Book Title: Bhagwati Sutra Part 16
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 ANAVPIN ORG मा SPS ) जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितया प्रयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलत हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् ॥श्री-भगवतीसूत्रम् ॥ (षोडशो भागः) नियोजक संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशक. राजकोटनिवासी-श्रेष्ठिश्री-शामजीआई-वेलजीभाई वीराणी तथा कडदीबाई-चीराणी रनारकट्रस्टप्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन __ अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदालभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति वीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९८ २०५८ १९७२ मूल्य-रू० ३५-०-० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું . श्री म. सा. श्वे. स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है, गरेडिया हूवा रोड, शट, ( सौराष्ट्र ) Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garudia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra ), W. Ry, India' ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यचज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोहायं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ 品 हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्र कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तच उससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સ વ. ૨૪૯૮ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૮ ઇસવીસન ૧૯૭૨ भूस्यः ३. ३५=00 : शुद्र : મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ प्रेस, ઘીકાંટા રોડ, અમદાવાદ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमाङ्क १ ४ ५ ६ ७ १२ १३ १४ १५ १६ १७ श्री भगवती सूत्र भाग सोलहवें की विषयानुक्रमणिका विषय २३ २४ पचीस शतक का ५ उद्देशा पर्याय आदिका निरूपण सागरोपम आदिकालका निरूपण निगोद के भेदों का निरूपण हा उद्देशक सावां ज्ञानद्वारका निरूपण आठवां तीर्थद्वार का निरूपण नaai लिंगद्वार का निरूपण दशनां शरीरद्वार का निरूपण ग्यारहवां क्षेत्रद्वार का निरूपण वारहवां कालद्वार का निरूपण १८ रवां गतिद्वार का निरूपण १९ चौदहवां संगमद्वार का निरूपण २० पंद्रहवे निकर्षद्वार का निरूपण २१ सोलहवे योगद्वार का निरूपण २२ उद्देशे में आनेवाले द्वारों को बतानेवाली द्वारगाथाका विवरण प्रज्ञापना द्वार का निरूपण वेदद्वार का निरूपण रामादिद्वारों का निरूपण तीसरे रागद्वार का निरूपण चतुर्थ कल्पद्वारका निरूपण पांचवां चारिनद्वार का निरूपण छठा प्रतिसेवनाद्वार का निरूपण सत्रह उपयोगद्वार का निरूपण अठारहवें पायद्वार का निरूपण उन्नीसवें श्याद्वार का निरूपण पृष्ठाङ्क १-२२ २२-३४ ६४-३९ ४०-४१ ४२-५७ ५७-६३ ६३-६६ ६६-६८ ६८-७२ ७२-७६ ७६-८१ ८१-८८ ८९-९३ ९३-९५ ९५-९७ ९८-१०९ १००-११९ ११९-१३४ १३४-१३९ १३९-१६६ १६६-१७० १७१ १७२-१७६ १७६-१८० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ૨૬ ૨૭ ૨૮ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४०. ४१ ૪૨ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ चीसवां परिणामद्वार का निरूपण एकवीसवें बन्धद्वार का निरूपण वावीसवें वेदद्वार का निरूपण तेईसवें उदीरणाद्वार का निरूपण चोईस उपसंपद्धानद्वारा निरूपण पचमवे संज्ञाद्वार का निरूपण aorted आहारद्वार का निरूपण सत्ताईसवें भवद्वार का निरूपण अठाईसवें आकर्षद्वार का निरूपण कालादिद्वार का निरूपण उन्तीसवें कालद्वार का निरूपण area अंतरद्वार का निरूपण इकतीसवे समुद्वातद्वार का निरूपण बत्तीसवें क्षेत्रद्वार का निरूपण ते तीस से छत्तीस तक के द्वारों का निरूपण तीसवें स्पर्शनाद्वार का निरूपण चौतीसवें भावद्वार का निरूपण पैंतीसवें परिमाणद्वार का निरूपण छत्तीसवें अल्पबहुत्वद्वार का निरूपण afnai उदेशक आठवां उद्देशा नैरयिकों की उत्पत्ति का निरूपण नवत्र उद्देशा १८०-१९२ १९२-१९६ १९६-१९८ १९८-२०४ भवसिद्धिक नैरयिकों की उत्पत्ति का निरूपण अमिद्धिक नैरयिकों की उत्पत्ति का निरूपण २०४-२१२ २१२-२१५ २१५-२१६ २१७-२१९ २२०-२२४ २२६-२२७ २२८-२३१ २३२-२३६ २३६-२३९ २३९-२४२ संयतों के प्रज्ञापनादि ३६ छत्तीसद्वारों का निरूपण २५९-४०४ प्रतिसेवना का निरूपण ४०५-४१७ ४१७-४४६ मायश्चित्तके प्रकार का निरूपण आभ्यन्तर aपका निरूपण ध्यान के स्वरूप का निरूपण २४२-२४५ २४५-२४६ २४७-२४८. २४८-२६५ २५५-२५८ ४४६-४७१. ४७१-४९६. ४९४-५०५ ५०६-५०८ ५०९-५१०८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११-५९२ ५१३-५१५ &: ५१६-५१८ ५१८-५४८ ५४९-५६२ ५६२-५९२ ५९३-६१३ ग्यारहवां उद्देशा सम्यग्दृष्टि नैरपिकों की उत्पत्ति का निरूपण बारहवां उद्देशा ५३ मियादृष्टि नैरयिकों की उत्पत्ति का निरूपण छब्बीसवें शतक का प्रारंभ पहला उद्देशक छपीसवें शतक के उद्देशकों का निर्देश करनेवाली गाथा का संग्रह ५५ बन्ध के स्वरूप का निरूपण नयिकों के बन्ध के स्वरूप का निरूपण ज्ञानावरणीय कर्मको आश्रय करके बन्धके स्वरूप का निरूपण नैरयिकों के आयुक्रर्म वन्ध का निरूपण दूपरा उद्देशा चौवीस प्रकार के जीवस्थानों का निरूपण तीसरा उद्दशा परम्परोपपन्ना नैरयिका के बन्ध का निरूपण चौथा उद्देशा अनन्तरावगाढ नारकों को आश्रित करके पापकर्म वन्ध का निरूपण पांचवा उद्देशा परम्पराक्गाढ नारकों को आश्रित करके पापकर्म बन्ध का निरूपण छट्ठा उद्देशा अनन्तराहारक नारकों को आश्रित करके पापकर्म बन्ध का निरूपण सातवां उद्देशा ६४ परंपराहारक नारकों को आश्रित करके पापकर्म बन्ध का निरूपण ६१४-६२७ ६२८-६६१ ६३२-६३६ ६३७-६३९ ६४०-६४३ ६४४-६४६ ... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७-६५१ ६६ ६५२-६५४ आठवा उद्देशा अनंतर पर्याप्तक नारक कों आश्रित करके पापकर्म बन्ध का निरूपण नववा उद्देशा परम्पर पर्याप्तक नारकों को आश्रित करके पारकर्म बन्ध का निरूपण दसवां उद्देशा चरम नारक आदिकों को आश्रित करके पापकर्म बन्ध का निरूपण ग्यारहवां उद्देशा अचरम नारक आदिको को आश्रित करके पापकर्म वन्ध का निरूपण सतावीसवां शतक जीवों के कर्म करण क्रिया का निरूपण समाप्त ६५५-६५८ ६५९-१७८ ६९ ६७९-६८४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ असंखयं जीवियं मा पमायए 35 શ્રી વિનાદકુમાર વીરાણી (દીક્ષા લીધા પહેલાં શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા ) જન્મ : પે સુદાન સાં, ૧૯૯૨ દીક્ષા ખીચન – ( રાજસ્થાન ) સ. ૨૦૧૩ વૈશાખ વદ ૧૨ - તા. ૨૬-૫-૫૭ રવિવાર નિર્વાણ લાદી – ( રાજસ્થાન ) સાં. ૨૦૧૩ શ્રાવણુ સુદ ૧૨ તા. ૭-૮-૫૭ બુધવાર Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યપુર-ખીશ્રીએ રોહ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ. સ્વ. સુધીરસાઈ જ્યંતીલાલ ઝવેરી સુય ગેશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકેટ, (સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી-રાજકોટ (સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ. વચ્ચે ખેડેલા લાલાજી કિશનચ છ સા જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજીસા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દાયત્ત ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maratatओ श्रीमान् शेठ पोपटलाल मावजीभाई महेता, जामजोधपुर Contractor Course inted at श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी जांगडा, मु. जालना (સ્વ ) રોડથી ધારશીભાઇ જીવણલાલ ખારસી ' | | રોશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા શેઠ પ્રભુદાસભાઇ મુલજીભાઇ દેાશી તથા રોશ્રી જેવતરાજજી લાલચંદજી સા. ગુજકોટ સ્વ શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. બાલિયા પાલી મારવાડ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘમુરબ્બીશ્રીઓ જી કરવા E ' | * * * * * (સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવડ (સ્વ. શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ અમદાવાદ, જા. _ *, \ * (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ - અમદાવાદ, સ્વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા - ૧૧ ૫ નો અન્ન - . તેમ જ -- ! શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પિચલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રાએ સ્વ. શ્રી હરિલાલ અનેા શાહ ખંભાત. broads after bein श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. भचंदजी सा अजीतवाले ( सपरिवार ) ચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૃલચ દળ જવાહીરલાલજી રિડયા ૨. બાજુમાં એડેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી ખડિયા ૩ ઉભેલા સૌથ નનાભાઈ પૂનમચ - મરક્રિયા स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास. શેઠ કીશનલાલજી ફુલચંદ સા એ ગલેારવાળા श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया મા Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 પટેલ ડાસાભાઈ ગેાપાલદાસ મુ સાણંદ (જી. અમદાવાદ) આમુરબ્બીશ્રીએ शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया 1 સ્વ શેઠ માણેકચંદ તે મચ દ્વ માંગરોલવાળા ( સુખઈ' ) ૧ અસીચંદભાઈ તથા ૧ ગીરધરભાઈ ખાંટવિયા સ્વસ્થ ન્યાયમૂતિ રતીલાલભાઈ ભાયચભાઈ મહેતા श्रीमान् शेठ सा. श्री कानुगा धिगडमलजी साब Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुरीश्रीओ श्रीमान् शेट मणीलाल पोपटलाल वोरा अमदावाद, जन्म ता. १०-६-१९०४ (el). શ્રી વૃજલાલ દુલભજી પારેખ राहो. श्रीमान् शेट लालाजी कपूरचन्दजी नाहटा, सु. देहली કાહારી હુરોવિદ જેચ દલાઈ रानडेट. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मा . -- socinema दानवीर शेठश्री अगरचन्दजी भेरुदानगी सा. सेठिया, मु बीकानेर श्रीमान् शेठ जगजीवनभाई रतनमीमाई वगडिया, मु. दामनगर आद्यमुरव्वीश्रीओ शेठश्री देवचंदभाई फोजीलालभाई वलाणी-सुरत Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મા, બ્ર. શ્રી વિનાદમુનિનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર પરમ વૈરાગી અને દયાના પુંજ જેવા આ પુરુષના જન્મ વિક્રમ સવંત્ ૧૯૯૨ પાટ સુદાન (આફ્રિકા)માં કે જ્યાં વીરાણી કુટુંબના વ્યાપાર આાજ દિવસ સુધી ચાલુ છે, ત્યાં થયા હતા, શ્રી વિનાન્તકુમારના પુણ્યવાન પિતાશ્રીનું નામ શેઠશ્રી દુર્લભજી શામજી વીરાણી અને મહાભાગ્યવતા તેમના માતુશ્રીનું નામ એન મણિબેન વીરાણી, બન્નેનું અસલ વતન રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર) છે, એન મણિબેન ધાર્મિક ક્રિયામાં પહેલેથી જ રુચિવાળા હતા, પરંતુ શ્રી વિનાદકુમાર ગ`માં આવ્યા પછી વધારે દૃઢધી અને પ્રિયધમી બન્યા હતા. પૂભવના સસ્કારથી શ્રી વિનેદકુમારનુ લક્ષ ધાર્મિક અભ્યાસ અને ત્યાગ ભાવ તરફ વધારે હાવા છતાં તેએશ્રીએ નાનમેટ્રીક સુધી અભ્યાસ કરી વ્યવહારિક કેળવણી લીધેલી અને વ્યાપારની પેઢીમાં કુશળતા ખતાવેલી. તેઓશ્રીએ યુનાઇટેડ કિંગડમ, ફ્રાન્સ, બેલ્જીયમ, હોલેન્ડ, જમ*ની સ્વીઅલેન્ડ, તેજ ઇટાલી, ઈજીસ વગેરે દેશેામાં પ્રવાસ કરેલ સ* ૨૦૯ના વૈશાખ માસ, સને ૧૯૫૩માં લડનમાં રાણી એલીઝાબેથના રાજ્યારાહણુ પ્રસગે તેઓશ્રી લંડન ગયા હતા. કાશ્મીરના પ્રવાસ પણ તેમણે કરેલ, દેશ પરદેશ ફરવા છતાં પણ તેમણે કેાઈ વખતે પણ કદમૂળને આહાર વાપરેલ નહી’, ઉગતી આવતી યુવાનીમાં તેઓશ્રીએ દુનિયાના રમણીય સ્થળા જેવાં કે કાશ્મીર, ઈજીપ્ત અને યુરોપનાં સુંદર સ્થળાની મુલાકાત લીધી હાવા છતાંએ તેઓને તે રમણીય થળે કે રમણીય યુવતીઓનું આકષ ણુ થયું નહી. એ એના પૂર્વભવના ધાર્મિક સ`સ્કારના જ રગ હતા અને એ રંગે જ તેમને તે બધું ન ગમ્યું અને તુરત ત્યાથી પાછા ફર્યા અને સાધુ-સાધ્વીજીનાં દન-કરવાને ઠેકઠેકાણે ગયા અને તેમના ઉપદેશના લાભ લીધેા અને વૈરાગ્યમાં જ મન લગાડયું હુડાકાલ અવસર્પિણના આ દુષમ નામના પાંચમાં આરાનું વિચિત્ર વાતાવરણ જોઇ તેમને કંઇક ક્ષેાભ થતા કે તુરત જ તેના ખુલાસે મેળવી લેતા અને ત્યાગ ભાવમા સ્થિર રહેતા દેશ પરદેશમાં પણ સામાયિક, પ્રતિક્રમણ, ચેાવિહાર માદિ પચ્ચક્ર્માણુ વિ. ધમકા તેઓ ચૂકયા નહી. ઊંચી કેટિની શૈયાને! ત્યાગ કરી તેએ! સૂવા માટે માત્ર એક શેતરંજી, એક એસીકુ અને આહવા એક ચાદર ફક્ત વાપરતા અને પલંગ ઉપર નહી. પણ ભૂમિ પર જ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શયન કરતા. અને પહેરવા માટે એક ખાદીનો લેંઘા અને બે વાપરતા, કોઈ વખતે કબજે પહેરતા બહુ ઠંડી હોય તે વખતે સાદો ગરમ કે ટ પહેરી લેતા અને મુહપત્તિ, પાથરણું, રજોહરણ અને બે ચાર ધાર્મિક, સુરતની ઝાળી સાથે રાખતા સંડાસમાં નહીં પણ જંગલમાં એકાંત જગ્યામાં ઘણે ભાગે શરીરની અશુચિ દૂર કરવા જતા, હાલતાં ચાલતાં, સંડારા અને પેશાબ રાંબંધમા વવદયાની બરાબર જતના કરતા. દેશમાં કે પરદેશમાં જ્યારે તેમને કેઈની સાથે મળવાનું થતું ત્યારે તેમની સાથે અહિંસામય જૈનધર્મનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યા વગર રહેતા નહીં. * * દીક્ષાર્થીઓને દીક્ષા લેવાની પ્રેરણા કર અને એમ જ કહેતા કે જંદગીને કઈ ભરોસે નથી કad જીવિયં મા માર” આયુષ્ય તુટતાં વાર લાગતી નથી, જીવન તૂટયું સંધતું નથી માટે ધર્મકરણીમાં રાયમાત્રને પ્રમાદ ન કરવો જોઈએ. ગોંડલ સંપ્રદાયના ઘણાખરા પૂ મુનિવરો અને પૂ મહાસતીજીને તથા બેટાદ સંપ્રદાયના પૂ આચાર્ય શ્રી માણેકચંદજીરાજ અને દરિયાપુરી સ પ્રદાયના શાંત-શાસ્ત્રના પૂ મુનિશ્રી ભાયચંદજી મહારાજ શ્રેમસંઘના મુખ્ય આચાર્યશ્રીજી આત્મારામજી મહારાજ તપેય જ્ઞાનનિધિ શદ્વારક છે. બ. પૂ. આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસલાજી ઠાજ વગેરે અનેક સાધુસાવીને ઉપદેશને તેમણે લાભ લીધેલ મુબમાં સં. ૨૦૧૨ સાલમાં શ્રી ધર્મસિંહજી મહારાજના સંપ્રદાયના પડિતરત્ન છે લાલચંદજી મહારાજને • પરિચય થશે. લાલચંદજી મહારાજ પિતે, તથા સંસારપક્ષના ત્રણ પુત્રે અને બે પુત્રીઓ એમ કુલ ૬ બલ્ક આખા કુટુંબે સંયમ અંગીકાર કરે તે જાણી તેમને અદૂભૂત ત્યાગભાવના પ્રગટ થઈ કે જે કદી ક્ષય ૫મી નહી. આ પહેલાં તેઓ જ્યારે માતા-પિતા સાથે પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી માણેકચંદજી મહારાજના દર્શને બોટાદ ગયેલા ત્યારે તેમના ઉપદેશની જે અસર થઈ તે મુખ્ય અસર પહેલી હતી અને બીજી અસર તે પૂજ્ય લાલચંદજી મહારાજના સહકુટુંબની દીક્ષા એ હતી. આ બેઉ પ્રસંગે પૂર્વભવની બાકી રહેલી આરાધનાને પૂરી કરવાના નિમિત્તરૂપ હેઈને વખતોવખત તેઓ માતા-પિતા પાસે દીક્ષાની આજ્ઞા માગના હતા અને તેને જવાબ તેમના પિતાશ્રી તરફથી એક જ હતે. “જે હજુ વાર છે સમય પાકવા દીએ જ્ઞાનાભ્યાસ વધારે, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સં. ૨૦૧૨ને અષાઢ સુધી ૧૫ થી શ્રી વિનોદકુમારે ગાંડલ સંપ્રદાયના શાસ્ત્રજ્ઞ પૂ. આચાર્યશ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ સાહેબ પાસે વેરાવળ ચાતુર્માસ દરમ્યાન ખાસ નિયમિત રીતે દીક્ષાની તૈયારી કરવા માટે તેમની પાસે જ્ઞાનાભ્યાસ કર્યો. તેની સાથે પૂ. આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજનાં સંસાર પક્ષના કુટુંબી દીક્ષાના ભાવિક શ્રી જસરાજભાઈ પણ જ્ઞાનાભ્યાસ કરતા હતાં તેઓએ ત્યાં એ નિર્ણય કરે કે આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમ મહારાજ પાસે આપણે બનેએ દીક્ષા લેવી, પહેલાં વિનોદકુમારે અને પછી શ્રી જસરાજભાઈએ. દીક્ષા લેવી, શ્રી જસરાજભાઈની દીક્ષા તિથિ પૂ. શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ સાહેબે સં. ૨૦૧૩ના જેઠ સુદ ૫ ને સોમવારે માંગરોલ મુકામે નકકી કરી શ્રી જસરાજભાઈ વિનોદકુમારને રાજકેટ મા. શ્રી વિનોદકુમારે શ્રી જસરાજભાઈની યથાગ્ય સેવા બજાવી, મંગળ રવાના કર્યા અને પોતે નિશ્ચયપૂર્વક દીક્ષા માટે આજ્ઞા માગી પણ તેના પિતાશ્રીની એકને એક વાણી સાંભળીને તેમને મનમાં આઘાત થયો અને દીક્ષા માટે તેમણે બીજો રસ્તો શોધી કાઢયે. પૂજ્યશ્રી લાલચંદજી મહારાજ અને તેમના શિષ્યને પરિચય મુંબઈમાં થયેલ હતું અને ત્યારબાદ કઈ વખત પત્રવહેવાર પણ થતું હતું. છેલા પત્રથી તેમણે જાણેલ હતું, જે પૂત્ર શ્રી લાલચંદજી મહારાજ. ખીચન ગામે પૂરું આચાર્ય શ્રી સમરથમલજી મહારાજ સાહેબ પાસે જ્ઞાનાભ્યાસ અર્થે ગયા છે, પિતાને પિતાશ્રીની આજ્ઞા (દીક્ષા માટે) મળે તેમ નથી અને દીક્ષા તે લેવી જ છે આજ્ઞા વિના કેઈ સાધુ મુનિરાજ દીક્ષા આપે નહીં અને સ્વયમેવ દીક્ષા સૌરાષ્ટ્રમાં લઈને આચાર્ય શ્રી પુરુષોત્તમજી મહારાજ પાસે જવામાં ઘણાં વિદને થશે, એમ ધારીને તેઓએ દૂર રાજસ્થાનમાં ચાલ્યા જવાનું નક્કી કર્યું. - તા. ૨૪-૫-૧૭ સં. ૨૦૧૩ના વૈશાખ વદ ૧૦ ને શુક્રવારના રોજ સાંજના તેમના માતુશ્રી સાથે છેલ્લું જમણ કર્યું. ભજન કરી, માતુશ્રી સામાયિકમાં બેસી ગયા. તે વખતે કેઈને જાણ કર્યા વગર દીક્ષાના વિદનેમાંથી બચવા માટે ઘર, કુટુંબ, સૌરાષ્ટ્રભૂમિ અને ગેંડલ સંપ્રદાયને પણ ત્યાગ કરી, તેઓ ખીચન તરફ રવાના થયા. . . . * : શ્રી વિનોદમુનિના નિવેદન પરથી માલુમ પડયું કે તા. ૨૪-૫-૧૭ના રોજ રાત્રે આઠ વાગે ઘેરથી નીકળી, રાજકેટ જંકશને જઈ જોધપુરની ટિકિટ લીધી તા. ૨૫–૫–૫૭ના સવારે આઠ વાગ્યે મહેસાણા પહોંચ્યા ત્યાં અઢી કલાક ગાડી પડી રહે છે, તે દરમ્યાન ગામમાં જઈને લગ્ન કરવા માટેના વાળ રાખીને બાકીના કઢાવી નાખ્યાં અને ગાડીમાં બેસી ગયા. મારવાડ જંકશન તથા જોધપુર જકશન થઈને તા. ૨૬-૫-૫૭ની સવારે કા વાગ્યે ફલેરી Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પહોંચ્યા ત્યાંથી પગે ચાલીને ખીચન ઉપાશ્રયમાં જઈ ત્યાં બિરાજતા મુનિવરોના દર્શન કર્યા વદ નમસ્કાર કરી સુખશાતા પૂછી, બહાર નીકળ્યા અને પિતાના સામાયિકના કપડાં પહેર્યા અને પછી પૂજ્ય શ્રી મુનિવરોની સન્મુખ સામાયિક કરવા બેઠા, તેમાં “નાવ નિચ pagવાસાદિ સુવિદ વિવિ” ને બદલે “નારીવઘgવામિ રિવિદં રિવિઝ” બેલ્યા તે શ્રી લાલચંદજી મહારાજે સાંભળ્યું અને તેઓશ્રીએ પૂછયું કે વિનોદકુમાર ! તમે આ શું કરે છે? તેનો જવાબ આપવાને બદલે “સ વોસિરા”િ બોલી પાઠ પૂરે કર્યો અને પછી વિનયપૂર્વક બે હાથ જોડીને બોલ્યા કે “સાહેબ! એ તે બની ચૂકયું અને મેં વયમેવ દીક્ષા લઈ લીધી, તે બરોબર છે અને તેમાં કોઈ ફેરફાર થઈ શકે તેમ નથી. આ સિવાય આપશ્રીની બીજી કોઈપણ પ્રકારની આજ્ઞા હાય તે ફરમાવે.” તેજ દિવસે બપોરના શાસ્ત્રજ્ઞ પૂ. મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ સાહેબે શ્રી વિનોદકુમાર મુનિને પોતાની પાસે બેલાવ્યા અને સમજાવ્યા કે “તમે એક સારા ખાનદાન કુટુંબની વ્યક્તિ છે. તમારી આ દીક્ષા અંગીકાર કરવાની રીત બરાબર નથી, કારણ કે તમારા માતા પિતાને આ હકીકતથી દુઃખ થાય અને તેથી મારી સંમતિ છે કે રજોહરણની ડાંડી ઉપરથી કપડું કાઢી નાખો જેથી તમે શ્રાવક ગણાવ અને જરૂર પડે તે શ્રાવકને સાથે લઈ શકે, એમ ત્રણવાર પૂ. મહારાજશ્રીએ સમજાવેલા પરંતુ તેમણે ત્રણેય વખત એક જ ઉત્તર આપેલો કે “જે થયું, તે થયું હવે મારે આગળ શું કરવું તે ફરમાવે. શ્રી વિનેદમુનિના શ્રી સમરથમલજી જેવા મહામુનિના પ્રશ્નના જવાબ પછી ખીચનનો ચતુર્વિધ સઘ વિચારમાં પડી ગયા અને મુનિશ્રીઓ પર સંસારીઓને કેઈ પણ પ્રકારનો નિષ્કારણ હમલે ન આવે તે માટે વિનોદમુનિને જણાવવામાં આવ્યું કે “અમારી સલામતી માટે તમારે જાહેર નિવેદન બહાર પાડવાની જરૂર છે” ત્યારે શ્રી વિનોદમુનિએ પિતાના હસ્તાક્ષર નિવેદન શ્રીસંઘ સમક્ષ પ્રગટ કર્યું, તેને સારા નીચે મુજબ છે મારા માતા-પિતા મહને વશ થઈને દીક્ષાની આજ્ઞા આપે તેમ ન હતું અને “બૉણ જીવિ મા પ્રમ ”ને આધારે હું એક ક્ષણ પણ દીક્ષાથી વંચિત રહી શકું તેમ નથી, એમ મને લાગ્યું. શ્રી લાલચંદજી મહારાજ સાહેબવગેરએ મને મારી દીક્ષા માટે વિચારી પછી પગલું ભરવાનું કહેલ પરંતુ મને Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ સમય માત્રને પ્રમાદ કરવા ઠીક ન લાગ્યા, તેથી શ્રી અરિહંત ભગવંતા તથા શ્રી સિદ્ધ ભગવંતની સાક્ષીએ મારા ગુરુ મહારાજ સમક્ષ પ્રત્રજ્યાના પાઠ ભણીને મારા આત્માના કલ્યાણ માટે દીક્ષા અ’ગીકાર કરી છે. સમાજને ખેાટા ખ્યાલ ન આવે કે મારી દીક્ષા ક્ષણિક જુસ્સાથી અગર ગેરસમજથી થઈ છે તેથી તથા સમાજમાં જૈનશાસનની પ્રભાવના થાય તે હેતુથી મારે મારે વૃત્તાંત પ્રગટ કરવા ઉચિત છે. ઉત્તરાધ્યયનજી સૂત્રના ૧૯ મા અધ્યયન પરથી મને લાગ્યુ કે મનુષ્ય જીવનનુ' ખરૂ કન્ય માક્ષફળ આપનારી દીક્ષા જ છે. છેવટ સુધી મેં મારા બાપુજી પાસે દીક્ષા માટે આજ્ઞા માગી અને તે વખતે પણ પહેલાંની જેમ વાત ઉડાવી દીધી અને અનંત ઉપકારી એવા મારા ખાપુજી સમક્ષ હું તેમને કડક ભાષામાં પણ કહી શકતા ન હતા અને બીજી ખાજુથી મને થયું કે આયુષ્ય અશાશ્વત છે અને આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે જરાપણું પ્રમાદ કરવા ઉચિત નથી. તેથી મેં' વિચારીને આ પગલું ભર્યું છે અને મને પૂર્ણ વિશ્વાસ છે કે શ્રી વીરપ્રભુ મહાવીર સ્વામીના સકળ સઘ મારા આ કાય ને અનુમાનશે જ ' તથાસ્તુ ”. રાજકોટમાં શ્રી વિનાન્તકુમારના ગયા પછી પાછળથી ખખર પડી કે વિનાદકુમાર દેખાતા નથી એટલે તપાસ થવા માંડી ગામમાં કયાંય પત્તો ન લાગ્યું એટલે મહારગામ તારે કર્યો.. કર્યાંયથી પણ સતાષકારક સમાચાર સાંપડયા નહીં. અર્થાત્ પત્તા મળ્યેા જ નહી. આમ વિમાસણના પરિણામે તેમના પિતાશ્રીને બે મહિના પહેલાંની એક વાતની યાદ આવી તે એ હતી કે તે વખતે શ્રી વિનાદકુમારે આજ્ઞા માગેલી કે “ બાપુજી ! આપની આજ્ઞા હાય તા આ ચાતુર્માસમાં ખીચન (રાજસ્થાન) જાઉ” કારણ કે ખીચનમાં પૂ॰ ગુરુમહારાજ શ્રી સમરથમલજી મહારાજ કે જેએ સિદ્ધાંત વિશારદ છે અને અનેકાંતવાદના પૂરા જાણકાર છે, તેઓ ત્યાં બિરાજમાન છે જેઓશ્રી પાસે શાસ્ત્રાભ્યાસ કરવા માટે પૂ શ્રી લાલચંદજી મહારાજ આદિ ઠાણા ૪ જવાના છે. તે મારી ઇચ્છા પશુ ત્યાં તેમની પાસે જવાની છે. આ વાતચીતનુ સ્મરણુ પિતાશ્રીને આવવા સાથે તેઓએ પ. પૂ ચદ્રજી દકને પાતાની પાસે ખેાલાવ્યા અને વિનાઇકુમાર માટેની પેાતાની ચિંતા વ્યક્ત કરી. પતિનું આ વાતને સમર્થન મળ્યુ. તેઓશ્રીએ જણાવ્યુ` કે થેાડા સમય પૂર્વ વિનંદકુમારે મારી પાસે જાણવા માગ્યુ` હતુ` કે, ખીચનમાં કેવા પ્રકારની Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સગવડ છે? આમ મારી સાથે વાર્તાલાપ થયો હતો. બંને આ પ્રમાણે એકમત થતાં તેમના પિતાશ્રીએ ખીચન તાર કરવા સૂચના કરી તા. ૨૭–૫–૫૭ ના રોજ પૃથ્વીરાજજી માલુ ખીચન (રાજસ્થાન) ઉપર તાર કર્યો. : : - તા.૨૮-૫-૧૭ના રોજ જવાબ આવ્યો કે શ્રી વિનોદભાઈએ ખીચનમાં સ્વયમેવ દીક્ષા ગ્રહણ કરી છે. એટલે તેમના પિતાશ્રીએ રાવબહાદુરથી એમ. પી. સાહેબ શ્રી કેશવલાલભાઈ પારેખ અને પંડિતજી પૂર્ણચંદ્રજી દક એમ ત્રણેયને શ્રી વિનોદકુમારને પાછા તેડી લાવવા માટે ખીચન મોકલ્યા તા. ૨૮-૫-૧૭ના રોજ રવાના થઈ તા. ૩૦-૫-૧૭ના રોજ સવારે ફલેદી સ્ટેશને પહેચ્યા. બળદગાડીમાં તેઓ ખીચન ગયા કે જ્યાં સ્થવિર મુનિશ્રી શીમલજી મહારાજ પૂજય પંડિતરત્ન શાસ્ત્ર વિશારદ શ્રી સમરથમલજી મહારાજ આદિ ઠણ ૮ તથા પૂજ્ય તપસ્વી મહારાજ શ્રી લાલચંદજી મહારાજ' આદિ ઠા. ૪ 'બિરાજમાન હતા. કુલ્લે સાધુ-સાધ્વીની સંખ્યા અઠ્ઠાવીસથી ત્રીસની હતી. પૂછપરછના જવાબમાં શ્રી વિનોદમુનિએ કેશવલાલભાઈ પારેખને કહ્યું કે “મેં તે દીક્ષા અંગીકાર કરી લીધી છે તેમાં કોઈ ફેરફાર થાય તેમ નથી. તમે અમારા વીરાણી કુટુંબના હિતૈષી છે. અને જે સાચા હિતૈષી હિ તે મારા પૂ બા અને બાપુજીને સમજાવીને મારી હવે પછીની મેટી દીક્ષાની આજ્ઞા અઠવાડિયાની અંદર અપાવી દ્યો એટલું જ નહીં પણ સવિ જીવ કરૂં શાસન રસી”ની ભાવનામાં અને આજ દિવસ સુધીના મારી ઉપરના ઉપકારના બદલામાં આગમને અનુલક્ષીને મારી ભાવના એ જ હોય કે, મારી દીક્ષા તેઓની દીક્ષાનું નિમિત્ત બને અને મારા માતા-પિતા સગતિને સાથે અર્થાત્ મારી સાથે દીક્ષા લીએ. - ' આવા દઢ જવાબના પરિણામે તેજ સમયે શ્રી વિનોદકુમારને પાછા લઈ જવાની ભાવનાને નિષ્ફળતા સાંપડી અને તા. ૩૧-૫-૧૭ ની રાત્રીના રવાના થઈ તા. ૨-૬-૫૭ના સવારે મહા પરીષહરૂપ ક્ષેત્રને અનુભવ કરી, શ્રી વિનોદકુમારના પિતાશ્રીને તમામ વાતથી વાકેફ કર્યા. ચેડા વખતમાં ફલદીના શ્રી સશે પૂ શ્રી લાલચંદજી મહારાજને ફલેદીમાં માસુ કરવાની વિનંતી કરી તેને અસ્વીકાર થવાથી સંઘ ગમગીન બન્યું એટલે નિર્ણય ફેરવ્યું અને અષાઢ સુદ ૧૩ ના રોજ ખીચનથી વિહાર કરી ફલદી આવ્યા, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દીક્ષા પછી અઢી મહિનાને આંતરે ફલેદી ચેમાસા દરમ્યાન શ્રી વિનોદ મુનિને હાજતે જવાની સંજ્ઞા થઈ અને તે માટે જવા તૈયાર થયા એટલે તેમના ગુરુએ કહ્યું કે બહુ ગરમી છે, જરાવાર થોભી જાવ એટલે શ્રી વિનોદમુનિએ રજોહરણ વગેરેની પ્રતિલેખના કરી તે દરમ્યાન ન રેકી શકાય એવી હાજત લાગી તેથી ફરી આજ્ઞા માગતાં જણાવ્યું કે મને હાજત બહુ લાગી છે તેથી જાઉં છું, જલદી પાછા ફરીશ કાળની ગહન ગતિને દુઃખદ્ રચના રચવી હતી. આજે જ હાજતે એકલા જવાને બનાવ બન્યો હતો, હંમેશાં તે બધા સાધુઓ સાથે મળીને દિશાએ જતા. * હાજતથી મેકળા થઈ પાછા ફરતા હતા, ત્યાં રેલ્વે લાઈન ઉપર બે ગાયે આવી રહી હતી. બીજી બાજુથી ટ્રેઈન પણ આવી રહી હતી તેની વ્હિસલ વાગવા છતાં પણ ગાયે ખસતી ન હતી. શ્રી વિનોદમુનિનું હદય થરથરી ઉઠયું અને મહા અનુકંપાએ મુનિના હૃદયમાં સ્થાન લીધું. હાથમાં રજોહરણ લઈ જાનના જોખમની પરવા કર્યા વગર ગાયોને બચાવવા ગયા. ગારોને તે બચાવી જ લીધી પરંતુ આ ક્રિયામાં છકાય જીવની દયાના સાધનભૂત જે. રજોહરણ કે વિનોદમુનિને આત્માથી વધારે પ્યારું હતું, તે રેલ્વે લાઈન ઉપર પડી ગયું. અને શ્રી વિનોદમુનિએ તે પાછું સંપાદન કરવામાં જડવાદને સિદ્ધ કરતાં રાક્ષસી એન્જિનને ઝપાટે આવ્યા અને પિતાનું બલિદાન આપ્યું. અરિહંત અરિહંત એવા શબ્દો મુખમાંથી નીકળ્યા અને શરીર તૂટી પડયું. રક્ત પ્રવાહ છૂટી પડે અને થોડા જ વખતમાં પ્રાણાંત થઈ ગયે, બધા લેકે કહેવા લાગ્યા કે ગૌરક્ષામાં મુનિશ્રીએ પ્રાણ આપ્યા અંતિમ સમયે મુનિશ્રીના ચહેરા પર ભવ્ય શક્તિ જ દેખાતી હતી હંમેશાં તેઓ જે તરફ હાજતે જતા હતા તે તરફ ફરીથી કિરણ તરફ જવાની રેલ્વે લાઈન હતી. આ લાઈન ઉપર રેલ્વે સત્તાવાળાઓએ ફાટક મકેલ નથી ત્યાં રસ્તે પણ છે એટલે પશુઓની અવરજવર હોય છે. અને વખતે વખત ત્યાં રો રેલવેની હડફેટે ચડી જવાના પ્રસંગ બને છે. ફરી સંઘે આ દુર્ઘટનાના ખબર રાજકેટ, ટેલીફોનથી આપ્યા. જે વખતે ટેલીફોન આવ્યો. તે વખતે વિદમુનિના પિતાશ્રી બહાર ગયા હતા. અને માતુશ્રી મણિબેન સામાયિક-પ્રતિકમણમાં બેઠાં હતાં, માત્ર એક નોકર જ ઘરમાં હતો કે જેણે ટેલિફેન ઉઠાવ્યું પણ તે કાઈ ટેલીફેનમાં હકીકત શશ શ નહી અને સાચા સમાચાર મેડા મળ્યા. જેથી તેઓ સ્પેશ્યલ પ્લેનથી ફલેદી પહોંચે તે પહેલાં અગ્નિસંસ્કાર થઈ ગયે સૂચનાઓ ટેલીફોન Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 il १४ અર્ધો કલાક માટે પહોંચ્યા. જો સદેશેા સમયસર પહેાંચ્યા હૈાત તે માતા-પિતાને શ્રી વિનાદમુનિના શરૂપે પણ ચહેરા જોવાના અને અતિમ દર્શનના પ્રસંગ મળત પરતુ અંતરાય કર્મે તેમ મન્યુ નહી. * આથી પ્લેઇનના પ્રયાસ પડતા મૂકવામાં આવ્યેશ અને માતા-પિતા તા. ૧૪-૮-૫૭ના રોજ ટ્રેઇન મારફત લાદી પહોંચ્યાં, શ્રી દુર્લભજીભાઇ અને મણિબંને પૂજ્ય તપસ્વીશ્રી લાલચંદજી મહારાજ સાહેબના દન કર્યાં, આ પ્રસંગે શ્રી લાલચંદજી મહારાજ સાહેબે અવસરને પિછાણીને અને ધૈર્યનુ' એકાએક અકય કરીને, શ્રી વિનેદમુનિના માતા–પિતાના સાંત્વન અર્થે ઉપદેશ શરૂ કર્યાં જેને ટૂંકમાં સાર આ પ્રમાણે છે— “ હવે તે રત્ન ચાલ્યું ગયું! સમાજના આશાદીપક ઓલવાઈ ગયા ! ઝટ ઊગીને આથમી ગયા ! હવે એ દીપ ફરીથી આવી શકે તેમ નથી ” ''; શ્રી વિનેાદમુનિના સ*સારપક્ષના માતુશ્રી મણિબેનને મુનિશ્રીએ કહ્યું કેઃએન ! સાવિ પ્રખળ છે. આ ખાખતમાં મહાપુરૂષાએ પણ હાથ ધેાઈ નાખ્યા છે એમ સૌને મરણને શરણ થવુ પડે છે, તે પછી આપણા જેવા પામર પ્રાણીનું શું ગજુ છે? હવે તા શાક દૂર કરીને આપણે એમના મૃત્યુના આદશ જોઇને માત્ર ધીરજ ધરવાની રહી. પૂ. શ્રી સમથસલજી મહારાજ સાહેબના અભિપ્રાયઃ– પ્રાથમિક તેમ જ અલ્પકાળના પરિચયથી મને શ્રી વિનેાદમુનિના વિષે અનુભવ થયા, કે તેમની ધ`પ્રિયતા અને ધર્માભિલાષા ‘અદ્ગિનિના વેમાળુરત્તે’ ના પરિચય કરાવતી હતી પ્રાપ્ત સ`સારિક પ્રચૂર વૈભવ તરફ તેમની રુચિ દૃષ્ટિગોચર થતી ન હતી પરંતુ તે વીતરાગવાણીના સ`સગ થી વિષયવિમુખ ધમ કા માં સદા તત્પર અને તલ્લીન દેખાતા હતા. ખાસ પરિચયના અભાવે વૈરાગ્ય પણ તેમની ધારાથીતેમની ધર્માનુરાગિતા તથા જીવનચર્યાથી કઠિન કાર્ય કરવામાં પણ ગભરાટના સ્થાને સુખાનુભવની વૃત્તિ લક્ષમાં આવતી હતી. વે શ્રી વિાદમુનિના જીવનના બે પ્રશ્નો ઉપસ્થિત થાય છે તેના ખુલાસે કરવામાં આવે છે. પ્ર. ૧. તેમણે આજ્ઞા વગર સ્ત્યમેવ દીક્ષા કેમ લીધી ? ઉત્તર:-પચમાં આરાનાં ભદ્રા શેઠાણીના પુત્ર એવ'તા ( અતિમુક્ત) કુમારને તેમની માતુશ્રીએ દીક્ષાની આજ્ઞા આપવાની તદ્ન ના પાડી એટલે તેણે Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વયમેવ દીક્ષા લીધી. ત્યાર બાદ ભદ્રા શેઠાણીએ પિતાના કુમારને ગુરુને સોંપી દીધા. તેજ રાત્રે તેણે બારમી ભિખુની પડિમા અંગીકાર કરી અને શિયાળણીના પરીષહથી કાળ કરી નલીનગુલ્મ વિમાનમાં ગયા તેવી જ રીતે શ્રી વિનોદકુમાર સ્વયં દીક્ષિત થયા. પ્ર. ૨. આવા વૈરાગી જીવને આ ભયંકર પરીષહ કેમ આવે? ઉત્તર –કેટલાક ચરમ શરીરી જીવને મારણાંતિક ઉપસર્ગ આવેલ છે. જુઓ ગજસુકુમાર મુનિ, મેતાર્ય મુનિ, કેશલ મુનિ, કારણ કે તેમની સત્તામાં હજારે ભવનાં કર્મ હોવા જોઈએ ત્યારે તેમને એકદમ મોક્ષ જવું હતું, તે મારણતિક ઉપસર્ગ આવ્યા વગર એટલાં બધાં કર્મ કેવી રીતે ખપે? બા. બ્ર. શ્રી વિનોદમુનિને આ પરીષહ આવે, જે ઉપરથી એમ અનુમાન થાય છે કે તે એકાવતારી જીવ હોય, શ્રી વિનોદમુનિનું વિસ્તૃત જીવનચરિત્ર જુદા પુસ્તકથી ગુજરાતી ભાષા તથા હિન્દી ભાષામાં છપાયેલ છે તેમાંથી સાર રૂપે અહીં સંક્ષેપ કરેલ છે. शास्त्रमर्मज्ञाः विदूष्यः महासतयः लीम्बडी संप्रदायस्थ स्थानकवासि जैन साधु परमश्रद्धेय-आगम विशारद-चारित्रचूडामणि पूज्याचार्यवर्य श्रीश्यामजी महाराजानां शिष्यापशिष्यापरम्परायां महा. सती साध्वी पूज्यश्री केवळवाई महासतीजी-तत्त्वज्ञ पूज्यश्री माणेक्यचाई महासतीजीमहाभागानां तच्छिष्याणां बालब० रुक्मिणीबाई महापतीजी बालन मीनाकुमारीवाई महासतीजी-बालब० निरञ्जनावाई महासतीजी-चालन अननावाईमहासतीजी बालब० कनकमभावाई महासतीजी महाभागानाञ्च पइविंशत्यधिक विंशतिशततमे वैक्रमान्दे अमदावादनगरसेष्ठिवर्यगृहोद्याने सौराष्ट्र स्थानकवासि जनोपाश्रये अपूर्वादर्शभूनचातुर्मासरयोपलक्ष्ये दिव्यवाणी सद्धर्मोपदेशद्वारा शास्त्रोद्धारसमितेः पूर्णसहयोगदातॄणां सच्चारित्रदयादाक्षिण्यशिक्षादीक्षात्रतपापिज्यादि गुणगणानां प्रशस्ति प्रमूनानि । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 'उवेळोवळितान्तराय विविधव्यापारविध्वंसकः, पापन्नात विपाति पुण्यचरितः श्री वर्धमानः प्रभुः । सम्यग्भक्तजनाथिलापनिचया योगमदानोद्यतः, साध्वी साधु समाज संघपकल पायादपायात्सदा ॥१॥ शान्तो दान्तो नितान् प्रदियो लीनडी संपदाये, मान्यो धन्यो वदान्यः सकलगुणनिधिः पूर्णप्रज्ञो महात्या | जैनाचारमचारमथितसुचरितः पूज्य आचार्यवर्यः, स्वामी श्री श्यामनामा सरिता साघुरूपो बभूव ॥२॥ तच्छिष्ये द्वे अभूत गुणगणलसिता पूर्णविज्ञाविशुद्धा, पूज्या श्री चेकबाई सकल हितकरी शीलपूर्णा लतीजी । तत्वज्ञन्या सतीजी परममुचरिता शासनोद्दीपयित्री, पूज्या माणेक्यलाई सकलगुणयुता शान्तिशीला पवित्रा ॥३॥ वच्छिष्याः पञ्च विख्याता धर्माचारवते रताः । एका महासती साध्वी वालतो ब्रह्मचारिणी ||४|| स्वभाव सरला थव्या धर्मोपदेशदायिनी । रुक्मिणीबाई विख्याता पूर्णवेदुष्यशालिनी ॥५॥ मीनाकुमारी प्रख्यातान्या वालब्रह्मचारिणी । महासती सदा माझी शीलचारित्रशालिनी || ६ || निरञ्जना सतीपूर्णा सुपाध्वी ब्रह्मचारिणी । बाल्यादेव विशुद्धेयं ज्ञानवैराग्यशालिनी ||७|| महासत्यञ्जना साध्वी वाळतो ब्रह्मचारिणी । धर्मोपदेशदानेन जनकल्याणकारिणी ||८|| साध्वी महासती भव्या ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता | शास्त्रोद्धारविधात्री सा राजते कनकप्रभा ||९|| पविशत्यधिके विशेशते विक्रमवत्सरे । अमदावाद संवादे नगश्रेष्ठचुपाश्रये ॥१०॥ अपूर्वादर्शभूतस्य चातुर्मासस्य लक्ष्यतः । शास्त्रोद्धारसमित्याथ सहयोग विधायिकाः ॥११॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासीलालवतिविरचितया प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥ श्री भगवतीसूत्रम् ॥ ( षोडशो भागः ) अथ पञ्चमोद्देशः मारभ्यते चतुर्थोद्देश के पुद्गलातिकायादयो निरूपिताः, ते च प्रत्येकमनन्तपर्यवा इति पञ्चमोदेश के पर्यवा निरुध्यन्ते, इत्येवं संबन्धेन आयातस्यास्य हदमादिमं - सूत्रम् - 'कइविहाणं भंते ! पज्जवा' इत्यादि । मूलम् - कइ विहाणं भंते ! पजवा पन्नता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पन्नत्ता तं जहा जीवपजवाय अजीव पज्जवा य । पज्जवपयं निरवसेसं भाणियव्वं जहा पन्नवणाए । आवलिया णं भंते! किं संखेज्जा समया असंखेज्जा समया अनंता समया ? गोयमा ! नो संखेज्जा समया असंखेज्जा समया नो अनंता समया । आणापाणू पणं भंते! किं संखेज्जा०, एवं चेव । थोवे णं भंते ! किं संखेजा ० एवं चेव । एवं वेत्रि मुहुते वि एवं अहोरते एवं पक्खे मासे उऊ, अयणे संबच्छरे जुगे वासलए वाससहस्से वाससय सहस्से पुगे पु०वे तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे, अववंगे अववे हूहूयंगे हूहूए उप्पलंगे उप्पले पडसंगे पउमे नलिणंगे नलिणे अच्छणिरंगे अच्छणिउरे अउयंगे अउए नउयंगे नउए पउयंगे पउए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे सीसपहेलिया पलिओ मे सागरोवमे ओसप्पिणी एवं उसप्पिणी वि। पोग्गलपरिट्टे णं भंते! किं संखेज्जा लमया असंखेज्जा समया अनंतासमया पुच्छा गोयसा ! नो संखेज्जा समया नो असंखेजा समया अनंता समया । एवं तीयद्धा अणागयद्धा सन्नद्धा । आवलियाओ भ० १ " Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती णं भंते! किं संखेज्जा समया असंखेज्जा लमया अणंता समया पुच्छा, गोयमा! नो संखेज्जा समया लिश अलंखेज्जा समया सिय अणंता समया। आणापाणू ण संते! किं संखेज्जासमया३ पुच्छा एवं चैत्र । थोवा णं भंते ! किं संखेज्जा समया पुच्छा एवं चैव । एवं जाव उस्लप्पिणीओत्ति । पागलपरियट्टा भंते ! किं संखेज्जा समया पुच्छा गोयमा ! णो संखेज्जा समया णो असंखेज्जा समया अर्णता समया। आणापाणू णं भंते ! किं संखेउजाओ आवलियाओ पुच्छा गोयमा ! संखेज्जाओ आवलियाओ णो असंखेज्जाओ आवलियाओणो अणंताओ आवलियाओ। एवं थोवे वि एवं जाव लीलपहेलियत्ति। पलिओवमे णं भंते! किं संखेज्जा३ पुच्छा गोयमा ! णो संखेज्जाओ आवलियौओ असंखेज्जाओ आवलियाओणो अगंताओ आवलियाओ। । एवं सागरोवमे वि एवं ओसप्पिणी वि उस्लप्पिणी वि। पोग्गलपरियट्टे पुच्छा गोयसा ! णो संखेज्जाओ आवलियाओ णो असंखेजाओ आवलियाओ अणंताओ आवलियाओ एवं जाव सम्वद्धा। आणापाणू णं भंते ! किं संखेज्जाओ आवलियाओ पुच्छा गोयमा ! लिय संखेज्जाओ आवलियाओ सिय असंखेज्जाओ० सिय अणंताओ० एवं जाव सीसपहेलियाओ। पलिओवमाणं पुच्छा गोयमा! णो संखेज्जाओ आवलियाओ सिय असंखेजाओ आवलियाओ सिय अणंताओ आवलियाओ एवं जाव उस्लप्पिणीओ। पोग्गलपरिगट्टा णं पुच्छा गोयमा! णो संखेज्जाओ आवलियाओ णो असंखेज्जाओ आवलियाओ अणंताओ आवलियाओ। थोके गं अंते! किं संखेज्जाओ आणापाणूओ असंखेज्जाओ० जहा आवलियाए वत्तवया एवं आणापाणूओ वि निरवसेसा एवं एएणं गमएणं जाव सीस Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ referrer ०२५ उ.५ सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् पहेलिया भाणियव्वा । सागरोवमे णं भंते! किं संखेज्जा पलियोवमा पुच्छा गोयमा ! संखेज्जा पलिओवमा णो असंखेज्जापलिओमा णो अनंता पलिओक्मा एवं ओसप्पिणीए वि उस्सप्पिणी वि | पोग्गल परियहेणं पुच्छा गोयमा ! णो संखेज्जा पलिओमा णो असंखेजा पलिओदमा अनंता पलिओवमा एवं जाव सवद्धा सू०१ 1 छाया— कतिविधाः खल्ल भदन्त ! पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! द्विविधा :पर्यवाः प्रज्ञप्ताः तद्यया जीवपर्यवाच अजीवपर्यवाच पर्यत्रपदं निरवशेषं भणितव्यं यथा प्रज्ञापनायाम् । आवलिका खलु भदन्त ! किं संख्येयाः समयाः, असंख्येयाः समयाः, अनन्ताः समयाः, गौतम ! नो संख्येयाः समयाः, असं ' ख्येयाः समयाः, नो अनन्ताः समयाः । आनत्राणः खलु भदन्त । किं संख्येयाः ० एवमेव । स्तोकः खलु भदन्त । किं संख्येयाः० एवमेव । एवं लवोsपि, मुहूर्तमपि एवमहोरात्रम्, एवं पक्षः, मासः, ऋतुः अयनम् ' संवत्सरः, युगः, वर्षशतम्-वर्षसहस्रम् वर्षशतसहस्रम् - पूर्वङ्गः पूर्व, त्रुटिताङ्गम् त्रुटितम् अटटाइम् अटटम् अववाङ्गम् अदवः, हुहूकाङ्गम् हूहूकः, उत्पलाङ्गम् उत्पलम् पद्माङ्गम् - पद्मम्-नलिनाङ्गम् नलिनम् अच्छनिपुराङ्गम् अच्छनिपुरम् - प्रयुताङ्गम् अयुतम् नयु. ताङ्गम् - नयुतम् प्रयुताङ्गम् प्रयुतम् - चूलिकाङ्गम् चूलिका शीर्ष महेलिकाङ्गम् शीर्षप्रहेलिका पल्पोपमम् सागरोपमम् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी अपि । इगलपरिववर्त्तः खलु भदन्त ! किं संख्येय समयाः, असंख्येयसमयाः, अनन्तसमयाः पृच्छा, गौतम ! नो संख्येयसमया नो असंख्येयसमया अनन्तसमयाः, एवम् अतीताद्धाअनागताद्धाः सर्वार्द्धा । आवलिकाः खलु भदन्त ! किं संख्येयाः समयाः असंख्येयाः समयाः, अनन्ताः समयाः पृच्छा गौतम ! नो संख्येयाः समयाः स्यात् असंख्येयाः समयाः, स्यादनन्ताः समयाः । आनमाणौ किं संख्येया समया ३ पृच्छा एवमेव, स्तोकाः खलु भदन्छ ! किं संख्येयाः समयाः पृच्छा, एवमेव एवं यावत् उत्सर्पिण्य इति । पुद्गलपरिवर्त्ताः किं संख्ये यससयाः पृच्छा - गौतम ! नो संख्येयाः समयाः नो असंख्येयाः समया, अनन्ताः समयाः । आनपाणी खलु भदन्त ! किं संख्यावलिकाः पृच्छा, गौतम ! संख्येया आवळिकाः नों असंख्येया आवलिकाः नो अनन्ता आवलिका, एवं स्तोकोऽपि एवं यावत् शीर्ष महेलिकेति । परोपमं खलु मदन्व ! किं संख्येयाः पृच्छा, गौतम | नो संख्येया आवलिका, असंख्येया आवलिकाः, नो अनन्ता आवलिकाः । एवं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसुत्रे सागरोपममपि, एवमवसपिण्यपि उत्सपिण्यपि । पुद्गलपरिवर्तः पृच्छा, गौतम ! नो संख्येया आवलिकाः, नो असंख्येया आवलिकाः अनन्ता आवलिकाः एवंयावत् सर्वाद्धाः । आनपाणौ खलु मदन्त ! कि संख्येयाआवलिकाः पृच्छा, गौतम ! स्यात् संख्येया आवलिकाः स्यात् असंख्ये या आवलिकाः, रयात् अनन्ता आवलिकाः, एवं यावत् शीप प्रहेलिकाः । पल्योपमानि खलु भदन्त ! पृच्छा गौतम ! नो संख्येया अवलिकाः स्यात् असंख्येया आवलिकाः स्यात् अनन्ता आवलिकाः। एवं यावदुत्सपिण्यः । पुद्गलपरिवर्ताः खलु पृन्छा-गौतम ! नो संख्येया आवलिकाः, नो असंख्येया आवलिकाः अनन्ता आवलिकाः । स्तोकः खलु भदन्त ! कि संख्येया आनमाणाः असंख्येयाः० यथा आवलिझायां वक्तव्यता एवमान. प्राणा अपि निरक्शेपाः, एवमेतेन गमकेन यावत् शीर्ष पहेकिका भणितव्याः। सागरोपमं खलु भदन्त ! कि संख्येयाः पत्योपमाः पृच्छा-गौतम ! संख्येयाः पल्योपमाः, नो असंख्येवा: पल्योपमाः, नो अनन्ताः पल्योपमाः। एवमव सपिण्यामपि-उत्सपिण्यामपि । पुद्गलपरिवर्तः खलु पृच्छा, गौतम ! नो संख्येयाः पल्योपमाः नो असंख्येया पल्योपमाः अनन्ताः पल्योपमा एवं यावत् सर्वोद्धा ।।मु०१॥ ' टीका-'काविहा णं भंते ! पज्जवा पन्नत्ता' कतिविधा:-कति प्रकारकाः खलु भदन्त ! पर्यवाः प्राप्ताः ? पर्यवाः, गुणाः, धर्माः, विशेषा इति पर्यायाः। भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पज्जवा पन्नत्ता' पांचवें उद्देशे का प्रारंभचतुर्थ उद्देशक में पुद्गलास्तिकाय आदि का निरूपण किया है सो ये पुद्गलारितज्ञाय आदि प्रत्येक अनन्त पर्यायों वाले होते हैं अतः इस पंचम उद्देशक में सत्रकार अब पर्यायों का निरूपण करते हैं'काविहाणं भंते ! पज्जवा पन्नत्ता' इत्यादि सूत्र १॥ . टीकार्थ-गौतलस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'काविहा णं भंते ! पजवा पन्नत्ता' हे भदन्त ! पर्यायें कितने प्रकार की कही गई है? पायमा देशना प्रारमચોથા ઉદેશામાં પુદ્ગલાસ્તિકાય વિગેરેનું નિરૂપણુસૂત્રકારે કર્યું છે. આ પુદ્ગલાસ્તિકાય વિગેરે પ્રત્યેક અનંત પર્યાવાળા હોય છે જેથી આ પાંચમા ઉદ્દેશામાં સૂત્રકાર પર્યાનું નિરૂપણ કરે છે. – . 'कइविहा णं भंते ! पजवा पन्नत्ता' त्यहि -श्रीगीतम स्वामी प्रभुश्रीन से पूछ्युछे-"काविहा णं भवे ! पज्जवा पन्नत्ता' 3 सावान ५या या टस हारना ४६ छ ? या प्रश्ना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ ०१ पर्यवादिनिरूपणम् द्विविधाः पर्यवाः प्रज्ञप्ता इति, 'तं जहा' तद्यथा 'जीवपज्जवा य अजीवपज्जवा य' जीवपर्यवाच अजीवपर्यवाश्च तत्र जीवपर्यत्राः जीवधर्माः, एत्रमजीवपर्यवा:अजीवधर्मा इति । सहभाविनो गुणाः - शुक्काऽऽदयः, क्रमभाविनो पर्यायाः, 'पज्जवषयं निरवसेसं भाणियन्वं जहा पनवणाए' पर्यत्रपद निरवशेषं भणितव्यम् यथा प्रज्ञापनायाम् । पर्यवपदं च विशेषपदापरपर्यायं प्रज्ञापनायां पञ्चमं पदम् तच्चैवम् 'जीवपज्जवाणं भंते ! किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अनंता' इत्यादि, जीवपर्यत्राः खल भदन्त । किं संख्येया असंख्येया अनन्ता वा भवन्तीति प्रश्नः । हे गौतम | नो संख्येयाः, उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! दुबिहा पज्जवा पश्नत्ता' हे गौतम | पर्यायें दो प्रकार की कही गई है । पर्यव, गुण' धर्म, विशेष' ये सब पर्यायों के नामान्तर है । 'तं जहां' वे दो प्रकार ये हैं- 'जीव पज्जवा य अजीव पज्जवा य' एक जीव पर्याय और दूसरी अजीव पर्याय, जीव के धर्म जीव पर्याय हैं और अजीव के धर्म अजीव पर्याय हैं । 'पज्जवपयं निरवसेसं भाणियां जहा पनवणाए' प्रज्ञापनासूत्र में पर्यव पद यह विशेष पद है और यह पांचवां पद है वह इस प्रकार से है'जीववज्जवा णं भंते! किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो संखेज्जानो असंखेज्जा अनंता' हे भदन्त ! जीव पर्यव क्या संख्यातहै ? अथवा असंख्यात हैं ? अथवा अनन्त हैं ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है कि हे गौतम । जीव पर्यव न संख्यात है न असंख्यात हैं किन्तु अनन्त हैं | इत्यादि । इस प्रकार से यहां प्रज्ञापना सूत्र का समग्र पर्यव उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वामी ने डे गौतम ! पर्याय में अहारना उद्या छे, अधा पर्यायाना नाभी छे 'तं जहा' ते मे बाय अजीवपज्जवा य' मे ધર્માં તે જીવ પર્યાય છે અને અજીવના ધર્માં તે અજીવ પાંચે છે. ાવ पयं निरवसेस भाणियव्व" जहा पन्नवणाए' प्रज्ञापना सूत्र - 'गोयमा दुविहा पज्जवा पन्नता' पर्यंव, गुणु, धर्म विशेष मा हा प्रभा छे 'जीवपज्ज' पर्याय भने मील सलव पर्याय भवना यह પર્યાય પદ છે, તે સમગ્ર અહિયાં કહેવુ જોઇએ તે પદ આ પ્રમાણે છે. --~ 'जीवपज्जवा ण भते ! कि संखेज्जा असखेज्जा अनंता ? गोयमा ! नो सखेज्जा नो असखेज्जा अण ता' हे भगवन् व पर्याय। शुद्ध सख्यात है ? असख्यात है ? અનંત છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! જીવ પાંચ સ'ખ્યાત નથી તેમ અસખ્યાત પણ નથી. પરંતુ અનંત છે ઈત્યાદિ આ પર્યાય પદ સમ્પૂર્ણ અહિયાં કહેવુ જોઇએ, જીવ્ર પર્યાયે અન ંત એટલા માટે Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवतीस्त्र नो असंख्येयाः किन्तु अनन्ताः वनस्पतिसिद्धानामनन्तत्वात् अनन्ता एव जीव यंवा भवन्ति न तु संख्येया असंख्येया वा भवन्तीति कथितम् इत्याधुत्तरम् । विशेषाधिकारात् समयानधिकृत्य एकवचनेन कालविशेपसूत्रमाह-'आलिया णं भंते ।" इत्यादि । 'आवलिया णं भंते । किं संखेज्जा समया असंखेज्जा समया अर्णता समया' आवलिकेति आवलि कार्या खलु भदन्त । किं संख्येयाः समया:, असंख्येयाः समया वा .अनन्ताः समया वेति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा ! इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो संखेन्जा समया' नो संख्याताः समया आवलिकायां भवन्ति किन्तु 'असंखेज्जा समया' असंख्येयाः समयाः आवलि. फायां भवन्ति, 'णो अणंता समया' नो अनन्ताः समया अपि आवलिकायां भवति 'आणापाणं भंते ! किं संखेज्जा०' आनमाण-श्वासोच्छासरूपः स कि पद इसका दूसरा नाम विशेष पद जो पांचवां पद है वह यहां कहना चाहिये। जीवपर्याय अनन्त इसलिये कहा गया है कि वनसति और सिद्ध अनन्त हैं । अतः उनकी पर्यायें भी अनन्त हैं। संख्यात असंख्यात नहीं हैं। - अब समय पद को लेकर एकवचन से करते हैं-'आवलियाण भंते! कि संखेज्जा रूलया, असंखेज्जा समया अणता समया?' इस स्त्रद्वारा गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐला पूछा है-हे भदन्त ! एक आवलिका में क्या संख्यात लमय होते हैं ? अथवा असंख्घात समय होते हैं, अथवा अनन्त समय होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो संखेज्जा हमया असंखेज्जा समया हे गौतम ? एक आवलिका में संख्याल समय नहीं होते है किन्तु असंख्यात समय होते हैं । 'यो अर्णता समया' अनन्त समय भी नहीं होते हैं। કહ્યા છે કે–વનસ્પતિ અને સિધ્ધ અનંત છે, જેથી તેના પર્યાયે પણ અનંત છે સંખ્યાત કે અસંખ્યાત નથી. 'आवलिया ण मंते ! कि संखेज्जा समया असंखेज्जा समया अणता समया' मा सूत्रा। गौतमस्वाभीमे प्रभुश्रीन से पुछ्युछे 2-3 मगवान् એક આવલિકામાં શું સંખ્યાત સમય હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત સમય હોય છે ? અથવા અનંત સમય હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી हेछ है-'गोयमा । नो सखेज्जा समया असंखेज्जा समया' गौतम આવલિકામાં સંથાત સમય હોતા નથી પરંતુ અસંખ્યાત સમય હોય છે, 'णो अणता समया' मनत समय ५५ हात नथी. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् संख्येयाः समयाः, हे भदन्त ! आनमाणः असंख्यातावलिकानामेक, आनप्राणः श्वासोच्छ्वासरूपः, स किं संख्यातसमयरूपः असंख्यातसमयरूपः, अनन्तसमयरूपो वा भवति ? इति प्रश्नाशयः । उत्तरमाह - 'एव चैत्र' एवमेव - आवलिकावदेव आनप्राणो न संख्यातसमयरूपो, न वा अनन्तसमयरूपो किन्तु असंख्यासमय रूपो स इति भावः । 'थोवे णं भंते । किं संखेज्जा" स्तोकः - सप्तानपाणानामेकः स्तोक: खलु भदन्त ! किं संख्यातसमयरूपः असंख्यात समय रूपोऽनन्त समय रूपोवेति प्रश्नः । उत्तरमाह-'एवं चेव' एवमेव स्तोको न संख्यातसमयरूपो न वाऽनन्तसमरूपः किन्तु असंख्यातसमयरूप इति भावः । एवं लवेवि' एवं लवोऽपि सप्त ७ 'आपण' भंते ! 'किं संखेज्जा ० ' हे भदन्त | एक श्वासोश्वास जो कि असख्यात आवलियों का होता है क्या संख्यात समय रूप होता है ! अथवा असंख्यात समय रूप होता है अथवा अनन्त समय रूप होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' एवं 'वेव' हे गौतम | श्वास और उच्छ्वास न संख्यात समयरूप होता है और न अनन्त समय रूप होता है किन्तु असंख्यात समय रूप होता हैं । 'धोवे ण' भंते ! किं संखेज्जा० हे भदन्त ! सात आनप्राणों का श्वासोच्छ्वासों का जो एक स्तोक होता है वह क्या संख्यात समय रूप होता है ? अथवा असंख्यात समय रूप होता है ? अथवा अनन्त समय रूप होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' एवं 'चेव' हे गौतम ! स्तोक न संख्यात समय रूप होता है और न अनन्त समयरूप होता है किन्तु असंख्यात समय रूप होता है । 'एवं लवे वि' खान स्लोकों का जो ला होता भे 'आणापाणूण भंते! किं संखेज्जा' हे भगवन् श्वासास અસખ્યાત આવલિકાઓનેા થાય છે. તે શું સખ્યાત સમય રૂપ હોય છે? અથવા અસખ્યાત સમય રૂપ હોય છે ? અથવા અનત સમય રૂપ હૈ ય છે ? श्या अश्नना उत्तरमां प्रभु डे छेडे - ' एवं चेव' हे गौतम! श्वास भने स्वास સખ્યાત સમય રૂપ હૈ;તા નથી અને અનંત સમય રૂપ પણ હાતા નથી પરંતુ असौंध्यात समय ३ष होय छे. 'थोवे णं संवे कि सखेज्जा० है लगवन् सात मानપ્રાણેાના એટલે કે શ્વાસેવાસેાના એક સ્નેક થાય છેતે સ્નેક શુ' સખ્યાત સમય રૂપ હાય છે ? કે અસખ્યાત સમય રૂપ હાય છે ? અથવા અનંત સમય ३५ सय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनु छे है- 'एवं चेव' हे गीतभ ! સ્નેક સખ્યાત સમય રૂપ હાતા નથી અને અનંત સમય રૂપ પણ હાતે नथी पर ंतु ते असण्यात समय ३५ हाय छे, 'एवं लवे वि' सात स्तेमिना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती स्तोकानामेको लवा, “एवं मुहुत्तेवि' एवं मुहत्तोऽपि-सप्तसप्ततिलवानामेको मुहर्स: 'एवं अहोरत्ते' एक्सहोरात्रम्-त्रिंशन्सुहूर्त्तम् । 'एवं पक्खे' एवं पक्षः, एतेषां स्वरूपमनुयोगद्वारे द्रष्टव्यम् 'मासे' मासः, 'उऊ' ऋतु द्विमासात्मको निदाघादि वसन्तान्तः, 'अयणे' अपनं पण्मासात्मकस्, 'संवच्छरे' संवत्सरः-द्वादशमासा स्मका, 'जुगे' युगं-पञ्चसंवत्सरात्मकम् 'वाससए' वर्षशतम् 'वाससहम्से' वर्षसहस्रम् 'वाससयसहस्से' वर्ष शतसहस्रम्-लक्षमित्यर्थः 'पुन्चंगे' पूनिः , 'पुन्चे' पूर्वः . 'तुढियंगे' त्रुष्टिताङ्गः, 'तुडिए' त्रुटितम्, 'अडडंगे' अटटाङ्गः, 'अडढे' अटटा, है-वह भी असंख्यात समयरूप होता है । 'एवं मुहत्ते वि' ७७ लवों का जो एक मुहूर्त होता है वह भी असंख्यात लमयरूप होता है । 'एवं अहारते' तील मुहूर्त का जो एक अहोरात्र होता है वह भी असंख्यात लमय रूप होता है । 'एवं पक्खे' इली प्रकार से एक पक्ष भी असंख्यान समयरूप होता है । इन सबका स्वरूा अनुयोगद्वार में है सो वहां से जान लेना चाहिये । 'मासे' मास 'उज' द्विमासत्सक ऋतुनिदाघ से लेकर बसन्त तक का काल 'अयणे छह मासात्मक काल 'संवच्छरे' द्वादशमासात्मक काल 'जुगे' पांच वर्षात्मक काल 'वाससए' १०० वर्षात्मक काल 'बालसहस्से' एक हजार वर्षात्मक काल 'वाससय. 'सहस्ले' लक्षवर्षात्मक काल 'पुवंगे' एक पूर्वांगरूप काल 'पुब्छ' एक पूर्वरूप काल 'तुडियंगे' एक दिनांगरूप काल 'तुडिए' एक त्रुटितरूप काल 'अडडंगे' एक अटटांगरूप काल 'अडडे' एक अटटरूप काल 'अक्वंगे' २ से १ थाय छ. त ५ असभ्यात समय ३५ उय छे. 'एव मुहुत्ते વિ સતેર લોનું એક મુહૂર્ત થાય છે તે પણ અસંખ્યાત સમયરૂપ હોય છે "एवं अहोरत्तेवि' श्रीस मुहताना मे मारा थाय छ ते ५ मसभ्यान समय ३५ डाय छे. 'एव पक्खा' मे४ मा मे ५६५ भसध्यात સમય રૂપ હોય છેઆ બધાનુ વર્ણન અનુગ દ્વાર સૂત્રમાં વિશેષ રૂપથી ४४स छे. तो ते त्यांथी समल ते 'मासे' महिना 'ऊउ' मे भासनी ऋतु निहायथी न त सँधी न 'अयणे' छ भासतुं मे अयन 'संवच्छरे' सार भास ३५ समय वर्ष 'जुगे' पायवर्षात्म: समय 'वाससए' से बना 'वाससहस्से' को १२ वर्ष ३५ समय 'वाससयसहरसे' alm qष ३५ ४॥ 'पुव्वंगे' 2 पू । ३५ समय 'पुव्वे' मे४ पूर्फ ३५ समय 'तुड़ियंगे' 28 त्रुटित ३५ समय 'तुडिए' गेत्रुटित ३५ ण 'अडडगे' से PATin ३५ । 'अडडे' मे २८८ ३५ ण 'अववंगे' 28 Aqin Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ therefer frer श०२५ उ.५ सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् T 'अववंगे' अववाङ्ग', 'अवचे' अवन', 'हूहूयंगे' हूहू काङ्गः, 'हूहूए ' हुहूक: ' उप्पलंगे' उत्पळाङ्गः, 'उपले' उत्पलम्, 'पउमंगे' पद्माङ्ग', 'पउमे' पद्मम् 'निळि गंगे' नलिनाङ्ग', 'नलिणे' नलिनः 'अच्छणिपुरंगे' अच्छनिपुराङ्गः, 'अच्छणिपुरे ' अच्छनिपुरः, 'अभ्यंगे' अयुताङ्गः, 'अउए' अयुतम्, 'नउयंगे' नयुताङ्गः, 'नउए' नयुतम् 'पउयंगे' प्रयुताङ्गः, 'पउए' मयुतम् 'चुलियंगे' चूलिकाङ्ग', 'चूलिए' चूलिका, 'सीसपहेलियेंगे' शीर्ष महेलिकाङ्गः, 'सीसपहेलिया' शीर्ष महे लिकाः, 'पलिओ मे' पल्योपमम् 'सागरोवमे' सागरोपमम् 'ओसविणी' अत्रसर्पिणी, ' एवं उस्सप्पिणीवि' एवमुत्सर्पिण्यपि, आनमाणादारभ्य उत्सर्पिणीपर्यन्ताः कालविशेषाः नो संख्यातसमयात्मका न वा अनन्तसमयात्मकाः किन्तु एक अवयांग रूप काल 'अववे' एक अववरूप काल 'हृयंगे' एक 'हह कारूप काल' 'हृहुए' एक हूहूकरूप काल 'उप्पलंगे' 'उप्पलांगरूप काल 'प' एक उत्पलरूप काल 'उमंगे' एक पद्मांगरूप काल 'पउसे' एक पद्मरूप काल 'नलिणंगे' एक नलिनाद्गरूप काल 'नलिणे' एक नलिनरूप काल ' अच्छणिपुरंगे' एक अच्छनिपुराङ्गरूप काल ' अच्छणिपुरे ' एक अच्छणिपुर रूप काल 'अयंगे' एक अयुताङ्गरूपकाल 'अउए' एक अयुतरूप काल 'नउयंगे' एक नयुताङ्गरूप काल 'नए' एक नयुतरूप काल 'येंगे' एक प्रयुताङ्गरूप काल 'पडए' एक प्रयुतरूप काल 'चूलि यंगे' एक चूलिकाङ्गरूप काल 'चूलिए' एक चूलिका रूप काल सोर्स पहेलियंगे' एक शीर्ष प्रहेलिकाङ्गरूप काल' 'सिसपहेलिया' एक शीर्ष प्रहेलिकारूप काल 'पलिओदमे' पल्योपमरूप काल 'सागरोत्रमे' साग रोपमरूप काल 'ओपिणी' अवसर्पिणीरूप काल 'एवं उस्सप्पिणी वि' और उत्सर्पिणी रूप काल ये सब आन प्राण से लेकर उत्सर्पिणी तक 'हूहूए' ३५ आज ‘अववे' मेऽ भवव३५ । 'हूहूयंगे' ये डूडूांग डूडू४ ३याज 'उप्पलंगे' मे उत्पांग ३५ समय 'उप्पले' से उत्पन ३५ 'परम'गे' पाद्मांग३य आज 'पउमे' मे ३५ आज 'नलिणंगे' मेनसि नांगइयाण 'नलिणे' मे नसिन ३५ अण ' अच्छणिपुरंगे' शो २छ नियुरांग ३५ ५'७ ‘अच्छणिपुरे’ छ निपुर ३५ ' 'अउयगे' युतांग ३५ अज 'ब्रउए' ४ अयुत ३५ अ 'नउयंगे' मे नयुतांग ३५ ठा ‘नउए' शे४ नयुत ३५ ४ा 'पउच' मे प्रयुतांग ३५ । 'पए' ४ प्रयुत ३५ ४० 'चूलियंगे' ४ सिग ३५ आज 'चूलिए' से यूसिम ३५ आ 'स्वीसपहेलियगे' मे शीर्ष डेसिग ३५ म 'सिस पहेलिया' ! शीर्ष अड्डे सिमा ३५ द्वाण 'पलिओक्मे' पस्योपस ३५ ४ 'सागरोवमे' सागरेश्म ३५ आज ‘ओसप्पिणी' व्यवसर्पिी ३५ ० 'एव उस्सप्पिणी वि' भने उत्सर्पिणी म० २ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे असंख्यातसमयस्वरूपा भवन्तीति भावः । 'पोग्गलपरियट्टे णं भंते !! पुद्गल परिवर्त इति पुद्गलपरिवः खलु भदन्त ! 'किं शंखेज्जा समया' कि संख्याताः समया:, 'असंखेज्जा समया' असंख्याताः समयाः, 'अणता ससया' अनन्ताः समया वा किमिति पृच्छा, उत्तरमाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखेज्जा समया णो असंखेज्जा समया' नो संख्याताः समयाः पुद्गलपरिवर्ते 'नो वा असंख्याताः समयाः किन्तु 'अणना समया' अनन्ताः समयाः पुद्गलपरिघः इति । एवं तीयद्धा-अणागयद्धा सम्बद्धा' एवमतीताद्धा अनागताद्धा सर्वाद्धा, नो संख्यातसमयरूपा न वा असंख्यातसमयरूपाऽपितु अनन्तसमयात्म केति । के काल विशेष न संख्यात समशरूप होते हैं, न अनन्तसमय रूप होते हैं किन्तु असंख्यात समय रूप ही होते हैं। *'पोग्गलपरियटेणं अंते ! कि लखेज्जा समया असंखेज्जा सत्रया, अणंता समया पुच्छा, श्री गौतमस्वामी ने इस सत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! एक पुद्गल परिवर्त क्या संख्यात समय रूप होता है ? अथवा अलख्यात लमयरूप होता है अथवा अनन्त लमयरूप होना है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो संखेज्जा समचा, णो असंखेज्जा समया अजंता समया' हे गौतम ! एक पुद्गल परिवर्तरूप काल न संख्यात समय रूप होना हैन असंख्यात समयरूप होता है, किंतु अनन्तसमयरूप होता है। 'एवं तीयद्धा अणागयद्धा सव्वद्धा' इसी प्रकार से अतीतकाल, अनागत काल और सद्विारूप काल ये सब काल भी अनन्त समय रूप होते हैं। રૂપ કાળ આ બધા આનપ્રાણથી લઈને ઉત્સર્પિણું સુધિના કાળ વિશેષ સંખ્યાન સમય રૂપ નથી તેમ અનંત સમય રૂપ પણ નથી પરંતુ અસંખ્યાત સમય રૂપ જ હોય છે. पोग्गलपरियट्टे णं भंते किं सखेज्जा समया असंखेज्जा समया अणता समया પુરી ગૌતમ સ્વામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કેહે ભગવન એક પુદ્ગલ પરિવર્ત શુ સંખ્યાત સમય રૂપ હોય છે. અથવા અસંખ્યાત સમય રૂપ હોય છે ? કે અનંત સમય રૂપ હોય છે? આ પ્રશ્ન ના उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा णो संखेज्जा समया णा असंखेज्जा समया अणंता समया' है गौतम ! ४ परिवत ३५ १ सयात समय ૨૫ હેત નથી તેમ અસંખ્યાત સમય રૂપ પણ હોતું નથી. પરંતુ અનંત समय ३५ डाय छ ‘एवं तीयद्धा अणागयद्धा सव्वद्धा' से प्रभारी मतीत કાળ (ભૂતકાળ) આનંગત કાળ ભવિષ્યકાળ અને સર્વાધા રૂપ કાળ આ બધા કાળે પણ અનંત સમય રૂપ જ હોય છે, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ ०१ पर्यवादिनिरूपणम् अथ बहुत्वमधिकृत्याह-'आवलियाओ णं भंते ! किं सखेज्जा समया पुच्छा' आवलिकाः, इति आनलिकासु खलु भदन्त ! कि संख्यातः समया इति पृच्छा हे भदन्त ! इमा आवलिकाः किं संख्यातसमयरूपा असंख्यातसमयरूंपा वा अनन्तसमयरूपा वेति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखेज्जा समया' तासु नो संख्याताः समयाः, एकस्यामपि आवलिकायामसंख्याता: समया भवन्ति बहुषु पुनरसंख्याता अनन्ता वा समया: स्युनतु संख्येया इत्याइ--'सिय असंखेमा समया' स्यात्-कदाचित् असंख्यात.' समयस्वरूपाः, । "सिय अणंता समया' स्यात्-कदाचित् असंख्यातसमयस्वरूपाः, । 'सिय अणंता समया' स्पात्-कदाचित् अनन्तसमयरूपा चा इति । 'आणपाण णं भंते ! कि संखेज्जा समया ३' आनप्राणाः खलु भदन्त ! किं ____ अब बहुचन को लेकर श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं'आवलियाओणं भते! कि संखेज्जा समया पुच्छा' हे भदन्त बहुत आवलिकाएँ क्या संख्यात लमय रूप में अथवा अस ख्यात समय रूप हैं। अथवा अनन्त समय रूप हैं ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गीयमा ! णो संखज्जा लमया' हे गौतम बहुत आपलिकाए संख्यात समयरूप नहीं होती है क्योंकि एक ही आवलिका में असंख्यात समय होते हैं। अतः 'सिय असंखेज्जा लिथ अणता समधा बहुत आचलिकाएं कदा. चित् असंख्यात लमय रूप भी होती हैं और कदाचित् अनन्त समय रूप भी होती है 'आणापाणूगं आते ! किं खेज्जा लषया३' हे भदन्तक्या बहुत श्वासोच्छ्वास सख्यात समध रूप होते हैं ? अथवा असं. ख्यात समय रूप होते है ? अथवा अनन्त समय रूप होते हैं ? उत्तर में હવે બહુવચનને આશ્રય લઈને ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રી ને એવું પૂછે છે है-'आवलियाओ णं भवे किं सखेज्जा बमया पुच्छा' है सपन सघणी मा. લિકાએ શું સંખ્યાત સમય રૂપ છે ? અથવા અસંખ્યાત સમય રૂપ છે ? અથવા અનંત સમય રૂપ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा णो संखेज्जा समया' गोतम १ सयजी मसिमे सच्यात समय રૂપ હોતી નથી કેમકે-એક આવલિકામાં અસંખ્યાત સમય હોય છે. જેથી 'सिय असंखज्जा सिय अणंता समया' सघणी मावति। अवा२ असभ्यात સમયે રૂપ પણ હોય છે અને કેઈવાર અનંત સમય રૂપ પણ હોય છે 'आणापाणूणं भंते कि सखेज्जा समया' 8 सावन सघा वास२पास, સંખ્યાત સમય રૂપ હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત સમય રૂપ હોય છે ? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती संख्यातसमयरूपा असंख्यातसमयरूपा अनन्तसमयरूपावेति प्रश्नः । उत्तरमाह - - ' एवं चेव' एवमेव - आवलिकावदेव आनपाणा अपि श्वासोच्छासाः नो संख्यात - समयरूपाः किन्तु स्यात् असंख्यात समयरूपाः स्यादनन्तसमयरूपा इति । 'धोवा णं भंते! किं संखेज्जा समया३' स्तोकाः खलु भदन्त । संख्यातसमयरूपा असंख्यातसमयरूपाः अनन्तसमयरूपा वा भवन्तीति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' एवं चेव' एवमेव स्तोकाः न संख्यातसमयरूपाः किन्तु कदाचित् असंख्यात समयरूपाः कदाचिदनन्तसमवरूपा भवन्ति, ' एवं जाव उस्सप्पिणीओत्ति' एवं यावदुसर्पिणीति एवमेव लादारभ्यत्सर्पिणी पर्यन्तकालानां कदाचिदसंख्यातरूपत्वं कदाचिद् अनन्तसमयस्वरूपत्वमवगन्तव्यं न तु कदाचिदपि संरूपातसमय T प्रभुश्री कहते हैं - 'एवं चेच' हे गौतम ! आवलिकाओं की तरह बहुत श्वासोच्छ्रवाल भी कदाचित् असंख्यात समयरूप होते हैं और कदाचित् अनन्त समरूप होते हैं । 'थोवाणं भते ! किं संखेज्जा समया ३' हे भदन्त ! बहुत स्तोक क्या संख्यात समय रूप होते हैं अथवा असंख्यात समरूप होते हैं अथवा अनन्त समय रूप होते हैं ? उसर में प्रभुश्री कहते है- 'एवं चेव' हे गौतम! श्वासोच्छ्वासों की तरह बहुत स्तोक कदाचित् असंख्यात समय रूप होते हैं और कदाचित् अनन्त ममय रूप होते हैं । ' एवं जाव उस्सपिनीओत्ति' इली प्रकार से यावत् बहुत उत्सर्पिणी तक के कालविशेष कदाचित् असंख्यात समय रूप होते हैं और कदाचित् अनन्त समय रूप होते हैं । बहुत आवलिकाओं से लेकर उत्सर्पिणी तक के काल અથવા અનંત સમય રૂપ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है-'एवं चेव' हे गौतम ! आवसियोना स्थन प्रभाये सधणा वासोवास પણ કેાઈવાર અસંખ્યાત સમય રૂપ હોય છે અને કેાઈવાર અનંત સમય રૂપ डाय छे. 'थोवाणं भवे कि सखेज्जा समया' डे भगवन् सघणा स्तोभ शु સખ્યાત સમય રૂપ હોય છે ? અથવા અસખ્યાત સમય રૂપ હાય છે ? અથવા અનંત સમય રૂપ હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને म छे !-' एवं चेव हे गौतम! श्वास वासना उथन प्रमाणे सघणा स्तो કેાઈવાર અસંખ્યાત સમય રૂપ હાય છે અને કેાઇવાર અનંત સમય રૂપ डायं छे ‘एवं जाव उस्सप्पिणीओत्ति' मे प्रभा यावत् उत्सर्पिणी सुधीना કાળ વિશેષેા કેાઈવાર અસખ્યાત સમય રૂપ હાય છે, અને કૈાઈવાર અન ત Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् रूपत्वमिति । 'पोग्गळपरियट्टा णं भंते ! किं संखेज्ना समया पुच्छा' पुद्गलपरिवर्ताः खलु भदन्त ! कि संख्यावसमयरूपा असंख्यातसमयरूपा अनन्तसमयरूपा वेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखेज्जासमया णो असंखेज्जा समया' नो संख्यातसमयरूपाः पुद्गलपरिवर्ताः नो वा अस. ख्यातसमयरूपाः किन्तु 'अणंता समया' तेषु अनन्ताः समया भवन्ति, अनन्तसमयस्वरूपास्ते भवन्तीति अथाऽवलिकामधिकृत्य एकवचनेनाह 'आणा.. पाणणं भंते ! किं संखेज्जायो आवलियाओ पुच्छा' आनमाणः खलु भदन्त ! कि संख्यातावलिकारूपा कि वा असंख्यातालिकारूप: अथवा अनन्तावलिकारूप इति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! संख्यात स्वरूप कभी नहीं होते हैं । 'पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संख ज्जा समया पुच्छा' हे भदन्त बहुत पुद्गल परिवर्तक्या संख्यात समय रूप होते हैं ? अथवा असंख्यात समयरूप होते हैं ? अथवा अनन्त समयरूप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! हे गौतम ! 'णो संखेज्जा समया णो असंखेज्जा समया अणंता समया' बहुत पुदल परिवर्तन संख्यात समय रूप होते हैं न असंख्यात समय रूप होते हैं किन्तु अनन्त लषय रूप होते हैं। ... अब आवलिकापद को लेकर एक पचन से कहते हैं-'आणापाणू गंभंते ! कि सखेज्जाओ आवलियाओ पुच्छा' हे भदन्त ! श्वासो. च्छ्वास क्या संख्यात आवलिकारूप होता हैं ? अथवा असंख्यात आवलिकारूप होता है ? अथवा अनन्त आवलिका रूप होता? इस प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा संखेज्जामा સમય રૂપ હોય છે સઘળી આવલિકાઓથી લઈને સઘળી ઉત્સર્પિણી સધીને आज सेण्यात समय ३५ ४५॥श्य हात नथी योग्गलपरियट्टा ण भंते कि संखज्जा समया पुच्छा' हे मावन सघा पुनः परिवत ३५ ॥ शु. सध्यात समय રૂપ હોય છે ? અથવા અસંમ્પાત સમય રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત સમય રૂપ હોય છે, આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! है गौतम ! 'णो संखेज्जा समया णो असंखेज्जा समया अणता समया'. સઘળા પુગલ પરિવર્ત રૂપ કાળ સંખ્યાત સમય રૂપ ઉતા નથી, અસંખ્યાત समय ३५ ५५ हात नथी. ५२'तु मानत समय ३५ डाय छे. 'माणापाणण'. भते ! किं संखेज्जाओ आवलियाओ, पुच्छा' है मगवन् सघना श्वासोछसि। શું સંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે? અથવા અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત આવલિકા રૂપ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભશ્રી Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसत्रे 'संखेज्जाओ आलियाओ' संख्यातावलि कारवरूप आनप्राणो भवति ‘णो असं. खेजाओ आवलियाओ णो अणंताओ आबलियाओ' नो असंख्यातावलिकारूपो, नों बा अनन्तावलिकारूपो वा इति । 'एवं धोवेवि' एवम् --आनमाणवदेव स्तोकोऽपि संख्यातावलिकारूप एक न तु असंख्यातापलिकारूपः, न वा अनन्तावलिकारूप: 'एवं जाव सीसपहेलियत्ति' एवं यावत् शीर्पपहेलिकति, लवादारभ्य शीपमहेलिकापर्यन्तकालोऽपि संख्यातालिकाम्प एव भवति न तु असंख्याता. पलिकारूपो न वा अनन्तावलिकारूप इति भावः । 'पलिओवमेणं भंते ! किं संखे. ज्जा पुन्छा' पल्यो खल्नु भदन्त ! किं संख्यातायातकापरूम् अथवा असंख्याता: वलिकारूपम् अथवा अनन्तावलिझारूपमिति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयसा' हे गौतम ! ‘णो संखेज्जाओ आवलियओ' नो संख्याता. आंवलियाओ' हे गौतम ! आनप्राणश्वासोच्छ्वास-संख्यात आवलिका स्वरूप होता है। 'णो असंखेज्जाओ आवलियाश्री णो अणंताओ आवलियाओ' असंख्यात आवलिकास्वरूप नहीं होता है और न अनन्त आवलिकास्वरूप होता हैं। 'एवं थोवे वि' इसी प्रकार से स्तोक भी संख्यात आवलियारूप ही होता है असंख्याल आवलिमारूप अथवा अनन्तावलिका रूप नहीं होता है । 'एवं जाव सील पहेलियत्ति' इसी प्रकार लव से लेकर शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त काल भी संख्यात आवलिका रूप ही होता है, असंख्यात आपलिकारूप नहीं होता है और नं अनन्त आवलिका रूप होता है, 'पलि मोवमे णं भंते। कि संखेज्जा पुच्छ।' श्रीगौतम ने इस स्तूप्रद्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे अदन्त । पल्यापम रूप जो काल है वह क्या संख्यात, आवलिका रूप होता है ? अथवा असंख्यात्त आवलिका रूप होता है ? छ है-'गोयमा, सखेज्जाओ आवलियाओ' हे गीतम ! मानप्राय-वासीपास स-या भावति। ३५ डाय छ, 'णो असखेज्जाओ आवलियाओ० णों अणंताओ आवलिया ओ' ममन्यात भावलि ३५ हाता नथी. गाने मानत विति: २१३५ ५५ डरता नथी. 'एव थोवे वि' मे२४ प्रमाणे ते४ ५९ સંખ્યાતે આવલિકા રૂપ જે હોય છે. અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ અથવા मनात मावलि ३५ हाता नथी 'एवं जाव सीसपहेलियत्ति' मे०८ प्रमाणे લવથી લઈને શીર્ષપ્રહેલિકા સુધીને કાળ પણ સંખ્યાત આવલિકા રૂપ જ હોય છે એસ ખ્યાત આવલિક રૂ૫ રહેતા નથી અને અનંત આવલિકા ३५ ५ खाता नथी. 'पलिभोवमेणं भंते ! किं संखेज्जा पुच्छा' हे सावन પલ્યોપમ રૂપ જે કાળ છે તે શુ સંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે ? અથવા સંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત આવલિકા રૂપ હોય છે? Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -street टीका ०२५ ७.५ ०१ पर्यवादिनिरूपणम् -१५ वलिकारूपम् पल्योपमं भवति किन्तु 'असंखेज्जाओ आलियाओ' असंख्यातावलिकारूपं भवति तथा 'णो अनंताओ आवलियाओ' नो अनन्तावलिकारूपं परयोपमं भवतीति । ' एवं सामरोवमेव ' एवम् - पत्योपमनदेव सागशेषममपि न संख्यातावलिकारूपं न वा अनन्तावलिकारूपम् किन्तु असंख्यातावलिकारूपमेव -भवतीति । एवं ओसपिणी वि' एवं सागरोपमवदेव अवसर्पिणी कालोऽपि. न 'संख्यातालिकारूपो न वा अनन्तावलिकारूपः किन्तु असं वातावलिकारूप एव भवतीति । 'उस्सप्पिणीचि' उत्सर्पिणीकालोऽपि एवमेन - सागरोपमवदेव न संख्याता format for अनन्तावलिकारूपः, अपि तु असंख्यातावलिकारूप एव भव अथवा अनन्त आचलिका रूप होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- 'गौयमा ! णो संखेज्जाओ आवलियाओ' हे गौतम । पत्योंपमरूप काल संख्यात आवलिकारूप नहीं होता है किन्तु 'अमखेज्जाओ 'भावलियाओ' असंख्यात आवलिकारूप होता है । वह 'नो, अनंताओ आवलियाओ' अनन्तआवलिका रूप भी नहीं होता है । ' एवं सागरोवमे वि' पल्योपम के जैसे ही सागरोपम काल भी असंख्यात आवलिकारूप ही होता है-संख्यात अथवा अनन्त आवलिकारूप नहीं होता है । 'एवं ओसपिणी वि' इस प्रकार से सागरोपम के जैसा ही अवसर्पिणी काली संख्यात आबलिका रूप अथवा अनन्तावलिका रूप नहीं होता है किन्तु असंख्या आवलिकारूप ही होता है । 'उस्सपिणी वि' उत्सर्पिणी काल भी लापरोपन फाल के जैसा संख्यात आवलिका रूप नही होता है और न अनन्तआवलिकारूप होता है श्या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वामी ने डे छे - 'गोयमा | णो संखे जाओ आवलियाओ' हे गौतम । यथोभ ३५ आज सभ्यात भावसिा ३५ होता नथी. परंतु 'असंखेज्जाओ आवलियाओ' असंख्यात भावसि ३५ हाय छे. ते'णो अणवाओ आवलियाओ' अनंत भावविध ३५ प होता नथी. ‘एव ं सागरोवमे वि' ये अमाये-खेले हैं पहयेोयम ना ४६४ प्रभा સાગરોપમ કાળ પણ અસ`ખ્યાત આવલિકા રૂપ જ હેાય છે. સખ્યાત અથવા अनंत भावसिष्ठा ३५ होता नथी 'एन' ओसप्पिणी दि' मे प्रभा सागशयंभ કાળ ની જેમ અવસર્પિણી કાળ પણ સખ્યાત આવલિકા રૂપ અથવા અનત વલિકા રૂપ નથી હોતા પર’તુ અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ જ હેાય છે. જીન્ન प्पिणी वि' मेन प्रभाबे उत्सर्पिली डाग पशु सागरोपम अजना स्थन अभा સખ્યાત આવલિકા રૂપ હાતા નથી તેમ અન*ત આવલિકા રૂપ પણ હતાં Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे १६ -वीति । 'पोग्गलपरिट्टे पुच्छा' पुलपरिवर्चः खलु भदन्त 1 किं संख्यातालिका रूपोऽसंख्यातालिकारूपः अनन्तावलिकारूपो वेति पृच्छा - प्रश्नः । भगवानाह - 'गौयमा' हे गौतम! 'णो संखेज्जाओ आवलियाओ' नो संख्गतावलिकारूपः पुलपरिवर्त्ती भवति - णो असंखेज्जाओ आवलियाओ' न वा असंख्यातावलिकारूपो भवति किन्तु 'अनंतायो आचलियाओ' अनन्तावलिकारूपः पुद्गल खिच 'भवतीति । 'एवं जाव सन्नद्धा' एवम् - पुद्गल परिवर्त्तच देव यावत् सर्वाद्धा यावत्पदेन सवीतानागताद्धयोः संग्रहः, अतीतानागतसद्धानामपि, नो संख्यातावलिकारूपो नवा असंख्यातावलिकारूपः, किन्तु अनन्तावलिका रूप एव भवतीति भावः । "किन्तु असंख्यात आचलिकारूप होता है 'पोग्गलपरियहे पुच्छा' हे 1 दन्त ! पुद्गल परिवर्तकाल क्या संख्यात आवलिका रूप होता है ? 'अथवा असंख्यात आवलिकारूप होता है ? अथवा अनन्त आवलिका रूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा । जो संखेज्जाओ आवलियाओ णो असंखेज्जाओ आवलियाओ अनंताओ आव'लियाओ' हे गौतम! पुद्गल परिवर्त काल लेख्यात आवलिका रूप नहीं होता है न असंख्यात आवलिका रूप होता है किन्तु अनन्त आव लिका रूप होना है । 'एवं जाव सम्बद्धा' पुद्गल परिवर्त्त के जैसा ही 'अतीत काल, अनागत काल और सर्वाद्वाकल भी न संख्यात आवलिका रूप होता है और न असंख्यात आवलिका रूप होता है । किन्तु अनन्त आवलिका रूप होता है । नथी परंतु असभ्यात भावसिय ३५ होय छे, 'पोंगल परियट्टे पुच्छा' हे ભગવત્ પુદ્ગલ પિરવત` કાળ શુ` સ`ખ્યાત આલિકા રૂપ હાય છે ? અથવા અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ હૈાય છે? અથવા અનંત આવલિકા રૂપ હાય છે या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री हे छेडे - 'गोयमा ! णो संखेज्जा ओ आवलियाओ जो असंखेज्जाओ आवलियाओ अणताओ आवलियाओ' हे गीतभ ! પરિવત કાળ સંખ્યાત આવલિકા રૂપ હાતા નથી. અસખ્યાત આવલિકા રૂપ પુદ્ગલ यशु होता नथी परंतु अनंत भावसिा ३५ ४ होय हे 'एवं जाव सव्वद्धा' પુગલ પરિવતના કથન પ્રમાણે જ અતીત કાળ- ભૂતકાળ અનાગતકાળભવિષ્યકાળ અને સર્વોદ્ધાકાળ પણ સખ્યાત આવલિકા રૂપ હાતા નથી. અને અસખ્યાત આવલિકા રૂપ પશુ હાતાં નથી. પરંતુ અનત આવલિકા રૂપ જે होय, छे. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् अथ बहुत्वमाश्रित्याह-'आणापाणूणं भंते ! किं संखेज्नाजो बावलियाओ पुच्छा' हे भदन्त । आनपाणाः किं संख्यातावलिकारूपाः अथवा असंख्यातावलिकारूपाः अथवा अनन्तावलिकारूपा भवन्तीति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'योयमा' हे गौतम! 'सिय संखेज्जाओ आवलियाओ, सिय असखेज्जाओ सिय अणंताओ' स्यात्-कदाचित् संख्याताहिकारूया आन प्राणाः, स्यात्-कदाचित् असंख्यातावलिकारूपा, स्यात्-कदाचित् अनन्तालिकारुपा भवन्तीति । 'एवं जाव 'सीस. पहेलियाओ' एवं यावत् शीर्ष रहेलिकाः, स्तोकादारभ्य शीर्षपहेलिकान्तकालस्य संग्रहो भवति तथा च हे गौतम ! स्तोकादारभ्य शीर्षपहेलिकापर्यन्तः काल: स्यात संख्यातावलिकारूपा, स्यात् असंख्यातावलिझारूपः, स्यात् -कदाचित अनन्तावलिकारूप इति । 'पलिओवमाणं पुच्छ।' पल्योपमानि खलु भदन्त ! कि अब बहुवचन को लेकर कहते हैं 'आणापाणूणं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलिकाओ पुच्छा' हे भदन्त षत श्वासोच्छ्वासरूप काल क्या संख्यात आवलिका रूप होते हैं? अथवा असंख्यात आवलिका रूप होते हैं ? अथवा अनन्त आवलिका रूप होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयासिय संखेज्जाओ आवलियाओ, लिय असंखेज्जाओ लिय अणंताओ' हे गौतम! बहुत श्वासोच्छ्वासरूप काल कदाचित् असंख्याता. वलिका रूप होते हैं कदाचित् अनन्त आवलिका रूप होते हैं। "एवं जाव सीसपहेलियाभो इसी प्रकार से स्तोक से लेकर शी: प्रहेलिका तक के काल भी बहुवचन की अपेक्षा से कदाचित् संख्या હવે બહુવચનથી કહેવામાં આવે છે 'आणापाणूणं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलियाओ पुच्छा' भगवन સઘળા શ્વાસે છૂવાસ રૂપ કાળ શુ સંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે અથવા અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત આવલિકા રૂપ હોય છે ? प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ -'गोयमा ! सिय संखेज्जाओ आवलियाओ सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ' गौतम! सघा वास२पास ३५ in કઈવાર સખત આવલિ રૂપ હોય છે કેઈવાર અસંખ્યાત અવલિકા રૂપ हाय छ, मन व.२ सनत मासा ३५ य छ 'एवं जाव सीसप?लियाओं' मा प्रमाणे तेथी दाने शीर्ष प्रति सुधीन सपणा आणीપણ કઈવાર સંત આવલિકા રૂપ હોય છે કે ઈવાર અસંખ્યાત આવલિકા भ०३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे संरूपातावलिका रुराणि असंख्यातावलिकारूपाणि अथवा अनन्तावलिकारूपाणि अवन्तीति पृच्छा - प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'बोयमा' हे गौतम! णो संखेज्जाओ आवलियाओ' नो संख्यातालिकारूपाणि पल्योपमानि भवति किन्तु 'सिप असंखज्जाओ आरकियाओ सिय अनंताओ थावलियाभो' स्यात् - कदाचित् असंख्यातावलिकारूपाणि स्यात् कदाचित् अनन्तावलिकारूपाणि पुल्योपमानीति । ' एवं जाव उस्सपिजीओ' एवं यावदुत्सर्पिण्यः, अत्र यावत्पदेन सागरोपमावसर्पिणी कालसंग्रहो भवति तथा च दे गौतम ! सागरोपमादारभ्य उत्सर्पिणी पर्यन्ताः कालाः न संख्यातावलिकाख्या भवन्ति किन्तु कदाचित् तालिकारूप होते हैं कदाचित् असंख्यात आवलिका रूप होते हैं और कदाचित् अनन्त धावलिकारूप होते हैं । 'पलिओचमाणं पुच्छा' इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रसुश्री से ऐसा पूछा हे भदन्त ! बहुत पल्पोपम रूप काल क्या संख्यान आवलिकारूप होते हैं अथवा असंख्यात आवलिका रूप होते हैं ? अथवा अनन्त आवलिका रूप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! णों सखेज्जाओ आवलिपाओं, लिय असं खेज्जाओ आवलियाओ सिय अनंताओ आवलियाओ' हे गौतम | बहुत पल्योपम रूप काल संख्धात आंचलिका रूप नहीं होते हैं किन्तु कदाचित् वे असंख्यात आवलिका रूप होते हैं और कदाचित् अनन्त आवलिका रूप होते हैं । 'एवं जावसपिणीओ' इसी प्रकार बहुत सागरोपमाल बहुत अवसर्पिणी काल और बहुत उत्मर्षिणीकाल भी संख्यात आवलिकारूप नहीं होते हैं किन्तु कदाचित् वे असंख्यात आवलिका रूप होते हैं और कढ़ा ३५ होय छे, मनेोवार अनंत भाव ि३५ होय हे 'पलिओदमाण' पुच्छा' આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવું પૂછ્યું છે કે હે ભગવન્ સમસ્ત પચેપમ રૂપ કાળ શુ સખ્યાત આવલિકા રૂપ હાય છે ? અથવા અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ હેાય છે ? કે અનંત આવલિકા રૂપ હૈાય છે ? આ प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री आहे हे - 'गोयमा णो संखेज्जाओ आवलियाओ aिय असंखज्जाओ आवलियाओ सिय अनंताओ आवलियाओ' हे जनम सघणो પ૨ાપમકાળ સખ્યાત આજલિકા રૂપ હૈ,તે નથી પરંતુ કેાઈવાર તે સખ્યાત આવલિકા રૂપ હાય છે ? અને કે ઈવાર અનંત આવલિકા રૂપ હોય છે. 'एव' जान उत्प्पणीओ' ४ मा यावत् संघजी सागशयम छोटा सघा ઉત્સર્પિણી કાલ અને સઘળા અવસર્પિણી કાળા પણુ સખ્યાત આવલિકા રૂપ હાતા નથી પરંતુ તે કેવાર અસખ્યાત આવલિકા રૂપ હાય છે 7 ܐ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.५सू०१ पर्यवादिनिरूपणम् असंख्यातावलिकारूपाः स्यादनन्तामलिमरूपा इति भावः । 'पोग्गलपरियट्टाणे पुच्छा' पुद्गलपरिवाः खलु भदन्त ! किं संख्शातालिकाल्पा असंख्याता. वलिकारूपाः, अथवा अनन्तावलिकारूपा शवन्तीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम । 'णो संखेज्जाओ णो असंखज्जाओ आवलियाओ अगंताओ आनलियानो' लो संहगतावलिकारूपाः पुद्गलपरिवर्त्ताः नो वा असंहगातावलिकालमा किन्नु अनन्तावलिकारूपाः पुद्गलपरिवत्ती भवन्तीति । आन गणपदमाश्रित्य एकवचनेनाह-'थोवे णं भंते ! कि सखज्जाओं आणापाणूओ असंखेनामो०' स्तोका खनु भदन्त । किं संख्यातानमाणरूप। असंख्यातानमाणरूपा, जयका अनन्तानप्राणरूपो भवतीति प्रश्नः। उत्तरचित् अनन्त आवलिका रूप होते हैं । 'पोग्गलपरिघटाणं पुच्छा' हे भदन्त ! बहुत पुद्गल परावर्तरूप हाल क्या संख्घात आवलिकारूप होते हैं ? अथवा अख्यात आबलि का रूप होते हैं ? अथवा अनन्त आव लिका रूप होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा। णो संखेज्जाओ पणे असंखेज्जाओ आवलियाओ अणंताओ आवलियाओ' हे गौतम ! शत पुशल परावर्त्त रूप काल संख्यात आव. लिका रूप नहीं होते हैं असंख्थान आलिशारूप नहीं होते हैं किन्तुं अनन्त आवलिका रूप होते हैं । अब गौतमस्वामी प्रभुश्री ने मानप्राण पद को लेकर एकवचन से ऐसा पूछते हैं-'थोवेणं अंते ! िसखेजनाओ आणापा भी असंखेज्जाओ. हे भदन्त ! रनोक रूप जो काल है वह कमा संख्यात श्वासोच्छ्वास भने वा२ सनत ३५ होय छे 'पोग्गलपरियटा ण पुच्छा' ભગવદ્ સઘળા પુદ્ગલ પરાવત્ત કાળ શું સંખ્યાલ આવલિકા રૂપ હોય છે? અથવા અસંખ્યાત આવલિકા રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત આવલિકા ૩૫ खाय छ ? 40 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतम स्वामी ने छे -'गोयमा। णो संखेज्जाओ' णो अस खेज्जाओ आवलियाओ णताओ आवलियाओ' है ગૌતમ સઘળા પુદ્ગલ પરાવર્ત કાળ સંખ્યાલ આવલિકા રૂપ હોતા નથી. અસં. ખ્યાત આવલિકા ૩૫ પણ હેત નથી. પરંતુ અનત આવલિકા રૂપ હોય છે. ' - गौतमपाभी मुश्री से पूछे छे । 'थोवे णं भते कि सखेजाओ भाणापाणूओ अस खेज्जामो' 8 लगवन् । ३५ २ ४ण छ तेशु' સંખ્યાત શ્વાસે શ્વાસ રૂપ હોય છે? અથવા અસંખ્યાત આનપ્રાણ રૂપ હેયે Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती माह-'जहा' इत्यादि, 'जहा आवलियाए वत्ताया एवं आणापा”ओ वि निरवसेसा' यथा आवलिकायां वक्तव्यता एवम् मानणसंवन्धेऽपि एकवचनबहुवचनाभ्यां वक्तव्यता निरवशेषा-समग्राऽपि भणितव्या, 'एवं एएणं गमएणं जान सीसपहेलिया भाणियधा' एक्मे लेन-पूर्वोक्तेन गमकेन यावत् शीर्पपहेलिका भणितव्या लवादारस्य शीप प्रहेलिका पर्यन्तकालस्यापि विचारः करणीय इति । अथैकवचनेन सागरोपमवक्तव्यवामाह-'सागरोवमे णं भंते ! कि संखेना पलि. योवया पुच्छा' सागरोपमं खलु भदन्त ! किं संसातपल्योपमरूपम् असंख्यातपल्योपमरूपम् 'अनन्तपल्योपमरूपं वेति पृच्छा प्रश्ना। भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम | 'संखेना पलिओवमा संख्यातपल्योपमस्वरूपं रूप होता है ? अथवा असख्यात आनप्राणरूप होता है ? अथवा अनन्त । आनप्राणरूप होता है ? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते है-'जहा आवलि. याए वत्तव्वया एवं आणापाणूओ चि निरवसेसा' हे गौतम ! जैसी वक्तव्यता भावलिका में कही गई है हली प्रकार की वक्तव्यता एक वचन परवचन को लेकर समस्त रूप से आनप्राण के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिये । 'एवं एएणं गमएणं जाव सीसपहेलिया भाणियत्वा' इसी प्रकार से इस गमक द्वारा लव रूप काल से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक के काल का भी विचार करना चाहिये अघ एकवचन को लेकर सागरोपम काल की वक्तव्यता कहते हैं 'सागरोवमेणं भंते ! कि संखेना पलिओषमा पुच्छा' हे भदन्त! सागरोपम काल क्या संख्यात पल्योपम रूप होता है ? अथवा असंख्यात पल्योपमरूप होता है ? अथवा अनन्त पल्पोपम रूप होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा ! છે. અથવા અનંત આનપ્રાણ રૂપ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે, छे, 'जहा आवलियाए वत्तव्वया एवं आणापाणूओं वि निरवसेसा' है गीतम! જે પ્રમાણે આવલિકાના સંબંધમાં કથન કર્યું છે એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન मानभाना समयमा ५Y सभ देवु ‘एवं एएणं गमएणं जाव सीसपहेलिया भाणियव्वा' मे प्रभार १३५ थी बने शीष प्रतिमुधिन जना वियार ५५५ ४श नये 'सागरोवमेणं भते ! कि सखेज्जा पलिओवमा g” હે ભગવન્! સાગરેપમકાળ શું સંખ્યાત પલ્યોપમ રૂપ હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત પામરૂપ હોય છે? કે અનંત પલ્યોપમ રૂપ હોય છે? मा प्रश्नन। उत्तरमा प्रभुश्री गौतमयामी ने 3 छ है-'गोयमा सखेज्जा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ ०१ पर्यवादिनिरूपणम् २१ सागरोपमम् 'णो असंखेज्जपलिओचमा णो अनंता पलिओनमा' नो असंख्यात पल्योपमस्वरूपं सागरोपमं न वा अनन्तपल्यो गमस्वरूपं सागरोपमं भवतीति । ' एवं ओसप्पिणीए वि उस्सप्पिणी वि' एवम् सागरोपमवदेव अवसर्पिण्य उत्सर्पि योऽपि नासंख्यातपज्योपमस्वरूपा न वा - अनन्तपल्योपमस्त्ररूपाः किन्तु संख्यातपल्योपमस्वरूपा एवेति भावः । 'पोग्गल परियदे णं पुच्छा' पुद्गलपरिवर्त्तः खलु भदन्त । किं संख्यातपल्योपमरूपोऽसंख्यात पल्योपमोऽनन्तपल्योपमरूपो वा भव तीति पृच्छा प्रश्न, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखेज्जा पलिभोवमा णो असंखेज्जा पलिभोवमा' नो संख्यातपल्योपमात्मकः पुद्गल परिवत्र्त्ती नो असंख्यातपल्योपमात्मकः, किन्तु 'अनंता पालिओमा' अनन्तसंखेज्जा पलिभोषमा' हे गौतम ! लागरोपम काल संख्यात पल्पोपम रूप होता है 'णो असंखेज्जा पलिओदमा णो अता पलिओवमा' असंख्यात पल्योपम रूप नहीं होता है और न अनन्त पल्पोपम रूप होता है । ' एवं ओसविणीए वि उस्सप्पिणीए वि' इसी प्रकार से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी फाल भी असंख्यात पल्योपम रूप नहीं होते हैं न अनन्त पल्योपमरूप होते हैं, किन्तु संख्यात पल्योपम रूप ही होते हैं । 'पोग्गलपरियट्टे णं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! पुद्गल परि क्या संख्यात पल्योपम रूप होता है ? अथवा असंख्यात पल्योपमरूप होता है अथवा अनन्त पल्घोषम रूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! णो संखेज्जा पलिओवमा णो असंखेज्ज्ञा पलिओमा अनंता पलिओमा' हे गौतम । पुद्गल परिवर्तरूप काल न संख्यात पल्योपमरूप होना है न असंख्यात पल्योपमरूप होता है, पलि ओवमा' हे गौतम | सागरोपम आज सभ्यात पहयेोषभ ३५ होय हे ' अस खेज्जा पलिओवमा णा अनंता पलिओवमा' असभ्यात पोयम ३५ होता नथी, अने सतत पढ्योपभ ३५ पशु होतो नथी 'एव' ओखप्पिणीए व उस વળી વિ’એજ પ્રમાણે ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળ પણુ અસખ્યાત પત્યેાપમ રૂપ હતા નથી અનંત પળ્યેાપમ રૂપ પણ હાતા નથી, પરંતુ सध्यात_यस्पोषभ ३५ ४ होय छे. 'पोगळपरियट्टे णं भंते पुच्छा' हे भगवन् પુદ્ગલ પરિવત્ત` શુ` સખ્યાત પલ્યાપમ રૂપ હાય છે? અથવા અસ ખ્યાત પચ્ચે પમ રૂપ હાય છે કે અનત પુણ્યે પમ રૂપ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री गौतमस्वामी ने डे - 'गोयमा ! णो सखेज्जा पलिओवमा णों असखेज्जा पलिओमा अनंता पलिओवमा' हे गौतम ? युद्धस परावर्त्त ३५ કાળ સખ્યાત ચેપમ રૂપ હાતા નથી અસખ્યાત પલ્યાપમ રૂપ પણ હાતા Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगवतीसूत्र पल्योपमात्मकः पुनलपरिकों भवतीति । '२६ जाव लाद्धा' एवं यावत् सर्वाद्धा अत्र यावत्पदेन अतीतानागलाद्धयोहणं मपति तथा चातीवानागतसर्वकालो न संख्यातपोपमात्यको नो वा असंख्यातएल्योपमात्मकः किन्तु अनन्तपल्योपमास्मक एक यस्तीति भावः । ०१ । · मूलम् -लिागरोनसाणं शत ! कि संखेमा पलिओक्सा पुच्छा गोयना ! सिम लखेज्जा पलिओवधा लिय असंखेज्जा पलिओवमा लिय अणंता पलिमोममा । एवं जाव ओसप्पिणी वि । उस्लप्पिणी वि। पोग्गलपारिपटाणं पुच्छा गोयमा ! णो संखेज्जा पलिओवना को असंखेज्जा पलिओबमा अणता पलिओवमा । ओलप्पिणी गं अंते! किं संखेज्जा लागरोवसा० जहा पलिओवमल बसक्या तहा सामरोवनस्ल वि। पोरगलपरियद्वे णं भंते ! कि संखेजाओ ओसप्पिणी उस्तप्पिणीओ पुच्छा गोयला! णो संखेज्जाओ ओहाधिणी उस्लप्पिणीओ णो असंखेज्जाओ अर्णताओ ओलप्पिणी उमाप्पिणीओ। एवं जाव सव्वद्धा। पोग्गलपरियट्टा गं मंते ! किं संखोजाओ ओलप्पिणी उस्सप्पिणीओ पुच्छा गोचमा ! जो सखे जाओ ओलपिगी उस्तपिणीओणो असंखजाको अगताओ कोलपित्रणीओ उत्सपिणीओ। तीतद्धाभते! किं संखेनापोग्गलपरियहा पुच्छा गोयमा! नो संखेज्जा पोरगलपरिचहा नो असंखेज्जा अणंता पोग्गलफिन्तु अनन्त पल्योपम रूप होता है । 'एवं जाव सदा इसी प्रकार से अतीत काल अनागतकाल और सनाद्वारूप काल भी न संख्याल पल्पोपमरूप होता है न असंख्यात पल्पोपमरूप होना है किन्तु अनन्त पल्योपमरूप ही होता है ॥ ० १ ॥ नथी. ५२तु मन त पक्ष्ये५५ ३५ है।य छ ‘एव जात्र सव्वद्धा' मे४ प्रभये અતીત કાળ, અનાગત કાળ, અને સવા રૂપ કાળ પણ સંખ્યાત પલ્યોપમ રૂપ લેતા નથી. અસંખ્યાત પલ્યોપમ રૂપ પણ હોતા નથી, પરંતુ અનંત પમ રૂપ જ હોય છે .સૂત્ર શા Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ७.५ २०२ सागरोपमादि कालमाननिरूपणम् २३ परियट्टा । एवं अणागयद्धा वि एवं सव्वद्धा वि । अणागयद्धा णं भंते ! किं संखेज्जाओ तीतद्धाओ असंखेज्जाओ अणताओ गोयमा! णो संखेजाओतीतद्धाओ णो असंखेज्जाओ तीतद्धाओ णो अणंताओतीतद्धाओ। अणालयद्धाणं तीतद्धाओ समयाहिया तीतद्धाणं अणागयचाओ लमयूणा । लब्बद्धा णं भंते ! किं संखेज्जाओतीतद्धाओ पुच्छा गोयना! णोलख जाओतीतद्धाओणो असंखेज्जाओ णो अणंताओ तीतद्धाओ। सवाणं तीयद्धाओ तातिरेगदुगुणा तीतद्धाणं सम्बद्धाओ थोवूणणे अद्धे। सबद्धार्ण भंते ! किं संखेज्जाओ अणायद्धाओ पुच्छा गोयमा! णो संखेज्जाओ अणागयद्धाओ जो असंखेज्जाओ अणागयद्धाओ णो अणंताओ अणागयद्धाओ। सम्बद्धा णं अणागयद्धाओ थोवूणगदुगुणा अणागयछा णं सबछाओ लातिरंगे अद्ध ॥सू०२॥ ____ छाश-सागरोपमाणि खलु भदन्त ! शि संपातानि एल्योपमानि पृच्छा गौतम ! स्यात् संख्यातानि पल्योपमानि स्यात् असंख्यातानि पल्पोपमानि स्यात् अनन्तानि पल्योपमानि, एवं यावदवसर्पिणी अपि उत्सर्पिणी अपि । पुद्गलपरिवाः खलु पृच्छ। गौतम! नो संख्येयानि पल्पोपारालि, नो असंख्थेयानि पल्पोपमानि अनन्तानि पल्योपमानि। अवसर्पिणी खलु भदन्त ! कि सख्येयानि सागरो पमानि० यथा पल्योपमस्य वक्तव्यता तथा साशरोषमस्यापि। पुद्ग परिवतः खलु भदन्त ! किं संख्येण अवसर्पि युत्सपियः पृ-छा-गौतम ! नो संख्याता अवसर्पिण्युत्सपिण्यः नो असंख्येयाः अनन्ता अक्सपिण्युत्सपिण्य', एवं यावत् सर्वाद्धा । पुद्गलपरिवनीः खलु भदन्त ! किं संख्यानावसर्पिण्यु-सर्पिण्यः पृच्छा, गौतम ! नो संख्याता अवसर्पियुत्तगि नो असंख्याताः, अनन्ता अरसर्पि ण्युत्पपिण्यः । अतीतद्धाः खलु भदन्त ! कि संख्येयाः पृद्परिवत्ताः पृच्छा गौतम ! नो संख्येयाः पुद्गलपरिवत्तीः, नो असंख्येयाः अनन्ताः पुद्गलपरिवत्तीः । एवमनागताद्धाऽपि, एवं सोद्धाऽपि । अनामनाला खर भदन्त ! कि संख्येया अतीताद्धा असंख्येया अनन्ताः गौतम ! नो संख्येय अतीताद्धा नो असंख्येया अतीताद्धा, नो अनन्ता अतीताद्धाः । अनागताद्धाः खलु अनीताद्धातः समयाधिकाः, अतीताद्वाः खलु अनागताद्धातः समयौनाः। सर्वार्द्धा खलु भदन्त ! Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवतीस्त्रे कि संख्येया अतीवादाः पृच्छा, गौतम ! नो संख्येया अतीताद्वाः नो असं. ख्येयाः नो अनन्ता अतीताद्धा। सईदा खल्लु अतीताद्वातः सातिरेकद्विगुणा अतीताद्धा खलु सर्वाद्धातः स्तोकोनमर्द्धम् । सद्धिा खल्लु भदन्त ! कि संख्येया अनागवादाः, पृच्छा-गौतम ! नो संख्येया अनागताद्धाः, नो असंख्येशा अनाशवादाः नो अनन्ता अनागताद्धाः । सर्वाद्धा खलु अनागताद्धातः स्तोकोन द्विगुणा, अनागताद्धा खल सर्वाद्धातः सातिरेकमर्द्धम् ॥मू०२॥ टीका-'सागरोबमाणं भंते ! किं संखेज्ना पतिओवमा पुच्छा' सागरो. पाणि खलु भदन्त ! कि संख्यातपल्योगमस्वरूपाणि असंख्यातपल्योपमस्वरूपाणि अनन्तपल्योपमस्वरूपाणि वेति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय संखेज्जा पलिओवमा' स्यात्-कदाचित् संख्यातपल्योपमस्वरूपाणि सागरोपमाणि 'सिय असंखेज्जा पलिओवमा' स्यात्कदाचिदसंख्यातपल्योपमस्वरूपाणि सागरोपमाणि 'सिय अणंता पलिओवमा' ___'सागरोवमाणं भंते । किं संखेज्जा पलिओवमा पुच्छा' इत्यादि टीकार्थ-इस स्त्रद्वारा प्रशुश्री से गौतमस्वामी वहुवचन को लेकर ऐसा पूछते हैं-'सागरोवमाणं भंते ! किं संखेज्जा पलिओयमा पुच्छा' हे भदन्त ! पछुतसागरोपम काल क्या लख्यान पल्पोपम रूप होते हैं ? अथवा असंख्यात पल्योपमरूप होते हैं ? अथवा अनन्त पल्पोपमरूप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा सियसंखेज्जा पलि भोवमा' हे गौतम ! बहुत सागरोपम कदाचित् संख्यात पल्योपमरूप होते हैं 'लिय असंखेज्जा पलिओयमा' कदाचित् असंख्यात पल्पोपमरूप होते हैं और 'सिय अणंता पलिओवमा कदाचित् अनन्तपल्योपमरूप होते हैं। 'एवं ओसप्पिणी उस्सप्पिणी वि' इसी प्रकार से बहुत अपसर्पिणीयां और बहुत उत्सर्पिणीयां भी कदाचित् संख्यात पल्योपम 'सागरोवमाणं भंते ! कि सखेज्जा पलिओक्मा पुच्छा' ટીકાર્ય–આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવું પૂછ્યું છે है-'सागरोवमाणं भंते ! सखेज्जा पलिओवमा पुच्छा' है मगन समस्त સાગરેપમ કાળ શુ સંખ્યત પલ્યોપમ રૂપ હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત પલ્યોપમ રૂપ હોય છે કે અનંત પલ્યોપમ રૂપ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४३ छ ४-गोयमा म्रिय संखोज्जा पलिओवमा' गौतम समरत सागरापम ४ वा२ सध्यात पट्यापम ३५ हाय छ 'सिय असंखेज्जा पकिमोक्मा' पा२ सप्यात पक्ष्यापम ३५ डाय छे. अने, 'सिय अणंता पलिभोवमा' वार मनात यापम ३५ हाय छे. 'एवं ओसप्पिणी उस्स. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ here front door o२५ ७.५ सू०२ सागरीपमादि कालमाननिरूपणम् ३५ स्यात् कदाचित् अनन्तपलोपमात्मकानि सामरोपवाणीति । ' एवं ओसपिणी उस्सप्पिणीवि' एवम् - सागरोपमयदेव यावत् अवसर्पिण्यपि उत्सर्पिण्यपि स्यात् संरूपात पल्योपरस्परूपा, स्याहरू गतपल्पोपपात्मिका, स्यादनन्तरोपमा त्मिका इति भावः । 'पोगालपरियहाणं पुच्छा' पुळपरिवर्त्ताः खलु भदन्त ! किं संख्यातपल्योपमस्त्ररूपा, असंख्यातपल्योपमस्वरूपा वा अनन्तपल्योपम स्वरूपा वेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 1 'णो संखेज्जा पलिओत्रमा जो असंखेज्जा पलिओत्रमा अनंता पलिओक्सा' नो संख्यातपल्योपमस्वरूपाः पुद्गलपरिवर्त्ताः 'नो असंख्यातपल्योपमस्त्ररूपाः, किन्तु अनन्तषल्योपमरूपाः पुद्गरवित। समीति भावः । ' ओसपिणी भंते । कि संखेज्जा सागरोदमा ० ' आपरिणी खल्ल भदन्त ! कि संख्यातसागरी: पमरूपा असंख्यातसागरोपमरूपा, अनन्तसागरोपमरूपा वा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'जहा' इत्यादि, 'जहा पलियोवमस्प बत्तव्वया तहा सागरोत्रमस्सवि' रूप होती है कदाचित् असंख्यात पल्घोपमरूप होती है और कदाचित् अनन्त पल्योपमरूप होती हैं । 'पोग्गल परियद्वाणं पुच्छा' हे भदन्त ! बहुत पुद्गल परावर्त्त क्या संख्यात पल्घोषम रूप होते हैं ? अथवा असंख्यात पल्योपमरूप होते है ? अथवा अनन्त पत्योपम्प होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोपमा ! 'णो संखेज्जा पलिओचमा णो असंखेज्जा पलिओना० अनंता पलिओषमा' हे गौतम! बहुत पुद्गल परिवर्त्त संख्यात पल्योपम और असंख्यात पत्योपमरूप नहीं होते हैं किन्तु अनन्तपल्योपमरूप होते हैं । 'ओसपिणी णं भंते प्पिणी वि' ४ प्रमाणे समस्त उत्सर्पिणी आज भने समस्त अवसर्पिथी आज પણ કોઈવાર સખ્યાત પચેપમ રૂપ હોય છે કે.ઈશ્વર અસખ્યાત પ૨ેપમ રૂપ હોય છે. અને ફાઇવાર અનંત પડ્યે પમ રૂપ હોય છે L 'पोग्गलपरियट्टाणं पुच्छा' हे भगवन् समस्त સખ્યાત પચેપમ રૂપ હેાય છે ? અથવા અસખ્યાત છે ? કે અનંત પદ્યેાપમ રૂપ હાય છે ? આ પ્રશ્નના ४ ॐ - 'गोयमा णो स खेज्ज । पलिओदमा जो असखेज्जा पहिओवमा० अनंता युद्धास परावर्त शु પળ્યે પમ રૂપ હોય ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે पलिओवमा' हे गौतम सघणा युग ખ્યાત પચેપમ રૂપ હાતા નથી, પરંતુ पिणीणं भंते ! किं सखेज्जा नागरोवमा०' हे भगवन् गवसर्पिली अर्ज शु 탕 परिवर्तो सभ्यात पहयेोषम अने अस અન ત પત્યેાપમ રૂપ હાય છે‘જોવ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती यथा पल्योपमध्य वक्तव्यता तथा सागरोपमस्यापि, एकत्वबाहुत्वमाश्रित्य विज्ञेया बवसर्पिणी स्यात् संख्यातसागरोपमरूपा, स्यादसंख्यातसागरोपमरूपा, स्यादनन्तसागवोपमरूपेति भावः । 'पोग्गलपरियट्टेणं भंते ! किं संखेजामो ओसपिणी उस्स. प्पीणीओ पु-छा' पुद्गलपरिवर्तः खल्ल भदन्त ! कि संख्यातावपिण्युत्सर्पिणीस्वरूपो. ऽथवा असंख्यातायसपिण्युत्सर्पिणीस्वरूपोऽथवा अनन्तावसपिण्युत्सर्पिणीरूप इति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! नो संखेज्जायो भोसप्पिणी उस्सप्पिणीयो नो असं खेज्माओ नो संपातावमपिण्युत्सर्पिणीरूयो कि संखेज्जा लागरोवमा०' हे अदन्त ! अवसर्पिणी काल क्या संख्यात सागरोपम रूप होता ? अथवा असंख्यात सागरोपमरूप होता है ? अथवा अनन्ना लागरोपमरूप होता है ? उत्तर में प्रसुश्री करते हैं -'जहा पलिओवमल पातव्वया तहा लागरोवमरस पिहे गौतम ! जिस प्रकार की धक्तव्यता पल्योपम की कही गई है उसी प्रकार की लागरोपम की भी वक्तव्यता एकवचन बहुवचन को लेकर कहनी चाहिए। वह यावत् यहुत उत्सर्पिणी कदाचित् संख्यात सागरोपमरूप होती है । कदाचित् असंख्यात सागरोपमरूप होती है और कदाचित् अनन्त सागरोपम रूप होती है । । 'पोग्गलपरियडेणं भंते ! कि संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ पुच्छा' हे भदन्त ! एक पुद्गल परिवर्त क्या संख्यात अवसर्पिणी उरसतिणीरूप होता है ? अथवा असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणीरूप होता है ? अथवा अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणीरूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्लपिणीओ સંખ્યાત સાગરોપમ રૂપ હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત સાગરોપમ રૂપ હોય છે ? કે અનંત સ ગરેપમ રૂપ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી शीतभस्वामी २ ४ छ -'जहा पलिओवमस्स क्त्तव्वया तहा सागरोवमस्स वि, હે ગૌતમ! પપમ ના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણેનું કથન સાગરોપમના સંબંધમાં પણ સમજવું. અર્થાત્ અવસ ર્પિણી કાળ કે ઈવાર સંખ્યાત સાગરોપમ રૂપ હોય છે, અને કેઈવાર અસં ખ્યાત સાગરેપણું રૂપ હોય છે, અને કેઈવાર અનંત સાગરોપમ રૂપ હોય છે 'पोग्गलपरियट्टेणं भंते ! कि संखेज्जाओ ओस्सप्पिणो उस्लप्पिणीओ पुच्छा' 3 ભગવન એક પુદ્ગલ પરિવર્તશુ સંખ્યાત અવસર્પિણી ઉત્સર્પિણી રૂપ હોય છે? અથવા અસંખ્યાત અવસર્પિણી ઉત્સર્પિણીરૂપ હોય છે ? આ પ્રશ્ન ઉત્તરમાં प्रभुश्री. ४ छ है-'गोयमा नो सखेज्जाओ ओखप्पिणी उस्स पिणीमओ नो अस' Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ ००२ सागरोपमादि कालमाननिरूपणम् २७ नो वा असंख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपो भवति पुद्गलपरिवर्तः, किन्तु 'अणं-- ताओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ' अनन्नावसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपः पुद्गलपरिवतों भवतीति । 'एवं जात्र सव्वद्धा' एवं यावत् सर्वाद्धा-सर्वकालः, यावत्पदेन अतीताद्धा अनागताद्धात्मककालयोः संग्रहः तथा चातीतानागतसर्वकालोऽपि, न संख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपो भवति न वा असंख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपो भवति किन्तु अनन्तवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपो भवतीति भावः । 'पोग्गलपरियट्टाणं भंते ! किं संखेज्जाओ ओस पिणी उस्सप्पिणीओ पुच्छ।' पुद्गलपरिवाः खलुभदन्त ! किं संख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिणीकालरूपाः, अथवा असंख्याताचसपिण्युसर्पिणीकालरूपा भवन्ति अथवा अनन्तावसर्पिण्युत्सर्पिणीकालरूपाः पुद्गलपरि. वर्ता भवन्तीति पृच्छा-प्रश्न', भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे नो असंखेज्जाओ' हे गौतम ! एक पुद्गल परिवर्त संख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप नहीं होता है असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप नहीं होता है किन्तु-'अर्णताओ ओस्लप्पिणी - उस्तपिणीभो' अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप होता है। एवं जाव सम्बद्धा' इसी प्रकार से अतीत अनागत और सर्वाद्धा रूप काल भी. अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप होते है संख्यात अथवा असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप नहीं होता है। : 'पोग्गलपरियाणं भते ! सिं संखेज्जाबो ओप्लप्पिणी उत्सर्पिणीओ पुच्छा' हे भदन्त! बहुत पुदगलपरिवत्तरूप काल या संख्यात उत्सर्पिणी अवप्तर्षिणी काल रूप होते हैं ? अथवा असंख्याल उत्सर्पिणी अवत. पिणीरूप होते है ? अथ अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप होते हैं ? खेज्जाओ गीतम । ४ पुस परिवत सध्यात सपिला असणी રૂપ હેતુ નથી. અસ ખ્યાત ઉત્સપિણું અવસર્પિણીરૂપ પણ હોતું નથી. પરંતુ 'अणंताओ ओसप्सिणी उस्सप्पिणीओ' मन Gajी अवसपी३५ हाय छे, 'एव जाव सनद्धा' मे०८ प्रमाणे मी मनात म. सद्धिा ३५ કાળ પણ અનંત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી રૂપ હોય છે. સંખ્યાત અથવા અસં. ખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણ, રૂપ હોતા નથી. ___ 'पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि स ग्वेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ પુછા” હે ભગવદ્ સઘળાં પુદ્ગલ પરિવર્તરૂપ કાળ શુ સખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળ રૂપ હોય છે? અથવા અસંખ્યત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી રૂપ હોય છે ? અથવા અનંત ઉત્સપિ અવાર્ષિણી રૂપ હોય છે ? આ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ 'भगवती गौतम ! 'णो संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ णो असंखेज्जाओ ओसपिणी उस्सप्पिणीओ अनंताओ ओपिणी उस्तप्पिणीओ' नो संख्यातावसर्पिण्युत्पर्विणी कालरूपाः पुद्गल परिचर्चा मवन्ति नो वा असंख्यातावसर्पिण्युएसर्पिणीकालरूपा भवन्ति किन्तु अनन्तावसर्पिण्युत्सरिणीकालरूपाः पुद्गलपरिवर्त्ता मंत्रन्वीति । 'तीतद्धा णं संते ! कि 'संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा पुच्छा' अतीवाद्धा - अतीतकाल. खलु भदन्त ! कि संख्यातपुद्गल परिवर्तरूपो भवति असंख्यात - पुंगल परिवर्तरूप भवति अथवा अनन्तपुद्गलपरिपर्तस्वरूपो भवतीति पृच्छा मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । गोयमा' हे गौतम! 'णो संखेज्जा पोग्गल परियट्टा णो असंखेज्जा' नो संख्यातपुद्गल परिवर्तरूपो भवति अतीतकालो, नोबा असंख्यात पुद्गल परिवर्तरूपो भवति अतीतकाल अपि तु 'अता उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! णो संखेज्जाओ ओसप्पिणी सप्पिणीओ णो असंखेज्जाओ ओरग्विणी उस्सप्पिणीओ अणंताओ ओपिणी उस्सप्पिणीओ' हे गौतम बहुत पुद्गल परिवर्त्त न संख्यात उत्सर्पिणी अबलर्पिणीरूप होते हैं, न असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणरूप होते हैं किन्तु अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप होते हैं । 'तीयंद्वाणं भंते! किं संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा पुच्छा' हे भदन्त ! अतीतकाल क्या संख्यात पुद्गल परिवर्तरूप होता है ? अथवा असं ख्यात पुद्गल परिवर्तरूप होता है ? अथवा अनन्तपुद्गल परिवर्तरूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! णो संखेज्जा पोग्गल परिघट्टा णो असंखेज्जा' हे गौतम अतीतकाल न संख्यात पुद्गल परिवर्तरूप होता है न असंख्यात पुकूल परिवर्त रूप होता प्रश्नमा उत्तरमां प्रलुश्री हे छे - 'गोयमा णो सखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्खप्पि जीओ णो अस खेज्जाओ ओसप्पिणी उस्म्रप्पिणीओ अनंताओ ओसप्पिणी उस्सવિળીઓ” હે ગૌતમ ! સઘળા પુર્દૂલપરિવર્તી સંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસિપી રૂપ હાતા નથી તથા સંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી રૂપ પણ હોતા નથી. परंतु अनंत उत्सर्पिषी अवसर्पिणी ३५ होय छे 'तीतद्वाणं भंते किं सौंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा पुच्छा' हे लगवन् अतीत अज-भूताण शुं संध्यात युहूगल પરિવત રૂપ હાય છે ? અથવા અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરિવત રૂપ હોય છે ? કે અનંત પુદ્ગલ પરિવર્ત રૂપ હું ય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतम स्वामी ने उहे छे - 'गोयमा ! ण ख खेज्जा पोगलपरियट्टा णो अस खेज्जा' हे गीतभ ! अतीताण सांध्यात युगस परिवर्त ३५ होती Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०२ सागरोपमादि कालमाननिरूपणम् २५ पोग्गलपरियट्टा' अनन्तपुद्गलपरिवर्त स्वरूपोऽजीतकालो भवतीति । 'एवं अणागयद्धावि' , एवम नागनाद्धाऽपि अनागतकालोऽपि एवं सगदावि एवं सर्वाद्धा -सर्वकालोऽपि नो संख्यातपुद्गलपरिवर्तवरूपो भवति न वा असंख्यात पुद्गलपरिवर्तस्वरूपो भवति किन्तु अनन्तपुद्गलपरिवर्तस्वरूप एव अतीतकालो. नागतकालः सर्वकालच भवतीति भावः । 'अणागयद्धाणं भंते ! किं संखेज्जाओ तीतद्धाओ असंखेज्जाओ अणंताओ' अनागताद्धा-अनागतकालः खलु भदन्त ! संख्यावातीताद्धाकालरूपो भवति अथवा असंख्यातातीताद्धारूपो भवति अनन्तातीताद्धारूपो वा भवतीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखेज्जाभो तीतद्धाओ णो असंखेज्जाओ. है किन्तु-'अणंता पोग्गलपरिया' अनन्त पुद्गल परिवर्तरूप होता है 'एवं अणागयद्धा वि' इसी प्रकार से भविष्यकाल भी अनन्त पुद्गल परिवत रूप होता है। संख्यात अपया असंख्यात पुद्गल परिवर्तरूप. नहीं होता है। इसी प्रकार से 'एवं सम्बद्धा वि' सर्वकाल भी अनन्त पुद्गलपरिवर्तरूप होता हैं, संख्यात अथवा असंख्यात पुद्गल परिवर्तरूप नहीं होता है। - 'अणागयद्धा णं भंते । किं संखेज्जाओ तीतद्धाओ असंखेजाओ अणेताओ' इस सूत्र द्वारा श्रीगौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! अनागतकाल क्या संख्यात अतीतकाल रूप होता है ? अथषा असंख्यात अतीतकाल रूप होता है ? अथवा अनन्त अती. तकाल रूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा । नथी. तम असभ्यात पुल परिवत ३५ ५७४ सात नथी. ५२'तु 'अणता पोग्गलपरियट्टा' मानत युदय परिवत ३५ डाय छे. 'एवं अणागयद्धा वि' એજ પ્રમાણે ભવિષ્ય કાળ પણ અન ત પુદ્ગલ પરિવર્ત રૂપ હોય છે સંખ્યાત अथवा मन्यात पुगत परिवत ३५ ता नथी, मेला प्रभारी एवं सव्वद्धा ”િ સર્વ કાળ પણ અનંત પુદ્ગલ પરિવર્તી રૂપ હોય છે, સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરિવર્ત રૂપ હેતા નથી. 'अणागयद्धा णं भंते 1 कि स खेज्जाओ तींतद्धाओ अस खेज्जाओ अणताओ આ સૂત્રપાઠ દ્વારા ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન અનાગત કાળ શુ સખ્યાત અતીત કાળ રૂપ હોય છે ? અથવા અસંખ્યાત અતીત કાળ રૂપ હોય છે ? કે અનંત અતીતકાળ રૂપ હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा सुश्री गौतमस्वामी ने छ है-'गोयमा ! णो सखेज्जाओ तोतदार Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवतीसूत्र बीताद्धाओ-णो अणंताओ तीतद्धाओ' नो सस्पातागीतकालरूपो भवति अनागतकालो न वा अप्त ख्यातातीतकालरूपो भवति नो वा अनन्तातीतकारूपो भवतीति किन्तु 'अणागयाहाणं तीतद्धाओ समयाहिया' अनागताद्धा-अनागतकाळ खलु अतीताद्धातोऽतीतकालतः समयाधिकाः एकसमयाधिको भवति अनागतकालोऽतीत कालापेक्षया एवम्-'तीतद्धाणं अणागयद्धाओ समयृणा' अतीतादाअतीतकालः अनागताद्धातः अनागतकालतः-अनागतकालापेक्षया समयोन:एक समय यूनो भवति-अतीतकालापेक्षया अनागतकालस्य एकसमयाधिक्यं भवति, तथा अतीतकालोऽनागत कालापेक्ष या एकममयन्यूनो भवतीत्यर्थः, अती. तानागतकालो अनायनन्तधर्माभ्यां समानो यथा-गवीतकालस्पादिनास्ति तथा-अनागतकाकस्यान्तो नास्तीति अनाघनन्ता यामुभी समानौ भवतः, तयो णो संखेज्जाओ तीताद्वाओ जो अमखेज्जामोतीतद्वाओ णो अणंताओ तीतद्धाओ' हे गौतम! अनागतकाल न संख्यात अतीतकाल रूप होता है न असंख्यात अतीतज्ञाल रूप होता है और न अनन्तभती सफालरूप होता है किन्तु 'अणालयद्वाणं तीतद्राओ समयाहिया' अनागतकाल अतीतकाल से एक समय अधिक होता है। अर्थात् अतीत काल की अपेक्षा अनागतकाल एक समय अधिक होता है । 'एवं तीत द्वाणं अणागयाद्धाओ लमयूणा' इसी प्रकार अतीत काल अनागतकाल की अपेक्षा एक समयन्यून होना है। अतीतकाल की अपेक्षा अनागतकाल एक समय से अधिक होता है और अनागत काल की अपेक्षा अतीत फाल एक लमय से न्यून होता है। अतीतकाल और अनागतकाल ये दोनों अनादि अनन्त धमों को लेकर समान। अतीतकाल की णो असं खेज्जाओ तीतद्धाओ णो अणताओ तीतद्धाओ' गौतम ! अनागत કાળ સંખ્યાત અતીત કાળ રૂપ હેતે નથી, તથા અષાત અતીતકાળ રૂપ હેતે નથી, અને અનંત અતીત કાળ રૂપ પણ હું તો નથી પરંતુ 'अणाययद्धाणं तीतद्धाओ समयाहिया' मनात -विष्य मतातભૂતકાળથી એક સમય અધિક હોય છે અર્થાત્ અતીત કાળની અપેક્ષાથી અના त मे समय मचि हाय छे ‘एव तीत द्वाण अणागयद्धाओ समयूणा' એજ પ્રમાણે અતીતકાળ અનાગત કાળ કરતાં એક સમયનૂન હોય છે. એટલેકે–અતીતકાળ કરતાં અનાગતકાળ એક સમય વધારે હોય છે. અને અનાગતકાળની અપેક્ષાથી અતીતકાળ એકસમયનૂન હેાય છે. અતીતકાળ અને અનાગતકાળ એ બેઉ અનાદિ અનંત ધર્મોને લઈને સરખા છે. અતીતકાળ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०२ सागरोपमादि कालमाननिरूपणम् ३१ रुभयो रतीतानागतकालयोश्च मध्ये भगवतः पश्नसमयो वर्तते स च प्रश्न समयोऽविनष्टत्वेन नातीतकाले प्रविशति किन्तु अविनष्टत्वसाधात् अनागत- । काले एव क्षिप्त इत्यतोऽनागवकलोऽतीतकालापेक्षया समयाधिको भवति, तथा अतीतकालोऽनागतकालापेक्षया एक समयन्यनो भवति इत्यत एवाह-'अणागय. द्धाणं तीयद्धाओ समयाहिया वीयद्धाणं अगागयद्धाओ समयणा' इति 'सबद्धाणं भंते । किं संखेज्जाओ तीवद्धाओ पुच्छा सद्धिा-सर्वकालः खलु भदन्त ! कि संख्यातातीतकालरूपः ? अथवा-असंख्यातातीतकालरूपोऽथवा-अनन्तातीतकालख्यो भवतीति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा है गौतम ! 'नो संखेन्जाओ तीतद्धाओं' नो संख्यातातीताद्धा-अतीतकालरूप: सर्वकाला, 'णो असंखेज्जाओ णो अणंताओ तीयद्धाओ नो असंख्यातातीतद्धा. जिस प्रकार आदि नहीं है उसी प्रकार अनागतकाल का भी अन्त नहीं हैं। अतः ये दोनों अनादि अनन्त रूप से समान हैं। इन दोनों अती. तकाल के बीच में भगवान के प्रश्न का समय है वह प्रश्न समय अधि नष्ट होने से अतीतकाल में समाविष्ट नहीं होता है किन्तु अविनष्ट धर्म के साधर्म्य से उसका अनागतकाल में ही समावेश होता है। इस प्रकार अनागत काल अतीतकाल की अपेक्षा समधाधिक होता है। तथा-अनागतकाल से अतीतकाल एक समय न्यून होता है। इसीलिए 'अणागयद्धाणं तीघद्धाओ समयाछिया तीयद्धाणं अणागयद्धाओ समयूणा' ऐसा कहा गया है। 'सव्वाद्धाणं भंते ! कि संखेज्जाओ तीतद्धाओ पुच्छा' हे भदन्त ! सर्वकाल क्या संख्शेत अतीतकाल रूप है? अथवा असंख्यात अतीतकाल रूप है ? अथवा अनन्त अनीनकाल रूप જેમ આદિ વગરનો છે એજ પ્રમાણે અનાગતકાળ ને અંત નથી. તેથી આ બને અનાદિ અનંત પણ થી સરખાં છે અતીતકાળ અને અનાગતકાળ આ બન્નેની વચમાં ભગવાનના પ્રશ્નો સમય છે, તે પ્રશ્ન સમય નાશ વિનાને હેવાથી અતીતકાળમાં તેને સમાવેશ થ નથી. પરંતુ અવિન ધર્મના સામ્ય પણાથી અનાગત કાળમાં જ તેને સમાવેશ થાય છે, આ અનાગતકાળ અતીતકાળની અપેક્ષાથી એક સમય વધારે હોય છે, તથા અનાત કાળ थी मतlast मे समयन्यून डाय छे तेथी 'अणागयद्धाणं तीयद्धाओ समया हिया तीयद्धाण अणागयद्धाओ समयूणा' प्रमाणे ४९ छे 'सव्वद्धाणं भंते ! कि सखेज्जाओ तीतद्धाओ पुच्छा' भगवन् स शु. सध्यात मतीत કાળ રૂપ છે ? અથવા અસંખ્યાત અતીતકાળ રૂપ છે ? કે અનંત અતીત Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ শালী रूपो नो वा अनन्तातीताद्वारूपः सर्वकालो भवति किन्तु 'सबद्राणं तीयदामो सातिरेगदुगुणा' सर्वाद्धा-सर्वकालः खल्ल अतीतादातः-अनीतकालत:-अतीत. कालापेक्षया सातिरेकद्विगुणो भवति सद्धिा अतीतानागनाद्धाहय, सा च सर्वार्दा अतीसाद्वावः सकाशाद सातिरेकद्विगुणा भाति सातिरेकात्य च वर्तमान समयेन-अत एव 'तीतद्धाणं सम्बद्धाओ थोवूगए अद्धे' अतीताद्वा खलु सर्वाद्धातः स्तोकोना अा अवति ऊनावं च वर्तमानसमयेनैवेति, अत्र फोऽप्याह-अतीत. कालोऽनापतकालोऽनन्तगुणो भवति, यतो हि यदि तौ अतीवानागतकाको वर्तमानसमये समौ स्याताम् ततस्तदतिक्रमे अनागतकालः समयोनो भवेत्ततो है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो संखेज्जाश्री तीत. द्धाओ, णो असंखेज्जाओ, णो अणंनाभो तीयद्धाओं' हे गौतम ! सर्वकाल संख्यात्त अतीतकाल रूप नहीं होता है, न वह असंख्यात अतीतकाल रूप होता है और न वह अनन्त अतीतकालरूप होता है किन्तु-'सचद्धाणं तीयद्धाओ सातिरेग दुगुणा' वह सर्यकाल अतीत काल की अपेक्षा से कुछ अधिक दुगुना है, अतीत अनागत का नाम सर्वाता है यह सर्वोद्धा से कुछ अधिक दूना है इसमें कुछ अधिकअधिकता वर्तमान समय को लेकर है इसलिए-तीनद्धाणं लवद्धाओ थोवूगए अद्धे' अतीताद्धा-भूत काल-माद्वा हो कुछ कम अर्ध भाग रूप है यहां ऊनत्ता-न्यूनता बर्तमान समय से की है। यहां कोई ऐसा कहते हैं-'अतीतकाल से अनागत काल अनन्तगुगा होना है-क्योंकि यदि वे अतीतकाल और अनागतकाल तमान समय में बराबर हों કાળ રૂપ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે"गोयमा! णो संखेज्जाओ तीतद्धाओ णो असखेज्जाओ, णो अणंता भो तीयद्धाओ હે ગૌતમ! સર્વકાળ સંખ્યાત અતીતકાળ રૂપ હેતો નથી તથા અસંખ્યાત અતીતકાળ રૂપ પણ હોતો નથી. અને અનંત અતીતકાળ રૂપ પણ डात नथी परतु सम्बद्धा तीयद्धाओं सातिरेकदुगुणा' सपण અતીતકાળ કરતાં કંઈક વધારે પ્રમાણે છે. અતીત અનાગતનું નામ સર્વોદ્ધાકાળ છે આ સર્વાધ્યાકાળ અતીતથી કંઈક વધારે ગમણે છે. અર્થાત બમણા થી કંઈક વધારે છે. આમાં કઈક વધારે અધિકપણું વર્તમાન સમય ને લઈને है. तथी 'तीतद्धाण सव्वद्धाओ थोवूणए अद्धे' मतीत'-F1 साथी ४४४ કમ અદ્ધ ભગ રૂપ છે. અહિયાં આટલું ઓછાપણું વર્તમાન સમય ને લઈને છે. અહિયાં કેઈ એવું કહે છે કે-અતીતકાળ કરતાં અનાગતકાળ અનંતગણું હોય છે. કેમકે-જે તે અતીતકાળ અને અનાગતકાળ વર્તમાન સમયમાં બરા Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०२ सागरोपमादि कालमाननिरूपणम् ३३ द्वयादिसमयोनो भवेत, एवं सति च नास्ति तयोः समत्वं ततोऽनन्तगुणोऽतीत. कालतोऽनागतकालः, अतएव नासौ अनागतकालोऽनन्तेनापि कालेन गतेन क्षीयत इति । अत्राह-इह यद् अतीतानागतकालयोः समत्वं कथितं तत् उभयोरपि आघन्ताभावमात्रेण विवक्षितम्, यत् अतीतानागतकालयो नादिनापि चान्त इति, एतच्चादौ निवेदितमेवेति । 'सम्बद्धाणं भंते ! किं संखेज्जाओ अणागय. द्धाओ पुच्छा' सार्दा खलु भदन्त ! किं संख्यातानागताद्वारूपा अथवा असंख्यातानागताद्धारूपा यछा अनन्तानागताद्वारूपा भवतीति पृच्छा' प्रश्नः । तो उसके व्यतीत हो जाने पर अनागत काल एक समय कम होगा और इस प्रकार दो तीन चार आदि लमय घटते २ उन दोनों में समानता रहेगी नहीं इसलिए अनागतशाल अतीतकाल से अनन्तशुणा इसी कारण सह अनागलशाल अनन्तकाल के व्यतीत हो जाने पर भी नष्टनहीं होता है। लो इसका उत्तर इस प्रकार से है कि यहां अतीत लाल और अनागतकाल जो समान कहा गया है तो उनकी अनादिता और अनन्त को लेकर कहा गया है। अर्थात् जैले अतीत काल की आदि नहीं है वैसे ही अनागत काल का अन्त भी नहीं है। सो यह बात पहिले ही प्रकट कर दी गई है। ___ 'सव्वद्धाण मंते ! किं संखेज्जाओ अणागयाद्वाओ पुच्छा' इस सूत्र द्वारा श्रीगौतमस्थानी ने प्रभुश्री से ऐसा पछा है-हे भदन्त ! सर्वाद्धारूप सर्वकाल क्या संख्यात अनागत कालरूप होता है ? अथवा असंख्यात अनागतकालरूप होता है ? अथवा अनन्त अनागत कालरूप होता है? इसके उत्तर में प्रसुश्री पाहते हैं-'गोयमा! णो संखेज्जाओ अणाબર હોય તો તેના વીતી ગયા પછી અનાગતકાળ એક સમય કમ હાય છે. અને આ રીતે બે, ત્રણ ચાર વિગેરે સમય ઘટતા ઘટતા તે બન્નેમાં સરખાપણું રહેશે નહી. તેથી અનાગતકાળ અતીતકાળ કરતાં અનંતગણો છે, આકારણથી આ અનાગતકાળ અનંતકાળના વીતી જવાં છતાં પણ નાશ પામતે નથી, આનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે–અહિયાં અતીતકાળ અને અનાગતકાળ ને જે સરખા કહયા છે. તે તેમાં અનાદિપણું અને અનંતપણાને લીધે કહેલ છે. અર્થાત જે પ્રમાણે અતીતકાળની આદિ નથી તેજ પ્રમાણે અનાગતકાળને અંત પણ નથી આ હકીકત પહેલા જ પ્રગટ કરેલ છે. 'सम्बद्धाणं भंवे कि संखेज्जाओ अणागयद्धाओ पुच्छा' भगवन साદ્વારૂપ સર્વકાળ શુ સંખ્યાત અનાગતકાળ રૂપ હોય છે અથવા અસંખ્યાત અનાગતકાળ રૂપ હોય છે? અથવા અનંત અનાગતકાળ રૂપ હોય છે ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे ४-"गोयमा णो संखेज्जाओ अणागयद्धाओ भ०५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ भगवतीसूत्रे भगवानाह-'गोग्मा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'यो संखेज्जाओ अणागयद्धाओ नो संख्यातानागताद्धारूपा 'णो अणताओ अणागयद्धाओं' नो वा अनन्तानागताद्धारूपाऽपि सर्वाद्धा अपि तु 'सव्वद्धाणं अणामयद्धाओ थोवृगगदुगुणा' सर्वाद्धा खलु अनागताद्धातः सकाशात् स्तोकोनद्विगुणा भवति, अणागयद्धा णं सबदामो सातिरेगे अद्धे' अनागताला खलु सर्वाहातः सातिरेका अर्धा भवतीति ।।सू०२॥ उद्देशकरयादी पर्यषाः कथिता स्ते च भेदा अपि भवन्तीति निगोदभेदान् दर्शयन्नाइ-'कइरिहा णं भंते ! णिओदा' इत्यादि। मूलम्-कविहा णं संते ! णिमोदा पन्लत्ता ? गोयसा! दुविहा णिगोदा पन्नता, तं जहा- णिओगा य णिओगजीवा य। णिओदा णं संते ! काविहा पन्नता गोयना ! दुविहा णिओदा पन्नता तं जहा सुहमणिगोदाय वायरणिगोदा य एवं णिगोदा भाणियच्या जहा जीवाभिगने तहेव निरवलेलं। कविहे गं भंते ! णाले पन्नते गोयमा ! छबिहे गासे पन्नत्ते तं जहा ओदइए १ जाच सन्निवाइए६। से किं तं उदइए णाले उदइए णामे दुविहे पन्नन्ते तं जहा-उदइए य उदयनिष्फल्ने य एवं जहा गयद्धाओ णो असंखेज्जाओ अणागयद्धाओ णो अणंताओ अणागय. द्धाओ' हे गौतम ! मर्याद्वारूप वर्वकाल संख्यात अनागताद्धारूप नहीं है असंख्यात अनागताद्धारूप नहीं है और अनन्त अनामताद्धारूप नहीं है किन्तु 'लम्बद्धाणं अणागयद्धाओ थोपूणगदुगुणा' बह साद्वारूप सर्वकाल अविष्यकाल की अपेक्षा कुछ कम दुशुणा है और 'अणागयद्धाण सम्वाद्धाओ सातिरेगे अद्वे' अनागताहा सर्वाहा की अपेक्षा कुछ अधिक आधा है।स्लू० २॥ णा असखेजाओ अणागयद्धाओ णो अणंताओं अणागयद्धाओं' है गौतम ! સવંદ્વા રૂપ સર્વકાળ સંખ્યાત અનાગતાદ્ધા રૂપ નથી. અને અસંખ્યાત અનાગતાદ્ધ રૂપ પણ નથી. તથા અનંત અનાગતાદ્ધ રૂપ પણ નથી. પરંતુ 'सम्बद्धाण अणागयद्धाओ थोवूणगदुगुणा' ते सपद्ध। ३५ स मविष्य नी अपेक्षाथी ४४४ भ भए। छे. सन 'अणागयद्धाणं सव्वद्धाओ सातिને જ અનાગતાદ્ધ સર્વોદ્ધાની અપેક્ષાથી કંઈક અધું વધારે છે, સૂ૦ રા Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२५ उ.५ ०३ निगोदभेदनिरूपर्णम् सत्तरमसए पढमे उद्देसए भावो तहेव इह वि । णवरं इमं णाणतं सेसं तहेव जान सन्निवाइए सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सू०३ ॥ ॥ पणवीस सय पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ छाया -- कतिविधाः खलु भदन्त ! निगोदा : मज्ञप्ताः, गौतम ! द्विविधाः निगोदाः प्रज्ञप्ताः - तथथा - निगोदाच निगोदजीवाश्च । निगोदाः खलु भदन्त ! कति विधाः प्रज्ञताः ? गौतम ! द्विविधाः मज्ञताः, तद्यथा - सूक्ष्मनिगोदाच वादरनिगोदार्थ, एवं निगोदा भणितव्या यथा जीवाभिगमे तथैव निरवशेषम् । कति विधं खलु भदन्त ! नाम मज्ञप्तम् - गौतम ! षड्विधं नाम मज्ञतम् तद्यथा - औदयिकं यावत् सन्निपातिकम् । अथ किं तद् औदयिकं नाम औदयिकं नाम द्विविधं मज्ञतम् तद्यथा - उदइयम् उदयनिष्पन्नं च एवं यथा सप्तदशशते प्रथमे उद्देशके भावस्तथैव इहापि नवरमिदं नाम नानात्वम् शेर्पा तथैव यावत् सान्निपातिकम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ॥२०३॥ ॥ इति पञ्चविंशतितमे शतके पञ्चमोद्देशकः समाप्तः । टीक - 'कविहाणं भंते ! णिगोदा पन्नत्ता' कतिविधाः खलु भदन्त ! निगोदाः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविधा णिओदा पन्नता' द्विविधाः निगोदाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा ' तद्यथाउद्देशक की आदि में पर्यय कहे गये हैं सो ये पर्यच भेदरूप भी होते है अतः अब सूत्रकार इसी अभिप्राय से निगोद के भेदों को प्रकद करते हैं - 'कहविहाणं भंते! गोदा पत्रत्ता' इत्यादि सृ० ३। टोकार्थ - इस सूत्र द्वारा श्रीगौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा - 'कविहाणं भंते ! निगोदा पद्मत्ता' हे भदन्त ! निगोद कितने प्रकार के कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'गोमा ! दुविहा णिओदा पत्ता' हे गौतम ! निगोद दो प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा ' ઉદ્દેશાના આરસમાં પાંચા કહ્યા છે, આ પાંચે ભેદ રૂપ હાય છે. तेथी हुवे सूत्रार भेन अलिप्रायथी निगोहना लेहोने अगर उरे छे. 'कइविहाणं भते ! णिगोदा पन्नत्ता' इत्यादि ટીકા-આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવુ' પૂછ્યું' છે કેમ્પ 'विहाण ते ! निगोदा पन्नत्ता' हे लगवन् निगोह डेटला अारना ह्या छे ? था अञ्जना उत्तरसां अलुश्री गौतमस्वाभीले ४ है- 'गोयमा दुविधा णिगोदा पन्नत्ता' हे गौतम! निगोह में अहारना ह्या छे, 'तं जहा' ते मा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे 'णिओगा य णिओय जीवा य' निगोदाश्च निगोदजीवाश्च तन निगोदो नाम अनन्तजीवानामेकशरीरेऽवस्थानम् तथा अनन्तकायिकजीवाः निगोदजीवा इति कथ्यन्ते। 'णिगोया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता' निगोदाः खलु सदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ता, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयसा' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' द्विविधा निगोदाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-'सुहुमनिगोदाय वायरनिगोदा य सूक्ष्मनिगोदाश्च वादरनिगोदाथ चमचक्षुषा यो न दृश्यते स सूक्ष्मनिगोदः चर्मचक्षुषा परिदृश्यमानश्च निगोदो बादरनिगोद इति 'एवं णिगोदा भाणियव्या जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं' एवं निगोदा भणितव्या यथा जीवाभिगमे पञ्चमप्रतिपत्तौ तथैव निरवशेपम् । जीवाभिगमप्रकरणं चेत्थम्-'मुहुजैसे-णिओयगाय जिओगजीवाय' निगोदक और निगोद जीव अनन्त जीवों का एक शरीर में जो अवस्थान है वह निमोद है । तथा अनन्तज्ञायिक जो जीव हैं वे निगोद जीव हैं। णिशोधाणं भंते ! कइविहा पाता' हे अदन्त ! निगोद कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुली कहते हैं-'शोयमा ! दुविहा पनत्ता' हे गौतम ! लिगोद दो प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा' जैसे-'सुहुम निगोदा थ वायर निगोदा य' सूक्ष्म निगोद और चादर निगोद चर्मचक्षुले जो शरीर दिखाई नहीं दे सकता वह स्नूक्ष्म निगोद और जो दिखाई देता है वह बादर निगोद है। एवं णिगोदा आणियच्या जहा जीवाभिगो तहेव निर. बसेसं इस प्रकार से जीवाभिगम स्मूत्र की पञ्चम मतिपत्ति में कहें अनुसार समस्त निगोद सम्बन्धी कथन यहां कहना चाहिये। वह इस प्रभारी छे. 'णिओगाय णीओगजीवाय' निगा भने निगाव मत જનું એક શરીરમાં જે અવસ્થાન–રહેવાનું છે તે નિગદ છે. તથા અનતે. य४२ व छे त निगा। वो छ ‘णिगोयाणं भवे ! काविहा पन्नत्तो' હે ભગવન નિગોદ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ई छ है-'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता" ॐ गौतम ! निगाह में प्रता ४ह्या छे 'तं जहा' भ3-'सुहुमनिगोदा य बायरनिगोदा य' सूक्ष्म निगाह मने બાદર નિગોદ, ચર્મચક્ષુવાળાએથી જે શરીર દેખાય નહીં તે સૂક્ષ્મનિગોદ छ. १२२ वाम मावे छे.ते मार निगाह छे. 'एवं णिगोदा भाणियव्वा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेस' मा शालिगम सूत्रभi प्रमाणे સઘળા નિગોદ સંબંધી કથન અહીયાં કહેવું જોઈએ જીવાભિગમ સૂત્રમાં Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५ सू०३ निगोदभेदनिरूपणम् मणिगोया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता, गोयमा' ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा पज्जत्तगाय अपज्जत्तगाय' इत्यादि सर्वा पञ्चमा प्रतिपत्तिरत्र वाच्येति' अनन्तरं निगोदाः कथिताः, निगोदाश्च जीवपुद्गलानां परिणामभेदात् भवन्तीति परिणामभेदान् दर्शयति-'कइविहे गं' इत्यादि, 'कइविहे णं भंते ! णामे पन्नत्ते' कतिविधं खलु भदन्त ! नाम प्रज्ञप्तम्, नमनं नाम-परिणामो भाव इति पर्यायः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छबिहे णामे पन्नत्ते' पविधं नाम प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' तद्यथा-'ओदइए जाव सन्निवाइए' औदयिकं यावत् सान्निपातिकम्, यावत्पदेन औपशमिक, क्षायिक-क्षायोपशमिकप्रकार से है-'सुहुम णिगोयाणं भंते ! कइविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा पज्जत्तगाय अपज्जतगा' इत्यादि निगोद के प्रकरण से समस्त पञ्चम प्रतिपत्ति यहां कहनी चाहिये । ये निगोद कहे गये हैं ये निगोद जीव और पुद्गलों के परिणाम भेद से होते हैं । अतः अब सूत्रकार परिणाम भेदों को दिखलाते हैं-'कविहेणं भंते ! णामे पन्नत्ते' हे भदन्त ! नाम कितने प्रकार का कहा गया है ? नमन का नाम नाम है-यह नाम परिणाम रूप होता है परिणाम भाव का नाम है। भाव यह पर्याय रूप है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! छविहे णामे पन्नत्त' हे गौतम ! नाम छ प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे-'ओदइए जाव सन्निचाइए' औदयिक ? यावत् सांनिपाપહેલી પ્રતિપત્તિના બીજા ઉદ્દેશામાં આ કથન આવેલ છે. જે આ પ્રમાણે છે. 'मुहुमणिगोयाणं भंते कइविहा पन्नत्ता गोयमा! दुविहा पन्नत्ता त जहा-पज्जत्त गाय अपज्जत्तगा य-त्याहि निगाहना ३२शुभांथी पायभी प्रतिपत्तिनुं सघणु કથન અહીંયાં કહેવું જોઈએ. આ રીતે નિગોદ કહ્યા છે. તેથી નિગોદ જીવે અને પુદ્ગલેના ભેદથી થાય છે. सूत्रा२ परिणाम होने मताव छ 'कइविहेणं भाते ! णासे पण्णत्ते' હે ભગવનું નામ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? નમનનું નામ નામ છે-આ નામ પરિણામ રૂપ હોય છે. પરિણામ લાવનું નામ છે. ભાવ પર્યાય રૂપ છે, આ प्रश्न उत्तरमा ५४ छ -'गोयमा छविहे णामे पण्णत्ते' हे गीतम! नाम छ प्रारना ४था छ 'त' जहा' रेभ-'ओदइए जाव सन्निवाइए मोहयि१ થાવત્ ઔપથમિકર, ક્ષાયિક ૩ ક્ષાપશમિક ૪ પારિમિક અને સાંનિપાતિક ૬ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे ફટ पारिणामिकाणां संग्रहः, 'से किं तं उदहए णामे' अथ किं तत् औदयिकं नाम 'उदइए णामे सुविहे पन्नत्ते' औदयिकं नाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहा ' तद्यथा - 'उदइए य उद्यनिफन्नेय' औदयिकं च उदयनिष्पन्नं च, 'एवं जदा सत्तरसमे सए पढमे उद्देसए भावो तहेव इद्दचि' एवं यथा भगवती सूत्रस्य सप्तदशे शते प्रथमोद्देशके भाव स्तथैव इहापि सप्त दशशतकीय प्रथमोदेश के यथा भावसंवन्धे कथित स्तथैव इहापि नामसंवन्धे वक्तव्यः | 'णवरं इमं नाम णाणतं ' नवरम् - केवलमिदं नाम्ना नानात्वं भेदः सप्तदशशतके भावाश्रपणेन सूत्रमधीतम् इहतु नामशब्दमाश्रित्य कथितम् एतावानेव द्वयोः प्रकरण पोर्भेद इत्यर्थः । ' सेसं तहेव जान सन्निवाइए' ति ६ यहां यावत् पद से औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और परिणामिक इनका संग्रह हुआ है । 'से किं तं उदइए णासे' हे भदन्त । औदधिक नाम-भाव कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'उदहए णाने दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम! औद्धिक नाम दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे 'उदहए य उदद्यनिफन्ने य' औदयिक और उदयनिष्पन्न । 'एवं जहा सत्त' रखमे सए पढमे उद्देलए भावो तहेव इह वि' इस प्रकार से जैसा कथन इसी भगवती सूत्र में १७ वें शतक के प्रथम उद्देशक में भावों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही कथन सम्पूर्ण रूप से यहां पर भी नाम के सम्बन्ध में कहना चाहिये । 'नवरं इस नाम णाणत्तं' यही बात इस सुन्न द्वारा सूत्रकार ने प्रकट की है । अर्थात् वहां भावों को लेकर कथन किया गया है यहां नाम शब्द को लेकर कथन किया गया है ? सो यही અહીયા યાવતુ પતથી ઔપશમિક ક્ષાયિક ક્ષાયેાપશમિક અને અને પાણિામિકના સ'ગ્રહ થયા છે. 'से किं त' उदइए णामे' हे भगवन् मोहयि नाभ-लाव टला अारना ४ह्या छे ? मा अश्नना उत्तरमा अछे - 'उदयइए णामे दुविहे पन्नत्ते હું ગૌતમ ! ઔદયિક નામ એ પ્રકારના કહ્યા છે. ‘ત ના’ તે આ પ્રમાણે छे.- 'उदइए य उदयनिफन्ने य' मोहयि मने उध्यनिष्पन्न ' एवं जहा सत्तमे सप पढमे उद्देस भावो तब इह वि' मा प्रभा मा भगवती सूत्रना १७ ક્ષત્તરમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં ભાવેાના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કર્યું" છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન સંપૂર્ણ રીતે અહીયા નામના સબધમાં પણ કહેવું लेखे 'नवर इम नाम णाणत्त' मे४ वात या सूत्रद्वारा सूत्र अगर रेल છે અર્થાત્ ત્યાં ભાષાને લઈ ને કથન કરવામાં આવેલ છે અને અહીયાં નામ शहने साने उथन उरेस छेमा मे ना अरमां लेड छे, 'सेस' तद्देव' Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.५सू०३ निगोदभेदनिरूपणम् शेषं तथैव यारत् साभिषातिकम् औदयिकादारभ्य सान्निपातिकनामपर्यन्तं सर्वमपि पूर्ववदेव बोध्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! पर्यत्रादिविषये यदेवानुप्रियेग कथितं तत् सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नलस्यति बन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।मु०३॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूपित बालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां पञ्चविंशतिशतकस्य पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥२५-५॥ दोनों प्रकरणों में भेद है । 'सेसं तहेव जाय सभिवाइए' वाकी का और सब कथन यावत् सागपातिक तक का पहिले के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । अर्थात औयिक से लेकर सोन्निपातिक नाम तक का सब कथन पहिले के कथन जैसा ही है। 'सेवं भंते ! सेवं अंते ! त्ति' हे भदन्त पर्यव आदि के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी ने प्रभु को बन्दना एवं नमस्कार किया फिर बन्दना नमस्कार करके वे संयन और तप से आरमा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।।सू० ३॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसन" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या पचीसवें शतकका पचम उद्देशक समाप्त ।। २५-५ ॥ जाव सन्निवाइए' मानु मा तमाम ४थन या सान्निति सुधातु પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું ચર્થાત્ ઔદયિકથી લઈને સન્નિપાતિક નામ સુધીનું સઘળું કથન પહેલાના કથન પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું. 'सेन भते । सेव भते त्ति' गवन् ५q-पर्याय विगेरेना स मi આપ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કહ્યું છે. તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે હે ભગવન આપનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામી એ પ્રભુને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને ગૌતમસ્વામી તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા સૂ૦૩ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકરપૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકને પાંચમે ઉદ્દેશક સમાસાર–પા Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे ॥ अथ षष्ठोदेशकः प्रारभ्यते ॥ पञ्चमोद्देशकस्य चरमभागे नामभेदाः कथिताः, नामभेदाच्च निर्ग्रन्थभेदा reditra ed निर्ग्रन्थभेदाः पष्ठोदेश के कथ्यन्ते इत्यनेन संबन्धेनायातस्य षष्ठोद्देशकस्य एता स्तिस्रो हारगाथा आदौ कथ्यन्ते - 'पन्ना' इत्यादि । गाथा - पेन्नवण वेदं रागे कैप्प चरितं पडि सेवणा णाणे । ॥ तिथे लिंगसरीरे खेत्ते काल गैइ संर्जमनिगासे ॥ जोर्गुवओगे कैसाए लेस्ली परिणाम वधे वेदेयँ । कैम्मोदीरण उवसंपजहन्ने सन्नीय आहारे || भँव आगरिसे कोलं तरेयं समुग्धीय खेत्तं फुंसणाय । वे परिमाणे विथ अप्पाबहुयं नियंठाणं ॥३॥ छाया - मज्ञापनं वेदो रागः कल्पवारित्रं प्रविसेवनाज्ञानम् । तीर्थों लिङ्ग शरीरं क्षेत्रं कालः गतिः संयमः निकाशः ॥ योगोपयोग कषायाः लेश्या परिणामो बंधी वेदश्च । कर्मोंदीरण उपसंपत् जघन्य संज्ञा च आहारः ॥ भत्र आकर्षः कालः अन्तरं समुद्धातः क्षेत्रं स्पर्शना । भावः परिमाणोऽपि चाल्पबहुत्वं निर्ग्रन्थानाम् ||३|| छडे उद्देशक का प्रारंभ पचम उद्देशक के अन्तिम भाग में नाम भेद कहें गये हैं । नाम भेद से निर्ग्रन्थों के भेद होते हैं, इसलिये अब इस छठे उद्देशे में वे ही निर्ग्रन्थ भेद कहे जाते हैं । इसी सम्बन्ध से आये हुए इस छठे उद्देशे की आदि में ये तीन द्वार गायाएं कही गई है । जो इस प्रकार से है- 'पन्नवण' इत्यादि । छट्ठा उद्देशाने आरंभ પાંચમાં ઉદ્દેશાના છેલ્લા ભાગમાં નામના ભેદો કહ્યા છે. નામ ભેઢેથી નિગ્રંથાના ભેદો થાય છે તેથી હવે આ છઠ્ઠા ઉદેશામાં એ નિ થાના જ ભેદો કહેવામાં આવે છે-આ સ`ખ ધથી આવેલા આ છઠ્ઠા ઉદ્દેશાના આરભમાં आ त्रथु गाथाओ। इसी छे ? आमा छे- पन्नवण इत्यादि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafद्रका टीका ०२५७०६ ०१ द्वारगाथा विवरणम् ४१ टीका - अस्मिन् उदेश के निर्ग्रन्थानां निम्नप्रदर्शितानि पत्रिंशद् द्वाराणि सन्ति तथाहि - 'पण' इति - मज्ञापनम् - प्रज्ञापनद्वारम् १, 'वेद' वेदः २, 'रागे' रागः ३, 'कप्पे' कल्पः ४, 'चरित' चरित्रम् ५ 'पडि सेवण' प्रतिसेवना ६, 'जाणे' ज्ञानम् ७, 'तित्थे' तीर्थ' ८, 'लिंग' लिङ्गम् ९, 'सरीरे' 'शरीरम् १०, 'खेत्ते ' क्षेत्रम् ११, "काल" काल: १२ 'गड' गतिः १३ 'संजम' संयमः १४ 'दिगासे' निकारा: सन्निकर्षः १५. 'जोयुब योगे' योगोपयोगी-योगद्वामुपयोगद्वारं १७, 'कसाए' कपायः १८, 'लेस्सा' लेश्या १९, 'परिणामे' परिणामः २०, 'बंध' वन्धः २१ ‘येथेज' वेदश्च वेदो वेदनं कर्मणाम् २२, 'उदीरण' उदीरणम् कर्मणाम् २३, 'उन्न' उपसंपत् हानम् २४, 'सन्ना' संज्ञा २५, 'आहारे' आहारः २६, '६' यः-उत्पत्तिः २७, 'आगरिसे' आकर्षः २८, 'काले' काल:--कालमानश्र् २९, ‘अंतरे' अन्तरस् ३०, 'समुग्धाए' समुद्घातः ३१ 'खेत्ते ' क्षेत्रस् ३२ 'फुसणा य' स्पर्शना च २३, 'भावे' भावः ३४ 'परिमाणे' परिमाणम् ३५, 'विष' अपि च 'अप्पा बहुये ' अल्पबहुत्वम् ३६, 'नियं ठाणं' निर्ग्रन्थानाम् एतेषां प्रज्ञापनाकि पर्मिशद्वाराणां स्वरूपं यथावसरं प्रतिपादितं भविष्यतीति गाथार्थः । टीकार्थदेश में निर्ग्रन्थों के विषय में ये नीचे प्रदर्शित ३६ द्वार है जैसे- प्रज्ञापन द्वार १, वेदद्वार २, राग ३, कल्प ४, चारित्र ५. प्रतिसेवना ६, ज्ञान ७, तीर्थ ८, लिङ्ग ९. शरीर १०, क्षेत्र ११, काल १२, गति १२, संयम १४, निकाश - संनिकर्ष १५, योग १६, उपयोग १७, कषाय १८, या १९, परिणाम २०, बन्ध २१, बेद कर्म का वेदन २२, उदीरणा २३, उपसंपत्-हान २४, संज्ञा २५, आहार २६ भव २७, आर्ष २८, कालमान २९, अन्तर ३०, समुद्घात ३१, क्षेत्र ३२, स्वहीना ३३, भाव ३४, परिमाण ३५, और अल्पबहुत्व ३६, इन प्रज्ञापनादि ३६ द्वारो का स्वरूप यथावमर प्रतिपादित करने में आवेगा । ટીકા મા ઉદેશામા નિગ્ર થાના વિષયમાં આ નીચે બતાવેલા ૩૬ છત્રીસ द्वारा छे. लेभडे-अज्ञानाद्वार १ वेद्वार २, राग उ, उदय ४. यरित्र प प्रतिसेवना ६, ज्ञान ७, तीर्थ ८, लिंग, शरीर १०. क्षेत्र ११, १२, गति १३, संयम १४, निाश-सनिपुर्ष १५, योग १६, उपयोग १७. उषाय १८, बेश्या १८, परिणाम २०, अध २१, वेह भनु वेहन २२ हीरा 23, ઉપસ’પત્ ૨૪, સના ૨૫, આહાર ૨૬ ભવ ૨૭ આકર્ષીક ૨૮, કાલમાન ર૯, અંતર ૩૦ સમુદ્દાત ૩૧ ક્ષેત્ર ૩૨ પના ૩૩. ભાવ ૩૪ પરિમાણુ ૩૫, અને અલ્પ મર્હુત્વ ૩૬ આ પ્રજ્ઞાપના વિગેરે ૩૬ છત્રીસદ્રારાનું સ્વરૂપ યથાવસર-અવસર પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. भ० ६ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा भगवतीस्त्रे तत्र सर्वप्रथमं प्रज्ञापनाद्वारयाह-'रायगिहे' इत्यादि । मूलम्-राथगिहे जाव एवं क्याली का गं अंते! णियंठा पन्नता? गोयसा! पंच णियंठा पन्नता तं जमा-पुलाए १ बउसे २, कुलीले३, णियंठे४, सिणाए ५। पुलाए णमंते! कइविहे पन्नत्ते? गोयला! पंचविहे पन्नतेतं जहा-नाणपुलाए १ दसणपुलाए२, चरितपुलाए३, लिंगपुलाए४, अहा सुहुलपुलाए णामं पंचमे । बउसे भंते ! काविहे पन्नते ? योयमा! पंचविहे पन्नन्ते तं जहा-आओगबउले१, अणामोगबउले२, संवुडवउसे३, असंवुडवउसे४, अहा सुहमबउसे णामं पंचने ५। कुसीले णं भंते ! कहविहे पन्नते? गोयमा ! दुविहे पन्लते तं जहा-पडिसेवणा कुलीले य कसायकुसीले । पडिलेवणा कुसीले णं अंते ! कइविहे पन्नते ? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते तं जहानाणपडिलेवणा कुलीले१ दंलणपडिलेवणा कुलीले२, चरित्तपडिलेवणाकुसीले ३, लिंगपडिसेवणा कुलीले ४, अहासुहमपडिसेवणा कुलीले णामं पंचमे। कसायकुसीले णं भंते ! काविहे पन्नते ? गोयला! पंचविहे पन्लत्ते तं जहा-नाणकसायकुसीले १ दसणकसायकुलीले २, चरित्तकसायकुलीले ३, लिंगकसायकुलीले४, अहासुहुनकसायकुलीले जानं पंचसे। णियंठे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहापढसलमयणियंठे?, अपढ ललमणियंठे२, घरमसमयणियंठे३, अचरमसमयणियंठे४, अहासुहमणियंठे जामं पंचमे । सिणाए णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा! पंचबिहे पन्नत्ते, तं जहाअच्छवी१, अलबले २, अकस्मंसे३, संसुद्धनाणदंलणधरे अरहा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ trafer टीका श०२५ उ. ६ सू०९ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् जिणे केवली४ अपरिस्लावी५ । पुलाए णं भंते! किं सवेयए होज्जा अवेयर होज्जा ? गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयर होज्जा । जइ सवेयए होज्जा किं इत्थवेयर होज्जा पुरिसवेयए होज्जा पुरिस णपुंसगवेयर वा होजा ? गोयमा ! नो इत्थि - वेयए होजा, पुरिलवेयर होज्जा पुरिसणपुंसगवेयए वा होज्जा । बउसे णं भंते! किं सवेयर होज्जा अवेयर होज्जा ? गोयमा ! सवेयर होजा नो अवयए होज्जा । जइ सवेयए होज्जा किं इत्थवेयए होज्जा पुरिसवेयए होज्जा पुरिसणपुंसगवेयए होज्जा ? गोयमा ! इत्थवेयर वा होज्जा पुरिसवेयर वा होजा पुरिसणपुंसमवेयर वा होज्जा । एवं पडिलेवणाकुलीले वि। कसायकुतीले पणं भंते! किं सवेयए होज्जा पुच्छा गोयमा ! सवेयर वा होज्जा अवेयए वा होज्जा, जइ अवेयए किं उबसंतवेयए खीणवेयए होजा ? गोयमा ! उवसंतवेयर वा खीणवेयए वा होजा । जइ लवेयए होज्जा किं इत्थवेयए पुच्छा गोयमा ! तिसु वि जहा बउसो । नियंठे पणं भंते! किं सवेयए पुच्छा गोयना ! णो सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा । जइ अवेयर होज्जा किं उवसंत पुच्छा गोयमा ! उवसंतवेयर वा होज्जा खीणवेयर वा होज्जा । सिणाए णं संते ! किं सवेयए होज्जा० जहा णियंठे तहा लिणाए वि । णवरं णो उवसंतder होज्जा खीणवेयए होजा ॥ सु० १॥ छाया - राजगृहे यावदेवम् अवादीत् कति खल भदन्त ! निर्ग्रन्थाः मज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्च निर्ग्रन्थाः प्रज्ञताः, तद्यथा-पुलाको १, वकुशः, २, कुशीलः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र ३, निन्थः ४, स्नातकः ५। पुलाकः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-ज्ञानपुलाकः दर्शनपुलाचारित्रपुलाको लिङ्गपुलाको यथामूक्षणपुलाको नाम पञ्चमः । वकुशः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम | पञ्चविधः यज्ञप्तः, तद्यथा-आमोगरकुशोऽलामोगवकुशः संतवकुशोऽसंहदवकुशः यथासूक्ष्मवकुशो नाम पञ्चमः । कुशीलः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रतिसेवनाकुशीलच १, कपायकुशीलच २ । प्रतिसेवनाकुशीलः खलु भदन्त ! कविविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानमतिसेवनाकुखीलो दर्शनप्रतिसेवना कुशीलः चारित्रप्रतिसेवना कुशीला, लिङ्गमतिसेवनाकुशीलो यथावक्ष्ममतिसेवना कुशीलो नाम पञ्चमः । कपायकुशीलः खल भदन्त ! कतिविध: प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानकपारकुशीलो दर्शनकपायकुशीलश्चारित्रकपायकुशीलो लिङ्गरूपायकुशीलो ,यथासक्ष्मरूपायकुशीलो नाम पञ्चमः । निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतन । पञ्चविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-प्रथमसमयनिग्रन्यः, अप्रथमसमयनिग्रन्थः, चरमसमयनिग्रन्थोऽच. रमसमयनिग्रंथो यथा-सूक्ष्मनिर्ग्रन्थो नाम पञ्चमः । स्नातकः खलु सन्त ! कतिविधः मज्ञप्तः ? गौतम । पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अच्छविः १, अशबलः २, अकमोशः३, संशुद्धज्ञादर्शनधरोऽर्हन् जिनः केवळी ४, अपरिखावी ५ । पुलाकः खल्लु भदन्त ! किं सवेदको भवति, अवेदको भवति ? गौतम ! सवेदको अवखि नो अवेदको भवति । यदि सवेदको अवति किं स्त्रीवेदको भवति, पुरुषवेदको भरति पुरुषनपुं. सकवेदको भवति ? गौतम ! नो स्त्रीवेदको भवति पुरुषवेदको भवति पुरुषनपुंसक वेदको वा भवति । बचशः खलु भदन्त ? किं सवेदको भवति अवेदको भवति ? गौतम! सवेदको अवति नो अवेदको भवति । यदि सवेदको भवति किं स्त्रीवेदको भवति पुरुषवेदको भवति, पुरुपनपुसकवेदको भवति ? गौतम ! स्त्रीवेदको वा भवति-- पुरुषवेदको वा भवति-पुरुपनपुसफवेदको वा भवति । एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि । कपायकुशीलः खलु भदन्त ! किं सवेदकः पृच्छा, गौम ! सवेदको चा भवति अवेदको वा भवति । यदि अवेदकः किमुपशान्तवेदकः क्षीण वेदको भवति? गीतम ! उपशान्तयेदको वा क्षीणवेदको वा भवति । यदि सवेदको भवति किं स्त्रीवेदको भवति पृच्छा गौतम ! त्रिष्यपि, यथा वकुशः । निर्गन्धः खलु भदन्त ! किं सवेदकः पृच्छा, गौतम नो सवेदको भवति अवेदको अवति । यदि अवेदको भवति किमुपशान्त पृच्छा गौतम ! उपशान्तवेदको भवति क्षीणवेदको वा भवति । स्नातकः खलु भदन्त ! कि सवेदकः पृच्छा यथा नित्थस्तथा स्नातकोऽपि । नवरं नो उपशान्तवेदको भवति क्षीणवेदको भवति ॥५०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ लू०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् टीका-'रायगिहे जाव एवं बयासी' रामगृहे यावद् एवमवादीत् अत्र यावत्पदेन परिषद् निर्गता, तत्र भगवता धर्मोपदेशः कृतः परिषत् प्रतिगता तदनु पाञ्जलिपुटो गौतम एतदन्तसन्दर्भस्य ग्रहणं भवति किमवादीत् गौतम स्तत्राह-'कइ णे' इत्यादि । 'कइ णं भंते ! णियंठा पानता' कति खलु भदन्त ! निर्यन्याः प्रज्ञप्ताः ग्रन्यात् परिग्रहात् वाह्यादाभ्यन्तराच्च निर्गताः ये ते निर्ग्रन्थाः साधवः वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितत्वमेव निग्रन्थत्वमित्यर्थः एतादृशाः निम्रन्थाः कति प्रकारका भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच णियंठा पन्नता' पश्च निर्ग्रन्थाः प्रज्ञप्ता, मकारभेदमेव दर्शयति, ___अब सूत्रकार सर्व प्रथम प्रज्ञापना द्वार का कथन करते हैं'रायगिहे जाव एवं क्याली' इत्यादि सू० १॥ टीकार्थ--'रायगिहे जाव एवं बयाली' राजगृह नगर में (भगवान् गौतम ने) यावत् मभुश्री से इस प्रकार पूछा यहां यावत् पद से यह पाठ संगृहीत हुआ है-'परिषदा निकली भगवान् ने धर्मोपदेश दिया धर्मो. पदेश सुनकर परिषदा विसर्जित हो गई। इसके बाद दोनों हाथ जोडकर गौतमस्वामी बोले हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ग्रन्थ नाम परिग्रह का है । यह परिग्रह बाय और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है बाय आभ्यन्तर परिग्रह ले जो रहित होते हैं वे निग्रन्थ हैं क्यों कि बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होना ही तो निर्ग्रन्यता है । इसके उत्तर में प्रमुश्री कहते हैं-'गोयमा! पंच णियंठा पन्नता हे गौतन ! निर्गन्ध पांच प्रकार के होते हैं । 'तं जहा' जैसे वे सूत्रधार सीथी ५७i प्रज्ञायना दानु ४थन ४२ छ-'रायगिहे जाव एवं वयात्री' टा-'रायगिहे जाव एवं वयासी' २०४७ नगरमा सवाननु सभव. સરણ થયું પરિષદ્ ભગવનને વંદના કરવા આવી ભગવાને તેઓને ધર્મદેશના આપી ધર્મદેશના સાંભળીને પરિષદુ પોતપોતાના સ્થાને પાછી ગઈ તે પછી બને હાથ જોડીને ઘણું જ વિનય સાથે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછયું–હે ભગવન નિર્ચ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? ગ્રન્થનામ પરિગ્રહને છે આ પરિગ્રહ બાહ્ય અને આભ્યારના ભેદથી બે પ્રકારનો હોય છે. બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી જે રહિત હોય છે, તે નિર્ગથ . કેમકેબાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહ રહિત થવું એજ નિર્ચ થપણું છે આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु 8 छ -'गोयमा पंच णियंठा पन्नत्ता' हे गौतम ! Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे 'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा 'पुलाए' पुलाफ: 'बउसे' बकुशः 'कुसीले' कुशीलः 'णियंठे' निन्थाः , "सिणाए' स्नातकः । यद्यपि सर्वेषामेव साधूनां सर्वविरत्यात्मकचारित्रस्य सप्रतिपन्नतया भेदकथनमसंभवमिव पतिमाति तथापि सर्वविरविमत्वेऽपि चारित्रमोहनीयकर्मणां क्षयोपशमादिछतं वैलक्षण्यं संभवतीति । तत्र पुलाको निःसारो धान्यकणः तद्वत् संयमसाररहितः पुलाकवत् पुलाकः । बकुशं शबलं चित्ररूपम् कषुरवत् विचित्रचारित्रवत्त्वात् बकुश इति कथ्यते । कुशील:-कुत्सित शीलं चरित्रं यस्य स कुशीलः । निग्रन्थः निर्गतो ग्रन्थात् यः स निर्ग्रन्थः चारित्रमोहनीयकमरहित इत्यर्थः । स्नातकः स्नात इव 'पुलाए' पुलाक १ 'बउले' चकुश २, 'कुलीले छुशील ३, णियंठे' निन्ध ४,और 'लिणाए' ५ स्नातक यद्यपि समस्त ही साधुजन सर्व विरति रूप चारित्र के धारक होते हैं अतः इस स्थिति में इनका भेद प्रतिपादन असंगत जैसा मालुम देता है -परंतु फिर भि-सर्वविरति शाली होने पर भी-इनमें चारिश मोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि से जन्य जो विशेषता है उसकी अपेक्षा इनमें भेद सम्भावित होता है। इनमें जो पुलाक है वह लयमसार रहित होताहै पुलाफ नाम, निस्सार धान्य का जो कण होता है उसका है । इस पुलाक की तरह जो संचम रूप सार से रहित हो ऐसा वह निग्रंन्य पुलाक कहा गया है। यह संयम शाली होता हुआ भी संयम के दोषों द्वारा संयम को कुछ असार बना देता है । चिन्नवर्ण का नाम बञ्जमा है । जो निन्य अपने चारित्र को विचित्र रूप वाला बना लेता है वह निर्गन्ध पक्रुश कहा गया है । निश्रय पांय प्रा२न। डाय छ त जहाँ ते मा प्रमाणे छे-पुलाए पुस १ पउसे मश २, कुसीले शीर ३, णियठे निन्य ४, सन 'सिणाए स्नात જે કેસઘળા સાધુઓ સર્વ વિરતિ રૂપ ચારિત્રના ધારણ કરનાર હોય છે. તેથી આ સ્થિતિમાં તેઓના ભેદેનું પ્રતિપાદન અસંગત જેવું જણાય છે તે પણ સર્વવિરતિ શાળી હોવા છતાં પણ તેઓમાં ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ક્ષપશમાદિથી થવાવાળું જે વિશેષ પણ છે તેની અપેક્ષાથી તેઓમાં ભેદ સંભવે છે. તેમાં જે પુલાક છે, તે સંયમ સાર વિનાના હોય છે પલાક લામ-નિત્સાર ધાન્યના જે કણ–દાણું હોય છે, તેનું નામ પુલાક છે, આ પુલાકની જેમ જેઓ સંયમ રૂપ સાર વિનાના હોય છે એવા તે નિથ ને પુલાક કહેલ છે. તેઓ સંયમશાલી હોવા છતાં પણ સંયમના દોષો દ્વારા સંયમ ને અસાર બનાવી દે છે ચિત્ર વર્ણનું નામ બકુશ છે. જે નિર્ગથે પિતાના ચારિત્રને વિચિત્ર પ્રકારનુ બનાવી દે છે તે નિર્ણને બકુશ કહેલ છે જે જે Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ thereafter arat ०२५ उ.६ ०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् स्नातो घातिकर्मलक्षणमलपटक्षालनात् इति स्नातकः, घातिकर्मणां क्षालनात् शुद्धतां गत इत्यर्थः । तत्र पुलाको द्विविधः लब्धि प्रतिसेवनाभेदात् तत्र लब्धिपुलाको लब्धिविशेषवान् यः स्वकीया संघकार्याय चक्रवदिकमपि विनाशपति तदुक्तम्- 'संघाइयाणकज्जे चुन्निज्जा चकवट्टिम विजीए० वीएलडीए जुओ लद्धि पुलाओ मुणेयथ्यो' 'संघादिकानां कार्ये यथा चक्रवर्त्तिनमपि चूरयेत् तया लब्ध्या युतो लब्धिपुलाको ज्ञातव्य इति । ४७ आसेवनापुलाकमाश्रित्याह - 'पुलाए णं भंते !" इत्यादि । 'पुलाएणं भैसे ! कवि पन्न' पुलाकः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः । भगवानाह - जिस निर्मन्थ का चारित्र कुत्सित होता है वह निर्ग्रन्थ कुशील कहा गया है ग्रंथ - चारित्र मोहनीय कर्म से जो रहित होता है वह निर्ग्रन्थ और जो घातिया कर्मरूप सैल से स्नात हुए व्यक्ति के जैसा शुद्ध होता है वह स्नातक है । अर्थात् घातिया कर्मो के सर्वधा नाश से जो शुद्ध हो गया है ऐसे केवली स्नातक है । इनमें पुलाक दो प्रकार का होता है एक लब्धि पुलाक और दूसरा प्रतिसेवना पुलाक जो लब्धि पुलाक होता है वह लब्धि विशेष वाळा होता है । यह अपनी लब्धि के बल से संघ कार्य निमित्त चक्रवर्ती आदि को भी नष्ट कर देता है सो ही कहा है- 'संघाइयाणकज्जे चुन्निज्जा चक्कवट्टिभविजीए ती लडीए जुओ लद्धि पुलाओ मुणेकवो' आसेवना पुलाक को श्रत करके गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - 'पुलाएणं अंते ! कइ विहे पनन्ते' हे भदन्त ! पुलाक कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके નિન્થનું ચારિત્ર ક્રુત્સિત-નિ દ્વિત હાય છે તે નિગ્રંથ કુશીલ કહેવાય છે. ૩ ગ્રન્થ—ચારિત્ર મેાહનીય ક`થી જે રહિત હાય છે, તે નિથ છે. અને જે ઘાતિયા કમ્વરૂપ મેલથી સ્નાન કરેલ વ્યક્તિની માફક શુદ્ધ હાય છે, તે સ્નાત કહેવાય છે. અર્થાત્ ઘાતિયા કર્મીના સથા નાશ પામવાથી જે શુદ્ધ થઈ ગયા છે. એવા કૈવલી સ્નાતક છે. તેએમાં પુલાક એ પ્રકારના હોય છે. એક લબ્ધિ પુલાક અને બીજા પ્રતિસેનના પુલાક જે લબ્ધિ પુલાક હાય છે તે લબ્ધિ વિશેષવાળા હેાય છે. તે પેાતાની લબ્ધિના ખળથી સઘકાય ને નિમિત્તે ચક્રવતિ વિગેરેને પણ નાશ કરી દે છે એજ કહ્યું છે 3- संघाइयाणकज्जे चुन्निज्जा चक्कवट्टीमवि जीए० तीए लद्धीए जुओ लद्धि पुलाओ मुणेयव्वो' खासेवना सानो आश्रय કરીને ગૌતમસ્વામીએ अलुश्रीने भेवु पूछयु छेउ-पुलाए णं भंते कइ विहे पन्नत्ते' ભગવત્ પુલાકકેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી એવું કહે છે કે Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र ४८ 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पन्नत्ते' पश्चविधा-पञ्चमकारकः पुलाकः प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तत्तथा-'नाणपुलाए देसणपुलाए चरित्तपुलाए लिंगपुलाए अहासुहुगपुलाए णामं पंचमे' ज्ञानपुलाको दर्शनपुलाकचारित्रपुलाको लिङ्गपुलाको यथाप्नदमपुलाको नाम पञ्चमः, तत्र ज्ञानमाश्रित्य पुलाको ज्ञानस्यासारताकारी विराध को ज्ञान पुलाफः, दर्शनरयासारताकारी विराधको दर्शन पुलाकः, एवं चारित्रादिपुलाकोऽपि ज्ञातव्य इति तदुक्तम् 'खलिगाइ दूसणेहिं नाणं संकाइटिसम्म । मुलुत्तरगुण पाडसेत्रणाह चरणं विराहे । लिंगपुलाओ अन्न निकारणभो करेइ नो लिंग' । मणसा अकपियाणं निसेवभो होइ महाराहमें। 'स्खलितादि दूषणानं शङ्कादिभिः सत्यवत्वं । प्लोत्तरगुण प्रतिसेवनया चारित्रं चिराधयति । लिजलाकोऽ यत् निष्कारणतः करोति यो लिजग, मनसाऽकल्पितानां निषेत्रको मवति यथासक्षमः' । उन्तर में प्रभुश्री ने कहा है-पविहे पन्नत्ते' हे गौतम | पुलाफ पाँच प्रकार का काहा गया है । 'तं जहा' जैसे-'माणलाए दसणपुलाए चरित्तपुलाए लिङ्गपुलाए महासुदुमपुलाए णामं पंवसे' ज्ञान पुलाक, दर्शन पुलाफ चारिन पुला लिङ्ग पुलाक और पांचर्चा यथासक्षम पुलाक इन में जो ज्ञान की असारता हारफ होता है-उसका विराधम होता है वह ज्ञान पुलाक है । दर्शन को अनारताकारी जो होता है वह दर्शन पुलाक है। हवी प्रकार से चारित्र आदि पुलाक भी जानना चाहिये । सोही कहा है-'चलिया' इत्यादि। यश दो प्रकार का होता है उपकरण बकुश और शरीरबकुशा इनमें जो वन्त्र पान आदि उपकरणों की विभूषा करने के स्त्र 'पचविहे पन्नत्ते' 3 गौतम ! Yelपांय २॥ ४७या छ. 'तजहा' तमा प्रभारी छे 'नाणपुलाए दंसणपुलाए चरित्तपुलाए लिंगपुलाए अहासुहमपुलाए नाम पंचमे' ज्ञान युसा १, ४शन सा४ २ यात्रि yers 3, yिals ૪ અને પાંચમુ યથાસૂમ પુલાક તેઓમાં જ્ઞાનની અસારતાં કારક જે હોય છે તેને વિરાધક હોય છે. તે જ્ઞાન પુલાક છે દર્શનની અસારતાકારી જે હોય છે તે દર્શન પુલાક છે. એજ રીતે ચારિત્ર વિગેરે મુલાકના સંબંધમાં ५ सभा मे४ ४यु छ , खलियाइ" त्या બકુશ બે પ્રકારનાં હોય છે, તેના નામ ઉપકરણ બકુશ અને શરીર બકુશ એ પ્રમાણે છે. તેમાં જે વસ્ત્ર પાત્ર વિગેરે ઉપકરની શોભા કર Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.६ सू०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् वकुशो द्विविधो भवति उपकरणशरीरभेदात् वत्र वस्त्रपामाधुपकरणविभूषानुवर्तनशील उपकरणबकुशः, करचरणनखमुखादि देहावयचविश्रूषानुवर्ती शरीरबकुशः, स चायं द्विविधोऽपि बकुशपुलाको पञ्चविधो भवति तथा चाह'वउसेणं भंते ! राइविहे पावत्ते' बकुशः खलु भदन्त ! कविविधः प्रज्ञप्तः, भगनानाह-'गोयया' इत्यादि । 'गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते' गौतम ! बकुशः पञ्चविधः प्रज्ञप्त इति, 'तं जहा' तद्यथा-'आभोगवउसे अणामोगबउसे संवुडवउसे असंबुडवउसे-अहासहुमणासं पंचमे आभोगवकुशोऽनाभोगवकुशः संवृतबकुशोऽसंहताशो यथासूक्ष्मवकुशो नाम एञ्चमः। आमोगः-साधनामकृत्यमेतत् शरीरोएकरणादि विभूपणमित्येवं ज्ञानं तत्प्रधानो बकुश आभोगचकुशः, ज्ञाला दोपसेवनकारी आयोगबकुश इत्यर्थः । अज्ञात्वा दोपसेवनकारी भाववाला होता है वह उपकरण बकुश है जो हाथ, पैर, नख, सुख आदि ले देहावयव की जिभूषा करने के स्वभाववाला होता है वह शरीर यकुश है इन दोनों प्रकार के वकुश के पांच प्रकार होते हैं तो ही कहा है-'घउले णं ते ! काबिहे पण्णत्ते' हे अदन्त ! बकुश कितने प्रकार का कहा गया है उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है-'गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते' हे गौतम! बकुश पांच प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-आयोग बकुसे अणामोगबाउले संबुडघवले, अलंबुडवले अहासुहुमबउउले णाम पंचमे' आजोशवकुश अनाभोगषकुश, संवृतवकुश अलंकृतबकुश और यथा सूक्षयकुश इनमें जो यह जानते हुए भी कि शरीर उपकरण आदि को सुशोभित करना साधुजनों को योग्य नहीं है फिर भी વાના સ્વભાવ વાળો હોય છે, તે ઉપકરણ બકુશ કહેવાય છે. અને હાથ પગ નખ, મુખ, વિગેરે શરીરના અવયવોની જે શોભા કરવાના સ્વભાવ વાળો હોય છે. તે શરીર બકુશ કહેવાય છે. આ બન્ને પ્રકારના બકુશેના પાંચ ભેદો थाय छे. 22 मा नायना सूत्रा४थी मतावेस छे 'बउसेण भंते ! कइविहे पणत्ते' मा सूत्रपाथी गीतमस्वामी प्रभुश्री ने पूछे छे ?- सावन मश કેટલા પ્રકારના કહયા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ है-'गोयगा ! पचविहे पन्नत्ते' 3 गौतम ! म पांय ना या छ 'तं जहा' त मा प्रभावी छ- 'आभोगबकुसे, अणाभोगबउसे संवुडबाउसे. असवुडबऊले अहासहमणाम पंचमे' आमा मधुश १. मनाला श२. સંવૃતબકુશ ૩, અસંવૃતબકુશ ૪, અને પાંચમાં યથાસૂક્ષ્મ બકુશ ૫. તેઓમાં જેઓ શરીર, ઉપકરણ વિગેરે ને સુશોભિત કરવા તે સાધુજનેને નથી તેમ જાણવા છતાં પણ જેઓ શરીર ઉપકરણ વિગેરેને સુશોભિત-શોભાવાળા भ०७ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भगवती अनाभोगवकुशः । चारित्रस्योत्तरगुणैः दशविधपत्याग्यानरुपैराच्छादितो भवेत् स संवृत्तवकुशः प्रच्छन्नदोपसेवक इत्यर्थः । पदिनोऽसंलवकुगः, नेत्र मुखादि शरीरावयवानां शुश्रूषाकर्ता यथाक्षमयकुमो भवति ताला, 'आमोगे जाणतो, कारेड दोसं अजाणमण भोगे । शुलुत्तरेहि संयुद्ध पिवरीए असंयुटो बोड, अच्छिमुहसज्जाणो छोइ महा मुहम्मो का बनो। अया जाणिज्जो असंयुडो संखुडो चरो' छाया-जानानो दोपं करोति आमोगः, अजानानोऽनाभोगो मूलोत्तरेपु, संतोऽसंहतो भवतीतरः। अक्षिावं यार्जयन् भवति यथारद्वारा बना। अथवा गारल् असंवृत इतरः संवृतः ।।२।। 'कुसीले णं भले ! काबिहे पन्नत्ते' अशीलः गन्द्र भदन्न ! कतिविधः जो शरीर उपकरण आदि को सुशोभित करता है व आभोगयकुश है और जो इस प्रकार से नहीं जानता है और इन दोपका सेवन करता है वह अनामोगवश है। जो बारित्र के दशविन प्रत्याख्यानरूप उत्तरगुणों से आच्छादित होता है वार संवृत पकुश प्रच्छन्नरूप से दोपों का सेवन करने वाला होता है इससे भिन्न असंवृतिया होता है। जो नेत्र सुख आदिक शरीर के अवयों की सफाई करने में प्रयत्नशील रहता है-इनती शुश्रूषा करने में लगा रहता है पर यथानुरूम बकुश है। सोही कहा है-'आभोगे जाणतो' इत्यादि। ___'कुलीलेणं अंते ! कहाविहे पाते' हे भदन्त ! कुशील तिने કરે છે, તે આભગ બકુશ કહેવાય છે. અને એ પ્રમાણે જે લઘુતા નથી અને આ દેશનું સેવન કરે છે. તે અનાગ બકુશ કહેવાય છે. જેઓ ચારિત્રના દસ પ્રકારના પ્રત્યાયાન રૂપ ઉત્તરગુણેથી આછાદિત ઢંકાયેલા રહે છે. તે સંવૃત બકુશ કહેવાય છે. આ સંવૃત બકુશ છાની રીતે દેને સેવવાવાળા હોય છે, તેનાથી જુદા અસંવૃત બકુશે હેાય છે તથા જે આંખ મુખ, વિગેરે શરીરના અવયવોની સફાઈ કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહે છે અર્થાત્ શરીરના અવયેની સેવા કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે. તે યથાસૂક્ષ્મ બકુશ કહેવાય છે, કહ્યું પણ छे-'आभोगे जाणतो' त्यादि "कुसीलेण भंते ! कहाविहे पन्नत्ते" के भगवन् अशी रक्षा १२ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ सू०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् प्रज्ञप्ता, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौलम ! "दुविहे पाते द्विविधः प्रज्ञप्तः, "तं जहा' खद्यथा-'पडिसेदणकुसीले य कसायकुसीले य' पतिसेवना कुशीलश्च कषायकुशीलश्च तत्र सेवना सम्यगाराधना तत् मतिपक्षस्तु प्रतिसेवना-विराधना-तथा प्रतिसेवनया कुशीलश्चारित्रविशवका प्रतिसेवना कुशीलः । कपायैः-संज्वलनरूपायैधारित्रविराधकः कपारकुशीलः । प्रतिसेवना कुशीलमधिकृत्याह-'पडिसेवणाकुनीले णं भवे ! कवि पन्नत्ते' प्रतिसेवना कुशीलः खल भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः, भगवानार-कोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पन्नते' पञ्चविधः-पञ्चपकारः प्रति से बनाकुशील: प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-'नाणपडि सेवणाकुलीले-दसणपडि सेवणाकुसीले प्रकारका कहा गया है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा दुविहे पन्नत्ते' है गौतम कुशील दो प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे'पडिसेषणासीले य कलापशीले य' प्रतिलेवनाकुशील और कषायाशील सम्यक् आराधना का नाम लेखना है और इस अराधना की प्रतिपक्ष चिराधना का नाम प्रतिलेवना है। इस प्रतिलेवना से मूलव उत्तर गुणों को विराधना से जो अपने चारिन का विराधक होता है वह प्रतिसेवना अशील है जो मात्र संज्वल कषायों से ही दूषित चारित्र वाला है यह कषाय कुशील है 'पडिलेवणाकुलीले णं अंते काबिहे पन्नत्ते' हे भदन्त प्रतिसेवना कुशील कितने प्रकार का माहा गया है। इसके उत्तरमें प्रभु श्री कहते हैं-गोयसा! पंचविहे पन्नन्ते' हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जै-'माण पडिरोषणा कुलीले दंसण, ran छ ? 20 प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गौतमकामी २ ४ -'गोयमा! दुविहे पन्नत्ते' हे गीतम! शीर मे २न! 3 छ 'ते जहा' ते याप्रमाणे छ 'पद्रिसेवणापुतीले य इसायकुहीले यो प्रतिसेवनाशील मन पाय पुशीत સમ્યગૂ આરાધનાનું નામ સેવના છે, અને તે આરાધનાની પ્રતિપક્ષ રૂ૫ વિરાધનાનું નામ પ્રતિસેવના છે. આ પ્રતિસેવનાથી–ઉત્તગુણોની વિરાધનાથી જે પિતાના ચારિત્રને વિરાધક હોય છે, તે પ્રતિસેવના કુશીલ છે અને જે સંજવલન पायाथी यात्रिन विराध: डाय छे. ते षाय शीव पाय छ 'पडिसेवणा कुसीले ण भंते ! कइविहे पन्नत्ते' उपन् प्रतिसेवनाशी है। प्रारना al छ ? 20 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमत्वामी ने 28-'गोयमा पच. विहे पण्णत्ते गौतम ! 'प्रतिसेवन शीत पांय प्रा२ना या छ 'तं जदा' Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ भगवती सूत्रे चरित्तपडि सेवणाकुसीले लिंगपडि सेवणाकुसीले अहमपरिमेवणा कुसीले णामं पंचमे' ज्ञानमविसेचना कुशीलो दर्शनगविसेचना कुशीलचारित्रपतिसेवनाकुशीलो लिगपतिसेवनाकुशीको यथासद ममतिसेनाकुशीलो नाम पथमः । तत्र ज्ञानस्य प्रतिसेवनया कुशीलो ज्ञानप्रतिसेवनाशी एवं दर्शनस्य प्रतिसेवनया कुशीलो दर्शनमतिसेवना कुशीलः एवं चारित्रपतिसेवनादि कुशीलोऽपि । तदुक्तम् 'इह नाणाइ कुसीलो उवजीचं होइ नाणपसिए । अदसुमो पुण तुम्से एस वस्ति च संमाए'। छाया - ज्ञानप्रभृतिना उपजीवन्निह ज्ञानादि कुशल सवचि, यथासूक्ष्मः पुनरेपतपस्वीति प्रशंमया तुप्यति ॥ ज्ञानादिमाश्रित्य आजीविकाकारीत्यर्थः तपः प्रभृतिना निधानवारी । 'कसायकुसीले णं भंते । कवि पन्नत्ते' कपायकुशीलः खलु भत्ता ! विविधः प्रतप्तः पडिलेवणाकुलीले चरित पडि सेवणाकुसीले लिंगामीले अहासुम पडि सेवणासीले पानं पंचमे' ज्ञान प्रतिवेदनशील दर्शन प्रति सेवना कुशील, चारित्रप्रतिसेवना कुशील जिमविना कुशील और पांचवां यथासूक्ष्म प्रति सेचना कुशील इनमें जो ज्ञान की प्रतिसेवना द्वारा कुशील होता है वह ज्ञानप्रतिसेवना कुशील रे | इसी प्रकार दर्शन की प्रतिसेवना द्वारा जो कुशील होता है पर दर्शन प्रति सेबना कुशील है उसी प्रकार से चारित्र प्रतिसेवा आदि कुशील भी जान लेना चाहिए । सो ही कहा है- 'छह नाणार हमीले' इत्यादि । ज्ञान आदि के द्वारा जो अपनी उपजीविका करता है पर ज्ञानादि कुशील है और जो 'यह तपस्वी है' ऐसी प्रशंसा से खुश होता है वह ते प्रभा 'नाणपडिसेवणाकुसीले दमणपडिसेवणाकुडीले चारितपविणा फुसीले लिंगपविणा कुसीले अहासुहुमप डिसेवणाकुसीले णाम पंचमे' ज्ञान अतिસેવના કુશીલ દશન પ્રતિસેવના કુશીલ ચારિત્ર પ્રતિસેવના કુશીલ, લિગ પ્રતિસે વના કુશીલ અને પાંચમુ' યથાસૂક્ષ્મ પ્રતિસેવના કુશીલ આમાં જેએ જ્ઞાનની પ્રતિ સેવના દ્વારા કુશીલ હાય છે, તે જ્ઞાન પ્રતિસેવના કુશીલ કહેવાય છે. એજ રીતે દશ નના-પ્રતિસેવનાદ્વારા કુશીલ હૅાય છે. તે દન પ્રતિસેવના કુશીલ કહેવાય છે, એજ પ્રમાણે ચારિત્ર પ્રતિસેવના વિગેરે કુશીલા પણ સમજી લેવા તે જ કહેવુ छे है-' इह नाणाइ इसीलो' इत्यादि ज्ञान विगेरेथी पोतानी गालवा यसावनी ते જ્ઞાનદ્ધિ કુશીલ છે અને જે આ તપસ્વી છે. આ પ્રકારની પ્રશ’સા-વખાણુથી Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् इति प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पन्नत्ते' पञ्चविधः कषायकुशीलः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-'नाणकसायकुसीले दसणकसायकुसीले चरित्तकसायकुसीले लिंगकसायकुसीले अहामुहुमकसाय कुसीले णामं पंचमे' ज्ञानकषायकुशीलो दर्शनकपायकुशीलश्चारित्रकपायकुशीलो लिङ्गकपायकुशीलो यथा सूक्ष्मकषायकुशीलो नाम पश्चमः । ज्ञानमाश्रित्य कपायकुशीलो ज्ञानकषायकुशीलः, एवं दर्शनमाश्रित्य कपायकुशीलो दर्शनकषायकुशीला, एवमन्येऽपि पुनष्टव्याः। तदुक्तम् 'णाण दसणलिंगे जो जुजद कोहमाणमाईहिं । सो णाणाइकुसीलो कसायो होइ चिन्नेओ ॥१॥' चरितमि कुसीलो कसायओ जो एयच्छइ सावं । मणसा कोहाईए निसेवयं होइ अहासुहुमे ॥२॥ अहवा वि कसाएहि नाणाईणं विराहयो जोउ । सो नाणाइ कुसीलो ओ वखाण भेएणं ॥३॥ यथासक्षन कुशील है । तात्पर्य इस कथन का यही है कि ज्ञानादिके द्वारा आजीविका करता है वह तथा तप आदि द्वारा निदान करता है वह ज्ञानादि कुशील है। 'कलायकुसीले णं भंते ! फइविहे पन्नत्ते' हे भदन्त ! कषाय कुशील कितने प्रकार का काहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! कषाय कुशील पांच प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'नाणकलायकुसीले, दसणकसायक्रसीले चरिन्तकलायकुखीले लिंगकरलाय कुलीले, अहासुमकसाय. कुसीले णाम पंच ज्ञान पाषाय कुशील, दर्शन कषाय कुशील चारित्र. कषाय कुशील लिङ्गकषाय कुशील और चथावक्षन कषाय कुशील ખુશ થાય છે તે યથાસૂકમ કુશીલ છે, કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્ઞાનાદિથી જે આજીવીકા-જીવન નિર્વાહ કરે છે, તે તથા તપ વિગેરેથી નિદાન નિયાણ કરે છે ते ज्ञानाहिशी छे० 'कसायकुसीलेण अते ! कइविहे पन्नत्ते' 3 सगवन् उपाय કુશીલ કેટલા પ્રકારના કહયા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામી न ४ छ -गोयमा पंचविहे पन्नत्ते' है गौतम ! षाय अशीa पांय असर माया छ 'तं जहा' त मा प्रमाणे छे 'नाणकसायकुसीले दसणकसाय कुसीले चरित्तकसायकुसीले लिंगकसायकुसीले, अहासुहमकसायकुसीलेणाम पचमे' ज्ञान ४ाय अशीa, Nन षाय कुशीत, यारिन पाय शीस, बिग કષાય કુશીલ અને યથાસૂમ કષાય કુશીલ, આમાં જે જ્ઞાન દર્શન અને Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બટ read सूत्रे ज्ञानदर्शनलिङ्गानि यः क्रोधादिभिर्युनक्ति, ज्ञानादिकुशीलः कपायतो भवति विज्ञेयः ॥१॥ यः कपायात् शापं प्रयच्छति स चात्रि कुशीलो | सनसा क्रोधादीन्निवसाणो भवति यथासूक्ष्मः ||२॥ अथवाऽपि यस्तु पार्थैज्ञनादीनां विराधकः । स जानादि कुशीलो ज्ञेयो व्याख्यानभेदेन | ३ || इति । 'णियंठे णं भंते ! कहविहे पन्नत्ते' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कतिविधः मज्ञप्त इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोया' इत्यादि, 'नोयमा' हे गौतम! 'पंचविहे पनत्ते' पञ्चविधः मज्ञप्तो निर्ग्रन्थ इति 'तं जहा ' तथा 'पदमसमयणियंठे' प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः, उपशान्वमोहाद्वायाः क्षीण मोहच्छद्मस्थाद्वापाश्च अन्तर्मुहूर्त इनमे जो ज्ञान दर्शन और लिन का फोध मान आदि कपापों में उपयोग फरता है वह ज्ञानकपाय कुशील दर्शनकपाय कुशील और लिङ्गकपाय कुशील है । जो रूपाय से शाप (आप) आदि देता है वह चारित्र कृपाय कुशील है और जो मात्र मन से क्रोधादि कषायों का सेवन करता है वह यथासूक्ष्म कषाय कुशील है । अथवा कपायों द्वारा जो जानादि को दूषित करता है वह ज्ञानादि रूपाय कुशील कहा गया है सो ही कहा है- 'माणदंसणलिंगे जो ' इत्यादि । 'नियंटे संते | विहे पन्नत्ते' हे भदन्त । निर्ग्रन्थ कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- "गोयमा ! पंचबिहे पन्नत्ते' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ पांच प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा ' 'जैसे- 'पढसमयनिघंटे' समय निर्धन्य १ - उपशान्तमोह और લિ'ગનું જે ક્રોધમાન વિગેરે કાચેામાં ઉપચૈાગ કરે છે. તે જ્ઞાન કષાય કુશીલ દર્શન કષાય કુશીલ, અને લિંગ કષાય કુશીલ છે. જે કષાયથી શ્રાપ–વિગેરે આપે છે. તે ચારિત્ર કષાય કુશીલ છે અને જે માત્ર મનથી ક્રોધ વિગેરે કપાયાનુ સેવન કરે છે. તે યથાસમા કષાય કુશીલ છે. અથવા કષાયા દ્વારા જે જ્ઞાન વિગેરેની વિરાધના કરે છે, તે જ્ઞાનાદિ કષાય સુશીલ કહેવાય છે. अछे है- 'णाणदंसणलिंगे जो ' त्यिाहि 'निटे णं अंते ! इविहे पन्नत्ते' हे भगवन निर्थ था डेटा अहारना उडया छे ? या प्रश्नना उत्तरसां अलुश्री - 'गोयमा पंचविहे पन्नत्ते' गौतम ! निर्थन्थ पांच अहारना या छे. 'तं जहा' ते या प्रभा 'पढमसमयनिर्यटे' प्रथभ समय निर्भन्ध १ उपशान्तभोड भने श्रीशुभेोहनी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.६सू०१ प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् प्रमाणायाः प्रथमसमयवर्तमानो निन्धः प्रथमसमयनिग्रन्थः कथ्यते । तथा एतद्व्यतिरिक्तद्वितीयादिशेषसमयेषु वर्तमानोऽथमसमयनिर्ग्रन्थः कथ्यतेएतदेवाह-'अबढमसमयणियंठे' अप्रशमसमयनिर्गन्धः । 'चरमसमयणियंठे' चरण. समयनिग्रन्थः, निन्याद्धायाश्चरमसमये विद्यमानधरमत्तमयनिग्रन्थः, एतद्व्यतिरिक्तपमयेषु विद्यमानोऽचरमसमयनिर्भन्धः, तदेवाइ-'अचरमपनयणियंठे' अच. रमसमयनिग्रन्थ इति चतुर्थः । 'अहासुहमणियंठे जाम पंचो' यथामनिर्ग्रन्थो नाम पञ्चमः सामान्यतः प्रयमादि समयस्य विक्षामन्तरेण निन्थो यथा सूक्ष्मनिर्गन्धः । बदुक्तम् 'अंतमुहुरापमाणयनिग्गंथद्धाइ पढमसममि । पढमसमयनियंठो अन्ननु अपढमसमओ सो ॥ एवमेव तयद्वाए चरिमे समयंमि चरमओ सो। सेसेसु पुण अचरमो सामन्नण तु महाराहमो।। छाया-अन्तमहतप्रमाण निग्रन्थाद्धायाः प्रयासराये । प्रथमसमयनिग्नन्थः अन्येष्वमथमसमयः सः। एवमेव तददायाश्चरमे समये चरमसमयः, शैषेषु स पुनरचरमा, सामान्येन तु यथासक्ष्मः ॥ इति । क्षीणमोह का काल एक अन्तर्मुहूर्त का है-लो इससे प्रथम समय वर्तमान निर्ग्रन्थ-'अपहरशमयनियंठे' अप्रथम समय निश २ प्रथम समय निन्ध से जिन्न निन्या २-दितीयादि समयवती निर्ग्रन्थ- 'चरम समयनियंठे उपात्तमोह एवं क्षीणलोह के घरमा समय वर्तमान निर्ग्रन्थ चरमरालय लिन्थ ३ 'अधरमलमधनियंठे' चरम समय निन्ध से भिन्न समयवती निन्य ४ और 'अहानुहम. नियंठे णामं पंचमें यथा सूक्ष्म निन्थ ५-हामान्यतः प्रथमादि समय की विवक्षा के सिवाय का निन्य इस प्रक्षार से थे निर्धक्ष के पांच प्रकार हैं । सोही कहा है-'अंगमुखत्तपत्राणय' इत्यादि। मे २५ तभुइतना छे तना पड समयमा २४ा नियन्थ-अपढमसमयनियंठे' मप्रथम समय निथ २ प्रथम समय निधी हा निर्णय मे विगैरे समय ती निन्थ 'चरमसमयनियंठे' य२भ समय निय-यथा मुह समयपति नियन्य ४ मने महासुहमनियठे णाम पंचमे' यथासस નિર્વાન્ય ૫ સામાન્યપણુથી પ્રથાદિ સમયની વિવક્ષા શિવાયના નિર્ચ થ આ शत निन्याना मा यय हो छे. मे ४धु छ-'अंतमुहुत्तपमाणय' इत्यादि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीने सिणाए णं अंते ! कविहे पन्नत्ते' स्नारामः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पन्नत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' लघथा 'अच्छपी' अच्छविः-अन्यथाः, यः कमपि न व्यथयति इति छनि योगात् छविः-शरीरम् तत् शीरं योगनिरोधेन. यस्य नास्ति सोऽच्छविक इति । अथवा अक्षपी तिच्छाया, तत्र अक्षपी-क्षपा सखेदो व्यापारः तस्याः क्षपाया अश्वित्या क्षणी तन्निषेधात् अक्षपी । अथवा घातिचतुष्टय कर्मक्ष रणानन्तरं घातनपणा पावादक्षपी इत्युच्यते अयोगि गुण 'सिणाएणं संते ! कधिहे पन्नत्ते' हे श्रदन्त ! स्नानक कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते है-'गोयना ! पंचविहे पन्नस' हे गौतम ! स्नातक पांच प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'अच्छवी १ अलबले ३अम्मले ३ संलुद्धनाणदंगणाधरे अरहा जिणे केवली ४ अपरिस्लामी ५ 'अच्छची (शरीर रहित-काययोग रहित) अशवल २-दोषरहित विशुद्ध चारित्र युक्त अकर्मा शघातिया कर्म रदिल-३ संशुद्ध ज्ञान और दर्शन को धारण पारनेवाले अरिहंत जिन केवली और अपरिनाची-फर्मबन्ध रहित छवि नाम शरीर का है। यह शरीर योगनिरोध से जिनके नहीं है वह अच्छची है । अथवा-'अक्षपी ऐसी भी अच्छची पद की संस्कृतच्छाया होती है सखेद व्यापारका नाम क्षपा है। यह सखेव्यापार जिसके नहीं है वह अक्षपी स्नातक है । अथवा-घातिचतुष्टयकर्म की क्षपणा सिणाएणं भंते ! कइविहे पन्नत्ते' 8 लगवन् स्नात सा प्रा२ना या छ १ मा प्रश्नना उत्तम प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा पंचविहे पन्नत्ते, 3 गौतम स्नात। पांय ४२॥ ४७॥ छे 'तं जहा' २॥ प्रभारी छ'अच्छवी १ असरले २ अकम्मसे ३ ससुद्धनाणसणधरे अरहा जिणे केवली ४ अपरिस्सावीय' २४२७वी (शरी२ विनाना-य या २हित १ असणस-होष રહિત વિશુદ્ધ ચારિત્રવાળા ૨ અકસ્મશ- ઘાતિયા કર્મથી રહિત ૩ સંશુદ્ધ જ્ઞાન અને દર્શનને ધારણ કરવાવાળા અરિહંત જીન કેવળી ૪ અને અપરિશ્નાવી કર્મબંધ વિનાના ૫ છવી એ શરીરનું નામ છે, આ શરીર ગના નિધથી જેને હોતું નથી તે અછવી કહેવાય છે અથવા–અક્ષપી છવી પદની અક્ષરી એવી પણ સંસ્કૃત છાયા બને છે, સખેદ વ્યાપાર-પ્રવૃત્તિનું નામ કૃપા છે. આ સખેદ વ્યાપાર જેઓને હેતે નથી તે અક્ષપી સ્નાતક કહેવાય છે. અથવા ચાર ઘાતિયાકર્મને ખપાવ્યા પછી ફરીથી તેને ખપાવવાને અાવ થઈ જાય છે. તેથી પણ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१ वेदद्वारनिरूपणम् स्थानवर्तीति१ । 'असरले' अशल:-एकान्तविशुद्धचरणः अतिचारात्मकपङ्का भावादिति । 'अकमसे' अमाशा-अपणतघातिकर्मा३ । 'संसद्धनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली' संशुद्धज्ञानदर्शनधरः केवलज्ञानदधारीति चतुर्थः स्नातकः, अर्हन् जिला केवलीति एमा दनयं चतुर्थस्नातकभेदार्थाभिधायकमिति ४ । 'अपरिस्ताची अपरिवाबी परिस्ताति-आस्त्रजति-कमध्नाति इत्येवं शीलः परिस्रावी तनिषेधात् अपरिसावी बन्धरहितो इत्यर्थः । अयं च पश्चम: स्नातकभेद इति, पतं प्रथनं प्रज्ञापना द्वारम् १ । द्वितीयं वेदद्वारमाह-'पुलाए णं ते ! कि रायगए होज्जा अबेयए होज्जा' पुलाकः खलु महन्त ! किं सवेनको भवति अवेदको वा अवतीनि प्रश्नः । भगवानाह-गोयपा' इत्यादि । 'गोयमा' के अनन्तम फिर उनके क्षण करने का अभाव हो जाला है इसलिए वह लक्षापीहा सादा है ऐसा बह स्न्यातक चौदहवें गुणस्थानवती জানত ন ক সাৰ বৰ যুদ্ধানঃ ছিঃ আঁজি बाला जो स्नातक होता है वह अशबल स्नातक । घालिकाको का जिसने नाश कर दिया है ऐसा स्नातक अकांश स्नातक है निर्मल केवल ज्ञान केवल दर्शन के धारी जो अहन्त जिन केवली हैं ये चतर्थ स्नातक है ! कनों को जो पांधता है वह परिस्रावी है जो ऐला परिसावी नहीं वह परित्राची है ऐसा अपरित्राची कर्मबन्धनले रहित हो जाता है। इस प्रकार यहां तक यह प्रज्ञापन बार कहा । अव दूसरा छा जो वेद हार है उसका कथन सूत्रकार करते हैं-'पुलाए णं भंते! किं सवेयए होज्जा अवेयए होजा' हसले गौतमस्वामी ने प्रशुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त पुलाक निर्ग्रन्थ वेद सहित होते है ? अश्या તે અક્ષપી કહેવાય છે. આવો તે સનાતક ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં રહેનાર હોય છે અને સિદ્ધ હોય છે. અતિચાર રૂપ મળ-દોષના અભાવથી એકાન્તતઃ વિશદ્ધ ચારિત્રવાળે જે સ્નાતક હોય છે. તે અશઅલ સ્નાતક છે જેણે ઘાતિયા કર્મને નાશ કર્યો છે. એ સ્નાતક અકર્તાશ સનાતક છે. નિર્માલ કેવળજ્ઞાન અને કેવળ દર્શનને ધાર, કરનાર અહંતજીન કેવલી છે. તે ચેથા સ્નાતક છે. કમેને જે બાંધે છે તે પરિસાવી કહેવાય છે એવા પરિસ્ત્રાવી જે નથી હોતા તે અપરિસ્ત્રાવી કહેવાય છે, એવા અપરિસાવી કર્મ બંધનથી રહિત થઈ જાય છેઆ રીતે અહિયાં સુધી આ પ્રજ્ઞાપના દ્વારનું કથન કર્યું છે. ___ . २ २ छ तनु सूत्रा२ ४थन ४२ छ-'पुलाए णं भते। कि सबेयए होज्जा अवेयए होज्जा' मा सूत्रावास .गीतभस्वामी प्रभुश्रीन એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન પુલાક નિગ્રંથ વેદુવાળા હોય છે ? કે વેદ વિનાના भ०८ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे ५८ हे गौतम ! 'सवेयए होज्जा' सवेदको भवति पुलाकः, नो अवेदको भवति पुलाक वकुशप्रति सेवाकुशलानामुपशमश्रेणीक्षपकश्रेण्पोरभावात् इति । 'जइ सवेयए कि इत्थवेयर होज्जा पुरिसवेयए होज्जा पुरिसणपुंसमवेयर होज्जा' यदि पुलाकः सवेदको भवति तदा किए स्त्रीवेदो भवति, पुरुषवेदको वा भवति पुरुष - नपुंसक वेदको वा भवतीति मनः । भगवानाद - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोमा' हे गौतम! 'णो इस्थिवेयए होज्जा' नो स्त्रीवेदको भवति स्त्रीणां पुला. कलन्धेरभावादिति । 'पुस्सिवेयए होज्जा' पुरुषवेदक: पुलाको भवति - 'पुरिसपुंसमवेयर वा होज्जा' पुरुषनपुं पकवेदको वा भवति यः पुरुषः सन पुरुषवेद रहित होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोपना ! सवेषण होज्जा' हे गौतम! पुलाक निर्ग्रन्थ वेदसहित होते हैं 'वो जवेयर होज्जा' वेदरहित नहीं होते है । क्योंकि पुलाक, पकुश और प्रतिसेपना कुशील इनके उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी का अभाव होता है । इसलिये वे अवेदक नहीं होते हैं । अप गौतम प्रभुश्री से ऐश पूछते हैं- 'जह सर्वेयए छोज्जा, कि इस्थी वेयए होज्जा पुरिसवेधए होज्जा, परिक्षण पुंगवेयए होज्जा' हे भदन्त ! यदि पुलाक निर्ग्रन्थ वेद सहित होते है तो क्या वह स्त्रीवेदवाला होता है ? अथवा पुरुषवेदवाला होता है ? अथवा पुरुष नपुंसक वेदवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोधना ! जो इत्थवेयए होज्जा पुरिलवेयए होज्जा पुरिक्षणपुंसगdry या होज्जा' हे गौतम! वह स्त्रीवेदवाला नहीं होता है क्योंकि स्त्रियों को पुलाक लब्धि का अभाव रहता है वह पुलाक पुरुषवेदवाला होता है अथवा पुरुष नपुंसक वेदवाला होता है । जो पुरुष होकर अपने होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री गौतमस्वामीने हुडे - 'गोयमा ! सवेयए होज्जा' हे गौतम! पुसा निर्थथ वेहसहित - बेहवाजा होय छे. नो अवेयर होजा' वेदविनाना होता नथी. प्रेम-साउ, गहुश भने अतिसेवना કુશીલે ને ઉપશમ શ્રેણી અને ક્ષપક શ્રેણીના અભાવ હૈાય છે. તેથી તે આવેદક–વેદવિનાના હાતા નથ્ય. हुवे गीतभस्वाभी प्रलुश्रीने मधुं पूछे छे - 'जइ सवेयए होज्जा कि' इत्थीवेयए होज्जा पुरीसवेयए होजा पुरीसणपुंसगवेयए होज्जा' हे लगवन् ले युवा निर्यथ વેદ સહિત હાય છે. તેા શું તે ાં વેઢવાળા હાય છે ? અથવા પુરૂષવેઢવાળા હાય છે ? અથવા પુરૂષ નપુ ́સકવેદવાળા હોય છે? આ પ્રરના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વાभीने हे छे- 'गोयमा । णा इत्थीवेयए होज्जा पुरिसवेयए होज्जा पुरिसणपुंसगवेयए होज्जा' हे गौतम् ! ते स्त्रीहवा होता नथी भट्ठे स्त्रीयोने पुसा લબ્ધિના અભાવ હાય છે. તે પુલાક પુરૂષવેદવાળા હાય છે. અથવા પુરૂષ નપુ ંસક Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२५ उ. ६ ३०१ वेदद्वारनिरूपण म् चिह्न छित्वा नपुंसक वेदको भवति स एवात्र पुरुष नपुंसकपदेन अभिधीयते न स्वरूपेण किन्तु कृत्रिम - नपुंसक इति । 'बउसेणं भंते ! किं सवेयए होज्जा - अबे - यए वा होज्जा' बक्कुशः खलु भदन्त ! कि सवेहको भवति अवेदको वा भवतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोवमा' हे गौतम ! 'सवेयर होज्जा at rare होना' सवेदको भवति चकुशो नो अवेदको भवति उपशमक्षपकश्रेण्योरभावात् । ' जइ सवेयए होज्जा कि इत्थवे २ए होज्जा' यदि सवेदको भवति तदा किं जीवेदको भवति 'पुरिसवेयए होज्जा' पुरुषवेदको भवति 'पुरिसणपुंसगवेयर होज्जा' पुरुषनपुंसक वेदको वा मचतीयि प्रश्नः । भगवानाह - पुरुष के चिह्न को छेदकर कृत्रिमरूप से नपुंसक बन जाता है वह पुरुष पुरुषनपुंसक कहा गया है। जो स्वभावतः नपुंसक होता है ऐसा नपुंसक यहां विवक्षित नहीं हुआ है ! 'उसेणं भंते । किं सवेयर होज्जा अवेधए होज्जा' गौतमस्वामीने इस सूत्रद्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - हे भदन्त । पकुश वेदसहित होता है अथवा वेद रहित होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! सबैयए होज्जा, नो अवेयए होज्जा' हे गौतम! बकुश वेद सहित होता है वेद रहित नहीं होता है । क्योंकि पकुश के उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का अभाव रहता हैं । 'जह लवेयए होज्जा किं इत्थीore होज्जा पुरिसवेधए होज्जा, पुरिसणपुंसमवेयर होज्जा गौतमस्वामीने पुनः प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! यदि यकुश वेदसहित होता है तो क्या वह स्त्रीवेदवाला होता है ? अथवा पुरुषवेद વેઢવાળા હાય છે. જે પુરૂષ પુરૂષ હાવા છતાં પેાતાના પુરૂષ ચિન્હને છે દીને કૃત્રિમ પણાથી નપુસક બને છે. તે પુરૂષ પુરૂષ નપુંસક કહેવાય છે જે સ્વભાવિક રીતે નપુ`સક હાય છે. એવા નપુ ંસકતુ. અહિં ગ્રહણ કરેલ નથી, 'उसे भंते । किं' सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा' या सूत्रपाठ द्वारा શ્રીગોતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન્ મકુશ સવેદ-વેદવાળાં હાય છે? કે વૈવિનાના હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने हे छे ! हे - गोयमा ! सवेयए होज्जा, नो अवेयर होज्जा' हे ગૌતમ । બકુશ વેદવાળા હાય છે, વેદવિનાના હાતા નથી. કેમકે-ખકુશને ઉપशमश्रेणी भने क्षयम्श्रेीना भलाव रहे छे. 'जह सवेयए होज्जा कि इत्थी are होज्जा पुरिसवेयर होज्जा' पुरिसणपुंसकवेयए होजा' इरीथी श्रीगीतभस्वाभी એ પ્રભુશ્રી ને પૂછ્યું કે—કે ભગવત્ જે મકુશ વેદવાળા હાય છે, તે શુ શ્રી વેઢવાળા હાય છે ? અથવા પુરૂષ વેદવાળા હાય છે ? અથવા પુરુષનપુ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'इस्थिवेयर वा होज्जा पुरिलवेयर वा होना पुरिसपु सगवेयर वा होज्जा' स्त्रीवेदको वा भवेत् पुरुषवेदको वा भवेत् पुरुष नपुंसक वेदको वा भवेत् । 'एवं पडि सेवणाकुसीले बि' एवम् - वकुशवत् प्रतिसेना कुशलोऽपि भवेत् स्त्रीपुंनपुं स के विवेदत्रयवान् भवेदिति । 'कसायकुसीले णं भंते । किं सवेयर पुच्छा' कपायकुशीलः खलु दन्त । किं सवेदको भवेत अवेदको वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह - गोनमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'सवेयर वा होज्जा अवेयर ना होज्जा' सवेदको वा भवेत् अवेदको भवेदिति । 'जइ अवेयए होज्जा कि उवसंतवेयए खीणवेयए ना होज्जा' यदि वाला होता हैं अथवा पुरुष नपुंसकवेदवाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा ! इत्थवेधए वा होज्जा पुरिसवेष या होज्जा, पुरिक्षणपुखगवेय वा होज्जा' हे गौतम ! वह स्रीवेदवाला भी हो सकता है, पुरुषवेदवाला भी हो सकता है और पुरुष नपुंसक वेदवाला भी हो सकता है । ' एवं पडिलेचणा कुसीले वि' इली प्रकार से प्रतिसेवना कुशील भी स्त्रीवेदवाला होसकता है, पुरुषवेदचाला हो सकता है और पुरुष नपुंसक वेदवाला भी हो सकता है । 'सायकुत्रीणं भंते । किं लवेघए पुच्छा' हे यदन्न ! कपाच कुशील क्या सवेदक होता है ? अथवा अवेदक होता है ? सर में मसुश्री कहते है - हे गौतम! कषाय कुशील 'सनेघर वा होज्जा अवेवर वा होज्जा' सवेदक भी होता है और अवेदक भी वेदरहित भी होता है। 'जह अधए होज्जा किं उचसंसवेवए खीणवेयर वा होज्जा' यदि वेद સક વેદવાળા હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગીતમસ્વામી ને કહે છે - 'गोमा ! इत्थवेयए वा होज्जा पुरिसवेयए वा होज्जा पुरिसणपुंगवेयर वा होज्जा' हे गौतम! ते श्री वेदवाणी पण होय छे, पु३पवेदवाणी पशु होय छे, याने पु३षनपुंसः वेदवाणी पशु होय छे 'एव पडिसेवणा कुसीले वि' એજ પ્રમાણે પ્રતિસેવના કુશીલ પણ સ્ત્રીવેદવાળા હાય શકે છે, પુરૂષ વેદવાળા પણ થઈ શકે છે, અને આ નપુસક વેદવાળા પણ હાય છે. कलायकुसीलेणं भते ! किं खवेयए पुच्छा' हे भगवन् उपायङ्कुशीत शु સવેદક હાય છે અથવા અવેદક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है- 'सवेयर वा होज्जा अवेयए वा छोन्जा' हे गौतम | उपाय दुशील सवेर पालु होय छे. गवे-वेह विनाना पशु होय छे 'जइ भवेयए होब्जा कि उवसंतवेयए खीणवेयए वा होज्जा' ले वेह रहित होय है, तो शुशांत वेह - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयन्द्रका टीका श०२५ उ.६ सू०१ वेदवार निरूपणम् अवेदको भवेद तथा किमुपशान्तवेदको भवेत् क्षीणवेदको वा भवेत् वृक्षमसंपरायगुणस्थानकं यावत् कषाय कुशीलो भवति' स च ममत्तामसत्तापूर्वकरणेषु सवेदः, अनिवृत्तिवादरेषु तु उपशान्तेषु क्षीणेषु वा वेदेषु अवेदका स्यात् सूक्ष्मसंपराये चेति । 'जइ सवेयए होज्जा किं इथिवेयए पुच्छा' यदि सवेदको भवेत् तदा स्त्रीवेदको वा पुरुषवेदको वा भवेत् पुरुषनपुंसकवेदनो वा भवेदिति पृच्छाप्रश्नः । भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि । 'गोगना' हे गौतम ! 'तिसु वि जहा बउसो' त्रिवपि स्त्री नपुंसकवेदेषु भवेत् यथावकुशः, बकुशवदेव हापि त्रयो वेदा ज्ञातव्या इति । 'णियंठे गं भंते । किं सवेयए पुच्छ।' निर्गन्यः खलु भदन्त ! किं सवेदको भवेत् अवेदको वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' रहित होता है तो क्या वह उपशान्त वेदशाला होता है ? अथवाक्षीणवेदवाला होता है ? उत्तर में प्रस्तुश्री कहती हैं-हे गौतम ! सूक्ष्मसाप. राय गुणस्थानतक कषाय कुशील होता है वह ममत्त अप्रमत्त एवं अपूर्वकरण इनमें लवेद-वेद सहित होता है और अनिवृत्तिशादर एवं सूक्ष्म सांपराय में वह उपशांत वेदवाला अथवा क्षीणवेवाला होता है लब अवेदक होता है । 'जह लवेथए होज्जा कि इस्थिवेयए पुच्छ।' यदि वह वेद सहित होता है तो क्या स्त्रीवेद्याला होता है ? अथवा पुरुषवेदशाला होता है ? अथवा पुरुषनपुंसक वेद्याला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना! ति वि जहा पउलो' हे गौतम! यह बकुश की तरह तीनों वेवाला होता है । 'नियंठे णं भंते ! कि लवेधए' अदेयए होज्जा' हे भदन्त निन्ध सवेदक होता है ? अथवा अवेदक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंવાળા હોય છે ? કે લાદવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ૌતમસ્વામી ને કહે છે કે-હે ગૌતમ! સૂક્ષ્મસાંપરાય ગુણસ્થાન સુધી કષાય કુશીલ હોય છે. પ્રમત્ત અપ્રમત્ત અને અપૂર્વકરણમાં સવેદ-વેદવાળા હોય છે અને અનિવૃત્તિ બાદર અને સૂફસાં પરાયમાં તે ઉપશાંતવાળા અથવા ક્ષીણ વેદपाणाडाय छे, त्यारे म य छ 'जह रावेयए होजा कि इत्थिवेयए पुच्चा' જેતે વેદ સહિત હોય છે, તો શું સ્ત્રીવેદવાળા હોય છે? કે પુરૂદવાળા હોય છે? કે ४३५ न वाजा जाय छ १ - प्रक्षना उत्तम प्रभु ४९ छे-गोयमा ! तिसुवि जहा उसा' हे गीतम ते शना ४थन प्रभारी वहाणा होय . "णिय ठेणं भंते ! किं लवेयए' लगवन् नि स हाय छ ? मथ। अव डाय छ ? ३ मा प्रक्षना उत्तरमा प्रभु छ है-'गोयमा ! Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीमत्र इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा' नो सवेदको भवेत् अवेदको भवेत् । 'जइ अवेयए होज्ना किं उबसंत पुच्छा' यदि अवेदकोभवेत् तदा विम् उपशान्तवेदको भवेत् क्षीण वेदको वा भवेदिति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, ‘गोयमा' हे गौतम ! 'उवसंतवेयए होज्जा क्षीणवेयए वा होज्जा' उपशान्तवेदको भवेत् क्षोणवेदको वा भवेत् श्रेणीद्वयेऽपि निर्ग्रन्धत्वस्य सद्भावादिति । 'सिणाएग भंते ! किं सवेयए होज्जा०' स्नातक खलु भदन्त ! कि सवेदको भवेत् अवेदको वा भवेदिति प्रश्नः । उत्तरमाह-'जहा. णियंठे तहा सिणाए वि' यथा निम्रन्थस्तथा स्नातकोऽपि नो सवेदको भवेत् 'गोयमा! णो सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा हे गौतम! निग्रन्थ सवेदक नहीं होता है किन्तु अवेदक होता है। 'जह अवेयए होजा किं उपसंत पुच्छा' हे भदन्त ? यदि वह अवेदक होता है तो क्या वह उपशान्तवेदक होता है ? अथवा क्षीणवेदक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! उपसंतवेयए होज्जा, खीणवेयए चा होज्जा' हे गौतम! वह उपशांत वेदक भी होता है और क्षीणवेदक भी होता है। क्योंकि दोनों श्रेणीयों में निग्रन्यता का सद्भाव रहता है। 'लिणाए णं संत किं सबेयए होज्जा' हे भदन्त ! स्नातक सवेदक होता है अथवा अवेदक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'जहा णियंठे तहा लिणाए वि' हे गौतम। जैसा लिन्ध के सम्बन्ध में फथन किया गया है-बैला ही कथन स्नालक के सम्पन्ध में भी जानना णा सवेयए होज्जा अवेयए हाज्जा 3 गीतम नि" स खाता नथी परत म उ.य छ 'जइ अवेयए होज्जा कि उवसंत पुच्छा' हे भगवन्त અદક હોય છે, તો શું તે ઉપશાંત અદક હોય છે ? કે ક્ષીણ વેદક હોય छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ ?-'गोयमा! उवसंतवेयए होज्जा, खीणवेयर वा होज्जा' हे गौतम! ते ५Aid ६४ ५ राय छ, मन क्षीय साय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा! उपसंतवेयए होजा, खीणवेयए वा होज्जा' गीतम! ७५in४ ५ डाय छे. मने क्षीय વેદક પણ હોય છે. કેમકે–અને શ્રેણીમાં પણ નિગ્રંથ પણાને સદ્ભાવ રહે छ 'सिणाएणं भंते ! किं सवेयए हे।ज्जा० लगवन् स्नात सह डाय छ है वह डाय छ ? २मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है 'जहा णिय है तहा सिणाए गौतम! नियन! समयमा प्रमाणे ४थन युछे, એજ પ્રમાણેનું કથન સ્નાતકના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું આ રીતે નિર્ચ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ रागादिद्वारनिरूपणम् किन्तु अवेदको भवेत् । ‘णदरं णो उसंतवेयए होज्जा खीणवेयए होडमा' नवरम्-केरलम्-नो उपशान्तवेदक किन्तु क्षीणदेदकः एव भवेद-क्षपणकश्रेण्यामेव स्नातक्त्वभावात् । इति द्वितीयं वेदद्वारम् २ ॥सू०१॥ तृतीयं रागद्वारमाह-'पुलाए णं भंते' इत्यादि। मूलम्-पुलाए णं भंते ! किं सरागे होज्जा वीयरागे होजा? गोयमा! सराने होज्जा नो वीयरागे होज्जा एवं जाब कलाशकुलीले। णियंठे णं संते ! किं लागे होज्जा पुच्छा गोयमा ! नो लरागे होज्जा वीयरागे होज्जा । जइ वीयरागे होज्जा कि उवसंतकलायवीयरागे होज्जा खीणकलायवीयरागे होजा? गोयमा ! उवसंतकलायवीयरागे वा होज्जा खीणकसाय वीयराग वा होज्जा। लिणाए एवं क्षेत्र । णत्ररं णो उपसंतकसायवीयरागे होज्जा खीणकसायवीयरागे होज्जा । पुलाए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अडियकप्पे होज्जा गोयमा ! ठियकप्पे वा होज्जा अढियकप्पे वा होज्जा । एवं जाव सिणाए। पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे होज्जा कप्पातीए होज्जा ? गोयमा! लो जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे होजा नो कप्पातीए होजा। बउसेणं संते ! पुच्छा, गोयमा! जिणचाहिये । इस प्रकार निर्ग्रन्थ लवेदक नहीं होता है किन्तु अवेदक होता है । 'णवरं णो उबसंतवेयए होज्जा खीणवेयए होज्जा' परन्तु निर्ग्रन्थ के जैसा वह उपशान्त वेद्याला नहीं होता है किन्तु क्षीणवेवाला ही होता है । क्योंकि स्नातक का सद्भाव क्षपकरेगी में ही होता है। इस प्रकार से यह दूसरावेदद्वार का कथन है॥१०॥ सवह डाता नथी ५ अवे डाय छे. 'णवर णो उवसतवेयए होज्जा खीण वेयए हाज्जा' पर नियन्यनाथन प्रमाणे ते ७५शांत पाणाडाता नथी પણુ ક્ષીણ વેદવાળા જ હોય છે કેમકે-સ્નાતકને સદ્ભાવ ક્ષપકશેમાં જ હોય છે, એ રીતે આ વેદદારનું કથન છે. વસૂલાત Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ enedies * कप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे दा होज्जा, तो कपातीए होज्जा । एवं पविणा कुसीले वि । कसायकुतीले णं पुच्छा गोयसा ! जिणकप्पे वा होज्जा थेरकप्पे वा होज्जा कप्पातीए वा होज्जा । नियंडे णं पुच्छा गोयमा ! णो जिणकप्पे होज्जा, णो थेरकप्पे होज्जा कप्पातीए होज्जा । एवं सिणाए वि । पुलाए गं भंते! किं सामाइरसंजने होज्जा छेओवहारणिय संजमे होज्जा परिहारविसुद्धिसंजये होज्जा सुहुम संपराय संजमे होज्जा अहरवायजमे होज्जा ? गोयमा ! साला इयसंजसे वा होज्जा छेओवहारणियमंत्रमे वा होज्जा णो परिहारविसुद्धिय संजमे होज्जा पो सुहुमपरायमंजमे होज्जा पो अहक्खाय संजमे होज्जा । एवं बउसे बि । एवं पडिसेबणा कुसीले वि । कसायकुपीले णं पुच्छा गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होज्जा जान सुहुमलंपरायसंजने वा होज्जा णो अहक्वायसंजमे होजा । णियंठे णं पुच्छा गोयमा ! णो सामाइयसंजमे होजा जाव णो सुहुमसंपरायतंजने होजा अहक्खायसंजमे होजा एवं सिमाए वि । पुलाए णं भंते! किं पडिसवए होज्जा अपडि सेवए होजा ? गोयमा ! पडिसेबए होजा णो अपडिलेवर होज्जा । जइ पडिलेयए होज्जा किं सूलगुणपडिसेवर होज्जा उत्तर गुणपडि सेवए होज्जा ? गोयगा ! सूलगुणपडि सेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडिसेबए वा होना । मूलगुणपडि सेवमाणे पंचण्डं आसवाणं अन्नपरं पडिसेवेज्जा उत्तरगुणपडि सेवमाणे दसविहस्स पचकखाणस्स अन्नयरं पडिसेवेज्जा । बउसे णं गोयमा ! पडिमेवर होज्जा जो अपडिसेबर होजा । जइ पडिपुच्छा पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडि सेवए होजा उत्तरगुणपडि सेवए Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयखन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०२ रागादिद्वारनिरूपणम् ६५ होज्जा । गोयसा ! जो मूलगुणपडि सेवए होज्जा उत्तरगुण पडिसेव होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पचक्खाणस्स अन्नपरं पडिसेवेज्जा | पडिलेवणाकुसीले जहा पुलाए । कसायकुसीले र्ण पुच्का गोयमा ! णो पडिसेवए होज्जा अपडि सेवए होजा । एवं पिवंठे वि । एवं सिणाए वि ॥ सू० २॥ छाया --- पुलाकः खलु भदन्त । किं सरागो भवेद- वीतरागो भवेत् ? गौतम सरागो भवेत् नो वीतरागो भवेत् एवं यावत् कपायकुशीलः । निर्ग्रन्थः खलु यदन्त ! किं सरानो भवेत् पृच्छा - गौतम ! नो सरागो भवेत् वीतरागी भवेत् । यदि चीतरागो भवेत् किमुपशान्तपाय वीतरागो भवेत् क्षीणकषायवीतरागो भवेत् ? गौतम ! उपशान्तकषायनीतरागो वा क्षीणकषायवीतरागो वा भवेत् स्नातकोऽपि एनमेव, नवरं नो उपशान्तकपायचीत गो सवेत् क्षीणकषायत्रीतरागो मदे ! पुलाकः खलु भदन्त ! किं स्थितकल्पो भवेत् अस्थितकल्पो भवेत् ? गौतम ! स्थितकल्पो वा भवेत् अस्थिवकल्पो वा भवेत् । एवं यावत् स्नातकः । पुलाकः खलु भदन्त ! कि जिनकल्पो भवेत् स्थविरकल्पो भवेत् कल्पातीतो भवेत् ? गौतम ! तो जिन कल्पो भवेत् स्थविरकल्पो भवेत् नो कल्पातीतो भवेत् । वकुशः खलु पृच्छा. गौतम ! जनकल्पो वा भवेत् स्थविरकल्पो वा भवेत् नो कल्पातीतो भवेत् । एवं प्रतिसेवना कुशलोऽपि । कपायकुशीलः खलु पृच्छा गौतम ! जिनकल्पो वा भवेत् स्थविरकल्पो वा भवेत् कल्पादीतो वा भवेत् । निर्ग्रन्थः खल पृच्छागौतम | वो जिनकल्पो भवेत् न स्थविरकल्पो भवेत् कल्पातीतो भवेत् । एवं स्नातकोऽपि । पुलाः खलु भदन्त ! किं सामायिकसंयमो भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयमी परिहारविशुद्ध संयमो भवेत् सूक्ष्मसंपरायसंयमो भवेत् यथाख्यातसंयमो भवेत् गौतम ! सामायिकसंयमो वा भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयमो वा भवेत् नो परिहारविशुद्धिकसंयमो भवेत् नो सूक्ष्म संपरायसंयमेो भवेत् नो यथाख्यातयो भवेत् । एवं वकुशोऽपि । एवं प्रतिसेवन कुशलोऽपि । कपायकुशीलः खलु पृच्छा - गौतम ! सामाचिकसंयत्रो वा भवेत् यावत् सूक्ष्मसरायसंयम वा भवेत् नो यथाख्यातसंयमो भवेत् । निर्ग्रन्थः खलु पृच्छा गौतम ! सानाको भवेत् यावत् नो मपरायसंयम भवेत् यथाख्यात्पयो भवेत् । एवं स्नातकोऽपि । पुलाकः खलु भदन्त । किं पतिसेवको भवेद - अतिसेवको भवेत् ? गौतम । प्रतिसेवको भवेत् नो अप्रतिसेवको भवेत् । यदि प्रतिसेको भवेत् किं मूलगुणप्रतिसेवको भवेत् उत्तरगुणमति 1 भ० ९ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सेवको भवेत् ? गौतम ! मूलगुणप्रतिसेवको वा भवेत् उसरगुणपतिसेवको वा भवेत्-मूलगुणं प्रतिसेवयानः पञ्चानामात्राणामन्यतरं पति सेवेत उत्तरगुणं प्रतिसेवमानो दश विधस्य प्रत्याख्यानस्यान्यतरं प्रति सेवेत । वकुमः खलु पृच्छागौतम ! प्रति सेवको भवेत् नो पतिसेवको भवेत् । यदि प्रतिसेवको भवेत् कि मूलगुणप्रतिसेवको भवेत् उत्तरगुणप्रतिसेवको भवेत् ? गौतम नो मूलगुणप्रतिसेवको भवेत् उत्तरगुणपति सेवको भवेत उत्तरगुणं प्रतिसेवमानो दशविधस्य प्रत्याख्यानस्यान्यतरं प्रतिसेवेत । प्रतिसेवनागीलो यथा पुलाकः। कपायकुशीलः खलु पृच्छा गौतय ! नो प्रतिसेवको भवेत् अप्रतिसेवको भवेत् । एवं निर्ग्रन्थोऽपि-एवं रनातकोऽपि ||०२॥ ___टीका-तृतीयं रागद्वारमाह-'पुलाए णं भंते । कि सरागे होजा-बीयरागे होज्जा' पुलाका खल्लु भदन्त ! किं सरागो भवेत्-एको रागः कमायस्तेन युक्तो भवेत् अश्या-वीतरागो-विगतकपायो भवेदिति प्रश्नः । गगयानाह-'गोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सरागे होज्जा णो वीयरागे होजा' सरागोरागवान् पुलाको भवेत् नो बीदरागः-कपायरहियो भवेत् । 'एवं जान कसागकुसीले' एवम्-पुलाकवदेव यावत् कपायकुशीलः, अत्र यावत्पदेन पञ्चविध अच तृतीय राग छार का कथन करते हैं-'पुलाए ण भंते । कि सरागे होज्जा बीयरागे होज्जा' इत्यादि सूत्र २॥ टीकर्थ-गौतमस्थानी ने प्रशुश्री से ऐला पूछा है-'पुलाए णं भते किं सरागे होज्जा, बोधरागे होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक क्या सराग होता है ? अथया वीतराग होता है ? राग शब्द का अर्थ है कपाय और वीतराग का अर्थ है कणा रहित होना। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है'सरोगे तोज्जा जो बीयरागे होज्जा' हे गीतम। वह राग वाला होता है वीतराग नहीं होता है । 'एवं जाव कलाय कुसीले' इस प्रकार फा हवे सूत्रा२ त्रीत २० २ ४थन. ४२ छ,-'पुलाए णं भवे ! कि सरागे होज्जा वीयरागे होज्जा त्याह ટકાથ–ગતમવામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું– 'पुलाए णं मंते ! कि सरागे होज्जा वीयरागे होज्जा' भवन मा शुसरा હોય છે? કે વીતરાગ હોય છે? રાગ શબ્દનો અર્થ કષાય છે અને વીત. રાગને અર્થ કષાય રહિત રહેવું તે છે. गौतभरवामीनी ॥ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'सरागे होज्जा को दीवाने होजा' गीतम! ते 14 साय छे. पीत होता नथी 'एवं जाव कसायकुसीले' मन प्रभाग २मा अथन पांय ना साना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ तृतीय रागढारनिरूपणम् पुलाकानां पञ्चविधवकुशानां प्रतिसेवना कुशीलस्य च संग्रहो भवति तथा च पुलाकादारभ्य कषायकुशीलान्ताः सर्वेऽदि सरागाः भवेयुनों वीराया भवेयु. रित्यर्थः । 'णियंठेगं भंते ! किं सगे होज्या पुच्छा' निर्ग्रन्थः खल्ल भदन्त ! कि सरागो भवेत् वीतरागो वा भवेत् इति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो सरागे होज्जा वीयरागे होजा' नो निर्गन्थः सरागः-सरूपायो भवेत् किन्तु वीतरागोऽपगतकपायो भवेदिति । 'जइ वीयरागे होज्जा कि उसंतकसायवीयरागे होज्जा खीणकसायवीयरागे होज्जा' यदि निन्थो वीतरागो भवेत् तदा किम् उपशान्तकपायवीतरागो भवेद क्षीणकपायबीतरागो भवेत् ? अगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयया' यह कथन कपाय कुशील तक जानना चाहिये । यहां यावत्पद ले पांच प्रकार के पुलकों का पांच प्रकार के बकुशों का और प्रतिसेवना कुशी ल का संग्रह हुआ है । तथा च-पुलाश ले लेकर पायकुशील तक के समस्त निग्रन्थ सा ही होते हैं वीतराग नहीं होते हैं। 'नियंठे गं भंते ! किलराणे होज्जन पुच्छ।' हे सरन्त निर्ग्रन्थ क्या सराग होता है ? अथवा बीताग होता है ? उत्तर में प्रमुत्री कहते हैं-'गोयमा ! णो सरागे होज्जा, बीथरागे होज्जा' हे गौतम ! निर्गन्ध लराग नहीं होता है, वीतराग होता है । क्योंकि वह अवगत करायवाला होता है । 'जह वीपरागे होज्जा, कि उबलतकलायचीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे होज्जा' है महन्त ! यदि वह वीतराग होता है तो क्या वह उपशान्त कपाय वाला होने से पीत्तराग होता हैं ? अथचाक्षीण कषाय वाला होने से वीतराग होता है ? उत्तर प्रभुनी कहते हैं 'गोयमा ! પાંચ પ્રકારના બકુશેના અને પ્રતિસેવના કુશીલ તથા કષાય કુશીલના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું તથા-પુલાક થી લઈને કષાય કુશીલ સુધીના સઘળા નિ न्या, ससा होय छे. पीत। जो नथी 'णियठेण भंते ! कि सरागे होजा' पुच्छा' हे सगवन् नि शुस। डीय छे ? -मथ! वीतराग डाय! म या प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छ है.-गोयमा ! णो सरागे होजो, वीयराणे होज्जा' गौतम नि ५ सय होत नयी ५२तु पीत। डाय छे भो ते। षाय विनाना य छ, 'जइ वीयरागे होज्जा, कि उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, वीणकसायवीयरागे होज्जा' लानुन ते वीतराय छे. તે શું તે ઉપશાંત કષાયવાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે ? કે ક્ષીણ કષાય વાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे हे गौतम! ' उवसंत कसायवीयरागे वा होज्जा' उपशान्तकपायवीतरागो वा वेद निर्ग्रन्थः, क्षीण पायवीतरागो वा भवेत् । 'सिणाए एवं चेव' स्नातक एवमेव-निर्ग्रन्यवदेव ज्ञातव्यः, 'णवरं णो उवसंतकसायवीयरागे होज्जा खीणकसायवीयरागे होज्जा' नवरम् - केवलं निर्ग्रन्यापेक्षया स्नातके इदं वैलक्षण्यं यत् स्नातको नो उपशान्तकपायवीतरागो भवेत् अपितु क्षीणकपायवीतराग एव भवेदिति ३ । चतुर्थ कलद्वारमाह- 'पुलाए णं भंते ! कि ठियकल्पे होज्जा अद्विकल्पे होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त किं स्थितल्पो भवेद अस्थितकल्पो भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम । स्थितकल्यो वा उवसंत कसाघवीयरागे होज्जा, खीणकसायचीयरागे ना होज्जा' हे गौतम ! यह उपशान्त कषायवाला होने से भी वीतराग होता है और क्षीणकषायवाला होने से भा वीतराग होता है । 'सिणाए एव' 'चेव' इसी प्रकार का कथन स्नातक के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । 'णवर' णो वसंतकसाय वीयरागे होज्जा, खीणकस्त्राय वीथरागे होज्जा' परन्तु यह निर्ग्रन्थ की तरह उपशान्तकषाघवाला होने से वीतराग नही होता है किन्तु क्षीणकषायवाला होने से ही वीतराग होता है । चतुर्थकल्पहार- 'पुलाए णं भंते । किं द्विपकल्पे होज्जा, अडियकल्पे होज्जा" हे भदन्त | पुलाक क्या स्थितकल्पवाला होता है ? अथवा अस्थितकल्पवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- "गोया ! ठिक होज्जा अडियरुप्पे होज्जा' हे गौतम | वह पुलाक स्थितकल्प वाला भी 'गोयमा ! उवसंत कसायवीरागे वा होज्जा खीणकसायविरागे वा होज्जा' हे ગૌતમ તે ઉપશાંત કષાય વાળા હાવાથી પણ વીતરાગ હોય છે અને ક્ષીણુ उपायवाला होवाथी पशु वीतराग होय छे. 'सिणाए एवं चेव' मे प्रभाषेनु हुथन स्नातङना सं'अ'धभां पशु समवु' 'णवर णो उस तकसायवीयरागे होज्जा खोकसायवीयरागे होज्जा' परंतु ते निर्थन्थना स्थन प्रमाणे उशांत उपाय હાવાથી જ વીતરાગ હાય છે. આ રીતે આ ત્રીજુરાગદ્વાર છે. ચાક્ષુ’ કલ્પદ્વાર~~~ 'yore a 1 ठिकप्पे होज्जा, अट्ठियकप्पे वा होजा' है लगवन् पुसा શુ સ્થિતકલ્પવાળા હોય છે ? કે અસ્થિત કલ્પવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां अनुश्री हे हे हे- 'गोयमा ! ठिक वे ना होज्जा अट्ठियाने वा होन्जा' હે ગૌતમ ! તે પુલાક સ્થિત કલ્પવાળા પણુ હોય છે, અને અસ્થિત કલ્પ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ चतुर्थ कल्पद्वारनिरूपणम् भवेत् अस्थितकल्पो वा भवेत् मथमचरमतीर्थकरसाधव आचेल क्यादिदशसु कल्पेषु स्थिता एव-अवश्यं तत्पालनात् अतस्ते स्थितकल्पाः कथ्यन्ते तेषु पुलाको भवेत् मध्यमतीर्थकरसाधवस्तु आचेलक्यादि दशसु स्थिताश्चास्थिताश्चेति, तेषां तत्पालनस्याऽनिवार्यत्वाभावादिति अस्थितकल्पाः, तेपांमध्ये पुलाकस्तेषु वा पुलाको भवेत् । 'एवं जाव सिणाए' एवं यावत् स्नातकः स्थितझल्पो वा भवेत् अस्थित कल्पो वा भवेत्-अत्र यावत्पदेन वकुशादारभ्य निर्गन्थपर्यन्तानां ग्रहणं भातीति । जिनकल्पस्थविकल्पभेदेन कल्यो द्विवियो भवतीति ताशकल्पमाश्रित्याह-'पुलाए णं' होता है और अस्थित कल्पवाला भी होता है । प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु आचेलक्यादिदश कल्पों में स्थित ही होते है । कारण कि इनका पालन इन्हें आवश्यक होता है। इसलिये ये स्थितकल्प कहलाते हैं । इनमें पुलाक होते हैं। मध्यमतीर्थ करों के साधु आचेलक्यादि दशल्पों में स्थित भी होते हैं और अस्थित श्री होते हैं, इसलिये उनसे इनका पालन आवश्यक नहीं होता हैं । इस कारण इनका अस्थितकल्प होता है। इनमें भी पुलाक होते हैं। ऐसा यह कथन 'एवं जाव लिणाए' यावत् स्नातक तक जानना चाहिये। स्नातक स्थित कल्प भी होता है और अस्थित कल्प भी होता है। यहां यावत्पद ले कुश से लेकर निन्ध तक के निग्रंन्ध भेदों का ग्रहण हुआ है। जिनशल्प और स्थघिरकल्प के भेद से कल्प दो प्रकार का होता है-इस प्रकार के कल्प को लेकर अब गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'पुलाए णं भले! जिनकप्पे होज्जा थेरकप्पे होज्जा વાળા પણ હોય છે. પહેલા અને અંતિમ-છેલા તીર્થંકરના સાધુ અલક પણ વિગેરે દસ કપિમાં સ્થિત જ હોય છે. કારણ કે તેનું પાલન તેઓને આવશ્યક હોય છે. તેથી તેઓ સ્થિતકલ્પ કહેવાય છે તેમાં પુલાક હોય છે. મધ્યના તીર્થ કરના સાધુ અચેલક્ય વિગેરે દશ વિકલપમાં સ્થિત પણ હોય છે. અને અતિ પણ હોય છે. તેથી તેઓને તેનું પાલન અનાવશ્યક હોય છે. તે કારણે તેઓને અસ્થિત ક૯પ હોય છે. તેમાં પણ પુલાક હોય છે. એ शतनु मा थन एवंजाब सिगाए' यावत् स्नात सुधी सभा स्नातक સ્થિત કલ્પ પણ હોય છે. અને અસ્થિત કલ્પ પણ હોય છે. અહીંયા યાવ૫દથી બકુશથી લઈને નિ9 સુધીના નિર્ચ ગ્રહણ કરાયા છે. ઝન કલ્પ અને સ્થવિર કલપના ભેદથી ક૫ બે પ્રકારના હોય છે. આ शत ४६५ सपने हुवे गौतमस्वामी प्रसुश्री मे पूछे छे -'पुलाएवं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reader ७० इत्यादि, 'पुकाए णं मंते । किं जिणरुप्पे होज्जा थेग्रूपे होना कप्पानी होना' पुलाकः खलु भदन्त ! कि जिनरुलो भवेत् स्यवित्यो भने कल्या तीतो वा भवेत् कल्पातीतो जिनकल्पस्थविरवल्याभ्यामन्यः । गाना 'गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गोतम ! 'णो जिगकप्पे होज्जा' नो जिनको भत् पुला साधुः 'थेरकप्पे होज्जा' किन्तु स्थविरको भवेन् 'णो कपाती होना' कल्पratatra पुलाको जिनकल्पः कल्पवीतोवा ने किन्तु स्वनिग् कल्पो भवतीति भावः । 'वउसे णं ते! पुच्छा' चकुः खन्द्र भदन्त ! कि जिनकल्पो भवेत् स्थविकल्पो भवेत् कल्पातीतो ना सवेदिति पृच्छा प्रश्न. भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'जिक वा दोनाकप्पे वा होज्जा' जिनकल्यो वा भवेत् स्थविरकल्पो वा भदेव ' णो पाईए होज्जा' नो क्लाशतीतो भवेत् वकुः साधुः कदाचित् जिनकल्पवान भवति कदाचित् स्थविर वल्पवान भवति, कल्पातीतस्तु कथमपि न भवतीति भावः । कपातीए होना' हे भदन्त ! पुलाक क्या जिनकल्प वाला होना है ? अथवा स्थविरकर वाला होता है ? अथवा ऊनी होता है ? जिन कल्प एवं स्थविर इन कल्पों से भिन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! जो जिणकप्पे होज्जा थैरकप्पे होउना णो कप्पानीए होज्जा' हे गौतम! पुलाक जिनकल्पवाला एवं कलातीत नहीं होता है वह तो स्थविरकल्प वाला होता है । "उसेण' भंते 1 पुच्छा' हे भदन्त | कुश क्या जिनकल्पवाला होता है ? अथवा रथविकल्प घाला होता है ? अथवा इन दोनों कल्पों से भिन्न होता है ? सके उत्तर मैं प्रभुश्री कहते हैं- 'गोया ! जिणरुप्पे वा होज्या थेरप्ये या होज्जा' हे गौतम! वकुश जिनकम्प वाला भी होता है और स्थविरकल्पाला भी होता है । पर " णो कप्पातीए होज्जा' वह कल्पातीत नहीं होना संवे । किं जिगरुप्पे होज्जा थेरकप्पे छज्जा कप्पातीए होज्जा' हे भगवन् पुझाउ શું જીન કલ્પ હાય છે ? અથવા સ્થવિર કલ્પ હાય છે? અથવા કલ્પાતીત હાય છે? છ કલ્પ અને સ્થવિકલ્પ આ બન્ને કલ્પાથી જુદા હાય છૅ, આ अनना उत्तरमा अनुश्री डे हे — 'गोयमा ! णो जिणकप्पे होज्जा घेरकप्पे होजा णा कपातीए होज्जा' हे गीतम । युवा वाणा भने स्थातीत होता नथी, ते स्थविर उपवाजा होय छे, "बउसेण भंते पुच्छा' हे लगवन् બકુશ શું જીનકલ્પ વાળા હાય છે ? અથવા સ્થવિરલ્પ વાળા હોય છે? અથવા એ બન્ને કલ્પાથી જુદા હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે ''गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा थेरकप्पे वा होज्जा' ગૌતમ! અકુશ જીત કલ્પ વાળા પણ હાય છે, અને સ્થવિર કલ્પવાળા પણ હોય છે. પરંતુ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ चतुर्थं कल्पहारनिरूपणम् ७१ 'एवं पडिसेवणा कुसीलेवि' एवं बकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीकोऽपि जिनकल्पवान् भवेत्-स्थविरकल्पवान् वा भवेत् न तु कल्पातीतः कथमपि भवेदिति भावः । 'कसायकुसीले णं भंते ! पुन्छा' कषायकुशीलः साधुः खलु भदन्त ! कि जिनकल्पो भवति-स्थविरकल्पो वा भवति-कल्पातीतो वा भवतीति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयना' हे गौतम ! 'जिणकप्पे वा होज्जा थेरकप्पे वा होज्जा' कषायकुशीलो जिनकल्पो वा भवेत् स्थनिरकल्पो वा भवेत् 'कप्पाईए वा होज्जा' कल्पातीतो वा कपायकुशीलो भवेत् कलातीतस्य छद्मस्थावस्थायां विद्यमानस्य तीर्थकरस्य सकायिकत्वादिति । 'णियंठे णं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु मदन्त ! कि जिनकलयो भवेत् स्थविरकलयो वा भवेत् कलातीतो वा भवे. है । 'एवं पडिसेषणा कुसीछे वि" इसी प्रकार का कथन प्रति लेवना कुशील में भी जानना चाहिये। प्रतिले बना कुशील अक्षा तो स्थविरकल्पवाला होता है, अथवा जिनकलर वाला होता है, पर वह कल्पालीत नहीं होता। 'कसायवतीलेण अंते ! पुच्छ। हे भदन्त ! कषायजुशील साधु क्या जिन कल्पवाला होता है ! अधवा स्थविरकल्पवाला होता है ? अथवा कल्पातीत होता है ? हलके उत्तर में प्रसुश्री गौतमस्थामी से कहते हैं-'गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा थेरक्षप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होज्जा' हे गौतम ! कषाय कुशील साधु जिनकल्प वाला भी होता है स्थविरकल्पाला भी होता है और कल्पातीत भी होता है । छद्मस्थ अवस्था में तीर्थ कर कषाय लहित होते हैं इस अपेक्षा से कषाय कुशील लाधु कल्पातीत कहा गया है। 'णियंठेगं पुच्छा' हे 'णा कप्पातीए होज्जा' ते ४८पातात हात नथी एव पडिसेवणाकुसीले वि' આ જ પ્રમાણેનું કથન પ્રતિસેવના કુશીલના સંબંધમાં પણ સમજવુ. પ્રતિ. સેવન કુશીલ સ્થવિરલ્પવાળા હોય છે, અથવા જીન કલ્પવાળા હોય છે, ५२ ते ४ातात हात नथी कसायकुसीले ण भंते ! पुच्छा' भगवन કષાય કુશીલ સાધુ શું જીન કલ્પવાળા હોય છે? અથવા સ્થવિર કલ્પવાળા હોય છે અથવા કપાતીત હોય છે, આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે छे है-'गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा थेरकप्पे वा होज्जा कपातीते वा होजा' હે ગૌતમ! કષાયકુશીલ સાધુ જીન ક૯પવાળા પણ હોય છે સ્થવિર કલ્પવાળા પણ હોય છે. અને કપાતીત પણ હોય છે. છવાસ્થ અવસ્થામાં તીર્થ કર કષાય સહિત હોય છે. તે અપેક્ષાથી કષાય કુશીલ સાધુને કલ્પાંતીત કહયા छे. 'णियठे ण पुच्छा लगवन् निथ साधु शुन४८५ पास डीय छ ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ७२ दिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो जिणकप्पे होज्जा ण थेरकप्पे होज्जा' निग्रन्धः साधुन जिनाल्यो भवेत् नवा स्थ. विकल्पो भवेत् किन्तु 'कप्यातीए होजना' कल्यतीतो भवेदिनि निन्यः कल्पातीत एव भवेत् तेषां निग्रन्थानां जिनकल्पस्थविरकल्पधर्माणाममावादिति । एवं सिणाए बि' एवम्-निर्गन्धवत् स्नातकोऽपि नो जिनकल्पवान भवति न वा स्थविरकल्पवान् भवति विन्तु कल्पातीत एव भवतीति भावः गतं चतुर्थ कल्प द्वारम् ४ । चरिद्वारं पञ्चममाह-'पुलाए णं मंते ! कि सामाइयमंजमे होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! किं सामायिकसंग्रमो भवेत् अध। 'छोहावणियसंजमे होज्जा' छेदोपस्थापनीर संयमो भवेत् 'परिहारविमुद्रियसंजये होज्जा' अथवा भदन्त ! निन्य साधु क्या जिनकल्पवाले होते है ? अथवा स्थविरकल्प वाले होते हैं? अघना अल्पातीत होते है? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'योगमा ! णो जिणरुप्पे होज्जा, णो सप्पे होऊजा' प्पतीए होज्जा' हे गौतम ! निन्ध साधु न जिनकल्पवाले होते हैं न स्थबिरकल्पवाले होते हैं किन्तु कल्पातीत होते हैं। क्योंकि निर्गन्ध साधु में जिनकल्प और स्थचिरकल्प के धर्म नहीं होते हैं। 'एवं सिणाए चिनिन्धही तरह स्नातक भी न जिनकल्पवाला होता है और न स्थविर कल्पवाला होता है किन्तु पाल्लातीत ही होता है। कल्पहार समाप्त। पंचम चारित्र हार'पुलाए णं अंते ! कि लामाक्ष्यसंजमे होज्जा' हे भदन्त । पुलाक क्यो सामायिक संयम वाला होता है ? अथवा 'छेओवट्ठावणियसंजमे होज्जा' छेदोपस्थापनीय संयमवाला होता है ? 'परिहार विस्तुद्धियसंजमे અથવા સ્થવિર કલ્પવાળા હોય છે? અથવા ક૯પાતીત હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४ थे -'गोयमा ! णा जिणकप्पे होज्जा णा थेरफपे होज्जा कप्पातीए होजा' हे गौतम! नियंथ साधु ७५ लाता नथी. तम વિર ક૫ વાળા પણ હોતા નથી. પરંતુ કલ્પાતીત હોય છે, કેમકે- નિગ્રંથ साधुभा 13८५ भने २थवि२ ५८५ ना ६ डरता नथी 'एवं सिणाए वि' નિર્ગસ્થના કથન પ્રમાણે સનાતક પણ જીન ક૯પવાળા હોતા નથી, તેમ સ્થવિર ક૯૫વાળા પણ હતા નથી પરંતુ કપાતીત હોય છે. ક૫દ્વાર સમાપ્ત पायभु यारित्र १२- - 'पुलाए ण मंते! किं सामाइयस जमे होज्जा' हे सगवन yाशु सामा. यि संयवासीय छ ? अथवा 'छेओवट्ठावणियस जमे होज्जा' छोपस्था Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ २०२ पञ्चम चारित्रद्वारनिरूपणम् . ७३ परिहारविशुद्धिकसंयमो भवेत् 'सुहुमसंपरायसंयमे होज्जा' सूक्ष्मसंपरायसंयमो भवेत. 'अहवायसंजमे होज्जा' यथाख्यातसंयमो भवेदिति चारित्रद्वारे प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सामाइयस जमे होज्जा' पुलाकः साधुः सामायिकसंयमो भवेत् 'छे प्रोबट्टावणियसनमेवा होज्मा' छेदोपस्थापनीयसंयनो वा भवेत् 'णो परिहारविसुद्धियसंजमे होज्जा' नो परिहारविशुद्धिकसंयमो भवेत् 'यो सुहुमसंपरायसंजमे होज्जा' नो सुक्ष्मसंपरायसंयमो भवेत् ‘णो अहक्खायसंजमे होज्जा' नो वा यथाख्यातसंयमो भवेदिति । एवं वउसे वि' एवं पुलाकवदेव बकुशोऽपि, बकुशोऽपि साधुः सामायिकसंयमो वा भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयमो वा भवेत् न तु परिहारविशुद्धपंयमो नो सूक्ष्मसंपहोजा' अथवा परिहार विशुद्धिक संयम वाला होता है ? 'सुहम्मलंप.. रायसंजमे होज्जा' अथवा सूक्ष्मसंपराय संयनवाला होता है ? 'अह. क्खायलंजमे होज्जा' अथवा यथाख्यात संयमवाला होता है ? इस प्रकार के ये चारित्रद्वार में प्रश्न है। इनके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयना ! सामाइय संजमे होज्जा, छे भोवद्यापणियसंजमे वा होज्जा' हे गौतम ! वह समायिक संघमवाला और छेदोपस्थापनीय संयम बाला होता है। परिहारविशुद्ध संयम वाला, सूक्ष्मसांपराय संयम वाला और यथाख्यात संयम वाला नहीं होता है । यही बात'णो परिहार विलुद्धियसंघमे होज्जा, णो सुहुभसंपरायसंजमे होज्जा णो अहक्खायसंजमे होज्जा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। 'एवं पउले वि' इसी प्रकार ले बकुश साधु भी अथवा तो सामायिक संयमवाला होता है अथवा छे दोपस्थापनीय संयम बाला होता किन्त पनीय सयभवाणा होय छ १ 'परिहारविसुद्धियस जमे होज्जा' 2424। परिहार विशुद्धि सयभवाण हाय छ ? 'सुहुमस परायसंजमे होज्जा' अथवा सूक्ष्म स५२१५ सयभामा हाय छे? 'अहक्खायस जमे होज्जा' अथवा यथाव्यात સંયમ વાળા હોય છે? આ રીતે આ ચારિત્ર દ્વાર સંબધી પ્રશ્ન છે તેના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामी ने छ -'गोयमा ! सामाइयसं जमे होज्जा छेओवडावणियस जमे वा होज्जा' है गौतम! ते सामायि सयम मन छेहोप. સ્થાપનીય સ યમવાળા હોય છે, પરિહાર વિશુદ્ધ સંયમવાળા, સૂક્ષ્મ સાપરાય સંયમવાળા અને યથાખ્યાત સંયમ વાળા હોતા નથી એજ વાત છે परिहारविसुद्धियसजमे होज्जा, णो सुहुमसंपरायस जमे होज्जा, णो अहक्खाय संजमे होज्जा' मा सूत्रा द्वारा प्रगट ४२ छे. 'एवं बउसे वि' शेखर પ્રમાણે બકુશ સાધુ પણ સામાયિક સંયમવાળા હોય છે. અથવા स०१० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ७४ रायसंयमो वा भवेदित्यर्थः। 'एवं परि सेवणाकुसीलेवि' एवं प्रतिसेवना कुशीलोऽपि एवम्-पुलाक बकुशवदेव मतिसेवना कुशीलोऽपि भवतीति । मतिसेवना कुशीलोऽपि सामायिफसंयमो वा भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयमो भवेत् नो परिहारविशुद्धिकसंयमो भवेत् न वा सूक्ष्मसंपरायसंयमो भवेत् न वा यथाख्यातसंयमो वा भवेदिति भावः । 'कसायकुसीठे * पुच्छा' कपायकुशीलः खलु भदन्त ! किं सामाथिकसंयमो भवेत् छेदोषस्थापनीयसंयमा भवेत् परिहारविशुद्धिक संयमो भवेत् स्वक्ष्मसंपरायसंयमो भवेद् यथाख्यातसंयमो भवेदिति पृच्छा प्रश्नः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सामाइय संजमे वा होज्जा जाब सुहुमसंपरायसंजमे वा होज्जा' कपायकुशीलः खलु गौतम ! सामायिकसंयमो वा भवेत् यावत् सूक्ष्मसंपरायसंयमो वा भवेत् अत्र यावत्पदेन छेदोपस्था. परिहारविशुद्धिसंयनवाला सूक्ष्मतांपराय स यमवाला और यथाख्यात संगमवाला नहीं होता है। 'एवं पडिसेवणानुसीले वि' इसी प्रकार से प्रतिसेवना कुशील साधु श्री सामायिक संयमवाला होता है' अथवा छेदोपस्थापनीय संयम वाला होता हैं परिहार विशुद्धि संयनवाला, सूक्ष्म सांपराय संयम वाला और यथाख्यात संयमवाला नहीं होता है। 'कलाय कुलीले णं पुच्छ।' हे अदन्त ! कषाय कुशील साधु क्या सामायिक संयम चाला होता है ? अथवा छेदोपस्थापनीय संयमवाला होता है ? अथवा परिहार विशुद्धि संयमवाला होता है ? अथवा सूक्ष्म सांपराय संथम वाला होता है ? अथवा यथाख्यात संघम वाला होता है? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयना सामाइयसंजमे वा होज्जा, जाव सुखमल परायसंजसे वा होज्जा' हे गौतम! कषाय છે પસ્થાપનીય સંયમવાળા હોય છે. તેઓ પરિહાર વિશુદ્ધિ સંયમવાળા અને યથાખ્યાત સંયમવાળા હોતા નથી. व पडिसेवणाकुसीले वि' मे प्रभारी प्रतिसेवना शीत साधु ५५ સામાયિક સંયમવાળા હોય છે. તેઓ પરિહાર વિશુદ્ધિ સંયમવાળા, કે સૂક્ષ્મ ચાંપરાય સંયમવાળા અથવા યથાખ્યાત સંયમવાળા હોતા નથી. ___'कसायकुसीले णं पुच्छा' 8 लगवन् ४ाय शाम साधु शु सामायि સંયમવાળા હોય છે અથવા પરિહાર વિશુદ્ધિ રામવાળા હોય છે અથવા સૂકમ સાંપરાય સંયમવાળા હોય છે? અથવા યથાખ્યાત સંયમવાળા હોય છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा! सामाइयजमे वा होज्जा, जाव सुहुमस परायस जमे होज्जा' गीतम! उपाय सुशीस साधु सामायिक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ ०२ पञ्चम चारित्रद्वारनिरूपणम् पनीयपरिहारविशुद्धिकसंयमयोः संग्रह स्तथा च कपायकुशीलः सामायिकसंयमो वा भवेत् छेदोपस्थापनीयसंययो वा भवेत् परिहारविशुद्धसंयमो वा भवेत् सूक्ष्म संप रायसंयमो वा भवेदित्यर्थः ' णो अहस्वायसंजमे होज्जा' नो यथाख्यातसंयम भवेदिति । 'णिषंठेगं पुच्छा' निर्ग्रन्यः खलु पृच्छा, हे भदन्त ! निर्ग्रन्थः किम् सामायिकसंयमो भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयमो भवेत् परिहारविशुद्ध संयम भवेत् सूक्ष्मपरायसंयमो भवेत् यथाख्यातसंयमो वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयना' हे गौतम ! 'णो सामाइयसंनमे होज्जा जाव णो सुहुमसंपरायसंजमे होज्जा' नो सामायिक'कुशील साधु सामायिक संगमवाला और यावत् सूक्ष्मपराय संयम वाला होता है, पर वह यथाख्यातसंयमवाला नहीं होता है । यहां यावत्पद से छेदोपस्थापनीय और परिहार विशुद्धि संयम का ग्रहण हुआ है। तथा च कषाय कुशील साधु सामायिक संयमवाला भी होता है, छेदोपस्थापनीय संयमवाला भी होता है परिहारविशुद्धि संयनवाला भी होता है। सूक्ष्म साँपराय संयमवाला भी होता है । 'गो अहदखायस जमे होज्जा' पर वह यथाख्यात संयम वाला नहीं होता है । 'णियं णं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ साधुक्या सामायिक संयम वाला होता है ? अथवा परिहारविशुद्धि संयम वाला होता है ? अथवा सूक्ष्म सांबराय संघमवाला होता है ? अथवा यथाख्यात संयमवाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधना ! णो सामाइय संज में होज्जा, जाव णो सुमसं परायस जमे होज्जा' हे गौतम ! સંયમવાળા અને યાવત્ સૂક્ષ્મ સાપરાય સ·યમવાળા હોય છે. પરંતુ તે યથાખ્યાત સંયમવાળા હોતા નથી, અહિયા યાવત્ પદથી છેદેપસ્થાપનીય અને પરિહાર વિશુદ્ધિ સંયમ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા કષાય કુશીલ સાધુ સામાયિક સંયમવાળા પણ હોય છે. છેોપસ્થાપનીય સંયમવાળા પણ હોય છે, પરિહાર વિશુદ્ધિ સ’યમવાળા પણ હોય છે અને સૂક્ષ્મસાંપરાય સંયમવાળા પણ હોય છે. 'गो अहसास' जमे होज्जा' परंतु तेथे यथाभ्यात संभ्यभवाजा होता नथी, 'निय'णठेण पुच्छा' हे भगवन् निर्भथ साधु शुद्ध सामायिक सयभ વાળા હોય છે ? અથવા ઇંદ્યોપસ્થાપનીય સંયમવાળા હોય છે? અથવા સૂક્ષ્મ સાંપરાય સ યમવાળા હોય છે? અથવા યથાખ્યાત સંયમવાળા હોય છે ? આ प्रश्नना उत्तरभां प्रलुश्री छे छे - 'गोयमा ! णा सामाइयस जमे छोब्जा जान् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ भगवतीस्ये संयमो भवेत् यावत् नो सूक्ष्मसंपरायसंयमो भवेत् अत्र यावत्पदेन नो छदोपस्थापनीयसंयमो भवेत् नो परिहारविशुद्धिकसंयमो भवेदित्यनयोः संग्रहः, किन्तु 'अहवखायसंजमे होज्जा' यथाख्यातसंयमो भवेत् निग्रन्थः सामायिकादिसंयमो न भवति किन्तु यथाख्यातसंयम एव भवतीति । 'एवं मिणाए वि' एवं स्नातकोऽपि एवं निर्गन्यवदेव स्नातकोऽपि न सामायिकसंयमो भवति न वा छोपस्थापनीय संयमो भवति न वा परिहारविशुद्धसंययो भवति न वा मुक्षमसंपरायगंयमो भवति किन्तु यथाख्यातसंयमो भवतीति भावः इति गत पञ्चमं चारिशद्वारम् ५। पष्ठं प्रतिसेवना द्वारमाह-'पुलाए णं' इत्यादि । 'पुलाए णं भंते ! किं पडि सेवए होज्जा अपडि सेवए होज्जा' पुलाकः खल भदन्त ! कि प्रति सेवका, संज्वलन कपायोदयात् चारित्रमतिकूलस्यार्थस्य मतिसेवकः आचरण सर्ता सेवकः चारित्रनिर्गन्ध साधु सामायिक संयमवाला नहीं होता है यावत् नक्षमसां. परीय संयमवाला नहीं होता है । यहां यावत् शब्द ले बाद दोपस्थापलीय संयमवाला नहीं होता है परिहार विशुद्धियम जाला नहीं होता है। इनका ग्रहण हुआ है। किन्तु यथाख्यात सयमबाला ही होता है । 'एवं लिणाए वि' निर्ग्रन्थ के जैसे स्नातक भी न लावाधिक संयमवाला होता है न छेदोपस्थापनीय संयमवाला होता है न परिहारविशुद्धि संयम वाला होता है न सूक्ष्म सांपराय लंचमवाला होता है किन्तु यथाख्यात संयमवाला ही होता है । चारित्रद्वार समाप्त छठा प्रतिसेवनाहारा 'पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा अप्पडिसेबए होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक साधु संज्वलन कषाय के उदय से चारित्रले प्रतिकूल णो सहमस परायसजमे होज्जा' ७ गौतम निन्य साधु सामायि: सयम વાળા હોતા નથી છેદે સ્થાપનીય સંયમવાળા હોતા નથી. પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયમવાળા હોતા નથી. તથા સૂક્ષમ સાંપરાય સંયમવાળા હોતા નથી. પરંતુ यथा-यात सयभवाय ४ डोय छ ‘एवं सिणाण वि' नि-यना ४थन प्रमाणे સ્નાતક પણ સામાયિક સંયમવાળા હોતા નથી છેદેપસ્થાપનીય સંયમવાળા હોતા નથી. પરિહાર વિશુદ્ધિ સંયમવાળા હોતા નથી. તેમ સૂમ સાંપરાય સંયમવાળા પણ હોતા નથી. પરંતુ યથાખ્યાત સંયમવાળા જ હોય છે. ચારિત્રકાર સમાપ્ત હવે પ્રતિસેવના દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भंत ! कि पडिसेवए होज्जा' अप्पडिसेवए होज्जा' वन् પુલાક સાધુ સંજવલન કષાયના ઉદયથી ચારિત્રથી પ્રતિકૂળ અર્થના પ્રતિ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०२ पष्ठं प्रतिसेवनाद्वारनिरूपणम् विराधक इत्यर्थः, अप्रति सेवकः:- न चारित्रविराधकः, तथा च हे भदन्त ! पुलाकः किं संयमविराधको भवति संयमाविराधको वा भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'पडि सेवए होज्जा नो अपडि सेवए होज्जा' पुलाक: प्रतिसेवकः संयमविराधको भवेत् नो अमतिसेवको न संयमाराधको भवतीति । 'जह पडि सेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेबए होज्जा - उत्तरगुणपडि सेवए होज्जा' यदि प्रतिसेवको भवेत् किं सूल गुणप्रति सेवकः, संयमस्य मूलगुणः प्राणातिपातविरमणादय स्तेषां प्रातिकूल्येन सेवको भवति संप्रमात्मककार्यविराधक इत्यर्थः अथवा उत्तरगुणप्रति सेवकः, उत्तरगुणाः - दशविधप्रत्याख्यानरूपा स्तेषां विराध को भवतीति प्रश्नः । अर्थ का प्रतिसेवक आचरणकर्त्ता चारित्र विराधक होता है ? अथवा चारित्र का विराधक नहीं होता है ? तथा व हे भदन्त | पुलाक साधु क्या संयम का विराधक होता है ? अथवा संयम का अविराधक होता है ? ऐसा इस प्रश्न का तात्पर्य है - इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! पडि सेवए होज्जा नो अप्पडिसेबए होजा" हे गौतम ! वह पुलाक संयम का प्रतिसेवक-विराधक होता है अविराधक नहीं होता है । 'जह पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडि सेवए होज्जा' हे भदन्त ! यदि यह प्रतिसेवक होता है तो क्या मूलगुण का प्रतिसेवक होता है अथवा उत्तरगुण का प्रतिसेवक होता है ? संघम के सूलगुण प्राणातिपात विरमण आदिक हैं इनका प्रतिकूलरूप से सेवन करने वाला संयम रूप कार्य की विराधना करने वाला मूलगुण का प्रतिसेवक कहा गया है । तथा दश प्रकार के प्रत्याख्यान रूप સેવક-આચરણકરવાવાળા એટલે કે ચારિત્ર વિરાધક હોય છે ? કૈં ચારિત્રના વિરાધક નથી હોતા ? તથા હે ભગવન્ પુલાક સાધુ સયમના વિરાધક હોય છે કે સયમના અવિરાધક હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा । पड़िसेवए होजा नों अपडिसेबए होज्जा' हे गौतम! ते पुसा संयमना अतिसेव-विराध होय छे, अविराध होता नथी. 