइयचाए य वणस्स इकाइयत्ताए य जहा पुढवीकाइपसु तद्देव उक्कणं भेण उववाएयवशे' अपर्याप्त माहरते उपयात ने प्रभा
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પૃથ્વિીકાયિકામાં કહેલ છે. એજ પ્રમાણે તેના ઉપપાતનું વણ ન સૂમ ખાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદવાળા વાયુકાયકેમાં અને વનસ્પતિ કાયિકામાં પણ કરી લેવુ’
' एवं ' पज्जत बायरते उकाइओ वि समयखेत्ते समोहणावेत्ता' एपसु चैव बीसठाणे उवाएयन्त्रो' अपर्याप्त माहर तेरसायिनी प्रेस ४ पर्याप्त मार તેજસ્કાયિકનુ' થન પણ સમજવું. અર્થાત્ સમય ક્ષેત્રમાં તેમને મારણાન્તિક સમ્રુદ્ધાતથી મરણુ કરાવીને આ વીસ સ્થાનેામાં-અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિીકાયિકાથી લઈને પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવામાં તેઆના ઉપયાત કહેવા જોઇએ ઉત્પાત કરવાની રીત પહેલા જ મતાવવામાં આવેલ છે. તે પ્રમાણે
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प्रमैन्द्रिका टीका श०३४ अ. श १ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनिο
अपर्याप्त उपपातितः, यथा - अव्यहित पूम् अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकस्य उपपात वर्णित स्वद्वत् पर्याप्त बादरतेजस्कायिकस्यापि उपपातो वर्णनीय इति भावः । एवं सव्वत्थ चि वायरते उकायिका अपज्जतगा य पज्जत्तनाय समयखेत्ते वायव्वा समोहणावेयन्नावि' | २४० | एवं यथैव अप तिक वादरतेजस्कायिक उपपातितः 'अज्जतवापरते उकाइएणं भंते!' इत्यादि सूत्रेण, एवमेत्र सर्वत्रापि विंशतिस्थानेष्वपि वादरतेजस्कायिका अपर्याप्तकाश्च पर्याप्तकाश्च समयक्षेत्रे उपपातयितव्याः समवघातयितव्या अपि । एवमपर्याप्त पर्याप्त वादग्तेजस्कायि
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अर्थात् जिस प्रकार से अपर्याप्त वादरतेजस्कायिक के उत्पातका अभी अभी वर्णन किया गया है उसी प्रकार से पर्याप्त बादर तेजस्कायिक के उपपात का भी वर्णन कर लेना चाहिये यही इस कथनका सारांश है । 'एवं सव्वथ वि बाघर ते उकाइया अपज्जतगाय पज्जन्तगाय समय खेते उववारयन्वा समोहणावेयव्या वि' जिस प्रकार 'अपज्जन्त बाघरतेउ काइएणं भंते!' इत्यादि सूत्र द्वारा अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक के उत्पातका कथन किया गया है, इसी प्रकार से सर्वत्र २० स्थानों में भी अपर्याप्त और पर्याप्तक बादरतेजस्कायिक जीवों के समय क्षेत्रको मनुष्यक्षेत्र को आश्रित करके उत्पातका कथन कर लेना चाहिये । अर्थात् उन्हें वहां उत्पन्न बोलना चाहिये । और वहीं पर उनका मारणान्तिक समुद्घात से मरण बोलना चाहिये । इस प्रकार अपर्याप्त और पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवोंका मनुष्यक्षेत्र में ही समुद्घात और
समन्न्वी 'अहे अपज्जत्तओ उवाइओ' अर्थात् ? प्रभा अपर्याप्त महर તેજસ્કાયિકાના ઉત્પાતનુ વર્ણન હમણાં જ ઉપર કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે પર્યાપ્ત ખાદર તેજસ્કયિકના ઉત્પાતનું વઘુન પણુ સમજવું. એજ
थना सारा डेस छे, 'एव सव्वत्थ वि वायर तेउकाईया अपज्जन्त गाय पज्जत्तगाय समयखेत्ते उबवायव्वा समोहणावेयव्वा वि' ने प्रमाये 'अपज्जत्त वायरतेअक्काइएण भद्रे ! त्यिाहि सूत्र द्वारा अपर्याप्त महर तेस्मायिना ઉત્પાદનું' કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે સઘળે ઠેકાણે-એટલે કે વીસે સ્થામાં પણ અપર્યાપ્તક અને પર્યાપ્ત ભાદર તેજસ્કાયિક જીવેાના સમય ક્ષેત્ર-મનુષ્ય ક્ષેત્રના આશ્રય કરીને ઉત્પાતનું કથન કહેવુ' જોઇએ. અર્થાત્ તેમની ઉત્પત્તી ત્યાં કહેવી જોઇએ. અને ત્યાંજ તેએનુ મારણાન્તિક સમ્રુદ્ધાતથી મરણુ કહેવું જોઈએ આ રીતે અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્ત ખાદર તેજષ્ઠાયિકાના સમુદ્દાત અને ઉત્પત્તી મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ ક્રમથી વીસે
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जगपासून
कानां मनुष्यक्षेत्रे समुद्घातः मनुष्यक्षेत्रे एवोपपातो यथाक्रमं विंशतिस्थानेषु वर्णनीय इति । वर्णनप्रकारस्तु पूर्व प्रदर्शित एव ज्ञातव्यः ॥ २४०॥
'वउक्काइया वणस्सकाइ ग य जहा पुढवीकाइया तहेव चक्करणं भेदेणं उववाएयन्त्रा' वायुकायिका वनस्पतिकायिकाथ यथा पृथिकायिका स्तथैव चतुष्केन मेदेन सूक्ष्मवादरपर्याप्तपर्याप्तभेदेन उपपातयितव्याः । वायुकायिकोऽपि च द्विविधः सूक्ष्मो वादरश्च । सूक्ष्मोऽपि अपर्याप्त पर्याप्त भेदेन द्विविध स्तथा बादरोऽपि अपर्याप्त पर्याप्त भेदेन द्विविध स्वदेवं चतुर्विधा वायुकायिकाः । तेषां चतुष्केन भेदेन वायुकायवनस्पतिकाययोः सर्वत्र सम्भवात् पृथिवीकायिकवदेव उपपातो वर्णनीयः । (३२०) एवमेव वनस्पतिकायिकानामपि चतुष्केन भेदेन पृथिवीकाय वदेव उपपातो वक्तव्यः ॥४०० कियत्पर्यन्तं चतुर्भेदभिन्नयोः वायुवनस्पतिकायिकयोरुपपातो वर्णनीय स्तत्राह - 'जाव' इत्यादि, जाव पज्जत उपपात यथाक्रम पील स्थानों में वर्णित करना चाहिये अन्यत्र नहीं । वर्णन करनेका प्रकार पूर्व में दिखा ही दिया गया है २४० ।
'वउक्काइयो वणस्सइकाइया य जहा पुढवीकाइया तहेव चक्क एणं भेदेणं उबवायच्या' पृथिवीकायिक के जैसा वायुकायिक का और वनस्पतिकायिकका अपने अपने भेदो के साथ सर्वत्र उपपाद कहना चाहिये । वायुज्ञायिक भी सक्षम और पादर के भेद से दो प्रकार का होता है इनमें सूक्ष्म वायुकाधिक भी अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया हैं तथा बादरवायुकायिक भी अपर्याप्त और पर्याप्त मे से दो प्रकार का कहा गया है। इस प्रकार चार प्रकार के वायुकायिके और चार प्रकार के वनस्पतिकायिक सर्वत्र संभवित होने से पृथिवीकाधिक के जैसे इनके उपपाद का वर्णन कर लेना चाहिये સ્થાને માં વન કહેવુ જોઈએ ખીજે નહી. વન કરવાના પ્રકાર પહેલાં उ५२ मताववाभा भावी गये छे. ते भुण समन्व. २४० )
'वाउ काइया वणस्सइकाइया य जहा पुढवीकाइया तव चवक्करण भेएण' उत्रवण्यव्वा' पृथ्विीनाथन प्रमाण वायुप्रयितु अने वनस्पति કાયિકાનુ` કથન ભેદે સાથે સ્વય' મનાવીને સઘળા સ્થાનેમાં ઉષપાત સમજવે. વાયુકાયિક પણુ સૂક્ષ્મ અને બદરના ભેદથી એ પ્રકારના થાય છે. સૂક્ષ્મવાયુકાયિકા પણ અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલ છે તથા ભાદર વાયુકાયિક પણુ અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલ છે. આ રીતે ચાર પ્રકારના વાયુકાયિક અને ચાર પ્રકારના વનસ્પતિકાયિકનુ ધે સંભવિત પણુ. હવાથી પૃથ્વીકાયિકની જેમ તેમના ઉપપાતનુ` વધુન
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ सा. श.१ १२ विनहगत्योत्पातनि०। थायरवणस्सइकाइएणं भंते !' यावत्पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिका खलु भदन्त ! अत्र यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिकस्यापर्याप्त बादरवायुकायिकस्य, पर्याप्त बादरवायुकायिकस्य, अपर्याप्त सुक्ष्मवनस्पतिकायिकस्य, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकस्य, अपर्याप्त पादरवनस्पतिकायिकस्य च संग्रहो भवति । एतादृशः पूर्वोक्तचतुर्भेदभिन्नो बनस्पतिकायिका, 'इसीसे स्मणप्पभाए पुढबीए' एसख्या रत्नपभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्ले चरिने समोहए' पौरस्त्ये पूर्वस्मिन् चर. मान्ते समवहतः, 'समोहणित्ता' समवहत्य मरणान्तिकसमुद्घातं कृत्वा, 'जे भविए इमीसे रयणपमाए पुढबीए' यो भव्य एतरया रत्नाभायाः पृथिव्याः, पच्चस्थिसिल्ले चरिमंते पज्जत वायरवणसइकाइयत्ताए उपजिजसए' पाश्चात्येपश्चिमे चरिमान्ते पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकतयोत्पत्तुम् । ‘से णं भंते ! कइसमइएण' स खच्च भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यतेति प्रश्नः । ४००, 'जाव पज्जत्तवायरक्षणसइकाइए णं अंते ! हनीले रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' यावत् हे भदन्त ! कोई पर्याप्त यादवनरूपतिकायिक इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में मरा
और 'समोहणित्ता जे अधिए इमीले स्यणप्प भाए पुढवीए पञ्चत्थिमिल्ले चरिमंते पज्जरा बायरवणस्लइकाइ पत्ताए उववज्जित्तए' मरकर वह इसी रत्नप्रभा के पश्चिम चरबान्त में चादर पर्याधन बनस्पतिकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुमा 'लेणं भंते ! कहलाइएणं.' 'तो हे भदन्त ! वह कितने समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता हैं ? यहां यावत् शब्द से सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिक का अपर्यापन बादर वायुसायिक पुश न . ४०० 'जाव पज्जत्त बायर वणसइकाइएण भ ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमते ! समोहए' यावत् लगन्ध પર્યાપ્ત વનસ્પતિકાયિક આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમનમાં મરણ પામે मन 'समोहणित्ता जे भविए इमीसे रवणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थि मिल्ले चरिमते ! पज्जत्त बायरवणस्सइकाइयत्ताए उववज्जित्तए' मरीन ते मा २त्नप्रमा પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં બાદર પર્યાપ્તક વનસ્પતિકાયિક પણાથી ઉત્પન थपाने योग्य थयो साय तो 'से ण भवे । कइसमइएण' भगवन al સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અહિયા યાવત્ શબ્દથી સૂકમ પર્યાપ્ત વાયુકાયિકનું, અપર્યાપન બાદર વાયુકાયિકનું, પર્યાપ્ત બાદ વાય. કાયિકનું, અપર્યાપ્ત સૂમવનસ્પતિકાયિકનું, પર્યાપ્ત સૂક્ષવનસ્પતિક વિકેનું અને અપર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિકનું ગ્રહણ થયેલ છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है-'सेस' तहेव जाव से वेणटण गोतमारे प्रभारी अपर्याप्त
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भगवती
उत्तरयति - 'सेम' इत्यादिना, 'सेयं तद्देव जाव से तेणद्वेणं' शेष तथैव यथा अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीका विकोपपातावसरे उत्तरे कथितं तथैव इहापि याचनार्थेन गौतम । एवमुच्यते, इत्यादि प्रकरणान्तं सर्वमपि उत्तरादिकं ज्ञातव्यम् । यावत् पदेन सम्पूर्णस्यापि उत्तरवाक्यस्य संग्रहो भवति ।
'दक्षिण चरमान्ते उपपावं वर्णयितुमाह- अपज्जतसुम' इत्यादि । 'अपज्जत मढवीकारणं भये ।' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणध्वमाए पुढ़वीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते समोहर' एतस्याः रत्नपमायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये- पश्चिमे चरमान्ते समवहतः 'समोहणित्ता जे भविए' समत्रका अप्त सूक्ष्म वनस्पतिद्याविकका, एवं अपर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक का संग्रह हुआ है । इस प्रकार प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतम स्वामी से कहते हैं - 'सेसे तहेच जाव से तेणद्वेणं' हे गौतम! जैसा अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक के उपपात के अवसर में उत्तररूप में कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी 'घावत् हे गौतम! मैंने इस कारण से ऐसा कहा है' इस प्रकरण तक कह लेना चाहिये | यहां यावत् पद से सम्पूर्ण उत्तर वाक्य का संग्रह हुआ है ।
अब सूत्रकार पूर्व दक्षिण चरमान्त में उपपात को वर्णन करते हैं - इसमें गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'अपज्जत सुहुम पुढवीकाइरणं भंते ।' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव 'इमी से पाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' इस रत्न - प्रमापृथिवी के पश्चिम चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात से मरा 'समोहणित्ता जे भविए इसी से रणनभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते
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સૂક્ષ્મ પૃથ્વીક,યિકના ઉપપાતના સંબધમાં ઉત્તર રૂપથી કન કરેલ છે, તેજ રીતે આ પ્રકરણમાં પણ યાવત્ હે ગૌતમ! મેં આકારણથી એવુ' કહ્યું છે કેઆ પ્રકરણ પર્યન્ત સમજી લેવુ અહિયાં યાવતુ પદથી આ સમગ્ર ઉત્તર વાકય ગ્રહણ કરાયું છે.
હવે સૂત્રકાર દક્ષિણુચરમાન્તમાં ઉપપાતનું વર્ણન કરે છે. આમાં शौतभस्वाभीो अलुश्रीने मे पूछयु छे ! - ' अपज्जत्त सुहुम पुढ़वीकाइयाण' भंते !' हे भगवन् अपर्याप्त सूक्ष्म अर्थ पृथ्वी थिए व 'इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमते । समोहए' मा रत्नडला पृथ्वीना पश्रिम थरभान्तभां भारशान्तिः समुद्घातथी भरायामे भने 'समोहणित्ता जे भविष
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shree for eater (०३४ अ. श. १ २०२ विग्रहगत्यत्पातनि
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इत्य - मारणान्तिक समुद्यातं कृत्वा यो भव्यः 'इमी से रयणनभाए पुढवीए' एतस्या रत्नमभायाः पृथिव्याः, 'पुरथिमिल्ले चरिमते' पौरस्त्ये- पूर्वे चरमान्ते, 'अषज्जत्त मुहुमपुढची का इयत्ताए उववज्जित्तर' अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकतया अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिकरूपेणोत्पत्तुम्, 'से णं भंते! कसम एणं' स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहणोरपञ्चवेति प्रश्नः । उत्तरमाह - सेसं तदेव' इत्यादि । ' सेसं बहेन निरवसेस' शेपम् - एतदतिरिक्त निरवशेष प्रश्न वाक्यमुत्तरवाक्यं च तथैन - सर्वत्र समुद्घातेषु सर्वत्र चोषपातेषु यथैव प्रश्नोत्तर प्रकरणं कथितं तेनैव रूपेण निरवशेषम् इहापि अध्येतव्यम् । एकसामयिकेन यावत् त्रिसामायिकेन वा विग्रहेणोत्पयत 'सेकेण्ड' इत्यादिकं पूर्वसूत्रपठितमेव 'अपज्जन्त हुन पुढची काहसाए उववज्जिन्तर' और मरकर वह उसी रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में अपर्यंत सूक्ष्म पृथिवीकाविक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ 'लेणं अंते ! कह०' तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते है- 'सेसे तहेब निरनलेस' हे गौतम | इस सम्बन्ध में जैसा कि पूर्व में सर्वत्र समुद्घातों में और उपपातों में प्रश्नो तर प्रकरण कहा गया है वैसा ही यहां पर भी वही सब कथन कह लेना चाहिये । अर्थात् वह वहां एक समग्रवाले विग्रह से उत्पन्न होता है अथवा दो समचाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है । 'सेकेणं' इत्यादि सूत्र से प्रश्न और 'से तेणट्टे० ' इत्यादि सूत्र मे उत्तर जैसा पहिले कहा जा चुका है वह सब यहां पर वहां से आकर्षित कर कह देना चाहिये । यही बात - लेसं तहेन्द निरवसेसं '
O
इसे रयणप्पा पुढीर पुरथिमिल्ले चरिमंते । सुहुमपुढवीका इयत्ताए उववज्जित्तए' મરણ પામીને તે એજ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ચરમન્તમાં સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક यथाथी उत्यन्न थवाने योग्य जनेस होय 'से णं भते ! कइ समइएण '०' तो डे ભગવન્ તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रभुश्री छे - 'सेस तत्र निरवसेस' हे गौतम! आ सधभां જે પ્રમાણે મે' પહેલા ખધે સ્થળે સમુદ્દામાં અને ઉપપાતેમાં પ્રશ્નોત્તર રૂપથી પ્રકરણ કહ્યુ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ તે સઘળું કથન કહી લેવુ. જોઈએ. અર્થાત્ તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે અથવા એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન थाय छे. ‘से केणट्टेण' इत्यादि सूत्रधी प्रश्न भने 'से तेणद्वेणं' इत्यादि सूत्रथी ઉત્તર જે પ્રમાણે પહેલાં કહેલ છે. એજ પ્રમાણે તે તમામ ઉત્તર અહીયાં ठाड़ी सेवा. भेन वात 'सेस' तद्देध निरवसेस' मा सूत्रपाठ द्वारा अड़ियां सूत्रारे
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भगवतीने ज्ञातव्यमितिभावः । एवं जहेब पुरथिमिल्ले चरिमंते सयपदेसु वि समोइया एवं यथैव पौरस्त्ये चरमान्ते सर्वपदेण्यपि अपर्याप्त पर्याप्तादि भेदभिन्नपृथिव्यादि चनस्पतिकायिकान्त विंशति स्थानेषु समरहताः पचत्पिमिल्ले चरिमंते समयखेचे य उवाइया' पाश्चात्ये चरमान्ते पृथिव्यपू वायुबनस्पतिकायिकाः समयक्षेत्रे पापर्याप्तवादपर्याप्तवादरतेजस्कायिका उपपातिताः । 'जे य समयखेत्ते समोहया ये च समयक्षेन्ने समबहताः सता, 'पचत्थिगिल्ले चरिमते समयखेने य उववाहया' पाश्चात्ये चरमान्ते पृथिव्यादय श्वस्वार, समयक्षेत्रे च बादर'तेजस्कायिका उपपातिताः। एवं एएणं चेव कमेणं' एदमेरोन क्रयेण, 'पञ्चस्थिमिरले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया पुरथिमिलले चरिमंते समयखेते य इस सूत्रपाठ मारा यहां लाई गई है । 'एवं जहेच पुरस्थिमिस्ले परिमंते सम्मपदेसु वि समोरया पच्चस्थिलिल्ले चरिमंते लमयखेस य उववाहया' तथा इल स्यून पाठ द्वारा सूमार ऐसा लपझा रहे हैं कि जैसा पूर्वचरमान्त में अपर्यापन पनि आदि भेद विशिष्ट पृथिवी आदि से लेकर वनस्पतिकाधिक लस के २० स्थानोवाले जीवोंका मारणान्तिक समुद्घात करके मरण कहा गया है और मरण करके जैसा उनका पाश्चात्य चस्मान्त के पृथिवी अपू चायु और वनस्पतिकाथिकों में उपपात कहा गया है तथा अपर्याप्त पादर और पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों का समयक्षेत्र में उत्पाद कहा गया है तथा 'जे य समखेत्ते समो.
या पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उचाइया' जो जीव बाद अपर्याप्त तेजस्कायिक, बादर पर्याप्त तेजहभाषिक्ष-समयक्षेत्र में मारणातिक समुद्घात करके पाश्चात्य चरम्मान्त में-रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम-चरमान्त में एवं समयक्षेत्र में उत्पन्न हुए कहे गये हैं। 'एवं समावेस छे. 'एवजहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते सव्वपदेस वि समोइयां पच्छस्थिमिल्ले चरिमंते समयखेते य उववाइया' तथा ॥ सूत्रा8 द्वा२। सूत्रार એવું સમજાવે છે કે-જેમ પૂર્વે ચરમાનમાં અપર્યાપ્ત પર્યાપન વિગેરે ભેજવાળા પૃથ્વીકાય વિગેરેથી લઈને વનસ્પતિકાય સુધીના ૨૦ વીસ સ્થાનમાં ભારણા ન્તિક સમુદ્દઘાત કરીને જીવનું મરણ કહેવામાં આવેલ છે, અને મરણ કહીને જે રીતે તેઓનું-એટલે કે પૃથ્વી, અપ, વાયુ, અને વનસ્પતિકાયિકમાં-એટલે
पश्रिम यरमान्तमा ५५ात त छ, तथा 'जे य समयलेते समोठ्या पच्चत्थिमिल्ले चरिमते ! समयखेते य उववाइया' रे ७१.४२ २५५यान ते ,
બાદર પર્યાપ્ત તેજરકાયિક સમય ક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્રઘાત કરીને પશ્ચિમ . ચરમાન્તમાં-રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમન્તમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં થયેલા
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनि० उववाएयव्या तेणे गमएणं' पाश्चात्ये चरमान्ते समयक्षेत्रे च समवहताः पौरस्त्ये चरमान समयक्षेत्रे च उपपातयितव्या स्तेनैव गमकेन-तेन पूर्वोक्तनैव प्रकारेणेति । ‘एवं एएणं गएणं दाहिगिल्ले चरिमंते समोहयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेने य उपनाओ' एवमेतेन गमकेन दाक्षिणात्ये चरमान्ते दक्षिण चरमान्ते समवहतानाम् औत्तरे चरमान्ते समयक्षेत्रे च उपपातो वर्णनीय ‘एवं चेव उत्तरिसले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया' एवमेवोत्तरे चरमान्ते समयक्षेत्रे च समवहताः 'दाहिणिल्ले चरिमंते समय खेत्ते य उपचाएयव्यातेणेव गभएणं' दाक्षिएएणं चेव समेणं पच्चस्थिपिल्ले चरिमंते लमयखेत लगोहया पुरस्थि मिल्ले चरिमंते समयखेत्ते श उचलाएयता उती कार इसी क्रम से पश्चिम चरमान्त और समयक्षेत्र में उनका धारणान्तिक समुद्धात से मरण कहना चाहिये और मरण कहकर उनका पूर्व चरमान्त में एवं समयक्षेत्र में उत्पाद कहना चाहिये । 'एवं एएणं गमएणं दाहिणिल्ले चरिमंते सोयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते ललयखेस य उववाओ 'तथा इसी प्रकार इसी क्रम से इन जीवोंका दक्षिण चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात से करण कहकर उनका उत्तर चरमान्त और लमयक्षेत्र में उत्पाद का वर्णन करना चाहिये । 'एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते सम. यखेत्ते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयचा तेणेव गमएणं' लथा इसी प्रकार ले हली क्रम से उत्तर घरमान्त में और समय क्षेत्र में उनका मारणान्तिक समुद्घात कहकर दक्षिण के एवं एएण चेव कमेण पञ्चस्थिमिल्ले चरिमते ! समयग्वेते समोइया पुरस्थिमिल्ले चरिमंते ! सायखेते य उपवाए गव्हा' मेरीत ! भथा पश्चिम ચરમાન્તમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં તેમનું મારણતિક સમુદ્રઘાતથી મરણ કહેવ જોઈએ અને મરણું કહીને પૂર્વચરમાન્ડમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં તેઓનો अपात डा न. 'एव एएण गमेण दाहिणिल्ले समोहयाण उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेते य उववाओ' तथा मा प्रमाणे मा भथी આ જીતુ દક્ષિણ ચરમાન્ડમાં ભારણાન્તિક સમૃદુઘાતથી મરણ કહીને તેઓનું S२ यरमा-तमा भने समय क्षेत्रमा पानु प ४२ न . 'एव' चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमते समयखेते य उववाएयव्वा तेणेव गमएण" तथा मा प्रमाणे मा०४ मथी उत्तरमा ચરમાતમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં તેઓને મારણાન્તિક સમુદ્રઘાત કહીને દક્ષિણના
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भगवती
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णात्ये चरमान्ते समयक्षेत्रे चोपपातयितव्याः तेनैव पूर्वप्रदर्शितेनैव गमकेन प्रकारे. णेति । अयं भावः यथा - रत्नममा पूर्वचरमान्ते समवहतर रत्नप्रभापश्चिम चरमान्ते उपपातो वर्णितः, एवं रत्नप्रभा पश्चिमचरमान्ते समवतस्य रत्नप्रभा पूर्व रमन्ते समक्षेत्रे चोपपातो वर्णयितव्यः तथा रत्नप्रभाया दक्षिणचरमान्ते समयक्षेत्रे च समवतस्य रत्नप्रभा उत्तरचरमान्ते समयझेत्रे च समवहतस्य 'रत्नप्रभाया उत्तरचरमान्ते समयक्षेत्रे चोपपातो वर्णयितव्यः तथैव रत्नप्रभाया उत्तरचरमान्ते समयक्षेत्रे च समवहतस्य रत्नममा दक्षिणचरमान्ते चोपपातो वर्णनीयः । आलापकप्रकारः स्वयमेव ऊहनीयः ॥
॥ इति रत्नाति तमकारयकरणात्मकं द्वितीयं सूत्रम् ॥
'चरमान्त में और समयक्षेत्र में उनके उत्पादका कथन उसी प्रकार के गमकसे करना चाहिये । लाहपर्य यह है-जैसा रत्नप्रभा चरमान्त पृथिवी के पूर्व चरमान्त में समवहत पृथिव्यादिकाधिक जीव का रत्नप्रभा - पृथिवी के पश्चिम चरमान्त में उपपात वर्णित हुआ है वैसा ही रत्नप्रभा पृथिवी के पश्चिम चरभान्त में लमबहत पृथिव्यादिकायिक जीवका 'रत्नापृथिवी के पूर्व चत्यान्त में और समयक्षेत्र में उपपाद वर्णित कर लेना चाहिये । तथा रत्नप्रभा के दक्षिण चरमान्त में और समयक्षेत्र में समवहन हुए उस जीव के उत्पादका वर्णन रत्नप्रभा पृथिके उत्तर चश्मान्त में और समयक्षेत्र में कर लेना चाहिये। इसी प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी के उत्तर चरलान्त में एवं मनुष्यक्षेत्र में समवहत हुए
ચરમાન્તમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં તેના ઉત્પાદનુ કથન કરવુ' જોઈએ, કહે થાતુ તાત્પ એ છે કે-જે રીતે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાતમાં જે પ્રમાણે સમુદ્દાત કહેલા પૃથ્વિકાયિક વિગેરે જીવના રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ઉપપાતનું વષઁન કર્યુ છે, એજ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં સમુદ્ધાત કરેલ પૃથ્વીકાયક વિગેરે જીવાનો રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં સમુદ્દાત કહેલ જીવના "ઉત્પાદનું વર્ણન કરી લેવું જોઇએ. તથા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના દક્ષિણ ચરમાન્તમાં અને સમયક્ષેત્રમાં સમુઘાત કરેલ તે જીવના ઉત્પાદનુ વન પૃથ્વીના ઉત્તર ચરમાતમાં અને સમયક્ષેત્રમાં કરી લેવુ' જોઈએ. એજ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉત્તર ચરમાતમાં અને
રત્નપ્રભા
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प्रमैयचन्द्रिका का ला०३४ अ. श.१ सू०३ श प्रभाश्रितैकेन्द्रियाणामुत्पात: ३५७
अत्र रत्नप्रभा प्रकरणे पृथिव्यायेकैकस्मिन् जीवस्थाने विंशति विंशति गमक सद्भावेन पूर्वान्तगमानां चत्वारि शतानि ४००, एवं पश्चिमान्त दक्षिणान्तोत्त रान्तगमानां प्रत्येकं चत्वारि चत्वारिशतानीति समील्य सर्वे पोडशशत संख्यकाः १६०० गमा भवन्तीति ।मू-२॥
इति रत्नप्रभापृथिव्याश्रितोपपातप्रकारपकरात्मकं द्वितीयं सुत्रम् ॥२॥ जीवोंके उत्पाद का वर्णन रत्नप्रभा पृथिवी के दक्षिण चरमात में और समयक्षेत्र में कर लेना चाहिये। आलाप प्रकार इस सम्बन्ध में अपने आप उत्पन्न कर लेना चाहिये । इस प्रकार रत्नप्रभाश्रित उपपात के प्रकार का यह प्रकरण रूप द्वितीय सूत्र समाप्त हुआ। इस रत्नप्रभा प्रकरण में पृथिवी आदि एक एक जीव स्थान में बोस २ गमकोंका सद्भाव है इससे पूर्वान्त गमकों की संख्या ४०० होती है। इसी प्रकार से पश्चिमान्त, दक्षिणान्त और उत्तरान्त गर्माको प्रत्येककी ४००-४०० की संख्या होती है। इस प्रकार चारों दिशाओं के गमक १६०० होते हैं । ॥ २॥ મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં સમુદ્ઘત કરેલા જીવના ઉત્પાતનું વર્ણન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના દક્ષિણ ચરમન્તમાં અને સમય ક્ષેત્રમાં કરી લેવું. આ રીતે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના આશ્રયવાળા ઉપપાતના પ્રકારનું આ પ્રકરણ રૂપ બીજુ સૂત્ર સમાપ્ત થયું. આ રત્નપ્રમાના પ્રકરણમાં પૃવી વિગેરે એક એક જીવ સ્થાનમાં વીસ વીસ ગમકેને સદ્ભાવ કહેલ છે એથી પૂર્વાનના ગામની સ ખ્યા ૪૦ ચારસો થાય છે એજ રીતે પશ્ચિમન, દક્ષિણન્ત અને ઉત્તરાન્ત, ગની દરેકની સંખ્યા ૪૦૦-૪૦૦ ચારસો, ચારસોની થાય છે. આ રીતે ચારે દિશાઓના થઈને કુલ ગમકે ૧૬૦૦ સોળસે થાય છે. સૂરા!
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भगवती ___रत्नमभापृथिव्याश्रिताना मेकेन्द्रिय जीवानां संघातोपपातकार संप्रदर्य शर्करानमाश्रितैकेन्द्रियजीवानां समुद्घातोपपातं प्रदर्शयन्नाह-अपजत्त' इत्यादि।
घूलम्-अपज्जन्त सुखमपुढवीकाइएणं भंते! लकरप्पभाए पुढवीए पुरस्थिसिल्ले चरिखते ससोहए, समोहणिसा जे भविए सारपसाए पुढबीए पञ्चस्थिलिल्ले परिमंते अपज्जन्त सुहमपुढवीकाइयत्ताए उत्रबज्जित्तए । एवं जहेब रयणप्पभाए जाव से तेणटेणं० एवं एएणं को जाव पज्जतपसु सुहुमतेउकाइएसु। अपजन्तसुहमधुढवीकाइए णं संते! सकरप्पभाए पुढवीए पुरथिसिल्ले बरिसंते समोहए लमोहणित्ता जे भविए समयस्त्रेसे अपज्जन्तबासरतेउकाइयत्ताए उबवजिन्तए, से गंभंते! कइ समइएणं गुच्छा, गोथमा ! दुसमा एण बा, ति सभइएण वा विमहेणं उववजिजज्जा । ले कोण?ण एवं खलु गोयमा ! भए सस सेढीओ पन्नताओ तं जहा, उज्जुयायया जाव अहवाला। एगो वंकाए लेडीए उपवनसाणे, दुसम. इएण विरुगहेणं उपजेज्जा, दहलो चंकाए लेडीए उववजमाणे तिलमइएणं विगहेणं उनमजेना, ले तेगडेणं० एवं पजसएस शिवायरले उकाइएसु, लेलं जहा रथगप्पभाए। जे वि वायरलेउकाइया अपज्जतमा य पज्जत्तमा व समयखेत्ते समोहणिता दोचाए मुदबीए पञ्चस्थिमिल्ले चरिसंते पुढवी. काइएसु छउठिबहेसु आउकाइएसु चउठिरहेसु, तेउकाइएसु दुविहेसु, वाउकाइएसु चडबिहेलु, वणनइकाइएसु चउविहेसु उववज्जति ते दि एवं व दुसमहाएन वा, तिलमइएण वा विग्गहेणं उववाएयत्वा । वायरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगाय
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ० श. १ २०३ श०प्रभाथिजै केन्द्रियाणामुत्पातः ३५९ जाहे तेसु वेव उववज्जति, ताहे जहेब त्यणप्पभाए तहेच एगसमइय दुलमइय तिसमध्य विगहा साणियव्वा, सेसं जहेव रयणप्पसाए तहेव निरवसेसं । जहा सक्षरप्पसाए वतव्वया . भणिया एवं जान अहे सत्तसाए वि भाणियन्त्रा ॥ सू० ३॥
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छाया - अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल भदन्त ! शर्करा प्रभायाः पृथि व्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समहतः समवहस्य यो भव्यः शर्कराभायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये चरमा पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतयोपम् एवं यथैव रहनप्रभायां यावत् तत्तेनार्थेन० । एवम् - एरोन कमेण यावत् पर्याप्तकेषु सुक्ष्मतेजEntry | अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु सदन्त ! शर्करागमायाः पृथिपौरस्त्ये चरमान्ते समवदतः समवहत्य यो धन्यः समयक्षेत्रे अपर्याप्तवादरतेजस्कायिकता उत्पम् स खलु सदन्छ ! कति सामरिकेन पृच्छा, गौतम ! द्वि सामयिकेन वा, जिलामयिकेन वा विग्रहेणोत्पद्येत, तरकेनार्थेन, एवं खल गौतम ! मया सप्तश्रेणयः प्रज्ञयाः तद्यथा ऋज्यायला यानदर्ज चक्रनाला एकतो वक्रया श्रेण्या उपपद्यमान स्त्रिनामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत, द्विधातो चक्रया श्रेण्या उपपद्यमान विलासयिकेन विग्रहेणोत्यद्येत, तत्तेनार्थेन । एवं पर्याकेष्वपि वादरतेजरका विदेषु शेष यथा रत्नमायणम् । येऽपि चादरdreafter अपर्याप्तकाथ पर्याप्तकाश्च समयक्षेत्रे समरस्य द्वितीयायाः पृथि
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पाश्चात्ये चरमान्ते पृथिवीकायिकेषु चतुर्विधेषु अकाधिकेषु चतुर्विधेषु, तेजस्कायिकेषु द्विविधेषु वायुगायिकेपू, चतुर्विधेषु वनस्पतिकायिकेषु चतु
उत्पद्यन्ते तेsपि एवमेव, द्विसामयिकेन वा, विशामयिकेन वा, विग्रहेण उपपातयितव्याः । बादर तेजस्कायिकाः अपर्याप्तकाथ पर्याप्तकाश्च यदा तेब्वेवोत्पचन्ते तदा यचैव रत्नप्रमायां तथैव एकलामयिक द्विसायिक-विसामयिक विग्रहा भणितव्याः । शेष यथेत्र रत्नमायां तथैव विषम् । यथा शर्करा प्रभाया वक्तव्यता भणिताः एवं यावदधः सप्तम्या अपि भणितव्याः ॥ ०३॥
रत्नप्रभा पृथिवी के आश्रित एकेन्द्रिय जीवों के समुदघात और उपपात के प्रकार को प्रकट करके अब शर्करामभाश्रित एकेन्द्रिय जीवों के समुद्रघात और उपपात के प्रकार को सूत्रकार प्रकट करते हैंરત્નપ્રભા પૃથ્વીના આશ્રયવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાના સ ઘાત અને ઉપપાત ના પ્રકારને પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના આશ્રયવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાના સમુદ્લાતા અને ઉપપાતના પ્રકારો પ્રગટ કરે છે. ~~
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भगवती टीका-अपज्जत्तसुदुरपुढवीकाइए णं भंते' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिका खल्ल भदन्त ! 'सकरप्पभाए पुढवीए' शकरामभायाः द्वितीयनारकपृथिव्याः, 'पुरथिमिलले चरिमंते समोहए' पौरस्त्ये पूर्वसिसन् चरमान्ते समरहतो मारणातिकपमुद्घातं कृतवान् । 'समोहणित्ता जे भविए' समबहत्य मारणान्तिक समुदघातं कृत् यो भव्यः योग्यः 'सकरप्पाए पुढनीए शर्कराममाया द्वितीयपृथिव्याः, 'पच्चथिमिल्ले चरिमंते' पाश्चात्ये-पश्चिमे चरसान्ते, 'अपज्जत्त मुहुमपुढवीकाइताए उपबज्जित्तए' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवरूपेणोत्पत्तुम, स खलु भदन्न ! एकसामयिकेन वा, विग्रहेण यावत् त्रिसामयिकेन विग्रहेण 'अपज्जत सुहमपुढची काहए ण अंते ! सकरपाए पुढगए' इत्यादि
टीमार्थ--'अपजस सुहमपुढचीलाइए णं संते!' हे भदन्त ! जिस अपर्याप्त स्वक्षमपृथिवीकाधिक जीबने 'लवकर पाए पुढबीए पुरस्थि. मिल्ले चरिते समोहए 'शर्कराममा पृथिवी के पूर्वघर लान्त पूर्वभागके अन्त में मारणान्तिक ससुदूघात से हरण क्षिया 'लोहणित्ता जे भविए लक्करप्पभाए पुढचीए पच्चस्थिभिल्ले चरिते अपज्जन्त सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उवज्जित्तए' और भरकर बाह शर्करामभापृथिवी के पश्चिम चरमान्त पश्चिम भाग के अन्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो हे सदन्त ऐसा पह जीव वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? क्या एक समयवाले विग्रह ले वह वहां उत्पन्न होता है ? अक्षया दो समयचाले विग्रह से वह वहां उम्पन्न होता है ? अथवा तीन लत्यवाले विग्रह से वह वहां
'अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाण भवे ! सकरप्पभाए पुढबीए' ऽत्यादि
टी -अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइए णं भंते !' मगवन् रे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवे 'सकरप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमते ! समोहए' શર્કરાખભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્ત (પૂર્વભાગના અન્ત)માં મારણાન્તિક સમુદુઘાત ४शन भ२९पा भने 'समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमते अपाजत्त सुहम पुढ़वी कइयत्ताए उबवज्जित्तए' मने भरणपाभान તે શર્કરા પ્રભા પ્રથવીના પશ્ચિમ ચરમાન્ત પશ્ચિભાગના અંતમાં અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય થયેલ હોય તો હે ભગવનું એ તે જીવ ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તે એક સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી તે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા ત્રણ સમય વાળી વિગ્રહ ગતિથી તે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ.श.१ सू०३ श प्रभाश्रितैकेन्द्रियाणामुत्पातः ३६१ उत्पद्यतेति प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं जत्र' इत्यादि, ‘एवं जहेर रयणप्पभाए जाव से तेण?णं' एवं यथैव रत्नपभायां तथैव शर्कराप्रपायामपि वाच्यम् , यावत् तत्तेनार्थेन हे गौतम ! एमुच्यते एकमामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, घिसाम. "यिकेन वा, विग्रहेण उत्पधेत इति पर्यन्तः पाठोऽत्र वाच्यः । 'ए। एएणं कमेणं जाव पज्जत्तमुहुमतेउकाइएसु' एवमेतेन उपर्युक्त प्रकारेण यावत् पर्याप्तसूक्ष्म तेजस्कायिकेषु अत्र यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽपर्याप्त वादर पृथिवीकायिक पर्याप्त पादरपृथिवीकायिकाऽपर्याप्त सूक्ष्माकायिक-पर्याप्त सूक्ष्माकायिकाऽपर्याप्तवादराऽप्कायिक-पर्याप्तवादराकायिकाऽपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकानां संग्रहो भवति। तथा च-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिउत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रलुश्री गौतमस्वामी ले रहते हैं-'एवं जहेच रयणप्पभाए जाच से लेणष्टेणं 'हे गौतम ! जैसा रत्नप्रभापृथिवी में कहा गया है वैसा ही शर्करामापृथिवी में भी यावत हे 'गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वह वहां एक लमषवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो बायवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और तीन समयवाले विग्रह को भी उत्पन्न होता है, यहां तक प्रकरणका कथन करना चाहिये । 'एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्त सुहुम तेलकाइएसु 'इसी क्रम से यावत् पर्याप्त सक्षम तेजस्वशायिक तक में जानना चाहिये। यहां धावत्पद से पर्याप्त सक्षम पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिक, पर्याप्त बादरपृथिवीकाधिक, अपर्याप्त सक्षम अप्कायिक, पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक, अपर्याप्त बादअपशाथिक, पर्याप्त यादर अप्कायिक एवं अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक इन सबका ग्रहण गौतभस्वामीन ४ छ 3-‘एवं जहेव रयणप्पभाए जाव से तेण?ण' गीतमરત્નપ્રભા પૃથ્વીના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનું કથન શર્કરામભા પૃથ્વીના સંબંધમાં પણ યાવત્ – હે ગૌતમ ! મેં એવું કહ્યું છે કે-તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહમતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, અને ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથન સુધીનું સઘળું પ્રકરણ કહેવું જોઈએ. ‘एवं एएणं कमेण जाव पज्जत्तसुहुमतेउकाइएसु' मा भथा यापत् पर्याप्त सूक्ष्म તેજસ્કાયિક સુધીમાં સમજવું અહિયાં યાવત્પદથી પર્યાપ્તસૂફમપૃથ્વીકાયિક, અપર્યાપ્ત બાદરપૃવીકાયિક, પયોંસબાદરપૂર્વાાિયિક, અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ અષ્કાયિક પર્યાપ્તસૂક્ષ્મ અષ્કાયિક, અપર્યાપ્ત બાદર અાયિક પર્યાપ્ત બાદરઅપ્પાયિક અને અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મતેજસફાયિક આ સઘળા ગ્રહણ કરાયા છે. તથા-અપ
भ० ४६
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__भगवती फस्य शर्करापमा पूर्वचरमान्ते समवहत्य शर्करापमा पश्चिमचरमान्ते, सा पद्यमानस्य अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादारभ्य यारत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्का. 'यिकेषु उत्पतिं वदन् एष एव कमो ज्ञातव्य इति । अथ एतदेव समयक्षेत्रमाश्रित्याह-'अपज्जत सुहुमपुढवीकाइए णं अंते' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिलले चरिमंते समोहए' शर्करा. प्रभाया द्वितीय पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान् 'समोहणिचा जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तवायरतेउकाइयत्ताए उपवज्जित्तए' समवहत्य मारणान्तिकसमुद्घातं कृत्वा यो भव्यः समयक्षेत्रे अपर्याप्तवादरतेजस्कायिकतया-अपर्याप्तवादरतेजस्कायिकरूपेण उत्पत्तुम् , 'से गं भंते ! कइ समइ एणं पुच्छा' स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेण उत्पहुआ है । तथा च-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकका शर्कराप्रभा पृथिवी के पूर्ववरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात द्वारा मरण कहकर जैसा उसका शर्करामभापृथिवी के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक रूप से उत्पाद एक अथवा दो अथवा तीन समयवाले विग्रह द्वारा कहा गया है-सो इसी प्रकार से इसकी उत्पत्ति पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों तक में कह लेनी चाहिये । 'अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! 'हे भदन्त ! जिस अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवने
सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' शर्कराप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमात में सारणान्तिश लनुद्घात से मरण किया 'समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्त बायर तेउकाइयत्ताए'
और मरकर वह समयक्षेत्र अढाई द्वीप समुद्र में अपर्याप्त बादतेज. स्कायिक रूप से उत्पत्ति के शोग्य हुआ तो 'लेणं अंते ! कइसमइएण ર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીકાયિકોનું શર્કરાપભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મારણાનિક સમુદ્યાત દ્વારા મરણ કરીને જે રીતે તેઓનો શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમચરમાતમાં અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વી કાયિકપણાથી ઉત્પાદ એક અથવા બે અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી કહેલ છે, તે એજ પ્રમાણે તેઓની
पत्ति पति सूक्ष्म ते४२ यि। सुधीमा हेवी नो 'अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइएण मंते ।" उ सन् २ मर्यात सूक्ष्म पृथ्वी।यि: ० 'सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए' शरामा थाना पूर्व य२मान्तमा भान्ति समुदधातथी भर पाभ्य। 'समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तवायरते उकाइयत्ताए उबवज्जित्तए' मने मरीन समय ક્ષેત્ર (અઢી દ્વિીપ)માં અપર્યાપ્ત બાદરતેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન થવાને ચોગ્ય
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०३ श०प्रभाश्रितैकेन्द्रियाणामुत्पात ३६३ येत ? इति पृच्छया-प्रश्नः सगृह्यते । मायानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुसमइएण वा, विलमइएण वा, विगहेण उवज्जेज्जा' द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पधे । इत्युत्तरम् । इ. शर्कराममा पृथिवी पूर्वचरमान्ताद् मनुष्यक्षेत्रे समुत्पद्यमानस्य वादरतेजस्कायिकस्य समश्रेणि नास्तीति, 'दुसमइए णं' इत्यादि कथितम् । एकपामयिकेनेति न कथितम् । समश्रेण्यां गच्छत एव एकसामयिक विग्रहसम्भवो भवति, विवेण्या गच्छरस्तु द्वयादिसामयिक विग्रह यथाक्रम भवतीति भावः, 'से केणटेणं' तत्केनार्थेन भदन्त । एवं. मुच्यते द्विसामयिकेन बा, निसामयिकेन दा, विग्रहेणोत्पद्येत ? इति पुनः प्रश्नः । भगवानाह--‘एवं खलु' इत्यादि । 'एवं खलु गोयमा ।' एवं खल हे गौतम ! पुछा 'हे भदन्त ! यह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इसके सम्बन्ध में प्रभुश्री उत्तर रूप से कहते हैं-'गोयमा! दुसमइएण वा तिलमइएण वा विगहेणं उवरज्जेज्जा' 'हे गौतम ! वह वहां दो समयवाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि शर्करा पृधिवी के पूर्व चरमान्त से मनुष्यक्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले बादरतेजस्कायिक जीव का वह उत्पत्ति स्थान समणि में नहीं पड़ता है। एक समयवाला विग्रह समश्रेणिवाले उत्पत्ति स्थान में जानेवाले जीवका होता है। विश्रेणि ले जानेवाले जीव को दो आदि समय का ही विग्रह होता है। 'से केणद्वेणं भंते !' हे अदन्त ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह वहां दो समयवाले विग्रह से अयथा तीन समयबाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? ऊत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं खलु गोयमा ! मएं। मनस हाय, से गं भंते ! कइ समएणं पुच्छा' भगवन् त त्योan સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભશ્રી ४ छे ४-'गोयमा ! दुसमइएणं वा, तिसमइएणं वा विग्गहेणं उववजेज्जा' હે ગૌતમ! તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વચરમાત્તથી મનુષ્યક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા બાદરતેજસ્કાયિક જીવનું તે ઉત્પત્તિસ્થાન સમશ્રેણીમાં પડતું નથી. એક સમયવાળો વિગ્રહ સમગીવાળા ઉત્પત્તિસ્થાનમાં જવાવાળા જીવને હોય છે. વિશ્રેણીથી જવા વાળા જીવને બે વિગેરે સમયની જ વિગ્રહ ગતિ હોય છે.
से केणद्वेणं भंते !' लगवन् मा५ मे ॥ २४थी हे। छ। हैતે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી Guन्न थाय छे? मा प्रश्न सत्ता प्रश्रा छे एवं खल
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भगवतीमधे 'मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ' मया-महावीरेण सप्तश्रेणयः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहां तद्यथा-'उज्जुयायया जाव अद्धचक्कवाला' ऋग्वायता यावद् अर्द्धचक्रवाला, अत्रयावत्पदेन एकतो वक्रा, द्विधातो वक्रा, एकतः खा, द्विधातः खा, चकवाला इत्यन्तश्रेणीनां संग्रहो भवति, तत्र-'एक ओ बकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गणं उबवज्जेज्जा' एकतो वक्रया द्वितीय श्रेण्या उत्पधमानो द्विसामयिकेन विग्रहेणोत्पधेत इति । ‘से तेणटेणं.' तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, द्विसामयिकेन वा, निसामयिकेन वा, विग्रहेण समुत्पद्यतेति ! ‘एवं पज्जत्तएम सत्त सेढीओ पण्णत्तामओ 'हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही है 'तं जहाँ' जैले-'अन्जु प्रायथा जाव अद्ध चकवाला' ऋज्वायता यावत् अर्धवाला यहां थावत्पद से-एकतो वका, द्विधातो वक्रा, एकतः खा, द्विधात: खा, और चकवाला' इन अवशिष्ट श्रेणियों का ग्रहण हुआ है। इन में से जो जीव 'एकमओ वंशाए सेढीए उयबज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उबवज्जेज्जा' उत्पत्तिस्थान में एकतो वक्रा श्रेणि से उत्पन होता है वह वहां दो समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। यहां समणि नहीं है। इसलिए: प्रथमश्रेणि से गमल का अभाव रहता है। 'दुहओ चकाएं खेडीए उववज्जमाणे तिसमहरण विगहेणं उवव
जेज्जा 'जो जीव उत्पत्तिस्थान में द्विधातो वका श्रेणि से जाकर उत्पन्न होता है वह यहां तीन खमयवाले विग्रह ले उत्पन्न होता है ? 'से तेण. टेणे. इस कारण हे गौतम ! मैंने पूर्वोक्तरूप ले ऐसा कहा है कि वह वहां दो समयकाले विग्रह से अथवा तीन समयकाले विग्रह से उत्पन्न गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओं' गौतम ! में सात श्रेणीयो डस छ. त जहा' ते मा प्रभाव छ – 'उज्जुयायया जाव अड्ढचक्कवाला' ત્રાજવાયતા યાવત્ અર્ધચક્રવાલા અહિયાં યાસ્પદથી એકતેવકા, દ્વિધાતાવકા, એક્તા ! ખા, દ્વિધાતઃ ! ખા અને ચકવાલા આ બાકીની શ્રેચ ગ્રહણ १२।७, छे. मामाथी ? ७१ 'एक ओ वंकाए सेढोए उवजमाणे दुसमइएणं विगहेणं उबवज्जेज्जा' पत्तिस्थानमा ताप श्रेणीथी 4-1 थाय छे. તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં સમશ્રણ हाती नथी. मेथी पहेली श्रेणीथी गमन। ममा २९ छे. 'दुहओ वंकाएं सेढीए उबवज्जमाणे तिसमइएण विगहेणं उववज्जेज्जा'२ पत्तिस्थानमा દ્વિધાતેવા શ્રેણથી જઈને ઉત્પન્ન થાય છે, તે ત્યાં ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ शतिथी सत्पन्न थाय छे. 'से तेणट्रेणं० ते १२५थी गौतम ! में पता કહ્યા પ્રમાણે એવું કહે છે કે–તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ २०३ श प्रभाश्रितैकेन्द्रियाणामुत्पातः ३६५ वि बायरतेउकाइएम' एवम् पर्याप्तवादरतेजस्कायिकेषु यथा-अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकस्य द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेणोत्पाद: कथितो न तु एकसामयिकेन तथैव पर्याप्तेषु अपि बादरतेजस्कायिकेषु शर्कराममा पूर्व चरमान्तात् शर्करामभापश्चिमचरमान्ते आगत्य समुत्पत्तुं योग्यस्य अपर्याप्त सूक्ष्म प्रथिवीकायिकस्य द्विसामयिकेन वा त्रिसामरिकेन या विग्रहेण सगुत्पादो ज्ञादव्य इति । 'सेसं जहा- रयणप्पमाए' शेपम् वायुकायिकादिसम्बन्धे यथा-येन प्रकारेण रत्नप्रभायां कथितं तथैव अत्रापि ज्ञातव्यम् इति । 'जे वि बायरतेउकाइया अपज्जत्तगाय' येऽपि बादरतजस्कायिका अपर्याप्तकाश्च पर्याप्तकाश्च, 'समयखेत्ते समोहणित्ता दोच्चाए पुढवोए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते' समयक्षेत्रे होता है । 'एवं पज्जत्तएतु दि बायरते उकाइएस्लु' जिल्ल प्रकार अपर्याप्त यादरतेजस्कायिकों में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक का दो समयवाले विग्रह से अथवा तीनसमयधाले विग्रह ले उत्पाद कहा गया है-एक समयवाले विग्रह से नहीं उसी प्रकार ले पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों में शर्करामभा के पूर्व चरमान्त ले समयक्षेत्र में आकरके उत्पत्ति के योग्य हुए अपर्याप्त वक्षः पृथिवीकायिक का दो समयवाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रह ले उत्पाद जानना चाहिये 'सेसं जहा रयणप्पभाए' जिस प्रकार से शेष घायुकाथिफ आदि के संबंध में जैसा रत्नप्रभा में कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये 'जे विवायरलेउकाइया अपज्जसमाय पज्जत्तगाय समयखेते समोक्षणिता दोच्चाए पुढबीए पच्चस्थिसिल्ले चरिभते' और जो पर्या. भयपात्र अभयवाणी लिड अतिथी 8.५-न थाय छे. 'एव पपजत्तएस वि बायरदे उकाइएसु' २ ते २५५र्याप्त मारते४४यिमा अपर्याप्तसक्षम તેજસ્કાયિકની બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પત્તિ કહેલ છે.-એક સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી નહીં એજ રીતે પર્યાપ્ત બાદરતેજ કાયિકમાં શર્કરામભાપૃથ્વીના પૂર્વચરમાતથી શર્કરપ્રભાના પશ્ચિમચરમાન્તમાં આવીને ઉત્પન થવાને ચગ્ય થયેલા અપર્યાપ્ત સૂહમ પ્રકાવિકોને ઉત્પાત બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી वियगतिथी सभागव. 'सेस जहा रयणप्पभाए' रेशते गवान्त२ प्रश्नोत्तरे। વિગેરે રત્નપભાના પ્રકરણમા કહ્યા છે, એજ રીતે અહિએ પણ સમજવા. "जे वि वायर अपज्जत्तगा य समयखेत्ते समोहणित्ता दोच्चाए पुढवीए पच्चत्थि. मिल्ले चरिमंते' पर्याप्त मने अपर्याप्त मा४२ तेथि : २७५ समय
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भंगवतीसूत्र मनुष्यक्षेत्रे इत्यर्थः समवहत्य सारणान्तिकसमुद्घातं कृत्वा मृत्वेत्यर्थः, द्वितीयायाः य पृथिव्याः शर्करामभाया इत्यर्थः, पाश्चात्ये चस्मान्ते 'पुढवीकाइएसु चउब्दिहेसु' पृथिवीकायि के पु चतुर्विधेषु अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्माऽपर्याप्त बादरपर्याप्तवादर पृथिवी कायिकरूपेषु, तथा-'भाउकाइएसु चउबिहेसु' अप्कायिकेषु अपर्याप्तादि चतुर्विधेषु तथा 'तेउकाइएसु दुविहेसु' तेजस्कायिकेपु द्विविधेषु अपर्याप्त सूक्ष्म भेदभिन्नेषु, तथा-'वाउकाइएसु च उबिहेसु' वायुकायिकेषु चतुर्विधेषु तथा-'दणस्सइकाइए सु चउनि हेसु' वनस्पतिकायिकेषु चतुर्विधेषु 'उत्रवज्जति' उत्पद्यन्ते, अपर्याप्तकपर्याप्तकाः वादरतेजस्कायिका एषु अधिक रणेषु समुत्पत्तिं लभन्ते, 'तेवि एवं चेव दुममइएण चा, तिसमइएण वा विग्गहेण उपवाएयव्या' सेऽप एकमेव द्विसायिकेन वा, त्रिसामरिकेन वा विग्रहेण सक और अपर्याप्तक बादद लेजस्मायिक जीव समक्षेत्र में-मनुष्यक्षेत्र में भारणान्तिक लसुद्धात ले मरण करके शशिप्रभा के पाश्च त्य चरमान्त में चारों प्रसार के-अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्षम, अपर्याप्त बादर और पर्याप्त बादर-पृथिवीकायिकों में तथा 'आउक्काइएसु चब्धिहेसु' अपर्याप्तकादि चारों भेदकाले अपमाथिको 'तेउकाइएसु दुविहेतु' तथा-अपर्याप्त स्वक्षा एवं पर्याप्त सूक्ष्म दो भेद वाले तेज. स्काधिकों में तथा-'बाउक काइए पन्धि हेतु' चारों प्रकार के वायुका. घिकों में तथा-वणहम्मइकाइएचबिहेसु' चारों प्रकारके वनस्पति कामित्रों में 'उपयजलि' उत्पन्न होते हैं, वे इली प्रकार ले वहां दो समयवाले विग्रह ले अथवा तीन सयवाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं 'ते वि एवं चेत्र' जिस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकका अपर्याप्त ક્ષેત્રમા, મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં ભારણુંન્તિક સમુદ્રઘાતથી મરણ પામીને શર્કરા પ્રભાના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ચારે પ્રકારના–એટલે કે–પર્યાપ્ત સૂમ, અપર્યાપ્તસૂમ, अपर्याप्त मा६२ ५५ति मा२-पृथ्वीमि तथा 'आउकाइएसु घरविहेसु' मर्याप्त विणेरे यारे से मयिमा उक्काइएसु दुविहेसु' તથા અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ અને પર્યાપ્ત સૂક્ષમ બે ભેદવાળા તેજરકાચિકેમાં તથા 'वाउकाइएसु चउबिहेसु' न्यारे २ना वायुयाम तथा 'वणस्सहक्काइएसु घउबिहेसु' खारे प्र४२ना वनस्पति विडीमा 'उववज्जति' उत्पन्न थाय छे. એજ પ્રમાણે તેને ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયपाणी वि गतिथी न थाय छे. 'ते वि एवं चेव'२ प्रभारी अ५५1५1સૂથમ પૃથ્વીકાયિકને અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકમાં બે વગેરે સમયવાળી
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चन्द्रिका टीका ०३४ . श. १६०३ प्रभाश्रितै केन्द्रियाणामुत्पातः ३६७ विषमश्रेण्या उपपातयितव्याः, यथा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकस्य अपर्याप्त वादरतेजस्कायिके द्वद्यादिसामयिकविग्रहेणोत्वादः कथितस्तथैव अपर्याप्त पर्याप्त वादरतेजस्कायिकानामपि समयक्षेत्रे समवहतानां शर्कराममायाः पश्चिमचरमान्त स्थित पृथिव्यादिवनस्पतिका विकान्तेषु द्वित्रिसामायिकविग्रहेणैव उपपात वर्णयितव्य इति भावः । 'वायर तेउकाइया अपज्जत्तगाय पज्जतगाय' बादरतेजस्कायिका अपर्याप्तकाञ्च पर्याप्तकाथ, 'जाहे तेसु चैव उववज्जति' यदा तेष्वेव पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टेषु पृथिव्यादिवनस्पतिकायिकान्तेषु उत्पधन्ते । 'ताहे जहेव रयणयभाए' तदा यथैव रत्नप्रभायाम्, 'तहेव एगसमइयदुसमय - विसमय विग्गहा भाणियव्वा' तथैव - रत्नप्रभावदेव एकसामयिक - बादर तेजस्कायिक में दो आदि समयचाले विग्रह से उत्पाद प्रकट किया गया है, उसी प्रकार से अपर्याप्त पर्याप्त बादर तेजस्कायिकोंका भी जो कि समयक्षेत्र में समबहत हुए हैं और शकराप्रभा के पश्चिम चरमान्त के पर्यन्त में उत्पाद दो समय वाले अथवा तीन समयवाले विग्रह से वर्णित कर लेना चाहिये । 'बाघरते उक्काइया अपज्जतगा य पज्जतगाव जाहे तेसु चेच उबवज्जंति' अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीव जब उन्हीं पूर्वोक्त विशेषण विशिष्ट पृथिवी कायिक से लेकर वनस्पति कायिक तक के जीवों में उत्पन्न होते हैं 'ताहे जहेब रथणप्पभाए तहेब एगसमक्ष्य दुसमहमतिसमय विगाहा भाणियव्वा' तब जैला रत्नप्रभा के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा इन के सम्बन्ध में एक समयवाले दोसमयवाले अथवा तीनसमयवाले
વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પત્તિના સમધમાં કથન કરવામાં આવ્યુ છે એજ પ્રમાણે અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત ખાદર તેજસ્કાયિકાના પણ જેમકે સમયક્ષેત્રમાં સમુદ્ધાત કરેલ છે. અને શાપ્રભાના પશ્ચિમ ચરમાન્તના પન્તના ઉત્પાદનુ વર્ણન એ સમયવાળી વિગ્રહે ગર્તિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી विग्रह गतिथी पुरी सेवु' 'वायर तेडक्काइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगाय जाहे तेसु वेव उववज्जति' अपर्याप्त भने पर्याप्त महर तेस्माथि भव જયારે આજ પહેલા કહેલ વિશેષણાથી યુક્ત પૃથ્વીકાયક વિગેરેથી લઇને वनस्पति अयि सुधीना लाभां उत्थाय हे 'ताहे जहेव रयणप्पभाए तब एगसमइय दुसमइय हिसमय विग्गहा भाणियत्वा' त्यारे રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સમ ધમા જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાથેનુ કથન અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત ખાદરતેજસ્કાયિકાના સમ`ધમાં એક સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ
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भगवती
दिसामधिक- त्रिसामयिक, चित्रहा भणिवण्याः, 'लेसं जहेब रयणप्पभाप हे निरवसेसं' शेषम् - अवान्तरप्रश्नोत्तरादिकं ' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, वत्तेनार्थेन गौतम ! एयते' इत्यादिकं यथैव रत्नमायां कथितं तथैव निरवशेषमिहापि भणितव्यमिति । 'जहा सकरप्पमार वत्तच्त्रया एवं जान अहे सतare a fort' यथा - शकेरामा द्वितीयनारकपृथिव्या वक्तव्यता भणिता'कथिता, तथैव तेनैव रूपेण यावदूधः सप्तम्या स्तवरतमाया अपि पृथिव्या वक्तव्यता भणितव्या, सर्वत्रालापणकारः स्वयमेवोहनी इति ॥१३॥
पूर्व शर्करामभाव आरभ्याधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तमुपपातः प्रदर्शितः, सम्पतं सामान्येन अधः क्षेत्र मूर्ध्वक्षेत्र वाश्रित्याह- 'अपज्जत०' इत्यादि ।
मूलम् - अपज्जत सुहुम पुढवीकारणं भंते! अहोलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेते समोहए । समोहणिता जे भविए उडूलोयखेतनालीए वाहिरिल्ले खेते अपज्जन्तसु हुम पुढवीकाइविग्रह से ये उत्पन्न होते हैं ऐसा कह लेना चाहिये । 'सेसं जहेच रयणभाए तब निरवलेलं' याही का और लब प्रश्नोत्तरादि रूप कथन 'हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण कहते हैं ? हे गौतम! मैंने सात श्रेणियां कही है' इत्यादि रूप मइन और उत्तररूप कथन सब जैसा रत्न प्रभापृथिवी के प्रकरण में कहा जा चुका है वैसा ही यहां द्वितीय शर्कराभापृथिवी को वक्तव्यता में कह लेना चाहिये 'जहा सक्करभाए वक्तव्यमा भणिया, एवं जाव अहे सन्तमाए वि भाणिव्वा' जैसी यह द्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी की वक्तव्यता कही गई है इसी प्रकार की वक्तवता यावत् अवः सप्तमी पृथिवी तक कह लेनी चाहिए। इस आलापक प्रकार अपने आप उत्पन्न कर लेना चाहिये | सू०३|| गतिथी उत्पन्न धाय छे. ते अहेवु लेो. 'सेस' जहेव रयणप्पभाए तहेव निरवसेस' पाठीतु जी सब प्रश्नोत्तराहि ३५ ४थन 'हे भगवन् याथ એ પ્રમાણે શા કારણથી કહેા છે ? હૈ ગૌતમ ! મે' સાત શ્રેણીયા કહી છે.' વિગેરે પ્રકારથી પ્રશ્ન અને ઉત્તરરૂપ કથન-જે રીતે રત્નપ્રભા પ્રથ્વીના પ્રક રણમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં આ ખીજી શર્કરાપ્રભા पृथ्वीना अथनभां उही सेवु'. 'जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया भणिया, एवं जाव अहे सत्तमा वि भाणियन्वा' मा मील शशापृथ्वी उथन के प्रभाग ક" છે, એજ પ્રમાણેનુ` કથન યાવત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના ર્થન સુધી સમજી લેવુ', આ વિષયમાં આલાપ સ્વય· બનાવીને કરી લેવા. ાસૂ॰ ૩ll
सम्बन्ध
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gheefont cret ro३४ अ० श. १ सू०४ सामान्येन उत्पत्तिनिरूपणम्
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यत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उवबज्जेज्जा १ । गोयसा ! तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा | से केणडेणं अंते ! एवं वुच्चइ तिसमइएणं वा चउसमइरणं वा विग्गहेणं उबवज्जेज्जा ? गोयमा ! अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइएणं अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेते. समोहर समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्लेखेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए एगपयरंसि अणुसेढीए उववज्जित्तए, सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । जे भविए विसेढीए उववज्जित्तए से णं चउसमहणं विग्गणं उववज्जेज्जा, सेते ट्रेणं जाव उववज्जेज्जा । एवं पज्जतसुहुमपुढवीकाइयत्ताए वि, एवं जाब एज्जत्तसुहुमतेउका इयत्ताए । सू. ४ |
छाया - अपर्याप्त पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! अधोलोकक्षेत्रनाड्या बाह्ये क्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्य ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडया वाले क्षेत्रे अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उत्पत्तुम्, स खलु भदन्त ! कति सामयिकेनं विग्रहेण उत्पद्येत ? गौतम ! त्रिसामयिकेन वा चतुःसामयिकेन वा विग्रहेणोत्पद्येव । तत्केनार्थेन खलु सदन्त ! एवमुच्यते त्रिसामयिकेन वा चतुःसामयिकेन वा, दिग्रहेण उत्पद्येत ? । गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु अधोलोकक्षेत्र नाड्या ब'ह्ये क्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्यः ऊर्ध्वलोकक्षेत्रनाडया वो क्षेत्रे अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकतया एकमतरे अनुश्रेण्या उत्पत्तुं स खल्ल त्रिसामयिकेन विग्रहेण उपपद्यत । यो भव्यो विश्रेण्या उत्पत्तुं स खलु चतुःसामयिकेन विग्रहेणो, त्पद्येत तत्तेनार्थेन यावदुत्पद्येत एवं पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी कायिकतया अपि । एवं यावत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकता ||४||
इस प्रकार शर्करामभा से लेकर अधःसप्तमी पृथिवी तक उपपात 'उत्पन्न होना' दिखाया है । अब सूत्रकार सामान्य रूप से अधःक्षेत्र और उर्ध्वक्षेत्रको आश्रित करके इसी उपपात का कथन करते हैंઆ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે શર્કરાપ્રભાથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધી ઉપપાત (ઉત્પત્તિ) અતાવવામાં આવેલ છે. હવે સૂત્રકાર સામાન્યરૂપથી અધર્ ક્ષેત્ર અને ઉર્ધ્વ ક્ષેત્રના આશ્રય કરીને આ ઉપપાતનું કથન કરે છે.
भ० ४७
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भगवती
टीका --- 'अपज्जत सुडूमढवीकाइए णं भंते । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'अहोलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' अधोलोक क्षेत्रनाया अधोलोकरूपे क्षेत्रे या नाडी- त्रसनाडी, तस्याः बाह्य क्षेत्रे समवहतो मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान् 'समोहणित्ता' समन्हत्य मारणान्तिकसमुद्धातं कृत्वा, 'जे भविए उडूलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते ' यो भव्यः, ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडी पनाडी सा ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडी तस्या ऊर्ध्वलोक क्षेत्रत्र सनायाः वाले क्षेत्रे 'अपनत्त सुहूमढवीकाइयत्ताए उबपज्जित' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया तादृशपृथिवीकायिकरूपेणोत्वत्तुम् ' से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेगं उववज्जेज्जा' स खलु कतिसामविकेन विग्रहेण उत्पयतेति मश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विग्ग हेणं उववज्जेज्जा' त्रिसामयिकेन 'पज्जत सुमपुढची काइए णं भंते!' इत्यादि ।
- ३७०
टीकार्य - हे भदन्त ! जिस अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवने 'अहो लोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' अधोलोकस्थित त्रसनाडी से बाहयक्षेत्र में स्थावरनाडी में मारणान्तिक समुद्घात से मरण किया है और 'समोहणित्ता' मारणान्तिक समुद्घात करके 'जे भविए उडलोय खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवी काइयत्ताए उववज्जि 'त' ऊर्ध्वलोक में स्थित नाली के बाहर के क्षेत्र में - ' स्थावरनाली अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ है 'से णं भंते! कसम एणं विग्गणं ऊत्रवज्जेज्जा' तो हे भदन्त ! ऐसा वह जीव कितने समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री गौतमस्वामी से कहते है - 'गोयमा! तिसमइएण
'अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते!' इत्याहि
टीअर्थ - हे भगवन् के अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी थिए वे 'अहोलोय. खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' मा अधोसम्म रहेसी त्रस नाडीथी महारना क्षेत्रमां भारशान्तिः समुद्घातथी भर रेस छे, भने 'समोहणित्ता' भारशान्तिः सभुद्धात अरीने 'जे भविए उड्ढलोंगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवीका इयत्ताए स्ववज्जित्तए' सभां रहेस त्रस नाडीना અહારના પ્રદેશમાં પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય जनेस छे, 'से णं भंते ! कइ समइरणं विग्गहेण उववज्जेजा' तो हे भगवन् એવા તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય १. मा प्रश्नमा उत्तरमा अनुश्री हे छे - 'गोयमा ! तिसमइएण चउसमइएण मा
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stration टीका श०३४ अ. श. १ सू०४ सामान्येन त्पत्तिनिरूपणम्
प्रमे
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वा, चतुःसामयिकेन वा विग्रहेणोरद्येत ऊर्ध्वलोकनाडया वाले क्षेत्रे इति । 'सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चर, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विग्गहेणं उबव ज्जेज्जा' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, त्रिपामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा, विग्रहेणोत्पद्येत इति अवान्तरप्रश्नः भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! अपज्जत सुकुमढवीकाइरणं अहोलोयखेत्तनालीए बहिरिल्ले खेतेसमोहए' अपर्यासूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु अधो लोकक्षेत्रनाडया वाले क्षेत्रे समवहतो मारणान्तिकसमुद्धातं कृतवान्, 'समोहणिचा जे भविए उडलोयखेत्तनाकीए वाहिरिल्ले खेत्ते ' समत्रहत्य मारणान्तिकसमुदूधातं कृत्वा यो भव्यः - योग्य क्षेत्रनाडा, वा क्षेत्रे, 'अपज्जत सुहूम पुढवीकाइयत्ताए' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया 'एगपयरंमि अणुसेटीए उदवज्जित्तए' एकमतरे अनुश्रेण्या वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा' हे गौतम ! वह वहां तीन समयवाले विग्रहसे अथवा चारसमयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । 'तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह वहाँ तीन समयवाले विग्रह से अथवा चार समयवाले -विग्रह से उत्पन्न होता हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोघमा ! अपज्जत सुमपुढवीकाइएणं अहोलोय खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेते समोहर' हे गौतम! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव अधोलोक स्थित नाडी के बाहिरी क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करके मरा है और मरण करके 'जे भविए उडलोय खेतनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते ' जो ऊर्ध्वलोक स्थित क्षेत्रनाडी के पाहर के क्षेत्र में 'अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयत्ताए' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से 'एगपथरंभि
विग्गहेणं उववज्जेज्जा' तो हे गौतम! थे। ते व त्रषु समयवाणी विभ गतिथी अथवा यार सभयवाजी विग्रह गतिथी उत्पन्न थाय छे. 'तत्केनान भदन्त ! एवमुच्यते' हे भगवन् साथ शेषु शा अरथी हो छोતે ત્યાં ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે। આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे! - 'गोयमा । अपज्जत्तसुहुम पुढवीकाइरणं महोलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेते समोहर' हे गौतम! पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वी अयि लव अधोभवत માન ત્રસ નાડીના મહારના ક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્લાત કરીને મરણુ याभेस छे. अने भर भाभीने 'जे भविए उड्ढलोग खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते ' ? उसोभां रडेल क्षेत्रनासीना महारना अहेशभां 'अपज्जत्तसुहुम पुढवीकाइयत्ताएं' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी अयपथाथी 'एगपयरंमि अणुदीप उबव
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भगवती 'गत्या उत्पत्तुम् 'से णं तिसमइएणं विगहेणं उवज्जेज्जा' स खल्ल त्रिसामयिकेन विग्रहेणोत्पधेत, अयं भावः-अधोलोकक्षेत्रत्रसनाडया वहिः पूर्वादिदिशि मृत्वा, एकेन समयेन नाडी मध्ये प्रविष्टः द्वितीये प्तमये ऊर्ध्वं गत स्ततः एक प्रतरे - पूर्वस्यां दिशि पश्चिमायां वा, दिशि यदा उत्पत्ति भवति तदा अनुश्रेण्यां गस्वा तृतीयसमये उत्पद्यते इति । 'जे भविए विसेढीए उववज्जित्तए से णं चउसमदएणं विगहेणं उवज्जेम्जा' यो भगो विश्रेण्याम् उत्पत्तुम्, स खलु चतुःसामायिकेन विग्रहेणोत्पधेत । अयं भावः-यदा त्रप्सनाडयाः वहिर्वायव्यादिविदिशि मृतः तदा एकसमयेन पश्चिमाया मुत्तरस्यां वा, दिशि गतो भवति द्वितीयेन असनाडयां अणुसेढीए उवज्जित्तए' एकातर में अनुश्रेणी से जाकरके उत्पन्न होने के योग्य है 'सेणं तिममइएणं विगहेणं उचवज्जेज्जा' वह तीन
समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । तात्पर्य इसका यह है कि-अधो 'लोक क्षेत्र में ब्रतनाडी के बाहर पूर्वादिदिशा में मरकर जीव एकसमय में बसनाडी के मध्य में प्रविष्ट होता है । दूसरे समय में वह उछ. गमन करता है । इसके बाद जय वह एकप्रतर में पूर्वदिशा में अथवा पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है तब वह सम्श्रेणि में जाकर तृतीय समय में वहां उत्पन्न होता है । 'जे भचिए विसेढीए उवज्जित्तए
ले ण च उलमइएणं विरगहेणं उववज्जेज्जा' और जन्न वह विश्रेणि में ... उत्पन्न होने के योग्य है तब वह वहां चारलमयमा विग्रह से उत्पन्न
होता है। तात्पर्य यह है कि जब जीव जलनाडी के बाहर वायव्य आदि विदिशाओ मे मरता है तब वह एक समय में पश्चिमदिशा में ज्जित्तए' में प्रतम गनुश्रेयी ४४ ६५- यवान योग्य डाय छे. * 'से णे तिम्रमहरणं विहेणं उववजेजात र समयाजी विश्र ''ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-અલેક ક્ષેત્રમાં ત્રણ નાડીની બહાર પૂર્વ દિશામાં ભરીને જીવ એક સમયમાં ત્રસનાડીની મધ્યમાં પ્રવેશ કરે છે. બીજા સમયમાં ઉદગમન કરે છે તે પછી જ્યારે તે એક પ્રતરમાં પૂર્વ દિશામાં અથવા પશ્ચિમદિશામાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે સમ.li ने श्री समयमा त्या त्य-न थाय छे. 'जे भविए विसेढीए उववज्जित्तए से णं चउच्चमइएणं विगहेणं उववज्जेजा' म क्यारे ते (4. શ્રેણીમાં ઉત્પન થવાને ચગ્ય હોય ત્યારે તે ત્યાં ચરમ સમયવાળી વિગ્રહ
ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. તાત્પર્ય કહેવાનું એ છે કે-જ્યારે જીવ ત્રસ નાડીની ' બહાર વાયવ્ય વિગેરે વિદિશામાં મરે છે, ત્યારે તે એક સમયમાં પશ્ચિમ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ ४०४ सामान्येन उत्पत्तिनिरूपणम् ३७३ प्रविष्टो भवति, तृतीयसमये अर्व गतः चतुर्थनमये अनुश्रेयां गत्वा पूर्णदिदिशि उत्पधेत इति । 'से तेणटेणं जाव उववज्जेज्मा' तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते त्रिसामयिकेन वा, चतुः सामयिकेन वा, दिग्रहेण उत्पद्येत इति, ‘एवं एज्जत्तमुहुम पुढवी काइयत्ताए वि' एवं यथा अपर्याप्त सुक्षनपृथिवीकाधिकस्य अधोलोव क्षेत्रनाडया वाह्य देशे समवहतस्य ऊधलोकक्षेत्रनाडया वाह्ये देशे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिकायिकतयोत्पादो दर्शितः तथैव तस्यैव तथाविधर य पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी. कायिकतया समुत्पद्यमानस्य त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पादो ज्ञातव्यः । एवं जाव पज्जत मुहुम ते उकाइयत्ताए' एवं यावत् पर्याप्त अथवा उत्तरदिशा में जाता है और दूसरे समय में सनाडी में प्रविष्ट होता है और तृतीय समय में यह उर्व गमन करता है और चौथे समय में वह अनुश्रेणि में जाकरके पूर्वादि दिशा में उत्पन्न हो जाता है। 'खे लेणवेणं जाव उववज्जेज्जा' इसलिए, हे गौतम! मैंने ऐसा कही है कि वह लीनसमयवाले अथवा चार समयकाले विग्रह से उत्पन्न होता है। ‘एवं पज्जत्त सुहमपुढवीकाइयत्ताए वि' जिस प्रकार से अबोलोक क्षेत्र स्थित बसानाडी के बाहिर के प्रदेश में मारणान्तिक समुदघात करके परे हुए अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव का अ. लोक क्षेत्रस्थित वलनाडी के वाह्य प्रदेश में अपर्याप्तक सक्षमप्रथिवी कायिक रूप से उत्पाद प्रकट किया गया है उसी प्रकार ले पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूपले उत्तान्न होने के योग्य हुए उसका तीनसमयवाले विग्रह से अथवा चारसमयवाले विग्रहले उत्पाद पहना चाहिये । 'एवं દિશામાં અથવા ઉત્તર દિશામાં જાય છે, અને બીજા સમયમાં ત્રસ નાડીમાં પ્રવેશ કરે છે. અને ત્રીજા સમયમાં ઉર્ધ્વગમન કરે છે અને ચોથા સમયમાં त विश्रेशीमा sn पूर्व हिशमां पन्न IS Mय छ 'से तेणट्रेणं जाव उववज्जेज्जा' त ४२५ थी 8 गौतम । भे थे ४७८ छ ?-ते त्रय समय पाणी अथ३॥ या२ समयवाणी विड गतिथी जपन्न थाय एवं पञ्जचसुहुम पुढवीकाइयत्ताए वि' के प्रमाणे अधाना क्षेत्रमा २७८ स नाडीन। બહારના પ્રદેશોમાં મારણતિક સમુઘાત કરીને મરણ પામેલા અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવને ઉર્થક્ષેત્રમાં રહેલા કસ નાડીની બહારના પ્રદેશમાં અપર્યાપ્તક સૂમ પ્રકાયિકપણાથી ઉપપાત બતાવેલ છે એજ પ્રમાણે પર્યાપ્ત સૂમ વૃશ્વિક વિકપણાથી ઉન થવાને ચગ્ય થયેલા તેઓ ઉપાદ ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ચાર સમયવાળી વિવાહ शतिया डे न . 'एवं जाव पज्जत्तसुइमतेउकाइयत्ताए' मान
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भगवती सूक्ष्म तेजस्कायिकतया, अत्र यावत्पदेन अपर्याप्त वादरपृथिवीकायिकतया, पर्याप्त बादरपृथिवी कायिकतया, अपर्याप्त सूक्ष्मा कायिकतया, पर्याप्त सूक्ष्माकायिकतया, आर्याप्तवादराकायिकतया, पर्याप्त वादराकायिकतया, अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकतया, एतदन्तानां ग्रहणं भवति । तथा च अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी. कायिकस्याधोलोकक्षेत्रनाडया वाह्य देशे समहतस्य ऊर्ध्वकोकनाडया वाह्ये क्षेत्र अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिकतया, इत्यत आरभ्य पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकतया इत्यन्तरूपेण उत्पद्यमानस्य उत्पादप्रकार: पूर्वरदेव ज्ञातव्यः। आलापप्रकार: प्रत्येकस्मिन् पदे विविच्य स्वयमेनोहनीयः ।।४।। जाव पज्जत लुहम तेउकाइयत्ताए' इसी प्रकार से जब वह यावत् पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य होता है तब भी वह वहाँ तीन समयवाले विग्रह से अथवा चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ऐसा जानना चाहिये । यहां यावत् पद से 'जब वह - अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिक रूपसे, पर्याप्त बादर पृथिवीकायिक रूपसे, पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक रूपसे और अपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य होता है। ऐसा पाठ ग्रहण किया गया है। तथा च 'जो अपर्याप्त स्वक्षमपृथिवीकायिक जो कि अधोलोक स्थित वसनाड़ी के बाह्य प्रदेश में समवहत हुभा है और अलोकस्थित चलनाडी के बाह्य प्रदेश में अपर्याप्त बादरपृधिवीकायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य शुभा है' यहां से लेकर 'पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य हुआ है यहां तक को उसका उत्पाद प्रकार पूर्व के जैसे ही जालना चाहिये। तथा इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार प्रत्येक पद में अलग अलग अपने आप उसावित कर लेना चाहिये ॥४॥ પ્રમાણે જ્યારે તે યાવત્ અપર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકપણાથી, પર્યાપ્ત બ દર વૃશ્ચિકાવિકપણાથી અપર્યાપ્ત સૂફન અનાયિકપણાથી પપ્ત સૂક્ષમ અષ્ઠાયિકપણાથી અને અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ તેજસ્કાયિકપણુથી ઉત્પન થવાને ગ્ય થાય છે. એ રીતને પાઠ ગ્રહણ થયેલ છે. તથા જે અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક કે જે અલેક ક્ષેત્રમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના પ્રદેશમાં સમુદુઘાત કરે છે, અને ઉદર્વલે કમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારને પ્રદેશમાં અપર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય થયા છે. આ કથનથી લઈને “પર્યાપ્ત સૂક્ષમતેજકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચેપ થયા છે, આ કથન સુધીને તેને ઉત્પાદન પ્રકાર પહેલાની જેમજ સમજે. તથા આ સંબંધમાં આલાપને પ્રકાર દરેક ૫દમાં જૂદે જુદે સ્વયં બનાવીને કહી લેવું જોઈએ. પાસુ ઢા
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threat टीका श०३४ भ० श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम्
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मूलम् - अप्पज्जन्त सुहमपुढवकाइए णं भंते ! अहोलोग जाव समोहणिन्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तवायर तेउकाइयत्ताए उबवज्जिराए, से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! दुसमइएणं वा, तिसमइएणं वा विग्गहेof उववज्जेज्जा | से केणटुणं० एवं खलु गोयमा ! सए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ । तं जहा उज्जुयायया जाव अद्धचक्कवाला | एगओ वंकाए सेटीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा | दुहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइ एणं वा विग्गणं उववज्जेज्जा ! से तेणट्टेणं । एवं पज्जत्तएसुवि बायर उकाइएस वि उववाएयन्त्रो । वाउकाइयवणस्सइकाइयत्ताए चउक्कएणं भेदेणं जहा आउक्काइयत्ताए तहेव उववाएयव्वो २० | एवं जहा अपज्जन्तसु हुमपुढवीकाइयस्स गमो भणियो एवं पज्जन्त सुहुमपुढवीकाइयस्स वि भाणियन्त्रो, जहेव वीसाए ठाणेसु उववाएयवो ४०। अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणिता, एवं वायरपुढवीकाइयस्स वि अपज्जन्तगस्स य पज्जन्तगस्त य आणियव्वं८० । एवं आउकाइस्स वि उविहस्त वि साणियव्यं १६० । सुहुमते उकाइस्स दुविहस्स वि एवं चेत्र २००| अपज्जत्त बायर उकाइएवं भंते! समयखेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उडलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं स्ववज्जेजा ? गोयमा ! दुसमइएणं वा, तिसमइएणं वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा | से केणट्टेणं० । अट्टो जहेव रयण
भाए तहेव सत्त सेढीओ, एवं जाव अपज्जत्तवायरते उकाइ
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एणं भंते! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्डलोग खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्तसुहुमते उकाइयत्ताए उववज्जितए, से णं भंते! लेखं तं वेत्र । अपज्जन्त वायरतेउ काइए णं भंते! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेते, अपज्जत बायरते उक्काइयत्ताए उच्वज्जिए, सेणं भंते! कह लमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? । गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइष्ण वा, तिससइएण वा, विग्गणं उववज्जेज्जा, से केणटुणं । अट्टो जहेव रचणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ, एवं पज्जन्त बायर उकाइयत्ताए वि । वाउकाइएस वणस्सइकाइएसु य जहा पुढवीकाइएस उववाइओ तहेव चउकणं देणं उववायव्वो । एवं पज्जत बायरते उकाइओ वि एएस चेत्र ठाणेसु उववाएयव्वो । दाउकाइय दणस्सइकाइयाणं जहेब पुढवीकाइयत्ते उनवाओ तहेव भाणियन्त्रो ॥ अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते ! उड्डलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्लेखेत्ते समोहर समोहणिना जे भविए अहे लोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं । एवं उडलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं अहोलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववजयाणं लो चैव गमओ निरवसेसो भाणियन्त्रो जाव वायरवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ बायरवणस्सइकाइयएसु पज्जतएसु उवाइओ || सू० ५ ॥
छाया -- अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त अधोलोक० यावत् समवहत्य यो भव्यः समयक्षेत्रे अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकतया उत्पत्तुम्, स खलु
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अमेयचन्द्रिका टीका २०३४ अ. श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३७७ भदन्त । कविसामयिकेन विग्रहेण उत्पधेत ? गौतम ! द्विसामयिकेन वा, त्रिसार मयिकेन वा, विग्रहेणोल्पयेत । तत्केनार्थेन ? एवं खलु गौतम ! मया सप्तश्रेणयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ज्वायता १ यावद श्रद्धचक्रवाला ७ । एकनो वक्रया श्रेण्या उत्पघमानो द्विसामयिझेन विग्रहेणोत्पद्येत, द्विधातो वकया श्रेण्या उत्पद्यमान स्त्रिसामयिकेन विग्रहेण उत्पधेत, तत्तेनार्थेन । एवं पर्यावकेपि वादरतेजस्कायिकेष्वपि उपपातयितव्यः। वायुकायिकवनस्पतिकायिकतया चतुष्केन भेदेन, यथा-अप्कायिकतया तथैव उपपातयितव्य । २० एवं यथा अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी. कायिकस्य गमको भणितः एवं पर्याप्त वक्ष्मपृथिवीकायिकस्यापि भणितव्यः । तथैव विंशति स्थानेषु उपपातयितव्यः ४० । अधोलोकक्षेत्रनाडया वह्य क्षेत्रे समवहतः समवहत्य, एवं बादरपृथिवीकायिकस्यापि अपर्याप्तकस्य पर्याप्तकस्य च भणितव्यम्८० । एवमफायिकस्य चतुर्विधस्यापि मणितव्यम् १६० । सूक्ष्मतेजस्कायिकस्य द्विविधस्यापि एवमेव २०० । अपर्याप्त बादरतेजरकायिकः खलु भदन्त । समयक्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्यः अवलोकक्षेत्रनाडया वाह्ये क्षेत्रे अपर्याप्त सूक्षप्रपृथिवीकायिकतया उपपत्तुम स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पधेत ? गौतम ! द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन का, चतु:सामयिकेन वा विग्रहेणोत्पधेत। तत्केनार्थन० । अर्थों यथैव रत्नप्रभायां तथैव सप्त श्रेणयः एवं यावदपर्याप्त वादरतेजस्कायिकः खलु भदन्त ! समयक्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्यः ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडया वाटे क्षेत्रे पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकतया उपपत्तुं स खलु भदन्त ! शेष तदेव । अपर्याप्त वादरतेजस्कायिका खल्ल भदन्त ! समयक्षेत्रे समवह नः समवहत्य यो भव्यः समयक्षेत्रे अपर्याप्त चादरतेजस्कायिकतया उपपत्तुं स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रणोत्पधेत ? गौतम! एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, विग्रहेणोत्षयेत तत्केनार्थन० । अर्थों यथैद रत्नमवायां तथैव सप्तश्रेणयः । एवं पर्याप्तवादर तेजस्कायिकतयाऽपि । वायुकायिकेषु वनस्पतिकायिकेषु च यथा पृथिवीकायि. केषु उपपातितस्तथैव चतुष्केन भेदेन उपपातयितव्यः । एवं पर्याप्तवादरतेजस्कायिकोऽपि एष्वेव स्थानेषु उपपायितव्य । वायुशयिक-वनस्पतिकायिकानां यथैव पृथिवी कायिकत्वे उपपात स्तथैव मणितपः। अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! ऊचलोकक्षेत्रनाडया बाहये क्षेत्रे समवहतः समवहत्य यो भव्यः अधोलोक क्षेत्रनाडया बाह्ये क्षेत्रे अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उपपत्तम. सखल भद-त! कति सामयिकेन. एवम् ऊर्वलोक क्षेत्रनाडया वाह्ये क्षेत्रे समवह तानाम् अधोलोकक्षेत्रनाडया बाह्ये क्षेत्रे उत्पद्यमानानं स एत्र गमको निरक्शेपो भणितव्यो यावद वनस्पतिकायिकः पर्याप्तको वादरवनस्पतिकायिकेषु पर्याप्त केषु उपपातितः ॥९०५॥
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भगवतोसू
टीका- 'अपज्जतहु पुढवीकाइए णं भंते ।' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल भदन्त ! 'अहो लोग जाव समोहणित्ता' अधोलोक, यावत् समवहृत्य, अत्र यावत्पदेन 'क्षेत्रनाडया बाहूये क्षेत्रे समवहतः' इत्यस्य ग्रहणं भवति । 'जे भविए समयखेते अपज्जत्तचाय रते उकाइयत्ताए' यो भव्यः समयक्षेत्रे अपर्याप्तवादर तेजस्कायिकतया, तादृशतेजस्कायिकरूपेणोपपत्तम् । 'से णं भंते! कइसमइएणं विग्ग हेणं उववज्जेज्जा' सखल भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येतेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम | 'दुसमइरणं वा, तिसमइणं वा विग्गणं उचवज्र्जेज्जा' द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण समुत्पद्येत, 'सेकेण्डेणे' 'अपज्जत सुमपुरीकाइएणं भते । अहोलोग जाव समोहणित्ता' इत्यादि ||५||
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टीकार्थ - - ' अपज्जन्त सुहमपुढवीकाइए णं भंते! हे मदन्त ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक 'अहोलोग जाव समोहणित्ता' अधोलोक स्थित नाडी के बाहरीक्षेत्र में मरण समुद्घात करके 'जे भविए समयखेत्ते अपजत्तबायर तेउका इयत्ताए उववत्तिए' समयक्षेत्र में मनु
क्षेत्र में अपर्याप्त चादरतेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य हुआ है 'से णं भंते ! इसमइएण विग्गहेणं उववज्जेज्जा' ऐसा वह अपर्याप्त सुक्ष्मपृथिवीकायिक जीव वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोमा ! दुसमणं वा तिसमइएणं वा दिग्गहेणं उववज्जेज्जा' हे गौतम! वह अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव जो कि अधोलोकस्थित त्रखनाडी के बाहिरीक्षेत्र में मरणसमुद्घात
'अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइएणं भते ! अहोलोग जाव समोह णित्ता' त्याहि
टीअर्थ - अपज्जतसुहुम पुढवीकाइए णं भते ! अहेलोग जाव समोहणित्ता' हे भगवन ने अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी अयि 'अहोंलोग जाव समोहणिचा ' અધાલેાકમાં રહેલા ત્રસનાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં મરણુસમુદ્ઘાત કરીને ‘લે भविए समयखेत्ते अपज्जत्तवायरते उकाइयत्ताए उववज्जित्तर' समयक्षेत्रमां-भनुક્ષેત્રમાં પર્યાપ્ત ખદરતેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય થયેલ ડાય 'से of भंते! कइ समइएणं विगाहेणं उत्रवज्जेज्जा' सेवे। ते अपर्याप्त सूक्ष्म પૃથ્વીકાયિક જીવ ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? या अश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'गोयमा ! दुसमइए वा, तिसमइएणं वा, विग्गहेणं उववज्जेज्जा' हे गौतम! ते अपर्याप्त सूक्ष्म પૃથ્વીફાયિક જીવ કે જે અધેલાકમાં રહેલ ત્રસનાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सु०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३७९ तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, यद् द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन चा विग्रहेणोत्पद्यतेति अवान्तरमश्नः । भगवानाह-'एवं खल्लु' इत्यादि । ‘एवं खलु गोयमा ! मए सत्तसेढीओ पन्नत्ताओ' एवं खलु हे गौतम ! मया सप्तश्रेणयः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'उज्जुआयया जाव अद्धचक्कवाला' ऋज्वायता यावद् अर्द्धचक्रवाला, अत्र यावत्पदेन एकतो वक्रा, द्विधातो वक्रा, एकतः खा, द्विधातः खा चक्रवाला इत्येतासी श्रेणीनां संग्रहो भवतीति । तत्र 'एकओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमहएणं विग्ग हेणं उपज्जेज्जा' एकतोवक्रया श्रेण्या समुत्पद्यमा. नोऽपर्याप्त सूक्ष्मपृथिरीकायिको द्विसामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येत, दुहओ वंकाए करके समयक्षेत्र में अपर्यापन बादरतेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य हुआ है वहां दो समयबाले विग्रह ले अथवा तीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'सेकेणटेणं' हे अदन्त! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह वहां दो समयवाले विग्रहसे अथवा तीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इस अवान्तर प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'एवं खलु गोयमा ! मए सत्तलेढीओ पन. ताओ' हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही है-'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'उज्जु भाषया जाव अद्धचक्शवाला' ऋज्वायता, यावत् अर्द्धचक्र वाला' यहां यावत्पदले 'एकतो वका विधातो वक्रा एकत: खा, द्विधातः खा चक्रवाला' इन अवशिष्ट श्रेणियों को ग्रहण हुआ है। इनमें जो 'एकओ वंकाए सेढीए उचरज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उज्जेज्जा' एकतः वक्रो श्रेणिसे गलन करता हुआ अपर्याप्त स्वक्ष्मपृथिवीकायिक મરણસમુદ્દઘાત કરીને સમયક્ષેત્રમાં અપર્યાપ્ત બાદરતેજકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય થયેલ હોય તે તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા त्र समयवाणी विड गतिथी ५न्न थाय छ 'से केण ट्रेणं० ड सावन આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે-તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ અવાન્તર प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे -एव खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्तामो' ७ गौतम ! में सात श्रेय ४९८ छे. 'त जहा' ते मा प्रभावी छ. 'उज्जुआयया जाव अद्धचक्कवाला' यता, येते१४, विधाता 41, सत. मा, द्विधात , यसो भने सयपाला. या शियोमा एकओ वंकाए सेढीए उबवज्जमाणे दुसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा' એકતા થકા શ્રેણથી ગમન કરીને અપર્યાપ્ત સમ પૃવીકાયિક જીવ ઉત્પત્તિ
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भगवती
1920
'सेढी उपमाणे विसयहरणं विग्गणं उपज्जेज्ज' द्विघातो चक्रया श्रेण्या समुत्पद्यमानः त्रिसामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येतेति । 'से तेणद्वेणं' तत्र्त्तेनार्थे न हे गौतम । एवमुच्यते - द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पद्येतेति । "एवं पञ्जत वायरउ काइएस वि उपवासयन्दो' एवं यथा - अपर्याप्तसूक्ष्मपृथि"वीकायिकस्य अपर्याप्त वादरतेजस्कायिकेषु उपपातो वर्णितस्तथैव पर्याप्त केष्वपि वादरतेजरकायिकेषु उपपातो वर्णनीयः मकारस्तु स्वयमेवोहनीय, इति । 'वाउकाइय 'aute इकाइयत्ताए चक्करणं भेदेणं जहा आउक्काइयत्ताए तदेव उववाएयन्त्रो' वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया च चतुष्केन भेदेन यथा अकायिकतया तथैव 'जीव उत्पत्ति स्थान में समयक्षेत्र में बादरतेजरकाधिक रूप से उत्पन्न 'होता है वह वहां दो समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'दुहओ कोए सेडीए उबवजमाणे तिरुमहणं विग्गणं उववज्जेजा' और जब वह विधातः काश्रेणिसे गमन करता हुआ वहां उत्पन्न होता है तब वह वहां तीनसयाले विग्रह से उत्पन्न होता है । 'से तेणट्टेणं' इसी ""कारण हे गौतम! मैने ऐसा कहा है कि वह वहां दो समयवाले अथवा तीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । ' एवं पज्जत्तएसु बायरतेउकाइएस चि उचबाइएयन्दो' इसी रीति के अनुसार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवके उत्पादका वर्णन पर्याप्त पादरतेजस्कायिकों में भी कर लेना चाहिये तथा आलाप प्रकार इस सम्बन्ध में अपने आप उद्भावित कर लेना चाहिये । 'वाउक्काहयचणरसका इयत्ताए चर"करणं भेदेणं जहा आउक्काहत्तार तहेब उवबाएयन्यो' इस अपर्याप्त સ્થાનમાં–સમયક્ષેત્રમાં બાદરતેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે ત્યાં બે सभयवाजी विथड गतिथी उत्पन्न थाय छे. 'दुइओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमहणं विणं उवच्जेज्जा' अने क्यारे द्विधाता वा श्रेणीथी जभन કરીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે ત્યાં ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી उत्यन्न थाय छे. 'से तेणट्टेनं' मा अरथी हे गौतम! में मेवु ं छु ं છે કે-તે ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ 'गतिथी उत्पन्न थाय छे, 'एव' पज्जतसु बायरते उझाइएस वि उववायवो' ''આજ રીતે અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવના ઉત્પાતનું વન પર્યાપ્ત બાદરતેજસ્કાયિકામાં પણ કરી લેવું. તથા તેના અલાપને પ્રકાર' આ विषयभां स्वयं मनावीने समल देवे। ले थे. 'वाउकाइयवणस्स इकाइयत्ताए चक्कणं भेदेणं जहा आउकाइयत्ताए तदेव उजवाएयन्वो' मा अपर्याप्त सूक्ष्म
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प्रमैयन्द्रिका टीका श०३४ अ श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३८१ उपपातयितव्यः २० । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य अपर्याप्त सक्षमचायुका. यिके, पर्याप्त सूक्ष्मवायुसायिके, अपर्याप्तवादरव.युकायिके, पर्याप्त वादरवायुकायिके अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिके, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिके, अपर्याप्त वादरवनस्पतिकायिके पर्याप्त वादरवनस्पतिशायिके अत्रै प्रदर्शितः अकायिक“वदेव उपपातो वर्णनीयः, उपपास प्रकारस्तु स्वयमेवोहनीय इति ।२०' 'एवं जहा अपज्जत्तसुहुमपुढीकाइयस्त गयो भणिओ' 'एवं यथा-पूक्तिमकारेण अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य नमको मणित:-कथितः, 'एवं पज्जत्तसहुमपुठनोकाइयस्स वि भाणिययो' एवम् अपर्याप्त सूक्षप्रपृथिवीकायिकरदेव पर्याप्त मुक्ष्म प्रथिवीकायिकरू गपि गणको मणितव्यः, स्थाहि-पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु सूक्ष्मपृथिवीमाथिकका हसी रीति के अनुसार' अपर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिक में पर्याप्त स्मृक्षवायुकाधिक में, अपर्याप्त बादरवायुकायिक में पर्याप्तवादरवायुकायिक में, अपर्याप्त स्मृक्षम वनातिकायिक में, पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाधिन में, अपर्याप्त पादरवनस्पतिकायिक में और पर्याप्त बाद्रवनस्पतिज्ञायिक में इन जीवों में अप्रकायिकके जैसा ही उत्पाद वर्णिल कर लेना चाहिये। तथा इस सम्बन्ध में उपपाद का प्रकार अपने आप उद्भाविन कर लेना चाहिये ।२०। 'एवं जहा अपज्जत बहुमढवीकाइयल गमओ अणिओ' इस प्रकार जैसा उत्सद प्रकार यह अपर्याप्त लक्षापृथिवीक्षाधिक का कहा गया है, 'एवं पज्जत लुहरूपुढवी काइया विभाणियो' उसी प्रकार से पर्याप्त सूक्ष्म रिश्वीकाधिका भी उत्पाद प्रकार कर लेना चाहिये । પૃથ્વિકાયિકનું આજ પ્રમાણે “અપર્યાપ્તસૂમ વાયુકાચિકેમાં, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વાયુકાયિકમાં, અપર્યાપ્ત બાર વાયુકાવિકમાં પર્યાપ્ત બાદર વાયુકાયિકમાં, અપર્યાપ્ત સૂની વનસ્પતિકાયિકમાં, પપ્ત સૂમ વનસ્પતિકાયિોમાં અપઆંખ બાદર વનસ્પતિકાયિકામાં અને પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિકમાં, અકાયિક જીવેના ઉત્પાદના કથન પ્રમાણેનું વર્ણન કરી લેવું. તથા આ સ બંધમાં જે પાત-3પત્તિને પ્રકાર સ્વયં ઉભાવિત કરી સમજી લે.૨૦ 'एक जहा अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइ यस्स गमओं भणिओ' मपात सूक्ष्म पि. यिनी पान ४२ रे शत ४९ छ, 'एवं पज्जत्तसुहमपुढवीकाइयस्स वि भाणियवो' मे प्रमाणे पति सूक्ष्म पृथ्वीजयिनी
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भगवतीसरे भदन्त ! अधोलोक क्षेत्रनाडया बाह्ये क्षेत्रे समवहतः समवहत्य उर्ध्वलोक क्षेत्रनाडया बहिः क्षेत्रे यो भव्यः अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया समुत्पत्तुमित्यादि क्रमेण आलापमकारो वर्णनीय इति । 'तहेव वीसाए ठाणेसु उपचाएयत्रो' तथैव विंशति स्थाने पूपपातयितव्यः ४० अपर्याप्त मूक्षमपृथिवी कायिकस्य यथा विंशति स्थानेषूपयातः कथितस्तथैव तेनैव रूपेण विंशतिस्थानेषु अपर्याप्त सक्षम पृथिवी‘कायिकादारभ्य पर्याप्त बादरवनस्पविकायिकान्तेषु अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मवादरपृथिवीकायिकेपु तथा तादृशाप्तेजो वायुवनस्पतिकायिकेषु पर्याप्त मूक्ष्म पृथिवी. कायिकस्योपपातो वक्तव्य इति ॥४०॥ जैले हे भदन्त ! 'जो पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव अधोलोक स्थिन वलनाडी के बाहरी क्षेत्र में मरण समुद्घात करके अवलोक
क्षेत्रनाली 'सानाडी' के बाहरी क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक .रूपसे उत्पन्न होने के योग्य है वह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इत्यादि क्रम से यहां आलाप प्रकार वक्तव्य है। 'तहेव बोलाए ठाणे उववाएययो' इसी प्रकार से इस पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकारिक जीवना उत्पाद बील स्थानको में कह लेना
चाहिये । अर्थात जिस प्रकार ले अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकका ... बीस स्थानों में उत्पाद कहा गया है। इसी प्रकार से इस पर्याप्त
सूक्ष्मपृथिवीकाधिक जीवका भी अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मघादर अपू कायिकों में तेजस्कायिनों में वायुकायिनों में और वनस्पतिकायिकों . में इन बीस स्थानों में उत्पाद सह लेना चाहिये ।४॥
પણ કરી લે. જેમવ-હે ભગવન જે પર્યાપ્ત સૂમિ પૃવીકાયિક જીવ અલકમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં અપર્યાપ્તક સૂમ પૃવિકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય થયેલ હોય તે તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? વિગેરે કમથી અહિયાં આલાપના પ્રકારો
ही देवा. 'तहेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो' मा प्रभा) मा पात સૂક્ષમ પૃશિવકાયિક જીવન ઉત્પાદ વીસે સ્થાનમાં સમજી લે. અર્થાત્ જે પ્રમાણે અપર્યાપ્ત સમ પૃવિકાયિક જીવને વીસ સ્થાનેમાં ઉત્પાદન પ્રકાર બતાવેલ છે, એ જ પ્રમાણે આ પર્યાપ્ત સૂકમ પૃવિકાયિક જીવને પણ અપર્યાપ્ત, પર્યાત સૂમ બાદર કૃતિકાયિકામાં તથા અપર્યાપ્ત, પર્યાપ્ત સૂમ બાદર અષ્ઠાયિકામાં તેજસ્કાયિકમાં અને વનસ્પતિકાયિકેમાં વીસે સ્થાનમાં ઉત્પાદ સમજ. ૪૦
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३८३
'अहोलोयखत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता' अधोलोकक्षेत्रनाडया बाहये क्षेत्रे समवहतः समवहत्येत्यादि प्रश्नः, उत्तरमाह-एवं' इत्यादि। 'एवं बायर पुढबीकाइयस्स वि अपज्जत्तगास पज्जत्तास्स य भाणियन्वं' एवं पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव वादरपृथिवीकायिकस्याऽपर्याप्नकस्य पर्याप्त. कस्य च भणितव्यम् । एवमेव पर्याप्त बादरपृथिवी कायिकस्यापि विंशतिस्थानेषु ___'अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते बमोहए ललोणिता' अधोलोकस्थित प्रलनाली के बाहरी क्षेत्रमें मरण समुदघात किया और मरणसमुद्घात कर इत्यादि प्रश्न रूपले यहां पर कथन पर्याप्न और अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिक जीव के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिए और उत्तर रूपमें लय कथन जैला पर्याप्त सूक्षमपृथिवीकायिक के सम्बन्ध में किया जा चुका है वैसा ही वह लय कथन यहां भी कह लेना चाहिये। तात्पर्य इस कथन का केवल ऐसा ही है कि हे भदन्त ! जिस अपर्याप्त अथवा पर्याप्त बादर पृथिवीकाथिक जीव ने अधोलोकस्थित वसनाली के बाहरीक्षेत्र में भरण समुद्घात किया है और मरण समुद्घातकर बह ऊलोकस्थित वसनाडी के बाहरी प्रदेश में अपर्याप्त अथवा पर्याप्तपृथिवीकायिक रूपले उत्पन्न होने के योग्य हुआ है तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? ऐसा यह प्रश्न है और हे गौतम! इस सम्बन्ध में पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक सम्पन्ध जैसा कहा है वैसा ही जानना चाहिये
_ 'अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता' मधासभा રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં મરણ સમુદ્ઘત કરે, અને મરણ સમુ. દુઘાત કરીને વિગેરે પ્રશ્ન રૂપનું કથન અહિયાં પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત બાદર પ્રવિકાયિક જીવના સંબંધમાં કહેવું જોઈએ અને ઉત્તરરૂપે સઘળું કથન પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃવિકાયિકના સંબંધમાં જે રીતે કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે તે સઘળું કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-હે ભગવન જે અપર્યાપ્ત અથવા પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિક જીવે અધોલકમાં રહેલ ત્રસનાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં મરણ સમુદઘાત કર્યો હોય અને મરણ મુદ્દઘાત કરીને ઉર્વલેકમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના પ્રદેશમાં અપર્યાપ્ત અથવા પર્યાપ્ત પ્રશ્વિકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચોગ્ય બનેલ હોય, તે હે ભગવન તે ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ રીતને અહિં પ્રશ્ન કરેલ છે અને તે ગૌતમ આ સંબંધમાં પર્યાપ્ત સૂમ પૃશ્વિકાયિકના સંબંધમાં જે પ્રમાણે આ વિષયમાં કહેવામાં આવેલ
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उपपातो वक्तव्य इति ८० | एवं आउक्काइयस्स चउन्निस्सवि भाणियन्वं' एवं चतुर्विधस्य पृथिवीकायिकस्याधोलोकस्य नाडचा बाहये क्षेत्रे समवहतस्य ऊर्ध्वलोकनाथा वा क्षेत्रे समुत्पद्यमानस्य यथा - विंशतिस्थाने पूपपातो वर्णित स्तेनैव रूपेण अकायिकस्य चतुर्विधस्य अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म वादरभेदभिन्नस्यापि विंशति-स्थाने प्रपपातो वर्णणीय इति भावः १६० । 'सुमते काइयस्स दुबि हस्स वि एवं चे' सुक्ष्मतेजस्कायिकस्य द्विविधस्यापर्याप्तपर्याप्तकस्य च यह उत्सर रूप कथन है। इस प्रकार से अपर्याप्त चादपृथिवीकायिकों को २० स्थानों में उत्पादयुक्त करने से और पर्याप्त पृथिवीकायिकों के भी २० स्थानों में उत्पादित करने से ८० गमक हो जाते हैं । ' एवं आउक्काहयहस चन्विहस्त्र विर्माणिपव्वं' जिस प्रकार से अधोलोक स्थित नाडी के बाहय प्रदेश में सारणान्तिक समुद्धत करके ऊर्ध्व लोकस्थित सनाड़ी के पाहिरी प्रदेश में उत्पन्न हुए पृथिवीकायिकका उत्पाद बीस स्थानों में कहा गया है, उसी प्रकार से अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म और बादर भेदनाले अकाधिकका भी २० स्थानों में उपपात वर्णित कर लेना चाहिये । इस प्रकार से चारों प्रकार के अष्कायिकों के ८० गमक हो जाते हैं ! पहिले के ८० और ये ८० आपस में जोड़ देने से १६० गमन होते हैं ।
'सुमाइयस्स दुविहस्त वि एवं चेच' इसी प्रकार से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक का भी पृथिवीकायिक के जैसे २० स्थानों में उपपात कहलेना चाहिये । इस प्रकार से ४० गमक और છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ સમજવું. આ પ્રમ ણે પ્રભુએ ઉત્તર કહેલ છે આ રીતે અપર્યાપ્તક ખાદર પૃથ્વિકાયિકાના વીસ સ્થાનમાં ઉપતઉત્પત્તિ કહેવાથી અને પર્યાપ્ત પૃથ્વિકાયિકાના પણ ૨૦ સ્થાનામાં ઉત્પત્તિ उडेवाथी ८० में सी गस। यह लय हे 'एव' आउकाइयस्स चउब्विहस्स वि માળિયરૂં” જે પ્રમાણે અધેાલેમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના પ્રદેશમાં મારણાન્તિક સમુદ્ઘાત કરીને ઉર્ધ્વલાક સ્થિત ત્રસનાડીના બહારના પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા પૃથ્વીકાયિકાના ઉત્પાદ વીસે સ્થાનેામાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અપર્યાપ્ત, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અને બાદર ભેદવાળા અકાયિકાના પણ વીસે સ્થાનેમાં ઉપપાતનુ વર્ણન કરી લેવુ' જોઈએ આ રીતે ચારે પ્રકારના અક'યિકાના ૮૦ એસી ગમકા થઇ જાય છે, પહેલાં કહેલ ૮૦ એ‘સીને આ અષ્ઠાયિકામાં મેળવવાથી ૧૬૦ એકસ સાઇઠ ગમકા (ભેદ) થાય છે.
'सुम ते काइयस्स दुविहस्स वि एवं चेव' हे गौतम! या प्रमा
અપર્યાપ્તક અને પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મતેજસ્કાયિકાના પણ ઉપપાત પૃથ્વીકાયિકાના
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३८५ पृथिव्यादिकायिकवदेव विशति स्थाने पपातो वर्णनीय इति २०० । 'अपज्जत पायरतेउक्काइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए' अश्या चादरतेजस्कायिका खलु भदन्त ! समयक्षेत्रे समवहतः, 'समोहणित्ता जे भथिए उडलोय खेत्तनालीए. बाहिरिल्ले खेत्त' समवहत्य मारणान्तिकसमुदघातं कृत्वा यो भव्य अवलोक क्षेत्रनाडया बाहये क्षेत्रे, 'अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए उवर जित्तए' अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकतया-तथाविध पृथिवीकायिकरूपेण समुत्पत्तुम् ‘से णं भंते ! कइसमइएणं दिग्गहेणं उच्चज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन ग्रिहेण समुत्पधेत इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम । 'दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्ग हेणं उबवज्जेज्जा' द्विसा मयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पधेतेत्युत्तरम् । मिलाने से २०० नमक हो जाते हैं । 'अपज्जत्तवायर तेउकाइएणं भंते ! समयखेत्ते ! समोहए' हे अदन्त ! कोई अपर्याप्त चादरतेजस्कायिक जीव समयक्षेत्र में समवहत हुआ। 'समोहणित्ता जे भविए उड़लोय खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' और सनवहत होकर वह अवलोक क्षेत्र स्थित सनाडी के बाहिरी प्रदेश में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुभा हो 'से णं भंते! कइसमह एणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' हे सदन्त ! ऐसा वह जीव कितने समयवालेविग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुस. मइएण वा, तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा' हे गौतम ! वह वहां दो समयवाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले કથન પ્રમાણે ૨૦ વીસે સ્થાનમાં કહેવું જોઈએ. આ રીતે આ ૪૦ ગસકો भगवाथी २०० असे आम थ नय छ 'अपज्जत्त वायरतेउकाइएणं भने। समयखेत्ते समोहए' गवन् । यति माह ते४२४ायि: समय क्षेत्रमा समुद्धात ४२ 'समोह णित्ता' समुद्धात शन 'जे भविए उन्ढोगलेत. नालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयताए उववज्जित्तए' Barals શ્રેત્રમાંરહેલ ત્રસનાલીના બહારના પ્રદેશમાં અપર્યાપ્ત સુમપૃથ્વીકાયિકપણાથી अपन थपाने ये.श्य थये डाय तो 'से ण भंते | कइ समइएण विगहेण उववज्जेज्जा' मापन येवो ते ०१ 21 समयनी विग्रह गतिथी ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે'गोयमा' दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइपण वा विगहेणं उपवजेन्जा' ગૌતમ તે ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી भ०४९
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भगवतोस पुनः प्रश्नयनाह-'से केणटेणं' इत्यादि । ‘से केणडेणं' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा समुत्पधेतेति। 'अट्ठो जहेव' इत्यादि । 'अट्ठो जहेव रयणपभाए तहेव सत्त सेढीओ' अर्थों हेतु: कारणं यथैव येनैव प्रकारेण रत्नमभायां कथित स्तथैव सप्त श्रेणिरूपो वक्तव्यः। यया रत्नप्रभायां श्रेणि विभज्य द्विसामयिकादि विग्रहस्य समर्थन तथैव इहापि श्रेणिविभागपूर्वकमेव उत्तर मिति । कियत्पर्यन्तं रत्नप्रभापकरणं वक्तव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'एवं जाव' एवं यावत्, अत्र यावत्पदेन सप्तश्रेगय
ज्वायता यावद्धचक्रवाला। तत्र एकतो वक्रया गच्छन्, द्विसामयिकेन वा, विग्रह से अथवा चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । 'से केणहेणं भंते हे भदन्त! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह वहां दो समयवाले विग्रहसे थावत् चार समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्तसेढीओ' हे गौतम ! जैसा कारण रत्नप्रभापृथिवी में कहा गया है वैसा ही कारण सप्तश्रेणि रूप यहां पर भी कह लेना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार से रत्नप्रभा में श्रेणिका विभाग करके द्विसामयिक आदि विग्रहका समर्थन किया गया है उसी प्रकार से यहां पर भी श्रेणि के विभाग पूर्वक ही उत्तर कह लेना चाहिये । यह रत्नप्रभा प्रकरण यहां यावत् शब्दसे वहां तक का लिया गया है कि जहां पर प्रभुश्रीने उत्तर रूपमें ऐसा कहा है कि हे गौतम | मैंने ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाला इस प्रकार से सात श्रेणियां कही વિગ્રહ ગતિથી અથવા ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. 'से केणटेणं भंते !०' 8 सावन भा५ मे ॥ २४थी । छ। 8-ते त्यो બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી યાવત ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतभस्वामीन ४ छ :-'अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ गौतम ! २नमा पृथ्वीना ४थनमा જે પ્રમાણેનું કારણ કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું સાત શ્રેણી રૂપ કથન અહિયાં પણ સમજવું અર્થાત્ જે પ્રમાણે રતપ્રભા પૃથ્વીમાં શ્રેણીને વિભાગ કરીને બે સમય વિગેરે વિગ્રહ ગતિનું સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ શ્રેણીના વિભાગપૂર્વક જ ઉત્તર સમજ. આ રત્નપ્રભા પ્રકરણ અહિયાં યાવત્ શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તે રતનપ્રભા પ્રકરણ ત્યાં સુધીનું ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે કે ત્યાં પ્રભુશ્રીએ ઉત્તર રૂપથી એવું કહે છે કે-હે ગૌતમ! મેં બજવાયતા યાવત્ અર્ધચક્ર
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प्रमैचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् द्विधातो वक्रपा गच्छन्, त्रिसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येतविण्या मुत्पद्यमानश्चतुः सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येउ, तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते द्विसामयिकेनवा, त्रिसामयिकेन वा चतुःसामयिकेन वा विग्रहेण समुत्पद्येत, एवम् पृथिवीकायि केषु चतुर्विधेषु उपरातयितव्यः अष्कायिकेषु चतुर्विधेषु तथा अपर्याप्तेषु सूक्ष्म तेजस्कायिकेपु चोपपातयितव्य एतदन्तस्य ग्रहणं भवतीति भाव: 'अपज्जत्त वायर उकाइए णं भंते! समयखेत्ते समोहए समोदणित्ता जे भविए' अपर्याप्त हैं । उनमें से एकतो का श्रेणिसे जाता हुआ जो जीव उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होता है वह वहाँ दो समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है । द्विघातो वा श्रेणिसे जाता हुआ जो जीव उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होता है वह तीन समयवाले विग्रहसे वहां उत्पन्न होता है और जो जीव विश्रेणि में उत्पन्न होता है वह चार समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है । 'तन्तेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते' इसलिये हे गौतम! मैने ऐसा कहा है कि वह वहां दो समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है । तीन समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है अथवा चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । इसी प्रकार से उसे चारों प्रकार के पृथिवीकाधिक जीवों में उत्पादित कर लेना चाहिये। चारों प्रकार के अकायिकों में उत्पादित कर लेना चाहिये और अपर्यातक सूक्ष्म तेजस्कायिकों में उत्पादित कर लेना चाहिये ।
'अपज्जत्त वायर लेउक्काइएणं भंते । समयखेत्ते समोहए समोहવાલા આ રીતે સાત શ્રેણીયા કહેલ છે. તેમાંથી એકતા વકા શ્રેગ્રીથી જઈને જે જીવ ઉત્પત્તિસ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે, અને દ્વિધાતા વકા શ્રેણીથી જનારા જીવ ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય તે ત્રણ સમયત્રાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે, અને જે જીવ વિશ્રેણીથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે ચાર સમયવાળી વિગ્રહ गतिथी त्यां उत्पन्न थाय छे. ' तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते' मे उपरथी હૈ ગૌતમ ! મે' એવુ કહેલ છે કે-તે ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે તે ચારે પ્રકારના પૃથ્વીકાયિકામાં ઉત્પન્ન થવા સંખ'ધી કથન કહેવુ' જોઈ એ. અને અપર્યાપ્તક, પર્યાપ્તક તેજરકાયિકામાં ઉત્પન્ન થત્રાના સંબંધમાં કહેવું જોઇએ.
'अपज्जत पायरते उक्काइएणं भंते ! समयखेत्ते समोहप समोहणित्ता' हे भगवन्
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भगवतीस
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वादरतेजस्कायिकः खलु भदन्त ! समयक्षेत्रे समवहतो - मारणान्तिक समुद्घातं कृतवान्, समवद्दत्य-मारणान्तिक समुद्वातं कृत्वा यो भव्यः, 'उड्डूकोयखेतना - लीप वाहिरिल्ले खत्ते' लोक क्षेत्रनाडचा वाह्य क्षेत्रे' 'पज्जत मृहुम तेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए' पर्याप्त सुक्ष्मतेजस्कायिकतया तद्रूपेणोपपत्तुम्, 'से णं भंते! ' स खलु भदन्त | कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येतेति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'सेसं ' इत्यादि । 'सेसं तं चेत्र' शेपमुत्तर मत्र सर्वं द्विसामयिकेच वा' त्रिसामयिकेन चा, 'चतुःसामयिकेन वा विण उत्पद्येतेत्यादिकं सर्वं पूर्ववदेवेति ज्ञातव्यमिति । ""अपज्जत बायर उक्काइरणं भंते । समयखेत समोहर' अपर्याप् वादरतेजपित्ता' 'हे भदन्त ! जो अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक समयक्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात से मरण करता हैं और मरणकरके 'जे उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते एज्जन्त सुहुमतेउका इयत्ताएउववज्जि - तर भविए' जो ऊर्ध्वलोक स्थित सनाडी के बाहरी क्षेत्रमें पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य होता है तो 'से णं भंते! 'हे भदन्त ! ऐला वह जीव कितने समयवाले विग्रह से यहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'सेस तं चेव' 'हे गौतम ! इस 'सम्बन्ध में उत्तर यहाँ 'वह वहां दो समघवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है तथा चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है ' 'इत्यादि रूपले पूर्वोक्त जैसा ही जानना चाहिये |
'अपज्जन्त वायर तेक्काहरणं भंते ! समयखेत्ते समोहए' 'हे જે પર્યાપ્ત ખદર તેજસ્કાયિક શ્રમયક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્ઘાતથી મરણુ या छे, भने भर यामीने 'जे उडढलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्तसुहुमते काइयत्ताए उववज्जित्तर भविए' ने वसीउमा रहेद्या त्रसनाडीना अहेशभां पर्याप्त सूक्ष्मते रायपणाथी उत्पन्न यंत्राने योग्य होय छे, 'से णं भंते 10 ' હું ભગવન્ એવે તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे छे - 'सेसं त' चेव' हे गौतम! આ સંબંધમાં ઉત્તર અહિયાં તે ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહુ ગતિથી પશુ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રણુ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, તથા ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતેથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, વિગેરે પ્રકારથી પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવે.
'अपज्जत्तवायर उक्काइएणं भंते ! समयखेत्ते समोहर के भगवन् ने
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सु०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३८६ स्कायिकः खल्ल भदन्त ! समय क्षेत्रे समव हतो-मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान् , 'समोहणित्ता जे भविए समय खेत्ते अपज्जत्त वायर ते उक्झायत्ताए उपबज्जित्तए' समबहत्य-मारणान्तिक समुद्घातं कृत्वा यो भन्योऽपर्याप्सवादरतेजस्कायिक तया समुत्पत्तुम् । 'से णं भंते ! कर समइएणं विग्गहेगं उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! अपर्याप्त बादरतेजस्कायिकः कति सामयिकेन विग्रहेण समुपद्ये तेति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि ।' 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगससइएण वा, दुममइएण वा, तिममइएण वा, विगहेणं उबवज्जेज्मा' एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पछ तेत्युत्तरम् । पुनः प्रश्नयति 'से केणटेण' तत्केनार्थेन, उत्तरमाह-'अहो जहेव' इत्यादि । 'अट्ठो जहेव रयणप्प. भदन्त ! जो अपर्याप्त पादर तेजस्कायिक जीव लमयक्षेत्र में लमवहत होता है-मारणान्तिक समुद्धात करता है-और 'लमोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जन्त बायश्तेउलान्ताए उधज्जित्तए' कारणान्तिक समुद्घात करके जो मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादतेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य होता है 'भंते ! का समइए विगाहेणं उववज्जेज्जा 'ऐसा वह जीव हे भदन्त ! वहां कितने समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! एगसमइएण या दुलमहएण बा, लिलमइएण घा विगहेणं उपवज्जेज्जा' हे गौतम! बह वहां एक लयवाले विग्रहले, अथवा दो समयवाले विग्रह से अथवा तीन समयमाले विग्रहसे उत्पन्न होता है । 'खे केणटेणे' हे भदन्त ! ऐल्ला आप शिल कारण से कहते है कि वह अपर्यापन बादर तेजस्काधिक जीव लमयक्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करके वहीं અપર્યાપ્ત બાદરતેજરકાયિક જીવ સમયક્ષેત્રમાં સમવહત થાય છે. અર્થાત મારણાCOMसभात २ छ, भने 'समोहणित्ता जे भविए खमयखेत्ते अपज्जत्तवायरतेउकाइयत्ताए उत्रवज्जित्तए' भारन्ति समुद्धात ४।२२ मनुष्यक्षेत्रमा म५. यति माह ते१२यि४५४ाथी ५न्न थप ने योग्य हाय है, सेणं भंते ! कइ समइएण विगहेण उज्जेज्जा' मेवात 4 लगवन टेटस। समयવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
ह -गोयमा। एगस नइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गण उववजेज्जा' गौतम मेवात व त्या में समयवाणी वियतिथी અથવા બે સમયવાળી વિથડ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી Gपन्न थाय छे. 'से वेण?ण०' 3 सगवन् मा५ मे शारथी हो છે? કે તે અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક જીવ સમયક્ષેત્રમાં મારણાનિત
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भगवती भाए तहेव सत्तसेढीओ' अथों हेतुः यथैव रत्नप्रभायां तथैव सप्तश्रेणिरूपो विज्ञेयः।
'एवं एज्जत्त वायरते उक्काइयत्ताए वि एवम् अपर्याप्त वादर तेजस्कायिकतया समुत्पधमानस्य यथैव वक्तव्यता भणिता तथैव पर्याप्त पादरतेजस्कायिकतया समुत्पद्यमानस्यापि वक्तव्यता भणितव्येति भावः 'वाउक्काइएसु वणस्सहकाइएस य जहा पुढवीकाइए सु उववाइओ तहत्र चउक्कएणं भेदेणं उववाएययो' वायु कायिकेपु वनस्पतिकायिकेषु च यथा-येन प्रकारेण पृथिवीकायिकेषु चतुर्विधेषु उपपातितः-उपपातो दर्शित स्तथैव-तेनैव रूपेण चतुष्केन भेदेन अपर्याप्त पर अपर्याप्त वादरतेजस्कायिक रूपसे एक समयवाले विग्रहसे, अथवा दो समयकाले विग्रह से अथवा तीन समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अहो जहेव रघणप्पभाए तहेव सत्तसे ढीओ' हे गौतम! जैला रत्नप्रभा प्रकरण में इस सम्बन्ध में मेरे द्वारा सात श्रेणियों का प्रतिपादन रूप कारण बनलाया गया है वही कारण यहां पर भी समझ लेना चाहिये । ___एवं पज्जत्त बापरते उक्काइयत्ताए वि' जैसी वक्तव्यता अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होनेवाले जीवके संबंध में कही गई है उसी प्रकार की वक्तव्यता पर्याप्त तेजस्क्रायिक रूप से उत्पन्न होने घाले जीव के विषय में भी कह लेनी चाहिये। 'वाउक्काइएस्सु वणस्सइ. काइएस्लु य जहा पुढवीनाइएस्सु उववाहओ तहेव चउक्कएणं भेदेणं સમુદુઘાત કરીને ત્યાં જ અપર્યાપ્ત બાર તેજરકાયિકપણાથી એક સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી, અથવા બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે 3- अट्ठों जहेव रयणप्पभाए तहैव सत्त सेढीओ' 3 गौतम ! २नमा पृथ्वीना પ્રકરણમાં જે રીતનુ આ સ બંધમાં મેં કથન કર્યું છે કે-સાત શ્રેણી હોય છે, વિગેરે પ્રતિપાદન રૂપ કારણ બતાવ્યું છે, તે જ કારણ અહિયાં પણ સમજી લેવું જોઈએ.
___ 'एव पजत्तवायरतेउकाइयत्ताए वि' २ प्रमाणेनु थन भारत म.६२ તેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થનારા જીવના સંબંધમાં કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન પર્યાપ્ત તેજસ્કાવિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવન સ બ ધમાં પણ सभर. 'वाउक्काइएसु वणस्बइकाइएसु य जहा पुढवी काइएसु उत्रवाइयो तहेव घसस्कएणं भेएणं उबवाएयवो' २ प्रमाणे यार ४१२न पृथ्वीयि वामा
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३४ अ. श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम् ३९१ पर्याप्त सूक्ष्म वादर भेदेनोपपातयितव्यः । चतुष्पकारकेपु वायुकायिकेषु तथाचतुष्पकारकेषु वनस्पतिकायिकेष्वपि अपर्याप्त बादर तेजम्कायिकस्योपपातो वर्णनीय इति । 'एवं पज्जत्त वायरतेउकाइभो वि एएसु चैव ठाणेसु उववाएयनो' एवम् अपर्याप्त बादरतेजस्कायिकस्य वायुवनस्पतिकायिकेषु उपपातो दर्शित स्तेनैव रूपेण पर्याप्त बादरतेजस्कायिकस्यापि प्रत्येकं चतुर्विधेपु पृथिव्यप्तेजो. वायुवनस्पतिकायिके पूषपातो वर्णनीय इति । 'वाउकाइय-वणस्साकाइयाणं जहेव पुढवीकायत्ते उववाओ तहेव माणियच्चो वायुकायिक वनस्पतिकायिकानां चतु. विधानाम् यथैव पृथिवीकायिकतया-पृथिवी कायिकरूपेणोपपात: कथित स्तथैवैषाम् अत्रापि उपपातो भणितव्यः, आलापप्रकारश्च स्वयमेहनीयः । पूर्वमधोउववाएयव्यो' 'जिस प्रकारले चतुर्विध पृथिवीकायिकों में अपर्याप्न बादरतेजस्कायिक का उपपात दिवाया गया है। उसी प्रकार से चतु. विध वायुकायिकों में और चतुर्विध वनस्पतिकायिकों में भी उसकाअपर्याप्त बादतेजस्कायिकका-उपपात कह लेना चाहिये।
'एवं पज्जत्त बायरतेउकाओ कि एएसु चेव ठाणेसु उपचाएयव्यो' इसी रीति के अनुसार पर्याप्त बादरतेजाकायिक का भी चतुर्विध पृथिवीकायिकों में, चतुर्विध अप्कायिकोंमें, चतुर्थिघ तेजस्कायिकोंमें, चतुर्विध वायुकाथिकों में और चतुर्विध वनस्पतिकायिकों में उपपात कह लेना चाहिये । 'बाउकाइयवणस्सइकाइयाणं जहेच पुढचीकाइयत्ते उववाभो तहेव भाणियव्यो' चतुर्विधवायुकाधिकों का और चतुर्विध वनस्पतिकायिकों का जैसा पृथिवीकाथिकों में उपपात कहा गया है उसी प्रकार से इनका यहां पर भी उपपात कह लेना चाहिये । इस અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક ઉત્પાત કહ્યો છે એજ પ્રમાણે ચાર પ્રકારના વાયુકાયિકમાં અને ચાર પ્રકારના વનસ્પતિકાચિકેમાં પણ તેને અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકનો ઉપપાત કહે જોઈએ ___एवं पज्जत्तवायरतेउकाइयो वि पएसु चेव ठाणेसु उववाएयव्वो' मार પ્રમાણે પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકને પણ ચાર પ્રકારના પૃથ્વીકાચિકેમાં ચાર પ્રકારના અખાયિકોમાં ચાર પ્રકારના તેજસ્કાયિકામાં ચાર પ્રકાર વાયુ કાયિકમાં અને ચાર પ્રકારના વનસ્પતિકાયિકમાં ઉપપાત કહેવો જોઈએ 'वाउकाइय वणस्सइकाइयाण जहेव पुढवीकाइयत्ते उववाओ तहेव भाणियब्यो' ચાર પ્રકારના વાયુકાયિકેને અને ચાર વનસ્પતિકાયિકેને ઉપપાત પૃથ્વી
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भगवती लोप क्षेत्रनाडी बाहयक्षेत्रे समव्हतानायूलोकक्षेत्रनाडी चाहत्यक्षेत्रे समुपित्सना पृथिव्यादीनानुषपातो वर्णित:, साम्पतमू लोकक्षेत्रनाडी बाह्यक्षेत्रे समुस्पिसनां पृथिव्यादीना मुपपातः पूर्ववत्र भवतीति मदर्यते-'अपज्जत्त' इत्यादि। 'अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइएणं मंते !' अपर्याप्त सक्षमपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'उडलोय. खेत्तनालीए बाहिरिल्लेखेत्ते समोहर' ऊर्ध्वलोकक्षेत्रनाडया बाह्य क्षेत्रे समवहतोमारणान्विसमुद्घात कृतवान्, 'समोहणित्ता जे भविए अहेलोयखेतनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत सुहुम पुढ पीकाइयत्ताए उपज्जित्तए' समाहत्य-मार. सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं उद्भावित कर लेना चाहिये । जिस प्रकार से अधोलोक क्षेत्र स्थित बलनाडी के व्याहिरी क्षेत्रमें समवहन हुए पृथिव्यादि जीवों का जो कि अवलोक स्थित नसनाड़ी के बाह्य प्रदेश में उत्पन्न होने के योग्य हैं। उत्पाद कहा गया है उसी प्रकार से अवलोक स्थित बलनाडी के वाहय क्षेत्र में समवहत हुए जीवों का जो कि अधोलोक स्थित चलनाडी के बाहिरी प्रदेश में उत्पन्न होने के योग्य हैं उत्पाद है यह प्रकट किया जाता है
'अपज्जत सुहुनपुढचीकाइएणं अंते ! उडलोय खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' हे अदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव अबलोकस्थिन मनाडी के वाहिरी प्रदेश में मारणान्तिक समुदघात करके भरा और मरकर 'जे भविए अहेलोय खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते अज्जत्त सुहमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' वह કાચિકેમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ રીતથી તેઓને ઉપપાત અહિયાં પણ કહી લે. આ વિષયમાં આલાપને પ્રકાર સ્વયં સમજી લે.
જે પ્રમાણે અધેલેક ક્ષેત્રમાં રહેલ ત્રસનાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં સમુદુઘ ત કરેલ પૃથ્વીકાવિક વિગેરે જીવોના કે જે ઉર્વ લેકમાં રહેલ ત્રસનાડીના બાહા પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થવાને એ ગ્ય છે, તેના સંબંધમાં ઉત્પાદ કહેલ છે, એજ પ્રમાણે ઉદર્વકમાં રહેલ ત્રસનાડીના બહારના ક્ષેત્રમાં સમુદ્યાત કરેલ કે જે નીચેના લકમાં રહેલ ત્રસનાડીના બહારના પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય छ, तमान त्यात थाय छे. तम उपामा मावस छे. 'अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइएण भंते ! उड्ढलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' सन 18 અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીવ ઉર્વલેમાં રહેલ ત્રસ નાડીના બહારના પ્રદેશમાં મારણાનિક સમુદઘાત કરીને મરણ પામે, અને મરણ પામીને 'जे भविए अहोलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए उव
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her fद्रका टीका ०३४ अ. श०१ सू०५ विग्रहगत्योत्पातनिरूपणम्
३९३ -
णान्तिकसमुद्घातं कृत्वा यो अव्यः योग्यः, अधोलोकक्षेत्रनाडया वाहये क्षेत्र अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया तादृश पृथिवीकायिक स्वरूपेणोत्पत्तम्- समुत्पतिम् आसादयितुम्, 'से णं भंते ! इसमइएणं' स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्यतेति प्रश्नः । अस्योत्तरमतिदेशेनाह - ' एवं ' इति । एवं यथाअधोलोकक्षेत्रनाडी बाह्यक्षेत्रे समवहताना मूर्ध्वलोक क्षेत्रनाडी वाह्यक्षेत्रे समुत्पित्सूनां विषये उपपातो वर्णित स्वथैव - ' ऊड्डलोय खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोइयाणं' ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडया वाले क्षेत्रे समवद्दतानां पृथिव्याये केन्द्रियाणाम्, 'अहेलोय खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते उबवज्जमाणाणं' अधोलोक क्षेत्रनाडया वाले क्षेत्रे समुत्प: द्यमानानामपि 'सोचेच गमओ निरवसेसो माणियन्त्रो' स एव-पूर्वोक्त एव अधोलोकक्षेत्रनाडयाः बहिः क्षेत्राद् ऊईलोक क्षेत्रनाडी as: क्षेत्रसमुत्पत्सु सदृश एव गमको निरवशेषः - समग्रो भणितव्यः । कियत्पर्यन्तं पूर्वमकरणमिह भणितव्यम्, तत्राह 'जाव' इत्यादि । 'जाब चायरवणस्सइकाइयाओ पज्जत्तओ वायरअधोलोकस्थित नाडी के बाहिरी प्रदेश में उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो 'लेणं अंते । कइस महणं' हे भदन्त ! ऐसा वह जीव वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? अतिदेश से उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं 'एच' 'हे गौतम! जिस रीति से अधोलोकस्थित प्रसवाडी के बाह्य प्रदेश में समवहत हुए पृथिव्यादि एकेन्द्रिय जीवोंके ऊर्ध्य लोकस्थित त्रसनाडी के बाह्यप्रदेश के विषय में उपपातका - उत्पादका कथन किया गया है उसी रीति से ऊर्ध्व लोकस्थित सनाडी के बाह्यप्रदेश में समवहत हुए पृथिव्यादि एकेन्द्रिय जीवों के अधोलोकस्थित मनाली के बाह्यप्रदेश में उत्पाद का कथन है ऐसा जानना चाहिये । यही बात 'सो चेव गमओ निरवसेसो भाणियव्बो' इस सुत्रपाठ द्वारा प्रदर्शित की गई है। और यह सब पूर्व वज्जिचए' ते मघोषोऽभां रडेस त्रसनाडीना महारना अद्देशमां उत्पन्न थवाने योग्य थये। होय तो 'से णं भंते ! कइ समइएणं०' हे लगवन् मेव। ते જીવ કેટલા સમયવાળી વિષ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર અતિદેશ (ભલામણુ)થી આપતાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-‘શ્ય’ હે ગૌતમ ! જે રીતે અધેલાકમાં રહેલ સનાડીના ખહારના પ્રદેશમાં સમુદ્લાત કરેલ પૃથ્વીકાયિક વિગેરે એકેન્દ્રિય જીવાને ઉલેમાં રહેલ ત્રસનાડીના ખહારના પ્રદેશના વિષયમાં ઉપપાતનુ કથન કહેલ છે. તેજ પ્રમાણે આમના ઉત્પાદનું
अथन पशु छे, तेभ सभन भन वात 'सो चेव गमओ निरवसेस्रो ि
ચન્દ્વો' આ સૂત્રપાડ઼ દ્વારા બતાવવામાં આવેલ છે અને આ સઘળુ પહેલાનું
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भ० ५०
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भगवतीले पणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु उववाइओ' यावद् वादरवनस्पतिकायिकः पर्याप्तको पादर वनस्पतिकायिकेषु पर्याप्तके पूपपातितः। अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त वादरवनस्पतिक एकेन्द्रियजीवाः अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिकतः आरभ्य पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्तेषु एकेन्द्रियेषु उपपातित स्तयेव विज्ञेयः। सर्वत्रालापमकारः स्वयमेवोहनीयः ॥९० ५॥
अथ--लोकस्य पौरस्त्यादि चरमात विषयः समुद्घातोपपातः प्रदर्श्यते'अपज्जत्त' इत्यादि। - मूलम्-अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्ल पुरस्थिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्त पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते, अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा.? गोयमा! एगसमइएण वा, दुलमइएणधा, तिसमइएण चा, घउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ एगसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा ?, एवं खलु प्रकरण यहां पर 'जाव 'यायर वणसइकाइओ पज्जत्तो घायरवणस्सइ. काइएस्सु पज्जत्तएस्सु उववाइओ' इस सूत्रपाठ तक ज्योंका त्यों कहना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव जैसे पहिले पर्याप्त पादरवनस्पतिकाधिक तक के एकेन्द्रिय जीयों में उत्पादित बतलाये गये हैं वैसे ही यहां पर इन्हें उत्पादित पतलाना चाहिये । इस सम्बन्ध में सर्वत्र आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित कर लेना चाहिये ॥५॥
४२ मिडिया 'जाव बायरवणस्सइकाइयाओ पज्जत्तओ बायरवणसइकाइएसु पज्ज तएंसु उववाइओ' २L सूत्राना ४थन सुधा भनु तम ४ी से .
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-અપર્યાપ્તક સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવ જે રીતે પહેલાં પર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના એક ઈન્દ્રિયવાળા છામાં ઉત્પણ થવાના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ તેઓના ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં કથન કરવું જોઈએ. આ વિષયમાં માયાપકોને પ્રકાર સવયં બનાવીને સમજી લેવું. સૂ૦ પા
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प्रका टीका श०३४ अं. श. १ सू०६ अ०सूक्ष्मपृथ्विकायिकोत्पत्तिः ३९६ गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ तं जहा - उज्जुआयया जाव अद्धचक्कवाला | उज्जुआययाए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा । एगओ वंकाए सेटीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुहओ का सेटीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयमि अणुसेटीए उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, जे भविए विसेढीए उबवज्जित्तए, से णं व उसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा, से तेणट्टेणं जाव उववज्जेज्जा । एवं अपज्जत सुहुमढवीकाइओ लोगल पुरथिमिल्ले चरिमंते । समोहए, समोहणित्ता लोगस्स पुरथिमिल्ले देव चरिमंते अपज्जत्तएसु पज्जन्तएसु य सुहुमपुढवीकाइएसु२, सुहुमआउकाइएस अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु४, सुहुमतेउकाइएसु अपज्जत्तपसु पज्ज - तरसु य ६, सुहुमवाउकाइएस अपज्जत्तएसु पज्जत्तएस ८, बायरवाउकाइएसु अपजन्तएसु पज्जतरसु १०, सुहुमवणस्स इकाइएसु अपजत्तएसु पज्जन्त्तरसु य ११, बारससु वि ठाणेसु एएणं चैव कमेणं भाणियव्वो । १२ सुहुमपुढवीकाइओ पज्जत्तओ एवं
व निरवसो बारस वि ठाणेसु उक्वाएयव्वो२४ । एवं एए गमएणं जाब सुहुमवणस्लइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएस चेत्र भाणियव्वो । अपजत्त सुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगल्ल दाहिणिले चरिमंते अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उदवज्जेजा ? गोयमा ! दुसमइएणं वा तिसमइएणं वा वउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा | से केणद्वेणं भंते ! एवं वुबइ १।
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भगवती एवं खलु गोयमा ! मए सन सेढीओ पन्नत्ताओ तं जहा उज्जुआयया जाव अद्धचक्कवाला । एगओ वंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंमि अणुसेढीए उववजित्तए, से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । जे भविए विसेढीए उववज्जित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से तेणटेणं गोयमा! एवं एएणं गमएणं पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए दाहिणिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो जाब सुहुमवणस्तइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणलइकाइएसु पजत्तएसु चेव । सव्वेसिं दुसमइओ, तिसमइओ, चउसमइओ विग्गहो -भाणियव्यो। अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते ! लोगस्स - पुरथिमिल्ले परिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पञ्चस्थिमिले चरिभंते अपज्जत्तनुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववजिजत्तए, से णं भंते ! का समइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा? - गोयमा ! एग लमइएण वा, दुलमइएण बा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विगहेणं उनबज्जेज्जा । ले केणटेणं०। एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते लसोहया पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते उववाइया, तहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्च. थिमिल्ले चरिसते उववाएपल्या सव्वे । अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइएणं भंते! लोगस्त पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए लोगल्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए। से णं भंते ! एवं जहा पुरस्थिमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिणिल्ले चरिमंते उववाइओ तहा पुरस्थिमिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो॥सू०६॥
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प्रथम द्रिका टीका श०३४ अं. २०१ सु०६ अ०सूक्ष्मपृथ्विकायिकोत्पत्तिः ३९७
छाया -- अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समरहस्य यो भन्यो लोकस्य पौरस्त्ये एव चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिकतया उत्पत्तुम् स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यते ? गौतम । एकसामयिकेन वा द्विसामयिकेन वा, त्रिसामायिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा विमगोत्पद्यते, तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते एकसामयिकेन वा यावत् उत्पद्येत । एवं खलु गौतम ! मया सप्तश्रेणयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - ऋज्वायता यावदर्द्धचक्रवाला | ७| ऋज्वायतया श्रेण्या उत्पद्यमान एकसामयिकेन विप्रणोत्पद्ये । एकतो वक्रया श्रेण्या उत्पद्यमानो द्विसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत, द्विधातो वक्रया श्रेण्या उत्पद्यमानो यो भव्य एकप्रतरे अनुश्रेण्याम् उत्पत्तुम्, स खलु त्रिसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत । यो भन्यो विश्रेण्यामुत्पत्तुं स खलु चतुःसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत तत्तेनार्थेन यावदुत्पयेत । एवमपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायको लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समवहत्य लोकस्य पौरस्त्ये एव चरमान्ते अपर्याप्तषु पर्याप्त केषु च सून पृथिवीकायिकेषु सूक्ष्मा कायिकेषु अपर्याप्तकेषु पर्या च वादरवायुकायिकेषु अपर्याप्त पर्याप्त च सूक्ष्म वनस्पतिकायिकेषु अपर्याप्तकेषु पर्याप्तकेषु च द्वादशस्वपि स्थानेषु एतेनैव क्रमेण भणितव्यः १२ सूक्ष्म पृथिवीकायिकः पर्याप्तक एवमेव निरवशेषो द्वादशस्व स्थानेषु उपपातयितव्यः २४ । एवमेतेन गमकेन यावत् सूक्ष्मवनस्पति कायिकः पर्याप्तः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेपु पर्याप्त केष्वेव भणितव्यः । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समवहृत्य it out लोकस्य दाक्षिणात्ये चरमान्ते, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकेषु उपपत्तुम्, स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत । गौतम ! द्विसाम यिकेन त्रसामयिकेन चतुःसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, एवं खलु गौतम ! मया सप्तश्रेणयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा - ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाला ७ । एकतो वक्रया श्रेण्या उत्पद्यमानो द्विसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत । द्विधा चक्र श्रेण्या उत्पद्यमानो यो भव्य एकमतरे अनुश्रेण्या मुत्पत्तुम्, स खलु त्रिसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत यो भन्यो विश्रेण्या मुत्पत्तुम्, स खलु चतुःसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येत, तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमेतेन गमकेन पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः दक्षिणात्ये चरमान्ते उपपातयितव्यो यावत् सूक्ष्म वनस्पतिकायिकः पर्याप्तकः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेषु पर्या केध्वेव । सर्वेषा द्विसामयिकः, त्रिसामयिकः, चतुःसामयिको विग्रहो भणितव्यः । अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समवहत्य
भव्य लोकस्य पाये चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकतयोत्पत्तुं
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કુટ
भगवती
सख भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत । गौतम ! एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा विग्रहेणोत्पद्येत । तत्केनार्थेन एवम् ! यथैत्र पौरस्त्ये एव चरमान्ते समवहताः पौरस्त्ये एव चरमान्ते उपपातितास्तथैव पौरस्त्ये चरमान्ते समवहताः पाश्चात्ये चरमान्ते 'उपपातयितव्याः सर्वे । अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समत्रवहत्य यो भन्यो लोकस्य औत्तरे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकतयोत्पत्तम् स खलु भदन्त । एवं यथा पौरस्त्ये चरमान्ते समहतो दाक्षिणात्ये चरमान्ते उपपातितः तथा - पौरस्त्ये चरमान्ते - समवहत औत्तरे चरमान्ते उपपातयितव्यः ॥ ६ ॥
'टीकाः -- ' अपज्जत्तसु हुम पुढवीकाइए णं भंते !" अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' लोकस्य पौरस्त्ये पूर्वदिक् सम्बन्धिनि चरमान्ते समवहतो - मारणान्तिकसमुद्धातं कृतवान्, 'समोहत्ता जे भविए लोगस्स पुरथिमिल्ले चेव चरिमंगे' 'समःहत्य - मारणान्तिक समुद्घात कृत्वा यो भव्यो लोकस्य पौरस्त्ये एव चरमान्ते, 'अपज्जत हुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जितए अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उत्पत्तुम् 'से
अब लोकके पूर्वादि चरम भाग विशेषका उपपात दिखलाया जायगा | 'अपज्जत्त सुम पुढवीकाइए णं भंते ! इत्यादि
टीकार्थ- 'अपज्जत्तसु हुम पुढवीकाइए णं भंते ।' जिस अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीवने 'लोगस्स पुरथिमिल्ले 'चरिमंते समोहए' लोक के पूर्वदिकू संबंधि चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात किया है- 'समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरस्थिमिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत हुम पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' और मरण करके वह लोक के पूर्व दिशा के ही अन्तिम भाग में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य हुआ है 'सेर्ण
હુવે લેકના પૂર્વ વિગેરે ચરમાન્ત ભાગ વિશેષને ઉપપાત ખતાવવામાં गावे छे. 'अपज्जत हुमपुढवीकाइए ण भरते !' इत्यादि
सूक्ष्म
टार्थ' - 'अपजत्तसुमपुढचीकाइए णं भते !" ने अपर्याप्त पृथ्विी अयि व 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए' सोना पूर्व हिशा संमधी अरमान्तमां भारशान्ति सभुद्धात ने भरे होय 'समोहणित्ता जे भाविए लोगस्स पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तनुहुमपुढवी का इयत्ताए उववज्जित्तए' मने भरण पाभीने ते बोम्ना पश्चिमना मन्तलागभां અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય હાય છે,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सू०६ असूक्ष्मपृथ्विकायिकोत्पत्तिः ३९९ भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! कति सामयिकेन विग्रहेण गत्या समुत्पधेत इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विग्गहेणं उवरज्जेन्जा' एकसापयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेनवा विग्रहेण गत्या समुत्पद्यतेत्युत्तरम् । पुनः प्रश्नयनाह'से केणद्रेणं भंते एवं बुन्चइ एगसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा' तत्केनार्थन भदन्त ! एवमुच्यते एकसामयिकेन वा यावद् उत्पद्यतेति । अत्र यात्पदेन द्विसा सामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा, एतेषां ग्रहणं भवतीनि ? भंते ! कइसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा' 'तो हे भदन्त ! ऐसा वह जीव वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! एगसमइएण वा दुसमहएण वा तिसमइएण वा चउसमहएण वा विगाहेणं उपवज्जेज्जा' हे गौतम ! वह वहां एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, तीनसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता हैं और चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न शेता है। 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ एगसमहएण वा जाव उववज्जेज्जा 'हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वह वहां एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है यावत चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है ? यहां यावत्पद से 'दिसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा चतुःसामयिकेन वा' इस पाठका ग्रहण
से ण भते ! कइसमइएण विगहेण उववज्जेज्जा' त भगवन मे તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ત્યાં ઉત્પન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वाभान । छे ४-'गोयमा । एगसमइएण वा दसमइएण वा ति समइएण वा चउसमइएण वा विगाहेणं उववज्जेज्जा गौतम! त्या તે એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે 'से केणद्वेण' भते ! एव वुच्चइ एगसयइएण वा जाव उववज्जेज्जा' 8 भगवन् આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. યાવત્ ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે मलयां यावत शपथी 'द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतु' सामदिकेन वा' मा ५३ ग्रहण ४राया छे. या प्रश्नना इत्तरमा प्रभुश्री
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भगवतीस्त्रे भगवानाह-एवं' इत्यादि । 'एवं खल हे गौतम ! 'मए सत्तसेढीओ पन्नताओ' मया सप्त श्रेणयः प्रज्ञप्ताः, तं जहा' तद्यथा-'उज्जुभायया जाव अद्धचक्कवाला' ऋज्वायता यावदर्द्धचक्रवाला, अत्र यावत्पदेन-एकतो वक्रा, द्विधातो वक्रा, एकतः खा, द्विधातः खा चक्रवालानां श्रेणीनां संग्रहो भवति । तत्र-'उज्जुआययाए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उबवज्जेज्जा' ऋज्वायतया सरलया लम्बायमानया च श्रेण्या समुत्पद्यमानो जीत्र एकसामयिकेन विग्रहेण समुत्पधेत, तथा'एगो वंकाए सेढीए दुसमइएणं विग्गहेणं उबवज्जेज्जा' एकतो वक्रया कुटिलया श्रेण्या समुत्पद्यमानो जीवो द्विसामयिकेन विग्रहेण गत्या समुत्पधेन । तथा'दुहओ वंकाए सेढीए उबवज्नमाणे द्विधातो वक्रया श्रेग्या समुत्पद्यमानो जीवः हुआ है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं खलु गोयमा ! मए सत्त. सेढीओ पन्नत्ताओ' 'हे गौतम ! मैने सात श्रेणियां कही हैं-'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'उज्जु मायया जाव अद्धचक्कवाला' 'ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाला यहां यावत्पद से 'एकतो वक्रा द्विधातो वक्रा, एकतः खा द्विधातःखा और चक्रवाला' 'इन अवशिष्ट श्रेणियों का ग्रहण हुआ है। इनमें जो 'उज्जुभाययाए सेढीए उववज्जमाणे एग. समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' 'जो जीव अपने उत्पत्तिस्थान में ऋज्वायता श्रेणी से गमन करता हुआ उत्पन्न होता है वह वहाँ एक समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है 'एगओ वं कोए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा' तथा जो जीव एकतो वक्रा श्रेणि से गमन करता हुआ अपने उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होता है वह वहां दो समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। तथा-'दुहओ वंकाए गौतमत्वामी ४ छे 8-'एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ' है गौतम ! में सात श्रेए स छे. 'तजहा' त म प्रभारी छे. 'उज्जु आयया जाव अद्ध चक्कवाला' वायत यावत् अयपासा भडियां થાવત્પદથી એકતો વક્રા, દ્વિધાતો વકા, એકતઃ ખા, દ્વિધાતે ખા, અને ચક્રવાલા भा मालीनी श्रेलीये। ग्रड ४२वामां मावी छे. म! श्रेयामा रे 'उज्जुआययाए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएण' विगहेण उववज्जेज्जा' ले व પિતાની ઉત્પત્તી સ્થાનમાં ત્રાજવાયતા શ્રેણીથી ગમન કરીને ઉત્પન્ન થાય છે, त त्यां ये सभयवाणी वियतिथी सत्पन्न थाय छे. 'एगओवकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइपण विगाहेण उववच्जेज्जा' तथा २ १ त १४ શ્રેણીથી ગમન કરીને પિતાના ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે ત્યાં બે सभयवाणी वितिया उत्पत्ति स्थानमा उत्पन्न थाय छे. तथा 'दुहओ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ १. श.१ २०६ अ०सूक्ष्मपूश्चिकायिकोत्पत्तिः ४०१ 'जे भविए एगपयरंमि अणुसेढी उपवज्जित्तए' यो भव्य एकमतरे अणुश्रेणिमाश्रित त्य समुत्पत्तुम्, 'से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उपवज्जेज्जा' स खलु जीव विसामा मयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येत, 'जे भविए विसेढी उववज्जित्तए से णं चउसमइएण विग्गहेणं उबज्जेज्जा' यो भव्यो विश्रेणि-विश्रेणिमाश्रित्य विश्रेण्यामित्यर्थः; उत्पत्तुम्, स खल्ल चतुःसामयिकेन विग्रहेण गत्या समुत्पद्यत इति । 'से तेणटेणं जाव उववज्जेज्जा' तत्तेनार्थेन गौतम ! एव मुच्यते एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यत इति । 'एवं अपज्जत्त सुहुमपुढवी कोइओ लोगस पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' एवं पूर्वोक्त सेढीए उपवज्जमाणे जे भधिए एगपचरंसि अणुसे हिँ उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विरगहेणं उबवज्जेज्जा' जो जीव विधातो वका श्रेणि से गमन करता हुआ एक प्रतर में समणि से उत्पन्न होता है तो वह तीन समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है। और 'जे भविए विसे ही उववन्जित्तए से णं च उसमइएणं बिगहेणं उववज्जेज्जा' जो विश्रेणि में उत्पन्न होने के योग्य है वह वहां चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'से तेजटेणं जाव उवचज्जेज्जा' इस कारण है गौतम ! मैने ऐसा कहा है कि वह वहां एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है. तीन समयवाले विग्रह ले भी उत्पन्न होता है और चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है । 'एवं अपज्जत्त सुहम पुढवीकाइओ लोगस्स पुरथिलिल्ले चरिमंते समोहए' इसी पूर्वोक्त क्रम के अनुसार कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में वकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंभि अणुसेढि उववज्जित्तए से ण तिसमइएण विगहेण उववज्जेज्जा' २ ० द्विधात! 4t श्रेणीथी गमन કરતે થકે એક સમયમાં સમ શ્રેણીથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે તે ત્રણ સમય पासवातिया त्या त्यात थाय छे मन 'जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से ण च उसमइएण विग्गहेण उववज्जेज्जा' र विश्रेणीमा पन्न यवान योग्य छ, ते त्यांच्या२ समयपाणी विग्रहगतिथी 64न्न थाय छे. 'से तेणटणी जाव उववज्जेज्जा' २था ७ गोतमा में से सजे-तयां એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે બે સમયવાળી વિહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન થાય છે અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. 'एव अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइओ लॉगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए।
भ० ५१
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भगवतीसूत्रे क्रमेवापर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतो मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान्। 'समोहणिता लोगस्स पुरथिमिल्ले चैव चरिमंते' समवद्दस्य -मारणन्तिकसमुद्धातं कृत्वा लोकरय पौरस्त्ये एव चरमान्ते 'अपज्जतएस पज्जतए यहुमढवीकाइएस' अपर्याप्यकेषु पर्याप्तकेषु च सूक्ष्मपृथिवीकायिकेषु अपर्याप्त पर्याप्त भेदभिन्नेषु पृथिवीकायिकेषु इत्यर्थः तथा-'सुहुमआउकाइए अपज्जतए पन्नचर' सूक्ष्माऽकायिकेषु अपर्याप्तपर्याप्तभेदत्युतेषु तथा - 'सुम काइएस अपज्जत्तएसु पज्जत्तए य' अपर्यातकेपु पर्याप्त केषु च सूक्ष्मतेजस्काधिकेषु तथा 'सुहुमवा उकाइएस अपज्जत्तएर पञ्जत्तएमु य' अपर्याप्त पू पर्याप्तकेषु च सूक्ष्मवायुकायिकेषु तथा - 'वायरवाकाइएस अपजत्तए पज्जत्तए य' अपर्याप्तकेषु पर्याप्तकेषु च बादरखायुकायिकेषु तथा-'सुहुमवणस्सइकाइएस अपज्जतएसु पज्जत्तरसु य' अपर्याप्तकेषु पर्यातकेषु च सूक्ष्मवनसमवहत हुआ और 'समोहणिक्षा लोगस्स पुरस्थिभिल्ले चेव रमंते' समहत होकर लोक के पूर्व ही चरमान्त में 'अपज्जत्तएसु पज्जतए सुट्टमपुढचीकाइएस' अपर्याप्त एवं पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिकों में तथा 'सुहुम आउक्काइएस अपज्जसएस पज्जत्तएसु' अपर्याप्त एवं पर्याप्त सूक्ष्म अष्कायिकों में तथा 'हुम तेक्काइएस अपज्नत्तएसु पज्जतए य' अपर्याप्त एवं पर्याप्तक सूक्ष्मतेजस्कायिकों में, तथा-'सुम वाउकाइएस अपज्जन्तएषु पज्जन्तएस य' अपर्याप्त एवं पर्याप्त सूक्ष्मवायुकाधिकों में तथा - 'वायरवाकाइए अपज्जन्त्तरसु पज्जत्तएसु य' अपर्याप्त एवं पर्याप्त बादरवायुकायिकों में तथा-' - 'सुहुमवणस्स इकाइ एस अपज्जसएस पज्जएसु य' अपर्या આ પહેલાં કહેલ ક્રમથી કોઇ અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વિીકાયિક જીવ લેાકના पूर्वं यरभान्तमां सभुद्धात अरीने भने 'समोहणित्ता लोगस्स पुरथिमिल्ले देव चरिमंते !" समुधात पुरीने बोउना पूर्व यरभान्तमां ४ 'अपज्जत्तपसु पज्जत्तपसु सुमपुढवीकाइएस' अर्यास भने पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी अयि अभां तथा 'सुहुमथाउकाइएस अपज्जत्तपसु पज्जत्तए' अपर्याप्त भने पर्यास सूक्ष्म
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1
रायिताभां तथा 'सुहुम तेउकाइएस अपज्जचएसु पज्जत्तपसु य' अपर्याप्त भने पर्याप्त सूक्ष्म तेस्माथि प्रभां तथा - 'सुडुम वाउकाइएस अपज्जत्तएसु पज्जतासु य' अपर्याप्त मने पर्याप्त सूक्ष्म वायुमाथि अमां तथा 'बायरवाठकाइए अपज्जत्तएसु पज्जत्तपसु' अपर्याप्त अने पर्याप्त महर वायुअयि प्रभां तथा - 'सुडुम वणस्व इकाइएसु अपज्जत्तपसु पज्जत्तपसु' अपर्याप्त भने पर्यास
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प्रमैयचन्द्र कार्टीका श०३४ अ. श.१ सू०६ अ०सूक्ष्मपृथिकायिकोत्पत्तिः ॥ स्पतिकायिकेषु, 'वारससु वि ठाणेसु एएणं चेव कमेणं भाणियबो' द्वादशस्वपि स्थानेषु अपर्याप्त पर्याप्त विशेषणविशिष्टेपु-सूक्ष्मपृथिवी कायिक २, सूक्ष्माकायिक ४, सूक्ष्मतेजस्कायिक ६, सूक्ष्मवायुकायिक ८, वादरवायुकायिक १० सूक्ष्म वनस्पतिकायिक १२ रूपेषु, एतेनैव क्रमेण अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य उपपातो मणितव्यः ।१२।।
ननु लोकस्य चरमान्तीय जीवानामुपपातो द्वादशैव स्थानानि कथं कथि. तानि, इतः पूर्वसूत्रे विंशति स्थानेषु उपपासस्य वर्णनादितिचे दुच्यते-इहलोक चरमान्तभागे बादराः पृथिवीकायिकाकायिकतेजस्कायिकवनस्पतिकायिकाः न सन्ति, सूक्ष्मस्तु पश्चावि जीवाः सन्ति, वादरवायुकायिकाश्च, तत्र सन्तीति प्तक एवं पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पनिकायिकों में 'घारस वि ठाणेसु एएण चेय कमेणं माणियको' हरू क्रम ले कधित इन १२ स्थानों में उत्पन होने के योग्य हुआ इस रूपरने इसका इन १२ स्थानों में उत्पाद कहना चाहिये और इसी मामले 'लुहुरापुढवीसाइओ पजत्ती एवं चेव' हली प्रकार से पर्याप्त सक्षम पृथिवीकायिक्षका भी इन १२ स्थानों में उत्पाद काहना चाहिये।
शंका--लोकके परमान्तीय जीवों के उपपात में यहाँ १२ स्थान यो को ? क्योंकि इससे पहिले स्चून में २० स्थानों में उपपात का वर्णन सूत्रकार ने किया है।
उत्सर-लोकन्ले चरमात भाग में बादर पृथिवीकायिक, चादर अकायिक, बादतेजस्कायिका और प्यादर बनस्पतिकाधिक जीव नहीं है। सूक्ष् पृथिवीमायिक सूक्ष्मअपमायिक, सूक्षमतेजस्कायिक, सक्षम वनस्पतिकायिक और सूक्ष्मवायु कायिक एवं बादरवायुकायिक सूक्ष्म वनस्पति विभा 'वारससु वि ठाणेसु एएण चेव कमेण भाणियवो' આ કમ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલા આ ૧૨ બારે થાનમાં ઉત્પન્ન થવાને ચોથ થયેલ આ રૂપથી તેઓનું આ બારે સ્થાનમાં ઉત્પાદનું કથન કરવું જોઈએ. मन मार भ प्रमाणे 'सुहमपुढवीकाइओ एज्जत्तओ एवं चेव' ५र्यात સૂક્ષમ પૃથ્વિીકયિકને ઉપપાત પણ આ બાર સ્થાનમાં કહે જોઈએ.