'जइ पडिसेव होज्जा किं मूलगुण डिसेवए होज्जा उत्तरगुण परिसेवए होज्जा' ભગવત્ જો તે પ્રતિસેવક હાય છે, તે શું તે મૂળગુણુના પ્રતિસેવક होय छे ? અથવા ઉત્તરગુણના પ્રતિસેવક હોય છે ? સ યમના ગુણ પ્રાણાતિપાત વિરમણુ વિગેરે છે તેનું પ્રતિકૂળતાથી સેવન કરવાવાળો એટલેકે સ'યમ પણાની વિરાધના કરવાવાળા મૂળગુણુના પ્રતિસેવક કુયા છે તથા દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન રૂપ ઉત્તરઘુ હોય છે. તેની જેઓ વિરાધના भूज ৬৩ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'मूलगुणपडि सेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडि सेवए चा होजना' मूलगुणमति सेवको वा भवेत् उत्तरगुणपति सेवको वा भवेत् 'मूलगुणं पडि सेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा' मूलगुणान् प्रतिसेवमानः मूलगुणान् विराधयन् पञ्चानामासवाणां प्राणातिपातादीनाम् अन्यतरम् आस्वयं अति से वेत तथा-'उत्तरगुणं पडि सेवमाणे दसविहस्स पञ्चखाणस्स अन्न परं पडि से वेज्जा' उत्तरगुणान् प्रतिसेवमानो दवविधस्य प्रत्याख्यानस्य अन्यतमं मत्याख्यानम् तत्र दशविधं प्रत्याख्यानम् 'अणागयमइक्कत कोडीसहियं' इत्यादि प्राग्व्याख्यातस्वरूपम्, अथवा 'णवकारपोरसीए' उत्तरगुण होते हैं इनकी निराधना करने वाला जो होता है वह उत्तर गुण प्रतिवेवक होता है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मृल गुणपडिलेचए वा हे।ज्जा उत्तरगुणपडिलेवए वा होज्जा' हे गौतम । वह मूलगुण प्रतिलेखक भी होना है और उत्तरगुण प्रतिसेवक भी होता है । 'मूलगुण पडिलेवमाणे पंचण्हं भालवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा जब वह मूलगुणों का विराधक होता है तथ वह पांच आरंवों में से फिली एक आस्रव का सेवन कर्ता होता है। प्राणातिपात आदि पांच पाप ही पांच आस्रव हैं इनमें से वह किसी एक आस्रव का सेवन करने वाला होता है। 'उत्तागुणपडिलेवमाणे दस विहरूस पच्चक्खा. जरत अन्नघर पडिलेवेज्जा' और जय वह उत्तरगुणों का विराधक होता है तब दश प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का विराधक होता है। ये प्रत्याख्यान 'अणागयमहक्कंत कोडीसहियं" કરવાવાળી હોય છે. તે ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री गीतमस्वामी ने ४७ छ -'गायमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए वा हजा' 3 गौतम ! भूगगुर प्रतिसेयर पाय છે, અને ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક પણ હોય છે. - 'मूलगुणं पडिसेवमाणे पंचण्डं आसवाणं अन्नयर पडिसेवेज न्यारे त મૂળગુણેના વિરાધક હોય છે, ત્યારે તે પાચ આસ્ત્રોમાંથી કઈ પણ એક આસવનું સેવન કરે છે પ્રાણાતિપાત મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહ પાંચ પ્રકારના પાપાજ પાચ આસ્રવ કહેવાય છે, તે પાંચ આસ્ત્રો પૈકી yि मेमाल नु सेनन ४२वापामा डाय छे. 'उत्तरगुणपडिसेवमाणे दस विहस्स पचक्खाणस्व अन्नयर पडिसेवेज्जा मने क्यारे उत्तरशुशानी विश. ધન કરવાવાળા હોય છે, ત્યારે દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાને પૈકી એક પ્રત્યાખ્યા जना विराध हाय छे. मा प्रत्ययान। 'अणागयमइक्कत कोडीसहिय' Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयमद्रिका टीका श०२५ उ.६ १०२ षष्ठं प्रतिसेवनाद्वारनिरूपणम् ७९ इत्याद्यावश्यकपसिद्धम् अनन्यतमम् एकं प्रत्याख्यानं प्रतिसेवेत विराधयेदित्यर्थः, उपलक्षणं चैतत् तेन पिण्डविशुद्वयादि विराधकत्वमपि संभाव्यते इति । 'वउसेणं पुच्छा' बकुगः खलु भदन्त ! प्रतिसेको विराधको भवेत् अप्रति सेवकोऽविराधको वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडिसेइए होज्जा णो अपडि सेवए होज्जा' भतिसेवको भवेत् नो अप्रतिसेवको भवेदित्युत्तरम् 'जइ पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होजा उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा' हे भदन्त ! यदि प्रतिसेवको भवेत् तर्हि किं मूलगुणप्रति सेवको मूलगुणानां विराधको भवेत् अथवा उत्तरगुणप्रतिसेवको भवेदिति प्रश्नः। भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो मूलगुणपडि से बए होज्जा' यूलगुणानां पाणातिपातविरमणादीनां प्रतिसेवको विराधको न भवेत् किन्तु 'उत्तरगुणपडिइत्यादिरूप से पहिले व्याख्यात हो चुके हैं अथवा-'जयकारपोरसीए इत्यादि रूप से ये आवश्यक में प्रसिद्ध हैं। लो इनमें से यह किसी एक प्रत्याख्यान का विरोधक होता है। अत: यह उत्तागुग विरामक कहा गया हैं । यह उत्तरगुण विरोधक पिण्ड विशुद्धि आदि गुणों का भी विराधक होता है। ऐसा भी इस कथन से संभदित होता है। 'बउसेणं पुच्छा' है भदन्त। बकुश साधु क्या विराधक होता हे ? अथवा अविराधक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना पडि. सेवए होज्जा णो अप्पडिसेवए होज्जा" है गौतम ! बकुश साधु प्रति सेवक चिराधक होता है अविराधक नहीं होता है । 'जह पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तर गुणपडिसेवए होज्जा भदन्त ? यदि वह प्रतिसेवक होता है तो क्या वह मूलगुणों का प्रति सेवक होता है अथवा उत्तरगुणों का प्रति सेवक होता है ? इसके विगैरे ३५था पसा वाम साव छ. Aथा ‘णवकारपोरसीए' त्या ३५ થી આવશ્યકમાં તે પ્રસિદ્ધ છે. તે આમાંથી કોઈ એક પ્રત્યાખ્યાનના વિરાધક હોય છે. તેથી તે ઉત્તરગુણ વિરાધક કહેવાય છે. આ ઉત્તરગુણ વિરાધક પિં વિશુદ્ધ વિગેરે ગુણોના પણ વિરાધક હોય છે. એમ પણ આ કથનથી સ ભवित थाय छे. 'बउसेणं पुच्छा' 8 भगवन् मधुश साधु शुं विराध होय छे. अथवा भविराध डाय छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ कोयमा। पडिसेवए होज्जा णो जप्पडिसेवए होज्जा' 8 गौतम ! यश साधु प्रतिसेयर विराध हाय छे. भविराध होता नथी 'जइ पडि सेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुण पडिसेवए होज्जा' 3 अगवन् न प्रतिसे डाय છે, તે શું તે મૂળગુણોના પ્રતિસેવક હોય છે ? કે ઉત્તરગુણના પ્રતિસેવક छाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे 3-'गोंयमा ! णो मृलगुणपडिसेवए Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ८० सेव होज्जा' उत्तरगुणानां दशविधपत्याख्यानानां प्रतिसेत्रको विराधको भवेत् 'उत्तरगुणं पडि सेवमाणे दस विहस्स पचक्खाणस्स अन्नयरं पडि सेवेज्जा' उत्तरगुणं प्रतिसेवमानो दशविधस्य दशमकारकस्य प्रत्याख्यानस्य अन्यतमं किमपि एकं प्रत्याख्यानं प्रतिसेवेत विराधयेदित्यर्थः । 'पडिसेबणाकुसीले जहा पुलाए' प्रतिसेवनाकुशीलो यथा पुलाकः, प्रतिसेवनाकुशीलः प्रतिसेवको भवेत् नो अतिसेवो भवेत् तत्रापि मूलगुणं प्रतिसेवमानः पञ्चासवाणामन्यतमं प्रतिसेवेत उत्तरगुणं प्रतिसेवमानो दशविधस्य प्रत्याख्यानस्य मध्यात्कमपि एकविध मत्या - ख्यानं प्रतिसेवेतेति भावः । ' कसायकुसीलेणं पुच्छा' कपायकुशीलः खलु उत्तर में प्रभुश्री कहते है-गोवमा णो सूलगुणपडसे होज्जा, उत्तरगुणपडि सेवए होज्जा' हे गौतम! बकुश साधु मूलगुणों का बिगधक नहीं होता हैं किन्तु उत्तरगुणों का विरोधक होता है । 'उत्तर गुणं पडि सेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्ल अन्नयरं पडि सेवेज्जा' उत्तरगुणों का जब यह विराधक होता है तो उस समय यह १० प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का विराधक होता है 'पड़िसेवणाकुसीले जहा पुलाए' पुलाककी तरह प्रतिसेवना कुशील विराधक होता है अविराधक नहीं होता है । विराधक अवस्थामें वह मूलगुणों का भी विराधक होता है और उत्तरगुणों का भी विराधक होता है मूलगुणों की विराधना में यह पांच आस्रवों में से किसी एक आस्रव का सेवन करना है और जब यह उत्तरगुणों का विराधक होता है तब यह १० प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी भी एक प्रत्याख्यान होज्जा' उत्तरगुणप डिसेवए होज्जा' हे गौतम! अङ्कुश साधु भूतगुणना प्रतिसेव હાય છે ? કે ઉત્તરગુણુના પ્રતિસેવક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छे है- 'गोय्मा ! णो मूलगुणपडिप्रेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा' डे ગૌતમ ! અકુશ સ ' મૂળગુણેાના વિરાધક હાતા નથી પર’તુ ઉત્તરગુડ઼ેાના વિરાધક होय थे 'उत्तर गुणपडि सेवमाणे दसविहस्ल पच्चक्खाणस्स अन्नयर पडिसेवेज्जा' જયારે તે ઉત્તગુડ્ડાના વિરાધક હોય છે તેા તે વખતે તેએ ૧૦ દસ પ્રકારના अत्याण्याना पैडी अर्धपद मे प्रत्यास्थानना विरोध होय छे, 'पडि सेवणा कुमीले जहा पुलाए' साउना उथन प्रभा प्रतिसेवना कुशीस विरोध होय छे. અવિરાધક હાતા નથી. વિરાધક અવસ્થામાં તે મૂલગુ@ાના પણ વિાધક હાય છે અને ઉત્તરગુણ્ણાના પણ વિાધક હોય છે મૂળગુણેાની વિરાધનામા તે પાંચ આસ્રવેા પૈકી કોઈ એક આસ્રવનુ સેવન કરે છે અને જયારે તે ઉત્તર ગુણ્ણાના વિરાધક હાય છે, ત્યારે છે ૧૦ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાના પૈકી કાઈ પણુ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्रिका टीका श०१५ उ. ६०३ सप्तमं ज्ञानद्वार निरूपणम् ८१ भदन्त ! किं प्रतिसेवक भरेको वा भवेदिति प्रश्नः भगवानाह - 'ntent' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो परिसेवए होज्जा अपडिसेव‍ होज्जा' नो प्रतिसेवको विराधको भवेत् कपायकुशीलः किन्तु अतिसेवको भवेत् अविराधको सवेदित्यर्थः । ' एवं नियंठे वि' एवं निर्ग्रन्थोऽपि विराधको न भवेदपितु अधिक एव भवेत् 'एवं विजाए मि एवं स्नातकोऽपि एवम्-फपायकुशीलदेव स्नातकोsपि साधुः नो प्रतिसेवको भवेत् अपितु अपति सेनको भवेदित्युनरमिति । गतं षष्ठं प्रतिसेवना द्वारम् ||६||०२|| 1 अथ सप्तमं ज्ञानद्वाराह - 'पुलाए गं' इत्यादि । मूलम् - पुलाए भंते! कइसु नाणेसु होजा गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होजा दोसु होज्जमाणे दोसु आभिणिवोहिय नाणे सुयनाणे होज्जा तिसु होज्जमाणे तिसु आभिणिबोहिय नाणे सुयनाणे ओहिनाणे होज्जा एवं बडसे वि एवं पडिलेवणा कुसीले वि । कलायकुलीले णं पुच्छा गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होज्जा दोसु होज्जमाणे दोसु आभिणिबोहियनाणे सुयat feree ator है । 'फलायकुसीले ण भंते पुच्छा' हे भरन्त ! कषायकुशील क्या विराधक होता है ? अथवा अविराधक होता है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री करते हैं- 'जीवमा ! णो पडिलेवए होजा अप्प डिसेबए होज्जा' हे गौतम! कषायकुशल साधु विरामक नहीं होता है किन्तु अधिक होता है । 'एवं नियंठे वि' इसी प्रकार से निर्ग्रन्थ साधु भी कि नहीं होता है किन्तु अधिक ही होना है । "एवं सिure वि" वषाय कुशील की तरह ही स्नातक में विराधक नहीं होता है ferg feaधक होता है । प्रतिसेवना द्वार खमाप्त || सू० २ || मे प्रत्याध्याननादिरा होय छे 'कसायकुसिले णं भंते । पुच्छा' हे भगवन् કષાય કુશીલ છુ' વિાધક હોય છે ? કે અવિાધક હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री गौतमस्वामी ने उसे छे - 'गोयमा ! णो पडिसेवर होज्जा अ डिसेव होजा' हे गौतम! षाय सुशील साधु विराध होता नथी परंतु भविराध होय हे 'एव' नियंठे वि' से प्रभानिन्थ साधु पाए। विराध होता नथी परंतु अविराध होय छे 'एव सिणाए त्रि' कषाय सुशील साधु પ્રમાણે જસ્નાતક પણ વિાધક હાતા નથી, પરંતુ અવિરાધક જ હોય છે, પ્રતિસેવના દ્વાર સમાપ્ત "સુ૦૨૫ એ भ० ११ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवतीस्त्रे माणे होजा तिन होज्जमाणे तिसु आसिणिवोहियनाण सुयलाण ओहिनाणेसु होउजा अहवा तिसु होज्जमाणे आभिणिसोहियनाणे सुचनाणनणपज्जबनाणेसु होज्जा । उसु होज्जमाणे उसु आभिणियबोहियनाण मुगलाण ओहिनाणमण. पज्जवलाणसु होज्जा । एवं जियंट वि। सिणाए णे पुच्छा गोयमा ! एगति केवलनाण होज्जा। पुलाए णं अंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा गोयसा ! जहणं नवमस्स पुबहस तइयं आयारवत्थु, उक्कोलणं णबपुबाई अहिज्जेज्जा। उसे पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अकृपवरणमायाओ उन्होलेणं दसपुवाई अहिज्जेज्जा। एवं पडिलेवणाकुसीले वि। कसायकुलीले पुच्छा, गोशमा ! जहणं अट्ठपक्यणमायाओ उक्कोसेणं चोदसपुठलाई अहिज्जेजा। एवं णियंठे वि। मिणाए पुच्छा गोयमा! सुयवहरित्ते होज्जा ।।स्खू० ३॥ छा- पुलामः खलु भदन्न ! कतिषु ज्ञानेषु भवेर ? गौतम ! द्वयो वर्वा त्रिपु वा भवेत् । द्वयोम न हयोः आमिनियोधिज्ञाने श्रुतज्ञाने भवेत् । त्रिषु भवन् त्रिपु आभिनिवोधिरज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने भवेत । एवं बकुशोऽपि एवं पति. सेवना कुशीलोऽपि । कपागलीलः खलु पृच्छा गौतम ! यो ची त्रिषु वा चतुर्पु वा भवेत् द्वयोभान द्वयोराभिनिवोधिज्ञाने श्रु-ज्ञाने भवेत् त्रिपु भाभिनिबोधिसज्ञानश्रुतज्ञानारधिज्ञानेपु भवेत् अथवा त्रिपु मान त्रिषु आभिनियोधिक ज्ञानश्रुतज्ञानयनःपर्यज्ञानेपु. चतुर्यु भवन् चतुषु आभिनियोधिज्ञानश्रुतज्ञाना. वधिज्ञानगतापर्यवज्ञानेपु भवेन् । एवं निगन्योऽपि । स्नातकः खल्ल पृच्छा गौतम ! एकस्मिन् केवलज्ञाने भवेत् । पुलाफः खलु भदन्त ! कियत श्रतमधीयीत ? गौतम ! जघन्येन नामरूप पूर्वस्य तृतीयम् आचारवातु उत्कण नव पूर्वाणि अधीयीत । बकुगः पृच्छा गौतम ! जघन्येनाष्ट प्रवचनमावका उत्कर्पण दशपूर्वाणि अधीयान । एवं प्रतिसेवना कुशीलोऽपि । कपायगीलः पृच्छा गौतम ! जघन्येनाष्टावनमाता, उत्कण चहर्देश पूर्वाणि अधीयीत । एवं निम्रन्थोऽपि । स्नातकः पृच्छा गौतम ! श्रुराव्यतिरिक्तो भवेत् ॥ ० ३।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०३ सप्तम ज्ञानद्वारनिरूपणन् ___टीका-'पुलाए णं भंते ! कइसु नाणेसु होजा' पुलाकः खलु पदन्त ! कतिषु ज्ञानेषु भवेत् हे भदन्त ! पुलाजस्य सायोः कतिज्ञानानि भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दोमु वा तिसु का होज्जा' द्वयो वी त्रिपु वा भवेत् ज्ञानद्वयवान् ज्ञानत्रषवान् का भवेत् इत्यर्धे', के द्वे ज्ञाने भवतः, कानि वा त्रीणि ज्ञानानि भवन्ति पुजाकस्पा, तत्राह-दोलु होजाणे इत्यादि' 'दोसु होजमाणे' द्वयोर्भवल् 'आमिनियोटिकनाणे सुगणाणे होज्जा' आभिणित्रोधिक ज्ञाने (मतिज्ञाने) श्रुणज्ञाले च भवेत् मतिज्ञानवान् श्रुतज्ञानवान् भवेदित्यर्थः। 'तिसु होज्नमाणे' त्रिषु ज्ञानेषु भवन् 'तिसु भाभिनियोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे होज्जा' त्रिपु आभिनियोधिवज्ञाने सातवां ज्ञानहार "पुलाए ण भंते ! फाइलु नाणेसु होज्जा" इत्यादि टीकार्थ-इलसूत्र द्वारा गौतमने सुश्री से ऐश्ता पूछा है-'पुलाए ण भंते ! कइसु नाणेस्तु होजना' हे अदात ! पुलाक साधु के कितने ज्ञान होते है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोरमा ! दोसु बा, तिस्तु या, होज्जा' हे गौतम! पुलाक साधु दो ज्ञानों वाला भी होता है और तीन ज्ञानोंवाला भी होता है। 'दोउ होज्जमाणे दोस्ठ आभिणिवाहियनाणे सुयनाणे होज्जा' जब यह दो ज्ञानों झाला होता है तो आभिनियोधिक (मतिज्ञान) ज्ञानवाला और श्रुरज्ञानवाला होता है । ति होज्जमाणे तिसु आभिणियोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेनु होज्जा" और जब यह तीन ज्ञानों वाला रोता है तो आभिनिवाधिक ज्ञान वाला, श्रुतज्ञानवाला और अवधिज्ञान वाला होता है। ‘एवं बाउले वि' - સાતમા દ્વારનું કથન 'पुलाए णं भवे ! कइसु णाणेसु होज्जा' छत्यादि ટીકાર્થ–આ સૂત્રદ્વારા શ્રી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે'पुलाए णं भवे| कइस नाणेपु होजा' हे सगवन सा साधुने ४सा ज्ञान य छ ? म प्रश्शना सत्तरमा भगवान् ४ छे 3-'गोयमा । दोसु वा तिस वा होजा' है गौतम ! yा साधु मे. ज्ञानवा ५५ य छ, भने त्रय ज्ञानवा ५ डाय छे. 'दोसु होजमाणे दोसु आभिणियोहियनाणे सुयणाणे होजा' न्यारे ते मे ज्ञानवाणा हाय छे, त्यारे आमिनिमाधि (भतिज्ञान) शान भने श्रुतज्ञानवाणा डाय छे. 'तिसु होज्जमाणे तिसु आमिणिबोहिय नाण, सुयनाण, ओहिनाणेसु होज्जा' भने न्यारे ते ज्ञानवाणा हाय छ, ત્યારે આભિનિધિક જ્ઞાનવાળા, શ્રતજ્ઞાનવાળા અને અવધિજ્ઞાનવાળા હોય Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे ८४ (मविज्ञाने ) श्रवज्ञाने अवधिज्ञाने भवेत् यथोक्तज्ञानत्रयवानित्यर्थः ' एवं वउसे वि' एवं कुशोऽपि वकुशः खल्ल भदन्त ! कियज्ञानवान् भवति ? गौतम ? ज्ञानद्वयवान् वा भवति ज्ञानत्रयवान् वा भवति, यदि ज्ञानद्वयवान् भवेत् तदा मतिज्ञानश्रुतज्ञानवान् भवेत् यदि ज्ञानत्रयवान् - मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानवान् भवेदिति भावः । ' एवं पडिसेनणा कुमीलेवि' एवं पुलाकवकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलेऽपि ज्ञानद्वयनच्चं ज्ञानत्रयवन्तं ज्ञातव्यम् इति माना । 'कसायकुतीले णं पुच्छा' कषायकुशीलः खलु भदन्त ! कतिषु ज्ञानेषु भवेदिति पृच्छा - मनः । भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'दोसु वा तिगु वा चउगु ना होज्जा' द्वयो व त्रिपु वा चतुर्षु वा भवेत् - ज्ञानद्वयवान ज्ञानत्रयवान् चतुर्ज्ञानवान् वा भवेदित्यर्थः, 'दोसु होज्जपणे' द्वयोर्मग्न् 'दोसु आभिणिनोद्दियनाणे सुगनाणे होज्जा' ज्ञानद्वये वकुश साधु भी है भदन्त ! कितने ज्ञानों वाला होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- हे गौतम ! वह दो ज्ञानों वाला भी होता है और तीन ज्ञान बाला भी होता है इस विषय में समस्त कथन पुलाक के जैसा ही जानना चाहिये। 'एवं पडिलेषणासीले वि इसी प्रकार से प्रतिसेवना कुशील के सम्बन्ध में भी दो ज्ञानों के होने का कथन जानना चाहिये । 'कसायकुसीले णं पुच्छा' हे भदन्त ! कषाय कुशील साधु कितने ज्ञानों वाला होना है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! दोसु वा तील वा चउसु वा होजा' हे गौतम ! कषाय कुनील साधु दो ज्ञान वाला भी होता है, तीन ज्ञानों वाला भो होता है और चार ज्ञानों वाला भी होता है । 'दोस्सु होज्जमाणे दोस्सु आभिनिवोहियनाणे सुवनाणे होज्जा' दो ज्ञानों वाला जब यह होता छे, 'एत्र ं बउसे वि' मे प्रभा महुश साधु पशु हे भगवन् डेंटला ज्ञानવાળા હાય છે ? એ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! તે એ જ્ઞાનવાળા પણુ હોય છે, અને ત્રણ જ્ઞાનવાળા પણુ હાય છે. મા સબંધમાં संघ प्रथन चुसाउना उथन प्रभाससम्वु लेामे. 'एव पडिसेवणा कुसीले वि' ४ प्रमाये अतिसेवना दुशीसना संधसां या मे ज्ञान हावा भने युनानी हवानुं उथन समभवु. 'कलायकुसीले णं पुच्छा' હું ભગવન્ કષાય કુશીલ સાધુ કેટલા જ્ઞાનાવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रभुश्री हे छे है- 'गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा' हे ગૌતમ ! કષાય કુશીલ સાધુ એ જ્ઞાનવાળા પણ હોય છે, ત્રણ જ્ઞાનવાળા पथ हाय है, भने यार ज्ञानवाला य होय हे 'दोसु होज्जमाणे दोसु आभिणियोद्दियनाणे सुयनाणे होज्जा' न्यारे में ज्ञानवाणा होय हे, त्या Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafer or mo२५ उ. ६०३ सप्तम ज्ञानद्वारनिरूपणम् ८५ आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने च भवेदिति 'तिसु होजगाणे' त्रिषु ज्ञानेषु भवन् 'दिसु आभिणिवोहियाण लुयनाण ओहिनाणेषु होज्जा' त्रिषु आभिनिवोधिकज्ञान( मतिज्ञान) श्रुतज्ञानावधिज्ञानेषु स्वेत् एतादृशज्ञानत्र्यवान् मवेदित्यर्थः । ' अहवा तिसु होजमाणे' अथवा त्रिषु ज्ञानेषु सन्न् 'आभिणिनोहिगनाणसुयाण मणपज्जवनासु होज्जा' आभिनिवोधिकतानश्रुतज्ञानमनः पर्यवज्ञानेषु भवेत् मतिज्ञानश्रुतज्ञानमनः पर्यवज्ञानवान् भवेदित्यर्थः । 'चउसु दोनगाणे' चतुर्षु ज्ञानेषु भवन्चतुर्ज्ञानवान् इत्यर्थः, 'चउखु आभिणिवोहिननाण-सुगनाण ओहिनाणमणपज्जचना होज्जा' अभिनिवोधिज्ञानज्ञानावधिज्ञानमनः पर्यवज्ञानेषु भवेत् एतादृशज्ञानचतुष्टयवान् भवतीत्यर्थः । ' एवं णियंठे वि' एवम् कपायकुळदेव निर्ग्रन्थोऽपि ज्ञानचजुष्टवान् भवतीति ज्ञातयमिति सा । 'मिणार णं पुच्छा' ज्ञानवाला और श्रुतज्ञान वाला होता है । 'लिनु होज्ज माणे तिस्रु आभिणियोहियमाण सुषमण ओहिना होज्जा' और जब यह तीन ज्ञानों वाला होता है तर यत् मतिज्ञानाला श्रुत जोनवाला और अवधिज्ञान वाला होता है । 'महना ति होजमाणे आभिणिवोहियमाणसुवनाणमणपज्जवमाणेषु होज्जा' अथवा जन यह तीन ज्ञानों वाला होता है तो आभिनियोधिक ज्ञानवाला, शुनः ज्ञानवाला और मन:पर्ययज्ञानबाला होता है । 'होज्जपणे उसु आभिणिगेरियनाथ सुगनाण ओहिना सणपज्जबनाणेषु होज्जा' और जब यह चार ज्ञानों वाला होता है तब यह आभिनिबोधिक ज्ञानवाला, श्रुतज्ञानवाला अपधिज्ञानवाला और मन:पर्ययज्ञानवाला होता है । ' एवं निघंटे वि' ही प्रकार से निर्ग्रन्थ साधु भी भतिज्ञान भने श्रुतज्ञान मे मे ज्ञानव का होय हे 'सिमु होयमाणे तिसु आभिणित्रोहियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होना' भने ल्यारे ते त्र ज्ञाना વાળા હાય છે, ત્યારે તે મતિજ્ઞાનવાળા શ્રુતજ્ઞાનવાળા અને અધિજ્ઞાનવાળા होय छे. 'अहवा तिसु होज्जमाणे आमिणित्रोहियनाण, सुयनाण मणपज्ञ्जवनाणे मु હોન્ના' અથવા જ્યારે તેએ ત્રણ નાનાવાળા હાય છે, ત્યારે આભિનિએધિક ज्ञानवाणा, श्रुतज्ञानवाजा, भने भन पर्यवज्ञानवाणा होय छे, 'चन होज्जमाणे चसु आभिणिधोहियनाण, सुचनाण ओहिनाण मणपञ्जवनाणेसु होज्जा' અને જ્યારે તેઓ ચાર જ્ઞાનાવાળા હાય છે, ત્યારે તેએ આભિનિમેાધિક ज्ञानवाणा, श्रुतज्ञानवाणा, अवधिज्ञानवाणा, अने भनःययव ज्ञानवाणा होय है. 'एव' निचटे वि' भेट प्रभाषे निर्भय साधु पशु यारज्ञानवाणा होय है. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसत्रे स्नातकः खलु भदन्त ! कतिषु ज्ञानेषु भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । मापानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयगा' हे गौतम ! 'एगंमि केवलनाणे होज्जा' एकस्मिन् केवल. ज्ञाने भवेत् एकरिमन् केवलज्ञाने भाति स्नातक केवलज्ञानवान एव भवतीत्यर्थः । आभिनिवोधिकादिज्ञानप्ररसाशत् ज्ञानविशेपभूतं विशेषरूपेण दर्शयितुं प्रश्नयन्नाह'पुलाए णं भंने इत्यादि, 'पुलाए गं भंते ! केवयं मुयं अधिज्जेज्जा' पुलाक: खलु भदन्त ! कियन्तं श्रुनमधीयीत कियत्संख्यक श्रुताभ्यासी भवति पुलाक इति प्रश्नः । भगान ह गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्ने णं नयमस्स पुरस्स नईयं आयासत्थु जयन्येन नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु नवसपूर्वस्य तृतीयगाचारवस्तुप्रकरणपर्यन्तगधीयीत इत्यर्थः । 'उकोसेणं णवपुयाई अहिज्जेजा' उत्कग नवपूर्णागि अपीयीत-बउसे पुच्छा वकुशः खल्लु मदन्त ! कियन्त श्रुतमधीयीन इति पृच्छा-श्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अट्ठपदयणमायाओ' जघन्येनाष्ट प्रश्चनमातः, पञ्चयावत् चार ज्ञानों वाला होता है । 'लिणाए णं पुच्छा' हे सदन्त ! स्नातक साधु शितने जानां वाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री पाहते हैं-'गोयना ! एगंमि केवल नाणे होज्जा' हे गौतम ! स्नातक साधु एक केवलज्ञान पाला ही होता है । 'पुलाएणं भंते ! के जाइयं सुयं अहिज्जेज्जा' हे भदन्त ! पुलाक शिनने श्रुन का अभ्याली होता है ? हलके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-गोषमा ! जहन्नेणं नवाना पुचस्स तयं आधार वायु' हे गौतम ! पुलाक कम से कम नौवें पूर्व का तीसरा जो आचार वस्तु प्रशारण है वहीं तक पढता है और 'उस्कोलेणं णव. पुम्बाई अरिज्जेज्जा' उत्कृष्ट से पूरानो पूर्व तक पढना है। पारसे पुच्छा हे भदन्त । यकुग कितने श्रुस का अभ्यासी होता है ? इसके उत्तर में ____ मिणाए ण पुच्छ।' सावन स्नात साधु या ज्ञानावामा खराय छ ? Aप्रश्नना उत्तर प्रशुश्री ५ छ -'गोयमा एगमि केवलनाणे होज्जा' गीतम! नात साधु ४ अवज्ञानवाणा १ सय छे. 'पुलाए णं भंते ! केवडय सुत्र अहिज्जेज्जा' सागवन् पुसा डेटसा नना मल्यासी डाय छ ? या प्रश्ना 1२i अमुश्री ४९ छ ,-'गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्य पुवस्स तईय खायाराथु' गौतम ! घुसा मेछामा छ। नवमा पूर्वनुत्री २ भाया२ १२तु ॥४२५ छ, त्यो युधानी मया ४२ छे भने 'उकोसेणं णव पुबाई अहिज्जेज्जा' रथी पूरा नए पूर्व सुधीन। सपास ४२ छे. 'बउसे पुन्छ।' ले पन् । ३८॥ श्रुतना मण्यासी डाय ७१ मा प्रशना त्तरमा प्रभु ४९ छ -'गोयमा! जहन्नेणं अद्र पवयणमायाओं' Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५७.६ ०३ सप्तमं ज्ञानद्वारनिरूपणम् समितिगुप्तित्रयात्मकाष्ठप्रवचनमातृकायाः पालनकरणमेव चारित्रम् अतश्चारित्रवतामष्ट प्रवचनमातृकाणां परिज्ञानमावश्यकम् यतो ज्ञानपूर्वकमेव चारित्रम् ज्ञानं च श्रतादेव संभवति नान्यथा अतोऽष्टमवचनरूपमातृप्रतिपादनपरं श्रुतं चकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति भावः । 'उकोसेणं दसपुन्नाई अहिज्जेज्जा' उत्कर्षेण दशपूर्वाणि अधीयीत उत्कृष्टतो दशपूणामध्ययनं वकुशस्य भवतीति भावः । 'एव पडि सेवणाकुसीले वि' एवम् - वकुशवदेव पतिसेवनाकुशलोऽपि जघन्येनाट वचनमातृमकरणपर्यन्तं श्रवमधीते उत्कर्षेण तु दशपूर्व दशपूर्व पर्यन्तमधीते इति भावः । ' कसायकुसीले णं पुच्छा' कषायकुशीलः खलु प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! जहनेणं अट्ठपचयणमायाओ' हे गौतम ! कुश साधु कम ले कम अष्ट प्रवचन माता के स्वरूप का प्रतिपादक न का अभ्यासी होता है क्योंकि पांच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचन माता का पालन करना ही चारित्र है, अतः चारित्रवाले को आठ प्रवचन माता का परिज्ञान आवश्यक है । क्योंकि चारित्र ज्ञान पूर्वक ही होता है । और ज्ञान श्रुत से ही होता है । और किसी प्रकार से होता नहीं है । अतः वकुश को जघन्ध से इतना ज्ञान तो होता ही है । 'उक्कोसेणं दसपुभाई' अहिज्जेज्ना' तथा वह चकुश साधु उत्कृष्ट ले दश पूर्व तक का पाठी होना है । ' एवं पडिले - वाकुसीले वि' वकुश के जैसे प्रतिसेवना कुशील भी जघन्य से आठ प्रवचनमातृका प्रकरण रूप श्रुतका अभ्यासी होता है और उत्कृष्ट से दश पूर्व तत्र के त का अभ्यासी होता है । 'कसायकुसीले ८७ હે ગૌતમ 1 અકુરા સાધુ એછામા એછા આઠ પ્રવચન માતાના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવાવાળા શ્રુતના અભ્યાસી ડાય છે. કેમકે પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તરૂપ આઠ પ્રવચન માતાનું પાલન કરવુ' તેજ ચારિત્ર છે. જેથી ચારિત્રવાળાને આઠ પ્રવચન માતાનું જ્ઞાન હાવુ' આવસ્યક છે કેમકે ચારિત્ર જ્ઞાનપૂર્વક જ હોય છે. અને જ્ઞાન શ્રુતથી જ થાય છે. બીજા કેાઈથી થતુ नथी, बेथी अङ्कुशने ४धन्यधी भेटसु ज्ञान तो थाय छे 'उक्कोसेणं दख पुव्बाई' अहिज्जेज्जा' तथा ते गडुश साधु उत्प्टथी इस पूर्व सुधीना पाही होय हे . ' एवं ' परिसेवणाकुसीले नि' गहुशना उधर प्रभा अतिसेवना કુશીલ પણ જઘન્યથી અઠે પ્રવચન માતાના બકર રૂપ શ્રુતના અભ્યાસી होय छे. अने उड्डष्टथी दृश पूर्व सुधीना श्रुतना अभ्यासी होय छे, 'कसायकुसीले णं पुच्छा' हे गवन् दुषाय हुशीस साधु डेटसा શ્રુતના અભ્યાસી Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीच ८८ सदन्त । कियत्संख्यकं श्रुतमधीते इति पृच्छा मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'जहन्ने णं अपवचणमायाओ' जघन्येन अष्टमत्रचनयातुकाः 'उकोसेणं चोदनपुनवाई अहिज्जेज्जा' उत्कर्षेण चतुर्दशपूणि अभीघीत जघन्येन अष्टपवचनमावसापर्यन्तमकरणस्य अध्ययनं करोति, उत्कृष्टवस्तु चतुर्दशपूर्वर्यमधीने वि भावः । ' एवं नियंवि' एवम् रुपा कुशीन्यदेव निर्ग्रव्यविषयेऽपि श्रुताध्ययनस्य परिज्ञानं कर्तव्यमिति । 'सिणार पुच्छा' स्नातकः खलु भग्न | चिख्यकं मधीते इति पृच्छा प्रयः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोमा' हे गौतम! 'मुवतिरित होना' श्रुतव्यतिरिक्तो भवेत् - श्रुताध्ययनरहितः स्नातको भवतीत्यर्थः । इति सप्तमं ज्ञानाम् | ७|३|| पुच्छा' हे भदन्त । कपायकुशील साधु कितने शुन का अभ्यासी होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! जहनेणं अनुपचयणमायाओ, उचकोसेणं चोदमपुब्बा भहिज्जेज्जा' हे गोप ! काय कुशील साधु जघन्य से आठ प्रजचन मातृका रूप श्रुतका अभ्यासी होता है और उत्कृष्ट से वह चौदह पूर्वरूप पार्टी होता है। 'एवं नियंटे वि' इसी प्रकार से विन्ध भी जघन्य से और उत्कृष्ट से कपाय कुशील साधु के जैसा ही अट प्रवचन मातृका पर्यन्त श्रुत को और चादर पूर्वरूप अन का अभ्यासी होता है। 'सिगाए पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक साधु तिने त का पाठी होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा । सुववतिरित्त होज्जा' हे गौतम | स्नानक साधु श्रुताध्ययन से रहा है। ज्ञान द्वार समाप्त || ३ || होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे हे हे- 'गोयमा ! जहणेण अट्ठ पत्रयणमायाओ, उकोसेणं, चोहरूपुनाइ, अहिज्जेज्जा' हे गौतम! उपाय કુશીલ સાધુ જઘન્યથી આઠ પ્રવચન માળા રૃપ શ્રુતતા અભ્યાસી હાય છે. भने उत्सृष्टथी ते लौह पूर्व ३५ श्रुता अभ्यासी होय 'ए' नियटे त्रि' એજ પ્રમાણે નિશ્ર્ચય પણ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી કપાય કુશીલ સાધુની જેમ જ આઠ પ્રવચન માતા પન્તના શ્રુતના અને ચૌદ પૂર્વરૂપ શ્રુતના अस्यासी होय छे. 'लिणाए पुच्छा' हे भगवन् स्नात साधु डेटला ना अभ्यासी होय हे ? मी प्राना उत्तरमा अलुश्री छे - 'गोयमा ! सुयवतिरित्ते होज्जा' हे गौतम! स्नान साधु श्रुताध्ययन रहित होय छे, ! સાતમું દ્વાર સમાપ્ત સૂ૦ ૩૫ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०४ अष्टम तीर्थद्वारनिरूपणम् अष्टमं तीर्थहारमाह मूलम्-पुलाए णं भंते ! किंतित्थे होज्जा अतित्थे होज्जा गोयमा! तित्थे होज्जा णो अतित्थे होज्जा । एवं बउसे वि। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कलायकुलीले पुच्छा गोयमा ! तित्थे वा होजा अतित्थे वा होज्जा। जइ अतित्थे होज्जा कि तित्थयरे होजा पसेयबुद्धे होज्जा ? गोयमा ! लिस्थयरे वा होजा पत्तेयबुद्धे वा होज्जा। एवं जियंठे चि। एवं लिगाए वि। पुलाए णं भंते ! किं ललिंगे होज्जा अन्नलिंगे होजा गिहिलिंगे होज्जा ? गोयमा ! दवलिंग एडुच्च सलिंगे वा होज्जा अलिंगे वा होज्जा गिहिलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च नियमा सलिंगे होज्जा एवं जाव सिणाए। पुलाए णं भते ! कइसु सरीरेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु ओरालिय तेया कम्मएसु होज्जा। बउले णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा तिसु होज्जमाणे तिसु ओरालिय तेया कम्मएलु होज्जा घउसु होज्नमाणे चउसु ओरालिय वेउठिवय तेया कम्मएसु होज्जा, एवं पडिसेवणाकुलीले वि । कसायकुसीले पुच्छा, गोयसा !तिसु वा चउसु वा पंचसु वा होज्जा तिसु होज्नमाणे तिसु ओरालिय तेया कम्मएसु होज्जा चउसु होज्जमाणे चउसु ओरालिय वेउब्विय आहारग तेया कम्मएसु होज्जा। पंचसु ओरालिय वेउब्विय आहारग तेया कस्मएसु होज्जा। णियंठो लिणाओय जहा पुलाओ। पुलाए णं भंते ! कि कम्मभूमिए होज्जा अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयला! जम्मणसंतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा णो अकम्मभूमीए होज्जा। बउसेणं पुच्छा गोयमा! जम्लणसंतिभावं पडुच्च कस्मभूमीए होज्जा णों भ० १२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० Greemansamanarensememomenmenesameerroremememore भगवतीसूत्र अफल्मसीए होजा, साहरणं पडुच्च कामसूमीए वा होज्जा शरूममीए वा होज्जा एवं जाब सिणाए ॥सू०४॥ छाया-- पुलाका वस्तु भदन्त ! किती भवेत्-अतीर्थे भवेत् ? गौतम ! सीर्थ मनेन नो जीर्थ अवेत् एवं बकशोऽपि एवं प्रतिसेवनामुशीलोऽपि । कपायकुचील बाला, गौतम सीथे वा भवेत् अतीर्थ मा अदेख यदि अतीर्थे भवेत् कि तीर्थयारो भवेद प्रत्येशबुझो वा भवेत् । गौतम ! तीर्थकरो वा भवेत् प्रत्येको या भाषेत् । एवं नियोऽणि एवं स्नातकोऽपि । पुलामः खलु भदन्त । कि स्वति भवेत् अन्यालो भवेत्-गृहिलिङ्गे वा भवेत् ? गौतम ! द्रव्यलिमीस्य स्वलिले भवेन अन्यलिन वा भवेत, भावलिङ्गं प्रतीत्य नियमात् स्वलिङ्गे भवेत् एवं याचनातकः । पुलाकः खलु भदना ! कतिषु शरीरेषु भवेत् ! गौतम ! त्रिपु औदारिकतैजसकामणेगु भवेत् । वकुमः खन्नु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! विपु वा चतुपु वा भवेत् त्रिषु भवन् त्रिषु औदारिकलैजमात्रामणेषु भवेत् चत' भवन चतुर्पु औदारिक वैक्रिय तेजस कार्मणेषु भवेन् । एवं गतिसेवना कुशीलोऽपि । कपार चुशीलः पृच्छा गौतम ! त्रिषु वा चतुर्पु वा पञ्चसु वा भवेत् । त्रिषु भवन् विघु औदारिकतजसका गेषु भवेत् चतर्पु झन् चतुर्पु औदारिक क्रियतैजसकार्मणेषु भवेत् पञ्चसु परम् पञ्चसु औदारिक क्रियाहारततै नसकार्मणेषु भवेत निग्रन्थः स्वारश्च यथा पुलाकः । पुलाकः खलु भदन्त ! किं कर्मभूमौ भवेत् अकर्मभूमी भवेत् ! गौतय ! जन्मसद्भावं प्रतीप वर्मभूमौ भवेत् नो अकर्मअभी यवेत् । वशः खलु पृच्छा गौतम ! जन्म सद्भाव प्रतीत्य कर्मभूमौ भवेत् नो अवार्मभूमी भदेत सहरणं प्रतीत्य कर्मभूमी वा भवेत् अकर्मभूमा वा भवेत् एवं गवत् स्नातकः ॥स०४।। टीका-'पुलाए भने मितिस्थे होज्जा अतित्थे होज्जा' पुलाकः खलु सदन्त । कितीर्थ संघे सति भवेत् नरति अनेनेति तीर्थ:-साधु साध्वी श्रावक आठपां तीर्थहार'पुलारण ते । किं तिस्थे होज्जा' इत्यादि कार्थ--'पुलाए ण मंते ! कि नित्शे होज्जा ? अतित्थे होज्जा' हे भदन्त । पुलाक तीर्थ में होता है कि तीर्थ के अभाव में होता है? माभुताथ बार'पुलाए णं भंते ! कि रित्थे होज्जा अतित्थे होज्जा' त्यहि ટીકા- હે ભગવન પુલાક તીર્થમાં હોય છે? કે તીર્થના અભાવમાં હોય છે? સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાના સમુદાયને સંઘ કહેવાય છે, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ ग्नू०४ अष्टम तीर्थद्वारनिरूपण श्राविकानां समुदायात्मक स्तस्मिन् सति तदस्तित्वदशायां भवेत् आयेत-अथवा अतीर्थ-पूक्तिसद्भापाकालेवा अवेत-जाये तेति प्रश्नः । मवाना-गोयमा इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'वित्थे होगा नो अतित्थे होज्या' तीर्थे-तीर्थसद्भावे एव भवेल-पुलाको जायेत नो अतीर्थे-तीर्थस्यासद्भावकाले नो भवेदिति। 'एवं बउसेवि' एवं बकुशेऽपि एवं पुलालवदेव पनुशोऽपि तीर्थसहावे एव भवेत् नतु तीर्थस्यासहाये भवेदिति भावः। एवं पडि सेवणा कुसीलेवि एवम् - पुलाकरदेव प्रतिसेवना कुशीलोऽपि साधु स्तीर्थसहावे भवेदिति भावः । 'कसाय कुसीले पुच्छा' कपायकुशीलः खलु भदन्त ! कि तीर्थ-संध सति भवेत् अतीर्थेसंधाभावकाले वा भोदिति प्रश्नः । भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिन्थे वा होज्जा अतिथे वा होज्जा' तीथे - संधे सति वा भवेत् साधु साध्वी श्रावक श्राविका इनका समुदायल्प सध होता है । इस संघ का नाम ही तीर्थ है । इस तीर्थ की अरितस्व दशा में पुत्ला साधु अथवा इन तीर्थ के अभाव में पुलाक साधु होला है ? भाउजर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! लित्थे होजना, नो अतिस्थे होज्जा' हे गौतम! पुलाक साध तीर्थ के सदभाब में ही होता अतीधे के समाव काल में नहीं होता है एवं बउसे चि' इसी प्रकार से 'पकुश साधु भी तीय के लद भाव में ही होता है तीर्थ के असद मास में नहीं होता है। 'एवं पडि सेवणासुसीले वि' इसी प्रकार से प्रतिसेचना कशील श्री चतुर्विध संघ रूप तीर्थ के मद्दार काल में ही होता है। उसके असायकाल में नहीं होता है। ___कसायकुसीले पुच्छ।' हे भदन्त ! कषाय कुशील साधु क्या तीर्थ के सदभावशाल होता है अथवा असावकात में होता है ? इलके આ સંઘનું નામ જ તીર્થ છે આ તીર્થની અસ્તિત્વ દશામાં પુલાક સાધ હોય છે અથવા તે તીર્થના અભાવમાં પુલાક રાધુ હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ -'गो रमा! तित्थे होना, तो अतित्थे ના” હે ગૌતમ! પુલાક સાધુ તીર્થના સભાવમાં જ હોય છે. તીર્થના मलामा खाता नथी. 'एवं बउसे वि' प्रभाह गश साधु पण तीथना सहभावमांडाय छ तीथ ना लामा ता नथी एव पडिसेवणा कुलीले વિ” એજ પ્રમાણે પ્રતિસેવના કુશલ સાધુ પણ ચતુર્વિધ સંઘ રૂપ તૌર્થના विधमानमा डाय छे. तेना म विद्यमानामा हाता नथी कसायकसोले પુછા' હે ભગવન્ કષાય કુશીલ સાધુ તીર્થને સદ્ભાવમાં હોય છે? કે અસદसाभां हाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छेउ-'गोंयमा । तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होजा' 3 गीतम! त ती ना सहावमा पहाय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ भगवती सूत्रे अतीर्थे वा भवेत् छद्मस्थावस्थायां तीर्थकरोऽपि कपायकुशीलो भवेत् इति तदपेक्षया अतीर्थे वा भवेदिति कथितम् अथवा तीर्थव्यवच्छेदे सति अन्योऽपि चारित्रवान् कपायकुशीलो भवेत्तदन्यकपायकुशीलापेक्षवाऽपि अतीर्थे भवेदिति afafa | ' as अतिथे होज्जा कि तित्थयरे होज्जा पत्तेयबुद्धे होज्जा' यदि कपायकुशलोऽतीर्थे भवेत्तदा किं तीर्थकरोsaौ स्यात् प्रत्येकबुद्धो वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'तित्थयरे वा होज्जा पत्ते बुद्धे वा होज्जा' तीर्थकरो वा स कपायकुशीलो भवेत् प्रत्येकबुद्धो वा भवेदिति । 'एवं नियंठे वि' एवं कषायकुशीलवदेव निर्ग्रन्थोऽपि तीर्थे सति भवेद्र अतीर्थे वा भवेत् यदि अती भवेत् तदा वीर्थकरोऽवि भवेत् प्रत्येकबुद्धो वा भवेदिति भावः । उत्तर में सुश्री कहते हैं- 'जोयमा ! तित्थेवा होजा अतित्थे वा होज्जा' हे गौतम! वह तीर्थ के सद्भाव में भी होता है और तीर्थ के असभाव में भी होता है । अतीर्थ में भी होता है-ऐसा जो कहा गया है वह तीर्थकर भी छद्मस्थावस्था में कपाय सहित होते हैं-3 -अतः यह कपाय कुशील होना है । इस अपेक्षा से कपाय कुशील माधु अतीर्थ में भी होता है ऐसा कहा गया है । अथवा तीर्थ के विच्छेद होने पर अन्य भी चरित्रवान् कषाय कुशील हो जाता है । इसलिये उसकी भी अपेक्षा कपाय कुशील अतीर्थ में भी होता है ऐसा कहा गया है । 'जह अतित्थे होज्जा, कि तित्थरे होना पत्ते बुद्धे सोज्जा' यदि अतीर्थ में हे भदन्त ! कपाय कुशील होता है तो वह तीर्थकर होता है अथवा प्रत्येक बुद्ध होता है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोमा ! तित्थवरे वा होज्जा पत्तेष बुद्धेवा होज्जा' यह कपाय कुशील तीर्थकर भी हो सकता है और प्रत्येक बुद्ध भी हो सकता है ? 'एवं नियंटे वि एवं सिणाए वि' कपाय कुशील की तरह निर्ग्रन्थ साधु भी तीर्थ में भी हो सकता है और अतीर्थ અને તીના અભાવમાં પણ હોય છે અતી માં પણ થાય છે, એવુ' જે કહેવામાં આવ્યું છે, તે તીથ પણુ છદ્મસ્થ અવસ્થામાં કષાય સહિત હોય છે, જેથી તે ક્યાય કુશીલ હાય છે તે અપેક્ષાથી કષાય કુશીલ સાધુ અતીમાં પણ હાય છે, તેમ કહેલ છે, અથવા તીના વિચ્છેદ થવાથી અન્ય ચારિત્રવા પણ કાય કુશીલ થઇ જાય છે, તેથી તે અપેક્ષાથી કષાય કુશીલ અતીર્થાંમાં પણ હાય છે तेम उहेस हे 'जइ अतित्थे होज्जा किं तित्थयरे होज्जा, पत्तेयबुद्धे होज्जा' हे ભગવત્ જો તીથમાં કષાય કુશીલ હાય છે, તા તે તીર હાય છે કે પ્રત્યેક યુદ્ધ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે ४-'गोयमा ! तित्थयरे वा होज्जा, पत्तेयबुद्धे वा होज्जा' हे गौतम । ते उपाय કુશીલ તીર્થંકર પણ હોઇ શકે છે. અને પ્રત્યેક બુદ્ધ પણ હાઇ શકે છે. ૐ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ २.६ ०४ नवम लिङ्गहारनिरूपणम् 'एवं सिणाए वि' एवम् कपायकुशीलबदेव स्नातकोऽपि तीर्थे वा भवेत् अतीर्थे चा भवेत् यदि अतीर्थे भवेत् तदा स्वयं तीर्थकरोऽपि भवेत् प्रत्येकबुद्धोऽपि भवेदिति भावः, इत्यष्टमं तीर्थद्वारम् अथ नवमं लिङ्गद्वारनाह वह-'पुलाए णं भंते । कि सकिंगे होना अन्नलिंगे होज्जा गिहिलिंगे होज्मा' पुलाकः खल भदन्त ! किं स्वलिङ्गे मवे दन्पलिङ्गे वा भवेत् गृहिलिङ्गे वा भवेत् लिङ्गद्वारे लिङ्गं द्विविधं द्रव्यभावभेदात् तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रं भावलिङ्गम्, तच्च भावलिङ्गमाहतानां स्वलिङ्गम्, आहेतानां साधना. मेव ज्ञानादि भावस्य सद्भावात् । द्रव्यलिङ्ग द्विविधम् रबलिङ्गपरलिङ्ग भेदात् तत्र सदोरकमुग्ववस्त्ररजोहरणादिकं द्रव्यतः स्वलिङ्गम् परलिङ्गं द्विविधम् कुतीथिंकलिङ्गमें भी हो सकता है। यदि वह अतीर्थ में होता है तो वह तीर्थकर भी हो सकता है और प्रत्येक बुद्ध भी हो सकता है । इसी प्रकार का कथन स्नातक साधु के लम्बन्ध में भी जानना चाहिये । अर्थात स्ना तक भी तीर्थ और अतीर्थ दोनों में हो सकता है यदि अतीर्थ में वह होता है तो वह अथवा तो तीर्थंकर होता है अथवा प्रत्येक बुद्ध होता है । इस प्रकार से अष्टनद्वार का फयन समाप्त। नौव लिङ्गवार'पुलाए णं भंते ! सिलिंगे होज्जा अन्नलिंगे होजना गौतमस्वामी ने इस सूत्रद्वारा प्रभुश्री से ऐला पूछा है-हे महल ! पुलाक स्वलिङ्ग में होता है ? अथवा अन्य लिङ्ग में होता है ? अथवा गृहस्थलिङ्ग में होता है? द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग के भेद ले लिङ्ग दो प्रकारका होता है सदोरकणियठे वि' एवं सिणाए वि' पाय धुशासन थन प्रभारी निन्य साध તીર્થમા પણ હોઈ શકે છે, અને અતીર્થમાં પણ હોઈ શકે છે. જે તે અતી ર્થમાં હોય છે. તે તે તીર્થંકર પણ હોઈ શકે છે અને પ્રત્યેક બુદ્ધ પણ હોઈ શકે છે. આ જ પ્રમાણેનું કથન સ્નાતક સાધુના સંબંધમાં પણ સમજવું અર્થાત્ સ્નાતક સાધુ પણ તીર્થ અને અતીર્થ બને પ્રકારથી હોઈ શકે છે. જે તે અતીર્થમાં હોય છે, તે તે તીર્થકર હોય છે, અથવા પ્રત્યેક બદ્ધ હોય છે. આ રીતે આ આઠમા દ્વારનું કથન સમાપ્ત થયું. હવે નવમા લિંગદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भते । किं खलिगे होज्जा अन्नलिंगे होज्जा' श्रीगीतास्वामी આ સૂત્રપાઠદ્વારા પ્રભુને એવું પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન પુલાક સાધુ સ્વલિંગમાં હોય છે? કે અન્ય લિંગી હોય છે? અથવા ગૃહસ્થ લિ ગવાળા હોય છે ? દ્રવ્યલિંગ અને ભાવલિંગના ભેદથી લિંગ બે પ્રકારના હોય છે. સરકખ વસિકા–રજોહરણ, વિગેરે પ્રકારના જે ચિહ્ન છે, તે દ્રવ્યની અપેક્ષાની સ્વલિગ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ भगवतीने गृहस्थलि भेदात् पुलझानां त्रिपकारकामपि द्रव्यलि भवति यतश्चारित्रपरिणामस्य द्रव्यालङ्गापेक्षा न भवनीति 'गुलाए पं भंते ! किं सलिंगे' इत्यादि घग्नः । भगवानाद-गोयमा लादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दलिगं पहुच्च' द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य द्रव्य लिङ्गाश्रयणनेत्यर्थ:, 'सलिंग वा होजा मन्नलिंगे वा होना गिहिलिंग वा होजा' स्वलिने वा अवेत् अन्यालने वा भवेत् गृहिलिगे वा भवेत् पुलाक इनि । 'मावलिंग पञ्च नियमा सलिगे होऊजा' मावलिङ्ग प्रतीत्य नावलिगा श्रयणेन तु नियनात् बलिने एव भवेत् । 'एवं जाव सिणाए' एवं यावत् स्नातकः, अत्र यावत्पदेन वयुगकुगीलनिग्रंन्धानां संग्रहो भवति तथा च वकुशादारभ्य मुन्वन्त्रिका, रजोहरण आदि रुप जो लिङ्ग है यह द्रा की अपेक्षा स्वलिङ्ग है। परलिङ्ग कुलीथिकालिङ्ग और गृहस्थलिग की अपेक्षा दो प्रकार का है -इनमें पुलाक के तीनों भी प्रकार का धलिङ्ग होता है क्योंकि चारित्र परिणाम को उलिङ्ग की अपेक्षा नहीं होती है । तथा-जान, दर्शन और चारित्र रूप भावलिङ्ग होता है । अहनों का जो ज्ञानादि भाव है यही उनका रवलिङ्ग है । क्योंकि आईन साधु भो के हो ज्ञानादि रूप भाव का सद्भाव होता है। पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा ! व्यलिंगं पडच्च सलिंगे वा होज्जा अन्नलिंगे वा होन्जा' हे गौतम ! द्रव्यलिंग पाय कर के पुलाक रबलिंग में भी होता है अन्यलिङ्ग में भी होता है और गृस्थति में भी होता है। और 'भावलिंग पदुख्य निम्मा सलिंगे शेजा' भावलिंग को आश्रय करके वह नियम र स्थलिंग में ही होता है । जाब लिणाए' इस प्रकार का कथन यायात नाता तक जानना चाहिये। यहां वात् शब्द से કધા છે. પવિગ-કુતીસિંકલિંગ અને ગૃહસ્થલિંગની અપેક્ષાથી બે પ્રકારના છે. તેમાં પુજાને ત્રણે પ્રકારના દલિગ હોય છે કેમકે-ચારિત્રપરિણામને દલિગની અપેક્ષા હોતી નથી. તથા ના દર્શન અને ચારિત્રરૂપ ભાવલિંગ હોય છે. હું તો જે જ્ઞાનાદિલાવ છે, તે જ તેઓનું સ્વલિંગ છે કેમકે આત ધુને જ નાનાદિ રૂપ ભાવ હોય છે. ઉપરના પ્રશ્નનો ઉત્તર 11पता की से छे - 'गोयमा ! दलिग पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अनगि वा दाजा' र गौतम ! यति माय दीन पुसा द्रव्य. લિગમાં પ હોય છે અને અન્ય વિંગમાં પણ છે છે, તથા ગૃહnिi urय 'भावटिंग, पउच्च नियमा सलिंगे होज्जा' विगने यसन तथा बिमा दायटे. 'एवं जाव मिणा' मा પ્રનું કથન બકુશ, કુશીલ, નિવ્ર અને સ્નાતકના સ બ ધમાં પણ સમજી Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का टीका श०२५ उ.६ ०४ दशमं शरीरद्वारनिरूपणम् ९५ स्नातकपर्यन्तः सर्वोऽपि द्रव्यलिङ्गाश्रयणेन स्वलिङ्गे परलिङ्गे गृहस्थलिङ्गे च भवेत् भावलिङ्गाश्रयणेन तु नियमतः स्वलिङ्गे एव भवेदिति भावः । इति नामं लिङ्गद्वारम् ९ अथ दशमं शरीर द्वारमाह - 'पुलाए णं भंते! कइ सरीरेसु होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! कतिपु शरीरेषु भवेत्-फियत्संख्याक शरीरवान् भवति पुलाकइति प्रश्नः । भगवानाह - 'जोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिलु ओरालियते याकथम एतु होज्जा' त्रिषु औदारिक तेजसकार्मणेसु शरीरेषु भवेत् औहारिक तेजसकार्मणशरीरश्रयवान् भवति पुळा इत्यर्थः । 'चउसे णं शंसे ! पुच्छा 'चकुशः खलु भदन्त ! कतिषु शरीरेषु भवेदिति इनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि. 'गोमा' हे गौतम ? 'ति वा चरसुवा होज्जा' त्रिषु शरीरेषु चतुर्षु वा शरीरेषु वकुशो भवति कुश कुशील और निर्ग्रन्थों का ग्रहण हुआ है। तथा च पुलाक से लेकर स्नातक तक के साधु द्रव्यलिङ्ग के आश्रय ले स्वलिङ्ग में, परलिङ्ग में और गृहस्थ लिङ्ग में होते हैं, एवं भावलिङ्ग के आश्रम से वे नियम से स्वलिङ्ग में ही होते हैं नौवां लिङ्गद्वार समाप्त | दसवां शरीर द्वार'पुलाए णं भंते ! कह सरीरेस होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक के कितने शरीर होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोगमा ! तिसु ओरालि, तेया कम होज्जा' हे fine | ae atarra तैजस और फार्मण इन तीन शरीरों वाला होता है । 'पडणं भंते ! पुच्छ।' हे भदन्न ! कुश साधु कितने शरीरों वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'यमा ! 'तिसु वा चउसु वा होज्जा' हे गौतम | લેવું એટલે કે ખકુશથી લઈને સ્નાતક સુધીના સઘળા સ ધુએ દ્રવ્યલિ ગના આશ્રયથી સ્વલિ’ગમાં, પરલિગમાં, અને ગૃહસ્થલિ'ગમાં હાય ભાવલિંગના આશ્રયથી તેએા નિયમથી સ્ખલિગમાં જ ડાય છે. આ નવશુ. લિ'ગદ્વાર કહ્યુ છે. અને આ રીતે હવે દસમા શરીરદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે अर्थ – 'पुलाए ण भंवे ! कसु सरीरेसु होज्जा' हे भगवन् चुसाउना કેટલા શરીર હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે - 'गोमा । तिसु ओरालिय, वेग, कम्मरमु होज्जा' हे गौतम । ते भौहारिङ तैन्स ने अणु से ऋणु शरीरवाणा होय छे 'बउसे णं भंवे ' पुच्छा' હે ભગવન અકુશ સાધુ કેટલા શરીરવાળા હાર છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા अनुश्री हे हे हे- 'गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होजा' हे गौतम! मडुश Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ९६ शारीरत्र्यवान् शरीरचतुष्टयवान् वा भवतीत्यर्थः । 'विसु क्षेज्जमाणे ' त्रिपु शरीरेषु भवन् 'तिसु ओरालिय तेयागम्सएस होज्जा' त्रिपु औदारिक तैजसकार्मणशरीरेषु भवेत् औदारिकतैजसका मणशरीरत्र्यवान् भवतीति भावः । 'चउसु होज्जामाणे' चतुर्षु भवम्'चउस ओरालिय चेउज्जियतेयाकम्म एस होज्जा' चतुर्षु औदारिफ वैक्रिय तेजलकार्मणशरीरेषु भवेत अदारिकवैक्रियतैजस फार्मणशरीरवान् भक्तीस्पर्थः । ' एवं पडिसेवणाकुनीलेवि' एवं प्रतिसेवनाकुशलोऽपि शरीरजयवान् श्रदारिक- तेजस-कार्मण शरीरान चतुः शरीरवान् औदारि वैक्रियतेन सकार्मणशरीरवान् वा भवतीति भावः । 'कसायकुसीले पुच्छा' कपायकुशीलः खलु भदन्त । कठिषु शरीरेषु भवतीति पकुश साधु तीन शरीर वाला भी होता है और चार शरीर वाला भी होता है । 'तिसु होज्जमाणे' जब यह तीन शरीर वाला होता है तव 'तिसु ओलिय तेया कम्मएसु होज्जा' उनमें इसके औदारिक तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं 'चउसु होज्जमाणे' जब इसके चार शरीर होते हैं तब 'चउसु ओगलिय वेडन्चिय, तेया कम्मएसु होज्जा' उनमें इसके औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं । 'एवं पविणा कुमीले वि' इसीप्रकार से प्रतिसेवना कुशील साधु भी तीन शरीर वाला भी होता है और चार शरीर वाला भी होता है तीन शरीर होने में इसके औदारिक तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं और चार शरीर होने में इसके औदा સાધુ ત્રણુ શરીર વ ળા પણ હાય છે, અને ચાર શરીરેવાળા પણ હોય છે. 'तिसु होज्जमाणे' न्यारे ते ऋभु शरीरवाणा होय छे, त्यारे 'तिसु ओरालिय वेया कम्मरसु होजा' तेयोना सोह २ि४ तै४स मनेारा से त्र शरीश होय छे, न्यारे 'चउसु होज्जमाणे' यार शरीरो होय छे, त्यारे 'चउसु ओरालिय वेत्रिय तेया कम्मरमु होज्जा' तेमां तेथोने मोहारिए पैडिय तैन्स, भने अमषु मे यार शरीश होय हे 'एवं पडि सेवणाकुसीले वि' એજ પ્રમાણે પ્રતિસેવના કુશીલ સાધુ પણ ત્રણ શરીરાવાળા પણ હાય છે, અને ચાર શરીરાળા પણુ હાય છે ત્રણ શરીરમા તેએને ઔદારિક તેજસ અને કામણુ એ ત્રણુ શરીર હાય છે અને ચાર શરીરે હેાવામા તેઓને मोहारि वैडिय, तैक्स, भने अभी से यार शरीरी होय है. 'काय कुसीले पुच्छा' हे भगवन् उपाय दुशीस साधु डेटला शरीरोवाजा होय छे ? Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प % 35 प्रमेयश्चन्द्रिका टीका श०३५ ३.६ सू०७ दशम शरीरद्वारनिरूपणम् ९७ पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-गोयला' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! "लिस वा चउसु वा पंचर पा होजा' विषु वा चतुषु वा पञ्चसु वा भवेत् । त्रिचतुः पच शरीरवान् भवतीत्यर्थः 'तिस्तु होज्जमाणे त्रिषु शरीरेषु भवन् ‘तिसु ओरालिय. तेया कम्पपस्नु होजना त्रिषु भौदारिक तैजमकार्यणशरीरेषु भवेत् औदारिश्तैजस. कार्मण शरीरत्रयवान् भवतीत्यर्थः । 'चऽसु होज्जमाणे' चतुर्पु शरीरेषु भवन्, 'चउनु ओरालियवेउब्धियतेया कम्मएछ होज्जा' चतुर्पु औदारिकक्रियतैजसकार्मणशरीरेषु भवेत् एतादृशशरीरचतुष्टयवान् भवतीत्यर्थः । 'पंचसु होज्जामाणे' पञ्चसु भवन् 'पंचसु ओरालियवेउब्धिय आहारगयामएस होज्जा' पञ्चसु औदारिकवैक्रियतैजसाहारककामणशरीरेषु भवेत् उपरोक्त पञ्च शरीरवान् भवतीत्यर्थः । "णियंठो सिणाओय जहा पुलाओ' निर्गन्थः स्नातकश्च यथा पुलाकः, पुलाकरदेव निर्यन्य: स्नातकश्च औदारिकतैजसकामणशरीरत्रयवान् भवतीत्यर्थः । इति दशमं शरीररिक, वैक्रिय, तैजल और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। 'कलाय कुसीले पुच्छा' हे भदन्त ! कषाय कुशील शिलने शरीरों वाला होता है ? उत्तर हैं प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा! तिस्तु वा च उसु को पंचसु वा होज्जा' हे गौतम कषाय कुशील साधु औदारिफ तेजन कार्मा इन तीन शरीर वाला भी होता है औदारिक क्रिय तैजस और कार्मण इन चार शरीर वाला भी होता है एवं औदारिक क्रिय, आहारक, सेजल, और कामण इन पांच शरीरों वाली भी होता है। यही बात 'तिसुबोज्जमाणे-तिस ओरालय तेया कम्मएस्तु होज्जा चउसु होज्जमाणे चउसु ओरालिय देउब्धिय तेया कम्मएसु होज्जा, पंचसु शेज्जमाणे पंचसु ओरलिय घेउत्रिय ना तेया कम्पएसज्जा " इन सूत्रपाठों से प्रकट की गई है। 'णि यठे सिणाओय जहा पुलाओ' लिन्थ और स्ना तक पुलाक ही तरह औदारिक तैजस और कामेण इन तीन शरीर वाले होते हैं। दश शारीर द्वार समाप्त । भा प्रश्न उत्तर प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा ! तिसु वा चउसु वा, पंचसु वा होज्जा' गीत ! षाय सुशील साधु मो२४ तास सने भय से ત્રણ શરીરવાળા પણ હોય છે અને ઔદારિક, વૈકિય, તેજસ, અને કાર્મજ से यार शरीशमा ५ डाय छ 'तिसु होज्जमाणे-तिसु ओरालिय तेया कम्मएसु होज्जा, बसु ओरालिय वेउव्विय ते या कम्मएसु होज्जा, पचसु होज्जमाणे, पचसु ओरालिय, वे उब्धिय, आहारग तेयाकम्मएसु होज्जा' को पात या सूत्र५४थी प्रगट ४२ छ 'णिय ठे, सिणाओ य जहा पुलाओ' निन्थ અને સ્નાતક સાધુ પુલાના કથન પ્રમાણે ઔદારિક, તેજસ અને કામણ એ aણું શરીરવાળા હોય છે. દશમું દ્વાર સમાપ્ત, भ० १३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगवती द्वारम् १० । अथैकादशं क्षेत्रद्वारमाह-'पुलाएणं अंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा अकम्मभूमीए होज्जा' पुलाकः खल्लु भदन्त ! िकर्मभूमौ भवेत् अकर्मभूमी भवेदिति क्षेत्रद्वारे प्रश्नः । भगवागाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्मण सतिभाव पडुच्च क.सभूमीए होज्जा णो अकस्मभूमीए होज्जा' जन्मसद्भावं च प्रतीत्य कर्मभूमौ भवेत् नो अकर्मभूमौ भवेत्-जन्म-उत्पनिा, सजावश्व-विवक्षित क्षेत्रादन्यत्र विवक्षिाक्षेत्रे चा जातस्य तत्र चारित्रभावेन तस्यास्तित्वम् तयोः समाहार स्तत स्तत्प्रतीत्य जन्मसद्भावापेक्षया पुलाकः कर्मभूगौ भवेत् तत्र कर्मभूमौ जायेत तथा तत्रैव विहरेदित्यर्थः, परन्तु अकर्मभूम्यां नोत्पधेत यतोऽकर्मभ्रमौ समुत्पन्नस्य चारित्र न भवतीति तथा संहरणतोऽपि अकर्मभूमी न भवेन्-यतः ग्यारहवां क्षेत्र द्वार 'पुलाए णं ! कि पम्मभूमिए होज्जा अफम्मभूमिए होज्जा' गौतम ने इस सन द्वारा मनुश्री से ऐसा पूछा -हे भदन्त ! पुलाक साधु क्या कर्मभूमि में होता है ? अथवा अकर्मभूमि में होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जम्मण-संक्तिभाव पडुच्च कम्म भूनिए होज्जा, जो अकरमभूमीए होज्जा' हे गौतम ! जन्म और सदभाव की अपेक्षा से पुलाक कर्मभूमि में होता है अकर्मभूमि में नहीं होता है । उत्पत्ति का नाम जन्म है और सद्धात्र नाम चरित्र भाव के अस्तित्व का है पुलाक कर्मभूमि में जन्म लेता है इसका कारण ऐसा है कि अकर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीव का चारित्र भाव नहीं होता है ? इस प्रकार जन्म और सद्भाव की अपेक्षा पुलाक कर्मभूमि में उत्पन्न होता है और वहीं पर विहार करता है तथा संहरण की अपेक्षा હવે અગીયારમા ક્ષેત્રદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भते ! किं कम्मभूमीण होज्जा अम्मभूमीए होज्जा' गौतम સ્વામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન્ પુલાક સાધુ શુ કમભૂમીમાં હોય છે? કે અકસ્મભૂમીમાં હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रमश्री ड छ -'गोयमा! जम्मणसंतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, जो अकम्मभूमीए होज्जा' है गौतम | म मने सहलानी अपेक्षाथी पक्षा સાધુ કર્મભૂમીમાં હોય છે, અકર્મભૂમીમા હોતા નથી ઉત્પત્તિનું નામ જન્મ છે અને સદભાવનું નામ ચારિત્રાવના અતિવનું છે. પુલાક કર્મભૂમીમાં જન્મ લે છે. તેનું કારણ એવું છે કે–અકર્મભૂમીમાં ઉત્પન્ન થયેલા જીને ચારિત્રભાવ હતો નથી. આ રીતે જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી પુલાક ફર્મભૂમીમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ત્યાં જ વિહાર કરે છે. તથા સ હરણની Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ ०४ एकादश क्षेत्रद्वारनिरूपणम् ९९ । पुलाकलब्धिमन्तं देवाः सहर्चु न शक्नुरन्तीति । 'ब उसे णं पुच्छा' वकुः खलु भदन्त ! किं भूमौ भवेत् अकर्मभूमी व भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोमा' हे गौतम | 'जम्मण संतिभावं पडुच कम्मभूपीए होजा नो अम्मभूमीए होजा' जन्मसद्भावं च प्रतीत्य जन्म समुत्पत्तिः सद्भाववारित्रभावेनास्तित्वम् तदाश्रित्य वकुशः कर्मभूमावेव भवेत् नो अऊर्मभूमौ भवेद् वकुशोऽ कर्मभूमौ न जन्मतो भवति न वा स्वकृतविहारथ भवति, परकृतविहारत स्तु उभयत्रापि कर्मभूम्यामकर्मभूम्यां च भवतीत्येतदाशयेनाह - 'साहरणं' इत्यादि । 'साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होज्जा अकम्यभूमिए वा होज्जा' संहरणं से भी वह कर्मभूमि में नहीं होता है । क्योंकि देवादिक पुलाकलब्धि वाले का संहरण नहीं कर सकता है । 'उसेणं पुच्छा' हे भदन्त । कुरा क्या कर्मभूमि में उत्पन्न होता है ? अथवा अकर्मभूमि में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा ! जम्मणसंतिभावं पडुच्च कम्मभूमिए होज्जा, नो अक्रम्मभूमिए होज्जा' हे गौतम ! जन्म और सद्भाव को लेकर बकुश लाधु कर्मभूमि में ही होता है अकर्म भूमि में नहीं होता है और कर्मभूमि में ही उसका स्वकृत विहार होना है । हां परकृत विहार की अपेक्षा वह कर्मभूमि और अकर्मभूमि इन दोनों में होता है । यही बात - 'साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होज्जा अम्मभूमी वा होज्जा' एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जो देवादिक हरण करके ले जाते हैं उसका नाम सहरण है । इस संहरण को लेकर वह बकुश कर्मभूमि और अकर्मभूमि दोनों में हो सकता है । 'एवं અપેક્ષાથી પણ તે અકમ’ભૂમીમાં હાતા નથી, કેમકે-દેવા વિગેરે પુલાકલન્વિ वाणामनुं सहरषु ४री शत्रुता नथी. 'वडसे णं पुच्छा' हे लगवन् मश શું ક`ભૂમીમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? કે અકભૂમીમા ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री डे - 'गोयमा ! जम्मणसंतिभावं पडुच कम्त भूमीए होज्जा, नो अकम्मभूमीए होज्जा' हे गौतम! नन् भने सद्भावने લઈ ને અકુશ સાધુ કમભૂમીમા જ ઉત્પન્ન થાય છે, અક ભૂમીમા ઉત્પન્ન થતા નથી, અને અક ભૂમીમાં જ તેઓના સ્વધૃત વિહાર હોય છે. પરંતુ પરકૃત વિહારની અપેક્ષાથી તે ક`ભૂમીમાં અને અક ભૂવીમાં આ બન્નેમાં हाय हे. मेन वात 'साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होज्जा, अकम्मभूमीए वा होज्जा' भेङ क्षेत्रमां ने देवा विगेरे हर ने लय हे, तेनु नाम સહરણ છે. આ સહણુને લઇને તે અકુશ કમભૂમી અને અકભૂમી છે. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे १०० मतीत्य, संहरणं नाम क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरे देवादिभिर्न वनम् तत् प्रतीत्य कर्मभूमी वा भवेत् वकुशोऽकर्मभूमौ वा भवेद | 'एवं जाब सिणाए' एवं यावद स्नातकः, अत्र यावत्पदेन कुशीलनिग्रन्थयोः सङ्गहो भवति तथा च कुशीलनिग्रन्थस्नातकाः जन्मसद्भावापेक्षया कर्मभूमावेव भवेयु स्तत्रैव विहरन्तीति च परकृतविहारापेक्षया तु उभावपि संभवन्ति विहरन्तीति चेति गतमेकादशं क्षेत्र द्वारम् ११ ॥ ०४ ॥ द्वादर्श कालद्वारमाह-पुलाए णं भंते' इत्यादि । मूलम् - पुलाए णं भंते! किं ओसप्पिणी काले होज्जा, उस्सप्पिणी काले होज्जा णो ओलप्पिणी णो उस्सप्पिणी काले वा होज्जा ? गोयमा ! ओसप्पिणी काले वा होज्जा उस्सप्पिणी काले वा होज्जा णो ओसप्पिणी जो उस्सप्पिणी काले वा होज्जा । जइ ओसप्पिणी काले होज्जा किं सुसमसुलसा काले होज्जा १, सुसमा काले होज्जार, सुसम - दूसमा काले होज्जार, दूसमसुलमा काले होजा४, दूलमा - काले होज्जा५, दूसमदूममा काले होज्जाद, गोयमा ! जम्मणं पहुन्च णो सुमसुम्मा काले होज्जा१, णो सुसमाकाले होज्जार, सुसमदूतमा काले होज्जा३, दूममसुसमा काले वा होज्जा४, नो दूसमा काले होज्जा५, नो दूसमदूतमा काले होज्जा६ । संति भावं पडुच्च णो सुसमसुलगा काले होज्जा, णो सुसमा जाव सिणाए' इस प्रकार से यावत् कुशील निर्ग्रन्य और स्नातक ये साधु भी जन्म और सद्भाव की अपेक्षा तो कर्मभूमि में ही होते हैं और वहीं पर विहार करते हैं । परन्तु परकृत विहार की अपेक्षा से मंहरण की अपेक्षा से कर्मभूमि और अकर्मभूमि दोनों में हो सकते हैं ' क्षेत्र द्वार समाप्त ११ ॥ सृ० ४ ॥ जन्नेमा होश छे, 'एव जाव सिणार' या रीते यावत् शीस साधु નિગ્રન્થ અને સ્નાતક આ સાધુ પણ જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી ક ભૂમીમાં જ ાય છે. અને ત્યા જ વિહાર કરે છે. પરંતુ પરકૃત વિહારની અપેક્ષાથી–સ હરણુની અપેક્ષાથી ક ભૂમી અને અકભૂમી એ બન્નેમાં હાઈ શકે છે. આ પ્રમાણે આ ક્ષેત્રદ્વારનું કથન સમાપ્ત થયું, ૧૧ પ્રસ્॰ જા Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ ०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् २०१ काले होजा सुसमदूमम काले वा होज्जा सम्सुसला काले वा होज्जा दूसमा काले वा होज्जा णो दूसमदूतमा काले होज्जा । जइ उस्सप्पिणी काले होज्जा किं मममा काले होज्जा?, दूसमा काले होज्जार, दूसमसुलमा काले होज्जाइ, सुसमदूसमा काले होज्जा, सुसमा काले होज्जाए, सुसमसुलमा काले होना६, ? गोयसा ! जम्मणं पडुच्च जो दूसमदूलसा काले होज्जा १, दूतमा काले वा होजार, दूसमसमा कालेवा होला३, सुसनदूसमा काले वा होज्जा४, णो सुलना काले होज्जा५, णो सुसम सुसमा काले होज्जा६ । संति भावं पडुच्च णो दूनमदूतमा काले होज्जा१, दूलमा काले होज्जार, दूससुमसा काले वा होज्जार, सुसमदूलमा काले वा होज्जार, णो सुसमा काले होज्जा५, णो सुरुमसुसमा काले होज्जा६ । जइ जो ओसप्पिणी णो उस्तपणी काले होज्जा किं सुसम समापलिमागे होज्जा सुसमापलिभागे तेजा सुलन दूलमा लिभागे होजा दूमसुसमा पलिभागे होज्जा ? गोयमा ! जन्मणं संतिभाई च पडुच्च णो सुसम सुसमापलिभागे होज्जा को सुसमापलिभागे होज्जा, णो सुसमदूममापलिभागे होजा दूमन मुलत पलिभागे होजा । वउसे पुच्छा गोयमा ! ओसपिणी काले वा होज्जा उत्सप्पिणी काले वा होजा णो ओलपिणी णो उत्पषिणी काले वा होज्जा । जइ ओसप्पिणी काले होज्जा किं सुसमतुलसा काले होज्जा पुच्छा गोयमा ! जम्मणं संतिभावं च पडुच्च णो सुरूमसुसमा काले होज्जा णो सुसमा काले होज्जा, सुप्तमदूतसा काले वा होज्जा दूसमसुसमा काले वा होज्जा दूसमा काले वा होज्जा, णो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भगवनीत्रे दूलममदूममा काले होज्जा, साहरणं पड्डुच्च अन्नवरे समाकाले होज्जा। जइ उस्सटिपणी काले होज्जा किं दूससदूसना काले होज्जा६, पुच्छा गोयमा! जम्मणं पडुच्च णो दूसमदुनमा काले होज्जा जहेव पुलाए । संति भावं पडुच्च णो दूससादुलम काले होज्जा, एवं संतिभावेण वि जहा पुलाए जाव णो सुसमसुसमा काले होज्जा । साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होज्जा । जइ नो ओसप्पिणी नो उस्सपिणी काले होजा पुच्छा, गोयमा ! जंमणप्रतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमापलिभागे होज्जा जहेव पुलाए जाव दुसमसुसमापलिभागे होज्जा । साहरणं पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा। जहा वउसे । एवं पडिसेवणा कुसीले वि। एवं कलायकुसीले वि। णियंठे लिणाओ य जहा पुलाओ। णवरं एएसि अमहियं साहरणं भाणियध्वं सेसं तं चेव १२॥सू० ५॥ छाया-पुलाकः खलु भदन्त ! किम् अवसर्पिणी काले भवेत् उत्सर्पिणीकाले भवेत् नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् ? गौतम ! अवसर्पिणीकाले वा भवेत् उत्सर्पिणी झाले या भवेत् नो अबसपिंगी नो उत्सर्पिणी काले वा भवेत् । यदि अवप्तर्पिणीकाले भवेत् किं सुपभसुपपाकाले भवेत् १, सुपमाकाले भवेत्२, सुपपदुःपमाकाले भवेत् ३, दुःपमसुषमाकाले भवेत् ४, दु.पनाकाले भवेत् ५, दुःपमदुःपमाकाले भवेत् ६, ? गौतम ! जन्मपतीत्य नो सुपमसुपभाकाले भवेत् १, नो सुपनाकाले भवेत् २, सुपमदुःपमाकाले भवेत् ३, दुःपमसुपमाकाले वा भवेत् ४, नो दुःपमाकाले भवेत् ५, नो दुमदुपयाकाले भवेन् ६ । सद्भाव मतीत्य नो मुपममुपमाकाले भवेत् १, नो लुपमाकाले भवेव २, सुपमदुःपमा. काले वा भवेत् ३, दु.पमसुपमाकाले वा भवेत् ४, दुःपमाकाले वा भवेत् ५, नो दुःपमदुःपमाकाले भवेत् ६,। यदि उत्सर्पिणीकाले भवेत् कि दुःपमदुःप. माकाले भवेत्१, दुःपणाकाले भवेत् २, दुःपमसुषमाकाले भवेत् ३, सुपम दुःपमा. काले भवेत् ४, सुपमाकाले भवेत् ५ ? सुपमसुषमाकाले भवेत् ६? गौतम ! जन्म प्रतीत्य नो द.पपदुःपमाकाले भवेत् १, दुःपमाकाले वा भवेत् २, दु.पमसुपमाकाले वा भवेत् ३, सुपमदुःपमाकाले वा भवेत् ४, नो सुपमाकाले भवेत् ५, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्रका टीका श०२५ उ.६ ०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् १०३ नो सुमसुमाकाले भवेत् ६, सद्भावं प्रतीश्य नो दुःपमाकाले भवेत् २, दुःषमाकाले भवेत् २, दुपपाकाले वा भवेत् ३, सुषमदुःपमाकालेा भवेद ४, नो सुपमाकाले भवेद ५, नो सुषमसुषमाकाले भवेत् ६, यदि नो अवसर्पिणी नो सर्पिणीका भवेत् किं सुषमसुषमा प्रतिभागे भवेत् ? सुषमदुःपमापतिभागे भवेत् सुपमसुषमा प्रतिभागे भवेत् ? गौतम ! जन्म सद्भावं च प्रतीत्य नो सुपमापतिभागे भवेत् नो सुपमामविभागे भवेत् नो दुःपमदुःपमां प्रतिभागे भवेत् दुःपमसुषमा प्रविभागे भवेत् । कुशः खलु पृच्छा - गौतम ! अवसर्पिणीकाले वा भवेत् उत्सर्पिणीका वा गचेत्-नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् । यदि अवसर्पिणीकाले भवेत् किम् सुषमसुषमाकाले पृच्छा गौतम ! जन्म सद्द्मायं च प्रतीत्य नो सुपमसुषमाकाले भवेत् नो सुषमाकाले भवेत् सुषमदुःपमाकाले वा भवेत् दुःषमयुपमाकाले वा भवेत् दुःषाकाले वा भवेत् - नो दुःषमदुःपमाकाले भवेत् । संहरणं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् समाकाले भवेत् । यदि उत्सर्पिणीकाले भवेत् किं दुःषमदुःषमाकाले भवेत् पृच्छा गौतम ! जन्म प्रतीत्य नो दुःपमदुःपाकाले भवेत् यथैव पुलाकः । सद्भावं प्रतीत्य नो दु. पमदुःपमाक'ले भवेत् -नो दुःपमाकाले भवेत् एवं सद्भावेनापि यथा पुलाको यावत् नो सुपमपमाकाले भवेत् संहरणं प्रतीत्यान्यतरस्मिन् समाकाले भवेत् । यदि नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले भवेत् पृच्छा गौतम! जन्म सद्भावं प्रतीत्य नो सुमसुमा प्रतिभागे भवेत् यथैव पुलाको यावत् दुःषयमा प्रतिभागे भवेत् । संहरणं प्रतीत्यान्यतरस्मिन् प्रतिभागे भवेत् यथा बकुशः, एवं प्रति सेवनाकुशीलोऽपि एवं कषायकुशलोऽपि । निर्ग्रन्थः स्नातकश्च यथा पुलाकः, नवरमेतयोरभ्यधिकं संहरणं भणितव्यम् शेषं तदेव ||०५ ॥ टीका - 'पुलाए णं भते ! कि ओसप्पिणीकाले होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! किमवसर्पिणीकाले भवेत् 'उस्सप्पिणीकाले होज्जा' उत्सर्पिणीकाले भवेत् बारहवां काल द्वार 'पुलाए णं भंते! किं ओसप्पिणीकाले होज्जा, उस्सप्पिणीकाले होज्जा' इत्यादि । - टीकार्य -- गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछ रहे हैं - 'पुलाए णं भंते ! किं ओप्पणीकाले होज्जा, उपसप्पिणीकाले होज्जा' हे भदन्त । हवे गारभा श्रीसद्वारनु प्रथम श्वासा आवे छे. 'पुलाएणं भंते! कि ओपी काले होजा उस्सप्पिणीकाले होज्जा' इत्याहि टीडअर्थ — गौतमस्वाभीमे अनुश्रीने भेवु पूछयु छे !-'पुलाए णं भंते ! किं ओसप्पिणी काले होज्जा, उस्सप्पिणीकाले होज्जा' से लगवन् युसाङ शु' उत्सर्पिषी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ भगवती सूत्रे 'णो ओसजिणी णो उपदिणीकाले होना' नो वणिजो उत्र्पणीका भवेत् सामान्यतः कालस्त्रिविधो भवनि अवसर्पिणीकाला उत्सर्पिणीकारः नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काळच तत्र भरतैरवतक्षेत्रेषु आयो हो अवसर्पिणी, उन्मर्पिणीheat भवतः, तथा तृतीयः कालो नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी नामकः महाविदेह हैमवतादि क्षेत्रेषु भवतीति तत्र करिकाले कुत्रक्षेत्रे पुलको जायते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'ओसपिणोरालेवा होज्जा' refootकाले वा भवेद पुलाक', 'उस्तष्पिणी काले वा होज्जा' उत्सर्पिणीकाले ar भवेत् 'णो ओपिणी णो उत्सपिणीकाले वा जा' तो अवसर्पिणी नो पुलाक पया अवसर्पिणीकाल में होता है अथवा उत्सर्पिणीका में होता है ? अथवा 'नो श्रसपिणी णो उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा' नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाल में होता है ? सामान्य से काल तीन प्रकार का होता है । अणीकाल, उत्सर्पिणीयोल और नो अर्पणी नो उत्सर्पिणीकोल, इनमें से भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र इन दो क्षेत्रों में आदि के दो अवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणी काल होता है । तथा तृतीयकाल तो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काल महाविदेह और हैमवतादि क्षेत्रों में होता है। इसी अभिप्रायले गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा प्रश्न किया है कि पुलाफ साधु किस काल में किस क्षेत्र में उत्पन्न होता है ? उसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! ओसपिणी काले होज्जा, उस्सप्पिणीका ना होज्जा, जो ओलपिणी णो उस्सप्पिणी काले वा होज्जा' हे गौतम! पुकारू अवसर्पिणी काल में अणमा होय छे ? } अवसर्पिली अजमा होय छे ? अथवा 'नो ओपिणी णो उस्सप्पिणी काले वा होज्जा' नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी अणसां द्वेय छे. સામાન્ય પ્રકારથી કાળ ત્રણ પ્રકારને હાય છે, અવસર્પિણીડાળ, ઉત્સર્પિણીકાળ અને ન અવસર્પિી ના ઉત્સર્પિણીકાળ તેમાથી ભરતક્ષેત્ર અને અરવતક્ષેત્ર આ એ ક્ષેત્રમાં આદિના બે અવસર્પિણી કાળ અને ઉત્સર્પિણી કાળ હૅય છે. તથા ત્રીજે કાળ ને અવસર્પિણી, ને ઉત્સપિČરીકાળ--મહાવિદેહ અને હંમવત વિગેરે વિગેરે ક્ષેત્રોમા હેાય છે એજ અભિપ્રાયથી શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવે। પ્રશ્ન કર્યાં છે કે-પુલાક સ ધુ કયા કાળમાં અને કયા ક્ષેત્રમા ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री गौतमस्वाभीने हे छे - 'गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणी काले वा होज्जा णो ओसप्पिणी जो उस्वप्पिणी- काले वा होज्जा' हे गौतम! चुसाई भूवसर्पिणी अपमां यासु Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् उत्सपिणीकाले वा भवेत् त्रितयकालेऽपि पुलांकस्योत्पतिर्भवति तत् तत् क्षेत्रेषु 'इति । 'जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा' यदि स पुलाकोऽवसर्पिणीकाले भवेत् तदा किम् 'सुसमसुसमाकाले होज्जा' सुपमसुषमाझाले-प्रथमारके भवेत्-समुत्पद्येत ? अथवा 'मुसमाकाले होज्जा' सुषषाकाले-द्वितीयारके भवेत्-समुत्पधेत अथवा "मुसमदुस्समाकाले होज्जा' सुपमंदुःपमाकाले-तृतीयारके भवेत् अथवा 'दुस्सम. सुसमाकाले होज्जा' दुःपमसुपमाकाले चतुर्थारके भवेत् अथवा 'दुस्समाकाले होज्जा' दुःषमाकाले पञ्चमारके भवेत् अथवा 'दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' दुपमदुषमाकाले-पष्ठारके भवेत् पुकाका प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपष्ठारकेषु कतमस्मिन् आरके समुत्पद्यते इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्मणं पडुच्च णो सुसमासुसमाकाले होज्जा' जन्म प्रतीत्य भी होता है, उत्सर्पिणी काल में भी होता है और नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काल में भी होता है। तीसरे काल में भी उन २ क्षेत्रों में पलाक की उत्पत्ति होती है। 'जह ओलप्पिणीकाले होज्जा सुसमसलमा. काले होज्जा' यदि अवसर्पिणीकाल में पुलाक की उत्पत्ति होती है तो क्या वह सुषमसुषमा नाल के प्रथम आरक में होता है १, अथवा 'सुसमा काले होज्जा' सुषमानाम के दूसरे आरे में होता है २. अथवा 'सुसंसदुस्समाकाले होज्जा' सुषमदुःषमा नाल के तृतीय आरक में होता है ३ अथवा-'दुस्समसुसमाकाले होजना' दुषमसुषमा नाम के चतर्थ आरक में होता है ४, अयवा-'दुस्लमा काले होता' दुष्पमा नामके ५, पांचवें आरक में होता है ? अथधा-'दुस्मयदुरसमा फाले होज्जा' दुष्षमदुष्षमा नामके छठे आरक मे होना है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो सुरुमसुमाकाले होज्जा' હોય છે. ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણ હેય છે. અને તે અવસર્પિણી નો ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણ હોય છે. ત્રીજા કાળમાં પણ તે તે ક્ષેત્રોમાં મુલાકની ઉત્પત્તિ હોય छे. 'जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा, सुस मसुसमाकाले होज्जा' ने Aajी मां જુલાકની ઉત્પત્તિ હોય છે તો શું તે સુષમસુષમા નામના પહેલા આરામાં હોય छ ? १ मथवा 'सुसमा काले होज्जा' सुषमा नाभन भी मा२ मा डाय छ १२ अथवा 'सुसमदुस्समाकाले होज्जा' सुषम हुषमा नाभना त्रlan मारामा हाथ छ १ अथवा 'दुस्समसुसमाकाले होज्जा' दुषभ सुषमा नामना याथा मारामां लेय छ १४ अथवा 'दुस्समाकाले होज्जा' हुपमा म य छ ? ५ मर्यात पायमा मारामा हाय ? अथवा 'दुस्सम दुसमाकाले होजा' हुपम पमा નામના છઠ્ઠા આરામાં હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छे ४-'गोयमा ! जम्पणं पडुनच णो सुसमसुसमाकाले होज्जा' हे गीतम! भ० १४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भगवती जन्मापेक्षयेत्यर्थः सुपमसुपमाकाले - मथमारके नो भवेत्, तथा 'जो सुसमा काछे होज्जा' नो सुपमाकाले, द्वितीयारकेऽपि न भवेत् जन्मापेक्षया आद्यद्वितीयारके न समुत्पद्यते पुलाक इत्यर्थः । किन्तु 'सुममदुस्समा काले होज्जा' सुपमदुःपमाकाळे - आदिनाथका भवेत् तथा 'दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा' दुःषमसुषमाकाले वा भवेत् समुत्पद्येत इत्यर्थः 'नो दुस्सयाकाले होना नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' नो दुःधमाका नो वा दुःपमदुपमाकाले भवेत् । 'संतिभावं पच्च णो सुसम सुसमाकाले होना णो सुसमाकाले होज्जा' सद्भावं प्रतीत्य नो सुपमपमाकाले भवेत् नो वा सुपमाकाले भवेत्, सद्भावापेक्षया मथमद्विती यारके न भवतीत्यर्थः, किन्तु 'सुममदुस्समाकाले होज्जा दुस्समसमाकाले वा हे गौतम ! वह जन्म की अपेक्षा लेकर सुषमसुपमा नामके प्रथम भारक में नहीं होता है तथा 'णो सुनमाकाले होज्जा' सुषमानाम के द्वितीय आरक में भी नहीं होता है किन्तु 'सुसमदुस्समाकाले होज्जा' सुषमदुःषमाकाल में आदिनाथ के समय में तृतीय आरक में होता है । तथा - दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा' दुःषमसुषमाकाल में चतुर्थ आरक में भी वह होता है । 'नो दुखमाकाले होज्जा' नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' पर दुपमाकाल में वह नहीं होता है और न वह दुःपमदुः षमाकाल में भी होता है । 'संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले होज्जा णो सुसमाकाले होज्जा' सद्भाव की अपेक्षा से वह पुलाक साधु प्रथम सुषमसुषमा काल में नहीं होता है द्वितीय सुषमा काल में भी नहीं होना है। किन्तु 'सुसमदुस्समाकाले होज्जा दुस्समसुलमाकाले वा होज्जा' सुषम તે જન્મની અપેક્ષાએ સુષમ સુષમા નામના પહેલા આરામાં હાતા નથી, 'णो सुखमाकाले होज्जा' सुषभा नाभना जीन्न भाराभां पशु होता नथी. परंतु 'सुखमदुस्समाकाले होज्जा' सुषभ दुप्पमा भणसां भेटो मे माहिनाथ लगवान्ना सभयभां श्रील भाराभां होय हे तथा 'दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा' दुःषभ सुषभा अणसां खेटये है गाथा मारामां पशु ते होय छे. 'नो दुस्प्रमाकाले होज्जा, नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' परंतु दुःषभा अणभां ते होता नथी. तेभर हु'षभ दुषभा अणभां पलु होता नथी. ' संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुखमाकाले होजा णो सुसमाकाले होज्जा' सहुलावनी रपपेक्षाथी ते પુલાક સાધુ પહેલા સુષમ સુષમા કાળમાં હાતા નથી. બીજા સુષમા કાળમાં या होता नथी. परंतु 'सुखमदुम्समाकाले होज्जा' दुस्समसुखमाकाले वा હોજ્ઞા' સુષમ દુઃખમા કાળમાં હોય છે, દુઃખમ સુષમા કાળમાં હાય છે, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ ०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् १०७ होज्जा - दुस्समाकाले वा होज्जा' सुषमदुःषमाकाले भवेत् दुःषमसुपपाकाले वा भवेत् दुःषमाकाले वा भवेत् एतस्मिन् कालत्रये सद्भावापेक्षया भवतीत्यर्थः, 'नो दुस्समदुखपाकाले होज्जा' दुःषमदुःपमाकाले-पप्ठारके नो भवेत् पुलाको जन्मापेक्षा तृतीयारस्याऽन्तिमभागे तथा चतुर्थे आरके भवति, तथा सद्भा वापेक्षया तृतीयचतुर्थपञ्चमारकेऽपि भवेत् तत्र यदि यः चतुर्थार के समुत्पन्नो भवेत् तस्य पञ्चमारके सद्भावो भवति तृतीयचतुर्थारकयो र्जन्मसद्भावो उभावपि भवतः । उत्सर्पिणीकाले तु द्वितीयचतुरकेषु पुलाको जन्मापेक्षया भवति, तत्र हि द्वितीयारकस्यावसाने समुत्पद्यते तथा तृतीयारकस्य प्रारम्भभागे चारित्रं स्वीकुर्यात् वृत्तीयचतुर्थारकयोस्तु जन्मचारित्रमेतदुभयमपि भवति दुम्मा काल में होता है, दुःषमसुषमाकाल में होता है और दुःषमा जो पंचम काल है उसमें होता है । 'नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' छठा आरक जो दुःषम दुःषमा है उसमें नहीं होता है । तात्पर्य इस समस्त कथन का ऐसा है कि पुलाक, जन्म की अपेक्षा तृतीय आरक के अन्तिम भाग में और चतुर्थ आरकमें होता है तथा सद्भाव की अपेक्षा तृतीय चतुर्थ और पंचम आरकों में भी होता है। इन आरको में से यदि वह चतुर्थ आरक में उत्पन्न होता है तो उसका सद्भाव पंचम आरक में होता है । इस प्रकार तृतीय चतुर्थ आरकों में जन्म और सद्भाव ये दोनों भी होते हैं उत्सर्पिणी काल में तो द्वितीय तृतीय और चतुर्थ इन आरकों में पुलाक जन्म की अपेक्षा से होता है । यहां इनमें यह द्वितीय आरक के अन्त में उत्पन्न यदि होता है तो तृतीय आरक के प्रारम्भ भाग में चारित्र को अङ्गीकार कर लेता है । इस मने दुःषभा ने पांयम आहे तेमां होय छे. 'नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' છઠ્ઠો આરા જે દુઃષમ દુઃખમા છે, તેમાં હાતા નથી. આ સઘળા કથનનુ તાપ એ છે કે—પુલાક જન્મની અપેક્ષાથી ત્રીજા, અને ચાથા મારાએના પહેલા ભાગમાં હાય છે. તથા સદ્ભાવની અપેક્ષાથી ત્રીજા, ચેાથા અને પાંચમા આરામાં પણ હાય છે, આ આરાઓમાંથી જે તે ચેાથા આરામાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે તેના સદ્ભાવ પાંચમા આરામાં હાય છે આ રીતે ત્રીજા અને ચેથા આ આરાઓમાં જન્મ અને સદ્ભાવ આ બન્ને હાય છે. ઉત્સપિ શી કાળમાં તે ખીજા ત્રીજા અને ચાથા આ આરાઓમાં જન્મની અપેક્ષાથી પુલાક હાય છે. અહીંયાં તે ખીજા ારાના અંતમાં જે ઉત્પન્ન થાય છે, તે ત્રીજા આરાના પ્રાર'ભ કાળમાં ચારિત્ર સ્વીકારી લે છે. આ રીતે ત્રીજા અને Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ भगवतीसूत्र सद्भावापेक्षया तु तृतीयचतुर्थारकायोरेत्र चारित्रप्रतिपत्तिभवतीति समुदितार्थः । 'जई उस्सप्पिणीकाले होज्ना' यदि स पुलाक उत्सर्पिणीकाले भवेत् तदा-कि 'दूसमसमाकाळे होज्जा १' किं दुःपमदुःपनाकाले उत्सर्पिण्याः प्रथमारके खलु समुत्पद्यते अथवा 'दुममाकाले होज्जा' दुपमाकाले भवेत् अथवा 'दुसमसुसमाकाले होना' दुःपासुपमाकाळे उत्सर्पिण्या स्तृतीयारके भवेत् अथवा 'सुसमदूसमाकाले होज्जा' सुपमदापनाकाले भवेत् अथवा 'सुसमाकाले होज्जा' सुषमाकाले भवेत्अथवा 'मुसमसुप्तमाकाले होज्जा' सुपमसुपमाकाले पष्ठारके भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्मणं पडुच्च' जन्म प्रतीत्यप्रकार तनीय और चतुर्थ इन दो आरकों में जन्म और सद्भाव ये दोनों भी होते हैं एवं सद्भाव की अपेक्षा तृतीय और चतुर्थ आरकों में ही चारित्र की प्रतिपत्ति होती है। 'जह उस्सप्पिणीकाले होज्जा' यदि वह पुलाक उत्सर्पिणी काल में होता है तो क्या वह 'दुस्तमदुस्लमालाले होजा' दुःपानदुःपमाकाल नामक प्रथम आरक में होता है ? अथवा 'दुस्लमाकाले होज्जा' दुःपमाकाल में-द्वितीयकाल में-होता. है ? 'दुस्समलुलमाका होज्जा' अथवा दुःषमसुषमाकाल में होता है ? तृतीय काल में होता है ? अथवा 'सुसमदुस्लमाकाले होज्जा' चतुर्थ सुषमापनाकाल में होता है ? अथवा 'सुसमा काले शोज्जा' पांचवें सुषमाकाल में होता है, अथवा 'सुसमसमाकाले होज्जा' उत्सर्पिणी के सुषमसुषमानाम के छठे आरया में होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयना ! जस्मणं पडुच्च' हे गौतम! ચોથા આ બે આરાઓમાં જન્મ અને સદ્ભાવ એ બને પણ હોય છે. અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી ત્રીજા અને ચોથા આરાઓમાં જ ચારિત્રની ઉત્પત્તિ डाय छे. 'जइ उस्सप्पिणीकाले होज्जा' ने ते पुक्षा सqिी मां डाय छ, तशुत 'दुस्समदुम्समाकाले होज्जा' हम दुषमा मां-पडसा णमा Bाय छ ? अथवा 'दुस्समाकाले होजा' हु:५मा ४i-lat mi डाय छ १ 'दुस्समसुसमाकाले होज्जा' अथवा :पम सुषमा मत हाय छ-त्री भी डाय छ १ अथवा 'सुसमदुस्समाकाले होज्जा' याथा सुषम पभा डाय छ १ अथवा 'सुसमाकाले होज्जा' पांयमा सुषमा आमा डायथे। अथवा 'सुसमसुसमाकाले होज्जा' Gral gीना सुषम सुषमा नामना ૬ છઠ્ઠા આરામાં હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામી ને કહે -गोयमा! जम्मण पडुच्च' है गौतम! मनी मपेक्षाथी पुसा साधु Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०५ द्वादशं कालद्वारा निरूपणम् २०६ जन्मापेक्षया इत्यर्थः ' णो दुस्समदुस्समाकाचे होज्जा' नो दुःषमदुःपमा काले भवेत् दुःषमदुःपमाकाले नैव समुत्पद्यते पुलाक इत्यर्थः, किन्तु 'दुस्समाकाले वा होज्जा' दुःषमाकाले वा भवेत् जन्मापेक्षया, तथा 'दुस्सम सुसमाकाले वा होज्जा' दुःसुषमाकाले वा भवेत् तथा - 'सुममदुस्समाकाले वा होज्जा' सुषमदुःपमाकाले वा भवेत्, 'नो सुषमाकाले भवेदिति । 'संविभावं पडुच' सद्भावं प्रतीत्य, 'नो दुसमदुसमाकाले होज्जा' नो दुःपमदुःपमाकाले भवेत् किन्तु 'दुसमाकाले - होज्जा' दुःपमाकाले भवेत् ' दूसमसुममाकाले वा होज्जा सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा' दुःषमसुषमाकाले वा भवेत् सुपमदुःपमाकाले वा भवेत् 'णो सुसमाकाले होजा णो सुसम सुसमाकाले होज्जा' नो सुपमाकाले भवेत् नो वा सुपम सुपमाकाले. जन्म की अपेक्षा पुलाक साधु 'णो दुस्खमदुस्समाकाले होज्जा' दुःषमदुःखमाकाल में नहीं होता है- 'दुस्लमाकाले वा होज्जा' किन्तु दुमकाल में होता है । 'दुस्समसमकाले वा होज्जा' दुःषमसुषमाकाल में होता है 'सुसमदुस्समाकाले होजा' सुषमदुःषमा काल में-होता है तथा 'नो । सुषनाकाले होजा नो सुसमसुसमाकाले होज्जा' वह सुषमाकाल में नहीं होता है और न सुषमसुषमाकाल में होता है । 'संतिभावं पडुच्च' तथा सद्भाव की अपेक्षा लेकर 'नो दुस्सम दुस्स: माकाले होज्जा' दुःषम दुःषमा काले में नहीं होता है। 'जो दुस्समाकाले होज्जा' दुःषमाकाल में नहीं होता है 'दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा' दुःषम सुषमोकाल में होता है । और सुषमदुःषमाकाल में होता है । 'नो सुसमाकाले होज्जा णो सुसम सुसमा काले होज्जा' सुषमाकाल में तथा सुषमसुषमाकाल में नहीं - ‘णो दुस्स्रमदुस्स्रमाकाले होज्जा’ हु.षभ दुःषभा अणमा होता नथी. 'दुस्समाकाले वा होज्जा' पर ंतु दुःषभा अणभां होय छे. 'दुःखमसुस्रमकाले वा होज्जा' हु षभ सुषमा अणभां होय छे. 'सुखमदुः खमाकाले होज्जा' सुषभ दुःषमा अजमां होय छे, तथा 'नो सुप्रमाकाले होज्जो नो सुसमसुसमाकाले होज्जा' ते सुषभा अणमां होता, नथी मने सुषभ सुषभां अणभां पशु होता नथी 'संतिभावं पडुच्च' तथा सहुलावनी अपेक्षाथी 'नो दुस्समदुरखमाकाले होज्जा' हुषभ हु.षभा अणमां होता नथी... 'दुस्समाकाले होज्जा' हु.षभा अणभां होय छे. 'दुस्सम सुसमाकाले वा होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा' हु.षभ सुषभा अणभां होय छे, मने सुषभ दुःषभा अणमां होय छे. 'णो सुसमाकाले होज्जा णो सुसमसुखमाकाले होज्जा' सुषभ... કાળમાં તથા સુષમ સુષમા કાળમાં હાતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भंगवतीचे भवेत् । उत्सर्पिणीकाले द्वितीयतृतीयचतुर्थारकेषु पुलाको जन्मापेक्षया भवति तत्र जन्मापेक्षया द्वितीयारकस्यान्ते जायते तृतीयारके तु चारित्रमवाप्नोति, तृतीयचतुर्थारकयोस्तु उत्पद्येत चारित्रं प्राप्नोति, सद्भावापेक्षया तु तृतीयचतुरिकयोरेव पुलाकस्य सत्ता भवति-तृतीयचतुर्थयोरेवारकयोरेव चारित्रमाप्तिरपि भवतीति सारांशः । 'जइ नो ओसप्पिणी नो उस्सप्पिणीकाले होज्जा कि सुसमसुसमापलिमागे होज्जा' यदि स पुलाको नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले भवेत् तदा किं सुपमसुपमा प्रतिभागे भवेत् सुपमायाः प्रतिभागः-सादृश्यं विद्यते यस्मिन् काले स सुषमझुपमा प्रतिभागः तस्मिन् सुपभसुपमा प्रतिभागे-सुपमसुपमा समानकाले भवेत् । 'सुसमा पलिमागे होज्जा' सुपसाप्रतिभागे-सुपमा समानकाले भवेत् । अथवा 'सुसमदुःस्समापलिभागे होजा' सुपमदुःपमाप्रति. होता है तात्पर्य इसका यही है कि पुलाक जन्म की अपेक्षा उत्सर्पिणी काल के द्वितीय तनीय और चतुर्थ इन आरकों में होता है वह द्वितीय आरक के अन्त में उत्पन्न होता है और तृतीय आरफ में चरित्र प्राप्त करलेता है। तथा तृतीय और चतुर्थ आरक्ष में तो यह उत्पन्न होता है और वहीं पर वह चारित्र भी धारण करलेता है। सदभाव की अपेक्षा तृतीय और चतुर्थ आरक में ही इसकी सत्ता होती है और वहीं पर इसे चारित की प्राप्ति हो जाती है। __ 'जह नो ओसप्पिणी नो उस्लपिणी काले होजना' है भदन्त ! वह पुलाक साधु यदि नो अवसर्पिणी लो उपलर्पिणी काल में होता है तो किं सुसापसुसमापलि भागे होजमा सुसमालि भागे होज्जा' क्या बह सुषम लुपमा के समान काल में उत्पन्न होता है ? अथवा सुषमा समान काल में उत्पन्न होता है ? अथवा 'सुलमदृसमापलि भागे ક-પુલાક જન્મની અપેક્ષાથી ઉત્સર્પિણી કાળના બીજા, ત્રીજા અને ચોથા આ રાઓમાં હોય છે તે બીજા આરાના અંતમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ત્રીજા રામાં ચારિત્ર પ્રાપ્ત કરે છે. તથા ત્રીજા અને ચોથા આરામાં તે ઉત્પન છે. અને ત્યાં જ તે ચારિત્ર પણ ધારણ કરે છે. સદ્દભાવની અપેક્ષ થી અને ચોથા આરામાં જ તેની સત્તા હોય છે, અને ત્યાં જ તેને । प्राति ५६ तय छ 'जइ नो ओसप्पिणी नों उस्सप्पिणी काले होज्जा' हे मावन ते साड જે ને અવસર્પિણી ન ઉત્સર્પિણી કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તો “જિં मा लिभागे होज्जा सुसमापलिभागे होज्जा' शुत सुषभाना स२४॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् .१११ भागे-समानकाले भवेत् अथवा-'दुस्सपसुसमापलिभागे होज्जा' दुष्षमा सुषमापविभागे भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जमणसंतिभावं पडुच्च' जन्मसद्भावं प्रतीत्य जन्मापेक्षया सद्भावापेक्षया चेत्यर्थः, 'णो सुसमसुसमापलिभागे होजना' नो सुषमसुषमापतिमागे भवेत् स पुलाकः । 'नो सुसमापलिभागे होज्जा' नो सुषमाप्रतिभागे भवेत् 'नो मुसमदसमापलिभागे होज्जा' नो सुषमदुषमाप्रतिभागे भवेत् किन्तु 'दुस्सम. मुसमापलिभागे वा होज्जा' दुःषमसुषमाप्रतिभागे वा भवेदिति सुषमसुषमाया: होज्जा' सुषम दुःषमा के समान काल में उत्पन्न होता है ? 'दुस्सम सुसमापलि भागे होज्जा' अथवा दुःषममुषमा के समान काल में उत्पन्न होता है ? सुषमसुषमा का प्रतिभाग समानता जिस काल में होवे वह सुषमसुषमा प्रतिभाग काल है इसी प्रकार से सुषमा प्रतिभाग आदि में भी समझना चाहिये ऐसा यह प्रश्न गौतम ने इसलिये किया है कि ऐसा काल देवकुरु आदि अकर्मभूमियों में है। इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जमरण संतिभावं पडुच्च णो सुसमससमापडिभागे होज्जा' हे गौतम जन्म और सदभाव की अपेक्षा लेकर जब तुम्हारे प्रश्न के उत्तर का विचार किया जाता है तब तो वह सुषमसुषमा के समान काल में उत्पन्न नहीं होता है 'नो सुसमा. पलिभागे होज्जा' सुषमा के समान काल में उत्पन्न नहीं होता है 'णो सुसमदुस्लमापलिभागे होजना' सुषमदुःषमा के समान काल में उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु-'दुस्लम सुसमापलि भागे होऊमा दुःषमसुषमा के अभi surrथाय छ १ अथवा 'सुसमदूसमापलिभागे होज्जा' सुषम हमान। सरमा म जपन्न थाय छ ? 'दुस्समसुसमापलिभागे होजा' अथवा हम સુષમાના સરખા કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? સુષમ સુષમાનો પ્રતિભાગસરખાપણાવાળે જે કાળમાં હોય તે સુષમ સુષમાં પ્રતિભાગ કહેવાય છે. એ જ રીતે સુષમા પ્રતિભાગ વિગેરેમાં પણ સમજવું. આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ એ માટે કર્યો છે કે-આ કાળ દેવકુર વિગેરે અકર્મભૂમીમાં છે. આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा । जम्मण सतिभाव पडुच्च को सुसमसुसमापडिभागे होज्जा' गौतम ! भनी मपेक्षाथी न्यारे तमाश પ્રશ્નનો વિચાર કરવામાં આવે છે. ત્યારે તે સુષમ સુષમાના સમાન કાળમાં त्पन्न यता नथा. 'नो सुसमापलिभागे होज्जा' सुषमाना समान भी Gr4-1 यता नथी. 'णों सुसमदूखमापलिभागे होज्जा' सुषम दृषभाना समान Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावतीने 'समानकालो देवकुरुत्तरकुरुपु भवति, सुपमासमानकालः हरिवपरम्पकवर्षेषु भवति, हैमवतहरण्यवतेषु सुपमदुःपमा समानकालो भवति, एतेषु त्रिपु क्षेत्रेषु 'पुलोको नवोत्पद्यते, दु:पमसुपमासमानकालश्च महाविदेहेषु भवति, अत्र पुलाक उत्पद्यते इति । 'वउसेणं पुच्छा' बकुशः खलु भदन्त ! किम् अवसर्पिणीकाले भवेत् उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ओस. प्पिणी काले वा होज्जा उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा णो ओसप्पिणी णो उस्ससमान काल में उत्पन्न होता है । सुषमसुषमा के समान काल देवकुंभ उत्सर कुरु में होता है सुषमा के समान काल हरिवप और रम्यक वर्ष में होता है सुषम दुषमाके समान फाल हिमवंत और ऐण्यवतक्षेत्र में होता है और दुःषमसुषमा के लमान काल महाविदेह क्षेत्र में होता है। इन में से तीन क्षेत्रों में पुलाक उत्पन्न नहीं होता है और सद्भाव भी नहीं होता है । दुःषमसुषमा के समानताल विदेह क्षेत्रों में होता है इसमें पुलाक की उत्पत्ति होती है यह घात ऊपर प्रकट कर दी गई है। 'बउसे णं पुच्छा' गौतमस्वामी ने इस मूत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! पकुश लाधु क्या उत्सर्पिणीकाल में होता है ? अथवा अवमर्पिणी काल में होता है ? अथवा नो उत्मर्पिणी नो अवसर्पिणी काल में होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा ! ओखप्पिणी काले वा होजा, उस्लप्पिणी काले वा होज्जा' Hi Gurन यता नथी. ५२'तु 'दुस्समसुसमापलिभागे होजा' हुपम सुषમાતા સરખા કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સુષમ સુષમાને સમાન કાળ દેવકુફ ઉત્તરકુરૂમાં હોય છે. સુષમાને સમાનકાળ હરિવર્ષ અને રમ્યક વર્ષમાં હોય છે. સુષમ દુષમાને સમાન કાળ હિમવંત અને અરણ્યવત ક્ષેત્રમાં હોય છે. અને દષમ સુષમાને સમાન કાળ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં હોય છે. આ ત્રણ ક્ષેત્રમાં પુલાક ઉત્પન્ન થતા નથી. દુઃષમ સુષમાને સમાન કાળ વિદેહ ક્ષેત્રમાં હોય છે. તેમાં પુલાકની ઉત્પત્તી હોય છે, એ વાત ઉપર બતાવવામાં આવી છે. 'बउसेणं पुच्छो' 'श्रीगीतभरपाभी मा सूत्रद्वारा प्रसुश्रीन से ५७यु છે કે હે ભગવન બકુશ સાધુ શું ઉત્સર્પિણી કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા અવસર્પિણી કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા ને ઉત્સર્પિણી ને અવસર્પિણી કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ पामा ४९ छ है-'गोंयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होज्जा, उस्स प्पिणीकाले वा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " threat टीका ०२५ ४०६ ०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् विणकाले वा होज्जा' अवसर्पिणीकाले वा भवेत् वकुशः, उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् नों अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेदित्युत्तरम् | 'नइ ओसपिणीire stori समसमाकाले होना- पुच्छा' यदि स वकुशः अवसर्पिणीकाले भवेत् तदा किं सुषमसुषमाकाले भवेत् सुषमाकाले वा भवेन् सुपमनुपमांकाले वा भवेद दुष्पमपमा काले वा भवेत् दुष्पमाकाले वा भवेत् दुष्पमदुष्पमा काले वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' है गौतम ! 'जमणं संतिभावं च पहुच्चे' जन्म सद्मावं च प्रतीत्य जन्मापेक्षया सद्भावापेक्षया चेत्यर्थः, 'णो सुमसुममाकाले होज्जा णो सुसमाकाले होज्जा' णो ओपिणी णो उत्सपिणीकाले वा होज्जा' हे गौतम | बकुश साधु अवसर्पिणी काल में भी हो सकता है उत्सर्पिणी काल में भी हो सकता है और नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काल में भी उत्पन्न हो सकता है । 'जह ओसपिणी काळे होज्जा, किं सुमसुम्माकाले होज्जा पुच्छा' यदि हे भदन्त | वकुश अवसर्पिणी काल में होता है तो क्या वह सुषमसुषमा नाम के पहिले आरे में होना है ? अथवा सुषमा नाम के द्वितीय आरे में होता है ? अथवा सुषम दुःपना नामके तृतीय आरे में होता है ? अथवा दुःषमसुषमा नामके चतुर्थ आरे में होता है ? अथवा दुःपमा नाम के पांचवें आरे में होता है ? अथवा दुःषम दुःषमा नाम के छठे आरे में होना है ? हमने उसर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं- 'नोमा ! जपणं संतिभाव पडुच्च' हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा से चकुण साधु 'णो सुसम ११३ होज्जा, णो ओखप्पिणी, जो उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा' हे गीतभ ! मडुश - साधु અવસર્પિણી કાળમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે, અને ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણુ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, તથા ને ઉત્સર્પિણી ક'ળ તથા ને અવસર્પિણી કાળમાં પણુ उत्पन्न थर्ध शठे छे. 'जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा कि सुनमसुसमाकाले होज्जा पुच्छा' हे भगवन् ने महुश उत्सर्पिणी प्रणभां उत्पन्न थाय छे, तो शु સુષમ સુષમાના પહેલા આરામાં ઉત્પન્ન થાય છે અથવા સુષમા નામના ખજા આરામાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા સુષમા દુષમા નામના ત્રીજા આર માં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દુષમ સુષમા નામના ચેાથા આરામાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દુઃષમા નામના પાંચમાં અરામાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દુઃખમ દુઃખમાં નામના છઠ્ઠા આરામાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ईडे ४ है-'गोयमा ! जंमणं संतिभावं पडुच्च' हे गौतम! कन्म भने सङ्घ भ० १५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे सुपमसुषमाकाले न भवति वकुशः, नो वा सुपमाकाले भवेत् किन्तु 'सुसमदुस्समा - काले चा होज्जा दुस्समसमाकाले वा होज्जा दुस्समाकाले वा होज्जा', सुपमदुष्पमाकाले वा भवेत् दुष्पमपमाकाले वा भवेत् दुष्पमाकाले वा भवेत् किन्तु 'नो दुस्समदुरसमाकाले होज्जा' नो दुष्पमदुष्पमाकाले भवेत् 'साहरणं पडच अन्नयरे समाकाले होज्जा' संहरण प्रतीत्य पुनः अन्यतरस्मिन् समाकाले भवेत् वकुश इति । 'जइ उस्सप्पिणीकाले होज्जा' यदि स चकुश उत्सर्पिणीकाले भवेत् तदा 'किं दुस्समदुस्समाकाले होज्जा - पुच्छा' कि दुष्पमदुष्पमाकाले वा भवेत् दुष्पमाकाले वा T ११४ सुसमा काले होज्जा णो सुसमा काले होज्जा' न सुषमसुषमा नामके प्रथम आरे में होता है न सुपमा नाम के द्वितीय आरे में होता है 'समस्याकाले वा होज्जा, दुस्समसमाकाले वा होज्जा' किन्तु सुषम दुःषमा नाम के तृतीय आरे में होता है और दुःषमसुषमा नाम के चतुर्थ काल में होता है । 'दुस्समाकाले वा होज्जा' 'दुष्षमा नाम के पांचवें आरे में उत्पन्न होता है । किन्तु 'नो दुस्समसमाकाले होज्जा' दुष्षमदुष्षधा नाम के छटे आरे में नहीं होता है । 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होज्जा' संहरण की अपेक्षा से तो यकुश साधु किसी भी आरे में हो सकता है । 'जह उस्सप्पिणी काले होज्जा' यदि हे भदन्त ! वह वकुश साधु उमर्पिणी काल में होना है तो 'किं दुस्सम दुस्समाकाले होज्जा पुच्छ ।' क्या वह दु:षम दुःषमा काल में होता है ? अथवा दुष्षमाकाल में होता भावनी अपेक्षाथी अङ्कुश साधु ' णो सुसमसुसमाकाले होज्जा णो सुसमाकाले હોજ્ઞ” સુષમ સુષમા નામના પહેલા આરામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. અને સુષમા 'नामना मील भाराभां पशु उत्पन्न थता नथी. 'सुममदुस्समाकाले वा होज्जा दुस्सम सुसमाकाले वा होन्जा' परंतु सुषभ दुःषभा नामना श्रील भारामां ઉત્પન્ન થાય છે અને દુઃખમ સુષમા નામના ચેાથા આરામાં પણ હાય છે. 'दुस्समाकाले वा होज्जा' दुःषभा नामना पांयमा आरामां उत्यन्न थाय छे. परंतु 'ना दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' हु.षभ हु.षभा नामना छठ्ठी भाराभ उत्पन्न थता नथी 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे खमाकाले होज्जा' संडरगुनी अपेक्षाथी तो अङ्कुश साधु यिशु भारामां था शडे छे ? 'जइ उस्सप्पि - णीकाले होजा' हे अगवन् ले ते अङ्कुश साधु उत्सर्पिी अजमां होय छे, तो 'किं दुस्खमदुस्वमाकाले होजा पुच्छा' शुद्ध ते दुःषभ दु.षभा अणभां डाय છે અથવા દુખ કાળમાં હેચ છે? અથવા દુષ્પમ સુષમા કાળમાં હાય છે ? Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् भवेत् दुध्यममुपमा झाले वा भवेत् सुषमदुष्पनाकाले वा भवेत् मुपमाकाले वा भवेत् सुषमसुषमाकाले वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोश्मा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्मणं डुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा जव पुलाए' जन्म प्रतीत्य नो दुष्षमदुष्पमाकाले भवेत् वकुशः यथैव पुलाकः, पुलाकविषये यथा कथितं सर्व वकु शविषयेऽपि ज्ञातव्यम् तथाहि-दुष्पमाकाले भवेत्दुष्पमसुषमाकाले वा भवेत् सुपमदुष्पमाकाले वा भवेत् नो सुषमाकाले भवेत् न वा सुपमसुषमाकाले भवेदिति । 'संतिभावं पडुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होजा' सद्भावं प्रतीत्य सद्भावापेक्षया इत्यर्थः, नो दुष्षमहुष्पमाकाले भवेत्, 'नो दूसमाहै ? अथवा दुःषमसुषमा काल में होता है ? अथवा सुषम दुषमाकाल में होता है ? अथवा लुषमा काल में होता है ? अथवा सुषमसुषमा काल में होता है ? इस गौतमस्वामी के प्रश्न के समाधान निमित्त प्रभुश्री उनसे कहते हैं-'गोयमा! जम्मणं पडुच्च' हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा से तो वह बकुश साधु उत्सपिणी काल के 'नो दुस्समदुस्समा काले होज्जा जहेव पुलाए' दुष्षमदुष्षमा काल में उत्पन्न नहीं होता है इस प्रकार का जैसा कथन पुलाक साधु के विषय में कहा गया है उसी प्रकार का समस्त कथन बकुश के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये। तथा च वह धकुश साधु उस्लपिणी काल के दु.षमा आरे में उत्पन्न होता है दुष्षम सुषमाताल में उत्पन्न होता है सुषमदुष्षमकाल में उत्पन्न होता है सुबमाकाल में अथवा सुषमसुषमाकाल में वह उत्पन्न नहीं होता है। 'संलियावं पडुच्च जो दुस्समदस्समा काले होज्जा' सद्भाव की अपेक्षा से वह बकुश साधु दुषमा અથવા સુષમ દુષમા કાળમાં હોય છે? અથવા સુષમા કાળમાં હોય છે ? અથવા સુષમ સુષમા કાળમાં હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ २वामीन ४९ छ -'गोचमा! जम्मणं पडुच्च' 3 गौतम! सन्मनी असे. साथी त म साधु Salqeी जना 'नों दुस्सम दुस्समाकाले होज्जा जहेव पुलाए' षम हुषभ मा त्पन्न थता नथी. म. प्रभागेनु २ પ્રમાણે પુલાક સાધુના સબંધમાં કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન બકુશ સાધુના સ બ ધમાં પણ કહેવું જોઈએ. તથા તે બકુશ સાધુ ઉત્સર્પિણી કાળને દુષમા આર.માં ઉત્પન્ન થાય છે. દુષમ સુષમા કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સુષમ દુષમ કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે સુષમા કાળમાં तथा सुषम सुषमा णभा तत्पन्न थता नथी. 'संतिभावं पड़च्च, समापन अपेक्षाथी ते मधुश साधु 'नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ भगवतीसूत्र काले होज्जा' नो दुष्पमायाले भवेत् ‘एवं संतिमावेण वि जहा पुलाए' एवं सद्भावेनापि यथैव पुलामः, 'जाप णो सुममसुसमाकाले होज्जा सुसमदुस्समाकाले होज्जा-नो सुप्तमाझाले होज्जा' एतेपो ग्रहणं शवतीति । 'साहरणं पडुच्चः अन्नयरे समाकाले होज्जा' संहरणं प्रतीभ्य अन्यतस्मिन् समाकाले भवेदिति । 'जइ णो ओसप्पिणीकाले पुच्छा' यदि स बकुशो नो अनरिणी नो उत्सर्पिणी काले भवेत् तदा किं सुपमसुपमा प्रतिभागे भवेत् सुपमदुष्पमा भतिभागे वा भवेत् दुष्पममुषना प्रतिभागे भवेह कुश इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' दुबमाकाल में नहीं होता है 'लो दुषमा काले भवेत्' इसी प्रकार वह दुषमाकाल में भी नहीं पाया जाता है एवं संतिभावेण वि जहा पुलाए' इल प्रकार सद्भाव की अपेक्षा से भी समस्त कथन पुलाक के जैसाही जानना चाहिये 'जाय जो सुखमसुखमा काले होज्जा' यावत् घह उसमर्पिणीकाल के सुषमसुषमा आरे में नहीं पाया जाता है यहां यावत्पद से 'दुस्समस्तुसमा काले होज्जा, सुसमदुस्समाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, इस पाठ का ग्रहण हुआ है। 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होजना' संहरण की अपेक्षा से तो वह सुषमसुषमादि किसी भी एक समाजाल में पाया जा सकता है। ___ 'जह जो ओलषिणीकाले पुच्छा' हे भइन्त ! यदि वह बकुश नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी में होता है, तो क्या वह सुबमसुषमा के समान काल में होता है ? अथवा सुषमा काल में उत्पन्न होता है ? अथवा ધ્યમ દુષમા કાળમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. અર્થાત્ તેઓ તે કાળમાં હતા नथी 'नो दुप्पमाकाले भवेत्' से शेने ते दुषमा म ५ हात नथा. 'एव संतिभावेण वि जहा पुलाए' मा शत सहलानी अपेक्षाथी सघणु थन धुताना ४थन प्रमाणे । समा. 'जाव णों सुसमसुसमकाले होज्जा' यावत् તે ઉત્સર્પિણી કાળના સુષમ સુષમા આરામાં હોતા નથી. અહિયાં યાત્પદથી 'दुस्वमसुसमाकाले होज्जा, सुसमदुम्ससाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा' मा पाइने सह थय। छे. 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होज्जा' सहરણની અપેક્ષાથી તે તે દરેક કાળમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત બધા કાળમાં તેઓને સંભવ હોય છે. 'जइ णो ओरसप्पिणीकाले पुच्छा' में सावन शनी मक्सपि. થીમાં ને ઉત્સર્પિણીમાં હોય તે શું તે સુષમ સુષમાના સમાન કાળમાં હોય છે? અથવા સુષમ દુષમાના સમાન કાળમાં હોય છે? અથવા દુષમ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ ०५ द्वादर्श कालद्वारनिरूपणम् ૨૭ इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंमण संविभावं पहुच णो सुमसुममापडिभागे होज्जा' जन्म सद्भावं प्रतीत्य - जन्मसद्भावमपेक्ष्येत्यर्थः नो सुपमा सुपमा प्रतिभागे भवेत् ' जहेव पुलाए जाब दूसमसमापलिभागे होज्जा' यथैव पुलाको यावत् दुष्षमपयामविभागे भवेत् अत्र याचरपदेन-नो सुपमाप्रतिभागे भवेत्-नो सुषमनुष्पातिभागे भवेनदनयोः संग्रहो भवतीति । 'साहरणं पड़च्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' संहरणं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् प्रतिभागे भवेत् संहरणापेक्षया तुएषु यस्मिन् कस्मिंश्चिदेकस्मिन् काले भवेदित्यर्थः । 'जहा बउसे एवं पडि सेवणा कुसीले वि' यथा वकुशः एवं पतिसेवनाकुशील ेऽपि । प्रतिसेवना कुशलोऽपि 1 सुषमदुष्षमा के सामन काल में होता है ? अथवा दुप्पमसुषमा के समान काल में होता है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोपमा ! जम्म णं . संतिभावं पटुच्च णो सुमसुमा पडि मागे होज्जा' हे गौतम! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा करके वह पकुश सुषमसुषमा के समान काल में उत्पन्न नहीं होता है और न पाया जाता है 'जहेब पुलाए जाव दुस्ममसमा पलिभागे होज्जा' इत्यादि समस्त कथन पुलाक के कथन जैसा ही जानना चाहिये । 'जाब दुस्खमसुसमा पलिभागे होज्जा' यावत् वह दुष्षमसुषमा के समान काल में होता है । यहां याचपद से 'नो सुषमा प्रतिभागे भवेत् नो सुषमदुष्षमा प्रतिभागे भवेत्' इन दो पदों का संग्रह हुआ है । 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' संहरण की अपेक्षा वह किसी भी काल में हो सकता है । 'जहा बउसे एवं पडिसेबणा कुलीले वि' 'जैसा कथन वकुश के सम्बन्ध સુષમાના સમાન કાળમાં હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोंयमा ' जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमा डिभागे होन्जा' हे गौतम! જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી તે મકુશ સુષમ સુષમાના સમાન કાળમાં उत्पन्न थता नथी. अने ते असा होता पशु नथी, 'जहेब पुलाए जाव दुस्समसुष्टमापळिभागे होज्जा' विगेरे सघ उथन घुसाउना उथन प्रभा ४ सभवु लेई थी. 'जाव दुस्समसुसमा परिभागे होज्जा' यावत् a દુખમ सुषभाना समान अणभां होय छे. गडीयां यावत्पथी नो सुपमा प्रतिभागे भवेत् नों सुषमदुष्षमाप्रतिभागे भवेत्' मा मे होना सग्रह थयो छे, 'साहरण पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' सरगुनी अपेक्षाथी ते अर्थ पशु अणसां हो राडे छे, 'जहा वउसे एवं पडिसेवणाकुसीले वि' अङ्कुशना संधमां ने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र बकुशवदेव वक्तव्य इत्यर्थः, 'एवं कसायकुसीले वि' एवं वकुशवदेव कषायकुशीलोऽपि वक्तव्यः । 'णियंठो सिणाओय जहा पुलाओ' निग्रन्थः स्नातकश्च यथा पुलाकः, पुलाकवदेव एतौ निग्रन्थस्नातकौ वक्तव्यों इत्यर्थः । पुलाकापेक्षया एतयोःलक्षण्यं पुनराह-'णवरं' इत्यादि, 'गावरं एएसि अमहियं साहरणं भाणियव्यं' नवरम्-केवलम् एतयो निग्रन्थस्नातकयो रभ्यधिकं संहरणं भणितव्यम् पुलाकस्य पूर्वोक्तरीत्या संहरणं न भवतीति कथितम्-एतयोश्च संहरणं संभवतीति कृत्वा संहरणं वक्तव्यम्-निर्ग्रन्थस्नातकयोः संहरणापेक्षया सर्वकाले सदभावः कथितः, असौ पूर्वसंहतयो निग्रन्यस्नातकत्वमाप्तौ सत्यामेव तदपेक्षया ज्ञातव्यः, यतो वेदरहितानां साधूनां संहरणं न भवतीति तदुक्तम् । में किया गया है सो इसी प्रकार का कथन अनिलेवना कुशील के सम्बन्ध में भी करना चाहिये। 'एवं कलायकुसीले वि' कषाय कुशील के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कथन जानना चाहिये । 'णियंठो सिणाओ थ जहा पुलाओ' पुलाक साधु के कथन के जैसा कथन निर्ग्रन्थ और स्नातक साधुओं के सम्मन्ध में करना चाहिये । परन्तु पुलाक के कथन की अपेक्षा जो इन दोनों के कथन में भिन्नता है वह इस प्रकार से है -'णवर एएसि अमहिथं साहरणं भाणिय' कि इनका संहरण अधिक कहना चाहिये । पुलाक का पूर्वोक्तरीति ले संहरण नहीं होता है। ऐसा कहा गया है और इनका संहरण संभदित होता है अतः इनका संहरण कहना चाहिये। नियन्य और स्नातक का संहरण की अपेक्षा सर्वकाल में लदभाव कहा गया है सो यह पहिले संहृत हुए उनके निर्गन्धावस्था की और स्नातक अवस्था की प्राप्ति हो जाने से પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણેનું કથન પ્રતિસેવના કુશી सना सभा ५९ ४२वु नये. 'एवं कसायकुसीले वि' षाय शासना समयमा ५५ मे प्रभातुं ४थन सम४यु' 'णियठों सिणाओय जहा पुलाओं' પુલાક સાધુના કથન પ્રમાણેનું કથન નિગ્રંથ અને સ્નાતક સાધુઓના સંબં. ધમાં કરવું જોઈએ. પરંતુ પુલાકના કથનની અપેક્ષાથી આ બન્નેના કથનમાં मिन्ना ' छ. ते मा प्रमाणे छ. 'णवरं एएसि अमहिय साहरणं भाणियव्वं' તેઓનું સંહરણ વધારે કહેવું જોઈએ. પુલાકનું સંહરણ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે હેતું નથી. તેમ કહ્યું છે. તેઓનું સંહરણ સ ભવિત હોય છે. તેથી તેનું સંહરણ કહેવું જોઈએ. નિર્ગથ અને સનાતના સંહરણની અપેક્ષાથી સર્વ કાળમાં સદ્ભાવ કહેલ છે. તે પહેલા સંહત થયેલા તેઓને નિગ્રંથ અવસ્થાની Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायक प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ ३.६ सू०५ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् 'समणीमवणयवेयं परिहारपुलायमप्पमत्तं च । चोहसपुति आहारयं च णयकोइ संहरइ' । छाया-श्रमणीमपगतवेदं परिहारपुलाकमधमत्तं च । चतुर्दश पूर्विणमाहारकं च न कोऽपि संहरति। 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव अन्यत्सर्वम् पूलाकवदेव निम्रन्थस्नातकयो द्रष्ट व्यमिति । गतं द्वादशं कालद्वारम् ।। १२ सू०५ ॥ अथ त्रयोदशं गतिद्वारमाह-तम सौधर्मादिना देवगतिरिन्द्रादय स्तभेदा स्तदायुश्च पुलाकादीनां निरूपयन्नाह-'पुलाए णं भंते' इत्यादि । मूलम्-पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे किं गतिं गच्छइ गोयमा! देवगई गच्छइ देवगइं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेज्जा वाणमंतरेलु उपचज्जेज्जा जोइलि० वेमाणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो अवणवासिसु उववज्जेज्जा णो वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा णो जोइलिएसु उववज्जेज्जा, वेमाणिएसु उववज्जेज्जा वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं साहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सहस्लारे कप्पे उववज्जेज्जा । बउलेणं एवं चेव, णवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे । पडिलेवणा कुमीले जहा बउसे, कहा गया है कारण कि वेद रहित मुनियों का संहरण नहीं होता है। सो ही कहा गया है-'समणी मवगय३' इत्यादि । साध्वी, वेदरहित, परिहारविशुद्धिक, पुलाकलब्धि सम्पन्न, अप्रमत्त, चौदह पूर्वके पाठी और आहारकलब्धियुक्त इनका कोई संहरण नहीं करता है। 'सेसं तं चेच' बाकी का और सब कथन निग्रंन्ध और स्नातक का पुलाक के कथन के जैसा ही जानना चाहिये ॥सू०५॥ १२ वां काल द्वार समाप्त અને સ્નાતક અવસ્થાની પ્રાપ્તિ થઈ જવાથી કહેલ છે. કારણ કે વેદવિનાના भुनियानुस२९४ हातु नथी. मे४ युछे ४-'समणीमवगयवेय' त्या સાધવી, વેદરહિત, તથા પરિહાર વિશુદ્ધિ પુલાક લબ્ધિસંપન્ન, અપ્રમત્ત यो पूना 48ी मन साहार समाजानु सातु नथी. 'सेसं तं चेव' निथ मननात सधी माहीन मी तमाम ४थन पुराना तमाम કથન પ્રમાણે જ સમજવું એ રીતે આ બારમું કાલદ્વાર સમાપ્ત સૂઇ પા Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भगवतीसूत्रे कसायकुलीले जहा पुलाए णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा। णियंठे गं भंते !० एवं चैव जाव वेमाणिएसु उववज्जमाणे अजहन्नमणुकोसेणं अणुत्तरविसाणेसु उववज्जेजा। सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे किं गई गच्छइ ? गोयमा! सिद्धिगई गच्छइ । पुलाएणं देवेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेज्जा सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा तायत्तीसाए उववज्जेज्जा लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा अहमिंदताए वा उवव. ज्जेज्जा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा तायत्तीसाए उक्वजेज्जा लोगपालत्ताए उववज्जेजा नो अहमिंदताए उववज्जेजा। विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उबवज्जेज्जा। एवं बउले वि एवं पडिसेवणाकुलीले वि। कलाकुसीले पुच्छा, गोयमा अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उववज्जेज्जा जाव अहमिंदत्ताए वा उववज्जेज्जा, विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा। णियंठे पुच्छा गोयमा ! अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उवरज्जेज्जा, जाव णो लोगपाललाए उक्वज्जेज्जा, अहमिंदत्ताए उववज्जेजा विराहणं पडुच्च अन्लयरेसु उववज्जेज्जा । पुलायस्ल णं भंते! देवलोएसु उववज्जमाणस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमपुहत्तं उकासेणं अटारसलागरोवमाई।बउसस्त पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमपुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। एवं पडिसेवणाकुसीले वि । कसायकुसीलस्ल पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं उक्कोलेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। णियंठस्त पुच्छा गोयमा! अजहन्नमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ॥सू० ६॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ refer टीका श०२५ उ.६ खू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२१ छाया - पुलाकः खल्ल भदन्त ! कालगतः सन् कां गतिं गच्छति । गौतम ! देवगतिं गच्छति देवगतिं गच्छन् किं भवनवासिषु उत्पचेत वानव्यन्तरेपृत्पद्येत ज्योतिष्के स्पद्येत वैमानिकेषु उत्पद्येत 'गौतम! नो भवनवासिषु नो वानव्यन्तरेपृत्पद्येत, नो ज्योतिष्केषु उत्पद्येव वैमानिकेषु उत्पद्येत । वैमानिके वृत्पद्यमानों जघन्येन सौधर्मे कल्पे उत्कर्षेण सहस्रारे कल्पे उत्पद्येत । वकुशः खलु एवमेव । नवरकर्षेण अच्युते कल्पे । प्रतिसेवनाकुशीलो यथा वकुशः । कशायकुशीलो यथा पुलाकः, नवरमुरकर्षेणानुसार विमानेषु उत्पद्येत । निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! एकमेव यावद्वैमानिकेषूत्पद्यमानोऽजघन्योत्कर्षेण अनुत्तरविमानेपुत्पद्येत । स्नातकः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कां गर्व गच्छति ? गौतम ! सिद्धिगति गच्छति । पुलाकः खलु भदन्त ! देवेषूताद्यमानः किविन्द्रतयोत्पद्येत सामानिकतयोत्पद्येत प्रायत्रिशतयत्पद्ये लोकपालतयेो त्पद्येन अहमिन्द्रतया वा उत्पद्येतं ? गौतम ! अविराधन प्रतीत्य इन्द्रतयोत्पद्येव सामानिकतयोत्पद्येत त्रयस्त्रिंशत्तयो: त्वचेत लोकपालस्योत्सव-नो अहमिन्द्रतयोत्पखेत, विराधनं प्रतीत्यान्यतरेपुंस्द्येत एवं बकुशोऽपि, एवं प्रतिसेनाकुशलोऽपि । कषायकुशीलः खल्ल भदन्त ! पृच्छा गौतम ! अविराधनं प्रतीत्य इन्द्रतया होत्पद्येत यावत् अहमिन्द्रतया वोत्प त विराधनं प्रतीत्य अन्यतरेषूत्पद्येत । निर्ग्रन्थः पृच्छा गौतम ! अविराधनं मतीत्य नो इन्द्रनयेोपयेत, यावत् नो लोकपालप्रयोत्पद्येन - अहमिन्द्रतयोत्पद्येत विराधनं प्रतीत्य अन्यतरेषूत्पद्ये । पुलाकख भदन्तु | देवलोके पूत्पद्यमानस्य- ' कियन्तं कालं स्थितिः मलता ? गौतम ! जघन्येन पल्लोपमपृथक्त्वम् उत्कर्षेणाष्टादशसागरोपमाणि । एवं पतिसेवनाकुशलोऽपि । कपायकुतीलस्य पृच्छा, गौतम ! जघन्येन पल्योपमपृथक्त्वम् उत्सर्पेण जयत्रिशत् सागरोपमाणि । निर्ग्रन्थस्य पृच्छा गौतम ! अजघन्यातुत्कर्षेण त्रयसिंत्सागरोपमाणि | सु०६ ॥ टीका - 'पुलाए णं ! कालगए समाणे किं गई गच्छ ' पुलाकः खलु भदन्त ! कलगतः सन् कां गतिं गच्छत गतिविषयकः प्रश्नः । भगवानाह - तेरहवां १३ गतिद्वार का कथन 'पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे किं गतिं गच्छ इत्यादि । टीकार्थ - 'पुलाए णं भते । कालगए समाणे किं गतिं गच्छ ' इस सूत्र द्वारा प्रभुश्री से गौतमस्वामी ने ऐसा पूछा है - है भदन्त ! पुलाक मरकर L 'पुलाए णं भते ! कालगए समाणे किं गतिं गच्छ इ' त्याहि टी अर्थ - 'पुलाए ण भंते ! कालगए समाणे किं गति ं गच्छ३' मा सूत्रદ્વાશ ગૌતમસ્વામોએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું' છે કે-હે ભગવન્ પુલાક સાધુ ७८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भगवती सूत्रे 'गोमा' इत्यादि । गोयमा हे गौतम! 'देवगई गच्छ' हे गौतम! पुलाको मृत्वा देवत्वं प्राप्नोतीत्यर्थः । ' देवगतिं गच्छनाणे किं भवणवासिसु उववज्जेज्जा' देवगतिं गच्छन् पुलाकः किं भवनवासिषूत्पद्येत, अथवा 'वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा' वानव्यन्तरे पूत्पद्येत 'जोइसिएस उववज्जेज्ज ।' ज्योतिष्केपृत्पद्येत, 'पेमाणिएस उबवज्जेज्जा' वैमानिकेपुत्पद्येत भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु कतमत्सु उत्पत्तिं लभते पुलाक इत्यर्थः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'णो भवणवासिसु - णो वाण संतरेसु उववज्जेज्जा, णो जोइ सिपसु उववज्जेज्जा ० ' नो भवनवासिषु नो वानव्यन्तरेषु नो ज्योतिष्केषूत्पद्येत किस गति में जाता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! tant गच्छ' हे गौतम । पुलाक भरकर देवगति में जाता है । 'देव गच्छमाणे किं भवणवासिसु उबवज्जेज्जा' हे भदन्त | देवगति में जाता हुआ वह क्या भवनवासियों में उत्पन्न होता है ? अथवा 'वाणमंतरेसु उवचज्जेज्जा' वानव्यन्नरों में उत्पन्न होता है ? 'जोइसिएस उयवज्जेज्जा' अथवा ज्योतिषिकों में उत्पन्न होता है 'वैमाणिएसु उबवरजेज्जा' अथवा 'वैपानिकदेवों में उत्पन्न होता है ? तात्पर्य इस प्रश्न का यही है कि पुलाक मरकर भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानि फों में से किन देवों में उत्पन्न होना है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोपमा ! णो भवणवासिसु णो वाणमंतरेसु, उववज्जेज्जा' हे गौतम! पुलक मरकर भवनवासियों में उत्पन्न नहीं होता है' वानव्यन्तरों में उत्पन्न नहीं होता है 'णो जोइसिएस जवबज्जेज्जा' ज्योतिष्कदेवों મરીને કઈ ગતિમાં જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! देवगडं गच्छइ' हे गौतम ! युवा साधु भरीने देवगतिमां जय हे, 'देवगतिं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेज्जा' हे भगवन् देवगतिमां गयेसा तेथे। शु भवनवासी देवोभां लय छे ? अथवा 'बाणमंतरेसु उववज्जेज्जा' वानव्यन्तराभां उत्पन्न थाय छे ? 'जोइसिपतु उववज्जेज्जजा' અથવા ज्योतिष्ठ हेवेाभां उत्पन्न थाय छे ? 'वेमाणिएसु सववज्जेज्जा' अथवा वैमानिक ઢવામાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નનુ તાત્પર્ય એ છે કે-પુલાક સાધુ ચવીનેમરીને ભવનવાસી. 'તર, ચૈાતિષ્ક અને વૈમાનિક ધ્રુવા પૈકી કયા દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! णो भवणत्रासीसु, णो वानमंतरेसु उववज्जेज्जा' हे गौतम! युवा ચવીને-મરીને ભવનવાસીએમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, વાનવ્યતામાં ઉત્પન્ન थता नथी, 'णो जोइसिएस उववज्जेज्जा' ज्योति देवास उत्पन्न थता नथी. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२३ किन्तु 'वेमाणिएसु उपदण्जेज्जा' वैमानिकेषु पुलाको मृत्वा समुत्पद्यते संयमस्याविराधनापेक्षया-सयमविराधने तु नैव वैमानिकेषु गच्छतीति भावः । 'वेमाणिएमु उक्वजमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे' वैमानिकेत्पद्यमान पुलाको जघन्येन सौधर्म कल्पे समुत्पद्यते 'उक्कोसेणं सहस्सारे कल्पे उक्वज्जेज्जा' उत्कर्षेण सह सारे कल्पे उत्पयेत । 'वउसे णं एवं चेत्र' बकुशः खलु एवमेव वकुशविषये एवमेवपुलाकवदेव । बकुशः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कुत्रोत्पद्यते ? गौतम ! देवलोकेषूत्पद्यते देवेपृत्पद्यमानो नो भवनवासिषु नो व्यन्तरेषु नो ज्योतिष्केषु अपि तु वैमानिकेषु समुत्पद्यते तत्रापि समुत्पद्यमानः जघन्येन सौधर्मे कल्पे में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु 'वेमाणिएसु उवज्जेज्जा' वैमानिकदेवों में उत्पन्न होता है यह कथन संयम की अविराधना की अपेक्षा से कहा गया है यदि वह संयम की विराधना करदेता है तो वैमानिकों में उत्पन्न नहीं होना है। 'वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे वैमानिकों में उत्पन्न होने योग्य हुआ भी यह जघन्य से सौधर्म कल्प में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट से 'उक्कोसेणं सहस्लारे कप्पे उववज्जेज्जा' सहस्रार कल्प में उत्पन्न होता है । 'बउसे गं एवं चेव' बकुश का उत्पाद भी इसी प्रकार से होता है । अर्थात् जब गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा प्रश्न किया-हे भदन्त। कालगत हुआ बकुश कहां उत्पन्न होता है ? तब प्रभुश्री ने उनसे कहा-हे गौतम ! वह देवलोकों में उत्पन्न होता है । देवलोकों में उत्पन्न होने वाला भी यह भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषक देवों में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु वैमानिकों में ही उत्पन्न होता है । वैमानिकों में भी यह जघन्य परतु तसा वेमाणिएसु उववज्जेज्जा' वैमानिमा ५न्न थाय छे मायन સંયમની અવિરાધનાની અપેક્ષાથી કહેલ છે જે તે સ યમની વિરાધના કરે छे, तो वैमानिमा ५न्न थता नथी 'वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं सहिम्मे कप्पे' वैमानि वामi G५-1 थवान योग्य थये पy न्यथा सीधz५i sपन्न थाय छ भने GBष्टथी 'उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववज्जेज्जा' सन्ना२ १५iपन्न थाय छ, 'उसे णं एवं चेवर બકુશને ઉત્પાત પણ આ જ પ્રમાણે થાય છે. અર્થાત્ ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એ પ્રશ્ન કર્યો કે-હે ભગવનું ક૯૫ ધર્મને પ્રાપ્ત કરેલ બકુશ સ ધું કયાં ઉત્પન્ન થાય છે ? એના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ કહ્યું કે હે ગૌતમ! તે દેવકમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય થવા છતાં પણ તે ભવનવાસી, વનવ્યન્તર અને - તિષ્ક દેવમાં ઉત્પન થતા નથી. પરંતુ વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પન થાય Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भगवती सूत्रे उत्पद्यते इति । पुलामापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह - 'णवरं' इत्यादि, 'णवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे' नवरमुत्कर्षेणाच्युतकल्पे समुत्पद्यते । पुलाकप्रकरणे उत्कर्षतः सहस्रारे उत्पत्तिः कथिता अत्र तु अभ्युदे कल्पे समुत्पत्तिः कथिता एतावदेव उभयोवैलक्षण्यम् अन्यत्सर्वं समानमेवेति । 'पडि सेवणाकुसीले जहा वउसे' प्रतिसेवना कुशीलो यथा व कुशः, यथा कालगतस्य वशस्त्र देवलोके उत्पत्तिः, तत्रापि न सौधर्म वानव्यन्तरज्योतिष्केषु किन्तु वैमानिकेषु तत्रापि जघन्येन सौधर्मकल्पे उत्कर्षेणाच्युतकल्पे तथैव प्रतिसेवना कुशीलस्यापि तत्तद्रूपेण सर्वमत्रगन्तव्यमिति । 'कसायकुसीले जहा पुलाए' कपयकुशीलो यथा पुलाकः, यथा कालगतस्य पुलाकस्य देवलोके गतिः प्रदर्शिता तत्रापि वैमानिकेष्वेव तत्रापि जघन्येन सौधर्मकल्पे तथैव से सौधर्मकल्प में उत्पन्न होता है, यह सब कथन पुलाक के प्रकार जैसा ही समझने का है । 'नवरे' किन्तु पुलारुकी अपेक्षा यहाँ यह विशेषता हैं कि 'उक्कोणं अच्चुत रुप्पे' उत्कृष्ट से अच्युतकल्प में उत्पन्न होता है । क्यों कि पुलाक के कथन में पुलाक की उत्पत्ति उत्कृष्ट से सहस्रार देवलोक में कही गई है । चाकी का और तब कथन यहां पुंलाक के ही जैसा है । 'पडि सेवणाकुसीले जहा वउसे' प्रतिसेवना कुशील का उत्पाद भी बकुश के उत्पाद जैसा ही जानना चाहिये । प्रति सेवना कुशील मरकर देवलोक में ही उत्पन्न होता है - अन्यत्र नहीं, देवलोक में भी वह भवनवासी, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्क इनमें उत्पन्न नहीं होता है किन्तु वैमालिक देवों में ही उत्पन्न होता है - वहां पर भी वह जघन्य ले सौधर्म देवलोक में और उत्कृष्ट से अच्युतकल्प में उत्पन्न होता है । 'कसायकुनीले जहा पुलाए' पुलाक के उत्पाद के छे. वैभानिअम या ते धन्यथा सौधर्म उसने उत्कृष्टथी 'णवरं ' उक्कोंसे अच्चुए कप्पे अभ्युपमां उत्पन्न थाय छे પુલાકના કથન કરતાં એજ આ કથનમાં અંતર છે. કેમકે પુલાકના કથનમાં પુલાકની ઉત્પત્તિ ઉત્કૃષ્ટથી સહસાર દેવલેાકમાં કહેલ છે. ખાકીનું તમામ કથન અહિયાં પુલાકના प्रथन प्रभा ४ छे. तेभ सभयु' 'पडि सेवणाकुसीले जहा बउसे' प्रतिसेवना કુશીલ મરીને દેવલેાકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. ખીજે નહી' અને દેવલાકમાં પણ તે ભવનવાસી કાવ્યન્તર અને જ્યેાતિષ્કમાં ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે અને વૈમાનિક દેવામાં પણ તે જન્મન્યથી સૌધર્મ દેવલેટમાં અને ઉત્કૃષ્ટયી અચ્યુતકલ્પમાં ઉત્પન્ન થાય છે. 'सायकुसीले जहा पुलाए' बुझाउना उत्पादनी प्रेम उपाय हुशीलनेा उत्याह Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२५ कषायकुशीलस्यापि सर्व ज्ञातव्यम् । पुलाकापेक्षया झपायकुशीलस्य यद्वैलक्षण्यं तदाह-'णवरे' इत्यादि, 'णवरं उक्को सेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा' नवरमुत्कर्षे णानुत्तरविमानेषु उत्पधेत पुलाकस्य उत्कर्पतः सहस्रारकल्पे उत्पत्तिः कथिता, कपायकुशीलस्य तु उत्कर्षतोऽनुत्तरविमानेपूत्पत्तिः कथ्यते एतावानेव उभयो भेदः, अन्यत्सर्वम् पुलाकवदेव इहापि ज्ञातव्यमिति। 'णियंठे गं भंते' निम्रन्थः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कां गतिं गच्छति इति प्रश्नः । उत्तरमाह'एवं चेत्र' इत्यादि । 'एचंचेव' एवमेव-पुलाकवदेव-कियत्पर्यन्तं पुलाकमकरणमत्र नेतव्यं तबाह 'एव जाब' इत्यादि, ‘एवं जाब वेमाणिएसु उववज्जमाणे अजहन्नमणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा' एवं यावद्वैमानिके पूत्पद्यमानोऽजघ जैसा कषाय कुशील के उत्पाद भी जानना चाहिये परन्तु 'णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेलु उववज्जेज्जा' उत्कृष्ट से इसका उत्पाद अनुत्तर विमानों में होता है यही पुलाक के उत्पाद की अपेक्षा इसके उत्पाद में अन्तर है । क्यों कि पुलाक का उत्पाद उत्कृष्ट से महस्रार देवलोक में होता है ऐसा पहिले कहा गया है । बाकी का और सब कथन पुलाक के उत्पाद के कथन के जैसा ही है । 'णियठे णं भंते !' . हे भदन्त ! निन्थ साधु कालगत होकर कहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'एवं चेव एवं जाच माणिएसु उववज्जमाणे अज. हन्नमणुककोप्ते णं अणुत्तरविनाणेसु उवधज्जेज्जा' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में कथन पुलाक के कथन जैसा ही जानना चाहिये अर्थात् निम्रन्थ मरकर भवनवासी, वालव्यन्तर, ज्योतिष्क इनमें उत्पन्न न होकर केवल वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होता है वहां पर भी वह ong नये. ५२ 'णवरं उनकोसेणं अणुत्तरविमानेसु उववज्जेज्जा' टिया તેને ઉત્પાદ અનુત્તરવિમાનમાં હોય છે, એજ પુલાકના ઉત્પાદની અપે ક્ષાથી આ કશાયકુશીલના ઉત્પાદમાં અંતર છે, કેમકે–પુલાકને ઉત્પાત ઉત્કૃષ્ટથી સહસ્ત્રાર દેવલોકમાં હોય છે એ પ્રમાણે પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે. બાકીનું मा तमाम थन माना पहना ४थन प्रभारी छ. 'णियंठे ण भंते ! હે ભગવન નિગ્રંથ સાધુ કાળધર્મ પામીને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसुश्री ९ छ ?-एवं चेव जाव वेमाणिएसु उववज्जमाणे अजहन्नमणुक्कोंसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा' गौतम ! ! समधमा yा. કના કથન પ્રમાણેનું કથન સમજવું. અર્થાત્ નિગ્રંથ મરને ભવનવાસી વ્યન્તર, તિષ્કમાં ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ કેવળ વૈમાનિક દેવલોકમાં જ ઉત્પન થાય છે. ત્યાં પણ ને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ વિના કેવળ અનુત્તર વિમાનમાં Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसरे न्यानुत्कर्षेणानुत्तरविमाने वृत्पद्येत अत्र यावत्पदेन 'नियंटे णं भंते ! कालगए समाणे किं गई गच्छइ ? गोयमा ! देवगई गच्छद, देवगई गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेज्जा, वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा, जोइसिण्मु उवरज्जेज्जा, वेमाणिएमु उगवज्जेज्जा ? गोयमा ! नो भवण० नो वाण० नो जोइसि० वेमाणिएसु उववज्जेज्जा।' छाया--निग्रंथः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कां गति, गच्छति ? गौतम ! देवगति गच्छति । देवगति गच्छन् किं भवनवासिषु उत्पद्येत वानव्य न्तरेपूस्पधेत ज्योति के पूत्पद्येत वैमानिकपृत्पद्येत, गौतम ! नो भवनवासिपु नो पानव्यन्तरेषु नो ज्योतिष्केपु वैमानिके पूत्पखेत एतत्पर्यन्तपुलाकपकरणस्य संग्रहो अजघन्य और अनुत्कृष्ट स्थिति से अनुत्तर विमान में ही उत्पन्न होता है । यहां यावत्पद से 'नियंटे णं भंते' इत्यादि निर्ग्रन्थ पद को लेफर पुलाक के पाठ का संग्रह करना चाहिये जिसमें गौतमस्वामी का प्रश्न है कि निन्ध कालगत होकर किस गति में जाना है ? उत्तरमें भगवान् कहते हैं-देवगति में जाना है । उस पर गौतमस्वामी प्रश्न • करते हैं कि यह देवगति में जाता है तो क्या यह भवनपति चानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवगति, इन में से किस देवमति में उत्पन्न होता है ? उत्तर में भगवान कहते हैं हे गौतम वह भवनपति वान. घन्तर और ज्योतिष्क में नहीं उत्पन्न होता है किन्तु वैमानिकों में उत्पन्न होता है। यह सम पुलाक प्रकरण गत पाठ यहाँ गृहीन हुआ है। 'सणाए णं भते ! कालगए समाणे किं गई गच्छ।' गौनामस्वामी ने इस पाठ द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! स्नातक जय ४ पलथाय छे. गडी यां यावत्पथी 'नियटे ण भंते !' या निय-पान લઈને પુલાકના પાઠને સંગ્રહ થયેલ છે. જેમા ગૌતમસ્વામીએ પૂછયું છે કે કાલગત થયેલ નિર્ચન્થ કઈ ગતિમાં જાય છે? ઉત્તરમાં ભગવાન કહે છે. દેવગતિમાં જાય છે તેના પરથી ફરીથી ગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે–તે દેવગતિમાં જાય છે, તો શું તે ભવનપતિ વાનવ્યન્સર જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિક આ પૈકી કઈ દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ભગવાન કહે છે કેહે ગૌતમ તે ભવનપતિ વાન વ્યત્તર અને તિષ્કમાં ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ વૈમાનિકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણેને પુલાક પ્રકરણને સઘળે. પાઠ ગ્રહણ કરી છે. सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे कि गई गच्छइ' गौतमस्वाभीसे भा પાઠદ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે કે-હે ભગવદ્ સ્નાતક જ્યારે કાલધર્મ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ .६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२७ भवतीति । 'सिणाएणं भंते ! कालगए समाणे किं गई गच्छई' स्नातकः, खल भदन्त ! कालगतः सन् कां गतिं गच्छतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'सिद्धिगई गच्छई' सिद्धिगति गच्छति कालक. वलितः स्नातकः ऋने सिद्धशिलां नान्यत्र गच्छतीति सिद्धिगते.दाभावेन पुनः प्रश्नो न कृतो गौतमेन । 'पुलाए णं भंते !' पुलाकः खलु भदन्त ! 'देवेसु उवव. ज्जामाणे किं इंदत्ताए उववज्जेजा' देवेपुत्पद्यमानः किमिन्द्रतया उत्स्येत 'सामाणि. यत्ताए उववज्जेज्जा' सामानिकतया उत्पधेत 'तायत्तीसाए उववज्जेज्जा' त्रायविश. तया, बायस्त्रिंशद्देवरूपेण उत्पद्येत 'लोगालत्ताए उववज्जेज्जा' लोकपालतया उत्पघेत 'अहमिंदत्ताए वा उववज्जेज्जा' अहमिन्द्रतया वो पोतेति प्रश्नः। भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा' कालगत होता है तो वह किस गति में जाता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री उनसे कहते हैं 'गोयमा ! लिद्धिगई गच्छह' हे गौतम ! स्नातक कालगत होकर सिद्धिगति को प्राप्त होता है। अर्थात सिद्धगति को प्राप्त करता है। इसके सिवाय वह अन्य स्थान में नहीं जाता है। सिद्धगति के भेद नहीं होने के कारण पुनः इसके आगे गौतमस्वामी ने प्रश्न नहीं किया है। ___'पुलाए णं भंते ! देवेलु उववजमाणे किं इंदत्ताए उचषज्जेज्जा' अब गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है कि हे भइन्त । देवगति में उत्पन्न होता हुआ वह पुलाक क्या इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? 'सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा' सामानिकरूप से उत्पन्न होता है ? 'तायत्तीसाए उववज्जेज्जा' ब्रायस्त्रिंशत् रूप से उत्पन्न होता है? 'लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा' लोकपाल रूप से उत्पन्न होता हैं ? 'अह પામે છે, તે તે કઈ ગતિમાં જાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી તેઓને ४ छ -'गोयमा ! सिद्धिगई गच्छइ' गौतम | स्नातs Gधम पाभान સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત કરે છે એટલે કે સિદ્ધિ ગતિ પામે છે. આ સિવાય તે અન્ય સ્થાનમાં જતો નથી. સિદ્ધગતિમાં ભેદ ન હોવાથી ફરીથી આ સંબંધમાં તેથી વધારે પ્રશ્ન કર્યા નથી. _ 'पुलाए णं भंते ! देवेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेज्जा' हवे श्री ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને એવું પૂછે છે કે-હે ભગવદ્ દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થનારા ते पुसा शुन्द्रपाथी ५ थाय छ ? 'सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा' सामा नपाथी अपन थाय छ ? 'त्तायत्तीसाए उयवज्जेज्जा' व्यायशित५पाथी थाय छे ? 'लोगपालचाए उववज्जेज्जा' साथी उत्पन्न थाय है? Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - भगवतीसत्रे १२८ अषिराधनं प्रतीत्य इन्द्रतयोत्पधेत अविराधनं ज्ञानादीनाम् अथवा लब्ध्याऽनुपजीवनम् अतस्तादृशमविराधनं प्रतीत्य इन्द्ररूपेण उत्पद्यते पुलाकः, 'सामाणियत्ताए उवाज्जेज्जा' सामानिकतया उत्पद्यत अविराधन प्रतीत्य इत्यस्य सर्वत्रान्वय अहनीयः, 'वायत्तीसाए उववज्जेज्जा' त्रायस्त्रिंशदेवतया उत्पधेत, 'लोगपालत्ताए उववज्जे. ज्जा' लोकपालतया-लोकपाल देवरूपेणेत्यर्थः, उत्पधेत, 'नो अहमिंदताए उवव. ज्जेज्जा' नो अहमिन्द्रतया उत्पद्येत । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेमु उववज्जेना' विराधनं ज्ञानादीनां प्रतीत्य अन्यतरेषु भवनपत्यादिदेवेषु स विराधक उत्पद्येतेति । मिंदत्ताए चा उवधज्जेज्जा' अथवा अलपिन्द्रदेव रूप से उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अविराहणं पडु. च्च इंदत्साए उवचज्जेजा' हे गौतम ? संयम आदि की अविराधना से वह इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है, अधिराधना पद से यहां यही सम. झाया गया है कि यदि उसने ज्ञानादिकों की विराधना नहीं की है अथवा लधि का प्रयोग नहीं किया है तो इस स्थिति में वह इन्द्ररूप से उत्पन्न हो नहीं सकता है। इसी प्रकार से वह अविराधना की स्थिति में सामानिकदेव रूप से उत्पन्न हो सकता है। 'तायत्तीसाए उधवज्जेज्जा' अविराधना की स्थिति में वह त्रायस्त्रिंशत देवरूप से उत्पन्न हो सकता है यहां अविराधना का सर्वत्र सम्बन्ध किया गया है 'लोगपालत्ताए उचज्जेन्जा' तथा च वक्ष अविराधना की स्थिति में लोकपालरूप से उत्पन्न हो सकता है। पर वह 'अहमिदत्ताए नो उववज्जेज्जा' अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न नहीं हो सकता है! 'विराहणं पडुच्च अग्नयरेलु उपचज्जेज्जा' और जब यह ज्ञानादिकों की विराधना 'अहमिदत्ताए वा स्वरोज्जा' Aथा महभिद्र वयाथी उत्पन्न थाय छ । मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ -'गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा' गौतम ! सयम विगेरेना भविराधनापाथी छन्द्रपयाथी ઉત્પન્ન થાય છે. અવિરાધના પદથી અહીયાં એ સમજાવ્યું છે કે જે તેણે જ્ઞાનદિની વિરાધના કરી ન હોય અથવા લબ્ધિને પ્રવેગ કર્યો ન હોય તે તે સ્થિતિમાં તે ઈન્દ્રપણથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એ જ રીતે તે અવિરાધના स्थितिमा सामानि देवपाथी उत्पन्न थ६ शो 'तायत्तीसाए उववज्जेज्जा' અવિરાધના સ્થિતિમાં તે ત્રાયશ્ચિંશત્ દેવપણાથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અહીંયાં मधे भविराधनाना समय हो छ. 'लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा' तथा त અવિરાધનાની સ્થિતિમાં લેકલપણાથી પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. પરંતુ તે 'अहमिंदत्ताए नो उववज्जेज्जा' महमिद्रयायाथी उत्पन्न यता नथी. "विराहणं पदुग्ध अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' मने यारे ते ज्ञानाहिनी विराधना ४२ छ. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ प्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १२९ 'एवं बउसेवि एवं पुलाकवदेव बकुशोऽपि बकुशविपयेऽपि पुलाकवदेव अविराधनं पतीत्य इन्द्रादिरूपेणोत्पत्तिः न तु अहमिन्द्रतया, विराधनं प्रतीत्य तु अन्यतरस्मिन् उत्पद्यतेति । एवं पडिसेवणाकुसीलेवि' एवं पुलाकवदेव प्रतिसेवनाकुशीलो ऽपि पतिसेवनाकुशीलस्यापि पूर्वरदेव व्यवस्थाऽगन्तव्येति। 'कसायकुसीले पुच्छा' कषायकुशीला खल्ल भदन्त । देवे स्पधमानः किमिन्द्रतया उत्पद्येत सामानिकतयोत्पद्येत त्रायस्त्रिंशत्तयोत्पधेत-लोकपालतयोत्पधेत-अहमिन्द्रतया वो त्पतेति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! करदेता है अथवा लब्धि का प्रयोग करता है तो उस स्थिति में यह . विराधक होने के कारण अन्यतर भजनपति आदि में उत्पन्न हो जाता है। "एवं बउसे वि' इसी प्रकार का कथन बकुश के विषय में भी जानना चाहिये । अर्थात् यदि वकुश अपने ज्ञान आदिको की विराधना नहीं करता है तो वह इन्द्रादिरूप से उत्पन्न हो सकता है पर अहमिन्द्ररूप से उत्पन्न नहीं होना है और यदि वह ज्ञानादिकों की दिराधना करदेता है तो भवनवासी आदिकों में उत्पन्न हो जाता है। 'एवं पडिसेवना कुसीले वि' इसी प्रकार का कथन प्रति लेवना कुशील के विषय में भी जानना चाहिये । 'कसायकुसीले पुच्छा' हे भदन्त ! कषायकुशील साधु जो कि देशों में उत्पन्न होता है तो क्या वह इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? अथवा सामानिक देवरूप से उत्पन्न होता है ? अथवा चायस्त्रिंशत् देनरूप उत्पन्न होता है ? अथवा लोकपाल रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा अहमिन्द्रदेव रूप से उत्पन्न અથવા લબ્ધિનો પ્રયોગ કરે છે. તો તે સ્થિતિમાં તે વિરાધક થવાના કારણે भी नयति बिगैरे वोमा ५-1 Mय छ, ‘एवं बउसे वि' र પ્રમાણેનું કથન બકુશના સંબંધમાં પણ જાણવું જોઈએ. અર્થાત્ જે બકુશ પિતાના જ્ઞાન વિગેરેની વિરાધના કરતા નથી. તે તે ઈદ્રાદિ રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. પરંતુ અહમિદ્રપણથી ઉત્પન્ન થઈ શકતા નથી. અને જે તે જ્ઞાનાદિની વિરાધના કરે છે, તે ભવનવાસી વિગેરેમાથી કોઈ પણ એક દેવમાં Sपन्न य जय छ ‘एवं पडिसेवणाकुसीले वि' से प्रभाणेनु थन प्रति सेना शासना स मां पर सभा. 'कसायकुसीले पुच्छा' है समपन् કષાય કુશીલ સાધુ કે જે દેવોમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે શું તે ઈંદ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા સામાનિક દેવપણ થી ઉપન થાય છે ? અથવા ત્રાયઅિંશત્ દેવપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા લેકપ લપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા અહમિદ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી भ० १७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती 'अपिराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उबवज्जेज्जा जाब अहमिदत्ताए चा उचवज्जेज्जा' अविराधनं प्रतीत्य इन्द्रतया चोत्पद्ये । यावत् अहमिन्द्रतया वोत्पधेत अत्र यावत्प. देन सामानिकतया उत्पधेत-त्रायस्त्रिंशत्तया उत्पधेत लोकपालतया उत्पद्येत-एतत्पर्यन्तस्य पुलाकाकरणस्य संग्रहो भवतीति । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववंज्जेज्जा' विराधनं प्रतीत्य अन्यतरेषु भवनपत्यादिदेवेषु उत्पद्ये तेति । "णियंठे घुम्छा' निर्गन्थः खल्ल भदन्त ! देवेपृत्पद्यमानः किमिन्द्रतया उत्पधेत सामानिकतया वोत्पद्येत त्रायस्त्रिंशतया वोत्पद्यत-लोकपालतया चोत्पधेत अहमिन्द्रतयां लोत्पधेत इति पृच्छा प्रश्नः। भगवानाह -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रसुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा! अधिराहणं पडुच्च इंदत्ताए या उववज्जेज्जा जाय अहमिंदत्ताए वा उपचज्जेज्जा' हे गौतम! पायकुशील साधु यदि अपने ज्ञानादिकों की विराधना नहीं करता है तो वह इन्द्र. रूप से उत्पन्न हो जाता है, अथवा सामानिक देवरूप से उत्पन्न हो जाता है। नायस्त्रिंशत् रूप से उत्पन्न हो जाता है । लोकपालरूप से उत्पन्न हो जाता है और अहमिन्द्ररूप ले भी उत्पन्न हो जाता है । तथा यदि वह अपने ज्ञानादिक की विराधना करता है तो इस स्थिति में वह 'अन्नयरेलु उववज्जेता' भवनपत्यादिकों में उत्पन्न हो जाता है । 'णियंठे पुच्छ।' यहां पर भी गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है हे भदन्त ! देवों में उत्पन्न होता हुआ निर्ग्रन्थ गीतमस्वामीन ४ छ -'गोयमा ! अविराहणं पडुच इंदत्ताए वा उववज्जेज्जा जाव अहमिंदत्ताए वा उववजेन्जा' है गौतम ! पाय शीत साधु ने पोताना જ્ઞાનાદિની વિરાધના કરતા નથી. તો તે ઈનપણથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અથવા સામાનિક દેવપણુથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. ત્રાયઅિંશત્ દેવપણાથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. લોકપાલપણાથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને અહમિંદ્રપણાથી પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તથા જે તે પિતાના જ્ઞાનાદિની વિરાધના ४२ हे, तर ते स्थितिमा ते 'अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' सपनपति विगेरे हव. awi S५-न लय छे. 'णियठे पुच्छा' मा सूत्रपाश्री गौतमस्वाभीमे પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે-હે ભગવન ડેમાં ઉત્પન્ન થનારો નિર્ગસ્થ સાધુ શું ઈન્દ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા સામાનિક દેવપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા ત્રાયઅિંશત્ પણુથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા લકપાલપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા અહમિદ્રપણુથી ઉત્પન થાય છે? આ પ્રશ્નના Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १३६ 'अविराहणं पडुच्च णो इदत्ताए उववज्जेज्ना जान अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा' अविराधनं प्रतीत्य नो इन्द्रतया वा उत्पद्येत यावत् नो लोकपालतया उत्पधेत किन्तु अहमिन्द्रनया वोत्पधे व अत्र यावत्पदेन सामानिकतया त्रायस्त्रिंशत्तयालोकपालतया एतेषां संग्रहो भाति इति । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' 'विराधनं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् भवनपत्यादौ उत्पद्यत । गतिसंबन्धात् स्थितिमप्याह-स्थितिद्वारस्य पार्थक्येनाभावात् 'पुलायस्स णं भंते देवलोगेसु उववनमाणस्स केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' पुलाकस्य खल्ल भदन्त ! देवलोकेतसाधु क्या इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? अथवा सामानिक रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा बायस्त्रिंशत् रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा लोकपाल रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा अहमिन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी ले कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम! 'अविराहणं पडुच्च जो इंदत्ताए उववज्जेज्ना, जाव अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा' ज्ञानादिकों की विराधना को लेकर वह इन्द्ररूप से यावत् लोकपाल रूप से उत्पन्न नहीं होता है । किन्तु अहमिन्द्ररूप से वह उत्पन्न होता है। यहां यावत्पद से सामानिक, त्रायस्त्रिंशत् और लोकपाल इन देवों का ग्रहण हुआ है। तथा 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' विराधना की अपेक्षा करके वह भवनपत्यादिकों में से किसी एक में उत्पन्न हो जाता है। अब मूत्रकार गति के सम्बन्ध से स्थिति का भी कथन करते हैं, क्यों कि यहां स्थितिद्वार का कथन पृथक रूप से सूत्रकार ने नहीं किया है। 'पुलायस्सणं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणल्स केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' इसमें उत्तरमा अनुश्री गौतभस्वाभान ४ छे -'गोयमा। 'अविराहणं पडुच्च, णो इंदत्ताए उववज्जेज्जा जाब अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा' ज्ञानाहिना विराधनપણાથી તે ઈન્દ્રરૂપથી યાવત્ લેકપાલપણુથી ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ અહ. મિદ્રપણાથી તે ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં યાવત પદથી સામાનિક, ત્રાયઅિંશત मन asle 2 | ७५ ४२राया छे तथा विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' विराधनानी अपेक्षाथी त सनति विगेरे : छ ! એક દેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. - હવે સૂત્રકાર ગતિના સંબંધથી સ્થિતિનું પણ કથન કરે છે–કેમકે मडिया स्थितिवानु स्थन तुटु सूत्र ४ नथी. 'पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्थ केवइयं कालं लिई पन्नत्ता' मा सूत्रथी गौतमस्वाभास Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे શ્ર स्पेद्यमानन्य कियत्कालपर्यन्तं स्थितिः प्रज्ञप्तेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्नेणं पलिजो' जघन्येन पल्योपम पृथक्त्वम् द्विपयोपमादारभ्य नव पल्योपमं यावत् 'उक्को सेणं अहारससागरोवमाई' उत्कर्षेणाऽष्टादश सागरोपमाणि जघन्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमपृथक्त्वाऽष्टादश सागरोपमपरिमिता स्थिति भवतीत्यर्थ: । 'उसस्स पुच्छा' वकुशस्य देवलोकेषु समुत्पद्यमानस्य कियन्त कालं स्थितिः मज्ञप्तेति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्नेगं पलिओमपुहुत्तं' जघन्येन पोपमपृथक्त्वम् द्विपयोपमादारभ्य नव पल्योपमपर्यन्तमित्यर्थः, 'उको सेणं बाबीसं सागरो माई' उत्कर्षेण द्वाविंशतिः सागरांपमाणि 'एवं पडि सेवणा सीले गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! देवलोक में उत्पन्न हुए पुलाक की कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! जहनेणं पलिश्रोचमपुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठारसलागरोवमाई' हे गौतम! देवलोक में उत्पन्न हुए पुलाक की स्थिति जघन्य से पत्योपम पृथक्व की दो पत्योपम से लेकर नौ पस्योपम तक को और उत्कृष्ट से १८ सागरोपम की कही गई है 'बहस पुच्छा' हे भदन्त ! देवलोक में उत्पन्न हुए चकुश साधु की कितने फाल की स्थिति कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंगोयमा ! जहन्ने णं पलिओकमपुत्तं उक्कोसेणं बावीसं सागरो माई' हे गौतम ! जघन्य से पकुश की देवलोक में आयु पल्योपम पृथक्त्व की होती है और उत्कृष्ट से २२ सागरोपमकी होती है । પ્રભુશ્રીને એવુ પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન્ દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થનારા પુલાકની સ્થિતિ કેટલા કળ સુધીની કહી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे - 'गोयमा ! जहणणेणं पलिश्रवमपुहुत्तं उक्कोसेणं अट्ठारसखागरोदमाइ' हे गौतम! देवसेोऽसां उत्पन्न थनारा युसाउनी સ્થિતિ જઘન્યથી પડ્યે પમ પૃથની એટલે કે એ ચેપમથી નવ 'हयेोयभ सुधीनी मने उत्सृष्टथी मदार सागरेपिभनी उही छे, 'उसस પુત્ત્તા' હે ભગવન્ દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થનારા મકુશ સાધુની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહી છે ? આ प्रश्नता उत्तरमां प्रलुश्री हे छे - 'गोयमा ! अहनेणं पलिओमपुत्तं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई' हे गौतम ! धन्यथी અકુશતુ... દેવલાક સંબધી આયુષ્ય એક પલ્યાપમ પૃનું હોય છે. અને ड्रूष्टथी २२ मावीस सागरोपमनुं होय छे. 'एव पडिसेवणाकुसीले वि' Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिहारनिरूपणम् वि' एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि प्रतिसेवनाकुशीलस्य देवलोके समुत्पद्यमानस्य किया स्काल स्थितिरिति श्न:, जघन्येन एल्योपमपृथक्त्वम् उत्कर्षेण द्वाविंशति सागरोपमा स्थितिः प्रतिसे बनाकुशीलस्येत्युत्तरमिति मावः । 'कसायकुसीलस्स पुच्छा' कपायकुशीलस्य देश्लोके पूलद्यमानस्य कियन्त कालं स्थितिरिति पृच्छा पश्नः । भगवानाह-'गोयमा इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं' जघन्येन पल्योपमपृथक्त्वम् 'उकोसेणं तेत्तीस सागरोबमाई उत्कर्षण त्रयस्त्रिंशसागरोपमाणि जघन्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमपृथक्त्वत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपरिमिता स्थिति देवलोके कपायकुशीकस्य भवतीति भावः । 'णियंठस्स पुच्छा' निग्रन्थस्य खल्लु भदन्त ! देवलोकेषु समुत्पयमानस्य कियत्कालं स्थिति भवतीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अजहन्न मणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई' अजघन्योत्कर्पण जघन्योत्कर्षाभावत्वेन परिपूर्णा 'एवं पडिसेवणा कुसीले छि' देवलोक में उत्पद्यमान प्रति सेवनाकुशील साधु की आयु जघन्य ले पल्योपम पृथक्रय की और उत्कृष्ट रखे २२ सागरोपम की होती है । 'कलाय कुसीलस्स पुच्छ। हे भदन्त ! देवलोक में समुत्पद्यमान कषाकुशील साधु की आयु कितने काल तक की होती है ? उत्तर में मनुश्री कहते हैं-'जोयमा! जहन्नेणं पलिओदमपुत्त' हे गौतम ! जघन्य से उसकी आयु देवलोक में पल्पम पृथक्त्व होती है-दो पल्योपन से लेकर ९पल्योपस तक की होती है और 'उक्को. सेणं तेत्तीसं सागरोवमाई उत्कृष्ट ले ३३ सागरोपम तक की होती है। 'णियंठस्स पुच्छा' हे भदन्त ! देवलोकों में समुत्पद्यमान निर्ग्रन्थ साधु की आयु कितने काल तक की होती है ? उत्तर में प्रभुत्री कहते है-'गोयमा! अजहन्नमणुस्कोसे णं तेत्तीसं सागरोवमाई' हे गौतम! દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થનારા પ્રતિસેવન કુશીલ સાધુનું આયુષ્ય જઘન્યથી એક पत्यापम यत्व छे. मने दृष्टया २२ सागरापभनु छे. 'कसायकुसील. स्स पुच्छा' 3 सगवन् विमा उत्पन्न ना। ४५ यशीस साधुनु मयुष्य કેટલા કાળ સુધીનું હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ ! જઘન્યથી તેનું દેવલોક સંબંધી આયુષ્ય એક પાપમ પૃથફત્વનું હોય છે. એટલે કે બે પલ્યોપમથી લઈને નવ પલ્યોપમ સુધીનું डाय छ, भने 'उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवराई' थी 33 तेत्रीस सागशेषम सुधीन हाय छे. 'णियंठस्स पुच्छा' हे सगवन् विसरमा पन्न थना। નિથ સાધુનું આયુષ્ય કેટલા કાળ સુધીનું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં मधुश्री ४९ छे -'गोयमा ! अजहन्नमाणुकोसेणं वेत्तीसं सोगरोवमाइं गौतम! Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, जयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थिति भवतीति भावः। इति त्रयोदशं गतिद्वारम् ॥१३॥१०६॥ चतुर्दशं संयमद्वारमाह-'पुलागस्स ण' इत्यादि । मूलम्--पुलागस्ल गं भंते ! केवइया संजरवाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा संजसटाणा पन्नत्ता एवं जाव कसायकुसीलाल । णिशंठस्त णं अंत! केवइया संजस्ट्राणा पन्नत्ता ? गोयमा ! एगे अजहन्नमणुकोलए संजमहाणे एवं सिणायस्स वि। एएसि णं संते! पुलागबउसपडिलेवणाकसायकुसीलणियंठलिणायाणं संजमाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! लवथोवेणियंठस्त संजमदाणे, सिणायस्ल य एगे अजहन्नमणुकोलए संजमटाणे, पुलागस्स णं संजमटाणा असंखेज्जगुणा बकुसस्स संजमटाणा असंखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीलस्त संजमदाणा असंखेजगुणा कसायकुसीलस्स संजमदाणा असंखेज्जगुणा ॥सू०७॥ ___ छाया-पुलाकस्य खल्लु भदन्त ! कियन्ति संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानि ? 'गौतम । असंख्येयानि संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानि । एवं यावत् कपायकुशीजस्य निर्ग्रन्थस्य खलु भदन्त । कियन्ति संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! एक मजघन्यानुत्कृष्ट संयमस्थानम् । एवं स्नातकस्यापि, एतेषां खलु भदन्त ! पुलाकवकुशपतिसेवनाकपायकुशीलनिग्रन्थस्नातकानां संयमस्थानानां कतरे कतरेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्व स्तोकं निग्रेन्थस्य संगमस्थानम् स्नातकस्य च एकमजघन्यानुत्कृष्टं संयमस्थानम् । पुलासस्य संयमस्थानानि असख्येयगुणानि, वकुशस्य संयमस्थानानि असंख्येयगुणानि, प्रतिसेनाकुशीलस्य संयमस्थानानि असंख्येयगुणानि कपायकुशीलस्य संयमस्थाशनि असंख्येयगुणानि ॥१०७॥ देवलोक में समुत्पद्यमान निग्रंन्ध साधु की आयु जघन्य उत्कृष्ट के भेद से रहित होनी हुई केवल पूर्ण रूप से ३३ सागरोपम की होती है। गतिहार समाप्त सू०६ । દેવલેકમાં ઉત્પન્ન થનારા નિગ્રંથ સાધુનું આયુષ્ય જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટના ભેદ વિનાનું હોય ને કેવળ પૂર્ણ રૂપથી ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમનું હોય છે. मेरीत गा तिवा२ ४यु छे. सू०६॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०७ चतुर्दा संयमद्वारनिरूपणम् १३५ ___टीका--'पुलागस्स णं भंते ! पुलाकस्य खल्लु भदन्त ! 'केवइया संजमहाणा पन्नत्ता' कियन्ति संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानि संयमः सम्यग् यमयति-चतुर्गतिगमने भ्यो जीवं व्यावर्तयति यः स सावधयोगविरविलक्षणः संयमश्चारित्रम् तस्य स्थानानि शुद्धिपकर्षाप्रकर्षकता भेदा इति संयमस्थानानि तानि पुलाकस्य कियन्ति-कियर्स: ख्यकानि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा! हे गौतम ! 'असंखेज्जा संजमाणा-पन्नत्ता' असंख्येयानि संयमस्थानानि कथितानि पुलाकस्य, सानि खलु संयमस्थानानि प्रत्येकस काशमदेशाग्रगुणितसर्वाकाशपरिणामपर्यायोपेतानि भवन्ति एतानि खल संयमस्थानानि पुलाकस्यामंख्येयानि भवन्ति १४ वां संयमद्वार का कथन 'पुलागस्स णं भंते केवड्या संजमाणा पन्नत्ता' इत्यादि सू०७। टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'पुलागसणभंते । केवड्या संजमट्ठाणा पन्नत्ता' हे भदन्त ! पुलाक के कितने संयमस्थान कहे गये हैं ? जीव को जो चतुर्गतियों में गमन करने से रोकता हैउनमें उसका गमन नहीं होने देता है-ऐसा सावद्ययोग से विरति रूप संयम होता है । इसी का नाम चारित्र है। इसके शुद्धि के प्रकर्ष और अप्रकर्ष को लेकर जो भेद होते हैं-वे यहां संयमस्थान कहेगये हैं । सो ऐसे संयम स्थान पुलाक साधु के कितने होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोंयमा ! असंखेज्जा संजमट्ठाणा पन्नत्ता' हे गौतम ! पुलाक के संयमस्थान असंख्यात कहे गये हैं। इनमें प्रत्येक संयम स्थान से सर्वाकाश प्रदेशगुणित लोकाश प्रदेशप्रमाण अन ચૌદમા સંયમ દ્વારનું કથન 'पुलागस्स ण भंते ! केवइया संजमदाणा पन्नत्ता' त्यादि। टी -श्रीगोतमस्वामी प्रसुश्रीन मे पूछयु छ है-'पुलागस्स गं भंते । केवइया संजमढाणा पन्नत्ता' हे सावन दान 21 संयमस्थानो કહ્યા છે? જીવને ચતુર્ગતિમાં જવાથી જે કે તેમાં તેઓનું ગમન થવા દેતા નથી. એ સાવદ્ય ચોગથી વિરતિરૂપ સંયમ હોય છે. તેનું જ નામ ચારિત્ર છે. તેની શુદ્ધિને પ્રકર્ષ અને અપ્રર્વને લઈને જે ભેદ થાય છે તે ત્યાં સંયમસ્થાન કહ્યા છે. એવા સંયમસ્થાને પુલાક સાધુઓને કેટલા હોય छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन -'गोयमा! असंखेज्जा संजमदाणा पन्नत्ता' गौतम साना सय थान मसभ्यात हा છે. તેમાં પ્રત્યેક સંયમસ્થાનના સર્વકાશપ્રદેશથી સર્વકાશપ્રદેશ પ્રમાણ અનંતા Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमस्य विचित्रत्वात् । 'एवं जाव कसायकुसीलस्स' एवं यावत् कपायकुशीलस्य असंख्येयानि संयमस्थानानि ज्ञातव्यानि अत्र यावत्पदेन घकुशपतिसेवनानुशीलयोन हणं भवतीति 'णियंठस्स णं भंते ! केवडया संनमः द्वाणा पन्नत्ता' निर्ग्रन्थस्य खलु भदन्त ! कियन्ति संघमस्थानानि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे अजहन्नमणुको सए संजमहाणे' एकमजघन्यानुन्कृष्टं संगमस्थानम् निर्ग्रन्थस्य कपायाणामुपशमस्य क्षयस्य च अविचित्रत्वेन, तदीय शुद्धेरेकमकारकत्वात् एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्टं भवति, बहुविध शुद्धिश्चेव जघन्यस्योत्कृष्टस्य च भावस्य सद्भावादिति । एवं सिणान्तानन्तपर्याय-अश-होते हैं । क्यों कि चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयो. पशम विचित्र होता है । ऐसा ही कथन 'जाच कसायकुसीलस्स' पावतू कषाय कुशील तक जानना चाहिये । यहां यावत्पद से यकुश और प्रतिसेवना कुशील इन दो साधुओं का ग्रहण हुआ है। 'णियं. उस्स गं भंते ! केवझ्या संजमठ्ठाणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! निन्ध साधु के संघमस्थान कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा!' हे गौतम ! 'एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे' हे गौतम! निन्य साधु के जघन्य और उत्कृष्ट भेद रहित केवल एक संयम स्थान कहो गया है । क्यों कि निर्ग्रन्थ के कषायों का क्षय अथवा उपशम एक ही प्रकार का होता है इनसे उनकी शुद्धि एक ही प्रकार की होती है। इसीलिये वहां जघन्य उत्कृष्ट का भेद नहीं कहा गया है । जघन्य और उत्कृष्ट साब के सद्भाव से ही शुद्धि अनेक તપર્યાય-અંશ હોય છે. તેમાં પુલાકના સ યમસ્થાને અસંખ્યાતગણ હોય છે. કેમકે–ચારિત્રમોહનીય કર્મને પશમ વિચિત્ર હોય છે. એવું જ ४थन 'जाव कसायकुधीलस्स' यार यश मने प्रतिसेवना मुशीत तथा કષાયકુશીલના સંબંધમાં સમજી લેવું. અહીંયાં બકુશ અને પ્રતિસેવના કુશીલ से में यावत ५४थी ४५ ४२॥या छे. 'णियंठस्स णं भंते! केवइया संजमद्राणा पण्णत्ता' 3 भगवन् निथ साधुन सयभस्थानी डेटसा हा छ ? मानना उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्वामीने ४ छ -गोयमा !' गीतम! 'एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे' ! नियन्य साधुने धन्य मने टना ભેદ વિનાનું કેવળ એક સંયમસ્થાન કહેલ છે. કેમકે નિર્ચ થેને કષાયે ક્ષય અથવા ઉપશમ એક જ પ્રકાર હોય છે. તેથી તેમની શુદ્ધિ, એક જ પ્રકારની હોય છે. તેથી ત્યાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટને ભેદ કહ્યો નથી. જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટભાવના સદૂભાવથી જ અનેક પ્રકારની શુદ્ધિ હોય છે. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ heeद्रका टीका श०२५ उ. ६ खू०७ चतुर्दशं संयमहारनिरूपणम् rea वि' एवं निर्ग्रन्थवदेव स्नातकस्यापि संयमस्थानमजघन्यानुत्कृष्टमेव मति कषायाणामस्य क्षयस्य चाविचित्रत्वेन शुद्धेरे कवित्वात् एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्टं भवतीति । अथैतेषामेवाहुत्वमाह 'एएस ' इत्यादि, 'एसि णं भंते' एतेषां खलु भदन्त ! 'पुलागवउसपढि सेवा कसायकुसीले नियंसिणायाणं संजमद्वाणाणं कथरे कयरेहिंतो जाय विसेसाहिया वा' पुलाक वकुश प्रतिसेवन कुशील कषायकुशील निर्ग्रन्थस्नातकानां संगमस्थानानां कवरे कतरेभ्यो: ईसा वा बहुका वा तुल्या वा विशेशधिका वा इति प्रश्नः । भगवानाह = 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' गौतम ! 'सन्नत्योवे नियंठस्स सिणायस्स ये प्रकार की होती है । 'एवं सिणायात चि' इसी प्रकार से स्नातक के भी संगमस्थान अजघन्य अनुकृष्ट ही होना है क्यों कि कषाय का उपशम और क्षय एक प्रकार का ही होता है । इससे शुद्धि एक ही प्रकार की होती है। अतः उसकी एकता में वहां जयन्य और कृष्ट भेद नहीं होता है । L 5, ′′ 7 अब सूत्रकार इनके ही अल्प बहुत्व का कथन करते हैं- इस में गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'एएसि णं भंते ! पुलाग ise पडि सेवा कसायकुसीलनियंठविणायाणं संजमाणाणं कर्यरे करेहितो जाव विसेसाहिया वा' हे भदन्त ! इन पुलाक, वकुश, प्रति-सेवनाकुशील, कबायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के संगमस्थानों में कौन किन से अल्प है ? कौन बहुत है ? कौन बराबर हैं ? औरकौन विशेषाधिक है ? इसके उत्तर में प्रभ्यु कहते हैं - 'गोगमा ! सब'एवं सिणायस्स वि' ४ मा स्नातन सयभस्थानो यहां अभ्घन्य अने અનુત્કૃષ્ટ જ ડેાય છે. કેમકે કાચાના ઉપશમ અને ક્ષય એકજ પ્રકારને હાય છે તેથી શુદ્ધિ એકજ પ્રકારની દાય છે તેથી તેની એકતામાં ત્યાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટના ભેદ હાતા નથી. હવે સૂત્રકાર તેઓના અલ્પમહુપણુ તુ' કથન કહે છે.-તેમા ગૌતમસ્વામી अलुने गोवु पूछे छे है - 'एएसि ण भते । पुलागबस पडि सेवणाकसायकुसील - नियंठसिणायाणं संजमट्टाणा ण कयरे कयरेहिंतो । जाव विसेसाहिया वा ભગવત્ આ પુલાક, અકુશ પ્રતિસેવના કુશીલ, નિગ્રન્થ અને સ્નાતકના સયમ સ્થાનામાં કાણુ કાનાથી અલ્પ છે ? કાણુ કાન થી વધારે છે ? અને કાણુ કાની બરાબર છે? તથા કાણુ વિશેષાધિક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे है- 'गोयमा ! सव्वत्थावे नियंठस्स, खिणायस्य एगे अजह- भ० १८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे १३८ एगं अजहन्नमणुकोसए संजमहाणे सर्वस्तोकं निर्ग्रन्थस्य स्नातकस्य चैकम जघन्यानुत्कृष्ट संयमस्थानम् सर्वापेक्षपात्यल्प सवति शुद्धेरेकविधश्वाद, पुलाकादीनां तूतक्रमेण असंख्येयगुणानि वानि भवन्ति क्षयोपशमवैचित्र्याद तदेवाह - 'पुलागस्स णं संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा' पुलाकस्य खलु संगमस्थानानि निर्ग्रन्थस्नातकसंयमापेक्षया असंख्येयगुगाधिकानि भवन्ति क्षयोपशमस्य विचित्रत्वात् 'उपस्स संजमडाणा असंखेज्जगुणा' वकुशस्य संयमस्थानानि पुला कसं यमस्थानापेक्षया असंख्येयगुणाधिकानि कपायक्षयोपशमस्प विचित्रत्वात् । 'पडि सेववणाकुसीलरूप संगमहाणा असंखेज्नगुणा' प्रतिसेवनाकुशीलस्य संयमस्थानानि वकुशसंयमस्थानापेक्षया असंख्येयगुणाधिकानि भवन्ति । 'कसायकुसीस्थोवे fिrista faणाघस्स य एगे अजष्णमणुक्कोसए संजमहाणे' हे गौतम! सर्वस्थानों की अपेक्षा अत्यल्प निर्ग्रन्थ और स्नातक का एक अजघन्य अनुत्कृष्ट संघमस्थान है । क्यों कि यहाँ शुद्धि एक ही प्रकार की होती है । पुलाक आदि के संयम स्थान क्रमशः असंख्यात गुणित होते हैं। क्योंकि वहां क्षयोपशम की विचित्रता होती है। यही बात - 'पुलागस्स णं संजमद्वाणा असंखेज्जमगुणा' इस सूत्रद्वारा कारने प्रकट की है । निर्ग्रन्थ और स्नातक के संगमस्थान कषाय के क्षयोपशम की विचित्रता से असंख्यात गुणित अधिक होते हैं। 'परसस्त संयमाणा असंखेज्जगुणा' बकुश के संगमस्थान पुलाक के संघम स्थानों की अपेक्षा अख्यातगुणित अधिक होते हैं । 'पडि सेवणा कुसीलस्स संयमाणा असंखेज्जगुणा' प्रतिसेवना कुशील साधु के संयमस्थान पुलाक एवं धकुश साधु के संयम स्थानों की अपेक्षा असं मणुकोसए संजमट्ठाणे' हे गौतम! सर्वस्थानानी अपेक्षाथी अत्यन्त मह નિગ્રન્થ અને સ્નાતકેાનુ એક અજઘન્ય અનુભૃષ્ટ સયમસ્થાન છે. કેમકેત્યાં એક જ પ્રકારની શુદ્ધિ હૈય છે. પુલાક વિગેરેના સયમસ્થાના ક્રમશઃ અસંખ્યાતગણુા હાય છે. કેમકે-ત્યાં ક્ષચેાપશમની વિચિત્રતા હૈાય છે. એજ वात' 'पुलागस्स ण सजमट्टाणा असंखेजगुणा' मा सूत्रपाद्वारा सूत्ररे अगट કરેલ છે. નિગ્રન્થ અને સ્નાતકાના સયમસ્થાની અપેક્ષાએ પુલાક સાધુના સયમસ્થાને કષાયના ક્ષયાપશમના વિચિત્રપણાથી સ'ખ્યાતગણા વધારે ડાય छे. 'बउसरस संजसट्टाणा असंखेज्जगुणा' मञ्जुशना संयमस्थाना चुसाउना सत्यभस्थानाना स्थन ४२तां असंख्यातगाया वधारे होय छे. 'पड़िसेवणा कुपीलस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा' प्रतिसेवना खुशीस साधुना सत्यभस्थाना પુલાક અને અકુશ સાધુના સચઅસ્થાના કરતાં અસખ્યાતગણા વધારે, હાય Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम् १३९ लस्स संजमहाया असंखेज्जगुणा' कपायकुशीलस्य संघमस्थानानि प्रतिसेवनाकुशीलापेक्षया अख्येषगुगाधिकानि भवन्ति तदीयकषायाणां क्षयोपशमस्य विचित्रत्वादिति । इति चतुर्दशं संयमद्वारम् १४ मु०७। - पञ्चदशं निकर्पद्वारमाह-'पुलागस्स णं भंते' इत्यादि । मूलम् -पुलागस्त ण भंते ! केवइया चरित्तपजवा पन्नत्ता? गोयमा ! अणंताचरितपज्जवा पन्नता एवं जाव सिणायस्त पुलाए णं भंते ! पुलागस्त सटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवहिं किं हीणे तुल्ले अब्भहिए ? गोथमा! सिय होणे१, सिय तुल्ले२, सिय अभहिए३, जइ हीणे अणंतभागहीणे वा असंखेजभागहोणे वा संखेज्जभागहीणे वा संखेजगुणहीणे वा असंखेजगुणहीणे वा अणंतगुणहीणे वा। अह अब्भहिए अणंतभागमब्भहिए वा असंखेजइभागमभहिए वा संखेज्जहभागमभहिए वा संखेजगुणमन्भहिए वा असंखेज्जगुणममहिए वा अणंतगुणमन्महिए वा। पुलाए गं अंते ! बउलस परट्राणसन्निगासेणं धरित्तपज्जवेहिं किं हीणे तुल्ले अब्भहिए ? गोयमा! हीणे णो तुल्ले णो अब्भहिए अर्णतगुणहीणे। एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि । कसायकुसीले णं समं छटाणवडिए जहेव सहाणे । णियंठस्ल जहा बउलस्ल । एवं हिणायल्ल वि। बउसेणं भंते! ख्यातगुणित अधिक होते हैं। 'कसायकुलीलस्स संजालट्टाणा असं. खेज्जगुणा' कपारकुशील साधु के संशमस्थान प्रतिसेवना कुशील के संयमस्थानों की अपेक्षा असंख्यातगुणित अधिक होते हैं । इन सब के संयमस्थानों की विचित्रता का कारण कषायों के क्षयोपशम की विचित्रिता है । संयमद्वार समाप्त सू०७ । छे. 'कसायकुसीलस्स संजमढाणा असखेज्जगुणा' पाय शla साधुना सयभ. સ્થાન પ્રતિસેવન કુશીલ સાધુના સંયમ સ્થાન કરતાં અસંખ્યાતગણું વધારે હોય છે. આ બધાના સંયમ સ્થાનની વિચિત્રતાને કારણે કલાના ક્ષેપશમની વિચિત્રતા છે. એ રીતે આ સંયમદ્વારનું કથન છે. સૂત્ર છા Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भगवतीसूत्रे पुलागस्त परटाणसन्निगालेणं चरित्तपज्जवहि किं हीणे तुल्ले अमहिए ? गोयमा! जो होणे णो तुल्ले अन्नहिए अणंतगुणमन्महिए । बउलेणं भंते! बउलस सटाणसन्निगासेणं चरितपज्जवेहिं पुच्छा, 'गोरामा ! पिलश होणे स्थिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीण छटाणवडिए। बउलेणं भंते ! पडिसेवणा कुसीलाल परटाणलन्निगालेणं चरितपनवेहि किं हीणे तुल्ले अब्भहिए ? छटाणवडिए एवं कलायकुलीलस्स वि। बउसेणं भंते। णियंठस्स परष्ट्राणसन्निगालेणं चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा गोयमा! हीणे णो तुल्ले जो अब्भहिए अणंतगुणहीणे । एवं सिणायल्स वि। पडिसेवणाकुसीलस्स एवं चेव बउसवत्तव्वया भाणियव्वा । कसायकुसीलस्ल एस चेव बउसवत्तव्वया। णवरं पुलाएण वि समं छहाणवडिए । णियंठे णं भंते ! पुलागस्स परट्रोणसन्निगासणं चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा, गोयमा ! णो हीणे णो तुल्ले अन्महिए अणंतगुणमब्भहिए। एवं जाव कसायकुसीलस्स। णियंठे जं भंते ! णियंठस्त सटाणसन्निगासेणं पुच्छा गोयमा ! णो हीणे तुल्ले णो अभहिए। एवं सिणायस्स वि। सिणाएणं पुलागस्स परटाणसन्निगालेणं० एवं जहा प्रियंठस्स वत्तव्वया तहा लिणायस्ल विभाणियब्वा जाव सिणाएणं भंते ! लिणायस्ल सहाणसन्निगालेणं पुच्छा गोयमा! णो. हीणे तुल्ले णो अब्महिए । एएति णं भंते ! पुलागबउसपडिसेवणाकुसीलणियंठसिणायाणं जहन्नुकोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विलेलाहिया वा ? गोयमा! पुलागस्स कसायकुसीलस्त थ एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा। पुलागस्ल उक्कोसगा चरित्नपज्जवा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशे निकद्वारनिरूपणम् १४६ अणंतगुणा । बउसस्त पडिलेवणाकुलीलरस य एएसिणं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा । बउसस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जका अणंतगुणा। पडिलेवणाकुसीलस्त उकोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा। कलायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा । णियंठस्स लिणायस्स य एएसि णं अजहन्नमणुकोलगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा ॥१५॥सू०८॥ - छाया-पुलाकस्य खलु भदन्त ! शियन्तश्चारित्रावाः प्रज्ञता ? गौतम ! अनन्ताश्चारित्रपर्यवाः प्रज्ञप्ता, एवं यावत् स्नातकस्य । पुलाकः खलु भदन्त !, पुलाकस्य स्वस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्यवः किं होन रतुल्योऽभ्यधिकः ? गौतम ! स्यात् हीनः स्यात् तुल्यः, स्वाद पधिका, यदि हीनः अनन्तभागहीनो वा असं. ख्यातभागहीनो वा संख्येयगुणहीनो वा-असंख्येयगुणहीनो वा अनन्तगणहीनो वा। अथाभ्यधिकः, अनन्तमागाभ्यधिको वा असंख्यातमागाभ्यधिको वा संख्यातभागाभ्यधिको चा संख्येयगुणाभ्यधिको या असंख्येयगुणाभ्यधिको वा अनन्त. गुणाभ्यधिको वा । पुलाकः खल्ल भदन्त ! बकुशस्य परस्थानसनिकर्षेण चारित्रपर्यः किं हीनः, तुल्यः, अभ्यधिक, ? गौतम ! हीनः नो तुल्यो नो अभ्यधिक अनन्तगुणहीनः । एवं प्रविसेवनाकुशीलस्यापि, कपायकुशीलेन समं पटस्थानपतितो यथैव स्वस्थाने निर्गन्धस्य यथा कुशस्य । एवं स्नातकस्यापि । वकशः खलु भदन्न ! पुलाकस्य परस्थानसभिार्पण चारित्रपर्यवैः किं हीनः तुल्योऽभ्यधिकः ? गौतम ! नो होनो नो तुल्या, अभ्यधिकः, अनन्तगुणाभ्यधिकः । वकुशः खलु भदन्त ! बकुशस्य स्वस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्यः पृच्छा गौतम ! स्यात हीनः स्यात् तुल्यः स्यादभ्यधिकः, यदि हीनः षट्स्थानपतितः । वकुशः खल भदन्त ! प्रतिसेवनाकुशीलस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्रायः किं हीनः, तुल्या, अभ्यधिकः ? पटस्थानपतितः एवं कपायकुशीलस्यापि । बकुश खल भदन्त । निम्रन्थस्य परस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्यवेः पृच्छा गौतम ! हीनो नो तुल्यो नो अभ्यधिकः, अनन्तगुण हीनः । एव तालकस्यापि । प्रतिसेवनाकुशीलस्य एक्मेव बकुशवक्तव्यता भणितव्या । कपायजुशीलस्य एपैव बकुशवक्तव्यता, णवरं फुलाके. नापि समं षटस्थानपतितः । निग्रन्थः खलु भदन्त ! पुलाकरय परस्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यः पृच्छा गौतम ! नो हीन, नो तुल्यः, अश्यधिकः, अनन्त Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ भगवती सूत्रे गुणाभ्यधिकः, एवं यावत् कपायकुशीलस्य । निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! निर्ग्रन्थस्य स्वस्थानसन्निकर्षेण पृच्छा गौतम | नो हीनः तुल्यः नो अभ्यधिकः । एवं स्नातकस्यापि । स्नातकः खलु भदन्त ! पुलाकस्य परस्थानसन्निकर्षेण० एवं यथा निर्ग्रन्थस्य वक्तव्यता तथा स्नातकस्यापि भणिदव्या, यावत् स्नातकः खलु भर्दन्त ! पुलाकर परस्थानसन्निकर्षेण० एवं यथा निर्ग्रन्थस्य वक्तव्यता तथास्नातकस्यापि भणितव्या, यावत् स्नातकः खलु खदन्त । स्नातकस्य स्वस्थानसन्निकर्षेण पृच्छा गौतम ! नो हीनः तुल्य नो अभ्यधिकः । एतेषां खलु भदन्त 1 पूळाकच कुशप्रति से बना कुशीकनिर्ग्रन्थस्नातकानां जयन्योत्कृष्टानां चारित्रपर्यत्राणां फतरे कतरेभ्यो यावद्विशेपाधिका वा ? गौतम ! पुलाकस्य कपायकुशीलस्य च एतयोः खलु जघन्याचारित्रपर्ययाः द्वयोरपि तुल्याः सर्वस्वोकाः, पुलाकस्यो. त्कृष्टाचारित्रपर्यंचा अनन्तगुणाः, वकुशस्य मतिसेवनाकुशीलस्य च एतयोः खलु जघन्याचारित्रपर्यवाः द्वयोरपि तुल्या अनन्तगुणाः, कुशस्योत्कृष्टा चारित्रपर्यवा अनन्तगुणाः, प्रतिसेवना कुशीलस्योत्कृष्टाचारित्रपर्यवा अनन्तगुणाः कपायकुशीळस्योत्कृष्टाचारित्रपर्यंवा अनन्तगुणाः, निर्ग्रन्थस्य स्नातकस्य च एतयोः खलु अजघन्यानुत्कृष्टायास्त्रिपर्ययाः द्वयोषितुल्या अनन्तगुणाः ॥०८|| टीका -- 'पुलागरस णं संते ! पुलाकस्य खलु भदन्त ! 'केवइया चरित पज्जवा पन्नता' कियन्तश्चारित्रपर्यत्राः प्रज्ञप्ताः, चारित्रस्य - सर्वविरतिरूपपरिणाम. स्य पर्ययाः भेदाथरित्रपर्यवाः ते च केचिबुद्धिकृता अविभागपलिच्छेदा विषय१५ वांनिकर्षद्वार 'लागस्स णं भंते | वश्या चरित्तपज्जवा' इत्यादि । टीकार्थ- गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - 'पुलागस्स णं भंते! केवइया चारितपज्जा पन्नता' हे भदन्त ! पुलाक साधु के चारित्रपर्यव सर्वविरतिरूप चारित्र के परिणामरूप पर्याय - भेद - कितने कहे गये हैं । सर्वविरतिरूप चारित्र की पर्यायें केवल भगवान् की बुद्धि के द्वारा ही गम्य होती है और પંદરમા નિક દ્વારનું કથન 'पुलागरस णं भते ! केवइया चरितपज्जवा' त्यिहि अर्थ — गौतमस्वामी मे मा सूत्रद्वारा प्रश्रने मे पूछ् छे - 'पुलागणं भंते! केवइया चरित्तपज्जवा पन्नत्ता' ભગવન પુલાક સાધુને પરિણામ રૂપ પર્યાયભેદ કેટલ કહ્યા છે? સવિરતિ રૂપ ચારિત્રની પાંચે. કેવલી ભગવાનની બુદ્ધિ દ્વારા જ પામી શકાય છે અને તેના ભેદ પણ તેએ દ્વારા જ પામી શકાય છે. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका N०२५ ३.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् १५३ कृतावेति पश्ना, भगवान है-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'अणंता ! चारित्तपजना पन्नत्ता' अनन्ताश्चरिनपर्यनाः प्रज्ञप्ताः कथिवा इति । 'एवं जाव सिणायस्स' एवम्-पुलाकवदेव यावत् स्नातकस्य चारित्रपर्यका अनन्ता भवन्ति-अत्र यावत्पदेन बकुशपतिसेवनाशीलरुषायकुशीलनिन्थागं संग्रही भवति-तथा चैतेषां चारित्रपर्यवा अनन्ता एत्र भवन्तीति भावः। 'पुलाए णं भंते !' पुलाकः खलु भदन्त ! 'पुलागस्स सटाणसनिगासेज पुलाकस्य स्वस्थानसन्निकण स्वम्-आस्मीयं सजातीय स्थान पर्यत्राणामाश्रय इति स्वस्थानम् पुलाकादेः पुलाकादिरेव स्व. स्थानम् तस्य स्वस्थानस्य सन्निकर्षः-सनात्यसंयोजनमिति स्वस्थानसन्निकर्षस्तेन स्वस्थानसन्निकर्षेण 'चरित्तपज्जवेहि चारित्रपर्यवैः किं हीणे तल्ले अमहिए' कि हीनस्तुल्योऽभ्यधिको वा एका पुयाः सजातीयपुलाकान्तरस्य चरित्रपर्यवापेक्षया उनके भेद भी उन्हीं के द्वारा गस्थ होते हैं। ये चारित्र भेद अविभाग प्रतिच्छेदरूप होते हैं । अथवा चारित्रके विषयभूत पदार्थों की अपेक्षा भी चारित्र भेद होते हैं । इसी बात को यहां गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से पूछा है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! अणता चारित्त. पज्जवा पण्णसा' हे गौतम ! पुलाक की चारित्र भेद रूप पर्यायें अनन्त होते हैं 'एवं जाव मिणायस्स' इसी प्रकार से यावत् स्नातक साधु की चारित्रपर्यायें अनन्त होती हैं । यहां यावत् पद से बकुश, प्रतिसेवना कुशील कषाय कुशील और निर्गन्ध इनका ग्रहण हुआ है । तथा चइनकी भी चारित्र पर्यायें अनन्त होती हैं । 'पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सट्ठाणसंनिगासेणं चारित्तपज्जवेहिं कि हीणे तुल्ले अमहिए' हे भदन्त ! एक पुलाक सजातीय अन्य पुलाक से चारित्र पर्यायों की ચારિત્રભેદ અવિભાગ પ્રતિકેદ રૂપ હોય છે. અથવા ચારિત્રના વિષયભૂત પદાર્થોની અપેક્ષાથી પણ ચારિત્રભેદે હોય છે, એજ વાત અહિયાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુ श्रीन पूछी छे. तना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! अणंता ! चरित्तपन्जवा पण्णत्ता' गौतम ! यात्रि ३५ yाना पयायो मन त य छ. 'एवजाव सिणायस्स' । अभावं यावत् सनात साधुन। यारित्र पाये। मनत जय છે, અહિયાં યાવત પદથી બકુશ પ્રતિસેવના કુશીલ, કષાયકુશીલ અને નિર્ગો अडए ४२॥या छ मा मधानी यास्त्र पर्याय। मन त य छे 'पुलाए गं भंते ! पुलागस्स सटाणसंनिगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि' होणे, तुल्ले, अमहिए' હે ભગવન એક પુલાક સજાતીય બીજા પુલાકથી ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી શુ હીન હોય છે અથવા બરાબર હોય છે અથવા વધારે હોય છે ? આ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसरे किं हीनो-न्युनः तुल्योऽधिको वा भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयामा इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय हीणे सिय तुल्ले सिय महिए' स्यात् दीन: स्यात् तुल्यः स्यादभ्यधिकः, स्यात-कदाचित् पुलाकान्तरात् सजातीयात् पुलाकः स्वस्थानमनिकण चारित्रपर्याय हीनः विशुद्धमंगमस्थानसम्बन्धित्वेन विशुद्धतरपर्यवापेक्षयाऽविशुद्धतरसंयमस्थानसंबन्धित्वेनाविशुद्धनराः पर्यवाः हीना भवन्ति तादृशा विशुद्धतरपर्यवयोगात् साधुरपि हीन इति कथ्यते । तुल्य इति तुल्य शुद्धिक पर्यवयोगात् साधुरपि तुल्यः कथ्यने अभ्यधिक इति विशुद्धतरअपेक्षा क्या हीन होता है ? अथवा घरावर होता अथवा अधिक होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोया ! पिय होणे १ सिय तुल्ले २ लिय अन्महिए ३' हे गौतम! एक पुलाक दमरे पुलाक से चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से कदाचित् हीन होता है, कदाचित तुल्य होता है और कदाचित् अधिक होता है । इसका तात्पर्य ऐसा है-एक पुलाक का मजातीय पुलाक स्वस्थान शब्द से यहां लिया गया है इसका अपने सजातीय से जो असंयोजन है-वह सन्निकर्प शब्द से लिया गया है। विशुद्ध लयम की पर्यायें विशुद्ध होती हैं और अविशुद्ध संयम की पर्यायें अविशुद्ध होती हैं। संयम की विशुद्धता और अविशुद्धता चाला साधु परम्पर में शुद्ध और अशुद्ध काटा गया है। जिन जिन साधुओं की विशुद्ध संगम पर्याय आपस में समान होती हैं वे तुल्य कहलाते हैं। जिनकी अशुद्ध होती है- शुद्र संथप पर्यायवाले साधुओं की शुद्ध संयम पर्यापों से अविशुद्ध होने से हीन कहलाते प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गीतमाभान 38 छ -'गोयमा ! सिय होणे १, सिय तुल्ले २ सिय अभहिए ३' है गौतम ! मे घुसा मानत साथी ચારિત્રપર્યાની અપેક્ષાથી કે ઇવાર હીન હોય છે. કોઈવાર સમાન હોય છે અને કેઈવાર વધારે હેય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–એક મુલાકના સજાતીય પુલાક અહિયાં રવસ્થાન શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે. તેનું પોતાના સજાતીયથી જે આ યોજન છે, તે સંનિકર્ષ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે વિશુદ્ધ સંયમની પર્યાયે વિશુદ્ધ હોય છે અને અવિશુદ્ધ સંયમની પર્યાયે અવિશુદ્ધ હોય છે. સંયમના વિશુદ્ધપણા અને અવિશુદ્ધપણાવાળા સાધુ અન્ય અન્યમાં શુદ્ધ અને અશુદ્ધ કહ્યા છે જે સ ધુઓના વિશદ્ધ સંયમપર્યાયે પરસ્પરમાં સરખા હોય છે, તે તુલ્ય કહેવાય છે. અને જેઓના પર્યાયે અશુદ્ધ હોય છે. તેઓ શુદ્ધ સંયમ પર્યાયવાળા સાધુઓના શુદ્ધ સંયમ પર્યાથી અવિશુદ્ધ હોવાથી હીન કહેવાય છે, અને વિશુદ્ધતર પર્યાના ચેગથી તેઓ વિશેશાધિક Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेषचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षठारनिरूपणम् १४५ पर्यवयोगात् साधुरपि अभ्यधिक इति । लिय होणे त्ति' अशुद्धसंयमस्थानवतिवात् 'सिय हल्लेत्ति' एक संयमस्थानवत्तित्वात् 'सिय अन्भहिए त्ति' विशुद्धतर- . संयमस्थावनतित्वात् । 'जइ होणे अगंतभागहीणे दो' यदि होनः सनातीयपुलाकान्त रात् पुलाकः तदा अनन्तभागहीनो वा भवेत् अब खल्लु असद्भावस्थापनया'. है और विशुदतर पर्यायों के योग से वे अधिक कहलाते हैं-इन्हीं सेब बातों को लेकर प्रभुश्री ने गौतालस्वामी से उत्तररूप में ऐसा कहा है। सजातीय पुलाकान्तर ले एक्ष पुलाया स्वस्थान सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों की अपेक्षा कदाचित् हीन भी होता है क्योंकिविशुद्ध संयमस्थान सम्बन्धी होने से विशुना हुई एर्गयों की अपेक्षा, अविशुद्धतर संयम स्थान लम्बन्धी होने के कारण अविशुद्धतर पर्यायें हीन होती हैं और ऐसी अविशुद्ध र पर्शयों के योग से साधु भी हीन हैं ऐसा कहा जाता है तुल्य शुद्धियाली पर्शयों के योग से साधु भी तुल्य है ऐसा कहा जाता है तथा-विशद्धतर पर्यायों के योग से साधु श्री अभ्यधिक हैं ऐसा कहा जाता है। इस. लिये-अशुद्ध संघसस्थानपर्ती होने ले लिहीणे' ऐसा कहा गया है। एक जैसे संयनस्थानी होने से सियतुल्लेत्ति' ऐसा कहा, गया है और विशुद्धतर संयमस्थानवर्ती होने से लिय अभहिए त्ति': ऐसा कहा गया है। 'जाहीणे अणंलधागहीणे दा' यदि एक पुलाकमरे सजातीय पुलाक से हीन होता है तो वह उसे अनन्तमाग हीन भी हो सकता કહેવાય છે. આ તમામ પ્રકરણને લઈને પ્રભુશ્રીએ શ્રી ગૌતમસ્વામીને ઉત્તર રૂપે એવું કહ્યું છે કે-સજાતીય પુલાકાન્તરથી–અર્થાત્ સમાન જાતીવાળા બીજાં મુલાકથી એક પુલાક સ્વસ્થાન સંનિકર્ષથી ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી કંઈવાર હીન પણ હોય છે. કેમકે-વિશુદ્ધ સ યમરાન સ બ ધી હોવાથી વિશુદ્ધતર થયેલા પર્યાની અપેક્ષાથી અવિશુદ્ધતર સંયમ હીન હોય છે અને એવા અવિશુ. દ્વતર પર્યાના રોગથી સાધુ પણ હીન હોય છે તેમ કહેવામાં આવે છે સમાન શુદ્ધિવાળા પર્યાના રોગથી સાધુ પણ તુલ્ય છે તેમ કહેવાય છે. તથા વિશદ્ધતર પર્યાના વેગથી સ ધુ પણ અધિક છે તેમ કહેવાય છે. તેથી, मशुद्ध सयभवति वाथी 'सिय होणे' में भाणे उस छ. मे सरमा सयभ स्थानवति डावाथी 'सिय तुल्ले त्ति' से प्रभाये ४९ भने विशद्धतर सयभस्थानति पाथी 'सिय अमहिए त्ति' को प्रमाणे पाम आये । 'जइहीणे अतभागहीणे वा न मे yals मीन सन्ततीय Yesan सीन डाय छ, तत तनाथी मनतमा जान पाय 3 श छे. 'असंखेज भ० १९ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भगवती सूत्रे पुळाकस्योत्कृष्ट संयमस्थानपर्यत्राणि दश सहस्राणि (१००००) तस्य सर्व जीवानन्तकेन शतपरिमाणतया कल्पितेन भागे हृते सति शतं (१००) लब्धं भवति द्वितीय प्रतियोगिyलाकचारित्रपर्यत्रा नः सहस्राणि नव शताधिकानि (९९००) पूर्वभाग लब्धं शतं प्रक्षिप्तं दशसहस्राणि जावानि तवोऽसौ सर्व जीवानन्तकमारहारलब्धेन शतेन हीनमित्यनन्तभागहीन इति । 'असंखेज्जभागहीणे वा' असंख्येयभागहीनो वा भवेद, पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशे दशसहस्ररूपस्य (१०००० ) लोकाकाशप्रदेश परिमाणेनाऽसंख्येयेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हृते लब्धं है 'असंखेज्जहभागीणे वा, संखेज्जइ भाग होणे वा' असंख्यात भाग हीन भी हो सकता है और संख्यातभाग हीन भी हो सकता है । अथवा - 'संखेज्जगुणहीणे वा' संख्यातगुण हीन भी हो सकता है 'असंखेज्जगुणहीणे का' असंख्यात गुण हीन भी हो सकता है और 'अतगुणहोणे वा' अनन्त गुण हीन भी हो सकता है । इस विषय को अङ्क संदृष्टि द्वारा यों सरझ सकते है- मान लीजिये पुलाक की उत्कृष्ट संयमस्थान पर्याये १०००० हैं और अनन्त का प्रमाण १०० है । उत्कृष्ट संयमस्थानपर्यायों में इस अनन्त का भाग देने से १०० 1 ध आते हैं । इन्हें उत्कृष्ट संघम स्थान की पर्यायों में से कम कर देने पर द्वितीय पुलाक के संयम स्थान की चारित्र की पर्यायें ९९०० जो होती हैं वे उत्कृष्ट संगमस्थान पर्यायों की अपेक्षा अनन्तभाग से होन हुई हैं । यह बात जानी जाती है । 'असंखेज्जभागहीणे वा' असंख्यात भाग हीन होती हैं ऐसा जो कहा गया है सो इसे यों सम इभागहीणे वा संखेज्जइभागहीणे वा' असभ्यातलाग सीन पाए होय छे. मने सौंभ्यातलाग डीन पशु होय हे अथवा सखेज्जगुणहीणे वा' सभ्यातगुणु डीन पाशु होश छे, 'असंखेज्जगुणहीणे वा' असभ्यातगुणु हीन पशु होध शडे छे. मने 'गुणही वा' मनांत हीन पशु होर्ध शत्रु छे, मा विषयने हैं। द्वारा આવી રીતે સમજી શકાય છે. માની લે કે પુલાકના ઉત્કૃષ્ટ સયમસ્થાનના પાંચા ૧૦૦૦૦ દસ હજાર છે અને અનંતનુ પ્રમાણુ ૧૦૦] સેા છે. ઉત્કૃષ્ટ સંયમ સ્થાનાના પાંચમાં આ અનતના ભાગ દેવાથી ૧૦૦ સેા લખ્યું થાય છે. તેને ઉત્કૃષ્ટ સયમ સ્થાનેાના પર્યાચેમાંથી કમ કરવાથી ખીજા પુલાકના સયમ સ્થાનેાની ચારિત્ર પર્યાય! ૯૯૦૦ નવ હજારને નવસેા થઈ જાય છે. તે ઉત્કૃષ્ટ સ્થાનેાના પર્યાયની અપેક્ષાએ અનંતભાગથી હીન થયેલ છે. એ बात युवामां आवे छे. 'असखेज्जभागहीणे वा' असभ्यातलाग डीन डाय છે. એવું જે કહેલ છે તેને આ પ્રમાણે સમજવુ જોઈ એમાના કે અસ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ खू०८ पञ्चदशं निकर्पहारनिरूपणम् ४७ शतद्वयम्, द्वितीयपतियोगिपुलाचरणयपरिमाणं नवसहस्राणि अष्टौ च शतानि (९८००) ततः पूर्वभागलब्धं शतद्वयं तत्र मक्षिप्यते, जातानि दशसह स्राणि, ततोऽसौ लोकाकाशपदेशपरिमाणासंख्येयक भागहारलब्धेन शतद्वयेन हीन इत्यसंख्येयमागहीनः, प्रथमपुलाकस्य स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'संखेज्जइ भागहीणे वा' संख्येयभागहीनो वा भवेत् । पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशेर्दशसहस्रस्य (१००००) उ-कृष्टसंख्यकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन भागे हृते लब्धं सहस्रम् (१००००) द्वितीय प्रतियोगि पुलाकचरणपर्यवपरिमाणं नव सहस्राणि (९०००) पूर्वभागलब्धं च सहस्रं तत्र प्रतिष्यते, जातानि दशसहस्राणि, ततोऽसौ उत्कृष्ट संख्येयभागहारलब्धेन सहस्रेण हीन इति संख्येयभागहीनः, प्रथमपुलाकस्य स्वझना चाहिये मानलीजिये असंख्यात का प्रमाण ५० है। इनका भाग पूर्वोक्त उत्कृष्ट संयमस्थान पर्यायों में देने से २०० लब्ध आते हैं। इन दो सौ को उत्कृष्ट संयमस्थान पर्यायों में से हीन कर देने पर-जो ९८०० आते हैं वे असंख्याल भाग हीन हैं। ऐसे असंख्यात भाग से हीन उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें एक पुलाक की चारित्र पर्यायों से दूसरे पुलाक की होती हैं। इसी प्रकार 'संखेज्जइमागहीणे वा' ऐसा जो कहा गया है-सो इसका मतलब ऐसा है मानलीजिये संख्यात का प्रमाण१० हैं। इस १० का भाग पूर्वोक्त उत्कृष्ट संगमस्थानपर्यायों में देने से लन्ध १००० आते हैं इन एक हजार को उत्कृष्ट संयमस्थानपर्यायों में से घटाने पर ९००० बचते हैं-तो ये नौ हजार जैसी एक पुलाक कीअपेक्षा दसरे पुलाक की संख्यातभाग हील चरित्रपर्यायें हैं । 'संखे. ખ્યાતનું પ્રમાણ ૫૦ પચાસ છે. તેને ભાગ પૂર્વોક્ત ઉત્કૃષ્ટ સંયમ સ્થાનના પર્યામાં દેવાથી ર૦ બસે લબ્ધ થાય છે. આ બસને ઉત્કૃષ્ટ સંયમસ્થાન પર્યામાંથી હીન કરવાથી ૯૮૦૦ અઠ્ઠાણુસે આવે છે, તે અસંખ્યાતભાગ હીન કહેવાય છે એવા અસંખ્યાતભાગેથી હીન ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પર્યાય એક घुसाना यानि पायाथी मी साना राय छे. मे प्रमाणे 'संखेज्जा भाग हीणे वा' को प्रमाणे रे - मा मेवा छ -भाना સંખ્યાતનું પ્રમાણ ૧૦ દસ છે. આ દસ ભાગ પૂર્વોક્ત ઉત્કૃષ્ટ સંયમ સ્થાનના પર્યાયમાં દેવાથી લબ્ધ ૧૦૦૦) એક હજાર આવે છે. એક હજારને ઉત્કૃષ્ટ સ્થાનના સંયમ પર્યાયોમાથી ઘટાડવાથી ૯૦૦૦ નવ હજાર બચે છે. તે નવ હજાર એક પુલાકની અપેક્ષાથી બીજા પુલાકના સંખ્યાતमा डीन यात्रि पर्याय छे. 'सखेजगुणहीणे वा' के प्रमाणे रे युछे Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे स्थानसन्निकर्ष इति । 'संखेज्जगुणहीणे वा' संख्ये गुणहीनो वा भवेत् एकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवपरिमाणं कल्पनया सहस्रदशकं द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवपरिमाणं च सहस्रम् (१००० ) ततश्चोत्कृष्टसंख्येयकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण गुगितसहस्रं जावन्ते दशसहस्राणि स च राशिः (१००००) तेन उत्कृष्टसंख्येयकेन कल्लनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण हीनः - अनभ्यस्त इति संख्येयगुणहीनः प्रथमपुकाकस्य स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'असंखे जगुणहीणे वा' असंख्येयगुणहीनो वा भवेत्, एकस्य पुलाकस्य चरणपर्यर्वपरिमाणं कल्पनया दगसहस्राणि (१००००) द्वितीय प्रतियोगिपुलाकचरणपचपरिमाणं च शतद्वयम् उतथ लोकाकाश प्रदेशपरिमाणेनासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारेण गुणितं शतद्वयं जायन्ते दश महस्राणि स च ज्जगुणहीणे वा' ऐसा जो कहा गया है लो इसका मतलब ऐसा हैमान लीजिये एक प्रथम पुलाक की चारित्र पर्यायों का प्रमाण १०००० है और द्वितीय प्रतियोगी पुलाक की चारित्र पर्यायों का प्रमाण १००० है । तथा संख्यात का प्रमाण १० हैं, अब इस दशरूप उत्कृष्ट संख्यात से १००० को गुणित करने से १०००० संख्या आती हैं । सो यह १००० संख्यारूप राशि १०००० की अपेक्षा संख्यातगुण हीन कही जाती है । इसी प्रकार प्रथम पुलाक की चारित्रपर्यायों से द्वितीय पुलककी चारित्र पर्यायें संख्यात गुणहीन होती हैं। 'असंखेज्जगुणहीणे वा' ऐसा जो कहा गया है सो उसका नात्पर्य ऐसा है मान लेना चाहिये कि एक पुलाक की चारित्र पर्यायें १०००० है और दूसरे पुलाक की चारित्र पर्यायें असंख्यातगुण हीन हैं - यहाँ असंख्यात का प्रमाण २०० है । यहां गुणकार का प्रमाण ५० है । २०० को ५० से गुणित करने पर તેના હેતુ એ છે કે–માના કે એક પહેલા પુલાકના ચારિત્ર પર્યાયાનુ પ્રમાણ ૧૦૦૦૦] દસ હજારનું છે. અને ખીજા પ્રતિયેાગી પુલાકના ચારિત્ર પર્યંચાનુ પ્રમાણ ૧૦૦૦ એક હજારનુ' છે તથા સંખ્યાતનું પ્રમાણુ ૧૦ ઇસ છે. આ દસ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ સખ્યાતથી ૧૦૦ હજારને ગુણુવાથી ૧૦૦૦૦] દસ હજારની सौंभ्या गावे छे. या १००० ] मर३५ राशि (ढगसेो) १०००० ] इस डे. રની અપેક્ષાએ સંખ્યાતગુણુ હીન કહેવાય છે, એજ રીતે પહેલા પુલાકના ચારિત્ર પર્યાયથી મીજા પુલાકના ચારિત્ર પર્યા। સખ્યાતગણુા હીન હોય છે. 'अस खेज्जगुणहीणे वा' याप्रमाणे ? हेवामां आव्यु छे, तेनु तात्यय એવુ છે કે-એક પુલાકના ચારિત્રપાઁયા ૧૦૦૦ દસ હજાર છે અને ખીજા પુલાકના ચારિત્રયા મસખ્યાતગુણુ હીન છે. અહીંયાં અસ ખ્યાતનુ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्द्रिका टीका शे०२५ उ.६ ०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् १४९ राशिस्तेन लोकाकाशप्रदेशपरिमाणासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशतत्ममाणेनगुणकारेण हीन इति - असंख्येयगुणहीनः, प्रथमपुत्राय स्वस्थानमन्निकर्ष इति । 'अनंतगुणहीणे वा' अनन्तगुणहीनो वा भवेत् । एकस्य किल पुलाकस्य चरणपर्यवपरिमाणं कल्पनया दशसहस्त्रप्रमाणम्, द्वितीयमतियोगिपुलाकचरणपर्यतपरिमाणं च शतमेय् वतश्च सर्वजीवानन्यकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण गुणितः शतरूपो राशिर्जायते दशसहस्रमति, स च तेन सर्वजीवानन्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण हीन इति - अनन्तगुणहीनः प्रथमपुलाकस्य स्वस्थानि इति । एवमेवाऽभ्यधिकपस्थानक शब्दार्थाऽप्येभिरेव भागहारगुणहारेव्यख्यातव्यः, तदेवाह - 'अह' इत्यादि, 'अह अन्महिए' अथाभ्यधिकः १०००० हो जाते हैं, सो दूसरे पुलाक की जो २०० के रूप में चारित्र पर्यायें हैं वें १०००० की अपेक्षा असंख्यातगुण होन हैं । 'अनंतगुण हीणे वा' ऐसा जो कहा गया है सो उसका तात्पर्य है- - मान लीजिये किसी पुलाक की चारित्र पर्यायों का प्रमाण कल्पना से १०००० और द्वितीय प्रतियोगी पुलाक की चारित्र पर्याय या प्रमाण १०० है और अनन्त का प्रमाण १०० है अब १०० को १०० से गुणित करने पर १०००० हो जाते हैं तो इस राशि की अपेक्षा जो १०० की राशि है वह अनन्तगुण हीन राशि है । इसी प्रकार से एक पुलाक की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा दुसरे पुलाक की चारित्र पर्यायें अनन्तगुण हीन होती हैं । वह प्रथम पुलाक का स्वस्थान का सन्निकर्ष हीनता की अपेक्षा से समझाया गया है । इसी प्रकार से अभ्यधिक शब्दार्थ भी इन षट् પ્રમાણુ ૨૦૦] ખસેાનું છે અહિયાં ગુણુાકારનું પ્રમાણુ પ] પચાસનું છે. ૨૦૦] ખસાને પચાસથી ગુણુવાથી ૧૦૦૦૦] દસ હજાર થઈ જાય છે. તે બીજા પુલાકની ૨૦૦] ખસેાના રૂપમાં જે ચારિત્રપર્યાં છે, તે १००००] हंस डेलरनी अपेक्षाथी असभ्यातशुशु हीन छे. 'अनंतगुणहीणे वा' કથનનુ તાત્પય એવુ છે કે-કેાઇ પુલ્લાકના ચરિત્રપર્યાયાનું પ્રમાણ કલ્પનાથી ૧૦૦૦૦] દસ હજારનુ છે અને ખીજા તેના પ્રતિયેાગી પુલાકના ચરિત્ર પાંચાનું પ્રમાણુ ૧૦૦૭ સે છે. તે સેને સેથી જીણુવાથી દસ હજાર થઈ જાય છે. આ દસ હુજાર રાશીની અપેક્ષાથી જે સેાની રાશી છે. તે અનંત ગુણુ હીન રાશી છે. એજ રીતે એક પુલકના ચારિત્રયાની અપેક્ષાથી ખીજા પુત્રાના ચારિત્રપાંચા અન ́તગણા હીન હૈશ્ય છે આ પ્રથમ પુલાકનું સ્વસ્થાનસન્તિ સમજાવવામાં આવેલ છે. એજ રીતે અભ્યધિક શબ્દના Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भगवतींसूत्र यदि एकः पुलाकः सजातीयपुलाकान्तरतोऽभ्यधिको भवेत् वदा-'अणंतभाग. मम्महिए वा' अनन्तभागाभ्यधिको भवेत् एकस्य पुलाकस्य कल्पनया दशसहस्र (१००००) प्रमितं चरणपर्यवपरिमाणं, तदन्यस्य नवशताधिक नवसहस्रपमितं (९९००) चरणपर्यवपरिमाणम्, ततो द्वितीयाऽपेक्षया प्रथमः (१००००) अनन्तभागाऽभ्यधिकः प्रथमपुलाकस्य स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'असंखेज्जइ भागमभहिए' असंख्येयमागाऽ"धिको भवेत् यस्य अष्टशताधिक नवसहस्रपमितं (१८००) चरणपर्यवपरिमाणं तस्मात् प्रथमः (१००००) असंख्येयभागाधिक: स्थान पतित भागहार और गुणकार से समझ लेना चाहिये। यही घात-'अह अमहिए' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है अर्थात् एक पुलाक यदि दुसरे पुलाक से अधिक होता है तो वह 'अणंतभागमाभहिए' अनन्तभाग से अभ्यधिक हो सकता है असंख्यात भाग से अधिक हो सकता है, संख्यातभाग से अधिक हो सकता है, संख्यात. शुण अधिक हो सकता है असंख्यातगुण अधिक हो सकता है और अनन्तगुण अधिक हो सकता है । अनन्त भाग अधिक हो सकता हैइसे घों समझना चाहिये-कल्पना करो-एक पुलाक के १० हजार चारित्र पर्यायें हैं और दूसरे पुलाक के ९९०० चारित्र पर्यायें हैं इस प्रकार द्वितीय की अपेक्षा पहिले के चारित्र पर्याय अनन्तभाग अधिक है। 'असंख्पात भाग अधिक हो सकता है इसका तात्पर्य ऐसा हैमानलो-जिसके चारित्र पर्यव परिणाम ९८०० हैं उसकी अपेक्षा प्रथम અર્થ પણ આ છ સ્થાનમાં રહેલ ભાગાકાર અને ગુણકારથી સમજી લે, A. मे पात 'अह अब्भहिए' मा सूत्र५४ ६२१ प्राट ४२ छ. अर्थात् ४ पु ने भीan janvथी मधिर डाय तो ते 'अणंतभागमभहिए' અનંતભાગથી અભ્યધિક થઈ શકે છે. અસંખ્યાતભાગથી અધિક હોઈ શકે છે. સંખ્યાતભાગથી વધારે હોઈ શકે છે. સંખ્યાલગણા વધારે થઈ શકે છે, અસંખ્યાતગણુ વધારે હોઈ શકે છે. અને અનંતગણું વધારે હોઈ શકે છે, અનંતભાગ અધિક હોઈ શકે છે. આને આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કલ્પના કરે કે એક મુલાકનું ૧૦૦૦) દસ હજાર ચારિત્ર પરિમાણ છે. અને બીજા પુલાકનું ૯૦૦ નવાણુ ચારિત્ર પરિમાણ છેઆ રીતે આ બીજાની અપેક્ષાથી પહેલા પુલાકનું ચારિત્ર પરિમ ણ અનંતભાગ વધારે છે. “અસં. ખ્યાતમાગ વધારે હોઈ શકે છે, તેમ કહેવાનું તાત્પર્ય એવું છે કે--માનો કે જેના ચારિત્ર પર્યવ પરિમાણ ૯૮૦) અઠાણુ છે. તેના કરતાં પહેલાના Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ 9 shreefont टीका श०२५ उ०६ ०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् प्रथमपुलाकस्य स्वस्थानसन्निकर्ष' इति । 'संखेज्जइ भागमन्महिए वा' संख्येयभागाभ्यधिको वा भवेत् । यस्य पुलाकस्य कल्पनया नवसहस्रपमितम् (९०००) चरणपर्यवपरिमाणं तत् प्रथमस्य चरणपर्यत्रपरिमाणात् (१००००) संख्येयभागा-funः स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'संखेज्जगुणमन्महिए वा' संख्येयगुणाधिको वा भवेत्, यस्य पुळाकस्य चरणपर्यवपरिमाणं सहस्रमानम् (१०००) तदपेक्षया प्रथमस्य चरणपर्ययपरिमाणम् (१००००) संख्येयगुणाधिकमिति संख्येयगुणाfun: स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'असंखेज्जगुणमन्महिए वा' असंख्येयगुणाभ्यधिको वा भवेत् तथा यस्य पुलाकस्य चरणपर्यवपरिमाणं कल्पनया शतद्वयं तद पेक्षा प्रथमस्य संख्येयगुणाधिकः स्वस्थानसन्निकर्ष इति । 'अनंतगुणमभ हिए वा' अनन्तगुणाभ्यधिको वा भवेत् । तथा यस्य पुलाकस्य चरणपर्यवपरिमार्ण कल्पनया शत्रपरिमितं, तदपेक्षयाऽऽथस्य (१००००) अनन्तगुणाधिकः के जो १०००० चारित्र पर्यवरूप परिणाम हैं वे असंख्यात भाग अधिक है । 'संखेज्जइ भागमन्भहिए वा' इसका तात्पर्य ऐसा है कि जिसके ९००० प्रमित चारित्र पर्याये हैं वे प्रथम के चारित्र पर्यव परिणामों की अपेक्षा - १००० परिणामों की अपेक्षा-संख्यात भाग अधिक हैं । 'संखेज्जगुणमन्भहिए वा' इसका तात्पर्य ऐसा है जिस पुलाक के चारित्र पर्यायों का प्रमाण १००० है उसकी अपेक्षा प्रथम के चारित्र पर्यायों प्रमाण जो १०००० हैं वह संख्यातगुण अधिक है । 'अलंखेज्नगुणहिए वा 'इसका तात्पर्य ऐसा है जिस पुलाक के चारित्र पर्याव का प्रमाण २०० है इसकी अपेक्षा प्रथम के जो चारित्र पर्यायों का प्रमाण है वह असंख्यातगुणित अधिक है । 'अनंतगुणमन्महिए वा इसका तात्पर्य ऐसा है कि जिस पुलाक के चारित्र पर्यायों का प्रमाण का ૧૦૦૦૦] દસ હજાર ચારિત્ર પવરૂપ પરિમાણુ છે, તે અસખ્યાતભ ગ पधारे छे 'सखेज्जइभागमन्महिए वा' मा प्रथनतु तात्पर्य मेवु छे है-नेने ૯૦૦૦] નવ હજાર પ્રમિત ચારિત્ર પરિમાણ છે. તે પહેલાના ચારિત્ર પવ परिलाभानी अपेक्षाथी सांध्यात लाग वधारे हे 'संखेज्जगुणमव्भहिए वा ' આ કથનનુ તાત્પર્ય એવું છે કે-જે પુલાકના ચારિત્ર પર્યાયાનું પ્રમાણ ૧૦૦૦ એક હજારનુ છે. તેના કરતાં પહેલાના ચારિત્ર પર્યાયાનું પ્રમાણુ मे १००००] इस न्नस्तु छे, ते सभ्याता वधारे हे. 'असंखेज्जगुणમણ્િ વા' આ કથનનુ તાત્પ` એવું છે કે-જે પુલાકના ચારિત્ર પર્યાયાનું પ્રમાણુ ૨જી ખસેા હેય તે અપેક્ષાથી પહેલાના ચરિત્ર પર્યાયાનું જે પ્રમાણ हे ते असभ्याता वधारे छे. 'अनंतगुणमन्भहिए वा' मा उथनतुं तात्पर्य r Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे १५२ स्वस्थानसकि इति । अथ पुलाकसाश्रित्य वकुशादि परस्थानसन्निकर्ष सूत्र माह - 'पुलाए णं भंते ! उसस्स' इत्यादि । 'पुलाए णं भंते ! उसस्स परद्वाणसन्निगासेणं चारिचपज्नवेर्हि किं होणे तुल्ले अन्महिए' पुलाकः खलु भदन्त ! कुशस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायैः किं हीन स्तुल्योऽभ्यधिको वा तत्र परस्थानन्निकर्षेण इत्यस्य विजातीययोगमाश्रित्येत्पर्थ: विजातीयश्च पुलाकस्य कुशादिर्भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'हीणे णो तुल्ले णो अनहिए' हीनः, पुलाको वकुशाद हीनो भवति तथाविधविशुद्धयभावात् नो तुल्यो भवति पुलाको बकुशाद नवा अभ्यधिक इति । कियत्परिमितो हीनः ? इत्याह- 'अवगुणहीणे' अनन्तगुण हीनः, वकुशापेक्षया १०० है उसकी अपेक्षा प्रथम के जो चारित्र पर्याय का १०००० प्रमाण है वह अनन्तगुण अधिक है । यह सब कथन यहां तक का स्वस्थानं की अपेक्षा से किया गया है। अब परस्थान की अपेक्षा से बकुश आदि के परस्थान की अपेक्षा से यह कथन सूत्रकार इससूत्र द्वारा करते हैं । 'पुलाएणं भंते । वसस्स परद्वाणसत्रिगासेणं चरिन्त पज्जवेहिं किं होणे तुल्ले, अम्महिए' इसमें गोतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! पुoा अपनी चारित्र पर्यायों की अपेक्षा वकुशरूप परस्थान की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से क्या हीन है । अथवा तुल्य है ? अषा अधिक है | इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयना ! हीणे, नो तुल्हे नो महिए' हे गौतम । तथाविध विशुद्धि के अभाव से पुलाक वश से होन होता है। इसलिये वह हीन है तुल्य अथवा 1 એ છે કે-જે પુલ્લાકના ચારિત્ર પર્યાયેાનુ પ્રમાણ ૧૦૦ સેા છે. તેના કરતાં પહેલાના જે ચારિત્રપર્યાયાનું દસ હજારનુ` પ્રમાણુ છે, તે અનત ગુણુ વધારે છે, આ સઘળુ' કથન અહિં સુધીનું સ્વસ્થાનની અપેક્ષાથી કરવામાં આવેલ છે. હવે પરસ્થાનની અપેક્ષાથી-એટલે કે ખકુશ વિગેરેના પરસ્થાનની અપે क्षाथी या स्थन सूत्रद्वारा अारे मतावे हे 'पुलाए णं भंते ! बरसस्स परद्वाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेद्दि किं हीणे तुल्ले अच्भहिए' या सूत्रपाठथी ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવુ* પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન્ પુલાક પેાતાના ચારિત્ર પાંચાની અપેક્ષાથી ખકુશરૂપ પરસ્થાનના ચારિત્ર પર્યાચાની અપેક્ષાથી શું હીન છે ? અથવા તુલ્ય છે ? અથવા વધારે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गीतभस्वाभीने हे छे - 'गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अव्भहिए' हे गीतभ ! તથાવિધ–તે પ્રકારની વિશુદ્ધિના અભાવથી પુલાક અકુશ કરતાં હીન ડાય છે. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् हीनो भवति पुलारूस्तत्रानन्तशुणहीनो भवतीति । 'एवं पडिसेवणाकुपीलस्स वि' एवं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि यथा पुलाश बकुगस्य चारित्रपर्याय हीनः कथित स्तथा प्रतिसेवनाकुगीलोऽपि चारित्रपर्यायैरनन्तगुणहीनो वक्तव्य इति । 'कसायकुसीछेणं समं रहाणवडिए जहेच सट्टाणे' कषायकुशी लेन समं पदस्थानपतितो यथैव स्वस्थाने षट्स्थानानीमानि-अनन्तासंख्येयसंख्येय मागाधिकरूपं त्रयम् ३, संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणाधिकरूपं त्रयं चेति षट्थानानि इति । यथा पुलाकर पुलाकापेक्षया पदस्थानपतितः कथितस्तथा कपायकुशीलापेक्ष पाऽपि पुलाक: षट्स्थानपतितो वक्तव्य ज्ञत्यर्थः, तत्र पुलाकः कषायकुशीलात् हीनो वा स्यात् अविशुद्धसंयमस्थानत्तित्वात तुल्यो वा स्यात् समानसंयमस्थानवृत्तित्वात अधिक नहीं है। बकुश की अपेक्षा वह अनन्त गुण हीन होता है। 'एवं पडिसेषणाकुलीलस्ल वि' इसी प्रकार बह पुलास पनिलेवनाकुशील की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से भी अनन्तगुम हीन होता है। अथ गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा-'कलायनुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्टाणे' हे अदन्त ! पुलाक अपनी चारित्र पर्यायों से क्या कषाय कुशीलरुप परस्थान की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा हीन है ? अथवा तुल्य है अथवा अधिक है ? लब प्रभुश्री ने इस सूत्र द्वारा ऐसा कहा है कि-हे गौतम ! जिस प्रकार पुलाक स्वस्थान की अपेक्षा सेअन्य पुलाक की अपेक्षा ले-षटूस्थान पतित कहा गया है-उसी प्रकार से वह कषायकुशील दी अपेक्षा से श्री षट् स्थानपतित कहना चाहिये । कदाचित् कषायकुशील से पुलाक हीन भी होता है क्यों कि वह अविशुद्ध संयमस्थान में वृत्तिवाला होता है कदाचित् वह તેથી તેઓ હીન છે. તુલ્ય અથવા અધિક નથી. બકુશ કરતાં તે અનંતગણ. डीन डाय छे. 'एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि' मेरीत ते धुसार प्रति. સેવના કુશીલના ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી પણ અનંતગુણ હીન હોય છે. शथी गौतमस्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे 3-'कसायकुसोलेणं सम छट्ठाणवडिए जहेव छहाणे' 8 सावन् पुसा पाताना यास्त्रि पर्यायाधीश કષાય કુશીલરૂપ પરસ્થાનના ચારિત્ર પર્યાયે ની અપેક્ષ થી હીન છે? અથવા તુલ્ય છે? અથવા વધારે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ સૂત્ર દ્વારા એવું કહ્યું છે કે-હે ગૌતમ! જે પ્રમાણે પુલાક સ્વસ્થાનની અપેક્ષાથી બીજા પલાકની અપેક્ષાથી છરથાન પતિત કહ્યા છે. એ જ રીતે તે કષાય કુશીલની અપેક્ષાથી પણ છે સ્થાન પતિત કહેવા જોઈએ, કેઈર કષાય કુશીલથી પુલાક હીન પણ હેય છે, કેમકે-તે અવિશુદ્ધ સમસ્થાનમાં પ્રવૃત્તિ વાળા હોય છે, भ० २० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले अधिको वा स्यात् शुद्धतरसंयमस्थानवृत्तित्वात् यस्मात् पुलारुस्य कपायकुशीलस्य च सर्वजघन्यानि संयमस्थानानि अधो भवन्ति, तत स्तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि माप्नुतः तुल्याध्यवसायत्वात् ततः पुलाको व्यवच्छिद्य ने हीन परिणामत्वात् व्यवछिन्ने च पुलाके कपायकुशील एक एव असंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति, शुभपरिणामस्वाक् तदनन्तरं कपायकुशीलपतिसेवनाकुशीलवकुशाः युगपदसंख्ये. यानि संयमस्थानानि माप्नुवन्ति, ततश्च वकुशो व्यवछियते । प्रतिसेवनाकुशील कषायकुशीलौ असंख्येयानि संयमस्थानानि प्राप्नुतः, ततश्च प्रतिसेवनाकुगोलो व्यव. च्छिद्यते । कपायकुशीलस्तु असंख्येयानि संयमस्थानानि प्राप्नोति, ततः सोऽपिसुल्य भी होता है क्योंकि वह समान स्थान में वृत्ति वाला होता है। कदाचित् वह अधिक भी होता है क्यों कि यह शुद्धतर संयमस्थान में वृत्सिवाला होता है। क्योंकि पुलाक और कषाय कुशील के सर्व जघन्य संयम स्थाल सब से नीचे होते हैं। यहां से ये दोनों साथ २ असंख्य संघमस्थान तक जाते हैं कारण यहां तक इनके अध्यवसाय तुल्य होते हैं। इसके बाद पुलाक हीन परिणामवाला होने से विछुड जाता है-संघमस्थान की ओर बढ़ने से अटक जाता है-केवल एक कषायकुशील ही असंख्यात संयमस्थान तक जाता है। क्यों कि वह शुभपरिणाम बाला होता है इसके बाद कपायकुशील प्रतिसेवनाकशील और धकुश ये तीनों साथ २ असंख्यात संयमस्थान तक जाते हैं। इसके बाद बकुश पिछुड जाता है आगे संयमस्थान की ओर जाने से रुक जाता है । केवल प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील ये दोनों ही असंख्यात संयमस्थान तक जाते हैं । इप्त के बाद प्रतिसेवना कशील भी अटक जाता है। केवल कषाय कुशील ही असंख्यात संयम કોઈવાર તે તુલ્ય પણ હોય છે, કેમકે તે સ્થાનમાં વૃત્તિવાળા હોય છે. કેઈવાર તે વધારે પણ હોય છે. કેમકે તે શુદ્ધતર સંયમસ્થાનમાં વૃત્તિવાળા હોય છે. કેમકે પુલાક અને કષાયકુશીલના સર્વ જઘન્ય સંયમસ્થાને સૌથી નીચા હોય છે, ત્યાંથી તે બને સાથે સાથે અસંખ્ય સંયમસ્થાન સુધી જાય છે. કારણ કે ત્યાં સુધી તેઓને અધ્યવસાય તુલ્ય હોય છે. તે પુલાક હીન પરિમાણ વાળા હેવાથી છૂટી જાય છે અર્થાત્ સ યમસ્થાનની તરફ આગળ થવાથી અટકી જાય છે કેવળ એક કષાય કુશીલ જ અસંખ્યાત સંયમસ્થાન સુધી જાય છે. કેમકે તે શુભ પરિમાણવાળા હોય છે. તે પછી કષાયકુશીલા પ્રતિસેવના કુશીલ અને બકુશ એ ત્રણે સાથે સાથે અસંખ્યાત સંયમ સ્થાને સુધી જાય છે. તે પછી પ્રતિસેવના કુશીલ પણ અટકી જાય છે, કેવળ કષાય Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सूc८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम् कषायकुशीलऽपि व्यरच्छि यते-तदनन्तरं निर्ग्रन्थस्नातको एक संयमस्थानं माप्नुत इति । 'णियंठस्स जहा व उसस्स' निर्ग्रन्थस्य यथा-चकुशस्य यथा पुलाको बकुशस्य परस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्याय हीनः कथितः तथा-निग्रन्थस्य परस्थानसभिकर्षेण चारित्रपर्याय रनन्तगुण हीन एव भवति । 'एवं सिगायस्स वि' एवं स्नातकस्यापि, पुलाकः स्नातकादनन्तगुणहीनो भवतीत्यर्थः । पुलाकस्य वकुशा. दिनां हीनत्यादिकं निरूप्य वकुशस्यापि तदन्यैः सह हीनत्यादिकं निरूपयन्नाह'बउसे णे भने ! इत्यादि, 'वउसे णं भंते ! पुलागस्त परढाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि किं हीणे तुल्ले अन्भहिए' वकुशः खलु भदन्त ! पुलाकस्य परस्थानों को प्राप्त करता है। बाद में वह कषायकुशील भी अटक जाता है निग्रन्थ और स्नातक ये दोनों ही एक संयमस्थान को प्राप्त करते हैं। 'नियंठस्त जहा व उसस्त' इसलिये पुलाक परस्थान सन्निकर्ष को लेकर जिस प्रकार बकुश की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण हीन कहा गया है उसी प्रकार वह निर्ग्रन्थ की चारित्रपर्यायो से भी अनन्त गुण हीन कहा गया है । 'एवं सिणायत वि' और इसी प्रकार वह पुलाक स्नातक की भी चारित्र पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण हीन कहा गया है । इस प्रकार से पुलाम में बकुश आदि की अपेक्षा हीनता आदि का प्रतिपादन करते हैं-इसमें मौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'बउसे गं अंते ! पुलामहल परहाणसन्निगासेणं चरित्तपज्ज. वेहि किं हीणे, तुल्ले, अ०भहिए' हे अदन्त ! बकुश क्या पुलाक रूप કુશીલ જ અસંખ્ય ત સંયમ સ્થાનોને પ્રાપ્ત કરે છે. તે પછી તે કષાય કુશીલ પણ અટકી જાય છે નિન્ય અને સ્નાતક એ બન્ને એક જ સંયમસ્થાનને प्राप्त ४२ छ 'नियठस्स जहा बउसस्स' तथा पुरा ५२स्थानसन्निन લઈને જે રીતે બકુશના ચારિત્રપયાની અપેક્ષાથી અનંતગુણહીન કહયા છે. એજ પ્રમાણે તે નિર્ચથના ચારિત્ર પર્યાથી પણ અનંતગુણહીન કહ્યા છે. 'एव' सिणायस्स वि' मने मे प्रमाणे ते पुसा स्नात: ५५ यास्त्रियाયેની અપેક્ષાથી અનંતગુણ હીન કહ્યા છે. આ રીતે પુલોકમાં બકુશ વિગેરેની અપેક્ષાથી હીનપણું વિગેરેનું નિરૂ પણ કરીને હવે સૂત્રકાર બકુશમાં પણ બીજાઓની અપેક્ષ થી હીનતા વિગેરેનું પ્રતિપાદન કરે છે-આ સંબંધમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ એવું પૂછયું છે કે'वउसेणं भंते | पुलागस्स परटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले अभहिए' समपन् । पुसा४३५ ५२०ानना यात्रिर्यायानी अपेक्षाथी Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ arranti 1 स्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यः किं हीनः तुल्योऽस्यधिकोवा, वकुशः पुत्राकाट् चारित्रपर्यायै हीनस्तुल्योऽस्यधिको वा भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो क्षीणे णो तुल्ले अन्मद्दिए' नो हीनो नो तुल्योऽभ्यधिको भवति, 'अनंतगुणम महिए' अनन्तगुणाभ्यधिको भवति । कुशः पुलाकात् अनन्तगुणाधिक एव भवति विशुद्धतरपरिणामन्यान् 'वउसे णं भंते । उसस्स साणसं निगा सेण चारितपज्जवेहिं पुच्छा' चकुः खलु भदन्त ! कुशस्य स्वस्थसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायें कि हीन स्तुल्योऽधिको वा भवतीति पृच्छा - प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'सिय होणे सिय तुल्ले सिग अन्महिए' स्यात् कदाचिद दीनः अविशुद्धपरिणामत्वाद् स्यात् परस्थान की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा हीन है ? अथवा तुल्य है ? अथवा अधिक है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोग्रमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अभहिए' हे गौतम! पण पुरु की नारित्रपर्यायों से हीन नहीं है और न तुल्य है किन्तु अधिक है। अधिकता में भी वह उससे 'अनंतगुणमन्महिए' अनन्तगुण अधिक में क्योंकि उसके परिणाम पुलाक के परिणामों से विशुद्धतर होते हैं । 'चउसे णं भंते । बउara सट्टा सन्निगासेणं चारित प्रज्जवेहिं पुच्छा' हे भदन्त ! चकुश अन्य कुश के चारित्र पर्यायों से क्या हीन होता है ? अथवा तुल्य होता ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! सिय हीणे, सिग्र तुल्ले, सिय अन्महिए' हे गौतम! वकुश सजातीय घकुश की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से कदाचित हीन भी होता है, कदाचित् तुल्य भी होता है और कदाचित् अधिक भी होता है, । हीन હીન છે? અથવા તુલ્ય છે? અથવા વધારે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छे - 'गोयमा ! णो होणे, णो तुल्ले, अन्भहिए' हे गौतम! मुश साકના ચારિત્ર પર્યાયથી હીન હાતા નથી. તેમ તુલ્ય પણ નથી. પરંતુ વધારે छे. अधिषाणाभां पातु ते तेनाथी 'अनंतगुणमव्यहि' अनंतगुण वधारे छे. प्रेम-तमनुं परिभालु चुसाउना परिभाषाथी विशुद्धतर होय छे. 'वरसेनं भंते ! बसस्स सट्टाणसन्निग सेणं चारिचपज्जवेहिं पुच्छा' हे भगवन् अङ्कुश બીજા મકુશેના ચારિત્ર પર્યાયેથી થ્રુ હીન હાય છે? અથવા તુલ્ય હાય અથવા અધિક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अन्भहिए' हे गौतम | मङ्कुश सन्न તીય અકુશેાના ચારિત્ર પાંચાની અપેક્ષાથી, કૈાઈવાર હીન પણુ હાય છે. કેાઈવાર તુલ્ય પણ હાય છે અને કોઈવાર વધારે પણ હાય છે, તે અવિશુદ્ધ ** Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१५ उ.६ ०८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम्ं १५७ कदाचित् सजातीय बकुशान्तरात् वकुशस्तुल्यः समानपरिणामत्वात् स्यात्-कदाचित् अधिकः विशुद्धपरिणामत्वात् 'जई हीणे छट्टाणवडिए' यदि वकुशाद् वकुश हीनो भवेत्तदा षट्स्थानपतितः अनन्तभागहीनः १, असंख्पे अभागहीनः २, संख्येयभागहीनः ३, संख्येयगुणहीनः ४, असंख्येयगुणहीनः ५, अनन्वगुणहीन ६ इति । 'उसे णं भंते ! पडि सेवणाकुसीलस्स परद्वाणसंनिगा सेणं चारितपज्जवेहिं किं हीणे० ' चकुः खलु भदन्त ! प्रतिसेवनाकुशीलस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्र - पर्यायैः किं हीन स्तुल्योऽधिकोवेति मश्नः, उत्तरमाह - 'छड्डाण' इत्यादि, 'छट्टा वडिए' षट्स्थानपतितः, अनन्तभागहीनोऽसंख्येयभागहीनः संख्येयभागहीनः वह अविशुद्ध परिणामों की अपेक्षा से होता है, तुल्य वह समान परिणामों से युक्त होने के कारण होता है और अधिक विशुद्ध परिणामों के कारण होता है । 'जह हीणे छट्टानवडिए ' यदि एक बकुश दूसरे सजातीय से हीन होता है तब वह षट्स्थान पतित होता है-अर्थात् एक बकुश दूसरे सजातीय बकुश से या तो अनन्तभाग हीन होता है १ अथवा असंख्यात भाग हीन होता है २ अथवा संख्यात भाग हीन होता है ३ अथवा संख्यातगुण हीन होता है ४, अथवा असंख्यातगुण हीन होता है ५ अथवा अनंन्तगुण हीन होता है ६ । इसी प्रकार अधिक से भी बहू स्थानपतितता कह देनी चाहिये । 'बउसे णं भंते ! पडिलेवणाकुसीलस्स परद्वाणसंनिगासेणं चारितपज्जवेहिं किं होणे० ' हे भदन्त । वकुशविजातीय प्रतिसेवना कुशील की चरित्रों से हीन होता है ? अथवा तुल्य होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'छाडिए ' हे પરિણામેાની અપેક્ષાથી હીન હૈાય છે. સમાન પિરણામા યુક્ત હેાવાને કારણે તે તુલ્ય હાય છે. અને વિશુદ્ધ પરિણામે ને કારણે તે અધિક હાય છે. વર્ हीणे सट्टाणवडिए' ले ते गडुश मील सन्नतीयथी हीन होय छे, त्यारे ते છ સ્થાનેથી પતિત થાય છે. અર્થાત્ એક અકુશ બીજા સજાતીય અકુશથી અનન્તભાગ હીન હૉય છે. ૧ અથવા અસંખ્યાતભગ હીન હોય છે ૨ અથવા સંખ્યાતભાગ હીન હૈાય છેરૂ અથવા સખ્યાતગુણુ હીન હેય છે. ૪ અથવા અસ ખ્યાતગુણુ હાય છે, ૫ અથવા મન'તગુળુ હીન હાય છે દુ 'बउसेणं संते ! पडिसेवणाकु शीलस्स परद्वाणसंनिंग सेणं 'घारित पज्जवेहि' कि' होणे० ' हे भगवन् अङ्कुश विलनीय प्रतिसेवनाडुशीलनी चारित्र पर्याय थी હીન હોય છે ? અથવા તુલ્ય હાય છે ? અથવા અધિક હૈાય છે ? આ પ્રશ્નના - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भगवतीसूत्र संख्येयगुणहीनोऽसंख्येयगुणहीनोऽनन्तगुणहीन इति । एवं कसायकुसीलस्स वि' एवं कपायकुशीलस्यापि बकुशापेक्षया पदस्थानपतितत्वमगन्तव्यमिति । 'वउ. सेणं भंते ! णियंठस्स परहाणसन्निगासेणं चारित्तपज्जवेहिं पुच्छा' बकुशः खलु भदन्त । निग्रन्धस्य परस्थानसन्निकण चारित्रपर्यायः किं हीन स्तुल्योऽभ्यः धिको वा बकुशो निम्रन्थाऽपेक्षया चारित्रपर्यवें हीनो भवति तुल्यो वा भवति अधिको वा भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'हीणे णो तुल्ले णो अभहिए' हीनो भवति बकुशो निग्रंन्यस्य चारित्रपर्यवैः नो तुल्या-समो न भवति, नोऽभ्यधिकोऽधिकोऽपि न भवति । हीनोऽपि 'अणंतगुणगौतम ! यह षट् रुधानपतित होता है । अर्थात् बकुश विजातीय प्रति सेवनाकुशील की चारित्रपर्यायो की अपेक्षा अनन्तभाग हीन होता है १ असंख्यातभाग हीन होता है २ संख्यात माग हीन होता है ३ संख्यातगुग हीन होता है ४ असंख्यातगुण हीन होता है ५ और अनन्तगुण हीन होता है ६ इसी प्रकार अधिक में भी षट्स्थानपतितता समझ लेनी । ' एवं कसायक्रुसीलस वि' इसी प्रकार वह कषाय. कुशील के चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से भी छह स्थानपतित होता है। 'घउले णं भंते ! णियंठल पाटाणसन्निगालेणं चारित्तपज्जवेहि पुच्छा' हे भदन्त । पकुश निग्रन्थ की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से क्या हीन होता है ? अथवा तुल्य होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! झीगे णो तुल्ले गो अभहिए' हे गौतम ! बकुशनिग्रन्थ की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा हीन होता है उत्तरभा प्रभुश्री ४ 0 3-'ज्वाणवदिए' में गौतम ! त छ स्थानाथा पतित હોય છે. અર્થાત બકુશ વિજાતીય પ્રતિસેવનાકુશીલની ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી અનંતભાગ હીન હોય છે ૧ કે અસંખ્યાતભાગ હીન હોય છે. ૨ સંખ્યાતસાગ હીન હોય છે. ૩ સંખ્યાતગુણ હીન હોય છે. ૪ અસંખ્યાતગુણ હીન હોય છે. ૫ અને અનંતગુણ હીન હેય છે દા - 'एव कसायकुसीलस्स वि' प्रभारी ४ाय शासना यारित्र पर्या. यानी अपेक्षाथी ५ ७ २थान पतित सय छ 'बउसेणं भंते ! णियंठस्स परदाणसंनिगासेणं चारित्तपज्जवेहि पुच्छा' 3 बस मश नि-याना यारित्र પર્યાની અપેક્ષાથી શું હીન હોય છે? અથવા તુલ્ય હોય છે? અથવા अधि४ य छ १ मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रमुश्री ४१ छ है-'गोयमा! हीणे णो तुल्ले णो अभहिए' से गौतम ! ५४२, नि-यना यात्रि पर्यायानी अपेक्षाया Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sheefer टीका श०२५ उ० ६ ०८ पञ्चदशं निकर्पहारनिरूपणम् १५९ हीणे' अनन्तगुणहीनः निर्ग्रन्थात् चारित्रपर्यवै रनन्तगुणहीनो भवति वकुश इत्यर्थः । ' एवं सिणायस्स वि एवं निर्ग्रन्यवदेव स्नातकस्यापि चारित्रपर्यवैर्वकुशोऽनन्तगुणहीनो भवतीति । 'पडि सेवणाकुसीलस्स एवं चैव वउसचत्तन्यया भाणि - यत्रा' प्रतिसेवनाकुशीलस्यैवमेव चकुशवक्तव्यता भणितव्या । ' कसायकुसीलस्स एस चैव सवा' कषायकुशीलस्य एषैत्र वकुशवक्तव्यता 'णवरं पुलाएण वि समं छट्टात्र डिए' नवरं पुलाकेनापि समं षट्स्थानपतितः । अयं भावः - 'कुशः पुलाकादनन्तगुणाभ्यधिक एवं विशुद्ध तर परिणामस्वात् । कुशात्तु वकुशः हीनादिरेव परस्परविचित्रपरिणामश्वात् । प्रतिसेवना- कपायकुशीलाभ्यां बकुशी हीनादिरेव । निर्ग्रन्थ स्नातकाभ्यां तु वकुशोहीन एवेति । मतितुल्य अथवा अधिक नहीं होता है । 'हीणे वि अनंतगुगहोणे' हीन होने पर भी वह उसले अनन्तगुण हीन होता है, असंख्यात अथवा संख्यातगुण हीन नहीं होता है । 'एवं सिणायस्स वि' इसी प्रकार स्नातक की चारित्रपर्यायों से बकुश अनन्तगुण हीन होता है । 'पडिसेवणा कुसीलस्स एवं चेव चउसवत्तच्चया भाणियन्चा' प्रतिसेवनाकुशील में भी इसी प्रकार से वकुश की वक्तव्यता कहनी चाहिये । तथा'सायकुसीलस्स विएस चैव वक्तव्या' कषायकुशील में भी यही कुश की वक्तव्यता कहनी चाहिये 'नवरे' परन्तु 'पुलाएण वि सम छाडिए' पुलाक के साथ भी यहां पर षद्स्थान पतित होता है । 4 मतलब इस कथन का इस प्रकार से है- वकुश पुलाक से अनन्तगुण अधिक ही होता है क्यों कि वह विशुद्धतर परिणामबाला होता हीन होय छे. तुझ्य अथवा अधि होता नथी, 'हीणे वि अनंतगुणहीणे' હીન હોવા છતાં પણુ અનંતગુણુ હીન હૈાય છે. અસંખ્યાત અથવા સાત यु हीन होता नथी. 'एव' सिणायस्स वि' से प्रभाषे स्नातस्ना शास्त्रि पर्यायाथी अङ्कुश अनंतगुण हीन होय छे. 'पड़िसेवणाकुसीलस्स एवं चैव वउसवत्तव्त्रया भाणियव्वा' अतिसेवना कुशीतमा पशुप्रभा मञ्जुशनां स्थन अभाषेनु ं स्थन हेवु लेह तथा - ' कसायकुसीलस्स वि एस चैव वत्तव्वया' षाय, ठुशीलना संभा पशु अशना उथन प्रभा ४थन ४२वु लेहये. 'णवर" परंतु 'पुलाए णं विसम वाणवदिए' साउनी अपेक्षाथा ખકુશ છે સ્થાનથી પતિત હાય છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે- અકુશ પુલાક કરતાં અનંતગગ્! વધ રે હીન હૈાય છે. કેમકે-તે વિશુદ્ધતર પરિણામવાળા હાય છે. પરંતુ એક અકુશ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % E - भगवतीसरे सेवनाकुशीटेन सह बकुशो यया पकुशेन वकुशो होनादि स्तथैव वाच्यः । कपायकुशीलोऽपि यथा वशेन वकुश स्वथैव वाच्यः, केवलं लक्षपमेतावदेव यत् वकुशपुलाकमुत्रे पुलामादकुशोऽभ्यधिक एवोक्तः, यदि म सकपाय स्तदाऽसौ पट्रस्थान पतितो वाच्यः हीनादिरित्यधा, वकुगपरिणापस्य पुलाकापेक्षया हीनसमाम्यधिक स्वभावत्वादिति । 'णियंठे णं भंते ! पुलागस्स परटाणसन्तिगासेणं चारित्तपज्जवेहिं पुच्छा' निर्गन्यः खलु मदन्त ! पुलाकस्य परस्थानसन्निकर्पण चारित्रपर्यायः कि हीनः तुल्योऽभ्यधिकोवेति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे है। परन्तु एक पकुम दूसरे पकुश से हीनादि रूप होता है क्यों कि उनमें परस्पर में विचित्रपरिणाम युक्तता रहती है । प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील इन दोनों से यकुश हीनादिरूप भी होता है परन्तु निर्गन्ध और स्नातक से वह पकुशहीन ही होता है। प्रतिसेवना. कुशील के साथ यकुश जिस प्रकार अन्य यकुश से वह याहीना. दिरूप होता उसी प्रकार का होता है ऐसा समझना चाहिये । कषाय कुशील भी वकुश से वकुश के जेमा ही बाच्छ है । परन्तु इतनी सी ही विशेषता है कि धकृगपुलाक सूत्र में पुलाक से अकुश अधिक ही कहा गया है। यदि का कपायकृशील है तो वह पुलाश की अपेक्षा षट्रस्थानपतित है। क्योंकि उसका परिणाम पुलाक की अपेक्षा हीन, सम और अधिक होता है। ‘णियंठे गं भंते ! पुलागत पट्टाणसन्निगालेणं चारित्तपनवेहि पुच्छा' हे भदन्न ! निग्रन्थ पुलाक की चरित्र पर्यापों से हीन होना है? अथवा सम होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री બીજા બકુશ કરતાં હીનાદિ રૂપ જ હોય છે કેમકે તેઓમાં પરસ્પરમાં વિચિત્ર પરિણામ યુક્તપણું રહે છે. પ્રતિસેવના કુશીલ અને કષાય કુશીલ આ બને કરતાં બકુશ હીનાદિપણાવાળા જ હોય છે, પરંતુ નિર્ચન્ય અને સ્નાતકથી તે બકુશ હીન જ હોય છે પ્રતિસેવન કુશીલની સાથે બકુશ જે રીતે બીજા બકુશથી તે બકુશ હીનાદિ રૂપ હેય છે. એ જ પ્રમાણેના હોય છે. તેમ સમજવું. કષાય કુશીલ પણ બકુશથી બકુશની જેમ જ હોય છે. પરંતુ એજ વિશેષપણું છે કે-બકુશ, પુલાક સૂત્રમાં મુલાકથી બકુશ વધારે જ કહ્યા છે. જે તે કપાય કુશીલ હોય તો તે પુલાકની અપેક્ષાથી છ સ્થાન પતિત છે. કેમકે–તેનું પરિણામ પુલાકની અપેક્ષથી હીન, સમ અને અધિક હોય છે. ___“णियंठे णं भंते ! पुलागस्स परटाणसन्निगासेणं चारित्तपज्जवेहिं पुच्छा' હે ભગવદ્ નિર્ણ9 જુલાકના ચારિત્ર પર્યાથી હીન હોય છે? અથવા સમ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ referrer ०२५ उ. ६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् १६१ गौतम ! 'णो ही णो तुल्ले' नो होनो तुल्य. न भवति निर्ग्रन्थः पुलाकापेक्षा चारित्रपर्यायै हो न वा तुल्यो भवति किन्तु 'अपदिए' अभ्यधिको भवति पुलां कापेक्षया चारित्र ग्रन्थः, यदि अधिको भवति तत्रापि 'अनंतगुग हिए' अनन्तगुणाभ्यधिको भवतीति । ' एवं जाव कसायकुसीलस्स' एवं यावद - कषायकुशीलस्य अत्र यावन्पदेन वकुशपतिसेवनाकुशीलयोः संग्रहो भवति तथा कुशमति से बना कुशील कपार कुशीलापेक्षया चारित्रपर्याय निर्ग्रन्थोऽनन्तगुणां षिको भवतीति भावः । 'नियंठे णं भंते णिरंठास सद्वाणसन्निगासे णं पृच्छा' निर्ग्रन्थः खल्ल भदन्त ! निर्ग्रन्थस्य स्वस्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायैः कि हीनः, तुल्यः, अधिको वा भवति, एको निर्ग्रन्थः सजातीयनिग्रन्थान्तरेभ्यः चारित्रपर्यायैः । किं न्यूनो भवति समो भवति अधिको वा भवतीति परना, भगवा कहते है- 'गोयमा ! जो हीणे, नो तुल्छे, अभहिए' हे गौतम । निर्ग्रन्थ पुलाक की चारित्रपर्यायों से न हीन होता है और न सम होता है किन्तु अधिक होता है । यदि वह उसकी चारित्रपर्यायों की अपेक्षा अधिक होता है सो अनन्तगुणकार से अधिक होता है । असंख्यात अथवा संख्यातगुणकार से अधिक नहीं होता है । 'एवं जाय कसाय सीलस्स वि' इसी प्रकार निर्ग्रन्धधकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से अपनी चारित्रपर्यायों द्वारा अनन्त के गुणकार से अधिक होता है । 'नियंठे णं भंते । नियंठास सहाणसंनिगालेणं पुच्छा' हे भदन्त ! एक निर्ग्रन्थ अपने सजातीय निर्ग्रन्थों की चारित्रपर्यायों से क्या हीन होता है ? अथवा सम होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके " t હાય છે? અથવા અધિકઢાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુન્ની કહે છે કે'गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अब्भहिए' हे गौतम । नियन्थ, पुसाउना ચારિત્રપર્યાયાથી હીન હૈાતા નથી. સમ પણ હાતા નથી પરંતુ અધિક હાય છે. તે મન'તગુણાકારથી અધિક હોય છે. અસખ્ય'ત અથવા સંખ્યાત ગુણાसारथी अधिक होता नथी. 'एव' जाव कसायकुसीलस्स वि' मे प्रभा નિન્ય, અકુશ પ્રતિસેત્રનાકુશીલ અને કષાયકુશીલના ચારિત્ર પાંચાની અપેક્ષાથી પેાતાના ચારિત્ર પર્યાદ્નારા અનતના ગુણાકારથી વધારે છે. 'णियंठे णं भवे ! नियंठस्स सट्टाणसन्निगासेणं पुच्छा' हे भगवन् ! निन्थ પાતાના સજાતીય નિગ્ર થાના ચારિત્ર પર્યાયેાથી શું હીન હોય છે ? અથવા સમ હોય છે? અથવા અધિક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે ५० २१ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले नाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो होणे तुल्ले णो अभरि' नो हीनो भवति सजातीयनिर्ग्रन्थेभ्यो निग्रन्थः, किन्तु तुल्या-समएव भवति नया अधिकोऽपि भवतीति । 'एवं सिणायस्स वि' एक्म-सजातीयनिग्रंन्यवदेव स्नातफेभ्योऽपि निम्रन्थो न हीनो भवति नवाऽधिको भवति किन्तु तुल्य एव भव. नीति । 'सिणाए णं भंते ! पुलागल्स परहाणसन्निगासेणं' स्नातकः खड भदन्त ! पुलाकस्य परस्थानसन्निकण चारित्रपर्यायैः किं हीनो भवति तुल्यो भवति अधिको वा भवतीति प्रश्नः, उत्तरमाह-एव जहा' इत्यादि, ‘एवं जग. णियंठस्स वत्तव्यया तहा सिणायस्स वि भाणियब्या' एवं यथा निन्यस्य वक्तव्यता तथा स्नातकस्यापि भणितव्या, यथा निग्रन्थस्य पुलाकापेक्षया चारित्रपर्याय. रभ्यधिकत्वं कथितं तथैव स्नातकस्यापि विजातीयपुलाकापेक्ष या अनन्तगुणाधिकस्वं वदता निम्रन्थमकरणमनुस्मरणीयम् क्रियस्पर्यन्तं निम्रन्थमकरणमिह वक्तव्यं उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो होणे, तुल्ले, णो अम्महिए' हे गौतम । निनन्ध अपने मजातीय अन्य नियों की चारित्रपर्यायों द्वारा तुल्य ही होता है । हीन अथवा अधिक नहीं होता है। 'एवं सिणायस्स वि' इसी प्रकार वह निर्ग्रन्थ स्नातक की चारित्र पर्यायों से भी समही होता है, हीन अथवा अधिक नहीं होता है। . 'सिणाए णं भंते ! पुलाजस्व संनिगासे गं' हे भदन्त ! स्नातक पुलाक रूप परस्थान की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा हीन होता है ? अथवा घरापर होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहा णियंठल वत्तबधा तहाक्षिणायस्मनि भाणियव्या' हे गौतम! जिस प्रकार से निथ पुलाक की अपेक्षा चारित्रपर्यायों को लेकर अधिकता कही गई है उसी प्रकार स्नातक में भी विजातीय पुलाक की अपेक्षा अनन्तगुग अधिकता कहनी चाहिये और यह छ-'गोयमा ! णो हीणे, तुल्ले, णो अमहिए' है गीतमा निन्य पाताना સજાતીય બીજા નિર્ણના ચારિત્ર પર્યાયે દ્વારા તુલ્ય જ હોય છે. હીન અથવા मधिल खाता नयी 'एव खिणायस्स वि' मे प्रमाणे नि-, स्नातना ચારિત્ર પયાથી પણ સમ જ હોય છે. હીન અથવા અધિક હોતા નથી.” 'मिणाएणं भते ! पुलागस्त परढाणसं नगासेणं' 8 लगन स्नात, ४३५ પરસ્થાનના ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી હીન હોય છે? અથવા બરાબર હોય छ ? अथवा अधि: डाय छ १ २५ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'एवं जहा णियंठस्स वत्तव्वया तहा खिणायस्स वि भाणियव्वा, गीतम! २ प्रभार નિર્ણનથમાં મુલાકની અપેક્ષાથી ચારિત્ર પર્યાને લઈને અધિકપણું કહ્યું છે, એજ પ્રમાણે સ્નાતકમાં પણ વિજાતીય પુલાકની અપેક્ષાથી અનંતગુણ અધિક Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ २०८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम् १६३ तत्राह-जाव' इत्यादि, 'जाब सिणाए णं भंते ! लिगायत सटाणसन्निगासेणं पुच्छा-गोषमा ! णो होणे तुल्ले णो अमहिए, यावत् स्नातकः खलु भदन्त ! स्नातकस्य स्वस्थानपन्निकण चारित्रपर्याय: किं होनस्तुल्योऽधिको वेति प्रश्ना, गौतम ! नो हीनतुल्यो नोऽभ्यधिकः, यावत्पदेन 'गोयता ! णो हीणे णो तुल्ले अन्महिए अगंतशुगमनपहिए एवं जाव कसायकुमोलस्स' गौतम ! नो हीनो तुल्योऽभ्यधिका अनन्तगुणाधिका, एवं यावत्कपायकुशीलस्य, एतत्पर्यन्त निग्रन्थप्रकरणसंग्रहो भवतीति । पर्ययाधिकारात्तामेव जघन्यादिभेदानां पुला: कादि संवन्धिनामल्पवहुत्वं निरूपयन्नाद-'एएसि णं मंते' इत्यादि । 'एएसिणं भंते ! एतेपा खल्छु भदन्त ! 'पुलागवउसपडि सेरणाकुसीलकसायकुमीलणिय: ठसिणायाण पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीलरूपायकुशीलनियन्धस्नातकानाम् 'जहन्नुकोसगाणं चरित्तएज्जवाणं कयरेकयरेहितो जाब विसेमाहिया वा' जघ. अधिकता जाव सिणाए णं भंले ! लिणायस्स सट्टाणसनिगासेर्ण पुच्छा' इस सूत्रपाठ तक कहनी चाहिये । तात्पर्य कहने का यही है कि निर्ग्रन्थ और स्नालक पुलाक की चारित्र पर्यायों से अपनी २ चारित्र पर्शयों के छारा अनन्नगुणे अधिक होते हैं यावत् स्नातक अपने संजातीय स्नातक की चारिन्न पर्यापों से बराबर होता है हीन अथवा अधिक नहीं होता है यहां यावत् पद से 'गोयमा ? णो हीणे णो तुल्लें,' अ०भहिए अणनगुणमहिए एवं जाव लायकुसीलस्त' इस पाठ का संग्रह हुआ है। __ - पर्याय के अधिकार को लेकर अप गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'एएसि णं भंते ! पुलागअकुहडिलेवणाकुलीलकसाय. कुसीलणियंठसिणाधाणं जहन्तुक्कोतवाणं चारित्तपज्जवाणं कयरे पावु नये. अने या मधिया 'जाव सिणाए णं भवे । सिणायास माणसंनिगासेण पुच्छा' मा सूत्र५४ सुधी ४ वानु तात्यय એજ છે કે-નિગ્રન્થ અને સનાતક પુલાકના ચારિત્ર પર્યાયથી પોતપોતાના ચારિત્ર પર્યાદ્રારા અનંતગણ અધિક હોય છે યાવત્ સનાતક પિતાના સજાતીય સ્નાતકના ચારિત્ર પર્યાની બરોબર હોય છે હીન અથવા અધિક बात नथी महियां यावत्पथी 'गोचमा । णो होणे, णो तुल्ले अभहिए अणंतगुणमभहिए एव जाव कसायकुसीलस्स' मा पाइने स ग्रह थयो . પર્યાયના અધિકારથી હવે શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને એવું પૂછે છે पनि भते! पुलागबकुछपडिखेवणाकुसोल कसायकुसीलणियठसिणायाण जहन्नुक्कोसगोणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहि तो! जाव विसेनाहिया वा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती न्योत्कृष्टानां चारित्रपर्यवाणां कतरे कतरेभ्योऽल्यावा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा भवन्ति पुलाकादिसंन्धिनां चारित्रपर्यवाणी जघन्योत्कृष्टानां मध्ये कस्यापेक्षया कस्याल्पत्य बहुत्यादिकं भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पुलागस्त कसायकुसीलस्सय एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला समत्थोवा' पुलाकस्य कपायकुशीलस्य च एतयो: खल्लु जघन्याचारित्रपर्यवाः द्वयोरपि तुल्याः सर्वस्तोकाः, पुलाककपायकुशीलयो. जघन्याश्चारित्रपर्यत्राः पररपरं तुल्याः सर्वापेक्षया स्तोकाश्च भवन्तीत्यर्थः । 'पुलागस्स उक्कोसगा चारित्तपज्जवा अणतगुणा' पुलामस्वोत्कृष्टा चारित्रपर्यवाः पुलाककपायकुशीलयोर्जघन्यचारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणा अधिका भवन्तीति । 'वउसस्स पडि सेरणाकुपीलस्स य एएसिणं जहन्नगा चारितपज्जवा दोण्ह वि कथरेहितो जाब विखेसाहिया वा' हे सदन्त ! इन पुलाक यकुश, प्रति. सेवनानुशील, कपाय ऋशील, निर्गन्ध और स्नातक की जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें कौन किसले यावत् विशेषाधिक हैं ? यहां याव. स्पद ले 'अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा' इन पदों का संग्रह हुआ है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! पुलागस्ल कसायकुसीलस्स य एएसि जहन्नग्गचरितपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा' हे गौतम ! पुलाक और कषायकुशील की जघन्य चारित्रपर्याय आपसमें तुल्य है और सब से कम है । 'पुलागरल उक्कोलगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा' पुलाक की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें पुलाक और कषायकुशील की जघन्य चारित्रपर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण अधिक हैं । 'यउसस्स पडिलेवणाकु सीलस्स य एएसि णं जहन्नमा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि ભગવન આ પુલાક, બકુશ, પ્રતિસેવન કુશીલ કષાય કુશીલ, નિન્ય અને स्नातनी धन्य गन ट यात्रि पर्याय! 'अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा' કણ કેનાથી અલ્પ છે? કેણ કેનાથી વધારે છે કે કેની બરાબર છે? અને કેણ કેનાથી વિશેષાધિક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'गोयमा!, पुलागस्त कसायकुसीलस्स य एएसि जहन्नगचरित्तपज्जवा दोण्हवि पुल्ला सव्वत्थोवा' गीतम! पुरा भने पाय सुशासन सधन्य यात्रि પર્યાયે પરસ્પરમાં તુલ્ય છે અને સૌથી ઓછા છે. પુલાકના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પર્યા, પુલાક અને કષાયકુશીલના જઘન્ય ચારિત્ર પર્યાયોની અપેક્ષાથી मनता पधारे छ. 'ब उसस्स पडिसेत्रणाकुमीलस्स य एएसिणं जहन्नगा नरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा' ५४ मन प्रतिसेवना शासना Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिको टीका श०३५ .६ सू०८ पञ्चदशं नकर्पद्वारनिरूपणम् तुल्ला अणतगुणा' वकुशस्य प्रतिसेवनाकुशीलस्य च एतयोः खलु जघ-याश्चारित्र पर्यवाः द्वयोरपि तुल्या अनन्तगुणाः। वकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोर्जघन्यचारित्रपर्यवाः परस्परं तुल्या भवन्ति तथा पुलाकस्योत्कृष्टचारित्रापेक्षया अनन गुणा अधिका भवन्तीति । 'वउसस्स उक्कोसगा चारित्तपज्जवा अणतगुणा' बकुशस्योत्कृष्टा चारित्रपर्यवाः बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोर्जघन्यचारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणाधिका भवन्तीति । 'पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणतगुणा' पतिसेवनाकुशीलस्योत्कृष्टाचारित्रपर्यवाः वकुशस्योत्कृष्टचारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणा अधिकाः भवन्तीति । 'कसायकुपीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा' कषायकुशीलस्योत्कृष्टाचारित्रपर्यवाः प्रतिसेवनाकुशीलस्योत्कृष्टचारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणा अधिका भवन्तीति। 'णियंठस्त सिगायस्स य एएसिणं जहन्नमणुकोसगा चारित्तपज्जया दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुगा' निम्रन्थस्य स्नातकस्य तुल्ला अणतगुणा' बकुश और प्रतिसेवना कुशील की जघन्य चारित्रः पर्यायें परस्पर में तुल्य हैं तथा पुलाक की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायों की अपेक्षा वे अनन्तगुणी अधिक हैं। 'घउसस्स उक्कोलगा चरित्तपज्जवा अणंलगुणा' तथा धकुश की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें यकुश और प्रतिसेवनाकुशील के जघन्य चारित्र की पर्यायों से अनन्तगुणी अधिक है । 'पडिलेवणाकुलीलस्स उक्कोलगा चरित्तपज्जवा अणंत. गुणा' तथा प्रतिसेवनाकुशील की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें यकश के उत्कृष्ट चारित्र की पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक है। 'कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चारित्तपज्जवा अणंतगुणा' कषायकुशील की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायें प्रतिसेवनाकुशील के उत्कृष्ट चारित्र की पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक हैं । 'णियंठस्स सिणायस्स य જઘન્ય ચારિત્ર પર્યાયે પરસ્પરમાં તુલ્ય છે તથા પુલાકના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી તે અને તગણું વધારે છે. તથા બકુશના ઉત્કૃષ્ટ ચરિત્ર - પર્યાયે બકુશ અને પ્રતિસેવના કુશીલના જઘન્ય ચારિત્ર પર્યા કરતાં અનંત शय पधारे छे. 'पडिसेवणाकुसीलस्स जक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणतगणा' - તથા પ્રતિસેવના કુશીલની ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પર્યાય બકુશના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર पर्यायानी मपेक्षाथी मन त धरे छे. 'कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणतगुणा' ३५.य शlaनी Gट यास्त्रि पर्यायो अतिसेवना કુશીલના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્રના પર્યાની અપેક્ષથી અનંતગણું વધારે છે. 'णियंठस्स सिणायस् य एएसिणं जहण्णमणुककोसगो चरित्तपज्जवा दोण्ड वि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसत्र च एतयोः खलु अजयन्यानुत्कृष्टाश्चारित्रपर्यवाः द्वयोरपि तुल्या अनन्तगुणाः, निर्गन्थिस्नातकयोरजघन्यानुन्कृष्टाचारित्रपर्यवाः परस्परं तुल्या अनन्तगुणा भवन्ति तथा कपागकुशीलस्य उत्कृष्ट वारित्रपर्यवासया अनन्तगुणा भवन्तीति ।।०८॥ पोडशं योगद्वारमाह-'पुलाए णं भंते' इत्यदि, ' मूलम्-पुलाए णं भंते ! किं सजोगी होज्जा अजोगी होजा? गोयमा! लजोगी होज्जा नो अजोगी होज्जा। जह सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा वहजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा ? गोयमा! सणजोगी वा होज्जा वइजोगी वा होज्जा कायजोगी वा होज्जा । एवं जाव णियंठे। सिणाए णं पुच्छा, गोयमा ! सजोगी वा होज्जा अजोगी वा होज्जा जइ सजोगी होज्जा किं मणजोगी होज्जा लेसं जहा पुलागस १६। पुलाए ण भते ! किं सागारोवउत्ते होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा ? गोयमा! सागारोवउत्ते वा होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा, एवं जाव लिणाए १७ । पुलाए णं भंते ! सकसाई होज्जा अकसाई होज्जा ? गोयमा ! सकलाई होज्जा णो अकलाई होज्जा, जइ सकसाई ले णं अंते ! काइसु कलाएनु होज्जा ? गोयमा ! चउसु कोहमाणमायालोमेसु होज्जा। एवं व उसे वि। एवं पडिसेवा कुसीले वि । कसायकुलीले णं पुच्छा गोयमा! सकसाई होज्जा णो अकसाई होज्जा । जइ लकसाई होज्जा से भंते! कइसु एएसिणं अजहणमणुक्कोलगा चारित्तपउजवा दोण्ह चि तुल्ला अणं. तगुणा' कषायकुशील के उत्कृष्ट चारित्र को पर्यायों की अपेक्षा निर्ग्रन्थ और स्नातक की अजघन्य तथा अतुत्कृष्ट चारित्र पर्यायें अनन्तगुणों अधिक हैं और परस्पर में तुरय हैं । ।०८।। तुल्ला अणंतगुणा' ४पाय सुशासन रट यारित्र पर्यायानी अपेक्षाथी नियસ્થ અને સ્નાતકના અજઘન્ય તથા અનુત્કૃષ્ટ ચારિત્ર પર્યાયે અનંતગણું વધારે છે. અને પરસ્પરમાં તુલ્ય છે. સૂ૦ ૮ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्द्रिका टीका श०२५ उ०६ ०९ षोडश योगद्वारनिरूपणम् १६७ कसाए होज्जा ? गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एगंमि वा होज्जा । चउसु होज्जमाणे चउसु संजलणकोहमाणमायालोभेसु होज्जा, तिसु होमाणे संजलणमाणमायालो भेसु होजा । दोसु होमाणे संजलणमायालोभेमु होज्जा एगंमि होमाणे संज: लणलोभ होज्जा । नियंठे णं पुच्छा गोयमा ! णो सकसाई होना. अकसाई होज्जा जड़ अक्साई होज्जा किं उवसंतकसाई होजा ? खीणकसाई होजा? गोयसा ! उवसंतकसाई वा होज्जा खीणकसाईं वा होज्जा । सिणाए एवं चेव । नवरं णो उवसंत कसाई होज्जा खीणकसाई होज्जा १८ ॥ पुलाए णं भंते ! किं सलेस्से होज्जा अलेस्से होज्जा ? गोयमा ! सलेस्से होज्जा णो अलेस्से होना जइसलेस्से होज्जा से णं भंते! कइसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सालु होज्जा, तं जहा तेउलेस्साए पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साएं । एवं बउसस्स वि । एवं पडिसेवणा कुसीले वि । कसायकुसीले पुच्छा गोयमा ! सलेस्से होज्जा णो अलेस्से होज्जा जइ सलेस्से होज्जा से णं भंते! कइ सु. लेस्सांसु होजा? गोयमा ! इस लेस्सास होज्जा, तं जहा - कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए । नियंठे णं भंते! पुच्छा गोयमा ! सलेस्से होजा' णो अलेस्से होज्जा, जड़ सलेस्से होज्जा, से णं भंते । कइस लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! एगाए सुक्कलेस्साए होज्जा । सिणाए पुच्छा गोयमा ! सलेस्से वा होज्जा अलेस्से वा होजा जई सलेस्से होज्जा से र्णं भंते! कइमु लेस्सासु होजा गोयमा ! एगाएं. परमसुक्कलेस्साए होज्जा ॥ सू० ९॥ 6 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवती ___छाया--पुलाकः खलु भदन्त ! हि सयोगी भवेत् अयोगी भवेत् ? गौतम ! सयोगी भवेत् नो अयोगी भवेत् । यदि सयोगी भवेत् किं मनोयोगी भवेद् वचो. योगी भवेत् काययोगी भवेत् ? गौतम ! मनोयोगी वा भवेत् वचोयोगी वा अवेल काययोगी वा भवेत् एवं यावन्निम्रन्थः । स्नातकः खलु पृच्छा, गौतम! सयोगी वा भवेत् अयोगी वा भवेत् । यदि सयोगी भवेत् किं मनोयोगी भवेत शेपं यथा पुलाकस्य १६ । पुलाकः खलु भदन्त ! किं साकारोपयुक्तो भवेत् अना. फारोपयुक्तो भवेद ? गौतम ! साकारोपयुक्तो वा भवेद अनाकारोपयुक्तो वा भवेत् एवं यावत् स्नातकः १७। पुळाकः खलु भदन्त ! सापायी भवेत् अकपायी भवेत् ? गौतम ! सकपायी भवेत् नो अपायी भवेत् । यदि सकपायी स खलु भदन्त ! कतिषु कपायेषु भवेत् ? क्रोधमानमायालोभेपु भवेत् । एवं वकुशोऽपि । एवं मतिसेवनाकुशीलोऽपि कपायकुशीलः खल भदन्त ! पृच्छा गौतम ! सकपायी भवेत् नो अपायी भवेछ । यदि सकपायी भवेत् स खल भदन्त ! कतिपु कपा. येषु भवेत् गौतम ! चतुर्पु वा त्रिषु वा द्वयोर्वा एकस्मिन् वा भवेत् चतुर्यु भवन चतुर्पु संज्वलनक्रोधमानमायालोभेषु भवेत् त्रिपु भवन् सज्वलनमानमायालोमेषु भवेव द्वयोर्भवन् संज्वलन मायाकोभयो भवेत्, एकस्मिन् भवन् संज्वलनलोभे भवेत् । तिम्रन्यः खलु पृच्छा गौतम ! नो सकपायी भवेत् अपायी भवेत् यदि अंपायी भवेत् किमुपशान्तकपायी भवेत् क्षीणकपायी भवेत् ? गौतम ! उपशान्त पायी वा भवेत् क्षीणकपायी वा भवेत्, स्नातक एवमेव, नवरं नो उपशान्तकपायी भवेत् क्षीणकपायी भवेत् ।१८। पुलाकः ग्वल भदन्त ! कि सळेश्यो भवेत अलेश्यो भवेत् ? गौतम! सलेपो भवेत् नो अलेश्यो भवेत् । यदि सलेश्यो भवेत् स खलु भदन्त ! कतिपु लेश्यासु भवेत् ? गौतम ! तिम्पु विशुद्धलेश्यासु भवेद तद्यथा-तेजोलेश्यायां पदुमलेश्यायां शुक्ललेश्यायाम् । एव वकुशस्यापि । एवं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि । कपापकुशीलः पृच्छा गौतम । मलेश्यो भवेद नो अश्यो भवेत् । यदि सलेश्यो भवेत् स खलु भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवेत् ! गौतम ? पट्सु लेश्यासु भवेत् तद्यथा-कृष्णलेश्यायां यावत् शुक्ललेश्यायाम् । निम्रन्थः खलु भदन्त ! पृच्छा गौतम ! सलेश्यो भवेत् नो अलेश्यो भवेत् । यदि सलेश्यो भवेत् स खलु भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवेत् गौतम । एकस्यां शुक्कलेश्यायां भवेत् । स्नातकः पृच्छा गौतम | सलेश्यो वा भवेत् अलेश्यो वा भवेत् । यदि स लेश्यो भवेत् स खलु भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवेत् ! गौतम ! एकस्यां परमशुक्ललेश्यायो भवेत् ॥९॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ her द्रिका टीका श०२५ उ.६ ०९ पोडश योगद्वारनिरूपणम् २६९ टीका - 'पुलाए णं भंते !' पुलाकः खलु मदन्त ! 'किं सजोगी होना- अंजोगी होज्जा' कि सयोगी-योगदान् भवेत् अयोगी-योगरहितो भा. भवेदिति. योगसच्वविषयकः प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, हे गौतम! 'सजोगीहोज्जानो अजोगी होज्जा' सयोगी भवेत् पुलाको तो अयोगी भवेत् नियमतो योगवानेव भवति न तु कदाचिदपि योगविरहितो भवेदितिभावः । ' जइ सजोगीहोजा किं मणजोगी होज्जा वइजोगीहोज्जा' यदि पुलाकः सयोगी भवेत् तदा किं मनोयोगी भवेत् वचोयोगी वा भवेत् काययोगीचा भवेदिति प्रश्नः, भंगवा : नाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'मणजोगी वा होज्जा' मनोयोगी' वा. भवेत् मनः स्वरूपयोगवान् भवेदित्यर्थः 'वयजोगी वा होजा'' वचोयोगी वा भवेत् 'कायजोगी वा होज्जा' काययोगी वा भवेत् । ' एवं जाब नियंठे' एवं ' योगद्वार का कथन 'पुलाए णं भने ! मिजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा' इत्यादि ।टीकार्थ - हे भदन्त ? पुलाक क्या सयोगी होता है अथवा अयोगी होता है ? इस गौतमस्वामी के मन के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! सजोगी होज्जा, तो अजोगी होज्जा' हे गौतम । पुलाक सयोगी होता है अयोगी वहीं होता है । 'जह सयोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा वहजोगी होज्जा' हे भदन्त ! यदि पुलाक योगवाला होता है तो क्या वह मनोयोगवाला होता है ? अथवा वचनयोग वाला होता है ? अथवा 'कायजोगी वा होज्जा' काययोग वाला होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधना ! मणजोगी वा होज्जा, वयजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा' हे गौतम! वह मनोयो... , હવે સેાળમા ચેાગદ્વારનુ' કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भवे । किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा' ટીકા હૈ ભગવત્ પુલાક શુ' સર્જાગી હાય છે ? होय छे ? गौतमस्वामीना या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री जोगी होज्जा, नो अजागी होज्जा' हे गौतम! पुसा अयोगी होता नथी. 'जइ खजोगी होज्जा, कि मणजोगी होज्जा व जोगी होज्जा' हे भगवन् साह ले योगवाजा होय हे तो शु ते मनोयोगवाणा - होय छे ! ! वयनयोगवाणा होय छे, अथवा 'कायजोगी वा होज्जा' अर्थ ચેાગવાળા ઢાય છે? શ્રીગૌતમરવામીના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે ४- 'गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वयज्ञोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होंडा 33 इत्यादि અથવા અગી हे छे- 'गोयमा ! " सयोगी डोये थे. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस १७० यावत् लिन्थिः । अत्र यावत्पदेन वकुशमतिसेवनाकुशीलकपायकुशीलानां संग्रहोभवति तथा च बकुशादारभ्य निग्रन्थान्ताः सर्वेऽपि विविधमनोवाकायात्मकयोगपन्ती भवन्तीत्यर्थः । 'सिणाए-णं पुच्छा' स्नातकः खलु पृच्छा हे भदन्त ! हलातका सयोगी भवति अयोगी वा भवति इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सजोगी वा होज्जा-अजोगी वा होज्जा' सयोगी, या भवेत् अयोगी वा भवेत् । 'जा सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा सेसं. जहा पुलागस्स' यदि सयोगी भवेत् किं मनोयोगी भवेत् शेषं यथा पुलाकस्य पुलाकमकरणे यथा कथितं तथैव इहापि सर्वमवगन्तव्यम् मनोयोगी भवेत् वचो. योगी भपेत् काययोगी च भवेदिति । इति योगद्वारम् १६ घाला भी होता है, बचनयोग वाला भी होता है और काययोग पाला भी होना है। 'एवं जाव णियंठे' इस प्रकार का कथन यावत् निर्गन्ध तक जानना चाहिये । यहां यावत्पद से 'यकुश का प्रतिसेवनाकुशील का और कषायकुशील का' संग्रह हुआ है । तथा च चक्रश से लेकर निग्रन्थ तक के समस्त साधु त्रिविध योगवाले होते हैं। 'सिणाए णं पुच्छा' हे भदन्त ? स्नातक सयोगी होता है अथवा अयोगी होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गीयमा सजोगी वा होज्जा अजोगी वा होज्जा' हे गौतम । स्नातक सयोगी भी होता है और अयोगी भी होता है । 'जह सयोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा, सेस जहा पुलागल्त' हे सदन्त ! यदि वह स्नातक योगसहित होना है तो क्या वह मनोयोग सहित होता है ? अथवा वचनयोग सहित होता है ? अथवा काययोगसहित होता है ? इस प्रकार से किये गये इस प्रश्न का उत्तर पुलाक के सम्बन्ध में दिये गये उत्तर के હે ગૌતમ! તે મને ગવાળા પણ હોય છે, વચન ગવાળા પણ હોય છે. અને ययोगदाणा पडाय छ ‘एवंजाव णियंठे' मा शतनु यावत् पशना प्रतिસેવનાકુશીલના, કષાય કુશીલના અને નિગ્રન્થના કથન સુધી સમજવું જોઈએ. એટલે કે બકુશથી લઈને નિર્ચ સુધીના સઘળા સાધુઓ ત્રણ પ્રકારના યોગ पाणाय छे. 'सिणाए णं पुच्छो' हे मावान् स्नात सयोगी हाय छ१३ अयोगी डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री । छ-'गोयमा | सजोगी वा होज्जा, अजोगी वा होज्जा' 3 गौतम ! स्नात सयेगी पडाय छ, भने भयोगी पाय हाय छे. 'जइ सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा सेसं जहा पुलागस्व' है सपन्ने त नात या सहित डाय छे, तY તે માગ સહિત હોય છે? અથવા વચનગ સહિત હોય છે? અથવા કાચોગ સહિત હોય છે ? આ પ્રમાણે કરેલ પ્રશ્નને ઉત્તર ગુલાકના સંબંધમાં Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन्द्रका टीका श०२५ उ. ६ सू०९ सप्तदशं उपयोगद्वारनिरूपणम् २७ सप्तदशमुपयोग द्वारमाह-उपयोगद्वारे 'पुलाए णं भंते! पुलाकः खलु भदन्त ! किं सागारोवडते होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा' किं साकारोपयोगवान् वा भवेत् अनाकारोपयोगवान् वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाद - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सागारोवउत्ते वा होज्जा अणागारोवउत्ते वा होज्जा' साकारोपयोगवान् वा भवेत् अनाकारोपयोगवान् वा भवेदिति । ' एवं जाव सिणाए' एवं यावत् स्नातकः, अत्र यावत्पदेन वकुमति सेवनाकुशीलकपायकुशील निर्ग्रन्थानां संग्रहो भवति, तथा च वकुशादारभ्य स्नातकान्ताः सर्वेऽपि साकारोपयोगवन्तो वा भवेयुः अनाकारोपयोगवन्तो वा भवेयुरिति । जैसा जानना चाहिये - तथा च वह मनोयोग वाला भी होता है, वचनयोगवाला भी होता है और काययोगवाला भी होता है । योगद्वार समाप्त | उपयोगद्वार का कथन ''पुलाए णं भंते । कि लागारीबउत्ते होज्जा ? अणागारोवउन्ते होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक क्या साकारोपयोगवाला होना है ? अथवा अनाकारोपयोगवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! सागारोवन्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा' हे 'गौतम ! पुलाक साकार उपयोगवाला भी होता है और अनाकार उपयोगवाला भी होता है । 'एवं जाब लिगाए' इसी प्रकार बकुश से लेकर स्नातक तक के समस्त साधुजन साकार उपयोगवाले भी होते हैं और अना-कार उपयोगवाले भी होते हैं । उपयोगद्वार समाप्त | આપેલ ઉત્તરના કથન પ્રમાણે સમજવા જોઇએ. અર્થાત્ તે મનાયેાગવાળા પણ હાય છે. વચનચેગવાળા પણ હેાય છે. અને કાયયેાગવાળા પણુ હાય છે, ચૈાગદ્વારનું કથન સમાપ્ત સત્તરમાં ઉપચાગદ્વારનું કથન 'पुलाए णं भंते । किं' सागारोवउत्ते होज्जा अणागारोवउत्ते होजा' है ભગવત્ પુલાક સાગરોયાગવાળા હાય છે ? કે અનાકારાપયેાગવાળા ડાય छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे हे हे- 'गोयमा ! सागरोवउत्ते वा छोज्जा अणागारोवउत्ते वा होज्जा' हे गौतम! युवा सामशपयोगवाजा पणु होय छे, भने अनार उपयोगवाजा पाय होय हे 'एव' जाव सिणाए' से प्रभा] अङ्कुशथी बहने स्नात सुधीना सघणा साधुयो सार ઉપયેાગવાળા પણુ હાય છે અને અનાકાર ઉપયેાગવાળા પશુ હોય છે. એ રીતે આ ઉપચેગદ્વાર સમાપ્ત, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭ર भगवती • , अष्टादशं कपायद्वारमाह-'पुलाए णं भंते !' पुलाकः खलु भदन्त ! 'सकसाई अफसाई होज्जा' सापायी भवेद अपाई वा भवेत् इति प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'समसाई होज्जा णो अकसाई होज्जा' पुलाफः सकपाधी-कपायवान् भवेत् पुलाकस्य कपायाणां क्षयस्य अथवोपशमस्याऽभावादिति नो अपायी-फपायरहिनो भवेदित्युत्तरम् पुनः प्रश्नयति 'जइ सकशाई से णं मंते ! कइमु कलए होज्जा' यदि स पुलाकः सकपायी भवेत् तदा स खल भदन्त । कतिपु कपायेषु भवेत्-कियत्संख्यककपायवान् भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चउसु कोहमाणमायाको भेनु होज्जा चतुपु क्रोधमानमायालोभेषु भवेत् स पुलाकः । एवं वउसेवि' एवं-पुलाकादेव बकुशोऽपि बकुशः सकपायी अपायी वा १८ वा कषायद्वार ____ 'पुलाए णं भंते ! सकसाई अकलाई होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक कषायवाला होता है अथवा कषायवाला नहीं होता है ? हमके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सकसाई होज्जा, णों अकसाई होज्जा' हे गौतम ! पुलाक कषायवाला होता है। कषाय से रहित नहीं होता है। क्योंकि पुलाक के कषायों के क्षय अथवा उपशम का अभाव रहता है इसलिये वह कषायसहित होता है। 'जह सकसाई से णं भंते ! कासु कसोएस्सु होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह कषाय सहित होता है तो वह कितनी कषायोंवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! चउँसु कोहमाणमायालोमेसु होज्जा' हे गौतम ! वह क्रोध मान, माया और लोभ इन चार कषायोंवाला होता है एवं उसे वि' इसी प्रकार से बकुश साधु भी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार અઢારમા કષાયદ્વારનું કથન 'पुलाए णं भते | सकसाई अकसाई होज्जा' लगवन् सा पायवाणा હોય છે? અથવા કષાય વિનાના હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે छ, है- गोयमा! सकसाई होज्जा, णो अकसाई होज्जा' हे गौतम | yals કષાયવાળા હોય છે, કષાય વિનાના હોતા નથી કેમકે-પુલાકને કષાયના क्षयोपशमन मला हे . तेथी ते पाय सहित हाय छे. 'जइ सकसाई से णं भंते ! कइसु कसाएसु होजा' 8 लान् ते ४ाय सहित डाय छ ? તે તે કેટલા કષાવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે -गोयमा! चउसु कोहमाणमायालोभेसु होज्जा' हे गौतम! ते ओथ, भान भाया भने म मा यार षायावा डाय . 'एक बउसे वि' स शत બકુશ સાધુ પણ ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ આ ચાર કષાવાળા હોય Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ सू०९ अष्टादशं कपायद्वारनिरूपणम् १७३ गौतम ! सकपायी भवति नो अपायी यदि सकपायी तदा स कतिषु कषायेषु भवेत् गौतम ! क्रोधमानमायालोभेषु चतुषु कपायेषु भवेत् कपायचतुष्टयवान् भव. तीत्यर्थः 'कसायनुसीलेणं पुच्छा' कषायकुशील खलु भदन्त ! किं सकपायी भवेत् अकपायी वा भवेदिति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सकसाई होज्जा-णो अकलाई होज्जा' सकषायी भवेत् नो अपायी भवेत् । 'जइ सकसाई होज्जा' यदि कषायकुशील सकपाली भवेत् 'से गं भंते !" सखल भदन्त ! 'कास कसाएसु होज्जा' कतिपु रुपायेषु भवेत, 'गोयमा हे गौतम ! 'चउमु वा तिसुका दोसु वा एगमि का होज्जा' चतुर्दा वा कषायेषु त्रिषुवा द्वयोर्वा-एकस्मिन् वा कपाये भवेत्, 'चउसु होमाणे' चतुर्यु कषायेषु भवन् 'चउसु संजळणकोहमाणमायालोभेसु होज्जा' चतुर्यु संज्वलनक्रोधमानमायालोभेषु कषायों वाला होता है। 'कलायकुसीलेणं पुच्छा' हे भदन्त ! कषाय. कुशील साधु कषायवाला होता है ? अथवा कवायरहित होता है? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! सकलाई होजना, णो अकसाई होज्जा' हे गौतम ! वह कषायवाला होता है कषायरहित नहीं होता है 'जइ सकलाई होज्जा' हे भगवन् ! यदि वह कषाय वाला होता है तो कइसु कसाएप्लु होज्जा' कितनी कषायों वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! चउर बा लिनु वा दोस्तु वा एगमि वा होऊजा' हे गौतम ! वह कषायकुशील साधु वार कषायोंवाला भी हो सकता हैं, तीन कषायों वाला भी हो सकता है, दो कषायोंवाला भी हो सकता है और एक कषायबाला भी हो सकता है 'चउनु हो माणे' जब यह चारकषायोंवाला होता है तो 'च उत्सु संजलणकोहमाण. छे. 'कसायकुसीले णं पुच्छा' सावन् पाय अशी साधु पायवाणा हाय છે? અથવા કષાય વિનાના હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે 3-'गोयमा । सकसाई होज्जा, णो अकसाई होज्जा' 3 गीतमपायवाणा हाय छ, उषाय विनाना हात नथी, 'जइ सकसाई होज्जा' लगन्ने सायी-उषायवाणा डायछे ? तो 'कइसु कसाएसु होज्जा' हेटसा पाया हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छे -'गोयमा ! चउसु वा तिस वा दोसु वा एगंमि वा होज्जा' हे गौतम ! ४ाय सुशील साधु या२ पायावाला પણ હોય છે, ત્રણ કષાવાળા પણ હોય છે, બે કષાવાળા પણ હોય છે, भने मे पाया पडाय छे. 'चउसु होज्जमाणे' न्यारे ते या२ ४ाय. पाणा डाय छ, त 'चउसु संजलणकोहपाणमायालोभेसु होज्जा' पलान Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भगवतीस्त्र भवेत् । 'तिसु होमाणे' त्रिषु भवन् 'तिसु संजलणमाणमायालोभेसु होज्जा' त्रिपु संज्वलनमानमायालोभेपु भवेत्, उपशमश्रेण्या क्षपणकश्रेण्यां वा संज्वलनक्रोधे उपशान्ते क्षीणे वा त्रिषु मानमायालो भेषु कपायत्रयेषु भवेदिति । 'दोसुहोमाणे संजलणमायालोमेसु होज्जा' द्वयोर्वा भवन् संज्वलनमायालोभयो भवेत एवं माने विगते सति द्वयोरेव मायालोमयो भवेदिति । 'एगमि होमाणे संजलणलोभे होज्जा' एकस्मिन् भवन् संज्वलनलोभे भवेत् मायायामपि विगतायाम् सुक्ष्मसंपराये दशमगुणस्थानके एकस्मिन लोभे एव भवेत् कपायकुशील इति मायालोभेलु होज्जा' संज्जलन कषाय सम्पन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ वाला होता है। लिस्सु होमाणे-तिस्तु संजलणमाणमाया लोभेस्तु होजा' तीनकषायोंवाला जब वह होता है। तो संज्वलनकषाय सम्बन्धी मान, माया और लोभ घाला होता है। इसका कारण ऐसा है कि उपशम श्रेगी अथवा क्षपक श्रेणी में संज्वलन क्रोध का उपशम हो जाता है अथवा क्षय हो जाता है। ईसलिये इस अपेक्षा को लेकर यहां उसे तीन कषायों वाला कहा गया है। 'दोसु होमाणे संजलगमायालोमेलु होजना' जघ वह दो कषायों बाला होना है तब संज्वलन सम्बन्धी माया और लोभवाला होता है । इसका भी यही कारण है कि जब पूर्वोक्त श्रेणियों में मान का उपशम अथवा क्षय हो जाता है तब यह दो कषायों वाला भी हो सकता है 'एगंमि होमाणे संजलजलोसे होऊजा' और जब वह एक कषायवाला होता है तब वह संज्वलन सम्बन्धी लोभ कषायवाला होता उपाय समधी अध, भान, माया मनोसामा डाय छ. 'ति होन्जमाणे तिसु संजलणमाणमायालोमेसु होजा' न्यारे ३ पायवाणा तय छ, તે સંજવલન કષય સંબંધી માન, માયા અને લેભવાળા હોય છે. તેનું કારણ એવું છે કે-ઉપશમી અથવા ક્ષપક શ્રેણીમાં સંજવલન ક્રોધને ઉપશમ થઈ જાય છે અને ક્ષય થઈ જાય છે તેથી એ અપેક્ષા લઈને मडीयां तेन त्र] पायावा हा छ. 'दोसु होज्जमाणे सजलणमायालोभेसु ==ા જ્યારે તે બે કપાવાળા હોય છે. ત્યારે સંજવલન સંબંધી માયા અને લેભવાળા હોય છે. તેનું પણ એજ કારણ છે કે-જ્યારે પૂર્વોક્ત શ્રેણીજેમાં માનનું ઉપશમ અથવા ક્ષય થઈ જાય છે, ત્યારે તે બે કષાવાળા 4 38 छ. 'एगंमि होज्जमाणे संजलणलोभेसु होज्जा' भने न्यारे । એક કષાયવાળે હોય છે, ત્યારે તે સંજવલન સંબંધી લાભકષાયવાળા હોય Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ १०९ अष्टादशं पायद्वारनिरूपणम् १७५ भावः । 'णियंठेगं पुच्छा' निम्रन्थः खल्ल भदन्त ! किं सापायी भवेत् अपायी वा भवेदिति पृच्छा-मश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ‘णो सकसाई होज्जा' नो सकपायी भवेत् निर्ग्रन्थः किन्तु अकपायी भवेत् 'जा अकसाई होज्जा कि उक्संतकसाई होज्जा खीणकसाई होज्जा' यदि अपायी भवेत् निर्ग्रन्थस्तदा स किम् उपशान्तकपायीभवेत् क्षीणकषायी वा भवेत् भगवानाह-'गोयमा' उपसंतकसाई वा होज्जा खीण कसाई वा होज्जा' उपशान्न. कापायी वा भवेत् क्षीणकपायी वा भवेत् 'सिणाएवि एवं चेव' स्नातकोऽपि है। इसका कारण यह है कि जब पूर्वोक्त श्रेणियों में उसके माया का उपशम अथवा क्षय हो जाता है तब वह एक संज्वलन सम्बन्धी लोभ घाला होता है। क्यों कि १० वेंगुणस्थान में एक सूक्ष्म लोभ ही अवशिष्ट रहता है। 'णियंठे गं पुच्छा' हे भदन्त ! निन्ध साधु कषाय वाला होता है । अथवा अकषायवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा' हे गौतम ! 'जो सकलाई होजा, अकसाई होज्जा' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ कषायवाला नहीं होता है किन्तु कषाय रहित होता है । 'जह अकसाई होज्जा, कि उवसंत कसाई होज्जा, खीणकसाई हेज्जा' हे भदन्त ! यदि यह कषाय रहित होता है तो क्या उपशान्त कषाय वाला होता है अथवा क्षीणकषायवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उवसंतकसाई वा होज्जा, खीणकसाई का होजा? हे गौतम ! वह उपशान्तकषायवाला भी होता है और क्षीणकषायवाला भी होता है। 'सिणाए वि एवं चेव' निग्रन्थ की तरह स्नातक भी कषाय છે. તેનું કારણ એ છે કે-જ્યારે પૂર્વોક્ત શ્રેણિમાં તેઓને માયાને ઉપશમ અથવા ક્ષય થઈ જાય છે, ત્યારે તે એક સંજવલન સંબંધી ભવાળા હોય छ. भइसमा गुस्थानमा मे सूक्ष्म साल ४ माडी २९ छे. 'णियठेणं પુરછ હે ભગવનું નિથ સાધુ કષાયવાળા હોય છે? કે કષાય વિનાના डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे -'गोयमा !' के गौतम ! 'यो सकसाई होज्जा, अकसाई होज्जा' 3 गौतम! नियन्थ षायामाता नथी. परंतु षाय दिनाना हाय छे 'जइ अकसाई होज्जा, कि उवसंतकसाई होज्जा, स्त्रीणकसाई होज्जा' मान्न ते पाय पिनाना हाय छ. तो શું ઉપશાન્ત કષાયવાળા હોય છે? કે ક્ષીણ કષાયવાળા હોય છે? આ प्रश्नना उत्तरमा प्रमुई छ -'उवसतकसाई वा होज्जा, खीणकमाई वा: होज्जा' गीतम! Guid ष.यवाणा प डाय छे भने क्षीषाय. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ eneares • एवमेव निर्ग्रन्थव देव ज्ञातव्यः 'णवरं णो उपसंतकसाई होज्जा खीणकसाईहोजा' नरम् - केवलम् उपशान्तकपायी नो भवेत् स्नातकः किन्तु क्षीणकषायी एव भवेदिति १८ । एकोनविंशतितमं लेशाद्वारमाह - 'पुलाए णं भंते । किं सळेसे होज्जा अलेस्से होज्जा' पुलाकः खलु महन्त ! कि सलेश्य:- लेश्यावान् भवेद्र अलेइय:-लेश्वारहितो ना भवेत् । इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम ! 'सस्से होज्जा-णो अलेस्से होना' सलेइपो भवेद-छेइयावानेव भवेत् पुलाको नतु भइया - लेश्यारहितो भवेन् । 'जइ सलेस्से होज्जा से णं भंते! 'कइसु लेस्सासु होज्जा' यदि पुलाकः सलेश्यो भवेत् स खलु भदन्त | कविषु श्वासु भवेत् 'गोमा' हे गौतम | 'तिसु विशुद्धलेस्पासु होज्जा' दिसृषु विशुद्धलेश्यालु भवेत् रहित होता है । 'नवरे' किन्तु वह 'णो उवसतकलाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा' उपशान्तकषायवाला नहीं होता है किन्तु क्षीणकषयवाला ही होना है । कषायद्वार समाप्त | लेश्याद्वार का कथन 'पुलाए णं भते । किं सस्से होजा, अलेस्ले होज्जा' हे भदन्त !' पुलाक क्या इषा सहित होता है अथवा बिना बेश्या का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधना सलेस्से होज्जा णो अलेस्से होज्जा' हे गौतम | पुलाफलेवाला होता है । लेखा रहित नहीं होता है । 'जइ सस्से होना, से णं भंते ! कहसु लेस्सा होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह देवावाला होता है तो कितनी बेश्याओं वाला होता है ? 'गोमा ! ति त्रिसुद्धलेस्साए होज्जा' हे गौतम! वह तीन विशुद्ध वाजा पशु होय है. 'सिणाए वि पर्व' चेत्र' निर्ऋन्धना उधन प्रमा स्नात यथषाय विनाना होय छे. 'नवर" परंतु ते 'णो उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होजा' उपशांत कृषायवाना होता नथी. क्षीण षायवाजा હાય છે. એ રીતે આ કષાયદ્વાર કહ્યુ છે. હવે લેશ્યાદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે, 'पुलाए भंते! कि' सलेस्से होज्जा, अलेस्से होज्जा' हे भगवन् पुसा વૈશ્યાસહિત હાય છે ? અથવા લેફ્યા વિનાના હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां 'अनुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'गोयमा । सलेस्से होज्जा णो अलेस्से રોંજ્ઞા' હૈ ગૌતમ ! પુલાક વૈશ્યા સહિત હૈ ય છે. લેફ્યા વિનાના હૈાના નથી. 'जइ सस्से होज्जा, से णं भंते! कइसु लेखासु होज्जा' हे भगवन् ले श्यावाणा होय तो ते टसी सेश्याभोवराजा होय हे ? 'गोयमा ! तिसु विशुद्धलेखासु होना' हे गौतम! ते भायु विशुद्धसेश्यावाजा होय Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०९ एकोनविंशतितम लेश्याद्वारम् - १७७ 'तं जहा ' तद्यथा - 'तेउलेस्साए पम्हलेस्ताए सुक्कलेस्साए ' तेजोलेश्यायां पद्मलेश्या याम् शुक्लश्यायां भवेत् । एवं वयस्स वि' एवम् पुलाकत्रदेव वकुशस्यापि श्याविषये ज्ञातव्यम् | 'एवं पडि सेवणाकुसीले वि' एनं - पुलावदेव प्रतिसेवनाकुशीलेऽपि सर्व ज्ञातव्यमिति भावः । पुलाक- वकुश - प्रतिसेवना कुशीलाः, एते त्रयो• sपि भावलेश्यापेक्षया प्रशस्त देश्यात्रयवन्तो भवन्तीति भावः । 'कसायकुसीले पुच्छा' कषायकुशीलः खलु भदन्त ! किं सलेो भवति अलेश्यो वा भवतीवि प्रश्न', भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सलेस्से होज्जा नो अलेस्से होज्जा' सलेश्यो भवेत् नो अलेइयो भवेत् कषायकुशीलो लेश्पाचान् २० श्याfवाला होता है । 'तं जहा' जैसे- 'ते उलेस्साए, पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए वह तेजोलेश्यावाला होता है, पद्मलेवावाला होता है, और शुक्ल पावाला होता है । 'एवं वडसस्सवि' इसी प्रकार से. लेश्या होने का वकुश में भी जानना चाहिये, अर्थात् कुश साधु भी तेज पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्याओं वाला होता है अतः. वह अलेय नहीं होता है । 'एवं पडिलेवणाकुमीले बि' इसी प्रकार से प्रतिसेवनाकुशील साधु भी इन्हीं तीन लेणओवाला होता है । इस प्रकार पुलाक, चकुश, प्रतिसेवनाकुशील थे तीन साधु भावलेइया की अपेक्षा प्रशस्त लेइयात्रय वाले होते हैं । 'कलाकुसीले णं पुच्छा' हे भदन्त ! कषायकुशील साधु क्या लेयाबाला होता है ? अथवा विनालेश्या का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोना! सलेस्से छे. 'तं' जहां' प्रेम ' तेउलेरसाए, पम्हलेस्साए, सुकलेभ्साए' ते तेले લેશ્યાવાળા હાય છે. પદ્મલેશ્યાવાળા હાય છે, ને શુકલ લેશ્યાવાળા होय छे. 'एव' बसस्स वि' એજ પ્રમાણે વૈશ્યા હાવના સબ--- ધનું થન અંકુશમાં પણ સમજવું અર્થાત્ અકુશ સાધુ પણ તેજ, ' પદ્મ અને શુકલ આ ત્રણુ લેશ્યાવાળા ડાય છે તેથી અલેશ્ય હાતા નથી.. 'ए' 'डिसेवणाकुसीले वि' असा अतिसेवना कुशीत साधु पशु भे ત્રણ લેશ્યાઓવાળા હોય છે આ રીતે પુલાક, અકુશ અને પ્રતિસેવના કુશીલ આ ત્રણે સાધુ એજ ત્રણ લેસ્યાવાળા હોય છે અર્થાત્ તેજ, પદ્મ અને શુકલ લેશ્યાવાળા ડાય છે. આ રીતે પુટ્ટાક, કુશ પ્રતિસેવના કુશીલ ત્રણ साधु भावडोश्यानी अपेक्षाथी प्रशस्त त्रषु श्यावाजा होय हे 'कसायकुसीले णं पुच्छा' हे लगवन् प्रषाय दुशीस साधु शु श्यावाजा होय हे ? अथवा बेश्या विनाना होय हे ? प्रश्न उत्तरमा अनुश्री - 'गोयमा !मस्से होन्जानो अलेस्से होज्जा' से गौतम ! ते वेश्यावाजा होय छे. भ० २३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे १७८ 'भवति लेश्पारहितो न भवतीति भावः । 'जई' सलेस्से छोजना' यदि कपाय. कुशीलः सलेश्यो भवेत् तदा - ' से गं भंते ।' स कपायकुशीलः खलु भदन्त ! 'कर लेस्सा होज्जा' कतिषु लेश्यासु भवेत् तदा स कियत्संख्यक लेश्यावान् भवतीत्यर्थः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'छसु लेस्साठ होज्जा 'पट्सु लेश्यासु' भवेत् पडपि श्याः कषाय कुशीले भवति, एतत्तु सकषाय आश्रित्योक्तमिति संमान्यते, अन्यथा पूर्वप्रतिपन्नस्तु अन्यतरस्यामेकस्यामेव लेश्यायां भवति, उक्तञ्च - 'पुण्यपडिबन्नओ पुण, अन्नयरीए उ ले पाए ' पूर्वपतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायाम् 'वं जहा ' तथथा - ' कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए ' कृष्णलेश्यायां यावत् शुक्ललेश्यायाम्, यावत्पदेन नीलकापोतिक तैजस पदश्यानां संग्रहो भवतीति तथा च कृष्णनीलकापोतिकतैजस पद्मशुक्ललेश्याहोजा, नो अहले होज्जा' हे गौतम ! वह लेवावाला होना है-विनाour का नहीं होता है । 'जह लेस्ले होज्जा' यदि कषायकुशील. साधु इवावाला होता है तो 'से णं भंते ! कहसु लेरसासु होज्जा' हे भदन्त ! वह कितनी बेश्याओं वाला होता है ? उत्तर में प्रभु कहते है- 'नोमा ! छस्सु लेस्सासु छोज्जा' हे गौतम! वह छह लेश्यावाला होता है । ऐसा जो यह कथन किया गया है वह कषाय सहितता को लेकर ही कहा गया है क्यों कि जो पूर्व प्रतिपन्न कषायकुशील होता है वह छहों में से किसी एक लेवावाला होता है । उक्तं च- 'पुण्यपडियनओ पुण अन्नघरीए उ लेस्लाए' । 'कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए ' कृष्णलेश्या से लेकर वह कषायकुशील साधु यावत् शुक्लश्यावाला होता है यहां यावस्वद से नील, कापोतिक, तैजस और पद्म इन वेश्याओं का ग्रहण हुआ है। तथा च वह कषायकुशील 1 વૈશ્યા વિનાના હાતા નથી 'जइ सलेस्से होजा' ले उषायपुशीत साधु सेश्यावाणा होय छे, तो 'से णं भवे ! कइसु लेखासु होज्जा' से लगवन् ते કૈટલી લેસ્યાએવાળા હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-'गोयमा ! छस्सु लेस्खासु होज्जा' हे गौतम । ते छ बेश्यावाजा होय छे. ये પ્રમાણેનું જે આ કથન કરવામાં આવ્યુ છે, તે કષાય સહિતપણાને લઈને જ કહેલ છે. એ પ્રમાણે જણાય છે. નહીં તેા જે પૂર્વ પ્રતિપન્ન કષાય કુશીલ હાય છે, તે કાઈ એક જ લેસ્યાવાળા હાય છે. કહ્યુ` પણ છે કે'पुत्र परिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए' 'कण्हलेस्खाए जाव सुकलेस्साए ' કૃષ્ણલેખ્યાથી લઈ ને તે કષાય કુશીલ સાધુ નીલ લેશ્યાવાળા હૈાય છે. કાપાતિક લેશ્યાવાળા હાય છે. તૈજસ લેફ્સાવાળા હાય છે, પદ્મલેસ્યાવાળા હાય Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका वैषा पा०२५ २.६ १०९ एकोनविंशतितम लेश्याद्वारम् १७९ वान कषायकुशीलो भवतीति भावः 'णियंठे णं भंते ! पुच्छ।' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कि सलेश्यो भवति अलेश्यो वा भवतीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाइ'गोयमा' इत्यादि, 'गोया' हे गौतम ! 'सले से होना णो अलेस्से होज्जा' सलेश्यो भवेत् नियः लो अलेपो भवेत् । 'जइ सलेस्से होज्जा' यदि सलेश्यो भवेत् 'से णं भंते ! कइसु लेस्सा होज्जा' स खल्ल भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवेदिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! एकाए सुक्क लेस्साए होज्जा' एकस्यां शुक्लेश्यायां भवेत् एकर शुक्लेश्या निग्रन्थस्य भवतीति भावः । 'सिणाए पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! किं सलेश्यो भवति-अले श्यो वा भवतीति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सलेले वा होज्जा अलेस्से वा होज्जा' सलेश्यो वा भवेत् अलेश्यो वा साधु-कृष्ण, नील, कापोतिक, तैजस, पद्म और शुक्ल इन छह लेश्याओंवाला होता है। "णियंठे गं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! जो निर्ग्रन्थ साधु है वह लेश्यावाला होता है ? अथवा विनालेश्या का होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम! वह लेश्यासहित होता है विना लेश्या का नहीं होता है । 'जह सलेस्से होज्जा से ण भंते ! कहासु लेस्लास होजना' हे भदन्त ! यदि वह लेश्यावाला होता है तो कितनी लेश्याओंवाला होता हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! एक्काए सुक्कलेस्साए होजा' हे गौतम! वह निग्रन्थसाधु एक शुक्ल लेवायाला ही होता है। 'लिणाए पुच्छा' हे भदन्त ? स्नातक क्या लेश्यावाला होता है ? अक्षा विनालेश्या का होता है? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! खलेस्ले वा होज्जा, अलेस्से वा છે, અને શુક્લલેશ્યાવાળા હોય છે તથા તે કષાયકુશીલ સાધુ કૃષ્ણ, નીલ, पातिर, तेस ५५ भने शु४८ मे छ बेश्या केय छे. 'णियठे भंते ! पुच्छा' लगवन् रे निन्य साधु छ, ते वेश्यावा हाय छ, લેશ્યા વિનાના હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! त'वेश्या साथ हाय छे, वेश्या विनाना हात नथी. 'जइ सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होज्जा' है सगवन् ले ते वेश्यावासाय छे. તો કેટલી લેફ્સાવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે गौतम त निन्य साधु से शुत वेश्यावा हाय छे. 'सिणाए પુજી? હે ભગવન સ્નાતક શુ વેશ્યાવાળી હોય છે ? અથવા વૈશ્યા વિનાના डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छे है-'गोयमा ! सलेस्से वो होज्जा, अलेस्से वा होज्जा' हे गीतम! स्नात वेश्या पर डाय छ, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० भगवतीसूत्र भवेत् । पुनः प्रश्नयति 'जइ सलेस्से होज्जा से भंते ! कइसु लेस्सा होज्जा' यदि स्नातकः सलेश्यो भवेत् स खलु भदन्त ! बालिपु लेश्यासु भवेत् भगानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगाए परमसुकलेस्साए होज्जा' एक स्यां एमशुक्ल लेश्यारी भवेत् शुक्लध्यानतृतीयभेदावमारे या लेश्या सा परमशुक्ललेश्या अन्यसमयेतु शुक्लैव सापि इतरजीवशुक्ललेशपापेक्षया स्नातकस्य परमशुक्ला इति ।।०९॥ विशतितम परिणामबारमाह-"पुलाएवं अंते' इत्यादि, मूलम्-पुलाए णं भंते ! किं बड्माणपरिणाम होज्जा हीयमाणपरिणामे होज्जा अवट्टियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! बड्डमाणपरिणामे वा होज्जा हीयमाणपरिणाने का होज्जा अवट्रियपरिणामे वा होज्जा। एवं जाव कसायकुसीले। णियंठे थे पुच्छा गोयमावलाणपरिणाम होज्जा णो हीयमाणपरिणाम होज्जा अवडियपरिणामे वा होज्जा एवं सिणाए वि। पुलाए होज्जा' हे गौतम ! बह स्नातक लेश्यावाला भी होता है और विनालेश्या का भी होता है । 'जह सलेसे होज्जा से णं भंते ! कासु लेस्सास्लु होज्जा' हे अदन्त ! यदि वह सलेश्य होता है तो किस लेश्यायाला होता है ? उसर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! एगाए परम सुकलेलाए होज्जा' हे गौतम! वह एक परम शुक्ललेश्यावाला होता है शुक्लध्यान के तृतीय भेद के समय जो लेश्या होती है वह परमशुक्ललेश्या कहलाती है । इसके सिवाय अन्य समय में शुक्ललेश्या ही होती है। परन्तु वह भी अन्य जीवों की शुक्ललेश्या की अपेक्षा स्नातक के परमशुक्ल कही गई है ॥सू०९॥ लेण्याद्वार का कथन लयाप्त मन वेश्या विनाना ५५ डाय छे. 'जइ सलेस्से होज्जा से णं भसे ! कइसु लेस्सासु होज्जा' ७ सागवन् न त वेश्या सहित हाय थे, लेश्यावाणा खाय छ १ उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छ -'गोयमा ! एगाए परमसुकलेस्साए होज्जा' ગૌતમ! તે એક પરમ શુકલ લેશ્યાવાળા હોય છે. શુકલધ્યાનના ત્રીજા ભેદના સમયે જે વેશ્યા હોય છે, તે પરમ શુકલેશ્યા કહેવાય છે તે સિવાય અન્ય સમયમાં શુકલ લેશ્યા જ હોય છે, પરંતુ તે પણ અન્ય જીની લેશ્યાની અપેક્ષાએ સ્નાતકને પરમ શુકલ લેફ્સા કહી છે. એ રીતે આ લેશ્યાદ્ધિારનું કથન કરેલ છે. સૂત્રો Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ ९४०३० विंशतितम परिमाणद्वारम् १८५ णं भंते! केवइयं कालं वङ्माणपरिणाने होज्जा गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उसोसणं अंतोमुहतं । केवइयं कालं अव. टियपरिणामे होज्जा? गोयमा ! जहल्लेणं एवं समयं उक्कोसेणं सत्तसमया। एवं जाव कलायकुसीले। णिचंठे णं भंते ! केवइयं कालं वड्डमाणपरिणाने होज्जा ? गोयला ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोलणं वि अंतोमुहत्तं । केवइयं कालं अनहियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहन्नणं एवं समयं उकोलेणं अंतोमुहत्तं। सिणाए णं केवइयं कालं बड्डमाणपरिणाने होज्जा ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुन्तं उकोलेण वि अंतोसुहन्तं । केवइयं कालं अवट्ठियपरिणाने होज्जा जहल्लेणं अंतोमुहुर्त उक्कोलेणं देसूणा पुठवकोडी २० । पुलाए ज भंते ! कइकनपगडीओ बंधइ ? गोयमा! आउयवज्जाओ सत्तकम्सपगडीओ बंधइ । बउले पुच्छा गोयमा! संत्तविहबंधए वा अवविहबंधए वा। सत्तबंधमाणे आउ. वज्जाओ सत्तकालपगडीओ बंधइ अट्ठबंधमागे पडिपुन्नाओ अट्टकम्मपगडीओ बंधइ। हवं पडिलेवणाकुसीले वि। कसाय. कुसीले पुच्छा गोयसा! सत्तविहबंधए वा अविह बंधए वा छबिहबंधए वा। सतबंधमाणे आउवज्जाओ सत्सकम्मपगडीओ बंधइ अठ्ठबंधमाणे पडिपुनाओ अट्टकम्मपगडीओ बंधइ छ बंधमाणे आउशमोहणिज्जबज्जाओ छक्करमपगडीओ बंधइ । णियंठे णं पुच्छा गोषमा! एवं वेयणिज्ज कसं बंधइ । सिणाए णं पुच्छा गोषमा ! एगविह बंधए वा अबंधए वा एगं बंधमाणे एगं वेयणिज्ज कम्मं बंधइ२९ । पुलाए णं भंते ! कइकम्मपगडीओ वेएइ ? गोयमा ! नियनं अटुकन्नपगडीओ वेदेइ एवं जाव कसायकुसीले। णियंठे ण पुच्छा गोयमा ! मोहणि. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ __ भगवतीस्त्र जरज्जाओ सत्तकरमपाडीओ वेदेह। लिणाए णं पुच्छा गोचमा! बेयणिज्ज आउयलाभगोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेइ २२। पुलाए ण संते ! काइकानडीओ उदीरेइ ? गोयमा! आउयवेणिज्जबज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेइ। बउसे पुच्छा गोयमा! लत्तविह उदीरए वा अविह उदीरए वा छविह उदीरए वा । लक्ष उदीरेलाणे आउबज्जाओ लत्तकम्मपगडीओ उदीरेइ अहउदीरेमाणे पडिपुन्लाओ अट्रकम्मपगडीओ उदीरेइ, छ उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जबजाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेइ । पडिसेवघाकुलीले एवं क्षेत्र। कलायकुसीले णं पुच्छा गोयसा ! सत्तविह उदीरए वा अविह उदीरए वा छविह उदीरए वा पंचविह उदीरए वा । सत्तउदीरमाणे आउयवजाओ सत्तकम्मपगडीओ उदीरेइ अटुउदीरेमाणे पडि पुन्नाओ अट्टकम्मपगडीओ उदीरेइ छ उदीरमाणे आउयवेयणिजवजाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेइ पंचउदीरेमाणे आउययणिज्जमोहणिज्जवजाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेछ। णियंठे णं पुच्छा गोयमा ! पंचविह उदीरए वा दुविहादीरए वा, पंचउदीरेमाणे आउयचेयणिज्जमोहणिज्जबजाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेइ, दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेइ। सिणाए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे उदीरए वा अणुदीरए बा। दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेइ ।।सू०१०॥ छाया-पुलाकः खलु भदन्त ! कि वईपानपरिगामो भवेत् हीयमानपरिणामो भवेदवस्थित परिणामो भवेत् ! गौतम ? वर्द्धमानपरिणामो वा भवेत् हीय. मानपरिणामो वा भवेत् अवस्थितपरिणामो का भवेत् । एवं यावत् कपायकुशी. लोऽपि । निर्ग्रन्थः खलु पृच्छा गौतम ! वर्तमानपरिणामो भवेत् नो हीयमानपरिणामो भवेत् अवस्थितपरिणामो वा भवेन् । एवं स्नातकोऽपि । पुलाकः खल Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेदिका टीका २०२५ ३.६ २०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् १८३ भदन्त ! कियन्तं कालं बर्द्धमानपरिणामो भवेद ! गौतम ? जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षण अन्तर्पहर्तम् । कियन्तं कालं हीयमानपरिणामो भवेत गौतम ! जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण अन्त मुहूर्तम् । कियन्त कालावस्थितपरिणामो भवेत् । गौतम ? जघन्येन एकं समयम् उत्कर्पण सप्तपसमयाः । एव यावन कपायकुगी कोऽपि । निग्रन्थः खल्ल भदन्त ! कियन्तं कालं बर्द्धमानपरिणामो भवेन गौतम ? जयन्येन अन्मुहूर्तम् उत्कर्षणापि अन्तर्मुहूर्तम् । क्रियन्त कालमपस्थितिपरिणामो भवेत् ! गौतम ? जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । स्नातकः खलु भदन्त ! कियन्तं कालं बर्द्धमानपरिणामो भवेत् ! गौतम ? जघन्येन अन्तर्मुहूत्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम् । कियन्तं कालम् अवस्थितपरिणामो भवेत् ! गौतम ? जघन्येन अन्तर्मुहसंम् उत्कर्पण देशोना पूर्वकोटिः २० । पुलाकः खलु भदन्त । कति कर्म प्रकृतीबध्नाति ? गौतम ! आयुर्वीः सप्तकर्मप्रकृतीवघ्नाति । बकुश, पृच्छा, गौतम ! सप्तविधवन्धको वा अष्टविधवन्धको वा सप्तबध्नन् आयुर्व ः सप्तकर्मप्रकृती बघ्नाति अष्टबध्नन् प्रतिपूर्णा अष्टकर्मप्रकृतीवघ्नाति । एवं प्रति सेवनाकुशीलोऽपि । कषायकुशीला पृच्छा गौतम ! सप्तविधवन्धको वा अष्टविध बन्धको वा । सप्त बध्वन् आयुर्वर्जाः सप्तकर्मप्रकृतीवघ्नाति, अष्टवघ्मन् मतिपूर्णा, अष्टकर्मप्रकृतीर्वघ्नाति षड्वघ्नन् आयुकमोहनीयवाः षट्कर्म प्रकृतिीबध्नाति । निर्यन्थः खलु पृच्छा गौतम ! एक वेदनीयं कर्म वनाति । स्नातकः पृच्छा गौतम ! एकविधवन्धको वा अवन्धको वा । एकं वघ्नन एवं वेदनीयं कर्म बध्नाति २१ । पुलाकः खल्लु भदन्त ! कतिकर्गप्रकीर्वेदयनि गौतम । नियमादष्ट रम. पकृतीर्वेदयति एवं यावत् कपायकुशीलः । निग्रन्थः खलु पृच्छा गौतम 'मोहनीयबर्जाः सप्तकर्मप्रकृतीर्चेदयति । स्नातकः खलु पृच्छा गौतम ! वेदनीयायुष्कनामगोत्राः चतस्रः कर्मप्रकृतीबंदयति २२ । पुलाकः खलु भदन्त ! कतिकर्मप्रकृतीरुदीरयति ? गौतम ! आयुष्कवेदनीयवाः षट्कर्मप्रकृतीरुदीरयति । बकश: पृच्छा गौतम ! सप्तविधोवीरको वा अप्टविधोदीरको वा पविधोदीरको वा। सप्त उदीरयन् आयुकवर्जाः सप्तकर्मप्रकृतीरुदीरयति, अप्टउदीयन् मतिपूर्ण अष्ट कर्मप्रकृतीरुदीयति पहउदीरयन् अ युवेदनीयर्जाः पट्कर्मप्रकृतीरुदीरयति । पतिसेवनाकुशीला एकमेव । कपायकुशीलः पृच्छा गौतम ! सप्तविधोदीरको वा अष्टविधोदीरको वा पविधोदीरको वा पञ्चविधोदीरको वा ! साउदीरयन् आयु. कर्जाः सप्तकर्ममक्रतीरुदीरयति अष्टीरयन पतिपूर्णा अष्टममकृनीरुदीरयति, पड्उदीरयन् आयुष्कवेदनीयवाः पटनम प्रकृतीरुदीरयति, पञ्च उदीरयन् आयुष्क वेदनीयमोहनीयवर्जाः पञ्चकर्मपकृतीरुदीरयति । निम्रन्थः पृच्छा गौतम ! 'पञ्च Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ terrates १८४ विधोदीको वा द्विविधोदीरको वा । पश्चोदरियन आयुकवेदनीयमोहनीयवजः चकर्मकृतीरुदीरयति । द्वे उदीरयन् नाम च गोत्रं चोदोरयति । स्नातकः पुच्छा गौतम ! द्विविधोदीरको वा अनुदीरको हा द्वे उदीरयन् नाम च गोत्रं चोदीरयति ॥ म्र०१० ॥ टीका - 'पुलाए णं ते । किं चमाणपरिणामे होज्जा' पुलाकः खल भदन्त ! किं वर्द्धमानपरिणामो भवेत् तत्र वर्द्धशनः शुद्धेरुत्कर्षं गच्छन्नित्यर्थः, 'हीयमाणपरिणामें होना' हीयमानपरिणामो वा भवेत् हीयमानः शुद्धेरपकर्षेगच्छन्नित्यर्थः । ' अट्ठियपरिणामे होज्जा' अवस्थितपरिणामो वा भवेत् अवftreat तथा च स्थिर परिणाम इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'वड्माणपरिणामे वा होज्जा' पुलाको वर्द्धमानपरिणामो वा भवेत् - 'हीयमाणपरिणामे वा होज्जा' हीयमानपरिणामो वा भवेत् 'अट्ठियपरिणामेवा होज्जा' अवस्थितपरिणामो वा भवेत् पुलाको वर्द्धमानपरिणामः शुद्धेपरिणामद्वार का कथन 'पुलाए णं भंते! किंबहूनाणपरिणामे होज्जा' इत्यादि । 'पुलाए णं भंते! कि माणपरिणामे 'बोज्जा' हे भदन्त ! पुलाक वर्द्धमान परिणामोंवाला होता है-शुद्धि के उत्कर्ष को प्राप्त करनेवाले परिणामोंबाला - भावों वाला होता ? है अथवा 'हीयमाण परिणामे होज्जा' होयमान परिणामोंवाला होता है-शुद्धि के उत्कर्ष से रहित भावों वाला होता है ? अथवा 'अवडिय परिणामे होना' अवस्थित परिणामोंवाला होता है ? स्थिर भावों वाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! वहुमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा, अवट्टियपरिणामे वा होज्जा' हे गौतम ! पुलाक वर्द्धमान परिणामों वाला भी होता है, हीयमान-घटते हुए परिणामों હવે પરિણામદ્વારનુ કથન કરવામાં આવે છે 'पुलाए णं भंते! किं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा' त्याहि टीअर्थ - 'पुलाए णं भंते! किं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा' हे भगवन् પુલાક વમાન પરિણામાવાળા હાય છે અર્થાત્ શુદ્ધિના ઉત્કષને પ્રાપ્ત કર वावाजा परिक्षाभोवाणा लावावाजा होय छे, 'हीयमाणपरिणामे होज्जा' हीय. માન પરિણામવાળા ડાય છે. શુદ્ધિના ઉત્કષથી રહિત ભાવાવાળા હાય છે. स्मथवा 'अवट्टियपरिणामे होज्जा' व्यवस्थित परिणामो वाजा होय छे ? स्थिरलावा वाजा होय हे ? भा प्रश्नमा उत्तरभां प्रभुश्री हे छे - 'गोयमा प्राणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा अवट्ठियपरिमाणे वा હોના’હું ગૌતમ! પુલાક વધુ માન પામવાળા પશુ હાય છે, કીયમાણુ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ २०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् १८५ हत्कर्ष तां प्राप्नुवन् भनति, हीयवानपरिणामः शुद्धपापत प्राप्नुवन् भवति । कदाचिदवस्थितपरिणाम स्थिरपरिणामोऽपि भवतीति भावः । एवं जाव कसाय. · कुसीले' एवं यावत् कपायकुशीला यादरुपदेन बकुशमति से बलाकुशीलयोहणं भवति तथा च बकुशादारभ्य कपा-कुशीलान्त' सर्वोऽपि बर्द्धमानपरिणामों वा • भवति-हीयमानपरिणामो वा मनति अस्थित परिणामो वा भवतीति भावः । 'णियंठे णं पुच्छा निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! किं बर्द्धमानपरिणामो भवेन हीयेमान वाला भी होता है और अवस्थित-स्थिर परिणामों वाला भी होता है। जब पुलाक के परिणाम शुद्धि के उत्झर्ष की ओर बहते रहते हैं "तय वह वर्द्धमान परिणामों वाला होता। जब इसके परिणाम शुद्धि के अपकर्ष की ओर बढने है-म यह हीयमानों परिणाम वाला होता है और जब इसके परिणाम इस प्रकार के शुद्धि अशुद्धि की ओर बढ़ने वाले नहीं होते हैं-तब यह अवस्थित परिणाम वाला होता है। एवं कसायकुसीले शि' इस प्रकार से बर्द्धमान परिणाम आदि का यह कथन यावत् कषायकुशीलमाधु सक जानना चाहिये। यहां यावत्पद से धकुश और प्रतिसेवनाकुशील का ग्रहण हुका है । तथा च बकुश ले लेकर कषायकुशील तक के सभी साधु बर्द्धमान परिणायवाले भी होते हैं, हीयमान परिणाम वाले भी होते हैं और अवस्थित परिणामवाले भी होते हैं। 'णियंठे भंते ! पुच्छा हे दन्त ! निन्य साधु क्या वर्द्धमान परिणामवाला होला ? अशा विद्यमान परिणामपाला होता है ? પરિણામવાળા પણ હોય છે. અર્થાત ઘટતા પરિણામવાળા પણ હોય છે અને અવસ્થિત પરિણામવાળા પણ હોય છે. જ્યારે પુલકના પરિણામ શુદ્ધિના ઉત્કર્ષ તરફ વધતા રહે છે. ત્યારે તે વર્ધમાન પરિણામેવાળા ય છે જ્યારે તેના પરિણામ શુદ્ધિના અપકર્ષની તરફ વધતા રહે છે ત્યારે તે હીયમાનઘટતા પરિણામવાળા હોય છે. અને જ્યારે તેની પરિણામ પ્રકારતા 'શક્તિ અશુદ્ધિની તરફ વધતા હોતા નથી. ત્યારે તે અવથિત પરિણામોવાળા હોય छे. 'एव' जाव कसायओसीले वि' मे प्रमाणे भान परिणाम विगत આ કથન ચાલતુ બકુશ તથા પ્રતિસેવના કુશીલ અને કષાય કુશીલ સુધીના વિષયમાં સમજવું અર્થાત્ બકુશથી લઈને કષાય કશીલ સુધીના સઘળા સાધુ વર્ધમાન પરિણામવાળા પણ હોય છે. અને હીયમાન પરિણામેવાળા પણ હોય છે 'णिण्ठे गं भंते । पुच्छा' सावन निय- साधु शु १५ भान पर. રણુમવાળા હોય છે ? અથવા હીયમાન પરિણામવાળા હોય છે ? અથવા સ્થિત भ० २४ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती परिणामो वा भवेत् अवस्थितपरिणामो वा भवेदिति पृच्छा-मश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ।' हे गौतम ! ' बमाणपरिणामे होजाणो हीयमाण. परिणामे होजा-अविट्ठयपरिणामे वा होजा' बर्द्धमानपरिणामो भवेत निर्ग्रन्थो नो हीयमानपरिणामो भवेत् परिणामहानौ कषायकुशीळव्यपदेशात् अवस्थितपरिणामो पा भवेदिति । 'एवं सिणाए वि एवं निर्ग्रन्थवदेव स्नातकोऽ पे वर्द्धमानपरिणामो भवेत् नतु हीयमानपरिणामो भवेत् अवस्थितपरिणामो वा भवेत् स्नातकस्य परिणामहानिकारणाभावादिति भावः। परिणामाधिकारादेव तस्य स्थितिकाल सूत्र माह-'पुलाए णं भंते' इत्यादि, 'पुलाए णं भंते ! केवइयं कालं पड्माणपरिणाम होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! कियत्कालपर्यन्तं बद्धमानपरिणामो भवेदिति अथवा अबस्थिन परिणामवाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोषमा ! बडूयाणपरिणामे होज्जा णो हीयमाणपरिणामे होज्जा, अवष्टियपरिणामे सोज्जा' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ वर्द्धमानपरिणाम वाला भी होता है और अवस्थित परिणामवाला भी होता है। पर वह हीयमान परिणामों वाला नहीं होता है । यह हीयमान परिणाम वाला इसलिये नहीं होता है कि इस स्थिति में वह निन्य नहीं कहला सकेगा -किन्तु कषायकुशील ही कहलायेगा एवं सिणाए वि' निर्ग्रन्थ के जैसे स्नातक भी बर्द्धमान परिणामवाला होता है और अवस्थित परिणामवाला भी होता है। पर वह हीयमान परिणामवाला इसलिये नहीं होता है कि उसके परिणामों में हीनता लाने वाले कारणों का अभाव हो चुका है, ___'पुलाए ण भंते ! केवइयं कालं बड़माणपरिणामें होज्जा' हे भदन्न ! पुलाफ कितने काल तक बर्द्धमान परिणामोंबाला रहता है ? इसके परियाभवाणा हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री 8 छ -'गोयमा! षड्ढमाणपरिमाणे होज्जा णो हीयमाणपरिणामे होज्जा पवाट्रियपरिणामे होज्जा' હે ગૌતમ! નિન્ય વર્ધમાન પરિણામવાળા હોય છે તથા અવસ્થિત પરિ ણામવાળા પણ હોય છે. પરંતુ તે હીયમાન પરિણામવાળા હોતા નથી, તે હીયમાન પરિણામવાળા એ કારણે હોતા નથી, કે–આ સ્થિતિમાં તે નિથ ४ावी शता नथी एवं विणाए वि' नियन्थनी म स्नात: पy વર્ધમાન પરિણામવાળા હોય છે. અને અવસ્થિત પરિણામવાળા પણ હોય છે. પરંતુ ને હીયમાન પરિણામવાળા એ કારણે નથી કે–તેઓના પરિણામમાં હીનપણુ લાવવાવાળા કારણેને અભાવ થઈ ચુક્યો હોય છે. 'पुलाए णं भंते ! केवइय कालं वड्ढमाणपरिमाणे होज्जा' मापन jel: કેટલા કાળ સુધી વર્ધમાન પરિણામેવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ सू०१० विंशतितम परिमाणहारम् प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं अंतोमुहुत्त' जघन्येन एकं समयं दद्धमानपरिणामो भवेत् पुलाक: उत्कर्पण अन् मुहूर्त मिति भावः । 'केवयं कालं हीयमाणपरिगामे होज्जा' पुलाका कियत्कालपर्यन्तं हीयमानपरिणामो भवेदिवि प्रश्नः । भगानाह'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं एक समयं' जघन्येन एकं समयम् पुलाको वर्द्धमानपरिणामकाले कपायविशेषे बाधिते परिणामे तस्यैकादिकं समयमनुभवतीत्यतः कथितं जघन्येन एकं समय मिति । 'उक्कसेणं अंतोमुहुत्त' उत्कर्षणान्तर्मुहर्तम् एतत् स्वभावत्वात् बर्द्धमानपरिणामस्येति । 'केवइयं कालं उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतो. मुहत्तं' हे गौतम ! पुलाक बई लान परिणामवाला कम से कम एक समय तक रहता है और अधिक से अधिक एक अन्तमुहूत्तं तक रहता है । 'केवड्यं कालं हीघमाणपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक कितने काल तक हीयमान परिणामों वाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! जहन्नेणं एक्कं लमयं उक्कोलेणं अंतोमुहत्तं' हे गौतम ! पुलाक हीयमान परिणामों याला कम से कम एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । पुलाक को जो एक समय तक जघन्य सेवधमान परिणामांबाला कहा है उसका कारण ऐसा है कि पुलाक के परिणाम जन वृद्धि की ओर होते हैं तब उस काल में कषाय विशेष से उसके परिणाम बाधित होने पर वह वमान परिणाम का अनुभव एकादि समय तक ही करता है, इसलिए जघन्य से ४ छ है-'गोयमा । जहण्णेणं एक समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तम्' गौतम! પુલાક વર્ધમાન પરિણામવાળા ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી રહે છે. भने धारेभा पधारे से मतभुत सुधी २७ छे. 'केवइय काल' हीयमाणपरिणामे होज्जा' है मन पुरा ४५ सुधीहीयमान परियामा qा डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ ?-'गोयमा। जहन्नेणं एक्कं समय उक्कोसेणं अंतोमुहत्त' हे गौतम ! युर हीयमान परियामा. વાળા છામાં ઓછા એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂર્ત સુધી રહે છે પુલાકને જઘન્યથી એક સમય સુધી વર્ધમાન પરિણામે વાળા જે કહ્યા છે, તેનું કારણ એવું છે કે-મુલાકને પરિણામે જ્યારે વધવામાં હોય છે, ત્યારે તે કાળમાં કષાય વિશેષથી તેના પરિણામે બાધિત થવાથી તે વર્ધમાન પરિણામોનો અનુભવ એક વિગેરે સમય સુધી કરે છે. તેથી જ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भगवतीस्त्र अव दिगपरिणाम होगा पुलाका क्रियत्कालपर्य तमस्थितपरिणामो भवेद स्थिरपरिणाम: फियत्कलपर्यन्तं भवेदिति प्रमः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एवं जयं उपो सेणं सनसमया' जयन्येन एक समरसुत्कर्पण सप्त समयाः सप्तलममयतायि परिणापो भवेत् पुलाक इति । 'एवं जाव कसायकुतीले' एवं शाररूपा कुशीलः पुनायो र यकु प्रतिसेवनाकुशील. कायकुशीलानां त्रयाणामपि जघन्येने समयम् उन्लापनोऽन्नमुंहत वर्द्धमानहोगमानपरिणामस्वम् अवस्थितपरिणामत्वं तु जबन्धन एकमेव ममयम् उत्कर्षण एक लमय यहा सा गया है । और उत्कृष्ट ले परिणामों में वर्धमानता अन्तर्मुहर्त लग जातु स्वभाव ऐसा ही होने के कारण रहती है। बाद में यह नियम से अन्य परिणामवाला हो जाता है । 'केवयं कालं अवहिषपरिणामे होना' हे भदन्न पुलास फिगने काल तक अव. स्थितपरिणामबाला रहता है ? उत्तर में अनुश्री करते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं लमयं उचकोसेणं लत्त लखया' हे गौतम ! पुलाक - जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट ले सात समपतक अवस्थित परिणामों वाला होता है । 'एवं जाच असाथकुसीले वि' इसी प्रकार से पकुश प्रतिसेवनाकुशील और कपाशील ये साधु रन भी कम से कम एक लमयनक और अधिक से अधिक एक महतं तक पई मान परिणामोचाले और पीयमान परिणामोचाले होते हैं तथा ये जघन्य से एक समयलक और उत्कृष्ट से सातसयतम अवस्थित થી એક સમયે ત્યાં કહ્યો છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પરિણામમાં વર્ધમાન પશુ એક અન્તર્મુહૂર્ત સુની વરતુ-વભાવ એ જ દેવાને કારણે રહે છે, તે પછી नियमथी १ भान परियामा ६४ लय है, 'देवइय' काल अवद्विय - परिणाम होजा' 3 साप पुसा ४८सा सुधी अवस्थित परिणामवाणा २७ छ ? 241 प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छे है-'गोग्रमा ! जहन्नेणं एक्क. समय उक्कोसेणं सत्त समया' 8 गौतम ! घुसा ४५-यथा को समय सुधी અવસ્થિત પરિણામોવાળા હોય અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત સમય સુધી અવસ્થિત परिणाम हाय छे. छे. 'एवं जाव कसायसीले वि' मेरी प्रभाग બકુશ, પ્રતિસેવન કુશીલ અને કષાયકુશલ આ સાધુજને પણ ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે એક અતહ સુધી વધે. માન પરિણામવાળા અને હીયમાન પરિણામે વાળા હોય છે. તથા આ જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત સમય સુધી અવસ્થિત પરિણામ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् १८९ सप्तसमयान् यावद् भवतीति भावः न पुनः पुलाकरय पुलाकत्ये मरणाभावाद पुलाकस्य हि मरणकाले कपायकुशीलत्वादिना परिणामादिति । यच पाक जुलाकस्य काळगमनं तद् भूतभावापेक्षयाऽवगन्तव्यमिति । 'णियंठे णं भो ! केवइयं कालं वडमाणपरिणामे होजा' निन्थः खलु भदन्त ! कियत्कालपर्यन्तं चर्द्धमानपरिणामो भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे ' गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त' जघन्येन अन्त. मुहूर्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूत्तमेव, निम्रन्थोहि जघन्योत्कर्षाभ्यामन्तर्मुहूर्त मात्रं बर्द्धमानपरिणामो भवति केवलज्ञानोत्पत्तौ परिणामान्तराभावादिति । 'केव--- परिणामवाले होते हैं। बकुश आदि में एक लमय वर्धमान परिणामता मरण से भी घटित हो सकती है। परंतु पुलाम में मरण से - एक समय वर्धमान परिणामता नहीं घटित होती है। क्योंकि पुलाक अवस्था में भरण नहीं होता है मरण के समय पुलाक - का परिणमन कषायकुशील आदि रूप से हो जाता है । जो पहिले पुलाक का मरण कहा गया है वह भूतभाव की अपेक्षा से कहा गया है। 'णियंठे णं भंते केवइथं झालं हमाणपरिणाले होज्जा' हे भदन्त ! निम्रन्थ कितने काल तक बईमान परिणामों वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधला ! जहन्मेणं अंगोमुत्तं उकोण वि अंतो. मुहत्त' हे गौतम । निन्य जघन्य से भी एक अन्त मुहूर्त तक वर्धमान परिणामों वाला होता है और उत्कृष्ट से भी एक अन्तर्मुहूर्त तक वर्धमान परिणामों वाला होता है। क्यों कि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने.. વાળા હોય છે બકુશ વિગેરેમાં એક સમય વર્ધમાન પરિણામ પણ મરણથી પણ ઘટિ શકે છે. પરંતુ પુલાઇમાં મરથી એક સમય વર્ધમાન પરિણામપણું ઘટતું નથી. મરણ સમયે પુલાકનું પરિશ્નમન કપાય કુશીલ વિગેરે રૂપથી થઈ જાય છે. પહેલાં જે પુલાકનું મરણ કહ્યું છે, તે ભૂતકાળની અપેક્ષાથી 33छ. णियठे णं भवे ! केवइय काल वड्ढमाणपरिणामे होजा' 3 मापन નિગ્રંથ કેટલા કાળ સુધી વર્ધમાન પરિણામે વાળા હેય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभा प्रसुश्री गौतमस्वामीने छ -'गोयमा । जहन्नेणं अतोमुहत्तं उको.-. सेणं वि अंतोमुहत्त उ गीतमा निन्थ ४३न्यथी ५ को महत सुधी વર્ધમાન પરિણામોવાળા હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એક અંતર્મુહૂર્વ સુધી વર્ધમાન પરિણામેવાળા હોય છે, કેમકે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થયા પછી मlan परिणामान असलाव 5 Mय है. 'केवइयं काल' अवटियपरिणामे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भगवती सूत्रे यं कालं वपरिणामे होज्जा' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कियटकालपर्यन्त मवस्थितपरिणामो भवेत् भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 1 'जहन्नेणं एकं समयं उक्को सेणं अंतोमुहुत्तं' जयन्येन एक समयमुन्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्तम् अवस्थित परिणामः पुन निर्मन्थस्य जघन्येन एकं समयं मरणसमये संभवादिति । 'सिणाए णं संते ! केवइयं कालं बडूमाणपरिणामे होज्जा' स्नातकः खलु मदन्त । कियन्तं कालं वर्द्ध मानपरिणामो भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! ' जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेण वि अंगोमुत्तं' जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तमेव स्नातकोहि जय न्योत्कृष्ट । भ्यामन्तर्मुहूर्तमात्रमेव वर्द्ध मानपरिणामो भवेत् शैलेश्ववस्थायां वर्द्धमानपरिणामस्य अन्तर्मुहूर्त पर परिणामान्तरों का सद्भाव हो जाता है । 'केव कालं अवट्ठिय परिणामे होज्जा' हे भक्त ! निन्य कितने काल तक अवस्थित परिणामों वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोयमा ! जहन्नेणं एवकं समयं उक्को सेणं अनोमुत्तं' हे गौतम! निर्ग्रन्थ कम से कम एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक स्थिरपरिणामों चाला रहता है । निर्ग्रन्थ का जघन्य एक समय सरण समय की अपेक्षा से होता है । 'सिणाए णं अंते ! केवइयं कालं वडूमाणपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! स्नातक कितने काल तक वर्धमान परिणामों वाला रहता हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! जहन्नेणं अनोमुत्तं उक्कोसेण वि अंतोन्तं' हे गीत ! स्नातक जवन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट से भी एक अन्तर्मुहूर्त्त तक वर्द्धमान परिणामवाला रहता है । क्यों कि शैलेशी अवस्था में उनके वर्धमान परिणाम एक अन्तर्मुहूर्त्त होज्जा' हे लगवन् निर्भन्ध डेटला आज सुधी अवस्थित परिणामे वाजा होय छे १ मा अश्नना उत्तरमा प्रभुश्री - 'गोयमा ! जहन्नेणं एक्क' समय छक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' हे गौतम! निर्थन्थ छाम छामे समय सुधी અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અ'તર્મુહૂત' સુધી સ્થિર પરિણામેાવાળા હાય છે નિ न्धने धन्य मे समय भरगु समयसां होय छे. 'सिणाए णं भंते! केवइयां काल वड्ढमाणपरिणामे होज्जा' हे भगवन् स्नात उटसा भज सुधी वर्धमान परिणामो वाजा रहे हे १ मा प्रश्न उत्तरमा अनुश्री छे - 'गोयमा ! जहणेणं अतोमुहुत्त उक्कोसेणं वि अतोमुद्दत्त' हे गौतम! स्नात नथन्यथी એક અંતર્મુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એક અન્તર્મુહૂત સુધી વધમાન પરિણામવાળા હાઈ શકે છે. કેમકે-શૈલેશી અવસ્થામાં તેને વધુ માન પરિ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१० विंशतितम परिमाणहारम् १९१ मात्रप्रमाणत्वादिति । 'केवयं कालं अवष्टियपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! स्नातकः कियत्कालपर्यन्तमवस्थितपरिणामो भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं' जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् स्नातकस्यावस्थितपरिणामकालोऽपि जघन्यतोऽमर्मुहूर्त्तमात्रं भवतीति यत् कथितं तत् केवलज्ञानोत्पादानन्तरम् अन्तर्मुहूतपर्यन्तमास्थितपरिणामो भूत्वा शैलेशीमव. स्थां यः प्रतिपद्यते तदपेक्षयेति । 'उक्क सेणं देसगा पुत्रकोडी' उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः देशोन पूर्वकोटिः देशोन पूर्वकोटीपर्यन्तं स्नातकोऽवस्थितपरिणामो भवेत् उत्कर्ष तस्तस्य किञ्चिन्यूनः पूर्वकोटिवर्ष कालो भवति यतः पूर्वकोटया. युष्कस्य पुरुषस्य जन्मतो जघन्येन नवसु वसु अनिक्रान्तेषु केवलज्ञानमुत्पद्येत तक रहते हैं। 'केवयं झालं अवद्वियपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! स्नातक कितने काल तक अवस्थित परिणामों वाला रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं अंगोमुत्तं उक्कोलेणं देसूणा पुत्रकोडी' हे गौतम ! स्नातक जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से कुछ कम-नौ वर्ष कम-एक पूर्व कोटि तक अवस्थित परिणाम वाला होता है । यहां जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल जघन्य से अवस्थित पविणाम होने का कहा गया है वह उसकी अपेक्षा से कहा गया है जो केवलज्ञान की उत्पत्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित परिणामवाला रहकर शैलेशी अवस्था को धारण कर लेना है । उत्कृष्ट अवस्थितपरिणाम देशोन पूर्वकोटिका होता है, क्योकि एक पूर्वकोटि की आयुवाले पुरुषको जघन्य से जब जन्म के ९ वर्ष व्यतीत हो जाते है तव केवलज्ञान उत्पन्न होता है । तब वह जन्म के ९ वर्ष कम एक शाम मे अन्तत सुधी २९ छे. 'केवइयकाल अवट्रियपरिणामे होजा' હે ભગવન સ્નાતક કેટલા કાળ સુધી અવસ્થિત પરિણામે વ ળા રહે છે ? मा प्रश्न उत्तरभां प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा! जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेनां देसूगा पुव्वकोडी' 3 भगवन् स्नात: न्यथा मे अन्तभुइत सुकी અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછા-નવ વર્ષ કમ-એક પૂર્વ કેટી સુધી અવસ્થિત પરિણામવાળા હોય છે, અહિયાં અંતમુહૂર્ત પ્રમાણ કાળ જઘન્યથી અવસ્થિત પરિણામવાળા હોવાનું જે કહ્યું છે, તે તેની અપેક્ષાથી કહેલ છે જે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ પછી અંતર્મુહૂર્ત સુધી અવરિત પરિણામવાળા રહીને શૈલેશી અવસ્થાને ધારણ કરી લે છે, કેમકે એક પૂર્વકેટિની આયુષ્યવાળા પુરૂષને જઘન્યથી જ્યારે જન્મથી ૯ નવ વર્ષ વીતી જાય છે, ત્યારે કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે તે જન્મના ૯ નવ વર્ષ કમ એક પૂરિ સુરી અવસ્થિત Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे उत्तः स नववर्ष न्यूनपूर्वकोटिव पर्यन्तमवस्थितपरिणामो भवतीति देशोना- पूर्वकोटीति कथितम् ॥२०॥ ___अथकविंशतितमं पन्धद्वारमार-'पुलाए णं भो! कह कम्मरगडीयो बंधई' · पुलाका खल्ल भदन्त ! कतिकर्म प्रकृतीनानि कतिकर्मपतीनां बन्धः पुलाकस्य भवतीति मनः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'आउबज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ बंधइ' आयुर्वजिताः सशकर्म प्रकृतीवघ्नाति पुलाफा, पुकाकस्यायुर्वन्धो नास्ति आयुर्वधयोग्याध्यवसायानानां तस्यामावादिति । . 'वउसे पुन्छा' बकुशः खलु भदन्त ! कति कर्म पकृती बनानीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयया' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'मत्तविहबंधप वा सप्तविध: पूर्वकोटि तक अबस्थिन परिणाम बाला होकर फिः शलेगी अवस्था में विचरता है। उन्श लेशी अवस्था के पहले तक वह अवस्थित परिणाम बाला रहना है। और शैलेशी अबल्या में बर्द्धमान परिणामवालो होता है इसी लिये उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटी ऐसा कहा है ॥२०॥ २१ वा बन्धन हार का कथन 'पुलाए णं भंते ! कह कम्मपगडीओ बंधह' हे अदन्त ! पुलाक कितनी धर्मप्रकृतियों का बन्ध करता हैं ? अर्थात् पुलाक के सिननी कर्म प्रकृतियों का पन्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! आनुवज्जाओ सतबामपगडीओ बंधा' हे गौतम! तुलाक आयुश्म को छोड़कर सान बर्मस्कृतियों का वार करता है । क्यों कि पुलाक के आयु वा बन्द नहीं होता हैं। कारण कि उन्लले आयु बन्ध के योग्य अध्यदलायस्थालों का अभाव रहता है। उसे पुच्छा' हे भदन्त ! बकुश किानी कर्मस्कृतियों का वध करता है ? उत्तर में प्रभुश्री પરિણામવાળા થઈને લેશી અવરથામાં વિચરે છે. અને તે શેલેશી અવસ્થાની પહેલા સુધી અવસ્થિત પરિણામવાળા રહે છે અને શેલેશી અવસ્થામાં વર્ધમાન પરિણામવાળા થાય છે તેથી ઉત્કૃષ્ટ કાળ દેશના પૂર્વકાટિ કહ્યો છે ૨૦ હવે બંધદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે 'पुलाए णं भवे ! कइ कम्मपगडीओ वधई' है भगवन् हामी કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે? અર્થાત પુલાકને કેટલી કર્મ પ્રકૃતિને બંધ डाय छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४१ छ -'गोयमा ! आउचज्जाओ सत्त कम्मपगड़ीओ बंधई' है गौतम! पुस मायुमिन छोडीने सात में પ્રકૃતિને બંધ કરે છે, કેમકે-મુલાકને આયુનો બંધ હેત નથી. કારણ કેતેઓને આયુબન્ધ થવાને અધ્યવસાય સ્થાનનો અભાવ રહે છે. 'बउसेणं पुच्छा' 3 भगवन् मश टी ४ प्रतियोन। म ४३ छे ? Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०२५ उ.६४०१० विंशतितम परिभाणद्वारम् कर्मप्रकृतीनां वंधको वा भवति वकुशः, 'अहवहवधर वा' अष्टविध कर्मप्रकृतीनां बन्धको वा भवति । 'सतर्ववमाणे आउ जाओ सत्तकम्मपगडीओ वंबई'- सप्तः कर्मप्रकृतीवघ्नन् आयुष्कवर्जिताः सप्तकर्मपकृती बध्नाति वकुशः, 'अट्ठ बंधमाणे पडिपुन्नाओ अट्ट कम्मपगडीओ बंबइ' अष्टकर्मप्रकृती बघ्नन् परिपूर्गाः सर्वा अष्ट कर्मप्रकृतीबध्नाति बकुशः, त्रिभागावशेषायुषो हि जीवा आयुषो वन्धनं कुर्वन्तीति त्रिभागद्वये आयुषो बन्धनं कुर्वन्तीति कृत्वा बकुशः सप्तानामष्टानां वा फर्मणां बन्धको भवतीति । 'एवं पडि सेवण कुसीलेवि' एवम्-बकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीकोऽपि सशानामष्टानां वा कर्मप्रकृतीनां बन्धको भवतीति । 'कसायकुपीले. कहते हैं-'गोयमा ! सत्तविहवं भए वा अविस्य त्रए चा' हे गौतम ! वकुश के सात प्रकृतियों का अथवा आठ कर्मप्रकृतियों का पन्ध होता है। 'सत्त बंधमाणे आउथवज्जाओ सत्तारूमपगडीओ बंधई जब उसके सात कर्मप्रकृतियों का धन्ध होता है, तब वह आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मप्रकृत्तियों का धन्य करता है । 'अद्वयं बमाणे पडि पुनाओ अटकसत्रपगडीओ बंधह' और जब उसके आठकर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है-तब मह लम्पूर्ण आठ जर्म प्रकृतियों का धन्ध करता है । जीवों को अगले सबकी आयु का बन्ध वर्तमानकाल आयु के विभाग में होता है। यदि विभाग में आयु का बन्ध न हो तो अव: शिष्ट तृतीय भाग में जब दो भाग समाप्त हो जाते हैं तब आयु का बन्ध होता है विन्तु आदि के दो भागों में आयु का बन्ध नहीं होता है, इसी विचार को लेकर बचश यात अशा आठ कर्म प्रकृतियों का बन्धक कहा गया है । 'एवं एडिसेवणालीले वि' इसी प्रकार सा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ 3-'गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविह. बंधए वा' 8 गौतम ! महेशने सात प्रतिये न य मा तियाना मध हाय छे. 'सत्त वधमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बधई' જ્યારે તેને સાત કર્મ પ્રકૃતીયાને ન ધ થાય છે, ત્યારે તે આયુકમને છોડીને माडीमा सात मतिना ५५ ४२ छ 'अट्ठ बंधमाणे पडिपुन्नाओ अ सम्म पगडीओ बंधइ' भने न्यारे ते माह भ प्रतियाना ५५ थ य छ, त्यारे તે સંપૂર્ણ આઠ કર્મ પ્રકૃતિને બધ કરે છે જેને આયુનો બંધ ત્રણ ભાગોમાં હોય છે. જે ત્રણ ભાગમાં આયુને બંધ ન હોય તે બાકીના ત્રીજા ભાગના બે ભાગ જ્યારે સમાપ્ત થઈ જાય છે, ત્યારે આયુને બંધ થતું નથી. આજ વિચારને લઈને બકુશને સાત અથવા આઠ કમ પ્રકૃતિ भ० २५ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ भगवतीसूत्रे पुच्छा' कपायकुशीला खल भदन्त ! कति कर्मप्रकृती नातीति मनः । भगवानाद - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' है गौतम । 'सत्तविहबंध वा अनुविदधए वा ' सप्तविधकर्मकृतीनां वा बन्धको भवति अष्टविधप्रकृतीनां वा बन्धको भवति परविधकर्म प्रकृतीनां वा बन्धको भवति । 'सत्तवंत्रमाणे आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंध' सप्तकर्म प्रकृतीवैनन् आयुष्कवर्णाः सप्तकर्मप्रकृतीर्वघ्नाति 'agesमाणे पfeyeनाओ अकम्पगडीओ dus' अष्ट कर्ममकृतघ्नन् 'अनुबंधमाणे पडिपुन्नाओ बंध' परिपूर्णाः सर्वाः कर्मप्रकृतीचेध्नाति । 'छ बंधमाणे आउयमोहणिज्जवनाओ छ फम्यपगडीओ बधइ' पट्कर्म प्रकृतीन् आयुष्कमोहनीयवर्जिताः पट्कर्म प्रकृतीसे प्रतिसेवनाकुशील भी सान अथवा आठ कर्म प्रकृतियों का पन्धक होता है । 1 '' कसायकुसीले पुच्छा' हे भदन्त ! कषायकुशील साधु कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है ? उत्तर में प्रमुश्री कहते है- 'गोयमा ! सप्तविध वा अत्रिए वा छन्दबंध वा' हे गौतम | कषायकुशील साधु सात कर्मप्रकृतियों का आठ कर्मप्रकृतियों का अथवा छह कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है । 'सत्तधमाणे आवजाओ सप्तमपगडीओ बंध' यदि वह सात कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है तब तो वह आयुकर्म को छोड़कर शेष सातकर्म प्रकृतियों का वन्ध करता है और 'नाणे' जब वह आठ कर्म प्रकृतियों को यन्त्र करता है तब 'पडिपुन्नाओ अडकम्मपगडीओ वह वह सम्पूर्ण आठ ही कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है 'छवंधमाणे आउयमोहणिज्ज धरनारत छे, 'एवं पडिसेवणाकुसीले वि' ४ प्रभाषे प्रतिसेवना કુશીલ પણુ સાત અથવા આઠ કમ પ્રકૃતિચૈાના ખધક હાય છે. 'क सायकुसीले पुच्छा' हे भगवन् उषाय दुशीत सधु डेंटली से अ1⁄2तीथाना अंध ४२नार हाय छे ? 'गोयमा ! सत्तविहवंधर वा अट्ठविहबंध धा छव्विहबंधए वा' हे गौतम! उषा सुशील साधु सात अर्भ अधृतियोनो આઠ કમ પ્રકૃતિયાને અથવા છ કમ પ્રકૃતિયાને બંધ કરનાર હાય છે. 'सत्त बंधमाणे आउवज्जाओ सत्त कम्मपगड़ीओ वंधई' ले ते सात તિયાના બંધ કરનાર હોય છે, તે તે આયુક`ને છોડીને બાકીની સાત उर्भ अमृतियोो गंध रे छे भने 'अठ्ठ बंधमाणे' क्यारे ते या भु अद्भुतियाना घरे, त्यारे 'पडिपुन्नाओं अट्टकम्मपगडीओ बंधह' ते सभ्य आ इस अद्भुतियाना गंध नार हाय छे, 'छ बंधमाणे आय - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् १९५ बध्नाति कपार कुशीलोहि सूक्ष्मसंपरायकगुणस्थानके आयुपो बन्धनं न करोति तस्याऽप्रमत्तसप्तमगुणस्थानकपर्यन्तमेव आयुष्कस्य कर्मणो वन्धान तथा मोहनीय च वादरकपायोदयाभावादपि न वध्नाति अतो मोहनीयायुष्कर्मप्रकृतिवर्जितानामेव षर्मप्रकृतीनां बन्धको भवतीतिभावः। 'णियठे णं पुच्छा' निर्गन्धः खलु भदन्त ! कतिकर्मपकृतीबंधनातीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, गोयमा ! हे गौतम ! 'एग वेयणिज्ज कम्मं बंधई' एक वेदनीयमेव कर्म वध्नाति वन्धकारणेषु मध्ये योगमात्रस्यैव सद्भावेन अन्यकर्मणां बन्धाभावादिति भावः । वज्जओ छ कम्मपगडीओ बंधई तथा-जब वह ६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है-तब आयु और मोहनीय कर्म इन प्रकृतियों को छोड कर शेष ६ कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है । क्यों कि-कषायकुशील साधु सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में आयु का वन्ध नहीं करता है। क्यो कि सातवें गुणस्थान तक ही आयुकर्म का बन्ध होता है। तथा बादर कषाय के अभाव से यह मोहनीय कर्म का भी बन्ध नहीं करता है । इससे इसके ६ कर्म प्रकृतियों का ही आयु और मोहनीय कर्म को छोडकर बन्ध होता है । 'णियंठेणं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्गन्ध कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा! एणं वेणिज्नं कम्प्नं बंधइ' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ एक वेदनीय कर्म का ही बन्ध करता है। बन्ध के कारणों में एक योगमात्र का ही सद्भाव होने के कारण उसके अन्य कर्मों का बन्ध नहीं होता है। मोहणिज्जवजाओ छ कम्मपगडीओ बंधई' तथा न्यारे ते ७ ४ प्रकृतियाना બંધ કરે છે, ત્યારે આયુકર્મ અને મેહનીય કર્મ પ્રકૃતિને છોડીને બાકીની ૬ કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરનાર હોય છે કેમકે-કષાય કુશલ સાધુ સૂમ સાંપરાય ગુણ નમા આયુને બધ કરતા નથી કેમકે–સાતમાં ગુણરથાન સુધી જ આયુકમને બધ થ ય છે તથા બાદર કર્મના અભાવથી આ મેહનીય કર્મને પણ બ ધ કરતા નથી. તેથી તેઓને આયુ અને મેહનીય કર્મ प्रतियोन छोडीन ७ ४ प्रतियोन। ६ ५५ थाय छे. 'णियठेणं पुच्छा' હે ભગવન નિર્ચન્ય કેટલી કમ પ્રકૃતિને બે ધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્ત २मा प्रभुश्री छ -'गोंयमा ! एगं वेयणिज्ज कम्मं बंधई' गौतम ! નિન્ય એક વેદનીય કર્મને જ બધ કરે છે બંધના કારણેમાં એક ચોગ માત્રને જ સદૂભાવ હેવાને કારણે તેઓને અન્ય કર્મને બંધ હેત નથી, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसरे 'सिणाए पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! कतिकर्मप्रकृती नातीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगविबंधए वा अंबंधए वा एकविधकर्मणो बन्धको वा स्नातकः, अबन्धको वा, मनोयोगादिमान् स्नातका कर्मवन्धहेतोर्योगस्य मद्धावेन सातावेदनीयकर्ममात्र बध्नाति योगरहितस्नातकरतु कर्महेतोयोगस्याभावेन कर्मवन्ध को न भवतीति भावः इत्येकविंशतितमं बंधद्वारम् २१ । । द्वाविंशतितमवेदनद्वारे प्रश्नयनाह-'पुलाए णं' इत्यादि, 'पुलाए णं भंते ! कर 'कम्मपगडीओ वेदेई' पुलाकः खलु भदन्त ! कतिकर्मप्रकृतीर्वेदयति, विकर्मप्रकृतीनां लिणाए पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक के कितने कर्मों का बन्ध होता है ? उत्तर में प्रक्षुश्री कहते हैं-'गोचमा एगविहबंधए वा अबंधए वा' हे गौतम ! वह एक वामप्रकृतिका बन्ध करता है अथवा यन्ध नहीं भी करता है। जो स्नातक मनोयोगादि वाला होता है उसके कर्मयन्ध के हेतुभूत योग के लसाव से केवल एक लातावेदनीय कर्म का ही धन्ध होता है और जो स्नातक योग रहित होता है। वह कर्मयन्ध के हेतुभून योग के अभाव होने के कारण सातावेदनीय कर्म का भी बन्ध नहीं करता है । इसलिये उसे अबन्धक कहा गया है। ॥ पन्धद्वार समाप्त || वेदनहार का कथन 'पुलाए णं भंते! कह कम्पपगडीओ वेदेश' हे दन्त ! पुलाक कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन-अतुभव करता है। उत्तर में - सिणाए पुच्छा' 8 लगन स्नातन सा भनि५५ डाय छे ? 'मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा! एगविहबंधए वा अवधए ' હે ગીતમ! તે એક કર્મ પ્રકૃતિનો બંધ કરે છે. અથવા બંધ કરતા નથી. જે સ્નાતકે મ ગ વિગેરે ગોવાળા હોય છે, તેમને કર્મ બંધના કારણભૂત એગના સાવથી કેવળ એક સાતવેદનીય કર્મને જ બંધ હોય છે. અને જે રાતાક ગરહિત હોય છે, તે કર્મ બંધના હેતુભૂત યુગનો 'અભાવ હોવાથી સાતવેદનીય કર્મને પણ બંધ કરતા નથી. તેથી તેઓને અબંધક કહ્યા છે. એ રીતે આ બંધદ્વારનું કથન કરેલ છે. બંધદ્વાર સમાપ્ત. હવે વેદકારનું કથન કરવામાં આવે છે. ___ 'पुलाए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वेरे' 8 भगवन् पुसा टली में પ્રકૃતિનું વેદના અર્થાત્ અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैन्द्रिका टीका शं०२५ उ. ६ सू०१० विंशतितम' परिमाणद्वारम् ૨૨૭ 1 वेदनं करोतीति प्रश्नः, भगवानाद - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम! 'नियमं 'अनगडीओ वेदेह' नियमात् अष्टकमकृतीर्वेदयति नियमतोऽष्टानामपि कर्मणां - वेदनं करोति पुलाक इत्यर्थः 'एवं जात्र कसायकुसीले ' एवं यावत् कपायकुशील', यावत्पदेन बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोर्ग्रहणं भवति तथा च पुलाकत्रदेव वकुशप्रति'सेवनाकुशीलरुपायकुशीलाः सर्वेऽपि नियमतोऽष्टकर्मणां वेदनं कुर्वन्तीति । 'णियंठेगं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वेदयतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'मोहणिज्जरजाओ सत्तकम्मपगडीओ वेदे ' मोहनीयः सतकर्मकृतीर्वेदयति निर्ग्रन्थः, न वेदयति मोहनीयं कर्म निर्ग्रन्थः, मोहनीय कर्मणामुपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद्वेति भावः । 'सिणाए णं पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! कतिकर्मप्रकृतीर्वेदयतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नियमं अहकम्मपगडीओ वेदेह' हे गौतम ! वह नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है । ' एवं जाव'सायकुसीले ' इसी प्रकार से बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील ये साधुजन भी नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं । 'णियंदेणं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्ध | कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! मोहनीयवज्जाओ सत्तकमपणडोओ वेदेह' हे गौतम! मोहनीयकर्म को छोडकर वह साकर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। लोहनीय कर्म का जो वह वेदन नहीं करता है सो उसका कारण यह है कि उसके मोहयनीय कर्म अथवा तो उपशान्त हो चुका होता है अथवा क्षीण हो चुका होता है । " 'सिणार णं पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयना ! वेधणिज्ज आउय छे- 'गोयमा ! नियम अट्ठ कम्मरगडीओ वेदेइ' हे गौतम! ते नियमथी अतितुं वे रे . एवं जाव कस्रायकुसीले ' ४ प्रमाणे ખકુશ પ્રતિસેવનાકુશીલ, અને કષાયકુશીલ આ સાધુએ પણુ નિયમથી प्रतियोवेन रे 'नियंठेणं पुच्छा' हे भगवन् निर्थन्थ કેટલી કમ પ્રકૃતિયાનું વેદન કરે છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! मोहणीज्जवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ वेदेव' हे गौतम! भोडनीय કમને છેાડીને તે સાત કમ પ્રકૃતિયે તુ' વેદન કરે છે તે મેાહનીય ક`નુ વેદન કરતા નથી તેનું કારણુ એ છે કે તેઓને મેહનીય કમ કાંતા ઉપરાંત થઈ ચૂકયુ' હાય છે, અથવા ક્ષીણ થઇ ચૂકેલ છે 'सिणाएणं पुच्छा' हे भगवन् स्नातक डेंटली उभ प्रतियोनु वेहन Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ भगवतीमत्र 'गोयमा' हे गौतम ! 'वेयणिज्जआउय-नाम-गोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेई' वेदनीयायुष्कनामगोत्ररूपाः चतस्रः कसैप्रकृतीर्वेदयति, स्नातकस्य तु घातिकर्म चतुष्टयानां ज्ञानावरणीयादीनां क्षीणत्वात् तद्वेदनं न भवति किन्तु वेदनीयायुष्कनामगोत्रकर्मणामघातिनामेव वेदनं भवतीति। इति द्वाविंशतितम वेदनहारम् । अथ त्रयोविंशतितममुदीरणाद्वारमाह-'पुलाए णं भो' इत्यादि । 'पुलाए गं भंते ! कइ कम्पपगडीओ उदीरेइ' पुलाकः खलु भदन्त ! कति कर्मपकृतीरुदीरयति, इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'आउय. वेयणिज्जवज्जागो छ कम्मपगडीओ उदीरेई' आयुकवेदनीयवर्जाः पदकर्मप्रकृतीरुदीरयति, अयमाशयः पुलाक आयुर्वेदनीयकर्म पकृती नोंदीरयति तथाविधाध्यवनामगोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेह' हे गौनम ! स्नातक, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है । स्नातक के चार घातिया कों का ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन कों का सर्वथा अभाव हो जाता है इसलिये इनका वेदन उसके नहीं होता है। अघातियारूप वेदनीय आदि कर्मों का ही घेदन होता है । वेद द्वार समाप्त । उदीरणा द्वार का कथन 'पुलाए णं भंते ! कद कम्पगडीओ उदीरेइ' हे भदन्त ! पुलाक कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ! उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! आउयवेयणिज्जबज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेह' हे गौतम ! पुलाक आयु एवं वेदनीय कर्मस्कृतियों को छोडकर शेष ६ प्रकृतियों की उदीरणा करता है । तात्पर्य इसका ऐसा है कि पुलाक छ ? तना उत्तरभां प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! वेयणिज्ज आउय नामगोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेइ' है गौतम ! स्नात, हनीय, भायु, नाम, भने ત્ર આ ચાર કર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે. સ્નાતકને ચાર ઘાતિયા કર્મોનું એટલે કે-જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ કે હનીય અને અંતરાય આ કમેને સર્વથા અભાવ થઈ જાય છે. તેથી તેઓને તેનું વેદના હેતું નથી. અઘાતિયા રૂપ વેદનીય રૂપ વિગેરે, કર્મોનુ જ વેદના થાય છે. તેમ સમજવું. વેદનાદ્વાર સમાપ્ત. હવે ઉદીરણાદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भते ! कइ कम्मपगडीओ उदीरेइ' है मग धुमासी કમ પ્રકૃતિની ઉદીરણા કહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! आउयवेयणिज्जवज्जाओ छ कम्ममगडीओ उदीरेइ' गौतम ! yal આયુ અને વેદનીય કર્મ પ્રકૃતિ ને છેડીને બાકીની છ કર્મ પ્રકૃતિની Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् १९९ सायस्थानस्याभावात् किन्तु पूर्व तत्सकृतिद्वयमुदीर्य पुलाकतां प्राप्नोत्यत स्ते द्वे अत्र नो दीरयतीति, एवमुत्तरत्रापि यो याः कर्मप्रकृतीनोंदीरयति स ताः कर्मप्रकृती: पूर्वमुदीर्य वकुशादिरूपतां प्राप्नोतीत्येवं ज्ञातव्यम् 'वउसे पृच्छा' बकुंशः पृच्छा बकुशः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीरुदीरयतीति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तविहउदीरए वा अढविह उदीरए या' वा छबिडउदीरए वा' सप्तविधर्मपकनेरुदीरको वा अष्टविधर्मपकृतेरुदीरको वा षट्विधर्मप्रकृतेरुदीरको वा भवतीति । 'सत्तउदीरेमाणे आउयदज्जाश्री सत्तकम्मपगडीओ उदीरेइ' सप्तविधर्म पकृतीरुदीरयन् अयुष्मवर्जिताः सप्तकर्मआयु और वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं करता है क्यों कि उसके इस प्रकार के अध्यवसाय स्थान नहीं होते हैं। किन्तु वह पहिले उन दोनों की उदीरणा करके पुलाक अवस्था को प्राप्त करता है । इसलिये वह पुलाक यहां उन दो की उदीरणा नहीं करता है। इसी प्रकार आगे भी जिन २ प्रकृतियों की उदीरणा नहीं करता है उन २ फर्म प्रकृतियों को पहिले उदीरण कर पुलाक आदि अवस्था को प्राप्त करता है ऐसा समझना चाहिये। — 'यउसे पुच्छा' हे भदन्त ! यकुश कितनी कर्म प्रकृतियों की उदी रणा करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सत्तविह उदीरए वा अट्टविह उदीरए वा छव्विह उदीरए या' हे गौतम ! बकुश सान. कर्म प्रकृतियों की अथवा आठ कर्म प्रकृत्तियों की अथवा छहकर्म प्रकतियों की उदीरणा करता है । 'सत्त उदीरेमाणे आउयवनाओ सत्त. कम्मपगडीओ उदीरेह' जय वह सातकर्म प्रकृतियों का उदीरक होता ઉદીરણ કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-પુલાક આયુ અને વેદનીય કર્મની ઉદીરણા કરતા નથી. કેમકે-તેમને એ પ્રકારના અધ્યવસાય સ્થાને હોતા નથી. પરંતુ તે પહેલા એ બનેની ઉદીરણ કરીને પુલાક અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. તેથી તે પુલાક અહિયાં તે બેની ઉદીરણ કરતા નથી. એજ રીતે આગળ પણ જે જે પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરતા નથી. તે તે કમ પ્રકૃતિને પહેલા ઉદીરણા કરીને પુલાક વિગેરે અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ સમજવું જોઈએ. ' 'बउसे पुच्छा' 3 भगवन् ५४॥ ४ी में प्रकृतियाने ५५४२ छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री. ४३ छे -'गोयमा ! सत्तविह उदीरए वा अट्रविह उदीरए वा छव्विह उदीरण वा' 3 गौतम ! म सात ४म प्रतियानी અથવા આઠ કર્મ પ્રકૃતિની અથવા છ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણા કરે છે 'सत्त उदोरेमाणे आउयवज्जाओ खत्त कम्मपगड़ीओ उदीरेइ' या ते सात Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र २०० प्रकृतीरुदीरयति, 'अट्ठ उदीरमाणे पडिपुन्नाओ अढ कम्मपगडीओ उदीरेह' अष्ट. विधकर्मप्रकृतीरुदीरयन् परिपूर्णा अप्टकर्मवृत्तीमदीग्यनि 'छ उदीरेमाणे आउवेयणिज्जबज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरे' पदकर्मप्रकृतीन्दीरयन, आयुष्कवेद नीयकर्मप्रकृतिर्वजिताः पढे कर्यपकृतीरुदीरयति । 'पडि से चयापीले एवं चेत्र' प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि एबमे-बक्कुशादेव प्रतिसेवनाकुगीलोऽपि, सप्तानामष्टानां पण्णां वा कर्मणामुदीरको भवति तत्र सप्त कर्म उदीरयन आयुटकवजिताः सप्तकर्मप्रकृतीरुदीरयति अष्टउदीरयन् परिपूर्गा अष्टकर्मप्रकृतीग्दीरयति पइविध है-तय आयु कर्म को छोडकर अवशिष्ट सानकर्म प्रकृनियों की उदी. रणा करता है । 'अट्ट उदीरेमाणे पडिपुन्नाओ अमम्प्रपगडीओ उदी. रेह' जथ वह आठक्षम प्रकृतियों का उदीरक होना है तब वह सम्पूर्ण ज्ञानावरणादिक आठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करना है। 'छ उदीरेमाणे आउयवेयणिजबजाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेह' और जब वह छह कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है-तब वह आयु और वेदनीयकर्म प्रकृतियों को छोड कर पाकी की छह कर्म प्रकृनियों की उदीरणा करता है। 'पडिसेवणाकुमीले एवं चेय' प्रनिलेवनागील भी एकुश की तरह सात आठ अथवा छर, फर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है । लान कर्मवकृतियों का उदीरक होने पर घर आयुकर्म को छोडकर अवशिष्ट ज्ञानाचरण, दर्शनावरण, वेदनी, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन कर्मप्रकृतियों का उदीरकोना है। आठ कर्म प्रकृतियों का जन्न यह उदीक होना है। तप यात पूरी आठ की आठ કર્મ પ્રકૃતિને ઉકીરક-ઉદીરણા કરવાવાળ હોય છે, ત્યારે તે આયુકર્મને छोडीन, मीनी सात ४ प्रतियानी ४२ छे. 'अतु उदीरेमाणे पडि पुन्नाभो अट्ट कम्मपगडीओ उदीरेइ' क्यारे ते माह भ प्रतियानी ! કરે છે, ત્યારે તે સંપૂર્ણ જ્ઞાનાદિ આઠ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે. ' उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेई' भने न्यारे ते છ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે તે આયુ અને વેદનીય કર્મ प्रतियान छोडीने पाठीनी छ भ प्रतियानी जीरा ४२ छे. 'पडिसेवणा कुसीले वि एव चेव' प्रतिसेवना मुशीत पY मधुशना ४थन प्रमाणे सात, આઠ અથવા છ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે. જ્યારે તે સાત કમ પ્રકતિની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે તે આયુકર્મને છોડીને બાકીની જ્ઞાનાવરણુ, દર્શનાવરણ, વેદનીય, મેહનીય, નામ, ગોત્ર, અને અંતરાય આ સાત કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે. અને જ્યારે તે આઠ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણા Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१० विशतितम परिमाणद्वारम् कर्ममकृतीरुदीरयन् ग्रुष्कवेदनीयवर्जिताः षट् मप्रकृतीरुदीरयतीति भावः । 'कसायकुसीले पुच्छा' कपायकुशीला खच भदन्त ! कति कर्मम तीरुदीरयतीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तविह उदीरए वा-अद्वविह उदीरए वा छवह उतीरए वा पंवविह उदीरए वा सप्तविंध कर्मप्रकृतेरुदीरको बा अष्टविधकर्षकृतेरुदीरको वा विधर्मपकृतेरुहीरको वा पञ्चविधर्मपकनेरीरको या भवति, तर 'सत उदौरेमाणे आउयबाजाओ सत्त: कम्मपगडीओ उदीरेई' सप्तकर्मप्रकृतीरुदीरयन् कपायकुशील आयुष्कवजिता सप्तकर्मपकृतीरुदीरयति, 'अट्ट उदीरेमाणे पडिपुनायो अट्ठ कम्मपगडीओ उदीरेइ कर्म प्रकृतियो का उदीरक होता है। और जब यह छह कर्मवकृतियों का उदीरक होता है तब यह आयु और वेदनीय कर्म प्रकृतियों को छोड़कर शेष ज्ञानावरण, दीनावरण मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन ६ कर्मस्कृतियों का उदीरक होता है । 'कलाय कुसीले पुच्छा हे भदन्त ! कषायकु शील कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करना है. ? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोत्रमा ! सत्तविह उतारिए वा, अटुंविह उदीरए वा, छरिवह उदीरए वा, पंचविह उदीरए वा' हे गौतम, कषायकुशील सात प्रकार की कर्म प्रकृतियों का आठ प्रकार की कर्म कर्मप्रकृतियों का छह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का अथवा पांच प्रकार की कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है। 'मत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्स फम्रपगडीओ उदेरेह' जय ग्रह सात कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है तब यह आयुशन को छोड कर सातकर्म प्रकृतियों કરે છે, ત્યારે તે પૂરેપૂરી એ છે કે પ્રકૃતિની ઉદીરણા કરે છે અને જ્યાંછ કમ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે, ત્યારે તે આયુ અને વેદનીય भी प्रतियोन छोडीन डीनी जनाव२६, शनाप२१, मोसनीय, नाम, गोत्र, भने त२.५ ॥ छ 3 प्रतियनी ही ४२ थे. 'सायकुसीले पच्छाइ मापन षाय शुशी मी प्रतियानी २९। ४२.. मा प्रश्न 6त्त२५i सुश्री ४९ छे है-'गोयमा ! मतविइ उदीरए वा ठविह उदीरए वा, छवित उदीरए वा, पंचविह उदीर वा' गौतम ! षाय शीत સાત પ્રકારની કમ પ્રકૃતિની ઉદી ણા કરે છે કે આઠ પ્રકારની કર્મ પ્રક તિની ઉદીરણ કરે છે, અથવા છ પ્રકારની કર્મ પ્રકૃતિની કે પાંચ ४२नी ४ प्रतियानी SER! ४२ छे. 'सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओं सत्त कम्मपगडीओ उदीरेइ' क्यारे ते सात प्रतियनी Gl२९! १३ छ, ત્યારે તે આયુકર્મને છોડીને સાત કમ પ્રકૃતિની ઉદીરણા કરે છે भ० २६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती Modearer परिपूर्णा अष्टकर्मप्रकृतीरुदीरयति, 'छ उदीरेमाणे आउयचेयणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरे' पट्कर्मप्रकृतीरुदीरयन् आयुष्कवेदमीयवर्णाः पट्टकर्मप्रकृतीरुदीरयति, पंच उदीरेमाणे आउयवे यणिज्जमोह णिज्ज - जाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेड' पञ्चकर्म प्रकृती रुदीरयन आयुष्कवेदनीयमोडनीयवर्जिताः पञ्चकर्मपकृतीरुदीरयतीति भावः । 'णियंटे णं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! [कवि कर्मप्रकृती रुदीरयतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पंचविह उदीरए वा दुब्बिह उदीदए वा पञ्चविधकी उदीरणा करता है 'अट्ठ उदरेमाणे पडिपुन्नाओ अड्ड कम्मपगडीओ उंदीरेह' जब वह आठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है तो ज्ञाना थरणादिक आठ की आठ पूरी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है 'छउदीरेमाणे आउयवेयणिजयज्जाओ छ कम्मपगडीओ उदीरेह' जब यह छ प्रकृतियों की उदीरणा करता है तो आयु और वेदनीय कर्म प्रकृतियों को छोडकर छह कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है और जब यह पंचउदीरेमाणे आउयवेयणिज्ज मोहणिज्जबज्जाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेह' पांच कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है तब यह आयुष्क वेदनीय और मोहनीय कर्मप्रकृतियों को छोड़कर बाकी की पांच कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है । · २०२ 'णियं णं पुच्छा' हे भदन्त ! निन्य कितनी कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोयमा ! पंचउदीरेमाणे पडिपुन्नाओं अट्ठ कम्मपगडीओ उदीरेइ' क्यारे ते माह अड्ड તિચેની ઉદીરણા કરે છે, તેા જ્ઞાનાવરશીય વિગેરે આઠે અ હૈં કર્યાં પ્રકૃતિચેાની हीरा रे छे. 'छ उदीरेमाणे आरयवेयणिजत्रजाओ छ कम्मपगडीओ उदीरे - જ્યારે તે છ કમ પ્રકૃતિચેાની ઉદીરણા કરે છે; ત્યારે તે આયુ અને વેદનીય એ એક પ્રકૃતિયાને છેડીને છ કમ કૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. અને क्यारे ते 'पंच उदीरेमाणे आउयवेय णिज्जमोह णिज्जवज्जाओ पंच कम्मपगडोओ उंदीरेइ' यांथ अभ्र अमृतियानी हीरा ४रे छे, त्यारे ते आयुष्य, वेहनीय અને મેાહનીય એ ત્રણ ક્રમ' પ્રકૃતિયાને છેાડીને બાકીની પાંચ કમાઁ પ્રકૃતિચાની ઉંદીરણા કરે છે, - 'जियठे णं पुच्छा' हे भगवन् निर्थन्य टसी उर्भ श्रधृतियोगी मंडी या ४२ छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री हे छे - गोयमा ! पंचविह उदीरए वा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ म्मू०१० विंशतितम परिमाणद्वारम् २०३ कर्ममकतेरुदीरको चा द्विविधमप्रकृनेरुदीरको वा भवति निग्रन्थः । 'पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जमोहणिज्जवज्जाओ पंचकम्मपगडी भो उदीरेइ पञ्चकर्मप्रकृतीरुदी रयन् आयुष्कवेदनीयवर्जिताः पञ्चकर्मपकृतीरुदीरयति । 'सिणाए णं पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! पृच्छा हे भदन्त ! स्नातका कति कर्ममकतीरुदीरयतीति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुबिह उदीरए वा अणुदीरए वा द्विविधकर्मण उदीरको वा भवति स्नातकः अनुदीरको वा भवति स्नातकः, 'दो उदीरेमाणे णाम च गोयं च उदीरेइ' द्वे कर्मप्रकृतीउदीरयन् नाम च गोत्रं च उदीरयति । विह उदीरए वा दुम्विह उदीरए का' हे गौतम ! निन्ध पांच अथवा दो कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है । 'पंच उदीरेमाणे आउयवेय. णिज्ज मोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्मपगडीओ उदीरेह' जब यह पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है तब यह आयु. वेदनीय, मोहनीय इन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। और जय यह 'दो उदीरेमाणे णामं गोयं च उदीरेइ' दो कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है तब यह नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा करता है। ___'सिणाए णं पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक कितनी कर्म प्रकृतियों की उदीरण करता है ? इसके उत्तर में मनुश्री कहते हैं-'गोयमा! दुन्धिह उदीरए या अणुदीरए का' हे गौतम ! स्नातक दो कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है अथवा नहीं भी करता है । जब वह दो कर्म दविह उतीरए वा गौतम ! निन्य viय मया मे म तियानी GER ! ४२ छ ‘पच उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जमोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्म. पगडीओ उदीरेइ' नेते पाय में प्रतियोनी ही२९। , त्यारे આયુ, વેદનીય, મોહનીય, એ ત્રણ કર્મ પ્રકૃતિને છેડીને બાકીની પાંચ४भ प्रकृतियानी हीर। ४२ छे. मन न्या३ 'दो उदीरेमाणे णाम'च गोयं च उदीरेइ' में प्रकृतियानी २६ ४२ छे, त्यारे ते नाम भने ગેત્ર કર્મ એ બે કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે.' ___सिणाए ण पुच्छा' सन् २नात हैटसी प्रतियोनी हीर! अरे १ मा प्रश्नना त२मा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा! दुठिवह उदीरए वा अणुदीरए वा' गौतम ! स्नात मे म तियानी Gle४२ ५५ छ, અને નથી પણ કરતા જયારે તે બે કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે, તે તે Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ भगवतीसत्र ", अयं भारः-स्नातक सयोग्यावस्थायां नामगोत्रनाम्न्योरे। प्रकृत्योरुदीरक इति 'दुविह उदीरए' इत्युक्तम् । आयुर्वेदनीययोः पूर्वमेव उदीरितत्वात् । अयोम्यवस्थायां तु अनुदीरक पवेति 'अणुदीरए वा' इत्युक्तमिति त्रयोविंशतितमसुदीरणाद्वारम् ।।१०१०॥ । चतुर्विशतितममुपसपदानहारमाह-'पुलाए णं भंते !' इत्यादि, '; मूलम्-पुलाए णं संते! पुलायन्तं जहमाणे किं जहइ, कि उवसंपन्जाइ ? गोयमा ! पुलायन्तं जहइ, कलायकुलीलतं वा असंजमं वा उसंपज्जइ । बउसे णं भंते ! वउसत्तं जहमाणे किं जहइ किं उप संपज्जइ ? गोयमा ! बउसत्तं जहइ परिसेवणा कुसी. लत्तं वा फसायकुसीलत्तं वा असंजमं वा संजमासंजसं वा उवसंपन्जाइ । पडिलेवणाकुसीले णं भंते ! पडि० पुच्छा, गोयमा! पडिसेवणाकुसीलतं जहइ चउसत्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपजाई । कसायकुलीले पुच्छा, गोयमा! कसायकुसीलतं जहइ पुलायत्तं वा च उसन्तं वा पडिसेवणाकुसीलतं प्रकृतियों की उदीरणा करता है तो वे दो कर्म प्रकृनियां 'णाम गोयं च उदीरे' नाम कर्म और गोत्रकर्म रूप हैं इनकी ही वह उदीरणा करता है तात्पर्य यह है कि जब स्नातक सुयोगी अवस्था में वर्तमान रहता है तब वह आयु और वेदनीय के पहिले ही उदीरणा हो जाने के कारण इन बची हुई नाम गोत्र रूप प्रकृतियों की ही उदीरणा करता है. और जब यह अयोगी अवस्था में आजोना है तब वहां यह किसी भी प्रकृति का उदीरक नहीं होना है। इसीलिये 'उदीरए वा अनुदीरए धा' ऐसा कहा गया है। उदीरणा हार समाप्त |सू०१०॥ को प्रतियो ‘णाम गोय च उदीरेइ' नाम भजन गात्र मय में કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણ કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-સ્નાતક જ્યારે સગી અવસ્થામાં વર્તે છે. અર્થાત સ્થિત રહે છે, ત્યારે તે આયુ અને વેદનીય એ કર્મ પ્રકૃતિની પહેલેથી જ ઉદીરણા થઈ જવાને કારણે બાકીની બચેલી આ નામ અને ગોત્ર એ બે જ કર્મ પ્રકૃતિની ઉદીરણા કરે છે, અને જ્યારે તે અગી અવસ્થામાં આવી જાય છે ત્યારે તે ત્યાં ४५] भ प्रतियानी हीर४२ता नथी. तेथी 'उदीरए वा अनुदीरए वा' એ પ્રમાણે સૂત્રકારે કહ્યું છે, એ રીતે આ ઉદીરણું દ્વાર સમાપ્ત થાસૂત્ર ૧ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०११ उपसंपद्धानद्वारनिरूपणम् २०५ वा' णियंठत्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जइ । णियंठे पुच्छा, गोयमा ! णियंठतं जहइ, कसायकुतीलत्तं वा सिणायत्तं वा असंजसं वा उपसंपज्जइ । सिणाए पुच्छा, गोयमा! सिणायत्तं जहइ सिद्धिगई उपसंपज्जइ २४। पुलाए णं भंते ! कि सन्नोबउत्ते होज्जा नोलन्नोवउले होज्जा? गोषमा! णो सन्नोवउत्ते होज्जा । बउसेणं अंते ! पुच्छा, गोयमा! सन्नो बउत्ते वा होज्जा, नोसन्नोवउत्ते वा होज्जा, एवं पडिसेवणा कुसीले वि एवं कसायकुसीले वि। णियंठे सिणाए जहा पुलाए२५॥ पुलाए 'णं भंते ! किं आहारण होज्जा अणाहारए होज्जा? गोयमा ! आहारए होज्जा जो अणाहारए होज्जा, एवं जाव णियंठे। सिणाए पुच्छा गोयला! आहारए वा होज्जा अणाहारए वा होज्जा २६। पुलाए णं अंते ! कइ भवग्गहणाई होजा? गोयमा! जहन्नेणं एवं उबोलेणं तिन्नि । बउसे पुच्छा गोयमा! जहन्नणं एवं उनोसेणं अट्ठ । एवं कलायकुलीले वि। णियंठे जहा पुलाए । लिणाए पुच्छा गोयमा! एवं २७ । पुलागस्सणं भंते ! एग भवग्गहणीया केवइया आगरिसा पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं एक्को, उकोसेणं तिन्नि । बउसस्त गं पुच्छा गोयमा! 'जहन्नेणं एका उक्कोलेणं ललग्गलो। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। एवं कलायकुसीले वि। णियंठस्त णं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एको, उक्कोसेणं दोन्नि । सिणायस्ल णं पुच्छा, गोयमा! एको। पुलायस्सणं भंते! नाणासवगहणीया केवइया आगरिसा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि उकोण सत्त । वउसस्स पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि उस्कोलेपां सहस्तग्गसो एवं Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भगवतीस्त्र जाव कलायकुप्लीलस्ल । णियंठस्त पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि उकोसेणं पंच। लिणायस्स पुच्छागोयसा!नस्थि एको वि२८॥११॥ ___ छाया-पुलाकः खल भदन्त ! पुलाकत्वं जहन् कि जहति किमुपसंपद्यते ? गौतम | पुलाकत्वं जहाति कपायकुशीलत्वं वा असंयम वोपस पद्यते। वकुशः खलु भदन्त ! बकुशत्वं जहन् कि जहाति किमुपसंपद्यते ? गौतम ! बकुशत्वं जहाति प्रतिसेवनाशीलत्वं वा कपायकुशीलत्वं वा असंयम वा संयमासंयमं वोपसंपद्यते । मंतिसेवनाकुशीलः खलु भदन्त ! पति० पृच्छा गौतम ! प्रतिसेवनाकुशीलत्वं जहाति बकुशत्वं वा कपायकुशीलत्वं वा असंयम वा सपमासंयम वा उपसंपद्यते । कषायकुशीलः पृच्छ', गौतम! कपाधकुशीलत्वं जहाति, पुलाकत्वं वा वकुशत्वं वा प्रतिसेवनाकुशीलत्वं वा निर्ग्रन्थत्वं वा असंघमं वा-संयमासंघमं वा उपसंपद्यते । निम्र-थः पृच्छा गौतम ! निर्ग्रन्थत्वं जहाति-कपार कुशीलत्वं वा स्नातकत्वं वा असंयम वा उपसंपद्यते । स्नातकः पृच्छा गौतम ! स्नातकत्वं जहाति सिद्धिगतिमुपसंपद्यते । पुलाकः खलु भदन्त ! कि संज्ञोपयुक्तो भवेत् नोसंज्ञोपयुक्तो भवेत् ? गौतम ! नोसंज्ञोपयुक्तो भवेत् । वकुशः खल भदन्त ! पृच्छा गौतम ! संज्ञोपयुक्तो पा भवेत् नोसंज्ञोपयुक्तो वा भवेत् । एवं पतिसेवनाकुशीलोऽपि । एवं कपायकुशी. लोऽपि निर्ग्रन्थः स्नातकच यथा पुलाकः२५ । 'पुलाकः खलु भदन्त ! किमाहारको भवेत् अनाहारको भवेत् ? गौतम ! आहारको भवेत् नो अनाहारको भवेत् एवं यावत निग्रंन्यः। स्नातकः पृच्छा गौतम ! आहारको भवेत् वा अनाहारको वा भवेत् २६ । पुलाकः खल भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवेत् ? गौतम ! जघन्येनेकम् उत्कर्षेण त्रीणि । वकुशः पृच्छा गौतम ! जघन्येन एकम् उत्कर्षेण अष्टौ एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि । एवं कपायकुशीलोऽपि । निग्रन्थो यथा पुलाकः । स्नातक: पृच्छा गौतम ! एकम् २७ । पुलाकस्य खलु भदन्त । एकभवग्रहगीयाः कियन्त आकर्पाः प्रज्ञाः , गौतम ! जघन्येन एका, उत्कर्षेण त्रयः । वकुशस्य खल प्रच्छा, गौतम ! जघन्येन एका, उत्कर्षेण शतायशः । एवं प्रतिसेवनाकुशीलेऽणि, एवं कपायकुशीलेऽपि । निर्ग्रन्थस्य खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन एक डाकण द्वौ स्नातकस्य खलु पृच्छा गौतम! एक: पुलाकस्य खलु भदन्त ! नानाभवग्रहणीयाः कियन्त आकर्पाः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! जघन्येन द्वौ उत्कर्षेण सप्त वकुशस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन द्वौ उत्कर्षेण सहस्रायशः, एवं पावत्कपायकुशीस्य । निर्ग्रन्थस्य खल्लु पृच्छा गौतम ! जघन्येन द्वौ उत्कर्षण पश्च। स्नातकस्य पृच्छा गौतम ! नास्ति एकोऽपि २८ ।।मू०११॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ,६ सू०११ उपसंपद्धानद्वारनिरूपणम् २०७ ____टीका-इतः परम् उपसंपत् हानद्वारं वदति तत्र उपसंपत्-उपसंपत्तिः प्राप्तिरित्यर्थः, 'जहन्नत्ति' हान-त्यागः, उपसंपच हानं चेति उपसंपद्धानं किं पुलाकस्वादिं त्यक्त्वा सकपायवादिकमुपसंपद्यते ? इत्यर्थः। तत्र 'पुलाए णं भते ! पुला. यत्तं जहमाणे किं जहइ कि उवसंपज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! पुलाकत्वधर्म जहन् कि जहति-परित्यजति किमुपपद्यते-प्राप्नोति पुलाकः पुलाकतां त्यजन् कीदृशं धर्म परित्यजति प्राप्नोति च कीदृशं धर्ममिति प्रश्नः भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम! 'पुलायत्तं जहइ' पुलाकत्वम्-पुलाके भावं पुलाको जहाति-स्वस्थानात् पततीति 'कसायकुपील वा असंजम वा उपसंपज्जइ' कषायकुशीलत्वं वा असंयमं वा उपसंपद्यते, पुलाकः पुलाकत्व उपसंपद्धानद्वार का कथन। 'पुलाए ण भंते ! पुलायत्तं जहमाणे किं जहह' इत्यादि। टीकार्थ-यहां उपसंपद्धान में उपसंपत् और हान ऐसे ये दो पद हैं इनमें प्राप्ति का नाम उपसंपतू और त्याग का नाम हार है । पुलाक पुलाकत्व आदि का त्याग कर कषायकुशीलत्व आदि की प्राप्ति करता है। इसी बात को गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से पूछा है-'पुलोए णं भंते ! पुलायत्तं जहमाणे किं जहई' हे भदन्त ! पुलाक पुलाकरूप अवस्था का परित्याग करके किसका परित्याग करता है ? और 'कि उयसंपज्जइ' किसकी प्राप्ति करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! पुलायत्तं जहइ, कसाय कुसीलतं वा असंजमं वा उपसंपन्जा' हे गौतम! पुलाफ पुलाकभाव का परित्याग करता है और कषायकुशीलता अथवा असंयम अवस्था की હવે ઉપસંદ્ધાનદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भंते । पुलायत्तं जहमाणे किं जहइ' त्याह ટીકાર્થ—અહિયાં ઉપસં૫દ્ધાનમાં ઉપસંપર્ અને હાન એ બે પદે આવેલા છે. તેમાં પ્રાપ્તિનું નામ ઉપસંપતું અને ત્યાગનું નામ હાન છે. પુલાક-પુલાક પણ વિગેરેને ત્યાગ કરીને સકષાયપણું વિગેરેની પ્રાપ્તિ કરે छ. मेकर पात गीतभस्वाभाये ॥ नीय प्रमाणे पूछी छे. 'पुलाए णं भवे !, पुलायत्तं जहमाणे किं जहई भवन् gan४ सा४३५ अवस्थानी त्यास श न परित्याग ४२ छ ? भने 'कि उपसंपज्जइ' अनी प्रालि २ छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे ?-'गोयमा! पुलायत्तं जहइ कसायकुसीलत्तं वा असजम वा उपसपज्जई' 3 गीतम! पुना पुरा भावनी परिત્યાગ કરે છે. અને કષાય કુશીલપણાની અથવા અસંયમ અવસ્થાની પ્રાપ્તિ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Doe भगवतीय परित्यज्य संयतः कपायकुशील एव भवति तत्सदृशसंयमस्थानसद्भावात् । एवं यस्य यत्सदृशानि संयमस्थानानि सन्ति स सद्भावग्रुपसंपद्यते मुक्त्वा कपायकुशीला. दीन एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । कपायकुशीलो हि विद्यमानस्सहशसंयमस्थानकान्, पुलाकादि भावानुपसंपद्यते, भविद्यपानसमानसंयमस्थानकं च निग्रन्थमावम् निर्ग्रन्थस्तु कपायकुशीलद वा स्नातकत्वं वा प्राप्नोति । स्नातकस्तु सिद्धिगतिमेव गच्छतीति । तदेवाइ मुत्रकार:-'वउसेणं णं इत्यादि । 'वउसे णं भंते ! घउसत्तं जहमाणे किं जहा कि उसंपज्जाई' वकुमः खल्लु भदन्त ! बकुशत्वं जहन् --परित्यजन् कि जहाति किमुपसंपद्यते इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बउसत्तं जहई' बकुशो बकुशत्वं जहाति, 'पडि प्राप्ति करता है। पुलाफ पुलाकभाव को छोडता हुआ संयत ही होता है क्योंकि इसके कषायफुशील के जैसे संयमस्थानों का सद्भाव होता है। इस प्रकार जिसके जैसे संपनस्थानों का सदभाव है वह कषायकुशील आदि अवस्थाओं को छोडकर उसभाव को प्राप्त करता है इसी प्रकार से सर्वत्र जानना चाहिये। कपायकुशील विद्यमान स्वसदृश संयमस्थानबाले पुलाकादि भावों को प्राप्त करता है और अविद्यमान समान संगमस्थानबाले निन्य भाव को भी प्राप्त करता है। निर्गन्ध कषायकुशीलता को अधवा स्नातकता को प्राप्त करता है। स्नातक सिद्धगति को ही प्राप्त करता है। इसी पान को सूत्रकार प्रकट करते हैं-इस में गौतमस्वामी ने प्रलुश्रीले ऐसा पूछा है-'चउसेणं भंते ! घउसत्तं जहमाणे कि जहा कि उक्संपज्जा' हे भदन्त ! पकुशवकुशता का परित्याग करता हुआ किसको छोडना है और किसे प्राप्त करता ફરે છે, પુલાક પુલાક ભાવને છેડતે થકૅ કષાયકુશીલ સંયત જ હોય છે. કેમકે- તેમને કષાયકુશીલની જે જ સ ય સ્થાને સદ્ભાવ હોય છે. એ પ્રમાણે જેને જેને સંયમસ્થાનેને સદ્ભાવ છે, તે કપાયકુશીલ વિગેરે અવસ્થાઓને છોડીને તે તે ભાવને પ્રાપ્ત કરે છે, એ જ રીતે બધે ઠેકાણે સમજવું જોઈએ કષાયકુશીલ વિદ્યમાન પિતાની સરખા સંયમસ્થાનવાળા પુલાક વિગેરે ભાવને પ્રાપ્ત કરે છે. અને અવિદ્યમાન સમાન સંયમસ્થાનવાળા નિર્ચ ભાવને પ્રાપ્ત કરે છે નિગ્રંથ કષાયકુશલપણાને અથવા સ્નાતકપણાને પ્રાપ્ત કરે છે. સ્નાતક સિદ્ધગતિને જ પ્રાપ્ત કરે છે. એજ વાતને સૂત્રકાર પ્રગટ ४२ छे. मा विषयमा गीतभस्वामी प्रसुश्रीन गे पूछ्यु छ ?-'वउसेणं भते । बउसत्तं जहमाणे कि जहइ किं उनसंपज्ज३' मग मश, मशપણને પરિત્યાગ કરતે થકે કાને છેડે છે ? અને તેને પ્રાપ્ત કરે છે? Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयसन्द्रिका टीका २०२५ उ.६ सू०११ उपसंपद्धानद्वारनिरूपणम् २०९ सेवणाकुलीलत्तं वा कसाकुपीलत्तं वा असंजयं वा संजमासंजन या उपसंपजई' मविसेबनाकुनीलवंदा कपायकुशलत्व वा असंयम वा संयमासंयम वा उपसंपद्यते। वकुशलं परित्यज्य घलिसेवनाकुशीलो भवति कपायकुशीलो वा भवति असंयतो वा भवति संयतासंयतो वा भवतीत्यर्थः। 'पडिलेवणाकुसीले णं भंते ! पडिक पुच्छा' प्रतिसेवनामुनीलः खलु दन्त ! प्रतिसेवनानुशीलनं जहन् कि जहाति कं बोपसंघद्यते इति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडि सेवणाकुमीलतं जहइ बउसत्तं वा कसायकुसीलतं या असंजमं वा संजनासंजमं वा उपसंपज्जई अतिसेवनाशीलत्वं स्वकीयं धर्म जाति है ? उत्तर प्रशुश्री शाश्ते हैं-'मोयना! उत्तं जहद एडिलेवणा कुलीलतं ६१ पालाशकुनीलतं वा असंजनं वा संजासं उमंग उवसंपज्जा' हैलम ' कुश धनुश अवस्था को छोडना है और प्रतिसेवनाकुशील अवस्था दबायकुशील अवस्था, अलंयन अवस्था अथवा संथमालंघल अरस्या को प्राप्त करता है। तात्पर्य कहने जा रही है कि बकुशसाधु जब अपनी बकुश अवस्था का परित्याग कर देता तब अथवा तो यह प्रतिवेदना कुशील होता है अथवा कषायकुशील होता है अथया अपत होता है अथवा संयतासंयत होता है। 'पडिषणा. कुसीले णं भंते ! पडि० पुच्छा' हे भदन्त ! प्रतिलेघनाजुशील जब अपने स्थान के पतित हो जाता है-प्रति लेवलाकुशील अवस्था को छोड देता है तर यह क्या छोडता है और किले प्राप्त करता है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं 'गोयमा! पडिसेचणाकुलीलतं जहह, पउहतंबा, मलायकुतीलतं वा असंजमं वा, संजनासंजमं का उव. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे -'गोयमा ! बउसत्तं जहइ. पडिसेवणाकुमीत वा कसायकुसीलत्तं वा असंजम का संजमासंजम वा उवसंपज्जई' हे गीतम! બકુશ, બકુશ અવસ્થાને છોડે છે. અને પ્રતિસેવનાકુશીલ અવસ્થા, કષાય કુશીલ અવસ્થા, સંયમ અવસ્થા, અથવા સંયમસંયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે- કુશ સાધુ જ્યારે પિતાની બકુશ અવસ્થ નો ત્યાગ કરે છે, ત્યારે અથવા તો તે પ્રતિસેવના કુશીલ થાય છે, અથવા કષાયકુશીલ થાય છે. अथवा मसयत थाय छे. अथवा सयतासयत थाय छे. 'पडिसेवणाकुसीलेणं भंते ! पडि० पुच्छावन प्रतिसेवना शीलयारे पाताना स्थानथी पतित २४ જાય છે, પ્રતિવના કુશલ અવસ્થાને છોડી દે છે. ત્યારે તે શું છોડે છે ? અને जीने परत २ ? या प्रश्नना उत्तम प्रभु ४ छ है-'गोंयमा! "डिसेवणा कुसीलत्त जहइ, बउमत्तं वा कसायकुसीलत्त वा, असंजमं वा, संजमासंजम वा अ० २७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे २१० कुशत्वं वा कपायकुशीलत्वं वा असंयमं वा संयमासंयमं वा उपसंपद्यते - प्राप्नो सीति । 'कसायकुसीले पुच्छा' कपायकुशीलः खलु भदन्त । कपायकुशीलवं जहन कं कं धर्म जहाति तथा कमुपसंपद्यते इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम 1 ' कसायकुमीलत्तं जहइ पुलायतं वा वउसत्तं वा पडि सेवणाकुसलतं वा नियंठत्तं वा असंजमं वा समाजमं वा उवपज्ज' कपायकुशीलवं जहाति पुलाकत्रं वा वकुशस्थं वा प्रतिसेवनाकुशीलस्वं वा निर्ग्रन्थत्वं वा असंयमं वा संयमासंयमं वा उपसंपद्यते । कपायकुशीलतां परित्यज्य पुलाकादिभावं प्राप्नोतीत्यर्थः । 'नियंठे णं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु संपज्ज' हे गौतम! जब प्रतिसेवनाकुशील, प्रतिसेवनाकुशील अवस्था का परित्याग करदेता है तब अथवा तो वह चकुश अवस्था को प्राप्त करता है । अथवा कषायकुशील अवस्था को प्राप्त करता है अथवा असंयम अवस्था को प्राप्त करता है । अथवा संयमासंयमावस्था को प्राप्त करता है । 'कसायकुसीले पुच्छा' हे भदन्त ! कषायकुशील साधु जब अपनी कषायकुशील अवस्था को त्याग करता है तब वह क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ? कंसायकुसीलत्तं जहइ पुलायत्तं वा वसत्त षा पडि सेवणाकु सीलन्तं वा नियंठत्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपज्जद्द' हे गौतम ! कषायकुशील जत्र कपायकुशीलता का परित्याग करता है तब वह अथवा तो पुलाक अवस्था को प्राप्त करता है अथवा वकुश अवस्था को प्राप्त करता है अथवा प्रतिसेवनाकुशील उवसंपज्जइ' हे गौतम ! न्यारे अतिसेवता उशीस ते व्यवस्थान परित्याग रे છે, ત્યારે તે મકુશ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, અને મ્જાય કુશીલ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા અસયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અને સયમાસ ચમ અવસ્થાને प्राप्त ४रे छे. 'कस्रायकुर्सीीले पुच्छा' हे लगवन् दुषाय दुशीस साधु न्यारे પેાતાની કષાય કુશીલ અવસ્થાના ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે શુ` છેડે છે ? અને શુ' પ્રાપ્ત કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! कसायकुसीत्त' जहइ पुलायत वा वसत्त' वा, पडिसेवणाकुसीलत्त' 'वाणियत्तं वा असंजम वा, सजमासंजमं वा उवसंपज' हे गीतभ ! षाय કુશીલ જ્યારે કષાય કુંશીલપણાના પરિયાગ કરે છે, ત્યારે તે પુલાક અવ સ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અંકુશ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા પ્રતિ. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०११ उपसंपद्धानद्वार निरूपणम् भदन्त ! निर्ग्रन्थत्वं जहन् कं जहाति कमुपसंपद्यते इति प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयम' हे गौतम ! 'णियंठत्तं जहर कसायकुसीलत्तं वा सिगायत्तं वा अजमं वा उपज्ज' निर्ग्रन्थत्वं जहाति - कपायकुशीकत्वं वा स्नातकत्वं वा असंयमं वा उपसंपद्यते तत्रोपशमनिर्ग्रन्थः श्रेणीतः प्रच्यवमानः सकषायो भवति श्रेणीमस्त केतु मृतोऽसौ देवत्वेनोत्पन्नोऽसंयतो भवति नो संयतासंयतो भवति देवत्वे देशविरतेरभावात् यद्यपि च श्रेणीपतित उपशमनिर्ग्रन्थः संयतासंयत इति देशवितोऽपि भवति तथापि नासाविहोक्तः यतः श्रेणीतः अवस्था को प्राप्त करता है, अथवा निग्रन्थ अवस्था को प्राप्त करता है अथवा संघमासंघमावस्था को प्राप्त करता है । 'णियंटेणं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ अवस्था का जब परि त्याग करता है - तब वह क्या छोड़ता है और किसे प्राप्त करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा । नियंठत्तं जहह, कसायकुसलत्तं वा, सिणायत्तं वा असंजमं वा उवसंपज्जह' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ जब निर्ग्रन्थ अवस्था का परित्याग करता है तब वह अथवा तो कषायकुशील अवस्था को प्राप्त करता है अथवा स्नातक अवस्था को प्राप्त करता है अथवा असंयम अवस्था को प्राप्त करता है । संयमासंयम अवस्था को प्राप्त नहीं करता है । इसका तात्पर्य ऐसा है कि उपशम निर्ग्रन्थ श्रेणी से गिरता हुआ सकषाय- कषायकुशील होता है | और यदि वह श्रेणि के शिखर पर मरण करता है तो देव की पर्याय से उत्पन्न हो जाता है ऐसी अवस्था में वह असंयत સેવના કુશીલ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા નિગ્રન્થ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા સયમાસયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. 'नियंठे ण पुच्छा' हे भगवन् निर्थन्थ, निर्थन्य अवस्थानो न्यारे પરિત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે શુ... છેડે છે ? અને શું પ્રાપ્ત કરે છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री छे - 'गोयमा ! नियंठन जहइ, कसायकुसीलत्तं चा, सिणायच वा असंजम वा उपसंपज्जइ' हे गौतम! निर्थन्थ न्यारे નિસ્થ અવસ્થાના ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે કષાય કુશીલ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા સ્નાતક અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અસયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, પશુ 'યમાસ'થમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરતા નથી. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે-ઉપશમ નિગ્રન્થ શ્રેણિથી પડતાં સકષાય-કષાય કુશીલ થાય છે, અને જો તે શ્રેણીના શિખર પર મરે છે, તે દેવની પર્યાયથી ઉત્પન Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भगवतीपत्रे पतनानन्तरं देशविरतो न भवति किन्तु कपायकुशीलो भूत्वा ततो देशविरतः संयतासंयतो भवतीति भाव: । 'सिणाए पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! स्नातकत्वं जहन् किं जहाति कंचोपसंपद्यत इति प्रश्नः, भगवानाह - 'बोयना' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'सिगायतं जहर सिद्धिगई उपसंपन्न' स्नातकत्वं जहाति सिद्धिगतिमुपसंपद्यते प्राप्नोतीति भावः २४ । गतगुनसम्मानद्वारम्, होता है । देशवितिवाला नहीं होता, क्योंकि वे अवस्था देशविरति का अभाव है । यद्यपि आणि से गिरा हुआ साधु उपाय निर्ग्रन्थ देशचिरति वाला - संयमासंमवाला भी होता है किन्तु वह सीधा देशविरतिवाला नहीं होता किन्तु कपायकुशील होकर फिर देशचिरति वाला होता 1 'लिणाए पुच्छा' हे भदन्त | स्नातक जब स्नातक अवस्था का परित्याग करता है तब वह क्या छोडना है और क्या मान करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोमा । सिणायत्तं जहह सिद्धिनई उबसंपजह' हे गौतम | स्नातक जब अपनी स्नातक अवस्था का परित्याग करता है तब वह सीधा सिद्विगति को प्राप्त करता है । ॥ चौबीस उपसंपदान द्वार समाप्त || २५ वां संज्ञाद्वार का कथन 1 'संते! किं सन्नोवउत्ते होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक क्या संतोषથઈ જાય છે, એવી અવસ્થામાં તે અસયત થાય છે. દેશવિહિવાળા થતા નથી, કેમકે દેવ અવસ્થામાં દેશિવતિના અભવ ાય છે. જે કે શ્રેણીથી પડતા એવા સાધુ ઉપશમ નિગ્રન્થ દેશવિરતિવાળા–સયમાસયમવાળા પણ હાય છે, પર’તુ તે સીધા દેશવિરતિવાળા હાતા નથી. પરંતુ કષાય કુશીલ મનીને પછી દેશિવરતિયાળા બને છે. f 'सिणाए पुच्छा' से लगवन् स्नात त्यारे स्नात व्यवस्थानी परित्याग કરે છે, ત્યારે તે શુ' છેડે છે ? અને શું પ્રાપ્ત કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્ત२मां अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! सिणायत्तं जहइ, सिद्धिगई उनसे पज्जइ' ગૌતમ ! સ્નાતક જ્યારે પેાતાની સ્નાતક અવસ્થાના પરિત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે સીધા સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. એ રીતે આ ચાવીસમુ' ઉપસ પદ્ધાન દ્વારનું કથન છે. ઉપસ પદ્ધાનદ્દારસમાપ્ત શારકા હવે પચીસમા સ ́જ્ઞાદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भंते । किं सन्नो उत्ते होन्जा' हे लभवन् पुसा शु संज्ञोप Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैreद्रका टीका ०२५ उ.६ ०११ २५ संज्ञाद्वारनिरूपणम् २१३ अथ पञ्चविंशतितमं संज्ञाद्वारमाह - 'पुलाए णं संते' पुलाकः खल भदन्त ! 'किं सन्त'वउत्ते होज्जा' कि संज्ञोपयुक्तो भवेत् 'णोन्नोवरते होज्जा' नोसंज्ञोपयुक्तो वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'णो समोर होना' नो संज्ञोपयुक्तो भवेद्ध रह सज्ञापदेन थाहा रादि संज्ञा गृह्यने तत्राहारादौ उपयुक्त आहारादिषु अभिलापवान् संशोषयुक्तः, नोसंज्ञोपयुक्तस्तु आहारादि सतारहितः, तत्र पुलाक निर्मन्यस्नातकाः नोसंज्ञोपयुक्ता भवन्ति, सम्पति आहारे तत्रानमिष्वङ्गात् चयपि निर्मन्थस्नातक वीतरागत्वात् नो सज्ञोपयुक्तौ संमतः, पुलाकस्तु सरागत्यात् कथं नोसज्ञोपयुक्त ? इति चेदाह - सरागत्वे अनभिष्वङ्गता सर्वचैव नास्तीति वक्तुं न शक्यते वकुशादीनां युक्त है अथवा 'णी सण्णोद उसे होज्जा' नो संज्ञोपयुक्त है ? आहारादि की आसक्ति से युक्त होना इसका नाम संज्ञोपयुक्त है एवं आहाराक्ष की आसक्ति से युक्त नहीं होगा इसका नाम नोज्ञोपयुक्त है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोया ! को सोचते होज्जा' हे गौतम! पुलाक नोसंज्ञोपयुक्त होता है। आहार आदि में अभिलाषावाला होना यह संज्ञोपयुक्त शब्द का अर्थ है । और आहारादि में संज्ञा से रहित होना अषा रहित होना यह नोसंज्ञोपयुक्त शब्द का अर्थ है । पुलाक निर्ग्रन्थ और स्नातक ये नोसोपयुक्त होते हैं । आहारादिका उपभोग करते हुए भी उसमें इनकी अभिलाषा नहीं होती है । यद्यपि निर्ग्रन्थ औ. स्नातक ये वीतराग होने से नो लज्ञोपयुक्त माने जा सकते हैं। पर सरामी होने से पुलाक नोवोपयुक्त कैले माना जा सकता है ? तो इसका उत्तर ऐसा है-लगन अवस्था होने युक्त छे ? अथवा 'णो सण्णोवउत्ते होज्जा' नासंज्ञोपयुक्त छे ? आहार વિગેરેની આસક્તિથી યુક્ત થવું તેનું નામ સજ્ઞોયુક્ત છે. અને આહાર વિગેરેની ાસક્તિથી યુક્ત ન થવુ તેનુ નામ નેાસ'જ્ઞોયુક્ત છે. આ अश्नना - उत्तरंभां अलुश्री छे - 'गोयमा । णोखण्णोवउत्ते होज्जा' हे ગૌતમ ! પુલાક નેસ જ્ઞોપયુક્ત હાય છે. આહાર વિગેરેમાં અભિલાષાવાળા થવું તે સંજ્ઞોયુક્ત શબ્દના અર્થ છે. અને આહાર (વગેરેમાં સંજ્ઞાથી રહિત થનું અર્થાત્ અભિલાષા રહિત થવું તે નેસ જ્ઞોપયુક્ત શબ્દનેા અથ છે. પુલાક, નિર્થ અને સ્નાતક એનાસનોયુક્ત હાય છે આહારના હૈાવા છતાં પણ તેમાં તેએને અભિલાષા ઈચ્છા થતી નથી. જો કે નિગ્રન્થ અને સ્નાતક એ વીતરાગ હાવાથી નાસ સોયુક્ત માની શકાય છે પર`તુ સરાગી ઢાવાથી પુલાક નાસ જ્ઞોપયુક્ત કેવી રીતે માની શકાય ? આ શંકાનું સમાધાન એવું છે કે—સરાગ અવસ્થા હોવા છતાં પણુ સર્વથા આસક્તિ રહિતપણુ થઈ જ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भगवतीसूत्र सरागत्वेऽपि निःसङ्गताया अपि शास्त्रे प्रतिपादितत्वात् । यद्वा नो संज्ञा इत्यस्य ज्ञानसंज्ञेति नाम तत्र ज्ञानसज्ञायां पुलाकनिग्रन्थस्नातका उपयुक्ता भवन्ति ज्ञानप्रधानोपयोगवन्तः, न पुनराहारादिसंज्ञोप्यु का भवन्ति, बकुशादयस्तु नोसंज्ञा. तथा संज्ञा, उभयोरुपयोगवन्तो भवन्तीति भावः 'बउसे गं भंते ! पुच्छा वकुश: खलु भदन्त । किं संज्ञोपयुक्तो भवेत् नोसंज्ञोपयुक्तो वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सन्नोवउत्ते वा होज्जा नो सन्नोवउत्ते वा होज्जा' संज्ञोपयुक्तो वा भवेत् नोसंज्ञोपयुक्तो वा भवेदिति । 'एवं पडि सेवणाकुसीलेवि' एवम्-वकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि संज्ञोपयुक्तो पर भी सर्वथा आसक्ति रहितता हो ही नहीं सकती है ऐसा नियम नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि बकुश आदि में सरागता होने पर भी निःसङ्गना का भी प्रतिपादन शास्त्र में किया गया है। अथवा'नो संज्ञा' इसका नाम ज्ञान संज्ञा ऐसा भी हैं । इस अपेक्षा ज्ञान संज्ञा में पुलाक, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये उपयुक्त होते हैं अर्थात् इनका उप. योग ज्ञान प्रधान होता है। आहारादि संज्ञा प्रधान नहीं होता है? घकुश आदि तो नो संज्ञोपयुक्त तथा संज्ञोपयुक्त दोनों प्रकार के होते हैं। अर्थात् वे नो संज्ञा और संज्ञा दोनों के उपयोग वाले होते हैं। ____'बउसेण पुच्छा' हे भदन | बकुश क्या संज्ञोपयुक्त होता है अथवा नो संज्ञोपयुक्त होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा । सन्नीयउत्ते वा होज्जा, नो सन्नोवउत्ते वा होजा' हे 'गौतम ! यकुश संज्ञोपयुक्त भी होता है और नो संज्ञोपयुक्त भी होता है। ‘एवं पडि. શકતું નથી. એ નિયમ કહી શકાતું નથી કેમકે–બકુશ વિગેરેમાં સરગ પણું હોવા છતાં પણ શાસ્ત્રમાં નિ સંગતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. मथवा 'नो संज्ञा' तु नाम ज्ञानसंज्ञा मे ५ छे. ते अपेक्षाय ज्ञान સંજ્ઞામાં પુલાક, નિન્ય અને સ્નાતક એ ઉપયુક્ત હોય છે. અર્થાત્ તેમને ઉપયોગ જ્ઞાનપ્રધાન હોય છે. આહાર વિગેરે સંજ્ઞાપ્રધાન હોતો નથી. બકુશ વિગેરે તે સંજ્ઞોપયુક્ત તથા સંશોપયુક્ત આ બંને પ્રકારના હોય છે, અર્થાત્ તેઓ ને સંજ્ઞા અને સજ્ઞા બન્નેને ઉપગવાળા હોય છે. 'वउसे णं पुच्छा' में भगवन् श शुसज्ञोपयुत हाय छे ? मया ना सज्ञोपयुक्त डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४३ छ -'गोयमा ! सन्नोवउत्ते वा होज्जा, नोसन्नावउत्ते वा होज्जा' हे गौतम! पश सज्ञो. पयुक्त ५५ डाय छ, भने नासज्ञोपयुत पसाय छे. 'एवं पडिसेवणा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६१०११ २६ आहारद्वारनिरूपणम् २१५ वा भवेत् नो संज्ञोपयुक्तो वा भवेदिति । 'एवं कसायकुसीलेवि' एवम्-वकुशवदेव कषायकुशीलोऽपि संज्ञोपयुक्तो वा भवेत् नोसंज्ञोपयुक्तो वा भवेदिति । 'णियंठे सिणाए जहा पुलाए' निग्रन्थः स्नातकश्च यथा पुलाकः, पुलाकवदेव निग्रन्थस्नातको नोसंज्ञोपयुक्तौ भवत इति ।२५ गतं संज्ञाहारम् । अथ पइविंशतितममाहारद्वारमाह-'पुलाए णं भंते ! किं आहारए होज्जा अणाहारर होज्जा' पुलाफः खलु भदन्त ! किं आहारको भवेत् अनाहारको वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-गोया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आहारए होज्जा णो अणाहारए होज्जा' आहारको भवेत् नो अनाहारको भवेत् पुलाक इति । 'एवं जाब णियंठे एव यावद् निर्गन्धः, अत्र यावत् पदेन वकुश रतिसेवनासेवणाकुसीले वि' यकुश के जैले प्रतिसेवनाकुशील भी संज्ञोपयुक्त और नोसंज्ञोपयुक्त होता है। ‘एवं कसायकुसीले वि' बकुश के जैसा कषायकुशील भी संज्ञोपयुक्त भी होता है और नो संज्ञोपयुक्त भी होता है । 'णियंठे सिणाए जहा पुलाए' 'पुलाक के जैसे निर्गन्ध और स्नातक नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं। ॥ संज्ञाद्वार समाप्त २५ ॥ ॥आहारद्वार का कथन ॥ 'पुलाए णं भंते ! किं आहारए होज्जा, अणाहारए होज्जा' हे भदन्त ! पुलाक आहारक होता है ? अथवा अनाहारक होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! आहारए होज्जा नोअणाहारए होज्जा' हे गोतम ! पुलाक आहारक होता है अनाहारक नहीं होता है। 'एवं कुसीले वि' मशन। ४थन प्रमाणु प्रतिसेवना शीत पर सज्ञोपयुक्त भने नासज्ञोपयुत डाय छे. 'एव कसायसीले वि' मधुशना अयन प्रभार पाय કુશીલ પણ સં યુક્ત પણ હોય છે, અને સંજ્ઞોપયુક્ત પણ હોય છે. 'णियंठे सिणाए जहा-पुलाए' पुराना ४थन प्रमाणे नि-य भने स्नात સંશોપયુક્ત હોય છે, એ રીતે આ સંજ્ઞાદ્વાર કહ્યું છે. છે સંજ્ઞાદ્વાર સમાપ્ત ૨૫ | હવે આહારદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે – 'पुलाए णं भंते ! किं आहारए होज्जा, अणाहारए होज्जा' है मापन પુલાક આહારક હોય છે? કે અનાહારક હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ छ-'गोयमा ! आहारए होज्जा णो अणाहारए होज्जा' है गीतम! yats भाडा२४ लाय छे. मनाला ता नथी. 'एवं जाव णियंठे' मेर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती २१६ कुशीलका कुशलानां संग्रहो अनति, तथा च चकुजपतिले नकुशीक कनायकुशील निर्ग्रन्था आहारका एव भवन्ति नो अनाहारका भरतीति । 'सिणाए पुच्छ' स्नातकः खलु भदन्त ! आहारको भवेत् अनाहारको वा भवेदित्ति घनः भगत नाह - 'गोया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'आहार वा होज्जा अणाहारण बा होज्जा' आहारको वा भवेत् अगाहारको वा भनेका देर्निन्यपर्यन्तस्य अनाहारकारणानां विग्रहगन्यादीनामभावात् आरकत्वमेव, स्नातकस्तु defenard तृतीयचतुर्नपञ्च रवयेषु अयोगावर अनाहारक एव भवति, एतदन्यत्र पुनराहारको भवति इत्यत उक्तम्-नातक आहारको वा भवेत् अनारको वा भवेदिति२६ । गतसादाद्वारम् । अथ भारमाड- 'पुत्राए जाणिदे' ही प्रकार से मान-श, अविनाशील, कपायकुशील और निर्ग्रन्थ पे जब भी आवक ही होते हैं । अनाहारक नहीं होते हैं । 'शिणाए पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक आहारक होता है अथवा अनाहारक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! आहारए वा होज्जा अनाहारए वा होज्जा' हे गौतम | स्मालक आहाकभी होता है और अनाहारक भी होता है । पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक के साधु के विग्रह मत्यादि रूप अनाहारकता के कारणों के अभाव से आहारकता ही है। पर स्नातक के केवलिमुद्धात अ स्था में तृतीयचतुर्थ और पंचम समय में तथा अयोगी अवस्था में अनाहारकना है और इसके सिवाय श्राहारकना है। ॥ आहारदार समाप्त २६ ॥ પ્રમાણે યાવ-ખકુશ, પ્રતિસેવના કુશીલ, કષાય કુશીલ અને નિગ્રન્થ આ સઘળા સાધુ પશુ આહારક જ હાય છે, અનાહારક હાતા નથી. 'सिणाए पुच्छा' हे भगवन् स्नातः साधु भाद्धारा होय छे ? हे अनाहा२४ हाय हे? या प्रश्नना उत्तरमा असुश्री उड़े छे है- 'गोयमा ! आहारए व होज्जा अपहार वा होज्जा' हे गीतंभ ! स्नातं महार होय छे, અને અનાહારક પણ હાય છે. પુલાકથી લઈને નિગ્રન્થ સુધીના સાધુને વિગ્રહગતિ વિગેરે રૂપ અનાહારકપણાના કારણેાના અસાવચી આહારકપણું જ છે. પરંતુ સ્નાતકને કેવલી' સમુદ્દાત અવસ્થામાં ત્રીજા ચેથા અને પાંચમા સમયમાં તથા અગેગી અવસ્થામાં અનાહારકપણું છે અને તેના સિવાય માહારકપણુ આવે છે. એ રીતે આ છવ્વીસમુ આહારદ્વાર કહ્યુ છે, !! આહારદ્વાર સમાપ્ત ૨૬૫ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०११ २७ भवद्वारनिरूपणम् २१७ णं भंते ! कइ भवग्गण ई होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवन्तीति कदि भवान् कृत्वा सिद्धयतीत्यर्थः, इति महणविषये प्रश्नः । भगवानाह - 'गोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' जहन्नेणं एकं उक्को सेणं तिन्नि' जघन्येन एकं नवग्रहणं पुलाकस्य भवति उत्कर्षेण त्रीणि भवग्रहणानि भवन्ति, जघन्यत एकस्मिन् सत्रग्रहणे पुलाको भूत्वा कपायकुशीलत्वादिकं संयतत्वान्तरम् एकasad भवे भवान्तरेवावाप्य सिद्धियति भवान्तरमिति, तंत्र साविचारल्या परणे रात्रि द्वितीयं धनुष्यस्वमवाप्य सिध्यति उत्कृष्टत स्तु देवादिभवान्तरितान् त्रीन् भवान् पुलाकत्व प्राप्नोतीति भावः । ' बरसे पृच्छा' वकुशः खलु भदन्त ! कति भवग्रहणानि कला सिद्धयतीति नः । भगवानाह - 'गोयमा' २७ भवद्वार का कथन 'पुलाए णं संते | कह भवग्गहणाई होज्जा' हे भदत ! पुलाक कितने भय को ग्रहण करने के बाद सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयना ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं तिनि' हे गौतम ! पुलाक जघन्य से एक भवग्रहण करने के बाद सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से तीन भर्वो को ग्रहण करने के बाद सिद्ध होता है । अर्थात् - जघन्य से एक भय में पुलाक होकर कषायकुशील आदि रूप संयत अवस्था को एकबार अथवा अनेक बार उसी भाव में अथवा अवान्तर में प्राप्त करके सिद्ध होता है । भवान्तर में सातिचार होकर भरण होने पर द्वितीय मनुष्यrव को प्राप्त करके सिद्ध होता है और reकृष्ट से देवादिव द्वारा अन्तरित तीन भवों तक पुलाक अवस्था प्राप्त कर सिद्ध होता है । હવે સત્યાવીસમાં લવદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भते । कइ भवगहणाइ होज्जा' हे भगवन् युसा टला ભવાને ગ્રહણ કર્યા પછી સિદ્ધ થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वाभीने हे - 'गोयमा ! जहन्नेणं एक उक्कोसेणं तिन्नि' हे गौतम' ! પુલાક જઘન્યયી એક ભવગ્રહણુ કર્યાં પછી સિદ્ધ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભવાને ગ્રહણ કર્યાં પછી સિદ્ધ થાય છે. અર્થાત્ જઘન્યથી એક ભવમાં પુલાક થઈને કષાય કુશીલ વિગેરે રૂપ સંત અત્રથાને એક વાર અથવા અનેકવાર એજ ભવમાં અથવા ભવાન્તરમાં પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થાય છે. ભવાન્તરમાં સાતિચાર થઈને મરણ થયા પછી ખીજા મનુષ્યભવને પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી દેવાદિભવેદ્વારા અન્તરિત ત્રણ ભવેા સુધી પુલાક અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થાય છે, भ० २८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे , इत्यादि, गोरमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक उकासेणं अट्ठ' जघन्येन एवं भवग्रहणं बकुशस्य भवति, उत्कृष्टतोऽष्ट भरग्रहणानि भवन्ति, अत्र कश्चित् एक(स्मिन्नेत्र भवे बकुशत्वं कपायकुशीलत्वं च प्राप्य सिद्धो भवति तथा एकमये वकशत्वं प्राप्य भवान्तरे बकुशत्वमाप्ति बिनाऽपि सिद्धो भवति ओ कुशस्य जघ. न्येन एकभवग्रहणं कथितम् उत्कपतस्तु अष्टौ भवा भवन्ति यन ,ग्य उत्कर्पतोप्टभनपर्यन्तं चारित्रमाप्तिर्भनति तत्र कश्चित् तान् अष्टौ अपि भवान् बकुशत्वेन, चरमभवंतु सकपायत्वयुक्तवाशत्वेन पूरपति, तथा कथिन प्रनिभवं प्रतिसेवना___ 'घउले पुच्छ।' हे अदना । पकुश कितने भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-गोयामा ! जहन्नेणं एषकं उक्लोरणं अह' हे गौतम ! बकुश जघन्य से एक सच को ग्रहण करके और उत्कृष्ट से आठ अवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। यहां कोई एक ही भल में बकुश अवस्था को और कपयकुमील . अवस्था को प्राप्त कर सिद्ध हो जाता है और फोह एव यकुश अवस्था को प्राप्त कर तथा भवान्तर में यकुश अवस्था प्राप्त किये विना भी सिद्ध हो जाता है। इसलिये बकुश का एक भवग्रहण जघन्य से कहा है। तथा उत्कृष्ट से जो आठ भत्रण काला है सो उसका कारण ऐसा है कि आठ भवतक उत्कृष्ट रूप से उसे चारित्र की प्राप्ति होती हैं। इनमें कोई एक तो आठ अब बशरूप से और अन्तिम भय कपायकुशीलसहित बकुशरूप से पूरण करता है तथा कोईएक ___'वउसे पुच्छा' है लगवन् ॥४21 साने ७९ ४ी सिद्ध थाय २१ मा प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ -'गोया। जहन्नेणं एक्कं उक्कोતેનું ઘર હે ગૌતમ ! બકુશ જઘન્યથી એક ભાવ ગ્રહણ કરે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ લને ગ્રહણ કરીને તે પછી સિદ્ધ થાય છે. અહિયાં કઈ એક જ ભવમાં બકુશ અવસ્થાને અથવા કષાયકુશીલ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ થઈ જાય છે. અને કેઈ એક ભવમાં બકુશ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરીને તથા ભવાતરમાં બકુશ અવસ્થા પ્રાપ્ત કર્યા વિના પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. તેથી બકુશને એક ભવડણ જઘન્યથી કહ્યો છે તથા ઉત્કૃષ્ટથી જે આઠ ભવગ્રહણ કહ્યા છે, તેનું કારણ એવું છે કે-આઠ ભવ સુધી ઉત્કૃષ્ટપણાથી તેને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ હોય છે. તેમાં કઈ એક આઠ ભવ બકુશપણુથી અને છેલ્લે ભવ કષાય સહિત બકુશપણાથી પૂરો કરે છે. તથા કઈ એક પ્રત્યેક ભાવ પ્રતિસેવનાકુશીલ વિગેરે રૂપથી યુક્ત બકુશપણુથી પૂરે કરે છે. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौय चन्द्रिका टीका शं०२५ उ.६ सू०११ २७ भवद्वारनिरूपणम् कुशीलत्वादियुक्तवकुशत्वेन पूरयतीति भावः । एवं पडिसेवणाकुमीलेवि' एव प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि । एवं वकुशवदेव प्रतिसेवनामुशीलस्यापि जघन्यत एक भवग्रहणं भवति उत्कर्षेण तु अष्टौ भवग्रहणानि भवन्तीति । 'एवं कसायकुसी. लेवि' एवं कपायकुशीलोऽपि कपायजुशीलस्यापि जघन्येन एकमवग्रहणमुत्कर्षतोऽष्ट भवनहणानि भवन्तीति । णियंठे जहा पुलाए' निर्ग्रन्थो यथा पुलाका, निग्रंन्यस्य पुलाकबहेव जघन्येन एक भवग्रहणमुत्कर्षतस्त्रीणि मनग्रहणानि भवन्तीति। 'सिणाए पुच्छा' स्नातकस्य खलु भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः भगवानाद-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक एकमेव भव-' ग्रहणं भवति स्नातकस्येति २७ ।। प्रत्येक भव प्रतिसेवनाशीलत्वादि रूप ले युक्त मशरूप से पूरण करता है । 'एवं पडिसेषणाकुसीले वि इसी प्रकार से प्रतिबलाकुशील भी जघन्य से एक सवत्रहण करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से. आठ भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। 'एतं कलायकुतीले वि' इसी प्रकार से भाषाय कुशील भी जघन्य से एक भा ग्रहण करके और उत्कृष्ट ले आठ भयों को ग्रहण कर के सिद्ध होता है । 'णियंठे जहा पुलाए' निन्ध पुलाक के जे जघन्य से एक अजयण करके और उत्कृष्ट ले तीन भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। सिणाए पुच्छा' हे अदन्त ! स्नातक कितने भलों को ग्रहण करके सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री .कहते हैं-'गोयमा ! एक्को' हे गौतम ! स्नातक एक भव को लेकर सिद्ध होता है। सरद्वार का कथन समाप्त । 'एव पडिसेवणाकुसीले वि' मे०४ प्रमाणे । प्रतिसेवना Yशार धन्यथा એક ભવ ત્રણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવેને ગ્રહણ शन सिद्ध थाय छे. 'एव कसायकुसीले वि' २४ प्रमाणे ४षाय शीर પણ જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભને ગ્રહણ ४शन सिद्ध थाय छे. 'णियठे जहा पुलाए' निय-2 पुना ४थन प्रभाएं: જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભલેને ગ્રહણ કરીને सिद्ध थाय छ 'सिणाए पुन्छ।' है मगवन् स्नात डेटा लवाने पड शन सिद्ध थाय १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा! एकको ગૌતમ! મનાતક એક લવ ગ્રહણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. ભવદ્વાર સમા રા Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० भगवतीसूत्र अथाष्टविंशतितममाकर्पद्वारम् 'पुलागस्स णं भंते ! एमभवग्रहणीया केवइया आगरिसा पचत्ता' पुलाकस्य खलु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः-एकस्मिन् भवे ग्रहणयोग्याः कियन्त आकर्पाः, अर्पणम् आकर्पश्चारित्रमाशिः, तथा च चारित्रपरिणानात्मका आकर्पाः पुलाकस्यैकस्मिन् भवे कियन्तो भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । जहन्नेणं एको उक्कोसेणं तिनि' जघन्येन एक आकर्षों भवति एकस्मिन् सवे पुलाकस्य, उत्कर्षण तु: त्रय आकर्पा भवन्तीति । 'व उसस्स णं पुच्छा' बकुशस्य खलु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः क्रियन्तश्चारित्रपरिणामात्मका आकर्षा अवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एको' जघन्येन एक आकर्ष:, 'उकोसेणं सत्तग्गसो' उत्कर्पण शतामशः-शतपृथक्त्वम् तदुक्तम्-'तिण्ड सहस्सपुहुत्तं सयपुहत्तं च होइ विरईए' त्रयाणां सहस्रपृथक्त्वम् दिरतेः पुन शतपृथक्त्वं २८ आकर्पद्वार का कथल 'पुलागल भंते ! एक भवरगहणीया केवड्या धागरिला पत्ता' हे भदन्त ! पुलाक को एक भव में चारित्र परिणामालक आकर्ष कितने होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जहन्नेणं एक्शो, उक्कोसेणं तिनि' हे गौतम ! पुलाक को एक भव में जघन्य हे एक आकर्ष होता है और उत्कृष्ट से तीन आकर्षे होते हैं। 'बल्लक्षणं पुच्छा' हे भदन्त ! वकुश को एकभव में चारिन्न परिणामारक आकर्ष कितने होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! जहन्नेणं एको उक्कोसेणं सत्तागो' हे गौतम ! वकुश के जघन्य ले एक मानी और उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व दो सौ से लेकर ९ लौ तक आकर्ष होते हैं । तदुक्तम् -'तिह सहस्तपुहुत्तं सयपुहुत्तं च होइ चिरईए' 'एवं पडिलेवणा હવે અઠયાવીસમાં આકર્ષ દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलागस्य णं भंते ! एकभवग्गहणीया केवइया आगरिसा पन्नत्ता' सावन પુલાકને એક ભવમાં ચારિત્ર પરિણાસાત્મક આકર્ષ કેટલા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा सुश्री 3-गोयमा ! जहन्नेण एको, उक्कोसेणं तिन्नि' गौतम ! પુલાકને એક ભવમાં જઘન્યથી એક આકર્ષક હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ “આકર્ષ डाय छ. 'उसस्स ण पुच्छा' 3 लापन छुपने मे समा पारित परिणामा. ત્મક “આર્ષ કેટલા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छ -'गोयमा ! जहन्नेण एक्को उक्कों सेणं सत्तासो' के गौतम | Hशन જઘન્યથી એક “આકર્ષ અને ઉત્કૃષ્ટથી શત પૃથકત્વ એટલે કે બસેથી લઈને नसे। सुधी 'मा' डाय छे. ४ यु छ -'तिण्हसहस्तपुहुने सय पुहुत्त च होइ विरईए' एवं पडिसेवणाकुसीले वि' शना ४थन प्रभार Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०११ २८ आकर्पद्वारनिरूपणम् २२१ भवतीतिच्छाया । 'एवं पडिसेवणाकुसीलेवि' एवं प्रतिसेवनाकुशीलेऽपि एवम्वकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि जघन्येन एक एवाझो भइति एक भवग्रहणे उत्कर्षण शतपरिणामेन भवति द्विशतादारभ्य नवशतपर्यन्त भवतीति । एवं कसायकुसीलेवि' एवं कपायकुशीलोऽपि, एवम्-बकुशवदेव कपायकुशीलस्यापि एक भवग्रहणीय एक आकर्षों जघन्येन, उत्कर्पेण तु शतपृथक्त्वरूप इति । 'णियंठस्स णं पुच्छा' निर्गन्थस्य खलु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः कियन्त आकर्पा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एको' जघन्येन एक आकर्षों मनति 'उकोसेणं दोन्नि' उत्कण द्वी आकर्षों एकस्मिन् भवे वारद्वयमुमशमश्रेणीकरणात् उपशमनिर्ग्रन्थस्य द्वौ आकौं भवत इति । 'सिणायस्स णं पूच्छा' स्नातकस्य खलु भदन्त ! एकभक्ग्रहणीयः कियान् आकर्षों भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एको' एकः स्नातकस्यैव भवग्रणे एक एव आको भवतीति भावः 'पुलागस्स णं कुसीले वि' बकुश के जैसे ही प्रतिसेवनाकुशील के भी जघन्य से एक ही आकर्ष एक भव में होता है और उत्कृष्ट से दो सौ से लेकर ९ सौ तक आकर्ष होते हैं । 'एक कलायकुसीले वि' इसी प्रकार से कषायशील के भी एक भव में एक ही आरुप जघन्य से होता और उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व आकप होते हैं। ' 'णियंठस्स पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एक्को उक्कोसेणं दोषिण' हे गौतम ! निर्ग्रन्ध के जघन्य से एक भव में एक आकर्ष होता है और उस्कृष्ट ले उपशमनिन्थ के दो बार उपशमश्रेणी करने से दो आकर्ष होते हैं। 'लिणायल णं पुच्छा' हे लदन्त ! स्नातक के પ્રતિસેવના કુશીલને પણ એક ભવમાં જઘન્યથી એક જ “આકર્ષ હોય છે. मन था साथी छ नसे। सुधान। २४ सय छ ‘एव कसाय फुसीले वि' मे प्रमाणे पाय शीलने ५ मे समा ४३न्यथी मेर આકર્ષ હોય છે. અને ઉત્કર્ષથી શત પૃથકત્વ એટલે કે બસોથી લઈને નવસ सुधीन 'B' डाय छे. __ "णिय ठरच पुच्छा' है सावन् निन्थन मे समा टसा मा डाय छ १ मा प्रशन उत्तरमा प्रसुश्री ९ -'गोयमा ! जहणेण एक्को सक्कोसेण दोणि' 3 गौतम ! नियन्थने धन्यथा ४ सयमा ये 5ष, હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ઉપશમ નિર્ચીને બે વાર ઉપશમ શ્રેણી કરવાથી मे मा डाय छ, 'सिणायस्स पुच्छा' 8 लगवन् स्नातन मे मां Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરફ भगवतीपत्र भंते । नानाभवग्रहणीय केनइया आगरिसा पनसा' पुलाकस्य खलु भदन्त ! नानाभवग्रहणीयाः, नानाप्रकारकेषु भरनदणेपु ये भवन्ति ते अनेकभवग्रहणीया: अनेक प्रकारकावे संपघमाना इत्यर्थः, कियन्त आकः प्रज्ञप्ता भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इभ्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जबन्ने णं दोन्नि' जघन्वेन ' द्वौ, एक आक्रर्ष एकस्मिन् भवे द्वितीय आकर्पोऽन्यस्मिन् भवे, इत्येवं रूपेग अनेकनभवे द्वौ आकर्षों स्यातामिति । 'उकोसेणं सत्त' उत्कर्पण सप्न' पुलाकत्वम् । उत्कर्पतः त्रिषु भवेषु स्यात् एकत्र च तदुत्कर्ष तो नारत्रयं भवति ततश्च प्रथमभवेएक एक आकर्पः अन्यस्मिन् भवद्वये त्रयस्त्र र आकर्षा इत्यादि विकल्पैः सप्त ते एक मन में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रसुनी कहते हैं-'पोयमा! एकको' हे गौतम! स्नातक के एक अन्य में एक ही आकर्ष होता है। 'पुलागरम णं भंते ! नानाभवग्गहणिया केवहया आगरिसा पन्नत्ता' हे मर्दन्त ! पुलाक के अनेक सय में शितने आशर्ष होते हैं ? उन्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहानेणं दोन्नि, अकोलणं सत्त' हे. गौतम ! पुलाक के अनेक भव में दो आकर्ष जघन्य ले और सात आकर्ष उत्कृष्ट से होते हैं। तात्पर्य यह है कि पुलाक के एक भव में एक और अन्य भय में दूसरा आकर्ण होता है । इस प्रकार से अनेक भवों को आश्रित करके पुलाक के जघन्य ले दो आकर्ष कहे गये हैं। प्रलाक अवस्था उत्कृष्ट से तीन अवों में होती है। इनमें एकभव में उस्लष्ट ले वह तीन बार होती है। इस प्रकार प्रथल भष में एक आकर्ष और दो अयों में तीन २ आकर्ष होने से ७ आकर्ष अनेक भवों सा मा य छ १ उत्तरमा प्रसुश्री डे छ -'गोयमा! एकको है ગૌતમ! સ્નાતકને એક ભવમાં એક જ આકર્ષ હોય છે. 'पुलागस्स णं भंते ! णाणाभवगहणीया केवइया आगरिला पन्नत्ता' 3 ભગવદ્ પુલાકને અનેક ભવમાં કેટલા “આકર્ષ હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री -गोयमा ! जहण्णेणं दोन्नि, उनकोसेणं सत्त' ' ગૌતમ! પુલાકને 'અનેક ભવમાં જઘન્યથી બે આકર્ષ અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત આકર્ષ હોય છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-યુલાકને એક ભવમાં એક અને બીજા ભવમાં બીજું “આકર્ષ હોય છે. આ રીતે અનેક ભવને આશ્રય કરીને પુલાકને જઘન્યથી બે “આકર્ષ કહ્યા છે પુલાક અવસ્થા ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભામાં હોય છે. તેમાં એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી તે ત્રણ વાર હોય છે. આ રીતે પહેલા ભવમાં એક “આકર્ષ” અને બે ભમાં ત્રણ ત્રણ “આકર્ષ થવાથી અનેક ભવની અપેક્ષાથી ૭ સાત “આકર્ષ ઉત્કૃષ્ટપણાથી થાય છે. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ treet टीका ०२५ उ. ६०९१ २८ आकर्षद्वार निरूपणम् २२३ आकर्षा भवन्तीति । 'व उसस्स पुच्छा' वकुशस्य खलु भदन्त । अनेकभवग्रहणे कियन्व आकर्षा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयजा' हे गौतम ! 'जह नेणं दोनि' जवन्येन द्वौ आकर्षो भवतः, 'उकोसेणं सहरसग्गसो' उत्कर्षेण सहस्राग्रशः सहस्रपरिणामेन सहस्त्रपृथक्त्वमित्यर्थः वक्रुतस्याष्टौ भवग्रहणानि उत्कर्षतः कथितानि एकम्पिन् भवग्रहणे चाकपणां शत्रुपृथक्यं कथितम् तत्र च यदा अष्टा स्वपि ग्रहणेषु उत्कर्षतो नत्र प्रत्येकमाकर्षशतानि तदा नवानामपि शतानाम् अष्टाभिर्गुणने सप्तसहस्त्राणि शतद्वयाधिकानि भवन्तीति । 'नियंठास णं पुच्छा' की अपेक्षा से उत्कृष्ट रूप में होते है । 'बउसस्त पुच्छा' हे भदन्त ! कुश के अनेक भयों में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि उक्को सेणं लहस्सग्गसो' हे गौतम ! कुश के अनेक भों में जघन्य से दो आकर्ष और उत्कृष्ट से दो हजार से लेकर ९ हजार तक आकर्ष होते हैं । इनका विचार इश्व इस प्रकार से है - बकुश के उत्कृष्ट से आठ नव होते हैं इन में से प्रत्येक भव में अधिक से अधिक शतपृथक्त्व आकर्ष होते है । इल प्रकार आठ भवों में उत्कृष्ट से ९-९ सौ आकर्ष हो जाते हैं । ९ सौ आकप के साथ ८ का गुणा करने से सब मिलकर 'कुल आकर्ष ७२०० होते हैं । इसी लिये यहां वकुश के उत्कृष्ट से सहस्र पृथक्त्व तक आकर्ष कहे गये हैं । 'णियंठस्स णं पुच्छा' हे भदन्त निर्ग्रन्थ के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! जहन्नेणं दोशि 'बउसस्स पुच्छा' हे लगवन् महुशले भने! लवोभा डेंटला 'माष'' होय हे ? या प्रश्नना उत्तरभां अनुश्री छे - 'गोयमा ! जहन्नेण दोन्नि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो' हे गौतम! बहुमाने उत्कृष्टथी भने लवोभां धन्यधी मे “ક” અને ઉત્કૃષ્ટથી બે હજારથી લઈને નવ હજાર સુધી આકષ્ટ' હાય છે. આ કથનના સારાંશ એવા છે કે-કુશને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવ હાય છે તેમાંથી પ્રત્યેક ભવમાં વધારેમાં વધારે શતપૃથકત્વ ‘આક’ હૈાય છે. એ રીતે આઠે ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી ૯-૯ નવસેા નવસે ‘આકર્ષ' થઈ જાય છે . નવસે આકર્ષ''ની સાથે ૮ ને ગુણાકાર કરવાથી બધા મળીને કુલ ૭૨૦૨ સાત હજાર ખસે થાય છે. તેથી અહિયાં ખકુશને ઉત્કૃષ્ટથી ૯ નવ હજાર સુધી આકષ' કહ્યા છે. 'नियंठस्स णं पुच्छा' ह ભગવત્ નિગ્રન્થને અનેક ભવામાં કેટલા आर्ष होय छे ? या प्रश्नना उत्तरभां अनुश्री हे - 'गोयमा ! जहणणं Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ भगवतीसूत्रे निग्रन्थस्य खलु भदन्त ! अनेक मवाहणीयाः किन्न आकर्पा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणे दोन्नि उक्क सेणं पंच' जघन्येन द्वौ उत्कर्षेण पञ्चाका नवन्ति, निर्ग्रन्थस्योत्कृष्टत स्त्रीणि भवग्रहणानि कथित्तालि एकत्र च भवे द्वौ द्वौ आकौं इत्येवमेकत्र भवे द्वौ अपर. त्रापि च द्वौ तदन्यत्र भवे एक आरूप इस्पे क्रमेण निन्यस्योकप्टतः पञ्चा की भवन्ति, अत्र चरम मेकं सपनिम्रन्थत्वाकर्प कृत्वा सिद्धयतीति कृत्वा पश्चा कर्पाः प्रोक्ता इति । 'सिणायसम्म णं पुन्छ।' स्नातकस्य खलु भदन्त ! नाना भव ग्रहणे कियन्त आकर्षा भवन्तीति पृच्छा प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नस्थि एकोबि' नारित एकोऽपि आकप: स्नातकस्याकर्ष एव न भवतीति भावः २८ म्०११।। उकोण पंच' हे गौतम ! निर्गन्ध के अनेक भवों में कम से कम दो आकर्ष और अधिक से अधिक पांच आकर्ष होते हैं । तात्पर्य यह है कि निर्ग्रन्थ के उत्कृष्ट से तीन भव होते हैं इनमें से प्रथम भव में दो आकर्ष द्वितीय अध में दो आकर्ष और तृतीय अब में एक इस प्रकार से उत्कृष्ट रूप में निर्ग्रन्थ के पांच आकर्प होते कहे गये हैं। अन्तिम क्षपक निर्ग्रन्थ अवस्था का आकर्ष कर वह सिद्ध हो जाता है। __'लिणायल णं पुच्छा' हे अदन्त ! स्नातक के नाना भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नधि एक्को वि' हे गौतम ! स्नातक के एक भी आकर्प नहीं होता है ॥१०११॥ दोन्नि उक्कोसेणं पच' गौतम! नियन्यने मने मामा याम माछ। બે આકર્ષ અને વધારેમાં વધારે પાંચ આકર્ષ હેય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે- નિને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભવ હોય છે. તેમાંથી પહેલા ભવમાં બે આકર્ષ બીજા ભવમાં બે “આકર્ષ અને ત્રીજા ભવમાં એક આ રીતે ઉત્કૃષ્ટ પણામાં નિર્ચીને પાંચ “આકર્ષ હોવાનું કહેલ છે છેલ્લી ક્ષપક નિથ અવસ્થાનું “આકર્ષ કરીને તે સિદ્ધ થઈ જાય છે. 'सिणायस्स णं पुन्छा' 8 सावन स्नातन नाना सवामा मेट है અનેક ભવમાં કેટલા “આકર્ષ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है-'गोयमा। नत्थि एक्को वि', गौतम! स्नातने ५ 'मा " હેતું નથી. સૂ૦ ૧૧ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१२ २९ कालादिद्वारनिरूपणम् २२५ ___एकोनविंशत्तमादिकं कालादिद्वारं द्वात्रिंशत्तपहारपर्यन्तमाह-'पुलाए णं भंते ! इत्यादि। मूलस्-पुलाए गं अंते ! कालमओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुरा उकोलेण चि अंतोसुहत्तं! वडसे पुच्छा गोरामा ! जहनेणं एवं हलयं उनोसेणं देसूमा पुनकोडी। एवं पडिलेवणाकुलीले वि कसायकुलीले वि। णियंठे पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक मयं उक्कोतेणे अंतोमुहत्तं। लिणाए पुच्छा गोया ! जहन्नेगं अंतोमुहुर्त उक्कोसेण देसूणा पुठवकोडी। पुलाश मंते ! कालभो केवइचिरं होति? सोचमा ! जहन्नेणं हा उकशोरोमं अंतोमुहुन्। बदसापां पुन्छा गोयना ! सन द्धं एवं जान कसायकुसीला णियंठा जहा पुलाया सिणाया जहा बसा।२९। Jलागल णं भंते ! केवइथं झालं अंतरं होइ, गोयसा! जहन्लेणं एक समयं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंलाओ उलपिणी ओस्लाप्पिणीओ कालओ अडपोग्गलपरियष्टं देखूणं एवं जाव णियंठस्ल । क्षिणायल पुच्छा गोयला! नस्थि अंतरं । पुलायाणं अंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ, गोयना! जहन्लेणं एककं समयं उक्कोलेणं संखेज्जाई वासाइं। बउला भंते ! पुच्छा गोथमा! नस्थि अंतरं एवं जाव लायकुसीलाणं । णियंठाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्ने] एक्कं समयं उनकोलेणं हम्मामा। सिणायाणं जहा बउताणं३० पुलागरस संते ! कइ समुरघाया पन्नत्ता गोरमा ! तिन्नि समुग्धाया पन्नता तं जहा वेचणाममुग्घाए कसायलमुग्धाए मारणांतिय समुरघाए । बउसस्त णं भंते ! पुच्छा गोचमा! पंध समुग्घाया पन्नता तं जहा वेषणालमुग्घाए जाव तथालमुग्घाए। एवं पडिवणाकुलीलस्स वि। कसायकुसीलस्स अ० २९ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भगवतीसूत्रे पुच्छा गोयमा ! छ लसुग्घाया पन्नता तं जहा-वेयणासमुग्घाए जाव आहारगससुरघाए। णियंठस्स णं पुच्छा गोयमा ! नत्थि एक्को वि। लिणायस्ल पुच्छा एक्के केवलिलमुरघाए पन्नत्ते३१॥ पुलाए णं भंते ! लोगन किं संखेजइमागे होज्जा १, असंखेजहभागे होज्जा २, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ३, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ४, सव्वलोए होज्जा ५? गोयमा! णो संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा णो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, णो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, णो सव्वलोए होज्जा । एवं जाव णियंठे। सिणाए णं पुच्छा, गोयमा! णो संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा, णो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा सव्वलोए वा होज्जा ३२॥सू०१२॥ छाया--पुलाका खल्ल भदन्त ! कालतः कियचिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूत्तम् उत्कर्पणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् । बकुशः पृच्छा गौतम ! जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः, एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि कपागकुशीलोऽपि । निर्गन्यः पृच्छा गौतम ! जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेण अन्तर्मुहर्तम् । स्नातक: पृच्छा गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्ततम् उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोरिः । पुलाकाः खलु भदन्त ! कालत: कियच्चिरं भवन्ति, गौतम ! जयन्येन एक समयम् उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । वकुशः खलु पृच्छा गौतम ! सद्धिाम् । 'एवं यावत् कपायकुशीलाः निन्था यथा पुलाकाः, स्नातका यथा वकुशाः २९ । पुलाकस्य खल भदन्त ! कियत्कालभन्तरं भवति ? गौतम ! जघन्येनान्तमुहत्तम् उत्कण अनन्तं कालम् अनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यः कालतः। क्षेत्रतः अपार्द्धपद्गलपरावर्त देशोनम् । एवं यावन्निन्थस्य । स्नातकस्य पृच्छा, गौतम ! नास्ति अन्तरम् । पुलाकानां खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्तरं भवति ? गौतम ! जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षण संख्येयानि वर्षाणि । बकुशानां भदन्त ! पृच्छा गौतम ! नास्ति अन्तरम् एवं यावत् कपाय कुशीलानाम् निग्रन्थानां पृच्छा गौतम ! एकं समयम् उत्कर्षण पण्मासाः । स्नातकानां यथा वकुशानाम् ३०। पुलाकस्य खल्ल भदन्त ! कति समुयाताः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रयः समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वेदनासमुद्घातः१, कपायसमुद्घातः २, मारणान्तिकममुद्घातः ३। वकुशस्य खल भदन्त ! पृच्छा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचंन्द्रिका टोकाश०२५ उ.६ पू०१२-२९ कालद्वारनिरूपणम् २२७ गौतम ! पञ्चसमुद्घाताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वेदनासमुद्घातो यावत् तेजः समुद्धातः, एवं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि । कपायकुशीलस्य पृच्छा-गौतम । पट्समुद्घाता: प्राप्ताः तद्यथा-वेदनासमुद्घातो यावत् आहारसमुद्घातः । निग्रन्थस्य खलु पृच्छा गौतम ! नास्ति एकोऽपि । स्नातकस्य पृच्छा गौतम ! एकः केवलिसमुद्घातः प्रज्ञप्तः ३१ । पुलाकः खलु भदन्त ! लोकस्य किं संख्येयभागे भवेत् १, असंख्येयभागे भवेत् र, संख्येयेषु भागेषु भवेत् ३, असंख्ये येषु भागेषु भवेत् ४, सर्व. लोके भवेत् ५, ? गौतम । नो संख्येयमागे भवेत् पसंख्येयभागे भवेत् नो संख्ये. येषु भागेषु भवेत् नो असंख्ये षु भागेषु भवेत् नो सर्वलोके भवेत् । एवं यावद निर्ग्रन्थोऽपि । स्नातकः खलु पृच्छा गौतम ! नो संख्येयभागे भवेत् असंख्येयभागे भवेत् नो संख्येयेषु भागेषु भवेत् सर्वलोके वा भवेत् ३२ ॥२०१२॥ टीका-'पुकाए णं भंते ! कालो के वच्चिरं होई पुलाका खल्छ भदन्त ! कालतः क्रियचिरं भाति, कालापेक्षया पुलाकः कियन्त कालं तिष्ठतीति मश्नः । भगवानाह--'गोषमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुर्त' जघ. न्येनान्तमहत्तं भवति पुलाका, 'उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्त उत्कर्षेणापि अन्तमुंहूतम् पुलाकतां मविपन्नो जीवो यावत्पर्यन्तमन्तमुहूर्त न परिसमाप्यते ताव. त्पर्यन्तं न म्रियते, तथा पुलाकत्वात् पतितोऽपि न भवतीति कृत्वा जघन्यतोऽन्तमुहूर्त्तमित्युच्यते । तथोत्कर्पतोऽपि अन्तर्मुहूर्त्तमात्रमेव भवति एतत्ममाणत्वादेत २९ वे द्वार से लेकर ३२ वें द्वार तक का कथन 'पुलाए णं भंते' इत्यादि। टीकार्थ-'पुलाए णं अंत! बालओ केवञ्चिरं होई' हे अदन्त ! काल की अपेक्षा से पुलाक कितने साल तक रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा! जहन्नेणं अंनोमुत्तं उक्कोलेण वि अंगोमुहत्तं' हे हे गौतम ! पुलाक काल की अपेक्षा जघन्य से और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहर्त तक रहता है । अर्थात् जब तक एक अन्तर्मुहर्त समास હવે ઓગણત્રીસમા દ્વારથી તેત્રીસમાં દ્વાર સુધીના દ્વારનું કથન કરपामा मा छे. 'पुलाए णं भंते !' त्यहि -'पुलाए णं भंते ! काल ओ केवच्चिर' होइ' 8 मापन आणना અપેક્ષાથી પુલાક કેટલા કાળ સુધી રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीन छ -'गोयमा ! जहन्नेणे अंतोमुहुच उक्कोसेण वि अंतो. मुहत्त' के गौतम ! Yels नी अपेक्षाये धन्यथी मने थी मे અંતમુહૂર્ત સુધી રહે છે. અર્થાત્ જ્યાં સુધીમાં એક અંતમુહૂર્ત સમાપ્ત Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २२८ अंगवती स्वभावस्यति । 'वउसे पुच्छा' बकुशः खलु भवन्त ! कालयः क्रियच्चिरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, अगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एकं समयं' जघन्येन एक समयम् 'उक्कोसेणं देरणा पूरुषकोडी' उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिर, बकुशस्य चारित्रप्राप्ते रनन्तरसमये एव मरणस्य संभवेन जघन्येन एक समयमिति कथितं तथा पूर्वकोटयायुका अष्टमपानन्तरं नमो चर्प चारित्रं गृह्णाति तदपेक्षया किञ्चिन्न्यूनपूर्वकोटिवर्पकाल उत्कर्षेण कथित इति । 'एवं पडि सेवणाकुसीलेवि कसायकुसीलेवि' एवम्-वकुशवदेव प्रतिसेवनानुशीलोऽपि नहीं हो जाता है तब तक पुलाकता को प्रतिपन्न हुआ जीबन भरता है और न पुलाक अवस्था से पतित होना है। इस कारण जघन्य और उत्कृष्ट काल इलका एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। 'छउसे पुच्छा' हे भदन्त ! बकुश काल की अपेक्षा किन्ने फाल तक रहना है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्नोसणं देरणा पुव्यकोडी' हे गौतम ! काल की अपेक्षा पकुमा जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से कुछ का एक पूर्व कोटि तक रहता है । यहाँ जो बकुमा का जघन्य ले एक सालय का काल कहा गया है उसका कारण ऐसा है कि कुश के चरित्र प्राप्ति के बाद तुरत ही मरण होने की संभावना रहती है। पूर्व कोटि की आयुमाला आठ वर्ष के बाद नौ वें वर्ष में वारिन ग्रहण कर लेता है इल अपेक्षा उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्व कोटि का कहा गया है। - થતું નથી, ત્યાં સુધી પુલાકપણામાં રહેલા જ મરતા નથી, તથા પુલાક અવસ્થાથી પતિત પણ થતા નથી. તે કારણથી જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહૂર્તકાળ તેમને કહેલ છે. 'वउसे पुच्छा' 3 मावन् मधुश जनी मपेक्षाथी असा ७ सुधा २७ १ मा प्रश्नता उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एकाई समय' उक्कोसेणं देसूणा पुत्रकोडी' है गोतम ! ४जनी अपेक्षाथी गश જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછા એક પૂર્વકેટી સુધી રહે છે. અહિયાં બકુશને જઘન્યથી એક સમયને કાળ કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે–બકુશને ચારિત્ર પ્રાપ્તિ પછી તરત જ મરણ થવાની સંભાવના રહે છે, અને પૂર્વ કેટીની આયુષ્યવાળા આઠ વર્ષને અને ચારિત્રગ્રહણ કરી લે छ. ते अपेक्षाथी *४४ ४ ४ पूर्व अटीन हो छ, 'एवं पडिसेवणा Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०११-२९ कालद्वारनिरूपणम् २२९ कषायकुशलोऽपि विज्ञेयः, तत्र प्रतिसेनाकुशीलः जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षेणदेशोना पूर्वकोटि यावदवतिष्ठते इति । कपायकुशलोऽपि जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिवर्प यावदवष्ठिते इति । 'नियंठे णं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कालतः कियचिरं भवतीति पृच्छा - प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'जहन्नेणं एक्कं समयं जघन्येन एकसमयम् उपशान्तमोहस्य प्रथमसमयसमनन्तरमेव मरण संभवेन एकमात्र कथितम् 'उक्कोसेणं अंत मुहुतं' उण अन्तर्मुहूर्त यावदवतिष्ठते निर्ग्रन्थाद्वाया एवं प्रमा णत्वादिति । 'मिणाए पुग्छ।' स्नातकः खलु मदन्त ! कालनः कियचिरं भव 'एवं पडिलेवणाकुसीले बि कलायकुसीले वि' इसी प्रकार का कथन प्रतिसेवना कुशील और कपायकुशील के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये अर्थात् ये दोनों भी जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्वकोटि तक रहते हैं । 'नियंठे णं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ काल की अपेक्षा किनने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! जहणं एक्कं मयं उक्को सेणं अंतो' हे गौतम! निर्ग्रन्थ जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट ले अन्तर्मुहूर्त्त तक रहता है । यहां जो निर्ग्रन्ध के रहने का काल एक समय का जघन्य ले कहा गया है सो उसका कारण ऐसा है कि उपशान्तमोह वाले निर्ग्रन्थ की प्रथम समय के समनन्तर ही मरण की संभावना होती है । तथा निर्ग्रन्थ अवस्था का उत्कृष्ट काल एक अन्तर्मुहूर्त का होता है इसलिये उत्कृष्ट से वह इतना कहा गया है । 'लिणार पुच्छा' हे कुसीदें वि कसायकुसीले वि' मा प्रभाषेनु श्थन अतिसेवनाडुशीस भने કષાય કુશીલના સમ્મન્ધમાં પણ જાણવુ જોઇએ અર્થાત્ એ અન્તે પણ જઘ ન્યથી એક અન્તર્મુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ક્રમ એક પૂ`કેટી સુધી रहे छे. 'नियंठे णं पुच्छा' हे भगवन् निर्थन्थ भजनी अपेक्षाथी डेंटला आण सुधी रहे हे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री छे - 'गोयमा ! जहन्ने एक्क' समय' उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त ' हे गौतम! निर्थन्थ धन्यथी मे સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતમુહૂત સુધી રહે છે અહિયાં નિગ્રન્થને રહેવાને કાળ જે જન્યથી એક સમયનેા કહ્યો છે, તેનું કારણ એવું છે કેઉપશાન્ત માહવાળા નિગ્રન્થના મરણની સભાવના પ્રથમ સમયના સમનન્તર જે -તુરત જ થાય છે. તથા નિન્થ અવરથાના ઉત્કૃષ્ટ કાળ એક અંતર્મુહૂતને होय छे, तेथी उत्डुष्टथी तेने भेटलो उडेल हे 'सिणाए पुच्छा' हे लगवन् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती तीति प्रच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जह न्नेणं अंतो मुहत्तं' जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् आयुपोऽतिमान्तर्मुहर्ते केवळज्ञानोत्पत्ती अन्तर्मुहत्त जघन्येन स्नातककाळः स्यादिति । 'उकोसेणं देमृणा पुचकोडी' उत्कर्षेण देशोना पूर्व कोटिः स्नातक साल इति । पुलाकादीनामेकत्वेन कालमान कथयिस्वा अथ सेपामेव पुलाकादीनां पृथक्त्वेन कालमानमाह-'पुलाया गं' इत्यादि, 'पुलाया णं भरो ! कालओ केवचिरं होति' पुलाकाः खलु भवन्त ! कालत कियच्चिरं भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक समय' जघन्येन एक समयम् एकस्य पुलाकस्य योऽन्तभदन्त ! स्नातक काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जान्नेणं अनोमुहत्तं उक्सोसेणं देसूणा पुत्रकोडी' हे गौतम ! स्नातक जघन्य से एक अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि तक रहता है । जघन्य से जो अन्तर्मुहर्त काल कहा गया है वह आयु के अन्तिम अन्तर्मुहर्त में केवलज्ञान की उत्पत्ति होने के पीछे की अपेक्षा से कहा गया है। । अब सूत्रकार पुलाक आदिकों के बटुत्व को लेकर इनका पृथक् रूप से कालमान कहते हैं-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐमा पूछा है-'पुलाया णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होति' हे भदन्त ! समस्त पुलाक काल की अपेक्षा कितने काल तक रहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-"गोयमा ! जहानेणं एकं समयं हे गौतम! समस्त पुलाक काल की अपेक्षा जघन्य से एक समय तक रहते हैं और 'उक्कोसेणं સ્નાતક કાળની અપેક્ષાથી કેટલા કાળ સુધી રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रमुश्री ४३ छ -'गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहुत्त उक्के सेणं देसू गा पुधकोड़ी' ગૌતમ! સનાતક જઘન્યથી એક અન્તર્મુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછા એક પૂર્વકેટિ વર્ષ સુધી રહે છે. જઘન્યથી જે અન્તર્મુહૂર્તને કાળ કહ્યો છે, તે આયુષ્યના દેહલા અંતર્મુહૂર્તમાં કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થયા પછી કહેલ છે. - હવે સૂત્રકાર પુલાક વિગેરેના બહુપણાને લઈને પૃથક રૂપથી તેઓનું भान ४ छ-मामा श्रीगोतमस्वाभीमे प्रभुश्री मे पूछयु छे-'पुलाया णं भंते ! कालओ केवञ्चिर होति' 8 मावन सपणा Yant अपनी अपेक्षाथी ४८ सुधी २७ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छ -'गोयमा ! जहन्नेणं एक समय' हे गौतम ! सघायुसा मी अपेक्षा अन्यथा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-२९ कालद्वारनिरूपणम् २३१ मुहर्तसमय स्तस्यान्त्यसमये अन्यः पुलाकत्वं प्रतिपन्न इत्येवं जघन्यत्वविवक्षायां द्वयोः पुलाकयोरेकस्मिन् समये सद्भावो भवत्यतो द्वयोः पुलाकयोरेकएव समयो भवति, द्वित्वेच जघन्यं पृथक्त्वं भवतीति 'उक्कोसेणं अतोमुहुत्तं' उत्कर्षेणान्त. मुहूर्तम् पुलाकस्य कालः यद्यपि पुलाका उत्कर्षेण एकदा सहस्रपृथक्त्तपरिमाणाः पाप्यन्ते तथापि अन्तर्मुहूर्त्तमात्र प्रमाणत्वात्तदद्वाया बहुत्वेऽपि तेषामन्तर्मुहूर्त मेव तत्कालः केवलं वहूनां स्थितौ यदन्तर्मुहूतं तदेकपुलाकस्थित्यन्त महत्ता न्महत्तरमिति ज्ञातव्यमिति । 'वउसेणं पुच्छा' बकुशः खलु भदन्त ! कालत: कियच्चिरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वद्धं' सद्धिास् सर्वकालमित्यर्थः बकुशादीनां तु स्थितिकाल सद्धिा अंतोमुहत्त' उत्कृष्ट से एक अमर्मुहर्त तक रहते है । इसका तात्पर्य ऐसा है-एक पुलाक का जो अन्तर्मुहूर्त समय होता है उसले अन्त्य समय में दूसरा पुलाक हो जाता है, इस प्रकार दो पुलाकों का एक समय में सद्भाव पाया जाता है । इस सदभाव से अनेक पुलाकों का जघन्य काल एक ही समय आजाता है। तथा अनेक पुलाकों का जो उत्कृष्ट समय अन्तर्मुहूर्त कहा गया है सो उसका कारण ऐसा है कि अनेक पुलाक एक समय में उत्कृष्ट से सहस्त्रपृथक्त्व तक होते हैं । यद्यपि इस प्रकार से ये बहुत होते हैं परन्तु फिर भी इनका काल अन्तर्मुहर्त ही होता है । यह अनेक पुलाकों की स्थिति का अन्तर्मुहूर्त एक पुलाक की स्थिति के अन्तर्मुहूर्त से बड़ा होता है । 'बउसेणं पुच्छा' हे भदन्त ! अनेक बकुश कितने काल तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सव्वद्धं' हे गौतम ! अनेक बकुश सब मे समय सुधी रहे छ. भने, 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त' vथी मे मतસ્હૂર્ત સુધી રહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે-એક પુલાકનો જે અન્તર્મુહૂર્ત સમય હોય છે. તેને અન્ય સમયમાં બીજો પુલાક થઈ જાય છે. આ રીતે બે પુલાકને સદ્ભાવ એક સમયમાં થઈ જાય છે. આ સભાવથી અનેક પુલાકે જઘન્ય કાળ એક થઈ જાય છે તથા અનેક પુલાકને ઉત્કૃષ્ટ સમય જે અંતર્મુહૂતને કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે–અનેક પુલાકે એક સયમાં ઉત્કૃષ્ટથી સહસ પૃથકત્વ સુધી થઈ જાય છે. જો કે આ રીતે આ ઘણું હોય છે, તે પણ આને કાળ અન્તર્મુહૂર્તાને જ હોય છે. આ અનેક પુલાકોની સ્થિતિનું અંતર્મુહૂર્ત એક પુલાકની સ્થિતિના અંતમુહૂર્તથી મોટું હોય છે. 'बउसेणं पुच्छा' लगवन् भने ५ eal m सुधी २९ छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४६ छ -'गोयमा ! सव्वद्ध" गीतमा भने Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे २३२ प्रत्येकं तेषां वकुशादीनां बहुस्थितिकत्वादिति । 'एवं जाय कसायकुसीला' एवं यावत् कपायकुशीलाः यावत्मविलेवनाकुशीलानां कपायकुशलानां च सर्वाद्धा स्थितिकालो भवति प्रत्येकयेतयोः बहुरिथविकत्वादिति । 'नियंठा जहा पुलागा' निर्ग्रथा यथा पुलाकाः पुलाकत्रदेव निर्ग्रन्यानां स्थितिकालो जघन्येन एकसमया त्मक उत्कर्षेण अन्तर्मुहूतीत्मक इति । 'पिणाया जहा व उमा' नाटका गथा वकुशाः । agree taraar स्थितिकाला सद्वा एव यवतीति २९ । त्रिंशत्तममन्वरद्वारमाह- 'पुलागरणं भंते! केवयं कालं अंतरं होई' पुलाकस्य खलु भवन्त । कियत कालमन्परं भवति पुलाः पुलाको ल्या कियता कालेन पुनः काल रहते हैं । क्योंकि कुदा आदिकों की स्थित का काल सर्वाद्ध है । कारण कि शादिकों में से प्रत्येक कण वह स्थिति वाले होते हैं' । ' एवं जान कलाकुसीला' हमी प्रकार के प्रतिसेवनार्शल और कपायकुशील इनका भी स्थितिकाल वर्षाद्वा (व काल) रूप है । क्योंकि इनमें से प्रत्येक बहुत स्थिति बाछे होते हैं । 'नियंठा जहा पुलागा पुलाकों के जैसे निर्ग्रन्थों का भी स्थिति काल जघन्य से एक समय रूप और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त रूप होता है । 'सिणाया जहा बक्सा' पक्शों के जैसे स्नातकों का भी स्थितिकाल मर्वाद्वारूप ही होता है ||२९ में हार का कथन समाप्त || ३० वें अन्तरद्वार का कथन 'पुलाग of भले ! यह कालं अंतर होह' हे भदन्त ! गुलाक का कितने काल का अन्तर होता है ? अर्थात् पुलाम होकरके फिर કુશા સઘળા કાળ રહે છે. કેમકે-કુશ વિગેરેની સ્થિતિના કાળ સર્વોદ્ધા છે. કારણ કે કુશ વિગેરેમાંથી દરેક ખકુશા બહુસ્થિતિવાળા હોય છે. વ जाव कसायकुसीला' गेट अभाले प्रतिसेवनाडुशील भने उषायङ्कुशीसने। સ્થિતિકાળ પણ સર્વાંદ્ધા છે. કેમકે તેમાંથી દરેક ખહુસ્થિતિવાળા હાય છે. 'नियंठा जहा पुलागा ' साना उथन प्रभारी निर्थ थाना स्थिति જઘન્યથી એક સમય રૂપ અને ઉત્કૃષ્ટથી અતર્મુહૂત રૂપ હોય છે. સિળયા जहा बसा' मधुशोना उथन अभाये स्नात अना स्थितिअण यागु सर्वाद्वा રૂપ હોય છે. ૫ ૨૯ મા દ્વારનું કથન સમાપ્ત ॥ હવે અન્તરનું કથન કરવામાં આવે છે 'पुलास णं भते | इय काल' अंतर होइ' हे लगवन् युसाउने डेटसा કાળનું અંતર હાય છે ? અર્થાત્ પુલાક, પુલાક થઈને તે પછી કેટલા કાળ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१२-३० अन्तरद्वारनिरूपणम् २३३ पुलाकत्वमासादयतीति प्रश्नः, भगवानाह- गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोगुहृत्तं उक्कोसेणं अणंत काल' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्पणानन्त कालम् जघन्यतो अन्तर्मुहूर्त स्थिश्वा पुनः पुलाको भवति उत्कर्पतस्तु पुनरनन्तेन कालेन पुलाकतामाप्नोतीति । कालानन्त्यमेव कालवो नियमयन्नाह-'अणंताओ' इत्यादि, 'अणंताओ ओपरिणी उस्सपिणीयो कालो' अनन्ता अवसपिण्युन्सपिण्यः काल. तोऽन्तरं भवति एतदेव क्षेत्रतोऽपि नियमयन्नाह-'खेत्तओ' इत्यादि, 'खेत्तभो अवड्रपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण क्षेत्रतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त देशोनम् क्षेत्रतः किञ्चि न्यूनापापुद्गलपरावर्तपर्यन्तमन्तरं भवति अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तमिति कथमित्याह -तत्र तावत्पुद्गलपरावर्च. कथ्यते-केनापि पाणिना पतिपदेशं म्रि प्रमाणेन मरणसंख्यया यावता कालेन समस्तोऽपि लोको व्याप्यते तावताकलेन क्षेत्रतः पुद्गलकितने काल के बाद बह पुनः पुलाक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा ! जहन्ने णं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं' हे गौतम ! पुलाक पुलाक हो करके पुनः कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक पुलाक अवस्था से रहित होने के बाद फिर से पुलाक हो जाता है और उत्कृष्ट से अनन्तकाल के बाद वह पुन पुलाक हो जाता है। इस प्रकार से यह अन्तर विरहकाल पुलाक का कहा गया है। अनन्तकाल में-'अणंताओ ओसप्पिणी उस्लप्पिणीओ कालओ' अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणीका अन्तर हो जाता है । 'खेत्तओ' क्षेत्र की अपेक्षा 'अबडपोग्गलपरिघट्ट देखणं' कुछ कम अपार्घ पुद्गल परावर्त का अन्तर हो जाता है। पुद्गलपरा. वर्त का स्वरूप इस प्रकार से है-कोई प्राणी आकाश के प्रत्येक प्रदेश में मरण करता हुआ जितने समय में अपने मरण से समस्त लोकाकाश के પછી તે ફરીથી પુલાક થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा । जहन्नेणं अंतोमुहत्त' उक्कोसेण अणंत कालं', गौतम ! yars પુલાક થઈને ફરીથી ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂર્ત સુધી પુલાક અવસ્થાથી રહિત થયા પછી ફરીથી પુલાક થઈ જાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અનઃકાળ પછી તે ફરીથી પુલાક થઈ જાય છે. આ રીતે આ અંતર-વિરહ કાળ yान ह्यो छे. 'अणंताओ ओस पिणी उस्सपिणीओ कालओ' अनन्त मक्सपिणी असणीनु मत२ / लय छे. 'खेत्तो' क्षेत्रनी पक्षाथी 'अवड्ढपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण' ४४४ मोछ। सपा पुल परावत न म तर થઈ જાય છે પુગલ પરાવર્તનું વરૂપ આ પ્રમાણે છે-કોઈ પ્રાણી આકાશના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં મર થકે જેટલા સમયમાં પિતાના મરણથી સઘળા લેક भ० ३० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती परावर्ती भवति, स चात्र परिपूर्णोन गृह्यते अतोऽपार्द्ध पुद्गलपगवर्तमिति कथितम् । अपार्द्धमिति अपगतम मिति परिपूर्णम् भवति तदपि नेत्याह-'देसणं' इति देशेन भागेन न्यूनमिति देशोनमपापुद्गलपरावर्तमिति कयितमिति । 'एवं जाव णियंठग्स' एवं यावत् निन्थस्य यावत्पदेन बकुश - ति सेवनाकुशीलकपायकुशीलानां संग्रहो भवति तथा च वकुशप्रतिसेवनाकुशी कपायाशीलनिग्रंथानां जघायतोऽन्तहर्तमन्तरकालो भवति उत्कण तु अनन्तकालं कालतोऽन्तरं भवति तथा क्षेत्रतो देशोनाऽपाईपुद्गलपरादपर्यन्तमन्तरं भवतीति भावः । 'रिणायरस पुग्छ।' स्नातकस्य खल्ल भदन्त ! कियकालमन्तरं भवतीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नस्थि अंतरं' नारित अन्तर स् स्नातकरयान्तरं न अवति प्रतिपाताभावादिति । पुलाकत्वादीना प्रदेशों को व्याप्त कर देता है वह क्षेत्र की अपेक्षा एक पगल परावर्त है, ऐसा यह पुद्गल एरावर्त यहां पूरा का पूरा नहीं लिया गया है किन्तु आधा लिया गया है और इस आधे में से भी कुछ पाम आधा लिया गया है एवं जाव णियंठस्स' इसी प्रकार से विरह काल का कथन थकुश, प्रतिलेछनाकुशील कषायकुशील एवं निर्ग्रन्थ तक के साधुओं में भी जानना चाहिये । तथा च चकुश, प्रतिसेवनानुशील, कषायकुशील और निर्गन्ध इनमें जघन्य अन्तर एक अन्तमुहर्त का है और उस्कृष्ट अनन्तकाल-क्षा है, जो कि क्षेत्र की अपेक्षा अन्तर कुछ. कम अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त का है। ___ 'लिणायल पुच्छा' हे लदन्त ! स्मातक के कितने साल का अन्तर होता है ? हलके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नत्धि अंतरं' કાશના પ્રદેશોને વ્યાપ્ત કરી દે છે. તે ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી એક પુગલ પરવર્ત છે, એ આ પુલ પરાવર્ત અહીયાં પૂરેપૂરો લીધેલ નથી પરંતુ अर्धा ग्रहण, ४२ छ. म माथी म मधे सीधेस छे. 'एवजाव णियंठस्स' मे०४ शत: वि२६४४नु'थन [श प्रतिसेवन शीत, ४ाय કુશીલ, અને નિર્ગથ સુધીના સાધુઓમાં પણ સમજવું જોઈએ. તથા બકુશ પ્રતિસેવન કુશીલ કષાય કુશીલ અને નિગ્રન્થમાં જઘન્ય અન્તર એક અન્તર્મુહૂર્તનું છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અંતર અનંત કાળનું છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અંતર કંઈક કામ અપાઈ–અર્ધ પુગલ પરાવર્તનું છે. ___'सिणायस्स पुच्छा' 8 लगवन् २नातन वा अनु अतर डाय छ, AL, प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४१ छ -'गोयमा ! नत्थि अंतर गौतम! Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१२-३० अन्तरद्वारनिरूपणम् २३५ मन्तरमेकत्वापेक्षया प्रतिपाद्य अथ तेपामेव तदन्तरं पृथक्लापेक्षया वक्तुमाह'पुलाया णं भंते' इत्यादि, 'पुलायाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई', पुलाकानां खल भदन्त कियन्तं कालं पुलाकत्वादीनामन्तरम् - व्यवधानं भवतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'जहन्नेणं एक्कं समयं ' जघन्येन एकं समयमन्तरं भवति पुलाकानाम् उक्को सेर्ण संखेज्जाई वासाई उत्कर्षेण संख्यातान् वर्षानन्तरं भवति । 'बउमाणं भंते ! पुच्छा, बकुशानां खलु मदन्त ! कियत्कालमन्तरं भवतीति पृच्छा-प्रश्नः भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' d. itar ! 'नत्थि अंतरं' नास्ति अन्तरम् वकुशानां व्यवधानकारणाभावा. दिति, 'एवं जाव कसायकुसीलाण' एवं यावत् कपायकुशलानाम् यावत्पदेन हे गौतम! स्नातक के अन्तर नहीं होता है । क्योकि उसका प्रतिपात नहीं होता है, इस प्रकार से यह अन्तर कथन पुलाक आदि को की एकता को लेकर किया गया है। अब इनकी अनेकता को लेकर अन्तर कथन इस प्रकार से है - इसमें गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - 'पुलाया णं भंते ! केचइयं कालं अतरं होई' हे भदन्त ! पुलाकों का अन्तर कितने काल का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा । जहनेणं एत्रक समयं उक्को सेणं, संखेज्जाई वालाई' हे गौतम ! पुलाकों का अन्तर जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से संख्यातवर्षो का अन्तर-व्यवधान हो जाता है 'बरसार्ण भंते ! पुच्छ।' हे मदन्त । वकुशों का अन्तर किनने काल का होता है ? उत्तर में प्रभुश्रीं कहते है - 'नथि अंतर' हे गौतम ? व्यवधान के कारणों के अभाव होने से बकुशों में अन्तर नहीं होता है । 'एवं जाव સ્નાતકને અતર હાતું નથી કેમકે-તેના પ્રતિપાત હાતેા નથી. આ 'રીતે આ અન્તર કથન પુલાક વિગેરેના એકપણાથી કહેલ છે. હવે તેના અનેકપણાને લઈને અન્તર કથન કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે. આમાં गौतमस्वामी प्रभुश्रीने येवु छे छे - 'पुलाए ण' भंते ! केत्रइयं काल अ ंतर' होइ' हे भगवन् पुसाअनुं अंतर उसा अजतु होय छे ? मा अश्नना उत्तरमा प्रलुश्री डे छे - 'गोयमा । जइन्नेणं एक्क' समय उक्कोंसेणं संखेज्जाई वासाइ' डे गौतम | युद्धाअनु अंतर धन्यथी शो समयनु मने उत्ष्टथी अतर सभ्यात वर्षातुं व्यवधान था लय हे 'वउसेणं भंते । पुच्छा' हे लगवन् मशीनु तर टिसा अजनुं होय हे ? या प्रश्नमा उत्तरभां अलुश्री मद्धे छे है- 'नत्थि अंतर" हे गौतम! व्यवधानमा अरोन भलाव होवाथी मञ्जुशोभा अतर हेतु नवी ' एवं जात्र कमायकुसीलानं ' Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ भगवतीपत्रे प्रतिसेवनाकुशीलानां संग्रहो भवति तथा च प्रतिसेवनाकुशलानां कायकुशीलानां चान्तरं न भवतीति भाव: । 'णियंटा णं पुच्छा' निर्ग्रन्यानां खलु भदन्त ! कियत्कालमन्तरं भवतीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहून्ने एक्कं समयं जघन्येन एकं मयमन्तरं भवति 'उको सेणं छम्मामा' उत्कर्षेण पण्मासान् उत्कर्षतः पण्मापयन्तमन्तरं भवतीति । 'सिणायाणं जहा उसाणं' स्नातकानां यथा वकुशानां नास्ति अन्तरं तथैव अन्तराभावो ज्ञातव्य इति ३० । एकत्रिंशत्तमं समुद्वातद्वारमाह- 'पुलागस्स णं भंते! कह समुग्धाया पन्नत्ता' पुलाकस्य खलु भदन्त ! कति समुद्रयाता महताः ? इति भगवानाह - फसायकुसीला' इसी प्रकार से प्रतिसेवनाकुशील और पायकुशील इनमें भी अन्तर नहीं होता है । 'णिठाणं पुच्छा' हे भदन्त ! निधों में कितने का का अन्तर होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा । जहन्ने एक्कं समयं, कोसेणं छम्मासा' हे गौतम । निर्ग्रन्थों का अन्तर जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से छह मास तक को होता है। 'सिणायाणं जहा उसाणं' हे भदन्त । स्नातकों का अन्तर कितने फाल का होता है ? इस प्रश्नके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं कि हे गौतम स्नातकों का अन्तर कथन कुशों के अन्तर कथन जन्मा है । अर्थात् स्नातकों में अन्तर व्यवधान के कारणों के अभाव से अन्तर नहीं होता है । अन्तरद्वार का कथन समाप्त । ३१ वें समुद्घात द्वार का कथन 'पुलागस्स णं भंते ! कह समुग्धाया पन्नत्ता' हे भदन्त । पुलाक के આજ પ્રમાણે પ્રતિસેવના કુશીલ અને કાયકુશીલમાં પણ અંતર હતું નથી, 'णिय'ठाणं पुच्छा' हे भगवन् निशन्धामां मेटला अजनु' भातर होय हे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री छे - 'गोयमा ! जहणेणं एक समय उक्कोसेणं छम्मासा' से गौतम ! निर्थन्थानु अ ंतर धन्यथी ये सभयतु ते उत्कृष्टथी छ भास सुधीनु होय छे. 'सिणायाणं जहां यसाणं' से लगવન્ સ્નાતકાનું અંતર કેટલા કાળનું હાય છે ? માના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! સ્નાતકાનું અંતર કથન પુલાકેાના અંતર કથન પ્રમાથેનુ છે. અર્થાત્ સ્નાતકામાં વ્યવધાનના કારણેાના અભાવથી અતર હ।તું નથી. એ રીતે આ અંતરદ્વાર કહ્યુ` છે. અંતરદ્વાર સમાપ્ત હવે ૩૧ માં સમુદ્ઘાતદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે 'पुलागरसणं भंते ! कइ समुग्धाया पन्नत्ता' हे लभवन् घुसामने सा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ६ सू०१२-३१ समुद्घातद्वानिरूपणम् २३७ 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ? ' तिन्नि समुग्धाया पन्नत्ता' त्रयः समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा ' तद्यथा- 'वेषणासमुग्धार' वेदना समुद्घातः १, 'कसायसमुग्धाए' कपायसमुद्घातः, चारित्रवतां संज्वलनकपायोदयसंभवेन पायसमुदघातो भवतीति २ । 'मारणंतियसमुग्धाएं' मारणान्तिकसमुद्घातः, अत्र पुलाकस्य मरणाभावेऽपि मारणान्तिकसमुद्घातो न विरुद्ध समुद्घातानिवृत्तस्य कुशीलत्वपरिणामे सति मरणाभावात् इति । 'वउसस्लणं भंते ! पुच्छा' वकुशस्य खलु भदन्त ! कति समुद्घाताः प्रज्ञप्ता: ? इति पृच्छा - प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'पंच समुग्धाया पन्नता' कितने समुद्घात होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयना ! तिन्नि समुग्धाया पन्नत्ता' हे गौतम! पुलाक के तीन समुद्घात होते हैं । 'तं जहा' जैसे- 'वेषणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतिय समुग्धाए' वेदना समुद्घात, कषाय समुद्यात और मारणान्तिक समुद्घात, पुलाक के संज्वलन कषाय का उदय होता है इसलिये कषाय समुद्र्घात हो सकता है क्यों कि चारित्रवालो के संज्वलन कषाय के उदय होने से कषाय समुद्घात होता है । यद्यपि पुलाक का मरण नहीं होता है फिर भी यहां मारणान्तिक समुद्घात का कथन विरुद्ध नहीं पडता है। क्यों कि समुद्घात से निवृत्त होने के बाद कषायकुशीलता आदि के परिणाम के होने पर उसका मरण होता है । 'बउसस्स णं भंते! पुच्छा' हे भदन्त ! बकुश के कितने समुद्घात होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! पंच समुग्धाया पत्ता ' सभुद्घाती होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री छे - 'गोयमा ! तिम्नि समुग्धाया पन्नत्ता' हे गौतम ! युसाउने त्रषु सभुद्घातो हाथ है. 'स' जहा' ते या प्रमाणे - 'वेयणासमुग्धाए, कसायसमुग्धा मारणंतियसमु'घाएं' वेहनासभुद्द्द्घात, उपायसमुद्घात, अने भारयान्ति समुधात पुसाउने સવલન કષાયના ઉદય થાય છે. તેથી કષયસમુદ્દાત થઈ શકે છે, કેમકે ચારિત્રવાળાને સજ્વલન કષાયના ઉદય થવાથી કષાય સમુદ્લાત થાય છે. જો કે પુલાકને મરશુ હોતુ નથી તે પશુ અહિયા મારણાન્તિક સમુદ્ઘાતનુ‘ કથન વિરૂદ્ધ પડતુ નથી. કેમકે-સમુદ્ઘાતથી નિવૃત્ત થયા પછી કષાય કુશીલ વિગેરેના પરિણામ થયા પછી તેનું મરણ થાય છે. 'बउसस्स णं भते ! पुच्छा' हे भगवन् मधुशोने ऐटसा समुद्घाती होय छे? आता उत्तरगां अनुश्री हे छे ! - 'गोयमा ! पंचस्रमुग्धाया पन्नत्ता' हे Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શરૂ भंगवतीस्त्रे ' पञ्च समुद्घाता भवन्ति, 'तं जहा' तद्यया-'वेयणासमुग्याए जाव तेया समुग्याए' । 'वेदनासमुद्घातो यावत् तैजम समुद्घातः यावत् पदेन कपायमारणान्तिकवैकि याणां त्रयाणां संग्रहो भवति ‘एवं पडिसेरणाकुसीले वि' एवं प्रतिसेवनाकुशील विपयेऽपि ज्ञातव्यं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि वेदनादिका स्तैजसान्ताः पञ्च समुद् घाता भवन्तीति । 'कसायकुसीलस्स पुच्छा' कपायकुशीलस्य खल भदन्त ! कति समुदघाताः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' । इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'छ समुग्घाया पन्नत्ता' षट् समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा'पेयणासप्लुग्घाए जाव आहारगसमुग्घाए' वेदना समुद्घातो यावदाहारकसमुद्घाता, यावत्पदेन कपायादीनां चतुर्णी समुद्घातानां संग्रही भवति-तथा च वेदनासमुघावादारभ्याहारकसमुद्घातान्तपट् समुद्घातवान् कपायकुशीलो भवतीति । 'णियंठस्स णं पुच्छा' निर्ग्रन्थस्य खलु, मदन्त ! कति समुद्याता भवहे गौतम ! अकुश के पांच समुद्घात होते हैं । 'तं जहा' जो इस प्रकार खे है-वेदना लमुयान १, कपायसमुद्रात २, मारणान्तिक समुद्घात३, क्रिय समुद्घात ४ और तेजल लमुद्घात ५ 'एवं पडिसेवणाकुसीलेवि' प्रतिसेवनाशील के भी थे ही पांच समुद्घात होते हैं । 'कसाय. कुसीलाल पुच्छ।' हे भदन्त ! कषाय कुशील साधु के कितने समुद्घात होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! छ समुद्घाया पन्नत्ता' हे गौतम ! कपायकुशील साधु के छ सप्लुद्घात होते हैं। 'तं जहा' जो इस प्रकार से ह-वेदना १ कषाय २ मारणान्तिक ३ वैक्रिय समुद्घात ४ तैजस समुद्घात ५ और आहारक समुदघात । 1 - 'नियंठलणं पुच्छा' हे अदन्त ! निर्गन्ध के कितने समुदघात होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोषमा ! नत्थि एक्को विहे जीतम ! मधुशन पाय समुधात उय छे. 'त जहा' मा प्रभारी छे. વેદનાસમુદ્ઘ ત ૧ કષાયસમુદ્દઘાત ૨ મારણાનિક સમુદુઘાત ૩ વૈકિયસમુદ્દઘાત ૪ भने तेससमुहूधात:५ ‘एवं पडिसेवणाकुसीले वि' मे०८ प्रमाणे प्रतिसेवना हुशासन ५ मे पांय समुद्धातडाय छे 'कसायकुपीलस्स पुच्छा' षाय કશીલ સાધુને કેટલા સમુઘાત હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે छ -गोयमा छ स मुग्घाया पन्नत्ता' 3 गौतम! षायगीत साधुने ६ ७ समुद्धात डाय छे 'त जहा' ते ॥ प्रभार छ-वहनासमुद्धात १. पाय સમદુઘાત ૨ મારણતિક સમુઘાત ૩ વૈક્રિયસમુદ્દઘાત ૪ તૈજસસમુદ્દઘાત ૫ मन मा.२४ समुद्धात ६ “णियंठस्स णं पुच्छा' में लगवन् निययन टा समुधात हाय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोंयमा ! नस्थि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०१५ उ.६सू०१३-३२ क्षेत्रद्वारनिरूपणम् न्तीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे 'गौतम' ! 'नथि एक्को वि'. नास्ति एकोऽपि समुद्घातो निग्रन्थस्य तथा स्वभावत्वादिति । 'सिणायस्स पुच्छा' स्नात्वात्य खलु भदन्त ! कति समुदघाताः मज्ञप्ता इति प्रश्नः, भग वानाह-गोयम्।' इत्यादि, 'मोयमा' हे गौतम ! 'एगे केवलिससुग्घाए पन्नत्ते' एक: केवलिस मुद्घातः प्रज्ञप्तः, स्नातकरय तथा स्वभावादेकः केवलिसमुद्घात एव भवति नान्य इति ३१। . अथ द्वात्रिंशत्तमं क्षेत्रद्वारमाह-तत्र क्षेत्रम्-अवगाहनाक्षेत्रमाकाशप्रदेशः । 'पुलाए णं भते !' पुलाकः खलु भदन्त ! 'लोगरस कि संखेज्जइभागे, होजा' लोकस्य किं सख्ये यभागे भवेत् अथवा 'असंखेज्जइ भागे होज्जा' असंख्येयभागे भ वेत् अथवा-'संखे जेसु भागेसु होज्जा' संख्येयेषु भागेषु भवेत् अथश 'असंगौतम ! निर्ग्रन्थ के एक भी समुद्रात नहीं होता है। क्यों कि निर्ग्रन्थ का ऐसा ही स्वभाव होता है । 'सिणायस्स पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक के कितने समुद्घात होते हैं ? 'गोयमा' हे गौतम! स्नातक के 'एगे केवलिससुग्घाए पनत्ते केवल एक ही केवलि समुद्रात होता है और समुद्घात नहीं होते हैं। समुदघात द्वार समाप्त । ३२ वें क्षेत्रद्वार का कथन क्षेत्र से यहां अवगाहना क्षेत्र जो कि आकाशप्रदेशरूप होला है गृहीत हुआ है 'पुलाए णं भंते ! लोगल्स किं संखेजइमागे होज्जा, असं. खेज्जइभागे होज्जा' गौतमस्वामी ने प्रशुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग में रहता है ? अथवा असंख्यातवें भाग में रहता है ? अथवा 'संखेज्जेलु भागेसु होज्जा' संख्शातभागों एक्को वि? गौतम ! नि-धन, मे १९ समुद्धात खात नथी. भ हैनियन्यनो स्वभाव सेवा हाय छ 'सिणायस्म पुन्छा' हे सावन सनातन समुद्धात डाय छे १ उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा !' गौतम-! नाताले 'एगे केवलि समुग्घाए' ठेवण - उसी समुद्धात . हाय छ બી સમુદુઘાત હોતા નથી. એ રીતે આ સમુદ્ઘ દ્વાર સમાપ્ત . - હવે ૩૨ મા ક્ષેત્રદ્રારકથન કરવામાં આવે છે ક્ષેત્રથી અહિયાં અવગાહના ક્ષેત્ર કે જે આકાશ પ્રદેશ રૂપ હોય છે तेनु अहए थय छे. 'पुलाए ण भंते ! लोगस्स कि संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा' श्रीगौतभस्वामी प्रभुश्रीन से पूछ्यु छ है-3 ભગવદ્ પુલાક લેકના સંખ્યામા ભાગમાં રહે છે? અથવા અસંખ્યાતમાં मागमा २ छ ? म मा 'संखेज्जेसु भागेसु होजा' सध्यातमागाभा २ छ ? Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसुत्रे २४० I 'खेज्जेसु भागेसु होज्जा' लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु भवेत् अथवा 'सन्नलोए होज्जा' सर्वलोके भवेत् इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ' हे गौतम! 'णो संखेन भागे होज्जा' नो लोकाकाशस्य संख्याने भागे भवेत् काकोऽपि तु 'असंखेज्जभागे होज्जा' लोकाकाशस्थासंख्यात भांगे भवेन् पुलाकशरीरस्य लोकसंख्येयभागमात्रात्रगाद्दित्वाद | 'णो संखेश्जेषु भागेषु होज्जा' नो संख्यातेषु भागेषु भवेत् 'णो अमखे ज्जेसु भागेसु होज्जा' नो लोका काशस्यासंख्यानेषु भागेषु भवेत् पुलाकः, 'जो सन्नछोए होज्जा' नो सर्वलो के व्याप्तो भवेत् पुलाक इति । 'एवं जाव नियंठे' एवं पुलावदेव यावत् निर्ग्रन्यः, अत्र यावत्पदेन वकुशपतिसेवनाकुशील पायकुशीलन संग्रहो भवदि तथा च में रहता है | अथवा 'असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा 'असंख्यात भागों में रहता है ? अथवा 'सब्बलोए होजा' समस्त लोक में रहना है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! णो संखेज्जह 'भागे होज्जा' हे गौतम पुलाक लोक के संख्यानवें भाग में नहीं रहता है 'असंखेज्जइ भागे होज्जा' किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। इसी प्रकार वह 'णो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा णा असंखेज्जेसु भागेषु होज्जा' लोक के संख्यात भागों में भी नहीं रहता है और न लोक के असंख्यात भागों में भी रहता है तथा 'णो सव्वलोए होजा' संपूर्ण लोक में भी नहीं होता है । पुलाक लेोकाकाश के असंख्यातवें भाग में रहता है ऐसा जो कहा है वह पुलाक के शरीर को लेकर कहा गया है। क्योंकि पुलाक का शरीर लोकाकाश के असंख्यातवें भाग मात्र में अवगाही होता है । ' एवं जाव णियंटे' इसी प्रकार का कथन वकुश - अथवा 'असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा' असण्यात लागोभां अथवा 'सव्वलोए होज्जा' सजा सोभां रहे छे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री उहे छे - 'गोयमा ! णो संखेज्जइभागे हो जा' हे गौतम | पुसा बोम्नां सभ्यातभां भागभां रहेता नथी. 'असंखेज्जभागे होब्जा' परंतु सोना असण्यातभा भागभां रहे छे. ४ रीते 'णो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, णो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा' बोउना सभ्यातमा लागोभां ययु रहेता नथी. याने सोना અસંખ્યાતમા ભાગેામાં પણ રહેતા નથી પુલાક લેાકાકાશના અસ ખ્યાતમા ભાગમાં રહે છે. એવું જે કહેલ છે. તે પુલાકના શરીરને લઈને કહેલ છે. કૅમકે પુલાકતુ' શરીર લૈાકાકાશના અસંખ્યાતમા ભાગ માત્રમાં અવગાહનાवाय छे. 'एव जाव णियंदे' ४ प्रभानु धन मडुश, प्रतिसेवना Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका का श०२५ उ.६ सू०१२-३२ क्षेत्रद्वारनिरूपणम् २४१ वकुशादारभ्य निधान्तः सर्गेऽपि लोकाकाशस्थ असंख्याते एव भागे भवेदिति । 'रिणाए णं पुच्छा' मालकः खलु भदन्त ! किं लोकालाशल्प संख्याते भागे भवेत् सर्वलोके ग स्वेदिति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'लो संखेज्जइमागे हज्जा' नो लोकानाशस्य संख्याते भागे भवेत् र नाका, किन्तु लोकाकाशस्य 'असंखेज्जदमागे होज्जा' असंख्याते भागे भवेद शरीरस्थो दण्डकपाटकरणकाले च लोकासंबरे यमायत्तिमान् भनति केवलिशरीरादीनां तापमानवात् । ‘णो संखेज्जेसु भागेसु कोजा' नो संख्यातेपु लोकाशाशमागेषु भवेत् स्नातकः । किन्तु 'असंखेज्जे मागेसु होज्जा' असंहासेपु लोसाकाशम,गेषु भवेद् मधिकरण काले बोलोकमानस्य वासेनापल्य चामाप्ततया उत्तन्वाल्लोकाकाशस्यासंख्येयेषु भागेषु वर्तते प्रतिवनाशील मायकुशील और निन्ध इनके मन में भी जानना गरि । तथा च-पुलाक से लेशर निर्बन्ध तक के समस्त साध लोकाशाशके असंख्यातवें भाग में अवगाही होते हैं। जिणाए णं पुच्छा' हे भादल ! स्नातक लोक के संख्यातवें भाग रहता? अथया असंख्यात भाग रहता है ? अथवा लोक के संख्यातभागों में रहता है ? अथवा लोक के असंख्यात भागों में रहता है ? अथवा सर्वलोक रहना है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जो संखेज्जह भागे होज्जा, असंखेज्जह भागे होज्जा' हे गौतम ! स्नातक लोकाक्षाशके संख्यात भाग में नहीं रहता है किन्तु यह लोकाकाश के असंख्यालवे याग में रहता है इसी प्रकार वह लोक के संपातलागों में भी नहीं रहता है। किन्तु लोकाक्षाश के असंख्यात भागों में रहता કુશીલ, કષાય કુશીલ, અને નિગ્રંથના સંબધમા પણ સમજવું. તથા બકુશથી લઈને નિર્થી સુધીના સઘળા સાધુ લોકાકાશના અસંખ્યાતમા ભાગમાં અવ गाडनावामा हाय छ 'लिणाएणं पुच्छा' गवन् नात सीना सध्यातमा ભાગમાં રહે છે? અથવા અસંખ્યાતમા ભાગમાં રહે છે? અથવા લોકના સંvયાત ભાગમાં રહે છે? અથવા લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે ? અથવા સ પૂર્ણ લેકમાં રહે છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી કહે છે કેगोयमा। णो सखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा' हे गौतम ! સ્નાતક લોકાકાસના સ યાતમા ભાગમાં રહેતા નથી. પરંતુ તે કાકાશના અસ ખ્યાતમ ભાગમાં રહે છે. એ જ રીતે તે લેકના સા ખ્યામાં ભાગોમાં પણ રહેતા નથી. પરંતુ લોકાકાશના અસંખ્યાતમા ભાગમાં રહે स० ३२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे २४२ स्नातक इति । 'सव्वलोए वा होज्जा' सर्वलो के वा भवेत् यदा स्नातकः समस्तमपि लोकं व्याप्नोति तदा सर्वलोके भवेदिति ॥३२ सू०१२॥ ___अथ त्रयस्त्रिंशत्तमं स्पर्शलाहारमारभ्य पत्रिंशत्तमालपबहलहारपर्यन्तद्वारा ण्याह-'पुलाए ण' इत्यादि। मूलम्-पुलाए अंते ! लोगल्स किं संखेज्जइभागं फुसइ असंखेज्जइमागं फुसइ एवं जहा ओगाहणा मणिया तहा फुसणा वि आणियवा जाव सिणाए ३३। पुलाए णं भंते ! कयरंमि भावे होज्जा ? गोयमा! खओक्सलिए सावे होज्जा एवं जाव कसायकुलीले । णियंठे पुच्छा गोयमा ! उवलमिए वा भावे होज्जा । सिणाए पुच्छा, गोयमा ! खाइए वा होज्जा३४। है । 'सब्बलोएसु वा होज्जा' अथवा सर्वलोकाकाश में रहता है । स्नातक केवलि समुद्रात अघस्था में जब दण्ड कपाट करने की अवस्था में होता है तब यह लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है क्योंकि उसका शरीर लोक के असंख्यातवें भाग वृत्तियाला होता है। तथा जब वह मन्थानावस्था में होता है तब उसके द्वारा लोक का बहुत अधिक भाग व्याप्त कर लिया गया होता है। और बहुत थोडा भाग उसके द्वारा अव्याप्त रहता है। इसलिये यह लोक के असंख्यात भागों में व्याप्त कहा गया है और जब वह स्नातक लनग्रलोक को व्याप्त कर लेता है तथ वह समग्र लोक में रहता है ऐसा जानना चाहिये ।मु० १२॥ क्षेत्रवार का कथन समाप्त ॥ छ. 'सव्वलोए वा होज्जा' अथवा संपूर्ण शमा २३ छे. स्नात કેવલી સમુઘાત અવસ્થામાં જયારે દાડકપાટ કરવાની અવસ્થામાં હોય છે. ત્યારે તે લેકના અસંખ્યાતમા ભાગમાં રહે છે. કેમકે–તેનું શરીર લેકના અસંખ્યાતમા ભાગમાં વૃત્તિવાળું હોય છે તથા જ્યારે તે મન્થાનાવસ્થામાં હોય છે, ત્યારે તેના દ્વારા લોક ઘણો વધારે ભાગ વ્યાપ્ત કર્યો હોય છે, અને ઘણે થોડો ભાગ તેના દ્વારા અવ્યાપ્ત રહે છે. તેથી તે લોકના અસંખ્યાત ભાગોમાં વ્યાપ્ત કહેલ છે, અને જ્યારે તે સ્નાતક સપૂર્ણ લેકને વ્યાપ્ત કરી લે છે, ત્યારે તે સમગ્ર લેકમાં રહે છે. તેમ સમજવું. એ રીતે આ ક્ષેત્રદ્વાર કહ્યું છે. ક્ષેત્રદ્વાર સમાપ્ત માસૂ૦૧૨ છે Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 २४३ प्रमेयवन्द्रिका टीका श०२५ उ० ६ खू०१३-३३-३६ पर्यन्तानि द्वाराणि पुलाया णं भंते! एगसमएणं केवइया होज्जा गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्होलेणं सयपुहुत्तं । पुव्वपडिवन्नए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि जइ अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोलेणं सहस्सपुहुतं । बडला णं भंते ! एगसमएणं पुच्छा गोयसा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं लयपुरुं । पुचपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिसयपुहुत्तं उक्कोसेणं वि कोडीलय पुहुतं । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । कलायकुसीला णं पुच्छा गोयमा ! पडिवज्जमाणए पहुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा उक्कोलेणं सहस्लपुहुत्तं । पुव्वपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिसहस्त्रपुहुतं उक्कोसेण वि कोडि सहसपुहुतं । नियंठा पुच्छा गोयमा ! पडिवज्जमाणए य पहुच्च सिप अस्थि सिय नत्थि जइ अस्थि जहनेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं वा सयं, असयं खवगाणं चउपन्नं उवसामगाणं । yoवपडिवन्नए पडुच्च लिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहन्नेणं एक वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं लयपुत्तं । सिणायाणं पुच्छा गोयमा ! पडिवज्जसाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा उक्कोलेणं असयं । पुव्वपडिवन्नए पडुच्च जहनेणं कोडिपुहुत्तं उक्कोसेण वि कोडिपुहुत्तं ३५ । एएसि णं भंते! पुलाग बउस पडि सेवणाकुसीलकसायकुसीले नियंठे सिणायाणं कयरे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र कयरेहितोजाब विसेसाहिया वा ? गोयला! लब्बयोवाणियंठा, पुलागा संखेज्जगुणा, सिणाया संखेज्जगुणा, वडसा संखेजगुणा, पडिलेवणाकुलीला संज्जगुणा, कसायकुलीला लखेज्जगुणा। सेवं भंते ! सेवं संते ! ति जाब विहरइ ॥सू०१३॥ ॥ पणवीसइसे लए छटो उद्देलओ सलन्त ।। छाया-पुलाकः खलु भदन्त ! लोकस्य किं संख्येयभाग स्पृशति असंख्येयमागं स्पृशति ? गौतम ! एवं यथा अवगाहना भनिता तथा स्पर्शनाऽपि भणितव्या यावत् स्नातकः३३ । पुलाकः खलु भदन्त ! कतरस्मिन् भावे भवेत् ? गौतम ! क्षायोपशमिकभावे भवेत् । एवं यावत् कपायकुशीलः । निग्रन्थः पृच्छा गौतम ! औपशमिकभावे भवेत् क्षायिके भावे वा भवेत् । स्नातक पृच्छा गौतम ! क्षायिके भावे भवेत् ३४ । पुरुषकाः खलु भदन्त । एकसमयेन कियन्तो भवन्ति ? गौतम ! प्रतिपद्यमानान प्रतीत्य रथात् अस्ति रयात् नास्ति, यदि अस्ति जघन्येन एको वा द्वौ वा त्यो या उत्कण शतपृथक्कम् । पूर्वप्रतिपन्नकान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्यानास्ति, यदि अस्ति जघन्देल एको बा द्वौ वा त्रयो चा उत्कण सहपृथक्त्वम् । वकुशाः खलु भदन्त । एकसमयेन पृच्छा गौतम ! प्रतिपद्यमान कान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्थानास्ति यदि रित, जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्पण शतपृथक्त्वम् पूर्वपतिपन्नहान् पतीत्य जघन्येन कोटिशतपृथक्त्वम् उत्रूणापि कोटिशतपृथक्त्वम् । एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि। कपाय. कुशीलाः पृच्छा गौतम ! प्रतिपद्यमानज्ञान प्रतीत्य स्याकरित स्थानास्ति । यदि अस्ति जघन्ये एको वा द्वौ वा यो बा उत्कर्षेण सहपृथक्त्व, पूर्वप्रतिपन्नकान् प्रतीय जघन्येन कोटिसहस्त्र पृथक्त्वम् उत्कर्पतोऽपि शोटिसहस्त्रपृथ. क्त्वम् । निग्रन्थाः खलु पृच्छा गौतम | प्रतिपद्यमालकान् प्रतील स्यादस्ति स्यान्नारित, यदि अस्ति जघन्येन एको वा द्वौ वा यो वा उत्कर्पग वापष्टिशतम्, अष्टशतं क्षपकाणाम् चतुःपञ्चाशदुपशमनानाम् पूर्वप्रतिपन्नकान् प्रतीत्य स्याद. स्ति स्यान्नास्ति । यदि अस्ति जघन्येन एको वा द्वीचा त्रयों का कण शत. पृथक्लम् । स्नातकाः खश पृच्छा गौतम । प्रतिपद्यमाजका गीत्य स्वादस्ति स्यानास्ति यदि अरित जघन्येन एको वा द्वौ बायो वा उत्कर्षेण शतम् । पूर्वप्रतिपन्नकान प्रतीत्य जघन्येन कोटिपृथक्त्वम् ३५ । एतेषां खलु भदन्त ! पुलाफ-बकुश-मतिसेवनाकुशील-कपायकुशील-निग्रन्थस्नातहाना कलमे कतमे. म्यो यावद्विशेषाधिका वा गौतम ! सर्वस्तोकाः निर्ग्रन्थाः, पुलाशा संख्येयगुणा, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ referrer ०२५ उ.६ २०१३-३३ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् २४५ स्नातका: संख्येयगुणाः, वकुशाः संख्येयगुणाः, प्रतिसेवनाकुशीलाः संख्येयगुणाः, कपायकुशीलाः संरूयेयगुणाः । तदेवं भदन्छ ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ।। सू० १३ ॥ इति पञ्चविंशतिशत के पष्ठोद्देशकः समाप्तः टीका -- 'पुलाए णं भंते' पुलाकः खलु मदन्त ! 'लोगस्स किं संखेज्जइ भागं फुसइ असं खेज्जइभागं फु वई' लोकल्प किं सख्येयं भागं स्पृशति अथवा लोकस्यासंख्येयं भागं स्पृशतीति प्रश्नः, भगवानाह - ' एवं जहा ' इत्यादि, 'एवं जहा ओगाहणा भणिया दहा फुरुणा वि साणियन्ना' एवं यथा अगाहना भणिता तत्र अवगाहना- अवगाढक्षेत्रविपया अतः क्षेत्रद्वारमेत्र अवगाहनाद्वारं ज्ञेयम् तथा ३३ वें स्पर्शनाद्वार का कथन 'पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जह भागं फुलइ असंखेज्जह भागं सर' इत्यादि । टीकार्थ- गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐला पूछा है - 'पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागं असंखेज्जइ भागं फुल' हे भदन्त । पुलाफ . क्या लोक के संख्यातवें भाग की स्पर्शना करता है ? अथवा असं ख्यातवें भाग की स्पर्शना करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं ' एवं जहा ओंगाणा भणिया तहा फुरुणा वि भाषिषव्वा' हे गौतम ! जिस प्रकार से अवगाहना के सम्बन्ध में कथन किया गया है उसी प्रकार से स्पर्शना के सम्बन्ध में भी कथन जान देना चाहिये । अवगाढक्षेत्र विषयक अवगाहना होती है । अतः क्षेत्रद्वार ही अवगाहना द्वार है इसलिये स्पर्शना भी इसी के अनुसार कहनी चाहिये હવે ૩૩ મા સ્પના દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે 'पुलाए णं भंते! लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसइ असखेज्जइभागं फुसइ' ६० ટીકા”—આ સૂત્રદ્વારા શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવુ' પૂછ્યું છે કે'पुलाएण भंते ! लोग हि संखेज्जइभागं फुसइ असंखेज्जइभागं फुसइ' डे भगवन् પુલાક લેકના સ`ખ્યાતમા ભાગની સ્પના કરે છે ? અથવા અસ ખ્યાતમા ભાગની સ્પના કરે છે? આ પ્રશ્નનના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-ત્ત્વ' योगाद्दणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियव्वा' हे गौतम! ? प्रभाव ગાહેનાના સમ્બન્ધમાં કથન કરવામાં આવ્યુ' છે, એજ પ્રમાણે સ્પનાના સંબંધમાં પણ કથન સમજવું. અવગાઢ ક્ષેત્ર વિષયક અવગાહના હૈાય છે. જેથી ક્ષેત્રાર જ અવ શાહનાદ્વાર છે, તેથી પના પણ તે પ્રમાણેજ કહેવી જોઇએ. અને મા Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२४६ भगवती सूत्रे स्पर्शनाऽपि भणितव्या कियत्पर्यन्तमवगाहनामकरणमिह अध्येतव्यं तत्राह'जाव' इत्यादि 'जाब सिणाए' यावत्स्नातकः, स्नातकमकरणान्तं सर्वमवगन्तव्यम् पुलाकादारभ्य निर्ग्रन्धान्तः सर्वोऽपि लोकस्यासंख्येयमेव भागं स्पृशति स्नातक स्तु लोकस्यासंख्येयभागं स्पृशति असंख्येयान् भागान् वा स्पृशति सर्वलोकं वा स्पृशतीत्येवं क्रमेण पुलाकादारभ्य स्नातकान्तस्यावगाहनावदेव स्पर्शना ज्ञातव्येति । ननु अवगाहना स्पर्शनयोः को भेद इतिचेदत्रोच्यसे क्षेत्रस्य यावान् भागः, अवगाहढ - आश्रितो भवेत् सा अवगाहना, अवगाढक्षेत्रस्य तत्पार्श्ववर्त्तिनश्च क्षेत्र - स्पर्शनेति स्पर्शनाद्वारम् ३३ । और यह अवगाहना प्रकरण यहां 'जाब सिणाए' इस सूत्रपाठ तक का ग्रहण हुआ है ऐसा जानना चाहिये । तथा च-पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक के साधु लोक के असंख्यातवें भाग तक की ही स्पर्शना करते हैं और स्नातक साधु लोक के असंख्यात वें भाग की स्पर्शना करता है लोक के असंख्यात भागों की भी स्पर्शना करता है और समस्त लोक की भी स्पर्शना करता है । ऐसा कथन इस स्पर्शना प्रकरण में किया गया है ऐसा जानना चाहिये । शंका- अवगाहना और स्पर्शना में क्या अन्तर है ? उत्तर -- क्षेत्र का जितना भाग अवगाढ- आश्रित होता है, वह अवगाहना है तथा अवगाहित क्षेत्र और उनकी आजू बाजू का क्षेत्र - पार्श्ववर्ती क्षेत्र जो होता है उसकी भी स्पर्शना होती है । स्पर्शना द्वार का कथन समाप्त ३३ । अवगाहना अमरण अडियां 'जाव सिणाए' मा सूत्रपाठ सुधी ग्रहण थयेस છે તેમ સમજવું જોઈએ. તથા પુલાકથી લઈને નિગ્રન્થ સુધીના સાધુ લેકના અસખ્યાતમા ભાગ સુધીની જ સ્પર્શના કરે છે. અને સ્નાતક સાધુ લેાકના અસખ્યાત ભાગાની પણુ સ્પન કરે છે, અને સમસ્ત લેાકની પણ સ્પના કરે છે. એ પ્રમાણેનુ'કચન આ સ્પર્ધાના પ્રકરણમાં કહ્યુ છે. તેમ સમજવુ'. શકાઅવગાહના અને સ્પનામાં શુ' અંતર છે ? ઉત્તર—ક્ષેત્રના જેટલા ભાગ અવગાઢ-મશ્રિત હૈાય છે. તે અવગાહના છે. તથા અવગાહનાવાળુ' ક્ષેત્ર અને તેની આનુમાજીનુ જે ક્ષેત્ર-અર્થાત્ પાર્શ્વવત્તી ક્ષેત્ર હાય છે. તેની સ્પર્શના થાય છે. એ રીતે આ સ્પર્શના દ્વાર સ`બંધી કથન કહેલ છે. સ્પર્શોના દ્વાર સમાપ્ત ॥