શંકા–લોકના અરમાન્તના જીના ઉપપાતમાં ૧૨ બાર સ્થાને કેમ કહ્યા છે? કેમ કે-આનાથી પહેલાના સૂત્રોમાં તે ૨૦ વીસ સ્થાનેમાં ઉપપાતનું વર્ણન સૂત્રકારે કરેલ છે.
ઉત્તર–લોકના અરમાન્ત ભાગમાં બાદર પૃથ્વીકાયિક, બાદર અષ્કાયિક, બાદર તેજસ્કાયિક અને બાહર વનસ્પતિકાયિક જીવ લેતા નથી. સૂકમ પૃથ્વીકાયિક, સૂક્ષમ અષ્ઠાયિક, સૂમ તેજસ્કાયિક, સૂમ વનસ્પતિકાયિક અને
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४०४ .
भगवतीस्त्र - पर्याप्तापर्याप्त भेदेन द्वादश स्थानस्यैव सूत्रकृताऽनुसरणं कृतमिति । इह च लोकस्य पूर्वचरमान्तात् पूर्वचरमान्ते समुत्द्यमानस्य एकसामयादिका चतुःसमयान्ता गतिः संभवति अनुश्रेणि विश्रेणी संभावात् । पुनः दक्षिण चरमान्ते पूर्वचरमान्तात् समु. स्पद्यमानस्य तु द्वयादि चतु:सामयिक्येव गतिस्तत्रानुश्रेणेरभावात् । एवमन्यत्रापि विश्रेणी गमने द्वयादि चतु:सामयिक्येच गति भवतीति भावः ।।
'सुहुमपुढवीकाइओ पज्जत्तओ एवं चेव' सूक्ष्मपृथिवीकायिका पर्याप्तक एवमेव अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव अयं पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽपि ये ही जीव वहां हैं। इसलिये सूत्रकार ने पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से 'इन १२ स्थानोंका ही यहां अनुसरण किया है। यहां लोकके पूर्वचरमान्त से पूर्वचरमान में उत्पन्न हुए जीवकी एक -समयवाली और यावत् चारसमयचाली गति हो सकती है क्योंकि यहाँ अनुश्रेणि रूपसे जाकर भी उत्पन्न होता है और विश्रेणि में भी उत्पन्न होता है तथा दक्षिण चरमान्त में पूर्वचरमान्त से उत्पन्न होने वाले जीवकी गति दोसमय से लेकर चार समयतककी होती है। क्योंकि यहां उत्पत्ति स्थान लीधमें नहीं होने के कारण ऋज्वायता श्रेणि का अभाव है । इसलिये एकसमयवाली गति यहां नही कही है। इसी प्रकार से अन्यत्र भी विश्रेणि स्थित स्थान में उत्पन्न होने वाले के गमन में दोसमयचाली गतिसे लेकर चारलमघवाली ही गति होती है ऐसा जानना चाहिये। • 'सहमढवीकाइओ पज्जत्तओ एवं चेव' इत्यादि पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक भी इसी प्रकार ले-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकके जैसे સૂક્ષમ વાયુકાયિક તથા બાર વાયુકાયિક આટલા જ જીવો ત્યાં હોય છે. તેથી સૂત્રકારે પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી આ ૧૨ બાર સ્થાનેનું જ અહિયાં કથન કર્યું છે. અહિયાં લકતા પૂર્વચરમાતથી પૂર્વ ચરમાન્તમાં ઉત્પન થનારા જીવની એક સમયવાળી અને યથાવત્ ચાર સમયવાળી ગતિ પણ હોય છે કેમ કે અહિયાં અનુએ ગતિ પણ હોય છે, અને વિશ્રણ ગતિ પણ હોય છે. તથા દક્ષિણ ચરમાતમાં પૂર્વ ચરમાતથી ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવની ગતિ બે સમયથી લઈને ચાર સમય સુધીની હોય છે. કેમ કે અહિયાં અનુણ ગતિને અભાવ કહેલ છે. તેથી એક સમયવાળી ગતિ અહિયાં કહી નથી. એ જ પ્રમાણે બીજે પણ વિશ્રેણી ગમનમાં બે સમયવાળી ગતિથી લઈને ચાર સમયવાળી જ ગતિ હોય છે તેમ સમજવું જોઈએ. - 'सुहमपुढवीकाइओं पज्जत्तओं एवं चेव' पर्यात सूक्ष्म पृथ्वीय પણું - આજ પ્રમાણે. એટલે કે અપર્યાપ્ત સૂમિ પૃથ્વીકાયિકની જેમજ બારે
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atrefront ठीका श०३४ अ. श. १ सू०६ २०सूक्ष्मपृथ्विकायिकोत्पत्तिः
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'निरवसेसो ' निरवशेषः - सम्पूर्णः 'बारससु वि ठाणेसु' द्वादशस्वपि स्थानेषु पूर्व प्रदर्शितेषु 'उवनयन्बो' उपपातयितव्यः - उपपातः करणीयः, तथादि - पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकेषु २, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म कायिकेषु ४, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकेषु अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिकेषु ८, अपर्याप्त पर्याप्त वादवायुकायिकेषु १०, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेषु १२ इत्येवं द्वादशस्वपि स्थानेषु उपपातयितव्यः पराप्त सूक्ष्मपृथिकायिकस्य एतेषु द्वादश स्थानेसु उपपातः कर्त्तव्य इति भावः (१२) २४ ।
एयं - पूर्वोक्तगमानुसारेण अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव अपपर्याप्त सूक्ष्माकायिकस्य अपर्याप्त पर्याप्त विशेषण विशिष्टेषु सूक्ष्मपृथिवी कायिकाकायिक तेजस्कायिक सूक्ष्मवायुकायिक बादरवायुकायिक सूक्ष्मवनस्पतिकायिक रूपेषु द्वादशसु स्थानेषु उपपातः कथनीयः ३६ । एवं शेषतेज१२ स्थानों में- अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिकों में २, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म अकायिकों में ४, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिकों में ६, अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिकों में ८ अपर्याप्त पर्याप्त बादर वायुकायिकों में १० और अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायों में १२उत्पादित करा लेना चाहिये । अर्थात् इस प्रकार इन १२ स्थानों में पर्यात सूक्ष्मपृथिवीकायिकके उत्पादका कथन कर लेना चाहिये इसी प्रकार -पूर्वोक्तगमके अनुसार अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक के जैसा ही अपर्याप्त पर्याप्त अप्रकायिकका भी अपर्याप्त पर्याप्त विशेषण वाले सूक्ष्मपृथिवीकायिक, अकाधिक, तेजस्कायिक, सूक्ष्मवायुकायिक बादरवायुकायिक और सुमवनस्पतिकायिक इन १२ स्थानों में उत्पाद સ્થાનામાં-અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયકામાં ૨ અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અકાયિકામાં ૪ અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિકામાં ૬ અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વાયુકાયિકામાં ૮ અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત ખાદર વાયુકાયિકામાં ૧૦ અને અપર્યાપ્ત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિકામાં ૧૨ ઉત્પન્ન સબધમાં કથન કરી લેવું. એટલે કે મારે સ્થાનામાં ઉપર બતાવ્યા પ્રમાણે પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિકના ઉત્પાતનું કથન કરી લેવું. કહેવાનુ' તાત્પય એ છે કે-આ પહેલાં કહેલા ગમકો પ્રમાણે અપર્યાપ્ત, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિક કથન પ્રમાણે જ અપર્યાપ્ત, પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અષ્ઠાયિકાનું ૪ અપર્યા પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિક ૬ અપર્યાપ્તક પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વાયુકાયિક ૮' વાયુકાયિક ૧૦ અને સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક ૧૨ આ મારે સ્થાનામાં
થવાના
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ફે
भगवती सूत्रे
Fatfatgaon वनस्पतिकायिक विषयेऽपि विज्ञेयम् । तत्र अपर्याप्त सूक्ष्मा कायिकस्य द्वादशस्थानविशिष्टा द्वादशगमाः १२, एवं पर्याप्त सूक्ष्मा कायिकस्यापि द्वादशगमा भवन्तीति अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्माकायिकमधिकृत्य चतु विंशतिर्गमा वाच्या २४ एवमेव सूक्ष्मतेजस्कायिकस्य चतुर्विंशतिः २४ सूक्ष्मवायुंकायिकस्य वादरवायुकायिकस्य २४, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकस्य २४ प्रत्येकं च चतुशिविगमभावेन सर्वे विंशत्यधिकशतसंख्यका गमा जायन्ते १२० ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य चतुर्विंशतिगमसम्मेलने चतुश्चत्वारिंशदधिकशतं (१४४) पञ्चानां स्थावराणां गमा भवन्तीति उपपातप्रकारः स्वयमेत्र ऊहनीय इति । करा लेना चाहिये ३६ इसी प्रकार से शेष तेजस्कायिक, वायुकाधिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी जानना चाहिये । इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म अष्कायिक के द्वादश स्थान सम्बन्धी १२ गम होते | पर्याप्त हृक्ष्म अष्कायिक के भी १२ स्थान सम्बन्धी १२ गम होते | दोनों प्रकारके अष्कायिकों के इस नीति से २४ गम हो जाते हैं । इसी रीति के अनुसार सूक्ष्मतेजस्कायिकके भी २४ गम होते हैं। वायुकायिक के भी २४ गम होते हैं। बादरवायुकायिक के भी २४ गम होते हैं सुक्ष्मवनस्पतिकायिक के भी २४ गम होते हैं। कुल गम मिलकर १२० नम हो जाते हैं । सूक्ष्मपृथिवीकायिक के २४ गम इन में मिलाने से पांच स्थावरों के १४४ गम होते हैं । इनके सम्बन्ध में उपपात प्रकार अपने आप उदूभावित कर लेना चाहिये ।
થવાના સબોંધમાં કથન કરી લેવું ૩૬ આજ પ્રમાણે બાકીના તેજસ્કાયિક, વાયુ ચિક અને વનસ્પતિકાયિકના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. આ રીતે અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અકાયિકાના ખાર ૧૨ સ્થાનેા સખ ધી માર ગમકેા થાય છે. પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અષ્ઠાયિકના પણ ૧૨ ખાર સ્થાન સબંધી ૧૨ ખાર ગમા થાય છે. ખન્ને પ્રકારના અાયિકાના આ રીત પ્રમાણે ૨૪ ચાવીસ ગમકા થઈ જાય છે. આજ રીત પ્રમાણે સૂક્ષ્મ તેજસ્કાયિકના પુણ્ ૨૪ ચાવીસ ગમકા થઈ જાય છે. અને સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ કાયિકના પણ ૨૪ ચાવીસ ગમકા થાય છે આ બધા ગમા મળીને કુલ ૯૬ છન્નુ ગમા થઈ જાય છે. સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના ૨૪ ચાવીસ ગમે! આમાં મેળવવાથી પાંચ સ્થાનેાના ૧૨૦ એકસેાવીસ ગમા થાય છે આમાં પૃથ્વીકાયિકના ૨૪ ચાવીસ ગમે! મેળવવાથી પાંચ સ્થાનકાના ૧૪૪ એકસેસ ચુંમાળીસ ગમેા થઈ જાય છે. આમના સાધમાં ઉપપાતના પ્રકાર સ્વયં અનાવી લેવા.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०६ अ०सूक्ष्मपृश्चिकायिकोत्पत्ति ४०७
'अपज्जत्तसुहुमपुढवी काइए णं मंते !' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाविकः खल्लु भदन्त ! 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चारमंते समोहए' लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः-मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान्, 'समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते' समवहत्य-मारणान्तिकसमुद्धातं कृत्वा यो भन्यो लोकस्य दाक्षिणात्ये-दक्षिणे चरमान्ते 'अपज्जत्त सुहुमढवीकाइ एसु उदवज्जि. त्तए' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकेपू पत्तुम्, 'से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा' स खल्लु भदन्त ! कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! दुसमइ एण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विग्ण हेणं उबदज्जेज्जा' द्विसामयिकेन विग्रहेण था, त्रिसामयिकेन वा, चतुः सामयिकेन वा, विग्रहेण उत्पोतेत्युत्तरम् । पुन: प्रश्न
'अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइए णं भंते ! 'हे भदन्त कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए' लोक के पूर्व के चरमान्त में भरा 'लमोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्त सुहमपुढधीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' और मरकर वह लोकके दक्षिण चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य है लो 'से भंते | कइसमाएणं विग्गणं उवयज्जेज्जा' हे भदन्त ! ऐसा वह जीव वहां कितने समय वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा च उसमइएण वा विरगहेणं उववज्जेज्जा' हे गौतम ! यह वहां दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है. तीनसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और चारसमयवाले
अपज्जत्तसुहुमढवीकाइएण भते ! मापन 315 अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी. यि ७१ 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए' न पूना यरमन्तमा भ२।पामे म ‘स मोहिणत्ता जे भविए लोयस्स दाहिणिल्ले चरिमते अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' गाने भ२५ पाभी सोना क्षिप्य न्यभान्तमा અપર્યાપ્ત સૂકમ પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઉતપન્ન થવાને ચગ્ય હોય તે 'सेण भंते ! इसमइएण' विगाहेण उववज्जेज्जा' 8 लगवन् वा ते 04 ત્યાં કેટલા સમયવાળા વિગ્રહથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ४ छ -'गोयमा । दुसमइएण वा तिप्तमइण्ण चा चउसमइण वा विगण उपवज्जेज्जा' गीतम! त्यां मे समयवाणी वियगतिथा ५९ ५न्न य છે, ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને ચાર સમયવાળી विगतिथी ५५ 84rथाय छ, ‘से केणखूण भते । एवं वुच्चई' हे भगवन
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भगवतीपत्रे
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यन्नाह - 'सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चह' तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते, द्विसा मयिकेन वा, यावत् चतुःसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येतेति प्रश्नः । भगवानाह - ' एवं ' इत्यादि, एवं - खल गोयमा' एवं खल हे गौतम | 'मए सत्तसेढी ओ' पन्नत्ताओ' मया सप्तसंख्यकाः श्रेणयः प्रज्ञप्ताः कथिताः । ' तं जहा ' तद्यथा'उज्जुभायया जाव अद्धचक्कवाला' ऋज्वायता यावदर्द्धचक्रवाला, अत्र यावत्पदेन एकतो चक्रा, द्विधातो चक्रा, एकतः खा, द्विधातः खा चक्रवालानां पञ्चानां श्रेणीनां ग्रहणं भवतीति । तत्र सप्तश्रेणीषु मध्ये 'एकओ वंकाए सेठीए उववज्ञमाणे दुसमइरणं विग्गणं उत्रवज्जेज्जा' एकतो वक्रया श्रेण्या मरणस्थानात् उत्पत्ति स्थानं गच्छन् द्विसामयिकेन निग्रहेण उपपद्येतेति । 'दुहओ वैकाए सेढीए उवज्जविग्रह से भी उत्पन्न होता है । 'से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चद्द' भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वहां दो समयवाले अथवा तीन समयवाले अथवा चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? ' एवं खलु गोयमा ! मए सत्तसे ढीओ पन्नत्ताओ' उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही हैं । 'तं जहां' जो इस प्रकार से हैं - ' उज्जुभायया जाव अद्धचक्कवाला' एक ऋज्वायता यावत् सातवीं अर्द्धचक्रवाला यहां यावत् शब्द से 'एकतो का, द्विधातो वक्रा, एकनः खा द्विधात: खा और चक्रवाला इन पांच श्रेणियों का ग्रहण हुआ है । इन सात श्रेणियों में से जो 'एकओ वंकाए सेटीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' एकतो वका श्रेणि से गमन करता हुआ उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होता है ऐसा वह जीव वहां दो समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है । 'दुहओ काए सेढीए उववज्रमाणे जे भविए एगपयरंमि अणुसेढीए उववज्जित्तए' આપ એવુ′ શા કારણથી કહા છે! કે-તે ત્યાં એ સમયવાળી ૧ અથવા ત્રણ સમયવાળી અથવા ચાર સમયવાળી વિગ્રહે ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? ‘વ खलु गोयमा ! मए सूत सेढ़ी प्रो पन्नत्ताओ' या प्रश्नमा उत्तरमां अनुश्री छे }गौतम ! में सात श्रेणी ही छे. 'त' जहा' ते मा प्रभा छे. उज्जुआयया जाव अद्वचक्कवाला' थे! ऋवायत यावत सातभी अर्ध यडवाला यावत् शब्दथी “એકતા વક્રા દ્વિધાતા વજ્રા, એકતઃ ખા દ્વિધાતા ખા અને ચકવાલા આ પાંચ श्रेया श्रणु राई मा सात श्रेणीयाभांथी 'एकओ व कार अणुसेटीए उवव
माणे दुसमइएण विग्गहेण उववज्जेन्जा' येतो व श्रेणीथी अमन उरतो ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એવા તે જીવ ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી उत्यन्न थाय छे. 'दुहओ व काए सेदीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयर मि अणुसेढीए
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प्रमेयचन्द्रिका खेला श०३४ अ. श.१ सू.६ अ०सूक्ष्मपृथ्विकायिकोत्पत्तिः ६०९ माणे जे भनीए एगपयरंमि अणुसेढीए उववज्जित्तए' द्विधातो वक्रया श्रेण्या उत्पद्यमानो यो भव्य एकमतरे अनुश्रेण्या उपपत्तुम्, 'से णं तिसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा' स खलु त्रिसामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येत, ‘से णं भंते ! भविए विसेढीए उववज्नित्तए से णं चउसमइएणं विग्न हेणं उपवज्जेज्जा' यः खलु भन्यो विश्रेण्यां समुत्पत्तु स खल चतुःसामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येत, न तु एकसामयिकेन ग्रिहेण गच्छति, दिगन्तात्-दिगन्ते गमनात् ‘से तेणटेणं गोयमा !' तत्ते. नार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन वा विग्रहेण उत्पधेत इति, ‘एवं एएणं गमए' एवम् एतेन गमकेन, 'पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहओ' लोकस्य पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, 'दाहिजिल्ले परिसंते उक्वायव्यो' दाक्षिणात्ये-दक्षिणे-चरमान्ते उपपातयितव्यः । तथा जो विधातो वक्रा श्रेणिशे गमन करता हुआ उत्पन्ति स्थान में उत्पन्न होता है ऐसा वह जीन वा यदि एक प्रलर में 'समश्रेणि में उत्पन्न होता है तब तो 'लिसमहएणं विग्गहेणं उववज्जेजा' वह वहां लीन समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है लेणं भंते भविए विसेढीए उपजित्तए ले णं चउससहएणं विग्गणं उववज्जेजा' और यदि यह चिणि वाले उत्पत्ति रथान में उत्पन्न होता है तो वह वहां चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। एक समयदाले विग्रहसे नहीं। क्योंकि एक दिगन्त से दूसरे दिगन्त में उसका नमन होता है। से नणदेणं गोथमा। इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वह वहां दो सवयवाले अथवा तीन लमयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'एवं एएणं गमेणं पुरस्थिभिल्ले चरिखते समोहओ दाहिणिल्ले चरिमते उपवाएयव्यों इस प्रकार इसी गम के अनुसार लोकके पूर्व के चरमान्त
खवजित्तर' तथा द्विधाता श्रेणीथी गमन ४२ते। यत्पत्ति स्थानमा ઉતપન્ન થાય છે, એ તે જીવ ત્યાં જે એક પ્રતરમાં સમશ્રેણીમાં ઉત્પન્ન थाय तत त्या त्रय सभयवाणी (वयगतिथी 64न्न थाय छे. से ण भते। भविए विसेढीए उववज्जिचए से ण चउसमइएण विगहेण उववज्जेज्जा' भने તે વિશ્રેણીથી જ થકો ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે તે ત્યાં ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન થાય છે. એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી નહીં કેમ કે सहिगतमा तनुगमन थाय छे. 'से तेणटेण गोयमा ! ताणथाहै ગૌતમ! મેં એવું કહે છે કેત્યાં બે સમયવાળી અથવા ત્રણ સમયેવાળી वियगतिथी सत्पन्न थाय छे. 'एव एएणं गमेण पुरथिमिल्ले चरिमंते । सोहओ दाहिणिल्ले चरिमते उववाएयव्वो' मा गभ। प्रभा सा पूर्व यरभान्तमा
स० ५२
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भगवती कियत्पर्यन्तानामुपपातो व्यक्तव्यस्तत्राह-'जाच मुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तो, मुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएस चेव' यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिका पर्याप्तका सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेषु पर्याप्त केष्वेव, यावत् पदेन पर्याप्त मूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्यापर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्ताः संगृह्यन्ते । तथा च पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त सूक्ष्मवनरपतिकायिकान्तानामुपपाता, अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्तेषु द्वादश स्थानेषु वर्णनीय इति । तत्र-'सम्वेसि दुसमइओ विसमइओ चउसमइओ विग्गहो भाणिययो' सर्वेषां पर्याप्त सुक्ष्मपृथिव्यादि पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्तानां में समवहत हुए जीव को दक्षिण चरमान्त में उत्पादित कर लेना चाहिये 'जाव सुहमवणस्लइकाइओ पज्जत्तओ सुहम बणस्सइ. काइएसु पजत्तएसु' और यह उत्पाद कथन यावत् पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाथिकों में उत्पन्न होता है, यहाँ तक कहना चाहिये। यहां यावत्पद से पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक से लेकर अपर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक तकका सय कथन ग्रहीत हुआ है। तथा च-पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तकके जीवों का उपपाद अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक तकके जीवों में १२ स्थानों में वर्णित कर लेना चाहिये । इनमें 'सव्वेसिं दुसमइओ तिसमईओ, चउसमइओ विग्गही भाणियम्वो' सयका दो समयवाले अथवा तीनसमयवाले अथवा चारसमयवाले विग्रह से उत्पाद होता
સમુદ્દઘાત કરેલ જીવને દક્ષિણ ચરમાતમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં કથન ४। बेबु नये. 'जाव सुहम वणस्वइकाइओ पज्जत्तो सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु' भने मा पा समधी ४थन पर्यात सूक्ष्म वनस्पतिथि । પર્યાપ્ત સૂક્ષમ વનસ્પતિકાયિકેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. “આ કથન સુધીનું કહેવું જોઈએ. અહિયાં યાવત્પદથી પર્યાપ્ત સૂક્ષમ પૃગીકાયિકથી લઈને અપર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિકાયિક સુધીનું સઘળું કથન ગ્રહણ થયેલ છે. તથા પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીના સંબંધમાં ૧૨ બાર સ્થાને માં વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. તેઓમાં 'सठवेसिं दुसमइओ तिसमइओ चउसमइओ विग्गहो भाणियव्वो' समान ઉત્પાદ બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી
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प्रमैयखद्रिका डीका श०३४ अं. शं. १ सु०६ अ०सूक्ष्मपृथ्विकायिकात्पत्तिः १११ विग्रहस्तु द्विसामयिको वा, त्रिसामयिको वा, चतुःसामयिको वा, भणितथ्यो न तु एकसामयिकः दिगन्ताद् दिगन्ते गमनादिति ॥
'अपज्जत सुमपुढवीकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरत्थि मिल्ले चरिमंते समोए' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकांयिकः खलु भदन्त ! कोकस्य पौरस्त्ये पूर्वस्मिन् चरमान्ते समवहतो - मारणान्तिकसमुद्धातं कृतवान, 'समोदणित्ता जे भविए लोगस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उदवज्जित्तए' समवहत्य - मारणान्तिकसमुद्यातं कृत्वा यो भव्यो लोकस्य पाश्चात्ये- पश्चिमे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिकतया समुत्पत्तुम्, 'से णं भंते ! कइसमइएण विग्गणं उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येतेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! ' एगसमइएण वा, है ऐसा कथन करना चाहिये । एकसमयवाले विग्रह से उत्पाद होता है ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि इनका एक दिगन्त से दूसरे दिगन्त में गमन होता है ।
'अपज्जत्तसु हुमपुढवीकाइए णं भंते! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव लोकके पूर्वचरमान्त में मरण समुद्रघात से मरा और 'समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जन्त सुहुन पुढवीका इयत्ताए उववज्जिन्सए' 'मरण समुद्घात कर वह लोकके पाश्चात्य वरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ 'से f भंते! कह समहणं विग्गहेणं उचदज्जेज्जा' हे भदन्त ! ऐसा वह जीव कितने समयमा विग्रह से वहां उत्पन्न होता है उत्तर में प्रभुश्री
અથવા ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી થાય છે. આ પ્રમાણેનુ કથન કહેવુ" જોઈ એ. એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પાદ થાય છે. તેમ કહેવું નહીં, हेभ उ-तेभोनु थे! हिशाथी मील हिशामां गमन थाय छे. 'अपज्जच सुहुम पुढवीकाइएण ं भवे! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' हे भगवन् अर्थ અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવ લેાકના પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણુ સમુદ્ધ ત श्रीने भरणु याभे. अने 'समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पच्चरिथमिल्ले र मंते ! अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' भरषु सभुद्यात हरीने ते લેાકના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન थवाने योग्य होय तो 'सेणं' भरते ! कइसमइएण विग्गणं उषवजेजा' ભગવન્ એવા તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ત્યાં ઉત્ત્પન્ન થાય છે ?
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भगवतीसत्र दुसमइएण, वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा' एकसामयिकेन-वा, द्विसामयिकेन था, त्रिसामयिकेन वा चतुःसामयिकेन वा विग्रहेण समुत्पद्येत इत्युत्तरम् । ‘से केणटेणं' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, एकसामयिकेन यावत् चतुःसामयिकेन वा विग्रहेणोत्पद्यतेति प्रश्नः । उरारमाह-एवं' इति, यावतत्तेनार्थेन एवमुच्यते इत्येतस्पर्यन्तमिति । एवं जहेब पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरथिमिल्ले चरिमंते उबवाइया' एवम्-अनेनैव मकारेण यथैव-येनैव रूपेण पौरस्त्ये चरमान्ते समवहताः पौरस्त्ये एव चरमान्ते उपपातिताः, 'तहेव पुर स्थिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते उपवाएयव्वा सव्वे' तथैव तेनैव रूपेण कहते हैं-'गोयमा ! एगलमइएण बा दुसमइएण वा तिलमइएण वा
जसमइएण वा विग्गणं उपज्जेज्जा' हे गौतम! वह वहां एकसमयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है अथवा दो मयषाले विग्रह से उत्पन्न होता है अथवा तीन खमयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है, अथवा चार लमयकाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'से केणवेणं भंते ! 'हे भदन्त ! ऐसा आप फित कारणले कहते हैं कि वह वहां एकसलवाले विग्रह से यावत् चारलमयबाले विग्रहसे उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेच पुरथिमिल्ले चरिमंते समोया पुरस्थितिल्ले चेष चरिमते उनबाहया' हे गौतम ! जिस प्रकार से पौरस्त्य चरमा लमवत हुए जीव पौररत्व चरमान्त में ही उत्पादित किये गये हैं 'ताहेब पुरस्थिपिरले चरिमंते समोहया पञ्चस्थिसिल्ले चरिमंते उपवाएयत्रा उसी प्रकार से पौरस्त्य चरमान्त -20 प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छ -'गोंयमा । एगसमहापण या दुसमइएण ‘वा तिखणहएण वा, चउखमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा' गौतम! તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે, બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય छ, अथवा यार सम्यवाणी विगतिथी 4न्न थाय छ, 'से केणट्रेण भते હે ભગવન્ આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે-તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી યાવત્ ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतस्वाभान ४ छ -'एव जहेब पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरथिमिल्ले चेव चरिमंते उबवाइया' 8 गौतम! २ प्रभाग પર્વ અરમાન્તમાં સમુદુઘાત કરેલ જીવ પૂર્વ ચરમાન્ડમાં જ ઉત્પન્ન થવાના समयमा ४थन ४यु छ, 'तक्षेत्र पुरथिमिल्ले चरिमंते ! समोहया पच्चथिमिल्ले चरिमते उववाएयव्वा' से प्रमाण पूर्व २२मान्तमा समुधात ४२८ वाना
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मैन्द्रिका ठीका श०२४ . शं. १ सू०६ अ०सूक्ष्म पृथ्विकायिकोत्पत्तिः ११३ पौरस्त्ये- पूर्वस्मिन् चरमान्ते समवहताः पाश्चात्ये- पश्चिमे चरमान्ते उपपातयितव्याः सर्वे अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्ता इति । 'अपज्जेत सुहुमपुढवीकाइए णं भंते!" अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल भदन्त | 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' लोकस्य धौरस्त्ये पूर्वचरमान् समहतो मारणान्तिकसमुद्वातं कृतवान् । 'समोहणित्ता जे भविए लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपज्जत सुडुमपुढवीकाइयत्ताए वववज्जितए से णं भते !" समवहत्य यो भव्यो लोकस्योत्तरे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया समुत्पत्तुम्, स खलु भदन्त ! कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येतेति प्रश्नः । उत्तरमाह - एवं जहेब' इत्यादि । ' एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहओ' एवं में समवहत हुए जीवों को पश्चिम चरमान्त में उत्पादित कर लेना चाहिये । अर्थात् समल अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक तक के एकेन्द्रिय जीवों का पूर्वोक्त जीवों के जैसा ही उत्पाद पूर्व से पश्चिम वरसान्त में कर लेना चाहिये । 'अपजस सुमपुढची काहए of भंते । 'हे भदन्त ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहर समोहनिता० भवज्जन्त सुहुमपुढवीकाइयन्ताए उववज्जित से f भंते!' लोकके पूर्वचरमान्त में मारणान्तिकममुद्धात करके मरा और सरफर वह लोकके उत्तर चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक रूपसे उत्पन्न होने के घोग्य हुआ तो हें भदन्त ! ऐसा वह जीव वहां कितने वाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - ' एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिणिल्ले चरिઉત્પાદ પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ઉત્પન્ન થવાના સાધમાં થન કહી લેવુ' જોઈએ. અર્થાત્ સઘળા અપર્યાપ્તક સમા પૃથ્વિીકાયિકથી લઈ ને પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક સુધીના એકેન્દ્રિય જીવેાના પહેલા કહેલ જીવેની જેમ જ પૂ ચરમાન્તથી પશ્ચિમચરમાતમાં ઉત્પાદ કહી લેવા.
जपज्जत्त सुडुमपुढबीकाइएण भंते ।" लगवन् ? अपर्याप्त सूक्ष्र पृथ्वी ४। यि 1 'लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंये समोइए समोहणिता अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तर से णं भंते!' साउना पूर्व अरमान्तमां भारयान्ति સમુઘાત કરીને મરણુ પામે અને મરણ પામીને તે લેાકના ઉત્તર ચરમાન્તમાં અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચેo હોય તે હે ભગવન એવે તે જીવ ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ अश्नना उत्तरमां प्रभुश्री डे - ' एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते ! समोहओ
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भगवतीस यथा पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः, 'दाहिणिल्ले चरिमंते उववाहो' दाक्षि. णात्ये चरमान्ते उपपातितः, 'तहा पुरथिमिल्ले समोहमी उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएययो' तथा पौरस्त्ये समवहतः उत्तरे चरमान्ते उपपातयितव्यः । यथा पूर्वदिशि समवहतस्य दक्षिणस्यां दिशि समुपपातो वर्गित स्तथैव पूर्वदिशि समव. इतस्य उत्तादिशि अपि समुत्पादो वर्णयितव्यः सू० ॥६॥ ____ मूलम्-अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्स दाहिजिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्त सुहुमपुत्वीकाइयत्ताए उववज्जित्तए । एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उक्वाइओ तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयव्यो। तहेव निरवलेसंजाव सुहुमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु चेव पजत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते उववाइओ, एवं दाहिणिल्ले समोहओ पच्चस्थिमिल्ले उववाएयव्यो। नवरं दुसमइय तिलमइय-चउसमइय विग्गहो, लेसं तहेव । दाहिणिल्ले मंते उववाइओ तहा पुरथिमिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएययो' हे गौतम ! जिस प्रकार से लोशके पूर्वचरमान्त में समवहत हुए जीव के दक्षिण चरमान्त में उत्पाद के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार से लोकके पूर्वेचश्मान्त में - समवहत हुए जीवके उत्तर चरमान्त में उत्पाद के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिये । तात्पर्य कहने का यही है कि पूर्वदिशा में समवहत हुए जीवका दक्षिण दिशा में जैसा उत्पाद वर्णित हुआ है उसी प्रकार से पूर्वदिशा में समवहत हुए जीव का उत्तर दिशा में भी उत्पाद वर्णित कर लेना चाहिये ॥१० ॥६॥ दाहिणिल्ले चरिमते उववाइओ तहा पुरथिमिल्ले समोहमो उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो' 3 गीतम ! २ प्रमाणे न पू यसमान्तमा समुद्धात કરેલ જીવના દક્ષિણ ચરમાતમાં ઉપપાત થવાના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે લેકના પૂર્વ ચરમાતમાં સમુદુઘાત કરેલ જીવના ઉત્તર ચરમાન્તમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-પૂર્વ દિશામાં સમુદ્રઘાત કરેલ જીવને ઉપપાત ઉત્તર દિશામાં પણ વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. સૂ૦૬
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०७ दक्षिणवरमान्ते उत्पातनि० ६१५ समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयवो जहेव सटाणे तहेव। एगसमइय-दुसमइय-तिसमझ्य-चउसमइय विग्गहां। पुरथिमिल्ले जहा पच्चस्थिमिल्ले तहेव दुलमइय-तिसमइय चउसमइय विग्गहो। पञ्चस्थिमिल्ले य चरिमंते समोहयाणं पञ्चत्थिमिल्ले चेव उववजमाणाणं जहा सटाणे उत्तरिल्ले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि लेसं तहेव। पुरथिमिल्ले जहा सटाणे, दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्गहो नस्थि। सेसं तं चेन उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेत्र उववज्जमाणाणं जहेव सटाणे । उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरथिमिल्ले उववज्जमाणाणं एवं चेव नवरं एगसमइओ विग्गहो नत्थि। उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववज्जमाणाणं जहा सटाणे । उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चस्थिमिल्ले उबवज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नस्थि । सेसं तहेव जाव सुहुमवणस्लइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव ॥सू०७॥ छायाः-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल भदन्त ! लोकस्य दाक्षिणात्ये चरमान्ते समवहता, समवहत्य यो भन्यो लोकस्य दाक्षिणात्ये एव चरमान्ते अपर्याप्त मुक्ष्मपृथिवीकायिकतया उपपत्तुम् । एवं यथा पौरस्त्ये समवहतः, पौरस्त्ये एवोपपातित स्तथैव दाक्षिणात्ये समवहतो दाक्षिणात्ये एव उपपातयितव्यः । तथैव निरवशेषं यावत्सूक्ष्मवनस्पतिकायिकः पर्याप्तकः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेष्वेव पर्याप्तकेषु दाक्षिणात्ये चरमान्ते उपपातितः । एवं दाक्षिणात्ये समवहतः पाश्चात्ये चरमान्ते उपपातयितव्यः। नवरं द्विसामयिका त्रिसामयिका चतुःसामयिक विग्रहः। शेषं तथैव । दक्षिणात्ये समवहतः औत्तरे चरमान्ते उपपातयितव्या यथैव स्वस्थाने तथैव । एक सामयिक-द्विसामयिक-त्रिसामयिक-चतुःसामयिक विग्रहः। पौरस्त्ये यथा-पाश्चात्ये तथैव-द्विसामयिक-त्रिसामयिक-चतुःसामयिक विग्रहः। पाश्चात्ये च चरमान्ते समवहतानां पाश्चात्ये एवोपपद्यमानानां यथास्वस्थाने, औत्तरे उत्पधमानानामेकसामयिको विग्रहो नास्ति शेषं तथैव । पौरस्त्ये यथा स्वस्थाने दाक्षिणात्ये एकसामयिको विग्रहो नारित शेपं तदेव । औंतरे समवहताना
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भगवतीस्त्रे मौत्तरे एवोत्पधमानानां यथैव स्वस्याने। औत्तरे समवहतानां पौरस्त्ये उत्प. घमानानाम् एवमेव । नगरम् एकसामयिको विग्रहो नास्ति । औत्तरे समवहतानां दाक्षिणात्ये उत्पद्यमानानां यथा स्वस्थाने। औत्तरे समवहतानां पाश्चात्ये उत्पद्यमानानामेकसामयिको विग्रहो नास्ति, शेष तथैव यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिका पर्याप्तकः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेषु पर्याप्तकेष्वेव ॥ ॥७॥ ___टीका--'अपज्जत्तमुहुपपुढवीकाइए णं अंते !' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'लोगस्त दाहिपिल्ले चरिमंते समोहए' लोकरय दाक्षिणात्ये दक्षिणे चरमान्ते-प्रान्तभागे समवहतो-मारणान्तिशसमुद्घातं कृतवान् । 'समो. हणिता जे भविए लोगस दाहिणिल्ले चेव चरिमंते' समबहत्य-मारणान्तिक समुद्घातं कृत्वा यो अव्यो लोकस्य दक्षिणे एव चरमान्ते 'अपज्जत्त सुहुमपुढीकाइयत्ताए उपयज्जित्तए' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया तादृशपृथिवीकायिकरूपेण समुत्पत्तुम्, स खल्ल भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्न हेण समुत्पद्यतेति पूर्वबदेव प्रश्नः । भगवान् पूर्वातिदेशेनाह-'एवं जहा' इत्यादि । 'एवं जहा पुर.
'अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइए णं अंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले' इत्यादि सु० ॥६॥
टीकार्थ-'अपज्जत सुन पुढयीकाहरणे भते! हे भदन्त । जो अप पिन सक्षमपृथिवीकाधिक जीव 'लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए' लोक के दक्षिण चरमान्त में समवहत हुआ है और 'समोहणित्ता' समवहत होकर वह 'जे भलिए लोगस्ल दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्त सुखमपुढवीकाइयत्ताए उधज्जित्तए' लोकके दक्षिण चरमान्त में ही अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य हुआ है तो 'से णं भंते ! 'हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रहसे उत्पन्न होता हैं ? इसका पूर्वातिदेश से उत्तर देते हुए प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहा
'अपज मत्त सुहुमपुढवीकाइए ण भते ! लोगस्स दाहिणिल्ले' त्या
2.-'अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइएण भते ।। 3 मापन २ मांस सक्षम पृथ्वीयि 4 'लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए' वान क्षिष्य य२मान्तमा समुद्धात रे छ. भने “समोह णित्ता' समुद्धात शने 'भविए लोगस्स दाहिणिल्ले पव चरिमते अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए' લેકના દક્ષિણ ચરમાન્ડમાં જ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન या योग्य मने लाय 'से ण' भवे' मापन त त्यो सा समयवाणी વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર પહેલા કહેલ તેના અનિદેશ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ० श०१ सू०७ दक्षिणचरमान्ते उत्पातनि० ४१७ त्थिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चैव उपवाहओ' एवं यथा येन प्रकारेण पौरस्त्ये पूर्वचरमान्ते समवहतो - मृतः पौरस्त्ये- पूर्वे एव चरमान्ते उपपातितः, 'तहेव दाहिणिल्ले समोह दाद्दिणिल्ले चेव उदवाएयन्त्रो' यथैव दक्षिणे चरमान्ते समवहतः दक्षिणे एवं चरमान्ते उपपातयितव्यः पूर्वचरमान्ते मृतानां पूर्वे एव चर्मान्ते समुत्पद्यमानानां येन प्रकारेण उपपातः कथित रतथा तेनैव रूपेण दक्षिणे चरिमान्ते समवतानां तत्रैवोत्पद्यमानानामुपपात प्रकारस्तुल्यतयैव वर्णनीयः । 'तहेब निरवसेसं' तथैव निरवशेष सर्वमपि गणितव्यम्, प्रकारस्तु दर्शित एव । कियत्पर्यन्तं पूर्वचरमान्तमकरणम् इह भणितव्यं वशव - 'जाव' इत्यादि । 'जाव सुहुमवणस्सइकाइओ प्रज्जत्तओ सुमन्त्रणस्सइकाइएस चैव पज्जत्तरसु दाहिणिल्ले पुरथिमिरले समोहओ पुरथिमिल्ले चेन उवनाहओ' 'हे गौतम । जिस प्रकार ले पूर्वचरयान्त में लमबहत हुआ जीव पूर्व ही चरमान्त में उत्पादित प्रकट किया गया है 'तहेब दाक्षिणिले समोहए दाहिणिल्ले चेव ववाएयन्चो' उसी प्रकार से दक्षिण चरमान्त में समवहत हुए जीवका दक्षिण चरमान्त में ही उत्पाद कह लेना चाहिये । तात्पर्य यही है कि पूर्वरान्त में मृतका पूर्वही घरमान्त में जिस प्रकार से उपपात कहा गया है उसी प्रकार से दक्षिण चरमान्त में समवहत हुए जीविका दक्षिण चरमान्त में उपपात प्रकट करना चाहिये । इस सम्बन्ध में जो उपपात प्रकार है वह सब एकता है । इसी लिये' तहेव निरवसेसं' इस सूत्र - पाठ द्वारा कारने 'सप कथन वैसाही है' ऐसा कहा है । पूर्वचरमान्त प्रकरण यहां कहां तक कहने के योग्य कहा गया है ? यह बात 'जाब स्रुहुमचणस्सहकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्लइकाइएस चेव पज्जन्त
भसाभधु भाषता प्रभुश्री ४ ४ - 'एव जहा पुरत्थिमिल्ले समइओ पुरत्थिमिल्ले 'चेव उबवाइओ' हे गौतम! ने प्रभाये पूर्व थरमान्तमां सभुद्दधात रेल જીવ પૂર્વ ચરમાન્તમાં જ ઉત્પન્ન થવાના સંબધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે. 'तब दाहिणिल्ले समोइए दाहिणिल्ले चैव उबवाएयन्वो' ४ प्रमाणे दृक्षिष्य ચરમાન્તમાં સમુદ્લાત કરેલ જીવનેા ઉત્પાત દક્ષિણુચરમાન્તમાંજ કહેવા જોઈએ, આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણુ પામેલાને ઉપપાત પૂર્વ ચરમાન્તમાં જ જે રીતે કહેલ છે એજ રીતે દક્ષિણ ચરમાન્તમાં સમુદ્ઘાત કરેલ જીવાને ઉપપાત દક્ષિણુચરમાન્તમા કહેવા જોઈએ. આ સંબંધમાં ઉપપાતને જે પ્રકાર છે, તે એક સરખાજ છે. તેથી દેવ निरवसेस" भा સૂત્રપાઠ દ્વારા સૂત્રકારે "सघणु अथन शुभ
છે એમ કહેલ છે, પૂર્વ ચરમાન્ત પ્રકરણુ અહીયાં કયાં સુધી महेवु' लेडयो " न्यये बात - 'जाब सुहुम वणत्सइकाइओं पज्जन्तओ - सुम
भ० ५३
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भगवती सूत्रे 'चरिमंते उववाइओ' यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिकः पर्याप्तः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकेषु पर्याप्त केष्वेव दक्षिणे चरिमान्ते उपपातितः । पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्तवनस्पतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि एकेन्द्रिया अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त वनस्पतिकायिकान्तेषु दक्षिणे लोकचरमान्ते संमवतानां दक्षिणे एव लोकचरमान्ते एकसामयिकादि यावत् चतुःसामयिकादि विग्रहेणोपपातिताः 'एवं दाहिणिल्ले समोहओ पचत्थिमिल्ले चरिमंते उबवाएroat' एवं यथा दक्षिणे समवहृतस्य दक्षिणे एव चरिमान्ते उपपातो वर्णित एवमेव लोकस्य दक्षिणे चरमान्ते समवहतस्य लोकस्य पश्चिमे चरमान्ते उपपातोए दाहिणिल्ले चरिमंते उबवाइओ' सूत्रकार ने इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है - इसके द्वारा उन्होंने यह समझाया है कि जिस प्रकार से यावत् पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाधिक जीव पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक रूपसे दक्षिण चरमान्त में ही उपपातित प्रकट किया गया है । अर्थात् अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवोकाषिक से लेकर पर्याप्यवनस्पतिकायिकान्त समस्त एकेन्द्रिय जीव, अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्तसूक्ष्मवनस्पतिकाविकान्तों में लोकके दक्षिण चरमान्तमें उनके समवहत होने पर लोकके दक्षिण चरमान्त में ही जिस रूपसे एकसमयवाले विग्रह से दो समयवाले विग्रह से तीन समयवाले विग्रह से और चार समयवाले विग्रह से उपपादित प्रकट किये गये हैं 'एवं दाहिणितले समोहओ पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते उचवाएयग्यो' इमी प्रकार से लोकके दक्षिण चरमान्त में समवहत हुए जीव का पश्चिम
वरइकाइप चैव पज्जत्तपतु दाहिणिल्ले चरिमते ! उववाइम' सूत्रारे आ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. આ થનથી તેઓએ એ સમઝાળ્યુ છે કે જે પ્રમાણે યાવત પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક જીવ પર્યાપ્તક સૂમ વનસ્પતિ કાયિક પણાથી દક્ષિણુ ચરમાન્તમાં જ ઉત્પન્ન થવાના સંબધમાં કથન કર્યું છે. અર્થાત અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિકથી લઈ ને પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ કાયિક સુધીના સઘળા એકેન્દ્રિયવાળા જીવે, અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિકથી લઈને પર્યાપ્ત વનસ્પતિ ાયિકામાં લેાકના દક્ષિણુ ચરમાન્તમાં તેના સમધાત કરવાથી લેાકના દક્ષિણ ચરમાન્તમાં જ જે રૂપથી એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી, એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થવાના સબધમાં કથન કરવામાં આવેલ
. 'एव' दाहिणिल्ले खमोहओ पच्चत्थिमिल्ले | चरिमते उववाएयव्वों मे પ્રમાણે લેાકના દક્ષિણ ચરમાન્તમાં સમુધ્ઘાત કરેલ જીવને ઉપપાત પશ્ચિમ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०७ दक्षिणचरमान्त उत्पातनि० १९ ऽपि वक्तव्य इति । परन्तु पूर्वापेक्षया यद् वैलक्षण्यं तदर्शयति 'नवरं' इत्यादि 'नवरं दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय विग्गहो' नवरम्-केवलं लक्षण्य मिदमेव यत् द्विसामयिक-त्रिसामयिक-चतुःसामयिको विग्रहो वर्णनीयो न तु एकसामयिको विग्रहोऽत्र सम्भवति। 'सेसं सव' शेपं नवरमित्यादिना यत्कथितं तदतिरिक्तं सर्वमुत्पातमकारादिकं पूर्ववदेव तत्र नास्ति किमपि वैलक्षण्यमिति । 'दाहिणिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्यो जहेव सहाणे दक्षिणे लोकचरमान्ते समवहतः उत्तर चरमान्ते उपपातयितव्या, यथैव स्वस्थाने । स्वस्थाने इति यत्र चरमान्ते समवहत स्तत्रैव चरमान्ते उपपातो भवति, तथाविधे स्वस्थाने इति। चरमान्त में भी उपपात कह लेना चाहिये। परन्तु पूर्व के प्रकरण की अपेक्षा जो इस प्रकरण में अन्तर है वह 'नवरं दुसमइए य तिसमय चउसमय विग्यहो' इस सत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है अर्थात इस प्रकरण में केवल एक समयवाला विग्रह नहीं कहना चाहिये। किन्तु दो समयवाला तीन लमयवाला और चारसमयवाला विग्रह कहना चाहिये। एकसमयवाला विग्रह यहां संचित नहीं हो सकने से वक्तव्य नहीं कहा गया है। 'लेसं तहेव' इसके अतिरिक्त और लय उपपातादि सम्बन्धी कथन और उपपात पूर्वोदित जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नहीं। 'दाहिणिल्ले लमोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो जहेव सट्टाणे' स्वस्थान के जैला दक्षिण चरमान्त में मरण और उत्तर चरमा न्तमें उपपात कहना चाहिए । जिल चस्मान्त में समवहत 'समुदघात' हुआ जीव उसी चामान्त में जो उत्पन्न होता है वह स्वस्थान हैચરમાન્તમાં પણ કહેવું જોઈએ પર તુ પહેલાના કથનની અપેક્ષાએ આ प्र४२६मारे मत२-३२३२ छ, a 'नवरं दुसमइय तिसमइय चउसमइय विगहो' मा सूत्रा४ ६२ प्रगट ४२पामा मावल छे. मर्यात मा ४२१मा કેવળ એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ કહેવી ન જોઈએ પરંતુ બે સમય, ત્રણ સમય અને ચાર સમયની વિગ્રહગતિ કહેવી જોઈએ. એક સમયવાળી विगति माडियां समवित न थJशपाथी ते ४थन ४घु नथी, 'सेस तहेव' म। 3थन शिवाय ७५५iत विशे२ सघणु थन मन ५यातना र पडता हा प्रभारी ४ छे तमा १ ३२२ ४९१ नथी. 'दाहिणिल्ले समो हओ उत्तरिल्ले चरिमाते उबवाएयव्बो जहेव सोणे' स्वस्थानना ४थन प्रभारी દક્ષિણ ચરમાન્તમાં મરણ અને ઉત્તર ચરમાન્તમા ઉપપાત કહે જોઈએ. જે ચરમાન્તમા સમૃઘાત કરેલ જીવ એજ અરમાન્તમાં જે ઉત્પન્ન થાય છે, તે વથાન કહેવાય છે. જેમ કે લેકના પૂર્વ ચરમાતમાં સમુદ્રઘાત કરેલ છે
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भगवती तहा-'तहेव एगसमइय-दुसमइय-विसमइय-चउसमइय विग्गहो' तथैव पूर्वोक्तवदेव एकसामयिक-द्विसामयिक-त्रिसामयिक-चतुःसामयिको विग्रहो भवतीति । 'पुरथिमिल्ले जहा पञ्चस्थिमिल्ले तहेव दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय विग्गहो' दक्षिणे लोकचरमाते समवहत्य पौरस्त्ये चरमान्ते उपपातस्तु यथा-दक्षिणे समवहतस्य पश्चिमे कथित स्वथैव द्विसामयिक-निसामयिको विग्रहो वर्णयितव्यः, उपपातमकारः समग्रोऽपि स्वयमेवोहनीया, 'पञ्चस्थिमिल्ले चरिमंते समोहयाणं पच्चथिमिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा सहाणे' पश्चिम चरमान्ते समबहतानां जैसे लोक के पूर्व चरमान्त में समवहत हुभा जीव जय लोकके ही पूर्वचरमान्त में उत्पन्न होता है तो यह स्वस्थान उत्पात है। स्वस्थान में उत्पन्न हुए जीवको वहाँ उत्पन्न होने में एकसमयवाला विग्रह भी होता है दोसमयघाला विग्रह भी होती है, तीन समयवाला विग्रह भी होता है और चारलमयवाला विग्रह भी होता है। इसी प्रकार से दक्षिण चरमान्त में समवहत Bए जीव उत्तर चर• मान्त में उत्पन्न होने पर वहो पर भी उसे ऐसे ही समयवाला विग्रह होता है। 'पुरथिमिल्ले जहा पच्चस्थिमिल्ले तहेव दुसमझ्य तिसमइएय चउसमय विग्गहो' पश्चिम चरमान्त के जैसा पूर्वचरमान्त में दो समयवाला, तीनसमयवाला और चारसमयबाला विग्रह होता है। इस सम्बन्ध में उपपाल प्रसार लस्पूर्णरूपसे अपने आप उभा. वित कर लेना चाहिये। 'पच्चधिमिल्ले चरिमंते समोरयाणं पच्चस्थिमिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा सहाणे' पश्चिम चरमान्त में समुद्घात
જ્યારે લેકના પૂર્વચરમાન્ડમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે, તે તે સ્વાસ્થાનમાં ઉત્પાદ કહેવાય છે. સ્વાસ્થાનમાં ઉત્પન્ન થયેલા જીવને ત્યાં ઉત્પન્ન થવામાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ પણ હોય છે, એ સમયવાળી વિગ્રહગતિ પણ હોય છે, ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિ પણ હોય છે. અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિ પણ હોય છે. એ જ રીતે દક્ષિણ ચરમાન્તમાં સમુદ્રઘાત કરેલ જીવને ઉત્તર ચરમાન્તમાં ઉત્પન્ન થાય ત્યારે પણ તેને આ પ્રમાણેના સમયવાળી વિગ્રહगति डाय छे. 'पुरथिमिल्ले जहा पच्चथिमिल्ले तदेव दुसमइय तिसमझ्य उसमइय विगाहो' पश्चिम यमान्तना ४थन प्रमाणे पूर्व य२मान्तमा એ સમયવાળી ત્રણ સમયવાળી અને ચ ર સમયવાળી વિગ્રહગતિ હોય છે. આ વિષય સંબંધી ઉપપાતને પ્રકાર સંપૂર્ણપણાથી સ્વયં બનાવી સમજી લેવા જોઈએ, पच्चस्थिमिल्ले चरिमते समोहयाण पच्चस्थिमिल्ले चेव उववजमाणाण' जहा सटाणे' पश्विम २२भान्तमा समुधात ४रीने पश्चिम २२भान्तमा १ Guru
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०७ दक्षिणचरमान्त उत्पातनि० ४२१ पश्चिमे एव चरमान्ते उत्पद्यमानानां यथा स्वस्थाने उपपात: कथित स्तथैव एफसामयिक विग्रहादारभ्य यावत् चतुःसामयिको विग्रहो व्यावर्णनीय इति । 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नस्थि सेसं तहेव' पश्चिमे समवहताना मुत्तरे लोकचरमान्ते समुत्पद्यमानानामेकसामयिको विग्रहो नास्तिन भवति, द्वि त्रि चतुःसामयिकविग्रहास्तु सन्त्येव, शेषम्-उपपातमकारादिकं सर्व तु पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'पुरथिमिल्ले जहा सहाणे' पाश्चात्ये समवहतानां पौरस्त्ये पूर्वचरमान्तविषये उत्पद्यमानानां यथा-स्वस्थाने समुद्घातो. पपातयोरेक स्थानरूपे कथितं तथैव इहापि सर्व ज्ञातव्यमिति । 'दाहिणिल्ले करके पश्चिम ही चरमान्त में उत्पन्न हुए पृथिवीकायिक आदि जीवों के सम्बन्ध में जैसा उपपात स्वस्थान में कहा गया है उसी प्रकार से वह वहाँ एक समयवाला यावत् चार समयवाला होता है ऐसा कह लेना चाहिये । 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमाओ विग्गहो नस्थि-सेसं तहेव' पश्चिम दिशा से लमवहत हुए जीवों के उत्तर चरमान्त में उपपात होने पर वहां उनके उपपात में एकसमयवाला विग्रह नहीं होता है किन्तु दो समयवाला यावत् चार समयवाला विग्रह होता है। थाक्रीका और सघ उपपात प्रकार आदि का कथन पूर्वोक्त जैसा ही है। 'पुरथिमिल्ले जहा सहाणे' पश्चिम चरमान्त में समवहत हुए जीवों के पूर्वचरमान्त में उत्पन्न होने पर वहां स्वस्थान के उत्पाद के जैसा उत्पाद कहना चाहिये । अर्थात् वे जीव वहाँ एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं तीनसमથયેલા પૃથ્વીકાયિક વિગેરે જીવેના સમ્બન્ધમાં સ્વાસ્થાનમાં જે રીતે ઉપપાત કહેલ છે, એ જ રીતે તે ત્યાં એક સમયવાળે યાવત્ ચાર સમયવાળો હોય छ. म सभा'. 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाण एगसमइयो विगहो नस्थि सेस तदेव पश्चिम दिशामा समुद्धात ४२॥ ७वान। पात उत्तर य२भान्तमा થાય ત્યારે ત્યાં તેના ઉપપાતમાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ હતી નથી. પરંa. બે સમયવાળી ચાવત્ ચાર સમયવાળી વિરહગતિ હોય છે. બાકીનું ઉપન્યાત विर सघ ४थन पडतi sal प्रभानु छ. 'पुरस्थिमिल्ले जहा सदाणे' પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં સમુદ્દઘાત કરેલા જીવ પૂર્વ ચરમાતમાં ઉત્પન્ન થાય ત્યારે ત્યાં સ્વસ્થાનના ઉત્પાદના કથન પ્રમાણે ઉપપદ કહેવો જોઈએ. અર્થાત તે જો ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન થાય છે, બે સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ
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भगवतीस्त्र एगसमइ भो विग्गहो नस्थि सेसे तं-चेव' पाश्चात्ये समवहतानां दक्षिणचरमान्ते उत्पद्यमानानाम् एकसामयिका विग्रहो नास्ति शेष मन्यत्सर्वं पूर्ववदेवेति । ____ 'उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेत्र उववज्जमाणाणं जहेष सहाणे' उत्तरे चरमान्ते समवहताना मुत्तरे एव चरमान्ते समुत्पद्यमानानां यथैव स्वस्थाने एकसामयिकादारभ्य यावत् चतु:सामायको विग्रहो वर्णनीयः। 'उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरथिमिल्ले उववनमाणाणं एवं चेव' उत्तरचस्मान्ते समवहतानां पौरस्त्ये पूर्वचरमान्ते समुत्पद्यमानाना मेवमेव । उत्तरे समवहताना मुत्तरे एव समुत्पद्यमानानां यथा कथितं तथैव ज्ञातव्यस् । 'नवरं एगसमाओ विग्गहो यवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं और चारसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं। 'दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्नहो नत्थि सेसं तं चेव 'पश्चिम चरसान्त में समवहत जीवों के दक्षिण चरमान्त में उत्पन्न होने पर एक समचाली विग्रह नहीं होता है । इसके अतिरिक्त और सब फथन पूर्वके जैसा ही है। ___ 'उत्तरिल्ले लमोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहेव सहाणे' लोकके उत्तर चरमान्त में समवहत हुए जीवोंका उत्सर चर• मान में ही उत्पन्न होने के सम्बन्ध में एक समय से लेकर यावत् वारसमयतक का विग्रह होता है । ऐसा जानना चाहिये । 'उत्तरिल्ले समोयाणं पुरथिमिल्ले उवधज्जमाणाणं एवं चेव उत्तर चरमान्त में समवहन हुए जीवों का पूर्वदिशा में उपपात होने के सम्बन्ध में भी दो समय से लेकर चारसमय तकका विग्रह होता है। यहां एकS4 थाय छे, यार समयवाणी वियतिथी ५ ५न्न थाय छे. 'दाहिणिल्ले एगसमहओ विगहो नत्थि सेसत चेव' पश्चिम य२मान्तमा समुद्धात रेख જીવ દક્ષિણ ચરમાતમાં ઉત્પન્ન થાય ત્યારે એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ હતી નથી. આ સિવાય સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે છે. તેમ સમજવું.
'उत्तरिल्ले समोहयाण उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाण जहेव सटाणे' લે કના ઉત્તર અરમાન્ડમાં સમુદ્રઘાત કરેલ જીવોના ઉત્તર ચરમાતમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં એક સમયથી લઈને યાવત્ ચાર સમય સુધીની विग्रहगतिथी हाय छे. 'उत्तरिल्ले समोहयाण' पुरथिमिल्ले उववज्जमाणाण एवं चेव' उत्त२ २२मान्तमा समुद्धात ४२८ वान पातशामा થવાના સંબંધમાં પણ બે સમયથી લઈને ચાર સમય સુધી વિગ્રહગતિ हाय छे. मडिया में समयनी विश्रगति हाती नथी. पात 'नवर' एगसमइओ विगहों नरिथ' मा सूत्रा6:२१ प्रगट ४२वामां मावत छे.
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प्रमैयचन्द्रिकाटीका श०३४ अ. श.१ सू८७ दक्षिणचरमान्ते उत्पातनि० ४३३ नत्थि' नवरं केवळम् एकसामयिको विग्रहो नास्ति-न वक्तव्यः किन्तु द्वयादि सामयिक एवं विग्रहो वक्तव्य इति । 'उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववज्जमाणाणं जहा सट्टाणे' उत्तरे चरमान्ते समवहतानां दक्षिणे चरमान्ते समुपद्य मानानां यथा स्वस्थाने एकसामयिकादारभ्य चतुसामयिको विग्रहो वक्तव्य इति । 'उत्तरिल्ले समोहयाणं पच्चस्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ दिग्गहो नस्थि सेसं तहेव' उत्तरे लोकचश्मान्ते समुत्पद्यमानाना मेकसामयिको विग्रहो न भवति, किन्तु द्वयादि सामयिक एव विग्रहो वर्णयितव्यः । शेपम्-प्राथमिक विग्रहव्यतिरिक्तं सर्व पूर्ववदेव वर्णनीयम् । कियत्पर्यन्तं पूर्वप्रकरणमनुम्मरणीयम् , 'तत्राह-'जाच' इत्यादि । 'जाव सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुम्वणस्सइ समयका विग्रह नहीं होता है। यही बात 'नवरं एगहमहओ विग्गहो नत्थि' इल सुत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है।
'उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववज्जमाणाणं जहा सहाणे' उत्तर चरमान्त में समबहत हुए जीवों के दक्षिण चरमान्त में उपपात के सम्बन्ध में उनके स्वरधान में उत्पाद होने के जैसा ही एक्षसमयवाला दो समयवाला तीनलमयवाला और चारसमयवाला विग्रह होता है ऐसा जानना चाहिये । 'उत्तरिल्ले समोहयाणं पच्चस्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगलमइओ विग्गही नस्थि, सेसं तहेव' लोकके उत्तर घरमान्त में समवहत हुए जीवों का पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में दो सम्यवाले विग्रह से लेकर चार सभयवाला विग्रह होता है । यहां एकसमयवाला विग्रह नहीं होता है ऐसा जानना चाहिये । काकी झा और सब कथन पूर्व के जैसा ही है । 'जाव सुहम वणस्काइओ पज्जत्तओ सुहमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव'
'उत्तरिल्ले समोहयाण' दाहिणिल्ले उबरज्जमाणाण जहा सद्राणे' उत्त२ २२. માતમાં સમુદ્દઘાત કરેલ જીવેને ઉપપાત દક્ષિણ ચરમાતમાં હોવાના સંબંધમાં તેઓને સ્થાનમાં ઉત્પાદ હોવાની જેમજ એક સમયવાળી, બે સમયવાળી. ત્રણ સમયવાળી અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિ હોય છે. તેમ સમજવું. “ઉત્તरिमिल्ले स मोहयाण पच्चरिथमिल्ले उववज्जमाणाण एगसमइओ विग्गहो नस्थि सेसतहेव' साना उत्तर यरमा-मा समुद्धात ४२ वान। ५पात पश्चिम ચરમાતમાં થવાના સંબંધમાં બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી લઈને ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિ હોય છે. અહિયાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ હોતી નથી तम सभा मालीनुमा सघणु ४थन पासा प्रमाणे 'जोव सुहम वणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सहकाइएसु पज्जत्तएसु चेव' माथन यावत्
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४२४
भगवतीस्ने काइएसु पज्जत्तएमु चेत्र' यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिकः पर्याप्तकः सूक्ष्मवनस्पति कायिकेषु पर्याप्त केष्वेव । अत्र यावत्पदेन अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्तस्थ ग्रहणं भवति । द्वादशानां द्वादशस्थानेषु उपपातप्रकारः स्वयमेवोहनीय इति ॥मू०७॥
एवमुत्पादमधिकृत्य एकेन्द्रियप्ररूपणा कृता, अथ तेषामेव स्थानादि मरूपणायाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि ।
मूलम् -कहिं णं भंते ! बायरपुढवीकाइया णं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! सटाणेणं असु पुढवीसु जहा ठाणपदे जाव सुहुमवणस्लइकाइया जे य पजत्तगाजे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्ना पन्नता समणाउसो! अपज्जत्तसुहुभपुढवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! अट्ट कम्मयगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा नाणावरणिज्नं जाव अंतराइयं । एवं चउक्कएणं भेएणं जहेव एगिदियलएसु जाव बायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं। अपजत्तसुहमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सचविह बंधगा वि, अटुंविह बंधगा वि, जहा एगिएवं यह कथन 'यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकाधिक का पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिज्ञाथिकों में ही उपपात होता है। यहां तक कहना चाहिए यहां यावत्पद से अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर अपर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिकान्त के जीवोंका ग्रहण हुआ है । तात्पर्य कहनेका यही है कि १२ प्रकार के जीबोका १२ प्रकार के स्थानों में उपपात कहना और इस सम्बन्ध में उपपात प्रकार अपने आप उद्भावित कर लेना चाहिए ॥सू०७॥ પર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિકાયિકોને પર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિ કાયિકમાં જ ઉપપાત થાય છે આ કથન સુધી કહેવું જોઈએ અહિયાં થાવત્પદથી અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અપર્યાપ્ત સૂમ વનસ્પતિ કાયિક સુધીના જીવો પ્રહણ કરાયા છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-૧૨ બાર પ્રકારના જીને ૧૨ બાર પ્રકારના સ્થાનમાં ઉ૫પાત કહે અને આ સંબંધમાં ઉપપાત પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ, સૂણા
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referrer o३४ अ. श०१ सू०८ बा०पृथ्वीकायानां स्थानादिनि० ४२५ दिय ससु जाव पज्जत वायरवणस्त्र इकाइया । अपजान्तसु हुमपुढवीकाइयाणं भंते! कह कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! चोदस कम्मपगडीओ वेदेति, तं जहा नाणावरणिज्जं जहा एगिंदियसएस जाब पुरिसवेदवज्झं । एवं जाव वायरवणस्सइकाइयाणं पज्जतगाणं | एगिंदियाणं भंते! कओ उववजंति, किं नेरइए हिंतो उबवजंति ? जहा वर्षातीए पुढवीकाइयाणं उबवाओ । एगिंदियाणं भंते ! कइ समुग्धाया पन्नता ? गोयमा ! चित्तारि समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा-वेयणा समुग्धाए जाव 'वेव्वियसमुग्धाए ४ । एगिंदिया णं भंते! किं तुल्लट्ठिइया तुल्लविसेसाहियं कम्मं एकरेंति । तुल्लट्टिइया वेमाय विसेसाहियं कम्मंपकरेंति ? बेमायडिया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, बेमायट्टिइया वेमायविलेसाहियं कम्मं पकरेंति ? । गोयमा ! अत्थे - गइया तुल्लट्ठिइया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया तुल्लट्टिइया देसायविसेला हियं कमलं पकरेंति । अत्थेगइया वेमायट्टिइया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । अत्थेगइया वेमायटिया वेमायवि से साहियं कम्मं पकरेंति । से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ ? अत्थेगइया तुल्लटिइया जात्र वेमायविसेसाहियं कम्मं पकति ? गोयमा ! एगिंदिया चउठिवहा पन्नत्ता, तं जहा-अत्थेगइया समाज्या समोववन्नगा |१| अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा |२| अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा | ३ | अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा |2| तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा तेणं तुल्लट्टिइया तुल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति १ । तत्थ पणं जे ते समाज्या विसमोववन्नगा ते णं तुल्लहिया बेमायविसेसाहियं कस्मं पकरेति २ ।
भ० ५४
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કરવ
serected
तत्थपणं जे ते विसमाउथा समोववन्नगा ते णं वेमायट्टिश्या तुल्लविसेसाहियं कामं पकरेति ३ । तत्थ णं जे ते विसमाउया विमोगा ते णं साहिया मायविसाहित्य कम्मं पकरेति ४ । से तेणट्टेणं गोयसा ! जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ! सेवं भंते । सेवं तं ! त्ति जाव चिह्न ||८||
उतीसइमे सए पढमे एगिंदिवस पटमो उद्देसो समतो | ३४-११
छाय - कुत्र खन्द्र सदन्त | बादर पृथिवीकायिकानां पर्यावानी स्थानानि भज्ञतानि ? गौतम | स्वस्थानेनाष्टासु पृथिवीषु यथास्थानपदे गाव सूक्ष्मवनस्पतिकायिका ये च पर्याप्तका ये नापर्याप्तकास्ने सर्व एकविधा अविशेषा अनानात्वाः सर्वलोके पर्यापन्नाः ततः श्रायुष्मन् ! अपर्याप्त मपृथिवी कायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतः प्रज्ञप्ताः ? गीत | अतः मज्ञप्ताः । तथवा-ज्ञानावरणीयं यावदन्तरायिकम् । एवं चतुष्केन भेटेन यथेन एकेन्द्रियशतके यावद् वादरचनापतिकायिकानां पर्याप्तकानाम् | अपर्याप् सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्म प्रकृनीनन्ति ? गौतम ! सप्त विधवन्धका अपि अधिवन्धका अपि यया एकेन्द्रियशतकेषु यावत् पर्याया वादरवनस्पतिकायिकाः । अपर्याप्त शुक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृति दयन्ति ? गौतम ! चतुर्दशर्ममकृति वैदयन्ति । उद्यथाज्ञानावरणीयं यथा एकेन्द्रियशतेषु यावत्पुरुषवेदवम् । एवं यावद बादखन स्पतिकायिकानां पर्याप्तकानाम् । एकेन्द्रियाः । एकेन्द्रियाः खलु मदन्त ! कत्र उत्पद्यन्ते ? किं नैरयिकेभ्य उत्पद्यन्ते ? यथा व्युत्क्रान्तौ पृथिवीकायिकानासुपपातः । एकेन्द्रियाणां भदन्त ! कति समुदयाताः मह्नष्ठाः ? गौतम ! चत्वारः समुद्घाताः मज्ञप्ताः । तयथा- - वेदासमुद्घावो १ यावद् वैक्रियसमुद्घातः ४ एकेन्द्रियाः खलु भदन्त कि तुल्यस्थितिका तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकु र्वन्ति ? तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति ? त्रिमात्रस्थितिका स्तुल्य विशेषाधिकं कर्म मकुर्वन्ति ? विमात्रस्थितिका विमात्रविशेपाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! अस्त्येके तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेपाविक कर्म प्रकुर्वन्ति । अस्त्येक के तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति अस्त्येकके विमात्र स्थितिका तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते अस्त्येक के तुल्य स्थितिका यावद विमात्रविशेपाधिक कर्म कुर्वन्ति ? गौतम ! एकेन्द्रियाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता तव्यथा - अस्त्येकके समायुष्काः समोपपन्नकाः १ अस्त्ये
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प्रमैयन्द्रिका का श०३४ अ. श.१ सू०८ या पृथ्शीकायानां स्थानादिनि०४२७ कके समायुष्का विषमोपपनकाः ३। अस्त्येकके विषमायुष्काः समोपपन्नका ३ । अस्त्येकके विषमायुष्काः विषमोपपन्नकाः ४, तत्र खलु ये ते समायुष्काः समोपपन्नकास्ते खलु तुल्यस्थितिका स्तुल्य विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति १ तत्र खल्ल ये ते समायुष्का विषमोपनका स्ते खलु तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति २ तत्र खलु ये ते विपमायुष्काः समोपपन्नकाः ते खल विमात्रस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति ३ तत्र खलु ये ते विषमायुष्का विपमोपपनका स्ते खलु विमात्रस्थितिका विमानविशेषाधिकं फर्म प्रकुर्वन्ति ४ तत्तेना. थेन गौतम ! यावद् विमात्रविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ।।स्० ८॥
इति चतुस्त्रिंशत्तमे शाके प्रथमे एकेन्द्रियशते प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।
टीका--'कहिणं भंते ! वायरपुढवीकाइपाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता' कुत्र खलु भदन्त ! वादरपृथिवीकाइकानां पर्याप्तता गुणविशिष्टानां स्थानानि मज्ञप्तानि-कयितानि, इति स्थानविषयकः प्रश्ना, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सहाणेणं अट्ठसु पुढवीसु' स्वस्थानेनाष्टसु पृथिवीठ रत्नप्रभापृथिवीत आरभ्य तमस्तमापृथिवी पर्यन्तासु सप्तसु, अष्टम्यां च ईप___ इस प्रकार से उत्पादको आश्रित करके सूत्रकारने एकेन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा की अब उन्हीं के स्थान आदिकों की प्ररूपणा के लिये वे सूत्र का कथन करते हैं-'कहि णं भंते ! बाथरपुढ पीकाइयाण' इत्यादि
टीकार्थ-'कहिणं भंते ! बायरपुढवीकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! पर्याप्त पापृथिवीकायिकों के स्थान कहां पर कहे गये हैं। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! लहाणेणं अट्ठसु पुढ वीलु' स्वस्थान की अपेक्षाले पर्याप्त बाद्रपृथिवीकायिकों के स्थान रत्नप्रभापृथिवी
આ રીતે ઉત્પાદનો આશ્રય કરીને સૂત્રકારે એકેન્દ્રિય જીવોની પ્રરૂપણા કરી છે. હવે તેમના જ સ્થાન વિગેરેની પ્રરૂપણ કરવા માટે સૂત્રકાર સૂત્રનું ४थन ४२ छ.-'कहि ण भते ! वायर पुढवीकाइयाण' ऽत्याह
---'कहिण भते! वायरपुढवीकाइयाण पज्जत्तग ण ठाणा पन्नत्ता' હે ભગવન પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વિકાચિકેના સ્થાને ક્યા કહેવામાં આવ્યા છે? मा प्रश्न उत्तम प्रभु श्री गौतमत्वामीन ४९ -'गोयमा ! सटाणेण अट्टस gવી' સ્વસ્થાનની અપેક્ષાથી પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકેનું સ્થાન રતનપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમાતમા સુધીની સાત પૃથ્વીયમાં અને આઠમી ઈત્મા મારા
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भगवती सूत्रे
मामापृथिव्यामित्यष्टसु पृथिवीषु स्वस्थानं यत्र वादरपृथिवीकायिक आस्ते तेन स्वस्थानेन स्वस्थानमाश्रित्येत्यर्थः । 'जहा ठाणपदे' यथा स्थानपदे' स्थान पदं च प्रज्ञापनासूत्रस्य द्वितीयं पदम् । तच्चैत्रम्, 'तं जहा रयणपभाए सकरभाए वालुयनभाए' इत्यादि । कियत्पर्यन्तमिह स्थानपदमध्ये तव्यम्, तत्राद'जाव' इत्यादि, 'जाव सुहुमवणस्सइकाइया' यावत् सुक्ष्मवनस्पतिकायिकाः इति पर्यन्तम्, अत्र यात्रत्पदेन चादरपृथिवीकायिकानन्तरं सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बोदराष्कायिकाः, सुक्ष्माकायिकाः वादरतेजस्कायिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकाः वादरचायुकायिकाः, सूक्ष्मवायुकायिकाः, वादरवनस्पतिकायिकाः, इत्येषां ग्रहणं भवति । एते च ' जे य पज्जत्तगा जे य अपञ्जत्तया ते सच्चे' ये च पर्याप्तका ये च
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ધર૮
से लेकर तमस्तमा तककी सात पृथिवियों में और आठवीं ईषत्प्राग्भारा पृथिवी में कहे गये हैं। क्योंकि इन पृथिवियों में बादरपृथिवीकायिक जीव रहते हैं । इसीलिये यहां स्वस्थान को आश्रित करके बादरपृथिवीकायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं । 'जहा ठाणपदे' प्रज्ञापना सूत्रका स्थान पद द्वितीय पद है उसमें ऐसा प्रकट किया गया है- 'तं जहारयणप्प भए सक्करप्पभाए बालुवप्पभाए' इत्यादि कि रत्नप्रभापृथिवी में, शर्कराप्रभा पृथिवी में बालुकाप्रभा पृथिवी में इत्यादि प्रकट किया गया है । 'जाब सुदुमवणस्सइकाइया' यावत् सूक्ष्मवनस्पतिका fuक, जीवों का स्थान है 'यहां यावद से बादर पृथिवीकायिक के बाद 'सूक्ष्मपृथिवी कायिक, बादर अप्रकायिक, सूक्ष्मअष्कायिक, बादरतेजस्कायिक, सूक्ष्मतेजस्काधिक, बादरवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक और बादरवनस्पतिकायिक' इन सबका ग्रहण हुआ है । 'जे य पज्जतगा जेय अपज्जत्तगा ते सव्वे' ये सब चाहे पर्याप्त हो चाहे अपर्याप्त
પૃથ્વીમાં કહેવામાં આવ્યા છે. કેમકે આ પૃથ્વીચેામાં ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવા રહે છે. તેથી અહિયાં સ્વસ્થાનને આશ્રય કરીને બાદર પૃથ્વીકાયિક लवोना स्थाना अडेवामां आवे छे. 'जहा ठाणपदे' प्रज्ञापना सूत्रनु जीनु
स्थान यह हे छे, तेमां मे प्रभा डे छे 'तं जहा रयणप्पभाए सक्करपभाए वालुयप्पभाए' त्याहि रत्नप्रभा पृथ्वीमां, शरा अला पृथ्वीमां, बाबुट्ठा भ्रला पृथ्वीमां 'जाव सुहृम वणस्सइ काइया' यावत् सूक्ष्म वनस्पतिકાયિક વાનુ સ્થાન છે. અહિયાં યાવપદથી બાદર પૃથ્વિકાયિક પછી સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક અને માદર અાયિક સૂક્ષ્મ અષ્ઠાયિક, ખાદર તેજસ્ક્રાયિક, સૂક્ષ્મતેજસ્કાયિક ખાદર વાયુકાયિક સુક્ષ્મવાયુકાકક અને માદર વનસ્પતિકાયિક
या अधा श्रड्णु उराया छे, 'जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे' भा
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मैन्द्रिका टीका श०३४ अ. शे०९ सु०८ चा०पृथ्वीकायानां स्थानादिनि० ४२९ अपर्याप्तास्ते सर्वे 'एग विहा' एकविधाः एकप्रकारका एवं प्रकृत स्वस्थानादि विचार मधिकृत्यौघः, 'अविसेसमणाणत्ता' अविशेषा अनानात्वाः अविशेषाः विशेषरहिताः, यथा पर्याप्तका स्तथैवेतरेऽपि अनानात्वाः नानात्ववर्जिताः येष्वेव आधारभूताकाशमदेशेषु एके - पर्याप्तका - भवन्ति तेष्वेव इतरे अपना अपि भवन्तीत्यर्थः । ' सव्वलोग परियावन्ना' सर्वलोकपर्यान्नाः उपपात्र समुद्घात स्वस्थानैः सर्वलोके वर्त्तन्ते इत्यर्थः, तत्रोपपात उपपाताभिमुख्यम्' समुद्घात इह मारणान्तकादिः स्वस्थानं यत्र ते आसते 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः - कथिताः । 'समणाउसो' हे श्रमण | हे आयुष्यन् ! एतेषां सर्वेप/मालापकमकारः मज्ञापना सूत्रस्य द्वितीयस्थानपदे द्रष्टव्यः तद्व्याख्यानमपि तत्रैव मत्कृतायां प्रमेयबोधिनी व्याख्यायां द्रष्टव्यम् | 'अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ हो सब सूक्ष्मवनस्पतिकाधिक सामान्य से एक प्रकार के है। इनमें कोई भिन्नता नहीं है । जिस प्रकार पर्यातक हैं उसी प्रकार अर्यातक हैं जिन आधारभूत प्रदेशों में पर्याप्त रहते हैं उन्हीं आकाश प्रदेशों में अपर्याप्तक रहा करते हैं । 'सबलोग परियावन्ना' उपपात समुद्घात एवं स्वस्थानों की अपेक्षा से ये सर्वलोक में पाये जाते हैं उत्पत्तिका नाम उपपात है वारणान्तिक आदि समुद्घात है और जहां ये रहते हैं वह स्वस्थान है।' इस प्रकार से ये हे आयुष्मत् ! श्रमण ! सर्वलोकमें हैं' इनका आलापक प्रकार प्रज्ञापना सूत्रके द्वितीय स्थान पद में देख लेना चाहिये | इस पर मैंने प्रमेयबोधिनी टीका लिखी है । उस टीका से इसका व्याख्यान समझ लेना चाहिये ।
'अपजत्त खुहुषपुढपीसाड्या णं भंते । कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ બધા પર્યાપ્ત હોય કે અપર્યાપ્ત હાય બધા સૂક્ષ્મ વનસ્પતિ કાયિક સામાન્ય રીતે એક પ્રકારના છે. તેમાં કાઇ જ ભિન્ન પણુ નથી. જે પ્રમાણે પર્યાપ્તક કહ્યા છે, એજ રીતે અપર્યાપ્તક પણ કહેલ છે, જે આધારભુત પ્રદેશામાં पर्याप्त रहे छे, येन सााश प्रदेशमा अपर्याप्त रहे छे. 'सव्वलोगपरियावन्ना' उपात सभुद्द्धात भने स्वस्थाननी अपेक्षाथी या सर्व सामा રહેલા છે. ઉત્પત્તિનુ નામ ઉપપાત છે, મારણાન્તિક વિગેરે સમુદ્ધાતા છે. અને જ્યાં તેએ રહે છે. તે સ્વસ્થાન કહેવાય છે. તેના માલાપકાના પ્રકાર પ્રજ્ઞાપના સુત્રના ખીજા સ્થાન પદમાંથી સમજી લેવા જોઇએ.
આ વિષયમાં પ્રમે,ધિની ટીકા કે જે મે' રચી છે, તેમાથી આ સબ ધનુ કથન સમજી લેવુ'.
'अपज्जत्त
सुमढवीकाइयाण भवे ! कइकम्मपगडीओ पण्णत्ताओ'
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भगवती
पन्नताओ' अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाना मेकेन्द्रियजीवानां खलु भदन्त ! वदिकर्मकृतयः प्रज्ञप्ताः कथिताः । एतेषां कति कर्मप्रकृतयो भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नचाओ' अष्टौ कर्म प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । 'तं जहा ' तद्यथा - 'नाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं' ज्ञानावरणीयं यावदन्तरायिकम् अत्र यावत्पदेन दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीयायुष्य नाम गोत्रकर्मप्रकृतीनां ग्रहणं भवतीति भावः । ' एवं चउकपूर्ण मेदेणं जब एर्गिदियसएस' एवं चतुष्केन भेदेन यथैत्र एकेन्द्रियशतकेषु त्रय त्रिशत्तमे शतके द्वादशसु एकेन्द्रियशतेषु मध्ये प्रथम एकेन्द्रिय शतके पृथि - व्यादिवनस्पतिकायिकान्तानां द्वौ भेदौ सूक्ष्मवादरौ कथितौ तदनु पर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ भेदौ, मिलित्वा चतुष्को भवति तद्वदिहापि चतुष्को भेदो हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकाधिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियों का सच्च (सत्ता) कहा गया है ? अर्थात् इनके कितनी कर्मप्रकृतियां होती हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'घोयमा ! अड्ड कम्प्रपगड़ीओ पन्नताओ' हे गौतम! इनके आठ कर्म प्रकृतियां कही गई है। 'तं जहाँ ' जिनके नाम इस प्रकार से हैं- 'नाणावर णिज्जं जाव अंतराइये' ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायिक यहां यावत् पदसे 'दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयु, नाम, गोत्र, इन प्रकृतियों का ग्रहण हुवा है । ' एवं चउक्कएणं भेदेणं जहेब एर्गिदियसएस' इस प्रकार सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त इन चारों प्रकार के पृथिवीकायिकों के एवं इन्हीं चारों भेदवाने अकाधिक जीवों के, इन्हीं चारों भेदवाले तेजस्कायिक जीवो के इन्हीं चारों भेदों वाले वायुकायिक जीवों के और इन्हीं
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હે ભગવન અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવને કેટલી ક`પ્રકૃતિયા કહેવામાં आवेस हे ? आा प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री आहे - 'गोयमा ! अट्ठ कम्ण पगडीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम! तेयाने आठ प्रतियो वामां आवे छे. 'त' जहा' तेभना नाभी आ प्रभाये है. 'णाणावर णिज्ज' जाव अंतराइय" જ્ઞાનાવરણીય યાવત્ અન્તરાયિક અહિયાં યાવત્ પદથી દશનાવરણીય, વેદનીય, મેહનીય, આયુ, અને નામ ગાત્ર આ કર્મપ્રકૃતિયા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. ' एवं 'चक्कणं भेएण' तब एगिदियसएस' मा रीते सूक्ष्म, महर, पर्याप्त અને અપર્યાપ્ત આ ચાર પ્રકારના પૃથ્વીકાયિકાના અને આ ચાર ભેદવાળા અકાયિકના એજ પ્રમાણેના ચાર ભેદવાળા તેજસ્કાયિકાના આજ પ્રમાણેના ચાર ભેઢવાળા વાયુકાયિક જીવેાના અને એજ રીતના ચારભેદવાળા વનસ્પતિ કાયિક જીવેાના જ્ઞાનાવરણીય કમ'પ્રકૃતિથી લઈને અન્તરાયિક કમ પ્રકૃતિ સુધી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श. १ सू०८ बा०पृथ्वीकायानां स्थानादिनि० ४३१ ज्ञातव्यः, कियत्पर्यन्त मेकेन्द्रियशतकं ज्ञातव्यम्, तत्राह - 'जाव' इत्यादि' 'जाव वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं' यावद्न्नस्पतिकाधिकारां पर्याप्तकानां यावत्पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्तवादनम्पतिकायिकान्तस्य ग्रहणं भवति । तथा च मक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्नानां पृथिव्यादि वनस्पतिकायिकान्तानां सर्वै केन्द्रियाणां पञ्चानामपि ज्ञानादरणीयादिका अन्तरायपर्यन्ता अष्टौ कर्मकृतयो ज्ञातव्या इति प्रकरणाशयः ।
'अपज्जत सुमपुढवीकाडया णं भंते ! कइ कम्मपनडीयो वर्धति' । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कति -कियत्संख्यकाः कर्मप्रकृती वनन्तीति कर्मबन्धविषयकः प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' के गौतम ! 'सत्तविहबंधगा विच अविवबंधगा वि' सप्तमकारकककृतीनां वन्धका अपि भवन्ति सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्तकाः, तथा - अष्टविधकर्मप्रकृतीनां वन्धका
चारों भेवाले वनस्पतिकाधिक जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृति से लेकर अन्तराधिक कर्मप्रकृति तक ८ ही कर्मप्रकृतियां होती हैं ऐसा जानना चाहिये | ३३ वे शतक रूप एकेन्द्रिय शतक में ऐसा ही प्रतिपादन] सूत्रकार ने किया है । यही बात 'एवं उक्कणं भेदेणं जहेच एगिंदिrary जाव वणस्लइकाइयाणं पज्जन्तगाणं' इस सूत्र पाठ द्वारा यहाँ समझाई गई है ।
'अपज्जन्त सुमपुढवीकाहया णं संते ! कह कम्मपगडीओ बंधंति' हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! सत्तविह बंगा वि अहि यंत्रणा वि' हे गौतम । अपर्याप्त सूक्षापृथिकाधिक जीव सात प्रकार की फर्मप्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं और आठ
૮શ્માઠે જ ક પ્રકૃતિયા હેાય છે. તેમ સમજવું, ખત્રીસમા શતકના એકેન્દ્રિય શતકમાં સૂત્રકારે એજ પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરેલ છે. એજ વાત (ä' arrer भेणं' जहेव एगिदियसएस जाव वणस्सइकाइयाण' भा સૂત્રપાઠ દ્વારા અહિયાં સમજાવી છે.
'अपज्जत सुमढवी काइयाणं भते ! कइ कम्मपगडीओ वधति' डे लगवन् અપર્યાપ્તક પૃથ્વીકાયિક જીવ કેટલી કમ`પ્રકૃતિયાના ખધ કરે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभां अनुश्री हे छे - 'गोयमा ! सत्तविह बधगा वि अटुविह बंधगा वि હે ગૌતમ અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવ સાત પ્રકારની કમ'પ્રકૃતિયાને
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अपि भवन्ति ते । 'जहा एगिंदियसर सु' यथा येन प्रकारेण एकेन्द्रियदात के पु अपर्याप्त पृथिवीकाधिक प्रभृत्ये केन्द्रियजीवानां कर्ममकृति बन्धविषये कथितं तथैवेद्यापि सर्व ज्ञातव्यमिति । तथाहि - सप्तकर्मप्रकृती धनन्त आयुर्व सप्वज्ञानादरणीयादिकाः कर्ममकृती वैध्नन्ति अष्टविधगकृती वैध्नन्तः परिपूर्णा अष्टापि कर्मप्रकृती वैध्नन्तीति । कियत्पर्यन्त मे केन्द्रिय शतक मिहाध्येतव्यं तत्राह - 'जान' इत्यादि । 'जाव पज्जता वायरवणस्सइकाइया' यावत्पfararaपतिकायिकाः पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त बादरवरपतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि यावत् पदमाद्या भवन्ति । तथा च-अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य पर्याप्त वादरवनस्पतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि ए के प्रकार की फर्मप्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं । 'जहा एनिंदिग्रसएस' इस सम्बन्ध में जैसा कथन एकेन्द्रिय शतक में किया गया है उसी प्रकार से वही कथन यहां अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवो के कर्मप्रकृतियों के बन्ध के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये । जैसे जब वे सातकर्म प्रकृतियों के पथक होते हैं तब वे आयुकर्म को छोडकर शेष लातकर्म प्रकृतियों का बन्ध करते है और जब आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं तब पूरी की पूरी वे आठों कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । इसी प्रकार का कथन यावत् पर्याप्त पादरवनस्पतिकायिक जीवों तक करते जाना चाहिये । अर्थात् पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर अपर्याप्त वादरवनस्पतिकायिक तक के जीव यहां यावत् पदसे गृहीत हुए हैं-सो ये अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर पर्याप्त वादरवनस्पतिकायिक तक के समस्त
गंध पुरे छे. अने आठ प्रारनी प्रवृतियाना या धरे छे 'जहा एर्गिदिसपसु' मा संधसां ने प्रभानुं अथन सड़ियां मेन्द्रिय शतभां કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે એજ કથન અહિયાં એકેન્દ્રિય વિગેરે જીવાને કમ પ્રકૃતિયાના અંધના સબંધમાં પણ કહેવુ' જોઇએ. જેમ કે જયારે તેઓ સાત કમ પ્રકૃતિયાના ખધ કરનાર હાય છે, ત્યારે તે અ યુ ક་પ્રકૃતિને છેડીને બાકીની સાત ક`પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે અને જ્યારે તેએ આઠ કમ પ્રકૃતિચેાના ખધ કરે છે, ત્યારે તેઓ પૂરેપૂરી આ આઠ ક પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે. આજ પ્રમાણેનું કથન યાવત્ પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાયિક જીવાના કથન સુધીમાં સમજી લેવું. અર્થાત્ પર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અપપર્યાપ્તક ખાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવે અહિયાં યાવપદથી ગ્રહણ કરાયા છે. તે આ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અપર્યાપ્ત માત્તરવનસ્પતિ
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प्रमेयचन्द्रिका का श०३४ १. श.१९०८ या०पृश्चिकायानां स्थानादिनि० ४३३ न्द्रियजीवाः सप्तप्रकारकर्मप्रकृतीनां बन्धका अपि भवन्ति, तथाष्टविधर्मप्रकृतीनां बन्धका अपि भवन्तीति भावः । 'अपज्जत्त सुहुमपुढ़वीकाइयाणं भंते । कइकम्मपगडीओ वेदेति' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृती वैदयन्तीति भावः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा !' हे गौतम ! 'चोदसकम्मपगडीओ वेदेति' चतुर्दश-चतुर्दशसंख्यकाः कर्मप्रकृती वैदयन्ति । चतुर्दश भेदमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा'नाणावरणिज्ज' ज्ञानवरणीयम् 'जहा एगिदियसएसु' यथा-एकेन्द्रियशतके पु कथितम् ज्ञानावरणीयादि कर्मप्रकृतिवेदनं तथैवेहापि कर्मप्रकृतिवेदनं ज्ञातव्यम् । कियत्पर्यन्तमेकेन्द्रियशतके ज्ञातव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाव पुरिस वेदवज्झ" यावत्पुपवेदवध्यम् । अत्र यावत्पदेन दर्शनावरणीयतः आरभ्य अन्तराय जीव सात प्रकार की कर्मप्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं और आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियो के भी बन्धक होते हैं। ___ 'अपज्जत्तसुहुमपुढची काहया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वेदेति' हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का घेदन करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! चोहम कम्मपगडीओ वेदेति 'हे गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं । 'तं जहा' जिनके नाम इस प्रकार से हैं-'नाणावरणिज्जं जहा एगिदियसएसु' ज्ञानावरणीय आदिजसा कि एकेन्द्रिय शतक में कहा गया है । इन १४ प्रकृतियों में 'जाव पुरिसवेदवझ' यावत् पुरुषवेदावरणीय तक कही गई प्रकृतियां आ जाती है । जो इस प्रकासे हैं-'ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, કાયિક સુધીના છ સાત પ્રકારની કર્મપ્રકૃતિને પણ બંધ કરે છે. અને આઠ કર્મ પ્રકૃતિને પણ બંધ કરે છે.
'अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइयाण भंते ! कइकम्मपगडीओ वेदेति' है ભગવન અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવ કેટલી કર્મપ્રકૃતિનું વેદન કરે
१ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४ छे "गोयमा ! चोहस कम्मपगडीओ वेदेति' गोम | अपर्याप्त सू६५ पृथ्वीयि १४ यौह मपतियानु' वहन ४२ छे ? 'त' जहा' तेना नाम । प्रभारी है.'नाणांवरणिज्ज जहा एगिदियसएसु' ज्ञानावरणीय वि २ प्रभारी सन्द्रिय शतभावामा पास छ, २१ १४ यो प्रतियोमा 'जाव पुरिस देदवज्झर થાવતુ પુરૂષ વેદાવરણીય સુધી કહેલ કર્મ પ્રકૃતિ આવી જાય છે. જે આ પ્રમાણે
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भगवतीले पर्यन्तानां तथा श्रोग्रेन्द्रियवध्य, चक्षुरिन्द्रियवध्य, रसनेन्द्रियवध्य, घ्राणेन्द्रिय वध्य-स्त्रीवेदबध्यान्तानां च कर्मप्रकृतीनां संग्रही भवति । तथा च शानावरणीयादारभ्य पुरुपवध्यान्त चतुर्दश कर्मप्रकृतीनामपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः सर्वेऽपि वेदयन्तीतिभावः । एवं जाव वायर वणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं' एवम्-अपर्या त सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां यथा चतुर्दश कर्मप्रकति वेदनं कथितं तथैव यावद् चादरबनस्पतिकायिकपर्याप्तकानामपि चतुः देश कर्मप्रकृति वेदनं ज्ञातव्यम् अत्रापि यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्ताः मवादरामूक्ष्पर्याप्तपर्याप्तभेदमोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय तक ८ कर्मपकृतियां तथा
ओनेन्द्रियवध्य चक्षुइन्द्रिय ध्य घ्राणेन्द्रिय वध्य रसनेन्द्रिय वध्य स्त्रीवेद वध्य और पुरुषवेद वध्य' इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि से लेकर दोनों प्रकार वनस्पतिकायिक तकके समस्त एकेन्द्रिय जीव ज्ञानापरणीय आदि से लेकर अन्तराय कर्म तक और श्रोनेन्द्रिय से लेकर पुरुषवेदावरण तक १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं। चाहे थे पर्याप्त हों अथवा अपर्याप्त हो। 'एवं जाव यायर वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं' यही बात इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है । अर्थात् अपर्याप्त सूक्षमपृथिवीकायिकों के सम्बन्ध में जिस प्रकारसे १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करना कहा गया है उसी प्रकार से यावत् पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकों के सम्बन्ध में भी १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करना कह लेना चाहिये । यहां यावत् पदसे पर्याप्त छ.-शाना१२९य, शना१२९॥य, वेदनीय, माडनीय, मायु, नाम, जात्र અને અંતરાય, સુધીની આઠ કર્મ પ્રકૃતિ તથા શ્રોત્રેન્દ્રિયવધ્ય, ચક્ષુઈદ્રિય વધ્ય ધ્રાણેન્દ્રિયવધ્ય, રસનેન્દ્રિયવધ્ય, સ્ત્રીવેદવધ્ય અને પુરૂષ વેદવધ્ય આ રીતે અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અને પ્રકારના વનસ્પતિ કાયિક સુધીના સઘળા એકેન્દ્રિય જી જ્ઞાનાવરણીય વિગેરેથી લઈને અંતરાય કર્મ સુધી અને શ્રેગેન્દ્રિયથી લઈને પુરૂષ વેદાયરણ સુધી ૧૪ ચૌદ કર્મ પ્રકૃતિનું वहन ४२ छे. ते पर्याप्त साय है अपर्याप्त जाय 'एवं जाव वायरवणस्सइ काइयाण पज्जत्तगाण' मे पात मा सूत्र ५२१ प्रगट ४२वामी मावस છે. અર્થાત્ અપર્યાપ્ત સૂફમ પૃથ્વિીકાયિકના સંબંધમાં જે પ્રમાણે ૧૪ ચૌદ કર્મપ્રકૃતિનું વેદન કરવાનું કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે યાવત્ બાદર વનસ્પતિ કાયિકના સંબંધમાં પણ ૧૪ ચૌદ કમ પ્રકૃતિનું વેદન કરવાનું કહ્યું છે.
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प्रमैन्द्रिका टीका श०३४ अ. श. १ सू०८ वा०पृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४३५ भिन्नाः सर्वेऽपि संग्रहीतव्या इति । अथैकेन्द्रियाणा मुत्पत्तिविषयं सूत्रमाह'एगिंदिया णं भंते । कओ उववज्जंति' एकेन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! कुतः -- कस्मात् स्थानविशेषाद् आगत्य समुत्पद्यन्ते 'किं नेरइए हिंतो उववज्जंति' किं नैरयिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किं वा तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते मनुष्येभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इवि मनः । उत्तरमाह - 'जहा ' इत्यादि । 'जहा वक्कंतीर पुढवीकाइयाणं उनवाओ' यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनासूत्रस्य पष्ठपदे पृथिवीकायिकानामुपपातः तथैवेहापि एकेन्द्रियाणामुपपातो वर्णयितव्यः । तथाहि एकेन्द्रिया नैरयिकेभ्य आगत्य नोत्पद्यन्ते, किन्तु देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते, मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते । तथासूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर लक्ष्म बादर पर्याप्त और अपर्याप्त भेद वाले वनस्पत्तिकायिक तक के समस्त एकेन्द्रिय जीव गृहीत हुए हैं ।
'एनिंदिया णं भले | कमो उववज्जंति' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'किं नेरइएहिंतों उववज्जंति' क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से करके उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'जहा वक्कंनीए पुढवीकाइयाणं उववाओ' हे गौतम! जिस रीति से प्रज्ञापना सूत्र के छुट्टे व्युत्क्रान्तिकपद में पृथिवीकायिकों का उपपाद कहा गया है उसी रीति से उनका वह उत्पाद यहां पर भी जान लेना चाहिये । जैसे- एकेन्द्रिय जीव नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु देवों में से आकरके उत्पन्न તેમ સમજવુ, અહિયાં યાવત્ પથી સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિકથી લઇને સૂક્ષ્મ બાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદાવાળા વનસ્પતિકાયિક સુધીના તમામ એકેન્દ્રિય જીવા ગ્રહણ કરાયેલ છે.
'एगिंदिया ण भंते! कओ उववज्ज'ति' डे लगवन् गोडेन्द्रिय वा या स्थान विशेषथी भावीने उत्पन्न थाय छे ? किं नेरइएहि तो उववज्जति' શુ. તેઓ નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री हे छे - 'जहा वक्क तीए पुढवीकाइयाण उववाओ' ૩ ગૌતમ ! જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠા વ્યુત્ક્રાન્તિ પદમા પૃથ્વીકાયિકાના ઉપપાદ કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે તેએના ઉપપાત અહિયાં પણ સમજવા, જેમકે એકેન્દ્રિય નૈરચિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી, અને
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भगवतीयो तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य एकेन्द्रियेपु समुत्पद्यन्ते इति प्रज्ञापना सूत्रोक्तोत्तर मिति भावः । 'एगिदिया णं भंते ! काइ समुग्धाया पन्नत्ता' एकेन्द्रियाणां खलु भदन्त ! कति समुद्घाताः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि समुग्धाया पन्नत्ता' चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः। प्रकारभेदमेव दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा'वेयणा समुग्धाए जाय वे उब्धिय समुग्धाए' वेदनासमुदघातो यावद क्रिय समुद्घातः। अत्र यावत्पदेन कपाय समुद्घात मारणान्तिक समुद्घातयोः संग्रहो भवति । तया च-वेदनाकपाय मारणान्तिक क्रियारूपाश्चत्वारः समुद्घाता भवन्तीति भावः । अत्र यत् चत्वारः समुद्घाताः कथिता स्तत्र वैक्रिय समुद्घातो होते हैं । मनुष्यों में से भी आकरके उत्पन्न होते हैं और तिर्यग्योनिको में से भी आकरके उत्पन्न होते हैं । ऐसा ही यह उत्तर प्रज्ञापना सम्र का है। 'एगिदियाणं भंते कइ समुग्धाया पण्णत्ता' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात होते कहे गये हैं ? 'गोयमा ! चत्तारि अमुग्घाया पण्णत्ता' हे गौतम ! एकेन्द्रिय जीवों के चार समुद्घात कहे गये हैं । 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं -'वेषणा समु. ग्घाए जाव वे उब्धियसमुग्घाए' वेदना समुद्घात, यावत् वैक्रिय समुद्रात यहां यात्पद से कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, इन दो समुद्धातों का ग्रहण हुआ है । तथा च-वेदना, कषाय, मारणान्तिक और बैंक्रिय ये चार समुद्घात इन एकेन्द्रिय जीवों के होते हैं यहां चार जो समुद्घात कहे गये हैं सो इनमें जो वैक्रिय समुद्घात દેમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ ગભજ મનુ માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, અને તિર્યંચ વિકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, આ प्रभा मा प्रज्ञापन सूत्रनु थन ४ छे. 'एगिदिया ण भंते ! कइ समुग्धाया पण्णत्ता' से सावन मे धन्द्रियवाणा वान टसा समुद्धातो पार्नु ४३ छ १ 'गोयमा ! चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता' गौतम ! ७ द्रियवाणा वाने यार समुद्धात लावानु ४९ छे. 'त' जहा' तमा प्रमाणे छ.-'वेयणा समु. ग्याए जाव वेउविव्वय समुग्धाए' वहनी समुद्धात यावत् वैठिय सभुधात અહિયાં યાવત્પદથી કષાય સમુદ્ઘત, મારણાનિક સમુદ્ઘત આ બે સમુદ્ર ઘાતે ગ્રહણ કરાયા છે. જેમ કે-વેદના, કષાય, મારણાન્તિક, અને વૈક્રિય આ ચાર સમુદ્રઘાતે આ એકેન્દ્રિય જીવોને હોય છે, અહિયાં જે ચાર સમુદ્ઘતા
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प्रमेयचन्द्रका डीका श०३४ अ. श. १ ०८ बा०पृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४३७ वायुकायिकानाश्रित्य कथित', वायुकायिकान दिहायान्येषां वेदनाकपायसारणान्तिकरूपा स्त्रय एव समुदधाना भवन्वि न तु चैक्रिय मुद्धात इति । 'एगि दियाण मंते !' एकेन्द्रियजीदाः खलु भदन्त ! 'कि तुल्लडिया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति' किं तुल्यस्थितिका परस्परापेक्षया समानायुकाः तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । परस्परापेक्षया तुल्यत्वेन विशेषेण थसंख्ये भागादिना अधिक पूर्वकालबद्ध कर्मापेक्षाऽधिकतरं तुल्यविशेषाधिक कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति किमिति प्रश्नः । तथा 'तुला माय विसेसाहियं कम्मं पकरेंति' तुल्यस्थितिकाः विमात्रः अन्योऽन्यापेक्षया दिपपपरिमाणः कस्याऽप्यसंख्येयभागरूपोऽन्यस्य संख्येयभागरूपयो विशेषस्तेनाधिकं पूर्वकालवद्धयमपिक्षया यत् तद् विमात्रविशेपाधिकं कर्म है वह वायुकायिकों को आश्रित करके कहा गया है । वायुकायिकों को छोडकर अन्य एकेन्द्रिय जीवों को वेदना कषाय और मारणान्तिक ये तीन ही समुद्घात होते हैं । वैक्रिय समुद्घात इनकों नहीं होता है ।
'एनिंदियाणं भंते । किं तुल्लडिया तुल्लविसे साहियं धम्मं पक रे'ति' 'हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीव की जिनकी आयु आपस में समान होती है क्या तुल्य और विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? परस्परकी अपेक्षा समानता को लेकर यहां तुल्यता कर्म में कही गई और पूर्वकाल में बद्ध कर्मों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग आदिको लेकर कर्म में विशेषाधिकता कही गई है ।
अथवा---'तुल्लहिया मायविलेसाहियं कम्मं पकरेति ? 'तुल्यस्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव परस्पर भिन्न २ विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? किसी एकेन्द्रिय जीव के पूर्ववद्ध कर्मोकी अपेक्षासे असंख्येय કહ્યા છે, તે પૈકી જે વૈક્રિયસમુદ્માત છે, તે વાયુકાયિકાને આશ્રય કરીને કહેલ છે વાયુકાયિકાને છેડીને બીજા એઇન્દ્રિયવાળા જીવેાને વેઢના, કષાય અને મારણાન્તિક આ ત્રણ સમુદ્ઘત જ હોય છે. તેઓને વૈક્રિય સમુદ્ઘાત હાતા નથી.
'एगिंदिया ण' भते ! कि तुल्लट्ठिइया तुल्लविसेसाहिय' कम्म पकरेति' डे ભગવત્ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવા કે જેઓનું આયુષ્ય પરસ્પરમાં સરખુ હોય છે, એવા જીવે। શુ તુલ્ય અને વિશષાધિક કર્મોના બંધ કરે છે ? પરસ્પરની અપેક્ષાથી સમાન પણાને લઈને અહિંયા ક્રમ માં તુલ્યપણુ કહ્યુ છે, અને પૂ કાળમાં અ ધકની અપેક્ષાથી અમ્રખ્યાતમા ભાગ વિગેરેને લઈને કમ'માં विशेषाधिः पशु उछु' छे अथवा 'तुल्ल द्विइया वेमायविखेसाहिय कम्म पकरे ति' સમાન સ્થિતિવાળા એકેન્દ્રિય જીવા અન્ય અન્ય જુદા જુદા વિશેષાધિક કા "ધ કરે છે? કાઈ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવના અસખ્યાત ભાગ રૂપ અને
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भगवती
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ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्नन्ति वनन्ति । तथा - ' वेसायहिया तुल्लविसेसाहियं करेंति' विमात्रस्थितिकाः विमात्रा- विपममात्रा स्थितिः- आयु ये पां ते fantasथतिकाः विषमायुष्का इत्यर्थः । तुल्यविशेषाधिकं पूर्ववदेव कर्म मकुर्वन्ति । ३ । 'वेमायद्विश्या वेमायविसेसाहिये कम्मं पकरेंति ४' विमात्रस्थितिका: विमात्रविशेषाधिकं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति वध्नन्ति किमिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम | 'अस्ये गइया तुलविया तुळविसेसाहियं कम्मं पकरेति' अस्त्येकके तुल्यस्थितिका
भाग रूप और किसी एकेन्द्रिय जीवके संख्येय भाग रूप अधिक कर्मबन्ध को लेकर इस विकल्प में कर्मबन्ध में भिन्नता कही गई जाननी चाहिये । अथवा- 'वेमायडिया तुल्लवि से साहियं कम्मं पकरे ति' 'भिन्न २ स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव परस्पर में तुल्य विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं ? अथवा - 'वेमार्याहया वेमाय विसेसाहियं कम्मं पकरेंति' 'भिन्न २ स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न २ विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? ऐसे ये बन्ध के विषय में चार विकल्प रूप प्रश्न हैं । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अत्येगइया तुल्लट्टिया तुलविसे साहियं कम्मं पकरेंति' 'हे गौतम ! कितनेक एकेन्द्रिय जीव जो तुल्पस्थितिवाले होते हैं तुल्य विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं । 'अत्थेगया तुल्लहिया वेमयिविसेाहियं कम्मं पकरेति'
કાઈ એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવના સુખ્યાત ભાગ રૂપ કમ બંધને લઈને આ विमुल्यमां उमगंधसां नुहायागु धुं छे. ते समवु अथवा - 'वेमायद्विईया
विसेाहिय कम्म' पकरेति' छुट्टी कुट्टी स्थितिवाणा गोड इन्द्रिय वा परस्परमां तुझ्य अथवा विशेषाधिना गंध रे छे ? अथवा 'वेमायट्ठिईया वेमायविखे साहिय कम्मं पकरेति' नुट्टी छुट्टी स्थितिवाजा मेड इन्द्रियवाजा જીવા જુદા જુદા વિશેષાધિક કરને બંધ કરે છે ? આ રીતે આ મધના સંબંધમાં ચાર વિકલ્પરૂપ પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमां प्रभुश्री मुडे छे है - 'गोयमा 1 अत्थेगइया तुल्लठ्ठिया तुल्लविसेस हिय' कम्मं पकरेति' हे गौतम! डेंटला खेड ईन्द्रियवाजा वो भे समान સ્થિતિવાળા હાય છૅ, તેઓ તુલ્ય અને વિશેષાધિક કર્મીના ખધ કરે છે, 'अत्थेइया तुल्लइिया वेमायविसेसाहिय कम्म' पकरे'ति' तथा अर्थ अर्ध समान સ્થિતિવાળા એક ઇન્દ્રિય જીવે એવા હાય છે કે જેઓ જુદી જુદી માત્રમાં विशेषाधि४ ४सना मध रे है ' अत्थेगइया लट्ठिक्ष्या तुल्लविसे साहियं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ.श.१०८ वापृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४३९ तुल्य विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । 'अत्थेगइया मायद्विइया तुलबिसेमाहियं फम्म पकरेंति' असत्येक के विपात्ररिथविकाः तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति । 'अत्थेगइया वैमायद्विइया मायबिसेसाहियं कसं पकरेंति' अरत्येकके विमात्रस्थितिका विमात्र विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्तीत्युत्तरम् । ‘से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगइया तुल्लहिइया जाच वेमायवितेताहियं कसं पवारेंति ?' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवम्युच्यते, अस्त्येक के तुल्यस्थितिका यावद् विमात्रविशेषाधिकं कर्म मकुर्वन्ति, अत्र यावत्पदेन अस्त्येकके तुल्यस्थितिका स्तुल्य. 'तथा कोई कोई तुल्यस्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो भिन्न भिन्न मात्रा में विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, 'अत्थेगहया नेमायटिया तुल्लविलेलाहियं कामं परफरेंति' तथा कोई कोई एकेन्द्रिय जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनकी आयु परस्पर भिन्न भिन्न होती है पर वे तुल्य विशेषाधिक शर्मका बन्ध करते हैं। तथा-'जत्थेगाथा माय हिइया वेत्रायवि साहियं फम्म पकरे ति' कोई कोई एलेन्द्रिय जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनका आयुकर्म भी परस्पर में भिन्न भिन्न होता है और वे भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं । 'ले केणटेणं भंते ! 'एवं बुच्चइ अत्थेगड्या तुल्लट्टिया जाच वेमायधिलेलाहियं कम्मं पफरेंति' हे भदन्त ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कितने क तुल्पस्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव तुल्पविशेषाधिक ज्ञानावरणीय आदि कर्मका बन्ध करते हैं और यावत् कितनेक भिन्न भिन्न स्थितियाले कम्म पकरे ति' तथा मे छन्द्रियाणा मेवा ५५ हाय કે–જેઓનું આયુષ્ય પરસ્પર જુદું જુદું હોય છે. પરંતુ તેઓ તુલ્ય અને विशेषाधि भनाम ४२ छ. तथा 'अत्थेगइया वेमायद्विइया वेमायविसेसाहिय कम्म पकरें ति' is मेन्द्रिय ~ 24 ५ हाय छे-मान આયુષ્ય કર્મ પણ પરસ્પરમાં જુદું જુદું હોય છે અને તેઓ ભિન્ન-ભિન્ન विशेषाधि४४मना मध ४२ छे. तथा 'अत्थेगइया वेमायद्विइया वेमायविसेखाहिय कम्म' पकरेंति' । मेन्द्रिय ७३ वा डाय छे ४-मायुष्य કર્મ પણ પરસ્પરમાં જુદું જુદું હોય છે. અને તેઓ ભિન્ન-ભિન્ન વિશેષા. घि भनी म ४२ छे 'से केणटेण भते । एवं वुच्चइ अत्यगइया तुल्ल ट्रिइया जाव विसेसाहिय कम्म पकरें ति' गवन् साय प्रमाण ॥ કારણથી કહો છે કે—કેટલાક તુલ્ય–સરખા શરીરવાળા એકઈન્દ્રિય જી તુલ્ય અને વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણય વગેરે કર્મને બંધ કરે છે ? અને યાવતુકેટલાક જૂદી જુદી સ્થિતિવાળા એકેન્દ્રિય જીવો જુદા
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भगवतीस्त्रे
विशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति । अरत्येकके तुल्यस्थितिका विमानविशेषाधिकं कर्म फुर्वन्ति, असत्येक विमात्रस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति, इत्येषां संग्रडो भवतीत्यवान्तरमश्नः । भगवानाद-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगिदिया चउनिहा पन्नत्ता' एकेन्द्रिया चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा'
यथा-'अत्थेगइया समाउया समोरचन्नमा' अरत्येकके समायुष्काः समोपप न्नका, समम्-तुल्यम् भायुर्यपों से समायुकाः समानस्थितिका इत्यर्थः । 'अस्थे गइया समाउया विसमोघवन्नगा' अस्त्येक के समायुप्का:-तुल्यायुप्काः समोपपन्नकाः, 'अथेगइया विसमाउया समोववन्नगा अत्थेगइया विसमाउया विसमो. ववन्नगा' अत्येकके विपमायुष्का समोपपन्नकाः अस्त्येकके विषमायुष्काः एकेन्द्रिय जीप भिन्न भिज विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? यहां यावत् पद से बीच के दो विकल्प गृहीत हुए हैं। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! एनिदिया चउचिहा पण्णत्ता' हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे गये हैं।' 'तं जहा' 'जो इस प्रकार से हैं'भत्थेगइया समाउया समोवचन्नगा' एक वे एकेन्द्रिय जीव जो समान आयुवाले होते हैं और एक ही साथ उत्पन्न होते हैं। 'अत्थेगया समाउया चिलमोववन्नगो' 'दूसरे चे एकेन्द्रिय जीव जो समान आयुवाले तो होते हैं पर एक ही साथ उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न होते हैं। तीसरे 'अत्थे गया जिसमाउया समोवनमा प्रथेगया विलमा उचा विसमो. ववनगा' 'दो एकेन्द्रिय जीव जो विपम आयुवाले तो होते हैं पर साथ साथ में एक लमय उत्पन्न होते हैं ३ । चौथे वे एकेन्द्रिय जीव जो જુદા વિશેષાધિક કમને બ ધ કરે છે? અહિયાં યાવ૫દથી વચ્ચેના બે વિપે ગ્રહણ કરાયા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે ४-'गोयमा ! निदिया चउव्विहा पण्णत्तो' हे गौतम ! मेन्द्रिय छ। या२ ५४२ना डामा मावस छ. 'त जहा' २ ॥ प्रभाले छे. 'अत्थे गइया समाउया समोववन्नगा' से त न्द्रिय । छ, यसमा मायुध्याय छ भने म साथे
थाय छ 'अत्थेगइया समाच्या समोरवन्नगा' what ते मेहेन्द्रिय व साय छे मे। सभी આયુષ્યવાળા તે હેય છે, પણ એક સાથે ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ જુદા गुह समये 64-1 थाय छे. 'अत्थेगइया विसमाउया समोरवन्नगा' अत्थे गइया विसमाउया विसमोववन्नगा' मने प्रीतम दियवाणा ।। વિષમ આયુષ્યવાળા તો હોય છે, પરંતુ સાથે સાથે એક સમયમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. જેથી તે એક ઈન્દ્રિયવાળા જ જૂદા જુદા આયુષ્યવાળા પણ હોય છે, અને જૂદા જૂદા સમયમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે એક ઈન્દ્રિયવાળાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३४. श.
१०८ धा०श्चिकायानां स्थानादिनि० ४५ विषमोपपन्नका स्त इमे चत्वारो भैदा भवन्ति एकेन्द्रियाणाम् । 'तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठिझ्या तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति तत्र चतुषु मध्ये ये ते एकेन्द्रियाः समायुष्का समोषपनका स्ते खलु तुल्यस्थितिका समकमेवोत्पन्ना स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति तत्रैते तुल्यस्थितिकाः समो. स्पन्नत्वेन परस्परेण समानयोगत्वात् तुल्य मिति समानमेव कर्म कुर्वन्ति, तथा ते च पूर्वकर्मापेक्षया हीनं वा अधिकं वा कर्म कुर्वन्ति यद्यधिक तथा विशेषाधिक मपि, तच परस्परतः तुल्य विशेषाधिकं न तु विशेषाधिकमेव इत्यत उक्तं तुल्य. विशेषाधिकर्मिति १ । 'तत्थं णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठिइया भिन्न भिन्न आयुवाले भी होते हैं और भिन्न भिन्न समयमें भी उत्पन्न होते हैं।' इस प्रकार से एकेन्द्रियों के ये चार प्रकार होते हैं 'तस्थ णं जे ते समाउया समोचवन्नगा तेणं तुल्लट्ठिया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकाति' इनमें जो एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले
और एक ही साथ में उत्पन्न हुए होते हैं-वे एकसी स्थितिवाले होते हैं। और तुल्यविशेषाधिक कर्मके बन्धक होते हैं। क्योंकि तुल्य. स्थितिवाले जीव समकालमें उत्पन्न होने के कारण आपस में समान योगवाले होते हैं-इसलिये वे समान ही कमेंका बन्ध करते हैं । अथवा तो वे पूर्व कर्मको हीन कर्म करते हैं अथवा अधिक कर्म करते हैं। यदि अधिक कर्म करते हैं तो वह परस्पर में तुल्य होता हुआ भी पूर्व कर्म की अपेक्षा विशेषाधिक होता है केवल विशेषाधिक ही नहीं होता है। इसीलिये उसे तुल्य और विशेषाधिक इन दो विशेषणों से विशिष्ट वतलाया गया है।
वानयार लेहो य छे. 'तत्थ ण जे ते समाउया समोववन्नगा ते ण तुल्लद्विइया तुल्ल विसे साहिय कम्म' पकरेंति' मामले मेछन्द्रयवाणा જી સમાન આયુષ્યવાળા અને એક સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ સરખી સ્થિતિવાળા હોય છે. અને તુલ્ય વિશેષાધિક કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય છે. કેમ કે-તુલ્ય સ્થિતિવાળા જ સરખા કાળમાં ઉત્પન્ન થવાને કારણે પરસ્પરમાં સરખા ગવાળા હોય છે. તેથી તેઓ સરખા કર્મને જ બંધ કરે છે. અથવા તો તે પૂર્વ કર્મને એટલે કે પહેલા કરેલા કર્મોને હીન ઓછા કરે છે અથવા અધિક કર્મ કરે છે. જે અધિક કર્મ કરે તે તેઓ પરસ્પરમાં તુલ્ય થઈને પણ પૂર્વકર્મની અપેક્ષાથી વિશેષાધિક હોય છે. કેવળ વિશેષાધિક જ હતા તેથી તેઓને તુલ્ય અને विशेषाधि: या विशेष।था युटत ४९ छे. 'तस्थ ण जे ते समाउया
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भगवतीले वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति' तत्र खलु ये ते समायुष्का विषमोपपन्नास्ते खल्ल तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति, एते समायुष्का विषमो. पपन्नका .स्तुल्यस्थितिकाः विषमोपपन्नत्वेन च योगवैषम्यादू विमावविशेषा. धिकं कर्म प्रकुर्वन्तीति । __'तस्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते ण वेमायविइया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति' तत्र खलु ये ते विषमायुष्काः समोपपन्नकास्ते खलु विमात्रस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति-बध्नन्ति एते विमात्र स्थिकाः समोपपन्नत्वेन च समानयोगत्वात् तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्तीति ।३। 'तस्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठिया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरें ति' 'तथा जो एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले होते हुए भी भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न हुए होते हैं वे तुल्यस्थिति वाले होने पर भी भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न होने के कारण योगों की विषमता को लेकर भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्म के बन्धक होते हैं। 'तत्व णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते णं वेमाय हिइया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति' तथा जो एकेन्द्रिय जीव विषम आयुवाले होते हैं और साथ साथ में उत्पन्न हुए होते हैं वे विषमस्थितिबाले होते हैं और तुल्यविशेषाधिक कर्म के बन्धक होते हैं। ये विमात्र स्थिति के एकेन्द्रिय जीव समोपपन्न होने के कारण तुल्य योगवाले होते हैं, इससे वे तुल्यविशेषाधिक कर्म के बन्धक होते हैं। ३ 'तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोवदन्नगा ते णं वेमायट्ठिया वेमायविसमोववन्नगा तेण तुल्लविइया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरें ति' तथा रे એક ઇન્દ્રિયવાળા જી સમાન આયુષ્યવાળા હોવા છતાં પણ જુદા જુદા સમયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ તુલ્ય સ્થિતિવાળા હોવા છતાં પણ જુદા જુદા સમયે ઉત્પન્ન થવાને કારણે યોગોના વિષમ પણાને લઈને જુદા જુદા विशेषाधि भनी म ४२वापस डाय छे. 'तत्थ ण जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते ण वेमायद्रिइया तुल्लविसेसाहिय कम्म पकरें'ति' तथा रे એક ઈન્દ્રિયવાળા જી વિષમ આયુષ્યવાળા હોય છે, અને એક સાથે ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે, તેઓ વિષમ સ્થિતિવાળા તુલ્ય વિશેષાધિક કમને બંધ કરે છે. તેઓ વિમાત્રસ્થિતિના એક ઈન્દ્રિયવાળા જી. સમાન ઉત્પત્તીવાળા હોવાને કારણે સરખા ગવાળા હોય છે. તેથી તેઓ तुस्य विशेषाधिः भनी म ४२ना२१ जाय छे. 13। 'तत्थ ण जे ते विसमाउया
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प्रमेन्द्रका टीका श०३४ अ. श. १ सू०८ वा०पृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४४३
'तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा ते णं मायया मायविसेसाहियं कम्मं पकरे वि' तत्र खलु ये ते विषमायुष्का विषमोपपन्नकारते खलु विमात्र विशेषाधिकं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति, एने विमात्रस्थितिका चिपमायुषो विषमोपपन्नाः चिपमोपपन्नत्वाच्च योगवैषम्येण विमात्रविशेषाधिक कर्म कुर्वन्तीति ४ |
'से ते गोयमा ! वेमायविसेसाहियं वम्मं पकरेंति' तत् तेनार्थेन गौतम !, यावद् विमात्रविशेषाधिक कर्म मकुर्वन्ति, अत्र यावत्पदेन एवमुच्यते, अस्त्येकके तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेपाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति इत्यारभ्य अस्त्येकके विमात्रस्थितिका एतदन्त प्रकरणस्य संग्रहो भवतीति ।
विसेसाहियं कम्मं पक्करें 'ति' 'तथा जो एकेन्द्रिय जीव विषम आयुवाले होते हैं और विषम समय में उत्पन्न हुए होते हैं वे विषम स्थितिवाले होते हैं और विषम विशेषाधिक कर्मके बन्धक होते हैं । ४ तात्पर्य कहने को यही है कि जहाँ विषमकाल में उत्पन्न होता है वहां पर योंगों की विषमता है और उसकी विषमता से भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मोकी बन्धकता है और जहां समान समय में उपपात है वहां योगों की समता है इससे वहां समान विशेपाधिक कर्मों की बन्धकता है ऐसा जानना चाहिये । 'से तेणट्टेणं गोयमा जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेति' इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वे एकेन्द्रिय जीव यावत् विषम विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं। यहां यास्पद से 'एवमुच्यते अस्त्येक के तुल्यस्थितिका तुल्यविशेषाधिक
सिमोवनगाण मायद्विइया वेमायविसेसाहिय कम्म' पकरेति' तथा એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવા વિષય આયુષ્યવાળા હાય છે, અને વિષમ સમયમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે વિષમ સ્થિતિવાળા હોય છે અને વિષમ વિશેષાધિક કના ખધ કરનારા હોય છે. ૪ા આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે-જયાં વિષમ કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યાં ચેાગેાનું વિષમપણ્ હાય છે. અને તે વિષમ પણાથી જુદા જુદા વિશેષાધિક કર્મોનું મધ પણુ રહે છે અને જ્યાં સમાન સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું કહેલ છે, ત્યાં યેગેનુ સમાનપણુ` છે. તેથી ત્યાં સમાન વિશેષાધિક કર્માનું ખધકપણું કહેલું છે તેમ સમજી લેવું 'से तेणट्टेण गोयमा ! जाव वैमायविसेसाहिय कम्म' पकरेति' मा भरथी હું ગૌતમ ! મેં એવુ* કહેલ છે કે-તે એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવેા ચાવત્ વિષમ विशेषाधि उनी गंध उरे छे. मडियां यावत्यस्थी 'एवमुच्यते अरत्येक के
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भगवती सूत्र
'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् विहरति । हे भदन्त ! एकेन्द्रियजीवानां विषये यदु देवानुमियेण कथितं तत् सर्वमेवमेव सर्वचैव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमः स्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन विहरतीति ||६०८|| इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य'
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पूज्यश्री - घासीलालन विविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां
व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमे शतके प्रथमस्य एकेन्द्रियशतकस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ||३४|१|१||
"
कर्म प्रकुर्वन्ति' यहां से लेकर 'अस्स्येकके विज्ञानस्थितिका 'यहां तक का पाठ ग्रहीत हुआ है । 'सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति' जाव विहरह 'हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीवों के विषय में जो आप देवानुप्रियने जो कहा वह सर्व ही सर्वथा सत्य है २ इस प्रकार कहकर गौतमने भगवान् को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना और नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ ० ८ ॥
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चौतीसवें शतक के प्रथम एकेन्द्रियशतक का पहला उद्देशक समाप्त ॥ ३४ - १॥
"
तुल्यस्थितिकाः तुल्य विशेपाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति' या नथी ने 'अस्त्येक के विमात्रस्थितिका' न्यडियां सुधीना या ग्रह रेस छे.
'सेव' भते । सेव भंते! ति जाव विहरइ' हे भगवन् मेन्द्रियवाजा જીવાના સંબધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવત્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ કથન સČથા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તેપછી તેએ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂ૦૮)
જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ચેાત્રીસમાં શતકમાં એકઇન્દ્રિય શતકના પહેલે ઉદ્દેશે! સમાપ્ત ૫૩૪–૧}
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प्रचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सू० १ अन० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४४५ अथ द्वितीयोदेशक: मारभ्यते
मूलम् - कहविहा णं भंते! अनंतशेववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता तं जहा - पुढवीकाइया दुया भेओ जहा- एगिंदियसएसु जाव बायरवणस्सइकाइया य, कहिं णं संते ! अनंतशेववन्नगा णं वायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नन्ता ? गोषमा ! सट्टाणेणं असु पुढवीसु तं जहा - रयणप्पभाए जहा ठाणपदे जाव दीवेसु समुद्देसु । एत्थ णं अनंतशेववन्नगाणं बायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सव्वलोए । समुग्धापणं सव्वलोए । सट्टाणेणं लोगस्स अहंखेज्जइभागे । अनंतरोववन्नग सुमढवीकाइया एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोए परियावन्ना पन्नता समणाउसो ! एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिंदिया आणियव्वा, सट्टाणाई सब्वेसिं जहा ठाणपदे तेसिं पज्जन्तगाणं बायराणं उववाय समुग्धाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जतगाणं वायराणं सुहुमाणं सव्वेसिं जहापुढवीकाइयाणं भणिया तब भाणियव्वा जाव वणस्स इकाइ - यत्ति । अणंतरोववन्नगाणं सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! अटू कम्मपगडीओ पन्नत्ताओं, एवं जहा एगिंदियसएस अनंत रोवत्रन्नग उद्देसए तहेव पन्नताओ तहेव बंधेति । तहेव वेदेति जाब अनंत रोववन्नगा वायरवणएसइकाइया । अणंतरोववन्नग एगिंदिया णं भंते! कओ उज्जेति । जहेव ओहिओ उद्देसओ भणिओ तहेव । अनंतशेववन्नग एगिंदियाणं भंते! कइ समुग्धाया पन्नत्ता । गोयमा ! दोन्नि समुग्धाया पन्नता । तं जहा - बेयणासमुग्याए य कलायसमुग्धाए य । अनंतशेववन्नग एगिंदियाणं
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भंगवती भंते ! किं तुल्लट्रिइया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति ?, पुच्छा तहेन । गोयमा! अत्थेगइया तुल्लट्रिइया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया तुल्लट्टिइया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । से केणट्रेणं जाव वेमाय विसेसाहियं कम्म पकरेंति? गोयमा! अणंतरोववन्नगा एगिदिया दुविहा पन्नत्ता। तं जहा-अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा १, अत्थेगइया समाउया विलमोववन्नगा २। तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं तुल्लहिइया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति । तत्थ णं जे ते समाउया विलमोववन्नगा ते णं तुल्लद्विइया वेमायविसलाहियं कम्म पकरेंति, से तेणदेणं जाव वेमाय विसेसाहियं कम्मं पकरेंति । लेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥सू० १॥ चोत्तीसइमेलए पढमे एगिदियलए वीओ उद्देलोसमत्तो।३४-१.२॥ ___ छाया-कतिविधाः खल्नु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधा अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-पृथिवीकायिका द्विपदो भेदो यथा-एकेन्द्रि पशतकेपु यावद् बादर वनस्पतिकायिकाश्च । कुत्र खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाणां चादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! स्वस्थानेनाष्टसु पृथिवीसु, तद्यथा-रत्नप्रभायां यथा स्थानपदे यावद् द्वीपेषु समुद्रेषु, अन्न खलु अनन्तरोपपन्नकानां वादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि ज्ञप्तानि । उपपातेन सर्वलोके, समुद्घातेन सर्वल.के. स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकायिका एकविधा अविशेपा अनानात्वाः सर्वलो के पर्यापन्नाः प्रज्ञप्ताः, श्रमण ! आयुष्मन् ! एवमेतेन क्रमेण, सर्व एकेन्द्रिया भणितव्याः, स्वस्थानानि सर्वेषां यथा स्थानपदे । तेषां पर्यन्तकानां बादराणामुपपातसमुद्घातस्त्रस्थानानि यथा तेषामेवापर्याप्त कानों बादराणाम् । सूक्षमाणां सर्वेषां यथा पृथिवीकायिकानां भणितानि तथैव भणितव्यानि यावद् बनस्पतिकायिका इति । अनन्तरोपपचकानां सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । एवं यथा एकेन्द्रियशतेषु अनन्तरोपपन्नकोद्देशके तथैव वध्नन्ति, तथैव वेदयन्ति, यावदनन्तरोपपन्नकाः वादरवनस्पतिकायिकाः । अनन्तरोपपमकैके
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०१ अन० कैकेन्द्रियाणां मैदादिनि० ४४७ न्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते, यथैवौधिकउद्देशको भणितस्तथैव । अनन्तरोपपन्नकैकेन्द्रियाणाम्, भदन्त ! कति समुद्घाताः प्रज्ञाप्ताः ? गौतम ! द्वौ समुद्घातौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-वेदना समुद्घातश्च कषायसमुद्घातश्च । अनन्तरोपपन्नकैकेन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! किं तुल्यस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिक कर्म पकु. वन्ति ? पृच्छा तथैव । गौतम ! अस्स्येकके तुल्यस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति । अस्त्येकके तुल्यस्थितिका विधानविशेषाधिक कर्म पकुर्वन्ति । तत्केनार्थेन यावद् विमानविशेषाधिक फर्म प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रिया द्विविधा, प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-अस्त्येकके समायुष्काः समोपपत्रकाः १, अस्त्येक के समायुष्काः विषमोपपन्नका: २ तत्र खलु ये ते समायुष्काः समोपपन्नका स्ते खल तुल्यस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति । तत्र खलु ये ते समायुष्का विषमोपपन्नकास्ते खल्ल तुल्यस्थितिका विमात्र विशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति । तत्वेनार्थेन यावद् विमात्र विशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! चतुर्विंशत्तमे शते प्रथमे एकेन्द्रियशते द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥३४.११२।
टीका-'कइविहाणं भंते ! अणंतरोवदनगा एगिदिया पन्नत्ता' कतिविधाः पति प्रकाराः खल्ल भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः, ये अनन्तरे-उत्पत्तेः प्रथमे समये वर्तन्ते । तेऽनन्तरोपपन्नकाः इत्थंभूता एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ताः कथिताः, कियन्तो भेदा एकेन्द्रियाणामिति प्रश्नः | भगवानाह -'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहा अणंतरोपपन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' पञ्चविधा:
दूसरे उद्देशेका प्रारंभ'कइविहाणं भंते ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया' इत्यादि
टीकार्थ-काविहाण भंते ! अणंतरोबवन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' हे भदन्त जो उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तते हैं ऐसे वे अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम !
બીજા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ– 'का विहा ण भंते ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया' त्याह * 'कइ विहाणं भंते ! अणतरोववण्णगा एगिदिया पण्णत्ता' सन् २ એની ઉત્પત્તી એક જ સમયમાં હોય છે. એવા તે અનંતપન્નક એકइन्द्रिय
Rन वामां माया छ ? 'गोयमा ! पचविहा
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_भगवतीले पञ्चपकारका अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियजीवाः प्रज्ञप्ता कथिताः। प्रकार भेदमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवीकाइया दुया भेदो जहा एगिदि यसएसु जाव वायरवणस्सइकाइयाय' पृथिवीकायिकाः द्विपदो भेदो यथा-एकेन्द्रियशतेषु त्रशिरमे शते एकेन्द्रियशतेषु मध्ये प्रथमस्य एकेन्द्रिय शतस्य द्वितीये उद्देशके यावद् वादरवनस्पतिकायिकाश्च द्विपदो भेदः सूक्ष्मबादररूपः । इहानन्तरोपपन्नकैकेन्द्रियाणामधिकारात् अनन्तरोपपन्नकानां च पर्याप्तकत्वाभावात् अपर्याप्तकानां सतां समा बादराश्चेति द्विपद एव भेदः कथितो नत्यन्यत्रेव चतुष्को भेदः कथित इति । स्थानभेदनिरूपणायाह-'कहि णं' इत्यादि । 'कहिं णं भंते ! अणंतरोववनगाणं वायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता' कुत्र-खलु भदन्त ! अनन्तरो प्रपन्नकानां चादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि-निवासाधिकरणानि प्रज्ञप्तानि-करितानीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि। अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहां जैसे-'पुढवीकाइया दुधा भेदो जहा एगिदियसएसु जाव वायरवणस्सइकाइया य' 'पृथिवीकायिक वगैरह इनके दो दो भेद जैसे एकेन्द्रिय शतकों में कहे गये हैं स्नूक्ष्म और बादर के भेद से यावत् वनस्पतिकाधिक तक वैसे ही यहां जानना चाहिये । यहाँ अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों का अधिकार है । इसलिये इनमें पर्याप्तकता का अभाव रहता है। इसलिये यहां सूक्ष्म और बादर ऐसे ये दो भेद ही इनके कहे गये हैं। दूसरी जगह के जैसे यहाँ एकेन्द्रिय पृथिवी कायिकले चार भेद नहीं कहे है । 'कहिणं भंते ! अणंतरोवचनगाणं वायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता 'हे अदन्त ! इन अनन्तरोपपन्नक बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ? अणतरोववन्नगा पण्णत्ता' गौतम ! मनतरोपपन्न सन्द्रिय । पाय
२॥ ४ i माव्या छे. 'जहा' मा प्रमाणे छ. 'पुढवीकाइया दुया भेदो जहा एगिदियसएसु जाव बायर वणस्सइकाइया य' प्रविधि विगेरेना બે ભેદો જે રીતે એકઈન્દ્રિય શતકમાં કહેવામાં આવેલ છે. સૂક્ષમ અને બાદરના ભેદથી યાવત વનસ્પતિકાયિક સુધીના કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવું. અહિયાં અનંતાપપન્નક એકેન્દ્રિયોને અધિકાર છે. તેથી પર્યાપ્ત પણને અભાવ રહે છે. તેથી અહિયાં સૂક્ષમ અને બાઇર એવા બે જ ભેદ તેઓના કહ્યા છે. અન્ય સ્થળની જેમ અહિયાં એકઈન્દ્રિયવાળા પૃથ્વીકાયિકાના यार लेहो या नथी. 'कहि ण भते ! अणतरोववन्नगाणं घायर पुढवीकाइयाण ठाणा पन्नचा' लगवन् या मनत५५न्न मार पृथ्वी यि ४४न्द्रिय
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अमेयचन्द्रिका टीका ४०३४ भ. श०६ सू०१ अन० कैकेन्द्रियाणां मैंदादिनि० ४४९ 'गोयमा' हे गौतम ! 'सष्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु' स्वस्थानेन अष्टम् पृथिवीषु यत्र ते तिष्ठन्ति तानि तेषां स्वस्थानानि, तदपेक्षा रोपामष्टासु पृथिवीषु स्थानानि कथितानि, 'तं जहा' तद्यथा-'रयणपसाए जहा ठाणापदे' रत्नप्रभायां यथा-स्यानपदे प्रज्ञापनाया द्वितीयं पदं तन यथा रत्नपभादिक प्रारभारापृथिवी पर्यन्तं स्थानतया कथितं तदेव स्थानतया अत्रापि ज्ञातव्यमिति । कियत्पर्यन्त प्रज्ञापनायाः स्थानपदमिह य ह्यम्, तत्राह-जाव' इत्यादि । 'जाव दीवेसु समु. देसु' यावद्वीपेषु समुद्रेषु द्वीपसमुद्रादिक सर्वमेव अनन्तरोपपन्न वादरपृथिवीकायिक. केन्द्रियाणां स्थानमिति । स्थानमुपसंहरन्नाह-एत्थ णं' इत्यादि । 'एत्थ णं अणंतउत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सट्टाणे णं अट्ठसु पुढवीसु' हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से इन अनन्तरोपपन्नक बादर एकेन्द्रिय जीवोंके स्थान आठ पृथिवियों में कहे गये हैं क्योंकि ये वहां पर रहते हैं। वे आठ पृथिवियां इस प्रकार से हैं-'रयणप्पभाए जहा ठाणपदे' स्थानपद यह प्रज्ञापला का द्वितीय पद है। उसमें रत्तमभा से लेकर ईषत्मारभारा पृथिवी तसके स्थान को इनका निवासस्थान बतलाया गया है। तो ऐसा ही यहां पर इनके निवासस्थान के सम्बन्ध में जानना चाहिये । 'जाव दीवेस्तु समुदेसुइन पृथिवियों आदि के अतिरिक्त और भी इन अनन्तरोपनिक एकेन्द्रिय जीवोंके रहने के स्थान हैं जो इस सूत्रपाठ द्वारा बतलाये गये हैं वे स्थान हैं द्वीप और समुद्र । लमरत द्वीपों में और समस्त समुद्रों में भी ये अनन्तरोपपन्नक बाद पृथिवीकायिफ एकेन्द्रिय जीव रहते हैं। જીવોનું સ્થાન કયાં કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભશ્રી ર छ -'गोयमा । सट्टाणेण अदुसु पुढवीसु' हे गौतम ! स्वस्थाननी अपेक्षाथी આ અનંતરપપનક બાર એકઇન્દ્રિયવાળા જીના સ્થાને આઠ પ્રવીયાં કહેવામાં આવેલ છે. કેમ કે તે ત્યાં રહે છે. તે આઠ પૃથ્વીયે આ પ્રમાણે छ 'रयणप्पभाए जहा ठाणपदे' प्रज्ञापन सूत्रना भी स्थान पहभां नमा વિગેરથી લઈને પ્રારભાર પૃથ્વી સુધીના સ્થાને તેના નિવાસ સ્થાન કહેલ છે. તો તે જ પ્રમાણે અહીંયા તેઓના નિવાસ સ્થાનના સંબંધમાં सभा'. 'जाव दीवेसु समुद्देसु' मा पृथ्वीया शिवाय भीत ५६४ मा मनत.