૩૩॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-३४ भावहारनिरूपणम् चतुस्त्रिंशत्तमं भावद्वारमाह-'पुलाए थे' इत्यादि, 'पुलाए णं भंते । कयरमि भावे होज्जा' पुलाकः खलु भदन्त ! कतरसिमन् भावे भवेत् इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'खोवसमिए भावे होऽजा' क्षायोपशमिके भावे भवेत् पुलाक: हे गौतम ! मायोपशमिकमावे वर्तमानो भवेदिति । 'एवं जाव कसायकुसीले' एवं यावत् कषायकुशीलः, अत्र यावत्पदेन बकुशपतिसेवनाकुशीलयोः संग्रहो भवति तथा च पुलाकरदेव वकुशप्रतिसेवना कुशीलकपायकुशीला अपि क्षायोपशमिकभावमात्रे भवेयुरिति भावः । 'णियंठे पुच्छा' निर्यन्थः खलु भदन्त । कतरस्मिन भावे भवेदिति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उवसमिए वा भावे होज्जा खाइए वा भावे होज्जा' औपशमिके वा भावे भवेत् निर्ग्रन्थः क्षायिके वा भावे भवेदिति । 'सिणाए पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! क्तरस्मिन् भावे भवेदिति ३४ वां भावद्वार का कथन 'पुलाए णं भंते ! कयरंमि भावे होज्जा' गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! पुलाक किस भाव में वर्तमान होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा ! खओषसमिए भावे होज्जा' हे गौतम | पुलाक क्षायोपशामिक भाव में वर्तमान होता है। "एवं जाय कसाय कुसीले' इसी प्रकार से कषायचशील तक के साधु क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान होते हैं । 'णियंठे णं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ किस भाव में वर्तमान होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! उपसमिए वा भावे होज्जा खाइए वा भावे होज्जा' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ औपशमिक भाव में वर्तमान होता है अथवा क्षायिक भाव में वत्तमान होता है। હવે ચોત્રીસમા ભાવકારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'पुलाए णं भंते ! कयर मि भावे होज्जा' गीतमस्वामी प्रभुश्रीन એવું પૂછયું કે હે ભગવન પુલાક કયા ભાવમાં વર્તમાન હોય છે ? આ प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री गौतमत्वामीन ४९ छे 3-'गोयमा ! खओवसमिए भावे होज्जा' गीतम! घुसा क्षाया५शभिभावमा वतमान ५ छ ‘एवं जाव कसायकुसीले' मे प्रमाणे ४षायशा सुधाना साधु क्षाया५शभि४ भाभा वतमान डाय छ ‘णियठे णं पुच्छो' भगवन् निन्थ या भावभां पतमान हाय छ १ मा प्रश्नन। उत्तरमा प्रसुश्री । छे -'गोयमा । उव. समिए वा भावे होजा खाइए वा भावे होज्जा' हे गौतम! निन्थ मोय. શમિક ભાવમાં વર્તમાન હોય છે, અથવા ક્ષાયિક ભાવમાં વર્તમાન હોય છે. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती २४८ पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि' 'गोयना' हे गौतम ! 'खाइए भाव होना क्षायिक मावे भोत् स्नातक इति, अनौदायिकपरिणामादि भावा नोक्ताः पुलाशत्वादिनिनन्धनानां चारित्रमहक्षयोपशमादीनामेन विवक्षणादिति ३४ पश्चशित्तमं परिगाणटारमाह-'पुलाया णं त्वादि, 'पुलाया णं भने ! एम. समएणं केवइया होजना?' गुलाकाः खलु मदन्त ? एमा नयेन-एकस्मिन् समये इत्यर्थः भियन्ता-झियरसख्य का युरिति पर राणद्वारे प्रश्नः, नगवानाह'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौसम ! 'पडिबजमाणए पहुच्च सिय अस्थि सिय नस्य' मनिपयमान कान् मतीत्य तत्काले मुलाकमावसनासादयतोऽपेक्षया ___ मिणार पुच्छा 'हे भदन्त ! स्नानका किम भार वर्तमान होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जोनमा ! खाए मावे होजा' हे पौत्तम ! स्नातक क्षाधिक भाव में वर्तमान .ता है। यहां औदायिक पारिणामिक आदि शव नहीं कहे गये हैं। क्योंकि पुलाकत्व आदि के कारण भूल चारित्रमोह के क्षयोपशम्न आदिओं की ही यहां विचक्षा हुई है भावहार का कथन समाप्त । ३५ परिमाण द्वार का कथन 'पुलाया णं संते ! एगलमएणं केवया होजना' गौतम ने प्रभुश्री खे ऐसा पूछा है हे अदन्त ! एक समय में कितने पुलास होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री कहते है-'गोधमा ! पडिरज्जमाणए पडुच्च लिय अधि, लिय नधि' हे गौतम ! प्रतिपद्यमान-उसी काल में पुलायक भाव को प्राप्त करने वाले पुलाक की अपेक्षा से एक समय 'सिणाए पुच्छा' 8 4 स्नात या लापमा यतमान 31य छ ? Sत्तरमा सुश्री ४७ छ -'गोयमा ! खाइए भावे होज्जा' गौतम ! ना. તક ક્ષાવિકભાવમાં વર્તમાન હોય છે. અહિયાં ઔદયિક પારિમિક વિગેરે ભાવે કહ્યા નથી કેમકે–પુલાઉપણું અદિના કારણભૂત ચારિત્રમોહના ક્ષાપશમ વિગેરેની જ અહિયાં વિવક્ષા થઈ છે. એ રીતે બાવઢારનું કથન કહેલ છે. ભવદ્વાર સમાપ્ત હવે પાંત્રીસમા પરિમાણદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે – 'पुलाया णं भवे । एगसमएणं केवइया होज्जा' श्रीगीतभस्वामी मा સૂત્રપાઠદ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે-હે ભગવન એક સમયમાં કેટલા પુલાક राय छ ? A प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! पहिबजमाणए पडुच्च सिय अस्थि लिय नत्यि' गौतम ! प्रतिपयमान-१ मा पुरा ભાવને પ્રાપ્ત કરવાવાળા પુલાઠની અપેક્ષાથી એક સમયમાં પુલાક કેઈ વાર Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-३५ परिमाणद्वारनिरूपणम् २४९ स्यादस्ति-कदाचिद्भवति, स्यान्नास्ति-कदाचित् न भवति । 'जइ अस्थि' यदि अस्ति तदा 'जहन्नेणं एकको वा दो वा तिनि वा जघन्येन एको वा द्वौ वा प्रयो वा भवन्ति 'उकोसेणं सयपुहुत्त' उत्कर्षेण शतपृथक्त्वम् द्विशतादारस्य नवशतपर्यन्तं पुलाका भवन्तीति । 'पुचपडिवन्नए पडुच्च' पूर्वप्रतिपनकान् पुलाकान् प्रतीत्य, पूर्वपतिपन्नपुलाकापेक्षया इत्यर्थः 'सिय अस्थि सिय नस्थि' स्यात्कदाचित् अस्ति-भवति, स्यात्-कदाचित् नास्ति-न भवति 'जइ अत्थि' यदि अस्ति -भवति तदा 'जहन्नेणे एक्को वा-दो बा तिमि वा' जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा पुलाका एकसमये भवन्ति । 'उक्क सेणं सहस्सपुहुत्तं' उत्कर्षेण सहस्र पृथक्त्वम् द्विसहस्रादारभ्य नवसहस्रपर्यन्तम् एकसमये पुलाका भवन्तीति । में पुलाक कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जह अस्थि जहन्नेणं एको वा दो बा तिन्नि वा' चदि होते हैं तो कदाचित् एक भी हो सकता है, कदाचित् दो भी हो सकते हैं और कदाचित तीन भी हो सकते हैं। यह कथन जघन्य की अपेक्षा से है और 'उकोसे सयपुहुत्त' उत्कृष्ट से एक समय में शतपृथक्त्व पुलाक हो सकते हैं २ सौ से लेकर ९ सौ तक का नाम शनपृथक्त्व है। 'पुग्धपडिवन्नए पडुच्च सिय अस्थि लिय नस्थि' तथा पूर्व प्रतिपन्न पुलाकों की अपेक्षा से-जिन्होंने पुलाक अवस्था पहिले से धारण कर ली है ऐसे पुलाकों की अपेक्षा ले कदाचित् पुलास रोते है और कदाचित नहीं भी होते हैं। 'जह अस्थि' यदि होते हैं तो जहन्नेणं एक्को घा दो वा तिमि वा जघन्य खे एक अथवा दो अथवा तीन तक होते हैं एक समय में 'उक्कोसेणं लहरहपुहत्त' और उत्कृष्ट से दो हजार से लेकर ९ हजार तक एक समय में होते हैं। सय ५५ छ मनोवार नथी पर डाता, 'जइ अस्थि जहन्नेण एको वा दो वा तिल्नि वा नडाय छ, त वार ४ ५६ छ । छे, वा महाय છે, અને કોઈવાર ત્રણ પણ હોઈ શકે છે. આ કથન જઘન્યની અપેક્ષાથી કહેલ छ. 'उकोसेणं सयपुहत्त' Gष्टया ये समयमा शतपृथप पसार हो। थई छ. मेटले -साथी सई ने नवसे। सुधी ४ राई छ. 'पुवपडिवन्नए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि' तथा पूर्व प्रतिपन्न पुरानी अपेक्षाथीरो પહેલેથી પુલાક અવસ્થા ધારણ કરી છે, એવા પુલાકની અપેક્ષાથી કઈવાર Ya हाय छ, मन वा२ नथी ५५ होता 'जइ अत्थिन हाय छे. त'जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा' धन्यथी से समयमा से अथवा २ मया व सुधी डाय छे. 'उकोसेणं सहस्सपुहुत्तं' मने 68था હજારથી લઈને ૯ નવ હજાર સુધી એક સમયમાં હોય છે, તેમ સમજવું. भ० ३२ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० भगवती सूत्रे 'बसा गं भवे ! एगसमए ण पुच्छा' बकुशाः खलु भदन्त ! एकस्मिन् समये कियन्तो भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पडिजमाणए एडुच्च सिय अस्थि सिय नस्थि' प्रतिपद्यमानकान् - बकुशान मतीत्य प्रतिपद्यमानवकुशापेक्षया इत्यर्थः स्यात् कदाचित् अस्ति - 1 भवति स्यात् - कदाचिचास्ति न भत्रति । 'जड़ अस्थि' यदि अस्ति तदा - ' जहन्नेणं एक वा दो वा निवा' जघन्येन एको वा द्वौ वा भयो वा चकुशा एकस्मिन् समये जायन्ते, 'उक्कोसेणं सयपुहुत्तं' उत्कर्षेण शतपृथक्यम् द्विशतादारभ्य नक्शतपर्यन्तं चकुशाः एकसमयेन भवन्तीति । ' पु०, पडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिस पुहु' पूर्वपविपन्नकान् प्रतीत्य जघन्येन कोटिशतपृथक्त्वम् द्विकोटिशतादारभ्य मनकोटिशतपर्यन्तम् 'उकोसेग वि कोडिमयपुस उत्कर्षेणाऽपि कोटिशतपृथक्त्वम् एतत्परिमिता वकुशाः एकदा भवन्तिीति । एवं पडिसेवणा " 'वाणं भंते पुच्छा' हे भदन्त ! एक समय में कितने बकुश होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधना ! पडिवज्जमाणए पडच्च सिथ अस्थि मिय नथि' हे गौतम ? प्रतिपद्यमानक वकुशों की अपेक्षा लेकर वकुश कदाचित होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं 'जह अस्थि' यदि वकुश होते हैं तो 'जणं एक्को वा दो वा तिन्नि या' जघन्य से वे एक सयम में एक अथवा दो अथवा तीन तक होते हैं और 'उक्कोसेणं सम्यपुहुन" उत्कृष्ट से एक समय में दोसौ से लेकर नौ सौ तक होते हैं । पुत्रपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिलयपुद्दत्तं ० ' तथा पूर्वप्रतिपन पकुशों की अपेक्षा से जघन्य रूप में और उत्कृष्ट रूप में दो सौ करोड से लेकर नौ सौ करोड तक होते हैं । तात्पर्य यही है कि इतने वकुश एक काल में होते हैं । 'एवं पडि सेवणा 'जइ अत्थि' ले मडुरा होय 'वाणं भंवे ! पुच्छा' हे भगवन् मे समयमा टसा मडुशी होय छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री छे - 'गोयमा ! पडिवज्जराणए पडुच्च सिय अस्थि सि नत्थि' हे गौतम! प्रतिपद्यमान अशोनी अपेक्षाथी अधवार अडुश होय छे, भने अधवार नथी होता. छे, तो 'जहणेणं एक्को वा दो वा तिन्न बा' धन्यथी तेथे थे! सभयभां એક અથવા એ અથવા ત્રણ સુધી હોય છે अवे' उक्कोसेणं संयपुहुत्त ' उत्हृष्टथी ! समयसां नसोधी वर्धने नवसे सुधी होय हे 'पुव्व पडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोंडिसयपुदुक्तं ' तथा पूर्व अतियन्त्र मधुशोनी अपेक्षाथी જઘન્યપણાથી અને ઉત્કૃષ્ટપણાથી એ કરાડથી લઇને નવ કરે।ઢ સુધી होय छे, हेदानु' तात्पर्य है-आरसा मधुशी मे क्षणभां होय छे. 'एव' Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका बोका ०२५ २.६ सू०१३-३५ परिमाणहारनिरूपणम् २५१ कुसीलेवि' एवम् -वकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि पतिपद्यमानप्रतिसेवनाकुशीलापेक्षया कदाचिद् भवन्ति कदाचिद् न भवन्ति, यदि भवन्ति तदा जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा एकदा जायन्ते उत्कर्षेण कोटिशत पृथक्त्वम् पूर्वपतिपन्न प्रतिसेवनाकुशीलापेक्षया तु जघन्योत्कृष्टाल्पां कोटिशतपृथक्वममाणामतिसेवना कुशीला एकसमयेन जायन्ते इत्यर्थः । 'कसायकुमीलाणं पुच्छा' कपायकुशीला: खलु भदन्त ! एकसमये नियन्तो अवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडिचज्जमाणए पडुच्च सिप अस्थि सिय नत्थि' पतिपद्यमानकान्-कपायकुशीलान् अपेक्ष्य स्यादरित-कदाचिद्भवति, स्यान्नास्ति कदाचिन भवलि, 'जइ अत्थि' यदि अरित तदा 'जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा' जघन्येनैको वा द्वौ वा त्रयो वा कपायकुशीला एकसमये भवन्ति कुसीले वि' इसी प्रकार का कथन प्रतिपद्यमान प्रतिसेवनाकुशीलों की अपेक्षा लेकर और प्रतिपन्न प्रतिस्लेवनाकुशीलों की अपेक्षा लेकर जघन्य और खस्कृष्ट से करना चाहिये। तथा च-प्रतिपद्यमाल प्रतिसेवना कुशीलों की अपेक्षा से कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं एक समय में और उत्कृष्ट से शतपृथस्य प्रमाण होते हैं एक समय में इत्यादि कसायकुलीलाणं पुच्छा' हे अदन्त ! कषायकुशील एक समय में जितने होते हैं ? इस के उत्तर में प्रभुश्री करते हैं-'गोयना । पडिवज्जमाणए एडच्च लिय अस्थि लिय नरिय' हे गौतम ! प्रतिपद्यमान कपायाशीलों की अपेक्षा ले कषायकुशील कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जइ अस्थि जहन्ने] एक्को वा दो वा पडिसेवणाकुसीले वि' मा प्रभानु जयन प्रतिपयमान प्रतिसेवना કુશીલેની અપેક્ષા લઈને અને પ્રતિપન્ન પ્રતિસેવન કુશીલેની અપેક્ષા લઈને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી કહેવું જોઈએ તથા પ્રતિપદ્યમાન પ્રતિસેવના કુશીલોની અપેક્ષાથી જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ એક સમયમાં હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક સમયમાં કેટિશત પૃથફત્ર પ્રમાણ હોય છે. 'कसायकुसीले णं पुच्छा' लगवन् षायशीत समयमा टस हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रदुश्री ४९ छे -गोयथा ! पडिबजमाणए पइच्च सिय अयि सिय नस्थि' गीतम! प्रतिपयभान पायशीवानी पेक्षाथी ४पायशीस वा२ ७य ५९ छे, मने पार नयी ५ उता. 'जइ अस्थि जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा' ने पायशीत गे: समयमा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र 'उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्त' उत्कण सा.पृथक्त्वम् हिसहस्सादारभ्य नब सहम. पर्यन्ताः कषायकुशीला एकसमये जायन्ते इति । 'पुरपडिजए पच्च' पूर्वप्रतिपन्नकान् कपायकुशीलान् प्रतीत्म-अपेक्ष्य, 'जहन्नेणं कोडिसहसमपुरतं' जघन्येन कोटिसहसपृ पक्त्वम् द्विकोटिसहस्रादारभ्य नकोटि सहमपर्यन्ताः कषायकुशीला प्रतिसमयं जायन्ते, 'उकोलेण वि कोडिमहम्मपुतं' उत्कर्पतोऽपि कोटिसहपृथक्त्वम् । ___ ननु सर्वसंरतानां दोटिसहपृथकत्वगन्यत्र श्रूयते । इह तु केवलाना कपायकुशीलानामेर कोटिमहसूप्यक्त्वं कथितम् ततः पुलाकादिसंख्या तदतिरिक्ता भवतीति कोटिसापृथक्त्वकथनमत्र विरुद्ध मति वेदत्रोच्यते कपायतिनिवा' यदि कपायऋशील एका नभय में हो तो जघन्य से एक भी हो सकता है दो भी हो सकता है और तीन भी हो सकता है और 'उकोलेणं सहरूलपुहत्त' उत्कृष्ट से एक समय में दो हजाह से लेकर ९ हजार तक हो सकते हैं। तथा-'पुष्यपडिबन्नए पटुच्च' तथा पूर्वप्रति. पन्न करायकुशीलों की अपेक्षा से 'जहन्नेणं फोडिसहस्सपुतं' जघ. न्यरूप में कषायकुशील कोटिसहस्र पृथक्त्व दो हजार करोड से लेकर नौ हजार करोड़ तक प्रति समय में होते हैं 'उसोसेण वि कोडिसहस्स पुष्कृत्त' और उत्कृष्ट से भी वे प्रति समय में कोटिसहस्रपृथवत्व होते हैं। - शंका--समस्त संयतों का प्रमाण कोटि सत्र पृधत्व अन्य शास्त्रों में सुना जाता है परन्तु यहां तो केवल अपायकुशीलों को ही कोटि बहस पृथक्त्व फहागया है और जब इसमें पुलाकादिकों की संख्या मिलादेते हैं तो स्वभावतः यह संख्या और अधिक हो जाती है। अतः कोटिसहन पृथक्त्व का कधन विरुद्ध पड़ जाता है। હિય તે જઘન્યથી એક પણ હોઈ શકે છે. બે પણ હોઈ શકે છે, અને ત્રણ पए लाश छे. भने 'उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं' था । समयमा मे नारथी एन ८ नव ॥२ सुधी डाय छे. 'पुनपदिवन्तए पडुच्च' तथा पूर्व प्रतिपन्न पायाशी यानी अपेक्षाथी 'जहन्नेणं कोडिसयपुहत्त' धन्य ३५था કષાયકુશીલેં બે કડથી લઈને નવ કરોડ સુધી એક સમયમાં હોય છે. 'उक्कोसेण वि कोडिसयपुहुत्त' मने थी पर तसा मे समयमा २ २ કરોડથી લઈને નવ કરોડ સુધી હોય છે. ' ४-सा सयानु टि सन पृथ५मीत शास्रोमा सासનવામાં આવે છે. પરંતુ અહિયાં કેવળ કષાયકુશીલોને જ કેટિસહમ પૃથફત્વ કહેલ છે. અને જ્યારે તેમાં પુલાક વિગેરેની સંખ્યા મેળવવામાં Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयन्द्रका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-३५ परिमाणद्वारनिरूपणम् ५३ कुशीलनां यत् कोटिसहस्रपृथक्त्वं कथितं तत् द्विवादिकोटिसहस्ररूपं कल्पयित्वा पुलाकबकुशादिसंख्या तत्र प्रवेश्यते ततः समस्तसंयतमानं यत् कथितम् तन्नातिरिक्तं भवतीति । णियंठाणं पुच्छा' निर्ग्रन्थाः खलु भदन्त ! एकसमये कियन्तो भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडिबजमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नस्थि' प्रतिपधमानकान् निर्ग्रन्थान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्यान्नास्ति 'जइ अस्थि' यदि अस्ति तदा-'जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा' 'जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा निग्रन्था एकसमये भवन्ति 'उक्कोसेण बावट्ट सयं' उत्कर्षेण द्वापष्टिशतम् द्वाषष्टयुत्तरशतममाणनिर्ग्रन्था उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है क्यों कि कषाय कुशीलों का जो कोटि सहस्त्रपृथक्त्व कहा गया है उसे दो तीन कोटि सहस्त्र रूप में कल्पित करके उस में पुलाकादिकों की संख्या को मिला दिया जाता है इस प्रकार सर्व संपतो का जो प्रमाण कहा गया है वह अधिक नहीं होता है। ___ 'णियंठे णं पुच्छा' हे भदन्त ! एक समय में निर्ग्रन्थ कितने होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! पडिवज्जमाणए पडच्च सिय अस्थि सिय नस्थि' हे गौतम ! प्रतिपद्यमानक निर्ग्रन्थों को आश्रित करके एक समय में निग्रन्थ होले भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जह अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा' यदि एक समय में निर्ग्रन्थ होते हैं तो कम से कम एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और 'उकोसेणं बावट्ठ सयं' उस्कृष्ट से १६२ होते આવે છે તે સ્વભાવથી જ આ સંખ્યા તેનાથી પણ વધારે થઈ જાય છે. જેથી કેટિસહસ્ત્ર પૃથક્વનું કથન વિરૂદ્ધ થઈ જાય છે. ઉત્તર–આ શંકા ઉચિત નથી. કેમકે કષાયકુશીલેને જે કટિ સહસ્ત્ર પ્રથકૃત્વ કા છે તેને બે ત્રણ કટિ સહસ્ત્રપણામાં કલ્પના કરીને તેમાં પુલાક વિગેરેની સંખ્યા મેળવવામાં આવે છે. આ રીતે સર્વ સંયતનું જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે અધિક થતું નથી. 'णियठेणं पुच्छा' है सावन मे समयमा निन्य सा डाय है ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नस्थि' है गौतम ! प्रतिपमान नियन्याना माश्रय शन से समयमा निन्य खाय ५५ छ, मन वा२ नथी ५ खाता. 'जइ अस्थि जहन्नण एकको वा दो वा तिन्नि वा' ने ये समयमा नियन्य डाय छे. तसभा मेछ। ४ अथवा मे अथवा खाय छे. म२. 'उक्कोसेणं पावट' सय टथा ११२ मे४ सेमास थ जय छे. तेसामा 'अट्र Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ मंगवतीस्त्र एकसमयेन जायन्ते तत्र अनुसयं खरगाणं' अगतं क्षपकाणाम् क्षपश्रेणिमता साधूनाम् अष्टोत्तरशतं भवति तथा-'चउपन्न उक्सामगाणे' चतुः पञ्चाशत् उपशम. कानाम् उपशमश्रेणिमतां चतुः पञ्चागद्भर्यात अपयोर्मलने द्विषष्टयुत्तरशतं भवति प्रतिपयमानकानां निग्रन्थानां सदैव उत्पद्यामानानाम् उत्कर्पत इति । 'पुवपडिचन्नए पहच्च सिय अस्थि सिय नात्य' पूर्वप्रतिपन्नकान् निन्यान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्यान्नास्ति, 'जइ अस्थि' यदि अस्ति अति तदा-'जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिग्नि वा' जघन्येन एको वा द्वौ वा भयो वा सहै। जायन्ते निन्या , 'उक्कोसेणं सयाहुत्त' उत्कर्षेण शतपृथक्त्यम् द्विशतादारभ्य नवशतपर्यन्ता निम्रन्या एकदा जायन्ते उत्कर्पत इति । 'सिणायाण पुच्छा' स्नातकाः खलु भदन्त एकसमये कियन्तो भवन्तीति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ? 'पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्यि' प्रतिपद्यहै। इनमें 'अहलयं खयमाणं चउबन्ने उक्सामगाणं' १०८क्षपकणिपाले निर्ग्रन्थ होते हैं और 'चउधन्न उवामगाणं' ५४ उपशम श्रेणिथाले निग्रन्थ होते हैं 'पुव्यपडिबलए पडच्च सिय अस्थि सिय नस्थि' तथा पूर्व प्रतिपन्नक निग्रन्थों को आश्रित करके निर्ग्रन्थ एक समय में कदाचित् होते हैं और कदाचित नहीं भी होते हैं । यदि वे होते है तो 'जहन्नेगं एक या दो बालिनिवा' जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और 'उकोलेणं' उत्कृष्ट से 'लय हुत्त' दो सौ से लेकर ९ सौ तक होते हैं । यह सब कथन एक समय में उनके होने का | 'लिणाक्षणं पुन्च्छा' हे भदन्त ! एक समय में स्नातक कितने होते हैं ? उत्तर में प्रमुत्री कहते हैं-'गोयमा ! पडिबजमाणए पडुच्च सय, खवगाण' चउवन्ने उबसामगाणं' १०८ मे से म8 १५४ श्रेणीवाणा नी- हाय छे. अने चउवन्ने उवसामगाणं' ५४ यापन श्रेणी नया हाय छे. 'पुवपडिबन्नए पडुच्च खिय अस्थि सिय नत्थि' तथा પૂર્વ પ્રતિપન્નક નિર્ચનો આશ્રય કરીને નિગ્રન્થ એક સમયમાં કોઈવાર हाय छे, म वा२ नथी ५५ हात ले त हाय छे. तो 'जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा' धन्यथी मे अथवा मे अथवा त्राय छ, भने, 'उक्कोसेण' Seeी 'सयपुहुत्त' माथी २६ नवसे सुधी काय છે. આ સઘળું કથન એક સમયમાં તેઓને હોય છે. सिणाया णं पुच्छा' 8 सगवन् समयमा स्नात है। डाय १ मा प्रश्न उत्तरमा सुश्री ४९ छे ४-गोयमा! पदिवजमाणए पडुन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafat टीका श०२५ उ. ६ सू०१३-३५ परिमाणद्वारनिरूपणम् २५५ मानकान् स्नातकान् प्रतीत्य- अपेक्ष्य स्याद-कदाचित् अस्ति भवति स्यात्-कंदाचित् नास्ति न भवति 'जह अस्थि' यदि अस्ति भवति तदा- 'जहन्ने एक्को वा दो वा तिन्निवा' जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा एकसमये जायन्ते स्नातकाः, 'उक्को सेणं अहमयं' उत्कर्षेणाष्टशतम्-अष्टोत्तरशतपमापक मुम्कर्ष नो भवतीति । 'पुण्त्रपडिवन्नए पडुच्च जहन्तेगं कोडिपुहुत्त' पूर्वप्रतिपन्नकान् स्नातकान् मतीत्य अपेक्ष्य जघन्येन कोटिपृथक्त्वम् द्विकोटिव आरभ्य नव कोटिपर्यन्तम्- 'उनको सेण वि कोडिgहुतं' उत्कर्षेणापि कोटिपृथक्त्वमेवेति ३५ | सिप अस्थि सिय नस्थि' हे गौतम ! प्रतिपद्यमान स्नातकों की अपेक्षा से एक समय में स्नातक कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जङ्ग अस्थि' यदि वे होते हैं तो 'जहन्ने णं एक्को वा दो या तिनि वा' कम से कम एक साथ एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और 'उकोसेणं असयं' उत्कृष्ट से १०८ तक एक साथ होते हैं । तथा - 'पुण्यपडिवन्नए पडुच्च' पूर्वप्रतिपन्न स्नातकों की अपेक्षा लेकर स्नातक एक समय में 'जहन्नेणं कोडिपुरुन्त उहोसेण वि कोडिपुत्त' कम से, कम द्विकोटि से लेकर ९ कोटि तक एक साथ होते हैं और उत्कृष्ट से भी इतने ही एक साथ एक समय में होते हैं । || ३५ परिमाण द्वार कथन समाप्त ॥ अल्पबहुत्व द्वार कथन 'एएसि णं भंते ? पुलाग उपडि सेवणाकुसील - कसाय कुसील नियंठसिणाघाणं कधरे कमरे जाव विसेाहिया वा fe अस्थि यि स्थि' हे गौतम! प्रतिपद्यमान स्नातअनी अपेक्षाथी मे સમયમાં સ્નાતકો કાઇવાર હાય પણ છે, અને કાઇવાર નથી પણ હાતા 'जइ अस्थि' ले तेथे। होय छे, 'जहणणेणं एक्कों वा दो वा तिन्नि वा' माछामां भेोछा शे! साथै थे! अथवा मे अथवा त्रयु होय छे. 'उकोंसेण अट्टसय उत्सृष्टथी १०८ उसो भाउ सुधी मेड़ी साथ होय हे तथा 'पुव्व पडिवन्नए पडुच ' पूर्व प्रतिपन्न स्नातअनी अपेक्षाथी स्नात४ सुधी शो समयमा 'जहन्नेणं कति उक्कोसेण वि कोडिपुहुत्त" सोछाम छामे उरोस्थी ने નવ કરેાડ સુધી એકી સાથે હાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એટલા જ કાળ સુધી એક સમયમાં એકી સાથે હાય છે. આ રીતે પરિમાણુદ્બાર કહ્યું છે. પરિમાણુદ્રાર સમાપ્ત હવે છત્રીસમા અલ્પમર્હુત્વ દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'एएसि णं भंते! पुलागब उस पडि सेवणाकुसील - कसायकुसील नियंठ सिणायाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा' हे भगवन् ३५२ भानु स्व३५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अर्थतेषामल्पबहुत्वमाह-'एएसि गं' इत्यादि, 'एएसि णं भंते !' एतेषामुपरिपदर्शितस्वरूपाणां खलु भदन्त ! 'पुळागवउसपडि सेवणाकुसीलकसायकुसील णियंठसिणायाण' पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां मध्ये 'कयरे कयरेहितो जाच विसेसाहिया वा' कतमे कतमेभ्यो यावद् विशेषाधिका वा यावत्पदेन अल्पा वा बहुकावा तुल्या वा एतेषां संग्रहो भवति तथा च हे भदन्त ! एतेषु पुलाकादिस्नातकान्तेषु कस्यापेक्षया कस्याल्पत्वं बहुत्वं विशेषाधिकत्वं वा भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वत्थोवा णियंठा' सर्वस्तोकाः, सर्वापेक्षया स्तोका अल्पा निर्ग्रन्या भवन्तीति निर्ग्रन्थानामुत्कर्ष तोऽपि शतपृथक्त्वसंख्यत्वात् । 'पुलागा संखेज्जगुणा' निग्रंन्यापेक्षया पुलाकाः संख्यातगुणा अधिका भवन्ति पुलाकानामुत्कर्षतः सहस्त्र पृथक्त्वमानत्वादिति । 'सिणाया संखेज्जगुणा' पुलाकापेक्षया स्नातका संख्येयगुणा अधिका भवन्ति स्नातकानामुत्कर्ष तः कोटिपृथक्त्वमानत्वादिति । 'वउसासंखेज्जगुणा' स्नातकापेक्षया बकुशाः संख्येयगुणा अधिका भवन्ति वकुशाना. हे भदन्त ! जिनका स्वरूप ऊपर प्रकट किया जा चुका है ऐसे इन पुलाक, बकुश प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्ना. तक इन साधुओं के बीच में कौन साधु किस साधु से अल्प है ? कौन किससे बहुत हैं ? कौन किस के तुल्य है और कौन किससे विशेषा धिक है । इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा सव्वत्थोवा नियंठा, पुलागा संखेज्जगुणा' हे गौतम ! सय से कम निर्ग्रन्थ है, इनसे संख्यात गणे अधिक पुलाक हैं। क्योंकि पुलाकों की उत्कृष्ट संख्या सहस्रपृथक्त्व कही गई है । 'सिणाया संखेज्जगुणा' पुलाक की अपेक्षा स्नातक संख्यातशुणे अधिक है क्यों कि इनका प्रमाण उत्कृष्ट कोटि पृथक्त्व कहा गया है। 'घउसा संखेज्जगुणा' बकुश स्नातकों की अपेक्षा संख्यातगुणें अधिक है क्योंकि इनका प्रमाण उत्कृष्ट से કહેલ છે, એવા આ પુલાક, બકુશ, પ્રતિસેવનાકુશીલ કષાયકુશીલ નિથ અને સ્નાતક આ સાધુઓમાં કયા સાધુ કયા સાધુથી અલ્પ છે? કે જેનાથી વધારે છે? ક્યા સાધુ કેની બરોબર છે? અને કેણ કેનાથી વિશેષાધિક છે ? भी प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! सव्वत्थोवा नियंठा, पुलागा, संखेज्जगुणा' है गौतम । नियन्यो सौथी माछ। छे तनाथी सध्याताया पधारे yा। छे. 'सिणाया संखेज्जगुणा' माथी सध्यात वधारे નાતક છે. કેમકે તેઓનું પ્રમ ણે ઉત્કૃષ્ટથી કટિ પૃથક્વનું કહ્યું છે. 'बरसा संखेज्जगुणा' मश स्नातहीनी अपेक्षाथी सध्याताय पधारे होय Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-३५ परिमाणहारनिरूपणम् २५० मुत्कर्षतः कोटिशतपृथक्त्वसंख्यत्वादिति । 'पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा' बकुशापेक्षया प्रतिसेवनाकुशीला संख्येयगुणा अधिका भवन्ति, ननु बकुशपतिसेवनाकुशीलयो रुभयोरपि उत्कर्पतः कोटि शलपृथक्त्वमानतया कथं वकुशापेक्षया प्रतिसेवनाकुशीलानां संख्येयगुणाधिकत्वमिति चेदत्रोच्यते बकुशानां यत् कोटिशतपृथक्त्वं तत् द्वित्राहि कोविशतमानात्मकम् प्रतिसेवनाकुशीलानां तु कोटिशतपृथक् वम् चतुः षट् कोटिशतमानमित्यतो बकुशापेक्षया मतिसेवनाकुशीलानां संख्ये यगुणाधिकत्यकथनं न विरुद्धमिति संख्येयत्वस्याने कविधत्वात् 'कसायकुसीला संखेज्जगुणा' प्रतिसेवनाकुशीलापेक्षया कपायकुशीलाः संख्येयगुणा कोटिशत पृथक्त्व है। 'पडिविणाकुमीला संखेज्जगुणा' प्रतिसेवना कुशील बकुशों की अपेक्षा संख्शातगुणे अधिक है। शंका--यकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन दोनों का प्रमाण उस्कृष्ट से कोटिशत पृथरस्व कहा गया है तो फिर यकुशों की अपेक्षा प्रतिसेवना कशीलों का प्रमाण संख्यालगुणा अधिक हबकी अपेक्षा क्यों कहा गया है? उत्तर--बकुशों का जो कोटिशतपृथक्त्व प्रमाण शहा गया है वह दो तीन आदि कोटिशनरूप कहा गया है और प्रतिसेवना कुशीलों का जो कोटिशतपृथक्त्व प्रमाण कहा गया है वह चार छह कोटि शतरूप कहा गया है। इस प्रकार पशों की अपेक्षा प्रतिसेवनाकुशीलों का प्रमाण संख्यातगुणा अधिक जो कहा है वह विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि संख्यात अनेक प्रकार का होता है । 'कसायकुसीला संखेज्जगुणा' प्रतिसेवना कुशीलों की अपेक्षा आपायकुशील छ. भ-तयानु प्रभा थी रिशत पृथक छे. 'पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा' प्रतिसेवना पुशीत ५। ५२di संन्यात! वधारे छ. શંકા–બકુશ અને પ્રતિસેવના કુશીલ આ બેઉનું ઉત્કૃષ્ટ પ્રમાણુ કેટિ શત પૃથફત્વનું કહ્યું છે, તે પછી બકુશે કરતાં પ્રતિસેવના કુશીલેનું પ્રમાણ સંખ્યાતગણુ વધારે તેમની અપેક્ષાથી કેમ કહ્યું છે? ઉત્તર-બકુશેનું જે કટિશત પૃથક્વ પ્રમાણે કહ્યું છે, તે બે ત્રણ વિગેરે સે કરોડ રૂપ કહેલ છે અને પ્રતિસેવના કુશીલનું જે કેશિત પૃથકવ પ્રમાણે કહ્યું છે, તે ચાર, છ કરેડ રૂ૫ કહેલ છે, આ રીતે બકુશ કરતાં પ્રતિસેવના કુશીલેનું પ્રમાણ સંખ્યાતગણુ વધારે જે કહ્યું છે, તે કથન वि३ यतु नथी भडे सध्यात अने प्रा२तु हाय छे. 'कसायकुसीला संखेज्जगुणा' प्रतिसेवन शीतानी अपेक्षाथी पायशी थी सभ्यात भ०३३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे २५८ अधिका भवन्ति कपायकुशलानामुत्कर्षतः कोटिसहस्रपृथक्त्वमानलादिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । चि जाव विहर' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! प्रज्ञापनादि परिमाणान्तपञ्चत्रिंशद्वारेषु पुलाकादीन् अधिकृत्य यद देवाप्रियेण निवेदितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेव भाप्त वाक्यस्य सर्वथैव प्रमाणत्वादिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति दित्वा नमस्यत्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहतीति ॥ ०१३॥ इति श्री विश्वविख्यात जगदवल्लभादिपदभूपित बालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री घासीलाल प्रतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां पञ्चविंशतितमशतकस्य पष्ठोदेशकः समाप्तः || २५ - ६ ॥ Brष्ट से संख्यातगुणें अधिक होते हैं । क्यों कि कषायकुशीलों का प्रमाण कोटिसहस्रपृथक्त्व कहा गया है । 'लेवं भंते ! सेवं भंते ! प्ति जाब बिहार' हे भदन्त ! प्रज्ञापना से लेकर अल्प बहुत्व द्वार तक के ३६ द्वारों में पुलाक आदिकों को लेकर जो आप देवानुमिय ने कथन किया है वह सब सर्वथा सत्य ही है । क्यों कि आप्त के जो वाक्यं होते हैं वे सर्व प्रकार से प्रमाण ही होते हैं । इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये |सू०१३॥ - जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र " को प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के पचीसवें शतकका छट्ठा उद्देशक समाप्त ॥ २५-६ ॥ ગણા વધારે ડાય છે. કેમકે કષાય કુશીલાનું પ્રમાણુ કેટિસહસ્ર પૃથત્વ કહેવામાં આવેલ છે. 'सेव भंते! सेव' भंवे त्ति जाव विहरइ' हे भगवन् अज्ञायनाथी साने પરિમાણુદ્વાર સુધીના ૩૫ પાંત્રીસ દ્વારામાં પુલાક વિગેરેને ઉદ્દેશીને આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું" છે, તે સઘળું કથન સ`થા સત્ય જ છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન નિર્દોષ હાવાથી સર્વથા સત્ય જ છે. કેમકે આસ પુરૂષાના જે વાયા હાય છે, તે સર્વ પ્રકારે પ્રમાણુ રૂપ જ હોય છે. આ પ્રમાણે કહીને શ્રીગૌતમસ્વામીએ ભગવાન મહાવીર પ્રભુને વંદના કરી અને નમસ્કાર કર્યા વન્દના નમસ્કાર કરીને તે પછી તપ અને સયમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર ખિરાજમાન થયા. સૂ॰ ૧૩ગા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકરપૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકના છઠ્ઠો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ર૫-૬॥ - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१ प्रथम प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् २५९ अथ सप्तमोद्देशकः भारभ्यते । पष्ठोद्देशके संयतानां स्वरूपं कथितम् सप्तमेऽपि तदेव कथ्यते, तदनेन संवन्धेन आयातोऽसौ सप्तमोद्देशका प्रस्तूयते, इहापि प्रज्ञापनादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि तत्र प्रज्ञापनाद्वारमधिकृत्योच्यते 'कइ णं भंते ! संजया पन्नत्ता' इत्यादि, - मूलम्-कइ जे भंते ! संजया पन्नत्ता! गोयमा! पंच संजया पन्नत्ता तं जहा-लामाइयसंजए १, छेदोवटावणियसंजए२, परिहारविसुद्धियसंजए ३, सुहुमसंपरायसंजए४, अहक्खायसंजए५। सामाइयसंजए णं भंते ! कइविहे पन्नते ? गोयमा ! दुविहे एन्नत्ते तं जहा इत्तरिए य जावकहिए य। छेदोवटावणियसंजए णं पुच्छा गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते तं जहा सातियारे य निरतियारे य। परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते तं जहा णिविसमाणए य णिविटकाइए य । सुहुमसंपराय पुच्छा गोयना! दुविहे पन्नत्ते तं जहा संकिलिस्समाणए य विसुद्धमाणए य। अहक्खायसंजए पुच्छा गोयमा! दुविहे पन्नत्ते तं जहा छउमत्थे य केवली य । सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धनं । तिविहे णं फासयंतो, सामाइथसंजओ स खल्लु ॥१॥ छेत्तुण उ परियागं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्ममि पंचजामे छेदोक्टाचणो स खलु ॥२॥ परिहरइ जो विसुद्धं तु पंचजामं अणुत्तरं धम्म। तिविहेण फासयंतो, परिहारिय संजओ य स खलु ॥३॥ लोभाणू वेययंतो, जो खलु उवसानओ व खवओवा। सो सुहुमसंपराओं, अहक्खाया ऊणओ किंचि ॥१॥ उवसंते खीणमि, जो खलु कम्संमि मोहणिज्जंमि । छउमत्थो व जिणो वा, अक्खाओ संजओसखलु ५॥सु.१॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र __छाया-कति खल्लु भदन्त ! संयताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्च संयताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सामायिकसंयतः१, छेदोपस्थानीयसं यतः२, परिहारविशुद्धिकसंयतः३, सूक्ष्मसंपरायसंयतः४, यथाल्यावसं यतः ५ । सामायिकसंयतः खल भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? चौता ! द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा इत्वरिकश्च यावकथिकश्च । छेदोपरथापनीयसंयतः खलु पृच्छा गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सातिचारश्च निरतिचारथ । परिहारविशुद्धिकसंयतः पृच्छा गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, खद्यथा निर्विशमानकच निर्विष्टकायिकश्च । सूक्ष्मसंपरायः पृच्छा, गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-संविलश्यमानकश्च विशुद्धधमानकश्च । यथाख्यातसंयतः पृच्छा गौतम ! विविधः प्रज्ञप्तः, तथधा-छद्मस्थव केवली च । सामायिके तु कृते, चातुर्यासमनुत्तरं धर्मम् । त्रिविधेन हपृशन् सामायिकसंग्रतः स खन्छ ॥१॥ छित्वा तु पर्यायं पुराणं, यः स्थापयत्यात्मानम् । धर्मे पश्चयामे छेदोपस्थापका रस खल्ल ॥२॥ परिहरति यो विशुद्धं पञ्चयाममनुत्तरं धर्मम् । निविधेन स्पृशन्, परिहारिकसंयतः स खलु ॥३॥ लोभाणून वेदयन् य उपशमयन् क्षपयन् वा • ससूक्ष्मसंपरायो यथाख्यातात ऊनाकिश्चित् ॥४॥ उपशान्त क्षीणे वा, यः खलु कर्माणि मोहनीये । छहमस्थो वा जिनो वा यथाख्यातः संयतः स खल ॥५॥१० १॥ टीका-'कइ णं भंते ! संजया पन्नत्ता' कति खलु भदन्त ! संयताः प्रज्ञप्ताः --कथिताः ? इति संयत विषयका प्रश्नः भगवानाह-गोयमा' हे गौतम ! 'पंच. साता उद्देशक का प्रारंभ छठे उद्देशे में संयत्तों का स्वरूप कहा गया अब सातवें उद्देशे में श्री यही कहा जाने वाला है। अतः इसी सम्बन्ध को लेकर इस सातवें उद्देशे का मारल सूत्रकार कर रहे है-यहां पर भी प्रज्ञापना आदि हारों का कथन किया जायगा । अतः प्रथम प्रज्ञापना द्वार को लेकर सातमा मद्देशानो प्रारછઠ્ઠા ઉદ્દેશામાં સંયતાનું સ્વરૂપ કહેવામાં આવેલ છે, હવે આ સાતમા ઉદેશામાં પણ એજ વિષયના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવશે જેથી એ સંબંધને લઈને આ સાતમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. આ ઉદેશાને પ્રારંભ કરતાં સૂત્રકાર. અહિયાં પ્રજ્ઞાપના વિગેરે દ્વારેનું કથન કરશે જેથી પહેલાં પ્રજ્ઞાપના Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१ प्रथम प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् २६५ - संजया पन्नत्ता' पश्चप्रकारकाः संवताः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'सामाइय संजए' सामायिकसयतः सामायिकं नाम चारित्रविशेष स्तत्मधानः संयतः अथवा तेन चारित्रविशेषेण संयत इति सामायिकसंयतः१ । 'छेदोचट्ठावणियसंजए' छेदोपस्थापनीयसंयतः २, 'परिहारविसुद्धियसंजए' परिहारविशुद्धिकसंयतः ३, 'मुहुभसंपरायसंजए' सुक्ष्नसंपरायसंयतः४, 'अहक्खायसंजए' यथाख्यातसंयतः ५, । एतेषामर्थों गाथाभिर्वक्ष्यते-तत्र 'सामाइयसंजए णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते' सामायिक संयतः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुबिहे पन्नत्ते' द्विविधो-द्विपकारका गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐला पूछा है-'कह णं भंते ! संजया पन्नत्ता' हे भदन्त ! संयत कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा ! पंच संजया पन्नत्ता' हे गौतम ! संयत पांच प्रकार के कहे गये हैं । 'लं जहा' जो इस प्रकारसे हैं-'सामाइय संजए १ छेदो. वट्टावणियसंजए २ परिहारविमुद्रियसं जए ३, सुहमसंपरायसंजए ४, अहक्खायसंजए ५' । सामायिकसंयत १ छेदोपस्थापनीयसयत २ परिहारविशुद्धिक संथत ३ सूक्ष्मसंपराय संपत ४ और यथाख्यातसंयत ५ । चारित्रविशेष का नाम सामायिक है । यह सामायिकरूप चारित्रविशेष जिस संयत्त का प्रधान होता है वह सामायिक संयत है ? अथवासामायिकरूप चारिश्न विशेष से जो संपत होता है वह सामायिक संयत है । छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयल आदि का स्वरूप गाथाओं द्वारा कहा जायणा।। वारने सधन श्रीगीतमस्वाभीमे प्रभुने मे पूछयु छ है-'कइ णं भंते ! संजया વન્નર હે ભગવનું સંય કેટલા પ્રકારના કહેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतमस्वामीन ४ छे ४-'गोयमा! पच सजया पन्नत्ता' हे गौतम ! सयता पांय ४२॥ ४९सा छे. 'त जहा' त म प्रमाणे छे. 'सामाइय संजए १ छेदोवद्वावणियसंजए २ परिहारविसुद्धियसंजए ३ सुहुमसंपरायसंजमे ४ अहक्खायसंजए ५' सामायि संयत १ छेोपस्थानीय सयत २ परिहार વિશુદ્ધિક સંયત ૩ સૂમસાંપરાય સયત ૪ અને યથાખ્યાત સંયત પ, ચારિ વિશેષ જે સયતનું પ્રધાન (મુખ્ય) હોય છે. તે સામાયિક સંયત કહેવાય છે, અથવા સામાયિક રૂપ ચારિત્રવિશેષથી જે સંયત હોય છે, તે સામાયિક સંયત કહેવાય છે કેદપસ્થાપનીય સંયત, પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત વિગેરેનું સ્વરૂપ ગાથાઓથી કહેવામાં આવશે, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ भगवती प्रज्ञप्तः सामायिकसंयतः । 'तं जहा ' तव्यथा - 'इत्तरिए य जान कहिए य' इत्वरिकव यावत्कथिकथ चारित्र्ग्रहणानन्तरम् इत्वरस्य भाविच्छेदोपस्थापनीयसंयतत्वव्यपदेशान्तरस्वेन अल्पकालिकस्य सामायिकस्यास्तित्वात् इत्वरिकः स चारोपयिष्य माणमहाव्रतः प्रथमचरमतीर्थकरसाधु भवतीति । यावत्कथिकस्य भाविव्यपदेशान्तराभावात् यावज्जीविकस्य सामायिकस्यास्तित्वाद् यावत्कथिकः, स च मध्यमतीर्थकर महाविदेहतीर्थकरसाधु भवतीति । 'छेदोपट्टावणियसंजय णं पृच्छा' rainerant प्रश्री से ऐसा पूछते हैं- 'सामाययसंजए णं भते | कहविहे पन्नन्ते' हे भदन्त ! सामायिक संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम | सामायिक संयत दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे -' इत्तरिए य आवकहिए य' इत्वरिक और यावत्कथिक जिस सामा यिक संयत के चारित्र ग्रहण करने के अनन्तर भविष्य में छेदोपस्थापनीय संयत्तपने का व्यपदेश-व्यवहार होता है यह इत्वरिक अल्पकालिक सामायिक संयत कहालाता है । और सामायिक चारित्र लेने के बाद जिसमें दूसरा व्यपदेश नहीं होता है वह यावत्कनि सामायिक संयत कहलाता है इत्यरिक सामायिक संयत आगे जिस में महाव्रतों का आरोप होना होता है ऐसा होता है और ऐसा यह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का साधु होता है । तथा यावत्कथिक में सामायिक धावत् जीव विद्यमान होती है । ऐसा यह साधु मध्यम तीर्थकरों का और महाविदेहस्थ तीर्थंकर का साधु होता है । छे हवे श्रीगीतभस्वाभी अनुश्रीने शेवु यूछे छे - 'सामाइयसंजए णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते' के लगवन् सामायिक संयंत डेंटला प्रारना वासां खाव्या छे ? म प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री - 'गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते' डे गौतम | सामायिक संयत मे अारना वामां आवे छे 'तं जहाँ ते मा प्रभा छे. 'इत्तरिए य आवकहिए य' त्वरि भने यावल थिए ? सामाયિકમાં ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યા પછી ભવિષ્યમાં છે।પસ્થાપનીય સયતપણાના ન્યપદેશ-વ્યવહાર થાય છે, તે ઈકિ–અલ્પકાળવાળા સામાયિકસ ચત કહેવાય છે અને સામાયિક ચારિત્ર લીધા પછી જેમાં ખીજો ભ્યપદેશ થતા નહાય તે યાવત્કથિત સામાયિક સયત કહેવાય છે. ઈરિક સામાયિક સયત આગળ જેએમાં મહાવ્રતાના આરેાપ થવાના હાય છે. એવે હાય છે એવા આ પહેલા અને છેલ્લા તીર્થંકરના સાધુ હાય છે. તથા યાવકૅથિતમાં સામાયિક યાત્ જીવ વિદ્યમાન હેાય છે. એવે આ સાધુ મધ્યમ તીર્થંકરાના અને મહાવિદેહમાં રહેનારા તીથ કરેાના સાધુ હાય છે. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१ प्रथम प्रशाफ्नाद्वारनिरूपणम् २६३ छेदोपस्थापनीयसंयतः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञान इति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहे पन्नत्ते' द्विविधौ द्विमकारकः प्रज्ञप्ता, छेदोषस्थापनीयसंयतः । 'तं जहा' तद्यथा-'सातियारे ये निरतियारे य' सातिचारश्च निरतिचारश्च, साविचारस्य यत् आरोप्यते तत् साति चारमेव छेदोपस्थापनीयम् तद्योगात् साधुरपि सातिचार एव एवं निरविचारच्छे. दोपस्थापनीययोगान्निरतिचारः, पार्श्वनाथतीर्थात् निष्क्रम्य महावीरतीर्थे महा. वतारोपणम् छेदोपस्थापनीयसाधुश्च प्रथमचरमतीर्थयोरेव भवतीति । 'परिहार. विसुद्धियसंजए पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतश्च खलु भदन्त ! कतिविधः - 'छेदोवट्ठावणियसंजएणं पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत के कितने प्रकार कहे गये हैं ! उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयमा! दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! छेदोपस्थापनीय संयत के दो प्रकार अहेगये हैं'त जहा' जैसे-सातिधार और निरतिचार । अतिचार युक्त साधु की दीक्षा पर्याय छेदकर फिर से महाव्रतों का जो आरोप प्रदान उसमें किया जाता है वह सातिधार छेदोषस्थापनीय संघत है प्रथम दीक्षित साधु को तथा पार्श्वनाथ के तीर्थ से महावीर के तीर्थ में प्रवेश करने वाले साधु के लिये फिर से जो महावनों का प्रदान करना होता है वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय संपत है। छेदोषस्थापनीय साधु प्रथम तीर्थकर और अन्तिम तीर्थकर के तीर्थ में ही होता है। 'परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! परिहार विशुद्धिक संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'छेदोवट्ठवणियसजए णं पुच्छा' हे भगवन् होपस्थापनीय स यताना टाहो ! छे ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४३ छ ?-'गोयमा ! दविहे पन्नत्ते' है गौतम! छेयस्यायनीय संयतन। मे १२ ४ा छ, 'त जहा' ते मा प्रभारी छे. सातियार सन नितियार मतियारवाणा साधुनी દીક્ષા પર્યાયને છેદીને ફરીથી તેઓમાં મહાવ્રતનું જે આરોપણ કરવામાં આવે છે તે સાતિચાર દેપસ્થાપનીય સંયત કહેવાય છે. તથા પહેલા દીક્ષિત થયેલા સાધુને તથા પાર્શ્વનાથના તીર્થમાંથી મહાવીર સ્વામીના તીર્થમાં પ્રવેશ કરવાવાળા સાધુ માટે ફરીથી જે મહાવ્રતનું પ્રદાન કરવામાં આવે છે, તે નિરતિચાર છેદેપસ્થાપનીય સંયત કહેવાય છે કેપસ્થાપનીય સાધુ પહેલા તીર્થકર અને છેલ્લા તીર્થંકરના તીર્થમાં જ હોય છે. 'परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा' में सावन प२ि२विशुद्धि सेयता भारना ह्या छ ? A प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा दुविहे Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती प्राप्त इति पृच्छा-प्रश्न, मगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम' 'दुविहे पन्नत्ते' द्विविधः प्रज्ञप्तः, द्वैविध्यमेव दर्शयति-तं जहा' तद्यथा-'णिनि समाणए य-निविट्टकाइए य' निश्चिमानकश्च निर्विष्टकायिकश्च परिहारकतप. स्तपस्यन् निर्विश्यगाना, निविश्यमानकस्य वैधावृत्यकारको निर्विष्टकायिक इति । सुहुमसंपरायपुच्छा' सूक्ष्मसंपरायकः खलु भदन्त ! कतिविधः प्राप्त इति पृच्छा प्रश्नः, भगबानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गो यमा' हे गौतम ! 'दुविहे पन्नते' द्विविधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तयथा 'संकिलिस्समाणए य विसुद्धमाणए य' संक्लिश्यमानकश्च विशुद्धयमानकश्च, उपशमश्रेणीतःमच्यवमानः प्रथमः, उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी वा समारोहन द्वितीयो भवतीति । 'अहक्खायसंजए पृच्छा' यथाख्यातगोयमा ! दुविहे पन्नत्त' हे गौतम्ब ! परिहारविशुद्धिकसंयन दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे-णिपिलमाणए य निविष्टकाए य' निविश्यमानक और निविष्टसायिक इनमें जो परिहारक संबंधी तपों को तपता है वह निश्चिमान है और निविश्यमान की वैधात्ति करने वाला जो होता है वह निर्विष्टकाचित है। 'सुहमरंपराय पुच्छा' हे भदन्त ! स्मृक्षम संपरायसंयत तिने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा । विहे पन्नत्ते' हे गौतम ! सूक्षलसंपदायक संयल दो प्रकार का कहा गया है'तं जहा' जैसे संकिलिहतमाणए थ विसुद्धमाणए यो संक्लिश्यमानक और विशुद्यमानक उपशल श्रेणीले जो गिरता है वह तंक्लिश्यमानक है और जो उपशगश्रेणी पर अथवा क्षपक्षश्रेणी पर आरोहण करता है वह विशुद्धमान है।। पन्नते है गौतम ! परिहार विशुद्धि सयत ये ४२ हा छ त जहा' मा प्रमाणे छ. 'णिव्विस्समाणए य निविटुकाइए य' निविश्यमान अन નિર્વિષ્ટકાયિક તેમાં જે પરિહારક સંબંધી તપ તપે છે, તે નિર્વિશ્યમાન છે, અને નિવિશ્યમાનની વૈયાવૃત્તિ-સેવા કરવાવાળા જેઓ હોય છે, તે નિર્વિષ્ટકાયિક કહેવાય છે. 'सुहुमसंपरायपुच्छा' के लगवन् सूक्ष्म स५२। य सयत सेटमा आरन ४ा छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ8-'गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते के गोतम ! सूक्ष्म संपरायवासयत मे प्रा२ना हा छ. 'त जहा' ते मा प्रभाव छे. 'संकिलिस्समाणए य विसुद्धमाणए य' सश्य भान भने વિશુદ્ધમાનક, ઉપશમશ્રણથી જેઓ પડે છે, તે સંકિલશ્ય માનક હોય છે, અને જે ઉપશમશ્રેણી પર અથવા ક્ષપકશ્રેણી પર ચઢે છે, તે વિશુદ્ધ #ાનક કહેવાય છે, Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ १०१ प्रथम प्रशापनाबारनिरूपणम् २६५ संयतः खलु भदन्त ! कतिविधः, प्रज्ञप्त इति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहे पन्नत्ते' द्विविधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा 'छउमस्थेय केवलीय' छद्गस्थश्च केवलीच । अथ सामायिकसंयतादीनां स्वरूपं गाथाभिराह-'सामाइयमि' इत्यादि, 'सामाइयमि उ कए समायिके तु कृते' सामायिक एव कृते प्रतिपन्ने न तु छेदोपस्थापनीयादौ प्रतिपन्ने, सामायिकस्य चारित्र: विशेषस्य सीकरणानन्तरम्-'चाउज्जामं अणुसरं धम्म' चातुर्यापमनुत्तरं धर्मम्पतुर्महाव्रतरूपम् अनुत्तरं धर्मम्-श्रमणधर्ममित्यर्थः, ननु महाव्रतस्य पञ्चविधत्वात् चातुर्याममिति कथनं कथं संगच्छते इति चेदत्रोच्यते अजितनायादारभ्य पार्य नाथपर्यन्तं चातुर्यामस्यैव धर्मस्य निर्वाचनात् प्रथमान्तिमयो स्तीर्थकरयोः शासने 'अहक्खायसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! यधाख्यात संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! यथाख्यान संयत दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'छउमत्थे य केवलीय' छद्मस्थ और केवली। इन सामा. यिक संयत आदिकों का स्वरूप जो गाथाओं द्वारा प्रकट किया गया है वह इस प्रकार से है-'सामाध्यंमि उकए' इत्यादि । सामायिक स्वीकार करने के बाद के चार महानरूप प्रधान धर्म का अर्थात् श्रवणधर्म का मन बचन काय से पालन करता है वह सामायिक संयत है यहां पर ऐसी आशंशा हो सकती है कि महावत-- रूप धर्म तो पांच प्रकार का कहा गया है-फिर यहां चातुर्शम धर्म का कथन कैसे संगतमानाजा सकता है ? तो इसका समाधान ऐसा अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के बावीस तीर्थंकरों के तीर्थका . 'अहक्खायसंजमे पुच्छा' मगवन् यथाभ्यात स यतटमा ४२ना हा १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा! दुविहे पन्नत्ते' ' जीत! यथास्यात संयत मे प्रा२ना ४ा छे. 'तजहा' ते सा प्रमाणे', छे. 'छउमत्थे य केवली य' छA२५ मन पक्षी मा सामायि सय विगैरेन २१३५ २ गाथामा द्वारा मताव छे, ते माया मा प्रभारी छ-'सामाइयमि उ कए' त्यादि સામાયિકને સવીકાર કર્યા પછી ચાર મહાવ્રત રૂપ પ્રધાન-મુખ્ય ધર્મનું અર્થાત્ શ્રમણ ધર્મનું મન, વચન અને કાયથી જે પાલન કરે છે. તે સામાન યિક સંયત છે. અહિયાં એવી શકા થાય છે કે-મહાવ્રતરૂપ ધમ તે પાંચ પ્રકારને કહેલ છે, તે પછી અહિયાં ચાતુર્યામ ધર્મનું કથન કેવી રીતે સંગત-યુક્ત માની શકાય ? આ શંકાનું સમાધાન એવું છે કે-અજીતનાથથી - भ०३४ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ भगवती तु पञ्चमहाव्रतस्योपदेशेन उभयोः समावेशादित्यतश्चातुर्यामं धर्ममिति गायायां कथितम् इयं च गाथा महावीरतीर्थात् मागेवोपदिष्टा इति लक्ष्यते । 'तिविहे गं' त्रिविधेन-मनः प्रभृविना मनोवाकायरित्यर्थः 'फासयंतो' स्पृशन् -पाजयन् 'सामाइयसंजओ' सामायिकसंयतः स खलु निश्चयेन सामायिकसयत इति कथ्यते इति मथमगाथार्थः १ । 'छेत्तूण उ' छित्त्वा तु 'परियागं' पर्यायम् 'पोराण' पूर्व गृहीतचतुर्महाव्रतम् 'जो ठवेइ अप्पाण' यः स्थापयति आत्मानम् 'धम्ममि पंचनामे धर्मे पञ्चयामे पञ्चमहावतात्मके इत्यर्थः, 'छेदोवट्ठावणो स खलु' 'छेदोपस्थानः स खल्ल यः खलु पूर्वपर्यायस्य चतुर्महाव्रतस्य छेदेन स्वात्मानं पश्च. महाव्रते स्थापयति स छेदोपस्थापनः पूर्वपर्यायच्छेदोपस्थापनं व्रतेपु यत्र तच्छेदो. पस्थानं तयोगात्साधुरपि छेदोपस्थापन इत्यर्थः २ । 'परिहरई' परिहरति निर्विशमानकादिभेदं तप आसेवते यः साधुः किं कुर्वन् तत्राह-'विसुद्धं तु पंचजाम अणुमें चातुर्यामरूप धर्म की ही प्ररूपणा हुई है तथा प्रथम तीर्थकर और अन्तिम तीर्थकर के शासन में पांच महाव्रत धर्म की प्ररूपणा हुई है। इस प्रकार से यहां इत्वरिक और यावत्काधिक दोनों सामायिकों का समावेश हो जाता है। ' 'छेत्तूण उ परियागं' इत्यादि। पूर्व गृहीत चतुर्महाव्रतरूप पर्याय का छेदन करके जो अपने को पंचमहाव्रतरूप धर्म में स्थापित करता है वह छेदोपस्थापनीयसंयत है। व्रतों में जहां पूर्व पर्याप का छेदन करके नये रूप से उपस्थापन होता है यह छेदोपस्थापनीय चारित्र है । इस चारित्र के योग से साधु भी छेदोपस्थापनीय कह दिया गया है । લઈને પાર્શ્વનાથ સુધીના રર બાવીસ તીર્થકરોના તીર્થકાળમાં ચાતુર્યામરૂપ ધર્મની જ પ્રરૂપણ થઈ છે. તથા પહેલા તીર્થકર અને છેલલા તીર્થકરના શાસનમાં પાંચ મહાવ્રત ધર્મની પ્રરૂપણ થઈ છે. આ રીતે બન્નેને સમાવેશ સંગત થઈ જાય છે. 'छेत्तूण उ परियागं' या પહેલા ધારણ કરેલ ચાર મહાવ્રતરૂપ પર્યાયનું છેદન કરીને પિતાને જે પાંચ મહાવતરૂપ ધર્મમાં સ્થાપિત કરે છે. તે છેદે પસ્થાપનીય સંયત છે. વતેમાં જ્યાં પૂર્વ–પહેલાના પર્યાનું છેદન કરીને નવા રૂપથી ઉપસ્થાપન થાય છે, તે છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર છે. આ ચારિત્રના વેગથી સાધુ પણ છે પસ્થાપનીય કહેવાય છે. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shrafar at ०२५७.७ सू०१ प्रथम प्रज्ञापनाद्वारनिरूपणम् त्तरं धम्मं विशुद्धम् - सर्वथा दोपवर्जितं पञ्चमहात्रतम् अनुत्तरम् अतिशयितोत्तरम् लोकोत्तरमित्यर्थः धर्मम् 'तिविण फासतो' त्रिविधेन - मनः प्रभृतिना स्पृशन् आचरवि, 'परिहारिय संजओ स खलु परिहारिकसंयतः स खलु पञ्चयाममनुत्तरं धर्म स्पृशन् निर्विशमानकादिभेदं तप आसेवते स परिहारसंयतो भवती स्यर्थः ३ । 'लोभाणूवेययंती' लोभाणून वेदयन् लोभलक्षणकपायाणून वेदयन् इत्यर्थः यो वर्तते 'जो खलु उवसामओ व खत्रओय' यः खलु उपशामकः चारित्रः मोहनीयस्य अथवा क्षपकः 'सो' सः 'सुहुमसंपरायो' सूक्ष्मसंपरायः 'अहखायाऊओ किंचि' यथारूपतात् किञ्चित् ऊनो न्यूनः लोभलक्षणकपायाणून वेदयन् चारित्रमोहनीयस्य कर्मण उपशामकः क्षपको वा साधुः, यथाख्यत संयतात् किञ्चिन्यूनः सूक्ष्म संपरापसंयतनामको भवतीति चतुर्थगाथार्थः ४ । 'उवसंते' इत्यादि, 'उवसंते खीणंमि व' उपशान्ते क्षीणेत्रा 'जो खलु कम्मंमि मोहणिज्जंमि' यः खलु कर्मणि मोहनीये 'छउमत्यो व जिणो वा' छद्मस्थो वा जिनो वा 'अदक्खाओ २६७ 'परिहर जो विसुद्ध' इत्यादि । : सर्वथा दोष वर्जित ऐसे पांच महाव्रत रूप लोकोत्तर धर्म का मन वचन काय से सेवन करता हुआ निर्विशमानक आदि के भेद से तप का आचरण करता है वह परिहार संयत है । . 'लोभाणू वेययंतो जो' इत्यादि । हुआ जो लोभ के अणुओं का सूक्ष्म लोभकषाय का वेदन करता चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय करता है वह सूक्ष्म संपराय संयत है यह यथाख्यातसंगत से किञ्चित् न्यून होता है। 'उपसंते खीर्णमि' इत्यादि । 'परिहरइ जो विशुद्ध' त्यिाहि સવથા દોષરહિત એવા પાંચ મહાવ્રત રૂપ લેાકાત્તર ધર્મનું મન, વચન અને કાયાથી સેવન કરતા થકા નિશિમાનક વિગેરે ભેદથી તપનુ આચરણ કરે છે, તે પરિહાર વિશુદ્ધ સયત કહેવાય છે, 'लोभाणू वेयर्यतो जो' इत्यादि લેાભના અણુએનુ–સુક્ષ્મ લેાલ કષાયનુ વેન કરતા થકા ચારિત્ર મેાહનીય કર્માંના ઉપશમ અથવા ક્ષય કરે છે, તે સૂક્ષ્મસ'પરાય સયંત કહેવાય છે. આ યથાખ્યાત સયતથી કઈક ન્યૂન હાય છે. 'उवसंते स्त्रीणंमि' इत्याहि Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भगवतीसर्व संजओ स खलु' यथाख्यातसं यतः स खलु मोहनीये कर्मणि उपशान्ते क्षीणे यः छद्मस्थो जिनो वर्तते स यथाख्यातसंयतः खलु भवतीति वा पञ्चमगाथार्थः ॥ ५ सू०१॥ . वेदद्वारमाह-'सासाइयसंजए थे' इत्यादि, . मूलम्-सामाझ्यसंजए णं भंते ! लवेयए होज्जा अवेयए होज्जा ? गोयना ! सवेयए होज्जा अवेयए वा होज्जा ! जइ सवे. यए एवं जहा कसायकुसीले तहेब निरवलेलं । एवं छेदोक्टावणियसंजए वि। परिहारविसुद्धिवसंजओ जहा पुलाओ सुहमसंपरायसंजओ अहक्खाओ च जहा णियंठो २ । सामाइय संजए णं भंते ! किं सरागे होज्जा बीयरागे होज्जा ? गोयमा । सरागे होज्जा णो वीयरागे होज्जा। एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए । अहक्खायसंजए जहा णियंठे ३। सामाइय संजए णं भंते! किं ठियकप्पे होज्जा अहियकप्पे होज्जा? गोयमा! ठिय कप्पे होज्जा अट्टियकप्पे वा होज्जा। छेदोक्टावणियसंजए पुच्छा गोयमा! ठियकप्पे होज्जा णो अट्रियकप्पे होज्जा एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि। सेसा जहा सामाइयसंजए ३ । सामाइयसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होज्जा ? गोयमा! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं। छेदोवढावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो सेसा जहा णियंठे ४। सामाइयसंजए णं भंते! किं पुलाए · जो मोहनीयकर्म के उपशान्त अथवा क्षीण होने पर छमस्थ अथवा जिन होता है वह यथाख्यात संयत है ॥सू०१॥ पहला प्रज्ञापना छार का कथन समाप्त જેઓ મોહનીય કર્મના ઉપશાત અથવા ક્ષીણ થવાથી છદ્મસ્થ અથવા ન હોય છે, તે યથાખ્યાત સંયત કહેવાય છે. સૂ૦ ૧ પહેલા પ્રજ્ઞાપના દ્વારનું કથન સમાપ્ત Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ द्वितीय वेदद्वारनिरूपणम् २६९ होज्जा बउसे जाव सिणाए होज्जा? गोयमा ! पुलाए वा होज्जा बउसे जाव कसायकुसीले वा होज्जा णो णियंठे होज्जा णो सिणाए होज्जा, एवं छेदोवट्रावणिए वि। परिहारविसुद्धिय संजए णं भंते ! पुच्छा गोयमा! णो पुलाए णो बउसे णो पडिसेवणाकुसीले होज्जा, कसायकुतीले होज्जा णो णियंठे होज्जा णो सिणाए होज्जा। एवं सुहुमसंपराए वि । अहक्खायसंजए पुच्छा गोयमा! नो पुलाए होज्जा जाव नो कलाय. कुसीले होज्जा, णियंठे वा होज्जा सिणाए वा होज्जा ५। सामाइयसंजए णं भंते! किं पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होजा? गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा अपडिसेवए वा होज्जा। जइ पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा० सेसं जहा पुलायस्स। जहा सामाइयसंजए एवं छेदोक्ट्रावणिए वि। परिहारविसुद्वियसंजए पुच्छा गोयमा! नो पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा एवं जाव अहक्खायसंजए६। सामाइय संजए णं भंते ! कइसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा, एवं जहा कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए, एवं जाव सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजयस्स पंचनाणाई भयणाए जहा नाणुद्देलए । सामाइय संजएणं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं अटू पवयणमायाओ जहा कसायकुलीले । एवं छेदोक्टावणिए वि। परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं नवमस्स पुव्वस्त तइयं आयारवत्थु उक्कोसेणं असंपुन्नाई दसपुवाई अहिज्जेज्जा । सुहुमसंपराय संजए जहा सामाइयसंजए। अहक्खायसंजए पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले उक्कोसेणं चोदलपुव्वाइं अहिज्जेज्जा सुयवइरित्ते वा होज्जा ७॥ सामाइयसंजएणं अंते ! किं तित्थे होज्जा अतित्थे होज्जा ? गोयमा ! तित्थे वा होज्जा अतित्थे वा होज्जा जहा कसायकुसीले । छेदोवद्यावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए सेसा जहा सामाइयसंजए ८। सामाइयसंजए णं भंते! किं सलिंगे होज्जा अन्नलिंगे होज्जा गिहिलिंगे होज्जा ? जहा पुलाए । एवं छेदोवटावणिए वि। परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! किं पुच्छा गोयला! वलिंगपि भावलिंगपि पडुच्च सलिंगे होजा नो अन्नलिंगे होज्जा नो गिहिलिंगे होज्जा। सेसा जहा सामाइयसंजए ९। सामाइयसंजए णं भंते! कइसु लरीरेसु होज्जा? गोयमा! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवढावणिए वि सेसा जहा पुलाए ११ । सामाइयसंजए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा अकम्मसूमीए होज्जा ? गोयमा! जमणं संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए नो अकम्मभूमीए जहा बउसे। एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए सेसा जहा सामाइयसंजए ११॥सू०२॥ - छाया-सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं सवेदको भवेत् अवेदको भवेत् ? गौतम ! सवेदको वा भवेत् अवेदको वा भवेत् । यदि सवेदकः, - एवं यथा कपायकुशीलस्तथैव निरव शेपम् । एवं छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि । परिहारविशु. द्धिकसंयतो यथा पुलाका, सूक्ष्मसंपरायसंयतो यथाख्यातसंयतश्च यथा निर्ग्रन्थः २। सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कि सरागो भवेत् वीतरागो भवेत् ? गौतम! सरागो भवेत् नो वीतरागो भवेत । एवं यावत सुक्ष्मसंपरायसंयतः। यथाख्यात संयतो यथा निग्रेन्था३ । सामायिकसंयतः खलुः भदन्त ! कि स्थितिकल्पो भवेत् ! अस्थितकल्पो भवेत् ? गौतम ! स्थिताल्पो वा भवेत अस्थितकल्पो वा भवेत् । छेदोपस्थापनीयसंयतः पृच्छा गौतम ! स्थितकल्पो भवेत् नो अस्थितकल्पो भवेत् । एवं परिहारविशुद्धिक संयतोऽपि शेपा यथा सामायिकसंयतः । सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कि Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ refer ater ०२५ उ.७ सु०२ द्वितीय' वैदद्वारनिरूपणम् ૨૭o जिनकल्पो भवेत् स्थविरकल्पो भवेत् कल्पातीतो भवेत् ? गौतम । जिनकल्पो वा भवेत् यथा कषायकुशीलस्तथैव निरवशेषम् । छेदोपस्थापनीयः परिहारविशुद्धिकथ यथा चकुशः, शेषा यथा निर्ग्रन्थः ४ । सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं पुलाको भवेत् वकुश यावत् स्नातको भवेद गौतम ! पुलाको वा भवेत् वकुशी यात्रत् कपायकुशीलो वा भवेत् नो निभ्यो भवेत् नो स्नातको भवेत् एवं छेदोपस्थापनिकोsपि । परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! पृच्छा गौतम ! नो पुलाको नो वकुशो नो प्रतिसेवनाकुशीलो भवेत् कपायकुशीलो भवेत् नो निर्मन्थो भवेत नो स्नातको भवेत् एवं सूक्ष्म परायोऽपि । यथाख्यातसंयतः पृच्छा गौतम ! नो पुलाको भवेत् यावत् नो कषायकुशीलो भवेत् निर्ग्रन्यो वा भवेत् स्नातको वा भवेत् ५ । सामायिकसंयतः खल्ल भदन्त ! किं प्रतिसेवको भवेत् अतिसेवको भवेत् ? गौतम ! प्रतिसेवको वा भवेत् अतिसेवको वा भवेत् । यदि प्रतिसेवो भवेत् किं मूलगुणप्रतिसेवको भवेत् शेषं यथा पुलाकस्य । यथा सामायिकसंयतः एवं छेदोपस्थापनिकोऽपि । परिहारविशुद्धिकसंयतः पृच्छा गौतम ! नो प्रतिसेवको भवेत् अप्रतिसेवको भवेत् एवं यावत् यथाख्यातसंयतः ६ । सामायिक संयतः खलु भदन्त ! कतिषु ज्ञानेषु भवेत् ! गौतम ! द्वयोर्वा त्रिषु चतुर्षु वा ज्ञानेषु भवेत् एवं यथा -कपायकुशीलस्य तथैव चत्वारि ज्ञानानि भजनया, एव यावत् सूक्ष्मसंपरायः । यथाख्यातसंयतस्य पञ्चज्ञानानि भजनया यथा ज्ञानोदेशके । सामायिकसंयतः खल भदन्त ! कियत् श्रुतमधीयीत गौतम ! जघन्येन अष्टमवचनमातृः यथा कपायकुशीलः । एवं छेदोपस्थापनिकोऽपि । परिहारविशुद्धिकसंयतः पृच्छा, गौतम ! जघन्येन नवमस्य पूर्वस्य. तृतीयमाचारवस्तु उत्कर्षेणासंपूर्णानि दशपूर्वाणि अधीयीत सूक्ष्मसंपरायसंयतो यथा सामायिक संयतः । यथाख्यातसंयतः पृच्छा गौतम ! जघन्येन अष्टमवचनं ' मातृः, उत्कर्षेण चतुर्दश पूर्वाण्यधीयीत श्रुतव्यतिरिक्तो वा भवेत् ७ । सामायिकसंयतः खलु भदन्त । किं तीर्थे भवेत् अतीर्थे भवेत् गौतम ! तीर्थे वा भवेत् अतीर्थे वा भवेत् यथा कषायकुशीलः । छेदोपस्थापनिकः परिहारविशुद्धिकश्च यथा पुलाकः, शेषा यथा सामायिक संयतः ८ । सामायिकसंयतः खलु भदन्त । किं स्वलिङ्गे भवेत् अन्यलिङ्गे भवेत् गृहिलिङ्गे भवेत् ? 'यथापुळाकः, एवं छेदोपस्थापनिकोऽपि । परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! पृच्छा गौतम ! द्रव्यलिङ्गमपि भावलिङ्ग मपि प्रतीत्य स्वलिङ्गे भवेत् नो अन्यलिङ्गे भवेत् नो गृहिलिङ्गे भवेत् शेषा यथा सामायिकसंयतः ९ । सामायिकसंयतः खलु भदन्त । कतिषु शरीरेषु भवेत ? गौतम ! त्रिपु वा चतुर्षु पञ्चसु वा यथा कपायकुतीलः । एवं छेदोपस्था पनि कोऽपि, शेषा यथा पुलाकः १० | सामायिकसंयतः खलु भदन्त । किं कर्मभूमौ नो Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહર भगवतीय अकर्मभूमौ भवेत् कर्मभूमौ भवेत् १ गौतम ! जन्मसद्भावं च प्रतीत्य कर्मभूमी यथा बकुशः। एवं छेदोपस्थापनिकोऽपि । परिहारविद्धिकश्च यथा पुलाका शेषा यथा सामायिकसंयतः ॥सू० २।। टोका-'सामाइयसंजए णं भंते !' सामायिफसंयतः खलु भदन्त ! "f सवेयर होज्जा अवेयए होज्जा' किं सवेदको भवेत् अवेदको वा भवेदितिमश्ना, भगवानार -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सवेयए वा होना-अवेयए वा होआ' सवेदको वा भवेत् अवेदको वा भवेत् सामायिकसंयतः सवेदको भवेद् अवेदकोऽपि भवेत् नवमगुणस्थानके वेदस्योपशमः क्षयो वा भवति अतोऽत्रावेदको भवति, पतत्पूर्ववत्तिगुणस्थान केषु तु सामायिकसंयतः सवेदको भवति नवमगुणस्थानकपर्यन्तं दसरा चेदवार का कथन 'सामाझ्यसंजमेणं भंते। कि सवेयए होज्जा अवेयए होजा' इत्यादि,. टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'सामाइयसंजए णं भंते ! कि सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा' हे भदन्त ! सामायिक संयत वेवाला होता है ? अथवा वेदरहित होता है ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है-गोयमा ! सवेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा' हे गौतम ! सामायिक संयत वेदवाला भी होता है और वेदरहित भी होता है। सामायिक संयत नौवें गुणस्थानक तक कहा जाता है, वेद का नौवें गुणस्थानक में उपशम अथवा क्षष होता है। नौवें से नीचे के गुणस्थानों में जब सामायिक संयत रहता है तब वह वेद वाला कहलाता है और नौवें में वह उसके उपशम अथवा क्षय कर देने पर अवेदक कहलाता है । इसीलिये यहां उत्तर में प्रभुश्री ने ऐसा कहा है कि હવે બીજા વેદકારનું કથન કરવામાં આવે છે.'सामाइयसंजए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा, अवेयए होज्जा' त्याल टाय:-श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्रीन ये पूछ्यु छ ४-'सामाइय संजए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा' सावन सामायि४ सयत દવાળા હોય છે ? અથવા વેદ વિનાના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु श्री गीतभस्वाभान युछ 3-'गोयमा! सवेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा' ७ गौतम ! सामायि: संयत वाणा पर डाय , मन ३४ વિનાના પણ હોય છે. સામાયિક સંયત નવમાં ગુણસ્થાનક સુધીના કહે. વાય છે. વેદનાઓને નવમાં ગુણસ્થાનકમાં ઉપશમ અથવા ક્ષય થાય છે. નવમાંથી નીચેના ગુણસ્થાનમાં જ્યારે સામાયિક સંયત રહે છે, ત્યારે તે વેધવાળા કહેવાય છે. અને નવમામાં તે વેદને ઉપશમ અથવા ક્ષય કરી , Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ १०२ द्वितीयं वेदहारनिरूपणम् ३७३ सामायिकसयतत्वस्य व्यपदेशादिति । 'जइ सवेयए एवं जहा कसायकुसीले तहेवनिरवसेस' यदि सवेदको भवेत् एवं यथा कषायकुशीलस्तथैव निरवशेष ज्ञातव्यम् यदि सवेदको भवेत् त्तदा-स्त्रीवेदोऽपि भवेत् पुरुषवेदोऽपि भवेत् नपुंसकवेदोऽपि भवेत् अवेदस्तु क्षीणोपशान्तवेदइत्यर्थः । एवं छेदोवट्ठावणियसंनए वि' एवं सामा. यिकसंयतवदेव दोपस्थापनिकसंयतोऽपि सवेदकोऽपि अवेदकोऽपि भवेत् यदि सवेदकस्तदास्त्रीवदेको भवेदिति, नवमगुणस्थान के अवेदकोऽपि भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयत इति । 'परिहारविसुद्धिकसंजओ जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयतो यथा पुलाका, पुलाकरदेव परिहारविशुद्धिकसंयतः पुरुषवदवेदको भवेत् वह सवेद भी होता है और अवेद भी होता है । 'जह सवेयए एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसे सं' यदि वह सवेद-वेदसहित होता है तो इस सम्बन्ध में समस्त कथन कषायकुशील के कथन जैसा जानना चाहिये अर्थात् यदि वह वेदसहित होता है तो वह स्त्रीवेदवाला भी हो सकता है पुरुषवेद वाला भी हो सकता है और पुरुषनपुंसकवेवाला भी हो सकता है और यदि वह अवेद-वेद रहित है तो वह उपशान्तवेदवाला हो सकता है और क्षीण वेदवाला भी हो सकता है। 'एवं छेदोवठ्ठावणियसंजए वि' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनिक संयत भी वेद सहित होता है और वेद रहित भी होता है ऐसा जानना चाहिये । यदि वह वेदसहित है तो वह तीनों वेदनाला हो सकता और यदि वेदरहित है तो वह नौवें गुणस्थान में अवेदक भी होता है। 'परिहारविसुद्धिक संजओ जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयत નાખવાથી અવેદક કહેવાય છે. તેથી જ અહિયાં ઉત્તર વાક્યમાં પ્રભળી : स धु छ है-ते सवे ५५ डाय छे. मने मवे पाय छे...' 'जइ सवेयए एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेस' नेते सहવેદસહિત હોય તે તે સંબંધમાં સઘળું કથન કષાય કુશલના કથન પ્રમાણે સમજવું. જે તે સવેદ હોય છે તે સ્ત્રીવેદવાળા પણ હોય છે, અને પરષ * દવાળા પણ હોય છે, તથા નપુંસક વેદવાળા પણ હોય છે. અને જે તે વેદ વિનાના હોય તે તે ઉપશાન્ત દવાળા હોઈ શકે છે. અને ક્ષીણ રેટ पाणाडश छे. 'एव छेदोवद्वावणियसजए वि' मेरी प्रमाणे होय. સ્થાપનીય સંયત પણ વેદસહિત હોય છે. અને વેદરહિત પણ હોય છે. તેમ સમજવું. જે તે વેદસહિત હોય તો તે ત્રણે વેદવાળા હોઈ શકે છે. અને જે सविताना डायत ते नवमा गुस्थानमा सवे पशु डाय छे. 'परिहार विसद्धिकसंजओ जहा पुलाए' ५.२७२ विशुद्ध संयतमा वनु थन सा : भ० ३५ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ भगवतीले पुरुपनपुंसकवेदको वा भवेदिति कृत्रिमनपुंसकइत्यर्थः । 'सुहुमसंपरायसनो लहक्खायसंजओ य जहा णियंठे' सूक्ष्मसंपरायसंयतो यथाख्यातंसंयतश्च यथा निन्या क्षीणोपशान्तवदेत्वेनाऽपेदक एव भवतीत्यर्थः । इति वेदद्वारम् ॥ . ____ अथ रागद्वारं तृतीयम्-'सामाइथसंजए * भंसे!' सामायिकसंयत: खलु भदन्त ! 'किं सरागे होज्जा वीयरागे होज्जा' किं सरागो भवेत् वीतरागो वा भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'सरागे होज्जा नो वीयरागे होज्जा' सरागो भवेत् सामायिकसंयतस्य रागवत्वमेव न तु रागराहित्यमिति भावः । 'एवं जाब सुहमसंपरायसंजए' एवं में वेद का कथन पुलाकोक्त वेद के कथन जैसा जानना चाहिये । अर्थात् परिहार विशुद्धिक संयत्त पुरुषवेदक भी होता है और पुरुपनपुंसकवेदक भी होता है । पुरुषनपुंसक का मतलब कृत्रिम नपुंसक ले है । 'सुटुमसंपरायसंजओ अहवखाय संजओघ जहा णिथंटे' निर्गन्ध के जैसे सूक्ष्मसंपराय संघत और यथाख्यातसंगत अवेदक ही होते हैं क्यों कि ये उपशान्तयेदराले और क्षीणवेदनाले होते हैं वेद द्वार समाप्त २। तृतीय रागद्वार का कथन . 'सामाझ्यसंजए णं भंते किं सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत क्या सराग होता है अथवा वीतराग होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोचमा! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा' हे गौतम ! सामायिकसंघत सराग होता है, वीतराग नहीं होता है। ‘एवं जाच सुहमसंपरायतंजए' इसी प्रकार से કને સંબંધમાં કહેલ વેદના કથન પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. અર્થાત પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત, પુરૂષ વેદક પણ હોય છે, અને પુરૂષ નપુંસક વેદક પણ हाय छे. ५३५ नघुस मेट कृत्रिम नस४ से प्रभार सभा. 'सुहुम सपरायसंजओ अहक्खायसंजओ य जहा णियंठे' निन्थना ४थन प्रमाणे સૂકમ સં૫રાય સંયત અને યથાખ્યાત સંયત અદકજ હોય છે. કેમકે તેઓ ઉપશાંત વેરવાળા અને ક્ષીણ વાળા હોય છે. બીજું વેદાર સમાપ્ત છે ત્રીજ રાગદ્વારનું કથન 'सामाइयसंजए णं भंते ! कि सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा' 3 लंगवान् સામાયિક સ યત શું સરાગ હોય છે? અથવા વીતરાગ હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ है-'गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होता है गीतम ! सामायि संयत सराय हाय छे, वीतरा होता नथी. 'एवं जाव' Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयन्द्रिका टीका २०२५ उ.७ सू०२ चतुर्थ कल्पद्वारनिरूपणम् २७५ यावत् सूक्ष्मसंपरायसंप्तः, यावत्पदेन छोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयतयोग्रहणं भवति । तथा च छोपस्थापनिकपरिहाविशुद्धिकक्षमसंपरायसंपता: रागवन्त एव भवन्ति न तु वीतरागा भरन्तीति भावः । 'अहक वायसंजए जहा. णियंठे' यथाख्यातसंयतो यथा निम्रन्यो-निन्यवद् यथाख्यातसंयतो नो सरागः किन्तु वीतराग एव भवेदिति तृतीयद्वारम् ३ । अथ चतुर्थकल्पद्वारमाह-'सामाइए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अट्टियकप्पे होडमा' सामायिकसंयतः खल्ल भदन्त ! कि स्थितकल्पो भवेत् अस्थितकल्पो भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ठियकप्पे वा होज्जा अद्वियकप्पे वा होज्जा' स्थितकल्पो वा भवेत् सामायिकसंयतोऽस्थितकल्पों वा भवेदिति । 'छेदोवठ्ठावणियसंजए पुच्छा' छेदोपस्थापनीयसंयतः खलु भदन्त ! किं स्थितछेदोपस्थापनीय संयत्त, परिहारविशुद्धिकसंयत और सूक्ष्म संपराय संयत ये सब भी सराग होते हैं-वीतराग नहीं होते हैं 'अहक्खायसंजए जहा णियंठे' यथाख्यातसंयत निर्ग्रन्थ के जैसे वीतराग ही होता है। तीसरा रागद्वार समाप्त ।। चौथा कल्पहार का कथन ___ 'सामाझ्यसंजए णं अंते ! किं ठियकप्पे होज्जा, अष्ट्रियकप्पे होज्जा' हे भदन्त ! सामापिकलंयत क्या स्थितकल्पवाला होता है अथवा अस्थितपाल्पवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! 'ठियकप्पे पा होज्जा, अष्ट्रियरुपये का होज्जा' हे गौतम ! सामायिकसंयत स्थितकल्पवाला सीहोता है और अस्थिताकल्पवाला भी होता है। - 'छेदोवद्यावणियलंजए पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत क्या सुहमसंपरायसंजमे' मे०४ प्रमाणे छेहोपस्थानीय संयत, परिहार विशुद्धि સંયત અને નિગ્રંથ સંયત એ સઘળા સરાગ હોય છે. વીતરાગ હતા नथी. 'अहक्खायसजए जहा णियंठे' यथायत संयत नियन्थन। ४थन प्रमाणे વીતરાગ જ હોય છે. રાગદ્વાર સમાપ્ત હવે ચેથા ક૫દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अद्वियकप्पे हाज्जा' 8. ભગવદ્ સામાયિક સંયત શું સ્થિત ક૯૫વાળા હોય છે? અથવા અસ્થિત કઃપવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! ठियकप्पे वा होज्जा, अद्वियकप्पे वा होज्जा' 8 गौतम ! सामायि સંસ્થત સ્થિતડલ્પવાળા પણ હોય છે, અને અસ્થિત કલ્પવાળા પણ હોય છે. 'छेदोवद्वावणियसजए पुच्छा' 3 लापन् छेदीपथानीय सयत शु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ भगवती कल्पो भवेत् अस्थितकल्पो वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'ठियकप्पे होज्जा' छेदोपस्थापनीयसंयतः स्थितकल्पो भवेत् 'नो किप्पे होज्जा' नो अस्थितकल्पो भवेत् अस्थितकल्पोहि मध्यमजिनमहाविदेह जिनानां तीर्थे भवति नान्यत्र भवति तत्र च छेदोपस्थापनीयं चारित्रं न भवतीति भावः । ' एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि' एवम् - छेदोपस्थापनीय संयतवदेव परिहाविशुद्विक संपतोऽपि स्थितकल्प एव भवति नो अस्थितकल्पो भवतीति । 'सेसा जहा सामाइयसंजए' शेषा:- मूक्ष्मसंपराययथाख्यातसंयता यथा सामायिक संयत स्तथैव स्थितकल्ला वा भवेयुरस्थितकल्पा वा भवेयुरिति । स्थितकल्पवाला होता है ? अथवा अस्थितकल्पबाला होता है ? उत्तर मैं प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा ! ठिग्रकप्पे होज्जा, नो अट्टियकप्पे होज्जा' हे गौतम! छेदोपस्थापनीय संयत स्थितकल्पवाला होता है, अस्थितकल्प वाला नहीं होता है ? अस्थितकल्प मध्यम अजितनाथ से लेकर पार्श्व नाथ तक बावीस जिनों के एवं महाविदेह जिनके तीर्थ में होता है। और वहां छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होना है। इसलिये छेदोपस्थापनीयसंयत के अस्थित कल्प नहीं होता है । 'एवं परिहारविसुद्वियसंजए वि' इसी प्रकार से परिहारविशुद्धिकसंयत भी स्थित कल्पवाला ही होता है, अस्थिकल्पवाला नहीं होता है। 'सेता जहा सामाइयसंजए'. सूक्ष्म संपरायसंयत एवं यथाख्यातसंयत, ये दोनों सामायिकसंयत के जैसे स्थितकल्पवाले भी होते हैं और अस्थितकल्पवाले भी होते हैं । સ્થિતકલ્પવાળા હોય છે ? કે અસ્થિત કલ્પવાળા ડાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તरभां प्रलुश्री हे छे है- ' गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा, नो अट्ठियकप्पे होज्जा' डे ગૌતમ ! ચંદાપસ્થાનીય સંયત સ્થિતકલ્પવાળા હાય છે, અસ્થિત કલ્પવાળા હોતા નથી અસ્થિતકલ્પ મધ્યના અજીતનાથથી લઈને પાર્શ્વનાથ સુધી બાવીસ જીનેને અને મહાવિદેહ જીનના તીર્થાંમાં હાય છે. અને ત્યાં છંદોપસ્થાપનીય ચારિત્ર હાતુ નથી. તેથી છેદાપસ્થાનીય સયતને અસ્થિત કલ્પ हेतु नथी. ' एवं ' परिहारविसुद्धियसंजए' मेन अभा परिहार विशुद्धिः સયત પણ સ્થિતકલ્પવાળા જ હૈય છે. અસ્થિત કલ્પવાળા હાતા નથી. 'सेसा जहा स्रामाइयसंजए' सूक्ष्म सपराय संयत भने यथाभ्यात सभ्यत એ બન્ને સામાયિક સયત પ્રમાણે સ્થિતકલ્પવાળા પણ હોય છે, અને અસ્થિતકલ્પવાળા પશુ ડાય છે. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ चतुर्थ कल्पद्वारनिरूपणम् 'सामाइयसंजए णे भंते !' सामायिकसयतः खलु भदन्त ! 'कि जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे होज्जा-कपातीते होज्जा' किं जिनकलो भवेत् अथवा स्थविरकल्पो भवेत् कल्पातीतो भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं' जिनकल्पो वा भवेत् सामायिकसंयतः यथा कपायकुशीलस्तथैव निरवशेष सर्वमपि अत्र ज्ञातव्यम् जिनकल्पो वा भवेत् स्थविरकल्पो वा भवेत् कल्पातीतो वा भवेदिति भावः । 'छेदोबट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो' छेदोपस्थापनीयः परिहारविशुद्धिकश्च यथा वकुशः, वकुशवदेव इमौ ज्ञातव्यौ जिनकल्पो वा भवेताम् स्थविरकल्पौ वा भवेताम् नो कल्पातीवाविमौ सवेतामिति भावः । एतेषामर्थाः ____ 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा' थेरकप्पे होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत जिनकल्पवाला होता है ? अथवा स्थविरकल्प. वाला होता है ? अथवा 'कप्पातीते होज्जा' कल्प से अतीत होता हैकल्प रहित होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेस' हे गौतम ! सामायिक संगत जिनकल्पवाला भी होता है इत्यादि समस्त कथन कषायकुशील के कथन जैसा जानना चाहिये । तथा च-सामायिकसंयत कषायकुशील के जैसा जिन कल्पवाला भी होता है, स्थविर कल्पवाला भी होता है और कल्पातीत भी होता है । 'छेदोवठ्ठावणियों परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो' छेदोपस्थापनीयसंयत और परिहारविशुद्धिकसंयत बकुश के जैसा जिनकल्पवाले भी होते हैं, स्थविरकल्पवाले भी होते हैं पर 'सामाइयसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होजा' है ભગવન સામાયિક સંયત જનકલ્પવાળા હોય છે? અથવા સ્થવિર કલ્પવાળા हाय छ १ मा 'कप्पातीते होज्जा' ४८५थी भतीत डाय है? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ३ छ -'गोयमा ! जिणकप्पे चां होज्जा, जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं' 3 गीतम! सामायि:સંયત જનકલ્પવાળા પણ હોય છે. ઈત્યાદિ સઘળું કથન કષાય કુશીલના કથન પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. તથા સામાયિક સંયત કષાય કુશીલ પ્રમાણે જનકલ્પવાળા પણ હોય છે. સ્થવિર ક૯૫વાળા પણ હોય છે. અને કલ્પાતીત पा सीय छ 'छेदोवट्ठोवणियो परिहारविसुद्धिसों य जहा बसो' छेहोपस्थाપનીય સંયત અને પરિવાર વિશુદ્ધિક સંયત બકુશના કથન પ્રમાણે જીન કઃપવાળા પણ હોય છે, સ્થવિર કાપવાળા પણ હોય છે. પરંતુ કપાતીત Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ भगवती सूत्रे पुलाकमकरणीये पृष्ठो देश के द्रष्टव्याः । 'सेसा जहा नियंठे शेषौ -सूक्ष्मसंपराययथाख्याता यथा निर्ग्रन्थः, नो जिनकल्पे एती भवतः, न वा स्थविरकल्पे भवतः किन्तु कल्पातीतौ भवतः निर्ग्रन्थय देवेति भावः ४ । पञ्चमं चारित्रद्वारमाश्रित्येदमुच्यते'सामाइयसंजए णं भंते ।' सामायिकसंगतः खल्ल भदन्त ! 'किं पुलाए होज्जा वउसे जाब सिणाए होज्जा' किं पुलाको भवेत् वकुशो यावत् स्नातको भवेत् यावत्पदेन प्रति सेवना कुशीळक पायकुशील निग्रन्थानां ग्रहणं भवति, तथा च हे भदन्त ! सामायिक संयतः पुलाको भवेत् वकुशो वा प्रतिसेवना कुशीलो वा, कपायकुशीलो वा निर्ग्रन्थो वा स्नातको वा भवेदिति प्रश्नः । भगवानाह - ' गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'पुलाए बा होज्जा वउसे जाव कसायकुसीले वा होज्जा' पुलाको वा भवेत् कल्पातीत नहीं होते हैं । इनका अर्थ पुलाक के प्रकरणवाले छट्ठे उद्देशक में देखना चाहिये । 'सेसा जहा नियंठे' सूक्ष्मसंपरायसंयत और यथाख्यातसंयत निर्ग्रन्थ के जैसे कल्पातीत ही होते हैं । ये न स्थविर कल्पवाले होते हैं और न जिन कल्पचाले होते हैं । चतुर्थद्वार समाप्त | पांचवां चारित्रद्वार 'सामाहयजए णं भंते ! किं पुलाए होज्जा, बडले जाव सिणाए होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंवत क्या पुलाक होता है ? अथवा यकुश होता है ? अथवा यावत् स्नातक होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! पुलाए वा होज्जा, यउसे जाव कसा कुसीले वा होज्जा, नो नियंटे होज्जा, नो सिणाए होज्जा' हे गौतम! सामायिक હાતા નથી. આ ખાખતનું વિશેષ ક્થન પુલાના પ્રકરણવાળા છઠ્ઠા ઉદ્દેશામાં सेवु. सेसा जहा जियठे' सूक्ष्म सांपराय संयंत मते यथाખ્યાત સંયંત નિગ્રન્થના કથન પ્રમાણે કલ્પાતીત જ હાય છે. તેઓ સ્થવિર કલ્પવાળા હાતા નથી. અને જીનકલ્પવાળા પણ હાતા નથી. ચેાથુ કપાર સમાપ્ત ! હવે પાંચમુ’ ચારિત્રદ્વાર કહેવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजमे णं भंते ! कि पुलाए होब्जा, बउसे जाव सिणाए होज्जा' હું ભગવન્ સામા યેક સંયત શું પુલાક હોય છે અથવા અકુશ હોય છે ? અથવા યાવત્ સ્નાતક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४ छे है- 'गोयमा ! पुलाए वा होज्जा, बढसे जाव कसायकुसीले वा होज्जा, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ पञ्चम चारित्रद्वारनिरूपणम् पंकुशो यावत् कषायकुशीलो वा भवेत् यावत्पदेन पतिसेवनाकुशीलस्य संग्रहः, पुलाकादारभ्य कपायकुशीलरूपः सामायिकसंयतो भवेदित्यर्थः । 'णो णियठे होज्जा णो सिणाए होज्जा' नो निग्रन्थो भवेत् नो वा स्नाकरूंपो भवेत् । 'एवं छेदोक्ट्ठावणिए वि' एवं-सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीयसंयतः पुलाको वां भवेत् बकुशो वा भवेत् भतिसेवनाकुशीलो वा भवेत् कायकुशीलो वा भवेत् नं तुं निम्रन्थो भवेन न वा स्नातको भवेत् इति भावः। 'परिहारविसुद्धियसंजएणं भंते ! पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! किं पुलाको भवेत् यावत् स्नातकों भवेदिति पृच्छा-गश्नः । भगानाह-'गोयमां' इत्यादि, 'गोयमा' हे.गौतम ! 'नो पुलाए नो वउसे नो पडि मेवणाकुमीले होज्जा' नो पुलाको नो वकुशो नो प्रतिसेवनाकुशीलो भवेद परिहारविशुद्धिकसंयतः किन्तु 'कसाय कुसीले संयत पुलाक भी हो सकता है बकुश भी हो सकता है यावत् कषाय. कुशील भी हो सकता है परन्तु वह निर्गन्ध नहीं होता है और न स्नातक ही हेता हैं। 'एवं छेदोक्टायणिए वि' सामायिकसंयत के जैसा ही छेदोपस्थापनीयसंयत भी पुलाक हो सकता है, बकुश हो सकता है प्रतिसेनाकुशील हो सकता है कषायकुशील भी हों सकता है। परंतु वह निर्ग्रन्थ अथवा स्नातक नहीं हो सकता है। 'परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! पुच्छा' हे अदन्त ! परिहारविशु द्धिकसंयत क्या पुलाक होता है ? थावत् स्नातक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! नो पुलाए नो बउसे नो पडि. सेवणाकुसीले होज्जा' हे गौतम ? परिहारविशुद्धिसंयत न पुलाक होता है न यकुश होता है और न प्रतिसेवनाकुशील होता है। किन्तु वह नो नियठे हज्जा नो सिणाए होज्जा' गौतम ! सामायि संयत भुता પણ હોઈ શકે છે, બકુશ પણ હોઈ શકે છે, કષાયકુશીલ પણ હોઈ શકે છે, પરંતુ નિર્ચન્થ હોઈ શકતા નથી તથા સ્નાતક પણ હોઈ શકતા નથી. ‘एवं छेदोवद्रावणिए वि' सामायि संयतनी भर छेहोपस्थापनीयं सयत પણ પુલાક હોઈ શકે છે. બકુશ હોઈ શકે છે, પ્રતિસેવના કુશીલ હોઈ શકે છે. કષાય કુશીલ પણ હોઈ શકે છે. પરંતુ તેઓ નિન્ય અથવા સ્નાતક शत नथी. 'परिहारविसुद्धियसजएण पुच्छा' है मगवन् परिहार વિશુદ્ધિવાળા સંય શું પુલાક હોઈ શકે છે? યાવત્ સ્નાતક હોઈ શકે છે. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमत्वामीन ४ छ -'गोयमा ! नो पुलाए नो यउसे नो पडिसेवणाकुसीले होज्जा' गौतम ! परिवार विशुद्धि सयत પુલાક હતા નથી, તેમ બકુશ પણ હોતા નથી તથા પ્રતિસેવન કુશીલ પણ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० भगवती होज्जा' कषायकुशीलरूपो भवेत् ‘णो णियंठे होज्जा णो सिणाए होम्जा' नो निम्रन्थो भवेत् नो स्नातको भवेत् परिहारविशुद्धिकसंयतो न पुलाकबकुशपतिसेवनाकुशीलनिम्रन्थस्नातकरूपो भवति किन्तु कषायकुशीलरूप एव केवलं भवतीति भावः । 'एवं सुहुमसंपराए वि' एवं-परिहारविशुद्धिकसंयतवदेव सूक्ष्म संपरायसंयतोऽपि पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीलनियन्थस्नातकस्वरूपो न भवति किन्तु कपायकुशीलरूपश्च भवतीति भावः 'अहवायसं नए पुच्छा' यथारख्यातसंयतः खलु भदन्त ! किं पुलाको भवेत् वकुशो भवेत् प्रतिसेवनाकुशीलो भवेत् कषायकुशीलो वा भवेद निर्ग्रन्थो वा भवेत् स्नातको वा भवेदिति पृच्छा'कसायकुसीले होज्जा' कषायकुशील होता है 'णो णियंठे होज्जा, णो सिणाए होज्जा' वह निग्रंथ नहीं होता है और न स्नातक होता. है । तात्पर्यकहने का यही है कि परिहारविशुद्धिक संयत न पुलाक रूप होता है, न धकुशरूप होता है, न प्रतिसेवनाकुशीलरूप होता है न निग्रन्धरूप होता है और न स्नातकरूप होता है किन्तु केवल कषायकुशीलरूप ही होता है। ‘एवं सुहमसंपराए वि' परिहारविशुद्धिकसंयत के जैसे ही सूक्ष्मसंपरायसंयत भी पुलाक, यकुश, प्रतिसेवनाकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकरूप नहीं होता है। किन्तु कषायकुशील: रूप ही होता है । 'अहक्खायसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! यथाख्यातसंयत क्या पुलाक होता है ? अथवा बकुश रूप होता हैं ? अथवा प्रतिसेवना. कुशीलरूप होता है ? अथवा कषायकुशील रूप होता है ? अथवा निर्ग्रन्थ रूप होता है अथवा स्नातकरूप होता है ? उत्तर में प्रमुश्री खाता नथी. परंतु 'कसायकुसीले होज्जा' षायशी हाय छे. 'णो णियठे होज्जा, णो सिणाए होज्जा' ते निय-डात नथी तथा स्नात: ५५ હેતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત પુલાક રૂપ હેતા નથી. તથા બકુશ રૂપ પણ લેતા નથી તેમજ પ્રતિસેવના કુશીલ રૂપ હેતા નથી. અને નિર્થસ્થ રૂપ હોતા નથી. તથા સ્નાતક રૂપ પણ હતા नथी. परंतु वा ४षाय ३५ ४ जाय छ, ‘एवं सुहुमसंपराए वि' ५२२ વિશુદ્ધિ સંયત પ્રમાણે જ સૂકમ સં૫રાય સંયત પણ પુલાક, બકુશ, પ્રતિસેવન કુશીલ નિર્ગસ્થ અને સ્નાતક રૂપ હેતા નથી પરંતુ કષાય કુશીલ ३५ ४ सय छे. 'अहवायसजए पुच्छा' सावन् यथाभ्यात सयत शु પુલાક હોય છે? અથવા બકુશ રૂપ હોય છે? અથવા પ્રતિસેવન કુશીલ રૂપ હોય છે? અથવા કષાય કુશીલ રૂપ હોય છે? અથવા નિર્ચ હોય Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ २०२ पष्ठं प्रतिसेवनाद्वारनिरूपणम् २४१ प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो पुलाए होज्जा' मो पुलाको भवेत् पुलाकरूपो यथाख्यातसंयतो न भवेत् 'जाव नो कसायकुसीले होज्जा' यावत् नो कपायकुशीलरूपो यथाख्यातसंयतो भवेत् यावत्पदेन बकुशमतिसेवनाकुशीलयोः संग्रहस्तथा च यथाख्यातसंयतो नो पुलाकरूपो भवेतन वा बकुशरूपो भवेत् न वा प्रतिसेवनाकुशीलरूपो भवेत् न वा कषायकुशीलरूपो भवेत किन्तु 'णियंठे वा होज्जा 'सिणाए वा होज्जा' निन्धरूपो वा भवेत् स्नातकरूपो वा भवेत् यथाख्यातसंयत इति चारित्रद्वारम् ५।। षष्ठं मतिसेवनाद्वारमाह-'सामाइयसंजए णे इत्यादि, 'सामाइयसंजए णं भंते' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'किं पडिसेवए होजा अपडिसेवए होज्जा' किं प्रतिसेवकः-चारित्रस्य विराधको भवेत् अथवा अप्रतिसे वकश्वाविराधको त्रा कहते हैं-'गोयमा ! नो पुलाए होज्जा 'जाव नो कसायकुसीले होज्जा' हे गौतम ! यथाख्यातसंयत न पुलाकरूप होता है और न यावत् कषाय कुशीलरूप होता है। यहां यावत् शब्द से बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन दो पदों का संग्रह हुआ है । तथा च-यथाख्यात सयत न पुलाकरूप होता है, न बकुशरूप होता हैं, न प्रतिसेवनाकुशील रूप होता है और न कषायकुशीलरूप होता है किन्तु वह निग्रंन्धरूप होता है अथवा स्नातक रूप होताहै । चारित्रद्वार समाप्त ५। छट्ठा प्रतिसेवना द्वार सामाइयसंजए णं भंते ।' हे भदन्त ! सामायिकसंगत 'किं पडिसेवए होज्जा, अपडिसेबर होजा' क्या प्रति सेवक होता है ? अथवा अप्रतिसेवक होता है ? प्रतिसेचफका अर्थ है चारित्र की विराधना करने वाला और अप्रतिसेवक का अर्थ है चारित्र की विराधना नहीं छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री छ -'गोयमा । नो पुलाए होजा जाव नो कसायकुसीले होज्जा' गौतम ! यथान्यात सय पुसा ३५ डाता नथी: તથા બકુશ રૂપ હતા નથી અને પ્રતિસેવના કુશીલ રૂપ હોતા નથી અને કષાય કુશીલ રૂપ પણ લેતા નથી. પરંતુ તેઓ નિગ્રંથ રૂપ જ હોય છે. અથવા સ્નાતક રૂપ હોય છે. આ રીતે આ ચરિત્રદ્વાર કહ્યું છે. ચારિત્રકાર સમાન ૫ છે હવે છઠ્ઠા પ્રતિસેવના દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भंते ! 8 ससन् सामायि४ सयत 'कि पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा' प्रतिसेव हाय ? 3 मप्रतिसेव हाय छ? પ્રતિસેવકને અર્થ ચારિત્રની વિરાધના કરવાવાળે એ પ્રમાણે છે. અને અપ્રતિસેવકને અર્થ ચારિત્રની વિરાધન ન કરવાવાળો અર્થાત્ આરાધક એ. भ० ३६ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ भगवतीसरे भवेदिति प्रश्ना, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि 'जोयमा' हे गौतम ! 'पडिसेवए पा होज्जा' मतिसेवको वा-चारित्रस्य चिराधको वा यवेत् 'अपडिसेवए वा होज्जा' अप्रतिसेवको बा-चारित्रस्याविराधको वा भवेत्, 'जह पडिसेवए होज्जा' यदि प्रतिसेवको भवेत्तदा 'कि मूलगुणपडि सेवर होडना' किं मूलगुणपतिसेवको भवेत्, चारित्रस्य मूलगुणा:-प्राणाति पातविरमणादिपञ्चमहावतलक्षणास्तेषां विराधको भवेत् अथवा चारित्रस्य ये उत्तरगुणा:-प्रत्याख्यातादिका स्तेषां विरा. धको भवेदिति अवान्तरमश्नः, उत्तरमाह-'सेमं' इत्यादि, 'सेसं जहा पुलागरस' शेषम्-कथितव्यतिरिक्तं यथा पुलासमारणे यत् कथितं लदेव इहापि ज्ञातव्यम् तथाहि तत्रत्वं प्रकरणम्-सामायिकसंगतः पतिसेवको सवेत अप्रतिसेवको वा भवेत् यदि प्रतिसेवको भवेत् तदा-मूलगुणपति सेवको बा भवेत् उत्तरगुण प्रतिकरने वाला-आराधक, उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा अपडिलेवए वा होज्जा' हे गौतम ! सामायिकसंयत चारित्र का विराधक भी होता है और अविराधा-आराधक-भी होता है। 'जइ पडिलेवए होज्जा, कि मूलगुणपडिलेवए होज्जा' यदि वह प्रतिसेवक होता है तो क्या वह चारित्र के ब्लगुण जो माणातिपातथिरमण आदि पांच महावन हैं उनका विराधल होता है ? अथवा चारिम्र के उत्तरगुण जो प्रत्याख्यान आदि हैं उनको विराधक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- सेसं जहा पुलागस्त' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में शेष कथन पुलाक के प्रकरण में जैसा कहा गया है-वैप्ता जानना चाहिये। वहां का वह प्रकरण इस प्रकार से है? सामाप्रभारी छे. मा प्रश्नमा उत्तरमा सुश्री ४ छ है-'गोयमा! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होज्जा' हे गोतम ! सामाथि: सयत यात्रिना વિરાધક પણ હોય છે. અને આરાધક પણ હોય છે અર્થાત્ બને १२ना य छे. 'जइ पडिसेवए होज्जा, कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा' જે તે પ્રતિસેવક હોય છે, તે શું તે ચારિત્રના મૂળગુણ જે પ્રાણાતિપાત વિરમણ વિગેરે પાંચ મહાવ્રત છે, તેને વિરાધક હોય છે અથવા ચારિત્રના જે ઉત્તરગુણ રૂપ પ્રત્યાખ્યાન વિગેરે છે, તેનો વિરાધક य छ १ मा प्रश्नना अत्तरभां सुश्री गौतमस्थामीन ४९ छ -'सेस जहा पुलागस्स' है गौतम ! म सधमा डीनु ४थन Yखाना ४२६मा २ પ્રમાણે કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે સમજી લેવું, ત્યાંનું તે પ્રકરણ આ પ્રમાણે છે-શ્રીગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે-હે ભગવન સામાયિક સંયત પ્રતિસેવક હોય છે? - અથવા અપ્રતિસેવક હોય છે જે તે પ્રતિસેવક હોય છે, તે શું તે મૂળગુના Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू२२ पष्ठं प्रतिसेवनाहारनिरूपणम् २८३ सेवको वा भवेत् तत्र मूलगुणान् प्राणातिपातविरमणादीन् विराधयन् पश्चानामपि आश्रवाणां प्राणातिपातादिनाम् अन्यतयं सेवेत उत्तरगुणान् विराधयन् दशविधस्य प्रत्याख्यानस्यान्यतमं प्रतिसेवेत इति । 'जहा सामाइयलंजए एवं छेदोवठ्ठावणिपवि' यथा सामायिकलंयत एवं छेदोपस्थानीयसंयतोऽपि चारित्रस्यप्रतिसेवको भवेत् अमलिसेवको वा भवेत् यदि प्रतिसेवकस्तदा मूलगुणानां प्रतिसेवक उत्तरगुणानामपि प्रतिसेवको निराधको भवेन् मूलगुणम्-अहिंसादिकं विराधयन् पञ्चानामाश्रवाणामन्यतमं प्रतिसेवेत उत्तरगुणानां विराधको भवन् दशविधमत्याख्यानस्यान्यतमं प्रतिसेवेत विराधयेदिति भावः । 'परिहारविसुद्धिय यिकसंयत प्रतिलेखक होता है ? अथवा अप्रतिसेवक होता है ? यदि वह प्रनिसेवक होता है तो क्या वह मूलगुणों का प्रतिसेवक होता है अथवा उत्तरगुणों का-प्राणातिपातविरमण आदिकों का विराधक होता है तो वह प्राणातिपात आदि पांच आश्रयों में से किसी एक आश्रव का प्रतिसेवक हो जाता है और यदि वह उत्सरगुणों का विराधक होता है तो ऐसी स्थिति में वह दशप्रकार के पत्याख्यान में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिरोधक हो जाता है 'जहा सामाइयसंजए एवं छेदोवद्यावणिए वि' सामायिक संयत के जैसे छेदोपस्थापनीयसंयत भी चारित्र का प्रतिषक होता है और अप्रतिसेवक होता है। यदि वह प्रतिसेवक होता है तो वह सूलगुणों का भी प्रतिसेवक होता है और उत्तर गुणों का भी प्रतिलेख-विराधक होता है। मूलगुणों का विराधक होने पर वह पांच आश्रयों से फिती एक आश्रव का सेवक होता है और उत्तरतुणों की विराधना में वह दर्श प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का चिराधक होता પ્રતિસેવક હોય છે? કે ઉત્તરગુણોના પ્રતિસેવક હોય છે? જે તે મૂલગુના એટલે કે પ્રાણાતિપાત વિરમણ વિગેરેના વિરાધક હોય છે, તે તે પ્રાણાતિપાત વિગેર પાંચ આ પૈકી કઈ એક અ સ્ટવના સેવનારા હોય છે અને જે તે ઉત્તરગુણેના વિરાધક હોય છે, તો એ સ્થિતિમાં તે દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન પૈકી ५ मे प्रत्यायानना प्रतिसेव होय. 'जहा सामोइयसंजए एव छेदोवदावणिए वि' सामायिसयत ४थन प्रमाणे हो५२थ पनीय सयत यश ચારિત્રને પ્રતિસેવક હોય છે, અને અપ્રતિસેવક પણ હોય છે, જે તે પ્રતિસેવક હોય છે, તે તે મૂલગુણોના પણ પ્રતિસેવક હોય છે, અને ઉત્તર ગુણના પણ પ્રતિસેવક હોય છે. અર્થાત્ વિરાધક હોય છે મૂલગુના વિરાધક થાય ત્યારે તે પાચ આસ્રવ પૈકી કઈ એક આસ્રવના સેવનાર હોય છે. અને ઉત્તરગુણેની વિરાધનામાં તે દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન પૈકી કોઈ પણ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र संजए पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! कि प्रतिसेवको भवेत् विराधको भवेत् चारित्रस्याप्रतिसेवकोऽविराधको या भवेत् चारित्रस्येति पृच्छाप्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा' परिहारविशुद्धिव.संपतो नो प्रतिसेको भवेत् न भवेत् चारि. अस्य विराधकः किन्तु चारित्रस्यामति सेवकोऽविराधको भवेदिति । 'एवं जाव अहक्खायसंजए' एवं यावद् यथाख्यातसंयतः, एवम्-परिहारविशुद्धिकसंयतवदेव यावत् यथाख्यातसंयतश्चारित्ररय प्रतिसेवको न भवेत् किन्तु अप्रतिसेवकोऽविराधक एव भवेत् आराधक इत्यर्थः, अत्र यावत्पदेन मूक्ष्मसंपरायसंयतस्य ग्रहणं भवति सूक्ष्मसंपरासंयतोऽपि नो प्रतिसेवको भवेदपितु चारित्रस्य अमतिसेवक एव भवे. दिति भावः । इति प्रतिसेवनाद्वारम् ६ । है। 'परिहारविलुद्धि संजए पुच्छा' हे भदन्त ? परिहारविशुद्धिकसंयत क्या चारित्र का विराधक होता है ? अथवा अविराधक-आराधक होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयना ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा हे गौतम ! परिहारविशुद्धिकसंयत चारित्र का विराधक नहीं होता है किन्तु वह अधिराधक-चारित्र का आराधक होता है । 'एवं जाव अहक्खायसंजए' इसी प्रकार से यथाख्यातसंयत भी चारित्र का विराधक नहीं होता है किन्तु अविराधक होता है। यहां यावत्पद से सूक्ष्मसंपरायसंयत का ग्रहण हुआ है। क्योंकि सूक्ष्मसंपरायसंयत भी अपने चारित्र का विराधक नहीं होता है किन्तु अविरा. धक-आराधक ही होता है। प्रतिसेवनाद्वार समाप्त ६। मे प्रत्यायानना विराध हाय छ 'परिहारविसुद्धिसंजए पुच्छा' . ભગવદ્ પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત શું ચારિત્રના વિરાધક હેય છે? અથવા અવિરાધક–આરાધક હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'गोयमा! नों पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होन्जा' गौतम ! परिहार વિશુદ્ધિક સયત ચારિત્રના વિરાધક હતા નથી પરંતુ તે અવિરાધક અર્થાત ચારિત્રના આરાધક હોય છે. 'एव जाव अहक्खायसंजए' मे प्रभारी यथायात सयत ५९ ચારિત્રના વિરાધક હેતા નથી. પરંતુ અવિરાધક હોય છે. અહિયાં યાવત્પદથી સૂક્ષમ સંપરય સંયત ગ્રહણ થયેલ છે કેમકે સૂમિ સં૫રાય સંયત પણ પિતાના ચારિત્રના વિરાધક હતા નથી, પરંતુ અવિરાધક-આરાધક જ હોય છે. એ રીતે આ પ્રતિસેવના દ્વાર કહ્યું છે. પ્રતિસેવનાદ્વાર સમાપ્ત, - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ सप्तम ज्ञानद्वारनिरूपणम् २८५ - अथ सप्तमं ज्ञानद्वारमाह-'सामाइयसंजए णं भंते ! कइसु नाणेसु होज्जा' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कतिषु ज्ञानेषु भवेत् कतिपकारकज्ञानवान् भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! दोसु वा-तिसु वा-चउसु चा नाणेसु होज्जा' द्वयोर्चा त्रिषु वा-चतुर्यु वा ज्ञानेषु भवेत् द्वित्रिचतुःप्रकारकज्ञानवान् वा भवति सामायिकसंयत इति । 'एवं जहा कसायकुसीलस्स त हेव चत्तारि नाणाई भयणाए' एवं यथा कषायकुशीलस्य तथैव चत्वारि ज्ञानानि भजनया द्वयोनियोभवन् सामायिकसंयतः, आभिनिवो. धिकज्ञाने श्रुतज्ञाने च भवेत् त्रिषु ज्ञानेच भवेत् आभिनिवोधिकज्ञानश्रुवज्ञानावधिज्ञानेषु भवेत् अथवा मति, श्रुतमनः पर्यवज्ञानेषु भवेदिति चतुषु भवन आभिनिवोधिकज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञान मनापर्यवज्ञानेषु भवेदिति । 'एवं जाव सातवां ज्ञानद्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! कासु नाणेसु होज्जा' हे भदन्त ! सामाथिकसंयत कितने ज्ञानों में होता है ? अर्थात् मामायिकसंयत के कितने ज्ञान होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'दोसु वा तिस वा चउसु वा नाणेसु होज्जा' हे गौतम! सामायिकसंयत के दो तीन अथवा चार ज्ञान होते हैं । 'एवं जहा कलायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए' इस प्रकार कषायकुशील के जैसे चारज्ञान भजना से -विकल्प से होते हैं। सामायिकसंयत यदि दो ज्ञानों वाला होगा तो मतिज्ञान श्रुनज्ञान इन दो ज्ञानोंवाला होगा, तीन ज्ञानों वाला होगा तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानोंवाला होगा अथवा मतिश्रुत और मनापर्यव इन तीन ज्ञानोंवाला होगा। चार ज्ञानों वाला होगा तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान હવે સાતમા જ્ઞાન દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजमे णं भते ! कइसु नाणेसु होज्जा' मापन सामायि સંયત કેટલા જ્ઞાનમાં હોય છે? અર્થાત્ સામાયિક સંયતને કેટલા જ્ઞાન डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ ?-'दोसु वा तिसु वा चउस वा नाणेसु होज्जा' 8 गौतम | सामाथि संयतन मन मथ। यार ज्ञान डाय छ 'एव जहा कसायकुसीलस्म तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए' मा शत કષાય કુશીલના કથન પ્રમાણે ચાર જ્ઞાન ભજનાથી એટલે કે-વિકલપથી ચાર જ્ઞાન હોય છે. સામાયિક સંયત જે બે જ્ઞાનવાળા હોય છે, તે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન એ બે જ્ઞાનવાળા હોય છે. અને જે ત્રણ જ્ઞાનેવાળ હોય તે મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન આ ત્રણ જ્ઞાનવાળા હોય છે. તથા જે ચાર સાનેવાળા હોય તે મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવ. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ भगवतीस सुहुमसंपराए' एवं सामायिकसंयतन देव यावत सूक्ष्मपरायसंयतोऽपि यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयतयोर्ग्रहणं भवति तथा च छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिकसूक्ष्म परायसंयता भजनया द्वयोनिषु चतुर्षु वा ज्ञानेषु भवेयुरिति भावः । 'अहकखायसंजयस्त पंचनाणाई भयणाए जहा नाणुदेसए' यथाख्यातसंयतस्य पञ्चज्ञानानि भजनया भवन्ति यथा ज्ञानोदेश के इह च ज्ञानोदेशक:- अष्टमशतक द्वितीयोदेशकस्य ज्ञानवक्तव्यतार्थमत्रान्तरमकरणम् इव भजनया पुनः केवकियथाख्यातसंयतरूप केवलज्ञानम् छदमरथ वीतरागयथाख्यातसंयतस्य द्वे वा ज्ञाने वाला होगा 'एवं जाब हम संपराए' सामायिकसंयत के जैसे यावत् सूक्ष्म संपरायसंगत भी दो ज्ञानों वाले अथवा तीन ज्ञानों वाले अथवा चार ज्ञानों वाले हाते हैं । ऐसा जानना चाहिये । यहां यावत्पद् से 'छेदोपस्थापनीयसंगत, परिहारविशुद्धिकसंगत' इन दो संगतों का ग्रहण हुआ है । तथा च सामायिकयत छेदोपस्थापनीयसंगत' परिहारविशुद्धिक संयत और सूक्ष्म संपरायिकसंघत ये सब भजना से दो ज्ञानों में अथवा तीन ज्ञानों में अथवा चार ज्ञानों में होते हैं । 'अहक्खाय संजयस्स पंचनाणाहं भवणाए जहा नाणुद्देवए' यथाख्यात संयंत के पांच ज्ञान भजना से होते हैं । जैसा कि ज्ञानोदेशक में कहा गया है। यह ज्ञानोदेशक भगवती सूत्र के अष्टमशतक के द्वितीय उद्देशक का अधान्तरप्रकरण है इसमें ज्ञान के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। जो केवलि धाख्यात संगत हैं उनके केवल एक केवलज्ञान ही होता है । और जो I ज्ञान हो यार ज्ञानावाजा होय छे. 'एवं' जाव सुहुमसपराए' सामायिक સયતના ક્થન પ્રમાથે યાવતા સૂફન સપરાય સયત પણ એ જ્ઞાનેાવાળા હાય છે, અથવા ત્રણ જ્ઞાનાવાળા અથવા ચાર જ્ઞાનાવાળા હાય છે. તેમ સમજવુ* અહિયાં યાવત્ પદથી છેદેાપસ્થાપનીય સયત, પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત આ એ સયતા ગ્રહણ કરાયા છે તથા છેદેપસ્થાપનીય સ યત, પરિહાર વિશુદ્ધિક સ'યત અને સૂક્ષ્મ સાંપરાયિક સયત આ સધળા સર્જનાથી વિકલ્પથી એ ज्ञानवाणा अथवा श्री ज्ञानवाणी, अथवा यार ज्ञानवाणा हाथ है, 'जहक्वायसंजयस्व पंच नाणाई' भयणाए जहा नाणुद्देसए' यथाभ्यात संयतने પાંચ જ્ઞાન ભજનાથી ડાય છે. જેમકે જ્ઞાનેદ્દેશમાં કહેવામાં આવેલ છે. આ જ્ઞાનદ્દેશક આઠમા શતકના ખીજા ઉદ્દેશાનુ અવાન્તર પ્રકરણ છે. તેમાં જ્ઞાનના સંખ ધમાં વિચારણા કરવામાં આવેલ છે. જે કૈવલી યથાખ્યાત સયત છે, તેને કેવળ એક કેવળજ્ઞાન જ હાય છે, અને જે છદ્મસ્થ વીતરાગ યથા Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ १०२ सप्तम शानद्वारनिरूपणम् २४ त्रीणिवा ज्ञानानि चत्वारि वा ज्ञानानि इत्येवं रूपा । 'सामाइयसंजयए णं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेउंजा' सामायिक्षसंयतः खलु भदन्त ! कियत्संख्यकं श्रुतं. शास्त्रमधीत-कियतां शास्त्राणाषध्ययनं करोति सामायिकसंयंतः ? इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं अट्ठपश्यणमायाभो' जघन्येन अष्टमवचनमातृः अधीयीत सामायिकसंयतः 'जहा कसायकुसीले' यथा कषायकुशीला उत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वाणि अधीयीतेति भावः, 'एवं छेदोत्रावणि. एवि' एवम्-सामायिक संयतवदेव छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि जघन्यत अष्टमवर चनमापर्यन्तश्रुतस्याध्यायनं करोतीत्यर्थः । उत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वाणि अधीयीत छद्मस्थवीतराग यथाख्यान संत्रस्त है उनके भजना से दो ज्ञान भी हो सकते हैं, तीन ज्ञान भी हो सकते हैं और चार ज्ञान भी हो सकते हैं। 'सामाइय संजए णं भंते । केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत के कितनेश्रुतका अध्ययन होता है ? अर्थात् सामायिकसंयत कितने शास्त्रों का अध्ययन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पक्ष्यणमाया भो' हे गौतम ! सामायिकसंयत जघन्य से तो आठ प्रवचन मातृक रूप शोख का अध्ययन करता है और उत्कृष्ट से चौदह पूर्वरूप शास्त्र का अध्ययन करता है यही बात यहां 'जहा कलायकुसीले इल दृष्टान्त से प्रकट की गई है। 'एवं छेदोषहापणिए वि' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत भी जघन्य से आठ प्रवचनमातका रूप शास्त्र का अध्ययन करता है। और उत्कृष्ट से चौदह पूर्व का अध्ययन करता है। 'परिहारविशुद्धियसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! परिहारविशु. ખ્યાત સંયત હોય છે, તેઓને ભજનાથી બે જ્ઞાન પણ હોઈ શકે છે, ત્રણ જ્ઞાન પણ હોઈ શકે છે, અને ચાર જ્ઞાન પણ હોઈ શકે છે. _ 'सामाइय संजमेणं भंते ! केवइय सुर्य अहिज्जेज्जा' हे भगवन् सामाયિક સંયતને કેટલા શ્રતનું અધ્યયન હોય છે? અર્થાત સામાયિક સંયત કેટલા શાસ્ત્રોનું અધ્યયન કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्पामीन ४ छ -'गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ' गौतम ! સામાયિક સંયત જઘન્યથી તે આઠ પ્રવચન માતૃકા રૂપ શાસ્ત્રોનું અધ્યયન કરે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ચૌદ પૂર્વરૂપ શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરે છે. એજ વાત मडियां 'जहा कसायकुसीले' २५॥ सूत्रपा४थी प्रगट ४रेस छे. 'एवं छेदोवद्वावणिए वि' मे प्रमाणे छे।५-थानीय सयत ५५ ४५न्यथा म13 अपयन માતૃકારૂપ શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ચૌદ પૂર્વનું અધ્યયન Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ भगवती इत्यर्थः 'परिहाविमुद्धियसंजए पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! कियत् श्रुतमधीयीतेति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं नवमस्स पुच्चस्स तइयं आयारवत्थु' जघन्येन नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु एतत्पर्यन्तस्य श्रुतस्याध्ययनं करोतीत्यर्थः, 'उक्कोसेणं असंपुग्नाई दसपुवाई अहिज्जेज्जा' उत्कर्पणासंपूर्णानि-किश्चिन्यूनानि दशपूर्वाणि अधीयीत असंपूर्णस्य दशपूर्वस्याध्ययनं । करोतीत्यर्थः। 'सुहुमसंपरायसंजए जहा सामाइय. संजए' सूक्ष्मसंपरायसंयतो यथा सामायिकसंयतः, सामायिकसंयतवदेव सूक्ष्मसंप. रायसंयतो जघन्येन अष्ट प्रवचनमातृपर्यन्तश्रुतस्याध्ययनं करोतीति उत्कर्षतश्चतुर्दशपूर्वाणामिति, 'अहक्वायसंजए पुच्छा' यथाख्यातसंयतः पृच्छा' यथाख्यात संयतः खल भदन्त ! कियतश्रुतमधीयीतेति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अपवयणमायाओ' जघन्येनाष्ट प्रवचन द्धिकसंयत कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जहन्नेणं नवमस्स पुव्वस्म तइयं आयारवत्थु' हे गौतम । परिहारविशुद्धिकसंयत जघन्य से नौ वें पूर्व के तृतीय आचार वस्तु तक और उत्कृष्ट से 'असंपुनाई दसव्वाइं अहिज्जेज्जा' असंपूर्ण दशपूर्वतक शास्त्र का अध्ययन करता है । 'सुटुमसंपरायसंजए जहा सामाइयसंजए' सामायिकसंघत के जैले सक्षमसंपरायसंयत कम से कम आठ प्रवचनमातृका रूप श्रुन का अध्ययन करता है और उत्कृष्ट से चौदह पूर्व का अध्ययन करता है। 'अहक्खायसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! यथाख्यातसंयत कितने श्रुनका अध्ययन करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! जहन्नेणं अट्ठपवयणमायाओ, उक्कोसेणं ४२ छे. 'परिहारविमुद्धियसंजए पुच्छा' हे भगवन परिक्षा विशुद्धि सयत કેટલા શ્રેનનું અધ્યયન કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुव्वस्स तइयं आयारवत्थु' ७ गौतम ! परिहार વિશુદ્ધિક સંયત જઘન્યથી નવમા પૂર્વની ત્રીજી આચાર વસ્ત સુધી અને Gष्टथी 'असंपुन्नाई दसपुवाई अहिज्जेज्जा' अस पूष्णु शर्ष सुधीन। शानु अध्ययन ४२ छे. 'सुहुमस परायम जमे जहा सामाइयसंजए' साभीયિક સંયતના કથન પ્રમાણે સૂર્ણમ સં૫રાય સંયત ઓછામાં ઓછા આઠ પ્રવચન માતારૂપ શ્રુતનું અધ્યયન કરે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ચૌદ પૂર્વનું અધ્ય. यन ४२ छे. 'अहक्खायसंजए पुच्छो' 3 सापन यथाज्यात संयत ४८॥ श्रुतनु मध्ययन ४३ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठपवयणमायाओ, उक्कोसेणं चोहसपुव्वाह अहिज्जेज्जा' 8 गीतम! Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२५ उ७ सू०२ अष्टम तीर्थद्वारनिरूपणम् २८९. मातृ: 'उकोसेणं चोदसपुनबाई अहिज्जेज्जा' उत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वाणि अंधीयत, "'मुयदतिरिचे वा होना' श्रुतव्यतिरिक्तो वा भवेत् यदि यथाख्यातसंयतो निर्ग्रन्थो भवेदाऽसावप्रवचननामादिचतुर्दश पूर्वान्तं श्रुवेमधीयीत यदि तु यपाख्याद्यसंयतः • स्नातकरतदा श्रुतव्यतिरिक्ता केवली भवेदिति भावः ७ । 'सामाहमसंग किं तित्थे - होज्जा - अतित्थे वो होज्जा' सामायिकसंयतः खलु प्रदन्त ! तीर्थे साधुसाध्वी श्रावकथाविचासंघात्मकतीर्थसत्वे भवेत् अतीर्थे - तीर्थाभावे सति भवेदिति - प्रश्न:,, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'शोयमा' हे गौतम! 'तित्थे न होज्जा • चोदपुन्नाहं अहिज्जेज्जा' हे गौतम! यथाख्यातसंत जघन्य से अष्टषवचननातृका रूप श्रुत का और उत्कृष्ट से चौदह पूर्वरूप का अध्ययन करता है। अथवा वह 'सुयवहरित या होना व का अध्ययन नहीं करता है क्योंकि वह केवली होता है। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि प्रथाख्यात संगत यदि निर्ग्रन्थ होता है तो वह जल से कम अष्टमातृका रूप न का और ज्यादा से ज्यादा चौदह, पूर्वरूप का पाठ होना है और यदि यथाख्यात संघल स्नातक है युनिरित - केवली होता है । सप्तमद्वार का कथन ) समाप्त | तो वह " 14 wh L अष्टम द्वार का कथन 'लामाइयसंजए कि तित्थे होज्जा, अतित्थे होज्जा' हे भदन्त । सामायिक संयत तीर्थ में होता है अथवा तीर्थ के अभाव में होता है ? साधुसाध्वी, क और प्राविका इनका जो संघ है और ऐसे तीर्थ के अभाव का नाम अतीर्थ है। ુ થાખ્યાત સયત જઘ્રશ્યથી. આઠે પ્રવચન માતારૂપ શ્રુતનું અધ્યયન કરે છે. गथवा 'सुचवइस्ति वा होज्मा श्रुतनु अध्ययन करता नथी, हे ते કેવલી થાય છે, તાત્પ આ કથનનું એ છે કે-થાળ્યાત સયત એ નિષ્રન્થ થાય છે, તે તે એછામાં ઓછા આઠ પ્રવચન માતારૂપ શ્રુતના અને વધારેમાં वधारे यह पूर्व३५ श्रुतना पाही साथ छे. अते-ले यथासक्यात स्नातः । હાય તેા તે શ્રુત વ્યતિરિકત કેવલી હાય છે. I સાતમુ' દ્રાર સમાપ્ત શાળા - उसका नाम तीर्थ इस प्रश्न के उत्तर હવે આઠમા દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए कि तित्थे होज्जा, अतित्थे होज्जा' हे लेगवन साभा ચિષ્ઠ સ્ચત તીમાં હોય છે ? કે તીના અભાવમાં હાય છે ? સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક, અને શ્રાવિકા, ને જે સંઘ છે તેનુ' નામ તીથ' કહેવાય છે! અને એવા તીના અભાવનું નામ તીથ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે भ० ३७ · Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० भगवती अतित्थे वा होज्जा' तोर्थे' वा भवेत् अतीर्थे वा भवेत् 'जहा कसायकुसीले ' यथा कपायकुशीलः, अवशिष्टं कपायकुशीलवत् ज्ञातव्यम् तथाहि - यदि अतीर्थे भवेत् aar faीर्थकरो भवेत् प्रत्येकबुद्धो वा भवेत् ! गौतम ! तीर्थकरो वा भवेत् प्रत्येकबुद्धो वा भवेत इति । 'छेदोवावणिर परिहारविद्धिए य जहा पुकाए' छेदोपस्थापनीयः परिहारविशुद्धिकथ यथा पुढाका, छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्विक्संयतौ तीर्थे भवेताम् अतीर्थे वा भवेताम् ? गौतम | तीर्थमद्भावे एव इमौ भवेताम् नो अतीर्थे भवेतामिति भावः । ' सेसा जहा सामाइयसंजए' शेषौ सूक्ष्मसंपराय यथाख्यातसंयतौ यथा सामायिकसंयतः तथैव तीर्थेऽपि भवेताम् अतीर्थेऽपि में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा' हे गौतम | सामायिक संयत तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी होता है । 'जहा कलायकुसीले ' इत्यादि सम कथन ऊपायकुशील के जैसा जानना चाहिये । जैसे - यदि वह अतीर्थ में होता है तो क्या वह तीर्थकर होता है अथवा प्रत्येक बुद्ध होता है ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है कि हे गौतम! वह तीर्थकर भी होता है और प्रत्येकयुद्ध भी होता है । 'छेदोवडावणिए परिहारविद्विए य जहा पुलाए' छेदोपस्थानीय संयत और परिहारविशुद्धिक संगत पुलाक के जैसे तीर्थ में होते हैं ? अथवा अतीर्थ में होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है- हे गौतम ! ये दोनों तीर्थ के सद्भाव में ही होते हैं अतीर्थ में नहीं होते हैं । 'सेसा जहा सामाइयस जए' सूक्ष्म सं 'परायसं यत और यथाख्यात संयत छे है - 'गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा' हे गौतम ! सामायिक संयत तीर्थभां पशु होय छे भने तीर्थभां पशु होय छे, 'जहा कसाय कुटीले' इत्याहि सधणु अथन उपाय दुशीसना स्थन प्रभासभन्न ले. જો તે અતીમાં હાય છે, તે શું તે તીર્થંકર હાય છે ? અથવા પ્રત્યેક બુદ્ધ હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ કહ્યુ` કે હૈ ગૌતમ ! તે તીર્થં१२ यशु हाय छे, भने प्रत्येक युद्ध य होय छे, 'छेदोवट्ठावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाएं' छेहोपस्थापनीय संयंत मने परिहार विशुद्धि સયત પુલાકના કથન પ્રમાણે તીમાં હાય છે ? કે અતીથમાં હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હૈ ગૌતમ ! તે ખેતીના સદ્ लावभां होय छे. अतीर्थभां होता नथी. 'सेसा जहा सामाइयसंजए' સૂક્ષ્મ સપરાય સયત અને યથાખ્યાત સયત એ તીમાં પશુ હાય છે Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमैयचंन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ नवम लिङ्गहारनिरूपणम् ९१ भवेताम् । अतीर्थ यदि भवेताम् तदा तीर्थ करावपि प्रत्येकबुद्धावपि भवेतामिति८। नवमद्वारमाह-'सामाइयसंजए णं भंते' सामायिकसंकतः खलु भदन्त ! कि सलिंगे. होज्जा' स्वलिङ्गे-स्वस्थ-जिनशासनस्य-लिङ्गे वेपरूपे भवेत् अथवा-'अन्नलिंगे. होज्जा' अन्यलिङ्गे-अन्यस्य-तापपादेयल्लिङ्ग-वेषस्तमिन् भवेत् अथवा 'गिहिलिंगे होज्जा' गृहिलिङ्गे-गृहस्थलिङ्गे-भवेत् स्वलिङ्गवान् परलिगवान् गृहस्थलिङ्गवान् वा भवेत् सामायिकसंयतः ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'नहा' इत्यादि, 'जहा पुलाए' यथा पुलाकः, पुलाकप्रकरणे यथा-येन प्रकारेण कथितं तथैव अत्रापि ज्ञातव्यम् तथाहि-द्रव्यलिङ्ग प्रतीत्य स्वलिङ्गे वा भवेत् अन्यलिङ्गे वा ये तीर्थ में भी होते हैं और अतीर्थ में भी होते हैं । यदि ये अतीर्थ में होते हैं तो अथवा तो ये तीर्थकर होते हैं अथवा प्रत्येक बुद्ध होते हैं। ॥अष्टम द्वार का कथन समाप्त ८॥ नौवें द्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं सगे होज्जा, अन्नलिंगे होज्जा है भदन्त ! सामायिक ल यतस्कलिंग में होता है, अथवा अन्यलिङ्ग में होता है ? जिन शासन का जो लिङ्ग वेष है, वह स्वलिङ्ग है तथा तापस आदि. कों का जो वेष है वह अन्यलिङ्ग है अथवा 'गिहिलिंगे होज्जा' गृहस्थलिङ्ग में होता है ? प्रश्न का आशय यही है कि सोमायिकसंयत स्वलिङ्ग वाला होता है ? अथवा परलिङ्गवाला होता है ? अथवा गृहस्थलिङ्ग वाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहा पुलाए' हे गौतम ! पुलाक के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही यहां पर અને અતીર્થમાં પણ હોય છે, જે તે અતીર્થમાં હોય છે તે કાંતે તેઓ તીર્થકર હોય છે, અથવા પ્રત્યેક બુદ્ધ હોય છે, એ રીતે આ આઠમું દ્વાર કહ્યું છે, આઠમુ દ્વાર સમાપ્ત છે હવે નવમ દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सलिगे होज्जा अन्नलिंगे होजाइमापन સામાયિક સ યત સ્વલિંગમાં હોય છે? કે અન્ય લિંગમાં હોય છે ? જન શાસનન જે લિંગ–ષ છે, તે સ્વલિંગ કહેવાય છે, અને તાપસ વિગેરેને २ वष छ, त अन्य ति छ, मथवा 'गिहिलिगे होज्जा' गृहस्थतिमा डाय ? આ પ્રશ્નનો આશય એવો છે કે-સામાયિક સંયત સ્વલિંગવાળા હોય છે? અથવા પરલિંગવાળા હોય છે? અથવા ગૃહસ્થલિંગવાળા હોય છે ? मा प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'जहा पुलाए' 8 गौतम ! साना પ્રકરણમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણેનું કથન Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीसत्र भवेत् गृहिलिङ्गे वा भवेत् भावलिङ्ग प्रतीस्य तु नियमान रूपलिने एव भवेत् अय.' .. - माशयः लिङ्ग द्विविधं द्रव्यभावभेदात् तत्र ज्ञातव्यम् पथाहि-द्रव्यालिङ्ग प्रतीत्य ।' , स्वलिङ्गे वा भवेत् गृहिलिङ्गे वा भवेत् भावलिङ्ग प्रतीत्य तु नियमावू स्वलिड्ने' ६. एव भवेत् अयमाशयः लिङ्ग द्विविधं- द्रव्यभावभेदात् तत्र ज्ञानादिकं भावलिङ्गम् । . स च ज्ञानादि भावः आहेतानामेव भवतीति तदेव ज्ञानादि स्वलिङ्गमिति कथ्यते । - द्रव्यलिङ्गं स्वलिङ्गपरलिङ्गभेदेन द्विविधम् तत्र रजोहरणसदौरफमुखरसादि द्रव्यतः - - स्वलिङ्ग परलिङ्गं तु द्विविधम् कुतीर्थिकलिङ्ग गृहस्थलिङ्ग च तत्र सामायिकसरतस्य ।। त्रीण्यपि द्रव्यलिङ्गानि भवन्ति, यतश्चारित्रपरिणामेन एकप्रकारकद्रव्यलिङ्गमपेक्षते .. इति । एवं छेदोवठ्ठावणिएवि' एवं सामायिकसंयेतयदेव छेदोपस्थापनीयसंयतो जानना चाहिये-वह प्रकरण इस प्रकार से है-द्रपालिङ्ग की अपेक्षा से... 'वह स्वलिङ्ग में भी होता है, परलिङ्ग में भी होता है और गृहस्थलिङ्ग । में भी होता है। परन्तु भावलिङ्ग की अपेक्षा पर नियल ले स्वलिङ्ग । . में ही होता है । तात्पर्य ऐसा है-लिङ्ग दो प्रकार . हा होता है-एक द्रव्यलिङ्ग और दूसरा भावलिङ्ग-ज्ञानादिकरूप भावलिङ्ग है यह ज्ञानादि : रूप भाव अर्हन्त प्रशुश्री के अनुयायियों में ही होता है। इसलिये उसे : भाव की अपेक्षा से स्वलिङ्ग ही कहा गया है। स्वलिङ्ग और परलिङ्ग के भेद ले व्यलिङ्ग दो प्रकार का होता है-हना नजोहरण सदोरक मुखवनिम्मा आदि ये द्रव्य से स्थलिग हैं, लथा-परलिज-तीर्थिकलिङ्ग और गृहस्थलिङ्ग के भेद से दो प्रकार का होता है हदले सामायिक संयत के तीनों द्रव्यलिङ्ग होते हैं.। क्यों फि चारित्रपरिणाम सं.किसी भी एक प्रकार के द्रव्यलिङ्ग की अपेक्षा होती है। 'एवं छेदोवाणिए घि' मालियां पए सभ४ : नये. ते ५४२९, २३ प्रमाणे छ.-द्रव्यविनी भय.. ક્ષાથી તે સ્વલિંગમાં પણ હોય છે, પરલિંગમાં પણ હોય છે, અને ગૃહથ. * લિંગમાં પણ હોય છે. પરંતુ ભાવલિંગની અપેક્ષાથી તે નિયમથી વલિંગમાં રે જ હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે-લિંગ બે પ્રકારનું હોય છે. ' .." ४ द्रव्यालगते wilog. मालि-शाना३५ लि छ, त ज्ञानादि - 'રૂપ ભાવ અહંન્ત પ્રભુના અનુયાયિઓમાં જ હોય છે. તેથી તેમને સ્વલિંગ - * * પણ કહેલ છે. સ્વલિંગ અને પરલિંગના ભેદથી દ્રવ્યલિંગ બે પ્રકારના હોય " છે. તેમાં હિરણ, સદેરક મુખવસ્ત્રિકા વિગેરે દ્રવ્યથી સ્વલિંગ કહેવાય છે. “ તથા પરલિંગ-કુતીર્થિકલિંગ અને ગૃહલિંગના ભેદથી બે પ્રકારના હૈય છે, 1- मा सामायि संयतीने तो यति डाय छे, भ-यारित्रपरिणामथा. ६. ४२वाणा द्रव्यविमना अपेक्षा डाय छे. 'एव: छेदोवढाबणिए वि' नाम: Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ - प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०२ नवम लिङ्गद्वारनिरूपणम् • ऽपि ज्ञातव्यो .लिङ्गादिमत्त्वेनेति । 'परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! कि पुच्छा' । परिहारविशुद्धिकसंयतः खलु भदन्त ! किं स्वलिङ्गे भवेत् अन्यलिङ्गे भवेत् गृहस्थ लिङ्गे वा भवेदिति पृच्छा प्रश्नः भगवालाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दवलिंगपि भावलिंगपि षडुच्च' द्रव्यलिङ्गमपि भावलिङ्गमपि प्रतीत्य आश्रित्य 'सलिंगे होज्जा नो अन्नलिंगे होज्जा नो गिहिलिंगे होज्जा' स्वलिङ्गे- . : भवेत् नो अन्यलिङ्गे भदेव नो वा गृहस्थलिङ्गे भवेत् । 'सेसा जहा सामाइयजए' ' ... शेपो सूक्ष्मसंपरायसंयतयथाख्यातसंयती, यथा सामायिकसंयतः कथित स्तेनैव. रूपेण लिङ्गविषये ज्ञातव्याविति ९। सामायिकसंघत के जैसे छेदोपस्थापनीयलयत को ली जानना चाहिये 'परिहारविलुद्धिय संजए ण भंते ! सिं पुच्छां' हे लदन्त ! परिहार विशुद्धिकसंयत च्या सेवलिङ्ग में होता है ? अथवा अन्यलिङ्ग में होता 'है ? अथवा गृहस्थलिङ्ग में होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं_ 'गोथमा दयलिंगपि भादलिंगपि पड्डुच ललिंगे होज्जा' हे गौतम! . द्रव्यलिङ्ग और भोवलिङ्ग को आश्रित करके परिहारविशुद्धिक संयत ' स्वलिङ्ग में होता है 'नो अबलिंगे होज्जा, नो गिहिलिंगे होजना' अन्ध लिङ्ग में नहीं होता है और न गृहस्थलिङ्ग में होता है । 'सेला जहा। "सामाईयसंजए सूक्ष्म संपराय संयत और यथाख्यातसंयत सामायिक.. 'संयंत के जैले लिङ्ग के विषय में जानना चाहिये । ९ बांद्वार समाप्त। : -યિક સંયતના કથન પ્રમાણે છેદે પથાપનીય સંયતના સંબંધમાં પણ સમજવું.' 'परिहारविसुद्धियसजए णं भवे! किं पुच्छा' 8 सपन् परिहा२ विशुद्धि સંયત શું લિંગમાં હોય છે? અથવા અન્યલિંગમાં હોય છે? અથવા गृहस्थतिमा उय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ :-'गोयमा! .. दवलिंगं पि भावलिंग पि पड़च्च सलिंगे होज्जा' & गौतम ! द्रव्यालि मन. • ભાવલિંગને આશ્રય કરીને પરિવાર વિશુદ્ધિક સંયત લિંગમાં હોય છે. “ 'नो अन्नलिगे 'होज्जा, नो गिहिलिंगे होज्जा' यतिमा ५ हात नथी, भने स्थानमा 'डात नथी. 'सेसा जहा सामाइयस जए''छेहोपस्थापनीय, • પરિહાર' વિશુદ્ધિ, સૂક્ષ્મ સં૫રાય, અને યથાખ્યાત સ યતનું લિંગ સંબંધી કે * કથન સામાયિક સંયતના કથન પ્રમાણે સમજવું એ રીતે આ નવમું દ્વાર કહેલ છે. નવમું દ્વાર સમાપ્ત Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ -. ._.._ भगवतीस्त्र રહ8 दशमं शरीरद्वारमाह-'सामाइयसंलए णं भंते ! कइसु सरीरेसु होज्जा' सामायिकसंयतः खलु मदन्त ! कतिषु शरीरेषु भवेत् कतिसंख्यकशरीरवान् भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिसु वा चउसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले' त्रिपु वा शरीरेषु भवेत् चतुर्पु वा पञ्चसु वा भवेत् यथा कपायकुशीला कपायकुशीलस्य यथाशरीर. वचं कथितं तथैव सामायिकमयतस्यापि शरीरबत्त्वं ज्ञातव्यम् तथाहि कपायकुशीलमकरणम्-त्रिषु शरीरेषु भवन् त्रिपु औदारिकतैजसकार्मणशरीरेपु भवेत् चतुर्पु शरीरेषु भवन् चतुपु औदारिकवैक्रियतैजसकर्मिणशरीरेषु भवेत्, पञ्चसु. शरीरेषु भवन पञ्चसु-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकामणशरीरेषु भवेदिति भावः । दशवे शरीरद्वार का कथन 'सामायिसंजए णं भंते ! कईसु सरीरेसु होजा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत कितने शरीरों वाला होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! लिसु वा चउसु वा जहा कसायकुसीले' हे गौतम! सामायिकसंयत कषायकुशील के जैसे तीन शरीरोंवाला भी होता है चार शरीरोंवाला भी होता है और पांच शरीरों वाला भी होता है । कषायकुशील प्रकरण इस प्रकार से है-कपायकुशील साधु यदि तीन शरीरोंवाला होता है तो वह औदारिक तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों वाला होता है। यदि वह चार शरीरो वाला होता है तो वह औदारिक वैक्रिय तेजल और कार्मण इन चार शरीरों वाला होता है और यदि वह पांच शरीरोंवाला होता है तो औदारिक वैक्रिय आहारक तैजस और कार्मण इन पांच शरीरो वाला होता है। હવે દસમા શરીરદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसजए णं भंते ! कईसु सरीरेसु होज्जा' 8 साप सामायि સંયત કેટલા શરીવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीन है-'गोयमा ! तिसु वा चउसु चा पंचसु वा जहा कसायकुसीले' હે ગૌતમ! સામાયિક સંયત કષાય કુશીલના કથન પ્રમાણે ત્રણ શરીરવાળા પણ હોય છે, ચાર શરીરવાળા પણ હોય છે, અને પાંચ શરીવાળા પણ હોય છે, કાથકુશીલ પ્રકરણ આ પ્રમાણે છે.–કષાયકુશીલ સાધુ જે ત્રણ શરીરવાળા હોય છે, તે તે ઔદારિક તેજસ અને કામણ આ ત્રણ શરીરે વાળા હૈય છે, અને જે તે ચાર શરીરવાળા હોય છે તે તે દારિક વૈક્રિય, તૈજસ અને કાર્મણ એ ચાર શરીરવાળા હોય છે. અને જે તે પાંચ શરીરેવાળા હોય છે, તે ઔદારિક, વૈક્રિય, આહારક, તેજસ અને કાર્યણ એ પાંચ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका का श०२५ उ.७ सू०२ दशम शरीरद्वारनिरूपणम् २९५ 'एवं छेदोवद्यावणिए वि' एवम्-सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि त्रिषु चतुर्यु पञ्चसु वा औदारिकादि कार्मणान्तशरीरेषु भवेदिति । 'सेसा जहा. पुलाए' शेषाः-परिहारविशुद्धिक सक्षसंपराययथाख्यातसंयत्ता यथा पुलाका पुलाकवदेव एतेऽपि शरीरवन्तो भवन्ति तथाहि-त्रिषु औदारिकतैजसकार्मणशरीरेषु भवेयुरिति भावः १० । एकादशं क्षेत्रद्वारमाह-'सामाइयसंजएणं भंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा अकम्मभूमीए होगा' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं कर्मभूमौ भधेद अकर्मभूमौ वा भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि गोयमा' हे गौतम ! 'जमणं संतिभावं च पडुच्च' जन्म सद्भावमस्तित्वं च प्रतीत्य-अपेक्ष्य 'कम्मभूपीए नो अकम्मभूमीए' कर्मभूमावेव 'एवं छेदोवद्यावणिए वि' सामायिक संयत के जैसे 'छेदोपस्थापनीय संयत भी तीन शरीरों वाला, चार शरीरों वाला और पांच शरीरों वाला होता है । 'खेसा जहा पुलाए' तथा परिहार विशुद्धिक, सूक्ष्म संपराय एवं यथाख्यात संपत पुलाक के ज से ही तीन शरीर वाले हैं और ये औदारिक तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों वाले होते है । दसवां द्वार समाप्त ग्यारहवें क्षेत्र द्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा अफम्मभूमीए होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत कर्म भूमि में होता है कि अकर्मभूमि में होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोथमा ! जयण संतिभावं च पडच्च' हे गौतम! जन्म और सद्भाव को लेकर 'कम्म. भूमीए नो अकम्मभुमीए' सामायिकसंयत कर्मभूमि में ही होता है, शरीवा डाय छे. 'एवं छेदोक्दावणिए वि' सामायि स यतना 3थन प्रभाव છેદેપસ્થાપનીય સંયત પણ ત્રણ શરીરવાળા અને પાંચ શરીરવાળા હોય छ. 'सेसा जहा पुलाए' तथा परिक्षा२ विशुद्धि सूक्ष्म सपशय गने यथाખ્યાત સંયત પુલાકના કથન પ્રમાણે જ દારિક, તિજસ, અને કાર્મણ એ ત્રણ શરીરવાળા જ હોય છે. એ રીતે આ દસમું દ્વાર કહ્યું છે. ૧૦ હવે અગીયારમા ક્ષેત્રદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइय संजए णं भते ! कि कम्मभूमिए होज्जा, कम्मभूमिए होज्जा' હે ભગવન સામાયિક સંયત કર્મભૂમિમાં હોય છે? કે અકર્મભૂમિમાં હોય छ १ मानना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! जमणं सतिभाव पडुच्च गौतम ! म भने समापन सधन 'कम्मभूमिए नो अकम्मभूमिए' सामायि Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भवेद् नो अकर्मभूमौ सवेत् 'जहा वउसे' यथा 'वकुशः, जन्मसगावापेक्षया तु' । कर्मभूमावेव भवति न कथमपि अकर्मभूमौ भवति, संहरणापेक्षया तु . कर्यभूमौ वा भवेत् अकर्मभूमौ वा भवेदिति भावः । 'एवं छेदोचट्ठावणिए - वि' एवम् सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीसंयतोऽपि जन्म सद्भावाः . पेक्षा- कर्मभूमौ अवति नो अकर्मभूमौ भवति, संहरणापेक्षया तु , उभयत्रापि । भवतीति । 'परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिकसंयतस्तु यथा । पुलाकः, जन्मसद्भाव-प्रतीत्य कर्मभूमावेष भघेत नो अकर्मभूमौ भवेदिति भावः । 'सेसा जहा सामाझ्यसंजए' शेपो-यूक्ष्मसंपराय यथाख्यातसंयती यथाअकर्मभूमि से नहीं होता है। तथा-संहरण ली अपेक्षा ले. बह कर्मभूमि में भी होता है और अमिभूमि भी होता है यही बात 'जहा बउले' इस सूत्रपाठ द्वारा पुष्ट की गई है। ‘एवं छेदोवद्यावणिए वि सामायिक संयत के जैसे छेदोपस्थापलीयसंयत भी जन्म और सद्भाव की · अपेक्षा से कर्मभूमि में ही होता है । अकर्मभूमि में नहीं होता परन्तु संहरण की अपेक्षा वह कर्मभूमि में भी होता है और अकर्मभूमि में भी होता है। 'परिहाबिलुद्धिए य जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयत जन्म और सद्भाव की अपेक्षा पुलाक के जैसे कर्मभूमि में ही होता है । अकर्मभूति में नहीं होता है। 'क्षेसा जहा सामाइय- . संजए' वृक्षम संपराध और यथाख्यातसंयत सामाजिकलंयत के जैसे जन्म और सदभाव की अपेक्षा लेकर कर्मभूमि में ही होते हैं अकर्मसयत ४मभूमिमा २४ डाय छ, AB मुभिमा हात नथी, मेरी वात 'यथा बउसे' २॥ सूत्र8 ६२॥ पुट ४२ छ. 'एवं छेदोवद्वावणिए वि' सामायि । સંયતના કથન પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય સંયત, પણ જન્મ અને સદ્ભાવની ' અપેક્ષાથી કર્મભૂમિમાં જ હોય છે, અકર્મભૂમિમાં હોતા નથી.'' પરંતુ સંહરણની અપેક્ષાથી તે કર્મભૂમિમાં પણ હોય છે.. અને અકર્મભૂમિમાં પણ હોય छे. 'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिवार विशुद्धि सयम भने समावनी અપેક્ષાથી પુલાકને કથન પ્રમાણે કર્મભૂમિમાં જ હોય છે અકર્મભૂમિમાં હતા नथा. 'सेसा जहा सामाइयसंजए' सूक्ष्भस ५२राय भने यथाज्यात सयत सामायि . સંયતના કથન પ્રમાણે જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી કર્મભૂમિમાં જ હોય Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०३ कालादिद्वारनिरूपणम् सामायिकलंयतः, जन्मसद्भावं प्रतीत्य कर्मभूमौ भवेताम् इमो न अकर्मभूमौ संहरणं प्रतीत्य तु कर्मभूमौ वा भवेता अकर्मभूमौ वा भवेतामिति भावः ११०२ । कालाविहारे आह-सामाइयसंजए णं भंते' इत्यादि । थूलस्-लावाइयलंजए णं अंते! किं ओसारिणी काले होज्जा उपलदियणी काले होना नो ओसप्पिणी लो उस्लप्पिणी काले होला ? भोवमा! ओलप्पिणी काले जहा बउसे। एवं छेदोवडामणिए दि। णवरं जमणं लंतिमा न पडुच्च चउसु बि पलिशागेसु लस्थि खाहरणं पडुच्च अन्नयरे पडिला होजा सेसं तं बेव। परिहारविसुद्धिए पुच्छा गोयला! ओसप्पिणी काले वा होज्जा उस्लप्पिणी काले वा होना णो ओलप्पिणी नो उत्सपिणी काले नो होजा। जइ ओलप्पिणी काले होजा जहा एलाओ, उस्तापिणी काले वि जहा पुलाओ। सुहमसंपराइओ जहा मिठो । एवं अहवखाओ वि (१२) लामाइयतंजए गं अंते! कालगए समाणे किं गई गच्छइ ? गोयला ! देवाइं गच्छद। देवगइं गच्छमाणे किं भवणवालिसु उववज्जेजा वाणतंतरेलु उजवज्जेजा जोइलिएसु उबवज्जेजा वेमाणिसु उश्वज्जेजा, गोयमा ! णो अवणवासिसु उदबाजेला जहा कलाकुलीले । एवं छेदोवटावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए, लुहुनसंपराए जहा णिशंठे। अहकखाए पुच्छा गोषमा! एवं अहल्खायलंजए दि जाव अजहन्नमणुकोलणं अणुतरविमाणेसु उववज्जेजा अत्थे गइए लिज्झह जाव भूमि में नहीं होते है । परन्तु संहरण की अपेक्षा से नर्मभूमि भी होते और भूमि में भी होते हैं सू०२ । છે અકર્મભૂમિમાં હોતા નથી પરંતુ સંહરણની અપેક્ષાથી કર્મભૂમિમાં પણ હોય છે, અને અકર્મભૂમિમાં પણ હોય છે. તેમ સમજવું કે સૂઇ રા भ० ३८ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ भगवती सूत्रे अंत करेइ | सामाहय संजय भंते! देवलोगेसु उववजमाणे किं इंदशाए उववज्जइ पुच्छा गोयसा ! अविराहणं पडुच एवं जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्टावणिए नि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । लेला जहा नियंठे । लामाइयसंजयस्स णं भंते! देवलोगेसु उवदनमाणस्स केवइयं कालं टिई पन्नता गोयसा ! जहन्नेणं दो पलिओदसाई, उकोलेणं तेतीसं लावरोवमाई । एवं छेदोवडाकीणए वि | परिहारविसुद्वियस्त पुच्छा गोयसा ! जहनेणं दो पलिओसाई, उक्कोसेणं अहारससागरोपमाई, सेसा पणं जहा नियंठस्स । (१३) । सामाइयसंजयस्त पणं भंते! केवइया संजमट्टाणा पन्नता ? गोयसा ! असंखेजा संजमडाणा पन्नत्ता, एवं जाव परिहारविसुद्धियस्स । सुहमसंपरायसंजयक्स पुच्छा गोयमा ! अलंखेजा अंतीमुहुत्तिया संजयद्वाणा पन्नत्ता । अहक्खायलंजयस्स पुच्छा गोयमा ! एगे अजहन्नमणुकोलए संजमद्वाणे पन्नते । एएति णं भंते! सामाइयच्छेदोवद्वावणिय परिहारविसुद्धियसु हुम संपरायअहमखाय संजया र्ण संजमट्टाणाणं कयरे कयरेहिंतो जाव दिलेलाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थाचे अहवखायसंजमस्त एगे अजहन्नमणुकोसए संजमट्टाणे सुहुम संपराय संजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्टाणा असंखेजगुणा परिहारविसुवियसंजयस्स संजमद्वाणा असंखेज्जगुणा सामाइयलंजयस्स छेदोवट्टावणिय संजयस्ल व एएस संजमट्टाणा दोहवि तुला असंखेज्जगुणा (१४) ॥ सू० ३ ॥ छाया - सामायिक संयतः खलु भदन्त । किमवसर्पिणीकाले भवेत् उत्सर्पिणी काले भवेत् नो अनसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काले भवेत् ! गौतम ? अवसर्पिणीकाले Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०३ कालादिद्वारनिरूपणम् २९९ 19 यथा वकुशः, एवं छेोपस्थापनिकोऽपि । नवरं जन्मसद्भावं च प्रतीत्य चतुर्ष्वपि प्रतिभागेषु नास्ति, संहरणं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् प्रतिभागे भवेत् शेषं तदेव । परिहारविशुद्धिकः पृच्छा गौतम । अवसर्पिणीकाले वा भवेत् उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् नोअवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले नो भवेत् । यदि अवसर्पिणीकाले भवेत् यथा पुलाः । उदसर्पिणीकालेऽपि यथा पुलाकः । सूक्ष्मसंपरायोऽपि यथा निर्ग्रन्थः एवं यथाख्यातोऽपि (१२) सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कां गतिं गच्छति ? गौतम | देवगतिं गच्छति । देवगति गच्छन् किं भवनवासिषु उत्पद्येत दानव्यन्तरेपृत्पद्येव ज्योतिष्के प्रत्यपद्येत वैमानिकेपुत्पद्येत ? गौतम ! नो भवनवासिपूत्पद्येत यथा कपार्यकुशीलः । एवं छेदोपस्थापनिकोऽपि । परिहारविशुद्धिको यथा पुलाहा, सूक्ष्मसंपरायो यथा निर्ग्रन्थः । यथाख्यातः पृच्छा, गौतम ! एवं यथाख्यात संयतोऽपि यावत् अजघन्यातुकर्पेणानुत्तरविमानेषूत्पद्येत अस्त्येकः सिद्धयति यावदन्तं करोति । सामायिकसंयतः खलु भदन्त । देवलोके पून्पद्यमानः किमिन्द्रतयोत्पद्यते ? पृच्छा गौतम ! अविराधनं प्रतीत्य एवं यथा कषायकुशीलः । एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि परिहारविशुद्धिको यथा पुलाकः शेषाः यथा निर्ग्रन्थः । सामायिकसंयतस्य खल भदन्त ! देवलोके पू त्पद्यमानस्य कियत्कालं स्थितिः प्रनशा ? गौतम ! जघन्येन द्वे पल्योपमे उत्क त्रयस्त्रत्सागरोपमाण एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि । परिहारविशुद्धिकस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन द्वे पल्योपसे उत्कर्षेण अष्टादश सागरोपमाणि शेषाणां यथा निर्ग्रन्थस्य (१३) । सामायिक संयतस्य खलु भदन्त । कियन्ति संयमस्थानानि मज्ञप्तानि एवं यावत् परिहारविशुद्धिकस्य । सूक्ष्मसंररावयवस्य पृच्छा गौतम | असंख्येयानि अन्तर्मुहूर्तकानि संयमस्थानानि मज्ञप्तानि । यथाख्यातसंयतस्य पृच्छा गौतम ! एकमजघन्यातुकर्ष संयमस्थानं प्रज्ञप्तम् । एतेषां खल भदन्त ! सामाविकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकक्ष्मलं पराययथाख्यातसंयतानां संयमस्थानानां कवरे कतरेभ्यो यावदविशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वल्डोकं यथाख्यातसंयतस्य एकमजघन्यामुत्कर्षं संयमस्थानम् -सूक्ष्मसंपराय संपतस्य अन्तोमुहूर्त. कानि संयमस्थानानि असंख्येपगुगानि परिहारविशुद्धिकसंयतस्य संगमस्थानानि असंख्येयगुणानि सामायिकसंयत्तस्य छेदोपस्थपनीयसंयतस्य च एतयोः खलु संयमस्थानानि द्वयोरपि तुल्यानि असंख्येयगुणानि (१४) सु०३ । ! टीका - 'सामायिकसंजए णं भंते !" सामायिकसंयतः खलु भदन्त | 'किं ओसप्पिणीकाले होज्जा' किमवसर्पिणीकाले भवेत् अथवा 'उस्सप्पिणीकाले होज्जा' उत्सर्पिणीकाले भवेत् 'नो ओसविणी नो उत्सपिणीकाले होज्जा' नो Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भगवतीसत्र अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् । हे भदन्त ! सामायिकसंयतोऽवसपिण्यायन्यतमस्मिन् कस्मिन् काले भवति इति प्रश्ना, भगालाह-'गोयमा' इत्यादि, भोयमा' हे गौतम ! 'ओसप्पिणीकाले जहा पडलो' अर्पिणीकाले यथा बकुशः, अवसर्पिणीकालेऽपि भवेत् सामायिकसयतः, उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणीकाले वा भवेत् सर्वस्मिन्नेव काले भवेदि. स्यर्थः, । यदि अवसर्पिणीकाले भवेत् सामायिमसंयतस्तदा कि सुपामनुपमाकाले भवेत् सुपमाकाले वा भवेत्-सुषमदुष्पमकाले भवेत् दुम्पमसुपमाकाले वा भवेत् दुःपमाकाले वा भवेत् दुष्पमदुष्पमाकाले वा भवेदिति प्रश्नः, हे गौतम ! जन्म. लामाश्यसंजए णं भंते ! किं ओखपिपणीकाले' इत्यादि। टीकार्थ-'खामायसंजएणं भंते!' हे भदन्त ! सामायिकसंधत्त 'किं ओसप्पिणीकाले होज्जा, उस्लप्पिणीकाले होज्जा' क्या अवसर्पिणीकाल में होता है अथवा उत्सपिणीकाल में होता है ? अथवा-'लो ओसचिपणी न उस्लप्पिणीकाले होज्जा' नो अवसर्पिणीलो उत्सर्पिणीकाल में होता है ? 'उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोधमा! ओसप्पिणीकाले जहा घउलो' हे गौतम! सामायिकसंघत बकुश के जैसो अवसर्पिणीकाल में भी होता है उत्सर्पिणीकाल में भी होता है और नो अवषिणी नो उत्सर्पिणीकाल में भी होता है अर्थात् सामाषिकसंयत लम्बस्वकालो में होता है। हे भदन्त यदि सामायिकलंयत अबलर्पिणीकाल में होता है तो क्या वह सुषमसुषमाकाल में होता है ? अथवा सुधमाकाल में होता है ? अथवा सुषमदुष्षमाकाल में होता है ? अथयो दुषमसुषमा. । 'सामाझ्यसंजए णं भवे ! किं ओसमिणी काले' त्या टी -'सामाइयसंजए णं भंते !' सामायि४ सय 'कि ओसप्पिणी झाले होज्जा, उस्सप्पिणी काले होज्जा' शुमसपि मा डाय छ । ઉત્સર્પિણી કાળમાં હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोंयमा! ओखप्पिणीकाले जहा बउसों' 3 गौतम ! सामायिक सयत मधुशन! કથન પ્રમાણે અવસર્પિણી કાળમાં પણ હોય છે, ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણ હોય છે. અને તે અવસર્પિણ ને ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણ હોય છે, અર્થાત્ સામાયિક સંયત સઘળા કાળમાં હોય છે. હે ભગવદ્ જે સામાયિક સંયત અવસર્પિણી કાળમાં હોય છે, તે શું તે સુષમસુષમા કાળમાં હોય છે? અથવા સુષમા કાળમાં હોય છે? અથવા સુષમ દુષમા કાળમાં હોય છે ? અથવા દુષમ સુષમા કાળમાં હોય છે ? અથવા દુષમા કાળમાં હોય છે ? Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमैथचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०३ द्वादशं कालद्वारनिरूपणम् ३०१ सद्भावं च प्रतीत्य नो सुपम सुषमाकाले भवेत् सामायिकसंयतः, नो वा सुपमाकाले भवेत् किन्तु सुपमदुःपमाकाले भवेत् दुःषमयुपमाकाले भवेत् दुःपमाकाले वा भवेत् नो दुमदुमकाले भवेत् संहरणं प्रतीत्य तु अन्यतरस्मिन् सर्वस्मिन् काले एव भवेत् सामायिमसंयतः । यदि उत्सर्पिणीकाले भवेत् सामायिक संयतस्तदा किं दुष्पमदुष्पमाकाले भवेद१ दुप्पमाकाले वा भवेत् दुःपमपमाकाले भवेत् ३ सुषमदुप्पमा काले वा भवेत् ४ सुषमाकाले भवेत् ५ सुपमपमाकाले वा ६ भवेदिति प्रश्नः, हे गौतम! जन्मापेक्षया नो दुष्पमदुप्पमाकाले भवेत् किन्तु काल में होता है ? अथवा दुःषमाकाल में होता है ? अथाचा दुष्षमदुष्षमा काल में होता है ? इस प्रकार का यह प्रश्न है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - हे गौतम ! जन्म और सद्भाव को आश्रित करके सामायिक संघत सुषमसुषमाकाल अर्थात् पहिले आरे में नहीं होता है। सुषमाकाल द्वितीय आरे में नहीं होता है किन्तु सुषमदुःषमाकाल तीसरे आरे में होता है, दुषमलुपमाकाल में होता है । दुःषमाकाल में होता है । पर वह दुःषमदुषमाकाल में नहीं होता है संहरण की अपेक्षा करके तो वह हर एक काल में हो सकता है । यदि यह उत्सर्पिणीकाल में होता है तो क्या यह दुप्पमदुष्षमाकाल में होता है ?१ अथवा दुःषमाकाल में होता है ? २ अथवा दुःषनसुषमाकाल में होता है ? ३, अथवा सुषमदुष्षमाकाल में होता है ? ४, अथवा सुषमाकाल में होता है ? ५, अथवा सुषमसुषमाकाल में होता है । ६ इस प्रश्न के उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं - हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा से वह सामाधिकसंयत અથવા દુષમ દુખમા કાળમાં ડાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! જન્મ અને સદ્ભાવના આશ્રય કરીને સામાયિક સયત સુષમ સુષમા કાળ અર્થાત્ પહેલા આરામાં હાતા નથી. સુષમા કાળ એટલે કે-ખીજા ારામાં પણુ હેતા નથી. પરંતુ સુષમ દુઃષમા કાળ- અર્થાત્ ત્રીજા આરામાં હાય છે. દુઃખમ સુષમા કાળમાં હેાય છે. દુઃષમા કાળમાં હાય છે, પરતુ તે દુઃખમ દુઃખમા કાળમા હાતા નથી. સ`હરણુની અપેક્ષાથી તા તે દરેક કાળમાં હાઈ શકે છે, જો તે ઉત્સર્પિ`ણી કાળમાં હાય છે, તે શું તે દૃષમ દુખમા કાળમાં હેય છે ? ૧ અથવા દુઃષમા કાળમાં હાય છે? ર્ અથવા દુઃખમ સુષમા કાળમાં હાય છે ૩ અથવા સુષમ દુમા કાળમાં હાય છે? ૪ અથવા સુષમા કાળમાં હેાય છે ? ૫ અથવા સુષમ સુષમા કાળમાં હોય છે? હું આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ radhe दुःपमाकाले भवेत् दुष्पमसुपमाकाले वा भवेत् सुपमदुष्पमाकाले वा भवेत् नो सुपमाकाले भवेत् न वा सुपपाकाले भवेत् । सद्भावापेक्षया तु नो दुःपमदुःपाकाले भवेत् नो दुःपमाकाले पवेत् दुपपमाकाले वा भवेत् सुपमदुःपाकाले वा भवेत् नो सुपमाका के भवेत् नो सुपमसुपमा काले वा भवेत् । संहरणापेक्षया तु अन्यतरस्मिन् काले भवेत् । यदि नो अवसर्पिणी नो उत्सfootera भवेत्तदा कि सुषमासमानकाले भवेत् सुपमापतिभागे, सुषमासमानकाले वा भवेत् सुपनदुपमासमान काले वा भवेत् दुः पमपमासमानकाले वा भवेदिति गौतम ! जन्मसद्भावं च प्रतीत्य न सुपगमुपमासमानकाले भवेत् दुष्पदुपमाकाल में नहीं होता है किन्तु दुष्पमाकाल में होता है दुष्पमपम काल में होता है, सुपमदुष्पमाकाल में होता है वह सुपमाकाल में नहीं होता है और न सुषमपमाकाल में होता है, और सद्भावकी अपेक्षा से तो न दुष्पभटुप्पमाकाल में होता है, न दुष्पकाल में होता है किन्तु दुप्पमपमाकाल में होता है अथवा सुषमदुपमाकालमें होता है, किन्तु सुषमा और सुषमसुषमाकाल में नहीं होता है । अर्थात् दुषमखुपमा, सुषमदुष्षमा इन दो कालों में ही होता है शेषकालों में नहीं होता है, संहरणकी अपेक्षा से वह चाहे जिस किसी काल में हो सकता है । यदि वह नोअवसर्पिणी नो उत्सविणकाल में होता है, तो क्या वह सुषमसुषमासमानकाल में होता है ? अथवा सुपमासमानकाल में होता है ? अथवा सुषमनुष्पमासमान काल में होता है ? अथवा दुष्षमसुषमास मनकाल में होता है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं- हे गौतम! जन्म और सद्भाव को लेकर જન્મની અપેક્ષાથી તે સામાયિક સયત દુષ્પમ દુખમા કાળમાં હેતા નથી. પરંતુ દુપ્પમા કાળમાં હાય છે, ક્રુષ્ણમ સુષમા કાળમાં હું ય છે, સુષમ દુખમા કાળમાં હૈય છે. તે સુષમા કળમા હાતા નથી. તેમજ સુષમ સુષમા કાળમાં પણ હાતા નથી, પરંતુ સહરણની અપેક્ષાથી તે કાઇ પણુ કાળમાં હાઈ શકે છે જે તે ના અવસર્પિણી ના ઉત્સર્પિણી કાળમાં હાય છે ? તે શું તે સુષમ સુષમા સમાન કાળમાં હાય છે ? અથવા સુષમ દુખમા સમાન કાળમા હાય છે? અથવા દુમ સુષમા સમાન કાળમાં હાય છે? આ પ્રશ્નનના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! જન્મ અને સદ્ ભાવને લઇને તે સામાયિક સયંત સુષમ સુષમા કાળમાં હાતા નથી. સુષમા Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafer टीका s०२५ उ.७ सू०३ द्वादश' कालहारनिरूपणम् ३०३ सामायिक संयतः, नो वा सुपमाप्रतिभागे सुषमा समानकाले भवेत् नो सुपमदुपमा प्रतिभागे किन्तु दुःषमसुषमा प्रतिभागे एक सवेदिति । संहरणापेक्षया तु सर्वस्मिन्नेत्रप्रतिभागे भवेदिति भावः । एवं छेदोवट्टावणिएवि' एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि एवं कुशवदेव छेदोपस्थापनीयसंवतस्यापि जन्नसद्मा संहरणानामपेक्षया अवसर्पि ण्यादिकालेषु यथायथं समवो ज्ञातव्यः । एतावता वकुशसदृशः कालत छेदोपस्थापनीय संयतः कथितः । अत्र च बकुशस्य उत्सर्पिण्यवसर्पिणीव्यतिरिक्तकाले जन्मतः सद्भावतश्च सुषमसुषमादिप्रविभागत्रये निषेधो वर्णितः, महाविदेहे दुष्पमसुषमा प्रतिभागे विधिः कथितः, छेोपस्थापनीयसंयतस्य तु तत्रापि निषेधार्थमाह वह सामायिक संयत सुपमसुवमाकाल में नहीं होता है, न सुपमाकाल में होता है, न सुषमदुष्पमाकाल में होता है किन्तु दुष्षषमाकाल में होता है । तथा-संहरण की अपेक्षा से वह सब ही फाल में हो सकता है । 'एवं छेोबट्टाचलिए वि' एली प्रकार से छेोपस्थापatrina भी वकुश के जैसा ही जन्म और सद्भाव की अपेक्षा से एवं संहरण की अपेक्षा से अवसर्पिणी आदि कालों में यथायोग्य रीति से होता है । इतने मात्र से ही काल की अपेक्षा लेकर बकुश के 'तुल्य छेदोपस्थापनीयसंगत कहा गया है । यहाँ वकुश का उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल से व्यतिरिक्त काल में जन्म की अपेक्षा और सद्भाव की अपेक्षा से सुषमषमादि के समानकाल मय में देवकुरु आदि में निषेध वर्णित हुआ है, और दुष्षससुषमासमान काल वाले महाविदेह में इसका अस्तित्व कहा गया है । परन्तु छेदोपस्थापनीयसंयत का કાળમાં હાતા નથી. સુષમ દુખમા કાળમાં હેાતા નથી. પરંતુ દુષ્ટમ સુષમા કાળમાં હાય છે, તથા સહરણની અપેક્ષાથી તે બધા જ કાળમાં હાઇ શકે છે. 'एव' छेदोवद्वावणिए वि' ४ प्रभा होपस्थापनीय संयंत अणु अङ्कुशना કથન પ્રમાણે જ જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી અને સહરણની અપેક્ષાથી અવસર્પિ`ણી વિગેરે કાળેામાં થાયેાગ્ય રીતથી હાય છે. એટલા માત્રથી કાળની અપેક્ષાથી અકુશની ખરેખર છેોપસ્થાપનીય સયત કહ્યા છે. અહિયાં મકુશના ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી કાળથી ખીજા કાળમાં જન્મની અપેક્ષાથી અને સદ્ભાવની અપેક્ષાથી સુષમ સુષમાદિના સમાન ત્રણે કાળમાં દેવકુરૂ વિગેરેમાં નિષેધ વર્ણવેલે છે. અને દુષ્કર્મ સુષમા સમાન કાળવાળા વિદેહમાં તેનું અસ્તિત્વ કહેલ છે. પરંતુ છેદેપસ્થાપનીય સયતને ત્યાં પશુ મહા Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ भगवतीसूत्रे 'णवर' इत्यादि, ‘णवरं जमणसंतिभावं पडुब्च चउसु वि पलिभागेसु नत्थि' नवरं जन्मसद्धावं च प्रतीत्य चतुर्वपि मतिभागेषु-सुपरसुपमा-खुपमासुपमदुःपमा दुःपमसुषमा समानकालरूपेणु नास्ति-न भवतीत्यर्थः 'साहरणं पडुच्च अनयरे पलिभागे होजा' संहरणं प्रतीत्य अन्यतरहिनन् प्रतिभागे भवेदिति । एतावदेव लक्ष. ण्यं वकुशापेक्षया छेोपस्थापनीयरयेति । वहां पर श्री निषेध किया गया है । यही बात स्मृनकार ने 'णवरं जम्मणतिभावं पडुन आउनु वि पलिलागेलु नरिव' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है कि जन्म और प्लभाच की अपेक्षाले चारों प्रतिभागों में-लुपमासुषमा, सुषमा, सुपादुषमा और दुःपलसुषमा इनके समान फाला में बाद छेदोपस्थापनीय संपत नहीं होता है। 'साहरणं पडुच्च अन्लयरे पलिमाणे होज्जा' संहरण की अपेक्षा से इन चारों में से किसी एक प्रतिभाग-नमान काल में होता है यही बकुश की अपेक्षा ले छेवोपस्थापनीय की विलक्षणता-भिन्नता है। यहां जो कहा है कि सुपमसुषमादि चार कालों में से किसी एक काल में संहरण की अपेक्षा ले होता है किन्तु सब कालों में नहीं होता है उसका कारण यह है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र महाविदेश में नहीं होने के कारण सुपमनुषमादि आरों में संहरण की अपेक्षा से भी नहीं मिलेगा, क्यों कि उलसमय में तो दोपस्यापनीय चारित्र का ही अभाव होता है तो फिर संहरण लो हो ही नहीं सकता है। लेसं तं पेश नवरं हल सूत्र पाठ द्वारा कथन किये गये निषेध ४७स 2. मे पात सूत्र ‘णवर जमणसतिभाव पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नस्थि' मा सूत्र18 द्वारा प्राट ४रेस छे, 3-4म भने સદ્ભાવની અપેક્ષાથી ચાર પલિભાગમાં-સુષમસુષમા, સુષમા, સુષમદુષમાં, અને દુષમ સુષમાના સમાનકાળમાં તે છેદેપસ્થાપનીય સંયત હોતા નથી. 'साहरणं पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' सनी अपेक्षाथी म प्यारे પૈકી કોઈ એક પ્રતિભાગ-સમાનકાળમાં હોય છે. બકુશના કથન કરતાં છેદપસ્થાપનીયના કથનમાં એટલું જ જુદાપણું છે. અહિયાં જે કહ્યું છે કે સુષસસુષમાદિ ચારે કળ પૈકી કઈ એક કાળમાં સંહરણની અપેક્ષાથી થાય છે પણ સઘળા કાળમાં થતા નથી તેનું કારણ એ છે કે-છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર મહાવિદેહમાં ન હોવાથી સુષમસુષમાદિ આરાઓમાં સહરણની અપેક્ષાઓ પણ મળતા નથી. કેમકે એ સમયમાં તે છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રને જ અભાવ થઈ જાય છે. તેથી સંહરણ થઈ જ શકતું નથી, Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ शू०३ द्वादश कालवारनिरूपणम् ३०५ ___ 'सेसं तं चेव' शेषम्-'नबाई' इत्यादिना यलक्षण्यं कथितं तदतिरिक्त सर्वमपि तदेव-दकुशवदेव छेदोपस्थापनीयस्य भवतीति ज्ञातव्यमिति । 'परिहारविशुद्धिए-पुच्छा' परिवारविशुद्धिका खलु भदन्त ! किमयसर्पिणीकाले भवेत् उतापिणीकाले बा भत् नो अवसर्पिणी नो उत्स. पिणी काले वा भवेदिति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'ओसप्पिणीकाले वा होज्जा' अवसर्पिणीकाले वा भवेत् परिहारविशुद्धिकसंयतः, 'उत्सपिणीशाले वा होज्जा' उत्सर्पिणीकाले वो भवेत् किन्तु 'नो औसप्पिणी नो उत्सदिणीकाले नौ होज्जा नो अवसर्पिणी नौ उत्स पिणी काले नो भवेत् । 'जइ ओसुप्पिणीकाले होज्जा जहा पुलाओ' यदि अब. सर्पिणी काले भवेत् यथा पुलाका, पुलायमरणवश्व इहापि सचे ज्ञातव्यस् तथाहिं विषय के अतिरिक्त और कफन बकुश के सम्पत्य जैले किया गया है वैसा ही इस छे होपस्थापनीय संयत के समय में है । 'परिहारविसुद्धिए पुच्छा' हे भदन्त ! परिहार विशुद्धियालयता पमा अधः सर्पिणीकाल होता है ? अथवा उत्पक्षिणीकाल सोला है ? अथवा नो अंवसर्पिणी नो उहर्षिणीकाल में होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! ओसपिणी का होज्जा, उस्लपिणीकाले वा होज्जा, नो ओसपिणी नो उस्लाप्पिणीकाले को होजा' हे गौतम ! परिहार विशुद्धिक संपत्त अबस्थित काल भी होता है उस्लपिणी काल में भी होता है पर नो अवणी नो जमिणीकाल में नहीं होता है। 'जह ओलहिणीशाले होना हा पुलाओ' यदि अपसारिणी काल में होता है तो हे शौतम ! इस विषय में समस्त कथन पुलाक के 'सेस' त चेव नवर' मा सूत्रा४ १२५ ४थन ४२ विषय सिवाय माहीनસઘળું કથન બકુશના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે છેદેપस्थानीय संयतना समय ४९८ छ, 'पनिहारविसुद्धिप पुन्छा' समवन् પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયતો શું અવસર્પિણી કાળા હોય છે કે અથળ ઉત્સપિણી કાળમાં હોય છે? અથવા નો અવસર્પિણ કાળમાં હોય છે?* અથવા ને ઉત્સર્પિણી કાળમાં હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४३ छे है-'गोयमा! ओसविणी झाले वा रोजा, उस्पपिणी काले ग होज्जा, नो ओखप्पिणी नो एस्सप्पिणी काले नो होज्जा' है गोतर | परिहार शुદ્ધિક સંયત અવસર્પિણી કાળમાં પણ હોય છે. ઉત્સર્પિણી કાળમાં પણ હોય छ. परंतु न। मसपिएनसी माता नथी 'जइ ओस. पिणी काले होज्जा जहा पुलाओ ने ससाणी पाय छ, तो त કે ગૌતમ ! આ વિષયમાં સઘળું કથન પુલાકના કથન પ્રમાણે સમજવું. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती १०६ यदि अवसर्पिणीकाले भवेनदा किं सुरमपनाकाले भवेत् १ सुवमाकाले वेद २ सुष्पमदुप्पमाकाले भवेत् ३ दुप्पमसुषमाकाले भवेत् ४ दुष्पमाकाले वेद ५ दुप्पटुप्पमाकाले वा भवेत् ६, गौतम ! जन्मापेक्षया नो सुपमसुषमा काले भवेत् १ नो सुषमाकाछे भवेत् २ किन्तु सुपमदुष्पमाकाले भवेत् ३ दुपपयाकाळे वा भवेत् ४ जो दुष्पधाकाले भवेत् ५ नो दुष्पमदुष्धमा काले श्रवेत् ६ । सद्भावापेक्षया तु नो सुमसुमाकाले भवेत् नो वा सुपमाकाले भवेत् किन्तु सुपसपमा काले भवेत् दुधम सुपमाकाडे वा भवेत् पाकाले भवेत् तो दुष्प्रमदुष्पमाकाले भवेदिति । 'उस्सप्पिणीकाले वि जहा पुलाओ' उत्सकैसा जानना चाहिये । जैसे - जय मौनमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा हे दन्त यदि परिहार विशुहिक संगत भवसर्पिणीकाल में होता है तो क्या वह सुषमपनाकाल में होता है ? ? अथवा सुषमाकाल में होता है २ ? अथवा सुषत्र दुष्षष फाल में होता है ३ ? अथवा दुष्पमसुषमाकाल में होता है ४ ? अथवा geमाकाल में होता है ५ ? अथवा दुष्पमदुषमाकाक में होता है ६ ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा- हे गौतम! जन्म की अपेक्षा वह सुषमसुषमाकाल में नहीं होता है ? सुषमाकाल में नहीं होता है किन्तु सुत्रमदुष्षाकाल में होता है । दुष्षमसुषमाकाल में होता है। दुष्पवाकाल में और दुष्बमदुष्पमाकाल में वह नहीं होता है । तथा सद्भाव की अपेक्षा से तो यह सुषमसुषमाकाल में नहीं होता है। सुषमाकाल में भी नहीं होता है किन्तु सुषमदुष्पमाकाल में होता है। दुष्षमसुषमाकाल में होता है। दुष्पमाकाल में भी होता है । किन्तु दुष्पमदुप्षनाकाल में नहीं होता જેમકે-જયારે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું કે હે ભગવન્ જો પિરહાર વિશુદ્ધિક સચત અવસર્પિણી કાળમાં ટાય છે, તે શુ' તે સુષમ સુષમા કાળમાં હોય છે? ૧ અથવા સુષમા કાળમાં હાય છે? ૨ અથવા સુષમ દુષ્પમ કાળમાં હાય છે ૧૩ અથવા દુઃખમા કાળમાં ડાય છે ? ૪ અથવા દુષ્પમ સુષમા કાળમાં હાય છે? ૫ અથવા દુષ્પમ દુખમા કાળમાં હાય છે ? - આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! જન્મની અપેક્ષાથી તે સુષમ સુષમા કાળમાં હાતા નથી, સુષમા કાળમાં પણ હાતા નથી. પરંતુ સુષમ દુખમા કાળમાં હોય છે, તથા દુષ્પમ સુષમા કાળમાં હાય છે. તથા કૃષ્ણમા કાળમાં અને દુષ્પમ દુખમા કાળમાં પણ તે હાતા નથી તથા સદ્ ભાવની અપેક્ષાથી પણ તે સુષમ સુષમા કાળમાં હાતા નથી. સુષમા કાળમાં પશુ હાતા નથી, પરંતુ સુષમ દુખમા કાળમાં હાય છે. દુપ્પમ સુષમાં Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०३ द्वादश कालद्वारनिरूपणम् ३०७ पिंणीकालेsपि यथा पुलाकः, पुलाकस्य यथा उत्सर्पिणीकाले जन्माद्यपेक्षया संभवः कथितः । तथैव परिहारविशुद्धिकस्यापि उत्सर्पिणीकाले जन्मायपेक्षया भवनं ज्ञातव्यमिति । 'सुमपरायो जहा नियंठो' सूक्ष्मपरावसंपतो यथा निर्ग्रन्थः, निर्ग्रन्थमकरणे पुलाकस्यातिदेशः कृतस्तेन पुलावदेव सर्वमवगन्तव्यमिति । 'एवं अहक्खाओ वि' एवं सूक्ष्मसंपरायसंगत वदेव यथाख्यातसंवतोऽपि कालद्वारेंज्ञातव्य इति १२ । त्रयोदशं मतिद्वारमाह- 'सामाइयसंजर णं संते' सामायिकसंयतः स्खल भदन्त ! 'कालगए समाणे कि गई गच्छ कालगत: सन् कां गतिं गच्छति है । जिस प्रकार से पुलाक का उत्सर्पिणीकाल में जन्म आदि की अपेक्षा से सद्भाव कहा गया है उसी प्रकार से इस परिहार विशुद्धिक संयत का भी उत्सर्पिणीकाल में जन्म आदि की अपेक्षा से संभव जानना चाहिये 'सुमसंपरायो जरा नियंठो' सूक्ष्मसंपरायसंयत का कथन निर्ग्रन्थ के कथन के जैसा जानना चाहिये । निर्ग्रन्थ के प्रकरण में पुलाक का अतिदेश किया गया है। इससे पुलाक के जैसा ही सब कथन सूक्ष्म संपरायसंयत के सम्बन्ध में कालद्वार को लेकर करना चाहिये । 'एवं अहक्खाओ वि' लूक्ष्मसंपराय संगत के जैसा ही यथाख्यात संयत के सम्बन्ध में कालद्वार को लेकर कथन करनाचाहिये । कालद्वार समाप्त १२ । तेरह वें गतिद्वार का कथन 'सामाइयसंजए णं भंते कालगर खमाणे किं गई गच्छ ' કાળમાં હાય છે. દુખમા કાળમાં અને દુષ્પમ દુખમા કાળમાં પણ હાતા નથી, જે પ્રમાણે ઉત્સર્પિણી કાળમાં પુલાકના જન્મ વિગેરેની અપેક્ષાથી, સદ્દભાવ કહ્યો છે, એજ પ્રમાણે આ પરિહાર વિશુદ્ધિક સયતના પણ ઉત્સુचिंगी अजमां नन्भ विगेरेनी अपेक्षाथी सद्दलाव समल होवें।, 'सुहुमसंपरायो जहा नियंठो' सूक्ष्म सांपराय संयततु अथन निर्थन्थना स्थन अभा સમજવુ, નિગ્રન્થના પ્રકરણમાં પુલાઇના અતિદેશ-ભલાણુ કરેલ છે તેથી પુલાંકના કથન પ્રમાણે જ સઘળું સૂક્ષ્મ સાંપરાયના સ`ખધી કચન ४सद्वारना आश्रय नेले. 'एवं अहक्खाओ वि' सूक्ष्म सांप રાયના કથન પ્રમાણે યથાખ્યાત સયતના સંબંધમાં કાળદ્વારના આશ્રયથી ન કરવું જોઈએ. એ રીતે આ કાળદ્વાર કહ્યું છે. કાલદ્વાર સમાપ્ત ૧૨મા डवे गतिद्वार उथन हरवामां आवे छे. 'सामाइयस' जएणं भंते । काम Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसरी ३०८ मनोतीत्यर्थ इति पश्ना, भगवानाद-गोषणा' इत्यादि, 'गोथमा' हे गौतम ! 'देवगई गच्छद देनजति गच्छनि सामायिकसंयतः कालगतः सन् देवगतिम वाप्नोतीत्यर्थः । 'देवाइं गनछााणे किं भवनाशिनु उववज्जेज्जा' देवगाव गच्छन् कि सबननागिदेवेपल्पयेत अश्या पाणनंगसु उवज्जेज्जा' नव्यन्तरे - स्पधेत अथवा 'जोइपिएस उन्नज्जेज ना' ज्योतिब्के वाद्येत 'वेमाणिएसु उबवज्जेज्जा' शानिये सामायिक संपतः किल कालगति कृत्वा देवगतो गच्छन् कतमस्थिन् देवलोके समुत्पद्यते इति सका, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो भणयालीमु उपरज्जेज्जा' भवनवासिषु नोत्पप्यन्ते 'जहा कलापकुलीचे यथा पायाशीलः, पायकुशीलप्रकरणव देव भदन्त ! सानाधिक संयत बरण कर किस गति में जाता है ? उत्सर में प्रभु कहते हैं-गोयना देवाइ गच्छह, हे गौतल ! नानायिफसंयत मरण कर देवगलि जाता है। देवगई पच्छमाणे किवणचासिसु उवव ज्जेज्जा' बाणमंतरेलु उबज्ने ' हे अन्न ! सामाधिक संपत मरण करने के बाद देवमति को प्राप्त करता है तो वपाचह भवनवासियों में उत्पन्न होता है ? चानमन्त उत्पन्न होता है ? अथवा 'जोइसिएसु उपयज्जेज्जा' ज्योतिष्क देयों में उत्पन्न होता है ? अथवा 'वेमाणिएसुउवा धज्जेज्जा' वैमानिकदेवों में उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न का तात्पर्य केवल इतना सा ही है कि सामायिक संघकाल करके देशगति में भी कोन से देवलोक उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो भवणवाशी जबरज्जेज जरा सामसीले' हे गौतम ! भवनवासी घालव्धनतर मोतिको में नहीं उत्पन्न होता है इत्यादि कषायकुशील गए समाणे किं गई गच्छइ' 8 लगवन् सामायिः सयत भरी तिमा सय छ ? 'देवगई गच्छमाणे कि भवणवासिसु उदवज्जेज्जा, पाणमंतरेसु उपवज्जेज्जा' 8 सन् सामाथि सयत भर पाम्या पछी हेवशति पास ४२ છે, તે શું તે ભવનવાસીઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા વાનવ્યન્તરોમાં 64-1 थाय छ १ मा 'जोइसिपसु उदवज्जेज्जा' ज्योति०४ हवामा उत्पन्न थाय छ ? थ! 'वेमाणिएसु उववज्जेज्जा' वैमानि वाम पन्न. थाय છે? આ પ્રશ્નનું તાત્પર્ય એ છે કે-સામાયિક સંયત કાળ કરીને દેવગતિ પૈકી કઈ દેવગતિમાં ગમન કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! नो भवणवासी उपक्जेज्जा जहा कसायसीले' गौतम ! भवन. વાસી, વનવ્યતર અને નિષ્કામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. કષાય કુશીલના Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०३ त्रयोदश गतिद्वारनिरूपणम् ३०९ सामायिकसंपतस्यपि गमनं द्रष्टव्यम् तथाहि-हे गौतम ! कालं कृत्वा देवेषु समु. त्पद्यमानो न भवनगासिषु समुत्पद्यते न वा ज्योतिष्केषु वैमानिकदेवलोकेषु समुत्पद्यते वैनानिकेषु सपुत्पद्यपानो जघन्येन सौधर्मे कल्पे सत्पद्यते उत्कर्षेण तु अनुत्तरविमानेषु समुत्पद्यते इति । 'एवं छेदोत्रहापणिए वि एवं छे होपस्थाप. नीयसंयतोऽणि कालं कृत्वा देवलोकेषु साल्पयते तत्रापि न भवनवासिदेवेषु न वा वानव्यन्तरेषु न वा ज्योतिषकेषु किन्न पानिकेषु सयुत्परते तत्रापि जघन्येन सौधर्मकल्पे उत्कर्षणानुत्तरक्षिाने इति । 'परिवार विसुद्धिए जहा पुलाए' परिहार के प्रकरण के जैसा ही सामायिनयत का भी बथन समझना चाहिये । जैसे-हे गौतम ! झाल करके देवों में उत्पन्न होता हुआ वह सामायिक संयत भवनवालियों उत्पन्न नहीं होता है १ ज्योतिष्कों में उत्पन्न नहीं होता है वानस्पतरों उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु वैमानिकों में उत्पन्न होता है वैमानिको में उत्पन्न होने पर भी वह जघन्य से सौधर्मदेवलोक में उत्पन्न होता है । उस्कृष्ट से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है । इत्यादि 'एवं छेदोवद्यावणिए वि' इसी प्रकार छेदोषस्थापनीयसंयत भी शाल कर के देखलोकों में ही उत्पन्न होता है। परन्तु यहां पर भी यह भवनवालियों अथवा वानन्यन्तरों में अथवा ज्योतिष्कों में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु वैमानिकदेवों में ही उत्पन्न होता है । वैमानिक देशों में भी यह जघन्य ले तो प्रथम सौ. धर्म देवलोक और उत्कृष्ट ले अनुत्तर विमानो में उत्पन्न होता है' इस्यादि । 'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक का कथन પ્રકરણના કથન પ્રમાણે જ સામાયિક સંયતનું કથન પણ સમજી લેવું. જેમકે હે ગૌતમ ! કાળ કરીને દેવેમાં ઉત્પન્ન થનાર તે સામાયિક સંયત ભવનપતિમાં ઉત્પન્ન થતું નથી. જ્યોતિષ્કમાં ઉત્પન્ન થતું નથી. વાનન્તરમાં પણ ઉત્પન્ન થતો નથી. પરંતુ વૈમાનિકેમાં તે ઉત્પન થાય છે. વૈમાનિકમાં ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ તે જઘન્યથી સૌધર્મ દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. Getथी मनुत्तर विमानामा उत्पन्न य छे. “एवं छेदोवट्ठावणिए वि' मेर પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય સંત પણ કોલ કરીને દેવલોકમાંજ ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ દેવમાં પણ તે ભવનપતિ. અથવા વાતવ્યન્તર, અથવા જ્યોતિષ્ક દેવામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ વૈમાનિક દેવોમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા વૈમાનિક દેવેમાં પણ તે જઘન્યથી પહેલા સૌધર્મ દેવલોક અને ઉત્કૃષ્ટથી અનુतविमानामा पन्ज थाय छे छत्याहि परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परि. હાવિશુદ્ધિક પુલાકના કથન પ્રમાણે સમજવા. પરિહારવિશુદ્ધિક જઘન્યથી Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ३१० विशुद्धिको यथा पुलाफः, हे भदन्त ! परिहारनिशुद्धिकसंयतः कालं गतः सन् का. शति गच्छवि गौतम ! देवगति गच्छति हे भदन्त ! कतमस्मिन् देवलोके समस्या घने ? गौतम ! न भवनवासिपु न वा वानव्यन्तरेषु न या ज्योतिष्केपु किन्तु वैमानिकेपु तत्रापि जघन्येन सौधर्षे कल्पे उत्कर्षेण सहस्रारे कल्पे इति 'मुहुमसंपराय जा णियंठे' सूक्ष्म संपरायो यथा निर्ग्रन्थः, निर्ग्रन्थवदेव ज्ञातव्यः सूक्ष्मसंपराएः, तथा हि सुक्ष्मसम्परायः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कुत्र कां गतिं गच्छति ? गौतम ! देवगति गच्छति, देवगति गच्छन् कुत्र भवनवास्यादिपु गच्छति ?, गौतम !न अयनवासिप्रभृतिषु किन्तु वैमानिकपु समुत्पद्यते पैलानिकेपु समुत्पद्यमानोऽजय. न्यानुत्कर्षस्थित्या अनुतरविमानेष्वेवोत्ययेत इति । 'अहक्खाए पुच्छा' यथाख्यातसंयतः खलु भदन्त ! कालगतः सन् कां गतिं गच्छति इति पृच्छा-प्रश्ना, पुलाक के समान करना चाहिये, जैसे परिहार विशुद्धिक जघन्य से सौ. धर्म फल्प उस्कृष्ट से सहस्रारकल्प में उत्पन्न होता है। 'सुहमसंपराए जहा णिथंठे सूक्ष्मसंपरायसंयत निर्ग्रन्ध के प्रकार से जानना चाहिये अर्थात् यह रसूक्ष्मलंपरायसंयत काल करके हे भदन्त ! कहां उत्सान होता है ? तब उत्तर में प्रभुश्री करते हैं-हे गौतम ! यह काल करके देवगति में ही स्पन्न होता है। देवाति में भी भवनवाप्ती, पानव्यन्तर ज्योतिष्क इनमें उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होता है । वैमानिको में भी यह अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति से केवल अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है । 'असखाए पुच्छा' हे भदन्त ! घाख्यातसंयत भरण करके कहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री सीधभ६५ म. टथी सहस्त्रार ४८५मां उत्पन्न थाय छ.. 'सुडेमसंपराए- जहा णियठे', सूक्ष्म पराय संयत भने यथाभ्यात सयत નિથ પ્રમાણે સમજવા, અર્થાત્ એ બન્ને કાળ કરીને હે ભગવન કથા ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રમાણેના ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! તે બને કોલ કરીને દેવગતિમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને દેવગતિમાં પણ ભાવનવાસી વાનધ્યતર, તિક એ દેમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા માનિકેમાં પણ તેઓ જવન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ વિના અનુત્તર વિમાનમાં જ ઉત્પન્ન थाय छे. 'अहक्खाए पुच्छो' ७ भगवन् यथाज्यात सयत ४ ४२२ ४i ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-છે ગૌતમ ! તે Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ १०३ त्रयोदशगतिद्वारनिरूपणम् ३११ मंगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं अहक्खायसंनए वि जाव अजहन्नमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेमा' एवं निर्ग्रन्थवदेव यथाख्यातसंयतोऽपि यावत् अजघन्यानुस्कर्षेण अजघन्यानुत्कर्षस्थित्या अनुत्तरविमाने पूत्पयते 'अत्थेगइए सिज्झइ जाव अन्तं करेइ' अस्त्येकाः तत्रगतानामपि मध्ये कश्चिदेकः सिद्धयति यावत्सर्वदुःखानामन्तं करोति वे यथागतसंयतजीवाः अनु. सरविमानेषु समुत्पद्यन्ते, तेषु एक कश्चित् संसारगति परित्यज्य सिध्यति बुद्धयते मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानामन्तं करोतीति भावः । 'सापाइपमंजए णं भवे ।' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'देवले.गेसु उवरज्जमाणे किं इंदचाए उबवज्जइपुच्छा' देवलोकेषत्पद्यमानः किमिन्द्रन्या उत्पद्यते त्रायस्त्रिंशतया या उत्पद्यते लोकपालतया वोत्पद्यते अहमिन्द्रतया का समुत्पद्यते इति पृच्छा प्रश्ना, भगनानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अविराहणं पडुच्च' अविराधनं प्रतीत्य, कहते हैं-हे गौतम ! वह मरण करके अजघन्य अनुन्कृष्ट स्थिति से अनुत्सर विमानों में उत्पन्न होता है। 'अत्थेगइए सिझंह जाव अंतं करेह' इनमें कोई एक जीव संसारगति को छोडकर सिद्ध हो जाता है, बुद्ध बन जाता है, समस्त को ले मुक्त हो जाता हैं, परिनिर्वात हो जाता हैं समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। __ 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! ऐचलोगेलु उच्चवज्जमाणे किं इंदलाए उवैष जापुच्छा' हे भदन्त ! सामायिज्ञसंयत देवलोकों से उत्पन्न होता हा इन्द्र की पर्याय ले उत्पन्न होता है ? अशा सामाजिक देव की पर्याय से उत्पन्न होता है ? अथवा प्रायस्त्रिंशत् देव की पर्याध से उत्पन्न होता है ? अथवा लोकपाल की पर्याय से उत्पन्न होता है ? अथवा अहमिन्द्र की पर्याप से उत्पन्न होला है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री કાળ કરીને અજઘન્ય અનુત્કૃષ્ટ સ્થિતિથી અનુત્તર વિમાનમાં જ ઉત્પન્ન थाय छे. अत्थेगइए सिज्झइ जाव आं करेइ' भामटा । ससार ગતિને છેડીને સિદ્ધ થઈ જાય છે બુદ્ધ થઈ જાય છે. સમસ્ત કર્મોથી રહિત થઈ જાય છે, પરિનિવૃત થઈ જાય છે. અને સમસ્ત દુ એનો અત કરે છે. ___'सामाइयसंजर णं अते ! देवलोगेसु उववज्जमाणे कि इंदत्ताए उपवज्जेज्जा पुच्छा' भगवन सामायि: मयत वसीमा पन्त थता थ। शुन्द्रनी પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા સામાનિક દેવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા ત્રાયઅિંશત દેવેની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે અથવા લેકપાલની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા અહમિન્દ્રની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે ? Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एवं जहा फसायामीछे एवं यथा कपायकुशील', हे गौतम ! अविराधनाश्रयणेन इन्द्रतया पोत्पधते सामानिकतया प्रायस्त्रिंशदेवतया लोकपालतया, अहमिन्द्रतया वा समुत्पद्यते विराधनापेक्षया तु अन्यतररिमन् करिमश्चिदपि भवनपत्यादि देव. लोके समुत्पद्यते इति ‘एवं छेदोहावणिए वि' एवं मामायिक वनदेव छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि अविराधनापेक्षया याबदहमिन्द्रतयोत्पद्यते विराधनापेक्षयातु अन्यरस्मिन् देवलोके समुत्पयते इति । 'परिहाररिमृद्धिए नया पुलाए' परिहारविशुद्धिकसंयतमा यथा पुलाकः पुलाकर देव परिहारविशुद्धिक संयत. स्यापि काळकरणानन्तरसचिराधनामपेक्ष्य देवगतो गमनम्' तत्रापि जघन्येन कहते हैं-'जोगमा ! अधिराहणं पटकन एवं जा पायलमीले है गौतम ! संयम की अविराधना को लेकर वह सामायिक संपाद इन्द्ररूप से भी उत्पन्न हो जाता है, नायविंशत् देव रूप से भी उत्सन्न हो जाता है, लोकपालल्पले भी उत्पन्न हो जाता है और जहमिन्द्र रूप से भी उत्पन्न होता है और जब यह अपने संयम की विराधना करदेता है-तय यह भवनपत्यादिक शिली भी देवों में उत्पन्न होता है। 'एवं छेदोधावणिए वि' इसी प्रकार ले-सामायिक के समान हीछेदोपस्थापनीय संपत भी अधिराधना की अपेक्षा लेतर यापन र मिन्द्र की पर्याय से उत्पन्न होता है और संयमादिक की गिराधना को लेकर वह भवनपत्यादिक किसी भी देश की पर्याय से उत्पन्न होता है । 'परिहारविलुद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयत का कथन पुलाफ के जैसा होता है-अर्थात् वह ताल कर अभिगधनाकी अपेक्षा मा प्रशन उत्तरमा प्रमुश्री 3 छ -'गोयमा ! अविराहणं पउच्च एवं जहा कसायकुसीले' है गीत सयमनी विराधनायी गर्थात् मासપકપણથી તે સામાયિક સંયત ઈદ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. સામાયિક દેવપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. વાયશિત દેવપરાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. કપાલપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને અહનિંદ્રપણાથી પણ ઉત્પન થાય છે. અને જ્યારે તે પિતાના સંયમની વિરાધના કરે છે, ત્યારે તે मनपति विगैरे ७५ २४ भi Gपन्न 25 लय छे. 'एवं छेदो. वदावणिए वि' ३१ प्रो सामायि: । यतना इथन प्रभारी छेटोप:यापनीय સંયત પણ અવિરાધનાની અપેક્ષાથી યાવત્ અહમિદ્રપણાની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને સંયમ વિગેરેની વિરાધનાને લઈને તે ભવનપતિ વિગેરે B६ ५ मे 8 पर्याय.थी उत्पन्न / लय छे. 'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिखा२ विशुद्धि सय साना ४थन प्रमाणे हेक्सामा ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ તે કાળ કરીને અવિરાધનાની અપેક્ષાથી દેવગતિમાં Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्द्रिका टीका श०२५ उ. ७ सू०३ त्रयोदश गतिद्वारनिरूपणम् ३१३ सौधर्मकल्पे समुत्पत्तिरुत्कर्षेण तु सहसारकल्पे समुत्पत्तिरिति । तत्रायमिन्द्रादित्वेन समुत्पद्येते न तु अहमिन्द्रनयेति । 'सेसा जहा नियंटे' शेषौ सूक्ष्मसंपराय - यथान्यात संयतौ यथा निर्ग्रन्थः । इमावपि कालं कृत्वा देवगति गच्छतः । तत्रापि वैमनिके समुत्पद्ये । तत्र च अजघन्यानुत्कर्षेणानुत्तरविमाने समुत्पद्येते । इमौ द्वौ अविराधनमपेक्ष्य तचेन्द्रादित्वेन नोत्पद्येते किन्तु अहमिन्द्रतयोत्येते इति । । अथ सामायिक संयतादीनां स्थितिमाह 'सामाइयसंजयस्स णं भंते !" सामायिकसंयतस्य खलु मदन्त ! 'देवळोगेषु उववज्जनाणस्स' देवलोकेषु समुत्पद्यमानस्य 'केवयं कालं ठिई पन्नता' कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, देवलोके से देवगति में जाता है । वहां पर वह जघन्य से सौधर्म स्वर्ग में देव होता है और उत्कृष्ट से सहस्रार देवलोक में देव होता है, वहां वह इन्द्रादि पने से उत्पन्न होता है किन्तु अहमिन्द्र पने से उत्पन्न नहीं होता है । 'सेसा जहा नियंटे' सूक्ष्म संपरायसंयत और यथाख्यात. संयत निर्ग्रन्थ के जैसा देवलोक में उत्पन्न होता है । अर्थात् ये दोनों भी कालगत होकर देव गति में जाते हैं और देवगति में भी ये वैमा निक देव में उत्पन्न होते हैं । वहां ये अजघन्यानुम्कृष्ट रूप से केवल अनुत्तरविमानों में ही उत्पन्न होते हैं । ये दोनों अविराधना की अपेक्षा' से वहां इन्द्रादिपने से उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु अहमिन्द्रपने से उत्पन्न होते हैं । 'सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उचवज्जमाणस्स केवइयं कालं ठिई पत्ता' हे भदन्त ! देवलोक में उत्पन्न જાય છે ત્યાં તે જધન્યથી સૌધમ સ્વર્ગમાં દેવ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી સહસ્રાર દેવલેાકમાં દેવ થાય છે ત્યાં તે ઇન્દ્રાદિપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. परंतु अडेभिद्रपणाथी उत्पन्न थता नथी 'सेखा जहा नियठे' सूक्ष्मस पराय સયત અને યથાખ્યાત સયત, નિગ્રન્થા પ્રમાણે દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, અર્થાત આ બન્ને પણ કાળધમ પામીને દેવગતિમા જાય છે. અને દેવગતિમાં પણ તેઓ વૈમાનિક દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ત્યાં તેએ અજઘન્યાન્રુત્કૃષ્ટપણાથી કેવળ અનુત્તરવિમાનામા જ ઉત્પન્ન થાય છે. એ મને અવિ રાધનાની અપેક્ષાથી ત્યાં ઇન્દ્રાદિપશુાથી ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ અમિદ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ''माइयसंजयस्तणं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स केवइयां कालं ठिई पन्नता' हे भगवन हेवी मां उत्पन्न थनारा सामायिक संयतोनी स्थिति भ० ४० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती समुत्पद्यमानस्य सामायिकसंगतस्य हिरकालपर्यन्तमस्थानं भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोपमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं दो पलि प्रोवमाई जघन्येन द्वे पल्पोपमे 'उको सेणं तेत्तीसं सागरोषमाई उत्कर्पण त्रयस्त्रिंशत्सागरो. पमाणि, पल्शोपमद्वय प्रयसिंपत्तागरोपमे सामायिकसं पसरय देवावासेऽवस्थान भवतीति भावः । एवं छेदोन्हावणि पवि' एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि छेदोपस्था. पनीयसंयतस्यापि जघन्येन द्विपल्योगगे उत्कण त्रयस्त्रिंशत्मागरोपमाणि च अवस्यानं भवति देवलोके इति भावः । 'परिवार चिसद्धिधात पुन्च्छा' परियार विशुद्धियारय देवलोकेषु सगुत्पघमानस्य कियकालपर्यन्तमवरयानं भवतीति पच्छा-मश्नः, भगवाना--गोयमा उमादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्ने] दो पलिओवमाई' जघन्येन द्वे पलियोपमे' उकोसेण अद्वारसमागरोदमाई उत्कर्पण हुए सामाधिक्षलंयत ही मिल काल की रिति होती है ? अर्थात् कितनी स्थिति होनी है पह व सिने साल तक स्थित रहता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - गोगवा ! जहन्नेणं दो पलिओवमाई उकोसेणं तेत्तीस सागरोगमाई' हे गौतम ! वहां इलकी स्थिति जघन्य से दो पल्योपम की होती है और उन्ष्ट ले ३३ सागरोपम की होती है। 'एवं छेदोवद्यावणिए वि' इसी प्रकार छेदोपरमापनीय संयत की भी स्थिति होती है । जघन्य से दो पल्पोपम की और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपमकी । 'परिहारविलुद्धियस्स पुच्छा' हे भदना ! देवलोकों में उत्पद्यमान परिहारविशुद्धिक संगत की जितनी स्थिति होती है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहन्नेणं दो पलि मोपनाई उक्सोलेणं अट्ठारस सागरोवमाई गौतम ! देवलोको में नमानुपचनान परिहारविशुद्धिक કેટલા કાળની હોય છે ? અર્થાત્ તે ત્યાં કેટલા કાળ સુધી સ્થિર રહે છે? सा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ३ छ -'गोगमा ! जहणेणं दो पलिओक्माई, उकोसेणं तेत्तीस सागरोदमाइ” हे गौतमत्यो तमना सन्य स्थिति में પાપમની હોય છે. અને ઉલ્લુટથી ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમની હોય છે. ‘एवं छेदोवद्रावणिए वि' से प्रभारी छे।।५२यायनीय सयतनी स्थिति पए હોય છે. અર્થાત્ છેદે પસ્થાપનીય સંયતની સ્થિતિ પણ જઘન્યથી બે પલ્યો. पभनी मने Gष्टयी तेत्रीस सागनी छे, तम अभावु'. 'परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा' लगवन् विपन्न ना२१ परिवार विशु. દ્ધિક સંવતની રિથતિ કેટલા કાળની હોય છે કે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है-'जहन्लेणं दो पलि भोवमाई उझोसेणं अद्वारससागरोधमाई' હે ગતમ! દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થનાર પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતની જઘન્ય Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ८ ७ सू०२ चतुर्दश संयमस्थानद्वारनिरूपणम् ३१५ अष्टादशसागरोपमाथि प्रणालाल गन्तं देवलोक स्थितिभवति परिहारविशुद्धिक स्येति भावः। 'सेसाणं जा पिठरस' शेश्या:-क्षरसंपराययथाख्यातसंयतयो स्वस्थानं देवलोक ग्था निर्धन्धस्य अजघन्यानुरूपेश जयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशत्सागरोषापर्यन्तं भवतीति १३ । ____चतुर्दशं संयमस्थानद्वारमाह-सामाइयलंजपस्त भंते ! शेवया संजमठाणा पन्नत्ता सामारिकसंगतस्य खल्ल भदन्त ! हियन्ति संगमस्थानानि प्राप्तानि सामायिकसंयतस्य किसत्संरूपकानि संयमस्थानानि भवतीति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'संखेन्जा संजमठ्ठाणा पन्नत्ता' असं ख्यातानि संगमस्थानानि मनमानि एवं जाव परिहारविसुद्धिय एवम्-सामायिकसंयतचदेव यावत्परिहार निशुद्धिकसंयतस्यापि असंख्याताम्येव संयमस्थानानि संयत की जघन्य स्थिति को पत्योपल की और उत्कृष्ट स्थिति १८ सागरोपम की होती है । 'साणं जहा णियंठल सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात की देवलोक में निर्यन्त के जैसा अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की होती हैं । तेरह वां गतिद्वार समाप्त । चौदहवां संथमहार का कथन लामाइथसंजयस्व मंते! देवया संजमहाणा पण्णता' हे भदन्त ! सामायिकीयत के संयमस्थान कितने हे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रखुश्री साहले हैं-'गोयना ! असंखेजना तंजवाणा पन्नत्ता' सामाषिक संयत के असंहाल संथनस्थान कहे गये । 'एवं जाप परिहारविछियरल' नामयिक संत के जैसे ही यावत परिहार સ્થિતિ એ પાપમાન અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૮ સાગરોપમની હોય છે. 'सेसाणं जहा णियंठस्व' नियन्थना ४थन प्रभारी सूक्ष्म पराय भने यथा ખ્યાત સંયતની દેલેકમાં અજવન્ય અનુત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપસની હોય છે. એ રીતે આ તેરમું ગતિદ્વાર કહ્યું છે. ૧૩ મુ ગતિદ્વાર સમાપ્ત હવે સંચમસ્થાનદ્વાર નામના ચૌદમા દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजमरस णं भंते। केवडया संजमदाणा पन्नो ' के सभवन सामाયિક સંયતને સંયસસ્થાન કેટલા કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ-'गोयमा ! असंखेज्जा संजमवाणा पन्नत्ता' हे गौतम ! सामायि सयतना मसच्यात सयभ २५ाने ह्या छे. 'एवं जार परिहारविसुद्धियस्स' સામાયિક સંયતના કથન પ્રમાણે જ ચાવત્ છેદેપરથાનીય સંયતથી લઈને પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત સુધીના સંયને પણ અસંખ્યાત સંયમ સ્થાને હોય Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भवन्ति अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयसंयतस्य ग्रहणं भवति तया च छेदोपस्थापनीयसंयतस्यापि असाव्यातान्येच सयमस्थानानि ज्ञातव्यानि । 'मुहुमसंपरायसंज. यस पृच्छा' सुक्ष्मसंपरायसंयतस्य खल्ल भदन्त ! चियन्ति संयमस्थानानि भवन्तीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजम्हःणा पन्नत्ता' असंख्यातानि आन्तर्मुहर्तिकानि संयमस्थानानि प्रज्ञशानि अन्तर्मुहूर्ते भवानि आन्तर्मुहूर्तिकानि अन्तर्मुहूर्तपमाणएव तत्कालः तस्य च प्रतिसमयं चरणविशुद्विभावादसंख्येयानि तानि संयमस्थानानि भवन्ति सक्षमसंपरायसंपतस्य संयमस्थानानि असंख्ये पानि भवन्ति तानि चान्तमुहूर्त घमाणानि इत्यर्थः । 'अहवखायसंजयस्स पुच्छा' यथाख्यातसंयतस्य खल भदन्त ! कियन्ति संयमस्थानानि भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि विशुद्धिक संयत के भी असंख्यात ही संयनस्थान कहे गये हैं। यहां थावत्पद से छेदोपस्थापनीय संयत का गृहण हुआ है। तथा च छेदोपस्थापनीय संयत के भी असंख्यात संयमस्थान होते हैं। 'सुहमलंपरायसं जयस्स पुच्छा' हे भदन्त सूक्षसंपराय संयत के कितने संयमस्थान होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! असंखेज्जा अंतोमुहत्तिया संजमठाणा पन्नत्ता' हे गौतम ! एक अन्त. मुहर्त के उसके असंख्यातसंयमस्थान होते है। क्योंकि यहां स्थिति एक अन्तर्मुहूत की है अतः प्रतिसमय चारित्रविशुद्धि के सद्भाव से असंख्यात संघसस्थान होते हैं और ये सब अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाले होते हैं । 'अहवाल संजघरस पुच्छा' हे भदन्न ! यथाख्यातसंयत के संयमस्थान कितने होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! छ. मधु छ. मी यावत् ५४या छ५२थापनीय, सयत यह थयेद है, 'सुहमसंपरायसंजयस्त पुच्छा' से सावन् सभA५५ सयत 32सा सयभस्थानी डाय छे १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ है-'गोयमा ! असंखेजा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा पन्नत्ता' है गीतम! मे मतभुतभा તેઓને અસંખ્યાત સંયમસ્થાને હોય છે. કેમકે-અહિયાં તેમની સ્થિતિ એક અંતર્મુહૂર્વની છે. તેથી પ્રતિસમય ચારિત્ર વિશુદ્ધિના સદૂભાવથી અસંખ્યાત सयम थाना डाय छ, मने से मना मतभुत प्रभाव डाय छे. 'अहक्खाय संजयस्त्र पुच्छा' ७ मापन् यथाभ्यात सयतने सयमस्थान ४ा सय Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०३ चतुर्दश संयमस्थानद्वारनिरूपणम् ३१७ 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे अजहन्नमणुकोप्सए संजमठाणे पन्नत्ते' एकमजघन्यामुस्कृष्टं संयमस्थानम् यथाख्यातस्यैकमेव संयमस्थानम् तत्कालस्य चारित्रविशुद्ध एकमकारकत्वादिति । 'एएसि णं भंते एतेषां खलु भदन्त ! 'सामाइयछेदोवठ्ठावणियपरिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय महक्खायसंजयाणं संजमठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया' सामायिकछे दोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसंपराययथाख्यातसंयतानां संस्मस्थानानां मध्ये कतरे कतरेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा सामायिकसंयतादारभ्य यथाख्यातसंयतानां संवन्धि संयमस्थानानि तेषु संयमस्थानेषु मध्ये कस्यापेक्षया कस्याल्यत्वं तुल्यत्वं बहुतं विशेषाधिकत्वमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सवत्थोवे 'एगे अजहण्णमणुक्कोलए संजमाणे पण्णत्ते' हे गौतम ! यथाख्यात संयत के जघन्य और उत्कृष्ट के विना केवल एक ही संयमस्थान होता है। क्योंकि उसस्थान की चारित्रविशुद्धि उसकी एक प्रकार वाली ही होती है। ___'एएसिणं भंते ! लामाइय छेदोवठ्ठावणिय परिहारविमुद्वियसुहम संपरायअहक्खायसंजयाण संघमाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसे. साहिया' हे भदन्त ! सामायिकसयत, छेदोपस्थापनीयसंयत, परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्ष्मसंपराय संयत और यथाख्यात संयत इनके संयमस्थानो में कौन स्थान किनके स्थानों की अपेक्षा से अल्प है? कौन बहुत है ? कौन तुल्य है ? और कौन विशेषाधिक है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सव्यस्थोवे अहक्खायस जयस्तं छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे ४-'गोयमा ! एगे अजहण्णमणु. कोसए संजमाणे पन्नत्ते' 3 गौतम ! यथाण्यात सयतने धन्य भने ઉષ્ણ વિના કેવળ એકજ સંયમસ્થાન હોય છે. કેમકે તે કાળની તેની ચારિત્રવિશુદ્ધિ એક પ્રકારવાળી જ હોય છે. 'एएसि णं भंते ! सामाइयछेदोवढावणिय परिहारविसुद्धि य सुहमसंपरायअहक्खायजयाणं संजमढाणाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया' . ભગવન સામાયિક સ યત, છેદપસ્થાપનીય સંયત પરિહર વિશુદ્ધિક સંયત, સૂમસં૫રાય સંયત અને યથાખ્યાત સંયત આ બધાના સંયમ સ્થાનમાં કયું સ્થાન કેની અપેક્ષાથી ર૫૯૫ છે? કેણ કેનાથી વધારે છે? કયું સ્થાન કયા સ્થાનની બરાબર છે? અને કયું સ્થાન કોનાથી વિશેષાધિક છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४९ छे ४-'गोयमा ! चव्वत्थोवे अहक्खाय. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ __ भगवतीसूत्रे अहवायसंगमरस एगे अजहन्नमणुकोपए सजगहाणे' सस्तोकं यथाख्यासयतस्य एकमजघन्यानुत्कृष्ट संयमस्थान सर्वापेक्षया अल्पारं संयमस्थानमेकमेव यथाख्यातसंस्तस्य भतीत्यर्थः । 'सुंदुम्संगरायसंजय अंतोमुहुत्तिया संज महाणा असंखेज्मगुणा' यथाख्यातसयसस्थानापेक्षया मृक्षणसंपरायसंयतस्य आन्तर्मुहतिकानि यारथानानि असंख्यगुणाधिमानि भवन्तीति । 'परिहारविमुद्धियसंजयस्ल संनमाणा असंखेनगुणा वृक्षसंपरायसंयतसंयमस्थानापेक्षया परिहारविशुद्धिकसंयतस्य संयमस्थानानि असंख्येयगुणाधिमानि भवन्तीति । 'सामा इयसंजयस्म छोरारणिय रंजल्स य एएसिणं संजमहाणा दोण्ड वि तुल्ला असंखेज्जगुणा' सामागियत्तय होपस्थापनीयसंयनस्य च एतयोः खलु संयमस्थानानि द्वयोरपि परस्परं तुल्यानि तथा परिहारविशुद्धिकसंगतसंघमरथाना-पेक्षया असंख्ये यगुणाधिकानि भरन्तीति । १०३।।। एगे अजहण्णलणुरकोलए लंजमहाणे' हे गौतम ! सब से कम यथाख्यात संयत का जो एक अजघन्ध अनुत्कृष्ठ संयम स्थान है वह है। क्यों कि यथाख्यातसंगत के एक ही संस्थान होता है। 'सुहमसंप. रायसंजयस्स अंतोनुत्तिया संजना असंखेज्जगुणा' इलझी अपेक्षा स्वक्षमल परायबल के अन्लामुहर्तता रहने वाले संयमरधान असंख्या. 'तगुणित हैं। 'परिहार चिसुद्धियलंजयरल संजमहाणा असंखेनगुणा' सक्षमपरायणत के संबधानों की अपेक्षा परिहारविशुद्धिकसंयत के संयमस्थान असंख्यातगुणे अधिक है। 'सामावलमयरत छे शेवट्ठा. पणिय संजयह एएतिसं जमणा दोषि तुल्ला असंखेज्जयणा' सामायिक संयत्र के और छेदोपस्थापनीय संयत के इन दोनों के संयमस्थान परस्पर में पनाभर है। तथा परिहार विशुद्धिक संपत के संजयस्स एगे अजहण्णमणुकोसए, संजमदाणे' है गौतम सीथी माछु' यथा ખ્યાત સંયતનુ જે એક અજ ઘન્ય અનુકૃષ્ટ સંયમન છે, તે છે, કેમકે• यथायात सयतने मे४०४ सयमस्थान डाय छ 'सुहमसंपरायसंजयस्स अंतो मुहुत्तिया संद्धमट्ठाणा असखेनगुणा' तना ४२ता सूक्षस ५२सय सयतन मतभुइत सुधा २७वा सयमस्थान। समयात छ. 'परिहारविसु द्धियसंज यस्स संजमढाणा अल खेजगुणा' सूक्ष्भस ५२। यसयतन सयभસ્થાન કરતાં પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયતના સ યમરથાને અસંખ્યાતગણું વધારે छ. 'सामाइचसजमस्स छेदोबट्टावणियसंजलस्त्र एपनि ण संजमदाणा दोण्ह वि तुल्ला असखेज्जगुणा' सामायि४ सयत गने हायस्थानीय सयत मा બનેના સંયમસ્થાને પરસ્પરમાં બરાબર છે, તથા પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતના Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ ३.७ सू०४ पञ्चदश सनिकादिद्वारनिरूपणम् ३१९ पश्चदर्श सन्निादिद्वारमाइ-सामाइयसंजयरस णं' इत्यादि, . मूलम्-लासाइयसंजयला णं संते ! केवड्या चरित्तपजवापन्नत्ता ? गोयमा ! अर्थता चश्तिपज्जा पन्नता। एवं जाव अहक्खायसंजयल । लामाइथसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्त सटाणसन्निगालेणं चरितपज्जनेहिं कि होणे तुल्ले अब्महिए ? गोयमा! लिय हीण छहाणवाडिए । लागाइबसंजए णं अंते! छेदोवहाणियसंजयस्त पस्टाणसन्निवारणं चरितपज्जवेहि पुच्छा गोयमा ! लिय हीणे छटाणवडिए एवं परिहारविसुद्वियस्ल वि । लामाइयसंजए णं संले! सुहुनसंपरायसंजयस्स परट्ठाणलनिगालेगं चरितपज्जवहिं पुच्छा गोयसा! हीणे नो तुल्ले णो अब्भहिए अणंतगुणहीणे । एवं अहखायसंजयस्स वि। एवं छेदोवडावणिए नि हेटिल्लेसु तिसुचि समं छहाणवडिए उवरिल्लेसु दोसु लहेच हीगो जहा छेदोवट्ठावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि। सुहमसंपराधसंजए Q भंते ! सामाइयसंजयस्स परट्ठाण पुच्छा गोयमा ! यो होणे णो तुल्ले अब्भहिए अणंतगुणमाहिए। एवं छेदोक्टावणियपरिहारविसुद्धिएसु विलसं । सटाणे लिय होणे नो तुल्ले लिय अब्भहिए। जइ होणे अणंतगुणहीणे, अह अमहिए अणंतगुणमन्महिए। सुहुनसंपराय संजमहल अहमदायसंजयस्ल परटाणे पुच्छा गोयला ! होणे णो तुल्ले जो अमहिए अणंतगुणहीणे। अहखाए हेडिल्लागं चण्ड जि पो हीणे जो तुल्ले अभसंघम स्थानों की अपेक्षा अलख्यातगुणे अधिक है। चौदहा संग्राम स्वानछार का कयन समाप्त सू०३ ।। સંયમસ્થાની અપેક્ષાથી તે અસ યાતગણું વધારે છે. એ રીતે આ ચૌદ સંયમસ્થાન દ્વાર કહ્યું છે. સૂ૦ ૩ ચમસ્થાનાર સમાપ્ત Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीचे हिए अणंतगुणसमाहिए। सहाणे णो हीणे णो तुल्ले अन्भहिए। एएलि गं अंते! सामाइयछेदोवट्ठावणियपरिहारविसुद्धियसुहुनसंपरायअहक्खायसंजयाणं जहन्नुकोसगाणं चरित्यज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोषमा! सामाइयसंजयस्स छेदोवढावणियसंजयस्त य एएसि जहन्नगा चरितपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सम्वत्थोवा परिहारविसुद्धियसंजयस्त जहन्नगा धरित्तपज्जा अणंतगुणा तस्स चेव उकोलगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, सामाइयसंजयस्स छेओवटावणियसंजयस्ल य एएलिणं उक्कोसगा चरितपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा, सुहुमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, तस्त चेव उक्कोसगा घरितपज्जवा अणंतगुणा अहक्खायसंजय अजन्नमणुकोसगा चरित्तपज्जवा अर्णतगुणा १५। सामाइयसंजए णं भंते! किं सजोगी होज्जा अजोगी होज्जा ? गोयमा ! सजोगी जहा पुलाए एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए अहक्खाए जहा सिणाए १६ । सामाइयसंजएणं भंते! किं सागारोवउत्ते होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा ? गोयमा ! सागारोवउत्ते जहा पुलाए एवं जाव अहक्खाए। णवरं सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होज्जा णो अणागारोवउत्ते होज्जा १७। लामाइयसंजए णं भंते ! कि सकसाई होज्जा अकसाई होज्जा ? गोयमा! सकसाई होज्जा णो अकसाई होज्जा जहा कसायकुसीले। एवं छेदोक्ट्रावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। सुहुमसंपरायसंजए पुच्छा गोयमा! सकलाई होज्जा णो अकलाई होज्जा जइ सकसाई होज्जा से णं भंते ! कइसु कसाएसु होजा ? गोयमा ! एगमि संजलणलोभे होज्जा। अहक्खायसंजए जहा णियंठे १८ ॥सू०४॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका N०२५ उ.७ सू०४ पञ्चदश सन्निकर्पादिद्वारनिरूपणम् ३२१, छाया-सामायिक संयत्वस्य खल भदन्त ! कियन्तश्चारित्रपर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताश्चारित्रपयशः प्रज्ञता एवं यावत् यथाख्यातसंयत्तस्य । सामायिकसंयतः खलु बदन्त ! सामायिक यतस्य स्वस्थानसन्निकण चारित्रपर्यवैः किं हीना-तुल्य: अभ्यधिन: ? गौतम ! स्थात् हीनः पदृस्थानपतितः। सामायिकसंयतः खल भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसयतस्य परस्थानसनिकर्षण चारित्रपर्यवैः पृच्छा गौतम ! स्यात् हीनः पट्स्थानपतितः, एवं परिहारविशुद्धिकस्यापि । सामायिकस यतः खलु महन्त ! सक्षपसंपरायसंयतस्य परस्थानसन्निकण. चारित्रपर्यवैः पृच्छा, गौतम ! होनो नो तुल्यो नो अभ्यधिकः, अनन्त गुणहीनः । एवं यथारूपालसं यतस्यापि, एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि अधस्त. नेषु विष्वपि समः पदस्थानपतितः, अर्चयो यो स्तथैव हीनः यथा छेदोप... स्थापनीयस्तथा परिवारविशुद्धकोऽपि । सक्षमसंपरायसयतः खलु · भदन्त'! सामायिकस यतस्य परस्थान० पृच्छा गौतम ! नो हीनो नो तुल्योऽभ्यधिकः, अनन्तगुणास्पधिकः। एवं छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धियोरपि समः । स्वस्याने स्यात् हीना नो तुल्या, स्यादन्यधिकः । यदि हीनोऽनन्तगुणहीनः, अथ अभ्यधिकः अनन्तगुणाभ्यधिका सूक्ष्म परायसंयतव्य यथास्याससयतस्य परस्थानपृच्छा गौतम ! हीनो नो तुल्यो नो अभ्यधिकः, अनन्तगुगहीनः । यथाख्यातः अधस्तनानां चतुर्णामपि नो हीनो नो तुल्योऽस्यधिकः, अनन्तगुणाभ्यधिकः । स्वस्थाने नो हीनतुल्यः नो अभ्याटिकः। एनेपां खलु भदन्त ! सामायिकछेदोषस्थापनीयपरिहारविशुद्धिक क्षमस पगययथाख्यातसंयतानां जघन्यो कृष्टानां चारित्रपर्यवाणां कतरे कतरेभ्यो शानद् विशेषाधिका बा, गौतम ! सामायिक संयतस्य छे दोपस्थापनीय यतस्य चैतयोः खल जघन्याचारित्रपर्यवाः द्वयोरपि तुल्याः सर्वस्तोकाः । परिहारविशुद्धिकसंगतस्य जघन्यकावास्निपर्यत्रा अनन्तगुणाः। तस्यैव चोरकष्टाश्चारित्रपर्यवा अनन्तगुजाः, सामायिक यतस्प छे दो स्थापनीय संयतस्य चैतयोः खल उत्कृष्टकाचारित्रपर्यशः द्वयोरपि तुल्या अनन्तगुणाः, सक्षमसंपरायसयतस्य जघन्यकाश्चारित्रपर्यवा अनन्तगुगाः, तस्यैव चोत्कृष्टकावारित्रपयका अनन्तगुणाः, यथाख्यातस यतस्य अजघन्यानुत्कृष्टकाश्चारित्रपयवा अनन्तगुणाः १५ । सामायिकम यतः खलु मदन्न ! कि सयोगी भवेद. योगी भवेत् ! गौतम ! सयोगी यथा पुलाकः । एवं याद मनसरायस यतः। यथाख्यातो यथा स्नातक १६ । मामायिकसं यतः खलु भवन्त ! कि साकारोप. युक्तो भवेदनाकारोपयुक्तो भवेत् गोतम ! साकारोपयुक्तो यथा पुलाका, एवं यावत् यथाख्यातः। नबर सुक्ष्म परायः साकारोपयुक्तो मवेत नो अनाकारोपयुक्त भवेत् १७ । सामायिक यतः खल भदन्त ! किं सकपायी भवेत भ० ४१ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrenter पायी भवेत् ! गौतम ! सकपायी भवेद् नो अकपायी भवेत् यथा कपयकुशीलः । एवं छेदोपस्था पनि कोऽपि । परिहारविशुद्धिको यथा पुलारुः । सुक्ष्म पराय संयतः पुच्छा गौतम ! सकपाची भवेत् नो अकपायी भवेत् यदि सकपायी भवेत् स खलु भन् ! कति पायेषु भवेत् ! गोतम ! एकस्मिन् संज्वलनलोभे भवेत् । यथाख्यासं यतो यथा निर्ग्रन्थः १८ ॥ ३०४ ॥ टीका - 'सामाइय संजयस्स णं संते ।' सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! 'केवहया चरितवज्जना पन्नत्ता' कियन्तथारित्रपर्यत्राः मज्ञाः १ इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! अनंता चरित्तपज्जवा पन्नता' अनन्ताश्चारित्रपर्यवाः प्राप्ताः कथिताः । 'एवं जान अहक्खायसं जयस्स' एवं यावद् यथाख्यातसंयतस्य अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिक सूक्ष्म संपरायसंपतानां चारित्रपर्यत्रा अनन्ता एव भवन्ति तथा स्वभावत्वादिति भावः 'सामाइयसंजए णं भंते !" लामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'सामाइयपंद्रहवां सन्निकर्ष आदि द्वार का कथन टीकार्थ- 'सामाइय संजयस्ल णं भंते! केवहया चरितवज्जवा पन्नता' हे भदन्त | सामायिक संयत के चारित्र की पर्यायें कितनी होती हैं ? सर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! अनंता चारित्तपजवा पण्णत्ता' हे गौतम ! सामायिकसंगत के चारित्र की पर्यायें अनन्त होती हैं । 'एवं जाव अहक्वायसंजयस्स' इसी प्रकार से यावत् यथाख्यात संयत की चारित्र पर्यायें अनन्त होती है । यहां यावत्पद से छेदोपस्थापनीयसंयत, परिहारविशुद्धिकसंयत और सूक्ष्मपरायसंगत का ग्रहण हुआ है। तथा च छेदोपस्थापनीय संपत से लेकर यथारूपात तक के साधुओं के चारित्र की पर्यायें अनन्त ही होती हैं । क्यों कि उनका ऐसा ही स्वभाव होता है 'सामाइयसंजर णं भंते । लामाइयसंजयस्स ટીકા-હવે પંદરમાં સન્તિક સ્થાદિ દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે, 'सामाइयसंजयस्थ णं भंते ! केवइया चरितवज्जवा पण्णत्ता' हे भगवन् साभायि સયતને કેટલી ચારિત્રની પર્યાય હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छे - 'गोयमा । अनंता ! चरितपज्जदा पण्णत्ता' हे गौतम | सामायिष्ठ संयतने अनन्त य स्त्रिता पर्याय होय छे. ' एवं ' जाव अहखायसंजयस्स' એજ પ્રમાણે યાવત્ યથાખ્યાત સયતની ચરિત્રપ†ચે અન"ત હાય છે. અહિયાં યાવપદથી છેદેપસ્થાપનીય સયત, પરિહરવિશુદ્ધિક સયત અને સૂક્ષ્મસોંપરાય સયત ગ્રહણ કરાયા છે. તથા છેદેપસ્થાપનીય સયતથી લઈને થાપ્યાત સયત સુધીના સાધુએના ચારિત્રપયા અનત જ હાય છે, કેમકે ३२२ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०४ पञ्चदश सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३२३ संजयस्स सट्टाणसंनिगासेणं' सामायिकसंयतस्य स्वस्थानसन्निकर्पण सनातीयेन चारित्रपर्यायेण सातिरेकः चारिजपर्यायः, 'चरित्तपज्जवेहि' चारित्रपर्यवेः 'कि हीणे तुल्ले अमहिए कि हीन स्तुल्योऽभ्यधिको वा एकः सामायिकसंयतोऽपरस्य सामायिकसयतस्य सजातीयचारित्रपर्यवैः किं हीनो भवति समानो भवति अधिको वा भवतीति भगानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सियहीणे छट्ठाणवडिए' स्यात् हीना तुल्योऽधिकोवा भवति पट्रस्थानपतितः यदि हीनो भवति तदा अनन्तभावहीनः, असंख्यातभागहीनः, संख्यातभागहीनो वा भवति, तथा संख्यातगुणहीनः, असंख्यातगुणहीना, अनन्तगुणहीनः ३, यदि अभ्यधिको सहाणसंनिगालेणं चरित्तपनवेहिं कि हीणे तुल्ले, अहिए' हे भदन्त । एक सामायिकसंयत द्वितीयतामाधिक संयतक की सजातीय चारित्र पर्याय की अपेक्षा क्या हीन होता है ? अथवा तुल्य होता है ? अथवा अधिक होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'लिय होणे, छट्ठाणवडिए' हे गौतम ! एक सामायिकसंयत द्वितीयसामायिकसंयत की सजातीय चारित्र पर्यायों से कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य होता है, कदाचित् अधिक होता है । इस प्रकार से वह षट् स्थान पतित होता है। यदि वह हीन होता है तो अनन्तवें भाग हीन होता है, असं. ख्यातवें भाग हीन होता है, संख्यातवें आग हीन होता है, संख्यातगुण हीन होता है असंख्यातगुण हीन होता है। और अनन्तगुणहीन, होता है। यदि अधिक होता है तो अनन्त भाग अधिक तयाना स्वभाव मेव जय छे. 'सामाइयसंजएणं भते । सामाइयसंजयस्स सट्टोणसंन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अभहए' समपन् ४ સામાયિક સંયત બીજા સામાયિક સંયતના સજાતીય ચારિત્રપર્યાયની અપેક્ષાથી શું હીન હોય છે અથવા અધિક હોય છે? કે તુલ્ય હોય છે આ प्रशना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'सिय हीणे छट्ठाणवड़िए' ७ गौतम ! સામાયિક સંયત બીજા સામાયિક સંયતના સજાતીય ચારિત્રપર્યાથી કઈવાર હીન હોય છે. કેઈવાર તુલ્ય હોય છે અને કઈવાર વધારે હોય છે. આ રીતે તે છ સ્થાનથી પતિત હોય છે જે તે હીન હોય છે, તે અનંતમાં ભાગથી હીન હોય છે, અસંખ્યાત ભાગથી હીન હેય છે. સંસ્થાત ભાગથી હીન હોય છે. સંખ્યાતગુણ હીન હોય છે અસંખ્યાતગુણ હીન હોય છે અને અનંતગણ હીન હોય છે જે અધિક હોય તે તે સંખ્યાતગુણ અધિક હોય છે, અસંખ્યાતગુણ અધિક હોય છે અને અનંતગુણ અધિક હોય છે. અનંતમા ભાગથી અધિક હોય છે, અસંખ્યાત ભાગ અધિક હોય છે. સંખ્યાત ભાગથી અધિક Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ भगवती भवति तदा अनन्त मागाभ्यधि::, असंलगातमावास्यधिकः, संख्यातभागास्य. धिको वा मति, तथा संख्या गुणाधिक संख्यातगुणाभ्यधिकः अनन्त गुणाधिक 'सामाइसंजएगा भंते' सामाणिकसं यतः खलु भदन्त ! 'छेदोवट्ठावणीयस्म परट्ठाणसंनिधासेणं चरिचपनवेहि घुन्छा' छेनोपस्थापनीयसंयतस्य परस्थानसनिकण चारित्रपर्यवेः किं होनो भवति तुल्यो वा भवति अभ्यधिको वा भवतीति प्रच्छा-मश्नः, सगावाह-'गोयना' इत्यादि, 'मोयमा' हे गौतम | 'सिय हीणे उहाणलिए' स्यात् हीनः पट्यानपतितः सामायिकसंयतः छेदोपस्थापनीयसंयतरय परम्यानमन्निक चारित पर्यः विजातीयचारित्रापेक्षया कदाचित् हीनः काचितुल्यः कदाविद अभ्यधिक पट्ट्यानपतितो भवति । . 'पवं परिहारबिसुद्विवस्रा वि एवम्-अगेन प्रकारेण-'स्यात् हीनः पट्स्थान. पति' इत्येवं प्रकारेण परिहार विशुद्धिवस्यापि परिहारविशुद्धि कसंयतस्य विषये. होता है, असंख्यातवें भाग अधिक होता है, संख्यातवें भाग अधिक होता है। संरूपालगुण अधिक होता है, और अनंतगुण अधिक होता है । इस प्रकार से एक सामायिक संयतदूसरे समायिक संयत की सजातीय चारित्र पर्यायों ले पस्थान पतित होता है 'सामाइयलंजए णं अंते! छेदोवाचणीय पराणसंनिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा' हे सदन्त ! सामायिकलायल छेझोपस्थापनीयसंयत की विजातीय गरिन्न पर्याश की अपेक्षा से क्या हीन होता है ? अथवा तुल्य होता है ? अश्या अधिक होता है ! इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोगमा' हे गौतम ! 'लिप हीणे छापयडिए' कदाचित् हीन फ्ट हो तो पटू भानपतित होता है। एक परिवार विसुद्वियस्स वि' इसी प्रकार परिहारविशुद्धिक का भी कथन जान लेना चाहिये 'ए सामाइयહેાય છે, અને અનંતગુણ અધિક હોય છેઆ રીતે એક સામાયિક સંયત બીજા સામાયિક સંયતના સજાતીય ચારિત્રપર્યાથી પદ્ગણ હીન અને અધિક હોય છે. .. 'सामाश्यसंजएणं भंते ! छेदोवट्टावणियस्स गरट्राणसंनिगासेणं चारित्तपज्जवेहि પુરઝા હે ભગવન સામાયિક સંયત છેદપસ્થાપનીય સંયતની વિજાતીય ચારિત્રપર્યાયની અપેક્ષાથી શું હીન હોય છે અથવા તુલ્ય હોય છે? અથવા गधि डाय छ ? २॥ प्रश्न उत्तर प्रशुश्री -गोयमा ! 3 गौतम! 'प्रिय होणे छद्वाणयदिए' साबितडीन डाय छ, त छ स्थान पतित छे. 'एवं परिहार विसुद्धियस्स वि' मे२४ प्रभारी परिवार विशुद्धिन ४थन ५ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका १०२५ उ.७ सू०४ पञ्चदशौं सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३२५ ऽपि ज्ञातव्यम् । 'सामाइयसंजए णं भंते !' हे भदन्त ! सामायिकसंयतः 'सुहुमसंपरायसंजयस्स' सुक्ष्मसंपरायसंयतस्य परहणसंनिमासेणं' परस्थानसंनिकर्पण -विजातीय 'चरित्तपज्जवेहि' चारित्रपर्यवैः चारित्रपर्यवापेक्षयेत्यर्थः 'पुच्छा किं हीनः किं तुल्यः किमभ्यधिकः इत्यादि प्रश्नः । भगवानाइ-'गोयमा' हे गौतम ! 'हीणे नो तुल्ले नो अमहिए' होनो भवति किन्तु नो तुल्यो भवति न वा अभ्यधिको भवति यदि हीनो भवति तदा 'अणंतगुणहीणे' अनन्तगुणहीनो भवतीति । 'एवं महकवायसंजयस्स वि एवं यथाल्यातसंयतस्यापि सामायिक संयतो यथाख्यात्संरतस्य परस्थानसन्निकर्पण चारित्रपर्यायः हीनो भवति न तुल्यो मति न वा अधिको मस्तीति हीनञ्च अनन्तगुणहीनो भवतीति, एवं छेदोवठा वणिए वि' हेहिल्लेसु विसु वि समं छट्ठाणवडिए' एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि अध संजए णं भंते ! सुखमसंपरायलंजयस्त०' इसी प्रकार सामायिकसंयत एवं सूक्ष्म संपराधिकसंघस्य विजानीय चारित्रपर्थयों की अपेक्षा से क्या हीन होता है 'पृच्छ।' ऐसा प्रश्न है, इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा' हीणे हे गौतम ! सामायिक संयत सूक्ष्म संपराय संयत की विजातीय चारित्रपर्यापों की अपेक्षा से हीन होता है। किन्तु 'नो तुल्ले नो अम्महिए' तुल्य अथवा अधिक नहीं होता है। यदि वह हील होता है तो 'अणंलगुणहीणे' अनन्तगुण हीन होता हैं। 'एवं अहमखायसंजयरस चि' इसी प्रकार रहे सामायिक संयत यथाख्यातसंयत की विजातीय चारित्र पर्षायों की अपेक्षा से हीन होता है । तुल्य अथवा अधिक नहीं होता है । यदि वह हीन होता है तो अनन्तगुण हीन होता है । ‘एवं छेदोषहायणिए बि हेटिल्लेसु तिसु वि समं छहाणवडिए' हली प्रकार छेदोपस्थापनीय भी सामायिकसंयत ort न 'एब सामाइयसंजए णं भंते ! सुहुमसंपरायसंजयस्स.' त्याल રીતથી સામાયિક સંયત, સૂમસંપાયિક વિજાતીય ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી હીન હોય છે? પૃચ્છા નામ એ પ્રમાણે પ્રશ્ન છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી 3 छ -'गोयमा! हीणे' हे गौतम! सामायि४ सयत छेहोपस्थापनीय सयतना वितीय यात्रि पर्यायानी अपेक्षाथी हीनहाय छ 'नो तुल्ले नो अभहिए' तुख्य अथवा मधि Bाता नयी. ते डीन डाय छे, तो 'अणंतगुण हीणे' मनतरहीन डाय छे. 'एवं अहक्खायसंजयस्स वि' मेवर प्रभावी સામાયિકસંયત યથ.ખ્યાત સંયતના વિજાતીય ચારિત્રપર્યાચાની અપેક્ષાથી હીન હોય છે. તુલ્ય અથવા અધિક હોતા નથી, જે તે હીન હોય છે. તે અનંતગ્રણ हीन सय छे. 'एव' छेदोवद्वावणिए वि डिल्लेसु तिसु वि सम छट्ठाणपपिए' Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરદ भगवती स्तनेषु त्रिष्वपि सामायिकसंगत छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयते एतेषां त्रयाणां चारित्रापेक्षया पदस्थानपतितः, यथा छेदोपस्थापनीय स्तथैव तथाप्रकार एव समानतया हीनः 'उन रिल्लेसु दोस्र तहेव दीणे' उपरितनयोर्द्वय सूक्ष्मसंपराययथाख्यातयोस्तथैवानन्तगुण हीनो भवति । 'जहा छेदोवद्वावणिए वहा परिहारविबुद्धिए वि' यथा छेदोपस्थापनीय स्तथा परिहारविशुद्धिक संयतोऽपि त्रयाणां संयतानां चारित्रपर्यवापेक्षया पट्टस्थानपतितो भवति । तथा उपरितन संयतद्वयापेक्षयाऽनन्तगुणहीनो भवति 'सुमपरायसंजएवं संते' सूक्ष्मसंपरायसंयतः खलु भइन्न ! 'सामाइय संजयस्त परहाण - पुच्छा' सामायिकसंयतस्य परस्थानसंनिकर्षेण चारित्रपरीवः किं दोनो भवति तुल्यो वा भवति अभ्यधिको छेदोपनीय और परिहारविशुद्धिक संयत की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थान पतित होता है । 'उवरिल्लेसु दोलु तहेव हीणे' और ऊपर के दो फी - सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातसंगत की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से उसी प्रकार अनन्तगुण हीन होता है। 'जहा छेदोबहावणिए तहा परिहारबिसुद्धिए वि' छेदोपस्थापनीय संयत के जैसा परिहारविशुद्धिक संयन भी तीन संयतों की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से वह स्थानपतित होता है । और उपरवाले दो संपतों से अनन्तगुण हीन होता है । 'सुमपराधसंजए णं भंते ! सामाहमं जयस्स परट्ठाण पुच्छा ' हे भदन्त ! सूक्ष्मसंपरायसंयत सामायिक संयत की विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से क्या हीन होता है ? अथवा तुल्प होता है ? એજ પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય સંયત પણ સામાયિકસયત અને પરિહારવિશુદ્ધિક संयतनी यरित्रपर्यायानी अपेक्षाथी छस्थानथी पतित होय छे. 'उवरिल्लेसु दोसु तद्देव हीणे' मने उपरना में है ? सूक्ष्मसराय भने यथाभ्यात संयंत છે તેમની ચારિત્રપર્યાયેાની અપેક્ષાથી પણ અનતગણા ડાય છે. અર્થાત્ તે ષસ્થાન પતિત હાય છે કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે-છેદેપસ્થાપનીય સયત પહેલાના અને પછીના સયતાના ચારિત્રપાંચાની અપેક્ષાધી ષટ્ સ્થાન यतित होय छे, 'जहा छेदोवद्वावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि' छेहेोयस्थापनीय સયતના કથન પ્રમાણે પરિહાર વિશુદ્ધિક સયત પણ પહેલા અને પછીના બન્ને સયતાના ચારિત્ર પાંચાની અપેક્ષાથી ષટ્ સ્થાન પતિત હોય છે. 'सुहुमस 'परायस'जए ण भंवे ! सोमाइयस'जयस्स परट्ठाण पुच्छा' हे लग વન્ સૂક્ષ્મસ'પરાય સયત સામાયિક સયતના વિજાતીય ચારિત્રપોંચાની મપેક્ષાથી શુ હીન હાય છે ? અથવા તુલ્ય હાય છે ? અથવા અધિક હાય Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैका टीका श०२५ उ.७ ०४ पञ्चदश' सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३२७ वा भवति पृच्छा प्रश्न, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो हीणे णो तुल्ले' नो हीनो भवेत् नो तुल्यो भवेत् सूक्ष्मसंपराय संयतः सामायिक संयतस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायापेक्षया किन्तु 'अम्महिए' अभ्यधिक एव भवेत् यदि अभ्यधिको भवेत्तदा 'अनंतगुणमन्सहिए' अनन्तगुणा*धिको भवेदिति । 'एवं छेदोवद्वावणिय परिहारविखुद्धिएस वि स ' एवं छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्विकयोरपि समम् सूक्ष्मसंपरायसंयतः नो हीनो नापि - तुल्यः किन्तु अधिको भवेत् तत्रापि अनन्तगुणाभ्यधिक एवेति भावः । 'सहाणेसिय हीणे णो तुल्ले सिय अन्महिए' स्नस्थाने तु सजातीयचास्त्रिपर्यायापेक्षया तु स्यात् - कदाचिद् हीनः न तु तुल्यो भवेत् तथा स्यात् कदाचित् अभ्यधिकः । अथवा अधिक होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अन्भहिए' हे गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंघत सामायिकसंयत की विजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से हीन नहीं होता है, तुल्य नहीं होता है, किन्तु अधिक होता है। यदि वह अधिक होता है तो 'अनंतगुणमन्महिए' अनन्तगुण अधिक ही होता है। 'एवं छेदोवावणिय परिहारविसुद्धिएस चि समं' इसी प्रकार से सूक्ष्मसंपराय संयत छेदोपस्थापनीय एवं परिहारविशुद्धिकसंयन की विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से हीन नहीं होता है तुल्य भी नहीं होता है किन्तु अधिक होता है। अधिकता में भी वह अनन्तगुण अधिक होता है । 'सट्टा सिप होणे, पो तुल्ले लिय अम्भहिए' इसी प्रकार से वह स्वस्थान में सजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से कदाचित हीन भी होता है, पर तुल्य नहीं होना और कदाचित् छे ? या अश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने उडे - 'गोयमा ! णो होणे, णो तुल्ले, अव्भहिए' हे गौतम! सूक्ष्मसांपराय संयंत सामायि सयત્તના વિજાતીય ચારિત્રપાંચાની અપેક્ષાથી હીન હોતા નથી તુલ્ય પણ હાતા नथी, परंतु अधि होय छे ले ते अधिक होय छे, तो 'अनंतगुणमभहिए' अनतगणा अधि ? होय छे, 'एव छेदोवावणियपरिहारविसु द्वि०सु विसमं' એજ પ્રમાણે સૂક્ષ્મસાંપરાય સયતના કથન પ્રમાણે છેદેપસ્થપનીય અને પરિહારવિશુદ્ધિ સંયુત વિજાતીય ચારિત્રપર્યાચાની અપેક્ષાથી હીન હૈાતા નથી. તુલ્ય પણ હાતા નથી પરંતુ અધિક હે ય છે. તથા અધિકપણામાં પણુ ते मन तथा अधि होय हे 'सट्ठाणे सिय होणे, णां तुल्ले, सिय अन्भ હિ” એજ પ્રમાણે તે સ્વસ્થાનમાં સજાતીય ચારિત્રપર્યાયની અપેક્ષાથી કાઈવાર હીન પણ હાય છે. કેાઈવાર અધિક પણુ હાય છે. પરંતુ તુલ્ય હાતા Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल भगवतीसूत्रे ३२८ 'जइहीणे' यदि होनो भवेत् तदा- 'अनंतगुणदीणे' अनन्तगुणहीनो भवेत् । 'अहअन् दिए अनंत गुगमन्म दिए' अथास्वधिको भवेत्तदा अनन्तगुणाभ्यधिको भवेदिति भावः । 'हुपसंपरायसंजयस्स अक्वायसंजयस्स परहाणे पुच्छा' सूक्ष्मपराय संयतस्य यथाख्यात संयतस्य परस्याने एनयो विजातीयचारित्रपर्यायापेक्षया कि हीनोम तुल्यो वा भवेत् अधिको वा भवेदिति पृच्छा मनः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | सक्ष्मसंपरायसंपतः यथाख्यातनारित्रस्य विजातीयचारित्रपर्यायापेक्षया 'हीणे णो तुल्ले णो अम्मदिए' दोनो भवेत अनयो: चारित्रपर्यायापेक्षा सामायिकसंयतो नो तुल्यो भवेद् नवा अभ्यधिकोSपि भवेत् इति । 'अनंतगुणहीणे' यदि होनो भवेत्तदा अनन्तगुणहीनो भवेदिस्यर्थ: । 'अहक्खाए ऐटिल्लाणं चउण्हदि हीणे णो तुल्ये अनहिए' यथाप्यातअधिक भी होता है । यदि वह हीन होता है तो अनन्तगुण हीन होता है और अधिक होता है तो सगुण अधिक होता है 'सुमपराजयस्व अश्वखवासंजयस्ल परट्टाणे पुच्छा' हे भदन्त ! सूक्ष्मपरायसंगत, यथाख्यात संगत की विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा क्या हीन होता है । अथवा तुल्य होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'हीणे, णो तुल्ले, जो अहिए' हे गीत ! सक्ष्म संपरा संत यथाख्यातसंयतकी विजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा तुल्य नहीं होता है और न अधिक होता है, किन्तु हीन होता है । 'अनंतगुण हीणे' हीन होने पर भी वह असंख्यात अथवा संख्यातगुण हीन नहीं होता है किन्तु अनन्तगुण हीन होता है 'अक्खाए हेठिल्लाणं चउन्ह विहीणे, णो तुल्ले, નથી. જો તે હીન હૈાય તે અનંતજીણુ હીન હાય છે, અને અધિક ડાય તે અનંતગણુા અધિક હાય છે. 'हुमसपरायसंजयस्त अहवखायस जयरस परट्ठाणे पुच्छा' हे भगवन् સૂક્ષ્મસ'પરાય સયત અને યથાëાત સાઁચતની વિજાતીય ચારિત્રપર્યંચાની ,અપેક્ષાથી સામાયિક સંયત શુ હીન હેાય છે ? અથવા તુલ્ય હોય છે ? अथवा अधि! होय १ मा प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री छे - 'हीणे, णो तुल्ले णो अमहिय' हे गौतम! આ બન્નેના ચારિત્રપર્યંચાની અપેક્ષાથી સામાયિક સયત તુલ્ય હૈાતા નથી. તેમ અધિક પણ હોતા નથી, પરંતુ डीन होय छे, 'अनंतगुणहीणे' हीन होय त्यारे ते तथा डीन हाय है. असभ्यात अथवा सख्यातगथा हीन होता नथी. 'अहक्याए हेट्ठिल्लाणं चण्ड वि होणे, णो तुल्ले अम्भहिए' यथाभ्यात संयंत नीथेना थारेनी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०४ पञ्चदश सनिकादिद्वारनिरूपणम् ३२९ संयतोऽधस्तनानां सामायिकसंयतादीनां चतुर्णामपि हीनो नो तुल्यः किन्तु अभ्यधिक एव, यथारूपातसंयतः परस्थानमन्निकण चारित्रपर्यवैः पूर्वेभ्यश्चनुभ्यों नो हीनो नो तुल्यः किन्तु अभ्यधिक एव भवतीति भावः । 'अणंतगुणममहिए' यदि अधिको भवति तदा अनन्त गुणाधिको भवति । 'सहाणे णो हीणे तुल्ले णो भन्महिए' स्वस्थाने तु नो हीनः किन्तु तुल्यो न वा अभ्यधिक इति । 'एएसिणं भंते !' एतेषां खल्ल भदन्त ! 'सामाइयछेदोक्हापणियपरिहारविसुद्धियमुहमसंपरायअहक्खायसंजयाण' सामायिकछेदोषस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसुक्ष्मसंप राययथाख्यातसंयतानाम् 'जहन्नुकोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाब विसे साहिया वा' जघन्योत्कृष्टानां चारित्रपर्यवाणां कतरे कतरेभ्यो अम्भहिए' यथाख्यात संयत नीचे के चारों की अपेक्षा हीन नहीं होता है तुल्य भी नहीं होता है किन्तु अधिक होना है। अधिक होने पर भी वह 'अणतगुगमनमहिए' अनन्तगुण अधिक होता है। मतलय इसका यह है कि यथाख्यातसंगत अवशिष्ट चारों के विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुग अधिक चारित्र पर्यायों वाला होता है। 'सट्टाणे णो हीणे तुल्ले जो अहिए' परन्तु वह यथारपातसंपत स्वस्थान की अपेक्षा अपने लजातीय चारित्रों से हीन नहीं होता है। किन्तु तुल्य होता है, अधिक भी नहीं होता है। ___'एएसिणं संते ! लामाहय छेदोदहावणिय परिहार रितुद्धिय-सुहम संपराय अहवाय संजयाणं जहन्नुक कोसगाणं चारित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेमाहिना' हे भदन्त ! सामायिक संयत, छेसोपस्थापनीयसंयत, परिहारविशुद्धिक संपल, मक्षमसं रायसंयन, और અપેક્ષાથી હીન હોતા નથી, તુષ પણ હેરતા નથી, પરંતુ અધિક હોય છે. अधिभा पण ते 'अणंतगुणममहिए' तग अधिः हाय छे. रवाना ભાવ એ છે કે-યથાખ્યાત સંયત બાકીના ચારેના વિજાતીય ચારિત્રપર્યાની अपेक्षाथी मनतम पधारे यात्रियायोवा हाय छे. 'सट्टाणे, णा होणे, तुल्ले अव्भहिए' ५२तु ते यथाण्यात सयत २५त्याननी अपेक्षाथी पोताना સજાતીય ચારિત્રોથી હીન હેતા નથી. પરંતુ તુલ્ય હોય છે અધિક પણ હે તા નથી. 'एएसि णं भंते ! सामाइयछेदोवढावणियपरिहारविमुद्धिय-सुहमसंपगय महक्खायसंजयाण जहन्नुफोसगाण चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया' भगवन् सामाथि सय1, छे ।५स्थानीय संयत, परिहार વિશુદ્ધિક સંયત, સૂક્ષ્મસાપરાય સંયત, અને યથાત સંયત આ બધાના भ० ४२ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगपतीले यावत् स्योहा अल्पा या बकाया विशेषाधिका वा भान्तीति मग्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोप्यमा' हे गौत! 'सामाहयजयम छेदोवट्ठावणिय. संगयरस य' सामायिकसंगतस्य दोपस्थापनीययं पतस्य च, एएपिणं जहन्नगा परित्तपज्जया दोण्ड वि तुला राबत्योबा' एतयोः खलु जघन्यकाबारित्रपर्यवाः द्वयोरपि तुल्याः सर्वतोमाः एतयोजचन्याचारित्रपर्यवाः परस्परं तुल्यास्तथा अन्यापेक्षया रतीज्ञाश्च भवतीति भावः । 'परिहारविसद्विय संजयस्त जहन्नगा चरित्तपजना अवगुणा' 'परिहारविशुद्धि संगतस्य जय. न्याचारित्रएयवाः सामायिकसंगतछेदोषम्यापनीयसंयालयोश्चारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणा अधि-हा मवन्ती लि. 'तस्स चेन उसोसमा चरित्तपज्जया गणतगुणा' तस्यैव-परिहारविशुधनसंरतस्यैव च उत्कृष्ट चारित्रपर्यया एतस्यैव जघन्य चारित्रपर्यापेक्षया अनन्तगुणा अधिका भवन्तीति । 'सामाश्यसंजयस छेदोक्टायथाख्यालसंधन इन सबकी जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र पर्यायों में से कौन किनकी अपेक्षा चावत् विशेषामित्र हैं ? यह यावत्पद से स्तोक, पाटन और तुल्य इन पदो ग्रहण हुआ है। इसके उत्तर में प्रभुश्री चाहते हैं- 'सासायलंजस छेदोजहाणियसंजघरलय एएमि णं जहन्नमा चनिन्तपजाया दो: वि तुल्ला बल्योदा' हे गौतम ! सामायिक संपन्न और छोपस्थापनीयांयत इन दोनों की जघन्य चारिन्न पर्याय आपल में तुल्य है पर वें सत्र से थोडी हैं। 'परिहारविसुद्धिसंजघर जहन्नमा चरिताजवा पाणलगुणा तस्ल वेर उक्कोसमा चरितपज्जा आणतगुणा' इनकी अपेक्षा परिक्षार विशुद्धिक संयत की जघन्य चारित्र पर्याई अनन्तगुणा अधिक है। और इनसे इस की ही उत्कृष्ट चारित्र पर्याय अनन्तगुण अधिक है, 'सामाइयજઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટચારિત્રપમાં કે શું તેના કરતાં યાવત વિશેષાધિક છે? અહિયાં યાવત્પદથી સ્તોક, બહુ અને તુલ્ય એ પદ ગ્રહણ કરાયા છે, અર્થાત્ કે, કેનાથી અલ્પ છે? કેણ કે નાથી અધિક છે? કે કોની બરોબર छ १ २ प्रशन उत्त२-1 प्रभुश्री गौतमत्वामीने ४ छे-सामाइयसंजयस्प छेदोवद्वावणियसंजयरल व एएमि णं जहन्नगा चरित्तपज्जत्रा दोण्ड वि तुल्ला सम्वत्थोवा' 8 गौतम! सामा४ि सयत यहा५स्यापनीय संयत मा બનેની જઘન્ય ચારિત્રર્યા પરરમા તુજ છે પરંતુ તે સીધી થડા છે. 'परिहारविसुद्धियस जयस्ल जहन्नगा चरित्तपाना अणंतगुणा' तेनी मपेक्षाथा પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતના જઘન્ય ચારિત્રપર્યા અનંતગણું વધારે છે. અને तेना ४२ता तना ८ Bre यारित्रपर्याय मनतम पधारे है, 'सामाइय Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रका टीका श०२५ ७.७ सू० पञ्चदरा सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३३१ वणिय संजयस्स य एएक्षिणं उक्कोसमा चारितपज्जवा दोन्हनितुल्ला अनंतगुणा' सामायिकसंयतस्य छेहोपरथापनीसंगतस्य च एत्योः खलु उत्कुष्टाचारित्रपर्यनाः द्वयोरपि परस्परं तुल्याः-साना भान्ति तथा पूर्वापेक्षया अनन्तगुणाः अधिका भवन्तीति । 'हुब संपरा यसंजयस्स जहागा चरितवाण' सूक्ष्मसंप संयतस्य जघन्या चारित्रपर्याः सामायिक संयतछेदोपरधापनीय संयतयोरुत्कृष्टचारित्रपर्यवापेक्षया अनन्तगुणा अधिका भवन्ति, 'तस्स चेव उक्कोसगा चरितः पज्जवा अनंतगुणा' तत्यैद च क्ष्मपरायसंपतस्यैव उत्कृष्टाचारित्रपर्यया एतस्य जघन्यचारित्रपर्यापेक्षा अनन्वगुणा अवि नवनि, 'अहवसायसंजयस्स अजहन्नमणुकोसगा चरिपज्जा अनंतगुमा यथा रूपातसंगदस्याजघन्यानुत्कृष्टाचारित्रपर्यचाः सूक्ष्मसंपरा संपतयोत्कृष्टचारित्रपर्यन्तगुणा अधिका भवन्तीति भावः १५ । संजयस्ल, छेदोषहावणियसंजयस्स व एएसिणं उक्कोसगा चरितप जवा दोन्ह दितुल्ला अनगुणा' इनकी अपेक्षा सामायिक संपत और छेदोपस्थापनीय संघ की उत्कृष्ट चारित्रपर्श अनन्तगुण अधिक है और आपस में तुल्य है । 'सुमपरायसंजयस्स जल्नमा चरितपज्जचा अनंतगुणा' इनकी अपेक्षा सूक्ष्मपराय संगत की जघन्य चारित्र पर्याये अनन्तगुण अधिक है । 'तस चेव उक्कोलगा चरित पज्जवा अपंग युगा' और मक्ष्ममपराध संगत की जघन्य चारित्र पर्यायों की अपेक्षा सूक्ष्म संग संगत की ही उत्कृष्ट चारित्र पर्यायें अनन्तगुण अधिक है। 'अहखायत्रम्स असणमपुत्र कोसगा चरितपज्जा अनंतगुणा' और सुक्ष्म पराय की उत्कृष्ट चारित्रपर्यायों संजयत्स, छेदोवद्वावणियस प्रयास य एएसि णं उक्षोसगा चरिचपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणतगुणा' तेना रतां सामायिक सांगत अने छोपस्थापनीय संयतना उत्ष्ट शास्त्रिपर्यायी अनंता वधारे हो, याने परस्परमा तुल्य हे, 'सुहुम संपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तरज्जवा अणंतगुणा' भने सूक्ष्मस पराय संयतना धन्य शास्त्रिपर्याय। अनंता वधारे हे 'तस्स चेत्र उद्योगा चरितपजवा અખંતનુળા' અને સૂક્ષ્મસ'પરાય સયતના જ ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્રયયાની અપેક્ષા સૂક્ષ્મસ'પરાય સયનના જ ઉત્કૃષ્ટ ચાશ્ત્રિપોંચા અનંતગણુા અધિક છે. 'अक्खायसंजयस्म अजण्णमणुकोखगा चस्तिपज्जा अनंतगुणा' सूक्ष्मस ५. રાયના ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્રપાંચાની અપેક્ષાથી ચાખ્યાત સયતના અજન્ય Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ भगवती ___सामाइयसंजए णं भंते । किं सजोगी होज्ना अजोगी होज्जा' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं स योगी भवेत् अयोगी वा भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सजोगी होज्जा जहा पुलाए' सयोगी- योगवान् भवेद् यथा पुलाका, सामायिकसंयतो योगवान् भवेत् न तु अयोगी भवेत् यदि सयोगी भवेत् तदा किं मनोयोगवान् वचोयोगवान् काययोगवान् वा भवेत् ? गौतम ! त्रिप्रकारकयोगवान् भवतीति भावः, । "एवं जाब सुहमसंपरायसंजए' एवं यावत् सुक्ष्मसंपरायसंयतः, यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयतयोर्ग्रहणं भवतीति तथा च को अपेक्षा यथाख्यातलंयत की अजघन्य अनुत्कृष्ट चारित्रपर्यायें अनन्तगुण अधिक है । १५ वां सन्नि कप आदि द्वार का कथन समाप्त। सोलहवां बार फो कथन 'सामाइयवंजए णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंघत क्या योग सहित होता है अथवा योग रहित होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! सजोगी होज्जा जहा पुलाए' हे गौतम ! सामायिक संयत पुलाक के जैसे योग वाला होता हैं। योगरहित नहीं होता है। यदि वह योग सहित होता है तो क्या हे अदन्त ! वह मनोयोगनाला होता है ? अथवा वचन योग वाला होता है ? अथवा काययोग वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम वह तीनों प्रकार के योग वाला होता है। 'एवं जाव लुहमसंपरायसंजए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत परिहारविगुद्धिक संपत और सूक्ष्मसंपराय संयत ये तीनों भी અનુષ્ટ ચારિત્રપર્યાયો અનંતગણુ વધારે છે. એ રીતે આ પંદરમા સન્નિ કર્ષદ્વારનું કથન કરેલ છે ૧૫ वे सेमा दानु ४थन ४२मा मावे छे.-'सामाइयसंजए णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा' लगवन् सामायि: सयत योगवाणा હોય છે ? કે એગ વિનાના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है-गोयमा । सजोगी होजा जहा पुलाए' गौतम | सामायि४ सयत yalકના કથન પ્રમાણે ગવાળા હેય છે, એગ વિનાના હોતા નથી. જે તે વેગ સહિત હોય છે, તે શું તે મને ગવાળા હેય છે? અથવા વચન ગવાળા હોય છે ? અથવા કાયયેગવ ળ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ ! તે ત્રણે પ્રકારના રોગવાળા डाय छे. 'एव जाव सुहुमगपरायसंजए' र प्रमाणे छहोपस्थानीय सयत, પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત અને સૂક્ષ્મસં૫રાય સંયત એ ત્રણે પ્રકારના સંયતા Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ प्रचन्द्रिका टीका (०२५ उ.७ ०४ पोडप सप्तदशद्वारयोनिरूपणम् छेदोपस्थापनीयसंयतादारभ्य सूक्ष्मसंपरायसंयतान्त सर्वोऽपि योगवान् भवति न तु अयोगी भवति तत्रापि त्रिमकारक योगवानेवेति भाव: । 'अहक्खाए जहासिणाए' यथाख्यातो यथा स्नातकः, हे भदन्त । यथाख्यातसंयतः किं सयोगी भवेदयोगी वा भवेत् ? गौतम ! सयोगी वा भवेत् अयोगी वा भवेत् यदि सयोगी भवेत्तदा किं मनो योगवान् वा वचोयोगवान् वा काययोगवान् वा भवेत् गौतम ! मनोयोगवानपि वचोयोगवानपि काययोगवानपि भवेदिति भाव: (१६) । सप्तदशं साकारानाकारद्वारमाह- 'सामाइयसंजए णं भंते ! किं सागावते होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं साकारोपयोगयुक्तो भवेत् अनाकारोपयोगयुक्तो भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'सगारोवउत्ते जहा पुलाए' साकारोपयोगयुक्तो तीनों प्रकार के योगवाले होते हैं । 'अहक्खाए जहा सिणाए' यथाख्यात संयत स्नातक के जैसे सयोगी भी होता है और अयोगी भी होता है । हे भदन्त ! यदि वह सयोगी होता है तो क्या वह मनोयोग वाला होता है ? अथवा वचन योग वाला होता है ? अथवा काययोग वाला होता है ? हे गौतम ! वह मनोयोग वाला भी होता है वचनयोगाला भी होता है और काययोग वाला भी होता है । || सोलहवां द्वार का कथन समाप्त ॥ १७ वां साकार अनाकार द्वार का कथन 'सामाइय संजणं भंते ! किं सागारोवउत्ते होज्जा अणागारोवउत्ते होज्जा' हे भदन्त ! सामायिक संयत क्या साकारोपयोगवाला होता है अथवा अनाकारोपयोगवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते योगवाणा होय छे. 'अहखाए जहा सिणाए' यथाभ्यात संयंत स्नात ना કથન પ્રમાણે સયેાગી પણ હૈય છે, અને ચૈત્રી પણ હાય છે, હે ભગવન્ જે તે સચેાગી હાય છે, તે શું તે મનેયાગવાળા પણુ હાય છે ? અથવા વચન ચેાગવાળા હાય છે? કે કાયયેાગવાળા હાય છે? હૈ ગૌતમ ! તે મનેચેગવાળા પણ હેય છે વચનચે ગવાળા પણુ હાય છે, અને કાયયેાગવાળા પણ હાય છે. આ રીતે આ સેાળમા દ્વારનું કથન છે. સેાળમુ' દ્વાર સમાપ્ત ૧૬ હવે સત્તરમા સાકાર અનાહાર દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'खामा यस 'जमेण भंते । किं सागारोवउत्ते होज्जा अणगारोवउत्ते होजा' હું ભગવન્ સામાયિક સયત સાકારાપયેાગવાળા હોય છે ? કે અનાકારાપયેગ वाणा होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री छे - 'गोयमा ! सागा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे यथा पुलाका, साकारोपयोगयुक्तो वा भवेदनाकाशेपयोगयुक्तो वा भवेदिति । 'एवं जान अहवखाए' एवं यावद् यथाख्यान यावत्पदेन छेदोपस्थापनीय परि हारविशुद्धिकमूक्ष्मसंपरायसंबवानां ग्रहणं भवति तथा च छेदोपस्थापनीया. दारभ्य यथाख्यानसंपतान्तः सोऽपि साकारोपयुक्तो वा भवेदनासारोपयुक्तो वा भवेदिति भावः । 'जवरं मुहमसंगराए साभारोबउले होज्जा नो अणागारोवउत्ते होज्जा' नवरस्- केवलं पुलाकप्रकरणापेक्षपा इदमेव वैलक्षण्यं यद् मूक्ष्मसंपरायसंयतः साकारोपयोगयुक्त एव भवेत् न तु अनाकारोपयोगयुक्तो भवेदिति १७। हैं-गोयना ! सागारोवात्तो जहा पुलाए । गौतम ! लालायिक संयत पुलाक के जैसा साकारोपयोग वाला भी होता है और अनाकारोपयोग वाला भी होता है । 'एवं जाग आहखाए' इसी प्रकार ले यावत् यथारूपानसंपत तक जानना चाहिये। यहां पावत् पद से छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक और सक्षन गरायसंयनों का ग्रहण हुआ है। तथा च छे दोपस्थापनीय संपत्तले लेकर शाख पात संबन के समस्त साधुजन साकार उपयोग वाले भी होते हैं और अनाजार उपयोग वाले भी होते हैं 'णबरं सुहुनसंपराए लागारोपउन्ते होजा, जो জামান ছাড়া অন্তু সুহান মুদ্দা তথা वाला ही होता है। अनाकार उपयोगाला नहीं होता है। यही पुलाक के प्रकरण की अपेक्षा यहां निना है । सत्तरहवां साकर अनाकार द्वार का कथन समाप्त। 'रोबउत्तो जहा पुलाए' गौतम ! सामायि संयत खाना ४थन प्रमाणे સાકારપગવાળા પણ હોય છે, અને અનાકારપગવાળા પણ હોય છે. एवं जाव अहक्खाए' २मा०४ प्रमाणे यारत् छोपत्थानीय, परिहा२विशुद्धि સૂમસં૫રાય અને યથાખ્યાત સંયતના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. અર્થાત છેદપસ્થાપકીય સંયતથી લઈને યથાયાત સંયત સુધીના સઘળા સાધુઓ સાકારઉપગવાળા પણ હોય છે અને અનાકાર ઉપયોગવાળા હોય છે, 'णवर गुहमसंपराए लागारोवउने होज्जा, णों अणागारोवउत्ते होज्जा' परंतु સૂમપરાય સગત સાકારઉપયોગવાળા હોય છે પણ અનાકારઉપયોગવાળા હેતા નથી. પુલાકના પ્રકરણના કથન કરતાં આજ આ પ્રકરણમાં વિશેષપણું છે, એ રીતે આ સત્તરમું સાકાર અનાહારક દ્વાર કહ્યું છે. સાકાર અનાહાર દ્વાર સમાપ્ત છે Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०४ अष्टादश कषायद्वारनिरूपणम् ३३५ अष्टादशं कपार द्वारमाह-'सामाइयसंजए णं अंते' सामायिकसंयता, खल्लु भदन्त ! 'कि सकसाई होज्जा असाई होगा कि सकपायी-कपायवान् भवेद अकषायी-कपायरहितो वा भवेदिति प्रश्ना, भगशनाह-'गोयमा'' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'लकसाई होना णो अशलाई होना जहा सायकुसीले' सकषायी भवेत् नो अपायी मरेत् यथा कपाय कुशील', सपायकुशीलवत् सामायिकसंयतः झपायवान् भवेत् को अपायी भवे । — कषायकुशीलादत्रायं विशे:-कषायकुशील एकस्मिन रूपायेऽपि मवेद यतः स दशमगुणस्थानं यावद् भवेत् अयं सामायिकसंपतस्तु लवमगुणस्थान यावद् भवेदतोऽयं द्वयी कषाययोभवति, तन कषायद यस्यावा भावादिति विवेकः। प्रश्नोत्तरक्रमो यथा यदि सकपायी भवेत् तदा स खलु भदन्त ! कतिषु कपायेषु, উঠাৰ স্ৰান্স হ ক্ষ ঙ্খেল। - 'सामाइयसंजए गं अंते ! किलशलाई होजमा असलाई होज्जा' हे भदन्त ! लामाथिकलंयत क्या कषाय साहिल होना हैं ? अथवा कषाय रहित होता है ? उत्तर में प्रशुभी कहते हैं-'गोषमा! कसाई होज्जा' हे गौतम ! सामाधिक संयत नपाथ सहित होता है जो अकसाइ होज्जा' काय रहित नहीं होता है 'जहा कसायकुसीले' जैसा कि कषाय कुशील होता है। अलर इतना ही है कि पाय कुशील दसवें गुणस्थान तक होने से वह एक कषायवाला भी होता है किन्तु सामायिक संयत लो नववें गुणाम्यान सा ही होता है, तो इसके दो कषायों का उदय अवश्य रहता । या ह जार हे मदन! यदि वह कषाय सहिल होना है लो जितनी कमाघों वाला होला है ? હવે અઢારમાં કષાયદ્વારનું કથન કરવા માં આવે છે – 'सामाइयसजमेणं भंते । कि ससाई होजा, अन्साई होज्जा' भगवन् સામાયિક સંયત શું કષાય સહિત હોય છે ? કે કષાય રહિત હોય છે? Pा प्रश्न हत्तरमा प्रमुश्री ७ छ 'गोयला । सकमाई होजा गौतम । सामयि४ सयत षाय सहित हाय छ, णो कमाई होजा' ३५.य विनाना डाता नधी -'जहा कसायकुमीले' 2 प्रभागे षायशी डाय , पाय કુશીલના કથન કરતાં એટલુ જ અતર છે કે કપ થકુશીલ દકમાં ગુણસ્થાન પર્યન્ત હોવાથી તે એક કષયવાળા પણ હોય છે અને સામાયિક સયતે નવમાં ગુગથાન સુધી હે જ છે તેથી તેને બે ઇષાનો ઉદય અવશ્ય રહે છે, તે આ પ્રમાણે છે-હે ભગવન જે તે કષાય સહિત હોય છે, તે કેટલા કષાવાળા લેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ rece मत् गौतम ! चतुर्षु वा त्रिपु वा द्वयोर्वा भवेन चतुर्षु पायेषु भवन सज्वलनक्रोधमानमायालोथेषु भवेत् त्रिषु भवन संज्वलनमानमायाकोभेषु भवेत् द्वयोर्भवन संजवनमायाको भेषु भवेदिति 'एवं छेदोवावणिए वि एवं सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापन संयतोऽपि सकपायी भवेत् नो अकपायी भवेत् यदि सकपायी भवेत तदा चतुर्षु त्रिषु द्वयोरेकस्मिन व भवेत् चतुर्षु भवन् सज्ज्वलनक्रोधमानमायालोभेषु भवेत् त्रिषु भवन् सज्ज्वलनमायालोभेषु भवेत् द्वयोवन मायालोमो भवेद एकस्मिन् भवन संज्ज्वलन लोभे भवेदिति भावः । 'परिहारविमृद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिको यथा पुलाकः, यथा पुलाकस्तथा परिहार विशुद्धिकसंयतोऽपि सकपायी कपायचतुष्कवान् भवेद नो अकपायी भवेत् । पुलाकपाठो यथा - 'पुलाए णं भने सरसाई होज्जा० गोयमा ! 'वि कोहमाणमायालो भेसु होज्जा' इति । यदि सकपायी भवेद उत्तर में प्रभुश्री कहते है-हे गौतम वह चार कपायों वाला भी होता है, तीन कषायों वाला भी होता है और दो कार्यो वाला भी होता है जब वह चार कषायों वाला होता है तो मंज्वलन सम्बन्धी फोध, मान, माया और लोभ वाला होता है और जब वह तीन कपायों वाला होता है तो वह संज्वलन सम्बन्धी मान माया और लोभवाला होता है और जब वह दो कषायों वाला होता तब संज्वलन सम्बन्धी माया और लोभ वाला होता है 'एवं छेदोवायणिए थि' मी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत भी होता है । अर्थात् छेदोपस्थापनीय संयत भी कपाय सहित ही होना પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! તે ચાર કષ ચેાત્રાળા પણ હાય છે, એ કષાયેાવાળા પણ હાય છે, અને એક કષાયવાળા પણ હોય છે, જ્યારે તે ચાર કચેાવાળા હાય છે. તે સ`જવલન સબંધી ક્રોધ કષાય, માનકષાય માયાકષાય અને લાભકષાય એ ચ ર કષાયેવાળા હોય છે, અને જ્યારે તે ત્રણ કાચેાવાળા હાય છે, ત્યારે તે સજવલન સંબંધી માનકષાય, માયાકષાય અને લેાભ ષાય એ ત્રણ કચેવાળા હાય છે, અને જ્યારે તે એ કષાયેવાળા ડાય છે, ત્યારે સજવલન સ’અધી માયાષ ય અને લેાભકપાય એ એ કષાયેાવાળા હાય છે. ' एवं ' छेदोवावणिए वि' ४ प्रभाग हेहेोयस्थापनीय संयंत पा કષાય સહિત જ હાય છે, કષાયરહિત હાતા નથી કષાય સહિતપામાં તેમને ચાર શ્વાસે પણ હાય છે, ત્રણુ કષાયે પશુ હાય છે, એ કષાયે પણ હાય છે, અને એક કષાય પણુ હાય છૅ, ચાર કષાયે Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७०४ अष्टादशकपायद्वारनिरूपणम् ३३७ तदा क्रोधमानमायालोभेषु भवेदिति । 'सुहपसंपरायसंनए पुच्छा'. सूक्ष्म संपरायसंयतः खल्ल भदन्त ! कि सकपायी भवेत् अपायी वा ; भवे. दिति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'सकसाई होज्जा नो अकसाई होजा सकपायी भवेत् नो अपायी भवेत्- 'जा सकसाई होज्जा सेणं भंते । कइसु कसाएर होज्जा' यदि सूमसंपरायसंयतः सकपायी भवेत् स खल भदन्त ! कतिषु कपायेषु भवेदिति प्रश्नः, भगवानाइ-- है कषाय रहित नहीं होता है। कषाय माहित होने में उसके चार कषायें भी होती हैं, तीन कषायें भी होती है, और दो कषायें भी होती हैं, और एक कषाय भी होती है। चार कषायें होने में संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपायें होती हैं, तील कषायें होने में वह संज्वलन सम्वन्धीमान, सोया और लोभ कपाय वाला होता है, दो कपाश चाला होने में वह संचलन सम्पन्धी लाया और लोभ वाला होता है। तथा एक पायवाला होने में व केवल एक संज्वलन सम्बन्धी लोभ वाला होता है। 'परिहारविस्तुद्धिए जहा पुलाए' पुलाक के जैसा परिहार विशुद्धिक संयत भी कपाय सहित ही होता है । कषाय रहित नहीं होता है कषाय शाहित होने में वह संज्व. लन सम्बन्धी क्रोत्र मान, माया और लोभ इन चारों रूपायवाला होता है, तीन आदि कषायवाला नहीं होता है। હોવાના સંબંધમાં સંજવલન સંબંધી કોધ, માન, માયા, અને લેભ એ ચાર કષા હેય છે અને જ્યારે ત્રણ કષાયો હોય છે, ત્યારે સંજવલન સંબંધી માન માયા અને લેભ એ ત્રણ કષાવાળા હોય છે. અને જ્યારે બે કષાયેવ ળ હોય છે, ત્યારે તે સંજવલન સબંધી માયા અને લેભ એ બે કષાવાળા હોય છે. તથા જ્યારે એક કષાયવાળા હોય છે, ત્યારે કેવળ स40 सीसीम पाया हय छे 'परिहारविद्धिए जहा पुलाए' साना ४थ- प्रमाणे ५२२वशुद्धिः सयत ५ उपाय सहित હેય છે, કષાય વિનાના હતા નથી કષાય સહિત હવામ તે સંજવલન સંબંધી ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ કષાયવાળા હોય છે. અને ત્રણ કષાવાળા હે ય ત્યારે તે સ જવલન સંબધી માન માયા અને લેભવાળા હોય છે. બે કષાવાળા હોય ત્યારે તે સંજવલન સબંધી માયા અને લોભ કષાયવાળા હોય છે. અને એક કષાયવાળા હોય ત્યારે કેવળ એક સંજવલન સંબધી લભ કષાયવાળા જ હોય છે. भ०४३ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती "गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगंमि संजलगलो होजना' एकस्मिन् संज्वलनलोमे भवेत् । 'अहक्खायसंजए जहा णियंठे" यथाख्यातसंयतो यथानिग्रन्था, कपायद्वारे यथाख्यातसंयतो निर्ग्रन्थवदेव ज्ञातव्यः, नो सकपायी भवेद किन्तु अपायी भवेतू यदि अकपायी भवेत्तदा किमुपशान्तकषायी भवेत् क्षीणकपायी वा भवेत् ? गोतम ! उपशान्तकपायी वा भवेत् क्षीणकपायी या भवेदिति । (१८) सू०४।। 'सुहमसंपरायसंजए पुच्छा' हे अदन्त । सूक्ष्मसंपराय संयत क्या कषाय सहित होता है ? अथवा कषाय रहित होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयामा सकसाई होज्जा, नो अकलाई होज्जा' हे गौतम ! यह कपाय सहित होता है कषाय रहित नहीं होता है। 'जइ सक्षलाई होज्जा लेणं मते ! हसु कसाएस्सु होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह कषाय सहित होता है तो हे भदन्त ! वह कितनी कपायों वाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! एगमि संजलणलोभे होज्जा' हे गौतम ! वह सिर्फ एक संज्वलनलोभवाला ही होता है । 'अहकखायसंजए जया पियंठे' हे गौतम ! यथाख्यात संयत निग्रन्थ के जैसे ही कषाय द्वार में जानना चाहिये । तथा च यथाख्यात संयत निर्ग्रन्थ के जैसे अकषायी होता है-कषाय सहित नहीं होता है । अफषाची अवस्था में अथवा तो वह उपशान्त कषाय घाला होता है अथवा क्षीण कषाय वाला होता है सू०४॥ ॥ १८ वां कषाय द्वार का कथन समाप्त ॥ 'सुहमसंपरायसंजए पुच्छा' ७ मावन सूक्ष्भस ५२सय सयत शुषाय સહિત હોય છે? અથવા કષાય વિનાના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमकामी हे छ -'गोवमा! सकसाई होज्जा, नो अकसाई होज्जा' गीतम! ते ४पाय सहित डाय छ, उषाय विनाना हात नथी. 'जइ सकसाई होज्जा से णं भंते ! कइसु कसाएसु होज्जा' मान्ने त કષાય સહિત હોય છે, તે તે કેટલા કષાયોવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! एगंमि संजलणलोहे होज्जा' गौतम! am मे सवसन मा ४ छोय छे. 'अहक्खायसंजए जहा णियंठे' 3 गौतम । यथाज्यात सय ४५.यान समयमा नियन्य प्रमाणे સમજવા. અર્થાત્ યયાખ્યાત સંયત નિર્ગસ્થના કથન પ્રમાણે અકષાયી હોય છે. કષાય સહિત હોતા નથી. અકષાયી અવસ્થામાં તે ઉપશાંત કષાયવાળા હોય છે. અથવા ક્ષીણકષાય વાળા હોય છે. સૂ૦ ૪ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafat टीका श०२५ उ.७ ०९ लेश्यादिद्वारनिरूपणम् द्रका શ્ श्यादिद्वारेषु आह - 'सामाइय संजय णं भंते !' त्यादि, मूलम् - सामाइयसंजए णं भंते । किं सलेस्से होज्जा अलेस्से होज्जा गोयमा ! सलेस्से होज्जा जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवावणिए वि | परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए सुहुमसंपराए जहा नियंठे । अहखाए जहा पुलाए । णवरं जइ सलेस्से होज्जा एगाए सुक्कलेस्साए होज्जा १९ । सामाइयसंजए णं भंते! किं बड्रमाणपरिणामे होज्जा हीयमाणपरिणामे अवट्ठियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! बडूमाणपरिणामे जहा पुलाए। एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहुमसंपराए पुच्छा गोयमा ! वडमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा, जो अवडियपरिणामे होज्जा । अहक्खाए जहा णियंठे । सामाइयसंजय णं भंते! केवइयं कालं वढमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जत्रेणं एकं समयं जहा पुलाए । एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहुससंपरायसंजय णं भंते! केवइयं कालं वडूमा परिणामे होज्जा ? गोयसा ! जहन्त्रेणं पक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुतं । केवइयं कालं हीयसाणपरिणामे होज्जा ? एवं चैव । अह्क्खायसंजए णं संते! केवइयं कालं वडमाणपरिणामे होजा ? गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोलेण वि अंतोमुहुत्तं । केवइयं काल अवडिय परिणाम होज्जा ? गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं देणा पुक्कोडी २० | सामाइयसंजए णं भंते! कइकम्मपगडीओ बंधइ ? गोयसा ! सरविहबंध वा अट्ठविहबंधए वा एवं जहा बउसे । एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहुमसंपरायसंजय पुच्छा गोयमा ! आउयमोहणीयवज्जाओ छकम्मपगडीओ बंध, अहमखायसंजए जहा सिणाए २१ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - भगवतीसो सामाइयसंजए भंते! कह करनपगडीओ वेएइ ? गोयमा ! णियमं अटूकम्पपगडीओ वदेह एवं जाब सुहमसंपराए । अहक्खाए पुच्छा गोवमा! लत्तविहया वा चउविहवेयए वा । सत्तविहे वेदेवाणे साहणिज्जवजाओ तत्तकम्मपगडीओ वेदेह चत्तारि वेदेमाणे वेणिज्जाउयनामगोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेव २२ । सासाहय संजए पंसंले! कइकम्मपगडीओ उदीयेह गोयमा ! उत्तविहे जहा वउलो। एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहमसंपराए पुच्छा गोयमा! छविह उदीरए वा पंचनिह उदीरए वा । छ उदीरेसाणे आउयवेयणिज्जवज्जाओ छ कस्मपाडीओ उदीरेइ, पंचउदीरेमाणे आउयवैयणिज्जमोहणिज्जबज्जाओ पंचकल्मपगडीओ उदीरेइ। अहक्खायसंजए पुच्छा गोयमा ! पंचविह उदीरए वा दुविहउदीरए वा, पंच उदीरमाणे आउय० लेसं जहा णियंठस्त २३ । सामाइय. संजए णं भंते ! सामाइयसंजय जहमाणे किं जहइ कि उवसंपज्जइ ? गोयमा ! लामाइयसंजयत्तं जहइ छेदोक्ट्रावणिय . संजयं वा सुहुमसंघरायसंजयं वा असंजसं वा संजसासंजमं वा उपसंपज्जइ । छेदोवटावणिए पुच्छा गोयमा ! छेदोवटाव-णियसंजयन्तं जहइ सामाइयसंजयन्तं बा, परिहारविसुद्धिय-संजय वा सुहमसंपरायसंजयत्तं वा असंजमं वा लंजमासंजमं .वा उवलंपज्जइ । परिहारविसुद्धिए पुच्छा गोया! परिहारविसुद्धियलंजयतं जहइ छेदोक्लाबणियलंजयन्तं वा असंजमं वा उवसंवज्जइ । सुहुमसंपराए पुन्छा गोयला! सुहमसंपरायसंजयत्तं जहइ, सामाइयसंजयन्तं वा छेदोक्ट्रावणियसंजयत्तं Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका शं०२५ उ.७ खू०५ लेश्यादिद्वारनिरूपणम् ३४१ वा अहक्खायसंजयस्तं वा असंजसं वा उपसंवज्जइ । अहक्खाय संजए पुच्छा गोचमा ! अहक्खायलंजयत्तं जहइ सुहुमसंपरायसंजयत्तं वा असंजमं मा सिदिगई वा उपसंबज्जइ २४ ॥सू०५॥ ... छाया-सामायिकसयतः खलु भदन्त ! कि सलेश्यो भवेत् अलेश्यो भवेत् ? गौतम ! सलेश्यो भवेत् यथा करायकुशीलः । एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि। परिहारनिशुद्धिको यथा पुलाकः सूक्षासंपरायसंयतो यथा निग्रन्थः । यथाख्यातो यथा स्नातकः । नवरं यदि सलेश्यो भवेत् एकस्यां शुक्ललेश्यायां भवेत् (१९) । सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! किं बर्द्धमानपरिणामो भवेत् हीयमानपरिणामः अवस्थितपरिणामो भवेत् ? गौसम बद्धमानपरिणामो यथा पुलाकः । एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः । सूक्ष्मसंपरायः पृच्छा गौतम ! वर्द्धमानपरिणामो वा भवेद हीयमानपरिणामो वा भवेत् नो अवस्थितपरिणामो भवेत् । यथाख्यातो यथा निग्रन्थः । सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कियन्तं कालं वर्द्ध मानपरिणामो भवेत् गौतम ! जघन्येन एक समयं यथा पुलाकः । एवं यावत् परिहारविशुद्धिकोऽपि । सूक्ष्मसंपरायसंयतः खलु भदन्त ! कियन्तं कालं वर्तमानपरिणामो भवेत ? गौतम ! जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तम् । कियन्तं झालं हीपमानपरिणाम:, एवमेव । यथाख्यातसंयतः खलु भदन्त ! कियन्तं काल बर्द्धमानपरिणामो भवेत् ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उरहणापि अन्तर्मुहूर्तम् । कियन्तं काल मवस्थितपरिणामो भवेत् ? गौतम ! जघन्येनेक समयम् उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटि (२०)। सामायिकसंरता खल भदन्त ! कति कर्मप्रकृती बध्नाति ? गौतम ! सम विधवन्धको वा अष्टविधवन्धको वा एवं यथा बकुशः। एवं यावत्परिहारविशुद्धिकः । मूक्ष्मसंपरायसंयतः पृच्छा, गौतम ! आयुषझमोहनीपवर्जाः पट्कर्म प्रकृतीनाति । यथाख्यातसंयतो यथा स्नातक (२१) सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कति कर्मनकनी वेदयति ? गौतम । नियमान अष्टकर्म पकृतीवेदयति एवं यावत् सूक्ष्मसंपरायः । यथाख्शातः पृच्छा गौतम । सप्तविधवेको वा चतुर्विधवेदको वा सप्तविधा वेदयन् मोहनीयवर्जाः समकर्ममकृतीवेदयति चतस्रः वेदयन् वेदनीयायुप्कनामगोत्राश्चतस्त्रः कर्यप्रकृतीर्वेदयति (२२) । सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृती रुहीरति ? गौतम ! सप्तविधा यथा वकुशः । एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः । सूक्ष्मपरायः पृच्छा गौतम ! षविधोदीरको वा पञ्चविधोदीरको वा । पइ उदीरयन् आयुष्कवेदनीयवर्जाः पट्कर्मप्रकृती रुदीरयति पञ्च उदीरयन् आयुषवेदनीयवाः पट कर्मप्रकृती रुदीरयति- पश्च उदीरयन् आयुष्कवेदनीयमोहनीयवर्जाः पञ्च कर्मप्रकीरदीर. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હેર भगवती यति । यथाख्यातसंयतः पृच्छा गौतम ! पञ्च निधोदीरको वा द्विविधोदीरको वा अनुदीरको वा । पञ्च उदीयन् आयुष्क० शेषं यथा निर्ग्रन्थस्य (२३) । सामा विक्संयतः खलु भदन्त ! सामायिकसंगतत्वं जहन् किं जहाति किमुपसंपद्यते ? गौतम | सामायिक संयतत्वं जहाति छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा सूक्ष्मसंपरायसंगतत्वं ना असंयमं वा संयमासंयमं वा उपसंपद्यते । छेदोपस्थापनीयः पृच्छा गौतम ! छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं जहाति सामायिक संयदत्वं वा परिहारविशुद्धिक संयतत्वं वा सूक्ष्म संपराय संयतत्वं वा असंयमं वा संयमासंयमं वा उपसंपद्यते । परिहारविशुद्धिका पृच्छा गौतम ! परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं जहाति छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा असंयमं वा उपसंपद्यते । सुक्ष्म संपरायः पृच्छा गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंगतत्वं जहाति सामायिकसंयतत्वं वा छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा यथाख्यातसंयतस्वं वा असंयमं वा उपसंपद्यते । यथाख्यात संयतः पृच्छा, गौतम । यथाख्यातसंयतत्वं जहाति सूक्ष्म संपरायसंगतत्वं वा असंयमं वा -सिद्धिगति वा, उपसंपद्यते (२४) सू०५ | टीका -- एकोनविंशतितमं लेश्याद्वारमाह - 'सामाइयसंजए णं भंते सस्से 'होज्जा अलेस्से होज्जा' सामायिक संयतः खल्ल मदन्त ! कि सलेश्यो लेश्यावान् वा भवेत् यद्वा अलेश्यो - लेश्यारहितो भवेदिति लेश्पाद्वारे प्रश्न, भगवानाह - 'ntent' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम | 'सलेस्से होज्जा जहा कसायकुसी के ' सइयो श्यावान् भवेत् सामायिकसंयतो यथा कषायकुशीलः, सामायिक संयतः उन्नीसवां लेश्या द्वार का कथन टीकार्थ- 'सामाहय संजए णं भंते । किं सलेस्से होज्जा, अलेस्से होज्जा' हे भदन्त ! सामायिक संगत लेश्या वाला होता है ? अथवा विना लेश्या का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा सलेस्से 'होजा जहा कसायकुसीले' हे गौतम! सामायिक संयन लेहमावाला होता है जैसा कि कषायकुशील लेइयावाला होता है । हे भदन्त ! यदि वह श्यावाला होता है तो कितनी लेश्याओंवाला होता है ? हे गौतम ! હવે એગણીસમા લેશ્યાદિદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. टीडार्थ' - 'खामा इयस जए भंते! कि सलेस्से होज्जा, अलेस्से होज्जा' હું ભગવન્ સામાયિક સંયત લેફ્સાવાળા હાય છે ? અથવા લેશ્યાવિનાના होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री हे छे - 'गोयमा ! अलेस्से होज्जा, 1. जहा कायकुसीले' हे गौतम! सामायि संयत सेश्यावाणा होय हे ने રીતે કષાયકુશીલ લેસ્યાવાળા હોય છે. તેમ હું ભગવન્ જો તે લેફ્સાવાળા હાય છે, તેા કેટલી લેસ્યાવાળા હાય છે? હે ગૌતમ ! તે કૃષ્કુલેશ્યાથી * Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०५ एकोनविंशतितम लेश्याद्वारनि० '३४३ सलेश्यो भवेत् न तु अलेश्यो भवेद यदि लेश्यावान् भवेत् तदा खलु भदन्त ! स कतिषु लेश्यासु भवेत् ? गौतम ! पट्सु लेश्यासु भवेन् तथा कृष्णलेश्यात आरभ्य शुक्ललेश्यापर्यन्तले श्यासु भवेदिति भावः । 'एवं छेदशेवट्ठावणिए वि' एवम्सामायिकसंयतवदेव छेनोपस्थापनीयसंयतोऽपि सलेश्य एव भवति न तु अलेश्यः, यदि सलेश्यो भवति तदा षट्स्वपि शुक्लान्तासु भवतीति । 'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिकसंयनः सोयो भवेत् न तु अलेश्यो भवेत् यदि सलेश्यो भवेत् तदा तिपृष्वपि शुद्धलेश्यासु भवेत् तद्यथा तेजो छेश्यायाम् पद्मलेश्यायां शुक्ललेश्यायां चेति भावः 'सुहुमसंपरायसंयतो यथा निग्रन्था, सूक्ष्मसंपरायसंयतः सलेश्यो भवति न तु लेश्यारहितः, यदि मलेश्यो भवेत्तदा एकस्यां शुक्ललेश्यायां भवेदिति भावः । 'अहकावाए जहा सिणाए' यथाख्यात संयतो यथा स्नातकः, यथाख्यातसंपता सलेश्योऽपि भवेत् अलेश्योऽपि यह कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ल लेशा तक की ६ लेश्याओं वाला होता है। 'एवं छेदोवद्यावणिए वि' सामायिक संयत के जैसे ही छेदोपस्थापनीयसंयत भी लेश्यावाला ही होता है बिनालेश्या का नहीं होता है। लेश्याचाला होने पर भी यह एक दो आदि लेश्या वाला नहीं होता है। किन्तु कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ल लेश्या तक की छहों लेश्या वाला होता है । 'परिहारविहिए जहा पुलाए' परिहार विशुद्धिक संयत पुलाक के जैसे शुद्ध तीन लेश्याओंवाला होता है । जैसे तेजोलेश्याघाला होता है पद्मलेशा बाला होता है और शुक्ललेश्या वाला होता है। 'सुहमसंपरायलंयए' स्वक्षम सराय संयन निन्ध के जैसे एक शुक्ललेश्या वाला ही होता है । 'अहवाए जहा सिणाए' यथाख्यात संयत स्नातक के जैसे लेश्यावाला भी होता है और सन शुसवेश्या सुधानी ७ वेश्या मावाणा डाय छ ‘एवं छेदोवद्रावणिए વિ' સામાયિક સંયતના કથન પ્રમાણે છેદે પસ્થાપનીય સંયત પણ લેશ્યાવળા જ હોય છે. લેડ્યા વિના ના હોતા નથી અને લેયાવાળા હોવામાં પણ તે એક બે વિગેરે લેશ્યાવાળા હોતા નથી પરંતુ કૃષ્ણલેથી લઈને શુકલ લેસ્યા સુધીની છએ લેશ્યાવાળા હોય છે. ___'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिवार वशुद्धिः स 41 yान थन પ્રમાણે શુદ્ધ ત્રણ લેશ્ય એવાળા હોય છે જેમકે-તેજલેશ્યાવાળા હોય છે. पश्यावा हाय छ, भने शुसवेश्यावा .य छे. 'सुहुमसं रायसंजए' સૂમસં૫રાય સંયત નિ થના કથન પ્રમાણે એક શુકલેશ્યાવાળા જ હોય छ. 'अहनाए जहा सिणाए' यथाuld संयत २नातनी थन प्रभावो Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ । भगवती भवेत् ‘णवरं जा सलेस्से होज्जा पगाए सुकलेलाप होज्जा' नवरं-केवलं यथा. ख्यातसंगतात् स्नातक यायं विशेषः यत् स्नातको यदि सलेयो भवेत्तदा स केवलपरमशुक्ललेश्यावानेव भयेत्, यथामदयातसं यतस्तु स्नातकाऽपेक्षया निर्वि शेषेण शुक्ललेश्यो भवेदत उक्तम्-यगारुपातो यदि सळेश्यो भवेचदा एकस्यां शुक्ललेषायां भवेदिति १९ । विंशतितमं परिणागद्वारमाह-'मामा इयसंजए णं भंते !' सामायिकसंयतः खलु भदन्न ! 'कि क्माणपरिणामे होज्जा' किं वर्द्धमानपरिणामो भवेद् 'पोयमानपरिणामे' हीयमानपरिणामो वा भवेद "अचट्टियपरिणाये' अवस्थितपरिणामः-स्थिरपरिणामो वा भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'वडमाणपरिणामो जहा पिमा लेश्या का भी होता है । 'जबरं.' यदि बाह लेश्याबाला होता है है तो एक के श्ल शुक्ललेवाचाला ही होता है। परन्तु स्नातक यदि लेश्या वाला होता तो यह परम शुक्ललेशचाचाला होता है । यही यथारात संयत से स्नातक की विशेषता है और यथाख्यातायन स्नातक को अपेक्षा सामानय शुक्लाळेश्यावाला होना है। १९ चहार का कथन समाप्त थीसवां परिणाम द्वार का कथन . 'सामाइसंजए भने । कि बड़माणपरिणाम होज्जा हीयमाण परिणामे होज्जा' हे मान्न ! सामायिकसयल क्या वर्धमान परिणाम घाला होता है ? अथवा हीचमान परिणान वाला होता है ? अथवा"अवष्टिएपरिणाम होज्जा' अवरिषत परिणाम पाला होला है ? उत्तर श्यावाणा पण डाय छे. गले से विनाना ५५ डाय छ. णवर' नेत લેશ્યાવાળા હોય તો કેવળ એક શુકલેશ્યાવાળા જ હોય છે. પરંતુ સ્નાતક જે લેશ્યાવાળા હોય છે, તે તે પરમ શુકલ લક્ષાવાળા હોય છે, એ જ યથાખ્યાત સંયત કરતાં મનાતકમાં વિશેષપણું છે અને યથાખ્યાત સંયત નિથની અપેક્ષાથી શુકલ લેફ્સાવાળા હોય છે. ઓગણીસમા લેણ્યદ્વારનું કથન સમાપ્ત હવે વિસમાં પરિવાર દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भते ! कि वढमाणपरिण मे होजा, हीय राणपरिणामे होज्जा' मापन सामायि४ २'यत शु वधमान भिवाणा हाय छ ? 'भाडायमान परिसिवाणा डाय छ ? था 'अवढियपरिणामे होना' અવરિત પરિણામ ના હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગોતમ स्वाभीने ४३ छे ४-'गोयमा! वढमाणपरिणामे होज्जो जहा पुलाए' के Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैया टीका ०२५ उ.७ ०५ विंशतितम परिणामहारनि० ३४५ पुलाए' बर्द्धमानपरिणामवान् वा भवेत् यथा पुलाकः, सामायिकसंपतः कईमानपरिणामवान् वा भवेत् हीयमानपरिणामवान् वा भवेत् स्थिरपरिणामवान् वा भवेदिति । ' एवं जान परिहार विमुद्धिए' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः, यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयस्य संग्रदो भवति तथा च छेदोपस्थापनीयसंयत परिहारविशुदिकसंयतो सामायिकसंयतयदेव वर्द्धमानपरिणामौ भवेताम्, हीयमानपरिनाम वा भवेताम् स्थिरपरिणामी वा भवेतामिति भावः । 'मुहमसंपराए पुच्छा' सूक्ष्मसंपरायसंयतः खलु भदन्त ! किं वर्द्धमानपरिणामो भवेत् दीयमानपरिणमो वा भवेत् अवस्थित परिणामो वा भवेदिति पृच्छा - मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'बड्रमाणपरिणाये वा होज्जा' वर्द्धमान( परिणामो वा भवेत् ' हीयमाणपरिणामे वा होज्जा' हीयमान परिणामो वा भवेत ''णो अवट्टियपरिणामे होज्जा' नो अवस्थितपरिणाम:- स्थिरपरिणामो भवेत् सूक्ष्ममें प्रभुश्री कहते हैं 'गोधमा ! वहुमाणपरिणामे होज्जा जहा पुलाए' 'हे गौतम ? सामायिक संयत पुलाक के जैसे बर्द्धमान परिणाम वाला भी होता है, हीयमान परिणामाला भी होता है, तथा स्थिर परिनाम वाला भी होता है । 'एवं जान परिहारविलद्विए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय और परिहार विशुद्धिक संयत भी कद्र मानपरिणामवाले भी होते हैं, हीयमानपरिणामवाले भी होते हैं और स्थिर परिणामवाले भी होते हैं । 'खुट्टमपराए पुच्छा' हे भदन्त ? सूक्ष्मसंपराय संगत क्या बद्धमान परिणाम वाला होता है ? अथवा हीयमान परिणाम वाला होता है ? अथवा स्थिर परिणामवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! बडूमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा ગૌતમ । સામાયિક સયત પુલાકના કથન પ્રમાણે વમાન પરિણામવાળા પણ હાય છે, દ્વીવમાન પરિણામવાળા પણ હાય છે, તથા સ્થિર પાિમવાળા होय है. 'एव' जात्र परिहारविसुद्धिए' से प्रभागे छेहोपस्थापनीय भने પરિહારવિશુદ્ધિકસયત પણ વધમાન પરિણામવાળા પણ હેાય છે, હીયમાન પરિણામવાળા પણ હોય છે, અને અવસ્થિત પરિણામવાળા પશુ હાય છૅ, અથવા 'हुम संपराए पुच्छा' हे भगवन् सूक्ष्मस पराय संगत शु वर्धमान પરિણામવાળા હોય છે ? અથવા હીયમાન પરિણામવાળા હાય છે સ્થિર પણિામવાળા હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને हे हे- 'गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा • णो अवढियपरिणामे होज्जा' हे गौतम! सूक्ष्मसं पराय संयंत वर्धमान સ॰ છુ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र संपरायसंयतः श्रेणीयारोहन बर्द्ध मानपरिणामो भवेत्, श्रेणीतः पतन् हीयमानपरिणामो भवेत् परन्तु अवस्थितपरिणामवान् न भवेत्, गुणस्थानकस्य तथा स्थामाव्यादिति भावः 'अहक्खाए जहा णियंठे' यथाख्यात संयतो यथा निर्धन्या, यथाख्यातसंपतः निग्रन्थवदेव वद्ध मानपरिणामो वा भवेत् नो हीयमानपरिणामो भवेत् अवस्थितपरिणामो घा भवेदिति भावः ।। ___ अथैषां परिणामस्य स्थितिमाह-'सामाइयसंजए थे' इत्यादि, 'सामाइयसंजए णे भंते ! लेवइयं कालं चड्माणपरिणामे होज्जा' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कियकालपर्यन्तं वर्द्धमानपरिणमो भवेदिति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' होज्जा, णो अचहप्रपरिणामे होज्जा' हे गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंयत वर्द्धमान परिणाम वाला भी होता है और हीयमोन परिणाम वाला भी होता है, पर पह स्थिर परिणामवाला नहीं होता है। सूक्ष्मसंपरायसंयत श्रेणी पर आरोहण करते समय बर्द्धमान परिणाम वाला होता है और जब वह श्रेणी से पतित होता है तो वह हीयमान परिणाम वाला होता है क्यों कि इस गुणस्थान का ऐसा ही स्वभाव होता है। इसलिये वह अगस्त्रित परिणाम पाला नहीं होता है। 'अहक्खाए जहा णियंटे' यथाख्यातायत निग्रन्थ के जैसे बर्द्धमान परिणामवाला भी होता है और अवस्थित परिणाम वाला भी होता है। किन्तु वह हीयमान परिणामवाला नहीं होता है। अब परिणामों की स्थिति कहते है। 'सामाइयसंजए णं भंते ! केनइयं कालं बमाणपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! जापायिक संयत कितने काल तक वर्द्धमान परिणामों પરિણામવાળા પણ હોય છે, હીયમાન પરિણામવાળા પણ હોય છે, પરંતુ તે અવસ્થિત (સ્થિર) પરિણામવાળા હોતા નથી. સૂમસં૫રાય સંત શ્રેણી પર આરોહણ કરતી વખતે વર્ધમાન પરિણામવાળા હોય છે, અને જ્યારે તે શ્રેણીથી પતિત થાય છે, તો તે હીયમાન પરિણામવાળા હોય છે. કેમકે આ ગુણસ્થાનનો સ્વભાવ જ એ હોય છે તેથી તે અવસ્થિત પરિણામવાળા खाता नथी. 'अहक्खाए जहा णियंठे' यथाव्यात सयत नियन्यना ४थन प्रभाएं વર્ધમાન પરિણામવાળા પણ હોય છે, અવસ્થિત પરિણામવાળા પણ હોય છે, પરંતુ તે હીયમાન પરિણામવાળા હોતા નથી. વીસમા પરિહાર દ્વારનું કથન સમાપ્ત - હવે એકવીસમા પરિણામ-સ્થિતિદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે, 'सामाइयसंजए | भंते ! केवइयं काल वड्ढमाणपरिणामे होज्जा' लापत Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०५ विंशतितम परिणामद्वारनि० ३४७ इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'जह नेणं एकं समयं जहा पुलाए' जघन्येन एक समयं यथा पुलाकः, जघन्येन एकं समयं यावद् वर्द्धमानवरिणामो भवेदिति भावः । 'एवं जाव परिहारविमुद्धिए' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः, यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयसंयतस्य ग्रहणं भवति तथा च सामायिक संयतवदेव छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयतौ जघन्येन एकं समयं यावत् चर्द्धमानपरिणामी भवेताम् तथा उत्कर्षेणान्तर्मुहुत्तेपर्यन्तं वद्धमानपरिणामौ भवेतामिति भावः । 'हुम संप रायसंजर णं भंते !" सूक्ष्मसंपरायसंयतः खलु भदन्त ! ' केवड्यं कालं वड्रमाणपरिणामे होज्जा' कियन्तं कालं वर्द्धमानपरिणामो भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! जहन्नेणं एकं समयं जघन्येन एकं समयं यावद् वर्द्धमानपरिणामो भवेत् सुक्ष्म संपरायसंयतः प्रतिपत्तिवाला रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोपमा जहन्नेणं एक्कं समयं उक्को सेणं एवं अंतोन्तं' हे गौतम! सामायिक संयत जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला रहता है 'जहा पुलाए' जैसा कि पुलाक रहता है । ' एवं जाव परिहारनिस्रुद्धिए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीयसंत और परिहार विशुद्धिकत ये दोनों भी जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक कईमान परिणामवाले रहते हैं । 'सुमपरायसंजरण भंते !" हे भदन्न ! सूक्ष्मसंगराव संपन 'केवइयं कालं चडूमाणपरिणामे होज्जा' कितने काल तक बर्द्धमान परिणामों वाला रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं' हे गौतम | सूक्ष्म संपरायसंयत जघन्य से एक समय तक સામાયિક સયત કેટલા કાળ સુધી વમાન પરિણામાવાળા હાય છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री हे छे - 'गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं एग' अंतोमुहुत्तं' हे गौतम! सामायिक संयत धन्यथी मे समय सुधी અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂત સુધી વમાન પરિણામેવાળા રહે છે. 'जहा पुलाए' प्रेम युवा रहे छे, तेभ 'एव' जाव परिहारविसुद्धिए' भे પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય સંયત અને પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત આ બેઉ જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂત સુધી વધમાન પરિણામवाणा रहे छे. 'सुडुमसंपरायसंजए णं भंते !' डे लगवन् सूक्ष्मस पराय संयत 'has' काल' वड्ढमाणपरिणामे होज्जा' उद्या आण सुधी वर्धमान परिशाभोवाणा रहे छे? सा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे छे - गोयमा ! जहनेणं एक समय' हे गौतम! सूक्ष्मस पराय संयंत धन्यधी भे સમય Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ radie समयानन्तरमेत्र सरणात् तथा 'उकोसेणं अंतोमुहुर्त' उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्तम् । तद् गुणस्थानकस्यैतावत्ममाणत्वात् 'केवइयं कालं हीयमाणपरिणामे' कियत्काळ पर्यन्तं सूक्ष्म पराय संयतः हीयमानपरिणामो भवेदिति नः भगवानाद- 'एवं er' इत्यादि, 'एवं चेव' एवमेव वर्द्धमानपरिणामे यथा कथितं तचैव जघन्येन एक समयमुत्कर्षेण तु अन्तर्मुहर्त अत्रापि हेतुः पूर्वोक्त एवेति । 'अहकखायसंजएणं भंते ! केत्रइयं कालं बडूमाणपरिणामे होज्जा' यथाख्यातः खलु भदन्त ! कियन्तं कालं वर्द्धमानपरिणामो भवेदिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोलमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'जहन्नेणं अंतोद्धत्तं उकोसेनि अनहुने' जयन्येनान्तकमान परिणामों वाला रहता है । क्यों कि प्रतिपत्ति के एक समग्र के बाद ही उसका मरण हो जाता है। तथा 'उठोसेणं अतोमुत्त' उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक बर्द्धमान परिणामों बाल रहता है। क्यों कि इस गुणस्थान का इतना ही प्रमाण होता है । 'केचये कोलं हीयमाणपरिणामे' हे भदन्त ! वृक्षमपराय संगत कितने फाल तक हीयमान परिणामों वाला रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- एवं चेव' हे गौतम! पराय संपत वर्द्धमान परिणामों के समय के जैसा जघन्य से एक समय तक और उत्कृट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक हीयमान परिणामों वाला रहता है। यहां पर भी ऐसा होने में पूर्वोक्त ही हेतु है । 'असंजए णं ने केवढ्यं कालं प्राणपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! खधाख्यात संयत कितने काल तक बर्द्धमान परिणामों वाला रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोग्रमा ! जहन्नेणं સુધી વર્ષીમાન પિરણામેવાળા રહે છે. કારણુ કે પ્રતિપત્તિના એક સમય पछी तेमनु भर अर्ध लय छे, तथा 'उकोसेणं अंतोगुहुत्तं' उत्कृष्टथी मे અંતર્મુહૂત સુધી વમાન પરિણામેાવાળા રહે છે. કારણુ કે-મા ગુણુસ્થાननु प्रभा ४ होय छे. 'केवइय' काल' हीयमाणपरिणामे' से लगवन् સૂક્ષ્મસ પરાય યતે કેટલા કાળ સુધી સીયમાણુ પરિણુામેવાળા રહે છે ? आा प्रश्नना उत्तरभां प्रलुश्री गौतमस्वामीने 'डे - 'एव' चेव' हे गौतम! સૂક્ષ્મસ'પરાય સયંત વધુ માન પરિણામેના સમયની જેમ જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂત સુધી હીયમાન પરિણામેાવાળા રહે છે અહિયાં પણ તેમ થવામાં પૂર્વક્તિ કારણુ જ છે. તેમ સમજવું 'अवाज णं भंते ! केवइय' काल वड्ढमाणपरिमाणे होज्जा' हे भगवन् યથાખ્યાતસયત કેટલા કાળ સુધી વધમાન પરિણામેાવાળા રહે છે આ પ્રશ્નના Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ लू०५ विंशतितम परिणामहारनि० ३४६ मुहूर्तम् उन्कर्षेगापि अन्तर्मुहर्त , वर्द्धमानपरिणामो भवेद् यथ ख्यात संयतः, यथाख्यासंयतः खलु केवलज्ञानमुत्पादयिष्यति ततो यश्च शैलेशीपतिपय स्तस्य. बर्द्धमानपरिणामो जघन्यत उत्कृष्टतथानमुत्तममाण एव भगति तदुतरकाले तद्वयवच्छेदादिति । 'कवयं कालं अट्ठियारिणामे होज्जा' यथाख्यासंयतः खलु भदन्त ! कियन्तं काल वस्थितपरिणामः स्थिरपरिणामो भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि गोयना' हे गौतम ! 'जहन्ने णं एक्कं समय' 'जघन्येन एक समयं यावद् यथाख्यातसंयतोऽवस्थि उपरिणामे भवेत उपशमाद्धायाः प्रथमसमयानन्तरमेव तस्य मरणात् । 'उक्कोसेणं देपूणा पुषकोडी' अंतोसुक्षुत्तं उन्कोलेणं वि अंगमुहुत्त' हे गौलाद ! जघन्य ले एक अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट खेली एक अन्त हतं तक बधाख्यात संपत्त चाईमान परिणामों काला होता है। क्योंकि धाख्यातसंयते केवलज्ञान उत्पन्न करेगा इसलिये जो घाख्यातसंपत शैलेशी प्रतिपन्न होता है उसका बर्द्धमान परिणाम जघन्य से और उत्कृष्ट से अन्त. मुहूर्त प्रमाणवाला ही होता है। क्यों कि उसके उत्तरकाल में उसका व्यवच्छेद हो जाता है । 'केवयं झालं अवष्टियपरिणामे होज्जा' हे भदन्त ! यथारूपालसंथत कितने काल तक अवस्थित परिणामों वाला होला ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'जोयना ! जहन्नेणं एक्कं समय हे गौतम ! यथारूपातसयत जघन्य एक समय तक अवस्थित परिणामा चालाहोता है, क्योंकि उपशम काल के प्रथम समय के बाद ही उसका मरण हो जाता है। और 'उकोखेणं देखणा पुषकोडी। उत्तरमा सुश्री गौतमस्वामीन ४९ छ -'गोयमा! जहण्णेण अंतोमहत्तं, उसोसेण वि अंतोमुहुत्तं' हे गौतम | धन्यथा मे मतभुत सुधी भने ઉત્કૃષ્ટથી પણ એક અંતમુહૂર્ત સુધી યાખ્યાત સંયત વર્ધમાન પરિણામ વાળા હોય છે કારણ કે-યથાગ્યાત સંયત કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરશે તેથી યથાખ્યાત સંયત શૈલેશી અવસ્થાવાળા હોય છે, તેમને વર્ધમાન પરિણામ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી અંતમુહૂર્ત પ્રમાણનું હોય છે. કારણ કે તેમના उत्तर Mia भवस्थानी व्य१२३६ (नाश) Jलय छे. 'केवइयकाल अवढियपरिणामे होज्जा' हे सगवन् यथाण्यात संयत रक्षा सुधी भव. થિત પરિણામેવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'गोयमा ! जहण्णेणं एक समय” 8 गौतम! यथाज्यात सयत न्यथी એક સરાય સુરી અવસ્થિત પરિણામેવાળા હોય છે. કેમકે-ઉપશમ કાળના पहेसा समय पछी २४ तनु म२५ २६ तय ७. मन 'उक्कोसेणं देसणा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D % 3 D भगवतीचे उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः, देशेन-अंशेन ऊना-न्यूना पूर्वकोटिः देशोन पूर्वकोटिकालपर्यन्त सुत्कर्पतोऽवस्थितपरिणामवान् भवेत् यथाख्यातसंयतः, एतच्चप्राग्वद्भावनीयम् इति(२०)। एकविंशतितम बन्धद्वारमाह-'सामाझ्यसंजएणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधई' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कति कर्मपकती वघ्नाति, कियत्कर्मप्रकृतीनां वन्धनं भवति सापायिकसंयतस्येति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तविहवंधर वा अविवंधर वा जहा बउसे' सप्तविधर्मप्रकृतेर्वन्धको भवेत् सामायिकसं यतोऽविधाया वा कर्मप्रकृतेर्वन्धको भवेत् यथा वकुशः, यथा बकुश स्तथाऽयमपि सप्तविधाया अष्टविधाया वा कर्मप्रकृतवन्धको भवति । तत्र सप्तकर्मप्रकृतीर्वघ्नन् आयुष्कर्जा सप्त कर्मप्रकृती बघ्नावि अष्टमकारक कर्म प्रकृतीवघ्नन् परिपूर्गा अष्टावपि कर्मउत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्वकोटि तक वह अवस्थित परिणामों वाला रहता है । यह वात पहिले कही जा चुकी है । अतः यहां पर भी वह वैसी ही समझ लेनी चाहिये बीसवां परिणामबार समाप्त । २१ वां बन्धद्वार का कथन । 'सामाइयसंजए णं भंते ! कह कम्मपगडीओ बंधई हे भदन्त ! सामायिक संयत कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्धन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ? सत्तविहबंधए वो अठनिहबंधए वा' हे गौतम! सामायिक संयत सात प्रकार की कर्मप्रकृतियों का अथवा आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का पन्ध करता है । 'जहा बउसो' जैसा कि यकुश करता है। जब यह सात प्रकार की कर्मप्रकृतियों का अन्ध करता है उस समय यह आयु कर्म को छोडकर सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध gઘોડી' ઉત્ક્રટથી કંઈક કમ એક પૂર્વકેટિ સુધી અવસ્થિત પરિણામેવાળા રહે છે. એ વાત પહેલાં કહેલ છે. તેથી અહિયાં પણ તે પ્રમાણે સમજી લેવું. હવે બંધદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधई' से सावन सामायि४સયત કેટલી કર્મ પ્રકૃતિયાને બંધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छ -'गोयमा! सत्तविहवंधए वा अविहबंधए वा' है गौतम ! सामायि સંયત સાત પ્રકારની કર્મપ્રકૃતિને અથવા આઠ કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે, 'जहा धउसो २ शत मश सात भने म भ प्रतियोनी सन् २ છે, તેમ જ્યારે તે સાત પ્રકારની કર્મ પ્રકૃતિનો બન્ધ કરે છે, તે સમયે તે આયુકમ પ્રકૃતિને છેડીને બાકીની સાત કર્મ પ્રકૃતિને બન્ધ કરે છે. અને જ્યારે તે આઠ પ્રકારની કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે, ત્યારે તે Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभैन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०५ एकविंशतितमं बन्धद्वार निरूपणम् ३५१ प्रकृती नातीति भावः । ' एवं जान परिहारविमुद्धिए' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः, यथा सामायिकसंयत एवं यावत् परिहारविशुद्धिकसंयतोऽपि सप्तविधकर्मप्रकृति वंधको वा भवति, अष्टविधकर्मप्रकृतिवन्धको वा भवति तत्र सप्त प्रकृतीनां वन्धको भवन आयुष्कवर्जिताः सप्तप्रकृती वैध्नाति अष्ट वध्नन् परिपूर्णा अष्टावपि तस्य वद्धा भवन्ति अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीय संयतस्य ग्रहणं भवति तथा च अयमपि सप्त कर्मप्रकृतीनां वा चन्धको भवतीति, 'सुहुमसंपरायसंजय पुच्छा' सूक्ष्म संपरायसंयतः खल भदन्त । कतिकर्म प्रकृती धनातीति पृच्छा - प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगडीओ बंधई' आयुष्कमोहनीयवर्णाः पट्कर्मप्रकृती मातिसूक्ष्म पराय संयतः, अयं हि आयुष्ककर्मणो वन्धको न भवति अममता करता है, और जब यह आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है तब यह सम्पूर्णरूप से आठ कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है । 'एवं जाव परिहारविसुद्धिए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत और परिहारविशुद्धिकसंयत भी सात प्रकार की और आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सात प्रकार की कर्म प्रकृतियों के बन्ध करने में वे आयुष्क कर्म का बन्ध नहीं करते हैं और आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों के बन्ध करने में वे सम्पूर्ण ज्ञानावरणादिक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। 'सुहमसंपरायसंजर पुच्छा' हे भदन्त ! सूक्ष्म संपत कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयना ! आउय मोहणिज्जवज्जाओ छ कम्म पगडीओ बंध' हे गौतम ! आयुष्क और मोहनीय कर्म प्रकृतियों को साथी आहे आठ अमृतियोो अन्ध हरे छे. 'एव' जाव परिहार विसुद्धिए' मे४ प्रभाषे हेहोपस्थापनीय संयंत अने परिहार विशुद्धि सायत પણ સાત પ્રકારની અને આઠ પ્રકારની કમ પ્રકૃતિચેના ખધ કરે છે. જ્યારે તે સાત પ્રકારની ક્રમ પ્રકૃતિયેાના અધ કરે છે, ત્યારે તે આયુષ્ય ક પ્રકૃતિના ખંધ કરતા નથી. અને જ્યારે આઠ પ્રકારની ક્રમ પ્રકૃતિયાને બંધ કરે છે, ત્યારે તે સ ́પૂર્ણ જ્ઞાનાવરણીયાદિ આઠેક પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે. 'सुहुमसपरायसंजए पुच्छा' हे भगवन् सूक्ष्मस'पराय संयंत डेटली ४ अतियाना घरे छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री आहे - 'गोयमा ! आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगड़ीओ बंध' हे गौतम! आयुष्य Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भगवती -वस्थातः पूर्वमेव आयुष्ककर्मणो वन्धसद्भावात् मोहनीयं च कर्म वादकषायो दयाभावाद न बध्नाति अतएवायुष्णमोहनीय कर्मद्वयमर्जिताः पट्कर्मप्रकृतीरेव नातीति भावः । 'अहक्वायसंजय जहा सिणाए' यथाख्यातसंयतो यथा स्ना तक:, यथाख्यातसंयतः खलु मदन्त ! कतिकर्मप्रकृती नाति ? गौतम ! एकप्रकारक कर्मप्रकृतिवन्धको वा भवति अवन्धको वा भवति कर्मप्रकृतेर्यथाख्यातः, एकां कर्मप्रकृति वध्नन् वेदनीयकर्मपकृतिमात्रं बनातीति भावः (२१) । 'सामाज णं ते! कह कम्मपगढीओ वेदेह' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वेदयति-कति कर्मप्रकृतीनां वेदन करोतीति प्रश्नः, छोडकर सूक्ष्मसंपरायसंगत छह कर्म प्रकृतियों का पन्ध करता है । यह आयुष्क कर्म का बन्धक इसलिये नहीं होता है कि अप्रमत्तावस्था से पहिले ही आयुष्क कर्म का बन्ध होता है । तथा मोहनीय कर्म का बन्ध बादर कषाय के अभाव होने से दले नही होता है । 'अवाय'संजए जहा सिणाए' हे भदन्त यथाख्यातसंयत कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है ? उत्तर में प्रसुश्री करते हैं - हे गौतम । यथाख्यातसंयत एक प्रकार की कर्म प्रकृतियों का पन्ध करता है । अथवा यह बन्ध नहीं भी करता है । जय वह एक प्रकार की कर्मप्रकृति का बन्ध करता है तब केवल एक वेदनीय कर्म प्रकृति का ही बन्ध करता है । इक्कीसवां बंध द्वार समाप्त 1 २२ वां वेदन हार का कथन 'लामाइयसंजए णं ते! यह कमपणडीओ वेदेह' हे भदन्त ! सामायिक संयत कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन-अनुभवन करता है ? માહનીય ક્રમ પ્રકૃતિયાને છેડીને સૂક્ષ્મસ‘પરાય સયત છ કમ પ્રકૃતિયાને અધ કરે છે. તે આયુષ્ય ક` પ્રકૃતિચેના 'ધ કરનાર એ માટે હાતા નથી કે-તે અપ્રમત્ત અવસ્થાની પહેલા જ આયુષ્ય ક`ના ખંધ કરે છે. તથા માહનીય ક પ્રકૃતિના 'ધ માદર કપાયના અભાવપણાને લઇને તેને હાતે नथी. 'अइक्खायसंजए जहा सिणाए' हे भगवन् यथाभ्यात संयत डेंटली म પ્રકૃતિયાના બંધ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! યથાખ્યાત સયત એક પ્રકારની ક પ્રકૃતિના બંધ કરે છે, અથવા નથી પણુ કરતા જ્યારે તે એક પ્રકારની ક્રમ પ્રકૃતિના મુ ધ કરે छे, त्यारे ते ठेवण मे! वेनीय प्रकृतिनो बंध पुरे हो. 'सामाइय संजए णं भंते! कइकम्मपगडीओ वेदेइ' से लगवन् भ्राभायिक संयंत 'उटसी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ १०५ द्वाविंशतितम वेदनहारनिरूपणम् ३५३ भगबानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णियमं अट्टकम्मपगडीओ वेदेई' नियमावष्ट धर्मप्रकृतीर्वेदयति नियरवोऽष्टानामपि कर्मपकृतीनामनुगर्व करोतीत्यर्थः । 'एवं जाव सुहमसंपराए' एचं यावत्सूक्ष्मसंपरायः, एवं सामायिक संयतवदेव छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसपरायसंयता नियमतोऽष्टकर्म मकृतीनां वेदका अनुभवकारो भवन्ति 'अहवखाए पुच्छा' यथारूपातयतः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वेदयतीति पृच्छा--प्रश्न:, भगवानाह-गोयमा' .इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तविहवेयए वा चउनिहवेयए का' सप्तविधर कर्मप्रकृतीनां वेदको वा भवति यथाख्यातश्चतुर्विधर्मपकृतीनां वा वेदको भवति तत्र 'सत्त वेएमाणे मोहणिज्जवाजाओ सत्तकम्मपगडीओ वेदेइ सप्तविवकर्मप्रकृती वेदयन् मोहनी यवर्जिताः सप्त कर्म प्रकृती दयति, यथाख्यासंयतोहि निर्ग्रन्थाउत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोशमा ! णियमं अहकामपगडीओ वेदेई' हे गौतम ! सामयिक संगत नियमले आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। 'एचं जाय सुहमसंपदाए' सानायिकसंधत्त के जैले ही छेदोपस्थापनीय संपत्त, परिहारविशुद्धिक और सूक्ष्मसंपरायलंयत नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं । 'अहवाए पुच्छा' हे भदन्त ! क्याख्यालयत कितनी कलेप्रकृति का वेदन करता है ? 'उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-वत्तविह वेयर वा चउविवेयए वा' हे गौतम ! बधाख्यात पतलात काले प्रकृतियों का देदन करता है अथवा चार कर प्रकृतियों का वेदन करता है। 'शत्तएमाणे मोहणि ज्जबज्जाको सत्तारलगडीओ वेदेव' जब वह सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है तो मोहनीय कर्मप्रकृति को छोडकर लान कर्मप्रकतियों का दान करता है। क्योंकि यथाख्यात संयत्त निग्रन्थावस्था में કર્મ પ્રકૃતિનું વેદન–અનુભવ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે, छ -'गोयमा । णियम अट कम्मपगडीओ वेदेइ' हे गीत! ते सामायि सगत नियमथी म।। म तियानु वेहन ४२ छे. 'एव जाव सुहमसपराए' એજ પ્રમાણે સામાયિક સંયતના કથન પ્રમાણે યાવત્ છેદેપસ્થાપનીય સંયત પરિહાર વિશુદ્ધિક સ યત અને સૂક્ષ્મસં૫રાય સંયત નિયમથી આઠ કર્મ प्रतियानु वहन ४२ छ. 'उहखाए पुच्छा' 3 वन् यथाण्यात सयत કેટલી કર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે ? તેના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'सत्तविश्वेयए वा, चउबिहवेयए वा' हे गौतम! ययाच्यात सयत सात કર્મ પ્રકૃતિનું છેદન કરે છે, અથવા ચાર કર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે 'सत्त वेएमाणे मोहणीनवनाओ सत्त कम्मपगडीओं वेदेई' यात सात પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે, ત્યારે તે મોહનીય કર્મપ્રકૃતિને છોડીને સાત કર્મ भ० ४५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले घस्थायां मोहचजितानां कर्ममकृतीनां वेदको भवति मोहनीयकर्मण उपशान्त स्वात् क्षीणस्वाति । 'पत्तारि घेएमाणे वेयणिज्जाउय-नाम-गोयाओ चचारि फम्मपगडीओ वेदेइ चतस्त्रः वर्मप्रकृती वेदयन् वेदनीयायुष्क नाम-गोत्र रूपा. भतस्रः कर्मप्रकृती वेदयति याथाख्यातसंयतो हि स्नातकावस्थायां चतसणामेव वेदनीयायुष्कनामगोत्ररूपाणामघातिकर्मप्रकृतीनां वेदको भवति घातिकर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयादीनां चतुर्णा मूलतः क्षीणत्वादिति वेदनद्वारम् (२२) - अथ त्रयोविंशतितममुदीरणाद्वारमाह-'सामाइयसंजए णं' इत्यादि, 'सामा. इयसंजए णं भंते सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'कडकम्मपगडीमो उदीरो' कति कर्मयकृती रुदीरयति-ऋतिकर्मप्रकृतीनामुदीरणां करोतीति प्रश्ना, मोह के उपशान्त हो जाने से अथवा क्षीण हो जाने से मोहनीयवर्जित 'सात प्रकृतियों का वेदक होता है। 'चत्तारि वेएमाणे वेयणिज्जा. उपनाम गोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेव' और जब यह यथा. ख्यातसंयत चार कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है तब उस समय वेदनीय, आयुष्म, नाम और गोत्र रूप चार अघातिया रूप कर्मप्रकृ. तियों का वेदन करता है। क्योंकि उसके इस अवस्था में ज्ञानावरण, दर्शनावर ण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातियाकर्म प्रकृतियां मूलतः क्षीण हो जाती है । यह घाईस वां वेदन द्वार समाप्त । २३ उदीरणा द्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भते! कह घ.म्मपगडीओ उदीरे' हे भदन्त! सामायिक संघत कितनी कर्म प्रकृतियों की उदीरणा करता है ? उत्तर પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે કારણ કે યથાખ્યાત સંયત નિન્ય અવસ્થામાં મેહના ઉપશાંત થઈ જવાથી અથવા ક્ષીણ થઈ જવાથી મોહનીય કર્મ પ્રકૃતિને छोडी. सात प्रतियानु ०४ वेहन ४२नारा डाय .छ. 'चत्तारि वेएमाणे वेयणिज्जाउयनामगोयाओ चत्तारि कम्मपगडीओ एइ' भने न्यारे ते यथाખ્યાત સંયત ચાર કર્મ પ્રકૃતિનું વેદન કરે છે, ત્યારે તે સમયે તે વેદનીય આયુષ્ય, નામ, અને ગોત્ર રૂપ ચાર અઘાતિયારૂપ કર્મ પ્રકૃતિનું વદન रेछ. - अवस्थामा ज्ञानावण, शनावरण, मोहनीय, भने मात રાય આ ચાર ઘાતિયા કમ પ્રકૃતિ મૂળથી ક્ષીણ થઈ જાય છે. બંધદ્વાર સમાપ્ત હવે ઉદીરણાદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે 'सामाइयसंजए णं भवे | कइ कम्मपगडीओ उदीरेइ' है सावन साभाराय: સંયત કેટલી કમ પ્રકૃતિની ઉદીરણું કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०५ त्रयोविंशतितम उदीरणाद्वारनि० ३५५ भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम! 'सत्तविह जहा वउमो' सप्तविध यथा वकुशः, सामायिकसंयतः सप्तविधकर्मणा सुदीरको वा भवति अष्टविधकर्मणा मुदीरकोवा भवति पदविधकर्मणामुदीरको वा भवति । तत्र सप्तविध कर्मप्रकृती रुदीरयन् आयुष्कवर्जिताः सप्त कर्मप्रकृती रुदीयति, अष्टविधकर्मप्रकृती रुदीरयन परिपूर्णा अष्टावपि कर्मप्रकृती रुदीरयति, पदविधकर्मप्रकृती रुदीरयन् आयुष्कवेदनीयवर्जिताः पट् कर्म प्रकृती रुदीरयतीति भावः । ' एवं जात्र परिहारविसुद्धिए' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकसंयतः अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयसंयतस्य ग्रहणं भवतीति । तथा च सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्विकसंयतावपि सप्ताष्टपत्र विधकर्मप्रकृतीनामुदीरकौ भवेतामिति भावः । में प्रभुश्री कहते है - 'गोयमा ! सत्तविह जहा बउसो' हे गौतम ! सामायिकसंयत कुश के जैसे सात कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है । अथवा छह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का उदोरक होता है । जब यह सात कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है तब यह आयु कर्म को छोडकर सात कर्म प्रकृतियों का उदोरक होता है और जब यह आठ कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है, तो उस अवस्था में पूरीं आठों कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है तथा - जब यह छह कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है-तब यह आयु और वेदनीय इन दो कर्मप्रकृतियों को छोडकर ज्ञानावरणीयादिक ६ कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है । ' एवं जान परिहारविसुद्दिए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत और परिहारविशुद्धिक संयत भी सात आठ और ६ कर्मप्रकृतियों के उदीरक होते हैं । 'सुमपराए पुच्छा' हे भदन्त ! ४डे छे !-'गोयमा ! सत्तविह जहा बउसो' हे गौतम! सामायिक संयत मधुશના કથન પ્રમાણે સાત કાઁપ્રકૃતિચાની ઉદીરણા કરે છે. અથવા આઠ કમ્ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. અથવા છ કેમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે, જ્યારે તે સાત કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે તે આયુષ્ય કર્માંને છાડીને સાત કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. અને જ્યારે તે આઠ ક પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે ત્યારે તે પૂરેપૂરી આઠે કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. જ્યારે તે છ કમ પ્રકૃતિયેાની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે આયુષ્ય અને વેદ્નીય એ એ કમ` પ્રકૃતિયેાને ઘેાડીને જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે છ કમ પ્રકૃतियोनी उहीरा रे छे. 'एवं जाव परिहारविसुद्धिए' मे प्रभा होयસ્થાપનીય સયત અને પરિહાર વિશુદ્ધિક સહયત પણુ સાત-આઠ અને છ उर्भ प्रकृतियाना धीर होय छे. 'सुहुमसंपराए पुच्छा' से लगवन् सूक्ष्म Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भगवती सूत्रे 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौतम! 'सामाइयसंजयत्तं जहई' सामायिकसंयतत्वं जहाति त्यजतीत्यर्थः अथ च 'छेदोवद्वावणियसंजयत्तं वा सुमसं पराय संजयत्तं वा, असं जमं वा संनमासंनमं वा उवसं ज्न' छेदोपस्थापनीयसंयत त्वं वा सूक्ष्मसंपरायसंयत्वं वा असंजमं वा संयमासंयमं (देशविरर्ति) वा उपसंपद्यते - स्वकीयं सामायिकसंपतत्वं परित्यज्य छेदोपस्थापनीयत्वादि धर्म वा असंयमत्वं संयमासंयमत्वं वा प्रप्नोतीति भावः, सामायिक संयतः सामायिक संयतत्वंत्यजति छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते चातुर्यावधीद पञ्चगामधर्मसंक्रमे पार्श्वनाथशिष्यवत् शिष्यो वा महाव्रतारोपणे, सूक्ष्म संप रायसंयतत्वं वा प्रति२४ उपसंपद् हान द्वार का कथन 'सामाइयसंजए णं भंते! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे किं जहर ' हे भदन्त ! सामायिक संयत सामायिकसंगत अवस्था को छोडना हुआ किसका त्याग करता है ? 'किं उबसंपज्जद्द' और किसका उपादानग्रहण करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! सामाइय संजयत्तं जहद्द' हे गौतम ! सामायिकसंघत सामायिकसंयत अवस्था का त्याग करता है और 'छेदोवावणियसंजयत्तं वा सुमपरायसंजयन्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपजह' छेदोपस्थापनीय संयत अवस्था का उपादान करता है, सूक्ष्मसंपरायसंगत अवस्था का उपादान करता है, असंयत अवस्था का उपादान करता है और संयतासंयत अवस्था का उपादान करता है । छेदोपस्थापनीयसंयत अवस्थाका उपादान सामायिकसंघत करता है ऐसा जो कहा गया है वह હવે ઉપસ પદ્માન દ્વારનુ સ્થન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भंते! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे किं जहइ' हे भगवन् સામાયિક સ’યત સામાયિકપણાને છેાડતા થકા શેના ત્યાગ કરે છે ? વિ उपसंपज्जइ' भने शेनी प्राप्ति ४२ १ मा प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री गौतम स्वाभीने कुडे छे - 'सामाइयसंजयन्तं जहइ' हे गौतम! सामायिङ संयत, सामायिक सौंयत अवस्थामा त्याग उरे छे भने 'छेदोवद्वावणियसजयत्तं वा सुम परायस' जयत्त' वा असंजम वा संजमासंजम वा वस' पज्जइ' छेहेोપસ્થાપનીય સ‘યત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે. સૂક્ષ્મસ'પરાય સયત અવસ્થાનુ ઉપાદાન પ્રાપ્ત કરે છે, અસયત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે અને સયતા સંયંત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. સામાયિક સયત છેદેપસ્થાપનીય સચત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે, તેમ જે કહેવામાં આવ્યું છે, તે પાર્શ્વનાથના શિષ્ય જેમ ચાતુર્યંમ ધમ માંથી પચયામ ધર્મોનું સંક્રમણ (પ્રાપ્તિ) કરે છે, એજ પ્રમાણે Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमेयचन्द्रिका दीका श०२५ उ.७ २०५ चतुर्विंशतितममुपसंपद्धानद्वारनि० ३५९ पद्यते, श्रेणि प्रतिपतितः असंयमादिर्वा भवेदिति । 'छेदोक्ट्ठावणिए पुच्छा' दोपस्थापनीयः खल भदन्त ! छेदोपस्थापनीयत्वं त्यजन् के धर्म त्यजति कं च धर्ममासादयतीति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छेदोवट्ठावणियसंचयत्तं जहई' छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं जहाति-त्यजतितथा-'सामाइयसंजयत्तं वा परिहारविसुद्धियसंजयत्तं वा सुदुमसंपरायसंजयत्तं वा पार्श्वनाथ के शिष्य जैसे चातुर्याम धर्म से पंचयाम कर्म में संक्रमण करते हैं, उसी प्रकार से यह भी छेदोपस्थापनीयसंयत अवस्था का उपादान करता है। अथवा-शिष्य अवस्था से जब यह महाव्रती अब. स्था में प्रवेश करता है तब इसमें महावतों का आरोपण होता है। इस अपेक्षा से भी यह छेदोपस्थापनीयसंयत होता है। तथा जय यह श्रेणी पर आरोहण करता है उस समय यह सूक्ष्मसंपरायसंयत अव. स्था को प्राप्त कर लेता है और जब श्रेणिप्रतिपतित होता है तब यह भाव चारित्र से पतित हो जाता है । तब असंयत अथवा संयता. संपत अवस्था को प्राप्त कर लेता है । तथा काल कर जाने पर भी असंयन अवस्था को प्राप्त कर लेता है। 'छेदोवठ्ठावणिए पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत जब छेदोपस्थापनीय संयत अवस्था का त्याग करता है तब यह किस धर्म का त्याग करता है और किस धर्म का उपादान करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! छेदोवट्ठावणियसंजयत्तं जहइ' हे गौतम ! जब छेदोपस्थापनीयसंयत छेदोपस्थापनीयसंयत अवस्था का त्याग करता है-तब यह सामायिकसंयत આ સામાયિક સંયત પણ છેદોપસ્થાપનીય સંયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા શિષ્ય અવસ્થાથી જ્યારે તે મહાવ્રતીની અવસ્થામાં પ્રવેશ કરે છે, ત્યારે તેમાં મહાવ્રતનું આરોપણ થાય છે. તથા જ્યારે તે શ્રેણી પર આરોહણ કરે છે, તે સમયે તે સૂફમસં૫રાય સંયત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે અને જ્યારે તે ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થાય છે, તો તે રિથતિમા તે ભાવચારિત્રથી पतित थ पाथी मस यतपणाने प्रात रे छे. 'छेदोवद्वावणिए पुच्छा है ભગવદ્ છેદેપસ્થાપનીય સંયત જ્યારે છેદપસ્થાપનીય સંયત અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે ત્યારે તે શેને ત્યાગ કરે છે? અને શેની પ્રાપ્તિ કરે છે? આ प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन डे छे -गोयमा ! छेदोवद्रावणियसंजयत्त' जहइ' गौतम ! रे छे।५३थानीय सयत, हेपत्यापनीय સંયત અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે સામાયિક સંયત અવસ્થાને, પરિ, Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपपतीसत्रे 'असंजमं वा-संजमासंजमं वा उपसंपज्जइ' समायिकसंयतत्वं चा परिहारविशुद्धिकसंयतत्त्वं चा सूक्ष्मसंपरासंयतत्वं वा असंयभं वा संयमासंचयं वा उपसपयते । छेदोषस्थापनीयसंयतः छेदोपस्थापनीयत्वं त्यजन् सामायियसंयतत्वं संपद्यते यथा आदिनायसाधुः अजितस्वामितीर्थ मतिपघमानः, परिधारविशुद्धिकसंयतत्व पा मतिपद्यते छेदोषस्थापनीयसंयत एव परिहारविशुद्धिक संपदस्य योग्यतादिति तथा सूक्ष्मसंपरायत्वं वा असंयमं संयमासंयम वा प्राप्नोतीति । 'परिहारविनिए पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतः खल्लू महन्त परिहार विगु ईकरांयतत्वं न्यजन के धर्म त्यजति कं धर्म च उपसंपचते इति पृच्छा-पना भगवालाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'परिवारविमृद्धिसंजय ते जह' परिवारविशुद्धिसंयतत्वं जहाति अवस्था का, परिहारविशुद्धिक मांधत अवस्थामा सक्षमसंपरायसंवत अवस्था का, असंयत्त अवस्थाका अधवा संचमान्य अवस्था का उपादान करता है । छेदोपस्थापनीयसंबल दोपहनापनीयता का परित्याग करते हुए जैसे अजीतनाथ के तीर्थ को स्वीकार करते हुए आदिनाथ के साधु के जैसा सामायिजसंपत्तता प्रासकरता है, अपना परिहारविशुद्धिकसंगत अवस्था को स्वीकार करता है क्योंकि दोपस्थापनीय चारित्रालाही परिहारविशुद्धिक के योग्य होता है। अथवा वृक्ष्यसंपराय जबरमा को, असंयात अचस्था को अगवा संगमासंघम अवस्था को प्राप्त करता है। परिवारपिस्टुद्धिए पुच्छा' हे भदन्त ! परिहार विशुद्धिप्तसंयत परिहार विशुद्धिक्षसंगत अवस्था का परित्याग करता हुआ किस र्ग का परेवाग करना है और किस अवस्था या उपादान करता ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोरमा ? परिहाइविसुछिसंजयतं जहइ' हे गौतम! હારવિશુદ્ધિક સંયત અવસ્થાને ચૂમસં૫રાય સંયત અવસ્થાને, અસંયત અવસ્થાને અથવા સંયમસંયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. છેદો પસ્થાપનીય સંયત છેદપસ્થાપનીયપણાને પરિત્યાગ કરતો થકે આદિનાથના સાધુ પ્રમાણે અજીતનાથના તીર્થને રવીકાર કરતા થકા પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત અલસ્થાન વીકાર કરે છે કેમકે છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રવાળા જ પરિહારવિશુदिन योग्य डाय छे. 'परिहारविसुद्धिए पुच्छा' मगवन् परिक्षाविशुद्धि સંવત પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત અવરથાનો પરિત્યાગ કરતા થકા કયા ધર્મનો પરિત્યાગ કરે છે ? અને કઈ અવસ્થાની પ્રાપ્તિ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है-'गोयमा ! परिहारचिसुद्धिसंजयन्तं जड्इ' गौतम ! परि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेय चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०५ चतुर्विशतितममुपसंपद्धानद्वारनि० ३६१ -स्यजति स्ववृत्तितादृशधर्मात् दुरीभूतो भवति इत्यर्थः, तथा 'छेदोवद्यावणिय. संजय तं वा असंजमं वा उवसंवज्जइ' छेदोपस्थापनीयसंयतत्वमुपसंपद्यते-माप्नोति यद्वा असंयमत्वमुपसंपद्यते-प्राप्नोति परिहारविशुद्धिकसंयतः 'परिहारविशुद्धिकसंयतत्त्वं त्यजन् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते पुनर्गच्छाधाश्रयणात् असंयमं वा पतिपद्यते देवत्वोत्पत्ताविति । 'सुहुमसंपराए पुच्छा' सूक्ष्मसंपरायसयतस्त्वं त्यजन् कं धर्म प्रतिपद्यते इति पृच्छा प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सुहुमस परायसंजयत्तं जहई' सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं स्वकीयं जहाति, 'सामाइयसंजयं वा छेदोवद्यावणियसंजयं वा अहक्खासंजय वा-असंजमं वा उपसंपज्जई' सामायिकसंयतत्वं वा छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा यथाख्यात. जब परिहार विशुद्धिकसंयत अवस्था का परिहार विशुद्धिकसंयत परि. त्याग कर देता है तब वह अपनी वृत्ति के जैसे धर्म से दूर हो जाता है तब वह पुनः गच्छादिक के आश्रयण से छेदोपस्थापनीयसंयत अवस्था को प्राप्त कर लेता है अथवा देवादिकों में उत्पन्न होने पर वह असंयम अवस्था को प्राप्त कर लेता है 'सुटुमसंपराए पुच्छा' हे भदन्त ! सूक्ष्मसंपरायसंघत जव अपनी अवस्था का परित्याग करता है तो वह किस अवस्था को छोडता है और किस धर्म को अङ्गीकार करता है ? उत्तर में प्रभुश्री हैं-'गोयमा सुहमसंपरायसंजयत्तं जहइ, सामाझ्यसंजयं वा, छेदोवद्यावणियसंजयं वा अहक्खासंजय वा असंजयं वा उवसंपज्जा' हे गौतम ! सूक्षलसंपरायसंयत जब अपनी सूक्ष्मसंपराय संयत अवस्था का परित्याग करदेता है तब वह अथवा तो सामायिक संयत अवस्था को प्राप्त करता है अथवा छेदोपस्थापनीयसंयत अवस्था હારવિશુદ્ધિક સંયત જ્યારે પરિહાર વિશુદ્ધિક સંતપણાનો ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે પિતાની વૃત્તિ જેવા ધર્મથી દૂર થઈ જાય છે. તે પછી તે ફરીથી ગચ્છ વિગેરેના આશયથી છેદપસ્થાપનીય અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે છે, અથવા દેવાદિકમાં ઉત્પન્ન થયા પછી તે અસંયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે छ. 'सुहमसपराए पुच्छा' ३ मगवन् सूक्ष्मस ५२शय संयत न्यारे पातानी અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે કઈ અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે ? અને કઈ भवस्थानी प्राति ३१ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -"गोयमा ! सुहमसंपरायस जयत्तं जहइ सामाइयसंजय वा, छेदोवद्वावणियसंजय वा अहक्खायसंजय वा, असंजय वा उबसपज्जई' गौतम ! सूक्ष्म पराय सयत જ્યારે પોતાની સુમસં૫રાય અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે, ત્યારે તે કાં તો સામાયિક સંતપણાને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા છેદપસ્થાપનીય સંયત અવ भ०४६ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस કુદર संगतत्वं वा - असंयमं वा उपसंपद्यते, सूक्ष्म संपरायसंयतः सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं श्रेणीमतिपातेन त्यजन सामायिसंयतत्वं प्रतिपद्यते यदि कदाचित् पूर्व सामायिकसंयतो भवेत् तदा छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते यदि वा पूर्वे छेदोप- स्थापनीयसंयतो भवेत्तदा यथाख्यातसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणीसमारोहणत 'इति । 'अक्सा संजय पुच्छा' यथाख्यातसंयतो ययाख्यातसंयतत्वं रजजन कं 'स्यजति कंस वा धर्ममुपसंपद्यते इति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, 'Man't it! 'अवखाय संजयत जहर' यथाख्यासंयतत्वम् स्वकीयधर्म 'जहाति 'हुम संपरा संजयत्तं वा असंजमं वा सिद्धिगई चा उवसंपज्जह' सूक्ष्मको प्राप्त करना है अथवा यथाख्यातसंयत अवस्था को प्राप्त करता है अथवा असंगत अवस्था को प्राप्त करता है । सूक्ष्मसंपरायसंयत श्रेणी से पतित हो जाने पर अपनी समसंपरायसंगत अवस्था का परित्याग 'करदेता है और सामायिकसंघत अवस्था को प्राप्त कर लेता है । यदि , कदाचित् वह पहले सामायिकसंपत सेना है तो यह छेदोपस्थापनीय संघत अवस्था को प्राप्त कर देता है । और यदि कदाचित् वह पहिले छेदोपस्यापनीयसंघल अवस्थाबाला होता है तो वह श्रेणी का समारोहण करने से यथाख्यान संपत अवस्था को प्राप्त कर लेता है । 1 'अक्खायसंजए पुच्छा' हे भदन्त यथाख्यान संयत यथाख्यातसंयल अवस्था का परित्याग करता हुआ क्या छोड़ता है और किस धर्म को ग्रहण करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा । अहक्वायसं जयन्तं जहह, संजयं वा असंजयं का सिद्धिगई वा સ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા ચાખત સયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા અસયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. સૂક્ષ્મસ'પરાય સયત શ્રેણીથી પતિત થઈ જવાથી તે પેાતાની સુક્ષ્મસ'પરાય સચત અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે. અને સામાયિક સયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. કદાચ જે તે પહેલાં સામાયિક સયત થઇ જાય છે, તેા તે છેદેપસ્થાપનીય સયતપણાને પ્રાપ્ત કરી લે છે. અને કદાચ તે પહેલાં છેદેપસ્થાપનીય સંયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે છે, તા તે યાખ્યાત સચત અવસ્થાની શ્રેણી પર આણુ કરવાથી તેને પ્રાપ્ત કરે છે. 'अक्खायसंजर पुच्छा' हे गवन् यथाभ्यात संयंत, यथाभ्यातसंयंत અવસ્થાના ત્યાગ કરતા થકા શેના ત્યાગ કરે છે? અને શેની પ્રાપ્તિ કરે છે ? या प्रश्नमा उत्तरमां अनुश्री छे है - 'गोयमा ! अहम्खायसंजयत्त' जहइ, सुहुमस परायस' जयत्तं वा, असं जयं वा, सिद्धिगइ वा उवस परजङ्ग' हे गौतम! Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका २०२५ उ.७ सू०६ संज्ञोपयोगादिद्वारनिरूपणम् संपरासंयतत्वं वा सिद्धिगति वा उपपद्यते-प्राप्नोति, यथाख्यासंयतः श्रेणीतः पतनात् यथाख्यातरांयतत्वं त्यजन् सूक्षणसंपरायसंयत्वत्वं प्राप्नोति असंयम वा प्राप्नोति यदि-उपशान्तमोहावस्थायां मरणं माप्नोति तदा देवगति गच्छन् असंयमं प्राप्नोति, स्नातकावस्थायां यदि मरणं भवेत्तदा सिद्धिगति पाप्नोतीति भावः । (२४) ।मु०५॥ , संज्ञोपयोगादिद्वारे सूत्राण्याह-'सामाइयसंजए णं' इत्यादि, __ मूलम्-सामाइथसंजए णं भंते ! किं सन्नोवउत्ते होजा नो सन्नोवउत्ते होजा? गोयमा ! सलोवउत्ते जहा बउलो, एवं जाव परिहारविसुद्धिए, सुहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए २५ सामाइयसंजए णं भंते ! किं आहारए होज्जा अणाहारए होज्जा, जहा पुलाए । एवं जाव लुहुनसंपराए अहक्खायसंजए जहा सिणाए २६ । सामाइसंजयलणं भंते ! कह भवग्गहणाई उवसंपज्जद' हे गौतम ! यथाख्यातलंयत जय श्रेणी से पतित हो जाता है तब वह अपनी यथारख्यात संयत अवस्था का परित्याग करता है एसी हालत में वह अथवा तो सूक्षणसंपरायसंघत अवस्था को प्राप्त करता है अथवा असंघम अवस्था को प्राप्त करता है क्यों कि वह यदि उपशान्त मोहावस्था में सरण को प्राप्त हो जाता है तो वह देव. गति को प्राप्त कर लेता है और वहां संयम है नहीं इसलिये वह असंयम अवस्था को प्राप्त करने वाला कहा गया है और यदि उसका स्नातक अवस्था में मरण होता है तो वह सिद्धिगति को प्राप्त कर लेता है । उपसंपद् हान द्वार का कथन समाप्त ॥सू० ५॥ યથાખ્યાત સંયત જયારે શ્રેણીથી પતિત થાય છે, ત્યારે તે પોતાની યથા ખ્યાત સંયત અવસ્થાને ત્યાગ કરે છે. એ પરિસ્થિતિમાં કાંતે તે સૂક્ષ્મ સં૫રાય સંયત અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અસંયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, કેમકે તે જે ઉપશાંત મેહાવસ્થામાં મરણને પ્રાપ્ત કરે છે, તે તે દેવગતિને પ્રાપ્ત કરી લે છે, અને ત્યાં સંયમ હેતે નથી, તેથી તે અસંયમ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરનાર કહેલ છે. અને જે સ્નાતક અવસ્થામાં તેનું મરણ થાય છે, તો તે સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. એ રીતે આ ઉપસં૫દ્ધાનદ્વાર કહ્યું છે. સૂપ , ઉપસંદ્ધાનદ્વાર સમાપ્ત Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કૂષ્ટ भगवती सूत्रे होज्जा, जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं अट्ट, एवं छेदोवट्टावणियस्स वि । परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा गोयमा ! जहनेणं एकं उक्कोसेणं तिन्नि । एवं जाव अहवखायस्स २७ । सामाइय संजयस्स णं भंते । एगभवग्गहणीया केवइया आगरिसा पन्नत्ता गोयमा ! जहनेणं जहा वउसस्स छेदोवट्टावणियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक्को उक्कोसेणं वासपुहुत्तं । परिहारविसुद्धियस्त पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं एक्को उक्कोसेणं तिन्नि । सुहुमसंपरायस्स पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणं एको उक्कोसेणं चत्तारि । अहक्वायस्स पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एक्को उक्कोसेणं दोन्नि । सामाइयसंजयस्त णं भंते! णाणाभवग्गहणीया केवड्या आगरिसा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहा वउसे । छेदोवावणियस्स पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं उवरिं नवहं सयाणं अंतोसहस्सस्स । परिहारविसुद्वियस्स जहन्नेणं दोन्नि उकासेणं सत्त । सुहुम संपरायस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्को सेणं णव । अहक्खायस्स जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं पंच २८ । सामाइयसंजए पां भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं, उक्को सेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुत्र कोडी एवं छेदोवट्टावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं एगुणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी, सुहुमसंपराए जहा णिघंटे । अहक्खाए जहा सामाइयसंजए । सामाइयसंजयाणं भंते! कालओ केवच्चिरं होंति, गोयमा ! सव्वद्धं । छेदोवट्टावणिएस्त पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अड्डाइज्जाई वाससयाई, उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसय सहस्साई । परिहारवि सुद्विए पुच्छा, गोयमा ! Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ संज्ञोपयोगादिद्वारनिरूपणम् ३६५ जहन्नेणं देसूणाई दो वासलयाई उक्कोलेणं देसूणाओ दो पुत्वकोडीओ, सुहमसंपरायसंजयाणं भंते ! पुच्छा गोयमा! जहनेणं एकं समयं उक्कोसे अंतोमुहुत्तं । अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया २९। सामाइयसंजयस्ल णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! जहन्नेणं जहा पुलागस्स। एवं जाव अहक्खायसंजयस्स । सामाइयसंजयाणं भंते ! पुच्छा गोयमा! नस्थि अंतरं। छेदोवढावणिय पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं तेवर्टि वाससहस्साई उक्कोसणं अट्ठारससागरोवमकोडाकोडीओ। परिहारविसुद्धियस्त पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चोरासीई वाससहस्साई उक्कोसेणं अटारलसागरोवमकोडाकोडीओ। सुहुमसंपरायाणं जहा णियंठाणं । अहक्खायाणं जहा सामाइयसंजयाणं ३०। सामाइयसंजयस्त णं भंते ! कइ समुग्घाया पन्नत्ता गोयमा ! छ समुग्घाया पन्नत्ता जहा कसायकुसीलस्त। एवं छेदोवटावणियस्स वि। परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागस्त । सुहुमसंपरायस्स जहा णियंठस्त। अहक्खायस्स जहा सिणायस्स ३१ ॥सू०६॥ छाया-सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कि संज्ञोपयुक्तो भवेत् नो संज्ञोपयुक्तो भवेत् गौतम ! संज्ञोपयुक्तो यथा बकुशः एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः । सक्षमसंपरायो यथाख्यातश्च यथा पुलाकः (२५) सामायिकसं यतः खल भदन्त ! किमाहारको भवेत् अनाहारको भवेत् यथा पुलाकः । एवं यावत् सूक्ष्मसंपरायः । यथाख्यातसंयतो यथा स्नातकः (२६)। सामायिकसंयतस्य खल्ल भदन्त ! कतिभवग्रहणानि भवन्ति ? गौतम ! जघन्येन एका उत्कर्षे णाष्ट । एवं छेदोपस्थापनीयस्यापि । परिहारविशुद्धिकः पृच्छा, गौतम ! जघन्येन एकम् उत्कर्षण वीणि । एवं यावत् यथाख्यात० (२७) । सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः कियन्त आकर्षाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्येन यथा चकुशस्य । छदापस्थापनीयस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन एकः उत्कर्षेण विंशतिपृथक्त्वम् । परिहारविशुद्धिकस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन एकः, उत्कर्षेण त्रयः। सूक्ष्म Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अंगवतीस्त्रे संपरायस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन एकर, उन्यार्पण चत्वारः। यथाख्यातस्य पृच्छा, गौतम ! जघन्येन एकः, उत्कर्पण द्वौ सामाचिसयतस्य स्खलु भदन्त । नाना भवग्रहणीयाः कियन्त आकमज्ञप्ताः ? गौतम ! यथा यकृशस्य । छेदोपस्थापनीयस्य पृच्छा गौतम ! जघन्येन द्वौ उत्कर्पण उपरिवानां शतानाम् अन्तः सहस्रस्य । परिहारविशुद्धिकस्य जघन्येन द्वौ उत्कर्पण सप्त । सूक्ष्मसंपरायस्य जघन्येन ही उत्कण नव । यथाख्यातस्य जघन्येन द्वौ उत्यर्पण पञ्च (२८) सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! कालतः किच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्पण देशोनै नवभिर्वपैरूना पूर्वकोटिः, एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि । परिहारविशुद्धिकः, जघन्येन एक समयम् उत्कण देशोनरेकोनत्रिंशद्वपैरूना पूवैकोटिः, सूक्ष्मसंपरायो यथा निर्ग्रन्थः, यथाख्यातो यथा सामायिकसंयतः । सामायिकसंयताः खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिर भवन्ति ? गौतम ! सर्वाद्धम् । छेदोपस्थापनीयेपु पृच्छा गौतम | जघन्येन सार्द्धद्वयानि वर्षशतानि, उत्कर्षेण पञ्चशत् सागरोपमकोटिशतसहस्राणि । परिहारविशुद्धिका पृच्छा गौतम ! जघन्येन देशोने द्वे वर्षशते, उत्कर्पण देशोने द्वे पूर्वकोटी। सूक्ष्मसंपणयसंयताः खलु भदन्त ! पृच्छा गौतम ! जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षण अन्तर्मुहूत्तम् । यथाख्यातसंयताः यथा सामायिकसंयताः (२९) सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्तरं भवति ? गौतम ! जघन्येन यथा पुलाकस्य । एवं यावद् यथाख्यातसंयतस्य । सामायिकसंयवानां भदन्त ! पृच्छा, गौतम! नास्ति अन्तरम् । छेदोपस्थापनीयस्य पृच्छा गौतम! जघन्येन त्रिपटिवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण अष्टादशसागरोपमकोटि कोटयः। परिहार विशुद्धिकस्य पृच्छा, गौतम! जघन्येन चतुरशीतिसहस्राणि, उत्कर्षेणाष्टादश सागरोपनकोटिकोटयः । सूक्ष्मसंपरायाणा यथा निग्रन्थानाम् । यथाख्यातानाम् यथा सामायिकलंयतानाम् (३०) सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! कति समुद्घाताः यज्ञशाः ? गौतम ! पट् समुद्घाता: प्रज्ञप्ताः यथा कपायकुशीलस्य । एवं छेदोपस्थापनीयस्यापि । परिहारविशुद्धिकस्य यथा पुछाकस्य । सुक्ष्मसंपरायस्थ यथा निम्रन्थस्य । यथा ख्यातस्य यथा स्नातकस्य (१३) ॥७६॥ पञ्चविंशततितम द्वारमाइ-'सामाइयसंजएणं भते' इत्यादि, - टीका-सामाइयसंजए णं भंते' सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'किं सन्नोव संज्ञा उपयोग आदि द्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं सन्नोवउत्ते होज्जा' इत्यादि । હવે સંજ્ઞા ઉપયોગ વિગેરે દ્વારેનું કથન કરવામાં આવે છે 'मामाइयसंजए णं भंते ! किं सन्नोवउत्ते होज्जा' त्यादि Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ पञ्चविंशतितम संशाउपयोगहारम् ३६७ उत्ते होज्जा' किं संज्ञोपयुक्तः-अहारादिसंज्ञायुक्तो भवेत् अथवा 'नो सन्नीक. उत्ते होज्जा' नो संज्ञोपयुक्तो भवेत् आहारादिसंज्ञासु अनुपयुक्तो भवेदिति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सन्नोवउत्ते जहा वउसो' संझोपयुक्तो यथा वकुशः, संज्ञोपयुक्तो वा भवेत् नो संज्ञोपयुक्तो वा भवेत् आहारादिक्रियासु । 'एवं जाव परिहारपिसुद्धिर' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकः, यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयस्य संग्रहो भवति तथा च छेदोपस्थापनीयसंयतपरिहारविशु. दिकसंयतो संज्ञोपयुक्तावपि भवतः नो संज्ञोपयुक्तावपि भवत इति भावः । 'सुहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए' सक्षमसंपरायसंपतो यथाख्यातसंयतश्च यथा पुलाका, सक्षमसंपराय यथाख्यातसंयतो नो संज्ञोपयुक्तौ भवेतामिति भावः (२५) 'सामाइयसंजए णं भंते !' हे भदन्त ! सामायिकसंयत 'किं सन्नोव. उत्त होज्जा' क्या आहारादिसंज्ञाओं से युक्त होता है अथवा 'नो सन्नोवउत्त होज्जा' आहारादिसंज्ञाओं से युक्त नहीं होता है आहारादि संज्ञा में आसक्त होना इसका नाम संज्ञोपयुक्त और आहारादि में आसक्ति रहित होना इसका नाम नो संज्ञोपयुक्त है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सन्नोव उत्ते जहा उसे हे गौतम ! सामा. यिक संयत बकुश के जैले आहारादि संज्ञोपयुक्त भी होता है और नो संजोपयुक्त भी होता है । 'एवं जाव परिहारविसुद्धिए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीयसंयत और परिहारविशुद्धिक संयत ये दोनों भी आहारादि संज्ञोपयुक्त भी होते हैं और नो संज्ञोपयुक्त भी होते हैं । 'सहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए' सक्षसंपदायसंयत और टी--'सामाइयजए णं भंते ! किं सन्नोवउत्ते होज्जा' है सावन सामायिसयत माहार विगेरे सज्ञासापास डाय छ ? अथवा 'नो सन्नो. वउत्ते होज्जा' मासार विगेरे सज्ञासाथी युत उता नथी ? भाडा२ विगेरे સંજ્ઞાઓમાં આસક્ત થવું તેનું નામ સંજ્ઞોપયુક્ત છે, અને આહાર વિગેરેમાં આસક્તિ રહિત થવું તેનું નામ નો સંજ્ઞોપયુક્ત છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रसुश्री गौतमस्वामीन छ है-'गोयमा ! सन्नोवउत्ते, जहा बउसे' के ગોતમ! સામાયિક સંયત બકુશના કથન પ્રમાણે આહાર વિગેરે સંજ્ઞાઓ पाय छे. नासज्ञोपयुत लाता नथी. 'एवं जाव परिहारविसुद्धिए' मेर પ્રમાણે છેદો પસ્થાપનીય સંયત અને પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત આ બને પણ भाइ।२ विगैरे संज्ञावा हाय छ, नासज्ञोपयुत खाता नथी. 'सहमसपराए अहवखाए य जहा पुलाए' सूक्ष्म ५२राय सयत भने यथाभ्यातसयत Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ भगवतीस्त्रे पट्विंशतितममाहारद्वारमाह-'सामाइयसंजए णं भंते !' सामायिफसंयतः खलु भदन्त ! 'किं आहारए होज्जा अणाहारए होज्जा' आहारको भवेत्-आहा. रादिक्रियादिमान् भवेत् अनाहारको वा भवेत् इति प्रश्नः । भगवानाह-'जहा पुलाए' यथा पुलाका, पुलाकरदेव सामायिकसंयतोऽपि आहारक एव भवेत् न तु अनाहारको भवेत् स्थूलशरीरधारणं यावत् आहारक एव भवति नतु अनाहारकस्तथा स्वभावात् । 'एवं जाव सुहुमसंपराए' एव यावत्सूक्ष्मसंपरायसंयतः अत्रयावत्पदेन छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसंयतयोः संग्रहो भवति-क्याच यथाख्यातसंयत ये दोनों पुलाक के जैसे नो संज्ञोपयुक्त होते हैं, संज्ञोपयुक्त नहीं होता हैं। ॥२५ वां संज्ञा उपयोग आदि द्वार का कथन समाप्त ॥ आहार द्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते । किं आहारए होज्जा अणाहारए होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत क्या आहारक होता है अथवा अनाहारक होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहा पुलाए' हे गौतम ! पुलाक के जैसा सामायिकसंयत आहारक ही होना है अनाहारक नहीं होता है। वह स्थूल शरीर को धारण किये रहने तक आहारफ ही होता है अनाहारक नहीं होता है क्योंकि उसका ऐसा ही स्वभाव होता है। 'एवं जाव सुहमसंपराए' इसी प्रकार से यावत् सूक्ष्मसंपरायसंयत तक-सय आहारक ही होते हैं अनाहारक नहीं होता हैं। यहां यावस्पद से छेदोपस्थापनीयसंयत एवं परिहारविशुद्धिकसयत इन दोनों આ બને પુલાકના કથન પ્રમાણે નોસંગોપયુક્ત હોય છે. સંજ્ઞોપયુક્ત હતા નથી. આ રીતે પચીસમા સંના આદિ દ્વારનું કથન સમાપ્ત. હવે આહાર દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે – 'सामाइयसंजए णं भंते ! किं आहारए होज्जा, अणाहारए होजा' ले ભગવન સામાયિક સંયત શું આહારક હોય છે? અથવા અનાહારક હોય છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -'जहा पुलाए' गौतम ! साना કથન પ્રમાણે સામાયિક સંયત પણ આહારક જ હોય છે અનાહારક હોતા નથી. તે સ્થૂલ શરીરને ધારણ કરતાં સુધી આહારક જ હોય છે. અનાહારક होता नथी. भो-तमान। स्वमा वा हाय छे. 'एवं जाव सुहमसंपराए' से प्रमाणे यावत सूक्ष्मस ५२।सयत सुधीना संघमा माहा२४०१ હોય છે અનાહારક હોતા નથી, અહિયાં યાવત્ પદથી છેદેપસ્થાપનીય સંયત, પરિહારવિશુદ્ધિક સંત આ બે ગ્રહણ થયા છે. એટલે કે છે પસ્થાપનીય Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ७.७ सू०६ सप्तविंशतितम भववारनिरूपणम् ३६९ छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकमुक्षमसंपरायसंयता आहारका एव भवन्ति न तु अनाहारका भवन्तीति । 'अहक्खायसंजए जहा सिणाए' यथाख्यातसंयतों यथा स्नातकः, यथाख्यातसंयतस्तु आहारको वा भवेत् अनाहारको वा भवेदिति भावः । (२६) । सप्तविंशतितमं भवद्वारमाह-'सामाइयसंजयस्स णं भंते' सामा यिकसंयतस्य खल्लु भदन्त ! 'कइ भवग्गहणाई होज्जा' कति भवग्रहणानि भवन्ति-हे भदन्त ! सामायिकसंयतस्य कति भवग्रहणानि भवन्ति सामायिकसंयत्ता कति भवग्रहणानि करोतीति भावः इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा इत्यादि. 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक जघन्येन एकं भवग्रहणं भवति एकमेव भवं गृह्णातीति भावः, उत्कर्षेणाष्टौ भवग्रहणानि भवन्तीति उत्कर्षतोऽष्टौं भवान् गृह्णातीति । 'एवं छेदोवट्ठावणिएवि एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि छेदो. का ग्रहण हुआ है । तथा च लामायिकसयत छेदोपस्थानीयसंयत परिहार विशुद्धिक संयत ये आहार ही होते हैं अनाहारक नहीं होते हैं। 'अहक्खायसंजए जहा सिणाए' यथाख्यातसंयत स्नातक के जैसे आहारक भी होता है और अनाहारक भी होता है। ॥ २६ वां आहारद्वार का कथन समाप्त ॥ भवद्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते कह भवग्गहणाई होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत कितने भवों को ग्रहण करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं अट्ट' हे गौतम ! सामा. यिकसंयत जघन्य से एक भवग्रहण करता है और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करता है । 'एवं छेदोवठ्ठावणिए वि' इसी प्रकार से સંયત પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયત અને સૂફમસં૫રાય સંયત આ બધા આહા२४४ हाय छे. मनाडा२४ डाता नथी. 'अक्खाय संजए जहा सिणाए' यथाખ્યાત સંયત સ્નાતકના કથન પ્રમાણે આહારક પણ હોય છે અને અનાહારક પણ હોય છે. એ રીતે આ છવ્વીસમા આહારદ્વારનું કથન સમાપ્ત. હવે સત્યાવીસમાં ભવદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसजए णं भंते ! कइ भवगाहणाई होज्जा' भगवन् सामायि સંયત કેટલા ભને ગ્રહણ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीत हे छे छै-'गोयमा! जहन्नेण एक उकोसेणं अट्ट' हे गौतम ! સામાયિક સંયત જઘન્યથી એક ભવગ્રહણ કરે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભને शहए ४२ छ ‘एवं छेदोनद्वावणिए वि' मेरी प्रमाणे छेहोपस्थापनीय सयत પણ જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવેને ગ્રહણ કરે છે, भ० ४७ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे पस्थापनीसंययतोऽपि जघन्येन एक भवं गृह्णाति उत्कर्पतोऽष्टौ भवान् गृह्णातीस्यर्थः । 'परिहारविसुद्धिए पुच्छा' परिहारविशुद्धिकस्य खल्लु भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवन्तीति पृच्छा-प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहानेणं एकक' जघन्येन एकं भवग्रहणं भवति, परिहारविशुद्धिकसंयतस्य, 'उकोसेणं तिलि' उत्कण त्रीणि भवग्रहणानि भवन्ति परिहारकविशुद्धिकस्येति । 'एवं जाव अहक्खायल्स' एवं यावद् यथाख्यातस्य, यावत्पदेन सूक्ष्मसंपरायसंयतस्य ग्रहण भवति तथा च मुक्ष्मसंपराय यथासंख्यातयतयो जघन्येन एवं भवग्रहणं भवति उत्कर्षेण तु त्रीणि भवग्रहणानि भवन्तीति । (२७)। - अष्टाविंशतितमम् आकर्पद्वारमाह-'सामाझ्यसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणीया केवइया आगरिसा पन्नता' सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! एकमवछेदोपस्थापनोयसयत भी जघन्य से एक भव को ग्रहण करता है और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करता है। परिहारविशुद्धिकसंयत कितने अचों को ग्रहण करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जहन्नेणं एक्कं उक्कोलेणं तिन्नि' हे गौतम ! परिहारविशुद्धिक संयत जघन्य से एक भव ग्रहण करता है और उत्कृष्ट से तीन भवों को ग्रहण करता है । 'एवं जाव अहवायरस' इमी प्रकार से सूक्ष्म संपरायसंयत और यधाख्यात संघत उन दोनों के जघन्य से एक भव ग्रहण होता है और उत्कृष्ट से तीन स्वग्रहण होते हैं। २७दा भवद्वार का कथन समाप्त । आकर्प दोर का कथन 'सामाइयसं जयस्स णं भंते ! एगभवग्गणीचा केवइया आगरिसा पनत्ता' हे अदन्त ! सामायिकसयन के एक भव में ग्रहण करने 'परिहारविसुद्धिए पुच्छा' में भगवन् परिहा२ विशुद्धिर सयत टमा सो यह ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे छ है-'गोयमा! जह न्नेणं एक उकोसेणं तिन्नि' हे गीतम! परिहा२ विशुद्धि संयत જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ મને ગ્રહણ કરે છે. 'एव जाव अहक्खायस्स' २४ प्रमाणे सूक्ष्मस ५२.५ सयत भने यथाज्यात સંયત આ બન્નેને જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ થાય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભવ ગ્રહણ કરે છે. એ રીતે આ સત્યાવીસમાં ભવદ્વારનું કથન સમાપ્ત. હવે અઠયાવીસમાં આકર્ષ દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसजए णं भते ! एकभवगहणीया केवइया आगरिसा पन्नत्ता' हे ભગવન સામાયિક સંયતને એક ભવમાં ગ્રહણ કરવા લાયક કેટલા આકર્ષ દ્વારા Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ खू०६ अष्टाविंशतितममाकर्पद्वारनिरूपणम् ३७१ ग्रहणीयाः-एकस्मिन् भवे ग्रहीतुं योग्याः क्रियन्त आकर्षा भवन्ति, एकस्मिन् भवे कियद्वारं सामायिकसंस्तत्वस्य माप्ति भवति सामायिकसंयतस्येत्यर्थः इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'जहन्नेणं जहा बउसस्स' जघन्येन यथा बकुशस्य, सामायिकसं यतस्य जघन्येन एक आकर्षों भवति उत्कर्षेण तु शतपृथक्त्वस् द्विशतादारभ्य नवशतबारं यावत् सामायिफसंयतत्वस्य प्राप्ति भवतीति यथा बकुशस्येत्यादिना प्रकटीकृतमिति भावः । 'छेदोवट्ठावणियस्त पुच्छा' छेदोपस्थापनीयसंयतस्य खलु भदन्त ! एकभवे कियन्त आकर्षा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एको' जघन्येन एक आकर्षों भवति छेदोपस्थापनीयसंयतस्यैकस्मिन् भवे इति, 'उकोसेणं बीसपुहुत्त' उत्कर्षेण विंशति पृथक्त्वमिति विंशविद्वयवारादारभ्य विंशतिनवकं वारं यावदित्यत्र पञ्चपडादि विंशतय आकर्षाणां भवन्ति छेदोपस्थापनीयसंपतस्यैकस्मिन् भवे इति । 'परिहारयोग्य कितने आकर्ष होते हैं ?-एक भव में वह कितनी बार सामायिक संयमपना प्राप्त कर सकता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयला! जहन्नेणं जहा यउसस्स' हे गौतम ! सामायिकसंघत के एक भव में कम से कम बकुश के जैसा एक आकर्ष होता है और उत्कृष्ट से शत. पृथक्त्व दो सौ से लेकर ९०० नौ सौ तक आकर्ष होते हैं। 'छेदोवद्यावणियस्स पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एको, उक्कोसेणं बीसपुहुत्तं' हे गौतम ! छेदोपस्थापनीय संयत के एक भव में जघन्य से एक आकर्ष होता है और उत्कृष्ट से बीस पृथ. वस्व दो वीसी से लेकर नौ वीसी तक इसमें यहां पांच अथवा छहवीसी आदि वीसियां अर्थात् सौ अथवा एक सौ वीस आदि आकर्ष છે? અર્થાત એક ભવમાં તે કેટલીવાર સામાયિક સંયતપણું પ્રાપ્ત કરે છે? मा प्रक्षना त्तरमा प्रभुश्री छ -'गोयमा! जहण्णेणं जहा बउसस्स' ગૌતમ! સામાયિક સંયતને એક ભવમાં ઓછામાં ઓછા બકુશના કથન પ્રમાણે એક આકર્ષ હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી શતપૃથકત્વ-એટલે કે-બસોથી नि नक्सा सुधानी माय छे. 'छेदोवद्वावणियस पुच्छा' 3 लावन् છેદે સ્થાપનીય સંયતને એક ભવમાં કેટલા આકર્ષક હોય છે? આ પ્રશ્નના प्रभुश्री ४ छे है-'गोयमा ! जहन्नेणं एक्को उक्कोंसेण वीसपुहुत्त' गौतम! છેદેપસ્થાપનીય સંયતને એક ભવમાં જઘન્યથી એક આકર્ષ અને ઉત્કૃષ્ટથી વીસ પૃથકત્વ એટલે કે બે વીસથી લઈને નવ વસ સુધીના આકર્ષે હોય છે, Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे ३७२ विमुद्धियस पृच्छा' परिहारविशुद्धिकस्य खलु भदन्त ! एकमवग्रहणीयाः कियन्त, आकर्षा भवन्तीति पृच्छा मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोमा' हे गौतम ! ' जहन्नेणं एक्को' जघन्येन - एक आकर्षो भवति एकस्मिन् भवे एकवारमेव संयममाप्ति र्भवति छेदोपस्थपनीय संयतस्येति । 'उको सेणं तिनि' उत्कर्षेण जय आकर्षा भवन्ति परिहारविशुद्धिवसंयतोहि परिहारविशुद्धिक संयतत्वं त्रीन् वारान् एकत्रभवे उत्कर्षतः प्रतिपद्यते इति । 'सुडुमसंपरायरसपुच्छा' सूक्ष्म संपराय संयतस्य खलु भदन्त ! कति आकर्षा एकत्रभवे भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एको' जघन्येन एकत्रभवे एक एव आकर्षो भवति सूक्ष्मसंपरायसंयतस्येति । 'उक्को सेणं चत्तारि' उत्कर्षेण चत्वार आकर्पा भवन्ति एकत्रभवे सुक्ष्म संप संयतस्य एकत्र भवे उपशमश्रेणीद्वयसंभवेन प्रत्येकं संविश्यमानविशुद्धयहोते हैं । 'परिहारविस्रुद्वियस्स पुच्छा' हे भदन्त । परिहारविशुद्धिक संत के कितने आकर्ष एक भव में होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! जनेणं एक्को उक्कोसेणं तिन्नि' हे गौतम ! परिहारविशुद्धिकसंयत के एक भव में जघन्य से एक आकर्ष और उत्कृष्ट से तीन आकर्ष होते हैं । तात्पर्य यही है कि परिहारविशुद्धिकसंयत को एक भव में कम से कम एक बार ही परिहारविशुद्धिकसंयमपना की प्राप्ति होती है और अधिक से अधिक तीन बार तक परिहारविशुद्विक्संयत की प्राप्ति होती है । 'सुमपरास्त पुच्छा' हे भदन्त ! सूक्ष्मसंपरायसंयत को एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि' हे 'परिहारविसुद्धिए पुच्छा' हे भगवन् परिहार विशुद्धिः संयतने शो लवमां डेंटला भाषा होय छे ? 'गोयमा ! जहन्नेण एको उक्कोसेणं तिन्नि' हे गौतम! પરિહાર વિશુદ્ધિક સયતને એક ભવમાં જઘન્યથી એક આકષ અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ આકષ હાય છે. કહેવાનુ' તાત્પ એ છે કે—પરિહાર વિશુદ્ધિક સયતને એક ભવમાં આછામાં એછા એક જ વાર પરિહાર વિશુદ્ધિકસયમની પ્રાપ્તિ થાય છે. અને વધારેમાં વધારે ત્રણ વખત સુધી પરિહાર વિશુદ્ધિક સયતપણાની પ્રાપ્તિ થાય છે. 'सुडुम संपरायस् पुच्छा' हे भगवन् सूक्ष्मस' यशय संयतने थे! संवभां हेटसा भाष होय छे ? या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री छे है - 'गोयमा ! जहण्णेणं एक्को उक्कोसेणं चत्तारि' हे गौतम! सूक्ष्मस पराय 'स'यतने सूक्ष्म Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०६ अष्टाविंशतितममाकर्पहारनिरूपणम् ३७३ मानलक्षणमुक्ष्मसंपरायद्वय भावात चतस्वः प्रतिपत्तयः सूमसंगरायसयतत्वे भवन्तीति । 'अहवायरस-पुच्छा' यथाख्यातसंगतस्य स्लु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः कियन्त आकर्षा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः भगांनाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोरा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एको' जघन्येन एक आकर्षों भवति, एकत्र भवे यथाख्यातस्य, 'उकोसेणं दोन्नि' उत्कर्षवो द्वौ आको भवतः यथा. ख्यातसंयतस्य एकत्रभवे उपशमश्रेणीद्वयसंमवादिति भावः। नानाभवग्रहणा कर्षाधिकारे-'सामाइयसंजयस्स णं भंते !' सामायिकसंयतस्य खलु भदन्त ! 'नानाभवग्गहणीया केवया आगरिमा पन्नत्ता' नानाभवग्रहणीयाः-अनेक गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंयत को सूक्ष्मपरायसंयनपने की प्राप्ति कम से कम एक बार होती है और अधिक से अधिक चार बार होती है। इसका तात्पर्य ऐसा है कि क्षमसंपराधसंपल को एक अब में दो बार उपशमश्रेणी का संभव हो सकता है। इस कारण प्रत्येक श्रेणी में संक्लिश्यमान और विशुध्यमान ऐसे दो सूक्षमसंपराय होने से चार चार सूक्ष्मसंपरायपने की प्राप्ति हो सकती है । 'अहवायरल पुच्छा' हे सदन्त ! थाल्यातलंयत्त के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? इसके उत्तर में प्रसुत्री कहते है-'मोयमा ! जहन्नेणं एकको उक्को सेणं दोनि' हे गौध्द ! जघन्य से एक और उत्कृष्ट से दो आकर्ष एक भइमें धाख्या संयत के होते हैं यथाख्यासंयत के एक अच में दो घार उपशमश्रेणी का संभव होता है-अत: यहां उत्कृष्ट से इसके दो आकर्ष कहे गये हैं। 'लामाइयसंजयस्व गं भंते ! नाणा भवग्गहणीया केवइया आग रिसा पन्नत्ता' हे भदन्त ! सामाथिकसंघत के अनेक भवों में ग्रहण સંપૂરાય સંયતની પ્રાપ્તિ ઓછામાં ઓછી એકવાર હોય છે અને વધારેમાં વધારે ચારવાર હોય છે. આનું તાત્પર્ય એ છે કે–સૂફમસં૫રાય સંયતને એક ભવમાં બે વાર ઉપશમ શ્રેણીને સંભવ હોય છે. તેથી પ્રત્યેક શ્રેણીમાં સંકિલશ્યમાન અને વિશુદ્ધયમાન એવા બે સૂફમસ પર ચ હવાથી ચાર વાર सूक्ष्म परायनी प्राप्ति थाय छे. 'अहमखायस्स पुच्छा' मगन यथाव्यात સંયતને એક ભવમાં કેટલા આકર્ષ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गीतभावामीन ४४ छ -'गोयमा! जहण्णेशं एक्को उक्कोसेणं दोन्नि' है ગૌતમ! જઘન્યથી એક અને ઉત્કૃષ્ટથી બે આકર્ષ એક ભવમાં યથાખ્યાત સંયતને હોય છે યથાખ્યાતસંયતને એક ભવમાં બે વાર ઉપશમ શ્રેણીને સંભવ હોય છે તેથી અહિયાં ઉત્કૃષ્ટથી તેને બે આકર્ષ કહ્યા છે. 'सामाइयसंजयस्स णं भवे ! नाणाभवगहणीया केवइया आगरिमा पन्नत्ता' Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ raaratee भवे ग्रहीतुं योग्याः कियन्त, आकर्पा भवन्ति अनेकस्मिन् भवे कियद्वारं सामा frriedत्वस्य प्राप्तिर्भवतीति प्रश्नः, उत्तरमाद- 'जहा वउसे' यथा वकुशः, कुशस्य अनेकमवग्रहणीया येन रूपेण यावन्त आकर्पाः कथिता स्तेनैव रूपेण इहापि ज्ञातव्याः, तथाहि - 'जघन्येन द्वौ आकर्षो भक्तः, उत्कर्षेण तु सहस्रपृथक्त्वम् द्विसहस्रादारभ्य नवसहस्रचारं यावद् आकर्षा भवन्तीति । 'छेदोवद्वावणियस्स पुच्छा' छेदोपस्थापनीयसंयतस्य खन्नु भदन्त | नानामवग्रहणीयाः कियन्त आकर्षा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' जहन्ने दोन्नि' जघन्येन द्वौ आकर्षो भवत छेदोपस्थापनीयसंगतस्य नानाभवे इति । 'उक्कोसेणं उबरिं नवहं समाणं अंती सहस्तस्त' उत्कर्षेणोपरिनवानां शतानाम् अन्तः सहस्रस्य नवशताधिकाः सहस्रतो न्यूना आकर्षा होने योग्य ऐसे कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोमा' जहा बरसे' हे गौतम 1 वकुश के जैसे अनेक भवग्रहणीय आकर्ष कहे गये हैं उसी प्रकार से उतने ही आकर्ष यहां पर भी जानना चाहिये । तथा च जघन्य से दो आकर्ष और उत्कृष्ट से दो हजार से लेकर ९ हजार आकर्ष सामायिकसंयत के अनेक भवों में होते हैं । 'छेदोवद्वावणियस्स पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत के अनेक भावों में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! जहन्नेणं दोनि उक्कोसेणं उदरिं नवहे सघाणं अंतो सहFare' हे गौतम! छेदोपस्थापनीयसंगत के नाना भवों में जघन्य से दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट से ९ सौ से कार और एक हजार के " હું ભગવન્ સામાયિક સયતને અનેક ભવે ગ્રતુણુ કરવા ચેાગ્ય એવા કેટલા આકર્ષી હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે'गोयमा ! जहा बउसे' हे गौतम! अङ्कुशना उथन प्रभा ने अवग्रहगुवाजा આઈ કહ્યા છે, એ પ્રમાણે એટલા જ આકર્ષાં સામાયિક સયતના સબ'ધમાં પણ સમજવા. એટલે કે જઘન્યથી એ આકષ અને ઉત્કૃષ્ટથી એ હારથી લઈને નવ હજાર આક સામાયિક સયતાને અનેક ભવામાં હોય છે. 'छेदविद्वावणियस्स पुच्छा' हे भगवन् होपस्थापनीय सायंतने मने लवेाभां डेटा आओ होय हे ? उत्तरभां प्रभुश्री छे - 'गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं उवरि नवहं सयाणं अंतो सहस्सस्स' हे गौतम । छेडायસ્થાપનીય સયતને નાના ભવામાં જઘન્યથી એ આકર્ષ્યા હેય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૯૬૦ નવ સેાથી ઉપર અને એક હજારની અંદર એ આકષ હોય Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ अष्टाविंशतितममाकर्षद्वारनिरूपणम् ३७५ भवन्ति नानाभवग्रहणीय छेदोपस्थापनीयसंयतस्येति। कथमित्याह एकन किल भवग्रहणे आकर्षाणां विंशतयः षड् भवन्ति इति विंशत्युत्तरं शतमित्यर्थः, ततश्च अष्टाभि भवणिता नवशतानि षष्टयधिकानि भवन्ति, इदं च सम्भवमात्र. माश्रित्य संख्याविशेषणदर्शनम् अतोऽन्यथापि-प्रकारान्तरेणापि यथा नवशतानि किश्चिदधिकानि भवन्ति तथा कर्तव्यमिति । 'परिहारविमुद्धियस्स जहन्नेणं दोनि' परिहाविशुद्धिकसंयतस्य जघन्येन नानाभवग्रहणीयौ द्वावेव आकर्षों भवतः । 'उकोसेणं सत्त' उत्कर्षेण तु सप्त आकर्षा भवन्ति, परिहारविशुद्धिकसंयतस्य एकस्मिन् भवे उत्कर्षेण त्रिवारं परिहारविशुद्धिकचारित्रमाप्तिर्भवतीत्युक्तत्वात, एकस्मिन् भवे त्रिवारम् द्वितीयभवे द्विवारम् तथा तृतीयभवेऽपि द्विवारम् इत्यादि विकल्पतः सप्त आकर्षा भवन्ति परिहारविशुद्धिकसंयतस्येति भावः भीतर आकर्ष होते हैं। ये आकर्ष हल प्रकार से होते हैं-एक भवग्रहण में १२० आकर्ष होते हैं । १२० में ८ भवों का गुणा करने से ९६० होते हैं । यह सम्भवमात्र को आश्रित करके संख्याविशेषका प्रदर्शन किया गया है। इस प्रकार से अतिरिक्त और भी दूसरे प्रकार से ९६० हो जाये तो वैसा कर लेना चाहिये। 'परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं सत्त' परिहारविशुद्धिकसंयत के नाना भवों में जघन्य से दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट से सात आकर्षे होते हैं। ये इस प्रकार से होते हैं-इसके एक भव में उत्कृष्ट से तीन बार आकर्ष होते हैं अर्थात् इस परिहारविशुद्धिकसंयत को एक भव में उत्कृष्ट से परिहारविशुद्धिक चारित्र की प्राप्ति तीन बार होती है। द्वितीय भव में दो बार होती है, तथा तृतीय भव में भी दो बार होती है। इस प्रकार ७ धार अनेक भवों में परिहारविशुद्धिकसंयत को परिછે, આ આકર્ષે આ પ્રમાણે હોય છે, એક ભવગ્રહણમાં ૧૨૦ એકસો વીસ આકર્ષ હોય છે. ૧૨૦ એકસ વીસમા ૮ આઠ ભવોને ગુણવાથી ૬૦ नसे स18 25 लय तम ४ नये. 'परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं सत्त' परिडाविशुद्धि स यतने मने मोमा धन्यथा में आ3 હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત આકર્ષ હોય છે. તે આ પ્રમાણે હોય છે.તેના એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ વાર આકર્ષ હોય છેઅર્થાત્ આ પરિ. હારવિશુદ્ધિક સંયતને એક ભવમા ઉત્કૃષ્ટથી પરિહારવિશુદ્ધ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ ત્રણ વાર થાય છે. બીજા ભવમાં બે વાર થાય છે. તથા ત્રીજા ભાવમાં પણ બે વાર થાય છે. આ રીતે છ સાત વાર અનેક ભવમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતને Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसुत्रे ३७६ 'हुम संपरायसंजयस्स जहन्नेणं दोनि' सूक्ष्मसंपरायसंयतस्य जघन्येन दौ आकर्षौ भवतः, 'उक्कोसेणं णव' उत्कर्षेण नव आकर्पा भवन्ति सूक्ष्मसंपरायसंयतस्येकत्र भवे चतुरार्पाणां कथितत्वात् भवत्रयस्य च तस्याभिधानात् एकत्र भवे चरवार, द्वितीयेऽपि चत्वारः, तृतीयभवे एक एव एवं क्रमेण नव आकर्षा भवन्ति इति । 'अहक्वायरस जहन्नेणं दोन्नि, उद्योसेणं पंच' यथाख्यात संयतस्य एकस्मिन् भवे द्वौ आरूप, द्वितीयमचे चापि द्वौ एकरिव एक एव आकर्ष afa संकलनया पञ्च कर्पा भवन्ति । 2 हारविशुद्धि चारित्र की प्राप्ति होती है । 'हम संपरायसंजयस्म जहन्नेणं दोनि, उच्चको सेणं पाव' सूक्ष्मसंपरायसंगत के जघन्य से अनेक भवों में सूक्ष्मसंपराव चचरित्र की प्राप्ति दो बार होती है और उत्कृष्ट से नौ बार होती है । इस प्रकार इसके अनेक भवों में आकर्ष जघन्य से दो और उत्कृष्ट से नौ होते हैं । सक्षमपरायसंगत के एक भव में चार आकर्ष कहे गये हैं और इसके ३ भव बतलाये गये है। अतः एक भव में चार और द्वितीय भव में भी चार तथा तृतीय भव में एक इस क्रम से ९ आकर्ष होते हैं । 'अहमवायस्म जहन्नेणं दोन्नि, उक्को सेणं पंच' यथाख्यातसंयत के जघन्य से अनेक भवों में दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट से पांच आकर्ष होते हैं। पांच आकर्ष इसके इस प्रकार से होते हैं प्रथम भव में दो द्वितीय भव में दो और तृतीय भव में १ इस प्रकार से ये अनेक भागों के पांच आकर्ष हो जाते है । २८ वां आकर्ष द्वार का कथन समाप्त परिहार विशुद्ध यारित्रनी यासि थाय छे 'मुहुमसपरायसजयस्म जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं णव' सूक्ष्मस पराय सयतने धन्यथी गने लवोमां सूक्ष्मस पराय ચારિત્રની પ્રાપ્તિ એ વાર થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી નવ વાર થાય છે. આ રીતે તેને અનેક ભવામાં જઘન્યથી એ અને ઉત્કૃષ્ટથી નવ આકષ હાય છે. સૂક્ષ્મસ’પરાય સ યતને એક ભવમાં ચાર આકષ કહ્યા છે. અને તેના ૩ ત્રણ ભવ ખતાવ્યા છે તેથી એક ભવમાંચાર અને ખીજા ભવમાં પણ ચાર तथा श्री लवमां मे यो उमथी सर्प होय छे. 'अक्खायस्स जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं पंच' यथाभ्यात सयतने धन्यथी मने लाभां मे भाष હાય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પાંચ આકષ હાય છે તેને પાંચ આકષ આ પ્રમાણે હાય છે—પહેલા ભવમાં એ મીજા ભવમા છે અને ત્રીજા ભવમાં એક એ રીતે અનેક લવેમાં ૫ પાંચ આŕ થઇ જાય છે. અઠ્યાવીસમું આષદ્વાર સમાપ્ત ારા Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shreer टीका श०२५ उ.७ ०६ एकोनत्रिंशत्तम कालद्वारनिरूपणम् ३७७ एकोनत्रिंशत्तमं कालद्वारम ह - 'सामाइयसंजर णं भंते ! कालओ केनचिरं होई' सामायिक संयतः खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति कियत्कालपर्यन्तं सामायिकसंयतो भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! ' जहन्नेणं एकं समयं जघन्येन एकं समयम् सामायिकचारित्रस्य प्राप्त्यनन्तरसमये एव मरणात् एकः समय एव भवति जघन्येन सामायिकसंयतस्पेति । 'उकोसेणं देणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्यकोडी' उत्कर्षेण देशों ने नवभिर्वर्षेरूना पूर्वकोटि देशोननववर्षन्यूनः पूर्वकोटिवर्षः उत्कर्षतः कालः, " 'उको सेणं देणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुण्त्रकोडी' इति यदुक्तं तत् गर्भ-समयादारभ्य ज्ञातव्यम् अन्यथा जन्मदिनाऽपेक्षया अष्ट वरूना एव पूर्वकोटि २९ वें कालद्वार का कथन 'सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! जीव सामायिकसंयत कितने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुण्वकोडी' हे गौतम ! जीव सामायिकसंयत जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से कुछ कम नौ वर्षों से हीन एक कोटि पूर्वतक रहता है । सामायिकसंयत का काल जो जघन्य से एक समय का कहा गया है सो उसका कारण ऐसा है कि सामायिक चारित्र की प्राप्ति के बाद अनन्तर समय में ही उसका मरण हो जाता है। तथा इसका जो उत्कृष्ट काल कहा गया है वह गर्भ समय से लेकर के कहा गया है ऐसा जानना चाहिये । नहीं तो आठवर्ष कम पूर्व कोटि ही आना चाहिये । यदि जन्म दिन से इसकी गणना की डवे योगएणुत्रीसभा आण द्वारतु' उथन १२वामां आवे छे. 'सामाइयसंजणं भंते । कालओ केवच्चिर' हां' हे भगवन् लवो सामायि संयत डेंटला आज सुषी रहे छे ? उत्तरमां प्रभुश्री डे हैं - 'गोयमा ! जहन्नेणं एक्क समय' उक्कोसेणं देसूणपहिं नवहि वासेहिं ऊणिया पुण्वकोड़ी' हे गौतम ! જીવ સામાયિક સયત જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક કસ નવ વર્ષ એછા એક પૂર્વ કેાટિ સુધી રહે છે. સામાયિક સયતને જે કાળ જઘન્યથી એક સમયના કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે—સામાયિક ચારિત્ર્યની પ્રાપ્તિ પછીના અનતર સમયમાં જ તેમનુ મરણ થઈ જાય છે. તથા તેના જે ઉત્કૃષ્ટ કાળ કહેલ છે, તે ગર્ભ સમયથી લઇને કહ્યો છે. તેમ સમજવું, અથવા આઠ વર્ષી કમ્પૂર્ણાંકોના સમજવે જોઇએ. જો જન્મ દિવસથી TO ४८ 1 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसो भवतीति । 'एवं छेदोवट्ठावणिएवि' एवम्-सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि कालता, जघन्येन एकसमयम् उत्कर्पण देशोन नवभिवरूना पूर्वकोटिरिति । 'परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एक समयं' परिहारविशुद्धिको जघन्येन एक.. ममयम् परिहारविशुद्धिकस्य कालतो जघन्येन एकः समयो मरणापेक्षया भवति । 'उस्कोसेणं देसूणएहि एगूणतीसाए वासेहिं अणिया पुचकोडी' उत्कर्पण देशोनैरे. फोनत्रिंशतावर्षे रूना पूर्वकोटित, अयमाशयः-देखोननववर्षजन्मपर्यायेण केनापि पूर्वकोव्यायुष्केण प्रव्रज्या गृहीता तस्य च यदा विंशतिर्वाणि दीक्षापर्यायस्य भवति तदा तस्य विंशविवर्षप्रव्रज्यापर्यायस्य दृष्टिवादाध्ययनं कृतं स्यात्, जावेगी तो 'एवं छेदोवट्ठावणिए घि' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय. संपत्त के सम्बन्ध में भी काल की अपेक्षा से कथन जानना चाहिये। अर्थात् छेदोषस्थापनीयसंयत भी काल की अपेक्षा से एक समय तक जघन्य से और देशोन नौ वर्ष कम एक पूर्व कोटि तक उत्कृष्ट से छेदोपस्थापलीयसंयत रहता है । 'परिहारविलुद्धिए जहन्नेणं एक्कं समयं उकोसेणं देसणएहिं एगूणतीसाए नारहिं अणिया पुव्वकोडी' परिहारविशुद्धिक संयत जघन्य से एक लमय तक और उत्कृष्ट से कुछ कम उन्तीस २९ वर्ष हीन पूर्व कोटि वर्ष तक परिहारविशुद्धिकसंयत्त रहता है। तात्पर्य इस कथन का ऐखा है-कुछ कम नौ वर्ष की जन्म पर्यायवाले किसी पूर्पकोटि की आयु युक्त जीव ने दीक्षा ग्रहण की दीक्षा पर्याय के पीस वर्ष जब उसके हो जाते हैं तब तक वह दृष्टियाद का अध्ययन कर लेता है इसके बाद वह तेभनी गाना ४२वामा माने तो 'एवं छेदोक्दावणिण वि' मेरी प्रमाणे छे?। પસ્થાપનીય સંયતના સંબંધમાં પણ કાળની અપેક્ષાથી કથન સમજવું જોઈએ. અર્થાત્ છેદેપસ્થ પનીય સંયત પણ કાળની અપેક્ષાથી એક સમય સુધી જઘન્યથી અને દેશના નવ વર્ષ ઓછા એક પૂર્વકેટિ સુધી ઉત્કૃષ્ટથી છે५स्थानीयमा २ छे, 'परिहारविसुद्धिए जहण्णेणं एक समय उकोसेणं देसृणएहि एगूणतीसाए वासेहि ऊणया पुचकोडी' परिवारविशुद्धि सयत જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછા ૨૯ ઓગણત્રીસ વર્ષ હીન પૂર્વકેટિ વર્ષ સુધી પરિહારવિશુદ્ધિક સંતપણામાં રહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-કંઈક, ઓછા નવ વર્ષના જન્મ પર્યાયવાળા કઈ પૂર્વકેટિની આયુષ્યવાળા જીવને દીક્ષા ગ્રહણથી દીક્ષા પર્યાયના વીસ વર્ષ જ્યારે તેના પૂરા થઈ જાય ત્યાં સુધીમાં તે દ્રષ્ટિવાદનું અધ્યયન કરી લે છે, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०६ एकोनत्रिंशत्तम कालद्वारनिरूपणम् ३७९ - तदनन्तरं स परिहारविशुद्धि चारित्रं स्वीकुर्यात् तत् चारित्रं चाष्टादशमासमानमपि अविच्छिन्नतत्परिणामेन तेनाजन्मपालितम् इत्येवं क्रमेण एकोनत्रिंशद्वर्षो पूर्वकोटिं यावत्परिहारविशुद्धिकचारित्रं स्यात् इति । 'सुमपराए ,जहा णियंठे' सूक्ष्मसंपरायो यथा निर्ग्रन्थः, जघन्येन एक समयमुत्कर्षेण अन्तमुहूर्तमात्रमिति । ' अहवखाए जहा सामाइयसंजए' यथाख्यातसंयतो यथा सामायिक संयतः, सामायिक संयतयदेव यथाख्यातसंयतः जघन्येन एकं समयम् उपशमावस्थायां मरणापेक्षा जघन्येन एके समयं कथितम् उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः स्नातकयथाख्यातसंयतापेक्षया इति । अथ पृथक्त्वेन तदाहपरिहारविशुद्धि चारित्र स्वीकार कर लेता है और इस चारित्र को इसके प्रमाण अनुसार वह १८ मास तक पालन करके भी जीवन पर्यन्त अविच्छिन्न रूप से उसी परिणाम से पालता है । इस क्रम से कुछ कम २९ वर्ष हीन एक पूर्व कोटि तक परिहारविशुद्विक संयत परिहारविशुद्धि चारित्र को पालता है । इसीलिये इतना उत्कृष्ट रूप से उसके पालन का काल यहाँ प्रकट किया गया है । 'सुहुमसंपराए जहा लियंटे' सूक्ष्मसंपरायसंयत निर्ग्रन्थ के जैसा जघन्य से एक समय तक रहता है और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक रहता है । 'अहक्खाए जहा सामाइयसंजए' सामायिकसंघत के जैसे यथाख्यात संयत जघन्य से एक समयतक यवाख्यातसंयत रहता है क्यों कि यथाख्यात का उपशम अवस्था में मरण की अपेक्षा से जघन्य एक समय होता है ऐसा कहा गया है । तथा उत्कृष्ट से वह देशोन पूर्वकोटि तक તે પછી તે પરિહારશુિદ્ધિક ચારિત્રને સ્વીકાર કરી લે છે. અને આ ચારિત્રને તેના પ્રમાણુ પ્રમાણે તે ૧૮ અઢાર માસ સુધી પાલન કરીને પણ જીંદગી પર્યંન્ત અવિચ્છિન્નપણાથી એજ પિરણામનુ પાલન કરે છે. આ ક્રમથી કંઇક ઓછા ૨૯ ઓગણત્રીસ વર્ષ હીન એક પૂર્વ કટિ સુધી પરિહાર વિશુદ્ધિકસયત, પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્રને પાળે છે. તેથી આટલે ઉત્કૃષ્ટ यथाथी तेना यासनुअण मडियां गतावेस छे. 'सुहुमसंपराएं जहा नियठे' સુક્ષ્મસ પરાય સ ́યત નિë પ્રમાણે જન્યથી એક સમય સુધી રહે છે, मने उड्डष्टथी शो! 'तर्मुहूर्त सुधी रहे छे. 'अहक्खाए जहा सामाइय સજ્ઞ” સામાયિક સયતના કથન પ્રમાણે યથાખ્યાતસયત જઘન્યથી એક સમય સુધી યથાખ્યાત સંયંતપણામાં રહે છે. કેમકે યથાખ્યાતના ઉપશમ અવસ્થામાં મરણની અપેક્ષાથી જઘન્ય એક સમય હાય છે. તેમ કહ્યુ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટથી તે દેશેાન પૂર્વકાટ સુધી યથાખ્યાત સંયંત સ્નાતક યથાખ્યાત સમયની Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० भगवतीमत्र 'सामाइयसंजया ण भंते ! काळओ केवच्चिरं होति' सामायिकसंयताः खल भदन्त ! कालकः कियचिरं भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह- गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्बद्धं सर्वाद्धाम्-सर्वकालम् नास्ति तादृशः कालो यत्र सामायिकसंयताः कालवो न भवेयुरपि तु भवेयु रेवेति । 'छेदोवावणिएस पुच्छा' छेदोपस्थापनीयसंयताः खलु भदन्त ! कालतः कियचिरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जन्हनेणं अड्डा इज्जाई वाससयाई' सार्धे द्वे वर्षशते उत्सर्पिणीकाले प्रथमतीर्थकरस्य पदमनाभस्य तीर्थ यावत् छेदोपस्थापनीयं चारित्रं भवति तस्य तीर्थ च सार्धे हे वर्षशते यावद् भवतीति । 'उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई' उत्कर्षण पश्चाशत्सागरोपमकोटिशतसहस्राणि अवसर्पिणीकाले आदितीर्थकरस्य तीर्य यथाख्यातसंयत स्नातक यथाख्यातसंघम की अपेक्षा से रहता है। 'सामाझ्यसंजयाणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होति' हे भदन्त ! सामायिकसंयतकाल की अपेक्षा से कहां तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सम्वद्धं' हे गौतम ! सामायिकसयत रूप से जीव सर्वकाल में रहते हैं । ऐसा कोई भी काल नहीं होता है कि जिसमें कोई न कोई जीव सामायिकसंयतरूप से मौजूद न हों। 'छेदोवट्ठा. पणिएसु पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंयत काल की अपेक्षा से कब तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री करते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं अट्टा. इज्जाई वाससयाई' हे गौतम ! छेदोपस्थापनीयसंपतरूप से जीव जघन्य की अपेक्षा से २५० वर्ष तक रहते हैं और 'उक्कोसेणं पन्नास सागरोवल कोडिसयसहस्साई' उत्कृष्ट की अपेक्षा से ५० लाख करोड अपेक्षाथी २९ छ. 'सामाइयसंजयाणं भंते ! कालओ केवच्चिर होति - વનું સામાયિક સંયત કાળની અપેક્ષાથી કયાં સુધી તે અવસ્થામાં રહે છે? माना उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ - गोयमा ! सव्वद्ध” 8 गौतम ! सामायि સંતપણાથી જીવ સર્વકાળ રહે છે. એ કઈ પણ કાળ નથી કે જેમાં કઈને કઈ જીવ સામાયિક સંતપણાથી વર્તમાન ન હોય ? ___'छेदोवद्वावणिएसु पुच्छा' ७ भगवन् छेोपस्थापनीय सयत जना અપેક્ષાથી કેટલા કાળ તે અવસ્થામાં રહે છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'गोयमा ! जहन्नेणं अड्ढोइज्जाई वाससयाई' , गौतम ! छेडे५२थानीय સંતપણાથી જીવ જઘન્યની અપેક્ષાથી ર૫૦) અઢીસો વર્ષ સુધી રહે છે, भने, 'उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्सोइ' अष्टथा ५० पयास arw કરેડ સાગરોપમ કાળ સુધી રહે છે. ઉત્સર્પિણી કાળમાં પહેલા તીર્થકર Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ एकोनत्रिंशत्तम' कालद्वारनिरूपणम् ३८१ यावत् छेदोपस्थापनीयं चारित्रं पवर्तते तच्च तीर्थ पञ्चाशत् सागरोपमकोटि लक्षवर्षाणि यावत् प्रवर्तते अतएतादृशकालं छद्मस्थसंयतानां भवति, अत उक्तम्'उकोसेण पन्नासं' इत्यादि, । ___ 'परिहारविसुद्धिएसु पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंपताः खलु भदन्त ! काळतः 'कियचिरं भवन्तीति पुच्छा प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं देमूणाई दो वाससयाई जघन्येन देशोने द्वे वर्षशते परिहार विशुद्धिकसंयतस्य जघन्येन कालः, उत्सर्पिणीकाले प्रथमतीर्थकरस्य समीपे शतसागरोपम तक रहते हैं। उत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है और इनका तीर्थ २५० वर्ष तक रहता है । इसलिये छेदोपस्थापनीयसंयत का काल की अपेक्षा से जघन्य काल २५० वर्ष का कहा गया है । तथा उत्कृष्ट से जो इसके रहने का काल कहा गया है वह अवसर्पिणीकाल में आदि तीर्थकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र रहता है और इनका तीर्थ पचाप्त लाख करोड सागरोपम तक चलता है, इसलिये ऐसा काल छेदोपस्थापनीय संयतों का होता है । इसलिये 'उक्कोलेणं पन्नासं०' ऐसा कहा गया है। 'परिहारविसुद्धिएस्लु पुच्छा' हे भदन्त ! नाना जीवों की परिहारविशुद्धिक संयत अवस्था कितने काल तक रहती है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं देखूगाई दो वास तपाई' हे गौतम ! परिहारविशुद्धिकसं यत अवस्था कम से कम कुछ कम दोलो वर्ष तक रहती है जैसे उत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के समीप में १०० वर्ष પદ્મનાભના તીર્થ સુધી છેદે સ્થાપનીય ચારિત્ર હોય છે અને તેમનું તીર્થ ૨૫૦અહિંસ વર્ષ સુધી રહે છે. તેથી છેદે પસ્થાપનીય સંયતને કાળની અપેક્ષાથી જઘન્ય કાળ ૨૫] અઢિસો વર્ષને કહ્યો છે. તથા તેને રહેવાને કાળ ઉત્કૃષ્ટથી જે કહ્યો છે, તે અવસર્પિણી કાળમાં આદિનાથ તીર્થ કરના તીર્થ સુધી છે પસ્થાપનીય ચારિત્ર રહે છે. અને તેમનું તીર્થ પચાસ લાખ ४२।उनु डाय छे. तथा 'उकोसेणं पन्नासं०' से प्रभारी प्रयु छे. . 'परिहारविसुद्धिएसु पुच्छा' है मग मन वानी परिहा२विशुद्धि અવસ્થા કેટલા કાળ સુધી રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે, 'गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो वास सयाइ' है गौतम! परिडाविशुद्धि સયત અવસ્થા ઓછામાં ઓછા કંઈક ઓછા બસો વર્ષ સુધી રહે છે. જે રીતે ઉત્સર્પિણી કાળમાં પહેલા તીર્થ કરની સમીપે ૧૦) સો વર્ષની આયુ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ भंगवतीचे वर्षायुष्कः कश्चिद् मनुष्यः परिहारविशुद्धिकचारित्रं गृह्णाति तथा जीवनान्ते तस्यैव तीर्थकरस्य समीपे अन्यः कश्चित् परिहारविशुद्धिकचारित्रमवासः । तद. नन्तरं तत्समीपे न कोऽपि चारित्रं गृह्णाति, इत्येवं क्रमेग द्वे वर्षशते तयोष प्रत्येकमेकोनत्रिंशति वर्षे पु गतेषु परिहारविशुद्धि रुचारित्रपतिपत्तिस्त्येिवमष्ट. पञ्चाशता वर्षेन्यूने द्वे वर्ष शते जघन्यः कालो भरतीति । 'उकोसेणं देरणाओ दो पुषकोडीओ' उत्कण देशोने द्वे पूर्वकोटयौ अवसर्पिणीकाले आदिमतीर्थकरस्य समीपे पूर्वकोटीवर्षायुष्कः कश्चित् परिहारविशुद्धिकं संयम प्रतिपन्नस्तस्यान्तिके तज्जीवितान्ते अन्य स्वादृश पूर्वकोटीवर्पायुष्क एव परिहारविशुद्धिकं संयम की आयुवाला कोई मनुष्य परिहारविशुद्धिकसंयम को-परिहारविशु. द्विक चारित्र को-अंगीकार करता है । तथा उसके जीवन के अन्त में उस के समीप में अन्य कोई दूसरा १०० वर्ष बाला जीव परिहारविशुद्धिक चारित्र को अंगीकार करता है । इसके बाद उसके पास कोई भी इस चारित्र को अंगीकार नहीं करता है, इस प्रकार से ये दोसौ वर्ष हो जाते हैं। परन्तु प्रत्येक को २९ उन्तीस वर्ष व्यतीत हो जाने पर ही परिहारविशुद्धिक चारित्र की प्रतिपत्ति होने से ५८ वर्ष कम दो सौ वर्ष यह जघन्ध काल होता है । तथा उस्कृष्ट काल परिहारविशुद्धिकसंयत अवस्था का 'देसूणाओ दो पुषकोडीओ' कुछ कम दो पूर्वकोटि का है । जैसे-अवतपिंगी काल में आदि के तीर्थकर के पास एक पूर्वकोटि की आयुवाला कोई जीव परिहारविशुद्धिक संयम को धारण करलेता है और इतनी ही आयुवाला दूसरा कोई जीव उसकी आयु के अन्त में परिहारविशुद्धिकसंयम को धारण થવાળે કોઈ મનુષ્ય પરિહારવિશુદ્ધિક સંયમને અર્થાત પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્રને સ્વીકારે છે. તથા તેના જીવનના અંતમાં એજ તીર્થકરની સમીપે બીજે કઈ ૧૦૦સો વર્ષની આયુષ્યવાળે છે. પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્રને સ્વીકારે છે. તે પછી તેની પાસે કોઈ પણ આ ચારિત્ર સવીકારતા નથી, એ રીતે આ બસે વર્ષ થઈ જાય છે. પરંતુ દરેકને ઓગણત્રીસ વર્ષ વીતી જાય ત્યારે જ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે ત્યારે ૫૮ અઠાવન વર્ષ કમ બસો વર્ષ આ જઘન્ય કાળ થાય છે. તથા પરિહારવિશુદ્ધિક અવસ્થાને ઉત્કૃષ્ટ કાળ 'देसूणाओ दो पुचकोडी ओं' 3 भ में पूटिनी छे.-मसपिणी કાળમાં પહેલા તીર્થંકરની પાસે એક પૂર્વ કેન્ટિની આયુષ્યવાળે કોઈ જીવ પરિહારવિશુદ્ધ સંયમને ધારણ કરી લે છે, અને એટલા જ આયુષ્યવાળો કઈ જીવ તેના આયુષ્યના અંતમાં પરિહારવિશુદ્ધ સંયમને ધારણ કરે છે. તે Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ एकोनत्रिंशत्तम कालद्वारनिरूपणम् ३८३. मतिपनः तयोश्च प्रत्येकमेकोनत्रिंशतिवर्षेषु गतेषु चारित्रपतिपत्तिरित्येवमष्ट पञ्चा. प्रता वर्षेन्यू नं पूर्वकोटीद्वयं परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं स्यादिति । 'सुहमसंपराय:संजया णं भंते ! पुच्छा' सूक्ष्मसंपरायसंयताः खलु भदन्त ! कालतः किय चिरंभवन्तीति पृच्छा प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एक्कं समयं जघन्येन समयैकमात्रं भवति 'उकोसेणं अंतो महत्तं . उत्कर्षेण अन्तर्मुहतम् । 'अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाख्यातसंयता: यथा सामायिकसंयताः सामायिकसंयतवदेव यथाख्यातसयता अपि सर्वकाले एव भवन्तीति । (२९)। करता है । इसके बाद फिर कोई जीव इस चरित्र को प्राप्त नहीं करता है तो ऐसीस्थिति में २ कोटि वर्ष तक इस चारित्र का सद्भाव उत्कृष्ट से आ जाता है। परन्तु ये दोनों जीव अपनी आयु के २९ वर्ष निकल जाने के बाद ही इस चारित्र को प्राप्त करते हैं । अतः २ कोटि पूर्व० ५८ वर्ष से हीन हो जाते हैं । इसीलिये इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम २ कोटि पूर्व का कहा गया है। 'सुहमसंपरायसंजयाणं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! नाना जीवों की अपेक्षा से सूक्ष्मसंपरायसंयत का काल कितना है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! जहानेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' हे गौतम ! सूक्ष्मसंपरायसंयत जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहर्त तक रहता है । 'अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाख्यातसंयतों का काल सामायिकसंयतों के जैसे है । अतः यथाख्यातसंयत सर्वकाल में पाये जाते हैं । २९ वें कालद्वार का कथन समाप्त । પછી કોઈ જીવ આ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરતા નથી, આ સ્થિતિમાં બે કરોડ વર્ષ સુધી ઉત્કૃષ્ટથી આ ચારિત્રને સદુભાવ આવી જાય છે. પરંતુ આ અને જીવ પિતાના આયુષ્યના ૨૯ વર્ષ નીકળી ગયા પછી જ આ ચારિત્રને પ્રામ કરે છે. તેથી બે પૂર્વકેટિ ૫૮ અઠાવન વર્ષથી ન્યૂન થઈ જાય છે તેથી જ तेन पृष्ट ४७४ माछा में पूरी टिना हेर छे. 'सुहमसंपरायसजयाणं, भंते ! पुच्छा' भगवन् सूक्ष्म पराय सयतन। मने वानी अपेक्षाथी 32 m छ ? उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! जहन्नेणं एक्क समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' गौतम ! सूक्ष्भस पराय सयत धन्यथा मे समय सुधी भने अष्टया मे मतभुत सुधी २ छे. 'अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाज्यात सयतन। सामायि४ सयतनी रस જેથી યથાખ્યાત સંયત સર્વ કાળમાં રહેતા હોય છે. ઓગણત્રીસમા કાળદ્વારનું કથન સમાપ્ત Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ भगवतीचे त्रिंशत्तममन्तरिमाह-'सामाइयसंजयस्स णं भंते । केवइयं कालर अंतर होई' सामायिकसंयतस्य सामायिकसंयतस्येति सामायिकसंयतो भूवा तत्परित्यागे पुनस्तस्य सामायिकसंयतत्वमाप्तौ खलु भदन्त ! कियत्कालपर्यन्तम् । अन्तरम्-व्यवधानं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा'. हे गौतम ! 'जहन्नेणं जहा पुलागस्स' जघन्येन यथा पुलाकस्य जघन्येन अन्त.' मुहर्तमात्रम् व्यवधानं भवति उत्कर्षेणानन्तकालपर्यन्तं व्यवधानं भवति काला. पेक्षया अनन्तावसर्पिण्युत्सपिण्यः, क्षेत्रतो देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त, यावत् । यदि, कश्चित्माणी आकाशस्य प्रत्येकस्मिन् प्रदेशे प्राप्नुवन् मरणेन यावताकालेन संपूर्णः . मपि लोकं ब्याप्नुयात् तावता कालेन क्षेत्रापेक्षया वादरपुद्गलपरावों भवतीति । ३० अन्तार का कथन 'सामाझ्यसंजयस्स णं भंते ! केवइयं झालं अंतरं होई' हे भदन्त !, सामायिकसयत को वापिस सामायिकसंयतबनने में कितने काल का अन्तर होता है, उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं जहा पुलागस्स' हे गौतम ! पुलाक के जैसे यहां जघन्य से अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से अन्तर अनन्तकाल का है । काल की अपेक्षा से अनन्त अवसर्पिणी अनन्त उत्सर्पिणी का अन्तर रहता है और क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त्त का अन्तर होता है। कोई प्राणी लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में जन्म मरण करता हआ सम्पूर्ण लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को जितने समय में अपने जन्म मरण से व्याप्त कर लेता है उतने काल का नाम क्षेत्र की अपेक्षा હવે ત્રીસમા અન્તરનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजयस्स णं भते ! केवइयं काल अंतर होइ' उ समपन् । સામાયિક સંયતને ફરીથી સામાયિક સંયત થવામાં કેટલા કાળનું અંતર રહે છે? व्यवधान २ छे ? | प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छ -'गोयमा । जह. ण्णेणं जहा पुलागस्स' हे गीतम! yाना ४थन प्रमाणे माडियां धन्यथा અંતર-વ્યવધાન એક અંતર્મુહૂર્તનું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળ સુધીનું અંતર છે. કાળની અપેક્ષાથી અનંત અવસર્પિણ અનંત ઉત્સર્પિણીનું અતર રહે છે. અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી દેશને અપાઈ પુદ્ગલ પરાવર્તનું અંતર રહે છે. કોઈ પ્રાણ કાકાશના દરેક પ્રદેશમાં કમથી જન્મમરણ કરતા થકા સંપૂર્ણ કાકાશના સઘળા પ્રદેશને જેટલા સમયમાં પિતાના જન્મમરણથી વ્યાપ્ત કરી લે છે. એટલા કાળનું નામ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી એક બાદર પુદ્ગલ પર Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०६ त्रिंशत्तममन्तर्द्धारनिरूपणम् ३८५ .' एवं जाव अहक्खाय संजयस्स' एवं यावद् यथाख्यात संयतस्य अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसंपरायसंयतानां ग्रहणं भवतीति, ततथ छेदोपस्थापनीयादारभ्य यथाख्यात संयतान्तानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्ट'तोऽनन्तं कालमंतरं भवतीति भावः । अथ समुच्चयेन बहुवचनमाश्रित्याह 'सामा इयसंजया णं भंते ! पुच्छा' सामायिक संयतानां खलु भदन्त ! कियत्कालं यावद - स्वरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नत्थि अंतरं' नास्ति अन्तरम् बहुस्वापेक्षया सामायिकसंयतानां कदापि अन्तरं न भवतीति । 'छेदोवद्वावणियपुच्छा' 'छेदोपस्थापनीयसंपतानां कियत्कालपर्यन्तं व्यवधानं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'जोयमा' हे गौतम ! ' जहन्नेणं तेवट्ठि वाससहस्ताई' जघन्येन त्रिषष्टिवर्षसहस्राणि व्यवसे एक बादर पुलपरावर्त्त होता है । 'एवं जाव अहक्खायसंजयस्स' इसी प्रकार से यापद से छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसंपरा संपत और यथाख्यात संयत के विषय में भी अपना अपना अन्तर समझलेना चाहिये। अब समुच्चय से बहुवचनको लेकर कहता है'सामाइय संजया णं भंते ! पुच्छा' है भदन्त ! बहुत सामायिकसंयत का कितने काल का अन्तर होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नत्थि अंतरं' हे गौतम ! बहुत सामायिकसंघतों को अन्तर नहीं होता है क्योंकि इनमें कोई न कोई सामाधिकसंयत सदा विद्यमान रहता ही है । 'छेदोद्वावणिए पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंतों का कितने काल तक का अन्तर होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोघमा ! जहन्नेणं तेचट्ठि वाससहस्साइं उक्को सेणं अट्ठारससागरोवमवर्त होय हे. 'एवं जाव अहम्खायसंजयस्स' प्रमाणे यावत् भे યથાખ્યાત સયતનુ એક ખીજા યથાખ્યાત સયતથી એક છેદેપસ્થાપનીયનુ બીજા છેપસ્થાપનીયથી અને પરિહારવિશુદ્ધિકનું ખીજા પરિહારવિશુદ્ધિક સયતથી અંતર-વ્યવધાન રહે છે. 'सामाइयसजयाणं भंते । पुच्छा' हे भगवन् भने सामायिक संयताने કેટલા કાળનુ' અતર હાય છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહું છે કે'गोयमा ! नत्थि अंतर' हे गौतम । भने सामायि संयतानुगांतर होतु નથી. કેમકે તેમાં કાઈને કાઈ સામાયિક સયત સદા વિદ્યમાન રહે છે. 'छेदोवट्ठावणिए पुच्छा' हे भगवन् छेहेोपस्थापनीय संयतानु' अ ंतर हैटला अजनुं हाय हे? या प्रश्नमा उत्तरभां अनुश्री ४ छे ! - 'गोयमा ! जहणणं वेवट्ठि वाससहस्साइं उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमकोड़ा कोडी आ' हे गौतम | 270 ४९ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती :धानम् अवसर्पिणीकाले दुष्पमापञ्चमारकं यावत् छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्रवर्तते सदनन्तरं तस्या एव दुष्पमाया एकविंशतिवर्ष सहस्रममाणायामेव दुष्पमायां च प्रथमद्वितीयारके एकविंशतिवर्षसस्रममाणायां छेदोपस्थापनीयसंयमस्यामावो • भवति, एवं चैकविंशतिवर्षसहस्रमानत्रयेण त्रिपष्टि वर्षसहस्राणां जघन्येनान्तरं भवतीति । 'उकोसेणं अट्ठारससागरोचमकोडाकोडीओ' उत्कर्पणाप्टादशसागरोपनकोटी कोटया, उत्सर्पिणीकाले चतुर्विंशतितमजिनतीथें छेदोपस्थापनीय प्रवर्तते । ततश्च सुपमदुष्पमादि समा त्रये क्रमेण द्वित्रिचतुःसागरोपम• कोटी कोटी प्रमाणे अतीते अवसर्पिण्याश्चैकान्तमुपमादित्रये क्रमेण चतुर्सिद्वि कोडाकोडीओ' हे गौतम ! छेदोपस्थापनीयसंयतों का जघन्य से अन्तर तेसठ ६३ हजार वर्ष का और उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोडाकोडी सागरोपन का होता है। अवसर्पिणीकाल में दुष्षमानामक पंचम आरक तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है । इसके बाद इक्कीस हजार वर्षे प्रमाण छठे आरे में और उत्सर्पिणी के इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण प्रथम आरे में और इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण द्वितीय आरे में छेदोपस्थापनीय चारित्र का अभाव रहता है । इस प्रकार से तेसठ ६३ हजार वर्ष प्रमाण छेदोपस्थापनीययनों का जघन्य से अन्तर आजाता है। उत्कृष्ट अन्तर इस प्रकार से है-उत्सर्पिणी के चोईल वें जिनके तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। इसके बाद दो सागरोपम कोडामोडी प्रमाणवाले चतुर्थ आरे में तीन सागरोपम कोडाकोडी છેદપસ્થાપનીનું જઘન્યથી અંતર ૬૩ ત્રેસઠ હજાર વર્ષનું અને ઉત્કૃષ્ટ અંતર અઢાર કલાકેડી સાગરોપમનું હોય છે. અવસર્પિણી કાળમાં દુષમાં નામના પાંચમા આરા સુધી છેદપસ્થાપનીય ચારિત્ર હોય છે. તે પછી છઠ્ઠા આરામાં ૨૧ એકવીસ હજાર વર્ષ અને ઉત્સર્પિણીના ૨૧ હજાર વર્ષ પ્રમાણ પહેલા આરામાં અને ૨૧ એકવીસ હજાર વર્ષ પ્રમાણે બીજા આરામાં છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રને અભાવ થઈ જાય છે. આ રીતે ૬૩ તેસઠ હજાર વર્ષ પ્રમાણ છેદેપસ્થાપનીય સંય તેનું જઘન્યથી અંતર થઈ જાય છે. તેનું ઉત્કૃષ્ટ અંતર આ પ્રમાણે છે–ઉત્સપિણીના ૨૪ ગ્રેવીસમા ભદ્ર કીર્તિજીનના તીર્થ સુધી છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર હોય છે, તે પછી બે સાગરોપમ કેડીકેડી પ્રમાણુવાળા ચેથા આરામાં ત્રણ સાગરોપમ કડાકોડી પ્રમાણવાળા ચોથા આરામાં ત્રણ સાગરોપમ કેડાકેડી પ્રમાણવાળા પાંચમા આરામાં અને ચાર સાગરોપમ કેડાછેડી પ્રમાણુ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ त्रिंशत्तममन्तरनिरूपणम् ३८७ सागरोपमकोटीकोटोप्रमाणे अतीतमाये प्रथमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयं चारित्रं प्रवर्तते इत्येवं क्रमेणाष्टादशसागरोपमकोटी कोटी कालपर्यन्तं छेदोपस्थापनीयसंयमस्यान्तरं भवति । अत्र यद्यपि सर्वसंकलने उत्कृष्टपक्षे किश्चिन्न पूर्यते यच्च पूर्वसूत्रे जघन्य पक्षेऽधिकं भवति तदरपत्वान्न विवक्षितमिति । 'परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा' परिहारविशुद्धिकसंयतानां खलु भदन्त ! किमत्कालमन्तरं भवतीति प्रश्नः, ' भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं चउरासीई वाससहस्साई जघन्येन चतुरशीतिवर्षसहस्त्राणि, परिहारविशुद्धिकसंयतस्य अन्तरं चतुरशीवाले पंचम आरे में और चार सागरोपम कोडाकोडी प्रमाण वाले छठे आरे में तथा अवसर्पिणी के चार कोडाकोडी सागरीपम प्रमाणवाले प्रथम आरे में तीन कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाले। द्वितीय आरे में और दो कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाले तृतीय आरे में छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता है किन्तु इसके बाद अब सर्पिणी के तृतीय आरे के अन्त में प्रथम जिनके तीर्थ में छेदोपरथापनीय चारित्र होता है । इस प्रकार से यह उत्कृष्ट अन्तर छेदोपस्थापनीयसंयतों का निकल आता है। यहां उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर : की संकलना करने पर उत्कृष्ट पक्ष में कुछ काल कम रहता है और जघन्य पक्ष के अन्तर में कुछ काल बढता है तो भी वह अल्प होने से विवक्षित नहीं हुआ है । 'परिहारविसुद्धिधस्स पुच्छा' हे भदन्त !' परिहारविशुद्धिकसंयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीई वाससहस्साई વાળા છઠ્ઠા આરામાં તથા અવસર્પિણીના ૪ કલાકેડી સાગરોપમ પ્રમાણ વાળા પહેલા આરામાં ૩ ત્રણ ડાકડી સાગરોપમ પ્રમાણુવાળા બીજા આરામાં અને બે કડાકોડી સાગરોપમ પ્રમાણવાળા ત્રીજા આરામાં છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર હોતું નથી. તે પછી અવસર્પિણીના ચેથા આરામાં પહેલા જનના તીર્થમાં છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર હોય છે, એ રીતે ઉત્કૃષ્ટ અંતર છેદેપસ્થાપનીય સંયતનું જણાઈ આવે છે. અહિયાં ઉત્કૃષ્ટ અને જઘન્ય અંતરની સંકલના કરવાથી ઉત્કૃષ્ટ પક્ષમાં કંઈક કાળ ઓછો રહે છે. અને જઘન્ય પક્ષના અંતરમાં કઈક કાલ વધે છે, તે પણ તે અલ્પ હોવાથી विवक्षित थय। नथी. 'परिहारविसुद्धियस्स पुच्छ।' हे भगवन् परिहा२विशुद्धि સંય નું અંતર કેટલા કાળનું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छ है-'गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीई वाससहस्साई उक्कोसेण' अट्टारससाग Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ भगवतीस्त्र तिवर्षसहस्राणि भवन्ति, कथम् १ अवसर्पिणीकालस्य दुष्पमा-दुप्पमदुष्पमयोरुत्सपिणीकालस्य दुप्पम दुष्पमा दुष्पमयोः प्रत्येकमेकविंशति वर्षसहस्रममाणत्वेन चतुरशीतिसहस्राणां भवति तत्र च परिहारविशुद्धिकं न भवतीति कृत्वा जघन्यमन्तरं तस्य परिहारविशुद्धिकस्य चतुरशीतिपंससहस्राणां कथितमिति । यश्चेदान्तिमजिनानन्तरो दुष्पमायां परिहारविशुद्धिककालो यश्चोत्सपिण्या स्वतीयसमायां परि. हारविशुद्धिकपविपत्तिकालात् पूर्वः कालो नासौ विवक्षितोऽल्पत्वादिति 'उक्को. सेणं अट्ठारससागरोवमकोडाकोडीओ' उत्कणाष्टादशसागरोपमकोटीकोटया, उत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतितमजिनतीर्थे परिहारविशुद्धिकसंयमः प्रवर्तवे ततश्च सुपमउक्कोसेणं अट्ठारससागरोवम कोडाकोडीओ' हे गौतम ! परिहारविशुद्धिकसंघतों का अन्तर जघन्य से चौरासी हजार वर्ष का होता है और उत्कृष्ट से अन्तर १८ कोडाकोडी सागरोपम का होता है। अवसर्पिणी काल के दुषमा में एवं दुषमदुपमाकाल में और उत्सपिणी के दुरुपमदुष्पमाकाल में एवं दुष्पमाकाल में प्रत्येक में २१-२१ हजार वर्ष का अन्तर रहता है। क्योंकि इन कालो में परिहारविश द्धिकसंयत नहीं होते हैं । अतः इस बात को लेकर परिहारविशुद्धिक संयत का अन्तर ८४ हजार वर्ष प्रमाण जघन्य से आजाता है। यहां अन्तिम तीर्थकर के बाद पांच में आरे में परिहारविशुद्धिक चारित्र का काल और उत्सर्पिणी के तृतीय आरे में परिहारविशुद्धिक चारित्र को स्वीकार करने के पहिले का काल अल्प होने से विवक्षित नहीं हुआ है। उत्सर्पिणी में चौधील वें तीर्थ कर के तीर्थ में परिहारविशुद्धिक रोवमकोडाकोडीओ' 8 गौतम ! परिहा२विशुद्धि सयतानु तर धन्यथा રાશી હજાર વર્ષનું હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૮ અઢાર કડાકોડી સાગ રિપમનું અંતર હોય છે. અવસર્પિણી કાળના દુષમામાં અને દુષમદુષમા કાળમાં અને ઉત્સર્પિણી કાળને દુષમ દુષમા કાળમાં અને દુષમા કાળમાં દરેકમાં ૨૧-૨૧ એકવીસ, એકવીસ હજાર વર્ષનું અંતર રહે છે. કેમકેઆ કાળમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંય હેતા નથી. તેથી આ કારણને લઈને પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતનું અંતર ૮૪ ચેર્યાશી હજાર વર્ષ પ્રમાણ જઘન્યથી થઈ જાય છે. અહિયાં છેલલા તીર્થંકરની પછી પાંચમા આરામાં પરિહાર વિશુદ્ધિક ચારિત્રને કાળ અને ઉત્સર્પિણીના ત્રીજા આરામાં પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્રને રવીકાર કર્યા પહેલાનો કાળ અલ્પ હોવાથી વિવક્ષિત થયો નથી. ઉત્સર્પિણીમાં વીસમા તીર્થંકરના તીર્થમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંયમ હોય Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ त्रिंशतममन्तरिनिरूपणम् ३८९ दुष्पमादिसमात्रये क्रमेण द्वि त्रि चतुः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीते अबसर्पिण्याश्च कान्तसुषमादि त्रये क्रमे चतुस्त्रिद्विसागरोपमकोटी कोटीपमाणे अतीतपाये प्रथम जिनतीर्थे परिहारविशुद्धिकः प्रवर्तते इत्येवं क्रमेण परिहारविशुद्धिकस्य यथोक्तमष्टादशसागरोपमकोटी कोटी पर्यन्तं भवतीति । 'मुहुमसंपरायाणं जहा. णियंठाण' सृक्षसंपरायाणां यथा निर्ग्रन्थानाम् जघन्येन एकसमयस्य व्यवधान भवति उत्कर्षेण षण्मासस्य व्यवधानं भवतीति । 'अहक्खायाणं जहा सामाइयसंजयाणं' यथाख्यातसंयतानां यथा सामायिकसंयतानाम्, जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेण संख्यातवर्षाणामन्तरं भवतीति (३०) । संयम होता है। इसलिये सुषमदुषमादि तीन आरों में क्रम से दो तीन और चार सागरोपम कोटाकोटी प्रमाणकाल व्यतीत हो जाने पर और अवसर्पिणी के सुषमादि तीन कालों के ४-३-२ कोटा कोटी सागरोपम प्रमाण काल व्यतीत प्राय हो जाने पर प्रथम जिनके तीर्थ में परिहारविशुद्धिक चारित्र प्राप्त होता है । इस क्रम से परिहारविशुद्धिक का अन्तर उत्कृष्ट से १८ कोटा कोटी सागरोफ्स का आजाता है। 'सुहुनसंपरायाण जहा णियंठाण' सूक्ष्मसंपरायसंयतों का अन्तर निर्ग्रन्थों के जैसा जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से ६ माह का होता है। 'अहक्खायाणं जहा सामाइघसंजया णं' यथाख्यात संयतों का अन्तर सामायिकसंयतो के जैसे जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से संख्यातवर्षों का होता है। ३० वां अन्तरद्वार का कथन समाप्त છે, તેથી સુષમદુષમ વિગેરે ત્રણ આરાઓમાં કમથી ત્રણ અને ચાર સાગરેપમ કેટકેટિ પ્રમાણે કાળ વીત્યા પછી અને અવસર્પિણીના સુષમ વિગેરે ત્રણ કળામાં ૪–૩–૨ કટાકેટિસાગરેપમ કાળ વ્યતીતપાય થઈ જાય ત્યારે પહેલા જીનના તીર્થમાં પરિહાર વિશુદ્ધિક ચારિત્ર પ્રાપ્ત થાય છે. આ ક્રમથી પરિહારવિશુદ્ધિકનું અંતર ઉત્કૃષ્ટથી ૧૮ અઢાર કટિકેટિ સાગરોપમનું मादी तय छ 'सुहमसंपरायाणं जहा णियंठाणं' सक्षमस ५२।सयतार्नु म'तर નિર્ચના કથન પ્રમાણે જઘન્યથી એક સમયનું અને ઉત્કૃષ્ટથી ૬ છ માસનું डाय छे. 'अहक्खायाणं जहा सामाइयसंजयाण' यथान्यातसयतानु म'तर સામાયિક સંયતોના અંતર પ્રમાણે જઘન્યથી એક સમયનું અને ઉત્કૃષ્ટથી સંખ્યાત વર્ષોનું હોય છે. એ રીતે આ ત્રીસમા અન્તરકારનું કથન સમાપ્ત. - Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे एकत्रिंशत्तमं समुद्घातद्वारमाह - 'सामाइय संजयस्त णं भंते । कइ समुग्धाया पन्नत्ता' सामायिकसंयतस्य खल भदन्त ! कवि समुद्घाता भवन्तीति मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'छ सदृग्वाया पन्नत्ता' समुद्घाताः प्रज्ञप्ता', 'जहा कसायकुसीलस्स' यथा कपायकुशीलस्य यथा कपायकुशीलस्य पट्समुद्घाताः कथितास्तथा सामायिकसंयतस्यापि वेदनासमुद्घातादारभ्य आहारकसमुद्घातान्वाः पडपि समुद्याता ज्ञातव्या इति । एवं छेदोवाणि वि' एवं सामायिक संयतव देव छेदोपस्थापनीय संयतस्यापि पट्टसमुद्घाता भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागस्स' परिहारविशुद्धिकसंयतस्यापि वेदनाकपायमारणान्तिकाः त्रयः समुद्घाता एव भवन्तीति ३९० समुद्घात द्वार का कथन 'सामाइय संजयस्स णं भते । कइ समुग्धाया पन्नत्ता' हे भदन्त ! सामायिक संयत के कितने समुद्घात कहे गये हैं । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा ! छ समुग्धाया पण्णत्ता' हे गौतम! सामायिकसंयत के ६ समुद्घात कहे गये हैं । 'जहा कसायकुसीलस्स' जिस प्रकार से कषायकुशील के ६ समुद्घात कहे गये हैं । वेदना समुद्घात से लेकर आहारक समुद्घात तक के सब समुद्घात सामायिकसंयत के होते हैं । ' एवं छेदोवावणियस्स वि' सामायिकसंगत के जैसे छेदोपस्थापनीयसंयत के भी वेदना समुद्घात से लेकर आहारक समुद्धात तक ६ ही समुद्रघात होते हैं । 'परिहारविसुद्वियस्स जहा पुलागस्स' परिहारविशुद्धिक संपत के पुलाक के जैसा वेदना, कपाय और मारणान्तिक હવે એકત્રીસમા સમ્રુદ્ધાતદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. '' 'सामाइयसंजयस्स णं भंते ! कइ समुग्धाया पन्नत्ता' हे लगवन् सामा વિકસ`યતને કેટલા સમુદ્દાત કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે - 'गोयमा ! छ समुग्धाया पण्णत्ता' हे गौतम | सामायि संयतने छ सभु दूधाता ह्या छे. 'जहा कसायकुसीलस्स' ने अभाये उपाय दुशीसने छ सभुઘાતા કહ્યા છે. તે પ્રમાણે વેદના સમુદ્ઘાતથી લઇને માહારક સમ્રુદ્ધાત सुधीना सघणा समुद्घातो सामायिक संयतने हाय छे. 'एव' छेदोवट्ठावणिચÆ નિ' સામાયિક સયતના કથન પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય સયતને પણ વેદના સમુદ્દાતથી લઇને આહારક સમુદ્દાત સુધીના છ સમુદ્દાતા હાય छे. 'परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागरस' परिहारविशुद्धि संयतने चुसाउना કથન પ્રમાણે વેદના, કષાય અને મારણાન્તિક આ ત્રણ સમુદ્ઘાતા હોય છે, Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिकारीका श०२५ उ.७ सू०७ क्षेत्रादिद्वारनिरूपणम् ज्ञातव्यम् । 'मुहुमसंपरायस्स जहा णियंठस्स' सक्षमसंपरायसंयतस्य यथा निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थवदेव सूक्ष्मसंपरायसंयतस्यैकोऽपि समुद्घातो न भवतीति । 'अहक्खायस्स जहा सिणायस्स' यथारख्यातसंयतस्य यथा स्नातकस्य स्नातकवदेव यथाख्यात. संयतस्य एक एव केलिसमुद्घातो भवतीति (३१) ।मु०६॥ - मूलम्-सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे पुच्छा गोयमा! नो संखेज्जइभागे जहा पुलाए । एवं जाव सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए ३२। सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्त किं संखेजइ. भागं फुसइ० जहेव होज्जा तहेव फुसइ ३३। लामाइयसंजए णं भंते कयामि भावे होज्जा? गोयमा! ओवसमिए भावे होज्जा। एवं जाव सुहुमसंपराए। अहक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा ! उवलमिए वा खइए वा भावे होज्जा ३४। सामाइय संजया णं भंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा ? गोयमा! पडिवज्जमाणए पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेसं । छेदोवटावणिया पुच्छा, गोयमा! पडिवजमाणए पडुच्चं सिय अस्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सयपुहुत्तं । पुवपडिवन्नए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं कोडीसयपुहत्तं उक्कोसेण वि कोडीसयपुहुत्तं । परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा। सुहुमये तीन समुदघात होते हैं । 'सुहमसंपरायस्स जहा णियंठस्स' सूक्ष्मसंपरायसंयत को निग्रन्थ के जैसा एक भी समुद्घात नहीं होता है। 'अह. क्खायस्प्त जहा सिणायस्स' यथाख्यातसंयत के स्नातक के जैसा केलि. समुद्घात ही होता है। ३१ वां समुद्घात द्वार का कथन समाप्त ॥तू०६॥ 'सुहमसपरायस्स जहा णियंठरस' सूक्ष्म ५२।५ सयतन नियन्थन। ४थन प्रमाण श्य पर समुद्धात सात नथी. 'अहक्खायरस जहा सिणायस्स' यथाभ्यात સંયતને સનાતકના કથન પ્રમાણે કેવળ એક કેવલીસમુઘાત જ હોય છે, એ રીતે આ એકત્રીસમાં સમુદ્રઘાત દ્વારનું કથન સમાપ્ત સૂર દા Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीचे संपराया जहा णियंठा। अहक्खायसंजया णं पुच्छा, गोयमा.! : पडिवजमाणए पडुच्च लिय अस्थि सिय नस्थि। जइ अस्थि जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्लि वा उक्कोलेणं चावटसयं अटुत्तरसयं खवगाणं, चउप्पन्न उक्सालगाणं । पुत्वपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडीपुहत्तं उक्कोलेणं वि कोडीपुहत्तं ३५। . एएसि णं भंते ! सामाइयछेदोवटावणियपरिहारविसुद्विय सुहमसंपराय अहक्खायसंजयाण कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सवत्थोवा नुहमसंपरायसंजया परिहारविसुद्धियसंजया संखेजगुणा अहक्खायलंजया संखेजगुणा छेदोवटावणियसंजया संखेजगुणा सामाइथलंजया संखेजगुणा३६॥सू०७॥ छाया-सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! लोकस्य किं संख्येयभागे भवेत् असंख्येयभागे पृच्छा गौतम ! नो संख्येयमागे यथा पुलाकः एवं यावत् सुक्ष्मसंपरायः। यथाख्यातसंयतो यथा स्नातकः । (३२)। सामायिकसयतः खलु भदन्त ! लोकस्य किं संख्येयमागं स्पृशति० यथैव भवेत् तथैव स्पृाति ३३ । सामायिकसंयतः खलु मदन्त ! कतरस्मिन् भावे भवेत् ? गौनम ! औपशमिके भावे भवेत् । एव यावत् सूक्ष्मसंपरायः । यथारूपातसंयतः पृच्छा गौतम ! , औपशमिके वा क्षायिके वा मावे भवेत् ३४ । सामायिकसंयताः खलु भदन्त ! एकसमयेन कियन्तो भवेयुः ? गौतम । प्रतिपद्यमानान् प्रतीत्य यथा कपाय. कशील तथैव निरवशेषम् । छेदोपस्थापनीयः पृच्छा गौतम ! भतिपधमानान् प्रतीत्य स्यादरित रयान्नास्ति । यदि अस्ति जघन्येन एको वा हो वा त्रयो वा उत्कर्षेण शतपृथक्त्वम् । पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्यानास्ति यदि अस्ति जघन्येन कोटीशतपृथक्त्वम् उत्कर्षेणापि कोटिशतपृथक्त्वम् । परिहारविशुद्धिका यथा पुलाकाः सक्षमसंपराया यथा निर्ग्रन्थाः । यथाप्न्यातसंवताः खलु पृच्छा गौतम ! पतिपद्यमानान् प्रतीत्य रयादस्ति स्यानास्ति । यदि अस्ति जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण द्वापटिशतम् अष्टोत्तरशतं क्षपकाणाम् चतुः पश्चाशदुपशामकानाम् । पूर्वपतिपन्नान प्रतीत्य जघन्येन कोटिपृथक्त्वमुत्। णापि कोटिपृथवश्वम् (३५)। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ २०७ द्वात्रिंशत्तम क्षेत्रद्वारनिरूपणम् ३९३ एतेषां खल भदन्त ! सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपर राययथाख्यातानां कतरे कतरेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोकार सूक्ष्मसंपरायसंयताः, परिहारविशुद्धिकसंयताः संख्येयगुणाः, यथाख्यातसंयता: संख्येयगुणाः, छेदोपस्थापनीयसंयताः संख्येयगुणाः सामायिकसंयता: संख्येयगुणाः ॥३६९०७॥ ____टीका-द्वात्रिंशत्तमं क्षेत्रद्वारमाह-"सामाइयसंजए गं भंते ! सामायिकसंयतः खलु भदन्त ! 'लोगस्स किं संखेज्जइमागे होज्जा असंखेज्जइमागे' पुच्छा' लोकस्य किं संख्येयभागे भवेत् असंख्येयभागे वा भवेत् संख्याते षु भागेषु वा भवेत् असंख्यातेषु भागेषु वा भवेत् सर्वलोके वा भवेत् इति पृच्छा पदेन प्रश्नो ज्ञातव्यः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो संखे. ज्जइभागे जहा पुलाए' नो संख्येयभागे भवेत् किन्तु असंख्येयभागे भवेत् न वा संख्यातेषु भागेषु भवेत् न वा असंख्यातेषु लोकस्य भागेषु भवेत् न वा सर्वलोके. ३२ क्षेत्रद्वार का कथन 'सामाझ्यसंजएणं भंते!" हे भदन्त ! सामायिकसंयत 'लोगस्स संखे'जइभागे होजा, असंखेज्जाभागे होज्जा, पुच्छा' लोक के संख्यातवें भाग में होता है ? अथवा असंख्यातवें भाग में होता है अथवा संख्यातभागों में होता हैं। अथवा असंख्यातभागों में होता है । अथवा समस्त लोक में होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! णो संखेज्जहभागे जहा पुलाए' हे गौतम ! सामायिकसंयत लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होता है, किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। वह लोक के संख्यातभागों में नहीं होता है और न लोक के असंख्यात भागों में होता है । तथा वह सर्वलोक में भी नहीं होता है । इस क्रम से पुलाक હવે બત્રીસમા ક્ષેત્રદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. ' 'सामाइयसजए णं भते ॥ ७ मापन सामायि४ सय 'लोगस्स संखेजड. भागे होज्जा, असंखेन्जइभागे होज्जा पुच्छा' साना सभ्यातमा मागमा डाय છે? કે અસંખ્યાતમાં ભાગમાં હોય છે ? અથવા સંખ્યાત ભાગમાં હોય છે? અથવા અસંખ્યાત ભાગમાં હોય છે ? અથવા સઘળા લેકમાં હોય છે ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री छ -'गोयमा । णो संखेज्जइभागे जहा पुलाए' है गौतम । सामयिसयत उन सभ्यातमा मागमा डोता નથી પરંતુ લેકના અસ ખ્યાત ભાગમાં હોય છે તે લેકના સા ખ્યાત ભાગોમાં હતા નથી અને અસંખ્યાત ભાગોમાં પણ હોતા નથી, તથા તે સલેકમાં પણ લેતા નથી, આ કમથી પુલાકના પ્રકરણ પ્રમાણે અહિયાં भ० ५० Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ भगवतीसूत्रे भवेदित्येचं क्रमेण पुलाकप्रकरणवदुत्तरमव सेयम् । ' एवं जान हम संपराए' एवं (सामायिक संयतचदेव याचत्सूक्ष्म संपरायोऽपि ज्ञातव्यः, अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्विकसंघतयोः संग्रहो भवति तथा च छेदोपस्थापनीयादारभ्य सूक्ष्म संपरायान्ताः संयताः न लोकस्य संख्येये भागे भवेयु र्नवा संख्यातेषु भागेषु भवेयु वा सर्वलोके भवेयुः किन्तु लोकस्यासंख्यात भागमात्रे भवेयुरिति भावः । 'अहक्खाय संजय जहा सिणाए' यथाख्यातसंयतो यथा स्नातकः यथा'ख्यात संपतोहि लोकस्य संख्येयभागे न भवेत् न वा लोकस्य संख्यातेषु भागेषु भवेत् किन्तु कस्य असंख्येयभागे भवेत् असख्यातेषु भागेषु वा भवेत् सर्वलोके वा भवेत् केवल मुद्यातापेक्षयेति द्वात्रिंशत्तमद्वारम् (३२) के प्रकरण के जैसा यहां उत्तर जानना चाहिये । ' एवं जाव सुट्टमसंपराए' सामायिकसंघन के जैसा ही याचत् सुक्ष्म संपरायसंगत भी जानना चाहिये । यहाँ यावत्पद से छेदोपस्थापनीयसंगत एवं परिहारविशुद्धिकसंगत इन दोनों का ग्रहण हुआ है। तथा च- - छेदोपस्थापनीयसंयत से लेकर सूक्ष्मसंपरायसंगत तक के जीव लोक के संख्यातवें भाग में लोक के संख्यातो भागों में लोक के असंख्यातों भागों में एवं सर्व लोक में नहीं होते हैं किन्तु वे सब लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं । अक्खायनंजए जहां सिणाए' यथाख्यान संयत स्नातक के जैसे लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होते हैं, संख्यात भागों में नहीं होते है । किन्तु वे लोक के असंख्य भाग में होते हैं, असं. ख्यात भागों में होते हैं और सर्वलोक में भी होते हैं । सर्वलोक में उनके होने का कथन केवल समुद्घात की अपेक्षा से है ऐसा जानना चाहिये | ३२ वां क्षेत्रहार का कथन समाप्त । उत्तर वा४य समन्युं. ' एवं जाव सुहुमसंपराए' सामायि संयतना उथन પ્રમાણે યાવતુ સૂક્ષ્મસ’પરાય સયતનું કથન પણુ સમજવુ', અહિયાં યાવપદથી છેદ્દેપસ્થાપનીય સંયત અને પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત આ બન્ને ગ્રહણુ કરાયા છે તથા છેદેપસ્થાપનીય સયતથી લઈને સમસ પરાય સયત સુધીના જીવા લેાકના સંખ્યાતમા ભાગેામાં લેાકના અલખ્યાત ભાગામાં અને સલાકમાં હાતા નથી. પણ તે મધા લેકના અસખ્યાતમા ભાગમાં જ હાય છે. અદ્क्खायसंजर जहा सिणार' यथाण्यात संयंत स्नातउना उथन अभा सोना સખ્યાતમા ભાગમાં હાતા નથી. સખ્યાત ભાગેામાં હાતા નથી. પરંતુ તે લાકના અસખ્યાતમા ભાગમા હૈાય છે, અસંખ્યાત ભાગે મા હૈાય છે, અને સ લેાકમાં પણ હાવાનુ કથન કૈલિસમુદ્દાતની અપેક્ષાથી છે, તેમ સમજવું, મત્રીસમા ક્ષેત્રદ્વારનું કથન સમાપ્ત Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका ०२५ उ.७ सू०७ त्रिंशत्तम स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ३९६ जयत्रिंशत्तमं स्पर्शनाद्वारमाह - 'सापाइयसंजय णं भंते ।' सामायिक संयतः खल भदन्त ! 'लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुमह०' लोकस्य किं संख्येयभागं स्पृशति असंख्येयभागं वा स्पृशति इति मनः, उत्तरमाह - ' जहेव' इत्यादि, ' जहेव होज्जा तहेब फुलई' यथैव भवेत् तथैव स्पृशति यथैव सामायिक संयतः लोकस्य न संख्येयभागे भवति इत्यादि क्षेत्रद्वारे कथितम् तथैवात्र पि सामायिकसंयतः न लोकस्य संख्येयमागं स्पृशति किन्तु असंख्येयभागमात्रं स्पृशति न वा संख्यातान् भागान् स्पृशति न वा असंख्यातान् भागान् स्पृशति न वा सर्वलोकं स्पृशतीति सामायिकसंयतादारभ्य यथाख्यातान्ता भवन्तीति ३३ । ३३ व स्पर्शन द्वार का धन 'सामाइय संजए णं भंते ।' हे भदन्त ! सामायिकसंघत 'लोगस्स किं संखेज्जहभागं फुसह ० ' क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता '? अथवा असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' जहेप होज्जा तहेब फुल' जिस प्रकार 'होज्जा' क्षेत्रद्वारमें कहा है वैसा ही यहां स्पर्शनाद्वार में भी कहदेना चाहिये, अर्थात् हे गौतम! सामायिकसंगत लोक के संख्यातवे भोग का स्पर्श नहीं करता है, लोक के संख्यात भागों को स्पर्श नहीं करता है, लोक के असंख्यात भागों की स्पर्शना नहीं करता है और न वह सर्व लोक की स्पर्श करता है । किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग की ही स्पर्शना करता है । इसी प्रकार का कथन सामाधिकसंघत से लेकर यावत् यथाख्यातसंयत तक क्षेत्रद्वार जैसा ही जानना चाहिये । ३३ वां स्पर्शना द्वार का कथन समाप्त । , હવે તેત્રીસમા સ્પર્શના દ્વારનુ` કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंज्रए णं भंते !' हे भगवन् सामायि संयंत 'लोगस्स किं सखेज्जइभागं फुसइ०' बोङना सध्यामा लागना स्पर्श हुरे छे ? अथवा અસખ્યાતમા ભાગના સ્પર્શ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે ' जहेव होज्जा तहेव फुतइ' हे गौतम! सामायिक संयत होना सध्यातभा ભાગના સ્પર્શ કરતા નથી. લેાકના અસખ્યાત ભાગાના સ્પર્શ કરતા નથી, અને તે સર્જે લેાકને પણ સ્પર્શ કરતા નથી પરંતુ લેાકના અસંખ્યાતમા ભાગના જ સ્પર્શ કરે છે. આ પ્રમાણેનું કથન યાવત્ યથાખ્યાત સંયંત સુધી સમજવું. એ રીતે આ તેત્રીસમા સ્પના દ્વારનું કથન સમાપ્ત Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र भावद्वारमाह-'सामाइयसंजए णं भंते !' सामायि संयतः खलु भदन्त ! 'कयरंमि भावे होज्जा' कतरम्मिन् भावे भवेदिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'खोवसमिए मावे होना' सायोपशमिके भावे भवेत् क्षायोपशमिकभाववान सामायिकसंयतो भवेदिति । 'एवं जाव मुहमसंपराए' एवं सामायिकसंयतवदेव यावत् सुक्षमसंपरायसंगतोऽपि क्षायोपशमिके भावे एव भवेत् अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयसंयतपरिहारविशुद्धिकसंयतयोः संग्रहो भाति तथा-चेमौ द्वावपि सामायिकसंयतवदेव केवलम् क्षायोपशमिक भावे एव भवेताम् इति । 'अहक्खायसंजए पुच्छा' यथाख्यातसंयतः खल भदन्त ! कतररिमन भावे भवेदिति पृच्छा प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, ३४ वां भावद्वार का कथन 'सामाझ्यसंजए णं भंते कयरंमि भावे होज्जा' हे भदन्त ! सामायिकसंयत कौन से भाव में होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! खओवलमिए भावे शेजा' हे गौतम । सामायिकसंयत क्षायोपशमिक भाव में होता है अर्थात् सामायिकसंयत क्षायोपशमिक भाव वाला होता है । 'एवं जाव सुहमसंपराए' सामायिकसंयत के जैसा ही यावत् सूक्ष्मसंपरायसंयत भी क्षायोपशमिक भाव में ही होता है। यहां यावत् शब्द से छेदोपस्थापनीयसंपत और परिहारविशुद्धिकसंयत इन दो का ग्रहण हुआ है । तथा च ये दो संयत भी केवल क्षायोपशमिक भाव में ही होते हैं । 'अहक्खायसंजए पुच्छा' हे भदन्त ! ययाख्यातसंयत किस भाव में होता है ? अर्थात् यथाख्यात હવે ત્રીસમા ભાવકારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'सामाइयसंजए णं भंते ! कयर मि भावे होजा' ७ मावन् सामायि: સયત યા ભાવમાં હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! ओवसमिए भावे होज्जा' गौतम ! सामायि संयत सीपशभिः मावा डाय छे. 'एव जाव सुहमसंपराए' सामायि४ सयत प्रभारी २१ થાવત્ સૂમસં૫રાય સયત પણ આપશમિક ભાવવાળા જ હોય છે. અહિયાં યાવત્ પદથી છેદેપસ્થાપનીય સંયત અને પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત આ બને ગ્રહણ કરાયા છે. એટલે કે આ બને સંયતો કેવળ ઔપથમિક ભાવવાળા १ डाय छे. 'अहक्खायसंजए पुच्छा' 8 सावन् यथा यात सयत या लापमा હોય છે? અર્થાત્ યથાખ્યાત સંયત કયા ભાવવાળા હેય છે? આના ઉત્તરમાં Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०७ पञ्चत्रिंशत्तम परिमाणद्वारनि० 'गोयमा' हे गौतम ! 'ओवसमिए वा होज्जा' यथाख्यातसंयतः भावे भवेत् क्षायिके ना भवे भवेदिति ३४ | पश्चत्रिंशत्तमं परिमाणद्वारमाह - 'सामाइयसंजया णं भंते' सामायिकसं रताः खलु भदन्त ! ' एगसमपणं केवइया होज्जा' एकसमयेन एकस्मिन् समये इत्यर्थः कियन्तो भवेयुः उत्पद्यन्ते इति परिमाणद्वारे प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम | 'डिवज्जमाणए य पडुच्च' प्रतिपद्यमानांच प्रतीत्य 'जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेस' यथा कषायकुशीलाः कथिता स्तथैव निरवशेपमिहापि ज्ञातव्यम् । प्रतिपद्यमानान् प्रतीत्य स्यादस्ति स्यान्नास्ति यदि संपत किस भाव वाला होता है ? उत्तर में भगवान् कहते हैं - 'गोयमा ! उवसमिए वा खाइए वा होज्जा' हे गौतम ! यथाख्यातसंयत औपशमिक भाव में भी होता है और क्षायिक भाव में भी होता है । ३४ वां भाव द्वार का कथन समाप्त । ३५ व परिमाण द्वार का कथन 'सामाहय संजया णं भंते एगसमएणं केवढ्या होज्जा' हे भदन्त ! सामायिक संयत एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा' पडिवज्जमाणए थ पडुच्च जहा कसायकुसीला तव निरवसेस' हे गौतम ! जिस प्रकार कषायकुशील कहे गये हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण रूप से यहां सामायिकसंघत भी कह लेना चाहिये । इस प्रकार प्रतिपद्यमान सामायिक संघतों की अपेक्षा से सामायिक संयत एक समय में होते भी हैं और नहीं भी होते हैं यदि वे एक अनुश्री छे - 'गोयमा ! उवसमिए खाइए वा होज्जा' हे गौतम । यथाખ્યાત સયત ઔપશમિક ભાવવાળા પણ હાય છે અને ક્ષાયિક ભાવવાળા પણુ હાય છે. એ રીતે આ ચેાત્રીસમા ભાવદ્વારનું કથન સમાપ્ત ! ३९७ पशमिके वा હવે પાંત્રીસમાં પરિમાણુદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે– 'खामाइयसंजया णं भंते । एगसमएणं केवइया होज्जा' हे भगवन् सामाયિકસયત એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री उडे छे - 'गोयमा ! पडिवजमाणए य पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेसं' हे गौतम । नेप्रमाणे उपाय कुशीसना संबंधमां उछु हे, એજ પ્રમાણે સમગ્ર રીતે અહિયાં સામાયિક સયતના સંબંધમાં પણ કથન સમજવું. આ રીતે પ્રતિપદ્યમાન સામાયિક સયતાની અપેક્ષાથી સામાયિક સયત એક સમયમાં ડાય પણ છે, અને નથી પણ હાતા જે તે એક Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ३९८ enadrea अस्ति तदा जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण सहस्रपृथक्त्वं द्वि सहस्रादारभ्य नव सहस्रपर्यन्तं समुत्पयन्ते एक समये, पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतीत्य तु जघन्येन कोटिसहस्रपृथवन्दम् उत्कृष्टतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वम् हि कोटिसहस्त्रादारभ्य नव कोटिसहस्रपर्यन्तम् एक समये भवन्तीति । 'छेदोपट्टावणिया पुच्छा' छेदोपस्थापनीयसंयताः भदन्त ! एकसमये कियन्तो भवन्तीति मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडिवज्जमागए' प्रतिपद्यमानान् वर्तमानकालिकप्रतिपत्यपेक्षया 'पडुच्च' प्रतीत्य 'सिय अस्थि सियनत्थि' स्यात्सन्ति कदाचिद्भवन्ति स्यान्नसन्ति कदाचिन्न भवन्ति । 'जइ अस्थि' समय में होते हैं तो कम से कम एक भी होता है दो भी होते हैं और तीन भी होते हैं । और अधिक से अधिक रूप में वे सहस्र पृथक्त्व अर्थात् दो हजार से लेकर नौ हजार तक भी एक समय में होते हैं और जब पूर्वप्रतिपन्न सामायिकसंयतों का विचार एक समय में होने का किया जाता है तो वे जघन्य और उत्कृष्ट से कोटि सहस्र पृथक्त्व होते हैं - दो कोटिसहस्र से लेकर नौ कोटिसहस्र तक होते हैं । 'छेदोवावणिया पुच्छा' हे भदन्त ! 'छेदोपस्थापनीय संयत एक समय में कितने होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोपमा !' हे गौतम ! 'पडिवज्जमाणए' वर्त्तमानकाल में छेदोपस्थापनीय चारित्र को प्राप्त करने वाले छेदोपस्थापनीयसंतों की अपेक्षा से 'सिय अस्थि सिय नत्थि' वे एकममय में कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जह अस्थि' यदि होते हैं तो वे जघन्य से સમયમાં હાય છે, તે ઓછામાં ઓછા એક પણ હાય છે, એ પણ હાય છે, અને ત્રણ પણુ હાય છે, અને વધારેમાં વધારે તેએ બે હજારથી લઈને ૯ નવ હજાર સુધી પણ એક સમયમાં હાય છે. અને જ્યારે પૂર્વ પ્રતિપદ્યમાન સામાયિકના વિચાર એક સમયમાં હોવાના સંબધમાં કરવામાં આવે તે તેઓ જઘન્યથી કેટિ સહસ્ર પૃથકત્વ પણ હાઇ શકે છે. અર્થાત્ એ કાટિ सहस्रश्री सईने नव अटिसइस सुधी होई राडे छे 'छेदोवट्ठावणिए पुच्छा' हे भगवन् छेोपस्थापनीय संयत मे समयमा उटला हाय छे ? या प्रश्नना उत्तरभां प्रलुश्री छे - 'गोयमा !' हे गौतम । 'पड़िवज्जमाणए' वर्तमान अणभां छेहोपस्थापनीय यास्त्रिने आप्त १२वावाजा छेहोपस्थापनीय सभ्यतानी अपेक्षाथी 'सिय अस्थि सिय नस्थि' तेथे। मुहाति श्रेष्ठ सभयभां होय य थे, गने उहायित नथी पशु होता 'जइ अस्थि' Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०७ पञ्चत्रिंशत्तम परिमाणद्वारनि० ३९९ यदि सन्ति-भवन्ति तदा-'जहन्नेणं एको वा दो वा तिनिवा' जघन्येन एको का द्वौ वा त्रयो वा 'उक्कोसेणं सयपुहत्तं' उत्कर्षेण शतपृथक्त्वम् द्विशतादारभ्य नव शतपर्यन्तम् । 'पुच्चपडिवन्नए पडुच्च' पूर्वपतिपद्यमानान् प्रतीत्य-पूर्वकालिक छेदोपस्थापनीयसंयमप्राप्तपुरुषान् अपेक्ष्येत्यर्थः 'सिय अस्थि सिय नत्थि' स्यात्-कदाचित् सन्ति-भवन्ति स्यात्-कदाचित न सन्ति-न भवन्ति 'जइ अस्थि यदि सन्ति तदा 'जह ने णं कोडीसयाहत्तं' जघन्येन कोटिशतपृथक्त्वम् 'उकोसेण वि कोडि सयपुहुत्तं' उत्कर्षेणापि कोटि शतपृथक्त्वम् ‘परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा' परिहारविशुद्धिकाः खलु भदन्त ! एकसमये कियन्तो भवन्तीति प्रश्न ! हे गौतम ! पतिपद्यमानान् प्रतीत्य स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति यदि एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट से 'सय पुतं' शत पृथक्त्व होते हैं-दो सौ से लेकर ९ सौ तक एक समय में होते है । तथा-'पुवपडिपन्नए पडुच्च' पूर्व प्रतिपन्नकों की अपेक्षा से-पूर्वकाल में छेदोपस्थापनीयसंयम को प्राप्त हुए पुरुषों की अपेक्षा से-वे 'सिय अस्थि सिय नत्यि' एक समय में कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं 'जह अस्थि यदि वे होते हैं तो 'जहन्नेणं कोडी सयपुत्ते' जघन्य से कोटिशत पृथक्त्व होते हैं और 'उकोसेणं वि' उत्कृष्ट से भी वे 'कोडिसयपुहुतं' कोदिशत पृथक्त्व होते हैं । 'परिहारविसुद्धि या जहा पुलागा' पुलाकों के जैसे एक समय में परिहारविशुद्धिकसंघत होते हैं-अर्थात् जब गौतम ने प्रशुश्री से पूछा कि हे भदन्त ! परिहारविशुद्धिकसंघत एक समय में कितने होते है ? જે હોય છે, તો જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ લેય છે. અને Grg४थी 'सयपुहत्तं' शतपृथइव डाय छे, मेटले , मसाथी बने नसो सुधा मे समयमा हाय छे. तथा 'पुवपडिवन्नए पडुच्च' पूर्व प्रतिपन्ननी अपेक्षाधी- पूणमा छटोपस्थानीय प्राप्त थये। यानी अपेक्षाथी सिय अस्थि सिय नस्थि' 28 समयमा वार हाय पाय छ, भने वार नथी ५४ होता 'जइ अस्थि' ले तेस डायरे, तो 'जहन्नेण कोडीसयपुहत्त' धन्यथी टि शपृथइपाय छे. 'उक्कोसेण वि कोडीसयपहात reथी ५ टि शतपृथप डाय छे. 'परिहार विसुद्धिया जहा पुलागा' असाहीना ४थन प्रभार मे समयमा परिहारविश સ થતો હોય છે. અર્થાત્ જ્યારે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત એક સમયમાં કેટલા હોય છે ? વારે પ્રભુશ્રીએ ઉત્તરમાં એવું કહ્યું કે-હે ગૌતમ પ્રતિપદ્યમાન પરિહાર Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० भगवतीस्त्रे सन्ति तदा जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कण शतपृथक्त्वम् पूर्वपतिः पद्यमानान् मतीस्य तु स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति यदि भवन्ति तदा जघन्येन एको षा द्वौ वा त्रयो वा उत्कण सहस्रपृथक्त्वमिति । 'सहुमसंपराया जहा णियंठा' सूक्ष्मसंपरायसयता यथा निग्रन्थाः, सूक्ष्मसंपरायसंयताः खलु भदन्त ! एकसमये कियन्त उत्पधन्ते इति प्रश्नः, हे गौतम ! प्रतिपद्यमानान् प्रतीत्य स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति, यदि सन्ति तदा जघन्येन एको वा द्वौ चा त्रयो वा उत्कर्षेण द्वा तब प्रभुश्री ने ऐसा कहा है कि गौतम! प्रतिपद्यमान परिहारविशुद्धिक संयतों की अपेक्षा से-वर्तमानकाल में परिहारविशुद्धिकसंयत को प्राप्त करते हुए पुरुषों की अपेक्षा से-वे कदाचिन् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट से वे शतपृथक्त्व होते हैं । तथा-पूर्व प्रतिपन्न पुरुषों की अपेक्षा से-पूर्वकाल में परिहारविशुद्धिकसंयम को प्राप्त हुए पुरुषों की अपेक्षा से-वे एक समय में होते भी हैं और नहीं भी होते हैं । यदि होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट से सहस्रपृथक्त्व होते हैं। सुहमलंपराया जहा णियंठा' निर्ग्रन्थों के जैसा सूक्ष्मसंपरायसंयतों का परिणाम है । अर्थात् वर्तमानकाल में सूक्ष्मसंपरायसंयम को प्राप्त करने वाले जीवों की अपेक्षा सूक्ष्मसंपरायसंयत एक समय में होते भी हैं और नहीं भी होते हैंयदि होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं વિશદ્ધિક સંયતોની અપેક્ષાથી એટલે કે વર્તમાન કાળમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંયમપશુને પ્રાપ્ત કરનારા પુરૂની અપેક્ષાથી તેઓ કઈવાર હોય પણ છે, અને કેઈવાર નથી પણ હતા જે હોય છે તો જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી શતપૃથત્વ હોય છે, અર્થાત્ બસેથી લઈને નવસો સુધી હોય છે. તથા પૂર્વ પ્રતિપન પુરૂની અપેક્ષાથી એટલે કે પૂર્વકાળમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંયમને પ્રાપ્ત થયેલ પુરૂની અપેક્ષાથી તેઓ એક સમયમાં હોય પણ છે, અને નથી પણ હતા. જે હોય છે, તે જઘન્યથી એક અથવા બે अथवा त्रय डाय छे. मने Bष्टथी सहय५५ डाय छ 'सुहुमसंपराया जहा नियंठा' निन्याना ४थन प्रमाणे सूक्ष्मस पाय स यतानु परिभा छ अर्थात વર્તમાન કાળમાં સૂક્ષ્મસં૫રાય સંયમને પ્રાપ્ત કરવાવાળા જેની અપેક્ષાથી સૂમસં૫રાય સંયત એક સમયમાં હોય પણ છે અને નથી પણ હતા જે હોય છે, તે જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०७ पञ्चत्रिंशत्तम परिमाणद्वारनि० ४०१ पष्टिः, पूर्वमतिपद्यमानान् प्रतीत्य तु स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति यदि सन्ति तदा अघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा-उत्कर्षेण शतपृथक्त्वमिति । 'अहक्खाय. संजयाणं पुच्छा' यथाख्यातसंयताः खलु भदन्त ! एकसमये कियन्त उत्पद्यन्ते इति पृच्छा-मश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडि. वज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि प्रतिपद्यमानान् प्रतीत्य स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति । 'जइ अस्थि' यदि सन्ति-भवन्ति तदा 'जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्निवा' जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा भवन्ति, 'उक्कोसेणं बावट्ठसयं' उत्कर्षेण द्वा पष्टिः शतम् तत्र 'अछुत्तरसयं खबगाणं' अष्टोत्तरशतं क्षपक्षाणाम् और उत्कृष्ठ से १६२ होते हैं । तथा पूर्वप्रतिपयमानों को आश्रित करके सूक्ष्मसंपरायसंपत कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । यदि होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं । और उत्कृष्ट से शतपृयक्त्व होते हैं। 'अहक्खायसंजयाणं पुच्छा' हे अदन्त ! यथाख्यातसंयत एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिथ नत्यि' हे गौतम ! प्रतिपद्यमान यथाख्यातसंयतों को आश्रित करके वे कदाचित् एकसमय में होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जह अस्थि जहन्नेणं एकको वा दो वा तिनि वा' यदि एक समय में वे होते हैं तो जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं। और 'उस्कोलेणं बावट्ठसयं उत्कृष्ट से एक सौ बासठ १६२ होते हैं इनमें 'अटुत्तरतयं खवगाणं चउवन्नं उवलामगाणं' ૨૨ બાસઠ હોય છે. તથા પૂર્વ પ્રતિપદ્યમાનોને આશ્રય કરીને સૂમસ પરાય સંયત કઈવાર હોય પણ છે, અને કેઈવાર નથી પણ હતા. જે હોય છે, તે જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી શતપૃથક્વ હોય છે ___'अहक्खायसजया पुच्छा' 3 मापन यथान्यात सयत ये समयमा डेटा डाय १ उत्तरमा प्रभुश्री -'गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च निय अस्थि सिय नस्थि' है गौतम! प्रतिपद्यमान यथान्यात सयानी આશ્રય કરીને તેઓ કદાચિત એક સમયમાં હોય પણું છે, અને કદાચિત नथा ५४ डाता 'जह अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा' ने तसा એક સમયમાં હોય છે, તે જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ હોય છે, भने 'उक्कोसेणं बावसय ४थी १६२ सेमास: डाय छे. तमा 'अदुत्तरसय स्वगाण चउवन्न वसोमगाणं' तेसोमा १०८ से से। माइ क्ष५६ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ भगवतीय 'चउबन्नं उवसामगाणं' चतुः पञ्चाशदुपशामकानाम् द्वयोः संमेलने द्वापयुत्तरं शतं भवतीति । 'पुव्वपडिबन्नए पडुच्च' पूर्वमतिपद्यमानान् प्रतीत्य तु 'जहन्नेणं कोडि हुत्तं उकोसेण वि कोडिपुहुत्तं' जघन्येन कोटिपृथक्त्वम् उत्कर्षेणापि कोटिपृथक्त्वमेवेति ३५॥ पत्रिंशत्तमम् अल्पबहुत्वद्वारमाह-अल्पबहुत्वाधिकारे 'एएसि गं' इत्यादि, 'एएसि णं शंते !' एतेषां खलु भदन्त ! 'सामाइयछे होदावणियपरिहारविसु. द्धियसुहुमसंपरायहक्खायसंजयाणं' सामायिकसंवत छेदोपस्थापनीयसंयत परिहारविशुद्धिकसंगत सूक्ष्मसंपरायसंगत यथाख्यातसंयतानाम् 'कयरे कयरेहितो जाव विशेसाहिया वा' कतरे कतरेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा यावत्पदेन अल्पा वा बहुका चा तुल्या वा एतेषां ग्रहणं भवतीति तथा च ई भदन्त ! एषु सामायिकादिसंयतेषु पञ्च केभ्यः केषामल बहुत्वादिकम् भवतीति प्रश्नः, भग. इलमें १०८ क्षपक और ५४ उपशगक होते हैं। 'पुवडिवन्नए पडच्च तथा पूर्व प्रतिपयक यथाख्यात संयतों को लेकर वे एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों रूप से दो करोड से लेकर ९ करोड 'तफ होते हैं । ३५ वा परिमाण द्वार का कथन समाप्त ।। ३६ वा अल्पपटुत्व द्वार का कथन एएहि पं भंते ! सामाइय छेदोवट्ठावणिय परिहारविसुद्धिय अहदखायसंजयाणं' हे भदन्त ! इन पूर्वोक्त लामायिकसंयत छेदोप. स्थापनीयलंयत परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्षमसंपरायसंयत और यथा. ख्यातसयत इनमें कौन किनकी अपेक्षा से यावत् विशेषाधिक हैं ? यहां यावत्पद से 'अप्पा वा बहया वा तुलना वा' इस पाठ का ग्रहण भने ५४ व्यापन ५०४ डाय छ, 'पुवपडिबन्नए पडुच्च' तथा पूर्व प्रति. ૫નક યથાખ્યાત સંયને લઈને તેઓ એક સમયમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ બન્ને પ્રકારથી બે કરોડથી લઈને નવ કરોડ સુધી હોય છે. એ રીતે આ પાંત્રીસમું પરિમાણદ્વાર કહ્યું છે. પરિમાણદ્વાર સમાપ્ત છે હવે છત્રીસમાં અલેપબહુત દ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. 'एएसि णं भवे! सामाइय छेदोवद्वावणियपरिक्षारविसुद्धियसुहुमसंपराय अहक्तायसंजयाणं०' 8 सगवन् मा ५२ व वसा सामायि४ सयत, छेदीપસ્થાપનીય સંયત પરિહારવિશુદ્ધિક સંયત સૂમસાંપરાય સંયત અને યથા ખ્યાત સંતોમાં કેણ કેનાથી અલ્પ છે? કેણ કેનાથી વધારે છે? કોણ કેની બરાબર છે? અને કેણ કેનાથી વિશેષાધિક છે ? અહિયાં યાવાદથી 'अप्पा वा बहुका वा तुल्ला वा' मा ५ बर ४सया छे. या प्रश्ना Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०७ पट्त्रिंशत्तममल्पवहुत्वद्वारनि० २४०३ वानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्पत्थोत्रा सुहुमसंपरायसंजमा' सर्वेभ्यः स्तोकाः अल्पाः सूक्ष्मसंपरायसंयता भवन्ति स्वोकत्वात् तत्कालस्य निर्ग्रन्धतुल्यस्वेन च शतपृथक्त्वप्रमाणत्वाद् सूक्ष्मसंपरायसंयतानाम् । परिहारविशुद्धियसंजया संखेनगुणा' सुक्ष्मसंपरायसयतापेक्षया परिहारविशुद्धिकसंयताः संख्येयगुणा अधिका भवन्ति परिधारविशुद्धिककालम सूक्ष्मसंपरायसंयतकालापेक्षया अधिकत्वात् तथा ते परिहारविशुद्धिका लाइव सहस्रपृथक्त्वप्रमाणका भवन्तीति । 'अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा' परिहारविशुद्धिका पेक्षया यथाख्यातसंयता संख्येयगुणा अधिक्का भवन्ति कोटिपृथक्त्वप्रमाणत्वात् यथाख्यातानाम् । 'छेदोबट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा' यथाख्यातसंपतापेक्षया हुआ है । तथा च सामायिकसंयत आदि पांच संपतों में कोच संपन किन संयतों से अल्प है ? कौन बहुन है ? कौन बराबर है और कौन विशेषाधिक है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं -गोयमा! खवयोवा मुहमसंप. रायसंजमा०' हे गौतम लब ले कम सूक्षनसंपराधसंपत्त है। क्यों कि सूक्ष्मसंपरावसंयत का काल थोडा है । तथा ये निग्रन्थ के तुल्य होने से एक समय में दो सौ से लेकर ९०० सौ तक हो सकते हैं। परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा' इनकी अपेक्षा परिहाविशुद्धिक संयत संख्यातगुणे अधिक हैं । इसका कारण स्वासंपरायसंयतों के काल से इन का काल अधिक होता है और ये पुलाकों के जैसा सहस्र पृथक्त्व होते हैं। परिहारविशुद्धिकसंयतों की अपेक्षा 'अहक्खाय संजया संखेज्जणा' यथाख्यातसंयता संख्यातगुणे अधिक हैं । इलका कारण यह है कि इनका परिमाण कोटिपृथक्त्व कहा गया है। 'छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा' यथाख्यातसंयत्तों की अपेक्षा छेदोपउत्तरमा सुश्री ई छ है-'गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम परायजया' ગૌતમ ! સૌથી ઓછા સૂક્ષ્મસં૫રાય સંયતા છે. કેમકે સૂમસં૫રાય સંયતને કાળ થડ હોય છે. તથા તેઓ નિર્ચની બરોબર હોવાથી એક સમયમાં मसाथी उन ८०० नवसे सुधी खाध श४ छे. 'परिहारविसुद्वियखजया संखेज्जगुणा' तेना ४२तां परिहा२विशुद्धि सयत सण्यात पधारे छे. તેનું કારણ સૂમસં૫રાય સ યતેના કાળથી વધારે હોય છે. અને તેઓ પુલાકે પ્રમાણે સહસ્ત્ર પ્રથકૃત્વ અથર્ બે હજારથી લઈને નવ હજાર સુધી डाय छे. परिहा२विशुद्धिः स यतानी अपेक्षाथी 'अहक्खायस जया संखेज्जगुणा' યથાખ્યાત સંય સખાતાણા અધિક છે. તેનું કારણ એ છે કે–તેઓનું परिणाम आट पृथ-५ ४९ छ. 'छेदोवद्वावणियम'जया संखेज्जगुणा' यथा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ . .. .. .... .. भगवतीस्त्रे छेदोपस्थापनीयसंयताः संख्यातगुणा अधिका भवन्ति कोटिशतपृथक्त्वममाणताया स्तेषां कथनात् । 'सामाइयसंजया संखेज्जगुणा' छेदोषस्थापनीयसंयत्तापेक्षया सामायिकसंयताः संख्यातगुणा अधिका भवन्ति कपायकुशीलतुल्यतया कोटिसहसमानत्वेन तेपामुक्तत्वात् तथा च सर्वेभ्योऽल्पाः सूक्ष्मसंपरायसंयताः सर्वे. भ्योऽधिकाश्च सामायिकसंयताः इतरे तु अपेक्षया स्तोका अपि अपेक्षया अधिका अपीति भावः ॥१०७॥ - पूर्व संयताः कथिताः, तेषु च केचन प्रतिसेवनावन्तोऽपि भवन्तीति पतिसेवनाभेदान् तद्गतालोचनादोषान् तत्सम्बन्धादालोचकगुणांश्च दर्शायितुं 'सङ्ग्रहगाथामाह-'पडिसेवणा' इत्यादि, स्थापनीयससंत संख्यातगुणे अधिक हैं। क्योंकि इनका प्रमाण कोटिशत पृथक्त्व कहा गया है। 'सामायसंजया संखेज्जगुणा' सामायिक.. संयत छेदोपस्थापनीयसंयतों की अपेक्षा संख्घातगुणे अधिक हैं। क्यों कि इनका प्रमाणकपायकुशीलों के जैसे कोटिसहस्र पृथक्त्वरूप: है। इस प्रकार सयों से अल्प सूक्ष्मसंपरायसंयत हैं और सयों से अधिक सामायिक संयत हैं। और याकी के अपेक्षा कृत अल्प भी हैं और अधिक भी हैं ।।मू०७॥ इस प्रकार से संयतों का कथन करके अब सूत्रकार इनमें जो कितनेक साधु प्रतिसेवनावाले भी होते हैं सो उस प्रतिसेवना के भेदों को और प्रतिसेवना की आलोचना के दोषों को तथा आलोचक. (आलोचना करने वाले) के गुणों को दिखाने के लिये संग्रह गाथा कहते हैं-'पडिसेवणा' इत्यादि । ખ્યાત સંયોની અપેક્ષાથી પસ્થાપનીય સંયત સંખ્યાતગડ્યા વધારે છે, म तमानु प्रभाष शितयइत्पनु ४७स छे. 'सामाइयसजया संखेज. ’ સામાયિક સંયત, છેદેપસ્થાપનીય સંયતે કરતાં સંખ્યાતગણા વધારે છે, કેમકે તેઓનું પ્રમાણ કવાય કુશીના કથન પ્રમાણે કેટિસહસ્ત્ર પૃથવરૂપ છે. આ રીતે સૌથી ઓછા સૂમસાંપરાય સંયડે છે. અને સૌથી વધારે સામાયિક સંયડે છે. અને બાકીનાઓ અપેક્ષાથી અલ્પ પણ છે, અને અધિક પણ હોય છે. સૂત્ર છા આ રીતે સંયનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમાં કેટલાક સાધુઓ પ્રતિસેવનાવાળા પણ હોય છે, તેથી તે પ્રતિસેવનાના ભેદને અને પ્રતિસેવ નાની આલોચનાના દેને તથા આલેચક (આલેચના કરવાવાળા)ના ગુણોને मतावा भाट नाय प्रमाणे बसाया ४ छे. 'पडिसेवणा' त्यादि Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् ४०५ गाहा-पडिसेवण दोसा लोयणा य आलोयणारिहे चेव । तत्तो सामायारी पायच्छित्ते तवे च ॥१॥ छाया-प्रतिसेवना १ दोषार आलोचना च २ आलोचनाईश्चैव ४ । ततः सामाचारी ५ प्रायश्चित्तं ६ तपश्चैव ७ ॥१॥ अर्थ-'पडिसेवणत्ति' प्रतिसेवना-अतिचारादि सेवनम् १, 'दोसा' दोषाः आलोचनाया दशविधायाः२, 'आलोयणा' आलचोना३, 'आलोयणारिहे चेव' आलोचनाहश्चैव-आलोचनादानसमर्थोगुरुश्च४, 'ततो सामायारी' ततः सामाचारी चक्ष्यमाणा दशविधा५, 'पायच्छित्त' प्रायश्चित्तम्-दशविधा वक्ष्यमाणम्६, 'तवे चेव' तपश्चैव-द्वि प्रकारकं वक्ष्यमाणम् एतादृश सप्त विषयान् प्रकरणानि आश्रित्य अन्तिमं पकरणं प्रवर्तते । ___ मूलम्-कइविहा गं भंते ! पडिसेवणा पन्नत्ता? गोयमा! दसविहा पडिसेवणा पन्नत्ता तं जहा देप्प-पमाद-ऽणाभोगे, आउरे आवईय। संकिन्ने संहसकारे भयप्पओसाय वीमंसी॥१॥ दस आलोयणा दोला पन्नत्ता तं जहा-आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दि8 बायरं च सुहमं वा। छन्नं सदाउलयं बहुजणअवत्त तस्लेवी ॥२॥ दसहि ठाणेहिं संपन्ने अगगारे अरिहति अत्तदोसं आलोइत्तए, तं जहा जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने, विणयसंपन्ने, णाणसंपन्ने, दसणसंपन्ने, चारित्तसंपन्ने, खंत्ते दंते अमाई अपच्छाणुतावी । अहहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ, आलोयणं पडिच्छित्तए तं जहा-आयारवं, आहारवं, ववहारवं, उवलिए, पकुव्वए, अपरिसा वी, निजवए अवायदंसी। दसविहा सामायारी पन्नत्ता, तं जहा इच्छा, मिच्छा, तहकारे, आवस्सिया य, निसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य, निमंतणा। उवसंपैयाय काले सामायारी भवे दसहा ॥सू०८॥ छाया-कतिविधा खल्ल भदन्त ! प्रतिसेवना मज्ञप्ता ? गौतम ! दशविधा प्रतिसेवना प्रज्ञप्ता । तद्यथा-दर्प१, प्रमादेर, अनाभोगे३, आवरे४, आपदि५, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४०६ भगवतीस्त्रे च। संकीर्णे६, सहसाकारे७, भया८, प्रद्वेषाच्च९, विपर्शात् १० । दश आलोचनादोपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-आकंप्य १ अनुमाय२, यदृष्टं३, बादरं च४ सुक्ष्मं वा५, छन्नं ६ शब्दाकुलं 9, बहुजनम्८ अव्यक्तम्९ तत्सेवी१०।२। दशभिः स्थानः संपन्नोऽनगारोऽर्हति आत्मदोपमालोचयितुम् । तद्यथा-जातिसंपन्नः१, कुलसंपन्नः२, विनयसंपन्नः३, ज्ञानसंपन्नः ४, दर्शनसंपन्न:५, चारित्रसंपन्न:६, क्षान्तो ७, दान्तो८, माथी९ अपश्चादनुनापी १० । अष्टभिः स्थानः संपन्नः अनगारोऽर्हति आलोचनां प्रतीष्टुम्, तद्यथा आचारवान् १, आधारवान् २, व्यवहारवान् ३, अपनीटकः४, प्रकुर्वका ५, अपरिश्रावी६, निर्व्यापक ७, अपायदर्शी८,। दशविधा सामाचारी प्रज्ञप्ता तद्यथा-इच्छाका:१, मिथ्याकारः२, तथाकार:३, आवश्यिकी४, नेपेधिकी ५, आपृच्छनाच६, प्रतिपृच्छा७, छन्दनाच८, निम न्त्रणा९, उपसंपदा च काले १७, सामाचारी भवेद् दशधा म०८॥ . टीका-'कव्हिा णं भंते ! पडिसेवणा पन्नत्ता' कतिविधा खलु भदन्त ! प्रतिसेवना प्रज्ञप्ता-प्रतिसेवना-प्रतिकूला सेवना इति प्रतिसेवना संयमविराधनासंयमदोप इति-यावत् तथा च हे भदन्त ! संयगस्य दोपाः कियन्तो भवन्ति इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दसविदा पडिसेवणा पन्नचा' दशविधाः-दशप्रकारकाः प्रतिसेवना:-संयमदोषाः कथिताः । ___ अतिचार आदि के सेवन का नाम प्रतिसेवना है १ । दश प्रकार की आलोचना के जो दोप हैं वे यहां दोप शब्द से गृहीत हुए हैं २ । दोषों की आलोचना ३ । आलोचना देने के योग्य गुरु ४ । सामाचारी ५। प्रायश्चित्त ६ । और तप ७ । इन सात विषयों को लेकर अय सूत्रकार यह नीचे का प्रकरण प्रारम्भ करते हैं-'काविहार्ण भंते ! पडिसेवणा पन्नत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-'काविहाणं भंते । पडिसेवणा पन्नत्ता' हे भदन्त ! प्रतिसेवना कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! અતિચાર વિગેરેના સેવનનું નામ પ્રતિસેવના છે. ૧ આલોચનાના દસ પ્રકારના જે દે છે, તે અહિયાં દોષ શબ્દથી કહ્યા છે. ૨ દેની આલોચના ૩, આલોચના દેવાને 5 ગુરૂક, સામાચારી ૫, પ્રાયશ્ચિત્ત ૬, અને તપ ૭, આ સાત વિષને લઈને હવે સૂત્રકાર આ નીચેના પ્રકરણનો પ્રારંભ ४२ छ-'कइविहाणं भते ! पडिसेवणा पन्नत्ता' इत्यादि टी -'कइविहाणं भंते ! पहिसेवणा पन्नत्ता' 8 सावन् प्रतिसेवना કેટલા પ્રકારની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् 'तं जहा' तद्यथा-'दप्प' दर्प 'दप्प' इत्यादौ सर्वत्र सप्तमी विभक्ति ज्ञातव्या तेन द विद्यमाने सति प्रतिसेवना भवति दर्पश्चाभिमानादि, तथा च अभिमानात्मकद सति या संयमविराधना सा दर्पप्रतिसेवनेति१ । 'पमाद' तथा प्रमादेसति-मादश्च-मद्यविषयकपायनिद्राविकथा रूपः २। 'गाभोगे' अनाभोगे, सति अनाभोगश्च अज्ञानादिः तस्मिन् सति प्रतिसेवनेति तृतीया ३ । 'आउरे' दसविहा पडिसेवणा पत्ता' हे गौतम ! प्रतिसेवना १० प्रकार की कही गई है। प्रतिकूल लेवना का नाम प्रतिसेवना है। प्रति लेवना का दूसरा नाम संयमविराधना है। यह संयमविराधनारूप प्रतिसेवना संयम के दोषरूप होती है । अतः संथम के दोष कितने होते हैं ? ऐसा यह प्रश्न का वाच्यार्थ है । और संयम के दोष १० होते हैं । ऐसा यह उत्तर है । संयम के वे १० दोष इस प्रकार से है-'पप्पमाद अणाभोगे आउरे आवईय, संझिन्ने सहलक्कारे अघपाओसा य वीमंता' यहां दर्प इत्यादि पदों में ससमी विभक्ति हुई है ऐसा जानना चाहिये। तथा च-दर्प के होने पर प्रतिसेवना होती है । दर्प नाम अभिमान आदि का है अभिमानात्मक दर्प के होने पर जो जो संयम की विरा धना होती है वह दर्प प्रतिसेवना है १। 'पमाद' मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इन रूप प्रमाद होता है । इस प्रमाद से जो संयम की विराधना होती है वह प्रमादविराधना है २। अज्ञान आदि का नाम अनाभोग है । इस अज्ञानादिरूप अनाभोग के होने है-'गोयमा ! दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता'गौतम ! प्रतिसपना १० इस પ્રકારની કહી છે, પ્રતિકૂલ સેવનાનું નામ પ્રતિસેવના છે. તથા પ્રતિસેવનાનું બીજું નામ સંયમ વિરાધના છે. આ સંયમ વિરાધના રૂપ પ્રતિસેવના સંય‘મના દેષ રૂપ હોય છે. જેથી સંયમના દે કેટલા હોય છે? આ રીતને. આ પ્રશ્નનો હેતુ છે અને સંયમના દોષ દસ છે એ પ્રમાણેને પ્રભુશ્રીએ उत्तर ४९ ले ते इस हो२। प्रमाणे छे. 'दपप्पमाद् अणाभोगे आउरे आवईय, संकित्ते सहसक्कारे भयप्पओसाय वीमंसा' मडिया ६५ वगैरे पट्टोमा સપ્તમી વિભક્તિ થઈ છે, તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે દર્પ–અહંકાર થાય ત્યારે પ્રતિસેવના થાય છે. દર્પ અહંકાર-અભિમાનને કહે છે. અર્થાત અભિમાન રૂપ દર્પ થાય ત્યારે જે સંયમની વિરાધના થાય છે, તે દર્પ પ્રતિसेना पाय छे. १ 'पमाद' मधपान (३ विगैरे) विषय, पाय, निद्रा અને વિકથા રૂપ પ્રસાદ હેય છે આ પ્રમાદથી જે સંયમની વિરાધના થાય Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ भगवतीमत्र आतुरे, आतुरे सति ग्लानाद्यवस्थायां जायमानां पतिसेवनेति चतुर्थी४, 'आवईय' आपदि च-आपत्तौ सत्यां जायमाना प्रतिसेवनेति पञ्चमी५, आपच्च द्रव्यादि भेदेन चतुर्विधा तत्र द्रव्यापत्-मासुकादि द्रव्याणापलामः, क्षेत्रापत् बनादिविपम. क्षेत्रपतितत्वम् कालापत्, दुर्मिक्षादि कालमाप्तिः, भावापत-ग्लानत्वादि, एवं द्रव्य क्षेत्रकालभावभेदेन चतस्त्र आपद इति ५ । 'संकिण्णे' संकीर्णे, स्वपक्ष परपक्षमिश्रितक्षेत्र सति६, 'सहसकारे' सहसाकरे सवि-आकस्मिक बलाकारक्रियायाम्, तथा चोक्तम् 'पुब्धि थपासिउणं पाए छूट म जं पुणो पासे । न तरइ नियत्तेउं पायं सहपाकरणमेयं ॥१॥ पर जो संयम की विराधना होती है वह अनाभोग प्रतिसेवना है । 'आउरे' ग्लान आदि अवस्था में होने वाली जो संयम की विराधना है वह आतुर प्रतिसेवना है ४ । 'आवईय' आपत्ति के आजाने पर जो संघल की विराधना होती है वह आपत् प्रतिसेवना है ५। द्रव्यादि के भेद से आपत् चार प्रकार की होती है । प्रास्लुक द्रव्यादि के अलाभ का नाम द्रव्यापत् है धन आदि रूप विषम क्षेत्र में अटक जाने का नाम क्षेत्रापत है । दुर्भिक्ष आदि काल के होने का नाम कालापत् है । और ग्लान अवस्था का नाम भावापत् है। स्वपक्ष और पर पक्ष समिश्रित क्षेत्र के हो जाने पर जो संयम की विराधना होती है वह संकीर्णता प्रतिसेवना है ६ । आकस्मिक क्रिया रूप सहसाकार से हुई जो विराधना है वह ओकस्मिक प्रतिसेवना है ७ । कहा भी हैछ. ते प्रभाह विराधना उपाय 2. २ 'अनाभोग' अज्ञान विश्न मनाला કહે છે. તે અજ્ઞાન વિગેરે રૂપ અનાગ થાય ત્યારે જે સંયમની વિરાધના थाय छ, त मनाला प्रतिसेवना पाय छ, 3 'आउरे' सान विरे અવસ્થામાં થવાવાળી જે સંયમની વિરાધના છે તે આતુર પ્રતિસેવના કહેવાય छ, 'आवईय' मापत्ति मावी ५ त्यारे सयभनी २ विराधना थाय छ, त આપદુપ્રતિસેવના કહેવાય છે. ૫ દ્રવ્ય વિગેરેના ભેદથી આપત્તિ ચાર પ્રકારની હોય છે. પ્રાસુક દ્રવ્ય વિગેરેની અપ્રાપ્તિનું નામ દ્રવ્ય આપતી કહેવાય છે. ૧ વન વિગેરે વિષમ ક્ષેત્રમાં રોકાઈ જવું (અટકી પડવું) તેનું નામ ક્ષેત્રપતિ છે. ૨ દુકાળ વિગેરે કાળનું નામ કાલાપત્તિ છે. ૩ અને પ્લાન અવસ્થાનને નામ ભાવાપત્તિ છે. ૪ સ્વપક્ષ અને પરપક્ષ સંમિશ્રિત ક્ષેત્ર થઈ જાય ત્યારે સંયમની જે વિરાધના થાય છે. તે સંકીર્ણતા પ્રતિસેવના કહેવાય છે ૬ • આકમિત ક્રિયારૂપ સહકારથી થવાવાળી જે વિરાધના છે, તે આકમિત Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् ४०९ पूर्वमदृष्ट्वा पादे त्यक्ते (प्रसारिते) यत्पुनः पक्षपेत् । न च पादं निवर्तयितुं शक्नोति एतत्सहसा कारणम् । इति छाया। पूर्व गुर्वादिकमपश्यन् पादप्रसारणं कृतम् अथ च पुनः पश्यति गुर्वादिकम् न च पादौ प्रसारिती विनिवर्तयितुं शक्नोति एतत्सहसाकरणम् इत्यर्थः । 'भयप्पभोसायत्ति' स्यात् हिंसादि भयेन प्रतिसेवना भवति, तया-प्रद्वेषाच्च पतिसेवना भवति, घद्वेषश्च कोपादिः। 'वीमंसत्ति' विमान शिक्षकादिपरीक्षणात् जायमाना पतिसेवना, एव कारणभेदेन दशप्रकारिका प्रतिसेवना भवति इति । 'दस आलो.. यणदोसा पन्नत्ता' दश आलोचना दोषाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'आकंपइत्ते त्ति' आकम्प्याभिधः प्रथमो दोषः १ । 'अणुमाणइत्ते त्ति' अनुमाय-'अनुमान 'पुटिय अपासिउणं' इत्यादि । तात्पर्य इसका ऐसा है कि पहिले गुर्वा. दिक को नहीं देखकर जैसा किसी शिष्य ने पैर पसार दिये हों और पाद में उसने गुरु को देखलिया हो तो ऐसी हालत में भी जो वह पसारे हुए पैरों को नहीं सकोड़ सकता है तो यह सहसाकार है। क्योंकि ऐसी जो शिष्य के द्वारा क्रिया हुई है वह आकस्मिक हुई है। 'भयप्पओ सायत्ति' सिंह आदि के होने के भय से जो प्रतिसेवना होती है, और क्रोधादि के भय से जो प्रतिसेवना होती है वह प्रवेष प्रतिसेचना है ९। वीमसत्ति' विमर्श से-शिष्य आदि की परीक्षा करने से जो प्रतिसेवना होती है वह विमर्श प्रतिसेवना है १० इस प्रकार से यह कारण के भेद से १० प्रकार की प्रतिसेवना होती है। इस आलोयणा दोला पण्णत्ता' दश अलोचनादोष कहे गये हैं-जो इस प्रकार से हैं-'आकंपइत्ता, अणुमाणइत्ता इत्यादि प्रसन्न हुए गुरु थोरा प्रतिसेवना छ ५४ छ-'पुष्वि अपासिउण' त्याहि पानु तात्पय' એ છે કે પહેલા ગુરૂ વિગેરેને ન દેખવાથી કઈ શિષ્ય પગ પસાર્યા હોય અને તે પછી પિતાના ગુરૂને જોઈ લીધા હોય તો એ પરિસ્થિતિમાં પણ તે પસારલા પગને સ કોચી શકતો નથી. તે સહસાકાર કહેવાય છે, કેમકે शिष्य द्वारा मारे लिया थ छे, ते ममात थ छे ७ 'भयप्पओसायत्ति' હિંસા વિગેરે થવાના ભયથી જે પ્રતિસેવના થાય છે તે તથા ક્રોધ વિગેરેના अयथा 2 प्रतिसेवना थाय छे ते प्रद्वेष प्रतिसेवना छे ८ 'विमंसचि' विभशथा શિષ્ય વિગેરેની પરીક્ષા કરવાથી જે પ્રતિસેવના થાય છે. તે વિમર્ષ પ્રતિસેવના કહેવાય છે. ૧૦ આ રીતે કારણના ભેદથી દસ પ્રકારની પ્રતિસેવન થાય છે. 'दस आलोयणा दोसा पन्नत्ता' इस प्रारना मासायना होषी पाछे, २ मा अभाये छे.-आकंपइत्ता अणुमाणइजा' इत्यादि प्रसन्न थये। शु३ थाई प्रायश्चित्त १० ५२ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनेन मृदुदण्डादित्वमाचार्यस्याकलय्य यदालोचनमसौ द्वितीयोऽनुयायाभिधआलोचनादोप:२ । एवम् 'जं दिडं त्ति' यदाचार्यादिना दृष्टमपराधादि जातं तदेव आलोचयति स तृतीय अलोचना दोपः३ । 'वायरं' चे ति बादरमेव अतिचारजातमालोचयति न सूक्ष्मं तनावज्ञापरत्वादिति चतुर्थ आलोचनादोपः ४ । 'सुहुमं वा' इति सूक्ष्ममेव अतिचारजानमालोचयति यः खल सूक्ष्मम् अलोचयति स कथं तन्नालोचयति हत्येवं रूप भावसपादनाय आचार्य स्येति पञ्चम आलोचना दोप: ५। 'छन्नमिति'-छन्नं प्रतिच्छन्नं प्रच्छन्न सा प्रायश्चित्त देगे इस अभिप्राय से गुरु को लेवा आदि से प्रसन्न करके जो उनके पास दोपों की आलोचना की जाती है वह आरम्प्य नाम का प्रथम आलोचना दोप है १ । यदि मैं अपने अपराध को आचार्य-गुरु के निकट थोडे रूप में प्रकट करूंगा तो वे मुझे थोडा सा ही प्रायश्चित्त देगें ऐला अनुमान नाम का द्वितीय आलोचना दोष है R । 'जं दिलु जिस अपराध दोपको आचार्य ने करते समय देख लिया हो उसी की गुरु के समक्ष अलोचना करना यह दृष्ट नाम का तृतीय आलोचना दोष है ३ । 'पायरं' जो बडे ही अपराधों की आलोचना करता है छोटे अपराधों की नहीं वह बादर नाम का चतुर्थ आलोचनादोष है ४ । 'सुहुमं वा' जो अपने सक्षम अतिचारों की आलोचना करता है वह बडे अपराधों की आलोचना क्यों नहीं करेगा अवश्य करेगा ऐसा आचार्य को विश्वास कराकर केवल सूक्ष्म ही अतिचारों की આપશે એ અભિપ્રાયથી ગુરૂને સેવા વિગેરેથી પ્રસન્ન કરીને તેમની પાસે દેની જે આલેચના કરવામાં આવે છે, તે “અક' નામનો પહેલો આચનાને દોષ છે. ૧ જે હું મારા અપરાધને આચાર્ય–ગુરૂ પાસે થોડા પ્રમાણમાં પ્રગટ કરું તે તેઓ મને થોડું પ્રાયશ્ચિત્ત આપશે એવું અનુમાન ‘કેરીને પિતે જ પિતાના અપરાધની આચના કરી લે છે, તે અનુમાન 'नामना मायनाने भी दोष छ, २ 'जं दिट्र' २ २५५२५, होपन ४२ती વખતે આચાર્યો જોયેલ હોય એજ દેશની ગુરૂ પાસે આલોચના કરવી તે हटा' नामने। मासायनाने। श्रीन्ने होष छे. 3 'वायर' र भोट अपराधानी આલેચના કરે છે, અને નાના નાના અપરાધોની આલેચના કરતા નથી. તે 'मा' नामना मासायनान। व्याया होष छे. ४ 'सुहम वा' २ पोताना सूक्ष्म અપરાધની આલોચના કરે છે, તે મોટા અપરાધની આચના કેમ નહીં કરે ? અર્થાત્ જરૂર કરશે જ આચાર્ય પાસે એ વિચાર કરાવીને કેવળ સૂક્ષમ જ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयंन्द्रिका तीक्षा शा०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् ४११ अति लज्जालुतयाऽव्यक्तवचनं यथा भवति, एवंमालोचयति यथा स्वयमेव शृणोति इति छन्नाभिधः पप्ठो दोपः ६: । 'सदाउलयं शब्दाकुलकं बृहच्छन्द यथा भवति एबमालोचयति अगीतार्थान् श्रावयमित्यर्थः असौ संतमो दोपः ७ । 'बहुजणत्ति' बहवो जना आलोचनागुरवो यत्र-आलोचनायां भवन्ति तद्बहुजनं यथा भवति एवमालोचयति, एकस्यापि अपराधस्य बहुभ्यो निवेदनमित्यर्थः अयमष्टमो दोपः ८। 'अवत्तत्ति' अव्यक्ता-अगीतार्थ स्तस्मै आचार्याय यदालोचनं तदपि अव्यक्तम् असौ नवम, आलोचनादोषः ९ । 'तस्सेवी' यमपराधमालोच विष्यति तमेव आसेवते यो गुरुः स तत्से दी तस्मै यदालोचनं तदपि तत्सेवीति आलोचना करना यह सूक्ष्म नाम का पांचवां भालोचना दोष है ५। "छन्नं'-अतिलज्जा आने के कारण से ऐसा ढंग से अतिचारों की आलोचना करना कि जिससे दूसरा न सुन सके केवल खुद ही कहे और खुद ही सुने यह छम्न प्रच्छन्न-नाम का छठा आलोचना दोष है ६ । 'सघाउलयं दूसरे भी सुने इस प्रकार से जोर २ ले दूसरों को सुनाते हुए-अगीतार्थों को सुनाते दुए अतीचारों की अलोचना करनी यह शब्दालंक नाम का ७ वां आलोचना दोष है ७ । 'बहुजणत्ति' एक ही अतिचार रूप दोष की अनेक गुरुओं के पास आलोचना करना यह ८ वां बहुजन नाम का आलोचनादोष है । 'अवत्तत्ति' अगीतार्थ आचार्य के पास आलोचना करना यह अव्यक्त नाम को ९ वां आलो. बना दोष है ९ । 'लस्लेवी' जिस दोष की आलोचना करता है उसी दोष का सेवन करने वाले आचार्य के पास उस दोष की आलोचना करना અતિચારોની આલેચના કરવી તે સૂક્રમ નામનો આલેચનાને પાંચમે દોષ છે. ૫ “નં અત્યંત શરમ આવવાથી એવા ઢંગથી અતિચારોની આલેચના કરવી કે જેથી તેને બીજે સાંભળી ન શકે કેવળ પિતે જ કહે અને પોતે જ सामजी छन्न-५२छन्न नाभने। मायनान। छथी होष छे. ६ 'सहा. શરુ બીજાઓ પણ સાંભળે એ રીતે જોર જોરથી બીજાઓને સંભળાવંતા થકા અર્થાત્ ગીતાને સંભળાવતા સંભળાવતા અતિચારની આલોચના કરવી ते शहास नामनी मासायनान।७ सातभाष छ. ७ 'वहुजणत्ति' र અતિચાર રૂપ દોષની અનેક ગુરૂઓની પાસે આલોચના કરવી તે બહુજન नामन। मावायनानी मामे होष छ. ८ 'अवत्तत्ति' सीता मायायनी પાસે આલેચના કરવી તે અવ્યક્ત નામને આલેચનાને નવો દોષ છે. હું 'तस्सेवी पनी मासायना ४२ छे, ते होषनु सेवन ४२नामाया Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र यतः समानशीलाय गुरवे सुखपूर्वकमेक विवक्षितः स्वापराधो निवेदयितुं शक्यते इति तत्सेवने निवेदयतीति स तत्सेवी दोपः दशम आलोचना दोपः १० । .. 'दसहि ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसं आलोत्तए' दशभिः स्थानः कारणैः संपन्नः युक्तोऽनगारः अईति-योग्यो भवति आत्मदोपमालोचयितुम्, 'तं जहा' तद्यथा-'जाति संपन्ने' जातिसंपन्नः, ननु एतावान् गुणसमुदायआलोचकस्य कस्मात् कारणात् अन्विष्यते तत्रोच्यते जातिसंपन्नः पुरुषः मायोऽकृत्यं न करोति कृतं च सम्यगालोचयति इति १ । 'कुलसंपन्ने' कुलसंपन्न:, कुलसंपन्नोहि अङ्गीकृतप्रायश्चित्तस्य निर्वाहको भवति २, "विणयसंपन्ने' विनयसंपन्नः ३, 'णाणसंपन्ने' ज्ञानसंपन्नः ४, 'दसणसंपन्ने' दर्शनसंपन्नः ५, 'चरित्तसंपन्ने चारित्रसंपन्नः मायश्चित्तमङ्गी करोति ६, 'खते' क्षान्तो गुरुभियह तत्सेवी नाम का १० वा आलोचनादोष है १० । 'दसहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहत्ति अत्तदोसं आलोइत्तए' दश कारणों से युक्त अनगार आत्मदोषों की आलोचना करने के योग्य होता है । वे दश गुण इस प्रकार से हैं-'जातिसंपन्ने' आलोचक (अलोचना करने वाले) को जातिसंपन्न होना चाहिये क्यों कि ऐसा साधु प्रायः अकृत्य का सेवन नहीं करता है इसीलिये आलोचक का 'जातिसंपन्न' ऐसा विशेषणरूप गुण प्रकट किया गया है । 'कुलसंपन्ने' आलोचक को कुल सम्पन होना चाहिये इसलिये कि ऐसा साधु अङ्गीकृत (स्वीकार किया हुआ) प्रायश्चित्त का निर्वाहक होता है । 'विषयसंपन्ने' आलोचक को विनयसम्पन्न ३, 'णाणसंपन्ने ज्ञानसम्पन्न ४, 'दसणसंपन्ने दर्शन सम्पन्न ५, 'चरित्तसंपन्ने' चारित्र. सम्पन्न ६, इसलिये होना चाहिये कि ऐसा साधु प्रायश्चित्त को भलीર્યની પાસે તે દોષની આલોચના કરવી તે “તત્સવી નામનો આલેચનાને इसमे होष छ १० 'दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहत्ति अत्तदोस' आलो. इत्तए' मा इस ४२॥था युस्त मना२ पोताना होषानी मासायना ४२वाने योग्य डाय छे. ते ४० गुणे। मा प्रमाणे छे. 'जातिसंपन्ने' मालाय अर्थात् આલોચના કરવાવાળા એ જાતિસંપન જોઈએ કેમકે–એવા સાધુ પ્રાય અકૃત્યનું સેવન કરતા નથી. તેથી આલેચકને “જાતિસંપન” એ વિશેષણરૂપ शुY डेस छ. १ 'कुलसंपन्ने मानाय सुख सपना नये भो એવા કુલસંપન્ન સાધુ અંગીકૃત (સ્વીકારેલા) પ્રાયશ્ચિત્તના નિર્વાહક હોય છે. ૨ 'विणयसंपन्ने' मासाय विनयसपन्न 3 'णाणसपन्ने' ज्ञानसपन्न ४ 'दसणसंपन्ने शनस पनि ५ 'चरित्तसंपन्ने' यात्रिसपन्न ६ भेटमा भाटे जानने Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयश्चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् रुपालब्धोऽपि न कुप्यति ७ । 'दते' दान्तो दान्तेन्द्रियतया शुद्धिं सम्यग् वहति ८ । 'अमाई' अमायी-मायारहितोऽगोपयन्नपराधमालोचयति ९। 'अपच्छाणुवापी' अपश्चादनुतापी-आलोचिते अपराधे पश्चात्तापमनुकुर्वन् कर्मनिर्जराभागी भवतीति १० । 'अट्टहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ आलोयणं पडिच्छित्तए' अष्टभिः स्थानः संपन्नोऽनगारोऽहति-योग्यो भवति आलोचनां प्रतीष्टुम्-दातम् अष्टाभिः गुणैः संपन्नः साधुरालोचनादाने योग्यो भवतीत्यर्थः, तादृशाष्टगुणयुक्त मेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादिना, 'तं जहा' तद्यथा 'आयारवं' आचारवान्ज्ञानादि पञ्चप्रकारकाचारयुक्तः १ । 'आहारवं' आधारवान्-अवधारणवान्भांति स्वीका कर लेता है । 'खंते' आलोचकको क्षमावाला होना चाहिये -इसलिये कि वह गुरु के द्वारा धमकाये जाने पर भी क्रुद्ध नहीं होता है। 'दंते' आलोचक को दान्त (इन्द्रिय दमन करने वाला) इसलिये होना चाहिये कि ऐसा साधु शुद्धि को अच्छी प्रकार ले धारण कर लेता है ८ । 'अमाई' आलोचक को अमायी (कपट रहित) होना चाहिये -इसलिये कि ऐसा साधु अपने अपराधों को विना छिपाये ही उनकी सम्यगू आलोचना करता है ९।। _ 'अपच्छाणुतापी आलोचक को अपश्चात्तापी इसलिये होना चाहिये कि ऐसा आलोचक आलोचना लिये बाद पश्चात्ताप नहीं करता है और कर्मनिर्जरा का पात्र होता है १० । 'अहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहा आलोयणं पडिच्छिन्तए' आठगुणों से युक्त अनगार साध आलोचना सुनने के लिये योग्य होता है जैसे-'आयारवं' आचारवान -ज्ञानादिरूप पांच प्रकार के आचारों से जेा युक्त होता है वह आचारमेला साधुणी सारी शत प्रायश्चित्तने स्त्रीले छे. 'ख' माय मा શીલ હોવા જોઈએ કેમકે તેઓ ગુરૂદ્વારા ધમકાવવા છતાં કોધ કરતા નથી ૭ તે આલોચકને દાન્ત (ઈન્દ્રિયનું દમન કરવાવાળા) એ માટે હેવું જોઈએ है सवा साधु सारी शत शुद्धीन धारण ४२ छ. ८ 'अमाइ' मानाय समायी (માયા-કપટ) હેવું જોઈએ. કારણ કે-એવા સાધુ પિતાના અપરાધને છુપાવ્યા १५२४ तनी सारी शत मातायन। ३२ छे. ८ 'अपच्छाणुतावी' माटोयो પશ્ચાત્તાપ વગરના એ માટે હોવું જોઈએ કે–એવા આલેચક આલોચના લીધા પછી પશ્ચાત્તાપ કરતા નથી. અને કર્મ નિજરાના પાત્ર હોય છે. ૧૦ “જ€િ ठाणेहि अणगारे अरिहइ आलोयण पडिच्छित्तए' मा गुणेथी युक्त मनगार. साधु मासायना मावाने योग्य हाय छे. १ ४ रीते 'आयारवं' भाया. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भगवतीस्त्रे आलोचितापराधानामवधारणवान् इति २ । 'ववहारवं' व्यवहारवान्-आगमश्रुतादि पञ्चपकारकव्यवहारज्ञः ३ । 'उन्धीलए' अपनीड का, लज्जया अतिचारान् गोपायन्तं विचित्रवचनै 'दिलज्जी कृत्य सम्यगू आलोचनां कारयति इत्यर्थः ४ । 'पकुपए' प्रकुर्वगः, आलोचितेषु अपराधेषु मायश्चित्तदानतो विशुद्धि कारयितुं समर्थ इति ५ । 'अपरिस्सावी' अपरिश्रावी, आलोचकेन आलोचि. तान् दोषान् योऽन्यस्मै न कथयति असौ अपरिश्रावीत्यर्थः ६। 'निज्जवए' निर्व्यापकः असमर्थस्य प्रायश्चित्तिनः प्रायश्चित्तस्य खण्डशः करणेन निर्वाहका ७ । 'अवायदंसी' अपायदर्शी आलोचनाया अदाने पारलौकिकः नरकादिषु अतिभय. वान् साधु आलोचना सुनने के योग्य होता है १ इसी प्रकार से 'आहारवं' आधारवान्-आलोचित अपराधों की अवधारणा करने चाला होता है। 'वचारवं' ओगम-श्रुतादि पांच प्रकार के जो व्यवहार पाला होता है 'अपनीडर' शरम से अपने अतिचारों को छिपाने वाले शिष्य को अपने मीठे वचनों द्वारा जो समझा कर शरम का त्याग कराकर अच्छे प्रकार से आलोचना कराने वाला होता है ४ । 'पकु. व्वए' प्रर्जक-आलोचित अपराध का प्रायश्चित्त दे करके जो अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ होता है ५ अपरिस्रावी-सुने गयेशिष्य द्वारा प्रकट किये गये अतिचारों को जो दूसरों से नहीं प्रकट करता है ६, निर्यापक ७ असमर्थ शिष्य को-प्रायश्चित्त लेने वाले शिष्य को-थोडा २ प्रायश्चित्त देकर के जो उसको निर्वाह करने वाला होता है 'अधायदती ८ अपायदर्शी-आलोचना नहीं लेने वाले शिष्य વાન જ્ઞાનાદિ પાંચ પ્રકારના આચારેથી જે યુક્ત હોય છે તે આચારવાનું साधु मायना साना योग्य हाय छे. १ मे शते 'आहारव' साधारपान मालायित २५५२॥धानी अवधारणा ४२वास य छ २ 'ववहारवं' भागमश्रत वि२ पाय प्रा२ना व्यवहाराणा डाय छे 3 'अपव्रीड़क' शरमथा પિતાના અતિચારેને ઢાંકવાવાળા શિષ્યને પિતાના મીઠા વચનથી જ સમજાવીને શરમનો ત્યાગ કરાવીને સારી રીતે આલોચના કરાવવાવાળા હોય છે. ૪ 'पकवए' अg४-मालयन ४२स संपराधनु प्रायश्चित्त मापीन मतिया. शनी शुद्धि ४२.वामी समर्थ साय छे. ५ 'अपरिनावी' समोसा-शिष्य દ્વારા પ્રગટ કરેલ અતિચારોને જેઓ બીજાની આગળ પ્રગટ કરતા નથી ૬ 'निर्यापक' ७ सशत शिष्यने अर्थात् प्रायश्चित्त देवामा सशतिवा शिष्यने थोड प्रायश्चित्त मापीन तन निवड ४२पावाणा डाय छे. ७ 'अवायदंती' Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२५ उ.७०८ प्रतिसेवनाया: निरूपणम् ४१५ दर्शकः ८ । एते गुणाः गुरोः कथिता इति । अनन्तः पूर्वम् आलोचना आचाये कथिता स च सामाचार्याः प्रवर्त्तको भवतीति तां प्रदर्शयितुमाह- 'दसविहा' इत्यादि, 'दसविहा सामायारी पन्नत्ता' दशविधा - दशमकारा सामाचारी प्रज्ञप्ताकथिता, 'तं जहा ' तथा 'इच्छा' इच्छाकारः- तत्रात्मसारणे यथा - इच्छाकारेण मच्चिकीर्षितं कार्यमिदमहं करोमीति । परमारणे यथा-मम पात्रलेपनादि सूत्रदानादि वा इच्छाकारेण कुरुतेति १ । 'मिच्छा' मिथ्याकारः - निन्दायाम्स्वनिन्दायां मिथ्याकारः - मिथ्याकरणं मिथ्याकारः - मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः । अतिचारे संजाते मिथ्यादुष्कृतदानमिति भाव २ । 'तक्क्कारे' तथाकारः - प्रति को जो परलोक में नरकादि गतियों में भय का दिखाने वाला होता है ८ ऐसा गुरु ही आलोचना सुनने में समर्थ होता है । इस प्रकार के ये आठ गुण गुरु के कहे गये हैं । आलोचना देने वाला गुरु सामाचारी का प्रवर्तक होता है | अतः अब सामाचारी का कथन सूत्रकार करते हैं - 'दसविहा सामाधारी पक्षत्ता' सामाचारी दश प्रकार की कही गई है - 'तं जहा' जैसे - इच्छामिच्छा' इत्यादि । इच्छाकार - अपने वा परके कृत्य (कार्य) में प्रवर्त्तन होने में इच्छा करना इसका नाम इच्छाकार है आपका इच्छित यह कार्य मैं अपनी इच्छा से करता हूं इसका नाम आत्मसारण है । मेरे पात्रों का प्रतिलेखन आदि तथा सूत्र प्रदान आदि कार्य आप अपनी इच्छा से करें इसका नाम परसारण है १ । मिथ्याकार अतिचार आदि के हो जाने पर 'मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ' इस प्रकार मिथ्यादुष्कृत देनो इसका नाम मिथ्याकार है २ । तथाकार અપાયદશી આલેાચના ન લેવાવાળા શિષ્યને જેએ નારક વિગેરે ગતિાના ભય તાવનારા હોય છે. ૮ એવા ગુરૂજ આલેચના આપવામાં સમથ હોય છે. આ રીતે આ આઠ ગુણે! ગુરૂના કહ્યા છે. આલેચના આપવાવાળા ગુરૂ સામાચારીના પ્રવર્તક હાય છે તેથી હવે સૂત્રકાર સામાચારીનુ કથન કરે છે. 'दुखविहा सामायारी पन्नत्ता' साभायारी इस अारनी उडी छे, 'त' जहा ' ते या प्रभाछे- 'इच्छामिच्छा' इत्यादि छर- पोताना अथवा पाराना કૃત્યમાં પ્રવૃત્ત થવામાં ઇચ્છા કરવી તેનું નામ ઇચ્છાકાર છે આપનુ ઈચ્છિત આ કાર્યાં હું... મારી ઇચ્છાથી કરૂં છું. તેનું નામ આત્મસારણુ છે. મારા પાત્રોના પ્રતિલેખન વિગેરે તથા સુત્રપ્રદાન વિગેરે કાય પાતે પેાતાની ઇચ્છાથી કરે તેનું નામ પરસારણુ છે. ૧ મિથ્યાકાર અતિચાર વિગેરે થઈ જવાથી 'मिथ्यामे दुष्कृत भवतु' मा रीते मिथ्या हुमृत या यवु तेनुं नाम मिथ्याફાર છે, ૨ તથાકાર-ગુરૂજનાને વાચના વિગેરે આપતી વખતે આ આમજ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ भगवतीने श्रुते-प्रतिश्रवणे-गुरौ वाचनादिकं प्रयच्छत्येवमेतदित्यगीकाररूपे तथाकार -इदमित्यमेवेत्यङ्गीकरणम् ३। 'आवस्सिया य' आवश्यकी च-तथाविध. कार्ये सति बहिनिस्सरणे साधुः आवश्यकी कुर्यात् ४ । 'निसीहिया' नैषेधिकी -तथा-रथाने तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानम्-उपाश्रयम्तस्मिन् प्रविशन् नैपेधिकीं कुर्यात् ५ । 'आपुच्छणा य' आपृच्छना च-स्वयं करणे स्वयम्-आत्मना करणं स्वयं करणं तस्मिन्-स्वयं करणीये कार्ये आपच्छना-इंदमहं कुर्या न वेति गुरु मष्टव्यः ६ । 'पडिपुच्छा' प्रतिपृच्छा-परकरणे-परस्य कार्य करणीये प्रतिपच्छना 'छंदणा' छन्दना-द्रव्यजातेन-पूर्वगृहीतेन तथाविधाशनादि द्रव्य जातेन छन्दना-गुरुजनों के याचना आदि देते समय 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार अंगीकार करना इसका नाम तथाकार है ३ । आवश्यकी-कोई ऐसा कार्य आजाय कि जिसकी वजह से साधु को उपाश्रय से बाहिर जाना पड़े तो वह साधु (आवश्यकी कुर्यात्) आवश्य की सामाचारी करे ४ । नेषेधिकी-जय उपाश्रय में प्रवेश करे तप नषेधिकी सामा. चारी करे ५। आपृच्छना-जो काम अपने आप करणीय (करने योग्य) हो उसमें 'यह मैं करूं अथवा नहीं इस प्रकार पूछने रूप आप्रच्छना सामाचारी करे ६ । प्रति पृच्छा-सामान्य यह नियम है कि साधु चाहे अपना काम करे अथवा दूसरे किसी साधु का काम करे उनका कर्तव्य है कि वह पहिले इसके लिये गुरु से आज्ञा प्राप्त करे । जय गुरु कार्य करने की आज्ञा दे देखें तो शिष्य का पुनः यह कर्तव्य हो जाता है है कि वह प्रवृत्ति काल में उनसे फिर आज्ञा उसके लिये ले लेवे इसका नाम प्रतिप्रच्छना है ७। छन्दना पूर्व गृहित अशनादि सामग्रीद्वारा છે. આ રીતે સ્વીકાર કરે તેનું નામ તથાકાર છે. ૩ આવશ્યકી–કાઈ એવું કાર્ય આવી જાય કે જે કારણે સાધુને ઉપાશ્રયથી બહાર જવું પડે તે તે साधुमे 'आवश्यकी कुर्यात्' आवश्य ४ी सामाया ४२वी ४ नैवधिही न्यारे ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે ત્યારે નૈધિક સામાચારી કરે ૫ આપૃચ્છના–જે કામ પિતાની આપે જ કરવા ચોગ્ય હેય તેમાં આ હું કરું કે નહીં? આ રીતે પૂછવા રૂપ આચ્છના સામાચ રી કરવી ૬ પ્રતિપૃચ્છના–સામાન્ય એવો નિયમ છે કે–સાધુ ચાલે તે પિતાનું કામ કરે અથવા બીજા કેઈ સાધુનું કામ કરે તો તેનું કર્તવ્ય છે કે તે પહેલાં તે કાર્ય કરવા માટે ગુરૂની આજ્ઞા મેળવે. ગુરૂ જ્યારે તેને તે કાર્ય કરવાની આજ્ઞા આપે છે તે પછી તે કાર્ય કરતી વખતે શિષ્ય ફરીથી તે માટે ગુરૂની આજ્ઞા લેવી તેનું નામ પ્રતિપૃચ્છા છે. ૭ “છન્દના–પહેલા ધારણ કરેલ અશન વિગેરે સામગ્રીથી બીજા Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् . ४१७ शेषमुनि निमन्त्रणरूपा कार्या ८। 'निमंतणा' निमंत्रणा-भक्ताद्यगृहीताय साधवे भक्ताद्यर्थ निमन्त्रणम् ९ । 'उपसंचया य काले' उपसंपच काले-गणान्तराचार्य समीपावस्थाने उपसम्पत्-इयन्तं कालं भवत्समीपे स्थास्यामीत्येवंरूपा कार्या१०। 'सामायारी भरे दसहा' सामाचारी दशधा भवेदिति ।।सू०८॥ . . ___अथ सामाचारी विशेषत्वात् प्रायश्चित्तादेरिति प्रायश्चित्ताद्यभिधातुमाह-'दसविहे' इत्यादि। ___ मूलम्-दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तं जहा आलोयणारिहे, पडिझमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवटप्पारिहे, पारंचियारिहे। दुविहे सच्चे पन्नत्ते तं जहा बाहिरए य अभितरए य । से कि तं बाहिरए तने, बाहिरए तवे छव्विहे पन्नत्ते तं जहा असणं ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपैरिचाओ, कायकिलेसो, पडिसंलोणया बज्झो तवो होइ ॥१॥ से किं तं अणसणे, अण. सणे दुबिहे एन्नत्ते तं जहा इत्तरिए य आवकहिए य । से कितं इत्तरिए, इत्तरिए अणेगविहे पन्नत्ते, तं जहा चउत्थे भत्ते, छटे शेषजनों को आमंत्रित करना इसका नाम छंदना है ८। निमंत्रणाजब आहार लेने के लिये उद्यत हुए साधुजन अन्य साधुओं से ऐसा पूछते हैं कि क्या आपके लिये आहार लावें ९ । उपसम्पत्-ज्ञानदर्शन एवं चारिश की प्राति के निमित्त अन्यगण के आचार्य के पास रहना सो उपसम्पत् सामाचारी है १० । इस प्रकार से सामाचारी दस प्रकार की होती है ॥स्तू०८।। મુનિને આમંત્રણ આપવું તેનું નામ છંદના છે. ૮ નિમંત્રણ-જ્યારે આહાર લેવા માટે તૈયાર થયેલા સાધુજન બીજા સાધુઓને એવું પૂછે કે-શું આપને માટે આહાર લાવીએ? તેનું નામ નિમંત્રણ છે. ૯ ઉપસં૫ત-જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ માટે બીજા ગણના આચાર્યની પાસે રહેવું તેને ઉપસંપત સામાચારી કહે છે. ૧૦ આ રીતે દસ પ્રકારની સામાચારી થાય છે. સૂ૦ ૮ स० ५३ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती स्ने भत्ते, अटुमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोदसमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते तेमासिए भत्ते, जाव छम्मासिए भत्ते। से इत्तरिए । ले कि तं आवकहिए आवकहिए दुविहे पन्नत्ते तं जहा पाओवगमणे य सत्तपचखाणे य। से कि तं पाओवगमणे, पाओवगमणे दुविहे पन्नते तं जहा नीहारिमेय अनीहारिने य, अनीहारिमे य नियनं अपडिलमे । से तं पाओवगमणे। सेकि तं भत्तपञ्चक्खाणे, भत्तपञ्चकखाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-नीहारिमेय अनीहारिमे य नियमं सपडिकम्मे लेतंभत्तपंचक्खाणे ले त आवकहिए से तं अगसणे। लेक तं ओमोयरिया ओमोयरिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा दब्बोमोयरिया य भालोमोयरिया य । से किं तं दबोमोयरिया, दबोमोयरिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा उवगरणदव्वोमोयरिया य भत्तपाणदबोसोयरिया य से किं तं उवगरणदबोमोयरिया उवगरणदव्योमोयारिया तिविहा पन्नत्ता तं जहा एगे वत्थे एगे पाए चियत्तोवगारसाइज्जणया । सेत्तं उवगरणदव्योमोयरिया।से कि तं भत्तपाणदव्योमोयरिया भत्तपाणदव्वोमोयरिया अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे दुवालस० जहा सत्तमसए पढमोद्देसए जाव नो पकामरसमोइत्ति वत्तव्वं सिया। से तं भत्तपाणदवोमोयरिया। से तं दव्वोमोयरिया। से किं तं भावोमोयरिया? भावोमोयरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं जहा अप्पकोहे, जाव अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अप्पझंज्झे अप्पतुमं तुमे । से तं भावोमोयरिया, से तं ओमोयरिया। से किं तं भिक्खायरिया, भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं जहा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् दव्वाभिग्गहचरए जहा उववाइए जाव सुद्धेसणिए, संखादत्तिए । से तंभिक्खायरिया। से किं तं रसपरिच्चाए रसपरिच्चाए अणेगविहे पन्नत्ते तं जहा निविगिइए, पणीयरसविवजए जहा उक्वाइए जाव लूहाहारे। से तं रसपरिच्चाए । से किं तं कायकिलेले, कायकिलेसे अणेगविहे पन्नत्ते तं जहा ठाणाइए, उक्कुडुयालगिए, जहा उववाइए, जाव सव्वगायपरिकम्मए-विभूसविप्पमुक्के। से तं कायकिलेले। से किं तं पडिसंलीणया, पडिलीणया चउविहा पन्नत्ता तं जहाइंदियपडिलंलोणया, कसायपडिसंलीया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। ले किं तं इंदियपडिसलीणया, इंदियपडिसंलीणया पंचविहा पन्नत्ता तं जहा सोइंदिय विसयप्पयारणिरोहोवा, सोइंदियविसयपत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो बखिदिय०, एवं जाव फालिदियविसयप्पयारणिरो होवा, फासिंदियविलयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोलविणिग्गहो, से इंदियपडिसंलोणया। से किं तं. कसायपडिलीणया, कसायपडिसंलोणया चउठिवहा पन्नत्ता तं जहा कोहोदयनिरोहो वा उदयपत्तरस वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं जाव लोभो. दयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोसस्स विफलीकरणं । ले तं कसायपडिसंलीणया । से किं तं जोगपडिसलीणया जोगपडिसंलोणया तिविहा पन्नता तं-जहा अकुसलमणनिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा मणल वा एगत्तीभावकरणं, अकुसलवइ. निरोहो का, कुप्सलवइउदीरणं वा वइए वा एगत्तीभावकरणं । से किं तं कायपडिसलीणया, कायपडिसलीणया जण्णं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए कुम्मोइव गुत्तिदिए अल्लीणे पल्लीणे Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती चिटइ, से तं कायपडिसंलीणया, से तं जोगपडिसंलीणया। से कि तं विवित्तसयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणसेवणया जपणं आरामसु वा उज्जाणेसु वा जहा सेमिलुदेसए जाव सेज्जा संथारगं उवसंपजित्ताणं विहरइ। से तं निवित्तलयणासणसेवणया। से तं पडिसंलीणया, से तं बाहिरए तवे १॥