પપનક એકઈન્દ્રિય જીને રહેવાના સ્થાને છે જે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા બતાવવામાં આવેલ છે તે સ્થાને દ્વિીપ અને સમુદ્ર છે સઘળ દ્વીપમાં અને સઘળા સમુદ્રમાં પણ આ અનંતરામપન્નક એક ઇન્દ્રિયવાળા જ रहे छे. माशत 'एस्थ ण' अर्ण तरोववण्णगाण बायर पुढवीकाइयाण ठाणा
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treated
वनगाणं वाढवीकारयाणं ठाणा पक्षता' अन रत्नमभादिषु द्वीपसमुद्रादिषु च खलु अनन्तरोपपन्नानां बादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि प्राप्तानि कथि तानि । एतेषु द्वीपसमुद्रादिषु एते तिष्ठन्तीति भावः ।
तत् किमेतावदेव स्थानम् अनन्तरोपपन्नकानां तत्राह - ' उवचाए ' इत्यादि । 'वाएं सव्वलोए' उपपानेन सर्वलोके स्थानम्, 'समुग्धापूर्ण सन्त्रलोए' समुद घातेन सर्वलोके तत्रोपपातेन - उपपाताभिमुख्येनापान्तराळनृत्येत्यर्थः समुद्घातेन मारणान्तिकेनेति । अनन्तरोपपन्नका हि उपपातमारणान्तिक समुद्याताभ्यामति बहुत्वात् सर्वलोकमपि व्याप्य वर्तन्ते, अत्रचैवं भूतया स्थापनया भावना कर्त्तव्या ।
a great यथैव के संहरन्ति तदैव तवकदेश मन्ये पूरयन्ति । एवं द्वितीयचक्रसंहरणेऽपि अवक्रोत्पतावपि वाहतो भावनीयम् । अनन्तरोपपन्नकत्वं चेह भाविभावापेक्षं
इस प्रकार 'एत्थ णं अनंतशेववन्नगाणं बोयर पुढवीकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता' इन रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में और जम्बूद्वीप आदि द्वीपों में एवं लवण समुद्र आदि समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादरपृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं । इन सब में ये एकेन्द्रिय जीव रहते हैं । 'उचवाएणं सव्वलोए समुग्धाएणं सन्चलोए' उपपात की अपेक्षा से और मारणान्तिक समुदघात की अपेक्षा ये जीव बहुत ही अधिक होनेके कारण समस्त लोकको व्याप्त कर के रह रहे हैं । इनकी ऐसी रचना से भावना करनी चाहिये । यहां जय प्रथम वक्र स्थानको कितनेक अनन्तरोपपन्नक जीव संहृत करते हैं-खाली करते हैं - तब
उसी समय उस वक्र स्थानको दूसरे और अनन्तरोपपन्नक जीव भर देते हैं । इसी प्रकार से जब द्वितीय वक्र स्थानका संहरण होता है तब उसे और दूसरे अनन्तरोपपनक जीव भर देते हैं इस
पन्नत्ता' मा रत्नय्रला विगेरे पृथ्वीयामां अने भूद्वीप विगेरे द्वीपोभां तथा લવણુ સમુદ્ર વિગેરે સમુદ્રોમાં અન ત રાપપન્નક ખાતર એકઈન્દ્રિયવાળા જીવાના સ્થાના કહેવામાં આવેલ છે. આ બધામાં એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવા રહે છે, 'उववाण' सव्वलोए समुग्धापणं सव्वलोए' उपपातनी अपेक्षाथी भने भारयान्ति સમુદ્ધાતની અપેક્ષાથી આ જીવા ઘણા વધારે હાવાને કારણે સઘળા લેાકને વ્યાપ્ત કરીને રહે છે. તેની રચના આ પ્રકારની કરીને ભાવના કરવી જોઇએ. અહિયાં જ્યારે પહેલા વક્રસ્થાનને કેટલાક અનંતરાપપનક જીવા ખાલી કરે છે, ત્યારે તેજ સમયે તે વર્કસ્થાનને બીજા અન તરાપપન્નક જીવે ભરી દે છે, એ રીતે જ્યારે ખીજા વજ્ર
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प्रमैन्द्रिका टीका २०३४ अ. श. १ सू०१ अन० कैकेन्द्रियाणां मेदादिनि० ४५१ ग्राह्यमपान्तराले तस्य साक्षादभावात् । मारणान्तिकसमुद्घादश्च माक्तन भावापेक्षया अनन्तरोपपन्नावस्थायां तस्यासम्भवादिति । 'सट्टाणेणं लोगस्स असंखेज्जइ भागे त्ति' स्वस्थानेन लोकरयासंख्येयमागे रत्नप्रभादि पृथिवीनां विमानानां च लोकस्यासंख्येयभागवर्त्तित्वात् पृथिव्यादीनां च पृथिवीकायिकानां स्वस्थानत्वादिति । 'अनंतशेषचन्नग सुरुमपुढवीकाइया एमविद्या अविसेसमणाणत्ता' अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः सर्वेऽपि एकविधा एकप्रकारका एव भवन्ति अविशेषाः परस्पर विशेषरहिता अनानात्वाः परस्परं भेदरहिताथ भवन्ति 'सव्व लो परियाना' सर्वलोके पर्यापन्नाः व्याप्ताः 'पन्नत्ता' मज्ञप्ताः - कथिता इवि प्रकार प्रवाह रूप से यह सदा खरा ही रहता है । अनन्तरोपपन्नकता यहाँ भावी भव की अपेक्षा से कही गई है। क्योंकि अपान्तराल में इसका साक्षात् अभाव रहता है । मारणान्तिक समुद्घात प्राक्तन भवकी अपेक्षा से कहा गया है । क्योंकि अनन्तरोपपन्नक की अवस्था मे इसका अभाव होता है, 'सहाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे त्ति' स्वस्थान की अपेक्षा ये लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं । क्योंकि रत्नप्रभा आदि पृथिवि और विमान ये सब लोकके असंख्यातवें भाग में हैं । और पृथिवी आदि पृथिवीकाधिकों के स्वस्थान है'। 'अणंतरोधषनग सुमपुढचीकाइया एगदिहा अविसेसमणाणत्ता' सब अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीव एकप्रकार के ही होते हैं । परस्पर में ये विशेषता से रहित होते हैं । और इनमें कोई भेद नहीं होता है । 'सव्वलोए परियोवन्ना' ये
સ્થાનનું હરણ થાય છે ત્યારે તેનાથી ખીજા અને તરાપપુનક જીવા તે સ્થાન ભરી દે છે. આ પ્રમાણે પ્રવાહ રૂપથી અહિયાં બધા ભર્યોજ રહે છે. અનંતરાપપન્નકપણુ અહિયાં આગામી ભવની અપેક્ષાથી उडेल छे, प्रेम है-अयान्तशसभां तेना साक्षात् अभाव रहे छे. 'सहाणेण ' atrta असंखेज्जइ भागेत्ति' स्वस्थाननी अपेक्षाथी तेथे। बोउना असण्यात ભાગમાં રહે છે. કેમ કે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીયા અને વિમાને એ બધા લાકના અસખ્યાતમા ભાગમા છે. અને પૃથ્વી વિગેરે પૃથ્વીકાયિકોનુ સ્વસ્થાન छे. 'अण'तरोववन्नगसुहूमपुढनीकाइया पगविह। अविसेस मणाणत्ता' सधजा અન તરાપપન્નક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવા એક પ્રકારના જ હાય છે, તેઓ અન્ય અન્ય વિશેષ પણાથી રહિત હાય છે. અને તેમાં लेह होतो नथी, 'सव्वलोए परियावन्ना' या सणा सोभां व्याप्त
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भगवती सूत्रे
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'समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! ' एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिंदिया भाणि - यन्त्रा' एवम् अनन्तरोपपन्नक पृथिवी का थिकै केन्द्रियवदेव सर्वेऽपि अष्कायिकादय एकेन्द्रिया भणितयाः प्ररूपणीया इति । 'सहाणाई सन्वेसि जहा ठाणपदे तेर्सि पज्जत्तमाणं वायराणं' स्वस्थानानि सर्वेषां शेषाणामप्कायिका केन्द्रियाणां यथास्थानपदे - प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे तेषां पर्याप्तकानां वादराणां यथा कथितानि तथैव ज्ञातव्यानि । बादरपृथिवीकायिकानां स्वस्थानानि चैत्रम् -'असु पुढवीसुतं जहा - रयणप्पभाए' अष्टसु पृथिवीषु तद्यथा - रत्नमभायाम् इत्यादि, वादराकायिकानाम् 'सत्सु घणोदहीसु' सप्त घनोदयः स्वस्थानम्, बादर तेजस्कायिकासमस्त लोक में व्याप्त होकर रहते है ऐसा 'माउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! इनके सम्बन्ध में कहा गया है । ' एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिंदिया भाणियव्वा' इसी प्रकार से समस्त सूक्ष्म अष्कायिक आदि एकेन्द्रिय जीव कह देने चाहिये । 'सहाणाई सव्वेसिं जहा ठाणपदे, ते िपज्जन्तगाणं बायराण' इन पृथिवीकायिक जैसा ही समस्त अपकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के स्वस्थान प्रज्ञापना के स्थान पद् में कहे गये अनुसार जानना चाहिये ! जिस प्रकार से पर्याप्त बादर एकेन्द्रियों के उपपाल, समुद्घात और स्वस्थान कहे गये हैं उसी प्रकार से वे अपन बादर एकेन्द्रिय जीवों के भी जानना चाहिये | बादरपृथिवीकायिकों के स्वस्थान इस प्रकार से हैं - ' अडसु पुढचीसु तं जहा रयणमभाए' बादरपृथिवीकायिकों का स्वस्थान रत्नप्रभा आदि आठ पृथिवियों में है 'सत्तसु घणोदहीसु' बादरअपकायिकों का स्वस्थान सात घनोदधियों में हैं । बादर तेजस्कायिकों का
थाने रहे हे, मे प्रभा "समणाउसो' हे श्रमायु आयुष्मन् विषयभां उडेस छे. 'एव' एपण' कमेण सव्वे एगिदियो भाणियव्वा' खान प्रमाणे સઘળા સૂક્ષ્મ સ્માવિક વિગેરે એકેન્દ્રિય જીવેાના સંબધમાં કહેલ છે. 'सहाणाई' सव्वैसि जहा ठाणपदे तेसिं पज्जत्तगाणं' बायराण' मा सघना भष्ट्ठा ४ એકૅઇન્દ્રિય જીવાનુ સ્વસ્થાન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવુ'. જે રીતે પર્યાપ્ત ખાદર એકઈન્દ્રિયવાળા જીવે,ને ઉપપાત, સમુદૂઘાત અને સ્વસ્થાન કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે આ અપર્યાપ્ત બાદર એકઇન્દ્રિયવાળા જીવેાના સ`ખ'ધમાં પણ સમજવુ', ખાદર પૃથ્વીકાયિકાના स्वस्थान मा प्रभाणे 'हेस छे.- 'अट्टसु पुढवीसु तं जहा रयणप्पभाए' महर पृथ्वीश्रयितुं स्वस्थान रत्नथला विगेरे आठ पृथ्वीयामां छे, 'सत्तसु 'व्रणोदहीसु' मोहर मायितुं स्वस्थान सातघनादृधि, छे, બાદર
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ लू०१ अन० कैकेन्द्रियाणा भेदादिनि० ४५३ नाम् 'अंतोमणुस्सखेत्ता' अन्तर्मनुष्यक्षेत्रमित्यादि, वादरवायुकायिकानां पुनः स्वस्थानम् 'सत्तसु घगवायक्लएस' सप्तवनवातलयाः पादरवनस्पतीनां तु स्वस्था. नम् 'सत्तसु घणोदहीसु' सप्तधनोधा इत्यादि । 'उचाय समुग्धाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं वायराण' उपपातसमुद्घातस्वस्थानानि यथा तेषां पृथिवीकाविज्ञानामेव अपर्याप्तकानाम् अपर्याप्ततागुणविशिष्टानां वादराणाम्, अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिकादीनां येन प्रकारेणोपपातसमुद्घात स्वस्थानानि कषितानि तेनैव रूपेण पर्याप्त बादरपृथितीकायिकादीनामपि उपपात समुधात स्वस्थानानि ज्ञातव्यानि, तानि चैवम् 'जत्थेव वायरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बायर पुढबीकाइयाण अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सबलोए, समुग्धाएणं सालोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्ज स्वस्थान 'अंतो भणुस्लखेत्ते' अन्तर्मनुष्य क्षेत्र है। 'सत्तालु घगवायवलएसु' बादरवायुसाधितों का रयस्थान सात घनघात आदि हैं । वादरवनस्पतिकाषिज्ञों का स्वस्थान खत्तसु घणोदही' लान घनोदधियों में है। इत्यादि। 'उधवाय लमुरघाय सहाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जा त्तगाणं घायराण' उपपात, लसुद्घात और स्वथान ये जिस प्रकार से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के कहे हैं। उसी प्रकार से ये अपर्याप्त चादरपृथिवीकाधिक आदिकों के कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये।' 'जत्थेव बायर पुढयीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्व वायर पुढचीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्जत्ता' इसीलिये ऐला यह स्कृन कहा गया है जहां पर पर्याप्त बादन पृथिवीमाथिकों के स्थान हैं वहीं पर अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकों के स्थान है । 'उवधाएणं सबलोए, समुग्धाएणं तयितु स्वस्थान 'भ तोमणुम्स खेत्ता' मन्तमनुष्य क्षेत्र छ मारवाय કાચિકેનું સ્વાસ્થાન સાત ઘનવાત વિગેરે છે. બાદર વનસ્પતિકાયિકનું સ્થાન 'सत्तसु घणोदहीसु' सात धाधिपात सय छ त्यहि 'उवाय समुग्याय सद्राणाणि जहा सेसि चेव अपज्जत्तगाण बायराण" ५पात, समुद्धात, मन વસ્થાન એ બધા જે પ્રમાણે પર્યાપ્ત બાદર એકઈન્દ્રિયવાળા જીના કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે આ અપર્યાપ્તક બાદર પૃથ્વીકાયિક વિગેરેના પણ કહેલા छ. तम समा 'जत्येव वायरपुढवी काइएणं पज्जत्तगाण ठाणा तत्थेव वायर पुढवीझाइयाण अपजत्तगाण ठाणा पण्णत्ता' मे भाट १ मा प्रमाणेन આ સૂત્ર કહેલ છે. જ્યાં પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકેતુ સ્વસ્થાન છે, ત્યાં જ अपर्याप्त मा४२ पृथ्वीजयिनु स्थान छे. 'उववाएण सव्यलोए समुग्धारण
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भगवतीसूत्र इशागे' इत्यादि। यथैव बादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तकानां स्थानानि तथैव पादरपृथिवीकायिकानामपर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि उपपातेन सर्वलोक, समुद्घातेन सर्वलोके, स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे, इत्यादीतिच्छाया । 'सुहमाणं सधेसि जहा पुढवीकाइयाणं भणिया तहेव भाणियवा जाव वणस्सइकाइयत्ति' सूक्ष्माणां सर्वेपामप्कायिकादीनां वनस्पतिकायिकान्तानां यथा पृथिवीकायिकाना मुपपातसमुद्घातस्वस्थानानि तथैव-तेनैव रूपेण अकायिकादीनां सूक्ष्माणामपि उपपातसमुद्घात स्वस्थानानि भणितव्यानि यावद्वनरूपतिकायिका इति, अकायिकादारभ्य वनस्पतिकायपर्यन्ताना मुपपात समु. द्घात स्वस्थानानि पृथिवीकायिकवदेव ज्ञातव्यानीति भावः । 'अणंतरोववन्नगाणं सुहमढवीकाइयाण मंते ! कइ करूगपगडीओ पन्नत्ताओ' 'अनन्तरोपपन्नकानां सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति-कियत्संख्यकाः कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता ? सचलोए, लहाणेणं लोपा असंखेज्जहभागे थे उपपातको अपेक्षा से लवलोक में हैं समुद्घालकी अपेक्षा ले भी ये सर्वलोक में हैं और स्वस्थान की अपेक्षा ले थे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।' सुमार्ण सव्वेसिं जहा पुढवीकाइयाणं अणिया तहेव भाणियव्या जाव वणलइकाइयत्ति' जित प्रकार से सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के उपपात लछुद्धात और स्वस्थान कहे गये हैं उसी प्रकार से समस्त सूक्षमा एकेन्द्रियों के अकाधिक से लेकर पनलिकाथिकों तकके लपपात समुद्घात और स्वस्थान कह लेना चाहिये। 'अणंतरोषव. नगाणं सुहमढवीकाहयाणं भंते ! कह सम्मपगडीओ पन्नत्ताओं' 'हे मदन्त ! अनमोपनक सूक्ष्मधियोसायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृहियां कही गई है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा अठ्ठसव्वलोए, सटाणेण लोयस्त असंखेजइ भागे' 6५५तनी अपेक्षाथी मा सव લોકમાં રહે છે. સમુદ્દઘાતની અપેક્ષાથી પણ આ સર્વ લોકમાં રહે છે. અને વસ્થાનની અપેક્ષાથી આ સર્વ લોકના અસ ખ્યાતમા ભાગમાં રહે છે. 'सुहुमाण सम्वेसिं जहा पुढवीएकाइयाण भणिया तहेच भाणियव्वा' जाव वणस्सइकाइयति' २ प्रभारी सूक्ष्म यिना 6५५ात, समुद्धात, मने વસ્થાન કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણેસઘળા સૂફમ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીને અકાયિકથી લઈને વનસ્પતિ કાચિકે સુધીના ઉપપાત, સમુદ્રઘાત અને સ્વસ્થાન કહેવા
2. 'अगंतरोववन्नगाण सुहुमपुढवीकाइयाण भंते ! कह कम्मपगडीओ पन्नत्ता मशवन मानत५५- सूक्ष्म वीयि | ४' મફતિ કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમવામીને
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sher feet ahet no३४ . श. १८०१ अनं० कैकेन्द्रियाणां मैदादिनि० ४५५ इति मन, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'यह पगडीओ पन्नताओ' अष्ट कर्मप्रकृतयः ज्ञानावरणीयादिकाः प्रतप्ताः कथिताः 'एवं जहा ए-ि दिय ससु अनंत रोचचन्नगउद्देसर वहेब पन्नत्ताओ तहेव बंधंति तब वेदेति' एवं यथा - एकेन्द्रियशसे जयत्रियत्तमशतकस्य प्रथमे एकेन्द्रियते द्वितीये अनन्तरोपपत्रको देशके तथैच प्रज्ञप्ताः । तथा तथैव वध्नन्ति तथैव वेदयन्ति इति ज्ञातव्यम् । मज्ञापनबन्धनवेदनरूपा स्तिस्रोऽपि वक्तव्यता एकेन्द्रियशतकोक्तयदेव वाच्या इति भावः तथाहि - एकेन्द्रियशतके पश्चविधा एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता इति, बन्धन सूत्रे सप्तकर्मप्रकृती नन्ति २, वेदनमुत्रे चतुर्दशविधाः ज्ञानावरणीया
कम्म पगडीओ पन्नन्ताओ' हे गौतम ! इनके आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं । 'एवं जहा एनिंदिवलएस अनंत रोवचल उद्देलए तब पन्नताओ तब बंधति तहेव वेढें ति' जिस प्रकार से ३३ वे शतक के एकेन्द्रिय शतकों में से प्रथम एकेन्द्रियशतक में द्वितीय अनन्मरोपपन्नक उद्देशक में हे गौतम ! बन्ध और वेदन के सम्बन्ध में जैला कहा गया है उसी प्रकारसे इनके सम्बन्ध में भी कहा गया जानना चाहिये । तात्पर्य इस कथनका केवल ऐसा ही है कि प्रज्ञापन - सच्च, बन्धन एव वेदन के सम्बन्ध में जैसा कथन एकेन्द्रिय शतकों के अनन्तरोपपनक उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार का कथन यहां पर भी कह लेना चाहिये । जैसे इस सम्बन्ध में एकेन्द्रिय शतक में पांच प्रकारके एकेन्द्रिय जीव कहे गये हैं-बन्धन मूत्र में सात कर्मप्रकृतियों का इनके
उडे छे !-'गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम! तेमाने माठे ॐ अमृताये। वामां भावी छे. 'एवं जहा एगिंदियसएस अनंत रोववन्नग उद्दे तव पन्नत्ताओ तहेव बंधति तहेव देदेति' ? प्रमाणे 33 तेत्रीसभा શતકના એકેન્દ્રિય શતકામાંથી પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં ખીજા અન તરીપપન્નક ઉદ્દેશામાં હું ગૌતમ ! અંધ અને વેદનના સમ્પ્રન્ધમાં પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે તેઓના સન્મન્ધમાં પણ કહેવુ" જોઈ એ. કહેવાનુ તાપ એ છે કે–સત્વ, ખંધન અને વેટ્ટનના સંબંધમાં એકેન્દ્રિય શતકાના અન તરાપપન્તક ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન આ પ્રકરણમાં એટલે કે અન તરાપપન્નક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકાના સંબંધમાં સમજવુ'. જેમ કે—પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં પાંચ પ્રકારના એકેન્દ્રિય જીવા કહેવામાં આવ્યા છે. અન્યન સૂત્રમા સાત કમ પ્રકેતિચેાના તેઓને અંધ થાય છે, તેમ કહેવામાં આવેલ છે. વેદના સૂત્રમાં આ ચૌદ પ્રકારની ક પ્રકૃતિચેનું
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भगवतीले धष्ट ८, श्रोत्रेन्द्रियाधाचतवः ४, सी पुरुषवध्यरूपे द्वे २, एवं चतुर्दश कर्मप्रकृती वैदयन्तीति तात्पयर्थिः । क्रियत्पर्यन्त में केन्द्रियशतकमिहाध्येतव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाय अणंतरोदवानमा वणस्सइकाइया' यावदनन्तरोपपन्नका वन. स्पतिकायिकाः अकायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि अनन्तरोपपन्नकै केन्द्रिया इत्थमेर पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः इत्थमेव कर्मप्रकृती बंधनन्ति वेदयन्ति चेति भावः। 'अणंनरोववन्नग एगिदियाणं भंते ! कओ उजवज्जति' अनन्तरोपप
के न्द्र याः खलु भदन्त ! कुत्त:-कस्मात् स्थानविशेषादागत्योत्पद्यन्ते ? इत्युत्पादविषयका प्रश्नः उत्तरमाह-'जहेव ओहिओ उद्देसो भणिओ तहेव' यथैव
औधिक उद्देशको भणितः, अस्यैव चतुस्त्रिंशत्तमस्य शतकस्य पथमे एकेन्द्रियशते बन्ध होता है ऐसा कहा गया है। बेदन सूत्र में ये चौदह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का वेदन फरते ऐसा कहा गया है। वे चौदह प्रकृतियां इस प्रकार से है-ज्ञानाबरणीयादिक ८ श्रोगेन्द्रियावरण ४ स्त्रीपुरुषावरणरूप दो २। 'जाब अणंतरोववन्नगा वणस्लइकाइया' इसी प्रकार का कधन यावत् अनन्तरोपपन्नक जनस्पतिमाथि तक जानना चाहिये । अर्थात् 'अपसायिक से लेकर वनस्पतिकाधिक तक सब अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव जो कि पांच प्रकार के कहे गये हैं इसी प्रकारले कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है और इसी प्रकारसे वे उनका वेदन करते है। ___'अणंतरोवन्नण एगिदियाण भंते ! को उधवज्जति' हे भदन्त । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जय ओहिओ उद्देसओ भणिो तहेव' 'हे गौतम ! जैमा सामान्य उद्देशक में कहा गया है वैसाही यहां पर भी વેદન કરે છે. એટલે કે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ ૮ એન્દ્રિયાવરણ ૪ તથા श्रीवहा१२ १३ ५३५३४ १२५ १४ 'जाव अणंतरोववन्नगा वणस्सइकाइया' આજ પ્રમાણેનું કથન યાવત્ અનંતરે પનિક વનસ્પતિક થિકના કથન સુધી સમજવું. અર્થાત્ અપૂકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધી સઘળા અનંતપપનક એકેન્દ્રિય છે કે જે પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે, તે બધા એજ પ્રમાણે કર્મપ્રકૃતિનો બંધ કરે છે. અને એ જ પ્રમાણે તેઓ તેનુ વેદન કરે છે.
'अणंतरोववन्नग एगिदियाण भते ! कओ उववज्जति' मगवन् मनत. પપનક એકેન્દ્રિય છે કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ -'जहेव ओहिओ उदेसो भणियों
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therefore cant श०३४ अ० श. १ उ०२ अन० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४५७ प्रथमोदेश के एकेन्द्रियाणा सुत्पाद: कथितः तत्रापि व्युत्क्रान्तिपदस्य प्रज्ञापनायाः षष्ठपदस्य संकेतः कृत स्वत स्तन येन रूपेण उत्पाद: कथितः स्तथैवेहापि ज्ञातव्यः । तथाहि - सामान्यतया एकेन्द्रियाः नारकान् विहाय तिर्यङ्गमनुष्य देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते । पृथिव्यवनस्पतिकायिकेषु देवानामपि उत्पत्ति सद्भावाद | तेजोवायुकायिकेषु देवेभ्य आगत्य नोत्पद्यन्ते, तत्र च तिर्यग्योनिकेभ्यः संमूर्छिम गर्भजेति द्विविधेभ्योऽपि मनुष्येभ्य श्रागत्योत्पद्यन्ते इति विवेकः ।
"
अथ समुद्घातमुत्रमाह- 'अनंत रोववन्नग०' इत्यादि । 'अनंतशेववन्नग एगिंदियाणं संते । कइसमुग्धाया पन्नत्ता' अनन्तरोपपन्नकै केन्द्रियाणां भदन्त ! कति कह लेना चाहिये । अर्थात् इसी चौंतीसवें शतक के प्रथम एकेन्द्रि
शतक मे प्रथम . उद्देशक में एकेन्द्रिय जीवों का उत्पाद कहा गया है और इस सम्बन्ध में वहां प्रज्ञापना के छटे व्युत्क्रान्तिपदका संकेत किया गया है, इसलिये वहां जिस रूपसे उत्पाद कहा गया है उसी प्रकार से वह यहां पर भी जानना चाहिये । सामान्यतया एकेन्द्रिय जीव नैरयिकों को छोडकर तिर्यञ्च मनुष्य एवं देवों में से आकरके उत्पन्न होते है । पृथिवीकायिकों में अकायिकों में और वनस्पतिकायिकों में देवों की उत्पत्ति हो जाती है। तेजस्काधिकों में एवं वायुकायिकों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती है। वहां तिर्यग्योनिकों से एवं संमूच्छिम और गर्भज मनुष्यों से आकरके ही जीव उत्पन्न होते हैं ।
'अनंत रोपवन्नणएनिंदियाणं भंते! कह वाया पण्णत्ता' हे भदन्त जो अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रिय जीव हैं उनके कितने समुद्घात तद्देव' हे गौतम! सामान्य उद्देशामां ने प्रभावामां आवे छे, खेन પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજી લેવું. અર્થાત્ આ ચેાત્રીસમા શતકના પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં પહેલા ઉદ્દેશામાં એકેન્દ્રિય જીવેાના ઉપપાત કહેલ છે, અને તે સમધમાં ત્યાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદની ભલામણુ કરેલ છે, તેથી ત્યાં જે પ્રમાણે ઉત્પાદ કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે તે કથન અહિયાં પણ સમજવું, સામાન્ય રીતે એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવેા નૈર. ચિકાને છેડીને તિર્યંચ મનુષ્ય અને દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, પૃથ્વીકાયિકામાં, અકાયિકામાં, અને વનસ્પતિકાયિકામા દેવાની ઉત્પત્તી પણ થાય છે, તેજસ્કાયિકામાં અને વાયુકાયિકામાં દેવાની ઉત્પત્તી થતી નથી. ત્યાં તિય ચ ાનિકમાંથી અને સમૂમિ અને ગભ જ મનુ યૈામાંથી આવી ને જ જીવ ઉત્પન્ન થાય છે.
'अतरोन्नग एर्गिदिया ण અન તરાપપન્નક એકેન્દ્રિય જે
જીવે
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भंते । कइ समुग्धाया पण्णत्ता' हे लभवन् છે. તેઓને કેટલા સમુદૂધાતે કહ્યા છે?
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भगवतीसूत्रे
समुद्घाताः - कियत्संख्यकाः समुद्याता भवन्तीति मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम | 'दोन्नि समुग्वाया पन्नता' हो समुद्रयान मज्ञप्त 'तं जहा ' तद्यथा - 'वेणा समुग्धाए य कसाय समुग्धा य' वेदना समुद्घाट कपाय समुदघातथ अनन्तरोपपन्नत्वेन मारणान्तिकादि समुद्यातानामसंभवाव atra वेदना पायात्म समुद्यावी कथिताविति भावः । 'अनंत रोवल एगिंदियाणं भंते ।' अनन्तरोपपन्न के केन्द्रियाः खलु भदन्त । 'कितुल्या तुल्ल विसे साहियं कम्मं पकरेति पुच्छा तदेव' किं तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति अथवा तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकर्मन्ति अथवा विमात्रस्थितिकाः तुल्यनिशेपाधिक धर्म कुर्वन्ति अथवा विमात्रस्थितिका कहे गये हैं? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'गोगमा ! दोन्नि समुधाया पन्नता' 'हे गौतम! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के दो समुद्घात कहे गये हैं' 'तं जहा 'जैसे- 'वेयणाममुग्धाए कसायसमुग्धाए' 'वेदनासमुद्घात और कपायसमुद्यात मारणान्तिक आदि समुद्घातों का यहां अनन्तरोपपनक होने से अभाव रहता है । 'अनंतशेववन्त्रग एगिंदियाणं भंते । तुल्लडिया तुल्लविसेवादियं कम्म करेंति' हे भदन्त ! जो अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले होते हैं वे क्या तुल्य विशेषाधिक फर्मका चन्ध करते है ? 'पुच्छा तहेव' इस मकार से पहिले के जैसे यहां प्रश्न करना चाहिये । अतः यहां ये तीन प्रश्न और कर लेना चाहिये । जैसे- हे भदन्त ! जो अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले होते हैं वे क्या भिन्न भिन्न रूप
में स्मा अश्नना उत्तरभां अनुश्री छे - 'गोंयमा ! दोन्नि समुग्धाया पण्णत्ता' हे ભગવત્ અનંતરે પન્નક એકેન્દ્રિય જીવને એ મુધાતે કહેવામાં આવેલ છે. 'त' जहा' ? - 'वेयणा समुग्धाए कसायसमुग्धार' वेहना सभुद्धात अने કષાય સમુદ્દાત અહિયાં અન તરાપપન્નક હાવાથી મારણાન્તિકવિગેરે સમુદ્દાતે नाभ्मलाव छे. 'क्षण'तरोववन्नग एर्गिदियाण भवे । किं तुल्लट्ठिया तुल्ल विसेसा हिय कम्म' पकरेति' डे भगवन् ? मने अनंत रोपपन्नः शेन्द्रियवाणा वा સરખા આયુષ્યવાળા હાય છે. તેએ શું તુલ્ય અથવા વિશેષાધિક કા गंध रे ? 'पुच्छा तहेव' मा प्रभा गौतमस्वाभीथे पडेला उद्या प्रभावेना પાંચ પ્રશ્નો પૂછ્યા છે. જેથી અહિયાં ખાકીના બીજા ત્રણ પ્રશ્નો કરી લેવા જોઈએ. જેમ કે“હે ભગવન્ જે અન`તરાપપનક એકઇન્દ્રિયવાળા જીવા સમાન આયુષ્યવાળા હાય છે, તે શુ' જુદા જુદા પ્રકારથી વિશેષાધિક
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ भ. श०१ उ०२ अन० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४५६ विमात्रविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति, इति पृच्छया संगृह्यते, भगवानाइ-'गोपमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइया तुल्लहिइया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति' अस्त्येकके तुल्पस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिक फर्म ज्ञानावरणीया दिक प्रकुर्वन्ति 'अत्थेगइया तुल्लद्विइया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति' अस्स्येकके तुल्यस्थितिका विमात्र विशेषाधिक कम प्रकुर्वन्तीत्युत्तरम् । पुन: शङ्कते 'से केणढेग' इत्यादि, 'से काढणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति' तत्केनार्थेन भदन्त ! यावद् विमात्रविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति इति, अन यात्प. विशेषाधिक फर्मका बन्ध करते हैं ? अथवा जो अनन्तरोपपन्नक जीव भिन्न भिन्न स्थितिवाले होते हैं वे तुल्य षिशेपाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? अथवा जो भिन्न भिन स्थितियाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव हैं वे विषम विशेषाधिक कर्मका पन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! अत्थेमाइया तुल्लहिया तुल्लविलेलाहिय कम्मं पकाति' है गौतम! कितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो समान स्थितिवाले होते हैं ऐसे वे जीव तुल्यविशेषाधिक ज्ञानावरणीय आदि कर्मका पन्ध करते हैं। 'अस्थेगड्या तुरलहिया वेमा. यविले साहियं कम्मं पकरेंति' तथा कितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो समान स्थितिवाले तो होते हैं पर वे भिन्न भिन्न रूप में विशेषाधिक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं ।
'ले केणटेणौंजाब वेमाविलेलाहियं करमं पकरेंति' हे भदन्त ! ऐसा કર્મનો બંધ કરે છે અથવા જે અનંતરોપનક જીવ જુદી જુદી રિથતિવાળા હોય છે, તેઓ શું તુલ્ય અથવા વિશેષાધિક કર્મને બંધ કરે છે? અથવા જે જુદી જુદી સ્થિતિવાળા અનંતર૫૫નક એકેન્દ્રિય જીવે છે. તેઓ વિષમ પણથી વિશેષાધિક કમને બધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छे है-'गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लढ़िइया तुल्लविसेसाहिय कम्म' पकरें ति' ગૌતમ! કેટલાક અનંતરે પપનક એકઈન્દ્રિયવાળા જી એવા હોય છે, કે જેઓ સમાન સ્થિતિવાળા હોય છે, એવા તે જ તુલ્ય વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણીય विगेरे मना १५ ४२ छ. 'अत्थेगइया तुल्लद्विइया वेमायविसेसाहिय' कम्म पकरें'ति' तथा 281 रन तरी५५-न मेन्द्रियाणा छ। मेवा खाय छ કે જેઓ સમાન સ્થિતિવાળા હોય છે, પરંતુ તેઓ જુદા જુદા પ્રકારે વિશેષાધિક કર્મપ્રકૃતિને બંધ કરે છે.
'से फेण ट्रेण जाव वेमायविसेनाहिय' कम्म' पकरें ति' है मापन
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. भंगपतीचे देन तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति अस्त्येकके तुल्यस्थितिका इत्यन्तस्य प्रकरणस्य संग्रहो भवतीति । 'उत्तरमाह-'गोयला' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणंतरोबबन्नगा एगिदिया दुविहा पन्नत्ता' अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रिया द्विविधाः प्रज्ञप्ता:- कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'अत्थेगइया समाउया समोक्वन्नगा' अस्त्येकके अनन्तरोपपन्नका एकेन्द्रियाः समायुष्काः समोपपत्रकाः 'अत्थेगइया समाउथा विसमोववनगा' अस्त्येकके समायुष्का विपमोपपन्नकाः
आप किस कारण से कहते हैं कि कितनेक अनन्नरोपपन्नक एकेन्द्रिय 'जीब ऐसे होते हैं जो लमान स्थितिबाले होते है और तुल्यविशेषाधिक
ज्ञानावरणीयादि वर्मका पन्ध हरले हैं ? और कितनेक अनन्तरोपपत्रक एकेन्द्रिय जीव जो लमान स्थितियाले तो होते हैं पर वे भिन्न भिन्न विशेषाधिक कर्मका बन्द करते हैं ? यहां यावत् पद से यही पाठ ग्रहीत हुआ है । इल सम्बन्ध में उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं'गोथमा ! अणंतरोबचनगा एगिदिया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । 'तजहा' जैसे-'अत्थेपश्या समाउया समोधवनगा, अत्थेगड्या समाउया विस मोववन्नगा' कितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो घरावर की आयुबाले होते है और साथ साथ उत्पन्न होते हैं । तथाकितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो बराबर की आयुवाले तो होते हैं पर वे भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न हुए होते આપ એવું શા કારણથી કહે છે? કે કેટલાક અનંતર ૫૫નક એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવે એવા હોય છે, કે જેઓ સરખી સ્થિતિવાળા હોય છે. અને તુલ્ય વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કર્મને બંધ કરે છે? તથા કેટલાક અનંત
૫૫નક એવા હોય છે કે-જેઓ સમાન સ્થિતિવાળા હોય છે, પરંતુ તેઓ જુદા જુદા વિશેષાધિક કમને બંધ કરે છે? આ પાઠ અહિયાં થાવ ત્યદથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામી ने ४ छ -'गोयमा ! अणंतरोववण्णगा एगिदिया दुविहा पण्णत्ता' गौतम ! मनात।५पन्न सन्द्रिय ७ मे २॥ अपामा मावस छे. 'तौं जहा' ते मा प्रमाणे छे.- 'अस्थेगइया समाउया समोववन्नगा अत्थेगइया समाउया 'विसमोववन्नगा सा मानत५पन्न मेन्द्रिया वा डाय
છે કે જેઓ સરખી આયુષ્યવાળા હોય છે, અને એક સાથે જ ઉત્પન થાય • છે. તથા કેટલાક અનંતરે પપનક એકઇન્દ્રિયવાળા છે એવા હોય છે કે
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ० श. १ उ०२ अनं० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४६१ 'तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा' तत्र खलु ये ते समायुष्काः समोपपन्नकाः "ते णं तुल्लडिया तुल्ल विसेसाहियं कम्मं षकरेंति' ते खलु तुल्यस्थितिकाः तुल्य विशेषाधिकं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं प्रकुर्वन्ति । ये समायुष्का अनन्तरोपपFan पर्यायमाश्रित्य एकसमयमात्रस्थितिकाः तत्परतः परम्परोपपन्न कव्यपदेशात्, समोपपन्नका एकस्मिन्नेव समये उत्पत्तिस्थानं प्राप्तास्ते तुल्यस्थितयः समोपपन्नकत्वेन समयोगत्वात् तुल्यविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति । 'तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा तेणं तुल्लद्विइया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरें वि' तत्र खलु ये ते समायुका विषमोपपन्नका स्ते खलु तुल्यस्थितिका विमात्रविशेहैं' | 'तत्थ णं' जे ते समाज्या समोववन्नगा' इनमें जो ये समायुष्क समोपपन्नक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव हैं, 'ते णं तुल्लडिहया तुल्लविसेसाहिय कम्मं पकरेति' तुल्यस्थितिवाले होते हैं और तुल्य विशेषाधिक ज्ञानावरणीय आदि धर्मका बन्ध करते हैं । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जो समायुष्क होते हैं अनन्तरोपपन्नक पर्याय को आश्रित करके एक समय मात्र की स्थितिवाले होते हैं क्यों कि इसके बाद वे परस्परोपपन्नक हो जाते हैं । समोपपन्नक एक समय में उत्पत्ति स्थान को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये वे तुल्यस्थितिवाले होते हुए समोपपन्नक होने के कारण समान योगवाले होते हैं । इस कारण वे 'तुल्य और विशेषाधिक रूपसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । 'तत्थ णं' जे ते समाउद्या दिसमोववन्नगा ते पं तुल्लट्ठिया वेमापविसे साहिय कम्मं पकरेति' तथा जो समायुष्क होते हैं और
જેઓ સમાન આયુવાળા । હાય છે, પરંતુ તેઓ જુદા જુદા સમયે ઉત્પન્ન थाय छे, १ 'तत्थणं जे वे समाज्या समोववन्नगा' तेथेोमां ने भी समान આયુષ્યવાળા અને સાથે ઉત્પન્ન થવાવાળા અનતા૫પન્નક એકેન્દ્રિયવાળા જીવા छे. 'वे णं तुल्लट्ठिइया तुल्लविसेसाहिय कम्म परेति' तेथे તુલ્ય સ્થિતિવાળા હૈાય છે, અને તુલ્ય વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કર્માંના બધા કરે છે. કહેવાનું તાત્પય એ છે કે-જેએ સમાન આયુષ્યવાળા હોય છે. તેએ અનંતરાપપન્નક પર્યાયને આશ્રય કરીને એક સમય માત્રની સ્થિતિવાળા હાય છે. કેમ કે તે પછી તેએ પર પરાપનક થઇ જાય છે, સમેપપન્નક~એક સાથે ઉત્પન્ન થવાવાળા અને એક સમયમાંજ ઉત્પત્તી સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી લે છે, તેથી તેએ તુલ્યસ્થિતિવાળા હોવા છતાં સમાન ઉત્પત્તિવાળા હૈાવાને કારણે સમાન ચેાગવાળા હાય છે. તે કારણથી તુલય અને વિવેષાધિક પણાથી ज्ञानावरणीय विशेरे अर्भप्रभुतियानो रेछे, 'तत्य णं' जे ते समाया
તે
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भगवतीपत्रे
દૂર
पाधिकं कर्म कुर्वन्ति ये तु समायुष्का स्तथैव विपमोपपन्नका विग्रहगत्या समयादि भेदेनोत्पत्तिस्थानं प्राप्तास्ते तुल्यस्थितय उत्पत्तिस्थानमाप्तिर्वैपम्ये णोत्पत्तिस्थानमाप्तिकाल वैषम्याद विग्रहेऽपि च बन्धकस्वाद् विमात्र विशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्सि, विरमस्थितिक सम्वन्धि तु अन्तिमभङ्गद्वयमनन्तरोपपन्नकानां न सम्भवति अनन्तरोपपन्नकत्वे विपमस्थितेरभावात् इति । 'से विपन्न होते हैं वे यद्यपि तुल्यस्थितिवाले होते हैं पर विषमोपपन्नक होने के कारण विषमयोग युक्त होने से विमात्र विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते है । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जो अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले होते हैं वे तुल्य स्थितिवाले सो होते ही हैं परन्तु इन्हें जो विमात्र विशेषाधिक कर्म का बन्धक कहा गया है वह विपमोपपन्नक होने के कारण कहा गया है । विषमोपपन्नता इनमें इसलिये आती है कि ऐसे ये जीव विग्रह गति से कि जिस में समयादिक का भेद होता है उत्पत्ति स्थान में आते हैं अतः वे तुल्यस्थितिवाले भले ही रहे परन्तु उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होने की दिपमता से उत्पत्ति काल की विषमता को लेकर और विग्रह में भी कर्मबन्ध करने के कारण ऐसे थे अनन्तरोपपन्नक एकेद्रिय जीव विमात्र विशेषाधिक कर्म के बन्धक होते हैं । विषमस्थिति से सम्बन्ध रखनेवाले अन्तिम दो अङ्ग अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों विसमोदवन्नगा तेण तुल्लट्ठिइया वेमायविसेसाहिय कम्भ पकरेति' तथा भे સમાન આયુષ્યવાળા હોય છે, અને વિષમેાપપનક હોય છે, તેઓ જોકે સરખી સ્થિતિવાળા હાય છે, પરંતુ વિષમેપપન્નક હાવાના કારણથી વિષમ ચેગવાળા હાવાધી વિમાત્રાથી વિશેષાધિક કર્મોના ખંધ કરે છે. આ કથનનુ તા એ છે કે-જે અનંતરે પપન્નઃ એકઈન્દ્રિયવાળા જીવા સમાન આયુષ્યવાળા હાય છે. તેએ તુલ્ય સ્થિતિવાળા તા હાય છે. પરંતુ તેને જે વિમાત્રાથી વિશેષાધિક ક`ના અધ કરવાવાળા કહ્યા છે, તે વિષમે પપન્નક હાવાના કારણે કહેલ છે. તેએસા વિષમેાપપન્તક પણું એ માટે આવે છે કેએવા એ જીવા વિગ્રહ ગતિથી કે જેમાં સમય વિગેરેના ભેદ હોય છે, ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં આવે છે. તેથી તેએ સમાનસ્થિતિવાળા રહેવા છતાં પણુ આયુષ્યના ઉદયના વિષમ પણાને લીધે અને વિગ્રહગતિમાં પણ કર્મીના અંધ કરવાના કારણે એવા આ અન’તાપન્નક એકઇન્દ્રિયવાળા જીવા વિમાત્રાથી વિશેષાધિક કમ ના મધ કરવાવાળા હાય છે. વિષમ સ્થિતિથી સબધ રાખવાવાળા છેલ્લા એ ભગા અન’તરાપપન્નક એકઇન્દ્રિયવાળા જીવાને સલવતા નથી. કેમ કે અનંતરાપ પનક હાવાથી તેમાં વિષમ સ્થિતિના મભાવ રહે છે,
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shreefont door or०३४ अ. शं. १ २०२ अन० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४६३ तेणद्वेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेति' तत्तेनार्थेन गौतम । एवमुन्यते अस्त्येके तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति अस्येव तुल्यस्थितिका विमात्रविशेपाधिक कर्म प्रकुर्वन्तीति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति, हे सदन्त । अनन्तरोपपन्न के केन्द्रियपृथि व्यादि जीनविषये यद् देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वं सर्वथैव सत्यमिति कथवा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संघमेन वपसा आत्मानं भावयन् यथासुखं विहरतीति ॥ ०२ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगदबल्लभ-प्रसिद्धयाचन पश्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्माषक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुर जगदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालयतिविरचितायां श्री "भगवतीमुत्रस्य " ममेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् चतुस्त्रिंशत्तमे शत के प्रथमे एकेन्द्रियते द्वितीयोदेशक समाप्तः ॥३४-१-२॥
के संभव नहीं होते हैं । क्यों कि अनन्तरोपपन्नक होने से इनमें विषमस्थिति का अभाव रहता है | 'से पट्टेन' जाव मागविलेलाहिय कम्म' पकरेति' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि कितने क अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो तुल्य स्थितिवाले होते हुए तुल्यविशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं और कोई कोई अनतरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो तुल्यरिथतिवाले होते हुए भी बिमात्र विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं । 'सेव' संते । सेव भते ! 'से ते जाव वेमायविसे साहिय कम्म पकरेति' ते रथी ગૌત્તમ ! મે' એન્ડ્રુ કહેલ છે કે-કેટલાક અનતરાપપન્નક એકઈ ન્દ્રિયવાળા જીવા એવા હાય છે કે-જેએ સરખી સ્થિતિવાળા હાવા છતાં સમાન અને વિશેષાધિક કમ ના અધ કરે છે અને કાઇ કાઇ અનંતરે પપન્નક એકઇ ન્દ્રિય વાળા જીવા એવા હાય છે કે જેઓ તુલ્ય સ્થિતિવાળા હાવા છતાં પણ વિમાત્રથી વિશેષાધિક ક`ના ખધ કરે છે.
'सेव' भवे ! सेव' ! भंते! त्ति' हे भगवन् शानंतरोपपन्नः पृथ्वी थिए એકઈન્દ્રિયવાળા જીવેાના સમ’ધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કયુ છે, તે
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भगवतीस्त्रे ति' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्ना पृधिव्यादि एकेन्द्रिय जीवों के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सवथा ही सत्य है । इस प्रकार कहकर गौतमने भगवान् को वन्दना की और नमस्कार किया। धन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप ले आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू० २॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र'' की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चौतीसवें शतक के
प्रथम एकेन्द्रियशतक का दूलरा उद्देशक समाप्त ॥३४-२॥ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે, હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયે આ વિષયમાં કરેલ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પેતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચદ્રિકા વ્યાખ્યાના ચોત્રીસમાં શતકમાં પહેલા એક ઈન્દ્રિય શતકને
બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૪-૨
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प्रमेयमन्द्रिका टीका श०३४ १. श.१ उ०३ परम्परोपन्नकैकेन्द्रियनिरूपणम् ४६५
- अथ तृतीयोदेशका मारभ्यते मूलम्-काविहा o भंते ! परंपरोववन्नगा एगिदियां पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोक्वन्नगा एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया भेओ चउक्कओ जाव वणस्तइकाइयत्ति। परंपरोववण्णग अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते ! इमीले रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढशीए जाव पञ्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उक्वज्जितए० एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पढभो उद्देसओ जाव लोग चरिमंतो त्ति । कहिणं भंते ! परंपरोक्वन्नग वायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! स्लटाणेणं असु पुढवीसु एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देसए जाव तुल्लट्रिइय त्ति । सेवं भंते ! लेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ चोत्तीसइमेसए पढने एगिंदियसए तइओ उद्देलो लमत्तो।३४-३। __छाया--कतिविधाः खलु भदन्त ! परो पन्नका एकेन्द्रियः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधाः परम्परोपपन्नका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीसायिकाः भेदो चतुष्को यावद् वनस्पतिकायिका इति । परम्परोपन्नकाऽप प्ति सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! एस्या रत्नममायाः पृथिगाः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः समवहत्य यो भव्य एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या यावत्याश्च त्ये चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया उपपत्तम एवमेतेनाभिलापेन स्थैव प्रथमोद्देशको यावल्ले कचरमान्त इति । कुत्र लु भदन्त ! परम्परोपपन्नक बादरपृथिवी कायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! स्वस्थानेनाप्टासु पृथिवीपु, एवमे तेनाभिळापेन यथा-प्रथमे उद्देश के यावत् तुल्यस्थितिका इति । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥ सू० १॥
चस्त्रिंशत्तमे शत्त के प्रथमे एकेन्द्रियशतके तृतीयोद्देशकः समाप्तः॥३४।१।३।। भ० ५९
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भगवती टीका:--'कइरिहाणं भंते !' पतिविधाः खलु भदन्त ! 'परंपरोक्वानगा एगिदिया पन्नत्ता' परम्परोपपन्नकाः एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता:-कथिता: ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' 'हे गौतम ! 'पंचविहा परंपरोववन्नमा एगिदिया पन्नत्ता' पञ्चविधा:-पश्चमकारकाः परम्परोपपन्नका उत्पत्ते द्वितीयादिसमये दत्तमाना एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः-पथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवीकाइया' पृथिवीकायिकाः अकायिकाः तेजस्कायिकाः वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिकाश्च । पृथिवीकायिकाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः सूक्ष्माश्च वादराश्च एवं यावद्वनस्पतिकायिका अपि सूक्ष्म
शतक ३४ उदेशक ३ 'कइविहा ण भंते ! परंपरोषवनगा एगिदिया पन्नत्ता' इत्यादि
टीवार्थ--'कहाविहाणं भंते ! परपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता हे भदन्त ! एकेन्द्रिय परम्परोपपन्नक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं'गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता' हे गौतम ! एकेन्द्रिय परम्परोपपन्नक जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। जो जीव उत्पत्ति के द्वितीयादि समय में वर्तते है वे परम्परीपानक कहे गये हैं । 'तं जहा' वे परम्परोपपन्नकों के पांच भेद इस प्रकार से हैं-पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, हे भदन्त ! पृथिवीकायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? हे गौतम ! पृथिवीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं। वे दो प्रकार सक्षम और बादर के भेद से होते है । इसी प्रकार से दो भेद यावत् वनस्पतिकायिकों तक जानना
ત્રીજા ઉદેશાને પ્રારંભ– 'कइविहा ण भते । परंपरोववन्नगा एगि दिया पण्णत्ता' त्यहि
A10-'काविहाण भंते ! परंपराववन्नगा एगि दिया पण्णत्ता' हे ભગવદ્ એકઈ દ્રિયવાળા પર પરે પ૫ક છે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં मा०या छे, मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छे ,-'गोयमा ! पंचविहा परंपरोवउण्णगा एगि दिया पण्णत्ता' गौतम ! इन्द्रियाय ५२५२२५५- ०३ पाय प्रा२ना उपास आवे छे. 'त जहा' ते ५२५२२५५-नाना पांय ભેદો આ પ્રમાણે છે –પૃથ્વીકાયિક, અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક હે ભગવન પૃથ્વીકાચિકે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! પૃથ્વીકાચિકે બે પ્રકારના કહે વામાં આવ્યા છે. તે બે પ્રકાર સૂક્ષમ, અને બાદર એ પ્રમાણે છે. આજ પ્રમાણે સૂમ અને બાઇર એ બે ભેદ યાવત વનસ્પતિકાયિક સુધી સમજવા
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प्रमेयन्का का हो०३४ १. श.१ उ०३ परम्परोपनककेन्द्रियनिरूपणम् ४६७ वादरभेदेन द्विविधाः। परम्परोपपन्नकाः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः कविविधाः प्रज्ञप्ताः गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः पर्याप्ताश्च अपर्याप्ताश्च एवं यावद्वनस्पतिकायिका अपि पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्तीति एतदाशयेनैवाह'भेदो चउक्को जाव वणस्सइकाइयत्ति' भेद श्चतुष्को याबद्वनस्पतिकायिका इति, वनस्पतिकायिकपर्यान्तानाम् एते चत्वारः सूक्ष्मवादरपर्याप्ता पर्याप्तरूपा भेदा ज्ञातव्या इति । 'परंपरोक्वन्नग अपज्जत्त मुहुमपुढवीकाइएणं भंते । परम्परोपपन्नकापर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः 'समोहणित्ता जे भविए चाहिये । हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? हे गौतम ! ये दो प्रकार के कहे गये हैं एक पर्याप्तक और दसरे अपर्याप्तक, बनस्पतिकायिक तक इसी प्रकार से दो भेद होते हैं एक पर्याप्तक और दूसरे अपर्याप्त इसी आशय को लेकर 'भेदो चउको जाव पणाला काइयत्ति' सूत्रकार ने यह सूत्र कहा है। प्रथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकाधिक तक ये चार चार सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद होते हैं।
'पर परोक्षनग अएज्जत्तसुहुम पुढबीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणपभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए.' हे भदन्त ! वह परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कि जिसने इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्वचरमान में मारणान्तिक समुदघात किया है। और समुद्घात करके इस रत्नप्रमापृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में હે ભગવન પર પો૫૫નક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! પર્યાપ્ત અને અપર્યાપક એ બે ભેદથી પરંપરો૫૫નક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકે બે પ્રકારના છે. આજ પ્રમાણે આ બે ભેદ યાવત્ વનસ્પતિકાયિક સુધી સમજવા. અર્થાત અકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીન છો પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક એ બે ભેદવાળા डायथे. तभ समन'. या मित्रायथा 'भेओ चउक्को जाव वणस्वइकाइयति' સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ કહેલ છે. પૃથ્વીકાચિથી લઈને વનસ્પતિકાય સુધીના જીવને સૂક્ષ્મ, બાદર પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક એ રીતના ચાર ભેદ હોય છે.
'परंपरोववन्नगा अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइयण भंते । इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते ! समोहए' ले सन् ते ५२५२२५५न्न अपर्याપક સૂકમ પૃથ્વીકાયિક જીવ કે જેણે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાનામાં મારણતિક સમુદ્દઘાત કરેલ છે, અને મારણાન્તિક સમુદ્દઘાત કરીને જે આ
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भगवतीक्षत्रे इमीसे स्यणप्पभाए पुढोए पच्चत्धिमिलले चरिम से अपज्जत सुहमपुढवी. काइयत्ताए उन त्रज्जिचए' समवहत्य यो भव्य एतस्मा रकमभायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतका उपत्तुं स खल भदन्त । कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पयेतेति प्रश्ना, उत्तरमाह-एवं' इत्यादि, एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पढमो उद्देसओ' एवमेतेनामिलापेन यथैव प्रथमोद्देशकः एत. स्यैत्र चतुर्विंशत्तमशतकस्य प्रथमोद्देशके यथा यथा यद् यत् कथितं तत्सर्व तेनैव रूपेणेहागि ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तः प्रथमोद्देशक इहाध्येतव्य स्तत्राह'जा' इत्यादि, 'जाव लोगचरिमंते त्ति' यावत् लोश्चरमान्त इति एकसा मयिकेन यावत् चतुःसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्यतेत्यारभ्य लोकचरमान्त पर्यन्तं सर्वमपि वक्तव्यम् किन्तु औसरे चरमान्ते समवहतानां पाश्चात्ये चरमान्ते च अपर्धापन्न सूक्ष्म पृथिवीक्षायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, वह जितने भयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पढमउद्देसओ' हे गौतम ! इस अभिलोप द्वारा जैसा इसी चौतीसवें शतक के पूरे प्रथम उद्देशक में जैसा जैसा जो जो कहा गया है वह सब उसी रूप से यहां पर भी जानना चाहिये । और ऐसाही यह सब कथन इस सम्बन्ध में 'जाय लोगचरिमंते त्ति !" यावत् लेाक के चरमान्त तक करना चाहिये अर्थात् यह पावत लोकके चरमान्त तक में एक समय चाले विग्रह से दो समयबाले विग्रह से तीन समयवाले विग्रह से और चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है किन्तु उत्तर लोक को રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાતમાં અપર્યાપ્તક સૂમ વાયુકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય બનેલ છે, તે ત્યાં કેટલા સમયની વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન थाय छ १ ॥ प्रशन उत्तरमा असुश्री गौतमस्वामीन. ४ छ । 'एएण अभिलावेण जहेव पढमो उद्देसओ' गौतम ! म मलिता द्वारा शते मा ચિત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે તે સઘળું કથન એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવું અને એ જ પ્રમાણેનું તે સઘળું કથન આ વિષયમાં 'जाव लोगचरिमते ! त्ति' यात सोनी यरसान्त सुधी ४३ न. मथात् તે યાવત્ લેકના ચરમાન્ડમાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા બે સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી અથવા ચાર સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ ઉત્તર લેકના ચરમાન્ડમાં સમદઘાત કરીને પશ્ચિમ ચરમતમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાઓને એક સમયને વિગ્રહ હા નથી આ કથન સુધી કહેવું જોઈએ. આ સંબંધમાં આ શતકના
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अमेयर्चान्द्रका टीका श०३४ अ. शं०१ उ०३ परम्परोपनकैकेन्द्रियनिरूपणम् ४६९ समुत्पधमानानामेसामयिको विग्रहो न भवति अत्तस्तेषां द्वयादि चतुःसामयिको विग्रहो भवति, उक्तं च प्रथमोद्देशकान्ते-'उत्तरिल्ले समोहयाणं परचस्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विरगहो नत्थि' इत्यन्तं वाच्यम् 'कर्हि णं भंते ! परंपरोववन्नग वायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्लचा कुत्र खलु भदन्त । परम्परोपपन्नक बादरपृथिवोकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'सट्टाणेणं अम्ल पुढवीसु' स्वस्थानेन यत्र परम्परोपपन्नका जीवा आसते वद स्वस्थानम् स्थानापेक्षया अप्टासु रत्नप्रभा दीपत्माग्भारा पृथिवी पर्यन्तेषु परम्परोपपन्नक वादरपृथिवीकायिकैकेन्द्रियजीवानां स्थानानि प्रज्ञप्तानीत्युत्तरम् । एवं एएणं अभिलावणं जहा पहमे उद्देसए जाव तुल्लछिईय त्ति' एवमेतेन पूर्वोक्तेनाभिलापेन आलाएकमकारेण यथैव चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होनेवालों को एकसमयका विग्रह नहीं होता है, यहां तक कहना चाहिये इस संबन्ध में इसी शतक के प्रथम उद्देशक के अन्त में भगवान ने कहा है-'उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चस्थिमिल्ले उनवजमाणाणं एगलमहो विगहो नस्थि' 'कहिणं भंते ! पर परोवनगा पायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक चादर पृथिवीकायिक के स्थान कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रशुश्री कहते है-'गोयामा ! सट्टाणेणं अस्तु पुढवीर' हे गौतम ! परम्परोपपन्तक बादर पृथिवी कायिकों के स्थान स्वस्थानकी अपेक्षासे आठ पृथिचियों में कहे गये हैं वे आठ पृथिवीयां रत्नप्रभाधिवी से लेकर ईषत्प्रारभारा पृथिवी तक हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देसए जाव तुल्लट्ठियत्ति' इसी प्रकार से इस अभिलाप द्वारा इनके सम्बन्ध का सब प्रश्नोत्तर रूप कथन यावत् तुल्य स्थितिबाले परम्परोरपडसा उद्देशान मतमा लगाने घुछे है-'उत्तरिल्ले समोहयाण पच्चस्थिमिल्ले उववज्जमाणा ण एगसयहओ विगहों नस्थि । ___'कहि ण भंवे ! परंपरोववन्नगा वायरपुढवीकाइयाण ठाणा पण्णत्ता' હે ભગવન પરંપપપનક બાદર પૃથ્વીકાચિકેના સ્થાને ક્યા કહ્યા છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४३ छे -'गोयमा । सदाणे अदृसु पुढवीसु' हे गीतम! ५२ ५५५न्न ५२ पृथ्वीयिटना स्थानी આઠ પૃથ્વીમાં કહ્યા છે તે આ પૃથ્વી રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને षत प्राभा२। पृथ्वी सुधीनी मा४ पृथ्वीय। छ. 'एवं एएण अभिलावेण' जा पढमे उद्देसए जाव तुल्लदिइयत्ति' से प्रभाये या मलितापामा विषय સંબંધમાં બીજા સઘળા પ્રશ્નોત્તર રૂપ કયન યાવત્ કેટલાક તુલ્ય સ્થિતિવાળા
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भगवतीसूत्रे अस्यैव शतकस्य प्रथमोद्देशके कथितं तथैव सर्वमिहापि ज्ञातव्यम् । कियत्पर्यन्तं प्रथमॊद्देशकमकरणमवगन्तव्यं तत्राह - 'जान' इत्यादि, 'जात्र तुल्लहियत्ति' यावत् तुल्यस्थितिका इति, परंपरोपपन्नका एकेन्द्रिया- किं तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेपाधिकं कर्म कुर्वन्ति किंवा तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ती त्यादिकं प्रश्नः हे गौतम ? तुल्यस्थितिका विमात्रविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ती त्याद्युत्तरादिकं च मध्यमोदेशकवदेव ज्ञातव्यम् | 'सेव' भंते! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त देवं भदन्त । इति है भदन्छ । परम्परोपपन्नकै केन्द्रियजीवविषये यद्देवानुप्रयेण कथितं वत्सर्वं सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं चन्दते नमस्यति चन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥० १|| इति श्री - विश्व विख्यातजगद्यल्क मादिपद भूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री- घासीलालन विविरचितायां "श्री भगवतीमूत्रस्य" ममेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चतुस्त्रिशनमे शतके मथश्मे के न्द्रियशतकस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ||३४|१|१ ||
पत्नक अव सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव विमान विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं, यहां तक प्रथम उद्देशक के जैसा ही जानना चाहिये 'सेव सते ! सेब' मंते । सि' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वधा ही सत्य है | इस प्रकार कहकर गौतमने भगवान को वन्दना की और नमस्कार किया। बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सृ० १ ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥३४-३ |
પર પરપપન્નક અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવે! વિમાત્રાથી વિશેષાધિક કના ખધ કરે છે. આા કથન સુધી પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણેનુ' કથન समन्न्वु. 'सेव' भये ! सेव' भंते 1 त्ति' हे भगवन् पर परोययन्त थे इन्द्रियवाजा જીવેાના સ'ખ'ધડાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કયુ' છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે, હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળુ‘ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમન્નામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી ગૌતમસ્વામી તપ અને સયથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ાસૢ૦૧ા त्रीले उद्देश। सभाप्त ३४-३॥
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ.श १ उ०४-११ अनन्तरावगाढायेकेन्द्रियनि० ५७१
___ अथ चतुर्थोदेशका प्रारभ्यतेमूलम्-‘एवं सेसा वि अट उदेसगा जाव अचरिमोत्ति' नवरं अणंतरसरिसा परंपरा परंपरलरिसा घरमा य अचरमा य एवं चेव । एवं एए एक्कारत उदेसगा ॥३४-११-१॥ चोत्तीसइमे सए पढमे एगिदियसए ॥३४-४-११ उदेसगा लमत्ता
॥पढमं एगिदियतेढीरूयं समतं ॥ छाया--'एवं शेपा अपि अष्टौं उद्देशका यावदचरम इति । नवरम् अनन्त रसदृशाः परम्पराः परम्परसदृशा श्वरमाश्चाचरमाश्च एवमेव । एवमेते एका दशोदेशकाः ॥३४।१।११ चतु स्त्रिंशत्तमे शतके प्रथमे एकेन्द्रियशले ४-११ उद्देशाः समाप्ताः
प्रथममेकेन्द्रियश्रेणिशतकं समाप्तम् ।। टीका--'एवं सेसा वि अहउद्देसगा जाय अचरिमोत्ति' एवम्-परम्परोपपन्न कोद्देशकवदेव शेषा एतद्भिन्ना अष्टावपि उद्देशकाः यावद् अचरमोदेशक इति । तत्राष्टौ चतुर्थत आरभ्य एकादश पर्यन्ता:-अनन्तरावगाढ ४-परम्परावणाढा ५ -ऽनन्तराहारक ६-परम्पराहारक ७-जन्तरपर्याप्त ८-परस्परपर्याप्त ९-चरमा १०ऽचरम ११ रूपा अबसेया इति । 'नवरं अणंतरा 'अणंतरसरिसा' अनन्तरो
॥शतक ३४ उद्देशक ४-११॥ 'एवं सेसावि अट्ठ उद्देसगा जाच अचरिमोत्ति' इत्यादि
टीकार्थ-इसी प्रकार से बाकी के भी आठ उद्देशक अवरस उद्देशक तक कह लेना चाहिये। वे आठ उद्देशक इस प्रकार से है-'अन्तरावगाढ ४, परम्परावगाढ५, अनन्तराहारक ६, परम्पराहारक ७, अन्तरपर्याप्त८, परम्परपर्याप्त ९, धरम १०, और अचरम ११ 'नवरं अणंतरा अणंतर. सरिसा परंपरा परंपरसारिला चरमा य अचरमाय एवं चे जितने
ચોથા ઉદેશાને પ્રારંભ છે 'एव सेसा अट्ट उद्देसगा जाव अचरिमो त्ति' त्यादि
આજ પ્રમાણે બાકીના આઠે ઉદ્દેશાઓ યાવત્ અચરમ ઉદ્દેશા સુધી કહેવા જોઈએ તે આઠ ઉદેશાઓ આ પ્રમાણે છે. અને તરાવગાઢ ૪ પરસ્પરાવગાઢ ૫ અનંતરહારક ૬ પરમ્પરહારક ૭ અનન્તર પર્યાપ્તક પરંપરપર્યાપ્તક ૯ ચરમ १० मन भयरम ११ ‘णवर अणतरसरिसा परम्परा, परम्परसरिसा
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भगवती देशका यावन्त स्ते सर्वेऽपि अनन्तरोपपन्नकवदेव धातव्याः 'परंपरा परंपरप्त. रिसा' परम्परोद्देशकाः परम्परोपपन्न कोद्देशक सदृशा ज्ञातव्याः चरमा अचरमा अपि एवमेव-परम्परोपपन्नावदेवेति ‘एवं एए एकारस उद्देसगा' एवं पूर्वोक्त प्रकारेण एते-पू#क्ता एकादशोदेशकाः चतुस्त्रिंशत्तमशतके प्रथमैकेन्द्रियशते भवन्तीति ।।३४।१।४=११॥ इति श्री-विश्वविख्यातनगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - ‘जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य" पमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमे शतके प्रथमस्य एकेन्द्रियशनकस्य चतुर्थ
एवं एकादशोद्देशकः समाप्त ॥३४-४-१-११॥
इति प्रथममेकेन्द्रिय श्रेणिशतकं समाप्तम् । अनन्तरोद्देशक हैं वे सब अनन्तरोपपन्नक के जैसे हैं 'परंपरा परंपरसरिला' एवं परम्परोद्देशक परम्परोदेशक के जैसे हैं तथा चरम और अचरम भी इसी प्रकार अर्थात् परम्परोपपन्नक के जैसे ही जानना चाहिये । 'एवं एए एकारल उद्दे सगा' इस प्रकार से ये ३४ वें शतक में प्रथम एकेन्द्रिय शतक में ११ उद्देशक हैं ॥मृ० १॥ .
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल जीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चोतीसवें शतक का
चार से ग्यारहवां उद्देशक समाप्त ॥३४-१-४-११॥
यह पहला एकेन्द्रियश्रेणि शतक समाप्त हुआ। चरमा य अचरमा य एव चेव' २८सा मन त श छे, ते मया मनत५. પન્નક પ્રમાણે છે. તેમ સમજવું. એવં પરંપરેદ્દેશક પરમ્પરેપનદેશક प्रमाणे छ. तथा यम मन मयरम ५ मा प्रभारी समन्व! 'एवं एए एक्कारस उद्देसगा' मा रीते २५३४ देशामे। ४ा छे. ॥१०॥ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ત્રીસ શતકના ચારથી અગીયાર ઉદ્દેશ
સમાપ્ત ૩૪–૧–૪–૧૧ પહેલુ એકેન્દ્રિયશતક સમાપ્ત થયું. .
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०२ कृष्णलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम्
द्वितीयमेकेन्द्रियशतं पारम्यते मूलम्-काइविहा ण भंते ! कण्हलेस्ला एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता। भेओ घउक्कओ जहा-कण्हलेस्स एगिदियलए जाव वणस्लइकाइयत्ति। कण्हलेस्स अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले० एवं एएणं अभिलारेणं जहेव
ओहि उद्देसओ जाव लोणचरिमंते ! त्ति, सव्वत्थ कण्हलेसलेसु चेव उववाएयवो। काहि णं भंते ! कण्हलेस अपज्जत्तवायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नता ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहि उद्देसओ जाय तुल्लाट्रिइयत्ति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमं सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियब्बा ॥३४-१॥
विइयं एगिदियलेढिलयं समतं ॥३४-२॥ छाया--कतिविधाः खलु भदन्त ! कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधाः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः भेदश्चतुष्को यथा कृष्णलेश्यैकेन्द्रियशते यारद्वनस्पतिकायिका इति । कृष्णलेश्याऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी. कायिकः खलु भदन्त ! एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये० एवमेतेना मिलापेन यथैवौधिकोद्देशको यावल्लोकचरमान्ते इति, सर्वत्र कृष्णलेश्येष्वेवोपपातयितव्यः । कुन खलु भदन्त ! कृष्णलेश्याऽपर्याप्त वादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, एवमेतेनामिलापेन यथा-औधिको देशको यावत तल्यस्थितिका इति, तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । एवमेतेनागिलापेन यथैव प्रथम श्रेणिशतं तथैव एकादशोद्देशका भणितव्याः ॥३४-२-११॥
द्वितीयमेकेन्द्रियश्रेणीशतं समाप्तम् ।। ३४-२॥ टीका--'काविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पनत्ता' कतिविधा: कतिप्रकारकाः खल्ल भदन्त ! कृष्णलेश्यैकेन्द्रियाः प्राप्ताः-कथिता ? इति
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४७४
भगवतीसरे प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता' पञ्चविधा:-पश्चपकारकाः पृथिवीकायिकादि वनस्पति कायिकान्ताः कृष्णलेश्या एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः कथिताः। 'भेओ चउक्को जहा कण्हलेस्सएगिदियसए जाच वणस्सइकाइयत्ति' भेद श्चतुष्कको यथा कृष्णलेश्यैकेन्द्रियशते त्रयसिंशत्तमे शतके द्वितीये एकेन्द्रियशते यावद् वनस्पतिकायिका इति ! कृष्णलेश्य पृथिवीकायिकादारभ्य कृष्णलेश्य वनस्पतिकायिकानां पञ्चानामपि सूक्ष्म-वादर-पर्याप्ता-पर्याप्तरूपा चत्वारो भेदाः, इति
शतक ३४ में दूसरा एकेन्द्रिय शतक २ 'कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता' ३४-११
टीकार्थ---'काविहा णं भंते। कण्हलेस्सा एगिदिया पमत्ता हे भदन्त! 'कृष्णलेझ्यावाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 'गोयमा !' पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता' हे गौतम ! कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। और ये पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक हैं। 'भेमो घउक्को जहा कण्हलेस्स एगिदियसए जाव वणसहकाइयत्ति' इन के चार भेद कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियशतक में कहे अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये अर्थात् ३३ वें शतक में द्वितीय एकेन्द्रिय शतक में यावत् वनस्पतिकायिक तक पांचों कृष्णलेश्यावाले एलेन्द्रियों के सूक्ष्म चादर पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से
બીજા એકેન્દ્રિય શતકને પ્રારંભ – 'कइविहा ण भंते ! कण्हलेस एगिदिया पण्णत्ता' त्याह
- 'कइविहा ण भंते ! कण्हलेस्सा एगि दिया पण्णत्ता' ३ मापन वेश्यामा सन्द्रिय का प्रारना डेवामी मावस छ ? 'गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस एगि दिया पन्नत्ता' है गौतम ! वेश्यावाणा मेन्द्रिय જી પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. અને તે પૃથ્વીકાયિકથી લઈને વનસ્પતિ आयि सुधीना सभ०४११. 'भेओं चक्कओ जहा कण्हलेस्सएगिदियसए जाव वणस्सइकाइयति' गुलेश्यावास मेन्द्रिय शतमi प्रमाणे ते माना ચાર ભેદે યાવતુ વનસ્પતિકાય સુધી સમજવા. અર્થાત ૩૩ તેત્રીશમાં શતકના બીજા એકેન્દ્રિય શતકમાં યાવત્ વનસ્પતિકાય સુધી પાંચ પ્રકારના કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીવને સૂફમ, બાદર, પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક રૂપથી ચાર ભેદે જે પ્રમાણે કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવા.
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trafer टीका ०३४ अ. श०२ कृष्णलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम् चत्वारो भेदा भवन्तीति । 'कण्हलेस्स अपज्जत हुमपुढवीकएणं भंते ।" कृष्णलेश्याऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल्ल भदन्त ! 'इमी से रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले० ' एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये० ' एवं एएवं अभिलावेण हेच ओहिउदेसओ जाव लोगचरिमंतेत्ति' एवमेतेनाभिलापेन यथैव औधिकोदेशको यावल्लोकचरमान्त इति, 'सव्वत्थ कण्डलेस्से सु चेव उववाएयन्त्रो' सर्वत्र कृष्णलेश्येष्वेव उपपातयितव्यः । यथैवधिक उद्देशकः अत्रैव चतुस्त्रिंशत्तमशतकगते प्रथमे एकेन्द्रियशतके सामान्येन - अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रकरणोक्तं सर्वं प्रकरणं वाच्यम्, विशेष एतावानेव यत्
चार भेद जैसे कहे गये हैं वैसे ही वे यहां पर भी जानना चाहिये । 'कण्हलेस अपज्जत सुमपुढची काहयाणं भंते! हे भदन्त ! वह कृष्णलेइयावाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कि जिसने 'इमी से रणभाए पुढवी पुरथिमिल्ले' इस रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात किया है और पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने के योग्य हुआ है तो हे भदन्त ! ऐसा वह जीव वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इत्यादि पाठ द्वारा जैसा औधिक उद्देशक में कहा गया है वैसा ही लोक के चरमान्तसंबंधी प्रकरण तक समझना चाहिये | 'सम्वत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उववायव्वो' और इन सबका सर्वत्र कृष्णलेल्यावालों में ही उपपात कहना चाहिये । तात्पर्य कहने का यही है कि जिस प्रकार से ३४ वें शतक गत प्रथम एकेन्द्रिय शतक में सामान्य से अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक के प्रकरण में कहा
'कण्हलेस अपज्जत सुहुमपुढवीकाइयाण' भंते ! हे लगवन्ते पृष्ट् द्वेश्यावाजा गयर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीायि छ ? 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले' या रत्नभला पृथ्वीना पूर्व थरमान्तमां भारशान्तिः સમુદ્ઘાત કરીને પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય હોય તે હુ ભગવન્ એવા તે જીવ ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? ઇત્યાદિ પાઠદ્વારા ઔધિક ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે એજ अभाषे सोङना थरभान्त सुधी समभवु' लेखे, 'सव्वत्थ कण्हलेस्से चेव उबवायव्त्रो' भने मा अधाना उपयात मधे ठेले द्रुष्यसेश्यावाणाभां डेव જોઈએ. કહેવાનું તાત્પ એ છે કે-જે પ્રમાણે ચેાત્રીસમાં શતકના પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં સામાન્ય પણાથી અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનુ' સઘળું પ્રકરણુ અહિયાં પણ કહેવુ જોઈએ.
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४७६ ..
. भगवती अत्र कृष्णलेश्यविशेषणविशिष्टाः सर्वे पृथिव्यादयो बाच्याः, उपपातोऽपि — सर्वेषां सर्वत्र कृष्णलेश्येष्वेव वर्तव्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह-जाव लोगचरिमंते' यावल्लोकचरगान्त इति, लोक-चरमान्त सूत्रपर्यन्तं संग्राह्यम् । जीवो यस्यां लेश्यायां म्रियते तरयामेवोत्पद्यते, इति न्यायात् कृष्णलेश्य जीवानां कृष्णलेश्येष्वेव उपपातो वर्णनीयः, इति भावः । 'कहिणं भंते ! कण्हलेस्स अपज्जत्तवायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नता' कुत्र खलु भदन्त ! कृष्णलेश्य पर्याप्त वादरपृथिवीकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानीति मग्नः स्वस्थानापेक्षयाऽष्टसु पृथिनीपु इत्युत्तरम् इत्यादि, ‘एवं एएणे अभिलावेणं गया है वही सब प्रकारण यहां वाच्य हुआ है। विशेषना उस प्रकरण से इस प्रकरण में केवल इतनी ली है कि यहां पर समस्त पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव कृष्णलेश्या स्प विशेषण से विशिष्ट हुए हैं। तथा इन सब का उपपात भी सर्वत्र कृष्णलेश्मावालों में ही कर्तव्य हा है। ऐसा यह लन उपपात सम्बन्धी कथन लोक के चरमान्त प्रकरण तक गृहीत हुआ है । बयों कि जीव जिल लेख्या में मरता है वह उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। इस न्याय के अनुसार कृरुणलेश्यावाले जीवोंका उपपात कृष्णलेश्यावालों में ही होता है। ऐसा वर्णन करलेना चाहिये।
'कहिणं भंते ! कण्हलेस अपज्जत वायर पुढचीकाइयाण ठाणा पण्णत्ता' हे अदन्त ! कृष्णलेश्यावाले अपर्याप्त पादर पृथियीकायिकों के स्थान कहां पर कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम स्वस्थान की अपेक्षा से उनके स्थान आठों पृथिवियों में अर्थात् તે પ્રકરણ કરતાં આ પ્રકરણમાં વિશેષતા કેવળ એટલી જ છે કે અહિયાં સઘળા પૃથ્વીકાયિક વિગેરે એકેન્દ્રિય જી કૃષ્ણલેશ્યાના વિશેષણથી કહેવાના છે. તથા આ બધાને ઉપપાત પણ બધે જ કૃષ્ણલેશ્યાવાળાઓમાં જ કહે જોઈએ, આ પ્રમાણે આ સઘળું ઉપપાત સંબંધી કથન લેકના ચરમાન્ત સૂત્ર સુધી ગ્રહણ કરાયેલ છે. કેમ કે જીવ જે લેક્શામાં મરણ પામે છે, તે એજ લેશ્યામાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ ન્યાય પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ને ઉપપાત કૃષ્ણલેશ્યાવાળાઓમાં જ થાય છે એ પ્રમાણેનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ,
___ 'कइ ण भंते ! कण्हलेक्स अपज्जत्त बायरपुढवी काइयाण ठाणा पण्णत्ता' હે ભગવદ્ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા અપર્યાપ્તક બાદર પૃથ્વીકાચિકેના સ્થાને કયાં કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે છે કે-હે ગૌતમ! સ્વસ્થાનની અપેક્ષાથી તેના સ્થાને રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી
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प्रमेयचन्द्रिका मा श०३४ अ. श०२ कृष्णलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम् जहा ओहि उदेसो जाव तुल्लद्विइयत्ति' एवमेतेन पूर्वोक्तेनामिलापेनअभिलापप्रकारेण यथा अस्य औधिकः प्रथमोदेशक श्चतुस्त्रिंशत्तमस्य शतकस्य प्रथमे एकेन्द्रियशते प्रथमोद्देशके, यावत् तुल्यस्थितिका इति, 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति, ‘एवं एएणं अभिलावेणं जहेब पदमं सेहित्यं तहेव एकारस उद्देसगा भाणियया' एवमेते. नामिलापेन यथैव प्रथमं श्रेणिशतकं तथैव एकादशोदेशका भणितव्याः ॥० १॥ इति श्री - विश्वविख्यातजगद्दल्लभादिपदभूपितबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां 'श्री भगवतीमत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकारख्यायां * व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तये शतक द्वितीयमेकेन्द्रिय शतं समाप्तम् ॥३४-२॥ रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर ईषत्प्रारभारा पृथिवी तक में कहे गये हैं। इत्यादि एवं एएण अभिलावेण जहा ओहिओ उद्देनओ जाव तुल्ल. ठियत्ति' इसी प्रकार सूचोंक्त अभिलाप से जैसा इसका चौंतीसवें
शतक का प्रथम उद्देशन कहा गया है एकेन्द्रिय शतक में चावत् तुल्य स्थितिवाले प्रकरण तक कहा गया है वैसा ही यहां पर भी तुल्य स्थिति प्रकरण तक कह लेना चाहिये । 'सेव भंते ! लेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैला आपने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रक्षुश्री को धन्दना की और नमस्कार किया। बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भाषित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। HUA /प.प्रामा। पृथ्वी सुधीमा ४३८ छ. त्याहि 'एव एएण अभिलावेणं जहा ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्लद्विइचत्ति' मार प्रमाणे सापडसा अडस અભિલાપ પ્રમાણે જે રીતે ત્રીસ ૩૪ મા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, અર્થાત્ એકેન્દ્રિય શતકમાં યાવત્ તુલ્ય સ્થિતિવાળાનાથન સુધી કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયા પણ તુલ્યસ્થિતિવાળા કથન સુધી કહેવું જોઈએ. ___'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' 3 अगवन् मा५ दे॒वानुप्रिये रे प्रमाणेनु કથન આ વિષય સંબધમા કરેલ છે, તે સઘળું કથન સત્ય છે, હે ભગવાન આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
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૪૭૮
भगवती
'एवं' एएणं' अभिलावेण जहेव पढमं सेदिसय तहेव एक्कारस उद्देखणा भाणिवा' इस अभिलाप से जैसा प्रथम श्रेणिशतक कहा गया है उसी प्रकार से इसके भी ११ उद्देशक कह लेना चाहिये । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चौतीसवें शतकका द्वितीय एकेन्द्रिय शतक समाप्त ||३४ - २ |
'एव' एएण' अभिलावेण' जहेब पढम' सेढिसय तहेव एक्कारसउदेगा भाणियन्त्रा' આ અભિલાપથી પહેલા શ્રેણી શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે આના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ કહેવા જોઈ એ ાસૢ૦૧૫ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ચેાત્રીસમા શતકનું બીજુ એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત
फ्र
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प्रमेयन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.३-५ नीलादिलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम् ४७६
'अह तइय चउत्थ पंचम सयाई मूलम्-एवं नीललेस्लेहि वितइयं सयं । काउलेस्सेहि विलयं एवं चैव चउत्थं सयं । भवसिद्धिएहि वि लयं। पंचमं सयं समत्तं ।सू.२॥
छाया-एवं नीललेश्यैरपि तृतीय शतम् ॥३॥ कापोतलेश्यैरपि शतम् एवमेव चतुर्थ शतम् ॥४॥ भवसिद्धिकैरपि शतम् । पञ्चमं शतं समाप्तम् ।।मु०१॥३४५ _____टीका:-'एवं नीललेस्सैहि वि तुइयं सयं' एवं यथा कृष्णलेश्यैकेन्द्रियस्य शतमेकादशोद्देशकयुतं भणितं तथैव नीललेश्यैरपि तृतीयं शतम् एकादशोदेशकयुक्तं भणितव्यम् ॥३४॥३॥ ..'काउलेस्से वि सयं एवं चेव चउत्थं सयं' कापोतलेश्यैरपि शतम् एवमेवतृतीयशतवदेव चतुर्थ शतमपि भणितव्यम् । एवमेकादशोदेशकयुक्त चतुर्थं कापोतलेश्यशतं निरूपणीयमिति चतुर्थं शतं समाप्तम् ॥३४।४।।
"भवसिद्धिएहि वि सयं' एवं यथा नीललेश्यादिभिः शतं भणितं तथैव भवसिद्धिकैरपि शतं भणितव्यम् । तथाहि-भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः खलु भदन्त !
तीसरे से पांच तक के तीन उद्देशक 'एवं नीललेस्सेहिं वि तक्ष्य सय' इत्यादि टीकार्थ-जिस प्रकार से ११ उद्देशों से युक्त कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय जीव का शतक कहा गया है उसी प्रकार से नीललेश्यावालों के सम्बन्ध में भी ११ उद्देशकों से युक्त तृतीय शतक भी कहलेना चाहिये।३४-३। ___ 'काउलेस्सेहि वि सय एवं चेव चउत्थं सयं' इसी प्रकार से कापोतलेश्यावालों के सम्बन्ध में भी ११ उद्देशकों से युक्त चतुर्थ शतक भी कह लेना चाहिये ।३४-४। __ भवसिद्धिएहिवि सयं जिस प्रकार से नीललेश्यादिवालों के सम्बन्ध में शतक कहे गये है उसी प्रकार से भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के
जीत, याथा, मने पायमा शतना प्रार''एवं नीललेस्सेहिं वि तइय सय' त्या
ટીકાર્ય–જે પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા અકેન્દ્રિય જીવના સંબંધમાં ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાવાળું શતક કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે નીલેશ્યાવાળાઓના સંબંધમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાવાળું ત્રીજુ શતક કહેવું જોઈએ ૩૪-૩ ___'काउलेस्सेहि वि सयं एवं चेव चउत्यं सयं' मा प्रमाणे अपति अश्यावाणा જેના સંબંધમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓવાળું ચોથું શતક પણ કહેવું જોઈએ. ૫૩૪-જા
'भवसिद्धिएहि वि सय २ प्रभाये नीलेश्या विगैरे पाणायाना સંબંધમાં શતક કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિવાળા
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भगवतीस्त्र
कति प्रकारकाः प्रज्ञप्ता: हे गौतम | पञ्चपकारकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पृथिवी. कायिका यावद्वानस्पतिकायिकाः। भवसिद्धिक पृथिवीकायिकाः खलु भदन्तं ! कतिप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः हे गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-सूक्ष्माश्च बादराश्च । एवमेव यावद्वनस्पतिकायिका अपि । भवसिद्धिकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः हे गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः अपर्याप्ताश्च पर्याप्ताश्च एवं यावद्वनस्पतिकायिकाः । हे भदन्त ! भासिद्धिकापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः एतस्या रत्नपभाया पौरस्त्ये चस्यान्ते समवहतः समवहत्य एतस्या रत्नममायाः पौरस्त्ये चरमान्ते भवसिद्धिकापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवी कायिकतया समुत्पत्तियोग्यो विद्यते स खलु कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यतेसम्बन्ध में भी शतक कहलेना चाहिये । तथा च-हे अदन्त ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये है ? हे गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैले-पृथिवीकाधिक से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक तक हे बदन्त ! भवसिद्धिक पृथिवीकायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। लक्ष्म और बादर इसी प्रकार से ये दो भेद यावत् वनस्पत्तिकायिक जीवों के भी जानना चाहिये । अवसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त इसी प्रकार के दो भेद यावत् बादरवनस्पतिकाधिक तक जानना चाहिये । हे भदन्त वह अवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्षम पृथिवीकायिक जीव जो इस रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरमान्त में समवहत हुआ है और समवहत होकर उसी पूर्व चरमान्त में अवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक જીવના સંબંધમાં પણ શતક કહેવું જોઈએ. તથા હે ભગવન ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવો કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે હે ગૌતમ! તેઓ પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. જેમ કે–પૃથ્વીકાયિકથી લઈને યાવત વનસ્પતિ કાય સુધીના પાંચ પ્રકાર સમજવા. હે ભગવન્ ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિક જી કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે ? હે ગૌતમ! તેઓ બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? તે બે પ્રકારે પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક એ રીતે છે. આજ પ્રમાણેના બે ભેદે યાવત્ વનસ્પતિકાય સુધી સમજવા.
હે ભગવન તે ભવસિદ્ધિક અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વીકાયિક જીવ કે જેણે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમતમાં સમુઘાત કરેલ છે, અને સમુદ્દઘાત કરીને આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પૂર્વ ચરમાન્તમાં ભવસિદ્ધિક અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.३-५ नीलादिलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम् ४८१ स्यारभ्य तुल्यस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति एतत्पर्यन्तमेतस्य प्रथम शतवदेव सर्वमिहापि, एवमेकादशोद्देशकाः पूर्ववदेव भणितव्याः तदित्थम् एकादशोद्देशकयुक्त पंचमं भवसिद्धिकशतं समाप्तं भवति ।।५० १॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्री घासिलालबतिविरचितायां श्री "भगबतीमुनस्य " मयेयचन्द्रिकाख्यायां
व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमशतके
पञ्चममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३४॥५॥ रूप से ही उत्पन्न होने के योग्य हुआ हैं वह कितने समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न सूत्र से लेकर 'तुलपस्थितिवाले तुल्य विशेषाधिक कर्म का वध करते हैं यहां तक का समस्त कथन इसी के प्रथम शत के जैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये और यहां पर भी ११ उद्देशक पूर्व के जैसे ही कहलेना चाहिये । इस प्रकार यह पांचवां भवसिद्धिक शतक जो कि ११ उद्देशकों युक्त कहा गया है समाप्त होता है। जैनाचार्य जैनधर्नदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसत्र" की प्रमेषचन्द्रिका व्याख्याके चौनीसवें शतक का
पांच एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥३४-५।। પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય બનેલ છે, તેઓ ત્યાં કેટલા સમયની વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્ન સૂત્રથી લઈને તુલ્ય સ્થિતિવાળા તત્ય વિશેષાધિક કર્મને બધ કરે છે. આ કથન સુધીનું સઘળું કથન આ ૩૪ ચોત્રીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશાના પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે છે તેમ સમજવું અને અહિયાં પણ ૧૧ અગીયાર ઉદ્દેશાઓ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે કહ્યા છે તેમ સમજવું. આ રીતે આ પાચમું વસિદ્ધિક શતક કે જે ૧૧ અગિયાર ઉદેશાઓવાળું છે. તે સમાપ્ત થયુ છે. નાચાર્ય જનધર્મદિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના તેત્રીસમા શતકનું પાચમું
એકેન્દ્રિયશતક સમાપ્ત ૩૪-૫ भ०६१
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भगवतीने
अथ षष्ठं शतकं मारभ्यते मूलम्-कईविहा णं भंते ! कण्हलेस्ला भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता एवं जहेव ओहि उद्देसओ। कइविहा णं भंते ! अणंतरोववनगा कण्हलेस्सा अवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता जहेव अणंतरोववन्नगा उद्देसओ ओहिओ तहेव । कइविहाणं भंते! परंपरोववन्नगा कण्हलेस्तो भवसिद्धिय एगिदिया पन्नत्ता
ओहिओ भेओ चडओ जाव वणस्लइकाइय त्ति । परंपरोववन्न कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जत्तनुहमपुटवीकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पाए पुढवीए एवं एएणं अभिलावेणं जहेव
ओहिओ उद्देलओ जाव लोयचरिनंते ति। सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु भवसिद्धिएंसु उववाएयत्वो। कहि णं भंते ! परंपरोक्वन्न कण्हलेस भवसिद्धिय एज्जत्तवायरपुढवीकाइया गं ठाणा पन्नत्ता एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्लाहइयत्ति । एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहिं वि तहेव एकारस उद्देसगसंजुन्तं छठं सयं ।सु०१।
छोत्तीसइमे सए छद्रं एगिदियसयं समत्तं । छाया---कतिविधाः खलु भदन्त ! कृष्णले सबसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? यथैवौधिकोद्देशकः । कतिविधाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः कृष्णालेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः यथैवानन्तरोपपन्नकोदेशक औधिकस्तथैव । कतिविधाः खलु भदन्त ! परम्परोपपन्नकाः कृष्णलेश्या भवद्धिकैकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधाः परम्परोपपन्नकाः कृष्णलेश्य भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः औधिको भेद चतुष्को यावद्वनस्पतिकायिकाः इति । परंपरोपपन्न कण्हलेज्यभवसिद्धिकापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः खल भदन्त ! एतस्या रत्नाभायाः पृथिव्याः एवमेतेनाभिलापेन यथैवौधिक उद्देशका यावल्लोकचरमान्त इति । सर्वत्र कृष्णलेश्येषु भवसिदिकेषु उपपातयितव्यः कुत्र खल्लु भदन्त ! परम्परोपपन्न कृष्णलेश्यभवसिद्धिकपर्याप्तवादरपृथिवी
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प्रमेयचहिदका का श०३४ अ. श.६ कृष्णलेश्य-भवसिद्धि केन्द्रियाः ४८३ कायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि एवमेतेनामिलापेन यथैवौधिक उद्देशको यावत् तुल्यस्थितिका इति । एवमेतेनाभिलापेन कृष्णलेश्य भवसिद्धिकैकेन्द्रियैरपि तथैव एकादशोद्देशकसंयुक्त पष्ठं शतम् ।।मु० १॥
चतुस्त्रिंशत्तमे शतके पष्ठमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३४६। टीका-'कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता' कतिविधा:-कतिप्रकारकाः खल भदन्त ! कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रिया: मज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'एवं जहेव ओहियउदेसओ' एवं यथैवौधिकोदेशकः, अस्यैव चतुस्त्रिंशत्तमशतकस्य औधिके उद्देशके-प्रथमे उद्देशके यथा
शतक ३४ छठाशत 'कइविहा णं भंते ! कण्हलेला भवसिद्धिया एगिदिया' इत्यादि
टोकार्थ-हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियजीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रनुश्री कहते हैं-'एवं जहेव ओहिओ' हे गौतम ! जैले ३४ वे शतक के प्रथम उद्देशक में भेदों का कथन किया गया है उसी प्रकार से यहाँ पर पृथिवीकायिक से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक तक पांच भेद इसके जानना चाहिये। ___ 'काविहाणं भंते ! अर्णतरोधचन्नमा कण्हलेरस भवसिद्धिया एगि. दिया पन्नता' हे अदन्त ! अनारोगपन्नक कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव शितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहेव अणंतरोवबन्न उद्देसओ ओहिओ तहेव' हे गौतम ! जैसा इसी ३४ वे शतक का अनन्तुरोपपन्नक उद्देशक कहा गया है। उसी
છઠા એકેન્દ્રિયશતકને પ્રારંભ– 'इविहा ण भंवे । कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एनिदिया' या
ટીકાર્થ– હે ભગવદ્ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળા જ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीन छ,-'एवं जहेव ओहिय उदेसओ' गीतम । ३४ यात्रीसमा શતકના પહેલા ઉદેશામાં જે પ્રમાણે ભેદનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પૃથ્વીકાયિકથી લઈને યાવત્ વનસ્પતિકાય સુધી પાંચ ભેદ સમજવા,
'कइविहाण भते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेसा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता' હે ભગવન અન તરે પપનક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળા જી. કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'जव अणंतरोक्वन्न उद्देसओ ओहिओ तहेव' गौतम ! मा यात्रीसमा
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भगवती सूत्रे
भेदाः कथिता स्तथैवात्रापि पञ्चविधा ज्ञातव्याः पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिका इति । 'कविह्ना णं भंते ! अनंत रोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एर्मिदिया पन्नता' कतिविधा: - कतिमकारकाः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः कृष्णलेश्या भवसिद्धिका एकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः कथिताः ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह' - जहेब' इत्यादि, 'जहेब अर्णतरोववन्न उद्देसओ ओहिओ तदेव' यथैवानन्तरोपपन्नोदेशक अधिक स्वथैव चतुस्त्रिंशच्छतकस्य औधिके द्वितीये अनन्तरोपपनमकरणे यथा कथितं तथैवात्रापि सर्वं ज्ञातव्यम् । कतिप्रकारका इति प्रश्नस्य पञ्चमकारकाः तद्यथा- पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः, अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यभवसिद्धिक पृथिवीकायिकाः कति प्रकारका इति प्रश्नस्य द्विमुकारकाः सूक्ष्माच वादराय एवं यावद्वनस्पतिकायिकाः । अत्र द्विपद एव भेदो वर्णयितव्यः अनन्तरोपपन्नकत्वादेव पर्याप्तापर्याप्तभेदयोरभावादिवि । अन्यत्सर्वं प्रथमोद्देशकचदेव ज्ञातव्यम् || 'कविहाणं भंते ! परंपरोववक्षणा कण्हलेस्ता भवसिद्धि प्रकार से यहां पर भी सब प्रकरण जानना चाहिये । जैसे- कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पति कायिक तक पांच प्रकार के कहे गये हैं अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार अकायिक तेजस्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन सब एकेन्द्रिय जीवों के भी जानना चाहिये | यहां पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद निर्वाक्षत नही हुए हैं। क्यो कि अनन्तरोपपन्नक होने से इन में ये दो भेद होते नहीं है । और सब कथन इन के संबन्ध में प्रमोदेशक के जैसा ही समझना चाहिये । 'कविहा णं भंते ! परंपरोचयन्नगा' हे भदन्त । परम्परोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले
શતકના અન’તાપપુનક સખ'ધી ઉદ્દેશા જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ તમામ પ્રકરણુ સમજવુ. જેમ કે-કૃલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય પૃથ્વીકાયકથી લઇને વનસ્પતિકાયિક સુધી પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. અન તરાપપન્નક કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પૃથ્વીકાયિક જીવ સૂક્ષ્મ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના કહેલ છે. આજ પ્રમાણેના આ એ ભેદો અકાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક આ સઘળા એકઈન્દ્રિયવાળા જીવાના સંબધમાં પણ સમજવા, અહિયાં પર્યાપ્ત અને અપર્યંત આ બે ભેદોની વિવક્ષા કરેલ નથી, કેમ કે અન તરાપયન્તક હાવાથી આમનામાં આ બે ભેદો હોતા નથી. ખાકીનું સઘળુ" કથન આ વિષયના સ'ખ'ધૂમાં પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું.,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.६ कृष्णलेश्य-भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः ४८५ एगिदिया पन्नत्ता' कतिविधाः-ऋतिप्रकारकाः खल्ल भदन्त ! परम्परोपपन्नाः कृष्णलेश्या भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह'गोयमा !' इत्यादि 'गोयला' हे गौतम ! 'पंचविहा परंपरोवबन्नगा कण्हलेस्सा भ्वसिदियएगिदिया पन्नत्ता' पञ्चविधा:-पञ्चमकारकाः परम्परोपपन्नकाः कृष्ण लेश्या भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः। तद्यथा-पृथिवीकायिका यावद्वन स्पतिकायिकाः परम्परोपपन्नक पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कविविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-सूक्ष्माश्च बादराश्च तत्र सूक्ष्मा पुनद्विविधाः पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च बादरा अपि द्विविधाः पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च एवं यावद्वनस्पतिकायिकाः, एतदाशयेनाह-'ओहिओ भेदो चउको जाव वणभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा ! पंचविहा परंपरोक्यन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धियएगि दिया पन्नत्ता' हे गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं । जैसे-पृथिवीकायिक यावद्धस्पतिकायिक । परम्परोपपन्नक पृथिवीकायिक जीव हे भदन्त ! कितने प्रकार के कहे गये हैं ! हे गौतम ! ये दो प्रकार के कहे गये हैं। एक सूक्ष्म और दूसरे बाद इन में सूक्ष्म भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं । इसी प्रकार के भेद्वाले एकेन्द्रिय जीव यावल बलरपतिकाधिक तक जानना चाहिये। इसी आशय को लेकर सूत्रकार ने 'ओहिओ भेदो चउक्कओ जादवणस्सह काइयत्ति' ऐसा यह सूत्रपाठ तहा है । 'परपरोक्यन्न कपहलेरस भव.
'काविहाण भते ! परंपरोववन्नगक०' 8 लगवन् ५२ ५२।५५-न ए. લેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે ?
या प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे -'गोयमा ! प चविहा पर परोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिय एगि दिया पण्णत्ता' हे गौतम ! ५२ ५२।५५-न ४१. લેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળા જી પૃથ્વીકાયિકથી લઈને વનસ્પતિ કાય સુધીના પાચ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. હે ભગવન્ પર પરોપપનક પ્રવીકાચિક છો કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે ? ઉત્તરમાં પ્રભથી કહે, છે કે-હે ગૌતમ ! તેઓ સૂક્ષમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. તેમાં સૂકમ પણ પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકના ભેદથી છે પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણેના ભેદોવાળા એકેન્દ્રિવાળા જીવો થાવત વનસ્પતિકાય સુધીના સમજવા. આજ અભિપ્રાયથી સૂત્રકારે “જોડિયો भेओ चसक्को जाव वणस्सइकाइयत्ति' मा अमायना सूत्र५४ र छ,
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भगवती
स्काइपत्ति' औधिको भेदश्चतुष्कको सुक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तरूपो यावद्वनस्पतिकायिका इति । 'परंपरोदवन्न कण्हलेस्स भवसिद्धिय अपज्जत सुहुमपुढवीकाइएणं भंते !' परम्परोपपन्न कृष्णलेश्या भवसिद्धिकापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'इमी से रयणप्पमाए पुढवीए० एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वे चरमान्ते समवहतः समवहत्य यो भव्य एतस्या एव रत्नप्रभायाः पश्चिमे चरमान्ते परम्परोपपन्न कृष्णलेश्य भवसिद्धिकापर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया समुत्पत्तुं स खलु भदन्त ! कियत्सामयिकेन विग्रहेणोत्पद्येत हे गौतन ! एकसामयिकेन वा यावत् त्रिसामायिकेन वा समुत्पद्येत इत्यारभ्यलोकचरमान्तपर्यन्तं सर्वमपि औधिकप्रकरणवदेव ज्ञातव्यमित्याशयेनाह - ' एवं एएवं अभिलावेणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव लोयचरिमंते त्ति' सिद्धिय अपज्जन्तसुन पुढवीकाईए णं भंते " वह परम्परोपपन्नक कृष्णलेयावाला भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव जो 'हमी से रयणप्पभाए पुढवी ए०' इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान्त में समवहत हुआ है और समवहत होकर इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में परम्परोपपत्रक कृष्णलेइया युक्त भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! वह वहां 'एकसमय बाले विग्रह से यात् तीन समयवाले पिग्रह ले उत्पन्न होता है' ऐसे इस कथन से लगाकर लोक चरनान्त प्रकरण तक का सब कथन औधिक प्रकरण जानना चाहिये । इसी आशय को लेकर 'एवं एए अभिलावेणं जहेब ओहिओ उद्देसओ जाव लोग चरिमंते । त्ति' ऐसा
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'पर परोववण्ण कण्हलेस्स भवसिद्धिय अपज्जत सुहुमपुढवीकाइएण भंते !' ભગવત્ પર પરોપપન્નક કૃલેસ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વી अयि ने 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए०' मा रत्नअला पृथ्वीना पूर्व ચરમાન્તમાં મુદ્દાત કર્યા છે. અને સમુદ્ધાત કરીને આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં પર પરાપયન્નક કુલેશ્યા યુક્ત ભવસિદ્ધિક અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાય પણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય હાય છે ? હું ગૌતમ ! તે ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. યાવતુ ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણેના કથનથી લઈને ચરમાન્ત સુધીનું તમામ કથન ઔશ્વિક પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવુ, આ અભિપ્રાયને લઈ ને सूत्राने 'एव' एपणं' अभिलावेण जद्देव, ओहिओ उद्देओ जाव चरिमते त्ति'
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प्रमेयंचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.६ कृष्णलेश्य-भवसिद्धिकैकेन्द्रियाः ४८७ एवमेतेन पूर्वोदितेनाभिलापेन प्रकारेण यथैदौधिकोद्देशकः चतुस्त्रिंशत्तमशतकस्य प्रथमोद्देशः, यारल्लोफचरमान्त इति । औधिकमकरणवदेव सर्व ज्ञातध्यमिति । 'सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु अवसिद्धिएमु उववाएयव्यो' सर्वत्र कृष्णलेश्येषु भवसिद्धिकेषूपपातयितव्यः परम्परोपपन्न कृष्णलेश्यभवसिद्धिकानां कृष्णलेश्यभवसिद्धिकेष्वेवोषपातो वर्णयितव्या, 'कहि णं मंते ! परंपरोक्नकण्हलेस्स भवसिद्धियपज्जत्तवायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नता' कुत्र खलु गदन्त । परम्परोपपान कृष्णलेश्य भवालिद्धिक वादरपृथिवीकायिकानामेदेन्द्रियाणां स्थानानि प्राप्तानि-कथिवानीति प्रश्नः, हे गौतम ! स्वस्थानापेक्षया अष्टाछु पृथिवीषु स्थानानि प्रज्ञप्तानि इत्यारथ्य यावत् तुल्यविशेषाधिकं वार्म प्रकुर्वन्तीत्येतत् पर्यन्तम् औधिकोदेशकवदेव ज्ञातव्ययित्याशयेनाह-'एवं' इत्यादि, 'एवं यह सूत्रपाठ कहा है 'लव्वस्थ कण्हलेस्लेख भवसिद्धिएस्तु उनचाएषयो' सर्वत्र परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यावाले अवलिद्धिकों का कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिकों में ही उपपात वर्णित करना चाहिये।
'कहि णं भंते ! परंपरोववन्न कण्हलेस भवसिद्धिय पज्जत्तवायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पणात्ता' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक चादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीयों के स्थान कहां पर कहे गये हैं। उत्तर में प्रलुश्री कहते हैं-'हे गोलम ! स्वस्थान की अपेक्षा से इनके स्थान आठ पृधिचीयों आदिको में ७साल राप्रमादिक नरकों में एवं आठवीं पृथिवी ईपत्प्रामारा पृथिवी में कहे गये। इसके अतिरिक्त और भी इस सम्बन्ध में जो कथन है वह सय कथन धावत् तुल्य विशेषाधिक कर्म का वे बन्ध करते हैं इत्यादि
मा प्रमाणेन सूत्र ४ छ 'सव्वस्य कण्हलेस्सेसु भवसिद्विएसु उववाएयबो લોકના પૂર્વ ચરમાન્તમાં સમુદ્યત કરેલ પર પરો૫૫ક કલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિને ઉપપતિ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિમાં જ વર્ણવ જોઈએ. ___'कहिण' भंते ! परंपरोववन्न कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जत्त वायरपदवी काइयाण ठाणा पण्णत्ता' 3 सावन् ५२५२२५पन्न वेश्यावाससिद्धि બાદર પૃથ્વીકાયવાળા એકેન્દ્રિય જીના સ્થાન ક્યાં કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ સ્વસ્થાનની અપેક્ષાથી તેઓના આઠ સ્થાને પૃથ્વીકાયિકામાં, રતનપ્રભા વિગેરે નરકેયાં. તેમજ આઠમી ઈષપ્રાશ્મારા પૃથ્વીમાં કહેવામાં આવેલ છે. આ સિવાય આ વિષયના સંબંધમાં બીજું જે કથન છે, તે સઘળું કથન યાત્ તુલ્ય વિશેષાધિક કર્મને બંધ કરે છે. આ કથન સુધી ઓધિક ઉંદેશામાં કદા પ્રમાણે સમજવું
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भगवती सूत्र एरण अभिलावेणं जडेव ओहिओ उद्देसओ जाव तल्लडिsयत्ति' एवमेतेन पूर्वोक्तेनाभिलापेन प्रकारेण यथैवौधिक उद्देशकः चतुखिंशत्तमशतकस्य प्रथमोयावत्तुल्यस्थितिका इति, सर्वसिह औधिक प्रकरणददेव ज्ञातव्यं यावत्तुल्य स्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुवन्तीति भावः । ' एवं एएवं अभिला disorder भवसिद्धिए एगिदिएहि त्रि तहेन एक्कारस उद्देससंजुत्तं छ सयं' एवमेतेनाभिलापेन यथा - अधिक भवसिद्धि सम्बधिं पञ्चमं शतकं कथितं तथैवास्य पष्टशतकस्य औधिकानन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्न केत्युदेशकत्रय विशिष्टै केन्द्रि यैरपि तथैवैकादशोदेशक संयुक्तं पष्ठं शतम्, अनन्तरावगाढ परम्परावगाढानन्तराहारक परम्परादारकानन्तरपर्याप्तकपरस्परपर्याप्तक चरमाचरमेत्यष्टौ उदेशका अपि वक्तव्याः तदित्यमेकादशोदेशक संयुक्तं पटं शत निर्मातव्यमिति भावः ॥ इति श्री - विश्वविख्यात जगवल्लभादिपद भूपितवाळत्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलाल विविरचितायां 'श्री भगवतीमूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमशतके पष्ठमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ||३४|६||
कथन तक औधिक उद्देशक के जैसा ही जानना चाहिये । इमी आशय को लेकर 'एवं एएणं अभिलावेर्ण जहेच ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्ल हियन्ति' सूत्रकार ने ऐसा यह सूत्रपाठ यहां कहा है । 'एवं एएवं अभिलावेणं कण्हलेस भवसिद्धिय एगिदिएहि वि तहेव एक्कारस उद्देससंजुनं छई सयं' इस के अभिलाष प्रकार से कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध : में भी ग्यारह उद्देशकों से युक्त यह छट्ठा शतक कहना चाहिये । अर्थात् जिस रीति से औधिक सामान्य अवसिद्विक संबंधी पांचवां शतक कहा गया है उसी प्रकार से इल छडे शतक के औधिक अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक इनतीन
या अभिप्रायथी सूत्रअ ' एवं ' एएणं' अभिलावेण जहेब ओहिओ उद्देओ जाव तुछट्ठियत्ति' या प्रमाणे सूत्रपाठ हे छे. 'ए' एएणं' अभिलावेण कण्हलेस भवसिद्धिय एगि दिएहि वि एक्कारसउदेस संजुत्तं ट्ठ सय" भा પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાત્રાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવેાના સમધમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ આ છઠ્ઠા શતકમાં કહેવા જોઇએ. અર્થાત્ જે પ્રમાણે પર પરાપપન્ન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયાન ઉદ્દેશો કહેલ છે,
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प्रमैrद्रिका ठीका श०३४ अ. श. ६ कृष्णलेश्य-भवसिद्धिकै केन्द्रियाः ૫૮૨ उद्देशक के अतिरिक्त शेष अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अन्तरपर्याप्तक, परम्परपर्यातक, चरम और अचरम ये आठ उद्देशक भी इसके सम्बन्ध में कहलेना चाहिये । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के चौतीस शतक के छट्ठा एकेन्द्रिय शतक समाप्त ॥ ३४-६ ॥
એજ પ્રમાણે અનંતરાવગાઢ, પરંપરાવગાઢ, અનંતરાહારક, પરંપરાહારક, અનંતપર્યાપ્તક, પર’પરપર્યાપ્તક ચરમ અને અચરમ આ બધાના સબ ધમાં પણ ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ. ાસૂ૦૧૫
જૈનાચાય જતધમ દિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્રની’ પ્રમેયચન્દ્રિા વ્યાખ્યાના ચેત્રીસમાં શતકનું પ્રાછટકું” એકેન્દ્રિયશતક સમાપ્ત ॥૩૪-૬॥
भ० ६२
फ
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भगवतीसूत्रे
अथ सप्तममष्टमादि शतकानि
मूलम् - नीललेस्स भवसिद्धिय एगिदिएस सयं सत्तमं समत्तं । एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि अट्टमं सयं । जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि स्याणि एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि स्याणि भाणियव्वाणि । नवरं चरम अश्वरमवज्जा नव उद्देगा भाणियच्या सेसं तं चैव । एवं एयाई बारस एगिंदिय सेढिसयाई सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥०१॥ एगिंदियसेढिसयाई समत्ताई ॥३४ - १२॥ चउत्तीसइमे छहूं एगिंदिय सेढिसयं समन्तं ॥ ३४ ॥
छाया - नीललेश्य भवसिद्धिकै केन्द्रियेषु शतं सप्तमं समाप्तम् । एवं कापोतदेश्य भवसिद्धि के केन्द्रियैरपि अष्टमं शतम् । यथा भवसिद्धिकै श्रश्वारि शतानि, एवमभवसिद्धिकैरपि चत्वारि शतानि भणितव्यानि । नवरं चरमाचरम नवोदेशका भणितव्याः शेषं तदेव । एवमेतानि द्वादश एकेन्द्रिय श्रेणिशतानि । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति ।। सू० १|| चतुस्त्रिंशत्तमशतके पष्ठमेकेन्द्रियश्रेणि शतम् समाप्तम् ॥३४॥
टीका -- 'नीललेस्स भवसिद्धियए गिदिएस सयं सत्तम' नीललेश्य भवसिद्धिकैद्रयेषु शतं सप्तमं समाप्तम्, यथा कृष्णलेश्य भवसिद्धिकैकेद्रियैरेकं शतमधीतं तद्वत् सप्तमं शतं नीलछेश्य भवसिद्धि के के द्रियाणामपि वक्ततीसवे शतक का सातवां एकेन्द्रिय शतक 'नीललेस्स भवसिद्धिपएगिदिएस' इत्यादि
टीकार्थ- नीललेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में सप्तम शतक समाप्त कर लेना चाहिए । अर्थात् जैसा-कृष्ण लेइयावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में कहा गया है । उसी प्रकार से यह ાસાતમા એકેન્દ્રિયશતકના પ્રારંભ~~
'नीलले भवसिद्धियए गिदिएसु' इत्यादि
ટીકા-નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળાએના સબધમાં સાતમુ` શતક સમાપ્તિ પર્યંન્ત કહેવુ' જોઈ એ. અર્થાત્ જે પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળાએના સબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે. એજ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.७ नीललेश्य-भवसिद्धिकेन्द्रियाः ४६१ व्यम्, नवरं पूर्व यत्र कृष्णलेश्यपदं दत्तं तादृशस्थाने इह नीललेश्यपदं देयम्, अन्यत्सर्वं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । तथा तत्र यया एकादशोदेशकाः कथिताः तथा अत्रापि एकादशोदेशकाः कथयितव्या, इति सप्तमं शतम् 'एवं काउलेस्प्त भवसिद्धिय एगिदिएहि वि अट्टमं सयं' एवं कापोतलेश्य भवसिद्धियकैकेन्द्रियैरपि अष्टम शतं ज्ञातव्यम्, नवरं नीललेश्य-स्थाने कापोतलेइयपदं देयम् अत्रापि पूर्ववदेव एकादशोदेशका ज्ञातव्याः प्रकारस्तु सर्वत्र पूर्व. सातवां शतक नीललेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में कह लेना चाहिये । परन्तु इस सप्तम शतक में पूर्व शतक की अपेक्षा यही विशेषता है कि इस शतक मे जैसा कि पूर्व शतक में जहां कृष्ण लेश्यापद दिया गया है । उस जगह नीललेश्यापद रखना चाहिये। बाकी का और सब कथन पहिले के जैसा ही जानना चाहिये। तथा जिस रीति से वहां ११ उद्देशक कहे गयें उसी रीति से यहां पर भी ११ उद्देशक कहलेना चाहिये । ।सू०१॥
सप्तम एकेन्द्रिय शतक समाप्त ||३४-७॥
चोतीसवे शतक के आठवां एकेन्द्रिय शतक 'एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदिए हि वि अट्टम सय इत्यादि
टीकार्थ-इसी रीति से कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में भी आठवां शतक कह लेना चाहिये । परन्तु नीललेश्य પ્રમાણે સાતમું શતક નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળાઓના સંબંધમાં કહેવું જોઈએ પરંતુ આ સાતમા શતકમાં પહેલા શતક કરતાં એ ભિન્નપણું છે કે આ શતકમાં પહેલાના શતકમાં જ્યાં કૃષ્ણલેસ્યા પદ આપવામાં આવેલ છે. ત્યાં નિલલેશ્યા પર મૂકીને કહેવું જોઈએ. બાકીનું બીજું સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું જોઈએ તથા જે પ્રમાણે ત્યાં અગીયાર ઉદ્દેશાઓ કહેવામાં આવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે અહિયા પણ અગિયાર ઉદેશાઓ કહેવા જોઇએ.
સાતમું શતક સમાપ્ત ૩૪-છા
આઠમા એકેન્દ્રિય શતકને પ્રારંભ– ‘एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहिं वि अट्ठम सय" यile
ટીકાર્ય–આ નલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકઈન્દ્રિયવાળાઓના સંબં. ધમાં કહેલ રીત પ્રમાણે કાપતલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયોના સબંધમાં પણું આઠમું શતક કહેવું જોઈએ. પરંતુ નીલેશ્યા એ પદના ઘાને કાપિત
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भगवतीस्त्र वदेव ज्ञातव्य इत्यष्टमं शतं समान्तम् । 'जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि भाणियवाणि' यथा भवसिद्धिकै श्चत्वारि शतानि भणितानि एवम् अभवसिद्धिकैरपि चत्वारि शतानि भणितव्यानि । तत्रा. भवसिद्धिकस्यौधिकं शतं प्रथमम् । द्वितीयं . शतं कृष्णलेश्यमवसिद्धिकस्य तृतीयं चतुर्थं च नीलकापोतेति लेश्याद्वयमधिकृत्य भवति, तदेवं चत्वारि शतानि भवन्ति अभवसिद्धिकस्य । 'नवरं चरम अचरमवज्जा नव उद्देसगा पद के स्थान में कापोतलेश्य पद रखना चाहिये । यहां पर भी पूर्व के जैसे ११ उद्देशक है । इन में अलापक प्रकार सर्वत्र पूर्व के जैसा ही जानना चाहिये ॥स्नु०१॥
आठवां शतक समाप्त ॥३४-८॥
नववां एकेन्द्रिय शतक 'जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाणि एवं अभ०' इत्यादि
टीकार्थ-जिल रीति से भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में चार शतक कहे गये हैं, उसी रीति से अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध भी शत-शतक--कह लेना चाहिये । इन में अभसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में औधिक शतक प्रथम है। कृष्णलेश्यावाले अभवसिद्धिक के सम्बन्ध में द्वितीय शत है। तृतीय और चतुर्थ शत नीललेश्यावाले एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में और कापोतलेश्यावाले एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में हैं। इस प्रकार से ये चार शत अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के લેશ્ય પદ મૂકવું જોઈએ અહિયાં આ કાતિલેશ્યાના સંબંધમાં પણ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ સમજવા. તેઓમાં આલાપને પ્રકાર બધે જ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લે સૂ૦૧
આઠમું શતક સમાપ્ત ૩૪-૮ 'जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाणि एवं अभ०' त्यादि
ટીકાઈ–જે પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં ચાર શતક કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિના સંબંધમાં પણ ચાર શતકે કહેવા જઈએ આમાં ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયોના સંબંધમાં ઓધિક શતક પહેલું છે. ૧ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા અભયસિદ્ધિકના સંબંધમાં બીજું શતક કહેલ છે. તથા ત્રીજું અને શું શતક નીલલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીના સંબંધમાં અને કાપતલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીના કહેલ છે. ૩-૪ આ રીતે આ ચાર શતક અભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિના સંબંધમાં કહેલ છે.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३४ अ. श. ८ अभवसिद्धिकै केन्द्रियनिरूपणम्
भाणियन्त्रा' नवरं वैलक्षण्यमेतदेव यत् पूर्वपूर्वशतेषु औधि कोद्देशतोऽनन्तरोपपन्नादिका अचरमपर्यन्ता एकादशएकादशोदेशका निर्मिताः, अभवसिद्धिरुशतचतुष्टयेतु चरमव नवैवोदेशकाः पठनीयाः अभवसिद्धिकानां चरनाचरमयोरमावादिति । 'सेसं तं चेत्र' शेपमन्यत्सर्वं भवसिद्धिकप्रकरणवदेव सर्व भवतीति । ' एवं एयाई बारसएगिदिचसेढिसयाई' एवं पूर्व पदर्शितक्रमेण एतानि द्वादश एकेन्द्रिय श्रेणिशतानि भवन्ति, औधिक कृष्णनील कापोतश्येति चतुष्टयमाश्रित्यै केन्द्रियशतानि
सम्बन्ध में । 'नवरं चरम अचरमवज्जा नव उद्देसमा भाणियन्त्रा' परन्तु यहां जो भिन्नता है वह ऐसी है कि भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के पूर्व पूर्व शतों में अधिक उद्देश से लेकर अनन्तरोपपन्नादिक अचरम पर्यन्त ११ - ११ उद्देशक हैं । परन्तु अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के चार शतों में वरम और अचरम इन शर्तोंों को छोड़कर नौ ही उद्देशक होते हैं । क्यों कि अभवसिद्धिकों के चरम अचरम ये दो उद्देशक नहीं है कारण कि इनका उन में अभाव है । 'सेसं तं चेत्र' बाकी का और सब कथन यहां अवसिद्धिक प्रकरण के ही जैला है ।
"
' एवं एयाई पारस एगि दिवसे दिसयाह' इस प्रकार पूर्व प्रदर्शित क्रम के अनुसार ये १२ एकेन्द्रिय श्रेणि शत होते हैं । औधिक शतको एवं कृष्ण, नील, और कापोतलेश्या इन सम्बन्धी तीन शतों को आश्रित कर के एकेन्द्रिय सम्बन्धी चार शतक हैं और भवसिद्धिक
'नवर' चरम अचरमवज्जा नव उद्देगा भाणियव्वा' परतु सहियां ने लिन પણું છે, તે એવુ છે કે-ભવસિદ્ધિક એક ઇન્દ્રિયવાળાએના પહેલાના શતદામાં ઔધિક ઉદ્દેશાથી લઈને અનતર પપન્નકાદિ અચરમ સુધીના ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે પરંતુ આ અભવસિદ્ધિક એકઇન્દ્રિય જીવાના ચાર શતકમા ચરમ અરે અચરમ આ શતકાને ઘેાડીને નવઉદ્દેશા ઓજ હાય છે. કેમ કે-ભવસિદ્ધિકામા ચરમ અને અચરમ આ બે ઉદ્દેશાઓ હાતા નથી, કારણ કે તેખોમા આ ચરમ અચરમ પણાને અભાવ રહે છે.
'सेस' त' चेव' मा शिवाय गाडीतु सधणु उधन या अभवसिद्धिमना સંબંધમાં સિદ્ધિક પ્રકરણમા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવુ' ોઇએ, एयाइ'वारसएगि ंदियसेढिसयाई' मा ते पडेसां गतावेस उभ प्रभा
આ ૧૨ ખાર એકેન્દ્રિય શ્રેણી શનકા થાય છે, ઔશ્વિક શતકને તથા કૃષ્ણ, નીલ, અને કાપાતલેશ્યાવાળાના સંબધમાં, ત્રણુ શતકાના આશ્રય કરીને એકે
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_ 'भगवतीसरे चत्वारि, एवं भवसिद्धिकैकेन्द्रियशतानि चत्वारि, तथा अभवसिद्धिकैकेन्द्रियैः सह चत्वारि शतानि, सर्वसङ्कलनया चतुस्त्रिंशत्तमशतके द्वादशशतानि भवन्ति, आद्याष्टशतेषु एकादशैकादशोदेशकाः, अन्तिमाऽभवसिद्धिकशतचतुष्टये तु नवनवोद्दे. शकाः, तदेवं सर्वसङ्कलनया चतुर्विशत्यधिकशतमुद्देशकाः (१२४) एतस्मिन् शतके भवन्तीति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति हे भदन्त ! एकेन्द्रियविषये यद् देवानुपियेण कथित तत् सर्व सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विरहतीति । 'एगिदिय सेढि सयाई समत्ताई' एकेन्द्रियश्रेणिशतानि समाप्तानि ॥मू०१॥
इति चढस्त्रिंशत्तमैकेन्द्रियश्रेणिशतकं समाप्तम् ॥३४॥ एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में चार शतक हैं । तथा अभवसिद्धिक एके. न्द्रियों के सम्बन्ध में चार शतक हैं । कुल मिलाकर ये सब १२ शतक इस चौतीसवें शतक में हैं । अन्तिम जो चार अभवसिद्धिक शतक हैं उनमें ९-९ उद्देशक हैं । इस प्रकार इन १२ शतकों के १२४ उद्देशक होते हैं। सेवं भंते ! लेवं भंते ! त्ति जाव विहरई' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीवों के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सय सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप
ન્દ્રિય જીવ સંબંધી ચાર શતકે થાય છે. તથા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયો સંબંધમાં ચાર શતકે થાય છે તેમ જ અભાવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયેના સંબંધમાં ચાર શતકો થાય છે. તે રીતે કુલ બધા મળીને આ ૧૨ બાર શતકો આ ત્રીસમાં શતકમાં કહ્યા છે. છેલ્લા ચાર જે અભાવસિદ્ધિક શતક છે તેમાં ૯-૯ નવ નવ ઉદ્દેશાઓ કહ્યા છે. આ રીતે આ બાર શતકના કુલ ૧૨૪ એકસવીસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે.
'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरई' सावन सेन्द्रिय वाना સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા. વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श. ८ अभवसिद्धि के केन्द्रियनिरूपणम्
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से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । इस प्रकार से एकेन्द्रिय श्रेणि शतक समाप्त हुए । इनकी समाप्ति में ३४ व एकेन्द्रिय श्रेणि शतक समाप्त हुआ ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के चौतीसवें शतक में ॥ सातवें से बारहवें पर्यन्तके श्रेणिशतक समाप्त ॥ ॥ चोतीसवां शतक समाप्त ॥
કરતા થકા પેાતાના સ્થાનપર બિરાજમાન થયા. આ રીતે એકેન્દ્રિય શ્રેણી શતક સમાપ્ત થયા તેની સાથે આ ચેાત્રીસમુ એકેન્દ્રિય શ્રેણિ શતક સમાપ્ત થયુ` છે, જૈનાચાય જૈનધમ ક્રિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર’ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ચેાત્રીસમા શતકના સાતમાથી ખારમા સુધીના એકેન્દ્રિય શતકા સમાપ્ત
॥
श्रीभुं शत सभाप्त ॥
फ्र
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भगवती सूत्रे
|| 'अह पणतीस मं सयं ॥ ( पढमो उद्देसो) चतुशिरामे शतके एकेन्द्रियजीवाः श्रेणीक्रमेण मायो निरूपिताः, अथ पचप्रिंशत शतके तु ते एक एकेन्द्रियाः राशिक्रमेण निरूप्यन्ते तदनेन सम्बन्धेन आयातस्य द्वादशावान्तरशतयुत्तरय पञ्चत्रिंशचम शतकस्येदमादिमं सूत्रम् -' करणं' ३०
म्ह णं भंते! महाजुम्मा पुन्नत्ता ? गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता, तं जहा - कडजुम्मकडजुम्मे१, कडजुम्मओगेर, कडजुम्मदावरजुम्मे ३, कडजुम्मकलिओगे ४, तेओए कडजुम्मे ५, तेओगतेओए ६, तेओगदावरजुम्मे ७, तेओग - कलिओगे ८, दावरजुम्मकडजुम्से ९, दावरजुम्मतेओगे १०, दावर जुम्मदावरजुम्मे १९, दावरजुम्मकलिओगे १२, कलिओग कडजुम्मे१३, कलिओग तेओगे १४, कलिओग दावरजुम्मे१५, कलिओगकलिओगे १६, से केणद्वेणं भंते । एवं वुच्चइ सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता तं जहा - कडजुम्मकडजुम्मे ९ जाव कलियागकलिओगे १६, गोयसा ! जे णं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवलिए जे पणं तरुल रासिस्स अवहारसमया ते वि कडजुम्मा से तं कडजुम्म कडजुम्मे१ । जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए । जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से त्तं कडजुम्म तेओगे। जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जबसिए, जेणं तस्स रासिस्स समया कडजुम्मा से त्तं कडजुम्मदावरजुम्मे३ | जे पणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहोरमाणे एगपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से त्तं कडजुम्म कलियोगे४, (१) । जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं
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shreer टीका श०३५ ३०१ ०१ राशिक्रमेणैकेन्द्रिजीवनिरूपणम् अवहीरमाणे चउपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओगकडजुम्मे ५ । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओगतेओगे ६ । जे णं रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे दो पज्जवसिए जे पणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओगदावरजुम्मे ७ । जेणं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओग कलिओगे । (२) जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्म कडजुम्मे । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवलिए जे णं तस्स रासि - स्स अवहारसमया दावरजुम्सा से चंदावरजुम्मतेओगे १० । जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुप्पज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्सा से तं दावर- जुम्म दावरजुम्मे ११ । जे णं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवलिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावर जुम्मा से तं दावरजुम्मकलिओगे १२ । (३) जे णं रासी
करणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जबसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से तं कलियोगकडजुम्मे१३ | जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से कंलियोगतेओगे १४ । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अव
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भगवती हीरमाणे दुपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्त अवहारसमया कलिओगा से तं कलिओगदावरजुम्मे १५। जे णं रासी घ3कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से तं कलिओगकलिओगे १६ (४) से तेणढेणं जाव कलिओगकलिओगे ॥सू० १॥
छाया--कति खलु भदन्त ! महायुग्माः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पोडश महायुग्मानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कृतयुग्मकृतयुग्म १, कृतयुग्मयोजः २, कृतयुग्मद्वापरयुग्मः ३, कृतयुग्मकल्पोजः ४, योजकृतयुग्मः ५, व्योजयोजः ६, योजद्वापरयुग्मः ७, व्योजकल्योजः८, द्वापरयुग्मः कृतयुग्म:९, द्वापरयुग्मयोजा १०, द्वापरद्वापरयुग्मः ११, द्वापरयुग्मकल्योजः १२, कल्योजकृतयुग्मः १३ कल्योजत्र्योजः १४, कल्योजद्वापरयुग्मः १५, कल्योजकल्योजः १६ तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते पोडश महायुग्माः प्रज्ञप्ताः तद्यथा कृतयुग्मकृतयुग्मः यावस्कल्योजकल्योजः। गौतम ! यः खल राशिः चतुष्केणापहारेण अपहियमाण श्चतुः पर्यवसितः, ये खल तस्य राशेरपहारसमया सोऽपि कृतयुग्माः सोऽयं कृतयुग्मकृतयुग्म:१, यः खल राशिश्चतुष्केणापहारेणापहियमाणस्त्रिपर्यवसितः, यः खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कृतयुग्मा सोऽयं कृतयुग्मयोजः। यः खलु राशिः चतुकेणापहारेण अपहियमाणो द्विपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कृतयुग्माः सोऽयं कृतयुग्मद्वापरयुग्मः । ३ यः खलु राशिः चतुष्कणापहारेण अपहिय माण एक पर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कृतयुग्माः सोऽयं कृतयुग्मकल्योजः४।(१) या खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणापहियमाणश्चतुःपर्यवसिता ये खलु तस्य राशेरपहासमयाः व्योजाः सोऽयं व्योजकृतयुग्मः ५। यः खलु राशि: चतुष्केगाऽपहारेणापहियमाणविपर्यवसितः, ये खल तस्य राशेरपहारसमया
योजाः, सोऽयं योजव्योजः ६। यः खलु राशिः चतुष्केणापहारेणा पहियमाणो द्वियपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमया स्घ्योजाः सोऽयं ज्योजद्वापरयुग्मः ७। यः खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणापहियमाण एकपयवसिता, ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः व्योजाः सोऽयं योज कल्योजः ८ । (२) यः खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणापहियमाणः चतुः पर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुग्माः सोऽयं द्वापर कृतयुग्म: ९। यः खल्ल राशि चतुष्केणापहारेण अपहियमाण स्त्रिपर्यवसितः
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३५ २.१ सू०१ राशिकमेणैकेन्द्रिजीवनिरूपणम् ४२५ ये खलु तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुग्माः सोऽयं द्वारयुग्मयोजः १० यः खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणापहियमाणो द्विपर्यवसितः ये खल तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुग्माः सोऽयं द्वापरयुग्मद्वापरयुग्मः ११ । यः खल राशि चतुष्केण अपहारेणापहियमाण एकपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुग्माः सोऽयं द्वापरयुग्नकल्योजः १२ । (३) यः खल्ल राशि चतुष्कणापहारेण अपहियमाण श्चतुःपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कल्योजा सोऽयं कल्योजकृतयुग्मः १३। य: खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणापहियमाण स्निपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कल्योजाः सोऽयं कल्योजच्योजः १४ यः खलु राशि चतुष्केणापहारेण अपहियमाणो द्विपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारसमया: कल्योजाः सोऽयं कल्पोजद्वापरयुग्मः १५ यः खलु राशि श्चतुष्केणापहारेणाऽपहियमाण एकपर्यवसितः ये खलु तस्य राशेरपहारपमयाः फल्योजाः सोऽयं कल्योजकल्योज इति १६ (१) तत्तेनाथन यावत् कल्योज कल्योजः॥सु०१॥
टीका--'कइणं भंते ! महाजुम्मा पन्नत्ता' कति खलु भदन्त ! १४ युग्मशन्देन राशिविशेषा कथयन्द ते च क्षुल्लका अपि भवन्ति यथा प्राक्
पैतीसवे शतक की प्रथम उद्देशक चौतीसवें शतक में एकेन्द्रिय जीवों का श्रेणि क्रम से प्राय: निरूपण हो चुका है परन्तु अब इस ३५ वें शतक में उन्हीं एकेन्द्रिय जीवों का राशिकम से निरूपण होना हैं ! इसी सम्बन्ध से इसे प्रारम्भ किया जा रहा है
'करण मंते ! महाजुम्मा पस्मता' इत्यादि सूत्र ॥१॥
टीकार्थ-हे भदन्त ! महायुग्म-महाराशियां-कितने कहे गये हैं ? युग्म शब्द से यहां राशिविशेष कहा गया है ये युग्म क्षुल्लक भी होते
पात्रीसमा शतना प्रारम
देश। पडतो. ત્રીસમા શતકમાં એક ઇન્દ્રિયવાળા અને શ્રેણિના ક્રમથી પ્રાયઃ નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું છે પરંતુ હવે આ ૩૫ પાંત્રીસમાં શતકમાં એ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીનું રાશિના કમથી નિરૂપણ કરવામાં આવશે. એ સંબધી આ પાંત્રીસમું શતક પ્રારંભ કરવામાં આવે છે -
'कइण भंते ! महाजुम्मा पण्णता' या
ટીકાWહે ભગવનું મહાયુમ-મહારાશિયે કેટલા કહેવામાં આવ્યા છે ? અહિયાં યુમ શબ્દથી શિ વિશેષ કહેલ છે. આ યુગ્મ ક્ષુલ્લક પણ હોય
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भगवतीस्त्रे मरूपिता अतस्तव्यवच्छेदार्थ महदिति विशेषणं दत्तम् । तथा च-महान्तिच तानि युग्मानीति महायुग्मानि-राशि विशेपाः ? इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता' पोडश महायुग्मानि राशिविशेषाः प्रज्ञप्तानि-कथितानि 'तं जहा' तथा 'कडजुम्म कडजुम्मे कृतयुग्मकृतयुग्मः यो राशिः सामयिकेन चतुष्कापहारेणापहियमाण श्चतुःपर्यवसितो भवेत् तथा अपहारसमया अपि चतुष्कापहारण चतु: एयवसिता एव भवेयुः असौ राशिः कृतयुग्म इत्यभिधीयते अपहियमाणद्रव्या हैं। जैसा कि पहिले प्ररूपित किया जा चुका है। अतः उनका व्यवच्छेद करने के लिये यहां युग्म शब्द के साथ 'महत्' यह विशेषण रखा गया है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता' हे गौतम! महायुग्म १६ कहे गये हैं। जहा' जो इस प्रकार से हैं 'कडजुम्म कडजुम्मे कृतयुग्म कृतयुग्म १, कृतयुग्मयोज, २, कृतथुग्म द्वापरयुग्म ३, कृतयुग्म कल्योज ४, योजकृतयुग्म ५, योज योज ६, व्योज द्वापरयुग्म ७, त्र्योज कल्पोज ८, द्वापरयुग्म कृतयुग्म ९, द्वापरयुग्म योज १०, द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म ११, द्वापरयुग्म कल्पोज १२, कल्योज कृतयुग्म १३, कल्पोज न्योज १४, कल्योज द्वापरयुग्म १५, और कल्पोज कल्योज १६, इन में जिस राशि को प्रति समय चार चार से अपहृत करते हुए अन्त में उस में से चार बचे रहते हैं और अपहार (नीकालना) समयों में से भी चार चार के છે. જેમ કે પહેલા પ્રતિપાદન કરવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી તેને વ્યવચ્છેદ કરવા માટે અહિયાં યુગ્મ શબ્દની સાથે મહત” શબ્દનું વિશેષણ રાખવામાં मावद छ, मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्त्राभान ४ छ -'गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता' है गौतम ! महायुम. शण्ड १६ से प्रारना
वामां आवे छे. 'त जहा' २ प्रमाणे छे.-काजुम्मकडजुम्मे' કૃતયુગ્મકૃતયુમ ૧ કૃતયુમ જ ૨, કૂતયુગ્મ દ્વાપરયુગ્મ ૩, કૃતયુગ્મ કલ્યાજ , ૪, એજ કૃતયુગ્મ ૫, વ્યાજ વ્યાજ ૬, જદ્વાપરયુગ્મ ૭, જકલ્યાજ ૮િ, દ્વાપરયુગ્મકૃતયુગ્મ ૯, દ્વાપરયુગ્મ જ ૧૦, દ્વાપરયુગ્મદ્વાપરયુગ્મ ૧૧, ૧૨, કલ્યાજ કૂતયુગ્મ ૧૩, કોજ જ ૧૪, કલ્યાજ દ્વાપરયુગ્મ ૧૫,
અને કાજ કલ્યજ ૧૬, આમાં જે રાશને પ્રતિસમય ચાર ચારને • અપહાર (બહાર કહાડવું તે) કરતાં કરતાં છેવટે તેમાંથી ચાર બચે છે,
અને અપહાર સમયમાંથી પણ ચાર ચારના અપહારથી તે નીકળી જતાં છેવટે ચાર
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ १०१ राशिकमेणेकेन्द्रि जीवनिरूपणम् ५०१ पेक्षया तत्समयापेक्षया च द्विधा कृतयुग्मत्वात् । एवमन्यत्रापि शब्दार्थो योजनीयः स च हिल जघन्यतः पोडश संख्यात्मकः एषां हि चतुष्कापहारत श्वतुरग्रत्वात् समयानां च चतु:संग्ख्यत्वादिति १ 'कडजुग्मतेओगे २' कृतयुग्म योजः यो राशिः पतिसमयं चतुष्कापहारेणापहियमाण विपर्यवसानो भवति तत्समयाश्च चतुःपर्यवसिता एक, असौ अपहियमाणापेक्षया योजः अपहारापेक्षया कृत्युग्म एवेति कृतयुग्म व्योज इति कथ्यते तत् संख्यका जघन्यतएकोनविंशतिः तत्र चतुष्कापहारे त्रयोऽवशिष्यन्ते तत्समयाश्च अपहार ले उनके अपहृत होने पर अन्त में चार बचे रहते हैं ऐसी जो राशि है यह कृतयुग्म कृतयुग्म राशि है। कारण कि अपहियमाण द्रव्य की अपेक्षा से और समय की अपेक्षासे दोनों रीति से उस राशि में कृतयुग्मता आती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी शब्द का अर्थ योजित कर लेना चाहिथे। जैसे १६ संख्यात्मक कृतयुग्म कृतयुग्म राशि जघन्य रूप है। क्योंकि इस राशि को चार से अपहृन करने पर में अन्त में चार ही पचते हैं और अपहार समय चार ही है। जो राशि प्रतिसमय चार ले अपहृत होकर अन्त में ३ बाकी बचाती है और उसके समय चार में ही पर्यशसित (समास) होते हैं ऐसी यह राशी अपहियमाण की अपेक्षा योजरूप और अपहार की अपेक्षा कृतयुग्म होती है। जघन्य से इस कृतयुग्म ज्योज की संख्या १९ है। इस संख्या को चारसे अपहृत करने पर अन्त में तीन बचते हैं और इस के समय चार ही है । इस प्रकार से राशि अद के सूत्र इस के વધે છે, એવી જે રાશી (સમૂહ) તે કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશી કહેવાય છે. કારણ કે બહાર કાઢનાર દ્રવ્યની અપેક્ષાથી અને સમયની અપેક્ષાથી એમ બને પ્રકારથી તે રાશિમાં કૃતયુગ્મ પણ આવી જાય છે. આ જ પ્રમાણે બીજે પણ શબ્દોના અર્થની પેજના કરીને સમજી લેવું. જેમ કે-૧૬ સોળ સંખ્યાવાળી કૃતયુ કૃતયુ રાશી જઘન્ય રૂપ છે. કેમ કે આ રાશીને ચારની સંખ્યાથી અપહાર કરતાં છેવટે ચાર જ બચે છે અને અપહાર સમય પણ ચાર જ છે. જે રાશીમાંથી પ્રતિસમયે ચારને અરહાર કરતા છેવટે ત્રણ બાકી રહે છે, અને તેના સમય ચારમાંજ સમાપ્ત થાય છે, એવી તે રાશી અપહરમાણ (બહાર કહાડવા)ની અપેક્ષાથી વ્યાજ રૂપ અને અપહારની અપેક્ષાથી કૃતયુગ્મ રૂપ હોય છે. જઘન્યથી આ કૃતયુગ્સ પેજની સંખ્યા ૧ ઓગણીસની થાય છે. આ સંખ્યાને ચારથી અપહાર કરતાં છેવટે ત્રણ બચે
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भगवती सूत्रे
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चत्वार एवेति २ । एवं राशिभेदसूत्राणि एतद्विवरणसूत्रेभ्यो ज्ञातव्यानि इद्द च सर्वत्रापि अपहारकसमयापेक्षयाऽऽयं पदम् अपहियमाणद्रव्या पेक्षया तु द्वितीयमिति । 'करणं भंते । महाजुम्मा पन्नत्ता ? 'गोयमा' ! सोलस महाजुम्मा पुण्णता' इत्यादि, संख्यासूत्रे विशेषणविशेष्यभावे विशेषणस्य प्राक् प्रयोगः विशेष्यस्य च परमयोग इति नियमेन द्रव्यबोधक सूत्र सिद्धपदस्य परप्रयोगः समयबोधक सूत्र सिद्धपदस्य च प्राक्प्रयोगः कृतः, ततः ' से केण - डेन' इत्यादि प्रश्नस्य 'जे णं रासी' इत्याद्युत्तर सूत्रव्याख्यानेतु द्रव्यबोधकपदस्य प्रथमतो विवरणम्, समयवोधकस्य च पञ्चाद्विवरणं कृतमिति । 'कडजुम्मद रजुम्मे'
विवरण सूत्रों के द्वारा ज्ञातव्य है । यहाँ सर्वत्र अपहारक समय की अपेक्षा से आद्य पद है और अपह्रियमाण द्रव्य की अपेक्षा से द्वितीय पद है 'कहणं ते! महाजुम्मा पन्नता' 'गोषमा | सोलस महाजुम्मा पन्ना' इस्थादि संख्या सूत्र में जो कि विशेषण विशेष्य भाव से युक्त है 'विशेषण का पहिले प्रयोग होता है' और विशेष्य का बाद में प्रयोग होता है । इस नियम के अनुसार द्रव्य बोधक सूत्र से सिद्ध पद का परप्रयोग और समय पोषक सूत्र से सिद्ध पद का पहिले प्रयोग किया गया है । इसलिये 'केण्डेणं' इत्यादि प्रश्न के 'जे रासि' इत्यादि उत्तर रूप सूत्र के व्याख्यान में द्रव्यबोधक पदका पहिले विवरण किया गया है और समयबोधक पद का पीछे विवरण किया गया है । अब गौतमस्वामी इन सोलह राशियों के अर्थ को पूछते हैं-'ले केणट्टेणं अंते । एवं बुच्चइ, सोलव महाजुम्मा' हे भदन्त !
છે અને તેને સમય ચાર જ છે. આ રીતે રાશી બેના સૂત્રો તેના વિરવણુ સૂવાદ્વારા જણાય છે, અહિયાં બધે ઠેકાણે આહારક સમયની અપેક્ષાથી પહેલુ यह छे. याने यहीरभाणु द्रव्यनी अपेक्षाथी जीतु यह उडेल छे. 'कइणं भते | महाजुमा पन्नत्ता' गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता' त्याहि सभ्या સૂત્રમાં જે વિશેષ્ય વિશેષ ભાવથી યુકત છે, વિશેષણના પહેલાં પ્રયાગ થાય છે. અને વિશેષ્યને પછીથી પ્રચાગ થાય છે, આ નિયમ પ્રમાણે દ્રવ્યનેા ધ કરાવનાર ખેાધક સૂત્રથી સિદ્ધપદ્મને પહેલાં પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. તેથી 'केणट्टेण'' विगेरे प्रश्नोना 'जेणं' रासि' विगेरे उत्तर ३५ सूत्रोता व्याभ्यानमां દ્રવ્ય એધક પરંતુ વિવરણ પહેલાં કરવામાં આવેલ છે, અને સમય ખાધના પરંતુ પછીથી વિવરણ કરેલ છે.
હવે ગૌતમસ્વામી આ સેાળ 'सेकेणट्टेण' भ' ! एव ं बुच्चइ खोलस
રાશિના અથ પ્રભુશ્રીને પૂછે છે. महाजुम्मा' हे भगवन् याथ शा अरण्यथी હું
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hrefद्रका ठीका श०३५ उ. १ ३०१ राशिक्रमेणैकेन्द्रिजीवनिरूपणम्
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कृतयुग्मद्वापरयुग्मः ३ 'कडजुम्मकलियोगे' कृतयुग्म कल्योजः ४ । ' तेओग कडजुम्मे' ज्योजकृतयुग्मः ५ । 'तेओगतेओगे' ज्योज - ज्योजः ६ 'तेओग दायर जुम्मे' प्रपोज द्वापरयुग्मः ७ । 'तेओगकलिभोगे' ज्योजकल्योजः ८ 'दावरजुम्मकडजुम्मे' द्वापरयुग्म कृतयुग्म: ९ 'दावरजुम्मते भोगे' द्वापरयुग्मज्योजः १० | 'दावरजुम्म दावरजुम्मे' द्वापरयुग्म द्वापरयुग्मः ११ 'दावर जुम्म कलिओगे' द्वापरयुग्म कल्योजः १२ 'कलिओग कडजुम्मे १३, कल्पोज कृतयुग्मः १३ 'कलिओग तेओगे' कल्योजच्योजः १४ 'कलियोग दानरयुम्मे' कल्पोज द्वापरयुग्मः १५ । 'कलिओकलिओगे' कल्योज कल्योजः १६ । एते पोडश महायुग्म राशयो भवन्तीति । षोडशराशीनामर्थं गौतमः पृच्छति - 'से केणद्वें भंते ! एवं बुच्चर सोलस महाजुम्मा पन्ना ' तत्केनार्थेन सदन्त ! एवमुच्यते पोडशमहायुग्माः प्रज्ञप्ता - कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा - 'कडजुम्मकडजुम्मे जान कलिओग कलिओगे' कृतयुग्मकृतयुग्मों यावत्कल्योजकल्योज इति अत्र यावत्पदेन 'कडजुभ्मते भोगे' इत्यारभ्य 'कलिभोग दावरजुम्मे' इत्यन्वानां ग्रहणं भवतीत्यवान्तरपश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' 'हे गौतम! 'जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए' यः खलु राशिः चतुकेणापहारेणापहियमाणञ्चतुः पर्यवसितो भवति चतुः संख्यया विभज्यमाने चतुः शेषो भवतीत्यर्थः तथा - ' जेणं तस्स रासिस्स अहारसमया तेवि कड आप किस कारण से कहते हैं कि महायुग्म सोलह होते हैं । जैसे कि वे कृतयुग्म कृतयुग्म से लेकर आपने 'कलि ओगकलि ओग' पद तक कहे हैं। यहां यावत् शब्द से 'कडजुम्म तेओगे' से लेकर 'कलि भोगदावर जुम्मे' तक के १४ महायुग्म गृहीत हुए हैं इस प्रकार का यह अवान्तर प्रश्न है । इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! जेणं रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जर्वानिए' हे गौतम! जो राशि चार की संख्या से विभक्त होकर अन्त में चार बचाती है तथा કહેા છે કે મહુ'યુગ્મા સેળ છે ? જેમ કે-કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મથી લઇને કલિયેાગ यह सुधी आये उद्या हे मडियां यावत्यथी 'कडजुम्म तेओगे' मा पहथी सधने 'कलिओगद्दावरजुम्मे' आ यह सुधी १४ यौः महायुग्मा ग्र કરાયા છે. આ રીતે આ અવાન્તર પ્રશ્ન કરેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वामीने हे छे - 'गोंयमा । जे णं रासी चउकरणं अवहारेण अवहीरमाणे चउपज्जवसीए' हे गौतम ने शशीन। थारनी सध्या भांथी विभाग साथी हेवटे यार अये छे, तथा 'जेणं' तस्स रासिस्स अवहारसमया ते वि कडजुम्मा'
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जुम्मा' ये खलु तस्य राशेरपहारसमया स्तेऽपि कृतयुग्मस्वरूपाः चतुः trafear a cata | 'सेत्त कडजुम्मकडजुम्मे' सोऽयं कृतयुग्मकृतयुग्मः, वत्तेनार्थेन गौतम ! eageयते कृतयुग्मकृतयुग्मः इत्यग्रेण सम्बन्धः, स च जघन्यतः षोडशात्मकः (१६) अपहियमाण द्रव्यापेक्षया समयापेक्षया च कृतयुग्वस्वादिति १ । ' जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे ति पज्जनसिए' यः खल्ल राशि चतुष्केणापहारेणापहियमाण स्त्रिपर्यवसितो भवति तथा- 'जेणं are after अवहारसमया कडजुम्मा सेत्तं कडजुम्म तेभए' ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कृतयुग्मा चतुः पर्यवसाना भवन्ति ' से त्तं कडजुम्म ओए' तस्मात्कारणात् सोऽयं राशिविशेषः कृतयुग्म ज्योज इति कथ्यते स च जघन्य एकोनविंशत्यात्मकः (१९) २ | 'जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं 'जेणं तस्स रासिस्स अवहार समया ते चि कडजुम्प्रा 'जो इस राशि के अपहारक समय होते हैं वे भी चार रूप ही होते हैं ऐसी वह राशि कृतयुग्म कृतयुग्म रूप कही गई है 'इसी लिये मैंने उसे कृतयुग्म कृतयुग्म रूप कहा है । जैसे १६ संख्या की राशि जब चार से विभक्त होती है तो अन्त में इसके ४ बचते हैं और यहां अपहारक समय भी चार है, इसलिये अपह्रियमाणद्रव्य की अपेक्षा से और अपहारक समय की अपेक्षा से हम में कृतयुग्म कृतयुग्म रूपता आती है ऐसा जानना चाहिये । जेणं रासी चक्कणं शवहारेणं अवशरीरमाणे तिपज्जबसिए' जो रात्रि चार के द्वारा विभक्त होती हुई जिस के अन्त में तीन बचें ऐसी होती है तथा - 'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से त्तं कडजुम्मते भए' उस राशि के अपहार समय कृतयुग्म
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જે તે રાશીના અપહાર કરવાળા સમય હાય છે, તે પણ ચારના જ હોય છે. એવી તે રાશી કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ કહેવાય છે. તેથી મે તેને કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રૂપ કહેલ છે. જે રીતે ૧૬ સેળ સખ્યાની રાશીના જ્યારે ચારથી વિભાગ કરવામાં આવે છે, તે છેવટે તેમાંથી ૪ ચાર ખેંચે છે. અને અહિયાં અપહાર કરનાર સમય પણ ચાર જ છે. તેથી અપહાર કરતાં દ્રવ્યની અપેક્ષાથી અને અપહારક સમયની અપેક્ષાથી આમાં કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મપણુ' આવે છે. તેમ समन्नर्बु. जेणं' रासी चक्करण अवहारेणं अवहीरभाणे तिपज्जवसिए' ने રાશી ચારથી વિભકત કરાતિ થકી જેના અંતમાં ત્રણુ ખચે એવી હોય છે. તથા ' जेण तस्स रासिरस अवहारसमया कडजुम्मा सेत कडजुम्मते ओए' ते शशिना અપહાર સમય કૃતયુગ્મચાર રૂપ ાય છે. એવી તે રાશિ મૃતયુગ્મ, ચૈાજ
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प्रमेयबद्रिका ठीका श०३५ उ. १ २०१ राशिक्रमेणैकेन्द्रिजीवनिरूपणम् ५०५ ranीरमाणे दुपज्जवलिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेणापयिमाणो द्विपर्ययसितो भवति तथा- 'जे णं तरस रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा सेतं कड जुम्म दावरजुम्मे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कृतयुग्मरुता भवन्ति तस्मात् स राशि विशेषः कृतयुग्मद्वापरयुग्म इत्यभिधीयते स च जघन्यवादशात्मक इति (१८) ' जेणं रासी चउकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जबसिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेणापहियमाण एकपर्यवसित एव भवति तथा'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा से त्तं कडजुम्मकलिओगे' ये खलु तस्य राजेरपहारसममया एकपर्यवसिता एव भवन्ति तस्मात् स राशिः कृतयुग्मकल्योज इत्यभिधीयते स च जघन्यत सप्तदशात्मकः ( १७ ) इति ४ । 'चार रूप होते हैं ऐसी वह राशि कृतयुग्म ज्योज कही गई है । वह राशि जघन्य से १९ संख्या रूप होती है 'जे णं रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जबसिए' जें णं तस्स राखिस्स अवहारसमया कडजुम्मा सेन्तं कलजुम्म दावरजुभ्से' तथा - जो राशि चतुष्क से अपहृन -विभक्त होकर अन्त में दो बचाती है और जिल के अपहार समय चार रूप से होते हैं ऐसी वह राशि कृतयुग्म द्वापरयुग्म रूप है । जघन्त्र से इस राशिका प्रमाण १८ है । अपहार समय की अपेक्षा इस में कृतयुग्मता है और द्रव्य की अपेक्षा अन्त में दो बचने के कारण द्वापरयुग्म है । 'जे णं रासी चउक्कएर्ण अवहारेणं अवहीरमाणे एगज्जबसिए' जो राशि चार से विभक्त होकर अन्त में एक बचाती राशि कृतयुग्म कल्पोज रूप है। तथा इसके अपहारक समय है । 'जेणं तस्रारिस्म अवहारक्षमघा कडजुम्मा सेन्त कडजुम्म कलिओगे' एवं जिस राशिका अपहार लमय एक होना है, वह राशि कृतयुग्म कल्योन रूप है। तथा इसके अपार समय चार होते हैं । इसलिये इम में कृतयुग्मता है ऐसी वह राशि जवन्य से १७ संख्यारूप होती है । 'जे णं रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीर
अवाय छे. ते राशि धन्यथी १८- योगबुसनी सच्या ३५ थे 'जेण रासो 'चउक्कएण' अवहारेण' अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स राखिस्स अवहारसमया कडजुम्मा सेत्त' कडजुम्म दावरजुम्मे' तथा ने राशी थारनी सध्याथी अपहार કરતા વહેંચાઇને છેવટે એ વધે છે અને જેના અપદ્ગાર સમય ચાર રૂપ હાય છે. એવી તે રાશિ કૃતયુદ્વાપરયુગ્મ રૂપ હેય છે જઘન્યથી આ ાનું પ્રમાણ ૧ અરાડનુ છે, પહાર સમયેાની અપેક્ષથી આમા કૃતયુગ્મ પણુ કહેલ છે, अने छेवटे मे अथवाने द्वापरयुग्भयो, 'जेणं' राम्री चक्करणं अवहारेण अवहीरमाणे एगज्जवथिए' ने राशी यारथी वहेथवाथी हेवटे मे वर्षे छे 'जेणं' तस्स रासिस्छ अवहारसमया सेत्तं कडजुम्म कलिओगे' भने ने राशीना આપડાર સમય એક હાય તે રાશિ કૃતયુગ્મ કલ્યાજ રૂપ છે, અને તેના
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भगवती सूत्रे 'जेणं रासी चउकरणं अवहारेण अवहीरमाणे चउपज्वसिए' यः खल राशिचतुष्केणापहारेणापहियमाणञ्चतुः पर्यवसितो भवेत् तथा 'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओगकडजुम्मे ५ । ये खलु तस्य राशेरपहार समयाः ज्योजा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशिविशेषः ज्योज कृतयुग्म रूप इत्यभिधीयते स च जघन्यतो द्वादशात्मकः ( १२ ) इति ५ । 'जेणं रासी चउकरणं अवहारेणं अवtरमाणे ति पज्जवसिए' यः खल राशि चतुष्केणापहारेण अपह्रियमाणत्रिपर्यवसितो भवेत् तथा - ' जेणं तस्स रासिस्स अवहार समया तेओगा से तं तेयोग तेभोगे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः ज्योजा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशिविशेषः ज्योज ज्योज रूपोऽभिधीयते ' स च जघन्यतः पञ्चदशात्मकः (१५) इति ६ । 'जेणं रासी चउकरणं अवहारेणं अवीरमाणे दो पज्जवलिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेण अपह्रियमाणे द्विपर्यवसित एवं भवति तथा- 'जे णं तस्स रासिस्स अहारसमया तेओगा माणे चउपज्जवलिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा से तं तेओग कडजुम्मे' जो राशि चार से अपहृत होने पर चार बचाती हैं और उसके अपहार समय ३ रूप होते हैं ऐसी वह राशि योज कृतयुग्म रूप होती है । ऐसी वह राशि जधन्य से १२ संख्या रूप होती है। 'जेणं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स राखिस्त अवहारसमया तेओगा सेत्तं तेभोगतेओगे' ६ 'जो राशि चार से अपहृत होने पर अन्त में तीन बचाती है और उस राशि के अपहार समय योज रूप होते हैं वह ज्योज योज राशि है । जघन्य प्रमाण १५ है । 'जे णं रासी चक्क एर्ण अवहारेण अवहीरमाणे दो पज्जबसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहार
અપહારક સમય ચાર હોય છે. તેથી તેમાં કૃતયુગ્મ પણ આવે છે. એવી તે राशी धन्यथी १७ सत्तर संख्या ३५ छे 'जेण रासी चक्करण' अवहारेण अहीरमाणे चउपज्जवसिए जेण तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा सेत तेओग कडजुम्मे' ? राशीमां यारनी संख्याथी अपहार उरतां यार व छे, અને તેના અપહારના સમય ૩ ત્રણ રૂપ હોય છે. એવી તે રાશી યૈજ કૃતયુગ્મ રૂપ હાય છે, એવી તે રાશી ૧૨ ખારની સખ્યા રૂપ હાય છે
'जेण रात्री चक्कणं अवहारेण अवहीरमाणे तिपज्जवखिए जेणं तस्व सिरस अवहारसमया तेओगा सेत्तं तेओगवे ओगे' ? राशीभांथी यार ના અપહારથી છેવટે ત્રણ મચે છે, અને અપહારના સમય ચૈાજ રૂપ હાય છે, तेभ्यो यो राशी ४डेवाय छे तेनी सभ्यानुं प्रभाशु १पनु' , 'जे णं राखी च raण अवहारेण अवहीरमाणे दो पज्वखिए, जेण तहस रारिस अवहारसमया
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चन्द्रिका टीका ०३५ उ. १ सू०१ राशि क्रमेणैकेन्द्रि जीवनिरूपणम् ५०७ से त्तं तेओग दावरजुम्मे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः ज्योजा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशि विशेषः त्रयो द्वापरयुग्म इति कथ्यते स च जघन्यत चतुर्दशात्मकः (१४) इति ७ । 'जे राती चउकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेणापहियमाण एक एव पर्यवसितो भवेत् तथा - ' जेणं तस्स रासिस्स अवहारममया तेओगा सेत्तं तेओगकलिओगे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमया ज्योजा भवन्ति, तस्मात् कारणात् स राशिविशेषः ज्योजकल्योज इत्यभिधीयते स च जघन्यत त्रयोदशात्मकः (१३) इति ८ । 'जे णं रासी चउक्कणं अत्रहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेणापहियमाण इचतुः पर्यवसितो भवति तथा - 'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मकडजुम्मे' समया तेओगा सेन्तं तेओगदावर जुम्मे' ७ जिस राशि में से चतुष्क के अपहार से अन्त में दो बचते हैं और अपहार समय जिसके ज्योज रूप होते हैं ऐसी वह राशि ज्योजद्वापरयुग्म रुप होती है इसका जघन्य प्रमाण १४ संख्या रूप है । 'जे णं' रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए' जो राशि चतुष्क से अपहृन होने पर अन्त में एक बचाती है और 'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा सेत्तं ते ओग कलिओगे' अपहार समय जिसराशि के धोजरूप होते हैं ऐसी वह राशि प्रपोज कल्पोज रूप होती है । इसका जघन्य प्रमाण १३, संख्यारूप होता है । 'जे' णं रासी चउक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए' जो राशि चार से विभाजित होकर अन्त में चार बचाती है तथा 'जे' णं तस्स राखिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा सेत्तं दानरजुम्म कडजुम्मे' तेओगा सेस' तेओगदावरजुम्मे' ७, ने राशिभाथी थारनो अपहार २वाथी છેવટે બે મચે છે, અને જેના અપહારના સમય ચૈાજ રૂપ હૈાય છે. એવી તે રાશી ચૈાજ દ્વાપરયુગ્મ રૂપ હાય છે. તેનું જઘન્ય પ્રમાણ ૧૪ ચૌદ સ ખ્યા ३५ हाथ छे, 'जेणं' रासी चक्करण अवहारेण अवीरमरणे एगपज्जवखिए ' જે રાશી ચારની સંખ્યાથી અપહાર થવાથી છેવટે એક બચે છે, અને
तर रासिह अवहारसमया तेओगा सेत्त ते ओोगकलिओगे' भने नेनो महारने સમય ચૈાજ રૂપ હેાય છે. એવી તે રાશી જ્યે જ કલ્યેાજ રૂપ હાય છે. તેનુ प्रभाणु १३ तेर सध्या ३५ होय छे. २ 'जेणं' रासी चउक्कण अवहारेण ' अवद्दीरमाणे चउपज्जवखिए' ने राशीभांथी यारनेो विभाग उरवाथी हेवटे यार जये छे तथा 'जेण' तस्स रासिहस्र अवहारसमया दावरजुम्मा सेत्त दावरजुम्म जुम्मे' में राशिना अपहार समय द्वापरयुग्भ छे, सेवी ते राशि द्वापर
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भगवतीचत्रे.