सू० ९॥ - छाया-दशविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम् तद्यथा आलोचनाईम् १, प्रतिक्रमणाहम् २, तदुभयाहम् ३, विवेकाईम् ४, व्युत्सर्गाईम् ५, तपोऽहम् ६, छेदाहम् ७, मूलाहम् ८, अनवस्थाप्याम् ९, पाराश्चिकाईम् १० । द्विविधं तपः प्रज्ञप्तम् वाह्यं च आभ्यन्तरं च । अथ किं तत् वाह्यं तपः, बाह्यं तपः पट्विधं घजसम, तद्यथा-अनशनम् १, अवमोदारिका२, भिक्षाचर्या च३, रस परित्यागः४, कायक्लेश:५, प्रतिसंलीनता६, वाह्यं तपो भवति १॥ अथ किं तदनशनम् अनशनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा इत्वरिकम् यावत्कथिकं च । अथ किं तत् इत्वरिकम्, इत्वरिकम् अनेकविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा-चतुर्थ भक्तम् षष्ठं भक्तम् अष्टम भक्तम् दशमं भक्तम् द्वादश भक्तम् चतुर्देशं भक्तम् अद्धैमासिकं भक्तम् मासिकं भक्तम् द्विमासिकं भक्तम् त्रिमासिकं भक्तम् यावत् षष्ठमासिकं भक्तम् तदेतत् इत्वरिकम् । तत् किं तत् पावत् कथिकम् यावत्कयिकं द्विविध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा पादपोपगमनं च भक्तमत्याख्यानं च । अथ किं तत् पादपोपगमनम्, पादपोपगमनं द्विविधं पज्ञतम् तद्यथा निर्दारिमं च अनिर्दारिमं च, अनिारिमं नियमात् अपतिकर्म। तदेखत् भक्त मत्याख्यानम् । तदेतद् यावस्कथिकम्, तदेतदनशनम् । अथ का सा अवमोदरिका, अवमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-द्रव्यावमोदरिका च भावाबमोदरिका च । अथ का सा द्रव्यावमोदरिका, द्रव्यावमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता । तद्यथा-- उपकरणद्रव्यावमोदरिका च भक्तपानद्रव्यावमोदरिका च । अथ का सा उपकरण द्रव्यावमोदरिका उपकरणद्रव्यावमोदरिका त्रिविधा मज्ञप्ता, तद्यथा-एकं वस्त्रम् । एक पात्रम् त्यक्तोपकरणस्वदनता। सा एषा उपकरणद्रव्यावमोदारिका । अथ का सा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका, अष्टकुक्कुटाण्डममाणमात्रकनलमाहारम् आहियमाणमल्पाहारम् द्वादश० यथा सप्तमशते प्रथमोदेशके यावत् नो प्रकामरसभोजीति वक्तव्यं स्यात् । तदेवत् भक्तपानद्रव्यावमोदरिका । तदेतत् द्रव्यावमोदरिका । अथ का सा भावावमोदरिका भावावमोदरिका अनेकविधा प्रज्ञप्ता, वधथा अल्पक्रोधो यावत् अल्पलोमोऽल्पशब्दः, अल्पझं झः, अल्प तुमं तुमः।सा एषा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयन्द्रका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् भावावमोदरिका । सा एषा अवमोदरिका । अथ का सा भिक्षाचर्या भिक्षाचर्या अनेकविधा प्रज्ञाप्ता, तद्यथा द्रव्याभिग्रह चरका, यथोपपातिके यावत् शुद्धषणिकः, संख्यादत्तिकः । सा एषा भिक्षाचर्या । अथ कोऽसौ रसपरित्यागः, रसपरित्यागोऽनेकविधः प्रज्ञसः, तद्यथा निर्विकृतिकः मणीतरसविवर्जकः यथौ. पपातिके यावत् रूक्षाहारः, सोऽयं रसपरित्यागः । अथ कोऽसौ कायक्लेशा, कायक्लेशोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-स्थानातिदः स्थानादिगो वा, उत्कुटुकासनिका योपपातिके यावत् सर्वगात्रपतिकर्म विभूषाविषमुक्तः सोऽसौ कायक्लेशः, अथ का सा प्रतिसंलीनता, भतिसंलीनता चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा इन्द्रिमतिसंलीनता कपायमतिसंलीनता योगप्रतिसलीनता विविक्तशयनासनसेवनता । अय का सा इन्द्रियमतिसंळीनता इन्द्रियमतिसंलीनता पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधो वा श्रोत्रेन्द्रियविषयप्राप्तेषु वा, अर्थेषु रागद्वेष विनिग्रहो वा, चक्षुरिन्द्रिय० एवं यावत् स्पर्शनेन्द्रियविषयमचारनिरोधो वा स्पर्शनेन्द्रियविषयमाप्तेषु अर्थेषु रागद्वेषविनिग्रहो वा सैपा इन्द्रियप्रतिसंलीनता । अथ का सा कपायमतिसंलीनता-कषायप्रतिसंलीनता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता तद्यथा क्रोधोदयनिरोधो वा उदयमाप्तस्य वा क्रोधस्य विफलीकरणम् एवं यावत् लोभोदयनिरोधो वा उदयमाप्तस्य वा लोभस्य विफलीकरणम् । सैषा कषायप्रतिसंलीनता । अथ. का सा योगपतिसंलीनता, योगपतिसंलीनता त्रिविधा घज्ञप्ता तद्यथा-अकुशलमनो निरोधो वा कुशलमन उदीरणं का, मनसो वा एकत्रीभापकरणम् अकुश. लवचो निरोधो वा कुशलवच उदीरणं वचसा वा एकत्रीमावकरणम् अथ का सा कायपतिसंलीनता कायमतिसंलीनता यत् खलु सुसमाहित प्रशान्तसंहत पाणिपादः कुर्म इव गुप्तेन्द्रियः अलीनः मलीनस्तिष्ठति सैपा कायपतिसंलीनता, सैषा योगप्रतिसंलीनता । अथ का सा विविक्तशयनासनसेवनता ? विविक्तशयनासन सेवनता यत्खलु आरामेपु वा उद्यानेषु वा यथा सोमिलोद्देशके यावत शव्यासंस्तारकमुपसंपद्य खलु विहरति । सैषा विविक्तशयनासनसेवनता, सैषा प्रति. संलीनता; तदेतत् बाह्यं तपः १ ॥मू०९॥ लामाचारी के विशेषरूप ही प्रायश्चित्त आदि होते हैं । अतः अय सूत्रकार प्रायश्चित्तादि का कथन करते हैं-'दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते' इत्यादि सूत्र ९।। સામાચારીના વિશેષ રૂપ જ પ્રાયશ્ચિત્ત વિગેરે હોય છે. તેથી હવે સત્ર१२ प्रायश्चित वितु ४थन ४२ छे. 'दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते' त्याल Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરી भगवतीस्त्र ___टीका-'दसविहे पायच्छित्ते पन्नात्ते' दशदिधम्-दशप्रकारकं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम् । अत्र प्रायश्चित्तशब्दोऽपराधे तच्छुद्धौ च दृश्यते, अत इह सोऽपराधे द्रष्टव्यः । दशविधमायश्चित्तदर्शनायाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तयथा तत्र 'अलोयणारिहे' आलोचनाई आलोचना-निवेदना संयमलग्नदोपाणां गुरोः समक्षे वाचा प्रकाशनरूपा तल्लक्षणां शुद्धिमर्हति यत् अतिचारजातम् तत् आलो. चनाह प्रथम प्रायश्चित्तम् 'पडिक्कमणारिहे' पतिक्रमण मिथ्यादुष्कृतं तद्योग्यम् प्रतिक्रमणं दोषेभ्यः पश्वान्निवर्तनम् पुनर्न करिष्यामीत्येवं रूपेण मिथ्यादुष्कृत टीकार्थ-'दसविहे पायच्छिन्ते पन्नत्ते' प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है। प्रायश्चित्त यह शब्द अपराध और अपराध की शुद्धि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ देखने में आता है-पर यहो यह शब्द अपराध अर्थ में प्रयुक्तहुआ है। प्रायश्चित्त के 'तं जहा' दश प्रकार ये हैं-'आलोयणारिहे, पडिक्मणारिहे, तदुयारिहे, विवेगारिहे विउल्लम्गारिहे, तवारिहे. छेदारिहे, स्नूलारिहे, अणयप्पारिहे, पारंचियारिहे' आलोचना योग्य १, प्रतिक्रमणयोग्य २, आलोचना प्रतिक्रमण दोनों के योग्य ३ विवेकयोग्य ४, व्युत्सर्गयोग्य ५, तपोयोग्य ६, छेद्योग्य ७, मूलयोग्य ८, अनवरथाप्ययोग्य ९ और पारांचितयोग्य १० संयम में लगे हुए दोषों को गुरु समक्ष वचन द्वारा प्रकट करना इसका नाम आलोचना है जो अतिचार रूप प्रायश्चित्त इस आलोचना से शुद्ध होने योग्य होता है वह आलोचनाह प्रायश्चित है १ प्रतिक्रमण दोषों से पीछे हटना और आगे के लिये फिर से नहीं करने रूप विथ्यादुष्कृतदेना --'दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्त' प्रायश्चित्त इस मारना ४ा छे. પ્રાયશ્ચિત્ત આ શબ્દ અપરાધ અને અપરાધની શુદ્ધિના અર્થમાં વપરાયેલ જવામાં આવે છે. પરંતુ અહિયાં આ શબ્દ અપરાધ અર્થમાં વપરાયેલ છે. प्रायश्चित्त इस ना ४ा छ. 'तौं जहा' ते इस प्रो। मा प्रभारी छे. 'आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवटुप्पारिहे, पारंचियारिहे' मासोयना योग्य १, પ્રતિકમણગ્ય ૨, આલેચના પ્રતિક્રમણ બનેની ગ્ય ૩, વિવેકાગ્ય , વ્યુત્સર્ગગ્ય પ, તપાગ્ય ૬, છેદગ્ય 9, મૂલગ્ય ૮, અનવસ્થાગ્ય ૯ અને પારાંચિત 5 ૧૦, સંયમમાં લાગેલા દેશે ગુરૂ સમક્ષ વચનથી પ્રગટ કરવા તેનું નામ આલેચના છે. જે અતિચાર રૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત આ આલોચનાથી શુદ્ધ થવાને ચગ્ય હોય તે આલેચનાતું પ્રાયશ્ચિત કહેવાય છે. ૧, પ્રતિકમણ-દેથી પાછા હઠવું અને આગળ ઉપર પાછા દેશો ના Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् ४२३ दानम् तद्योग्य प्रायश्चित्तमपि प्रतिक्रमणाहमिति कथ्यते यत्मायश्चित्तं मिथ्या दुष्कृतमात्रेणैव शुद्धथति, तन्मात्र प्रतिक्रमणयोग्यत्वात् प्रतिक्रमणयोग्यं कथ्यते इति द्वितीयम् २ । 'तदुभयारिहे' तदुभयाम् तदुभयमालोचना मिथ्यादुष्कृतं च तद्योग्यं मिश्रं प्रायश्चित्तम् तत् मायश्चित्तं यत् अलोचना मिथ्यादुष्कृतोभयाभ्यां शुद्धयतीति उभययोग्यं प्रायश्चित्तं तदुभयमित्यभिधीयते इति तृतीयम् । 'विवेगारिहे' विवेकाहम् विवेक:-अशुद्धभक्तादित्यागः, यत् प्रायश्चित्तमाधाकर्मिकायाहा राणां त्यागत् शुद्धिमेवी तत् विवेकयोग्यत्वात् विवेकापायश्चित्तमिति अभिधीयते इति विवेकाहश्चतुर्थम् ४ । 'विउस्सग्गारिहे' व्युत्सर्हिम् व्युत्सर्गः-झायोत्सर्गः, कायचेष्टाया निरोधेन ध्येये वस्तुनि उपयोग करणादयो दोषः शुद्धितामेति स व्युत्सर्गयोग्यत्वाद् व्युत्सर्गाह प्रायश्चित्तमित्यभिधीयते इति पञ्चमम् ५ । 'तवाइसका नाम प्रतिक्रमण है । इस प्रतिक्रमण के योग्य जो प्रायश्चित्त होता है वह प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित्त है । जो प्रायश्चित्त मिथ्यादुष्कृत मात्र से ही शुद्ध हो जाता है उसे गुरु के समक्ष निवेदन करने की जरूरत नहीं पडती है ऐसा वह प्रायश्चित्त केवल प्रतिक्रमण के ही योग्य होने के कारण प्रतिक्रमणयोग्य कहा गया है । 'तदुभयारिहे' जो प्राय: श्चित्त आलोचना और मिथ्यादुष्कृतरूप प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा शुद्ध होने के योग्य होता है वह प्रायश्चित्त तदुभयाई प्रायश्चित्त है। विवेकाह-जो प्रायश्चित्त आधार्मिकादि आहार के त्याग करने से शुद्धि को प्राप्त करता है यह विवेक योग्य होने से विवेकाहं प्रायश्चित्त है। व्युत्साह-कायचेष्टा के निरोध से ध्येय जस्तु में उपयोग रखने से जो दोष शुद्ध होता है यह व्युत्सर्ग योग्य होने से व्युत्सर्हि प्रायકરવા રૂપ મિથ્યાકૃત આપવું તેનું નામ પ્રતિકમણ છે. આ પ્રતિકમણને ચોગ્ય જે પ્રાયશ્ચિત્ત હોય છે, તે પ્રતિક્રમણીં પ્રાયશ્ચિત્ત છે. જે પ્રાયશ્ચિત્ત મિથ્યાદુકૃત માત્રથી જ શુદ્ધ થઈ જાય છે. તેને ગુરૂ સમક્ષ બતાવવાની જરૂર પડતી નથી, એવું તે પ્રાયશ્ચિત્ત કેવળ પ્રતિક્રમણને જ ચગ્ય હોવાથી तेने प्रतिभा योग्य अडस छ. 'तदुभयारिहे' २ प्रायश्चित्त मासोयना मन મિથ્યા દુષ્કૃત રૂપ પ્રતિકમણ આ બંને પ્રકારથી શુદ્ધ થવાને યોગ્ય હોય છે. તે પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. વિવેકાહ–જે પ્રાયશ્ચિત્ત આધાકર્મ વિગેરે આહારના ત્યાગ કરવાથી શુદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે, તે વિવેકગ્ય હોવાથી વિવેકાહ પ્રાયશ્ચિત છે. વ્યુત્સર્ગોહ-કાયષ્ટના નિરોધથી દયેય વસ્તુમાં ઉપયોગ રાખવાથી જે દેષ શુદ્ધ થાય છે, તે વ્યુત્સર્ગ ચગ્ય હોવાથી સુત્સર્ગાતું પ્રાયશ્ચિત્ત Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરણ भगवती सूत्रे रिहे' तपोऽस्तपोनिर्विकृतिकादि यत् प्रायश्चित्तम् निर्विकृतिकादितपसा शुद्धिमेति तत् तपोयोग्यत्वात तपोई प्रायश्चित्तं पष्ठम् ६ । 'छेशरिहे' छेदार्हम् छेदः - प्रव्रज्या पर्यायरय इम्वीकरणम् यत् प्रायश्चित्तं चारित्रपर्यायस्य छेदमात्रेण शुद्धयति तच्छेदयोग्यत्वात् छेदाईमायश्चित्तमिति सप्तमम् ७ । 'मूलारिहे' मूलाईम् यत् प्रायश्चित्तम् सर्वव्रतपर्यायान् छित्वा पुनर्महाव्रतमाच्या शुद्धिमेति तन्मूलयोग्यत्वाद् मूलाई प्रायश्चित्तमित्यष्टमम् ८ 'अगवट्टप्पारि' अनवस्थाप्याईम् यावत् पर्यन्तम् अमुकविशिष्टं तपो नाचरेत् तावत्पर्यन्तं महावते वेषे वा न संस्थाप्यते अतोऽनवस्थापनयोग्यत्वात् अनवस्थाप्यार्हमायश्चित्तमिति नवमम् ९ । 'पारंचियारिहे' पाराञ्चिकाम् पाराचिकं लिन्नादिभेदमिति । साध्वी राज्ञीत्यादिना सहशील भङ्गरूप महादोपकरणेन वेषं क्षेत्र च त्यक्त्वा महत्तपः कुर्वतां महाचित्त है । 'तवारिहे' निर्विकृतिक आदि तपस्या का नाम तप है जो प्रायश्चित्त निर्विकृतिक आदि तप से शुद्ध होता है, ऐसा वह प्रायश्चित्त तप योग्य होने से तपोह प्रायश्चित्त है । प्रव्रज्या पर्याय का कम करना इसका नाम छेद है । जो प्रायश्चित्त चारित्र पर्याय के छेदमात्र से शुद्ध होता है वह छेद योग्य होने से छेदाई प्रायश्चित्त है । जो प्रायश्चित्त सर्व व्रत पर्यायों को छेद करके पुनः महाव्रतों की प्राप्ति से शुद्ध होता है वह मूल योग्य होने से मूलाई प्रायश्चित्त है। जहां तक अमुक प्रकार का विशिष्ट तप न किया जाय तब तक महाव्रत में अथवा वेष में वह रखने के योग्य नहीं हो सके इसलिये अनवस्थापन योग्य होने से अनवस्थाप्यार्ह प्रायश्चित्त होता है । पारांचिकाई - साध्वी अथवा राजा की रानी आदि के शील को भङ्ग करने रूप महादोष के कारण वेष उडेवाय छे. 'तवारिद्दे' निर्विद्धृतिः विगेरे तपस्यानु नाम तय छे ? आय. શ્ચિત્ત નિવિકૃતિક વિગેરે તપથી શુદ્ધ થાય છે, તે પ્રાયશ્ચિત્ત તપ ચેગ્ય હાવાથી તપાર્ડ' પ્રાયશ્ચિત્ત કહેલ છે. પ્રવ્રજ્યા પર્યાયતુ. કમ કરવુ તેનુ' નામ છેદ્ય છે. જે પ્રાયશ્ચિત્ત ચારિત્રપર્યાયના છેદમાત્રથી શુદ્ધ થાય છે, તે છે ચેાગ્ય હાવાથી છેદાહ' પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે, જે પ્રાયશ્ચિત્ત સઘળા વ્રતપર્યાચીને છેદીને ફરીથી મહાત્રતેાની પ્રાપ્તિથી શુદ્ધ થાય છે, તે મૂળ ચૈાગ્ય હાવાથી *મૂલાહ' પ્રાયશ્ચિત્ત કહેવાય છે. જ્યાં સુધી અમુક પ્રકારનુ` વિશેષ પ્રકારનુ’ તપ કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી મહાવ્રતમાં અથવા વેપમાં તેને રાખવા ચેાગ્ય હાઈ શકતા નથી તેથી અનવસ્થાપણાવાળા હાવાથી ‘અનવસ્થાપ્યા’ आयश्चित्त थाय छे. 'पारांचिकाह' साध्वी राज्ञी विगेरेना शीसना लौंग वा રૂપ મહાદેના કારણે વેષ અને ક્ષેત્રને ત્યાગ કરીને મહાતપ કરવાવાળા Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकार निरूपणम् ४२५ सत्त्वशालिनार षण्मासादारभ्य द्वादशवर्षपर्यन्तमिदं पाराश्चिकं मायश्चित्तं भवति नान्येपास् । उपाध्यायानां तु नचम प्रायश्चित्तान्तमेव प्रायश्चित्तं भवति । सामान्यसाधूनां मूलप्रायश्चित्तपर्यन्तमेव प्रायश्चित्तं भवति। यावत्पर्यन्तं चतुर्दशपूर्वधराः प्रथमसंहननबन्तश्च भवन्ति तावत्पर्यन्तं दशविधमपि प्रायश्चित्तं भवति तेषां विच्छेदानन्तरं मूलान्तान्रष्टौ प्रायश्चित्तान्येव भवन्तीति । प्रायश्चित्तं च तप उक्तम् । अथ लप एच भेदतः आह-'दुविहे तवे पन्नत्ते' इत्यादि, 'दुविहे तवे. पन्नत्ते' द्विविधं सपा प्रज्ञशम्, तदेव दर्शयति 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'बाहिरए य अभिवरए य बाह्यं च, आभ्यन्तरं च बाह्याभ्यन्तरभेदात्तपो द्विविधमित्यर्थः । बावस्यापि शरीरस्य तापनाद् मिथ्यादृष्टिभिरपि सपस्त्वेन स्वीकृत और क्षेत्र को त्याग करके महातप करने वाले महासत्त्वशाली आचार्य को ही ६ मा ले लेकर १२ वर्ष तक का यह प्रायश्चित्त होता है अन्य को नहीं होता उपाध्याय को नौवें प्रायश्चिन तक के ही प्रायश्चित्त होते हैं ! तथा सामान्य साधुओं को मूल प्रायश्चित्त पर्यन्त ही प्रायश्चित्त होते हैं। जहां तक चतुर्दश पूर्वधर और प्रथम संहनन धारी होते हैं वहां तक दश ही प्रायश्चित्त होते हैं। उनके विच्छेद के पाद मूलान्तर तक के आठ प्रायश्चित्त ही होते हैं। प्रायश्चित्त यह तप रूप कहा गया है, अतः अब सूत्रकार तप का कथन उसके भेदों को लेकर के कहते हैं-'दुविहे तवे पन्नत्ते' तप दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'बाहिरए थ अभितरए य' बाह्य तप और आभ्यन्तरतप अनशन आदि बाह्य तप शरीर के तपाने वाले होने से मिथ्या. दृष्टियों द्वारा भी रूप रूप से स्वीकार किये गये हैं इसलिये अनशમહાસત્વશાળી આચાર્યને જ ૬ માસથી લઈને ૧૨ બાર માસ સુધીનું આ પ્રાયશ્ચિત્ત થાય છે. બીજાને થતું નથી. ઉપાધ્યાયને નવમા પ્રાયશ્ચિત્ત સુધીનું જ પ્રાયશ્ચિત હોય છે. તથા સામાન્ય સાધુઓને મૂળ પ્રાયશ્ચિત્ત સુધીનું જ હોય છે. જ્યાં સુધી ચૌદ પૂર્વને ધારણ કરનાર અને પહેલા સંહને ધારણ કરવાવાળા હોય છે, ત્યાં સુધી દસ જ પ્રાયશ્ચિત્ત હોય છે. તેઓના વિ છે પછી મૂળથી અન્ત સુધીના આઠ જ પ્રાયશ્ચિત્ત હોય છે. પ્રાયશ્ચિત્ત એ તપ રૂપ કહેલ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તેના ભેદો સહિત તપનું કથન કરે છે – 'दुविहे तवे पण्णत्ते' त५ मे प्रा२नु ४३ छ. 'त' जहा' ते 21 प्रभारी छे. 'बाहिरए अमितरए य' या त५ भने माल्यन्त२ त५ मनशन विगेरे माह તપ શરીરને તપાવવાવાળા હોવાથી મિથ્યાદૃષ્ટિ દ્વારા પણ તેને તપ રૂપથી સ્વીકારાયેલ છે. તેથી અનશન વિગેરેને બાહ્ય તપ કહેલ છે. તથા પ્રાયશ્ચિત્ત Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ भreater स्वाच्च बाह्यमिति १ | आभ्यन्तरस्यैव कार्माणाभिधानशरीरस्य प्रायस्तापनात् सम्यग्दृष्टिरेव प्रायस्वया अभ्युपगमाच्च आभ्यन्तरमिति । 'से किं तं बाहिरएतवे' तत् किं तवाह्यं तप इति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' वाहिर तवे छत्र पन्नत्ते' बाह्यं तपः पविधं प्रज्ञप्तम्, 'तं जहा ' तयथा 'असणं' अनशनम् अशनपान खादिस्वादिमादि, लक्षणस्य चतुर्विधस्याहारस्य त्याग उति प्रयमं तपः १ । 'ओमोयरिया' अदमोदरिकाः अवमस्य - ऊनस्योदरस्य करणमवमोदरिका व्यु त्पत्तिमानमेतदिति कृत्वा उपकरणादेरपि न्यूनताकरणमत्रमोदरिकेति कथ्यते २ | नादि को बाप कहा गया है । तथा प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कार्मण रूप शरीर को प्रायः तपाने वाले होते हैं और इन्हें सम्यग्दृष्टि जीव ही तपते हैं । इसलिये प्रायश्चित्त आदि तपों को आभ्यन्तर तप कहा गया है । 'से कि तं पाहिरए तवे' हे भदन्त । वाह्यतप कितने प्रकार के होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'पाहिरए तवे छन्हेि पश्नत्ते' हे गौतम | बाह्यतप ६ प्रकार का होता है । 'तं जहा' जो इस प्रकार से है- 'असणं' अनशन 'ओमोयरिया' अवमोदरिका 'भिक्खारिया' भिक्षाचर्या 'रसपरिच्चाओ' रसपरित्याग 'कायकिलेसो' कायक्लेश' 'पडिलीणता' प्रतिसंलीनता अशन, पान, खादिन और स्वादिम आदि रूप चार प्रकार के आहार का त्याग करना इसका नाम अनशन है । भूख से कम भोजन करना इसका नाम अदमोदरिका है 'ऊनस्थ उदरस्थ करणम्' इति अवमोदरिका' यह तो केवल व्युत्पत्ति मात्र है | इसलिये उपकरणादिकों को भी न्यूनता करना इसका नाम વિગેરે આભ્યન્તર તપ કામણુ શરીરને તપાવવાવાળા જ હાય છે, અને તેને સમ્યગ્યેષ્ટિ જીવ જ તપે છે. તેથી પ્રાયશ્ચિત્ત વિગેરે તપેાને આભ્યુત્તર તપ उस छे. 'से किं तं बाहिरए तवे' हे भगवन् माहातय हेटला अारना हाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनु ! - ' बाहिरए तवे छव्विद्दे पण्णत्ते' हे गौतम । माह्य तय छ अअरना होय छे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे'अणसण' अनशन 'ओमोयरिया' अवमोहरि 'भिक्खायरिया' लिक्षान्यर्या 'रसपरिच्चाओ' रसपरित्याग 'कायकिलेसो' अयादेश 'पडिसंलीणता' अतिસ'લીનતા અનશન-અશનપાન, ખાદિમ, અને સ્વાદિમ વિગેરે ચાર પ્રકારના આહારના ત્યાગ કરવા તેનું નામ અનશન છે. ભૂખથી આછે આાહાર કરવા तेनुं नाम 'अवमेोहरि' छे. 'ऊनस्य उदरस्य करणम् इति अवमादरिका' भा પ્રમાણે તેની વ્યુત્પત્તિ થાય છે. ઉપકરણ વિગેરેની ન્યૂનતા કરવી તેનુ નામ " Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू.९ प्रायश्चित्तमकारनिरूपणम् 'भिक्खायरिया' भिक्षाचर्या-भिक्षाचर्या नामकं तृतीयं तपः ३ । 'रसपरिचाओ' रसपरित्यागः रसत्यागात्मकं चतुर्थ तपः ४ । 'कायकिलेलो' कायक्लेशात्मक पञ्चमं तपः ५। 'पडिसंलीणता' प्रतिसंलीनता नामकं पष्ठं तए इति । तत्र बाबतपस्तु प्रथमम् अनशनतपः प्रतिपृच्छन्नाह-'से कि ' इत्यादि, 'से किं तं अणसणे' अथ किं तत् अनशनम्-अनशनस्य तपसः कतिविधत्वं भवतीति प्रश्ना, उत्तरमाह-'अणसणे दुबिहे पन्नत्ते' अनशनं तपो द्विविध-द्विपकारकं प्रज्ञप्तम् प्रकारद्वयमेव दर्शयति-तं जहा' तद्यथा-'इत्तरिए य आवकहिए य' इत्वरिकं च यावत्कथिकं च, तत्वरिकम् अल्पकालपर्यन्तमाहारत्यागरूपम् यावस्कथिकम् यावज्जीवनम् जीवनपर्यन्तमाहारत्यागरूपम् । 'से किं तं इत्तरिए' अथ किं तत् इत्वरिकम् ? इति प्रश्न उत्तरवाह-'इत्तरिए अणेगविहे पन्नत्ते' इत्वरिकं नामतपोऽनेकविधम् अनेकमकारकं प्रज्ञप्तम्-कथितम्, 'तं जहा' तघथा 'चउत्थे भत्ते' चतुर्थ भक्तम् प्रथमदिने एकबारमाहारत्यागः, द्वितीये द्विवारम् आहारत्यागः, तृतीयदिनेऽपि एकवारमाहारत्यागरूपं चतुर्थ भक्तमिति भावः । 'छठे सत्ते' षष्टं भी अवमोदरिका है । इत्यादि । 'से कि तं अणमणे' हे भदन्त ! अनशन तप कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'अणलणे दविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! अनशन दो प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'हत्तरिए य आवहिए थे त्वरिक और थावत्कथिक । अल्पकालपर्यन्त आहार का त्याग करना इसका नाम इत्वरिक है । और जीवन पर्यन्त आहार का त्याग करना इसका नाम यावस्कथिक है। लेकितं इतरिए' हे अदन्त ! इत्वरिक कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! इनरिक अनेक प्रकार का कहा गया है । 'तं जहो' जैसे -'चउत्थे भत्ते, छटे अत्त, अहमे पत्ते, दखसे भत्ते, दुवाललमे भत्ते. ५अपमहरि छे. 'से कि त अणखणे' 3 अगवन् मनशन त५ टमा जा२नु छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छ है-'अणसणे दुविहे पन्नत्ते' गौतम! मनशन त५ मे प्रा२नु ४९ छे. 'त' जहा' ते या प्रमाण छे-'इत्तरिए य आवकहिए य' वा भने याथित, था। समय भाटे આહારને ત્યાગ કરવો તેનું નામ ઈત્વરિક છે. અને જીવનપર્યન્તને માટે माहारने त्याग ४२व तनु नाम या१४थित छे. 'से कि तं इत्तरिए' है ભગવ ઈવરિક અનશન કેટલા પ્રકારનું કહેલ છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે है-'इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते' है गौतम ! JaRs अनशन भने प्रहार' ४९ छे. 'त जहा' ते प्रमाणे छे. 'चउत्थे भत्ते, छठे भत्ते, अट्टमे भत्ते, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगमतीले भक्तम् उपवासद्वयमित्यर्थः । 'अट्टमे भत्ते' अष्टम भक्तम् त्रय उपवासाः, 'दसमे भत्ते' दशमं भक्तम्-चत्वार उपवासाः । 'दुवाकप्तमे भत्ते' द्वादशं गतम् पञ्चौपवासाः 'चोदसमे भत्ते' चतुर्दशं भक्तम् पइउपचास्ताः । 'अद्धमासिए भत्ते' अर्द्धमासिकं भक्तम् पश्चदशोपवासाः। 'मासिए भत्ते' मासिका मक्तम् । 'दो मासिए भत्ते' द्विमासिकं भक्तम् । 'तेमासिए भत्ते' त्रैमासिक गत्तम् 'जागच्छमासिए भत्ते' यावत् पाण्मासिकं भक्तम् ! यावत्पदेन चतुर्यासिक पञ्चमासिक सक्तयोग्रहणम् । 'सेत्तं इत्तरिए' तदेतत् इत्वरिक नामतप इति । ‘से कि त आवकहिए' चोद्दलमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दो लालिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, जाव छम्मासिए भत्ते, सेत्तं इत्तरिए' चतुर्थ भत्ता-एक उपचाल, षष्ठ भक्त-दो उपचास, अष्टम भक्त-तीन उपवास, दशम भक्त-चार उपवास, द्वादश भक्त-पांच उपवास, चतुर्दश भक्त-छह उपधाल, अर्धमासिक भक्त-पक्ष का उपपास, मालिक भक्त-एक मास का उपवास, द्विमासिक भक्त-दो मास का उपचाल, निमासिकभक्त-तीन मास का उपवास, यावत् षटूमासिक भक्त-छह मास का उपवास ये सब इत्वरिक अनशन बाह्यतप है । चतुर्थ भक्त में चार धार के भोजन का त्याग किया जाता है-प्रथम दिन में एक बार का और द्वितीय दिन के २ यार का एवं तृतीय दिन में एक बार का इसलिये चार बार के भोजन के त्याग करने से यह चतुर्य ला एक उपघास रूप पडता है इसी प्रकार से षष्ठ भक्त आदि में भी समझना चाहिये । यहां यायस्पद से चतुर्मासिक, पञ्चमालिक इन दो अक्तों का 'दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोदनमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दो मानिए भत्ते, तेमासिए भत्ते, जाव छम्मासिए भत्ते से च इत्तरिए' यतु मत-मे ७५. વાસ ષષ્ઠભક્ત-બે ઉપવાસ અષ્ટમભક્ત-ત્રણ ઉપવાસ દશમભક્ત-ચાર ઉપવાસ દ્વાદશભક્ત-પાંચ ઉપવાસ ચતુર્દશભક્ત-છ ઉપવાસ અર્ધમાસિકભક્ત-પંદર દિવસ (પક્ષ)ને ઉપવાસ માસિકભક્ત-એક મહિનાને ઉપવાસ દ્વિમાસિકભક્તબે માસને ઉપવાસ ત્રિમાસિકભક્ત-ત્રણ માસને ઉપવાસ યાવત્ ષમાસિકભક્ત-છ માસને ઉપવાસ આ બધા ઈરિક અનશન રૂપ બાહ્ય તપ છે. ચતુર્થ ભક્તમાં ચાર વખતના આહારને ત્યાગ કરવામાં આવે છે. તે એવી રીતે કેપહેલે દિવસે એક વારનું અને બીજે દિવસે બે વારનું અને ત્રીજા દિવસે એકવારનું આ રીતે ચાર વખતના આહારને ત્યાગ કરવાથી “રાતુર્થભક્ત' એક ઉપવાસ કહેવાય છે. એ જ રીતે ષષ્ઠભક્ત વિગેરેમાં પણ સમજવું જોઇએ અહિયાં યાવત્ પદથી “ચતુર્નાસિક અને પંચમાસિક” એ બે ભક્તોને ગ્રહણ કરેલ છે. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ७.७ ९०९ प्रायश्चित्तप्रकारानेरूपणम् _ ४२९ अथ किं तत् यावत्झथिकं नाम तप इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'आवकहिए दुविहे पन्नत्ते' यावत् कथिकनाम तपो द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहां तद्यथा-'पाओवगमणे य भत्तपचक्खाणे य' पादपोषगमनं च-भक्तमत्याख्यानं च, पादष:-छिन्नवृक्षस्तद्वद् स्थिरो भूत्वा स्थीयते 'से कि तं पाओवगमणे' अथ किं तत् पादपोपगमनं नामतप इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते' पादपोषगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' तद्यथा 'नीहारिमेय अणीहारिमेय' निहारिमं च अनिहारिमं च यदुपाश्रयस्यैकदेशे विधीयते तत्र हि-शरीरमुपाश्रयात् निर्हरणीयं स्यात् इति कृत्वा निहारिमम् यत्र खलु मृतशरीरम् उपाश्रयादितो बहिर्नीयमानं भवेग्रहण हुआ है । 'ले कि त आवकदिए' हे भदन्त ! यावस्कधिक तप कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'आवाहिए दुविहे पन्नत्ते' यावत्कथिक तक दो प्रकार का है। 'तं जहा' जैसे-'पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे थ' पादपोपगलन और भक्त प्रत्याख्यान जिस तपस्या में तप करने बाला जीव छिन्न वृक्ष के जैसा स्थिर होकर स्थित रहता है वह पादपोपगमन है। 'ले किं तं पाओधगमणे' हे भदन्त ! यह पादपोपगमन कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! पादपोपगमन दो प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'णीहारिमेय अणी हारिमेय निहारिम और अविहारिम जो उपाश्रय के एकदेश में किया जाता है वह निहारिन है । क्यों कि इसमें नया शरीर उपाश्रय से से कि त भावहिए' मशवन यावत् थि: त५ टन प्रानु ४९ छ ? । प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ -'आवाहिए दुविहे पण्णत्ते' यावथि त५ मे २d डेस छ, 'त' जहा' ते प्रमाणे छे. 'पाओ. वगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य' ५५मन मने मतप्रत्यायानर तपस्यामा તપ કરવાવાળા જ કપાયેલા ઝાડની માફક સ્થિર થઈને રહે છે. તે તપ पाहापशमन वाय छे. 'से जित पाओवगसणे' हे भगवन् ! पाया५. ગમન તપ કેટલા પ્રકારનું કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! पागमन त५ प्रा२नु छ छे. 'त' जहा' त मा प्रमाणे 2. 'णीहारिमेय अणीहारिमेय' निहारिभ अन અનિહાંરિસ ઉપાશ્રયના એક ભાગમાં જે પાદપપગમન કરવામાં આવે છે, તે નિહરિમ કહેવાય છે. કેમકે–આમાં મરેલાનું શરીર ઉપાશ્રયથી બહાર કહાડવામાં આવે છે. અને જેમાં મરેલાનું શરીર ઉપાશ્રયની બહાર કહાડવામાં Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ४३७ दित्यर्थः । अनिहारिमं तत् यत्र मृतशरीरं वहिन नीयते गिरिकन्दरादौ गत्वा संस्तारककरणमिति । 'नियमं अपडिक्कमे तत्र पादपोपगमनम् अनशनम् निय. मात् अप्रतिकर्म सेवादि मतिकमरहितं भवति । 'से तं पाओवगमणे' तदेतत् पादपोपगमनं नामानशनमिति । 'से किं तं भत्तपच्चक्खाणे' अथ किं तत् भक्तपत्याख्यानम् उत्तरमाह-'भत्तपचक्खाणे दुविहे पन्नत्ते' भक्तमत्याख्याननामक यावत्कषिकमनशनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहां तद्यथा-'नीहारिमे य अणीहारिमे य' निहीं रिमं वानिर्दारिमं च 'नियमं सपडिकम्मे' नियमात् समतिकर्म सेवादिप्रति. कर्म सहित नियमादेव भवति । 'से तं भत्तपच्चरवाणे तदेतत् भक्तप्रत्याख्यानम् 'सेत आवकहिए' तदेतद् यावत्कथितम्, 'सेतं अणसणे' तदेतत् अनशननामक बाहर निकाला जाता है और जिसमें मृतफशरीर उपाश्रय से बाहर नहीं निकाला जाता है वह अनि रिम है । यह गिरिफन्दरा आदि में जाकर के किया जाता है 'नियमं अपडिस्कम्मे' यह पादपोपगमन अनशन नियम से सेवादि प्रतिकर्म से रहित होता है से तं पाओबामणे' इस प्रकार यह पादपोपगमन अनशन है । 'से किं तं भत्तपच्चक्खाणे' हे भदन्त ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन दो प्रकार का है । 'तं जहा' जैसे'नीहारिमेय अनीहारिमे' निहारिम और अनिहारिम 'नियमं सपडि. कम्मे यह भक्तप्रत्याख्यान नियम से सेवादि प्रतिकर्म वाला होता है। 'से तं भत्तपच्चक्खाणे' इस प्रकार से यह भक्त प्रत्याख्यान तप है। 'सेत्तं आवकहिए, सेत्तं अणसणे यहां तक अनशन तप का द्वितीय આવતું નથી તેને અનિહરિમ તપ કહેવાય છે. આ અનિહરિમ પાદપપગમન त५ पतनी १३ विगैरेम न ४२वामा माछ. 'नियम अपडिक्कम्मे' આ પાદપપગમન અનશન નિયમથી સેવા વિગેરે પ્રતિક્રિયા વિનાનું હોય हे. 'से त्त पाओवगमणे' मा शत मा पापारामन उसले. 'से कित्त भत्तपच्चक्खाणे' मन् मत प्रत्याभ्यान मनशन डेटा प्रारना केस छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ-'भत्तपच्चक्वाणे दुविहे पण्णत्ते' ॐ गौतम ! सतप्रत्याभ्यान मनशन मे. प्रा२नुं ४ छे. 'त जहा' त माप्रमाणे छ.-'नीहारिमे य अनीहारिमे य' निहारिभ भने मनिहारिभ 'नियम सपडिक्कमे' मा मतप्रत्याभ्यान नियमयी सेवा विगेरे प्रतिभवाणु डाय छे. से त भत्तपच्चक्खाणे' मा Na मा मत प्रत्याज्यान त५४ छ. 'से तं आवकहिए से तं अणसणे' मही सुधी मनशन तपनी मीन २ २ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arefront diet श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् કર बाह्येतयः 'से किं तं ओमोदरिया' अथ का सा अवमोदरिका अवमोदरिकाख्यं तपः कतिविधमिति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'ओमोदरिया दुविहा पन्नत्ता' अवमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा ' तद्यथा - 'दव्योमोयरिया य भावोमोयरिया य' द्रव्यामोरिका - द्रव्यनदरिका, भावावमोदरिका - भाव यूनोदरिका च द्रव्योनोदरिका भावनोदरिका भेदात् ऊनोदरिका द्विविधा भक्तीति । 'से किं तं दव्वोमोयरिया' अथ का सा द्रव्यावमोदरिकेति प्रश्नः, उत्तरमाह - 'दव्वोमोयरिया दुबिहा पन्नत्ता' द्रव्यावमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता, 'उवगरणदन्त्रोमोयरिया य' उपकरणद्रव्याव मोदरिका च ' भत्तपाणदव्वोमोयरिया य' भक्तपानद्रव्यारमोदरिका च तथा च उपकरणद्रव्योनोदरिकभक्तपानद्रव्योनोदरिकभेदात् द्रव्योनोदरिकाख्यं तपो भेद जो या हैं उसका कथन किया । इस प्रकार से बाह्य तप रूप अनशन तपका पूरा कथन यहां तक समाप्त हुआ है । 'सेतिं ओमोदरिया' हे भदन्त ? अवमोदरिका नाम का तप कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'ओमोदरिया दुविहा पत्ता' हे गौतम! अदमोदरिका तप दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे - 'दव्योमोयरिया व भावोमोयरिया च द्रव्यावमोदरिकाद्रव्योनोदरिका और भावावमोदरिका - भावन्यूनोदरिका । द्रव्योनोदरिका और भावोनोदरिका के भेद से यह नोदरिका दो प्रकार की हो जाती है । 'से किं तं दव्वोमोयरिया' हे भदन्त ! द्रव्यावमोदरिका कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'दव्योमोयरिया दुबिहा पत्ता' हे गौतम! द्रव्यावमोदद्दिका दो प्रकार की कही है'तं जहा जैसे- 'उवगरणदव्वोमोयरिया य भत्तपाणदव्वोमोयरिया य' ચાવત્કથિત છે. તેનુ કથન કરેલ છે, આ રીતે ખાહ્ય તપ રૂપ અનશન તપતુ સ'પૂર્ણ થન અહિયાં સમાપ્ત થયુ છે, 'से कि' त' ओमोदरिया' हे भगवन् भवभेोहरि नाम तय हैटसा अकारनु !डेस छे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री छे - 'ओमोदरिया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम । अवभोर तप में अहारतुस छे. 'त' जहा' ते मा प्रभाये छे-‘दव्त्रोर्मायरिया भावोमोयरिया' द्रव्य अवमेोहरि भने भवन्यूनोहरिडा भा अारना लेदृधी ते मे अहारे उस छे. 'से किं' त' दवोमोयरिया' हे भगवन् દ્રવ્ય અવમેરિકા કેટલા પ્રકારની કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી મહે छे है-'दव्वोमोंयरिया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम! द्रव्य अवमेोहरिश मे अक्ष-२नी ४डेल हे. 'त' जहा' ते या प्रमा छे - 'उबगरण दुव्वोमोयरिया य भत्तपाण Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ भगवतीसूत्रे द्विविधं भवतीति, 'से किं तं उवगरणदन्दोमोयरिया' अथ का सा उपकरणद्रव्यात्रमोदरिका एतस्याः कियान् भेदो भवतीति प्रश्नः भगगनाह - 'उनगरणदव्वोमोरिया तिरिहा पन्नत्ता' उपकरणद्रव्यावमोदरिका त्रिविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा ' तथा 'एगे ये' एकं वखम् एकस्यैव वस्त्रस्य संयमयात्रानिवडायोपकरणम् एकं नामकं तपः । ' एगे पाए' एकं पात्र एकमेव पात्रं संययात्रा निर्वाहाय यत्र भवेत् । 'चयतोवगरण साइजणया' स्यक्तोपकरणस्वदनता त्यक्तस्थ उपकरणजातस्य स्वदनता - परिभोगः गृहस्थोपयुक्त वख पात्राद्युपकरणानाम् उपभोगकरणमित्यर्थः । अथवा 'जं वत्थं धारेइ तंमित नत्थि, जइ कोइ मग्यइ तस्तु देश' यद्व धारयति स्वशरीरे तस्मिन्नपि ममलं नास्ति यदि कोऽपि याचमे तदा तस्मै उपकरणद्रव्यावदरिका और भक्तपालद्रव्यावमोदरिका इस प्रकार पान द्रव्य कनोदरिका और उपकरण द्रव्ध ऊनोदरिका के भेद से द्रव्य कोदरिका नामका तप दो प्रकार का होता है। 'हे किं तं वगरणदोव्योमोयरिया' हे मदन्त ! उपकरण द्रव्य ऊनोदरिका कितने प्रकार की है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'उवगरण दव्योमोयरिया तिविहा पनन्ता' हे गौतम ! उपकरण द्रव्ध ऊनोद्दिका तीन प्रकार की कही गई है । 'तं जहा' जैसे - 'एगे वत्थे एगे पाए चियन्तो वगरण साइज्जणया' 'एक वस्त्र, एक पात्र और त्यक्तोपकरण स्वद्नता - गृहस्थजनों के द्वारा उपभुक्त वस्त्र पान आदिकों का उपयोग करना अथवा 'जं वत्थं धारेह तंभि वित्तं नत्थि, जए कोह मग्गह, तरल देह' जिस वस्त्र को स्वशरीर पर उसने धारण कर रखा है उसमें भी उसे ममत्य नहीं होता, दव्वोमोयरिया य' ७५३२ द्रव्य भवभेोहरि अने मील लम्तपान द्रव्यावમેરિકા આ રીતે ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમેદરિકા અને ભક્તપ્રત્યાખ્યાન દ્રવ્ય અવમેરિકાના ભેદથી દ્રવ્ય અમેરિકા નામનુ તપ એ પ્રકારનુ કહેલ છે. 'से कि त उनगरणदव्वोमोयरिया' हे भगवन् उपर द्रव्य अवमेोहरिशा टला अभरनी उहेस हे ? म प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री छेडे - 'उवगरणदव्वोमोयरिया तिविहा पन्नत्ता' हे गौतम! ५२ द्रव्य व्यवभेोहरि त्रयु प्रहारनी उडेल छे. 'तं जहा' ते या प्रभाशे छे - 'पगे वत्थे एगे पाए चियत्तोवगरणसाइज्जणया' એક વસ્ત્ર, એક પાત્ર, અને એક ત્યક્તોપકરણુ સ્વદનતા-એટલે કે ગૃહસ્થાએ ભાગવીને અર્થાત્ ઉપયેાગ કરીને ત્યાગ કરેલા વસ્ત્ર પાત્ર વિગેરેના ઉપભાગ ४२वे अथवा 'ज' वत्थ धारेइ त मिवि ममत्त नथि, जइ कोइ मग्गइ तस्स देइ' જે વસ્ત્રને પેતાના શરીર ઉપર તેણે ધારણુ કરેલા છે, તેમાં પણ તેને મમ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् ४३३ याचकाय ददाति इति वचनात् स्वपरिहितमपि वस्त्रनन्यस्मै प्रगच्छन् ममत्वरहित इति गस्यते उपकरणादौ सर्वथैव असक्तिरहित इत्यर्थों भवतीति । त्रिविधस्यापि उपकरणद्रव्यामोदरिका बाह्यतपसः स्वरूपं पदय भत्तपानद्रव्यामोदरिकस्य स्वरूपदर्शनायाह-से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं भक्तपाणददोमोयरिया' अथ का सा भरूपानद्रव्याघमोदरिकेति प्रश्नः, भगवानाह-'भत्तपाणदव्योमोयरिया अट्ठकुकुडि अंडगप्पमाणयेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे' भक्तपानद्रव्याबमोदरिका-अष्ट कुक्कुटाण्डममाणमात्र कवलमाहारमाहिषमाणोऽल्पाहारः, कुक्कुट्या अण्डप्रमाणम् अष्ट कबलाहारं कुनि अल्पाहारो अवतीति । है, यदि उसे कोई साधी मांगता है तो उस याचक के लिये उसे वह दे देता है । इस कथन के अनुसार अपने पहिरे हुए भी वस्त्र को दूसरे साधु के लिए देते हुए ममत्व रहित होना यह भी प्रतीत होता है-इसका तात्पर्य यही है कि उपकरण आदि में सर्वथा ममत्व से जो रहित होता है वह उपकरण द्रव्य ऊनोदरिका है। इस प्रकार से तीनों प्रकार के उपकरण द्रव्य ऊनोदरिका तप के स्वरूप को प्रकट कर अब सूत्रकार सतपाल द्रव्य ऊनोदरिका का स्वरूप प्रकट करते है-इसमें गौतमस्थानी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'से किं तं भत्तपाणदव्यो. मोयरिया' हे भदन्त ! भक्तपान द्रव्य ऊनोदरिका का क्या स्वरूप है? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- भत्तपाणवोमोथरिया अकुक्कुडि अंडगप्पमाणमेत बनले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे' कुकडी-मुर्गी के अंडा के प्रमाण ले आठ फलों का जो आहार लेता है वह अल्प आहारત્વ હોતું નથી. જે તેને કઈ માગે છે તે સાધમાને તે આપી દે છે. આ કથન પ્રમાણે પિતે પહેરેલા વસ્ત્રને પણ બીજાઓને આપી દેવામાં મમત્વ વગરનું થવું તેની પ્રતીતિ થાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-ઉપકરણ વિગેરેમાં સર્વથા જેઓ મમત્વ વગરના હોય છે, તે ઉપકરણ, દ્રવ્ય અવ. મેદરિકા છે. આ રીતે ત્રણ પ્રકારની ઉપકરણ દ્રવ્ય અવમેદરિકા તપન સ્વરૂપને પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર ભક્તપાન દ્રવ્ય અમેરિકાનું સ્વરૂપ मता-मामा श्रीमानभस्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे डे- 'से किं तं भत्तपाणदव्योमोयरिया है लगवन् मतियान द्र०य अवमारिनु शु १३५ छ ? भी अपना उत्तरमा प्रभुश्री हे छ' -भत्तपाणदव्योमोयरिया अटकुक्कुड़ि अंडगप्पमाण मेत्ते कवले आहार आहारेमाणे अप्पाहारे' ४ीन 12431 माह जीयाना गाहा छ, मुनि म६५ माहारी वार्य छे. 'दुवालस० अ० ५५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૃષ્ઠ भगवती तथा 'दुवालस० जहा सत्तमसए पढमोद्देसए नो पगामरसमोइति वत्तन्वं सिया' द्वादश० इति द्वादश कुक्कुटाण्ड पमाण करलाहारं कुर्वन् मध्यमाहारो मुनि भवतीति यथा सप्तम प्रथम देशके यावत् नो प्रकामरसमोजीति वक्तव्यं स्यादिति । 'सेत्तं भगवाणदव्योमोयरिया' सेवा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका कथितेति । 'से त्तं दन्त्रोमोयरिया' सैपा द्रव्यावमोदरिकेति । 'से किं तं भावोमोयरिया' ar का सारिका मावावमोदरिकाया कियन्तो सेवा सवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'भावोमोपरिया अणेगविदा पन्नता' भावावमोदरिका अनेकविधा प्रज्ञता 'तं जहा' तथा 'अप्पकोड़े जाव अप्पलो' अल्पक्रोधो याद अल्पलो मः, वाला मुनि कहलाता है 'दुचालस० जहा सत्तसए पढमोदेस जाव नो कामरसभोइति बत्तव्वं सिया' तथा जो बारह ग्रास का आहार लेता है- अर्थात् सुके १२ अंडा प्रमाण जो ग्रासों का भोजन देता है वह मध्यम आहार वाला मुनि कहलाता है । इत्यादि जैसा कि सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक में कहे गये अनुहार यवत् वह प्रकानरस भोजी नहीं कहलाता है ऐसा कहा गया है-इसी प्रकार से यहां पर कह लेना चाहिये । " से त्तं भत्तपाणदन्योमोयरिया' व प्रकार से यह भक्तपान द्रव्य ऊनोदरिका है। यहां तक 'क्षेत्तं दन्त्रोमोयरिया' यह द्रव्य ऊनोदरिका का कथन किया 'ले किं तं भावोरिया' हे भदन्त | भाव नोदरिका कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है--' मावोमोथरिया अणेगविहा पण्णा' हे गौतम! भाव ऊनोदरिका अनेक प्रकार की कही गई है 'तं जहा जैसे- 'अप्पकोड़े जहा सत्तमस पढमोद्देसर जाव तो पकामरसभोइत्ति वत्तव्य' सिया' तथा ખાર કાળીયાના આહાર કરે છે, અર્થાત્ કુકડીના ખાર ઇંડાના પ્રમાણુ જેટલા કાળીયાઓના જે આહાર કરે છે, તે મુનિ મધ્યમ આહારવાળા કહેવાય છે. જે પ્રમાણે સાતમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામા કહેલ છે તે પ્રમાણે યાવત્ પ્રકામ ભાજી કહેવાતા નથી, તે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ રીતે અહિયાં પણ अहेवु नये. 'से च भतपाणदव्वोमोयरिया' मा प्रभा मा लस्तयान द्रव्य અવમેાદરિકાનું કથન કરેલ છે. 'से किं' त' भावोमोयरिया' हे भगवन् भाव अवभेोहरि डेटला प्रारनी आहेस हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीने उसे छे - 'भावोमो. यरिया अगविद्या पन्नत्ता' हे गौतम! भाव अवमेोहरि भनेड प्रहारनी हेस छे, 'त' जहा' ते अभाये . - 'अप्पकड़े जाव अप्पलोहे' महथ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयान्द्रका का श०२५ उ.७ ०१ प्रायश्चित्त कारनिरूपणम् ३५ 'अल्पलोभमान पुरुषो भावावमोदरिको भवसि अत्र यावत्पदेन मानमाययोहणं भवति तथा च अल्पक्रोधवान् अल्पमायावान् अल्पसानवान्न अल्पलोभवान् भावतोऽवमोदरिको भवतीति । 'अप्पसदे' अल्पशब्दः, राज्यादावसंयत जागरणभयादपशब्द इति भावः । 'अप्पझंझे' अल्पझंझा, झंझाऽज विश्कीर्णा कोपविशेषात् वचनपद्धतिः, यद्वा झंझा-अनर्थक बहमलापिता तद्रहित इति, येन येन गणस्य -संघस्य वा छेदो भवति तादृशशब्दस्याप्रयोक्ता इति । 'अस्तुमं तुमें' अल्प तुमं तुमः, तुसं तुमो हृदयस्थः कोपविशेष इति । 'से तं भावोमोयरिया' सैषा, जाव चप्पलोमे अल्पक्रोधवाला यावत् अल्पलोलवाला जो पुरुष होता है वह माय ऊनोदरिका नारा हाजाता है। यहां गवत्पद से भान भाया का ग्रहण हुआ है। तथा च-अल्पक्रोधषाला मनुष्य अल्पमानवाला, अल्पभायावाला और अल्प लोभक्षाला मनुष्य भाव की अपेक्षा अवमोदरिक होता है। 'अप्पसहे, अप्पझंझे, अप्पतमं तुमे, सेत्तं भावोषोनिया' इसी प्रकार रात्रि आदि में असंयत पुरुषों के जगजाने के भय से जो थोडा बोलता है, फोपविशेष से जोर २ से पोली गई वाणी का नाम झंझा है। अथवा-अनथक बहुत बशवाद करना इसका नाल झंझा है। ऐसी वाणी से रहित जो होता है यह अल्प झंझा वाला है । अपवा जिल जिस शब्द के बोलने से गण का अथवा संघ का विच्छेद हो जाये ऐले शब्द का जो प्रयोग नहीं करता है यह अल्प झ झा वाला है 'रपतुम तुमे हृदयस्थकोप विशेप का नाम तुसं तुम है हृदधारण कोष को कम करना यह अल्प तुम तुम है। इस प्रकार ક્રોધવાળા અને યાવત્ અલ્પ માનવાળા, અ૫ માયાવાળા અને અલ્પ લોભવાળા મનુષ્ય ભાવની અપેક્ષાથી અવમેરિકા કહેવાય છે અહિયાં માન, भाया में पहे। यावत् शपथी अहए या छे. 'अपसदे, अप्पझंझे, अप्प तुम तुमे, सेत्त भावोमोयरिया' मा शत शत्री विगैरेभा मयत पुषीनी मी જવાના ભયથી જેઓ બોલે છે, ક્રોધથી જોર જોરથી બેલાયેલ વાણીને ઝઝા કહે છે. અથવા નિરર્થક વધારે પડતો બકવાદ કરે તેને ઝંઝા કહે છે એવી વાણી જે બોલતો નથી તે “અલપ ઝંઝા' કહેવાય છે. અથવા જે કઈ એવા શબ્દો બોલવાથી ગણ અગર સંઘને વિચ્છેદ થઈ જાય એવા શબ્દ પ્રયોગ જે ઓ કરતા નથી. તે અલપ ઝંઝાવાળા કહેવાય છે. દા. तुम तुमे' (यमा २९स ओघ विगेरेने तुम तुम ४९ छे. यमा २ धन કમી કરે છે, તે અલ્પ તુમંતુમ કહેવાય છે. આ રીતે થેડું બોલવું, ધીર Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરદ भगवती सूत्रे भावावसोदरिका । 'सेत्तं ओमोयरिया' सैषा अवमोदरिका कथितेति । 'से किं 'वं भिक्खायरिया' अथ का सां भिक्षाच इति मनः सगवानाह - भिक्खायरिया अणेगविद्या पन्नत्ता' भिक्षाचर्या अनेकविधा अनेक प्रकारिका महप्ता- कथिता इति । 'तं जहा' तथा 'दव्वाभिग्गदचरए' द्रव्यामिमहचरकः, भिक्षाचप भिक्षाचवतोश्चाभेदविवक्षया द्रव्याभिग्रहचरको भिक्षाचया इति कथ्यते द्रव्याभिग्रहाथ लेप कृतादिद्रव्यविषया ज्ञातव्या इति । 'जहा उववाहए' जान सुद्धेसणिए, संखादत्तिए' यथा औपपातिके यावत् शुद्धेपणीयः संख्यादत्तिकः, औपपातिकस्य अल्पबोलना, धीमे बोलना, क्रोध में निरर्थक बहुत प्रलाप नहीं करना तथा हृदयस्थ क्रोध कम करना यह सब भाव ऊनोदरिका के प्रकार हैं । यहाँ तक अवमोदरिका का कथन किया गया है । 'से किं तं भिक्खायरिया' हे भदन्त ! भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता' हे गौतम! भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही गई है- 'तं जहा' जैसे''दव्वाभिग्राहचरए' द्रव्याभिग्रह चरक - यहाँ भिक्षाचर्या और भिक्षाचर्या वाले में अभेद विवक्षित हुआ है, इसलिये द्रव्याभिग्रह चरक को भिक्षाचर्या शब्द से कह दिया गया है । द्रव्याभिग्रह लेपकृतादि द्रव्यविषयक होते हैं । 'जहा उववाइए जाव सुद्धेस णिए संखादत्तिए' जैसा कि औपपातिक सूत्र के पूर्वार्ध के तीसवे सूत्र में यावत् शुद्धैषणीय संख्यादत्तिक तक इसका वर्णन किया गया है । अतः वहां से ધીરે ખેલવુડ કોષથી અથ વગરના ખકવાદ ન કરવા અને હૃદયમાં ક્રોધ આ કરવા આ તમમ ભાવ અવમેારિકાના પ્રકારે છે. આ રીતે આ અવમેારિકાનું કથન આટલા સુધી કરેલ છે. 'से कि त भिक्खायरिया' हे भगवन् लिक्षान्यर्या डेंटला अमरनी ही छे? या प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने - ' भिक्खायरिया अणेगविद्या पण्णत्ता' हे गौतम! लिक्षायर्या भने अारनी ही छे. 'त' जहा ' ते या प्रभावे छे. 'दव्वाभिग्गहचरए' द्रव्यालिग्रह थरम् - मडियां लिक्षान्यर्या અને ભિક્ષાચર્યાં કરવાવાળામાં અભેદની વિવક્ષા કરી છે. તેથી દ્રવ્યાભિગ્રહ ચરકને ભિક્ષાચર્યા શબ્દથી કહેલ છે. દ્રબ્યાભિગ્રહ લેપકૃત વિગેરે દ્રવ્ય વિષયवाजा होय छे. 'जहा उववाइए जाव सुद्धेखणिए संखादत्तिए' भोपयाति सूत्रमां જે પ્રમાણે ઔપપાતિક સૂત્રના પૂર્વીના ત્રીસમા સૂત્રમાં યાવત, શુષ્લેષણીય સભ્યાદત્તિક સુધી તેનું વર્ણન કરેલ છે, જેથી તે વર્ષોંન ત્યાંથી જેઈ લેવુ i Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् पूर्वार्द्ध त्रिंशत्तमं सूत्रं द्रष्टव्यम् 'जहा उबवाइए' इत्यनेन इदं मूचितं भवति, 'दया. भिग्गहचरए, खेत्तामिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए, भात्राभिग्गहचरए' इत्यादि, द्रव्याभिग्रहचरका, क्षेत्राभिग्रहचरकः कालाभिग्रहचरका, भावाभिग्रहचरक इत्यादि । 'मुद्धेसणिए' शुद्धपणा शङ्कितादि दोपपरिहाराद् एतादृश शुद्धपणावान् शुद्धैषणिकः 'सखादत्तिए' संख्यादतिका-एकादिदत्त्या मिक्षाकरणम् । 'से तं भिक्खायरिया' सैपा भिक्षाचर्येति । 'से किं तं रसपरिच्चाए' अथ कोऽसौ रसपरियह वर्णन देखलेना चाहिये । आहारादिका पात्र में जो एक बार प्रक्षेप है उसका नाम दत्ति है, अभिग्रह में वृत्ति की संख्या का नियम होता है 'जहा उववाइए' इस पद से सूत्रकार ने यह सूचित किया है। 'दव्याभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए' भावाभिग्गहचरए' इत्यादि जो शुद्ध एषणाबाला होता है वह शुद्वैपणिक है। एषणा की शुद्धि शकिन आदि दोषों के परिहार से होती है। 'संखादत्तिए' एक आदि दत्ति से भिक्षा करना इसका नाम संख्या. दत्ति है। इस संख्यादत्ति वाला जो होता है वह संख्यादत्तिक है। 'सेत्तं 'भिक्खायरिया' इस प्रकार से यह भिक्षाचर्या के सम्बन्ध में कथन है। तात्पर्य कहने का यही है कि द्रव्याभिग्रह चर भिक्षा में अमुक चीजों का ही ग्रहण करने का नियम होता है। क्षेत्राभिग्रहचर अमुक क्षेत्र के अभिग्रहपूर्वक भिक्षा करना होता है । इत्यादि सब वर्णन इसका औपपातिक सूत्र में शुद्ध निर्दोष भिक्षा करना, दत्ति की संख्या करना इस प्रकरण तक किया गया है। આહાર વિગેરેને પાત્રમાં એકવાર નાખવામાં આવે છે, તેને દક્તિ કહેવાય छे, मसिडमा तिनी सच्यानो नियम ३ाय छे. 'जहा उववाइए' मा पथा सूत्रारे सूचित इयु छ -'खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए' त्याला शुद्ध मेषावा य छ, तमे। शुध्धेषण वाय. मेष। विगैरेनी शुद्धि शतिविगेरे होषोना परिक्षारथी थाय छे 'संखादत्तिए' એક વિગેરે દત્તિથી ભિક્ષા કરવી તેનું નામ સખાદત્તિ છે આ સ ખ્યાત્તિपाणाडाय छ, त सध्याति पाय छे. 'से तं भिक्खायरिया' मा રીતે આ ભિક્ષાચર્યાના સ બ ધમાં કથન કરેલ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-દ્રવ્યાભિગ્રહચર ભિક્ષામાં અમુક ચીજોને જ ગ્રહણ કરવાનો નિયમ હોય છે. અમુક ક્ષેત્રના અભિગ્રહપૂર્વક ભિક્ષા કરવાનું હોય છે, વિગેરે સઘળું વર્ણન પપાતિક સૂત્રમાં “શુદ્ધ નિર્દોષ ભિક્ષા કરવી દત્તિની સંખ્યા કરવી આ મકરણ સુધી કહેલ છે. તે સઘળું કથન અહિયાં પણ તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्रे યુદ્ધ त्याग इति प्रश्नः, भगवानाह - ' रसपरिच्चाए अणेगविहे पन्नत्ते' रसपरित्यागोऽनेकविधः - अनेकप्रकारकः मज्ञः कथितः, 'तं जहा ' तद्यथा - 'निव्दिगिए' निर्विकृतिका - घृतादिरू विकृति पदार्थ परिवर्जनम् 'पणीयरस विवज्जए' मणीतरसविवर्जकः गलङ्घविन्दु भोजनाभाववान् इत्यर्थः । 'जहा उत्रनाइए जान लूहाहारे' यथोपपातिके यावद्भूताहारः यथपपातिके इत्यनेन इदं सूचितम् 'आयं free आयामसित्थमोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंखाहारे' इति, 'सेत्तं रसपरिच्चाए ' सैप रसपरित्याग इति । ' से किं तं कायकिलेसे' अथ कः सः 'से किं तं रसपरिच्चाए' हे भदन्त ! रसपरित्याग कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'रसपरिच्चाये अणेगविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! र परिश्या अनेक प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे'fafafi' घृतादिरूप विकृतियों का त्याग करना - 'पणीयरसविचज्जिए' स्निग्धरसवाला भोजन नहीं करना 'जहा उबधाइए जाव लहाहारे' इत्यादि जैसा औपपातिक सूत्र में कहा गया है वैसा ही यहां यावत् रूक्षाहार करना चाहिए इस प्रकरण तक जानना चाहिये | इससे यह भी सूचित होता है कि आयंबिल करना, सिक्थ भोजन करना, अरस आहार करना, विरस आहार करना, अन्तआहार करना, प्रान्त आहार करना यह सब इस रम परित्यागवत में आता है । 'सेत्तं रसपरिच्चाए' इस प्रकार से यह रस परित्याग है । 'से हि तं कायकिले से ' हे भदन्त ! कायक्लेश कितने प्रकार का होता है ? उत्तर में प्रभुश्री 'से कि त रसपरिच्चाए' से लगवन् रसपरित्याग डेंटला अारना डेस छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री है - ' रसपरिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते' हे गौतम! रसपरित्याग भने अारना उडेल छे. 'त' जहा' ते भा प्रभा छे- निव्विगिइए' धी विगेरे विकृतियाना (विजय पहार्थेन।) त्याग ४२वे. 'पणीयरस विवज्जिए' स्निग्ध रसवाणे आहार न ४२। 'जहा उववाइए जाव ऌहाहारे' इत्याहि भोपयाति सूत्रमां ने अम. वामां आवे छे. शे પ્રમાણે અહિયા ચાવત્ રૂક્ષાહાર કરવા આ પ્રકરણ સુધી સમજવુ જોઇએ. આ કથનથી એ પણ સમજાય છે કે આય વિલ કરવું સ્નિગ્ધ ભાજન કરવું, બરસ આહાર કરવે, વરસ આહાર કરવેા, મન્ત આહાર કરવા, પ્રાન્ત માહાર કરવે, આ સઘળાના સમાવેશ આ રસ પરિત્યાગ તમાં થઈ જાય छे. 'से त्त' रसपरिचाए' मा रीते मा રસ પરિત્યાગનું કથન કરેલ છે. 'से कि कायकिले से' से लगवन् यादेश डेटा प्रहारना होय छे ? मा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् १९ कायक्लेश इति प्रश्नः । भगवानाह-'कायकिलेसे अणेगविहे पन्नत्ते' कायक्लेशोऽनेकविधः-अनेकप्रकारका प्रज्ञप्त:-कथितः, 'तं जहा' राधा-'ठाणाइए' स्थानातिदा-स्थानं कायोत्सर्गादिकम् अतिशयेन ददाति गच्छतीति वा स्थानाविदः स्थानातिगो वा 'उक्कुडुयासणिए' उत्कुटुकासनिकः । 'जहा उबनाइए जाव सबगायपरिकम्पविभूसादिप्यमुक्के' यथोपपातिके यावत् सई मानपरिकर्मविभूपाविममुक्तः सर्वगात्रस्य-साङ्गोपाङ्गशरीरस्य मतिकर्म-सेवा, विभूषा -तत्सुन्दरतापादनं, ताभ्यां विषमुक्त:-रहितः सनप्रकारकशरीरस्कारशोभारहित इत्यर्थः । 'जहा उबवाइए' इत्यनेन इदं मचितम् 'पडिमट्ठाई वीरासणिए नेसज्जिए' इत्यादि, प्रतिमानीरासन निषधेति छाया, इह च प्रतिमा मासिक्यादयः वीरासनं च सिंहासननिविष्टत्य भून्यस्तपादस्य सिंहासने अपनीते सति कहते हैं-'कायकिलेसे अणेगविहे पणत्ते' हे गौतम ! कायक्लेश अनेक प्रकार का होता है। 'तं जहा' जैसे-'ठाणाहए' कायोत्सर्ग आदि आसन से रहना 'उक्कुडयासणिए' उत्कुटुक आलन्द से रहना 'जहा उववाइए जाध सव्वगायपरिकम्मविभूतविप्पमुक्के' इत्यादि औपपालिक सूत्र में जला कहा गया है वैला यहां जानना चाहिये । यावत् शरीरके सर्व प्रकार के संस्कारों का और उसे शोभायुक्त करने का त्याग करना चाहिये 'जहा उथवाइए' पद से यह सूचित होता है 'परिमदाई, वीरासणिए नेसज्जिए' इत्यादि-कि मासिकी आदि प्रतिमाओं का पालन करना, वीरासन करना, निषधा से बैठना इत्यादि सबकायक्लेश है। किसी आदमी को नीचे पैर स्थापित कराकर सिंहासन पर बैठा दिया जाय और फिर उसके नीचे से सिंहासन हटा लिया जाये तो जिस प्रश्नन। उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन छ -'कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते' ॐ गौतम ! यश भने प्रा२ना ४९ छे. 'तौं जहा' ते मा प्रभाव 'ठाणाइए' आयोत्सा विगेरे मासनथी २ 'उक्कुडयासगिए' युटु भास. नथी २९. 'जहा उजवाइए' 'जाव सव्वगायपरिकम्मविभूसविपमुक्के' पत्याह ઔપપાતિક સૂત્રમાં આ સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજી લેવું. યાવત્ શરીરના દરેક પ્રકારના સંસ્કારેને भने ते सुशामित ४२वाना त्याग ४२ न . 'जहा उववाइए' मा ५६ से मताछ है-'पडिमद्राई, वीरासणिए नेसजिए' त्याहि-मासिक २ પ્રતિમાઓનું પાલન કરવું. વીરાસન કરવું. નિષદ્યા આસનથી બેસવુ વિગેરે તમામ કાયકલેશ કહેવાય છે. કેઈ પુરૂષને નીચે પગ રખાવીને સિંહાસન પર બેસાડવામાં આવે અને પછી તેની નીચેથી સિંહાસન ખસેડી લેવામાં તે Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ भगवती यादृशमवस्थानं भवेत् तद्वीरारानम् निषद्याच पुताभ्यामुपवेशनमिति । 'से तं कायकिले से' सोऽसौ कायक्लेशो दर्शित इति । 'से किं तं पडिसलीणया' अर्थ का सा पतिमलीनतेति प्रतिसंलीनता विषयकः प्रश्नः, भगवानाह - 'पडिस लीणया चउत्रिहा पन्नत्ता' प्रतिसं' लीनता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा- 'इंदियपडिस लीणया' इन्द्रियप्रतिमं लीनता. इन्द्रियाणां निग्रह इत्यर्थः । ' कसायपडिसंलीणया' कपायमतिस लीनता कपायानां क्रोधादीनां निग्रहकरणमित्यर्थः, 'जोगपडिलीणया' योगमतिसंलीनता, योगानां मनोवाक्कायानां यो व्यापार स्वस्य निग्रकरणम् योगमतिस लीनतेति । 'विवित्तरायणासण सेवणया' विविक्तशयनाशन सेवनता, स्त्रीपशुपण्डकरहितवसतौ निर्दोशयनादीनां सेवनम् | 'से प्रकार का उस अवस्था में इसका आकार हो जाता है-उसी आकार का जो आसन होता है वह वीरासन है। वीरासन से ध्यान करना दोनों जमीन का स्पर्शन न करें इस आसन से बैठकर ध्यान करना यह निषद्या है 'सेत्तं कायकिलेसे' यह सब कायक्लेश है । 'से किं तं पडिलोणया' हे भवन्त ! प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की है ? उत्तर श्री कहते है- 'डिसलोणया चउच्चिहा पण्णत्ता' हे गौतनं ! प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है- 'तं जहा' जैसे- 'इंदियपडिसलीणया' इन्द्रियप्रति संलीनता - इन्द्रियों का निग्रह करना, 'कलायपडिसंलीणया' क्रोधादिकपायों का निग्रह करना 'जोगपडिसलीणया' मन वचन और काय के हलन चलन व्यापाररूप योग का निग्रह करना । 'विवित्त समणामण सेवणा' स्त्रीपशु पण्डक रहित वसति में निर्दोषशय्या તે અવસ્થામાં જે રીતે તે પુરૂષના આકાર થાય છે, એ આકારનું જે આસન હાય તેને વીરાસન કહે છે. વીરાસનથી ધ્યાન ધરવું બન્ને નિતા (બેઠકના ભાગ) જમીનને સ્પર્શ ન કરે એવા આસનથી બેસીને ધ્યાન કરવુ. તેને निषेधा हे छे. 'से त्तं कायकिलेसे' मा सघणा छायदेश उडेवाय छे. 'से कि त पडिलीणया' हे भगवन् प्रतिससीनता डेंटला अठारंनी छे? या अनना उत्तर अनु-' पडिलीणया चढव्विहा पण्णत्ता' हे गौतम! प्रतिससीनता यार प्रहारनी उडेल थे. 'त' जहा' ते भा प्रभा छे 'इदियपडिलीणया' इन्द्रियाना निग्रह वा तेनु नाम इन्द्रिय प्रति'सीनता छे. 'कसायपडिसंलीणया' ओोध विगेरे उषायानो निहु खे । तेनु नाम कृषाय अतिय सीनता छे, 'जोगपडिसलीणया' भनवयन' भने કાયાના હલનચલન રૂપ વ્યાપાર રૂપ ચેગના નિગ્રહ કરવા તેનું નામ ચેગ अंतिस 'सीनता है, 'त्रिवित्तस्रयणासण सेवणया' श्री पशुपऊ विनानी वसतीभां Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ४४२ प्रमेय चन्द्रिका टीका २०२५ उ.७ ०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् किं तं इंदियपडिलीणमा' अथ का सा इन्द्रियपतिस लीनतेति घश्नः, उत्तरमाह'इंदिप डिकीणया पंचtिer पन्नता' इन्द्रिय प्रतिसंलीनता पञ्चविधा - पञ्च प्रकारा प्राप्त 'वजन' वगा - 'सोईदिवविलयप्यधारणिरोहो वा' श्रोत्रेन्द्रियारनिरोध वा श्रोत्रेन्द्रियस्य यः विषयेषु इष्टानिष्टनन्दस्वरूपेषु प्रचारः - श्रवपालमा या प्रवृत्तिस्य यो निरोधो - निषेधः स श्रोत्रेन्द्रियप्रचारनिरोधः, स्था-- सोविविनयपत्ते वा अत्थेषु रामदोस विणिभ्यो' थोत्रे अर्थेषु राजपविनिग्रहः, श्रोत्रेन्द्रियविषयेषु प्राप्तेषु वाडः र्थेषु इष्टानि कररूपेषु रामद्वेषयो निरोधः । ' चक्सिंदिपदिय प्यारगिरोहोम' चन्द्रविचारनिरोधो वा एवं जान फार्सिदियविसयआदियों का सेवन करना - इस प्रकार से प्रतिसंलीनता चार प्रकार कीहै। 'से मिं में इंदिण्पडिलीणया' इन्द्रियप्रति संलीनता कितने प्रकार की है उसमें प्रश्री कहते है- 'इंडियपडिलेलीणया पंचविता पण्णत्ता' इन्द्रियप्रतिरंलीनता पांच प्रकार की कही गई है । 'तं जहां' जैसे - 'लोइदिन विराटपवारणिरोहो ना' श्रोत्रेन्द्रिय का इष्टानिष्ट शब्दरूप विप में जो सुनने की प्रवृत्ति रूपव्यापार है उसका विरोध करना यह श्रोत्रेन्द्रिय प्रचार निरोध है । तथा 'सोइंदिय विसम्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोला जिन्हो' श्रोत्रेन्द्रियके विषय रूप से प्राप्त हुए इष्टानिष्ट शब्दों में राम का निरोध करना 'चखिदियवितय पवारणिरोहो वा' चक्षु इन्द्रिय का विषयों में वर्णों में जो देखने की प्रवृत्तिरूप व्यापार है उन विरोध करना तथा चक्षुहन्द्रियके विषयरूप से व्याप्त નિર્દોષ શય્યા વિશેનું સેવન કરવું તેનું નામ ‘વિવિક્ત શયનાસન પ્રતિसौंसीनता छे.' या अारनी या प्रतिससीनता यार प्रहारनी छे, 'से कि त ' इंदिप डिसंलीणया' इन्द्रिय अतिस सीनता डेटा अारनी उही हे ? या प्रश्ननां उत्तरभां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'इंदियपडिसखीणया पंचदिहा पण्णचा ' धन्दिय अतिस बीनता पांय प्राश्नी हे छे. 'त' जहा' ते या प्रमाये छे. 'खोइंदियविसयत्पारणिरोहो वा' श्रोत्रेन्द्रियनो ईष्ट के अनिष्ट शब्द ३५ विष ચેમાં સાંભળવાની વૃત્તિ રૂપ જે વ્યાપાર છે, તેના નિરોધ કરવા તેનું નામ श्रोत्रेन्द्रिय अयार निशेध है, तथा 'खोइदियविसप्पत्तेसु वा अत्येमु रागदों विणिगादो' श्रोत्रेन्द्रियता विषय ३५धी प्राप्त थयेला दृष्टि अनिष्ट शोभां रागद्वेषतेो निशेष उवो 'ए' चक्लिदियविख्यापयारणिरोहो वा' न प्रभाथे ચક્ષુઈન્દ્રિયેના વિષયામાં વહે મા લેવાની પ્રવૃત્તિ રૂપ જે વ્યાપાર છે, તેના નિરોધ કરવા તથા ક્ષુઇન્દ્રિયના વિષય રૂપ વ્યાપારવાળા ઈષ્ટ અનિષ્ટ વર્તામાં भ० ५६ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती प्पयारणिरोहो वा' एवं यावत् स्पर्शनेन्द्रियविषयमचारनिरोधो वा अत्र यावत्पदेन 'चविंसदिय विसयपत्तेसु वा अस्थेसु रागदोसविणिग्गहो घाणिदियविसयप्पयारणिरोहो वा घाणिदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो जिभिदियविसयप्पयारणिरोहो जिभिदियविसयपत्तेसु वा अस्थेसु रागदोसविणिगहो' एतदन्तमकरणस्य संग्रहो भवति । 'फासिदियविसयपत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो' स्पर्शनेन्द्रियविषयमाप्तेपु वा अर्थेषु इप्टानिष्ट शब्देषु रागद्वेषयो विनिग्रहो निरोधः, ततश्चेन्द्रियाणां पञ्चविधत्वाद् इन्द्रियमतिसं लीनता पञ्चप्रकारा भवन्तीति । ‘से तं इंदियपडिसंलीणया' सैषा इन्द्रियप्रतिसंलीनता निरूपितेति। 'से किं तं कसायपडिसलीणया' अथ का सा कपायप्रतिसंलीनतेति प्रश्नः । भगवानाह-'कसायपडिसंलीणया चउचिहा पन्नत्ता' कपायपति. हुए इष्टानिष्ट वर्गों में रागद्वेष का विरोध करना एवं जाव फासिं. दिय विलयप्पयारनिरोहो वा, फासिंदियविलयप्पत्तल वा अत्थेसु रागदोसविणिमहो जिभिदियविलप्पयारनिरोहो, जिभिदिय विसयपत्तनु वा अस्थेसु रागदोसविणिग्गहो वा' इसी प्रकार से यावत् स्पर्शन इन्द्रियके विषय भूत इष्टानिष्ट पदार्थों में स्पर्शेन्द्रिय की प्रवृत्ति का निरोध करना तथा स्पर्शन इन्द्रिय के विषय भृत पदार्थों में रागद्वेष होने को निरोध करना यहां पर यावत् पद से घ्राणेन्द्रिय और जिह्वा इन्द्रिय के विषय भूत विषयों में भी इसी प्रकार से उन २ इन्द्रियों के व्यापार का अथवा होने वाले रागद्वेषका निरोष करना यह सब इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है। 'से कि तं कसायपडिलीणया' हे भदन्त ! कषाय प्रतिसलीनता कितने प्रकार की है ? उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है-'साय पडिसंलीणया चविहा रागद्वेषना नि२।५ ४२वे! एवं जाव फासिंदियविस्रयप्पयारनिरोहो वा, फासिंदिया विसयपत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो जिभिदियविसप्पयारनिरोहो, जिन्भिदयविसयपत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहों वा' को प्रमाणे यावत् २५शन्द्रियना વિષયભૂત ઈષ્ટ અનિષ્ટ પદાર્થોમાં સ્પર્શેન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિનો વિરોધ કરે તથા સ્પર્શની ઈન્દ્રિયના વિષયભૂત પદાર્થોમાં ઘણુઈન્દ્રિય અને જીહાઇદ્રિયના વિષયભૂત વિષયમાં પણ એજ રીતે તેઈન્દ્રિયેના વ્યાપારને અથવા થવાવાળા રાગદ્વેષને નિરોધ કરે આ બધાને ઈન્દ્રિય સંસીનતા કહે છે. _ 'से कि त कसायपडिसलीणया' है मगवन् पाय प्रतिस सीनता टखा अपनी ही छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे ४-'कसायपडिसलीणया बसविहो पण्णता' हे गौतम! ४ाय प्रतिससीनता या२ ४२नी त छे. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टोका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् संलीनता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'कोहोदयणिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणे' क्रोधोदयनिरोधो वा यावत्क्रोधस्योदय एव न भवेत् अथवा उदयप्राप्तस्य कार्यकरणाभिमुखीभूतस्य विफलीकरणम् यावता उदितोऽपि क्रोधः स्वकार्याय न पर्याप्तो भवेदिति । 'एवं जाव लोभोदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोसस्स विफलीकरणं' एवं यावद्लोभोदयनिरोधो वा उदयमाप्तस्थ वा लोभस्य विफलीकरणम्-निष्लतासंपादनम् । यावत्पदेन मानमाययोग्रहणम् तथा च मानोदयनिरोधो वा उदयपाप्तस्य मानस्य विफलीकरणम् एवं मायोदयनिरोधो बा उदयप्राप्ताया मायाया विफलीकरणंवेति । 'सेत्तं कसायपडिसंलोणया' सैषा कपायमतिसंलीनतेति भावः । 'से कि त जोग. पडिसंलीणया' अथ का सा योगपतिसंलीनता मनोवाकायानां गोपनमिति प्रश्ना, पण्णत्ता' हे गौतम ! याषायप्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही है 'कोहोदयणिरोहो वा उदयपत्तस्ल वा कोहस्स विफलीकरण' क्रोध के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्रात क्रोध को अपने कार्य करने में विफल करना एवं जाव लोलोदय गिरोहो वा उद्यपत्तस्स वालोभस्त विफली करणं' इसी प्रकार ले यावत् लोभ के उद्य का निरोध करना लोभ को आत्मा में नहीं होने देना-अथवा उदय प्राप्त लोभ को उसके कार्य करने में विफल बनाना यहां यावत्पद से मान माया का ग्रहण हुआ है -तथा च-मान के उद्घका निरोध करना अथवा उदित मान को उसके कार्य करने से विफल करना, इसी प्रकार माया के उद्य का निरोध करना और उदित हुए माया कषाय को उसके कार्य करने से रोकना यह सब कषायप्रतिसंलोनता है। ‘से कि तं जोगपडिसंलोणया' हे भदन्त ! योग प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गौतम । 'कोहोदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरण' लोधन यानिशेष કરે અથવા ઉદયમાં આવેલા ક્રોધને તેના કાર્યથી નિષ્ફળ બનાવ “gs जाव लोभोदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोभस्स बिफलीकरणं' से शत यावत લેભના ઉદયને નિરોધ કરે-ભને પિતાનામાં થવા ન દે અથવા ઉદયમાં આવેલા લેમને તેના કાર્યથી નિષ્ફળ બનાવવો તથા યાત્મદથી માનના ઉદયને નિશધ કરે અને ઉદયમાં આવેલા માનને તેના કાર્યથી નિષ્ફળ બનાવ એજ પ્રમાણે માયાના ઉદયને નિરોધ કર. અને ઉદયમાં આવેલ માયા કષાયને તેના કાર્ય કરવાથી રેક આ બધાને કષાય પ્રતિસંલીનતા इ छ, 'से कि त जोगपडिसंलोणया' सगवन् यो प्रतिमानता eat Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ भगवती सूत्रे भगवानाह - 'जोगपडिलीणया तित्रिहा पन्नता' योगपतिसंवीता विविधा - -त्रिमकारा भवति, 'वं जहा' तथथा 'अकुणिरोहोना ११ अकुशलमनो निरोधो वा १, 'कुसलमण उदीरणं बार' कुगलगनस उदीरणम् कुशलस्य मनसः कार्ये वर्त्तनं वार, 'मणस्स वा एमती भागरण मनमो वा एकीभावकरणम् . मनसोविशिष्टेकाग्रत्वेन एकता तद्रूपस्य भावस्य करण अथवा आना सहया एकता - निरालंबनत्वं तद्रूपो भावस्वस्य करणं यत् यत् मनम एकता भावकरण'मिति । 'अकुसल वणिरोदो-पा' अकुशलया निरोधो वा, 'कुसल व उदीरणं वा' - कुशल वच उदीरणं वा, 'वहए वा एयतीयाकरणं वा दचसो वा एकत्रीभावकरणं वा इति । 'से किं तं कायपडिसंकीणया' अथ का सा कायप्रतिसंलीनतेति मनः, भगवानाह - 'कायपडिसंळीणया' कायमदिरालीनता, 'जां माय पसंतसारियपाणिपाए' यत् खल्लु बुसमाहितप्रणन्तसंहृतपाणि'योगप्रनिलीनता तीन प्रकार की है-जैसे 'कुलमणिरोहो वा १ ...कुसलपण उदीरण चार' अकुशल मन का विरोध करना, कुदालमन को - कार्य में लगाना 'मणस्स वा एगत्ती भावकरणं' अथवा मन की एकाग्रता करना - आत्मा के साथ निरालंमनरूप में मन को स्थापित करना 'अकु -सल वह गिरोहो या, कुसलबह उदीरणं या बाए वा एत्तीभावकरणं वा' अकुशल वचन का विरोध करना, कुशल वपन की कार्य - में लगाना अथवा वचन की एकाग्रता करना, वह वन वन योग की प्रतिसंलीनता है । 'से किं तं कायपडिसलीणया' हे सत ! फाय प्रतिसंलीनता क्या है ? उतर में प्रभुश्री कहते हैं 'कावलीणया जपणं नापितसादरिपाणिपाए' अच्छे प्रकार से परिपूर्वक , * પ્રકારની કહી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહું છે --હે ગૌતમ ! ચેાગ प्रतिससीनता त्रशु प्रहारनी ही है. ते या प्रभा छे. 'अकुलमणणिरोहो घा १ फुलपणउदीरण' वा' २ अकुशल मननो निरोध व मने दुशण भनने अर्थ लगाव 'मणस्त्र वा एत्तीभावकरणं' अथवा भननी अभयता 'हरवी आत्मानी साथै निरास अन उपमा भनने स्थायवु' 'जकुसल नइणिरोहो घा, कुलवहउदीरणं वा वइए वा एगत्तीभावकरणं वा' गडुशल वयननो निरोध જીરવા, કુશલ વચનને કાર્યમાં લગાવવુ. અથવા વચનના એકાગ્રતા કરવી તે भन वयन योगनी प्रतिससीनता छे, 'से कि कायपदिसंठीणया' हे लगवन् “કાયપ્રતિસ'લીનતાનુ' શું સ્વરૂપ છે ? અર્થાત્ કાય પ્રતિસ`લીનતા કાને કહે છે ? प्रश्न उत्तरसां प्रभुश्री छे - 'कायपढिसंलीणया जण्णं सुसमाहिय पसंत साहरियपाणिपाए' सारी राते समाधीपूर्व शान्त थनि हाय भने भगाने Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ९०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् ४४५ पादः-सुष्ठु समाधिः-समाधिनासा बरियल चासौ मशान्तश्चान्तईच्या या स तथा संहतर अविक्षिप्तल्या पाणिपादं येन स सुसमाहितप्रशान्तसंहृतपाणिपाद:, 'कुध्मो इछ गुत्तिदिए' कुर्म इव गुप्तेन्द्रियः -गुप्तः कस्यामवस्थायामित्यत आह-'अल्लीणे एल्लोणे' आलोना ईपल्लीनः पूर्वम्, पश्चात् प्रलील:भकर्षेण लीनः, 'चिटई तिष्ठति, 'सेत्तं कायपडिसंकोणया' सैषा कायप्रतिसंलीनता । 'से तं जोगपडिसंलोणया' सैपा योगपतिसंलीनता। 'से किं तं विविचसयणासणसेवणया' अथ का सा विविक्तरायनासनसे वनवा, 'जण्यं आरामेसु वा-उज्जाणेसु का' यत् खलु आरामेघु-नगरोपवलेषु वा उद्यानेषु-बाटिकासु वा, 'जहा सोमिलुद्देसए' यथा सोमिलोद्देशके भगवती सुत्रस्याप्यादाशतकस्य दशमो. देशके, अनेन यत् सूचितं तत एव सर्व द्रष्टव्यम् । कियत्पर्यन्तम् अष्टादशशत. कीयद ब्रमोदेशक इहाध्येतव्य स्तत्राह-'जाच' इत्यादि, 'जाव सेज्जासंथारगं उपसंपज्जित्ताणं विहरह' यावर शय्यासंस्तारकमुपसंपच खलु विहरतीति । 'से तं विवित्तमायणासणसेजणया' सैषा विविक्तशयनासनलेवनता, 'से त पडिसंसुशान्त होकर हा पैरों को लंकोच करके 'असतो हब गुतिदिए अल्ली पल्लोणे चिह' कछुबा के जैसा अपनी इन्द्रियों को गुप्त करके अपने में ही स्थिर रहना यह साथ की संलीनला है। बाहिरी वृत्ति से रहित होना इसका नाम तुसमाहित समाधि प्राप्त है और अन्तति हिल होना इसका नाम प्रशान्त है। इस प्रकार मन वचन और बाय की माल से योण सलोमता होती है। सकिने विवित्तलयणाहणखेषणया' हे भदन्द ! दिषिक्त शयनासन सेवनता किस प्रक्षर की होती है ? उत्तर प्रभुश्री कहते हैं-'विवित्तयणा. सणसवणया-जाणं आरमेसु उजाणे था जहा सोनिलुद्देसए जाव लज्जासंसारणं जसंपज्जिताणं पिहरा' सो नगरोपवनो में सडीयान 'हुम्मोइव गुत्तिदिए, अल्लीणे एल्लीणे चिटुइ' आसानी भाइ પિતાની ઈદ્રિને ગુપ્ત કરીને પિતાનામાં જ સ્થિર રહેવું તે કાયપ્રતિસંલીનતા છે. બહારની વૃત્તિથી રહિત થવું તેનું નામ સુસમાહિત સમાધિ પ્રાપ્ત છે. અને અન્તવૃત્તિથી રહિત થવું તેનું નામ પ્રશાન્ત છે. આ રીતે મન, વચન અને કાયાની સંભાળપૂર્વક રહેવું તે સંલીનતા છે. 'सेतिविदित्तखयणासयणसेवणया सगवन् विवित शयनासन सेव. नता देवी साय छ ? 4 नत्तरमा प्रसुश्री ४९ -'विवित्तसयणाः सणसेवणया जणं आरामेसु उजाणेसु वा जहा सोमिलुदेसए जाव रेज्जासंथारगं उक्सपज्जित्ताणं विहर३' २ नगराना ५नामा मेटलीयामामा बोटे Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ भगवती लोणया' सैपा प्रतिसलीनता निरूपता । 'सेत्तं वाहिरए तवे' तदेतद् वाह्यं तपः संक्षेपविस्ताराभ्यां निरूपितमिति ॥मृ०९॥ अतः परमाभ्यन्तर तप आदि प्रदर्शयन्नाह-'से कि त' इत्यादि।। मूलम्-से किं तं अभितरए तवे, अभितरए तवे छबिहे पन्नन्ते तं जहा पायच्छित्तं, विणओ, यावच्चे, सम्झाओ झाणं, विउसग्गो । से किं तं पायच्छित्ते पायच्छित्ते दसविहे पन्नत्ते तं जहा आलोयणारिहे, जाव पारंचियारिहे, से तं पायच्छित्ते। से किं तं विणए विणए सत्तविहे पन्नत्ते तं जहा णाणविणए, दलणविणए चरित्तविणए मणविणए क्यविणए कायविणए लोगोवयारविणए । से किं तं नाणविणए, नाणविणए पंचविहे पन्नत्ते तं जहा आसिणिवोहियनाणविणए जाव केवलनाणविणए । से तं नाणविणए । से किं तं दसणविणए, दंसणविणए दुविहे पन्नन्ते तं जहा सुस्सूसणाविणए य अणञ्चासापणाविणए य । ले कि तं सुस्सूसणाविणए ? सुस्सूसणाविणए घगीचों में इत्यादि सोमिल के उद्देशक में कहे गये अनुसार यायत् शम्या एवं संथारा को लेकर विहार करता है यह विविक्त शयनासन लेबलता है । सोपिलोदेशक यह इसी भगवती सूत्रका १८ वे शतक का दशवां उद्देशक है। इस प्रकार से यहां तक 'सेत्तं पडिसंलोणया' प्रतिसंलीनता का कथन किया गया है। 'से तं वाहिरए तवे' इस प्रकार अनशन से लेकर प्रतिसंलीनता तक यह सब पाय तप संक्षेप और विस्तार से निरूपित किया ।मु०९॥ સેમિલના ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે યાવત્ અધ્યા અને સંથારાને લઈને વિહાર કરે છે. આ વિવક્તશયનાસન સેવનતા છે. સેમિફ્લેશક આ ભગવતીસૂત્રના १८ मा२मा शत शमे देश छ. तभा मारीत सेत्त पहिसलीणया' प्रतिससीनतानु ४थन ४२ छ. 'से तं बाहिरए तवे' मारीत मनशनयी લઈને પ્રતિસંલીનતા સુધી આ સઘળું બાહ્ય તપ સંક્ષેપ અને વિસ્તારથી , नि३पित ४२० . ॥सू० ६॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ therefront door ०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतपो निरूपणम् अणेगविहे पन्नत्ते, तं जहा सकारेइ वा सम्माणेइ वा जहा चोदसमसए तइए उद्देसए जाव पडिसंसाहणया । से त्तं सुस्सूसणाविणए । से किं तं अणच्चासायणाविणए अणच्चासायणाविणए पणयाली विपन्नत्ते, तं जहा अरहंताणं अणच्चासायणयां, अरहंतपन्नत्तस्स धम्महस अणच्चासायणा, आयरियाणं अणच्चासायणयाँ उवज्झायाणं अणच्चासायणय, थेराणं अवसायणयां, कुलस्स अणच्चासायण, गणस्स अणच्चासायणयाँ, संघस्स अणच्यालायणर्या, किरियाए अणच्चासायणर्या, संभोगस्स अणच्चासायणयों, आभिणिबोहियणाणस्स अणच्चासायणयां जाब केवलनाणस्स अणच्चासायया १५ । एएसि चैव भत्तिबहुमाणेणं३० । एएलिं चेव वन्नसंजलणयाए४५ । से त्तं अणच्चासायणयाविणए, से नं दंसणविणए । से किं तं चरितविणए चरितविणए पंचविहे पन्नत्ते तं जहा सामाइयवरितविणए ? जाव अहक्खायचरित्तविणए से तं चरितविणए । से किं तं मणविणए, मणदिणए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा पसत्थमणविणए अपसत्थमणविणए य । से किं तं पसत्थमणविणए, पत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते तं जहा - अपाए असावज्जे अकिरिए, निरुवक्केसे, अणण्हवकरे, अच्छविकरे, अभूयाभिसंकणे, से तं पसत्थमणविणए । से किं तं अपसत्थमणविणए, अपसत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा पावए, सावज्जे, सकिरिए, सउर्वेक्केसे, अण्हवयकरे, छेविकरे, भूयाभिसंकणे । से त्तं अपसत्थमणविणए । से तं मणविणए । से किं तं वइविए, वइविणए दुविहे पन्नत्ते तं जहा पसत्थवइ विणए अपसत्थवइविणए य । से किं तं पसत्थवइविणए, पसत्थ ४४७. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ commercementertainment भगवतीय वनिणए लत्तभिहे पन्नन्ते तं जहा-पावए अलायज्जे जावअभूयाभिसंक्षण से पसत्यवहन्त्रि पाए । ले कि तं अपसत्थवइविणए, अपलत्थरधिणए ललबिहे पक्षले जहा-पावए सावज्जे जाव स्थानिकाणे। ले त अपनत्यतिमाह से तं वविणए। लेदितं काय विषय, वायरिणए बुनिहे पन्नत्ते, तं जहा पलस्थ काविण च अपसत्य कायविणार या ले कि तं पलत्थकायविणाए, सस्थमायविणए सशविहे पन्नले लं जहा आउन्तं मण१, आउदार, आउ लिलीयण३, आउत्तं तुयणं४, आउ उल्लंघरण५, आउ एल्लंघर्ण६, आउत्तं सविदियजोगजुजुणया । ले त पलस्थाकामिणए। ले कि तं अपत्थक्काचविणए, अपसस्थकाचविणए ललविहे पन्लत्ते, तं जहा-अबाउन्सं जमणं, जाच अभाउ सहिदिय जोगजुंजुणया । ले अपलायलायविणए। लेतं कायत्रिणए । से कि तं लोगोवद्यारविणाप, लोगोदयारविणए सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा-अब्मलवासियं१, परछदाणुचशिर, कज्जउं३, कापडिकहया, अत्तगवेलणया५, देशकालपणया६, लवस्थेसु अप्पडिलोभया७। सेतं लोगोवयारविणए। ले त्वं विणए । सें किं तं वेयावच्चे, वेयावच्चे दलबिहे पल्लत्ते, तं जहा-आयरियवेयाबच्चे१, उपज्झायवेवावच्छे२, थेरदेशावच्च३, तबस्सिवेयावच्चे४, गिलाणचेयावच्चे ५, सेहवेयावच्चे६, कुलयावच्चे७, गणवेयाबच्चे८, संघनेवाबच्चे९, साहस्जियत्यावच्चे१०, से तं यावच्चे। से किं सं लज्झाए, सज्झाम पंचविहे पहले तं जहा-बायणा१, पडिपुच्छणारे, परिवगा३, अणुप्पहाध, धमकहा५, से तं सझाए सू० १०॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टोपा श०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४४२ छाया- अथ किं खत् आभ्यन्तरं तपः, आभ्यन्तरं तपः पविधं प्रज्ञप्तम् तघथा-मायश्चित्तम् १, बिनयः२, वैयावृत्यम् ३, स्वाध्यायः ४, ध्यानम् ५, व्युत्सर्ग:६, । अथ-किं तत् मायश्चित्तम्, प्रायश्चित्तं दशविधं पक्षप्तम् तद्यथाआलोचनाहरू १, यावत् पाशचित्राहम् १० । तदेतत्मायश्चित्तम् । अथ कि स विनय विनया सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानविनयः१, दर्शनविनयः२, चारित्रविनयः३, मनो विनयः४, वागविनय:५, कायविनय:६, लोकोपचारविनयः७ । अथ किं स ज्ञानविनयः, ज्ञानविनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-आभिलिबोधिकज्ञानदिनयः, सावन केवलज्ञानविनयः, सैप ज्ञानविनयः । अथ किं स दर्शनविनया, दर्शनविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तयथा-शुश्रूपणाविनयश्च-अनत्याशातनाविनयश्च । अथ किस शुश्रूषणाविन्य', शुश्रूषणाविनयोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः,-सत्कार इति वा संमानमिति वा यथा चतुर्दशशतके तृतीयोदेशके यावत्मतिसंसाधनता सैप शुश्रूपणा नियः। अथ कोऽसौ अनत्याशातनाविनयः, अनत्याशानुनापिनयः पञ्चचत्वा रिंशद्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्हता मनस्याशातनता१, अईत्मज्ञप्तस्य धर्मस्यानत्या शातलता२, आचाणामनत्याशातनता३, उपाध्यायानामनत्याशातनता४, स्थविराणायनत्याशालनता५, कुलस्यानत्याशातनता६, गणस्यानत्याशातनता ७, संघस्थानत्याशातनता८, क्रियाया अनत्याशातनता ९, संभोगस्य (समानधार्मिकस्य) अनत्यागातनता १०, आभिनिवोधिकज्ञानस्यानत्याशातनता११, यावत्के वलज्ञानस्यानत्याशारलता १५। एतेषामेव भक्तिवहुमानेन ३० । एतेषा मेव सज्वलनतया ४५। सैष अनत्याशावनाविनयः, सैष दर्शनविनयः। अथ किस चारित्रविनयः, चारित्रविनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सामायिकचारित्रविनमः१, यावद् यथाख्यातचारित्रविनयः५,। सैप चारित्रविनयः । अथ कः स सनोविनयः, मनोविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा प्रशस्तमनोविनयः, अमरतपनोस्नियथ । अथ कः स प्रशस्तमनोविनयः, प्रशस्तमनोनिया सप्तविधः प्रज्ञप्त: तद्यथा-आयापकः१, असावधः२, अक्रियः३, निरूपक्लेशा अनाश्रयकरः५, अक्षपिकरः६, अभूताभिशङ्कनम्७, सैप प्रशस्तमनोविनयः। अथक सो अप्रशस्तमनोविनयः१, अप्रशस्तपनोचिनयः सप्तविधः मज्ञप्तः-तद्यथा पापकः१, सारच.२, सानिमः३, सोपवलेश ४, आश्रयकर.५, क्षपिकर:६, भूताभि स एष अप्रशस्तमनोविनयः, स एप मनोविलयः। अथ कः स वचनलितः वचनविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-प्रशस्तवचनविनयश्च अनशस्तवचनविनयश्च । अथ का रा प्रशस्तवचनविनयः, प्रशस्तवचनविनयः सप्तविधः पक्षप्तः अापका१, असावधो यावद् अधूताभिशङ्कनम् ७, सोऽयं प्रशस्तवन विनयः । अथवा सः अप्रशस्तवचनविनयः, अनास्तवचनविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्ता अ०५७ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीचे धिथा-पापकः सायधो यावद् भूताभिशङ्कनम्७ स एप अप्रशस्तवचनविनयः, स एप वचनविनयः। अथ कास कायविनयः, कायविनयो द्विविधः प्रज्ञप्ता, तद्यथाप्रशस्तफायविनयश्चाप्रशस्तकायविनयश्च । अथ कः स प्रशस्तकायविनयः, प्रशस्त. फायविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आयुक्तं गमनम् १, आयुक्तं स्थानम् २ आयुक्तम् निपीदनम् ३, आयुक्तं स्ववर्तनम् ४, आयुक्तमुल्लंघनम् ५, आयुक्तं भलंघनम् ६, आयुक्तं सर्वेन्द्रिययोगयुञ्जनम् ७। स एप प्रशस्तकायविनयः । अथ कः सोऽप्रशस्तकायविनयः, अप्रास्तकायविनयः सप्तविधः प्रज्ञतः तद्यथा-अनायुक्तं गमनम् यावद् अनायुक्तं सर्वन्द्रिययोगयुञ्जनम् । स एप अपशस्तफायविनयः। स एप कायविनयः । अथ का स लोकोपचारविनयः, लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभ्यासवृत्तिकस् १, परच्छन्दात्तिकम् २, कार्यहेतुः३, कृतप्रतिकृतिता ४, आर्त (आत्म) गवेषणता५, देशकालज्ञता ६, सर्वार्थेषु अप्रविलोभता७ । स एष लोकोपचारविनयः । स एप विनयः । अथ किं तत् चयात्यम् ? वैयावृत्त्यं दशविधं प्रज्ञप्तम् आचार्यवैयावृत्त्यम्१, उपाध्यायवैयाहत्त्यम्२, स्थविरवैयावृत्यम् ३, तपस्विवैयावृत्त्यम्४, ग्लानचैयावृत्यम्५, शैक्षवैयावृत्यम्६, कुलवैयावृत्त्यम्, गणवैयावृत्त्यम्८, संघर्चयावृत्त्यम्९, साधर्मिकवैयावृत्त्यम् १०, । तदेतद्वयात्त्यम् । अथ का स स्वाध्याय, स्वाध्यायः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वाचना१, पतिपृच्छना२, परिवर्तना३, अनुप्रेक्षा४, धर्मकथा५, स एष स्वाध्यायः ॥१०॥ टीका--बाह्यं तपः प्रदय क्रममाप्तमाभ्यन्तरतपो दर्शयितुमाइ-'से कि त' इत्यादि, 'से कि त' अभितरए तवे' अथ किं तत् आभ्यन्तरं तपः, अन्तःस्थ तपसः किं लक्षणं कियन्तश्च भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह-'अभितरए तवे छबिहे पन्नत्ते' वाह्यव्यापारानपेक्षत्वमेव सामान्य लक्षणम् आभ्यन्तरतपसः ___ अप आभ्यन्तर तप का कथन किया जाता है-'से किं तं अभितरए तवे इत्यादि। टीकार्थ-'से कि त अभितरए तवे हे भदन्त ! आभ्यन्तर तप क्या है और इसके कितने भेद है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अभितरए तवे छव्धिहे पण्णत्ते' जिस तप में याह्यव्यापार की अपेक्षा नहीं होती હવે આભ્યન્તર તપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. 'से कि त अभितरए तवे' इत्यादि At-से कि अमितरए तवे' हे भगवन् माझ्यन्त२ तपर्नु શું સ્વરૂપ છે? અને તેના કેટલા ભેદે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે है-'अभितरए तवे छबिहे पन्नत्ते' २ तपमा माह्य लियानी अपेक्षा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુર प्रमैचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् तच्चाभ्यन्तरं तपः षड्विधम्- पट् प्रकारकं प्रज्ञप्तम् प्रकारभेदमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'पायच्छित्तं' प्रायश्चित्तमिह प्रायश्चित्तशब्देन अपराधविशुद्धिः कथ्यते प्रायम् शब्दः पापपरका चित्तशब्दध शुद्धिपरक), तदुक्तम्- 'प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधन' मिति, तदिदं प्रथममाभ्यन्तरं तपः 'दिणओ' विनयः वि-विशेषेण नीयते -मीक्षोन्मुख आत्मा क्रियते येन स विनयः - आन्तरो धर्मविशेषः सोऽयं द्वितीयं तपः । ' वेयावच्च' वैयावृत्त्यं भक्तपानादिभिः सेवाकरण गुर्वादीनामिति तृतीयं तपः ३, 'सज्झाओ' स्वाध्यायः - मूलसूत्र पठनम् इति चतुर्थं तपः ४ । 'झाणं' ध्यानम् - एकाग्रतायै मनसः स्थिरीकरणम् इति पञ्चमं तपः ५ । 'विउस्सग्गो' व्युत्सर्गः - कायममत्वहै वही आभ्यन्तर तप का सामान्य लक्षण है । यह आभ्यन्तर तप ६ प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे - 'पायच्छित्तं' प्रायश्चित्तं १ यहां प्रायश्चित्त शब्द से अपराध की विशुद्धि कही गई है, क्योंकि प्रायस् शब्द का अर्थ पाप है और चित्त शब्द का अर्थ शुद्धि है । सो ही कहा है'प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम्' इस प्रकार पाप की शुद्धि जिस तप से होती है वह आभ्यन्तर तप का प्रथम भेद है आभ्यन्तर तप का द्वितीय भेद विनय है । जिस तप से आत्मा विशेषरूप से मोक्ष के सम्मुख किया जाता है वह विनय है । इसका तीसरा भेद वैयावृत्य है । गुरुजन आदि जनों की भक्तपान आदि द्वारा सेवा करना सो वैयावृत्य है । 'सज्झाओ' - स्वाध्याय - यह इसका चौथा भेद है । सूत्र का पठनादिकरना इसका नाम स्वाध्याय है । 'झाणं' यह इसका હાતી નથી તે આભ્યન્તર તપ કહેવાય છે. આ આભ્યન્તર તપ छार छे. 'तं जहा' 'ते 241 371 3.- 'tafosa' પ્રાયશ્ચિત્ત ૧ અહિયાં પ્રાયશ્ચિત્ત શબ્દથી અપરાધની શુદ્ધિ ગ્રહ] કરેલ છે. કેમકે પ્રાયસ્ શબ્દના અર્થ ‘પાપ’ થાય છે. અને ચિત્ત શબ્દને अर्थ शुद्धि छे. तेधु छे - ' प्रायः पापं विजानीयात् चित्त तस्य विशोधनम् આ રીતે જેનાથી પાપની શુદ્ધિ થાય છે એવું જે તપ તે આભ્યન્તર તપના પહેલે ભેદ છે. ૧ આભ્યન્તરના ખીજો ભેદ વિનય છે ૨ જે તપથી આત્મા વિશેષપણાથી મેાક્ષની નજીક જાય છે તે વિનય છે. તેના ત્રીજો ભેદ નૈયાત્રત્ય છે૩ ગુરૂજન વિગેરેની ભક્તપાન વિગેરેથી સેવા કરવી तेनु' नाम वैयाव्रत्य छे. 'सज्झाओं' स्वाध्याय से आभ्यन्तर तपना थोथे। लेह छे. ४ भूलसूत्र ने लघुवु तेतुं नाम स्वाध्याय छे ५ 'झाणं' ध्यान से Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शादतीसरे परित्याग इत्यर्थ इति पष्ठमाभ्यन्तरं तपः ६ । सम्पति त भेदान् दर्शयति-'से किं तं पायच्छित्ते' अथ किं तत् मायश्चित्तम् प्रायश्चित्तपदेन किय संख्यकस्य कस्य च ग्रहणं कर्तव्यमिति प्रश्नः, भगवानाह-'पायच्छित्ते दसविः पन्नने' मायश्चित्तं दशविधम्-दशमकारकं मज्ञप्तम्, 'तं जहा' तयथा-'आलोयणारिदै आलोचनाम् -आलोचनायोग्यम् 'जाव पारंचियारिहे' यावत्पाराश्चिकाईम्, अन यावत्पदेन वाह्यतपः प्रकरणपरिपठितानां प्रतिक्रमणाईनदुमयाई विवेकाहव्युत्महितपोऽई 'छेदाई-मूलानिवरथाप्पागां संग्रहो मयति एतेषां स्वरूपं तु तत एव द्रष्टव्यमिति । 'सेत्तं पायच्छित्ते तदेतत् मायश्चित्त कथितमिति । 'से कि तं विगए' पांचवां भेद है एकाग्रता के निमित्त मन को रिवर करना ध्यान है। 'विउस्लग्गो' व्युत्सर्ग यह इसका छहा भेद है। उनका अर्थ है शरीर से ममत्व का त्याग करना अर्थात् कायोत्सर्ग करना। इस प्रकार से ये ६ आभ्यन्तर तप हैं । ‘से कि तं पायच्छित्ते' हे भवन्त ! प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पायच्छित दसविहे 'पण्णत्ते' हे गौतम ! प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जैसे-'आलोयणारिहे जाव पारंचियारिहे' आलोचना के योग्य यावत् पारंचितक के योग्य, यहां यावत्पद से वायतप के प्रकरण से पूर्व पंठित 'प्रतिक्रमण के योग्य, तदुभयके योग्य, विवेकने योग्य, व्युत्सर्ग के योग्य, तप के योग्य, छेद के योग्य मूल के योग्य अपवस्थाप्य के 'योग्य' इन पदों का ग्रहण हुआ है। इनका लक्षण बहीं खानी से जानना चाहिये । 'से त्तं पायच्छित्ते' इस प्रकार से यह आभ्यन्तर - તેને પાંચમો ભેદ છે. એકાગ્રતા થવા માટે મનને સ્થિર કરવું તે ધ્યાન છે तथा सूत्रानु थियन ४२त. पर ध्यान उपाय छे. ५ "विस्सगों व्युत्सर्ग એ તેને છઠ્ઠો ભેદ છે. ૬ વ્યુત્સર્ગ એટલે શરીરમાં મમત્વને ત્યાગ કરે ' અર્થાત કાર્યોત્સર્ગ કરો. આ રીતે આ છ આભ્યન્તર તપ કહેલ છે. । 'से किं तं पायश्चित्ते' 8 भगवन् प्रायश्चित्त मा ४२नुस छ ? - 31 प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ है-'पायच्छित्ते दलविहे पनि' गीतम! • प्रायश्चित्त ४२ प्रहारतुं हुं छे. 'तं जहा' ते इस प्रा२ । प्रभारी छे. ।' 'आलोयणारिहे जाव पारंचियारिहे' मासायना योग्य यावत्पथी माह्यतयना { પ્રકરણમાં કહેલ-પ્રતિક્રમણને ચગ્ય, તદુભય ગ્ય, વિવેકને ચોગ્ય, સૃત્યને |ોગ્ય અનવસ્થાપ્યને ચગ્ય અને પારાંચિતને યેગ્ય આ બધાનું લક્ષણ ત્યાંજ सूत्र नमाथी समनपु. से तं पायच्छित्ते' मारीत २ यन्त२ पहने। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ शु०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४५३ भय का स विनय इति विनयविषयका प्रश्ना, भगवानाइ-'विणए सत्तविहे पन्नत्ते' विनयः सप्तविधः-सप्तपकारका प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'नाणविणए' ज्ञानविनयः, तत्र ज्ञानविनयो मतिश्रुतादिज्ञानानां श्रद्धानभक्तिवहुमान-तदृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः । 'दसणविणए' दर्शनविनयः सम्यग्दर्शनगुणाधिकेषु शुश्रूषादिरूपः । 'चरित्तविणए' चारित्रचिनयः सामायिकादि चारिप्राणां सम्यक् श्रद्धानकरणमरूपणानि । 'मणविणए' 'मनोविनय:-मनसा वहुमानकरणम्, 'वयविणए' वचनविनयः वचसा बहुमानकरणम् 'कायविणए' 'कायविनय:-कायेन नमस्कारादिना बहुमानकरणम् 'लोगोश्यारविणए' लोकोतप का प्रथम भेद प्रायश्चित्त है। 'से किं तं विणए' हे भदन्त ! विनय तप कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-पिणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! विनय सात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'नाणविणए' ज्ञानविनय मतिश्रुत आदि ज्ञानों का श्रद्धान करना, उनकी भक्ति करना, उनका बहुमान करना तत्प्रतिपादित अर्थ की भावना, विधि ग्रहण और अभ्यास करना यह सब ज्ञान विनय है। 'दसणविणए' दर्शनविनय सम्यम् दर्शनगुण ले युक्त पुरुषों की सेवा शुश्रूषा आदि करना आदि 'चरितविणए' चारित्रधिनय-सामायिक आदि चारित्रों की सस्यक श्रद्धा करना उनका यथार्थ रूप से प्ररूपण करना आदि मणविणए' मनो विनय-मन से बहुमान करना 'वथ विणए' वचन विलय-वचन से बहुमान करना। काविण' काय विनय-काय से नमस्कार आदि द्वारा बहुमान करना। 'लोगोवयार पडेटा मह प्रायश्चित्त छ 'से किं तं विणए' 8 लापन विनय त५ सा प्रा२नु ४ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे ४-'विणए सत्तविहे पण्णचे' गीतम ! विनय सात प्राग्नी डेस छे. 'तं जहाँ ते । प्रभार छ. 'नाणविणए' ज्ञानविनय, भतिज्ञान, श्रुज्ञान विगेरे ज्ञानानु श्रद्धान ४२९ તેની ભક્તિ કરવી તેનું બહુમાન કરવું તેમાં પ્રતિપાદન કરેલ અર્થની ભાવના કરવી વિધિગ્રહણ અને અભ્યાસ કરવો તે બધાને જ્ઞાન વિનય સમજ 'सणविणए' शनविनय सभ्यशन शुद्धथी युस्त ५३वानी- सेवा शुश्रषा विशेरे ४२वी 'चरित्तविणए' यात्रिविनय-सामायि विशेरे यात्रिीमा श्रद्धा કરવી અને યથાર્થ રૂપથી તેની પ્રરૂપણ કરવી તે ચારિત્ર વિનય છે. જ विणए' मनापिनय भनथा गहुमान ४२ ते मना विनय छे. 'वयविणए' क्यनया विनय ४२वात वयन विनय छे. 'कायविणए' यथा नमार विगेरे प्रहार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ भगवतीसे पचारविनयः, लोकानामुपचारो व्यवहारस्तद्रूपी विनयः ! स लोकोपचारविनय इति । ‘से किं तं नाणविनए' अथ कः स ज्ञानविनयः ? भगवानाह-'नाणविणए पंचविहे पन्नत्ते' ज्ञानविनयः पञ्चविधा-पञ्चमकारकः पज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा'आभिणिवोहियणाणविणए' आभिनिवोधिकज्ञानविनयः प्रथमः । 'जाव केवलनाणविणए' यावत् केवलज्ञानविनयः पञ्चमः । अत्र यावत्पदेन श्रुतज्ञानविनया. वधिज्ञानविनयमनापर्यवज्ञानविनयानां संग्रहो भवति। 'सेतं नाणविणए' स एष उपरि प्रतिपादितो ज्ञानविनय इति । 'से कि त दसणविणए' अथ का स दर्शनविनय इति दर्शनविनय विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'दसणविणए दुविहे पात्ते' दर्शनविनयो द्विविधः प्रज्ञासः 'तं जहा' तद्यथा-'सुस्मुसणाविणए य' शुश्रूषणा विनयश्च, शुश्रूषणा-सेवा सैव विनया-विधिवत् सामीप्येन गुर्वादीनां विणए' लोकोपचार विनय लोकों का व्यवहार रूपविनय । इस प्रकार ले विनय सात प्रकार का है। 'से किं तं नाणविणए' हे भदन्त ! ज्ञान बिनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'नाणविणए पंचथिहे पण्णत्ते' हे गौतम ! ज्ञानविनय पांच प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैले 'आभिणियोहियनाणविणए' आभिनियोधिक ज्ञान विनय १ 'जाव-केवलणाणविणए' यावत् केवलज्ञानविनय यहां यावत् शब्द से श्रुतज्ञानविनय, अवधिज्ञानविनय और मनः पर्ययज्ञानविनय' इन तीन चिनयों का ग्रहण हुआ है । 'से त्तं नाणविणए' इस प्रकार से यह ज्ञानविनय ५ प्रकार का है 'ले कि तं दसणविणए' हे भदन्त ! दर्शन विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'दंसण विणए दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! दर्शन विनय दो प्रकार का कहा समान ४२ ते यविनय छे. 'लोगोवयारविणए' सापयार विनयલોકેના વ્યવહારરૂપ વિનયને લેકચારવિનય કહે છે. આ રીતે વિનય સાત अरना थाय छे. 'से किं तं गाणविणए' अन् ज्ञानविनय ४८ घt ना स १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'नाणविणए पंचविहे पणत्ते' हे गौतम! ज्ञानविनय पांय ४२ ४९ छे. 'तं जहा' मा प्रभारी छ -'आभिणिवोहियनाणविगए' मालिनिमाधिज्ञान विनय १ 'जाव केवलनाणविणए' यावत् श्रुतज्ञान विनय २ मधिज्ञान विनय 3 मनःपय वज्ञान विनय भने ज्ञान विनय ५ 'सेत्तं नाणविणए' मा री ज्ञानविनय पाय मारने थाय छे. 'से कि ते दसणविणए' सगवन् शनविनय टा रना छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छे ४-'दसणविणए दुविहे पम्नत्ते' गीतमा नविनय में प्रश्न ४ छे. 'तं जहा' त मा प्रभाय छे. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ २०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् सेवा करणमिति शुश्रूषणाविनय इति । 'अणच्चासायणाविणए य' अनत्याशातनाविनयश्व, अति-अतिशयेन-आ-आय:-सम्यक्त्वादेलामः, तस्य शातना इति अत्याशातना तनिषेधोऽनत्याशातना पृषोदरादित्वात्साधुः । 'से कि तं सुस्वसणा विणए' अथ कः स शुश्रूषणाविनय इति प्रश्नः, भगवानाह-'सुस्म्सणाविणए अणेगविहे पन्नत्ते' शुश्रूषणा विनयोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'सक्कारेई सत्कार इति वा-विनयाहस्य सत्कारादिकरणमिति । 'सम्माणेइ वा' सन्मानमिति वा गुर्शदेः प्रशस्ताहारादिना संमाननमिति वा, 'जहा चउद्दसमसए तइए उदेसए जाव पडिसंसाहणया' यथा चतुर्दशशते तृतीयोदेश के यावत् प्रतिसंसा. धनता भगवती सूत्रस्य चतुर्दशतकीयतृतीयोद्देशके सत्कारादारभ्य प्रतिसंसागया है-'तं जहा' जैसे-'सुस्ललणाविणए य अणच्चासायणाविणए य' शुश्रूषणाविनय और अनत्याशातनारूप विनय गुरु आदिकों की विधिवत् सेवा शुश्रूषा करना यह शुश्रूषणा विनय है और जिस विनय से सम्यक्त्वादि का लाभ होता है वह अनत्याशातना विनय है । 'से किं तं सुस्सूसणा विणए' हे भदन्त ! शुश्रूषणा विनय कितने प्रकार का होता है ? प्रभुश्री कहते हैं-'सुस्सूसणा विणए अणेगविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! शुश्रूषणा विनय अनेक प्रकार का होता है 'तं जहा' जैसे 'सकारेइ वा विनय योग्य पुरुषों का सत्कार आदि करना 'सम्माणेह वा' गुरु आदि जनों का प्रशस्त आहार आदि द्वारा सन्मान करना 'जहा चउद्दसमसए तइए उद्दसए जाव घडि संसाहणया' जैसा कि भगवती सूत्रके चौदहवें शतक के तृतीय उद्देशक में सत्कार से लेकर यावत 'सुस्सूसणाविणए य अणच्चासायणाविणए सुश्रूषायविनय भने अनत्याशातना રૂપ વિનય ગુરૂ વિગેરેની વિધિ પ્રમાણે સેવાશુશ્રષા કરવી તે શુશ્રુષા વિનય છે. અને જે વિનયથી સમ્યક્ત્વ વિગેરેને લાભ થાય છે, તે અનન્યાશાતના विनय उवाय छे. 'से कि तं सुस्सूसणाविणए' लगवन् शुश्रूषा विनय या प्रश्न हे छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे ४-'सुरसूमणाविणए अणेगविहे पन्नत्ते गौतम ! शुश्रूष विनय मन मारने ४ छे. 'तं जहा' ते मा प्रमाणे छे. 'सक्कारेइ' विनय ४२वा योय ५३पाना सत्स२ विगैरे ४२३1. 'सम्माणेइ वा' शु३तन विगेरेनु प्रशस्त माहार विगैरेथी सन्मान ४२०'. 'जहा चउद्दसमसए तइए उद्देसए जाव पडिसंसाहरणया' रम मसती. સૂત્રના ચૌદમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશામાં સત્કારથી લઈને યાવત્ પ્રતિસંસાધનતાના કથન સુધીમાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले धनता पर्यन्तं फथितं तथैवेहापि शुश्रूपणाविनयो ज्ञातव्यः । सेत्तं सुस्यूसणा विणए' स एष शुश्रूपणाविनयः कथितः। 'से किं तं अणच्चासायणाविणए" अथ का सोऽनत्याशातनाविनयः ? भगवानाह-'अणच्चासायणाविणए पणयालीसइविहे पत्ते' अनत्याशातनाविनयः पञ्च चत्वारिंशद्विधः प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'अहंताणं अणच्चासायणया' अर्हनाम् अनत्याशातनता, 'अरहंत पमत्तस्स धम्मरुस्त अणच्चासायणया' अर्हत्वज्ञप्तस्य जिनप्रतिपादितस्य धर्मस्य पञ्चमहाव्रतरूपस्य अनत्याशातना, 'आयरियाणं अणच्चासायणया' आचार्याणाम्, आचार्योनाम-'आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि' स्वयमाचरते यस्मात् तस्मादाचार्य उच्यते ॥१॥ इति लक्षणकस्तेषाम् अनत्याशातना । 'उवज्झायाणं प्रतिसंसाधना तक कहा गया है वैसा ही यहां पर भी शुश्रूपणा विनय के सम्बन्ध में कह लेना चाहिये। 'ले तं सुस्सू सणा विणए' इस प्रकार से यह शुश्रूषणा विनय कहा है 'से कितं अणचनासायणा विणए' हे भदन्त ! अनत्याशातना विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अणच्चालायणाविणए पणयालीसइविहे पण्णत्ते' हे गौतम! अनत्याशातना विनय ४५ प्रकार का कहा है-'तं जहा' जैसे--अरहंताणं अणच्चासायणया' अरिहंतों की अनत्याशातनता १ 'अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्त अणच्चासायणया' अरिहंत प्रणीत पंचमहाव्रतरूप धर्म की अनत्याशातनता २ 'आयरियाणं अणच्या सायणया' आचार्यों की अन्रत्याशातना ३ आचिनोति च शास्वार्थमा. चारे स्थापयत्यपि स्वयमाचरते यस्मात् तस्मादाचार्य उच्यते' जो शास्त्रों के अर्थ का ज्ञाता होता है और उसके अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति शुश्रष। विनयना समयमा समालो . 'से तं सुस्सूसणा विणए' मा शत मा शुश्रूष विनय ४३ छ. 'से किं तं अणच्चामायणाविणए' डे ભગવન અનન્યાશાતના વિનય કેટલા પ્રકારને કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री -'अणच्चासायणाविणए पणयालीसइविहे पन्नत्ते' , गौतम ! अनायाशातना विनय ४५ पिस्ताणीस प्रारना हे छे. 'तं जहा' ते । प्रभारी छ.-'अरहताणं अणच्चासायणया' मरिहत प्रणीत पायभाबत ३५ धमनी मनत्याशातना २ 'आयरियाणं अणच्चासायणया' सायानी मनत्या. शतना 3 'आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापत्यपि स्वयमाचरते यस्मात् तस्मादाचार्य उच्यते' रमे। शासन मन onest२ खाय छे. अनेते प्रमाणे પિતે પાંચ આચારને પાળે અને પળાવવાની પ્રવૃત્તિ કરે છે, તેનું નામ આચાર્ય Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४५७ अणच्चालायगया' उपाध्यायानाम् उपाध्यायाः नाम-यत्सामीपमवाप्य सूत्राणि अधीयन्ते तेपायनत्याशातना, थेराणं अणच्चासायणया ५, स्थविराणामनत्या शातना५। 'कुलस्स अणच्चासायणया कुलस्य-समुदायस्य एकाचार्यसन्ततिरूप. स्य अनत्याशातनाः ६ । 'गणस्ल अणच्चासायणया' गणस्य-परस्परसापेक्षानेकसाधुसमुदायस्य अनस्याशातना ७ । 'संघस्स अणच्चासायणया' संघस्य-चतुर्विधस्य अनत्याशातना ८ । किरियाए अणच्चासायणया' क्रियाया अनत्याशातनता, अत्राहि-क्रिया विद्यते परलोकोऽस्ति च शरीरेन्द्रियादिव्यतिरिक्त आत्मा अस्ति च सकलालेशाधकलङ्कित सिद्धिपदमित्यादि मरूपणात्मिका गृह्यते यद्वा-ऐ-- पथिकादिका क्रिण, एतादृशक्रियाया अनत्याशातनेति । 'संभोगस्य अणच्चासायणया' संभोगस्य अनत्याशातना संभोगस्य गुणगुणिनोरभेदाद् एकसामा. करता है । उसका नाम आचार्य है । 'उवज्झायाणं अणच्चासायणया' जिनके पास पहुंच कर मुनिजन सूत्रों का अध्ययन करते हैं ऐसे उपाध्यायों की अनत्याशातनता४ 'थेराणं अणच्चासायणया ५' स्थविरों की अनत्याशातलता 'कुलस्स अणच्चासायणया६' एक आचार्य की सन्ततिरूप झुल की अलल्याशातनता 'गणरस अणच्चासायणया' परस्पर सापेक्ष अनेक साधु समूह की अनत्याशातनता ७ 'संघस्स अणच्चाखायणया' चतुर्विध संघ की अनत्याशातना ८ 'किरियाए अणच्चालायणया क्रिया की-परलोक है, शरीर और इन्द्रिय से व्य. तिरिक्त झाला है, तथा सकल क्लेशादिकों से अकलङ्कित सिद्धिपद है। इत्यादि प्ररूपणात्मिक क्रिया की अनत्याशातना ९ अथवा-ऐया. पक्षित आदि क्रिया की अनत्याशातना ९ 'संभोगस्स अणच्चासायण या' गुण गुणी के अभेदले संभोगी अर्थात् एक सामाचारीवाले साध छ. 'उवझायाण अणच्चाखायणया' भुनीनी पासे सूत्री अध्ययन छ, मेवा उपाध्यायोनी मनत्याशातना ४ 'थेराणं अणच्चासायणया'५ स्थपिशनी (वृद्धोनी) मनत्याशातनाय 'कुलस्स अणच्चासायणया ६ मायाय ना समाय३५ गनी मानत्याशातना ६ 'गणस्व अणच्चासायणया' ५२०५२ सापेक्ष-मपेक्षा मने साधु सभूखनी मनत्याशातना ७ 'संघस्स अणच्चासायणया' यतविध सधना मनत्याशातन ८ "किरियाए अणच्चासायणया' यानी-मेट -पस શરીર અને ઇન્દ્રિયથી જ આત્મા છે, તથા સકલ કલેશોથી નિષ્કલંક એવું સિદ્ધિ પદ છે વિગેરે રૂપ પ્રરૂપણની અનન્યાશાતના ૯ અથવા એયપથિક विगेरे टियागोनी मनत्याशातना ६ 'संभोगस्स अणच्चासायणया' शुशुशीन। અભેદથી સ ભોગ અર્થાત્ એક સામાચારીવાળા સાધુની અથવા એક भ० ५८ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wee भगedies चारीकसाधोः अथवा एक सामाचारीकसाधी राहारादिदानाऽऽदानरूपः सम्भो गस्तस्यात्याशातना 'आभिणिवोहियमाणस्स अणच्चासायणया' आभिनिवोधिकस्य ज्ञानस्य सत्याख्यज्ञानस्येत्यर्थः अनत्याशावना, । 'जाव केवलणाणस्स अणच्चासायणया' यावत्केवलज्ञानस्य अनत्याशातना, यावत्पदेन श्रुवज्ञानस्य अनत्याशातना, मनःपर्यवज्ञानस्य अनत्याशातना, एतेषां संग्रहो भवति, तदेवस्-पश्चदशभेदा अनन्याशानाविनगस्य संवृत्ताः । 'एएसिं चेत्रभत्तिमा' एवेपामेवात्प्रभृतीनां पञ्चदशानां भक्तिवहुमानेन भक्वास बहुमानो भक्तिहुमान: भक्ति - वाह्यसेवा बहुमानथ - आन्तर: मीतियोगः, तथाचादि भक्तिबहुमानो यावद केवलज्ञानमक्तिवहुमानः, एतेन रूपेण पञ्चदभेदा अपरे इति की अथवा एक सामाचारी वाले साधुओं के आहारादि देने लेने रूपसंभोग की अनत्याशातना १० 'आभिणिवोहियनाणरस अणच्चासायगया' मतिज्ञाननामक अभिनियोधिक ज्ञान की अनत्याशातना ११ 'जाच केवलणाणस्ल अणच्चासावणया' यावत् केवलज्ञान की अनस्याज्ञातना १५, यावत्पद से श्रुतज्ञान की अनत्याशातना १२, अवधिज्ञान १३ की अनत्याशातना, मनः पर्यवज्ञान १४ की अनस्याशातना इस प्रकार से ये अनत्याज्ञातना के १५ भेद हैं, इसी प्रकार से 'एएसि वेव भविहुमाणेणं' इनकी भक्ति और बहुमान को लेकर १५ भेद और अनत्याशाला के हो जाते हैं । भक्ति में इनकी बालसेवा आती है और बहुमान से इनकी आन्तर प्रीतियोग आता है । तथा च - अर्ह भक्ति और अपमान यावत् केवलज्ञान भक्ति और केवल ज्ञान बहुमान करना इस प्रकार से भक्ति और बहुमान को आश्रित करके સામાચારીવાળા સાધુઓના આહારાદિ દેવા લેવા રૂપ સભાગની मनत्याशातना १० 'आभिणिबोहियनाणस्स अणच्चाखाचणया' भतिज्ञान-गालिनिमोधि ज्ञाननी अनत्याशातना ११ 'जाव केवलनाणस्स अणच्चा सायणया ' યાવત્ કેવળજ્ઞાનની અનત્યશાતના ૧૫ યાવત્ પદથી શ્રુતજ્ઞાનની અનત્યાશાતના ૧૨ અધિજ્ઞાનની અનત્યાશાતના ૧૩ મન:પર્યું વજ્ઞાનની અનત્યા શાતના ૧૪ આ રીતે આ અનત્યાશાતનાના પંદર ભે થાય છે. એજ પ્રમાણે 'एएसि चैव भत्तिवहुमाणेणं' तेभनी लति अने बहुमानते सहने जीन પદર ભેદે અનત્યાશાતનાના થઈ જાય છે. ભક્તિથી માહ્ય સેવા ગ્રહણ થાય છે, અને બહુમાનથી તેમની અંદરનો પ્રીતિયાગ ગ્રજી થાય છે. તથા અહ તની ભક્તિ અને અર્હત પ્રત્યે મહુમાન યાવત્ કેવળજ્ઞાન ભક્તિ અને કેવળજ્ઞાન ખહુમાન કરવું. આ રીતે ભક્તિ અને બહુમાનના આશ્રય કરીને તેના Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् त्रिंशदभेदा अन्त्याशातनाविनयस्य भवन्ति । 'एएसि च चन्न संजलणयाए' एतेषा महत्प्रभृति केवलज्ञानान्तानां पञ्चदशानां सद्भूतगुणवर्णनेन यशोदीपनम् तेन च तेन च पञ्चदशभेदा भवन्ति, अनत्याशातनाविनयस्य तदेवं सर्वसंकलनया पञ्चचत्वारिंशद्भेदा अनत्याशातनाविनयस्य भवन्ति । 'से त्तं अणच्चासायणादिए' स एष अनत्याशातनाविनयः । ' से ' दंसणविणए' स एष दर्शनविनयः । 'से किं तं चारिचविणए' अथ कः स चारित्रचिनयः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'चारितविणए पंचविहे पनते' चारित्रचिनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्त इति । 'तं जहा ' वगा - 'सामाइयचारितविणए' सामायिकचारित्रविनयः, 'जाव अहक्खायचारिचविणए' यावद् यथाख्यातचारित्रविनयः । अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीच चारित्रचिनयपरिहारविशुद्धि चारित्र विन्यसूक्ष्म परायचास्त्रिवि १५ ये भेद होते हैं । 'एएलिं चेष वण्णसं जलणयाए' तथा अरिहंत से लेकर यावत् केवलज्ञान की सद्भूतगुण वर्णन से कीर्ति करना इस प्रकार से १५ भेद से होते हैं । सब कुल मिलाकर अनत्याज्ञातना विनयका ४५ भेद हो जाते हैं । 'से तं' अणच्चासावणा विणए-' से 'त' दंतणविणए' यही अनत्याशातनाविनय का स्वरूप है । इस प्रकार इसके कथन से दर्शनविनय का पूरा कथन समाप्त हो जाता है । 'से किं तं चारितविणए' हे भदन्त | चारित्रचिनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'चारितविणए पंचविहे पण्णत्ते' हे गौतम! चारित्र विनय पांच प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे- 'सामा इथचारिदिए, जाब अहकखावचारितविणए' सामायिक चारित्र विनय और यावत् यथाख्यात चारित्र विनय । यहां यावत्पद' से 'छेदोस्थानीय चारित्र विनय, परिहारविशुद्धि चारित्र विनय, सूक्ष्म. या प'हर लेहो थर्ध लय छे. 'एएसि' चैव वण्णसंजलणयाए' तथा मरिहतथी લઈને યાવત કેત્રળજ્ઞાનના ગુણુ વનથી કીર્તિ કરવી તે રીતે પ દર ભે यछे 'सेत अणच्चासायणा विणए-से तं दंसणविणए' मा ४ सन ત્યાશાતના વિનયનું સ્વરૂપ છે. આ રીતે આ કથનથી દર્શનવિનયનુ થન સમાપ્ત થઇ જાય છે. 'से किं तं चारितविणए' हे लगवन् शास्त्रिविनय डेटा अमरता उस छे? या अश्रता उत्तरमा अलुश्री छे - ' चारितविणए पंचविहे पत्ते, हे गौतम! यरित्र विनय याय अारना डे छे. 'तं जहा' ते मा प्रभा छे.- 'सामाइय चारित्त वणर, जाव अहखायचारितविणए' सामायि न्यास्त्रिविनय, १ દેાપસ્થાપનીય ચારિત્ર વિનય, પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્રવિનય ૩ સૂક્ષ્મ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ૬૦ नयानां संग्रदो भवति तथाहि - सामायिकचाग्निविनयच्छेदोपस्थापनीयचारित्र विनयपरिहारविशुद्धिकचारित्रविनय सूक्ष्मसंपराचास्त्रिविनय यथाख्यातचारित्र'विनयभेदात् चारित्र विनयः पञ्चविधो भवतीति भावः । ' से ' चारिचविणए' स एप पूर्वोक्तचारित्र विनय इति । 'से किं तं मणविण' अथ का स मनो विनयः ? इति मनः, भगवानाह - 'मणविणए दुविहे पण्णने' बनो विनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा ' तद्यथा 'पसत्यमणविणए' प्रशस्त सनो विनयः, प्रशस्त'मन एव प्रवर्तनद्वारेण विनयः कर्मापनयनो इति प्रशस्तमनो विनयः, 'अपसत्यमणि' अप्रशस्तमनो विनयः अपशस्त मन एव निर्वसनद्वारेण विनयोऽप्रशस्तमनोविनय इति । ' से किं तं पसत्यमणविण' अथ कः स प्रणवमनो विनयः संपराय चारित्र विनय' इनका ग्रहण हुआ है। तथा च-सामायिक चारित्रचिनय, छेदोपस्थापनीय चारित्रविनय, परिहारविशुद्धि चारित्र विनय, लक्ष्मसंपराय चारित्र विनय और यथायात चारित्र विनय इस प्रकार से ये चारित्र विनय के भेद हैं । 'से किं तं मणविणए' हे 1. भदन्त ! मनो विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'मणचिणए दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम | मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसा- 'पसत्थमणविणए अपलत्थमणविणए' प्रशस्त मनो विनय और अप्रशस्त मनो विनय प्रशस्त विचार धारा में मन की जो प्रवृत्ति है वह प्रशस्त मनो विनय है । यह प्रशस्त मनो विनय आत्मा से कर्मों के अपनयन (दूर) कराने में उपाय भूत है अप्रशस्त सन की निवृत्ति करने रूप अप्रशस्त मनो विनय है 'से किं तं पत्थमणविण' हे भदन्त । प्रशस्तमनो विनय कितने प्रकार का સપરાય ચારિત્ર વિનય ૪ અને યથાખ્યાત ચારિત્ર વિનય પ આ રીતે · ચારિત્ર વિનયના પાંચ ભેદ કહ્યા છે. 'से कि तं मणविणए' हे लभवन् भनोविनय डेटा अारना उद्या छे ? श्या प्रश्नना उत्तरभां अलुश्री छे - 'मणविणए दुविहे पन्नत्ते' हे गीतभ ! भनोविनय मे अक्षरो ह्यो है. 'तं जहा' ते या अभाषे छे. 'पत्थमेणविणए अपसत्थमणविणए' प्रशस्त भनोविनय भने अप्रशस्तभनोविनय प्रशस्त વિચાર ધારામાં મનની જે પ્રવૃત્તિ થાય છે, તે પ્રશરત મનેાવિનય કહેવાય છે. આ પ્રશસ્ત મનેાવિનય આત્માથી કર્મોને હટાવવામાં ઉપાય રૂપ છે. f अशस्त भननी निवृत्ति वा ३५ अप्रशस्त भनोविनय छे. प्रसत्थमणविणए' से लगवन् प्रशस्त भनोविनय डेटा प्रहारनो 'से कि तं डेस है ? Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैययन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् भगवानाइ-पसस्थमणविणए सत्तविहे पण्णते' प्रशस्तमनोविनयः सप्तविधा-सप्तप्रकारका प्रज्ञप्तः. 'तं जहा' तद्यथा-'अपायए' अपापक:-सामान्यतः पापरहितः । 'असावज्जे' असावधः विशेषतः पापवर्जितः । 'अकिरिए' अक्रिया-कायिक्यादि क्रियाभिष्वङ्गवजितः । 'निरुवक्के से निरूपक्लेश:स्वगतशोकाधुपक्लेशवर्जितः। 'अणण्हवकरे' अनारकरः प्राणातिपाताधाश्रवकरणरहित इत्यर्थः । 'अच्छविकारे' अक्षपिकरः, क्षणिः-स्वपरयोरायासः यत् तत् करणशोलो न भवति सोऽक्षविकरः । 'अश्रूयाभिसंकणे' अभूताभिशङ्कनम् यतो भूतानि अभिशङ्कान्ते-बिभ्यति तत् सूताभिशङ्कानम् इत्थं यत् न भवति तत् अभूताभिशङ्कनम् इति । 'से पसत्यमणविणए' स एपः षट् प्रकारका प्रशस्तमनोविनयः कथितः । ‘से कि तं अपसत्थमणविणए' अथ कः सीऽपशस्तमनो विनय इति अपशस्तमनो विषयकः प्रश्नः। भगवानाह-'अपहै ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पखत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते हे गौतम ! प्रशस्त मनो विनय सात प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे-'अपावए, अलावज्जे, अकिरिए, निरुवक्केले, अणण्हवकरे, अच्छविकरे, अभूयाभिलंकणे' पापरहित १ सामान्य से पापरहित असावविशेषरूप से पापरहित २, अक्रिय-कायिकी आदि क्रियाओं में आसक्ति रहित ३, निरूपक्लेश-स्वगत शोकादि उपक्लेश रहित ४, अनाश्रयकर प्राणातिपात आदि आश्रव करने से रहित ५, अक्षपि कर-स्व को एवं परको आयास (पीडा) करने से रहित ६ एवं अभूताभिशकुन-प्राणी अय घर्जित 'से तं पसल्थलणविणए' ऐसा यह प्रशस्त मनो विनय है। 'से किं तं अपलक्ष मणविणए' हे भदन्त ! अप्रशस्त मनोविनय कितने प्रकार का है उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अपलस्थमणविणए मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'पसस्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते के गीतम! प्रशस्त मनाविनय सात प्रश्न ४९८ . 'त' जहा' ते मा प्रभावी छ –'अपावए, असावज्जे, अकिरिए, निरूवक्केसे, अणहवकरे, अभूयाभिसंकणे પાપરહિત ૧ સામાન્યપણાથી પાપરહિત અને અસાવઘપણ વિશેષપણાથી પાપરહિત ૨ અકિય-કાયિકી વિગેરે ક્રિયાઓમાં આસક્તિરહિત ૩ નિરૂપકલેશન અંતર્ગત શેકવિનાના ૪ અનાઢવકર-પ્રાણાતિપાત વિગેરે આસ્રવ કરવાથી રહિત ૫ અક્ષપિકર-વ અને પરને પીડા કરવાથી નિવૃત્ત રહેવું ૬ તથા અન્ન तामिन-प्राणी सय २डित ७ 'से कि तं अपसत्यमणविणए' से सावन અપ્રશરત મને વિનય કેટલા પ્રકારને કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवतीस्त्रे सत्थमणविणए सत्तविहे पन्नत्ते' अप्रशस्तमनोविनयः सप्तविध:-सप्तप्रकारका प्रज्ञप्तः, तं जहा' तद्यथा-'पावर' पापकः सामान्येन पापसंकलितः । 'सावज्जे' सावधः विशेषतः पापसहिता, 'सकिरिए' सक्रिय:-कायि कवादिक्रियाभिपङ्गसहितः ‘स उपकेसे' सोपक्लेशः-स्वगतशोकाधुपक्लेगयुक्तः । 'अण्हवकरें आश्रयकर:- प्राणातिपावाद्याश्रवकरणसहितः । 'छविकरे' क्षपिकरः -क्षपिः-स्वपरयोरायासः तस्करणशीलः ! 'भूयाभिसंकणे' भूतामिशङ्गानः यतो भूतानि आशङ्कन्ते-मयं संप्राप्नुवन्ति तादृशः । 'सेतं मणविणए' स एप सामान्यविशेषाभ्यां मनो विनयो निरूपित इति । मनोविनयं प्रदर्य वचनविनयं दर्शयितुमाह-'से कि त' इत्यादि, ‘से कि तं वइविणए' अथ कः म वचनविनयः ? खत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! अप्रशस्त मनो विनय सात प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'पायए' पापरूप-सामान्य से पाप संवलित पापयुक्त १ 'सायज्जे' विशेषरूप से पाप से युक्त २ 'सकिरिए' कार्य की आदि क्रिया में आसक्ति सहित ३ 'सवक्केसे' स्वगतशोकादि उपक्लेश सहित४ 'अण्हवकरे' प्राणातिपात आदि आश्रय करने वाला ५'छविकरे' स्व और परको आयास (पीडा) करने वाला ६ और 'भूयाभिसंकणे' जीवों को भय प्राप्त कराने वाला ऐसा 'सेतं अप. सत्य मणविणए' इन पापयुक्त मन आदिले निवृत्ति करना यह अप्र. शस्त मनो विनय है । 'से से बणविणए' इस प्रकार से यहां तक मनो विनय का कथन किया-पचर विनय का कथन किया जाता है-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभुमी से ऐसा पूछा है-से कितं वह छ ४-'अपसत्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते गौतम ! मप्रशस्त मनाविनय सात ४९दा छे. 'त' जहा' १ मा प्रभारी छे. 'पावए' पा५३५ सामान्यथा पायथा युद्धत १ 'सावज्जे' विशेषाथी ५५युत २ 'सकिरिए' यनी अभयामा मासहित सहित 3 'सउवक्केसे' स्वात-यातानामा २२ विसरे ७५४वेशयुक्त ४ 'अलवकरे' प्राणातिपात विशेरे मानव ४२वावापा ५ 'छविकरे' ५५ मन ५२२ मायास (पी31) ४२वावाणा भने 'भूयाभिसंकणे' वान लय Guru ४२qापा, मेवा 'सेत्तं अपसत्यमणविण' मा मधे। म त मनाविनय छे. 'से त मणविणए' या शत આટલા સુધી મને વિનયના સંબંધમાં કથન કરેલ છે. હવે વચન વિનયનું કથન કરવામાં આવે છે–આ સંબંધમાં શ્રીગૌતમ वाभीमे प्रभुश्रीन मे ५च्युछे है-'से कि त वहविणए लगवन् पयन Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७९०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४६३ इति प्रश्ना, मगवानाह-वइ विणए दुविहे पन्नत्ते' वचनविनयो द्विविधः प्रज्ञप्त, 'तं जहा' तद्यथा 'पसत्यवइविणए य अपसत्यवइविणए य' प्रशस्तवचनविनयश्व अपशस्तवचनविनयश्च । 'से किं तं पसत्थवइविणए' अथ कः स प्रशस्तश्चनविनया भगवानाह-'पसत्थवइविणए सत्तविहे पन्नत्ते' प्रशस्तवचनविनयः सप्तविधा प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-'अपायए' अपापवावप्रवर्तनरूपो वाग्विनयोऽपापा । 'असावज्जे' असावद्या-विशेषतोऽपि पापरहितः । 'जाव अभूयाभिसंकणे' यावत् अभूताभिशङ्कनम् अभूताभिशङ्कनरूपो वाविनयः, अत्र यावत्पदेन अक्रियो निरूपक्लेशोऽनाश्रवकरोऽक्षपिकरः, इत्येषां ग्रहणं भवतीति । 'से तं पसत्थवइविणए' स एष सप्त प्रकारका प्रशस्तवाधिनयो निरूपित इति । 'से कि तं विणए' हे भदन्त ! सन्चन चिनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'बविणए दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! बचनविनय दो प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जैसे पलथवधिगए थ अपलत्थ्य वह विणए ये प्रशस्तवचन चिनय और अप्रशस्त बचन चिनय ‘से किं तं पसत्थवइविणए' हे भदन्त : प्रशस्त बचन विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पलत्थ बदविणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! प्रशस्त वचन बिनय लात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'अपावए' पाप रहित वचन की प्रवृत्ति रूप वाग् विनय अपापक है १ 'असावज्जे २ असावध-विशेष रूप से पापरहित वचन 'जाब अभूयाभिसंकणे' यावत् जीवों को भय न उपजाने वाला वचनयहाँ यावत्पद से 'अक्रिय, निरूपक्लेशा, अनावकर अक्षपिकर' इन पदों का ग्रहण हुआ है। 'से तं पसथवइविणए' इस प्रकार से यह વિનય કેટલા પ્રકારના છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે थे 3-'वइविणए दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! क्यानविनय 2. रन हेस छ. 'त' जहा' ते मा प्रमाणे छे. 'पसत्थवइविणए य अपसत्थवइविणए य' प्रशस्त क्यनविनय मन मप्रशस्त क्यन विनय से कि तपसत्थवइविणए હે ભગવદ્ પ્રશસ્ત વચન વિનય કેટલા પ્રકારના કહેલ છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ8-'पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते के भीतम! प्रशस्त क्यन विनय सात प्रा२ने। उस छे. 'त जहा' त मा प्रभारी छे. 'अपावए' ५५ विनाना क्यननी प्रवृत्ति३५ पास-पयन विनय मा५४ ४२वाय छे १ 'असावज्जे' विशेष३५थी पाप दिनाना पयनने प्रयास २ त असावध क्यन उपाय छे. २ 'जाव अभूयाभिसंकणे' यावत् ल्वाने मय न तवनाश क्यन मिडियां यावर५६थी 'अक्रिय निरुपक्लेश, अनास्रवकर अक्षपिकर' मा Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीय अपसस्थवइविणए' अथ का सोऽपशस्तवाग्विनयः ? इति प्रश्ना, भगवानाह'अपसत्यवइविणए सत्ताविहे पन्नत्ते' अपशस्तवाग्विनयः सप्तविधः मज्ञप्तः 'तं जहा वधथा-'पानए' पापा-पापवाकमवर्तनरूपो वाग्विनयः पापकः। 'सावग्जे सावधः सावधवापवर्तनरूपो बाबिनयः सावधः, एवमग्रेऽपि बोध्यः । 'जाव. भूयाभिसंकणे' यावद् भूताभिशङ्कनं यावत्पदेन सक्रियः सोपक्लेशः आश्रयकरः, क्षपिकर एतेषां ग्रहणं भवतीति। 'से अपमत्वाविणए' स एप सप्तमकार: कोऽशस्तवाग्विनयः प्रदर्शितः । 'सेत्तं वा विण' स एप प्रकारद्वयेन वाग्विनयः कथित इति । अथ कायविनयदर्शनायाह-' से कितं कायविणए' अथ का स सात प्रकार का प्रशस्त बचन विनय है। 'से कितं अपसत्यवह चिणए' हे भदन्त ! अप्रशस्त वचन चिनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं 'अपसत्य बहविणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम! अप्रशस्त वचन विनय लात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे'पाधए सादज्जे जाव झूयाभिसंकणे' पापसहित वचन पोलना १ सावध वचन बोलना २ यावत जीवों को भय उत्पन्न हो ऐसे वचन बोलना ऐसे इन वचनों से निवृत्ति करना ये सय अप्रशस्त वचन बिलय है। यहां यावत् शब्द से 'सक्रियः लोपक्लेशा, आश्रवकरः, क्षपिकरः' इन पदों का ग्रहण हुआ है । ‘से तं वइविणए' इस प्रश. स्त वचन विनय और अप्रशस्त चचन विनय के कथन से वचन विनय का कथन पूर्ण हो जाता है । 'खे किं तं कायविणए' हे भदन्त ! काय विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'फायधिणए पहाना बस थयो छे. 'से तपसत्थवइविणए' मा सात मारना प्रशस्त क्यन विनय ४७ छे. 'से कि त अपसत्यवइविण' 8 अपन् અપ્રશસ્ત વચન વિનય કેટલા પ્રકારને કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है-'अप प्रत्थवइविणए स्वत्तविहे पण्णत्त', गौतम! मप्रशस्त वयन विनय सात प्रश्न ४ छे. 'त जहा' त मा प्रमाणे छे.'पावए सावज्जे जाव भूयामिसंकणे' ५५२डित क्यन मास १ सावध क्यन બાલવું ૨ યાવત્ છને ભય ઉત્પન્ન થાય તેવા વચન બોલવા આ સઘળો मप्रशस्त पयन विनय ४७स छे. महियां यावत्पथी 'सक्रियः सोक्लेशः, आस्त्रवकरः क्षपिकरः' मा पानी सड थय। छे. 'से तं वइविणए' मा પ્રશસ્ત વચનવિનય અને અપ્રશરત વચન વિનયન કથનથી વચન વિનયનું કથન સમાપ્ત થાય છે. __'से कि त कायविणए' 8 लगवन् यविनय ४८ रन न Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयट्रिका टीका २०२५ ७.७०१० आभ्यन्तरतपो निरूपणम् ४६५ कार्याविनयः ? उमर - ' कार्यनिणए दुबिहे पन्नचे' कार्याविनयो द्विविधः प्रज्ञप्तः । भेदद्वयमेव दर्शयति- 'तं जहा ' तद्यथा 'पसत्यकायनिणए य अपसस्थ कायचिणए य' मशरत्कायविनयथ अदास्वकाय विनयश्च । 'से किं तं पलत्थकायचिणए' अथ कः स प्रशस्तकायनिनचः ? इति मन्नः भगवानाह - 'पसत्थकाय विणए सत्तविहे पन्नत्ते' प्रशस्त कायविरयः सप्तविधः - सप्तमारकः प्रज्ञप्तः - कथित इति । 'तं जहा ' तद्यथा - 'आउच अपूर्ण' आयुक्तं गमनम् आ - सर्वतो भावेन युक्तम् उपयोगपूर्वकं यव गमनं गत्वागतिरूपं तत् अयुक्तं गमनम्, अथवा - आगुप्तगमनम् आगुप्तपुरुवन्धित्वेन जयचमपि आगुप्तमिति कथ्यते । 'आउल' ठाणं" आयुक्तम्- सोपयोगं स्थानम्(-स्थितिः साधाना स्थितिरित्यर्थ, 'आउच' निसीयणं' आयुक्तं निभीदनम्-उपवेशनम् 'आउत्तं तुयहणं' आयुक्तं त्वग्वर्तनम् समाहितमनस्तथा परिवर्तनयित्यर्थः । ' भाउत उल्लंघणं' आयुक्तमुल्लङ्घनम् उत्दुविहे पण्पसे' काय विनय दो प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे - 'पसत्यार्थविणए य' अप्पयस्थकार्याविणए य प्रशस्त कार्याविनय और अमरताय विनय 'से किं तं पसत्थकार्याविण' हे भदन्त ! प्रशस्तकाविनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'पत्थकाविणए सविहे पण्णत्ते' हे गौतम! प्रशस्त कार्याविनय सात प्रकार का दहा गया है । 'तं जहा' जैसे 'आउन्तं गमनं' घतना पूर्वक उपयोग से गमनागमन करना १ 'आउतं ठाणं' यातना पूर्वक उपयोग से ठहरना २ 'आउत निखीयणं' उपशेग सहित Fear से बैठना ३ 'आस' तुम्हणं' घतना पूर्वक करवट बदलना : 'आउत उल्लंघणं' उपयोग सहित यतना से द्वार आदि की अर्गला आदि का छे? आ प्रशना उत्तरमा अनुश्री है- 'कायविणए दुविहे पण्णत्ते' डे गौतम ! छायविनय मे अारने महेस हे 'त' जहा' ते या प्रमाये छे. 'पत्थकायविणए य अपसत्थकायविणए य' પ્રશસ્તકાય વિનય અને અપશइस डायविनय 'से कि त पमत्थकायविणर' हे लगवन् प्रशस्त अयविनय डेटा प्रशस्त खेल है ? ा प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री उडे छे - 'पत्थ कार्याविण सत्तदिहे पणते' से गौतम । प्रशस्त अथविनय सात प्रारना उडे हे 'त' जहा' ते या माये हे. 'आउ' गमणं' यतनापूर्व' उपयोगथी ४५२ २१व२ ५१वी १ 'आउन' ठाणं' यतनापूर्व ४- उपयोगथी उलु रहेवु २ 'आउत्त' निमीयण' उपयोग सहित यतनापूर्व मेसवु, 3 'आरत' तुग्रहणं' यतनापूर्व १२वट (एडमा ) महदवा ४ ' आउत्तं' उल्लंघणं' उपयोग पूर्व ० ५९ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भगवतीसूत्रे अचं लक्ष द्वारार्गलादेरिति । 'आउन पलंघणं' आयुक्तं मलङ्घनम् प्रकृष्टं लानं विस्तीर्णम् खातादेरिति मलङ्घनम् तच आयुक्तमुपयोगपूर्वकं भवेदिति । 'आउत्तं सञ्चिदियजोगजुजणया' आयुक्तं सर्वेन्द्रिययोग युञ्जनता-आयुक्त सोपयोगं सर्वेन्द्रिय योगानां सर्वेन्द्रियव्यापाराणा प्रयोग इत्यर्थः । 'सेत्तं पसत्थकायविणए' स एप सप्तरकारका प्रशस्तकायविनयः कथित इति । ‘से कि तं अपसस्थकायविणए' अथ का सोऽपशस्तकायविनयः ? इति मग्नः, भगवानाह'अपसत्थकायविणए सत्तविहे पनन्ते' अप्रशस्त कायविनयः सप्तविधःमज्ञप्तः 'तं जहा' त यथा 'अणाउत्तं गमणं' अनायुक्तं गमनम् उपयोगमन्तरेण गमनमित्यर्थः । 'जाव अणाउत्तं सबिदियजोगजुजणया' यावत् अनायुक्तं सर्वेन्द्रियव्यापारउल्लंघन करना ५ 'आउन्त पलंघणं' उपयोगसहित अतना पूर्वक विस्तीर्ण खड़े आदि का लांघना ६ 'आउत्तं सन्धिदियजोगजुंजणया' यतना पूर्वक समस्त इन्द्रियों को अपने अपने विषय है प्रवृत्त करना ७ 'से तपसत्यकायविणए' इस प्रकार से यह लव प्रशस्त काय विनय है 'आउत्त' शब्द का अर्थ सावधानता पूर्वक-अथवा उपयोग पूर्वक है। 'से किं तं अपलत्यकायविणए' हे भदन्त ! प्रशस्तकाय विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अपलत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'अणाउत्तं गमण' उपयोग पूर्वक गमना. गमन नहीं करना 'जाव अणाउत्तं सदियजोगजुंजणया' यावत्-विना उपयोग के समस्त इन्द्रियों को अपने २ विषयों में लगाना यतनासहित मारा विगरेनुसनु न ४२.५ 'आउत्त पलंघणं' उपयोगपूर यतनाथी भोट मा विगेरेनु Geer ४२.६ 'आउत्त सव्विंदियजोगजुंजणया' यतनापूर्व सजी धन्द्रियान पातपाताना विषयमा प्रवृत्ति ४२११वी. ७ 'सेत्त पसस्थकायविणए' मा शत मा तमाम प्रशस्त यविनय अवाय छे. 'आउत्त' . शहने। म सावधानतापूर्व-मया 6पये पूर्व से प्रभाव छ. 'से कि त अपसत्थकायविणए' 3 सावन અપ્રશસ્તકાય વિનય કેટલા પ્રકારને કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ -'अपसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते' गौतम! मप्रश२४ाय विनय सात रन। ४ छे 'तजहा' ते मा प्रमाणे थे. 'अणाउत्त गमणं' पयागपूर्व अव२०४१२ न ४२वी. 'जाव अणाउत्त सव्वे दियजोगजुजणया' થાવત્ ઉપગ વિના સઘળી ઈન્દ્રિયોને પિતપોતાના વિષયમાં લગાવવી. Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयञ्चन्द्रिका ढोका श०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतवो निरूपणम् વૈ प्रयोग इति । अत्र यावत्पदेन अनायुक्तं स्थानम् अनायुक्त निषीदनम् अनायुक्तं स्वग्वर्तनम् अनायुक्तमुल्लङ्घनम् अनायुक्तं प्रलङ्घनमित्यतेषां ग्रहणं भवति तथा च अनायुक्तगमनादिभेदेन अप्रशस्तकाय विनयः सप्तविधो भवतीति । 'से च' अपसत्थकाविणर' स एप अपशस्तकाय विनयो दर्शित इति । 'से त्तं कायविए' स एष प्रशस्तामशरतभेदेन कायविनयो निरूपित इति । विनयान्तर्गतं लोकोपचार विनयं दर्शयितुमाह- 'से कि ते' इत्यादि. 'से किं तं लोगोवयारविणए' अथ कः स लोकोपचार विनयः ? इति प्रश्नः भगवानाह - ' लोगोवयारविre सत्तविहे पन्नत्ते' लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, लोकानामुपचारो व्यवहारः तद्रूपो यो विनयः स लोकोपचारविनयः स सप्तधा भिद्यते । सप्तभेदमेव यहां पावरपद ले - 'अनायुक्त स्थानम्, अनायुक्त निषीदनम्, अनायुक्त' स्वग्र वर्तनम्, अनायुक्तमुल्लङ्घनम्, अनायुक्त प्रलङ्घनम्' इन पर्दों का ग्रहण हुआ है । इत्यादि काया की अनुपयोग बिना - उपयोग की प्रवृत्तियों को रोकना अप्रशस्तकाय विनय है इस प्रकार अनायुक्त गमनादि के भेद से अप्रशस्तकाय विनय सात प्रकार का कहा गया है । 'सेतं कायचिणए' प्रशस्त अप्रशस्तकायविनय के भेद से कायविनय का पूर्ण कथन यहां तक किया । अब विनयान्तर्गत लोकोपचार विनय का कथन किया जाता है - 'से किं तं लोगोवयारविणए' हे भदन्त ! लोकोपचार विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'लोगोचवारविणए सत्तविहे पण्णत्ते' लोकोपचार विनय सात प्रकार का कहा गया है लोकों का उपचार-व्यवहार रूप विनय है वह लोकोपचार चिनय है । 'तं जहा ' लोकोपचार विनय के सात भेद 5 गडियां यावत्यद्दथी ‘अनायुक्त स्थानम्, अनायुक्तम् निषोदनम्, अनायुक्तम् त्वग्वर्तनम् अनायुक्तमुल्लंघनम् अनायुक्तं प्रल्लवनम्' मा यही थड उराया है, या रीते અનાયુક્તગમન વિગેરેના ભેદથી પ્રશસ્તકાય વિનય સાત પ્રકારના કહેલ છે. 'सेत कायविणए' मा रीते अशस्त भने अप्रशस्तना लेहथी अयविनयतु સ્વરૂપ કહેલ છે. હૅવે વિનયની આ તર્યંત લેાકેાપચાર વિનયનુ` કથન કરવામાં આવે છે. 'से कि त लोगोवारविणर' से लगवन् से अपचार विनय डेटला अारने। उडेस छे? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छे - 'लो गोवयार विणए सत्तविदे पण्णत्ते' सोपियार विनय सात अगर उडेल छे. 'त' जहा' ते मा प्रभावे Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ४६८ भगवतीसूत्र दर्शयति 'तजा तथथा-'५०मालवत्तिय' अभ्यासत्तिसार अध्यासो गुरुप्रभृ. तीनां समीपम् तत्र वृत्तिर्वतन मिल्यभ्यासवृनिकम् । परन्छ वाणुवतिय' परच्छ. न्दानुवृत्तिकम् । 'कन्ज' कार्यहेतुः, कार्यहेतु ज्ञानादियायनिमिन भक्तादिदानरूप इति । 'कयपडिकइया' कृतमतिकनिवा, इमे मा पूर्व ज्ञानादि शिक्षितवन्तोऽन एभ्यो भक्तानयनादिरूएसेनाकरणं मम कर्तव्यं वसते, इति बुद्धया यो विनयः स कृतमविकृतिवाख्यो लोकोपचारविनयः कथ्यते इति, यद्वासाम्प्रतमहमासनभक्तादिदानेन गुरुन् प्रसादयिष्यामि तदाने इमे कृतस्य सेवाकार्यस्थ प्रतिकृतिभावेन मम श्रुतं दास्यन्तीति बुद्धया विनयकरणमिति । 'अत्त गवेसणया' आर्तगवेपणता आतस्य रोगायभिमूतस्य साधर्मियाय गावेपणं भैप ज्यादिदानार्थमन्वेषणम् आगवेषणम् तस्य भावः आर्तनक्षेपणनेदि । 'देसइस प्रकार से है-'अभासवन्तियं१' गुरु आदि लहापुरुषों के लमीप रहना १, 'परच्छंदाणुयत्तियर' गुरू आदि महापुरुषों की इच्छा के अनुसार चलना २ 'कज्जोउं३' ज्ञानादि कार्य के निमित्त माहार आदि की व्यवस्था करना ३ 'कयपडिकइया४' किये हुए उपकार का बदला देना अर्थात् इन्होंने मुझे पहिले ज्ञानादि का शिक्षण दिया है, अतः इनकी आहार आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिये-इस प्रकार की बुद्धि से जो विनय किया जाता है वह कृतप्रतिकृतिता रूप लोकोपकार विनय है ४ । यहा सें इस समय यदि आसन भक्त आदि माम छारा गुरु को प्रसन्न करलूंगा-तो ये आगे मेरे द्वारा किये गये रचा मार्थ के पदले में मुझे शुन पढा देगे इस बुद्धि से जो उनकी सेवा करना है वह भी लोकोपचार विनय है। 'अत्तगवेक्षणशा' रोमादिले आक्रान्त साधर्मिजन की भैषज्यादि देने के निमित्त प्रक्षेपणा करना 'देशकाल. छ -'आभासवत्तियं' शु३ विगैरे भापानी सभी५ २७दु. १ 'परच्छंदाणुः वत्तिय' गु३ विगेरे भा५३धानी २छानुसार यास. २ 'इज्जदेउ' ज्ञान विगेरे ४य निमित्त मासार विशयनी व्यवस्था ४२वी. 3 'कयपडिमइया' ४रेता ઉપકારનો બદલે વાળ અર્થાત્ આમણે મને પહેલા જ્ઞાનવિગેરેનું શિક્ષણ આપેલ છે, તેથી આહાર વિગેરે દ્વારા તેઓની સેવા કરવી જોઈએ. આ પ્રકારના વિચારથી જે વિનય કરવામાં આવે છે, તે કૃતપ્રતિકૃતિતા રૂપ લકેપચાર વિનય છે કે અથવા આ સમયે હું ગુરૂને આસન-ભકત આપીને ગુરૂને પ્રસન્ન કરી લઉ તે આગળ ઉપર મેં કરેલ સેવા કાર્યના બદલામાં મને શ્રતને અભ્યાસ કરાવશે આ બુદ્ધિથી તેઓની જે સેવા કરવામાં આવે छे, ते ५ वापया२ विनय उपाय छे. 'अत्तगवेसणया' । विगैरेथा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 6 4 प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ २०१० आभ्यन्तरतपो निरुपण સવ काळण्णया' देशकालज्ञता प्रस्तावज्ञता अवसरोचितार्थसंपादनमित्यर्थ' | 'सन्वत्थेसु अपडलोमया' सर्वार्थेषु अमतिलोमता सर्वमयोजनेषु आराध्य गुर्वादेः सेवार्थेषु आनुकूल्यमिति । 'से त्तं लोगोवयारविणर' स एष लोकोपचारविनयः । ' से ' fore' स एष सतप्रकारको विनय निरूपित इति । अथ वैयावृत्थं दर्शयितुमाह 'से. किं तं वैयावच्चे' अथ किं तदुद्वैयावृत्यम् ? भगवानाह - 'वेयाबच्चे दस विदे पण्णत्ते' वैयावृत्यं दशविधं मज्ञप्तम् ' तं जहा ' तद्यथा - 'श्रायारियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्पम् आचार्यस्य सुश्रूषाकरणम् 'उवज्झायचे यावच्चे' उपाध्यायस्य वैयावृत्यम् ' थेरवेयावच्चे' स्थविरवैयावृत्यम् स्थविरपर्यायेण ret' अवसरोचित प्रवृत्ति करना 'सम्वत्थेसु अपडिलोमया' आराध्वगुरु आदि के समस्त कार्यों में अवसर के अनुसार अनुकूल रूप से प्रवृत्ति करना अर्थात् गुरु आदि पूज्यजनों की सेवा आदि कार्यों में उनके अनुकूल रहकर प्रवृत्ति करना 'से से लोकोवचार विणए' यह सब लोकोपचार विनय है । 'से तं' बिगर' इस प्रकार से यहां लक विनय का कथन समाप्त हुआ । अब वैयावृत्य के सम्बन्ध में कथन किया जाता है- 'से किं तं वेद्यावच्चे' हे भदन्त ! वैधाहृत्य कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'वेधावच्चे इसविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! वैयावृत्त्य दश प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा ' 'जैसे- 'आयरिय वेयादच्चे' आचार्य की शुश्रूषा करने रूप वैयावृष १ 'उचज्ज्ञायदेबच्चे' उपाध्याय का वैयावृत्त्यर 'थेर नेयावच्चे' स्थविर वयोवृद्ध साधु ५ 'देसकालन्नया' अवसरने योग्य प्रवृत्ति रखी है 'सव्वत्थेषु अपहिलोमया' आराध्य गु३ વિગેરેઆના સઘળા કાર્યાંમાં અવસર પ્રમાણે અનુકૂળ પણાથી પ્રવૃત્તિ કરવી અર્થાત્ ગુરૂ વિગેરે પૂજ્યેાની સેવા વિગેરે કાર્યોમાં તેને અનુકૂળ રહીને प्रवृत्ति रखी. 'से तं' दिए' मा रीते सहि सुधी विनयनुं धन रेस हे. हवे वैयावृत्या विषयभां उथन उदवासां गावे छे 'से किं' त' वैयावच्चे' હું ભગવન નૈયાનૃત્યના કેટલા પ્રકાર કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छे }–“वेयादच्चे दसविद्दे पण्णत्ते' हे गौतम! वैयावृत्य इस अभारतुं उस थे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे. 'आयरियवेयावच्चे' मायार्यनी सेवा हुम्वा ३५ वैयावृत्य १ ‘उवज्झाय वेयावच्चे' स्थविर - वये वृद्ध साधुनी अथवा दीक्षापर्यायथी भोटा साधुनी वैयावृत्य २ 'थेरवेयावच्चे' स्थविर वैयावृत्य' એટલે કે સ્થવિર–ચેવૃદ્ધ સાધુની અથવા દીક્ષાપર્યાયથી જયેષ્ઠની વૈયાવૃત્ય ૩ दुःखीत साधर्भीयाने भोषध विगेरे माथवानुं Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ७० श्रुतादिना वा तस्य शुश्रूपाकरणम् | 'तत्रस्सि वेयावच्चे' तपस्वि वैयावृत्त्यम्तपस्वी - अष्टमक्षकादिः तस्य वैयावृत्यम् । 'गिलाणवे यावच्चे' ग्लानस्यरोगाच भिभूतस्य वैयावृत्त्यम् । 'सेहवेयावच्चे' शैक्षस्य नवदीक्षित शिष्यस्य वैयावृश्यम् | 'कुलवेयावच्चे' कुलस्य - एकाचार्य शिष्य परिवारस्य वैयावृत्त्यम् । 'गणवेयावच्चे गणस्य परस्परसापेक्षा नेकाचार्यसाधु समुदायस्य वैयावृत्यम् । 'संघ वेयावच्चे' संघस्य - चतुर्विधस्य वैयावृत्यस् । 'साइम्मियवेयावच्चे' साधर्मिकस्यएकसामाचारिकस्य वैयावृत्त्यम् ' से तं' वेयावच्चे' तदेतद् वैयावृत्त्यम् । 'से कि तं सज्झाए' अथ कः स स्वाध्यायः सूत्रस्य मूलपाठपठनमिति प्रश्नः, भगवानाह 'सज्झाए पंचविहे पनते' स्वाध्यायः पञ्चविधः मज्ञप्तः । 'तं जहां' तद्यथा- 'वाय का अथवा दीक्षा पर्याय से ज्येष्ठ साधु का वैयावृत्य ३ 'तवस्सि वेद्यावच्चे' अट्टम आदि तपस्या करने वाले तपस्वी का वैयावृत्य ४ 'गिलाणवेयावच्चे' रोगादि से युक्त साधु का वैयावृत्य५ 'सेह वेयापच्चे' नव दीक्षित शिष्य का वैयावृच्य ६ 'कुलवेयावच्चे' एक आचार्य के परिवाररूप शिष्यजनों का वैयावृत्य ७ 'गणवेयावच्चे' परस्पर सापेक्ष अनेक आचार्य के साधु समुदाय का वैयावृत्त्य ८ 'संघवेयावच्चे' चतुर्विध संघ का वैयावृत्त्य ९ 'साहम्मियवेयावच्चे' एकसी सामाचारी वाले साधुओं का वैयावृत्य इस प्रकार से 'सेत्तं वेद्यावच्चे' यह सव वैयावृत्य है । 'से किं तं सज्झाए' हे भदन्त ! स्वाध्याय कितने प्रकार का है ? सूत्रपाठ का पठनादि करना इसका नाम स्वाध्याय है । उत्तर में सुश्री कहते हैं- 'सज्झ 'ए पंचविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! स्वा 'तवस्सिवेयावच्चे' गठ्ठम विगेरे हरवावाणा तपस्वीनी वैयावृत्र्त्य ४ 'गिलाण वैयावच्चे' रोगवाणा साधुनी वैयावृत्यय 'सेहवेयावच्चे' नवीन दीक्षावाणा शिष्यनी वैयावृत्य ६ 'कुलवेयावच्चे' ४ मायार्यना परिवार ३५ शिष्योनी वैयावृत्य ७ 'गणवेयावच्चे' परस्पर सापेक्ष गने आयार्यना साधुसभुद्दायनी वैयावृत्य ८ 'संघवेयावच्चे' यार प्रहारना सधनी वैयावृत्य & 'साहम्मियवेयावच्चे' सरमी साभायारीवाणा साधुयोनी वैयावृत्य मा रीते 'से त्त' वैयावच्चे' આ સઘળું વૈયાવૃત્યનું સ્વરૂપ કહેલ છે. 'से 'कि त सझाए' हे भगवन् स्वाध्याय डेटा अरना उस छे ? સૂત્રના મૂળપાઠને અભ્યાસ કરા તેનું નામ સ્વાધ્યાય છે. આ उत्तरभां अनुश्री हे छे - ' सज्ज्ञाए पंचविहे पण्णत्ते' हे गौतम! स्वाध्याय પ્રશ્નના Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ खू०११आभ्यन्तरतपसः पञ्चमषष्ठभेदनि० ४७१ णा' वाचना-अध्ययनं गुरुमुखात् शास्त्राणां श्रवणम् १ । 'पडिपुच्छणा' पतिपृच्छना विस्मृतार्थस्य प्रश्नकरणम् । 'परियट्टणा' पुनरावर्तनम्-अधीतस्य शास्त्रस्य पुनः पुनरभ्यासकरणम् । 'अणुप्पेहा' अनुप्रेक्षा चिन्तनम् । 'धम्मकहा' धर्म कथा । 'सेत्तं सज्झाए' स एष पञ्चप्रकारका स्वाध्यायः कथित इति ॥१०॥ पूर्वमाभ्यन्तरतपसश्चत्वारो भेदाः प्ररूपिताः सास्मतं पञ्चमषष्ठो भेदो प्ररूप्यते 'से किं तं झाणे' इत्यादि । मूलम्-से किं तं झाणे ? झाणे चउबिहे पन्नत्ते तं जहाअट्टे झाणे १, रोदे झाणेर, धस्स झाणे३, सुने झाणे४। अटे झाणे चउविहे पन्नत्ते अमणुन्नसंपयोगलंपउत्ते तस्स विप्पयोगसाइसमन्नागए यावि भवइ १, मणुन्नसंपयोगसंपत्ते तस्ल अविप्पयोगलइसमन्नागए यावि भवइ२, आरंक संपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसइसमन्नागए यावि भव३३, परिउझुसिय कामभोगसंपयोगसंपउत्ते तस्स अप्पियोग लति समन्नागए यावि भवइ४। अस्सणं झाणस्स बत्तारि लक्खणा पन्नत्ता तं जहाकंदणया१, सोयणया२, तिप्पणया३, परिदेवणया४ (१) रोदे झाणे घउविहे पन्नत्ते तं जहा-हिंसाणुबंधी १, मोलाणुबंधी२, तेयाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है 'त जहा' जैसे-'चायणा' गुरु के मुख से शास्त्रों का सुनना १ 'पडिपुच्छणा' प्रतिपृच्छना-भले गये विषय को गुरु से पूछना 'परियट्टया' परिवर्तना-पढे हुए शास्त्र का पार थार अभ्यास करला 'अणुप्पेहा' अनुप्रेक्षा-पठित विषयका बार बार चिन्तयन करना 'धम्मकहा' और धर्मकथा 'सेत्तं सज्झाए' इस प्रकार से यह पांच प्रकार का स्वाध्याय है ॥१०॥ पाय प्रश्न छ. त जहा' ते मी प्रमाणे -'वायणा' २३ मथा शास्त्रो सinmal १ 'पडिपुच्छना' प्रतिरछना भूखता विषयने शु३२ ५७३। 'परियट्टणा' पुनरावत न-सा शास्त्री पार पा२ २५41स ४२वी. 'अणुप्पेहा' अनुत्प्रेक्षा-सऐसा विषय वा२ वा२ यितन ४२७ 'धम्मकहा' मने यम था 'से त्त सझाए' मा शते ५ पाय प्रार। स्वाध्याय ४९स छे ॥१० १०॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ भगवतीस्ने णुबंधी३, सारक्खणाणुबंधीट, रोदलणं झाणस्स चत्तारि लकखणा पनन्ता तं जहा-ओलन्नदोले १, बहुलदोले२, अण्णाजदोसे३, आमरणांतदोले४ (२)। धस्सझाणे चडब्बिहे चउप्पडोयारे पन्नो तं जहा-आगाविचए१, अवायविचए२, विवागविचए३, संठाणविचए। धम्मस्व णं झांणस्त चत्तारि लक्ख णा पन्नता तं जहा-आणाई, निलगाई२, सुत्तई ३, ओगाहई४ । धमलणं झाणशरद चत्तारि आलंबणा पन्नता तं जहा वारणार, पडि पुच्छणार, परियाणा३, धमकहा४। धम्मस्त णं झाणरूस वसरि अणुप्पेहाओ, तं जहा-एमन्तातुप्पेहा१, अणि चाणुप्पेहार, अलणाणुप्पेहा३, संसाराणुहा४ (३)। सुक्के झाणे चउठिवहे जउप्पडोयारे पन्नाचे तं जहा- हुत्तवियकसवियारि१, एगंतवियअविचारि२, सुहमकिरिय अलियहि३, समोच्छिन्ने किरिय अप्पडिवाइ४। सुलणं झाणल चत्तारि लक्खणा पन्नता तं जहा-खंती१, मुसी२, अज्जवे३, महदे४। सुक्कस्तण झाणस्य चत्तारि आलंबणा पन्लत्ता तं जहा-अवहे१, अलंमोहे२, विवे३, बिउसमे४। सुक्कस्ल णं झाणल्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नताओ तं जहा-अणंतवत्तियाणुप्पेहा१, विपरिणामाणुप्पेहार, असुभाणुप्पेहा३, अनायाणुप्पेहा४(४)। सेतं झाणे। से किं तं विउलगे, विउलग्गे दुविहे पन्नत्ते तं जहादव्वविउलग्गे य भावविउसग्गे य। से किं तं दवविउसग्गे दवबिउलग्गे चउबिहे पन्लन्चे तं जहा-गणविउसग्गे सरीरविउसग्गे उबहिविउसगे सरापाणविउतरंगे । हो तं दध्वविउसग्गे। से किं तं भावविउलो भापक्डिलग्गे तिविहे पन्नते, तं जहाकसायविउसग्गे१, संसारविउसग्गेर, कम्मविउलंग्गेई । से किं Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयरतिका का श०२५ उ.७ खू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ७३ तं कलाविचार करतायविउलग्गे चउबिहे पन्नते, तं जहा कोहबिउगोरे, साविउलगे २, मायाविउलग्गे३, लोमविउसम्गेट कसायनिउसज्ने। से किं ले संसारविउलगे? संसानिये बडबिहे एन्नते तं जहा-लेरइयसंसारविडलग्न १, साद देव संतामविउसनेट से संसारबिउसगे। सें किं कम्पनियो , काराविउलग्गे अदविहे पन्नले तं जहा जाणारी माविश्गे हाच अंतराइय कविउमनग्गे से तंगविडसनोले से सावविउलगे लेतं अभितरए तो। वे सने सेवं संत न्ति सू० ११॥ जवी ने साए पतसो उद्देलो लमत्तो ॥२५-७॥ पा-१५ मि तद् ध्यानम् ध्यान चतुर्विध प्रज्ञप्तस् तद्यथा-आतं ध्यानम् १, रौद्रं ध्यानम् २, धर्म ध्यानम् ३, शुक्लं ध्यानम् ४ । आत्त ध्यानं चतुविध प्रज्ञप्स-अननोज्ञसंपयोगसंप्रयुक्त स्वस्य विभयोगसत्समन्वागतश्चापि भवति १, सोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्तरतस्याविप्रयोगसत्समन्वागतचापि भवति २, आतङ्कमभयोगसंपयुक्तस्तस्य विश्त्रयोगसत् समन्वागतश्चापि भवति ३, परिसेवितकामसोगसंयोगसंयुक्तहस्याविषयोगसत् समन्वागतश्चापि भवति ४ । आत. स्थ खलु मानद पवारि लक्षपानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'क्रन्दनता१ शोचनवार तेधनता, परिजना । शैई धानम् चतुर्विध प्रज्ञप्तम् तयथा-हिंसानुबन्धि १, मृषानुपर, स्वानुवन्धि३, संक्षणानुवन्धि ४ । रौद्रस्ए खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि मज्ञप्ताभितधमा वसन्नदोपः१, बहुलदोपा२, अज्ञानदोपः३, आमरणान्तदोपः ४ । पसे ध्यान चतुर्विधं चतुष्पल्यवतारं प्राप्तम् लघमा-आज्ञा विषयः१, अपारनिचय:२, विषाकरिचयः३, संस्थानचिचया४, धर्मस्य खेल चत्वारि लक्षगान यज्ञपतानि, तघथा-आज्ञारुचि:१, निसर्गरुचिः२, सूत्ररुचिाई, अदबाढविः । धर्मस्य खल्ल ध्यानस्य चत्वारि आलम्बनानि प्रज्ञप्तानि, तधया वाचना, परिपृच्छना२, परिवाना३, धर्मशा ४ । धर्मस्य खलु ध्यानस्थ चत. स्रोऽबुप्रेक्षाः अज्ञाः सद्यथा-एकत्वानुप्रेक्षा १, अनित्यानुपेक्षा२, अशरणाजप्रेक्षा३, संपारातुमेक्षा । शुक्लं ध्यानं चतुर्विध चतुष्प्रत्यक्तारं भज्ञप्तन तथा पृथक्लवितपिचारिस, एकलवितर्काविचारित, अमक्रियानिवृत्ति३, समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपात ४ । शुक्लक्ष्य खलु ध्यनरप चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शान्तिः१, सुनिता२, मार्जनम् .३, माजेंदम् ४ । शुक्लस्य खलु ध्यानस्य अ०६० Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GP भगवती " चत्वारि आलम्वनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अन्यथम् १, असंमोह:२, विवेकः ३, व्युत्सर्गः ४ । शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अनन्तवृत्तित्वानुप्रेक्षा १, विपरिणममानानुप्रेक्षा २ अशुभानुप्रेक्षा २, अपायानुक्षा ४, देवद् ध्यानम् । अथ कः स व्युत्सर्गः व्युत्सर्गो द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - द्रव्यव्युत्सर्गश्च १, भावव्युत्सर्गश्वर, अथ कः स द्रव्यव्युत्सर्गः, द्रव्यन्युत्सर्गसतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - गणन्युम्सर्ग १, शरीरव्युत्सर्गः २, उपधिव्युत्सर्गः ३, भक्तपानव्युत्सर्गः ४, स एष द्रव्यव्युत्सर्गः । अथ का स भाव्युत्सर्गः २, भावव्युत्सर्गस्त्रिविधः घज्ञसः तद्यथा - कपायन्युत्सर्गः १, संसारव्युत्सर्गः २, कर्मन्युत्सर्गः ३ । अथ कः स कपायन्युत्सर्गः कपायच्युत्सर्गश्चतुर्विधः मज्ञतः, तद्यथा - क्रोधच्युत्सर्गः १, मानव्युत्सर्गः २ मायान्युत्सर्गः ३, लोभव्युत्सर्गः । स एप कपायन्युत्सर्गः । अथ कः संसारव्युत्सर्गः, संसारव्युत्सर्गश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - नैरयिकसंसारव्युत्सर्गः १, यावदेवसंसारव्युत्सर्गः १, । अथ कः स कर्मव्युत्सर्गः, कर्मन्युत्सर्गेऽष्टविधः प्रज्ञप्तः तद्यथाज्ञानावरणीय कर्मव्युत्सर्गः १, यावत् अन्तरायकर्मन्युत्सर्गः ८ । स एष कर्मव्यु - सर्गः । स एष भावन्युत्सर्गः । तदेवमाभ्यन्तरं तपः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ||०११॥ इति पञ्चनिशतितमश के सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥२५-७॥ टीका - 'से किं तं झाणे' अथ किं तत् ध्यानम् ध्यानं कतिविधं भवतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'झाणे' इत्यादि, 'झाणे चउन्त्रि पन्नत्ते ' ध्यानं चतुर्विधं पूर्व सूत्र में आभ्यन्तर तप के चार भेद प्रदर्शित किये गये हैं, भय यहां आभ्यन्तर तप का पांचवां और छठा भेद ध्यान और व्युरसर्ग है इनकी प्ररूपणा की जाती है-'ले किं तं झाणे' इत्यादि । टीकार्य - 'से किं तं झाणे' हे भदन्त ! ध्यान कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'झाणे चत्रि पण्णत्ते' हे गौतम! ध्यान चार આની પહેલાના સૂત્રમાં આભ્યન્તર તપના ચાર ભેઢા કહેવામાં આવ્યા છે. હવે અહિયાં આભ્યન્તર તપને પાંચમે અને છઠ્ઠો ભેદ જે ધ્યાન અને व्युत्सर्ग छे. तेनुं स्थन ४२वामां आवे छे. 'से किं त' झाणे' इत्यादि टीअर्थ–'से कि त' झाणे' हे भगवन् ध्यान सा प्रहार हे छे ? प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीने हे छे है- 'झाणे चउव्वि पण्णत्ते' हे गौतम! ध्यान यार प्रहारनु आहेस छे, 'त' जहा' ते मा प्रभा Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्रिका ठीका श०२५ उ.७ ०११ भ्यानस्वरूपनिरूपणम् प्रज्ञप्तम्, मानस क्रियारूपम् चिन्नापरपर्यायं ध्यानं तच्चतुर्विधं भवतीति भावः । चातुर्विध्यमेव दर्शयति सूत्रकार:- 'वं जहा ' इत्यादिना, 'तं जहा ' तद्यथा'अट्ठे झा' अतिध्यानम् १, 'रोदें झाणे' रौद्रं ध्यानम्र, 'धम्मे झाणे' धर्मध्यानम् ३, 'मुके झाणे' शुक्लं ध्यानम् ४, तत्र 'अड्डे झाणे चउन्हे पन्नत्ते' तेषु - चतुर्विधध्यानेषु मध्ये यत् प्रथममार्त्तध्यानं तत् चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । 'तं जहा ' तद्यथा - 'अमणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसति समन्नागए या भव' अमनोज्ञः अनिष्टो यः शब्दादि विषय स्तस्य यः संप्रयोगः सम्बन्ध स्तेनानभिलपित विपयसम्बन्धेन सम्प्रयुक्तः सम्बद्धो यः सोऽमनोज्ञसंपयोग · संप्रयुक्त स्तादृशः सन् तस्यानभिलपितस्य शब्दादे विषयस्य विमयोग स्मृतिसमन्वगतश्चापि भवति विप्रयोगविषयक चिन्तानुगतः स्यात् च अपि अव्ययौ अग्रिमवाक्यापेक्षया समुच्च पार्थको ज्ञातव्याविति, असौ खलु धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् आध्यानं स्यात् अनिष्टवस्तुनः सम्बन्धे सति तस्याविप्रयोगानुचिन्वनं प्रथममार्त्तध्यानम् भवतीति भावः १, 'मणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स अविष्ओग सति समन्ना गए यानि भइ मनोज्ञोऽमिळपितो यो धनादिविषयः प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे- 'अट्टे झाणे रोद्दे झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे' आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल. ध्यान ध्यान मानस क्रिया रूप होता है। इसका दूसरा नाम चिन्तना है । 'अट्ठे झाणेच पण्णत्ते' इनमें आत्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है । 'लं जहा' जैसे- 'अमणुन्न संप ओग संपत्ते तस्स विष्वओग सति समन्नागए यावि भवह' १ - अमनोज्ञ शब्दादि रूप विषय के सम्बन्ध होने पर - अनभिलषित पदार्थ के सम्बन्ध होने पर उसके दूर होने का वियोग हो जाने का बार बार विचार करना यह प्रथम आर्त्तध्यान है । 'मनपसंपत्ते तस्स अदिप्पओगलति समन्नागए - यावि भवह' २- मनोज्ञ अभिलषित धनादि के संपर्क से सम्बन्धित मनुष्य छे- 'अट्टे ज्ञाणे रोद्दे झाणे धम्मे ज्ञाणे सुक्के झाणे' यात ध्यानी, रौद्रध्यानर, धर्म ધ્યાન૩, અને શુકલધ્યાનજ ધ્યાન માનસ ક્રિયા રૂપ હાય છે, એનું ખીજુ नाम चिन्तन छे. 'थट्टे झणे चउव्विहे पण्णत्ते' मा ध्यान यार प्रहार स छे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे - ' अमणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओग सति समन्नाग यावि भवइ' अमनोज्ञ शब्दानिय विषयना संबंध थाय ત્યારે ન ઇચ્છેલા પદાર્થના સંબધ થાય ત્યારે તેનાથી દૂર થવાના વારવાર विचार रखे। ते चहेतु' मातध्यान हे १ 'मणुन्नसंपओगसंपत्ते तस्स्र अविओमसति समन्नागए भवइ' भनेज्ञ अलिषित धनाहिना संपथी सम Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ भगव तस्य यः संयोगः संपर्क स्तेन संपयुक्त:-सम्बद्धः सन् गनोशाय कम कामिन्यादीष्टपदार्थादेरदिप्रयोग स्मृतिमन्त्रागवयापि श्रति स्वादिति मनोज्ञ पदार्थ सधैव भावविचिन्तयैवानुगतो भवेत् कदाचिदपि तस्य विरह नेच्छतीति तदेतद् द्वितीयमासध्यानयितिर, 'आर्यकसंपभोग संपत्ते तस्स विष्पभोग सति समयागए यानि भन्छ' आड संप्रयोग संयुक्तः तस्य दिप्रयोग स्मृतिमन्यागतथापि भाति आउको रोगादि तस्य संपर्के सवि तद्विमोक्षणानुचिन्तनं तृतीयमार्त्तध्यानमिति भावः ३ । 'परिज्युसियकामभोगसंपयोगसंपत्ते तस्स अभियोग सहि समन्नापए यानि भव' परिसेवितः प्रीतो वा यः कामभोगः शव्दादिविषयभोगः तरय संयोगसंयुक्तः - संबद्धः तस्य कामभोगादेरनिम योगस्मृतिसमन्वानस्यापि भवति त्वादिति चतुर्थमात ध्यानमिति ४ । 'अस्स णं झाणस्य चचारि लक्ष्मणा पद्यना' भार्त्त - का जो मनोज्ञ शब्दादि इष्ट पदार्थ के अवियोग का जो वारपार चिन्तवन है - उसका मुझसे कभी भी फिरह न हो ऐसा जो ध्यान है वह आध्यान का द्वितीय भेद है । इस द्वितीय आध्यान जाला व्यक्ति कभी भी इष्ट पदार्थ के विरह को नहीं चाहता है । 'जावंसंपओग संपते तर ओग लतिसमन्नागए यानि भव' आत-रोग- के संपर्क होने पर जो उस के वियोग का पारम्पार चिन्तन करना होता है यह भक्तिव्यान का तृतीय भेद है । 'परिज्छु शिवकान्संप ओगसंपते तत्र अविपओग सति समन्नागर यानि परि सेfor real for शब्दादि रूप विषयभोगों की नियुकि-वियोग होने का बार २ चिन्तन करना यह अतिध्यान का चतुर्थ भेद है । * अट्ठस्स णं झाणरसवत्सारि लक्खणा पण्णसा' इस अतिव्याम के चार ધવાળા માણસને મનાજ્ઞ શબ્દ વિગેરેના વિયાગ ન થવા રૂપ ઇષ્ટ પદાર્થના વિચાગ ન થવા સાઁબધી વારવાર જે ચિંતન થાય છે, તેને મને કાઈપણુ સમયે વિચેાગ ન થાય એવું જે ધ્યાન છે, તે આ ધ્યાનને! મીને ભેટ છે, આ બીજા આધ્યાનવાળી વ્યકિત કાઈપણ વખતે ઈષ્ટ પદાના વિચાગ च्छिती नथी 'आयसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसतिसमन्नागए यादि भवई' આત કરેાગના સંપર્ક થાય ત્યારે અર્થાત્ ાઈ રોગ થાય ત્યારે તેના વિચાગના અર્થાત્ તેમાંચી છૂટવાનેા વારવાર જે વિચાર ચિંતન કરવુ', તે આત ध्याननो त्रीले ले छे. परिज्झसियकामभोगसंपओगसपत्ते तस्स अविप्पओग 'सतिसमन्नागए यावि भवइ' अत्यंत सेवेला प्रिय सेवा शाहि विषय लोगो વિચાગ ન થાય તે પ્રમાણે વારવાર ચિન્તન કરવું આ મા ધ્યાનના ચાથા Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७७ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ४७७ स्य खल्लु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि वज्ञप्तालि 'तं जहा' तया-'कंदनवा' क्रन्दनता-क्रन्दनस् गहना शब्देन रोदनम्, 'सोचणया' शोचनता दीनतेत्यर्थः, 'तिप्पणया' तेपलता-अश्रुविमोचन परिदेवणथा' परिदेवनता-पुनः पुनः क्लिष्टभाषणता मिलाप इति भावः, आतंऽपानं समभेदं निरूप्य रौद्रव्याननिरूपणाय पाह-शेदे झाणे चविहे पन्नत्ते' रौद्रं गानं चतुर्विध प्रज्ञप्तस् त जहा' सधथा 'हिंसाशुबंधी' हिंसानुवन्धि, हिलाम्-प्राणिनां वधबन्धनादिभिः प्रकार। पीडामनुध्नाति-सततमवृत्तां पीडां करोति इत्येवं शीलं यद् प्रणिधानं हिंसानु बन्धो वा यत्रास्ति तद् हिंसानुबन्धि शैद्रध्यानमिति प्रथमम् १ । लक्षण कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे-'कंदनया' क्रन्दनता जोर जोर से रोना लोणया शोचनता-दीनता ददर्शित कारला तिप्पणया लेप. नता-अनुवहान्दार परिदेवषया' परिदेवमाता-पार कर पिलाप करना কন্তু মৃঙ্কা হু হু দলছু গা গুলাবাল ফান । হীহ্মান্ধ चार प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जैसे 'दिलाणुचंधी' प्राणियों को घध बन्धनादि प्रकारों से जो पीडा को उत्पन्न करने का विचार करता रहता है उन्हें निरन्तर पीडित करने का ही उपाय करता रहता है ऐसे प्राणी का जो ध्यान है-विचार धारा है अथका जस ओर लगी हुई चित्त की एकाग्रता है-यह हिसानुबंधी रौद्रध्यान है । अथवा जिल ध्यान दिया का ही सम्बन्ध है यह मान हिंसानुबन्धी है यह रौद्रध्यान्सा घर भेद है। मोलाणुमंत्री सुषानुसंधी-जिल ध्यान ले छे. 'अतुस्न णं झाणस्य चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' मा शत मा मात ध्यानना यार क्षथे। सा छे. 'त जहा' ते २ प्रमा), 8-कंदनया' नता नरसस्थी २४९. 'लोरणया' यनता-हीनता मतावनी 'तिप्पणया' तपनता-मास परवाना 'परिवणया' परिवनता पा२१।२ विला५ ४२३॥ આ રીતે આ ભેસહિત, લક્ષણ સહિત આધ્યાનનું લક્ષણ કહેલ છે. द्रध्यानना सक्ष वाम गाव -२१ प्रमाण छ.-'रोदे झाणे चउबिहे पण्णत्ते' द्रध्यान २ प्रा२नु ४९ . 'त' जहा' ते प्रमाने -हिंसाणबंधी' प्राशियाना वध विराधना-धन विगेरे यी तमन પીડા ઉત્પન કરવાને વિચાર કરે છે, અર્થાત્ તેઓને હમેશાં પીડા કરવાનો જ ઉદ્યમ કરે છે. એવા પ્રાણિયાનું જે ધ્યાન છે, અર્થાત વિચારધારા છે અર્થાત્ તે તરફ લાગેલી ચિત્તની જે એકાગ્રતા છે તે હિંસાનુબ ધી શૌદ્રધ્યાન કહેવાય છે. અથવા જે ધ્યાનમાં હિંસાનો જ સંબંધ છે, તે ધ્યાન डिसानुमधी छ, मा शेरध्यानाना पडसा से छे. 'मोसाणुवधी' मृषानुमची Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ treated 'मोसाणुबंधी' मृषानुबन्धि मृषा असत्यम् यद् पिशुनाऽसत्यासत्यासद् भूतादिभिर्वचनभेदैरनुबध्नाति वन्मृपानुबन्ध द्वितीयं रौद्रध्यानम् २ | 'तेयाणुबंधी' स्तेयानुबंध, रतेनस्य - चौरस्य यत् कर्म तत् स्तेयम् वीत्र क्रोधाद्याकुलतया तदनुवन्धयुक्तं स्तेयानुबन्धि, तृतीयं रौद्रध्यानम् ३, 'सारकखणाणुबंधी' संरक्षणानुबन्धि संरक्षणं-सर्वोपायैरात्मनः परित्राणम् तस्मिन् विपयसाधनस्य धनस्य अनुवन्धो यत्र भवति तत् संरक्षणानुबन्धि चतुर्थ रौद्रध्यानम् ४ जीवे रौद्रध्यानमस्ति नवेति ज्ञानाय रौद्रध्यानस्य लक्षणं विवर्णयन्नाह - 'रोदस्स णं' इत्यादि, 'रोदस्स जं झाणस्स' रौद्रस्य खलु ध्यानस्य 'चचारि लक्खणा पन्नत्ता' चत्वारि - चतुः प्रकारकाणि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि तदेवाह - 'तं जहा ' इत्यादिना 'ते नहा' तयथा'ओसन्नदोसे' ओसन्नदोष : 'ओसन्नं' इति बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषः हिंसाझूठ असत्य आदि बोलने का ही चिन्तन निरन्तर रहता है ऐसा ध्यान यह रौद्रध्यान का द्वितीय भेद है । 'तेयाणुबंधी' जिस ध्यान में चौरी करने के ही सम्बन्ध का निरन्तर चिन्तन चलता रहता है वह ध्यान स्तेषानुवन्धी रौद्रध्यान है यह रौद्रध्यान का तृतीय भेद है। 'सारक्खणानुबंधी' संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान वह है कि जिसमें विषयों के साधन भूत धन के संरक्षण का निरन्तर चिन्तन रहता हो । जीव में रौद्रध्यान है अथवा नहीं है इस बात को जानने के ये चार लक्षण हैं-यही यात 'रोहस्त्र णं झाणस्य चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने प्रकट की है - 'तं जहा ' वे लक्षण इस प्रकार से हैं- 'ओसन्नदोसे' हिंसा अनून अदत्तादान संरक्षण इनमें से कोई एक दोष का होना इसका नाम ओसन्नदोष है तात्पर्य इसका यही है कि जिसमें इन दोषों में ૪૯૯ જે ધ્યાનમાં જુહુ માલવાનું જ હમેશાં ચિન્તન-વિચાર રહ્યા કરે છે. એવું ध्यान ते रौद्रध्याननो जी ले छे. २ 'वेयाणुबंधी' ? ध्यानमां शारी કરવાના સંબધમાં જ કાયમ ચિત્વન રહ્યા કરે તે ધ્યાન સ્તેયાનુબંધી રૌદ્ર ध्यान उडेवाय छे. या रौद्रध्याननोत्रीले अक्षर छे. 3 'सारक्खणाणुबंधी' સરણાનુખ ધી રૌદ્રધ્યાન એ છે કે-જેમાં વિયેના સાધનભૂત ધનના સર ક્ષથનુ નિરન્તર ચિંતવન રહ્યા કરે છે. ૪ જીવમાં રૌદ્રધ્યાન છે ? કે નથી ? या विषयने समन्वाना भी यार थे। छे से वात 'रोदस्व णं झाणस्स वत्तारि लक्खणा पन्नत्ता' या सूत्रद्वारा सूत्रमारे अगर ते यार सक्षम अभाये - 'ओसन्न दोसे डिसा, સરક્ષણ આ પૈકી કાઈપણ એક દેતુ' હાવું તેનુ નામ શ્મા કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે-જેમાં આ દોષો પૈકી કોઇ એક દ્રષ હાય रेस छे. 'त' जहां ' कुहुँ, महत्ताहान, એસન્ત દેષ છે. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् .४७९ ऽनृतादत्तादानसंरक्षणानामन्यतम इति ओसन्नदोपः प्रथमं लक्षणम् १ | बहुलदो से' दोषः बहुवपि सर्वेष्वपि हिंसानृतादचादानसंरक्षणेषु दोषः प्रवृतिलक्षण इति बहुल दोपनामकं द्वितीयं लक्षणम् २ | 'अण्णाणदोसे' अज्ञानदीप: अज्ञानात् दोषोऽज्ञानदोषः अज्ञानात् - कुशास्त्र परिशीलनजनित संस्कारात् हिंसावृतादिषु 'अधर्मस्वरूपेषु धर्मबुद्धया मवृत्तिः तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोपनामकं तृतीयं लक्षणं रोद्रध्यानस्येति 'आमरणांतदोसे' आमरणान्वदोषः मरणमेवान्व इति मरणान्तः आमरणान्तात आमणान्दम् मरणपर्यन्तम् असं जातानुतापस्य कालशौ करिका देखि या हिंसादौ प्रवृत्तिः सैत्र दोष इति आमरणान्तनामकं चतुर्थ लक्षगं रौद्रध्यानस्येति ४ । आर्त्तध्यानं रोद्रध्यानं च निरूप्य तृतीयं धर्मध्यानं निरूपयन्नाह - 'धम्मे झा' इत्यादि । 'धम्मे झाणे चउच्चिहे चउप्पडोयारे पन्नत्ते' धर्मध्यानं चतुर्विधं से कोई एक दोष हो वह इसका प्रथम लक्षण है 'बहुलदोसे' जिसमें हिंसा अमृत (झूठ ) अदत्तादान संरक्षण इन दोषों में प्रवृत्ति करने रूप बहुत दोष हो वह इसका द्वितीय लक्षण है 'अण्णाणदो से' अज्ञान से जो दोष है वह अज्ञानदोष है अर्थात् कुशास्त्रों के पठन से जायमान संस्कार के वशवर्ती हुए व्यक्ति की जो अधर्मरूप हिंसा झूठ आदि दोषों में धर्मबुद्धि से प्रवृत्ति होती है वह अज्ञानदोष नाम का इसका तीसरा लक्षण है 'आमरणांत दोसे' मरणपर्यन्त भी कालशौकरिक आदि के जैसे पश्चात्ताप हुए बिना ही हिंसादिकों में प्रवृत्तिबनी रहना यह इसका चतुर्थ लक्षण है । इस प्रकार से आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का निरूपण करके अथ सूत्रकार धर्मध्यान का वर्णन करते हैं- 'धम्मे झाणे चविहे चउडोपयारे पण्णत्ते' धर्मध्यान चार प्रकार का एवं ते ते तेना पडे। लेह छे. 'बहुलदोसे' नेमां हिंसा, असत्य, महत्ताहान, સંરક્ષણુ આ દાષા પ્રવૃત્તિ કરવા રૂપ દોષ હાય તે તેને બીજે ભેદ છે. 'अण्णाणदोसे' अज्ञान ३५ी ने दोष हे, ते अज्ञान होष उडेवाय है, अर्थात् કુશાસ્રોના અભ્યાસથી થવાવાળા સ`સ્કાર વશાત્ અધમ, હિંસા, અસત્ય વિગેરે દાષામાં ધબુદ્ધિથી જે પ્રવૃત્તિ થાય છે, તે અજ્ઞાન દોષ નામને રૌદ્રધ્યાनन। त्रीले लेह छे. 'आमरणं तदोसे' अशी रिउनी भाइ भरयु पर्यन्तना પશ્ચાત્તાપ કર્યા વિના જ હિ'સા વિગેરેમાં પ્રવૃત્તિ કર્યાં કરવી તે રોદ્રધ્યાનને थोथा अार छे. ઉપર પ્રમાણે આ ધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનનુ નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્ર४२ धर्मध्याननु' नि३५ ४२ - 'धम्मे झाणे चव्वि चप्पड़ोपयारे पण्णत्ते' Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- ४८० भगवतीसरे चतुष्यत्यवतारं प्रज्ञाश चतुर्दा भेद लक्षणालम्बनानुप्रेक्षा लक्षणेषु पदार्थेषु प्रत्यवतार। लागवतारः विचारणीयत्वेन यस्य तत् चतुष्पत्याखारमिति । चातुर्विध्यमेव दर्श यन्नाह-'त जहा इत्यादि, 'तं जहा' तयथा-'जाणाविचए' अजाविचयम् आशा. तीर्थकृतां श्वचनं सस्था विचका पर्वालोचनं यत्र बकाशाविषयं अयमं ध्यानम् १ 'अबायविचार' अपायश्चिया अभागा रामद्वेषमनिता अनी रोप नियो निर्णयो यत्र तत् अपायश्चियं नाम द्वितीयं धर्मध्यानं निपवानुचिन्तलमित्यर्थः । विवागवियर पिाविषया निपाका कर्मणां शुमाशुमानां फलं तस्य विचयो-निर्णयो यत्र तन् विशायपिचयनायकं वतीयं धर्मध्यानम् । 'संठाणविचए' संस्थानविच या संस्थालानि-लोकद्वीपसमुदायाकृतयः तेषां विचरी-निर्णयो चतुष्प्रल्यावतार वाला कहा गया है लेद, लक्षण, आलम्चल और अनु. प्रेक्षा इन चार बालों में इसका विचार या चार प्रत्यवतारवाला मानामा सलिए तुमचलानालामज्ञा हैहाके चार भेद इला प्रसार को 'जाणाविद्या' आजाविचन-जिन ध्यान में तीर्थकरों की बन जाना का पर्यालोचन होता है-बा आज्ञाषिचय লা জব মগন গ্ৰায় ৫ ঘণ’ মাস যাব সলিন जो अनर्थ है इनका नाम अपाय है इन अपायों का जिस ध्यान में निर्णय होता है यह अपाविच धर्म ध्यान है। विधायविचए' धिपाक विजय-जिसमें शुभाशुश्श कनों के फलरूप विप का निर्णय होता बहरिपात जिचय नाका लोन धर्मल्यान का मदि। 'संठाण विचए य लोकहीप समुद्र आदि की आकृतियों रूप संस्थान का जिस ધર્મધ્યાન ચાર પ્રકારનું અને ચતુપ્રત્યવતારવાળું કહેલ છે. ભેદ, લક્ષણ, આલખન, અને અનુપ્રેક્ષા આ ચાર બાબતેમાં તે વિચારણીય હોવાથી અવતાર માનેલ છે. તેથી તેને ચતુષ્પત્યનતારવાળું કહેલ છે. તેના ચાર ભેદે मा प्रभाव छ -'आणाविवए' ज्ञापियय-२ ध्यानमा तीथ शनी अवयन રૂપ આજ્ઞાનું પાચન થાય છે, તે આજ્ઞાવિય નામનું પહેલું સ્થાન છે. 'अवायविचए' पायवियय रागद्वेषयी थवावाणा अनय छे. तेनु नाम અપાય છે. જે ધ્યાનમાં આ અપાયને નિર્ણય થાય છે, તે અપાયવિચય नाभन ध्यानना भी ले .२ 'विवागविचए' विपलियय-शुस અને અશુભ કર્મોના ફલરૂપ વિપાકને નિર્ણય થાય છે તે વિપાકવિચય नामना मध्यानना श्रीन ले यो छे. 'संठाणविचए' als, दीप, समुद्र 'વિગેરેની આકૃતિ રૂપ સંસ્થાનું જે ધ્યાનમાં ચિંતન થાય છે, તે ધર્મ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका ०२५ उ.७ सू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ૪૨ I यत्र तत् संस्थानविचयं नाम चतुर्थं धर्मध्यानमिति । धर्मध्यानस्य लक्षणान्याह - 'धम्मस्' इत्यादि, 'धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता' धर्मस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि । चातुर्विध्यमेव दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तंज' तथा 'आणाई' आज्ञा - सर्वज्ञवचनरूपा तत्र रुचिस्वया वा रुचिः श्रद्धानय् सा आज्ञारुचिः । 'निसग्गरुई' निसर्गरुचि: निसर्गात्स्वभावादेव तत्वश्रद्धानं निसर्गरुचिरिति । 'सुत्तरुई' सूत्ररुचिः सूजात् आगमात् रुचिः तत्त्वश्रद्धानमिति पुःरुचिः । 'ओगाढ रुई' अवगाढरुचिः अवगाढनमवगाढः द्वादशाङ्गाव गाहो वितरितेन रुचिरित्यवगाढरुचिः । अथवा - अवगाढः साधोः प्रत्यासन्नी भवनम् कारणात् वाधूपदेशेन या रुचि स्वत्वश्रद्धानम् सा अवगाढरुविरिति, ध्यान में निर्णय होना है वह संस्थानविचय नाव का चौथा धर्मध्यान का भेद ? | 'तं जहा' इस धर्मध्यान के लक्षण इस प्रकार से है - यही बात- 'धरान पी झाणस्तु चसारि लक्खणा पत्ता' इस पाठ द्वारा प्रकट की है 'आणाई' सर्वज्ञ की वचन रूप आज्ञा में जो रुचि है अथवा सर्वज्ञ के वचन से जो तत्वों का श्रद्वान है वह आज्ञारुचि नाम का धर्मध्यन का प्रथम लक्षण है । 'निसग्गरुई' स्वभावतः तत्वों में जो रुचि है- अर्थात् स्वभावतः जो तत्त्वों का श्रद्धान होता है यह धर्मध्यान का द्वितीय लक्षण है । 'सुत्तरुई' आगम को पढकर जो तत्रों में रुचि होती है तत्वों का श्रद्धान होता है वह सुत्ररुचि नाम का धर्मध्यान का तृतीय लक्षण है । 'ओगाढरूई' द्वादशाङ्ग में सविस्तर अवगाहन से जो रुचि तत्वार्थ श्रद्धान होता है वह अवगाढ रुचि नाम का धान का चतुर्थ लक्षण है अथवा - अवगाढ नाम है साधु की ध्यानने। सस्थान वियय नाभने। थोथे। लेट छे 'त' जहा' या धर्मध्याननु लक्षषु या प्रमाणे हे वात 'धम्सस्स णं झाणस्त चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता'या सूत्रपाठ द्वारा अगर उरेल हे 'आणारूई' सर्वज्ञना वयन ३५ आज्ञामां જે રૂચિ-પ્રીતી થવી અથવા સનના વચનથી, તત્વામાં જે શ્રદ્ધા છે. તે माज्ञायि नामनु' धर्मध्यान हेतु सक्षय के 'निसग्गरुई' स्वलावधी તત્વામાં જે રૂચિ પ્રીતિ થાય છે, તત્વામાં શ્રદ્ધા થાય છે. તે ધ યાનનું श्रीगु दक्षागु छे. २ 'सुत्तरुई' भागभाना अभ्यास श्रीने तत्वोमां ? ३थिं થાય છે, તવેામાં શ્રદ્ધા થાય છે, તે સૂત્રરૂચિ નામનુ ધમ ધ્યાનનું ત્રીજું अक्षय हे. 'ओगाट' द्वादशागमां सविस्तर अवगाहनथी ? तत्वार्थ श्रद्धान થાય છે, તે અવગાઢ રૂચિ નામના ધર્મ ધ્યાનના ચેાથેા ભેદ છે. અથવા भ० ६१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भगवतसूत्रे धर्मध्यानस्य भेदान् लक्षणं च पद आलम्बनानि दर्शयन्नाह - 'धम्म सणं' इत्यादि, 'धम्मस्स णं झागस्स वत्तारि आलंबणा पन्नत्ता' धर्मस्य खुलु ध्यानस्य चत्वारि आलब्पनानि ज्ञवानि धर्मध्यानमालादशिखरारोहणाय यानि आलम्बन्ते तानि आलम्बनानि वाचनादीनि चत्वारि अग्रे वक्ष्यमाणानि । चातुर्विध्यमेव दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा' तथा 'बाणा' वाचना आगमानाम् अध्ययनमित्यर्थः 'पडिपुच्छणा' प्रतिपृच्छना - आगमनिपचे पुनः पुनः प्रश्न इत्यर्थः, 'परियणा' परिवर्तना पुनरावर्त्तनम् अधीतशास्रस्य पुनः पुनरध्ययनम् स्मृतिशय 'धपका' धर्मकथा धर्मस्य कथनमित्यर्थः । 'धम्मस्स णं वास्स चचारि अणुप्पेहाओ पन्नताओं धर्मस्य खलु ध्यानस्य चतसमीपता के होने का तो उनके उपदेन से जो तत्थ श्रद्धान होता है वह अवगाढरुचि है | अब धर्मध्यान का आलम्बन कम है इस बात को कार प्रकट करते है- 'घणं झाणरत चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता' इसमें वे यह कहते हैं कि व्यानरूपी प्रासाद (मल) के शिखर पर चढने के लिये जो आलम्बन भूत होते हैं वे धर्मध्यान के आलम्बन (आधार) है और ये आलम्बन चार प्रकार के कहे गये हैं इसमें प्रथम आलम्बन - 'वायणा' चाचना है - आगमों का अध्ययन करना इसका नाम वाचना है । 'पडिपुच्छणा' अधीन शास्त्र में शंकादि के कारण जो गुरु महाराज को पूछा जाता है यह प्रतिप्रच्छना है । 'परियहण' अधीत शास्त्र का बारबार स्मृति बनी रहने के लिये अध्ययन करना इसका नाम परिवर्तना है । 'वम्सकहा' धर्म का उपदेश ટર અવગાઢ એ સાધુની સમીપપાને કહે છે એટલે કે તેએાના ઉપદેશથી તત્વામાં જે શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, તે અવગાઢચિ કહેવાય છે. હવે ધર્માંધ્યાનનું અવલમ્બન શુ' છે? એ વાત સુત્રાર પ્રગટ કરે છે. 'धम्मस्स ण' झाणस्स चत्तारि आलवणा पन्नत्ता' मा सूत्रपाठथी सूत्रार मे કહે છે કે-ધર્મધ્યાન રૂપી પ્રાસાદ (મહેલ) પર ચઢવા માટે આલમ્બનઆધાર રૂપ જે હાય તે ધર્મધ્યાનના આલમ્બન આધાર કહેવાય છે. અને तेवा आधार यर प्रअरना छे तेयां पडेड' भासम्मन 'वायणा' वाथना छे. આગમાનું વારવાર પિરશીલન કરવું' તેનુ નામ वाथना छे. 'पडिपुच्छणा અધ્યયન કરેલા સૂત્રની સ્મૃતિ-યાદદાસ્ત કાયમ રહે તે માટે વાર વાર અધ્યયન ४२ तेनु नाम परिवर्तन छे. 'धम्म वहा' धर्मना उपदेश ४२वा तेनुं नाभ धर्म या छे. 'धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ' मे रीते Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१६ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् स्रोऽनुप्रेक्षा भावनाः प्रज्ञप्वाः अनु-धर्मध्यानस्य पश्चात् प्रेक्षगानि पर्यालोचनानि इति अनुप्रेक्षाः भावना इत्यर्थः, ततश्च चतस्रो वक्ष्यमाणरूपाः 'तं जहा' तद्यथा'एगत्ताणुप्येहा एकत्वानुप्रेक्षा-आत्मना एकत्वानुमेक्षणमेकत्व भावनेत्यर्थः, 'अणि चाणुप्पेहा' अनित्यानुप्रेक्षा-अनित्यभावनेत्यर्थः कायादीनामनित्यता चिन्तनम् । 'अतरणाणुप्पेहा' अगरणानुप्रेक्षा-अशरणत्वपर्यालोचनं 'न कोपि ममशरणम्' इत्यादिपमित्यर्थः 'संसाराणुप्पेहा संसारानुभेक्षा चातुर्गतिकसंसारस्य परिभ्रमणादि चिन्तनमित्यर्थः, सेयं चतुर्विधा अनुप्रेक्षा अवतीति । चतुर्थ शुक्लध्यान निरूपयितुमाह-'सुरके झाणे' इत्यादि. 'सुक्के झाणे चउबिहे चउखडोयारे देना यह धर्मकथा है । 'धम्माल गं छाणन बत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्तामो' धर्म यान की चार अनुप्रेक्षाएं की गई हैं जो-तं जहा' इस प्रकार ले हैं-धनध्यान के बाद जिलका पालोचन होता है उनका माल अनुप्रमा है। बारबार घर्षध्यानमा चितवन करना यही इलका भाष इनमें पहली अनुप्रेक्षा है 'एगलाणुप्पेहा' आत्मा का एकत्व रूप से चितवन करना उसका नाम एकत्यानुप्रेक्षा है 'अणिच्चाणुप्पेहा' शारीरादिको की अनित्यता का चित्रवन करना इसका नाम अनित्यातुप्रेक्षा है। 'असरणाणुप्पेहा' संसार मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है मैं मशरण हूं-इत्यादि रूप से विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है। 'संसाराणुप्पेहा' चतुर्गलिरूप संसार परिभ्रमण करने का वारंचार विचार करता यह खरातुप्रेक्षा है. ____ चौथे शुक्लध्यान की प्ररूपणा इस प्रकार से है-'सुक्के झाणे चउब्धिहे च इप्पडोयारे पण्णत्ते' शुक्लष्याल चार प्रकार का और धमध्याननी या२ मनुक्षा उस छे. 'त जहा' ते मा प्रभार छ.-धर्मયાન પછી જેનું પર્યાયલેશન થાય છે, તેનું નામ અનુપ્રેક્ષા છે. વારંવાર ધર્મધ્યાનનું ચિંતવન કરવુ એજ તેને ભાવાર્થ છે. તેમાં પહેલી અનુપ્રેક્ષા मा प्रमाणे छ – 'एगत्ताणुप्पहा' मामातु १३५२ शिवन छ, तनु नाम मेवानुप्रेक्षा छे 'अणिच्चाणुप्पेहा' शरी२ विगेरेना मनित्यपान विन ४२ तेतुं नाम भनित्यानुप्रेक्षा छ 'असरणाणुप्पेहा' मा भारी રક્ષા કરવાવાળું કેઈ નથી. હું અશરણું છું વિગેરે પ્રકારથી વિચાર કરે ते मयानुप्रेक्षा छ 'संसाराणुप्पेहा' यतुगत ३५ ससारमा पक्षप्रमा કરવાને વાર વાર વિચાર કરવો તે સ સારાનુપ્રેક્ષા છે वे याथा शुध्याननु नि३५९५ ४२वामा माछ-'सुक्के झाणे च विहे चउप्पड़ोयारे पण्णत्ते' शुध्यान या२ ५२नु गने या सक्षम भतार. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती पन्नत्ते' शुक्लं ध्यानं चतुर्विधं चतुष्पत्यवतारं प्रज्ञप्तम् । 'पुहुत्तवियक सवियारी' पृथक्ववितर्कसविचारि पृथक्त्वेन एकद्रव्याधितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन वितकः विकल्पः पूर्वगतश्रुतानुसारी अथवा नानानयानुसरेण लक्षणो यत्र यत् पृथक्त्व. वितर्कम् तथा विचारः अर्थात् व्यञ्जने व्यजनाद्वा अर्धे गनोवाला प्रयोगानां चान्यस्मा दन्यस्सिन् विचरणम् अर्थात् अर्थान्तरानुशरणं योगात् योगान्तरानुसरण सहविचारेण वर्तते यत् तत् सविचारि पृथक्त्वचितलं च तत् लविचारिचेति तथोक्तं प्रथमं शुक्लध्यानम् । 'एगंतवियकअविवारी' एपान्तरितोऽविचारि एकत्वेन-अभेदेन उत्पादादि पर्यायाणाम् अन्यतमैकपर्यायालम्बनमित्यर्थः वितर्को विकल्पः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो बा यस्य तत् एतत्ववितचार लक्षणों में अवतारवाला कहा गया है । शुक्ल धान का प्रथम प्रकार ' पुतकिया लवियारी' पृथक्त्वधितर्क दिपार है । एक द्रव्य की उत्पाद आदि पर्यायों के भेद ले पूर्वमत श्रुतानुसारी अथवा नाना. नयानुसारी जो विकल्प है लो, यह विकल्प जिस शाम में होता है वह पृथक्त्व वितर्क है । तथा-अर्थ से शन्द में, शब्द से अर्थ में तथा 'मन बचन काय योग में से कोई भी एक योग में जो विचरण है उसका नाम विचार है। एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर और एक योग से दूसरे योग पर जो अनुसरण है वह विचार है। इस विचार सहित जो ध्यान होता है वह सविचारी पृथक्त्व वितर्क नारका प्रधान शुक्ल ध्यान है। दूसरा शुक्लध्यान एकस्व वितर्क अविचारी है-इलको तात्पर्य ऐला है-उत्पादादि पर्यायों के अभेद ले-उत्पादादि पर्यागे में से किसी एक पर्याय के अवलम्पन से-पूर्वगनशुताश्रित जो व्यञ्जन पाडत छ. शुध्यानना पडता ४२ 'पुहृत्तवियकस विग्रारि' पृथ4. વિતર્ક સવિચાર છે. એક દ્રવ્યના ઉત્પાદ વિગેરે પર્યાના ભેદથી પૂર્વગત શ્રતાનુસારી જે વિકલ્પ છે, એ વિકલપ જે ધ્યાનમાં હોય તે પૃથવા વિત કહેવાય છે, તથા અર્થથી શબ્દમાં, અને શબ્દથી અર્થમાં તથા મન, વચન, કાયના યોગમાંથી કેઈપણ એક યોગમાં જે વિચરણ છે, તેનું નામ વિચાર છે. એક અર્થથી બીજા અર્થમાં અને એક ચેગથી બીજા ચોગમાં જે અનુસરણ છે, તે વિચાર છે. આ વિચાર સહિત જે ધ્યાન હોય છે, તે સવિચારી પૃથફત વિતર્ક નામનો શુકલ ધ્યાનને પહેલે ભેદ છે. ૧ બીજુ શુકલધ્યાન એકત્વ વિતર્ક અવિચારિ છે. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે-ઉત્પાદ વિગેરે પર્યાના અભેદપણુથી–એટલે કે ઉત્પાદ વિગેરે પર્યા પિકી કેઈપણ એક પર્યાયના અવલમ્બનથી પૂર્વશત કૃતના આશ્રયવાળા જે Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ खू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् कम् तथा न विद्यते विचारः अर्थव्यञ्जनयो रितरस्मादितरत्र तथा मनोवाक्काय. योगानाम् अन्यस्मादन्यत्र यस्य तदविचारि द्वितीय शुक्लध्यानमिति । 'सुकुम किरिय अनियष्टी' सूक्ष्मक्रियाऽनिवत्ति, सूक्ष्मा क्रिया यत्र मनोवाग्योगयोः सर्वथा निरुद्धत्वात् तथा काययोगे वादरकाययोगस्य निरोधकरणात् सूक्ष्मक्रिय तथा पश्चान्न निवर्वते इत्यनिवर्ति, बर्द्धमानपरिणामत्वात् एतच्च निर्वाणगमनकाले केवल. ज्ञानवतामेव भवेदिति सूक्ष्म क्रियाऽनिवति तृतीय शुक्लध्यानमिति । 'समुच्छिन्नकिरियअप्पडिवाई' समुच्छिन्नक्रियाऽमतिपाति, समुच्छिन्ना सर्वथा निरूद्धा (पद) रूप अथवा अर्थरूप विकल्प है वह एकत्व वितर्क है तथा एक अर्थ से अर्थान्तर रूप एक व्यञ्जन से व्यञ्जनान्तर रूप एवं एक योग से योगान्तर रूप संक्रमण का जिला ध्यान में अमावहै वह अविचारी है। ऐसा जो ध्यान है वह एकत्व वितर्क अविचारी ध्यान है। तीसरा शुक्लदान 'लुहमकिरिय अनियट्टी' सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ती है। इसका तात्पर्यऐसा है कि मनोयोग और वाग्योग सर्वधा निरूद्ध हो जाने से तथा बादर काययोग का काययोग में निरोध करने से जो ध्यान सूक्ष्म क्रिया वाला है और जो बईमान परिणाम होने के कारण (अनियट्ठी-अनिवृत्ति) पीछे छूटता नहीं है इस कारण जो अनिवृत्ति रूप है ऐसा जो ध्यान है वह सूक्षनक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान है। यह ध्यान निर्वाण गमन काल में केवलज्ञान वालों को ही होता है। 'समुच्छिन्न किरियप्पडिशाई' चौथा शुश्लध्यान का भेद समुच्छिन्नक्रिया વ્યંજન (પદ) રૂપ અથવા અર્થરૂપ વિકલ્પ છે, તે એક વિતક કહેવાય છે. તથા એક અર્થથી અર્થાતર રૂપ એક વ્યંજનથી વ્યંજનાન્તર રૂપ અને એક યોગથી ગાન્તરરૂપ સ કેમણને જે ધ્યાનમાં અભાવ હોય તે અવિચારી કહેવાય છે. એવું જ ધ્યાન હોય તે એક વિતર્ક અવિચારી ધ્યાન છે ૨ श्री शुसध्यान या प्रमाणे छे. 'सुहुमकिरिय अनियट्टी' सूक्ष्मठिया અનિવૃત્તિ આનુ તાત્પર્ય એ છે કે- મ ગ અને વચનગને સર્વથા નિરોધ થઈ જવાથી તથા બાદરકાયને કાયેગમાં નિધ થવાથી જે સૂક્ષમ या ध्यान डाय छ, भने भान परिलाभ पाथी 'अनियट्टीअनिवृत्ति' पछीथी छूटतु नथी तथा मनिवृत्ति ३५ ४वाय छ, मेरे ધ્યાન છે, તે સૂમકિયાવાળું અનિવૃત્તિ ધ્યાન કહેવાય છે. આ ધ્યાન નિર્વાણ (माक्ष) पान समयमा विज्ञानवाणामाने १ थाय छे. 'समुच्छिन्न किरियअप्पडिवाई' शुसध्यानना याथी ले समुग्छिन या मप्रतिपाति Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૬ भगवतीसूत्रे क्रिया कायिका शैलेशीकरणनिरुद्योगत्वेन यस्मिन् तत् सगुन्छन्नक्रिया तच्चअप्रतिपाति अनुपरतरवमावम् एतादृशं समुन्छिन्न क्रियमतिपाति चतुर्थ शुक्लध्यान मिति 'सुक्काम णं झाणरस चत्तानि लक्खणा पन्नता' शुनलम्य खलु यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' खंती' शान्तिः क्षमेन्यर्थः 'ली' क्तिः निलोंभता 'अजवे' आजवं सरलवेत्यर्थः 'मावे' मार्दनम् मानत्याग इत्यथः 'सुकत्स णं झणरस चत्तारि आलस्यमा पानता' शुक्लस्य खन्ट व्यानरय चन्यारि आकभवनानि मज्ञप्तानि, 'तं जना' तद्यथा-'अबहे' अव्ययम् देवापसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा तदभावोऽव्ययम् 'असंपोहे' अपमोहः देवादिकृतमायाजनितस्य मप्रतिपातिह-इसका तात्पर्य ऐसा है कि यहां पर माययोग का सर्वधा निरोध हो जाने से कायिकी क्रिया का सर्वथा उच्छेद हो जाता है, और शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है । अतः इस स्थिति का जो ध्यान है यह लमुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति शुक्लमान है। यों कि यह ध्यान भी अप्रतिपाति होता है । 'सुरसस्त ज झाणस्म चत्तारि लक्खणा पण्णता इल शुक्लध्यान के भी चार लक्षण कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-'रबंनी, मुत्ती, अज्जये, मद्दवे' क्षान्ति-क्षा, मुक्तिलिलो मता, आर्जज-सरलता, और मोदेव मृदूता-मानत्याग 'सुक्कइल ण झाणस्त चत्तारि आलंगणा पण्णत्ता' शुक्ल यान के चार आल. बन कहे गयो है-'अबहे १' अव्यथा देवादि को ले उपसर्ग से जन्य मथ का होना अथवा चलायमान होना इसका नाप्न व्यथा है। इसका जो अमाद है व अन्यथा है । 'असंमोहे २ भ्रान्ति का अभाव-देवाછે. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે-અહિયાં કાગનો સર્વથા નિરાધ થઈ જવાથી કાયિકી ક્રિયાને સર્વથા ઉચ્છેદ થઈ જાય છે. અને લેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. જેથી આ સ્થિતિનું ધ્યાન છે, તે સમુનિ ક્રિયા અપ્રતિपाति शुसध्यान छे म मा ध्यान ५ मतिपाति डाय छे 'सुफरस णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' मा शुभसध्यानना या२ समये। ४ा छ. 'तौं जहा' I प्रमाणे छ -'खंती मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे' शान्ति क्षमा, भुति, निला भाव-ससपा मने भाई-भृड मा 'सुफस्स णं माणस्व चतारि आलवणा पण्णत्ता' शुध्यनना या२ सालमान हाछे. 'अव्यहे' १ अन्यथा-मेट-वाल्थिी 6५सया पापाणा ભયનું હોવું અથવા ઉપસર્ગથી ચલાયમાન થવું, તેનું નામ થથા છે. से व्यथा मां न य ते सव्यथा छ. १ 'असमोहे तिन मसा Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ प्रसयचन्द्रिका टीका ०२५ उ.७ सू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् सक्षमपदार्थविषयस्य च संमोहस्य मृढताया अभावोऽसंमोह इति । 'विवेगे' विवेका देहानात्मनः आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनबुद्धया पृथक्करणमेव विवेक इति । 'जिउसग्गे' व्युत्लगों निःसंगतया देहोपधिममत्वत्यागः । 'सुक्करत णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेशाओ पन्नताओ' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुमेक्षा:-प्यालोचनानि प्रज्ञप्ताः । 'तं जहा' तछया-'अणवत्तियाणुष्पहा' अनन्ततितानुप्रेक्षा भवसंतानस्य अनन्तवृत्तिताया अनुचिन्तनम् 'अनन्तोऽयं संमारः' इत्याकारकानु. चिन्तनमित्यर्थः । 'विप्परिणामाणुप्पेहा' विपरिणामानुप्रेक्षा वस्तूनां प्रतिक्षणं विविधपरिणामानुमानचिन्ननमिलि । 'अमुभाणुप्पेहा' अशुभाजुप्रेक्षा चतुर्गतिकसंसारख्याशुमाबुचिन्तनमित्यर्थः । 'अबायाणुप्पेहा' अपायानुमेक्षा अपाघानां दिकों द्वारा कृत माया से जनित भ्रान्ति का और सूक्ष्मपदार्थविषयक सूढता का अभावविवेगे देश से आह का अथवा आत्मा से कार्यलंयोगों का विवेचन बुद्धि द्वारा पृथक्करण 'सिउलग्गे' निःसंग हो जाने के कारण देह ले एवं उपधि से मन्नत्य का स्याम । इस प्रकार ले थे चार आलम्वन शुरध्यान के हैं। 'सुक्करलणं झापस चसारि अणु प्पेशाओ' शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाए हैं-'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'अणंतत्तियाणुप्पेहा' भवसनान की अनन्तवृत्तिता का बारम्भार चिन्तन-यह संहार अनन्त है ऐसा विचार 'विप्परिणामाणुप्पेहा' प्रत्येकक्षण में परतुओं में अनेक प्रकार के होने वाले परिणमन का चिन्तन 'अनुभाणु पेक्षा' चतुर्गलिक संसार का अशुभ रूप से अतु चिन्त जन्य 'अयायाणुप्पेहा' प्राणातिपात आदि भारद्वारों ले जन्य અર્થાત્ દેવાદિકે દ્વારા કરેલી માયાથી થવાવાળી ભ્રાંતિ અને સૂમ પદાર્થ समाधी भूढताना मला 'विवेगे' हेल्थी मात्माने अथवा मामाथी सब स योगान। विवेयन मुद्विदा। पृथ७२६१ ४२j 'विउस्सग्गे' नि. थ જવ થી દેહથી અને ઉપાધીથી મમત્વષણુને ત્યાગ. આ રીતે આ ચાર શુકલ ધ્યાનના આલર બન કહેલ છે. ___'सुक्कस्स ण चत्तारि अणुप्पेहाओ' शुसध्यानी या२ मनुप्रेक्षामा छे. 'त' जहा' मा प्रभारी छ 'अणंतवत्तियाणुप्पेहा' स सतापनी मनतवृत्ति પણાનું વાર વાર ચિંતવન કરવું. અર્થાત્ આ સંસાર અન ત છે, એ વિચાર ४२३।. 'विप्परिमाणाणुप्पेहा' १२४ क्षमा .तुममा मने ॥२ना थवावा परिमननु यिन्तन असुभावाणुप्पेहा' यगति ससानु मशुमाथा मनुतिन २७. 'अवायाणुप्पेहा' प्रातिपात विगेरे भासदारोथी या Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती पाणातिपाताधाश्रयद्वारजन्यानर्थानाम् अनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनमित्य पायानुप्रेक्षा । अब खलु यत्तपोऽधिकारे प्रशस्ताप्रशस्तध्यानवर्णनं कृतं तदपशस्तस्य ध्यानस्य वर्जने प्रशस्तस्य ध्यानस्यासेवने तपो भवतीति कृत्वेति ज्ञातव्यमिति । 'सेत्तं याणे' तदेतत् संक्षेपविस्तारास्यां ध्यानं निरूपितमिति । ध्यानं निरूप्य व्युन्सर्ग निरूपयितुमाह-'से कित' इत्यादि, 'से किं तं विडसग्गे' अथ क स व्युत्सर्गः व्युत्सर्गम्य किं लक्षणं कियांश्च भेदा ? इति मश्नः, भगवानाह-'विउमग्गे दुविहे पन्नत्ते' व्युत्स्वर्गः द्विविधा प्रजासः । द्वैविध्यं दर्शयन्नाह -'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा तद्यथा-'विउलग्गे भावरि उसग्गेय' द्रव्यव्युत्सर्गच भावव्युतर्गश्चेति "से कि त दयविउसग्गे' अथ काम द्रव्यव्युत्सर्गः द्रव्यव्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं झियन्तश्च भेदाः ? इति प्रश्ना, उत्तरमाह-'दब्यवि उसग्गे चउजिद्दे पन्नत्ते' द्रव्यअनर्थों का अनुचिमान । बहां नप के अधिकार में जो प्रशस्त अप्रशस्त ध्यानों का वर्णन किया गया है उसका कारण ऐसा कि अप शस्त ध्यान के वर्जन में और प्रशस्त ध्यान के उपादान में तप होता है । 'से तं झाणे' इस प्रकार संक्षेप और विस्तार से ध्यान का प्ररूपण किया। ध्यान के निरूपण के बाद अन्य व्युत्सर्ग तप का निरूपण सूत्रकार करते हैं-इसने गौतम ने प्रभुश्री ने ऐसा पूछा है-'से किं तं विउसग्गे' हे भदन्त ! व्युत्लग तप का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री फाहते हि विउल्रगे दुबिहे पण्णत्ते' हे गौतम ! व्युत्तर्ग तप दो प्रकार का होता है 'तं जहा' जेल-'दछथि उलग्गे य, भावविउलग्गे य' द्रव्यव्युत्लग और माचव्युत्सर्ग 'लेकित दयविउलग्गे' हे વાળા અનથોનું ચિંતવન કરવું. અહિયાં તપના અધિકારમાં પ્રશસ્ત અપ્રશસ્ત યાનોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ એ છે કે અપ્રશસ્ત ધ્યાનના વર્ણનમાં અને પ્રશસ્ત ધ્યાનના ઉપાદાન–પ્રાપ્તિમાં તપ હોય છે. 'सेत्त झाणे' २प्रमाणे सक्षेप भने विस्तारथी ध्यान नि३५ ४२८ छे. ધ્યાનના નિરૂપણ પછી હવે “બુત્સર્ગ તપનું નિરૂપણું સૂત્રકાર કરે છે. मामा श्रीगौतमचाभीय असुश्रीन मे पूछ्यु ४-'से कि त विउसग्गे' હે ભગવન વ્યુત્સર્ગ તપનું શું લક્ષણ છે? અને એ તપ કેટલા પ્રકારનું છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छे हैं-'विउसग्गे दुविहे एण्णत्ते' गौतम! व्युत्सम त५ मे २तु डेल छे. 'त जहा' ते मा प्रभारी छ.-'दव्वविसग्गे भावविउसग्गे य' द्रव्यव्युत्सग मने साप व्युत्सग ‘से कि तं दवविरसग्गे' हे सगवन् द्रव्य व्युत्समन शु५१३५ छे ? भन तेना है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०१९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ४८९ व्युत्सर्गः - द्रव्यत त्यागः चतुर्विधः प्रज्ञप्त इति । 'तं जह।' तद्यथा - 'गणविसग्गे' गणव्युत्सर्गः, तत्र व्युत्सर्गो नाम अनभिष्वङ्गतात्याग इत्यर्थः परिहारविशुद्धवारित्रार्थ जिनकल्पाचा घनाय गगस्य व्युत्सर्गस्यागो गणव्युत्सर्गः सोऽयं प्रथमोव्युत्सर्गः १ | 'सरीरविजलभ्गे' शरीरव्युत्सर्गः - शरीरनिष्ठासक्तेः परित्यागः । 'उवहिविद्यतग्ने' उपधिव्युत्सर्गः - वस्त्र पात्रादिसंयमोपकरणेष्वपि आमक्ति परि वर्जनमिति । 'माणविसग्गे' भरूपानव्युत्सर्गः 'से चं दव्वविसग्गे' सोऽयं द्रव्यorea निरूपित रहि | भावव्युत्सर्ग ज्ञापनायाह - ' से किं त' इत्यादि, भदन्त ! द्रव्यन्युत्सर्ग का क्या स्वरूप है और कितने उसके भेद हैं ? उसर में श्री कहते है- 'दविसग्गे चव्विहे पण्यते' हे गौतम! द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा गया है । 'तं जहा' जैसे - 'गणविउसम्ये' गणव्युरस्सर्ग- व्युत्सर्ग शब्द का अर्थ आसक्ति का त्याग है । परिहार विशुद्धि चरित्रके लिये अथवा जिनकल्प यादि की आराधना के लिये गण का जो त्याग कर दिया जाता है वह गणव्युरसर्ग है । यह व्युत्सर्ग का प्रथम भेद है । 'सरीरविसग्गे' शरीररसर्ग शरीर सम्बन्धी आसक्ति का त्याग यह व्युत्सर्ग का द्वितीय भेद है । 'उवहि विसग्गे' उपधिव्युत्सर्ग-वस्त्र पात्र आदि जो संयम के उपकरण हैं उनके भी अशक्ति का जो त्याग है यह व्युत्सर्ग तप का तृतीय भेद | 'भानचित्रसम्गे' भक्तपानव्युत्सर्ग आहार पानी का त्याग करना - यह व्युर्ग का चतुर्थ भेद है । 'सेत्त' दव्व विसग्गे' इस प्रकार से यह द्रव्यव्युस्वर्ग हैं । 'हे किं तं भावविलग्गे' हे भदन्त ! आपसर्ग लेह ४ह्या छे? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री छे - 'दव्त्रविसग्गे चवि पण्णत्ते' हे गौतम! द्रव्य व्युत्सर्ग यार प्रहार उस छे 'त' जहा' ते या अभा]. छे. - 'गणविउसभगे' गायन्युत्सर्ग, व्युत्सर्गी शहना अर्थ आसકિતના ત્યાગ એ પ્રમાણે છે. પરિહારવિશુદ્ધિક ચારિત્ર માટે અથવા જીનકલ્પ વિગેરેની આરાધના માટે ગણુને જે ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તે ગણુ યુ. ત્સગ કહેવાય છે. આ વ્યુત્સગના પહેલા ભેદ થાય છે. 'सरीरविसग्गे' शरीर व्युत्सर्ग शरीर संबंधी आसता त्याग भा व्युत्सर्गाना जीले लेह उस छे 'उवहिविउसो' उपधि व्युत्सर्ग- वस्त्र, पात्र, વિગેરે જે સ યમના ઉપકરણે છે. તેમાં પણ આસકિતને જે ત્યાગ કહેલ છે ते व्युत्सर्ग तपने। त्रीले लेह थाय छे उ 'भत्तपाणविसग्गे' लतयान व्यु સગ–માહારપાર્થના ત્યાગ કરવા આ વ્યુત્સગના ચેાથોભે કહેલ છે. 'से त्त' दव्वविलग्गे' मा रीते या द्रव्य व्युत्सर्जना ले हो ह्या छे, भ० ६२ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीय 'से कि तं भावविउसग्गे' अथ का स भावव्युत्सर्गः, भावव्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं कियन्तश्च भेदाः ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'भावविउसग्गे विविहे पन्नत्ते' भाव. ध्युत्ससिविधः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'कलायविउसग्गे' कपायव्युत्सर्ग: पायाणां-क्रोधमानमायालोमाख्यानां चतुर्णा परित्यागः पायव्युत्सर्गः पथमा १ । 'संसार विउ सग्गे' संसारव्युत्सर्ग २, 'कम्मरिउलग्गे' कर्मव्युत्सर्ग:३, 'से किं तं कसायविउस' अप कस करायव्युत्मनः पायव्युन्म कि लक्षणं कियन्तश्च भेदाः । इति ना, भगवानाह-कसायबिउलग्गे चव्यिहे पन्नते' कपायाणां-क्रोधादीनां व्युत्सर्गस्त्याग चतुर्विधः प्राप्तः । 'त जवा' तघथा'कोइविउसर' क्रोधव्युत्सर्गः क्रोधस्याग इत्यर्थः । 'माणविउसगे मालव्युल्सना, मानत्याग इत्यर्थः । 'मायाविउसग्गे' मागव्युत्सर्गः मायायाः परित्याग इत्यर्थः, का क्या स्वरूप है ? और वह कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'आध विउसग्गे तिविहे पणत्ते' हे गौतम! मा. व्युत्लग तीन प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'मलाय विड. सग्गे' कषायव्युत्मर्ग-नोध मान माया और लोग इन्द्र कपायों का त्याग करना 'संसारविसग्गे' संसार का त्याग करना और 'कम्मविउसग्गे' कर्म का त्याग करना से कितं कलायविउहरो' हे भदन्त ! कषायव्युत्सग का क्या लक्षण है और कितने उलके भेद है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'करसायघिउलग्गे चउबिहे पण्णन्ते' हे गौतम ! कषाय व्युत्लगे चार प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जले 'कोह दिउसग्गे' क्रोध का त्याग करला 'माविउलग्गे' मानका त्याग करना, 'माया. विउसग्गे' माया का त्याग करना 'लोअघि उहाग्गे' लोभ का त्याग 'से कि त भावविउसग्गे' समपन् माप व्युत्सम २१३५ छ ? અર્થાત ભાવ વ્યુત્સર્ગ કોને કહેવાય છે? અને ભાવ વ્યુત્સર્ગના કેટલા ભેદે छ १ मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे 8-'भावविरसग्गे तिविहे पण्णत्ते' ७ गौतम ! लापव्युत्सर्ग त्र २२ ४९ छ, 'त जहा' ते । प्रभारी छ.-'कखायविउसगे' उपाय०युत्सा-हीथ, भान, माया भने सामाषायाने। त्यासवे. 'संसारविउसग्गे' ससाना त्या ४२व'कम्मविउचगे' मना त्यास ४२३। 'से कि त कसायविउसग्गे' 8 सगवन् उपाय व्युत्सगर्नु લક્ષણ છે? અને તેના કેટલા ભેદે કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छ 8-'कसायविउसग्गे चउविहे पण्णत्ते' हे गीतम! पाय व्युत्सा या प्रश्न ४ छ 'त' जहा' ते मी प्रमाणे -'को विउलग्गे' अधन। त्या! ४२३। 'माणविउसग्गे' मानना त्याग ४२३। 'मायाविउसग्गे मायाना त्याग Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् 3 'लोभविसग्गे' लोभव्युत्सर्गः लोमत्याग इति । 'से तं कसायविसग्गे' सोऽयं पूर्वोक्तक्रमेण कषायभ्युत्सर्यो निरूपितः । 'से किं तं संसारविसग्गे' अथ का स संसारभ्युत्सर्गः, संसारष्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं कियन्त भेदाः ? इति प्रश्नः उत्तरमाह - 'संसारविउग्गे' संसारव्युत्सर्गः 'चउन्विहे पन्नत्ते' चतुर्विधः मज्ञप्तः 'तं जहा ' - तद्यथा - 'नेरइयसंमारविसग्गे' नैरयिकसंसारभ्युत्सर्गः 'जाय देवसंसारविसग्गे' यावद् देवसंसारन्युत्सर्गः अत्र यावत्पदेन मनुष्य संसारन्युत्सर्गतिर्यक् संसारभ्युत्सर्गयोर्ग्रहणं भवतीति । 'से चं संसारविसग्गे' सोऽयं पूर्वोक्तक्रमेण संसारaan निरूपित इति । 'से किं तं कम्मविसग्गे' अथ कः स कर्मव्युत्सर्गः कर्मव्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं कियन्तच भेदा १ करना 'ले प्तं कसायविउलग्गे' इस प्रकार से यह कपायन्युत्लग के विषय में कथन किया है 'से किं तं संसारविसग्गे' हे भदन्त ! संखारager का क्या स्वरूप है और कितने उसके भेद है ? उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं- 'संसारविसग्गे चव्विहे पण्णत्ते' हे गौतम! संसारव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा' जैसे'नेरइय संसारथिङलग्गे' नैरखिक संसार का त्याग करना 'जाव देव संसारविसग्गे' यावत् देव संसार का त्याग करना - यहां यावत्पद से 'मनुष्य संसारब्युसगं और तिर्यग् संसार व्युत्सर्ग' इन दो संसार व्युत्लग' का ग्रहण हुआ है । 'से तं' संसारविसग्गे' इस प्रकार से यह संसार व्युत्सर्ग के सम्बन्ध में प्रसुश्री ने कथन किया है । 'से किं तं कम्मचिउराणे' हे भदन्न ! कर्मव्युत्सर्ग का क्या स्वरूप है है और कितने उसके भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'कम्मविउ१२वे! 'लोभविउखगो' से सना त्याग उरखे। 'से त्त' कसायविसग्गे' या प्रभा આ કષાય વ્યુત્સર્ગના સબધમાં કથન કરેલ છે. 'से कि त संघारविसग्गे' हे लगवन् स'सार व्युत्सर्गतु शु स्व३५ છે ? અને તેના કેટલા ભેદો કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'ससारविसग्गे चउव्विहे पण्णत्ते' हे गौतम । ससार व्युत्सर्गे यार प्रहारना उडेल छे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे. 'तेरइयसंसारविसग्गे' नै यि संसार व्युत् र्थात् नैरयि संसार त्याग हवे. 'जाव देवसंसारविसग्गे' यावत् દેવસંસારને ત્યાગ કરવા અહિયાં યાવપદથી મનુષ્ય સ'સારવ્યુત્સગ અને तिर्थ संसारव्युत्सर्ग मा मे व्युत्सर्गो थडणु उराया छे. 'से त्त' कम्मविभो ' या अभाऐ आा स ंसार व्युत्सर्गाना सभधभां उथन छे. 'से किं त कम्म पिउगे' हे भगवन् व्युत्सर्गतु शु स्व३५ हे ? आते तेना डेटा बेहो ४९ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ भगवतीस्त्र इति मनः, उत्तरमाह-'कम्मविउसग्गे अट्टविहे एन्नते' कर्मव्युत्सर्गः अष्टविधा पज्ञप्तः अष्टप्रकारकः कर्मव्युत्सों भवतीति । 'तं जहा तद्यथा-'णाणावरणिज्ज करमविउसग्गे' ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्गः, ज्ञानावरणीयकर्मणः परित्यागः । 'जाव अंतराइय कम्पविउसग्गे' यावत् अन्तरायकर्मव्युत्सर्गः:। अत्र यावत्पदेन दर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुकनामगोत्राणां पण्णां कर्मव्युतार्गाणां ग्रहणं भवतीति । 'से तं कम्पविउसग्गे' सोऽयं पूर्वोक्तनमेग कर्मव्युत्पः कथितः । से तं भावविउसग्गे' सोऽयं पूर्वकथितमकारेण भावव्युत्सर्गः प्रतिपादित इति । 'से तं अभितरए तवे' तदेतदाभ्यन्तरं तपो निरूपितमिति । 'सेवं भंते ! सेवं अंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति हे भदन्त ! संरताना स्वरूपविपये सग्गे अविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! फर्मव्युत्सर्ग आठ प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'णाणावणिज कम्मवि उपनग्गे' ज्ञानाधरणीय फर्म का त्याग 'जाण अंतराहय कम्मविउसग्गे' यावत् अन्तराय कर्म का त्याग । यहां यावत्पद से 'दर्शनावरणीयव्युत्लग, वेदनीयन्धुत्सर्ग, मोहनीयव्युस्वर्ग आयुष्क व्युत्सर्ग नाम व्युत्सर्ग और गोत्र व्युत्सर्ग' इन कर्म व्युस्लों का ग्रहण हुआ है। 'से कमविउलग्गे' इस प्रकार से यह कर्मव्युवर्ग के सम्बन्ध में विचार है । 'ले भावधिउ. सग्गे' यहां तक इस पूर्वोक्त कथन के अनुसार सामव्युलन सा कथन समाप्त हुआ 'सेतं अभितरए तो और इसकी जाति में ही आभ्यन्तर तप का कथन भी समाप्त हो जाता है देवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! संयतों के स्वरूप के विषय में जो आप देवानु. ४ा छ ? २॥ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे -'संसारबिउराग्गे अदविहे पण्णत्ते' है गीतम! मव्युत्सर्ग 2418 ४२॥ उस छ, 'त' जहा' त म प्रमाणे छ. ‘णाणावरणिज्ज फम्मविउसगे' ज्ञानापरीय भनी त्यास 'जाव अंतराइय कम्मविउसग्गे' यावत् मतशय भनी त्यास माडियां पर५४थी शनाप२. ણીય વ્યુત્સર્ગ, વેદનીય વ્યુત્સર્ગ, મોહનીય વ્યુત્સર્ગ, આયુષ્ક વ્યુત્સર્ગ, नामव्युत्सग, भने मात्र व्युत्सम भा भव्युत्ता प्रहार ४२राया छे. 'से कम्मविउसग्गे' मा शत म भ व्युत्सना समयमा थन ४२० छे, से त' भावविरसग्गे' 21 Na | पूर्वरित ४थन प्रमाणे माप व्युत्सग ४थन ४२ छ 'सेत्त अभितरए तवे' मा प्रभारी माध्यत२ तपनु ५१३५ ४९ छे. 'सेव भंते ! सेव भंते त्ति' के भगवन् सयताना १३५ना समयमां આપ દેવાનુપ્રિયે કથન કરેલ છે. આ સઘળું કથન આમ વાકય પ્રમાણુરૂપ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ न्द्रका टीका श०२५ उ.७ ०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् यत् देवानुमियेण निवेदितं सर्वमेव आप्तवाक्यस्य सर्वथैव सत्यत्वादिति कथfear गौतम भगवन्तं तीर्थकरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥०११॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पञ्चविंशतिशतकस्य सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥ २५-७॥ प्रिय ने निवेदित किया है वह सब आप्त वाक्य प्रमाण होने के कारण सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कह कर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये | सू० ११॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के पचीसवें शतकका सप्तम उद्देशक समाप्त ॥२५-७ ॥ હાવાથી સથા સત્ય છે હું ભગવન્ આપનુ કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વ'દના નમસ્કાર કરીને તે પછી તે તપ અને સંયમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થઈ ગયા. પ્રસૂ॰૧૧૫ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકરપૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત ‘ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકને સાતમેઉદ્દેશક સમાપ્ત ારપ-જ્ઞા क Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છ૪ भगवतीसे अथाष्टयोदेशका प्रारभ्यते सप्तमीदेशके संयताः सस्वरूपाः सभेदाम्ब कथिताः संयतविपक्षभूनाथा संयता भवन्ति ते चासंयता नारकादयः, तेषां च यथा समुत्पादो भवति तथा अष्टमोद्देशके कथयिष्यते, इत्येवं सम्बन्धेनायातस्य अष्टमोद्देशकस्येदमादिम सूत्रम्, 'रायगिहे' इत्यादि। लम्-रायगिहे जाव एवं वयाली नेरहयाणं भंते | कहं उववज्जंति से जहानाममा पचए परमाणे अज्झवलाणनिधत्तिएणं करणोवारण सेयकाले तं ठाणं विप्पजहिता पुरिमं ठाणं उनसंपजित्ताणं विहरइ। एबामेव एए वि जीवा पवओ दिव पवमाणा अज्झवलाणनिहन्तिएणं करणोत्राएणं सेयकाले तं भवं विष्णजहिला पुरिमं भवं उवलंपजित्ताणं विहरति । तेसिंणं भंते ! जीवाणं कहं सोहागई? कह लीहे गइविलए पन्नत्ते ? गोयमा! से जहानामए केइपुरिस्ने तरुणे बल एवं जहायोदलललए पढने उद्देलए जाब तिसमक्षणं वा बिग्गहेणं उववज्जति, तेलि ण जीवाणं तहा लीहागई तहा सीहे गइविसए पन्नते। तेणं संते ! जीश कहं परभवियाउयं पकरेंति ? गोयमा! अज्झक्साणजोगनिवत्तिएर्ण करणोवाएणं, एवं खल्लु ते जीवा परमवियाउयं पकरेंति। तेलिणं संते ! जीवाणं कह गई पवसद ? गोयमा ! आउवखएणं भवनखएणं एवं खलु तेसिं जीवाणं गई पवत्तइ । तेणं भंते जीवा किं अयड्डिए उक्वजति परडीए उक्वजति ? गोयमा ! आयड्डीए उबवनंति नो परिडीए उववज्जति। ते णं भंते ! जीवा किं आयकम्सुणा उववज्जति परकम्मुणा उवनजति? गोयमा! आयकम्मुणा उववज्जति नो परकम्मुणा उववति। ते ण भंते ! जीवा कि आयप्पओगेणं उववज्जति परप्पओगेणं उववज्जति ? गोयमा! आयप्पओगेणं Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.८ ०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् उववज्जति नो परप्पओगेणं उबवज्जति। असुरकुलाराणं भंते ! कहं उववज्जति जहा नेरड्या तहेच निरवलेलं जाव नो परप्प ओगेणं उववज्जति । एवं एनिदियबज्जा जाव वेगाणिया। एगिदिया एवं चेत् । नवरं च उसमइओ विगहो लेतं तं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरइ ॥ १॥ पणवीलइले सप अटूनो उद्देलो साइतो॥२५-८॥ छाया-राजगृहे यावदेवस् अवादी-नैरयिकाः खल्नु भदन्त ! कथमुत्पद्यन्ते ? स यथानामकः पलका प्लबमानः अध्यवसानितिन करणोपायेन एण्य. स्काले तत्स्थानं विजय पौरस्त्य स्थानापसंपच खल्लु विहरति एमेव एतेऽपि जीवा प्लवक इव प्लबमालाः अध्यवसायनिर्वसितेन करणोपायेन एज्यका तं भवं विभजहाय पौरस्त्यं भवमुपसंपद्य खलु विहरन्ति । वेषां खल्लु भदन्त ! जीवाना कथं शीघ्रा गतिः कथं शीघ्रो गतिविषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! स यथा नामक कश्चित् पुरुषः तरुणो बलवान् एवं यथा चतुर्दशशते प्रथमोदेशके यावत् त्रिसमयेन वा विग्रहेण उपपद्यन्ते । तेषां खलु जीवानां तथा शीघ्रा गति स्तथा शीघ्रो गतिविषयः प्राप्ताः । ते खल्ल भदन्त ! जीवाः कथं परमधिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! अध्यवसाययोगनितिन फरणोपायेन एवं खलु ते जीवाः परभविकायुष्कं प्रकुर्वन्ति तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कथं गतिः भवर्त्तते ? गौतम ! आयुः भयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण, एवं खल्ल तेषां जीवानां गतिः प्रवर्तते । ते खलु भदन्त ! जीवाः किमारमा उत्पद्य-ते परद्धयाँ उत्पद्यन्ते ? गौतम ! आत्मदर्थी उत्पधन्ते नो परद्धा उत्पधन्ते । ते खलु भदन्त ! जीवाः किम् आल्नकर्मणोत्पद्यन्ते परकर्मणोत्पद्यन्ते, गौतम थात्मकर्मणोत्पद्यन्ते नो परकर्म गोलचन्ते । ते खलु भदन्त ! जीवाः किमात्ममयोगेणोत्पद्यन्ते परमयोगेण उत्पधन्ते १ गौतम ! आत्मण्योगेणोत्पद्यन्ते लो परपंयोगेण उत्प. धन्ते । असुरकुमाराः खल भदन्त ! कपमुत्पद्यन्ते ? यथा नैरयिकाः तथैव निरवशेषम् यावत् नो परप्रयोगेण उत्पद्यन्ते । एवमे केन्द्रियवोः यावद्वैमानिकाः । एकेन्द्रिया एवमेव नबरं चतुःसामयिको विग्रहः, शेपं तदेव । तदेवं सदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति । ॥सू०१॥ पञ्चविंशतितमे शतके अष्टमोदेशकः समाप्तः ॥२५-८॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती टीका-'रायगिहे नाव एवं बयासी' राजगृहे यावदेवमयादीव अत्र यावरपदेन भगवतः समवसरणमभूव परिपत् निर्गता नत्र भगवान धर्ममुपदिष्टवान् परिपत् मतिगता ततो गौतमो भगान्तं वन्दते नमम्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एतदन्तस्य प्रकरणम्य सङ्ग्रहो सवतीति, किमवादीत गौनमः ? तबाद-'नरइया णं' इत्यादि, 'नेरइया णं भने ! ८ उपवज्जति' नेरयिकाः खलु भदन्त ! कथं केन. प्रकारेण कीदृशं कारणविशेपमामाघ नरकावासे सम-पचन्ने ? इति प्रश्ना, ॥ पचीसवें शतक फा आठवे उदेशका प्रारंभ ॥ सातवें उद्देशक में स्वरूप और भेद ललित संयनों का कथन किया गया है । संयतों के विपक्ष भून अमंग्रत होते हैं। ये अमेयन नारकादि जीव रूप होते है अत: इनका जिस प्रकार से उत्पाद होता है उस प्रकार से ये इस अष्टम उद्देशक में कहे जायेंगे। इस समय से आया हुआ यह अष्टम उदेशमा प्रारम्भ किया जाता है रायगिहे' हयादि, टीकार्थ-'रायगिहे जाद एवं बधासी' राजगृह नगर में यावत् भगवान् गौतम ने इस प्रकार से पूछा-यहां चावत्पद से 'भगवान् का समय सरण हुआ, परिपदा निकली भगवान ने उसे धर्मोपदेश दिया, परिषदा. विसर्जित हो गई, तब गौतम ने भगवान् को वन्दना की नमस्कार किया, फिर बन्दना नमस्कार करके यहां तक का पाठ अहित हुआ है । गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से क्या पूछा-'णेरड्याणं भंते ! कहं उवय ज्जति' हे भदन्त ! जीव कैसे कारणविशेष को प्राप्त कर नरकावास में આઠમાં ઉદ્દેશાનો પ્રારભ– સાતમાં ઉદ્દેશાનું સ્વરૂપ અને ભેદ સહિત સંતોનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. સંયતના પ્રતિપક્ષી રૂપ અસંતો હોય છે, તેથી અસંય તેને ઉત્પાદ જે રીતે થાય છે. તે આ આઠમા ઉદેશામાં કહેવામાં આવશે. તેથી આ આઠમાં ઉદ્દેશાને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. "रायगिहे जाव एवं वयासी' त्याह टा--'रायगिहे जाव एवं वयासी' २ नगरमा भगवाननु સમવસરણ થયું. પરિષદુ ભગવાનને વંદના કરવા નગરની બહાર નીકળી ભગવાને તેને ધર્મદેશના સંભળાવી. ધર્મદેશના સાંભળીને પરિષદ્ ભાગવાનને વંદના કરી પિતપિતાના સ્થળે પાછી ગઈ તે પછી શ્રીગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને પ્રભુશ્રીને આ प्रमाणे पूछ्यु-'णेरइयाणं भंते ! कह उववज्जंति' 8 मापन १४१ ४२१ વિશેષને પ્રાપ્ત કરીને નરકાવાસમાં નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? ગૌતમ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् भगवानाह-‘से जहानामए' इत्यादि, ‘से जहानामए' स यथानामकः 'पवए' प्लवकः-उत्प्लश्न कारीपुरुषः 'परमाणे' प्लवमाना-उत्प्लति कुर्वन् 'अञ्झ साणेनिव्वत्तिएण' अध्यवसायनिर्वतिरोन मया उत्प्लवनं कर्तव्यमित्याकारणाध्यवसा. येन निर्तितम्-सम्पादितं रुद्रूपेण 'करणोबाएणं' करणोपायेन उत्प्लवनलक्षणं यत् करणं क्रियानिशेषः स एव उपाय:-स्थानान्तरमाप्तौ हेतुः करणोपाय स्तेन करणोपायेन । 'सेवकाले' एज्यत्काले-भविष्यत्काले विहरतीत्यप्रिय क्रियया सम्बन्धः । किं कस्बा इस्थाह-'तं ठाणं' इत्यादि, 'तठाणं' तत् स्थानम् यरिमन् स्थाने स्थितः सत् स्थानम् । 'विप्पजहिता' विषजह्य प्लवनतः परित्यज्य 'पुरिमंठाण' पौत्सत्यम्-ग्रिमं स्शनम् 'उपसंपज्जित्ताणं' उपसंपद्य-संप्राप्त विहरह' विहरतीति दृष्टान्तः, दाष्टान्तिके योजयति-'एवामे इत्यादि, 'एकामेव' एव. मेव 'एपविजीना' एतेऽपि नारकादयो जीवाः किमुक्तं भवतीत्याइ-'पवभो चिव परमाणा' का हब पल्लवमाना: 'अज्झ ससाणनियत्तिएणं' अध्यवसायनिर्व तितेन अमितो प्लवनं करिष्यामि इत्येताहशाध्यवसायनिवर्तितेन । 'करणो नारकरूप से उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'से जहा नामए पवए पदमाणे २' हे गौतम ! जैसे कोई उछलने वाला पुरुष उछलना२ 'अज्झवस्त्राणनिव्वत्तिएणं' अध्यवसायविशेष से-मुझे कूदना चाहिये-हर प्रकार की इच्छा से 'करणोवाएण' उत्प्लंघन -कूदने रूप उपाय से 'सेयकाले तं ठाणं विप्पजहित्ता पुरिम ठाणं उपसंपज्जित्ता णं पिहरइ' आने वाले समय में-भविष्यत्काल में अपने पहिले के स्थान को छोडकर आगे के स्थान पर पहुंच जाता हैं-'एवामेव एए वि जीवा पक्षओविय पवमाणा' उसी प्रकार से ये जीव भी उछलने चाले के जैसा कूदते २ 'अज्शवलाणनिवत्तिएणं करणोवाएणं सेय. कालं तं भवं विप्पजहित्सा पुरिमं भवं उपसंपज्जित्ताणं विहरति स्वामीन। २ प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे -'से जहानामए पवए पवમળે ૨” હે ગૌતમ! જે રીતે કેઈ ઉછળવાવ બે પુરૂષ ઉછળતે ઉછળતો 'अज्झवसाणनिवत्तिएणं' मध्यवसाय विशषया-भारे नस मा शतना ४२छाथी थप 'करणोवाएणं' Graन-वाना पायथी 'सेय काले त ठाणं विप्पज्जहित्ता, पुरिम ठाणं उवसंपजिचा णं विहरई' मारावा समयमा એટલે કે ભવિષ્ય કાળમાં પોતાના પહેલાના સ્થાનને છોડીને આગળના સ્થાન 6५२ ५९यी लय छे. 'एवामेव एए वि जीवा पव्वओ विव पवमाणा' मेर प्रकारे मा १ जानी महतi ता 'अज्ज्ञवसाणनिव्वत्तिएणं करणोवारण सेयकाल त भव' विप्पजहित्ता पुरिम' भव उपसंपज्जित्ताणं विहरति भ० ६३ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re Parades 9 3 ख़ारणं' करणोपायेन क्रियते अनेक प्रकारिका अवस्था जीवस्थानेन अथवा - क्रियते यह वत् करणम् कर्मप्लवनक्रियाविशेषो वा करणं करणमित्र करणम् स्थानान्तरप्राप्तिकारणतासात् कर्मैव तदेवोपाय इति करणोपाय स्तेन करणोपायेन । 'सेकाले' एष्यत्काले बागामिकाले इत्यर्थः 'तं भयं विष्पजदित्ता' तं अत्र - मनुष्यादि गवं विजय - परिस्यज्य 'पुरिम भने पौरस्त्यं प्राप्तव्यं नारकादि भवम् 'उपसंपजितार्ण' उपसंपद्य खलु ? 'दिहरंति' विहरन्ति । यथा कश्चित् कनकः अध्यवसायेन एकं स्थानं परित्यज्य स्थानान्तरमासादयति यथैव एते जीवा अपि कर्मात्मक कारण विशेषमासाद्य मनुष्यादिभवं परित्यज्य नारकमयं घटीयन्त्रन्यायेन आसादयन्तीति भावः । ' तेसि णं भंते ! जीवाणं तेषां खलु यदन्य ! जीवानाम 'कहूं सीहाई' कथं शीघ्रा गतिः तथा - 'वह' ली गइसिए उन्नत्ते' कथं शीघ्रो गतिविषयः प्रज्ञप्तः तेपां नारकादि, जीवानाम् कं कारणविशेषमासाय शीघ्रा गतिर्भवति कीदृशश्र गतिविषयो भवतीति मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे औar | 'से बहानामए केइ पुरिसे तरुणे वलवं' स अध्यवसायविशेष से जभ्य कर्मोदय के अनुसार ग्रहित पूर्व भव को छोडकर भविष्यत्काल में अपने अपने आगे के भवों में पहुंच जाते है - नारक आदि के रूप से उत्पन्न हो जाते हैं । भावार्थ यही है कि जैसे कोई कूदने वाला कूदकर आगे के स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार से ये जीव भी फर्मोदय के अनुसार मनुष्यादि भय को छोडकर घटीयन्त्र न्याय से आगामी होने वाले नारकादि भव को प्राप्त करते हैं । 'तेसि णं ते! जीवा णं कहं सीहे गहविलए पण्णत्ते' हे भदन्त । उन नारक जीवों की कैसी शीघ्रगति होती है और उस गति का कैसा शीघ्र विषय होता है ? उत्तर में मधुभी कहते हैं- 'से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे षलवं जहा चोदलमसए पढमे उसए' हे गौतम! અધ્યવસાય વિશેષથી થવાવાળા કર્મીના ઉદય પ્રમાણે ધારણ કરેલ પૂર્વ ભવને છેડીને ભવિષ્યમાં પેાતાના આાગળનાં ભવામાં પહોંચી જાય છે, નારકપણાના રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. મા કથનના ભાવાથ એ છે કે જેમ કાઈ કૂદવાવાળા કૂદકા મારીને આગલા સ્થાન પર પહાંચી જાય છે એજ પ્રમાણે આ જીવ પણ કર્માંના ઉદય પ્રમાણે મનુષ્ય વિગેરે ભને છેડીને ઘટિય‘ત્ર’ न्यायथी भागाभी- थंवावाजा नार विगेरे लवने प्राप्त उरे हे. 'तेसि णं भंते! जीवाण कह सिहागाई कहाँ सीहे गईविसए पन्नत्ते' हे भगवन् ते ना२४ જીવાની શીઘ્રગતિ કયા કાર્રણુથી થાય છે? અને તે ગતિને વિષય કેવા होय हे ? मी प्रश्नना उत्तरां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने हे छे' से जहा Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका का श०२५७.८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् ४९९ यथानामकः कश्चित्पुरुषः तरुणो बलवान् ‘एवं जहा चोदशासए पढमे उद्देसर' एवं यथा चतुर्दशशतके प्रथमोदेश के कथितम् तथैव सर्वमिहापि ज्ञातव्यम् किया त्पर्यन्तं चतुर्दशशतकीय पथमोद्देशकमकरणं ज्ञातव्यं नाह-'जाव' इत्यादि, 'जाब तिसमएण वा विग्ग देणं उबवज्जति' यावत् त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पधन्ते त्रिसामयिक विग्रहगत्या समुत्पधन्ते इत्यर्थः । उपसंहरति-'तेसिणं जीवाणं तहा सीहागई तहा सीहे गाविसए पन्नत्ते' तेषां खलु जीदानां तथा ताशी शीघ्रा. गतिर्भवति तथा तादृशः शीघ्रो गतिविपरश्च प्रज्ञप्ता-कथिच इति । तेणं भंते। जीवा कहं परभक्यिाउयं पकवि' से एकं भवं. परित्यज्य भवान्तरे गमनशीला जीवाः कथं केन कारणेन केन प्रकारेण वा परमायुकं परभवनिवहिकम् आयुष्कं कर्म प्रकुर्वन्ति परमवयापकमायुष्कं कर्म केन प्रकारेण वघ्नन्ति? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अज्झ. वसाणजोगनिव्वतिएणं' अध्यवसानयोगनिर्वर्तितेन अध्यक्सानं जीवपरिणाम जैसे कोई बलवान तरुण पुरुप जला कि चौदहवें शतक के प्रथम उदेशक में कहा गया है 'जाश तिरूपएण धा विग्गणं उववज्जति' कि यावत् वह तीन लमयवाली विग्रह गाय से उत्पन्न होता है उसी प्रकार से 'तेलिणं जीवाणं सहा सीहा गई तहा लीहे गविलए पनत्ते' उन नारकादि जीवों की वैली ही शीघ्र गति होती है और उसी प्रकार से शीघ्रगति का विषय होता है। ते ! जी कहं परमवियाउयं पकरेंति हे लक्षान्त । एक मन को छोडकर दूसरे भव्य में जाने के स्वभाव बाले वे जीव किस प्रकार से परम के आयु कर्म का पन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! अज्झवलाणजोग्गनिन्दत्तिए ण' हे गौतम! वे जीव नामए केई पुरिसे तरुणे बलव एव' जहा चउद्दसमसए पढमे उद्देसए' गीतमा જેમ કઈ બળવાન તરૂણ પુરૂષ વિષે ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેલ छ, 'जाव तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति' है यावत ते त्रय समयवाणी विग्रह गतिथी 64-1 थाय छे. मे प्रमाणे 'वेसिणं जीवाणं तहा सीहागाई तहा सीहे गई विसए पन्नत्ते' ना२४ विगेरे वानी तेवी शीगति हाय छ. मन मे प्रमाणे शातिना विषय हाय छ, 'तेणं भंते ! जीवा कहीं परभवियाउय' पकरे ति' हे सगवन् मे सपने छ।डी। मीन सपा पाना હવભાવવાળા તે જી કઈ રીતે પરભવના આયુકર્મને બંધ કરે છે? આ असता त्तरमा प्रसुश्री ४९ छ - गोयमा ! भज्झवसाणजोगनिव्वत्तिएणं है Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० भगवतीने योगश्च-मनोचाकायच्यापारः साभ्या मध्यवसानयोगाभ्यां निर्वरितः-संपादितो य: सोऽध्यवसानयोगनिवर्तितः तेन अध्यवसानयोगनिर्वतितेन, 'करणोचारण' फरणोपायेन मिथ्यात्वादि कर्मवन्धकारणात्मकोपायेन जीवः परभवसंवन्धिन मायुष्कं प्रकरोतीति । 'एवं खलु ते जीवा परभक्यिाउयं पकरेंवि एचमध्यवसांन. योगनिर्वतितकरणोपायेन खलु ते जीवाः परभवनारकादि संवन्धिनमायुष्क कर्म प्रकुर्वन्ति वघ्नन्तीति । 'तेसि णं भंते ! जीवाणं फहं गई पवत्तई तेपामेकस्मात् भवाद्धवान्तरं गच्छतां खलु जीवानां कथं केन प्रकारेण गतिर्गमनं प्रवर्तते भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-पोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आउक्खए ण' आयुपा क्षयेण तेषां जीवाना मायुष्ककर्मणः क्षयात् भवान्तरसम्बन्धिनीगतिः मवर्तते। 'भवक्खएण' भवक्षयेण भववेदनीयकर्मक्षयेण 'ठिइबखएणं' स्थितिक्षयेण आयुष्कमवस्थितीनां क्षयेभ्यो गतिः प्रवर्तते तेषां जीवानामिति । एवं खेल तेसिं जीवाणं गई पदत्ताई' एवं पूर्वप्रदर्शितायुकादिक्षयेण खलु तेपी भवानवान्तरं गच्छवां जीवानां गतिः प्रवर्तते इति । 'वेणं भंते ! जीना कि आयडीए अपने परिणाम और मन वचन काय रूप योग से-अथवा-अपने परिणाम रूप योग से-संपादित लिथ्यात्वादि शमधन्ध के कारण भूत उपाय के वशवती होकर परभव लम्बन्धी आयु कर्म का बन्ध करते हैं। 'तेसिणं भंते ! जीवाणं कह गई पजतह हे भदन्त ! एक अव से दसरे अब में जाने वाले उन जीवों को-गति-गमन केला होता है ? किस प्रकार से होता हैं ? उत्तर में कहते हैं-'शोधमा ! आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिकखएणं एवं खलु तेति जीवाणं गई पबत्तह' हे गौतम! उन जीवों की गति अपनी आयु के क्षय से अपने अबके क्षय से अपनी स्थिति के क्षय से होती है। तेणं भंते जीया कि आयडीए उवव. 'ગૌતમ! તે જીવ પિતાના પરિણામ અને મન, વચન, અને કાયાના ચોગથી અથવા પિતાના પરિણામ રૂપ યેગથી સંપાદન કરેલા મિથ્યાત્વ વિગેરે કમ બંધના કારણભૂત ઉપાયને વશ થઈને પરાવ સંબંધી આયુષ્ય કર્મને બંધ रे छ. 'वेसिणं भंते ! जीवाणं कह गई पवित्तई' सगवन् म सपथी मीन ભવમાં જવાવાળા તે જીની ગતિ-ગમન કેવી હોય છે? અર્થાત કઈ રીતે तमानी गति थाय छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ 8-'गोयमा ! आउक्खपणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं एवं खलु तेसि' जीवाणं गई पवत्तइ' के ગતમ! તે જીની ગતિ પિતાના આયુના ક્ષયથી પોતાના ભવના ક્ષયથી પિતાની स्थितिना यथा डाय छे 'तेणं भंते ! जीवा कि आयडीए उववज्जंति एर. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्द्रिका टीका श०२५ उ. ८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् 608 जंति, परडीए उबवज्जंति' ते खलु भदन्त । जीवाः किम् आत्मदर्थास्वशक्त्या उत्पद्यन्ते, अथवा परद्धय अन्यदीयशक्त्या समुत्पद्यन्ते भवान्तरेषु ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इयत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'आयडीए उववज्जंति' आत्मद्धयैवोत्पद्यन्ते 'नो परडीए उबधज्जति' नी परद्ध उत्पद्यन्ते यस्मिन् अधिकरणमुत्पत्तिस्तदधिकरणे एवं यदि ऋद्धिर्भवेत्तदैव ऋद्धयुत्पत्योः कार्यकारणभावो भवेत् कार्यकारणयोः सामानाधिकरण्यनियमात् नहि वैयधिकरये कार्यकारणभावो भवति तथात्वेऽतिप्रसङ्गादिति । 'तेणं मंते ! जीवा कि आयकम्मुणा उववज्जंति परकम्मुणा उववज्जंति' से खलु भदन्त ! जीवाः किमाज्जति परडीए जंववज्जति' हे भदन्त ! वे जीव क्या भवान्तर में अपनी ऋद्धिरूप शक्ति से उत्पन्न होते हैं ? अथवा दूसरे की शक्तिरूप ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर है प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा आयडीए उबवज्जंति नो परडीए उबवज्जंति' हे गौतम! वे जीव परभव में अपनी ही शक्ति रूप ऋद्धि के बल से उत्पन्न होते हैं । पर की शक्ति रूप ऋद्धि के बल से उत्पन्न नहीं होते हैं ? यहां जो ऐसा कहा गया है उसका तात्पर्य यही है कि जिस आत्मा में परभव में उत्पत्ति की 'कारण भूत अपनी ऋद्धि है उससे ही वह वहां उत्पन्न हो सकता है 'अन्य की ऋद्धि से नहीं, नहीं तो फिर अपनी ऋद्धि और अपनी उत्पत्ति कार्यकारण भाव नहीं बन सकता है । क्यों कि कार्यकारण भाव मैं समानाधिकरणता का नियम होता है । 'ते णं भंते ! जीवा किं आयकरमुणा उववज्जंति, परकम्पुणा उचचज्जति' हे भदन्त वे जीव सूढीए उववजंति' डे लगवन् ते कवी भवान्तरमा पोतानी ऋद्धि३य शक्तिथी ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા ખીજાની શકિત રૂપ ઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री - 'गोयमा ! आयइढीए स्ववज्जति नो परहूडीए उववज्जंति' डे गौतम! ते लव परलवमां पोतानी शक्ति ३५ ઋદ્ધિના ખળથી ઉત્પન્ન થાય છે. બીજાની શકિત રૂપ ઋદ્ધિના બળથી ઉત્પન્ન થતા નથી, અહિયાં જે કહેવામાં આવેલ છે તેના ભાવ એ છે કે-જે આત્મામાં પરભવમાં ઉત્પત્તિના કારણુ રૂપ પાતાની ઋદ્ધિ છે, એજ જીવ ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, બીજાની ઋદ્ધિથી ઉત્પન્ન થઈ શકતા નથી. નહી' તે પેાતાની ઋદ્ધિ અને પેાતાની ઉત્પત્તીમાં કાય કારણુ ભાવજ બની જાય છે, કેમકે ४ार्य ४।२] भावभां समानाधिकरपयानो नियम हाय है, 'तेणं भंते । जीवा कि' आयकम्मुणा उववज्र्ज्जति, परकम्मुणा उववज्जंति' हे भगवन् ते को शु Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे त्मकर्मणा स्वात्मसमवेत कर्मणा उत्पद्यन्ते अथवा परकर्मणा परसमवेतकर्मणा समुत्पद्यन्ते ? इति मनः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आयकम्मुणा उववज्जति नो परकराणा उचवज्जति' भवाद्भवान्तरं गच्छन्तो जीवा यात्मकर्मणा स्त्रसंपादितकर्मद्वारैत्र समुत्पद्यन्ते न तु परकर्मणा परसम वेतकर्मसहकारेण उत्पद्यते स्वसमवेतक्रमण एव उत्पादकत्वात् अन्यथा अन्य. दीमकर्मणा अन्योऽपि जायेति इति जगद्वैचित्यव्यवस्थेव व्याहृता स्यात् न तु इष्टैव सा अनुभवागमविरोधादिति । 'ते णं भंते ! जीवा किं आयप्पओगे क्या अपनी अल्मा में ललवेत हुए कर्म से-अपने साथ लगे हुए कर्म से -परभक्ष में उत्पन्न होते है अथवा घर में लगे हुए कर्म से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना! आयकम्मुणा उववज्जति, लो परकम्मुगा उचषज्नंति' हे गौतम ! जीव परभव में जो उत्पन्न होतेवे अपने आत्मकर्म से ही वहां उत्पन्न होते हैं-पर के साथ लगे हुए कर्म से वे वहां उत्पन्न नहीं होते हैं। तात्पर्य यही है कि जीव परचम में अपने द्वारा किये गये कर्म के उदय से ही उत्पन्न होते हैं। पर के द्वारा किये गये कर्म की सहायता से-उद्य से नहीं । यदि ऐसा होने लगे तो फिर यह जो जगत् की विचित्रता है उसका लोप ही हो जायणा । क्यों कि हर एक कोई हर एक के कर्म की सहायता से उत्पन्न हो जायगा, परन्तु ऐसा तो होता नहीं है, इसलिये अपने कर्म की सहायता ले ही जीव परभक्ष में उत्पन्न होना है। यही यात अनुभव પિતાના આત્મામાં ઉત્પન્ન થયેલા કર્મથી–અર્થાત પિતાની સાથે લાગેલા કથી પરભવમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા બીજાઓમાં લાગેલા કર્મથી Gurन थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'गोयमा! आय मम्मणां उववज्जति नो परकम्मुणा उववज्जति' के गौतम ! ५२२ ઉત્પન્ન થાય છે. તે આત્મમંથી જ ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે.–પરની સાથે લાગેલા કર્મથી તેઓ ત્યાં ઉત્પન્ન થતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કેજીવ પરભવમાં પોતે કરેલા કર્મોના ઉદયથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. બીજાએ રેલા કર્મોની સહાયતાથી–ઉદયથી ઉત્પન્ન થતા નથી. જે બીજાની, સહાયતાથી ઉત્પન્ન થવા લાગે તે પછી જે આ જગતની વિચિત્રતા છે, તેને હે જ થઈ જાય કેમકે દરેક કોઈના પણ કમની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થઈ છે પરંતુ તેમ થયાનું જોવામાં આવતું નથી. તેથી કર્મની સહાયતાથી જ જીવ પરભવમાં ઉત્પન્ન થાય છે, એજ વાત અનુભવવામાં આવે છે. અને આગમ પણ એજ કહે છે. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.८ सू०१ नैरपिकोत्पत्तिनिरूपणम् ५०३ उववज्जति परप्पभोगेणं उबवज्जति' से खलु भदन्त ! जीवाः किमात्मपयोगे णोत्पद्यन्ते परमयोगेण वोस्पद्यन्त ? इति प्रश्नः 'भगवानाह-'गोचमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आयपोगेणं उबवज्जति नो परप्पभोगेणं उववज्जति' आत्मपयोगेण स्वकीयव्यापारेणैवोत्पधन्ते से जीवाः, न तु परमयोगेण परकीय व्यापारेण उत्पधन्ते इति । 'असुरकुमाराणं भंते ! कहं उबवजिति' हे भदन्त ! असुरकुमारा देवाः कथं केन प्रकारेण असुरकुमारावासेषु असुरकुमारदेवतया उत्पद्यन्ते ? इति पश्ना, भगवानाह-'जहा' इत्यादि, 'जहा नेरइया तहेब निरव - सेसं' यथा नैरयिका स्तथैव निरवशेष सर्वमपि दक्तम्. गथा कश्चित् प्लकोकहता है और आगन कहता है । 'ते णं भले ! जीचा आयप्पओ. गेणं उपवज्जति परपओगेणं उचवज्जति' हे भदन्त ! वे जीव क्या अपने ही प्रयोग रूप व्यापार से उत्पन्न होते है अथवा पर के प्रयोगरूप व्यापार से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोचमा' हे गौतम ! 'आयप्पभोगेणं उबवति' जीव अपने प्रयोग (यापार) ले ही उत्पा होते हैं पर के प्रयोग (व्यापार) ले उत्पन्न नहीं होते हैं । 'असुरकुमाराणं भंते ! कहं उबवज्जत्ति' हे भदन्त ! जीव असुरकुमारावालों में असुरकुमाररूप से किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जहा नेरच्या तहेच्च निरवसेसं जाव नो एरप्पओगेणं' हे गौतम ! जैसा कथन नैरमिकों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही यहां पर कथन यावत् वे परमयोग (व्यापार) से उत्पन्न नहीं होते हैं। यहां तक के प्रकरणानुसार कर लेना चाहिये । तथा च-जैले-कोई प्लक्षक __'तेण भंवे ! जीवा कि' आयपओगेणं उववज्जंति परप्पओगेणं उववज्जंति' હે ભગવન તે છે શું પિતે જ કરેલા કર્મોના ઉદયથી અર્થાત પિતાનાજ વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થાય છે કે બીજાના પ્રગરૂપ વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થાય छ १ मा प्रश्नन। उत्तरमा प्रसुश्री ४ छे 8-'गोयमा !' गौतम ! 'आयपओगेणं उववज्जंति' वाताना प्रयोग३५ व्यापारथी पन याय छ, અન્યના પ્રયાગરૂપ વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થતા નથી. ___'असुरकुमाराणं भंते ! कह उववज्जति' सावन मसुरशुभाराना मापा. માં અસુરકુમારપણાથી શી રીતે ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ -'जहा नेरइया तहेब निरक्सेसं जाव नो परप्पओगेणं' 3 ગૌતમ! નિરયિકના સંબ ધમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયા પણ યાવત્ તેઓ પરોગ (વ્યાપાર)થી ઉત્પન્ન ચતા નથી. આ કથન સુધી પ્રકરણ અનુસાર સમજી લેવું તથા જેમ કે Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ भगवतीसे ऽध्यवसायवलेन एकस्मात् स्थानात् उत्प्लवन्-स्थानान्तरे गच्छन् विहरति तथा अमरकुमार जीवा अपि अध्यवसायवलेन कर्मात्मककारणोपायमासाद्य भवानबान्तरं गच्छन्ति इत्यादि सर्वं नारकवदेव अवगन्तव्यम् इति । कियत्पर्यन्तं नारक प्रकरणमनुसन्धेयं तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जात्र नो परप्पभोगेणं उववज्जति. यावत् नो परप्रयोगेण उत्पद्यन्ते अत्र यावस्पदेन 'से जहानामए पवए परमाणे इत्यादारभ्य 'आयप्पभोगेणं उववति ' इत्यन्तं सर्वमपि नारकमकरणं संगृहीतं भवतीति । एवं एगिदियवज्जा जाच वेगाणिया' एवममुरकुमारवदेव एकेन्द्रिय वर्जिता यावद् वैमानिका अपि वक्तव्या, अनुरकुमारवदेव द्वीन्द्रियादि वैमानि कान्ताः सर्वेऽपि जीवा ज्ञातव्याः । 'एगिदिया एवं चेव' एकेन्द्रिया एवमे एकेन्द्रियजीवानामपि एकस्माद्भवाद्भवान्तरगमने एपैच वक्तव्यता ज्ञातव्या। पृथक्सत्र. (कूदने चाला) अध्यन्त्रलाय के बल से-अपनी इच्छा के यल से-एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला जाता है उसी प्रकार असुरकुमार जीव भी अध्यवसाय के अपने कर्मात्मक कारणरूप उपाध को प्राप्त करके एक भव से दूसरे भव में चले जाते हैं । इत्यादि सय कथन नारक के प्रकरण जैसा ही यहां पर समझ लेना चाहिये। 'जाब नो परप्पओगेणं उववज्जति' यहां यावत् शब्द से 'से जहानामए पवए पवमाणे यहां से लेकर 'आयप्पभोगेणं उबवति ' यहां तक का नारक प्रकरण गृहीत हुआ है । 'एवं एगिदियबज्जा जाव वेमाणिया' इसी प्रकार से एकेन्द्रिय जीवों को छोडकर थावत् वैमानिक तक के समस्त जीवों के सम्बन्ध में भी कथन कर लेना चाहिये । 'एगिदिया एवं चेव' एकेदिय जीवों के सम्बन्ध में भी यही वक्तव्यता एक भव से दूसरे भव કિદવાવાળો અધ્યવસાયના બળથી–પિતાની ઈચ્છાના બળથી એક સ્થાનેથી બીજા સ્થાને ચ યા જાય છે, એ જ પ્રમાણે અસુરકુમાર જીવ પણ અધ્યવસાયએટલે કે પિતાના કર્મના કારણરૂપ ઉપાયને પ્રાપ્ત કરીને એક ભવથી બીજા ભવમાં ચાલવા જાય છે. વિગેરે સઘળું કથન નારકેના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ मारियां समस.. 'जाव नो परप्पओगेणं उववज्जति' मड़ियां यावत् शपथा से जहा नामए पवए पवमाणे' मा थनथी मारलीन ओयपओगेणं उक्वन्जंति' मा थन सुधातुं ना२४ ५४२ सय ४२ छे. 'एवं एगिदियवजा जाव वेमाणिया' से प्रभार से छन्द्रियवाणा वा छोडीन यावत् वैमानि सुधाना सघा वाना समयमा ४थन सभ यु 'एगिदिया एवं વે એક ઇન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં પણ આ પ્રમાણેનું જ કથન એક ભવથી બીજા ભવમાં જવાના સંબંધમાં કહેલ છે તેમ સમજવું. પરંતુ આ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् ५०५ करणे हेतुं दर्शयन्नाह-'नवरे' इत्यादि, 'नवरं उसामइओ विग्गहो' नवरं चतु: सामायिको विग्रहः एकेन्द्रियजीवानां विग्रहमतिः चतुःसमयात्मिका भवतीति एतद्वैलक्षण्यमवगन्तव्यमिति । 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव विग्रहगतिव्यतिरिक्त मन्यत् सर्वम् इतरजीववदेव ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते ! 'सेवं भंते ! ति जाव विहरई तदेवं भदन्त ! तदेवं इति यावद्विहरति, हे भदन्त, भवाद्भवान्तर मुत्स. पंतां जीवानां विषये यद्देवानुप्रियेण कथितं तत् सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्पति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेनतपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥०१॥ - इति पञ्चविंशतितमेशते अष्टमोदेशकः समाप्तः में जाने में है। परन्तु जो पृथकरूप से हनका सूत्र कहा गया है वह इनकी विग्रहगति 'नवरं च उसमइओ विग्गहो' चार समय की होती है इस विशेषता को लेकर कहा गया है। सेसं तं चेव' बाकी का सब कथन इनके सम्बन्धमारक आदि जीवा के सम्बन्धमा कथन किया गया है वैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह' हे सदनल ! एक अव से दूसरे भव में जाने वाले जीवों के सम्बन्ध में जैसा माथन आप देवानुप्रिय ने किया है वह सब आस वाक्य सर्वथा प्रमाण होने से बिलकुल सत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रशुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । बन्दना नमस्कार कर फिर बे तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गधे ॥१०॥ ___ अष्टम उद्देशक समाप्त ॥२५-८॥ 'समधी सूत्रपा । स छ, त मन विहगति 'नवर चउसमाओं विगाहो' या२ समयनी थाय छे, विशेषणाने सने ४९ छे. 'सेनत चेव' माडीनुसघणु थन ना२४ विगैरेन। सधमा प्रमाणे स छ, એજ પ્રમાણે આ કથનમાં પણ સમજવું. ___ 'सेव भवे । सेव भंते ! त्ति जाव विहरइ' है सावन में सवथा मीनल ભવમાં જવાવાળા જીના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે તમામ કથન આપ્તવાકયરૂપ હોવાથી સર્વથા પ્રમાણ રૂપ છે. હે ભગવન આપી દેવાનપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય છે આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ તપ અને સંયમથી પિતના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, સૂ૦ ૧૩ આઠમે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ર૫-૮ भ० ६४ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ भगवतीसो अथ नवमोद्देशकः भारभ्यते अष्टममुद्देशं निरूप्य क्रसमाप्तं नवसोद्देशकमारभते, एवमायातस्य नवमोरे. फस्येदमादिमं सूत्रम्-'भवसिद्धिय नेरइयाण भंते' इत्यादि । मूलम्-सवलिद्धियनेरइया णं भंते! कहं उववज्जंति ? गोयमा ! से जहानासए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव जाव माणिया । लेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ पणवीलइले लए नवमो उदेसो समत्तो ॥२५-९॥ छाया-भवसिद्धिकनैरयिकाः खलु भदन्त ! कथमुत्पद्यन्ते ? गौतम ! स यथानामकः प्लवकः प्लबमानः अवशेषं तदेव यावद्वैमानिकाः तदेवं भदन्त । खदेवं भदन्त । इति ॥सू०१॥ पञ्चविंशतितमशतके नवमोद्देशकः समाप्तः ॥२५-९॥ टीका-'भवसिद्धियनेरइयाणं अंते ! कह उववज्जंति' स्वसिद्धिक नैरयिकाः खल्ल भदन्त ! कथसुत्पधन्ते हे भदन्त ! भवसिद्धिल रयिकाः भवे सिद्धि यान्ति ये ते भवसिद्धिकाः तादृशाश्च ते नैरयिका इति भवसिद्धिकनैरयिका स्ते कथं केन प्रकारेण उत्पद्यन्ते एकस्मानाद् भवान्तरं गच्छन्ति कं कारणविशेपमाश्रि नववां उद्देशक का प्रारंभ अष्टम उद्देशक का कथन समाप्त करके कम प्राप्त नौवें उद्देशक का कथन अब सूनकार करते हैं-'भवसिद्विय नेरझ्याणं भंते !' इत्यादि टीकार्थ-- ललिद्विय रहयाणं भंते ! ह उववज्जति' हे भदन्त ! भवसिद्धिक नैरपिक किस रीति से उत्पन्न होते हैं ? भव में जो सिद्धि को प्राप्त करते हैं वे भवसिद्धिक हैं। ऐसे अधसिद्धिक जो नरयिक होते हैं वे अवसिद्धिक नैरयिक हैं। वे किस प्रकार से एक भव से નવમાં ઉદ્દેશાને પ્રારંભઆઠમાં ઉદ્દેશાનું કથન કરીને કમથી આવેલા આ નવમા ઉદ્દેશાનું ४थन सूत्रा२ ४२ छ.-'भवसिद्धिय नेरइयाणं अंते !' त्याहि । 1 – 'भवसिद्धिय नेरइयाणं भंते ! कह उववजंति' के भगवन् लवસિદ્ધિક નિરયિક કઈ રીતે ઉત્પન્ન થાય છે? ભવમાં જે સિદ્ધિ મેળવે છે, તેઓ ભવસિદ્ધિક કહેવાય છે એવા ભવસિદ્ધિક જે નરયિક હોય છે, તે ભવસિદ્ધિક નરયિક કહેવાય છે તે એક ભવમાંથી બીજા ભવમાં કેવી રીતે જાય Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ ८.९ सू०१ भवसिद्धिकनैरयिकोत्पत्तिनि० ५०७ स्येति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमः' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा. नामए पवए पवमाणे' स यथानामकः कश्चित् प्लवका-प्लवनकर्ता पुरुषः प्लवमानः-उत्प्लुतिं कुर्वन् एकस्मात् देशाद् देशान्तरमवाप्य विहरति तथा भवसिद्धिकनैरयिका अपि भवन्तीति ‘असेसं ते चेव जाव वेमाणिया' अवशेष तदेव यावद्वैमानिकाः, अत्र यावत्पदेन 'अज्झासाणनिबत्तिए' इत्याधष्टमोद्देशक प्रकरणस्य संग्रहो भवति । एतस्य प्रकरणस्य व्याख्यानं यथा अष्टमोदेशके कृतं तथैव निरशेषमिहापि सर्व ज्ञातव्यम् । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! भवसिद्धि कनैरयिकाणा मुत्पादादिविषये यद् दसरे भव में जाते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! से जहा नामए पवए पचमाणे' जैले हे गौतम! कोई प्लवक पुरुष कूदता कूदता एक देश ले-एक स्थान ले-दूसरे देश में-स्थान में पहुंच जाता है। उसी प्रकार से अवसिद्धिक नैरयिक भी एक भव से दूसरे भव में उत्पन्न हो जाते हैं। 'अवले संत चेव जाव वेमाणिए' बाकी का और सब कथन यावत् वैमानिक तक पूर्वोक्त आठवां उद्देशक के कथन जैसा ही जान लेना चाहिये-यहां यावत्पद से पूर्वोक्त अष्टम उद्देशक के प्रकरण का 'अज्झवताणनिवत्तिए' इत्यादि समस्त पाठ ग्रहण हुआ है, इस प्रकरण का व्याख्यान जिस प्रकार से अष्टम उद्देशक में किया गया है वैसा ही यहां पर भी वैमानिकपर्यन्त समझना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह भवसिद्धिक नैरयिकों के उत्पाद आदि के विषय में कथन किया है वह सब आप्त छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छे है-'गोयमा! से जहानामए पवए' gવમળ” જેમકે હે ગૌતમ કેઈ કૂદનારે પુરૂષ કૂદતે કૂદ એક સ્થાનથી બીજે સ્થાને એટલે કે-એક દેશથી બીજા દેશમાં પહોંચી જાય છે, એજ પ્રમાણે ભવસિદ્ધિક નૈયિક પણ એક ભવથી બીજા ભવમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય छ. 'अवसेस त चेव जाव वेमाणिए' माहीतु मी सघणु ४थन यापत વિમાનિક સુધી પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. અહિયાં યાવત્ પદથી पडसा मुडदा मामा शाना मा ४२मा ४३a 'मझवसाणनिवत्तिए' ઈત્યાદિ સઘળે પાઠ ગ્રહણ કરેલ છે. આ પ્રકરણનું વ્યાખ્યાન આઠમા ઉદેશામાં કરવામાં આવ્યું છે. એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજી લેવું. 'सेव भंते ! सेव भंते ! चि' 3 समपन् ५ देवानुप्रिये मा स સિદ્ધિક નિરયિકેના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં કથન કરેલ છે, તે તમામ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ भगवतीस देवानुमियेण कथितं तत् सर्वम् एवमेव-सर्वधा सत्यमेव आप्तवाक्यस्य सर्वथा यथार्थत्वादिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं तीर्थकरं चन्दते नसस्यति वन्दिता नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥० १॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपानकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजपदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्री घासिलालबतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्थ " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पञ्चविंशतितमशतके __नवमोदेशकः समाप्तः ॥२५-९॥ वाक्य में सर्वथा यथार्थता होने से विलकुल सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को वन्दना की नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।मु०१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्यापाके पचीसवें शतक का नवम उद्देशक समाप्त ॥२५-९॥ કથન આપ્તવાકય સર્વથા યથાર્થ હોવાથી બિલકુલ સત્ય છે. હે ભગવન આપનું કથન સર્વથા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. જાસૂા જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકને નવમો ઉદ્દેશક સમાસ ૨૫-૯ો Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.१० लू०१ अभवसिद्धिक नैरयिकोत्पत्तिनि० ५०९ अथ दशमोद्देशक प्रारभ्यते• नवमोद्देशकं व्याख्याय क्रमप्राप्त दशमोद्देशकमारभते तदनेन संवन्धेना'यातस्य दशमोद्देशकस्येदं सूत्रम्-'अभवसिद्धि य' इत्यादि । - मूलम्-अभवसिद्धियनेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जंति गोयमा ! से जहानामए पवए परमाणे अवसेसं तं चेव, एवं जाव वेमाणिया। लेवं भंते ! लेवं अंते! ति ॥मू०१॥ पणवीसइमे सए दसमो उद्देलो लमत्तो ॥२५-१०॥ छाया-अभवसिद्धिकनैरयिकाः खलु भदन्त ! कथमुत्पद्यन्ते ? गौतम । स यथानासकः प्लवकः पलमानः अवशेषं तदेव एवं यावद् वैमानिकाः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥मू० १॥ पञ्चविंशतितमे शतके दशमोद्देशकः समाप्तः ॥२५-१०॥ टीका--'अमवसिद्धियाणं भंते कहं उवरज्जंवि' अभवसिद्धिकनैरयिकाः खलु हे भदन्त ! कथं केन प्रकारेग नरकाचासे उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा नामए पवए पवमाणे स यथानमको कश्चित प्लवकः पवमानः, 'अबसेसं तं चेव' अवशेषम् अवशिष्टं सर्व तदेव ॥ दलका उद्देशाक का प्रारंभ लौवे उद्देशक का कथन करके अब मूत्रकार क्रमप्राप्त दसवें उद्देशक का कथन करते हैं-'अभवसिद्धिय नेरयाणं भंते !' इत्यादि टीकार्थ-'अभवसिद्धि नेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जति' हे भदन्त । अभवसिद्धिक नरयिकरूप से जीव किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं। उ०-'गोयमा ! से जहानामए पवए परमाणे अवलेलं तंचेव एवं जाव वेमाणिए' हे गौतम ? जैसे कोई कूदनेवाला मनुष्य कूदता कूदता एक દસમા ઉદેશાને પ્રારંભનવમા ઉદેશાનું કથન કરીને હવે સત્રકાર કમથી આવેલ આ દસમા अशानु थन ४२ ७.-'अभवसिद्धिय नेरइयाणं भंते" त्यादि --'अभवसिद्धिय नेरइयार्ण भंते । कह उववज्जति' मापन मन સિદ્ધિક નૈરયિકપણાથી જીવ કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतमस्वामीन ४ छे -'गोयमा! से जहानामए पवए पवमाणे अवसेसं त चेव एवं जाव वेमाणिए' 3 गौतम ! म छपा वाणे मनुष्य Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसो अष्टमोद्देशकवदेव । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव वेमाणिया' यावद् वैमानिका वैमानिकपर्यन्तः सर्वोऽप्यालापकोऽत्र वाच्यः। 'सेवं मंते सेवं भंते' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! हे भदन्त ! अभवसिद्रिकनारकविषयये भवा यत्मोक्तं सदेवमेव सत्यमेवेति कथयित्वा भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा नमस्यिया संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥१० १॥ पञ्चविंशतितमे शतके दशमोदेशकः समाप्तः ॥२५-१०॥ स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाता है, इत्यादि समस्त कथन इस सम्पन्ध में पूर्वोक्त जैसा ही समझना चाहिये और वह सब कथन इसी रीति से यावत् एकेन्द्रियवर्जित वैमानिक देवों तक करना चाहिये। 'वं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त जैसा आप देवानुप्रिय ने यह सब कथन अभवसिद्धिक नैरयिक आदि के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में किया है वह सब आसवाक्य में सर्वथा यथार्थता होने के कारण यिल. कुल सर्वरूप से-सत्य ही है । इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री की स्तुति की नमस्कार किया। स्तुतिनमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्माको भावित करते हुए अपने स्थान पर विरा. जमान हो गये ॥१०॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याक पचीसवें शतकका दशवो उद्देशक समाप्त કુદતા કૂદતા એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન પર પહોંચી જાય છે, વિગેરે પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનું આ વિષયમાં અહિયાં પણ સમજી લેવું. અને તે સઘળું કથન એજ પ્રકારે યાવત્ વિમાનિક દેવોના કથન સુધી કહેવું જોઈએ _ 'सेव भते ! सेव' भंते ! त्ति' है भगवन् मा५ हैवानुप्रिये मनसिद्धि નરયિકે વિગેરેના ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન આપ્તવાકય હોવાથી યથાર્થ છે. અર્થાત્ એકદમ સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. શાસ્ત્રના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકને દસમો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ઘર૫–૧૦ના Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका इ०२५ उ.११ सू०१ सम्यग्दृष्टि नैरयिकोत्पत्तिनि० ५११ अथैकादशोदेशकः प्रारभ्यतेमूलम् -सम्मदिष्ट्रि नेरझ्याणं भंते ! कह उववज्जति ? गोयमा! से जहा नामए पवए परमाणे अवसेसं तं चैव एवं एगिदिय. बजा जाव वेमाणिया, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०११।। पणवीसइमे लए एगारसमो उद्देसो समत्तो ॥२५-१॥ छाया--सम्यग् दृष्टिनैरयिकाः खलु भदन्त ! कथमुत्पद्यन्ते गौतम ! स यथा-नामकः प्लवका प्लवमानः अवशेषं तदेव एवमेकेन्द्रियवर्जा यावद्वैमानिकार, तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।।सू० १॥ पञ्चविंशतिशतके एकादशोदेशकः समाप्तः टीका--'सम्मदिट्टि नेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जति' सम्यग् दृष्टि नैरयिकाः खल भदन्त ! कथं-केन प्रकारेण नरकाबासे उत्पधन्ते? इति प्रश्नः, भगवानाइ'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहानामए पवए परमाणे' स यथानामकः कश्चित् प्लचकः प्लवमानः 'अवसेसं तं चेव' अवशेषं तदेव 'अज्झवसाणनित्तिएणं' इत्यादिकं सर्वमष्टमो देशकपरिसमाप्तिपर्यन्तमिहापि ज्ञातव्यम् कियत्पर्यन्तमष्टमोद्देशकमवगन्तव्यं तत्राह-‘एवं' इत्यादि, ‘एवं एगिदियवज्जा ग्यारह वें उद्देशक का प्रारंभ दशवें उद्देशक का कथन समाप्त करके क्रमप्राप्त अब सूत्रकार ग्यारहवें उद्देशक का कथन प्रारंभ करते हैं-'सम्मद्दिष्टि नेरझ्या णं भंते ! कहं उववज्जंति' इत्यादि। टीकार्थ--'सम्मद्दिष्टि नेरक्या णं भत्ते ! कहं उचवज्जति' हे भदन्त । जीव सम्यग्दृष्टि नैरथिक रूप से नरकावासों में कैसे उत्पन्न होते हैं ? उ०-'गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे-अवलेस तंचेव एवं एगि. दियवा जाव वेमाणिया' हे गौतम ! जैसा कोई प्लावक-कूदने અગીયારમા ઉદેશાનો પ્રારંભ દસમા ઉદ્દેશાનું કથન કરીને કમાગત આ અગિયારમા ઉદ્દેશાનું કથન सूत्र४.२ प्रारम ४२ छ –'सम्मदिद्वि नेरइयाणं भंते । कह उववज्जंति' त्यादि टी -'सम्मदिट्ठि नेरइयाणं भंते । कह उववज्जंति' 8 लगवन् ७१ સમ્યગ્દષ્ટિ નિરયિકપણાથી નરકાવાસમાં કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! से जहानासए पवए पवमाणे अवसेस त चेव एव एगिदियवज्जा जाव वेमाणिया' हे गौतम ! २५ शते Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५१२ भगवतीसरे जाव वेमाणिया' एवं एकेन्द्रियरहितवैमानिकपर्यन्तदण्ड के प्वपि उत्पादादिव्या वस्था ज्ञातव्येति 'सेवं भंते ! लेवं भंते !ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त | इति, सम्यग् दृष्टि नारकादीना मुत्पादादिविपये यद् भवता कथितं तत्सर्वम् एवमेवसर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा भगवन्तं वन्दते नमस्यति चन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥१०१।। । इति पञ्चविंशतितमशतके एकादशोदेशकः समाप्तः वाला मनुष्य कूदता कूदता एक स्थान से दूसरे स्थान पर पढ जाता है 'अउझवसाणनिवत्तिए णं' इत्यादि सा कथन अष्टम उद्देश का यहां पर कहना चाहिये कहांतक कहना चाहिये ? इस पर कहते हैं 'एवं एगिदियदज्जा जाव वेगाणिया' इस सूत्रपाठ तक फहना चाहिये एकेन्द्रिय को छोडकर वैमानिक दण्डकों में भी उत्पादादि व्यवस्था जाननी चाहिये । 'सेवं भंते ! लेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त सम्यग्दृष्टि नारक आदिकों के उत्पाद आदि के विषय में जो आपने कहा है वह सय सर्वथा सत्य ही है। इस प्रकार काल कर गौतमरवामी ने प्रभुश्री को वन्दना की और उन्हें नामरकार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥०१॥ ग्यारह बां उदेशक जयाप्त કેઈ કૂદવાવાળો મનુષ્ય કૂદતે કૂદતે એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન પર પહોંચી तय छ, 'अज्झवसाणनिवत्तिएण' विगैरे पूर्वात सघणु ४थन माडियां मारा। ઉદેશાનું કહેવું જોઈએ. તે કયાં સુધી કહેવું તે સંબધમાં એકેન્દ્રિયોને છોડીને यावत् वैमानि । सुधी ४बु नये. गाडियां 'एव एगिदियवजा जाव માળિયા’ આ સૂત્રપાઠ સુધી ગ્રહણ થયેલ છે, તેથી સમ્યગ્દષ્ટિ નારકના કથન પ્રમાણેજ એક ઈદ્રિયને છેડીને વૈમાનિક સુધીના દંડકમાં પણ ઉત્પાદ વિગેરેની વ્યવસ્થા સમજવી. 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' लगवन् सभ्यष्टिा ना२४ विगेरेना ઉત્પાદ વિગેરે વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કહેલ છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. આ૫ દેવાનુપ્રિયનું કથન આપ્તવાકય હોવાથી સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તથા તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા પોતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦ ૧૫ અગીયારમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત રપ૧૧ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचन्दिका टीका श०२५ उ.१२ २०१ मिथ्याटिनैरयिकोत्पत्तिनि० ५१३ य ॥ द्वादशोदेशका मारभ्यते || . पञ्चविंशतितमे शतके एकादशोदेशकं निरूप्य क्रममाप्तं द्वादशोदेशक निरूपयन्नाह-'मिच्छादिट्ठि नेरझ्या णं भंते' इत्यादि। । मूलम्-मिच्छादिष्ट्रि नेरइया णं भंते ! कहं उववज्जंति, गोयमा! ले जहानामए पवए पत्रमाणे अवसेसं तं चैव, जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ . पणवीसइमे लए बारसलो उद्देसो समत्तो ॥२५–१२॥ , छाया-मिथ्याष्टि नैरयिकाः खलु भदन्त ! कथमुत्पद्यन्ते ! गौतम ! स ययानामकः प्लवका प्लवमानः अवशेषं तदेव, एवं यावद्वैमानिकाः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥मू० १॥ . पञ्चविंशतितमे शतके द्वादशोद्देशकः समाप्तः : टोका-मिच्छादिहि नेरइयाणं भंते !' हे भदन्त ! मिथ्यादृष्टिनरयिकाः जीवाः 'कहं उववज्जंति' कथं-केन प्रकारेण उत्पद्यन्ते नरकावासे इति प्रश्नः, वारहवें उद्देशक का प्रारंभ ग्यारहवें उद्देशे का व्याख्यान करके अब सूत्रकार क्रमप्राप्त १२ 'बारहवें उद्देश का निरूपण करते हैं-'मिच्छादिष्टि नेरच्या णं भंते ! कह उववज्जति इत्यादि। टीकार्थ–'मिच्छादिट्टि नेरइया णं भंते !' हे भदन्त ! मिथ्याष्टि नैरयिक जीव 'कहं उववज्जति' नरकावास में किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! से जहानामए पवए બારમા ઉદેશાને પ્રારંભઅગીયારમા ઉદેશાનું વ્યાખ્યાન કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમથી આવેલા આ मा२मा उद्देशानु नि३५५ ४२ छ –'मिच्छादिट्ठि नेरइया णं भंते ! कह उववज्जति' ४० . -'मिच्छादिदि नेरइयाणं भते । सन् मिथ्याटि नैराय ___७१ 'कह उपवज्जंति' न२४ासमा वी शत 4-1 थाय छ १ मा प्रश्नाना । उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामीन. ४ छे ई-गोंयमा ! से जहानामए पवए Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भगवानाह---'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहानामए' स यथा. नामकः 'पवए पश्माणे' प्लाका-उत्प्लुतिकारकः पुरुषः 'परमाणे' प्लबमान:उत्पलुतिं कुर्वन् 'अवसेसं तं चेव' अवशेषं तदेव, अष्टमोद्देशकवदेव ज्ञातव्यम् किय. स्पर्यन्तमित्याह-'एवं जाव वेषाणिया' एवं यावद् वैमानिकाः । सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! वदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! मिथ्याष्टि. नारकादीना मुस्पत्यादिधिपये यद् देवानुभियेण कथितम् तद् एवमेव सर्वथा परमाणे अबसेसं तं चेव, एवं जाब माणिया' । जिस प्रकार कृदने वाला कोई पुरुप कृदता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार से मिथ्यादृष्टि नारक भी अध्यवसाय और योग विशेष से निर्तित करणोपाय द्वारा पूर्व भय को छोड कर आगामी कालमें होने वाले भवान्तर में पहुंच जाते हैं। यहां 'अन्झवसाणनिवत्तिएणं' से लेकर एवं जाच वेमाणिया' यहां तक का सय प्रकरण आठवें उद्देशक के कथन जसा समझ लेना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति' हे भदन्त ! मिथ्यादृष्टि नारक आदि कों के उत्पाद आदि के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है। इस प्रकार से कह कर गौतमस्वामी ने भगवान को वन्दना की और पवमाणे अवसेस त चेव, एवं जाव वेमाणिया' २ प्रमाणे पापाजी ४४ પુરૂષ કદતો કૂદતે એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન પર પોંચી જાય છે. એ જ પ્રમાણે નિષાદષ્ટિ નારક પણ અધ્યવસાય અને ચોગવિશેષથી નિર્વર્તિત કરાપાયથી પૂર્વભવને છોડીને ભવિષ્યકાળમાં થવાવાળા ભવાનરમાં પહોંચી तय थे, गालियां 'अज्झवसाणनिवत्तिएणं' को सूत्रपाठी ने 'एव जाव वेमाणिया' मा ४थन ५यत तमा! ५४२३ २४ देशाना ४थन प्रमाणे સમજવું જોઈએ. 'सेव भंते । सेव भंते ! त्ति' सन् भिथ्याष्टि ना२४ विगेरेना ઉત્પાદ વિગેરે વિષયમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કરેલ છે, તે સર્વથા સત્ય છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન આપ્ત હોવાથી સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैन्द्रिका टीका श०२५ उ. १२०१ मिथ्यादृष्टिनैरयि कोत्पत्तिनि० ५१५ सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते-नमस्पति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ सू० १ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मं दिवाकर - पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य " ममेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पश्ञ्चविंशतिशतकस्य द्वादशोदेशकः समाप्तः ॥२५-१२॥ समाप्तश्च पञ्चविंशतितमः शतकः ||२५|| उन्हें नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके पचीसवें शतकका १२ वां उद्देशक समाप्त ॥२५-१२॥ २५ वां शतक का समाप्त શ્રીગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને વંદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યાં વ’ઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેએ સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. !!સૢ૦ ૧૫ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકરપૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના પચીસમા શતકના ખારમે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ઘર૫-૧૨ ૫ પચ્ચીસમુ' શતક સમાપ્ત 瓿 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ॥ अथ पइविंशतितमं शतकं प्रारभ्यते ।। पञ्चविंशतितमं शतकं व्याख्यातं, क्रममाप्तं तदनु पइविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः पञ्चविंशतितमे शतके नारकादि जीवानामुत्पादः कथितः स चौतादो वन्धपूर्वको भवतीति पट्टविंशतितमशतके मोहकर्मवन्धो विचार्यते, इत्येवं संवन्धेन आयातस्य पदविंशतितमस्य शनफस्पैकादशोदेशकममाणस्य प्रत्युद्देशकं द्वारनिरूपणाय तावदादी गाथामाह-'जीवा य' इत्यादि । मूलम्-नमो सुयदेवयाए भगवईए। जीवाय लेस्स पाक्खिय दिट्री अन्नाण नाण सन्नाओ। वेयं कसाए उवजोग जोग एक्कार वि ठाणा॥१॥ छाया-नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै । जीवाश्च १ ले ॥ २ पाक्षिको ३ दृष्टि ४ अज्ञान ५ ज्ञानं ६ संज्ञाः ७ । वेदः ८ कपाय९ उपयोगो १० योगः ११ एका. दशापि स्थानानि ॥१॥ छवीमवें शतक का प्रारंभ पच्चीस वां शतक कह कर अब सूत्रकार क्रम प्राप्त २६ वें शतक को प्रारम्भ करते हैं। इसका पूर्व शतक के साथ ऐसा सम्बन्ध है कि पच्चीम वें शतक में नारकादि जीवों के उत्पाद आदि कहे गये हैं। सो ये उत्पाद आदि बन्धपूर्वक होते हैं। अत. इस छाईस वें शतक में मोहकर्म आदि के बन्ध का विचार किया जायगा। इसी सम्बन्ध से आये हुए इस छाईल वे शतक के जो कि ग्यारह उद्देशों वाला है हर एक उद्देशक के द्वार का निरूपण करने के लिये आदि में सूत्रकार ग्यारह हारों की संग्रहगाथा को कहते हैं છવ્વીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશાને પ્રારંભપચ્ચીસમા શતકની વ્યાખ્યા કરીને હવે સૂત્રકાર કમથી આવેલ આ છવ્વીસમા શતકને પ્રારંભ કરે છે આ શતકને પહેલા શતકની સાથે એ પ્રમાણેને સમ્બન્ધ છે કે–પચીસમા શતકમાં નારક વિગેરે જેના ઉત્પાત વિગેરેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. અને તે ઉત્પાદ વિગેરે બન્ધ પૂર્વક હોય છે. એ સમ્બન્ધથી આવેલા આ ઇવીસમા શતકના કે જેના અગીયાર ઉદેશાઓ છે. દરેક ઉદ્દેશક અને તેના દ્વારેનું નિરૂપણ કરવા માટે આરમ્ભમાં સૂત્રકારે આ નીચે પ્રમાણે ગાથા કહી છે. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयान्द्रका टीका श०२६ उ.१ पइविंशतिशतकस्योद्देशसंग्रहः ५१७ - टीका-'नमो सुयदेवयाए भगवईए' नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै, श्रुतदेवतेति जिनवाणी तस्यै कीदृश्यै ? इत्याह भगवत्यै ज्ञानेश्वर्यवत्यै नमः नमोऽस्तु । अथ प्रथम पइविंशतितमशतके यावन्ति द्वाराणि तानि गाथया प्रदयन्ते-'जीवाय' इत्यादि। 'जीवाय' जीवाश्चेति सामान्यजीवमाश्रित्य स्थान द्वारमित्यर्थः तत्र प्रथम स्थान जीवनामकं सामान्यजीवमधिकृत्य कर्मवन्धस्य विचार्यमाणत्वात इति जीवनामकं प्रथम स्थानम् १। ततः 'लेस्सा' लेश्या-लेश्यामधिकृत्य विचार्यमानत्वात् लेवानामकं द्वितीय स्थानम् २ । 'पाक्खिय' पाक्षिक शुक्लपाक्षिक कृष्णपाक्षिक विषयकं तृतीयं स्थानम् ३ । 'दट्ठी' दृष्टयः-दृष्टिविषयकं चतुर्थ स्थानम् ४ । 'अन्नाणं' अज्ञानम्-अज्ञाननिरूपणविपयकं पञ्चमं स्थानम्५ । 'नाणं' ज्ञानम्-ज्ञाननामकं पष्ठं स्थानम् ६। 'सन्नाओ' संज्ञाः संज्ञानां विचार्यमाणत्वेन संज्ञानामकं टीकार्थ--'जीवाय' इत्यादि-जिस संकेत से श्रुतज्ञाल उत्पन्न होना है ऐसी भगवती ऐश्वर्यशालिनी श्रुत देवी जिनवाणी के लिये नमस्कार हो। इस शतक में ११ ग्यारह उद्देशे हैं, इन में से प्रत्येक उद्देशे में जीव, लेश्या, पाक्षिक, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञा, वेद, कषाय, योग और उपयोग इन ११ विषयों को लेकर बन्ध वक्तव्यता कही जावेगी। ११ उन ग्यारह द्वारों के नाम इस प्रकार से हैं-'जीवाय' इत्यादि इसमें प्रथम स्थान जो जीव है उसको लेकर के बन्धवक्तव्यता का विचार किया गया है, इसलिये जीव नाम का प्रथम द्वार है १ । लेख्शा नाम का द्वितीय द्वार है २, शुक्ल पाक्षिक एवं कृष्ण पाक्षिक विषयक तृतीय हार है ३, दृष्टि विषयक चतुर्थ द्वार है ४, अज्ञान के निरूपण विषयक पांचवां द्वार है। ज्ञान नाम का छठा द्वार है ६, संज्ञा -'जीवाय' इत्यादि २ सतथी श्रुतज्ञान 64-1 थाय छ. वी ભગવતી શ્રુતિદેવીને નમસ્કાર કરું છું. આ શતકમાં અગીયાર ઉદ્દેશાઓ છે. તેમાં દરેક ઉદ્દેશાઓમાં જીવ. वेश्या, पाक्षिy, मुष्टि, भज्ञान, ज्ञान सजा, वह, उषाय, यो मन योग આ અગિયાર વિષાને લઈને બન્ધક વક્તવ્ય કહેવામાં આવશે. તે અગીયાર देशासाना नाभी मा प्रभाए छ.-'जीवाय' त्या मामां पडे स्थान २ ‘જીવ છે, તેને ઉદ્દેશીને બંધ સંબંધી કથન કરવામાં આવેલ છે. તેથી જીવ નામને પહેલે ઉદ્દેશે કહેલ છે ૧ લેસ્યા નામને બીજે ઉદેશે છે શુકલ 'પાક્ષિક અને કૃષ્ણ પાક્ષિક સંબંધી ત્રીજે ઉદ્દેશે કહેલ છે. ૩ દષ્ટિસંબંધી ચશે ઉદ્દેશો કહેલ છે. ૪ અજ્ઞાનના નિરૂપણ સંબંધી પાંચમે ઉદ્દેશો છે. ૫ જ્ઞાન નામને છઠ્ઠો ઉદ્દેશ છે, સંજ્ઞા નામને સાતમે ઉદ્દેશ છે. સ્ત્રી પુરૂષ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भगवतीसत्र सप्तमं स्थानम् ७ । 'वेय' वेदः स्त्रीपुरुषादि वेदविषयक्रमष्टमं स्थानम् ८ । 'कसाए' कपायः-पायविषयकं नवमं स्थानम् ९ । 'उवजोग' उपयोगा-उपयोगविषयक दशमं स्थानम् १० । 'जोगे' योगनामकमेकादशं स्थानम् ११ । 'एक्कारस वि ठाणा' तदेवम् एकादशापि स्थानानि द्वाराणीति' अत्र गाथायां पूर्वम् 'अज्ञान' पश्चाद्ज्ञानं' इति, तथा पूर्वम् 'उपयोगः' पश्चात् 'योगः' इति यन्यस्त तत् छन्दो. भगभयात् क्रमस्तु-ज्ञानम्, अज्ञानम् योग उपयोग इति ज्ञातव्यः अस्यैव क्रमस्य सूत्रे प्रतिपादितत्वात् इति गाथार्थः । १॥ ___ अथ समूच्चयजीवमाश्रित्य एकादशभिरुक्तरूप जीवादिभिर बन्धवक्तव्यता प्रथमोद्देशकेऽभिधातुमाह-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि मुला-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीजीवेणं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ१। बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ २ । बंधी न बंधइ बंधिस्सइ३ । बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ४ ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ । अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्लइ२ । अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्त३३ । अत्थेगइए वंधी ण बंधड़ ण बंधिस्सइ४(१) सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ, नाम का सातवां द्वार है ७। स्त्री पुरुष आदि वेद विषयक ८ आठवां द्वार है ८ । कपाय विपथक नौ यां द्वार है ९ । उपयोग विषयक दशा हार है १० और योग विषयक योग लामका ग्यारहवां द्वार है ११ । इस प्रकार से इस शतक में ये ११ स्थान-दार है। ___ अथ सर्व प्रथम स्वत्रकार २६ वें शतक में समुच्चय जीव को लेकर इन ग्यारह द्वारों द्वारा यन्ध सम्बन्धी वक्तव्यता का कथन करते हैंવિગેરે વેદ સંબધી ૮ આઠમો ઉદેશે કહેલ છે. કષાય સંબંધી નવમો ઉદ્દેશે છે. ઉપગ સંબંધી દસમે ઉદ્દેશ છે. અને એગ સંબંધી “ગ” નામને અગીયારમો ઉદ્દેશ છે. આ રીતે આ છવ્વીસમા શતકમાં આ અગિયાર देशामा-स्थान छ. હવે સૌથી પહેલાં સૂત્રકાર આ છવ્વીસમા શતકમાં સમુચ્ચય જીવોને આશ્રિત કરીને આ અગીયાર દ્વારે દ્વારા બંધ સંબંધી કથન આ પહેલા નશામાં કરે છે Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् धंधी बंधइ ण बंधिस्सइ२। पुच्छा, गोयमा! अस्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ१। अस्थैगइए-एवं चउभंगो । कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा, गोयमा! अत्यंगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्लइ एवं जाव पम्हलेस्से । सम्वत्थ पढमबितियभंगा। सुकलेस्ले जहा सलेस्से तहेव चउमंगो। अलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं पंधी पुच्छा, गोयमा! बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ २। कण्हपक्खिए णं भंते ! जीवे पावं कसं पुच्छा, गोयमा! अत्थे. गइए बंधी० पढम वितिया भंगा। सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे पुच्छा, गोयमा ! चउसंगो भाणियब्वो ।३। सम्मदिट्री णं चत्तारि भंगा। मिच्छादिट्री पढमबितिया भंगा सम्ममिच्छादिट्रीणं एवं चेव ४॥ नाणीणं चत्तारि भंगा। आमिणिबोहियनाणीणं जाव मणपज्जवनाणीणं चत्तारि भगा। केवलनाणीणं चरमो भंगो जहा अलेस्साणं ५। अन्नाणीणं पढमबितिया। एवं मइअन्नाणीणं सुयअन्नाणीणं विभंगणाणीण वि ६॥ आहारसन्नोवउत्ताणं जाव परिरगहसन्नोवउत्ताणं पढमवितिया। नो सन्नोवउत्ताणं चत्तारि७॥ सवेदगाणं पढमवितिया। एवं इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा पुरिसनपुंसगवेयगा वि। अवेदगाणं चत्तारि ८॥ सकसाईणं चत्तारि. कोहकसाई णं पढमवितिया भंगा। एवं माणकसाईस्स वि, लोभकराईस्स चत्तारि भंगा। अकसाईणं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्लाइ३, अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ४९॥ सजोगिस्स चउभंगो । एवं सणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० भगवती कायजोगिस्ल वि। अजोगिरस परिमो १०। सागारोवउत्ते चत्तारि अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा ॥सू० १॥ छाया--तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे यावदेवमवादीत्-जीवः खलु भदन्त ! पापं कम किम् अवधनात् वनाति भन्स्यति १, अवन्नात् वनाति न भन्स्यति २, अध्वनाद न वनाति भन्तस्यति ३, अवधनात् न बध्नाति न भन्स्यति ४, गौतम ! अस्त्येककोऽवनार बध्नाति मन्त्स्यसि १, शस्त्येककोऽ. बध्नात् वध्नाति न मन्त्स्यति २, अस्त्येककोऽचनात् न वनाति भन्स्यति ३, अत्येककोऽवध्नात, न बध्नाति न भन्स्पति ४ । (१) सम्लेश्यः खलु भदन्त ! जीवः पापं कम किम् अबध्नात् बध्नाति मन्त्स्यति १, अब धनात बध्नाति न भन्तस्यति २ पृच्छा गौतम ! अस्त्येककोऽध्यात. वनाति भन्स्यति ? अस्त्ये रुक-एवं चतुर्भगः । कृष्णलेश्यः खलु भदन्त ! जीवः पापं कर्म किम् अवघ्नात् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् वध्नाति भन्स्यति १, अस्त्येककोऽवनात बध्नाति न भन्त्स्यति एवं यावत् पदमलेश्यः, सर्वत्र प्रयमद्वितीयभङ्गौ । शुक्ललेश्ये यथा सलेश्ये तथैव चतुर्भगः । अलेश्यः खलु भदन्त ! जीवः पाप कर्म किम् अवघ्नात् पृच्छा, गौतम ! अबध्नात् न बध्नाति न भन्स्यति २ । कृष्णपाक्षिकः खलु भदन्त ! जीवः पापं कर्म पृच्छा, गौतम ! अस्त्येकको. ऽवधनात् प्रथमद्वितीयभगी। शुक्लपाक्षिका ग्वलु भदन्त ! जीः पृच्छा, गौतम ! चतुर्भगो भणितव्यः ३ । सम्यग्दृष्टीनो चन्वारो भङ्गाः, मिथ्यादृष्टीनां प्रथमद्वतीयौ भनौ, सम्यमिथ्यादृष्टीनाम् एवमेव १ | ज्ञानिनां चधारो भनाः, आमिनिवोधिकज्ञानिनां यावन्मनःपर्यवज्ञानिनां चत्वारो भगाः, केवलज्ञानिनां चरमो भङ्गः, यथा अलेश्यानाम् ५ । अज्ञानिना प्रथमद्वितीयौ, एवं मत्य ज्ञानिनां श्रुताज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनामपि ६ । आहारमज्ञोपयुक्तानां यावत् परिग्रहसंज्ञोप युक्तानां प्रथम द्वितीयो, नोसंशोपयुक्तानां चत्वारः ७ । सवेदकानां प्रथमद्वितीयौ, 'एवं स्त्रीवेदकाः, पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदका अपि । अवेदकानां चत्वारः, ८ । ' सकपायिणां चत्वारः, क्रोधकपायिणां प्रथमद्वितीयो भङ्गौ । एवं मानकपायिणोऽपि, मायाकपायिणोऽपि । लोभकपायिणश्चत्वारो मङ्गाः । अपायी ग्वल भदन्त ! जीवः पापं कर्म किम् अवधनात् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् । न बध्नाति मन्त्स्यति ३, अस्त्येककोऽव-नात् न वनाति न अन्त्यति ४ १९। स योगिनश्चतुर्भङ्गा, एवं मनोयोगिनोऽपि, वाग्योगिनोऽपि, काययोगिनोऽपि । अयोगिनश्चरमः१० । साकारोपयुक्ते चत्वारः, अनाकारोपयुक्तेऽपि चत्वारो भङ्गाः११ ॥०१॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन्द्रिका टीका हा०२६ उ. १ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ५२१ 1. टीका - - ' तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' राय-गिहे जाव एवं व्यासी' राजगृहे यावदेवमवादीत् अत्र यावत्पदेन भगवतः समवसरणमभवत्परिषत् निर्गता भगवता धर्मोपदेशो दत्तः परिषत् प्रतिगता, तदनु गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति चन्दित्वा नमस्थित्वा माञ्जलिपुट इत्यादि मकरणस्य सङ्ग्रहो भवतीति । किमवादीत् गौतमस्तत्राह - 'जीवे णं' इत्यादि, 'जीवे णं भंते' जीवः खलु भदन्त | 'पावं कसं किं चंधी' पापम् - अशुभं कर्म किं बन्धी ' अवनात अतीतकाले शुभकर्मगो बन्धनं कृतवान् किमित्यर्थः 'बंध' वर्तमाकाले अशुभं कर्म वध्नाति - अशुभकर्मणो बन्धनं करोति किमित्यर्थः । ' वंधिस्त ' भन्त्स्यति अनागतकाले अशुभकर्मणो वन्धनं करिष्यति किमित्यर्थः १ | 'बंधी' 'तेण कालेन तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी' इत्यादि । 1 टीकार्थ- - उस काल और उस समय में राजगृह नगर में भगवान् गौतमस्वामी ने यावत् प्रभुश्री से इस प्रकार पूछा- यहां यावत्पद से भगवान् का समवसरण हुआ, परिषदा अपने-अपने स्थान से आई, भगवान् ने धर्मोपदेश दिया, धर्मोपदेश सुनकर परिषदा अपने-अपने • स्थान पर वापिस हो गई इसके बाद गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की नमस्कार किया और फिर वन्दना नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर ' इस पाठ का संग्रह हुआ है। 'जीवे णं भंते! पावं कम्मं किं बंधी, बंध, धिस्स १' हे भदन्त ! जीवने क्या अतीत काल में पापकर्म बांधा है ? 'वर्तमान में वह क्या उसे बांध रहा है। तथा आगे भी वह क्या उसे बांधेगा ? अशुभ कर्म का नाम पाप है । ऐसा यह प्रथम भंग है? | 'बंधी 'वेणं कालेणं वेगं समएण रायगिहे जाव' त्याहि ટીકા તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીર પ્રભુનું સમવસરણ થયું. પરિષદ પાતપેાતાના સ્થાનેથી ભગવાનને વદના કરવા આવી, ભગવાને તેમને ધ દેશના સ`ભળાવી ધ દેશના સાંભળીને પરિષદ પાતાતાના સ્થાન પર પાછી ગઈ તે પછી શ્રીગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને વના કરી નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી બન્ને હાથ તેડીને ભગવાનને આ પ્રમાણે પૂછ્યું. 'जीवेण भंते! पाव कम्म किं बधी बंध, वंधिस्सइ' डे लगवन् वे ભૂતકાળમાં પાપ કર્મોંના અધ કર્યાં છે? અને વર્તમાનકાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરી રહ્યો છે? તથા ભવિષ્યકાળમાં તેને ખધ કરશે ? અશુભ કર્મીનું નામ પાપ છે. એ રીતે આ પહેલા ભગ છે. भ० ६६ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ भगवती अवश्नाद-बद्धवान् अतीतकाले अशुभकर्म, 'बंधई बध्नाति वर्तमाने अशुभकर्म 'न बंधिस्सइ न भन्त्स्वति न बन्धनं करिष्यति अनागतकालेऽशुभं कर्म वेति द्वितीयो भङ्ग:२। 'बंधी' अवघ्नात् अतीतकाले 'न बंधइ' न बध्नाति वर्तमान कालेऽशुभकर्म 'बंधिस्मा' सन्स्यति-अशुभकर्मणो बन्धनं करिष्यति फिमिति तृतीयो म ३ । 'बंधी' अवध्नात् अतीतकालेऽशुभं को जीवः 'न-बंधइन राध्नाति-वर्तमानकालेऽशुभं कर्म, 'न बंधिस्लई न भन्स्यति, अनागतकाले. शुभकर्मणो बन्धनं किं न करिष्यति वा जीवः, इति चतुर्थों भङ्गः ४ । तदेवं क्रयेण पद्धवान् इत्येतद् पदलब्धा थत्वारो भङ्गा भवन्ति, 'न बंधी' इत्येतत् पदलभ्यास्तु इह भगा न भवन्ति अतीतकाले अबन्धकस्य जीवस्याभावात् तत्र अव. बंधहण बंधिस्लाइ २-जीव ने अशुभ कर्मरूप पाप का क्या पहिले भूतकाल में बन्ध किया है ? वर्तमान में वह क्या उसका बन्ध कर रहा है? साविष्यकाल में यह क्या उपका बन्ध नहीं करेगा, ऐसा यह वित्तीय भंग है २। 'बंधी, न बंधह, बंधिस्सा३' जीवने भूतकाल में अशुभ फमें रूप पाप का बंध क्या किया है ? इत्तमान में वह उसका बंध नहीं कर रहा है ? अविष्यत् काल में यह क्या उसका बंध करेगा? ऐसा यह तृतीय भा है ३। 'बंधी, न बंधा, न बंधिस्सह ४' जीवने क्या भूतकाल में अशुभ कर्मरूप पाप का बंध किया है ? वर्तमान में वह इसका क्या बंध नहीं कर रहा है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह इसका बंध नहीं करेगा? ऐसा यह चतुर्थ विकल्प है। यहां पर 'पद्धवान्' हरर पद को लेकर चार अंग छुए हैं ! 'न बंधी इस पद् 'बंधी बधइ ण बंधिस्वई' ७२ पशुस ४ ३५ पापना भूतमा બંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બન્ધ કરે છે ? ભવિષ્ય કાળમાં તે શું તેને બંધ નહીં કરે? ૨ એ રીતે આ બીજો ભંગ કહેલ છે. 'वधी, न बधइ, बधिस्स३' वे सूतwi Ya (म ३५ ५।पन। બંધ શ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ નથી કરતો ? અને ભવિધ્યકાળમાં શું તે તેને બંધ કરશે? ૩ એ રીતે આ ત્રીજો ભાગ કહેલ છે. __'बंधी न बंधइ, न बंधिस्लाइ४' वे भूतम मशुम भ ३५ पा५ કર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં શું તે તેને બંધ નથી કરતો? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ શું તે તેને બંધ નહીં કરે? એ રીતે આ ચોથે ભંગ કહેલ છે. गलियां 'बद्धवान्' मा पहने वने या२ ॥ यया छे. 'न बंधी थे. पहने લઈને અહિયાં ભેગા થયા નથી. કેમકે ભૂતકાળમાં અબક જીવને અભાવ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् બરફ भात् अशुभं कर्म बध्नाति भन्स्यसि इत्येषः प्रथमो भङ्गोऽभव्यमाश्रित्य कथितस्तेनाभव्येन कालत्रयेऽपि बन्धकारणकर्मणः संपादनात् । अबध्नात् बध्नाति न भन्स्पति इति द्वितीयो भङ्गः प्राप्तव्यापकत्वं भव्यविशेषमाश्रित्य कथितः अनागतकाले तस्य कर्मबन्धनाभावात् । अवध्नात् न बध्नाति भन्स्यति इति तृतीयो 'भङ्गो मोहोपशमे वर्तमानं भव्यविशेषमाश्रित्य कथितः तेन वर्तमानकाले बन्धक कर्मणोऽसंपादनात् । ततः अपवितस्य तस्य कर्मणोऽवश्यं बन्धनादिति । अवध्नात् को लेकर यहां भी नहीं हुए हैं क्यों कि अतीत काल में अबन्धक जीव का अभाव है। इन चार भंगों से जो प्रथम अंग है-भूतकाल में अशुभ कर्म बान्धे हैं पत्तमान में अशुभकर्म बांध रहा है, आगे अशुभ कर्म बांधेगा-'सो यह प्रथम संग अभव्य जीव को आश्रित करके कहा गया है, क्यों कि जो अभव्य जीव होता है वह तीनों कालों में बन्ध के कारणभूत कों का संपादन करता रहता है। 'पूर्वकाल में अशुभ कर्म बांधा है, वर्तमान में उसे बांध रहा है, आगे वह नहीं वांधेगा ऐसा जो वित्तीय भंग है वह जिले क्षपय अवस्था प्राप्त होने वाली है ऐसे विशेष भव्य जीव को आश्रित करके कहा गया है, क्यों कि ऐले भब्य जीव को भविष्यत् काल में कर्मबन्ध का अभाव हो जाता है। अवधनात् न, बध्नाति भन्स्यति' भूतकाल में कर्मबन्ध किया है, वर्तमान में कम बन्ध नहीं करता है, भविष्यत् काल में कर्मबन्ध करेगा ऐसा जो तृतीय भंग है वह मोह के उपशम में वर्तमान भव्य जीव विशेष को आश्रित करके कहा गया है, क्योंकि છે. આ ચાર ભંગાએમાં જે પહેલો ભંગ છે કે–ભૂતકાળમાં અશુભ કર્મ બાધે. લ છે? વર્તમાનમાં અશુભ કર્મ બાંધી રહ્યા છે. અને ભવિષ્યમાં અશુભ કર્મને બંધ કરશે? આ પ્રમાણેને આ પહેલો ભંગ અભણ્ય જીનો આશ્રય કરીને કહેલ છે. કેમકે-જે અભવ્ય જીવ હોય છે, તે ત્રણે કાળમાં બંધના કારણભૂત કર્મોનું સંપાદન કરતું રહે છે. અભવ્ય જીવ મેક્ષમાં જતે નથી “પૂર્વકાળમાં અશુભ કર્મનો બંધ કર્યો છે, વર્તમાન કાળમાં તેને બંધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ નહીં કરે? આ પ્રમાણે જે બીજો ભંગ કહ્યો છે. તે જેને ક્ષપણીઅવસ્થા પ્રાપ્ત થાય છે, એવા પ્રકારના વિશેષ ભવ્ય જીવને આશ્રય કરીને કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે–એવા ભવ્ય જીવને ભવિષ્ય કાળમાં કર્મ બંધને मला थाय छे. 'अवधनात् न बध्नाति, भन्स्यति' भूतमा म ज्या છે. વર્તમાનમાં કર્મ બંધ કરતા નથી. ભવિષ્ય કાળમાં કર્મ બંધ કરશે ? એ રીતને જે ત્રીજો ભંગ છે, તે મેહના ઉપશમમાં રહેલા ભવ્ય જીવ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ भंगवती न बध्नाति न भन्स्यतीति चतुर्थो भगः क्षीणमोह पुरुषविशेषमाश्रित्य कथितः, क्षीणमोहेन जीवेनातीतकाले कम वद्धवान्, वर्तमाने कर्माकरणात् तथा अनागते. ऽपि तदसंपादनादिति एवं क्रमेण कम बन्धनविषये चतुर्भङ्गको गौतमस्य प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगईए बंधी बंधा बंधिस्सई' अस्त्येकको जीवो पापं कर्म अवघ्नात वध्नाति भन्स्यति, हे गौतम । यो हि जीवः अभव्यः स पापकर्मातीतिकाले बद्धवान् वर्तमानकाले वध्नाति ऐसा जीव वर्तमान काल में कर्म का बन्ध नहीं करता है, परन्तु जब वह श्रेणी से पतित हो जाता है तब उसको कर्मवन्ध अवश्य होने लगता है । 'अयमात् न बध्नाति न भन्स्यति' अतीतकाल में कर्मों का बन्ध किया हैं, वर्तमान में कर्म का बन्ध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में कर्म का बंध करेगा' ऐसा जो यह चौथा भंग है-वह क्षीण मोह वाले पुरुष विशेष को आश्रित करके कहा गया है, क्यों कि ऐसे जीव ने भूतकाल में ही कर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह नहीं करता है और न भविष्यत् काल में ही वह कर्म का बंध करेगा, इस क्रम से कम बन्धन के विषय में चार भंगों वाला गौतमस्वामी का प्रश्न है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा । अत्थेगहए बंधी, बंधा बंधिस्सई' हे गौतम कोई एक जीव ऐसा भी है, जिसने भूनकाल में पापकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में भी वह उस कर्म का पन्ध વિશેષ આશ્રય કરીને કહેલ છે. કેમકે-એવા છે વર્તમાન કાળમાં કર્મને બંધ કરતા નથી. પરંતુ જ્યારે તે ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થઈ જાય છે, ત્યારે તેને કમને બંધ અવશ્ય થવા લાગે છે. 'अवघ्नात् , न वध्नाति न भन्स्यति' मतात मा भनि। मध्य છે, વર્તમાન કાળમાં કમને બંધ કરતા નથી. તથા ભવિષ્ય કાળમાં પણ કર્મને બંધ કરશે નહીં એ રીતને આ ચોથો ભંગ કહ્યો છે, તે ક્ષીણ હવાળા પુરૂષ વિશેષને આશ્રય કરીને કહેલ છે. કેમકે–એવા જીવે ભૂતકાળમાં જ કર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાન કાળમાં તે કર્મને બંધ કરતા નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ નહીં કરે આ ક્રમથી કર્મ બધનના સંબંધમાં ચાર ભંગોવાળો શ્રીગૌતમસ્વામીને પ્રશ્ન છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमा असुश्री गौतमवामी ४ छ -'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ, बंधिस्सई' 8 गौतम ! ४ मे १ मेव। छे , रणे भूतभा पा५ કર્મનો બંધ કરેલ છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરતો રહે છે. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ २०१ वन्धस्वरूपनिरूपणम् पाप कर्म, अनागतकालेऽपि पापकर्मणो बन्धनं करिष्यत्येवेति कालशौकरिकाद्य. भव्यविशेषाभिमायकः प्रथमो मङ्गो भवतीति भगवताऽनुमतः १ । 'अत्थेगहए बंधी बंधइ न बंधिस्तइ २' अश्येककोऽवनात् वध्नाति न भन्स्यति आसन्न प्राप्तव्यक्षपकावस्थी भव्यविशेपो जीवोऽतीतकाले पापकर्मवद्धवान् वर्तमान कालेऽपि पापकर्मणो बन्धनं करोति किन्तु अनागतकाले स पापकर्मणो बन्धनं न करिष्यतीत्येतादृश भव्यगीवाभिमायेण द्वितीयो भङ्गोऽपि भगवता समर्थित इति । कर रहा है और भविष्यत् काल में भी वह उस कर्म का बन्ध करेगा, ऐसा जो यह प्रथम भंग है वह अभव्य जीव की अपेक्षा से है। क्यों कि ऐसे अभव्य जीव द्वारा भूतकाल में पापकर्म क बन्ध किया गया होता है, वर्तमान में वह उस पापकर्म का बन्ध करता रहता है और भविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करने वाला होता है जैसे कि कालशौकरिक आदि अभव्य जीव हुए हैं । 'अत्थेगहए बंधी बंधह, न वंधिस्सई' हे गौतम ! कोई एक जीव ऐसा भी होता है कि जिसने भूतकाल में पापकर्म का बंध किया होता है, वर्तमान में भी वह पाप कर्म का बन्ध करता है, परन्तु भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है, ऐसा जो यह द्वितीय भंग है वह आसन्न काल में जिस भव्य जीव को क्षपक अवस्था प्राप्त होने वाली है, उस जीव की अपेक्षा से कहा गया है, क्यों कि ऐसे जीव के द्वारा भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है, वर्तमान काल में भी वह पापकर्म અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બધ કરશે. એ પ્રમાણેનો જે આ પહેલે સંગ કહ્યો છે, તે અભવ્ય જીને આશ્રય કરીને કહેલ છે. કેમકે–એવા સર્વથા અભવ્ય જીવ દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે, વર્તમાનમાં તે એ પાપ કર્માને બંધ કરતા રહે છે, અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપ કમને બંધ કરનારે હોય છે. જેમકે કાલશકરિક કસાઈ વિગેરે सपथा मलव्य 94 या छे. 'अत्थेगइए बंधी, बंबइ, न बंधिस्सइ' गीतमा કોઈ એક જીવ એવો હોય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મોને બંધ કરેલ હેય છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરે છે. પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી. આ રીતને જે આ બીજો ભંગ થાય છે, તે નજીકના કાળમાં જે ભવ્ય જીવને ક્ષપક શ્રેણી પ્રાપ્ત થવાની છે, તે જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે કેમકે એવા જીવો દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપ કમને બંધ કરાયેલ હોય છેવર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરે છે. પરંતુ તે ભવિષ્ય કાળમા પાપ કર્મના બંધક હેતા નથી. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ भगवतीसो 'अत्थे गइए बंधी न बंबइ बंधिस्सइ' आत्येकको जीयो यः पाप कर्म पद्धवान्, वर्तमाने न बध्नाति, अनागते च पापकर्मवन्धनं करिष्यति मोहोपत्रमावस्था, मतिपत्ता भव्यविशेपो जीवः पापं कम बद्धवान्, वर्तमाने काले च न बध्नाति, मोहोपशमक श्रेणीतः प्रपतनानन्तरं तस्य पापकर्मणोऽवश्यं बन्धनात् मोहोपशमे वर्तमान भव्यविशेषजीमाभिप्रायेण तृतीयो मङ्गो भगवता समर्थित इति । 'अत्थे. गइए बंधी ण वंधइ ण बंधिस्सई' अस्त्येकको जीवोऽवध्नात न वध्नाति वर्तमानका पन्ध करता है, परन्तु वह भविष्यत् काल में पापकर्म का बन्धक नहीं होता है । 'अत्थेगइप बंधी, न बंधइ, बंधिस्माई' ऐसा जो तृतीय भंग कहा गया है कि कोई एक जीव ऐसा होता है कि जिसने भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया होता है, परन्तु उसके द्वारा वर्तमान काल में पापकर्म का बन्ध नहीं किया जाता है, परन्तु भविष्यत् काल में उसके द्वारा पापकर्म का पन्ध होने लगता है ऐसा वह जीव मोह की उपशम अवस्था में वर्तता है, क्योंकि ऐसा जीव वर्तमान काल में तो पापकर्म का बन्ध नहीं करता है, वह भूतकाल में पाप कर्म का बन्ध कर चुका होता है और भविष्यत् काल में उसके द्वारा पापकर्म का बध होने लगता है, क्यों कि उपशमश्रेणी पर चढे हुए जीव का नियम से उसमें पतन होता है, और फिर वह पापकर्म का बन्धन कत्ती बन जाता है। . 'अत्थेगहए बंधी, ण वंधह, ण बंधिस्सइ' ऐसा जो यह चतुर्थ भंग है-कि कोई एक जीव ऐसा होता है कि जो भूतकाल में ही पापकर्म ___'अत्थेगइए बंधी न बंधा, बंधिस्सई' मा प्रभाधेनारे भी al કહેવામાં આવેલ છે, કે કે એક જીવ એ હોય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે, પરંતુ તેનાથી વર્તમાન કાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરવામાં આવતું નથી, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તેનાથી પાપ કર્મનો બંધ થવા લાગે છે. એ આ જીવ જે ઉપશમ શ્રેણી પર આરોહણ કરે છે, તે હોય છે, કેમકે–એ જીવ વર્તમાન સમયમાં તે પાપ કર્મને - બંધ કરતો નથી, તે ભૂતકાળમાં પાપ કમને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે, અને ભવિષ્ય કાળમાં તેનાથી પાપ કર્મને બંધ થવા લાગે છે, કેમકે-ઉપશમ , શ્રેણી પર ચઢેલા જીવનું નિયમથી તેમાં પતન થાય છે. અને તે પાપ 'भ'नामय ४२नारे। भने छे. _ 'अत्थेगइए बंधी, न बंधह, ण बंधिस्सई' मा प्रभावना रे याथे। म છે કે-કઈ એક જીવ એ હોય છે, કે જે ભૂતકાળમાં જ પાપ કર્મના Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ . प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ,१२०१ वन्धस्वरूपनिरूपणम् काले, न भन्स्यति अनागतकाले, क्षीणमोहो हि जीवोऽतीतकाले एव मोहाक्षयात् मागेव कर्मणो बन्धनं कृतम् वत्तेमानकाले कर्मबन्धनं न करोति वन्धनजनकस्य मोहस्याभावाल तथा भविष्यकालेऽपि कर्मबन्धनं न करिष्यति बन्धकारणस्य मोहस्य क्षीणत्वादिति, क्षीणमोहजीवाभिमायेण चतुर्थमनोऽपि भगवता समर्थित इति, तदेवं जीवविषयकाश्चत्वारोऽपि भङ्गाः कर्मवन्धविपये भगवता समर्थिता इति जीवद्वारनिरूपणमिति १ । ___ अथ द्वितीयं लेश्याद्वारमाह-ससे ण' इत्यादि, 'सलेइसे णं भंते ! जीवे सलेश्यो लेश्यावान जीवः खल भदन्त ! 'पावं कम्मं किंबंधी' पापमशुभं कर्म किम् अवधनात् अतीतकाले, 'बंधई बध्नाति वर्तमानकाले, 'बंधिस्सइ' भन्स्यति अनागतकाले कर्मवन्धनं करिष्यति किमिति प्रथमो भङ्गः सलेक्यजीवविषये का बन्धक होता है, पर वर्तमान में और भविष्यत् काल में वह पापकर्म 'का बन्धक नहीं होता-सो ऐसा जीव वह होता है जो क्षीण मोह वाला होता है, क्योंकि क्षीण मोह वाले जीव के द्वारा अतीत काल में तो पाप कर्म का बन्ध किया गया होता है पर वह वर्तमान कोल में और भविष्यत् काल में पापकर्म का बन्धक नहीं होता है, क्योंकि बन्ध के कारण भूत मोह का उसको अभाव हो जाता है। इस प्रकार से ये चारो भंग भी जो कि सामान्य जीव विषपक है वे कहे गये हैं। २-लेश्याद्वार निरूपण 'सलेस्से णं भंते जीवे हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला है वह 'पावं कम्मं किं बंधी' क्या भूतकाल में पाप कर्म का बन्धक हुआ है? 'बंधई वर्तमान में वह क्या पापकर्म का बन्ध करता है ? 'पंधिस्सह બધ કરવાવાળે હોય છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મનો બધ કરવાવાળો હોતો નથી. એવો જીવ તે હોય છે કે-જે ક્ષીણ મેહવાળો હોય છે. કેમકે-ક્ષીણ મહિવાળા જીવ દ્વારા તે વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમા પાપકર્મને બંધક હોતો નથી કેમકે-બંધના કારણભૂત મહિનો તેને અભાવ થઈ જાય છે. આ રીતે આ ચારે અંગે પણ થાય છે કે જે સામાન્ય રીતે જીવ સંબધી છે, અર્થાત્ જીવમાં ભગવાને કર્મ બંધના વિષયમાં કહેલા છે. હવે લેશ્યાદ્ધિારનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે– 'सलेस्से ण भंते ! जीवे' भगवन् २१ देश्यावाणे डाय छ, त 'पाल' कम्म कि बधी' शु भूतमा पा५ मा ५५ ४२ना२ थये छ ? 'बधइ' वतमान सभा ते शु. पा५ भनी ५५ ४२ छ ? 'वधिस्सई' भने Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૮ भगवती इति । 'बंधी बंधा ण बंधिस्सई' अबध्नाद सलेश्यो जीवोऽतीतकाले वनाति च पर्तमानकाले, न भन्स्यवि अनागतकाले इति द्वितीयो मङ्गः । 'पुन्छ।' पृच्छा-प्रश्न:, पृच्छया तृतीयचतुर्थभावपि उन्नेयो, तथाहि-अवध्वात् न बध्नाति भन्स्यति, अवघ्नात् न बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको, इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अस्थेगइए बंधी बंध वंधिस्सई' अस्त्येककोऽवधनात् पाप कर्म, वनाति भन्स्यति चानागतकाले अभव्यमाश्रित्य प्रथमः १ । 'अस्थेगइए बंधी-एवं चउभंगो' अस्स्पेककोऽचनात् एवं चतुर्भङ्गः, अस्त्येककोऽचनात् वध्नाति न मन्त्स्यति आसन्नमाप्तव्यक्षपकत्व माश्रित्य द्वितीयः २ । अस्त्येककोऽवनात् न बध्नाति भन्स्यति उपशममोहवत्त और क्या वह भविष्यत् काल में भी पाप कर्म का बन्धक होगा ? ऐसा यह लेश्यावाले जीव का कर्मबन्ध के विषय में प्रथम भंग है। द्वितीय भंग इसके विषय में ऐसा है-'बंधी, बंधह, ण बंधिस्स हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला होता है क्या वह ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में कर्मबन्ध किया होता है ? वर्तमान में भी वह कर्मबन्ध करता है ? तथा भविष्यत् काल में वह कर्मपन्ध नहीं करेगा ? पृच्छा पद से यहां तृतीय चतुर्थ भंग सूचित हुए हैं इनमें तृतीय भंग इसके विषय में ऐसा है-'बंधी, न बंधइ, बंधिस्सा३' हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला होता है क्या वह ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में पापकर्म का बन्ध किया हो और वह भविष्यत् काल में भी पापकर्म का बन्ध करने वाला होगा, पर वह वर्तमान में पापकर्म का पन्ध नहीं कर रहा है ?, चतुर्थ भंग इन प्रकार से है-'बंधी, न बंधइ, શું તે ભવિષ્ય કાળમાં પણ પાપ કર્મનો બંધ કરવાવાળા થશે? આ રીતે આ વેશ્યાવાળા જીવના કર્મબ ઘના સંબંધમાં પહેલે ભંગ કહેલ છે. तना भी 21 प्रभारी छे. 'वधी, बधइ, ण बधिस्सइ' हे समपन् જે જીવ લેશ્યાવાળે હોય છેશું તે એવો હોય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં કર્મબંધ કરેલ હોય છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે કર્મબંધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં તે કર્મબધ કરતો નથી? અહિયાં “પુછા’ એ પદથી ત્રીજે અને ચેાથો ભંગ ગ્રહણ કરાયાનું સૂચિત થાય છે. તેમા આના સંબંધમાં ત્રીજો ' मा प्रभारी छ.-'बधी, न बधइ, बधिम्सइ३७ सगवन् रे ९० લેશ્યાવાળો હોય છે, તે શું એ હોઈ શકે છે? કે-જેણે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો હોય અને તે ભવિષ્ય કાળમાં પણ પાપ કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય પરંતુ તે વર્તમાનમાં પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી ? 3 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ १०१ वन्धस्वरूपनिरूपणम् मानता माश्रित्य तृतीयः ३ । अस्त्येककोऽवध्नात् न वध्नाति न भन्स्यति क्षीण. मोहमाश्रित्य चतुर्थः ४ । एवमग्रेऽपि सर्वत्र यथासम्भवं विज्ञेयम् । एवं प्रकारेण सलेश्यजीवविषये चत्वारो भङ्गाः संपादिता भवन्ति शुक्ललेश्यावतां पापक्रम न बंधिस्लाइ' हे भदन्त जो जीव लेश्यावाला होता है क्या वह ऐसा भी होता है जो केवल भूतकाल में ही पापकर्म का बन्धक हुभा, वत मान और भविष्यत् काल में न यह पापकर्म का धन्धक है और न यह पापकर्म का बन्धक होगा ही, इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! अस्थेगइए बंधी, बंधह' बंधिस्लाइ हां गौतम! कोई-कोई ऐसे भी सलेश्य जीव होते हैं, जो भूतकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुके होते हैं 'वर्तमान काल में भी पापकर्म का बंध करते रहते हैं और भवि. व्यत् काल में भी वे पापकर्म का बन्ध करने वाले होंगे। ऐसा जीव सलेश्य अभव्य जीव होता है-अतः उसे लेकर यह प्रथा भंग कहा है, द्वितीय भंग-कोई एक सलेश्य जीव ऐसा होता है जो भविष्यत् काल में तो पापकर्म का बन्ध नहीं करेगा-किन्तु वह भूतकाल में पापकर्म का पन्ध करने वाला हो चुका है और वर्तमान काल में भी वह पापकर्म का बंध करता है आसन्न काल में जिले क्षपक अवस्था प्राप्त तना था। 1 मा प्रमाणे छे. 'बंधी, न बंधइ, न वधिस्सई' ભગવન જે જીવ લેશ્યાવાળો હોય છે, તે શું એ હોય છે કે-જે કેવળ ભૂતકાળમાં જ પાપ કર્મને બધ કરવાવાળો હોય છે, અને વર્તમાન તથા ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી તેમજ પાપ કર્મનો બધ કરશે પણ નહિં? श्रीगोतमस्वामीना ! प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ -'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी, व धइ, बंधिस्सइ' गौतम ! अ व सवेश्य-सेश्यावाणा જીવ એવા પણ હોય છે કે જેઓ ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તેઓ પાપકર્મને બંધ કરતા રહે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તેઓ પાપકર્મને બંધ કરવાવાળા થશે એવા જ લેહ્યાવાળા અભવ્ય જી જ હોય છે. તેથી તેને ઉદ્દેશીને આ પહેલે ભંગ કહ્યો છે. હવે બીજો ભંગ કહેવામાં આવે છે-કઈ એક લેક્ષાવાળે જીવ એવો હોય છે, કે જે ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મ બંધ નહીં કરે, પરંતુ તેગ ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે. અને વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કમનો બંધ કરે છે. એ જીવ નજીકના સમયમાં જેને ક્ષપક શ્રેણી પ્રાપ્ત થવાની છે, એવા ભવ્ય જીવને ઉદ્દેશીને કહેલ છે. ૨ भ० ६७ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र बन्धकत्वात् । 'कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्म कि बंधी पुच्छा' कृष्णलेश्यः खल्ल भदन्त ! जीवः किं पापं कर्म अवध्नात् वध्नाति भन्स्यति १, अवधनात् होने वाली है ऐश भव्य जीव को आश्रित करके कहा है, तृतीय भग भूनकाल में जिस सलेश्य जीव ने पापकर्म का यन्ध किया है और भविष्यत् काल में भी यह पापकर्म का बन्ध करेगा, पर वर्तमान में वह पापकर्म का पन्ध नहीं करता है-ऐसा यह तृतीय भंग उपशम. मोह में वर्तमान सलेश्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है तथा-चतुर्थ भंग-जिस सलेक्य जीव ने केवल भतकाल में ही पापकों का बन्ध किया है, वर्तमान में वह ऐसा नहीं करता है और न वह भविष्यत् काल में करेगा ही-ऐसा यह भंग क्षीण मोहवाले जीव की अपेक्षा से कहा गया है । इस प्रकार के ये चार भंग सलेल्या जीव के विषय में कहे गये हैं। क्यों कि शुक्ल लेश्यावाले जीव पापकर्म का अपन्धक भी होता है । 'कण्हलेस्लेणं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' हे भदन्त ! जो जीव कृष्णलेश्यावाला होता है वह भूतकाल में पापकम का बन्ध करने वाला होता है ? वर्तमान काल में वह पापकर्म का वन्ध करता है ? अविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध करेगा? હવે ત્રીજો ભંગ કહેવામાં આવે છે–ભૂતકાળમાં જે લેશ્યાવાળા જીવે પાપ કર્મને બંધ કરેલ છે, અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરવાવાળે થશે. પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરતો નથી. આ પ્રકારનો આ ત્રીજો ભાગ ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થયેલા લેશ્યાવાળા જીવની અપેક્ષાથી દહેલ છે. હવે ચે ભંગ કહે છે-જે વેશ્યાવાળા જી કેવળ ભૂતકાળમાં જ પાપ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે, વર્તમાનમાં તે પાપકર્મને બંધ કરતે નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ કરશે નહિં એ આ ચે ભંગ ક્ષીણ મોહકર્મવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. આ રીતે આ ચાર ભંગો વેશ્યાવાળા જીવના સંબંધમાં કહ્યા છે. કેમકે-શુકલ લેફ્સાવાળા જીવોને પણ પાપકર્મને બંધ હોય છે. 'कण्हलेस्सेणं भंते ! जीवे पाच कम्म कि बंधी० पुच्छा' 8 सावन જે જીવ કુણ લેશ્યાવાળા હોય છે, તે શું ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરે છે ? ભવિષ્ય ફાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् बध्नाति न भन्स्यति २, अवधनात् न वध्नाति भन्स्यति ३, अबध्नाम् वध्नाति न भन्स्यति इत्येवं क्रमेण चतुर्भङ्गका प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अस्थगइए बंधी बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येककः कश्चित् कृष्णलेश्यो जीवः पूर्वकाले पापकर्म बद्धवान्, वर्तमानकाले वध्नाति पाप कर्म, तथा अनागतकालेऽपि भन्स्यति पापकर्मणो बन्धं करिष्यतीत्येवं क्रमेण प्रथमो भङ्गः १, 'अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ' अस्त्येककः कश्चित् कृष्णलेश्यो जीवः पापं कर्मातीतकालेऽबध्नात् तथा वर्तमानकाले बध्नाति पापं कर्म न भन्स्पति, अनागतकाले पापकर्मणो वन्धनं न करिष्यति, इत्येवं क्रमेण द्वितीयो भङ्गः २ । कृष्णलेश्यादि पञ्चकयुक्तरय जीवस्य तु आयमेव भङ्गद्वयम् तस्य वर्तमानकालिको अथवा वह भूतकाल में पापकर्म का बन्धक हुआ है ? और वर्तमान में भी वह पापकर्म का बन्धक हो रहा है, तथा भविष्यत् काल में पाप कर्म का बन्धक नहीं होगा ? २ भूनकाल में वह पापकर्म का बन्धक हुआ है ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्धक नहीं है ? भविष्यत् में वह पापकर्म का पन्धक होगा? इत्यादि इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! 'अत्थेगइए बंधी, बंधह, बंधिस्लाइ' कृष्ण लेश्यावाले जीवों में कोई एक जीव ऐसा भी होता है जो पूर्वकाल में पापकर्म का धन्धक हुआ है, वर्तमान में भी वह पापकर्म का बन्धक पन रहा है और भविष्यत् काल में भी पाप कर्म का बन्धक रहेगा १, तथा-इनमें कोई एक जीव ऐसा भी होता है जो भूतकाल में पापक्रम का बन्धक हुआ है वर्तमान में भी वह पापकर्म को बन्धक बना हुआ है, पर भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्धक नहीं होगा २, इस प्रकार कृष्णदि पांच लेश्यायाले जीवों को आदि के ये दो भंगही होते हैं-कारण કરવાવાળે થયે છે? અને વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બાંધવાવાળા થાય છે? તથા ભવિષ્ય કાળમાં પાપ કર્મોને બંધ કરનારે નહિ થાય? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે–હે ગૌતમ! “થે. गइए बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ' ४५श्यावाणा वामां मे ७५ शव। પણ હોય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં પાપ કમને બધ કરેલ હોય છે, અને વર્તમાનમાં પણ પાપ કર્મને બંધ કરતા રહે છે. તથા ભવિષ્ય કાળમાં પણ પાપ કર્મને બંધ કરશે તથા આમાં કેઈ એક જીવ એ પણ હોય છે. જે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધક થયે છે. વર્તમાન કાળમાં પણ પાપ કર્મને બંધક બને છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધક થવાને નથી. ૨ આ રીતે કૃષ્ણ વિગેરે પાંચે લેફ્સાવાળા જીવને પહેલાના Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ भगवतीने मोहलक्षण पापकर्मणः क्षय उपशमो वा नास्तीत्येवमन्त्यद्वयाभावः द्वितीयस्तु तस्य संभवति कृष्णादिलेश्यावतो जीवस्य कालान्तरे क्षपकत्यप्राप्ती न वन्धनं करिष्यतीत्येतस्य भङ्गस्य संभवादिति । 'एवं जाव पम्हलेस्से' एवं कृष्णलेश्या. युक्त जीव इव यावत् पद्मलेश्याविशिष्टजीवपर्यन्तं सर्वत्र ज्ञातव्यम् अत्र यावत्पदेन नीलादिलेश्यात्रयाणां सङ्ग्रदो भवतीति । 'सनस्थपढवितियभंगा' सर्वत्र प्रथमद्वितीयमङ्गो कृष्णलेश्यादारभ्य पद्मलेश्यजीवपर्यन्तं प्रथमद्वितीयावेच भङ्गो ज्ञातव्यो आधयोरेव द्वयोभङ्गायोः संभवादिति । 'सुकलेस्से जहा सलेस्से तहेव च3. भंगो' शुक्ललेश्यो यथा सलेश्य स्तथैव तत्र चतुर्भङ्गः यथा सलेश्यजीवानां चत्वारो भङ्गाः कथिताः, तेनैव रूपेण शुक्ललेश्यस्यापि चत्वारो भगा वक्तव्याः, यस्मात् कि उसको वर्तमान काल में मोह रूप पापकर्म का क्षय वा उपशम नहीं होता है। इसलिये आगे के दो भंग-३ तीसरा और ४ चौथा- नहीं होते हैं। द्वितीय भंग उसके इसलिये संभवित होता है कि कृष्णादि लेश्यावाले जीव को कालान्तर में क्षपकत्व की प्राप्ति होने पर उसे पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा। 'एवं जाच पम्हलेस्से' कृष्णलेश्या वाले जीव के जैसे ही यावत् पद्मलेश्या वाले जीव तक ऐसा ही कथन जानना चाहिये, अतः इस कथन के अनुसार 'सवस्य पढ मपितिय भंगा' कृष्णलेश्यावाले जीव से लगाकर पद्मलेश्यावाले जीव तक सर्वत्र प्रथम और द्वितीय ये दो भंग ही होते हैं । 'मुक्कलेस्ले जहा सलेस्से तहेव चउ भंगो' शुक्ललेश्यावाले जीव में सामान्यलेश्यावाले जीच के जैसे चार भंग होते हैं-ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि આ બે ભંગ જ હોય છે. કારણ કે–તેને વર્તમાન કાળમાં મેહરૂપ પાપ કર્મનો ક્ષય અથવા ઉપશમ થતું નથી. તેથી પછીના બે ભંગ એટલે કે ત્રીજી અને ચોથે એ બે અંગે થતા નથી. બીજો ભંગ તેને સંભવિત થવાનું કારણ એ છે કે-કૃષ્ણ વિગેરે લેશ્યાવાળા જીવને કાલાન્તરમાં ક્ષપકપણાની પ્રાપ્તિ થાય ત્યારે તેને પાપ भन। म यता नथी. 'एव जाव पम्हलेस्से' godोश्यावा ना ४थन પ્રમાણે જ યથાવત્ પલેશ્યાવાળા જીવન કથન પર્યત આ પ્રમાણેનું જ કથન समा. तेथी मा ४थन प्रमाण-'सव्वत्थ पढमबितियभंगा' वेश्यावाणा જીવથી લઈને પલેશ્યાવાળા જીવ સુધી બધે જ પહેલો અને બીજે આ બે मग १ थाय छे. 'सुकलेरसे जहा सलेस्से तहेव चउभंगो' शुतोश्याचा જીવમાં સામાન્ય લેશ્યાવાળા જીવના કથન પ્રમાણે ચાર ભંગ થાય છે. તેમ સમજવું. કેમકે-શુકલ લેફ્સાવાળા જીવમાં પાપકર્મનું અખંધકપણું પણ છે. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ५३३ शुक्ललेश्यजीवस्य पापकर्मगोऽवन्यकत्वमध्यस्तीति । 'अलेसे णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' अलेश्यो-लेश्यारहितो जीयः खलु भदन्त ! किं पापं कर्म अबध्नाति बध्नात् मन्त्पति १ अवघ्नात् पापकर्म, न बध्नाति, भन्स्यति २, पापं कर्म अबध्नाति बनात्, न भन्स्यति ३, पापं कर्भ अवध्नात् न वध्नाति, न भन्स्पति इत्येवं क्रमेण चतुर्भङ्गका प्रश्ना, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बंधी न बंधा न वंधिस्सइ' अवघ्नात् पापं कर्म अलेश्यः जीवो न बध्नाति वर्तमान काले, तथा न मत्स्यति अनाग काले, लेश्यारहितः खलु अयोगी केवली तस्य च चतुर्थ एत्र मङ्गो भवति लेश्याया अमाचे बन्धकत्याभावात् शुक्ललेश्योचाले जीध में पापकर्म की अवधकता भी है । 'अलेस्से णं भंते ! जीवे पापं कम किं बंधी पुच्छ।' हे भदन्त जो जीव लेश्या रहित होता है-उसके द्वारा पूर्व काल में क्या पापकर्म का बन्ध किया गया होता है ? वर्तमान में वह क्या पाप कर्म का बन्ध करता है ? तथाभविष्यत् में वह पापकर्म का बन्ध करेगा क्या? अयषा-अतीत काल में क्या उसने पापकर्म का बन्ध किया होता है ? वर्तमान में क्या वह पापकर्म का बन्ध करता है ? भविष्यत् काल में क्या वह पापकर्म का बन्ध नहीं करेगा अथवा भूतकाल में क्या उसने पापकर्म का बन्ध किया है ? वर्तमाल में वह पारकर्म का क्या बन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् काल में क्या वह पापकर्म का बंध करेगा? अथवा-वह क्या भूतकाल में पापकर्म का बन्धक हुमा है ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्धक क्या नहीं होता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह पापकर्म का बन्धक नहीं होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'बंधी, न बंधइ, न बंधिस्सई' हे गौतन! जो जीव लेश्या रहित होता है-वह भूतकाल में तो पापकर्म का धन्धक हुआ है, पर वर्तमान काल 'सलेस्से णं भंते । जीवे पाव कम्म कि षधी पुच्छा' है सावन २ ०१ લેશ્યા સહિત હોય છે, તેણે ભૂતકાળમાં પાપકર્મ કરેલ હોય છે ૧ વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્માને બંધ કરે છે? ૨ અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મને બંધ કરશે ? અથવા–ભૂતકાળમાં તેણે પાપ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે ? વર્તમાનમાં શું તે પાપકર્મને બધ કરે છે ? ભવિષ્યકાળમાં શું તે પાપ કર્મને બંધ નહીં કરે ? અથવા તે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મનો બંધક થ છે? વર્તમાનમાં તે પાપ કર્મને બધેક શું નથી થતું? અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપકર્મને બંધક નહીં થાય ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે'वधी न बधइ न वधिस्वइ' गीतम! 2 सश्या सहित डाय छे, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र न प्रथमद्वितीयतृतीयभङ्गा भवन्ति किन्तु चरम एव भङ्गो मातीत्यतो भगवता चतुर्थभङ्गस्यैव अनुमतिदत्तेति भावः, इति द्वितीयम् लेश्याद्वारम् २ । अथ तृतीयं पाक्षिकद्वारमाह-'कण्हपक्खिए' णं भंते ! जीवे पाव कम्म पुच्छा 'कृष्णपाक्षिकः खल भदन्त ! जीवः पापं कम पृच्छा, हे भदन्त ! कृष्णपाक्षिको जीवः किं पापं कर्म अवध्नात् अतीतकाले, वर्तमानकाले कि बध्नाति, अनागतकाले भन्स्यति १, अवध्नात्, बध्नाति, न भन्स्यति २, अवधनात् न वध्नाति, भन्स्यति ३, अवधनात् न वध्नाति न भन्स्यति, ४, इत्येवं क्रमेण चतु. में और भविष्यत् काल में वह न पापकर्म का बन्धक होता है और न होगा ही। ३ तीसरा पाक्षिक द्वार-'कण्हपक्खिए णं भंते ! जीवे पावं कम्मं पुच्छा' हे भदन्त ! कृष्णपाक्षिक जो जीव है वह क्या भूतकाल में पापकर्म का बंधक हुआ है ? वर्तमान में क्या वह पापकर्म का बन्धक होता है ? भविष्यत् काल में क्या वह पापकर्म का बन्धक होगा?१, अथवा-वह भूतकाल में पापकर्म का बन्धक हुआ है, वर्तमान में वह पापकर्म का पन्धक होता है ? भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्धक नहीं होगा ? (२) अथवा वह भूतकाल में पापकर्म का बंधक था, वर्तमान काल में पापकर्म का बंधक नहीं है और भविष्यकाल में पापकर्म का बंधक होगा ? (३) अथवा-क्या वह भूतकाल में पापकर्म का धन्धक हुआ है ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्धक नहीं है ? और क्या वह भविष्यत् काल में भी पापकर्म का बन्धक नहीं होगा ? (४) इस તે ભૂતકાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરનારે થયો છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરનાર થતા નથી અને થશે પણ નહીં. 'कण्हपक्खिए णं भंते ! जीवे पाव कम्म पुच्छा' है भगवन् २०१ કૃષ્ણપાક્ષિક છે, તે શું ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બધ થયે છે? અને વર્તમાન કાળમાં શું તે પાપ કર્મને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં શું પાપ કર્મને બંધ કરશે? ૧ અથવા તે ભૂતકાળમાં જ પાપ કર્મને બંધ કરનાર થયો છે, અથવા વર્તમાન કાળમાં જ પાપ કર્મને બંધ કરનાર થાય છે? અથવા ભવિષ્યમાં પણ પાપકર્મને બંધ કરનાર નહીં થાય? અથવા તેણે ભૂતકાળમાં જ પાપ કર્મને બંધ કર્યો છે? અથવા વર્તમાનમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતો નથી? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મ બન્ધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બાંધનારે થયો હતો? વર્તમાનમાં પાપ કર્મને બંધક તે નથી? અને ભવિષ્યમાં પાપ કર્મને બંધક નહીં થાય ? ૪ આ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ १०१ बन्धस्वरूपनिरूपणाम् ५३५ भङ्गका प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अस्थगइए बंधी पढमवितियभंगा' अस्त्येककोऽवध्नात् प्रथमद्वितीयभनौं, हे गौतम ! कश्चित् कृष्णपाक्षिकोऽबध्नात् पापं कर्म पूर्वकाले, वर्तमानकाले बध्नाति तथा अनागतकालेऽपि भन्स्यति १, कश्चित् कृष्णपाक्षिक: अवघ्नात्, बध्नाति वर्तमानकाले, न भन्स्यति चानागतकाले, तत्र यस्य जीवस्य अर्द्धपुद्गलपरावर्त कालादधिकः संसारो वर्तते स कृष्णपाक्षिका, तस्य कृष्णपाक्षिकस्यायमेव भङ्गद्वयं भवति । तस्य वर्तमानकाले पापकर्मणो बन्धाभावात् । 'सुक्कपक्खिएणं भंते ! प्रकार से वह कृष्णपाक्षिक जीव के सम्बन्ध में चार भंगों वाला प्रश्न है। इसके, उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अत्थेगइए बंधी० पढम वितिय भंगा' हे गौतम! कृष्णपाक्षिक जीवों में से कोई एक जीव ऐसा होता है जिसने पूर्वकाल में पापकर्म का पन्ध किया होता है वर्तमान काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करता रहता हैं और भविष्यत् काल में भी पापकर्म का बन्ध करने वाला होता है। ऐसा यह प्रथम भंग यहां होता है। तथा-कोई एक कृष्णपाक्षिक जीव ऐसा भी होता है, कि जिसके द्वारा भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है, वर्तमान काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करता रहता है, पर अनागत काल में वह पापकर्म का पन्धक नहीं होता है, जिस जीव का अर्धपुद्गल परावर्त काल से अधिक संसार काल बाकी होता है, वह कृष्णपाक्षिक जीव है । ऐसे इस कृष्णपाक्षिक जीव के आदि के पूर्वोરીતે કૃષ્ણ પાક્ષિક જીવન સબંધમાં ચાર ભંગવાળે આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ પૂછેલ છે. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'अत्थेगइए बंधी० पढम वितिय भंगा' गौतम! पाक्षि वामाथी ७ मे १ मेवा हाय छ, કે જેણે પૂર્વ કાળમા પાપ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કમને બંધ કરતે રહે છે, અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે પાપ કમને બંધ કરવાને હોપ છે, એ પ્રમાણે આ પહેલો ભંગ અહિયાં થાય છે. ૧ તથા-કઈ એક કૃપાક્ષિક જીવ એ પણ હોય છે કે- જેનાથી ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બધ કરા હોય છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરતે રહે છે, પરંતુ અનાગત-ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બધ કરવા દેતા નથી. જે જીવને અર્ધ પુલપરાવર્તથી વધારે સંસાર ફાળ બાકી રહેલે હોય છે. તે કૃષ્ણ પાક્ષિક જીવ કહેવાય છે, એવા આ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ भगपतीने जीवे पुच्छा' शुक्लपाक्षिकः खलु भदन्त ! जीवः पृच्छा, हे भदन्त ! शुक्लपा. सिको जीव पापं कर्म अबधनात् वध्नाति अन्त्स्यति १,' अवघ्नाद, बध्नाति, न भन्स्यति २, अवघ्नात् न बध्नाति, भन्स्यति, ३, अवधनात न बध्नाति न भन्स्यति इति चतुर्भङ्गका प्रश्ना, भगवानाइ-गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'चउभंगो भाणियन्यो' चतुर्भङ्गो भणितव्यः, यस्यादपुद्गलपरावा. क्त दो ही भंग होते हैं, क्यों कि वर्तमाल फाल में उसमें पाप कर्म की अबन्धकता नहीं है। 'सुकपक्खिए णं अंते ! जीवे पुच्छा' हे भदन्त ! जो जीव शुक्ल. पाक्षिक होता है उसमें इन पूर्वोक्त भंगों में से कितने भंग होते हैं ? क्या वह पूर्व काल में पाप कर्म का बन्धक हुआ है ? वर्तमान काल में क्या वह पापकर्म का बन्ध करता रहता है ? और क्या वह भाष. प्यत् काल में भी पापकर्म का बन्धक होगा ? अथवा-भूतकाल में उसने पापकर्म का बन्ध किया हैं ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्ध कर रहा है ? भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध नहीं करेगा ? अथवा-भूतकाल में उसने पापकर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह पापकर्म का पन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् में वह पाप कर्म का बन्ध करेगा ? अथवा-भूतकाल में वह पापकर्म का बन्ध करने वाला रहा है , वर्तमान में और भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्धक नही होता है और न होगा ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे કશુપાક્ષિક જીવને આદિના પૂર્વોક્ત બે જ ભંગ હોય છે. કેમકે વર્તમાન કાળમાં તેમાં પાપ કર્મનું અખંધકપણું નથી. 'सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे पुच्छा' 3 सावन २१ शुसाक्षि હોય છે, તેને આ પૂર્વોક્ત ભંગો પૈકી કેટલા ભંગ હોય છે ? શું તે પૂર્વ કાળમાં પાપકર્મને બંધક થયો છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મને બધ કરતે રહે છે? અને શું ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપકર્મને બંધ કર્યો હતો? તથા વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરી રહ્યો છે અને અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કોને બંધ નહીં કરે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપ કર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે પાપકર્મ બંધ નથી કરતા? અને ભવિષ્યમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરવાવાળે રહ્યો છે, વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મ બંધ કરતો નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરશે નહીં ? Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमे यचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ५३७ दधिकः संसारकालो नास्ति परन्तु अर्द्धपुद्गलपरावर्तकालस्य मध्ये एव सिद्धि यास्यति स शुक्लपाक्षिको जीव, तस्य चत्वारोऽपि मजा भवन्ति। तत्र पापं कर्म अवधनात् अतीतकाले, वर्तमानकाले पापं कर्म वध्नाति, तथाऽनागतकाले पाएफर्मबन्धं करिष्यतीति प्रथमो भङ्गाः प्रश्नसमयापेक्षया अनन्तर-अव्यवहित भविष्यसमयमाश्रित्य भवतीतिज्ञेयम् ! अबध्नाति न अन्त्यतीति द्वितीयो मङ्गः पश्चादव्यवहितभविष्यत्समये क्षपकत्वमाप्स्यपेक्षयाऽयगन्तव्य इति २। अबध्नातन बध्नाति भन्स्यतीति वतीयो भङ्गः यो हि मोहनीयकर्मण उपशमं कृत्वा तदनन्तरं गौतम ! 'चउभंगो भाणियव्यो' शुक्लपाक्षिक के सम्बन्ध में पापकर्म बन्ध को लेकर निकाल विषयक चारों भंग यहां कहना चाहिये, जिस जीव का अर्धपुद्गल परावर्तकाल से अधिक संसार काल नहीं होता है वह जीव शुक्लपाक्षिक है । ऐसा वह जीव अर्धपुद्गल परावर्तक के बीच में ही सिद्धि गति को प्राप्त कर लेता है। ऐसा वह जीव पूर्वकाल में पापकर्म का बन्धक रहा है, वर्तमान में भी वह पापकर्म का बन्ध करता रहता है और भविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करने वाला होता है । जिसे क्षपकत्व की अवस्था प्राप्त होने वाली है ऐसा जो शुक्लपाक्षिक जीव है उसके द्वारा भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है, वह वर्तमान में भी पापकर्म का पन्ध करता है। पर हां भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। तथा-जिम शुरलपाक्षिक जीव का मोह उपशम हो गया है ऐसा वह सा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'च उभगो भाणियो' शुलपाक्षिना સંબંધમાં પાપ કર્મના બંધના વિષયમાં ત્રણે કાળ સંબ ધી ચારે ભાગો અહિયાં સમજવા જોઈએ. જે જીવને અર્ધપુદ્ગલ પરાવર્ત કાળથી વધારે સંસાર કાળ હતો નથી તે જીવ શુકલપાક્ષિક કહેવાય છે. એવે તે જવા અર્ધપુલ પરાવર્ત કાળની વચમાં જ સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરી લેતો હોય છે તેવો જીવ પૂર્વકાળમાં પાપ કર્મને બંધક રહેલ છે, વર્તમાનમાં પણ તે પાપ કમને બધ કરતે રહે છે, અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપ કર્મનો બંધ કરનારો હોય છે. જેને ક્ષપકપણાની અવસ્થા પ્રાપ્ત થવાની હોય એવા જે શુકલપાક્ષિક જીવ છે, તેના દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે. તે વર્તમાનમાં પણ પાપ કર્મને બઘ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મનો બધ કરતો નથી. તથા–જે શુકલપાક્ષિક જીવ ઉપશમ શ્રેણી પર આરહણ થઈ ગયેલ છે, એવે તે શુકલપાક્ષિક જીવ જ્યારે શ્રેણીથી Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ भगवती सूत्रे श्रेणितः प्रपतितो भवेत्तदपेक्षयाऽयं तृनीयो भङ्गोऽवगन्तव्यः ३ । अवघ्नात्, न वध्नाति न भन्त्स्यति इति चतुर्थी भङ्गः क्षपकत्वापेक्षया ज्ञातव्य स्तदेवं शुक्लपाक्षिकस्य चत्वारो भङ्गा भक्तीति, अतएवाह - 'चउमंगो भाणियच्चो' इति । ननु कृष्णपाक्षिकस्य 'न बंधिस्मइ' एतंख्या संभवत्वेऽपि एतदंशात्मको द्वितीयो sa स्वीकृत स्तर्हि - शुक्लपाक्षिकस्य 'न बंधिस्त' इति पूर्वोक्तांशस्यावश्यश्यावात् 'वंधिस्सइ' इत्यशात्मकः प्रथमो सङ्गः कथं घटते ? इत्यत्र शृणु - शुक्लशुक्लपाक्षिक जीव जब श्रेणी से पतित हो जाता है तब वह पाप कर्म का बन्धक हो जाता है, अतः ऐसे जीव द्वारा भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है पर वर्तमान समय में जब कि वह चारित्र मोहनीय का उपशम कर उपशम श्रेणी पर मौजूद है तबतक पापकर्म का बन्धक नहीं है, जब उपशमित मोहनीय की प्रकृति का उदय होने पर उसका पतन होता है तो वह फिर से पापकर्म का बन्धक हो जाता है । चतुर्थ संग क्षपक की अपेक्षा से है । इस प्रकार से यहां चार संग वनते है, इसीलिये सूत्रकार ने 'चभंगो भाणियबो' ऐसा सूत्रपाठ कहा है । शंका--कृष्णपाक्षिक के द्वितीय भंगान्तर गत 'न बंधिस्सई' यह अंश असंभावित है फिर भी उसे यहां स्वीकार किया गया है तो शुक्लपाक्षिक के 'न बंधिस्स' यह अंश अवश्यंभावी है तो ऐसी स्थिति में 'बंधिस्तह' इस अंशवाला प्रथम भंग वहाँ कैसे घटित हुआ है ? પતિત થઈ જાય છે. ત્યારે તે પાપ કર્મોના અન્ધક થઈ જાય છે, તેથી એવા જીવ દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપકના બંધ કરાયા હૈાય છે. પરંતુ વર્તમાન સમયમાં કે જ્યારે તે ચારિત્રમેહનીય કનું ઉપશમન કરીને ઉપશમ શ્રેણી પર રહેલ છે, એવા તે જીવ પાપ કર્મના અધક હાતા નથી. પરંતુ જ્યારે ઉપશમ થયેલા મેહનીય કર્મીની પ્રવૃત્તિને ઉદય થાય ત્યારે તેનું પતન થાય છે. તે ફરીથી તે પાપ કર્માંના અંધક થઇ જાય છે. ચેાથેા ભંગ ક્ષેપકની અપેક્ષાથી કહેલ છે. એ રીતે અહિયાં શુકલ પાક્ષિકના સંબધમાં ચાર ભંગા जने छे तेथी सूत्रभरे 'चउमंगो भाणियन्वो' मे अभा सूत्रपाठ उद्यो छे. शौंडा–दृष्ट्युपाक्षिना बील लगान्तरभां रडेल 'न बंधिस्सइ' मा अश અસ’ભવિત છે, તે પણુ તેને અહિયાં સ્વીકારેલ છે. તે શુકલપાક્ષિકના 'न व धिस्सइ' भी अंश अवश्य है ? तो म स्थितिमा 'वधिस्स इ' भा મંશવાળા પહેલા ભંગ ત્યાં કેવી રીતે ઘટે છે ? Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् पाक्षिकस्य प्रथमसमयानन्तरमव्यवहितभविष्यत्सत्यापेक्षया घटते, कृष्णपाक्षिकस्य च तत्पश्चादव्यचहितभविष्यत्समयापेक्षया घटते, इति पूर्व प्रदर्शितमेवेति । चतुर्थ दृष्टिद्वारमाह-सम्मदिहीणं चत्तारिभंगा सम्यादृष्टीनां चत्वारो मङ्गाः-अवघ्नात् वनावि अन्त्स्यति १, अवघ्नात् वध्नाति न भन्स्यति२, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति ३, अवघ्नात् न बध्नाति, न सन्स्यति इतीमे उत्तर--शुक्लपाक्षिक के प्रथम समय से अनन्तर ही अव्यवहित भविष्यत् समय की अपेक्षा से प्रथम अंग घटित होता है तथा-द्वितीय भंग कृष्णपाक्षिक के प्रथम लमय के बाद व्यवहित भविष्यतू काल की अपेक्षा से घटित होता है। यह बात पहिले प्रकट नहीं कर दी गई है। ४ दृष्टिद्वार-'सम्भट्ठिीणं चत्तारि भंगा सम्यग्दृष्टियों के चारों ही भंग होते हैं क्योंकि लम्घरदृष्टि ने पूर्व में पापकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में भी वह पापकर्म का बन्ध करता रहता है और भविष्यत् में भी वह पापकर्म का बंद करेगा, तथा सम्घरदृष्टीयों में कोई सम्पष्टि जीव ऐसा भी होता है कि जिसने पूर्वज्ञाल में पापकर्म का वध किया है और वर्तमान में सीबह पापझसे का बन्ध करता रहता है पर मषिष्यत काल में वह पापकर्म का वन्ध नहीं करेगा २ तीसरे प्रकार का सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा होता है जिसने पूर्वकाल में पापकर्म का बंध किया है तथा वर्तमान काल में जो पापकर्म का बन्ध नहीं कर रहा है, अविष्यात काल में पापकर्म का बंध करेगा ३ तथा कोई सम्पष्टि जीव ઉત્તર–શકલ પાક્ષિકના પહેલા સમય પછી જ અવ્યવહિત (અંતર વગર) ભવિષ્ય સમયની અપેક્ષાથી પહેલે ભંગ ઘટે છે. તથા બીજે ભંગ કૃણ પાક્ષિકના પહેલા સમય પછી વ્યવધાનવાળા ભવિષ્ય કાળની અપેક્ષાથી ઘટિત થાય છે. આ વાત પહેલાં પ્રગટ કરી જ છે. 'सम्मदिट्ठीणं चत्तारि भंगा' सम्पष्टिवाणान्याने यारे म थाय छे. કેમકે-સમ્યગ્દષ્ટિવાળા જીવે પહેલાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં પણ પાપ કર્મને બંધ કરતા રહે છે. અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપ કર્મનો બંધ કરશે તથા સમ્યગ્દષ્ટિમાં કેઈસમ્યગ્દષ્ટિ જીવ એવો પણ હોય છે, કે જેણે પૂર્વકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો છે, અને વર્તમાનમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરતો રહે છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કમને બંધ નહીં કરે ? ત્રીજા પ્રકારને સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ એ હેાય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે. વર્તમાનમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતે નથી. ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરશે. ૩ તથા કેઈ સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० -- - ___भगवतीपत्र भङ्गा भवन्ति शुक्लपाक्षिकस्येव । 'मिच्छादिट्ठी णं पहमवितिया मंगा' मिथ्यादृष्टीनां प्रथमद्वितीयौ भङ्गो, अवधनात् वनाति, भन्स्यति, अवघ्नात् वध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको ज्ञातव्यौ मिथ्यादृष्टवर्तमानकाले मोहकर्मणो मावेन अन्त्यद्वयभङ्गभावादिति । 'सम्नामिच्छादिही णं एवं चेव' सम्यग्रमिथ्यादृष्टीनाम् एवयेव-मिथ्यादृष्टिचदेव आधावेव द्वौ भङ्गो ज्ञातव्यौ नतु तृतीयचतुर्थी अत्रापि स एव हेतुरिति ४ । 'नाणीणं चत्तारि भंगा' ज्ञानिनां चत्वारोऽपि भंगा ज्ञातव्याः ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में ही पापकर्म का वध किया है वर्तमान में जो पापकर्म का बंध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में ही वह पापकर्म का बन्ध करेगा, इस प्रकार शुक्लपाक्षिक के जैसे ही यहां चार भंग होते हैं। __ मिच्छादिहीणं पढनधितिया' मिश्यादृष्टि जीवों के प्रथम और द्वितीय ऐसे दो भंग होते हैं। जैसे 'अयनात् बजाति भन्स्यति १ अबध्नात्, बध्नाति न भन्स्पति'। मिश्यादृष्टि जीव के वर्तमानकाल में मोह के सद्भाव से थे आदि के दो भंग हुए हैं अन्त के दो भंग नहीं हुए हैं 'सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव मिश्रदृष्टि बाले जीवों के आदि के दो ही भंग होते हैं तृतीय और चतुर्थ थे अन्त के दो भंग नहीं होते है-क्यों कि उसको वर्तमान काल में मोह कर्म का सद्भाव रहता है। ५ ज्ञानहार-'नाणीणं चनारि भंगा' ज्ञानी जीवों के चार भा होते है એ હેય છે કે-જેણે પહેલાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે, વર્તમાન કાળમાં જે પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરશે નહિં આ પ્રમાણે શુકલપાક્ષિકના કથનની જેમજ અહિયાં પણ ચાર समाथाय छे. 'मिच्छादिदीणं पढमबितिया' मिथ्यावा वान पर आने माने ये में स हाय छे. रेम-'अवघ्नात्, बन्नाति, भन्स्यति, अवध्नात् , वध्नाति न भन्स्यति' भिथ्याष्टिवाणा वान वतमान म माना સદુભાવમાં આ આદિના બે ભંગ થાય છે. અંતના બે ભંગ થતા નથી. તેમ સમજવું. _ 'सम्मामिच्छादिवीण एवं चेव' भिविमा याने माहिना में ભંગ થાય છે. ત્રીજે અને એ બે ભંગ થતા નથી. કેમકે–તેને વર્તમાન કાળમાં મોહનીય કર્મને સદ્ભાવ રહે છે. 'नाणीणं चत्तारि भंगा' ज्ञानी वाने न्यारे माय थे, २म 8 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' मैचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ५४१ अवघ्नात् बध्नाति भन्त्स्यति १, अवनात् बध्नाति, न भवत्स्यति २, अवघ्नात् न वध्नाति भन्त्स्यति ३, अवधनात् न बध्नाति न सम्स्यति इत्याकारकाः ४ । पश्चपज्ञानद्वारमाह- 'आभिणिवोहिनाणीणं जाव मणपज्जरनाणीणं चत्तारि भंगा' आमिनिवोधिकज्ञानिनां यावत् मन:पर्ययज्ञानिनामुपरोक्तावत्वारो भङ्गा ज्ञातव्याः, अत्र यावत्पदेन श्रुतावधिज्ञानिनोः संग्रहो भवति, तथा च एतेषां चत्वारोऽपि भङ्गा भवन्ति इति । 'केवलनाणीणं चरमो भंगो जहा अलेस्साणं' केवलज्ञानिनां चरमः - अन्तिम भङ्गो यथा अलेश्पजीवानां कथितः केवलज्ञानिनां वर्तमानकाले अनागतकाले च वन्याभावेन अवयात् पाप कर्मातीतिकाले, न वध्नाति वर्तमानकाले, न भन्त्स्यति चानागतकाले, इत्याकारक चतुर्थभङ्गस्यैव सद्भावः, अतीतका लिकवन्धं विमुच्य तेषां वर्त्तमानभविष्यत्कालिकचन्धाभावात् ५ । जैसे - अवात् नाति, भन्तस्यति, अवधनात् नातिन अन्तस्थतिर, अवनात् न बजाति, भन्त्स्यति ३, अवनात् न बध्नाति न भन्त्स्यति' ४ । ये चार भंग . सामान्य ज्ञानी की अपेक्षा से है- विशेष ज्ञानी की अपेक्षा से भंग इस प्रकार से होते हैं- 'आभिणियोहियणाणीणं जाव मणपज्जवनागीणं चत्तारि भंगा' अभिनिवोधिक ज्ञानी से लेकर मनःपर्यध ज्ञानी तक के जोटों के ४ चारों ही भंग होते हैं । यहाँ यावत् पद से- श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी इन दो ज्ञानियों का संग्रह हुआ है। तथा - 'केवल राणीणं चरमो भंगों जहा अलेस्साणं' जो केवल ज्ञानी जीव हैं उनके अदेश्य जीवों के जैसे केवल एक अन्तिम भंग ही होता है । क्यों कि केवल ज्ञानी को वर्तमान समय में और भविष्यत् समय में पापकर्म का बन्ध नहीं होता है । भूतकाल में ही 'अबध्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति १' अबध्नातू, बध्नाति, न भन्त्स्यतिर अवघ्नात् न बध्नाति, न भन्त्स्यति३ अवघ्नात्, न बध्नाति, न भन्त्यति४' मा ચારે ભગા સામાન્ય જ્ઞાનીઓની અપેક્ષાથી કહ્યા છે વિશેષ જ્ઞાનીએની અપેક્ષાથી આ प्रमाणे लौंगो थाय छे. 'आभिणिबोहियनाणीणं जव मणरजवनाणीणं चत्तारि મા' અભિનિએધિક જ્ઞાનીથી લઇને મન:પર્યવ જ્ઞાની સુધીના જીવેને ચાર लौंगो होय छे, अडियां यावत् पढथी भतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अने अवधिज्ञानी मा ज्ञानीगोन। सग्रह थयो छे. 'केवलनाणीणं चरमो भगो जहा अलेस्साणं' ने કેવળજ્ઞાની જીવ હાય છે, તેને અલૈશ્ય જીવેાની જેમ કેવળ એક છેલ્લા ભગ જ હાય છે, કેમકે–કેવળજ્ઞાનીને વર્તમાન સમયમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં પાપ ક'ના ખંધ થતા નથી. ભૂતકાળમાં જ તેને પાપ કર્મના ખંધ થયેલ હાય છે. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાર भगवतीसत्रे षष्ठमज्ञानद्वारमाह- 'अन्नाणीणं पढमवितिया' अज्ञानिनां प्रथमद्वितीयौ, अब घ्नात्, वध्नाति भन्त्स्यति अवधनाद वध्नाति न भन्त्स्यति इत्याकारकौ द्वौ एन भङ्ग भवत इति । ' एवं मइ अन्नाणीणं सुय अन्नाणीणं विभंगनाणीणं वि' एवमज्ञानिनामिव मत्यज्ञानिनां श्रुताज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनामपि प्रथमद्वितीयावेव भङ्गौ ज्ञातव्याविति ६ । सप्तमं संज्ञाद्वारमाह - ' आहारसम्भोवउत्ताणं जाव परि गहसनोवउत्ताणं पढमवितिया' आहारसंज्ञोपयुक्तानां यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्तानां प्रथमद्वितीयभङ्गी आहारादि संज्ञोपयोगकाले क्षपकत्वोपशमकल्वयोरभावात् चत्वारो भङ्गा न भवन्ति किन्तु आद्यावेव द्वौ भवत इति । 'नोसन्नोव - उत्ताणं चत्तारि नोसंज्ञोपयुक्तानां चत्वारोऽपि भङ्गा भवन्ति नोसंज्ञोपयुक्ता उसको पापकर्म का बन्ध हुआ होता है । ६ अज्ञानद्वार - ' अन्नाणीणं पढमतिया' अज्ञानी जीवों के प्रथम और द्वितीय ये दो ही भंग होते है - अन्नात् चन्नाति, भन्त्स्यति १ अवन्नात् वन्नाति, न भन्त्स्यति २, ' एवं सह अन्नाणी सुमअन्नाणीणं विभंगनाणीणं वि' इसी प्रकार से मत्यज्ञानी, ताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों के भी ये आदि के दो ही भंग होते हैं । '७ संज्ञाद्वार' 'आहारसन्नोवउत्ताणं जाव परि हसनोत्ताणं पढमवितिया' आहार संज्ञोपयुक्त जीवों को यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त जीवों को आदि के दो ही भंग होते है- क्योंकि आहारादिसंज्ञोपयुक्त काल में क्षपकता या उपशमकता का अभाव रहता है, इसी कारण यहां पर चार भंग नहीं कहे गये हैं । 'नो सन्नोव उत्ताणं चत्तारि' जो जीव नोसज्ञोपयुक्त हैं- आहार आदि में आस 'अन्नाणीणं पढमवितिया' अज्ञानी लवाने पहेला भने गीले मे मे ४ भगो होय छे. 'अवघ्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति १ अबध्नात, बध्नाति न भन्त्स्यतिर 'एव' मइ अन्नाणीणं सुय अन्नाणीण विभंगनाणीणं वि' मेन प्रमाणे भति અજ્ઞાનવાળા, શ્રુતમજ્ઞાનવાળા અને વિભગજ્ઞાનવાળા જીવાને પણ પહેલા એ लगो होय हे 'आहारसन्नो उत्ताण जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताणं जाव पढमबितिया' आहार संज्ञोपयुक्त कवीने यावत् परिग्रह संज्ञोपयोगवाणा જીવાને પહેલા અને ખીજો એ એજ ભગા હોય છે. કેમકે આહાર વિગેરે સત્તાના ઉપચૈાગ કાળમાં ક્ષપકપના અથવા ઉપશમપણાને અભાવ રહે છે. એજ કારણથી અહિયાં ચાર ભગા કહ્યા નથી. , 'नो सन्नो उत्ताणं चत्तारि' मे भवनो संज्ञोपयुक्त छे, आहार विगेरेभां આસક્તિ વિનાના છે, તેઓને ચારે ભગેા હોય છે. કેમકે તેઓને ક્ષેપકપણુ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् आहारादिषु आसक्तिवर्जिताः तेषां च चत्वारोऽपि भङ्गा भवन्ति क्षपणोपशमसंभवादिति ७ । अष्टमं वेदद्वारमाह-सवेदगाणं एमबितिया' सवेदकानां मथम द्वितीयभङ्गौ वेदोदये सति क्षपणोपशमी न स्यातामिति अत आधद्वयमेवेति । ‘एवं इस्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा वि एवं स्त्री वेदकाः पुरुषवेदका नपुंसकवेदका अपि, एतेषामपि आद्यावेव द्वौ भवत इति । 'अवेयगाणं चत्तारि अवेदकानां वेदरहितानां चत्वारोऽपि भंगा भवन्ति स्वकीये वेदे उपशान्ते सति बध्नाति, भन्स्यति च मोहनीयं पापं कर्म, यावत्मृक्षमसंपरायचारित्रप्राप्ति नं भवति तावदिति । ततः पतितो वा भन्स्यति इत्येवं प्रथमो मङ्गः । तथा वेदे क्ति से रहित हैं-उनको चारों तरी भंग होते हैं। क्योंकि उनमें क्षपणा और उपासना का संभव होता है। '८ वेदवार-'लवेदगाणं पहमघितिया' जो जीव वेदसहित हैं उनके भी प्रथम और द्वितीय ऐले दो भंग होते हैं, क्यों कि वेदोदय में क्षपणा और उपशमना ये नहीं होते हैं । 'एवं इथिवेयगा, पुरिलवेयगा, नपुंसगवेयगा वि' इसी प्रकार से स्त्रीवेद वालों के पुरुषवेद वालों के और नपुंसक वेवालों के भी आदि के दो ही भंग होते हैं, 'अवेयगाणं चत्तारि' अवेदकों के चारों ही भंग होते हैं-क्यों कि वेद रहित जीव अपनावेद उपशान्त हो जाने पर मोहनीयरूप पाप कर्म को जब तक उसे सूक्षमसंपराध चारित्र की प्राप्ति नहीं होती है तब तक बांधता है, और आगे भी वह उसे बांधेगा, अथवा श्रेणी से पतित हो जाने पर वह बांधेना। ऐसा प्रथम भंग यहां है । और जब वेद क्षीण हो जाता है तब भी यह पापकर्म न्मने मान समय ‘सवेदगाण पढमवितिया' २ १ सहવેદસહિત હોય છે, તેઓને પણ પહેલે અને બીજે એ બે ભાગ હોય છે. કેમકે–વેદના ઉદય કાળમાં ક્ષપકપણું અને ઉપશમપણું એ બને છેતા નથી. ___ 'एव इस्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, नपुसकवेयगा वि' मे४ प्रमाणे स्त्रीव:વાળાઓને, પુરૂષદવાળાઓને અને નપુંસકદવાળાને પણ પહેલે અને બીજે सम४ मग डाय छे. 'अवेयगाण चत्तारि' महीने यारे मग हाय છે. કેમકે વેદરહિત જીવ પિતાને વેદ ઉપશાંત થઈ જાય ત્યારે મોહનીય રૂપ પાપકર્મને જ્યાં સુધી તેને સૂક્ષ્મસં૫રાય ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થતી નથી ત્યાં સુધી બાંધે છે. અને આગળ-ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ કરશે. અથવા શ્રેણીથી પતિત થયા પછી તે પાપકર્મ બાંધશે. એ પ્રમાણેને આ પહેલે ભંગ છે. ૧ અને જ્યારે વેદ ક્ષીણ થઈ જાય છે, તે પણ તે પાપ કર્મ બાંધે છે, Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ भगवतीय क्षीणे वध्नाति, मुरमसंपरायावस्थायां च न भन्स्यतीत्येवं द्वितीयो मङ्गो भवति २। थोपशान्त वेदः सूक्ष्मसंपरा यारथाया न वनाति प्रपतितरतु भन्स्यति इति तृतीयाङ्गः ३। तथा क्षीणे वेदे सक्षमसंपरायादिगुणस्थानेषु न वध्नाति न वा अनागत काले भन्स्यतीत्येवं क्रमेण चतुर्थों भङ्गः ४ । तदेवं चत्वारोऽपि भङ्गाः वेदकानां संभवन्ति अवध्नादितिविशेषणं तु सर्वत्रापि ज्ञातव्यमिति (८) नवमं कपायद्वारगाह-'सकमाई णं चत्तारि' सकपायिनाम-कपायवां जीवानाम् चत्वारो भङ्गा भवन्ति तत्र अवध्नात वध्नाति भन्स्यतीति प्रथमो भङ्गा, अभव्यस्य भवति, अवघ्नात् बध्नाति न भन्स्यतीति द्वितीयो मङ्गो भव्यस्य घांधता है पर सूक्ष्मसंपराय अवस्था में यह नहीं बांधता है इस प्रकार से द्वितीय भंग यरा घटित होता है। तथ- उशान्तवेद वाला सूक्ष्मसंपराय अवस्था में पापकर्म का बन्ध नहीं करता है, पर जब वह उपशम श्रेणी से पतित हो जाता है तो बांधने लगता है । अतः तृतीय भंग बन जाता है। तथा-वेद के क्षीण होने पर सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों में यह पापकर्म नहीं बांधता है और आगे भी यह उसे नहीं बांधेगा इस प्रकार से चतुर्थ भंग यहां बन जाता है। ये चारभंग अवेदकों के होते है 'अवघ्नात्' यह विशेषण तो सर्वत्र जानना चाहिये नववा कषाद्वार-'सकसाई णं चत्तारि' जो जीव कषाय सहित हैं उनके भी चारों भंग होते हैं। (१) भूतकाल में पांधा है। वर्तमान में बांधता है और आगे भविष्यकाल में भी बांधेगा, यह कपाय सहित अभव्य की अपेक्षा हे प्रथम भंग है । (२) भूतकाल में बांधा है, वर्तमान में પરંતુ સૂમસંપાય અવસ્થામાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતો નથી. આ રીતે આ બીજો ભંગ કહેલ છે. તથા-ઉપશાંત વેદવાળા સૂફમસંપાય અવસ્થામાં પાપકર્મનો બંધ કરતા નથી. પરંતુ જ્યારે ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થાય છે. તે તે પાપકર્મ બાંધવા લાગે છે તે રીતે ત્રીજો ભંગ પણ બની જાય છે. તથા–વેદના ક્ષીણ થવાથી સૂકમસં૫રાય વિગેરે ગુણસ્થાનમાં આ પોપટને બંધ થતો નથી અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપકર્મનો બંધ નહીં કરે આ રીતે અહિયાં ચે ભંગ કહ્યો છે આ ચાર ભંગે અવેદકેને થાય છે. 'अबध्नात्' मा विशेष तो ॥धे ४ सस. पायवा२-'सकसाईण चत्तारि' २ ७१ पाय सहित डाय छ, तमाने ५ यारे मग हाय छे. (૧) ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં કર્મ બંધ કરે છે. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् 'आसनमाप्तव्यमोक्षस्य भवति, अवध्नात् न बध्नाति भन्स्यतीति तृतीयो भङ्गा, मोहोपशमकस्य भवति, अबध्नात् न अन्तरूपति इति चतुर्थों भङ्गः क्षपकसूक्ष्म 'संपरायस्य भवतीत्येवं क्रमेण कषायचतां चत्वारोऽपि भङ्गाः सम्भवन्तीति । 'कोह कसाई णं पहमधितिया भंगा' क्रोधकपायिणां मथमद्वितीयसङ्गौ, अत्र प्रथमो "भङ्गोऽभव्यस्य ज्ञातव्यः, तथा द्वितीयभङ्गो भव्यविशेषस्य ज्ञातव्यः, तृतीयचतुर्थभङ्गौ तु अत्र न संभवतः वर्तमानकाले अबन्ध कत्लस्याभावादिति । "एवं माणकसाइस वि मायाकमाइस वि एवं क्रोधकपायिवदेव मानकषायिणोऽपि माया'बांधता है किन्तु भविष्यत् में नहीं बांधेगा, यह द्वितीय संग आलन 'प्राप्त होने वाली है मुक्ति जिसे ऐसे अध्य कपाथमाहित जीव की अपेक्षा से है। (३) भूतकाल में बांधा है, वर्तमान में नहीं बांधता है, और भविष्य में बांधेगा, यह तीसरा भंग उपशम मोह की अपेक्षा से है' और (४) भूतकाल में बांधा है वर्तमान में नहीं बांधता है, भविष्यत् में भी नहीं बांधेगा, यह चतुर्थ भंग क्षाक स्वक्षमसंपराय कषाय वाले जीव की अपेक्षा से है । 'कोस्कसाईणं पढमबितिय भंगा' क्रोध कषाय वाले अभव्य जीव के प्रथम भंग होता है, और कपाथ वाले भव्य जीव को द्वितीय भंग होता है-इस प्रकार से ये दो भंग क्रोध कषायवाले के होते हैं तृतीय और चतुर्थ भंग यहां नहीं होता है। क्यों कि वर्तमानकाल में वह अवन्धक नहीं होता है । 'एवं माण. અને ભવિષ્યમાં પણ કર્મ બઘ કરશે. કષાયવાળા અભવ્યની અપેક્ષાથી પહેલ ભંગ છે. (૨) ભૂતકાળમાં કર્મ બધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં કરે છે. પરત ભવિષ્યમાં કર્મ બધ કરશે નહીં બીજો ભંગ નજીકમાં જેને મુક્તિ પ્રાપ્ત થવાની હોય એવા કષાયવાળા ભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી છે (૩) ભૂતકાળમાં કર્મ બાંધેલ છે વર્તમાનમાં બાંધતા નથી અને ભવિષ્યમાં બંધાશે ત્રીજે. લાગ ઉપશમક મહવાળા જીવની અપેક્ષાથી થાય છે (૪) ભૂતકાળમાં કર્મ બધ કર્યો છેવર્તમાનમાં કર્મ બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્યમાં પણ કામ બંધ કરશે નહીં અને ચોથો ભંગ સૂમસં૫રાય ક્ષેપક કવાયવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહ્યો છે 'कोहकसाईण पढमबितियभंगा' ओष पायपास समय अपने पाहतो ભંગ હે ય છે. અને ક્રોધ કષાયવાળા ભવ્ય જીવને બીજો ભંગ હોય છે. આ રીતે આ બે ભાગ ફોધ કષાયવાળાને હોય છે અહિયાં ત્રીજો અને ભંગ હોતા નથી કેમકે વર્તમાન કાળમાં તે અબક હોતા નથી. “gs भ० ६९ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ भगवती सूत्रे कपायिणोऽपि प्रथमद्वितीयभावेव भवत इति ज्ञातव्यम् | 'कोभकसादस्स चत्तारि भंगा' लोभकपाणिश्वत्वारो भङ्गाः सकपायिवदेव चत्वारो भना इह ज्ञातव्या इति । 'अकसाई णं ते! जीवे पावं कम्मं कि बंधी पुच्छा' अकपायी खलु भदन्त ! जीवः पापं कर्म किम् अवध्नात् ध्नाति भन्तयति १, बनाव बध्नाति न भन्रस्यति २, अवघ्नात् न बध्नाति भन्त्स्यति ३, अवध्नात् न बध्नाति न स्यति ४, इत्येवं चतुर्भङ्गकः पृच्छा - प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' कसायरस चि मायाकसायरस वि' इसी प्रकार से ये दो आदि के भंग मानकषायवाले जीव के भी होते हैं और ये ही दो भंग माया कषाय वाले जीव के भी होते हैं । 'लोभकसाइस्स चत्तारि भंगा' लोभ कषायवाले जीव के चारों ही भंग होते हैं । जिस प्रकार से सकपायी जीव के चार भंग प्रकट किये गये हैं उसी प्रकार से लोभ कषायी जीव के भी ये चार भंग होते हैं । 'अफसाई णं भंते । जीवे पावं कम्मं किं बंधी, पुच्छा' हे भदन्त ! कपाय रहित जीव के कितने भंग होते हैं ? जो जीव कपाय रहित है क्या उसके द्वारा पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया है, वह वर्तमान में पापकर्म का बन्ध करता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह पापकर्म का बन्ध करेगा ? अथवाभूतकाल में उसने पापकर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह कर रहा है ? और भविष्यत् काल में उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होगा ? अथवाभूतकाल में उसने पापकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान काल में वह पाप माणसास व मायाकसायरस वि' येन प्रभा । मने जीले मे मे ભંગ માન કષાયવાળા જીવને પણ હેાય છે, અને એજ બન્ને ભંગા માયા उपायबाणा कवने पशु होय छे. 'लोभकसायस्स चत्तारि भंगा' बोल उपायવાળા જીવને ચારે ભગા હોય છે. જે પ્રમાણે સકષાયી-કષાયવાળા જીવને ચાર ભંગ કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે લાભકષાયવાળા જીવને પણ તે ચારે ભગા होय हे 'अकसाई णं भंते ! जीवे पाव कम्म कि बंधी पुच्छा' हे भगवन् કષાય વિનાના જીવને કેટલા ભંગ હાય છે ? જે જીવા કષાય વિનાના હાય છે, તેઓએ પૂર્વકાળમા શું પાપકમના બંધ કરેલા છે? વર્તમાનમાં તે પાપડના ખધ કરે છે ? અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે શું પાપ કર્મના અધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપકના બંધ કર્યાં છે ? વત માનમાં તે પાપકના અધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં તે પાપકના મધ નહિ કરે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપકમના અધ કર્યાં છે, વર્તમાન કાળમાં તે પાપકના બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકને ધ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ १०१ वन्धस्वरूपनिरूपणम् ५४७ इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अस्थेगइए वंधी न बंबइ बंधिस्सइ' अस्त्येकका कश्चित् अवधनात् न वनाति भन्स्यति इत्येवं तृतीयो भङ्ग उपशमकमाश्रित्य भगवता अनुमोदितः 'अत्थे गइए बंधी न बंधइ न बंधिस्सई' अस्त्येककः कश्चिज्जी. वोऽबध्नात् पापं कर्मातीतकाले, न बध्नाति पाप कर्म वर्तमानकाले, न भन्स्यति अनागतकाले, इत्येवं चतुर्थों भङ्गः क्षपमाश्रित्य भगवता प्रदर्शितः। एवं च तृतीयचतुर्थों एवं भङ्गौ संभवतः, नायौ द्वाविति ९ । दशम योगद्वारमाह-सनोगिस्स कर्म का वन्ध नहीं कर रहा है, भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध करेगा ? अथवा-भूतकाल में ही उसने पापकर्म का पन्ध किया है, वर्तमान में वह नहीं कर रहा है और अविष्यत् काल में भी वह नहीं करेगा ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! अकषायी जीवों में कोई एक जीव ऐसा होता है कि जिसने भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में पापकर्म का वह बन्ध नहीं करता है और भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बंध करेगा, तधा-कोई एक अकषायी जीव ऐसा होता है कि जिसने भूतकाल में ही पापकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान काल में और भविष्यत् काल में वह पापकर्म का वन्ध नहीं करता है और न करेगा ही। इस प्रकार से अकषायी जीव के यहाँ दो ही अन्त के भंग होते हैं, आदि के दो भंग नहीं होते हैं । तृतीय भंग उपशमक जीव को आश्रित करके કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં જ તેણે પાપકર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં તે પાપકર્મને બંધ કરતું નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે નહીં કરે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! અકષાયી જીમાં કેઇ એક જીવ એ હોય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં પાપકર્મનો બંધ કર્યો છે, વર્તમાન કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરતા નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરશે તથા કેઈ અકષાયી જીવ એ હોય છે કે-જે ભૂતકાળમાં જ પાપકર્મને બંધ કરેલ હોય છે. વર્તાને કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરતા નથી અને કરશે પણ નહીં આ રીતે અકષાયી ને છેલ્લા બે ભાગે જ થાય છે. આદિના બે અંગે હોતા નથી. ત્રીજો ભંગ ઉપશમવાળા ને આશ્રય કરીને હોય છે. અને એ ભંગ ક્ષેપક જીવને આશ્રય કરીને હેાય છે. એ રીતે પ્રભુશ્રીએ સમર્થન કરેલ છે. 'सजोगिस्स चउभंगो' सयोगी पन यारे । डाय छ, तमirsal ભંગ અભવ્ય સાગીની અપેક્ષાથી હાય છે, અને બીજો ભંગ ભવ્ય સગી Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसने चउभगो' सयोगिनः-योगवन: सामान्यतः सयोगिजीवस्य चतुर्मशः, चत्वारो भगा वक्तव्याः तत्र प्रथमो मनोऽभव्यस्य, द्वितीयो भङ्गो भव्यविशेषस्य, तृतीयो भन उपशमकस्य, चतुर्थो भङ्गः क्षपकस्येति । एवं मणजोगिमा वि वइजो. गिरस वि कायजोगिस्स वि' एवं सयोगिवदेव मनोयोगिनोऽपि वाग्योगिनोऽपि काययोगिनोऽपि चत्वारो भगा अमव्यभव्यविशेपोपशम कक्षयकानाश्रित्य ज्ञातव्या इति । 'अजोगिस्त चरिमो' अयोगिनो-चोगरहितस्य चरमो भगो ज्ञातव्यः व-यमान मन्तव्यमानयो स्तस्याभावात् इति १०। एकादशमुपयोगद्वारमाह'सागारोवउत्ते चत्तारि अनागारोवडत्ते वि चत्तारि भंगा' साकारोपयुक्तस्य तथा अनाकारोपयुत्तास्यापि चत्वारो भगाः अवघ्नात् बध्नाति मन्त्स्यत्तीत्यादिका और चतुर्थ भंग क्षएक जीव को अश्रित करके होते हैं ऐसा प्रभुश्री ने समर्थिन किया है १० योगहार-'लजोगिस्स च उभंगो' लयोगी जीव के चारों ही भंग होते हैं, इनमें प्रधान भंग अभय लयोगी जीव की अपेक्षा से होता है, द्वितीय भंग भय सयोगी जीव की अपेक्षा से होता है, तृतीय भंग उपशभक सयोगी की अपेक्षा ले और चतुर्थ भंग क्षपक सयोगी की अपेक्षा से होता। ___एवं रणजोगिस्स वि बहजोगिम्स नि काजोगिस्स वि' सयोगी के जैसे ही चारों भंग मनोयोगी, वचनबोगी के और काययोगी के होते हैं। जो मनोयोगी अभव्य होता है उसकी अपेक्षा से प्रथम भा जी मनोयोगी भव्य होता है उसकी अपेक्षा से द्वितीय भंग, जो मनोयोगी उपशमक होता है उसकी अपेक्षा से तृतीय भंग और जो मनोयोगीक्षपक होता है उसकी अपेक्षा से चतुर्थ भंग पला जानना चहिये, इसी प्रकार से बचन योगी और शाययोगी में भी जानना चाहिये, 'अजोगिस्स चरमो' अयोगी जीव के केवल एक જીવની અપેક્ષાથી હોય છે. ત્રીજો ભંગ ઉપશમવાળા સગીની અપેક્ષાથી मन. व्यायाम क्ष५४ श्रेणीवाजा सयोगीनी अपेक्षाथी साय छे. 'एवं मण. जोगिस्त्र वि, वइजोगिस्स कि, कायजोगिस्स वि' सयागी ना ४थन प्रमाणे ચારે ભંગે મને ગવાળા, વચનગવાળા, અને કાયાગવાળા જીવને હોય છે. જે મનેગી અભવ્ય હોય છે, તેની અપેક્ષાથી પહેલે લગ કહ્યો છે. જે મને ચોગી ભવ્ય હોય છે, તેની અપેક્ષાથી બીજો ભંગ છે. જે મને યોગી ઉપશમવાળા હોય છે, તેની અપેક્ષાથી ત્રીજો ભંગ અને જે મનેયોગી ક્ષક શ્રેણીવાળા હોય છે, તેની અપેક્ષાથી એ ભંગ થાય છે તેમ સમજવું. એજ પ્રમાણે વચનગી અને કાયાગીના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०२ नैरयिक बन्धस्वरूपनिरूपणम् ५४२ ज्ञातव्या इति ।मु०१॥ पूर्व समुच्चयजीवमाश्रित्यैकादशमिद्वारवन्धस्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति समुच्चयनैरयिकादिदण्डका नधिकृत्य वन्धस्वरूपं प्रदर्शयति 'नेरइए णं भंते' इत्यादि, - मूलम्-नेरइए णं मंते ! पावं कसं किं बंधी बंधइ बंधिस्लइ ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी० पढमबितिया१। ललेस्ले गं संते ! नेरडा पावं कम्भ० एवं वेव। एवं काहलेस्ले वि, नीललेस्ले वि, काउलेसे कि । एवं काहपक्खिए, सुकपक्खिए, सम्यदिही, मिच्छादिही, सम्मामिच्छादिट्री, नाणी, अभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, अन्नाणी, माइअन्नाणी, सुयअन्नाणी, निभंगनाणी, आहारमन्लोवउत्तो जाव परिग्गहसन्नोवउत्तो, लवेदए, णपुंसमवेदए, सकलाई, जाव लोभकलाई, सजोगी, मणजोगी, बबजोगी, कायजोगी, सागारोवउत्ते, अणागारोवउत्ते, एएसु सव्वेसु पदेसु पढमबितिया अंगाभाणियवा। एवं असुरकुमारस्ल वि वत्तव्वया भाणियव्या, नवरं तेउलेस्ला, इथिवयगा पुरिलवेयगा य अमहिया। नपुंसगवेयगान भन्नति, सेसं तं चेव, सम्वत्थ पढमवितियभंगा। एवं जाव थणियकुमारस्त । एवं पुढ बीकाइयस्स वि, आउक्काइयस्स वि जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिस्त वि सम्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा, नवरं जस्ल जा लेस्सा। दिदी, नाणं, अन्नाणं, वेदो, जोगोय जं जस्स अस्थि तं तस्ल भाणियव्वं लेलं तहेव । मणुलास जच्चेव अन्तिम भंग ही होता है । ११ उपयोगद्वार-सागरोवउत्ते चत्तारि, आनागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा' साकार उपयोग वाले में और अनाकार उपयोगवाले में भी चारों भंग होते हैं ।सू०१॥ 'अजोगिस्स चरमो भंगो' भयेगी 4 व 10 डाय छ. 'सागारोवउत्ते चत्तारि, अनागारोवउत्ते. वि चत्तारि भंगा' सा१२९५योगવાળામાં અને અનાકાર ઉપગવાળામાં પણ ચારે બંને હોય છે. સૂ૦ ૧ - Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० भगवतीस्त्रे जीवपदे वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियवा। वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियवाओ, सेसं तहेव भाणियव्वं ॥सू०२॥ ___ छाया-नैरयिका खलु भदन्त ! पापं कर्म किम् अवघ्नात् वध्नाति, भन्स्यति ? गौतम ! अत्येकका अबधनात्० प्रथमद्वितीयौ १, सलेश्यः खल भदन्त । नरयिकः पापं कर्म० एवमेव । एवं कृष्णलेश्योऽपि, नीललेश्योऽपि, कापोतलेश्योऽपि । एवं कृष्णपाक्षिका, शुक्लपाक्षिका, सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, ज्ञानी आमिनियोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अज्ञानी मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विमंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्तः यात्रत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्तः, सवेदका, नपुंसकवेदक: सकपायी यावत् लोभापायी, सयोगी, मनोयोगी, वाग्योगी, काययोगी, साकारोपयुक्तः, अनाकारोपयुक्तः, एतेषु सर्वेषु पदेषु प्रथमद्वितीयभङ्गौ भणितव्यो। एवमसुरकुमारस्यापि वक्तव्यता भणितव्या, नवरं तेजोलेश्या, स्त्रीवेदकाः पुरुषवेदकाचा अधिकाः, नपुंसकवेदका न भण्यन्ते, शेषं तदेव, सर्वत्र प्रथमद्वितीयौ भङ्गो । एवं यावत् स्तनितकुमारस्य । एवं पृथिवीकायिकस्यापि, अफायिकस्यापि, यावत् पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकस्यापि, सर्वत्रापि प्रथमद्वितीयौ भङ्गो, नवरं यस्य या लेश्या दृष्टिीनमज्ञानं वेदो योगश्च यद् यस्यास्ति तत् तस्य भणितव्यम्, शेषं तदेव । मनुष्यस्य येव जीवपदे वक्त. व्यता सैव निरवशेषा भणितव्या। वानव्यन्तरस्य यथा अनुरकुमारस्य । ज्यो. तिष्कस्य वैमानिकस्य एवमेव, नवरं लेश्या ज्ञातव्याः, शेष तथैव भणितव्यम् ।०२। टीका-'नेरइए णं भंते' नैरपिकः खलु भदन्त ! 'पावं कम्मं किंबंधी, बंधइ, बंधिस्सइ' पापम्-अशुभं कर्म किम् अवनात प्राक्काले, बध्नाति वर्तमानकाले भन्स्यति अनागतकाले १, अथवा अवघ्नात् वध्नाति न भन्स्थति २, अवघ्नात् न वध्नाति भन्स्पति ३, अवधनात् न वनाति न भन्स्यति ४ । इत्येवं 'नेरइए णं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी'-इत्यादि । टीकार्थ- हे भदन्त ! नैरयिक जीव ने क्या पापकर्म-अशुभकर्म -घांधा है ? वह वर्तमान में पापकर्म बांधता है ? भविष्यत् काल में वह पापकर्म बांधेगा ? अथवा-उसने भूतकाल में पापकर्म बांधा 'नेरइए णं भंते ! पाव कम्म किं बंधी' त्याल ટીકાઈ–હે ભગવન નૈરયિક જીવે પાપકર્મ–અશુભ કર્મને બંધ કર્યો છે? અથવા વર્તમાન કાળમાં પાપકર્મને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०२ नैरयिक बन्धस्वरूपनिरूपणम् " 9 क्रमेण चतुर्भङ्गकः प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थे गइए बंधी पढमवितिया' अस्त्येककोऽवध्नात् प्रथमद्वितीय, कचित् नारकः पापं कर्म अवघ्नात् अतीतकाले वर्तमानकाले च बध्नाति, भविष्यत्काले च भन्त्स्यति इति प्रथमो भङ्गः, तथा कश्चित् नारकः पापं कर्मातीतकाले अवधनात् वर्त्तमानकाले वध्नाति, न भन्त्स्यति भविष्यत्काले, इति द्वितीयो भङ्गः २ । एवं क्रमेण प्रथमद्वितीयौ भङ्गौ नारकस्य संभवतः, नारकत्वे उपशमावस्थायाः क्षपकावस्थायाश्चाऽभावादिति । 'सलेहै ? वर्तमान में वह पापकर्म बांधता है और भविष्यत् में वह पापकर्म नहीं बांधेगा ? अथवा - भूतकाल में उसने पापकर्म बांधा है ? वर्तमान में वह पापकर्म नहीं बांधता है ? भविष्यत् में वह पापकर्म बांधेगा ? अथवा भूतकाल में ही वह पापकर्म बांध चुका है ? वर्तमान में वह बांधता नहीं है ? और भविष्यत् में भी वह नहीं बांधेगा ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा । अत्थेगइए बंधी पढमबितिया' नारकों में कोई एक जीव ऐसा होता है कि जिसने भूतकाल में भी पापकर्म बाँधा है, वर्तमान में भी वह पाप कर्मांधता है और भविष्यत् में भी वह पापकर्म पांधेगा, तथाकोई एक नारक जीव ऐसा होता है कि जिसने भूतकाल में पापकर्म वांधा है वर्तमान में वह पापकर्म बांधता है पर भविष्य में वह पापकर्म नहीं बांधेगा, इस प्रकार से यहां ये आदि के दो ही भंग होते हैं। क्यों कि नारक में उपशम अवस्था और क्षूपक अवस्था ये दोनों अवस्थाएं नहीं होती हैं, इसीलिये अन्त के दो भंग यहां नहीं તે પાપકના ખધ કરશે ? અથવા તેણે ભૂતકાળમાં પાપકમ બાંધ્યુ છે ? વર્તમાન કાળમાં તે પાપકમ ખાધે છે? અને ભવિષ્યકાળમાં તે પાપકમ નહિં ખાંધે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપકમ માધ્યું છે ? વમાનમાં તે પાપકમ નથી ખાષતા ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકમ નહીં ખાંધે ? અથવા ભૂતકાળમાં જ તે પાપકમ ખાધી ચૂકયા છે? વમાન કાળમાં તે પાપકમ નથી ખાંધતા અને ભવિષ્યકાળમાં તે પાપકમ નહીં માંધે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमां अनुश्री उडे - 'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी ० पढमवितिया' नार કામાં કાઇ એક જીવ એવા હાય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં પણ પાપકમને બંધ કર્યાં છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપકમના અંધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં પણ પાપકા મધ નહી કરે. આ રીતે અહિયાં પહેલે અને ખીજો એ એ ભગા જ હાય છે કેમકે નારકમાં ઉપશમશ્રેણી અને ક્ષેપકશ્રેણી આ એ શ્રેણીયા હાતી નથી. તેથી છેલ્લા એ ભગા અહિયાં હાતા નથી. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती 'स्से णं भंते ! नेरइए पावं कम्म०' सलेश्यः-लेश्यावान् खलु सदन्त । नैरयिका पापं कर्म किमबध्नात् हे भदन्त ! लेश्यावान् नारकः पापम्--अशुभंकर्म अतीतकालेऽवध्नात वर्तमारकाले बध्नाति अनागतकाले भन्ल्यति किमिति 'प्रथमः १, पूर्वोक्तो नारकः अतीतकाले पाप कर्म अवध्नाव वर्तमानकाले बध्नाति, अतीतकाले न भन्स्गति किमिति द्वितीयो भङ्गः २, पूर्वोक्तनारयाः अतीतकाले -पापं कर्म अवघ्नाद वर्तमानकाले न बध्नाति अनागत काले भन्स्यति फिमिति तृतीयो भङ्गा३, पूर्वोक्तनारकोऽतीतकाले पापं फसे अवघ्नात् वर्तमानकाले न बध्नाति अनागतकाले न अन्तरयति किमिति चतर्यो अङ्गः४, इति चतुर्भनक प्रश्ना, भगवानाह-'एवं चेव' इति ‘एवं चे' एवम् निर्विशेषणरु नारकस्य यथा द्वादेव प्रथमद्वितीयमनको एवमेव सलेश्यनारकस्यापि हो एव प्रथम द्वितीयौ पापं कर्म अवघ्नात् वनाति, भन्स्पति, अबघ्नात् न भन्तव्यतीत्याकारको 'एच ज्ञातव्यो सलेश्यनारकाणापशममोहक्षपकमोहयोरभावात् इति । एवं पण्डलेस्सेवि' एवम्-सलेश्यनारकवदेन कृष्णलेश्यनारकोऽपि यथा सलेश्पनार• होते हैं । 'सलेस्ले णं संते ! नेरइए पावं कसं०' हे भदन्त ! जो नैरधिक सलेश्य होता है क्या उसके द्वारा पहिले यूतकाल में पापकर्म का बंध किया गया है ? और वर्तमान में बह पापधर्म का बंध करता है? और अविष्यत् काल में क्या वह पापकर्म का वार करेगा? इत्यादि चारों अंगों का प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'एवं चेच हे गौतम ! जैसे दो भंग सामान्य नारक के विषय में कहे गये हैं-इसी प्रकार से वेही दो मंग इस लेश्य नारक के होते हैं ऐसा जारना चाहिये, अत के दो भंग तीसरा और चौथा भंग हां नहीं होते हैं -इसका कारण यह है कि सलेदय नारकों के उपहारोह और क्षपक मोह नहीं होता हैं। 'एवं कण्हलेले वि' इसी प्रकार के दो 'सलेस्से ण भंते ! नेरइए पाव कम्म.' इसापन र नरयि वेश्याવાળા હોય છે, તેના દ્વારા પહેલાં ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરા હોય છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મને બંધ કરશે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે -एव' चेव' है गौतम ! सामान्य ना२४ना स भा २ शत मे ' ભંગો કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે એજ બે અંગે આ લેફ્સાવાળા નારકોને હોય છે, તેમ સમજવું. છેલ્લા ૩ અને ૪ ચે એ બે ભંગ અહિયાં આ લેફ્સાવ ના જીવને કહેતા નથી તેનું કારણ એ છે કે-લેશ્યા વાળા નારકોને ઉપશમશ્રેણી અને ક્ષપકશ્રેણી એ બે એણિ હોતી નથી. 'एव' कण्हलेस्से वि' मे प्रमाणेना मे पडसा म भने मी. at Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेन्द्रका टीका श०२६ उ. १ सू०२ नैरयिकबन्धस्वरूपनिरूपणम् ५५३ , कस्य आधौ द्वौ भङ्ग कथितौ तथैव कृष्णलेश्यकनारकरयापि आद्यावेव द्वौ भङ्गौ वक्तव्यौ कृष्णलेश्य नारकाणामपि उपशमतायाः क्षपकतायाश्राभावादिति भावः । 'नीलले सेवि' एवमेव नीललेयोऽपि सखेश्यनारकवदेव नीलवेश्याविशिष्टनारकस्यापि द्वौ आद्यावेव प्रथमद्वतीयमङ्गौ ज्ञातव्यौ नीललेश्यनारकाणामपि उपक्षमतायाः क्षपकतायाथाभावात् आलापमकारश्चेत्थम् - नीललेश्यः खलु भदन्त ! नारकः पापं कर्म किम् अवध्नात् बध्नाति भन्त्स्यति १, अवनात वध्नाति न मन्त्स्यति २, अवनात् न वध्नाति मन्त्स्यति ३, अवधनात् न वच्नाति न अन्तस्यति ४ इति मनः हे गौतम । कथित नीलखेश्यनारकोऽवनात् बध्नाति भस्त १, कथित नीललेश्यनारकोऽवध्नात् बध्नाति न भन्त्स्यति इत्याकारकौ प्रथम भंग और द्वितीय भग-जो नारक कृष्णश्यावाला होता है उसको होते हैं । अन्तके यहां दो भंग नहीं होने का कारण कृष्णलेश्यावाले नारक के उपशमता और क्षपकता का अभाव है । 'नीलले से वि' इसी प्रकार से नीललेल्या वाले नारक जीव के भी ये ही दो आदि के भंग होते हैं । अन्त के दो भंग नहीं होते हैंक्यों कि नील श्यावाले नारक को भी उपशमता और क्षपकता नहीं होती हैं । यहाँ आलाप प्रकार ऐसा है- 'नीललेश्यः खलु भदन्त ! नारकः पाप कर्म किम् अवघ्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति १, अबध्नात्, बध्नाति, न भन्त्स्यति २, अवध्नात्, न बध्नाति, भन्तस्यति ३, अव नात न बध्नाति, न अन्त्स्थति ४' इति प्रश्नः - 'हे गौतम! कश्चित् नीललेइप, नारकोऽबध्नात् बध्नाति भन्त्स्यति १ कश्चित् नीललेश्यः नारकोऽचनात् बध्नाति न भन्त्स्यति २' ऐसे ये दो भंग ही यहां होते જે નારકા કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા હોય છે, તેને હાય છે, ૩ ત્રીજો અને ચેાથે! એ એ ભંગા અહિંયા હૈાતા નથી. તેનું કારણુ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકને ઉપશમ श्रेणी मने पीना अभाव छे, 'एव' नीललेस्से वि' मे प्रमाणे नीस લેશ્યાવાળા નારક જીવને પણ આદિના એટલે કે પહેલે અને ખીજો એ એ જ ભંગે! હાય છે દેલ્લા એ ભગા હાતા નથી. કેમકે નીલેશ્યાવાળા નારકને પણ ઉપશમશ્રેણી અને ક્ષપકશ્રેણી એ એ શ્રેણુીયે। હ।તી નથી. આ સખ ધમાં आसायम्ने! प्रहार मा प्रभा छे, 'नीललेश्य खलु भदन्त ! नारकः पापं कर्म किं अवघ्नात, वध्नाति, भन्त्स्यति १, अवध्नात बध्नाति, न भन्त्स्यतिर, अबध्नात्, न बम्नाति, भन्त्स्यति३, अबध्नात्, न बध्नाति, न भन्त्स्यति४' इति प्रश्नः हे गौतम ! 'कश्चित् नीललेभ्यः नारकोऽवध्नात्, बध्नाति भन्स्यति १ कश्चित् भ० ७० Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ भगवतीसूत्रे " हौ भङ्ग ज्ञातथ्यौ, यतो नीलखेश्य नारकाणामुपशमश्रेणिक्षपकश्रेणी न भवत इति । एवं क्रमेण सर्वत्र अग्रे आलापकपकारः स्वयमूहनीयः । ' काउलेस्सेवि' कापोतिकलेsयोsपि सलेश्यनारकवदेव कापोतिकलेश्यनारकोऽपि भङ्गद्वयविशिष्टो ज्ञातव्यः । ' एवं कण्हपक्खिए' एवं सलेश्यनारकत्रदेव कृष्णपाक्षिकोऽपि ज्ञातव्य इति । 'सुकपक्खिए' शुक्लपाक्षिकः सछेश्यनारकच देव शुक्लपाक्षिकोऽपि अभय विशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'सम्मादिट्ठी' सम्यग्दृष्टिः सलेश्यनारकचदेव सम्यग्दृष्टिरपि प्राथमिकमद्वयविशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'मिच्छादिट्ठी' मिथ्या दृष्टिरपि प्राथमिकभङ्गद्वयविशिष्टोऽवगन्तव्य इति । ' सम्मामिच्छादिट्ठी' सम्यग्मिथ्यादृष्टिः सलेश्यनारकवदेव भगद्वयविशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'पाणी' हैं । इन दो भंगो के होने का कारण यही है कि नीललेश्यावाले नारकों के उपशमता और क्षपकता नहीं होती हैं । इसी प्रकार से सर्वत्र आगे भी आलापक प्रकार अपने आप बना लेना चाहिये, इसी प्रकार से 'काउलेरसे चि' कापोतिक देयावाले नारक के भी ये आदि के ही दो भंग होते हैं अन्त के दो भंग नहीं होते हैं । 'एवं कण्हपखिए' सलेनारक के जैसे ही कृष्णपाक्षिक नारक जीव भी आदि के दो ही भंग वाले होते हैं- -अन्त के दो भगवाले नहीं होते हैं । 'सुक्क पक्खिए' तथा-सवेश्य नारक के जैसे ही शुक्लपाक्षिक नारक भी आदि के दो भंगो वाले ही होते हैं- अन्त के दो भंग वाले नहीं होते हैं । इनके अन्त के भंग नहीं होने का कारण ऊपर प्रकट कर दिया गया है । 'सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी, सम्सामिच्छादिट्ठी पाणी, आभिणिवोहिय नीललेश्यः नारकोऽत्रध्नांत, बध्नाति न भन्त्स्यतिर' थे प्रभा मडियां આ એ જ ભંગે થાય છે. આ એ ભગા થવાનુ કારણ એ છે કેનીલેશ્યાવાળા નારકેાને ઉપશમશ્રેણી અને ક્ષપકશ્રેણી આ બે શ્રેણીયા હાતી નથી. એજ રીતે મધે જ આગળ પણ આલાપાના પ્રકાર સ્વયં ખનાવી सेवा मान प्रमाणेना मासाहे- 'काउलेसे वि' अयेोति श्यावाणा नार જીવને પણુ આદિના એ જ ભગા હેાય છે. છેલ્લા એ ભાંગેા હાતા નથી. ' एवं ' कण्हपक्खिए ' येश्यावाजा नागछु भवना उथन प्रभा प्युपाक्षि४ ना२४ જીવને પણુ આદિના એટલે કે પહેલે અને ખીજે એ એજ ભગા ડાય છે, तेभने छेटला मे लगो होता नथी. 'सुकपक्खिप' सेश्यावाणा नारनी भ શુકલપાક્ષિક નારક જીવને પણ આદિના એટલે કે પહેલા અને ખીજો એ એ જ ભગા હાય છે. તેઓને છેલ્લા બે ભ`ગે હાતા નથી, તેને છેલ્લા એ लगी न दे।वानु' (२५ (५२ मतावे हे 'सम्मदिट्टी मिच्छादिट्टी सम्मा Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०३ नैरयिकवन्धस्वरूपनिरूपणम् ५५५ ज्ञानीसमुच्चयज्ञानी 'अभिणियोहियनाणी' आभिनिवोधिकज्ञानी आभिनिवोधिकेति मविज्ञानवानपि 'सुयनाणी' श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञानवानपि 'ओहिनाणी' अवधिज्ञानी, तथा-'अन्नाणी' सामान्येन अज्ञानी, सामान्यतोऽज्ञानवानपि तथा-'मइ अन्नाणी' मत्यज्ञानी-मस्यज्ञानवानपि 'सुयअनाणी' श्रुताज्ञानी-श्रुतज्ञानवानपि. 'विभंगनाणी' विमङ्गज्ञानी-विमङ्गज्ञानवानपि 'आहारसनोवउत्ते जाच परिग्गहसनोवउत्ते' आहारसंज्ञोपयुक्तो यावत यावच्छन्देन-भयसंज्ञोपयुक्तो मैथुनसंझोपयुक्तः, तथा परिग्रहसंज्ञोपयुक्तः 'सवेदए' सवेदकः-सामान्यवेदयुक्तोऽपि 'नपुंसगवेदए' नपुंसकवेदका-नपुंसकवेदकोऽपि 'सकसाई जाव लोभकसाई सकपायी यावत् लोभकपायी, यावत्पदेन क्रोधमानमायाकपायीनां संग्रहा, नाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी' इसी प्रकार ले सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि, मिश्रष्टि, ज्ञानी, आभिनिवोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी ये सब भी सलेश्य नारक के जैसे ही आदि के दो संगो वाले होते हैं, अन्त के दो भंगों वाले नहीं हैं। तथा-'अन्नाणी' सामान्य से अज्ञानी जीव 'मइ अन्नाणी' मत्यज्ञानी जीव 'सुय अन्नाणी' श्रुतअज्ञानी जीव, 'विभंगनाणी' विभंगज्ञानी जीव, 'आहारसन्नोवउत्ते' आहार संज्ञोपयुक्त जीव यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त जीव, यावत्पद ग्राह्य-भयसंज्ञोपयुक्त जीव, मैथुन-संज्ञोपयुक्त जीव, 'सवेदए' सामान्य वेद वाला जीव, 'नपुंसगवेयए' नपुंसक वेद वाला जीव 'सकलाई' सामान्यतः कषायवाला जीव, क्रोध कषायवाला जीव, मानकषाय वाला जीव, माधाकषायवाला जीव और लोभ कषाय वाला जीव 'सजोगी' सामान्यतः योगमिच्छादिट्ठी, गाणी, आभिगोबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहियणाणी' अ प्रभारी सभ्यटि, मिथ्याष्टि, भिष्ट, ज्ञानी, मालिनीमाधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, અને અવધિજ્ઞાની એ બધા વેશ્યાવાળા નારક જીવના કથન પ્રમાણે આદિ પહેલાના બે ભંગવાળા હોય છે. છેલ્લા બે ભાંગ તેમને હોતા નથી, તથા 'अन्नाणी' सामान्यथा मज्ञानी 04 'मइअन्नाणी' भति मज्ञानवावे। 'सुयअन्नाणो' श्रुतमज्ञाना । 'विभंगनाणी' विज्ञानवाणा 'आहारसन्नोवउत्ते' माडार सज्ञोपागाणा ७१ यावत् भय सज्ञोपयोगवा જીવ, મિથુનસંપગવાળા જીવ અને પરિગ્રહ સંશોપગવાળા જીવ 'सवेदए' सामान्य वाणा 4 'नपुंसगवेयए' नघुस वहाणे 94 'सक. રા’ સામાન્ય રીતે કષાયવાળા જ યાવત્ કોષાયવાળા જી, માન કષાયવાળા જી, માયા કષાયવાળા જી અને લાભ કષાયવાળા જીવે Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ भगवती सूत्रे 'सजोगी' सयोगी सामान्यतो योगवान् तथा 'मणजोगी' मनोयोगी 'वयजोगी' वचोयोगी 'कायजोगी' काययोगी 'सागारोवउत्ते अनागारोनउत्ते' साकारोपयुक्तोsनाकारोपयुक्तच 'एएसुसव्वेसु पदेसु पढमवितिया भंगा भाणियव्वा' एतेषु - उपर्युक्तेषु कृष्णपाक्षिकादारभ्य अनाकारोपयुक्तान्तेषु सर्वेन्यपि पदेषु दण्डकेषु प्रथमद्वितीयौ ' अवध्नात् बध्नाति भन्त्स्यति, अवधनात् बध्नाति न भन्त्स्पतीस्याकारक द्वौ भनौ भणितव्यौ । ' एवं असुरकुमारस्स वि वत्तन्वया भाणियन्त्रा' एवं नारक वक्तव्यतावदेव असुरकुमारस्यापि वक्तव्यता भणितव्या, तथाहिअसुरकुमारः खल भदन्त ! पापं कर्म किमवध्नात् बध्नाति सन्त्स्यति १, अवधनात् वध्नाति न भन्त्स्यति२, अवध्नात् न वध्नाति भन्त्स्यति ३, अवघ्नात् न बध्नाति वाला जीव, 'मणोयोगी' मनोयोगदाला जीव, 'बघजोगी' वचन योग वाला जीव, 'कायजोगी' काययोग वाला जीव 'सागारोवउत्ते अनागाव उत्ते' साकार उपयोगवाला जीब, अनाकार उपयोग वाला जीव, 'एएस सव्वैसु पदेसु' इन नारक सम्बन्धी समस्त पदों में 'पदमघितिया भंगा भाणिव्वा' प्रथम द्वितीय ये दो आदि के भंग होते हैं ऐसा जानना चाहिये, आदि के वे दो भांग इस प्रकार से हैं- 'अवघ्नात् बध्नाति, भन्त्स्यति १ अवघ्नात् बध्नाति, न भन्त्स्थति २' | 'एवं असुरकुमारस्स वि वक्तव्वया माणिपव्वा' हे भदन्त ! असुर कुमार देव क्या पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्ध करता है ? भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध A करेगा ? अथवा पूर्व काल उसने पाप कर्म का बन्ध किया है ? 'जोगी' सामान्यतः योगवाणा वा 'मणोयोग' मनोयोगवाजा ला 'वयजोगी' वयनयोगवाणा वे 'कायजोगी' अययोगवाणा वा 'सागारो. उत्ते नागारोवउत्ते' सारउपयोगवाणा व अनार उपयोगवाणा लव 'एएसु सव्वेषु पदेसु' नार४ संबंधी भी सघणा होभां 'पढमबितिया भंगा 'भाणियन्त्रा' पहेली मने मीले थे ये लौंगो होय छे, तेभ समन्वु ते આદિના એટલે કે પહેલા અને ખીજો ભગ આ પ્રમાણે છે. 'अबध्नात्, वध्नाति, भन्त्स्यति १ अबध्नात्, बध्नाति, न भन्त्स्यति' २ ' एवं ' असुरकुमारस्स वि वक्तव्वया भाणियव्वा' हे भगवन् मसुरडुभार हेवा मे પૂર્વકાળમાં પાપકમ ના ખંધ કર્યાં હતા ? વર્તમાન કાળમાં a પાપકમના અધ કરે છે ? અને ભવિષ્યમાં તે પાપકમના અધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે પાપકમના ખધ કર્યાં છે? વમાનમાં તે પાપકમના અધ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં તે પાપકમના બધ નહીં કરે ? ભૂતકાળમાં તેણે પાપકમના બંધ કર્યાં છે ? વર્તમાન કાળમાં Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचंन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०२ नैरयिकयन्धस्वरूपनिरूपणम् ५५७ न भन्स्यति ४ इति प्रश्नः, उन्नेयः, गौतम ! अस्त्येकका असुरकुमारः पापं कर्म अवदनात वध्नाति भन्स्थति, अम्त्येककोऽवधनाव वध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको द्वौ मङ्गो उत्तरे पठनीयौ, पूर्वापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह-'नवरं' इत्यादि, 'नवर तेउलेस्सा इथिवेयमपुरिसवे पगा य अमहिया' नवरं तेजोलेश्या स्त्रीवेदक पुरुषवेदकाचाभ्यधिकाः लेश्यायां तेजोलेश्याः तथा स्त्रीवेदकाः पुरुषवेदकाश्चावर्तमान काल में वह पोपकर्म का बन्ध करता है ? और भविष्य काल में वह पापकर्म का बन्ध नहीं करेगा ? अथवा भूतकाल में उसने पापकर्म का बन्ध शिया है ? वर्तमान में वह पापकर्म का वध नहीं करता है ? भविष्यत काल में वह पापकर्म का चन्ध करेगा? अथवा भूतकाल में ही उसने पाप कर्म का बन्ध किया है ? वर्त. मान में यह पापकर्म का पन्ध नहीं करता हैं ? और अविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध नहीं करेगा ? क्या ऐसे ये चार भंग असुर कुमारदेव के होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंगौतम ! असुरकुमारों में कोई एक असुरकुमार ऐसा होता है कि जिसने पूर्व में पापकर्म का बन्ध किया होता है, वर्तमान में वह पाप. कर्म का बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करेगा ? हथा-असुरकुमारों में कोई एक असुरकुमार ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में पापका का वध किया है वर्तमान में वह पापकर्म का बन्ध करता है पर भविष्यत् में यह पापम का बन्ध नहीं करेगा, इस प्रकार के थे दो मग ही यहाँ होते हैं । 'नवरं तेउलेस्सा, તે પાપકર્મને બધ નથી કરતે ? અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મનો બંધ કરશે અથવા ભૂતકાળમાં જ તેણે પાપકર્મને બે ઘ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મોને બંધ નથી કરતા ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કમને બધ નહીં કરે ? પ્રમાણેના આ ચાર અંગે અસુરકુમાર દેવને હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! અસુરકુમારમાં કોઈ એક અસુરકુમાર એવા હોય છે, કે-જેણે પૂર્વકાળમાં પાપ કર્મનો બંધ કર્યો હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતા રહે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપકમને બંધ કરશે. તથા અસુરકુમારેમાં કોઈ એક અસુરકુમાર એવા હોય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં પાપકર્મને બંધ કર્યો હોય છે, વર્તમાન કાળમાં તે પાપકર્મને બધ કરે છે. અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મને બંધ નહીં કરે. આ રીતે આ બે અંગે જ આ અસુરકુમારને Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ५५८ भगवतीने सुरकुमारा भवन्तीत्यधिकतया वक्तव्यम् 'नपुंसगवेयगा न भन्नति' नपुंसकवेदका न भण्यन्ते, नपुंसकवेदका अनुरकुमारा न भवन्ति अतः नपुंसक वेदघटितासुरकुमारदण्डको न पठनीयः एतद्वैलक्षण्यं नारकदण्ड सापेक्षया असुरकुमारदण्डकस्येति । 'सेसं तं चेव' शेषम्-नवरमित्यादिना य_लक्षण्यं कथितम् तदतिरिक्त सर्व ज्ञानाज्ञानादिकं नारकवदेव पठनीयमिति । 'सरस्थ पढपवितिया भंगा' सर्वत्रैव प्रथमद्वितीयौ भगौ एव उत्तरे पठनीयाविति । 'एवं जाव थणियकुमारस्स' एवम्-असुरकुमारवक्तव्यतावदेव यावत् स्तनितकुमारपर्यन्तानां सर्वेषां वक्तव्यता पठनीया यथा यथा असुरकुमारदण्ड के वैलक्षण्यादिकं कथितं तत् इथिवेयगा, पुरिसवेयगा य अन्भहिया' विशेष-लेश्या में तेजोलेश्या वाले, तथा स्त्रीवेदराले और पुरुषवेवाले असुरकुमार होते हैं । इस. लिये असुरकुमारों के तेजोलेश्या, स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये अधिक कहना चाहिये, 'नपुंसगवेयगा न भन्नंति' असुरकुमार नपुंसक वेदवाले नहीं होते हैं। इसलिये नपुंसक वेद घटित असुरकुमार दण्डकयहां नहीं कहना चाहिये । बस-नारक दण्डक की अपेक्षा से असुरकुमारदण्डक में यही विशेषता है । 'सेसं तं चेव' इस कथित विशे षता के अतिरिक्त और सब ज्ञानाज्ञान आदिक नारक के जैसे ही कहना चाहिये । 'सव्वस्थ पढमबित्तिया भंगा' इन सब असुरकुमार दण्डकों में प्रथम भंग और द्वितीयभंग ये दो ही आदि के भंग कहना चाहिये, अन्त के दो भंग नहीं । असुरकुमारवक्तव्यना के जैसे ही यावत् स्तनितकुमार तक के भवनपतियों की.वक्तव्यता कहनी हाय छे. 'नवर ते उलेस्सो, इथिवेयगा पुरिसवेयगा य अमहिया' विशेषा એ છે કે–લેશ્યાવાળામાં તેજલેશ્યાવાળા, તથા સ્ત્રીવેદવાણા અને પુરૂષદવાળા અમરમારે હોય છે. તેથી અસુરકુમારેને તેજલેશ્યા, સ્ત્રીવેદ, અને પુરૂષદ विशेष रीते ४वा न. 'नपुंसगवेयगा न भन्नंति' मसुर नपुस २४ વાળા હોતા નથી. તેથી નપુંસકદ ઘટક અસુરકુમાર દંડક અહિયાં કહે ન જોઈએ. નારક દંડકની અપેક્ષાથી અસુરકુમાર દંડકમાં એજ વિશેષપણું છે. संत चेव' मा ४ विशेष५ सिवाय मी शान, मज्ञान विगेरेनु ४थन ना२४न ४थन प्रभारी । ४ नये. 'सव्वत्थ पढमवितिया अंगा' આ સઘળા અસુરકુમાર દંડકમાં પહેલે અને બીજે એ બે જ ભંગ કહેવા જોઈએ. છેલે ત્રીજે અને ચોથે એ બે ભંગ તેઓને હેતા નથી. અસુરકમાના કથન પ્રમાણે જ યાવત્ સ્વનિતકુમાર સુધીના સઘળા ભવનપતિઓના Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५९ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०२ नैरयिकबन्धस्वरूपनिरूपणम् सर्वमिहापि वक्तव्यम् आलापमकारश्च स्वयमेवोहनीय इति । ' एवं पुढवीकाइयस्स fa आउकाइयस्स वि' एवम् पूर्ववदेव पृथिवीकायिकस्यापि अष्कायिकस्यापि वक्तव्यता पठनीया आलापपकारश्चापि - पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! किं पापं कर्म rana ara भन्त्स्यति, इत्यादि रूपेण ज्ञातव्याः 'जाव पंचिदियतिरि' क्खजोणियस्स वि' यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्यापि वक्तव्यता भणितव्या अत्र यावत्पदेन तेजस्कायिक वायुकायिक वनस्पतिक- द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां जीवदण्डका संग्रहो भवति तथाचै केन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपर्यन्तं जीवानां वक्तव्यता पठनीयेति । 'सन्वत्थ वि पढमवितिया भंगा' सर्वत्रापि पृथिवीकायिकत आरभ्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपर्यन्ते प्रथमद्वितीय, अवधनात् बध्नाति भन्त्स्यति १, अवघ्नात् वध्नाति न अन्यस्यति इत्याकारकौ द्वौ भङ्गावेच वक्तव्याचाहिये, जैसी जैसी विलक्षणता असुरकुमार दण्डक में कही गई है वह सब यहां पर भी कहनी चाहिये, इस सम्बन्ध में आलाप प्रकोर स्वतः बनाना चाहिये, 'एवं पुढचीकाइयस्स वि आउकाइयस्स वि' इसी प्रकार से पृथ्वीकायिक अष्कायिक, में भी वक्तव्यता कहनी चाहिये, इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार 'पृथिवीकायिकः खलु भदन्त । किं पापं कर्म अबन्धात्, बध्नाति भन्त्स्यति १' इत्यादि रूप से कहना चाहिये, 'जाथ पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स वि' इसी प्रकार से तेजस्कायिक जीवों की, वायुकायिक जीवों की, वनस्पतिकायिक जीवों की द्वीन्द्रिय जीवों की, तेइन्द्रिय जीवों की, चतुरिन्द्रियजीवों की और पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की वक्तव्यता में प्रथम और द्वितीय भंग ही कहना चाहिये, यही बात 'सन्वस्थ वि पढमवितिया भंगा' इस सूत्रपाठ સબંધમાં પણ આજ કથન સમજવું, જે જે પ્રમાણેનું વિલક્ષણુપણુ અસુરકુમા રાના દંડકમાં કહેલ છે, તે તે પ્રમાથે અહિયાં સઘળુ વિશેષપણ અહિયાં પણ उडेवु लेहो. या सम'धमां सायअअर स्वयं मनावी सेवा. 'एव पुढबोकाइयस्स वि' ‘आउकायरस बि' ४ अभाये पृथ्वी अ४ि, मायामा य अथन हेतु हो. मी विषयमा सासाय प्रारभ अभा छे.- 'पृथ्विकायिक खलु भदन्त ! किं पाप कम्म अबध्नात्, बध्नाति भन्त्स्यति' इत्यादि अहारथी सेवा हो. 'जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स वि' से प्रभा તેજસ્કાયિક જીવેાના, વાયુકાયિક જીવેાના, વનસ્પતિકાયિક જીવાના, એઇન્દ્રિયવાળા જીવાના અને ત્રણ ઇન્દ્રિયવાળા જીવેાના, ચાર ઇન્દ્રિયવાળા જીવેાના અને પાંચ ઇન્દ્રિયવાળા તિર્યંન્ચ ચેાનિવાળા જીવાના કથનમાં પહેલે અને सीने मे मे लगो वाले सेन वात 'सव्वत्थ वि पढमवितिया Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भभगतीस्त्र विति । 'नरं जस्स जा लेस्सा दिट्ठी नाणं अन्नाणं वेदो जोगो य अस्थि तं तस्स भाणिय' नवरं यस्य जीवस्यैकेन्द्रियादेर्या लेश्या दृष्टिनिमज्ञानं वेदो योगवास्ति तदेव तस्य भणितव्यम् नान्यो नान्यस्य यस्य जीवस्य यादृशी लेश्या विद्यते याशी दृष्टिविद्यते यारशं ज्ञानं यादृशमज्ञानं च यादृशो वेदो यादृशो योगश्च विद्यते तस्य जीवस्य तादृशा एव लेश्यादिकाः वक्तव्याः, न तु अन्ये लेश्यादयोऽन्यस्य वक्तव्या इति भावः । 'सेसं तहेव' शेपं तथैव यदेव नारकदण्ड के कथितं तदेव सर्वं वक्तव्यं लेश्यादिकं विहायेति । 'मणुसस्ट जच्चेव जीवपदे वसन्धया सच्चेव निरवसेसा भाणियब्वा' मनुष्यस्य या एव जीवपदे वक्तव्यता कथिता सैच निरवशेषा सर्वापि द्वारा प्रकट की गई है। 'नवरं जल जा खेस्ता, दिट्ठी, नाणं, अन्नमाण, वेदो, जोगोय, अत्यि तं तस्स भाणियव्वं' परन्तु जिस जीव के जो लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद एवं योग होता है उस जीव के वही कहना चाहिये । अन्य का अन्य के नहीं । तात्पर्य यही है कि-जिस्व एकेन्द्रियादिक जीव के जैसी लेश्या हो, जैसा ज्ञान हो, जैशा अज्ञान हो, जैसा वेद हो, जैसा योग हो, उस जीव के वैसी ही लेश्या, वैसी ही दृष्टि, वैसा ही ज्ञान, वैसा ही अज्ञान, वैसा ही वेद और वैसा ही योग कहना चाहिये अन्य के लेश्यादिक अन्य में नहीं कहना चाहिये। 'सेसं तहेव' अवशिष्ट और लय कथन जैसा कि नारक दन्डक में कहा गया है वही लेश्यादिक को छोड कर यहां कहना चाहिये । 'गणुसस्स जच्चेव जीवपदे वत्तव्वया सच्चेव निरक्सेसा भाणियच्या' भंगा' मा सूत्रपा द्वारा प्राट ४२ . 'नवर जस्स जा लेस्सा, दिद्री, नाणं 'अन्नाणं, वेदो, जोगों य अत्यि ततस्त भाणियब' ५२'तुरे वने २ लेश्या, દષ્ટિ, જ્ઞાન, અજ્ઞાન, વેદ અને વેગ હોય છે, તે જીવને તે તેજ વેશ્યાદિ કહેવા જોઈએ, બીજાના બીજાને કહેવા ન જોઈએ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જે એકેન્દ્રિય જીવને જે પ્રમાણેની લેશ્યા હોય, જે પ્રમાણે દૃષ્ટિ હોય જેવું જ્ઞાન હોય. જેવું અજ્ઞાન હોય, જે પ્રમાણેને વેદ હોય અને જે ગિ હોય તે જીવને એ જ પ્રમાણેની વેશ્યા, એ જ પ્રમાણેની દષ્ટિ એજ પ્રમાણેનું જ્ઞાન, એજ પ્રમાણેનું અજ્ઞાન, એજ પ્રમાણે વેદ, અને એજ રીતને રોગ કહે જોઈ એ. બીજાના લેહ્યા વિગેરે બીજાને કહેવા ન જોઈએ. ___ 'सेस त चेव' माडीनु भा सघणु ४थन ने 3-नाना हम डत छ, मे प्रभानु वेश्याहन हेान गाड़ियां डेवु नये. 'मणुसरस जच्चेव -जीवपदे वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा' ५ ५हमारे ४थन Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका ठौका श०२६ उ. १ सू०२ नैरयिकबन्धस्वरूपनिरूपणम् ५६१ भणितव्या एकेन्द्रियादीनां वक्तव्यता पार्थक्येन कथिता मनुष्यस्य वक्तव्यता जीव वक्तव्यता सदृशी एव वक्तव्यता वक्तव्या, जीवस्य निर्विशेषणस्य सलेइयादि, पदविशेषितस्य चतुर्भङ्गयादि वक्तव्यता कथिता सा मनुष्यस्य तेनैव रूपेण निरषशेषा वक्तव्या, जीवमनुष्ययोः समानधर्मत्वादिति । ' वाणमंतरस्त जहा असुर'कुमारस्स' वानव्यन्तरस्य चतुर्भङ्गयादि वक्तव्यता अनुरकुमारखक्तन्पता समा नैव पठनीया आलापश्च स्वयमेवोहनीयः । 'जोहसियस्स वेमाणियस्स एवं चेन' ज्योतिष्कदेवस्य तथा वैमानिकदेवस्य च चतुर्भङ्गयादि वक्तव्यता एवमेव असुरकुमारवक्तव्यता सयानैव ज्ञातव्या । 'नवरं लेस्साओ जाणियच्च भो' नवरं केवल-जीव पद में जो वक्तव्यता कही गई है वही सब पूरी की पूरी वक्तव्यता मनुष्य के कथन के सम्बन्ध में कहनी चाहिये । एकेन्द्रियादिक जीवों की वक्तव्यता पृथगूरूप से कही गई है। अतः जीव की वक्त व्यता के जैसी ही वक्तव्यता मनुष्य की कही गई है । सामान्य जीव की और सलेश्य आदि पद विशेषित जीव की चतुर्भगात्मक वक्तव्यता कही गई है वही वक्तव्यता उसी रूप से मनुष्य की वक्तव्यता के सम्वन्ध में वक्तव्य - बतलाई गई है। क्योंकि मनुष्य में और जीव में समानधर्मता है । 'वाणमंतरस्त जहा असुरकुमारस्स' वानव्यन्तरों को चार अंगों वाली वक्तव्यता असुकुमार की वक्तव्यता के समान है । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार का उत्थान अपने आप करना चाहिये, 'जोसियस्स नेमाणिपल्ल एवं चेव' ज्योतिष्क देव की तथा वैमानिक देव की चतुर्भगी आदि की वक्तव्यता असुरकुमार की वक्तव्यता के ही समान वक्तव्य है । परन्तु 'नवरं लेस्साओ जाणिय કહેવામાં આાવેલ છે. તે સઘળું પૂરેપૂરૂં કથન મનુષ્યના સબંધમાં કહેવું. જોઈએ, એક ઇન્દ્રિય વિગેરે જીવેાતુ' કથન જુદા રૂપે કહેલ છે, તેથી મનુજ્ય સમધી કથન જીવના કથન પ્રમાણે કહેલ છે સામાન્ય જીવનું અને લેશ્યાવાળા વિગેરે પદથી વિશિષ્ટ જીવનું ચાર ભંગા રૂપ કથન કહેલ છે. તેજ થન એજ રીતે મનુષ્યના કથન સંબંધમાં કહેવાનુ` કહેલ છે કેમક્રે भनुष्यसां भने लषसां समान धर्म रहेस छे. 'वाणमंतरस्स जहा असुर, कुमारस्स' वानव्य'तशेनु यार मग ३५ उथन असुरभारींना स्थन प्रभा उडेस छे. या संबंधी आसाय अार स्वय' सम सेवा, 'जोइसियस्स वैमाणियस्स एवं चेत्र' ज्योतिष्ट देवनुं तथा वैमानिक हेवनुं यार लगात्म अथन भासुरकुभारोना थन अभावानुं छे. परंतु 'नवर' लेरसाओ भ० ७१ 4 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले ममुरकुमारदण्डकापेक्षया ज्योतिष्कदेवादिप्रकरणे लेश्या या यस्य भवति सा तस्य पार्यक्थेन ज्ञातव्या । 'सेसं तहेव भाणियन्वं' शेष लेश्यातिरिक्त सर्वमपि कृष्णपाक्षिकादिकं तथैव-असुरकुमारप्रकरणपठितमेव भणितव्यमिति ॥सू०२॥ - तदेवं सर्वेऽपि पञ्चविंशतिर्दण्डकाः सामान्यपापकर्माश्रित्य कथितार, एवं ज्ञानावरणीयादि कर्माश्रित्य पञ्चविंशतिर्दण्डका वक्तव्याः, एतदेवाह-'जीवेणं मंते ? नाणावरणिज्ज कम्म' इत्यादि, । मूलम्-जीवे णं भंते ! नाणावरणिजं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ, एवं जहेब पावकम्सस्स वत्तवया तहेव नाणावरणिज्जस्ल वि भाणियब्वा, नवरं जीवपदे मणुस्लपदे य सकसाई मि जाव लोभकसाइमि य पढमवितिया भंगा, अवसेसं तं घेव जाव वेमाणिया। एवं दरिसणावरणिजेणं दण्डगो भाणियत्वो निरवसेसो। जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ१, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ२, अत्थेगइए बंधी न बंधइ न बंधिस्तइ४। सलेस्से वि एवं चैव तइय विहूणा भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो। कण्हपक्खिए पढमबितिया भंगा। सुक्कपक्खिया तइयविहणा। एवं सम्मदिहिस्स वि, मिच्छादिटिस्ल वि । सम्मामिच्छादिट्टिस्स यं पढमबितिया। णाणिस्स तइयविहणा। आभिणिबोहियनाणी चाओ' असुरकुमार के दण्डक की अपेक्षा ज्योतिष्क देव आदि के प्रकरण में जो लेश्या जिसके हो वह लेश्या पृथक् रूप से उसी के वक्तव्य हैं ! 'सेसं तहेव भाणियव्वं' बाकी का ओर सब कृष्णपाक्षिक आदि रूप कथन असुरकुमार प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही कहना चाहिये ॥२॥ ગળિચવા અસુરકુમારના દંડકની અપેક્ષાથી તિષ્ક દેવ વિગેરેના પ્રકરણમાં જે વેશ્યા જેને હોય તે લેશ્યા જુદા રૂપથી તેને જ કહેવી જોઈએ. 'सेस तहेव भाणियव्व' माडी सघणु ४थन पाक्षि विगैरेना संधी કથન અસુરકુમારના પ્રકરણમાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે સમજવું જોઇએ, પરા Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५६३ जाव मणपज्जवणाणी पढमबितिया, केवलनाणी तइयविहूणा । एवं नोसन्नोवउत्ते, अवेदए, अकसाई, सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते, एएसु तइयविहूणा । अजोगिम्मिय चरिमो, सेसेसु पढमबितिया । नेरइए णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं किं बंधी बंधइ एवं नेरइया जाव वेमाणिया जस्स जं अस्थि सव्वत्थ वि पढमबितिया, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवे णं भंते! मोहणिज्जं कम्मं किं बंधी बंधड़ जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिज्जं पि निरवसेसं जाव वेमाणिए । जीवे णं भंते! आउयं कम्मं किं बंधी बंध पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी उभंगो। सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा । अलेस्से रिमो भंगो । कण्हपक्खिणं पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंध बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ । सुक्कपक्खिप सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। सम्मामिच्छादिट्ठी' पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ अत्थेगइए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४, नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भंगा । मणपज्जवनाणी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ | अत्थेगइए बंधी ण बंधइ न बंधिस्सइ ४ | नाणी जावओहिनाणी चत्तारि भंगा मणपजवनाणी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, अत्थेगइए बंधी न बंध T बंधिस्त ३, अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्त ४ । केवलनाणे चरमो भंगो | एवं एएणं कमेणं नोसन्नोवउत्ते बितिय - विहूणा जहेव मणपज्जवनाणे । अवेदए अकसाई य तइय उत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते । अजोगिम्मि चरमो । सेसेसु पदेसु चत्तारि भंगा जाव अणागारोवउत्ते ॥ सू० ३ ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र , छाया-जीवः खलु सदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म किमवध्नात् बध्नाति भन्स्यति एवं यथैव पापकर्मणो वक्तव्यता तथैत्र ज्ञानावरणीयस्यापि भणितव्या, नवरं जीवपदे मनुष्यपदे च सकगायिनि यावत् लोभकपायिनि च प्रयमद्वितीयौ भगौ, अवशेष तदेव, याद्वैमानिकाः । एवं दर्शनावरणीयेनापि दण्डको भणितव्यो निरवशेषः । जीवः खलु भदन्त ! वेदलीयं कर्म किम् अवधनात् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवनात् वध्नाति भन्स्यति १, अस्त्येककोऽवनात् वध्नाति न भन्स्यति २, अस्त्येककोऽवनात् न बध्नाति न भन्स्यति ४। सलेश्योऽपि एवमेव, तृतीयविहीना भङ्गाः । कृष्णलेश्यो यावत् पद्मलेश्यः प्रथमद्वितीयमझौ शुक्ललेश्यः, तृतीयविहीना भङ्गाः, अलेश्या, चरमो भगः । कृष्णपाक्षिके प्रथमद्वितीयौ भनो । शुक्लपाक्षिका ततीयविहीनाः । एवं सम्पग्दृष्टेरपि। मिथ्यादृष्टेः, सम्यमिथ्याष्टेश्च प्रथमद्वितीयौ। ज्ञानिन तृतीयविहीनाः, आभिनि वोधिकज्ञानी यावत् मनापर्यवज्ञानी मथमद्वितीयौ, केवलज्ञानिन स्तृतीय विहीनाः । एवं नोसंज्ञोपयुक्ता, अपेदकोऽकपायी, साकारोपयुक्ता, अनाकारोपयुक्तः, एतेषु तृतीयविहीनाः । अयोगिनि च चरमः, शेषेषु प्रथमद्वितीयौ । नैरयिकः खलु भदन्त ! वेदनीय कर्म किमवध्नाद बध्नाति एवं नैरयिका यावद्वैमानिका इति, यस्य यदस्ति सर्वत्रापि प्रथमद्वितीयौ। नवरं मनुष्यो यथा जीवः । जीवः खलु भदन्त ! मोहनीयं कर्म किम् अबध्नात् वध्नाति० यथैव पापं कर्म तथैव मोहनीयमपि निरव शेपम् यावद्वैमानिकः । जीवः खलु भदन्त ! आयुष्क कर्म किम् अवध्नात् बध्नाति पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् चतुर्भङ्गः । सलेश्यो यावत् शुक्ल लेश्यः चत्वारो भङ्गाः, अलेश्यश्वरभो भङ्गः । कृष्णपाक्षिका खलु पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवधनाद बध्नाति भन्स्यति १, अस्त्येककोऽबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति २ । शुक्लपाक्षिकः, सम्यग्दृष्टिः, मिथ्याष्टिः, चत्वारो भङ्गाः। सम्यग्मिथ्याष्टिः पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवनात न बध्नाति भन्स्यति, ३, अस्त्येककोऽवध्नात् न वनाति न भन्स्यवि ४ । ज्ञानीयावत् अवधिज्ञानी चत्वारो भङ्गाः। मनःपर्यवज्ञानी पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् वध्नाति भन्स्यति १, अस्त्येककोऽवध्नात् न बध्नाति भन्स्यति-३ अस्त्येककोऽवघ्नात् न बध्नाति न भन्त्स्यति ४, केवलज्ञाने चरमो भङ्गः । एव. मेतेन क्रमेण नो संज्ञोपयुक्तो द्वितीयविहीनो यथैव मनःपर्यवज्ञाने। अवेदकेऽकपायिनि च तृतीयचतुर्थों यथैव सम्यग्मिथ्यात्वे । अयोगिनि चरमः, शेषेषु पदेषु चत्वारो भगा यावदनाहारोपयुक्ते ।।०३।। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयमन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य वन्धस्वरूपम् ५६५ ' टीका--'जीवे णं भंते !' जीवः खलु भदन्त ! 'नाणावरणिज्जं कम्म' ज्ञानावरणीयं कर्म 'कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ' ० किम् अवघ्नात् वध्नाति भन्स्यति १, अवध्नात् वध्नातिन भन्स्यति २, अवधनात न बध्नाति भन्स्यति ३, अथवा अतीतकाले ज्ञानाबरणीयं कर्म अवघ्नात् वर्तमानकाले ज्ञानावरणीयं कम वध्नाति, अनागतकाले ज्ञानावरणीयं कर्म ल भन्स्यति ४ इत्येवं क्रमेण इस प्रकार समस्त २५ दण्डक सामान्य पापकर्म को आश्रित फरके कहे गये हैं, लो इसी प्रकार से वे ज्ञानाकरण आदि कर्मों को आश्रित करके कहते हैं । 'जीवेणं संते ! नाणावरणिज्ज झम्म किंबंधी बंधई' इत्यादि । टीकार्थ--हे अदन्त ! जीवने क्या ज्ञानावरण कर्म का पहिले बन्ध लिया है ? वर्तमानकाल में क्या वह उसका धन्ध करता है ? आगे भी क्या वह उलका वध करेगा १ ? अथया-'अवधनात्'-भूनकाल में उसमें उसका बन्ध किया है ? 'पनाति-वर्तमानकाल में क्या वह उसका बंध करना है ? 'न भन्स्पति' भविष्यत् में वह उसका पन्ध नहीं करेगा २ ? अथवा-'अवधनात् भूतकाल में क्या उन्मने उसका बन्ध किया है ? 'न बध्नाति' वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है ? 'भन्स्थति'-आगे वह उसका बन्धन करेगा ३ ? अथवा-'अवघ्नात्-भूतकाल में वह उसका बन्ध कर चुका है ? 'ल बनाति' वर्तमान काल में આ રીતે સામાન્ય પાપકર્મને આશ્રય કરીને પચ્ચીસ દડકે કહે. વામાં આવ્યા છે. તે જ રીતે જ્ઞાનાવરણ વિગેરે કર્મને આશ્રય કરીને उस छ. यो पात वे प्रगट ४२वामां आवे छे.-'जीवे णं भंते ! नाणावरणिज कम्म कि बधी, वधइ' त्यादि ટીકાથ–હે ભગવન જીવે પહેલા જ્ઞાનાવરણ કર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં શું છે તેને બંધ કરે છે? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે ? गया 'अवघ्नात्' सूतभा तो तेन ध य छ ? 'बधी' वतमान wi na! मध ४२ छ १ 'न भन्स्यति' भविष्य . त तन म नही ४२ १ २ मथ41 'अबध्नात्' भूतामा तो तेन म य छ? 'न बध्नाति' वर्तमान म त त म नथी ४२तो ? 'भन्स्यति' भविष्यमा aayu ४२0१ 3 अथवा 'अबध्नात्' भूतम त ना ५ ४३॥ श्य। छ १ 'न बध्नाति' वतमान mi a तना धनथा रता ? सवि. વ્યમાં તે તેને બંધ નહીં કરે? આ રીતે જ્ઞાનાવરણીય કર્મના બંધના વિષયમાં ચાર અંગે રૂપ પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પૂછેલ છે. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ भगवती ज्ञानावरणीयकर्मणो बन्धविषये चतुर्भङ्गाः प्रश्नः, उत्तरमाह-'एवं जहेव' इत्यादि, 'एवं जहेव पावकम्मरस वत्तव्वया तहेव णाणावरणिज्जस्स वि भाणियच्या' एवं यथैव पापकर्मणो वक्तव्यता भणिता तथैव ज्ञानावरणीयस्यापि वक्तव्यता भणितव्या पठनीया जीवस्य पापकर्मणो बन्धविषये येन प्रकारेण यो यः मङ्गः प्रदर्शित, ज्ञानावरणीयकर्मणो वन्धविषयेऽपि ते एव भङ्गाः प्रदर्शनीयाः ज्ञानावरणीयं कर्म अवधनाज्जीवः किमि त्यादि प्रश्नस्योत्तरमाह-हे गौतम ! कश्चिदेको जीवो ज्ञानावरणीयं कर्म अबध्नात् अतीते, वर्तमाने वध्नाति ज्ञानावरणीयम् अनागते कमणो बन्धं करि ज्यति १, अबध्नात् ज्ञानावरणीयं कश्चिदेको जीवो वध्नाति च वर्तमानकाले न वह उसका पन्ध नहीं करता है ? 'न भन्स्पति' भविष्यत् में वह उसका बन्ध नहीं करेगा? ४ इस प्रकार का यह ज्ञानावरणीयकर्म के बन्ध के विषय में चार भंगों वाला प्रश्न है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेव, पायकम्मरल वत्तव्यथा तहेव जाणावरणिजस्स वि भाणियवा' हे गौतम! जैसी वक्तव्यता पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में कही गई है उसी प्रकार की वक्तव्यता ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिये। जीव के प्रकरण में पापकर्म के पन्ध करने में जैसी वक्तव्यता चार भंगों वाली पहिले कही जा चुकी है उसी प्रकार की वक्तव्यता यहां पर भी ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध करने में चारभंगोवाली बक्तव्यता करनी चाहिये, तथा च-हे-गौतम-1 किसी एक.जीव ने अतीत काल में ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह उसका बन्ध कर रहा है। और भविष्यत् काल में भी वह उसका बन्ध करेगा इस प्रकार का यह 'अवघ्नात् बध्नाति, भन्स्पति' प्रथम भंग है । तथा-किसी एक जीव ने भूतकाल में ज्ञानावरणीय मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'एवं जहेव पावकम्मस्त्र वत्त ध्वया तहेव णाणावरणिज्जरस वि भाणियव्या' गौतम! पापभनाधना સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન જ્ઞાનાવરણીય કર્મના બંધના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. જીવના પ્રકરણમાં પાપકર્મને બંધ કરવા સંબંધી જે રીતે ચાર ભંગ રૂપ કથન કરેલ છે, એજ રીતનું ચાર ભંવાળું કથન અહિયાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મન બંધ કર - पाता समयमा हेन. ते मा शत सभा:-8 गौतम ! ' જીવે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરે છે. તથા ભવિષ્યકાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે આ રીતે આ 'अयध्नात् , बध्नाति, भन्स्यति' प र छ.१ તથા કઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કર્યો છે, Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५६७ मन्स्यति अनागतकाले २, अवघ्नात् ज्ञानावरणीयमतीतकाले, कश्विदेको जीवो नबध्नाति च वर्तमानकाले, ज्ञानादरणीयमनागते च भन्त्स्यति ३ अवधनात् अतीते, ज्ञानावरणीयं कर्म कश्चिदेको जीवो न बध्नाति वर्तमानकाले, न मन्त्स्यवि स्वानागतकाले ४, इति । तत्र प्रथमो भङ्गोऽभव्यमाश्रित्य १, क्षपकत्वप्राप्तियोग्य मन्यमाश्रित्य द्वितीयो भङ्गः २, उपशान्तमोहजीवमधिकृत्य तृतीयो भङ्गः ३, क्षीणमोहजीवमपेक्ष्य चतुर्थो भङ्गः ४, इयमेत्र पापकर्मबन्धपकरण प्रदर्शितकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह उसका पन्ध कर रहा है, पर भविष्य में वह उसका बन्ध नहीं करेगा इस प्रकार का यह 'अबधनात् विध्नाति न भन्त्स्यति' द्वितीय भंग है । तथा-किसी एक जीव ने भूतकाल में ज्ञानावरणीय कर्म का वध किया है वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है, पर भविष्यत् में वह उसका बन्ध करेंगा ऐसा यह 'अबध्नात् न बध्नाति, भन्त्स्यति' तृतीय भंग है । तथा- किसी .एक जीवने भूतकाल में ही ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह इसका बन्ध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में भी वह इसका बन्ध करेगा, इस प्रकार का यह 'बंधी, न बंधइ न बंधिस्तद्द' चतुर्थ भंग है । इन चार भंग में से प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है, द्वितीय संग क्षपकता की प्राप्ति के योग्य भव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है, तृतीय भंग उपशांत मोह वाले जीव की अपेक्षा से कहा गया है और चतुर्थ भंग क्षीण मोह વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરી રહ્યો છે, પરતુ ભવિષ્યકાળમાં તે તેના ખ'ધ नहीं' अरे थे रीतने। 'अबधनात् बध्नाति, न भन्त्स्यति' आ मीले मंग छे. २ તથા કોઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેના અડધ કરતા નથી પરતુ ભવિષ્યમાં તે તેના ખધ કરશે, मा ते 'अबध्नात्, न बध्नाति, भन्त्स्यति' आ त्रीले लंग उह्यो छे. उ તથા કાઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં જ જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના અંધ કરેલ છે, વર્તીમાન કાળમાં તે તેના બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે तेना मध अश्शे नहीं' या रीते या 'अवघ्नात्, न बध्नाति न भन्त्स्यति' मा ચાથેા ભંગ કહ્યો છે. ૪ આ ચાર ભગા પૈકી પહેલા ભગ સથા અભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ખીન્ને ભગ ક્ષપકપણાની પ્રાપ્તિને ચાગ્યે ભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ત્રીજો ભગ ઉપશાન્ત માહવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે અને ચેાથેા ભંગ ક્ષીણુ માહુવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. આ ગ્રંથન સિવાય • Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले ज्ञानावरणीयकर्मणो वक्तव्यतेति भावः। एतद्वयतिरिक्तं सर्वमपि पापकर्म पन्धप्रकरणोदीरितमे बेहापि ज्ञातव्यम् । परन्तु पापकर्यवन्धपकहणापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदिह दर्शयन्नाह-'नवई' इत्यादिना 'नवरं जीवपदे मणुस्सपदे य सकसाइंमि जाव लोभसाइमि य पढ़ मविलिया भंगा' नवरं जीवपदे मनुष्यपदे व सकपायिनि यावतु लोमरूपाणिनि च अषमद्वितीयमङ्गो, अमाशयः पापकर्मदण्ड के जीवपदे मनुष्यपदे च यत् सरूपायिपदं यावत् लोभकपायिपदं च, तत्र सुक्ष्मसंपरायस्य मोहलक्षणपापकर्मणोऽवन्धकत्वेन प्रथम द्वितीयतृतीयचतुर्थरूपाश्चत्वारोऽपि भङ्गाः कथिताः, अत्र ज्ञानावरणीयकर्मदण्ड के तु आधौ प्रथमघाले जीव की अपेक्षा से कहा गयाँ है । इसके अतिरिक्त और भी जो वक्तव्यता इस ज्ञानाचरणीयकर्म के पन्ध करने के विषय में है वह सब पापफर्म चन्ध प्रकरण में कही गई वक्तव्यता के जैसी ही है। परन्तु उस वक्तव्यता में और इस वक्तव्यता में यदि कोई अन्तर है तो वह 'नवरं जीवपदे मनुस्लपदे य सकसाइंमि जाव लोभकसाईमि य पढमपितिया अंगा' इस पाठ द्वारा प्रकट किया जा रहा है-इसके द्वारा यह स्वमझाया गया है कि जीवपद में और मनुष्य पद में सकषायी यावत् लोभकषाधी को आश्रित करके प्रथम और द्वितीय ऐसे दो भंग कहना चाहिये । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है पापकर्म के दण्डक में जीवपद और मनुष्य पद में सकाषायी पद और लोभ कषायोपद में सूक्षमसंपराय के मोहरूप पापकर्म की अबन्धकता से प्रथम द्वितीय तृतीय और चतुर्थ ये चारों ही भंग कहे गये हैं। परन्तु यही ज्ञानावरणीय फर्मदण्डक में तो आदि બીજું જે કઈ કથન આ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના બંધ કરવાના સંબંધમાં કહેલ છે, તે તમામ કથન પાપ કર્મના પ્રકરણમાં કહેલ કથન પ્રમાણે સમજવું તે यनमा भने मा ४थनमा ३२१२ छ. तो त 'नवन जीवपदे मणुस्वपदे य ससाइंमि जाव लोभकसाइमि य पढमवितिया भंगा' 2 48 द्वारा પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. આ કથનથી એ સમજાવ્યું છે કે–જીવપદમાં અને મનુષ્યપદમાં સકષાયી–ચાવતુ લેભકષાયવાળા જીવને આશ્રય કરીને પહેલે અને બીજે એવા બે ભંગ કહેવા જોઇએ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પાપ કર્મના દંડકમાં જીવ પદ અને મનુષ્ય પદમાં સકષાયી પદથી લઈને લેભકષ થી પદ સુધી સૂમસં૫રાયના મોત રૂપ પાપ કર્મના અનન્યકપણુથી પહેલો બીજે ત્રીજો અને એથે એ ચાર ભંગ કહ્યા છે. પરંતુ અહિયાં આ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના દંડકમાં તો પહેલાના બે Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श०२६ ७.१ ०३ शानावरणीयकर्माश्रित्य पन्धस्वरूपम् ५६९ द्वितीयभनौ 'अबध्नात् वध्नाति मत्स्थति, अवघ्नात् बध्नाति न मन्त्स्यतीत्या. कारको एव बत्तव्यो अवीतरागस्य ज्ञानावरणीयकर्मबन्ध कालस्य सद्भावाद तावत् पर्यन्तं ज्ञानावरणीयकर्मणः साम्राज्यं विलसति यावनोदेति दीतरागित्व पचण्डभास्कर इति । एवं प्रदर्शिपदयोन्मयोः प्रकरणयो लक्षण्यम्, तदन्यत् . सर्वमपि उभयत्रापि समानमेव भवतीत्याशयेनाह-'अब सेस' इत्यादि, 'अवसेसं वं चेव जाव वेमाणिया' अवशेष करितवैलण्यातिरिक्तं समपि ज्ञानदृष्टयादिपदं तदेव यदेव पापकर्मदण्डके कथितय कियत्यन्तं पाएनर्मदण्डकं समानत्या ज्ञातव्यम् ? तबाह-'जाव' इत्यादि, 'जाब वेमाणिया' यावद्वैमानिकाः नारफादारभ्य वैमानिकपर्यन्तं पतिदण्डले पापकर्म दण्ड वदेव सीपि व्यास्था ज्ञातध्येति । 'एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणियमो निरब सेतो' एवं ज्ञाना वरणीयकर्म दण्डकरदेव दर्शनावरणीयेनापि कर्मणो दण्डको भणितव्यो निरवशेषो यथा यथा ज्ञानावरणीयकर्म दण्डको निरूपिता तथा खधा तेनैव क्रमेण दर्शनावरणीयेऽपि दण्डकः सरग्रोऽपि वक्तव्यः, ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयकर्मणोः के प्रथम और द्वितीय-अमलात्, बध्नाति, मत्स्याल १-'अगमात् यताति,' न भन्स्थति-ये दो ही लंग कहे गये हैं। क्योंकि अदीराम ज्ञानावरणीय कर्म का धन्धक होता है। जबतक आत्मा में बीतता रूप सूर्य का प्रचण्ड प्रताप नहीं लपता है ता तक आत्मा में ज्ञानाधारणीय कर्म की पन्धकता रहती है। इस प्रकार से इन दोनों प्रकरणों में इसी बात को लेकर अन्तर है-और कोई अन्तर नहीं है-और सब करन समान है। अतः यह समानता चलेसं तं चेच जाच वेमाणिया बारक से लेकर वैमानिक तक प्रतिदण्ड में पापकर्म दण्डका की जैली की है। एवं दरिसणाणिज्जेण चि दंडगो णिश्यलेसी मणियन्यो निस्वसेलो' लगा मरने पडसी भने माले २ मे सो अवध्नात् बध्नाति, भन्स्य ति१-अबध्नात् , बध्नाति, न भन्स्यति' मा मे ९क्षा 2. भઅવીતરાગ, જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બધક હોય છે જ્યાં સુધી આત્મામાં વીતરાગ રૂપે સૂર્યને પ્રચંડ પ્રતાપ તપતું નથી, ત્યાં સુધી આત્મામાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મનું બંધકપણું રહે છે. આ રીતે આ બંને પ્રકરણોમાં આ વિષયને લઈને અત્તર રહેલ છે તે સિવાય બીજું કંઈ જ અંતર નથી બાકીન सघणु यन सरभु ४ छे. तेथी ते समानपा' 'अबसेस त चेव जाव वेमा. ળિયા” નારકથી લઈને વૈમાનિકો સુધીના દરેક દંડકમાં પાપકર્મના ફક प्रभारी ४ ya छे. 'एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दडगो भाणियव्यो निरवसेसे. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० mamkeennecrumeetervesastreennepal भगवती समानधर्म त्यादिति । 'जीवेणं भंते । वेयणिज्न कम्मं किं बंधी पुच्छा' जीप: खलु भदन्त ! वेदनीयं कर्म किम् अबध्नात् बध्नाति मन्त्स्यति १, अवधनात पध्नाति न मन्त्स्यतिर, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति३, अवध्नात् न बध्नाति न भन्स्यतीति ४ चतुर्भङ्गका प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, ज्ञानावरणीय दण्डक के जैसा ही दर्शनावरणीय फर्म का दण्डक भी सम्पूर्ण कहना चाहिए। क्योंकि इन दोनो फर्मों में समान धर्मता है। __ 'जीये णं भंते ! वैयणिज्जं फम्मं कि बंधी पुच्छा हे भदन्त ! जीवने क्या वेदनीय कर्म भूतकाल में बांधा है ? वर्तमान में वह उसे बांधता है क्या? भविष्यत् में वह उसे बांधेगा क्या? अथवा-जीवने भूतकाल में क्या वेदनीय कर्म का वध किया है ? वर्तमान में वह उसका बंध करता है क्या ? और क्या वह भविष्य काल में उसका बन्ध नहीं करेगा? अथवा-भूतकाल में यह उसका बन्ध कर चुका है क्या ? वर्तमान में यह उसका बन्ध नहीं करता है क्या? भविष्यत् में वह उसका बंध करेगा क्या ? अथवा-भूतकाल में ही क्या उसने उसका बन्ध किया है ? वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है ? और भविष्यत् काल में भी वह क्या उसका बन्ध नहीं करेगा ? इस प्रकार से यह-अयनात् बनाति भन्स्थति १ अबलात् न बध्नाति भन्स्यति २ अवधनात् न बध्नाति भन्स्स्थति ३ अवधनात न बध्नातिन भन्स्यति' वेदनीय कर्म के पन्ध के विषय में इन चार भंगो को लेकर गौतमस्थामीने જ્ઞાનાવરણીય દંડકના કથન પ્રમાણે દર્શનાવરણીય કમને દંડક પણ કહે જોઈએ. કેમકે આ બન્નેના કર્મોમાં સામ્ય પણું કહેલ છે. 'जीवे णं भंते ! वेयणिज्जं कम्म किंबधी पुच्छा' मावन् भूतमा જીવે વેદનીય કર્મને અંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે? ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા જીવે ભૂતકાળમાં વેદનીય કમને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરે છે? અને ભવિષ્યમાં તે વેદનીય કર્મને બંધ નહીં કરે ? અથવા ભૂતકાળમાં તે વેદનીય કર્મને બંધ કરી ચૂક્યા છે ? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતા? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં જ તેણે વેદનીય કમને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતે અને ભવિષ્યકાળમાં परत तना मध नही ४२१ मारीत । 'अबध्नात, बध्नाति, भन्स्यति' 'अबध्नातू बध्नाति न भन्स्यति २' अबध्नात्, न बध्नाति भन्स्यति३ अबध्नात् न बध्नाति न भन्स्यति ४' वहनीय भनाधना समयमा माया मनात Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ ०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य वन्धस्वरूपम् ५७१ 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगहए बंधी बंधइ बंधिस्सइ' अस्त्येककः कश्चिज्जीवो वेदनीयं कर्मातीतकाले अवघ्नात् बध्नाति वेदनीयं कर्म वर्तमानकाले, भन्स्यति चानागतकाले वेदनीय कर्म १, तथा 'अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सई' अस्त्येकको जीवोऽवध्नात् अतीतकाले घेदनीयं कर्म, वध्नाति च वेदनीयं कर्म वर्तमानकाले, न भन्स्य ति अनागतकाले वेदनीय फर्म २, 'अत्थेगहए बंधी न घंधइ न वंधिस्सई' अस्त्येककः कश्चिज्जीवोऽवध्नात् अतीतकाले वेदनीयं कर्म, न बध्नाति वेदनीयं कर्म कश्चिज्जीको वर्तमानकाले, न भन्स्यति चानागतकाले वेदनीयं कर्म कश्चिज्जीवा४, तदेवं वेदनीयकर्मदण्डके प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गका भगवता अनुमोदिताः तत्र प्रथमो भङ्ग, अभव्यजीवमाश्रित्य कथितः तस्य त्रिकालेऽपि प्रभुश्री से प्रश्न पूछा है उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'अस्थेगइए पंधी बंधई बंधिस्सह हे गौतम ! किसी एक जीव वेदनीय कर्म भूतकाल में बांधता है वर्तमान में वह उसे बांधता है तथा-भविष्यत् काल में वह उसे बांधेगा तथा-किसी एक जीबने भूतकाल में वेदनीय कर्म बांधा हैं वर्तमान में वह उसे बांधता है पर भविष्यत् में वह उसे नहीं बांधेगार तथा-किली एक जीवने भूतकाल में वेदनीय कर्म यांधा है वर्तमान में वह उसे नहीं बांधता है और न भविष्यत् काल में वह उसे बांधेगा। इस प्रकार से यहां प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते हैं। इनमें प्रथम भंग असव्या जीव की अपेक्षा से है । क्यों कि ऐसे जीव में सर्वदा त्रिकाल में वेदनीय कर्म के बन्ध का सद्भाव रहता है द्वितीय भंग उस जीव की अपेक्षा से है जोभव्य भविष्यत में લઈને શ્રીગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પ્રશ્ન પૂછેલ છે, તેના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छे 3-'अत्थेगइए बधी, बधइ बाधिस्सई' हे गीतम! मेवे भूतभां વેદનીય કર્મને બધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરે છે, તથા ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે ૧ તથા કઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં વેદનીય કમને બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરે છે, પણ ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ નહીં કરે ૨ તથા કઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં વેદનીય કર્મનો બંધ કર્યો છે, વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરતો નથી તથા ભવિષ્ય કાળમાં પણ તેને બંધ નહીં કરે. આ પ્રમાણે અહિયાં પહેલે બીજો અને એથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તેમાં પહેલે ભંગ અભવ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. કેમકેએવા જીવમાં સર્વદા ત્રણે કાળમાં વેદનીય કર્મને સદૂભાવ રહે છે. બીજી Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ भगवतीसूत्रे daatein: सद्भावादिति । द्वितीयस्तु मङ्गः यो भविष्यत्काले मोक्षं यास्यति तादृशं भव्यविशेपणाश्रित्य कथितः । तृतीयभङ्गरतु अवघ्नात् न बध्नाति भन्हस्य'तीत्याकारकोsa न संभवति वेदनीयकर्म अवद्धता पुनस्तद्वन्धनस्यासंभवादिति । 'चतुर्थभङ्गस्तु अवघ्नात् व वव्नाति न भव्यतीत्याकारकः अयोगिकेवलिनमाfrer कथितमिति । 'सले से वि एवं चेत्र तइय विहूदा भंगा' सलेश्पोऽपि ans [सामान्यतो जीव देव तृतीयमङ्गरहिताः प्रथमद्वितीयचतुर्थरूपात्रयो भङ्गा 'वक्तव्याः तृतीयभङ्गरहितात्रयो भङ्गाः सदेश्ये ज्ञातव्याः परन्तु अत्र कश्चित् शङ्कते यह अनात् न मध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकचतुर्थी भङ्गोऽत्र न घटते, 'अयं चतुर्थी भङ्गन्तु श्यारहिते अयोगिन्येव घटते लेश्याया स्त्रयोदशगुणस्थानक पर्यन्तमेव सद्भावात् तथा यावश्यं वेदनीयकर्मणां सम्बन्धक एव भवति । 1 मुक्ति में जायेगा | अवघ्नात् न बध्नाति भनस्पति' ऐला जो तृतीय भंगा है यह यहां पर नहीं है क्योंकि वेदनीयकर्म को नहीं बांध कर जीव पुनः वेदनीय कर्म का पन्ध नहीं करता है । तथा चतुर्थ जो भंग है वह अयोगिक केवली की अपेक्षा से है । 'सलेस्से वि एवं वेद' देश्पा वाले जीव में भी तृतीय भंग के सिवाय पाकी के प्रथम द्वितीय और चतुर्थ भंग होते हैं ऐसा समझ ना चाहिये । - शंका- 'अथनात् न वध्नाति न भन्रस्यति' ऐसा जो चतुर्थ भंग है वह यहां संवित नहीं होता है क्योंकि यह भंग उसी जीव में संभवता है जो अयोगिक केवली है- क्योंकि ने ही खेपा रहित होते हैं और तेरह गुण स्थान तक लेश्या का सद्भाव कहा गया है । अतः जब ભગ એ જીવની અપેક્ષાથી છે. જે ભવ્ય જીવ્ર ભવિષ્યમાં મુક્તિ જવાના હાય 'अवघ्नात् न वध्नाति भन्त्स्यति' मा प्रभानो ने त्रीले लंग छे ते गडियां થતા નથી. કેમકે વેદનીય કમને માંયા વિના જીવ ફરીથી વેદનીય ક્રમના "ધ કરતા નથી, તથા ચેાથેા જે ભંગ છે, તે અયેાગી કેવલીની અપેક્ષાથી महेस छे. 'सलेले वि एव चेव' बेश्याबाजः भवने या भील लंग सिवायना માકીના પહેલે, ખીજો અને ચેાથે એ ત્રણે ભંગા હૈાય છે. તેમ સમજવું. श - ' अवध्नात्, न बध्नाति न भन्त्स्यति' मा रीते ? थोथो लौंग छे, તે અહિયાં સંભવિત થના નથી. કેમકે-તે ભંગ એજ જીવમાં સ’ભવે છે કે જે આયેગી કેવળી હાય છે. કેમકે તેઓજ લેશ્યા રહિત હાય છે, અને તેરમા ગુણસ્થાન સુધી લેશ્યાને સદૂભાવ કહેલ છે. તેથી જ્યારે વેશ્યાવાળા જીવને Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ ०३ ज्ञानावरणीयकमाश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७३ अत्र समाधत्ते यत् अस्मादेव घाणात् अयोगित्वस्य प्रथमसमये घण्टालाल नन्यायेन परमशुक्ललेश्यास्तीति सदेश्यस्य चतुर्थो भङ्गो घटते इति । त्रं तु बहुश्रुतगम्यमिति । ' कलेस्से जाब पहलेसे पढसवितिया भंगा' कृष्णलेश्यो यावत् पालेश्यः प्रथमहितीयों भंगी कृष्ण लेश्यादारभ्य पद्मलेश्या विशिष्ट पर्यन्त लेइयावति जीवे अवध्यत् बध्नाति भव्त्स्यति १, अन्नात् वध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकौ द्वौ भङ्गौ ज्ञातव्याविति कृष्णलेश्यादि पञ्चकेऽयोगित्वस्याभावादिति । 'सुकर से दवा गंगा' शुक्ल एलेन तृतीयभङ्गविहीनाः प्रथमलेइया वाले जीवके यह चतुर्थ भंग संभवता ही नहीं है फिर उसे यहाँ क्यों कहा गया है ? तात्पर्य इत्य कथन का यही है कि सलेश्य जीव के यह चतुर्थ भंग नहीं पता है । उत्तर -- इस सूत्र के धन से ही घंटालालन न्याय से पर ज्ञात होता है कि अयोधिक अवस्था में भी प्रथम समय में परमशुक्ल लेश्या का सद्भाव है । इलीले सलेश्य जीव के चतुर्थ भंग कहा गया है। और इसमें क्या विशेषता है सो यह बहुज्ञानी जानें । 'कण्हलेस्से जाब पहले से पढमचिनिया संगा' कृष्णलेश्य से लेकर पद्म लेश्या तक की लेइयाओं से विशिष्ट जीव में प्रथम और द्वितीय ऐसे आदि के दो अंग होते है तथा - 'सुक्कलेस्ले त विणा भंगा' शुक्ललेश्या वाले जीवों के तृतीय भंग के लिवाय प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते है। तात्पर्य यही है कि कृष्णादि पांच बेश्या वाले जीव के अयोगिता का अभाव होने से यह वेदनीय कर्म का अवन्धक नहीं આ ચેાથે! ભ'ગ સભવતા જ નથી તેા તે ભગ અહિયાં કેમ કહ્યો છે ? કહેવાનું તાત્પ એ છે કે-લેમ્પાવાળા જીવને આ ચેાથેા ભંગ સભવતા નથી, ઉત્તર—આ સૂત્રના કથનથી ‘ઘ’ટાલાલન’ ન્યાયથી એમ જણાઇ આવે છે કે-ચેાગિક અવસ્થામાં પણ પહેલા સમયમાં પરમશુકલ લેશ્યાના સદ્ભાવ રહે છે. તેથી લેસ્યાવાળા છત્રને ચેાથેા લગ કહ્યો છે. તે શિવાય તેમાં શું વિશેષતા છે, તે વિશેષ જ્ઞાનિચે સમજી શકે. 'कण्हले से जाब पहले से पढमवितिया संगा' ट्यु बेश्याथी सहने પદ્મવૈશ્યા સુધીની લેસ્યાઓથી વિશિષ્ટ જીવમાં પહેલા અને ખીન્ને એ એજ लंग होय छे तथा 'सुक्कलेस्से तदचविहूणा भगा' शुभ्स सेश्यावाजा ने ત્રીજા ભંગ સિવાય પહેલે, ખીજો, અને ચેાથે! એ ત્રણ ભંગે હોય છે. આ સ્થનનુ તાત્પ એજ છે કે-કૃષ્ણ વિગેરે પાંચ લેશ્યાવાળા જીવને ચેગિણાના અભાવ હાવાથી તે વેદનીય કર્માંના અધક થતો નથી, તેથી Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ایما भभगतीसूत्रे द्वितीयचतुर्थरूपा भङ्गा भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'अलेहसे चरिमो भंगों' अलेश्या लेश्यारहितः केवलीसिद्धश्च तस्य च अवघ्नात् न बध्नाति न मन्त्स्यति इति एक एव चतुर्थों भङ्गो भवतीति । 'कण्हषक्खिए पढमबितिया' कृष्णपाक्षिकस्य प्रथमद्वितीयमङ्गौ भवतः कृष्णपाक्षिकस्यायोगित्वाभावात् । 'सुक्कपक्खिए तइयविहूणा' शुक्लपाक्षिका, वृतीयविहीनास्त्रयः प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति शुक्ल. पाक्षिकस्या योगित्वस्यापि संभवादिति । 'एवं सम्मदिहिस्ल वि' एवं शुक्लपा. क्षिकवदेव सस्यगृदृष्टेरपि तृतीयविहीनाः प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति सम्पदृष्टेरयोगित्वस्यापि संभवेन बन्धासंभवादिति । 'मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छा. होता है। इसलिये इसमें आदि के दो भंग कहे गये हैं तथा शुक्ललेश्या वाले जीव के खलेश्य की तरह तीन भंग कहे गये हैं। 'अलेस्से चरिमो भंगो' लेश्यारहित शैलेशीगत केवली और सिद्ध इनके केवल एक चतुर्थ हीभंग होता है। 'काहपक्खिए पढमपितिया' कृष्णपाक्षिक के अयोगिता के अभाव से प्रथम के दो भंग होते हैं। 'सुक्कपक्खिए तस्यविहूणा' शुक्लपाक्षिक जीव के अयोगिता भी वहां होने के कारण तृतीय भंग विहीन प्रथम द्वितीय और चतुर्थ भंग ऐसे तीन भंग कहे गये हैं। 'एवं सम्मदिहिस्सा वि' इली प्रकार से सम्पदृष्टि जीव के भी अयोगिता की संभवता से तृतीय भंग के विना प्रथम छितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते हैं । अयोगिता की संभवता से यहां वेदनीयर्कर्म के पन्ध की असंभवता है। इस कारण वहां मात्र तृतीय भंग का अभाव प्रकट किया गया है। 'मिच्छादिहिस्स सम्मानिच्छादिहिस्सय पढमवितिया' मिथ्या તેઓને આદિના પહેલે અને બીજે એ બે ભંગો કહ્યા છે. તથા શુકલ લેશ્યાવાળા જીવને વેશ્યાવાળા જીવની જેમ ત્રણ ભંગે કહ્યા છે. 'अलेसे चरिमो भंगो' वेश्या विनानी ने मेटले. शैवेशी अवस्था qणा जी मने सिद्धार 34 मे या माय छे. 'काहपक्खिए पदमधितिया' पाक्षि ने अयागीयाना मामा पो मने मान से मे. मग काय छ 'सुक्कपक्खिए तइयविहूणा' शुस पाक्षि: ५२ तमान અગપણ પણ હોવાથી ત્રીજા ભંગ સિવાય પહેલે, બીજા અને ચોથો એ ऋण लगे। ४६। छे. 'एवं सम्मदिद्विस्स वि' सेवा प्रभारी सभ्यष्टवाणा જીવને પણ અગિપણાની સંભવતાથી ત્રીજા ભંગ સિવાયના પહેલે, બીજે અને ચિશે એ ત્રણ ભંગો હોય છે. અગિતાની સંભવતાથી ત્યાં વેદનીય કર્મના બધનું અસંભવપણું છે. તે કારણથી ત્યાં ત્રીજા ભંગને અભાવ કહેલ છે. Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका ०२६ उ.१७०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७५ दिहिस्सय पढमवितिया मिथ्यादृष्टेः सभ्यग्मियादृष्टे (मिश्रष्टे)श्च पथमद्वितीयभङ्गौ भवतः अनयोरयोगित्वाभावेन वेदनीय कर्मणोऽवन्धकत्वस्याऽसावादिति । 'नाणिस्स तइयविहूणा' ज्ञानिन स्वतीयविहीनाः प्रथयद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति ज्ञानिना केवलिनचायोगित्वेन तृतीयस्यासंभादिति । 'भाभिणीवोहियनाणी भाव मणपज्जवनाणी पढमवितिया' आभिनित्रोधिकज्ञानी यावत् मनःपर्यवज्ञानी, अत्र प्रथमद्वितीयमङ्गौ भवतः एतेषामयोगित्वाभावादिति । 'केवलनाणी तइय विहूणा' केवलज्ञानीतनीयविहीनः केवलज्ञानिनोऽयोगित्वेन प्रथमद्वितीयचतुर्थ भङ्गाख्यास्त्रयो भङ्गा सवन्ति । 'एवं नौसनोवउत्त अवेदए अकसाई सागारोदृष्टि जीव के और मिश्र दृष्टि जीव के प्रथम और द्वितीय ऐसे दो भंग होते हैं। क्योंकि इनमें अयोगिता के अभावले वेदनीय कर्म की अबन्धकता का अभाव है। 'नाजिल तयविहणा' ज्ञानी के प्रथम वितीय और चतुर्थ ऐले तीन भंग होते है ज्ञानी और केवल ज्ञानी के पुनः वेदनीय कमकी बन्धमता न होने के कारण यहां तृतीय भंग नहीं कहा गया है। 'आअिणियोलिशनाणी जाव मणपज्ज. वनाणी पढमधितिया' आभिनिषोधिक ज्ञानी से लेकर यावत् मनःपर्यव ज्ञानी तक के जीवों में प्रथम और द्वितीय एसे दो भंग होते हैं क्योंकि इनके अयोगिता का उस समय असद्भाव रहता है। केवलनाणी तइयविहूणा' केवलज्ञानी के प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐले तीन भंग होते हैं-तृतीय भंग यहां नहीं होता है, क्योंकि उस अवस्था में जव ___मिच्छादिद्विस्स सम्मामिच्छादिद्विस्स य पढमबितिया' भिथ्याइटिवाणाने અને સમિથ્યાષ્ટિ એટલે કે મિશ્રદૃષ્ટિવાળા જીવને પહેલે અને બીજો એ રીતે બે ભાગ હોય છે. કેમકે–તેઓમાં અગિપણના અભાવથી વેદનીય मना Aural अभाव छ. 'नाणिस्स तइयविहूणा' ज्ञानाने जीत ભંગને છોડીને પહેલે, બીજો અને ચોથે એ ત્રણ ભગો હોય છે જ્ઞાની, અને કેવળજ્ઞાનીને અગી પણાના સભાવથી વેદનીય કર્મનું બંધકપણુ ન पाथी श्री . स नथा. 'आभिणियोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी पढमबितिया' मालिनिमाधि ज्ञानथी as यावत् मन:५वज्ञानी सुधान। જીમાં પહેલો અને બીજે એ રીતે બે ભંગ હોય છે કેમકે તેઓને मयोगियाना ते मते सहसाव लाता नथी 'केवलनाणी तइयविहूणा' हे જ્ઞાનને પહેલે, બી અને થે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તેમને ત્રીજો Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ भreates उसे अनागावते' एवं केवलवदेव नोसंज्ञोपयुक्तः, अवेदकः, अकपायी, साकारोपयुक्त, अनाकारीपयुक्तः, 'एएस तइयविहूण' एतेषु नो संज्ञोपयुक्तादारभ्य अनाकारोपयुक्तेषु तृतीयभङ्गविहीनाः प्रथम द्वितीयचतुर्थषङ्गा भवन्ति । 'अजोर्गिमय चरिमो' अयोनि च चरमो सङ्गः अवघ्नात् न बध्नाति न भन्त्स्यवि, इत्याकारको ज्ञातव्यः | 'सेसेसु पढपवितिया' शेषेषु अयोगिन्यतिरिक्तेषु प्रथमद्वितीयम ज्ञातव्य इति । 'नेरयाणं भंते । वेयणिज्जं कम्मं कि बंधी बंह' नेरणिकः खलु भदन्त ! वेदनीयं कर्म किम् अववाद वध्नाति भन्त्स्यति१, अवघ्नात् बध्नाति न मन्त्स्यतिर अवघ्नात् न बध्नाति भन्दयवि३ वह अयोगी होता है तो उसके वेदनीय कर्म का यन्म नही होता । ' एवं नो सन्नो अवेदए अकलाई, सागरोनस अणागारोवउत्ते' इसी प्रकार से वो संज्ञा में उपयुक्त वेदरहित कषाय रहिन साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीवों के 'सहय बिहूणा' तृतीय भंग रहित प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते हैं ।' अजोगिम्मिय चरिमो' अयोगी में अन्तिम भंग होता है । 'सेसेल पवितिका' शेष जीवों में -अयोगव्यतिरिक्त जीवों में प्रथम द्वितीय भंग होते हैं । 'नेयाणं भंते! वैयणिज्जं कम्मं किं बंधी विस्त' हे भदन्त नैरथिक जीवने क्या पहिले भूतकाल में वेंनी कर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह करता है? भविष्यत् काल में यए बन्ध करेगा? अथवा भूतकाल में उसने किया है वर्तमान में वह बन्ध करता है? भविष्यत् में वह बन्ध नहीं ભંગ હાતા નથી. કૅમકે તે અવસ્થામાં જ્યારે તે અચગી હૈાય છે. તે તેને વેદનીય ક્રમ ના મધ હાતા નથી. 'एव' नोसन्नो उत्ते, अवेदर अकसाई सागारोवउत्ते, अणागारोव उत्ते' એજ પ્રમાણૢ સાકારાપયેાગવાળા અને અનાકારે પચેગવાળા જીવાને એટલે કે ने नासंज्ञोपयुक्त होय, वेदरहित, षायरहित, होय तेवा कवीने 'तइय विहूणा' त्री मंगने छोडीने पडेलो, गीले भने ये थी मेत्र लोगो होय छे. 'अजोगिम्मिय चरिमो' अयोगी भवमां छेलो लंग ? होय छे. 'सेसेसु पढमवितिया' गाडीनावाने भेटतेययोगी शिवायना लवाने पहेले । અને બીજો એ બે લગા હૈાય છે. 'नेरइयाणं भंते । वेयणिज्जं कम्म किं बंधी, बंधइ बंधिस्सइ' हे भगवन् નૈરિયક જીવે ભૂતકાળમાં વેદનીય કના ખધ કર્યાં છે? વમાન કાળમાં તે વેદનીય ક`ના ખધ કરે છે? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેનેા ખધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે વેદનીય કર્મીના અધ કર્યાં છે? વમાન કાળમાં Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका हा०२६ उ.१ सू०३ ज्ञानावरणीयफर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७७ अबध्नात् न बध्नातिन भन्स्स्यतीति चतुर्भङ्गका प्रश्ना, उत्तरमाह -'एवं' इत्यादि 'एवं नेरइया' एवं सामान्यतो जीवबदेव प्रथमद्वितीयमही ज्ञातव्यों, कियेरपयन्तं पूर्ववदेव ज्ञातव्यं सत्राह-'जा' इत्यारि, 'जाय वेमाणिय त्ति' यावा वैमानिक इति नैरयिकादारभ्य वैमानिकपर्यन्तदण्ड षु प्रथम द्वितीयभङ्गो ज्ञातन्यौ 'जस्स जं अत्थि' यस्य यदस्ति खस्य विविष्य तद्वक्तव्यं यस्य जीवस्य नारकादेयत् लेश्यादिकमस्ति तस्य जीवराशे स्वद् लेश्यादि सम्बन्धे मङ्गो बक्तव्य इति । 'सब्वस्थ वि पढमवितिया' सर्वन नारकादारभ्य वैमानिकान्तदण्ड केषु प्रथम द्वितीय करेगा ? अथवा-भूनकाल में उसने ध्वन्ध किया है, वर्तमान में वह बन्ध नहीं करता है. भविष्यत्काल में यह पन्ध करेगा ? अथवा-उसने भूतकाल में वेदनीय कर्म का बन्ध शिश है, छतधाम में बाह इसका बन्ध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में बह इसका मन करेगा? इस प्रकार से यह नारशियों द्वारा वेदनीय कर्म धन्ध के विषय में त्रिकाल सम्बन्धी ४ चार अंगविषयक यम है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-एवं रहश्या गौतम सामान्य से जीव के जैसा ही यहां प्रथम और द्वितीय भा होते हैं। और ये माहिती भंग 'जांव वेमाणियत्ति' यावत् वैमानिक तक के जी के होते हैं तथाच-नैरयिक से लेकर वैमानिकनक के दण्डों में प्रथम और द्वितीय थे दो भंग ही होते है ऐसा जालना चाहिये' ज ज अस्थि मलत्य दि पढम वितिया' इस प्रकार जिल मारकादि जीव के जो लेश्यादिक हों उसके તે તેને બંધ કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તેને બંધ નહીં કરે ૧૨ અથવા ભૂતકાળમાં તેણે તેને બધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બાધ નથી કરતો? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે ? અથવા તેણે ભૂતકાળમાં વેદનીય કર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતો ? તથા ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે નહીં ? આ પ્રમાણે નારકિયે દ્વારા વેદનીય કર્મ બંધના સંબંધમાં ત્રણે કાળ સંબંધી ચાર ભાગે થવાના સંબંધમાં પ્રશ્ન કરેલ છે. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ है-'एव नेरइया' गौतम । સામાન્યપણુથી જીવન કથન પ્રમાણે અહિયાં પહેલે અને બીજો એ એ ભગ हाय छे, मन मा पडसी तथा मी मग 'जाव वेमाणियत्ति' मा थनथी થાવત્ વૈમાનિક સુધીના ને હોય છે તથા–યિકથી લઈને વૈમાનિક સુધીના દંડકમાં પહેલે અને બીજો એ બે ભાગે જ હોય છે. તેમ સમજવું. 'जस्स जं अस्थि सब वि पढमवितिया' मा प्रभारी २ ना२४ विगैरे -4 જે વેશ્યા વિગેરે કહેલ છે, તેને તેજ લેશ્યા વિગેરે સંબંધી ભંગ કહે भ०७३ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीने भशावेव वक्तव्याविति । 'नवरं मणुस्से जहा जीवे' नवरं केवलमेतावदेव वैलक्षज्यम् यत् मनुष्यदण्ड के सामान्यजीवदण्डकवदेव तृतीयभङ्गविहीनाः प्रथम द्वितीयचतुर्थभङ्गा पक्तव्याः जीवसमानधर्मत्वात् मनुष्यस्येति । 'जीवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी बंधई' जीवः खलु भदन्त ! मोहनीयं कर्म किम् अबइनार बध्नाति भन्स्यति१, अवध्नात् वध्नाति न भन्स्यति२, अवध्नाद न पध्नाति भन्स्यति३, अवधनात् न बध्नाति न भन्स्यति४ इति चतुर्भगको मोहउस लेश्यादिक के सम्बन्ध में भंग पहना चाहिये अतः सर्वत्र-नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के दण्डकों में प्रथम द्वितीय भंग ही होता है। 'नवर मणुस्से जहा जीवे परन्तु मनुष्य दण्डक में सामान्य जीव दण्डक की तरह तृतीय भंग विहीन प्रथम द्वितीय और चतुर्थ थे तीन भंग होता है क्योंकि मनुष्य और समुच्चय जीव लमान धर्म वाले होते है। । 'जीवे गं भंते ! किं मोहणिज्ज क्षम्म बंधी बंधा बंधिस्सई' हे भदन्त ! जीवने क्या भूतकाल में मोहनीय कर्म का पन्ध किया है ? वह वर्तमान काल में करता है ? अविष्यत् काल में वह करेगा क्या ? अथया-जीवने भूतकाल में क्या मोहनीय कर्म का बन्ध किया है ! वर्तमान में क्या वह करता है और क्या वह भविष्यत् काल में उसका बन्धनहीं करेगा? अथवा-जीवने भूनकाल में मोहनीय कर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह नहीं करता है ? भविष्यत् में वह क्या उसका पन्ध करेगा? अथवा भूतकाल में जीवने मोहनीयकर्म का पन्ध किया है ? वर्तमान में वह उसका पन्ध नहीं करता हैं ? भविष्यत् में भी वह इसका पन्ध नहीं करेगा? इस જોઈએ. તેથી બધે એટલે કે નરયિકથી લઈને વૈમાનિક સુધીના દંડકમાં પહેલે भने भान मे डाय छे. 'णवर मणुस्से जहा जीवे' ५२'तु मनुष्यना દંડકમાં સામાન્ય જીવ દંડકના કથન પ્રમાણે જ ત્રીજા ભંગને છોડીને પહેલે, બીજે એથી એ ત્રણ ભંગ જ હોય છે. કારણ કે મનુષ્ય અને સમુચ્ચય જીવ એ સમાન ધર્મવાળા હોય છે. ૫ 'जीवे ण भंते ! कि मोहणिज्जं कम्म' बधी, बधइ, वधिस्सई' लावन् જીવે ભૂતકાળમાં મોહનીય કમનો બંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તેને બંધ કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તેને બંધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે મોહનીય કમને બંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેનો બંધ નથી કરતે? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં જીવે મોહનીય કર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતે? અને ભવિષ્ય ફળમાં તેને બંધ નહીં કરે? આ રીતે Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७९ नीय कर्मविषयकः प्रश्नः, उत्तरमाह - ' जहेब' इत्यादि, ' जहेव पावं कम्पं तहेव मोहणिज्जं पि निरवसेसं जाव वैमाणिए' यथैव पापं कर्म तथैव मोहनीयमपि निरवशेषं यावद्वैमानिकः पापकर्मणो वन्धप्रकरणे यथा चतुरोऽपि भङ्गाः प्रदर्शिता तथैव मोहनीय कर्मणो बन्धेऽपि चत्वारो भङ्गा ज्ञातव्या स्वत्रामव्यमाश्रित्य - प्रथम भङ्गः १, क्षपकत्वप्राप्तियोग्य भव्य विशेषमाश्रित्य द्वितीयो भङ्गः २ उपशान्तमोहजीवमाश्रित्य तृतीयो भङ्गः ३, क्षीणमोहजीवमाश्रित्य चतुर्थः ४ इति । प्रकार से 'अनात् नाति भन्त्स्यति १ अवघ्नात् बध्नाति, नो भन्त्स्यति २ अबध्नात् न बध्नाति, भन्तस्थति ३ अवन्नात् न बध्नाति, न भन्त्स्यति४, यह त्रिकाल fears ४ भंग के सम्बन्ध में मोहनीय कर्म के बन्ध करने के विषय में प्रश्न है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- ' जहेब पार्व कम्मं तहेब मोहणिज्जं पि निरवसेसं जाव वैमाणिए' हे गौतम! जैसा मैंने पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में कहा है वैसा ही निरवशेष कथन मोहनीय कर्म के बन्ध के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये अर्थात् पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में पहिले चार भंग प्रकट किये गये हैं इसी प्रकार से यहां पर भी चार भंग प्रकट करना चाहिये तथा च- किसी एक अभव्य जीव ने पहिले भूतकाल में मोहनीय कर्म का बन्ध किया है वर्तमान में वह इसका बन्ध करता है और भविष्यत् में भी वह इसका बन्ध करेगा ? ऐसा यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये - द्वितीय भंग क्षपकता जिसे प्राप्त 'अब नात् बध्नाति भन्त्स्यति, अबध्नात् बध्नाति न भन्त्स्यति, अबध्नात् न बध्नाति भन्त्स्यति अबध्नात् न बध्नाति अन्स्यति' या रीते थे ज સમધી ચાર ભંગ સબધી મેાહનીય કર્મ બંધના સંધમાં પ્રશ્ન કરેલ છે. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री छे - ' जहेव पाव' कम्म तहेव मोहणिन्जं पि निरवसेसं जाव माणिए' हे गौतम! पायना अधना संबंधभां પ્રમાણે મે' કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ` કથન માહનીય ક` બંધના સંબંધમાં પણ કહેવુ જોઈ એ. અર્થાત પાપ કર્માંના બંધના સમધમાં પહેલા ૪ ચાર ભગા પ્રગટ કરેલ છે, એજ પ્રમાણેના ચાર ભંગા અહિયાં આ મેહેનીય ક્રમ અધના સમધમાં પણુ સમજવા, તથા કાઇ એક સથા અલભ્ય જીવે પહેલા ભૂતકાળમાં મેહનીય ક`ના બંધ કર્યો છે, વમાનમાં તે તેના અધ કરે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના અંધ કરશે. આ રીતે આ પહેલા ભગ સર્વથા અલભ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે, તેમ સમજવુ', ૧ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 भगवती सूत्रे अयं च क्रमः-नैरविकादारभ्य वैज्ञानिकान्तदण्डकेषु विनियोज्य इति । आयुष्य कर्मदण्डकमा - 'जीवे णं' इत्यादि, 'नीचे णं से! आउयं कम्मं किं बंधी बंधर पुच्छा' जीवः खल भदन्छ ! आयुष्कं कर्म हि अवघ्नात् वध्नाति भन्त्स्यति १, अवघ्नात् वञ्जाति व भन्त्यतिर अवघ्नात् न वध्नाति सन्न्दयति३, अवघ्नात् न बध्नाति न मन्त्स्यरि४ इति चतुर्थः प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, होने वाली है ऐसे भव्य विशेष की अपेक्षा लेकर कहा गया है । तृतीय संग उपशात मोहवाले जीव को आश्रित करके कहा गया है और चतुर्थ भंग क्षीणमोहयाले जीव को आश्रित करके कहा गया है। इस प्रकार नैरथि से लेकर वैमानिकान्त दण्डों में जैसा पापकर्म के संबंध में कहा गया है वैसा कपन जानना चाहिये । 'जीवे णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी बंधई०' हे भदन्त ! जीवने क्या पहिले आयुकर्म का बन्ध किया है ? क्या वह वर्तमान काल में भी आयुकर्म का वध करता रहता है ? और क्या वह भविष्यत् काल में उसे बन्ध करेगा ?? अथवा उसने क्या भूतकाल में आयुकर्म का बन्ध किया है क्या ? वह वर्तमान में आयुकर्म का बन्ध कर रहा है ? और क्या वह भविष्यत् काल में उजका बन्ध नहीं करेगा ? २ । अथवा-क्या भूतकाल में उसने आयुकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में यह क्या आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् काल में वह ખીજો ભાઁગ ક્ષપક શ્રેણી જેને પ્રાપ્ત થવાની હાય એવા ભન્ય વિશેષની અપેક્ષાથી કહેલ છે ૨ ત્રીજો ભંગ ઉપશાંત મેાહવાળા જીવના આશ્રય કરીને હેલ છે. ૩ ને ચેાથે ભમેં ક્ષીણુ મેહવાળા જીવના આશ્રય કરીને કહેલ આ ક્રમથી તૈયિકથી લઈને વૈમાનિક સુધીના દડકામાં કહેવુ જોઇએ. 'जीवे णं भंते ! आउय ं कम्म कि बंधी बंध बंधिस्तर' हे भगवन् भवे પહેલા આયુષ્ય કર્માંના અધ કર્યાં છે ? તથા વત માનમાં તે તેને ખંધ કરતા રહે છે? અને શું તે ભવિષ્ય કાળમાં તેના અધ કરશે ? અથવા તેણે ભૂતકાળમાં આયુષ્યકમના બંધ કર્યો છે ? વર્તમાન કાળમાં તે આયુષ્ય કર્મોના અધ કરતા રહે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના બંધ નહીં કરે અથવા ભૂતમાળમાં તેણે આયુષ્ય કર્મીના ખધ કર્યાં છે? વમાનમાં તે આયુષ્ય કર્માંના અંધ કરો નથી ? ભવિષ્યમાં તે આયુષ્ય કર્મોના અધ કરશે ? ૩ અથવા ભૂતકાળમાં તેણે આયુષ્ય કર્માંના બંધ કર્યાં છે? વમાન કાળમાં તે આયુયકના અધ કરતા નથી? અને શું તે ભવિષ્ય કાળમાં તેના મધ નહી' Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५८१ हे गौतम ! 'अस्थेमइए बंधी चउभगो' अस्त्येककोऽवजाद चतुर्भङ्गः, अत्रायुष्ककर्मवन्ध विषये जीवस्त्रे चत्वारो मङ्गा भवन्ति तथाहि-अस्त्येककोऽध्नाव अतीतकाले आयुरकं कम बध्नाति सन्तस्यति च१, अस्त्येकको बध्नात् बध्नाति न मन्त्स्यति२, अस्त्येककोऽअध्नाद न बध्नाति न भन्स्पति ४ इत्येवं चत्वारो भङ्गा भवन्ति । तत्र मथलो भङ्गोऽध्यक्ष्य १, द्वितीयो मङ्गो यश्चरमशरीरो भवति तस्य भवति२, तृतीय भङ्ग उपशमकस्य भाति, ल हि पूर्वकाले आयुरवध्नाव उपशमकाले न बध्नाति बत् मतिपनितम्तु भन्स्यति३, चतुर्थ भङ्गग्तु क्षषकस्य भवति, स हि पूर्वकाले आयुरबध्नात् वर्तमानकाले न बध्नाति, न चानागतकाले आयुकर्म का बन्ध करेगा ?३ । अथवा-भूताल में क्या जाने आयु. कर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में क्या वह आयुशन का बन्ध नहीं करता है ? और क्या पाह भविष्यत् काल में भी उसका बन्ध नहीं करेगा? इस प्रकार रहे अवधनात् , नाति, भन्स्पति१, अवधनात् बध्नाति न सन्ध्यति२ अध्यनात , ल नाति, भन्स्ट्यति३, अबध्नात् न बध्नाति, न अन्त्यति ४ थे चार भंग आयुकर्म के बन्ध के विषय में श्रीगौतमत्वानी ने पूछे-तम प्रभुश्रीने कहा-'गोयमा ! 'अस्थेगइए बंधी घउभंगो' यहां इल आयुष्क फार्म के बन्ध विषयाले जीव सूत्र में ४ भंग होते हैं-जले-किसी एक जीव ने भूनकाल में आयुकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान बह आयु कर्म का बन्ध करता है, और भविष्यत् काल में भी वह आयुकर्म का पन्ध करेगा? ऐला यह प्रथम भंग अभव्य जीव को आश्रित करके कहा गया है, तथा यह छित्तीय भंग-किसी एक अरे १ मा प्रमाणे 'आयुष्क कम अबध्नात्, बध्नाति भन्स्यति, अवघ्नात् पध्नाति न भन्स्यति अबध्नात् न बध्नाति, भन्स्यति अबध्नात् न बनाति, न भन्स्यति' मा यार मग मायुष्य भनाभन समयमा श्रीगोतमस्वाभीमे श्री छे छे. तना उत्तरमा असुश्री मा प्रभाए छ-'गोयमा ! अत्थेगइए बधी चउभंगों' मडिया मा मायुष्य माना विषय सूत्रमा ४ ચાર ભંગ થાય છે, જેમકે-કઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કર્મને બંધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં તે આયુષ્ય કર્મને બંધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં પણ તે આયુષ્ય કર્મને બંધ કરશે? આ રીતને આ પહેલે ભંગ ભવ્ય જીવને આશ્રય કરીને કહેલ છે. તથા કેઈ એક જીવે ભૂતકાળમાં આયુકમને બંધ કર્યો છે, વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં તે તેના બંધ નહીં કરે? આ રીતને આ બીજો ભંગ જે જીવ ચરમ શરીરવાળા Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ई भगवती ऽपि भन्त्स्यतीति । 'सलेस्से जाव सुकलेस्से चत्तारि भंगा' सलेश्ये जीवे यावत् शुक्ललेश्यावति चत्वारोऽपि भङ्गा भवन्धि, अत्र यावत्पदेन कृष्णलेश्यादीनां संग्रह स्तन यो न मोक्षं यास्यति तस्य प्रथमो भङ्गः १, यस्तु चरमशरीरतयोत्पत्स्यते तस्य द्वितीयो भङ्गः २, अवन्धकाले तृतीयो गङ्गः, विद्यमानचरमशरीरस्य सल्लेश्य जीवने भूतकाल में आयुकर्म का बन्ध किया है, वर्तमान में वह उसका बन्ध करता है और भविष्यत् में वह उसका बंध नहीं करेगा जो जीव चरमशरीरी होता है उसकी अपेक्षा से कहा गया है, 'अग्रध्नात् न नाति भन्त्स्यति' ऐसा यह तृतीय भंग उपशमक जीव की अपेक्षा लेकर कहा गया है और 'अवध्वात् न बध्नाति न भन्त्स्यति' ऐसा यह चतुर्थ भंग क्षीणमोहवाले जीव की अपेक्षा लेकर कहा गया है। उपश मक जीव पूर्वकाल में - उपशमक अवस्था से पहिले ही आयुकर्म का बन्ध करता है, उपशमक अवस्था में नहीं करता है, और जब वह श्रेणी पतित हो जाता है. -तथ पुनः आयुकर्म का बन्ध करने लगता है। क्षीण मोहवाला जीव क्षपक श्रेणी पर आरूढ रहता है अतः वह पूर्वकाल में ही क्षपक श्रेणी पर जबतक वह आरूढ नहीं हुआ है तब तक ही आयुकर्म का पन्ध करता है, उछ पर आरूढ हो जाने के बाद वह आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है तथा यहां से जीवका पतन होता नही होय छे, तेभनी अपेक्षाथी उस थे. 'अवघ्नात् न बध्नाति भन्स्यति' मा प्रभाषेने। आा त्रीले लौंग उपशमः लत्रनी अपेक्षाथी उस छे. 'अवघ्नात् न बध्नाति, न भन्त्स्यति' मा प्रभानो मा ચેથે। ભ ગ ક્ષીણમેાહવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ઉપશમવાળા જીવેા પૂર્વકાળમાં ઉપશમક અવસ્થાની પહેલાં જ અચુક ના મંધ કરે છે. ઉપશમક અવસ્થામાં બંધ કરતા નથી અને જ્યારે તે શ્રેણીથી પતિત થઈ જાય છે. ત્યારે તે ફરીથી આયુ ક્રમના બંધ કરવા લાગે છે. ક્ષીણુમેહવાળા જીવ ક્ષપક શ્રેણી પર આરૂઢ રહે છે. તેથી તે પૂ`કાળમાં જ-ક્ષપક શ્રેણી પર જ્યાં સુધી આર્ઢ થયે નથી. ત્યાં સુધી જ આયુકમના અધ કરે છે, તેના પર આરૂઢ થઈ ગયા પછી તે આયુક ના ખધ કરતા નથી. તથા તે અવસ્થાથી જીવનુ પતન धतु' नथी. तेथी ते इरीधी आयुर्भुना गंध थते। नथी. 'सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा' देश्यावाणा लवमां यावत् शुभ्ससेश्यावाणा वामां ચાર ભગા હાય છે. અહિયાં યાવત્ પદથી કૃષ્ણવેશ્યાવાળા વિગેરે જીવા બ્રહણ કરાયા છે. જે મેાક્ષ જતા નથી તેની અપેક્ષાથી પડેલે ભ’ગ કહેલ છે. અને જે ચરમ શરીરી રૂપે ઉત્પન્ન થવાના હાય તેની મપેક્ષાથી ખીજે Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५८३ जीवस्य चतुर्थी भङ्गः 8 | एवम् अंग्रेऽपि भङ्गा चिविच्च वक्तव्याः | 'अलेस्से चरिमो भंगो' अहये - लेश्यारहिते जीवे चरमश्चतुर्थी सङ्ग एव भवति अलेश्यम शैलेशीगतः सिद्धव भवति तयोर्वर्तमान कालानागतकाळयोरायुषोऽअवन्धकरवादिति । 'कण्डपत्रिखणं पुच्छा' कृष्णपाक्षिकः खलु भदन्त ! आयुष्कं कर्म किम् अबधनात् बध्नाति भन्त्स्यति, अवघ्नात् वध्नाति न सन्ध्यतिर अवधनात् न बध्नाति भन्त्स्यति३, अवघ्नात् न बध्नाति न भन्त्स्यति ४ इत्येवं रूपेण चतुहै, इसलिये वह पुन:- आयुकर्म का वन्धक नहीं होता है । 'सकेस्ले जाय सुक्कले से चनारि भंगा' लेइपाचाले जीव में यावत् शुक्ल लेइयावाले जीव में चार भंग होते हैं, यहां यावत्पद से कृष्ण लेश्या वाले आदि जीवों का ग्रहण हुआ है, जो मोक्ष नहीं जावेगा उसकी अपेक्षा से प्रथम भग है और जो चरमशरीर रूप से उत्पन्न होगा उसकी अपेक्षा से द्वितीय भंग है, अवन्धकाल में तृतीय भंग है और जिसके चरमशरीर मोजूद है ऐसे सलेश्य जीव की अपेक्षा से अंतिम भंग है । इसी प्रकार से आगे भी भंगों का विवेचन करना चाहिये, 'अलेस्से रिमो' जो जीव या रहित होता है उसके चतुर्थ भंग ही होता है - अलेश्य शैलेशीगत जीव और सिद्ध जीव होता है, इनके वर्तमान काल में और अनागत काल में आयुकर्म का बन्ध नहीं होता है । ' कण्हपक्खिणं पुच्छा' कृष्णपाक्षिक जीव को लेकर गौतम ने आयुष्क कर्म के बन्ध करने के विषय में ऐसा ही चार अंगोंवाला प्रश्न किया है - जैसे- हे भरन्त ! कृष्णपाक्षिक जीव ने क्या भूतकाल में आयु ભંગ કહેલ છે. બંધ કાળમાં ત્રીજો ભંગ કહ્યો છે. અને જેને ચરમશરીર કાયમ છે. એવા લેશ્યાવાળા જીવાની અપેક્ષાથી ચેાથેા ભંગ કહેલ છે, खान प्रमाणे भागण पशु भगोनी व्यवस्था अमल देवी. 'अलेस्से चरिमो' લેશ્યા વિનાના જે જીવા હાય છે, તેએને ચાથેા ભંગ જ હોય છે. વૈશ્યા વિનાના શલેશી અવસ્થાવાળા જીવે અને સિદ્ધ જીવ! હાય છે, તેને વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં આયુકા અંધ હતા નથી. 'कण्हपक्खिपणं पुच्छा' ष्णुपाक्षिक भवनो आश्रय उरीने श्रीगीतभ સ્વામીએ આયુષ્ટકમના ખંધના સબધમાં ઉપર પ્રમાણે જ ચાર ભગાવાળા પ્રશ્ન કર્યાં છે. જેમકે-હે ભગવન કૃષ્ણપાક્ષિક જીવે ભૂતકાળમાં આયુકા બધ કર્યાં છે ? તે વર્તમાન કાળમાં આયુક`ના અધ કરે છે ? અને વિમાં તે આયુષ્કર્મીના અંધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે યુક ના Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसत्र मङ्गका प्रश्नः पृच्छया परिप्रायते । जगपानाह-गोयया' इत्यादि, 'गोरमा' हे गौतम ! 'अस्थगइए बंधी बंधइ वंधिस्तs' अस्त्येसकोऽवजार बध्नाति भन्स्यति मंथमो मङ्गः कृष्णपाक्षिकस्य, तथा 'अत्यगइए बंधी न बंधइ बंधिस्मा' अस्त्येकका कृष्णपाक्षिकोऽवधनात् न बध्नाति शास्पति कृष्णपाक्षिकस्य प्रथमतृतीयौ द्वौ भनी भवतः । तत्र प्रथमो भङ्गः अभव्यमायस्य कृष्णपाक्षिकस्य भवति, तृतीय मास्तु कर्म फा बन्ध किया है ? वर्तमान में वह क्या आयुर्म का यन्ध करता है ? भविष्यत्काल में क्या वह आयुकने का बन्ध करेगा ? अथवाभूतकाल में उसने आयुर्म का पन्ध दिया है ? वर्तमान में वह आयु. कर्म का पन्ध करता है? अविष्यत् काल में वह आयुकर्म का बन्ध नहीं करेगार अथवा-भूलकाल में उसने आयु कर्म का बन्ध किया है धर्तमान में वह आयुकर्म का पन्ध नहीं करता है? और भविष्यत् में यह आयु फर्म का बन्ध करने लगता है ३? अथवा-भूतकाल में उसने आयुकर्म का पन्ध किया है ? वर्तमान में यह आयुकर्म का पन्ध नहीं करता है ? और अविष्यत् में भी वह आयुकर्म का बन्ध नहीं करेगा? इस प्रकार 'अब मात्, अध्नाति अन्त्यति१ अरमात, मध्नाति न पन्तस्यतिर अबध्नात् , न बध्नाति, भन्स्थति,३ अपनात् न पनाति, न भन्स्यति' यह चोर भंगोबाला प्रवन है। ऐसा यह प्रस पृच्छा' शब्द से गृहीत किया गया है । इस प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री गौतमस्वामी से कहते है-'गोयमा! अत्थेगहए बंधी पंधा बंधिस्लाइ' हे गौतम ! બંધ કર્યો છે જે વર્તમાનમાં તે આયુકર્મનો બંધ કરે છે ? તથા ભવિષ્યમાં તે આયુકર્મને બંધ નહીં કરે? ૨ અથવા ભૂતકાળમાં તેણે આયુકર્મને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનકાળમાં તે આયુકમને બંધ નથી કરતો? તથા ભવિષ્યકાળમાં તે આયુકમને બંધ કરવા લાગે છે? ૩ અથવા ભૂતકાળમાં તેણે આયુકમને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે આયુકમનો બંધ નથી કરતે? અને ભવિષ્યમાં તે આયુકર્મને બંધ નહીં કરે ? આ પ્રમાણે 'अबध्नात, बध्नाति, भन्स्यति १ अवघ्नात् बध्नाति न भन्स्यति २ अवघ्नात् न बध्नाति न भन्स्यति' । या२ गावागे। श्रीगौतमपाभीय प्रश्न ४२० . मा प्रश्न 'पुच्छा' ५४थी अर राय . या प्रश्नना उत्तरमा असुश्री गौतभस्वामीन ४ छे -'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी, बधइ, बंधिस्सई' 3 ગૌતમ! કે કૃષ્ણ પાક્ષિક જીવ એ હોય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં આયુષ્ય કર્મ બાંધેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે. અને Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ ७.१ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धखरूपम् ५८५ आयुष्कर्मणोऽवन्धकाले न वनातीत्येवं स्यात् , द्वितीयचतुर्थमझो तु न भवती कृष्णपाक्षिकत्वे सति सर्वथा आयुष्ककर्मणोऽभन्स्यमानताया अभाव इति विव. क्षणातू । 'सुक्कपक्विए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा' शुक्लपाक्षिके सम्यग्दृष्टौ मिथ्यादृष्टौ च चत्वारोऽपि मजाः शुक्लपाक्षिकस्य सम्यग्दृष्टेश्व, चत्वारो भङ्गाः, तत्र अबध्नात् पूर्वे, बध्नाति च बन्धकाले, भन्स्यति. कोई एक कृष्णपाक्षिक जीव ऐसा होता है कि जिसके द्वारा पूर्वकाल में आयुष कर्म बांधा गया होता है, वर्तमान में भी वह,उसे बांधता है और भविष्यत् काल में भी वह उसे पांधनेवाला होता है । तथा कोई एक कृष्णपाक्षिक जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्वजाल में आयुकर्म का बन्ध किया होता है पर वर्तमान में यह उसका पन्ध नहीं करता है किन्तु अविष्यत् में वह उसका बन्ध करने वाला होता है, इस प्रकार से ये दो भंग यहां होते हैं। इनमें प्रथम भंग अभव्य प्राय कृष्णपाक्षिक जीच के होना है। तृतीय भंग आयुकर्म के अबध काल में कृष्णपाक्षिक जीव को होता है। क्योंकि वह आयुष्यकर्म के अन्ध काल में उसका बन्ध नहीं करता है, अतः कृष्णपाक्षिक के द्वितीय और चतुर्थ भंग नहीं होते हैं । क्योंकि कृष्णपाक्षिकता के होने पर सर्वथा आयुष्कर्म की अभन्स्थमानता (अबन्धता) का अभाव होता है। 'सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी, मिच्छादिवी, चत्तारि भंगा' शुक्लपाक्षिक जीव के सम्यग्दृष्टि जीव के एवं मियादृष्टि जीव के चारों भंग होते हैं । इनमें ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે. ૧ તથા કેઈ એક કે પાક્ષિક જીવ. એ હોય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કમને બંધ કરેલ હોય છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્યકાળમાં તે તેને બંધ કરવાવાળે હોય છે ૨ આ રીતને આ બે અંગે અહિયાં કૃષ્ણપાક્ષિક જીવના સંબંધ હોય છે. આ પૈકી પહેલે ભંગ અભય પ્રાય કૃષ્ણપાક્ષિક જીવને હોય છે. ત્રીજે ઉપશમક કૃષ્ણપાક્ષિક જીવને હોય છે કેમકે તે આયુષ્યકમના અબધુ કાળમાં તેનો બ ધ કરતા નથી ઉત્તર કાળમાં જે તે તેને બંધ કરનારા હોય છે તેથી કૃષ્ણપાક્ષિક જીવને બીજે અને એ બે ભંગ હોતા નથી કેમકે કૃષ્ણપાક્ષિકપણમાં આયુષ્ક કર્મને સંર્વથી અભાવ રહે છે 'सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, चत्तारि भंगा' शुसयाक्षि47 સમ્યગ્દષ્ટિવાળા જીરને, અને મિચ્છાદષ્ટિવાળા જીવને ચારે સંગ હોય છે. भ3-'अवघ्नात् , बध्नाति भन्नस्यति१ अवघ्नात् , वनाति, न भन्स्यतिर भ०७४ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ भगवतीस्त्रे चानागतकाले इति प्रथमो भङ्गः १, अवधनात् वध्नाति न भन्त्स्यति चरमशरीरस्वे इति द्वितीयो भङ्गः २ तथा अवधनात् बध्नाति अवन्धकाळे उपशमावस्थायां वा यति च काले इति तृतीयो भङ्गः, चतुर्थभङ्गस्तु क्षपकस्य भवतीति । मिथ्यादृष्टिस्तु द्वितीयभङ्गके न भन्त्स्यति चरमशरीरमाप्तौ तृतीयभङ्ग के न शुक्लपाक्षिक सम्यग्दृष्टि जीव में चारों भंग होते हैं- जैसे- 'अवघ्नात् बध्नाति भन्रस्यति १ अवघ्नात् बध्नाति न भन्त्स्यतिर अवघ्नात् न बध्नाति भन्रस्यति३ अवघ्नात् न बध्नाति न भन्तस्यतिः' कोई एक शुक्लपाक्षिक एवं सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकाल में आयुकर्म को बांध चुका होता है वर्तमानकाल में वह उसे बांधता है और अनागतकाल में भी वह उसे बांधने वाला होता है । ऐसा यह प्रथम भंग है । चरमशरीरी होने से कोई एक शुक्लपाक्षिक जीव पूर्वकाल में आयुकर्म का धन्ध कर चुका होता है. और वर्तमान काल में भी वह आयुकर्म को बांधता है पर भविष्यत्काल में वह उसे बांधने वाला नहीं है। ऐसा यह द्वितीय भग है। तथा कोई एक शुक्लपाक्षिक एवं सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्ध किया होता है वर्तमान में वह अवन्धकाल में या उपशमावस्था में उसका बन्ध नहीं करता है आगामी बन्धकाल में उसका बन्ध करनेवाला हो जाता है । ऐसा यह तृतीय भंग है । चतुर्थ भंग शुक्लपाक्षिक एवं सम्प्रग्दृष्टि क्षपक जीव की अपेक्षा से होता है । मिथ्यादृष्टि जीच में भी ये ही चार भंग होते अनात् न बध्नाति, भन्त्स्यति३ अवघ्नात्, न बध्नाति न भन्त्स्यति४' अर्थ એક શુકલપાક્ષિક જીવ પૂર્વ કાળમાં આયુકમના ખધ કરી ચૂકેલે હોય છે, વર્તમાન કાળમાં તે તેના અધ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેના અધ કરવાવાળા હાય છે. આ પ્રમાણેના આ પહેલા ભંગ કહેલ છે. ૧ ચરમશરીરી હાવાથી કેાઈ એક શુકલપાક્ષિક જીવ પૂર્વકાળમાં આચુકમના મ"ધ કરી ચૂકેલ હાય છે, અને વમાન કાળમાં પણ તે તેના અધ કરે છે. પરંતુ ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરવાવાળા હાતો નથી. એ પ્રમાથેના આ બીજો ભાગ કહેલ છે. ર્ તથા કેઇ એક શુકલપાક્ષિક જીવ એવા હાય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં આયુકના ખંધ કર્યાં હાય છે, વત માનમાં એટલે કે, અમન્ય કાળમાં અગર ઉપશમ અવસ્થામાં તેના બંધ કરતા નથી. આગામી અધ કાળમાં અથવા ઉપશમથી પતિત અવસ્થામાં તેને બધ કરવાવાળા થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે ના આ ત્રીજો ભાગ કહ્યો છે, ચેાથેા ભંગ શુકલ પાક્ષિક ક્ષપક જીવની અપેક્ષાથી હાય છે, મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા જીવમાં પણ આજ સ્માર Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५८७ बघ्नात्यवन्धकाले, चतुर्थे न बध्नाति अवन्धकाले, न भन्त्स्यति चरमशरीरप्राप्ताविति । 'सम्मामिच्छादिट्ठी पुच्छा' सम्यग् मिथ्यादृष्टिः पृच्छा हे भदन्त ! सम्यगूमिध्यादृष्टि जीवः आयुष्कं कर्म किम् अवघ्नात् बध्नाति भन्त्स्यति १, अवधनात् बध्नाति न भन्त्स्यति२, अवघ्नात् न बध्नाति भन्तयति३, अवध्नात् न बध्नाति हैं-द्वितीय भंग में जो 'न भन्त्स्यति' ऐसा कहा है वह चरमशरीर की प्राप्ति की अपेक्षा से कहा हैं तृतीय अंग में जो 'न बध्नाति' ऐसा कहा है वह अन्धकाल में नहीं बांधने की अपेक्षा से कहा है, चतुर्थ में 'न बंध्नाति न भन्तस्यति' ऐसा जो कहा गया है वह अवन्धकाल में उसे नहीं बांधता है तथा चरमशरीर की प्राप्ति में आगे वह उसे नहीं बांधेगा इस अपेक्षा से कहा गया है । 'सम्मामिच्छादिट्ठी पुच्छा' हे भदन्त ! जो जीव सम्यग्मिथ्याः दृष्टि होता है-सो क्या उसने भूतकाल मैं आयु कर्म का बन्ध किया गया होता है ? वर्तमान में भी वह : क्या आयुकर्म का बन्ध करता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह आयुकर्म का बंध करेगा ? अथवा - उसने पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह उसका बन्ध करता है ? भविष्यत् में वह उसका बंध नहीं करेगा ? अथवा - पूर्वकाल में उसका उसने बन्ध किया है ? वर्तमान में यह उसका बन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध करेगा? अथवा - भूतकाल में ही वह उसका बंध कर चुका है, वर्तमान में वह लगे। हाय छे. मील ल'गमां 'न भन्त्स्यति' मे प्रभा उधु छे, ते यरभ शरीरनी पाप्ति था लय ते अवस्थामा उडेल छेत्रील अंगमां 'न बध्नाति ' એ પ્રમાણે કહેલ છે, તે અમન્ય કાળમાં આયુકમ ન ખાંધવાની અપેક્ષાથી अडेस छे. थाया लगमां 'न बध्नाति' न भन्स्यति' मे प्रभा ने उस छे, તે અખન્ય કાળમાં તેના અંધ ભવિષ્યમાં નહી કરે તે અપેક્ષાથી કહેલ છે. "सम्माभिच्छादिट्ठी पुच्छा' हे भगवान ने कब सम्यग्मिथ्यादृष्टि होय છે, તે તેણે પૂર્વકાળમાં આયુષ્ય કર્મોના અધ કર્યાં હાય છે? વર્તામાનમાં તે આયુષ્ય કમ ના બંધ કરે છે ? તથા ભવિષ્યમાંપણ તે આયુષ્ય કર્મોના બધ કરશે ? અથવા તેણે ભૂતકાળમાં આણુ કર્માંના ખંધ કર્યો છે? વમાનમાં તે તેના ખધ કરે છે ? ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના મધ નહી કરે ? અથવા પૂર્વ કાળમાં તેણે યુક'ના બંધ કર્યાં છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતા ? ભવિષ્ય કાળમાં તે તેનેા 'ધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં જ તે તેના Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૧૮૮ भगवतीसूत्रे न भन्स्यति४, इत्येवं क्रयेण चतुभगका प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्यगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येककोऽवध्नात् न बन्नाति भन्स्यति३, 'अ-थे गइए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' अस्त्येककोऽवध्नाद न बध्नाति न भन्स्यवि४, अन तृतीयचतुर्थ भङ्गो भगवसा अनुमोदितौ । सम्यगमिथ्याष्टिशयु न बध्नाति, चहराशरीरत्वे च कश्चिन्न भन्स्यतीति कृत्वा तृतीयचतुर्थावेव भङ्गो भात इति । 'नाणी जाव ओहिनाणी चनारि भंगा' ज्ञानी यावत् उसका बंध नहीं करता है ? और क्या भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध करेगा ? इस प्रकार से यह-'अपनात् पध्नाति, भन्स्थति १ अबध्नाल, पनाति, न भास्यति२ अपनात्, न पध्नाति, भात्स्यति३ अवघ्नात्, न बध्नाति, न मन्त्स्यति' यहां चार भंगोंवाला प्रश्न श्री गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से पूछा है, इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोषमा ! अगइए बंधी, न बंधह, बंधिस्सई' हे गौतम! सम्पग्मि. थ्यादृष्टि जीवों में से कोई एक जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में आयु का वध किया होता है, पर वर्तमान में उसका बन्ध नहीं करता है, आगामी काल में बाह उलको पुनः वध करने लगता है। तथा कोई एक जीव ऐसा होता है जिसने पूर्वकाल में आयुकर्म का पन्ध किया होता है पर वर्तमान में उसका बन्ध नही करता है और न भविष्यत् में वह उसका बन्ध करता है । इस प्रकार से तृतीय और चतुर्थ भंग यहां पर प्रभुश्री ने प्रदर्शित किये हैं। બંધ કરી ચૂક્યા છે ? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતો? અને ભવિષ્યમાં तत ५५ नही ४रे ? 24! प्रमाणे मा 'अवनात, बध्नाति, भन्स्यति१' अवस्नातू , बध्नाति, न भन्स्यति२ अबध्नात् न बध्नाति, न भन्स्यति३ अवघ्नात् , न बध्नाति, न भन्स्यति४' मा यार सगे पाणी प्रश्न गीतमस्वामी प्रसन पूछेस छ. मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गौतम स्वाभार ४ छे 'गोयमा ! 'अत्थेगइए बधी, न बधइ बधिस्सई' है गीतम! सभ्यभिच्याष्टिवाणा । પૈકી કઈ એક જીવ એ હોય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં આયુ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરતા નથી, અને ભવિષ્ય કાળમાં તે ફરીથી તેને બંધ કરવા લાગે છે, તથા કઈ એક જીવ એ હોય છે કે જેણે પૂર્વ કળમાં આયુ કર્મને બંધ કરેલ હોય છે. પરંતુ વર્તમાનકાળમાં તેને બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે નહીં. આ પ્રમાણે અહિયાં ત્રીજો અને ભંગ પ્રભુશ્રીએ પ્રગટ કરેલ છે, Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ ३.१ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य वन्धस्वरूपम् ५८९ अवधिज्ञानी एषां चत्वारोऽपि भङ्गा भवन्ति इति ज्ञानी-सामान्यज्ञानी, यावत्पदेन मतिश्रुतज्ञानिनो ग्रहणं भवति । 'मणपनवणाणी पुच्छा' मनापर्यज्ञानी किम् आयुष्कं कर्म अत्रमात् बध्नाति भन्स्यलि इत्यादि चतुङ्गमा प्रश्नः भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगडए बंधी बंधइ वधिस्सई' अस्त्येककः एकः कश्चित् मनःपर्यवज्ञानमा आधुकं कर्म पूर्वकाले अबध्नाव सम्प्रति __ सम्परिप्रथयाइष्टि जीव आयुकर्म का बंध नहीं करता है तथा कोई सम्यग्मियादृष्टि जीव घरमशरीरी होने पर आगामी काल में भी उसका बंध करने वाला नहीं होता है, इस कारण यहां तृतीय और चतुर्थ भंग ही कहे गये हैं। शेष दो भंग नहीं कहे गये हैं। 'नाणी: जाव ओहिनाणी चत्ताहि भंगा' ज्ञानी जीव में यावत् अवधिज्ञानी में चार भंग होते हैं। ज्ञानी पद से यहाँ 'सामान्यज्ञानी' ग्रहीत हुआ है, तथा यावत् पद से 'भतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी' इनका ग्रहण हुआ है। 'भगएज्जवनाणी पुच्छ।' है भदन्त ! मनापर्यवज्ञानी के सम्बन्ध में मेरा प्रश्न है-अर्थात् मनःपर्यज्ञानी ने क्या पूर्वकाल में आयु कर्म का पन्ध किया है ? वह वर्तमान में वह उसका क्या धन्ध करता है ? भविष्य में क्या वह उसका वध करेगा ? इत्यादि रूप से यहां शेष ३ अंग और प्रकट करना चाहिये, 'उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा! अस्थाइए पंधी, बंध, बंधिस्स हे गौतम! किसी एक मनापर्यपज्ञानी ने पूर्वकाल में आयुष्क कर्म का बन्ध किया है, वर्तमान - - સમ્યમિથ્યા દષ્ટિ છે આયુકર્મને બંધ કરતા નથી તથા કઈ સમ્યમિદષ્ટિ જીવે ચરમશરીરી થાય ત્યારે આગામી કાળમાં પણ તેને બંધ કરવા વાળા હતા નથી, એ જ કારણે અહિયાં ત્રીજો અને ચે છે Minor 8 . श्रीना मे या नथी. 'नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि संगा' ज्ञानी वने यावत् सवधिज्ञानी छपने यार सगी साय छे. જ્ઞાની પરથી અહિયાં સામાન્યજ્ઞાની ગ્રહણ થયેલ છે. તથા યાવત્પદથી મતિज्ञानी, शुशानी यहए । यया छे. 'मणरज्जवनाणी पुच्छा, मन:पय यज्ञानाना સંબંધમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રશ્ન કરેલ છે કે હે ભગવાન મન પર્યવ જ્ઞાનવાળા જીવે પૂર્વ ક ળમાં આયુકમનો બ ધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે ? ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે ? વિગેરે પ્રકારથી બાકીના ત્રણ ભાગે અહિયાં સમજી લેવા આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ' गौतम भना५य. જ્ઞાનીએ પૂર્વકાળમાં આયુષ્ય કર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં તે તેને Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० भगवतीये वध्नाति, भविष्यकाले भन्स्यति१, 'अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येककोऽबध्नात् न बघ्नाति भन्स्यति 'अत्थेगइए बंधी न बंधइन बंधिस्सई' अस्त्येककोऽधनात् न बध्नाति न मन्त्पति४ इत्येवं प्रथमतृतीय चतुर्थात्मकास्त्रयो मका अनुमोदिता भगवता मनःपर्यवज्ञानिनाम् । तत्रासौ पूर्वकाले आयुरबध्नात् इदानी देवायुर्वध्नाति ततो मनुप्यायु मन्त्स्यतीति प्रथमो भङ्ग, अवघ्नात् वध्नातिन भन्स्यतीत्याकारको द्वितीय मङ्गो न सम्भवति अवश्यं देवत्वे मनुष्यायुपो बन्धनाद में वह उसका बंध करता है और भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा, 'अत्थेगइए बंधी, न धंधा, बंधिस्तद' तथा कोई एक मनापर्यव. ज्ञानी ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्क कर्म का पन्ध किया है, पर वर्तमान में वह ललका धन्ध नहीं करता है, भविष्यत में वह उसका बंध करेगा। 'अत्थेगहए बंधी, न बंधन बंधिस्स तथा-कोई एक मनापर्यवज्ञानी ऐसा भी होता है कि जिसने पूर्व काल में ही आयु. ककर्म का बंध किया होता है, वर्तमान में वह उसका बंध नहीं करता है और न भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा। इस प्रकार से यहां प्रथम तृतीय और चतुर्थ ये तीन भंग होते है। इनमें से प्रथम भंग का तात्पर्य ऐसा है कि मनापर्यघज्ञानी पूर्वकाल में आयु का यंध कर चुका होता है वर्तमान में वह देवायु का बन्ध करता है, उसके याद वह फिर मनुष्यायु का धन्ध करेगा। यहां पर 'अवघ्नात्, बध्नाति, न भन्स्यति' ऐसा जो यह द्वितीय भंग है वह संपवित नहीं होता है क्योंकि देवरव में वह नियमतः मनुष्यायु का वध करनेवाला होता है। ५५ रे छ ? भने लवियमा प त त ४२२ 'अत्थेगइए बंधी न पंधइ, बधिस्वइ' तथा मे मनः५वज्ञानी । डाय - પૂર્વ કાળમાં આયુષ્ય કર્મ બંધ કર્યો છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને मध ४२ता नथी. भविष्यमा त तन। म ४२” “अत्थेगइर बधी, न पंधर, न ब धिस्सइ' तथा १७ मे मनः५ ज्ञानी मेवा ५४ सय छ, ४ પૂર્વકાળમાં જ આયુષ્ય કર્મને બંધ કરેલો હોય છે. વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરતા નથી તેમ ભવિષ્ય કાળમાં પણ તેને બંધ કરશે નહીં આ રીતે અહીંયા પહેલે ત્રીજો અને એથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તે પૈકી પહેલા ભંગનું તાત્પર્ય એ છે કે-મનઃ પર્યાવજ્ઞાની પૂર્વ કાળમાં આયુકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે દેવાયુને બંધ કરે છે, તે पछी ते ५२री भनुष्य मायुने। मय ४२२. मडियां 'अबध्नात् , बध्नाति, न भन्स्यति, सवा २ मा मीने म छ, त समवती नथी. भ દેવ પણામાં તે નિયમ થી મનુષ્ય આયુને બંધ કરવાવાળા હોય છે. ત્રીજે Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५९१ तृतीय भङ्गस्तु उपशमकस्य भवति, स हि न बध्नाति प्रतिपतितश्च भन्त्स्यतीति । चतुर्थभङ्गस्तु क्षपकस्य भवतीति । 