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• CONT
ये खलु तस्य रशेपहारसमया द्वापरयुग्ना भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशिविशेषो द्वापरयुग्मकृत्युग्य इत्यभिधीयते स च जघन्यतोप्टात्मक', इति (८) ९ । 'जेणं रासी चक्करणं अहारेणं अहीरमाणे तिरज्जवलिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहारेणापहियमाण स्त्रिपर्यवहितो भत्रति तथा- 'जेणं वरस रासिस्स अहारसमया दावरजुम्मा से त्तं दावरजुम्मतेओगे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुगमरूपा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशि विशेष: द्वापरयुग्मयोज इति कथ्यते स च जघन्यत एकादशात्मकः (११) इति १० । 'जणं रासी चउक्करणं अवदारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए' यः खलु राति चतुष्केणापहारेणापहियमाणो द्विपर्यवसितो भवति तथा - 'जेण तस्स रासिस्स अवहारसNया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्म दावरजुम्मे' ये खल्ल तस्य राशेरपहारसमया द्वापरयुग्मरूपा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशिविशेषो द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म इति कथ्यते स च जघजिस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म हैं ऐसी यह राशि द्वापरयुग्म कृत युग्म कही गई है । वह राशि जघन्य रूप से ८ संख्यात्मक है । ९ 'जे रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए' जो राशि चार से अपहृन होकर अन्त में तीन बचाती है। तथा 'जे णं तस्स रासिस्स अवहारलमया दावरजुम्मा सेन्तं दाबरजुम्मतेओगे' जिस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म रूप हैं ऐसी यह राशि द्वापरयुग्म प्रोजरूप है । यह संख्या में जघन्य से ११ संख्या रूप होती है । 'जेणं शिसी चक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जबसिए' जो राशि चार से अपहृत होकर - विभाजित होकर अन्त में दो बचाती हैं तथा 'जेणं तस्स राहिल अवहारसस्या दावरजुम्मा जिस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म रूप है-ऐसी वह राशि द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म रूप है । यह जघन्य संख्या में १० रूप होती है । जेणं रासी चक्क एणं युग्भ द्रुतयुग्म छे ते ८ संख्यात्मङ छे. ८ 'जेणं' रासी च उक्कएण
वारेण अबहीरमाणे ति पज्जवखिए ? राशी यारथी अपहृत थने छेवटे श्रषु मथावे 'छे, तथा 'जे ण' तस्व राखिस्स अपहारसमया दावरजुम्मा सेत्त दावर जुम्म तेओगे' के शशिने। अपहार समय द्वापरयुग्म ३५ छे, शेवी ते राशी द्वापरयुग्म यो ३५ छे, तेनी धन्य संख्या ११नी होय छे 'जेणं रासी च
करण अवहारेण अवहीरमाणे दुपज्जवसिए' ले राशी सारथी अपहार ने वहेयवाथी छेवटे मे मये थे, तथा 'जेण' तस्स रासिस्व अपहारसमया दावर जुम्मा' ने राशीना अपहार सभय द्वापरयुग्भ ३५ छे, भेवी ते राशि द्वार युग्भ द्वापरयुग्म ३५ है, आ संख्यामा १० हस ३५ होय छे. 'जेणं रासी
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प्रमेयचम्फिा टीका १०३ १ उ.१ सू०१ राशिकमेकेन्द्रिजीवनिरूपणम् ५०९ न्यतो दशात्मकः (१०) इति ११ । 'जे णं राशी वउपएणं अबहारेणं आ. हीरमाणे एनपज्जनसिए' यः खल्छ राशि चतुष्केगापहारेनापहि पमाण एक पर्यवसित एव भवति तथा-'जे णं तस्स राखिस्स अहारमाया दावर जुम्पा सेत्तं दादरजुम्पकलि भोगे' ये खलु तस्य रारपहारसमया द्वापरयुग्म रूमा भवन्ति तस्मात्कारणात् स राशिविशेपो द्वापरयुग्म फल्योज इति यथपते, स च नात्मकः (९) इति १२ । 'जे णं नासी चउकएणं अहारेणं अवहीरमाणे चउप्पज्जवसिए' का खल्लु राशि चतुष्रेणापहारेणापहियमाम श्चतुःपर्यव सितो भवति तथा 'जे णं तस्स रासिस्स अठारसमया कलिओगग सेत्तं कलिओग कडजुम्मे ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कल्योजाः तस्मात्कारणात स राशिविपः कल्योजकृतयुग्म इत्यभिधीयते, स च जघन्यव चतुष्कास्मकः (४) इति १३ । 'जे णं राप्ती चउरणं अपहारेणं अवहीरमाणे विपन. वसिए' यः खलु राशि चतुष्केणापहरेणाऽपहियमागस्त्रिार्यवसितो भवति अथहारेण अबहीरमाणे पनपज्जवलिए' जो राशि चार से अपसा होकर अन्त में एक बचाती है तथा 'जे णं तस्स रासिक अवहार समया दार. जुम्मा लेतंदावर जुम्म कलिओगे' जो उस राशि के अपहार समय हापरयुग्म रूप हैं ऐसी राशि छापरयुग्म कल्पोज रूप होती है । यह जघन्य संख्या में ९ रूप होती है। 'जे णराली चउककरण अवहारेण अवहीरमाणे चउज्जवसिए' 'जो राशि चार ले विमत रोजर अन्त में चार राती है। 'जे नरपत रालिक अपहार समया कलियोगा से त कलिओग उम्मे' तथा जिल्ल पाशि के अपहार सम्मघ फाल्योज रूप होते हैं ऐसी बह शशि पाल्पोज कृत्युग्म इलानी है । संख्या में वह जघन्य से चार रूप है । 'जे ण रात्री चयनकरण अवहारेण याहीरचउकएण अवहारेण अबहीरमाणे एगपज्वसिए' 2 २.शी यारथी अपहत थपाथी मे भय तथा 'जे ण तस्स रासिस्न सवहारसमया दावरजुम्मा सेतं दावरजम्मकलिओगे'ले शिने। अ५२ समय द्वापरयम રૂપ છે, એવી તે રાશીદ્વાપરયુગ્મ કાજ રૂપ હોય છે. આ સંખ્યામાં ૯ નવ ३५ हाय छे. 'जे ण रोसी चउरकेपण अवहारेण अवहीरमाणे चउपजवसिप' शशी यारथी वयाने छेक्टे यार भयाव छ, 'जे ण तस्स रासिरस अवहारममया कलिओगा सेत्त कलिओगाडजुम्मे' तथा रे शीना पहार સમય કલ્યાજ રૂપ હોય છે, એવી તે રાશી કલ્યાજ કૃતયુગ્ય કહેવાય છે. सध्यामा तयार ३५ डाय छे. 'जेण रासी चक्करण अवहारेण अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे ण तस्स रासिस भवहारसमया कलिओगा सेत्त' मलिश्रोत
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भगवतीत्र तथा-'जे पं तस्स रासिस्स अवारसमया कलिओगा सेत्तं कलियोग तेओगे' ये खलु तरय राशेरपहारसमयाः कल्योजाः तस्मात्कारणात् स राशिविशेष: कल्योज ज्योज इति कथ्यते स च जघन्यतः सप्तात्मकः (७) इति १४। 'जेणं रासी च उक्कएणं अबहारेणं अबहीरमाणे दुपज्जवसिए' यः खल्ल राशि चतुपकेणापहारेणापहियमाणा द्विपयेवलितो भवति तथा 'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसनया कलिओन सेतं कलिओगदावरजुम्मे ये खल तस्य राशेरपहार समयाः फल्योजा भवन्ति तस्मात् कारणात् स राशि विशेष: कल्योज द्वापरयुग्म इति कथ्यते, स च जघन्यतः षडात्मकः (६) इति १५। 'जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे एगपज्जवसिए' यः खल्लु राशिश्चतुष्केणापहारेणापहीयमाण एकपर्यवसितो भवेत् तथा-'जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा सेत्तं कलिओग कलिओगे' ये खलु तस्य राशेरपहारसमयाः कल्योजा भवन्ति माणे तिपज्जवलिए 'जे तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा ले त कलिओगतेओगे' जो राशि चार से विभक्त होकर अन्त में तीन पचाती है, तथा उन के आहार समय कल्पोज रूप होते हैं ऐसी वह राशि फल्योज धोज रूप कही गई । वह जघन्य संख्या में ७ रूप है। 'जे ण रोली चक्कएण अवहारेण अवहीरमाणे दुपज्जवसिए' 'जे ण तस्ल शालिक अवहारसमया कलि भोगा से तं कलिओग दावरजुम्ले' जो राशि चार ले विभक्त होती हुई अन्त में दो बचाती है और उस के अपहार लमय कल्पोज रूप होते है । ऐसी वह कल्योज द्वापदमुग्ध कही जाती हैं । संख्या में वह जघन्य से ६ रूप होती है । 'जे गं राली च उपकरण अवहारेण अवहीरमाणे एगपज्जवसिए जे ण तल राखिस्स अचहार ललया कलि श्रोगा से तं कलिओगकलि. ओगे' जो नाशि चार से अपहृत होकर अन्त में एक बचाती है । तथा તેઓ જે રાશી ચારથી વહેચાઈને છેવટમાં ત્રણ બચાવે છે, તથા તેના અપહારને સમય કલ્યાજ રૂપ હોય છે, એવી તે રાણી કજ ત્યાજ રૂપ કહેલ छ. ते सयामा ७ सात ३५ छ. 'जेण रासी चउकएण अवहारेण अवहीरमाणे दुरज्जवसिए जेण नस्स राखिस्स अवहारसमया कलि ओगा सेत्त कलि भोगदावर जम्मे' २ राशी यारथी पड यान छेक्ट में या छ, मन ना रे અપહારનો સમય કલ્યાજ રૂપ હોય છે, એવી તે રાશી કજ દ્વાપરયુગ્મ ३५ लामा भाव 2. सध्यामा १७ ३५ छे. 'जेण रासी चउक्कएण अवहारेण अवहीरभ णे एगपज्जवसिए जे ण तस्व रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से त्त कलिओगकलिओगे' २ राशी यानी सच्याथी अपहत थर्थ न छट २४ यावे छे. तया 'जेण' तस्स रासिस्स अवहारममया कलि भोगा
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प्रमेयचदिका टीका ०३५ .१ ०२ राशिकमेणैकेन्द्रिजी निरूपण ५११ तस्मात्कारणात् स राशि विशेपः कल्योज कल्योज इति कथ्यते एप च जघन्यतः पश्चात्मकः (५) इति १६ । 'से तेणटेणं जार कलिभोगकलिभोगे' तत्तेनार्थेन हे गौतम ! एवमुच्यते कृतयुग्मकृतयुग्मो यावत् कल्योज कल्योज इति पोडशापहारराशयो भवन्ति यावत्पदेन 'वाडजुम्मकडजुम्मे इत्यारण्य 'कलि योग दावरजुम्मे' इत्यन्तस्य सर्वस्य ग्रहणं भवतीति ।मु०१॥
मूलम्-कडजुम्म कडजुम्ल एगिदियाणं भंते ! कओ उवाजंति ? किं नेरइएहितो० ? जहा उप्पलुदेलए तहा उबवाओ। तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उज्जति ? गोयमा ! सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अजंता वा उववजंति । तेणं भंते ! जीवा समए समए पुच्छा, गोयमा ! ते णं अणंता समए समए अवहीरमाणा अबहीरमाणा अणंताहिं उस्लप्पिणी
ओसप्पिणीहिं अवहीरंति णो चेव णं अवहरिया लिया। उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देलए । तेणं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्त कमल किं बंधगा अवंधगा ? गोयमा! बंधगा, लो अबंधगा। एवं सम्वसि आउयवज्जाणं। आउयल्स बंधगा वा अवंधगा वा । ते णं भंते ! जीवा जाणावरणिज्जस्म पुच्छा, गोयना ! वेयगा नो अवयगा। एवं सब्वेसि । ते णं भंते ! जीवा किं सायावेयगा 'जे ण तस्स रासिस्सा अवहारलमया कलि मोगा से त कलिोग कलि भोगे' जो उस राशि के अपहारसमय कल्योज रूप होते हैं, ऐसी वह राशि कल्योज कल्योज है यह ५ संख्यारूप होती है । ? ६ । 'से तेणटेण जाव कलि भोग कलिओगे' इस कारण हे गौतम ! मैने कृतयुग्म कृतयुग्म से लेकर कल्योज कल्योज तक १६ महाराशियां कही हैं ॥ १॥ सेत्त कलिओगकलिओगे'२ राशीन। २५५७१२ समय ध्यान ३५ ।५ छे मेवा તે રાશી કલેજ કજરૂપ છે. આની સંખ્યા પંદર ૧૫ રૂપ હોય છે. ઉદા 'से तेणट्रेण जाव कालभोग कलिओगे' 2AL Yथा 8 गौतम ! म तयुम કૂતયુગ્મથી લઈને કલ્યાજ કાજ સુધી ૧૬ સેળ મહારાશી કહી છે. સૂત્ર
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भगवतीसरे असायादेयगा पुच्छा, गायमा ! सायावेषगा असायावेयगा वा। एवं उप्पलुद्देलगारिबाडी। लवलिं कम्माणं उदई नो अणुदई। छण्हं कस्लाणं उदीरगा नो अणुदीरगा। वेयणिजाउयाणं उदीरगा वा अणुदीरमा वा। लेणं संते ! जीवा किं कण्ह० पुच्छा, गोयमा ! कण्हलेस्ला बा, नीललेस्ला वा, काउलेस्ता वा तेउलेला वा। नो सम्पदिट्री, नो सम्मामिच्छादिट्टी, मिच्छादिली, नो नाणी अन्नाणी नियमं दुअन्नाणी, तं जहा मइ अन्नाणी य लुस अन्नाणी य नो मगजोगी, नो वइ जोगी, काइ. जोगी। लागारोवउत्ता वा अणागारोव उत्ता वा। तेसिं गं भंते ! जीवाणं लरीरा कई वन्ना जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थ पुच्छा गोयमा ! जहा उप्पलुइसए ऊसासगा वा, नीसासगा वा, नो ऊ आसनीलासगा पा । आहारगा वा अगाहारगा वा। नो विग्या अविरया, नो विरयाविया, सकिरिया, नो अकिरिया । सत्तदिहबंधना वा, अविहबंधगा वा। आहारसन्नोवउत्ता वा जाव परिउमहसन्नो उत्ता वा । कोहकसाई वा माणकसाइ जाव लोसकलाई दा । नो इथिवेयगा, नो पुरिसवेयगा णपुंमगवेयगा। इत्थिशवंधमा वा, पुरिसवेयबंधगा वा, णपुंसगवश्वंधमा वा। णो सन्नी, अलन्नी। सइंदिया नो अणिंदिया । तेणं संते ! कडजुम्म कडजुम्म एगिदिया कालओ केवञ्चिर हॉति ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उनोसेणं अणंतं कालं-अणंता उस्लप्पिणी ओसप्पिणीओ वणस्तइकाइय कालो। संवेहो ज भवइ । आहारो जहा उप्पलुसिए । नवरं निवाघाएणं छदिलि, वाधाचं पडुच्च लिय तिदिहिं, लिय बउरिसिं लिय पंच दिलि, लेलं तहेन । ठिई जहन्लेणं अंतोमुहत्तं, उल्कोलेणं बावीसं
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३५ उ. १०२ कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१३, वास सहरसाई । समुग्धाया आदिल्ला चतारि । मारणंतिय समुग्वाणं समोहया त्रिसरति असमोहया वि मरंति । उच्चहणा जहा उप्पलद्देसए । अह संते ! सव्वपाणा जाव सव्व सत्ता कडजुम्मकडजुम्लए गिंदियत्ताए उववन्नपुव्वा ! हंता गोगमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो ॥ सू० २ ॥
छाया -- कृतयुग्मयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते किं नैरकेभ्य० यथोत्पलोद्देश के तथा उपपातः वे खलु भदन्त ! जीवाः एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते गौतम! षोडश वा संख्येया वा, असंख्येया वा, अनन्ता वा, उत्पद्यन्ते । ते खलु भदन्त ! जीवाः समये समये पृच्छा गौतम ! ते खलु अनन्art समये समये अपह्रियमाणा अपह्रियमाणा अनन्ताभिरुत्सर्पिणीभिपहियन्ते, नैव खलु अपहूताः स्युः । उच्चच्त्रं यथोत्पलादेश के । ते खलु भदन्त ! जीवाः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वन्धका अवन्धकाः ? गौतम ! वंधका नो अवन्धकाः । एवं सर्वेषामायुष्कवणाम् | आयुष्करूप बन्धका वा अवधका वा । ते खलु भदन्त ! जीवाः ज्ञानावरणीयस्य० पृच्छा गौतम ! वेदका नो अवेदका एवं सर्वेषाम् । ते खलु भन्छ ! जीवाः किं सातावेदका असातावेदकाः पृच्छा, गौतम | सातावेदका वा, असातावेदका वा, एवमुत्पलोदेशक परिपाटी । सर्वेषां कर्मणा मुदयिनो नो अनुदयिनः पण्णां कर्मणा मुदीरका, नो अनुदीरकाः, वेदनीयायुष्कायोः उदीरका वा अनुदीरका वा । ते खलु मदन्त जीवाः कि कृष्ण० पृच्छा, गौतम ! कृष्णलेश्या वा, नीललेश्या वा, कापोतलेश्या वा, तेजोलेश्या या । नो सम्यग्दृष्टयः नो सम्पस्मिनाष्टयः, मिथ्या दृष्टयः । नो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः नियमात् द्वयज्ञानिनः तद्यथा-मत्यज्ञानिनश्च श्रुताज्ञानिनश्च । नो मनोयोगिनो नो बचोयोगिनः काययोगिनः । साकारोपयुक्ता वा, अनाकारोपयुक्ता वा । पां खलु भदन्त ! जीवानां शरीराणि कवि वर्णानि, यथोत्पल. देश के सर्वत्र पृच्छा, गौतम ! यथोत्पलोदेशके उच्छ्वासका वा निःश्वासका, वा, नो उच्छवासनिःश्वासकाः । बाहारका वा अनाहारका वा, नो विरताः अविरताः, नो विस्तारिताः । सक्रियाः नो अक्रियाः । सप्तविधा वा अष्टविधबन्धका वा । आहारसंज्ञोपयुक्ता वा यावत्परिग्रहसतोपयुक्ता वा । क्रोध कपायिनो वा मानपायिनो यावल्लोसकपायिनो वा । नो स्त्रीवेदका नो पुरुषवेदकाः, नपुसकवेदकाः । स्त्रीवेदयन्धका चा पुरुषवेदवन्धका वा, नपुंसकवेदवन्धका वा । नो संज्ञिनोऽसंज्ञिनः । सेन्द्रिया नो अनिन्द्रियाः । a aa भदन्त ! कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? गौतम |
भ० ६५
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भगवतीको जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्पणानन्तं कालम्, उनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः वनस्पतिकायिककालः। संवेधो न भण्यते, आहारो यथा-उत्पको देशके, नवरं नियाधान षदिशम्, व्याघातं प्रतीत्य रयात् चतुर्दिशम्, स्यात् पञ्चदिशं शेष तथैव । स्थितिजन्येनान्तर्मुहत्तम्, उत्कर्षेण द्वाविंशतिवर्पसहखाणि । समु.
याता आद्याश्चत्वारः। मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि नियन्ते, असमबहता अपि नियन् । उद्वर्त्तना यथा उत्पलोद्देश के । अथ भदन्त ! सर्व प्राणा यावत् सर्वसमाः कृतयुग्मकतयुग्म एकेन्द्रियतया उत्पन्नपूर्वाः ? गौतम ! असकृत् अथवा-अनन्तकृत्वः ।। सु० २॥
टीकाः---'कडजुम्मकडजुम्म एमिदिया णं भंते ! कृतयुग्मकृतयुग्म केन्द्रियाः खलु भवन्त ! ये एकेन्द्रियाः चतुष्कापहारे चतुःपर्यवसिताः अपहारसमयाश्च चतुःपर्यवसानास्ते कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया। कथ्यते एवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् 'को उबवज्जति' इत्थंभूना एकेन्द्रियाः कुतः कस्मात् स्थान विशेषादागरपोपपद्यन्ते "कि नेरइपहितो०' किं नैरपिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तिर्यग्योनिकेभ्यो वा आगत्योत्पधन्ते मनुष्येभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते देवेभ्यो पा आगत्योत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाह-अतिदेशमुखेन 'जहा उप्पलुसए कहा
'कडजुम्म कडजुम्ल एगिदियाण भंते ! इत्यादि
टीकार्थ-'फडजुम्म कडजुम्म एगिदियाण भंते ! हे भदन्त ! जो एकेन्द्रिय कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमाण है। ऐसे वे एकेन्द्रिय जीव 'को उपवज्जति' किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'कि नेहएहितो.' क्या वे नैरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते है अथवा तिर्यग्योनिकों में ले आफर के उत्पन्न होते है ? अथवा मनुष्यो में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देशों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न का अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम
'कर जुम्मकडजुम्मएगिदियाणं' त्यादि
Aar-कडजुम्मकदजुम्म एगि दियाण भते ! 8 समपन्न सन्द्रिय कृतयुम्भ कृतयुभ राशिमा डाय मेवात मेन्द्रिय वे 'कओ उववज्जति' ४या स्थान विशेषमाथी मापीन पन्न थाय ? 'कि नेरइएहितो' शु તેઓ નરયિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા તિયચોનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં અતિ દેશથી अनुश्री गौतभावामान ४ हे-'जहा उप्पलुद्देनए तशा उववाओ' I मशक्ती
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१०२ कृ.कृतयुग्भेकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१५ उववाओ' यथा उत्पलोदेशे तथा उपपातो भगवतीमत्रशैव एकादशशतके प्रथमोदेशक उत्पलोदेशकः तत्र यथा-एकेन्द्रियाणामुपपात: कथित स्तथैवात्रापिउपपातो ज्ञातव्यः नो नैरपिकेभ्य उपपद्यन्ते, तिर्यग्योनिकेभ्यो वा, मनुष्येभ्यो चा, देवेभ्यो वा उपपद्यन्ते, पृथिव्यवनस्पतिषु देवानामुत्पत्तिसंभवाद, तदपेक्षयैव देवेभ्य आगत्य एकेन्द्रियेषु उत्पधन्ते इति कथितम् । इह यत्र यत्र यस्मिन् यस्मिन् पदे उत्पलोद्देशकस्यातिदेशः कृतो भवेत् तत्तदेव पदं तत्रत्यं वाच्यम् । 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उचजति' ते खजु भदन्त ! जीवा: स्थामी से कहते हैं 'जहा उप्पलुसिए तहा उववाओं' इस भगवती सूत्र का जो ११ वे शतक में प्रथम उद्देशक है-वही उत्पल उद्देशक है सो इस उत्पल उद्देशक में जिस रीति से एकेन्द्रिय जीवोंका उपपात कहा गया है उसीरीति से उनका उपपात यहां पर भी जानना चाहिये तथा च-कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय जीव नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु वे तिर्यग्धोनिकों में से आकर के भी उत्पन्न होते हैं मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और देवों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं । क्यों कि पृथिवीकायिक अकायिक
और वनस्पतिकायिक इन में देवो की उत्पत्ति हो सकती है। इसलिये यहां पर देवों से आकर के भी एकेन्द्रिय जीव रूप से जीव उत्पन्न होते है ऐसा कहा गया है। यहां जहां जहां जिस जिस पद में उत्पल उद्देशक का अतिदेश किया हो वहां यहां का बही पद कहना चाहिये । 'ते ण સત્રના ૧૧ અગિયારમા શતકને પહેલે ઉદ્દેશો છે તેજ ઉત્પલ ઉદેશ કહેવાય છે. તે ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે એક ઈન્દ્રિયવાળા અને ઉપપાત કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે તેઓને ઉપપાત અહિયાં કહેવો જોઈએ. તથા કતયુમ કૃતયુમ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવમાંથી નિરયિકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ તેઓ તિર્યંચ નિકે માંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે, મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. અને દેશમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. કેમ કે પૃથ્વીઠાયિક, અષ્કાયિક અને વનસ્પતિ કાચિકેમાં રવાની ઉત્પત્તિ થઈ શકે છે. એ જ કારણથી અહિયાં દેશમાંથી આવીને પણ એકેન્દ્રિય જીવ પણાથી જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. તેમ કહેવામાં આવેલ છે.
અહિયાં જ્યાં જ્યાં જે જે પદમાં ઉત્પલ ઉદેશાને અતિદેશ-ભલામણ पामा मावद छे, त्या त्या र ५४ ४३१ मे . 'हेण' मते ! एग
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भगवती सूत्रे कृतयुग्म कृतयुग्मराशिपमाणा एकेन्द्रिया एकसमयेन एकस्मिन् समये कियन्तः कियत्संख्यका उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा हे गौतम ! 'सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता बा, उबवज्जंति' पोडेश वा संख्याता वा असंख्याता वा अनन्ता वा उत्पद्यन्ते, अनन्ता इति वनस्पत्यपेक्षया इति । 'ते णं भंते ! जीवा समए समए पुच्छा' ते खलु भदन्त ! जीत्राः समये समये अपमाणः कियता कालेनापहियन्ते ? इवि प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोमा' हे गौतम ! 'ते णं अनंता समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा' ते खलु अनन्ताः समये समये एककमाश्रित्य अपह्रियमाणाः अपहियमाणा 'अनंताहिं उस्सप्पिणी ओसपिणीहिं अवहीरंति' अनन्ताभिरुत्सर्पिण्यव
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५१६
कृतयुग्म
भंते ! जीवा एगसमएण केवश्या उववज्र्ज्जति' हे भदन्त ! वे कृतयुग्म राशि प्रमाण रूप एकेन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा । सोलसवा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा वववज्जेति' हे गौतम! वे एक समय में सोलह अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते हैं' 'अनन्त उत्पन्न होते हैं' ऐसा जो कहा गया है वह वनस्पतिकायिक जीवों की अपेक्षा से कहा गया है । 'ते णं भते । जीवा समए समए पुच्छा'
भदन्त ! वे अनन्त जीव यदि एक एक समय में अपहृत किये जावें (निकाले जावे) तो कितने काल में वे खाली हो सकते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं' 'गोमा ! तेणं अता, समए २ अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणताहि उस्सप्पिणी ओसविणीहिं अबहीरंति' हे गौतम! वे अनन्त
समएणं केवइया उववज्जति' हे भगवन् ते युग्म कृतयुग्मराशि प्रभार વાળા એકેન્દ્રિય ! એક સમયમાં કેટલા ઉત્ત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने डे - 'गीयमा ! खोलस वा संखेज्जा वा असखेज्जा वा अनंता वा उववजंति' हे गौतम! तेथे। शो! सभयभां सोज અથવા સખ્યાત અથવા અસખ્યાત અથવા અનંત ઉત્પન્ન થાય છે. અનંત ઉત્પન્ન થાય છે ’ એ પ્રમાણે જે કહેવામાં આવેલ છે તે વનસ્પતિકાયિક જીવાની अपेक्षाथी !डेवाभां भावे छे. 'ते ण' भ'ते ! जीवा समए समए पुच्छा' हे भगवन् a અનત જીવ જો એક એક સમયમાં અપહૃત કરવામાં આવે (બહારકાહાડવામાં) આવે તે કેટલા સમયમાં તેઓ ખાલી થઈ શકે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छेडे - 'गोयमा ! तेणं अनंता समए २ अवहीरमाणा अवहीरमाणा 'मताह उस्सप्पिणीओसप्पिणिहि अवहरति ' हे गौतम! तेथेो ऽ भेड
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प्रमैयचन्द्रिका तीक्षा २०३५ उ.
१०२ कृ कृतयुग्मकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१७ सर्पिणीभिरपहियन्ते 'णो चेव णं अबहरिया सिया' नैव खलु ते अनन्ता अपहताः स्युः। 'उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए' उच्चत्वं यथोतालोद्देशके तेषां कृतयुग्मकृत्युग्मैकेन्द्रियजीवानां शरीरोच्चत्वे यथोत्पलोद्देशके उत्पलविपये कथित तथैव ज्ञातकम्, जघन्येनांगुलोसंख्येयभागम् उत्कर्पण सातिरेकं योजनसहस्रं रनस्पत्यपेक्षया इति । 'तेणं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा अबंधगा' ते खलु भदन्त ! कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियजीवाः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वन्धका भवन्ति अथवा अवन्धका भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, यदि एक एक लमय में एक एक निकाले जावें तो इन के खाली करने में अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल समाप्त हो सकते हैं । परन्तु 'जो चेन णं अवहरिया सिया' वे खाली नहीं किये जा सकते हैं । अर्थात् इतने काल में भी नहीं गिने जा सकते हैं 'उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए' इन के शरीर की ऊचाई के विषय में जैसा कथन उत्पल उद्देशक में किया गया है-वैसा जानना चाहिये। अर्थात् जघन्य से इन के शरीर की ऊंचाई अंगुरू के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक १ हजार योजन प्रमाण होती है यह ऊचाई का उत्कृष्ट रूप से कथन कमल की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये। ___ 'तेज भंते ! जीवा नाणावरणि जस्ल कम्मरस किंबंधगा अपंधमा' हे भदन्त ! वे जीव क्या ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक होले हैं अथवा अपन्धक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! बंधगा, नो સમયમાં અન ત અન તની સંખ્યામાં કહાડવામાં આવે તે પણ તેઓને ખાલી કરવામાં અનંત ઉત્સર્પિણી અને અન ત અવસર્પિણી કાળ સમાપ્ત થઈ જાય छ. ५२ णो चेव ण अवहरिया सिया' ते जाली ४शता नथी अर्थात् त स्थान परथी मिस ममेडी शता नथी. 'उच्चत्तं जहा उपप्लुसए' तयाना શરીરની ઉચાઈ ના સબંધમાં ઉત્પલ ઉદેશમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન સમજવું અર્થાત્ જઘન્યથી તેઓના શરીરની ઉંચાઈ આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી કઈક વધારે ૧ એક હજાર જન પ્રમાણુની હોય છે. આ ઉચાઈનું પ્રમાણું ઉત્કૃષ્ટ પણથી કથન કમળની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે તેમ સમજવું જોઈએ.
वेण भवे ! जीवा नाणावरणीजस्स कम्मस्स कि पंधगा अववधगा' है ભગવન તે છ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય છે, અથવા બંધ ४२नार लाता नयी १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! यधगा
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भगवती 'गोयमा' हे गौतम ! 'बंधना नो अबंधगा' बन्धका एव ज्ञानावरणीयस्य कर्मण स्ते भवन्ति न तु अवन्धका भवन्तीति । एवं सत्वेसि आउयवज्जाणं' एवं ज्ञानावरणीयस्य कर्मण इव सर्वेषां दर्शनावरणीयादीनाम् आयुष्कर्मवर्जितानां सप्तानां कर्मणां नियमाद् बन्धका एव ते जीवा भवन्ति, नतु अबन्धका भवन्ति आयुः कर्मवाधे भजनेति माह-'आउयस्स' इत्यादि, 'आउयस्सव धगा वा अब धगावा' आयुष्कस्य तु कर्मणस्ते जीवा बन्धका अपि भवन्ति अवन्धका अपि भवन्तीति भावः । ते णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! जीवाः 'नाणावरणिज्जस पुच्छ।' ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वेदका अवेदकाः ? इति प्रश्नः पृच्छा शब्देन गृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'वेयगा' नो अवेयगा' वेदकाः, नो अवेदकाः कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रिया जीवा ज्ञानावरणीयं कर्म वेदययन्त्येव नियमादिति भावः । ‘एवं सच्चेमि' एम्-अनेनैव प्रकारेण अपंगा' हे गौतम ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक होते हैं अयन्धक नहीं होते हैं। 'एकलव्वेसिं आउघवजाण' इस प्रकार ये सब जीव आयुष्त कर्म के शिवाय दर्शनावरणीयादि सात कर्मप्रकृतियों के नियम ले बन्धक ही होते हैं अबन्धक नहीं होते आयु कर्म के बन्ध में यहां भजना है-यही बात-'आउयस्ल बंधगा वा अबंधगा वा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है-'ते ण अंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स पुच्छा' हे अदन्त ! चे जीव क्या ज्ञानाबरणीय कर्म के वेदक होते हैं अथवा अवे. द होते है ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयमा | वेधगा, नी अवेयगा' हे गौतम ! थे जोश ज्ञानावरणीय कर्म के वेदक होते हैं अवेदक नहीं होते हैं । इसी प्रकार से ये कृतयुग्मकृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय नो अब धगा' 8 गौतम । ते । ज्ञाना२णीय मन म ४२ना२ उय छ, म ४ हाता नथी. 'एवं सम्वेसि आउयवज्जाण' मा २ सपा જ આયુષ્ય કર્મ શિવાય દર્શનાવરણીય વિગેરે સાત કર્મ પ્રકૃતિને નિયમથી બધ કરનારા જ હોય છે. અબ ધક હેતા નથી. આયુ કર્મના
धमा महियां मनाही छे, मेद वात 'आउयस्स ब धगा वा अपंधगा वा या सूत्रा द्वार प्राट ४२८ छ. 'तेण मते ! नाणावरणिज्जस्त पुच्छो' है ભગવન તે છે શું જ્ઞાનાવરણીય કર્મનું વેદન કરવાવાળા હોય છે? અથવા અદક હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! वेयगा, नो अवेयगा' 3 गौतम! ज्ञानावरणीय भनु वहन કરવાવાળા હોય છે, અવેઠક હોતા નથી. એ જ પ્રમાણે આ કૃતયુગ્મ કુત
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ ७.१ ०२ कृ. कृतयुग्मकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१९ 'सन्वेसिं' सर्वेषां कर्मणां दर्शनावरणीयादारभ्यान्तरायिकयन्तानां वेदका एव भवन्ति किन्तु अवेदका न भवन्तीति भावः । ' ते णं भंते ! जीवा कि मायादेयता असावावेगा पुच्छा' हे भदन्त ! ते कृतयुग्मै केन्द्रियजीवाः किं सावस्यसातावेदनीयकर्मणो वेदका अनुमनकर्त्तारो भवन्ति अथवा असातावेदनीयस्य वेदका भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'सातावेदगा वा असातावेदगा बा' ते जीवाः सातावेदका of refa तथा असातावेदका अपि भवन्तीति । ' एवं उप्पलसदेगपरिवाडी' एवं यथा उत्पलोद्देशके कर्मपरिपाटी कथिता सैदेदापि अनुसन्धेया 'सन्धेर्सि कम्माणं उदई' ते जीवाः सर्वेषां कर्मणा सुदयिनो भवन्ति तेषां जीवानां सर्व कर्मणामेवोदयो भवन्तीति । 'नो अणुदई' नो अनुदयिनो भवन्ति कर्मणामिति जीव 'सन्वेसि' दर्शनावरणीयादि से लेकर अन्तराय कर्म तक के समस्त कर्मों के वेदक ही होते हैं अवेदक नहीं होते हैं । 'ते f भंते । जीवा किं साधावेवगा असावावेगा' हे भदन्त । ये कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय जीव क्या साता वेदनीय कर्म के वेदक होते हैं ? अथवा अभ्याता वेदनीय कर्म के वेदक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोगमा ! साधावेयगा वा अलावावेगा वा' हे गौतम ! वे साता कर्म के वेदक भी होते हैं और असाना कर्म के वेदक भी होते हैं । 'एवं उत्पलुद्दे मगपरिवाडी' इस प्रकार से उत्पल उद्देशक मैं जैसी फर्म वेदन की परिपाटी कही गई है वैसी ही यहां पर जानना चाहिये । 'सच्चेसि' कम्प्राण उदई' इन जीवों के समस्त पर्यो का उदय होता है । 'नो अणुदई' अनुदयवाले ये नहीं होते हैं । उदीरणा के युग्भराशि प्रभाणु भेन्द्रिय वा 'सव्वेसि' दर्शनावरणीय विगेरेथी सहने અંતરાય કમ સુધીના સઘળા કર્યાંનુ વેદન કરવાવાળા જ હોય છે. વેદક होता नथी, 'वे ण' भते ! जीवा कि सायावेदगा असायावेयगा' हे अगवन भा કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશીપ્રમાણવાળા એકેન્દ્રિય જીવા શુ' શાતા વેદનીય કર્મીનુ વેદન કરવાવાળા હોય છે? અથવા અસાતા વેદનીય કતુ વેદન કરાવાળા હાય છે ? या प्रश्नना उत्तरसां अनुश्री गौतमस्वामीने हे हे !-'गोयमा । साया वेदगा वा असाया वेयगा वा ' ગૌતમ । તે સાત કતુ. વેદત કરાવાળા या हाय छे भने ससाता तु वेहन उरवावाजा होय छे. 'एव' उत्पलुद्देमा परिवाडी' આ રીતે ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણેનીકના વેદનની પરિપાટી કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેની પરિપાટી અહિયાં પણ सभवी. 'सव्वेसि' कम्माण उदई' भने संघमा भेनि हिय धाय है.
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भगवती सू
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उदीरकप्रकरणे - 'छं कम्माणं उदीरमा नो अणुदीरगा' षण्णां वेदनीयायुष्कवर्णानां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां नियमादुद्दीरका एव भवन्ति न तु अनुदीरका भवन्तीति । किन्तु 'वेदणिज्जाउयाणं उदीरणा वा अणुदीरगा वा' वेदनीयकर्मणाम् आयुष्कर्मणां चोदीका वा भवन्ति अनुदीरका वा भवन्तीति तत्र भजने भावः । ' ते णं भंते ! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' ते खल भदन्त ! जीवाः कि कृष्णश्यावन्तो भवन्ति अथवा - नीलकापोता दिलेश्यावन्तो भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कण्डलेस्सा वा' कृष्णलेश्या वा ते जीवाः कृष्णलेश्यानन्तोऽपि भवन्ति 'नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा' नीललेश्या वा भवन्ति कापोतिकलेश्या वा, भवन्ति तेजोलेश्या वा भवन्ति पृथिव्यप्रबनस्पतीनामपर्याप्तावस्थापेक्षया प्रकरण में ये-'छण्ह' कम्माण उदीरगा तो अणुदीरगा' वेदनीय और आयुष्क को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि छह कर्मों के ये नियम से उदीरक होते हैं अनुदीरक नहीं होते हैं । किन्तु 'वेदनीय और आयुष्क कर्मों की उदीरणा इन में भजनीय होनी है इसलिये ये इनके उदीर भी होते हैं और उदीरक नहीं भी होते हैं । यही बात - 'वेदणिज्जाउयाणं उदीरगावा अणुदीरगा वा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है । 'तेणं ते! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' हे भदन्त ! वे जीव क्या कृष्णदेवाले होते हैं ? अथवा नीलकापोत आदि daयावाले होते हैं ? इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! कण्हलेला वा, नीललेस्सा वा, काउलेस्सो वा, तेउलेस्सा वा' हे गौतम ! ये कृष्णलेश्यावाले भी होते हैं, नीललेावा भी होते हैं, कापोतावाले भी होते हैं और तेजोलेश्पावाले भी होते हैं।
'नो अनुदई' मा अनुध्यवाजा होता नथी. डीरथाना प्रम्रणुभां भी 'छन्हे कम्माणं उदीरगा तो अनुदीरगा' वेहनीय भने आयुष्य उर्भने छोडीने खाडीना જ્ઞાનાવરણીય આદિ છ કર્મોના નિયમથી ઉદીરક હૈાય છે. અનુઢીરક હેાતા નથી પરંતુ વેદનીય અને અ યુષ્ય કર્મોની ઉીરણુ આમાં ભજનાથી હાય છે. मेवात 'वेदणिज्जा उशणं उदीरगावा अणुदीरगावा' या सूत्रपाठ द्वारा अगर 'रेस छे. 'वेणं' भ ंते ! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' हे भगवन् ते को शु दृष्यसेश्याવાળા હોય છે? અથવા નીલેશ્યાવાળા અથવા કાપેત વિગેરે લૈશ્યા वाजा होय हे ? या प्रश्न उत्तरमां अनुश्री हे छे - 'गोयमा ! कहलेस्सा वा, नीललेस्स वा, काउलेस्खा वा, तेउलेस्सा वा' हे गौतम! તે કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા પશુ હોય છે, નીલલેશ્યાવાળા પણ હાય છે, કાર્પાતિક લેશ્યાવાળા પહેાય છે, અને તેોલેશ્યાવાળા પણ હોય છે. કેમ કે પૃથ્વી,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ० १ सू०२ कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५२१, तत्र देवानामुत्पत्ति सम्मवाद इति । 'नो सम्प'ि ते जीशः समरदृष्टयो न भवन्ति तथा - 'नो सम्मामिच्छादिड्डी' नो सम्यग्यिायो मिश्रयोऽपि न भवन्ति अपितु - 'मिच्छादिट्ठी' मिध्यादृष्टयो भवन्ति ते जीवाः । 'नो नाणी अन्नाणी'. नो ज्ञानिनो भवन्ति ते जीवाः किन्तु अज्ञानिनो भवन्ति त्रापि 'नियमं दुअन्नाणी, नियमा' नियमाद् अज्ञानद्वयवन्तो भवन्ति, तदेव दर्शयति- 'तं जहा ' तद्यथा 'म अन्नाणीय सुय अन्नाणी य' मत्पज्ञानिनश्च भवन्ति तथा श्रुनाज्ञानिनश्च भवन्ति । ' णो मणोजोगी णो वइजोगी' नो मनोयोगिनो भवन्ति नो न चा, Tataगिनो भवन्ति । किन्तु 'कायजोगी' केवलं काययोगिन एव भवन्ति । 'सागारोवउत्ता वा अगागारोवडत्ता वा, साकारोरयोगवन्ता वा भवन्ति
क्योंकि पृथिवी, अप और वनस्पतिकायिकों को अपर्याप्तावस्था में इन लेश्याओं का सद्भाव कहा गया है। इस का कारण यह है कि इनमें देवों की उत्पत्ति का सम्भव है । 'नो सम्मदिट्ठी' ये जीव सम्पदृष्टि नहीं होते हैं तथा - 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' मिश्र दृष्टि भी नहीं होते हैं. किन्तु 'मिच्छादिट्टी' मिध्यादृष्टि होते हैं । 'नो नाणी अन्नाणी' ये ज्ञानी नहीं होते हैं । किन्तु अज्ञानी ही होते हैं, इनमें भी 'नियम' दुअन्नाणी' इस के दो अज्ञान नियम से होते हैं 'त जहा' जैसे 'मह अन्नाणी य सुय अन्नाणी य' नियम से सत्यज्ञान और श्रुताज्ञान ऐसे ये दो ही ज्ञान होते हैं 'णो मनोजोगी, जो वइजोगी' इसी प्रकार से इन में केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होने से ये मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते हैं किन्तु 'कायजोगी' काययोगी ही होते हैं 'सागारोवन्ता वा अणागारोवउत्ता वा' ये
અષ્ઠાયિક, અને વનસ્પતિકાયિકાને અપર્યાપ્ત અવસ્થામા આ લેશ્યાએ સ ભાવ કહેવામાં આવેલ છે તેનુ કારણ એ છે કે-તેએામા દેવાની ઉત્પત્તિને સ’ભવ हाय 'नो सम्मदिट्ठी' या करे। सभ्यम्भष्टिवाणा होता नथी 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' मिश्र द्दष्टिवाणा यायु होता नथी परतु 'मिच्छादिट्ठी' सिनाहष्टिवाणा होय छे. 'नो नाणी' तेथे। ज्ञानी होता नथी. 'अन्नाणी नियमा' परंतु तेथे નિયમથી અજ્ઞાની જ होय हे. तेमां पाशु तेथे । 'नियम दुअण्णाणी' મતિઅજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન એ રીતે એજ અજ્ઞાનેાવાળા નિયમથી હાય છે. मेवात सूत्रारे 'मड अन्नणीय सुयअन्नोणी' या सूत्रपाठ द्वारा समजावी छे. 'णो मणोजोगी, णोवइजोगी' से रीते तेथेोभा देवण गोड स्पर्शन इन्द्रिय होवाथी भनो योगवाजा मने वथन येोगवाणाडे ता नथी परंतु 'काययोगी'તેએ કાયયાગવાળા જ होय हे 'सागारोवउत्ताना अणागारोवउत्तावा' तेथे।
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भगवतीस अनाकारोपयोगयुक्ता पा भवन्तीति 'तेसिं गं भंते ! जीवाणं सरीराकाइण्णा' तेपां खल भदन्त ! जीवानां शरीराणि कति वर्णवन्ति भवन्ति 'जहा उप्पलदेसए सव्वत्थ पुच्छा' यथोत्पलोद्देशके तथा सर्वत्र पृच्छा-प्रश्नः, अयं भावः-हे भदन्त ! तेषां जीवानां शरीराणि कालादिवर्णवन्ति भवन्ति किम् एवं क्रमेण विशिष्य पञ्चवर्णविपये प्रश्नः करणीय इति। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'जहा उप्पलसिए' यथा उत्पलोदेश के वर्णविपये कथितं तथैवेहापि ज्ञातव्यमू, तथाहि-तेषां जीवानां शरीराणि पञ्चवर्णयुक्तानि भवन्ति-पञ्चवर्णबन्ति भवन्ति द्विविधगन्धवन्ति भवन्ति, अष्टमकारकस्पर्शवन्ति भवन्तीति । तथा-'ऊसासगावा' ते जीवा उच्छ्वासवन्तो भवन्ति 'नीसासगावा' ते जीवा निःश्वासवन्तोऽपि भवन्ति 'नो ऊमासनीसासगावा' तथा-उच्छवास साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं । 'तेसिंण भंते! जीवाणं सरीरा कइ वण्णा' हे भदन्त ! इन जीवों के शरीर कितने वर्णों वाले होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहा उप्पलुद्देसए सव्वस्थ पुच्छा' हे गौतम ! इन जीवों के शरीर उत्पलोदेशक में कहे गये अनुसार काल आदि वर्णवाले होते हैं। अर्थात वही पांच वर्णों के विषय में गौतभस्वामीने प्रभुश्री से प्रश्न किया है-तब प्रभुश्रीने गौतम से ऐसा ही कहा है हे गौतम ! उत्पलोद्देशक में वर्ण के विषय में जैता कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये। तथा च-उनके शरीर पांच वर्गों से युक्त होते हैं । दो गंधोवाले होते हैं । आठ प्रकार के स्पर्श वाले होते हैं । तथा ये जीव 'ऊतासगा वा, नीसागा वा' उच्छवास वाले भी होते हैं और निःश्वासवाले भी होते हैं और 'नो સાકાર ઉપગવાળા પણ હોય છે. અને અનાકાર ઉપગવાળા પણ હોય છે. 'सिण भते ! जीवाण सरीरा कइवन्ना' है मग ते वाना शरी२१ ४८८1वा डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थ पुच्छा' 3 गौतम ! ! छाना शरी। Guarशामा अपामा मा०॥ પ્રમાણેકાળા વિગેરે વર્ણોવાળા હોય છે. અર્થાત્ ત્યાં પાંચ વર્ણોના સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીને પ્રભુશ્રીને પ્રશ્ન કરેલ છે, ત્યારે પ્રભુશ્રીએ ગૌતમસ્વામીને એવું જ કહ્યું છે, કે હે ગૌતમ ! ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં વર્ણના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ સમજવું. તથા–તેઓના शरी। पांय णा डाय छ, तथा ! 'ऊसासगा वा, नीसासगा वा,
वासवा ५ डाय छ, भने निश्वासपा ५६ डाय छ, 'नो ऊसास
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ सू०२ कृ.कृतयुग्मैकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५२३ निःश्वासवन्तः अपर्याप्तावस्थायां वा भवन्ति । 'आहारगा वा अणाहारगा वा ते जीवा आहारका वा, भवन्ति तथा अनाहारका वा विग्रहममयापेक्षया भवन्ति । 'नो विरया' नो विरताः सर्वविरतिमंतो वा न भवन्ति । 'अविरया' अविरताः सर्वविरति रहिता भवन्ति, 'नो विरयाविरया वा' नो विरताऽविरता वा देशविरता अपि न भवन्ति । 'सकिरिया' सक्रियाः क्रिया सहिता एव भवन्ति । 'नो अकिरिया' नौ अक्रियाः क्रियारहिता न भवन्ति । 'सत्तविहवंधगा वा अट्टविहबंधगावा' आयुर्वर्जानां सप्तविधकर्मणां बन्धका वा भवन्ति अष्टविधकर्मणां बन्धका वा भवन्ति । 'आहारसन्नी वउत्ता वा जाव परिग्गहसन्नोवउत्तावा' आहारसंज्ञोपयुक्ता वा भवन्ति यावत्परिग्रहउसासनीसासगा वा' नो उच्छवास नि:श्वासवाले भी होते हैं। हां अपर्याप्तावस्था में इन के उच्छवास निःश्वास नहीं होते हैं । इसलिये उस अवस्था में इनसे रहित होते हैं। अर्थात् उच्छास नि:श्वास से रहित होते हैं। 'आहारगा वा अणाहारगावा' ये जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। यहां अनाहारकता विग्रह गतिकी अपेक्षा से कही गई है ऐसा जानना चाहिये । 'नो विरया' ये सर्व विरति सम्पन्न नहीं होते हैं । किन्तु 'अविरया' सर्व विरति से रहित ही होते हैं । इसी प्रकार ले ये 'नो विरयाविरया' देशविरति से भी सहित नहीं होते हैं 'सकिरिया, नो अकिरिया' ये क्रियावाले ही होते हैं अक्रियावाले नहीं होते हैं । 'सत्तविह बंधगा वा अविह बंधगा वा आयु को छोड़कर शेष सानों कर्म प्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं 'और आठों कर्म प्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं । 'आहारसन्नोवउत्ता नीसासगावा' २७पास निश्वास विनाना Bात नथी १७ अपर्याप्त सप સ્થામાં તેઓને ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ હોતા નથી. તેઓ એ અવસ્થામાં ઉચ્છવાસ निश्वास दिनाना राय छे. 'आहारगा वा अणाहारगा वा' ते ४ मा २४ પણ હોય છે અને અનાહારક પણ હોય છે. અહિયાં અનાહારક પણ વિગ્રહ
तिनी अपेक्षायी डस छे. तेभ. सभा 'नो विरया' तेयो सब विति पाहत नथी. ५२तु 'अविरया' स वि२ति बिनाना हाय छे. मेकर प्रमाण 'नो विरयाविरया' तो शिविरति ५५ हात नथी. सकिरिया, नो अकिरिया' या यिावर डाय छ, मठियावा हाता नथी. 'सत्तविहब धगा वा अट्ठविहब धगा वा' मायु में प्रतित हैन બાકીની સાતે કર્મપ્રકૃતિને બંધકરવાવાળા હોય છે. અને આઠે કર્મપ્રકૃતિને ५५ ४२वावा ५५ उय छे. 'आहारसन्नोवउत्ता वा जाव परिगहसन्नोवत्ता
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भगवतीसूत्र संज्ञोपयुक्ता वा भवन्ति यावत्पदेन भयमैथुनसंज्ञयोः परिग्रहो भवति । 'कोहकसाई या माणकसाई वा जान लोभकमाई वा' क्रोधपायिनो वा मानकषायिनी वा यावल्लोभकपापिनो वा भवन्ति ते जीवाः यावत्पदेन मायाख्यकपायस्य ग्रहणं भवतीति । 'नो इस्थिवेयगा नो पुरिसवेयगा' नो स्त्रीवेदका नो वा पुरुषवेदकास्ते जीवा भवन्ति किन्तु 'नपु सगनेयगा' नपुंसकवेदकास्ते जीवा भवन्ति । 'इस्थि. वेयवंधगाथा, पुरिसवेयवंधगावा, नपुंसगवेयवंत्रणा वा स्त्रीवेदवन्धका वा भवन्ति पुरुपदवन्धका वा भान्ति नपुंसकवेदवन्धका वा भवन्ति स्वयं केवलं नपुंसकवेदवन्त सन्तोऽपि बन्धकास्तु त्रयाणामपि वेदानां भवन्तीति भावः 'नो सन्नी' नो संज्ञिनः अपितु 'प्रसन्नी' असं शिनरी जीवा भवन्ति । 'सइंदिया' सेन्द्रियाः स्पर्शनेवाजाव परिग्गहसन्नोवउत्ता वा' ये आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिअह संज्ञोयुक्त होते हैं । यावत्पद से 'भयसंज्ञा' और मैथुन संज्ञा' इन दो संज्ञाओं का ग्रहण हुआ है। ये 'कोहकसाई वा माणकसाई वा जान लोभकसाई या' क्रोध कषायवाले भी होते हैं, मानकषाय वाले भी होते है मायाकषाय वाले भी होते हैं। 'नो इस्थिवेयगा, नो 'पुरिसवेयगा' ये स्त्रीवेदवाले और पुरुषत्रेदधाले नहीं होते हैं किन्तु 'नपुंसंगवेयगा' एक नपुंसकवेवाले ही होते हैं। 'इथिवेयबंधगा वा पुरिसवेयचंधगा वा नपुंसगवेयबंधगा वा' ये स्त्रीवेद के बन्धक भी होते हैं, पुरुष वेद के भी बंधक होते हैं और नपुसकवेद के भी बंधक होते है, यद्यपि ये स्वयं एक नपुंसक वेदवाले ही होते हैं परन्तु फिर भी बन्धक तीनों वेदों के होते हैं । 'नो सन्नी' ये संज्ञी नहीं होते हैं। किन्तु - ઘા’તેઓ અ હાર સંજ્ઞોપયુક્ત યાવત્ પરિગ્રહ સંશોપયુક્ત હોય છે. અહિયાં થાવત્ પદથી “ભય સંજ્ઞા અને મૈથુન સંજ્ઞા આ બે સંજ્ઞાઓ ગ્રહણ કરાઈ छे. 'कोहकखाई वा माणकसाई वा जाव लोभकसाई वा तसा पाया પણ હોય છે, માનyષાયવાળા પણ હોય છે, માયાષાયવાળા પણ હોય છે. અને यावत् पाया पडाय छे. 'नो इत्यिवेयगा, नो पुरिसवेयगा' तमोरी वहवा मथवा ५३५२६११ नथी. परंतु 'नपुगवेदगा' मे नस४३४पाय छे. 'इथिवेयबधगा पुरिस्रवेयब धगावा' नपुसगवेदर धावा' तयारी વેદન બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે, પુરૂષવેદન બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે. અને નપુંસક વેદને બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે. જો કે આ સ્વયં એક નપુંસક વાવાળા જ હોય છે. પરંતુ તેઓ ત્રણે વેદને બંધ કરવાવાળા હાય छ. 'नो सन्नी' तेस। सशी हात नथी. ५२तु 'असन्नी' ससशी ०४ डाय छ. 'सइ दिया, नो भणिदिया' तया २५न छन्द्रय सहित १ सय छ, ઈન્દ્રિય રહિત હોતા નથી.
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ खू०२ कृ कृतयुग्मैकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५२५ न्द्रियवन्तो भवन्ति 'नो अणिदियाः-इन्द्रियरहित न भवन्ति । तेणं भंते ! कट जुम्म एगिदिया कालओ फेवलचिरं कोति' ते खलु भदन्त ! कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियाः कालतः कियचिरं भवन्ति ? इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक्कं समयं' जघन्येनैक समरस् 'उक्कोसेणं अगंतं कालं अणंता उस्सग्पिणी ओसपिणीओ' उत्कर्षणानन्तं कालमनन्ता उत्सपिण्यवसविण्यः 'वणस्सइकाइयकालो' बनस्पतिकायिककाल । 'संवेहो न भन्नई' अन संवेधो न भण्यते उत्पलो देशके उत्पलजीवस्योत्पादो विवक्षितः तत्र च पृथिवीकायिकादिका. यान्तरापेक्षया कायसंवेधः संभवति इह तु एकेन्द्रियाणां कृतयुग्मकृत्युग्म विशेषा'असन्नी' अस ज्ञी ही होते हैं । 'सइंदिया नो अणि दिया' ये सेन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय लहित ही होते हैं, इन्द्रिय रहित नहीं होता है।
'तणभंते ! कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया काल ओ केवच्चिरं हति' हे भदन्त ! ये कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा से कब तक रहते हैं ! उत्तर में प्रभुश्री कहते है !-'गोगमा जहन्नेण एक समय उनकोसेण अर्णतं कालं' हे गौतम ! ये जघन्य से तो एक समय तक रहते हैं और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक रहते है। इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी समाजाती है। ऐसा यह कथन 'वणस्सहकाइय कालो' वनस्पति कायिक के काल की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये । 'संवेहो न भणइ' यहां संवेध नहींकहना है । क्योंकि उत्पल उद्देशक में उत्सल के जीव का उत्पाद विवक्षत हुआ है और वह पल जीव पृथिवी आदि अन्यकायिक में उत्पन्न होकर फिर से वही उत्पन्न हो जाते है
'ते ण भते । कन्जुम्मएगिदिया कालओं देवच्चिर होती है भगवन् । કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મરાશી પ્રમિત એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવો કાળની અપેક્ષાથી કયાં संधी २९ छ ? मा प्रशन उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ -'गोयमा । जहन्नेण एक समय नकोसेणं अणत' काल'गौतम म धन्यथीतो से समय સુધી રહે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળ સુધી રહે છે આ અન તકાળમાં અનંત ઉત્સર્પિણી અને અન ત અવસર્પિણી સમાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે मायन 'वणस्सइकाइय कालो' वनस्पतियन रणनी मपेक्षाथी दानु जानु
असे सवेहो न भण्णइ' महियां सवय ४ाना नथी. भरे-पस ઉદેશામાં જીવને ઉત્પાદ વિવક્ષિત થયેલ છે, અને તે ઉત્પલ જીવ પૃથ્વી વિગેરે અન્ય કાયિકમાં ઉત્પન્ન થઈને ફરિથી ત્યાં જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેથી ત્યા કાયસંવે ધ બની જાય છે, પરંતુ અહિયાં કૃતયુમ કૃતયુમરાશિ
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भगवतीसूत्र णामुपादोऽधिकृतः ते चैकेन्द्रिया वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां चोवृत्तेर संभवाद कायसंवेधो न संभवति । यश्च पोडशादीना मेकेन्द्रियेपूपपातः कथितः स च त्रसकायिकेभ्यो ये एकेन्द्रिये पूत्पद्यन्ते तदपेक्ष एव, न पुनः पारमार्थिकः अनन्तानां पतिसमयं तेपूरपादादिति । 'आहारो जहा उप्पलदेसए' कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाणामाहारो यथा उत्पलोदेशके कथितस्तथैवात्रापि ज्ञातव्यः । 'नवरं निवाघाएणं छदिसिं' नवरं केवलम् उत्पलोदेशकापेक्षया इदं वैपक्षण्यं यत् निर्याधातेन यदि कश्चित्मतिबन्धको न भवेत् तदा पदिशम् पइदिग्भ्य आहारग्रहणं कुर्वन्तीति । 'वाघायं पडुच्च सिय विदिर्सि' व्याघातं प्रतीत्य स्यात इसलिये वहां काय संबंध बनजाता है पर यहां कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियोंका उत्पाद अधिकृत है । ये एकेन्द्रिय वस्तुतः अनन्त रूप में उत्पन्न होते हैं और थे फिर से निकल कर पुनः वहीं पर उत्पन्न होवे तो इनका काय वेध बन सकता है पर इनका वहां से निकलना असंभव है अतः कायसवेध नहीं बनता है षोडश राशिप्रमित जीपों का जो एकेन्द्रिय जीवों में उत्पात कहा गया है वह जो
सकाधिक से आकर के वहां उत्पन्न होते है उस अपेक्षा से कहा गया है । पर वह वास्तविक उत्पाद नहीं कारण कि एकेन्द्रियों में अनन्त जीवों का उत्पाद होता है । 'आहारो जहा उप्पलुद्देसए' कृत युग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों का आहार जैसा उत्पल उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये 'नवर निव्वाधाएणछद्दिसि' परन्तु वहां की अपेक्षा यहां केशल इतनी सी विशेषता है कि यदि कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है तो ये छहों दिशाओं से आहार ग्रहण પ્રમિત એકેન્દ્રિયના ઉપપાતને અધિકાર કહેલ છે. આ એકેન્દ્રિ વસ્તુતઃ અનંતપણાથી ઉત્પન થાય છે. અને તે ફરિથી ત્યાંથી નીકળીને ફરીથી ત્યાં જ ઉત્પન્ન થાય તે તેઓને કાયસ વેધ બની શકે છે. પરંતુ ત્યાંથી તેઓનું નીકળવું અસંભવ થાય છે. તેથી કાયસંવેધ બનતે નથી. સેળરાશી પ્રમિત જીવને જે એકેન્દ્રિય જેમાં ઉત્પાત કહેલ છે, તે ત્રસાયિકથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે તે અપેક્ષાથી કહેલ છે પરંતુ તે વાસ્તવિક ઉત્પાત નથી કારણ કે-એકેન્દ્રિમાં અન તજીને ઉત્પાદ થાય છે. 'आहारो जहा उपलुदेलए' तयुग्म कृतयुगम सन्द्रियानी भाडा २ प्रभा ઉત્પલ ઉદેશામાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવું જોઈએ 'नवर निव्वाघाए ण छदिसि' ५२'तु त्यांना ४थन ४२di मडियां व मेट જ વિશેષપણું છે કે જે કઈ પ્રતિબંધ ન હોય તે આ છએ દિશાઓમાંથી
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treet टीका ०३५ . १ सू०२ कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्रत्यादिकम् ५१७ कदाचित् त्रिदिशम् 'सि चउदिसि' स्पात् कदाचित् चतुर्दिशम् 'सिय पंचदिसि' स्पात् कदाचित् पश्ञ्चदिशम् ' सेसं तहेव' शेषम् एतद् व्यतिरिक्त सर्व तथैत्र उपदेशवदेव ज्ञातव्यम् इति । ठिई जणं अंते' स्थितिर्जयन्येनान्तमुहूर्त्त तेषामेकेन्द्रियाणाम् 'उक्कोसेणं बावीस वाससहस्सा' उत्कर्षेण द्वाविशतिवर्षसहस्राणि । 'समुग्धाया आदिल्ला चत्तारि समुद्घारा आघावत्वारः वेदना पाय मारणान्तिकवैक्रिया ख्याः । ' मारणांतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति असमोहया विमति' ते कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियजीवा मारणान्तिक समु घातेन समवहता अपि त्रियन्ते असमता अपि म्रियन्ते । 'उच्चट्टा जहा करते हैं 'वाघा' पहुच्च सिघ तिदिलि' और यदि प्रतिबन्ध होता है तो ये कदाचित् तीन दिशाओं से लिय चउदिसि' कदाचित् चार दिशाओं से 'सिय पंचदिसि" कदाचित् पांच दिशाओं ले आकार ग्रहण करते हैं । 'सेस' तहेव' बाकी का और सब कथन उत्पल उद्देशक के जैसा ही है । 'टिई जहन्नेणं अंतो मुहुत्त उक्कोसेण बावीस वास सहस्साइ" इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष की होती है । 'समुग्धाया आदिल्ला चतारि समुद्रघात इनके आदि के चार होते हैं - वेदनासमुद्घात, कपाघसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्रघात और वैक्रियलमुद्धात 'सारणांतिय समुरखोएणं समोहया विमरति असमोहया वि मरति' ये मारणातिसमुद्घान कर के भी मरते हैं और विना मारणान्तिक समुद्घात के भी मरते है 'उच्चट्टगा जहा उप्पलुद्देमए' इन कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों की उद्वर्तना उत्पल उद्देशक में कही गई के अनुसार ही जाननी चाहिये ।
भाडार ग्रहण १रे छे. 'वाघा' पडुच्च सिय तिदिसि' भने ले अतिमन्ध हाय तो तेथे उदायित् वायु हिशाशोभांथी सिय चउदिस' विरार दिशामेथी 'सिय पचदिसि" अधवार पांय दिशाओ भांथी आहार डरे हे 'सेस' तद्देव' मठीनु' भी तमाम स्थन उत्यस उद्देशामा उद्या प्रभा 'ठिई जहणेण अतोमुहुत्त उक्कोसेण बावीस वासमहस्लाइ' तेथ्योनी स्थिति જઘન્યથી એક અતર્મુહૂતની હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ ખાલીસ હજારવની होय छे 'समुग्धाया आदिल्ला चत्तारि' तेमाने महिना यार समुह्यात होय છે તે આ પ્રમાણે છે. વેદના સમુદ્દાત કષાય સમુદ્દાત મારણાન્તિક સમુદ્घात, मने वैप्रिय समुद्द्धात 'मारणातियसमुग्वाएणं समोहया वि मरति असमोहया वि मरंति' तेथे। भारशान्ति समुद्धत पुरीने पशु भरे हे सने भारयान्ति समुद्घात यो विना य भरे छे. ऊवट्टणा जहा उपप्लुदेसए' मा द्रुतयुग्भ કૃતયુગ્મ રાશીવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાની ઉદ્દતના ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં કહેલ છે, તે પ્રમાણે સમજવી,
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____ भगवतीस्ते उप्पलुसिए' एनेपामे केन्द्रिय जीवानासुद्धर्नना यथा उत्पलोदेश के कथिता तथैव ज्ञातव्या । 'मह णं भंते ! सबपाणा जाब सय सत्ता काडजुम्म कडजुम्म एगिदियः ताए उपवन्नपुव्वा' अथ खलु भदन्त ! सर्वे प्राणाः सर्वेभूताः सर्वेजीवाः सर्वे सत्या कि कृतयुग्मकृतग्मैकेन्द्रि स्वरूपेण उत्पन्नपूर्ण पूर्व समुत्पन्नाः किगिति प्रश्नः भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा !' हा गौतम ! पूर्व समुत्पन्नाः ते पुन रेकरारं नेत्याह-'असई अदुवा अणतखुत्तो' असकृत् अनेकवारम् एतावदेव न अपितु अनन्त कृत्वाः अनन्तवारं पूर्व ते तत्र समुत्पन्ना आसन् इति ।।मू० २॥ ___ इति पोडश महायुरमेषु कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियाणां प्रथम महायुग्मवक्तव्यता समाप्ता ॥१॥
'अहणं भंते । सव्वाणा, जाव लब्धमत्ता कडजुम्मकडजुम्म एगिदिमत्ताए उववन्नपुवा' हे भदन्त ! समस्त प्राण यावत् समस्त सत्त्व क्या पहिले कृतयुग्म कृतयुग्न एलेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हो चुके है ? यहां यावत् पदले समस्त भूत और समस्त जीव इन पदोंका ग्रहण हुआ है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'हंता गोयमा' हां गौतम ! समान प्राण समस्त भूत समस्त जीच और नमन सत्य पहिले कृतयुग: कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों की पर्याय से उत्पन्न हो चुके हैं। असई अदुवा अणं नरखु तो वे वहां एक ही बार उत्पन्न हुए हो सो वात नहीं किन्तु अनेक बार और अनन्तबार वर्मा ने उत्पन्न हुए हैं ॥ २॥
कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवोंकी महायुग्म बक्तव्यता समाप्त १॥
'अह ण भते । सयपाणा, जाव सबम्रत्ता कडजुम्मकडजुम्म एगिदियत्ताए उववन्नपुव्वा' लसपन सघा प्रालिये। यावत् सबा सत्वा शु ५७i કૃતયુ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે ? અહિયાં યાવત્ પદથી “સઘળા જીરો અને સઘળા ભૂતે આ પદ ગ્રહણ કરાયા છે. આ प्रश्नना उत्तम प्रभुश्री गौतमस्वाभान छ ?-हता गोयमा ! डा गौतम ! સઘળા પ્રણે સઘળા છે, સઘળ ભૂત અને સઘળા સ પહેલાં કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવોની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે 'असई' अहुवा अणंत बुत्तो' त! त्या ४१ पा२ ५न्न थया डाय मेवी વાત નથી પરંતુ અનેક વાર અને અનંતવાર તેઓ ત્યાં ઉત્પન્ન થયા છે. સૂ૦૨
કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવેનું મહાયુગ્મ કથન સમાપ્ત .
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ सू०३ पञ्चदशमेदनिरूपणम्
अथ शेष पञ्चदशभेदानाह-'कडजुम्मतेओग' इत्यादि मूलम्-कडजुम्मतेओगएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति उववाओ तहेव । तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा, गोयमा ! एगूणवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता का उववज्जति, सेसं जहा कडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो २। कडजुम्म दावरजुम्मएगिदियाणं भंते ! कओहिंतो उबवज्जति ? उववाओ तहेव । ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा, गोयमा! अट्टारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति सेसं तहेव जाव अगंतखुत्तो ३ । कडजुम्म कलियोग एगिदि. याणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति उववाओ तहेव । परिमाणं सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो ४। तेओग कडजुम्म एगिदियाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? उववाओ तहेब। परिमाणं वारस वा, संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा उववज्जंति, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो ५। तेओग तेओग एगिदियाणं भंते ! कोहिंतो उववज्जति, उवाओ तहेव । परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो ६। एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एको गमओ। नवरं परिमाणं णाणतं तेओगदावरजुम्मेसु परिमाणं चोइस वा संखेज्जा बा असंखेज्जा वा अणंता वा उच्चति ७। तेओग कलिओगेसु तेरल बा असंखेज्जा वा अणंता वा उवबज्नतिट। दावरजुम्म कडजुम्सेसु अट्ठ वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अता वा उबवजति ९। दावरजुम्म तेआगसु एक्कारस वा संखेज्जा वा असंखजा वा अणंता वा उक्वजति १० । दावर
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भगवतीने
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जुम्म दावरजुम्मेसु दसवा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति ११ । दावरजुम्म कलिओगेसु नव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति १२ । कलिओग कडजुम्मेसु चत्तारि वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववजंति १३ । कलिओग तेओगेसु सत्त वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अनंता वा उववज्जति १४ । कलिओग दावरजुम्मेसु छवा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति १५ । कलिओगकलिओगे एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति ? उववाओ तहेव । परिमाणं पंच वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति १६ । सेसं तहेव जाव अनंत खुत्तो । सेवं भंते । सेवं भंते! त्ति ॥सु० ३ ॥
पणतीस मे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ ३५ - १॥
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छाया - कृतयुग्म यौजै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते उपपातस्तथैव ते खलु भदन्त । जीवा एकसमयेन पृच्छा० गौतम ! एकोनविंशति व संख्येया वा असंख्येयावा, अनन्ता वा उत्पद्यन्ते शेषं यथा कृतयुग्मकृतयुग्मानां यावदनन्त कृत्वः २ । कृतयुग्म द्वापरयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त । कुत्र उत्पद्यन्ते उपपातस्तथैव । ते खलु भदन्त । जीवा एकसमयेन पृच्छा, गौतम ! अष्टादश वा संख्येया वा, अस ंख्येया वा, अनन्ता वा, उत्पद्यन्ते शेषं तथैव यावदनन्तकृत्वः ३ कृतयुग्म कल्यो केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? उपपातस्तथैव । परिमाणं सप्तदशना संख्येयावा, असंख्येया वा, अनन्ता वोत्पद्यन्ते । शेष तथैव यावदनन्तकृत्वः ४ । त्रयोज कृतयुग्मैकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? उपपातस्तथैव । परिमाणं द्वादशवा, संख्येया वा, असंख्येया वा अनन्ता वोरपद्यन्ते' शेष तथैव यावदनन्तकृत्वः ५ ज्योज्योजै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते उपपातस्तथैव परिमाणं पञ्चदशवा-संख्येया वा. असंख्येया वा, अनन्ता वा, शेषं तथैव यावदनन्तकृत्वः ६ । एवमेतेषु षोडशसु महायुग्मेषु एको गमकः । नबरं परिमाणे नानात्वम् - योजद्वापरयुग्मेषु परिमाणं चतुर्दश वा, संख्येया वा असंख्येया वा, अनन्तावत्पद्यन्ते ७ | ज्योजकल्योजेपु त्रयोदश वा संख्येया वा असंख्येया बा,
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मैन्द्रिका टीका ०३५ उ०१ सू०३ पञ्चदशभेदनिरूपणम्
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अनन्तावयन्ते ८ द्वापरयुगकृतयुग्मेषु अष्टौ वा - संख्येया वा, असंख्येया वा, अनन्तावोत्पद्यन्ते ९ द्वापरयुग्म ज्योजेषु एकादश वा संख्येयावा, असंख्येया वा, अनन्तावत्पद्यन्ते १० द्वापरयुग्म द्वापरयुग्मेषु दश वा संख्येया वा, असंख्येया वा अनन्तावोत्पद्यन्ते ११ द्वापरयुग्मक्ल्पोजेपु नव वा, संख्येया वा, असंख्येया वा अनन्तावोत्पद्यन्ते १२ कल्योज कृतयुग्मेषु चत्वारो दा, संख्येया वा, असंख्येया वा, अनन्तावोत्पद्यन्ते १३ कल्योजयोजेपु सप्त वा संख्येयावा, असंख्येया वा, अनन्तावोत्पद्यन्ते १४ । कल्पोज द्वापरयुग्मेपु षड्वा संख्येया वा, असंख्येया वा अनन्तावोत्पद्यन्ते १५ कल्योजकस्योजैकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? उपपातस्तथैव । परिमाणं पञ्च वा संख्येया वा, असंख्येया वा, अनन्तानोत्पद्यन्ते १६ शेष तथैव यावदनन्तकृत्वः । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त इति ॥ म्र० ३ ॥ 'पञ्चत्रिंशत्तमे शतके प्रथमोदेशकः समाप्तः || ३५||१
टीका --- 'कडजुम्मतेओग एगिंदियाणं भंते । कओ उववज्जंति' कृतयुग्म यो केन्द्रियजीवाः खलु भदन्त । कुतः - कस्मात्स्थानविशेषादागत्य समुत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते तिर्यग्भ्यो वा आगत्य मनुष्येभ्यो वा आगत्य देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'उववाओ ' इत्यादि, 'उत्रत्राओ तद्देव' उपपतिः कृतयुग्म योजैकेन्द्रियाणां तथैव यथा कृतयुग्म पन्द्रह भेदो का कथन
'कडजुम्म तेओग एगिंदियाणं भंते!' इत्यादि
टीकार्थ- 'कडजुम्म तेओग एगिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति' हे भदन्त कृतयुग्म पोजराशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते है ? क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'उववाओ तहेब પ'દર ભેદોનુ'
ન
'कडजुम्मते ओगपगिंदियाणं भंते ! कओ उत्रवज्जति' द्रुतयुग्भ, यो રાશીવાળા એકેન્દ્રિય જીવા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ' તેઓ નૈરિયેકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચયાનિકમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वाभीने हे छे- 'स्ववाओ तत्र' हे गौतम! मा द्रुतयुग्भ ज्यो
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. .. भगवतीमा, कृतयुग्मैकेन्द्रियाणां कथितः तिर्यग्भ्यो वा आगत्य मनुष्येभ्यो वा आगत्य समु. रूयन्ते इति । 'सेणं भंते ! जीवा एगरामएणं पुच्छा' ते खलु भदन्त ! जीवा कृतयुग्मयोजैकेन्द्रिया एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इति प्रश्नः पृच्छया संगृ ह्यते । भगानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगूणवीसावा' एकोनविंशविर्वा 'संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंतावा उपवनंति संख्याता वा असंख्याता वा अनन्ता वा कृतयुग्मयोजैकेन्द्रिया एकसमयेन समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसं जहा पडजुम्मकडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो' शेपं यथा कृतयुग्म कृतयुग्मानां 'हे गौतम! इन कृतयुग्न मोज राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीवों का उत्पाद जैसा कलयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियों का कहा गया है वैसाही जानना चाहिये । अर्थात् ये तिर्ययोनिकों में से आकरके भी उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में से भी आकरके उत्पन्न होते हैं और देवों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं। 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा' हे भदन्त ! ये कृतयुग्म योज प्रमित एकेन्द्रिय जीव एकसमय में कितने उत्पन्न होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' एगूण वीसा वा, संख्येज्जा वा असंखज्जा वा, अणंता वा उपवज्जति हे गौतम ! ये एक समय में १९ तक उत्पन्न होते हैं अथवा संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते हैं । 'सेसं जहा कडजुम्म कडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो' इनके सम्बन्ध में ओर सघ कथन जैसाकि अभी अभी कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में कहा जो चुका है वैसा ही सब कथन यावत् अनन्तवार वे वहां उत्पन्न हुए है यहां तक कह लेना चाहिये। રાશીવાળા એકઈન્દ્રિયવાળા જીવોનો ઉ૫પાત, કૃતયુમરાશિવાળા એકેન્દ્રિયોને જે રીતે ઉ૫પાત કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે સમજ. અર્થાત તેઓ તિયામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે? મનુષ્ય માંથી આવીને પણ ઉત્પન થાય છે? मन हेवामाथी मावान ५ उत्पन्न थाय छे. 'तेणं भते ! जीवा एगसमएणं gછ' હે ભગવન આ કૃતયુમ, એજ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય છે એકસમ યમાં કેટલાં થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે है-'गोयमा ! एगणवीसा वा, संखेज्जा वा असंखेजा वा, अणंतावा उववति' હે ગૌતમ ! તેઓ એક સમયમાં ૧૯ ઓગણીસ સુધી ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા सण्यात मसण्यात अथवा मन त उत्पन्न थाय छ १ 'सेस' जहा कडजुम्म कडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो' माना समयमा माडीनु सघणु थन मji on કૃતયુગ્મ, કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવન પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું તમામ કથન યાવત્ અનંતવાર તેઓ ત્યાં ઉત્પન્ન થયા છે,
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ सू०३ पञ्चदशमेदनिरूपणम् कथितं तथैव यावत् अनन्तकृत्व इति २। 'कडजुम्म दायरजुम्म एनिदिवाण भने ! कमोहितो उववनंति' कृतयुग्म द्वापरयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुल उत्पद्यन्ते कि नैरयिकेभ्य इत्यादि प्रश्नः, उत्तरमाह='उबदाभो तहेव' उपपातस्तथैव-पूर्व कथितमकारेणैव । 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा' ते खलु भदन्त ! कृतयुग्मद्वापरयुग्मैकेन्द्रि गजीवा एकसमयेन शियन्त उत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाइ-गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठारस वा, संखेना वा, असंखेना वा, अणंता वा उपवनंति' अष्टादश वा, संख्याता वा, असंख्याता बा, अनन्ता
'कडजुम्म दावर जुम्म एगिदियाणं भंते ! कमोहितो उज्जति' हे भदन्त ! कृतयुग्म द्वापरयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियजीव किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर से उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिको में ले आकरके उत्पन्न होते है ? अथवा मनुष्यों में से ओकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इल प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं'उववाओ तहेव हे 'गौतम ! इस सम्बन्ध में लमरत कथन पूर्व में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये। ते णं भंते ! जीवा पासमएणं पुच्छा' हे भदन्त ये कृतयुग्म द्वापरयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! अद्वारल बा ल खेजा था अल खेज्जा वा अणंता वा' 'हे गौतम ! एक समय में १८ उत्पन्न होते है अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते है लेस तहेव जाय अणत कुत्तो' अवशिष्ट और त्या सुधा ही सेवन 'कडजुम्म दावरजुम्म एगि दियाण भते ! कोहि तो उववज्जति' मगवन् कृतयुद्वापरयुग्म राशिवाणा मेन्द्रिय व या સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકોમ થી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચાનિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવમાથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ ?- उपवाओ तहेव' गौतम ! આ વિષયમાં સઘળું કથન પહેલાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ प्रभानु समा. 'ते ण भते जीवा एगसमरणं पुच्छा' गबन मा ४त. ચમ દ્વાપરયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જી એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન थाय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्री गौतम २वामान ४९ छे -'गोयमा ! अटारस वा संखेज्जा वा अस खेज्जा वा अणंता वा' हे गीतम! तेसो । સમયમાં ૧૮ અઢાર ઉપન થાય છે, અથવા સખ્યાત અથવા અસંખ્યાત
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भंगवती सूत्रे
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devra इति ३ | 'कडजुम्म कलिओग एर्गिदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति' कृतयुग्ग कल्याजै केन्द्रियाः खल भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरयति'उववाओ तदेव' उपपातः पूर्ववदेव ' परिमाणं सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा' परिमाणद्वारे जघन्यतः सप्तदश वा संख्याता वा असंख्याता वा अनन्ता वा उत्पद्यन्ते' 'सेसं तदेव जाव अगंतखुत्तो' शेषं समये समये अपहरणा दिकं सर्व यावत् अनन्तकृत्य एतत्पर्यन्तं तथैव कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियमकरणदेव ४ | 'तेओग कडजुम्म एगगिदियाणं भंते । कओहिंतो उववज्जंति' ज्योज सब कथन यावत् ' वे वहां अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं 'यहां तक का यहां पर कह लेना चाहिये । 'कडजुम्म कलिओग एगिंदियाणं भंते ! कभो उचचज्जंति' हे भदन्त ! कृतयुग्म कल्पोज एकेन्द्रिय किस स्थान से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरिथिकों में से तिर्यग्योनिकों में से मनुष्यों में से अथवा देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमाभी से कहते है 'उबचाओ तहेव' इनका उपपात पहले जैसा ही समझना चाहिये 'परिमाण सत्तरस वा सरखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंताचा' परिमाण में वे जघन्य से सत्रह १७ उत्पन्न होते है संख्याता असंख्याता अथवा अनन्त उत्पन्न होते है 'सेस' तहेव जाव अणतखुत्तो अवशिष्ट सघ कथन वे कृतयुग्म कल्पोजए केन्द्रियपने से अनन्त वार उत्पन्न हो चुके हैं, यहां तक यहां पर कहना चाहिए ||४||
'तेओग वडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओहिंतो उववज्जंति' हे अथवा अनंत उत्पन्त थाय छे. 'सेस' तहेव अनंतखुत्तो' गाडीनु तभाभ કથન યાત્રતા તેઓ ત્યાં અનંતવાર ઉત્પન્ન થઇ ચૂકયા છે, આ કથન સુધીનુ' અહિયાં કહેવું જોઇએ.
'कडजुम्म कलिग एगिदियाणं भंते ! कओ उपवज्जति' डे लगवन् धृतયુગ્મ કચેજ એકેન્દ્રિયે કયા સ્થાનેથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએ રિય કામાંથી આવીને અથવા તિય નિકામાંથી અથવા મનુષ્યેામાંથી અથવા દેવે માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને - 'उवावाओ तन' तेमना उपयात पहेला ह्या प्रमाणे छे. 'परिमाण' सत्तरस्रवा संखेज्जा वा असखेज्जा वा अनंता वा' परिभायु तेभनु જઘન્યથી ૧૭ સત્તર સુધી ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા સખ્યાત અથવા અસખ્યાત अथवा अनंत उत्पन्न थाय छे 'सेस' तहेव जाव अणतखुत्ते।' डी भाभ થન તેઓ કૃતયુગ્મ કયેાજ એકેન્દ્રિય પણાથી અનેકવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુકેલ છે. આ કથન સુધી અહિયર્યા કહી લેવું જોઈએ. ૫૪૫
'वेओग कड़जुम्मए गि' दियाण' भ'ते ! कओहिंतो उववज्जंति' हे भगवन्
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refet टीका श०३५ उ. १ सू०३ पञ्चदशभेदनिरूपणम्
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कृतयुग्मकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते किं नैरणिकेभ्यः इत्यादि प्रर्वत्रदेव प्रश्नः, उत्तरमाह - 'उनवाओ तहेब' उपपात एतेषां तथैव पूर्वोक्तव देव ज्ञातव्यः 'परिमाण वारस वा संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अनंता वा उपवज्जेति' योजकृतयुग्मकेन्द्रियाणां परिमाणं द्वादश वा संस्याता वा असंख्याता वा, अनन्तावत्पद्यन्ते । 'सेसं तहेव जाव अनंतखुतो' शेपं परिमाणातिरिक्त सर्व तथैव यावत् अनन्तकृत्वः ५ । ' ते ओगतेओग एगिदियाणं भंते । कओर्हितो उववज्जति' ज्योजत्रयोजै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नेरयिकेभ्यः भदन्त । ज्योज कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव जिस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होते ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहने हैं - 'उवाओ तहेव' हे गौतम! इनका उपपाद पूर्व के जैसे ही जानना चाहिये। 'परिमाणं बारस वा संखेज्जा वा असं खेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति' ये पोज कृतयुग्म रूप एकेन्द्रिय जीव एक समय में १२ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते हैं । 'सेस' तहेव जान अनंत खुत्तो' परिमाण कथन से अतिरिक्त और सब कथन 'वे अन्नवार उत्पन्न हो चुके हैं' यहां तकका यहां पर कह लेना चाहिये । 'तेओग तेओग एगिंदियाणं भंते । कमोहितो उववज्जति 'हे भदन्त ! ज्योज
ચૈાજ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવેા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેએ નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય થયેાનિકામાંથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे !-' उवत्राओ तद्देव' हे गौतम ! तेखाना उपयात पहेला ह्या प्रमाणे सभव 'परिमाणं वारस वा सखेज्जा वा, असखेजा वा अर्णता वा उववज्जति' मा यो कृतयुग्भ ३५ शो ઇન્દ્રિયવાળા જીવે. એક સમયમાં ૧૨ ખાર અથવા સ ખ્યાત અથવા અસ ખ્યાત अथवा अनंत उत्पन्न धाय हे 'सेस' तद्देव जाव अनंतवुत्त' परिभाणुना ४थन શિવાયનું ખાકીનું સઘળું કયન “તેએ અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે,’ भारता सुधीतुं धन अडियां हेतुं ये 'तेओग तेओग पगिदियाणं भवे ! कभोहितों उबवज्जंति' हे भगवन् सेन्द्रिय लवा या स्थान
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સર
भगवती सूत्रे इत्यादि रूपेण प्रश्नः, उत्तरमाह - ' उनवाओ तहेच' उपपातस्तथैव यथा - कृतयुग्मकृतयुग्ममकरणे कथितः । ' परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अनंता वा' परिमाणं ज्योज शेकेन्द्रियाणां पञ्चवा, संख्याता वा, असं - ख्याता वा, अनन्तावेति । 'सेसं रहेन जाव अनंतखुतो' शेषं परिमाणातिरिक्तं तथैव यावद् अनन्तकृत्वः ६ । ' एवं एएस सोलस महाजुम्मेसु एको गमओ' योज एकेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिज्ञों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होने हैं ? अथवा देवों में आकरके उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उवबाओ तहेव' हे गौतम | इनके उपपाद के सम्बन्ध में कथन पूर्व के जैलाही जानना चाहिये । अर्थात् जैसा कथन कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में किया गया है वैसा ही यहां पर समझना चाहिये। 'परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा अखेजा वा अणूंना वा' यो योज एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में उत्पन्न होने का परिमाण १५ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त जानना चाहिये ।' सेस' तहेब जाव अनंतखुत्तो' इस परिमाण कथन के अतिरिक्त और सब कथन के अनन्तर उन्न हो चुके है' यहाँ तक जैसा पहिले कहा गया है वैसा ही यहां पर कह देना चाहिये। ' एवं एएस सोलह महाजुम्मेसु एक्को गमओ' इस प्रकार जैसा कि ऊपर में
વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૅરિયકામાંથી આવીને ઉ, પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ગ્રોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री छे - 'उववाओं रहेव' हे गौतम ! शासना ઉત્પાદના સંબંધમાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનુ' જ કથન સમ”વું અર્થાત જેવું કથન કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવેાના પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમા
अथ मडियां समभवु' लेखे 'परिमाण' पन्नरसवा सरखेज्जा वा अस खेज्जावा अनंताचा वा' यो योडेंन्द्रिय भवनु खेड सभयभां ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ ૧૫ પંદર અથવા સખ્યાત અથવા અસ ખ્યાત અથવા अन ंत समन्न्वु’· ‘सेस ं तहेव जाव अनंतखुत्ता' या परिमाणु शिवाय माडीनुं ખીજું તમામ કથન “તેએ અન ́તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, “મા થન સુધીનુ પહેલાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં સમજવું'
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ सू०३ पञ्चदशमेदनिरूपणम् ५३७ एवमुपरि प्रदर्शितमकारेण पोडशस्नु महायुग्मेषु एको गमकः सत्र महायुग्मेषु एकएव प्रकार इति भावः । 'नवरं परिमाणे नाणतं' नवरं केलं परिमाणे नाना त्वं भेदोऽवगन्तव्यः अन्यत् सर्वमेकपकारकमेरेति । परिमाणे नानात्वमेव विशिष्य दर्शयति-सेओगदावरजुम्मसु परिमाणं चोइस वा संखेज्जा यश, असं. खेज्जा वा, अर्णतावा उपवनंति' योजद्वापरयुग्मेषु एकेन्द्रियेषु परिमाणं चतुर्दश वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, अगंवा वा एतादृश संख्यका इमे एकसमयेनोत्पद्यन्ते इति ७ । 'तेओगकलिओगेसु तेरस वा संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंसा वा उबवज्जति' व्योज कल्योजए केन्द्रियेषु परिमाणं त्रयोदश वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, अनन्ता दा, एतागपरिमाणशिशिष्टा इमे दिखलाया जा चुका है सोलह महायुग्मों में कथन प्रकार एक जैसा ही है, तात्पर्य इसका ऐला है कि परिमाण कथन से अतिरिक्त और सत्र कथन इन १६ राशि पनित एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में एक ही प्रकार का है । यही पान र परिमाणे नागत्तं' इल स्त्रपाठ द्वारा प्रदर्शित की गई है। परिमाण में लानात्वका कथन इग्न प्रकार से है-'तेओग दावरजुम्मेलु परिमाणं चोदल वा संखेजा था मल खेज्जा वा अणंता वा उववज्जति योज द्वापर युग्म राशिमिन एलेन्द्रिय जीवों का एक समय में उत्पन्न होनेका परिमाण १४ है। अथवा लख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते हैं। 'तेोपकलिओगेलु तेरलवा सखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता चा उपवनंति' मेजल्योज रोशि प्रमित एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में उत्पन्न होने का परिमाण १३ अथवा संख्यात अथवा अलख्यान अथवा अनन्त है । 'दावर जुम्म एवं एएसु सोलसमहाजुम्मेसु एको गमओ' । रीते २ मा ५२ (वामा આવેલ છે, તે સાળ મહાયુને કથન પ્રકાર એક સરખો છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-પરિમાણના કથન શિવાયનું બાકીનું સઘળું કથન ૧૬ સોળ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં એક જ સરખું છે એજ વાત Ra परिमाणे नाणत्त' मा सूत्रा द्वारा मतावस छ, परिमाणमा नानाप (हा
हा२) नं ४थन । प्रमाणे -'तेओग दावरजुम्मे परिमाण चोहस पा सखेज्जा वा अस खेज्जा वा अगंतावा' योगदा२युम शिवाय ન્દ્રિય જીવોનું એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ ૧૪ ચૌદનું છે અઘરા सध्यात अथवा अस ज्यात मथ। सनत छ 'ते ओग कलिगेस तेरस वा सखेज्जा वा अस खेमा वा अणंता वा स्ववज्जति' यो प्रयास शशिप्रमित એકેન્દ્રિય જીતુ એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ ૧૩ તેર અથવા
भ० ६८
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भगवती सूत्रे
एकदा समुत्पद्यन्ते ८ | 'दावरजुम्मकडजुम्मे अदा संवेज्जावा, अज्जा वा, अनन्तावा, उववज्र्ज्जति' द्वापरयुग्म कृतयुग्मेषु वा संख्याता वा अमं ख्याता वा अनन्ता वा उत्पन्ते ९ 'दावरजुम्म तेओगे एवकारसना, संखेज्जावा, असंखेज्जावा, अनन्ता वा, उववज्जंति' युग्मयोजे एकादश बा संख्याता चा, असंख्याता वा, अनन्तावोपयन्ते इति १० । 'द्रावरजुम्मावरजुम्मेसु दस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा अणूंना वा अवति' द्वापरयुग्म द्वापरयुग्मेषु दश वा संख्याता वा, अख्याता वा अनन्ता वा उत्पद्यन्ते ११ ।
जुम्मे अह वा संखेज्जा चा असंखेज्जा वा अनंता या उववज्जंति' 'द्वापरयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों का परिमाण एकसमय में उत्पन्न होने का आठ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अश्या अनन्त है । 'दावरजुम्म दावरजुम्मेसु दमवा संखेज्जाचा असंखेज्जा वा अनंता घा उववज्जति' छापरयुग्म द्वापरयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीवका एक समय में उत्पन्न होनेका परिमाण दस अथवा संख्यात अथवा अरुपात अथवा अनन्त है । 'दावरजुम्म तेओगेसु एक्कारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्र्ज्जति' द्वापरयुग्म पोज राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवोंका एकसमय में उत्पन्न होने का परिमाण ११ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त है । 'दावरजुम्म दावरजुम्मेसु दसवा संखेज्जा वा अमखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में उत्प होनेका परिमाण १० अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त सभ्यात गधवा असभ्यात अथवा अनंत छे 'दावरजुम्मकटजुम्मेसु घट्टवा सौंखेज्जावा अस'खेज्जा वा अर्णता वा उववज्जति' द्वापरयुग्भ राशिषाणा खेन्द्रिय જીવેનું પરિમાણુ એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું આડ અથવા સ ́ખ્યાત અચવા असभ्यात अथवा अनंत हे 'दावरजुम्म दावरजुम्मेसु दस वा सखेज्जा वा अस खेज्जा वा अनंता वा उववज्जति' द्वापरयुग्म द्वापरयुग्भ राशिवाजा से - ન્દ્રિય જીવેાનુ` એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણુ દસ અથવા સખ્યાત अथवा असभ्यात अथवा अनंत छे. 'दावरजुम्म तेओगेसु एकारसवा सरखेज्जा वा अस खेज्जा वा अनंता वा उववज्जेति' द्वापरयुग्म यो राशिवाला थोडेન્દ્રિય જીવાતું એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનુ' પરિમાણુ ૧૧ અગિયાર અથવા संध्यात अथवा असंख्यात अथवा अनंत छे 'दावरजुम्म दावरजुम्मे सु दस वा संखेज्जा वा अस खेज्जा वा अनंता वा उज्जति' द्वापरयुग्भ राशिવાળા એકેન્દ્રિય જીવાતુ એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણુ ૧૦ દસ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.१ सू०३ पञ्चदशभेदनिरूपणम्
५३९ 'दावरजुम्म कलियोगेसु नव वा, सखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति द्वापरयुग्मकल्योजेपु नव वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, अनन्ता चा, उत्पद्यन्ते १२ । 'कलियोगकडजुम्मेसु चतारि वा, संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति' कल्पोजकृतयुग्मेषु चत्वारो वा, संख्याता वा, असं. ख्याता वा, अनन्ता वा, उत्पधन्ते १३ । कलियोग तेओगेस सत्त बा, संखेज्जा वा, असंखेज्ना वा, अणंता वा, उबवति' कल्योजच्योजेषु सप्त वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, अनन्ता वा, उत्पधन्ते १४ । 'कलियोगदावरजुम्मेसु छ वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति' कल्योजद्वापरयुग्मेषु षड वा, संख्याता वा, असंख्याता वा, अनन्ता वा उत्पद्यन्ते १५ । 'कलिोग हैं । 'दावरजुम्म कलिओगेसु नव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जंति' द्वापरयुग्म कल्योज राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवोंका एकसमय में उत्पन्न होनेका परिमाण नौ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त है । 'कलियोग कड़जुम्मेलु चत्तारि वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति' कल्योजकृतयुग्म राशिामित एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में उत्पन्न होने का परिमाण चार अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त है । 'कलिओगतेओगेसु सत्त वा सखेज्जा वो असंखेज्जा वा अणंता वा उपवज्जति' कल्योज योज राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीवों का उत्पन्न होने का परिमाण एकसमय का सात अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त है।' 'कलिओग दावरजुम्मे छ वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति' 'कल्योज द्वापरयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में मया सभ्यात अथवा असल्यात अथवा सनत छे. 'दावरजुम्म कलिओगेस नव वा सखेज्जा वा अस खेज्जा वा अणता वा उववज्जति' वापरयुग्म त्याग રાશીવાળા એકેન્દ્રિય જીવેનું એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ નવું अथवा सध्यात अथवा मसयात मथवा मानत छ. 'कलिओगकडजुम्मेस चत्तारि वा सखेज्जा वा अस खेजा वा अणता वा उववज्ज ति' त्या तयुग्म રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવોનું ઉત્પન્ન થવાનુ પરિમાણ ચાર અથવા સંખ્યાત मथवा मसच्यात अथवा मनात छे. 'कलिओग तेओगेसु सत्तवा सखेज्जावा असंखेज्जावा अणतावा उववज्जति' त्या४ व्या शिवाणा भन्द्रियवान. ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ એક સમયમાં સાત અથવા સંખ્યાત અથવા અસ ખ્યાત अथवा अनत छे. 'कलिओग दावरजुम्मे छ वा सखेज्जा वा असखेज्जा वा अणतावा उववति' ४६या। द्वापरयुभ राशिका मन्द्रिय सानु मे
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भगवती सूत्रे
एगिदियाणं भंते ! कभ उववज्जंति' कल्योजकल्यो जैकेन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य इत्यादि पूर्वप्रकारेणैव प्रश्नः, उत्तरमाद - ' उवाओ तहे' उपपात स्वथैव कृतयुग्मकृतयुग्म मरणपठित एव ज्ञातव्यः । 'परिमाणं पंच वा, संखेज्जा वा असंखज्जा वा, अनंता वा, उत्रवज्जंति' परिमाणं पञ्च वा, संख्याता वा असंख्याता वा अनन्ता वा उत्पद्यन्ते इति । 'सेसं तद्देव जाव अनंतखुत्तो' शेष परिमाणातिरिक्त सर्व तथैव कृतयुग्म प्रकरणपठितमेव यावदन्तत् इति १६ ।
1
५४०
उत्पन्न होने के परिमाण ६ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त है 'कलिभोग कलिओग एगिंदियाणं भते ! कओ उववज्जंति' कल्योज कल्योज राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव है भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं? अथवा मनुष्यों में से जाकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'उपवाओ तहेव' 'हे गौतम ! कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रति एकेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जैसा उपपात के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी उपपात के सम्बन्ध में कथन जानना चाहिये यहां 'परिमाणं पंच वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उद्यवज्जति' उत्पन्न होनेका परिमाण पांच अथवा संख्यात अधना असंख्यात अथवा अनन्त है । 'सेसं तहेव जाव अखुलो परिमाण धनके अतिरिक्त और सच कथन यहां पर
સમયમાં ઉત્પન્ન થવાનુ પરિણામ ૬ છ અથવા સખ્યાત થવા અસખ્યાત अथवा अनंत छे. 'कलि ओगकलिआग एगिंदियाणं भवे ! कमो उववज्र्ज्जति होन યેાજ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવા ભગત્રન કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? તિય ચામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अछे -'उववाओ तहेब' हे गौतम! मृतयुग्भ द्रुतयुग्भ राशिवाला थोडेन्द्रिय જીવાના પ્રકરણમાં ઉપપાતના સંબધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ' કથન અહિયાં ઉપપાતના સંબધમાં કહેવુ જોઈએ. અહિયાં 'परिमाण' पंच वा सरखेज्जा वा अम्र खेज्जा वा अणता वा उजवज्ज'ति' परिभाष यांथ अथवा सम्यात अथवा असभ्यात अथवा अनंत छे. 'सेस' तर्हेव जाव अनंत खुत्तो' परिभाथुना उथन शिवायनु सधणु उधन अडियां तेथेो
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प्रमैन्द्रिका टीका श०३५ उ० १ सू०३ पञ्चदशभेदनिरूपणम्
महायुग्मनामानि
कृतयुग्म कृतयुग्मः
कृतयुग्म त्र्योजः
संख्या १६
१
संख्पा
१७
५
१२
'वे अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं' यहां तकका पूर्व में कहे गये अनुसार एकसा ही जानना चाहिये ।
यह सब प्रकरण इस यंत्र से स्पष्ट जोना जा सकता है
Or m 2
४
અનંતવાર ઉત્પન્ન થઇ એક સરખુ સમજવું.
कृतयुग्म द्वापरयुग्मः कृतयुग्म कल्योजः
योज - कृतयुग्मः
संख्या सोज
૧
ર
3
४
महायुग्मादिका निर्माण एवं महायुग्मादि राशि
सोलह - महायुग्मों के नाम प्रमित एकेन्द्रिय जोबों की एकसमय में उत्पन्न होने की
जघन्य संख्याका प्रमाण
कृतयुग्म कृतयुग्म कृतयुग्म यौज
कृतयुग्न द्वापरयुग्म
कृतयुग्म कल्पोज यो कृतयुग्म
ચૂકયા છે. આ કથન
આ પ્રકારનું તમામ કથન આ યંત્રથી સ્પષ્ટ
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युग्म निर्माण संख्या
१६
१९
१८
મહાયુગ્માના નામે
કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ ચૈાજ
કૃતયુગ્મ દ્વાપરયુગ્મ કૃતયુગ્મ કલ્યેાજ
યેાજ કૃતયુગ્મ
१६
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१७
१२
સુધીનું પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે
જાણવામા આવે છે મહાસુદનુ નિર્માણ અને સહુ યુગ્મ વિગેરે રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાની એક સમયની સખ્યાનું પ્રમાણુ
૧
૧૯
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૧૨
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५४२
६
७
९
१०
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१५
१६
६
^ G
१०
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१४
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१६
ૐ
७
८
८
૧૦
૧૧
૧૨
૧૩
१४
૧૫
૧૬
योज त्रयोजः ३-३ योजद्वापरयुग्मः
योज- कल्योजः
द्वापरकृतयुग्मः द्वापरत्र्योजः
द्वापर द्वापरयुग्मः द्वापरयुग्म कल्योजः
कल्योज कृतयुग्मः कल्योज व्योजः
कल्योज द्वापरयुग्मः
कल्पोज कल्योजः
शेज व्योज -३-३
घोज द्वापरयुग्म योज कल्योज
द्वापरयुग्म कृतयुग्म द्वापरयुग्न योज द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म कल्पोज कल्योज कृतयुग्म कल्पोज पोज
कल्योज द्वापरयुग्म कल्पोज कल्योज
ચૈાજ Àાજ
ચેંજ દ્વાપરયુગ્મ ચેજ મુલ્યેાજ
દ્વાપરશુગ્મ કૃતયુગ્મ દ્વાપરયુગ્મ ચૈાજ
દ્વાપર યુગ્મ દ્વાપરયુગ્મ દ્વાપર યુગ્મ કલ્યેાજ કલ્ચાજ કૃતયુગ્મ કત્ચાજ થૈાજ
લ્યેાજ દ્વાપરશુશ્મ કલ્પેજ થૈાજ
भगवती ब
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अमेयचन्द्रिका टीका श०३५ .१ सू०३ पञ्चदशमेदनिरूपणम् ५४३
'सेवं भंते ! सेवं भंते !' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति हे भदन्त ! महायुग्मविषयये यद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्व सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यिता संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति सू० ॥३॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषा. कलितललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपधानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालतिविरचितायां श्री "भगवतीमत्रस्य" ममेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पश्चत्रिंशत्तमे शतके
प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥३५॥१॥ 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' 'हे भदन्त महायुग्म के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा लत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे गौतम संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू० ३॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके पैतीसवें शतक का
। प्रथम उद्देशक समाप्त ॥३५-१॥ _ 'सेव भंते ! सेव' भते । त्ति' 8 सपन महायुमना विषयमा मा५ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવન આપવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી અને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૩ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચદ્રિકા વ્યાખ્યાના પાંત્રીસમાં શતકને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૫–૧
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५४४
भगवतीसूत्रे
अथ द्वितीयदेशकः मारभ्यते
मूलम् - पढमसमय कडजुम्मकडजुम्स एगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जति ? गोयला ! तहेव एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेब सोलसखुत्तो बितिओ वि भाणियन्वो तहेव सव्वं । नवरं इमाणि दस नाणत्ताणि ओगाहणा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं उक्कोसेण वि अंगुलस्त असंखेजाइ भाग १ | आउकम्म स नो बंधगा अबंधगा २ । आउयस्त तो उदीरगा अणुदीरगा३ । नो उल्सालगा तो निस्सा नो उस्तास निस्सासगा४ । सतविधगा नो अविहबंधा ५ । ते णं भंते ! पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिय ति कालओ केवच्चिरं होंति ? गोयमा ! एक्कं समयं ६ । एवं लिईए वि ७ । समुग्धाया आदिल्ला दोन्नि ८ । समोहया न पुच्छिज्जति ९ । उव्वट्टणा न पुच्छिजड़ १० | सेसं तहेव रावं निरवसेसं । लोलससु वि गमएसु जात्र अतखुतो । सेवं भंते! से भंते ! ति ॥ सू० १॥
छाया -- प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्प ते ? गौतम । तथैव एवं यथैव प्रथम उद्देशक स्तथैव पोडशकृत्वो द्वितीयो - ऽपि भव्य, वथै सर्वम् । नवर मित्रानि दश नानात्वानि अवगाहना जघन्येला संख्येयभागम् उत्कर्षेणापि अंगुलस्यासंख्येयभागम् १ आयुक कर्मणो नो वन्धकाः, अवन्धकाः २ आयुष्करप नो उदीरकाः अनुदीरकाः ३ । 'नो उच्छवासकाः नो निःश्वासकाः नो उच्छवासनिःश्वासकाः ४ । सप्तविधबन्धकाः नो भष्ट विधवन्धकाः ५ । ते खलु भद्रन्त ! प्रथमसमयकृतयुग्मकृत
केन्द्रिया इति कालन कियच्चिरं भवन्ति ? गौतम ! एकं समयम् ६ । एवं स्थितावपि ७ । समुद्घातावाद्यौ द्वौ ८ । समरहता न पृच्छयन्ते ९ । उद्वर्तना न पृच्छयन्ते ? | शेषं तथैव सर्वे निरवशेषम् । पोडशस्वपि गमकेषु यावदनन्त कृत्वः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ||नू० १ ॥
टोका - ' पढमसमयडजुम्मकडजुम्म एर्गिदिया णं भंते !' प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खल भदन्त ! एकेन्द्रियत्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.२२०१ प्रथमसमय कृ.कृतयुग्मैकेन्द्रियनि० ५४५ येषां ते प्रथमसमयैकेन्द्रियाः त एव कृतयुग्मकतयुग्मा इति प्रथमसमयकृतयुग्मकृतग्माः ताशाश्चै केन्द्रिया इति 'कभी उववज्जति' कुनः स्थानविशेपा. दागत्य समुत्पद्य-ते किं नैरयिकेम्प आगत्य तिर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो वा देवेभ्यो पा आगत्य समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तहेव' तथैव तिरभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते मनुष्येभ्य उत्पद्यन्ते देवेभ्य उत्पद्यन्ते इति भावः। 'एवं जहेब पढमो उदेसओ' एवं यथैव प्रथमउद्देशकः 'तहेव
दूसरे उद्देशे का प्रारभ 'पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिदियाणं भंते !' इत्यादि
टीकार्थ-'पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म एनिदियाणं अते!' हे भदन्त! एकेन्द्रिय रूपसे उत्पत्ति होने में जिनका प्रथम समय है ऐसे वे कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि. ममित एकेन्द्रिय जीव-'को उपवति' किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अश्या मनुष्यों में से
आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा! तहेव' हे गौतम ! येति ग्योनिकों में से आकरके भी उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में से भी आकरके उत्पन्न होते हैं और देवों में से भी आकरके उत्पन्न होते है। 'एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव सोलह खुत्तो वितिओघि भणियव्यो'
मी शान। प्रा२'पढमसमय कड़जुन्म कडजुम्मएगिदियाण' भवे । त्यहि
साथ-'पढमसमय कडजुम्म कडजुम्मएगिदियाण भंते ! मापन એકેન્દ્રિયપણાથી ઉત્પન્ન થવામાં જેઓને પ્રથમ સમય છે, એવા તે કાયમ કતચમ એકેન્દ્રિય છે અર્થાત્ પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા કૃતયુગ્મ કાયમ शशिवाजान्द्रिय 'कओ उववज्जति' च्या स्थान विशेषथा भावानापन થાય છે? શું તેઓ નૈરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે ? અથવા તિર્યંચ
નિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્ય માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેવમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભશ્રી शीतभावामान छ -'गोयमा ! तहेव' गौतम तिय योनि માંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન થાય के मन हवामाथा मावी ५५ 8५- थाय छ 'एव जहेव पढमो उडेपओ तहेव सोळसखुत्तो वितियो वि भणियव्वो' गौतम ! समभा
भ० ६९
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भगवती
सोलसखुत्तो वितियो विभणियन्बो' तथैव-प्रथमोद्देशकवदेव षोडशकृत्वः षोडशराशिभेदानाश्रित्य द्वितीयोऽपि उद्देशको भणितव्यः । 'तहेव सव्यं' तथैव प्रथमोदेशवदेव सर्वमिदापि वक्तव्यम् । 'नवरं इमाणि य दस नाणचाणि नवरं - केवलं प्रथमोदेशका पेक्षयाsत्र इमानि अग्रपदश्यमानानि दशनानात्वानि पूर्वोक्तस्य विलक्ष स्वस्थानानि भवन्ति, केपाञ्चित् पूर्वोक्तानां भावानां प्रथमसमयोत्पन्नेषु असंभ वात् । तथा - 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुळस्स असंखेज्जइभागं' शरीरावगाहना अंगुलस्यासंख्येयभागरूपा जघन्येन 'उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं' उत्क र्षेणापि अंगुलस्यासंख्येयभागम्, तत्र प्रथमोदेश के बादरवनस्पत्यपेक्षया उत्कर्षेण सातिरेकयोजन सहस्ररूपा महत्यवगाहना प्रोक्ता, अत्र तु प्रथमसमयोत्पन्नत्वे - 'हे गौतम! इस सम्बन्ध में जैसा प्रथम उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से सोलह राशि भेदों को आश्रित करके यह द्वितीय उद्देशक भी कह लेना चाहिये । 'तहेव सव्वं' एवं प्रथम उद्देशकके जैसा ही और सब कथन यहां है ऐसा जानना चाहिये | 'नवरं इमाणि य दस नाणताण' परन्तु प्रथम उद्देशककी अपेक्षा यहां इन दश बातों में अन्तर है- क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न एकेन्द्रियों में इनकी असंभवता है । वे दश बातें ये हैं
'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं' 'अवगाहना यहां अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जघन्य से तथा 'उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं' 'उत्कृष्ट से भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । प्रथम उद्देशक में वादरवनस्पतिकायिक की अपेक्षा कुछ
પહેલા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે સેાળરાશિ लेहोने! याश्रय हरीने भा जीले उद्देश। पशु उही सेवा ले. 'तहेव सव्वं ' આ રીતે પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સઘળુ કથન મા ત્રીજા ઉદ્દેશામાં सम सेवु', 'नवर' इमाणि य दस नाणत्ताणि' परंतु पडेला उद्देशाना उथन કરતાં અહિયાં નીચે ખતાવેલ દસ ખાખતામાં અતર આવે છે—કેમ કે પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા એકઇન્દ્રિયવાળાઓમાં તેનું અસંભવ પણું છે. તે દસ ખાખતે નીચે બતાવ્યા પ્રમાણે છે.-
'ओगाहणा जहन्ने' अंगुलरस अस खेज्जइ भाग" अहियां अवगाहना धन्यथी भांगजना असंख्यातमा लाग प्रभायु से तथा 'उक्कोसेण वि अगुलस्त्र अस' खेज्जइ भाग' उत्सृष्टथी पशु ग्यांगजना असण्यात लाग प्रभाशु છે. પહેલા ઉદ્દેશામાં ખાદર વનસ્પતિકાયિકની અપેક્ષાથી કંઇક વધારે એક હજાર ચેાજનની અવગાહના કહી છે. પરંતુ અહિયાં તે પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.२ सू०१ प्रथमसमयं कृ.कृतयुग्मैकेन्द्रियनि० ५४७ नाल्पा, इत्येवं नानात्वमत्रेति ? एव मन्यान्यपि नानात्वानि स्वधिया समुह्यानीति । 'आउयकम्मरस नो बंधगा अवंधगा' इमे प्रथमसमयकृत युग्मकृतग्मैकेन्द्रियजीवा: आयुष्ककर्मणो नो बन्धका भवन्ति अपितु अबन्धका एव भवन्ति २ । 'आउ. यस्स नो उदीरगा अणुदीरगा' आयुष्कस्य कर्मण उदीरका न भवन्ति किन्तु अनु. दीरका भवन्तीति ३ । 'नो उस्सासगा नो नीसासगा, नो उस्सासनीसासगा' न उच्छवासका उच्छवासवन्तो न भवन्ति, नो निःश्वासकाः, नो वा उच्छासनिःश्वासका भवन्तीति ४। 'सत्तविहवंधगा नो अट्टविहवंधगा' आयुष्कर्जानां सप्तविध कर्मणामेव बन्धका भवन्ति नो न तु अष्टविधामणां बन्धका भवन्तीति ५ ते ण अधिक एक हजार योजन की अवगाहना कही गई है । पर यहां वह प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप से अल्प घतलाई गई है। इस प्रकार पूर्व उद्देशक की अपेक्षा अवगाहना कथन में भिन्नता है। इसी प्रकार से और भी अवशिष्ट भिन्नताएं अपनी बुद्धि से समझ लेनी चाहिये। 'आउकम्मस्त नो बंधगा अबंधगा' 'ये प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमाण एकेन्द्रिय जीव आयुकर्म के बन्धक नहीं होते हैं किन्तु अबन्धक ही होते हैं। 'आउयस्स नो उदीरगा, अणुदीरगा' तथा ये आयुकर्म के उदीरक नहीं होते हैं किन्तु अनुदीरक होते हैं ३। 'नो उस्सा. सगा नो नीसासगा नो उस्सासनीसासगा' ये उच्छ्वासवाले नहीं होते हैं निश्वासवाले भी नहीं होते हैं उच्छ्वास निःश्वास वाले भी नहीं होते हैं, अर्थात् अनुच्छ्वास निःश्वासवाले होते हैं ४ 'सत्तविह बंधगा, नो अट्टविह बंधगा' ये आयुकर्म के सिवाय सात कर्मो के ही बन्धक होते हैं आठ कर्मों के बन्धक नहीं होते हैं ५। થવાને કારણે આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપથી અ૯૫ બતાવેલ છે. આ રીતે પહેલા ઉદ્દેશા કરતાં અવગાહનાના કથનમાં ભિન પણું આવે છે. આજ પ્રમાણે બીજું પણ બાકીનું ભિન્ન પણ પિતાની બુદ્ધિથી સમજી લેવું જાવ कम्मरस नो बंधगा अबधगा' मा प्रथम समयमा 6त्पन्न यये तयम કૃતયુગ્મ રાશિવાળા ‘એકેન્દ્રિ જી આયુકમને બંધ કરવાવાળા દેતા નથી. ५२ ५४४ डाय छे. 'आउयस्स नो उदीरगा अणुदीरगा' तथा मा माय કર્મની ઉદીરણું કરવાવાળા હોતા નથી પર તુ અનુકારક હોય છે. ૩ નૉ उस्सासगा नो नीसासगा नो उस्सासनीसासगा' तस। २७पासवाणा खाता नथी. નિવાસવાળા પણ હોતા નથી તથા ઉછવાસનિશ્વાસવાળા પણ હોતા નથી. ४ 'सचविहबधगा, नो अद्वविहधगा' मा मायुमन छोडीन सातम પ્રકતિને જ બધ કરવાવાળા હોય છે. આઠ કર્મપ્રકૃતિયાને બંધ કરવાવાળા
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भगवतीस्त्र भंते ! पढमसमयकडजुम्मकडजुम्म एगिदियत्ति काल भो केवच्चिर होति' ते खल भदन्त ! प्रथम समयकृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रिया इति कालतः कियचिरं भवन्ति ? इति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्वं. समयं' एकपमयमात्रमेर ते भवन्तीति ६ । ‘एवं ठिईए वि' एवं स्थिवावपि स्थितिरपि तेषामेकसमयमात्रैवेति ७ । 'ससुग्घाया आदिल्ला दोन्नि' समुद्घातो आधौ द्वौ वेदनाकपायरूसी भातः ८ । 'समोहया न पुच्छिति' समवहता इति न पृच्छयन्ते ९। 'उचट्टणा न पुच्छिति ' उद्वर्तना न पृच्छयते प्रथम समयकत्वादेव एतयोः समुद्घातोद्वर्तनयोरसंभवादिति १० । 'सेस तहेव सवं निरवसेस' शेपम्-उत्पादपरिणामादिकं सर्व पोडरपि महायुग्मेषु प्रथमोदेशकवदेव 'ते णं भंते ! पढम समयकडजुम्मकडजुम्न एगिदियत्ति कालओ केवचिचरं होति' हे अदन्त ! ये प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय जीव कालकी अपेक्षा कितने समय तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-एक्कं समय' हे गौतम ! ये एक समय मात्र ही रहते हैं ६ । 'एवं ठिईए वि' इस प्रकार स्थिति भी इनकी एक समय मात्र की होती है ७ । 'समुपाया आदिल्ला दोन्नि' समुद्घात यहां
आदि के दो होते हैं। वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात ८ । 'समोहया न पुच्छिज्जति' ये मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं क्या ऐसी बात यहां नहीं पूछनी चाहिये तथा उद्वर्तना के सम्बन्ध में भी नहीं पूछना चाहिये। क्योंकि ये प्रथम समयवर्ती होते हैं, इसलिये इन दोनों की यहां संभावना नहीं है । १० 'लेसं तहेच सव्वं निरवसेस' डत नथी. ५ ते णं भते ! पढमसमय कडजुम्म कडजुम्म एगिदियत्ति कालओ केवच्चिर होति मगवन् मा प्रथम समयमा ५न्न थयेकृतयुग्म કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જી કાળની અપેક્ષાથી કેટલા સમય સુધી २ छ ? 40 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ है-'एक समय' है गीतम! सा मे समय मात्र २३ छे. 'एवं ठिईएवि' से प्रमाणे तन्मानी स्थिति ५ मे समयमानी १ डाय छे. ७ 'समुग्घाया आदिल्ला दोन्नि' त्याने माहिना ये समुदधाता डाय छे. ते मे वहना समुद्धात भने ४ाय समुद्धात छ. ८, 'समोहया न पुच्छिज्जति' ते ભારણાન્તિક સમુઘાત કરે છે? એ પ્રમાણે નો પ્રશ્ન અહિ થતું નથી તથા ઉદ્વર્તનાના સંબ ધમાં પણ પ્રશ્ન કર નહીં કેમકે તેઓ પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા હોય છે. તેથી તે બનેની સંભવના અહિયાં રહેતી નથી, 10 'सेस तहेव सव' निरवसेस' मा भी सघY Sपा, परिभाषा
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ. २ ० १ प्रथमसमय कृ कृतयुग्मैकेन्द्रियनि० ५४९ ज्ञातव्यम् 'सोलससु वि गमएस जाव अणंखुत्तो' पोडशसापि यावदनन्त कृत्वः, इति पर्यन्तं विज्ञेयम् । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति' तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त ! इवि, हे भदन्त ! प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाणामुपपातादिविषये यद् देवानुप्रियेण कथितं तद् सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं दन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति | सू० १|३५||२|| इति श्री - विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां 'श्री भगवती सूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः || ३५-२ ॥
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बाकी का और सब उत्पाद परिमाण आदिका कथन सोलह महायुग्मों में प्रथम उद्देशक के जैसा ही है । 'सोलससु वि गमएसु जाव अनंतखुत्तो' सोलह महायुग्मों में 'यावत् वे अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं ' इस पाठ तक और सब पाठ कर लेना चाहिये | 'सेव भते ! सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त ! प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उपपात आदि के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्रीको वन्दना की और नम स्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सू० १ || द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ३५-२॥
વિગેરેનું કથન સેાળ મહાયુગ્મામાં પડેલા ઉદ્દેશામાં હ્યા પ્રમાણે છે તેમ समवु'. 'सोलसुचि गमपनु जाव अण'तखुत्तो' सो महायुग्भाभां યાવત્ તે અનતવાર ઉત્પન્ન થઇ ચુકયા છે. આ પાઠના કથન સુધી ખાકીના તમામ પાઠ સમજી લેવે.
'सेव भते ! सेव' भ'ते ! त्ति' है लगवन् प्रथम समयमा उत्पन्न थवावाजा કૃતયુગ્મ, કૃતયુગ્મ એક ઇન્દ્રિયવાળાએના ઉપપાત વિગેરેના વિષયમા આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું' છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વ'ના કરી અને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
૫મીજો ઉદ્દેશે સમાપ્ત ॥૩પ-૨ા
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零
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भगवती सूत्रे
तृतीयादारभ्यैकादशपर्यन्ता नवोदेशकाः
मूलम्-अपढमसमय कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्र्ज्जति ? एसो जहा पढमुद्देसो सोलससु वि जुम्मेसु तव ने वो जाव कलियोग कलियोगत्ताए जाव अनंतखुत्तो । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥३५-३ ॥
चरमलमय कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति ? एवं जहेव पढमसमय उद्देसओ नवरं देवा न उववज्रंति तेउलेस्सा न पुच्छिज्जति, सेसं तहेव । सेवं भंते । सेवं भंते ! न्ति ॥३५-४॥
।
अचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति ? जहा - अपढसमय उद्देसओ तहेव निरवसेसो भणियव्वो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥३५-५॥
पढमपढमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति ? जहा पढमसमय उद्देसओ तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! चि जाव विहरइ ॥३५-६॥
पढमअपढमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जति जहा पदम समय उद्देसओ तहेव भाणियव्वो । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥३५-७॥
पढमचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहां घरमुद्देसओ तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥३५-८॥
पढमअ चरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जति ? जहा बीओ उद्दसो तहेव निरवसेसं । सेव भंते! सेवं भंते! ति जाव विहरइ ॥३५ - ९॥
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refer at ०३५ उ. ३ ०१ अप्रथमसमयादि कृ कृतयुग्मैकेन्द्रिया' ५५१
चरम अवरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति ? जहा - पढमसमय उद्देसओ तहेव निरखसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥३५ - १०॥
चरम अचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं संते! कओ उववज्जति ? जहा- पढमसमय उद्देसओ तहेव निरवसेसं । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥ ३५-११॥ एवं एए एक्कारस उद्देसगा । पढमतइओ पंचमओ य सरिसगमा । सेसा अट्ट सरिसगमा । नवरं चउत्थे छट्टे अहमे दसमे य देवा न उववज्जंति तेउलेस्सा नत्थि ॥३५.११ ॥
पणतीसइमे सए पढमं एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥
छाया - अप्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत्र उत्पद्यन्ते, एषो यथा प्रथमोद्देशकः षोडशस्वपि युग्मेषु तथैव ज्ञातव्यो यावत् कल्योज कल्योजतया यावदनन्तकृत्वः । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इवि || ३५ - ३ ||
चरमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? एवं यथैव प्रथमोद्देशकः । नवरं देवा नोत्पद्यन्ते तेजोलेश्या न पृच्छयते, शेष तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति || ३५।४ ॥
4
अचरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्पयन्ते यथा प्रथमसमयोद्देशः तथैव निरवशेषो भणितव्यः । तदेवं भदन्व ! तदेवं भदन्त ! इति ||३५|५||
!
प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खल मदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते । यथा प्रथम समयोदेशक स्तथैव निरवशेषम् । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति || ३५ ६ ||
प्रथमअपथमसमयक-युग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुतः उत्पते ! यथा प्रथमसमयोद्देशक स्वथैव भणितव्यः ! तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति |३५|७||
प्रथमचरमसमय क्रुतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रिया खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते । यथा - चरमोद्देशक स्तथैव निरवशेषम् । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ३५|८| प्रथम अचरमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते
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भगवतiet
यथा-द्वितीयोदेशक स्वथैव निरवशेषम् । तदेवं भदन्त । तदेवे भदन्त । इवि यावद्विरति || ३५/९ ॥
चरमचरम पमयकृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते यथाचतुर्थ उद्देशकस्तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ३५ |१०|
4
चरम अवरमसमय कृतयुग्म कुन युग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते यथा- प्रथमसमयोद्देशक रतथैव निरवशेषम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ॥ ३५॥११॥
एवमेते एकादशोदेशकाः । प्रथमस्तृतीयाः पञ्चमकश्च सदृशगमाः । शेषा अष्टौ सहगमाः । नरं चतुर्थे पष्ठे अष्टमे दशमे च देवा नोत्पद्यन्ते तेजोलेश्या नास्ति ||
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॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शत के प्रथम मेकेन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् || ३५१|| टीका--'अपढम समय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते ! कओ उचवज्जति' अपथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते । अत्राप्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वेन उत्पन्नानां द्वयादयः समया स्ते अप्रथम समयै केन्द्रियाः कृत्र्युग्मकृतयुग्म राशि प्रमाणाश्च ते तादृशा एकेन्द्रियाः कुत उत्पद्यन्ते किं नैरपि विग्स्पो मनुष्येभ्यो देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते
शतक ३५ उद्देशक ३ से ११ तक
'अपढम समय कडजुम्मकडजुम्म एनिंदियाणं भंते । कओ उवव जंति' इत्यादि ।
टीकार्य - हे भदन्त ! अप्रथम समघोत्पन्न कृतयुग्म कृनयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? एकेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होने में जिन्हें दो आदि समय हो चुके हों - ऐसे वे एकेन्द्रिय जीव अप्रथम समयोत्पन्न कहे गये हैं। क्या ऐसे ये एकेन्द्रिय जीवनैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों
ત્રીજા ઉદ્દેશાના પ્રાર‘ભુ
'अपढम समय कडजुम्म कडजुम्म एगि दियाण' भते ! कओ उववज्ज'ति' त्याहि. ટીકાથ—હૈ ભગવત્ અપ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા મૃતયુગ્મ, કૃતયુગ્મ, રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવેા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? એકેન્દ્રિયપણાથી ઉત્પન્ન થવામાં જેએને એ વિગેરે સમય થઈ ચૂકેલ હાય-એવા તે એકેન્દ્રિય જીવા અપ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા હેવામાં આવેલ છે. એવા એક ઇન્દ્રિયવાળો જીવેા શુ' નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા
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• प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.३ सू०१ अप्रथमसमयादिक कृतयुग्मैकेन्द्रिया: ५५३ इति प्रश्नः। उत्तरमाह-एसो' इत्यादि । एसो जहा पढ पुद्देसो सोळससु वि जुम्मेसु तहेव नेयम्यो' एप रतृतीयोद्देशकः यथा-येन रूपेण प्रथमोद्देशकः पोडशसु अपि युग्मेषु कथित रतथैव-तेनैव रूपेण अयमपि तृतीयोदेशः पोडशराशि भेदानाश्रित्य ज्ञातव्यो विचारयितव्यः । कियत्पर्यन्त तत्राह-'जाव कलिभोग कलिओगत्ताए' यावत्कल्योज कल्योजतया कृतयुग्मकृतयुग्मतया इत्यत आरभ्य कल्योज द्वापरयुग्म इत्येतत् पर्यन्तराशीनां ग्रहणं यावत्पदेन भवति । 'जाव अणत. में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवोंमें ले आकरके उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एसो जहा पहसुद्देसो लोलसस्तु वि जुम्मेसु तहेव नेयव्यो' हे गौतम! जिस रीति से प्रथम उद्देशक सोलह युग्मों को लेकर कहा गया है । उसी रीति से (१६) सोलह राशि भेदों को आश्रित करके यह तृतीय उद्देशक भी कह लेना चाहिये । यावत् 'कलिभोग कलिओ. गत्ताए' अप्रथम संमयोत्पन्न कल्घोज कल्योज राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव यावत् अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं। यहां तक हल उद्देशकको कहकर समाप्त करना चाहिये। यहां प्रथम पावत्पद से बीच की शेष राशियां गृहीत हुई हैं। इस प्रकार ये अप्रथम समयोत्स्न्न एकेन्द्रिय जीव कृतयुग्म योजरूप से, कृतयुग्म छापर रूप से, कृतयुग्म कल्योज रूपसे योज कृतयुग्मरूप से, योजयोजरूप से, द्वापरयुग्म योजरूप ले, द्वापरयुग्मद्वापरयुग्मरूपले, द्वापर युग्म कल्योज रूपसे, कल्पोज कृतयुग्मरूपसे, - તિર્યંચ નિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા દેવોમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामी ४३ छ है-'एसो जहा पुढमुद्देस्रो सोलसस वि जुम्मे तहेव नेयम्बो' 3 गौतम ! २ प्रमाणे पडसा उद्देशामा सोण युभो ને લઈને કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે (૧૬) સોળ રાશિ ભેદે નો આશ્રય કરીને भाभी देश घडवणे. यातू 'कलि ओग कलिओगत्ताए' मप्रथम સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા કાજ કલેજ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય છે યાવત અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે. આ કથન સુધી આ ઉદ્દેશો પુરે કહે જોઈએ અહિયાં પહેલા યાવત્પદથી વચલી બાકીની રાશિ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ રીતે આ અપ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા એક ઈન્દ્રિયવાળા જી કૃતયુગ્મ, એજ ૫ણુથી કૃતયુ કાપરપણાથી કૃતયુમ કલ્યોજ પણાથી ગેજ, કૃતયુમ પણ થી એ જ જ પગથી યે જ દ્વાપર પણાથી જ કલ્યોજ પણાથી દ્વાપરયુગ્ય કૃતયુગ્મ પણાથી દ્વાપરયુમ જ પણાથી भ० ७०
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भगवतीस्
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खुतो' यावद् अनन्तकृत्वः, अप्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः कुत उत्प धन्ते इत्यारभ्य असकृत् अथच' इत्यन्तस्य समग्रस्यापि प्रकरणस्य संग्रहो यास्पदेन ज्ञातव्यः तिर्यङ्मनुष्यदेवेभ्य उत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्व प्रथम देशक देव ज्ञातव्यमिति, 'सेवं भंते । सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति है भदन्त ! अप्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्पादादिविषये यत् कथितं तत्सर्वमेव सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं चन्दते नमस्यति वन्दिखा नमस्त्विा यावद्यथासुखम्, विहरतीति ।
॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शतके तृतीयोदेशकः समाप्तः ||३५|३||
कल्योज त्र्योजरूपसे कल्योजद्वापरयुग्मरूप से वहां दूसरे यावत् पद से कहां से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न से लेकर 'असई - 'असकृत् ' इस अन्तिम पाठ तक सब कथन का संग्रह प्रथम उद्देशक के जैसा ही यहां जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! अप्रथम समयोत्पप्न कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पादादिके विषय में जो आप देवानुप्रिघने कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || १ |
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त || ३५-३॥
દ્વાપરયુગ્મ દ્વાપરયુગ્મ પણાથી દ્વાપરયુગ્મ કલ્યાજ પણાથી લ્યેાજ કૃતયુગ્મ પણાથી કલ્ચાજ જ્યેાજપણાથી કલ્ચાજ દ્વાપયુગ્મપણાથી કર્યાંથી આવીને उत्पन्न थाय छे ? विगेरे प्रश्नश्री ने 'असर' 'असकृत्' भी ऐसा पाठ सुधी સઘળુ કથન પહેલા ઉદેશા પ્રમાણે સમજવુ’.
'सेव भवे ! सेव भ'ते ! त्ति' हे भगवन् प्रथम समयमा उत्पन्न થયેલા મૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવેાના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબ"ધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સવથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આપ દેવાતુપ્રિયનું સઘળું કથન સ`થા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી સચમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. દાસૂ॰૧૫
પ્રત્રીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૫-૩ા
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ उं.४ सू०१ चरमसमयं कृ कृतयुग्मैकेन्द्रियाः ५५५
चरमसमयकडजुम्मकडजुम्म एगिदियार्ण भंते ! कओहितो उववज्जति' चरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नरयिकेन्य स्तिर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्यो वोत्पद्याने इत्यादि। अत्र चरमसमयशब्देन एकेन्द्रियाणां मरणसमयो विवक्षितः, स च परमवायुपः मथमसमये एव, तत्र च चर्तमानाः चरमसमयाः, संख्यया च कृतयुग्मकृतयुग्मराशिषमाणा ये एकेन्द्रिया स्ते चरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रिया इति । भगवानाह-एवं' इत्यादि । 'एवं जहेव पढमसमय उद्देसओ' एवं यथैव प्रथमसमयो देशकः द्वितीयोदेशकः एतस्यैव
चौथे उद्देशे का प्रारंभ 'चरमसमय कडजुम्म कड़जुम्म एगिदियाणं भंते इत्यादि
टीकार्थ--हे भदन्त चरमसमय में वर्तमान ऐसे कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियजीव किस स्थान विशेष से भाकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरथिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? यहां चरम शब्द से एकेन्द्रियों का मरण समय विवक्षित हुआ है। और यह उनकी परभवकी आयुका प्रथमसमय रूप है। इसमें वर्तमान एकेन्द्रिय चरमसमय शद से कहे गये हैं । अतः चरमसमय में वर्तमान और संख्या में कृतयुग्म शिप्रमाण एकेन्द्रिय जीव कहां से आकरके उत्पन्न होते हैं ? ऐसे इस गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेव पदमसमय उदेसओ' 'हे गौतम ! इस सम्बन्ध में जैसा प्रथम समयके
या देशाला प्रारटी -'चरमखमयझडजुम्मकडजुम्म एगि दियाण मंते !' त्या लगवन ચરમ સમયમાં રહેલા એવા કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિ છ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નિરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિયામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે કે મનુષ્ય. માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેશમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે ? અહિયાં ચરમ શબદથી એકેન્દ્રિયેને મરણ સમય વિવક્ષિત થયેલ છે. અને આ તેઓના પરભવના આયુષ્યના પ્રથમ સમય રૂપ છે. તેમાં રહેદ્વારા એકેન્દ્રિય ચરમ સમય શબ્દથી કહેલ છે. તેથી ચરમ સમયમાં રહેલા અને સંખ્યામાં કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણ એકેન્દ્રિય જીવો કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે -'एवं जहेष पढम समय उदेसओ' गौतम ! म समयमा प्रथम समय
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'भगवती सूत्रे
५५६,
शतकस्य द्वितीये प्रथमसत्रयनाम के उद्देशके यथा एकेन्द्रियाणां तिर्यगादिभ्य उत्पादादि कथितम्, तथैव सर्वमिहापि वक्तव्यम् प्रथमसमये औधिकोदेशकापेक्षया दशनानात्वानि कथितानि तान्येव अत्रापि तेनैव रूपेण वक्तव्यानि उभयोः समानरूपस्वात् प्रथमसमय चरमसमयै केन्द्रियाणां यो विशेषः तद्दर्शयति'नवरे' इत्यादि, 'नवरं देवा न ववज्जेति तेउलेरसा न पुच्छिज्जंति' नवरं केवलं देवा नोत्पद्यन्ते चरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियेषु देवा नोत्पद्यन्ते अतोऽत्र तेजोलेश्या न पृच्छयते । 'सेसं तद्देव' शेषं तथैव प्रथमसमये केन्द्रियमकरणसम्बन्ध में द्वितीय उद्देशक कहा गया है- अर्थात् हसी शतक के द्वितीय प्रथम समय नाम के उद्देशक में जैसा एकेन्द्रियों के तिर्यग् आदि से आकरके उत्पादादि के विषय में कहा गया है वैसाही सब यहां पर कहना चाहिये । प्रथम समय में औधिक उद्देशक की अपेक्षा जो १० भिन्नताएं कही गई है वे ही भिनताएं उसी रूप से यहां भी कह लेनी चाहिये क्योंकि दोनों में समानरूपता है । प्रथम गवर्ती और चरमसमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों में जो विशेषता है उसे प्रकट करने के लिये 'नवरं देवा न उचचज्जति लेउलेस्सा न पुच्छिज्जति' सूत्रकार कहते हैं कि चरममपवर्ती कृतयुग्मं कृतयुग्म राशिममाण एकेन्द्रिय जीवों में देव उत्पन्न नहीं होते हैं इसीलिये यहां तेजोलेश्या के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं करना चाहिये क्योंकि वह यहां होती ही नहीं है । 'सेसं तहेव' बाकीका और सब कथन यहां प्रथमसमयवर्ती एकेन्द्रिय जीव के प्रक
ના સબંધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન ખીજા ઉદ્દેશામા કરવામાં આવ્યું છે, અર્થાત્ આ શત્રુના મીજા પ્રથમ સમય નમના ઉદ્દેશામાં એકેન્દ્રિયાના તિય ચ વિગેરેમાંથી આવીને ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં કહેલ છે. એજ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયાં કહેવુ જોઈએ. પહેલા ઉદ્દેશામાં ઔઘિક ઉદ્દેશાની અપેક્ષાથી જે ૧૦ દસ પ્રકારનું' ભિન્ન પણું કહ્યું છે. તે સવળુ ભિન્ન પણુ - એંજ પ્રમાણે અહિયાં પશુ કહેવુ' જોઇએ, કેમ કે ખન્નેમાં સમાન પણું છે. પ્રથમ સમયમાં રહેલ અને ચરમ સમયમાં રહેલ એકેન્દ્રિય જીવેામાં જે વિશેષ यागु छे, ते मताववा भाटे 'नवर' देवा न उववज्जति' तेउलेस्सा न पुच्छि ઉન્નત્તિ' સૂત્રકારે આ સૂત્રપ'ઠ કહેલ છે. આ સૂત્રપાઠથી સૂત્રકાર એ કહે છે કેચરમ સમયમાં રહેનારા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશીવાળા એકેન્દ્રિય જીવામાં દેવે ઉત્પન્ન થતા નથી. તેથી અહિયાં તેજલેશ્યાના સંબધમાં પ્રશ્ન કરેલ નથી, કેમ
तेलेोश्या मडियां होती नथी. 'सेस' तहेव' माडीनुं श्री' सघणु उथन અહિયાં પ્રથમ સમયમાં રહેનારા એકેન્દ્રિય જીવાના પ્રકરણ પ્રમાણે સમજવું.
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ २.५ सू०१ अचरमसमय कृ कृतयुग्मैकेन्द्रिया ५९७ वदेव सर्व ज्ञातव्यमिति । 'सेचं भते! सेव भने ति तदेवं भदन्त ! ददेव भदन्त । इति, हे भदन्त ! चरमसमयएकेन्द्रियाणा मुत्पादादि विषये यद् भावता कथित तत्सर्वमेव सत्यमिति कथयित्वा यावत् संयमेन तपसाऽऽरमान भावयन् विहरतीति ॥३५॥४॥
'अचरमसमयकडजुम्माडजुम्म एगिदियाणं भंते ! को उववर्जात' अचरमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते, न विद्यते मरणसमयात्मक चरमसमयो येपा मेकेन्दियायां ताराचन्युग्मकृतयुग्म राशि प्रमाणानां ते अचरमसमयकृतयुग्मकृत्युमिलेन्द्रियाः कथ्यन्ते इति प्रश्नः, रण के जैसा ही है। 'सेवं संते ! सेवं भंते ! ति' हे सदन्त ! चरमझमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के विषय में जो आपने कहा है वह सर्व ही सत्य है ऐला सहकर गौतमने प्रभुश्री को रन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्माको आवित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || शतक ३५ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥३५-४॥
पांचवें उद्देशे का मारभ 'अचरमसमय कड़जुम्मकाडजुम्म एनिदिशाण भंते ! कओ उपवजानिए टीकार्थ-हे भदन्त | जो अचरमसमयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिप जीव हैं वे किस स्थान विशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? जिन एकेन्द्रिय जीगेका मरण समयात्मक चरमसमय नहीं है और जो संख्या में कृतयुग्मकृतयुगत राशिप्रमाण है ऐसे वे एकेन्द्रिय जीव अचरम
सेव भते ! सेव भते । त्ति' भवन सभ समयमा नास ન્દ્રિય જીના ઉત્પાદ આદિના વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કરેલ છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂ૦૧
થો ઉદેશ સમાપ્ત ૩૫-૪
પાંચમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ टीआय-'अचरससमय कहजुम्मकड़जुन्न एगि दियाण भते ! कओ उववजन ति। ઈત્યાદિ હે ભગવદ્ અચરમ સમયમાં રહેનારા કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા જે એકેન્દ્રિય જીવો છે, તેઓ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? જે એકેન્દ્રિય જીને મરણ સમયાત્મક ચરમ સમય નથી, અને જે સંખ્યામાં કુતયુમ કૃતયુમ રાશિપ્રમાણ છે એવા તે એકેન્દ્રિય જીવ અચરમ સમયમાં રહેલા કૂતયુગમ કૃતયુમ શિપ્રમાણુવાળા કહેવામાં આવ્યા છે, આ પ્રશ્નના
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भगवती उत्तरमाह-'जहा' इत्यादि, 'जहा अपपसमय उद्देसो तहे व निरवसेसो भाणियो यथा अप्रथमसमयनामको व्रतीयोद्देशक स्तथैव निरवशेषो भणितव्य एतच्छतकीय द्वितीयोद्देशकदेव यावनन्तकृत्वः, इति पर्यन्त सर्व ज्ञातव्यम्, अत्र देवा अपि उत्पधन्ते 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! चि' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! अचरमसमयैकेन्द्रियाणा मुत्पादादि विषये यत् कथितं देवानुमियेण तत्सर्व सत्यमेवेनि कथयित्वा वन्दित्वा नसस्यित्वा यावद्विहरतीति ॥३५।५।।
॥पञ्चत्रिंशत्तने शतकें पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥३५॥५॥ समय कृपयुग्म राशिप्रमाण कहे गये हैं। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'जहा अपढमसमय उद्देसो तहेव निश्वसेसो भाणियन्वो' हे गौतम जैसा अप्रथम समय नामक तृतीय उद्देशक कहा गया है उसी प्रकारले यहाँ पर भी लब कथन कर लेना चाहिये और वह सब कथन 'यावत् अनन्तवार वे वहां उत्पन्न हो चुके हैं। इस अन्तिम सूत्रपाठ तक कह लेना चाहिये ! यहां देव भी उत्पन्न होते हैं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' हे मदन्त ! अचरन समयवर्ती एकेन्द्रिय के उत्पाद आदिके विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रसुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।।सू०१॥
॥शत र ३५ पश्चप्लोद्देशक समाप्त ३५॥ उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीने ४ छ -'जहा पढमसमयउद्देस्रो तहेव निरवसेसों भोणियव्वो' हे गौतम र प्रमाणे प्रथम समय नामनी मार, देशे हो છે એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ સઘળું કથન સમજવું જોઈએ. અને આ સઘળું કથન યાવત તેઓ અનંતવાર ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યાં છે. આ પ્રમાણે છેલલા સૂત્રપાઠ સુધી કહેવું જોઈએ. અહિયાં દેવે પણ ઉત્પન્ન થાય છે.
'सेव भते ! सेव' भते ! त्ति' 3 साल भय२म समयमा २३वाणा એકેન્દ્રિય જીવોના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે તે સર્વથા સત્ય છે હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરીને તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧
પાંચમે ઉદેશે સમાપ્ત ૩પ-પા
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चन्द्रिका टीका ०३५ उ.५ सु०१ प्र.प्रथमसमय कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाः ५५९ पढमपदम समय कडजुम्मकडजुम्म एर्गिदियाणं भंते! कभी उववज्जति ?' पश्ममथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते ? एकेन्द्रियोत्पादस्य प्रथमसमययोगाद् ये प्रथमाः प्रथमय समय' कृतयुग्मकृन्यु मत्वानुभवस्य येषा मेकेन्द्रियाणां ते प्रथमममय कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया इति कथ्यन्ते पते कुत उत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाह - अतिदेशद्वारेण 'जहा ' इत्यादि, 'जहा पढमसमय उद्देसओ तदेव निरवसेसं' यथा प्रथमसमयोदेशको द्वितीय: तथैव निरवशेषम् एतच्छतकीयद्वितीयोदेशके येन रूपेण एकेन्द्रियाणा
'पदम पढमसमय कडजुम्म कडजुम्म एनिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति' इत्यादि हे भदन्त ! प्रथम प्रथम समयवर्ती कृतयुग्यकृनयुग्मराशिप्रमाण एकेन्द्रिय जीच किस स्थान विशेषसे आकर के उत्पन्न होते हैं ? एकेन्द्रिय रूप से उत्पाद के प्रथम समय के योग से जो प्रथम है तथा कृतयुग्म कृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथम समय में जो वर्तमान हैं ऐसे एकेन्द्रिय जीव प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव हैं । ये कहाँ से आकरके उत्पन्न होते हैं ? ऐसा यह गौतमका प्रश्न है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'जहा पदमसमय उद्देसओ तहेव निरवसेसं' हे गौतम ! जैसा प्रथमसमयोद्देशक- द्वितीय उद्देशक में कहा गया है उमी छठ्ठा उद्देशाने आरंभ-
टीडा--' पढसमय कड़जुम्मकडजुम्म एगिदियाणं भंते! कओ दववज्जति' ઈત્યાદિ હે ભગવન્ જેએ પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશી વાળા એકેન્દ્રિય જીવા ક્યા સ્થાન વિશેષથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? એકેન્દ્રિય પણાથી ઉત્પાદના પ્રથમ સમયના ચેાગથી જેએ પ્રથમ છે, ત્યા કૃતયુગ્મ, કૃતયુગ્મપણાના અનુભવના પ્રથમ સમયમાં જેએ ઉત્પન્ન થયેલા છે, એવા એકેન્દ્રિય જીવે પ્રથમ સમય કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવે છે. તે જીવે ક્યાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને पूछे छे. या प्रश्नमा उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'जहा पदमसमय उद्देसओ तहेव निरवसेस' हे गौतम! ? रीते पहेलो देश! जीन ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, અર્થાત્ પહેલા ઉદ્દેશા પ્રમાણેનુ કથન ર્મા ઉદ્દેશામાં સમજવુ' તેમ કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ એકેન્દ્રિય
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. . . . . . . . भगवती
मुपपातादारस्थं 'असकृत् अथवा अनन्तकृस्वः एतत्पर्यन्तं सर्वमिहापि वक्तव्यम् 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरह' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे मदन्त ! प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाणा सुपपातादिविपये यदेवानुपियेण कथितं तत्सर्व सत्यमेथेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नसस्थित्वा यावद्विहरतीति ॥
॥पञ्चत्रिंशत्तमे शतके षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥३५॥६॥
पढमअषहमसमय कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया भंते ! कओ उववज्जति' अर्थमामथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते प्रथमप्रकार से यहां पर भी एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद से लेकर 'यावत् वे वहाँ अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं। इस अन्तिम पाठ तक कह लेना चाहिये लेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! प्रथम समय कृनयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के उत्पाद आदि के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब लत्य ही है ऐसा कहकर गौतमने प्रभुश्रीको वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
॥शतक ३५ गं उद्देशक छट्ठा समाप्त ३५-६॥ । 'पढन अगढम लमय काडजुम्न जाडजुम्म एगिदियाण मंते ! इत्यादि टीकार्थ-हे भदन्त ! प्रथम अप्रथम समयवर्ती कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेप ले आकरके उत्पन्न होते हैं ? જીના ઉત્પાદથી લઈને યાવત તેઓ ત્યાં અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે. આ છેલલા પાઠ સુધી કહેવું જોઈએ.
_ 'सेत्र भते ! सेव' मते ! त्ति' मगर पडेसा समय कृतयुग्म કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિયના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર मिसमान यया ॥२०१॥
છઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩૫-દા
सातमा हेशान प्रारमटी-पढमअपढमसमय कडजुम्मकडजुम्म पगिदियाण' भंते ! त्या ભગવનું પ્રથમ અપ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા
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refer टीका श०३५ ३०५ ०१ प्र. अप्रथम कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियानि० ५६१ तथैव ये अथम द्वादि समयः कृतयुग्मकृतयुग्मत्वानुभूते येपा मेकेन्द्रियाणां
प्रथमामथस समय कृतयुग्मकृतयुग्मकेन्द्रिया इति कथ्यन्ते ते इत्थंभूता एकेन्द्रियाः कुत उत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरयति - इहापि अविदेशद्वारेण 'जहा' इत्यादि' 'जहा पदमसमय उद्देसो तहेव भाणियन्त्रो' यथा- प्रथम सयोदेशी द्विती योद्देशक स्तथैव सप्तमोदेशकोऽपि समग्रो वक्तव्यः । अत्र च एकेन्द्रियत्वोत्पादप्रथम तेषां यद्विवक्षित संख्यानुभवस्याप्रथमसमयवर्त्तित्वं तत्पाग्भव सम्बन्धिनीं समयसंख्यामधिकृत्येति विज्ञेयम् । एवमुत्तरत्रापीति 'सेवं
इस प्रश्न का अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं'गोधमा ! जहा पढसमयउद्देो तहेव भाणिधव्वो' हे गौनम | जैसा प्रथम समय उद्देशक अर्थात् द्वितीय उद्देशक कहा जा चुका हैं इसी प्रकार से यह साना उद्देशक भी सम्पूर्ण रूपसे कह लेना चाहिये । यहां एकेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होने के प्रथम समग्रकर्ति होने पर भी कृतयुग्म कृतयुग्म राशिरूप से विवक्षित संख्याका जो यहाँ अनुभवन है - अर्थात् विवक्षित संख्या के अनुभवन करने की अप्रथम जमघवर्तिता है - वह पूर्वभव की समय संख्या को लेकर कहा गया है ऐसा जानना चाहिये | तात्पर्य इसका ऐसा है कि एकेन्द्रिय रूप होने के प्रथम समय में वर्तमान जो जीव हैं उन्होंने पूर्व भव में विवक्षित राशि रूप संख्या का अनुभवन किया है - अतः ऐसे जीव प्रथमादथम समवर्ती एकेन्द्रिय जीव कहे गये हैं। आगे भी इसी प्रकार से जानना चहिये । 'से वं એકેન્દ્રિય જીવેા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નને અતિદેશ (ભલાણુ) દ્વારા ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! जहा पढ समय उद्देसो नहेव भाणियन्बो' हे गौतम! अभ પ્રથમ સમય સબંધી ઉદ્દેશે અર્થાત્ ખીન્ને દેશે! કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં સાતમા ઉદ્દેશે! પણ સમજવે. જોઈએ અહિયાં એકેન્દ્રિય પણાથી ઉત્પન્ન થવાના પ્રથમ સમયમાં રહેનારા હોવા છતાં પણ કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિરૂપ છે. અહિયાં વિવક્ષિત સખ્યાનેા અનુભવ કરવા તે અપ્રથમ સમયતિ પણ કહેલ છે. આ પૂર્વ`ભવની સમયસ જ્ગ્યાને લઇને કહેવામાં આવેલ છે તેમ સમજવુ'. કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે-એકેન્દ્રિય રૂપ હોવાના પ્રથમ સમયમા રહેનારા જીવે છે, તેએાએ પૂર્વભવમાં વિવક્ષિત રાશિરૂપ સખ્યાને અનુભવ કરેલ છે જેથી એવા જીવેા પ્રથમ અપ્રથમ સમયમાં રહેનારા એકેન્દ્રિય જીવે કહેવાયછે હવે પછી પણ એજ પ્રમાણે સમજવુ' જેઈએ.
भ० ७१
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भगवतीसूत्रे
५६२
भंते । सेव, भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति हे भदन्त ! प्रथमा प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाणा मुत्पातादिविषये यत् कथितं तत्सर्वं ' सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते यावद् यथासुखं विहरतीति । || पञ्चत्रिंशत्तमे शतके सप्तमोदेशकः समाप्तः || ३५/७ ॥
!..
'पढम चरमसमय - कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिया णं भंते! कओ उववज्जं ति प्रथमचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते प्रथमाश्व ते विवक्षितसंख्यानुभूतेः प्रथमसमयवर्तित्वात् चरमसमयाश्च मरणसमयवतिनः परिशाटगता इति प्रथमचरमसमयाः, इत्थंभूतास्ते च ते कृपयुग्मराशि प्रमाण एकेन्द्रिया रते प्रथमचरम कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रिया इति कथ्यन्ते ते कुत उत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरयति - इहापि अतिदेशद्वारेणैत्र 'जहा' इत्यादि' 'जहा
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भंते । सेवं भंते !' त्ति' हे भदन्त ! प्रथमाप्रथमसमयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदिके विषय में जो आपने कहा है वह सब सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । सू० १ | ॥ शतक ३५ वां उद्देशक सातवां समाप्त ३५-७॥ 'पढमचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं भंते । कओ उववज्र्ज्जति' इत्यादि ।
टीकार्य - हे भदन्त ! प्रथमचरमसमयवर्ती कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इस
'सेव भंते! सेव' भंते! त्ति' हे भगवन् प्रथम अप्रथम सभयभां रहेवा વાળા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવે ના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળુ કથન સવથાસત્ય છે, હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમઅને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા ાસૢ૦૧u
!!સાતમા ઉદેશે સમાપ્ત ૩૫-૭। આઠમા ઉદ્દેશાના પ્રારભ
'पढम चरमसमय कड़जुम्मकडजुम्म एगिं दियाण भवे ! कओ उववज़ 'ति' ઇત્યાદિ હૈ ભગવત્ પ્રથમ ચરમ સમયમાં રહેવાવાળા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.८ मू० प्र.चरमसमय कृ.कृतयुग्मेकेन्द्रियनि० ५६३ चरमुद्देसभो तहेव निरवसेस' यथा चरमोदेशकश्चतुर्थः कथित स्तथैव निरव शेषमष्टमोदेशकोऽपि भणितव्यः, अत्र देशा नोत्पधन्ते ऽस्ते नोलेश्याऽपि न भवति उपपातादारभ्य 'असई अदुवा अणंतखुत्तो' 'असकृत् अथवा अनन्तकृत्वा एतत्पर्यन्तं संपूर्णमपि प्रकरणं वक्तव्यम् । सेव भते ! सेव भंते ! त्ति' वदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त इति ।।
॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शतकेऽष्टमोदेशका सगा ॥३५।८ । सम्बन्धमें अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं'जहा चरमुद्देसओ तहेव निरवसेसं जैसा चरम उद्देशक-चौथा उद्देशककहा गया है। वैसा ही यह आठवां उद्देशक कहा गया है। जो एकेन्द्रिय जीय विवक्षित संख्याकी अनुभूति के प्रथम समयवर्ती होकर मरणवर्ती हैं ऐसे वे कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय जीव प्रथम चरम समयवती कृतयुग्म कृलयुग्म एकेन्द्रिय जीव कहे गये हैं। यहां देव उत्पन्न नहीं होते हैं । इसलिये तेजोलेश्या भी नहीं होती है । इनके उत्पादसे लेकर 'ये यहाँ अनेकवार अथवा अनन्तवोर उत्पन्न हो चुके हैं। इस अन्तिम प्रकरण तक सब प्रकरण वक्तव्य है । सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति' 'हे भदन्त आपका यह सब कथन सर्वथा सत्य है । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वंदना રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જી ક્યા સ્થાનથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री मतिश द्वारा गौतभस्वामी ४ छ -'जहा -चरमुद्देसओ तहेव निरवसेस" रे प्रभाए यम शे। मेट 8- योथे। देश। द छे, છે, એ જ પ્રમાણે આ આઠમા ઉદ્દેશાનું કથન પણ સમજવું. જે એકેન્દ્રિય જો વિવક્ષિત સંખ્યાના અનુભૂતિના–અનુભવના પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા થઈને મરણના સમયવતિ છે. એવા તે કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રાશિરૂપ એકેન્દ્રિય વાળા જ પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ શશિરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. તેમાં દેવ પણ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી તેઓને તે વેશ્યા પણ હોય છે. તેના ઉત્પાદથી લઈને તેઓ અહિયાં અનેકવાર અથવા અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યા છે આ કલા પ્રકરણ સુધીનું પ્રકરણ કહી લેવું. . 'सेवे भते । सेवं भंते ! त्ति' 3 सावन् प्रथम सप्रथम समयमा खेसવાળા કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવાન આપ દેવાપ્રિનુયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ
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છું
भगवती सूत्रे
'पदम अचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया णं भवे ! कओ उववज्जत' प्रथमाचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते एकेन्द्रियत्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो विद्यते येषां ते प्रथमाः तथैवाचरमसमयास्तु एकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथम समयवर्त्तिन इह विव. fears, चरम निषेधस्य तेषु विद्यमानत्वात्, अन्यथाहि द्वितीयांदेशकोक्तानावाहनादीनां यदि समत्वं कथितं तन्न स्यात् ततः कर्मधारयः अतः प्रथमा नमकार कर बाद में वे संगम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || सू० १॥
३५ पैतील वे शतक का आठवां उद्देशक समाप्त
'पटम अचरम समग्र कडजुम्मकडजुम्स गर्मिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति' इत्यादि
टीकार्थ- हे भदन्त ! प्रथम अचरम समयवर्ती कृतयुग्मकृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हे गौतम! जैसा द्वितीय उद्देशक में कहा गया है वैसा ही इस उद्देश में कह लेना चाहिये। जो एकेन्द्रिय जीव विवक्षित समय की अनुभूति के प्रथम समय में है ऐसे वे एकेन्द्रिय जीव प्रथम कहलाते हैं और एकेन्द्रिय रूप से उत्पाद की अपेक्षा जो प्रथमादि समयवर्ती है ऐसे वे एकेन्द्रिय प्रथम अचरम है। इनमें चरमताका निषेध किया गया है । यदि ऐसा न हो तो फिर उद्देशक में कथित સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યાં વ ́દના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાતિ કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા ાસૢ૦૧૫
આઠમે ઉદ્દેશે। સમાપ્ત ૫૩૫-૮ા નવમા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ~~~
'पढम अचरम कड़जुम्मकड़जुम्म एगिदियाणं भंते! कओहिंतो ! उवज्ज'ति' इत्यादि
ટીકા –હે ભગવન્ પ્રથમ અચરમ સમયમાં રહેવાવાળા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા અકેન્દ્રિય જીવો કયા સ્થાન વિશેષમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! ચેાથા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણેનુ' કથન કરવામાં આવ્યુ' છે, એજ પ્રમાણેનું કથન આ ઉદ્દેશામાં કહેવુ' જોઈ એ, એકેન્દ્રિય પણાથી ઉત્પન્ન થવામાં જેએને પ્રથમ સમય લાગે છે, એવા તે એકેન્દ્રિય જીવેા પ્રથમ અચરમ ઠહેવાય છે. તેઓમાં ચરમ પણાને નિષેધ કરવામાં આવેલ છે. જો તેમ ન હાય તે, પછી બીજા
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प्रमेयमाि ठोका ८०३५ उ.९ ०१ प्र. अचरम कृ कृतयुग्मै केन्द्रियनि० ५६५
चरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः कथयन्ते एतेषामुत्पत्तिः कुत आगल भवन्ति ? इति प्रश्नः उत्तरयति - अतिदेशेन 'जहा' इत्यादि, 'जहा बीओो उद्देमओ ata निरवसेस' यथा द्वितीयोदेशकस्तथैव निरवशेषम् एतन्छाकीय द्वितीय देशक प्रथमसमयै केन्द्रियाणां यथा उपपातादिकं कथित तथैच निरवशेषमिहापि ज्ञातव्यमिति । 'सेत्रं भंते ! सेवं अंते ! त्ति जात्र विहरई' तदेवं भइन् । तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! मथमाचरमकृतयुग्न कृयुग्मै केन्द्रियाणमुपपातादि विषये यद्देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वं सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते यावद्विहरतीति ।
|| पञ्चविंशत्तमे शव के नवमोदेशकः समाप्तः | ३५|९||
अवगाहना आदि की जो समान्ता यहाँ कही गई है वह नहीं हो सकती है। इसी शतक के द्वितीय उद्देशक में प्रथम समय में एकेन्द्रियों का जैसा उत्पाद आदि कहा गया है वैसा ही भव कथन यहां ९ वें उद्देशक में है ऐसा जानना चाहिये । लेवं भंते ! सेवं भंते ! सिजाय विहरह' हे भदन्त ! प्रथमाचरण कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों के उपपात आदि के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को बन्दना की नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे तप और संघ से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये १ ॥
|| शतक ३५ व उद्देशक नौवां समाप्त ||३५ - ९॥
ઉદ્દેશામાં કહેલ અવગાહના વિગેરેનુ જે સમાન પણુ અહિયાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ સઘળું કથન અહ્રિયાં આ ૯ નવમાં ઉદ્દેશામાં या उस छे, तेभ समन्वु,
‘सेव ं भवे ! सेव ं भते ! ति' हे भगवन् प्रथम यरम द्रुतयुग्भ द्रुतयुग्भ એકેન્દ્રિયજીવોના ઉત્પાત વિગેરે વિષયના સ! ધમાં આપ દેવાતુપ્રિયે જે કથન કર્યું' છે, તે સઘળું કથન સધા સત્ય છે હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમરવામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેમેને નમસ્કાર કર્યો વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ॰૧૫
વમા ઉદ્દેશે સમાપ્ત ॥૩૫-૯ા
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भगवती सूत्रे
'चम्मचग्स समय कडजुम्परडजुम्म एगिंदिया णं भंते ! कमो उववज्जंति' चरमचरमसमय कुलयुग्मकृतयुग्म केन्द्रियाः खलु भइन्छ ! कुत उत्वयन्ते ? चरमाश्र ते विवक्षित संख्पानुभूतेश्वर मममयवर्त्तित्वात् चरमसमया मरणसमयवर्त्तिनः, इत्थंभूता एकेन्द्रिया चरमचरम समयक, युग्मकृतयुग्मै केन्द्रिया इति कथ्यन्ते एतेषामुत्पादः कुत इति प्रश्नः, उत्तरयति - अतिदेशद्वारेण - 'जहा' इत्यादि 'जहा चउत्थो उद्देओ तद्देव' यथा चतुर्थ उद्देशक स्तथैव एतच्छतकीय चतुर्थीदेश यथा कथितं तदिहापि तथैव सर्व ज्ञातव्यमिति, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! रदेवं भदन्त । इति, हे भदन्त ! चरमचरमसमय कृतयुग्म
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'चरम चरस कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियाणं मंते ! कओ उचवज्जंति' हे महन्त | चरम चरम सनयवर्ती कृतयुग्न कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय जिव किन स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? विवक्षित संख्याकी राशि के अनुभव के अन्तिम समय में वर्तमान होने से चरम और मरण समयवर्ति होनेसे चरमवाले ऐसे जो कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव हैं वे चरमचरमसमयकृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव है । इनका जन्म कहां से आकर के होता है ? इस मन के उत्तर में अतिदेश द्वारा गीतन को समझाते हुए प्रभुश्री कहते हैं - 'जहा चल्यो उद्देसओ तदेव' हे गोनम ! इसी शतके चतुर्थ उद्देशक में जैना कहा गया है वैसा ही वह सब यहां कह देना चाहिये ।' 'सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति' 'हे भदन्त 1 चाम દસમા ઉદ્દેશ ના પ્રાર’~~~
'चरम चरम कइजुम्मकडजुम्म एगि दिवाण मते ! कओ उज्जेति, 5. હે ભગવન્ ચરમ ચરમ સમયમાં રહેનારા યુગ્મ કૃયુગ્મ રાશિરૂપ એકેન્દ્રિય જીવો કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? વિવક્ષિત સખ્યાની રાશિના અનુભવના છેલ્લા સમયમાં રહેનારા હાવાથી ચરમ અને મરણ સમયમાં રહેવાવાળા હાવાથી ચરમ સ ચવાળા એવા જે કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવો છે, તે ચરમ ચરમ કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશી વાળા એકેન્દ્રિય જીવા છે, તેએ ચરમ ચરમ સમય યુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવે છે. તેઓનો જન્મ કયાથી આવીને થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પતિદેશ-ભલામણથી પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! આ પાંત્રીસમા શતકના ચેાથા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું તે સઘળુ' કથન અહિયાં પણ સમજવું જોઇએ,
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sheetal ०३५ उ. १० सू०१ चरमाचरम कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियनि० ५६७ कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुपपातादि विषये यद् देवानुप्रियेण कथित तत्सर्वं सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यिता संयमेव तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ ३५ | १० |
॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शतके दशमोदेशकः समाप्तः ||३५ ॥१०॥
'चरम अचरमसमय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिया णं भंते ! कभी उनवज्जति' चरमाचरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्प ते ? चरमाः विवक्षित संखानुभूते घरमा सपये ये वर्तमानाः तथा - अचरम समयाः प्रागुक्तयुक्ते रे केन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवर्त्तिनः इत्थंभूताः कृतयुग्म चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एरे न्द्रिय जीवों के उत्पात आदि विषय में आप देवानुप्रियने जोर कहा है वह सब सत्य ही है२ | इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री की स्तुति की और नमस्कार किया स्तुति और नमस्कार कर फिर वे तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये १ ॥
॥ शतक ३५ व उद्देशक १० वां समाप्त ||३५ - १०
टीकार्थ- 'चरम अचरमलमय कडजुम्म कडजुम्न एगिंदियाण' भंते ! कओ उचवज्जति' हे भदन्त ! जो एकेन्द्रिय जीव चन्स और अचरम समयवर्ती कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित हैं वे किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? विक्षत संख्यादी अनुभूति के चरम समय में वर्तमान होने से इनमें चरमता और एकेन्द्रिय रूप से
'सेव भते ! सेव भते ! त्ति' हे भगवन् श्ररमथरम समयमा हेनावाला કૃતયુ "કૃતયુગ્મરાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવોના ઉત્પત વિગેરે વિષપના સબંધમા આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યુ” છે, તે સઘળું કથન સત્ય છે, આપ દેવાતુપ્રિયનું સઘળુ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વદના નમાર કરને તે પછી સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પૈતાના સ્થાન પર
બિરાજમાન થયા.
ઇસૂ॰૧૫
।દસમા ઉદ્દેશા સમાપ્ત ૫૩૫-૧૦ના અગીયારમા ઉદ્દેશાના પ્રાર ભ
'चरम अचरम समय कडजुम्मकडजुम्म एगि दियाण भते ! कओ उत्रवजत्ति' હે ભગવન એકેન્દ્રિય જીજ્ઞે ચરમ અને અચરમ સમયતિ કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા છે, તેએ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? વિવક્ષિત સંખ્યાના અનુભવનના ચરમ સમયમાં રહેનારા હે વાથી તેઓમાં ચરમ
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५६८
treate
कृतयु केन्द्रिय ते चराचरम युग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया इति कथ्यन्ते । एतेषा युत्पादः कुतः ? इति नः उत्तरयति अतिदेशद्वारेण - 'जा' इत्यादि, 'जहा पत्र निरसे' यथा पयोदेशको द्वितीय स्त dary freeशेषं ज्ञातव्यमिति । 'से सेने ! सेव ! त्ति जाव विहरह' तदेवं मदन्त ! तदेवं मदन्त । इति यावद विहरति, इति ।।
॥ पञ्चत्रिंशन में अनके एकादश देशकः समाप्तः ||३५|११
होने से इनमें अचरम से होता है ? तो हम
उत्पाद की अपेक्षा प्रथमादि समयवर्ती मयता कही गई है, इनका उत्पाद सम्वन्ध में उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं- 'जहा हम समय उनसे हे गौन ! जैसा ही शतक के द्वितीय देश में कहा गया है वैसा ही समस्त कथन यहां पर भी करलेना चाहिये | 'देव' अंते ! सेव भंते ! निजाय चिर' हे भदन्त चरमाचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म रात्रिमित एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के विषय में जो आप देवानुप्रिय कहा गया है यह सब सत्य ही है। २ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को चन्दना की और नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भाजित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ||०१ ||
नानकका ११ ग्यास उद्देश समाप्त ||३९-११॥
થાય
પશુ અને એકેન્દ્રિયપટ્ટાથી ઉત્પાદની અપેક્ષાથી પ્રથમ સમયમાં વમાન હવાથી તેમાં અથરમ સમય પશુ કહેલ છે. તેઓને ઉત્પાત કર્યાંથી ? તે આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'जहा पढमसमयमओ तदेव निम्वसेस' हे गौतम! आ शतना जीन ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયાં પણ કહેવુ જોઈ એ
'सेव भवे ! सेव' मते । त्ति' हे लगवन् ग्ररभ यरभ अभय द्रुतयुग्म કુતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિયવાના ઉત્પાદ વિગેરે વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે તે સઘળું કધન સધા સત્ય જ છે. ૬ આ પ્રમાણે હીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વઢા કરી તેમેને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ચકા પાતાના સ્થાન પર બિનજમાન થયા, ાસૢ૦૧૫
uઅગિયારમા ઉદ્દેશે સમાપ્ત રૂપ-૧૧
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stefani टीका ०३५ उ.११ सू०१ चरमाचरम कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियनि० ५६९
'एवं एए एकारस उद्देगा' एवम् उपरोक्त प्रदर्शित क्रमेणैकादशोदेशकाः संजाताः 'पदम तओ पंचमओ य सरिगमा' प्रथम स्तृतीयः पञ्चमश्च सदृश गमाः सहशालापकाः 'सेसा अट्ठ सरिसगमा' शेषा अष्टौ द्वितीयचतुर्थ पष्ठ सप्तमाष्टम नवम दशमैकादशाः सदृशालापकाः 'नवरं चउथे उडे अट्टमे दसमेय देवा न उबवज्जति तेउलेस्सा नत्थि' नवरं चतुर्थे पष्ठे अष्टमे दशमे चोदेश के देवानस्पद्यन्ते तथा तेषां तेजोलेश्या नास्ति तत्र चरमममय कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियो देशके, पष्ठे प्रथमप्रथम समयकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियोद्देश के, अष्टमेप्रथमचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियो देशके, दशमे - चरमचरम समय कृतयुग्म nashद्रयोदेश, एषु चतुर्षु देशकेषु देवोत्पत्तिर्न वक्तव्येति भावः ।
॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शतके प्रथममे केन्द्रिय महायुग्मशतं समाप्तम् |३५|१||
टीकार्थ- 'एवं एए एक्कारस उद्देलगा' हल पूर्वोक्त क्रम से ११ उद्देशक हैं । 'पढमो तहओ पंचमओ व सरिसगमा' इनमें प्रथम, तृतीय और पंचम ये उद्देशक सदृश अलापवाले हैं । 'सेसा अट्ट सरिसगमा ' और द्वितीय, चतुर्थ षष्ठ, सप्तम, अष्ठम, नवम, दशम एवं ग्यारह वये आठ उद्देशक समान आलापकवाले हैं । 'नदर' चउत्थे छुट्टे मे दसमे य देवा न ववज्जंति' परन्तु चौथे छठवें, आठवें और दशवे उद्देशक में देवों का उत्पाद नहीं है । इस लिये वहां तेजोलेश्या नहीं है । चरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय उद्देशक चतुर्थ उद्देशक है । प्रथम प्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय उद्देशक छठवां उद्देशक
। प्रथम चाम समय कुनयुग्म एकेन्द्रिय उद्देशक आठवां उद्देशक है। चरमचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेद्रिय उद्देशक दावां उद्देशक है । इनमें देवों की उत्पत्ति वक्तव्य नहीं हुई है ।
॥ पैंतीसवें शतक में एकेन्द्रिय महायुग्म शत समाप्तः ॥
'एवं एए एक्कारस उद्देगा' मा पूर्वोथी ११ अगियार उद्देशाओ । उद्या छे. 'पढमो तइओ पचमओय सरिसगमा' तेमां पहेली ने त्रीने तथा पाया सरमा ग्यास पंडवाणी हे 'सेसा अट्ठ सरिसगमा' तथा मीले, थोथो, छट्ठी, સાતમેા આમે નવમે, દસમે। મને અગિયરમે આ આઠે ઉદ્દેશાએ સરખા श्यासापडावाजा छे 'नवर' चथे छट्टे अट्टमे दस मे य देवा न उववज्र्ज्जति' ५२'तु ચેાથા, છઠ્ઠા, આઠમાં તથા દમમા ઉદ્દેશામા દેવોને ઉત્પાત થયે નથી. તેથી ત્યાં તેોલેસ્યા હોતી નથી ચરમ સમય કૃતયુ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય ઉદ્દેશક છઠ્ઠો, ઉદ્દેશેા છે પ્રથમ ચરમ સમય કૃયુગ્મ મૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિયેનો આમે ઉદ્દેશ છે. ચરમસમય કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિયાનો દસમે ઉદ્દેશે છે તેમા દેવોની ઉત્પત્તી કહેલ નથી
એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત
भ० ७२
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भगवती सूत्रे
'अह वितियं एगिदियमहाजुम्म सयं'
मूलम् -- कण्हलेस्स कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जति ? गोयमा ! उववाओ तहेव एवं जहा ओहि उद्देसए | नवरं इमं नाणत्तं- ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा तेणं भंते! कण्हलेस्स कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियत्ति कालओ केवश्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । एवं ठिईए वि । सेसं तब जाव अनंतखुत्तो । एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्वा । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति ||३५|२||सू० १॥
पढम समय कण्हलेस्स कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति ? जहा- ढम समय उद्देसओ । नवरं ते णं भंते! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा। सेसं तं चैव । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥३५-२शसू०२||
एवं जहा ओहियसए एक्कारस उद्देगा भणिया तहा कण्हलेस्सए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा । पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अह वि सरिसगमा । नवरं चउत्थ छह अट्टमदसमेसु उववाओ नत्थि देवस्स । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥३५-२ ॥
छाया - कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? गौतम ! उपपात स्तथैव । एव यथा औधि कोद्देशकः । नवरमिदं नानात्वम्-ते खलु भदन्त ! जीवाः किं कृष्णलेश्याः १ हत, गौतम ! कृष्णलेश्याः । ते खलु भदन्त ! कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मकेन्द्रिया इति काळतः कियचिरं भवन्ति ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तम् । एवं स्थितावपि । शेषं तथैव यावदनन्त कृत्वः एवं पोडश अपि युग्मा भणितव्याः । तदेव मदन्त । तदेवं भदन्त इति ३५ |
प्रथमसमय कृष्णलेश्य कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उपधन्ते यथा प्रथमसमयोदेशकः । नबरं ते खलु भदन्त ! जीवाः कृष्णलेश्याः ? हन्त कृष्णलेश्याः शेषं तदेव । तदेवं भदन्त तदेव भदन्त । इति ||३५|रार
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का टीका २०३५ अ. श. २ कृष्णलेश्य कृ कृतयुग्मै केन्द्रियनि० ५७१
एवं यथा औधिकशते एकादशोदेशका भणिताः तथा कृष्णलेश्य शतेऽपि एकादशोदेशका भणितव्याः । प्रथम स्तृतीयः पञ्चमश्च सदृशगमाः शेषा अष्टावपि सदृशगमाः । नवरं चतुर्थ षष्ठाष्टम- दशमेषु उपपातो नास्ति देवस्य । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त | इति || ३५२
॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शते द्वितीय मे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् । ३५/२ ॥ 1 टीका- ' कण्हलेस कडजुम्म कडजुम्म एगिंदिया ण भंते । कओ उववज्जंति' कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त । कुन आगत्य उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यस्तिर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम! 'उबवाओ तहेंत्र एवं जहा ओहि उद्देसए' उपपातः, कृष्णलेश्यै केन्द्रियाणां तथैव एवं यथा औधिकोदेशक', अस्यैव शतकस्य प्रथमोदेशको वर्णितः प्रथमोदेशकवर्णितप्रकारेणैव कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाणामुपपातो ज्ञातव्य इति 'नवरं इमं नाणत्तं ' नवरमिदं वक्ष्यमाणनानात्व द्वितीय एकेन्द्रिय महायुग्म शत
'कण्हलेस कडजुम्म कडजुम्म एगिदियाण भते !" इत्यादि टीकार्थ- हे भदन्त | कृष्णलेश्यामाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोघमा ! उववाओ तहेव एवं जहा ओहि उद्देसए' इन कृष्णलेश्वावाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियों का उपपात जैसा कि इसी शक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसा ही हैं । 'नवर' हम' नाणत्तं' परन्तु यहां ऐसी विशे ખીજા એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકના પ્રાર ભ~~ 'कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्म एगिदियाणं भंते । त्यिाहि
હે ભગવન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ શશિયાળા એકે. ન્દ્રિય જીવો કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએ નેયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચ ચૈનિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री - 'गोयमा ! उवाओ तहेत्र एवं जहा ओहिउद्देसए' भाष्यવૈશ્યાવાળા કૃતયુગ્મ કૂતયુગ્મ રાશીવાળા એકેન્દ્રિયાના ઉપપાત જેમ કે આ शतकुना पडेला उद्देशाभावमा आवे छे. येन प्रभाये छे, 'नवर' इम'
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भगवतीस्त्र भेदः सामान्य केन्द्रियेभ्यः कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाणाम् । 'ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेस्सा' ते खल्ल भदन्त ! जीवाः कि कृष्णलेश्यावन्तः ? उत्तरमाह-'हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा' हन्त गौतम ! ते जोवाः कृष्णलेश्यावन्तो भवन्तीति ! 'ते गं भंते ! कण्हलेस्स कडजुम्मकडजुम्म एगिदियत्ति कालो केवचिरं होति' ते खल भदन्त ! कृष्णश्यकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया इति कालतः किच्चिरं भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक समयं' जयन्येन एक समयं जघन्यत एकसमयानन्तरं संख्यान्तर भवन्तीति । 'उकोसेणं अंनो मुहत्तं' उत्कर्पणान्तर्मुहूत यावत् कृष्णलेश्यै केन्द्रिया भवन्तीति । तदनन्तरं कृतयुग्मकृतयुगमत्वानुभवाभावात् ‘एवं ठिईए वि' एवं षता है-अर्थात् सामान्य एकेन्द्रियों की अपेक्षा इन कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिपमित एकेन्द्रियों के कथन में ऐसी विशेषता है-'ते ण मते ! जीणा कि काहलेसन' हे भदन्त ! क्या ये जीव कृष्णलेश्यावाले होते हैं ? 'हंता गोयमा !' हां, गौतम ! ये जीव कृष्णलेश्याघाले होते हैं । तेण भते ! कहलेस्स कडजुम्म कडजुम्म ‘एगिदियति कालो केवचिचर होति' हे भदन्त । ये कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीव कालकी अपेक्षा इस रूप में कब तक रहते है ? 'गोयमा ! जहन्नेण एक्कं समय उक्कोसेण अंनोमुहत्तं' हे गौतम ! ये एकेन्द्रिय जीव इस रूप में जघन्य से तो एक समय तक रहते हैं और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं। इस के बाद इनमें यह रूपता नहीं रहती है। 'एवं ठिईए वि' इसी प्रकार नाणत्त' ५२'तु महियां को विशेष पा छ र्थात् सामान्य मेन्द्रिय કરતાં આ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુમ ડૂતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવોના थनमा मा प्रमाणे विशेषा छ -'ते ण भते ! जोवा कि कण्हलेस्सा' हे भगवन् शु ते वो वेश्यावाणा डाय छ १ ह ता गोयमा!' । गौतम! भावेश्यावा हाय छे. 'ते ण म ते ! कण्हलेस कड़जुम्म कड़जुम्म
एगिदियत्ति काल भो केवच्चिर होति' 3 सावन मासेश्यावाणा तयुग्म કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવ કાળની અપેક્ષાએ આ રૂપથી કયાં સુધી રહે छ ? उत्तरमा प्रसुश्री ४३ छ -'गोयमा ! जहननेण एक समय' उक्कोसेण अंतोमुत्त' गौतम ! म सन्द्रिय ७ मा ३५मा धन्यथा तो मे સમય સુધી રહે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂર્ત સુધી રહે છે. તે પછી तमाम मा ४२ पा रहेतु नथी. 'एवं लिईए वि' मे प्रभाय ते माना
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ थ. श. २ कृष्गलेश्य कृ कृतयुग्मैकेन्द्रियनि० ५७३ पूर्वरदेव स्थितावपि जघन्येनैकं समयनुत्कणान्ह मुहूर्तम् कृष्णले राता स्थिति कृष्णलेश्या कालबदवसे येत्यर्थः । 'सेसं तहेव जाव अण खुनो' शे स्थित्यतिरिक्तं सर्व तथैव भौधिकशतकीयपथमोद्देशकवदेव यावदनन्तकृत्वः । एवं सोलप वि जुम्मा भाणियमा' एवं कथित प्रकारेण पोडशादि युग्मा कृायुग्मकृतयुग्मदारभ्य कल्योजकल्योजा अपि पठनीया इति। 'सेवं भते । सेव मते ! त्ति' देवं भदन्त । तदेव भदन्त ! इति हे भदन्त ! कृष्णलेगकृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रिय जीवानामुसे इनकी स्थिति भी जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहर्त की होनी है। 'लेस तहेव जाव अर्णतखुत्तो' बाकी का और सब कथन सोमान्य एजेन्द्रिय जीवों के जेसा ही है। और यह कथन इनके सम्बन्ध में यावत् ये इस रूप में अनन्तवार उत्पन्न होते हैं। यहां तक हैं । 'एवं सोलस वि जुम्पा भाणियबा' इसी प्रकारले इनके सोलह महायुग्म भी कहना चाहिये । अर्थात् इनके कृतयुग्म कृतयुग्म से लेकर कल्योज कल्योज महायुग्म तक जो इन के महायुग्म प्रकट किये हैं सो उन २ महाराशिवाले इन एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में पूर्वोक्त कथन के अनुसार ही कथन कर लेना चाहिये और यह कथन 'यावत् वे इन इन महायुग्मों के रूप में अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं इस अन्तिम कथन तक जानना चाहिये।
'सेव भते ! सेव भंते ! ति हे भदन्त ! कृष्गलेश्याचाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिममित एकेन्द्रिय जीवों के उपपान आदि में जो आप સ્થિતિ પણ જઘન્યથી એક સમયની અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અતિમુહૂર્તની હે ય छे. 'सेस तहेव जाव अण त खुत्तो' मानु म सघणु ४थन सामान्य અકેન્દ્રિય જીના કથન પ્રમાણે જ છે. અને આ કથન તેના સબ ધમાં યાવત તેઓ આ પ્રકારથી અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, “આ કથન સુધી કહેલ छ. 'एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्वा' मा प्रमाणे माना सोण महायुमा પણ કહેવા જોઈએ. અર્થાત્ આમને કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મથી લઈને કાજકલ્યાજ મહાયુગમ સુધી આમના જે મહાચુ બતાવ્યા છે તે તે મહારાશિવાળા આ અકેન્દ્રિયેના સંબંધમાં પહેલા કહેલ કથન પ્રમાણે કથન કહેવું જોઈએ. અને આ કથન યાવત્ તેઓ અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે આ છેલલા કથન સુધી સમજવું ___'सेव भवे । सेव भते ! ति' 3 मावन् वेश्यावाणा तयुभकृतयुभ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીના ઉપપાત વિગેરેના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે
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भगवती पपादादि रिपये यद् देवाजुमियेण कथितं तत्सर्वं सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति बन्दित्वा नमस्यि त्वा यावद् विहरतीति ॥३५।२।१ इति पश्चत्रिशत्तमे शतके द्वितीय केन्द्रियमहायुग्मशते प्रथमोद्देशकः समाप्तः।३५।२।१। ___ पढम समय कण्ह लेस्स कडजुम्मकडजुम्म एगिदिया णं भंते ! को उबव ज' थामसमयकृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरयति अतिदेशद्वारेण-'जहा' इत्यादि, 'जहा पदम समय उद्देसओ' यथा प्रथमसमयोदेशकः, प्रथमसमयादेशके एतच्छतकस्य प्रथम देवानुप्रियने कहा है । यह सब सत्य ही है । २ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥१०१॥ द्वितीय एकन्द्रिय महायुग्म शत में प्रथम उद्देशक समाप्त । ३५-२-१॥
'पढम कहलेस्ल कडजुम्म व उजुम्म एनिदिधाण भंते ! इत्यादि
टीक्षार्थ-हे भदन्त ! प्रथम समय के कृष्णलेश्यावाले कृलयुग्म कारयुग्म राशिमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेप से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न का अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्थानी से कहते हैं ? 'जहा पढम समय उद्देसओ' हे गौतम ! जेसा कथन इसी शतक के प्रथम शत के द्वितीय उद्देशक में एकेन्द्रिय જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું આ વિષય સંબધી સઘળું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગીતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી રા યમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. બીજા એકેન્દ્રિય મહાયુ શતકમાં પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત
मी शान प्रारम'पढमसमय कण्हलेस्स कडजुग्म कडजुम्म एगिदियाण माते ! त्यात ટીકાથ–હે ભગવન પ્રથમ સમયના કૃષ્ણવેશ્યાવાળા કૃતયુગ્ય કૃતયુમ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવો કયા રથાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં અતિદેશ દ્વારા પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'जहा पढमसमय उद्देखओ' गौतम ! Al Aतना पडेसा वेशामा मे
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trafer टीका श०३५ अ. श. २ प्र. समय कृष्णलेश्य कृ. कृ जीवनि० ५,७५ शतकीय द्वितीयोदेशके येन प्रकारेणकेन्द्रियाणां विषये कथितं तथैवात्रापि ज्ञान व्यमिति । 'नवरं तेणं भंते । जीवा किं कण्हलेस्सा' नवरं प्रथम शापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यत् ते खलु भदन्त ! जीवाः किं कृष्णलेश्यान्तः ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - 'ता' इत्यादि, 'हंता कण्ड लेस्सा' हे गौतम! ते जीवाः कृष्णलेश्या तो भवन्ति, इत्युत्तरम् 'सेसं तं चे शेषं तदेव यह पूर्वशते कथितमिति । सेवं संते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति ॥
इति पञ्चत्रिंशत्तमेश के द्वितीयै केन्द्रियमहाशते द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥३५२१२ || पञ्चत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयशते तृतीयाधेकादशोदेशकाः मारभ्यन्ते । ' एवं जहा ओहियसर एकारस उद्देसमा भणिया' एवं यथा औधिकशते पञ्चत्रिंशत्तमशतकस्य प्रथमे शतके औधिक - कृतयुग्मकृतयुग्माः १, प्रथमसमय के सम्बन्ध में किया जा चुका है वैसा ही वह यहां पर जानना चाहिये । 'नवर' तेण जीवा किं कण्हलेस्ला' परन्तु यहां के कथन की अपेक्षा यहां के कथन में यही विशेषता है कि ये जीव कृष्ण लेकपाबाले होते हैं । यही बात प्रश्नोत्तर रूप से प्रकट की गई है । 'सेल' त' चेच' अवशिष्ट कथन पूर्वशत में कहे गये अनुसार है | 'सेव' मते । सेव भते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह सब ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को कदना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप के को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये || ३५-२-२॥ पैंतीसवें शतक के दूसरे एकेन्द्रिय महा
दूसरा उद्देशक क समाप्त ॥३५-२॥
ન્દ્રિય જીવેાના સંખ’ધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, એજ પ્રમા”તુ' કથન अडियां समन्न्वु' 'नवर' ते ण' जीवा किं कण्डलेस्सा' परंतु त्यांना प्रथन કરતાં આ કથનમાં એજ વિશેષ પણું છે કે આ જીવા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા હાય छे, भेन वात मडियां प्रश्नोत्तर ३५थी अगर उस छे 'सेस तं चेत्र' બાકીનું કથન પહેલા શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે છે.
'सेव' भ'ते ! सेव' भते ! त्ति' हे लगवन् आप हेवानुप्रिये ने प्रभाषेनु કથન કર્યુ છે તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. ર્ આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી અને નમસ્કાર કર્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા.
ખીજા એકેન્દ્રિય મહાશતકમાં મીન્દ્ર ઉદ્દેશે સમાપ્ત રૂપ-રા
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भगवतीने
कृतयुग्मकृतयुग्मा: २, अप्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्मा: ३, चरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्माः ४, अचरमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मा ५, प्रथमप्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मा ६, प्रथमाप्रथम समयकृतयुग्मत्युग्मा: ७। प्रथमचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्माः ८। प्रथमाचरमसमय कृतयुग्मकन्युग्माः ९, चरम चरम समय कृतयुग्मकृत युग्माः १०, चरमाचरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्माः ११, इत्येत द्विशेषणविशिष्टाने केन्द्रियानाश्रित्य ये एकादशदेशका भणिताः कथिताः 'तहा कण्डलेस्ससए वि एकारस उद्देसगा भाणिया ' तथा तेनैव रूपेण कृष्णलेश्य पदविशिष्ट द्वितीयशतेऽपि एकादश उद्देशका भणितव्याः आलाप
शतक ३५ उद्देशक ३-११ तक टीकार्थ-'एवं जहा ओहियलए एक्झारस उद्देसगा भणिया जिस प्रकार से औधिक शत में ३५ वें शतक के प्रथम शतक में-कृतयुग्म कृतयुग्म १, प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म २, अप्रथम, समय कुनयुग्म कृतयुग्म ३, चरम समय कृतयुग्म कृनयुग्म ४, अचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म ५, प्रथम प्रथम लमण कृतयुग्म कृतयुग्म ६, प्रथमाप्रथम चरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म ७, प्रथम चरम समय कृतयुग्म कृायुग्म ८, प्रथमाचदम समय कृतयुग्म कृतयुग्म ९, चाम चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म १०, और चरमाचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म ११ इन विशेष गो से विशिष्ट एकेन्द्रियों को आश्रित करके ११ उद्देशक कहे गये हैं। 'तहा कण्हलेहललए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियबा' उसी रूप से कृष्णलेश्यपद विशिष्ट वित्तीय शत में भी ११ उद्देशक करलेना चाहिये। तथा इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार भी
- ત્રીજાથી ૧૧ મા સુધીના ઉદ્દેશાઓને પ્રારંભ ‘एवं जहा ओहियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया' ટીકા થે-જે પ્રમાણે ૩૫ પાત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં-કૃતયુગ્મકૃતયુગ્મ, પ્રથમસમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ ૨, અપ્રથમસમય કૃતયુગ્મકૃતયુગ્મ ૩, ચરમસમય નયુમ કૃતયુમ ૪, અચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુગ્મ ૫, પ્રથમ પ્રથમસમય કૃતયુમ કૃતયુમ ૬, પ્રથમા પ્રથમ સમય કૃતયુમ કૃતયુમ ૭ પ્રથમ ચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુમ ૮ પ્રથમ અચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુગ્મ ૯ ચરમ ચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુમ ૧૦ અને ચરમ અચરમ સમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ ૧૧ આ પ્રકારના વિશેષાવાળા એકેન્દ્રિય અને આશ્રય કરીને ૧૧ અગિયાર
शामा ४६॥ छे. 'तहा काउलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियब्वा' से પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાના પદવાળા બીજા શતકમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ
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trafer टीका २०३५ अ. श. २ कृष्ण. कृ. कृ. येकादशोदेशककथनम् ५७७ कार स्वयम्दनीय इति । तत्र 'पढमो तहओ पंचमो यसरिजमा ' मदेशक स्तृतीयः पञ्च वोदेशकञ्च सदृशममाः समानालापका भवन्ति । 'सेसा' अवि afternा' शेषाः द्वितीयचतुर्थषष्ठप्पाटमनचमदशमैकादशामका अष्टावपि उद्देशकाः सदृशगमाः सदशाळापकाः सन्ति' 'नवरं चत्थ छ अहम दस उनवाओ नत्थि देवस्स' नवरं चतुर्थषष्ठाष्टमदशमोदेश के पु उपपातो नास्ति देवस्य एषु देवा नोत्पद्यन्ते इति भावः | 'सेव भंते सेवं भंते । ति' तदेवं मदन्त ! तदेव मदन्त । इति यावद्विहरति ॥
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इति श्री विश्वविख्यात जगदवर मादिपद भूपिनवाळब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पूज्यश्री - घासीलालनविविरचितायां "श्री भगवतीपुत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयशते तृतीयादारभ्य एकादशान्ताः उद्देशकाः समाप्ताः || ३५ २।११।
(
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॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयमे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ||३५|२|| अपने आप बना लेना चाहिये। इन में 'पढमो तइओ पंचमोय सरिगमा' प्रथम उद्देशक, तृतीय उद्देशक और पंचम उद्देशक एक से आलापक वाले हैं । 'सेसा अट्ठ वि सरिसगमा' और द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और एकादश ये आठ उद्देशक एक से आलापकवाले हैं । 'नवर' चउत्थ, छह, अट्टम, दससे उचवाओ नत्थि देवस्स' परन्तु चतुर्थ में, छठे में, आठवें में पत्र दशवें में देव का उपपात नहीं होता हैं । 'सेव' मते ! सेव' भते ! त्ति' हे भदन्त ! जेमा
કહેવા જોઇએ તથા આ સબંધમાં આલાપના પ્રકાર પણ સ્ત્રય' મનાવીને सभ सेवा. 'पढमो तइओ पंचमो य खसिसगमा' पडेला 6 श श्रीले देशे। अने पायमे। उद्देश! ओसरमा गायअवाजा है, 'ऐसा अट्ठ वि सरिसगमा ' तथा जीले, थोथो, छटो, सातमो, भाभी, नत्रभो, हसभो, भने भजियारभे।
આ आठ उद्देशाओ मे४ सरमा सासायवाला हे 'नवर' चउत्थ छट्टु अट्टम दस मेसु उववाओ न धि देवस्स' पररंतु थोथा, छहा, आठमा भने दशमा उद्देशाभां દેવાના ઉપપાત થતા નથી.
भ० ७३
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भगवती
आपने यह कहा है वह सब कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार neet fland प्रभुश्री को वन्दना की नमस्कार किया । वन्दना नमः स्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के पैंतीसवें शतक के द्वितीय शतक में तृतीय उद्देशक से लेकर ११ वें उद्देशक पर्यन्त के उद्देशक समाप्त ॥ ३५-२-११ ॥ द्वितीय एकेन्द्रिय महायुग्म शतक समाप्त हुआ || ३५-२॥
'सेव' भ'वे ! सेव भवे ! त्ति' हे भगवन् मायेने असा या विषयभा કથન કરેલ છે, તે સઘળુ` કથન સથા સત્ય જ છે. હું ભગવત્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વઢના કરી નમસ્કાર કર્યાં વદંના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ાસૢ૦૧૫
નાચાય . જૈનધર્માં દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ભગવતીસૂત્ર'ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પાંત્રીસમા શતકમાં ખીન્ન ઉદ્દેશાથી લઈને અગિયારમા ઉદ્દેશા સુધીના સઘળા ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૩૫-૨-૧૧ ૩૫ મા શતકમાં બીજું એકેન્દ્રિય મહયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૫૩પરા
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मैन्द्रिका टीका श०३५ अ. शं. ३ नीललेश्यमहायुग्मशतम्
'अद तइयं एगिदियमहाजुम्मसय
मूलम् - एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्स सयसरिसं एक्कारस उद्देगा तहेव सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू० १॥ पणतीसइमे सए तइयं एगिंदिय महाजुम्म सयं समत्तं ॥ ३५-३ ॥ छायाः -- एवं नीललेश्यैरपि शतं कृष्णलेश्वशतसदृशम्, एकादशोदेशकास्वथैव । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इवि ।।
Bater
पञ्चत्रिंशत्तमे शतके तृतीय मे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ||३५|३|| टीका- ' एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्डलेस्ससयसरिसं' एवं नीललेश्येरपि शतं कृष्णलेश्वशतसदृशं ज्ञातव्यम्, यथा- कृष्णलेश्यामन्तर्भाव्य शतमेकेन्द्रिय महायुग्माख्यं निर्मित तथैव नीललेश्यमन्तर्भाव्यापि तृतीय मे केन्द्रियमहायुग्मशतं निर्मातव्यम् | 'एक्कारस उद्देसगा तद्देव' यथैत्र कृष्णलेश्यशते औधिककृतयुग्म कृतशतक ३५ तृतीय एकेन्द्रिय महायुग्म शत
|
टीकार्थ- ' एवं ' नीललेस्सेहिं वि स कण्हलेस्ससरिसं एक्कारस उद्देगा तहेव सेव भते ! सेवं भते ! त्ति' कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में जैसा कृष्णलेइया शतक कहा गया है । उसी रीति से नीलश्यावालों के सम्बन्ध में नीललेश्या शतक भी कहलेना चाहिये जैसे वहां ११ उद्देशक कहे गये हैं वैसे ही यहां पर भी ११ उद्देशक हैं ऐसा समझना चाहिये । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जिस रीति से कृष्णलेश्या को आश्रित करके एकेन्द्रिय महायुग्म नाम का शतक निर्मित हुआ है । उसी प्रकार से नीललेश्या को आश्रित करके तृतीय एकेन्द्रिय महायुग्म शतक भी निर्मित कर लेना चाहिये । तथा 'एक्कारस उद्देगा तहेव' कृष्णलेश्मावालों के शत में औधिक ત્રીજા એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકના પ્રભ~~ 'एव' नीलले सेहि' सय' कण्हलेस्सरिस एकार सउहेसगा तद्देव - सेव भवे ! सेव ं भ ंते ! त्ति' हृष्ट्युसेश्यावाणाखाना संम धमां ने प्रभा द्रुष्येश्या शत કહેવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણે નીલલેયાવાળાના સંબધમાં નીલલેશ્યા શતક પણ કહેવુ જોઈએ, ત્યાં જે પ્રમાણે ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે, એજ પ્રમાણેના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશા અહિયાં પણ છે તેમ સમજવુ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-જે રીતે કૃષ્ણુલેશ્યાના આશ્રય કરીને એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ નામનું શતક કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે નીલàશ્યાને આશ્રય કરીને એકેન્દ્રિય સહાયુગ્મ શતક પશુ સમજી લેવુ જોઈએ. તથા
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___ भगवतीसूत्र युग्मोद्देशादारभ्य चरमाचरम कृतयुग्मकृतयुग्मांशपर्यन्तमेकादशोद्देशकाः कृता स्तथैव इहापि नीललेश्य पदमधिकृत्य कृतयुग्म कृतयुग्मादि घटिता एकादशोदेशका अपि करणीया। सेवं मंते ! सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।। इति श्री - विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितवाल ब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-धामीलालप्रतिविरचितायां 'श्री भगवतीमूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चत्रिंशत्तमशतके तृतीयमेकेन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥३५॥३ कृतयुग्म कृतयुग्म उदेशक से लेकर चरम चाम कृतयुग्म कृतयुग्म -उद्देशक . तक ११ उद्देशक किये गये हैं उसी प्रकार से यहां पर भी नीललेश्य पद को लगाकर कृतयुग्म कृतयुग्म आदि घटित ११ उद्देशक कर लेना चाहिये । 'सेव भले सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कथन किया है, वह सर्वधा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर - गौतमस्वामीने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥१॥ . जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीस्मृन्न" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके पैतीसवें शतकका
तीसरा महायुग्म शतक समाप्त ॥३५-३॥ 'एक्कारस उद्देनगा तहेव' वेश्यावाणासाना शतमा मौषि तयुग्म કૃતયુગ્મ ઉદ્દેશથી લઈને ચરમ ચરમ કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ ઉદ્દેશા સુધી ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયા પણ નીલલેશ્યા પદ લગાવીને કૃતયુગ્મ કતયુગ્મ વિગેરે ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ સમજવા.
'सेव भते ! सेब भवे ! त्ति' भगवन भा५ हेदानुप्रिये २ प्रभो मा વિષયમાં કહ્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવનું આપનું થન સત્ય જ છે, એ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુ શ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પાંત્રીસમા શતકનું ત્રીજુ એકેન્દ્રિય મહાયુગમ
રતિક સમાપ્ત ૩૫-૩
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ अ. श ४ कापोतलेश्यमहायुग्मशतम् ५८१
॥ 'अह चउत्थं एगिदिय महाजुम्गसय ॥ मूलम्-एवं काउलेस्लेहि वि सयं कण्हलेस्सलयसरिसं । सेवं भंते ! लेवं भंते ! ति । ___ छाया--एवं कापोखलेश्यैरपि शतं कृष्णलेश्यशतसदृशम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। , टीका--एवं कापोतलेश्यैरपि शतं कृष्णलेश्यशत सदृशम् । अत्र कापोत लेश्यपदमधिकृत्य एकादशादेशका कृष्णलेश्यकृतयुग्मकृतयुग्मोद्देशक देव एका. दशोदेशकाः पठनीया इति भावः । 'सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । ॥पञ्चत्रिंशत्तमशर के चतुर्थमे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥३५।४
शतक ३५ चतुर्थ एकेन्द्रिय महायुग्म शत . 'टीकार्थ-'एवं काउलेस्लेहि वि सय छ हटेस्ससरिल-सेवभते ! सेव भते ! त्ति' कापोतलेश्यावालों के सम्बन्ध में भी कृष्णलेश्या शतक के जैसा शतक बना लेना चाहिये। यहां कृष्णलेश्या के स्थान में कापोतलेक्यापद् रखकर ११ उद्देशक बनता है । हे भदन्त ! जैला आपने यह कहा है वह सब सर्वश सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप रहे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥चतुर्थ एकेन्द्रिय महायुग्म शत समाप्त ॥३५-४॥
ચોથા એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકનો પ્રારંભ ‘एवं काउलेस्से हि वि सय कण्हलेस पयसरिस 'सेव भ ते ! सेव भ'दे ! त्ति' કાપતલેશ્યાવાળાઓના સ બ ધમાં પણ કૃષ્ણલેશ્યા શતકની જેમ શતક બનાવીને કહેવું જોઈએ અહિયાં કૃણલેક્શાના સ્થાનમાં કાતિલેશ્યા પદ મૂકીને ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ બનાવી લેવા. હે ભગવન્ આપે આ વિષયમાં જે કહેલ છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપનુ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫
શું એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૩૫-૪
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भगवती सूत्रे
।। अह ५- १२ सयाई '
मूलम् --भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति ? जहा ओहियसयं तव । नवरं एक्कारससु त्रि उद्देसएस अह अंते ! सव्ये पाणा जाव सव्वे सत्ता भवसि - द्विव वडजुम्मकडजुम्म एगिंदियत्ताए उववन्न पुव्वा ? गोयमा ! णो इट्टे समट्टे से तहेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सू० १॥
पणतीसइमे सए पंचमं सयं समत्तं ॥ ३५५॥
कण्हलेस्त भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्म एगिंदियाणं भंते! कओहिनो उववज्जंति ? एवं कण्हलेस्स भवसिद्धिय एगिदिए वि सयं त्रितियसयं कण्हलेस्ससरिसं भाणियन्त्रं । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥३५-६ ॥
एवं नीललेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि सयं । सेवं भंते । सेवं अंते ! ति ॥३५-७॥
एवं काउलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि तहेव एक्कारस उद्देसगलंजु सयं । एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि । चउसु विससु सव्वे पाणा जाव उवबन्नपुग्वा ? णो इट्टे समट्टे । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति ॥ ३५-८॥
जहा सर्वसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि लयाणि लेस्सा संजुत्ताणि भाणियव्वाणि । सव्वे पाणा० तब नो इट्टे समट्टे । एवाई वारसए गिंदियमहाजुम्म सवाई भवति । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति ॥३५- १२॥ पणतीसइमं सयं समन्तं ॥ ३५ ॥
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प्रमेयचन्द्रिका दीका श०३५ अ. श.५-१२ भवन्येकेन्द्रियमहायुग्मशतानि ५.३
छाया--भवसिद्धिय कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः खल भदन्त ! कुन उत्प. धन्ते यथोधिकशतं तथैव । नवरमेकादशस्वपि उद्देशकेषु अथ भवन्त ! सर्वे माणा. यावत्सर्वे सचाः भवसिद्धिककृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियतया उत्पन्नपूः गौतम ! नायमर्थः समर्थः शेपं तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं सदन्त ! इति ॥३५५॥
कृष्ण लेश्य भवसिदिमकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते एवं कृष्णलेश्य भवसिद्धिकैरपि शतं द्वितीयशत कृष्गलेश्यसदृशं भणितव्यम् तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥३५॥६॥ ___एवं नीललेश्य भवसिद्धिकैकेन्द्रियैरपि शतम् । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥३५॥७॥
एवं कापोतलेश्य यवसिद्धिकै केन्द्रियैरपि तथैव एकादोद्देशक संयुक्तं शतम् एवंमेनानि चत्वारि भवसिद्धिकशतानि । चतुर्वपि शतेषु सर्वे प्राणा यावत् उत्पन्न पूर्वाः, नायमर्थः समर्थः। तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥३५॥८॥
यथा-भवसिद्धिकैश्चत्वारि शतानि भणितानि एवमसवसिद्धिकैरपि चत्वारि शतानि लेश्या संयुक्तानि भणितव्यानि । सर्वे माणा तथैन नायमर्थः समर्थः । एवमेतानि द्वादश एकेन्द्रियमहायुग्मशतानि भवन्ति । तदेन भदन्त । तदेव भदन्त इति ३५॥१२॥
॥पञ्चत्रिंशत्तमं शतकं समाप्तम् । ३५।। टीका--'भवसिद्धिय काडजुम्म वडजुम्म एगिदियाणं भंते ! ओ उववज्जति' भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियाः खलु भदन्त! कुन उपधन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य तियग्भ्यो वा आगत्य मनुष्येभ्यो वा आगत्य देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति पूर्ववदेव प्रश्न:, उत्तरमाह-अतिदेशद्वारेण 'जहा' इत्यादि
शतक ३५ पंचम शत से लेकर १२ वें शतक टीकार्थ-"भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिगण भते । कओ उववज्जति' हे भदन्त ! भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुषों में से आकर
પાંચમા શતકને પ્રારંભ– __'भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्म एगिदियाण भंते ! कओ उजवति' है ભગવન્ ભવસિદ્ધિક કૃતયુમકૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જી કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકોમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા તિર્ય“ચ નિમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અથવા
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भगवती सूत्रे 'जहा मोहियस सच' यथा एतस्यैव शतकम्यौधिकशतं प्रथमशतं तथैव-प्रथम aana देव सर्व प्रश्नोत्तरादि ज्ञातव्यम् । औधिकरावापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयति'नवरं' इत्यादिना - ' नवरं एक्कारससु वि उद्देमए' नवरमेकादशस्वपि उद्देशकेषु 'अष्ट भंते ! सब्वे पाणा जाब सन्वे सत्ता' भदन्त ! सर्वे पाणा यावत् सर्वे सच्चाः यावत्पदेन भूतजीवयोः संग्रहो भवति 'भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्म एर्गिदिवत्ता उपवनपुरा' भवसिद्धिककृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियतया उत्पन्नपूर्वाः दे भदन्त ! सर्वे प्राणजीवभूतस्याः भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्मकेन्द्रियतया किं पूर्व समुत्पन्ना इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नो इणडे समडे' नायमर्थः समर्थः सर्वे जीवाः नोपपूर्वा एतादृशै केन्द्रियतयेति के होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते है ? इस प्रश्न का अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते है- 'जरा ओहिलयं तहेव' हे गौतम! जैसा औधिक शतक मेंइसी बात के प्रथम शतक में कहा गया है-वैसा ही सब प्रश्न और उत्तर के सम्बन्ध में यहां कथन जानना चाहिये । 'नवर' एक्कारससु वि उद्देएस अह भंते । सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता भवसिद्धिय वडजुम्म कडजुम्म एनिंदियत्ताए उबदनपुण्धा' परन्तु औधिक शतक की अपेक्षा जो भिन्नता यहां है यह ऐसी है - 'हे भदन्त ! क्या समस्त प्राण यावत् सम्व भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म रात्रिमित एकेन्द्रिय रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? तो इस पर प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा जो इट्टे मट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात् समस्त
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મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નને અતિદેશ દ્વારા ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને अछे - 'जहा ओहियसय' हे गौतम! सोधि शतममा शतना પડેલા શતકમાં જે રીતે કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન પ્રશ્ન मने उत्त२३५ सघणु स्थन अडियां महेवु' लेखे 'नवर' एक्कारससु वि उद्दे अह भवे ! सव्वे पाणा जात्र सव्वे सत्ता भवसिद्धिय कज्जुम्म कडजुम्म एगि दियत्ताए उववन्नपुव्वा' परंतु सोधि शतना स्थन उश्ती आउथनभां જે ભિન્નપણુ' છે, તે એવું છે કે-હે ભગવન શુ` સઘળા પ્રાર્થેા યાવત્ સઘળા સત્વા ભવસિદ્ધિક કૃનયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય પણાથી પહેલાં ઉત્પન્ન थर्ध शूझ्या हे ? या प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्त्राभीने हे छे - 'गोयमा- 1 णो इणट्टे समट्टे' डे गौतम ! आ अर्थ भराभर नथी. अर्थात् अघजा आए,
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[०द्येकेन्द्रिय महायुग्मशतानि
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भावः । ' सेसं तदेव' शेषम् - एतदतिरिक्त तथैव शेषम् उपपातादिकम् अस्यैव शतकस्य प्रथम शतोक्तमेव ज्ञातव्यमिति भावः । ' सेव भंते । सेवं भंते त्ति' तदेवं भदन्त । तदेव भदन्त इति ।
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ अ. श. ५ भव०ह
इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री - घासीलालनविविरचितायां "श्री भगवतीसूत्ररय" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चत्रिंशसमे शतके पञ्चममे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् । ३५/पा
प्राण, समस्तजीव, समस्तभूत और समस्त सत्व इस प्रकार के एकेन्द्रिय के रूप से पहिले उत्पन्न नहीं हुए हैं । 'सेल' तहेच' इस भिन्नता के अतिरिक्त सब कथन उपपात आदि के सम्बन्ध का विवेचन- इसी शतक के प्रथम शत में कहे गये अनुसार है । 'सेव' भरते ! सेवं भरते ! त्ति' हे अदन्त ! आपके द्वारा कहा गया यह वय सर्वथा सत्य ही है इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुको बन्दला की नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और रूप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यन्त्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याले पैंतीसवे शतकका पांचवा एकेन्द्रिय महायुग्म शतक समाप्त ॥ ३५-५ ॥
સઘળા જીવે, સઘળા ભુને, અને સઘળા સત્વા આ પ્રકારના એકેન્દ્રિય पथाथी थडेसां उत्पन्न थया नथी. 'सेख तद्देव' मा हिन्नपणा शिवाय गाडीनु ખીજુ` સઘળુ’ ઉપપાત વગેરે સમ’ધી ઇથનનું વિવેચન આજ રાતકના પહેલા શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે છે.
'सेव' भते ! सेव' भवे । त्ति' हे भगवन आप हेवानुप्रिये समा સઘળુ` કથન સČથા સત્ય જ છે, હે ભગવન્ આપે પ્રતિપાદન કરેલ આ સઘળું કથન સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમરવામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂ૦૧૫
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલ લજી મહારા॰કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પાત્રીસમા શતર્કનું પાચમું એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ
शव समाप्त ॥३५
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भगवती सूत्रे
'कण्डले रस भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मएगिंदियाणं भंते !" कृष्णलेश्य भवसि - कि कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियाः खलु भदन्त 'कमोहितो उचवज्जंति' कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावद् देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते पूर्ववदेव प्रश्नः, इति पूर्ववदेवोत्तरयति - ' एवं ' इत्यादि, 'एवं' कहलेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि सयं वितिय कण्डलेस्ससरिसं भाणियन्त्र एवं कृष्णलेश्यभवसिद्धिककृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियैरपि शतम् एतच्छतकस्यैव द्वितीय कृष्ण लेश्यातसदृशमेव भणितव्यं द्वितीय कृष्णलेश्य शते यत्-यथा कथितं तत् तथैव सर्वमिहापि ज्ञातव्यमिति । 'सेव' भंते ! सेव भ ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त | इति ॥ पञ्चत्रिंशत्तमे शतके पष्ठं शतं समाप्तम् ||३५|६
टीकार्थ' - 'कण्हलेस भवसिद्धिय कडजुम्म कउजुम्म एगिंदियाण' भते !' हे भदन्त ! कृष्णलेषावाले भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' एवं कण्हलेस्स भवमिद्धिय एगिदिए हिं वि पितियसयं कण्हलेस्मसरिम भाणियन्त्र" हे गौतम ! इन कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों के सम्बन्ध भी यह शत इसी शतक के द्वितीय कृष्णलेश्या शतक के जैसा ही जानना चाहिये | अतः द्वितीय कृष्णलेाचालों के सम्बन्ध में जैसा છઠ્ઠા એકેન્દ્રિય મહાચુગ્મશતકના પ્રારંભ
'कण्हलेस भवसिद्धिय ऋडजुम्म कडजुम्म एगि दियाण' भ'ते !' हे भगवन् કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએ નાયિકોમાંથીઆવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચૈાનિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે કે દેવેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય हे ? या प्रश्नमा उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने उडे हे डे- 'एवं कण्हलेस्स भवसिद्धि पrिदिएहिं वि वितियस्यं कण्हलेरससरिसं भाणियव्व" - गौतम !
આ કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિયાના સ`ધમાં પણ શતક આ પાંત્રીસમા શતકના અા કૃષ્ણલૈશ્યાશતકના કથન પ્રમાણે સમજવું ખીજા કૃષ્ણલેસ્યાવાળાના સંબધમાં જે પ્રમાણે ત્યાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું તે તમામ કથન અહિયાં પણ સમજવું.
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३५ भ. श.६ भव०येकेन्द्रियमहायुग्मशतानि ५८७ ___ एवं नीललेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि सय एवमेव नीललेश्यभवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियैरपि शतम् एतत् शतमपि पूर्ववदेव पश्योत्तराभ्यां निरूपणीयम् । 'सेव भते । सेव भते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ॥
पञ्चत्रिंशत्तमे शतके सप्तमं शतं समाप्तम् ॥३५७॥ वहां कहा गया है वैसा ही वह सब यहां पर भी जानना चाहिये। 'सेव भते ! ले ते ! त्ति' हे महन्त ! जैसा आपने यह सब कहा है वह सब सर्वथा लत्व ही है २ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर के फिर वे संयम और तप से आत्मा को सावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । छहा शत समाप्त ॥३५-६॥
टीकार्थ-'एवं नीललेस्स भवसिद्धिथएगिंदरहि वि सयइसी प्रकार से नीललेश्यावाले भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिक जीवों के सम्बन्ध में भी शतक का निर्माण कर कथन कर लेना चाहिये । 'लेवं भते ! सेव भते! त्ति' हे भदन्त ! आपका कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इत्यादि सब कथन पूर्व के ही जैसा है।
सातवां शत समाप्त ॥३५-७॥ 'सेव भवे ! सेव भते ! त्ति' समपन् भा५ देवानुप्रिये २ प्रभारी આ વિષયમાં કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવાન આપવાનુ પ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાને સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. મસૂ૦૧
છઠઠું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત ૩૫-લા ___एवं नीललेस्स भवसिद्धिय एगिदिएहि वि सय" मा प्रमाणे नीश्या . વાળા લાવસિદ્ધિક કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવે ના સંબંધમાં પણ શતક બનાવીને કથન કરી લેવું જોઈએ. _ 'सेव भते ! सेव भते त्ति लगवन् मा५ देवानुप्रिये या विषयमा જે કથન કર્યું છે તે સવથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આપનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સ યમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫
સાતમું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત ૩૫-ળા
म.
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भगवता सूत्र
' एवं ' काउलेस्स बसिद्धिय एगिंदिपदिवि तहेव एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं' एवं पूर्ववदेव कापोतलेश्य भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियैरपि तथैव पूर्ववदेव एकादशोदेशक संयुक्तं शतं भवति । एते जीवा कुत उत्पन्ते ? इत्यादि प्रश्नोत्तरादिकं पूर्ववदेवोहनीयम् । 'एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि ' एवमेतानि चत्वारि भवसिद्धिकशतानि औधिक कृष्णनील कापोवलेपाख्यानि चत्वारि भवन्ति 'चउ वि ससु' चतुर्वपि शतकेषु 'सव्वे पाणा जाव उबवन्नपुच्चा ? नो इण्डे समड़े' सर्वे घाणा यावद् उत्पन्न पूर्वाः ? नायमर्थः समर्थः ।
टोकार्थ- 'एवं पावलेस्स भवसिद्विय एगिदियहिं वि तहेव एक्झारल उद्देखग ंजुतं खयं' इसी प्रकार से कापणेतलेयाबाले भव सिद्धि कुनयुग्म राक्षिप्रति एथेन्द्रिय जीवों के साथ भी पहिले के जेसा ११ उदेशकों वाला शत होता है । अतः ये जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं इत्यादि महन और हे गौतन ! ये जीव तिर्यग्योनिकादिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं इत्यादि उत्तर पूर्वोक्त जैसा ही जानना चाहिये । ' एवं एमाणि चत्तारि भवसिद्विषयाणि चउसु विस' इन अधिक, कृष्ण, नील और जानलेवावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रियी चार शतकों में 'सव्वे पाणा जाब उचदन्नपुव्वा, नो इणट्टे सट्टे' समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व पहिले उत्पन्न हो चुके है यह अर्थ समर्थित नहीं है ऐला कहना चाहिये । क्यों कि ऐसे अभव्य एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं जो इल रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं।
“आमा मेन्द्रिय शतम्ना प्रारल "
'एव' का उल्लेरस अवसिद्धियागिदिएहिं वि तहेव एक्कारस उद्देस संजुत्तं सर्व' ४ प्रमाये अयोतत्रेश्यावाणा भवसिद्धि द्रुतयुग्भ द्रुतयुग्भ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવાની સાથે પણ પડેલાં કહ્યા પ્રમાણેના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાવાળુ શતક થાય છે. તેથી જીવા કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? વિગેરે પ્રશ્નો અને હૈ ગૌતમ!તે જીવેાતિય ચેાનિક વિગેરેમાંથી આવીને उत्पन्न थाय छे, विगेरे उत्तर पडेला उद्या प्रमाणे अमल सेवा 'एव' एयाणि वत्तारि भवसिद्धिययाणि चउसु वि सपसु' गोधि, ध्रुष्णु, नीस, भने अयोत वेश्यावाणा अवसिद्धि मेडेन्द्रिय वा संधी यार शतभां 'सब्वे पाणा जव ववन्नपुत्रा नो इणट्टे, समट्टे' अघणा अथे। यावत् सघणा सत्वा सां
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मैका टीका श०३५ अ. श. ८ भव०येकेन्द्रियमहायुग्मशतानि
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एतत्मकरणं सर्वत्र चतुर्ष्वपि भवसिद्धिकशतेषु योज्यम् । न सर्वे जीवाः भयसिद्धिक कृष्णनील कापोतकृतयुग्मतया नोत्पन्नपूत्रः अनन्तत्वात् 'सेव' भते ! सेवते । तदेव भदन्त । तदेव भदन्त । इति ॥
पञ्चत्रिंशत्तमे शतकेऽष्टसं शतं समाप्तम् || ३५३८ ॥
'जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सवाई भणियाई' यथा मवसिद्धिके श्रत्वादि शतानि भणितानि ' एवं अभवसिद्धिएहि विचत्तारि सयाणि संजुत्ताणि भाणियव्वाणि' एवमभवसिद्धिकैरपि चत्वारि शतानि औधिक कृष्णनीलकापोतलेश्या संयुक्तानि भणितव्यानि 'सव्वे पाणा० तहेच णो इणड्डे समट्टे' सर्वे घाणाः तथैव, 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! प्ति' हे भदन्त | आपका यह कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । अष्टम हात समाप्त ॥ ३५-८॥
"
'जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाह भणियाह' जिस पद्धति से भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में अधिक शतक, कृष्णलेमा शतक, नीललेश्या शतक, और कापोतलेश्या शतक कहे गये हैं' उसी पद्धति से इन्हीं शतकों को आश्रित करके अभवसिद्धिक एकेन्द्रियजीवों के सम्बन्ध में भी चार शतक कहलेना चाहिये । इन में भी ऐसा ही
उत्पन्न या शुरुया हे सा भर्थ मरोर नथी. तेभ हेवु हो हैसએવા એકેન્દ્રિય જવા અનંત છે. જે અત્યાર સુધી આ રૂપથી ઉત્પન્ન થયા નથી.
'सेव' भते ! सेव' भते ! त्ति' हे लभवन माप हेवानुप्रियतुं या विषय સૉંબધમાં કરેલ કથન સવથા સત્ય છે. ૨ આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નસસ્કાર કર્યા વદના નસ્કાર કરીને તે પછી સચમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર मिशन भान थया सू० १॥
નાચ્યાઠમું શતક સમાપ્ત ।।૩૫–૮મા
નવમા શતકથી ખારમા શતક સુધીના શતકાનુ કથ
'जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाह भणियाइ" ने प्रमाणे लवसिद्धि એકેન્દ્રિય જીવેાના સંબંધમાં ઔઘિક શતક, કૃલેયા શતક નીલેશ્યા શતક અને કાપે તલેશ્યા શતક કહેવામાં આવેલ છે, એજ રીતે એજ રાત કોને! આશ્રય કરીને એકેન્દ્રિય વેાના સંબધમાં ચાર શતકો કહેવા જોઈએ.
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भंगवतीसत्र नायमर्थः समर्थ इति व्यक्तव्यम् अनन्तत्वात् । एवं एयाई व्वारस एगिदिय महाजुम्म सयाई भवति' एवमेतानि द्वादशैकेन्द्रिय महायुग्मशतानि भवन्तीति, 'सेव मते ! सेव भते । त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त इति ॥ इति श्री - विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूपिवबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां 'श्री भगवतीसूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चत्रिंशच्छत के नवमतः द्वादशान्ता शतानि समाप्तानि।३५-९-१२॥
॥ पञ्चवित्तमं शतकं समाप्तम् ॥ कथन करना चाहिये कि समस्त प्राण थावत् समस्त सत्व इनमें पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ऐसा अर्थ समर्थित नहीं हुआ है । क्यों कि ऐसे भव्य एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं जो इल रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं। 'एवं एमाई बारस एगिदियमहाजुम्मलयाई भवति' इस प्रकार ये १२ एकेन्द्रिय महायुग्म शत होते हैं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे अदन्त ! आपका यह कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इत्यादि सब गौतम के सम्बन्ध की प्रक्रिया पूर्व के जैसी ही जाननी चाहिये। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके पैतीसवें शतक के नववे से बारहवें पर्यन्त के शतक समाप्त ॥३५-९-१२॥
॥३५ वां शतक समाप्त ॥ આમાં પણ એજ પ્રમાણેનું કથન કહેવું જોઈએ.-સઘળા પ્રાણુ યાવત્ સઘળા સત્વે આમાં પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે, એ પ્રમાણેને અર્થ સમર્થિત થતો નથી. કેમ કે એકેન્દ્રિય જીવે અનંત છે. કે જેઓ અત્યાર સુધી આ ३५थी लत्पन्न यशया नथी एवं एयाई वारस एगि दियमहाजुम्मसयाई' भवंति' मा प्रमाणे १२ मा२ मेन्द्रिय महायुम्भ शत: थाय छ तम समन.
'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे सगवन् मा ४७ मा सघणु थन સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયતું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસકાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂના નાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજગૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પાંત્રીસમા શતકમાં નવમા શતકથી બારમા શતક
સુધીના શતકે સમાપ્ત ૩૫–૯-૧૨
પાંત્રીસમું શતક સમાપ્ત .૩પ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श. १ उ. १ कृ. कृतयुग्महीन्द्रियजीवनि० ५९१
सयं) ||
| (छत्तीस || (पदम वेदियमहाजुम्मसयं) ॥ ( पढो उद्देसो) |
पञ्चत्रिंशत्तमे शतके संरूपापदेरे केन्द्रिजीवाः मरूपिताः अथ पत्रिंशत्तमे शतके तैरेव संख्यापदैः द्वीन्द्रियाः प्ररूयन्ते इत्येव' सम्बन्धेनायातस्य शतक स्वेदमादिम सूत्रम्- 'कडजुम्म' इत्यादि ।
मूलम् - कडजुम्मकडजुम्स वेइंदिया णं भंते! कओ उवत्रजंति ? उववाओ जहा वक्तीए । परिमाणं सोलस वा संखेज्जा वा उववजंति, असंखेज्जा वा उववनंति । अवहारो जहा उप्पलदेसर | ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलरस असंखेजइभागं उक्कोसेणं बारस जोयणाई | एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माणं पढमुद्दे तव । नवरं तिन्नि लेस्साओ देवा न उववजंति सम्मदिट्टी, वा मिच्छादिट्टी वा नो सम्मामिच्छादिट्टी | नाणी वा अन्नाणी वा । नो मणजोगी वयजोगी वा कायजोगी वा । ते णं कडजुम्मकडजुम्म बेंदिया कालओ केवश्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं संखेजं कालं । ठिई जहनेणं एकं समयं उक्कोसेणं बारससंवच्छराई । आहारो नियमा छद्दिसिं । तिन्नि समुग्धाया । सेसं तहेब जाव अनंतखुत्तो । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति ।
छत्तीस मे सए पढमे वेदिय महाजुम्मसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ ३६-१-१॥
छाया -- कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते ? उप पातो यथा व्युत्क्रान्तौ । परिमाणं पोडश वा संख्येया चोरपद्यन्ते असंख्येया चोत्पद्यन्ते । अपहारो यथा उत्पलोदेशके । अवगाहना जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभागम् उत्कर्षेण द्वादश योजनानि । एवं यथा - एकेन्द्रियमहायुग्मानां प्रथमोदेशके तथैव नवरं तिस्रो लेश्याः, देवा नोत्पद्यन्ते । सम्यग्दृष्टयो वा मिथ्यादृष्टयो वा नो सम्यग् मिथ्यादृष्टयः । ज्ञानिनो वा अज्ञानिनो वा नो मनोगिनो वचोयोगिनो
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वा काययोगिनो वा । से खलु भदन्त ! कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रियाः कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण संख्येयं कालम् | स्थितिर्जघन्येनैकं समयम्, उत्कर्षेण द्वादशसंवत्सरान् । आहारो नियमात् पड। दिशम् | त्रयः समुद्धाताः । शेषं तथैव यावदनन्तकृत्वः । एवं पोडशस्वपि युग्मेषु तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ।
॥ षट् त्रिंशत्तमे शतके प्रथमे द्वीन्द्रियमहायुग्मशतके प्रथमोद्देशक्रः समाप्तः ३६|| 'टीका- 'कडजुम्मकडजुम्म र्वेदियाणं भंते! कभ उववज्जैति' कृतयुग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पन्यन्ते किं नैरयिकेभ्यो वा तिर्यग्योवा मनुष्येभ्यो वा देवेभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'उवत्राओ जहा बकंतीए' ३६ वां शतक का प्रारम्भ
प्रथम दो इन्द्रिय महायुग्म शतक प्रथम उद्देशक ।
३५ वें शतक में संख्यापदोंद्वारा एकेन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा की गई है । अब इस ३६ वें शतक में उन्हीं संख्यापदोंद्वारा दीन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा होती है। इसी सम्बन्धको लेकर इस ३६ वें शतक का प्रारम्भ हुआ है 'कडजुम्मकडजुम्म वेह दियाण' अंते । कभी ववज्जति' इ.
टीकार्थ- 'कडजुम्मकडजुम्म वेह दियाण भंते । कओ उववज्र्ज्जति' हे भदन्त । कृतयुग्मकृतयुग्म राशिममित दो इन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में ले आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा छत्रीसभा शतना प्रारंभ
પ્રથમ એ ઈન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતક નામના પહેલે ઉદ્દેશ
પાંત્રીસમા શતકમાં સખ્યાપદાદ્વારા એકેન્દ્રિય જીવેાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, હવે આ છત્રીસમા શતકમાં એજ સખ્યાપદાદ્વારા દ્વીન્દ્રિય જીવાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવશે આ સંબંધને લઈને આ છત્રીસમા શતકને પ્રારંભ ४२वामां आवे छे, 'कडजुम्मकडजुम्म वेइ' दियाणं भते । कओ उत्रवन्जंति' ४. टीडार्थ- 'कडजुम्मकडजुम्म वेई दियणं भंते! कओ उववजंति' हे ભગવદ્ કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશિવાળા એ ઇન્દ્રિય જીવે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચર્ચ નિર્કમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ
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काजीका श० ३६ अ. श. १ उ. १ कृ. कृतयुग्मडीन्द्रियजीवनि०
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उपपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः पष्ठे पदे तिर्यग्भ्यो वा मनुष्येभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इत्युत्तरम् । 'परिमाणं सोलस वा संखेज्जा वा उववज्जति असं'खेज्जा वा उववज्जति' परिमाणं षोडश का संख्याता वा ते सोत्पद्यन्ते असंख्येया वा सहैवोत्पद्यन्ते इति । 'अवहारो जहा उप्पलुईसए' अपहारस्तु यथा उत्पलोद्देशके कथित स्वथैव तत एवादनन्तव्यः । एतस्या एव एकादश शतकस्य प्रथमोदेशके । 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्न इभागं' शरीरावगाहना हीन्द्रियजीवानां जघन्या अंगुळस्पासंख्येयभागपरिमिता 'उक्को सेण वारसदेवों में ले आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं ? उबवाओ जल बक्कीए' हे मौनल ! जेल कि ज्ञापना के छटे व्यक्रान्ति पद में ऐसा कर गया है कि मे तिर्यो से आकर के अथवा agar में से आकर के उत्पन्न होते है ऐसा ही कमन कहां पर करलेना चाहिये | 'परिमाणं सोलला, संसेज व अलखेा वा उचवज्जंति' एक समय में थे कितने उत्पन्न होते है ? तो इस सम्बन्ध में ऐसा कहना चाहिये । कि ये एक समय में १६ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते है । 'अवरारो जहा उप्पलदेसर' उत्पल उद्देशक में इसी के ११ वें शतक के प्रथम उद्देश में अपार के सम्बन्ध में जो कथन आया हैं वही यहां पर भी समझना चाहिये | 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग' इन हीन्द्रिय जीयों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यात वें भाग प्रषण होती है प्रश्नमा उत्तरमां प्रभुश्री गौतमय्वामीने उहे थे - 'उववाओ जहा वज्रतीए' डे ગૌતમ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના વ્યુત્કાન્તિપદમાં જે પ્રમાણે કહ્યુ છે એજ પ્રમણે અહિયાં પણુ સમજવુ. અર્થાત્ બ્રુકાતિ પદમાં એવું ડહેલ છે કે–તેએ તિય થયે નિકામાંથી આવીને અથવા મનુષ્યામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, એજ પ્રમાણેનુ उथन अहिया पाशु सम सेवु 'परिमाण खोलसवा सखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति' मे समयमां गा डेटा त्यन्न थाय छे ? तो या संबंधां એવું કહેવું જોઈએ કે આ એક સભ્યમા ૧૬ સેાળ અથવા સંખ્યાત અથવા असभ्यात उत्यन्न थाय छे. 'अवहारो जहा उपलुदेसए' त्यस उद्देशाभा એટલે કે આ ભગવતી સૂત્રના ૧૧ અગિયારમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં આમના અપહારના સંખ...ધમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે સઘળું કથન અહિયાં
सम'. 'सोगाहणा जहन्नेण' अंगुल असरखेज्जइभाग' मा मे इन्द्रिय વાળા જીવેાના શરીરની અવગાહના જન્ય આગળના અસાતમાં ભાગ
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जोयणाई' उत्कर्षेण तु द्वादशयोजनममाणा भवन्तीति । एवं जहा एगिंदिय महाजुम्माणं पढमुद्देस वहेव' एवं प्रकारेण यथा एकेन्द्रियमहायुग्मानां पञ्चत्रिंशच्छतकस्य प्रथमोद्देश के कथिता तथैवेहापि सामग्राऽपि ज्ञातव्या । 'नवरं तिन लेस्साओ देवा न ववज्र्ज्जति' नवरं प्रथमो देशका पेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् प्रथमो देश के चतस्रो लेश्याः कथिता तु तिन एव कृष्णनीलकापोवाख्या ज्ञातव्याः इह च देवा नोत्पद्यन्ते, अत्र तेजोलेश्याया असद्धाचात् 'सम्पद्विठी वामिच्छादिट्ठी वा ' सम्यग्दृष्टयो वा अपर्याप्तावस्थायां सास्वादन सम्यक्त्वापेक्षया, मिथ्या दृष्टयो
और 'उक्कोसेण' पारसजोयणाई' उत्कृष्ट से १२ योजन प्रमाण होती है । ' एवं ' जहां एगिंदिय महाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव' इस प्रकार जैसा एकेन्द्रिय महायुग्मों के सम्बन्ध में ३५ वे शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसाही वह स्वच कथन यहां पर भी कालेना चाहिये । 'नवर' तिनि लेखाओ देवा न उचवज्र्ज्जति' परन्तु उस प्रथम उद्देशक की अपेक्षा केवल यहां विशेषता है कि वहां पर चारलेश्याओं का होना कहा गया है और यहां तीन लेश्याएं होती हैं ऐसा कहा गया है। वहां पर देवों का उनमें एकेन्द्रिय में उत्पाद बतलाया गया है पर यहां वह नहीं होता है ऐसा कहा गया है। इसीलिये यहां तेजोलेश्या नहीं होती है । 'सम्मदिडी वा मिच्छादिट्ठी वा' ये सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते हैं । अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व का इनमें सद्भावपाया जाता है इस अपेक्षा से इन्हें सम्यग्दृष्टि कहा गया है ! 'नो सम्मामि
प्रभाणुनी होय हे भने 'उक्कोसेणं' बारस जोयणाई' उत्सृष्टथी मार १२ योजन अभाधुनी होय छे. 'एव' जहा एगिदियमहाजुम्माण पढमुद्देस ए तहेव'
આ રીતે એકેન્દ્રિય મહાયુગ્માના સખ ધમાં જે પ્રમાણે પાંત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન અહીંયાં પણુ संपूर्ण सम सेवु 'नवर' तिन्नि लेस्सा ओ देवा न ववज्जंति' परंतु पहेला ઉદ્દેશાના કથન કરતાં આ કથનમાં કેવળ એજ વિશેષપણુ છે કે—ત્યાં લેશ્યાએ ચાર હાવાનું કથન કરવામાં આવેલ છે, તથા અહિયાં ત્રણ લૈશ્યાએ હાય છે તેમ કહેલ છે, ત્યાં દેવાના ઉપપાત આ એકેન્દ્રિયેામાં હાવાનુ કહેલ છે, પરંતુ અહિયાં દેવાની ઉત્પત્તી થતી નથી તેમ કહેલ છે તેથી આ પ્રકરણમાં तेलेयेश्याना सलव होतो नथी. 'सम्मदिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा' या सभय દૃષ્ટીવાળા અને મિથ્યાખીયાળા હાય છે. અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં સાસ્વાદન સમ્યકૃત્વ તેએમાં હોય છે. તે અપેક્ષાથી તેને સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા કહેલ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श.१ ३.१ कृ कृतयुग्मद्वीन्द्रियजीवनि० ५९५ वा द्वीद्रिय जीवाः 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' नो सम्यग् मिथ्यादृष्टयः। 'नाणी वा अन्नाणी वा' ज्ञानिनो वा अज्ञानिनो वा भवन्ति द्वीन्द्रियाः । 'नो मणयोगी' नो मनोयोगिनो भवन्ति, 'वय जोगी वा, कायजोगी वा, वचो योगिनो वा भवन्ति काययोगिनो वा भवन्ति 'ते णं भंते ! कडजुम्म कडजुम्म बेंदिया कालो केव चिरं होति' ते खल भदन्त ! कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रियाः जीवाः कालतः किय चिरं भवन्ति, इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं संखेज्ज कालं' जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेण संख्येयं कालम्' ठिई जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं वारससंवच्छराइ' स्थिति जघन्येन एक समयप्रमाणा उत्कर्पण तु द्वादशसंवत्सररूपा भवतीति । 'आहारो नियमं छदिसि' आहारो नियमात् पइदिशमाश्रित्य पइदिग्भ्यः इत्यर्थः द्वीन्द्रिच्छादिट्ठी' ये मिश्रदृष्टि नहीं होते हैं । 'नाणी वा अन्नाणी वा' ये ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। 'जोमणो जोगी' से मनोयोगी नहीं होते हैं। 'वयजोगी जायजोगी वा वचनयोगी और काययोगी होते हैं। 'ते ण मते ! प.उम्भ क उजुरा वेईदिया कालमो केवच्चिर होति' हे भदन्त ! ये कृतयुग्म कृतयुग्म बीन्द्रिय जीव कितने समय तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेण एक समय उक्कोसेण संखेज कालं' हे गौतम ! ये इस रूप में जघन्य से तो एक समय तक रहते हैं और उत्कृष्ट ले संख्यात काल तक रहते हैं। 'ठिई जहन्नेण एक्क लमयं उक्कोलेण बारस संबच्छराइ इनकी स्थिति जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से १२ वर्ष की होती
छ, 'नो सम्मामिच्छदिट्ठी' २३॥ सभ्यम् मिथ्यादृष्टीपणा डाता नथी. मेरो भिटीपाडता नथी. 'नाणी वा अन्नाणी वा' मा ज्ञानी अथवा मज्ञानी डाय छे. 'णो मणोजोगी' मा मनायोगवा डाता नथी. 'वयजोगी कायजोगी वा' क्यन यासवाणामने आय योगाय छे. 'वेण भते ! कहजुम्म कडजुम्म वे दिया कालओं केवच्चिर होति' ९ मापन् २मा तयुग्म कृतयुग्म मे छन्द्रिय. વાળા છ ક ળની અપેક્ષાથી કેટલા સમય સુધી રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४९ छ -'गोयमा । जहण्णेण एकक समय उक्कोसेण संखेज्ज काल' गौतम ! ! ३५थी तो न्यथा तो ये समय संधी मने टथी सध्यात सुधा २९ छे. 'ठिई जहण्णेण एक समयउकोसेण वारस संवच्छराइ' तमानी स्थिति धन्यथा मे सभयनी मने थी मा२ १२ वषना डाय छे. 'आहारो नियम छदिमि' तेगा माहा२ नियमधी
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भगवतीत्र याणां लोकमध्ये एत्र स्थितत्वात् पड् दिग्भ्यो आहारो जायते । “तिन्नि समुग्घाया' त्रयः वेदना कपाय मारणान्तिकाः समुद्धाता भवन्तीति । 'सेसं तच जाव अणंत खुत्तो' शेपं समुद्घातातिरिक्त सर्वे यावन् द्वीन्द्रिया असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः उत्पन्नपूर्वाः एतत्सर्व पश्चत्रिंशत्तमशतकीय प्रथमोद्देशकवदेव ज्ञातव्यम्, 'एवं सोलससु दि जुम्येसु एक्सनेनैव प्रकारेण पोडशस्वति युग्मेषु कृतयुग्मकृतयुग्मादारभ्य कल्योज कल्योजान्त महायुग्मेवषि उपपातादिकं सर्व ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति तदेवं भदन्त ! तदेवं सदन्त इति ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धनाचक-पञ्चदशभाषा
कलिललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीगाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुवालव्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालतिविरचितायां श्री "गवतीस्त्रय" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्याया पद्रनिगत्तम शतके मथगे द्वीन्द्रिमायुग्मनने प्रथमादेशकः
समाप्तः ।३६।११। है । 'माहाने लिया छद्दिजिये आहार नियनले छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं। क्यों किलो के मध्य में स्थित रहते हैं । तिन्नि समुग्धा वेदना कपाय और पारमान्तिक ये तीन समुद्घात इन के होते हैं । 'खेसं लहेब जाम आणतातो पानी का और स्व कथन ३५ वे शतक के प्रथमोद्देशक के जैसा ही है यावत् अनन्तबार इस रूप में उत्पन्न हो चुके हैं। यहां तक का यहां कर लेना चाहिये । 'एवं सोलससु धि जुम्मेसु' इसीप्रकार से १६ युग्मों में कृतयुग्म कृतयुग्म से लेकर कल्पोज फल्योजस्तक्ष के महायुग्मों में भी उपपात आदि का છએદિશાઓમાંથી ગ્રહણ કરે છે. કેમ કે તેઓ લોકની મદષમાજ સ્થિત રહે छे. 'तिग्नि यमुग्घाया' वना, पाय, भने भारन्तिs a समुद्धात तगार हाय छे. 'सेख तहेव जाव अणतखुत्तो' पाश्रीन पासणु थन ૩૫ પાંત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું યાવતા તેઓ અનંતવાર આ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ ચુકલ છે, આ કથન સુધીનું કથન અહિયાં सभा'. 'एव' सोलससु वि जुम्मेसु' मा प्रभारी स १६ युग्मामा કૃતયુગ્મ વ્યાજથી લઈને કલ્યાજ કલ્યાજ સુધીના મહાયુમેમાં પણ ઉપપાત વિગેરેનું કથન સમજી લેવું.
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का टीका ०३६ अ. शं. १ उ.१ कृ. कृतयुग्मद्वीन्द्रियजीवनि०
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कथन कर लेना चाहिये | 'सेव भंते ! सेव' भते ! त्ति' हे भदन्त जैसा आपने यह कहा है वह सत्र सर्वथा सत्य ही २ | इस प्रकार कहकर गौतम प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार क्रिया वन्दना नमस्कार वर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ||
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके छत्तीसवें शतक का दीन्द्रिय महायुग्म शतक में प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ३६-१-१॥
'सेव' भ'ते ! सेव भ'ते ! त्ति' हे भगवन् याप हेवानुप्रिये ने प्रभा કથન કર્યું' છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આ વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં. વન્દના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, પ્રસૂ૦૧૫
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પુજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર'ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છત્રીસમા શતકના ફ્રીન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકમાં પહેલે ઉદ્દેશે સમાપ્ત ૫૩૬-૧-૧ા
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भगवती सूत्रे
॥२- ११ उद्देसगा
मूलम् - पढमसमयकडजुम्मकडजुम्म वेंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति एवं जहा एगिंदिय महाजुम्माणं पढमसमय उद्देसए, दस नाणताई ताई चैव दस इह वि । एक्कारसमं इमं नाणत्तं नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी सेसं जहा वेंदियाणं चैव पढमुद्देसए । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति
एवं एएवि जहा एगिंदिय महाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तव भाणियन्त्रा । नवरं चउत्थ छट्ठ अट्टमदसमेसु सम्मत्त नाणाणि न भवति । जहेव एगिदिएसु पढमो तइओ पंचमो य एकगमा सेसा अट्ठ एकगमा ॥
छत्तीस
सए पढमं बेंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ ३६- १॥
छाया -- प्रथमसमयकृत युग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त कुत उत्पद्यन्ते ? एवं यथा केन्द्रियमहायुग्मानां प्रथमसमयोद्देशके । दशनानाश्वानि तान्येव दश इहापि । एकादशमिदं नानात्वम् नो मनोयोगिनो नो वचोयोगिनः, काययोगिनः शेषं यथा द्वोन्द्रियाणामेव प्रथमोदेश के । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त | इति । एवमेतेऽपि यथा एकेन्द्रियमहायुग्मेषु एकादशोदेशका स्तथैव भणितव्या । नवरं चतुर्थ पृष्ठ |ष्टमदशमेषु सम्यक्त्वज्ञाने न भवतः । यथैवै केन्द्रियेषु प्रथम स्तृतीयः चमच एकगमाः शेषा अष्टौ एकगमाः ।
पशितमे शतके प्रथमं द्वीन्द्रियमहायुग्शतं समाप्तम् २६|१||
टीका - - ' पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म वें दियाणं भंते कओ वनअंति प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म द्वान्द्रियाः खलु भदन्त ! जीवाः कुत उत्पद्यन्ते किं शतक ३६ उद्देशक २-११
'पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म वेह दिघाण भंते ! कभी उववज्जंति' इत्यादि सूत्र ॥१॥
arera - हे भदन्त ! प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि रूप दो इन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ?
ખીજા ઉદેશાથી અગિયારમા સુધીના ઉદ્દેશાઓના પ્રારંભ—
'पढमसमय कडजुम्म कडजुम्म वेदियण भते ! कओ उववज्जंति' d.
ટીકા હૈ ભગવન પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા મૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ
શશવાળા એ ઈન્દ્રિય જીવા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ?
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श. १ उ.२ - ११ कृ. कृतयुग्मद्वीन्द्रियजी नि० ५९९
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नैरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्यः १ इति प्रश्नः, उत्तरमाह - अतिदेशद्वारेण 'एव जहाएगिंदि महाजुम्माणं पढ समय उद्देसए' एवं यथा एकेन्द्रिय महायुग्मानां प्रथम समोश कथितं तथैव प्रथमसमयद्वीन्द्रियाणामपि उपपातादिकमवगन्तव्यम् 'दसणाणत्ताई ताई चैव दस इह वि' । एकेन्द्रियमहायुग्मानां प्रथमोद्देशे यानि दश नानात्वानि तान्येव दशापि नानात्वानि इहापि ज्ञातव्यानि । अत्र तु 'एक्कारसमं इमं नातं' एकादशमिदं नानात्वम् अत्र प्रथमोद्देशद्वीन्द्रियस्यौधिकापेक्षया 'नो मगजोगी जो वयजोगी कायजोगी' नो मनोयोगिनः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया
क्या वे नैर्गयको में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अतिदश द्वारा इसका उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं'एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमभवद्देसए' हे गौतम ! जैसा कथन प्रथम समयोत्पन्न प्रथम कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में किया गया है उसी प्रकार का कथन प्रथम समयोत्पन्न हीन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये | 'दक्षणाणत्ताई' ताई' चेव दस इह चि' एकेन्द्रिय महायुग्मों के प्रथम उद्देशक में जो भिन्नताएं प्रकट की गई हैं वे ही दश भिन्नताएं यहां पर पर भी प्रकट कर लेनी चाहिये । तथा यहां पर एक ११ वीं भिन्नता है जो 'नो मणजोगी नो वगजोगी कायजोगी' इस શું તેએ નૈરયકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિ` ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર અતિદેશદ્વારા भाषतां प्रलुश्री गौतमस्वामीने उडे छे - ' एवं जहा एगि दियमहाजुम्मा ण' पढमसमय उद्देसए' हे गौतम! पडेला समयमा उत्पन्न थनाश द्रुतयुग्भ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાના ઉત્પાત વગેરેના સંબધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રકારનું કથન પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા એ ઈન્દ્રિય જીવેાના ઉત્પાદ વિગેરેના સબંધમાં પણ સમજવું, જોઈ એ 'दस नाणत्ताई' ताई' चैव दस इह वि' गोर्डेन्द्रिय भायुश्माना प्रथम उद्देशाम દસ પ્રકારનુ ભિન્નપણું પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રકારથી દસ રીતનુ ભિન્ન પણુ' અહિયાં પણ સમજવું તથા અહિયાં એક અગિયાર ૧૧મું ભિન્નપ ુ भावे छे, ते 'णो मणजोगी णो वयजोगी कायजोगी' मा सूत्रपाठ द्वारा अगर १२
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भगवतीस्त्रे नो वचोयोगिनः किन्तु काययोगिनः । 'सेसं जहा वें दियाणं चेव पढमुद्देसए' शेष-कथितव्यतिरिक्तं सर्वं यथा द्वीन्द्रियाणामेव प्रथमोदेशके कथितं तथैव द्वितीयायेकादशान्तोद्देशकेषु ज्ञातव्यम्, 'सेवं भंते ! सेचं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति । सूत्र द्वारा प्रकट की गई है कि प्रथम लमयोत्पन्न दो इन्द्रियजीव मनोयोगी तो होते ही नहीं है परन्तु न वचनयोगी होने का प्रसङ्क प्राप्त होता है-सो इसके लिये कहा गया है कि वे वचनयोगी भी नहीं होते है क्यों कि अपर्याप्तावस्था में बचनयोग नहीं होता है। केवल ये काययोगी ही होते हैं । 'सेल जहा वेइंदियाणं चेव पहमुद्देसए' इसके
अतिरिक्त और सब धन जमा द्वीन्द्रियों का प्रथम उद्देशक में कहा है वैमा ही यह लव कथन द्वितीय से लेकर ११ वे उद्देशक तक के उद्देशकों में जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संभ और तप से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । વામાં આવેલ છે કે-પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થયેલા બે ઇન્દ્રિય મનોગવાળા તે રહેતા નથી. તથા તેઓને વચનગીપણુને પ્રસંગ પણ પ્રાપ્ત થતું નથી. તે માટે કહેવામાં આવેલ છે કે–તેઓ વચનગી પણ હતા નથી. કેમ કે અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં વચનગ લેતો નથી કેવળ તેઓ કાયગી જ હોય छ. 'सेस' जहा वेइ दियाण चेत्र पढमुद्देखए' मा ४थन शिवाय गाडीनुस કથન જે રીતે બે ઇન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન બીજા ઉદ્દેશથી લઈને અગીયારમા ઉદ્દેશાઓ સુધીના ઉદ્દેશાઓમાં સમજવું.
"सेव' भते ! सेवं भते 1 चि' लगवन् माये ॥ विषयना मधमा જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સત્ય છે. હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું આ વિષય સંબંધમાં કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા ”
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प्रमेन्द्रका टीका श०३६ अ.श.१ उ.२-११ कृ. कृतयुग्मद्धीन्द्रियजीय नि० ६०१
' एवं एएच जहा एर्गिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देगा तत्र भणियन्त्रा' एवमेतेsपि यथा एकेन्द्रियमहायुग्मशतेषु एकादशो देशकाः कथिता स्तथैवेहापि तएव एकादशोदेशकाः पञ्चत्रिंशच्छतकीय प्रथमशते वर्त्तमाना, भणितव्याः, आला पकपकार पूर्ववदेव ऊहनीयः । 'नवरं चस्थ छटु अट्टम दसमेसु सम्मत नाणाणि न भवंति' नवरमत्र चतुर्थ - षष्टा- टम- दशमेषु, तत्र चतुर्थे- चरमसमग्रकृतयुग्मकृतयुग्म देशके ४, पण्ठे प्रथम मथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म देश के ६, अष्टमे - प्रथम चरमसमय कृतयुग्मकृतयुग्भोदेद्यते ८, दशमे चरम चरम समय कृतयुग्मकृतयुग्मोदेशे १०, एषु चतुर्षु देशकेषु सम्यक्त्वं ज्ञानं च न भवति अतस्ते न वक्तव्ये 'जहेन एर्मिदिएस पढयो कओ पंचमीच एकता' यथा - एकेन्द्रियेषु पञ्चत्रिंश
'एवं एए वि जहा एगिदिय महाजुम्मेसु एकारस उडेलगा तहेव भाणियचा' जिस रीति से एकेन्द्रिय महायुग्म शर्तों में ११ उद्देशक कहे गये हैं उसी प्रकार से ३५ वे शतक के प्रथम शत में वर्तमान वे ११ उद्देशक यहां पर भी कहलेना चाहिये । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार अपने आप पूर्व के जैसे बना लेना चाहिये | 'नदर' चत्थ छट्ट अहम दस मेसु सम्नन्त नाणापि न भवति' परन्तु इन ११ उद्देशकों में से चरम समय कुनयुग्म कृतयुग्म उद्देशक (चतुर्थ उद्देश में ) प्रथम प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्न उद्देशक में (छटे उद्देश में) प्रथम चरम चरम कृनयुग्म कृत् युग्म उद्देशक में (८ वें उद्देशक में) और चरम चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म उद्देशक में (१० वें उद्देशक में ) इन चार देशों में सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होते हैं अतः वे वहां नहीं कहना चाहिये । 'जहेव एनिदिए पढो तह पंनमोय
'एव एएवि जहा एगि दिय महाजुग्मेनु एक्कारस उद्देम्गा तदेव भाणियव्वा' જે પ્રમાણે એકેન્દ્રિય મહયુગ્મ શતકામાં ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહેવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણે ૩૫ પાંત્રીસમા શતકના પહેલાશતકમાં કહેલ તે ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઇએ. આ સબંધમાં આલાપને પ્રકાર પહેલા કહ્યા प्रभाशे पोते स्वय ं णनावीने समल सेवा. 'नवर' चत्थ छठ, अट्टम दस मेसु सम्मत नाणाणि न भवति' परंतु या ११ अजियार उद्देशासमाथी यरभ समय द्रुतयुग्भ, કૃતયુગ્મ, ઉદ્દેશામાં એટલે કે ચેથા ઉદ્દેશામા પ્રથમ પ્રથમ સભ્ય કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ ઉદ્દેશામાં એટલે કે ૬ છઠ્ઠા ઉદ્દેશામાં પ્રથમ સમય કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ ઉદ્દેશામાં એટલે કે-૮ આઠમા ઉદ્દેશામા અને ચરમ ચરમ સમય કૃયુગ્મ કૃતયુગ્મ ઉદેશામાં એટલે કે- ૧૦ દસમા ઉદ્દેશામાં આ ચારે- ઉદ્દેશામાં
भ० ७६
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भगवतीस्त्रे तमशतकेषु प्रथमः तृतीयः एवमः तत्र प्रथमः, कृतयुग्मकृतयुग्मरूपः तृतीया अपथमसमयकः, पञ्चमः चरमसमयकश्च एकगमाः सदृशालापकाः कथिताः तथाऽ प्रापि ते सदृशालापका एव । 'सेसा अट्ट एक्कगमा' शेपा अष्ठौ द्वितीय-चतुर्थषष्ठ-सप्तमा-ऽष्टम नवम-दशमै-कादशरूपा उद्देशका एकगमा:-सहशालापका: सन्ति, तत्र-द्वितीयः प्रथमसमयका, १, चतुर्थः चरमसमयकः २, पष्ठः प्रथम मथमसमयकः ३, सप्तमः प्रथमाप्रथमसमयकः ४, अष्टमः प्रथमचरमसमयक: ५, एक्कगमा ३५ वें शतक में प्रथम, तृतीय, और पंचम ये उद्देशक समान आलापक वाले कहे गये हैं-वैसे ही वे समान आलापवाले यहां पर भी कहे गये हैं कृतयुग्म कृतयुरल रूप प्रथम उद्देशक है। अप्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप तृतीय उद्देशक कहै और चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप पांचवां उद्देशक है 'लेला अg एक्कगमा तथा बाकी के आठ उद्देशक-द्वितीय उद्देशक, चतुर्थ उद्देशक, षष्ठ उदेशक, सप्तम, उद्देशक, अष्टम उद्देशक नौवां उद्देशक दसवां उद्देशक और ग्यारहवां उद्देशक ये आठ उद्देशक एक सरीखे आलापकवाले कहे गये हैं। प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप द्वितीय उद्देशक है। चरम समय कृतयुग्म तकृयुग्म रूप चतुर्थ उद्देशक है। प्रथम प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप छहा उद्देशक है। प्रथमाधम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप सातवां उद्देशक हैं। प्रथम चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप आठवां उद्देशक है। प्रथमा चरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म रूप ९ वां उद्देशक है। चरम सभ्य मने ज्ञान यता नथी. तेथी त्या तनु थन ४२७ न ये. 'जहेव एगिदिएसु पढमों तइओ पंचमोय एक्कगमा' ३५ यात्रीसमा शतना पडता, ત્રીજા અને પાંચમા આ ઉદ્દેશાઓ સરખા આલાપોવાળા જ કહેલ છે એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ તે સમાન પ્રકારવાળા જ કાા છે. કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ પહેલે ઉદ્દેશ છે, અપ્રથમ સમય કૃતયુ કૃતયુગ્મ રૂપ ત્રીજે ઉદેશે કહેલ છે, અને અચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રૂપ પાચમો ઉદેશ છે તથા બાકીના આઠ ઉદ્દેશાઓ એટલે કે બીજે ઉદેશે, ચોથો ઉદેશે, સાતમો ઉદ્દેશે, આઠમે ઉદેશ, નવમે ઉદેશે, દશમો ઉદેશો અને અગિયારમે ઉદેશે આ આઠ ઉદેશાઓ એક સરખ આલાપકેવાળાકહેલ છે. પ્રથમ સમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રૂપ બીજે ઉદ્દેશ છે. ચરમ સમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રૂપ ચોથો ઉદ્દેશે કહેલ છે. પ્રથમ પ્રથમ સમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રૂપ છઠે ઉદ્દેશે કહેલ છે. પ્રથમ અપ્રથમ કૃતમ કૃતયુગ્મ રૂપ સાતમે ઉદેશે કહેલ છે. પ્રથમ ચરમ સમય
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श.१ उ.२-११ कृतयुग्मद्वीन्द्रियजीवनि० ६०३
नवमः प्रथमाऽचरमसमयकः ६, दशमः चरमचरमसमयकः ७, एकादशः चरमाचरमसमयकः ८, एते अष्टौ उद्देशकाः समानालापकाः सन्तीति भावः ।। ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छन्नपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुचालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्री घासिलालबतिविरचितायां श्री "भगवतीमूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पत्रिंशत्तमे शतके प्रथम
द्वीद्रियमहायुग्मशत समाप्तम् ।।३६।१।। चरम समय कृमयुग्म कृतयुग्म रूप दसवां उद्देशक है और चरम चरम समय कृतयुसम्म कृतयुग्म रूप धारहवां उद्देशक है । ये आठों उद्देशक समान आलााकवाले हैं। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या छत्तीसवें शतक का
प्रथम होन्द्रिय महायुग्म शत समाप्त ॥३६-१॥ કૃતયુમ કૃતયુમ રૂપ આઠમે ઉશે કહેલ છે. પ્રથમ અચરમ સમય કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રૂપ નવમે ઉદ્દેશે કહેલ છે. ચરમ ચરમ સમય કૃ-યુમ કૃતયુમ રૂપ દસમો ઉદેશે કહ્યો છે, અને ચરમ અચરમ સમય કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રૂપ અગીયારમે ઉદ્દેશ છે. આ આઠ -ઉદ્દેશાઓ સરખા આલાપ પ્રકારવાળા છે. જૈનાચાર્ય જનધર્મદિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી વાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની
પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છત્રીસમા શતકનું પ્રથમ, દ્વિન્દ્રીય મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૩૬–૧
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भगवतींस ॥२-४ वेदियमहाजुम्मसयाई । मूलम्-कबहलेस्स कडजुम्मकडजुरूम बेंदियाणं अंते ! को उववज्जंति ? एवं चेव । कण्हलेस्लेट वि एकारल उद्देसगसंजुत्तं मयं । नवरं लेस्ला संचिटणा ठिई जहा एगिदिय कण्हलेसाणं ॥३६-२॥
एवं नीललेस्सहि नि सयं ॥३६-३॥ एवं काउलेस्लेहि वि सयं चउत्थं लमनं १३६-४॥
छत्तीसइसे लए।२।३।४। बेदियमहाजुम्ल्याइं समत्ताई
छाया-कृष्णस्य कृतयुग्म कृतयुग्म वीन्द्रियाः खल महन्त ! कुत उत्पधन्ते ? । एवमेव कृष्णलेश्यवरि एकादशोद्देशकसंयुक्त शतम् । नवरं लेश्यासं स्थितिः, स्थितियथा एकेन्द्रियकृष्णलेश्यानाम् ।।३-२॥
एवं नीललेव्यैरपि शतम् ॥३६-३॥ एवं कापोतलेश्यैरपि शतं चतुर्थ समाप्तम् ॥३६-४॥ पत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयतृतीय चतुर्माधि द्वीन्द्रियमहायुग्मशतानि समाप्तानि ।।
टीका--'ऋण्डलेस्स काजुमडजुम्म दियाणं भंते ! को उबवज्जति, कृष्णालेश्य कृत्युग्मकृतयुग्मद्वीन्द्रियाः खलु भवन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरपिकेभ्यो
शतक ३६-२-४ दो इन्द्रिय महायुग्मशत । पहलेल काडजस्म फडनवहादिया अंते! कओ उज्जति' इत्यादि स्तूम
टीकार्थ-'कहलेला कडम्या काडजुम्ल दियाण भंते ! को उबवजलि' हे भदन्त ! कृरणलेश्याबाझे कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित दीन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते है ? अथवा लियंग्योनिको में से आर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के
બીજાથી ચેથા સુધીના બેઈન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતક 'कण्हलेस कइजुम्म कडजुम्म बेईदियाण भवे । कओ उबवज्जति' ७.
थि---'कण्हलेस कड़जुरम कडजुम्म बेइदियोण भते ! कओ उववज्जति' હે ભગવાન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રાશિવાળા બે ઈન્દ્રિય જીવે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પનન થાય છે? શું તેઓ નરયિકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચનિકેમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે?
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का टीका २०३६ अं. श. २- ४कृष्णलेश्य कृ. कृ. डीन्द्रियजीवोत्पातः ६०५ यावदेवेभ्यो वेति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' एवं ' इत्यादि । 'एव' चेव' एवमेव एवम् एतच्छवकी कृतयुग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रियाख्यमथमशतकवदेव 'कण्हलेस्सेसु एक्कारस उद्देसग संजुतं सयं' कृष्णलेश्येष्वपि औधिकमथमसमयामथमसमयाधेका दशोदेशक संयुक्त शतं भणितव्यम् | नवर लेस्ला संचिणा ठिई जहा एर्गिदिय कलेस्साणं' नवर मेतच्छतकीयप्रथमशतापेक्षया इदं वैलक्षण्य यदत्र लेश्या संस्थानं स्थितिश्च यथा एकेन्द्रियकृष्णलेश्यानां कथिता तथैव ज्ञातव्या ॥
पत्रिंशत्तमे शतके द्वितीयं द्वीन्द्रियमहायुग्म शतं समाप्तम् ॥ ३६-२॥ 'एवं नीललेस्सेहि त्रिसर्य' एवं यथा कृष्ण वेश्ये रेकादशोदेशक संयुक्त द्वितीयं उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं । इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' एवं चेव' हे गौतम ! जैना इस सम्बन्ध में इसी शतक में कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय नामक औधिक, प्रथम शतक में कहा गया है वैसा ही शतक कृष्णलेश्यावाले द्वीन्द्रिय जीवो के सम्बन्ध में भी औधिक प्रथम समय, अप्रथम समय आदि ११ उदेशकों से युक्त यहां पर भी कहलेना चाहिये | 'नवर' लेस्सा संचिना टिई जहा एमिंदिय वालेस्साण' परन्तु इस शतक के प्रथम शत की अपेक्षा यहां पर ऐसी विलक्षणता है कि यहां लेश्या संचिडणा स्थितिकाल और आयुष स्थिति ये कृष्णलेश्याबाले एकेन्द्रिय जीवों के जैसे ही कहे गये हैं ।
द्वीतीय द्वीन्द्रिय महायुग्म शत समाप्त | ३६-२१
'एव' नीललेस्सेहि चि सय' जैसा ११ उद्देशकों से युक्त शत અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने हे हे हे- 'एव' चेव' હું ગૌતમ ! આ સંધમાં આ શતકમાં કૃતયુગ્મ કૃનયુગ્મ દ્વીન્દ્રિય નામનુ‘
ઔધિક-પહેલુ શતક કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનું શતક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એ ઈન્દ્રિયવાળા જીવેટના સંબંધમા પણ ઔશ્વિક પ્રથમ સમય, અપ્રથમ સમય विगेरे ११ अगियार उद्देशासोवाणु शत: अहियां पण समन्न्वु' 'नवर' लेस्सा संचिणाठिई जहा एर्गिदिग्रकण्हलैस्साण" परंतु मा શતકમાં પહેલા શતકના કથન કરતાં એવુ વિલક્ષણ પણુ છે કે—અહિયાં લેવા સચિઠ્ઠણા સ્થિતિકાળ અને આયુષ્ય સ્થિતિ આ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય જીવાની જેમ ४ उडेल छे,
નાખીજું દ્વીન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૪૩૬-સા
'ए' नीलले सेहि विसय" मणियार उद्देशावाणु शत प्युलेश्या
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भगवती सूत्रे
शतं निर्मित तथैव नीलले पैरपि शतं नीललेश्यापदमन्तर्भाव्य शतं निर्मातव्यम् ॥ पत्रिंशत्तमत के तृतीयं द्वीन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥ ३६- ३ || 'एवं काउलेसे वि' एवमेव कापोतलेश्यैरपि शतं भणितव्यम्, पट्टत्रिंशत्तमे शतके चतुर्थ द्वीन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ।।३६-४॥ अह ५-१२ वें दियमहाजुम्मसयाई'
मूलम् - सवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म बेंदियाणं भंते! एवं भवसिद्धियस्यापि वत्तारि तेणेव पुत्र गमएणं नेयव्वा । नवरं सब्वे पाणा० णो इट्टे समट्टे । सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि । सेवं भंते ! सेवं भते ! ति ।।३६ - ५–८॥
जहा भवसिद्धिय सयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धिय सयाणि चत्तारि । नवरं सम्मत्तं नाणाणि नत्थि लेसं तं चैव । कृष्णलेइयावालों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही शत ग्यारह उद्देशकों से युक्त नीललेयाबाले द्विन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में भी कहलेना चाहिये । सिर्फ कृष्णलेश्यापद के स्थान में नीललेइयापद लगाकर आलापक बना लेना चाहिये । इस प्रकार से नीललेइपावाले दीन्द्रियों के सम्बन्ध में ११ उदेशकों वाला एक तृतीय शत बन जाता है । तृतीय शन समाप्त || ३६-३ |
'एव' का उसे हि चिम' इसी प्रकार से ११ उदेशकों से युक्त कापोनलेश्यावाले हीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में चतुर्थ शत बना लेना चाहिये । चौथा महायुग्म शत समाप्त ॥ ३६-४॥
વાળાઓના સંબધમાં જે પ્રમાણેનુ કહેવામા આવેલ છે એજ પ્રમાણેનું શતક અગ્યાર ઉદ્દેશાઓવાળું નીલલેશ્યવાળા એ ઇન્દ્રિયવાળા જીવેના સંબંધમાં પણ સમજવું ફકત ‘કૃષ્ણલેશ્યા એ પદના સ્થાને નીલલેશ્યા” એ પદ લગાવીને સઘળા આલાપકા મનાવીને કહેવા જોઇએ. આ રીતે નીલલેશ્યાવાળા દ્વીન્દ્રિય જીવાના સખધમાં ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓવાળું એક ત્રીજુ શતક મનાવીને કહી લેવુ જોઈ એ
ાત્રીજુ શતક સમાપ્ત ૫૩૬-૩ા
'एव' कालेस्से हि विसय' या उपर मतावेत अमरथी ११ अगियार ઉદ્દેશાવાળુ કાપેાતિકલેશ્યાવાળા ઢોન્દ્રિય જીવેાના સઅશ્વમાં ચક્ષુ' શતક બનાવી લેવું જોઇએ.
ચેલું શતક સમાપ્ત ૩૬-૪!
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श. ५-१२ भवसिद्धयादिद्वीन्द्रियजीवोत्पात' ६०७ एवं एयाणि बारस बेंदियमहाजुम्मस्याणि भवंति । सेव भंते ! सेवं भंते ! ति ॥
पंचमओ बारस पत्ताई बेंदियमहाजुम्मसयाई समत्ताई । ५- १२॥ छत्तीसइमं सयं समत्तं ॥३६॥
छाया - भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिया खलु भदन्त ! एवं भव. सिद्विशतान्यपि चत्वारि तेनैव पूर्वगमकेन नेतव्यानि । नवरं सर्वे पाणाः, नायमर्थः समर्थः । शेषं तथैव औधिकशतानि चत्वारि । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ॥ ३६-५-८॥
यथा भवसिद्धिकशतानि चत्वारि एवमभवसिद्धिकशतानि चत्वारि भणितव्यानि | नवर' सम्यक्त्वज्ञाने न स्तः । शेष तदेव । एतानि द्वादश द्वीन्द्रिय महायुग्मशतानि भवन्ति । तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥ पश्चात आरभ्य द्वादशपर्यन्तानि द्वीन्द्रियमहायुग्मशतानि समाप्तानि ॥५- १२।। षट्त्रिंशत्तमं शतं समाप्तम् ॥ ३६ ॥
टीका- 'भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म वें दियाणं भंते !' भवसिद्धिक कृत युग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त कुत उत्पद्यन्ते किं नैरदिकेभ्यो यावद्देवेभ्यवेति प्रश्नः, उत्तरमाह - हे गौतम ! नो नैरयिकेभ्यः' इत्यादिरूपेणोपपातविषयकं
|| शतक ३६-५-१२ दो इन्द्रिय महायुग्म शत । 'भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्म बेड़ दियाण' भंते ! 'इत्यादि सूत्र' टीकार्थ - हे भदन्त ! भवमिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित दो इन्द्रिय जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते है ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम । ये नैर
પાંચમા શતકથી આઠમા સુધીના મહાયુગ્મ શતકાનુ કથન 'भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्मचेइ दियाण भते ।' त्यिाहि
ટીકા હે ભગવન્ ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશિવાળા એ ઇન્દ્રિય જીવેા કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શુ તેમે તૈરિયામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચયેાનિકોમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા દેવેમાથી આવીને
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भगवतीस्त्रे पूर्ववदेवोत्तरम् एवं परिमाणादिकमपि प्रथमशतवदेव ज्ञातव्यम् एतदभिप्रायेणेवाह-'एवं' इत्यादि ‘एवं' भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेत्र पुधगम एणं नेयव्या' एवं सवसिद्धिकशतान्यपि चत्वारि पूर्वगम केन ज्ञातव्यानि, यथा कृतयुग्मकृतयुग्मद्वीन्द्रियस्य चत्वारि शतानि औधिक कुष्णलेश्य नीललेस कापोतलेश्याख्यानि कथितानि तथैव भवसिद्धिकद्वीन्द्रियाणामपि चत्वारि ऑघिक कृष्णनीलकापोतलेश्याख्यानि वक्तव्यानि सर्वत्र शतेषु पूर्दवदेव एकादश एकादशोदेशका अपि वक्तव्याः । 'नवर सव्वे पाणा० णो इण? समढे' नवरं सर्वे प्राणा:० नायमर्थः समर्थः सर्वे प्राणा यावत् सर्वे सवाः भवसिद्धिकृतयुग्मकृतयुग्मद्वीन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वा इति प्रश्नस्य नायमर्थः समर्थः इत्युत्तरम् । अत्र सर्वे प्राणभूत जीव सच्चा भवसिद्धिक कृतयुग्मकन्युग्म द्वीन्द्रियतया पूर्व नोत्पन्ना आसन् असोऽत्र 'असई अदुवा अनंतखुत्तो' इति पाठो न वाच्य इति । 'सेसं तहेव' शेपं यिकों में ले आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं इत्यादि रूप से उपपात विषयक उत्तर पहिले कहे गये जेव्हा ही जानना चाहिये। ____ 'एवं भवसिद्धिय या वि चत्तारि तेणेब पुधगमएण नेयव्या' जिस प्रकार से कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव के औधिक शत, कृष्णलेश्घ शत, नीललेश्य शत, और फापोतलेक्ष्य शाल ये चार शतक कहे गये हैं उसी प्रकार ले भयलिद्धिक हीन्द्रिय जीवों के भी ये ही चार शत कहलेना चाहिये सर्वत्र शतों में पूर्व के जैसे ११-११ उद्देशक वक्तव्य कहे गये हैं। 'नवर सव्वे पाणाको इणटे सबढे' परन्तु इन उद्देशकों में 'समस्न शाण यावत् सपना सत्य अनन्तवार भवसिद्धिक कृलयुग्म कुन युग्म द्वीन्द्रिय रूप से जन्म धारण कर चुके हैं' ऐसा पाठ ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી વિગેરે પ્રકારથી ઉપપતના સંબંધમાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણે ઉત્તર સમજી લે.
'एव भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेब पुवामएण नेयध्वा रे પ્રમાણે કૃતયુમ કૃતયુગ્મ બે ઇન્દ્રિયવાળા જીના સંબધમાં ઔધિક શતક, કૃણલેશ્યા શતક, નીલેશ્યા શતક અને કાપે તલેશ્યા શતક આ ચાર શતક કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે ભાવસિદ્ધિક દ્વીન્દ્રિય જીના સંબંધમાં પણ આજ પ્રમાણેના ચાર શતકે કહેવા જઈએ બધા જ શતકેમાં પહેલા કહ્યા અનુસાર ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદેશાઓ કહેવાનું કહેલ છે. 'नवर सव्वे पाणा० नो इगट्टे समढे' परतु सा पाएं। यावत् सयमा सत्वा અનંતવાર ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુમ ક્રિીન્દ્રિય પણાથી જન્મ લઈ ચુકેલ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श.५-१२ भवसिद्धयादिधीन्द्रियजीवोत्पातः ६०९ नवरमित्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्त पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् 'भोहिय सयाणि च तारि' औधिक शत्युक्तानि चत्वारि भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म-भवसिद्धिक कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक नीलले श्य-भवसिद्धिक कापोतलेश्याख्यानि ज्ञातव्यानि । 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति तदेव भदन्त ! तदेवं मदन्त ! इति ।
पत्रिंशत्तमे शतके एश्चमादारभ्याप्टमपर्यन्तानि
द्वीन्द्रिय महायुग्मशतानि समासानि ॥३६-५-८॥ समर्थित नहीं हुआ है । इसलिये यहाँ 'अल अदुवा अनंतखुत्तो' ऐसा पाठ वाच्य नहीं रतलाया गया है । 'लेस तहेव' इस भिन्नता कथन से अतिरिक्त और सब वाथन पूर्व के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । 'ओहियलयाणि चनारि बसिद्धिक दो इन्द्रिय जीवों के
औधिक शतक युक्त ४ शत इस प्रकार से हैं-भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म १, भवलिहिक कृष्णवेश्या शत २, भवसिद्धिक नीललेश्या शत ३ और भवसिद्धिक बापोतलेका शत ४ । 'लेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जेसा आपने यह कहा है वह सय सर्वथा सत्य ही है २ । ऐसा कहकर गौतमने प्रसुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया। चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
पांचवें से आठ वें सहायग्नशन समापन ॥३६-५-८॥ छ, ये प्रभारी न पा समर्थित थयेस नथी तथा मडिया 'असई अदुवा अणतखुत्तो' मा प्रमाणेने। ५४ ४३वानु । छे. 'सेख तहेव' माग પ્રકારના કથન શિવાયનું બીજું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ છે, તેમ सभा, 'ओहिय सयाणि चत्तारि' सिद्धि मेन्द्रियाणा वाना मौधिः શતક યુક્ત ચાર ૪ શતકે આ પ્રમાણે છે.-ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્ય કૃતયુમ ૧ ભવસિદ્ધિક કૃષ્ણલેશ્યા શતક ૨ ભાવસિદ્ધિક નીલેશ્યાશતક ૩ અને ભવસિદ્ધિક કાપતલેશ્યા શતક ૪
'सेव भते ! सेव भ ते ! त्ति' मगवन् माघे मा विषयमा प्रभारी કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવન્ આ૫ દેવાનુ પ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પસૂના
પાંચમાથી આઠમ સુધીના ચાર શતકે સમાપ્ત ૩૬-૫-૮
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भगवती सूत्रे
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'जहा भवसिद्धियसयाणि चचारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणि - यन्त्राणि यथा भवसिद्धिकशतानि चत्वारि कथितानि एवमेव अमवसिद्धिकशतान्यपि चत्वारि तत्रैकमभवसिद्धिकरात मौधिकं ?, द्वीतीयं कृष्णलेश्या भव सिद्धिकशतं २, तृतीयं नीललेण्या भवसिद्धिगतं चतुर्थ कापोतखेश्याभवसिद्धिकशतं४, तदेवमभवसिद्धिकरय चत्वारि शतानि भवन्ति । प्रत्येकस्मिन शते एकादश एकादशोदेशका अपि वक्तव्याः | 'नवरं सम्मत्त नाणानि नत्थि ' नवरं केवलमेतस्मिन् शतचतुष्टये सम्यक्त्वं ज्ञानं च न भवति 'सेसं तं चेत्र' शेषं नवरमित्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्तं सर्वमुपपाठपरिमाणादिकं सर्वत्र तदेव पञ्चत्रिंशच्छतकीय प्रथमशतकथितमेवेति, एवं एवाणि वारस में दियमहाजुम्म
टीकार्थ- 'जहा अवसिद्धिकराणि चत्तारि एवं अभवसिद्वियसपाणि चत्तारि भणियन्त्राणि' जिस रीति से भवसिद्धि हीन्द्रिय जीवों जे सम्बन्ध में चार बात कहे गये हैं उसी रीति से अनवसिद्धिक वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में भी चार शत का लेना चाहिये । जैसे प्रथम औधिक अभवसिद्धिक शत, द्वितीय कृष्णलेश्या अभवसिद्धिक शत, तृतीय नीललेश्या अभवसिद्विक शत और चतुर्थ कापोतलेइया अभवसिद्धिक शत | इन प्रत्येक शत में ११-११उद्देशक है । 'नवर' सम्मत्त नाणानि नरिथ' इन चार शानों में विशेषता केवल इतनी सी है कि इनमें अभवसिद्धिक दो इन्द्रिय होने के कारण सम्यक्त्व एवं ज्ञान नहीं कहे गये हैं- क्यों कि दोनों यहां नहीं होते हैं। इस अन्तर के अतिरिक्त और सब उपपात परिमाण आदि का कथन सर्वत्र ३५ वें शतक
'जहा भवसिद्धिययाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियस्याणि' चत्तारि भाणियन्त्राणि मे प्रभा अवसिद्धि हीन्द्रिय लोना संधमां यार शत કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે અભવસિદ્ધિક દ્વીન્દ્રિયાના સમધમાં પણુ ચાર શતકા કહેવા જોઈએ. જેમ કે-પ્રથમ ઔઘિક અભવસિદ્ધિક શતક દ્વિતીય કૃષ્ણુલેસ્યા ભવસિદ્ધિક શતક, તૃતીય નીલેશ્યા ભવસિદ્ધિક શતક, અને ચે થુ કાપેાતલેશ્વા ભવસિદ્ધિક શતક આ દરેક શતકમાં ૧૧-૧૧અગિયાર उद्देशामा ४ह्या छे. 'नवर' सम्मत्त नाणाणि नत्थि'मा यार शतझेभां दैवज એજ વિશેષપણુ છે કે તેએામાં અલવસિદ્ધિક એ ઇન્દ્રિય ઢાવાને કારણે સમ્યકત્વ અને જ્ઞાન કહેલ નથી. કેમ કે એ બન્ને અહીં હાતા નથી આ જુદાપણા શિવાય ખાકીના ઉપપાત, પરિમાણુ વિગેરે સંબંધી સઘળું કથન ધે ઠેકાણે પાંત્રીસમા શતકના પહેલા શતકનાથન પ્રમાણ જ છે. ‘ત્ર
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प्रमेन्द्रका टीका श०३६ अ० श. ५-१२ भवसिद्धयदिद्धीन्द्रियजीवोत्पातः ६११ 'सयाणि भवति' एवमुपरोक्तप्रकारेण एतानि द्वीन्द्रियमहायुग्मशतानि द्वादशसंख्यकानि भवन्ति औधिक द्वीन्द्रियशतसेकसू १, कृष्णनीलकापोत लेश्यात्रययुक्तं शतत्रयमिति चत्वारि ४, भवसिद्धिकस्य चतुष्टयम्, अभवसिद्धिकस्य चतुष्टयम् १२, सकलनया द्वादशशतानि कृतयुग्मकृतयुग्महीन्द्रियाणाम् । एवं कृतयुग्मध्योज द्वन्द्रित आरभ्य यावद् कल्योजकलमोजद्वीन्द्रियाणां विषयेऽपि ज्ञातव्यम् । rahara द्वादशशतकानि भवन्ति' प्रत्येकं शतके एकादशैकादश उद्देशा सन्ति ततः द्वादश १२ एकादशैर्गुणने द्वात्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३२) उद्देशकानामस्मिन् पशिक्षत के भवन्तीति । 'सेव' भंते । सेव भंते! त्ति' तदेव भदन्त ! के प्रथम शतक के जैसा ही हैं । 'एवं एयाणि बारस वेई दियहाजुम्म सयाणि भवंत' यहां ये हीन्द्रिय महायुग्म शत १२ हैं । जैसे - औधिक द्वीन्द्रिय शत १ कृष्ण नील कापोनलेश्या त्रय युक्त तीन शत ३ भवसिद्धिक हीन्द्रिय शत ४ अमवसिद्धिक दीन्द्रिय शत ४ इस प्रकार से कृतयुग्मकृतयुग्न राशिप्रगित द्वीन्द्रिय जीवों के १२ महायुग्मशत हैं ।
इसी प्रकार से कृयुग्मकृतयुग्मज राशिप्रमित बीद्रिय से लेकर कल्पोज कल्पोज राशिप्रमित छीन्द्रियों के संबंध में भी समझ लेना चाहिये । इस प्रकार में १२ बारह शनक होते हैं । प्रत्येक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्देशक हैं अतः (१२x११=१३२) बारह को ग्यारह से गुणा करने पर एकलौ बत्तीस उद्देशक इसी छत्तीस वें शतक में हैं । 'सेव अंते । लेव' भंते ! त्ति' हे भदन्त ! अभवसिद्धिक दीन्द्रिय जीवों के उपपातादि के सम्बन्ध में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब याणि बारस वेदिय महाजुम्म प्रयाणि भवंति' मडियां भी रीते १२ मार દ્વીન્દ્રિય સ ખ‘ધી મહાયુગ્મ શતા ઔધિક દ્રીન્દ્રિય શતક ૧ કૃષ્ણુલેક્ષ્યા નીલલેશ્યા અને કાપાતલેશ્યા સબંધી ત્રણ શતક, ભવસિદ્ધિક દ્વીન્દ્રિયના ૪ ચાર શતક અભવસિદ્ધિક એ ઈન્દ્રિય સ`ખ'ધી ૪ શતક આ રીતે કૃતયુગ્મ તયુગ્મ રાશિવાળા દ્વીન્દ્રિય જીવેાના સમ ધમાં ૧૨ મહાયુગ્મ શતા કહ્યા છે. આજ પ્રમાણે કૃતયુગ્મ યેાજ રાશિવાળા દ્વીન્દ્રિય જીવેાથી લઈને લ્યેાજ મુલ્યેજ રાશિવાળા દ્વીન્દ્રિય જીવેાના સબંધમાં પણ ૧૨-૧૨ ખાર શતકા હાય છે. તેથી સેળે મહા શતકેામાં મધા મળીને કુલ ૧૩૨ એકસે ખત્રીસ શતક થઈ જાય છે. ૧૨- માં ૧૧-૧૧ ઉદ્દેશાઓ છે. તેથી સઘળા ઉદ્દેશાઓની કુલ સંખ્યા ૨૧૧૨ એકવીસસેા ખારની થઈ જાય છે.
'सेव' भवे ! सेव' भ'वे ! त्ति' डे लगवन् अलवसिद्धि द्वीन्द्रिय वना ઉપપાત વિગેરેના સંબધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે તે સઘળું કથન
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६१२
भंगवतीक्षे तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! अभवसिद्धिक द्वीन्द्रियाणामुपपातादि विषये यत्कथितं तत्सर्व सत्यमिति कथयित्वा यावत्यथासुग्वं विहरतीति । ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकमविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, चादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालव्रतिविरचितायां श्री “भग वतीमूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकारख्यायांव्याख्यायां अष्टमतः द्वादशान्तानि
द्वीन्द्रिय महायुग्मशतानि
समातानि॥३६-५-१२॥
॥ त्रिंशत्तमं शतकं समासम् ॥३६॥ सर्वथा सत्य ही है। इस प्रकार कहकर चौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को आधित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घालीलालजीमहारजकृत "भगवतीस्त्र" की प्रमेयचत्रिका व्याख्याके छतीसवे शतक में आतवें ले घारहवें पर्यन्तके द्वीन्द्रिय महायुग्म
शत समाप्त॥३६-५-१२॥ ॥ ३६ वां शतक समाप्त।
સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયતું સઘળું કથન આપ્ત હોવાથી સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા પ્રકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ જૈનાચાર્ય જનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છત્રીસમાં શતકના આઠમાથી બારમા સુધીના દ્વીન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકી સમાપ્ત ૩૬-૫-૧૨
છત્રીસમું શતક સમાપ્તા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३७ अ. श.१ कृ.कृ. श्रीन्द्रियजीवोत्पातः ६१३
अह सत्ततीसइम तेंदियसयं मूलम्-कडजुम्मकडजुम्म तेदियाणं भंते ! कओ उववजति ? एवं तेंदिएसु वि बारससया कायठवा दियसयसरिसा। नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोलेणं तिन्नि गाउयाइं। ठिई जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं एगूणवनं राइंदियाई । सेसं तहेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति सत्ततीसइमे सए तेदियमहाजुम्मसया समत्ता ॥३७-१२॥
सत्ततीसइमं तेंदियसयं समत्तं ॥३७॥ छायाकृतयुग्मकृतयुग्म त्रीन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्पधन्ते एवं श्रीन्द्रियेष्वपि द्वादशशतानि कर्तव्यानि द्वीन्द्रियशतसहशानि नवरमवगाहना जधन्येनांगुलस्यासंख्येयभागम् उत्कर्षेण तिस्रो गव्यूतयः । स्थितिर्जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षेण एकोनपञ्चाशद्रात्रिदिनानि । शेषं तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति । सप्तत्रिंशत्तमे शते त्रीन्द्रिय महायुग्मशतानि समाप्तानि ॥३७-१२॥
॥ सप्तत्रिंशत्तमं शतकं समाप्तम् ॥३७॥ टीका-'कडजुम्मकडजुम्म तेदियाणं भंते ! कओ उववज्जति' कृतयुग्मकृतयुग्मत्रीन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते यावद्देवेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते इति प्रश्ना, उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण-'एवं'
॥३७ वां शतक त्रीन्द्रिय शत॥ टीकार्थ-'कडजुम्म कडजुम्म तेह दियाण भंते ! को उपधति, हे भदन्त ! कृपयुग्म कृतयुग्म राशिममित श्रीन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिकों में से ओकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यो में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा
સાડાત્રીસમા શતકને પ્રારંભ– कउजुम्म कडजुम्म तेइंदियाण भंते ! कओ उववज्जति' त्यादि
હે ભગવાન કૃતયુમ કૃતયુમ રાશિવાળા ત્રણ ઈદ્રિયવાળા જી કયા થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન થાય છે? શું તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ?અથવા તિર્યંચાનિકમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા જેમાંથી આવીને
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भगवती इत्यादि, 'एवं तें दिएसु वि वारससया कायच्या वें दिय सयसरिसा' एवं त्रीन्द्रियेध्वपि द्वादशशनि अधूवन् तथैवात्रापि द्वादशशतानि कर्तव्यानि प्रथमौधिक शतं द्वितीयं कृष्णलेशाघटितं तृतीयं नीलले श्याघटितम् चतुर्थ कापोतलेश्याघटित भवसिद्धिकस्यैवमेव चत्वारि शतानि एवमेत्र अभवसिद्धिकस्य चत्वारि शतानि सर्वशतेषु एकादश एकादशादेशकाः प्रथमसमयादिका अपि वक्तव्याः। द्वीन्द्रिय शतकापेक्षया यद् वैलक्षण्यं तदर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग' नवरं-केवलं शरीरावगाहना त्रीन्द्रियाणां जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमाणा 'उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई उत्कर्षेण तिस्रो गव्यू. देवो में से आकर के उत्पन्न होते है ? 'एवं तेइ दिएसु वि पारस सया कायव्वा वेदिय सपरिसा' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी कहते हैं-'हे गौतम ! जिस रीति से द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में १२ शन प्रकट किये गये हैं, इप्ली रीति से यहां पर भी १२ शत प्रकट कर लेना चाहिये । जैसे प्रथम औधिक शतक द्वितीय कृष्णलेश्या घटित शत, तृतीय नीललेश्या घटित शत, चतुर्थ कापोत. लेश्या घटिन शत, भवसिद्धिक त्रीन्द्रिय जीव के भी ऐसे ही चार शत
और अभवलिद्धिक त्रीन्द्रिय के भी चार शत इन सब शतों में ११११ उद्देशक भी कहना चाहिये । परन्तु दीन्द्रिय शतक की अपेक्षा जो इस शतक मे भिन्नता है वह ऐसी है कि 'नवरं ओगाहणा जहन्नेण अंगुलस्स असंखेजहभाग' यहां जघन्य अवगाहना तो अंगुल के असंख्यात वें भाग प्रमाण है और 'उक्कोसेण तिनि गाउयाई' ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે से 'एवं तेइ दिएसु वि बारससया कायव्वा वेइ दियसयसरिसा' हे गौतम ! કીન્દ્રિય જીના સંબંધમાં જે પ્રમાણે બાર શતકો બતાવ્યા છે, એ જ પ્રમાણેના બાર શતકે અહિયાં આ ત્રણ ઈદ્રિયવાળા જીવોના સંબંધમાં પણ કહેવા જોઈએ, જેમ કે–પહેલું ઔધિક શતક બીજું કૃષ્ણલેશ્યવાળા યુક્ત, ત્રીજું નીલલેશ્યા યુક્ત, શતક, ચોથું કાપતિલેશ્યા યુક્ત, શતક ભવસિદ્ધિક ત્રણ ઇન્દ્રિયવાળા જીને પણ એજ પ્રમાણના ચાર શતકે તથા અભાવસિદ્ધિક ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા જીને પણ ચાર શતકે એ રીતે આ બારે શતકેમાં ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદ્દેશાઓ પણ કહેવા જોઈએ પરંતુ બે ઈન્દ્રિયવાળા ના त: ४२i मा शतमा रे दुधापा माव छ, त मे छे -'नवर' ओगाहणा जहण्णेण अगुलस असंखेन्जइभाग" मडिया न्य स नात! मना मध्यातमा माग प्रभानी छे, म 'उकोसेण तिन्नि गाउयाह'
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३७ अ. श.१ कृ.कृ.त्रीन्द्रियजीवोत्पातः तयः । 'ठिई जहन्नेणं एक्कं समयं स्थितिर्जघन्येन एकसमयममाणा 'उक्कोसेणं एग्णवन्नं राइदियाई उत्कर्षेण एकोनपश्चाशत् रात्रि दिवानि, 'सेस तदेव' शेष मरगाहनास्थित्यतिरिक्त सर्व द्वीन्द्रियशतदेव त्रीन्द्रियशतकेऽपि ज्ञातव्यम् 'सेच भंते ! सेवं भंते ! ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।।
॥ इति श्रीन्द्रियमहायुग्वशतानि समाप्तानि ॥३७-१२॥
॥ सप्तत्रिंशत्तमं शतकं समाप्तम् ॥३७॥ उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोश की है । 'ठिई जहन्नेग एक्कं समय' एगूणवन्न राइ दियाई" तथा स्थिति जघन्य ले एक समय की है और उत्कृष्ट ४९दिक रातकी है। 'सेसं तहेव' अवगाहना एवं स्थिति से अतिरिक्त और उपपात आदि का कथन द्वीन्द्रिय शतक के जैसा ही है 'सेव भंते ! लेव भते! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह लब सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥३७ वां शतक समाप्त॥
SYouथी समाना त्रय गानी छ, 'ठिई जहण्णेण एक्क समय उक्कोसेण एगूणवन्न राईदियाइ' तथा स्थिति धन्यथा ये समयनी छ, भने अष्टथा ४८ सागपन्यास हिसरातनी डर छे. 'सेर तहेव' अवगाहना मनस्थितिना કથન શિવાય બાકીના ઉપપાત વિગેરે સંબંધી કથન બે ઈન્દ્રિયવાળા જીના શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે જ છે
_ 'सेव भते ! सेव भते ! त्ति' है मापन २५ देवानुप्रिये ॥ त्रय ઈન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આ૫ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમ ન થયા સૂ૦૧
સાડત્રીસમું શતક સમાપ્ત ૩ણા
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भगवतीस
___'अह अद्वतीसइमं चउरिदियसयं' मूलम्-च उरिदिएहि वि एवं चेव बारससया कायव्वा, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्ल असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं। ठिई जहन्नेणं एक समयं, उक्कोलेणं छम्मासा, सेसं जहा बेंदियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति
चउरिदियमहाजुम्मसया समत्ता ॥३८-१२॥
अहतीसइमं सयं समत्तं ॥३८॥ छाया--चतुरिन्द्रियैरपि एवमेव द्वादशशतानि कर्तव्यानि, नवरम्-अबगाहना जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय भागम् , उत्कर्षेण चतस्रो गव्यूतयः स्थितिजघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण पण्मासाः, शेष यथा द्वीन्द्रियाणाम् , तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।।
चतुरिन्द्रिय महायुग्मशतानि समाप्तानि ॥३८-१२॥
अष्टत्रिंशत्तमं शतं समाप्तम् ॥३८॥ टीका-'चउरिदिएहि वि एवंचेव वारससया कायबा' पञ्चत्रिंशत्तमशतगतैकेन्द्रिय शतवन चतुरिन्द्रियैरपि एवमेव द्वादशशतानि कर्तव्यानि । औधिक कृतयुग्मकृतयुग्म चरिन्द्रियादारभ्य चरमाचरम कृतयुग्मकृतयुग्म चतुरिन्द्रियपर्यन्तमेकादशोदेशकगर्मितानि प्रत्येकम् औधिक-कृष्णनीलकापोतलेश्या घटितानि चत्वारि शतानि
शतक ३८ वा चौइन्द्रिय शत टीकार्थ-चौइन्द्रिय जीवों के साथ भी ३५ वे शतक में वर्णित एकेन्द्रिय शतके जैसे १२ शतक कर्तव्य हैं । औधिक कृतयुग्मकृतयुग्म चौइन्द्रिय से लेकर चरमाचरम कृतयुग्म कृतयुग्म चौहन्द्रिय तक के ११ उद्देशकों से युक्त औधिक शत, कृष्णलेश्या घटित शतक, नील
આડત્રીસમા શતકનો પ્રારંભ– ટીકાઈ–ચાર ઈન્દ્રિયવાળા ના સંબંધમાં પણ ૩૫ પંત્રીસમાં શતકમાં વર્ણવેલ એકેન્દ્રિય જીવેના શતકે પ્રમાણેના ૧૨ બાર શતકે કહેવા જોઈએ. ઓધિક કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મથી લઈને ચરમ-અચરમ કૃતયુગ્ય કૃતયુમ ચાર ઇન્દ્રિયવાળા સુધીમાં ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓથી યુક્ત ઔઘિક શતક, કૃષ્ણલેશ્યવાળું શતક, નીલેશ્યાથી યુક્ત, શતક, કાપોતિક લેશ્યાયુક્ત શતક
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प्रमेन्द्रका टीका श०३८ कृ.कृ. चतुरिन्द्रियजीवोत्पातः
एवमेव भवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि तथा अभवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि चेति, सर्वसंकलितानि चतुरिन्द्रियैरपि कर्त्तव्यानीतिभावः । अत्र यद वैलक्षण्यं तदाह - 'नवरं' इत्यादि, नवर केवलं विशेषस्त्वयम् यत् एषां चतुरि न्द्रियाणाम् 'ओशाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं' अवगाहना जघन्ये नांगुळस्यासंख्येयभागममिता, 'उकोसेणं चत्तारि गाउयाई' उत्कर्षेण चतस्रो गव्यूतयः, इति चतुर्गव्यूति प्रमिता चतुःक्रोशप्रमाणा उत्कर्षेण वाराचतुरिन्द्रियाणामवगाहना प्रोक्तेति भावः । एषां 'ठिई जहन्नेणं एकं समयं ' स्थितिज घ न्येन एकं समयं यावत्, 'उक्को सेणं छम्मासा' उत्कर्षेण स्थिति षण्णासान् यावत् एतदेव वैलक्षण्यम्, 'सेसं जहा वे दियाणं' शेषम् - अवगाहना स्थिव्यतिरिक्त सर्व daar घटितशत, कापणेतलेल्या घटिन रात, अवसिद्विक घटेन चार शतक और भभवसिद्धिक घटिन चार शतक इस प्रकार से सब शतक १२ हो जाते हैं । ये १२ शत चौइन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में हैं। पूर्व शतक की अपेक्षा जो यहाँ अन्तर आता है उसे 'श्रोगाहणा जहन्ने अगुलस्त असंखेजा भाग उक्कोसेणं' चत्तारि गाउयाह" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है - यहां जघन्य से अवगाहनाशरीर की ऊचाई अंगुल के असंख्यात में भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से चार कोश की है । ' एवं ' ठिई जहनेणं एक्कं समयं उक्को सेण छम्मासा' इनकी जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट स्थिति छहमास की है । 'सेस जहा वेइंदियाण' अवगाहना और स्थिति के अतिरिक्त और सब कथन जेसा दो इन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कहा
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ભવસિદ્ધિકવાળા ચાર શતક અને અભવસિદ્ધિવાળા ચાર શતકા આ રીતે સઘળા મળીને ૧૨ ખાર શતકા થઇ જાય છે. આ ખાર શતકા ચાર ઇન્દ્રિય જીવાના સ ખ ધમાં કહેલ છે. પહેલા શતકના કથન કરતાં આ કથનમાં જે अ ंतर आवे छे, ते 'ओगाहणा जहणेणं' अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग, उनकोसे चत्तारि गाउयाइ' मा सूत्रद्वारा प्रगट रेस छे. मडियां धन्यथी अवगाहना શરીરની ઉચાઈ આંગળના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણવાળી છે અને ઉત્કૃષ્ટ अवगाÈना थारगाउँनी आहेत हे. 'एसो ठिई जहणेणं एकं समयं उक्कोसेण छम्मासा' आमनी धन्य स्थिति थे! समयनी भने उत्कृष्टथी स्थिति छ भासनी ही छे, 'सेस' जहा वेई दियाण' अवगाहना भने स्थितिना स्थन કરતાં ખાકીત્તુ સઘળું કથન એ ઈન્દ્રિયવાળા જીયેાના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તેજ પ્રમાણેનુ' છે
भ० ७८
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भगवतीसरे यथा द्वीन्द्रिीयाणां तथा वाच्यम् । 'सेव भंते ! सेवं भंते । ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ इति श्री-विश्वविख्यातनगद्वल्लभाविपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबातिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां ___व्याख्यायां चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतानि समाप्तानि ।।३८-१२।।
___ अष्टत्रिंशत्तमशतं समाप्तम् ॥३८॥ है वेसा ही है 'सेच भंते ! सेवं ते ! त्ति' हे भदन्त आपका यह सय कथन सर्वथा लत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमाल हो गये।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके अडतीसवें शतक का चौइन्द्रिय महायुग्म शत लमाप्त ॥३८-१२॥
३८ वां शतक समाप्त । 'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरई मशवन् सायनु मा विषय સંબંધમાં કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ાા જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની
પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના આડત્રીસમા શતકનું મહાયુમ શતક સમાપ્ત .૩૮-૧૨ા
આડત્રીસમું શતક સમાંતા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३९ के.क असंक्षिपञ्चेन्द्रियजीवोत्पातः
'अह एग्रणयालीसइमं सयं' भूलम्-कडजुम्मकडजुम्ल असन्नि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति जहा बेंदियाणं तहेव असन्निसु वि वारससया कायव्वा । नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणलहस्तं । संचिटणा जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं पुधकोडीपुहुत्तं । ठिई जहन्नेणं एकं समयं उक्कोलेणं पुव्वकोडी, सेसं जहा बेदियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ असन्निपंचिंदियमहाजुस्मसया समत्ता ॥३९-१२॥
एगूणयालीलइमं लयं समत्तं ॥३९॥ छाया---कृतयुग्मकृतयुग्मासंक्षिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? यथा द्वीन्द्रियाणां तथैवासं शिवपि द्वादशशतानि कर्तव्यानि । नवरमवगाहना जघन्येनांशुल यासंख्येयभागम् , उन्हर्षेण योजनसहनम् , संस्थितिः कायस्थितिजघन्येनैकं समयम् उत्कर्षेण पूर्वकोटिः। शेष यथा द्वीन्द्रियाणाम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ||
असंज्ञिपञ्चन्द्रिय महायुग्मशतानि समातानि ॥३९-१२॥
एकोनचत्वारिंशत्तमं शतकं समाप्तम् ॥३९॥ टीका--'कडजुम्मकडजुम्ल अप्सन्नि पंचिदियाणं भंते ! को उज्जति कृतयुग्मकृतयुग्माऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्ना,
३९ वां शतक 'कडजुम्म कडजुम्म अलनि पंचिंदियाण भंते इत्यादि सूत्र १॥
टीकार्थ-हे भदन्त! कुनयुग्मन युग्म राशिप्रमित असंजीपञ्चन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकार के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते
ઓગણચાલીસમા શતકને પ્રારંભ–– 'कड़जुम्म कडजुम्म असन्ति पचिंदियाण मंते ! त्यात
હે ભગવદ્ કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણુવાળા અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય છે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૈરયિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા તિર્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા
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भगवती सूत्रे
उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण - 'जहा' इत्यादि, 'जहा वेदियाणं तत्र असन्निसुवि बारससया कायन्त्रा' यथा द्वीन्द्रियाणां द्वादशशतानि कथितानि तथैवासंज्ञिBaf द्वादशशतानि कर्त्तव्यानि । प्रत्येकस्मिन् शते एकादश एकादशोदेशका, अपि वक्तव्याः । द्वीन्द्रियापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह - 'नवरं' इत्यादिना 'नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुळस्स असंखेज्जइभागं' नवरं केवलं वैलक्षण्यं द्वीन्द्रियशतापेक्षया इदमेव यत् शरीरावगाहना चतुरिन्द्रियाणां जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभागममाणा 'उकोसेणं जोयणसहस्से' उत्कर्षेण योजनसहस्रम् | 'संचिडणा जहनेणं एक' समर्थ' 'संचिणा' कालतः कार्यस्थिति जघन्येन एकसमयममाणा
हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर - के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी से कहते हैं- 'जहा वेह दियाण तहेव असन्निषु वि वारस सवा कायन्त्रा' हे गौतम ! जिस रीति से दीन्द्रिय जीवो के १२ शतक कहे गये हैं उसी रीति से असंनी जीवों के भी १२ शतक कहलेना चाहिये और प्रत्येक शतक में ११-११ उद्देशक भी कहना चाहिये । दीन्द्रिय की अपेक्षा जो यहां अन्तर है वह 'नवर' ओगाहणा जहन्ने' अंगुलस्ल असंखेजहभाग, उक्कोसेण जोयणसहस्स' इस सूत्रद्वारा किया गया है - यहां जधन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यात वें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की है । 'संचिणा जहन्नेणं' एकं समयं' काल की अपेक्षा कायस्थिति रूप संचि
મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પત્ન થાય છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री गौतमस्वाभीने छे - "जहा बेइ दिया तब असन्निसु वि बारससया कायच्या' हे गौतम! ? प्रभा मे ઇન્દ્રિયવાળા જીવાના સબંધમાં ૧૨ બાર શતકા કહેલ છે, એજ પ્રમાણે આ અસ'ની જીવેાના સખ`ધમાં પણ ૧૨ શતકા કહી લેવા અને દરેક શતકમાં ૧૧-૧૧ અગિયાર-અગિયાર ઉદ્દેશાએ પણ કહી લેવા. એ ઈન્દ્રિયવાળા જીવા करतां या उथनमां ने अतर छे, ते 'नवर' ओगाहणा जहणेण' अंगुलरस असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्स' मा सूत्रपाठ द्वारा प्रगट ४२वामां आवेस છે. અહિયાં જધન્ય અવગાહના આંગળના અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ છે અને उत्कृष्ट शोउडलर योजननी उडेल छे. 'स'चिट्ठणा जहणेण एक्क' समयं ' उक्कोसेण' अजनी मपक्षाथी अयस्थिति ३५ सहि धन्य मे सभय
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प्रमेन्द्रका ठीका २०३९ कृ.कृ. असंक्षिपञ्चेन्द्रिय जीवोत्पातः
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समयानन्तर संख्यान्तरसद्भावात् 'उकोसेणं पुचकोडीपुहुत्तं' उत्कर्षेण पूर्वकोटि पृथक्त्वं द्वि पूर्वकोटित आरभ्य नव पूर्वकोटिपर्यन्तमित्यर्थः । 'ठिई जहन्ने एक्क समयं ' स्थितिरायुषः जघन्येनैकसमयममाणा समयानन्तरं भवान्तरसद्भावात् 'उक्को सेणं पुचकोडी, उत्कर्षेण पूर्वकोटि: । 'सेसं जहां वे दिया "" शेषम् अवगाहना स्थित्यतिरिक्तं यथा द्वीन्द्रियाणां कथितं तथैव ज्ञेयमिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ॥ हपसंज्ञिषञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि समाप्तानि ॥ ३९-१२। | एकोनचत्वारिंशत्तमं शतकं समाप्तम् ||३९||
णा जघन्य से एक समय प्रमाण और 'उक्को सेणं' उत्कृष्ट से 'पुव्वकोडी पुहुत्त' पूर्वकोटि पृथक्त्व है। अर्थात् दो पूर्वकोटि से लेकर नौ पूर्व कोटि तक है । 'ठिई जहन्ने एक्कं समयं उक्कोसेण पुन्यकोडी' इनके आयुष्य की स्थिति जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ठ से एक पूर्व कोटि की है । 'सेस' जहा बेह दियाण" इस प्रकार अवगाहना और स्थिति इन दोनों भिन्नताओं के अतिरिक्त और सब कथन द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में जैसा कहा गया है वैसा ही है 'सेव' भंते । सेव' भंते! त्ति' हे भदन्त ! आपने जो यह कथन किया है । वह सब सर्वथा सत्य ही है २ | इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । ॥ असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय शत समाप्त ३९ वां शतक समाप्त।
प्रभाणु भने उहृष्टथी 'पुव्त्रकोडी पुढत्तं' पूर्व अटि पृथव छे. अर्थात् पूर्व डोटीथी सर्धने नव पूर्व अटि सुधी उडेल छे. 'ठिई जहणेणं' एक्क' समय' उक्कोसेण' पुव्वकोडी' स्थिति आयुष्य अर्मनी स्थिति भधन्यथी शो सभयनी सने उत्कृष्ट ! पूर्व अटिनी छे. 'सेव जहा वेइ दियाण" मा रीते भवगार्डना અને સ્થિતિ આ એ વિષયના ભિન્નપા શિવાય માઠીનુ' સઘળુ કથન એ ઇન્દ્રિયવાળા જીવેાના સબધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ अभाषेनु छे, तेभ समवु.
'सेव' भ'वे ! सेव' भते ! त्ति' हे भगवन् आये या विषयभां ने धन કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય છે. ૨ આ પ્રમાણે કડીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યો વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તપ અને સયમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયુા. ॥सू०॥
અસ`ત્તિ ૫ ચેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત ઓગણચાળીસમું શતક સમાપ્ત ૫૩૯૫
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६२२
भगवती
'अह चत्तालीसइमं सय'
मूलम् - कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिंदियाणं भंते । कओ उववज्जंति ? उबवाओ उसु वि गइसु । संखेज्ज वासाउय असंखेज्जवासाउय पज्जत्तअपज्जत्तएसु य न कओ वि पडिसहो जाव अणुत्तरविमाणन्ति । परिमाणं अवहारो ओगाहणा य जहा असन्निपंचिंदियाणं । वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं कम्म - पगडीणं बंधगावा, अबंधगा वा, वेयणिज्जस्स बंधगा नो अबंधगा। मोहणिज्जस्स वेदगा वा, अवेद्गा वा, सेसाणं सत्तयह वि वेदगा नो अवेदगा । सयावेयगा वा असायावेयगा वा मोहणिज्जस्त उदई वा अणुदई वा सेसाणं सत्तण्ह वि उदई तो अणुदई । नामस्स गोयल य उदीरगा नो अणुदीरगा वा, कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा, सम्मदिट्ठी वा मिच्छादिट्टी वा सम्मामिच्छादिट्टी वा । जाणी वा अन्नाणी वा, मणजोगी वयजोगी काय जोगी, उवओगो वन्नमाई, उसासगा वा नीसासगावा, आहारगा य जहा एगिंदियाणं, विरयाय अविरयाय विरयाविरयाय । सकिरिया नो अकिरिया । ते भंते! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अटूविहवंधगा वा, छव्विह बंधगा वा एगविहवधगा वा ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा, जाव एगविहबंधगा वा । ते णं भंते! जीवा किं आहारसन्नोवडत्ता वा जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता वा नो सन्नोवउत्ता वा, गोयमा ! आहारसन्नोवउसा जाव नो सन्नोवडत्ता वा । सवत्थ पुच्छा भाणियव्वा कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा अकसाइ था । इत्थियेगा वा पुरिसवेयगा वा नपुंसगवेयगा वा अवेद्गा षा । इत्थियगावा, पुरिसवेयबंधगा वा, णपुंसगवेयबंधगा
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hrefद्रका टीका श०४० अ श. १-१२ कृ. कृ. संक्षिपञ्चेन्द्रियजीवोत्पात' ६२३ वा अबंधगा वा । सन्नी नो असन्नी । सइंदिया जो अनिंदिया | संचिट्टणा जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं सागरोवमलयपुहुत्तं सातिरेगं । आहारो तहेव जाव नियमं छद्दिसिं । ठिई जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवम इं । छ समुग्धाया आदिलगा | मारणांतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति असमोया विमति । उव्वणा जहेव उवत्राओ न कत्थइ पडिसेहो जात्र अणुत्तरविमाणन्ति । अह भंते! सव्व पाणा जाव अनंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव अनंतखुत्तो । नवरं परिमाणं जहा बेंदियाणं सेसं तहेव । सेवं भंते ! २ ति ॥ ४० - १॥
पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपचिदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति ? उववाओ, परिमाणं, आहारो, जहा एएसिं चैव पढमुद्देसए । ओगाहणा बंधो वेदो वेयणा उदयी उदीरगा य जहा बेंदियाणं पढससमयाणं तव । कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा । सेसं जहा बेंदियाणं पढमस्याणं जाव अणंतखुत्तो | नवरं इत्थवेयगा वा पुरिसवेयगा वा नपुंसगवेयगा वा, सन्नी णो असन्नीणो से तहेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्वं । सेवं भंते ! सेवं संते ! ति ॥ ४०९ ॥
एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देगा तहेव । पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अटू वि सरिसगमा । चउत्थ छट्ट अट्टम समेसु नत्थि विसेसो कायच्वो । सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ चत्तालीसइमे सए पदमं सन्निपंचिदिय महाजुम्मसयं समत्तं ॥४०-१२ ॥
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भगवती सूत्रे
छाया -- कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पञ्चेन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यते ? उपपातचतसृभ्योऽपि गतिभ्यः । संख्येयवर्षायुष्का संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्तापर्याप्तकेभ्यश्च न कुनोऽपि प्रतिषेधो यावदनुत्तरविमानमिति परिमाणमपहारोऽवगाहना च यथा असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् । वेदनीयवजनां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां वन्धका वा अवन्धका वा वेदनीयस्य वन्धका नो अवन्धकाः । मोहनीयस्य वेदका वा अवेदका वा शेषाणां सप्तानामपि वेदका नो अवेदकाः । सातावेदका वा असातावेदका वा मोहनीयस्योदयिनो वा. अनुदयिनो वा, शेषाणां सप्तानामपि उदयिनो नो अनुद यिनः । नाम्नो गोत्रस्य चोदीरका नो अनुदीरकाः शेपाणां पण्णामपि उदीरका अनुदीरका वा । कृष्णलेश्या वा यावत् शुक्ललेश्या वा । सम्यग्दृष्यो वा मिथ्या दृष्टयो वा, सम्यग् मिध्यादृष्टयो वा । ज्ञानिनो वा अज्ञानिनो वा, मोनोयोगिनो वा वचोयोगिनः काययोगिनः । उपयोगो वर्णादिः, उच्छवासका वा निश्वासका वा आहार काश्च यथा एकेन्द्रियाणाम् । विरताश्चाविरताथ विरताविरताथ | सक्रिया नो अक्रिया । ते खलु मदन्त | जीनाः किं सप्ताविधवन्धका वा अष्टवि धवन्धका वा पवित्रन्धका वा ? गौतम ! सप्तविधयन्धका वा यावत् एकविधबन्धका वा । ते खलु भदन्त ! जीवाः किमाहारसज्ञोपयुक्ता यावत् परिग्रह सोपयुक्ता वा नो सब्ज्ञोपयुक्ता वा, गौतम ! आहारसंज्ञोपयुक्ता यावत् नो संज्ञो पयुक्ता वा सर्वत्र पृच्छा भणितव्या, क्रोधकपायिनो वा यावत लोभपाययिनो वा अकपायिनो वा । स्त्रीवेदका वा पुरुषवेदका वा नपुंसकवेदका वा अवेदका वा । स्त्रीवेदवन्धका पुरुषवेदवन्धका वा नपुंसक वेदवन्धका वा अवन्धका वा । संज्ञिनः, नो असंज्ञिनः । सेन्द्रिया नो अनिन्द्रियाः । संस्थितिः जघन्येनैकं समयमुत्कर्पेण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् । आहारस्तथैव यावत् नियमतः पदिशि । स्थितिर्जयन्येने के समय कर्येण त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि । पट् समुद्घाता आदिका मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि म्रियन्ते । असमता अपि म्रियन्ते । उद्वर्तना यथैवोपपातः न कुत्रापि प्रतिषेधो यावदनुत्तरविमानमिति । अथ मदन्त | सर्वे प्राणा यावदनन्त कृत्वः । एवं पोडशस्त्रपि युग्मेषु भणितव्यं यावदनन्तकृत्वः नवरं परिमाणं यथा द्वीन्द्रियाणाम् शेषं तथैव । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति । ४० १ |
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प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते उपपातः परिमाणमाहारो यथा एतेपामेव प्रथमोद्देशके । अवगाहना बन्धो वेदो वेदना उदयिन उदीरकाच यथा द्वीन्द्रियाणां प्रथमसमयानाम् । तथैव कृष्णलेश्या वा यावत् शुक्ललेश्या वा । शेषं यथा द्वीन्द्रियाणां यावदनन्तकृत्वः । नवरं स्त्रीवेदका वा पुरुषवेदका वा नपुंसकवेदका वा संज्ञिनोऽसंज्ञिनः । शेषं तथैव । एवं षोडशस्वपि युग्मेषु परिमाणं तथैव सर्वम् तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
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shreन्द्रिका टीका श०४० अ. श. १ कृ कृ. संनिपञ्चेन्द्रियोत्पातः
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एवमत्रापि एकादशोदेशकास्तथैव मथमातृतीयः पञ्चमश्च सदृशगमाः शेषा अष्टावपि सदृशगमाः । चतुर्थपष्ठाष्टमदशमेषु नास्ति विशेषः कर्त्तव्यः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ॥
॥ चत्वारिंशच में शतके प्रथमं संज्ञिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतम् समाप्तम् ॥४०-१-१२॥ टीकार्थ- कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिदियाणं ते! कभी उबवज्जंति' कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पञ्चेन्द्रियाः खलु मदन्द ! कुत आगत्योत्पद्यन्ते इत्यादि, उत्तरमाहउनवाओ' इत्यादि, ' उनवाओ चउसु वि गईसु' उपवाहचतसृभ्योऽपि गतिभ्यः, अत्र सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी, हे गौतम! त इमे कुरुयुग्मकल्युग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवाः नरकेभ्योऽपि आगत्य एतादृशञ्चेन्द्रियतया उत्पद्यन्ते विग्भ्यो वा आगत्य मनुष्येभ्यो वा आगत्य देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पन्ते इति भावः । 'संखेज्जवासाउय असंज्जवासाउय पज्जत अपज्जत्तएसु न कभी वि पडिसेहो जाव अणुत्तरचानक ४०
'कडजुम्मकडजुम्म सनि पंचिदिवाण मते ! कओ उवज्जति' इ.
टीकार्थ - हे भदन्त ! कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञी पंश्चेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकर के उपन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन होते है ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'उबचाओ कि गहलु' हे गौतम! कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण लेपिचेन्द्रियजीव नैरमिकों में से आकर के उत्पन्न होते है । तिर्यग्योनिको में से आकर के उत्पन्न होते हैं । मनुष्यों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं और देवों में से कर के ચાળીસમા શતકના પ્રારભ—
'कडजुम्मकडजुम्ममस निपचिदियाण' भंते ! कभी उववज्जति' इत्याहि ટીકા-હે ભગવન્ કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સન્નીપ ́ચેન્દ્રિયજીવ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શુ તેઓ નૈરિયેકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? કે તિય ‘ચ ચેાનિકૈામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યે માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી हे छे है – 'उबवाओ चउसु वि गइसु' हे गौतम! मृतयुग्भ कृतयुग्म शशिवाजा સજ્ઞી ૫ ચેન્દ્રિય જીવે નૈયિકામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે તિયચ ચેનિકામાથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે, મનુષ્યે'માંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન थाय छे भने देवमांथी भावीने पशु उत्पन्न थाय छे 'सखेज्जवासाज्य असं खेज्जवासाउय पज्जच अपज्जतमु य न कभी वि पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाणति'
भ० ७९
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भगवती सूत्रे
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विमाण ति' संख्येययर्पायुष्का संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्तकापर्याकेभ्यो न कुतोऽपि प्रतिषेधो यावदनुत्तर विमानादिति, संख्यातवर्षायुष्केभ्योऽपि आगत्या संख्यातवर्षायुकेभ्योऽपि आगत्य पर्याप्तदेभ्यो वा आगत्य अपर्याप्तकेभ्यो वा आगत्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियतया जीवानां सम्यादः संमत न कुतोऽपि निषेधो विद्यते, नरकादारभ्य यावददुत्तर विमानपर्यन्तरधानेभ्यः समुत्पद्यन्ते संज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति भाव: । 'परिमाणं अवहारी ओगाहणा य जा - अमनिपचिदियाणं' परिमाणमपहारोऽवगाहनाच यथा असंजिपञ्चेन्द्रियाणां कथितास्तथैव परिमाणं तावत् षोडश वा संख्याता वा असंख्याता वा । शरीरावगाहना जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभागयमाणा उत्कर्षेण योजना सहस्रप्रमाणा च भवतीति, 'वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं भी उत्पन्न होते हैं । 'संखेज्जन्यासाउय असंखेजवासाउथ पजत्त अपनलसुन कभोलि पडिसेहो जाव अणुत्तरविद्यापत्ति' संख्यात वर्षकी आयुवालों में से आकर के उत्पन्न होते हैं असंख्यातवर्ष की आयुबालों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं । पर्याप्तों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं अपर्याप्तों में से भी आकर के भी उत्पन्न होते हैं । संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव रूप से उत्पाद होने का निषेध किसी भी अवस्था से नहीं हैं । नरक से घावत् अनुत्तरविमान तक के जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव से उत्पन्न होते हैं ।
'परिमाण' अवहारो ओगाहणा य जहा अनि पंचिदियाण " परिमाण, अपहार और अवगाहना के सम्बन्ध में जैसा असंज्ञि पञ्चेन्द्रियों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के परिमाण सोलह संख्यात अथवा असंख्यात સખ્યાત વષઁની આયુષ્યવાળાએમાંથી આવીને પશુ ઉત્પન્ન થાય છે. અસંખ્યાત વર્ષ ની આયુષ્યવાળા એમાંથી પણ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, પામોમાંથી આવીને પશુ ઉત્પન્ન થાય છે. અપર્યાપ્તામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. સંજ્ઞીપ ંચેન્દ્રિયજીવપણાથી ઉત્પાદ થવાના કાઈપણ અવસ્થામાં નિષેધ નથી. નરકથી લઈને યાવત્ અનુત્તર વિમાન સુધીના જીવે દેવ સંજ્ઞી પચેન્દ્રિય જીવ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. 'परिमाण' अवहारो ओंगाणा य जहा असन्निप चिंदियाण" परिभाष, અપહાર અને અવગાહના ના સંબંધમાં જે રીતે અસ'ની પચેન્દ્રિયેના સબંધમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન સમજવું. આ રીતના કથનથી. વ્યુત્ક્રાંતિપદ ના અતિદેશથી અસ’સી પંચેન્દ્રિય જીવેાના પરિમાણુ કથન પ્રમાણે સજ્ઞી જીવાનું પરિમાણુ સેાળ, અથવા સખ્યાત અથવા અસ′ખ્યાત આવે છે. તેના શરીરની
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प्रमेयचन्ष्ट्रिका जीका श०४० अ. श १ कृ. कृ. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पात ६२७ पगडीणं बंधगा चा अबंधगावा' वेदनीयवर्णानां सप्तानां कर्मप्रकृतिनां वन्धका था अबंधका वा वेदनीयस्य कर्मणो बन्धप्रकारं विशेषरूपेण कथयिष्यतीति कृत्वा वेदनीयवीनामित्युक्तम्, तत्र चोपशांतमोहाः क्षीणमोहाश्च सप्तानां प्रकृतीनामबन्धका एव, तइतिरिक्तास्तु यथासम्भवं वन्धका भवन्ति । 'वेयणिज्जस्स बंधगा नो अबंधगा' वेदनीयस्य कर्मणः सर्वे बन्धका एव भवन्ति न तु अबन्धकाः केव लित्वप्राप्तिपूर्व सर्वेऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति, ते च वेदनीयकर्मणो बन्धका एव भवन्ति नत्वबन्धका इति भावः । 'मोहणिज्जरस वेदगा वा अवेदगा वा, मोहनीयस्य कर्मणः संज्ञिपञ्चन्द्रिया वेदका वा अवेदका वा भवन्ति, तत्र मोहनीयस्य कर्मणो वेदकाः सूक्ष्म संपरायान्ता भनन्ति, अवेदकास्तु उपशान्तमोहार क्षीणमोहा आता है । इनके शरीर की अवगाहना जधन्य से अंशुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आती है और उत्कृष्ट से एक हजार योजन प्रमाण आती है । 'वेषणिज जाण सत्तहं पगडीणं बंधमाबा अबंधगाथा' वेदनीय कर्म को छोड़कर ये सात प्रकार की कर्मप्रकृतियो के बन्धक होते हैं
और अपन्ध ही होते हैं। इन में उपशान्त मोहयाले जीव और क्षीण मोहयाले जीव सात कर्मप्रकृलियों के अपन्धक ही होते हैं बाकी के जीव यथासंभव बन्धक होते हैं। 'वेधणिज्जास बंधना नो अबंधगा' केलि. पद की प्राप्ति के पहिले समस्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव वेदनीय कर्म के बन्धक ही होते हैं । अवन्धक नहीं होते हैं। मोहणिज्जस्ल वेदगा वा अवेदगा बा' संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव लोहनीय कर्म के वेदक भी होते हैं और अवेदक भी होते हैं । सक्षम लंपराय तक के समस्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव मोहनीय कर्म के वेदक ही होते हैं । उपशान्त गुणस्थानवी અવગાહના જઘન્યથી આગળના અખાતમાં ભાગ પ્રમાણ આવે છે, અને
थी मे १२ यान प्रमाण मावे छे. 'वेयणिज्जवजाण सत्तण्ड पगडीण' व धगा वा प्रबंधगा वा' हनीय भने छोडी तसा सात प्रति.
નો બંધ કરે છે, અને અબ ધક પણ હોય છે. તેમાં ઉપશાંત મોહવાળા જીવો અને ક્ષીણ એહવાળા છ સાત કર્મપ્રકૃતિના અબંધક હોય છે, भाधीन छ। यथास मा ४ हाय छे. 'वेयणिज्जस वंधगा नो अबधगा' કેવલિ પદની પ્રાપ્તિ પહેલા સઘળા સણી પંચેન્દ્રિય જી વેદનીય કર્મના भार हाय छ. ५५ हाता नथी. 'मोहणिज्जस्स वेदगा वा अवेदगा ઘાર સી પચેન્દ્રિય જી મેહનીય કર્મના વેદક પણ હોય છે, અને અવેદક પણ હોય છે, સૂમ સં૫રાય સુધીના સઘળા સંસી પચેન્દ્રિય જીવ મેહનીય
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भगवतीस्त्रे श्व भवन्तीति । 'सेसाणं सत्तण्हवि वेदगा नो अवेदगा' शेषाणां सप्तानामपि कर्मणां मोहनीयव्यतिरिक्तानां संज्ञिपञ्चन्द्रिया वेदका एव भवन्ति नो अवेदका भवन्ति, उपशान्तमपि मोहादयः संज्ञिपश्चन्द्रियास्ते मोहनीय व्यतिरिक्तानां सप्तानामपि कर्मणां वेदका एवं नो अवेदका भवन्ति । यद्यपि केवलिनश्चतसृणामघाति कर्मप्रकृतिनां वेदका भवन्ति तथापि केवलिन इन्द्रियव्यापारातीतत्वात न पञ्चन्द्रिया इति कथ्यन्ते, इति भावः 'सायावेयगा वा असायावेयगा वा संझि. पश्चन्द्रिय जीवाः सातावेदका अपि असातावेदका अपि संक्षिपञ्चन्द्रियाणामेचं विधस्वरूपत्वादिति । 'मोहणिज्जस्य उदई वा अणुदई वा, संज्ञि पञ्चेन्द्रिया जीवा मोहनीयकर्मपकृते रुदयिको वा अनुदयिनो या भवन्ति, तत्र सूक्ष्म संपरायान्ताः संजीपञ्चेन्द्रिय जीव और क्षीण लोहवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव मोहनीय कर्म के वेदक नहीं होते हैं 'सेलाण सत्ताह वि वेद्गा नो अवेद्गा' बाकी के सात कर्मों के मोहनीय के सिवाय सातकमों के ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव वेदक होते हैं अवेदक नहीं होता है। यद्यपि केवली जीव चार अधातिया पार्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं तब भी केचली इन्द्रिय व्यापारातीत होने से पञ्चेन्द्रिय नहीं कहलाते हैं । 'लायावेदगा वा असाया वेदना का ये लंजी रश्शेन्द्रिय जीव साता के भी वेदक होते हैं और अहाता के भी बेदक कोते है। यों कि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों का ऐसा ही स्वभाव होता है । मोहणिज्जरल उदई वा अणुदई वा' ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीन मोहलीय कर्मप्रकृति के उद्यवाले भी होते हैं और अनुधवाले भी होते हैं । इनमें जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव सूक्ष्म કર્મનુ વેદન કરનારા જ હોય છે. ઉવાશ ત ગુણ સ્થાનમાં રહેવાવાળા સંસી પંચેન્દ્રિય જીવો અને ક્ષીણ મોહવાળી સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવ મેહનીય કર્મનું वहन ४२वापाडता नथी. 'सेसाण सत्तण्ड वि वेदगा नो अवेदगा माहीना સાત કર્મ પ્રકૃતિનુ મોહનીય કર્મ શિવાયની આ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવો વેદન કરવાવાળા હોય છે. જો કે કેવલી જીવો ચાર આઘાતિયા કર્મપ્રકૃતિનું વેદન કરવાવાળા હોય છે. તો પણ તે કેવલી ઇન્દ્રિયના વ્યાપારથી પર હોવાથી ५येन्द्रिय ४ाता नथी. 'सायावेदगावा असाया वेदगा वा' झी यन्द्रिय
શાતાનું પણ વેદન કરવાળા હોય છે, અને અસાતાનું પણ વેદન કરવાળા હોય છે. કેમ કે-સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવોને સ્વભાવ જ એ હોય छ, मोहिणिज्जस्म उदई वा अणुदई वा मा सज्ञी ५३न्द्रिय ७३ भानीय કર્મ પ્રકૃતિના ઉદયવાળા પણું હોય છે, અને અનુદયવાળા પણ હોય છે. આમાં
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trafer टीका श०४० अ. श. १ कृ. कृ. संज्ञिपञ्चेन्द्रियोत्पात
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संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः मोहनीय कर्मम कृतेरुदयिनो भवन्ति, उपशान्तमोहादयस्तु संज्ञिपञ्चेन्द्रिया अनुदयिनो भवन्तीति । ' सेसाणं सत्तण्ड वि उदई नो अनुदई' शेषाणां मोहनीयव्यतिरिक्तानां सर्वेषामपि कर्मणां संज्ञिपञ्चेन्द्रिया उदयिन एव भवन्ति न तु अनुदथिनो भवन्तीति । वेदनोदययोः को भेदः ? इत्याह-वेदकत्वमनुक्रमेणोदीरणाकरणेन च उद्यागतानां कर्मणामनुभवनम् उदयस्तु अनुक्रमागतानां कर्म प्रकृतीना मनुभवनमिति भेद इति । 'नामस्स गोयस्स य उदीरगा नो अणु दीरगा' नाम्नो गोत्रस्य च कर्मणः सर्वे संज्ञिपञ्चेन्द्रिया अपायान्ता उदीरका एव भवन्ति न तु अनुदीरका भवन्तीति । 'सेसाणं छह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा' शेषाणां नामगोत्रजनां पण्णामपि ज्ञानावरणीयादीनां यथासंभवम् उदीरका
संपराय गुणस्थान तक के हैं वे तो मोहनीय कर्म के उदयवाले होते हैं और उपशान्त मोहवाले हैं अथवा क्षीणमोहवाले हैं वे मोहनीय कर्म के उदयवाले नहीं होते हैं। 'सेसाण' सत्तण्ह' वि उदई नो अनुदई' मोहकर्म के सिवाय शेष सात कर्मप्रकृतियों के ये उदयवाले ही होते हैं अनुवाले नहीं होते । वेदना और उदय में क्या अन्तर है ? उत्तर - अनुक्रम से अथवा उदीरणा करण से उदय में आये हुए कर्मों का अनुभव करना सो वेदकता है और अनुक्रम से उदय में आये हुए कर्मों का अनुभवन करना वह उदय है । 'नामस्स गोघस्स य उदीरगाणो अणुदीरगा' ये समस्त संज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीव नामकर्म के और गोत्र कर्म के क्षीणमोह गुणस्थान तक उदीरक होते हैं अनुदीरक नहीं होते हैं । 'सा' छह वि उदीरणा वा अणुदीरगा वा' पाकी के छह कर्मप्रकृतियों के नामगोत्र को छोड़कर ज्ञानावरणीय आदि ६ कर्मप्रकृतियों के
જે સ`ગી પચેન્દ્રિય જીવો સૂમ સૌંપરાય ગુણુ સ્થાન સુધીના છે, તેઓ તે મેહનીય કમ ના ઉદયવાળા હાય છે. અને ઉપશાન્ત માહવાળા હાય છે. તેઓ मोहनीय मना उध्यवाजा होता नथी. 'सेसाणं' सत्तण्ह' वि उदई नो अणुदई ' માહનીય કમ શિવાય ખાડીની સાત કમપ્રકૃતિયાના તેએ ઉદયવાળા જ હાય છે, અનુયવાળા હાતા નથી. વેદન અને ઉદયમા શું અંતર છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-અનુક્રમથી અથવા ઉદીરણા કરણથી ઉદયમાં આવેલા કર્મોના અનુભવ કરવે તે વેદનપણું છે અને અનુકમથી ઉદયમા આવેલા કર્મના अनुभव Łश्व। ते दृय छे 'नामस्स गोयरस य उदीरगा णो अणुदीरगा' मा સઘળા જીવા નામ કના તથા ગેત્ર કર્માંના ક્ષીણુ મેહગુણુ સ્થાન સુધી ઉદ્વીરક
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भगवती सूत्रे
श्रानुदीराश्च भवन्ति । अयं क्रम. प्रमत्ताः सर्वेऽपि सामान्यतोऽष्टानामपि कर्मणासुदीरकाः आवलिका शेषायुष्कारतु तएत्र आयुर्वर्ज सप्तानामुदीरका भवन्ति, तथा यदा ते वेदनीय कर्मण उदीरणां न कुर्वन्ति तदा वेदनीययुर्वज शेष प कर्मणामुद्दीरका भवन्ति अगमनादि चतुर्गुणास्थानवर्तिनो वेदनीयायुर्वजनां षण्णामुदीरकाः तथा सूक्ष्मसंपरायाः आवलिकायां स्वाद्धायाः शेषायां मोहनीय वेदनीयायुर्वर्णानां पञ्चानामपि कर्मणामुदीरकाः उपशान्तमोहास्तु उक्तरूपाणां पञ्चानां कर्मणां मोहनीय वेदनीयायुष्कवर्जानामेव उदीरकाः, क्षीणकपायाः पुनः ये यथा संभव उदीरक भी होते हैं और अनुदीरक भी होते हैं । उदीरणा का क्रम इस प्रकार से है-प्रमत्त समस्त संज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीव सामाFor आठों ही कर्मप्रकृतियों के उदीरक होते हैं और जब इनकी आवलिमात्र आयुशेष रहती है तब ये आयु के सिवाय लात कर्मप्रकृतियों के उदीरक होते हैं । तथा जिस समय ये वेदनीय कर्म की भी उदीरणा न करते हों । उस समय ये वेदनीय और आयुष्क के सिवाय शेष छह कर्मों के उदीरक होने के कारण अप्रसन्त आदि गुणस्थान से वेदनीय और आयुष्य कर्म को छोड़कर छह कर्मप्रकृतियों के उदीरक होते हैं । तथा सूक्ष्म संपरायवाले संज्ञीपचेन्द्रिय जीव जब अपना अर्थात् सूक्ष्म संपराघ गुणस्थानका काल आचलिका मात्र बाकी रह जाता है तब वह मोहनीय वेदनीय और आयुष कर्म के सिवाय शेष पांच कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है । तथा उपशान्त मोहवाले संज्ञीपचेन्द्रिय जीव भी मोहनीय आदि तीन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों के ही उदीरक होते हैं । तथा क्षीण कषायवाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव जय
होय छे. मनुही २४ होता नथी. 'सेवा' छण्ह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा' ખાકીની છ`પ્રકૃતિને નામ ગેાત્રને છેાડીને જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે છ ક્રમ પ્રકૃતિચેના આ યથ સભવ-કૅમથી ઉદીરક પશુ હાય છે, અને ઉદીરણાના ક્રમ આ પ્રમાણેને છે.-પ્રમત્ત સુધીના સઘળા સજ્ઞી પચેન્દ્રિય જીવેા સામાન્ય રીતે આઠે કમ પ્રકૃતિચેના ઉદ્દીક હાય છે, અને જ્યારે તેમેની આવલિકા માત્રની આયુષ્ય ખાકી રહે ત્યારે તેએ આયુષ્ય શિવાય સાત કમ પ્રકૃતિયાના ઉદીરક હાય છે. અપ્રમત્ત વિગેરે ચાર વેદનીય અને આયુષ્ય કને છેડીને છ ક પ્રકૃતિયાના ઉદીરક હૈાય છે. તથા સૂક્ષ્મ સાંપરાયવાળા સ'ની પંચેન્દ્રિય જીવા જ્યારે પેાતાના કાળ આવલિકા માત્ર માકી રહે ત્યારે તે મેહનીય, ચંદ્રનીય અને આયુષ્ય ક્રમ શિવાય બાકીની પાંચ કમ પ્રકૃતિચેના ઉદ્દીરક હોય છે. તથા ઉપશાન્ત મેહનીયવાળા સન્નીપંચેન્દ્રિય જીવે પણ મેાહનીય વિગેરે ત્રણ કમ પ્રકૃતિચેાને છોડીને બાકીની પાંચ ક પ્રકૃતિચેાના જ ઉદીરક હાય છે,
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० म. श. १ कृ. कृ. संनिपञ्चेन्द्रियत्वात
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स्वादाया आवलिकायां शेपायां नाम - गोत्रयोरेव केवलमुढी रका भवन्ति योगिनोsपि केवलं नामगोत्रयोरेवोदीरका भवन्ति, अयोगिनस्तु अनुदीरका एव केवल भवन्तीति भावः । ' कण्हलेस्सा वा जाव सुकलेसा वा' संज्ञिएञ्चेन्द्रियाः कृष्णलेश्या वा भवन्ति यावत् शुक्ललेश्या वा भवन्ति, अत्र यावत्पदेन नीलकापोततेजः पद्मलेश्यानां संप्रहो भवति । तथाच कृष्ण लेना आग्भ्य यावन्छुक्लेश्यान्ता इसे पञ्चेन्द्रिया भवन्तीति भावः । 'सम्मदिट्टी वा मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठीवा' संक्षिपञ्चेन्द्रियाः सम्यग्दृष्टवा भवन्ति मिथ्य दृष्टवा भवन्ति सम्यग् मिथ्यादृष्टयो मिश्रदृष्टयो वा भवन्तीति । 'नाणी वा अन्नाणी वा ज्ञानिनो वा भवन्ति अज्ञानिनो वा भवन्ति संज्ञिपञ्चेन्द्रिया: । 'मणजोगी वयजोगी कायजोगी' मनोयोगिनो वा भवन्ति-वचोयोगिनो वा भवन्ति काययोगिनो वा क्षीणमह गुणस्थान का बाल एक आवलिका मात्र बाकी रहता है उस समय नामगोत्र इन दो कर्मों के ही उदीरक होते हैं । लयोनी जीव भी इन्ही दो कर्मों के उदीरक होते हैं । 'एवं अयरोगी जीव अनुदीरक होते हैं ।
'कण्हलेरसा वा जाव सुक्कलेस्ला वा' संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कृष्णलेश्यावाले यावत् शुक्ललेइयावाले होते हैं । यहां यावत्पद से कोष नील, कापोत, तेज, पद्म इन लेश्याओं का संग्रह हुआ है। तथा च ये संज्ञी - पञ्चेन्द्रिय जीव कृष्णलेश्या से लेकर शुक्लश्यावाले तक होते हैं । 'सम्मदिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा ये सम्प दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते है और मिश्रदृष्टि भी होते हैं । 'मणजोगी जोगी कायजोगी' मनोयोगवाले, वचनयोगवाले
તથા ક્ષીણુ કષાયવાળા સ'ની પચેન્દ્રિય જીવા જ્યારે પેાતાના કાળ એક આ લિકામાત્ર ખાકી રહે છે. ત્યારે નામગેાત્ર આ એ કર્મોના જ ઉદ્દીરક હાય છે, સયેાગી જીવ પણુ આજ એ કર્મોના ઉદ્દીરક હાય છે, અને અયાગી જીવે અનુીરક હાય છે.
'कहलेस्खा वा जात्र सुक्कलेस्सा वा' संज्ञी पयेन्द्रिय लवा ष्णुतेश्या વાળા યાવત્ શુકલલેશ્યાવાળા હાય છે. અહિયાં યાવપદથી બાકીની નીલ, કાપાત, તેજ, પદ્મ, આ લેસ્યાએના સંગ્રહ થયેલ છે. તથા માસ જ્ઞ। પચેન્દ્રિય लव कृष्णुलेश्याथी सई ने शुभ्ससेश्यावाणा सुधी होय हे 'सम्मदिट्ठी वा, मिच्छदिट्ठी वा सम्मामिच्छदिट्ठोवा' मा सभ्य हृष्टीदराजा भए होय छे, गने मिथ्यादृष्टिवाणा पशु होय छे भने भिश्रदृष्टीवाजा पशु होय हे 'नाणी वा अन्नाणी वा' तेथे ज्ञानी पाथ होय छे, मने अज्ञानी प होय छे, मणजोगी,
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દર
भगवती सूत्रे
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भवन्तीति । 'उनजोगो वन्नामाई उस्सासमा वा नीसासगा वा आहारगा वा जहा एगिदियाणं' उपयोगो वर्णादिः उच्छ्वासका वा निःश्वासका वा आहारकाथ यथा एकेन्द्रियाणाम् एकेन्द्रियवदेवोपयोगादयः पञ्चेन्द्रियाणामपि ज्ञातव्याः तत्र उपयोगो द्विविधोऽपि पश्चापि वर्णाः, द्वौ गन्धो, पञ्चपि रसाः, अष्टौ स्पर्शा भवन्ति उछ वासका वा भवन्ति निःश्वासका वा भवन्ति । आहारकाच भवन्ति यथा एकेन्द्रियाणां प्रकरणे तथा 'विरयाय अविश्याय विरया विरयाय' संज्ञिपञ्चेन्द्रिया विरताश्च भवन्ति अविरताथ भवन्ति । विरताविरताश्चापि भवन्तीति । 'सकिरिया नो अकिरिया ' सक्रिया भवन्ति पञ्चेन्द्रियाः, नो न तु अक्रिया भवन्ति । 'ते णं भंते! जीवा किं सत्तविधगा वा अविधा वा' से खलु भदन्त ! जीवाः संक्षिपञ्चेन्द्रियाः सप्त विधकर्मप्रकृतीनां वन्धका वा भवन्ति, अष्टविधकर्मप्रकृतीनां वन्धका वा भवन्ति 'छन्निहबंधगावा एगविह्नबंधगा' वा पविधकर्मपकृतीनां वन्धका वा एकविधकर्मऔर काययोगवाले होते हैं । 'उवजोगो, चन्नमाई, उस्सासमा वा नीस सगा वा आहारगा वा जहा एगिंदियाणं' ये दोनों प्रकार के उपयोगवाले होते हैं । पाँचो रसो वाले, दो गंधोवाले, पांचों वर्णों वाले और आठ प्रकार के स्पर्श वाले होते हैं । उच्छवासवाले निश्वासवाले होते हैं और आहारक होते हैं । इत्यादि जैसा एकेन्द्रिय के प्रकरण में कहा है वैसा ही समझलेना चाहिये । 'विरया य अविस्या य विरया विरया य' ये संज्ञी पंचेन्द्रिय विरत, अवरित एवं विरताविरत होते हैं। 'सकिरिया नो अकिरिया' क्रिया सहित होते हैं, अक्रिया-क्रिया रहित नहीं होते हैं । 'ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविह बंधगावा अट्ठविह
गावा' हे भदन्त ! ये जीव क्या सात प्रकार की कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं ? अथवा आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते
वयजोगी, कायजोगी' मनायेोगवाणा वयनयोगवाणा भने अययोगवाजा होय छे. 'उबजोगो वन्नमाई, उत्सासगा वा नीसांसमावा, आहारगावा जहा एगिदियाण " એકેન્દ્રિય જીવેાની જેમ તેએ બન્ને પ્રકારના ઉપચેાળવાળા હાય છે પાંચે પ્રકારના રસાવાળા હોય છે, એ ગધેાવાળા, પાંચવવાળા અને આઠ પ્રકારના સ્પર્શવાળા હાય છે. ઉચ્છવાસ નિઃશ્વસવાળા હોય છે. અને આહારક હાય छे. 'वीरयाय अविरया य विरयाविश्याय' ते संज्ञी पथेन्द्रिय विश्त-अविरत मने विरताविरत होय हे 'सकिरिया नो अकिरिया' दिया सहित होय छे, अडिया -डिया विनाना होता नथी. 'ते णं' भते ! जीवा किं सत्तविधता वा अट्ठविह वधगा वा' हे 'लगवन આ શું સાત પ્રકારની ક્રમ પ્રકૃતિયાના બધ ફવાવાળા હાય છે ? અથવા આઠે પ્રકારની ફમ પ્રકૃતિયાના ખધ કરવાવાળા
જીવે
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thraद्रका टीका श०४० अ. श. १ कृ कृ. संक्षिपञ्चेन्द्रियोत्पात:
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प्रकृतीनां वन्धका वा भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह - गोगमा ! इत्यादि, 'गोयमी' हे गौतम! 'सत्तविधगावा जाव एगचित्रमा वा सविधकर्म कृतीनां बन्धका वा संज्ञिञ्चेन्द्रियाः यावत् एकविधवन्धका पा, अत्र यावत्पदेन अष्टविधबन्धका वा पदविधबन्धका वा एतयोः संग्रहो भवतीति । 'तेणं संते ! जीवा कि आहारसन्नोउता जाव परिहसन्नोवा' ते खलु भदन्त । जीवाः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः किमाहारोपयुक्ता भनन्ति यात्रत्यरिग्रहसंतोषयुक्ता वा भवन्ति अत्र यावत्पदेन स्यशैथुनसंज्ञयोः परिग्रहो भवति 'नो सनोउचा वा' को संज्ञ युक्ता वा भवन्ति ? 'सव्वत्थ पुच्छा माणिकन्य' सर्वत्र पृच्छा - प्रश्नरूपा भणितन्या, पृथक् पृथगुरूपेण सर्वप्रश्नः करणीय इति । भगवानाह 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम | 'आहारसन्नोउता जाव वो सन्नो उत्ता' आदारसंज्ञोपहैं ! 'छव्हि बंधगावा' छ प्रकार की कर्म कृतियों के बन्धक होते हैं अथवा 'एहि षणा का एक प्रकार की कर्मप्रकृतियों के
होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'लोचना ! ये जीन 'सत्त विहा बंधा वा जाव एधि बंधना वा' सात प्रकार की कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं यावत् एक प्रकार की कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं । यहाँ यावत् शब्द से 'अष्टदिका वा पविध बन्धका वा इन पदों का संग्रह हुआ है । 'तेणं संते । जीवा किं आहारपन्नोवता जाव परिरहसन्नोवला' हे भदन्त ! वे संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त होते हैं ? यहां यावत् पद से 'जय मैथुन संज्ञाओं का ग्रहण हुआ है। अथवा 'तो सन्नोचता वा' ये तो सज्ञोपयुक्त होते है ? इस प्रकार 'सन्वत्थ पुच्छा भाणियन्ना' पृथक् पृथक रूप से प्रश्न कर लेना चाहिये । होय हे ? अथवा 'छव्विह बंधगावा' छ अारती प्रतियोना गंध अश्वावाजा होय हे ? अथवा 'एगविहवनगा दा' से प्राश्नी अमृतिला गंध उरवाजा होय हे ? या प्रश्नना उत्तरसां अलुश्री गौतम | वो 'सत्तविह बधगावा जाव एगवि बंधगा वा' सात प्राश्नी કમ પ્રકૃતિયાના આધ કરવાળા પણ હાય છે. અહિયાં યાત શબ્દથી પ્રલિપ धावा पद्धविध बंधगात्रा' या होना सग्रह थयो छे'ते ण' भवे । जीवा कि आहारसन्नोव उत्ता जाव परिग्गदसन्नोव उत्ता' हे लभवन ते संज्ञी यथेन्द्रिय જીવા શુ આહાર સંજ્ઞોપચેગવાળા હોય છે ? ચ વત્ પહિ સજ્ઞોપયાગવાળા હોય છે? અહિયાં અવત્પદથી ભય અને મૈથુન સત્તાએ ગ્રહણ કરવામા मावेस छे अथवा 'नोसन्नोवउत्ता वा' मा नोराजोपयेोवाणा होय हे ? या रीते 'सम्वत् पुच्छा भाणिकवा हा हा उपथी अन उरी देवे। ए
डे - 'गोयमा । हे
भ० ८०
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____ भगवतीस्त्रे युक्ताः यावत् नो संज्ञोपयुक्ता वा भवन्ति । 'कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा अफसाई वा' संज्ञिपश्चेन्द्रियाः क्रोधकपायिनो दा लोभकपायिनो वा अपायिनी वा भवन्ति । 'इत्थि वेयगा बा, पुरिसवेरगा वा, नपुंसमवेयगा वा अवेयगा वा' ते संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवाः स्त्रीवेदका वा भवन्ति, पुरुषवेदका वा भवन्ति नपुंसकवेदका वा भवन्ति अवेदका वा भवन्तीति । 'इथिवेचंधगावा, पुरिसवेदवंधगा वा, नपुंसमवेदवंधगावा, अबंधगा वा' स्त्रीवेदवन्धका दा भवन्ति पुरुषवेदबन्धका वा भवन्ति नपुंसक वेदवन्धका वा भवन्ति अबन्धका वा भवन्तीति 'सन्नी नो असन्नी' संक्षिपञ्चन्द्रियजीवाः संज्ञिनो भवन्ति नो असंज्ञिनो इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोरमा! आहार सनोवउत्ता, जाव नो सन्नोदउन्ता' हे गौतम ! ये आहार लंज्ञोपयुक्त होते हैं यावत् नो संज्ञोपयुक्त होते हैं। 'कोहकसाई ना जा लोभसलाई वाये क्रोध कषाय से लेकर लोभकषाय से युक्त होते हैं। तथा कषायों से रहित भी होते हैं। 'इथिवेषगा वा पुरिलवेयगा वा नपुंस गश्यमा वा' ये स्त्री वेदवाले भी होते हैं, पुरूष वेद वाले भी होते हैं और लपुंसक वेदवाले भी होते हैं । तथा-'अवेयगा वा भवंति' चिना बेवाले भी होते हैं । 'इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेबंधगा वा, अबंधगा वा' ये स्त्रीवेद के बन्धक होते हैं, पुरुषवेद के बन्धक होते हैं और नपुंसक वेद के भी धन्धक होते हैं। तथा इन तीनों वेदों के अबंधक भी होते हैं। 'सन्नी नो असन्नी' ये संज्ञो ही होते हैं असंज्ञी नहीं होते हैं। 'सई. दिया नो अणिदिया ये सेन्द्रिय होते हैं इन्द्रियों से रहित नहीं होते हैं। २मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ ४-'गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ता, जाव नो सन्नोवउत्ता' हे गौतम ! | माहास शो५यावायावत् अय सोययावाणा डाय छ 'कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा अकसाई वा' આ ક્રોધ કષાયથી લઈને લેભકષાયવાળા હોય છે, તથા કષાયથી રહિત ५६ डायछे 'इत्थिवेयगा वा पुरिसवेयगा वा नपुसगवेयगा वा' मासीवाणा પણ હોય છે, પુરૂષદવાળા પણ હોય છે, અને નપુંસક વેદવાળા પણ હોય छ. तथा 'अवेदगा वा भवति' तसा विनाना पाय छे. 'इत्थिवेदबंधगा वा, पुरिस्रवेदबंधगा वा नपुसकवेदब धगा वा, अबधगा वा' स्त्रीवहन। બધ કરવાવાળા પણ હોય છે, પુરૂષદને બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે, અને નપુંસકવેદનો બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે. અને ત્રણ પ્રકારના વૈદ્યને मध नयी ५ ३२ता. 'सन्नी नो असन्नी' । सही होय छे. मसजी हाता नथी. 'सेइ दिया नो अणिदिया' मा छद्रयावाणा डाय छे. इन्द्रय
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प्रमैययन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१ कृ.कृ. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पात ६३५ भवन्तीति । 'सइंदिया नो अणिदिया' सेन्द्रियाः संज्ञिपञ्चेन्द्रिया इन्द्रियवन्तो भवन्ति नो अनिन्द्रिया भवन्ति । 'संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं' संस्थानमवस्थितिः संज्ञिपञ्चन्द्रियाणां जघन्येनैकं समयं कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामवस्थितिरेकं समयं समयानन्तरं संख्यान्सरसभावा दिति । 'उको सेणं सागरोबमसयपुहुत्तं साइरेगं' उत्कर्षणाबस्थिति सागरोपमशतपृथकत्वम्, सातिरेकम्, कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपञ्चन्द्रियाणामुत्कर्पण अवस्थानं कालस्थितिः सागरोपमशतपृथक्त्वं द्विसागरोपमशतादारभ्य नव सागरोपमशतपर्यन्तं सातिरेकं भवति, यत इतः परं ते संज्ञिपञ्चन्द्रियतया न भवन्तीति भावः । 'आहारो तहेव जाव नियम छदिसिं' आहार स्तथैव आहारो देशकवदेव, कियत्पर्यन्तं तत्राह-यावत् नियमात् पड्दिशि संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामाहारो नियमतः पइदिग्भ्योऽपि भवति लोकमध्येऽवस्थितानामेषां व्याघाताभावत् इति, 'संचिठ्ठणा जहन्नेण एक्कं लमयं' संचिठ्ठणा इन कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों की अवस्थिति जघन्य ले एक समय की होती हैं कारण कि एक समय के बाद संगांतर होने की संभवना रहती है और 'उकोसेणं लागरोबमलय पहुतं' लाइरेग' उत्कृष्ट से कुछ अधिक सागरोपम शतपृथक्त्व की होती है। बाद में ये अन्य राशिप्रमित हो जाते हैं । अर्थात् संज्ञिपंचेन्द्रिय रूपता हनमें नहीं रहती है दो सागरोपम शत से लेकर नौ सागरोपम शातका नाम लागरोपम शत पृथक्त्व है। 'आहारो तहेव जाध नियमं छबिलि' ओहार का प्रकरण प्रज्ञापना के आहार पद २८ वां के जैले है अर्थात् इनका आहार लोक के मध्य में इनकी स्थिति होने के कारण नियम से यावत् छहों दिशाओं से होता है। क्योंकि उस में इन्हें किली भी प्रकार का व्याघान नहीं होता विनाना जाता नथी. “संचिटणा जहण्णेण एक्कसमय' मा तयुम तयुग्म રાશિ પ્રમાણુવાળા સંગી પંચેન્દ્રિય જીવોની સંચિઠ્ઠણ-અવસ્થિતિ જઘન્યથી એક સમયની હોય છે, કારણ કે એક સમય પછી સંખ્યાંતર હોવાની સંભાવના २७ छ. गन 'उक्कोसेण सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगे' G थी पधारे સાગરેપમશત પૃથકૃત્વની હોય છે. તે પછી તેઓ અન્ય રાશી પ્રમાણવાળા થઈ જાય છે અર્થાત્ સ જ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણું તેઓમાં રહેતું નથી બે સાગરે५म शतथी न सागरा५मशतनु नाम साग३३५म शत थप छ, 'आहारी तहेव जाव नियम छद्दिसि' तमानी माहा२ सोनी मध्यमती मा હેવાને કારણે નિયમથી યાવત્ છએ દિશાએથી હોય છે. કેમ કે તેમાં તેઓને કેઈપણું રીતને વ્યાઘાત થતા નથી. અહિંયાં યાત્પદથી ત્રણ દિશાએથી પણ
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भगवती सूत्रे ''टिई जहण' एकं समयं संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां स्थिति जघन्येनैकं समयं भवति, 'डेक्को सेणं तेत्तीस सागरोदमाई' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । 'छ समुग्धाया आदिल्ला' पद समुद्घाता आदिमाः वेदना कयायादिकाः पद केवलि समुद्घातवर्जा भवन्तीति । संशिपञ्चेन्द्रियाणामेत्रमायाः वेदनाकपायगारणान्तिकवैक्रिय तैजसाहारकाख्याः पडेच समुदघाता भवन्ति, सामस्तु केवलिसमुद्घातः केवलिनामेव भवति तेषां शेपाः पट्ससुद्याता न भवन्ति इन्द्रियोपयोगाभावेन केवलिनामनिन्द्रियत्वादिति ते संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वेन न गृहमन्ते इति भावः । 'मारणांतिय समुग्धारणं समोहया विमरंति' ते संज्ञिपश्चेन्द्रिय जीवाः मारणान्तिक समुद्घातेन समवहता अपि म्रियन्ते 'असमोहया वि मरंति' असमवद्दता अपि म्रियन्ते । 'उवणा जहेव उवनाओ' उद्वर्तन यथैवोपपातः चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः है ! 'ठिई जहन्नेणं' एक्क समय' इनकी जघन्य स्थिति एक समय की होती है और 'उक्फोसेन तेत्तील लागरोवमा उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की होती है । 'छ मुग्धाया आदिला' आदि के छहसमुद् घात होते हैं । इन के केवलि समुद्घात नहीं होता है | वेदना, कषाय मारणान्तिक वैकिय तैजस और आहारक ये छ समुद्धात इनके होते है । केवलियों के वे ६ समुद्र्घात नहीं होते हैं । क्यों कि इनमें इन्द्रिय जन्य उपयोग का अभाव रहता है। इसलिये इनमें संज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञा नहीं होती है । इसीलिये इन्हें अनिन्द्रिय कहा गया है । 'मारणांतिय समुग्धाएणं समोहया वि मरंति' ये संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं। 'असमोरया चि मरंति'
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થાય છે. ચાર દિશાએથી પશુ થાય છે અને પાંચ દિશાએથી પશુ હોય છે. था पाठ श्रथ पुरायो छे. 'ठिई जहन्नेणं' एक समय' तेथोनी धन्य स्थिति- आयुमन मे समयनी होय छे. याने 'उकोसेण' वेत्तीस ' सागरोवमाइ " उष्ट स्थिति तेन्रीश सागरोयभनी थाय छे. 'छ समुग्धाया आदिल्ला' भने તેઓના આદિના એટલે કે-વેદના કષાય મારણાન્તિક વૈક્રિય અને તેંજસ, આ છ સમ્રુદ્ધાતે હાય છે તેઓને કેવલી સમુદ્દાત હાતા નથી. કેમ કે કેવલી સમુદ્લાત કેવલીયાને જ હાય છે, કેલિચેાને છ સમ્રુધ્ધાત્તા હોતા નથી, ઇન્દ્રિય જન્ય ઉપયેગના અભાવ રહે છે. તેથી તેમાં સ'ની પચેન્દ્રિય संज्ञा होती नथी. तेथी तेखाने मनिन्द्रिय ह्या छे, 'मारणंतिय समुग्धारण
मोहया वि मर'ति' या संज्ञी पथेन्द्रिय कवी भारयान्ति समुद्दघातथी सभुद्द्धात - उरीने पाय भरे हे भने 'असमोहया वि मरति' भारणान्तिः
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प्रमयदन्द्रिका का श०४० अ. श.१ कृ.कृ. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पात ६३७ पोक्तस्तथैव उद्वर्तना निस्सरणम् उद्धृत्य गमनमपि तेषां चतसृष्वपि गतिषु नरयिक तिर्यग्-मनुष्य-देवेषु भवतीति माः, न कस्पाइ पडि से हो' न कुत्रचिदपि पतिषेधः 'जाप अणुत्तरविषाण त्ति' यावदनुपरत्रिमानमिति, नारकादि चतुर्गतिष्वपि पञ्चेन्द्रियाणा मुद्वर्तना माति अनुत्तरविमानपर्यन्तं कस्यापि स्थानस्य प्रतिषेधो नास्तीति । 'अह भंते ! सन्चे पाणा जाव अणतखुत्तो' अथ भदन्त ! सर्वे माणा यावत् सर्वे सत्ता कृत्युग्मकृतयुग्म संज्ञिपश्चेन्द्रियतया कि समुत्पन्न पूर्वा ? हे गौतम ! सर्वे पाणाः सर्वे भूनाः सर्वे जीवाः सर्वे सन्ताः कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपश्चेन्द्रियतया असकृत् अथवा अनन्तकृत्वा समुत्पन्नपूर्श इति । 'एवं सोलसमु वि जुम्मेसु भाणिय
और मारणान्तिक सद्घात ले समवहत हुए विना भी मरते हैं। 'उचट्ठणा जहेव उवयाओ' इन में उपात के जैसे उदर्तना होती हैं। अर्थात् इनका चारों गलियों में उपपात होता है और चारों गतियों के जीवों का इनमें उत्पाद होता है । 'ल कत्थई' पडिलेहो' इन्हें आनेजाने की कहीं पर भी रूकावट नहीं है। 'जाच अणुत्तरविमाणात' यावत् ये अनुत्तर विमानों पक जाते हैं अर्थात् वहां तक इनका उत्पाद होता है। 'अह मंते ? सव्ये पाणा जाय अर्णतखुतो' हे भदन्त ! क्या समक्षा प्राण थावत् समस्त सत्व, कलयुग्म कृतयुग्मसंज्ञिपचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हो चुके ? लसर में प्रभुश्री कहते है-सवे पाणा लन्चे आ सन्दे जीवा सध्ने सत्ता हे गौतम ! समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्व अलत-बारंबार अथवा अनलघार कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञीपचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। 'एवं सोलससु वि जुम्मेसु समुद्धात या विना ५५ भरे छे. 'उचढणां जहेत्र उववाओ' તેઓને ઉપપાતની જેમ જ ઉદ્વર્તન પણ હોય છે. અર્થાત તેઓનો ચારે ગતિમાં ઉપપાત હોય છે. અને ચારે ગતિના છે तमाम पा साय छे. 'न कत्थइ पडिहों' तयाने १२४१२भां ध्या ५६१ ३४१५८ यती नथी. 'लाव अणुत्तरविमाणत्ति' यावत् ते मनुत्तर विमान सुधी १५ छे अर्थात त्यां सुधी तमान पा हाय छ 'अहमंते । सव्वे पाणा जाव अणतखुत्तो' भगवन सघा पाये, सा सत्या, तयुम, કૃતયુમ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री छ है-'सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वे जीवा सव्वे सत्ता' गीतम! સઘળા પ્રાણે સઘળા ભૂતે, સઘળા છે. અને સઘળા સો, અસકૃત–વારંવાર અથવા અનંતવાર કૃતયુમ કૃતયુમ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા
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भगवती सूत्रे
'व्वं जाव अणतखुत्तो' एवं कृतयुग्म कृतयुग्मसंक्षिपञ्चेन्द्रिययुग्मेषु उपपातादारभ्य अनन्त कृत्वः समुत्पन्न पूर्ण इति कथितं तथैव 'सोलससु विवि जुम्मे भाणियन्वं जाव अनंत खुती' पोडशप्यपि द्वितीय कृतयुग्म ज्योज संज्ञिपञ्चेन्द्रियत आरभ्य याaa seयोजकल्यो संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु युग्मेषु भणितव्यं यावद् अनन्त कृत्वः अनन्तशस्तद्रूपेण पूर्वं समुत्पन्ना इति पर्यन्तमिति भावः । ' नवरं परिमाणं जहा वे दियाणं' नवरं कृतयुग्म कृतयुग्म संञ्चेन्द्रियाणां यथा द्वीन्द्रियाणां पोडश, संख्याता वा असंख्यातावेति । 'सेसं तहेब' शेषं परिमाणव्यतिरिक्त मुपपातादिकं तथैव पूर्ववदेव पूर्वोक्त प्रथमयुग्मवदेव प्रथमयुग्मे यत् यथा कथितं तत्सत्रं तथैव भाणि जाव अणतखुत्तो' इसी प्रकार से 'कृनयुग्म कृतयुग्म संज्ञी पचेन्द्रियों में समस्त प्राणादि जीवों का जैसा उपपात से लेकर अनन्त बार तक का उपपात हो चुकना कहा गया है 'द्वितीय कृतयुग्म योज संज्ञिपंचेन्द्रिय रूप से उनके उपपात को लेकर यावत् कल्योज कल्योज संज्ञिपचेन्द्रिय पर्यन्त सुग्मों में ये अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं ऐसा कह लेना चाहिये । 'नवर' परिमाणं जहां वे दियाणं' हीन्द्रिय जीवों का जैसा परिमाण १६ अथवा संख्यातआदि रूप से कहा गया है उसी प्रकार से इन कृतयुग्म कृतयुग्मादि सशिपचेन्द्रिय जीवों का भी परिमाण जानना चाहिये | 'सेसं तहेब' परिमाण से अतिरिक्त उपपात आदि जिस जिस प्रकार से प्रथम युग्म में कहे गये हैं वैसे ही वे सब जानना चाहिये 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त | जैसा आपने यह कहा है वह सब
छे, ' एवं ' खोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्व जाव अणतखुत्तो' मा४ प्रभा કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સન્ની પંચેન્દ્રિામાં સઘળા પ્રાણ વિગેરે જીવેાના ઉપપાતથી લઈને અનંતવાર સુધીના ઉપપાત થઈ ચૂકયા છે, એ કથન સુધી જે રીતે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે બીજા મૃતયુગ્મ ચૈાજ સન્નિપ ́ચેન્દ્રિય પણાથી તેના ઉપપાતથી લઈ ને યાવત્ કલ્યે!જ કલ્યેાજ સ'ની પચેન્દ્રિય પયન્તના યુગ્મામાં तेथे। मनतवार उत्पन्न अर्ध शुभ्या छे. ते हे' ले थे. 'नवर' परिमाण' जहा बेइ दिथाण" मे इन्द्रिय वानुं परिभाष के प्रभा १६ सोण गथवा સખ્યાત અથવા અસખ્યાત પણાથી કહેલ છે, એજ પ્રમાણે આ કૃતયુગ્મ द्रुतयुग्य संज्ञी पथेन्द्रिय कवोनु परिभाशु य समन्वु 'सेस तदेव' પરિમણુ શિવાય ઉત્પાત વગેરે જે રીતે પહેલા યુગ્મામાં કહેલ છે. તેજ પ્રમાણે તે સઘળું કથન સમજી લેવુ.
'सेव भते । सेव' भंते | त्रि' हे भगवन आप देवानुप्रिये मे मा विषयना
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१ कृ.क. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पातः ज्ञातव्यमिति से भंते ! सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ इति चत्वारिंशत्तमे शतके प्रथमे शते प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥४०॥१॥ ॥ इति चयरिंशत्तमे शतके प्रथमे शते प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥४०.१॥
द्वितीयोदेशकः २ 'पढम समय कडजुम्माड जुग्म सन्निपंचिदियाणं भंते ! को उववज्जति' प्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्मसज्ञिश्चन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? इत्यादि प्रश्न:, उत्तरमाह-उववाओ परिमाणं आहारो जहा एएसि चेव चढमुद्दे. सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रशुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया चन्दना नमस्कार कर फिर ये संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
४० वें शतक के प्रथम शत में प्रथम उद्देशक समाप्त १४०-१॥
'पहमसमय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपचिंदियागं भंते ! को उववति' इत्यादि
टीकार्थ-हे भदन्त ! प्रथम समय कृनयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित संज्ञीपचेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिथग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उवधाओ परिमाणं आहारो जहा एएसिं चेव पढमु. સંબંધમાં કથન કરેલ છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવાન આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તપ અને સંયમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ ચાળીસમાં શતકમાં પહેલા શતકને પહેલો ઉદેશે સમાપ્ત ૪૦–૧
પહેલા શતકના બીજા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ– 'पढमसमय कड़जुम्मकडजुम्मसन्नि पचिदियाण भते को उववज्जति'.
ટીકાર્થ –હે ભગવન પ્રથમ સમય કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા સંગી પચેન્દ્રિય જી કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અથવા તિયચનિકમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે है-'उपवाओ परिमाण आहारो जहा एएसिं चेव पढमुद्दे सए' गीतम! तन्माना
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भगवती सए' उपपातः परिमाणमाहारो यथा एतेपामेच चत्वारिंशत्तमशतके प्रथमोदेशके उपपातपरिमाणाहारो यथा एतेषां प्रथमोदेश के कथिता रतथैव विज्ञेयाः । तत्रो पपातो नैरयिकादिभ्य सर्वेभ्यः न कुत्रतोऽपि प्रतिषेधः, परिमाणं पोडश वा संख्याता असंख्याता वा उत्पद्यन्ते । आहारो नियमात् पङ्गदिशम् । 'ओगाहणा वंयो वेदो वेदणा उदय उदीरणाय जहा वें दियाणं पढ समइयाणं' अवगाहना वन्धो वेदो वेदना उदय उदीरणा च यथा-द्वीन्द्रियाणां प्रथमसामयिकानाम, यथा प्रथमसामयिक द्वीन्द्रियाणां बन्धवेद वेदनादिक विपये कथितं तथैव इहापि ज्ञातव्यमिति । तदेव कण्हलेस्सा वा जाव सुकालेस्सा वा तथैव कृष्णलेश्या श यावत् देसए' हे गौतम ! इनका उपपात परिमाण और आहार जैसा इसी शालक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैशा ही जानना चाहिये। इस प्रकार हन का उपपात समस्त चारों जतियों में से होता है। मिली भी गति से आकर के इनके उपपात होने का प्रतिषेध नहीं है एक साथ इनके उत्पन्न होने का परिमाण १६ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात है! आहार इनका निधन से चारों दिशाओं से होता है। 'ओगाहणा पंधो, वेदो वेयणा, उदय उदीरणा य जहा वेदियाणं पढमलमइयाणं' प्रथम सामयिक दो इन्द्रिय जीवों की जेसी अवगाहना कही गई है, जैसा बन्ध कहा गया है, वेद कहा है, देदना कही गई है। जमा उदय कहा गया है और जैसी उदीरणा कही गई है वैसा ही यह सप कथन इन कृतयुग्म कुनयुग्म राशिप्रमाण संज्ञीएचेन्द्रियों के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये । प्रथम समयवती कृमयुग्म कलयुग्मसंज्ञिपचेन्द्रिय जीव ઉ૫પાત, પરિમાણ અને અહરિ આ શતકના પહેલા ઉદેશામાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, તેજ પ્રમાણેને સમજે. આ રીતે તેઓને ઉપપાત ચારે ગતિવાળા જમાંથી હોય છે. કઈ પણ ગતિમાંથી આવીને તેઓનો ઉપપાત થવાને નિષેધ કહેલ નથી. એક સાથે તેઓને ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ ૧૬ સોળ અથવા સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત કહેલ છે તેઓનો આહ ૨ નિયમથી છ से हमेथी हाय छे. 'ओगाहणा बधो, वेदो वेयणा उदयी उदीरणाय जहा वेईदियाण पढमममइयाण' प्रथम समयाणा मेन्द्रिय वानी अवगाहना જે પ્રમાણેની કહેલ છે, જે રીતને બંધ કહેલ છે તે રીતે વેદના કહેલ છે, વેદનપણુ જે રીતે કહેલ છે, જેવા ઉદયવાળા તેઓને કહેલ છે. જે રીતના ઉદીરક કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું આ સઘળું કથન આ કૃતયુગ્મ કૃયુમ રાશિવાળા સણી પંચેન્દ્રિય જીના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ પ્રથમ સમયવતિ કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ રાશીવાળા સન્ની પચેન્દ્રિય જીવ કૃણલેશ્યાથી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१ प्र. समय कृ.कृ. संजिपञ्चेन्द्रियोत्पातः ६५ शुक्ललेश्याः प्रथम समय कृतयुग्मकतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिया भवन्तीति । 'सेसं जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं जाब अणंतखुनो' शेषं पूर्व कथितातिरिक्तं सर्व यां द्वीन्द्रियाणां प्रथम सामयिकानां कथितं तथेत्र अनन्तवारं समुत्पन्नपाः एतत्प यन्तम् 'नवरं इथिवेदगा वा पुरितवेदगा वा नपुंमगवेदमा वा, सन्निको असमिणो' नवरं-केवलम् द्वीन्द्रिय प्रारणापेक्षया इमेव लक्षण्यं यत् प्रथमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिया खीवेदका वा भवन्ति पुरुषवेदका वा भवन्ति नपुमकवेदका वा भवन्ति, किन्तु अवेदका न भवतीत्येतदेव वैलक्षण्यम् । संज्ञिनो असंज्ञिनो वा भवन्तीति । तत्र तु 'नो अहनी' इति पाठः एतदेव वैलक्षण्यम् । 'सेस कृष्णलेश्या ले लेकर यावत् शुक्सलेापाले होते हैं तो इनके सम्बन्ध में भी ऐसा ही कथन जानना चाहिये । 'लेलं जहा बेदियाण पढमसमइयाण जाब अलखुत्तों' वाशी का और कथन प्रथम समयवती दो इन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में जला महा गया है वैसा ही है । यह कथन 'यात् ये सलल प्राण आदि जी अनन्तवार प्रथम समय वती कृतयुग्म कुनयुग्म रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। यहां तक करना चाहिये । परन्तु जो विशेषता द्वीन्द्रिय प्रकरण की अपेक्षा हल में है वह 'नवरं इथिवेदगा पा पुरिरावेदगा वानसमवेदना का लक्षणो अस निणों' इस सत्र पाठ द्वारा यहां स्कृष्ट की गई है दीन्द्रिय जीव केवल एक नपुंसक वेवाले ही होते हैं तब कि ये तीनों देवाले होते हैं। ये अवेदक नहीं होते हैं। बीन्द्रिय असंज्ञी ही होते हैं। ये प्रथम समयवर्ती कृतयुग्म कृतयुन शिलिल पंचेन्द्रिय जीव संजी भी होते हैं
और असंज्ञी भी होते हैं। લઈને ચાવત શુકલેશ્યાવાળા હોય છે. આ કથન સુધીનુ સઘળું કથન આમના सममा ५५ उनसे. 'सेस' जहा बेईदियाण पढमसमइयाण जाव अणतखुत्तो' माडीतुं सघणु थन प्रथम समयमा २२नारा मेन्द्रिय वाना સબંધમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે આ સઘળું કથન યાવત્ તેઓ સઘળા પ્રાણે વિગેરે જી અનંતવાર પ્રથમ સમયમાં રહેનારા કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે આ કથન સુધી કહેવું જોઈએ. પરંતુ જે વિશેષપણુ છે. એટલે કે બે ઈન્દ્રિય પ્રકરણ કરતાં જે જુદાપણું આવે છે, તે 'नवर इथिवेयगा वा पुरिखवेयगा वा नपु सगवेयगा वा सन्निणो असन्निणो' આ સૂત્ર પાઠ દ્વારા અહિયાં બતાવેલ છે. બે ઈન્દ્રિય જી કેવળ એક નપુંસક દવાળા જ હોય છે. જ્યારે આ ત્રણે વેદવાળા હોય છે આ અદક હતા નથી. દ્વીન્દ્રિય જીવ અસંગી જ હોય છે, આ પ્રથમ સમયવતિ કૃતયુગ્મ
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भगवतीचे तहेच' शेपं नवरमित्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्त सर्व प्रथमसामयिक द्वीन्द्रियवदेव ज्ञातव्यमिति । 'एवं सोलससु वि जुम्मे मु' एवं प्रथमसमय कृतयुग्मकृतयुग्म संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य यथा कथित तथैव कृतयुग्म योजादिरूप द्वितीय युग्मत आरभ्य पोडशस्वपि युग्मेषु ज्ञातव्यम्, 'परियाणं तदेव सब्छ' परिमाणं तथैव सर्व परिमाणं सर्वमपि प्रथमसमय द्वीन्द्रियवदेव ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति॥
॥ इति चत्वारिंशत्तमे शतके प्रथमे शते द्वितीयोद्देशका समाप्तः॥४०।१।२ 'एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेब' एवमत्रापि शते प्रथमे एकादशो
'एवं सोलससु वि जुम्मेलु' जैसा यह कथन प्रथम समय कृतयुग्म जीवों के सम्बन्ध में कहा गया है उसी प्रकार से प्रथम समय कृतयुग्म व्योजादि रूप द्वितीययुग्म से लेकर सोलहयुग्मों में भी कह लेना चाहिये । 'परिमाणं तहेच सव्वं' प्रथम समयक्ती द्वीन्द्रिय के जैसा सर्वत्र की कथन यहां कर लेना चाहिये।
'सेवं भंते ! लेवं भंते ! त्ति' 'हे भदन्त जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ___४० वे शतक में प्रथम शत में यह द्वितीय उद्देशाक समाप्त हुआ।
॥४०-१-२॥ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા પંચેન્દ્રિય જી સંજ્ઞી પણ હોય છે, અને અસંજ્ઞી પણ हाय छ, 'सेस तहेव' माडीतुं भी सघणु ४थन प्रथम समयवादीन्द्रिय
वाना ४थन प्रमाणे १ छे. 'एव सोलससु वि जुम्मेसु मा ४थन प्रमाणे પ્રથમ સમય કૂતયુમ કૃતયુગ્મ જ વિગેરે રૂપથી બીજા યુગ્મથી લઈને सोणे युभामा ५९ ४
'परिमाण तहेव सव्व' प्रथम समयमा રહેવાવાળા દ્વીન્દ્રિય જીના કથન પ્રમાણે જ બધે ઠેકાણે અહિયા પરિમાણ સંબંધી કથન કહેવું એઈએ.
'सेव भते । सेव' भते ! त्ति है भगवन भावानुप्रिये. सा विषयमा જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ હે ભગવન આપ દેવાનું પ્રિયનું તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વદના નમસ્કાર કરી ને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ ચાળીસમા શતકમાં પહેલા શતકને બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫૪૦-૧–રાઈ
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प्रयचन्द्रिका रीका श०४० अ.श.१ प्र.समय कृ.कृ. संक्षिपञ्चेन्द्रियोत्पातः ६४३ द्देशकाः ज्ञातव्याः । तत्र 'पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा' प्रथमस्तृतीयः पञ्चमश्च सदृशगमा एकालापका इत्यर्थः । 'सेसा अट्टवि सरिसगमा' शेषा अष्टावपि द्वितीयचतुर्थषष्ठसप्तमाष्टम नवम दशमैकादशाख्याः सदृशगमा समानाः। 'चउत्थ छट्ट अहम दसमेसु नस्थि विसेमो काययो' चतुर्थ पष्टाष्टम दशमेपु नास्ति विशेषः कर्तव्य इति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति
॥ चत्वारिंशत्तमें शतके प्रथम संक्षिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ।।४०।१।२॥ ____टीकार्थ-'एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा' इस प्रथम शत में भी ११ उद्देशक हैं । इन में 'पढमो तइओ पंचमो य सरिसंगमा प्रथम द्वितीय उद्देशक और पांचवा उद्देशक ये तीन एकसरीखे आलापकवाले हैं । और 'सेला अहवि सरिसगमा बाकी के आठ उद्देशक द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, उद्देशक सप्तल, भष्टम, नवम, दसम और ११ वां ये आठ उद्देशक समान आलापपाले हैं। 'चउत्थ छट्ट अट्टम इसमेसु नस्थि विसेसो काययो' चतुर्थ छठे आठ इन उद्देशको में कोई विशेषता कर्तव्य नहीं हैं 'सेव भंते ! हेव भंते ! त्ति' हे भदन्त ! आपका यह कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तप से आत्मा को भाक्ति करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ४० वें शतक में संज्ञिपंचेन्द्रिय महायुग्म शत समाप्त हुआ ॥४०-१॥ __एवं एत्थवि एक्कारस उद्देसगा' मा ५९ शतभा पशु ११ मगियार
शामा छ. तमां पढमो तइओ पचमो य सरिसगमा' पडस देश मा देश। અને પાંચમે ઉદેશે આ ત્રણ ઉદ્દેશાઓ સરખા આલાપકે વાળા હોય છે. અને 'सेसा अट्ट वि सरिसगमा' मीना 18 उद्देशा। मेटले. मात्र, याथी. છઠઠો, સાતમે આઠમ નવમે દશમે અને અગિયારમે આ આઠ ઉદેશાઓ. सरा मासायीपा छे. 'चउत्थ छ? अदुमदसमेसु नत्थि विसेसो कायव्वो' ચે, છઠે આઠમો દશમે આ ઉદ્દેશાઓમાં કાંઈ પણ વિશેષપણું કહેલ નથી, ____'सेव भते ! सेव भ ! त्ति' लगवन् आ५ वानुप्रिय मा ४थन સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવન્ આ૫ દેવાનુપ્રિયનું આપ્ત કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમરકાર કર્યા પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પસૂ૦૧ ચાળીસમા શતકમાં સંક્ષિ પંચેન્દ્રિય મહાયુમ શતક સમાપ્ત ૪-૧-રા
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भगवतीने अह वितिय कण्हलेस्स सन्नि पंचिंदियमहाजुम्मसयं' - मूलम्-कण्हलेस्ल कडजुम्मकडजुम्न सन्नि पंचिंदियाणे भंते ! कओ उववजंति, तहेव जहा पढमुद्देसओ सन्नीणं । नवरं बंधो वेओ उदय उदीरणा लेस्सा बंधासन्ना कसायवेद बंधगा य एयाणि जहा बेदियाण । कण्हलेस्साणं वेओ तिविहो अवेदगा नस्थि । संचिटणा जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाइं अंतोमुत्तममहियाई। एवं ठिईए वि । नवरं ठिईए अंतोमुहुत्तमाहियाई न भन्नंति। लेसं जहा एएसिं चेव पढमुद्देसए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । लेवं भंते ! लेवं भंते ! ति ॥४०-२॥
पढमसमय कण्हलेल्ल कडजुम्सकड जुम्म लन्नि पंचिंदियाणं भंते ! को उज्जति जहा लन्ति पंचिंदिय पढमसमय उद्देसए, तहेब लिवरलेलं । नवरं तेणं संते! जीवा कण्हलेस्सा सेलं तं छेत्र । एवं लोलसमु धि जुम्मेसु । सेवं संते ! लेवं भंते ! त्ति। एवं एएवि एजारस वि उद्देलगा कण्हलेस्लाए । पढमतइय पंचमा सरिलगमा । सेसा अट्र वि एक्क गमा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥४०-२॥ चत्तालीलइसे लए वितियं लनि महाजुभातलयं समत्तं ॥४०-२॥
छाया-कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपञ्चन्द्रियाः खल भइन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? तथैव यथा प्रथमोहेशकः संज्ञिनाम् । नवरं बन्धो वेद उदयी उदीरणा लेश्याघन्धक संज्ञा कपाय वेदवन्धका चैतानि यथा-द्वीन्द्रियाणाम् । कृष्णलेश्यानां वेदत्रिविधः अवेदका न सन्ति । संस्थानं जघन्यनक समयम्, उत्कर्षेण त्रयसिंशत्सागरोपमाणि अन्तमुहर्नाभ्यधिकानि । एवं स्थितावपि । नवरं स्थिती अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि न भण्यन्ते । शेपं यथा एतेषामेव प्रथमे उद्देशके यावदनन्तकृत्वः। एवं पोडशस्वपि युग्मेषु । तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त ! इति ।।
प्रथमसमय कृष्णलेश्य कृतयुग्म कृतयुग्मसंक्षिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत
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प्रमेयचन्द्रिका ठीका श०४० भ. श. २ कृष्णलेश्य कृ. कृ. संशिपञ्चेन्द्रियाः उत्पद्यन्ते । यथा संज्ञिपञ्चेन्द्रियमथमसमयोदेशके तथैव निरवशेषम् | नवरं ते खलु भदन्त ! जीवाः कृष्णलेश्याः ? हन्त कृष्णलेश्याः । शेषं तदेव । एवं षोडशस्वपियुग्मे । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति । एवमेतेऽपि एकादशापि उद्देशकाः कृष्णश्यते ! प्रथमतृतीयपञ्चमाः सदृशगमाः, शेषा अष्टावपि एकगमाः । तदेवं भदन्त । तदेवं मदन्त । इति ॥४०॥३॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके द्वितीयं संज्ञि महायुग्मशतं समाप्तम् ||४० ३ || टीका -- ' कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिदिया णं भंते ! कओ उवत्र ज्जति' कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते ? किं नैरयिकेभ्यो यावत् देवेम्पो वोत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाह पूर्वातिदेशेन'तहेव' इत्यादि, 'तत्र पढमुद्देसए सन्नीणं' तथैव यथा प्रथमोद्देश के संज्ञिनाम्, संज्ञिनां चत्वारिंशत्तमशतकस्य प्रथमोद्देशे येन रूपेणोपपान चतुर्गतिभ्यः कथित
॥ द्वितीय कृष्णलेश्य संज्ञिपचेन्द्रिय महायुग्म शत ॥
'कण्हलेस फडजुम्मकडजुम्म सम्न्नि पचिदिया णं भंते । इत्यादि टीकार्य - हे भदन्त | कृष्णलेण्यावाले कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमाण संज्ञिपवेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरमिकों में से भाकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अतिदेश द्वारा इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'तहेव जहा पढमुद्देसए सन्नीण" हे गौतम | जैसा संज्ञी जीवों के सम्बन्ध में प्रथम उद्देशक कहा गया है वैसा ही यहां पर भी कह लेना चाहिये । ४० वे शतक
ખીજા કૃષ્ણુવેશ્યા સંન્નિ પચેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકના પ્રારભ 'कण्ड्लेस्स कब्जुम्मकडजुम्म सन्निपचिदियाण' भंते ! त्याहि
હે ભગવન્ ક્રુષ્ણુલેશ્યાવાળા મૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશિવાળા સ`જ્ઞિ પ ંચેન્દ્રિય જીવા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ તેએ નૅરિયકામાંથી શાવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચર્ચાનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री हे- 'तहेव जहा पढमुद्देसए सन्नीण" हे गौतम । सज्ञी भवाना संघभां पडेला ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાથેનુ કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ. ૪૦ ચાળીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં ચારે
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भगवतीसरे स्तथैव चतुर्गतिनारकतिर्यमनुष्य देवेभ्यः कृष्णलेश्य कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपश्चेन्द्रियाणामपि वक्तव्य इति । 'नवरं बंधो वेओ उदयी उदीरणा लेस्सा बन्धग सन्ना कसाय वेदवंधगाय' नवरं-केवलं प्रथमोदेशकापेक्षया इदं वैलक्षण्यं तत्र बन्धः ज्ञानावरणीयस्य बन्धका नो अबन्धका । वेदो ज्ञानावरणीयादीनां वेदका नो अवे. दकाः । उदयिनो नो अनुदायिनः । कर्मणा मुदीरका वा अनुदीरका वा । लेग्या कृष्णव, कर्मपकृतीनां सप्तविध वन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपि । संज्ञा-आहा. के प्रथम उद्देश में चारों गतियों में से आये हुए जीवों का कृमयुग्म कृतयग्म राशिप्रमित संजीपंचेन्द्रिय रूप से उपपान कहा गया है उसी प्रकार यहां पर भी चारों गतियों में से आये हुए जीवों का उपपात होता है ऐसा जानना चाहिये । अर्थात् कृष्णलेश्यावालेकनयुग्म कृतयुग्म संजिपंचेन्द्रिय जीव रूप से चारों गतियों में से आये हुए जीव उत्पन्न होते हैं । 'नवर बंधो, वेओ, उदयी, उदीरणा, लेस्ता पन्धगगसन्ना' कमाय वेद, पंधगाय' परन्तु प्रथमोद्देशक की अपेक्षा यहां यह अन्तर है कि बंध, वेद, उग्री, उदीरणा लेश्या बंधक, संज्ञा, कषाय, और वेद पंधक ये सब दो इन्द्रियों के जैसे कहे गये है वैसे यहां कहा लेना चाहिये । अर्थात् ये ज्ञोनावरणीय आदि कर्मों के बन्धक होते हैं किन्तु अवन्धक नहीं होते हैं, वेदक होते हैं, किन्तु अवेदक नहीं होते हैं, उदयवाले ही होते हैं, किन्तु अनुदयवाले नहीं होते हैं। कर्मों के उदीर कभी होते हैं और अनुदीरक भी होते हैं। इनके कृष्णलेश्या ही होती ગતિવાળાઓમાથી આવેલા છે કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણવાળા સંગ્નિ પંચેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેમ કહેવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ ચારે ગતિમાંથી આવેલા અને ઉપપાત થાય છે, તેમ સમજવું અર્થાત્ કૃષ્ણલેશ્યવાળા કૃતયુમ કૃતયુમ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણાથી ચારે ગતિયોમાંથી આવેલા જી ઉત્પન્ન થાય છે.
'नवर वधो, वेओ, उदयी, उदीरणा, लेस्सा, बंधगसन्ना कसाय, वेद पंधगाय,' ५। शा ४२ता मा ४थनमा मे मत छे ४-14, ६, यी, કદી ણ, શ્યા, બંધક, સંજ્ઞા, કષાય, અને વેદબંધ આ તમામ બેઈન્દ્રિય કે જે પ્રમાણે કહેલ છે તે જ પ્રમાણે અહિયાં કહેવા જોઈએ. અર્થાત આ શાનાવરણય વિગેરે કર્મોને બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે, અને અબંધક પણ હોય છે. વેદક પણ હોય છે. અને અદક પણ હોય છે. ઉદયવાળા પણ હોય છે, અને અનુદયવાળા પણ હોય છે, કર્મોના ઉરીરક પણ હોય છે અને અનુદીરક પણ હોય છે. તેઓને છ એ લેશ્યાઓ હોય
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shraft टीका श०४० अ. श. २ कृष्णलेश्य कृ. कृ. सशिपञ्चेन्द्रिया रादिरूपा, वेदः स्त्रीवेदादिः स्त्रीवेदादीनां वन्धकावेति । 'एयाणि' एतानि बन्धादीनि 'जहा वेदियाणं' यथा द्वीन्द्रियाणं कथितानि तथैव इहापि ज्ञातव्यानि दीन्द्रियशतं षट्त्रिंशत्तमशतकम्, तत्र पञ्चत्रिंशत्तमशतकस्यातिदेशः ततः पञ्चत्रिशत्तमशतकात् सर्वं ज्ञातव्यम् अत्र यद् वैलक्षण्यं तदेव स्पष्टयति- 'कण्ड लेस्साणं वेदो तिविहो' कृष्णलेश्यानां वेदस्त्रिविधः स्त्रीपुंनपुंसकरूपा स्त्रयो वेदा भवन्ति, 'अवेदगा नस्थि' कृष्णले श्यावन्तोऽवेदका न भवन्ति इति । 'संचिद्वणा जहन्नेणं एकं समयं ' संस्थानम् - अवस्थितिकालो जघन्येन एकं समयं भवति । 'उक्को सेणं हेत्तीसं सागरोचमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तहै ये कर्मप्रकृतियों के सप्तविध वन्धक भी होते है और अष्टविधबन्धक भी होते हैं। आहारादि रूप चारों प्रकार की संज्ञावाले होते है । स्त्रीवेदादि रूप तीनों वेदवाले होते है और उनके ये बन्धक होते है । दीन्द्रिय शत यह ३६ वां शतक है। इसके निरूपण में ३५ वें शतक का अतिदेश किया गया है इसलिये ३५ वे शतक से ही यह सब जानना चाहिये । यहाँ वेइन्द्रिय शतक की जो विलक्षणता है वह इस प्रकार से है' कण्हलेस्साणं वेदो तिविहो' कृष्णलेश्यावालो
तीनवेद होते है, स्त्रीवेद होता है, पुरुषवेद होता है और नपुंसक वेद होता है । 'अवेदगा नत्थि' ये अवेदक नहीं होते हैं । 'संचिणा जहनेण एक्क समय" अवस्थिति काल यहां जघन्य से एक समय का है और 'कोण' तेत्तीस सागरोवमाइ अतोमुत्तममहिया'
છે. તેઓ ક પ્રકૃતિયાના ખધ કરવાવાળા પણ હોય છે અને અધક પણ હોય છે આહાર વિગેરે રૂપ ચારે પ્રકારની સ'નાવાળા હોય છે, સ્ત્રીવેદ વિગેરે ત્રણે વેઢવાળા હોય છે અને તેના અધ કરવાવાળા હોય છે. દ્વીન્દ્રિય શતક એ છત્રીસમા શતકમાં આવે છે. તેનું નિરૂપણુ કરવામાં ૩૫ પાંત્રીસમા શતક ના અતિદેશ કહેલ છે. તેથી ૩૫ પાંત્રીસમાં શતકમાંથી જ આ તમામ પ્રકરણુ समोवु तेनु स्पष्टी आयु मा प्रभाथे छे. 'कण्हलेस्माण' वेदो तिविहो' કૃષ્ણલેશ્યાવાળાને ત્રણ વેદ હાય છે, એટલે કે-વિદ, પુરૂષવેદ અને નપુંસક वेह मे त्रये वेह होय . ' अवेद्गा नत्थि' या अवे होता नथी 'संचिणा जहणेण एक्क' समयं अवस्थिते आज धन्यथी अडिया मे समयना डेस ले भने 'उक्कोसेणं वेत्तीस सागरोवमाइ अंतोमुहुत्तमम्भहियोइ" उत्कृष्टथी ये
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भगवती सूत्रे
यिधिकानि, इदं च कृष्णलेश्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियावस्थानं सप्तम पृथिव्युत्कृष्टस्थिति पूर्वभवपर्यन्तवर्त्तिनं च कृष्णलेश्या परिणाममाश्रित्य कथितमिति । ' एवं ठिए वि' एवं स्थितावपि एवं संस्थानवदेव स्थित अपि जघन्येनैकं समयमुक्क र्पेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि | 'नवरं ठिईए अंतो मुहुत्तममहियाई न भन्नंति' नवरं - केवलं स्थित अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि, अवस्थानं पूर्वमपर्यन्तवर्त्तीकालोगृहीतः आयुष्कं तु न तदपेक्षया अतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिह न कथितमिति अन्तर्मुहर्त्ताभ्यधिकानि न भण्यन्ते । ' सेसं जहा एएसिं चेत्र पढमे उद्देस जाव अनंतखुत्तो' शेषमवस्थानस्थित्यतिरिक्त सर्वमपि यथा एतेषां संक्षिपञ्चेन्द्रियाणामेव चत्वारिंउत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त अधिक ३३ सागरोपम का है। यहां जो इसका काल कहा गया है वह सप्तन पृथिवी के नारक की उत्कृष्ट स्थिति और पूर्वभव पर्यन्त च कृष्णलेश्या के परिमाण को आश्रित करके कहा गया है । ' एवं टिईए वि' संस्थान के जैसे ही स्थिति भी जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की है यहां एक अन्तर्मुहुर्त्त अधिक नहीं कहना चाहिये । अर्थात् अवस्थान में पूर्वभव पर्यन्तवर्ती काल गृहीत हुआ है। इसलिये वहां एक अन्तर्मुहर्त की अधिकता कही गई है परन्तु आयुष्क में यह अपेक्षा होती नहीं है । इसलिये यहां अन्तर्मुहूर्त को अधिकना नहीं कही है । 'सेसं जहा एएसि चेत्र पढने उद्देलए जाव अनंतखुत्तो' इस प्रकार अवस्थान और स्थिति के अतिरिक्त और सब कथन इन संजिपंचेन्द्रियों के सम्बन्ध में ४० वें शतक के प्रथम उद्देशक में जैला कहा गया है वैसा ही यहां भी અંતર્મુહૂત અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરાપમનેા છે. અહિયાં જે આ પ્રમાણેને તેઓના કાળ કહેલ છે, તે સાતમી પૃથ્વીના નારકની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અને પૂર્વભવ પન્તમાં રહેલ કૃષ્ણુલેશ્યાના પરિણામને આશ્રય કરીને કહેલ છે, 'एक' ठिईए वि' संस्थानना थन प्रभा ४ स्थिति याशु धन्यथी मे સમય અને ઉત્કૃષ્ટથી ૩૩ તેત્રીસ સાગરાપમની છે. અહિયાં એક અંતમુહૂતનું અધિકપણુ કહેલ નથી. અર્થાત્ અવસ્થાનમાં પૂર્વભવ પર્યન્તવૃતિકાળ ગ્રહણ થયેલ છે. તેથી ત્યાં એક અન્ન નુ અઘિકપણુ કહ્યુ` છે, પરંતુ આયુષ્યકમાં તે અપેક્ષા રહેતી નથી. તેથી અહિયાં એક અંતર્મુહૂ अधियाशु उडेस नथी 'सेस' जहा एएसि चेव पढमे उद्देस जाव अणतखुत्तो' मा रीते अवस्थान मने स्थितिना स्थन शिवाय ખાકીનું સઘળું કથન આ સની પચેન્દ્રિયના સમૃધમાં ૪૦ ચાળીસમા શત
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श. २ कृष्णलेश्य कृ. कृ. संनिपञ्चेन्द्रिया
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शत्तमशतकस्य प्रथममोद्देश के कथित तथैवेहापि ज्ञातव्यम् । कियत्पर्यन्तं ? तत्राह 'जाव' इत्यादि, 'जात्र अर्णवखुत्तो' यावदनन्तकृत्वः, अथ भदन्त ! सर्वे पाणा यावत् सर्वे सत्याः कृष्णलेश्य संज्ञि पञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्न पूर्वाः किम्, हे गौतम! अनन्तकृत्वः समुत्पन्न पूर्वी: इत्तरपर्यन्तं ज्ञातव्यमिति । एवं सोलस वि जुम्मेसु' एवं कृष्णलेश्य कुन युग्म कृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां यथा उपपातादिः कथित स्तेनैव रूपेण पोडशसु युग्मेषु कृष्णलेश्य कृतयुग्मम्योजाद् द्वितीय युग्मादारभ्य कल्पोजल्योनपर्यन्तेषु यावदनन्तकृत्य इत्यादिकं वक्तव्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति तदेवं सदन्त ! तदेव भदन्त । इति ||
जानना चाहिये । और यह कथय यावत् समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व अनन्तवार हल रूप से पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं इस पाठ तक ज्यों का त्यों कहलेना चाहिये । 'एवं सोललख वि जुम्सेछु' जिल्ल रीति से यह कृष्णइलेणवाले कृतयुग्म कृतयुग्म संत्री पचेन्द्रियों का उपपात आदि कहा है उat प्रकार से उसी रीति से कोलह युग्मों में- कृष्णलेश्याचा कृतयुग्म ज्योजराशि संजी पचेन्द्रिय रूप हिन्दी युग्म से लेकर फल्पोज कल्पोज राशिप्रति कृष्ण लेणवाले पंजी पचेद्रय के जीवों में समस्त प्राण यावत् नमस्त लरख अनवावार उत्पन्न हो चुके हैं" इत्यादि सब कहलेना चाहिये ।। 'लेव' भते सेवं अंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा हृत्य ही है २ । इस प्रतर कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
કના પહેલા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અહીયા પણું સમજવું. અને આ કથન યાવત્ સઘળા પ્રાણેા સઘળા Õા અનતવાર આ રૂપથી પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂકેલ છે, આ ૫૪ સુધી જેમનું' તેમ કહેવુ જોઇએ. ' एवं सोलससु विजुम्मेसु' प्रमाणे भाष्यसेश्यावाणा कृतयुग्भ मृतयुग्भ સ ́જ્ઞી પચેન્દ્રિયાના ઉપપાત કહેલ છે, એજ પ્રમાણે-સાળે યુગ્મામાં કૃષ્ણુલેયવાળા કૃતયુગ્મ ગ્યેજ રાશિપ્રમાણવાળા સની પચેન્દ્રિય રૂપ ખીજા યુગ્મથી લઇને કલ્ચાજ લ્યેાજ રાશિપ્રમાણવાળા કૃષ્ણલેફ્સાવાળા સ'ની પચેન્દ્રિય જીવામાં સઘળા પ્રાથેા ચત્ સઘળા સત્વે અન’તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, વિગેરે સઘળુ' કથન કહી લેવુ જોઇએ
'सेव भवे । सेव' भते । त्ति' हे भगवन् याय देवानुप्रिये या विषयभां જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે, હે ભગવત્ આપનું
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भगवतीस्त्रे 'पढमसमय कण्ह लेस्स फडजुम्मकड जुम्म सन्निपंचिंदियाणं भंते ! को उपवति' प्रथमसमय कृष्णलेश्य कृतयुग्म कृतयुग्म संक्षिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते फि नरयिकेभ्यो यावद् देवेभ्यो वेति प्रश्ना, उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण-'जहा' इत्यादि, 'जहा सन्नि पंचिंदिय-पढमसमय उद्देसए तहेव निरवसेसं' यथा संज्ञिपञ्चेन्द्रिय प्रथमसमयोद्देशके चत्वारिंशच्छतकस्य प्रथमशत द्वितीयोदेशके सत्रापि अतिदेशेन प्रथमोदेशके यथा कथितं तेनैव रूपेण निरवशेष सर्वमपि अत्र भणितव्यम् । 'नवरं ते णं भते ! जीव कण्हलेस्सा' नवरं केवलमयं विशेषः ते खल ___ पढमसमय कण्हलेस कड जुम्मकडजुम्न सन्नि पचिदिधाणं भंते ! फओ उववज्जति' इत्यादि
टीकार्थ-हे भदन्त ! प्रथम समयवर्ती कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित संज्ञी जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्नहोते है ? अतिदेश द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्थामी से कहते हैं'जहा सन्निपचिंदिय पढमसमय उद्देसए तहेव निरवसेस' हे गौतम ! जैसा प्रथम समयवर्ती संजीपंचेन्द्रियों के उद्देशक में कहा गया है४० वे शतक के प्रथम शतके द्वितीय उद्देशक में-वहां पर भी अतिदेश से प्रथम उद्देशक में-जैसा कहा गया है उसी रूप से सब कथन यहां पर કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ___'पढमसमय कण्हलेस्स कडजुम्मकडजुम्म पचिदियाण भावे ! को उववज्जति' હે ભગવદ્ પ્રથમ સમયમાં રહેનારા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુમ કૃતયુગ્મરાશિ પ્રમાણવાળા સંક્ષીપંચેન્દ્રિય છે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૈરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર અતિદેશ દ્વારા આપતાં प्रभुश्री छे ,-'जहा संन्निपचिदिय पढमसमयउद्देसए तहेव निरवसेस' હે ગૌતમ! પ્રથમ સમયમાં રહેલા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયેના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એટલે કે-૪૦ ચાળીસમા શતકના પહેલા શતકના બીજે ઉદેશ
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.२ प्र. समय कृ. क.कृ. संक्षिपञ्चेन्द्रिया ६५५ भदन्त ! जीवाः कृष्णलेश्याः केवलं चत्वारिंशत्तमशत के प्रथमशतापेक्षया द्वितीयशते कृष्णलेश्यपद घटितया प्रश्नः कर्तव्यः तथा तद् घटितरूपेण उत्तरं दातव्यमेतदेव वैलक्षण्यमिति, ‘सेसं तं चेव' शेपं तदतिरिक्त सर्वमपि प्रथमसमय कृतयुग्मोद्देशकत्र देवज्ञातव्यमिति । 'एवं सोलससु वि जुम्मेसु' एवं यथा कृष्णलेश्यकृतयुग्म कृतयुग्मे कथितं तथैव पोडशसु कृष्णलेश्य कृतयुग्म योजादारभ्य फल्योज कल्योज पर्यन्तेष्वपि सर्वमुपपातादिकं ज्ञातव्यमिति । सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चत्वारिंशतमे शतके द्वितीय प्रथसमय कृष्णलेश्य कृतयुग्म
कृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय शतम् समाप्तम् ।। भी कर लेना चाहिये । 'नवरं तेण भंते ! जीवा कण्हलेस्ता' हे भदन्त । क्या वे सघ जीव कृष्णले वाले हैं ? 'हंता, कण्हलेस्सा' हां गौतम वे सय जीव कृष्णवेश्यावाले है-तात्पर्य इसका ऐसा है कि ४०वें शतक के प्रथम शतकी अपेक्षा इस द्वितीय शत में कृष्णलेश्यापद लगाकार प्रश्न कहना कहा गया है और उसी पदको रखकर उत्तर देना कहा गया है यही दोनों में अन्तर है ऐसा जानना चाहिये । 'सेस तं चेव' इसके सिवाय
और सब कथन प्रथम समयवती कृतयुग्मकृतयुग्म राशिमित संज्ञि पचेन्द्रियो के उद्देशक के जैसा ही है । 'एवं सोलसप्लु वि जुम्मेसु इस प्रकार जैसा कृष्णलेश्या कृतयुग्म कृतयुग्म में कहा गया है वैसा ही कृष्णलेश्य कृतयुग्म योज से लेकर फल्योज कल्योज तक के सोलर પ્રમાણે કહેવાનું કહેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ. 'नवर तेण भते । जीवा कण्हलेस्सा' परंतु विशेषपा से छे 2-3 मापन शु तसा सवा । वेश्यावा डाय छ १ 'हता कण्हलेस्सा' હા ગૌતમ! તે બધા જ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા હોય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ચાળીસમા શતકના પહેલા શતકની અપેક્ષાથી આ બીજા શતકમાં કૃષ્ણલેશ્યાપદ લગાવીને પ્રશ્ન કરવાનું કહેલ છે. અને એજ પદને રાખીને ઉત્તર આપ न. 'सेस चेव' मा ४थन शिवाय मीनु सघणु ४थन प्रथम समयमा રહેલ કૃતયુમ કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયના ઉદ્દેશાના કથન प्रमाणे ४ छ 'एव सोलससु वि जुम्मेलु' मारीने वेश्यावाणा तयुगम કૃતયુગ્મમાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા કૃતયુમ જથી લઈને
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भगवती सूत्रे
युग्मों में भी समस्त उपपात आदि कह लेना चाहिये | 'सेव' भते ! सेव भ ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह सब कथन सत्य हीं है २ । इस प्रकार कहकर गौममस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती" की प्रमेषवन्द्रिका व्याख्याके चालीसवें शतक का प्रथम समय कृष्णलेश्य कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रिय नाम का द्वितीय शत का द्वितीय उद्देशक समाप्त કલ્ચાજ કલ્યેાજ સુધીના સેળ યુગ્મામાં પશુ ઉપપાત વિગેરે સઘળુ* કથન हड्डी सेवु लेखे.
'सेव ं मंते ! सेव ं ! भंते ! त्ति' हे भगवन् आय हेवानुप्रिये उथन अरेस છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવત્ આપતુ· કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
જૈનાચાય જૈનધર્માં દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ચાલીસમા શતકનું પ્રથમ સમય કૃષ્ણુલેશ્ય કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સનિપંચેન્દ્રિય નામના ખીજા શતકના ખીજે ઉદ્દેશે સમાપ્ત !!
品
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चन्द्रिका टीका श०४० अ. शे. २ अप्र. समय कृ. कुं. कृ. संनिपञ्चेन्द्रियाः ६५३
'एवं एएव उद्देगा कण्हलेस्ससए' एवमेतेऽमथम समयादारभ्य चरमाचरम समयपर्यन्ता एकादशापि नव उद्देशकाः सङ्कलनया एकादश देशका भवन्ति कृष्णलेयशतके । तत्र 'पढमतइयपचमा सरिसगमा' प्रथम तृतीय पञ्चमा इति उद्देशकत्रयम् सदृशगमं सदृश प्रकारकमिति । 'सेसा अट्ठ वि एक्कगमा' शेषा अष्टौ द्वितीयचतुर्थषष्ठसप्तमाष्टमनवमदशमैकादशोदेशकाः सदृशाः समानालापका भवन्तीति | 'सेवं भंते ! सेवं भने ! तदेव भदन्त तदेव भदन्त ! इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके द्वितीयं संज्ञेिमहायुग्मशतं समाप्तम् ||४०|२||
टीकार्थ- 'एवं एएवि उद्देसगा कण्हलेस्ससए' इसी रीति से अप्रथम समय से लेकर चरम समय पर्यन्त बाकी के नौ उद्देशक होते हैं - अतः पहिले के दो उद्देशक और ९ उदेशक ये कुल ११ उद्देशक इस कृष्णलेइय शतक में होते हैं । इन में 'पढमतश्य पंचमा सरिसगमा' प्रथम तृतीय और पंचम वे तीन उद्देशक एक सरीखे आलापवाले हैं और 'सेसा अट्ठ वि एक्कगमा' बाकी के द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और ११ वां ये आठ उद्देशक समान आलापवाले हैं । 'सेव भ'ते । सेव' अते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को चन्दना की नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
||४० वे शतक में दूसरा संज्ञिमहायुग्म शत समाप्त ४०-२ ॥
'एव' एवि उदेगा कण्हलेस्ससए' आन तिथी अप्रथम समयथी सघने ચરમ અચરમ સમય પન્ત ખાકીના નવ ઉદ્દેશ એ થાય છે. જેથી પહેલાના એ ઉદ્દેશાઓ અને આ નવ ઉદ્દેશાઓ મળીને કુલ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશ એ या कृष्णुतेश्या शतम्भां होय छे, तेमां 'पढमतइयपंचमा सरिसगमा' पडेला ત્રીજો અને પાંચમે એ ત્રણ ઉદ્દેશાએ એક સરખા આલાપવાળા કહ્યા છે. भने 'सेसा अट्ट वि एकगमा' माडीना गीले, थोथे, छी सातो, आठभेो, नवभेो, દશમા, ૧૧ અગિયારમે આ આઠ ઉદ્દેશ એ સરખા આલાપકાવાળા કહ્યા છે.
सेव ं भ'ते ! सेव' भते । त्ति' हे भगवन् याय हेवानुप्रिये ने उधन यु છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ॥ ૪૦ ચાળીસમા શતકમાં ખીજું સંજ્ઞી મહાયુગ્મ શતક !! સમાસ ૪૦-૫
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भगवतीस्त्र ॥ अह तइयं सन्निमहाजुम्मसयं ॥ मूलम्-एवं नीललेसनेसु वि सयं । नवरं संचिटणा जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं दससागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई । एवं तिसु उद्देसएसु सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥
॥ चत्तालीसइमे सए तइयं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं ॥
छाया--एवं नीललेश्येष्वपि शतम् । नवरं संस्थाना जघन्येनैकं समयम् उत्कर्पण दशसागरोपमाणि पल्योपमस्यासंख्येयभागाभ्यधिकानि । एवं त्रिदेशकेषु शेष तदेव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति
।। चत्वारिंशत्तमे शतके तृतीय संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०॥३॥
टीका--'एवं नीलले स्सेसु वि संयं' नीललेश्येष्वपि शत यथा कृष्णलेश्या शतं निरूपित तेनैत्र रूपेण नीलटेश्यशतमपि भणितव्यम् । प्रथमसमयादिका एकादशोदेशका अपि पूर्वदेव ज्ञातव्याः। 'नवरं संचिगुणा जहन्नेणं एक समय' नवर संस्थाना-अवस्थितिकालः जघन्येनैक समयम् 'उक्कोसेणं दस. सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई' उत्कण दश सागरोप माणि पल्पोपमस्यासंख्य मागाभ्अधिकानि पश्चमनारकपृथिव्या धूमपभाया
शतक ४० तृतीय संज्ञि महायुग्म शत टीकार्थ-'एवं नील छेस्सेस्सु वि सय' जिस प्रकार से कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में शत निरूपित हुआ है, उसी प्रकार से नीललेश्या घालों के सम्बन्ध में भी शतक निरूपित कर लेना चाहिये । यहाँ पर भी प्रथम समयादिक ११ उद्देशक पहिले के जैसा ही जानना चाहिये। 'नवर सचिट्ठणा जहन्नेणं एक समय परन्तु यहां पर अवस्थान काल जघन्य से एक समय का हैं और उत्कृष्ट से पल्पोपम के असं.
ત્રીજા સંસી મહાયુમ શતકને પ્રારંભ– एवं नीललेस्सेसु वि सय" रे प्रमाणे वेश्याणासाना समयमा પ્રાતક કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે નીલલેશ્યાવાળાના સંબંધમાં પણ શતકનું નિરૂપણ કરી લેવું જોઈએ. અહિયાં પણ પ્રથમ સમય વિગેરે ૧૧ मनियार शाम पडे। प्रमाणे समा 'नवर सचिटणा जहन्नेण एक्क प्रमय परतु महियां अस्थान न्यथी से सभयना छ, भने હિષ્ણથી પાપમના અસંખ્યાત ભાગ અધિક દશ સાગરોપમનો છે. આ
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प्रमेयचन्द्रिकारीका २०४० अ.श.३ नीललेश्य समिमहायुग्मशतम् ६५५ उपरितनारतटे दशसागरोपमाणि एल्योपमस्यासंख्येयभागाधिकान्यायुः सम्भवति नीकलेश्या च तत्र स्यादत उक्तम् 'उक्कोसेणं' इत्यादि, यदिह पूर्वभवस्यान्तिमान्तर्मुहूर्त तत्एल्योपमस्यासंर येयभागे एव सन्निवेश्य प्रकृष्टमिति न भेदेन कथिमिति भावः । एवं ठिईप वि' एवं भवस्थितिकालव देव स्थितावपि ज्ञात. व्यम् । इति । 'एवं तिसु उद्देसएसु' एवं त्रिष्वपि प्रथमतृतीयपश्चमे पृद्देशक त्रयेषु नवर मित्यादिना कथितं लक्षण्यं ज्ञातव्यम् । 'सेसं नवरमित्यादिना यद्वै. लक्ष्यं दर्शितं तदतिरिक्त सर्व प्रथम शतवदेव ज्ञातव्यम्, इहापि एकादश देशकाः ख्यात वे भाग अधिक दश सागरोपम का है । यह उत्कृष्ट काल पांचवीं धूमप्रभा नरक पृथिवी के ऊपर के प्रतर की अपेक्षा से कहा गया है। क्यों कि यहां पर उत्कृष्ट आयु पल्योपम के असंख्यात ३ भाग से अधिक दश सागरोपम की है वहां नीवलेश्या है। यहां जो पूर्व भत्र का अन्तिम अन्तर्मुहूर्त्त गणना में नहीं आया है उसका कारण उस पल्योपम के असंख्यात वें भाग में समाविष्ट कर लेना है । 'एच ठिई ए वि' अवस्थान काल के जैसी ही भवस्थिति यहां है । 'एवं तिसु उद्देस एसु' 'नवरम्' पद से जो अवस्थान काल में एवं भवस्थिति में यह भिन्नता कृष्णवेश्याशत की अपेक्षा प्रकट की गई है सो ऐसी ही भिन्नता इनकी प्रथम तृतीय और पञ्चम इन तीन उद्देशकों में भी जाननी चाहिये । 'सेस त चेव' बाकी का और सब कथन प्रथम शत के ही जैसा है । यहां पर भी पूर्व के जैसे ११ उद्देशक हैं और इन ઉત્કૃષ્ટકાળ પાચમી ધૂમપ્રભા નરક પૃથ્વીના ઉપરના પ્રતરની અપેક્ષાથી કહેલ છે. કેમ કે ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગથી વધારે દશ સાગરેપનું છે. ત્યાં નલલેશ્યા છે. અહિયા જે પૂર્વભવનું છેલ્લું અંતમુહૂર્ત ગણનામાં આવેલ નથી. તેનું કારણ તેને પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગમાં સમાવેશ કરી લેવાનું છે.
"एवं ठिईए वि' अवस्थान mi Hit प्रभानु सपस्थितिर्नु ४थन ४९८ छ 'एवं तिसु उद्देसएसु' 'नवरम्' ५६धा २ मवस्थान सभा भने ભવસ્થિતિમાં આ ભિન્નપણુ કુષ્ણુભેચ્છા શતકની અપેક્ષાથી પ્રગટ કરેલ છે અને એજ પ્રમાણેનું ભિન્ન પણ તેના પહેલા, ત્રીજા, અને પાચમા આ ત્રણ हेशासमा ५५] समायु:. सेस त चेव' श्रीन जी सघणु थन पता શતકના કથન પ્રમાણે જ છે અહિયાં પણ પહેલા પ્રમાણે ૧૧ અગિયાર ઉદેશાઓ છે. અને તે અષામાં આલાપને પ્રકાર પણ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે.
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भगवती सूत्रे
पूर्ववदेव ज्ञातव्याः सर्वत्राऽऽलापमकारः पूर्ववदेवोहनीयः 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकलापाळापकमविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य ' पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यथी घासिळालवतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चत्वारिंशत्तमे शतके तृतीयं नीललेश्य सज्ञि महायुग्म शतं समाप्तम् ||४० - ३ ॥
99
सब में आलाप प्रकार भी पूर्वके ही जैसा है । 'सेव' भंते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! आपका यह सब कथन सर्वथा सत्य ही २ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये |४०|
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चालीसवें शतक का तृतीय नीललेश्य संज्ञि महायुग्म शत समाप्त ॥ ४० - ३॥
'सेव भ'ते ! सेव' भवे ! त्ति' हे भगवन् याप हेवानुप्रियतु या विषय સંબધી સઘળુ' કથન સથા સત્ય છે. હે ભવગય દેવાનુપ્રિયે કહેલા આ સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
જૈનાચાય જૈનધર્મ દિવાકર પુજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર’ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યના ચાળીસમા શતકમાં ત્રીજુ નીલલેશ્યાવાળુ સજ્ઞી મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ।।૪૦-૩૫
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श. ४ कापोतलेश्य संशिमहायुग्मशतम् ६५७ 'अह चस्थ सन्निमहाजुम्मस'
"
मूलम् - एवं काउलेस्सलयं पि । नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोलेणं तिन्नि लागरोबसाई पलिओक्सस्स असंखेज्जइयागपव्यहियाई । एवं टिईए कि, एवं ति वि उद्देसएस सेसं तं चैव । सेवं भंते ! सेनं भले ! ति ॥
चत्तालीस इमे सए चउत्थं तन्नियहा जुम्मालयं समन्तं ॥४८-४॥
छाया--एवं कांतलेशण्शतमपि । नवरं संस्थाना जघन्येनैकं ममयम् उत्कर्पेण त्रीणि सागरोपमाणि प्ल्योपगस्यासंख्येयमानाभ्यधिकानि एवं स्थिता aft | एवं त्रिपि उद्देश केपु, शेष तदेव ! उदेनं सन् | तदेवं भदन्त । इति । ॥ इति चन्यानि चतुर्थासम् ||४०|४||
टीका -- 'एवं काउलेस्तस्यं पि एवं यश कृष्णदेश कतिं वथैव कापोतश्यशतमपि वक्तव्यम् । अत्रापि पूर्ववदेव औधिकमथगलमयाचारभ्य चरमाचरमसमयपर्यन्ता एकादशोदेशका अपि वक्तव्याः । केवलं पूर्वापेक्षयाऽस्य शतस्य यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयति-' इत्यादिना, 'रं संचार एव
शरु ४० चतुर्थ संज्ञि युग्म रात 'एवं जाउलेस' विनर डिना' एत्यादि टीकार्थ- जैसा कृष्णयेयावालों से सम्बन्ध में पूर्व में कहा गया है उसी प्रकार से कापोतावालों के सम्बन्ध में भी यह शत कह लेना चाहिये। यहां पर भी पूर्व के जैसे औधिक प्रथम लेकर चराचरम् समय तक ११ उद्देशक है । परन्तु जो दिन पूर्व की अपेक्षा इस शत में है वह 'स्वर' पचिणा जरगोणं एक्त समय उक्कोसेण तिन्नि सागरोवलाई पलिघोषपरल असंखेज नागमन्भચેથા સનિ મઠ્ઠાયુગ્મ શતકના પ્રારંભ~~~~ 'एव काउले सय वि नवर सचिणा' इत्यादि
आदि से
ટીકા કૃ‚લેશ્યાવાળાએાના સમ્બન્ધાં પૂ`શતકમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે કાપાતલેસ્યાવાળાએના સમ્બન્ધમા પણ આ શતક કહેવુ જોઈએ અહિયા પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે ઔધિક પ્રથમ સમય વિગેરેથી લઈ ને ચરમા ચરમ સમય સુધી ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે, પરંતુ જે ભિન્નપણુ પહેલા શતક઼ા કત્તા આ કધનમા આવે ते 'नवर' सचितॄणा जण
भ० ८३
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भगवतीस्त्र समयं संस्थाना-अवस्थितिकालो जघन्येनैकं समयम् 'उक्कोसेणं विन्नि सागरो. बमाई पलिओन्मस्स असंखेज्जइमागममहियाई' उत्कर्पण त्रीणि सागरोपमाणि पल्योपमस्यासंख्येयभागाभ्यधिकानि इदं तु कथनं तृतीयपृथिव्या उपरितन मस्तटस्थितिमाश्रित्य तीर पृथिव्या उपरितलग्रस्तटे पल्योपास्यासंख्येयभागाधिकानि त्रीणि सागरोपगाण्यायुभवतीति पूर्वभवासिमान्तर्मुहूर्त तु पार्थक्येन न कथितं तादृशान्त महत्तस्य एल्योपमासंख्येभाग एक समाविष्टत्वादिति । एवं ठिईए वि' एवं स्थितावपि स्थितिरपि जघन्येन एकसमयात्मिका उत्कर्षेण परयोपमरयासंख्येयभागाधिका निसागरोपमयमाणैव ज्ञातव्या इति । 'एवं तिसु वि. उद्देसएसु' एवं निष्वपि प्रथमतृतीयपश्चयेद्देशकेषु अवस्थानकालस्थितिकालो जघन्योत्कृष्टाभ्यां क्रमशः कथितप्रकारेण समयमात्रः, पल्योपमासंख्येयभागाभ्यहियाई' इस स्मृत्र पाठबारा सूत्रकार प्रकट करते हैं-यहां अप्रस्थान काल जवन्ध से एक लय का है और उत्कृष्ट से पस्योत्रम के असंख्यातवें भाग से अधिक तीन सागरोपन का है। यह कथन तृतीय पृथिवी के उपरितन प्रस्तट की स्थिति को लेकर कहा गया है। क्योंकि यहां पर पल्यापम के अवख्यातवें भागले अधिनतीन सागरोपन की स्थिति है। यहां पर भी पूर्वअध अन्तर्मुहर्त पृथक्रूप से नहीं कहा गया है क्योंकि इसका समावेश पत्योपम के अख्यातवें भाार्मे कहा है । 'एवं ठिईए वि' उसी के जैसी स्थिति भी है। अर्थात् जघन्य स्थिति एक समय की
और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपन के असंख्याल में आग से अधिक तीन सागरोपम की है। 'एवं तिस्तुनि उद्देसरसु' इसी प्रकार से अवस्थान काल और स्थितिकाल जघन्य और उत्कृष्ट प्रथम, तृतीय और पंचम एक्क समय उक्कोसेण तिन्नि सागरोवमाइ पलियोवमस्स अस खेज्जइभागमभहियाई' मा सूत्रपाई द्वारा सूत्र॥५४८ अरेस छे. पहियां अवस्थान જઘન્યથી એક સમયને છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પપના અસંખ્યાતા ભાગથી વધારે ત્રણ સાગરોપમનો છે. આ કથન ત્રીજી પૃથ્વીના ઉપરના પ્રસ્તરની સ્થિતિને લઈને કહેલ છે. કેમ કે-અહિયાં પપમના અસંખ્યાતમા ભાગથી વધારે ત્રણ સાગરોપમની સ્થિતિ છે. અહિયાં પણ પૂર્વભવને અંતર્મુહૂર્ત અલગરૂપથી કહેલ નથી કેમ કે તેને સમાવેશ પલ્યોપમના અસંખ્યાતમાં भागमा ४ छे. 'एवं ठिईए वि' मन स्थिति पतना प्रमाणे । छे. અર્થાત્ જઘન્ય સ્થિતિ એક સમયની કહેલ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પલ્યોપમના असभ्यतभा माथी पधारे त्रए सागरामनी छ. 'एवं तिसु वि उद्देसएसु' આજ પ્રમાણે અવસ્થાનકાળ અને સ્થિતિકાળ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી પહેલા
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मैन्द्रका टीका श०४० अ. श.५ तेजोलेश्य संक्षिमहायुग्मशतम्
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धिक त्रिसागरोपमप्रमाणचेति ज्ञादव्यौ । 'सेसं तं चैव' शेर्पा - तदतिरिक्तं सर्वम् प्रदेशकत्रितयेषु तथा शेपाटोदेशकेषु मथमशतददेव ज्ञातव्यमिति । अत्रापि पूर्ववदेवैकादशोदेशका ज्ञातव्या इति । 'सेवं भंते । सेवं भंते चि तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ।
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके चतुर्थ संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ||४०|४|| || 'अद पंचमं सन्निमहाजुम्मसये ॥
मूलम् - एवं तेउलेले वि सयं । नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोलेणं दो लागरोबसाई पलिओवमस्त असंखेज्जइ भागमन्महिचाई । एवं ठिईएसु वि । नवरं नो सन्नोवउत्ता वा । एवं तिसुदि उद्देएस सेसं तं चैव । सेवं भंते सेवं भंते! त्ति । ४०-५।
इन उद्देशकों का भी है ऐसा जानना चाहिये । 'सेस' त' चेव' बाकीका और कथन इन ३ उद्देशकों में एवं अवशिष्ट आठ उद्देशकों में प्रथम शतक के जैसा ही जानना चाहिये । यहां पर भी पूर्व के जैसे ही ११ उदेशक हैं । 'सेव' भते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया । चन्दना नमस्कार कर फिर वे गौतम संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
४० वे शतक में यह चतुर्थ संज्ञि महायुग्म शत समाप्त ||४०-४॥
नील, मने पांयभा उद्देशानां हे ते समभवु' 'सेस' त' व'ते શિવાય ખાકીનુ` બીજું સઘળું કથન આ ઉદ્દેશમાં અને . ખાકીના આઠ ઉદ્દેશામાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણે ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે.
'सेव' भते ! सेव' भते ! त्ति' हे भगवन् याय हेवानुप्रिये ? प्रभा भा વિષયમાં કહેલ છે તે સઘળું કથન થા સત્ય જ છે. હું ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું આ વિષય સખશ્રીનું સધળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પ્રસૂ૦૧૫ Uચાળીસમા શતકમાં આ ચૈત્યુ' સઝિમહાયુગ્મ નામનું' શતક સમાસ ૫૪૦-૪ા
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गवतीसो छाया-एवं तेजोलेश्येष्यपि शतम् । नवरं संरथाना जघन्येन एक समयम् उत्कर्पण द्वे सागरोपमे पल्योपमस्यासंख्येयभावाश्यधिके । एवं स्थितावपि । नवरं नो संज्ञोपयुक्ता वा । एवं त्रिष्वपि उद्देशकेषु शेपं तदेव । तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥४०१५।।
टीका---'एवं तेउलेस्सेलु वि सयं' एवं तेजोलेश्येप्यपि शतम्, तेजोलेश्यः कृतयुग्म कृतयुग्म संजिपश्चिन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुन उत्पधन्ने कि, नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्यो दा आगस्योत्पयन् ? इत्यादि समग्रमापि एतच्छतकीय प्रथमशत मत्रावर्तनीयम् । प्रथाशतापेक्षया यद्वै लक्षण्यं तहर्शयति-'नवरं' इत्यादिना'नवरं संचिगुणा जहन्नेणं एक सगयं' नवरं संस्थाना-अवस्थितिकालो जघन्येन एक समयम्, 'उक्कोसेणं दो सागरोबमाई पलिमोवमस्म अंपख जइमागमभहियाई" उस्मर्पण हे सागरोपमे पल्पोपमस्यासंख्येयमागाभ्यधिक पल्योपमा
शनक ४० पांचवां लजि महायुग्म शत 'एब उरलेलुकिम" इत्यादि
टीकार्थ-हे लात कृतयुग्म कृतयुग्म राशिमिर तेजोलेश्यावाले संज्ञि एंजेरियडीव तिलरथानशिले आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्यावे लैचिको मार के कारणोते ? अथवा यावत् देवों में से आकार के उत्पन होते ? इत्यादि रूप ले बाम्पूर्ण प्रथम शन इसी ४० बाराको कलेला ये परन्तु यहां जो प्रथम शत की अपेक्षा कमजतार है, उ बर सचिणा जहन्नेणं एक्क समय उसोदेणं दो सामरोकमाइ, पलिओचमस्त असंखेजहभाग मन्भहियाई' लूकार ने इस स्त्रपाठ द्वारा प्रदर्शित किया है-यहां
પાચમા સંસી મહાયુગ્મ શતકનો પ્રારંભ– 'एव ते उलेस्सेसु वि सय' त्यादि
ટીકાઈ–હે ભગવદ્ કૃતયુમ કૃતયુ રાશિપ્રમાણુવાળા તેજેશ્યાવાળા સંગ્નિ પંચેન્દ્રિય જી કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન થાય છે? શું તેઓ મિયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યંચનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનમાથી આવીને ઉત્પન થાય છે ? અથવા દેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ વિગેરે પ્રકારથી આ ચાળીસમા શતકનું પહેલું શતક સંપૂર્ણ રીતે અહિયાં કહેવું જોઈએ. પરંતુ તે પહેલા शतना ४थन ४२ता मिडिया रिशा छ, त 'नवर सचिटणा जहण्णेण एक्क समय उक्कोसेण दो सागरोंवमाइ पलिओवमस्स असंखेज्जइभागभभहियाई' સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. અહિયાં અવસ્થાન કાળ જઘન્યથી
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.५ तेजोलेश्य संनिमहायुग्मतम् ६६१ संख्येयभागाधिक सागरद्वयात्मकावस्थान काल कथन मीशानदेव परमायुराश्रित्य ज्ञातव्यमिति । 'एवं ठिईए वि एवं स्थितावपि एवमायुपः स्थितिरपि जघन्यो स्कृष्टाभ्यामेकसमयममाणा पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधिकद्विसागरोपमप्रमाणा च भवतीति भावः । 'नवरं नोसनोवउत्ता वा' नवरं तेजोलेग्य संक्षिपञ्चेन्द्रिया नो संज्ञोपयुक्ता वा भवन्तीति । एवं तिसु वि उद्देसएसु' एवमेव त्रिष्यपि प्रथम तृतीय पञ्चमोद्देशकेपि अवस्थिति स्थित्यादे ज्ञातव्यम् 'सेसं तं चेव' शेप-तदतिरिक्त सर्व त्रिदेशकेषु शेषाष्टोद्देशकेषु च तदेव प्रथमशतकोक्तमेव ज्ञातव्यमिति । 'से भंते ! सेव भंते । ति तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके पंचमं सज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०॥५॥ अवस्थान काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम का है ऐसे अवस्थान काल का कल यहां तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति को लेकर कहा गया है । क्यों कि ईशानदेवलोक के देवों की उत्कृष्ट आयु पल्पोपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम की है। 'एवं ठिईए वि' स्थितिकाल भी अवस्थान हाल के जैसा ही है । 'नवरं नो सन्नोवउत्ता' ये तेजोलेश्यावाले संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव नो संज्ञीपयुक्त भी होते हैं। 'एवं तितु वि उद्देसएसु' इसी प्रकार से अवस्थानकाल और स्थिति काल आदि का कथन प्रथम, तृतीय और पंचम इन तील उद्देशकों में भी कर लेना चाहिये 'सेसं तं चेव' इनके अतिरिक्त और लव कथन अवशिष्ट आठ उद्देशकों में ३ तीन और ८-११ उद्देशों में प्रथम शतक में जैसा कहा गया है वैसा ही है। 'सेव भते ! लेव मंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सप सर्वथा सत्य ही है। એક સમયને અને ઉત્કૃષ્ટથી પલ્યોપમના અસ ખ્યાતમાં ભાગથી વધારે બે સાગરોપમને છે. એવા અવસ્થાન કાળનું કથન અહિયાં તેજલેશ્યાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને લઈને કહેલ છે. કેમકે- ઈશાન દેવમાં દેવેનું ઉત્કૃષ્ટ આયુ પ. ५मना मस-या माथी पधारे में सागशेपमनु छे. 'एवं ठिईए वि' स्थिति ५ मनस्थान प्रभारी ४ छ. 'एवं तिमुवि देसएसु' मा પ્રમાણે અવસ્થાનકાળ અને સ્થિતિ કાળનું કથન પહેલા, ત્રીજ, અને પાચમાં આ ત્રણ ઉદ્દેશાઓમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. આ કથન શિવાય બીજુ સઘળું કથન બાકીના આઠ ઉદ્દેશાઓમાં ૩ અને ૮-૧૧ ઉદેશાઓમાં પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે છે.
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०
मेर १.द.
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હૃદય
भगवती सूत्रे
|| 'अह छद्धं महाजुम्म सयं ॥
मूलम् - जहा तेउलेस्सा सयं तहा पम्हलेस्सासयं पि । नवरं संचिणा जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दल सागरोमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई । एवं ठिईए वि । नवरं अंतोमुहुत्तं न भन्नइ । लेसं तं चैव । एवं एएसु पंचसु ससु जहा कण्हलेस्साए गमओ तहा नेयव्वो जाव अनंतखुत्तो । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति ॥
॥ चत्तालीस इसे लए छहं महाजुम्मतयं समन्तं ॥
छाया -- यथा तेजोलेश्याशतं तथा पद्मलेश्याशतमपि । नवरं संस्थाना जघन्येनैकं समग्रम् उत्कर्पेण दश सागरोपमागि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि । एवं स्थितावपि नवमन्तर्मुहूर्त्त न भण्यते शेषं तदेव । एश्मेतेषु पञ्चसु शतेषु यथा कृष्णश्याशते गमक स्तथा नेतृव्यो यावदन्तकृत्वः । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके पष्ठं संज्ञिमहायुग्मशवं समाप्तम् ||४०|६|| टीका - - 'जहा तेउलेम्सालयं वहा पहलेस्सासयं पि' यथा तेजोलेश्य इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघ और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
॥४० वे शतक में यह पांचवां संज्ञि महायुग्मशत समाप्त हुआ ||४०-५।। शतक ४० छट्ठा महायुग्म शत
'जहा तेडलेस्लामय' हा पम्हलेस्नामयं पि' हत्यादि ४० - ६॥ टीकार्थ - जिस प्रकार ११ उद्देशकों से समन्वित तेजोलेश्या शत
'सेव' भंते! सेव' भंते । त्ति' हे अगवन् याय देवानुप्रिये या विषयभां જે પ્રમાણે હેલ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળુ' કથન સ`થા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી અને નમસ્કાર કર્યો વઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
નાચાળીસમા શતકમાં આ પાંચમુ નાિ મહાચુગ્મ નામનું શતકે સમાપ્તા
॥४०-५॥
છઠ્ઠા મહાયુગ્મ શતકના પ્રાર ભ~
'जहा उसास' हा पम्हुलेस्सास पि त्याहि
જે પ્રમાણે અગિયાર ઉદ્દેશાઓવાળું તેોલેશ્યા શતક કહેલ છે, એજ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श. पद्मलेश्य संधिमहायुग्मशतम्
६६३
शतमेकादशो देशसंयुक्त भणितं तथा तेनैव प्रकारेण पद्मश्याशतमपि एकादशोद्देशक संयुक्त भणितव्यम् । एवमेव पेजोलेश्याशते यत् यद-यथा - यथा कथितं तत् तत् सर्वं तेनैव रूपेणात्र पद्मलेश्याशतेऽपि ज्ञातव्यमिति । तेजो
इन
यशापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति- 'नवरं' इत्यादिना 'नवरं संचिणा जह नेणं एक्कं समयं नवरं संस्थाना - तेपामवस्थितिकालो जघन्येन एकं समयम्एकसमयात्मकः 'उक्को सेणं दससागरोत्रलाई अंगेसुहुत्तममहियाई उपेणावस्थितिकालो दरासागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि । उत्कर्षेण दक्ष सामरोपकहा गया है । उसी प्रकार से यह पद्मलेश्वाशत भी एकादा उद्देशकों से समन्वित करके कह लेना चाहिये । इस प्रकार तेजोवेकप्राशन में जैसा जैसा कहा गया है वैसा बेला पद्मश्या शत में भी कहना चाहिये | परन्तु जो उसकी अपेक्षा यहां भिन्नता है उसे सूत्रकारने 'नवर' संचिणा जहन्नेणं एवकं समयं उक्लेसेणं दस लागरो माह" अतोमुत्तमम्भहियाई' हल सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया है यहां अवस्थान काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दश सागरोपम का है । उत्कृष्ट से अवस्थान काल जो प्रमाण का कहा गया है वह ब्रह्मलोक के देशों की आयु को आश्रित कर के कहा गया है । ब्रह्मलोक में पद्मश्या होती है और वहां इतनी आयु होती है। यहां जो इसे एक अन्तर्मुहूर्त्त को विशेषित किया है वह पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहर्त को आश्रित घर के दिया है । પ્રમાણે આ પદ્મવેશ્યા શતક પણુ અગિયાર ઉદ્દેશાએથી યુક્ત કહેવુ જોઈએ આ રીતે તે વૈશ્યા શતકમાં જે જે રીતથી કહેવમાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે આ પાલેશ્યા શતકમાં પશુ કહેવુ" જોઈએ. પરંતુ તે કથન કરતાં આ अथनभां ने विशेषयागु छे ते सारे 'नवर' संचिणा जहणेण एक्क' समय' उक्को से दस सागरोवमाइ अंतोमुत्तमम्भहियाइ' मा सूत्र पाठ द्वारा प्रगट रेस છે અહિયાં અવસ્થાનકાળ રહેવા ના સમય જઘન્યથી એક સમયને અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અત હત` દશ સાગરાપમના છે. ઉત્કૃષ્ટથી અવસ્થાન કાળનુ જે આ પ્રમાણુ કહેલ છે, તે બ્રહ્મવાકના દેવાની આયુષ્યને આશ્રય કરીને કહેલ છે. બ્રાલેાકમાં પદ્મàશ્યાય છે અને ત્યા તે પ્રમાણેનું આયુધ્ધ હોય છે. અહિયાં જે તેને એક અતર્મુહૂર્તનું વિશેષણ કરેલ છે તે પૂર્વભવના છેલ્લા
તમૂહને આશ્રય કરીને કરેલ છે. ત્તવ વિક્રૃત્ત વિ' સ્થિતિકાળ પણ स्वस्थान अण प्रभावेन हे 'नवर' अंतो मुद्दत्तं न भन्नइ' परंतु स्थितिक्षणना
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भगवतीस्त्रे माणीत्यादि यत् कथितं तद्ब्रह्मलोकदेवानाम्गयुराश्रित्येति ज्ञातव्यम्, ब्रह्मलोके हि पद्मलेश्या भवति एतावदायुश्च भवति अन्तर्मुहूतं च भाक्तन भावसानवर्तीति ‘एवं ठिईए चि' एवं स्थितावपि स्थितिरपि जघन्योत्कर्षाभ्यामेतावर घमाणैव । 'नवर अंतोयुहुत्तं न भन्नइ' नबरं केवलं स्थितौ अन्तर्मुहर्त न भण्यते दशसागरोपममात्रमेव वक्तव्यमिति । 'सेसं तं चेच' शेप-नवरसित्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्तं सर्व तेजोलेश्यावदेव वक्तव्यमिति । 'एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेस्साए गमओ उहा नेयो' एतेषु पञ्चछु शतेषु कृष्णनीलकपोततेजः पयलेश्याशतेषु यथा कृष्णलेश्याशते गमकस्तथैव गमको नेतव्यः सर्वाण्यपि एतानि शतानि कृष्णलेश्यशत्वदेव ज्ञातव्यानि, इति । एकादश एकादशौधिकाधुद्देशयुक्तानि । कियत्प'एव ठिईए चि' स्थितिमाल भी अचस्थानकाल के जैसा ही है। 'नवरं अंतोमुहत्तं न भन्नइ परन्तु स्थितिकाल के कान में अन्तर्मुहुर्त नहीं है अत: यहां स्थिलिकाल केवल दश लागरोपमा ही है। एक अन्तमुहूर्त अधिक दश सागरोपम का नहीं है। 'लेसंत चेव इन के सिवाय-अवस्थान और स्थिति काल के विना और लव पथन यहां तेजोलेश्या के कथन के जैसा ही है । 'एवं एएलु पंचसु सएसु जहा कण्हलेस्साए नमओ तक्षा नेययो' इस प्रकार इन पांच शतों में कृष्ण, नील, कापोत, तेज, और पद्मलेश्या शतों में-कृष्णलेश्या शत में जैसा पाठ कहा गया है उसी प्रकार से पाठ करना चाहिये । ये सब शत ११-११ उद्देशकों में से युक्त हैं । कृष्णलेश्या शत के जसे समस्त प्राण, यावत् समस्त सत्व कृष्णलेश्यावाले जीव रूप से पहिले यावत् अनन्नवार उत्पन्न हो चुके हैं। यहां तक का कथन કથનમાં અંતમૂહૂર્ત હોતું નથી. તેથી અહિયાં સ્થિતિકાળ કેવળ દય સાગરોभनी छे से मतमुड़त मधिर इस सागरोपमनी नथी 'सेसतं चेव' मा ४थन सिवाय अवस्थान मन स्थितिजना ४थन शिवाय माडीनु सघ ४थन मडियां तन्नेवेश्याना ४थन प्रभारी छे. 'एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेस्साए गमओ तहा नेयगो' मा रीत मा यांय शतामा એટલે કે કૃષ્ણ, નીલ, કાપિત તેજો અને પદ્મ લેશ્યાવાળા શતકમાં કૃષશુભેચ્છા વાળા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ પ્રકારનું કથન સઘળી લેશ્યાઓના સંબધમાં કહેવું જોઈએ આ બધા શતકો ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદેશાઓવાળા થાય છે. કૃષ્ણલેશ્યાવાળા શતકનો પાઠ સઘળા પ્રાણો ચાવતું સઘળા સ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા જીવ પણાથી પહેલાં યાવતુ અનંતવાર ઉત્પન થઈ ચુક્યા છે. આ કથન સુધીનું કથન અહિયાં કહેવું જોઈએ,
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traft aौका श०४० अ. श. ७ शुक्ललेश्य संशिमहायुग्मशतम्
६६५
तं कृष्णले पात ज्ञातव्यं तत्राह - ' जाव' इत्यादि, 'जाब अनंतखुत्तों' यात्रदनन्तकृत्वः उपपात दारभ्य अथ भदन्त ! सर्वे प्राणाः यावत्सर्वे सत्त्वाः कृष्णादिश्यतया समुपूर्वाः किम् ? गौतम ! सर्वे माणाः यावत्सर्वे सच्चाः असकृत् अनन्तकृत्वो वा समुत्पन्नपूत्र : कृष्णलेश्यादि लेश्यतया, एतत्पर्यन्तं ज्ञातव्यमिति 'सेवं भवे ! सेवं भवे । त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके पष्ठं संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ||४०|६|| || 'अह सत्तमं सम्निमदा जुम्मसयं
मूलम् - सुक्कलेस्ससयं जहा ओहिसयं । नवरं संचिट्टणा ठिई जहा कण्हलेस ए सेसं तहेव जाव अनंतखुत्तो । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
तालीस मे स सत्तमं सन्नि महाजुम्मसयं समत्तं ॥४०- ७॥
छाया -- शुक्ललेश्यशतं यथौधिकशतम् । नवरं संस्थाना स्थितिथ यथाकृष्णलेश्यशते । शेषं तथैव यावदनन्तकृत्वः । तदेव भदन्त ! तदेवं मदन्त ! इति ॥ चत्वारिंशत्तमें शतके सप्तमं संक्षिमहायुग्मशतं समाप्तम् ||४०|७||
यहां कहना 'सेव भंते । सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा सत्य ही हैं २ | इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
४० वे शतक में यह छडा संज्ञि महायुग्म शत समाप्त हुआ ||४० - ६ ॥ शतक ४० सातवा संज्ञि महायुग्म शत
'सुक्कलेस' जहा ओहिसय' इत्यादि०
'सेव ं भवे ! सेव' भंते! त्ति' से लगवन् यी विषयमा आय हेवानुप्रिये જે પ્રમાણેનુ કથન કરેલ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે, હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિનું સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ॰ા
ચાળીસમાં શતકમાં છટ્ઠ' સન્નિ મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૫૪૦-૬૫ સાતમા સૌના મહાયુગ્મ શતકના પ્રારંભ---
'सुक्कलेरसस' जहा ओहिसय' इत्यादि
भ० ८५
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I
भगतीस
टीका--'मुकलेम्सस जहा ओहिये' शुक्ललेयशतं यथौधिकशतम्' "स्यैव चचारिंशत्तमशनस्य त प्रथमं शतं तत् औधिकशतं तस्मिन् प्रथमतके कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपश्चेन्द्रियाणां येन रूपेणोत्पातादिकं कथितं तेनैव रुपेण उपपातादिकं यथावन्निरूप्य शुक्ललेश्यशतमपि भणितव्यम् । प्रथम शतापेक्षया aers यति 'नवरे' त्यादिना - 'नवरं संचिणा ठिईये जहा पटलेस' न केवलं संस्थाना स्थितिकालः स्थितिरायुपो यथा कृष्णलेश्यअवस्थितिको जघन्येन एक समय मुत्कर्षेण जयखिंशत्सागरोपमाणि अन्तभ्यधिकानि शुक्ललेश्यावस्थानमित्यर्थः । एतच्च पूर्वं भवगतान्तिमान्त
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६६६
१
armie-er औधिक शत कहा गया है वैसा ही शुक्कललेश्या वाले जीवों के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिये । चालीश वें शतक था जो प्रथम त है उसका नाम औधिक शत है । उस प्रथम शत
मैं कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पञ्चेन्द्रिय जीवों का जिस रूप से उत्पाद आदि कहा गया है उसी रूप से कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमित शुक्लearned इन संज्ञि पञ्चेन्द्रिय जीवों का भी इस शत में उत्पाद आदि यह लेना चाहिये | 'नवर' संचिणा टिई य जहा कण्हलेस्ससए' परन्तु उन प्रथम ज्ञान की अपेक्षा इस शुक्ललेश्य शत में अवस्थान और स्थिति को लेकर भिन्नता है । यहां अवस्थान काल और स्थितिकाल कृष्णले घात में जैसा कहा गया है वैसा ही है । इस प्रकार अवस्थान काल यहां पर जघन्य से १ समय का और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त्त
ટીકા-ઔ ઘક શતકમાં જે પ્રમા૨ેતુ' કથન કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાથેતુ' કથન શુ લલેસ્યાવાળા જીવેના સમ્બન્ધમાં પણ શતક - કહેવુ જોઈ એ ચાળીસમા શતકન્તુ જે પહેલુ શનક છે, તેનુ નામ ઔઘિક શતક કહેલ છે. તે પહેલા શતકમાં મૃત્યુગ્મ કૃતભ્રુગ્મ સન્ની પંચેન્દ્રિય જીવને ઉત્પાદ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા શુકલલેશ્યાવાળા આ સન્નિ પચેન્દ્રિય જીવેાના આ શતકમાં ઉત્પાદ વિગેરે કહેવા
से. 'नवर' संचिणा टिई य जहा कण्हलेस्ससए' परंतु ते पडेलां शतनी અપેક્ષાએ આ શુકલલેશ્યા શતકમાં અસ્થાન અને સ્થિતિ સંબધી જુદાપણુ કહેલ છે. અહિયાં અસ્થાન કાળ અને સ્થિતિ કાળ કૃષ્ણવેશ્યાશતકમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે છે. આ રીતે અહિયાં અવસ્થાનકાળ જઘન્યથી ૧ એક સમયના અને ઉત્કૃષ્ટથી અન્તમૂર્હત વધારે ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમના
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प्रमेयचन्द्रिका डीका श०४० अ. श.७ शुक्ललेश्य संगिमहायुग्मशनम् ६६७ मुहत्तम्, अनुत्तरत्रिमानदेवायुध आश्रित्य जिम् स्थिति जयसिंगला पमाणीति । अत्र 'अन्तर्मुहर्ता पधि कानि' इति न वक्तव्यशिति से रहेद जाव अणंतखुत्तो' शेष नपरमित्यादिना यत् कथित तदनिरिक्त सर्व परिमाणादिक अधिक ३३ सागरोपम यहां उत्कृष्ट से जो इतना बाल कहा गया है वह पूर्वभव के अन्तिम सान्तमुहर्त को लेकर तोभन्तर्गहरी अधिक कहा है और अनुत्ता देवों की उत्कट आय ३३ लागरोपन की होती है और वहीं शुशललेश्या होती है । इस बार की आश्रिा कर ३३ सागरोपम काल कहाँ है । स्थिति के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कथन। परन्तु ३३ सागरोपल को यहां एक अन्तर्मुहर्स से अधिक इसचिशे. षण से विशेपित नहीं किया है । 'सेल तहेब जावरणलखत्तो' बाकी का और सब उत्पाद आदि का कथन प्रथम शत के जैसा ही है। इन प्रकार यहाँ प्रथाशन का कथन 'लमस्त प्राण धावत् स्यरत सत्व कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित शुक्ललेश्यावाले संक्षि पंचेन्द्रिय जीव रूप से अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं। इस अन्तिम पाठ तक का हां पर कथन करना चाहिये । 'सेव भंते ! लेब भंते ! स्ति' हे भदन्त ! जला आपने यह कहा है वह सब सर्वधा सत्य ही है २ । इस प्रकार पाहतर કહેલ છે. અહિયાં ઉત્કૃષ્ટથી જે આટલે કાળ કહેલ છે, તે પૂર્વભવના કેટલા અંતમુહૂર્ત ને લઈને અંતર્મુહૂર્ત અધિક કહેલ છે. અને અનુત્તર, દેવેનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય ૩૩ સાગરોપમનું હોય છે અને શુકલેક્ષાનું આયુષ્ય પણ એજ પ્રમાણે હોય છે. આ ભાવને આશ્રય કરીને ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમાળ કહેલ છે. સ્થિતિના સંબંધમાં પણ એજ પ્રમાણેનું કથન સમજવું પરંતુ ૩૩ તેત્રિસ સાગરોપમને અહિયાં એક અંતર્મુહૂર્તથી અધિક એમ કહેલ નથી. 'सेस' तहेव जाव अगतखुत्तो' मीनु मा सघशु मेट ४ ५६ विरे સંબધી કથન પહેલા શતકમાં કહ્યા પ્રમાણે છે. આ રીતે અહિયાં પહેલા શતકનું કથન સઘળા પ્રાણે યવત્ સઘળા સ કૃતયુગ્મ કૃયુગ્મ, રાશિપ્રમાણુવાળા ગુલલેશ્યાવાળા સંનિ પચેન્દ્રિય જીવ પણાથી અન તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચુકેલ છે, આ છેલલા પાઠ સુધીનું કથન અહિયાં કહેવું જોઈએ.
___ 'सेव' भंते ! सेव' भंते ! ति' है गवन् २॥ विषयमा मा५ देवानुप्रिये જે પ્રમાણે કહેલ છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે કે ભગવાન આપી દેવાનુપ્રિયતુ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને
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भगवती सूत्रे
तदेव प्रथमशतत्रदेव ज्ञातव्यं यावत् अनन्तकृत्वः । एतत्पर्यं तं प्रथमशन मिहाध्येव्यमिति । सेत्र भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त । तदेव भदन्त इति ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री " मगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् चत्वारिंशत्तमे शत के सप्तमं संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥ ४०|७||
गौतमने प्रभुश्री को वन्दना और नमस्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत, "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के चालीसवें शतक का सातवां संज्ञि महायुग्म शत समान ४०-७||
વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં વઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી સોંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા. પ્રસૂ॰૧૫
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયાન્દ્રકા વ્યાખ્યાના ચાળીસમા શતકમાં સાતમું શતક સમાપ્ત ૫૪૦−છા
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ममेयचन्द्रिका टीका श०४० ग. श.८ भवसिद्धिक क.कृ. सशिमहायुग्मनि० ६६९
____ 'अह अहन सन्निमहाजुम्मसयं' ।
मूलम्-भवत्तिद्विय कडजुल्मकडजुम्मसन्नियंचिदियाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढ सयं तहा यव्वं भवसिद्धियाभिलावेणं । नवरं सबपाणा० णो इणटे समझे। सेसं तहेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥
चत्तालीसइमे सए अट्ठमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं ॥४०-८॥ ___ छाया--भवद्धिककृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञाश्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? यथा प्रथम संज्ञिशतं तथा ज्ञातव्यं भवसिद्धिकाऽमिलापेन । नवरं सर्वे माणाः नायमर्थः समर्थः । शेतदेव । तदेव भदन्त ! २ इति ।।
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके अष्टम संज्ञिमहायुग्मशत समाप्तम् ।।४०.८॥
टीका--'भवसिद्धि कम्डजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदियाणं भंते ! ओ उववज्जति' भवद्धिक कृतयुग्मकतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खल्ल भदन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरपिकेभ्यो यावदेवेश्यो वा आगत्योत्पद्यते इति प्रश्नः। उत्तरमाहअतिदेशद्वारेण-'जहा' इत्यादि, 'जहा पढमं सन्निसयं तहा ने पव्वं भवसिद्धिया
शतक ४० आठवां संज्ञि महायुग्म शत 'भवसिद्धिय कडजुम्म कडजुम्प सन्नि पंचिंदियाण भंते !' इत्यादि
टोकार्थ-हे भदन्त ! भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं? क्या वे नेरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहा पढम सन्निसयं तहा नेयव्यं भवसिद्धिय अभिलावेणं' हे गौतम ! जिस प्रकार से
આઠમાં સ મહાયુમ શતકને પ્રારંભ–'भवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्निप चदियाण मंते ! त्याह
ટીકાર્યું–હે ભગવન ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સંગી પચેન્દ્રિય છે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યચનિકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થ ય છે ? અથવા દેશમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી અતિદેશથી કહે છે કે'जहा पढम सन्निमय तहा ने या भवसिद्धिय अभिलावण' गीतम! रे प्रभारी
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६७० .
भगवतीस्त्र भिलावेणं' यथा प्रथमं संज्ञिशतं तथा ज्ञातव्यम्, भवद्धिकाभिलापेन एतस्य चत्वारिंशत्तमशतकप्रथमशते संक्षिपञ्चेन्द्रियाणामुपगतो येन रूपेण कयित स्तेनैव रूपेण सबसिद्धिकाभिलापेन 'भवसिद्धिककृतयुग्मकृतयुग्मसंक्षिपञ्चेन्द्रियाः खल एवं रूपामिलापेन उपपातादि वर्णनीयः । अत्रापि एकादशोदेशका बक्तव्याः। संज्ञिपञ्चेन्द्रियशखापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं सव्यपाणा, णो इणहे समढे' नवरं सर्वे प्राणा:० नायमर्थः समर्थी, हे भदन्त । सर्वे माणा यावत् सर्वे सत्ताः किं भवसिद्धिककृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वाः, इति प्रश्नस्य प्रथमशते अनन्तकृत्वः समुत्पन्नपूर्वा इत्युत्तरं दत्तम्, इहतु 'नायमर्थः समर्थः सर्वे जीवाः नाम संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वे भवसिद्धिकतया समु. इसी ४० वे शतकके प्रथम शनक में संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों का उपपात कहा गया है उसी प्रकार से भवसिद्धिक अभिलाप से-हे भदन्त ! भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव 'इस रूप अभिलाप से-इनको भी उपपात आदि वर्णित कर लेना चाहिये। यहां पर भी ११ उद्देशक हैं । संज्ञि पंचेन्द्रिय शत की अपेक्षा जो इस शत में भिन्नता है वह 'नवरं सव्वे पाणा णो इगट्टे समहे' इल सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है-अर्थात् 'हे भदन्त ! समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व क्या कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पंचेन्द्रिय रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? हां, गौतम ! यावत् अनन्तवार वे इस रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। ऐसा उत्तर प्रभुश्रीने कहा है । सो ऐला उत्तर इस प्रश्न का यहां पर 'नहीं कहना । क्यों कि समस्त प्राण यावत् समस्त सत्प यहां संज्ञि
આ ચાળીસમા શતકના પહેલા શતકમાં સંપત્તિ પચેન્દ્રિય અને ઉપાય કહેલ છે, એજ પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક અભિલાપથી હે ભગવન્! ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ સંરિપંચેન્દ્રિય જીવો આ પ્રમાણેના અભિલાપથી તેઓના ઉપપાત વિગેરેનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. અહિયાં ૧૧ અગિયાર
हेशामा ४ . ते 'नवर' सव्वे पाणा णो इण समदृ' मा सूत्रया द्वारा પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ હે લાગવન સઘળા પ્રાણે યાવત્ સઘળા સ શું ભવસિદ્ધિક કૃતયુમ કૃતયુગ્મ સંસિ પંચેન્દ્રિય પણાથી પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચુકેલા છે? હા ગૌતમ ! યાવત્ અનંતવાર તેઓ એ રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ ચુકયા છે. આ પ્રમાણેને પ્રશ્નોત્તર પ્રભુશ્રીએ કહેલ છે તે આ પ્રમાણે ઉત્તર અહિયાં કહેવાનું નથી. કેમ કે–સઘળા પ્રાણે યાવત્ સઘળા સો આ રૂપથી અનંતવાર ઉત્પન્ન થયા નથી. આ કથન શિવાય બાકીનું સઘળું કથન પહેલા શતક પ્રમાણે જ છે.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.४० अ.श.८ भवसिद्धिक क.कृ. संनिमहायुग्मनि० ६७१ स्पषपूर्वा इत्युत्तरम् अत एतद् उभयोः शतयो वैक्षण्यमिति । 'सेसं तहेव' शेष भवरमित्यनेन यत्र कथितं तदतिरिक्त सर्व प्रथम शतवदेव ज्ञातव्यम् । 'से भंते ! सेवं भंते-त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।।। ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके अष्टमं संशिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४८॥
॥'अह नवमं सनिमहाजुम्मसयं' ॥ मूलम् कण्हलेल अवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति? एवं एएणं अभिलावणं जहा ओहियकण्हलेस्लसयं सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ चत्तालीसइमे सए नवमं सन्तिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥४०-९॥ __छाया- कृष्णलेश्य भवसिद्धिक कृतयुग्मकृत्युग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खल भदन्त | कुत उत्पद्यन्ते एवमेतेनाभिलापेन यथा औधिककृष्णलेश्यशतम् । तदेव भदन्त । तदेव भदन्त ! इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके नाम संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०॥९॥ पचेन्द्रिय में भवसिद्धिक रूप से अनन्तधार उत्पन्न नहीं हुए हैं। 'सेस तहेव' बासी का और सम पाथन प्रथम शतक के जैसा ही है। 'सेवं भंते 1 से भते । तिहे भदन्त ! आप का यह कथन सर्वधा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना एवं नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयन और तप से आत्मा को भादित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ॥४० वे शतक में यह आटयां महायुग्मशत समान ४०-८॥
शतक नौवा महायुग्मशत 'म.हलेस लवसिद्धिय काडजुम्मकडजुम्म सन्निपचिंदियाणभंते !'
'सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' है मग मा५ हेवानुप्रियनु मा धन સવયા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપનું આ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે રહીને પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ચાળીસમા શતકમાં આ આઠમું મહાયુમ શતક સમાપ્ત ૪૦-૮૫
नवमा भ'युग्म शतना प्रारंभ-- ‘ह पहलेरस भवसिद्धिय कब्जुम्मकडजुन्म सनिपचिदियाण भते ! त्यादि
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भगवतीसूत्र टीका--'कण्हलेरस अवसिद्धिय कडजुमाकडजुम्म सन्निचिंदियाणं भंते । को उववज्जति' कृष्णलेश्ये भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म सैज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलुभदन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावद् देवेभ्यो वा आगस्ये. स्यादि पश्ना, उत्तरमाह-एवं' इत्यादि, ‘एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिय कण्हलेस्ससयं' एवमेतेनामिलापेन यथा औधिकछष्णलेश्यशतम् तत्र यथा कृष्णलेश्यानामुपपानादिको वर्णित स्तथैव कृष्णलेश्यभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संक्षिपञ्चेन्द्रियाणामपि उपपावो वक्तव्यः । एकादशोदेशका अपि वक्तव्याः 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके नवमं संक्षिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०॥९॥
टीकार्थ-हे भदन्त ! कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संजि पचेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिय कण्हलेस्सस्यं' हे गौतम ! इस अभिलाप द्वारा जैला कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में औधिक कृष्णलेश्यशत कहा गया है वैसा ही यहां पर भी कह लेना चाहिये ।औधिक कृष्णलेश्या शत यह ४० वें शतक का द्वितीयशत है । उस में कृष्णलेश्यावालों का उपपात आदि वर्णित हुआ है । सो उसी प्रकार से इस शत में भी कृष्णलेजयावाले भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पंचेन्द्रियों के भी उपपात आदि का वर्णन कर लेना चाहिये । यहाँ
1 ટીકાર્થ – હે ભગવનકુલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિકકૃતમ કૃતયુગ્મ સંજ્ઞિપંચેન્દ્રિય જી કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'एवं एएण अभिलावेणं जहा कण्ह लेस्ससय” हे गौतम ! म अलिसा द्वारा કડ્યૂલેશ્યાવાળાઓના સંબંધમાં ઔધિક કલેશ્યાશતક કહેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ ઔવિક કૃષ્ણલેશ્યાશતક એ ૪૦ ચાળીસમા શતકનું બીજુ શતક છે. તેમાં કૃષ્ણલેશ્યાવાળાઓના ઉપપાત આદિનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે આ શતકમાં પણ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક કૂતયુગ્ય કૃતયુગ્મ સં િપદ્રિના ઉપપાત વિગેરેનું વર્ણન પણ કરી લેવું જોઈએ. અહિયાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદેશાઓ કહેવા જોઈએ.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० म. श.१० नीललेश्य भवसिद्धिकशतम् ६७३
॥'अह दसमं सन्निमहाजुम्मसयं' । : मूकम्-एवं नीललेस भवसिद्धिएहि विलयं । लेवं अंते! सेवं भंते ! त्ति
चनालीसइमे दसमं सन्निमहाजुल्म सयं १४०-१०॥ छाया--एवं नीललेश्यसिद्धिकैरपि शतम् । तदेव भदन्त । तदेव भदन्त ! चत्वारिंशत्तमे शतके दशमं संज्ञि महायुग्मशतं समाप्तम् ।।४०।१०॥
टीका--'एवं नीलेश्य भवसिद्धियए हि विसय एवं नीललेश्य भवसिद्धिकैरपि शतं यथा कृष्णलेश्यमवसिद्धिककृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियशतम् अस्यैव शतकस्य तथैव नीललेश्य भवसिद्धिककृतयुग्मकृत्युग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय पर भी ११ उद्देशक कहना चाहिये । 'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जेसा आपने यह कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
शतक ४० दशवां संज्ञि महायुग्म शत चालीसवां वे शत में नवां महायु महायुम शत समाप्त ॥४०-९॥
‘एवं नीललेस्स भवसिद्धिए वि सयं-सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति'
टीकार्थ-इसी प्रकार नीललेश्यावाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशि प्रमित भवसिद्धिक संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में भी यह शत कहलेना चाहिये। यह शत भी ११ उद्देशकों से युक्त है। यहां अतिदेश बारा
'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' है सावन मा५ यानुप्रिये या विषयमा જે પ્રમાણેનું કથન કરેલ છે. તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાને આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂના
નવમું મહાયુમ શતક સમાપ્ત ૪૦-૯
દશામાં સજ્ઞિ મહાયુગ્મ શતકને પ્રારંભ–– ‘एवं नीललेस्सभवसिद्धिए वि सयं-'सेव भते । सेव भते । ति
ટીકાર્થ-આ જ પ્રમાણે એટલે કે ઉપર કહ્યા પ્રમાણે નીલેશ્યાવાળા કૃતયુમ કૃતયુમ રાશિપ્રમાણવાળા ભવસિદ્ધિક ૫ ચેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં પણ આ શતક કહેવું જોઈએ, આ શતક પણ અગિયાર ઉદ્દેશાઓથી યુક્ત છે. અહિયાં
स० ८५
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嘐
६७४
भगवती सूत्रे पातमदि एकादशोद्देशयुक्तं भवति केवलं कृष्णपदस्थाने नीलपदे घट गिला शतं [emory, aut - नीलले भयसिद्धि कृतयुग्मकृतयुग्मसंक्षिपञ्चेन्द्रियाः खलु सदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नैरयिकेभ्यो यामदेवेभ्य इति प्रश्नं कृत्वा चतुर्ग. विकेभ्य भागत्य नीललेयभवसिद्धिकतया समुत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्वम् औधिकनीलsaतमिव सर्व ज्ञातव्यमिति संक्षेपः, सेव अंते । सेवं भंते! चि' तदेव यह बतलाया गया है कि जैसा कृष्णलेवावाले भवद्विक कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञि पचेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में ११ उद्देशकों से युक्त शत कहा गया है । जो वैसा ही यह छात भी कहना चाहिये । परन्तु यहां कृष्णलेया पद के स्थान में नोललेश्य पद को जोड़कर आलापक कपना चाहिये । जैसे- नीललेइयावाले भवसिद्विक कृतयुग्म कृतयुग्म संज़ि पचेन्द्रिय जीव हे भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से भाकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के बार में ऐसा कहना चाहिये कि ये चारों गतियों में से आकर के उत्पन्न होते है इत्यादि रूप से सब कथन औधिक नीललेइय शत के जैसा ही जानना चाहिये | 'सेव' भंते ! सेब संते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह नीलले भवसिद्धिक के विषय में कहा है वह स सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को
1
અતિદેશ દ્વારા એ કહ્યુ` છે કે-જે પ્રમાણે કૃષ્ણલેસ્થાવાળા ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સન્નિ પચેન્દ્રિય જીવેાના સબંધમાં ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ વાળુ શતક કહેવામાં આવેલ છે, તે એજ પ્રમાણેનુ આ શતક પણ કહેવુ પરંતુ આ શતકમાં કૃષ્ણુલેશ્યા પદના સ્થાનમાં નીલલેસ્પા એ પદ મૂકીને આલાપકે કહેવા જોઇએ. જેમ કે-નીલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સ‘જ્ઞિપચેન્દ્રિય જીવે. હું ભગવન્ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? મા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એવુ' કહેવું જોઇએ કે તેએ ચારે ગતિયામાંથી આવીને ઉત્ત્પન્ન થાય છે. વિગેરે પ્રકારથી સઘળુ' કથન ઔલિક કૃષ્ણટેક્ષ્ટા શતકના કથન પ્રમાણે જ રામજવું.
'रोव' भ'ते । सेव' भ'ते ! त्ति' डे लगवन् याय हेगनुप्रिये या नीसडोश्या ભવસિદ્ધિકના વિષયમાં જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ કથન સČથા સત્ય જ છે મા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ.श.११-१४ भवसिद्धिकसप्तशतकानि ७५ भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त । नीललेश्य भवसिद्रिकविषये यद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्वं सर्वथैव सत्यमिति कथयित्वा गीतमो यावत् यथासुखं विहरतीति ॥ ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके दशम मंज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ।।४०।१०॥
११-१४ संनिमहाजुम्मसयाई' मूलम्-एवं जहा ओहियाणं सन्नि पंचिंदियाणं लत्त सयाणि भणियाणि एवं अवसिद्धिएहि वि लत्त सयाणि कायव्वाणि । नवरं सत्तसु वि सएसु सब पाणा० जाव णो इण्टे समटे, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
भवसिद्धिय सया समत्ता चत्तालीसइमे सए ११-१४ सन्निमहाजुम्मसयाणि लसत्ताणि
छाया--एवं चौधिकानि संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां सप्त शतानि भणितानि वं भवसिद्धिकैरपि सप्तशतानि कर्त्तव्यानि । नवरं सप्तस्वपि शतेषु सर्वेशणा यात् नायमर्थः समर्थः । शेपं तदेव । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।।
॥ भवसिद्धिकशतानि समाप्तानि ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके एकादशादारभ्य चतुर्दश
संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् । ४०।११-१४। वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयन और तप से आत्मा को भाविन करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ॥४० वें शतक में यह १० वां संज्ञि महायुग्म शत समाप्त ४०-१०॥ शतक ४० ग्यारहवां, चारहवां, तेरहवां, और चौदहन, महायुग्म शत "एवं जहा ओहियाणि सनिपचिंदियाण सत्त लयाणि भणियाणि एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सथाणि कायव्वाणि ।४०-१०॥ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ચાળીસમા શતકમાં આ દસમું સંમિહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૪૦-૧૦
અગ્યારમા બારમા તેરમા ચૌદમાં મહાયુને પ્રારંભ–एवं जहा ओहियाणि सन्नि पचिदियाण सत्त सवाणि भणियाणि एवं भवसिद्धिए हि वि सत्त सयाणि कायवाणि'
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भगवती ____टीका--'एवं जहा ओहियाणि सन्निपंचिंदियाणं सत्त सयाणि भणियाणि' एवं यथा औधिकानि से ज्ञपञ्चेन्द्रियाणां सप्तशतानि प्रथमम् औधिकम्, द्वितीय कृष्णलेश्यम् २, तृतीयं नीललेइयम् ३, चतुर्थ कापोठलेश्यम् ४, पञ्चमं तेजोले. श्यम् ५, षष्ठं पदमलेश्यम् ६, सप्तमं शुक्ललेश्यम् ७, एवंरूपाणि औधिक संक्षिपञ्चेन्द्रियसम्बन्धीनि चत्वारिंशत्तमशतकस्य प्रथम द्वितीयत्तीयचतुर्थपष्ठ. सप्तमरूपाणि शतानि भणितानि-कथितानि ‘एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायवाणि' एवं भवसिद्धिकैरपि सप्तशतानि कर्तव्यानि तत्र प्रथममौधिक भवसिद्धिशतम् १, द्वितीयं कृष्णलेश्यभवसिद्धिकशतम्, तृतीयं नीललेश्यमवसिद्धिकशतम् ३, चेतित्रयं भवसिद्धिकशतं पूर्व कथितम्, अस्मिन् सूत्रे तु
टीकार्थ-जैसे संज्ञि पंचेन्द्रियों के सम्बन्ध में सात औधिक शतक कहे गये हैं। वैसे ही संज्ञि पंचेन्द्रिय भवसिद्धिकों के सम्बन्ध में भी सात शतक कह लेना चाहिये औधिक संज्ञि पंचेन्द्रियों के वे सात शतक इस प्रकार से हैं-औधिकशत १, कृष्णलेश्वशत २, नीललेश्य शत ३, कापोतलेश्यशत ४, तेजोलेश्यशत ५, पद्मश्यशत ६, और शुक्ललेश्यशत ७, इस प्रकार से ये संज्ञि पचेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में ४० वें शतक में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, पष्ठ और सप्तम शत रूप से कहे गये हैं । इसी प्रकार से 'भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायमचाणि' भवसिद्धिक जीवों के सम्बन्ध में भी सात शत कह लेना चाहिये । इन में प्रथम औधिक भवसिद्धिक शत है १ द्वितीय कृष्णलेश्य भवसिद्धिक शत है । तृतीय नीललेश्य भवसिद्धिक शत है। ये तीन भवसिद्धिक शत तो पहिले कहे जा चुके है। इस सूत्र में तो
સંગ્નિ પંચેન્દ્રિયના સમ્બન્ધમાં સાત ઔધિક શતકે કહેલા છે, એજ પ્રમાણે સંગ્નિ પંચેન્દ્રિય ભવસિદ્ધિઓના સંબંધમાં પણ સાત શતકે કહેવા જોઈએ. સંજ્ઞિ પંચેન્દ્રિયોને તે સાત ઔવિક શતકે આ પ્રમાણે છે.–ઔધિક શતક કૃષ્ણલેશ્યા શતક ૨ નીલેશ્યા શતક ૩ કાતિલેશ્યા શતક તે જેતેશ્યા શતક પ પધલેશ્યા શતક ૬ અને શુકલેશ્યા શતક ૭ આ રીતે આ ઔધિક સંસી પંચેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં ચાળીસમા શતકમાં પહેલા, બીજા, ત્રીજા, ચેથ', પાંચમાં, છઠા અને સાતમા શતક રૂપથી કહે છે. એ જ પ્રમાણે 'भवसिद्धिएहि वि सत्तखयाणि कायवाणि' ससिद्धिMवाना समां પણ સાત શતકે કહેવા જોઈએ. તેમાં પહેલું ઔઘિક ભવસિદ્ધિક શતક છે. ૧ બીજ ક્લે ભવસિદ્ધિક શતક છે. ત્રીજુ નલલેશ્ય ભવસિદ્ધિક શતક છે. આ ત્રણ શતકે તે પહેલા કહેલા છે. આ સૂત્રમાં તે કેવળ કાપત, તેજ,
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trafant rat me४० अ. श. ११-१४ भवसिद्धिकसप्तशतकानि
६७७
कापोत- तेज:- पद्म-शुक्ललेश्या विशिष्टानि चलारि शतानि एवं सङ्कलितानि सप्तशतानि प्रत्येकमेकादशोदेशकगमैितानि क्रमेण कर्त्तव्यानि । आलापमकारस्तु सर्वत्र पूर्ववदेव कर्त्तव्य इति । 'नवरं सत्त विसन्न पाणा जाव णो इट्ठे समढें' नवरं - केवलमौधिकशतापेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् सप्तस्वपि शतेषु सर्वे प्राणा यावत् सर्वे सत्त्वाः औधिक सवसिद्धिकृष्णलेश्यादिक भवसिद्धिकतया समुत्पन्नपूर्वाः किमिति मश्नं कृत्वा नायमर्थः समर्थः एवं रूपेण सर्वत्रापि उत्तर मुन्नेयम्, सेसं तं चेत्र' शेषं नवर- मित्यनेन यद्वैलक्षण्यं प्रतिपादितं ततोऽन्यत् सर्वम् - अधिक संज्ञिपञ्चेन्द्रियसशतसदृशमेव ज्ञातव्यमिति । 'सेव' भंते ! सेब भंते! ति' तदेव भदन्त । २ इवि |
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके एकादशशतादारभ्य चतुर्दशशतपर्यन्तं चत्वारि संज्ञिमहायुग्मशतानि समाप्तानि ॥४०-११-१४॥
केवल कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इन लेइयाओं से विशिष्ट चार ही शत कहे हैं । अतः सब मिलकर कुल सात रात हो जाते हैं । ये सात शत हैं प्रत्येक शत ११ उद्देशक कों से युक्त हैं । अतः इन में प्रत्येक में आलाप प्रकार पूर्व में जैसा कहा गया है वैसा कहलेना चाहिये 'नवर' सत्त विसएस सव्वपाणा जाव णो इट्टे समट्टे' परन्तु यहां ऐसा नहीं कहना चाहिये कि समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व औधिक भवसिद्धिक रूप से अथवा कृष्णलेयावाले भवसिद्धिक रूप से पहिले यावत् अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं । यही विलक्षणता यहां औधिकशत की अपेक्षा से है । 'सेसं तं चेव' पाकी का और सब कथन औधिक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सप्तशत के जैसा ही है । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ ।
પદ્મ અને શુકલ આ લેફ્યાએથી યુક્ત ચાર શતકા જ કહેલા છે. તેથી બધા મળીને કુલ છ સાત શતકેા થઇ જાય છે. આ સાતે શતકેામાં-દરેક શતકામા ૧૧-૧૧ અગિયાર અગિયાર ઉદ્દેશા કહેલા છે તેથી દરેકમાં આલાપકાને अार पहेला ह्या प्रभा। सभा 'नवर' सत्तसु वि सपसु सव्वपाणा जाव नो इट्टे समट्टे' परंतु अडियां मे प्रभा हेवु ले -सुधा आ યાવર્તે સઘળા સત્વ ઔધિક ભવસિદ્ધિક પાથી અથવા કૃષ્ણવેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક પણાથી પહેલાં યાવત્ અનંતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકેલ છે ઔઘિક शतना धन पुरता अड्डियां मे हापशु हे 'सेस' त चेव' जाडीतु ખીજું સઘળુ કથન ઔધિક પચેન્દ્રિય શતકના કથન પ્રમાણે જ છે.
'सेव भवे ! सेव' भवे ! त्ति' हे लगवन साथ हेवानुप्रिये या विषयभां
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भगवतीने ॥ 'अह पन्नरसमं सन्नि महाजुम्मसयं' मूलम्-अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्नि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति ? उववाओ तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो। जहा परिमाणं अवहारो उच्चत्तं बंधो वेदो वेदणं उदयो उदीरणा य कण्हलेससए । कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा । नो सम्मदिट्री, मिच्छादिट्टी, नो सम्मामिच्छादिट्टी । नो नाणी, अन्नाणी, एवं जहा कण्हलेस्ससए । नवरं नो विरया अविरया नो विरयाविरया संचिट्ठणा ठिईय जहा ओहिय उद्देसए। समुग्घाया
आदिल्ला पंच । उव्वट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्ज । सव्वपाणा जाव णो इण? समटे, सेसं जहा कण्हलेस्ससए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मसु । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ॥४०-१५-१॥ ___ पढमसमय अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्नि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा-सन्नीणं पढमसमय उद्देसए तहेव । नवरं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं नाणं च सव्वत्थ इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को यन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। । ॥ इस प्रकार ४० वें शतक में ग्यारहवेंशन से लेकर चौदहवें शतप्तक के चार संज्ञि महायुग्म शत समाप्त हुए। જે પ્રમાણે કહેલ છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫
આ રીતે ચાળીસમા શતકમાં અગિયારમાં શતકથી લઈને ચૌદમા શતક સુધીના ચાર સંજ્ઞિ મહાયુમ શતકે સમાપ્ત ૪૦-૧૧-૧૪
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मैन्द्रका टीका श०४० अ. श. १५ अभव० संविपञ्चेन्द्रियजीवनि० नथ से तव । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥४०-१५-२॥
एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देगा कायव्वा पढमतइय पंचमा एकगमा सेसा अवि एकगमा । सेवं भंते । सेवं भंते । ति । चत्तालीस मे सए पन्नरसमं सन्नि महाजुम्म सयं समन्तं । ४०-१५॥
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छाया --अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पयते ? उपपात स्तथैव अनुत्तरविमनवर्जः । परिमाणमपहार उच्चत्वं बन्धो वेदन मुक्ष्य उदीरणा च यथा कृष्णलेश्यशते । कृष्णलेश्या वा यावत् शुक्क लेश्या वा नो सम्यग्यः मिध्यादृष्टयः नो सभ्यग् मिथ्यादृष्टयः । नो ज्ञानिनः अज्ञानिनः एवं यथा कृष्णलेश्यशते । नवरं नो विरताः अविरताः नो विरताfarar | संस्थाना स्थितिश्च यथा औधिकांशके । समुद्घाता आधाः पश्च उद्वर्तनाः तथैवानुत्तर विमानवर्णाः सर्वे प्राणाः यावत् नायमर्थः समर्थः शेषं यथा कृष्णलेश्यशते यावदनन्तकृत्वः । एवं पोडस्वपि युग्मेषु तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ||४० १५१ ।।
प्रथमसमयाभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्न संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त । कुन उत्पद्यन्ते १ यथा संज्ञिनां प्रथमसमयोद्देश के तथैव । नवरं सम्यक्त्वं सम्यङ् मिथ्यात्वं ज्ञानं च सर्वत्र नास्ति । शेष तथैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं मदन्त ! इति ||४०|१५|२||
एव मत्रापि एकादशोदेशकाः कर्त्तव्याः प्रथमतृतीयपञ्चमाः एकगमकाः, शेपा अ'टावपि एकगमकाः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ।
चत्वारिंशत्तमे शतके पञ्चदशं महायुग्मशत समाप्तम् । ४०।१५ टीका- 'अमवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसन्निपचिदियाणं भंते ! कओ उवबज्जति' अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु मदन्त । कुत उत्पध 'अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपचिदियाणं भंते! कओ वदति ।
टीकार्थ- हे भदन्त | असवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञि पञ्चेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे ૫દરમાં સ નિ મહાયુગ્મ શતકના પ્રારંભ-
'अभवसिद्धिय कडजुम्मकड़जुम्म पचिदियाण भंते । कओ उववज्जति' ટીકા-હે ભગવન અભવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મતૃનયુગ્મ સજ્ઞિ પ ંચેન્દ્રિય જીવે કયા સ્થાનવિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ તે નાયિકામાંથી આવીને
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• ६८० ।
भगवतीस्त्रे न्ते ? किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावदेवेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते इति प्रश्ना, भगत वानाह-अतिदेशद्वारेण-'उनाओ' इत्यादि, 'उपनामो तहेत्र अनुत्तरविमाणरजनो' उपपात स्तथैव अनुत्तरविमानर्जः अनुत्तरविमानदेवान् परित्यज्यान्यतः सर्वत एव मैरयिकतिर्यग्मत्रुप्यदेवेभ्य उपपात एपां वक्तव्य इति । 'परिमाणं अचहारो उच्चत्तं बंधो वेदो वेगणं उदीरणा य जछा काहलेससह परिमाणमपहार उच्चत बंधो वेदो वेदनमुश्य उदीरणा च यथा कृष्णलेश्यशते करणळे वशते च तीन्द्रिय शतकस्यातिदेशः कृतः, तथापि एकेन्द्रियरातातिदेशोऽलोग्था परिमाणादिकमुदीरणान्तं कथितं तथैवेहापि यथासम्म नत्र ततः ज्ञातव्यम् । 'पहलेमा नरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसका अतिदेश द्वारा प्रभु उत्तर देते हुए कहते हैं"उवाओ नहेव अनुत्तर विमानवजो' 'हे गौतम ! अनुत्ताविमावासी देवों को छोडकर सब जगहों ले लेयिरतों में ले, तिर्यग्गोनियों में से मनुष्यों में से और देवो में से-हनका उपपात होता है। परिमाणं अवहारो, उच्चत्तं बंधो, वेदो, वेषणं, उदीरणा य जहा कालेम्पनए' परिमाण अपहार ऊंचाई बन्ध, वेद वेदन, उदीरणा ये सब कृष्णलेश्य. शतके जैसे जानने चाहिये । कृष्णलेश्य शत में हीन्द्रिय शतक का अतिदेश किया गया है। द्वीन्द्रिय शतक में भी एकेन्द्रिय शनका अति. देश हुआ है । इसलिये वहां परिमाण से लेकर उदीरणा नकसा कथन जैसा किया गया है उसी प्रकार से यहां पर भी इनका कथन यथा संभव वहीं से जानना चाहिये । '
कलेस्मा वा जाव सुक्कलेस्सा | ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચનિકે માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गीतमाभान ४९ है-'उववाओ तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो' के गौतम ! मनुत्तर विमानवासी देवाने छोडने દરેક સ્થળોમાંથી અર્થાત્ નૈરયિમાંથી તિર્યંચાનિકમાંધી, મનુબેમાંથી, अन हेवामाथी तेयान। 64पात थाय छे. 'परिमाण अवहारो, उच्चत्त, बंधो, वेदो, वेयण', उहीरणा य जहा कण्हलेम्ससए' परिभाए अ५।२ याs, બન્ય, વેદ, વેદન ઉદીરણા આ બધા કૃષ્ણલેશ્યા શતકમાં કીન્દ્રિય શતકને અતિદેશ–ભલામણ કરેલ છે. અને દ્વીયિ શતકમાં પણ એકેન્દ્રિય શતકને અતિદેશ કરેલ છે. તેથી ત્યાં પરિમાણથી લઈને ઉદીરણ સુધીનું કથન જે રીતે કરેલ છે, એજ રીતે અહિયાં પણ યથાસંભવ તેઓનું કથન ત્યાના કથન प्रभार ४२ वे'. 'कण्हलेस्सा वा, जाव सुक्कलेरसा वा' मा मससिद्धि
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१५ अभव० संक्षिपञ्चेन्द्रियजीन०६८९ वा जाव सुकलेस्सा वा' इमे अभवसिद्धिकाः कृष्णलेश्या भवन्ति यापत् शुक्ला लेश्या वा भवन्ति यावत् पदेन नीलकापोततेजःपद्मलेश्यानां संग्रहो भवतीति । 'नो सम्मट्ठिी' इमे अभवसिद्धिका नो सम्यग्दृष्टयो भवन्ति किन्तु 'मिच्छादिही' 'मिथ्यादृष्टयोः भवन्ति 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' नो न वा सम्यगमिश्याप्टयो मिश्रष्टयो भवन्तीति । 'नो नाणी अन्नाणी' नो ज्ञानिनो भवन्ति, किन्तु अज्ञानिनः तत्रापि नियमतो व्यज्ञानिनः मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिन श्रेति । 'एवं जहा कण्णलेस्ससए' एवं यथा कृष्णलश्यशतके कथित तथैवात्रापि एतस्यैव द्वितीयशते ज्ञातव्यमिति । कृष्णलेश्यशतापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्वक्ति 'नवरं नो विरया अविरया नो विरयाविश्या, नवर विशेपस्तावदयम्-इमे अभवघा' 'ये अभवसिद्धिक जीव कृष्णलेश्यावाले होते हैं यावत् शुक्ललेल्यावाले होते हैं। यहां यावत्पद से 'नील, कापोत तेजः और पदमलेश्याओं का संग्रह हुआ है । 'नो सम्मद्दिष्टि 'ये सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। किन्तु-मिच्छादिष्टि' मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। 'नो सम्मामिच्छा. दिट्टी' ये मिश्रदृष्टि भी नहीं होते हैं । 'नो नाणी, अन्नाणी' ये ज्ञानी नहीं होते हैं अज्ञानी ही होते हैं। अज्ञान में इनके तीन अज्ञान होते है-मति अज्ञान श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान होते हैं 'एवं जहा कण्हलेस्सलए' इस प्रकार से जैसा कृष्णलेश्य शतक में कहा गया है वैसा ही यहां पर समझना चाहिये । कृष्णलेश्यशत इसी ४० वे शतकका द्वितीय शत है। 'नवरं नो विरया अविरया, नो विरया विरया' कृष्णलेश्य शतकी अपेक्षा यहां जो अन्तर आता है
છ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા હોય છે. નીલલેશ્યાવાળા હોય છે કાપતલેશ્યાવાળા હોય છે. તેજલેશ્યાવાળા હોય છે. અને પહેલેશ્યાવાળા હોય છે તથા શુકલवेश्यावा हाय छे. 'नो सम्मदिट्ठी' मा सभ्याट खाता नथी. परंतु 'मिच्छादिद्वी' मिथ्याल्टिा डाय छे. 'नो सम्मामिच्छादिद्वी' तया भिटिवाणा पहाता नथी. 'नो नाणी अन्नाणी' तो नानी प साता નથી. અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને અજ્ઞાનમાં મતિઅજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન એ બે में अज्ञान हाय छ तमन वि अशान छातु नथी 'एवं जहा हलेससए' એજ પ્રમાણે કૃણા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અહીયાં પણ સમજવું કૃષ્ણલેશ્યા શતક આ ૪૦ ચાળીસમા શતકનું ll शत छे. 'नवरं नो विरया अविरया नो विरयाविरया' वेश्याशतनी
भ०८६
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૧૦૨
भगवती सूत्रे
मिद्धिका नो विरतात, अविरता भवन्ति किन्तु नो विरताविरता भवन्तीति । 'चिट्ठा ठि जाओहिय उद्देसए' संस्थाना अवस्थितिकालः स्थितिरायुष्यहाच यथधिकच चत्वारिंशत्तमशतकस्य प्रथमोद्देशके कथितस्तथैव ज्ञातव्यः सनावस्थितिकालो जघन्येनैकं समय मुत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् स्थितिस्तु जघन्येनैकं समयमुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । 'समुग्धाया शादिला पंच' समुद्धाता यायाः पञ्च वेदनाकपायमारणान्तिकवै क्रियतेज
बी एस सूत्रपाठ द्वारा यहां प्रकट किया गया है-उस कृष्णलेयशत मी अपेक्षा इसमें यही अन्तर है कि ये कृनयुग्मकृनयुग्म राशिप्रमाण अनवसिद्धिक संज्ञी जीव विरतियुक्त नहीं होते हैं। अविरतिवाले होते हैं। बिरताविरत - देशसंयमी भी ये नहीं होते हैं। 'स'चिट्टणा टिईय जहा ओहिए उद्देसए' अवस्थान काल और आयुष्ककाल जैसा ४० वे शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये । इस प्रकार अवस्थिति काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सागरोपमशत पृथक्त्वका है। तथा स्थिति जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से ३३ . सागरोपम की | 'मुग्धाया, आदिल्ला पंच' घरां समुद्धात आदि के पांच होते - वेदनासमुद्रात कपायसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय बाल और नैजससमुद्घात । आहारक समुद्घात एवं केवलिसमुઅપેક્ષાએ આ કુનમાં જે અંતર આવે છે તેજ આ સૂત્રદ્વારા પ્રગટ ડેરવામાં આવેલ છે. તે કૃષ્ણુલેશ્યા શતકની અપેક્ષાએ આમાં એજ અ'તર છે કે આ કૃતયુગ્મ નૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા અભવસિદ્ધિક સન્ની જીવે વિરતિવાળા હાતા નથી. અવિરતિયાળા ઢાય છે. વિરતાવિરત-દેશસચમી શ્રાવકે પશુ तेथे। होता नथी, 'संचिदृणा ठिईय जहा ओहिय उद्दे' अवस्थान भने आयुष्याण ४० याणी सभा शतना પડેલા ઉદ્દેશમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણુ સમજવું. આ રીતે અવસ્થિતિકાળ જઘન્ય એક સમયના અને ઉત્કૃષ્ટથી કઈક વધારે સાગરાપમશન પૃથકૃત્વના છે તથા સ્થિતિ જઘન્ય એક સમયની અને उत्छृष्टथी 33 तेत्रीस सागरोपमनी उडेल छे. 'समुग्धाया अदिल्ला' पं'च' तेमाने આદિના પાચ સમુઘાતા હોય છે.-એટલે-વેદના સમુદ્ઘ ત ૧ કષાયસમુદ્ઘાત ૨, મારજી'ન્તિક સસુઘાત, ૩ વૈક્રય સમુદ્દાત ૪ અને તૈજસમુદ્દાત પુ માહારક સમધાન મને કેવી સમઘાત એ કે મસાને અહિટ
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সমযজন্ধিা হাজ্জা হo৪০ , .৫৭ সমম নিবন্ধিতী নিo ed साख्याः आहारककेवलिसमुद्घातव ः 'उन्नगा तहेच अणुत्तर वियाणवता' उद्वर्तना तथैव-उपपातवदेव अनुत्तरविमानवजिताः एते समना उद्गृत्य अनार विमानेषु नोल्पद्यन्ते तदरिक्तेषु सर्व स्थानेवृत्पद्यन्ते, इति भावः । 'स, पापा जाव णो इणढे सम?' सर्वे प्राणाः यावत् सर्वे सत्वाः अभवसिद्धि संसिपञ्चन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वाः किमिति प्रश्नस्य, नायमर्थः समर्थः, इत्युत्तरम् । 'लेसं जहा कण्हलेस्ससए' शेषम्-उपरि यत् कथितं तदतिरिक्तसई कृष्णलेश्यशन व ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तं कृष्णलेश्यशवं ज्ञातव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि, जान अणंतखुतो' यावत् अनन्तकृत्वः एतत्पर्यन्तं सर्वं ज्ञातव्यमिति । 'एवं सोललनु द्घात यहां नहीं होते हैं । 'उन्त्रणा तहेव अणुत्तरचिनाणवज्जा' उद्वर्तना अनुत्तरविमानों को छोडकर उपपात के जैनी ही है । तार कहने का यह है कि ये जब अपने भव से उदृत्त होते हैं तो अनुत्तर विमानों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इनके सिवाय और सब स्थानो ये उत्पन्न हो जाते हैं । 'सप्पाणा जाब णो इणटे उमट्टे' हे सदनः । समस्त प्राण यावत् समस्त सत्य अभवलिद्धिक रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? तो इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा कहना चाहिये कि हे गौतम : अर्थ समर्थ नहीं हैं । 'सेस जहा कण्हलेस्ससए' इस प्रकार से जो अपर में कहा गया है उसके अतिरिक्त और सब कथन जे कृष्णलेर त में कहा गया है वैसा ही है । 'जाव अणंतखुत्तो' और वह ' 'यावत् पूर्व में अनन्तवार उत्पन्न नहीं हुए हैं। यहां तकका यहां का गा नथी. उव्वदणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जा' इतना अनुत्तर विभागाने छोडन ઉપપાત પ્રમાણે જ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-તે જ્યારે પિતાના ભવધી ઉદ્વર્તન કરે છે, તે તે અનુત્તરવિમાનમાં ઉત્પન્ન થતા નથી અનુત્તરવિમાન शिवाय या ४ स्थानमा ते! त्पन्न थाय छे 'सबपाणा जाव णो इणने सम?' 8 सावन सघाए। यावत् सपा सत्या शुभमसिद्विपक्षी પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એવું કહ્યું છે કે હે गौतम ! ! म ॥३२२ नथी 'सेस जहा कण्हलेस्सस' माशते ६५२ જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે સિવાય બાકીનું સઘળું કપન કુલેરી शतभा २ प्रभाथे ४ामा मावत छ, तर प्रभाव समा: 'जाब अणतखुत्तो' मत मा ४थन यात ५७i मनतवार पत्न या छ । કથન સુધીનું કુલેશ્યાના પ્રકરણનું કથન કહ્યું છે તે જ પ્રમાણે કથન કહેવું
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श्र
ઘૂંટાર
भगवती सूत्रे वि जुम्मेसु' एवं कृतयुग्मकृतयुग्मेषु यथा उपपातादारभ्य अनन्तकृत्व इत्येत त्पर्यन्तं कथितं तथैव कृतयुग्मयोज महायुग्मादारभ्य कल्योजकल्योज पर्यन्ते पोडशमहायुग्मेषु उपपातादारभ्य अनन्तकृत्व एतत्पर्यन्तं वक्तव्यमिति । 'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ॥
इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूपित चालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलाल विविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चत्वारिंशत्तमशतकस्य पञ्चदशे शते प्रथमोद्देशक्रः समाप्तः||४०|१५१ । चाहिये।' 'एवं सोलससु वि जुम्मेसु' जिस प्रकार से कृतयुग्मकृतयुग्मों में उपपात से लेकर अनन्तकृत्व तक पाठ कहा गया है उसी प्रकार से कृतयुग्म ज्योज से लेकर कल्पोज करयोज तक के सोलह महायुग्मों में भी उपपात से लेकर अनन्तकृत्व पाठ तक सब कथन कह लेना चाहिये । 'सेव' अंते ! सेव' भंते! त्ति' हे भदन्त ! जैसा यह कथन आप देवानुप्रियने कहा है वह सब सत्य हो है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना की नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के चालीसवें शतक के १५ वें शत में प्रथम उद्देशक समाप्त ||४० - १५- १॥
ले. 'एव' खोलस वि जुम्मेसु' ने प्रमाणे द्रुतयुग्म द्रुतयुग्भोभां उपપાતથી લઈને અન’તત્કૃત્વ સુધીના પાઠ કહેલ છે, એજ પ્રમાણે કૃતયુગ્મ ચૈાજથી લઈને કયેાજ લ્યેાજ સુધીના સેાળે મહાયુગ્મામાં પણુ ઉપપાતથી લઈને અન་તત્કૃત્વ પાઠ સુધી સઘળુ* કથન કહેવુ... જોઈ એ.
'सेव भ' 1 सेव' भते । त्ति' हे भगवन् यप देवानुप्रिये ने रीते या કથન કહેલ છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે, હું ભગવત્ આપ દેવાનુપ્રિયે આ
વિષયમાં કહેલ સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહે ને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂ॰૧ા
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પુજય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર’ની પ્રસૈયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના ચાળીસમા શતકમાં પહેલો ઉદ્દેશે. સમાજ્ઞાા૪૦-૧૫-૧૫
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१५ प्रथममभवसिद्धिकमहायुग्मशतम् ६८५
अथ द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते'पढम समय अमवसिद्धिन बडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिदियाणे भरो ! को उववज्जति' प्रथमसमयाभत्रसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञपश्चन्द्रियाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्य इति प्रश्नः। उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण-'जहा' इत्यादि, 'जहा सन्नीणं पढमसमयउदेसर तहेव' यया संझिनां प्रथमसमयोद्देशके तथैव त यैव प्रथमशनकस्य द्वितीयोदेश के कथितं तथैवोपपातादिकं सर्व ज्ञानव्यमिति । पूर्वापेक्षया द्वैलक्षण्यं तदर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं नाणं च सव्वत्थ नत्यि' नारं सम्यक्त्वं सम्यगमिथ्यात्वं ज्ञानं च न सन्ति, एतावान् एव पूर्वापेक्षया मेः 'सेसं तहेव' 'पढमसमय अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिंदियार्ण भंते !' टोकार्थ-हे भदन्त प्रथमसमयवर्ती अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं? अतिदेशद्वारा इसका उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'जहा सन्नीणं पढमलमय उद्देसए तहेव' हे गौतम ! जैसा इसी के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक में कहा गया है वैसा ही उपपात आदिक सब कथन यहां जानना चाहिये। परन्तु यहां सम्घवत्व, सम्पग्मिथ्यात्व और ज्ञान ये नहीं है । यही घात'नवरं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं नाणं च सव्वस्थ नत्थि' 'इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। इस अन्तर के अतिरिक्त और सब कथन प्रथमसमय
मी हेशानी प्रार-- 'पढमसमय अभवसिद्धिय कहजुम्म कडजुम्म सन्निपंचिदियाण भते 15
ટીકાઈ–હે ભગવન પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા અભાવસિદ્ધિક કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિય ચોનિકેથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેમ થી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? मातहेश द्वारा सा प्रश्न उत्तर माता प्रसुश्री ४ छ है-'जदा सन्नीगं' पडमसमय उद्देसए तहेव' है गौतम ! मा याजीसमा शतना पसरा सन મહાયુમ પહેલા શતકના બીજા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે કહેલ છે. એજ પ્રમાણે ઉપપાત વિગેરે સઘળું કથન સમજવું. પરંતુ અહિયાં રાત સમ્યક્ મિથ્યાત્વ અને જ્ઞાન એ હેતા નથી એજ વાત “નવર
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ફ્રૂટલે
भगवतसूत्रे
शेषं नवरमित्यादिना यत् कथितं तदतिरिक्त सर्वं तथैव - संज्ञिनां मथमसमयवदेवेति । 'सेत्रं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त इति ||
इति चत्वारिंशत्तमशतकस्य पञ्चदशे शते द्वितीयोदेशकः ||४०|१५|२ ||
'एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा' एवमत्रापि अभवसिद्धिकमकरघोऽपि एकादशोद्देशकाः कर्त्तव्याः । तत्र - औघिकोद्देशकः प्रथमसमयोद्देशकः, इत्युद्देशद्वयं कथितमेव शेषा अप्रथमसमयादारभ्य चरमाचरमसमयपर्यन्ता नवोदे
वर्ती संज्ञी जीवों के जैसा ही जानना चाहिये । सेवं भंते । सेव भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वैसा ही वह सब सत्य है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कारकर फिर वे संयम और तप से आत्मा को
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भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
||४० वे शतक के १५ वें शत में यह द्वितीय उद्देशक समाप्त हुआ ।४०-१५-२॥
' एवं एer वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा' इस अभवसिद्धिक प्रकरण में भी ११ उद्देशक कहना चाहिये । इन में औधिक उद्देशक और प्रथम समय उद्देशक ये दो उद्देशक तो सूत्रकार ने स्वयं कह दिये हैं। बाकी के अप्रथम समय से लेकर चरमाचरम समय तक के ९ उद्दे
सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं नाणं च सव्वत्थ नत्थि' मा सूत्रपाठे द्वारा प्रगट કરેલ છે. આ ફેરફાર શિવાય મકીનું સધળુ' કથન પ્રથમ સમયમાં રહેલા સનિ જીવેાના કથન પ્રમણે જ છે તેમ સમજવું.
'सेव' भते ! सेव ं भ ंते! त्ति' हे भगवन् याय देवानुप्रिये के अभा આ વિષયના સબંધમાં કહેલ છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન્ સ્માપ દેવાનુપ્રિયનું સ્થન સ॰થા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સચમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂ૦૧। પંચાળીસમા શતકના પંદરમાં શતકમાં આ ખીજા ઉદ્દેશા સમાપ્ત ૫૪૦-૧૫-૨
' एवं एत्थ व एक्कार उद्देसगा कायव्वा' 'मी अलवसिद्धिना प्रारभां ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઇએ. આમાં ઔધિક ઉદ્દેશાઓ તથા પ્રથમ સમય ઉદ્દેશ આ એ ઉદ્દેશાઓ સૂત્રકારે સ્ત્રય' કહ્યા જ છે ખાકીના પ્રથમ સમયથી લઇને ચરમ ચરમ સમય સુધીના ૯ નવ ઉદ્દેશાઓ અહિયાં પહેલાં
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प्रमेयवन्द्रिका टीका श०४० अ.श.१५ प्रथममभवसिद्धिक्महायुग्मशतम् १८७ शका अन पूर्वोक्तवदेव वाच्या इति भावः । 'पढमतइय पंचमा एकगमा तत्र प्रथमहनीयपञ्चमा उदेशका एकगमाः सहशा ज्ञातव्याः 'सेसा अट्ठवि एकगमा' शेषा अष्टावपि उद्देशका एकगमाः सदृशा ज्ञातव्या।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ॥
प्रथममभवसिद्धिकमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥
चत्वारिंशत्तमे शतके पश्चदशं संझिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥ शक यहां प्वाक्त जैसे ही हैं। 'पढमतस्य पंचमा एक्कगमा' इनमें प्रथम तृतीय पंचम ये तीन उद्देशक एक सरीखे गम जैसे हैं। 'सेसा अट्ट वि एक्ग मा' याकी के जो द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और ग्यारहवा ये ८ उद्देशक हैं-वे सय एक सरीखे गमवाले हैं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर गौतम संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
प्रथम अभवसिद्धिक महायुग्मशत समाप्त और इस प्रकार ४० वें
शतक में १५ वां संज्ञिमहायुग्मशतक समाप्त हुआ १४०-१५॥ ४ा प्रमाणे १ छे. 'पढम तइय पंचमा एकगमा' मां पडतो त्रीले भने पायमा ३५ देशास से १२मा माल1431वा छे. 'सेसा अट्ट वि एकगमा' माना २ मील, याथी, छठी सातमी, मामी, नवमी, इसमी, અને અગ્યારમે આ આઠ ઉદેશાઓ એક સરખા આલાપhવાળા છે.
'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' है मग मा५ हेवानुप्रिये या विषयना સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરેલ છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, તે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા ઘકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧
પહેલું અભવસિદ્ધિક મહાયુમ શતક સમાપ્ત ચાળીસમા શતકમાં પદરચું સણિ મહાયુગ્મ શતક સમાપ્ત ૪૦-૧પ
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भगवती सूत्रे
चालीसइमे सए सोलसमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं
छायः -- कृष्ण लेश्याश्वसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञि पञ्चेन्द्रियाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते यथा एतेषामेव औधिकशतं तथा कृष्णलेश्यशतमपि । नेवरं ते खलु भदन्त ! जीवाः कृष्णलेश्यशते शेषं तदेव । तदेव भदन्त । तदेव भदन्त । इति ।
| 'अह सोलसमं सनिमहाजुम्मस' ॥
मूलम् -- कण्हलेस अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्नि पंचिदियाणं भंते! कओ उववज्जति ? जहा एएसि वेव ओहिय सयं तहा कण्हलेस सयं पि । नवरं ते णं भंते! जीवा कण्ह लेस्सा हंता कण्हलेस्सा संचिणा ठिईय जहा कण्हलेस्ससए सेतं तं चैव । सेवं भंते! सेवं भंते! ति ।
द्वितीयमनवसिद्धिकशतं समाप्तम् ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शव के पोडशं संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥ टीका - - ' कण्हलेस अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्निपंचिदियाणं भंते! कओ उववज्र्ज्जति' कृष्णलेश्याभवसिद्धिककृतयुग्म कृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त ! जीवाः कुत आगत्योत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावत् देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण सोलहवां संज्ञिमहायुग्मशतक
'कण्डलेस्स अभवसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्म सन्नि पंचिदियाण भंते! कओ उववज्जति'
टीकार्थ - - हे भदन्त ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित कृष्णलेइयाबाले अभयसिद्धिक संज्ञीपश्ञ्चेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अतिदेशद्वारा इस સેાળમા સજ્ઞિ મહ'યુગ્મ શતકના પ્રારંભ-
'कण्ड्लेस्स्व अभवसिद्धियकड जुम्मकडजुम्म सन्निपंचिदियाण' भते ! कओ उववज्जति' ટીકા-હે ભગવન કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક સ'જ્ઞિપ ચેન્દ્રિય જીવ કયા સ્થાનવિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તે નૈરિયકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથા તિય ચાનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ?
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प्रथम द्रिका टीका श०३७ अ. श. १६ संशिमहायुग्मशतम्
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''जहा' इत्यादि, 'जहा एएसिं चेत्र ओहियसथं तहा कण्हलेस्ससयपि' यथा एतेषामेव अथवसिद्धिकानामेवौधिकशतं पञ्चदर्श शतं तथा कृष्णलेश्याभवसि किशतमपि अस्यैव चत्वारिंशच्छतस्य पञ्चदशे शते यथा औधिका भवसिद्धिक संझिपञ्चेन्द्रियाणामुपपातादिः कथित- स्तेनैव रूपेण कृष्णष्ठेश्याभवसिद्धिकानामपि उपपातादयो ज्ञातव्याः । औधिकाभवसिद्धिकापेक्षया कृष्णलेश्याभवसिद्धिकशते यद्वैलक्षण्यं तत् स्त्रयमेव सूत्रकार आह- 'नवरे' इत्यादि, 'नवरम् - विशेष स्वयम् - 'ते ते ! जीवा कण्हलेस्सा' ते खलु भदन्त । जीवाः किं कृष्णलेश्यावन्तो भवन्तीति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'हंता' इत्यादि 'हंता कण्हस्सा' इन्त हे गौतम!
जीवाः कृष्णावन्तो भवन्तीत्युत्तरम् 'संचिट्ठा ठिईय जहा कण्हलेस्सासए'
- प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं- 'जहा एएमिं चैव ओहियस तहा कण्हलेस्स सयं पि' हे गौतम! जैसा इन अभवसिद्धिक ' का औधिक शतक कहा गया है उसी प्रकार से इनका यह कृष्णखेड्या शतक भी कह लेना चाहिये । अर्थात् ४० वे शतक के १५ वें शतमें . जिस रीति से औधिक अभवसिद्धिक संज्ञीपश्चेन्द्रियों के उपपात आदि कहे गये हैं उसी रीति से कृष्णलेश्यावाले अभवसिद्धिक संज्ञीपञ्चेन्द्रियों के भी उपपात आदि कह लेना चाहिये । औधिक अभवमिद्धिकों की अपेक्षा इनमें जो अन्तर है वह इस प्रकार से है- 'ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा' हे भदन्त ! ये जीव क्या कृष्णलेश्यावाले होते हैं ? 'हंता, कण्हलेस्सा' हां, गौतम ! ये जीव कृष्णलेश्यावाले होते हैं । 'संचिणा ठिई जहा कण्टलेस्सासए' इनका अवरधानकाल और आयुकाल जैसा અથવા દેવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અતિદેશ દ્વારા આ પ્રશ્નના ઉત્તર यापतां अलुश्री गौतमस्वामीने उडे - 'जहा एएसि चेक ओहियसय तहा कण्ड्लेस्ससयौं पि' हे गौतम! मे प्रभा आा अलवसिद्धिनु सोधि शत કહેલ છે, એજ પ્રમાણે તેએના સબંધમાં આ કૃષ્ણુલેશ્યા શતક પણ કહેવું જોઇએ. અર્થાત્ ચાળીસમા શતકના ૧૫ પંદરમાં શતકમાં જે પ્રમાણે ઔઘિક અભવસિદ્ધિક સૌનિ પચેન્દ્રિયાના ઉપપાત વિગેરે કહેવામાં આવ્યા છે, એજ રીતે કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક સજ્ઞિ પંચેન્દ્રિયાના ઉપપાત વિગેરે પણુ જોઈએ. ઔઘિક અભવસિદ્ધિકવાળાઓની અપેક્ષાએ આમાં જે अ ंतर भावे छे, ते या प्रभावे छे. 'वेणं' भंते । जीवा कण्हलेस्सा' हे भगवन् मालवा हृष्युतश्यावाजा होय हे ? उत्तरभां अनुश्री छे छे है- 'हता गोयमा । कण्हलेस्सा' डा गौतम! ते लो ष्युसेश्यावाणा होय छे, 'संचिट्टणा दिई य
કહેવા
श्र० ८७
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भगवती सूत्रे
सस्थाना स्थितिश्च अवस्थानकाल आयुः कालश्च कृष्णस्टेइयजीवानां यथाऽस्यैव शतकस्य कृष्णलेश्याते कथित स्तेनैव रूपेणात्रापि ज्ञातव्यः | 'सेसं तं चैव ' शेपम् - अवस्थान स्थिस्पतिरिक्तं सर्वमपि तदेव अधिकशतोक्तमेव ज्ञातव्यमिति । सेवते ! सेव भंते! त्ति' तदेव भदन्त तदेव भदन्त । इति ॥
द्वितीयमभवसिद्धिक महायुग्मशतं समाप्यम् ॥ चत्वारिंशत्तमे शतके पोडशं कृष्णलेश्याभवसिद्धिक संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ||४०|१६||
इली शतक के कृष्ण लेइयाशत में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी कह लेना चाहिये। 'सेस' तं चेच' इनके अतिरिक्त और सब कथन औधिक रात में जेला कहा गया है वैसा ही है | 'सेवं भंते । सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! आपका यह कथन सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । दूसरा अभवसिद्धिकं महायुग्मशत समाप्त | 'चालीसवें शतक में सोलहवां कृष्णलेश्य अभवसिद्धिक संज्ञिमहायुग्मशतक समाप्त हुआ ।
जहा कण्हलेस्यसप' तेभोनो अवस्थान आज अने आयुआन मा ४० याणीसभा શતકના કૃષ્ણલેશ્યા શતકમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહેવું लेऽथे. 'सेव ं त ं चेव' मा उथन शिवाय माहीतु सधणु उथन सोधि શતકમાં કહ્યા પ્રમાણેનુ' સમજવુ',
'सेव' भ'ते ! सेव ं भ'ते ! त्ति' हे भगवन् मा विषयना सभधभां आप દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે. એ સઘળુ કથન સથા સત્ય છે. હું ભગવત્ આપ દેવાનુપ્રિયન્તુ' સઘળુ કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને પછી સ’યમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂ૦૧૫
રાખીજું અભવસિદ્ધિક મહાયુગ્મ શતક સમાપ્તા
ચાળીસમા શતકમાં સેળમુ. કૃલેશ્યા અભવસિદ્ધિક સજ્ઞિમહાયુગ્મ શતક
समाप्त ॥४०-१६
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प्रद्रिका टीका श०४० भ. श. १७-२१ संधि महायुग्मशतानि ६९१ | 'अह १७-२१ सयाइ ॥
मूलम् - एवं छहि वि लेस्साहिं छ लया कायव्वा जहा कण्हलेस्सस्यं । नवरं संचिट्टणा ठिईय जहेत्र ओहियसए तहेव भाणियव्वा | नवरं संचिणा सुक्कलेस्लाए उक्कोसेणं एक्कतीलं सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, ठिई एवं जेव, नवरं अंतोमुहुत्तं नत्थि जहन्नगं तहेव । सव्वत्थ सम्मत्त नाणाणि नत्थि । विरई विरयाविरई अणुत्तरविमाणोववत्तीय एयाणि नत्थि सव्वपाण० जाव णो इणट्टे समट्टे । सेवं भंते । सेवं भंते ! ति । एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धिय महाजुम्मसया भवंति । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति । एवं एयाणि एक्कवीसं सन्नि सहाजुम्मस्यापि । सव्वाणि वि एक्कासीतिमहाजुम्मसयाइं समत्ताई ॥ चत्तालीस इमं सन्निमहाजुम्मसयं समत्तं
छाया -- एवं पट्टभिर्लेश्याभिः पट्शतानि कर्त्तव्यानि यथा कृष्णलेरा शतम् । नवरं संस्थाना स्थिति यथैव औधिकशते तथैव भणितव्या । नवसंस्थाना शुक्ललेश्यायाम् उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि । स्थितिरेवमेत्र, नवर मन्तर्मुहूर्त नास्ति । जघन्यकं यथैव । सर्वत्र सम्यक्त्वं ज्ञानानि सन्ति । विरतिः विरताविरतिः अनुत्तरविमानोत्पत्ति, एतानि न सन्ति । सर्वमाणा यावन्नायमर्थः समर्थः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त इति । एवमेतानि सप्त अभवसिद्धिकमहायुग्मशतानि भवन्ति । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । एवमेतानि एकविंशतिः संज्ञिमहायुमाशतानि । सर्वाण्य' प एकाशीतिमहायुग्मशतानि समाप्तानि ॥
चत्वारिंशत्तमं संज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥ सप्तदशतः एकविंशतितम शनकानि
टीका--' एवं छहि विलेस्साहि छ सया कायव्वा जहा कण्हलेस्ससयं' एवं 'एव' छहिं चि लेस्साहि छ सया कायच्चा जहा कण्हलेस्ममयं ' टीका -- जिस प्रकार कृष्णलेश्यापदको जोडकर अभवसिद्धिक સત્તરમાં મહાયુગ્મ શતકથી એકવીસમા સુધીના પાચ મહેાયુગ્મ શતર્કાના પ્રાર ભ 'पर्व' छहिं वि केत्साहि छ सया कायवा जहा फहलेस्वाय' ने
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भगवती सूत्रे पमिरपि श्याभिः षट्शतानि कर्त्तव्यानि यथा कृष्णलेइयायात यथा कृष्णलेल्या मन्तर्भाव्य अभवसिदिधकस्य द्वितीयं शतं भवति तथैव नीलकापोत तेजसपदमशुक्ललेश्या सन्तर्भाव्यापि शतानि कर्त्तव्यानि तदेवमभवसिदधिकमधिकृत्य सप्तशतानि भवन्ति एकमधिकं पहलेश्यान्तमवेन पातानीति । 'नवर' संचिणा ठिई जव ओहियस तत्र भाणियव्या' नवरं - केवळं विशेषोऽयं यत् संस्थानाऽवंस्थिति काः स्थितिरायुष्यका यथैव औधिक नीललेश्यादिशते कथिता तथैव तेनवरूपेण ज्ञातव्या। नतु कृष्णलेश्यशतवदिति । 'नवरं संचिट्टणा सुकलेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तममहियाई' नवरं - केवळ मेतावदेव वैलक्षण्यं यत् संस्थाना-अवस्थितिकालः शुक्कलेश्यायां शुक्लदेश्यशते, उत्कर्षेणैकत्रिंशत्साग
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संज्ञी पञ्चेन्द्रियके सम्बन्ध में द्वितीयशल कहा गया है, उसी प्रकार से नील कापोत, तेजस, पद्म, शुक्ललेश्या इन पदों को जोड़कर भी ६ शत कहे गये हैं । इस प्रकार अभवसिद्धिक मंज़िपञ्चेन्द्रिय जीव को लेकर सातशत हो जाते हैं । जैसे- एक औधिक शतक और ६ लेश्या सम्बन्धी ६ शतक 'नवर' संचिणा टिई जहेब ओहियसए तहेव भाणियन्त्रा' परन्तु यहां जो विशेषता है वह ऐसी है कि यहां अवस्थिति काल और आयुष्यकाल ये दो बातें जैसी अभवमिद्धिक के औधिक नीलादिशत में कही गई है वैसी ही यहां पर कह लेनी चाहिये | कृष्णलेयशत के जैसे इन्हें यहां नहीं कहना चाहिये । 'नवरं संचिणा सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एक्कतीस सागरोवमाई. अंतोमुत्तमम्भहियाई' परन्तु शुक्ललेश्य शतक में उत्कृष्ट से एक
પ્રમાણે કૃષ્ણુલેસ્યાપદ લઇને અભવસિદ્ધિવાળા સનીપચેન્દ્રિયના સ મધમાં भीलुशन वामां आवे छे, मेन प्रभाशे नीस, प्रयोत, तेक्स, पद्म, શુકલલેશ્યાના સબંધમાં તે તે પદેશને જોડીને છ શતકા કહેલા છે. આ રીતે અભવસિદ્ધિક સન્નિ એકેન્દ્રિય જીવને લઈને સાત શતક અને છ વૈશ્યાઓના सधभां शत। थे रीते सात शत है। यह लय है, 'नवर' संचिट्टणा 'ठिई जहेव ओहियसए' तहेव भाणियच्चा' परंतु मडियां ने विशेषय छे, તે એવું છે કે અહિયાં અવસ્થિતિકાળ અને આયુષ્યકાળ આ એ માખતા જે પ્રમાણે અભવસિદ્ધિક સંબધી ઔશ્વિક શતકમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણે છે, તેમ સમજવું. કૃષ્ણવેશ્યા શતકના કથન પ્રમાણે તેને અહિયાં કહેવાતું નથી. 'नर' संचिणा सुक्कलेस्साए उक्कोसेन एक्कतीस सागरोत्रमाई अतो मुहुत्तममहियाई” शुग्सलेश्यामां मे रखे हैं शुश्याशतमां ष्टथी भर्ती
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प्रमैयबन्द्रिका टीका श०४० अ. श. १७-२१ संनिमहायुग्मशतानि ६९३ रोपमाणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, एतावत्परिमिता ज्ञातव्या अन्तर्मुहूर्ताधिकत्रिंशसागरोपमकथनं तु उपरितनगवेयकदेवमाश्रित्य ज्ञातव्यम् तत्र देवानामेतावदेवायुभवति शुक्ललेश्या च भवति, अभवसिद्धिकजीवा श्चोत्कर्पनस्तत्रैव देवतयोत्पद्यते न तु ततः परतः समुत्पद्यन्ते अन्तर्मुहूर्त च पूर्वभवावसानसम्बन्धीति । 'ठिई एवमेत्र स्थितिरपि एवमेव संस्थानाममितैव किन्तु 'नवरं संस्थानकालादेतद् वैलक्षण्यं तदेवाह-'अंतोमुहुत्तं नत्थि' अंतर्मुहूर्त नास्ति अत्र स्थिती 'अंतोमु. हुत्तममहियाई' इति पदं न वक्तव्यम्, स्थितिरेपामेत्रिंशत्सागरोपमाणि, इति भावः । 'जहन्नगं तहेव' जघन्यकं तथैव स्थितेजघन्यकाल: संस्थानकालस्य जघन्यअन्तर्मुहर्त अधिक ३१ सागरोपम का अवस्थितिकाल है। उपरितन प्रैवेयकके देवों को आश्रित करके शुक्लटेश्या का यह अवस्थान काल कहा गया है । क्योंकि वहां पर देवों की इतनी ही आयु होती है और शुक्ल लेश्या होती है। अभवसिद्धिक जीच उत्कृष्ट से नौवें ग्रैवेयक तक जाते हैं। इसके आगे नहीं जाते हैं अभवसिद्धिक संज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीवकी शुक्ललेश्या की स्थिति जो अन्तर्मुहूर्त अधिक ३१ सागरोपमकी कही गई है, सो इस कारण तो पूर्व में प्रकट किया ही जा चुका है, परन्तु अन्तर्मुहूर्त अधिकता जो यहां बतलाई गई है वह पूर्वभव के अन्त के अन्तर्मुहर्त को लेकर एताई गई है ऐसा जानना चाहिये । 'ठिई एवंचेव' स्थिनिकाल आयुष्मकाल भी अवस्थानकाल के ही जैसा है । परन्तु 'अंनोमुहत्त नत्यि' यहां एक अन्तर्मुहर्त की अधिकता नहीं है। आयुष्ककाल यहां केवल ३१ सागरोपम का ही है। 'जहन्नगं तहेव' વધારે ૩૧ એકત્રીસ સાગરોપમને અવસ્થિતિકાળ કહેલ છે. ઉપરિતન શૈવેયકના દેવને આશ્રય કરીને શુકલેશ્યાને આ અવસ્થાન કાળ કહેલ છે. કેમ કે
ત્યાં દેવેનું આયુષ્ય એટલું જ હોય છે અને શુકલેશ્યા હોય છે. અભવસિદ્ધિક છે ઉત્કૃષ્ટથી નવમાં પૈવેયક સુધી જાય છે. તેથી આગળ જતા નથી. અભવસિદ્ધિક સંપિચેન્દ્રિય જીવોની શુકલલેસ્થાની સ્થિતિ જે અંતર્મુહૂર્ત વધારે ૩૧ એકત્રીસ સાગરેપમની કહેલ છે. તે તેનું કારણ તે પહેલા બતાવવામાં આવ્યું જ છે. પરંતુ અંતમુહૂત અધિકપણું અહિયાં કહ્યું છે, તે પૂર્વભવના અન્તના અંતમુહૂર્તને લઈને કહેલ છે, તેમ સમજવું. 'ठिई एव चेव' स्थिति भने आयुष्य ५९ मवस्यान प्रभार . ५२'तु 'अतोमुत्त नत्थि' महियां में मतभुतनु मधिपायी . અર્થાત્ આયુષ્યકાળ અહિયાં કેવળ ૩૧ એકત્રીસ સાગરોપમન જ છે. 'जइन्ना तहेव' स्थिति सत्यानना वन्य प्रमान छ. अन्य
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भगवतीयो काळवदेवेति। 'समस्थ सम्मत्त नाणाणि नस्थि' सर्वत्रापि सम्यक्त्वं ज्ञानं च न भवतीति, 'विरई विरया विरई अणुचरविमाणोववत्ती एयाणि नत्यि' विरतिः विरताविरतिस्तथा अनुत्तरविमानादुपपातश्चेत्येतानि न सन्ति अभवसिद्धिक प्रकरणे अभवसिद्धिक स्वभावत्वात् । 'सबप्पाणा जाव णो इणटे समझे' हे भदन्त ! सर्वे प्राणा यावत् सर्वे-सत्वा अभवसिद्धिकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वाः किमिति प्रश्नः, हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, इत्युत्तरम्, चेह वक्तव्यमिति 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। 'एवं एयाणि सत्त अभवसिधिय महाजुम्म सया भवंति एवम्-उपरोक्तदर्शित क्रमेण सप्त सप्त संख्यकानि स्थितिकाल संस्थानकाल के ही जघन्यकाल के घरावर है । अर्थात् जघन्य. काल १ एकसमय मात्र है । 'सव्वत्य सम्मत्तनाणाणि नस्थि' यहां समस्त स्थानों में सम्यक्त्व एवं ज्ञान नहीं है। 'विरई अणु तरविमाणोववत्ती एयाणि नत्धि' विरति विरताविरति और अनुत्तर विमान से
आकरके उपपात ये सब नहीं हैं। क्योंकि यह अभयसिद्धिक का प्रकरण है । इस में ये सब अभवसिद्धि स्वभाव होने से नहीं होते हैं। 'सत्यप्पाणा जाव णो इणढे समढे' हे भदन्त ! समस्त प्राण यावत् समस्त सत्त्व क्या अभवसिद्धिक संज्ञि पंचेन्द्रिय रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? तो इस प्रश्न के उत्तर में यहां ऐसा करना चाहिये कि यह अर्थ समर्थ नहीं है । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर
समे समय मात्र छे. 'सव्वत्थ सम्मत्तनाणाणि नत्थि' मडिया सा स्थानमा सभ्यत्व भने ज्ञान ४९स नथी. 'विरई विरया विरई अणुत्तरविमाणोववत्ती एयाणि नस्थि' वि२ति विस्तावित मनुत्तर विमानथी मापीर ઉપપત આ બધા કહેલ નથી. કેમ કે–આ અભવસિદ્ધિકનું પ્રકરણ છે. तमा मा या मलसिद्धि सपना डावाची साता नथी. 'सव्वपाणा जाव जो इणटे समढे मगन् सा प्रारी यावत् सपा सत्वा शुभम સિદ્ધિક પણાથી પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં અહિયાં ४
-२मा मथ समय नथा. __ 'सेव भंते ! सेव भंते !
तिसावन मा५ देवानुप्रिये मा विषयमा જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપી દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ
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प्रमेयवद्रिका टीका श०४० अ० श. १७-२१ संझिमहायुग्मत तानि अभवसिद्धिकानां महायुग्मशतानि एकमौधिक पहलेश्यान्तर्भूतानि पर देव सप्त शतानि भवन्तीति । ' सेवं भते । सेवं भंते । त्ति' तदेव भदन्त । तदेव' भदन्त ! इति । एवं एयाणि एकवीसं सनि महाजुम्मसयाणि' एवमुपरोक्तदर्शितक्रमेण चत्वारिंशत्तमे शतके संज्ञिनामेकविंशतिर्महायुग्मशतानि भवन्तीति । 'सव्वाणि वि. 'एकासीई महाजुम्मसयाई' समत्ताई' सर्वाण्यपि एकाशीतिर्महायुग्मशतानि समातानि, तथाहि - पञ्चत्रिंशत्तमे शतके द्वादश महायुग्मशतानि १२ पटूभिंशत्तमे फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।
'एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धिय महाजुम्मसया भवति' इस प्रकार उपरोक्त दर्शित क्रमानुसार सान अभवसिद्धिक जीवों के महायुग्म शत होते हैं । एक औधिकशत और ६ छहलेश्याओं के । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! प्ति' हे भदन्त ! यह ऐसा ही है २ । इस प्रकार एवं एयाणि एक्rati सन्निमहाजुम्म सयाणि उपर्युक्त दर्शित क्रम से ४० वे शतक में संज्ञी जीवों के २१ महायुग्मशत होते हैं । 'सव्वाणि वि एकासीई महाजुम्मसयाई समन्ताई' ये सब मिलकर ८१ महायुग्मशत समाप्त हुए । ८१ महायुग्मशत इस प्रकार से होते हैं - ३५ वें शतक में १२ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
'एवं एयाणि त्त अभवसिद्धियमहाजुम्मसया भवति' मा प्रभाषे ઉપર બતાવેલ, ક્રમ પ્રમાણે અભવસિદ્ધિક જીવાના સાત મહાયુગ્મ શતકા થાય છે. તેમાં એક ઔશ્વિક શતક અને છ લેશ્યાએના છ શતકે મળીને સાત શતકા સમજી લેવા,
'सेव भ'ते ! सेव' भ'ते ! त्ति' हे भगवन् याप हेवानुप्रिये या विषयभां કહેલ સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે હે ભગવન્ આપનું કથન સધા સત્ય જ છે એ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ચકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
'एवं एयाणि एक्कवोसं सन्निमहाजुम्म सयाणि' उपर मतावेव उभप्रभावे या याणीसभा शतम २१ मेश्वीस महायुग्भ शन होय छे. 'सव्वाणि वि एकासीई महाजुम्म सयाई समत्ताइ' मा मुल भजीने યુગ્મ શતકો સમાપ્ત થયા. આ એકાશી મહાયુગ્મ શતો
८१ रोशी भडा આ પ્રમાણે કહ્રધા
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भगवतीस्ते शतवेऽपि द्वादश २४, सप्तत्रिंशत्तमेऽपि द्वादश ३६, अष्टत्रिंशत्तमेऽपि द्वादश ४८, एकोनचत्वारिंशत्तम पि द्वादशशतानि ६० चत्वारिंशतमे एकविंशतिः ८१ शतानि सर्वसङ्कलनया एकाशीति महायुग्मशतानि भवन्ति । एकाशीतेः प्रत्येक प्रदेशाना मेकादशत्वेन एकादशसंख्यया गुणने एकनवत्युत्तराष्टशतानि उद्देशकानां भवन्ति । तानि च महायुग्मशतानि समाप्तानि ॥ इति श्री- विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां 'श्री भगवतीसूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां
. व्याख्यानं चत्वारिंशत्तमं शतकं समाप्तम् ॥४०॥ महायुग्मशत हैं, ३६ वें शतक में भी १२ ‘महायुग्मशन हैं, ३७ वें शतक में भी १२ महायुग्मशत हैं, ३८ वे शतक में भी १२ महायुग्मशत हैं, ३९ वें शतक में भी १२ महायुग्मशत हैं और ४० वे शतक में २१ महायुग्मशत हैं। इन सब ८१ शतों के ११-११ उद्देशक हैं। इसलिये इन सब उद्देशकों की संख्या ८९१ होती है। ये सय महायुग्मशन समाप्त हुए। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत
"भगवतीस्त्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके
चालीसवां शतक समाप्त ॥४०॥
છે. પાંત્રીસમાં શતકમાં ૧૨ બાર મહાયુમ શતક કહેલ છે ૩૬ છત્રીસમાં શતકમાં પણ ૧૨ બાર મનાયુમ શતકે બતાવ્યા છે. ૩૭ સાડત્રીસમાં શતકમાં પણ ૧૨ મહાયુગ્મ શતકે કહ્યા છે. ૩૮ આડત્રીસમા શતકમાં પણ ૧૨ બાર મહાયુગ્મ શતકે કહ્યા છે. ૨૯ ઓગણચાળીસમા શતકમાં પણ બાર ૧૨ મહાયુગ્મ શતક કહેલ છે. અને ૪૦ ચાળીસમાં શતકમાં ૨૧ એકવીસ એક વીસ મહાયુગ્મ શતકે કહ્યા છે. આ બધા મળીને ૮૧ એકાશી મહાયુગ્મ - શતકે થાય છે. તે બધા શતકમાં ૧૧–૧૧ અગિયાર-અગિયાર ઉદ્દેશાઓ કહેલ છે. તેથી બધા ઉદેશાઓની સંખ્યા ૮૯૧ આઠસોએકાણુની થાય છે. સત્તરમાથી ૨૧ એકવીસમા મહાયુગ્મ સુધીના પાંચ મહાયુગ્મ શતકે
समाप्त ॥४०-१७-२१॥ . જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાન ચાલીસમા શતકનું ચાળીસમું શતક સમાપ્ત ૪૦૧
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अमेयचन्द्रिका टीका श०५१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम्
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अथ एक चत्वारिंशत्तमं शतम्
अह पढमो उद्देसओ मूलम्-कह णं भंते ! रालिजुम्ला पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि रासिजुम्मा पन्नत्ता तं जहा-कडजुल्म कलि भोगे। से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चई छत्तारि शलिजुल्मा पन्नत्ता तं जहा-जाव कलिओगे। गोयमा! जे णं राली चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए ले तं रामिजुम्मकडजुम्मे । एवं जाव जे ण राली चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवलिए से तं रालीजुम्मलिओगे। ले तेणद्वेणं जाव कलिओगे। रालिजुल्म कडजुम्म लेरइयाणं संते ! कओ उववज्जति ? उवाओ जहा वरतीए । तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवड्या उववज्जति ? गोयसा! चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा उववज्जति। ते ण भंते ! जीवा कि संतरं उबवति निरंतरं उववज्जति ? गोयमा! संतरं पि उववति निरंतरं पि उक्चज्जति। संतरं उववज्जमाणा जहन्नेणं एक समयं उन्कोलेणं असंखेज्जा समया अंतरं कट्ठ उववति । निरंतरं उबवज्जसाणा जहन्नेणं दो समया उक्कोलेणं अलंखेज्जा तराया अणुलमयं अविरहियं निरंतरं उबवति । ते णं भंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा, तं समयं तेोगा, जं समयं तेओगा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणट्टे समटे । जं समयं कन्डजुम्मा तंलमयं दावरजुम्मा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा नो इण? समहे । जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा, जं समयं
भ० ८८
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भगवतीसूत्रे
६९८
कलिओगा तं समयं कउजुम्मा | णो इणट्टे समट्टे । ते पणं भंते! जीवा कहूं उववज्जंति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे एवं जहा उववायसर जाव नो परप्पओगेणं उववजंति । ते पणं भंते! जीवा किं आयजसेणं अववज्र्ज्जति आयअजसेणं उववज्जति ? गोयमा ! नो आयजसेणं उववज्जति आयअज
सेणं उववज्जति । जइ आयअजसेर्ण उववज्जंति किं आयजसं उवजीवंति आयअजलं उबजीवंति ? गोयमा ! नो आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति। जह आयजसं उव जीवति किं सलेला अलेस्ता ? गोयमा ! सलेस्सा नो अलेस्सा। जइसलेस्सा किं तकिरिया अकिरिया ? गोयसा ! सकिरिया नो अकिरिया । जइ सकिरिया तेणेव भवगहणेणं सिज्झति, जाव अंतं करेंति ? जो इट्टे समट्टे । शहिजुम्म कडजुम्म असुरकुमाराणं भंते! कओ उचवज्जंति ? जहेब नेइया तहेव निरवसेसं । एवं जान पचिदियतिरिक्ख जोणिया । नवरं वणस्सइकाइया जाव असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति से एवं वेव । मस्सा वि एवं चैव जाब नो आयजसेणं उववज्जंति, आयअजलेणं उववज्र्जति । जड़ आयअजसेणं उबवज्जंति किं आयजसं उवजीवंति आयअजलं उवजीवंति ? गोयमा ! आयजसंपि उवजीवंति आयअजसंपि उपजीवति । जह आयजसं उवजविंति किं सस्ता अलेस्ता ? गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सावि । जइ अलेल्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! नो सकिरिया, अकिरिया । जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति जाव अंत करेंति ? हंता सिझंति जाव अंतं करेंति ।
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प्रमेयमन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम् जइ सलेस्सा कि लकिरिया अकिरिया ? गोयमा! सकिरिया नो अकिरिया। जइ सकिरिया तेणे भरगहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? गोयमा! अस्थगइया तेणेव भवरगहणेणं लिझंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया नो तेणेव सग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति । जइ आयअजसं उपवनंति किं सलेस्सा अलेस्सा। गोष्यमा ! सलेस्सा नो अलेक्सा जइ सलेस्ला कि सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! लकिरिया नो अकिरिया । जइ सकिरिया तेणेव अवगहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? नो इणट्टे समझे। वाणानंतरजोइलिय येमाणिया जहा नेरइया । सेवं भंते! २ ति ॥सू०१॥ इक्कचत्तालीसइमे लए रालिजुम्मलए पढमो उद्देलो लमत्तो
छाया कति खलु मदन्त ! राशियुग्माः प्रज्ञता ? गौतम ! चत्वारो राशियुगमाः प्रज्ञप्ताः ? तद्यथा कृतयुग्मो यावत् काल्योनः । तत्केनार्थेन भदन्त ! एकमुच्यते चत्वारो राशियुग्माः प्रज्ञाता रतद्यथा यवत् कल्योजः ? गौतम ! य: खलु राशिचतुष्केणापहारेणाऽपहियमाण श्चतुः पर्यवसितः सोऽयं राशियुग्म कृत. युग्मः एवं यावद् यः खलु राशिचतुष्कणापहारेणैरुपयवसितः सोऽयं राशियुग्न कल्योजः। तत्तेनाथन यावत बल्योजा। राशियुग्मकृत्युग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? उपपात यया व्युत्क्रान्ती । ते खलु भदन्त ! जीवा एकसमयेन भियन्त उत्सद्यन्ते ? गौतम ! चत्वारो वा अप्टो या द्वादन वा पोडश वा संख्याता का असंख्यातायोत्पद्यन्ते । ते खलु भदन्त ! जीवाः कि सान्तर मुत्पद्यन्ते निरन्तरमुत्पद्यन्ते ? गौतम ! सान्तरमपि उत्पद्यन्ते निरन्तरमपि उत्पद्यन्ते ? सान्तरमुरघमाना जघन्येनैक समरस उत्कर्मेणासंख्येयान् समयान अनन्तरं कृत्वोत्पद्यन्ते । निरन्तरमुपचनामा जघन्येन द्वौ समयो, उरकण संख्येयान् समयान् अनुपमयमविरहितं निरन्तर मुत्पद्यन्ते । ते खलू भदन्त ! जीवाः यस्मिन् समये कृतयुग्मा स्तस्मिन् समये योजाः, यस्मिन् समये योजा तस्मिन् समये कृतयुग्माः ? नायसर्थः समर्थः। पस्मिन् यस्ये कृ युग्मा स्तस्मिन् समये द्वापरयुग्मा:, यस्मिन् समये द्वापरयुग्माः तस्मिन् समये कृतयुग्माः ? नायमर्थः समर्थः । यस्मिन् समये कृतयुगाः तस्मिन् समये अल्पोजाः, यस्मिन् समये कल्पोजा स्तस्मिन् समये कृतयुग्मा ? नायमर्थः समर्थः । ते खल भदन्त !
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(၆ဝဝ
भगवती सूत्रे
जीवाः कथमुत्पद्यन्ते ? गौतम ! स यथानामकः लवकः प्लवमानः, एवं यथोपपातगते यावत् नो परयोगोत्पद्यन्ते । ते खलन्त ! जीवाः किमात्मयशसा उत्पद्यन्ते भन्साsयशसोत्पद्यन्ते ? गौतम ! नो आत्मयासोत्पद्यन्ते आत्मायशसोत्पद्यन्ते । यदि आत्मापयासोत्पद्यन्ते । किमात्मयश उपजीवन्ति, आत्मा उपजीवन्ति ? गौतम ! नो आत्मयशसोपजीवन्ति आत्मायशसोपजीवन्ति । यदि आत्मायज्ञ उपजीवन्ति किंसले अश्याः ? गौतम | सलेश्याः नो अश्याः । यदि सलेयाः । कि सक्रिया अक्रियाः ? गौतम | सक्रियाः, नो अक्रियाः । यदि सक्रिया रतनैव सवग्रहणेण सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? नायमथः समर्थः । राशियुग्मकृतयुग्मारकुमाराः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? यथैव नैरयिका स्तथैव निरवशेषम् । एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । नवरं नरपतिकायिका यावत् असंख्येयाचा अनन्तावोत्पद्यन्ते, शेषम् एवमेव | मनुष्या अपि एमेव यावत् को आत्मयशसा उत्पद्यन्ते आत्मायशसा उत्पन्ते । यदि आत्मायशसा उपद्यन्ते किमात्मयश उपजीवन्ति आत्मायश उपजीवन्ति ? नौवस ! आत्मयशोपे उपजीवन्ति आत्मायशसोऽपि उपजीवन्ति । यद्यात्मयश उपजीवन्ति कि सलेश्याः अलेश्या ? गौतम | सळेश्या अपि ador अपि । यदि अयाः किं सक्रिया अक्रिया: ? गौतम ! नो सक्रिया अक्रियाः । यदि अक्रियाः तेनैव सवग्रहणेण सिद्ध्यन्ति यावत् अन्तं कुर्वन्ति ? हन्त सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति । यदि सलेव्याः किं सक्रिया अक्रियाः ? गौतम ! सक्रियाः, नो अक्रियाः । यदि सक्रिया स्तेनैव भरग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? गौतम ! अस्त्येकके तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति, अयेक के नो तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति । यद्यात्मायश उपजीवन्ति किंसलेश्या अश्या: ? औनम ! सलेना नोडलेश्याः । यदि सश्याः कि सक्रिया अक्रिया: ? गौतम ! सक्रिया नो अक्रियाः । यदि सक्रिया स्तेनैव भग्रहणेन विद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? नायमर्थः समर्थः । वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकाः । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति ॥ मु०१ || ॥ एकचत्वारिंशत्तमे राशियुग्मशत के प्रथमोदेशकः समाप्तः । टीका- 'कइये ! रासिजुम्मा पन्नत्ता ?' कति खलु भदन्त ! राशियुग्मा
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शतक ४१ प्रथम उद्देशक
'कह णं भंते ! रात्रिजुम्मा पन्नत्ता' इत्यादि सूत्र १॥
એકતાળીસમા શતકના પ્રારંભ—
પહેલા ઉદ્દેશ 'कहि ण' भंते ! रासिजुम्मा पण्णत्ता' इत्यादि
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम् प्रज्ञप्ताः ? युग्मशब्दो युगलवाचकोऽपि अरित त्यतोऽसौ इह गरिनन्देन विशेष्यते तेन राशिरूपाः युग्माः न तु द्वितीयरूपा इति रागियुग्माः, ते सव्यया कतीति प्रश्नः, भगवाना--'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इत्तारि रासिजुम्मा पन्नता' चत्वारः राशियुग्मा: प्रज्ञप्ता -कविताः। 'तं जहां तद्यथा'कडजुम्मे जात्र कलिओगे' कृतयुग्मो यावत् कल्योजः अत्र यावत्पदेन पोज द्वापरयुग्मयोः संग्रहः । तदेव मूत्रकारः स्पष्ट पति-‘से केणडेणं भो ! एवं बुच्च चत्तारि रासिजुम्मा पन्नत्ता तं जहा ज व कलिओगे' तत्केनार्थेन भदन्त ! एनमुच्यते चत्वारो राशियुग्माः प्रज्ञप्ताः तद्यथा यावत् वल्योजः, अत्र यावत्पदेन कृत युग्मयोज द्वापरयुग्माना संग्रहो भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोरमा' इत्यादि, __टीकार्थ-हे भदन्त | राशियुग्म कितने कहे गये हैं ? युग्म शब्द युगल का भी वाचक होता है इसलिये उसे यहां राशि शब्द से विशे षित किया गया है। अत: राशिरूर जो युग्म है ये राशियुग्म है किन्तु द्विकरूप ये राशियुग्म नहीं है । ये लंख्या में स्तिने होते हैं ? ऐसा यह प्रश्न है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा ! चत्तारि राखिजुम्ना पन्नत्ता' हे गौतम ! चार गशिरूप युग्म कहे गये हैं । 'तं जहा' जैसे'कउजुम्मे जाच कलिओगे' कृतयुमि गायन कल्पोज यहां यावत् पदसे योज और द्वापर युग्म इनका ग्रहण हुआ है। गौतमस्वामी अव प्रसुश्री से ऐला प्रउन करते हैं-'सेकेणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ चत्तारि रासि जुम्मा पत्ता तं जहा व उजुम्म जाव कलिओगे' हे भदन्त ! ऐला आप किम कारण ले कहते हैं कि कृतयुग्म से लेकर
ટીકાર્થ– હે ભગવાન રાશિશુમે કેટલા પ્રકારના કહેવામા આવેલ છે? યુમ શબ્દ ગુગલનો વાચક પણ હોય છે. તેથી તેને અહિયાં રાશિ શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. જેથી રાશિ રૂપ જે ચુમ છે, તે રશિયુમ છે બે રૂપ ચુમ રશિયુકમ નથી. તે સખ્યામાં કેટલા હોય છે? આ રીતને અહિં ગૌતમવામીએ પ્રશ્ન કરેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४ छ -'गोयमा! चत्तारि रासि जुम्मा पत्ता' है गौतम ! शियुगमा यार माना हेपामा सावे. 'त जहा' २५-कहजुरमे जाव कलिओगे' तयुन યાવત કલ્યોજ અહિયા યાસ્પદથી સ્પે.જ અને દ્વાપસ્યુગ્મ ગ્રહણ કરાયેલ છે.
वे भीतमस्वामी श्रीने मे ५ छ है-'से कणटेण भंते प चह पत्तारि रासिजुम्मा पन्नत्ता त जहा कडजुम्ममइजुम्म जाव कलिओगे' मापन આપ એવું શા કારથી કહો છે? કે કૃતયુગ્મ કૃતયુમથી લઈને કાજ
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भगवती
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'गोयमा' हे गौतम! 'जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सेतं रासीजुल कडजुम्मे' यः खलु राशिचतुः समुदायरूपचतुष्केणापहारेणापहिय माणचतुष्पवसितः सोऽयं राशियुग्मकृतयुग्म इति कथ्यते । 'एवं जाव जेणं राचिकरणं अवहारेणं अवहौरमाणे एगपज्जबसिए सेत्तं रासिजुम्मकलिओगे' एवं यावद यः खलु राशिचतुष्केणापहारेणापहियमाण एकपर्यवसितो भवति सोऽयं राशियुग्म कल्पोजः अत्र यावत्पदेन यः खलु राशिचतुष्केणापहारेणापहियमाणे विपर्यवसितो भवति सोऽयं राशियुग्म त्र्योजः २, यः खलु राशिचतुष्केणापहियमाणो द्विपर्यवसितो भवति सोऽयं राशियुग्म द्वापरः ३, इत्यनयोः संग्रहो भवति इति । 'से ते अंते ! जाव कलिओगे' तत्तेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते कल्थोज पर्यन्त राशियुग्म चार कहे गये है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोमा ! जेणं रासी चउक्रुएर्ण अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जबसिए सेन्स रासीजुम्मकडजुम्मे' हे गौतम । जो राशि चार से विभक्त होती हुई अन्त में चार बचाती है ऐसा वह राशि कृतयुग्मराशि कही गई है । 'एवं जाव जेणं राशि चउकरुणं अवहारेणं अवहीरमाणे एमपज्जबसिए सेस रासिजुम्म कलिभोगे' इसी प्रकार यावत् जो राशि या है विभक्त होती हुई अन्त में एक बचानी है वह राशियुग्म कल्पोज कहा गया है। यहां यावद से 'जो राशि चार से विभक्त हुइ अन्त में तीन बचानी है यह राशियुग्मज है । तथा जो राशि चार से विभक्त होती हुई अन्त में दो बचाती है वह गशियुग्म द्वापरयुग्म है' छन दोनों का संग्रह हुआ है ।
સુધીના રાશિ યુગ્મા ચાર કહ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा ! जेणं' रासी चरकरण अवहारेण अवीरमाणे चउपज्जवसिए सेत्तं राखिजुम्म कलिओगे' हे गौतम! ? राशि साथी वडेथवामां भावतां छेवटे यार मये ते शशिने द्रुतयुग्भ राशि वामां आवे छे. 'एवं जाव जेणं रासि चक्करण अवहारेण अवहीरमाणे एगपज्जवलिए सेत राखि સુક્ષ્મ હિોશે' થ્યાજ પ્રમાણે ચાવત્ જે રાશિને ચારથી વહેચવામાં આવતાં દેવટે એક વધે છે તે રાશિ યુગ્મને કાજ કલ્પેજ રાશિત્રુગ્ધ કહેવય છે. અહિયાં યાવત્પદથી જે રાશિ ચારથી વહેંચાઇને છેવટે ત્રણ મચાવે છે, તે રાશિયુગ્મ Àાજ” છે, તથા જે રાશિ ચારથી વહે ચાઇને છેવટે એ પચાવે छे, ते शशियुग्म द्वापरयुग्भराशि छे. या मन्नेनो स'ग्रह थयेस छे. 'से तेण 'देणं' जाव कलिओगे' या अरथी हे गौतम! में मेवु छेउ-राशियुग्भ
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street टीका श०४१ उ. १ राशियुग्मनिरूपणम्
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स्वत्वारः राशियुग्माः प्रज्ञप्ताः राशियुग्म कृतयुग्मों १, रात्रियुगा योजो २, राधि युग्म द्वापरो ३ राशियुग्म फल्योजः ४, इति । 'रामिजुम्मकडजुम्म नरइयाणं भंते । कओ उववज्जति' राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकः खलु भदन्त ! कुल उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यानदेवेभ्यो वा आगव्य उत्पद्यन्ते । इति मन, उत्तरमाह - 'उपवाओ जहा चकंतीए' उपपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे न नैरयिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते न वा देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु विर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते इत्युत्तरमिति । 'ते णं भंते! जीवा एगममरणं
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'से तेणट्टेणं जाव फलिओगे' इस कारण हे गौनम ! मैंने ऐसा कहा है कि राशियुग्म कृतयुग्म, राशियुग्म पोज, गशियुग्म द्वापरयुग्म और राशियुग्म कल्पोज ऐसे चार राशियुग्म होते है ।
'रासिजुम्मकडजुम्म नेरहयाणं भंते ! कओ उचवज्जनि' के भदन्त ! जो नैरचिक राशियुग्म कृतयुग्म कृतयुग्म प्रमित है - वे किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों से आकर के उत्पन्न होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'उचवाओ जहा चक्कंतीए' हे गौतम! जैसा उ सम्बन्ध में कथन प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद में छठे पद में किया है वैसा ही यहां पर कर लेना चाहिये । इस प्रकार वे न नैरधिकों से आकरके उत्पन्न होते हैं और न देवों से आकर के उत्पन्न होते हैं । किन्तु तिर्यञ्चों में से और मनुष्यों में से आकर के वे उत्पन्न होते हैं ऐसा जानना
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કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ શશિડ્યુઅ, કૃતયુગ્મ યેજરશિયુગ્મ, દ્વાપર૨ યુિ ૬ અન લ્યાજ રાશિયુગ્મ એ પ્રમાણેના ચાર રાશિયુગ્મા છે.
'रासम्म कडजुम्म नेरइयाण भवे । कओ उववज्जति' हे 'वन ने Öરયિકા રાશિયુગ્મ પ્રમાણવાળા છે તેએ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએ નરિયેકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા યાવત દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી હે छे है- 'उवाओ जहा वफ तीए' से गौतम । आा विषयना सभधभां प्रज्ञापना સૂત્રના વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં એટલે કે છઠા પદમા જે પ્રમાણેનુ કચન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન અહિયા કહેવુ જેઈએ. આ રીતે તેએ નૈયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી, તથા વેમાથી આવીને પશુ ઉત્પન્ન થતા નથી, પરંતુ નિયં‘ચયેાનિકમાંથી અને મનુષ્યેામાંથી આવીને તે ઉત્પન્ન थाय छे. तेभ समन्वु 'वेणं' भंवे ! जीवा मति'
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भगवतीसूत्रे
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केवइया उज्जत' से खल भदन्त ! जीवा राशियुग्मकृतयुग्मनारका एकसमयेन एक स्मन् समये इत्यर्थः कियन्त उत्पद्यन्ते ? इति पश्नः, भगवानाह - 'गोमा' हें गौतम ! ' चत्तारि वा अटू वा वारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति' चत्वारो वा अष्टौ वा द्वादश वा संख्याता वा असंख्याता वा समु पद्यन्ते इति । 'ते भंते । जीवा कि संदरं उच्चज्जति निरंतरं उववज्र्ज्जति' ते खलु भदन्त ! जीराः किं सान्तरस् अन्तरसहितं यथा भवेत्तथोत्पद्यन्ते अथवा निरन्तरम् - अन्तररहितं समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि' 'गोमा' हे गौतम! 'संतरंपि उदवनंति निरंतरंपि उज्जेति' सान्तरमपि उपद्यन्ते निरन्तरमपि उत्पद्यन्ते ! 'संतरं उवरज्नमाणा जहन्नेगं एक समयं ' सान्तरपपद्यमाना जघन्येन एकं समयं जघन्यतः समयमात्रस्य व्यवधानं कृत्वा समुत्पप्यन्ये इत्यर्थः । 'उक्को सेणं असंखेज्जा समया अन्तर कट्टु उनवज्जंति' उत्कर्षेणा चाहिये । 'ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवड्या उववज्जंति' हे भदन्त | वे जीव एकसमय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 'गोयमा ! चत्तारि वा, अद्र वा, बारस वा, सोलस वा, संखेज्जाचा, असंखेज्जा वा उथवज्जंति' हे गौतम ! वे जीव एक समय में चार अथवा आठ, अथवा चारह, अथवा सोलह अथवा संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं । 'ते णं भंते ! जीवा किं संतरं उपवज्जंति' निरंतरं उववज्जंति' हे भदन्त ! वे जीवं क्या सान्तर - अन्तरसहित उत्पन्न होते हैं ? अथवा निरन्तर - अन्तररहित उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा । संतरंपि उबदज्जेति निरंतर वि उबवज्जंति' हे गौतम! वे जीव सान्तर भी उत्पन्न होने हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । 'संतरं उचवज्जमाणा जहन्नेणं एक्कं सम्यं उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अंतरं कट्टु उववज्जति' ભગવન્ તે છ એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ! छे !-'गोयमा ! चत्तारि वा, हवा, वारस वा, संखेज्जा वा, असं खेज्जा वा, उचवज्जति' हे गौतम! ते वो समयमां यार, अथवा आहे, અથવા માર, અથવા સ ખ્યાત અથવા અસખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે. તે ન भंते ! जीवा किं संतर' उववज्जति, निरंतर उचवज्ज'ति' है लगदन्तेवा શુ· સન્તર-અંતર સહિત ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા નિર ંતર અ'તર વિના उत्पन्न थाय छे ? उत्तरमा प्रभुश्री - 'गोयमा ! संतरपि उववज्जति, निर तर' वि उववज्जति' है गौतम । ते वो सान्तर पशु उत्पन्न थाय छे. अने निरंतर याशु उत्पन्न थाय छे. 'संतर' उत्रवज्जमाणा जहन्नेणं एकं समय' उक्कोसेण' असंखेज्जा समया अतर कट्टु स्त्रवज्जति' सान्तर-मन्तर सहित
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hrefद्रका टीका श०४१ उ. १ राशियुग्मनिरूपण
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संख्येयान् समयान् अन्तर कृत्वा समुत्पद्यन्ते । 'निरंतरं वज्जसाणा जहन्नेणं दो समया' निरन्तरमुद्यमानाः जघन्येन द्वौ समयौ यात्रa 'उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतर उबवज्जेति' उत्कर्षेणासंख्येणन सगयान, यावत् अनु समयमविरहित' निरन्तर' सम्पद्यन्ते । 'अनुममय' इत्यादि पत्त्रयमे
कम् |'' ! जीवा जं समय' कडजुम्मा तं समयं तेओगा' ते खलु भदन्त । जीवा यस्मिन् समये कृतयुग्मा इत्यभिधीयन्ते तन्निमये किं त्र्योज पदवाच्याः सम्भवन्ति ? तथा - 'जं समयं तेओगा तं समय कडजुम्मा' यस्मिन् समये योज पदवाच्याः तस्मिन् समये कृतयुग्म शब्दान्याः सम्भवन्ति किमिति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'णो इणडे समट्टे' नायमर्थः समर्थः एक संख्यातिनां सान्तर उत्पन्न होने पर वे जघन्य से एकसमय का और उत्कृष्ट से असंख्यात समयका अन्तर कर के उत्पन्न होते है । 'निरंतर' उववज्जमाणा जहन्नेणं दो समय और निरन्तररूप से जब वे उत्पन्न होते हैं तब वे जघन्य से दो समय तक एवं 'उक्को सेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतर उति उत्कृष्ट से असंख्यातनमय तक प्रत्येक समय में विना अन्तर के उत्पन्न होते रहते हैं । 'अनुसमय आदि ये तीन पद एक ही वाले हैं । 'ते णं' भते ! जीवा जं' समय कडजुम्मा तं समयं तेभोना' हे भदन्त । वे जीव जिस समय कृतयुग्मपदचाप होते हैं उस समय में वे क्यो व्योपदवाच्य होते हैं ? तथा-'ज' समयं तेओगातं समयं काउजुम्मा' वे जिस समय में व्यपदवाच्य होते हैं उस समय में वे कृतयुग्मवाच्य होते है ?
में
ઉત્ત્પન્ન થાય ત્યારે તેએ જઘન્યથી એક સમયથીઅને ઉત્કૃષ્ટથી અસ‘ખ્યાત સમયના અતરથી ઉત્પન્ન થાય छे. 'निर तर' उबवज्जमाना जहणेण दो समया' भने निर'तरयगाथी क्यारे तेथे। उत्यन्न थाय छे, त्याने तेथे ध न्यथी मे समय सुत्री भने 'उक्कोसेणं' असंसेज्जा समया अणुमयं अविरहिय निर'तर' उववज्जंति' ७त्सृष्टथी असत समय सुधी प्रत्येक समयभां अंतर વિના ઉત્પન્ન થતા રહે છે. “અતુ સમય વગેરે આ ત્રણ પદે એક જ प्रारना अर्थने तापवावाणा हे 'ते णं' भवे जीवा जं समय कउजुम्मा त સમય'. તેમો' હે ભગવન્ તે જીવે જે સમયમાં કૃતયુગ્મ પાવાળા હાય छे, ते वने तेथे हा होय हे ? तथ' 'ज समय तेओगा त' समय कडजुग्मा' ? वणते तेथे त्र्योन्यथी युक्त होय हे, ते ने તેએ શુ કૃતયુગ્મ પદવાળા હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ
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घा
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भगवती सूत्रे विरुद्ध संख्यान्तराधिकरणत्वादिति । एवम् 'जं समय कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा' यस्मिन समये कृतयुग्माः तस्मिन् समये द्वापरयुग्माः संभवन्ति ? 'जं समय' दावरजुम्प तं समयं कडजुम्मा' यस्मिन् समये द्वापरयुग्माः तस्मिन् समये नयुग्माः संभवन्ति किमिति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'नो इमडे समदे' नायमर्थः समर्थः । 'ज' समय' कडजुम्मा तं समयं कलियोगा' यस्मिन् समये कुनयुग्मा स्तस्मिन् समये कल्योजाः किम् ? तथा - 'जं समयं कलिओोगा' व समय कडजुम्मा' यस्मिन् समये कल्योजा रतस्मिन् समये कृतयुग्माः किमिति प्रश्नः, इस प्रश्न के उत्तर में प्रमुश्री कहते हैं-'जो इण्डे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि जो एक संख्पाश्रित है उनमें विरुद्ध संख्यान्तर की अधिकरणता नहीं बनती है। इस प्रकार 'जं' समय कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा' यह प्रन भी कि जिस समय वे कृतयुग्म रूप होते हैं उस समय में वे क्या द्वापरयुग्म रूप होते है ? 'जो इण्डे उमडे' इस सूत्र के अनुसार समर्थित नहीं हुआ है । और इसी प्रकार से- 'जं समयं दावन्जुरमा से समय कडजुम्मा' यह प्रश्न भी कि "जिस समय वे द्वापरयुग्म रूप होते हैं, उस समय में वे क्या कृतयुग्म रूप भी होते हैं ? 'जो हाडे मम' सूत्र के अनुसार समर्पित नहीं हुआ है । 'जं' समय कडजुम्मा तं राजय कलियोगा' तथा'जिस समय मैं कृतयुग्मपदवाच्य होते हैं उस समय में वे कल्योज पदवाच्य होते हैं तथा 'जं ममयं कलि होगा तं मयं उजुम्मा' जिस समय वे कल्पोज पदवाच्य होते है उस समय वे क्या कृतयुग्म पद
स्वामीने हे छे है- 'जो इट्टे सट्टे' हे गौतम! आा अर्थ मरोमर नथी કેમકે-જેએ એક સંખ્યાના આશ્રયવાળા છે, તેએામાં વિરૂદ્ધ પ્રકારના सभ्यान्तरनु अधियागु जनतु नथी न प्रमाये 'ज' समय कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा' ने सथये द्रुतयुग्म होय हे, ते समयभां तो शु द्वापरयुग्म ३५ होय छे ? या प्रश्न या 'जो इण्ठे समठे' मा सूत्रपाना प्रथम प्रमा समर्थित थयेस नथी. मने मे प्रभो 'ज' समय दावर जुम्मा तं समयं कडजुम्मा' या प्रश्न है-न्यारे तेथे द्वापरयुग्भवा હાય છે, તે સમયે તેઓ શુ મૃતયુગ્મ રૂપ પણ હૈાય છે ? આ પ્રશ્ન પણ ‘નોં इट्टे समट्टे' मा सूत्रपाठ प्रमाणे समर्पित थयेसा नधी. 'ज' समय कड जुम्मा त' समय' कलिओगा' तथा ने समये मृतयुग्म यहवाजा होय छे, ते वयते तेथे। उहयोग पहथी युक्त होय छे, 'ज' समय कलिओगा तं समर्थ' कडजुम्मा' क्यारे तेथे उयोपथी युक्त होय छे, ते वयते तेथे।
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम्
७०७ उत्तरमाह-'णो इणहे समहे' नायमर्थः समर्थः, इत्युत्तरम्. युक्ति पूर्वोक्तंच 'तेणे भंते ! जीवा कहिं उबरजति ते खलु मदन्त ! जीवाः कथमुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहानामए पवए पवमाणे एवं जहा उबवायसए जाब नो परप्पओगेणं उववज्जोते' स यथानामकः प्लवकः प्लरमानः एवं यथा उपपातशत के भगवत्या एवं त्रिगत्तमशन के प्रथमो द्देशके कथित तथाऽत्रापि सातव्यम् कियत्पर्यन्त तत्राह-'जा' इत्यादि, यावत् 'नो परप्पओगेणं उववज्जति' नो परमयोगेणोत्पधन्ते एतत्पर्यन्तम् उपपातशतकमत्राध्येतव्यम् एकत्रिंशत्तमशत के पञ्चविंशतिगतकीयाष्टमोद्देशकस्यातिदेशो विद्यते तथा च अध्यवसानयोगनिवर्तितेन करणोपायेनेत्यारभ्य आत्ममयोगेणोवाच्य होते हैं ? क्या यह प्रशन भी 'जो इणद्वे सन' सूत्र के अनु. सार हे गौतम! समर्थित नहीं हुआ है।
'ते भंते ! जीवा काहिं उपपज्जति' हे सदन्त ! वे जीव कैसे किस प्रकार से उत्पन्न होते है ? 'गोयमा ! से जहानामए पथए परमाणे एवं जहा उववायसए जाव नो परप्पओगेण उववज्जति' हे गौतम ! जैसे कोई एक प्लवक कृदता कूदता अपने स्थान से आगे के स्थान पर पहुंच जाता है-इत्यादि रूप से जसा उपपात शतको हसी भगवती के ३१ वें शतक में प्रथम उद्देशक में कहा गया है वह यहां पर कह लेना चाहिये । 'जाब नो परप्पओगेण उववज्जति' इल स्त्रपाठ तक तात्पर्य कहने का यह है कि ३१ वे शतक में पच्चीस शतक के आठ में उद्देशकका अतिदेश है गेवरा के 'अध्यनमान योग निनितेन करणो.
तयु२५ ५६थी युत अाय छ ? 241 प्रश्न ५ णो इणढे सम?' या सूत्र पाना કથન પ્રમાણે છે ગૌતમ સમર્થિત થયેલ નથી. __ण भते ! जीवा वहि उववज्जानि', मनवन्त वा दाते Gruन्न थ य छ । त्तरमा प्रसुश्री छे -'गोधमा । से जहानामए पत्रए पवमाणे एवं जहा उपवायसए जाब नो परपाय भोगेण अवज ति से ગૌતમ જેમ કે એક કૃદનાર પુરૂવ કદને કદતે પિતાના સ્થાનથી આગળના સ્થાન પર પહોંચી જાય છે, વિગેરે પ્રકારથી જે પ્રમાણે ઉપપાન શતકમાં એટલે કે આ ભગવતી સત્રના ૩ી એકત્રીસમા શતકન પડેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયા સમજી લેવું. 'जाव नो परप्पओगेण' उज्जति' २१ सूत्र५४ सुधी ते ४यनी આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-એકવીસમા શતકમાં પચ્ચીસમા શતના
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. . भगवती त्पद्यन्ते एतत्पर्यन्तं पञ्चविंशतिशतकीयाप्टमोद्देशकमकरण मिहाध्येतव्यमिति । 'ते णं भंते ! जीवा किं आयनसेणं उज्जति आयनसेणं उबवज्जति' ते खलु भदन्त ! जीवाः किमात्मयशसा उत्स्यन्ते आत्दनः सम्बन्धि यशः यशःकारणत्वात् आत्मनः यशः-संयम आत्म यश स्तेन आत्मयशमा समुत्पद्यन्ते अथवा आत्मनोऽयशसा समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम! 'नो आयजसेणं उपयजति आय अजसेणं उज्जंति' नो आत्मयशसा उत्पद्यन्ते किन्तु आत्माऽयशसोत्पान्ते इह च सर्वेषामात्माऽयशसेवोत्पत्ति भवति उत्पत्तौ सपा मविरत्वादिति । 'जड आय अनसेगं उश्वज्जति किं आयजसं उवजीवंति आय अजसं उवजीवंति' यदि आत्माऽयशमा उत्पद्यन्ते तदा किमात्म पायेन' हल पाठ से ले नहर 'आत्मप्रयोगेण उत्पद्यन्ते' इस पाठ तक पच्चीस वें शतक का अटमोद्देशक प्रकरण रहां ग्रहण कर लेना चाहिये। 'ते ण भते ! जीवा कि आयजलेग उपयति' हे भदन्त । ये जीव क्या अपने घश से उत्पन्न होते हैं ? अश्रवा 'आय अजसेण उवव. ज्जति' अथवा अपने असंयम से उत्पन्न होते हैं ? 'गोयमा | नो आयजसेण उवज्जति, आय अजलेण उवजनि' हे गौतम ! वे अपने संयम से उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु अपने असंयम से उत्पन्न होते है। यहां समस्त जीवों की उत्पत्ति अपने असंयम से ही होती है । क्यों कि उत्पत्ति में यहां समस्त जीवों की अविरत अवस्था ही कारण है। 'जह आय अजमेण उवधाजलि' किं आयजस उवजीवंति' आय अजसं उपजीवति यदि वे आत्म असंयम से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे आत्म संयम का आश्रय करते हैं ? अथवा आत्म असंयम का मामा हेशानी भएर ४२८ छ, तयाथी सव्यवसानयोगनिवर्तितेन करणोपायेन' मा पाथी बन 'आत्मप्रयोगेण उत्पद्यन्ते' मा ५18 सुधी ५-यास शतना भी देशानु थन गडियां यह शन न . 'ते ण भते ! जीवा आयजसेण उववज ति' मगन्ते । शु पाताना यशयी सयमयी उत्पन्न थाय छ ? गथवा 'आय अजसेण उववज्जति' मया पोताना मसयमयी उत्पन्न याय छ ? उत्तरमा प्रशुश्री ४ छ -'गोयमा! नो आयजसेण उववज्जति, आय अजसेण उववज्जति र गौतम ! तेसो पोताना सयमयी ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ પિતાના અસ યમથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. કેમ કે 'जइ आय अजसेणं उवजीवंति कि आयजसं उवजीवंति आय अजसं उवजीवंति' ले ते मात्म सयमथ 64-न थाय छे, तो शु
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प्रमेयचन्द्रिका सीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपण यशः -आत्मसयममुबजीवन्ति-आश्रयन्नि विदधतीत्यर्थः अयदा आत्मनोऽयशः आत्मनोऽसंयममुपजीवन्ति-माश्रयन्ति किमिति प्रश्न:, भग समाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो आयजसं उबजीति आय असं उरजीवंति' नो आत्मनो यश -आत्मसंयम रतम् नो उपजीवन्ति किन्तु आत्मायशः आत्मनोऽ संयममुपजीवन्ति आश्रयन्तीति । 'जइ आय अजसं उपजीति सलेम्मा अलेस्सा' हे भदन्त ! यद्यात्मयत्रः आत्ननोऽसंगानुपजीवन्ति, तदा किं ते जीवाः सलेश्या भवन्ति अलेश्या वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सलेस्सा नो अलेस्सा' सलेश्याः लेश्यावन्त एव भवन्ति न तु छेश्यारहिता भवन्तीति । 'जइ यलेस्सा कि सपिरिया अकिरिया' हे भदन्त ! यदि ते जीवाः सलेश्याः तदा सक्रिया अक्रिश वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सकिरिया नो अकिरिया' सक्रिया एव भवन्ति न तु क्रिया रहिता भवन्तीति । 'जह सकिरिया तेणेन भवग्गहणेण तिझांति जाव आश्रय करते हैं 'गोयमः ! नो आयजन उघजीवंति आध अजसं जयजीवंति' हे गौतम ! वे आत्म संयम या आश्रय नहीं करते हैं किन्तु आत्म अलयम का ही आश्रय करते हैं। 'जह आप अजसं उवजीवंति, सलेहता अस्पा ' हे भदन्त ! यदि वे आल्ल असंयम का आश्रय करते है तो क्या थे लेख्यासहित ही होते है अथवा क्यारहित होते हैं ? 'गोयया सलेस्साको अलेस्ला' हे गौतम ! ये लेश्या सहित ही होते हैं लेश्या रहित नहीं होते है । 'जई ललेस्मा किं सकिरिया अकिरिया हे अदन्त ! यदि ये लेख्यासहिन होते हैं तो क्या वे क्रियायुक्त होते हैं ? अधया क्रियायुक्त नहीं होते हैं ? 'गोधमा! તેઓ ભ સ યમને આશ્રય કરે છે ? અથવા આત્મ અસયમને આશ્રય ४२ छ१ 'गोयमा ! नो आयजस उवरज्जत, आय अजस उजति' हे गौतम ! તેઓ આત્મ સંયમને આશ્રય કરતા નથી પર તુ - અસંયમને જ माश्रय ४२ ले 'जइ आय अजस उब जीव ति, सलेस्सा, अले. लगपन् જે તેઓ આત્મ અસ યમનો આશ્રય કરે છે તે શું તેઓ લેહ્યા સહિત હોય छ? त्या विनाना सोय ? 241 RAHI 31२५i प्रभुश्री हे छ 'गोयमा! सलेम्सा नो अलेस्सा है गीतम! तेस या सहित साय थे, वेश्याडित होता नथी 'जह सलेस्था कि सकिरिया अकिरिया' है मगर ले तो त्या સહિત હોય છે, તે શું ક્રિયા યુક્ત હોય છે? અથવા ક્રિયાયુન હેતા નથી? GIRभा सुश्री ४ छे-गोयमा ! सकिरिया नो किरिया' हे गीतम तय लियारहित हाय छे, या बिनाना होता था. 'जइ किरिया तेणेव भवग.
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भगवतीसूत्र अंतं करें ति' हे भदन्त ! यदि ते जीवाः सक्रियाः तदा तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावद त कुर्वन्ति अत्र यावत्सदेन बुद्ध यन्ते मुच्यनो परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानामित्यस्य ग्रहणं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'जो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः । ते तेनैव भवग्रहणेन न सिद्धयन्ति ५ इति भावः।
सिजुम्म कडजुम्म असुरकुमाराणां भंते ! को उबवज्जति' राशियुग्म कृतयुग्मासुरकुमाराः खलु भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते किं नैरपिकेभ्य आगत्योत्तधन्ते यावदेवेभ्य आगत्योत्पधन्ते इति प्रश्ना, उत्तरमाइ-अतिदेशद्वारेग 'जईव' इत्यादि सकिरियानो अपिरिया' हे गौतम ! ये क्रिया सहित ही होते हैं क्रिया रहित नहीं होते हैं । 'जह ब्लकिरिया तेणेव भवरगहणेज सिझंति जाव अंत करेंति' हे अदन्त ! यदि क्रिया सहित ही होते हैं तो क्या वे उसी भव से सिद्ध हो जाते हैं यावत् अन्त कर देते हैं ? यहां यावत्पद से 'बुद्धय ते, मुच्यन्ते परिनिस्यन्ति लर्च दुःखानाप' इन पदों का ग्रहण हुआ है। उत्तर में प्रभुत्री कहते हैं-'णो इणढे समठे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं हुआ है। इस कारण ये भी इसी भव से न सिद्ध होते हैं न बुद्ध होते हैं न मुक्त होते हैन परिनिर्वात होते हैं न समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। _ 'रालिजुम्न काडजुस्म असुरकुमाराण भंते ! को उववज्जति हे मदनन्द ! शियुग्म कृतयुग्म राशिप्रमाण असुकुमार किम स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते है ? क्या वे नरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अश्या थात् देशों में से पाकर के उत्पन्न होते हैं ? हणेणं सिज्जति जाव अत करे ति' सगगन ने लिया सहित सय છે, તે શું તેઓ એજ ભવમાં સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે? બુદ્ધ થઈ જાય છે ? મુકત થઈ જાય છે? યાવત્ સર્વ દુઓને અંત કરી દે છે? અહિયા યાવ
यी बुद्धयन्ते, मुच्यन्ते परिनिर्वास्यति सर्वद खानाम्' मापहोना सब थये। छ मा प्रशन उत्तामा प्रसुश्री छे-'णो इणटे समट्रे' गोतम ! मा અર્થ સમર્થિત થયેલ નથી. તેથી તેઓ એજ ભવમાં સિદ્ધ થતા નથી. મુક્ત થતા નથી પરિનિર્વત થતા નથી. અને સઘળા દુઃખે ને અંત કરતા નથી. ___रासिजुम्न काजुम्म असुरकुमाराण भंते ! ओ उदवज्जति' 3 भगवन् રાશિયુગ્મ રૂપ કૃતયુગ ૨ રાશિ પ્રમાણે અસુરકુમાર કયા સ.ન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈરયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અતિ
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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम्
७११ 'जहेव नेरइया तहेब निरवसेस' यथैन नायिकास्तथैव निरवशेषम् तिर्यग्भ्योमनुष्येभ्यो वा आगत्योस्पद्यन्ते इत्यादि सबै नरयिक मकरणवदेशावगन्तव्यं नवर नैरयिकस्थाने असुरकुमारेति पदं संयोज्य अलापको वक्तव्यः, आलापप्रकारच स्वयमेव ऊहनीय इति । एवं जाव पंचिदियतिरिक्खनोणिया' एवं नरयिक वदेव यावत पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यावत्पदेन असुरकुमारादास चतुरिन्द्रियान्तानां संग्रहस्तथा च एकेन्द्रियादारभ्य पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानामुपपानादयः नारकचदेव ज्ञातव्याः। 'नवर दणस्सइकाइया जाच असंखेमा वा अणंना वा उववज्जति' नवर-केवलं नारकप्रकरणापेक्षया इदमेव लक्षण्यं यद् वनस्पति. अतिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री करते हैं-'जहेव नेरहया तहेश निरवसेस' हे गौतम जैसा नैरयिकों के सम्बन्ध में कहा जा चुका है वैसा ही इनके सम्बन्ध में कहलेना चाहिये । इस प्रकार ये तिर्यग्यो. निकों में से आकर के अथवा मनुष्यों में से आकर के उहान होते है इत्यादि समस्त प्रकरण यहां जानने का हो जाता है। आलापरू की रचना करते समय नैरथिक के स्थान में अलुर कगार पद रखना चाहिये
और आलाप प्रकार अपने आप समझ लेना चाहिये 'एबजाय पचिंदिय तिरिक्ख जोणिया' इसी प्रकार ले पाचन पञ्चेन्द्रियनिग्मोनिकजी के भी उत्पाद आदिजानना चाहिये। यहां यावत्पद ले 'एकेन्द्रिय नागकुमार से लेकर चौहन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण हुआ है। तथा च अमुरकुमार से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का उत्पात आदि नारक के जैसा ही होता है। 'नवर वस्तइकाइया जात असखेजा वा जलावा इवत्र ज्जति' परन्तु वनस्पतिकायिक जीव यावत् अमर वान अधन्न अनन्त દેશ દ્વારા આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'जहेव नेरइया तहेव निरवसेस' 8 गोनम ! नैयिहीना संग प्रभार કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન આ રાશિકુમ કુયુગ ગુર કુમારના સંબંધમાં પણ સમજવું. આ રીતે તેઓ નિયં ચનિકોમથી અથવા મનુબેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, વિગેરે સઘળું કરવું અડિયાં સમજી લેવું. આલાપકો કહેતી વખતે નરયિકેના સ્થાને અસુરકુમાર આ પદ મૂકીને આલાપકો કહેવા જોઈએ આલાપકોને પ્રકાર સ્વયં સમજી લે “ri जाव पचिंदियतिरिकखजोणिया' प्रभो यावत् पश्यन्दियनिय निहाना ઉપપત વિગેરે પણ સમજવા. અહિયા યાવત્ પદથી એકેન્દ્રિય લઈને ચાર ઈન્દ્રિય સુધીના છ ગ્રહણ કરાયા છે. એટલે કે એકેનિકથી લઈને પંચેન્દ્રિય તિય"નિકોને ઉપપાત વિગેરે નારકના કચન પ્રમાણે હાથ છે 'नवर वणस्सइकाइया जाच अस सेजा वा अणता वा उ नि ' ५.तु
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भगवतीसूत्रे
कायिका यावद् असंख्याता वा अनन्ता बोत्पद्यन्ने इति यावत्पदेन चत्वारोऽष्टौ द्वादश पोडश संख्याता वा एतदन्तस्य ग्रहणम् । 'सेसं एवं चेव' शेपम् - परिमाणातिरिक्तं सर्वमपि एवमेत्र - नारकवदेव ज्ञातव्यमिति । 'मनुस्सा वि एवं चेत्र जाव नो आयज सेणं उज्जेति आयज्ञसेणं उनबज्र्ज्जति' मनुष्या अपि एकमेव - नैर किवदेव ज्ञातव्याः कियन्तं प्रकरणं मनुष्ये योज्यं तत्राह - 'जाव' इत्यादि, यावत् mere devara कन्तु आत्मायशसामुत्पद्यन्ते एतत्पर्यन्तं नारकप्रकरणवगन्तव्यमिति । 'जइ धाय अनसेणं उववज्जंति कि आयजसे उयजीवंति आपअसं उबजीत' हे भदन्त । ते मनुष्याः यदि आत्मनोऽयशसा - असंयमेनोप धन्ते तदा किम् आस्मयशः - आत्मनः संयममुपजीवन्ति - आश्रयन्ति, अथवा आत्मनोऽसंयममुपजीवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आयजपि उदजीवंति आयअजसंपि उवजीवति' आत्मयज्ञः आत्मनः होते हैं। यहां यावत् पद से चार आठ बारह सोलह अथवा संख्यात इस पाठका ग्रहण हुआ है । 'सेल' एवं चेद' परिमाण के अतिरिक्त और सब कथन नारक के प्रकरण के जैसा ही है । 'मनुस्ता वि एवं चेच जाव को आयजसेणं उबवज्र्जति आप अजसेणं' उववज्जति' इस प्रकार से मनुष्य भी यावत् आत्मसंयम से उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु आत्म असंयम से ही उत्पन्न होते हैं ' ' पाठक मनुष्य के सम्बन्ध में भी सब कथन नारक के प्रकरण जैसा ही कह देना चाहिये । 'जड़ आग अजसेणं' उववज्जति, किं आयजस उवजीवति, आय अजस उवजीवंत' हे भदन्त । यदि वे मनुष्य आत्म असंयम से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे आत्म संघका आश्रय करते हैं अथवा आत्म असंयमका વનસ્પતિકાયિક જીવા યાવત્ અસખ્યાત અથવા અન ́ત ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં ચાવપથી એક અથવા બે યાત્ દસ અથવા અસખ્યાત આ પાઠ ४ . 'सेस' एव' चेव' परियाभना उथन शिवाय गाडीतु सध स्थन नारउना अनु२] प्रभा ४ छे. 'मनुस्सा वि एवं चेव जाव नो आय जसेण उवजति आय अजसेण उत्रवन्जति' मे प्रभा मनुष्य पशु यावत् આત્મ સંયમથી ઉત્પન્ન થતા નથી. પર`તુ આત્મ અસ યમથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, આ પાઠ સુધી મનુષ્યેાના સંબધમાં પણ પરિણામના કથન શિવાય ખાકીનું... સઘળું કથન નાકના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવુ જોઈએ ‘નફ आयज सेण उवज्जति कि आयज उबजीवंति आय अजसं उत्रजीवंति' हे ભગવન જો તે મનુષ્યે આત્મસયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે થ્રુ તેઓ આત્મ સુયમના આશ્રય કરે છે? અથવા આ અસયમને આશ્રય કરે છે? ઉત્તરમાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीक्षा श०४१ ७.१ राशियुग्मनिरूपणम् संयममपि उपजीवन्ति से मनुष्या तथा-आत्मनोऽयशः असंयममपि उपजीवन्तीति 'नइ आयजसं उदजीपंक्ति किसलेस्सा अलेस्सा' यदि से मनुष्या आत्मपशा आत्मनः संयममुपजीवति तदा किं ते सश्या लेण्यासहिताः किंवा अश्या:ले. या रहिता वा भवन्तीति मनः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सलेस्सा वि अलेस्सा वि' सलेश्या अपि भवन्नि अलेश्या:-लेश्यारहिता अपि भवन्ति । 'जइ अलेस्सा कि सकिरिया अकिरिया' यदि सलेश्या भरन्ति तदा किं ते मनुष्याः सक्रिया भवन्ति अक्रिया:-क्रियारहिता वा भवन्तीति भन्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो सकिरिया अकिरिया नो सक्रिया भवन्ति, किन्तु अक्रिया भवन्तीति । 'जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव अंतं करेंति' यदि ते मनुष्याः अक्रियाः तदा किं तेनैव भवग्रहणेन आश्रय करते हैं ? 'गोयमा ! आयजल घिउवजीवंति आय अजसपि उघजीवंति' हे गौतम ! वे आत्म संयमका भी आश्रय कारते हैं और आत्म असंघम का भी आश्रय करते हैं। 'जह आयजसं उदजीचंति कि सलेस्सा अस्ला ' हे भदन्त ! यदि वे आत्म संयम का आश्रय करते हैं तो क्या वे सलेश्य होले हैं अथवा अलेश्य होते हैं ? 'गोयला! लस्सा चि अलेस्सा बिहे गौतम ! वे सलेश्य भी होते हैं और अलेख्य भी होते हैं । 'जइ अरसा कि मििरया, अफिरिया' यदि वे अलेश्य होते हैं तो ये क्या क्रिया सहित होते हैं ? अथवा त्रिया रहित होते हैं ? उत्तर में मुश्री कहते हैं-'गोयमानो सझिरिया अकिरिया के सक्रिय नहीं होते हैं किन्तु अक्रिय होते हैं। 'जह अफिरिया तेणेव भवरगहणेणं सिज्झति जाव अंत करेंति' हे भदन्त ! यदि वे अक्रिय होते हैं तो क्या चे उस्ली भवसे सिद्धिक होते हैं यावत् अन्त करते हैं ? यहां यावत् असुश्री छे -'गोयमा! आयजस'वि उवजीवति आय अजस वि वजीवतिः હે ગૌતમ! તેઓ આત્મ સંયમને પણ આશ્રય કરે છે. અને माम मसयभनी पर माश्रय ४२ . 'जइ आयजसं उवजीवत्ति किं सलेस्सा अलेस्सा' सगवन ने तो माम सयानी माय ४२ छ, ती શું તેઓ લેશ્યાવાળા હેય છે? અથવા લેણ્યા વિનાના હેય છે ? ઉત્તરમાં प्रमुधी ४ छ 'गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सा वि' गौतम! तगासेश्या पण ५ खाय छ, भने स्याविनाना ५५ सय . 'जह अलेसा किं सकिरिया अकिरिया' ने तमे। अश्याविनाना य थे,है। शुEAL दिन डाय ? या विनानाय छे ? उत्तरमा अनुश्री छे -'गोयमा! नो सहिरिया अकिरिया' तसे लिया तो नधी या माि -य! विनाना यछ. 'जइ अकिरिया तेणेव भवगाहणेण सिन्हा ति जाव बनकरेति' હે લાગવત્ જે તેઓ કિયા વિનાના હોય છે, તે શું તેઓ એજ ભવમાં
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भगवती सिद्धयन्ति बुद्धयन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सनं दुःखाना मन्तं कुर्वन्तीति प्रश्ना, उत्तरमाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता सिज्झति जाच अंत करें ति हन्त गौतम ! इत्थं भूता मनुष्याः सिद्धयन्ति बुद्धयन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानामन्तं च कुन्त्येवेति । 'जइ सलेरसा कि सकिरिया अकिरिया' हे भदन्त । ते मनुष्या यदि सलेच्या सदा किं सक्रिया भवन्ति अक्रिया दा भवन्तीति प्रश्नः भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, गोरमा' हे पौतम ! 'सकिरिया नो अकिरिया' ये सलेश्यास्ते सक्रिया एव भवन्ति नो अक्रिया भवन्ति, इति । 'जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाब अन्तं करेंति' यदि ते सक्रियाः तदा किं तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावत्सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'सोयला' हे गौतम ! अत्थेगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझति जाव अंत करेंति पद से युद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वात होते हैं और सर्व दुःखों का (अन्त करते हैं) इन पदों का ग्रहण हुआ है । उत्तर में प्रमुश्री कहते हैं-'हता, लिज्झंति जाच अंत फरेंति' हा गौतम ! वे उसी भव
से सिद्ध होते यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । 'जह सलेस्सा विलनिश्थिा अकिरिया' हे भदन्त ! यदि वे सलेश्य होते हैं तो क्या स्वकिय होते है अश्वा अक्रिय होते है ? 'गोरमा ! सकिरिया नो अकिरिया' हे गौतनवेल क्रय होते है अक्रिय नहीं होते हैं। 'जह सकिरिया तेणेच घरगहणेण लिज्झति जाब अंतंबरेति' यदि वे सक्रिय होते हैं तो क्या वे लती लव ले लिद्ध होते हैं यावत् समरत दुःखों का अन्त करते हैं? मोघमा ! अत्थेगहया तेणेव भवग्गहणेण लिज्झति, जाव સિદ્ધ થાય છે, યાવત્ અંત કરે છે? અહિયાં યાવત્પદથી બુદ્ધ થાય છે? મુક્ત થાય છે ? પરિનિત થાય છે? અને સર્વ દ ને અંત કરે છે ? આ પનો સંગ્રહ થયો છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે है-'हता ! सिज्जति जाव अंत करेंति' है। गौतम ! तेसो १ सयमा सिद्ध थाय छे. यावत् साहुपानी मत ३२ छ 'जइ खलेस्ता कि सकिरिया अकिरिया' 8 लगवन् न त। लेश्यावाणा हाय छे तो शुतमा अष्ठियક્રિયા સહિત હોય છે? અથવા અક્રિય-કિયા વિનાના હોય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ छ -'गोयमा ! सकिरिया नो अकिरिया' गौतम त यि सहित लाय. याविनाना होता नथी. 'जइ सकिरिया तणेव भवग्गहणेण सिज्ज्ञति, जाव अंत करे ति' ने तमो लिया सहित डाय छे, तो शुतो मे સવમાં સિદ્ધિ થઈ જાય છે ? યાવત્ સઘળા એનો અંત કરે છે? ઉત્તરમાં अनुश्री ४१ छ -'गोयमा ! अत्थेगहया वेणेव भवगहणेण सिझति, जाव
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम् अस्त्येकके तेनैव भवग्रहणेन बिद्धयति थायद अन्त अन्ति । तेषां सोसाय माप्स्यमानत्वेन तत्समये अक्रियत्व सद्भावाद, 'अत्थेगहया नो तेणे मागहणेणं सिझंति जाव अंतं करें ति' अस्त्येक मनुष्या नो तेनैद भरग्रहणेन सिद्धयन्ति यावत् सर्वदुःखानामन्तवन्तीति । 'जह आय अजब उनजीवंति कि सलेस्सा अलेस्सा' यद्यात्मनोऽयश उवजीवन्ति तदा किं ते मनुप्याः सलेगा अलेश्या वा भवन्तीति प्रश्नः, अगवानाह-'गोयमा ! सलेस्सा नो अस्मा' हे गौतम ! तदा ते सलेश्या नो अलेश्या भवन्तीति । 'जाममा सिनिरिग अकिरिया' यदि सलेश्यास्ते मनुष्या स्तदा किं सक्रिया अक्रिया वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सकिरिया नो अंत करेंलि' हे गौतम ! इन में कितने ऐसे मनुष्य होते हैं जो उनी भवसिद्धिक होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। यहां मोक्ष की भविष्यत् में प्राप्ति के सद्भाव ने अक्रियता का सद्भाज हो जाना है। 'अत्थेगाया नो तेणेव भवराहणेण लिज्झतिजाव अंतररेलि' तथा इन में कितनेक मनुष्य ऐसे होते हैं जो उन्ही सघ से सिद्ध नहीं होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं करते हैं 'जर आय अजस उपजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा' यदि आत्म असंयम का आश्रय करले हैं तो क्या वे मनुष्य सलेश्य होते हैं अथवा अलेग्य होते हैं? 'गोचमा! सलेस्सा नो अलेस्सा' हे गौतम! वे सलेश्य होते हैं अश्य नहीं होते हैं ? 'जह सलेस्सा सिकिरिया अकिरिया' यदि वे सश्य होते हैं तो क्या क्रिया सहित होते हैं अथवा क्रिया रहित होते हैं ? 'गोयामा ! अंत करेति' हे गीतम! तमामा टसा मनुष्य मेवा जय छ 3-२१ ભવમાં સિદ્ધ થઈ જાય છે, યાવત્ સઘળા દુખોનો અંત કરે છે. અહિયા ભવિષ્યમાં મોક્ષ પ્રાપ્તિના સદૂભાવથી અક્રિયપણને સર્ભાવ થઈ જાય છે. 'अत्थेगइया नो तेणेव भवगाहणेण सिज्जति जाव अत पारेति' तथा तमाम કેટલાક મનુષ્યો એવા હોય છે કે-જેઓ એજ ભવમાં સિદ્ધ થતા નથી. યાવત सामान। मत २ता नथी. 'जइ आय अजसं उवजीवति किं सलेस्सा અરણ' જે તેઓ આ અસંયમને આશ્રય કરે છે તો શું તે મનુષ્ય લેશ્યા સહિત હોય છે? કે લેડ્યા વિનાના હોય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે ३-'गोयमा सलेस्सा नो अलेस्ता' गीतमा तेसवेश्यावाणाडाय छे, सेश्या विनाना Bाता नथी. 'जइ सलेवा कि सकिरिया अकिरिया तसा देश्यावाण હોય છે, તે શું કિયા સહિત હોય છે કે કિપ વિનાના હોય છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४९ छेटे-'गोंयमा! सकिरिया नो भकिरिया गौतम ! तेस। BAL सहित
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. भगवतीसूत्र अकिरिया' सक्रियास्ते भवन्ति नतु अक्रिया भवन्तीति । 'जह सकिरिया तेणेव भवग्गणेणं सिझति जाब अंत करें वि' यदि ते सक्रिया स्तदा कि तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्तीति प्रश्नः, उत्तरमाह-'णो इणढे सस?' नायमर्थः समर्थः । एते तेनैव भवग्रहणेन न सिद्धयन्ति आत्माऽयशस्कत्वेन तद्भावमोक्षाऽपगावात् । 'वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिका यथा नैरयिकाः नैरयिकवदेव एतेषामपि तिर्यगृमनुष्याभ्यामागस्योत्पत्तिरित्यादिकं सर्व ज्ञातव्यमिति । 'सेव ! भंते ! सेवं भंते त्ति' तदेवं सकिरिया नो अकिरिया' हेगौतम ! वे सक्रिय होते हैं अक्रिय नहीं होते हैं । 'जह सकिरिया तेणेव भवग्गणेण लिज्झति, जाव अत करेंति' यदि के सक्रिय होते हैं तो क्या वे उसी भव से सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त कर ले हैं ? 'जो इण्टे समद्दे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं हुआ है । क्योंकि आत्म असंयमवाले होने से वे तद्भव मोक्षगामी नहीं होते हैं । 'याणमंतर जोसिय वेवाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन के सम्बन्ध में भी नरधिको के जैसा ही कथन जानना चाहिये । इनकी भी उत्पत्ति तिर्यग्योनिक जीवों में से और मनुष्यों में से आये हुए जीवों से होती है। अर्थात् मनुष्य गति से और तिर्यग्गतिले आये हुए जीव ही वानव्यन्तरादि रूप से उत्पन्न होते है । इत्यादि सब कथन नैरयिकों के जैसा ही जानना चाहिये । 'सेव मते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमने डाय छे. या विनाना हातानथी. 'जः सकिरिया तेणेव शवगणेण सिझति, आव अत करे ति' त या सहित हाय छ ? तो शु. तसा शेर लम सिद्ध थाय छ १ यार सघणा गाना मत ७२ छ १ णो इणटे समदे' गीतम! PAL Aथ ५३११२ नथी. भ3-माम सयभामा वाथा तया मे समा भाक्ष प्रात ४२वा हा नथी 'बाणमतर जोइसिय वेमाणिया जहा नेरइया' वान०यन्तर, यति मन वैमातिना समयमा પણ નરયિકના કથન પ્રમાણે જ કથન સમજવું. તેઓની ઉત્પત્તી પણ તિર્યંચ નિવાળા જીવોમાંથી અને મનુષ્યમાંથી આવેલા છમાંથી થાય છે. અર્થાત્ મનુષ્યગતિથી અને તિર્યંચગતિથી આવેલા છે જ વાળવ્યન્તર વિગેરે પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વિગેરે તમામ કથન નરયિકના કથન પ્રમાણે જ સમજવું.
'सेव भते । सेव भते ! ति सावन मा५ हेवानुप्रिये या विषयमा रे કથન કર્યું છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપી દેવાનું પ્રિયનું સઘળું
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१ राशियुग्मनिरूपणम्
७१७ भदन्त ! तदेवं भदन्त इति । हे भदन्छ ! राशियुग्म कृतयुग्म नारकादिवैमानिकान्त जीवानामुत्पादादि विपये यत् अपितं देवानुप्रियेण तत्सर्व सत्यमेवेति कथ. यित्वा गौतमो यावद्विहरतीति ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक्रमविशुद्धगधपधनकनन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहन्छनपति कोल्हापुरराजपदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर --पूज्यश्री घासिलालबतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकचत्वारिंशत्तमे राशि युग्मशत के प्रथमोद्देशकः
समाप्तः ॥४२११:१॥ प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। जैनाचार्य जनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याक एकतालीसवें शतक के
राशियुग्म शतक में प्रथम उद्देशक समाप्त ॥४१-१॥ કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગોતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સ યમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. શાસ્ત્રના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતી સૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકતાળીસમાં શતકમાં રાશિયુગ્મશતકનો
પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫૪૧-૧
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ઉર્દુ
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|| 'अह वीओ उसो' ॥
मूलम् - रासिजुम्स तेओगनेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं चेव उद्देसो भाणियव्वो । नवरं परिमाणं तिन्नि वा सत्त वा पंचदस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति । संतरं तहेव । ते पणं भंते! जीवा जं समयं तेओगा तं समयं कडजुम्मा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेओगा ? णो इणट्टे समट्टे । जं समयं तेओगा तं समयं दावरजुम्मा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेओगा ? णो णट्टे समट्टे । एवं कलिओगेण | वि समं स तं व जाव वेमाणिया । नवरं उवनाओ सव्वेसिं जहा वक्तीए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥४१-२॥ ॥ वीओ उद्देसो समत्तो ॥
1
छाया - राशियुग्म योज नैरयिकाः खल भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते एवमेव उद्देशो भणितव्यः । नवरं परिमाणं त्रयो वा सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्याता वा, असंख्यातावोत्पद्यन्ते । सान्तरं तथैव । ते खद्ध भदन्त । जीवाः यस्मिन् समये त्र्योजा स्वस्मिन् समये कृतयुग्माः यस्मिन् समये कृतयुग्मा स्वस्मिन समये त्र्योजाः नायमर्थः समर्थ: । यस्मिन् समये ज्योजा स्वस्मिन् समये द्वापरयुग्माः यस्मिन् समये द्वापरयुग्मा स्वस्मिन् समये योजाः नायमर्थः समर्थः । एवं कल्योजेनापि समम्, शेषं तदेव यावद्वैमानिकाः । नवरमुपपातः सर्वेषां यथा व्युत्क्रान्तौ । तदेव भदन्त । तदेव भदन्त । इति ॥
॥ द्वितीयोदेशकः समाप्तः ||४०|२||
टीका -- 'रासिजुम्म तेओग नेरयाणं भंते । कभी उबवज्जति' राशियुग्म योज नैरयिकाः खल्ल भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्यो वैति शतक ४१ उद्देशक २
'रासिजुम्म तेओगनेरयाणं भते ! कओ उववज्जति' हे भदन्त ! राशियुग्म व्याज नैरथिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते
गील उद्देशाना प्रारंभ
' रासिजुम्म तेओंग नेरइयाण' भते । कओ उववन्जति' त्याहि ટીકા-હે ભગવન્ રાશિયુક્ત ચૈાજ નારયિક કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈયિકામાંથી આર્થીને ઉત્પન્ન થાય છે ?
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.२ राशियुग्म योजनरथिकोत्पत्तिः ७१९ प्रश्नः, उत्तरमाइ-'एवं चेव उद्देसओ भाणियबो' एवमेव प्रथम देशकवदेव द्वितीयो. देशकोऽपि भणितव्यः । प्रथमोद्देशके यथा यथा कथितं तत्सर्वमिहापि तथैव वक्त व्यमिति । प्रथमोद्देशकापेक्षया द्वितीये वैलक्षप्यं दर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं परिमाणं तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पंचदस वा संखेज्जा वा, असंखेचा वा उवरज्जेति' नवर परिमाणं त्रयो वा सप्त वा एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्याता वा असंख्यातावोत्पधन्ते इति । 'संतरं तहेर' सान्तरमुत्पधन्ते निरन्तरं बोत्पधन्ते इत्यस्योत्तरं प्रथमोद्देशकवदेव ज्ञातव्यमिति । तेणं भंते ! जीवा' ते खलु मदन्त ! राशियुग्म योज जीवाः 'जं समयं तेओगा तं समयं कड जुम्मा' यस्मिन् हैं ? क्या वे नैरथिकों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'एवं चेव उद्देस मो भाणिय. व्चों हे गौतम ! इस सम्बन्ध में जेसा प्रथम उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से यह द्वितीय उद्देशक भी कर लेना चाहिये । परन्तु उसकी अपेक्षा जो यहां भिन्नता है वह 'नवरं परिमाण तिन्नि चा सत्त वा एकारस वा पंचदसवा संखेजाचा अखेजाचा उववज्जजति' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है-इल से यह प्रकट किया गया है कि राशियुग्म नैरयिक एक समय में तीन, अथवा सात अथवा ग्यारह अथवा पन्द्रह अथवा संख्यात अथवा असंख्पात उत्पन्न होते हैं। 'मंतर तहे' ये नारक सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? इस सम्बन्ध में उत्तर प्रथम उद्देशक में जैसा कहा गया है અથવા તિર્ય ચનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુબેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા દેવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्वामीन छ -'एवं चेव उदेसओ भाणियवो' गौतम ! ॥ स मां पडसा उद्देशामा २ अमान ४थन ४२. વામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન આ બીજા ઉદ્દેશામાં પણ કહી લેવું જોઈએ. પરંતુ પહેલા ઉદ્દેશાના કથન કરતાં આ ઉદ્દેશામાં જે ફેરફાર આવે छ, ते 'नवर परिमाण तिन्नि वो सत्त वा एकारस वा पंचरस वा सखेज्जा वा असखेज्जा वा उववज्जति' 21 सूत्रपा8 द्वारा महिया प्रगट ४२वामां आवस છે –આ સૂત્રપાઠથી એ બતાવેલ છે કે-રાશિયુમ એજ નિગથિક એક સમયમાં ત્રણ અથવા સાત અથવા અગિયાર અથવા પંદર અથવા सध्यात अथवा मन्यात 6पन्न थाय छे. 'संतर तहेव' मा ना२।। સાંતર–અંતર સહિત પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને નિરંતર પણ ઉત્પન્ન થાય છે. या विषय सधी उत्त२ ५७ शाम ४ प्रभाव रहे. 'ते न
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भगवती समये योना स्वस्मिन् समये कृतयुगमाः 'ज अपयं कड जुम्मा त समय तेश्रोगा' यस्मिन् समये कृतयुग्माः तस्मिन् समषे योजाः किपिति प्रश्नः, उत्तरमाह-'नो इणष्टे समहे' नायमर्थः समर्थः यस्मिन् समये योजाः न तस्मिन् समये कृत. युग्पा तथा यदा कृतयुग्मा स्वदा न योजा इति भावः । 'ज समयं तेओगात समयं दावरजुम्मा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेओगा' यस्मिन् समये योजा तस्मिन् समये द्वापरयुग्माः यस्मिन् समये द्वापरयुग्मा स्तरिमन् समये योजाः, वैसा ही है । 'ते णभंते ! जीवा जलमयं तेोगात लमय कडजुम्मा' हे भदन्त ! ये राशियुग्म योज जीव जिम समय योज राशिप्रमाण होते हैं उस समय में वे क्या कृतयुग्न राशिप्रमाण हो जाते हैं ? 'ज 'समय कडजुम्मा तं समयं तेओगा' और जिस समय ये कृतयुग्म राशिप्रमाण होते हैं उस समय क्या वे योज राशिप्रमाण हो जाते हैं उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'णो इणढे लगट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात् जिस समय ये योजनाशिप्रमित होते हैं उस समय में ये कृतयुग्म राशि रूप नहीं होते हैं तथा जब थे कृतयुग्म राशीरूप होते हैं, तब वे योज राशिल्प नहीं होते हैं। जलमय तेओगात समय' हे भदन्त ! ये जीव जिल्ला समय योजराशिरूप होते हैं तय क्या ये उस समय 'दावरजुम्मा' द्वापरयुग्म रूप होते है ? और जिल्य समय ये द्वापरयुग्म होते हैं उस समय क्या ये योजराशि रूप हो जाते हैं ? भंते ! जीवा जौं समय' तेओगा त समय कडजुम्मा' 3 सावन् मा રાશિફ્યુમ જ જીવ જ્યારે જ રાશિપ્રમાણ હોય છે તે સમયે तमा शुकृतयुग्मशि प्रभा वाणा 5 जय छ? 'ज समय कइजुम्मा त समय तेओगा' भने न्यारे ! तयुग्म शशिप्रभावमा यि छ, ત્યારે તેઓ પોજ રાશિરૂપ થઈ જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गीतभस्वामीन ४ छे ४-'णो इणद्वे समटे हे गौतम ! मा म ॥२॥२ નથી. અર્થાત્ જ્યારે તેઓ જ રાશિરૂપ હોય છે, ત્યારે તેઓ કૃતયુગ્મ રાશિરૂપ હોતા નથી. તથા જ્યારે તેઓ કૃતયુગ્મ રાશિરૂપ હોય છે, ત્યારે तमा यो०१ २०३५ होता नथी. 'ज' समय सेओगा त समय' हे ભગવદ્ આ છે જ્યારે જરાશિ પ્રમાણવાળા હોય છે, ત્યારે શું तमा 'दावरजुम्मा' द्वापरयुग्म ३५ हाय 2, मने क्यारे ।
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ ७.२ राशियुग्मयोजनैरयिकोत्पत्तिः ७२१ भवन्ति किमिनि प्रश्ना, उत्तरमाह-‘णो इणढे समझे' नायमर्थः समर्थः ‘एवं फलि ओगेण वि समं प-सेव कल्योजेनापि सह प्रश्नं कृत्वा उत्तरणीयम् इति । 'सेसं तं चेव जाव वेवाणिया शेपं तदेव याबद्वैमानिकाः ते खलु भदन्त ! जीयाः कुत उत्पधन्ते ? इत्याश्य वैमानिकपर्यन्तं प्रथमोद्देशकवदेव ज्ञातव्यमिति । 'नवरं उववाओ सालि जहा दक्तीए' नवरसुपपातः सर्वेषां यथा व्युत्कान्तौ प्रज्ञापनायाः एप्ठे पदे कधित इतथैवेहापि ज्ञातव्य इति । 'सेव भंते । सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भवन्स ! तदेन भदन्त ! इति । इति श्री - विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचिवायां "श्री भगवतीसूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां
व्याख्यायां एकचशारिशत्तमशतकस्य द्वितीयोदेशका समाप्तः ॥४११२।। उत्तर में प्रधुनी अहते हैं-'यो इणढे समझे' हे गौतम ! यह अर्थ लमर्थ नहीं है । 'एवं कलिभोगेण वि सम' इसी प्रकार से फल्योज के साथ भी प्रश्न मारके उन्तर पाह लेना चाहिये । 'सेसं त चेव जाव वेगाणिया हे भदन्त ! ये जीव किम्य स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? यहां से लेकर वैधानिकों तक जेसा प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसा ही वहां पर भी कर लेना चाहिये । 'नवर उवचाओ सव्वेसिं जहा वक्कलीए' परन्तु उपपात के विषय में जैसा कथन प्रज्ञापना के દ્વાપરયુગ્મ ૫ હોય છે, તે વખતે શું તેઓ જરાશિ પ્રમા डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा सुश्री ४ छ -'णो इण सम गीत !
मा म १२।१२ नथी. 'एव' कलिओगेण वि सभ' २१ प्रमाणे त्यो। सभा पण प्रश्न उपस्थित झीने तन उत्तर ४ा नये. 'सेस त
चेव जाव वेमाणिया' है सावन म। छ। या स्थान विशेषथी भावान ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નથી લઈને વૈમાનિકે સુધી પહેલા ઉદેશામાં જે प्रभारी है. मेरी प्रमाणे महियां ५५५ उ नये. 'नवर उववाओ सम्वेसिं जहा वतीए' ५२'तु 6५पातना समयमा प्रज्ञापना सूचना ट्रा વ્યુત્કાતિ પદમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનુ કદન મનુભાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. ___सेव शते ! सेव' भो ! त्ति' है मगवन् मा५ हेवानुप्रिये २मा पियमा જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે કે ભગવાન
स० ९१
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७२२
भगवती सूत्रे
छट्टे व्युत्क्रान्ति पद में किया है वैसा ही यहां पर भी कर लेना चाहिये । 'लेवं भंते ! सेयं भंते ! ति' इन पदों का अर्थ पूर्व में जेसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री
घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके एकतालीसवें शतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥४१-२॥
આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળુ કથન સČથા જ સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યો વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ચકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂના
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકતાળીસમા શતકના ખીો ઉદ્દેશે સમાપ્ત ૫૪૧-૨ા
फ्र
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.३ राशियुग्मद्वापरयुग्मनैरयिकोत्पत्तिः ७२३
॥ 'अह ताओ उद्देसो ॥ मूलम्-रासिजुम्म दावरजुम्न नेरइयाण संते ! कओ उववज्जंति ? एवं चेव उद्देसओ। नवरं परिसागं दो बा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उवज्जति संवेहो। ते ण भंते ! जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्ला जं लमयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? णो इणटे समटे । एवं तेओएण वि समं, एवं कलिओगेण वि समं । लेसं जहा पढमे उद्देसए जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ।
॥ तइओ उद्देसो सभत्तो ॥४१-३॥ छाया-राशियुग्म द्वापरयुग्म नैरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पधाते एव. मेवोदेशकः । नवरं परिमाणं द्वौ वा पडू वा दश वा संख्याता वा, असंख्याता. वोत्पद्यन्ते संवेधः । ते खलु भदन्त ! जीवाः यस्मिन् समये द्वापरयुग्माः तस्मिन् समये कृतयुग्माः यस्मिन् समये कृतयुग्मा स्तस्मिन् समये द्वापरयुग्माः ? नायमर्थः समर्थः । एवं योजेनापि समम्, एवं कल्योजेनापि समम् । शेपं यथा प्रथमोद्देशके यावद्वैमानिकाः । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ॥१
॥ तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥४१-३॥ टीका--'रासिजुम्पदावरजुम्म नेरइयाणं भंते ! को उववज्जति' राशियुग्म द्वापरयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुा उत्पद्यन्ते ? किं नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्यो वेति प्रश्नः, उत्तरमाह-'एवं चेव उदेसओ' एवमेवोदेशको यया
शतक ४१ उदेशक ३ 'रासिजुम्म दावरजुम्म नेरझ्याण मंते ! कओ उववजलि हत्यादि
टीकार्थ-हे भदन्त ! राशियुग्म द्वापरयुग्म राशिमित नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते है ? क्या वे नरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकर
त्री देशात आर'रासिजुम्म दावरजुम्म नेरइयाण भंते ! ओ ववज्जति' या
ટીકા–હે ભગવન રાશિયુગ્મમાં દ્વાપરયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા નિરયિકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્થ માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા
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भगवतीस्त्र प्रथयोदेशका तथैव तृतीयोदेशकोऽपि ज्ञातव्य इति । 'सबरं परियाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा बा उवाति 'नवर परिमाणं द्वौ वा पड् वा दश वा संख्याता वा असंख्याता वा उत्पद्यन्ते एवानानेव प्रथमोदेशकापेक्षयेति । 'सवेहो' संवेधः, संवेधोऽप्यत्र वाच्यः । ते णं संते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! जीवा रागियुग्म द्वापरयुग्म नैरयिकाः 'जं समयं वारजुम्मा तं समयं कडजुम्मा' यस्मिन् समये द्वापरयुग्मा स्तस्मिन् समये कृतयुग्माः 'ज सम्नयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा' यस्मिन् समये कृतयुग्मा रस्मिन् समये द्वापरयुग्मा के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-एक, उद्देलओ' हे गौतम! इस लम्बन्ध में प्रथम उद्देशक के जैसा ही कथन जनला चाहिये 'नवरं परिमाण दो वा छ वा दल वा संखेजावा अलखजाया उवव. जति' परन्तु परिमाण प्रकरण में यहां ऐसा ही पहना दिये कि ये नैरयिक एक साथ में दो उत्पन्न होते हैं अथवा छह उत्पन्न होते हैं, अथवा दल उत्पन्न होते हैं, अथवा संख्यात उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं । बस यही एक विशेषता प्रवन उद्देशक की अपेक्षा इस तलीय उदेशक में हैं । 'संवेहो' यश संवेध भी पाच्य है । 'तेण भंते ! जीवा' हे भदन्त ! ये राशियुग्म में कापरयुग्म राशिमित नैरथिक 'ज समयं दावरजुम्मा' जिस समय में वापरखुम होते हैं उस समय में क्या ये कृलयुग्म रूप हो जाते हैं ? 'जसम कडजुम्मा त समय दावरजुम्मा' और जिस समय में ये कृतयुग्म रूप होते हैं उस समय में क्या ये द्वापरयुग्म रूप हो जाते है ? उत्तर में प्रभुश्री મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ -'एव चेव उद्देसओ' ले गौतम ! मा वियना समयमा पता देशामा ह्या प्रमाणेन सघणु ४थन सभा 'नवर परिमाण दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा अस खेज्जा वा उववाजति' ५२तु परिभाना समयमा અહિયાં એવું કહેવું જોઈએ કે આ નૈયિકે એકી સાથે બે ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા છ ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા દસ ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા સંખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા અસંખ્યાત કેવળ એજ વિશેષપણુ पडसा देशाना ४थन ४२di At श्री देशामा छ. 'स वेहो' मिडिया सवेध ५ ख छ, 'ते ण भते । जीवा' 3 सावन मा शियुसमा ५२ युम [श प्रभावामा नय'ज' समय दावरजुम्ना' ? समये द्वा५२ युभ होय छ, ते समये शु ग तयुभ य नय छ ? 'ज' समय कइजुम्मा त समय दावरजुम्मा' मन परे तमा तयुम्भ ३५
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प्रमेयमद्रिका टीका श०४९ उ. ३ राशियुग्मद्वापरयुग्मनैरथिकोत्पत्तिः
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भवन्ति किमिति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'गो इट्टे समहें नायमर्थः समर्थः । 'एव तेभएण विममं एवं कलियोगेण वि समं' एवमेव व्योजेनापि समम्, एकमेव कल्योजेनापि समं प्रश्न का उत्तरणीयमिति । 'सेसं जहा पढमुद्देस जाव वैमाणिया ' शेषं परिमाणातिरिक्त सर्वं यथा मथमोदेशके वैमानिकान्त पर्यन्तं कथितं तथैवा त्रापि ज्ञातव्यम् । सेव ं भंते! सेच संते ! त्ति' तदेव भदन्त । तदेव भव ! इति ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूपितवात्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालव्रतिविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकचलारिंशत्तमे राशियुग्मशत के तृतीयोदेशकः समाप्तः ||४२|३||
कहते हैं । 'जो इट्टे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ' एवं तेओण सिम एव कलिओगेण वि सम" इसी प्रकार से प्रोज के लाभ भी और इसी प्रकार से फल्योन के साथ भी प्रश्न करके उत्तर कह लेना चाहिये । 'सेस' जहा पढमुद्देखए जात्र देमाणिया ' परिमाण के अतिरिक्त और सव कथन प्रथमोद्देशक में जैसा वैमानिकों तक कहा गया है वैसा ही यहाँ पर कह लेना चाहिये | 'सेव' भते ! सेव' अते ! तिन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है । शतक में तृतीय उद्देशक समाप्त ४१-३ ॥
॥ ४१ वें राशि
હાય છે, ત્યારે શું તેએ દ્વાપરયુગ્મ રૂપ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-૪ ગૌતમ ! આ અર્થ ખરાબર નથી. આજ રીતે Àાજની સાથે પણુ અને આજ રીતે લ્યેાજના સંબધમા પ્રશ્નો કરીને ઉત્તર વાકચે रही सेवा लेखे. 'सेस' जहा पढनुद्देवए जाव वेमाणिया परिमाणुना उधन શિવાય બાકીનુ સઘળું કથન પહેા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે વૈમાનિકૅ સુધીના કથન પુખ્ત કહેલ છે એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહેવુ તેઇએ
'सेव मंते ! सेव भवे ! त्ति' हे भगवन् शाप देवानुप्रिये या विषयभां જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કંચન સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યા વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિન કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિશજમાન થયા. સ્૦)
uત્રીજે । સમાપ્ત ૪૧-૩
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भगवती सूत्रे
11 'g aseul staì' ||
I
मूलम् - रासिजुम्म कलिओग नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जंति एवं चेव । नवरं परिमाणं एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति । संवेहो । तेणं भंते ! जीवा जं समयं कलिओगा तं समयं कडजुम्मा जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा ? णो इणट्टे समट्टे । एवं तेओगेण विसमं दावरजुम्मेण वि समं । सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया । सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ॥
चडत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ४१-४॥
छाया - राशियुग्म कल्योज नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते एवमेव । नवरं परिमाणम् एको वा पश्च वा नव वा त्रयोदश वा संख्याता या असंख्यातावोत्पद्यन्ते । संवेधः । ते खल्ल भदन्त । जीवाः यस्मिन् समये कल्योजा स्वस्मिन् समये कृतयुग्माः यस्मिन् समये कृतयुग्माः तस्मिन् समये कल्योजाः ? नायमर्थः समर्थः । एवं योजेनापि सममस्, एवं द्वापरयुग्मेनापि समम् । शेषं यथा प्रथमोदेशके यावद् वैमानिकाः । तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥ २॥ ॥ चतुर्थोदेशकः समाप्तः ॥
टीका--' रासिजुम्म कलिओग नेरइयाणं भंते । कभी उबवज्र्ज्जति' राशियुग्म कल्यो जनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुव उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्योवेति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'एवं चेव' एवमेव यथा प्रथमो देशके कथितमत्रापि तथैव | शतक ४१ चतुर्थ उद्देशक ।।
'रासिजुम्म कलिभोग नेरयाणं भते कओ । उववज्जति' इत्यादि टीकार्थ - हे भदन्त राशियुग्म कल्पोज राशिप्रमित नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् देवों में से आकर के उत्पन्न ચેાથા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ——
' राखिजुम्म कलिओग नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति' इत्यादि ટીકા”— હે ભગવન્ રાશિયુગ્મ કલ્યાજ રાશિપ્રમાણવાળા નૈયિકા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ તેએ નૈયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચચાનિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન
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प्रमैश्चन्द्रिका ठीका श०४१ व ४ राशियुग्मकल्यो जनैरयिकोत्पत्तिः
सर्वं ज्ञातव्यमिति । 'नवरं परिमाण एको वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जावा, असंखेज्जा वा उववज्जंति' नवरं परिमाणमेको वा पञ्च वा नव वा त्रयोदश चा, संख्याता वा, असंख्याता वा, उत्पद्यन्ते इति । 'संवेहो' संवेधः काय संवेधोsपि अत्र वक्तव्यः । ' ते णं भंते ! जीवा जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा जं समयं कडजुम्मा तौं समयं कलिओगा' हे भदन्त । ते राशियुग्म कल्योज नारका यस्मिन् समये कल्योजाः किं तस्मिन् समये कृयुग्माः ? यस्मिन् समये कृतयुग्मा स्वस्मिन् समये किं कल्योजाः सम्भवन्तीति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'जो इणट्ठे समट्टे'
૨૭
होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'एव' चेव' हे गौतम | जैसा प्रथम उद्देश में कहा गया है वैसा ही सब कथन इस उद्देशक के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । परन्तु परिमाण में यहां उस उद्देशक की अपेक्षा भिन्नता आती है जो 'नवर' परिमाणं एक्को वा पंच या नववा तेरस वा संखेज्जा या असंखेज्जा वा उववज्जंति' इस सूत्रपाठ द्वारा बतलाई गई है - इससे यहां एकसमय में एक अथवा पांच, अथवा नौ अथवा तेरह, अथवा संख्यात अथवा असंख्यात नैरिक उत्पन्न होते हैं । 'संवेहो' काय संवेध भी यहां पर वक्तव्य है । 'ते णं भंते ! जीवा जं समयं कलिओगा तं समयं कडजुम्मा, जं समय कडजुम्मा तं समयं कलिभोगा' हे भदन्त । वे जीव जिस समय कल्पोज राशिमित रहते है उस समय क्या वे कृतयुग्म राशिप्रमित हो जाते हैं ? और जिस समय वे कृतयुग्मराशिप्रमित होते हैं उस समय क्या वे कल्पोज राशि
थाय हे? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री ४ - ' एवंचेव' हे गौतम! પહેલા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ' સઘળું કથન આ ઉદ્દેશામાં સંબંધમાં પણુ સમજવુ'. પરતુ પરિમાણુમા અહિયાં તે ઉદ્દેશાની अपेक्षा लिन्नयायुं भावे हे ? 'नवर परिमाणं एक्को वो पांचवा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा अस खेज्जा वा उववज्जेति' मा सूत्रपाठ द्वारा डेस छे તેથી અહિયાં એક સમયમાં પાંચ અથવા નવ અથવા તેર અથવા સ ંખ્યાત अवथा असंख्यात नैरथि उत्पन्न धाय छे. 'स वेहो' हायसवेध पशु शाहियां वा लेखे 'वेण' भते । जीवा ज समयं कलिओगा व समय कडजुम्मा जं समय कडजुम्मा त समयं कलिओगा' हे नगवन् ते हवाले સમયે કલ્પેજ રાશિપ્રમાણવાળા હાય છે. તે સમયે શુ' કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુવાળા થઈ જાય છે? અને જ્યારે જે સમયે મૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુવાળા હોય છે ત્યારે શુ તેઓ કલ્યેાજ રાશિપ્રમાણવાળા થઇ જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા
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भगवतीमत्रे नायमर्थः समर्थः । 'एवं ते ओएण वि समं एवंदावरजुम्मेण विसं एक्येन कृतयुग्मवदेव योजेनापि समं द्वापरयुग्मेनापि च समं प्रश्नं कृत्वा समुत्तरणीयमिति । 'सेंस जहा पढमुद्देसए जाच वेगाणिया' शेष कथितातिरिक्तं मरें तथैव ज्ञातध्यम् यथा-प्रथमोद्देशके वैमानिकपर्यन्तं कथितमिति । 'सेच भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥१ इति श्री-विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितवाल ब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालबविविरचितायां 'श्री भगदतीमूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां एकचत्वारिंशत्तमे राशियुग्मशत के चतुर्थोऽशकः समाप्तः॥४१॥४॥ प्रमित हो जाते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 'एवं तेजोएण विलमं एवं दावरजुम्मेण वि समं इसी प्रकार से योजसाथ भी और इली प्रकार से द्वापर युग्म के साथ भी प्रश्न करके उत्तर कह लेना चाहिये। 'सेसं जहा पढमुद्देसए जान वेमाणिया' इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन वैमानिकों तक प्रथम उद्देशक में किया है वैसा ही सब यहाँ पर भी जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है।
॥४१ वे शतक में राशियुरमशतक में यह चतुर्थ उद्देशक समाप्त हुआ। ४१-४॥ प्रमुश्री गौतमस्वाभीने ४९ छे 3-‘णो इणट्टे समढे' हे गौत! ! मे मथ पराम२ नथी. 'एवं तेओएण वि सम एव' दावरजुम्मेण वि सम" मा પ્રમાણ વ્યાજની સાથે અને આજ પ્રમાણે દ્વાપર યુગમની સાથે પણ પ્રશ્નોત્તર मनावीर संभल वा. 'सेस जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया' मा उथन શિવાય બાકીનું સઘળું કથન જે રીતે વૈમાનિકે સુંધી પહેલા ઉદેશામાં કહેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન અહિયાં પણ સમજવું.
'सेव भते ! सेब भ ते ! त्ति' मगवन् मा५ हेवानुप्रिये या विषयमा જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનું પ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદન કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નકાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સુના
यथा- देश सभात ॥४१-४॥
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प्रमेयाद्रिका को ०.१ ७.५-८. राशियुग्मक. नरयिलोत्पत्तिः ७२९
॥ अह ५-८ उद्देसगा' ॥ मूलम्-कण्हलेस्स रासिजुम्म कडजुम्म नरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति उववाओ धूमप्पभाए सेतं जहा पढमुद्देसए। असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं । मणुल्साण वि जहेव नेरइयाणं आयअजसं उवजीवंति। अलेस्सा अकिरिया तेणेव भवरगहणेणं सिझंति एवं न भाणियब्वं । सेलं जहा पढमुद्देसए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥५१-५॥ ___कण्हलेस तेओएहि वि एवं चेव उद्देलओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥४१-६॥
कण्हलेस्स दावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥४१-७॥ ___ कण्हलेस्स कलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु । सेवं भंते! सेवं भंते !त्ति ॥४१-८॥
॥५-८ उद्देसगा समत्ता ॥ छाया-कृष्णलेश्य राशियुग्म कृतयुग्मनैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते उपपातो धूमपभायां शेप यथा मथमोदेश के। असुरकुमाराणां तधेर एवं यावद्वानव्यन्तराणाम्, मनुष्याणानपि यथैव नैरयिकाणाम् आत्मायश उन जीवन्ति । अलेश्याः अक्रियाः तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति एवं न भणितव्यम् । शेपं यथा प्रथमोदेशके । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥४१॥५॥ कृष्णलेश्य योजैरपि एवमेवोद्देशकः । तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति ॥४११६ कृष्णलेश्य द्वापरयुग्मैरेवमेवोद्देशकः । तदेवं भदन्त । तदेव भदन्त ! इति ॥ ४११७॥ ____ कृष्णलेश्य कल्योरपि एवमेवोद्देशकः । परिमाणं संवेधश्च यथा औधिके पृ. द्देशकेषु । तदेवं मदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥४१८॥
॥ पञ्चमादारभ्याटमान्ता उद्देशकाः समाप्ताः ॥४१॥५॥८॥
॥ शतक ४१ उद्देशक ५ से ८ तक ॥ 'कणलेस्मरासिजुम्मकडजुम्म नेरइयाणं भते ! ओ उयति'
પાચમા ઉદ્દેશથી આઠમ સુધીના ચાર ઉદ્દેશાનો પ્રારંભ– 'कण्हलेस रासिजुम्म कहजुम्मनेर इयाण मंते ! ओ ववति' इत्या.
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rad
टीका - - ' कण्हलेस रासिजुम्मकडजुम्म नेरइया णं भंते ! कओ उववज्र्ज्जति ' हे भदन्त ! कृष्णलेश्वराशियुग्मकृतयुग्म नैरयिकाः कुतः खन्यत्पद्यन्ते किं नैरथि - केभ्यो यावद्देवेभ्य इति प्रश्नः, उत्तरमाह- अविदेशद्वारेण - 'उबवाओ जहा ' इत्यादि, 'उचाओ जरा घुमप्पभाए' उपपातो धूसमभानरके येन प्रकारेण कथित स्तेनैव रूपेणात्रापि ज्ञातव्यः 'सेसं जहा पटमुद्देस' शेरमुपपातातिरिक्तं सर्वं यथा traitra fri dव सर्वत्रापि ज्ञातव्यमिति । 'अमृरकुमाराणं तद्देव' असुरकुमाराणामपि तथैव नारकरदेव सर्व ज्ञातव्यमिति । 'एवं जाव वाणमंतराणं' एवमेवनारकत्रदेवोपपातादिकं सर्व यावद् वानव्यन्तराणामपि ज्ञातव्यमिति । 'मनुस्साण
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टीकार्थ - हे भदन्त ! राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण कृष्णलेड्यावाले नैरयिक किस स्थानविशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिक में से आकरके उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् देवों में ले आकर के उत्पन्न होते हैं? अतिदेश द्वारा उत्तर में प्रभुश्री कहतें है- 'उवाओ जहा 'धूमप्पभाए' हे गौतम! जैला उपपात के सम्बन्ध में कथन धूमप्रभामें किया जा चुका है वैसा ही यहां पर भी कर लेना चाहिये । 'सेसं जहा पढमुद्देलए' तथा उपपात के अतिरिक्त और स कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार ही जानना चाहिये । 'असुर कुमाराणं तहेव' तथा असुरकुमारों के सम्बन्ध में भी नारक के जैसा ही कथन समझना चाहिये 'एवं जाव वाणमंतराणं' और यह कथन यावत् वानव्यन्तरों तक नैरयिकों के कथन जैसा ही है ऐसा ज्ञात करना चाहिये ।
नारक
ટીકાથડે ભગવન્ રાશિયુગ્મમાં મૃતયુગ્મ પ્રમાણવાળા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા તૈરયિકા કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએનેરિયકા માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચચ્ચેનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામ થી આવને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નનેા ઉત્તર અતિદેશ દ્વારા આપતાં પ્રભુશ્રી छे है- 'खवाओं जहा धूमत्प्रभाए' हे गौतम | उपयातना संभधभां अथन ધૂમપ્રભા નરકમાં કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ ४री सेवु लेऽो, 'सेस' हा पढमुद्देसर' उपयातना उथन शिवाय गाडीनु सधणु अथन पडेला उद्देशामां ह्या प्रमाणे समभवु', 'असुरकुमाराणं' भंते ! तद्देव' तथा असुरकुभाराना सभधभां याशु नारना स्थन प्रभाषेनु ४ ४धन् सभवु लेखे. 'एवं जाव वाणमंतराण" भने साउथन यावत् वानव्यन्तर ના કથન સુધી નૈરિકાના કથન પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજી લેવુ',
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प्रका टीका श०४१ उ५-८ है. राशियुग्मक. नैरयिकोत्पत्तिः
त्रि तत्र जहा नेरइयाणं' मनुष्याणामपि तथैव ज्ञातव्यं यथैव नारकाणामुपपाता दिकं कथितमिति । 'आय अजसं उपजीवंति' मनुष्या आत्मनऽयशः असंयममुपजीवन्तीति विशेषो वक्तव्यः । 'अलेस्सा अकिरिया पोत्र भवग्गहणेण सिज्झति एवं न भाणियच्वं' अश्या अक्रिया स्तेनैव भरग्रहणेग सिद्रयन्ति इत्येवमत्र कृष्णलेपप्रकरणे नो भणितव्यं कृष्णलेश्यानाम लेइयत्वस्याक्रियत्वस्य तद्भवसिद्धेवाभावा दिति भावः । ' सेसं जहा पढमुद्देसए' शेषं कथितव्यतिरिक्त सर्वं यथा प्रथमदेश के कथितं तथैवात्रापि ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥ ४११५
॥ पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥ ४१|५||
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'मणुस्सा वित जहा नेरइयाणं' नारकों के जैसे उपपात आदि कहे गये हैं वैसे ही वे मनुष्यों के भी जानना चाहिये। 'आय अजसं उवजीवंति' मनुष्य आत्मा के संघका आश्रम करते हैं। 'अलेस्सा अकिरिया तेणेव भवग्गहणेण दिज्झति एवं न भणियन्नं' ये या रहित होते हैं क्रिया रहित होते हैं, उसी भव से सिद्ध होते हैं यह सप यहां कृष्णलेश्य के प्रकरण में नहीं करना चाहिये। क्योंकि कृष्णलेश्यावालों में अव अक्रियत्व और तद्भवसिद्धत्व का अभाव रहता है । 'सेसं जहा पढमुद्देशए' नाकी का और सब कथन प्रथम उद्देशक में जैसा कहा गया है वैसा ही है ऐसा जानना चाहिये | 'सेच भते ! सेव भंते! त्ति' इन पदों का अर्थ जैसा पहिले कहा गया है वैसा ही है । ॥ पंचम उद्देशक समाप्त हुआ- ४१-५॥
'मनुस्सा वि तहेव जहा नेरइयाण' नारहीना संग धभां के प्रमाणे उपयात વિગેરે કહેવામા આવેલ છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્યેાના સ ખધમાં પણ સમજવુ 'आय अज्र वजीवंति' मनुष्य असंयम आत्मानो आश्रय ने उत्पन्न थाय छे 'अलेस्सा अकिरिया देणेव भवग्गणेण सिझांति एवं न भाणियन्त्र' मा લેશ્યા વિનાના હોય છે, ક્રિયાવિનાના હૈય છે, એજ ભવમા સિદ્ધ થાય છે,
આ સઘળું કથન અહિયાં આ દૃશ્યાના પ્રકરણનું ન કરવુ જોઇએ. કેમકે -કૃષ્ણલયાવાળામાં અલેયાપણાને અકિયપણાને તદ્ભવસિદ્ધપણુાને અભાવ २ छे. 'सेस जहा पढमुद्देस' डीनु सधण् प्रथन रहे પ્રમાણે કહેવામા આવેલ છે. એજ પ્રમાણે સમજવુ જોએ,
शमां के
'सेव भवे ! सेव' भवे ! चि' से लगवन् य धन सर्वधा सत्य વિગેરે પહેલા કહ્યા પ્રમાણે આ પદે ને અર્થ સમજવે.
૫પાંચમે ઉદ્દેશે સમાપ્ત ૪૧-પા
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હરૂર
भगवतीसत्रे 'कण्हलेस तेभीए हि वि समं एवं चैव उद्देसओ' कृष्णलेश्य ज्योरपि एक्मेवोद्देशको वाच्यः। 'सेवं भते ! सेवं भते । ति' देवं भदन्त तदेवं भदन्त ! इति ॥४१॥६॥
पष्ठ देशकः समाप्तः ।। 'कण्हलेस दाउरजुम्मे हि एवं चेत्र उद्देसओ' कृष्णलेय द्वापरयुग्मैरपि एवमेव पूर्ववदेव उद्देशको वक्तव्यः । सर्व प्रथमोद्देशवदेव ज्ञातव्यम् । 'सेवं भंते ! सेवं ___ 'काहलेस तेस्रोए वि समं एवं चेव उद्देमओ' कृष्णलेश्यावाले राशियुग्म प्रमाण नैचिकों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार से उद्देशक कह लेना चाहिये । अतः प्रथम उद्देशक के जैसा ही यह उद्देशक है ऐसा जानना चाहिये। 'सेव भते! लेवं भंते त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वाद सर्वथा सत्य प्रमाण है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघल और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
_छट्ठा उद्देशक समाप्त हुभा ४१-६॥ 'कण्हलेस्स दारजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ' इत्यादि । कृष्णश्याचाले द्वापर युग्म प्रमित्त नयिकों के सम्बन्ध में भी
છઠ્ઠા ઉદેશાને પ્રારંભ– 'कण्हलेस ओएहि वि समं एव चेव उहेसओ' त्या
ટીકાઈ–કૃષ્ણલેશ્યાવાળા રાશિશુમમાં જયુમ પ્રમાણુવાળા નરયિકે ના સંબંધમાં પણ આજ પ્રમાણેના ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ.
'सेव भते ! सेव भते ! त्ति' लगवन् मा५ हेवानुप्रियेमा समयमा જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવદ્ આપ દેવાનુષ્યિનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
પછઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૫૪૧-૬
સાતમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ– 'कण्हलेस्स दावरजुम्मेहिं एव चेव उद्देसओ' याह ટીકાર્ય–કુશુલેશ્યાવાળા દ્વાપરયુગ્ય પ્રમાણુવાળા નરયિકેના સંબંધમાં
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.५-८ कृष्णलेश्य कल्योजनेरयिकोत्पत्तिः ७३३ भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ॥४१।७।।
॥ सप्तमादेशकः समाः ॥ 'कण्हलेस्त कलिओए हि वि एवं चेव उद्दे पओ' कृष्णलेश्य कल्योजनारकै रपि एवमेव-पूर्ववदेव उद्देशको वक्तव्यः । 'परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उदेसएसु' परिमाण कायसंवेवश्च औधि के प्रदेशकेपु कथित स्तथैवात्रापि ज्ञातव्यः 'सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त ! इति ॥४१॥८॥
अष्टमोदेशकः समाप्तः॥ इसी प्रकार से उद्देशक कह लेना चाहिये । तात्पर्य यही है कि यहां सब कथन प्रथम उद्देशक के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति' इन पदों की व्याख्या पहिले फी गई व्याख्या जैसी ही है। सप्तम उद्देशक समाप्त हुआ-४१-७॥ _ 'कण्हलेस्स कलि मोहि वि एवं चेव उद्देसओ' इत्यादि ।
'कल्योज राशिप्रमोण कृष्णलेश्यावाले नैरमिकों के सम्बन्ध में भी पूर्व के जैसे ही उद्देशक कह लेना चाहिये । 'परिपाणं संवेहो य जहा
ओहिएसु उद्देल एप्सु' परिमाण और फायरवेध जैसा औधिक उद्देशकों में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी कह लेना चाहिये । 'सेव भते ! પણ આજ પ્રમાણે ઉદ્દેશાઓ કરવા જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કેઆ વિષયમાં સઘળું કથન પહેલા ઉદ્દેશાના કથન પ્રમાણે જ છે. _ 'सेव भते ! सेव भते ! त्ति' है अगवन् भा५ हेपानुप्रिये या विषयमा જે કથન કરેલ છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે લાગવન આ૫ દેવાન પ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાને આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના રસ્થાન પર બિરાજમાન થયા.
સાતમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૪૧-છા 'कण्हलेस्प्त कलि ओएहि वि एव' चेत्र टदेसओ' त्यह
ટીકાઈ—કોજ રાશિપ્રમાણ લેવાવાળા નૈરથિકે ના સંબંધમાં ५ पडसाना ४थन प्रभाएन: शाले. 'परिमोग सवेहो य जहा मोहिपसु उद्देमएसु' परिभाए भने यि ३५ प्रमाणे मीधि દિશામાં કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અહીંયા પણું કહી લેવા જોઈએ,
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७३४
भगवतीचे
॥ 'अह ९-१२ उद्दे पगा॥ मूलम्-जहा कण्हलेस्लेहिं एवं नीललेस्लेहिं वि चत्तारि उद्देसमा झाणियवानिरवसेला। नवरं उववाओ नेरइयाणं जहा बालुयप्पमाए सेसं तं चेव । सेवं भले ! सेवं भंते !त्ति ॥९-१२॥ ___ छाया--यथा कृष्णलेश्य एवं नीललेश्यरपि चत्वार उद्देशका भणितव्या निरवशेषाः । नारमुपपातो नैरथिकाणां थथा बालु काममायाम् । शेपं तदेव । तदेवं भदन्त । तदेव भदन्त ! इति ।।९-१२।।
टीका-'जहा कण्टलेसेहि एवं नीललेस्सेहिं वि चत्तारि उद्धे सगा भाणियन्या निरवसेसा' यथा-कृष्णलेश्यनारकाणां चत्वार उद्देशकाः कधिवा स्तथैव नीलछेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः कृतयुग्म-योज-द्वापर-बल्योज पदविशिष्टा भणितव्याः निरवशेषाः । 'नवरं नवरं-केवलम् 'नेरइयाणं उवमानो जहा वाल्यप्पभाए' कृष्णलेश्यप्रकरणापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यदेपां नारकाणामुपपातो यथा वालुकासेव मते ! ति इन पदों की व्याख्या पूर्व में की गई व्याख्या के ही जैसी है।
आठवां उद्देशक समाप्त हुआ।४१-८॥ ॥ शतक ४१ उद्देशक से १२ तक। 'जहा कण्हलेसेहिं एवं नीललेम्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियया निरवलेला' इत्यादि ।
टीकार्थ-जिस प्रकार से कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में पूर्वोक्तरूप से चार उद्देशक कहे गये हैं, उसी प्रकार से नीललेश्यावालों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक कह लेना चाहिये । 'ल उववाओ नेरइ. चाणं जहा बालु पप्पभाए' परन्तु यहां पर नारकों का उपगत बालुका'सेव भंते ! सेव भते ! त्ति' मा पानी ०याभ्य! पहेला हा प्रभाएं ४ छे.
આઠમો ઉદેશે સમાપ્ત થ૪૧-૮ નવમા ઉદ્દેશથી બારમા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓને પ્રારંભ–
'जहा कण्हलेस्सोहि एवं नीललेस्से हिं वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्या निरवसेसा' त्याहि
ટીકાર્ય–જે પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળાઓના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત પ્રકારથી ચાર ઉદ્દેશા કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે નલલેવાવાળાના સંબંधमा ५ यार शाय। वाले 'नवर उववाओ नेरइयाणं जहा वालुयप्पभाए' પરંતુ અહિયાં નારકેને ઉપરાત વાલુકા પ્રભામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ
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refer for ०४१ उ. ९-१२ नीललेश्यादि चत्वारोहेशकरः
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प्रभायां कथित स्तथैव भणितव्यमिति । 'सेसं तं चेत्र' शेपमुपपातातिरिक्त सर्वमपि कृष्णलेश्वदेवेति भावः । सेवं भंते । सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त । इति ॥
॥ एकचत्वारिंशत्तमे शतके नवमादि द्वादशान्ता उद्देशकाः समाप्ताः ||९|१२ प्रभा में जैसा कहा गया है वैसा ही कहना चाहिये । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जिस रीति कृतयुग्म राशिपति कृष्णलेयाबाले नैरयिकों के, ज्योजराशिप्रमित कृष्णलेश्यावाले नैरथिकों के द्वापरयुग्म राशिप्रमित कृष्णलेइयावालों' 'नरयिकों के और कल्पोजराशिप्रमित कृष्णश्यावाले नैरधिकों के सम्बन्ध में चार उद्देशक पूर्वोक्त रूप से प्रकट किये गये हैं उसी प्रकार से कृतयुग्म राशिप्रति नीललेापाले नैरयिकों के सम्बन्ध में ज्योजरोशि प्रमित नीललेइयावाले नैरयिकों के सम्बन्ध में द्वापरयुग्म राशिप्रमित नीललेयावाले नैरधिकोंके सम्बन्ध में और कल्योज राशिप्रमित नीललेश्यावाले नैरधिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक बनाकर कर लेना चाहिये । परन्तु यहाँ पर कृष्णलेपाचाले नैरयिकों की अपेक्षा यदि कोई विशेषता है तो वह उपराम की अपेक्षा से है । अतः यहाँ पर उपपात बालुका प्रभा में जैसा बतलाया गया है वैसा ही है । कृष्णश्यावाले नारकों के प्रकरण के जैसा नहीं है । बाकीका और तब कथन कृष्णलेश्य प्रकरण के जैन्म ही है। सेव भते !
છે, એજ પ્રમાણે કહેવા જોઈએ. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે-જે પ્રમાણે કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા નૈચિકાના તથા પ્રે:જ રાશિપ્રમાણ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નૈયિકાને તથા દ્વાપયુગ્મ રાશિપ્રમાણ કૃષ્ણુલેસ્થાનાળા નરયિકાના અને કલ્યાજ રાશિપ્રમાણુ કૃલેશ્યાવાળા તૈયિકાના સબંધમાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણેના ચાર ઉદ્દેશાએ કહેવામાં આવ્યા છે, એજ પ્રમાણે કૂતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ નીલલેશ્યાવાળા નૈયિકાના સૌંબંધમાં Àાજ રાશિપ્રમાણ નીલલ્લેશ્યા નૈરિયકાના સમધમાં દ્વાપરયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ નીલેશ્યાવાળા તૈયિાના સબ'ધમાં અને કલ્પેજ રાશિપ્રમાણુ નીલલેશ્યાવાળા નૈયિકાના સબ ધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ બનાવીને કહેવા જોઈએ પરંતુ અહિયા કુલઃયાવાળા નૈરિયાની અપેક્ષાથી કંઇ વિશેષપણું હેાય તે તે ઉપપાતની અપેક્ષાએ જ છે. જેથી અહિયાં ઉપપાત વાલુકાપ્રભામાં જે પ્રમણે કહેલ છે એજ પ્રમાણે છે. કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકેના પ્રકરણ પ્રમાણે નથી ખાીનું સઘળુ કન કૃષ્ણુલેસ્યાવાળા પ્રકરણુમા કહ્યા પ્રમાણે જ છે.
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भगवतीय ॥अह १३ -२० उदे पगा' ।।। मूल-काउलेस्लेहि वि एवं चेत्र घत्तारि उद्देसगा कायव्वा । नवरं नेरइयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए। सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥१३-१६॥
तेउलेस्ल रासिजुम्म कडजुम्म असुरकुमाराणं भंते ! कओ उववज्जति एवं चेव । नवरं जेसु तेउलेस्ला अस्थि तेसु भाणियव्वं । एवं एए वि कण्हलेस्ला सरिसा चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥४१-२६-२ ॥
छाया--कापोतलेश्यैरपि एवमेव चत्वार उद्देशकाः कर्तव्या । नवरं नैरयिकाणामुपपातो यथा रत्नप्रभायाम् । शेषं तदेव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । १३-१६॥
तेजोलेश्या राशियुग्म कृतयुग्मासुरकुमाराः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते एवमेव । नवरं येपु तेगोलेश्या अस्ति तेषु भणितव्यम् । एवमेतेऽपि कृष्ण लेश्यसदृशाश्चत्वारः उद्देशकाः कर्तव्याः । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥
त्रयोदशादारभ्य विशन्त्यतोद्देशकाः समाप्ताः ॥४१।१३-२०॥ टीका--'काउलेसेहि वि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायदा' यथा कृष्णसेवं भते । त्ति' हे भदन्त ! आपका कड़ा हुआ यह सब विषय सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रमुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।
॥ ४१ वे शतक का ९ से १२ उद्देशक समाप्त ।।
॥ शतक ४१ उद्देशक १३ से २० तक॥ 'काउलेस्लेहिं वि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायव्वा' इत्यादि । टीकार्थ--कापोतलेश्यावाले नैरयिकों के सम्बन्ध में भी कृष्णलेश्या
'सेव भते ! सेव भते ! ति सावन भाये ४९८ मा तमाम विषय સર્વથા સત્ય જ છે. ૨ આ પ્રમાણે કહીને વંદના નમસ્કાર કરી ગૌતમસ્વામી તપ અને સંયમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. નવમા ઉદ્દેશથી બારમા સુધીના ચાર ઉદેશાઓ સમાપ્ત ૪૧-૯-૧૨ તેરમા ઉદ્દેશથી સેળમા સુધીના ચાર ઉદેશાઓને પ્રારંભ टीआय-'कण्हलेस्से हिं वि एवं चेव चचारि उद्देसगा कायव्वा' पति
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referrer ०४१ उ. १३ - १६ कापोतलेश्यादिचत्वारोदेशकाः
७३७
asterवार उद्देशकाः कथिता एवमेव कापोतलेइयैरपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः कापोतलेश्य कृतयुग्मनारकादेः प्रथमः कापोतलेइय योजनारकादे द्वितीयः, कापोतलेश्य द्वापरयुग्मनारवादेस्तृतीयः कापोतलेइय करयोजनाका देवतुर्थीदेशकः । 'नवर नेरहयाणं उचवाओ जहा रयणप्पभाए' नवरं पूर्वापेक्षया कापोतश्य प्रकरणे इदमेव वैलक्षण्यं यत् अत्र नारकाणामुपपातो रत्नप्रसायामित्र वक्तव्यः । वाले नैरयिकों के जैसे चार उद्देशक है जो इस प्रकार से हैं । जैसेकृतयुग्म राशिप्रमितवाले नैरयिकों का प्रथम उद्देशक है । योजराशिप्रमित कापोतले गावाले नैरविकादियों का द्वितीय उद्देश है। द्वापरयुग्मराशिप्रमित कापोतले गापाले नैरविकका तृतीय उद्देश है और कल्पोजराशिप्रमित कापोतलेइयावाले नैरथिकों का चतुर्थ उद्देशक है । 'नवर' नेरयाणं उबचाओ जहा रयणप्पभाए' परन्तु कृष्णलेइय प्रकरण की अपेक्षा इस कापोतलेश्या प्रकरण में यदि कोई विलक्षणता है तो वह उपपात की अपेक्षा से है - यही पात 'नवर' नेरझ्याणं उचवाओ जहा रयणभाए' इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है। अतः यहां उपपान रत्नप्रभा पृथिवी में जैसा बतलाया गया है वैसा ही कहना चाहिये । 'सेसं तं चेव' उपपात से अतिरिक्त और सप कपन कृष्णलेश्य प्रकरण के जैसा ही है । 'सेव' भ'ते ! सेव' भते ! त्ति' हे भदन्न ! आप લેસ્યાવાળા નાયિકાના સબંધમાં પશુ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નૈરિયકેાના થન પ્રમાણેના ચાર ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે જે આ પ્રમાણે છે, જેમકે-કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણ કાપે તલેશ્યાવાળા નૈયિકાના સબધમા પહેલે ઉદ્દેશે। કહેલ છે. ૧ ચૈાજ રાશિપ્રમાણુ કાપાતલેશ્યાવાળા નરિયકાના સૌંબધમાં બંન્ને ઉંદેશા કહેલ છે. ર્ દ્વાપરયુગ્મ રાશિપ્રમાણ કાપાતલેશ્યાવાળા નારયિકાના સંબધમાં ત્રીજો ઉદ્દેશા કહેલ છે ૩ અને કયેાજ રાશિપ્રમાણ કાપાતલેસ્પા वाजा नैरथिना सभधभां थोथो उद्देशा हे हे. 'नगर' नेरइयाणं वाओ जहा रयणप्पभाए' परंतु दृप्युलेश्याना अ४२७ १२ मा योनसेश्या शुभां જે કાંઇ વિલક્ષણપત્રુ છે, તે તે ઉપપાતના સબધમા કહેલ છે. પેજ વાત 'नवर' नेरइयाणं वाओ जड़ा रणपभात' मा सूत्रपाई द्वारा प्रगट है
જેથી અહિયાં ઉપપાત રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં गावेस छे, ४ प्रभाले भरिया हेषु लेो. 'मे' त'' पपातना धन કરતાં ખાકીનુ સઘળું કથન કૃષ્ણ લેવાના પ્રકરજીની જેમ જ છે, તેમ સમજવું, 'सेघ' भ'ते ! सेव' भते ! त्ति' हे भगवन आप देवानुप्रिये भास धमां
भ० ९३
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'सेसं तं चे' शेष मुपपातातिरिक्त सर्व तदेव कृष्णलेश्यपकरणवदेवेति भावः। 'सेवं भंते । सेवं भंते ! ति तदेवं भदन्त ! नदेव भदन्त ! इति ॥
प्रयोदशादारभ्य पोडशान्तोदेशका समासाः ॥१३॥१६॥ 'तेउलेस्स राशिजुम्म कडजुम्म असुरकुमाराणं भंते ! कओ उववअंति' तेजोलेश्य राशियुग्मासुरकुमाराः खलु यदन्त ! कुत उत्पयन्वे किं नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्य इति प्रश्नः, उत्तरमाह-एवं चेव' एकमेव-कृष्णलेश्यबदेवेति इहावि सनमुपपातादिकं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति भावः । 'नवरं जेसु तेउलेस्सा अस्थि तेस देवानुप्रियने जैसा यह कहा है यह सर्वधा सत्य ही है २ । इत्यादिरूप से इन पदों की व्याख्या पूर्व के जैसी ही जाननी चाहिये । ॥४१ वे शतकक्षा १३-१६ उद्देशक समाप्त हुआ।
उद्देशक १७ से २० पर्यन्त "तेउलेस्लरालिजुम्न क.डजुम्म असुरकुमाराणं भंते ! इत्यादि ।
टीकार्थ-'तेउलेस्ल रासिजुम्म काडजुम्म असुरकुमाराणं भंते ! कओ उववज्जति' हे भदन्त ! राशियुग में कृलयुग्मगशिपमाण तेजोलेश्यावाले असुरकुमार किस स्थान विशेष से प्राकर के उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अधवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? 'एवं नेव' उत्तर में सुश्री कहते हैं-हे गौतम ! જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયતું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કડીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓ ને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરના થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. જાસૂ૦૧ તેરમા ઉદ્દેશથી સળ સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૪૧–૧૩-થી૧૬
સત્તરમા ઉદ્દેશથી વીસમા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાનો પ્રારંભ-- 'तेउलेस्स रासिजुम्म कडजुम्म असुरकुमाराणं भवेत्यादि टीज-वे उलेस्स राखिजुम्म कडजुग्म असुरकुमाराणं भते ! को उववज्जंति' હે ભગવદ્ રાશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ તેજેશ્યાવાળા અસુરકુમાર કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૈરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યચનિકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા જેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય 2 १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छे है-'एव चेव' के गीतम! वेश्याना
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heart टीका २०४९ उ.१७- २० तेजो. राशियुग्मासुर कुमारोत्पत्तिः ७३९ भाणियन्वं' नवरं जेपु असुरकुमारेषु तेजोलेश्या अस्ति तेष्वेव इदं सूत्रं भणितव्यं नान्यत्रेति । एवं एए वि कण्हलेस्सा सरिसा चचारि उद्देसमा कायन्त्रा' एवमेतेऽपि चत्वार उद्देशका' तेजोलेश्य कृतयुग्म, तेजोलेश्ययोज - तेजोलेश्य द्वापरयुग्मतेजोलेश्य कल्यो जरूपाः कर्तव्या वक्तव्या इति । ' सेवं भवे ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ॥
एकचत्वारिंशत्तमे शव के सप्तदशादिविंशत्यन्ता उद्देशकाः समाप्ताः । ४१ १७ २० । | 'अह २१ - २८ उद्देगा' ॥
मूलम् - एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाणं य् एएसिं पहस्सा सेलाणं नत्थि । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ४१-२१-२४ ॥
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कृष्णलेश्य प्रकरण के समान ही यहां पर समस्त उपपात आदि वाच्य हुए हैं ऐसा जानना चाहिये । 'नवर' जेसु तेउलेस्सा अस्थि तेसु भाणियव्वं ' परन्तु जिन असुरकुमारों में तेजोलेश्या है उन्हीं के सम्बन्ध में इस सूत्र का कथन करना चाहिये अन्य में नहीं । 'एवं एए वि रुण्हलेस्स सरिसा चत्तारि उद्देगा कायव्वा' इस प्रकार कृष्णलेश्य प्रकरण के जैसे ही यहां तेजोलेश्य कृतयुग्म तेजोलेश्य ज्योज, तेजोलेश्य द्वापरयुग्म, तेजोलेश्य फल्यो जरूप चार उद्देशक वक्तव्य है । 'सेव' भंते ! सेव' भंते ! त्ति' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है ।
१७-२० उद्देशक समाप्त हुआ ।४१-१७- २०॥
પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ અહિયાં ઉપાત વિગેરે સઘળું કથન કહેવુ' જોઇએ. तेभ समन्वु' 'नवर जेसु येउलेस्सा अस्थि वेसु भाणियन्व' परंतु ने ने मसुर કુમારામા તેલેસ્યા હાય તેઓના સંબંધસ। ઓ સૂત્રનુ કથન કહેવુ જોઈ એ. श्रीलभां नहीं. एवं एए वि कण्हलेस सरिसा चत्तारि उद्देसगा कायव्वा' भा રીતે કૃષ્ણુલેફ્યા પ્રકરણની જેમ જ અહિયાં તેોલેસ્યા કૂતયુગ્મ, તેજલેશ્યા ાજ તેનેવૈશ્યા દ્વાપરયુગ્મ, અને તેોલેશ્યા કલ્પેજરૂપ ચાર ઉદ્દેશાઓ સમજી લેવા, 'सेव' भते ! सेव भंते! त्ति' से लगवन् याय हेवानुप्रिये या विषयभां જે કથન કર્યુ છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે ૨ આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ॰૧ા
અત્તરમા ઉદ્દેશાથી વીસમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાએક સમાપ્ત ll૧૭-૨૦૧
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भगवती जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्कलेस्लाए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । नवरं मणुस्साणं गमओ जहा आहि उद्देसएसु सेसं तं चेव । एवं एए छसु लेस्सासु चौवीसं उदेसगा ओहिया चत्तारि सवे ते अट्रावीनं उदेसगा भवंति।सेवं भंते! सेवं भंते!त्ति।२४-२८॥ ____ छाया--एवं पद्मलेइयायामपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्या। पञ्चेन्द्रियतियंगूयोनिकानां मनुष्याणां वैमानिकानां चैतेषां पदमलेश्या, शेपाणां नास्ति । तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥२१-२४ ___यथा पदुमलेश्यायामे शुक्ललेश्यायामपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः।नवरं मनुष्याणां गमको यथा औधकोद्देशकेपु । शेषं तदेव । एवमेते पसु लेश्यासु चतुर्विशतिमद्देशका, ऑघिकाश्चत्वारः, सर्वे ते अष्टाविंशतिरुदेशका भवन्ति । तदेव भदन्त ! २ इति। २४-२८ उद्देशकाः समाप्ताः ।
टीका-'एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायचा' एवं कृष्ण श्यादिवदेव पद्मलेश्यायामपि चत्वार उद्देशकाः पद्मलेश्यकृतयुग्माः पद्म लेश्ययोजाः पद्मलेश्य द्वापरयुग्माः पद्मलेश्यकल्योजाः इत्येवंरूपाः कत्तमाः सर्वत्रालापकमकारः स्वय. मेवोहनीयः । केपी जीवानां पालेश्या भवतीति तान् दर्शयति-पंचिंदिय'
शलक ४१ उद्देशक २१ से २८ तक ‘एवं पम्हलेस्लाए वि चत्तारि उद्देमगा कायच्या' इत्यादि।
टीकार्थ-कृष्णलेश्य प्रकरण में बोले चार उद्देशक प्रकट किये जा चुके हैं वैसे ही चार उद्देशक पनलेश्य जीवों के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिये । जैसे पद्मलेश कृतयुग उद्देशक १ पद्मलेश्य योज उद्देशक २ पदमलेश्यद्वापरयुग्म उद्देशक ३ और पद्मलेश्य कल्योज उद्देशक ४ इन सब में आलाप प्रकार अपने आप उद्भावित कर लेना चाहिये। पद्मलेश्या किन किन जीवों के होनी है सो सूत्रकारने 'पंचिंએકવીસમા ઉદ્દેશાથી અઠયાવીસમા સુધીના આઠ ઉદ્દેશાને પ્રારંભ–
'एव पम्हलेस्माए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा' त्याle ટીકાઈ–કલેશ્યાનાં પ્રકરણમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનું કથન ચાર ઉદ્દેશારૂપ પદ્રલેશ્વા નારકો વિગેરેના સંબંધમાં પણ કહેવા જોઈએ તે આ પ્રમાણે સમજવા પલેશ્યા કૃતયુગ્ય ઉદેશે ૧ પલેશ્યા જ ઉદ્દેશે ૨ પાલેશ્યા દ્વાપરયુગ્મ ૩ અને પવલેશ્યા કાજ ઉદ્દેશક ૪ આ બધામાં આલાપને પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લે. પદ્મશ્યા કયા કયા છને હોય
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.२१-२८ पाशुक्लादिलेश्या चत्वार उद्देशका ७४१ इत्यादि 'पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं म्णुस्साणं वेमाणियाणय एएसि पम्ह. लेस्सा' पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां एनुष्याणां वैमानिकानां च एतेषां जीवानां पद्मलेश्या भवति । 'सेसाणं नस्थि' शेषाणामेतद्वयतिरिक्तानां पद्मले या न भवतीति 'सेव भंते ! से भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! २ इति ।
'जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्ललेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्या' यथापद्मलेश्यायां चत्वार उद्देशकाः कथिता एवमेव शुक्ललेश्यायामपि चन्वार उद्देशकाः कर्तव्या सर्वत्राऽऽलापप्रकारः स्वयमेवोहनीय इति ! 'नवरं मणुस्साणं गमओ दिय तिरिक्ख जोणियाणं मणुस्लाणं वेमाणियाण य एएसि पम्हलेस्सा' इस सूत्र पाठ द्वारा स्पष्ट किया है-पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों के, मनुष्यों के एवं वैमानिक देवों के पदनलेश्या होती है । 'सेसाणं नस्थि' इनके सिवाय और जो जीव पचते हैं उनके पद्मश्या नहीं होती है। लेव मते ! सेव भते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वधा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयन और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ___ 'जहा पम्हलेस्लाए एवं सुक्कलेस्साए वि पत्तारि उद्दे पणा कायव्या' पद्मलेश्या में जिस पद्धति से चार उद्देशक प्रकट किये गये हैं
छे १ ते भाटे सूत्रारे 'पचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुरसाण देमणिगणय एएस पम्हलेस्सा' या सूत्र पाठवा२। २५७८ ४२३ छ. ५ येन्द्रिय तिर्य योन, मनुष्यान, तथा नैयि: हैवाने पालेश्या डाय छे. 'सेसा नस्थि' सामना शिवाय જે જીવો બાકી રહે છે, તેઓને પદ્દમલેશ્યા હોતી નથી.
'सेव भते ! सेव अ ते ! त्ति' समपन् ।५ हेवानुप्रिये रे प्रभाये ४ह्यु છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવન આ૫ દેવાનુપ્રિયનું આ વિષયના સ બ ધમાં કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતી થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા
'जहा पम्हलेस्साए एवं सुकलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायवा' पदम લેશ્યાના કથનમાં જે પ્રમાણે ચાર ઉદ્દેશાઓ કહેલા છે, એ જ પ્રમાણે શુકલ લેશ્યાના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ સમજી લેવા. તથા આ બધામાં
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भगवतो जहा ओहि उद्देसएसु' नवरं मनुष्याणां गमका प्रकारो यथा औधिकोद्देशकेषु एतस्यैव शतकस्य प्रथमोद्देशके कथित स्तथैव ज्ञातव्यः । 'सेसं तं चेव शेषं तदेवपूर्व वदेव ज्ञातव्यमिति । 'एवं एए छम लेस्सासु चउवीसं उद्दे भगा' एवम् उपरोक्त प्रकारेण एते उद्देशका पट्ट लेश्यासु चतुर्विशति भवन्ति । प्रत्येकळेश्यानां कृतयुग्मादि चतुश्चतुरुद्देशकसद्भावात् । 'ओहिया चत्वारि' औधिकाश्चत्वार उद्देशका भवन्ति । 'सव्ये ते अट्ठावीसं उद्दे भगा भवंति' सर्वे ते सङ्कलनया अष्टाविंशतिरुवेशका भवन्तीति। 'सेवं भते ! सेव भने ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
॥एकचत्वारिंशत्तमे शतके २१-२८ उदेशका समाप्ताः ॥ उसी पद्धति से शुक्ललेच्या में भी चार उद्देशक कह लेना चाहिये । तथा इन सप्प , आलाप प्रकार स्वयं ही उभावित कर लेना चाहिये। परन्तु मनुष्यों के सम्बन्ध में गमक प्रकार जोला औधिक उद्देशक में कहा जा चुका है वैसा ही यहां वक्तव्य हुआ है। यही यात 'नवरं मणुस्साणं गयो जहा ओहि उद्देसए' इन सूत्रपाठ द्वारा यहां समझाई गई है । 'सेस तं चेव' बाकी का और सब कथन पूर्व के ही जैसा है । 'एवं एए छस्तु लेस्सासु च वीसं उद्देसगा' इस प्रकार छह लेझ्याओं के सम्बन्ध में समस्त उदेशक २४ होते हैं। क्योंकि प्रत्येक लेश्या में प्रत्येक लेवाबालो में कृनयुग्मादिरूप चार चार उद्देशक हैं। तथा-'मोहिश चत्तारि' औधिक उद्देशक ४ हैं। इस प्रकार से सब
આલાપને પ્રકાર સ્વય બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ પરંતુ મનુષ્યોના સંબં, ધમાં ગમકેન પ્રકાર ઔધિક ઉદેશામાં એટલે કે-આ ભગવતી સૂત્રના એકતાળીસમા શતકના પહેલા ઉદેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એ જ प्रभातुं ४थन सभ यु'. मे पात 'नवरं मणुस्खाणे गमो जहा ओहि उद्देसए' मा सूत्रपाद्र।२। मडियां समन छ, 'सेस त चेव' माडीनु भानु तमाम ४थन पसा 31 प्रमथेनुं छे. 'एचएएच छसु लेस्मासु चवीसगं' उसगा' २ रीत मा ७ बेश्यामाना सधमा सघणा भजीन २४ यावास ઉદેશાઓ થઈ જાય છે કેમ કે દરેક લેક્શામાં-એટલે કે દરેક વેશ્યાવાળા
मा तयुभ तयुमा ३५ यार यार शाय। थाय छे. तया 'भोहिया જત્તા ઔવિક ઉદ્દેશાઓ ૪ ચાર છે. આ રીતે બધા મળીને ૨૮ અઠયાવીસ ઉદેશાઓ થઈ જાય છે.
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रमन
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अपदिकारीका १०४१ .२९-५६ भवसिद्धिक रा. कृ. नैरयिकोत्पत्तिः ७४३
॥'अह २९-५६ उद्देसगा। मूलम् -भवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति जहा ओहिया पढनगा चत्तारि उद्देसगा तहेव निरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते! ति।२९-३२
कण्हलेस्स भवसिद्धिय रालिजुम्मकडजुम्मा नेरइयाणं भंते! कओ उववज्जति जहा कण्हलेस्लाए चत्तारि उद्दलगा भवंति तहा इमे वि भवलिद्विय कण्हलेस्लेहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा ॥४१-३३-३६॥
एवं नीललेस्स भवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देलगा कायव्वा ॥४१-३७-४०॥
एवं काउलेस्लेहि वि चत्तारि उद्देलगा ॥४१-४१-४४॥ तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहिय सरिसा।४१-४९-४८॥ पम्हलेस्सहि वि चत्तारि उद्देसगा ॥४१-४९-५२॥
सुक्कलेस्लेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा। एवं एए वि भवसिद्धिएहि वि अट्ठावीसं उदेसगा भवति । लेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥४१-५३-५६॥
४१-२९-५६-उद्देसगा समत्ता
मिल कर २८ उद्देशक होते हैं । 'सेवं भंते ! सेव भले त्ति' इन पदों की व्याख्या पूर्व के ही जैसी है - ४१ वें शतक में २१ से लेकर २८ तकके उद्देशक समाप्त हुए। _ 'सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति' मापन भा५ हेवानुप्रिये या विषयमा કહેલ સઘળું કથન સત્ય છે હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સ યમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂના એકવીસમાં ઉદ્દેશાથી અઠયાવીસમા સુધીના આઠ ઉદેશાઓ સમાપ્ત ૧-૨૧થી ૨૮
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भगवतीचे
छाया--'भवसिद्धिक राशियुग्म कृत्युग्मनिरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते यथा औधिकाः प्रथमका चम्बार उद्देशका स्तथैव निरव शेपम् एते चत्वार उद्देशकाः तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति ॥४१. २९-३२॥
कृष्णलेश्य भवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म नरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते ? यथा कृष्णले ज्यायां चत्वार उद्देशका भवन्ति तथा-इमेऽपि भवसिद्धिक कृष्णलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः ॥४१.३३-३६।
एवं नीललेश्य भवसिद्धिकरपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः ॥३७-४०॥ एवं कापोतलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः ॥४१, ४१-४४॥ तेजोलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः ॥४१, ४५-४८॥ पदलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः ॥४१,४९-५२॥
शुक्ललेश्यैरपि चत्वार उद्देशका अधिकसदृशाः । एवमेतेऽपि भवसिद्धिकरपि अष्टाविंशतिरुदेशका भवन्ति । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥४१,५३-५३
॥४१, २९-५६ उदेशकाः समाप्ताः॥ टीका---'भवसिद्धियरासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कत्रो भववज्जति' भवसिद्धिकराशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्यः ? इति प्रश्नः, उत्तरमाइ-'जहा' इत्यादि, 'जहा ओहियापढमगा चत्तारि उहेगा' यथा औधिकाः सामान्याः प्रथमका आधा श्चत्वार
शतक ४१ उद्देशक २९ से ५६ तक 'भवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरझ्याणं भते! कओ उचवज्जति' ___टोकार्थ-हे भदन्त ! राशियुग्म में कृतयुग्म राशिप्रमित भवमिद्धिक नैरयिक किस स्थान विशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते -'जहा ओहिया पढमगा चनारि उद्देमगा' 'हे गौतम ! जैसे पहिलेके चार औधिक उद्देशक कहे ઓગણત્રીસમા ઉદ્દેશથી બત્રીસમા સુધીના ચાર ઉદેશાને પ્રારંભ– 'भवसिद्धिय रासिजुम्मकड़जुम्म नेरइयाण' भवे ! कओ उववज्जति'
ટીકાથં–હે ભગવન રાશિયુગ્મમાં કૃતયુમ રાશિપ્રમાણવાળા ભવસિદ્ધિક નરયિકે કયા રથાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેઓ નૈરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યંચાનિકેશમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેશમાંથી આવીને त्पन्न थाय छ ? मी प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्री ४१ छ -'जहा ओहिया पदमगा
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ ३.२९-३६ भवसिद्धिकरा. कृ. नरयिकोत्पत्तिः ७४५ उद्देशकाः कथिता एतस्मिन्नेव शतके 'सहेत्र निरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा' तथैव वेनैव रूपेण निरवशेषम् एतेऽपि भवसिद्धिक कृतयुग्मादि नारकादीनामपि चत्वार उद्देशका वक्तव्या इति, "सेव भंते ! सेव भंते । ति तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति ॥
॥४१, २९-३२ उद्देशका समाप्ताः ॥ कण्हलेस्स भवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! को उववज्जति' कृष्णलेश्य भवसिद्धिकराशियुग्म कृतयुग्म नारकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नैरयिकेभ्यो यावत् देवेभ्यो वा समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह-पूर्वातिदेशेन गये हैं इसी शतक में 'तहेव निरबसेस एए चत्तारि उद्देमगा' उमी प्रकार से इन भवलिदिक कृतयुग्मादि नारक आदिकों के भी चार उद्देशक यहां वक्तव्य हुए हैं । 'सेव भते! सेवं भंते !त्ति' इन पदों की व्याख्या पूर्व के जैसी है।
॥४१ वे शतक में २९ से लेकर ३२ तक के उद्देशक समाप्त हुआ। ___ 'कण्हलेस्स भवसिद्धियरासिजुम्म कडजुम्म नेस्याण भते! को उववज्जति' इत्यादि।
टीकार्थ-हे भदन्त ! हाशियुग्म में कृतयुग्मराशिप्रमित कृष्णलेश्य भवसिद्धिक नैरथिक शिस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? चत्तारि रहेनगार गौतम! रवी शत या शतभा पडसाना यार मौलिक
शाय। वामां आवे छे, मेरी प्रमाणे 'तहेव निरवसेम' एए चत्तारि उसगा' मा अवसिद्धि कृतयुम विगैरे नाना स म ५ यार ઉદેશાઓ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે અહિયાં સમજવા.
'सेव भते ! सेव भते त्ति भगवन् मा५ हेवानुप्रिये मा विषयमा કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સ યમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિન કરતા ચકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ઓગણત્રીસમા ઉદ્દેશાથી લઈને બત્રીસમા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત
॥४१-२८-३२।। તેત્રીસમા ઉદ્દેશથી છત્રીસમા સુધીના ચાર ઉશઓનું કથન–
'कण्हलेस भवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण भते । कमो उवव. जति' ४त्यादि
ટીકાર્ય—હે ભગવન રશિયુગ્મમા કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણે કૃણયાવાળા ભવસિદ્ધિક રયિકે ક્યા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ રિયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યચનિકમાંથી આવીને
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भगवती 'जहा' इत्यादि, 'जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवति' यथा कृष्णलेश्या प्रकरणे एतस्यैव शतकस्य पश्चमाधुद्देशले.पु चत्वार उद्देशका भवन्ति 'तहा इमे वि' तथा-तेनैव प्रकारेण इमेऽपि । 'कण्हलेस भवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा कायच्या कृष्णलेश्य भवसिद्धिक नैरयिकादिकैरपि कृष्णलेश्य भवसिद्धिक कृतयुग्म कृष्णलेश्य भवसिद्धिक व्योज भरसिद्धिक कृष्णले श्य द्वापरयुग्म कृष्णलेश्य भवसिद्धिक कल्योज रूपा श्चत्वार उद्देशकाः कर्तव्या इति
प्रयस्त्रिंशत्तमात् पट्त्रिंशत्तमपर्यन्तोदेशका समाप्ताः ॥३३-३६॥ क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसका पूर्वातिदेशले उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'जहा कण्हलेस्लाए चत्तारि उद्देसगा भवंति' हे गौतम ! इसी शतक के पंचमादि चार उद्देशकों में जिस प्रकार से यताये गये हैं 'तहा इसे वि' उसी प्रकार से ये 'कण्हलेस भवसिद्धिए हि वि चत्तारि उद्देसमा काया कृष्णालेश्य भवसिद्धिक नैरयिकादि जीवों के साथ भी चार उदेशका पना देना चाहिये । जैसे-कृष्णलेश्य कृतयुग्म सवसिद्धिकोद्देशक १, कृष्णलेश योज भवसिद्विकोद्देशक २, कृष्णलेश्य द्वापर युग्म अवसिद्विकोदेशक ३, और कृष्णलेश्य कल्योज भयसिद्धिकोद्देशक ४ हस्त प्रकार से शशिरग्म में अक्षणलेश्य भवसिद्धिक नैथिों के सम्बन्ध में थे चार उद्देशक हो जाते हैं । इस प्रकार ३३ ३ उद्देशक से लेकर ३६ वें उद्देश तकके ४ उदेशक ४१ वे शतक में समाप्त हुए । ४१, ३३-३६॥ ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति' ३ गौतम ! माता शतना यांयमा अदृशामा २ प्रभाय ना यार देशा। उवामा मा०या छ, 'तहा इमे बि' मे प्रमाणे मा 'कण्हलेस भवसिद्धिएहि वि चत्तोरि उदेगा कायवा' वेश्याव सिद्धि २४ वानी समयमा ५५ यार ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ. જેમ કે-કલેશ્યાવાળા કૃતયુગ્મ ભવસિદ્ધિક નૈરચિકેના સંબંધમાં પહેલે ઉદેશે ૧ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા વ્યાજ ભવસિદ્ધિક નૈર ચિકેના સંબંધમાં બીજો ઉદેશે ૨ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા દ્વાપરયુગ્મ ભવસિદ્ધિક નરયિકના સંબંધમાં ત્રીજે ઉદ્દેશ ૩ અને કૃષ્ણવેશ્યાવાળા કાજ ભવસિદ્ધિક નૈરયિકના સંબંધમાં થો ઉદેશે ૪ આ રીતે રાશિયુગ્મમાં કૃષ્ણલેશ્યાવાળા
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.३७-५२ नीललेश्च भ. चत्वारोदेशकाः ७४७
'एवं नीललेस भवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा कायना' एवमेव कृष्णलेश्य भवसिद्धिकत्रदेव नीललेश्व प्रसिद्धिकैरपि चत्वार उद्देशकाः कृत्युग्मादि ख्याः कर्तव्याः॥ सप्तत्रिंशत्तमाच्चत्वारिंशत्तम पर्यन्ताः समाप्ताः ॥३७-४०॥ __एवं काउलेस्सेहि वि चत्तारि उदेसगा' एकमेव कापोतलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्या। एते चत्वारिंशतमात् चतुश्चत्वारिंशत्तमपर्यन्ता उद्देशका समाप्ताः ।।४१-४४॥
'एवं नीललेस भवसिद्धिहि वि चत्तारि उद्देसगा सायचा'
टीकार्थ-इसी प्रकार से-कृष्णलेश्य भवसिद्धिक जैसे ही नीललेश्य भवसिद्धिक नैरथिकादियों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक कर्तव्य होते हैं। जैसे-नीललेश्य कृतयुग्म भवसिद्धिकोद्देशक १ नीललेश्ययोज भवसिद्धिकोद्देशक २, नीललेश्य द्वापरयुग्म भवसिद्धिक उद्देश ३ और नीललेश्य कल्पोज सबसिद्धिक उद्देशक ४ इस प्रकार ३७ वें उद्देशकसे लेकर ४०३ उद्देशक तक के ४ उद्देशक ४१ वे शतक में समाप्त हुए। ભવસિદ્ધિક નરયિકના સંબંધમાં આ ચાર ઉદ્દેશાઓ થઈ જાય છે. આ રીતે તેત્રીસમ ઉદેશાથી લઈને છત્રીસમા ઉદેશા સુધીના ૪ ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત
॥४१-33 थी 3६॥ તેત્રીસમા ઉદ્દેશથી ૩૬ સુધીના ઉદેશાઓ સમાપ્ત 'एव' नीलस्त भवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उदेसगा कायव्वा' त्याहि
ટીકર્થ–આજ પ્રમાણે-કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિકના કથન પ્રમાણે જ નીલલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક નૈરયિકના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ જેમકે-નીલલેશ્યાયુક્ત કૃતયુમ ભવસિદ્ધિક નરયિકના સંબંધમાં પહેલો ઉદેશે ૧ નલલેશ્યાવાળા જ ભવસિદ્ધિક રયિકના સંબંધમાં બીજો ઉદેશે. નીલલેશ્યાવાળા દ્વાપરયુગ્મ ભવસિદ્ધિક નૈરયિકના સંબંધમાં ત્રીજે ઉદેશે ૩ અને નીલલેશ્યાવાળા કલ્યાજ ભવસિદ્ધિના સંબધમાથે ઉદ્દેશ સાડ ત્રીસમા ઉદ્દેશથી ૪૦ સુધીને ચાર ઉદેશાઓ સમાપ્ત થયા ૪૧-૩૦થી૪૦
'एव काउलेत्तेहि नि चत्तारि उदेसगा कायव्वा' त्याह
રીકાઈ-એજ પ્રમાણે કાપતલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક નૈરચિકેના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદેશાઓ કહેવા જોઈએ.
આ રીતે આ એકતાળીસમાં ૪૧ શતકમાં ૪૧ એકતાળીસમા ઉદ્દેશથી લઈને ચુમ્માળીસ સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૪૧થી ૪૧ ૪૪
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भगवतीसूत्र 'तेउलेस्से हि वि चत्तारि उलगा ओहियसरिसा तेजोलेल्यैरपि तेजोलेश्य भवसिद्धिकासुरकुमारादिकरपि चत्वार उदेशका औधिकसदृशाः कर्तव्याः ।। पञ्चचत्वारिंशत्तमात् अष्टचत्वारिंशत्तम्पर्यन्ता उद्देशकाः समाप्ताः ॥४५-१८॥ ___ 'पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा' पनलेश्यामाश्रित्यापि पदमलेश्य भवसिद्धिक तिर्यक् पञ्चेन्द्रियादिकमाश्रित्यापि कृतयुग्मादिरूपा श्चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः । एकोनपञ्चाशत्तमाद् द्विपश्चागत्तमपर्यन्ता उद्देशका समाप्ताः १४९-५२
‘एवं काउलेस्लेहि वि चत्तारि उद्देसमा कायवा' इत्यादि ।
इसी प्रकार से कापोतलेश्य भवसिद्धिक नैरयिकादिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक करने योग्य होते हैं। इन प्रशार ४१ वें उद्देशक से लेकर ४४ में उद्देशक तक के ४ उद्देशक ४१ शतक में समाप्त हुए। ४१, ४१-४४॥
'तेउलेस्सलिंधि चत्तारि उनिगा ओहिय सरिसगा' इत्यादि।
तेजोलेश्य भवसिद्धिक असुरकुमारादिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक औधिक उद्देशक के जैसे करने योग्य होते हैं । इस प्रकार ४५ वे उद्देशक से लेकर ४८ वे उद्देशक तक के ४ उद्देशक ४१ वे शतकके समाप्त हुए। ४१, ४५-४८॥
'पहलेसेहिं वि चत्तारि उद्देसमा इत्यादि पदमलेश्य भवसिद्धिक तिर्यपंचेन्द्रियादिलों को लेकर भी कृतयुग्मादिरूप चार उद्देशक कर लेना चाहिये । इस प्रकार ४९ वे उद्देशक से लेकर ५२ वे उद्देशक तक दे ४ उदेशक ४१ वे शतक में समाप्त हुए ४१, ४९-५२।।
'तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उसगा ओहिय सरिसगा' त्या
ટકાર્ય–તે જેતેશ્યા ભવસિદ્ધિક નાવિકોના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદ્યશાઓ ઔવિક ઉદ્દેશાના કથન પ્રમાણે કહી લેવા જોઈએ. આ રીતે પિસ્તાળીસમા ઉદ્દેશથી લઈને અડતાળીસમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદેશાઓ સમાપ્ત ૪૧-૪૫ થી ૪૮
'पम्हलेस्सहि वि चत्तारि उदेखगा' त्यादि
ટીકાથ–પમલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક તિર્યકુ પરિને લઈને પણ કૃતયુમ વિગેરે રૂપે ચાર ઉદેશાઓ બનાવીને સમજી લેવા. આ રીતે ઓગણપચાસમાં ઉદ્દેશાથી પર બાવન સુધીના ચાર ઉદેશાઓ સમાપ્ત ૫૪૧-૪૯-થી પરા
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प्रमैा टीका २०४१ उ.५३-५६ शुक्ललैश्य भ० चत्वारोद्देशकाः
હર્
'सुक्कले सेहि वि चत्तारि ओहिय सरिसा ' शुक्ललेश्य मन्तर्भाव्यापि कृतयुमादिरूपा श्रश्वार उदेशका औधिकरादृशा एव कर्त्तव्या इति । ' एवं एएवि भवसिद्धिए वि अट्ठावीस उद्देश्गा भवंति एवं पूर्ववदेव एते भवसिद्धिकैरपि अष्टविंशतिरुदेशका भवन्तीति ! 'सेव भंते ! सेव भंते । त्ति' तदेव भदन्त तदेव - भदन्त । इति । त्रिपञ्चाशत्तमात् पट् पञ्चाशत्तम पर्यन्ता उदेशका समाप्ता ॥ ५३५६
1
'सुक्कलेस्सेहिं विचत्तारि ओहिय सरिसा' इत्यादि ।
शुक्ललेश्यावालों को आश्रित करके भी अधिक उद्देशकों के जैसे ही कृतयुग्मादि रूप चार उद्देशक बना लेना चाहिये । ' एवं एए विभवसिद्धिर्हि विट्ठावीस उद्देखगा भवति' इस प्रकार भवसिद्धिकों के सम्बन्ध में भी २८ उद्देशक हो जाते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि भवसिद्धिक जीवों के कृतयुग्मादिरूप से चार उद्देशक तो औधिक हैं और ६ लेश्याओं सम्बन्धी चार चार उद्देशक होने से चौबीस उद्दे शक ये हो जाते हैं । इस प्रकार से कुल यहां २८ उद्देशक है । 'सेव भंते ! सेव भंते! त्ति' इन पदों की व्याख्या पूर्ववत् ही है । इस प्रकार ५३ वे उद्देशक से लेकर ५६ वें उद्देशक तक के ४ उद्देसक ४१ वें शतक में समाप्त हुए ४१, ५३-५६॥
'सुक्क लेस्सेहि' चत्तारि ओहिय सरिसया' शुम्सलेश्यावाणामानो माश्रय કરીને ઔઘિક ઉદ્દેશાતિ જેમ જ કૃતયુગ્માદિ રૂપ ચાર ઉદ્દેશાએ કહેવા 'एवं एए वि भवसिद्धिपछि वि अट्ठावीस उसगा भवंति' मा રીતે ભવસિદ્ધિકાના સબંધમાં પણ ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ થઇ જાય છે. કહેવાનુ તા એ છે કે-શુકલલેશ્થાવાળાએના કૃતયુગ્માદિ રૂપ ચાર ઉદ્દેશ એ તા ઔધિક છે, અને છ વૈશ્યાએ! સબધી ચાર ચાર ઉદ્દેશાએ થવાથી તેના ૨૪ ચેવીસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે. આ રીતે અહિયાં બધા સળીને કુલ ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએ થાય છે
'सेव ं भते ! सेव ं भवे ! चि' से लगवन् याय देवानुप्रिये या विषयभां જે કથન કર્યું છે તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે, હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ` સઘળું કથન સત્ય જ છે . આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સ્પા આ રીતે ૫૩ તેપનમાં ઉદેશાથી લઈને ૫૬ છપ્પન સુધીના ૪ ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૪૧-૫૩ થી પા
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भगवतीस्त्र 'अह ५७-८४ उद्देसगा' गूलम्-अभवसिद्धिय राखिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उपजति ? जहा एढमो उद्देसो। नवरं मणुस्सा नेरइया य सरिता आणियवा सेसं तहेव । सेवं भंते! सेवं भंते !त्ति। एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देलगा ॥५७-६०॥
कण्हलेस्त अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कमओ उववज्जति एवं चेव चत्तारि उद्देसगा ॥६१-६४॥ एवं नीललेस्ल अभवसिद्धिय रासिजुम्ल कडजुम्म नेरइयाणं चत्तारि उद्देसमा ॥६५-६८॥ काउलेसहि चि चत्तारि उद्देसगा ॥६९-७२॥ तेउलेस्लेहि वि चत्तारि उदेगा ॥७३-७६॥ पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देलगा ॥७७-८०॥ सुक्कलेस्स अभवसिशिएहिावे चत्तारि उद्देलगा।।८१-८॥ एवं एएसु अहावीसाए वि अभवसिद्धिय उद्देलएसु मणुस्सा नेरइयगमेणं णेयवा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । एवं एए वि अट्ठावीसं उद्देप्सगा ॥६१-८४॥
छाया-अभवसिद्धिक राशियुग्म छत्तयुग्मनैरयिकाः खस भदन्त ! कुन उत्पद्यन्ते यथा प्रथम उदेशकः । नरं मनुष्याः नैरयिकाश्च सहशा भणितव्याः । शेपं तथैव, तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । एवं चतुर्वपि युग्मेषु क्यार उदेशका ।५९-६०
कृष्णलेश्यामवसिद्धिक राशियुग्मकृत्युग्मनैरयिकाः खलु भवन्त ! कुत उसायन्ते एवमेन चत्वार उद्देशकाः। एवं नीललेपाऽमप्रसिद्धिकराशियुग्मनैरयिकाणां चत्वार उद्देशनाः । कापोतले श्यैरपि चत्वार उदेशकाः । तेजोलेश्यरपि चत्वार उद्देशनाः । एगलेश्यैरपि चत्वार उद्देशनाः । शुक्ललेश्याऽभवसिद्धिकैरपि चत्वार उदेशकाः । एवमें तेषु अष्टाविंशत्यामपि भवसिद्धिको देश के पु मनुष्या नैरयिकामेण नेतव्याः । तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । एवमेतेऽपि अष्टाविंशतिरुदेशकाः ।।
सप्त पञ्चाशत्तमात् चतुरशीतितमपर्यन्ताः, एकचत्वारिंशत्तमे शतके समाप्ताः ॥५९-८४॥
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ateefat ahet ०४१ ७.५७ ८४ अभवसिद्धिकरा. कृ. नैरयिकोत्पत्तिः ७५१
टीका- 'अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते! कओ उबवनंति' अवसिद्धिकराशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खल - भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते कि नैरविकेभ्यो यावद्देवेभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह पूर्वातिदेशेन 'जहा' इत्यादि, 'जहा पढमो उद्देसी' यथा प्रथम उद्देशकः, एतस्यैव शतकस्य प्रथमदेश के नारकाणां वक्तव्यता कथिता तथैवात्रापि ज्ञातव्या । तिर्यग्भ्यो मनुष्येभ्यो वाऽऽगस्थोत्पद्यन्ते । शेषं प्रथमोदेशकव देव ज्ञातव्यमिति । 'नवरं मणुस्सा नेरइयाय शतक ४१ उद्देशक ५७ से ८४ तक ॥
'अभवसिद्धिया रासिजुम्म कडजुम्म नेरहाणं भंते । कभी उम्रवज्जति' इत्यादि । ५७-६० ॥
1
टीका- 'अभवसिद्धिया रासिजुम्म कडजुम्म नेरहयाणं भंते ! कभी उववज्जंति' हे भदना । राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण अभवसिद्धिक नैरकि किस स्थान विशेष से आकर उत्पन्न होते है ? क्या defeat में से आकरके उत्पन्न होते हैं अथवा चावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? पूर्वातिदेश द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं- 'जहा पढमो उद्देतो' हे गौतम! जैसी वक्तव्यता नारकों के सम्बन्ध में इसी शतक के प्रथम उद्देश में कही गई हैं वैसी वक्तव्यता इनके सम्बन्ध में यहां जाननी चहिये । तथा च-ये नैरधिक तिर्यञ्चों में से आकरके और मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं - ऐसा इस प्रश्न का उत्तर है। बाकी का और कथन प्रथम उद्देशक के जैसा ही है । 'नवरं मणुस्सा क्या रिसा
સત્તાવનમા ઉદ્દેશાથી સાઇઠમા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઆનુ કથન
અભવસિદ્ધિ નારયિક તેમે નૈરિયકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય
'अभवसिद्धिया रासिजुम्म कड़जुम्म नेरइयोण भवे ! कओ उववज्जति' ४. ટીકા-હે ભગવન્ રાશિયુગ્મમાં મૃતયુગ્મ પ્રમાણુ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચયેાનિકમાંથી છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર અતિદેશ દ્વારા આપતાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने - 'जहा पढमोउद्देसओ' दे गौतम | नारमेना संघभां भा એકતાળીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું સઘળું કથન તેના સંખ ધમાં અહિ પણુ સમજવુ એટલે કેતે નૈરયિક તિય ચનિકામાંથી આવીને અથવા મનુષ્યે માથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્નના ઉત્તર છે, બાકીન સઘળ કથત પહેલા
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७५२
Parenter
सरिसा भाfotoat' नवरम् - केवलं प्रथमोदे नफापेक्षया इदमेव चैलक्षण्यं यत after अत्राम सिद्धिकप्रकरणे मनुष्या नारकाच सदृशा एव वक्तव्या इति । 'सेसं तदेव' शेष ं तथैव प्रथमोद्देशकद्रदेव ज्ञातव्यम् 'चउसु नि जुम्मेसु चचारि उद्देसगा' चतुपियुग्मेषु कृतयुग्म ज्योज द्वापरयुग्म कल्पोजरूपयुगाचतुष्टयेषु चत्त्रार उदेशका सवन्ति । सेवं भंते ! सेवं भते । त्ति' तदेव भदन्त ! तदेव भदन्त । इति । एकचत्वारिंशत्तमे शतके सप्तपञ्चाशतमाद् आरभ्य षष्ठि पर्यन्ता उद्देशका
समाप्ताः । ५७-६० ॥
भाणिवा' परन्तु प्रथम उद्देशककी अपेक्षा यहां केवल यही विशेषता है कि इस अभवसिदूधिक प्रकरण में मनुष्य और नारक समान रीति में कहना चाहिये । 'सेसं तहेब' और पाकी का कथन प्रमोदेशक के ही जैसा है। 'चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देगा' यहां पर भी चार युग्मों में- कृतयुग्म, ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज-इन युग्मों में चार उद्देश होते हैं । 'सेव भंते । सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम प्रभुश्रीको वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संगम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । इस प्रकार ५७ वें उद्देशक से लेकर ६० वें उद्देशक तक ४ प्रदेश ४१ वे शतक में समाप्त ।४१,५७,६० छे. 'नवर' मणुस्सा नेरइया य सरिसा भाणियव्वा' પરંતુ પહેલા ઉદ્દેશા કરતાં આ કથનમાં કેવળ એજ વિશેષપણુ' આવે છે—આ અભવસિદ્ધિકના પ્રકરણમાં મનુષ્ય અને નારકા સરખા જ કહેવા ોઇએ. ‘ઘેશ્વ’ तद्देव' या शिवाय माहीतु सधणु उथन पडेला उद्देशानां द्या प्रभा ४ ४. 'उवि जुम्मेसु चत्तारि उद्देगा' मडियां पशु यार युग्भसां द्रुतयुग्भચૈજ દ્વાપરયુગ્મ અને કલ્ટેજ આ ચાર યુગ્માના ચાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે. 'सेव ं भंते ! सेव ं भंते! त्ति' हे भगवन् याय हेवानुप्रिये या विषयभां જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હું ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ સઘળું કથન સથા સત્ય છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂ૦૧૫
शाम प्रभाये
આ પ્રમાણે ૫૭ સત્તાવનમા ઉદ્દેશાથી લઇને ૬૦ સાઇઠમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૪૧, ૫૭ થી ૬૦
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प्रमेययन्द्रिका टीका श०६१ उ.६१-८५ क. अभव. रा. कृ. नैरयिकोत्पत्तिः ७५३
कण्हलेस अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! को उव. रज्जति' कृष्णलेश्याऽभवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु मदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते कि नरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्यो वा आगत्योत्पधन्ते इति मन्ना, उचरमाहपूर्ववदेव एवं चेत्र' इत्यादि, 'एवं चेव चत्तारि उद्देसगा' एवं पूर्ववदेव चतुरो युग्मानाश्रित्य चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः ॥६१-६॥ • . 'एव' नोब्लेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं चत्वारि उद्दे.. कण्हलेस्ल अभवसिद्धिय रामिजुम्मकडजुम्मनेरझ्याण भंते ! फओंउथवजनि' इत्यादि सूत्र-६१-६४ । • टीकार्थ-कहलेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म फडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति' 1; हे भदन्त ! राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण कृष्णलेश्यावाले अभव. सिद्धिक नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरथिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? 'एवं चेव' हे गौतम ! पूर्वके जैसे यहां पर भी चार युग्मों को आश्रित करके चार उद्देशक कर लेना चाहिये। इस प्रकार ६१ वे उद्देशक से लेकर ६४ वे उद्देशक तकके चार उद्देश ४१ ये शतक के समाप्त हुए । ४१,६१-६४।। __एवं नीललेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं चत्तारि उद्देसगा इत्यादि ६५-६८॥
'कण्इलेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण मते ! फओ उववज्ज ति' त्याह
ટીકાર્થ—-હે ભગવન રાશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ પ્રમાણુ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક નરયિકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યંચનિકમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? કે દેવ માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'एव चेव गौतम ! पसार प्रमाणे वामां आवेस छ, से प्रभारी અહિયાં પણ ચાર યુગ્મોને આશ્રય કરીને ચાર ઉદેશાઓ કહેવા જોઈએ. આ રીતે ૬૧ એકસઠમા ઉદ્દેશથી લઈને ૬૪ ચોસઠમાં ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત
૫૪૧-૬૧- થી ૬૪ 'एप नीललेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म कढजुम्म नेरइयाण' पत्तारि सदेसगा' त्याहि.
भ० ९५
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に
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सा' एवमधिक प्रकरणवदेव अभवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म चतुरो युग्मानाश्रित्य चत्वार उद्देशका चक्तव्याः ||६६ - ६८॥
'काउलेस्सेहिं विचार उद्देसगा' दहापि पूर्ववदेव कापोत छेश्यैः कापोतश्यामन्तर्भाव्यापि चतुरो युग्मानाश्रित्य चत्वार उद्देशकाः कर्त्तव्याः ||६९-७२॥ सेउलेसेर्दिविचत्तारि उद्देगा' तेजोलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः इहापि पूर्ववदेव तेजोलेश्यामन्तर्भाव्याभवसिद्धिकराशियुग्मकृतयुग्मादि नारकाणां युग्मभेदात् चत्वार उद्देशकाः कर्तव्या इति ॥ ७२-७३ ||
भगवती सूत्रे
नारकाणामपि
टीकार्थ- 'एवं नीललेस्स अभवसिद्धिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं चत्तारि उद्देगा' औधिक प्रकरण के जैसे राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण नीललेइयावाले अभवसिद्धिक नैरथिको के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक कहना चाहिये । इस प्रकार ६५ वें उद्देशक से लेकर ६८ वें उद्देशक तक के चार उद्देशक ४१ वे शतक में समाप्त हुए ४१, ६५ - ६८ ॥ 'ered सेहिं वित्तारि उद्देसगा' इत्यादि ६९-७२।
'सेहिं विचत्तारि उद्देगा' पहिले के जैसे ही यहां पर भी कापोतलेइयावालों अभवसिद्धिक नैरयिकों के सम्बन्ध में चार युग्मों को आश्रित करके चार उद्देशक होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। इस प्रकार ६९ वें उद्देशक से लेकर ७२ वें उद्देशक तक के चार उद्देशक ४१ वें शतक में 'समाप्त हुए । ४१,६९-७२॥
'तेउलेस्से हि विचत्तारि उद्देजना' इत्यादि ७३-७६॥
टीअर्थ' - ' एवं ' नीललेस्स अभवसिद्धिय राखिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं चत्तारि उद्देसगा' गौधि! अ४२शुभां द्या प्रमाणे राशियुग्भमां द्रुतयुग्भ प्रभाथ नीसલેશ્યાવ ળા અભવસિદ્ધિક નૈરયિકાના સબંધમાં પણ ચાર યુગ્માને આશ્રય કરીને ચાર ઉદ્દેચાએ કહેવા જોઇએ,
આ રીતે ૬પ પાંસઠમા ઉદ્દેશાથી લઇને ૬૮ અડસઠમા ઉદેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૪૧-૬૫ થી ૬૮ા
'काउलेसेहिं विचचारि उद्देसगा' इत्याहि
टी. - ' कारल्लेसेहि वि चत्तारि उद्देसा' महेसानी प्रेम साडियां પણ કાપાતલેશ્યાવાળા અભવસિદ્ધિક નૈરયિકાના સંબધમાં ચાર યુગ્માના આશ્રય કરીને ચાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે, તેમ સમજવું,
આ પ્રમાણે ૬૯ આગણસિત્તરમા ઉદ્દેશાથી લઈને ચાર ઉદ્દેશાએ, સમાપ્ત
शया ॥४१-६८ थी ७२॥
'उसे िविचत्तारि उद्देगा' इत्यादि
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.७३-७६ रा. कृ. तेजोभवसिद्धिकोत्पत्तिः ७५५
'पम्हलेस्से हि वि चत्तारि उद्देसगा' पद्मलेश्यैरपि चत्वार उद्देशकाः पदमवेश्या घटिताऽभवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म व्योज द्वापायुग्म कल्योज नारकाणामपि चत्वार उद्देशकाः कर्तव्याः ॥७७-८०॥
'मुक्कलेस्स अभवसिद्धिए हि वि चत्तारि उदेसगा' शुक्ललेश्याऽभवसिद्धि
'तेउलेस्से हिं वि चत्तारि उद्देसगा' राशियुग्म में कृतयुग्मादि प्रमाण प्रमित तेजोलेश्यावाले अभवसिद्धिक नैरथिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक बनते हैं। ऐसा जाननाचाहिये । इस प्रकार ७३ वें उद्देशक से लेकर के ७६ ३ उद्देशक तक के चार उद्देशक ४१ वें शतफ में समाप्त हुए। ४१, ७३-७६॥
__'पम्हलेस्सेहिं वि चत्तारि उद्देसगा' इत्यादि ७७-८०॥
'पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा' पदमलेश्यावाले अभवसिद्धिक नैरयिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक बनते हैं-अर्थात् राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण, योज प्रमाण, द्वापरयुग्म प्रमाण और कल्योजप्रमाण प्रमित पदूमलेश्यावाले अभवसिद्धिक नैरयिकों के चार उद्देशक बनते हैं, ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार ७७ वें उद्देशक से लेकर ८० वें उद्देशक तकके चार उद्देशक ४१ वें शतक में समाप्त हुए ४१,७७-८०॥ 'सुक्कलेस्स अभवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देसगा' इत्यादि।
ट –'तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा' राशियुम्भमा तयुग्म विगेरे પ્રમાણુવાળા નીલેશ્યાવાળા અભાવસિદ્ધિક નૈરયિકેના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે, તેમ સમજવું. આ રીતે ૭૩ તેતરમાં ઉદ્દેશાથી લઈને ૭૬ છેતરમાં ઉદ્દેશા સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૪૧-૭૬ થી ૭૬
'पम्हलेसेहि चत्तारि विदेसगा' त्याह
टीआय-'पम्हलेस्सेहि चत्तारि वि उदेसगा' पद्मश्यावा सिद्धि નરયિકના સંબંધમાં પણ ચાર ઉદ્દેશાઓ થાય છે. અર્થાત-રાશિયુમમાં કૃતયુગ્મ પ્રમાણે, એજ પ્રમાણ દ્વાપરયુગ્મ પ્રમાણ અને કલ્યાજ પ્રમાણ પ્રમિત પમલેશ્યાવાળા અભાવસિદ્ધિક નરયિકના ચાર ઉદ્દેશાઓ બને छे, तम समरपु. આ રીતે સતેરમાં ઉદ્દેશાથી લઈને ૮૦ એંસીમા ઉદ્દેશા સુધીના ચાર देशास। समारत ॥४१-७७-८०॥
'सुक्कलेस्स अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उहेसगा' या
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भगवती सूत्रे
कैरपि चत्वार उद्देशका भवन्तीति । एवं एएस अहावीसाए वि अभवसिद्धिय उदेस मणुस्सा नेरइयगमेणं नेयना' एवमेतेषु अष्टाविंशतावपि उद्देशकेषु मनुष्याणां वक्तव्यता नैरयिकवदेव ज्ञातव्येति । 'सेवं भंते 1 सेव भत । त्ति' तदेवं भदन्त 1 तदेव भदन्त । इति । ८१-८४ ॥
'एवं एएवि अट्ठावीस उद्देगा' एवमेतेऽपि अष्टाविंशतिरुदेशका भवन्तीति । 'सुकालेस अभवसिद्धिएहिं वि चत्तारि उद्देगा' इसी प्रकार से शुक्ललेश्पावाले अभवसिद्धिकों के सम्बन्ध में भी चार उद्देशक घनते है । 'एवं एएस अट्ठावीसाए वि अभवसिद्धिय उद्देएस मणुस्सा रइयगमेणं' नेयव्या' जैसी इन २८ उद्देशकों में नैरयिकों की वक्तव्यता प्रकट की गई है वैसी ही वक्तव्यता मनुष्यों के सम्बन्ध मैं भी कर लेनी चाहिये । सेवं भते । सेव भंते । त्ति' हे भगवन् ! जैसा आपने यह विषय कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नम स्कार किया | वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । इस प्रकार ८१ वें उद्देशक से लेकर के ८४ वें उद्देशक तक के चार उद्देशक ४१ वें शतक में समाप्त हुए |४१,८१-८४ ॥
'एवं एए वि अट्ठावीस उद्देगा' इस प्रकार से ये भी २८ उद्देशक
टीमर्थ' - 'सुकलेस्स अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उदेखगा' गान प्रभा શુકલàશ્યાવાળા અભસિદ્ધિકાના સબંધમાં પણ ચ.ર ઉદ્દેશાએ બને છે, 'एव' सु अट्ठावीसाए वि अभवसिद्धिय उदेसएस मणुम्सा णेरइयगमेण नेयव्वा' આ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએમાં નૈરિયકે સબધી કથન પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણુનું કથન મનુ યૈાના સંબંધમાં પણ સમજી લેવુ
'सेव' भ'ते ! सेव' भते ! चि' हे भगवन् गाय देवानुप्रिये ने अभायेनुं કથન કર્યું” છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. હું ભગવત્ આપ દેવાનુ પ્રિયનું સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા. સૂ॰૧ આ રીતે ૮૧ એકયાસીમા ઉદ્દેશાથી લઈને ૮૪ ચામાંશી સુધીના ચાર ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૫૪૧-૮૧-થી ૮૪ાા
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'एवं एए वि अट्ठावीस' उद्देगा' मा रीते या मायावीस उद्देशाओ। थाय छे.
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ ३.८४-८७ स. राशि. कृ. नैरथि कोत्पत्तिः ७५७ ___एकच 'वारिंशत्तमे शतके सप्त पञ्चाशत्तमोद्देशतश्चतुरशीत्यन्ता अष्टाविंशतिरु दशका समाप्ताः ॥५७-८४।
अह ८५-११२ उदेसगा . मूलम्-सम्मदिहि रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जंति एवं जहा पढमो उद्देसओ। एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा । सेवं भंते ! २त्ति ॥८५-८८॥
कण्हलेस्स सम्मदिटि रासिजुम्म कड जुम्म नेरइयाणं भंते! कओ उववज्जति? एए वि कण्हलेस्लसरिसा चत्तारि वि उद्देसगा कायव्वा । एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धियसरिसा
अहावीसं उद्देलगा काया । लेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव 'विहरइ ॥८९-११२ उदेसगा॥ ____ छाया--सम्यग्दृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्सध-ते ? एवं यथा प्रथम उद्देशकः । चतुर्वपि युग्मेषु चत्वार उदेशका भवसिद्धिसदृशाः कर्तव्याः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।८५-८८ । ____ कृष्णलेश्य सम्यग्दृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त । कुत उत्पधन्ते ? एतेऽपि कृष्णलेश्य सदृशाश्चत्वारोऽपि उद्देशकाः कर्तव्याः। एवं सम्यगृदृष्टिष्वपि भवसिद्धिसदृशा अष्टाविंशतिरुदेशकाः कर्तव्याः । तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त ! इति यावविहरति ॥८८-११२ उद्देशकाः ॥
टीका--'सम्महिहि रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण मंते ! कओ उज्जति' सम्यग्दृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते कि नैरहोते हैं । ५७ उद्देशक से लेकर ८४ उद्देशक समाप्त ।
॥ शतक ४१ उद्देशक ८५-११२।। 'सम्मदिदि रासिजुम्म कडजुम्म नेरझ्याणं भंते ! को ज्ववज्जति'
टीकार्थ-लम्महि रामिजुम्म डजुम्मनेरझ्याणं भंते ! कओ उवસત્તાવનામાં ઉદ્દેશાથી ચર્યાશી સુધીના ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૪૧-૫૭-૮૪
પંચ્યાસીમાં ઉદ્દેશાથી અઠયાસી ઉદ્દેશા સુધી 'सम्मदिवी रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण भंते । कओ उबवजति'छ.
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भगवतीसूत्र यिकेभ्यो यावदेवेशे वा आगत्य समुत्पधन्ते इति पूर्ववदेव प्रश्नः । उत्तरमाहपूर्वातिदेशेन-एवं' इत्यादि, ‘एवं जहा पढमो उदेसओ' एवं यथा प्रथम उद्देशकः एतस्यैव शतकस्य प्रथमे उद्देशके येन प्रकारेण उपपातादिकं कथितं तेनैव रूपेण इहापि सर्व ज्ञातव्यमिति । 'एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धिय सरिसा कायव्वा' एवं चतुर्वपि युग्मेषु कृतयुग्मयोजद्वापरयुग्मकल्योजेषु चत्वार उद्देशकाः भवसिद्धिकसदृशाः कर्तव्या यथा भवसिद्धिकमकरणे युग्म चतुष्टयमन्तर्भाव्य चत्वार उद्देशका औधिकार कथिता स्तथाऽत्रापि युग्म चतुष्टयघटिता वजंति' हे भदन्त ! राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमाण सम्यग्दृष्टि नैरयिक किस स्थान विशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में से
आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? पूर्वातिदेश से उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'एवं जहा पढमो उद्देसओ' हे गौतम ! जिस प्रकार से इसी शनक के प्रथम उद्देशक में उपपात आदि कहे गये हैं उसी प्रकार से वे सब यहां पर भी कह लेना चाहिये। ‘एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धिय सरिसा कायचा' इस प्रकार चार युग्मों में कृतयुग्म योज द्वापरयुग्म एवं कल्योज में चार उद्देशक भवसिद्धिक नैरयिकादिकों के जैसे कर लेना चाहिये । अर्थात्-जैसे भवसिद्धिक प्रकरण में युग्म चतुष्टय को लेकर चार औधिक उद्देशक कहे गये हैं वैसे ही युग्म चतुष्टय को लेकर यहां पर भी चार औधिक उद्देशक कह लेना चाहिये । 'सेव भंते ।
टा--'सम्मदिवि रासिजुम्म काजुम्म नेरइयाण भते ! को उववज्जति' હે ભગવન રશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ પ્રમાણ સમ્યગ્દષ્ટિનરયિકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? કે દેવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमवामीन छ -'एव जहा पढमो उद्देसओ' 3 गौतम ! જે પ્રમાણે આ એકતાળીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે તેઓના ઉપપાત વિગેરે સઘળું કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ. 'एव चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उदेसगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा' म प्रभा ભવસિદ્ધિક ઔરયિકના કથન પ્રમાણે ચાર યુગ્મમાં કૃતયુગ્મ, એજ દ્વાપરયુગ્મ અને કલ્યાજમાં ચાર ઉદેશાઓ ભવસિદ્ધિક નરયિકના કથન પ્રમાણે કહેવા જોઈએ. અર્થાત જે પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક પ્રકરણમાં ચાર યુગ્મને લઈને ચાર ઔધિક ઉશાઓ કહેલ છે, એજ પ્રમાણે ચાર યુગ્મને આશ્રય કરીને અહિયાં પણ ચાર ઔઘિક ઉદેશાઓ કહેવા જોઈએ.
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अमेयचन्तिकारीका श०४१ उ,८५-८८ रु. स. राशियुग्म कृ. नैरथिकोत्पात.७५९ चत्वार उद्देशका : कर्तव्या इति । सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति । ॥८५-८८॥
एकचत्वारिंशत् शतके सम्यग्दृष्टेश्चत्वार औधिकाः समारताः। 'कण्हलेस्स सम्मदिहिरासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति' कृष्णलेश्य सम्यग्दृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति पूर्ववदेव प्रश्नः । उत्तरमाह-पूर्वातिदेशेन 'एएवि' इत्यादि, 'एएवि कण्हलेस सरिसा चत्तारि वि उद्देसगा कायया' एतेऽपि कृष्णलेश्य सदृशा एतच्छतकीय पञ्चमोद्देशकसहशा सेवं भंते ! सि' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैमा ही है । ४१ वे शतक में ये सम्यग्दृष्टि के चार औधिक
उद्देशक समाप्त हुए ॥४१, ८५-८८॥ 'कण्हलेस्स सम्मद्दिष्टि रासिजुम्म कडजुम्म नेरहयाणं भंते । को उववति' इत्यादि ।
टीकार्थ-'कण्हलेस्स सम्मद्दिष्टि रासिजुम्म कडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति' हे भदन्त | राशियुग्म में कृतयुग्म प्रमित कृष्णले. श्यावाले सम्यग्दृष्टि नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? पूर्वातिदेश द्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'एएवि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि वि उद्देसगा
'सेव भते ! सेव भते । त्ति' 8 लगवन् मा५ हैवानुप्रिये २ प्रभारी કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. આ રીતે સમ્યગ્દષ્ટિના ચાર ઔધિક ઉદ્દેશાઓ સમાપ્ત ૧૪૧-૮૫-૮૮
'कण्हलेस्स सम्मदिट्टी रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण भते । कओ उवज्जति
टीर्थ-'कण्हलेस सम्मदिट्ठी रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण माते ! को उवज्जति' भगवन राशियुभमां कृतयुग्म प्रमाण वेश्यावाणा सभ्यष्टि નરયિકે કયા વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૈરયિકેમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા તિર્યંચ નિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? પ્રશ્નનો ઉત્તર અતિદેશ દ્વારા આપતાં ગૌતમરામીને પ્રભુશ્રી ३३ छ -'एएवि कण्हलेससरिसा चत्तारि वि उदेसगा कायव्वा' हे गौतम !
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भगवती चत्वारोऽपि उदेशकाः कृतयुग्म इयोज द्वापरयुग्म कल्योज घटिताः कर्तव्या । 'एवं सम्माहिटिम वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायच्या' एवं सम्यग्रटिष्वपि राशियुग्म कृतयुग्मस्यै का, सम्यग्दृष्टिश्योजस्य द्वितीयः सम्यदृष्टि द्वापर युग्मस्य तृतीयः, सम्यग्दृष्टि कल योजस्य चतुर्थः, ते एते चत्वार उदेशका औधिकार ४, ततः कृष्णलेश्य सम्पदृष्ट युग्मादि घटितस्य चत्वारः । एवं नीललेश्य कायन्छा' हे गौतम ! इनके सम्बन्ध में भी कृष्णलेश्यावालों के जैसेइसी शतक के पांचवें उद्देशक के जैसे-चार उद्देशक-कृतयुग्म, ज्योज मापरयुग्म और कल्योज पद धटिन चार उद्देशक-यनालेना चाहिये। 'एवं सम्मदिद्विसु वि भवसिद्धिय सरिसा अट्टावीसंउद्देसगा कायव्या' इसी प्रकार से सम्घदृष्टियों के सम्बन्ध में भी भवसिद्धिक नैरयिकआदिकों के जैले अठाईस उद्देशक, धनालेना चाहिये । वे इस प्रकार से बनते हैं-राशियुग्म में कृतयुग्मप्रमित सम्यग्दृष्टि नैरयिकादिकों का प्रथम उद्देशक ज्योज राशिप्रमित सम्यग्दृष्टि नैरयिक आदिकों का द्वितीय उद्देशक, द्वापरयुग्म राशिपमित सम्यग्दृष्टि नैरयिकादिकोंका तृतीय उद्देशक ल्योजराशिप्रमित सम्यग्दृष्टि नैरकादिकोंका चतुर्थ उद्देशक ऐसे ये चार उद्देशक औधिक हैं । तथा-कृतयुग्मादिराशि: प्रमित कृष्णलेश्यावाले सम्पदृष्टि नैरयिकादिकों के चार उद्देशक, तथा આ રાશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ પ્રમાણ કુષ્ણુલેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરયિકના સંબંધમાં પણ કૃષ્ણલેશ્યાવાળાના કથન પ્રમાણે અર્થાત્ આ એકતાલીસમાં શતકના પાંચમા ઉદ્દેશાના કથન પ્રમાણે એટલે કે કૃતયુમ, ચોર, દ્વાપર युम्भ, सने यापयुत या२ देशा। मनावी देवा एवं सम्महिद्विसु वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उदेसगा कायव्वा' मा प्रभऐ सभ्यष्टि વાળાઓના ખૂન્યમાં પણ ભવસિદ્ધિક નૈરયિકના કથન પ્રમાણે અઠયાવીસ ઉદેશાઓ સમજી લેવા, તે આ પ્રમાણે બને છે રાશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ પ્રમાણ સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરયિકોના સમ્બન્ધમાં પહેલો ઉદેશો. ૧ જરાશિ પ્રમાણ સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરયિકોના સમ્બન્ધમાં બીજો ઉદેશ. ૨ દ્વાપરયુગ્મરાશિ પ્રમાણ સમ્યગ્દષ્ટિ નરયિકોના સંબંધમાં ત્રીજે ઉદ્દેશે. ૩ કજ રાશિપ્રમ ણ સમ્ય
ટિ નરયિકના સંબંધમાં ચોથે ઉદેશે. ૪ આ પ્રમાણે ચાર ઔવિક ઉદેશાઓ તથા કુતયુમ વિગેરે રાશિપ્રમાણ કુષ્ણુલેહ્યા ળા સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરયિકના સંબંધમાં ચાર ઉદ્દેશાઓ તથા કૃતયુમ વિગેરે રાશિપ્રમાણ નીલલેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરયિકના સંબંધમાં ચા૨ ઉદ્દેશાઓ તથા કૃતયુગ્મ વિગેરે રાશિ પ્રમાણે તેજલેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નરયિકોના સંબંધમાં ચાર
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अमेयचम्किा टीका श०४१ १,६९-११२ कृ. स राशि, क. नैरयिकोत्पातः ७६१ कापोतलेइय तेजोलेश्य पद्गलेश्य शुरुजलेश्यानां प्रत्येशस्य चत्वार चत्वार उहे. शका स्तदेवं सर्व संडालनया अष्टाविंशतिरुदेशका भवन्ति, इति । 'सेवं अंते ! सेव' भंते ! त्ति' जाब विहरइ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ।
'एकचत्वारिंशत्तमे शतके ८९-११२ उद्देशकाः समाप्ताः ।। कृतयुग्मादिराशिमित्त नीललेश्यावाले सम्पष्टि नैयिकादिलों के पार उद्देशक, तथा कृतयुग्मादिराशिमित कापोतोपाबाले सम्पष्टि नैरयिकादिकों के चार उद्देशक तथा कृतयुग्मादि राशिप्रमित तेजो लेश्यावाले सम्यग्दृष्टि असुरकुमारादिकों के चार उद्देशक, तथा कृतयुग्मादिगशिप्रमित पालेश्यावाले सम्यग्दृष्टि तिर्यपंचेन्द्रिय आदिकों के चार उद्देशक और कृतयुग्मादिशशिप्रमिता शुक्ललेश्याचाले सम्पष्टि तिर्यक्रपंचेन्द्रिय आदिकों के चार उदेशक इस प्रकार ६ लेश्या सम्बन्धी २४ उद्देशक ये हैं सष कुल मिलाकर यहां २८ उद्देशक होते हैं । सेव भते ! सेव भंते ! ति जाब विहरह' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है यह सब सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये॥
__ शतक ४१ उद्देशक ८९से ११२ तक समाप्त हुए ॥ ઉદ્દેશાઓ તથા કૃતયુગ્મ વિગેરે રાશિ પ્રમાણ પમલેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નચિકેના સ બ ધમાં ચાર ઉદેશાઓ તથા કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ શુકલેશ્યાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ નૈયિકના સંબંધમાં ચાર ઉદેશાઓ આ રીતે છે વેશ્યાસંબંધી ૨૪ ચોવીસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે. અને બધા મળીને અહિયાં ૨૮ અઠયાવીસ ઉદેશાઓ થાય છે.
'सेव' भंते । सेव भंते ! त्ति जाव विहरई' 3 ससपन् माय देवानुप्रिये આ વિષયમાં જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. હે ભગવદ્ આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદન કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નસરકાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧ નેવ્યાસીમ ઉદ્દેશાથી ૧૧૨ એકસોલાર સુધીના વીસ ઉદેશાઓ સમાપ્ત
૪૧-૮૯ થી ૧૧૨ भ० ९६
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भगवती ॥ अह ११३-१४० उद्देसगा ।। मूलम्--मिच्छादिट्रि रासिजुम्म कडजुम्स नेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं एस्थ वि मिच्छादिट्रि अभिलावेणं अअवसिद्धिय लरिला अट्ठावीलं उद्देसगा कायव्या। सेवं भंते! से भंते! ति ॥
॥११३-१४० उहेसगा समत्ता।। ___ छाया-मिथ्यादृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? एवमत्रापि मिथ्यादृष्टयभिला पेनाभवसिद्धिकसदृशा अष्टाविंशतिरुद्देशका कर्तव्याः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
११३-१४० उद्देशका समाप्ताः॥ टीका-मिच्छादिद्विरासिजुम्म कड जुम्म नेरइयाणं भंते ! को उवदज्जति' मिथ्याप्टि राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिका : खलु भदन्त ! कुत उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्यो यावदेवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति पूर्व वदेव प्रश्नः । उत्तरयत्यतिदेशद्वारेण-'एव' इत्यादि, एवं एस्थ वि मिच्छादिष्टि अभिलावेणं अभवसिद्धिय
॥शतक ४१ उद्देशक ११३-१४०॥ 'मिच्छादिहिरासिजुम्म कड जुम्मनेरयाणं भंते! को उदय जंति' इत्यादि। ___टीकार्थ-मिच्छादिष्टिसिजुम्न कडजुम्मनेरयाणं भंते ! कोउववज्जति हे भदन्त ! राशियुग्म में कृतयुग्वराशिप्रमित मिथ्यादृष्टि नैरयिक किस स्थानविशेष ले आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा धावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अतिदेशाद्वारा उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतय से कहते हैं-'एवं एत्थ वि
એકતરમા ઉદ્દેશાથી એકસચાળીસ સુધીના ઉદેશાઓનું કથન 'मिच्छादिवि रासिजुम्म कडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति' त्या
--'मिच्छादिति रासिजुम्मकडजुम्म नेरइयाण भंते ! कओ उववति' હે ભગવદ્ રાશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ ૨ શિપ્રમાણુ મિથ્યાષ્ટિ નરયિકે ક્યા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નરયિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યચનિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુવ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા જેમાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અતિદેશ દ્વારા આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં ભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે.
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प्रमियबादका टीका श०४१ उ.११३-१४० मि. राशियुग्म कृ. नैरयिकोत्पातः ७६३ सरिसा अट्टावीसं उद्देसगा कायना' एवं पूर्ववदेवत्रापि मिश्रादृष्टयमिलापेना भवसिद्धिक सदृशा अष्टाविंशतिरुद्देशकाः कर्तव्याः, यथाऽभवसिद्धिकपकरणे अष्टाविंशविरुद्देशकाः कविता स्तेनैव रूपेण औधिकोदेशकस्तथा पड्लेश्यान्ती. वेण पडद्देशका मिलित्वा सप्तोद्देशकाः सर्वत्र कृतयुग्मादिचतुर्विधयुग्मानु प्रवेशेना. ष्टाविंशतिरुदेशका वक्तव्याः, पूर्व यत्रामवसिद्धिकपदं दत्तं तत्र प्रकृते मिथ्यादृष्टिपदं देयम् । 'सेवं भते । सेत्र भते । त्ति' तदेव भदन्त तदेव भदन्त इति ।
११३-१४० उद्देशकाः समाप्ताः ॥ मिच्छादिट्ठि अभिलावेणं अभवसिद्धियसरिसा अट्टवीसं उद्देसगा कायव्वा' हे गौतम ! इनके सम्बन्ध में भी मिथ्यावृष्टि पद के उच्चारण से अभवसिद्धिक नैरथिकादिकों के जैसे २८ उद्देशक चनालेना चाहिये । इनमें चार औधिक उद्देशक हैं। और ६ लेश्या लम्बन्धी २४ उद्देशक हैं। सब मिलकर २८ उद्देशक हो जाते हैं । इनके बनाने की विधि ऊपर प्रकट की जा चुकी है। इस प्रकार पहिले जहां भवसिद्धिक पदका प्रयोग किया गया है वहां वहां प्रकृत में मिथ्यादृष्टि पदका प्रयोग करना चाहिये । 'सेव भते । सेब मते !ति' हे भदन्त जैला आपने यह कहा है वह स्वध सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। इन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान
छे है-'एवं एस्थवि मिच्छादिट्ठि अभिलावेण अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देखगा कायव्वा' हे गौतम ! म सधमा ५ मिथ्याट से पहनाया२९ साथै અભવસિદ્ધિક નૈરયિકના કથન પ્રમાણેના ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈએ. આમાં પ. ૪ ચાર વિક ઉદ્દેશાઓ થાય છે. અને છ વેશ્યા સંબંધી ૨૪ ગ્રેવીસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે. એ રીતે બધા મળીને ૨૮ અઠયાવીસ ઉદેશાઓ થઈ જાય છે આ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ કહેવાની રીત ઉપર પહેલાં બતાવવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણેની સમજવી. આ રીતે પહેલાં જ્યાં અભવસિદ્ધિક એ પદને પ્રવેગ કરવામાં આવેલ છે. ત્યાં ત્યાં મિથ્યાદષ્ટિ પદને પ્રયાગ કરીને સઘળું કથન કહેવું જોઈએ.
'सेव भते । सेव भंते ! त्ति' डे मशवन् मा५ हेपानुप्रिये सा समयमा જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપે દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કઘન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી અને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમરકાર કરીને તે પછી
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भगवतीस
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_ 'अह १४१-१६८ उदेसमा । मूलम्-शाहपक्खिय राखिजुम्न कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! फओ उववज्जति एवं एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा । लेवं भंते! लेवं भंते ! त्ति।
॥१४१-१६८ उद्देसगा समत्ता॥ छाया--कृष्णपाक्षिक राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत उत्प. धन्ते एवमत्रापि अभवसिद्धिकसहशा अष्टाविंशतिरुदेशकाः समाप्ताः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति
॥१४१-१६८ उद्देशका समाप्ताः॥ टीका--'कण्हप क्विय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भने ! कओ उवव ज्जंति' कृष्णपाक्षिक राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुन उत्पधन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावदेवेभ्यो वा आगत्योत्पद्यन्ते इति पूर्ववदेव प्रश्ना, उत्तरमाह अतिदेशद्वारेण-'एवं' इत्यादि, 'एवं एत्थ वि अभवसिद्धियप्तरिसा पर विराजमान हो गये । शतक ४१ उद्देशक ११३-१४० समाप्त हुए ।
शतक ४१ उद्देशक १४१-१६८॥ 'कणहपक्खिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरयाणं भते ! को उववज्जति' टीकार्थ-'कण्हपक्खियरासिजुम्म कडजुम्म नेरझ्याणं भते! कओ जबवज्जेति' हे सदन्त ! राशियुग्म कृतयुग्मराशिपमित कृष्णपाक्षिक नैरयिक किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते है ? क्या वे नैरधिकों में से भाकरके उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अतिदेशद्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतम से कहते સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના રથાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦૧૫ એકોતેરમા ઉદેશાથી એ ચાળીસ સુધીના અઠવીસ ઉદેશાઓ સંપૂર્ણ
॥४१-११३-थी १४०॥ એકએકતાળીસમા ઉદ્દેશથી એકસે અડસઠ સુધીના અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓનું કથન प्रारम-'कण्हपक्खिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाण भंवे ! को उबवज्जति' 8.
टी -कण्हपक्लिय राखिजुम्म कडजुम्मनेर इयाण भंते ! कओ उववज्जति' હે ભગવદ્ રશિયુગ્મમાં કૃતયુગ્મ રાશિ પ્રમાણ કૃષ્ણપક્ષવાળા નૈરયિકે કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નાવિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચનિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન થાય છે? અતિશ દ્વારા આ પ્રશ્નને ઉત્તર ગૌતમસ્વામીને આપતાં પ્રભુશ્રી
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प्रद्रिका टीका २०४१ उ. १४१-१६८ कृ राशियुग्म कृ. नैरयिकोत्पातः ७६५ अट्ठावीलं उदेसमा कायन्ना' एवम् पूर्वः देशत्रापि कृष्णपाक्षिक प्रकरणेऽपि अभवसिद्धिकत्रदेव । ष्टाविंशतिरु देशकाः कर्त्तव्याः, यथा - अभवसिद्धिक प्रकरणेऽष्टाविंशतिरुदेशकाः कथिताः तथैवात्रापि तेनैव रूपेण अष्टाविंशतिरुद्देशकाः कर्त्तव्याः सेत्रं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त इति ।
'एकचत्वारिंशत्तमे शतके एकचत्वारिंशदधिकशततमादारभ्याष्ट पष्टयधिक शतपर्यन्ता - उद्देशकाः समाप्ताः ॥ १४१ - १६८ ।।
- हे गौतम! ' एवं एत्थ वि अभवसिद्धिय सरिता अट्ठावीस उद्देसगा काव्वा' पहिले के जैसे यहां पर भी - इस कृष्णपाक्षिक प्रकरण में भी- अभवसिदधिक नैरचिककादिकों के जैसे २८ उद्देशक बनालेना चाहिये । अतः अभवसिद्धिक प्रकरण में जैसे अट्ठाईस उद्देशक कहे गये हैं वैसे ही उद्देशक २८ यहां पर कर लेना चाहिये | 'सेव' भते ! सेव' भते ! न्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतमने प्रभुश्री को बन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । ॥१४१ से लेकर १६८ तक के उद्देशक ४१ वें शतक में समाप्त हुए ।
- 'एव एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देसगा कायव्वा' હે ગૌતમ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે અહિયાં પણ આ કૃષ્ણપાક્ષિકના પ્રકરણમાં પણ અભવસિદ્ધિક નૈયિકાના કથન પ્રમાણે અઠયાવીસ ૨૮ ઉદ્દેશાઓ બનાવીને કહેવા જોઈ એ. જેથી અભવસિદ્ધિક પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએ કહેવામાં આવ્યા છે, એજ પ્રમાણેના ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ અહિયાં પણ
वाले.
'सेव भंते ! सेव' भंते । त्ति' हे भगवन् या विषयभां साथ देवानुप्रिये જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સ`થા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયે કહેલ સઘળું કથન સČથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. પ્રસૂ૦૧૫
એકસેસ એકતાળીસમા ઉદ્દેશાથી અકસેસ અડસઠ સુધીના અયાવીસ ઉદ્દેશાએ સમાપ્ત ૫૪૧-૧૪૧ થી ૧૬૮ના
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भगवतीसूत्र 'अह १६९-१९६ उद्देसगा' मूलम्-सुक्कपक्खिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति। एवं एए सव्वे वि छन्नउयं उद्देसगसयं भवंति रासिजुम्मसयं ॥४१-१९६॥
जाव सुक्कलेस्सा सुक्कपक्खिय रासिजुम्म कलिओगवेमाणिया जाव जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? णो इणटे समझे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति, भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयातीएवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं संते! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! सच्चेणंए समढे जे णं गम्भे वयह त्ति कटु अपूतिवयणा खलु अरिहंता भगवंतो समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तपला अप्पाणं भावमाणे विहरई ॥१६९-१९६॥ इगचत्तालीसइमं रासिजुम्मसयं समत्तं ॥४१॥ भगवई समत्ता।
छाया--शुक्लपाक्षिकराशियुग्म कृतयुग्मनैरयिकाः खल भदन्त ! कुत उत्पधन्ते ? एवमत्रापि भवसिदूधिक सहशा अष्टाविंशतिरुदेशका भवन्ति एवमेते सर्वेऽपि पण्णवतीकमुद्देशकशतं १९६ भवति राशियुग्मशवे ॥४१-१९६॥ ___ यावत् शुक्कलेश्याः शुक्लपाक्षिकराशियुग्म कल्योज वैमानिकाः यावत् यदि सक्रियाः तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? नायमर्थः समर्थः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं विकृत्व आदक्षिणपदक्षिणं करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादी-एवमेतद् भदन्त ! तथ्यमेतत् भदन्त ! अवितयमेतद् भदन्त ! अस. दिग्धमेतद भदन्त ! इच्छितमेतद् भदन्त.! प्रतीच्छितमेतद भदन्त ! इच्छितप्रतीच्छितमेन्द् भदन्त ! सत्यः खलु एषोऽर्थः यत् खलु यूयं वदथ इति कृत्वा
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referrer ०४१ उ. १६९ - १९६ शु. राशियुग्म कृ. नैरयिकोत्पातः ७६७ अपूतिवचनाः खलु अर्हन्तो भगवन्तः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमयित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ॥ ४१ ॥ एकचत्वारिंशत्तमं राशियुग्म शतं समाप्तम् ॥ ४१ ॥ भगवती माता
टीका - 'सुक्कपक्खिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते! कओ उववज्जंति' शुक्ळपाक्षिकराशियुग्म कृतयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त । कुत उत्पद्यन्ते किं नैरयिकेभ्य आगत्य यावद्देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति पूर्ववदेव प्रश्नः उत्तरमाह - इहापि पूर्वातिदेशेनैव ' एवं ' इत्यादि, 'एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा भावी उद्देगा भवंति एवं पूर्ववदेवात्रापि शुक्लपाक्षिकेऽपि भवसिदधिक सदृशा अष्टाविंशतिरुद्देशका भवन्ति चत्वार औधिकाः कृतयुग्मादि चतुष्टय घटिताः || शतक ४१ उद्देशक १६९ - १९६।।
'सुक्कपक्खिय रासिजुम्म कडजुम्म नेरइयाणं भंते ! कभी उवयज्जंति' इत्यादि ।
टीकार्थ - 'सुक्कपक्खिय राहिजुम्म कडजुम्मनेरइयाणं भंते ! कओ जयवज्जंति' राशियुग्म में कृनयुग्मराशिप्रमाण शुक्लपाक्षिक नैरfor हे भदन्त ! किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते है ? क्या वे नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् देवों में से आकरके उत्पन्न होते है ? इस प्रश्न का उत्तर भी पूर्वातिदेशद्वारा देते हुए भगवान् गौतमस्वामी से कहते हैं - ' एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देगा भवंति' हे गौतम! पूर्व के जैसे यहां शुक्लपाक्षिक के सम्बन्ध में भी भवसिद्धिक नैरविकादिकों के प्रकरण के जैसे २८ उद्देशक होते हैं । इन એકસે એગણસિત્તરમા ઉદ્દેશાથી એકસેા છન્તુ સુધીના ઉદ્દેશાઓનું કથન 'सुकपक्खिय राखिजुम्म कडजुम्न नेरइयाणं भवे ! कओ उववज्जति' छत्याहि
टीअर्थ - 'सुक्क पक्खिय रासिजुम्मकडजुम्म नेग्इयाणं भते ! कओ उववज्जति' રાશિયુગ્મમાં મૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ શુકલપાક્ષિકના નૈરયિકા હે ભગવન્ કયા સ્થાન વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? શું તેએ નાયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ચચ્ચે નિામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુ ચૈામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા દેવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય हे ? या प्रश्न उत्तर अतिदेश द्वारा आयतां प्रभुश्री - ' एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देगा भवति' हे गौतम भवसिद्धिहीना *ન પ્રમ ણે. અહિયાં શુકલપાક્ષિકના સંબંધમા પશુ ૨૮ અઠ્યાવીસ ઉદ્દેશાએ
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भगवती
पहलेश्या घटना शितिरित्येश्मष्टाविंशतिकदेशका यवन्ति, 'एवं एए सब्वे वि छनउयं उद्देस्यं भवंति रासिजुम्मसर' अष्टाविंशतिरोधिकाः, अष्टाविंशतिअवसिद्धिकस्य, अष्टाविशत्य नवसिधिकस्य सम्यग्टष्टि मिध्यादृष्टि कृष्णपाक्षिक शुपाक्षिका सर्वसङ्कलनया एवमेते एवेंऽपि षण्णव विकमुपेशकशतं भवति राशियुग्मशते राशियुग्मशव के एकचत्वारिं 'जसमे सर्वेऽपि उद्देशाः पणवत्युत्तरशतभमाणा भवन्तीत्यर्थः । ' जाच सुकलेस्सा सुक्कपक्खियरा सिजुम्म कलियोगमें कृतयुग्मादि चार पद घटित प्यार तो अधिक उद्देशक हैं और कृष्णश्यादि ६ लेइयाओं के ४-४ उद्देशक हैं । इस प्रकार सच २४ उद्देशक हो जाते हैं । 'एवं एए सच्चे वि छन्नवयं उद्देसगसगं भवति रासिजुम्मसए' इस प्रकार से इस राशियुग्म शतक में समस्त उद्देशक १९६ हो जाते हैं । इनमें २८ औधिक उद्देशक हैं । भवसिद्धिक नैरयिकों के २८ उद्देशक हैं | अभवसिद्विनैरयिकों के २८ उद्देशक है । सम्यग्दृष्टि नैरयिकों के २८ उद्देशक हैं । मिध्यादृष्टि नरयिकों के २८ उद्देशक है शुक्लपाक्षिक नैरयिकों के २८ उद्देशक हैं । और कृष्णपाक्षिक नैरयिकों के २८ उद्देशक हैं। सब मिलकर ये इल राशियुग्म शतक से १९६ उद्देशक हैं ।
'जाब सुक्कलेस्सा सुक्कपक्खिय रासिजुम्म कलिओग वेमानिया' हे भदन्त ! यावत् राशियुग्म में फल्योज राशिनित शुक्ललेश्या થાય છે, તેમાં કૃતયુગ્મ વિગેરે ચાર પદો યુકત ચાર ઉદ્દેશા ઔઘિક ઉદ્દે શાએ થાય છે, અને કૃષ્ણુલેશ્યા વિગેરે છ લેસ્યાએાના ચાર-ચાર ઉદ્દેશાઓ थाय छे. गधा भजीने मध्यावीय उद्देशाओ था लय है. 'एवं एए सव्वे वि छन्नउयं' उद्देगस्वयं भवंति गसिजुम्मसए' मा रीते मा राशियुग्म शतम्भां બધા મળીને એકસેછન્નુ ઉદ્દેશાઓ થાય છે તેમાં ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએ છે, ભવસિદ્ધિક નૈરયિકાના ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ છે. અભવસિદ્ધિક નૈરયિકાના સંબંધમાં ૨૮ અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએ થાય છે. સમ્યગ્દષ્ટિ નૈરિયેકાના સમધમાં ઠેય વીસ ઉદ્દેશાએ થાય છે. મિથ્યાર્દષ્ટિ રરિયકાના સ ધમાં અઠયાવીસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે. શુલપાક્ષિક નૈયિકાના સંબધમાં અઠયાવીસ ઉદ્દેશાએ થાય છે અને કૃષ્ણપાક્ષિક નૈરયિકાના સમધમાં અયાવીસ ઉદ્દેશાએ થાય છે. આ મધા મળીને આ રાશિયુગ્મ શતકમાં ૧૯૬ એકસેાછન્નુ ઉદ્દેશાઓ થાય છે.
'जाव सुक्कलेस्सा सुक्कपक्लिय राखिजुग्म कलियोग वेमाणिया' हे लगन થાવત્ રાશિયુગ્મમાં કલ્યાજ રાશિપ્રમાણ શુકલલેશ્યાવાળા શુકલપાક્ષિક નૈયિક
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प्रterfer टीका श०४१ उ. १६९.१९६ शु. शु. रा. कलियो० सिद्धत्वम् ७६९ वैमाणिया' यावच्छुक्ललेश्या शुक्ळपाक्षिक राशियुग्म कल्पोज वैमानिकाः याव "स्पदेन कृष्णलेश्य नीललेश्य कापोतवेश्य तेजोलेश्य पदूमलेश्य शुक्लपाक्षिक कृतयुग्मतं आरभ्य शुक्लपाक्षिक राशियुग्म कल्योज वैमानिकान्तानां पूर्ववर्त्तिनां संग्रदो भवति इति । 'जाव जड़ सकिरिका तेणेत्र भवग्गणेणं सिज्यंति - जाव अंत करे वि' - यावत् यदि सक्रिया स्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? अत्र प्रथम 'यावत्पदेन प्रथमोदेशकीय : 'यदि सक्रिया' एतत्पूर्वतन संपूर्णस्य प्रकरणस्य संग्रहो भवति । द्वितीय यावत्पदेन बुद्धयन्ति मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखाना मित्यस्य ग्रहणं भवतीति सक्रियाः सर्वे तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्तीत्यादि प्रश्नः, उत्तरमाह
!
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वाले शुक्लपाक्षिक वैमानिक 'जाव जइ सकिरिया' यावत् यदि वे 'सक्रिय है' तो क्या 'तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति' उसी भव से सिद्ध होते हैं ' 'जाव अंतं करेति' यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं? यहां प्रथम यावत्पद से ऐसा पाठ गृहीत हुआ है कि राशियुग्म में कृष्णलेश्यावाले, नीललेइवावाले, कापोतलेइयावाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मश्यावाले कृतयुग्म राशिप्रमाण प्रमित, ज्पोजराशि प्रमाण प्रमित, द्वापरयुग्मराशिप्रमाण प्रमित एवं कल्पोज राशिपमाण प्रमित शुक्ल पाक्षिक तक के वैमानिकदेव हैं वे क्या उसी भव ग्रहण से सिद्ध होते हैं - यावत्- बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वात होते हैं और सर्व दुःखोंका अन्त करते हैं ? 'जाब जइ सकिरिया' इस पाठ में जो यावत्पद आया है उससे सक्रियपद के पूर्व में आगत जो पाठ है वह सब गृहीत हुआ है । यह पाठ इसी शतक के प्रथम उद्देशक में आ चुका है । इस
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'जाव जइ सकिरिया' यावत् ले तेथे डिया सहित होय तो शु 'वेणेव भवग्गहणेणं सिल्झ ति' शेन लवमां सिद्ध थाय छे ? 'जाब अंत' करे'ति' यावत् સમસ્ત દુઃખાને! અત કરશે ? અહિયાં પહેલા ચાવપદથી એવે પાઠ ગ્રહણ કરાયેા છે કે-રાશિયુગ્મમાં કૃષ્ણવેશ્યાવાળા નીલલેશ્યાવાળા કાપે તલેશ્યાવાળા તેોલેશ્યાવાળા, પદ્મલેશ્યાવાળા જે કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ પ્રમિત, ચૈાજ રાશિ પ્રમાણુવાળા, દ્વાપરયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા. અને કલ્યાજ રાશિપ્રમાણુવાળા, શુકલપાક્ષિક સુધીના વૈમાનિક દેવા છે, તેએ શું એજ ભગ્રહણુથી સિદ્ધ થઈ જાય છે? યાવત યુદ્ધ થાય છે? મુકત થાય છે ? પરિનિર્વાંત થાય છે? अने सर्व हु.जोनो मत रे छे ? 'जात्र जइ सकिरिया' मा पाठयां યાવપદ આવેલ છે, તેનાથી સક્રિય એ પદની પહેલાં જે પાઠ આવેલ છે, તે સઘળેા પાઠ ગ્રહણ કરાયેા છે, આ પાઠ આ શતકના પહેલા ઉદ્દેશ મા
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भगवतीस्
'सम' नायमर्थः समर्थः देवा एते तेनैव भवग्रहणेन न सिद्धयन्ति देवानी सिमावादिति भावः | 'सेव' भंते! सेव' भते । त्ति' तदेव' भदन्त ! तदेवं मंद| इति कथयित्वा 'भाव' गोयमे' भगवान् गौतमः 'समणं भगवं महावीर तं महावीरम् 'विक्खुतो आयाहिणं पयाहिण करेड' त्रिकृत्वः -त्रिवा
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७७०
श्रम
- श्यू आदक्षिणं प्रदक्षिणं करोति, 'करेत्ती' कृत्वा 'चदइ नमसह' वन्दते नमस्यति' after नमखिया' चन्दित्वा नमस्थित्वा 'एव' क्यासी' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अनादीद - 'एवमेयं भंते' एवद् मदन्त । यद् देवानुमियेण कथितं तत् एवमेव 'सहमेयं भंते ।' तथ्यं - सत्यमेतद् भदन्त ! 'अवितह मेयं भंते!" अवितथमेतद् भदन्त !
प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'णो इण्डे समट्टे' हे गौतम! यह अर्थ समर्थित नहीं हुआ है। क्योंकि जो देव होते हैं वे इसी भवग्रहण से सिद्ध नहीं होते हैं देवों के सिद्धि का अभाव रहता है | 'सेवं भंते! सेव ते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ | इस प्रकार कहकर 'भगवं गोयमे' भगवान् गौतमने 'समणं भवं महावीरं' श्रमण भगवान् महावीरको 'तिक्खुत्तो आग्राहिणं पयारिणं करेह' तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण किया । 'करेत्ता वंदह, नमसई' आदक्षिण प्रदक्षिण करके बन्दना की, नमस्कार किया । ' वंदित्ता नमसित्ता' चन्दना नमस्कार कर फिर उन्होंने प्रभुश्री से 'एवं व्यासी' ऐसा कहा 'एकमेयं भते ! तहसेयं भंते ! 'अवितह मेयं भरते ! असंदिद्धमेयं भते ! इच्छियमेयं भते ! पडिच्छिवमेयं भते ! 'हे भदन्त ! जैसा
आवेल छे, आ प्रश्नना उत्तरसां प्रभुश्री गौतमस्वामीने उडे हे हे–'णो इण्ट्टे समट्टे' हे गौतम! या अर्थ अशभर नथी. भ ई - सडिय होय छे, तेथे આજ ભવગ્રહણથી સિદ્ધ થતા નથી સક્રિયાને સિદ્ધિની પ્રાપ્તિના અભાવ રહે છે. सेव भ'ते ! सेव भ'ते ! त्ति' लगवन् याय हेवानुप्रिये ने प्रभा उथन કરેલ છે, તે સઘળું કથન સČથા સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનું संघणुं स्थन सर्वथा सत्य ४ है सा प्रमाये अहीने 'भगव' गोयमे' भगवान् गौतमस्वामी 'खमण भगवं महावीर' श्रम लगवान महावीरने ' तिक्खुतो आवादिण ं पयाहिण' करेइ' युवार माक्षिषु प्रक्षिष्या उरी 'करेत्ता वंदइ नमस' क्षिरीने वधना री नमस्कार अर्या. 'वंदित्ता नमखित्ता' बना नमस्कार ४रीने तेथे।ये अलुश्रीने 'पवं' वयासी' मा प्रभा' 'एवमेय' अंते तइमेय भंते ! अवितहमेय भते ! असंदिद्धमेय' भते ! इच्छियमेय भंते! पडि च्छियमेय भ'ते !' हे भगवन आय हेवानुप्रिये के प्रभात हे, ते सधणु उथन
दक्षिय
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१६९-१९६ शु. शु. रा. कलियो सिद्धत्वम् ७७१ हे भदन्त! अवितथं सर्वथैव सत्यमित्यर्थः 'असंदिद्ध मेयं भंते !' असंदिग्धम्सन्देहरहितं यथा भवेत्तथा एतत् 'इच्छियसेयं भंते !' इच्छितम् अभिलापाविषयीभूतम् एतद् भवदुक्तम् 'पडिच्छियमेयं भंते' प्रतीच्छितं यकगाभिलपितमेतत् । 'इच्छियपडिच्छियमेयं भते' इच्छित प्रतीच्छितमेतत् भदन्त ! 'सच्चेणं एसमडे' हे भदन्त ! देवानुपियेण कथित एपः खलु अर्थः सर्वथैव सत्यः । 'जण्णं तुम्भे वदह' यत् खल्ल यूयं वदथ त्ति कटु' इति कृत्वा-कथयित्वा, इत्यर्थः, 'अपूतिवयणा खलु अरिहंता भगवंतो' अपूति वचनाः खलु अर्हन्तो भगवन्तः । पूतिदोषः सगतो यस्य वचनार इत्थं भूना स्तीर्थकरा भवन्ति, एतादता वचनातिशयत्वं वोधितम्' एवं कथनानन्तरं भगवान् गौतमः 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ' श्रमणं भगवन्तं महावीरं बन्दते नमस्वति 'बंदित्ता नमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा 'संजमेण तपसा अप्याणं भावे पाणे विहरइ', संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति । इति श्री-विश्वविख्यातजावल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचितायां श्री भगवतीमत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यानां व्याख्यायां राशियुग्मशतमेकचत्वारिंशत्तमं शतं समाप्तम् ॥४१॥
॥ भगवती समाप्ता ॥ आप देवानुप्रियने कहा है वह ऐसा ही है । 'तहमेयं भंते 'हे भदन्त ! यह सर्वथा सत्य ही है । हे भदन्त ! यह असंदिग्ध ही है हे भदन्त ! यह मुझे इष्ट है । हे भदन्त ! यह मुझे स्वीकृत है। 'इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !' हे भदन्त । यह सुझे ईच्छित प्रतीच्छित है। 'सच्चेणं एसमजणं तुम्भ वदह' हे भदन्त ! जो आप देवानुप्रियने कहा है ऐला यह अर्थ सर्वथा लत्य ही है 'त्ति कटु' ऐसा कहकर गौतमने 'अपूति वयणा खलु अरिहना' अर्हन्त भावन्त निर्दोष वचनवाले होते हैं इस लिये 'समणं भगवं महावीरं वंदह नमलई' श्रमण भगवान महावीर को तम छे. 'तहमेय भते !' हे मन त सपा सत्य ४ छे , मन मा કથન અસંદિગ્ધ જ છે. સંદેહ વગરનું છે. હે ભગવન તે મને ઈષ્ટ છે કે ભગવદ્ ते ४थन भने स्वीय छे. 'इच्छियपडिच्छियमेय भवे !' उससपनले भने छित प्रतिशत छ. 'सच्चेणं एसमट्टे तुम्भे वदह' 3 मगन माप देवानुप्रिये २ ४स छ, त म छ, अर्थात् सर्वथा सत्य ०१ छ. तिकदृद्ध'
मा प्रमाणे ही गौतमामी 'अपूतिबयणा खलु अरिहंता' मत लगवान निषि क्यनाय छ, तथा 'समण भगव महावीर वंदइ नमस'
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भगवतीने चन्दना की नमस्कार किया। विदित्ता नमसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर' बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से मात्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ . जैनाचार्य जनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके एकतालीसवां
राशियुग्म शतक समाप्त ॥४१॥
॥ भगवतीसूत्र का अनुवाद समाप्त हुआ। श्रम सावन महावीर ने नारी नभ२४.२ ४ा वंदित्ता नमंमित्ता' ना नमः४.२ ४शन संजमेणं तवसा अप्पाणभावे माणे विहरई' संयम अने तथा પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના એકતાળીસમું રાશિંયુમ શતક સમાપ્ત કલા
ભગવતી સૂત્રને અનુવાદ સમાપ્તા
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प्रमेयचन्द्रिका टीका भगवतीसूत्रस्य शतकानामुद्देशकानां परिमाणम् ७३.
अथ शास्त्रप्रशस्ति मरूपयन् पूर्व शाखस्य शतकानामुद्देशकानां च परिमाणमाह-'सब्ब.ए' इत्यादि,
मूळम्-सव्वाए भगवईए अट्रतीसं सतं स्याणं १३८ उद्देसगाणं एगूणवीसई पंचवीसाइं सयाई १९२५॥ . छाया-सर्वस्या भगवत्या अष्टत्रिंशं शतं शतानाम् उदेशकानाम् एकोनविंशतिः पञ्चविंशानि शतानि १९२५॥ । ____टीका-'सवाए भगवईए' सर्वस्या भगवत्याः सर्वस्य भगवतीसूत्रस्य 'अट्ठः तीस सयं सयाणं' शतानां शतकानाम् अष्टत्रिंशम्-अष्टत्रिंशदधिकं शतं १३८ भवति । अत्र भगवत्यामष्टात्रिंशदधिक शतसंख्यकानि १३८ शतकानि सन्तीति । तथाहि-प्रथमादारभ्य द्वात्रिंशत्यन्तानि शतकानि अवान्तरशतकरहितानि ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमशतज्ञादारभ्य एकोनचत्वारिंशत्तमशतकं यावत् सप्तसु शतकेषु भतिशतकं , द्वादश द्वादश अवान्तर शतकानीति चतुरशीतिः शतकानि ८४ । चत्वारिंशत्तमशतके एकविंशतिः शतकानि २१, एकचत्वारिंशत्तमे __शास्त्र प्रशस्ति की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार पहिले इस शास्त्र के शतकों का परिमाण प्रकट करते हैं--
'सव्वाए भगवईए अतीसं सतं सयाणं उद्देसगाणं एगूणवीसई पंचवीसाई सयाई' इस समस्त भगवती शास्त्र के १३८ शतक हैं। इनकी गणना इस प्रकार से है-प्रथम शतक से लेकर ३२ वें शतक तक अवान्तर शतक नहीं हैं। ३३ वे शतक से लेकर ३९ वे शतक तक के ७ शतको में १२-१२ अवान्तर शतक हैं। इस प्रकार ८४ शतक है। ४० वे शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। ४१ वे शतक में अवान्तर
શાસ્ત્ર પ્રશસ્તિ શાસ્ત્ર પ્રશસ્તિની પ્રરૂપણ કરતાં સૂત્રકાર સૌથી પહેલાં શાસ્ત્રના શતકે भने देशासाना प्रभाए थन प्रगट : छे.-'सव्वाए भगवईए अद्वतीस सत सयाण, उद्देसगाणं एगूणवीसई पंचवीसाइं सयाइ' मा सा लगता સૂત્રના ૧૩૮ એકસેઆડત્રીસ શતકે કહ્યા છે તેની ગણત્રી આ પ્રમાણે છે. પહેલા શતકથી આભને બત્રીસમા શતક સુધીમાં અવાનાર શતકે આવતા નથી ૩૨ બત્રીસમા શતકથી ૩૯ ઓગણચાળીસમા શતક સુધી ૭ સાત શતકમાં ૧૨-૧૨ બાર બાર અવાન્તર શતકે આવે છે. આ રીતે ૮૪ ચોર્યાશી , રાતક થઈ જાય છે, ચાળીસમા શતકમાં ૨૧ એકવીસ અવતાન્તર શતકે કહા
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اقف
भगवतीस्त्र अतके तु अवान्तरशतकं नास्तीत्येवमेकमेव शतकम् १, तदेवं-३२-८४-२१ १ सर्वसंकलनया अष्टनिंशदधियायेकं शतं (१३८) शतकानां भवति । तथा'उद्देसगाणं' उद्देशकानास्-'एगणवीसई पंचवीसाई सयाई' पञ्चविंशत्यधिकानि एकोनविंशतिः शतानि १९२५ भवन्तीति ॥
____ अथोपसंहरन भगवतीसूत्रस्थितपदानां संख्यापतिपादिकां गाथामाह'चुलसीइ' इत्यादि। मूलम्-चुलसीइ सय सहस्सा, पयाण पवरवरनाणदंसीहिं।
भावाभावमणंता, पन्नत्ता एत्थ मंगंमि ॥१॥ छाया-चतुरशीति शतसहस्राणि, पदानां प्रवरवरज्ञानदर्शिभिः ।
भावाभावा अनन्ताः, प्रज्ञप्ता अनाके ॥१॥ टीका-'चुलसीइ सयसहस्सा पयाणं पवरवरणाणदं सीहि' चतुरशीति शत प्रवरवरज्ञानदर्शिभिः प्रज्ञप्तानि अस्मिन्-भगवस्याख्य पञ्चमाङ्गे पदानि चतुरशीति शतसहस्राणि विद्यन्ते इति पदानि विशिष्टसम्प्रदायगम्याणि मराणा वरं यज्ज्ञानं तेन ज्ञानेन पश्यन्तीति प्रवरवरज्ञानद शिन रतः के वलिभिरित्यर्थः शतक नहीं है। एक ही शतक हैं। इस प्रकार ३२-८४-२१ ये सब मिलकर १३८ शतक होते हैं। तथा उद्देशको की संख्या १९२५ है।
अथ भगवतीसूत्र स्थित पदों की संख्या प्रतिपादक गाथाका कथन सूत्रकार करते है--
'चुलसी सयसहस्सा पयाण पवरवरनाण दंसीहि।
भावाभाव मणंता पन्नत्ता एत्थ मंगंम्मि ॥१॥ इस भगवती नामके पंचम अङ्ग में पदों की संख्या केवली भग. वन्तोने ४४ लाख कही है। यह पदों की संख्या विशिष्ट संप्रदाय गम्य છે. તથા ૪૧ એક્તાળીસમા શતકમાં અવાન્તર શતક થતા નથી. એક જ શતક છે. આ રીતે ૩૨-૮૪–૨૧–૧ આ બધા મળીને કુલ ૧૩૮ એકને આડત્રીસ શતકે થઈ જાય છે. તથા ઉદેશાઓની સંખ્યા કુલ ૧૨૫ એક હજાર નવસો પચીસની કહેલ છે.
* હવે ભગવતી સૂત્રમાં કહેલ પદોની સંખ્યાનું પ્રતિપાદન કરનાર ગાથાનું सूत्रा२ ४थन २ छे.----
'चुलसीई सयसहस्सा पयाण पवरवरनाणदंतीहि ।
भावाभावमणंता पन्नत्ता एस्थ मगंमि ॥१॥ આ ભગવતી સૂત્ર નામના પાંચમા અંગમાં પદેની સંખ્યા કેવલી ભગવાનેએ ૮૪ ચોર્યાશીલાખ કહેલ છે. આ પદે ની સંખ્યા વિશેષ સંપ્ર
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hear that भगवतीसूत्रस्य उपदेश प्रकारकथनम्
tre
'मज्ञप्तानीति योगः । इदमतेस्य सूत्रस्य पदपरिमाणं कथितम् अथार्थ स्वरूपमाह - ''भावाभावमणंता' भावाः जीवादयः पदार्थाः अभावाय ते एव जीवदयः अन्या- पेक्षया इति भावाभावाः, अथवा भारा विधयः अभावा निषेधा इति भावाभावाः ते च भावाभावाः अनन्ताः 'एत्थ मंगंमि अत्र अस्मिन् भगवतीनामके पश्चमा "अथवा भावाभावः विषय भूतैरनन्तानि इति भावानन्तानि चतुरशीति शतसहस्राणि पदानि मतप्तानीति गाथार्थः ॥१॥
मूलम् - पण्णत्तीए आइनाणं अट्टहं सयाणं दो दो उद्देसगा - उद्दिसिज्जति । णवरं उत्थे सए पढमदिवसे अठ्ठ, वितियदिवसे दो उद्देगा उद्दिसिज्जति । णवमाओ सयाओ आर जावइयं जावइयं पवेइ तावइयं तावइयं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ, उक्को सेणं सयं पि एगदिवसेणं, मज्झिमेणं दोहिं दिवसेहिं सयं, एवं जाव वीसइमं सयं, नवरं गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ । जइ ठिओ एगेण चैव आयंविलेणं अणुन्नच्चइ । अहणं ठिओ आयंविलेणं छणं अणुपणच्चइ | एकवीसबावीस तेवीलाई सयाई एकेक दिवसेणं उद्दिसिज्जेति । उdesi सयं दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देगा। पंचवीसइमं दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देगा । वंधिसयाई असयाई एगेणं दिवसेणं, सेढिसयाई वारस एगेणं, एगिंदिय महाजुम्मसयाई वारस एगेणं । एवं वेंदियाणं बारस, लेइंदियाणं वारस, चाउरिंदियाणं
। तथा भगवती सूत्र में जीवादिरूप भावपदार्थ एवं अन्य की अपेक्षा 'से अभाव रूप वे ही जीपादिरूप अभाव पदार्थ अथवा भाव -1 -विधि और 'अभाव- निषेध रूप भावाभाव अनन्त कहे है । अथवा विषयभूत भावाभावों से अनन्त चौरासी लाख पद कहे गये है । ऐसा यह गाधार्थ है । દાયથી જાણી શકાય છે. તથા આ ભગવતી સૂત્રમાં જીવાદિરૂપ ભાવ પદાથ અથવા ભાવ વિધિ અને અભાવ નિષેધરૂપ ભાવાભાવ અનન્ત કહેલ છે. અથવા વિષયરૂપ ભાવાભાવેાથી અનંત ચોર્યાશીલાખપદે કહેવામાં આવેલ છે, આ પ્રમાણે આ ગાયાના અથ થાય છે.
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भगवतीने पारस एगे वा। असन्नि पंचिंदियमहाजुम्मसयाई एकवीस एगदिवलेणं उदिसिजति।रासिजुम्मसयं एगदिवसेणं उदिसिजइ।
छाया-पज्ञप्त्याम् आदिमानाम् अष्टानां शतकानां द्वौ द्वौ उद्देशकौ च उधिइयेते, नवरं चतुर्थे शतके प्रथमदिसे अष्ट. द्वितीय दिवसे द्वौ च उद्दिश्यन्ते । नवमात् शतकात् आरब्धं यावत्कं यावत्कं भवेयने तावत्कं तावत्कम् एकदिवसेन उदिश्यते, उत्कर्षण शतकमपि एकदिवसेन, मध्यमेन द्वाभ्यां दिवसाभ्यां शतकम् एवं यावत् विंशतितमं शतकम्, नवरं गोशालम् (अध्ययनम्) एकदिवसेन उद्दिश्यते यदि स्थितः एकेनैव आचामाम्लेन अनुज्ञाप्यते । अथ खल स्थितः आचामाम्छेन पष्ठेनं अनुमाप्यते एकविंशद्वाविंशत्रयोविंशतितमानि शतकानि एकैकदिवसेन श्रेणिशतकानि द्वादश एकेन एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानि द्वादश एकेन । एवं द्वीन्द्रियाणां द्वादश, त्रीन्द्रियाणां द्वादश, चतुरिन्द्रियाणां द्वादश एकेन । असंशिपञ्चेन्द्रियाणां द्वादश, संझि पञ्चेन्द्रियमहायुग्म अतकानि एकविंशतिः एकदिवसेन उद्दिश्यन्ते । राशियुग्मशतकम् एकदिवसेन उद्दिश्यन्ते ॥ ' टीका-कस्मिन् दिने कति उद्देशका उद्देश्यन्ते इत्याह-पन्नत्तीए' प्रज्ञप्त्याम् 'आइमाणं अट्ठण्हं सयाणे' आधानामष्टानां शतानाम् 'दो दो उद्देसगा उदिसिज्जंति द्वौ द्वौ उद्देशकौ उद्दिश्यन्ते 'नवरं चउत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ' नवरं विशेपस्त्वयं "चतुर्थे शतके प्रथमदिवले अष्ट उद्देशका उद्दिश्यन्ते तथा वितीयदिवसे दो उद्देसगा उदि सज्जति' द्वितीय दिवसे द्वौ उद्देशकौ उद्दिश्यते 'नवमायो सयाओ आरद्धं' 'पण्णत्तीए आइमाण अट्टण्हं सयाणं दो दो उद्देसगा उद्दिसिज्जति' इ.
टीकार्थ- एकदिन में कितने उद्देशक उपदिष्ट होते है इसके लिये कहा गया है कि प्रज्ञप्ति में आदि के आठ शतकों के दो दो उद्देशक एक .एकदिन में उपदिष्ट होते है। परन्तु 'चउत्थे सए पढमदिवसे अह' पहिले दिन चतुर्थ शतक के आठ उद्देशक और दूसरे दिन दो उद्देशक उपदिष्ट होते है । 'नवमाओं सयाओ आरद्धं जावइयं २ पवेइ तापझ्यं २ एग
'पण्णत्तीए आइमाणं अठण्ह सयाण' दो दो उदेसगा उदिमिज्जति' ઈત્યાદિ સૂત્ર એકદિવસમાં કેટલા ઉદ્દેશાઓને ઉપદેશ કરી શકાય છે?
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં કહેલ છે કે–પ્રજ્ઞપ્તિમાં પહેલા આઠ શતકના બબ્બે - ઉદેશાઓ એક એક દિવસમાં ઉપદેશ આપી શકાય છે અર્થાત પહેલા આઠ શતના બળે ઉદ્દેશાઓનું કથન દરરોજ કરી શકાય छ. परत 'चउत्थे सए पढमदिवसे अटू' पडवा पिसे याथा शतना આઠ ઉદેશાઓ અને બીજા દિવસે બે ઉદેશાને ઉપદેશ આપી શકાય છે,
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प्रकिा टीका भगवती सूत्रस्य उपदेश प्रकारकथनन्
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नवमात् शतादारब्धम् ' जावtये जावइयं' यावतिकं यावतिकं पात्रत् 'प' प्रवेदयति-मवेदयति- शक्यते 'वावइयं तावइयं तावत्यमाणम् तावत्य माणम्' 'एगदिवसेणं' एकदिवसेन 'उद्दिसिज्नइ' उद्दिश्यते नवमशतादारस्य अग्रे यावत्प्रमाणं व्याख्यातुं शक्यते तावत्यमाणं यथेच्छं व्याख्यातव्यमि तिभावः । कियत्पर्यन्तं व्याख्यातव्यमित्याह- 'उकोसेणं सपि एगदिवसेणं' उत्कर्षेण परिपूर्ण शतमपि एकदिवसेन 'मज्झिमेणं' मध्ययेन मध्यमतया 'दोहिं दिवसेदिं सयं' द्वाभ्यां दिवसाभ्यां शतम् 'उद्दिसिज्ज' उद्दिश्यते ' जहन्नेणं 'तिहिं' दिवसेहिं सयं' जघन्येन त्रिभिर्दिवसैः शतकमुद्दिश्यते ' एवं जाव बीसह मं सयं' एवं यावद विंशतितमं शतकं विंशतितमशतक पर्यन्त मुद्दिश्यते 'नवरे' विशेष -. स्त्वयम् 'गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिज्ज' गोशालकशतं पञ्चदशम् एकदिवसेन उद्दिश्यते 'जड़ ठिओ' यदि स्थितः यदि गोशाळकाधिकारः स्थितः अवशिष्टो भवेदिवसेण उद्दिसिज्जह' तथा नौवें शतक से लेकर आगे जितना जितना एक दिन में कहा जा सके उतना उतना इच्छानुसार उपदिष्ट करना चाहिये - व्याख्यान में कहना चाहिये । इस प्रकार यदि एकदिन में भी उत्कृष्ट रूप से एन पूरा शतक व्याख्यात उपदिष्ट हो सकता हो तो व्याख्यात कर देना चाहिये और मध्यम रूप से यदि वह दो दिन में उपदिष्ट हो सकता हो तो उसे दो दिन में भी उपदिष्ट कर देना चाहिए और जघन्य से उसे तीन दिन में भी उपदेश में कह देना चाहिये ' एवं जाव वीसहमं यं' ऐसा यह शतक के उपदिष्ट होने का कथन area शतक तक कहा गया जानना चाहिए । परन्तु 'गोसालो एगदिवसेणं उद्दिज्जिह, पन्द्रहवां जो गोशालक शतक है उसका तो
'माओ सयाओ आरद्धं जावइयं २ तावइयं २ एग दिवसेणं उद्दिसिज्जइ' तथा નવમા શતકથી લઈને આગળ જેટલા જેટલા ઉદેશાએ એક દિવસમાં કહી શકાય એટલા એટલા ઉદ્દેશાએ ઈચ્છા પ્રમાણે કહેવા જેઈએ.-અર્થાત્ ખ્યાનમાં થન કરવા જોયએ. આ રીતે જે એકદિવસમાં પણ ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી એક શતક પ્રેપૂરૂં વ્યાખ્યાનમાં કહી શકાય તેમ હાય તેા પૂરેપૂરા એક શતકને ઉપદેશ કહેવા જોઈએ. અર્થાત્ ઉપદેશ આપવા જોઇએ. અને મધ્યમ પણાથી જે તે એ દિવસમાં ઉપદેશ કહી શકાય તેમ હાય તે એ દિવસમાં પણ તેને ઉપદેશ આપવેા, અને જધન્ધથી ત્રણ દિવસમાં પણ ઉપદેશ રૂપે કહેવા જોઇએ. ‘વ जवि वीसइम स' मा रीते या शतमेना उपदेश आपका संबंधी उधन पीसभा शत४ सुधी उस छे, तेभ सभवु रंतु 'गोसाले एगदिवसेणं િિવજ્ઞજ્જ' પદરમ્ જે ગેચાલક શતક છે, તેને ઉપદેશ-વ્યાખ્યાન એક જ
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भगवती तदा 'एगेण चेव आयंविलेणं' एकनैव आचामाम्लेन एफमाचामाम्लं कृत्वा द्वितीय - दिवसे 'अणुनच अनुज्ञाप्यते उद्दिश्यते 'अह ण' अथ खलु पुनरपि च यदि 'ठिो' स्थितः अवशिष्टो भयेत्तदा सः 'आयविलेण छहेण अणुण्णचई' आचामाम्लेन पष्ठेन-आचामाम्ल द्वयेन तृतीय दिवसे अनुज्ञापयते उद्दिश्यते 'एकवीस वावीस तेवीस इमाई सयाई एक्केकदिवसेणं उदिसिज्जीत' एकविंशति-द्वाविंशति-त्रयो विशति-तमानि शतकानि एकदिवसेनैव उद्दिश्यन्ते । 'चउवीसइमं सयं दो दिवसेहि छ छ उदेसगा' चतुर्विंशतितमं शतकं द्वाभ्यां दिवसाभ्यां पट् पद इति द्विपझ्मेलने द्वादश भवन्ति, तेन मत्येक दिवसे द्वादशेति द्वाभ्यां दिवसाभ्यां चतु. दिशतिरूदेशका उद्दिश्यन्ते, इत्यर्थों बोध्यः, चतुर्विंशतितमशतके चतुर्विशत्युद्देशकानां सद्भावात् 'पंचवीसइमं सयं दोहि दिवसेहिं छ-छ उद्देसगा' पञ्चविंशतितम. व्याख्यान उपदेश एक ही दिन में करना चाहिए। यदि वह कुछ बाकी बचा रहता है तो उसका एक आयंधिलकरके दूसरे दिन उपदेश करना चाहिए। फिर भी यदि यह पाकी यचा रहता है तो दो आयंबिलकरके तृतीय दिन उसका उपदेश करना चाहिए 'एक्कवीसयावीस तेवीस इमाइं सयाई एक्केक्क दियसेणं उद्दिसिज्जति' २१ वां शतक, २२ वां शतक एवं २३ वा शतक इनका उपदेश एक एक दिन में करना चाहिए 'चउवीसइमं सयं दोहि दिवसेहिं ६-६ उद्देसगा' चौबीस में शतकका एकदिन में छ-छ उद्देशकों को लेकर व्याख्यान करना चाहिए इस प्रकार एकदिन में १२ उद्देशकों का व्याख्यान हो जाता है। इसी प्रकार दो दिन में इसके २४ उद्देशकों का व्याख्यान हो जाता है। દિવસમાં કરી લેવો જોઈએ. એક દિવસમાં ઉપદેશ કરતાં જે કદાચ બાકી રહી જાય તે એક આયંવિલ કરીને બીજે દિવસે તેનું વ્યાખ્યાન-ઉપદેશ કરી લેવો જોઈએ. તે પણ જે બાકી રહી જાય તે બે આયંવિલ કરીને श्री हिवसे तेनु ४थन ४२ नसे. 'एक्कवीसवावीसवीसइमाई मयाई एक्केक्कदिवसेणं उदिसिज्जति' २१ सेवासभु शत: २२ मावीसभुशत४ अने ૨૩ તેવીસમું શતક આને ઉપદેશ એક એક દિવસે કરી લેવો જોઈએ. 'चउवीसइम सय दोहिं दिवसेहि छ छ उद्देसगा' यावीसभा शतना हिसमा છ છ ઉદ્દેશાઓ લઈને ઉપદેશ કરવો જોઈએ. આ રીતે એક દિવસમાં ૧૨ બાર ઉદેશાઓનું કથન થઈ જાય છે. આ જ પ્રમાણે બીજે દિવસે પણું બાર ઉદેશાઓનું વ્યાખ્યાન કરી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે બે દિવસમાં તેના ૨૪ ચાવીસ ઉદેશાઓનું વ્યાખ્યાન થઈ જાય છે. વીસમા શતકમાં ૨૪ ચોવીસ
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যকিছুহ্মা স্ত্রী সাবলীগ ইহা সান্ধখামু _७७९.' शतकं द्वाभ्यां दिवसाभ्यां पट् षट् उद्देशकानुदिश्य उपदिश्यन्ते । 'बंधिसयाई अट्ठ-:". सयाई एगेणं दिवसेणं' वन्धिशतकापष्टशवानि एकेन दिवसेनोपदिश्यन्ते 'सेदि." सयाई बारस एगेण' श्रेणि शतानि द्वादश एकेन दिवसेन पदिश्यन्ते । 'एगिदिय । महाजुम्मसयाई वारस एगेणं' द्वादश एकेन्द्रिय महायुग्मशतानि एकदिवसेनोपदिश्यन्ते । एवं ३ दियाणं बारस' एवं द्वीन्द्रियाणां द्वादशवदानि 'तेइंदियाणं पारस चउरिदियाणं बारसएगण' श्रीन्द्रियाणां द्वादशशतानि चतुरिन्द्रियाणां द्वादशशतानि एकेन दिवसेनोपदिश्यन्ते 'असन्निपंचिदियाणं वारस सन्निपंचिदियमहाजुम्म सयाई एकवीसं एगदिवसेण उदिसिज्जति' असंक्षिपञ्चन्द्रियाणां द्वादश चौबीसवें शतक में २४ उद्देशक हैं । 'पंचवीसइमं सयं दोहि दिवसेहि छ छ उद्देसगा पच्चीसवें शतकका व्याख्यान ६-६ उद्देशकों को लेकर २ दिनमें करना चाहिये। 'यधिसयाई अट्ठमयाइं एगेणं दिवसेणं बंधिशतक :
आदि आठ शतों का व्याख्यान एकदिरमें करना चाहिये । 'सेदिसयाई वारस एगेणं' श्रेणि शत आदि १२ शतोंका व्याख्यान एकदिन में करना. चाहिए । 'एगिदिय महाजुम्मसयाई पारस एगेणं' एकेन्द्रिय के १२महायु ग्म शतों का व्याख्यान एकदिन में करना चाहिए। 'एवं वें दियाणं यारस' दोइन्द्रिय के १२ महायुग्म शत तेइन्द्रियके १२ महायुग्म चौइन्द्रियों के ४१ महायुग्मशत और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों के ४१ महायुग्मशत एवं संज्ञी
देशामा ४ा छे. 'पंचवीसइम मय दोहिं दिवसेहि छ छ उद्देसगा' ५२यासमा શતકનું વ્યાખ્યાન છ છ ઉદ્દેશાઓ લઈને ૨ બે દિવસમાં કહેવું જોઈએ. 'बंधिम्याइ मसयाई एगेण दिवसेणं' मशित: विगैरे मा शत व्या. भ्यान मे हिवसे ४ लेये. 'सेढिनयाई वारस एगेणं' शित विगेरे मार शतनु व्यायान से समां ४२ नये 'एगिदिय महाजुम्मसयाणं बारस एगेणे' ८ मेन्द्रियाना १२ मार महायुग्म शतानु' व्याभ्यान मे हिसमा ४२वु नये. 'एव वेदियाण वारस' मेन्द्रिय વાળા જીના સંબંધના ૧૨ બાર મહાયુગ્મ શતકે, ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં ૧૨ મહાયુગ્મ શતક, ચાર ઈન્દ્રિયવાળા જીવોના સંબંધમાં ૧૨ બાર મહાસુમ શતકે તથા પાંચ ઈન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં ૧૨ બાર મહાયુગ્મ શતક અને સંસી પચેન્દ્રિયના સંબ ધમાં ૨૧ એકવીસ મહાયુમ
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________________ Mara भगवतीमत्र शतानि तथा संक्षिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि एकविंशतिरेकदिवसेनोपदिश्यन्ते / __ 'रासीजुम्मसयं एगदिवसेणं ऊदिसिज्जई' राशियुग्मशतमेकचत्वारिंश शतक “समग्रमपि एकदिवसेन उपदिश्यते इति / // इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा फलितकलितकलापालापकपविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, ' चादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजपदत्त 'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्री घासिकालचतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्या व्याख्या समासाः // भगवती सम्पूर्णा // पश्चन्द्रिय के 41 महायुग्म शत ये सब महायुग्म शत एक एक दिन में उपदिष्ट करदेना चाहिए तथा राशियुग्म शत 41 वां शतक पूरा का पूरा एक दिन में उपदिष्ट करना चाहिए। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या समाप्त / भगवती सूत्र समापन // શતક આ મહાયુગ્મ શતકેનું કથન એક એક દિવસમાં કરી લેવું જોઈએ. તથા શિયુગ્મ શતક 41 એકતાળીસમાં શતકનું વ્યાખ્યાન પૂરેપૂરૂ એક જ દિવસમાં કરી લેવું જાઈએ. આ પ્રમાણે આ શાસ્ત્ર પ્રશસ્તિ કહેલ છે. જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યા સમાપ્ત ભગવતીસૂત્ર સમાપ્તા ઓ શાન્તિઃ શાન્તિઃ શાન્તિઃ શ્રી ઋતુમાં શ્રી મદ ઘાસીલાલ મુનીશ્વર વિજયેતેતરામ