'केवलनाणे चरमो भंगो' केवलज्ञानिनां तु atara भङ्गो भवति केवळी हि आयु ने वध्नाति न वा अग्रे भन्रस्यति सिद्धिगमनात् इति । ' एवं एएणं कमेणं नो सन्नोवउत्ते वितियविहूणा जहेव मणपज्जननाणे' एवम् अनेन क्रमेण नोसंज्ञोपयुक्ते जीवे द्वितीयमङ्गविहीनाः प्रथमतृतीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति यथैव मनःपर्यवज्ञाने मनःपर्यवज्ञानिवदेव नोसंज्ञोपयुक्तस्य द्वितीयभङ्गरहितास्त्रयोभङ्गा वेदितव्या इति । 'अवेदए अकसाई य तय चउस्था जव सम्मामिच्छत्ते' अवेद के अकपायिनि च तृतीयचतुर्थी यथैव सम्यग्रमिध्यात्वे तृतीय भंग उपशमक के होता है क्योंकि उसके द्वारा पूर्वकाल में आयु का बन्ध किया जाता है, पर वर्तमान में वह आयु का बन्ध नहीं करता है, परन्तु जब श्रेणी से उपशमक श्रेणी से पतित हो जाता है तब वह आयु का बन्ध करने लगता है । चतुर्थ भंग क्षपक की अपेक्षा से है, 'केवलनाणे चरमो भंगो' केवलज्ञानों के चरम ही भंग होता है, क्योंकि केवली वर्तमान में आयु का बन्ध नहीं करता है, और न वह भविष्यत् काल में भी आयु का बन्ध करनेवाला होता है। क्योंकि वह तो सिद्धि में गमन करनेवाला होता है । ' एवं एएणं कमेणं नो सनोवन्ते, वितियविणा जहेब मणपज्जबनाणे' इसी प्रकार से इस क्रम द्वारा नो संज्ञोपयुक्त जीवों में द्वितीय अंग के बिना बाकी के प्रथम तृतीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग मनःपर्यवज्ञानी के जैसे जानना चाहिये, 'अवेदए अकसाई य तइय घउत्था जहेब लम्बामिच्छत्ते' वेद " ભગ ઉપશમ વાળાને હાય છે, કેમ કે તેના દ્વારા પૂર્વ કાળમાં આયુને બંધ કરવામાં આવે છે. પરંતુ વ`માન કાળમાં તે આયુના બંધ કરતા નથી. પરંતુ જ્યારે ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થઈ જાય છે, ત્યારે તે આયુના બંધ ४२वा लागे छे. थोथे। लौंग क्षपानी अपेक्षाथी उडे हे 'केवलनाणे चरमो भगो' ठेवण ज्ञानीने दो लौंग होय हे प्रेम-देवली वर्तमान अणभां આયુને અંધ કરતા નથી. તથા તે ભવિષ્યમાં કાળમાં પણ આયુને બધ ४२वावाजा होता नथी. उस तेथे। सिद्धिमां भवात्राणा हेय छे. 'एवं एएणं कमेणं नोच-नोवउत्ते, वितियविहूणा जहेव मणपज्जवनाणे' येथे ४ प्रभाषे मा ક્રમથી નાસ’જ્ઞોપચેગવાળા જીવામાં ખીજા ભંગ વિના માકીના પહેલેાત્રીએ અને ચેાથે એવા ત્રણ ભગે। મનઃ વજ્ઞાનીના કથન પ્રમાણે ઢાય છે 'अवेदर अकसाई य तहयचउत्था जहेव सम्मामिच्छते' वेह विनाना Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TOS भगवतीय सम्यग्मिथ्याष्टिकदेव अवेदकस्याकपायिनश्च तृतीयचतुर्थी एव भङ्गो भवतः अवेदकोऽकपायी च क्षपकाउपशमको श सयोश्चायुपो वर्तमानवन्धो न भवति, उपशमकम्य मतिपतियो भन्रत्यति, क्षपस्तु नैव अन्त्स्यतीति कृत्या तृतीय चतुर्थावेच भवत इति । 'अजोगिमि चरिमो' अयोगिनि चरमो भजो भत्रति , अयोगित्वादेवेति । 'सेसेलु पदेसु चत्तारि भंगा जाव अगागारोवउत्ते' शेषेषु कथित व्यतिरिक्तेषु अज्ञानमत्यज्ञानादि संज्ञोपयुक्ताहारादि संज्ञोपयुक्त सवेद स्त्रीवेदादि सकपायक्रोधादि कपाय सयोगिमनोयोग्यादि साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तलक्षणेषु चत्वारोऽपि भङ्गा ज्ञातव्या इति सू० ३॥ रहित और अकषायी जीव में सीलरा और चौधा सम्पमिथ्याष्टि के जैसे जानना चाहिये, वेद रहित और काराय रहित जीव चाहे क्षपक हो या उपशमक हो उले चलम्मान में आयु का वध नहीं होता है, परन्तु उपशमकतो पतित हो जाने पर उसका बन्ध करेगा और क्षपक उसका यन्ध नहीं करेगा। इन अधिनाय से यहां तृतीय और चतुर्थ ये दो अंग ही होते हैं। 'अजोगिनि चरिमो' अयोगी में अयोगी होने से चरम भंग ही होता है । 'लेलेसु पदेस चत्तारि भंगा जाव अणागारोवउत्ते' शेष पदों में-इन फथित पदों के अतिरिक्त अज्ञान में मत्यज्ञानी आदिकों में संज्ञोपयुक्त में, आहारादि संज्ञोपयुक्त में सवेद में, स्त्रीवेद आदिवालों में, कषायमाहित में, शोधादि कषायवालों में, सयोगी में, मनोयोगी आदि जीवों में, साकोरोपयोगयोलों में और अनाकारोपयोगवालों में-चानों ही भाग होते हैं ऐसा जानना चाहिये ॥३॥ અને અકપાયી જીવને સમ્યગ્દષ્ટિવાળા જીવના કથન પ્રમાણે ત્રીજો અને એ એ બે ભાગે સમજવા જોઈએ. વેદ રહિત અને કષાયરહિત જીવ ચાહ ક્ષપક હોય અથવા ઉપશામક હોય તેને વર્તમાનમાં આ યુકર્મને બંધ હેતે નથી પરંતુ ઉપશમ તો પતિત થાય ત્યારે તેને બંધ કરશે અને ક્ષપક તેનો બંધ નહી કરે એ અભિપ્રાયથી અહિયાં ત્રીજો અને ચોથો એ An डाय छ अजोगि मि चरिमो' मयोभी या वाथी छेदसा डाय छ 'सेसेसु पदेस चत्तारि भगा जाव अणागारोवउत्ते' माझीना પદમાં આ ઉપર કહેલ પદે શિવાય અજ્ઞાનમા–મતિજ્ઞાની વિગેરેમાં, સંજ્ઞોપગવાળામાં, આહાર વિગેરે સંપગીમાં, સવેદમાં સ્ત્રીવેદ વિગેરે વાળામાં કષાય સહિતમાં કોલ વિગેરે કષાયવાળાઓમા, સગીમાં મને, ચેની વિગેરે જીવોને સાકારોપયોગવાળાઓમાં અને અનાકારો પગ વાળાઓમાં ચારે ભંગ હોય છે, તેમ સમજવું. સૂ૦ ૩ - Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका रीका श०२६ उ.१ सु०४ नैरयिकाणां आयुकर्मवन्धनिरूपणम् ५९३ ___ मूलम्-नेरइए जं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए पत्तारि भंगा, एवं सव्वत्थ वि नेरइयाणं चत्तारि भंगा, नवरं कण्हलेस्ले कण्हपक्खिए य पढमतइया भंगा, सम्मामिच्छत्ते तइय चउत्था। असुरकुमारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियव्वा, सेसं जहा नेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढवीकाइयाणं सव्वस्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपश्खिए पढमतइया भंगा। तेउ. लेस्से पुच्छा, गोयमा ! बंधी न बंधइ बंधिस्तइ सेलेसु सव्वस्थ चत्तारि भंगा। एवं आउक्काइ य वणस्तइकाइयाणं वि निरवसेसं तेउक्काइय वाउकाइयाणं सव्वत्थ वि पढमतइया भंगा। वेइंदियतेइंदियचउरिदिया णं पि सम्वत्थ वि पढमतइया भंगा। नवरं सम्मत्ते नाणे आभिणिवोहियनाणे सुचनाणे तइओ भंगो। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपविखए पढमतइया भंगा। सम्मामिच्छत्ते तइयचउत्था भंगा, सम्मत्ते नागे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाण, एएसु पंचसु वि पदेसु विइयविहूणा भंगा, सेसेसु चत्तारि भंगा। मणुस्साणं जहा जीवाणं नवरं सम्मत्ते ओहिए नाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे, एएसु विइयविरुणा भंगा, सेसं तं चेव। वाणमंतरजोइसियवमाणिया जहा असुरकुमारा। नामंगोयं अंतरायं च, एयाणि जहा नाणावरणिज्जं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॥सू० ४॥ छब्बीसमे बंधसए पढमो उद्देसो लमत्तो ॥२६-१॥ छाया-नैरयिकः खलु भदन्त ! आयुष्कं कर्म किम् अवध्नात् पृच्छा, गौतम ! अरत्येककश्चत्वारो भङ्गा, एवं सर्वत्रापि नैरयिकाणां चत्वारो भङ्गाः, नवरं कृष्णालेश्ये कृष्णपाक्षिके प्रथमतृतीयौ भङ्गो, सम्यग्मिथ्यात्वे तृतीयचतुर्यो । भ० ७५ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ भगवती असुरकुमारे एवमेव, नवर' कृष्णलेश्येऽपि चत्वारो भङ्गा भणितव्याः, शेप यथा नैरयिकाणाम् एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् । पृथिवीकायिकानां सर्वत्रापि चत्वारो भन्नाः, नवरं कृष्णपाक्षिके प्रथमतृतीयौ भनौं। तेजोलेश्यः पृच्छा, गौतम | अवघ्नात् न बध्नाति भत्स्यति, शेपेषु सर्वत्र चत्वारो भङ्गाः । एवमष्कायिकघनस्पतिकायिकानामपि निरवशेषम् । तेजस्कायिकवायुकायिकानां सर्वत्रापि प्रथम तृतीयो भङ्गो । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामपि सर्वत्रापि प्रथमतीयो, 'नवरं सम्यक्त्वे ज्ञाने आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुत्रज्ञाने तृतीयो भङ्गः । पञ्चेन्द्रियत्तिर्यग्यो. निकानाम् कृष्णपाक्षिके प्रथमतृतीयौ भगौ, सम्यगूमिथ्यात्वे तुतीयचतुर्थों मङ्गो । सम्यक्त्वे ज्ञाने आभिनियोधिकज्ञाने श्रुनज्ञाने अवधिज्ञाने, एतेषु पञ्चस्वपि पदेषु द्वितीयविहीना भङ्गाः, शेपेषु चत्वारो मङ्गाः, मनुष्याणां यथा जीवानाम् । नवरं सम्यक्त्वे औधिकज्ञाने आभिनिवोधिक ज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने एतेषु द्वितीयविहीना भङ्गाः, शेपं तदेव । वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका.यथा अमरकुमाराः। नामगोत्रम् आन्तरायिकं च, एतानि यथा ज्ञानावरणीयम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति ।मु० ४॥ ' पविंशतितमे वन्धशतके प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥२६-१॥ टीका-'नेरइए णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा' नैरयिकः खल भदन्त ! आयुष्कं कर्म किम् अबध्नात् वध्नाति भन्स्यति १,. अवघ्नात् बध्नाति 'नेरइएणभंते ! आउयं कम्मं कि बंधी बंधइ-पुच्छा'-इत्यादि टीकार्थ- गौतमस्वामीने इस सूत्रद्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है हे भदन्त ! नैरयिक जीव ने क्या पूर्वकाल में आयुकर्म का वध किया है? क्या वर्तमानकाल में उसका बन्ध करता है ? और भविष्यत्काल में क्या वह उसका बन्ध करेगा? अथवा-भूतकाल में उसने उसका पन्ध किया हैं ? वर्तमान में वह उसका चन्ध करता है ? भविष्यत्काल में वह उसका बन्ध नहीं करेगा? अथवा-भूतकाल में उसने उसका बन्ध किया है ? वर्तमान में वह उसका वध नहीं करता है ? भविष्यत् 'नेरइए ण भंते ! आयुकम्म कि बंधी, वधइ, पुच्छा' त्याहि. ટીકાર્ચ–ગૌતમસ્વામીએ આસૂત્રદ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કેહે ભગવન નારકીય જીવે ભૂતકાળમાં આયુકમને બંધ કર્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બધ કરે છે? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે તેને બંધ કર્યો છે ? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે? અને ભવિષ્ય કાળમાં તેને બંધ નહીં કરે ? અથવા ભૂતકાળમાં તે તેને , Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मवन्धनिरूपणम् ५९५ न भन्स्यतिर, किमायुप्कं कर्म अवध्नात् न वध्नाति भन्स्यति३, अवध्नात् न बध्नाति न भन्स्यति४, इत्येवं क्रमेण पृच्छया चतुर्भङ्गकः प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइए चतारि भंगा' अस्त्येकफश्चत्वारो भङ्गाः हे गौतम ! कश्चिदेको आयुष्कं कर्म अवध्नात् वध्नाति भन्स्यति१, कश्चिदेकोऽवध्नात् वध्नाति न भन्स्स्यति२, कश्चिदेकोऽवध्नात् न बध्नाति भन्स्यति ३, कश्चिदेकोऽबध्नात् न वध्नाति न भन्त्स्यति ४, में क्या वह उसका बन्ध फरेगा ? अथवा भूतकाल में उसने उसका वध किया है ? वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है? और भविष्यत् में भी क्या वह उसका बन्ध नहीं करेगा ? इस प्रकार से ये चार प्रश्न गौतम के यहाँ 'पुच्छा' शब्द से गृहीत हुए हैं इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-गोयमा ! 'अत्शेगहए चत्तारि भंगा' हे गौतम ! कोई एक नारक जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्कका बध किया होता है वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है और भविष्यत्काल में भी वह उसका बन्ध करेगा १ तथा कोई एक नारक जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्यका बन्ध किया है, वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है पर भविष्यकाल में वह उसका बन्ध करनेवाला नहीं होता है २ तथा कोई एक नारक जाय ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्कर्म બંધ કર્યો છે ? વર્તમાનમાં તેને બંધ નથી કરતો? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તેણે તેને બધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતે ? અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ નહીં કરે ? આ પ્રમાણે ના આ ચાર બંગો રૂપી પ્રશ્ન ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછેલ छे, मा या२ माभप्रश 'पुच्छ।' से ५४थी अडथये छ. मा प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामी ४ छ -'अत्थेगइए चत्तारि भंगा' है ગૌતમ! કોઈ એક નારક જીવ એ હોય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં નારક આયુષ્યને બધ કર્યો હોય છે, વર્તમાનમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે. અને ભવિષ્યમાં તેને બંધ કરશે.૧ તથા કેઈ એક નારક જીવ એ હોય છે કેજેણે ભૂતકાળમાં નારક આયુષ્ય ને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં પણ તેનો બંધ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે નહીં.૨ તથા કઈ એક તારક જવ એ હોય છે કે-જેણે પૂર્વ કાળમાં આયુષ્ય કમને બંધ કર્યો Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीले इत्येवं चत्वारोऽपि भङ्गा नारकाणामायुष्कर्मवन्धे भगवता अनुमोदिताः तत्र नारकः पूर्वमापुरवघ्नात्, वाधकाले बध्नाति, भवान्तरे भन्स्यतीति प्रथमो भगः, भविष्यत्काले प्राप्तव्यसिद्धि कस्य नारकस्य अवध्नात् वध्नाति न भन्त्स्यतीति द्वितीयो मङ्गः, अवध्नात् न बध्नाति भन्स्यतीति तृतीयो भङ्गो बन्धकालाभावं भविष्यत्कालिकवन्धं चापेक्ष्य भवति नारकविशेषस्य । बद्धपरमविकायुपो नारकस्य अनन्तरं प्राप्तव्यचरमभवस्य चतुर्थोऽवध्नात् न का बन्ध किया है वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है पर भविष्यत् में वह उसका बन्ध करेगा ३ तथा कोई एक नारक जीव ऐसा होता है कि जिसने केवल पूर्वकाल में ही आयुष्क का बन्ध किया है, वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है और न भविष्यकाल में वह उसका पन्ध करेगा४ । इनमें प्रथम भंग जिस नारक ने पूर्वकाल में आयुका बन्ध किया है, वर्तमान में बन्ध काल में जो आयुका बन्ध करता है, और अवान्तर में जो आयुका बन्ध करेगा उस नारक की अपेक्षा से है, द्वितीय भंग भविष्यत् काल में जिसे सिद्धिगति की प्राप्ति होती है उसकी अपेक्षा से है, तृतीय भंग वर्तमान काल में अ. बन्ध काल में- जो आयुका बन्ध नहीं करता है पर भविष्यकाल में वह उसका बन्ध करनेवाला है ऐसे नारक की अपेक्षा से है और चतुर्थ भंग जिस नारक ने परभव की आयुका वध कर लिया है, और वर्तमानकाल में वह उसका बन्ध नहीं करता है और अनन्तर प्राप्तव्य चरम भव में ही जिसे मुक्ति प्राप्त होती है ऐसे नारक की છે, વર્તમાનમાં તે તેનો બાધ કરતું નથી. પરંતુ ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે ૩ તથા કેઈ એક નારક જીવ એ હોય છે કે-જેણે કેવળ ભૂતકાળમાં જ નારક આયુષ્યને બંધ કર્યો હોય છે. વર્તમાનમાં તેને બંધ કરતા નથી. અને ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે નહીં. આમાં પહેલે ભંગ જે નારકે ભૂતકાળમાં આયુને બંધ કર્યો છે. વર્તમાનમાં આયુ બંધ કરે છે, અને ભવાન્તરમાં જે આયુને બંધ કરશે તે નારકની અપેક્ષાથી કહેલ છે. બીજો ભંગ ભવિષ્યમાં જેને સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિ થવાની હોય છે, તેની અપેક્ષાથી કહેલ છે. ત્રીજો ભંગ વર્તમાન કાળમાં બંધ કાળમાં જે આયુનો બંધ નથી કરતા પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરવાના છે, એવા નારકની અપેક્ષાથી કહેલ છે, અને ચોથો ભંગ જે નારકે પરભવની આયુષ્યને બંધ કરી લીધું હોય છે અને બંધ કાળમાં તે તેને બંધ કરતો નથી અને પછીના કાળમાં જેને મુક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવા નારકની Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मवन्धनिरूपणम् ५९७ बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारका । 'एवं सम्वत्थ वि नेरझ्याणं चचारि भंगा' एवं सर्वत्रापि पदेषु नारकाणां चत्वारो भङ्गा ज्ञातव्याः सर्वत्र पदेषु लेश्यादिपु चत्वारो भङ्गा योजनीयाः, यस्मिन् पदे वैलक्षण्यमस्ति ताश पदविषयकं वैलक्षण्यं द्योतयितुमाह-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं कण्हलेस्से कण्डपक्खिए पढमतइया भंगा' नवरं वैलक्षण्यमेतदेव यत् कृष्गलेश्यनारके कृष्णपाक्षिकनारके च प्रथमतृतीय भङ्गो एव विनियोज्यौ, लेश्यापदे कृष्णले श्येषु प्रथमतृतीयौ भङ्गौ भवतः, तथाहि कृष्णलेश्योनारक आयुष्कर्म अनधनात् अतीतकाले, वर्तमानकाले च बध्नाति, भविध्यत्काले भन्स्यति चेति प्रथमो भङ्गः १, द्वितीयस्तु अबध्नात् बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको भङ्गो न संभवति, यतः कृष्णलेश्यनारकस्य तिर्यग्योनिके. पुत्पत्ति भवति तथा अचरमशरीरेषु मनुष्येषु कृष्णलेश्यादि पञ्चम नरकपृथिव्याअपेक्षा से है। "एवं सब्यस्थ्य वि नेरइयाण चत्तारि भंगा" इसी प्रकार लेश्यादिक समस्त पदों में भी नारकों के चार भंग जानना चाहिये, परन्तु जिस पद मे भिन्नता है उसे सूत्रकार स्वयं ही "नवर काहस्से कहपक्खिए पढप्रतच्या अंगा" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हैं-कृष्ण लेश्यावाले नारक में और कृष्णपाक्षिक नारक में प्रथम एवं तृतीय अंग ही होते है द्वितीय एवं चतुर्थ भंग नहीं होते हैं। क्यों कि कृष्णलयावाला जो नारक होता है वह भूतकाल में आयुकर्म का बन्धक होता हैं वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है और अविष्यत्काल में भी वह उसका वध करनेवाला होता है। "अवधतात, बध्नातिल सन्स्थति" ऐसा जो द्वितीय भंग है वह यहां इसलिये नहीं होता है कि कृष्णलेश्यावाले नारक की तिर्थश्च योनि में उत्पत्ति होती है। तथा अचरमशीरी मनुष्यों में मपेक्षाथी छ, ‘एवं एत्थ वि नेरइया णं चत्तारि भगा' मे प्रभारी सेश्या વિગેરે સઘળા પદમાં પણ નારકે સંબંધી ચાર ભંગે સમજવા જોઈએ. ५२'तुरे पहा बिन पा छे, ते सूत्रा२ स्वयं 'नवरं कण्हलेसे कण्हपक्खिए पढमतइया भगा' मा सूत्रपा द्वारा प्रगट ४२ छे. है- श्या નારકમાં અને કૃષ્ણ પાક્ષિક નરકમાં પહેલો અને ત્રીજો ભંગ જ હોય છે. બીજે અને એથો ભંગ હોતા નથી કેમકે-કૃષ્ણ શ્યાવાળા જે નારક હોય છે, ભૂતકાળમાં તે આયુકર્મનો બંધ કરવાવાળો હોય છે. વર્તમાનમાં પણ તે તેનો બધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ કરવાનો હોય છે. 'अवघ्नात् वध्नाति न भन्स्यति' मा प्रभारी नाले मील छ. ते माहियां એ માટે હોતો નથી કે કૃષ્ણ લાવાળા નારકની તિર્યંન્ચ એનિમાં ઉત્પની Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ भगवतीस्त्रे दिषु भवति, न च तत उद्धृतः सिद्धिपन्यानमधिरोहति, तदेवमसी कृष्णलेश्यो नारकः तियरपोनिकायायु वा पुन मन्त्स्यति अचरमशरीरत्वादिति । तथा कृष्णलेश्यो नारक आयुष्कर्मणोऽबन्धकाले आयुष्कं कर्म न वध्नाति, भविष्य स्काले तु अन्तस्यतीत्येवं तृतीयो भजो घटते । चतुर्थ भङ्गास्तु कृष्णलेश्यनारकस्य नास्ति, आयुरवन्धकत्वस्यामावादतः द्वावेव प्रथमतृतीयौ भङ्गौ कृष्णलेश्यनारकस्य 'नवरं' इत्यादिना कथितौ इति । एवं कृष्णपाक्षिकनारकस्य आयुक, अब ध्नात् वध्नाति भातस्यतीति प्रथमो भङ्गः१, द्वितीयस्तु अवधनात् वध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको मङ्गो न भवति यतः कृष्णपाक्षिको नारका आयुर्वेद्ध्वा पुन ने भन्त्स्यतीत्येतन्नास्ति तस्य चरम भवस्याभावादितिर । तृतीयस्तु भङ्गोऽबध्नात न वध्नाति (यतः कृष्णपाक्षिको नारक आयुष्काबन्धकाले आयुष्कं कर्म न बध्नाति) अग्रे च भन्स्यतीति भवत्येव३ । चतुर्थभगस्तु न भवति कृष्णपाक्षिकनारकस्य आयुरवन्धकत्वस्याभावादिति४, तदेवं द्वावेव प्रथमतृतीयभङ्गौ कृष्णपाक्षिकस्य एवं पञ्चम नरक पृथिवी आदिकों में कृष्णलेश्या आदि लेश्याएं होती हैं, इसलिये वहांसे जवृत्त हुभा-निकला हुभा-जीव सिद्धिमार्ग का पथिक नहीं होता है इस प्रकार कृष्णलेश्यावाला नारक तिर्यश्चयोनिक आदिकों में आयुक्रर्म का बन्ध करके पुनः आयुका वन्धक होता है। क्यों कि ऐसा जीच अचरम शरीरवाला होता है। तथा-कृश्णलेश्याघाला नारक आयु कर्म के अबन्धकाल में आयुर्म का बन्ध नहीं करता है । परन्तु वह भविष्यकाल में उसका वध करेगा। इस प्रकार से तृतीय भंग घटित होता है। चतुर्थ भंग यहां कृष्णलेश्पावाले नारक के होता नहीं है क्योंकि इसके आयुकी अव्बन्धकता का अभाव है। इस कारण पूर्वोक्त प्रथम और तृतीय ये दो भंग ही यहां घटित होते हैं । इसी प्रकार यही प्रथम और तृतीय भंग कृष्णपाक्षिक नारक હોય છે, તથા અચરમશરીરી મનમાં અને પાંચમી નારક પૃથ્વી વિગેરેમાં કૃષ્ણ લેશ્યા વિગેરે લેશ્યાઓ હોય છે. તેથી ત્યાંથી નીકળેલ જીવ સિદ્ધિ ગતિમાં જ નથી, આ રીતે કૃષ્ણલેશ્યાવાળે નારક નિયંત્ર્ય ચનિક વિગેરેમાં આયુકર્મને બંધ કરીને ફરીથી આયુને બંધક હોય છે. કેમ કેએ જીવ અચરમશરીરવાળે હોય છે, કૃણૂલેશ્યાવાળે નારક આયુકર્મના અબંધ કાળમાં આયુકર્મને બંધ-કરતો નથી. પરંતુ તે બંધકાળમાં જ તેને બંધ કરે છે. આ પ્રમાણે ત્રીજો ભંગ ઘટિત થાય છે ૩ અહિયાં છે ભંગ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકને હેતે નથી. કેમ કે–તેને આયુના અબંધક પણાનો અભાવ હોય છે. તે કારણથી પહેલા કહેલ પહેલે અને ત્રીજે એ બે ભોજ અહિયાં ઘટિત થાય છે. એ જ પ્રમાણે આ પહેલે અને ત્રીજો Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका का श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ५९९ भवतीति नवरमित्यादिना भगवता प्रतिपादिताविति । 'सम्मामिच्छत्ते तइयं चउत्था' सम्यग्मिथ्यात्वे पदे तृतीयचतुर्थों मङ्गो भवतः, सम्यग्मिथ्यादृष्टी मिश्रष्टौ तृतीयचतुर्थी एव भजौ भवतः तस्यायुषो बन्धाभावादिति । 'अमुरकुमारे एवं चेव' असुरकुमारे एवं चैत्र' असुरकुमारदेवेऽपि एवं जीव के घटते हैं द्वितीय और चतुर्थ नहीं, क्यों कि कृष्णपक्ष नारक ऐसा नहीं होता है कि जो आयुका बन्ध करके फिर अविष्यत् काल में उसका बन्ध नहीं करे किन्तु भविष्यत् काल में आयु कर्म का बन्धक होगा ही- अतः द्वितीय भंग यहां नहीं घटता है, इसी कारण से यहां चतुर्थ भंग भी नहीं घटता है। तृतीय अंग यहां आयुके अबंध काल में आयुर्म का वध कर्म नहीं होने के कारण घटता है। तथा वह भविष्यत्काल में उसका बन्ध करता है । इस प्रकार से ये दो भंग प्रथम और तृतीय-यहां कृष्णपाक्षिक नारक में घटित होते हैं। यही बात " नवर" इस पाठ से यहां सूचित सूत्रकारने की है। 'सम्मामिच्छत्ते तइय चउत्था" सम्यग्निथ्यास्य पद में तृतीय चतुर्थ भंग ही होते हैं क्योंकि जो मिश्र दृष्टिवाला होता है उसके तृतीय और चतुर्थ ये दो ही अंग होते हैं से इसका कारण यह है कि वह वर्तमान में आयु का बन्ध नहीं करता है। ___ "असुरकुमारे एवंचेव" असुरकुमार देव में भी नारक की जैसे ભંગ કુણપાક્ષિક નારક- જીવના સંબંધમાં પણ ઘટે છે. બીજો અને થોભંગ ઘટતા નથી. કેમકે કૃષ્ણપાક્ષિક નારક એવા દેતા નથી કે-જે આયુને બંધ કરીને પછી ભવિષ્યકાળમાં તેને બંધ ન કરે. ભવિષ્યકાળમાં તે આયુકમને બંધક થશે જ તેથી અહિયાં બીજો ભંગ ઘટતું નથી. અને આજ કારણથી એ ભંગ પણ અહિયાં ઘટતું નથી. ત્રીજો ભંગ અહિયાં અયુના અબંધ કાળમાં આયુકમને બંધક ન હોવાના કારણે ઘટે છે. તથા તે ભવિષ્ય કાળમાં તેને બંધ કરે છે, આ રીતે પડે અને ત્રીજે આ બે ભંગ पाक्षि ना२४ना संघमा घटे छे ४ वात 'नवर' मा ५४२॥ सूत्र१२ मडिया प्रगट छे. 'सम्मामिच्छत्ते तइयच उत्था' सम्पमिथ्यावપદમાં ત્રીજે અને ચોથો ભંગ જ હોય છે, કેમ કે-જે મિશ્રદષ્ટિવાળા હેય છે. તેઓને ત્રીજો અને ચે એ બેજ ભંગ હોય છે તેનું કારણ એ છે કે-તે આયુને બધ કરતો નથી 'असुरकुमारे एवं चेव' सुमार देवाने ५ ना२४ ४थन प्रमाको Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीय मारकवदेव भङ्गा विनियोज्याः तथाहि-अमुरकुमारः खलु भदन्त ! किम् आयुष्क फर्म अवघ्नात् वध्नाति भन्स्यति१, अबध्नात् बध्नाति न मन्त्स्यति२, आयु. कं कर्म अवधनाद न बध्नाति भन्नस्यति३ अबध्नात् न बध्नाति न भन्स्यति इत्येवं चतुर्भद्रका प्रश्नः । हे गौतम ! अस्त्येककोऽसुरकुमारोऽवनात् वनाति मन्त्स्यति१, एकः कश्चिद अवघ्नात् वध्नाति न मन्त्स्यति२, एकः कश्चिद् अबही भंगा जानना चाहिये-तथाहि-हे अदन्त ! जो अम्मुरकुमार देव हैउसने पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में यह क्या आयुगम का बन्ध करता है ? भविष्यत् काल में क्या वह आयुष्य कर्म का धन्ध करेगा ? अषमा-पूर्वकाल में उन्नने मायुधर्म का बन्ध किया है ? वर्तमान में वह आयुर्म का पन्ध करता है ? भविष्यत् काल में यह आयुकर्म का पन्ध नहीं करेगा ? अथवा वह भूतकाल में आयुकर्म का यन्ध कर चुका है? वर्तमान में वह आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् काल में वह आयुका पन्ध करेगा? भूतकाल में उसने आयुका बन्ध किया है ? वर्तमान में यह आयुका वन्ध नहीं करता है और न बर अधिष्यत् काल में आयुर्म का चन्ध करेगा ? इस प्रकार से -"अवघ्नात् वध्नाति भन्स्याति १ अवघ्नात् बध्नाति, न भ त्म्यनि२, अवनातू, न बध्नानि, भन्स्पति३ अबध्नात्, न बध्नाति, न भन्यति" ये चार अंग विषयक प्रश्न हैं। इनके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-हे गौतम! कोई एक अमुग्छमार ऐमा होता જ અંગે સમજવા અસુરકુમાર સંબંધી કથન આ પ્રમાણે છે-ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે હે ભગવાન જે અસુરકુમાર દેવ છે, તેણે ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કર્મને બંધ કર્યો છે ? વર્તમાનમાં તે આયુષ્ય કર્મને બંધ કરે છે? તથા ભવિષ્યમાં તે આયુર્મને બંધ કરશે ? અથવા–પૂર્વકાળમાં તેણે આયુ કર્મને બંધ કર્યો છે? ૧ વર્તમાનમાં તે આયુકર્મને બંધ કરે છે? ભવિષ્યમાં તે આયુકર્મને બધ નહીં કરે? અથવા ભૂતકાળમાં તે આયુકર્મને બંધ કરી ચૂક્યા છે ? વર્તમાનકાળમાં તે આયુકમને બંધ નથી કરતો ? તથા ભવિષ્યમાં તે આયુકર્મને બંધ કરશે ? અથવા-ભૂતકાળમાં તેણે આયુકમનો વધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં તે આયુકર્મનો બંધ નથી કરતો? અને ભવિષ્યમાં તે આયુકર્મને नही ३१ मा प्रभारी 'अवघ्नात्, वध्नाति, भन्म्यति, अवनात , वध्नाति, न भन्तस्यति, अवध्नात् , न बध्नाति, भन्त्स्यति अबध्नात् न बध्नाति, न भन्स्यति' આ ચાર ભંગ સંબધી ગૌતમસ્વામીએ પ્રશ્ન કરેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે-કેહે ગૌતમ! કેઈએક અસુષુમાર એ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ १०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०१ ध्नात् न बध्नाति मन्त्स्यति३, एकः कश्चिदसुरकुमार आयुष्क कर्म अवघ्नात् न बध्नाति न अन्त्स्यति४, तत्रासुरकुमार आयुष्कर्मवान् बन्धकाले वनाति, भवान्तरे भन्त्स्यतीति प्रथमो भङ्गः१ । द्वितीयस्तु भङ्गः प्राप्तव्य सिद्धिकस्यासुरकुमारस्य भवति२ । बन्धकालाभाचं भाविवन्धकालं चापेक्ष्य तृतीयो भङ्गः ३ । परभवायुष्कस्यानन्तरं पाप्तव्य चरमभवस्य असुरकुमारस्य चतुर्थों भङ्गो भवति है कि जिसने पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्ध किया होता है, तथा वह वर्तमान में आयका बंध भी करता है और सबान्तर में वह बन्ध करने वाला भी होता है । द्वितीय भंग की अपेक्षा कोई असुरकुमार ऐसा भी होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुशम का घन्ध किया होता है, बन्धकाल में यह उसका बन्न करता है पर "भवान्तर में वह उलझा बन्ध नहीं करता है, ऐसा बह असुरकुमार 'जिसे सिद्धि प्राप्त होती है ऐसा होता है, तृतीय कोई असुरकुमार ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुक्का बन्ध किया होता है तथा वर्तमान काल में वह आयुका बन्ध नहीं करता है भावीकालमें वह आयुका बन्ध करनेवाला होता है, तथा कोई असुरकुमार ऐसा भी होता है कि जिसने केवल पूर्वकाल में हो आयुकर्म का बन्ध किया होता है, वर्तमान में वह आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है और न भवान्तर में भी बह आयुकर्म का बन्ध करता है, ऐसा वह असुरकुमार परभव आयुष्क के अनन्तर ही मुक्ति प्राप्त करनेवाला હોય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કર્મને બંધ કરેલ હોય છે, તથા વર્તમાન કાળમાં તે આયુષ્ય કમને બંધ કરે પણ છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે આય કર્મને બાધવાવાળે હોય છે. એ રીતે આ પહેલે ભંગ કહ્યો છે ? બીજા ભંગની અપેક્ષાથી કેઈ અસુરકુમાર એ પણ હોય છે, કે જેણે પૂર્વકાળમાં આયુકર્મને બંધ કર્યો હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે તેનો બાધ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બધ કરતે નથી એવો તે અસુરકુમાર જેને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થવાની હોય છે, એ હોય છે ? ત્રીજે કઈ અસુરકુમાર એ હોય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં આયુષ્ય કમને બંધ કર્યો છે, તથા વર્તમાન કાળમાં તે આયુકર્મને બંધ કરતો નથી. તથા ભવિષ્ય કાળમાં તે આયુકર્મને બધ કરવાવાળો હોય છે ૩ તથા કઈ અસુરકુમાર એ પણ હોય છે, કે જેણે કેવળ ભૂતકાળમાં જ આયુકમને બધ કરેલ હોય છે, તથા વર્તમાન કાળમાં તે કમનો બંધ કરતો નથી. તથા ભવિય કાળમા તે આયુકર્મને બાધવાવાળે હોતો નથી. એ તે અસુરકુમાર પરભવના આયુષ્ય પછી જ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવાવાળો भ०५६ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीने इति । यद्यपि असुरकुमारस्य नार कवदेव सर्वापि व्यवस्था घायः सर्वपदेपु तथापि यत्र नारकापेक्षया चैलक्षण्यं तद् घोतपितमाह-'नवर" इत्यादि, 'नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारि भंशा भाणियबा' नवरम्-केवलं नारकदण्डकापेक्षया असुरकुमारदण्डके इदं वैलक्षण्यं यत् कृष्णलेश्येऽपि कृष्णलेश्याविशिष्टे असुरकुमारे चत्वारो भङ्गा मणितव्याः। नारकदण्ड के कृष्णलेश्यनारकस्य खलु प्रथमतृतीयमको कथिती अधुरकुमारस्य तु कृष्णलेश्यानतोऽपि चत्वारोऽपि सनाः कृष्णलेश्याऽ. सुरकुमारस्य हि मनुष्यगत्यवाप्ती मोक्षसंभवेन द्वितीयचतुर्थ भङ्गयोरपि संभवादिति । 'सेसं जहा नेरझ्याणं' शेष कृष्णलेश्यासुरकुमारपदातिरिक्तं सर्वमपि ज्ञानदृष्टथादि पदं यथा नारकाणां कथितं तथैवासुरकुमारस्यापि ज्ञातव्यमिति । एवं जान थणियकुमाराणं' एवमसुरकुमारवदेव यावत् रतनितकुमाराणामपि ज्ञातव्यम् होता है। यद्यपि असुरकुमार की नारक जीब के जैसे ही सर्व व्यवस्था प्रायः समस्त पदों में है परन्तु फिर उसकी अपेक्षा जो यहां भिन्नता है वह ऐसी है कि कृष्णलेश्यावाले असुरकुमार में चारों भंग कहें हैं-तम शिलारक दण्डक ने कृष्णरेश्यावाले नारक में प्रथम और तृतीय अंश ही कहे हुए है । यह चारों भगों के होने में कारण यह है कि कृष्णलेघावाला भी लसुरकुमार मनुष्य गति की प्राप्ति से मोक्ष की प्राप्ति पी संभावनावाला होता है। परन्तु कृष्णलेश्यावाले नारक में ऐसी संभावना नहीं होती है, इसलिये वहां द्वितीय और चतुर्थ मंग संभक्ति नहीं कहे गये हैं। 'सेस जह नेरहयाण अतः कृष्णलेश्य असुरकुमार पद से अतिरिक्त और सय ज्ञाष्टि आदि पद जरहे नारकों के कहे गये हैं उसी प्रकार से असुरकुमार के भी दे करना चाहिये। 'जान थगियकुमाराणं' હોય છે. જો કે અસુરકુમારનું કથન નારકના કથન પ્રમાણે જ પ્રાયઃ સઘળા પદમાં છે, તો પણ તેના કરતાં અહિયાં આ કથનમાં જે ભિનપણુ છે, તે એવું છે કે-કૃષ્ણલેસ્ટાવાળા અસુકુમારોને ચારે ભંગ હોય છે, જ્યારે નારક દંડકમાં કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકે પહેલે અને ત્રીજો ભંગ જ કહ્યો છે. અહિયાં ચારે ભાગે હોવાનું કારણ એ છે કે-કૃણલેશ્યાવાળ અસુરકુમાર પણ મનુષ્ય ગતિની પ્રાપ્તિથી મોક્ષ પ્રાપ્તિની સ ભવનાવાળો હોય છે, પરંતુ કાલેશ્યાવાળા નારકમાં એવી સંભાવના છેતી નથી. તેથી ત્યાં બીજો અને याथो से सजवित अंडस नथी, 'सेसं जहा नेरझ्याण' तेथी सेश्यावाणा અસુરકુમાર એ પદ સિવાયના બીજા તમામ જ્ઞાન, વિગેરે પદે નારકોને જે પ્રમાણે કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે અસુરકુમારે ને પણ તે સમજવા. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ २.१ १०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०३ अत्र यावत्पदेन नागपा विधुग्नि द्वीपोदधि दिखायुकुमाराणां संग्रहो भगति तथा च सर्वेऽपि नागकुमारादय आयुर्वन्धविषये असुरकुमारजदेव ज्ञातव्या इति भावः । 'पुढवीकाइथागं सनत्य वि चत्वारि भंगा' पृथिवोकायिकजीवानां सर्वत्रापि पदेषु चत्वारो भङ्गा बक्तव्याः । 'बरं कपपविखए पढभनय भंगा' नवरं कृष्णपाक्षिकपृथिवी कायिकस्य प्रथमततीय भङ्गो ज्ञातव्यो कृष्णशक्षिकपृथिवीकायिकस्य प्रथमोऽवनात् वध्नाति मत्स्यतीति प्रतीत एक द्वितीय भङ्गो न भवति यतः कृष्णपाक्षिकः पृथिवीकायिक आयुर्वद्ध्वा पुन न मन्त्स्यतीति एवम्न भवति तस्य कृष्णपाक्षिपृथिवीकायिकस्य चरमभवस्याऽभावात्, तृतीयमहरतु 'असुरकुमारों के कान के जैसे यावत् रूतनिलकुमारों के भी नमस्त पदों का कथन जालमा चाहिये। यहां यावत् पर ले बागकुमार सुपर्णकुमार और विद्युत्कुमार' अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिककुमार और वायुकुमार इन सब सवनपतियोंका गृहण हुआ है। तथा च-सव्यस्त ये नागकुमार आदि आयु बन्ध के विषय में असुरकुमार के जैसे ही होते हैं ऐसा समझना चाहिये। 'पुढवीकाइयाणं सव्वत्थ निचत्तारि भंगा' पृढबीकाधिक जीवों के समस्त पदों में चार भंग होते हैं 'नवरं कण्हपखिए पढन लइ अंगा' परन्तु कृष्णपाक्षिक पृथिवीकायके प्रथा और तृतीय ये दो भंग ही होते हैं। इसके 'अवधनात् बन्यानि सन्तस्यति' ऐला प्रथम भंग लो प्रतीत ही है। द्वितीय भंग यहां प्रतीत नहीं है क्योंकि कृष्णपाक्षिक पृथिवीकाधिक जीव आयुका बन्ध करके फिर वह आयुका बन्ध नहीं करेगा ऐसा वह ‘एवं जाव थणियकुमाराण' असुभाना थन प्रमाणे यावत् स्तनित કુમારને પણ સઘળા પદેનું કથન સમજવું અહિયાં યાવત્પદથી નાગકુમાર સુપર્ણકુમાર, વિઘુકુમાર, અગ્નિકુમાર, દ્વીપકુમાર, ઉદધિકુમાર, દિશાકમાર. અને વાયુકુમાર આ સઘળા ભવનપતિયા ગ્રહણ કરાયા છે, તથા આ સઘળાં નાગકુમારે વિગેરેનું કથન આયુબંધના વિષયમાં અસુરકુમારોના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. 'पुढवीकाइयाणं सव्वत्थवि चत्तारि भंगा' पृथ्वीयि वान सा पहा यार साय छे. 'नवर कण्हपक्तिए पढमतइयभंगा' ५२ કૃષ્ણપાક્ષિક પૃથ્વીકાય જીવને પહેલે અને ત્રીજે એ બે જ ભંગો હોય छ. तर 'अबध्नात् बध्नाति भन्स्यति' में प्रसाएन। पडेट। तो निश्चित જ છે, અહિયા બીજો ભંગ નિશ્ચિત નથી કેમ કે-કૃષ્ણપાક્ષિક પુણ્યકાયિકાઇવ આયુને બંધ કરીને પછી પાછે આયુને બંધ કરતું નથી. એ તે હોતો Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ भगवतीसूत्रे भरति कृष्णपाक्षिसः पृथिवीकायिक आयुष्कावन्धकाठे आयुष्कं न बध्नाति बन्धकाले तु भन्स्यति३, चतुर्थभङ्गस्तु न भवति कृष्णपाक्षिक पृथिवीकायिकस्य आयुरबन्धकत्वस्याभावादिति । अतः प्रथमतृतीयौ एव भङ्गो भवत इति । 'तेउलेस्से पुच्छा' रोजोलेश्यः खलु भदन्त ! पृथिवी कायिकजीवः किमायुष्कं कर्मअबध्नात् बध्नाति भन्स्यति १, अवधनात् वध्नाति न भन्त्स्यतिर, अवध्नात् नहीं होता है, कारण कि कृष्णपाक्षिक वृधिवीकायिक के चरम भव का अभाव होता है, तृतीय भंग यहां इसलिये प्रतीत है कि कृष्णपाक्षिक पृथिविशायिक जीव आयुष्क के अबन्ध काल में आयुका वन्ध नहीं करता है भविष्यत् काल में बह आयुका बंध करनेवाला होता है । चतुर्थ भंग यहां इसलिये संभावित नहीं होता है कि कृष्णपाक्षिक पृथिवीकायिक के भविष्यकाल में आयु के अबन्ध का अभाव रहता है। ___ 'तेउलेस्ले पुच्छ। हे भदन्त ! तेजोलेश्यावाला पृथिवीकायिक जीव कया पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्धक हुआ है, वर्तमान में वह आयुकर्म का बन्ध करता है ? और भविष्यत् काल में यह आयुकर्म का बन्ध करेगा ? अथवा-वह पूर्वकाल में आयुका बन्धक हुआ है वर्तमान में वह उसका बन्ध करता है ? भविष्यत्काल में वह उसका बन्ध नहीं करेगा ? अथवा पूर्वकाल में यहू उसका बन्धक हुआ है, वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है भविष्यत्काल में वह उसका बन्ध करेगा ? નથી. કારણ કે કૃષ્ણ પાક્ષિક પૃથ્વીકાયિકને ચરમભવને અભાવ હોય છે, અહિયાં ત્રીજો ભંગ એ માટે હોય છે કે-કૃષ્ણપાક્ષિક પૃથ્વીકાયિક જીવ આયુ વ્યના અન્ય કાળમાં આયુકર્મને બંધ કરતા નથી. બંધ કાળમાં તે આયુ બંધ કરવાવાળે હોય છે. ચોથો ભંગ અહિયાં કારણે સંભવિત થતો નથી કે- પાક્ષિક પૃથ્વીકાયિક જીવને આયુના અબન્યપણાનો અભાવ હોય છે. _ 'तेउलेस्से पुच्छा' 3 भगवान् तेनसेश्यावा पृथ्वी यि वे ભૂતકાળમાં આયુકર્મને બંધ કરેલ છે ? વર્તમાન કાળમાં તેણે આયુકમને બંધ કર્યો છે અને ભવિષ્ય કાળમા તે આયુકમને બંધ કરશે? અથવા તે પૂર્વકાળમાં આયુકમને બંધક થયે છે? વર્તમાનમાં તે તેનો બ ધ કરે છે, અને ભવિષ્યકાળમાં તેનો બંધ નહીં કરે? અથવા ભૂતકાળમાં તે તેને બંધ કરે છે. વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરતું નથી ? ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તે તેને બંધ કર્યો છે ? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ નથી કરતો? અને ભવિષ્ય કાળમાં Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्ष्ट्रिका टीका श०२६ उ.१ १०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०५ न वध्नाति भन्स्यति३, अवध्नात् न बध्नाति न गन्नति इति चतुर्भङ्गका पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोगमा' हे गौतम ! 'बंधी न वंधइ वंधिस्सई' अबध्नात् न बध्नाति भन्तस्यति तेजोलेश्यापदे तृतीय एव भङ्गः। कथमत्र तृतीय एव भङ्गः ? प्रथम द्वितीयचतुर्थवङ्गाः कथं न ? इति चेदित्थम् - कश्चिद्देक स्वेजोलेश्यावान् पृथिवीकायिकेषु समुत्पन्नः, स चापर्याप्तकावस्थायां 'तेजोलेश्यावान् भवति तत्रायु ने वनाति, तेजोलेश्याद्धायामपगवायामायुषो वन्धं करोति तस्मात्तेजोलेश्यः पृथिवीकायिकः आयुषो बन्धनं कृतवान १, तेजोलेश्यायां विद्यमानायां यत स्तेजोलेश्या अपर्याप्तावस्थायामेव भवति ततोऽपर्या: प्तावस्थायां नायुर्वन्यो जायते इति । अनायतकाले आयुषो वन्धं करिष्यति च अथवा-पूर्वकाल में वह उसका बन्यक हुआ है, वर्तमान में वह उसका बन्धक नहीं है और न भविष्यत् काल में वह उसका बन्धक होगा ? ऐसे ये चार भंग विषयक प्रश्न यहां पृच्छा पद से गृहीत हुए हैं, इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'बंधी, न बंधह, बंधिस्तई तेजोलेश्या पद में केवल यह तृतीय भा ही होता है। शेष तीन भंग नहीं होते हैं। इस एक ही तृतीय भंग होने का कारण ऐसा है कि कोई तेजोलेश्यावाला देव पृथिवीकायिक में उत्पन्न हुआ वह अपर्याप्तावस्था में तेजोलेश्याबाला रहता है- १र वहां वह आयुका बन्ध नहीं करता है। पर जब तेजोलेश्या का काल समाप्त हो जाता है उसके बाद वह आयुका बन्ध करता है । अतः तेजोलेश्यावाला पृथिवीकायिक जीव आयुका बन्ध करने वाला हुआ, तेजोलेश्या के सदभाव में अपर्याप्तावस्था में वह आयका बन्धक नहीं होता है. तेजोलेश्या अपर्याप्तावस्था में ही होती है, अपर्याप्तावस्था में आयुका बन्ध तेनी म नहि २१ मा यारे 1 समधी प्रश्न 'पुच्छा' ५४थी ग्रहण थये। छे, मा प्रश्न उत्तम प्रभुश्री ४३ छे है-'गोयमा' हे गीतम! 'बंधी, न बधइ, 'वधिस्सइ' तश्या ५६मां ५ मे श्रीन म હોય છે. બાકીના ત્રણ ભાગે હોતા નથી ત્રીજો એકજ ભ ગ હોવાનું કારણ એ છે કે કોઈ તેજલેશ્યાવાળો દેવ પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થયે, તે અપર્યાપ્તાવસ્થામાં તેલેશ્યાવાળે રહે છે. પરંતુ ત્યા તે આયુને બંધ કરતો નથી પરંતુ તેજલેશ્યાનો કાળ સમાપ્ત થઈ જાય ત્યારે તે આયુનો બંધ કરે છે. તેથી તે જેતેશ્યાવાળે પૃથવીકાયિક જીવ આયુ કમને બંધ કરવાવાળો થયો હોય છે, તે જેલેશ્યાના ભાવમાં અપર્યાપ્તાવસ્થામાં તે આયુકર્મને બંધ કરનાર હિતો નથી. તેજલેશ્યા અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં જ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रे तेजोलेश्यायामपगतायामित्येवं क्रमेण तेजोलेश्ये तृतीय एव भङ्गो भवति नतु प्रथमद्वितीयचतुर्था भवन्धि इति । 'सेसेसु सव्वत्य चत्तारि भंगा' शेपेधुतेजोलेश्यापदव्यतिरिक्तेषु सर्वेष्वपि ज्ञानादि पदेषु चत्वारो भगा ज्ञातव्या इति । 'एवं आउकाइयवणस्स इकाइयाण वि निरवसेमें' एवम् पृथिवीकायिकवदेव अकायिकवनम्पतिकायिकजीवानां दण्डके आयुकर्मणो बन्धविषयेऽपि निरवशेषं सर्वमपि पृथिवीकायिकवदेव ज्ञातव्यम्, पूर्वोक्तन्यायेन कृष्णपाक्षिकेषु प्रथमतृतीय भङ्गौ युक्तिरत्रापि कृष्णपाक्षिकपदवदेव अनुसंधातत्र्या तेजोलेश्यायां च ६०६ होता नहीं है । तथा वह अनागत काल में आयुका बन्ध करेगा ही, जब कि तेजोलेश्या का काल समाप्त हो जायेगा इस क्रम से तेजोलेश्यावाले पृथिवीकायिक में तीसरा भंग कहा गया है प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ये तीन भंग नहीं कहे गये हैं । 'सेसेस सम्वत् चत्तारि भंगा' तेजोलेश्या पद से अतिरिक्त शेष सप अज्ञानादि पदों में चार-चार भंग जानना चाहिये । ' एवं आउक्काय वणस्लह काइयाण वि निरवसेसं 'इसी प्रकार सेपृथिवीकायिक के जैसे-भंग अप्रकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों के दण्डक में आयु कर्म के बन्ध के विषय में भी सम्पूर्ण रूप से समझना चाहिये, तथा कृष्णपाक्षिकों में प्रथम तृतीय भंग हो पृथिवीकाचिक प्रकरण में कथित युक्ति के अनुसार कहना चाहिये, और तेजोलेश्यावाले अकायिकों में एवं वनस्पतिकायिकों में केवल હાય છે. અને અપર્યાવસ્થામાં આયુષ્ય કમનેા ખધ હાતા નથી. તથા તે ભવિષ્ય કાળમાં આયુક`ના બંધ કરશે જ કે જ્યારે તેણેશ્યાના કાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. આ ક્રમથી તેોલેશ્યાવાળા પૃથ્વીકાયિકમાં ત્રીજો ભગજ કહેલ છે. પહેલા મુંજા અને ચોથા એ ત્રણ ભેગા કહ્યા નથી. 'सेसेसु सव्वत्थ चत्तारि भगा' तेनेोश्या पहथी अन्य ज्ञान विगेरे ખાકીના સઘળા પદેામાં ચાર-ચાર ભંગા જ હાય છે તેમ સમજવું, एवं आरकाइय वणस्यइकाइयाण वि निरवसेसं' मा रीते नार४ना उधन પ્રમાણેના ભંગે અાયિક અને વનસ્પતિકાયિક જીવેાના દડામાં આયુ કર્મીના અધના સબંધમાં પણ સંપૂર્ણ રૂપથી સમજી લેવા તથા કૃષ્ણપાક્ષિકામાં પહેલે અને ત્રીજો ભંગ નારક પ્રકરણમાં કહેલ યુક્તિ પ્રમાણે સમજી લેવા. અને તેોલેશ્યાવાળા અાયિકામાં અને વનસ્પતિકાયિકમાં કેવળ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०० तृतीय एव भङ्गो ज्ञातव्यः युक्तिश्च पूर्ववदेव उदाहर्तव्या अन्यत्र पदेषु च चत्वारो भङ्गा एवोदाहरणीया। 'तेउक्काइय वाउकाइयाणं सब्वस्थ वि पढयतइया भंगा' 'तेजस्कायिकवायुकायिकजीवानां सर्वत्रापि एकादशस्वपि पदेषु प्रथमतृतीयमङ्गो, 'अवध्नात् वध्नाति भन्स्यति, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यतोत्याकारकों परिपठभीयौ, तत उत्तानामनन्तरं मनुष्यगतिषु तेषामनुस्एत्या सिद्धिगमनाभावेन द्वितीयचतुर्थभङ्गयोरभावात् मनुष्येषु अनुत्पत्तिश्चैतेषाम् 'सत्तममहि नेरइया, तेज. वाऊमणतरुट्टा । न य पावे मणुस्सं, तहेवासंखेज्जाउया सव्वे' सप्तममहीनारका स्तेजोबायोऽनन्तरोवृत्ताः । मानुष्यं न च प्राप्नुवन्ति तथैवासंख्यातायुप: एक तृतीय काही पूर्वोक्त कथन के अनुसार करना चाहिये, इनको सिवाय बाकी के पदों में चार-चार अंग कहना चाहिये। तेउछाइयवाचकाच्या णं सच्चस्व वि पढमतझ्या भंगा तेजरकायिक एवं वायुसायिक जीवों के सर्वत्र पदों प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये क्योकी तेजस्कायिक एवं बायुसायिक जीव जड अपनी-२ पर्याय से पायान्तरित होते हैं तो मनुष्यगति में इनका जन्म नहीं होता है, और मनुष्यगति के सिवाय किली और गति से सिद्ध गति में गम होता नहीं है इसलिये यहां द्वितीय और चतुर्थ लंग नहीं होते हैं । सोही कहा है-'सत्तमही नेरहथा तेऊवाऊ अणंतरूध्वट्टा । नय पाने मणुसं, तहेव असंखाउया सव्वे' सप्तर नरक से निकला हुआ जीच तेजस्कायिक जीव और वायुकाधिक जीव ये सब अनन्तर भन में मनुष्य धाति को प्राप्त नहीं करते हैं, तथा असंख्यात वर्ष की आयुवाले लोगभूमि के जीव भी मनुष्यगतिको नहीं पाते हैं। એક ત્રીજો ભાગજ મૂક્ત કથન પ્રમાણે સમજવો. આના સિવાય બાકીના સઘળા પદમાં ચાર-ચાર ભગો કહેવા જોઈએ. ___'उकाइयवाउक्काइयाण सव्वत्थ वि पढमतइया भंगा' ते४२४ायि? मने વાસુકાયિક જીવ જ્યારે પોતપોતાના પર્યાયથી પર્યાયાન્તરવાળા થાય છે, તો તે અવસ્થામા-મનુષ્ય ગતિમાં તેમને જન્મ થતા નથી, અને મનુષ્ય ગતિ શિવાય બીજી કોઈ ગતિથી સિદ્ધિ ગતિમાં ગમન થઈ શકતું નથી તેથી मडिया मा. म. योथो यता नथी. मे ४यु छ -'सत्तमहि नेरइया तेउ वाउ अणतरुव्वदा नय० पावे मणुरस तहेवासंखेज्जाउया सम्वे' સાતમા નરકથી નીકળતે તેજસાયિક જીવ અને વાયુકાયિક જીવ એ બધા પછીના ભવમાં મનુષ્યગતિને પ્રાપ્ત કરતા નથી તથા અસ ખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા ભેગભૂમીના જી પણ મનુષ્યગતિ પામતા નથી. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ भगवती सर्वे ॥ इति वचनादिति । 'पेदियतेइंदियचउरिदियाणं पि सव्वत्य नि पढमतया भंगा' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामपि सर्वत्रापि प्रथमतृतीयमङ्ग विकलेन्द्रियजीवानां सर्वत्रापि पदेषु प्रथमतृतीयभङ्गौ भवतः यतस्तेभ्य उद्वृत्तानामानन्तर्येण सत्यपि मनुपत्वे मोक्षाभावात् तस्मादवश्यं पुनस्तेषामायुषो बन्ध इति । एवमत्र यद् विकलेन्द्रियाणं सर्वेषु पदेषु प्रथमतृतीयभङ्गौ भवतः' इत्युक्तं तत् सामान्यतया कथितं किन्तु येषु पदेषु यद् वैलक्षण्यं तत् सूत्रकारः स्वयं मदर्शयति 'नवरं' इत्यादि, 'नवरं सम्मत्ते नाणे आभिणिवोहियनाणे सुगनाणे तइयो भंगो' नवरं सम्यक् वे " 'बेइंदिय इंदिय चतुरिंदियाणं विलम्व वि पढतया भेगा' 'दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौहन्द्रिय जीवों के भी सर्वत्र प्रथम और तृतीय ये दो भंग ही कहे हुए हैं। यद्यपि ये जीय अपनी-अपनी पर्यायों से पर्यायान्तरित होते ही अनन्तर भव में मनुष्य पर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं फिर भी ऐसे जीवों को मोक्ष उस पर्याय से नहीं होता है, इसलिये ऐसी अवस्था में इनके आयुकर्म का बध आगे अव होता है । इस प्रकार यहाँ पर जो विकलेन्द्रियों के सच पदों में प्रथम और तृतीय भंग कहा गया है वह सामान्य रूप से कहा है किन्तु यहां जिन जिन पदों में विशेषता विलक्षणता है, वह सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं - 'नवर' इत्यादि । 'नवरं सम्मत्ते, नाणे, आभिणिवोहियनाणे सुघनाणे तयो मंगो' यहां इन विकलेन्द्रियों को सम्यक्त्व में, ज्ञान में आभिनियोधिक 'बेइदिय तेइ दिय चउरिदियाणंपि सव्वत्थ वि पढमतइया मंगा' मे ઇન્દ્રિય, ત્રણ ઇન્દ્રિય અને ચાર ઈન્દ્રિયવાળા જીવેાને અગિયારે ૧૧ પદેમાં મધે જ પહેલેા અને ત્રીજો એ એ ભ`ગે જ કઠેલા છે. જો કે આ જીવા પેાતપેાતાની પર્યાચાથી પર્યાંયાન્તરિત થાય ત્યારે પછીના ભવમાં મનુષ્ય પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે પણ એવા જીવને તે પર્યાયથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થતા નથી. તેથી આ અવસ્થામાં તેને આયુષ્ય કમ ના ખ ધ અવશ્ય થાય છે. શકા—વિકલેન્દ્રિયૈાના સઘળા પદોમાં પહેલા અને ત્રીજો એ બે શ ગે હાવાનુ કહેલ છે અને ત્રીજા ભંગમાં ૬ વષ' એ પ્રમાણે પદ્મ કહેલ છે. તેએ ત્રીજો ભંગ અહિયાં કેવી રીતે ઘટે છે उत्तर- 'नवर सम्मत्ते, नाणे, आभिणिवोद्दियनाणे सुयनाणे तइयो भंगो' અહિયાં વિકલેન્ડિચેને સમ્યકૃત્વમાં, આભિનિાધિક જ્ઞાનમાં શ્રુતજ્ઞાનમા ત્રીજે Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०९ ज्ञाने आभिनियोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने तृतीयो भङ्ग, विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्वे ज्ञाने आमिनियोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने च तृतीयो यङ्ग एव भवति यतः सम्यक्त्वादीनि तेषां सासादनभावेन अपर्याप्तकावस्थायायेव भवति तेषु चापगतेषु आयुषो वन्धो भवति इत्यतः पूर्वभवे विकलेन्द्रिया आयुष्ककर्माणि अवघ्नन् , सम्यक्त्वाचन स्थायर्या च न बध्नन्ति, तदनन्तरं च मन्त्स्यतोति तृतीयो अङ्गोऽत्र घटते इति । 'पंचिंदियतिरिक्खनोणियाणं कण्हपक्खिए पढमलइया अंगा' पञ्चेन्द्रियतिग्यो. निकानां कृष्णपाक्षिकपदे प्रथमतृतीयौ भनौ, कृष्णपाक्षिको हि आयुर्वद्ध्वा अब. ध्वा तदबन्धकोऽनन्तरमेव भवति, तस्य सिद्धिगमनायोग्यत्वादिति । 'सम्मामिच्छत्ते तइयचउत्था भंगा' सम्बग्मिथ्यात्वपदे पछेन्द्रियतिरथा तृतीयचतुर्थभङ्गो ज्ञान में, श्रुतज्ञान में तृतीय भंग ही होता है ! क्योंकी सम्यक्त्वादिक उनमें सासादन भाव से अपर्याप्न अवस्था में ही होते हैं। और इन के अपगत हो जाने पर इन्हें आयुक्ता बन्ध हो जाता है। इसलिये विकलेन्द्रिय जीव पूर्वभव में आयुकर्म का बन्ध कर चुके होते है और सम्यक्त्व आदि अवस्था में वें उसका बन्ध नहीं करते हैं, बाद में इन के छूट जाने पर वे उसके बन्ध करनेवाले हो जाते हैं। इस प्रकार की विवक्षा से यहां तृतीय भंग ही घट जाता है। _ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपक्खिए पढमतइया भंगा' पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों के कृष्णपाक्षिक पद में प्रथम तृतीय ये दो भंग होते हैं। क्योंकी कृष्णपाक्षिक पञ्चेन्द्रिय तियेंञ्च आयकर्स को बांधे या न बांधे फिर भी वह कृष्णपाक्षिक अवस्था में सिद्धि गमन के अयोग्य रहता है, 'लम्मामिच्छत्ते तइयचउत्था भंगा' ભંગ હોય છે. આ કથન પ્રમાણે કહેલ છે કેમ કે–તેઓમાં સ ત્વ વિગેરે સાસાદા ભાવથી અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં હોય છે. અને તે અપગત થયા પછી તેઓને આયુને બંધ થઈ જાય છે. તેથી વિકસેન્દ્રિય જીવ પૂર્વભવમાં આયુકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. અને સમ્યકત્વ વિગેરે અવસ્થામાં તેઓ તેને બંધ કરતા નથી. બાદમાં તેના ટિ જવા પછી તેઓ તેને બંધ કરવાવાળા થઈ જાય છે આ રીતની વિવિક્ષાથી અહિયાં ત્રીજો ભંગ ઘટી જાય છે. 'चिदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपविखए पढमतइया भंगा' ५येन्द्रिय તિર્થન્ચ એનિકોને કૃણપાક્ષિક પદ માં પહેલો અને ત્રીજે એ બે ભગો હોય છે કેમ કે-કૃષ્ણ પાક્ષિક પચેન્દ્રિયતિય આયુકર્મને બાંધે કે ન બાધે ५ त सिद्धि मनमा भयो२५ २९ छे. 'सम्मामिच्छत्ते तइयच उत्था भ० ७७ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे सध्यमिथ्यादृष्टेरानुषो बन्धाभावात् , भावना च माइतेवेति । 'सम्मत्ते नाणे. आभिणियोहियनाणे मुयजाणे ओहिनाणे एएसु पंचमु वि पदे वितियविहणा भंगा सर पकरवे ज्ञाने आमिनियोधिशाने श्रुतज्ञानेऽवधिज्ञाने, एतेषु पञ्चस्वपि पदेषु पञ्चेन्द्रियतिरश्चां द्वितीयविहीनाः प्रथमवतीयमझा भवन्ति पञ्चेन्द्रियतिर्यः ज्योनिकानां सम्यक्त्वादिषु पवस्वपि पदेषु द्वितीयरहितास्वयो भङ्गा भवन्ति । कथमित्याह-यदि पञ्चेन्द्रियतिर्यम्योनिकः सम्यग्रष्टयादिमान् भवति तदा देवे. वेव समुस्पद्यते स च पुनरपि भन्स्स्यतीति न द्वितीयस्य भङ्गस्य संभवः। प्रथम तृतीयौ तु अङ्गी प्रतीतायेव । चतुर्थस्तु भगो यदा मनुष्यभवे बद्धायुरसौ सम्यसम्वमिथ्यात्य पद में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के तुलीय और चतुर्थ ऐसे दो अंग होते हैं। क्यों की जो पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च साम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है उसके आयुका बन्ध नहीं होता है। 'सम्मत्ते नाणे आभिणियोहियनाणे लुयनाणे ओहिनाणे एएलु पंचस्तु वि पदेसु पिलिपविणा अंगा' सम्यक्त्व ज्ञान अभिनियोधिकज्ञान श्रुतज्ञान और अबधिज्ञान इन पांच पदों में द्वितीय भंग के सिवाय शेष तीन अंग होले है इसका तात्पर्य इस प्रकार से है यदि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव सम्यग्दृष्टि आदि वाला होता है तो यह देवों में ही उत्पन्न होता है ऐसा वह जीव आगे आयुका पन्ध करनेवाला होता है । अतः वहां द्वितीय भंग का संभव नहीं है। प्रथम और तृतीय भंग प्रतीत ही हैं। तथा चतुर्थ भंरा इसके तब होता है दिन नुख्य ना का बद्धायुवाला होता है। और મા સમ્યવમિથ્યાત્વપદમાં પંચેન્દ્રિયતિર્યંચોને ત્રીજો અને ચોથે એ બે ભંગ હોય છે. કેમ કે-પંચેન્દ્રિયતિર્યંચો સમ્યમિાદષ્ટિવાળા હોય છે, તેને सायना मध हात नथी. 'राम्यत्ते नाणे आभिणियोहियनाणे सुयनाणे एएसु पंचसु वि पदेसु वितियविहूणा भंगा' सभ्यशान, २मा मिनिमाधिज्ञान, श्रुतज्ञान, અને અવધિજ્ઞાન આ પાંચપદોમાં બીજા ભંગને છેડીને બાકીના ત્રણે ભંગે હોય છેઆ કથનનુ તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે –-જે પંચેન્દ્રિય તિર્યંચાનિક જીવ રસમ્યગદષ્ટિ વિગેરેના થાય છે, તે તે દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. એવો આ જીવ ભવિષ્યની આયુને બંધ કરવાવાળા હોય છે. તેથી તેને બીજા ભંગનો સંભવ છેતે નથી. પહેલો અને ત્રીજો ભંગત સ્પષ્ટ જ છે. તથા તેને થ ભંગ ત્યારે થાય છે કે જ્યારે તે મનુષ્યમાં આયુકમને બંધ કરવાવાળો હોય છે. તથા સમ્યક્ત્વ વિગેરેને પ્રાપ્ત કરે છે. તથા ચરમ છેલ્લા ભવાન્તવાળ હોય છે, Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्रिका टीका २०२६ उ. १ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६११ क्यादि प्रतिपद्यते तदा भवति अनन्तरं च प्राप्तस्य यदा चरणभवो भवेदैव चतुर्थी भङ्गो भवतीति । 'मणुस्लाणं जहा जीवाणं ' मनुष्याणां यथा जीवानाम्, यथा जीवानामायुष्कर्मबन्धविषये चत्वारोऽपि भङ्गाः कथिताः तथा मनुष्याणामपि चत्वारो भङ्गा वक्तव्या इति । अत्र विशेपनाह - 'नवर' इत्यादि, 'नवरं सम्पत्ते ओहिए नाणे आभिणिवोडियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे, एपसु वितियविना भंगा' नवरं सम्यक्त्वे औधिके इति सामान्यज्ञाने आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने, एतेषु पञ्चसु पदेषु मनुष्याणां द्वितीयविहीनाः प्रथमतृतीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति भावनाचे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक सूत्रवदेव कर्त्तव्या । 'सेसं तं चेव' शेषम् कथितपञ्च व्यतिरिक्तं सर्व दृष्टचादिकं तदेद - जीवसूत्रवदेव मनुष्याणां ज्ञातव्य सम्यक्त्व आदिको प्राप्त करता है एवं चरम भव वाला होता है । 'मनुस्साणं जहा जीवाणं' जीवों के आयुकर्म के बन्ध के विषय में जिस प्रकार से चारों अंग कहे गये हैं उसी प्रकार से मनुष्यों के सम्बन्ध में भी चारों भग कहना चाहिये । परन्तु यहां जो विशेषता है वह 'नवरं सम्म ओहिए, नाणे, आभिणियोहिय नाणे सुयनाणे, ओहिना, एve fairपविणा भंगा' ऐसी है कि सम्यक्त्व पद में सामान्य ज्ञान पद में, अभिनिषोधिज्ञान पद में श्रुतज्ञान पद में - और अवधि ज्ञान पद में इन पांच पदों में द्वितीय भंग के वाय 'प्रथम, तृतीय और चतुर्थ ऐले ये तीन भंग होते है । इस विषय में खुलाशा जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यक्षों के सूत्र में किया गया है वैसा ही यहां पर भी करना चाहिये, 'लेलं तं वेब' बाकी का और सब कथन जीवसूत्र की तरह यहां मनुष्यों के सम्बन्ध में कहना चाहिये, 'मणुस्साणं जहा जीवाण' कोना आयुभना अंध संबंध પ્રમાણે ચારે લગે કહ્યા છે એ જ પ્રમાણે મનુષ્યેાના આયુકમના અધના સમ ધમાં પણ ચારે ભગા કહેવા જોઈએ. પરંતુ આ મનુષ્ય अम्मां ने विशेषया छे, ते 'नवर सम्मत्ते, ओहिए नाणे, आभिणिवोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, एएसु वितियविहूणा संगा' मा उथन प्रभा छे અર્થાત્ સમ્યક્ત્વ પદમા સામાન્યજ્ઞાનપદમાં અને અધિજ્ઞાનપદમાં આ પાંચ પદામાં ખીજા ભંગ સિવાય પહેલે ત્રીજો અને ચેથા આ ત્રણે ભગે હાય છે. આ વિષયમાં પચેન્દ્રિય તિયન્ચાના પ્રકરણમાં સવિસ્તર કથન કહેલ છે, ४ अभाषे मडियां उसे ले 'सेस तं चेत्र' माडीतुं मीनु सबजु કથન જીવ સૂત્રના કથન પ્રમાણે અહિયાં મનુષ્યના સમ્બન્ધમાં કહેવુ' જોઈ એ. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र मिति । 'पाणताजोइसियवेमाणिया जहा अमुरकृपारा' पान पन्तरज्योतिष्क वैमानिका यथा अमुरकुमाराः असुरसुमाग्वदेय चानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकानां वक्तव्यता बान्येति । 'नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नगणावरणिम्ज' नामगोत्रातरायिकं चैतानि ज्ञानावरणीयकर्मवदेव चतुर्भङ्गकानि ज्ञातव्यानि अत्रालापप्रकारश्च स्वयमेवोहनीयः यथा 'जीये णं भले! नाम कम्म कि बंधी बंधा पंधिरस इत्यादिरूपे गालापका ज्ञातव्याः । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरई' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! जीवादीनां पापकर्मादि बंधविषये यद् देवानुपियेण निवेदितं तत्सर्वमेवमेव-सर्वथा सत्यमेवेति 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा अमुरकुमारा' जैसा कथन भगों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के सूत्र में किया है वैसा ही कथन अंगों के सम्बन्ध का वानव्यन्तरों के ज्योनिकों के और वैमानिकों के सत्रों में भी करना चाहिये, 'नाम गोयं, अंतराय च एयाणि जहा नाणावराणिज्ज' ज्ञानावरण कर्म के सम्बन्ध में जिस प्रकार से चार भंग कहे गये हैं उसी प्रकार से नाम गोत्र और अन्तराय इनके सम्बन्ध में भी चार-चार भंग पूछना चाहिये और उत्तर भी उसी के अनुसार समझ लेना चाहिये यहां आलाप प्रकार अपने आप उदभावित करना चाहिये-जैसे-'जीवेणं भंते ! नाम कम्मं किं बंधी, बंधह, बंधिस्सर' इत्यादि । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह' हे भदन्त जीवादिकों के पापकर्म आदि के बन्ध के विषय में जो आप देवानुप्रियने कथन किया है वह सब सर्वथा सत्य ____ 'वाणमंतरजोइस्त्रियवेमाणिया नहा असुरकुमारा' असुरसुमाराना प्रमा અસુરકુમારોના ભંગોનું જે પ્રમાણે કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે વાન બેનર, તિક અને વિમાનિકના ભંગ સંબંધી પદોમાં ચાર-ચાર ભંગ डाय छे. तम सभा 'नाम गोयं, अंतराय च एयाणि जहा नाणावरणिज्ज' જ્ઞાનાવરણ કર્મના સંબંધમાં જે પ્રમાણેના ચાર ભંગે કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે નામગોત્ર, અને અંતરાયના સંબંધમાં પણ ચાર ચાર બંગો સમજવા જોઈએ તેને આલાપપ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ, જેમ કે'जीवेण भते ! नाम कम्म बंधी, बंधइ, बंधिस्वइ,' त्या रथी सभा. ___'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' जाव विहरइ' 3 भगवन् ७१ पोरेन पा५ કમ વિગેરે બંધના સંબંધમાં આ૫ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણેનું કથન કહેલ છે, તે તમામ કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६१३ कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति || ४ || इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लम- प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्य। नैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पविंशतिशतकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ २६-१॥ है, ऐसा कहकर के गौतमस्वामी ने प्रभु को चन्दना की - नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ ४ ॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या के छवीसवें शतकका प्रथम उद्देशक समाप्त ॥२६-१॥ આપ્ત હાવાથી સત્ય જ છે, આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તે સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતાથકા પેાતાના સ્થાન પર મિરાજમાન થયા. ાસૂ ૪ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર’ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવ્વીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશો સમાપ્ત ૫૬૬-૧ા 節 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L भगवतीसूत्रे अथ द्वितीयदेश: पारस्वते । यमो के जीवादिद्वारे एकादशस्थानकमविवद्धे नवभिः पापकर्मादि प्रकरणं जयादीनि पञ्चविंशविजीवस्थानानि निरूपितानि, अत्र द्वितीयोदेशकेऽपि तथैव तानि चतुर्दिशति स्थानानि निरूप्यन्ते, इत्येवं संबन्धेन आयातस्यास्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम्- 'अनंतशेवचन्नए' इत्यादि । मूलम् - अणंतरोदवन्नए णं भंते ! नेरइए पात्रं कामं किं बंधी पुच्छा तहेव गोयमा ! अत्थेगइए बंधी पढमवितिया भंगा । सलेस्से णं भंते! अनंतरोवबन्नए नेरइए पावं कम्म किं बंधी पुच्छा गोयमा ! पढमवितिया अंगा एवं खलु सव्वत्थ पढमवितिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिज्जइ, एवं जाव थणियकुमाराणं । वेइंदिय तेइंदिय उरिदियाणं वयजोगो न भन्नह । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छतं ओहिनाणं विभंगनाणं मणजोगो वयजोगो, एयाणि पंचपदाणि ण भन्नंति । मणुस्ताणं अलेस्स सम्ममिच्छत्तं-मणपज्जवनाण- केवलनाण- विभंगनाण - नो सन्नोवउत्त-अवेद्ग-अकसाइ-मणजोग-वयजोग - अजोगीएयाणि एक्कास पदाणि ण भन्नंति । वाणमंतरजोइलिय वैमाणियाणं जहा नेरइयाणं तहेव ते, तिन्नि न भन्नंति । ससि जाणि माणि टाणाणि सव्वत्थ पढमवितिया भंगा। एगिंदियाणं सव्वत्थ पढमवितिया भंगा। जहा पावे । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडगो, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ | अनंतशेववन्नए णं भंते ! नेरइए आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! बंधी न बंधड़ बंधिस्लइ । सलेस्से णं भंते ! अनंतववन्नए नेरइए आउयं कम्मं किं बंधी० एवं व तड़ओ भंगो, एवं जाव अणागारोवउत्ते सव्वत्य वि तइओ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ सू०१ चतुर्विशतिजीवस्थाननिरूपणम् ११५ भंगो। एवं मणुस्सवज्जंजाब बेमाणियाणं सम्वत्थ तइयचउत्था भंगा, नवरं कण्हपक्खिएलु तइओ अंगो, सम्वेसि णाणत्ताई ताई चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥सू०१॥ ' छब्बीसइमे बंधिसए बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥२६-२॥ , छाया-अनन्तरोपपन्नः खलु भदन्त ! नैरपिका पापं कर्म किम् अनध्नात् पृच्छा, तथैव गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् प्रथमद्वितीयौ भङ्गौ। सलेश्या खल्लु भदन्त ! अनन्तशेषपन्नको नैरयिकः पापं कर्म किम् अवध्नान पृच्छा, गौतम ! प्रथमद्वितीयौ भङ्गा, एवं खलु सर्वत्र प्रथमद्वितीयौ भनौ, नवरं सम्यग्मिथ्यात्वं मनोयोगो बचोयोगच न पृच्छन्यते । एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां वचोयोगो न भण्यते । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि सम्यग्मिथ्यात्वम् अवधिज्ञानं विमङ्गज्ञानं मनोयोगो वाग्योषा, एतानि पञ्चपदानि न भण्यन्ते । मनुष्याणाम्-अलेश्य सम्यग्मिथ्यात-मनापर्यवज्ञान-केवलज्ञानविभङ्गज्ञान-नौसंज्ञोपयुक्ताऽवेदकारूषायि मनोयोगवाग्योगायोगिनः, एतानि एकादशपदानि न भण्यन्ते । वानव्यन्तरज्योतिष्कमानिकानां यथा नैरयिकाणां तथैव तानि त्रीणि न भण्यन्ते। सर्वेषां यानि शेषाणि स्थानानि सर्वत्र प्रथमद्वितीयो भङ्गो । एकेन्द्रियाणां सर्वत्र प्रयाप्तद्वितीयौ भनौ यथा पापे। एवं ज्ञानावरणीयेनापि दण्डकः । एवमायुष्कवर्जेषु याबदान्तयिक दण्डकः । अनन्तरोपपन्नकर खलु भदन्त ! नैरयिकः आयुष्कं कर्म किम् अबध्नात् पृच्छा, गौतम ! अवध्नात् न बध्नाति अन्त्स्यति । सलेश्यः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपत्रको नैरयिकः आयुष्कं कर्म किम् अवध्नात् एवमेव तृतीयो भङ्गः । एवं मनुष्यवर्ज याव द्वैमानिकानाम् । मनुष्याणां सर्वत्र तृतीरचतुर्थों मङ्गौ, नवरं कृष्णपाक्षिकेषु तृतीयो भङ्गः, सर्वेषां नानात्वानि तान्येव । तदेवं भदन्त ! तदेन सदन्त ! इति ।।०१ पड्विंशतितमे वन्धिशते द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥२६-२॥ टीका-'अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए' अनन्तरोपपन्नकः अनन्तरमअन्तररहितम् , समयादिव्यवधानरहितं प्रथमसमय इत्यर्थः, तत्र उपपन्नः-उत्पन्नः २६ वें शतक के दूसरे उद्देशे का प्रारंभ प्रथम उद्देशे में जीचादि ११ स्थान कों से प्रतिबद्ध नौ पापकर्मादि प्रकरणों द्वारा पच्चील जीव स्थानों का निरूपण किया गया है अब इस બીજ ઉદ્દેશાને પ્રારંભ પહેલા ઉદેશામાં જીવ વિગેરે દ્વારમાં નવ સ્થાનકોથી પ્રતિબદ્ધ નવ પાપ કર્સ વિગેરે પ્રકરણ દ્વારા પચ્ચીસ જીવસ્થાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्रे अनन्तरोपपन्नका प्रथम समयोत्पन्न इत्यर्थः, यस्योत्पन्नस्य कोऽपि समयो नाति क्रान्तः स किम् अवघ्नात् वनाति भन्स्यति१, अबध्नात् वध्नाति न मत्स्यतिर अवघ्नात् न वध्नाति भन्स्यति३, अवधनात् न बध्नाति न भन्स्यति४, इत्येवं क्रमेण तथैव पूर्ववदेव प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! द्वितीय उद्देशे में भी उसी प्रकार से उन २४ स्थानों का निरूपण किया जाता है 'अणंसरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कम्म' इत्यादि टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है कि-'अणंतरोववन्नएणं भंते ! नेहए.' हे भदन्त ! अनन्तरोएपन्नक नैरयिक द्वारा क्या पापकर्म भूतकाल में बांधा गया है ? धर्तमान में वह क्या उसे बांधता है ? और भविष्यत् काल में क्या उसे घांधेगा? अथवाभ्रतकाल में पापकर्म उसके द्वारा बांधा गया है ? वर्तमान में वह उसे बांधता है ? भविष्यत् काल में वह उसे नहीं बाधेगा ? अथवाभूतकाल में उसके द्वारा पापकर्म बांधा गया है ? वर्तमान में वह उसे नहीं बांधता है ? भविष्य में क्या वह उसे यांधेगा ? अथवा भूतकाल में उसके द्वारा पापकर्म बांधा गया है ? वर्तमान में वह उसे नहीं बांधता है ? और भविष्यत् में भी क्या वह उसे नहीं बांधेगा? इस प्रकार से ये प्रश्न गौतमस्वामी के द्वारा यहां पूछे गये हैं-इसके હવે આ બીજા ઉદ્દેશામાં પણ એજ પ્રમાણેના ચોવીસ સ્થાનનું નિરૂપણ ४२वामां भाव छ –'अणंतरोववण्णए ण भंते ! नेरइए पाव कम्म' त्या टा-गौतम स्वामी प्रसुश्री ये पूछ्यु छे ४-'अणतसेववण्ण एणं भंते नेरइए०' 3 ससवन् मनन्त।५५-न नै२यिका। भूतभा पा५ કમને બધ કરાવે છે ? વર્તમાનમાં તે પાપ કર્મને બંધ બાંધે છે? ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ બાંધશે ? અથવા-મૂતકાળમાં તેના દ્વારા પાપ કર્મને બંધ બાંધવામાં આવ્યો છે? વર્તમાન કાળમાં તેને બંધ કરે છે ? ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ નહીં કરે? અથવા–ભૂતકાળમાં તેના દ્વારા પાપકર્મ બાંધવામાં આવેલ છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરતું નથી ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બાંધશે? અથવા-ભૂતકાળમાં તેણે પાપકર્મ બાંધેલ છે? વર્તમાનમાં તે તેને બાંધતો નથી? અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ નહીં કરે? આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ सू०१ चतुर्विशति जीवस्थाननिरूपणम् ६१७ 'अत्थेगइए बंधी पढभरितिया गंगा' अत्येककोऽवध्नात् वध्नाति भन्स्यति, अस्त्येककोऽवधनात् वध्नाति न अन्तस्यतीत्येवं प्रश्रमद्वितीयौ सङ्गो, अनायौ एक मयमद्वितीयभङ्गौ अवतः अनन्तरोपपन्ननारकजीवस्य मोहलक्षणपापकर्मणोऽवन्ध. कस्वस्याभावात् पापकर्मणामवन्धक सूक्ष्मसंपरायादिगुणस्थानकेषु भवति, वृक्षण संपरयादिगुणस्थानकालि च अनन्तरोएपनकनारकाणां न संमपन्तीति । 'सलेस्से णं भंते ! अणदरोववनाए नेरइए' सलेश्यः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपन्नको नैरयिका उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयना! अस्थेगहए बंधी पहनवित्तिया भंगा' हे गौतम ! जो नारक अनन्तरोपामक होते हैं उनमें कोई एक नारक ऐसा होला है कि जिस के द्वारा पापकर्म का पहिले बन्ध किया गया होता है वर्तमान में भी वह उल्लका बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी वह उलका बन्ध करने वाला होता है- इत्यादि रूप से यहां प्रथम और द्वितीय थे दो संग कहे गये है। अनन्तरोपपन्नक नारक का तात्पर्य ऐसा है कि जिस नारक को उत्पन्न हुए एक समय भी अतिकान्त नहीं हुआ है-अर्थात् जो प्रथम समय में वर्तमान है, ऐसे अनन्तरोपानक नारक जीव के मोह रूप पाप को अबन्धकता का अभाव रहता है क्यों की पापफर्म की अबन्धकता सूक्ष्म संपराय आदि गुणस्थानवाले जीवों को होती है, थे सूक्ष्मसंपराध आदि गुणगान अनन्तरोपपन्नक मारक जीवों के संभावित होते नहीं है इसलिये वहां पापको की अबन्धपता नहीं प्रभुश्रीन पुस छ. म प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ९ छ -'गोयभा । अत्थेगइए बंधी पढमनितीया भंगा' 3 गौतम ! २ ना२४ मनत५पन्न હોય છે, તેઓને કોઈ નારક એ હોય છે કે–જેનાથી પહેલાં પાપ કર્મના બંધ કરાયો હોય છે, વર્તમાનમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બધ કરવાવાળો હોય છે –વિગેરે પ્રકારથી અહિયાં પહેલે અને બીજે એ બે ભાગોને સ્વીકાર કરેલ છે અનન્ત રોપપનક નારક કહેવાનો હેતુ એ છે કે-જે નરકને ઉત્પન્ન થવામાં એક સમય પણ વીતેલ નથી. અર્થાત્ જે પ્રથમ સમયમાં વર્તમાન છે એવા અનન્તપ૫નક નારક જીવને મેહરૂપ પાપના આવક પણાને અભાવ રહે છે કેમકે–પાપકર્મનુ અબધપણું સૂમસં૫રાય વિગેરે ગુણ સ્થાનવાળા જેને હોય છે આ સૂમસ પરાય વિગેરે ગુણસ્થાને અનન્ત પિપનક નારક જીવને સંભવતા નથી. તેથી ત્યા પાપકર્મોનું બંધપાવ્યું भ० ७८ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ६१८ 'पावं कम्मं कि बंधी पुच्छा' पापम्-अशुभं कर्म किम् अवधनादित्यादि क्रमेण चतुर्भङ्गकः प्रश्नः पृच्छ्या संगृह्यते, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे atan! 'पदमवतिया भंगा' प्रथमद्वितीयौ भङ्गौ सश्यानन्तरोपपन्नकनारकाणां पापकर्मबन्धविपये आयौ द्वावेव भङ्गौ विनियोज्यौ महलक्षणपापकर्मणोऽवन्धकत्वस्याभागात्, अन्धकत्वं च पापकर्मणां सूक्ष्मसंपरायादिगुणस्थानकेष्वेव भवति, सूक्ष्म पराय गुणस्थानकानि चानन्तरोपपत्रकारकाणां न भवन्तीत्यतः प्रथमद्वितीय अवनात् बध्नाति भन्त्स्यति १, अवघ्नात् बध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकावेव भङ्गौ भवत इति । एवं खलु सव्वश्थ पढमवितिया भंगा' एवं सश्यपदहै। 'सलेस्ले णं भंते! अनंतशेवयन्नए नेरहए' हे भदन्त ! जो अनन्तरोपपन्नक नारकलेश्या सहित है उस के द्वारा क्या पापकर्म बांधा गया है, या वह पापकर्म वर्तमान काल में बांधता है इत्यादि रूप से चतुर्भङ्गक प्रश्न यहां गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से पूछा है यही बात पृच्छा पद से प्रकट हुई है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! पढमवितिया भंगा' हे गौतम! अनन्तरोपपन्नक नैरथिकों के सम्बन्ध में पापकर्म बन्ध के विषय में आदि के दो भंग ही वक्तब्ध है क्यों की उन के मोह रूप पापकर्म की अवन्धकता का अभाव होता है अर्थात् वह मोह कर्म बांधता है । पापकर्मों की अवन्धकता सूक्ष्म संपराय आदि गुणस्थान कों में ही होती है । ये सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थान अनन्तरोपपन्नक नैरयिक जीवों के होते नहीं है । इसलिये यहां प्रथम और द्वितीय ये दो ही ग कहे है । ' एवं खलु उस नथी. 'सलेस्से णं भंते ! अनंतरोबवन्नए नेरइए' हे भगवन् अनन्तરોપપન્નક જે નારક લેશ્યા સહિત હૈાય છે. તેના દ્વારા શું પાપકમા ખંધ ભૂતકાળ ખાંધવામાં આવ્યે છે ? અથવા વર્તમાન કાળમાં તે પાપકને અધ ખાંધે છે ? વિગેરે પ્રકારથી ચાર ભંગા રૂપ પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને पूछे छे. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वाभीने हे छे - 'गोयमा ! पढमवितिया भंगा' हे गौतम! अनन्तरोपपन्नः नैरयिोना सभधभां પાપકના ધ સબધી પહેલા અને ખીજો એ એ ભંગેા જ કહેવા જોઇએ કેમ કે–તેઓને માહરૂપ પાકના અમ ધકપણાના અભાવ હાય છે. અર્થાત્ તે મેહકના મધ આંધે છે. પાપ કર્યાંનુ અમ'ધપણું સૂક્ષ્મસ'પરાય વિગેરે ગુણસ્થાનામાં જ હોય છે. આ સૂક્ષ્મસ...પરાય વિગેરે ગુણુસ્થાન અનન્તરેાપપન્નક નૈયિક જીવાને હાતું નથી. તેથી અહિયાં પડેલા અને ખીજે એ मे लगो होवा ह्यु' छे, Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ लू०१ चतुर्विशति जीवस्थाननिरूपणम् ६१९ देव सर्वत्र लेश्यादिपदवदेव सर्वत्र लेश्यादि पदेषु अनन्तरोपपन्नकनारकास्य प्रथमद्वितीयौ एव भङ्गो भवः इति । एतेषु च लेश्यादि पदेषु सामान्यतो नारकादीनां संभवन्त्यपि यानि पदानि, अनन्तरोपपञ्चकनारकादीनामपर्याप्तकलात् न संभवन्ति तानि पदानि तेषां नारकाणां न प्रच्छनीयानीति दर्शयन्नाह-'नवर' इत्यादि, 'नवरं सम्मामिच्छत्तं मण जोगो वइजोको य न पुच्छिज्जई' नवरं तम्य. ग्मिथ्यात्वं मनोयोगो व बोयोगश्च न पृच्छयते तत्र यद्यपि सम्यम्मिथ्यात्यादि उक्तत्रयं नारकाणामस्ति तथाषीह अनन्तरोपपन्नकतया रोपां नारकाणां समयग्मिथ्यात्वादि त्रयं नास्तीति कृत्वा तदेतत् त्रयमत्र न प्रष्टव्यमिति । एवं सर्वत्रापि अग्रे ज्ञातव्यमिति । एवं लाव थणियकुमाराणं' एवमनन्तरोपपन्नकनारकवदेव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारपर्यन्तानां पापकर्मणां बन्धविषये प्रथमसव्वत्थ पढमवितिया भंगा' सलेश्ष पद के जैसे ही सर्वन और पदों में भी अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों के प्रथम द्वितीय भंग ही होते हैं ऐमा जानना चाहिये। अब इन अनन्तरोपपन्नक नैरविकों में जिन्य पदों की संभावना नहीं है उनको सूत्रकार 'नवरं सम्मानिच्छत्तं रणजोगो वहजोगो य न पुच्छिज्जई' इस सूत्रद्वारा प्रकट करते हैं। इसमें यह कहा गया है कि अनन्तरोपपन्नक नैरपिक अपर्याप्तावस्थामाले होते हैंइसलिये सम्पमिथ्यात्व मनोयोग और वचनयोग इन्हें लेकर इन में भंगो के होने की बात नहीं पूछना चाहिये क्यों की ये पद इनके नहीं होते हैं। 'एवं जाव थणि यकुमाराणं' इसी प्रकार का वक्तव्य यावत् स्तनितकुमारोंतक जानना चाहिये, अर्थात् अनुरकुमार से लेकर स्तनितकुमारों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग ही अन्तरोपपन्नक ____ 'एव खलु सव्वस्थपढमबितिया भंगा' ससेश्य बना ४थन प्रभारी ४ બાકીના બીજા બધા પદેમાં પણ અનન્ત૫૫નક નિરયિકેને પહેલે અને બી એ એજ ગે હોય છે. તેમ સમજવું. હવે આ અનન્તપન્નક નૈરયિકમાં જે પદ સંભવતા નથી. તે सूत्र२ 'नवरं सम्मामिच्छत्तं सणजोंगो वइजोगो य न पुच्छिज्जई' मा सूत्र દ્વારા પ્રગટ કરે છે, આ સૂત્ર દ્વારા એ કહે છે કે-અનન્ત૫૫ન્નક નૈરયિક અપર્યાપ્ત અવસ્થાવાળા હોય છે. તેથી સભ્ય મિથ્યાત્વ, મગ અને વચન ગને લઈને તેમાં ભાગ હોવા સંબંધમાં પ્રશ્ન કરવો ન જોઈએ કેમકેते पहा तसा डाता नथी. 'एव जाव थगियकुमाराण' मा प्रभारी नु उथन થાવત્ સ્વનિતકુમારો સુધી સમજવું. અર્થાત્ અસુરકુમારેથી લઈને સ્વનિત Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ૦ भगवती सूत्रे द्वितीयावेत्र सही ज्ञातव्याविति पापकर्माचन्धकत्वस्य तेषु अभावादिति भावः । 'वेदिय इंदियचरिदियाणं वयजोगो न भन्नई' हीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय जीवानां वरयोगो न भव्यते एतेषां बचोपोगरयाभावादिति । 'पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं ओहिनाणं विभंगनाणं मणोजोगो चयजोगो, एयाणि पंच पदानि ण भण्णंति' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गोनिकानामपि सम्यग्मिथ्यात्वमधिकज्ञानं विभङ्गज्ञानं मनोयोगो वाग्योगः, एतानि पञ्च पदानि न भण्यन्ते, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामेतत्पञ्चपदाभावादिति । 'मणुस्ताणं अलेस्स सम्मामिच्छत्तमणपज्जवनाण केवलनाण विसंगताण नोसन्नोवउत्त अवेदन अकसाइमनोजोगवयजोग अजोगी एवाणि एकारपदाणि न भण्णंति' सामान्यतो मनुष्याणामलेश्य स्थिति में होते हैं। क्योंकि यहां पर भी पापकर्म की अवन्वकता का अभाव है । 'वेदिय तेईदिय, चरिदियाणं वधजोधो न सन्न' 'दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय चौइन्द्रिय इन जीवों के वचनयोग वक्तव्य नहीं है इन में इसका अभाव रहता है । 'पचिदियतिरिक्षखजोणियापि सम्मामिच्छत्त ओहिनाएं, विभंगनाणं, मणोजोगो वयजोगो एयाणि पंच पाणि न भणति' पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में भी सम्पग्मिथ्यात्य, अवविज्ञान, विभंगज्ञान मनोयोग और वचनयोग ये पांच पद वक्तव्य नहीं हैं क्योंकी अपर्याप्तावस्था में यहां ये नहीं होते हैं 'मणुस्साणं अलेस्ल सम्मामिच्छत्त मणपज्जवनाण केवलनाण विभंगमाण नो सन्नोवउस अवेदन अक्साइ मनोयोग बजोग अजोगी एयाणि एक्कारखपयाणि न भण्णंति' કુમારામાં પહેલા અને ખીજો એ એ જ ભગા અન તરાપપનક અવસ્થામાં હાય છે કેમ કે આ અવસ્થામાં પણ પાપકમના અમ ́ધકપણાના અભાવ છે. 'वैइदिय, तेडदिय चउरिदियाणं वयजोगो न भन्नइ' मेन्द्रिय त्रायुर्धन्द्रिय અને ચાર ઈન્દ્રિયવાળા જીવાને વચનચેગ હાતા નથી કેમકે તેમાં વચનના અભાવ હાય છે. 'पचिदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं ओहिनाणं, विभंगनाणं, मण जोगो, वयजोगो, एयाणि पंच पयाणि न भंण्णंति' पयेन्द्रिय तिर्यथयेोनिवाजा એમાં પણ સભ્યગ્મિથ્યાત્વ, અવધિજ્ઞાન, વિભ’ગજ્ઞાન. મનાયેાગ અને વચન ચેગમાં આ પાંચ પદે કહેવના નથી. કારણ કે-અપર્યાપ્ત ખવસ્થામાં અહિયાં તે सलता नथी. 'मणुस्साणं अलेस्स सम्मामिच्छत्तमणपज्जवनाण केवलनाण निर्भगनाण नोपन्नोव उत्त अवेद्ग, अकसाइ, मनोजोग, वइजोग अजोगि एयाणि एकारसपदाणि न भण्णति' मनुष्याचा असेश्य, सभ्यग्मिथ्यात्व, भन पर्यवज्ञान, विज्ञान, Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ ५०१ चतुर्विशति जीवस्थाननिरूपणम् १२१ सम्यग्मिथ्यात्मनःपर्यवज्ञान केवलनानविभङ्गज्ञान नोसंज्ञोपयुक्तावेदकाकपायि मनोयोगवाग्योगायोगिल इति, एतानि एकादशपदानि न झुण्यन्ते अनन्तरोपपन्नात्वेनापप्तिकत्वात् । 'वागमंतरजोइलियवमाणियाणं जहा नेइयाणं तहेव ते सिभि न भण्णति' वानव्यन्तरज्योतिष्यपालिकाना मित्येपां जयाणाम् , यथा नैरयिकाणां तथैव तानि त्रीणि सभ्यगिमात्य-मनोयोग-वचोयोगात्मकानि पदानि न शण्यन्ते, एतेपातदभावादिति । 'सध्वेसिं जाणि सेणाणि ठाणाणि सनत्य पढमवितिया भंगा' सर्वेषां जीवानां यानि विशेषाणि स्थानानि सर्वत्र पदेषु प्रथम द्वितीयौ भङ्गो अबध्नात् वध्नाति भन्र यति१, अवधनात् वध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको वक्तव्याविति । 'एमिदियाणं सव्वत्थ पढमवितिया भंगा' एकेन्द्रियाणां पृथिवीकायिकादीनां सर्वत्र पदेषु प्रथम द्वितीयौ भङ्गो ज्ञातव्यौ मनुष्यों के अलेइयत्व, सम्पनिमात्य, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान विभंगज्ञान, नोदंशोपयोग, अवेदक, अरूषायित्व, मनोयोग, वचनयोग, और अोगिय थे ११ स्थान नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये ११ स्थान अनन्तरोपपन्नक मनुष्यों को अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते हैं। 'पाणमंतरजोइसिपमाणियाणं जहा नेरहवाणं तहेव ते शिन्नि न भण्णति नैरशिको के जैसे दानव्यन्तर, ज्योतिक और वैमालिक इन को सम्मानिधाय मनोयोग और बचनयोग ये तीन स्थान नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इन को इनका अभाव होता है। 'सन्नेसि जाणि लेखाणि ठाणाणि लव्वस्थ्य पढम रितिया भंगा' बाकी के समस्त जीयों के अधशिष्ट और समस्त स्थानों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग हो कहना चाहिये, 'एगिदियाणं सव्यस्थ पढम चिलिया भंगा' एजेन्द्रियों के समस्त पदों में प्रथम और द्वितीय भंग વિભળજ્ઞાન, નસ જ્ઞોપગ, અદક અઠષાયિત્વ, મગ, વચનગ અને અગિપણુ આ ૧૧ અગિયાર સ્થાને કહેવા ન જોઈએ કારણ કે-અનખતરોપપનક मनुष्याले अपर्याप्त पाना पारशे ते हाता नथी. 'वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं तहेव ते तिन्नि न भण्णंति' नयि ना ४थन प्रमाणे वानव्यન્તર, તિષ્ક અને વૈમાનિકને સસ્પેશ્મિધ્યાત્વ, મનોવેગ અને વચનો આ स्थान। ४वानानथी १२५ ते याना तेभरे अमाप डाय छे 'सव्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थपढमवितिया अंगा' मान सघा वान બાકીના તમામ સ્થાનમાં પહેલો અને બીજે આ બે ભોજ કહેવા જોઈએ. 'एगिदियाणं सव्वत्थ पढमबितिया भंगा' मे धन्द्रियाणामाने सपण पहीमा Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ भगवतीने मोहलक्षणपापकर्मणोऽबन्धकत्वस्याभावादिति । 'जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ' यथा पापकर्मणा साद्ध दण्डको भणितः, तत्र च मह्नीं प्रथमद्वितीयो प्रतिपादितौ तथैव ज्ञानावरणीयेन सममपि दण्डको वक्तव्यः, अनन्तरोपपन्नको नैरयिकः खलु भदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म किम् अवनात् वनावि भन्तस्यति इत्यादि चतुर्भङ्गका प्रश्नः अस्त्येककोऽवध्नात् वध्नाति भन्स्यति, अवधनात, वक्तव्य हैं। क्यों की इन में मोहरूप पापकर्म की अवन्धकता का अभाव है। 'जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ जिस प्रकार से पापकर्म के सम्बन्ध में दण्डक कहा गया है उसी प्रकार से ज्ञानावरणीय कर्म के सम्बन्ध में भी दण्डक कहना चाहिये अर्थात् पापफर्म के साथ प्रथम द्वितीय ये दो भंग कहे गये हैं सों यहां पर ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के सम्बन्ध में भी ये ही दो भंग वक्तव्य हुए हैं, तथाच- जय गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा प्रश्न किया कि 'हे भदन्त ! नैरयिकने जो कि अनन्तरोपपन्नक है पूर्वकाल में क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया है, क्या वह उसका वध वर्तमान काल में करता है ? और क्या वह उसका चन्ध भविष्यत् काल में भी करेगा ?१ अथवा क्या उसने पूर्वकाल में उसका वध किया है ? वर्तमान में भी क्या वह उसका न्ध करता है ? भविष्यत् काल में वह क्या उसका बन्ध नहीं करेगा?२ अथवा पूर्वकाल में क्या उसने उसका बन्ध किया है वर्तमान में वह क्या उसका वध नहीं करता है ? भविष्यत् काल में वह क्या उसका वध करेगा ? ३ अधवाપહેલો અને બીજે જે બે ભંગ જ કહેવા જોઈએ. કેમ કે–તેઓને મેહરૂપ या५ ४मना मध४५यानअलाव 31य छ, 'जहा पावे एवं नाणावरणि ज्जेणवि दंडओ' रे प्रभार ५१५ मना A nital Bा छे, मे १ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણીય કર્મના સંબંધમાં પણ દંડકે કહેવા જોઈએ. અર્થાત્ પાપકર્મની સાથે પહેલે અને બીજો આ બે દંડક કહ્યા છે. તે અહિયાં જ્ઞાન વરણીય કર્મના બંધના સંબંધમાં પણ આ બેજ દંડકે કહેવાના છે. અર્થાત્ ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એ પ્રશ્ન પૂછે કે-હે ભગવર્નરયિક કે જે ભવાન્તરાયપનક છે. તેમણે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બધ કર્યો છે? વર્તમાનકાળમાં તે તેને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે ? અથવા ભૂતકાળમાં તેને બંધ કર્યો છે? વર્તમાનકાળમાં તેને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં તેને બંધ નહીં કરે? અથવા–ભૂતકાળમાં Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ १०१ चतुर्विशति जीवस्थाननिरूपणम् ६२३ बध्नाति न मन्त्स्यति, इत्याकारको प्रथमद्वितीयमौ वदन उत्तरस्यालापको विधेय इति । 'एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए इंडो' एवं यथा ज्ञानावरणीयेन कर्मणा दण्डकः कृतस्तथैव आयुष्कर्म वर्जयित्वा दर्शनावरणीयादारभ्यान्तराय. कर्मपर्यन्तेन सार्द्धमपि दण्डको विधेय इति । अथायुष्कर्म सूत्रमाह-'अणंतरोब. पूर्वकाल में ही उसने उसका बन्ध किया है ? वर्तमान में क्या वह उसका बन्ध नहीं करता है ? और अशिष्यत् काल में भी यह क्या उसका चन्ध नहीं करेगा? ४ 'तब इल के उत्तर में प्रभुश्री ने उनसे ऐसा कहा-हे गौतम! अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों में कोई एक नैरयिक ऐसा होता है जिसने ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध पूर्वकाल में किया है, वर्तमान में भी वह उसका बन्धा करता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका बन्ध करेगा। तथा-कोई एक नारक ऐला होता है कि जिसने पूर्वकाल में ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया है वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है और भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध नहीं करेगा ! इस प्रकार ले ये दो आलापक यहां वक्तव्य हैं शेप दो-३-४आलायक नहीं। 'एवं आउयवज्जेतु जाव अंतराइए दंडओ 'इसी प्रकार से आयुष्क कर्म को छोड़ कर ६ कर्मों के साथदर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम गोत्र और अन्तराय-इन के वन्ध के साथ भी दण्डक कहना चाहिये ! તેણે જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બંધ કર્યો છે? વર્તમાનકાળમાં તે તેને બંધ કરતે નથી? ભવિષ્યમાં તેનો બાધ કરશે? અથવા–ભૂતકાળમાં જ તેણે તેને બંધ કર્યો છે ? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બધ કરતો નથી ? અને ભવિષ્યકાળમાં તે તેનો બાધ નહીં કરે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે—હે ગૌતમ! અનન્તરો પપાક નિરવિકેમાં કોઈ એક નિરયિક એ હોય છે, કે જેણે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બધ કર્યો છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેનો બધ કરતો હોય છે, ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે ૧ તથા કેઈ એક ના૨ક એવો હોય છે કે-જેણે પૂર્વકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બાધ કર્યો છે, વર્તમાનમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે. અને ભવિષ્યકાળમાં તે તેને બધ નહીં કરે આ પ્રમાણેના આ બે આલાપભંગો અહિયા કહેવાના છે. બાકીના ૩-૪ ત્રીજે અને એથે એ બે આલા ५।-गडियां संभवता नयी. 'एव आउयवज्जेसु जाव अ तराइए दंडभो' मे०४ પ્રમાણે આયુષ્યકમને છેડીને બાકીના ૬ છ કર્મો સાથે-દર્શનાવરણીય, વેદની ય, મેહનીય, નામ, ગોત્ર, અને અંતરાયના બ ધની સાથે પણ દંડૂકે Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ भगवतीसूत्र चन्नए णं भने ! नेरइए अनन्तरोपपन्नकः खलु भदन्त । नायिका 'आउन कम्म किं बंधी पुच्छा' आयुष्कं कर्म किम् अवधनाद बध्नाति भन्स्यत्तीत्याधाकारकश्च तुर्भङ्गकः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अनन्तरोपपन्नको नारकोऽतीतकाले आयुष्कं कर्म अवधनास् , वर्तमानकाले आयुरकं कर्म न बध्नाति, अनागतकाले आयुकं कम भन्स्यति इत्याकारकम्तीयो मङ्गो भगवता अनुमोदित इति भावः । 'सलेस्से गं भंते ! अणेतरोववन्नर नेरह सलेश्यः खलु भदन्त ! अनन्तरोपपनको नैरयिका __'अपनरोधकए णं भंते ! मेरहए' हे भदन्त ! जो नरयिक अनन्तरोपपन्न होता है-उस के द्वारा पहिले-भूनकाल में क्या आयुकर्म का पन्ध किया गया होता है? क्या वह बर्तमान में ललका पन्ध करता है ? क्या वह भविष्यत् काल में उसका बध फरेगा? इत्यादि रूप से शेष तीन प्रश्न और जी उद्भादित करना चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयाना' हे गौतम ! 'बंधी, न बंधह, चंधिस्सह अननोपनक जो नैयिक होता है वह पूर्वकाल में आयुष्क कर्स का बन्ध कर चुका होना है वर्तमान काल में वह आयुष्क कर्म का बन्ध नहीं करता है, अनायतकाल में यह आयुषक कर्म का बन्ध करनेवाला होता है। इस प्रकार का या हलीम भंग यहां वक्तव्यमा है। 'मलेम्ले गं भंते ! अणंतरोवबन्लए नेहरहे भदन्त ! जो नैयिक अनन्तरोपपन्नक है और लेश्या युक्त है तो क्या उनके द्वारा पूर्वकाल ४ा मे अणंतरोववण्णएणं भते । नेरइए' 8 सपनर यि मनात ર૫૫નક હોય છે. તેણે પહેલાં ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કર્મ નો બાધ કર્યો હોય છે ? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે ? તથા ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે? આ રીતે બાકીના ત્રણ પ્રશ્ન પણ સ્વયં બનાવી સમજી લેવા એ शत मा यार गम प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छ -'गोयमा' ! 3 गौतम ! 'वधी, न बंधइ, वंविस्स३' मनन्त५५- 12 यि हाय छ, त ભૂતકાળમાં આયુષ્ય કમને બધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાનકાળમાં તે આ યુષ્ક કર્મનો બંધ કરતો નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં તે આયુષ્ય કર્મ બંધ ક૨ વાવાળ હોય છે. આ પ્રમાણેને ત્રીજો ભંગ અહિયાં સભવિત કહ્યો છે, ૩ 'सलेस्सेणं भंते ! अणंतरोबवण्णए नेरहए' भगवन् र यि मानत પપન્નક છે, અને લેસ્યાયુક્ત હોય છે, તે તેણે પૂર્વકાળમાં-ભૂતકાળમાં Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२६ उ.२ सू०१ चतुर्विंशति जोवस्थाननिरूपणम् ६२५ 'आउयं कम्मं कि बंधी' आयुष्कं कम किम् अबध्नात् वध्नाति भन्स्यति, अबध्नात् वध्नाति न सत्स्यति, अबध्नात् न वध्नाति भन्स्यति, अवध्नाव न बध्नाति न सत्यतीति चतुर्भङ्गका पना, 'एवं चेत्र तइओ भंगो' एवमेव तृतीयो भङ्गः, 'हे गौतम ! सलेश्योऽनन्तरोपपन्नको नैरयिकः कश्चिदेकः, आयुष्क कर्म अवध्नाल न बध्नाति भविष्यत्काले भन्स्यतीत्याकारकः तृतीयो भङ्गो ज्ञातव्य इति । एवं जार अणागारोवउत्ते सरस्थ वि तइओ अंगो' एवं यावदनारकोपयुक्ते सर्वत्रादि पाक्षिकादारभ्योपयोग पर्यन्तेषु पदेषु तृतीयो भङ्गोऽवध्नात् न में आशुधक वर्ष का बन्ध किया गया होता है ? वर्तमान में भी वह क्या आयुशर्म का बाद करती है ? भविष्यत् में भी क्या आयुकर्म का बन्ध करेगा? इत्यादि रूप से यहां शेष तीन भंग और भी उद्भावित करना चाहिशे, जो इस प्रकार से हैं-२ 'आयुष्कं कर्म किं अवधनात् पनाति, न भन्स्यति, ३ आयुष्कं कर्म कि अपनात् न बध्नाति, भन्नति, ४ आयुष्कं कर्म अन्नात् न वनाति, न भन्स्यति'। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं चेय तहयो भंगो' हैं गौतम! अनन्तरोपपन्ना नैरथि ऐसा होता है कि जिलने पूर्व काल में आयुकर्म का पन्ध शिक्षा होता है, वर्तमान में वह आयु कर्म का बन्ध नहीं करता है-पर अविष्यत् काल में यह उसका बन्ध करनेवाला होगा ऐसा यह तृतीय संग हां पर हैं। 'एवं जाव अणागारोव उत्ते सव्वत्थ वि तहओ वो इसी प्रकार से पाक्षिक से लेकर अनाकारोपयुक्त तक के पदोपत्र 'अचमात् न बध्नाति, भन्स्यति' ऐसा तृतीय भंग આયુષ્ય કર્મને બધ કર્યો છે? વર્તમાનમાં પણ આયુષ્ય કર્મને બધ કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે આ રીતે બાકીના ત્રણ प्रश्नो ५११ स्क्य सावित ४ सवा २ मा प्रमाणे छ.-'आयुष्क कर्म कि अबध्नात् बध्नाति, न भन्स्यति (२) आयुष्क कर्म अपनात् न वध्नाति, भन्स्यति(३) आयुष्य कम अबध्नात् न बध्नाति न भन्स्यति (४) मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामी ४९ छे 'एवं चेव तश्यो મંજો” હે ગૌતમ! કઈ એક અનંતરે૫૫ન્નક નિરયિક એ હોય છે કેજેણે ભૂતકાળમાં આયુકમનો બ બ કરેલ હોય છે. વર્તમાનમાં તે આયુકર્મને બધ કરતો નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં તે અયુકર્મના બંધ ४२. मे प्रमाना - श्रीन महियां घटे छे. 'एवं जाव अणागारोवउत्ते सनत्य नि तइयो भगो' मा प्रसाए पाक्षिणा मनाया।पयोग स० ७९ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसरे वनाति भन्स्स्यति, इत्याकारको ज्ञातव्यः । एवं मणुस्सज्ज जाव वेमाणियाणं' एवमनन्तरोपपन्नक नैरग्रिकवदेन मनुष्यवर्ज मनुष्यदण्ड विहाय यावद्वैमानिकानाम् अत्र यावत्पदेन भवनपति-पृथिव्याधे केन्द्रिय-द्वीन्द्रियादि-विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियनिर्यग्योनिक-बानव्यन्तरज्योतिष्काणां ग्रहणं भवति, सर्वत्रापि पदेषु तृतीयो भलो ज्ञातव्यः । 'मणुस्लाणं सम्वत्थ तायवउत्या भंगा' मनुष्याणां सर्वत्र इत्तीयचतुओं सौ मनुष्यदण्ड के सर्वत्रापि पदेसु तृतीयचतुर्थी मङ्गो ज्ञातव्यौ यतोऽनन्तरोपपन्नो मनुष्यो न आयुर्व नाति भन्स्यति पुनश्वरमशरीरस्त्वसौ न वध्नाति न च मन्त्स्यतीति । 'नवरं कण्ठपक्खिएसु तइओ भंगो' नवरं कृष्णजानना चाहिये। ' एवं मणुस्लवज जाव वेमाणियाण' इसी प्रकार से अनन्तरोपपन्नक नैरपिक के जैसे मनुष्य दण्डक को छोड़कर वैमानिकपर्यन्त समझना चाहिये अर्थात् भवनपति पृथिवी आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेन्द्रिय और चौन्द्रिय तथा पञ्चन्द्रिय तिर्थयोनिक, यानव्यन्त र ज्योतिपक और वैमानिक इन सब पदों में तृतीय भंग होता है। 'अणुस्लाणं सव्वस्थ तयचइत्था भंगा' मनुष्यों में सर्वत्र तृतीय और चतुर्थ भंग होते हैं। क्यों की अनन्तरोपपन्नक मनुष्य द्वारा पूर्वकाल में आयुका पन्ध किया गया होता है वह उसका वर्तमान में आयुकर्म का बन्ध नहीं करता है, भविष्यत् काल में यह उसका पन्ध कर्ता होता है । और यदि वह चरम शरीरदाला है तो वह न वर्तमान में आयका बन्ध करता है और न भविष्यत् काल में भी आयका पन्ध कर्ता होता है। 'नवरं कण्हपक्खिएस्सु तहओ भंगो' कृष्ण पण शुधानी र पहोमा 'अब प्नात् न बध्नाति, भन्स्यति' मा प्रभात श्री. 1 समन्व ये ‘एवं मणुस्खवज्जं जाव वेमोणियाणं' या शते અનોપપાક નિરયિકના કથન પ્રમાણે મનુષ્ય દંડકને છોડીને ભવનપતિ પૃથ્વી વિગેરે એક ઈન્દ્રિય, હીન્દ્રિય ત્રણ ઇદ્રિય અને ચાર ઈન્દ્રિય તથા પંચેન્દ્રિય તિર્યચનિક, વાનવ્યન્તર અને જ્યોતિષ્ક આ બધા પદોમાં ત્રીજો ભંગ હોય छ. 'मणुस्साण सव्वत्थ तइयचउत्था भंगा' मनुष्यामा मधेत्रीले भने व्याथा से એ જ ભગો હોય છે. કારણ કે અનંતરપપન્નક મનુષ્ય દ્વારા ભૂતકાળમાં આયુષ્યનો બંધ કરાયેલા હોય છે. તે વર્તમાન કાળમાં આયુષ્ય કર્મને બંધ કરતું નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરવાવાળો હોય છે. અને જે તે ચરમ-અતિમ શરીરવાળા હોય તે તે વર્તમાન કાળમાં આયુકર્મને બંધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ આયુષ્યને બંધ કરવાવાળો હોય છે. 'नवरं कण्हपक्खिएसु, तइयो भंगो' पाक्षि मनत५५-४ भनुष्यामा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्रिका ठीका श०२६ उ. २ सू०१ चतुर्विंशति जीवस्थाननिरूपणम् ६२ पाक्षिके अनन्तरोपपन्नकनारकेषु तृतीयोऽबध्नाद न वनावि भस्पतीत्याकारको भङ्गो ज्ञातव्य इति । 'सव्वेसिं गाणलाई ताई वेव' सर्वेषां नारकादि जीवानां यानि नानात्वानि पापकर्मदण्ड के कथितानि तान्येव नानात्वानि भेदरूपाणि आयुर्दण्डकेsपि ज्ञातव्यानीति । 'सेवं भंते । सेवं भंते! चि' तदेवं भदव ! वदेवं भदन्त इति, हे भदन्त । अनन्तरोपपत्रकारकादीनां पापकर्मादिदण्डके यद् देवानुप्रयेण कथितं तत्सर्वम् एत्रमेत्र सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतम भगवन्तं बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिला संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति | ० १ ॥ S पर्विंशतितमे वन्धिशतके द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ २६-२।। पाक्षिक अनन्तरोपपन्न मनुष्यो में केवल 'अध्यात् न बध्नाति, भन्त्स्यति' ऐसा एक तृतीय भंग ही होता है । 'सच्चेसि णाणत्ताई 'चेव' जितनी भी समस्त नारकादिक जीवों के पापकर्म के दण्डक में भिन्नताएँ कही गई हैं वे सत्र भेरूप भिन्नताएं आयु दण्डक में भी जानना चाहिये, लेवं भंते । लेवं अंते ! स्ति' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्न नेरक आदि जीवों के पापकर्म आदि दण्डक में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है -२ इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को बन्दना की और उन्हें नमस्कार किया, बन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ||१|| ||द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥२६-२॥ 'अनात् न बध्नाति भन्त्स्यति' मा प्रभात रोड त्रीले लगभ होय छे. 'सदेखि णाणत्ताई' ताई चेव' सुधा नार विगेरे कवीने पाय કમના 'ડકમાં જે કાઈ ભિન્નતાએ કહી છે, તે સઘળી ભિન્નતાના ભેદ સહિત આયુક`ના દડકેામાં પશુ સમજવી, सेवं भवे ! सेवते ! त्ति' हे भगवन् व्यनन्तशेषयन्ना नैरयिः विगेरे જીવાને પાપકર વિગેરે કેામાં આપ દેવાતુપ્રિયે જે કથન કર્યુ છે તે સઘળું કથન સથા સત્ય છે હે ભગવન્ આપ દેવાનુપ્રિયનુ કથન આપ્ત હાવાથી સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યો વદના નમસ્કાર કરીને અને તે પછી તે સયમ અને તપથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા ાસ પા બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ાર૬.૫ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अथ तृतीयोद्देशकः भारभ्यते द्वितीयोदेशके अनन्तरोपपन्नकनारकादीनाश्रित्य पापकर्माविन्धवक्तव्यता कथिता, तृतीयोद्देश के तु परम्परोपपन्नकान् नारकादीनाश्रित्य पापकर्मादिवन्ध वक्तव्यता प्रस्तूयिष्यते इत्यनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य तृतीयोदेगकस्येदं सूत्रम् 'परंपरोक्वन्नए णं' इत्यादि, . मूलम्-परंपरोववन्नए णं भंते ! नेरइए पावं कलमं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइए पढमवितिया, एवं जहेब पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नए हि वि उद्देलओ साणियचो नेरइयाओ तहेव नवदंडगसहिओ। अटण्ह बि कल्मपगडीणं जा जस्स कम्मस्त वत्तव्वया ला तस्ल अहीण मतिरिन्शा नेयव्वा जाव वेमाणिया अणागारोवउत्ता सेवं भंते ! लेवं अंले !लि।सू.१॥ - छठिवलइसे बंधिसए तईओ उद्देसओ सल्लतो ॥२६-३॥ ' छाया-परम्परोपपन्नकः खलु भदन्त ! नैरयिकः पापं कर्म किम् अवघ्नात् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येकका प्रथमद्वितीयौ । एवं यथैव प्रथम उद्देशकः तथैव परम्परोपपन्नकैरपि उद्देशको भणितव्यो नैरयिकादिक स्तथैव भय दण्डकसहितः । अष्टानामपि कर्मप्रकृतीनां या यस्य कर्मणो वक्तव्यता सा वरयाहीनातिरिक्ता नेतव्या याद्वैमानिका अनाकारोपयुक्ताः। तदेवं भदन्त ! तवं भदन्त ! इति ।१। । पइविंशतितमे वन्धिशते तृतीयोदेशकः समाप्तः । २६-३॥ तीसरा उद्देशक का प्रारंभ द्वितीय उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नैरचित आदि जीवों को आश्रित कर के पापकर्म आदि के बन्ध के सम्बन्ध बलव्यता कही गई है अब इस तृतीय उद्देशक में परम्परोपपन्नक लार सादिक जीवों को आश्रित कर के पापकर्म आदि के बन्धकी बरसन्यता नही जाती है, इसी से इस तृतीय उद्देशक का कथन सूत्रकार ने किया है त्रीत देशान। पारसબીજા ઉદ્દેશામાં અનન્તરે૫૫નક નિરયિક વિગેરે નો આશ્રય કરીને 'પાપકર્મ બાના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે. હવે આ ત્રીજા ઉદેશામાં પરમ્પરોપ૫નક નારકાદિ ને આશ્રય કરીને પાપકર્મ વિગેરે ના બંધનું કથન કહેવામાં આવે છે. તેથી આ ત્રીજ ઉદ્દેશાનું કથન સૂત્રકાર ४२ छ-'परंपरोववन्नएणं भंते ! पाव कम्म कि बधी पुच्छा' Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रका टीका श०२६ उ. ३ सू०१ परस्परोपपन्नकनारकाणां वन्धस्वरूपम् टीका- ' परंपरोववन्नए णं भंदे ! नेरइए' परम्परोपपन्नकः परम्परया द्वितीयादि समयरूपया उपपन्न - उत्पन्नः, यस्योत्पत्तौ द्वयादि समया जाताः स एतादृशः खलु भदन्त ! नैरयिकः 'पार्व कम्मं कि बंधी पुच्छा' पापं कर्म-अशु भफलकं कर्म किम् अवघ्नात् बध्नाति यन्त्स्यतीत्यादिरूपचतुर्भङ्गका पृच्छया संगृहीत', भगवानाह - 'वोयमा' इत्यादि, 'नोयमा' हे गौवन ! ' आयेगइए पढम वितिया' अस्त्येककः प्रथमद्वितीयों के मदन्त ! कचिदेकः परम्परोपपन्नको नैरfree पापं कर्मा अवघ्नात् वर्त्तमानकाले बध्नाति, अनागतकाले C " परंपरोवबन्नए णं भले ! नेरहए पार्क कम्मं किं बंधी पुच्छा' इत्यादि टीकार्थ - हे भदन्त | जिस नारक जीव को उत्पन्न हुए प्रयादि-दो आदि समय हो गये हैं ऐसा वह 'पर पशेववन्नए नेरइए' परम्परोपपन्नक नैरविक 'पावकम्मं किं बंधी - पुच्छा' क्या पूर्वकाल में पापकर्म का बन्धक हुआ है ? वर्तमान में वह पपकर्म का चधक होता है क्या भविष्य में वह पापकर्म का बन्धक होगा क्या ? हत्यादि रूप से यहां चार भंगो को ग्रहण कर के प्रश्न के रूप में कथन करना चाहिये, उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'गोयमा ! अत्थेगहए. पदमपितिया' हे गौतम! कोई एक परम्परोपपन्नक नैरवि ऐसा होता है ? कि जिल के द्वारा पूर्वकाल में भी पापकर्म का अशुभ फलवाले कर्म का बन्ध किया गया होता है, वर्तमान में भी यह उसका बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका वध करनेवाला होगा तथा कोई एक परम्परोपपन्नक नैरयिक ऐसा होता है कि जिस के द्वारा ટીકા—હૈ ભગવત્ જે ના૨ક જીવની ઉત્પત્તી એ વિગેરે સમયે માં हाय छे, मेव। ते 'परं परो बन्मए नेरइए' परम्परोपपन्नः नैरथि 'पाव' कम्म किं बधी पुच्छा' लूत असा थयो छे ? वर्तमान क्षणभ તે પાપ કર્મને આધ કરવાવાળો હોય છે ? ભવિષ્યમાં તે પાપક ને મધરો ઈત્યાદિ રૂપથી આ વિષયમા ચાર લગાત્મક પ્રશ્ન ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને उरेस छे. या प्रश्नना उत्तरसां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'गोयमा ! अत्येगइए पढमबितिया' हे गौतम! अध शो परस्यरोपपन्न नैरथि એવા હોય છે કે જેના દ્વારા ભૂતકાળમાં પણ પાપક ને-અશુભકમ ના મધ કરાયે હાય- છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને ખધ કરે છે. અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે તેને બંધ કરવાવાળા થશે. તથા કાઇ એક પરંપરાપ્ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भन्स्यति, कश्चिदेकः परम्परोपपन्ननारकः पापं कर्म अतीतकालेऽवध्नाद, वर्तमानकाले बध्नाति, भविष्यकाले न मन्त्स्यतीत्याकारको प्रथमद्वितीयभङ्गादेव भवत इति । 'एवं जहेब पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोषचन्नएहि वि उद्देसओ भाणियबो' एवं यथैव येनैव प्रकारेण प्रथमोद्देशको जीवनारकादि विषयक तथैव तेनैव रूपेण परम्परोपपनकनारकैरषि समुपलक्षितो तृतीयोद्देशको वक्तव्यः। केवलं प्रथमोदेशके जीवनारकादीनि पञ्चविंशतिः पदानि कथितानि अत्र तु तृतीये उद्देशके नारकादीनि चतुर्विशतिरेव पदानि वक्तव्यानीत्याशयेनाह-'नेरइयाओ' इत्यादि, 'नेरइयाइओ तहेव ननदंडगसहिओ' नैरयिकादिका न तु जीवादिका तथैव-प्रथमोदेश सबढेच नवदण्डकसहितः, पापकर्मज्ञानावरणीयादि सम्बद्धा ये नव दण्डका पूर्व प्रतिपादिवास्तैः सहितोयुक्तोऽत्र वक्तव्य इति । 'अट्टण्ह वि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मरस बत्तव्यया' अष्टानामपि कर्मप्रकृ. भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है, वर्तमान में भी यह उसका पन्ध करता है पर भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध नहीं करता है । इस प्रकार से यहां ये दो भंग होते हैं । 'एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेध पर परोक्वन्नए हि वि उद्देलो भाणियच्चो' जिल्ला प्रकार से जीव नारकादि विषयक प्रथम उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से परम्परोपपन्नक नारकों आदि कों से समुपलक्षित यह तृतीय उद्देशक भी कहना चाहिये, केवल प्रथम उद्देशक में जीव नारक आदि पचीस पद कहे गये हैं पर यहा हनीय उद्देशक में नारक आदि चोईस २४ ही पद् कहले योग्य बतलाये गये हैं ! यही बात 'नेरयाओ तहेव नव दंडगसहिओ' इस सूत्रधारा प्रकट की गई है। 'अgण्ड दि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मरस वत्तव्यया' आठ પાક નરયિક એ હોય છે કે-જેના દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી છે. વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરતું નથી. આ રીતના અહિયાં આ બે જ ભાગો હોય છે, ____एवं जहेब पढमोउदेसओ तहेव परंपरोववन्नर हि वि उद्देसओ भाणिय. દરો જે પ્રમાણે નારકાદિ સંબ ધી પહેલે ઉદ્દેશે કહે છે, એ જ પ્રમાણે પરસ્પર ૫૫નક નારકેથી સમુપલક્ષિત આ ત્રીજે ઉદ્દે પણ કહે જોઈએ કેરળ પહેલા ઉદ્દેશામાં જીવ, નાટક વિગેરે ૨૫ પચ્ચીસ પદે કહ્યા છે, પરંતુ અહિયાં આ ત્રીજા ઉદ્દેશામાં નારકે વિગેરે ૨૪ ૨ વીસ પદે જ ॐा येय ४ा छे. मे पात 'नेरइयाओं तहे। नवदंडगमहिओ' मा सूत्र५४ १२प्रगट डेस छे. 'अट्टण्ह नि कम्मपगडीणं जा जस्म कम्मरस Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्द्रिका टीका श. २६ उ. ३०१ परम्परोपपत्रकारकाणां वन्धस्वरूपम् ६३१ तीनां या यस्य कर्मणो वक्तव्यता 'सा तस्स अहीणमतिरित्ता नेयव्या' सा वक्त व्यता तस्य अहीनातिरिक्ता अयूनानतिरिक्ता नेतव्या वक्तव्येत्यर्थः कियत्पर्यन्तं वक्तव्यता तत्राह - 'नाव' इत्यादि, 'जाव वेमाणिया अनागारोवउत्ता' यात्रवैमानिका अनाकारोपयुक्ताः अनाकारोपयुक्तवैमानिकान्तदण्डकेषु वक्तव्येति । 'सेवं भंते ! सेव भंते! त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भवन्त ! इति हे भदन्त ! परम्परोपपन्नकनैर विषादीनां पापकर्मादिवन्धविषये यत् देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्य वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीसि ॥०१॥ विशति बन्धिशतके तृतीयो देशकः समाप्तः ॥ २६-३। कर्म की प्रकृतियों में से जिस के जैसी फर्म की बक्ततव्यता प्रथम प्रदेश में कही गई है उसे वैसी ही उस कर्म की वक्तव्यता कहनी चाहिये। और यह वक्तव्यता यावत् अनाकार उपयोगवाले वैमानिक तक कहनी चाहिये, 'सेवं भते । सेव' भते । प्ति' हे अदन्त । परम्परोपपन्नक नैरयिक आदि कों के पापकर्म आदि के बन्ध के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सघ सर्वथा सत्य ही है २ । इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को बन्दना की और उन्हें नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संगम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये | १ ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ २६-३ ॥ वत्तव्वया' मा उ अड्डतियो थोड़ी ने ने अनु स्थन डे छे, त ક્રમ સંબંધી રહેવું જોઈએ. અને આ થન યાવત્ અનાકાર ઉપચેગવાળા વૈમાનિકા સુધી કહેવું જોઈએ. તેમ સમજવું. 'सेव' भते ! सेव' भंते ! त्ति' डे लगवन् परस्यरोपपन्न नैरयि વગેરેના પાપકમ આદિના ૫ ધના ધમ માં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કહ્યુ છે. તે તમામ કથમ સર્વથા સત્ય છે, આપ દેવાનુપ્રિયનુ કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેએને નમસ્કાર કર્યાં વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તે તપ અને સયમથી પેાતાના આત્માને ભવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા, પ્રસૂ !! त्रीले उद्देश! समाप्त ॥२६-३॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र अथ चतुर्थीद्देशक: मारभ्यते तृतीयोदेश के परम्परोपएचकनारकादीनाश्रित्य वक्तव्यता कथिता इह तु अनन्तरावगाढनारकादि चतुर्दिशति दण्डकालाश्रित्य पापकर दीनां वन्धवक्तव्यता कथ्यते, तदनेन सम्बन्धेन आयात चतुर्योदेशकस्येदं सत्रम्-'अणंतरोग, ढएणं' इत्यादि, मूल-अतरोवमाढए णमंते! रइए पावं कम्य किं बंधी पुच्छा, गोगमा! अत्थेगाइए एवं जहेन अणंतरोववन्नएहिं ननदंडगसहिओ उद्देलो अणिओ तहेव अणतशेवगाढएहि वि अहीणसतिरिन्तो मानियन्तो नेहए जाल वेशाणिए । सेवं भंते! सेवं संते ! ति ॥स्लू० १॥ ___ छवीसइसे वंधिलए चउत्थो उद्देतो समतो ॥२६-४॥ छाया- अनन्तरागाढः खल भदन्त ! नैरपिका पापं कर्म किम् अवधनात् पृच्छा, गौतम ! अत्येकका एवं यथैवानन्तरोपपनकै नदण्डकसहित उदेशको भणितः तथैवालन्तरागारपि अहीनातिरिक्तो भणितव्यो नैरपिकादिको यावद्वै मानिकः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ! ॥सू० १॥ टीका-'अणंतरोचगाहरणं अंते ! नेरइए' अनन्तरावगाढः खलु भदन्त ! नैरयिकः ननु यो जीन एकस्यापि समयस्य अन्तरं विनैव उत्पत्तिस्थानमाश्रित्या चौथे उद्देशे का प्रारम तृतीय उद्देशक में परम्परोपपन्नक नारक आदि को लेकर वक्तव्धता बही गई है अभइल उद्देशकले अनन्तरावगाढ नारक आदि २४ दण्डको को आश्रित धारदे पापकर्मादि को से बन्ध के विषय की वक्तव्यता कही जावेगी-इसी संबंध से इस चतुर्थ उद्देशक को प्रारम्म किया जा रहा 'श्रणलरोधमाढए णं अंते ! नेरहए पावं कम्म' इत्यादि टीकार्थ--इस सूत्रधारा गौतमत्वांनीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है થા ઉદેશાને પ્રારંભ– ત્રીજા ઉદેશામાં પરમ્પરો૫૫નક નારક વિગેરેને લઈને કથન કરેલ છે. હવે આ ઉદેશામાં અન તરવગાઢ નારક વિગેરે ૨૪ ચોવીસ દંડકેને આશય કરીને પાપકર્મ વિગેરેના બંધના સબંધમાં કથન કરવામાં આવશે. से समथा मा योथा देशना प्रारम्स ४२वामां आवे छे.-'अणत्तरोव गाढएण भंते ! नेरइए पाव कम्म' त्यहि ટીકાર્થ–આસૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે કે Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ,४ सू०१ अनन्तरावगाढना० पापकर्मबन्धः ६३३ वस्थितो सचेत् सोऽनन्तरावगाह इति कथ्यो परन्तु अनन्तराचगाढ स्यैतादृशार्थ करणे अनन्तरोपएनकानन्तरावमाढयोः पदयोरर्थेन किमपि पार्थकयं दृश्यते अतोऽरयानर्थक्यमापोल, तबाह-जीवस्यावगाहो हि उत्पधनन्तरमेव जायते, तत उत्पत्ति सामधिकृत्यैव अबगाहोऽव से यः। उत्पतिश्चाव्यवहितप्रथमसमये भवति, अनाह स्तरमाद् अव्यवहितद्वितीयसमये भवति, तत् उत्पत्तेरनन्तरमिति 'अणंतरोधगाढएणं भो ! नेरहए' हे अदन्त ! जो नैरथिक अनन्तरावगाढ है-एक भी समय के अन्तर के बिना ही जो उत्पत्ति स्थान को आश्रित कर के अवस्थित है-ऐशा वह अनन्तरावभाढ नैरथिक क्या पूर्वकाल में पापकर्म की बान्धवाला हुआ है ? वर्तमान में भी क्या वह उसका बन्ध करता है ? और क्या वह भविष्य में भी उसका घन्ध लेजाला होगा ? यहां ऐली शंज्ञा हो सकती है-कि जो जीव एक भी समय के अन्तर के विना उत्पत्ति स्थान को आश्रित कार के अवस्थित हो जाता है वह अनन्तराचगाढ है, तो ऐसा अर्थ करने पर अनन्तरोषपन्नक और अनन्तरावगाढ में कोई भिन्नता नहीं आती है, तो इसका समाधान ऐसा है कि जीव का अवगाह उत्पत्ति के अनन्तर ही होता है इसलिये उत्पत्ति के एक समय बाद एक भी समय के अन्तर पिना उत्पत्ति स्थान को आश्रित कर के ही अवगाढ होता है । उत्पत्ति व्यवहित प्रथम समय में होती है और अवगाह उत्पत्ति के हित प्रथम समयवर्ती जो जीव होता है वह 'अणतगेवगाढए ण मते ! नेरइए' 8 सावन् अनन्ता नयि छ, એક પણ સમયના અંતર વિના જ ઉત્પત્તિ સ્થાનને આશ્રય કરીને જે અવસ્થિત-રહેલ છે. અને તે અનંતરાવગાઢ નિયિક ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરવાવાળે થય છે? વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે? તથા ભવિષ્યમાં તે તેને બંધ કરશે ? અહિયા એવી શંકા થઈ શકે છે કે-જીવ એક પણ સમયના અન્તર વિના ઉત્પત્તિ સ્થાનને આશ્રય કરીને અવસ્થિત થઈ જાય છે. તે અનંતરાવગાઢ કહેવાય છે. તો આ અર્થથી અનંતરાવગાઢ અને અનંતરે૫૫નકમાં કોઈ પણ જાતનું જુદાપણું આવતું નથી. આ શંકાનું સમાધાન એવું છે કેજીવને અવગાહ ઉત્પત્તિની પછી જ હોય છે, તેથી ઉત્પત્તિના સમયનો આશ્રય કરીને જ અવગાઢ હોય છે. ઉત્પત્તિ વ્યવહિત (અંતરવાળા) પ્રથમ સમયમાં હોય છે અને અવગાહ ઉત્પત્તિથી અવ્યવહિન બીજા સમયમાં હોય છે આ રીતે ઉત્પત્તિના અવ્યવહિત પહેલા સમયમાં રહેલ જે જીવ હોય છે, તે અનન્તપ TO LO Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ भगवतीस्त्रे अन्तररहितोऽव्यवहितप्रथमसमयवर्तीअनन्तरोपपन्नकः तस्मादव्यवहितद्वितीयसमयवर्ती अनन्तरावगाढः मोच्यते, ततः पश्चात् तृतीयादिसमयवर्ती च परम्यराबगाढो भवतीति ! एतादृशानन्तरावगाढो नारकः किं पूर्वकाले पापमंशुभं फर्म अबध्नात्, वर्तमानकाले बध्नाति, अनागतकाले भन्स्यति ? अध्नात् बध्नाति न भन्स्यतिर अवघ्नात् न बध्नाति भन्स्यति३ अबध्नात् न बध्नाति न मन्त्स्यति, इतिचतुर्भङ्गकः प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइए' अस्त्येककः एकः कश्चित् अनन्तरोपपन्नक है और उत्पत्ति के एक समय के बाद अव्यवहित द्वितीय समयवर्ती जो जीव है वह अनन्तरागाढ है और इस के याद जो तृतीयादि समयवर्ती जीव है वह परम्परावगाढ है। इसी अनन्तरावगाढ नैरपिक को लेकर पूर्वोक्त रूप से गौतमस्वामी ने प्रभु से इसके कर्म धन्ध के विषय में चार भंगोवाला प्रश्न किया है, इस में 'अबध्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति' यह प्रथम भंग तो ऊपर स्पष्ट कर दिया है-द्वितीयादि तीन भंग इस प्रकार से हैं-'अनन्तरो गाढः नैरयिकः किं पापं कर्म अबध्नात् , बध्नाति, न भन्स्यतिर ? अथवा-अनन्तरावगाढा नैंरयिकः किं पापं कर्म अयध्नात् न बध्नाति, भन्त्स्यति ३ ? अथवा-अनन्तरावगाढः नैरयिकः पापं कर्म-अपनात्, न बध्नाति न भन्स्यति ? ४ इनका अर्थ स्पष्ट है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'अत्थेगइए' हे गौतम! कोई एक अनन्तरावगाढ પનક કહેવાય છે. અને ઉત્પત્તિના એક સમય પછી અહિત (આંતરાવગર) બીજા સમયમાં રહેવાવાળે જે જીવ હેાય છે, તે અનન્તરાવગાઢ કહેવાય છે. અને તે પછી જે ત્રીજા વિગેરે સમયવત્તિ (ત્રીજા વિગેરે સમયમાં રહેવા વાળા) જીવ છે, તે પરમ્પરાવગાઢ કહેવાય છે આજ અનંતરાવગાઢ નિરયિકને લઈને પૂર્વોકત પ્રકારથી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને તેના કર્મ બંધના સંબંધમાં या मगोपाणी प्रश्र ४२६ छे. तमा 'अवघ्नात् , बध्नाति, भन्स्यति' मा पडेटा ભંગ ઉપર સ્પષ્ટ રીતે પ્રગટ કરેલ છે વિગેરે બાકીના ત્રણ ભાગે આ પ્રમાણે छ.-'अनतरोवगाढः नैरयिकः कि पाव कर्म अबध्नात् बध्नाति, भन्स्यति २' अथवा 'अनन्तरावगाढः नैरयिकः कि पापं कर्म अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति३' अथवा 'अनंतरावगाढः नैरयिकः पाप कर्म अवघ्नात् न बध्नाति, न भन्स्यति४' આ રીતે ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછે છે આ मलना उत्तरभां प्रभुश्री १४ है-'गोयमा ! अत्येगइए' गौतम ! HTHHTHHE Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.४ सू०१ अनन्तरावगाढना० पापकर्मवन्धः ६३५ अनन्तरावगाढो नारकः । पापं कर्म अवध्नात् बध्नाति भन्स्यति, अबध्नात् बध्नाति न भन्स्य वित्येवं क्रमेणानन्तरावगाढनारकविषये प्रथमद्वितीयभङ्गो ज्ञातव्यो, एतदेव दर्शयति-'एवं जहेव' इत्यादिना, ‘एवं जहेव अणंतरोववन्नएहि नवदंडसहिओ उद्देस भो भणिो ' एवं यथैव येनैव प्रकारेण अनन्तरोपपन्नकै नारकैः पापकर्मादिनवदण्ड कसहितः उद्देशको द्वितीयो भणितः 'हेव अणंतरोवगाढएहि वि अहीणमतिरित्तो भाणियन्यो' तथैव-तेनैवरूपेण अनन्तरांवगावैरपि अहीनातिरिक्तः-अन्यूनानतिरिक्त उद्देशको भणितव्यः, 'नेरइयाए जाव वेमाणिए' नैरयिकादिको यावद्वैमानिकः, अनन्तरावगाढनारकादारभ्य अनन्तरावनैरयिक ऐसा होता है जो पहिले भूतकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है वर्तमान में भी वह पापकर्म का पन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका घन्ध करनेवाला होता है, तथा कोई एक अनन्तरावगाढ नैरथिक ऐसा होता है जो भूतकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह उसका पन्ध करता है पर भविष्यत् काल में यह उसका बन्ध करने वाला नहीं होता है। इस प्रकार ये दो ही भंग यहां होते हैं, यही पात एवं जहेव अणंतरोववन्नएहिं नवदण्डगसहिओ उद्देसो भणिओ' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की जा रही है कि जिस प्रकार से नारकों के साथ-अनन्तरोपपन्न नारकों के साथ पापकर्मादि नौदण्डक सहित वितीय उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से 'अणंतरोचगाढएहिं घि अहीणमतिरित्तो भाणियन्वो नेरइयादीए जाव वेमाणिए' अनन्तरावगाद એક અનંતરાવગાઢ રિયિક એ હોય છે કે-જે પહેલાં ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચુકેલે હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બધ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરવાવાળે હોય છે. તથા કઈ એક અનન્તરાવગાઢ નૈરયિક એ હોય છે કે-જે ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે. પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરવાવાળો દેતો નથી ૨ मा शतना मा मे गडियां डाय छे. मे पात 'एव जहेव अर्णत्तरो. ववन्नएहि देडगसहिओ उदेसो भणि ओं' मा सूत्र। प्रगट ४२पामा भाव કેજે પ્રમાણે નારકની સાથે અનન્તરપપનક નારકેની સાથે પાપકર્મ पोरेन। न ६४ सहित मा देश ही छे. को १ प्रमाणे 'अणंतरोब. गाढएहि वि अहोणमतिरित्तो भाणियचो नेरइयादीए जाव वेमाणिए' मानता Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गाढवैमानिकपर्यन्तानाश्रित्यापि पापकर्मादिवन्धवत्ताव्यता पठनीयेति भावः । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति हे भदन्त ! अनन्तरावगाढनारकादिजीवानां पापकर्मादिवन्धवक्तव्यताविषये गद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौत्यो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति सू०१॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूपित बालब्रह्मचारि ‘जैनाचार्य' पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य रमेशचन्द्रिका 'ख्यायां व्याख्यायां पड्विंशतितमशतकस्य चतुर्थो देशकः समासः ॥२६-४॥ नैरयिकों के साथ भी पापकर्मादि के बन्ध के सम्बन्ध में हीनाधिक भाव से रहित होकर यावत् अनन्तराधनाढ बैलानिक तक उद्देशक कहना चाहिये, 'सेव भंते ! सेव भंते !त्ति' हे बदन्त ! अनन्तराचगाढ नैरयिक आदि जीवों की जो आप देवानुप्रियने पापकर्मादि वध के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही हैं वह ऐसी ही हैं २! इस प्रकार कहकर गौतमस्थानी ने प्रभुश्री को वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया, चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करतेहुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।खू० १॥ - जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत ___ "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या छबीलो शतकका चौथा उद्देशक समाप्त ॥२६-४॥ નિરયિકની સાથે પણ પાપકર્મ વિગેરેના બ ધના સંબંધમાં હીનાધિક ભાવ વિનાના થઈને યાવત અનંતરાવગઢ વૈમાનિક સુધી ઉદેશાઓ કહેવા જોઈએ. सेवं भवे ! सेव भंते । ति' 8 समन् मनतवाढ नैरयि विशेरे જીના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે પાપકર્મ બધ સંબંધી જે કથન કર્યું છે, તે એજ પ્રમાણે છે, હે ભગવન્ આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી અને તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કશ્તા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ ના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકરપૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને ચોથો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ર૬-૪ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयबन्द्रिका टीका श०३६ उ.५ सू०१ परम्परावगाढना पापकर्मबन्ध ६३७ - अथ पञ्चमोद्देशकः प्रारभ्यते - अथचतुर्योदेशके अनन्तरावगाढ नारकादीनाश्रित्य पापकर्मबन्धवक्तव्यता कथिता, पञ्चमे तु परम्परावगाढनारकादीनाश्रित्य वक्ष्यते तदनेन सम्बन्धेनाया तस्य पश्चमोद्देशकस्येदं सूत्रम्-'परंपरोकगाढए णं भंते' इत्यादि, . मूलम्-परंपरोवमाढए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी० जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देलो लो क्षेत्र निरवसेसो भाणियव्यो। सेवं भंते ! सेवं भंते !.त्ति ॥सू०१॥ छवीसइमे बंधिसए पंचसो उद्देलों सलत्तो ॥२६-५॥ ____ छाया-परम्परावगाढः खलु भदन्त ! नैरयिकः पापं कर्म किम् अबध्नात् ० यथैव परम्परोपपन्नकै उद्देशकः स एव निरवशेषो भणितव्यः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।मु०१॥ • पड्विंशतितमबन्धिशते पञ्चमोदेशकः समाप्तः ॥२६॥५॥ टीका-'परंपरोवगाढए णं भते ! नेइए' परस्परावगाढः उत्पत्तिसमयात् तृतीयादिसमयवर्ती खलु भदन्त ! नैरयिका 'पावं कम्मं किं बधी०' पापम् पांचवें उद्देशेक का प्रारंभ चतुर्थ उद्देशक में अनन्तरावगाह नारक आदि को आश्रित करके पापकर्म आदि के बन्ध के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही गई है, अब पंचम उद्देशक में परम्पराषगाढ नारक आदि को आश्रित करके वही वक्तव्यता कही जावेगी, अत: इसी सम्बन्ध को लेकर यहां पंचम उद्देशक प्रारम्भ किया जा रहा है-- 'पर परोवगाढए णं भंते ! नेरइए पाबंक नं-हत्यादि टीकार्थ- इस सूत्र हारा गौतमस्थानी ने प्रशुश्री से ऐसा पूछा है-'परंपरोवगाढए णं भंते ! नेरइए' हे सदन्त ! जो પંચમા ઉદેશાનો પ્રારંભ– ચેથી ઉદ્દેશામાં અનંતરાવગાઢ નીરક વિગેરેને આશ્રય કરીને પાપકર્મ વિગેરેના બધા સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે. હવે આ પાંચમા ઉદ્દેશામાં પરપરાવગાઢ નારક વિગેરેને આશ્રય કરીને એજ કથન કહેવામાં આવશે જેથી આ સંબધથી આ પાંચમાં ઉદ્દેશાને પ્રારંભ કરવામાં भाव छ.-‘पर परोवगाढए ण भंते ! नेरइए पाव फम्म' त्यादि ટીકાર્થ-આસૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે'परंपरोवगादए भंते ! नेरइए' स न् २यि ५२२५२ डाय छ, Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतासन अशुभं कर्म किमबध्नात् बध्नाति भन्स्यति, इत्यादि स्वरूपाश्चतुर्भङ्गका प्रश्न: पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-तृतीयोद्देशकातिदेशेन 'जहेव' इत्यादिना, 'जब परंपरोवबन्नएहि उद्देसो सोचेव' निरवसेसो भाणियो' यथैव परम्परोपपन्नकै नारकादिभिः तृतीयोद्देशको भणितः स एव निरवशेष समग्रोऽपि उद्देशकोऽत्रापि भणितव्यः पठनीयः तथाहि-हे गौतम ! कश्चिदेकः परम्परावगाढो नारकः पापं कर्म अबध्नात् वध्नाति भन्त्स्यति, अवध्नाद बध्नाति ना भन्स्यति एवं प्रथम द्वितीयभङ्गो आश्रित्य नारकादि चतुर्विंशतिदण्ड केषु पापकर्मणो बन्धवक्तव्यता पूर्ववदेव सर्वापि वक्तव्या। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं नैरयिक परम्परावगाढ होता है-तृतीयादि समयवती होता है-उसके द्वारा क्या पापकर्म का बन्ध पहिले किया गया होता है? वह वर्तमान में भी क्या उसका पन्ध करता है ? और भविष्यत् भी क्या वह उसका बन्ध करनेवाला होता है ? इत्यादि- रूप से यहां चार भंगो वाला यह प्रश्न पृच्छा शब्द से प्रकट किया गया है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'जहेव परंपरोववन्नएहि उद्देसो सो चेव निरव सेसो भाणियन्यो' हे गौतम! जिस रूप से परंपरोपपत्रक नैरयिक आदि के साथ पापकर्मादि के बन्ध के सम्बन्ध में तृतीय उद्देशक कहा गया है उसी रूप से परंपरावगाढ नरयिक आदि के साथ पापकर्मादि के बन्ध के सम्बन्ध में भी सम्पूर्ण यह उद्देशक कहना चाहिये-तथा चयहां पर प्रथम और द्वितीयादि भंगों को लेकर नारकादिक २४ दण्डकों में पापकर्म आदि के बन्ध की वक्तव्यता कही गई है ऐसा जानना चाहिये એટલે કે ત્રીજા વિગેરે સમયમાં રહેવાવાળો હોય છે, તેના દ્વારા પહેલા પાપકર્મને બધ કરાયો છે? વર્તમાનમાં પણ તે શું તેને બંધ કરે છે? અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ કરવાવાળો હોય છે? વિગેરે પ્રકારથી ચાર ભાગે વાળો આ પ્રશ્ન “દુરઝા એ પદથી પ્રગટ કરેલ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसुश्री ४७ छ --'जहेव पर परोक्वन्नएहि उद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियवो' हे गौतम ! २ प्रमाणे ५२५२५पन्न नयि विगैरेनी સાથે પાપકર્મ વિગેરેના બંધ સંબંધથી ત્રીજે ઉદેશે કહેલ છે એ જ પ્રમાણે પરમ્પરાવગાઢ નરયિક વિગેરેની સાથે પાપકર્મના બંધના સંબંધમાં પણ સંપૂર્ણ રીતે તે ત્રીજે ઉદ્દેશે અહિયાં સમજી લેવું. તથા ત્યાં પહેલા અને બજા ભંગને લઈને નારક વિગેરેના સંબંધમાં રંજ ચેપીસ દંડકમાં પાપકર્મના બંધ સંબંધી કથન કરેલ છે. તે જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં સમજી લેવું. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.५ सू०१ परम्परावगाढना० पापकर्मबन्ध' ६३९ भदन्त ! इति, हे भदन्त ! परम्परावगाढनारकादिनां पापकर्मादि वन्धवक्तव्यता. विषये यद् देशानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।मु० १॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा. कलितललितकलापालापकपविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुररानमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां श्री "भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् षड्वंशतिशतकस्य पञ्चमोद्देशकः समाप्तः॥२६-५॥ 'सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! पर परावगाढ नैरयिक आदि के साथ जो आप देवानुप्रियने पापकर्मादि की धन्ध वक्तव्यता कही हैं वह ऐसी ही है२ इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की नमस्कार किया, और वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ।।सू० १॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या छवीसवें शतकका पांचवां उद्देशक समाप्त ॥२६-५॥ 'सेव' भंते । सेव भते । ति से भगवन् ५२५२६१ २यि विगैरेनी સાથે પાપકર્મના બંધના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કરેલ છે તે કથન એ જ પ્રમાણે છે. અર્થાત હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમ સ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦ ૧ જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગત્તીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને પાંચમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ા૨૬-પા Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० enedies ॥ अथ पष्ठोदेशकः प्रारभ्यते ॥ पञ्चमदेश के परम्परावगाढनारकादीनाश्रित्य वन्धवक्तव्यता कथिता, पृष्ठे तु अनन्तराहारकनारकादीनां वन्धवक्तव्यता कथयिष्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्य पष्ठोदेशकस्येदं सूत्रम् -'अणंतराहारए णं भंते' इत्यादि । मूलम् - अणंतराहारए णं भंते ! नेरइण पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा, एवं जहेव अणंतरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भने ! ति ॥ सू० १ ॥ छीससे वंधिए छट्टओ उद्देसओ समत्तो ॥ २६-६ ॥ छाया -- अनन्तराहारकः खलु भदन्त ! नैरयिकः पापं कर्म किम् अवन्धात् पृच्छा एवं यथैव अनन्तरोपपन्नकै रुदेशक स्वथैव निरवशेषम् ! तदेवं मदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ॥ म्र० १ ॥ षड्विंशतितमश पष्ठदेशकः समाप्तः ॥ २६-६॥ टीका- 'अनंतराहारएणं भंते! नेरइए' अनन्तराहारकः, अनन्तरम् अन्तररहितम् व्यवहितम् उत्पत्तिक्षेत्रमाप्तिसमय समकालमेव य आहारयति सोऽनन्तराछड उद्देशक का प्रारंभ पंचम उद्देशक में परम्परावगाढ नारक आदि को आश्रित करके बन्ध की वक्तव्यता कही गई है, अब इस ६ छठे उद्देशक में अनन्तराहारक नारकादिकों के बन्ध की वक्तव्यता कही जावेगी इसी सम्बन्ध से यह ६ छठा उद्देशक प्रारम्भ हो रहा है 'अणंतराहारए णं भंते! नेरइए' इत्यादि टीकार्थ -- इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'अणंतराहारएणं भंते । नेरहए' हे भदन्त ! जो नारक उत्पत्ति क्षेत्र की प्राप्ति के समय में ही आहार करनेवाला होता है वह છઠ્ઠા ઉદેશાના પ્રાર ભ પાંચમા ઉદ્દેશામાં પરમ્પાત્રગાઢ નારક વિગેરેના ખધના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે. હવે આ છઠ્ઠા ઉદેશામાં અન તરાહારક નારક વિગેરેના મધના સબંધમાં કથન કરત્રામાં શ્યાવશે, એ સ*બંધથી આ છૂટ્ટા ઉદ્દેશાના प्रारंभ ४२वामां आवे छे.- 'अनंतराहारएणं भते नेरइए " त्याहि ટીકા--આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવુ' પૂછ્યું' છે કે'अनंत राह'रए णं भते । नेरइए' से लगवन् ने नार પ્રાપ્તિના સમયમાં જ આહાર કરવાવાળા હોય છે, તે उत्पाद - उत्पत्तिता क्षेत्री અન તરાડારક છે, અર્થાત્ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ 17 प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. ६ सू०१ अनन्तराहारकना० पापकर्मबन्धः हारकः उत्पत्तिमथमसमयाहारक इत्यर्थः एतादृशः खलु भदन्त ! नैरयिकः 'पाव' कम्मं किं वंधी पुच्छा' पापं कर्म किमबधनात् बध्नाति मन्त्स्यतीत्याकारक अंतुभङ्गकः प्रश्नः पृच्छयः संगृह्यते, उधर माह-' एवं ' इत्यादि, 'एवं जहेब अवरोधबन्न उद्देओ हेच निरवसेसं' एवं यथैव अनन्तरोपपन्न कैरुदेशः कथित स्तथैव अयमपि अनन्तराहारकाख्यः षष्ठोद्देशको निरवशेषः समग्रोऽपि भविव्यः | हास्य थम वर्तमानोऽनन्तराहारक इति कथ्यते हे गौतम! afras नारक इति कथ्यते हे गौतम! कश्चिदेकोऽनन्तराहारको नारकः पूर्वकाले पापं कर्म अध्यात्, वध्नाति वर्तमानकाले, भन्रस्यति चानागतअनन्तराहार है, अर्थात् उत्पति के प्रथम समय में आहार ' करनेवाला ऐसा यह नारक पहिले भूतकाल में क्या पापकर्म का पन्ध करनेवाला हुआ है, तथा वर्तमान काल में भी क्या वह पापकर्म का वन्ध करता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह पापकर्म का बन्ध करनेवाला होगा ? इत्यादि रूप से यहां गौतमस्वामीने जब चार अंगो वाला प्रश्न प्रभुश्री से पूछा तो प्रभुश्रीने उनसे कहा - ' एवं जहेव rinder उसो तहेब निरवसेसं' हे गौतम! जिस रीति से trader नैरविकों के सम्बन्ध में उद्देशक कहा गया है उसी रीति से यह अनन्तराहारक नाम का षष्ठ उद्देशक भी सम्पूर्ण रूप से कहद्रा चाहिये, आहार के प्रथम लमय में वर्तमान अनन्तराहारक कहलाता है तो हे गौतम! कोई एक अनन्तराहारक नैरथिक ऐसा होता है जो पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है, तथा. = ઉત્પત્તિનાપ્રથમ સમયમા આહારકરવાવાળા એવા તે નારકાએ પહેલાં ભૂત. કાળમાં પાપકમના છંધ કરેલા હાય છે ? તથા વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કના 'ધ કરે છે ? અને ભવિષ્યમાં તે પાપ કર્મોંના આધ કરશે ? ઈત્યાદ્રિ પ્રકારથી ગૌતમસ્વામીએ આ વિષયમાં ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન પ્રભુશ્રીને પૂછેલ છે. या अश्नना उत्तरमां प्रलुश्री गौतमस्वामीने छे --' एवं ' जहेव अणंतरोववन्त्रप६ि' उद्देसो तहेब निरवसेस' हे गौतम ने प्रमाणे मन तरोष પન્નક નારિયžાના સંબધમાં ઉદ્દેશે! કહેલ છે, એજ પ્રમાણે આ અનન્તરાહારક નામના છઠ્ઠો ઉદ્દેશે। સપૂર્ણ રીતે કહેવા જોઈએ. આહારના પહેલા સમયમાં રહેવાવાળા અનન્તરાહારક કહેવાય છે, તે હે ગૌતમ! કેાઈ એક અન તરહારક નૈયિક એવા હાય છે કે જે ભૂતકાળમા ૫૫ કમનેા ખંધ કરી ચુકેલ હાય છે. તથા વર્તમાન भ० ८१ 3 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ - भगवती काले, तथा पूर्वकाले पापं कर्म कश्चिदेकोऽनन्तराहारको नारकोऽवध्नान, बध्नाति, वर्तमानकाले न भन्त्स्यति अनागतकाले२, एवं क्रमेण प्रथमद्वितीयमङ्गो सर्वत्र विनियोज्य नारकादि चतुर्विंशतिदण्डकेषु पापकर्मवन्धव्यवस्थाऽवगन्तव्या, द्वितीयोद्देश के यत् विचारितं तत् सर्वमपि इहानुसन्धेयम् । 'सेवे भंते ! सेवं भंते त्ति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! अनन्तराहारकनारकादि जीवानां पापकर्मवन्धविपये यद् देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा वर्तमान में भी वह पापकर्म या बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी यह पापकर्म का पन्ध करेगा ऐसा होता है, तथा कोई एक अनन्तराहारक नारक ऐसा होता है कि जो पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध करता है पर भविष्यत् में वह पापकर्म का बन्ध करनेवाला नहीं होता है । इस प्रकार से यहां ये दो भंग होते हैं। और ये ही दो भंग यहां नारकादि २४ दण्ड कों में पापकर्म के बन्ध की व्यवस्था में प्रकट किये गये हैं। तात्पर्य कहने का यही है कि द्वितीय उद्देशक में जो विचार किया गया है वही सब यहां पर भी विचारित करना चाहिये। सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति' हे भदन्त ! अनन्तराहारक नारक आदि जीवों के पापकर्म के बन्ध के विषय में आप देवानुप्रियने કાળમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરે છે. અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરશે. એ હોય છે તથા કેઈ એક અનંતરાહારક નારક એ હોય છે. કે-જે પૂર્વકાળમાં પાપકમને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાનમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મ કરવાવાળો હેતે નથી, આ પ્રમાણેના અહીં બેજ ભંગ હોય છે. અને આજ બે અંગે અહિયાં નારક વિગેરે ૨૪ ચોવીસ દંડકમાં પાપકર્મના બંધના સંબંધમાં પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કેબીજા ઉદેશામાં જે વિચાર કરવામાં આવ્યો છે, તે તમામ કથન અહિયાં પણ સંપૂર્ણ રીતે કહેવું જોઈએ. અર્થાત્ તે સઘળું કથન અહિયાં સમજી લેવું. 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' समन् मनन्त।२४ ना२४ विगैरेवाना પાપકર્મના બંધના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે આપનું મંતવ્ય પ્રગટ કરેલ છે તે સઘળું મન્તવ્ય સત્ય છે, હે ભગવન્ આ૫ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.६ सू०१ अनन्तराहारकना० पापकर्मबन्धः ६४३ सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं चन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ स० १ ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर --पूज्यश्री घासिलालतिविरचितायां श्री भगवतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पड्विंशतितमशतके छष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥२६-६॥ । अपनी विचार धारा प्रकट की है वह सब सर्वथा लत्य ही है-२ इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को चन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।।सू० १॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घालीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके छवीसवें शतक का छहा उद्देशक लमाप्त ॥२६-६॥ સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦ ના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને છઠ્ઠો ઉદ્દેશક સમાસ ર૬-૬ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ॥ अथ सप्तमोदेशकः भारभ्यते ।। - अथ पष्ठाद्देशके अनन्तराहारकनारकादिनाश्रित्य पापकरणो बन्धवक्तव्यता कथिता, सप्तमे तु परम्पराहारकनारकादिविपये सैव वक्तव्यता कथयिष्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्य सप्तमोद्देशकस्येदं मूत्रम्-'परम्पराहारण मते' इत्यादि, ___ मूलम्-परंपराहारए णं भंते ! नेरइए पानं कसं किं बंधी पुच्छा गोयमा! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देलो तहेव निरवलेसो भाणियव्यो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥तू० १॥ छवीसइमें सए सत्तमो उद्देलो लमत्तो ॥२६-७॥ छाया--परम्पराहारकः खलु भदन्त ! नरयिकः पापं कर्स किमबध्नाव पृच्छा, गौतम | एवं यथैव परम्परोपपन्नकै मद्देश स्तथैव निस्वशेपो भणितव्यः । तदेवं भदन्त२ । इति ॥ सू० १॥ . पइविंशतितमे शते सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥२६॥ ७ टीका---'परंपराहारए णं भंते ! नेइए' परम्पराहारकः-द्वितीयादि समयाहारकः खलु भदन्त ! नैरयिकः 'पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' पापं कर्म किमवध्नात् सातवां उद्देशक का प्रारंभ छट्टे उद्देशक में अनन्तराहारक नारक आदि फों को आश्रित करके पापकर्म के बन्ध के विषय में वक्तव्यता की जा चुकी है। अब इस सातवें उद्दे शक में वही वक्तपता परम्पराहारलारकादि के विषय में कही जायगी । इसी सम्पन्ध को लेकर हम सातवें उद्देशक का प्रारम्भ हो रहा है 'परम्पराहारए णं भते ! नेहए पावं कम्म'-इत्यादि टीकार्थ--इस सूत्रद्वारा गौतमस्वामीने प्रशुश्री से ऐसा पूछा है कि भदन्त ! जो नारक द्वितीयादि समय में आहारक होता है वह सातमा शान। पारस-- છઠ્ઠા ઉદેશામાં અનનરાહારક નાર વિગેરેને આશ્રય કરીને પાપ કર્મના બંધના સંબમાં કથન કરવામાં આવી ગયું છે. હવે આ સાતમા ઉદ્દેશામાં એજ કથન પરમ્પરાહારક નારક વિગેરે ના સંબંધમાં કહેવામાં આવશે. એ સંબંધથી આ સાતમાં ઉદ્દેશાને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે -- 'परम्पराहारए णं भते ! नेरइए पाव' कम्म' या ટીકાર્થ––આ સૂત્ર પાઠથી ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે-હે ભગવન દ્વિતીયાદિ સમયમાં જે નારક આહારક હોય છે, તે ભૂત Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. ७ सू०१ परम्पराहारकना० पापकर्मबन्धः ६४५ इति पृच्छा आहारस्य द्वितीयादिसमये वर्तमानः परम्पराहारकः कथ्यते, स च परम्पराहारको नारकः पूर्वकाले पाप कर्म अवघ्नात्, वर्त्तमानकाले बध्नाति, अनागते मन्त्स्यति किम् ? इत्यादि रूप चतुर्भङ्गकः मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! ' एवं जदेव परंपरोक्न एहिं उदेसो तदेव निरवसेसो भाणियन्त्र' एवं यथैव परम्परोदपन्न के स्तृतीय उद्देशकः कथित अवघ्नात् बध्नाति भन्त्स्यति, अवधनात् बध्नाति न भन्त्स्यतीति प्रथमद्वितीयमङ्गकः यावदनाकारोपयोगवैमानिकान्तः तथैव निरवशेषः समग्रोऽपि परम्पराहारकवैमानिकान्त इहापि भणितव्य इति 'सेवं भंते ! सेनं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त परम्पराहारकनारकादित आरभ्य वैमानिकान्तदण्डकेषु क्या पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में भी वह उस पापकर्म का बन्ध करता है ? और क्या वह भविष्यत् काल में भी उसका बन्ध करेगा ऐसा होता है ? इत्यादि रूप से यहां जब चार भंगों को लेकर प्रश्न उपस्थित किया गया तब प्रभुश्रीने उनले ऐसा कहा - 'गोयमा " एवं जहेब पर परोधवन पहिं उद्देली तहेब निरवसेसो भात्रि' हे गौतम! जिल्ल रीति से परम्परोपपनकों के साथ तृतीय उद्देशक कहा गया है और यह उद्देशक अनाकारोपयोग वाले वैमानिकों तक कहना चाहिये, उसी प्रकार से रीति से परंपरा हारक के सम्बन्ध में भी वैमानिकान्त तक समस्त उद्देशक कहना चाहिये | 'सेत्रं भते । लेवं खते | न्ति' हे भदन्त ! परम्पराहारक नारका दि से लेकर वैमानिकान्त दण्डकों में जो आप देवानुप्रिधने पापकर्म -- કાળમાં પાપ કર્મોને ખધ કરી ચુકેલ હોય છે ? વર્તીમાન કાળમાં પણ તે એ પાપકમના બ`ધ કરે છે? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપકના મધ કરશે ? વિગેરે પ્રકારથી ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ ભગવાનને પૂછેલ छे, या प्रश्नना उत्तरभां अलुश्री गीतरस्वामीने हे छे डे- 'गोयमा ! एवं जद्देव पर परोववन्नएहि उद्देस्रो तहेव निरवसेो भाणियव्वो' हे गीतस પ્રમાણે પરમ્પરાપપનકના સ`ધમાં ત્રીજા ઉદ્દેશાનુ કથન કરેલ છે. અને તે ઉદ્દેશાનુ કથન અનાકારાપયેાગવાળા વૈમાનિકા સુધી ત્યાં કહેવાનુ` કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અર્થાત્ એજ રીતે-અન"તરાહારના સમધમાં પણુ વૈમાનિકાના ક્થન પન્ત સઘળુ કથન કહેવું જોઈ એ. 'सेव ं भवे ! सेत्र' भंते ! त्ति' हे भगवन् परं पराहारम्ना२४ विगेरेधी सहने વૈમાનિક સુધીના દડામાં આપ દેવાનુપ્રિયે પાપકમ આદિના બંધના સબંધમાં Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ भगवतीको पापकर्मादिवन्धवक्तव्यतादिकं यथा देवानुप्रियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति चन्दिया नमस्यित्वा च संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥मू० १॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाफलितललितकलापालापकमविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बाळब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां श्री “भग वतीसूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायांव्याख्यायां पड्विंशतितमशतके सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥२६-७॥ आदि के बन्ध की वक्तव्यता कही है वह लब सर्वथा सत्य ही है इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुको वन्दना की और उन्हें नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥ १॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके छवोसवें शतकका सातवां उद्देशक समाप्त ॥२६-७॥ જે કથન કર્યું છે તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પરબિરાજમાન થયા. સૂના જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને સાતમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૨૬-છા Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.८ सू०१ अनन्तरपर्याप्तकना० पापकर्मयन्धः ६४७ ॥अथाष्टमोदेशका प्रारभ्यते सप्तमोद्देशके परम्पराहारनारकादीनाश्रित्य पापकर्मवन्धवक्तव्यता, अष्टमे तु अनन्तरपर्याप्तनारकादीनाश्रित्य बन्धवक्तव्यता कथ्यते तदनेन सम्बन्धेन आयातस्य अष्टमोद्देशकस्येदं सूत्रम्-'अणंतरपजत्तए णं' इत्यादि। मूलम्-अणंतरपजत्तए णं संते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! जहेव अणंतरोववन्नएहिं उद्देसो तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ छवीसइमे सए अट्ठमो उदेसो लमत्तो ॥२६-८॥ छाया-अनन्तर पर्याप्तकः खलु भदन्त ! नैरयिका पापं कर्म किमवध्नाव पृच्छा, गौतम ! यथैव अनन्तरोपपन्नकै रुदेश स्तथैव निरक्शेषम् । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥मू० १॥ षड्विंशतितमे शते अष्टमोदेशकः समाप्तः ॥२६-८॥ टीका--'अणंतरपजत्तए णं मंते ! नेरइए' अनन्तरपर्याप्तकः खल भदन्त ! नैरयिकः अनन्तरपर्याप्तको नाम पर्याप्तकत्वस्य मथमसमयवर्ती सः 'पावं कम्म अष्टम उद्देशक का प्रारंभ सप्तम उद्देशक में परम्पराहारक नैरयिक आदि को आश्रित करके पापकर्म के बन्ध की वक्तव्यता कही गई है। अब इस अष्टम उद्देशक में अनन्तरपर्याप्त नारक आदि को आश्रित कर के बन्ध की वक्तव्यता कही जावेगी सो इसी सम्बन्ध को लेकर यह अष्टम उद्देशक प्रारंभ किया जा रहा है-'अणंतरपज्जत्तए णं अंते ! नेरइए'-इत्यादि टीकार्थ--- इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'अणंतरपज्जत्तए णं भते ! नेरइए' हे भदन्त ! जो नैरयिक अनन्तर આઠમા ઉદેશાને પ્રાર ભસાતમા ઉદેશાને પરંપરાહારક નિરયિકોને આશ્રય કરીને પાપકર્મના બંધ સંબંધી કથન કર્યું છે. હવે આ આઠમાં ઉદ્દેશામાં અનંતરપર્યાપ્ત નારક વિગેરે ને આશ્રય કરીને બંધના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવશે. તે એ સંબંધને લઈને આ આઠમા ઉદ્દેશાને પ્રારંભિક રવામાં આવે છે – 'अणंतरपज्जत्तएण भंते ! नेरइए' त्यादि ટીકાઈ–આ સૂત્રપાઠ દ્વારા ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું ३-'अणंतरपजत्तए णं भंते ! नेरइए' 8 भगवन् रे नयि मनन्तर Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसंत्रे ૧૪૮ अवघ्नात् वध्नाति किं वंधी पुच्छा' पापं कर्म किम् अवघ्नात् बध्नाति भन्दस्यति, न भन्त्म्यति, अवध्नात् न बध्नाति, भन्त्स्यति, अवघ्नात् न वध्नाति न भन्त्स्यति 'गोयमा ' इति चतुर्भङ्गकः प्रश्नः पृच्छा संगृहीतः भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, हे गौतम! कथिदेशः अनन्तरपर्यातको नारकः पापं कर्म पूर्वकाले अनात् पर्याप्त होता है वह क्या पूर्व काल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में भी वह क्या उसका पन्ध करता है ? भविष्यत् काल में भी क्या वह उसका बन्ध करने वाला होगा ? अथवा भूतकाल में क्या वह उसका बन्ध करनेवाला हुआ है ? वर्तमान में भी क्या वह उसका बन्ध करता है ? मस्ष्यित् कोल में क्या वह उसका बन्ध नहीं करेगा ? अथवा - भूतकाल में ही क्या वह उसका बन्ध करनेवाला है ? वर्तमान में क्या वह उसका बन्ध नहीं करता है ? भविष्यत् हुआ काल में क्या यह उसका बन्ध करनेवाला होगा ? अथवा भूतकाल में ही क्या उसने उसका बन्ध किया है ? वर्तमान में क्या वह उसका बन्ध नहीं करता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह उसका बन्ध नहीं करेगा ? इछ प्रकार - 'अवघ्नात, बध्नानि, भनस्पति १, अयनात्, घध्नाति, न अन्त्यतिर अनात् न बध्नाति भन्त्स्यति३, अवघ्नात्, नबध्नाति न भन्त्स्यति' 'ये चार भंगो को लेकर यहां ये चार प्रश्न स्वामी प्रभुश्री से पूछे हैं । पर्याप्त अवस्था के प्रथम समय में जो रहता है यह अनन्तरपर्यातक है, इसके उत्तर प्रभुश्री कहते हैપર્યાપ્તક હાય છે. તે શું ભૂતકાળમાં પાપકના ખંધ કરી ચુકેલ હૈય છે ? વર્તમાન કાળમાં પણ તે શુ તેના મધ કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના અંધ કન્શે ? અથવા ભૂતકાળમાં તે તેના અંધ કરવાવાળા થયા છે ? વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેના બંધ કરે છે? અને ભવિષ્યકાળમાં તે તેના બધ નહીં કરે ? અથવા-ભૂતકાળમાં જ તેણે તેના બંધ કર્યાં છે ? વર્તમાન કાળમાં તે શું તેને અધ નથી કરતે ? અને ભવિષ્યમાં તે તેને બધ કરવવાળો થશે ? અથવા ભૂતકાળમાં જ તેણે તેને "ધ કર્યાં છે ? વર્તમાન કાળમાં તે તેના ખધ કરતા નથી ? અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને ખ'ધ નહી ४२१ मा प्रभाणु ‘अबध्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति १, अब नात, बध्नाति, न भन्त्स्यतिर, अवनात न वध्नाति न भन्त्स्यति ४' अवघ्नात्, न वध्नाति, भन्त्स्यति उ આ ચાર ભા ને અવસ્થાના પહેલા 9 , લઈને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછ્યુ છે. પર્યાપ્તક સમયમાં જે રહે તે અનન્તર પર્યાપ્તક છે. આ પ્રશ્નના तर अनुश्री छे है - 'गोयमा ! जछेत्र अणंतरोववण्णरहि उद्देस्रो तहेव Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.८ सू०१ अनन्तरपर्याप्तकना० पापकर्मबन्धः ६४९ पर्समानकाले बध्नाति, अनागत काले भन्स्पति १ अबध्नात् बध्नाति न मनस्यतीति प्रथमद्वितीयभङ्गो. इत्युत्तरम् । सलेश्यः खलु भदन्त ! अनन्तरपर्याप्तको नारकः किं पापं कर्म अनादिल्यादि प्रश्नः, प्रथमद्वितीयमनाच्या मुत्तरमित्यादिकं सर्व द्वितीयोदेशानुसारेणैव वक्तव्यमित्याशयेनाह-जहेब 'गोयमा! जहेव अणं नरोत्रचन्नएहिं उद्देनो तहेच निरचलेलं' हे गौतम ! कोई एक अनन्तर पर्याप्त मारक ऐसा होता है कि जिस के द्वारा पूर्व काल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है, वर्तमान में वह पापकर्म का बन्ध करता है अविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करनेवाला होता हैं। कोई एक अनन्तरपर्याप्तक नारक ऐसा होता है कि जो पूर्व काल में पापकर्म का वध कर चुका होता है वर्तमान में भी वह उस पापकर्म का बन्ध करता है भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध करने वाला नहीं होता है । इस प्रकार से यहां से दो अंग होते हैं ! हे भदन्त ! जो अनन्तर पर्याप्तक नारक मलेश्य होता है, वह क्या पापकर्म का भूतकाल में बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में भी क्या वह उसका बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी क्या वह उसका बन्ध करनेवाला होगा? इत्यादि रूप से यहां पर भी नार अंगो को आश्रित कर के पापकर्म के बन्ध करने के सम्बन्ध में प्रश्न गौतमले जब किया-तब प्रसुने उन्हें प्रथम भंग और द्वितीय भंश को ही आश्रित कर के उत्तर दिया है। निरवरेस' हे गीत | ई मे मनत२५र्यात ना२४ मेवे डाय छे. 3જેણે ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ બાંધેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે પાપકમને બધ બાંધે છે, અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપકર્મનો બંધ બાંધવાવાળે હોય છે. તથા કેઈએક અનંતર પર્યાપ્તક નારક એ હોય છે કે-જેણે પૂર્વ કાળમાં પાપકર્મને બંધ બાંધેલ હોય છેવર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ બાંધે છે પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બ ધ બાંધવાવાળો હોત નથી. આ રીતે આ બે ભાગો અહિયાં સંભવિત થ ય છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે–હે ભગવન જે અનંતર પર્યાપ્ત નારક લેક્ષાવાળા હોય છે, તે ભૂતકાળમાં પાપકર્મના બંધક હોય છે ? વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેનો બધ બાંધે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેનો બધ બાંધશે? વિગેરે પ્રકારથી આ વિષયમાં પણ ચાર ભાગો ને આશ્રય કરીને પાપકર્મના બંધ કરવાના સંબંધમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રશ્ન Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे ६५० इस्वादि, 'जहेक अवरोचयन्न एहि उद्देसो तदेव निरवसेसं' यथवानन्तरोपपन्न के रुदेशका तथैव निरवशेषमिहापि वक्तव्यम् । पर्याप्तत्व प्रथमसययवर्ती अनन्तरपर्याप्तः स च पर्याप्त सिद्धावपि भवति तत उत्तरकालमेव पापकर्माद्यक्षण कार्यकारी भवतीत्यसौ अनन्तरोपपन्नकचद् व्यपदिश्यते अतएवोक्तम् 'एवं जहेन अणतरोववन्न एहि ' इत्यादि, 'सेवं भंते । सेवं भंते । त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति है भदन्त । अनन्तरपर्याप्तक नारकादिवन्धविषये यदेवानु. इस प्रकार यहां द्वितीय उद्देशक के अनुसार ही रूप वक्तव्य कहा गया है ! यही बात 'जहेच अणतरोन्नएहिं उद्देस्रो तहे निरवसेसं' हम सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है। यहां जो द्वितीय उद्देशक के अनुसार भंग को कथन करने की बात कही गई है सो उसका कारण ऐसा है कि जो पतिक अवस्था के प्रथम समयवर्ती नारकादिक होता है वह अनन्तर पर्यास नारकादिक कहलाता है । ऐसा वह अनन्तर पर्याप्त पर्याप्तियों की सिद्धि होने पर भी होता है । और वह उत्तर काल में पापकर्म आदि के बन्ध का बन्ध करनेवाला भी होता है। सलिये ऐसा जीव अनन्तरोपपन्नक के जैसा ही कहा जाता है इसीलिये यहां 'एवं जहेब अनंतशेववन्नएहिं ऐसा सूत्रपाठ कहा गया है । 'सेवं भंते ! सेवं अंते । न्ति' हे भदन्त ! अनन्तर पर्याप्तक नारक आदि के पापकर्म आदि के बन्ध के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सर्वधा કરેલ છે. આ પ્રશ્નમા ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! આ સબંધમાં ખીજા ઉદ્દેશામાં જે પ્રાણે કથન કવામાં આવ્યુ છે તે સઘળું કથન અહીંયાં પણ સમજી લેવુ' અર્થાત્ અહિયાં પહેલેા અને બીજો એ એ ભગ सलवे छे. मे ४ वात 'जक्षेत्र अणतरोचवण्णएहि उदप्रो तहेत्र निरवसेसं ' આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. અહિયાં ખીજા ઉદેશેાના કથન પ્રમાણે ભંગે કહેવાનુ કહ્યું છે, તેનુ કારણ એ છે કે-જે પર્યાપ્ત અવસ્થાના પ્રથમ સમયમાં રહેનારા નરક વિગેરે હાય છે, તે ન'તર પર્યાપ્તક નારક કહેવાય છે એવા તે ાન તર પર્યાપ્તક પર્યાતિ ચેની સિદ્ધિ થયા પછી પણ હાય છે. અને ત્યારે જ તે પછીના કાળમાં પાપમ વિગેરેના બંધ અમધ રૂપ ક કરવાવાળા હૈાય છે. તેથી અહિયાં જીવ અન’તરે પન્નક જેવા જ કહેવાય છે તેથી महियां ' एवं ' जहेब अणंतरोववण्णरहि" से प्रभा सूत्रपाठ वामां आवे छे. सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' हे भगवन् मनंतर पर्याप्त विगेरे नार વિગેરેના પાપકના ખધના વિષયમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું" Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.८ सू०१ अनन्तरपर्याप्तकना० पापकर्मवन्धः ६५१ पियेण कथितं तरसर्व एवमेव--सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो सगवन्तं वन्दते नमस्यति पन्दित्वा नपस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ॥ सूत्र० १॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुवालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्री घासिलालप्रतिविरचितायां श्री "लगवतीसूत्रस्य" अमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायाम् पड्विंशतितमशतके अष्टमोदेशका समाप्तः ॥२६-८॥ सत्य ही है। इस प्रकार कहकर के गौतमस्वामीने प्रभुको बन्दना की और उन्हें नमस्कार किया, चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तपले आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये।लू०१। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीतून" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या छवीसवें शतक का अष्टम उद्देशक समाप्त ॥२६-८॥ છે, તે કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના નમસ્કાર કર્યા તે પછી તેઓ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. ૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને આઠમે ઉદ્દેશક સમાપ્ત માર૬-૮ %AL Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र ॥ अथ नवोदेशकः आरभ्यते ।। अप्टमोद्देशकेऽनन्तरपर्याप्तनारकादीनाश्रित्य बन्धवक्तव्यता कथिता नवमे तु परम्परपर्याप्तकनारकादीनाश्रित्य कथ्यते, तदनेन सम्बन्धन आयातस्य नवमो. द्देशकस्य इदं स्त्रम्-'परंपरपजत्तए णं' इत्यादि। ___ मूलम्-परंपरपज्जन्तए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा! एवं जहेब परंपरोक्वन्नएहिं उद्देलो तहेव निरवलेलो भाणियो । सेवं संते! सेवं भंते ! ति ॥सू०१॥ छछीलइमे बंधिसए नवसो उद्देलो समतो ॥२६-९।। छाया--रम्परपरिकः खलु भदन्त ! नैरयिकः पाप कर्म किमवनात् पृच्छा, गौतम ! एवं यथैव परम्परोपपनदेशक रतयेय निवनेपो भणितव्यः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यायहि हरति ।मु० १॥ इति पड्विंशतितमे वन्धिशतके नवमोद्देशकः समाप्तः ॥२६-९॥ रीका---'परंपरपज्जत्तए णं भंते ! मेरइए' परम्पराप्तिकः खलु भदन्त ! नैरयिकः, 'पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' पाप कर्म किम् अबध्नात् वनाति भन्स्यति शतक २६ उद्देशक ९ अष्टम उद्देशक में अनन्तर पर्याप्तक नारक आदिको आश्रित करके बन्ध की वक्तव्यता कही गई है। अब इस नौवें उद्देशक में परम्पर पर्याप्नक नारकादिकों को आशिन करके वही वक्तव्यता फही जावेगी इली सम्बन्ध को लेकर स्त्रकारने इस नौवें उद्देशक को प्रारम्भ किया है 'पर परपज्जत्तए णं भंते ! नेरइए पावं कम्म' इत्यादि टीकार्थ- हे भदन्त ! जो नैरपिक परंपरपर्याप्चक होता है वह क्या पूर्वकाल में पापकर्म का वध कर चुका होता है ? वर्तमान में वह नवभा देशान। प्रार'આઠમાં ઉદ્દેશામાં અનંતર પર્યાપ્ત નારક વિગેરેને આશ્રય કરીને બંધ સંબંધી કથન કરવામાં આવ્યું છે, હવે આ નવમા ઉદેશામાં પરસ્પર પર્યાપ્તક નારક વિગેરેને આશ્રય કરીને એજ કથન કરવામાં આવશે. આ समधथी सूत्रारे मा नवमा उद्देशान। प्रार' या छ. 'परंपरपज्जत्तए णं भंते ! नेरइए पाव कम्म' प्रत्याहि. ટીકાઈ– હે ભગવદ્ જે નરયિકે પરંપર પર્યાપ્તક હોય છે. તે શું ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચુકેલ હોય છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ ४.९ सू०१ परस्वतिकना० पापकर्मबन्धः ६५३ इत्यादि क्रमेण चतुर्भङ्गः प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोमा' हे गौar ! कश्विदेकः परम्परपर्याप्तको नारकः पापं कर्म अवनात् बध्नाति भवतीत्यादि रूपेग यथा परम्परोपपन्नकस्योदेशकः कृतः तेनैव रूपेण परम्परपर्याप्त नरकादि वैमानिकान्त चतुर्विंशतितमदण्ड केऽपि पापकर्मबन्धवक्तन्पता भणितव्या, एतदाशयेनैव कथितम् -' एवं जहा' इत्यादि, ' एवं जव परंपरोचाहिं उसो तहेन निरवसेसो भाणियन्त्रो' एवं यथैव येनैव रूपेण परम्परोपपनकैरुदेशक स्तथेत्र तेनैव क्रमेण परम्परपर्याप्तकनारकदण्डकोऽपि क्या पापकर्म का बंध करता है ? भविष्यत् काल में भी क्या वह पाप कर्म का बंद करनेवाला होता है इत्यादि क्रम से यहां गौतमस्वामीने चार अंगो को लेकर पापकर्म के बंध के सम्बन्ध में प्रश्न किया है । इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं- 'गोधमा ! एवं जहेब परंपरोचयन्नएहिं उद्देस्रो तहेब निरवलेसो भाणियन्बो' हे गौतम! कोई एक परंपरपर्याप्त नारक ऐसा होता है कि जो पूर्वकाल में पापकर्म का बंधक हुआ है, वर्तमान में भी वह उसका बंधक होता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका बन्धक होगा । इत्यादि रूप से जैसा परम्परोपपत्रक का उद्देशक कहा गया है उसीरूप से निरवशेष परम्परपर्याप्तक नारक को लेकर वैमानिकान्त तक के चौवीसों दण्डकों में भी पापकर्स के बंध के सम्बन्ध में वक्तव्यता कहनी चाहिये इसी आशय ले 'एवं जहेब परं परोवचन्नरहिं उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणि' ऐसा सूत्रपाठ कहा गया है । यहां आलापक आदिका કના ખધ કરે છે ? અને ભવિષ્યકાળમા પણુ તે પાપકર્મના ખધ કરવાના હાય છે ? વિગેરે ક્રમશ્રી ગૌતમસ્વામીએ આ વિષયમાં પાપકમના » ધ સોંગ ધી ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન પ્રભુશ્રીને પૂછ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतम स्वामीने डे - 'गोयमा ! एवं जहेब उद्देस्रो तहेव निरवसेसो भाणियन्त्रो' हे गौतम! નારક એવા હાય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મોના બંધ ક૨ે છે. વમાનમાં પણ તે તેના ખધ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને અધ કરશે વિગેરે પ્રકારથી પરપરેપપન્નક ના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન ત્રીજા ઉદ્દેશામા કરવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે પર પરપર્યાપ્તક નારક વિગેરેથી લઈ ને વૈમાનિક સુધીના ચાવીસ દંડકમાં પણ પાપકમના અધના स'अ'धभां Łथन ४२वु' लेहये, मेन अभिप्रायथी 'एव' जहेव परंपरोववन्नएहि पर परोंववन्नएहि परपर पर्याप्त Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દૂર भगवतीस्त्रे पठनीयः, आलापकादि प्रकारस्तु स्वयमेवोहनीय इति । 'सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह' वदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति यावद्विहरति हे भदन्त ! परम्परपर्याप्तकनारकादि जीवदण्ड के पापकर्मणो बन्धविषये यद् देवानुमियेण कथितं तद् एवमेव सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा, संयमेन तपसा आत्मानं साववन् विहरतीति ॥ मु० १|| इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां "श्री भगवती सूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पड़र्विंशतितमे बन्धशतके नवमोद्देशकः समाप्तः ॥२६-९॥ प्रकार स्वयं ही उद्भावित करना चाहिये । 'सेव' भते ! सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त ! आपदेवानु प्रियने जो परम्पर पर्याप्तक नारकादि जीव दण्डक में पापकर्म के बंध के विषय में कहा है वह सर्वथा सत्य ही हैं२ । इस प्रकार कहकर के गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नम स्कार किया । वन्दना नमस्कार करके फिर वे संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥०१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवती सूत्र " की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके छवीसवें शतकका ॥ नवम उद्देशक समाप्त ॥ २६-९ ॥ उसे तदेव निरवसेसो भाणियन्त्रो' मा प्रभानो सूत्रपाठ हेवामां आवे છે, આ સમધી આલાપ પ્રકાર સ્વયં મનાવીને સમજી લેવા. सेव भंते । सेव भंते ! त्ति' हे भगवन् न्याय देवानुम्रिये परंपर પર્યાપ્તક નારક વિગેરે જીવ દડકમાં પાપ કર્મના અધના વિષયમાં કહ્યું, છે, તે સર્વથા સત્ય જ છે. ૨ આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને વંદના નમસ્કાર કરીને તપ અને સયમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ચકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા !!સૢ૦ ૧૫ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકરપૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકના નવમે ઉદ્દેશક સમાસ ર૬-ા 瓿 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१० सू०१ चरमनार कादीना० पापकर्मवन्धः ६५५ ॥ अथ दशमोद्देशकः मारभ्यते । नवमोदेशके परम्परपयाप्तकनारकादीनां पापकर्मरन्धवक्तव्यता कथिता, दशमे तु चरमनारकायाश्रित्य सा कथयते तदनेन सम्बन्धेनायातस्य दशमोद्देशक स्येदं सूत्रम्-'चरिमे णं यत्ते' इत्यादि, मूलम्-चरिले भंते ! नरहर पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा! एवं जहेच परंपरोक्वन्नएहि उद्देलो तहेव चरिमेहि निरवसेलो। सेवं भंते! सेवं भंते ! ति जाब विहरइ ॥सू० १॥ छहीसइमे बंधिसए दलमो उद्देलो लमत्तो ॥२६-१०॥ छाया-चरमः खलु भदन्न ! नरयिकः पापं कर्म किमबध्नात् पृच्छा, गौतम ! एवं यथैव परम्परोपपनकरुदेशका तथैव चरमैनिरवशेषः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरतीति बसू० १॥ टीका-'चरिमे णं भंते ! चरमः खलु भदन्त ! नैरयिक इह चरमः स नारको यः पुन न नारकभवं माप्स्यति सः 'पावं कम्मं किं बन्धी पुच्छा' पापं कर्म किम -शतक २६ उद्देशक १०नौवें उद्देशक में परम्परपर्याप्त नारक आदिकों के पापकर्म की पन्ध वक्तव्यला प्रकट की गई है। अब इस दशवे उद्देशक में चरम नारकादिकों को आश्रित करके वही वक्तब्धता प्रकट की जावेगी सो इसी संबन्ध को लेकर इस दशवे उद्देशक को प्रारम किया जाता है 'चरिमे णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा'-इत्यादि टीकार्य हे भदन्त ! जो नैरथिक चरम है-अर्थात् जिसे अब नारक भव प्राप्त नहीं होता है-यही प्राप्त हुआ नारक भव जिसका समा शान। प्रा२ -- નવમા ઉદેશામાં પરંપરપર્યાપ્તકનારક વિગેરેના પાપકર્મના બંધ સંબંધી કથન પ્રગટ કરેલ છે. હવે આ દશમ ઉદેશામાં ચરમ-અન્તિમ નારક વિગેરેનો આશ્રય કરીને એજ કથન પ્રગટ કરવામાં આવશે. એ સંબંધથી આ દસમા ઉદેશાને प्रारम ४२वाभा मा छे.-- 'परिमे णं भते । नेइए पाव कम्मकि बंधी पुच्छा' या ટીકાઈ––હે ભગવન જે નારક ચરમ છે–અર્થાત્ જેને હવે પછી નારક ભવ પ્રાપ્ત થવાનું નથી. આ પ્રાપ્ત થયેલ નારક ભવ જેમને Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीने घनात् बध्नाति भन्स्थतीत्यादि क्रमेण चतुर्भकका प्रश्नः पृच्या संगृह्यते भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! कश्चिदेशः चरमो नारकः पापं कर्म यवधनात् बन्नाति मन्त्स्यतीत्येवं क्रमेण वैमानिकान्तदण्डकः सग्राह्यः, एतदमिमायेणाह-'एवं जहेच' इत्यादि, 'एवं जहेब परंपरोवण्णएहि उद्देमो तहेव चरिमेहि उद्देसो' एवं यथैव परम्परोपपन्नकैरूद्देश स्तथैव चरमनारकादिमिरपि दशमोद्देशकः पठनीयः अत्र चरमोदेशकः परस्परोशिकवद् वाच्यः, इति कथितम् अन्तिम नारक भव है-ऐसा वह चरम नैरपिक क्या भूतकाल में पापफर्म का बन्ध कर चुका है ? वर्तमान में वह क्या उसका बन्ध करता है ? भविष्यत् काल में क्या वह उसका बन्ध फा होगा? इत्यादि का से यह गौतमस्वामी का चतुर्भेगक प्रश्न है। इनके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! कोई एक चरम नैरपिक ऐला होता हैं जो पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है, दर्तमान में वह उसका बन्ध करता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका बन्ध करनेवाला होता है, इस क्रम ले यहां वैमानिकान तक का दण्डक गृहीत हुआ है इसी अभिप्राय को लेकर 'एवं जहेब पर परोषवन्नएहिं उद्देसो तहेव चर मेहिं उद्देसो 'सूत्रार ने ऐला मुत्रपाठ कहा है। अर्थात् जिस रीति से परंपरोपपन्नक नारकों का उद्देशक कहा गया है उसी रीति से यहां चरम नारकादियों का यह दवा उद्देशक श्री છેલ્લે નારક ભવ છે, એવો ગરમ–અન્તિમ નરરિક ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બધ કરી ચૂકેલો હોય છે? વર્તમાન કાળમાં તે શું તેનો બંધ કરે છે? ભવિષ્યમાં કાળમાં તે તેને બંધ કરશે ? ઈત્યાદિ પ્રકારથી ચાર ભાગ ત્મક પ્રશ્ન ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછે છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુની गौतम स्वामीन ४ छ -'गोयमा' ! है गौतम ! ध : यम રિચિત એવો હોય છે કે-જે પૂર્વ કાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચૂકેલા હોય છે, વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેનો બંધ કરવાવાળા હોય છે. આ કમથી અહિયાં વિમાનિક સુધીના हैं। यह ४२१या है. मे AMIय ने सूत्रधारे पत्र जहेव परंप. रोववण्णएहि उद्देसो तहेव चरमेहि उदेसो' या प्रमाणे सूत्र हो छ. અર્થાત્ જે રીતે પરંપર૫૫નક નારકેટ સંબંધી ઉદ્દેશો કહ્યો છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં ચરમ નારકાદિકને આ દસમે ઉદેશે પણ કહેવું જોઇએ અહિયાં આ ચરમ નારકેશક પરમ્પરેદેશકના ત્રીજા ઉદ્દેશા પ્રમાણે કહેલ છે તેમ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१० सू०१ चरमनारकादीना० पापकर्मवन्ध. ६५७ परम्परोद्देशकश्च ततीयोदेशकवत् पठितः, तथापि तस्मिन् मनुष्यपदमाश्रित्य आयुष्यकर्मणो बन्धविषये वैलक्षण्यं वाच्यं तदिल्थम् वृत्तीयोदेशके आयुष्कर्मापेक्ष्य सामान्यतोऽधनात् बध्नाति भन्स्यति१, अवध्नात् बध्नाति न भन्नस्यति३ अवधनात न वनाति भन्स्यति३, अवध्नात् न वनातिन भन्स्यति ४ इत्याकार काश्चत्वारो भङ्गाः कथिताः परन्तु तत्र चरममनुष्यस्यायुष्कर्मवन्धमाश्रित्य चतुर्थ एव भङ्गा घटने यश्चरमो मनुष्यो भवेत्स अ युवनार न बध्नाति न भन्स्यतीति, अन्यथा तस्य चरमत्वमेव न स्यादिति। एवमन्यत्रापि वैलक्षमण्यमवगन्तव्यम् 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरइ' तदे भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति यावद्विहरति हे भदन्त ! चरम रयिकादीनां पापकर्मादिवन्धविषये यत् कथितं कहना चाहिये । यहां यह चरम नारकोद्देशक, परम्परोद्देशक तृतीयो देशक की तरह कहने का बतलाया गया है फिर भी वहां मनुष्य पद को आश्रित करके सामान्य रूप से आयुष्य कम के मंत्र के सम्बन्ध में चार भंग प्रकट किये गये हैं। पर यहां चरम मनुष्य को आश्रित करके केवल एक चतुर्थ भंग ही घट सकता है क्योंकि चरम मनुष्य होगा वह 'अपनात, न बध्नाति न भन्स्थति' इसी एक भंगवाला होगा नहीं तो फिर उस में चरमतो ही नहीं आ सकेगी। इसी प्रकार से तृतीयोद्देशक से यहां चरमोद्देशक में और भी पदों में विलक्षणता जानलेनी चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहर' हे भदन्त ! चरम नैरयिकादिकों के पापकर्म आदि के वध के विषय में जो आप देवानुपियने कहा है वह सघ सर्वथा सत्य ही हैं। इस प्रकार कहकर સમજવું. તે પણ ત્યાં મનુષ્ય પદને આશ્રય કરીને સામાન્યપણાથી આયુષ્ય કર્મના બંધના સંબંધમાં ચાર ભંગો પ્રગટ કર્યા છે. પરંતુ અહિયાં ચરમ - મગ ચશ્રય કરીને કેવળ એક ચે ભંગજ ઘટે છે. કેમ કે જે ચરમ मनुष्य होते अबध्नातू, न बध्नाति, न भन्स्यति' मा मे पाणी तयरी. નહિં તે ફરી તેમાં ચરમપણું જ આવી શકશે નહિ. એ જ પ્રમાણે પહેલા ઉદેશાથી અહિયા ચરદેશકમાં બીજા પદેમાં વિલક્ષણપણું સમજી લેવું. _ 'सेव भंते ! सेव भते । ति जाव विहरई' 3 मापन २२म नबिना પાપકર્મ વિગેરેના બંધના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન अ०३ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६५८ भगवतीसूत्रे 'तत्सर्वम् एवमेव सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति, चन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं यावगन् विहरतीति ॥०१॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्बरकभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलिललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्या नैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजगदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरुबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "भगवती सूत्रस्य " प्रमेयचन्द्रिकारख्यायां व्याख्यायाम् पविंशतिशतकस्य दशमोदेशकः समाप्तः ॥ २६-१०॥ & गौतमस्वामीने भगवान को चन्दना की नमस्कार किया, चन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । जैनाचार्य जैनधर्नदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेधचन्द्रिका व्यात्या वीसवें शतकका || दशम उद्देशक समाप्त ॥२६-१०॥ આપ્ત હવાથી સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વદના કરી તેને નમસ્કાર કર્યા વઢના નમસ્કાર કરીને તે પછી તે સયસ અને તપથી પેતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પેાતાના સ્થાન પર બિરાજ માન થયા શાસૂ૦૧ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘ભગવતીસૂત્ર’ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવ્વીસમા શતકના દસમે ઉદ્દેશે સમાપ્ત ાર્૬-૧ના 節 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१० ०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मबन्धः ६५९ ॥ अथैकादशोद्देशकः मारभ्यते ॥ दशमोदेशकं निरूप्य क्रमप्राप्तमेकादशो देशकमारभते, तस्येदं सूत्रम् ' अचरिमे णं भंते' इत्यादि । मूलम् - अचरिणं भंते ! नेरइए पावं कस्मं किं बंधी पुच्छा गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव पढमोहेसए पढमबितिया भंगा भाणियव्वा सव्वत्थ जात्र पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । अचरिमे णं भंते! मणुस्से पार्व कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेrइए बंधी बंध बंधिस्स १, अत्थेगइए बंधी बंधन न बंधिस्सइ २, अत्थेगइए बंधी न बंधन बंधिस्सइइ । सलेस्ले भंते ! अचरिमे मस्से पायें कम्मं किं बंधी एवमेव तिन्नि भंगा चरमविहूणा भाणियव्वा, एवं जहेव पढमुद्देले, नवरं जेसु तत्थ वीससु चन्तारि भंगा तेसु इह आदिला तिन्नि अंगा भाणियव्वा चरिमभंगवजा । अलेस्ले केवलनाणी य अजोगीय, एए तिन्निविन पुच्छिज्जति, सेसं तहेव । वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा नेरइया | अचरिमे णं भंते! नेरइए नाणावर - णिज्जं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! एवं जहेब पावं०, नवरं मणुस्तेसु सकसाइसु, लोभकसाइसु य पढमबितिया भंगा। सेसा अट्ठारस चरमविणा, सेसं तहेव जाव बेमाणियाणं । दरिसणावरणिजं पि एवं वेव निरवसेस | वेयणिजे सव्वत्थ वि पढम बितिया भंगा जाव बेमाणियाणं, नवरं मणुस्सेसु अलेस्ले केवली अजोगीय नत्थि । अवरिमेणं भंते! नेरइए मोहणिजं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोथमा ! जहेव पावं कम्मं तहेव निरवसेसं जाव वेमाणिए । अचरिमेणं भंते! नेरइए आउयं कम्मं Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र ६६० किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! पढमतइया संगा, एवं सव्वपदेसु वि नेरझ्याणं पढमतइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढवीकाइय आउकाइय वणस्तइकाइयाणं तेउलेस्लाए तइओ भंगो, सेसेसु पदेसु सम्वत्थ पढमतश्या भंगा। तेउकाइय-वाउकाइयाणं सव्वत्थ पढमतइया भंगा, बेइंदिय-तेइंदिय-चरिंदियाणं एवं चेत्र, नवरं सम्मत्ते ओहियनाणे आभिणियोहियनाणे सुचनाणे, पसु च उसु वि ठाणेसु तइओ भंगो। पंचिंदियतिरिक्खजाणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो, सेसेसु पदेसु सव्वत्थ पढमतइया भंगा। मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइंमि य तइओ भंगो, अलेस्स केवलनाण अजोगीय न पुच्छिज्जति, सेसपदेसु सम्वत्थ पढमतझ्या अंगा। वाणमंतरजोइलियवेवाणिया जहा नेरइया । नाम गोयं अंतरायं च जहेव नाणावरणिजं तहेव निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ ॥सू० १॥ . छवीसइमे बंधिसए एकारलमो उद्देसो समत्तो ॥२६-११॥ छबीसइमं सयं समत्तं ॥२६॥ छाया-अचरमः खलु भदन्त ! नैरयिकः पापं कर्म किम् अवधनात् पृच्छा गौतम ! अस्त्येकक एवं यथैव प्रथमोद्देशके प्रथमद्वितीयौ मङ्गो भणितव्यौ सर्वत्र यावत् पश्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् । अचरमः खल भदन्त । मनुष्यः पापं कम किम् अवध्मात् पृच्छा, गौतम ! अस्त्येककोऽवध्नात् वध्नाति भन्स्यति१, अस्त्येकको. ऽवनात् वध्नाति न भन्स्यति२ अस्स्येककोऽवध्नात् न बध्नाति भन्स्यति३। सलेयः खलु भदन्त ! अचरमो मनुप्यः पापं कर्म किम् अवघ्नाव एवमेव त्रयो भङ्गाश्चरमविहीना भणितव्याः , एवं यथैव प्रथमोदेशके । नवरं येषु तत्र विंशतिषु चत्वारो भङ्गा स्तेपु इह आदिमा स्त्रयो भङ्गा भणितव्या वरमभङ्गवर्जाः। अलेश्यः केवलज्ञानी च अयोगी च, एते त्रयोऽपिन पृच्छ यन्ते, शेपं तथैव । वाणम: न्तरज्योतिष्कवैमानिका, यथा नैरयिकाः। अचरमः खलु भदन्त ! नैरयिका Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयंचन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अंचरमनारकादोना० पापकर्मबन्ध ६६१ ज्ञानावरणीयं कर्म किम् अवध्नात् पृच्छा, गौतम । एवं यथैव पापं मनुष्येषु सकषायिषु लोभकषायिषु च प्रथमद्वितीयौ भङ्गो, शेषा अष्टादश चरमविहीनाः, शेषं तथैव यावद् वैमानिकानाम् । दर्शनावरणीयमपि एवमेव निरवशेषम् । वेदनीये सर्वत्रापि प्रथमद्वितीय भङ्गौ यावद्वैमानिकानाम्, नवरं मनुष्येषु अलेश्यः केवली अयोगी च नास्ति । अचरमः खलु भदन्त ! नैरयिकः मोहनीयं कर्म किम् अवघ्नात् पृच्छा, गौतम ! यथैव पापं० तथैव निरवशेषं यावद्वैमानिकः । अचरमः खलु भदन्त ! नैरयिकः आयुष्कं कर्म किस अवघ्नात् पृच्छा, गौतम | प्रथमतृतीय भङ्ग एवं सर्व पदेवपि नैरविकाणां प्रथमतृतीयो भनौ नवरं सम्यग्मि मिथ्यात्वे तृतीयो भङ्गः । एवं यावत् स्वनितकुमाराणाम् । पृथिवीकायिकापूकारिकवनस्पतिकायिकानां तेजोलेश्यायां तृतीयो भङ्गः । शेषेषु पदेषु सर्वत्र तृतीय भङ्गो | तेजस्कायिकवायुकायिकानां सर्वत्र प्रथमतयो भङ्गी । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणाम् एवमेव नवरं सम्यक्श्वे अधिकज्ञाने आभिनिबोधिज्ञाने श्रुतज्ञाने, एतेषु चतुर्ष्वपि स्थानेषु तृतीयो भृङ्गः । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां सम्यग्मिमिध्यात्वे तृतीयो भङ्गः शेषेषु सर्वत्र प्रथमतृतीय भङ्गौ । मनुष्याणां सम्यङ्क्षिपात्वे अवेदके अकायिनि च तृतीयो भङ्गः अलेश्य केवलज्ञानायोगिनश्च न पृच्छयन्ते शेषेषु पदेषु सर्वत्र प्रथमतृतीयभङ्गौ । वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकाः नामगोत्रमन्तरायं च यथैव ज्ञानावरणीयं तथैव निरवशेषम् । तदेवं मदन्त ! तदेवं भदन्त इति यावद्विहरति ।०१। इति विवन्धिशतके एकादशोदेशकः समाप्तः ॥ २६ | ११ | टीका- 'एचरियेणं मंते ! नेरइए' अवरमः खलु भदन्त ! नैरयिकः 'पावं कम्मं किंबंधी पुच्छा' पापं कर्म किम् अनात् बध्नाति भन्त्स्यति १, इत्यादिक्रमेण छवीसवें शतक के ग्यारहवे उद्देशक का प्रारंभ दावें उद्देशक का निरूपण करके अब सूत्रकार क्रम प्राप्त ११ वें उद्देशक का कथन करते है 'अचरिमेण भते ! नेरइए पावं क्रम्मं किं बंधी' - इत्यादि टीकार्थ- हे भदन्त ! जो नैरयिक अचरम होता है वह क्या पापकर्म को पहिले से बांध चुका होता है ? वर्तमान काल में भी क्या वह અગીયારમા ઉદ્દેશાના પ્રારંભ- દશમાં ઉદ્દેશાનુ નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમપ્રાપ્ત આ અગીયારમાં देशानु' स्थन उरे छे. 'अचरिमे णं भवे । नेरइए पाव' कम्म कि बंधी' इत्याहि ટીકા—હૈ ભગવત્ જે નૈયિક અચરમ હાય છે, તે શું પાપકમ ને ખાધ પહેલેથી જ ખાંધી ચૂકેલ હાય છે? વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપકના Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीय ६६२. चतुर्भङ्गका प्रश्नः पृच्छया संगृह्य । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगहए एवं जहेब पढमोदेसए' अस्त्येकक एवं यथैव प्रथमोद्देशके 'पढपवितिया भंगा भाणियन्या सम्बध जाव पंर्चिदियतिरिक्खनोणियाणं' प्रथम द्वितीयौ भगौ भणितन्यौ सर्वत्र यावत पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां तदयमर्थः हे गौतम ! कश्चिदेकोऽचरमनारकः पापं कर्म अबध्नात् वध्नाति भन्स्यति ? पापकर्म का बन्ध करता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या यह पापकर्म का बंध करेगा? इत्यादि क्रम से यहां चार भंगो वाला प्रश्न गौतमस्वामीने प्रभुश्री से किया है, इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतम स्वामी से कहते हैं-कोयला! अत्थेगइए एवं जहेब पढमोदेसए.' हे मौतम ! कोई एक अचरम नैरयिक ऐसा होता है जो पापकर्म का बंध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह पापक्रम का वध करता है और भविष्यत् काल में भी वह पापकर्म का बन्ध करने वाला होता है, तथा-कोई एक अचरम नैरयिक ऐसा होता है, जो भूतकाल में पापकर्म का बंध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह पापकर्म का शन्ध करता है पर भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। इस प्रकार से प्रथम उद्देशक में कहे गये प्रथम द्वितीय भंग यहां भणितव्य हैं। और ये दो भंग यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक तक यहां भणिनव्य हुए हैं। यहां यावत्पद से 'अचरम भवनपति, पृथिवी अप, तेजः, वायु, वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौहन्द्रिय इन सब का બંધ બાંધે છે? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ બાંધશે? આ પ્રકારથી અહિયાં ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછેલ छ.,मा प्रश्नाना उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४९ छे --'गोयमा ! अत्थे. गइए एवं जहेव पढमउद्देसए' गौतम 15 अयरम१२यि सवा હોય છે કે-જે ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાનમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ કરે છે, અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપ કર્મને બંધ કરવાનું હોય છે. તથા એક અચરમ નારક એ હોય છે. કે–ભૂતકાળમાં તેણે પાપકર્મને બંધ કર્યો છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપ કર્મનો બંધ કરે છે. પરંતુ ભવિષ્યકાળમાં તે પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી. આ રીતે પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેલા પહેલા અને બીજે એ બે ભંગે અહિયાં સ્વીકાર્યા છે. અને આ બે અંગે યાવરપંચેન્દ્રિયતિય ચચાની સુધી અહિયાં કહેવાના છે આજ પ્રમાણે यापात्पथी 'मयरम, सवनपति वी, अ५, तेन, वायु, वनस्पति, मेद्रिय છ, ચાર ઈદ્રિયવાળા જી આ બધા ગ્રહણ કરાયા છે. આ તમામના Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अचरमनारकादीना० पापकर्स बन्धः ६६३ 'कश्विदेकोऽचरमो नारकः पापं कर्म अवघ्नात् बध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारको starit ast यथा प्रथमोदेशके कथितौ तथैन अचरमनारकस्य पापकर्मबन्ध"नेsपि वक्तव्य, चरमनारकादारभ्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकं यादव, अत्रे यांवत्पदेन 'अचरम भवनपति पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिद्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियमकरण पर्यन्तस्य ग्रहणं भवति, सर्वशालापत्रकारः स्वयमेवोहनीय इति । अचरमोदेशके नैरयिका दारभ्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकपर्यन्तेषु पदेषु पापं कर्माश्रित्य आधावेव द्वौ वक्तव्याविति निष्कर्ष इति । 'अचरिमे णं भंते । मणुस्से' अचरमः खलु भदन्त ! मनुष्यः 'पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' पापं कर्म किमबध्नात् बध्नाति भन्त्स्यति त्याद्याकारक चतुर्भङ्गकः प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'अत्थेगइए बंधी वंध बंधिस्तर' अस्त्येककोऽचरमो मनुष्यः पूर्वकाले पापं कर्म अवधनात, वर्तमानकाले पापं कर्म बनाति, अनागतकाले ग्रहण हुआ है । इन सब में आलाप प्रकार अपने आप उदूभावित करना चाहिये, तात्पर्य इस कथन का केवल इतना ही है कि अचरम नैरयिक से लेकर अचरम पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक तक के पदों में इस उदेशक में आदिके दोही भंग वक्तव्य हैं । 'अचरिमे णं अंते ! मणुस्ले ०' 'हे भदन्त ! जो मनुष्य अचरम होता है वह क्या पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में वह पापकर्न का बन्ध करता है ? और भविष्यत् में भी वह पापकर्म का क्या बन्ध करने वाला होता है ? इस रूप से यहां पर भी चार अंगोवाला प्रश्न गौतमस्वामीने प्रभुश्री से पूछा है, उत्तर में प्रभुश्रीने कहा है- 'गोमा ! अत्थेगइए बंधी वंध ifters 'हे गौतम! कोई एक अचरम मनुष्य ऐसा होता है जो पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह पापकर्म સ‘મધમાં આલાપા સ્વય સમજી લેવા આ કથનનુ' તા` એ છે કે. અચરમ નૈરિયકથી લઈ ને અચરમ ૫ ચેન્દ્રિયતિય ચયેાનિક સુધીના પદમા આ उद्देशानां पड़े। अने जीने से मे लगो उडेवाना हे 'अचरिमे णं भंते ! मस्से !' हे भगवन् के भनुष्य અચરમ હાય છે, તે શુ' પાપકના મધ કરી ચુકેલ હોય છે ? વમાન કાળમાં તે પાપકમના ખબ કરે છે? અને ભવિષ્યકાળમાં તે પાપકના ખધ કરવાના હોય છે ? આ પ્રકારથી આ પ્રશ્નના बंधी, बंधन, આ વિષયમાં પણ ચાર ભગાત્મક પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ પૂછેલ છે. उत्तरमां अलुश्री गौतम स्वामीने आहे - 'गोयमा ! अत्थेगइए ब घिस्स' हे गौतम! अर्ध शो अयरभ मनुष्य सेवा होय हे કાળમાં પાપકમના મધ કલી ચુકેલ છે, વર્તમાન કાળમાં, પણ ने भूतતે પાપ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ भगवतीमत्र पापं कर्म भन्स्यतीत्याकारकः प्रथमो भङ्गः१। 'अस्त्थेगइए बंधी बंधइ न यंघिस्सई' अस्त्येकका कश्चिदेकोऽवरमो मनुष्यः पूर्वकाले पापं कर्म अबध्नात् कश्चिदेकोऽचरमो : मनुष्यो वर्तमानकाले पापकर्मणो बन्धं करोति अनागतकाले च बन्धं न । करिष्यतीति द्वितीयो भङ्गः २, 'यस्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ' अस्त्येककः । फश्चिदेकोऽचरमो मनुष्योऽतीतकाले पापं फर्म अवध्नात्, वर्तमानकाले पापं कर्म । न बध्नाति, भविष्यकाले पापं कर्म भन्स्यतीति तृतीयो भइ.२ इत्येवं क्रमेण मथमद्वितीयतृतीयमका चतुर्थवर्जा सगवता अनुमोदिता इति । 'सलेस्सेणं . भंते । अचरिमे मणुस्से' सलेश्यो लेश्यायुक्तोऽचरमो मनुष्यः 'पावं कम्मं किं । बंधी पुरछा' पापं कर्म किम् अन्नात् बध्नाति भन्स्यति ? इत्यादि क्रमेण चतु. का बन्ध करता है और भविष्यत् में भी वह पापकर्म का यन्ध करने वाला होता है। तथा 'अत्थेगहए बंधी, बंध न बंधिस्सइ' कोई एक अचरम मनुष्य ऐसा होता है जो भूतकाल में भी पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह पापकर्म का बन्ध करता है पर भविष्यत् काल में वह पापकर्म का बन्ध करने वाला नहीं होता है। तथा 'अत्थेगइए बंधी न बंधा बंधिस्सह' कोई एक अचरम मनुष्य ऐसा होता है जो भूतकाल में पापकर्म का वंध कर चुका होता है, पर वह वर्तमान में पापकर्म का बन्ध नहीं करता है पर भविष्यत् में वह पापकर्म का बंध करनेवाला होता है । इस प्रकार से चतुर्थ भावर्जित ये तीन भंग यहां भगवान्ने अनुमोदित किये हैं। 'सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणुस्से' हे भदन्ल ! जो सलेश्य अचरम मनुष्य होता है-वह क्या पूर्वकाल में पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में वह 'કર્મને બધ કરે છે. અને ભવિષ્યમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ કરવાને हाय छे. तथा-'अत्थेगइए बधी बंधइ. न बधिस्सइ' असे भयभ मनु વ્ય એ હોય છે કે–જે ભૂતકાળમાં પાપ કર્મને બંધ કરી ચુકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે પાપકર્મને બંધ કરે છે, પરંતુ ભવિષ્ય म त पा५४मना मध ४२वाना होता नथी, तथा-'अत्थेगइए बंधी न बंधइ, व धिस्सइ' । मे४ मय२म मनुष्य मेवे डाय छे - भूतળમાં પાપકર્મનો બંધ બાંધેલ હોય છે, પણ વર્તમાન કાળમાં તે પાપ કમને બંધ કરતે નથી પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં પાપ કર્મનો બંધ કરવાને હોય છે. આ રીતે ચોથા ભંગને છોડીને આ ત્રણ ભંગે અહિયાં ભગવાને समर्थित या टे. 'सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणुस्से भगवन् रे सवेश्य અચરમ મનુષ્ય હેય છે, તે શું ભૂતકાળમાં પાપકર્મને બંધ કરી ચુકેલ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेन्द्रका टीका श. २६ उ. ११ सू०१ अचरमनारकादीना० पापकसंवन्ध ६६५ भङ्गकः प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'एवं चेत्र विशि भंगा चरमविणा भाणिया, एवं जहेब पढमुद्देसए' एवमेव अचरममनुष्यस्य पापकर्मबन्धने यथा चतुर्थवर्जा आधा स्त्रयो भङ्गाः कथिता स्तेनैव रूपेण सलेक्ष्याऽचरममनुष्यस्यापि पापकर्मबन्धने यो भगा आद्या वरमन्द्दिीना:- चतुर्थभङ्गरहिता भणितव्या एवं यथैव मथमो देशके कथिताः यमदेव अत्रापि - एकादशोदेश केऽपि चतुर्थरहिता आद्यास्त्रयो भङ्गाः अचरममनुष्यस्यापि वक्तव्या इति । प्रथमोद्देशकापेक्षया सलेश्याचरममनुष्पस्य यद्वैलक्षण्यं तद् दर्शयति 'नवरं' इत्यादि, नवरं जेसु तत्थ वीसेसु चत्तारि भंगा ते इह आदिल्ला तिन्नि भंगा भाणियन्वा चरिमभंगवज्जा' नवरं येषु पदेषु तत्र प्रथमोद्देश विशनौ पदेषु चत्वारो ङ्गाः सामान्याः कथिता स्तेषु पापकर्म का बन्ध करता है और भविष्यत् में भी क्या वह पापकर्म का बन्ध करेगा ? इत्यादि क्रम से यहां गौतमस्वामीने प्रभुश्री से चार भंगो वाला प्रश्न पूछा है । इसके उत्तर में प्रभुश्रीने गौतमस्वामी से कहा है- 'गोमा' एवं चैव तिनि भंगा चरमविणा भाणियचा एवं हे पढमुस' हे गौतम! यहां पर भी चतुर्थ भंग वर्जित प्रथम द्वितीय और तृतीय ऐसे तीन भंग प्रथम उद्देशक के जैसे कहना चाहिये परन्तु प्रथम उद्देशक की अपेक्षा इस अचरम मनुष्य में जो वैलक्षण्य है वह 'नवर जेसु तत्थ वीसेसु चत्तारि भंगा तेसु इद आदिल्ला तिन्नि गंगा भाणियव्वा चरिमभंगवज्जा' इस सूत्रपाठ द्वारा यहां प्रगट किया गया है, और वह इस प्रकार से है कि वहां प्रथम उद्देशक में जिन २० पदों में चार भंग सामान्य रूप से कहे गये हैं उन २० હાય છે ? વર્તમાન કાળમાં તે પાપકમના બધા કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ શું તે પાપ કર્માંના અંધ કરશે ? આ પ્રકારથી ગૌતમ સ્વામીએ ચાર ભ ગાવાળેા પ્રશ્ન પ્રભુશ્રીને પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી ગૌતમ सामने ४हे छे है- 'गोयमा ! एव' देव तिन्नि भगा चरमविहूणा भानियव्त्रा' હૈ ગૌતમ ! અહિયા પણ ચેાથા ભંગને છેાડીને ખાકીના પહેલે, જો અને ત્રીજો એ ત્રણ ભંગાએ પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે કહેલા છે. પરતુ પહેલા ઉદ્દેશાની અપેક્ષાથી આ લેશ્યાવાળા અચરમ મનુષ્યને જે વિલક્ષણપણું છે, अर्थात् विशेषता हो ते 'नवर' जेसु तत्य विसेसेसु चत्तारि भंगा तेसु इ आदिल्हा तिन्नि भंगा भाणियव्वा चरिमभगवन्जा' या ત્રપાઠ દ્વારા અહિયાં પ્રગટ કરેલ છે, અને તે આ પ્રમાણે છે. કે ત્યા પહેલા ઉદેશામાં ૨૦ વીસ પદોમા સામાન્ય રૂપથી ચાર ભગા કહ્યા છે, તે ૨૦ વીસ પામ २० ८४ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसो विशतिपदेषु इह एकादशोदेशके अचरममनुष्यदण्ड के आयाखयो भङ्गा मणि. तव्याः-कथयितव्या श्वरमभङ्गव :-चतुर्थभद्गरहिताः यद्यपि मनुष्यपदे पतेषु विंशतिपदेषु सामान्यतश्चत्वारोऽपि भङ्गाः सम्भवन्ति तथापि अचरमत्वात् मनुष्यपदे चतुर्थों मङ्गो न भवति चरमस्यैव मनुष्यस्य चतुर्थभङ्गसदाबाद। तानिच विंशतिपदानि एतानि-जीवे१-सलेश्या२-शुक्ललेश्य३, शुक्लपाति. १४-सम्यग्दृष्टि-ज्ञानि५-मविज्ञानचतुष्टय१०- लो संशोपयुक्त ११-वेद१२फपाय१३-लोमकपाय१४-सयोगि-मनोयोग्यादिश्य १६-साकारोपयु१७ क्ताऽ. नाकारोप२०-स्वरूपाणि, एतेषु पदेपु बाधात्रयो भङ्गा वक्तव्या इति। 'अछेस्से केवलनाणीय अजोगी य, एए विनि विन पुच्छिज्जति' अश्यः-लेश्यारहितः, पदों में यहां ११ वे उद्देशक में अचरण मनुष्य दण्डक में चतुर्थ भंग वर्जित आदि के तीन अंग ही कहना चाहिये । यद्यपि मनुष्य पद में इन २० पदों में सामान्यतः चारों ही भंग संभक्ति होते हैं फिर भी अचरम होने से मनुष्य पद में चतुर्थ भंग नहीं होता है क्यों कि जो चरम मनुष्य होता है उसके ही चतुर्थ भंग का सद्भाव होता है। २० पद इस प्रकार से हैं-'जीव१, सलेश्य२, शुक्ललेश्य३, शुक्लपाक्षिक४, सम्यग्दृष्टि४, ज्ञानी६, मतिज्ञानचतुष्टय ७,८,९,१०,नो संज्ञोपयुक्त ११, पेद् १२ कषाय १३, लोभापाय १४, सयोगी १५ मनो योगी आदित्रय १६, १७, १८, साझारोपयुक्त १९ और अनाकारोपयुक्त २०' । इन २० पदों में आदि के तीन भंगही वक्तव्य हुए हैं। 'अलेस्से केवलनाणी य अजोगी य एए तिन्नि वि न पुच्छिति' अलेश्य, केवल અહિયાં આ અગિયારમાં ઉદ્દેશામાં લેશ્યાવાળા અચરમ મનુષ્યના દંડકમાં ચેથા ભંગને છેડીને આદિના ત્રણ ભાગો જ એટલે કે પહેલો, બીજો અને ત્રી એ ત્રણ ભાગો જ કહેવા જોઈએ જે કે મનુષ્ય પદમાં આ વસે પદમાં સામાન્ય પ્રકારથી ચારે ભંગે સંભવે છે, તે પણ અચરમ હોવાથી મનુષ્યપદમાં ચોથો ભંગ હેત નથી. કેમ કે-જે ચરમ મનુષ્ય હોય છે, તેને જ થે ભંગ સંભવે છે. તે ૨૦ વીસ પદે આ પ્રમાણે –-જીવ ૧, સલેશ્ય, ૨ શુક્લ सेश्या 3, शुसाक्षिय, ४, सभ्यष्टि ५, ज्ञानी, भतिज्ञान ७, श्रुत ज्ञान, ८, अवधिज्ञान ६, पण ज्ञान १०, ना सज्ञोपयुत्त ११, ३६ १२, ४पाय १३, सोमाय १४, सयाजी १५, मनोयोगी १६, क्यनयोगी १७, १८, સાકારેષયુક્ત ૧૯, અને અનાકારોપયુક્ત ૨૦,” આ વીસ પદોમાં આદિના ત્રણ ભંગજ એટલે કે પહેલા બીજે અને ત્રીજે એત્રણ જ ભંગે કહ્યા છે. 'अलेस्से केवलनाणीय अयोगी य एए तिन्नि वि न पुच्छिज्जति' मदेश्य Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका २०२६ उ.११ सू०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मबन्ध ६६७ केवलज्ञानी च अयोगी च एते अयोऽपि मनुष्या न पृच्छयन्ते, अलेश्य केवलज्ञान्य. योगि मनुष्यविषये भङ्गा न भष्टव्याः लेश्यादिरहितत्वादेव भङ्गाभावादिति अलेश्याद्यास्त्रयश्वरममगवन्त एव अबध्नात् न बध्नाति न भन्स्यतित्याकारकाश्चरमभङ्गवन्त एव भवन्ति अतोऽत्र एते न प्रष्टव्या इति । 'सेसं तदेव' शेपम् एत व्यतिरिक्त सर्व तक्षक प्रथमोद्देशकदेव ज्ञातव्यमिति । 'वाणमंतरजोइसिय 'वेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका नारकवदेव प्रथमद्वितीयभङ्ग का ज्ञातव्या इति। ज्ञानावरणीयदण्ड के आह-'अचरिमे गं' इत्यादि, 'अचरिमेणं भंते ! नेरइए' अचरमः खलु भान्त ! नैरयिकः 'णाणावरणिज्ज कम्म किं बंधी पुच्छा' ज्ञानावरणीयं कम किम् अवध्नात् पूर्वकाले वध्नाति, अनागतकाले ज्ञानावरणीयं कर्म भन्स्यति, इत्यादिक्रमेण चतुर्भङ्गका प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं जहेव ज्ञानी और अयोगी इन अनुष्यों में केवल एक चतुर्थ संग ही होता हैं, क्योंकि ये तीनों चरम ही होते है अतः इस अचरलउद्देशक में इनकी पृच्छा नहीं की जाती है। 'सेसं तहेव' इस कथन के अतिरिक्त और सब बाकी का कथन प्रथम उद्देशक के जैसा ही जानना चाहिये, 'वाणमंतरजोहसिय वेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक नारक के जैसे ही प्रथम और द्वितीय भंगवाले जानना चाहिये । 'अचरिमेणं भंते ! नेरइए णाणावरणिज्नं कम्मं किं बंधी पुच्छ।' हे भदन्त ! जो नैरपिक अचरम होता है वह क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कर चुका होता हैं ? वर्तमान में भी वह क्या उसका वध करता है? और भविष्यत् में भी क्या वह उसका बंध करेगा ? इत्यादि रूप से કેવળજ્ઞાની, અને અયોગી એ મનુષ્યમાં કેવળ એક ચોથે ભંગજ હોય છે. કેમકે એ ત્રણે ચરમ જ હોય છે. તેથી આ અચરમ ઉદ્દેશામાં તેમના सधी प्रश्न ४२पामा मावत नथी. 'सेस तहेव' मा ४थन शिवाय माजी બીજુ તમામ કથન પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું. 'वाणम तरजोइसिया वेमाणिया जहा नेरइया' वान०यन्तर ज्योति मन વૈમાનિકને નારકના કથન પ્રમાણે જ પહેલા અને બીજે એ બે ભંગવાળા समन्या. 'अचरिमेण भते ! नेरहए णाणावरणिज्ज कम्म कि वधी पुच्छा' હે ભગવન જે નિરયિક અચરમ હોય છે, તેણે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કરેલ હોય છે ? વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બધ કરે છે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરશે? આ પ્રમાણે ચાર ભંગવાળે Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ भगवतीस्त्र पात्र' एवं यथैव पापं कर्म यथा पापकर्मदण्ड के अचरमनारकस्यायों द्वी भङ्ग को कथितौ तेनैव रूपेण अवरमनारकस्य ज्ञानावरणीयकर्मणः बन्धेऽपि-कश्चिदेकोऽचरमो नारका पूर्वकाले ज्ञानावरणीयं कर्म अबध्नान् , वर्तमानकाले वनाति, अनागतकाले भन्स्यति च ज्ञानावरणीयं कर्म १, तथा कश्चिदेको नारका पूर्वकाले ज्ञानावरणीयं कर्म अवधनात् , वनानि वर्तमानकाले, न भन्स्यति अनागतकाले ज्ञानावरणीय कर्म २, इत्या कारको द्वौ आयो भगौ तृतीयचतुर्थवौं वक्तव्यौ इति । अचरमनारकस्य पापकर्मदण्डकापेक्षया ज्ञानावरणीयर्गदण्डके लक्षण्यं प्रतिपा. दयन्नाह-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं मणुस्सेसु कमाइसु लोभकमाइसु य पढमवितिया चार भंगोवाला यह प्रश्न गौतमस्वामीने प्रभुश्री से किया है इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा । एवं जहेब पा' हे गौतम पापकर्म दण्डक में जिम रीति से अचरम नारक के आदि के दो भंग कहे गये हैं उमी रीति से अचरम नारक के ज्ञानावरणीय कर्म के यंध में भी आदि के दो ही भंग कहना चाहिये तृतीय चतुर्थ भंग नहीं। जैसेकोह एक अचरमनारक ऐसा होता है कि जिसके द्वारा पूर्वकाल में ज्ञानावरणीय कर्म का वध किया गया होता है, वर्तमान में भी वह उसका घन्ध करता है और आगे भी वह उसका वध करेगा १ तथा कोई एक अचरम नारक ऐसा होता है कि जिसके द्वारा पूर्वकाल में जानावरणीय कर्म का वध किया गया होता है वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है, पर भविष्य में वह उसका यन्ध करनेवाला नहीं होता है। ___ऐसे ये दो भंग ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध करने के सम्बन्ध में પ્રશ્ન ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછે છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે छ -'गोयमा एव जहेव पावं' के गौतम । पा५४ मा २ प्रभा અચરમ તારકે ને આદિના એટલે-પહેલે અને બીજો એ બે ભંગો કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે અચરમ નારકને જ્ઞાનાવરણીય કર્મના બંધમાં પણ આદિના એ બે ભંગ જ કરવા જોઈએ ત્રીજે અને ચોથો ભંગ કહેવાનો નથી. જેમ કેકેઈ એક અચરમ નારક એવો હોય છે કે જેના દ્વારા ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બંધ કરાય હેય છે વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે.૧ તથા-કેઇ એક અચરમ નારક એ હોય છે કે–જેણે ભૂતકાળમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કર્યો હોય છે. વર્તમાન પણ તે તેને બંધ કરે છે પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને બંધ કરવાવાળો હેતું નથી, ૨ “આ રીતે આ બે ભાગે જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ५५ ४२वाना समधी भय२ ना२४ मा हा छ. 'नवर मणुस्सेसु Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मयन्धः ६६९ भंगा' नवरं मनुष्येषु समुच्चयमनुष्येषु सकपायिपु लोभकपायिषु च प्रथमद्वितीयो अबध्नात् बध्नाति भन्स्यति १, अवध्नात् बध्नाति न भन्स्यति, इत्याकारको द्वावाधावेव भङ्गौ वक्तव्यौ पापकर्मदण्ड के सकपायलोभकपायिपु आद्यास्त्रयो भङ्गकाः कथिता अत्र तु आधौ द्वावेव यत एते ज्ञानावरणीयं कर्म अवद्धा पुन बन्धका न भवन्ति कषायिणां सदैव ज्ञानावरणीयकर्मणां बन्धकत्वात् चतुर्थस्तु भङ्गोऽचरमत्वादेव न सम्भवतीति भावः । 'सेसा अट्ठारसचरम विहूणा' शेषा अष्टादशवरमभङ्गविहीनाः सकपायलोभकपायं च परित्यज्य शेषेषु जीवसलेष शुक्लपाक्षिकसम्यग्दृष्टिज्ञानमतिज्ञानादि चतुष्टय नोसंज्ञोपयुक्त वेदसयोगि मनोयोग्यादि त्रय साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तेषु अष्टादशपदेषु चतुर्थभङ्गवर्जा आद्यास्त्रयोऽपि अचरमनारक दण्डक में बतलाये गये हैं। 'नवर मणुस्सेसु सकसाइसु लोभकसाइलु य पढमबितिया भंगा 'परन्तु विशेष यह हैं कि सामान्य मनुष्यों में-साषायी और लोभकषायी मनुष्यों में यहां प्रथम और द्वितीय ये दो भग ही वक्तव्य हुए हैं। पर पापकर्म दण्डक में तो कषायी और लोभ कषायी मनुष्यों में आदि के तीन भंग वक्तव्य हुए हैं। यहां जो आदि के दो भंग कहे गये हैं उसका कारण ऐसा है कि थे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांध करके पुनः बंधक नहीं होते हैं क्योंकि सकषायी मनुष्यों में ज्ञानावरणीय कर्मों की सदा ही घन्धकता रहती है। यह चतुर्थ भंग अचरम होने के कारण संभवित ही नहीं होता है। 'सेसा अट्ठारसचरमविहूणा' पाकी के १८ पदों में सकषाय एवं लोभकषाय पद को छोड़कर जीव, सलेश्य, शुक्ललेश्य, शुक्ल पाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानादिचतुष्टय, नोसंज्ञोपयक्त. वेद. कसाइसु लोभ कसाईसु य पढ मबितिया भंगा' ५२तु माह विशेषा मे छ - સામાન્ય મનુષ્યોમાં કષાયી અને લેભકષાયવાળા મનુષ્યોમાં અહિયાં પહેલે અને બીજે એ બેજ ભંગ કહ્યા છે. પરંતુ પાપકર્મના દંડકમાં તે કષાયવાળા અને લેભ કષાયવાળા મનુષ્યોમાં પહેલા ત્રણ ભંગે કહ્યા છે. અહિયાં આદિ પહેલે અને બીજો એ બે ભંગો કહેવાનું કહ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બ ધ ન કરીને ફરીથી તેને બ ધવાળો હોતો નથી. કેમકે કષાયવાળા મનુષ્યમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મોનુ બ ધકપણું સદાકાળ રહે છે. मयम पाथी या 1 समावित थते। नयी 'सेसा अद्वारसचरमविहूणा' બાકીના અઢાર પદોમાં સકષાય અને લેભ કષાય પદને છોડીને જીવ, ઇલ बेश्यावा, शु४१५क्षि, सभ्यष्टि, ज्ञानी, भतिज्ञान विगेरे यार सान, Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० भगवतीसरे भङ्गा यथायथमुदाहरणीयाः । 'सेसं तहेब जाव वेमाणियाणं' शेप तथैव याबद्वैमानिकानाम् , मनुष्यान् विहाय शेषाणां सर्वेषां वैमानिकान्तदण्डकानां सर्वपदेषु तथैव नारकवदेव प्रथम द्वितीयौ भनौ वक्तव्यो इति । 'दरिसणावरणिज्ज पि एवं चेव निरवसेस' दर्शनावरणीयमपि एवमेव निरवशेपं यथा ज्ञानावरणीयेन कर्मणा कर्मवन्धवक्तव्यता कथिता तथैव दर्शनावरणीयेन दण्डका भणितव्याः 'वेयणिज्जे सव्यस्थ वि पदमवितिया भंगा जाव वेगाणियाण' वेदनीये सर्वत्रापि प्रथमद्वितीयो भङ्गो अवधनात् वध्नाति मन्त्स्यति १, अवधनात् वघ्नाति न भन्स्यतिर इन्याकारको द्वौ भगौ ज्ञातव्यो एयमेव वैमानिकपर्यन्तेऽपि पथमद्वितीयों भद्गी वेदनीयकर्मविपये ज्ञातव्याविति । 'णवरं मणुम्सेसु अस्से केवली अयोगी नत्यि' सयोगी, मनोयोगी आदि तीन आकारोपयोगयुक्त, और अनाकारोपयुक्त इन में चतुर्थ भंग को छोड़कर आदि के तीन भंग कहना चाहिये। _ 'सेसं तहेब जाव वेमाणियाणं' मनुप्यों के सिवाय सभी दण्डको का यावत् वैमानिक दंडक तक का कथन नरयिकों के समान करना चाहिये। अर्थात् इन सभी दंडको में भी नैरथिकों के जैसे प्रथम और द्वितीय दो भंग ही कहना चाहिये। 'दरिमणावरणिज्ज पि एवं चेव निरक्सेसं' जिस रीति से ज्ञानावरणीय कर्म के साथ बन्ध को वक्तव्यता कही गई है उसी रीति से दर्शनावरणीय कर्म के साथ भी बन्ध की वक्तव्यता कहनी चाहिये,-'वेयणिज्जे सम्वत्य वि पढमपितिया भंगा जाच वेमाणियाणं' वेदनीय कर्म में भी सर्वत्र पदों में प्रथम द्वितीय भंग वैमानिक तक कहना चाहिये, 'नवर मणुस्सेसु નાસંરોગી અને અનાકારપગવાળામાં ચોથા ભંગને છેડીને પહેલે, બીજે અને ત્રીજો એ ત્રણ ભંગો કહેવા જોઈએ. _ 'सेंस तहेव जाव वेमाणियाणं' भनुष्याना शिवाय मानु यावत् વૈમાનિક દંડક સુધીનું કથન નવિકેના કથન પ્રમાણે કહેવું જોઈએ અર્થાત્ આ अधामा परखा गने मील मे मे मी४ ४ पान ह्या छ. 'दरिसणावरणिज्जपि एवं चेव निरवसेसं' के प्रमाणे ज्ञानापणीय भनी साथ બંધ સંબંધી કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે દર્શનાવરણીય કર્મની સાથે પણ બંધ સંબંધી કથન કહેવું જોઈએ અર્થાત દર્શનાવરણીય કર્મ સાથે પણ । ४ा नसे. 'वेयणिज्जे खव्वत्यवि पढमविति या भंगा जाव वेमाणि. ચા વેદનીય કર્મમાં પણ બધાજ પદેમાં માનિકે સુધી પહેલે અને બીજે समे गो ४९ ने ये 'नवर' मणुस्सेसु अलेस्से केवली अयोगी नत्थि' Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अच रसनारकादीना० पापकर्मबन्ध ६७१ - नवरं मनुष्येषु अलेश्यः केवली अयोगी नास्ति केवलं मनुष्येषु अलेश्यः केवली अयोगी मनुष्येऽचरमो न भवति एतेषां चरमत्वस्यैव सद्भावादिति । 'अचरिमेणं भंते ! नेरइए' अचरमः खलु भदन्त ! नैरयिकः 'मोहणिज्जं कम्म कि बंधी पुच्छा' मोहनीयं कर्म किं पूर्वकाले अवघ्नात्, वर्तमानकाले प्रध्नाति भविष्यकाले भन्त्स्यति १ तथा मोहनीयं कर्म अवधनात् बध्नाति न भन्त्स्यतिर, अवघ्नात् न वध्नाति भन्दस्यतिर अवघ्नात् न वध्नाति न अत्स्यति४ - इत्येवं 4 अलेस्से केवली अजोगी नस्थि विशेष यह है कि मनुष्य पद में लेइयारहित, केवली एवं अयोगी ये मनुष्य अचरम नहीं होते हैं। क्योंकी लय में चरमता का ही सद्भाव रहता है अतः यहां पर ये पद नहीं कहने चाहिये 'अवरिमेण भते । नेरइए' हे भदन्त । जो नैरयिक अचरम होता है वह क्या 'मोहणिज्जं कम्मं किं बंधी पुच्छा' मोहनीय कर्म को भूतकाल में बांध चुका होता है, वर्तमान में भी क्या वह मोहनीय कर्म को बांधता है ? और भविष्यत् काल में भी क्या वह मोहनीय कर्म को बांधनेवाला होता है ? अथवा क्या वह भूतकाल में मोहनीय कर्म को बांध चुका होता है ? वर्तमान में भी वह उसे बांधता है पर क्या वह उसे भविष्यत् काल में बांधनेवाला नहीं होता है ? अथवा-क्या वह मोहनीय कर्म को भूतकाल में बांध चुका होता है ? वर्तमान में वह उसे क्या नहीं बांधता है ? भविष्यत् काल में क्या उसे वांधेगा ? अथवा भूतकाल में हो वह उसे बाध चुका होता है ? વિશેષતા એ છે કે-મનુષ્ય પદમાં લેસ્યા સહિત કેવલી અને અયેગી એ મનુષ્યે અચરમ હાતા નથી. કેમ કે-ખધામાં ચરમ પાને જ સદ્ભાવ રહે છે તેથી अडींया मे पहोवाना नथी 'अचरिमेणंभ ते ! नेरइए' है लगवन् ने अयरम નૈરયિક હાય છે, शु 'मोहणिज्जं कम्म कि बंधी पुच्छा' भूतप्राणमां मोहनीय ક્રમ ના ખ ધકરી ચૂકેલ હાય છે ? વતમાન કાળમાં પણ તે મેહનીય કમ ના બંધ કરવાવાળા હોય છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ તે મેહનીય ક`ના બધ કરશે ? અથવા શુ તે ભૂતકાળમાં મેહનીય કર્મીને ખાંધી ચૂકેલ હોય છે ? વમાનમાં પણ તે તેને ખાધે છે ? પરતુ ભવિષ્ય કાળમાં તે તેને અધ કરશે નહી” ? અથવા-ભૂતકાળમાં મેાહનીય કર્મીને ખાંધી ચૂકેલ હાય છે ? અને વમાન કાળમાં તે તેના ખધ કરશે અથવા ભૂતકાળમાં જ તેણે તેના ખધ કર્યાં હાય છે ? વમાન કાળમા તે તેના અશ્વ નથી કરતા ? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના બધ નહી કરે ? આ પ્રમાણેના ચાર ભંગા વાળા પ્રશ્ન મેાહુની’ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ भगवतीसूत्रे चतुर्भङ्गको मोहनीय कर्मबन्धविषये प्रनः पृच्छा संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'जहेब पाच सहेच निरवसेसं जाव पेमाणिए' यथेत्र पापं तथैव निरवशेषं यावद्वैमानिकः, पापकर्मबन्धविषये येन रूपेण कथितं तेनैव रूपेण निरवशेषं सर्वमपि मोहनीय कर्मबन्धविषयेऽपि वैमानिकपर्यन्तस्य वक्तव्यम् । अयं भावः- मनुष्याणां विंशतिपदेषु चरमभङ्गरहिता आधाखयो भङ्गा वक्तव्या मनुष्याणां शेपपदेषु, तथा शेपत्रयोविंशतिदण्डकेषु च द्वौ इति । आयुर्दण्ड के 'अचरिमेण भंते । नेरइए' अचरमः खल भदन्त ! नैरयिकः 'आउयं कम्मं किं चंधी पुच्छा' आयुकं कर्म किम् अवघ्नात्, चन्नाति मन्त्स्यति १, वर्तमान में वह क्या उसे नहीं बांधता है और भविष्यत् काल में भी क्या वह उसे नहीं बांधेगा ? इस प्रकार का यह चार भंगोवाला मोहनीय कर्मबन्ध के विषय में गौतमस्वामीने प्रश्न किया है। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! जहेव पावं तहेव निरवसेसं जाव माणिए' हे गौतम! जैसा पापकर्म के सम्बन्ध में कहा जा चुका हैं वैसा ही समस्त कथन यहाँ यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये, तात्पर्य यही है कि मोहनीय कर्म के बन्ध के संबंध में भी पापकर्म के बंध के जैसे मनुष्यों में भी बीस पदों में तो आदि के तीन भंग कहना चाहिये और शेष पदों में, तथा तेवींस दंडको में आदि के दो भंग कहने चाहिये । 'अचरिमेण भरते ! नेरहए आउयं कस्मं किं बधी पुच्छा' हे भदन्त ! जो अचरम नैरयिक होता है क्या उसके द्वारा पूर्वकाल में आयुष कर्म का घन्ध किया गया होता है ? वर्तमान में वह क्या आयुष कर्म का बन्ध करता है ? भविष्यत् काल में भी क्या वह आयुष कर्म का बंध કૅના બંધના સબધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને પૂછ્યા છે આ પ્રશ્નના उत्तरमां अनुश्री गौतम स्वामीने हे छे - 'गोयमा ! जहेव पाव व निरवसेस जाव वैमाणिए' हे गौतम! याचना गंधना समंधमा ? પ્રમાણુનું કથન કરવામાં આવ્યું છે એજ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં યાવત વૈમાનિક સુધી કહેવુ જોઈ એ કહેવાનું તાત્પ એ છે કે-મૈાહનીય કમના ખધ સ મ་ધમાં પણ પાપકમ બ ધના કથન પ્રમાણે મનુષ્યામા પણ વીસ પદેોમાં તે આદિના ત્રણ ભંગા કહેવા જોઇએ અને બાકીના પદોમાં તથા તેવીસ દડકામા આદિના मे भगवा हो. 'अचरिमे णं भंते । नेरइर आउयं कम्म कि बंधी पुच्छा' હૈ ભગવત્ જે અચરમ નૈરિયેક ડાય છે, તેણે ભૂતકાળમા આયુકને મધ કર્યો હાય છે? વર્તમાન કાળમાં તે આચુકમના અંધ કરે ? અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને ખધ કરશે ? ઈત્યાદિ ક્રમથી ગૌતમસ્વામી એ અહિયાં Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयखन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सूर अचरमनारकादीना० पापकर्मयन्ध ६७३ . , इत्यादि क्रमेण चतुर्भङ्गका प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, ____ 'गोयमा' हे गौतम ! 'पढमतइया भंगा' प्रथमतृतीयौ भङ्गो, हे गौतम ! कश्चिदे • कोऽचरमो लारकः आयुष्कं कर्म अवघ्नात् पूर्वकाले, बध्नाति वर्तमानकाले, भन्स्यति । चानागतकाले १, तथा कश्चिदेकोऽचरमो नारकः, आयुष्कं कर्म अवधनात् न बध्नाति भन्स्यति । चरमस्वादेव, अचरमस्यायु बन्धोऽवश्यमेव भाति, अन्यथा • अचरमत्यमेव न स्यादिति एवं समपदेसु वि एवं सर्वपदेष्यपि 'नरइयाणं पढम तइया अंगा' नैरयिकाणां प्रथमवतीयौ भङ्गी, अत्र द्वितीयभङ्गो न सम्भवति · करेगा ? इत्यादि क्रम से यहां गौतमस्वामीने पृच्छा शब्द गृहीत चार भगोयाला प्रश्न प्रभु ले आयुष कर्म के बंध के विषय में किया हैं। , इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा। पढमतइया भंगा कोई अचरम नारक ऐसा होता है कि जो पूर्वकाल में भी आयुष कर्म का बंध कर चुका होता है वर्तमान में भी बाद उसका बंध करता है और भविष्यत् काल में भी वह उसका पंध करनेवाला होता है। तथा कोई - एक अन्चरम नारक ऐसा होता है जो पूर्व काल में आयुष कर्म का बन्ध कर चुका होता है, वर्तमान में बह उसका बंध नहीं करता है पर भविष्यत् काल में यह उसका बध करनेवाला होता है। क्यों कि जो अचरम होता है उसके अवश्य ही आयुर्म का बध होता है। नहीं तो उसमें अवरतना ही नहीं बन सकती है। 'एवं समपदेसु धि' इसी प्रकार से अचरम नैरयिक के समस्त पदों में प्रथम तृतीय भंग जानना चाहिये, यहाँ दितीय भंग जो संगवित नहीं है उसका कारण “હુર” એ પદથી ગ્રહણ કરાતા ચાર ભાગ વાળો પ્રશ્ન પ્રભુશ્રીને પૂછે છે या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतम स्वामीन ४ छ -'गोयमा ! पढमतइया भंगा' ४ सयम ना२४ सेवा हाय छ - भूतना पण આયુષ્ય કર્મને બધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે તથા કોઈ એક અચરમ નારક એ હોય છે કે-જે પૂર્વ કાળમાં આયુર્મને બધ કરી શ્કેલ હોય છે વર્તમાન તે તેને બંધ કરવાવાળો હેત નથી પરત ભવિ ગ્ય કાળમાં તે તેને બ ૫ ઠરવાવાળો હોય છે. કેમ કે જે અચરમ હોય છે. તેને અવશ્યજ આયકર્મને બે ધ હોય છે. નહી તો તેમાં ચરમ શું જ समवतु नयी एवं सव्वरदेसु' मे प्रो मन्च२५ यिने संघn પદેમાં એટલે કે ૨૦ વીસે પદમાં પહેલો રને ત્રીજો એ બે ભંગો સમ જવા. અહિયાં બીજો ભંગ સંભવિત થતો નથી. તેનું કારણ એ છે કે STR५ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्रे अचरमरयायुर्वन्धस्यावश्यत्वात् इति । 'नवरं सम्मामिकते ओ भंगो' नवरं सम्यग्मिथ्यात्वपदे तृतीयो भङ्गः - अवघ्नात् न बध्नाति भन्त्स्यतीत्याकारकः एक एव ज्ञातव्यः । तत्र प्रथमद्वितीयचतुर्था भङ्गा न भवन्तीति । ' एवं जाव धणियकुमाराणं' एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्, अत्र यावत्पदेन अमरकुमारादारभ्य वायुकुमारान्तानां सर्वेषां संग्रहो ज्ञातव्यः । ' पुढवीकाइय आउकाइय वणस्सङकाइयाणं तेउलेस्साए तो भंगो' पृथिवीकायिकाकायिकवनस्पतिकायिकानां तेजोवेश्यायां तृतीयो भङ्गः, अवघ्नात् न बध्नाति मन्त्रयतीत्याकारको भवति पृथि व्यवनस्पतिषु देवानामागति र्भवति तवस्तेषामपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्या सद्भावेन एक एव तृतीयो भङ्गो भवतीति भावः । ' से सेम पढेषु सव्वत्य पढमयह है कि अचरम के नियम से आयुकर्म का बंध होता है। 'नवर' सम्मामिच्छते तहओ भगो 'लम्यग्मिथ्यात्व पद में 'अवघ्नात् न बध्नाति भन्तस्यति' ऐसा एक तीसरा ही भंग होता है । प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ ये तीन भंग नहीं होते हैं। 'एवं जाव थणियकुमाराणं' इसी प्रकार से यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये, यहां यावत्पक्ष से असुरकुमार से लगाकर वायुकुमारों तक के समस्त भवनपतियों का ग्रहण हुआ है। 'पुढवीकाहय आयुकाय वणस्सहकाइयाणं तेउलेस्साए तइओ भंगो' पृथिवीकायिक अपकायिक और वनस्पतिकाधिक इनके तेजोश्या में तृतीयभंग - ' अवध्नात्, न बध्नाति, भन्त्स्यति - ' वक्तव्य कहा है, क्योंकि पृथिविकायिक में अकाधिक में और वनस्पतिकायिक में देवों की आगति होती है-इसलिये उनकी अपर्याप्तावस्था में तेजोछेद्या का सद्भाव होने ले एक तीसरा हो भंग वक्तव्य कहा गया ૬૦ मयरभवाजाने नियमथी आयुम्नो अंध होय छे, 'नवर' सम्मामिच्छत्ते तहयो भ'गो' सभ्यभूमिथ्यात्व यहां 'अबध्नात्, न बध्नाति, भन्त्स्यति' मे પ્રમાણેને આ ત્રીજો ભગજ હાય છે. પહેલા બીજો અને ચેથા એ ત્રણ लौंगो होता नथी. एवं जाव थणियकुमाराणं' शेन प्रभाषे यावत् स्तनितકુમાર સુધી સમજવું જોઇએ અહિયાં યાવત્ પદ્મથી અસુરકુમારથી લઈ ને વાચુ કુમારા સુધીના સઘળા ભવનપતિએ ગ્રહણ કરાયા 'पुढचिकाइ आउकाइयवणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए तइयो भंगो' पृथ्वी - કાયિક, અષ્ઠાયિક અને વનસ્પતિકાયિકાને તેજોલેશ્યામાં ત્રીજો ભંગ જે 'अबनात्, न बध्नाति, भन्स्यति' आ प्रमाणे हे, ते होय छे કેમ કે પૃથ્વીકાયકામાં અષ્ઠાયિકામાં, અને વનસ્પતિકાયિકામાં દેવેની ઉત્પતી હાય છે તેથી તેઓની અપર્યાપ્તાવસ્થામાં તેજલેશ્યાના સદ્ભાવ હાવાથી એક ત્રીજો Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयंतिका का श०२६ उ.११ जु०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मवन्धः ६७५ तइया भंगा' शेषेषु पदेषु सर्वत्र प्रथमतृतीयौ मङ्गौ वक्तव्यौ 'तेउक्काइयवाउक्काइयाणं सव्वस्थ पढमतइया भंगा' तेजस्कायिकवायुकायिकानां सर्वत्र प्रथमतृतीयौ अवघ्नात् बध्नाति भन्स्यति१, अवधनात् न बध्नाति भन्स्यतीत्याकारको भङ्गौ ज्ञातव्यों सर्वत्र पदेषु । 'बेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं एवं चेव' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां जीवानामेवमेव सर्वत्रपदेषु प्रममतृतीयभङ्गौ भवतः। 'नवरं सम्मत्ते ओहियनाणे आमिणिवोहियनाणे सुयनाणे, एएसु चउसु वि ठाणेसु तइओ भंगो' नवरं पूर्वा पेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् सम्यक्त्वे औधिकज्ञाने आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने, एतेषु चतुर्वपि स्थानेषु केवलं तृतीय एव अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यतीत्याहै। 'सेसेलु पदेलु सवस्य पढमतच्या अंगा' शेष सब पदों में प्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिये । 'तेउस्काइथ बाउक्झाइयाणं सव्वस्थ पढमतझ्या भंगा' तेजस्काधिक और वायुकायिकों के समरत पदों में 'अयनात्, बधशाति, सन्स्थति १ अबध्नात, न बध्नाति, अन्त्स्थति ये प्रथम और तृतीय ऐसे दो अंग ही होते हैं। वेइंदिय तेइंदिय चउरिदियाण एवं चेव' हीन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौहन्द्रिय इन जीवों के भी इसी प्रकार से समस्त पदों में प्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिये, 'नवरं सम्मत्ते ओहियनाणे, आभिणियोहियनाणे सुयनाणे एएसु चउसु वि ठाणेसु तइओ भंगों' परन्तु इनके लम्बस्व, औधिक समु. च्चय (सामान्य) ज्ञान, आमिनियोधिकज्ञान, श्रुतज्ञाल इन चार स्थानोपदों में केवल एक तीसरा ही भंग होता है-क्यों कि पूर्वलक की A समावित हो छ. 'सेसेसु पदेसु सव्वत्थ पढमतइया भंगा' माना गया यहीमा पसे। भने श्रीन थे. मे १ थाय छे. 'वेउकाइए वाउकाइयाणं सव्वत्थ पढमतइया भंगा' तयि भने वायुायिहाने मी पहोमा अबध्नात्, वध्नाति, भन्स्यति'१ अबध्नात् , न बध्नाति, भन्स्यति२' पो मन मान्न से मे भी हाय छे. 'वेइदियतेइंदिय,चउरि दियाण एव चेव' में द्रियाण તેઈન્દ્રિય અને ચૌઈન્દ્રિય જીવોને પણ એજ પ્રમાણે બધાજ પદોમાં પહેલે मने श्रीन से मे. १ सभा . 'नवरं सम्मत्ते ओहियनाणे आभिहिवाहिया नाणे सुयनाणे एपसु चउसु वि ठाणेसु तइओ भगो' ५२ तमान सभ्यप. ઔઘિકજ્ઞાન, સમુચ્ચય (સામાન્યજ્ઞાન) આભિનિધિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન, આ ચાર પદેમા-સ્થાનમાં કેવળ એક ત્રીજો ભંગ જ હોય છે. કેમકે પૂર્વભવની અપેક્ષાથી આ બે ઇન્દ્રિયવાળા ત્રણ ઈદ્રિયવાળા અને ચાર ઇન્દ્રિયવાળા છમાં અપર્યાપ્તક અવસ્થામાં સમ્યકત્વ વિગેરે ચાર સ્થાને સદ્ભાવ રહે છે. અને તે સમયે તેમને આયુને બંધ થતું નથી. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ भगवतीस्त्र कारको भङ्गो भत्तीति पूर्वभवापेक्षया द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु अपर्याप्तावस्थायां सम्यक्त्वादि चतुष्टयस्य समावे तत्समये आयुवन्धाभावात् । 'पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मासिच्छत्ते तइयो भंगो' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां सम्पग्मि-: थ्यात्मपदे तृतीयोऽवघ्नात् न बध्नाति मन्त्स्यतीत्पाकारको भङ्गो ज्ञातव्य इति । 'सेसेसु पदेसु सम्पत्य पढमतइया भंगा' शेषेषु सरय मिथ्यात्वातिरिक्तेषु सर्वपदेषु प्रथमतृतीयौ अवघ्नात् बध्नाति भन्स्यति १, अवध्मात् न बध्नाति भन्स्यती । स्याकारको हावेच भङ्गौ भवत इति । 'मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकलाईमि । य तइओ मंगों' मनुष्याणां सम्यग्मिथ्यात्वे अवेद के अफपायिनि च तृतीयो । भङ्गः, अवध्नात् न बध्नाति भन्स्यति इत्याकारक एव भवतीति । 'अलेस्स - केवलनाण अयोगी य न पुच्छि जति' अलेश्या केवलज्ञानी अयोगी च न पृच्छयन्ते । अपेक्षा ले इन दो इन्द्रिय, तेहन्द्रिय और चौइन्द्रित जीवों में अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्वादि चतुष्टय का सद्भाव रहता हैं । और इस समय आयुका पंध नहीं होता है। ___पंचिंति यतिरिन्दग्वजोणियाणं सम्मानिच्छत्ते तइओ मंगो' पञ्चेन्द्रियनियंग्योनिकों के लम्पग्निध्यात्व में तृतीय अंग होता हैं। 'सेले पदेलु सव्वस्थ पढमलइया अंगा' सम्धग्मिथमावसे अतिरिक्त और समस्त पदों में प्रथन और तृतीय ऐले दो ही भंग होते है 'अवघ्नात् , नाति, मत्स्स्थलि, यह प्रथम भग है 'अबधनात् न बध्नाति, अन्स्पति' यह तृतीय भंग. है, 'मणुस्याणं सम्मामिच्छत्ते अधेदए अभलाईमि य तहओ भंगो' मनुष्यों के सम्यग्मिथ्यात्व, अबेदक और अकपाधी इन तीन पदों में तृतीय भंग होता है, 'अलेस केबलनाण अयोगी धन पुच्छिति' अलेप, येवलज्ञानी 'पचिदियतिरिकनजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भ गो' ५येन्द्रियतिय"य योनियाजागान सभ्ययात्वमा पड डाय छे. 'सेसेसु पएसु सव्वत्थ पढमनइया भगा' सभ्यमिथ्यात्व शिवायना पीन सघणा स्थानमा पडतो मन की मेम मे नगा डाय छे. 'अवघ्नात् , बध्नाति भन्स्यति' मा ५७सा छ 'अवध्नात , न बध्नाति, भन्स्यति' मा श्री छे. __'मणुम्वाणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए असाइमि य तइयों भगो' भनुष्याने સમૃમિથ્યાવ, અવેદક અને અકષાયિ આ ત્રણ સ્થાનમાં ત્રીજો ભંગજ . साय छे. 'अलेम्स केवलनाण अयोगी य न पुच्छिजाति' मवेश्य, ज्ञानी, Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ०११ ८०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मबन्धः ६७७ over " - एतेषु कर्मबन्धाभावेन antara 'सेसपदे सव्वत्य पढमतझ्या संगा' शेषपदेषु सम्यग्मिथ्याला वेदकाळपायालेय केवलज्ञानायोगि व्यतिरिक्त सर्वपदेषु प्रथमतृतीय अवध्यात् बध्नाति भन्त्स्थति, अवघ्नात् न वध्नाति अन्त्स्यति इत्याकारको ज्ञातव्याविति । 'वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया' वानव्यन्वरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरविका नारकवदेव एतेषां मानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां सिश्रदृष्टिं विहाय सर्वपदेषु प्रथमतृतीयभङ्गौ ज्ञातव्याविति । शेषपदव्याख्यानम् अस्मिन्नेव प्रकरणे दिवेचितम्, 'नाम गोयं अंतरायं च जहेब नानावाणिज्जं तत्र निरवसेस' नामगोत्रमन्तरायं चकर्म यथैव ज्ञानावरणीयं तथैव निरवशेष बेदिन्यमिति । ' सेवं भंते ! सेवं आर अयोगी इन में कर्मवत्र का अभाव होने ले संग व्यवस्था का भी प्रभाव है-इसलिये इनके सम्बन्ध में प्रश्न नहीं किया गया है । 'लेसपदेसु सत्य पढनलया भगा' इनके मिश्रदृष्टि, अवेदक, अकषाघी, भले, केवलज्ञानी, और अयोगी के अतिरिक्त और समस्त पदो में प्रथम और तृतीय ऐसे दो भंग होते हैं ।' 'वागमंतर - जोहसिय वैमाणिया जहा नेपइया' वावव्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक इनके सम्बन्ध में नैरमिकों के सम्बन्ध में किये गये कथन के जैसा कथन जानना चाहिये अर्थात् इनके भी मिश्रदृष्टि को छोडकर शेष समस्त पदों में प्रथम और तृतीय ये दो मंग ही होते हैं। शेष पदों का व्याख्यान इसी प्रकरण में किया जा चुका है । 'नामं गोयं अंतरायं च जहेत्र बाणावरणिज्जं तहेब निरवसेस' नाम, गोत्र, अन्तराय कर्म के सम्बन्ध में कथन ज्ञानावरणीय कर्म के सम्बन्ध में किये અને યેગી ા ધમાં ક્રમ મધના અભાવ હાય છે તેથી તેના ભંગ સ'ખંધી વ્યવસ્થાને પણ ભાવ છે. તેથી તેએાના સંબધમાં પ્રશ્ન જ કરवामां आव्या नथी 'सेपदेसु सव्वत्थ पढमतइया भंगा' तेयाने भिश्रद्रष्टि અનેદક, અકષાયી, અલૈશ્ય, કેવળજ્ઞાની અને અયાગી આ શિવાયના બાકીના સઘળા પદોમાં પહેલે અને ત્રીજો એમ એ ભગેાજ હોય છે 'राणमंतरजोइसियवे मागिया जहा नेरइया' वानव्यन्तर, भ्योतिष्णु, भने વૈમાનિકાના સ`ખધમાં, નૈરિયકાના સ ખ ધમાં કહેવામાં આવેલ કથન પ્રમાણે તું કથન સમજવુ. અર્થાત્ તેઓને પણ મિશ્રદૃષ્ટિવાળાને છેડીને બાકીના સઘળા પદેમાં પહેલેા અને ત્રીજો એ એ ભુ'ગજ હોય છે મકીના પદાનુ अथन या अश्शुभा श्वासां मान्य है. 'नाम गोय' अतराईय जद्देव Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ૬૭૮ भगवती भंते ! ति जाव विहरइ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! यावद्विहरतीति, हे भदन्त ! नारकादीनां पापकर्मादिवन्धविपये यद् देवानुपियेण कथितं तत्सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेवेति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं बन्दते नमस्यति, वन्दिवा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।मू०१॥ इति श्री विश्वविख्यातजगद्वल्लमादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां "श्री भगवतीसूत्रम्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यया व्याख्यायां पडूविंशतितमे वन्धिशतके एकादशोदेशकः समाप्तः ॥२६-११।। समाप्तं च पड्विंशतितमं शतकम् ॥२६॥ गये कथन के जैसा ही जानना चाहिये, 'सेव भते ! सेवं भते ! त्ति जावधिहरइ' हे भदन्त । नारकादिकों के पापकर्म आदि के धन्ध के विषय में जो आप देवानुप्रियने कहा है वह सब कथन सर्वधा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर फिर वे संघम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीमत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या छवीसवें शतकका ॥ ग्यारहवां उद्देशक समाप्त ॥२६-११॥ ॥२६ वां शतक समाप्त ॥ नाणावरणिज्ज तहेव निरवसेसं' न गेत्रि, मतसयभना समयमा ज्ञानाવરણીય કર્મના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ કથન પ્રમાણેનું કથન સમજવું. 'सेव भ ते सेव भते ! त्ति जाव विहरई गवन् ना२४ाहिदीना पा५४म ५ વિગેરેના બે ધના સંબંધમાં આપી દેવાનુપ્રિયે જે કથન કર્યું છે, તે સઘળું કથન સર્વથા સત્ય છે હે ભગવન આપ દેવાનુપ્રિયનું કથન આપ્ત હોવાથી સર્વથા સત્યજ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા. વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. માસૂ ના નાચાર્ય જનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “ભગવતીસૂત્રની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના છવીસમા શતકને અગિયારમો ઉદ્દેશ સમાસાર૬-૧૧ Iછવ્વીસમું શતક સંપૂર્ણ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेरसन्द्रिका टीका श०२७ २.१ १८१ जीवानां कर्मकरणक्रियानिरूपणम् ६७९ ॥अथ सप्तविंशतितमं शतकं प्रारभ्यते । व्याख्यातं पविशतितमं शतकम् अथ सप्तविंशतितमं शतकमारभ्यते, पूर्वशतके जीवस्य कर्मबन्धनक्रिया अतीतादिकालविशेषेण कथिता, सप्तविशे तु जीवस्य तथाविधैव कर्मकरण क्रिया कथ्यते तदनेन सम्बन्धेन आयातस्य सप्त. विंशतिशतकस्येदं सत्रम्-'जीवा णं भंते ! पावं कम्म' इत्यादि। मूलम्-जीवा णं भंते ! पावं कम्मं किं करिसु करेंति करिस्संति १ करिंसु करेंति न करिस्मेतिर, करिंसु न करेंति करिस्संति३, करिसु न करेंति न करिस्संति४ ? गोयमा ! अत्थेगइए करिंसु करेंति करिस्सतिर, अत्थेगइए करिंसु कति न करिस्सतिर, अत्थेगइए करिंसु न करेंति करिस्संति३, अत्थेगइए करिंसु न करेंति न करिस्तंति४॥सलेस्सा भंते! जीवा पावं कम्म० एवं एएणं अभिलावणं जच्चेव बंधिसए वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा तहेवनबदंडग संगहिया एक्कारस उद्देसा भाणियबा ॥सू०१॥ सचवीसइमं करिंसु सयं समतं ॥२७॥ छाया-जीवाः खलु भदन्त ! पापं कर्म किम् अकार्युः कुर्वन्ति करिष्यन्ति१, अकार्षः कुर्वन्ति न करिष्यन्ति२, अकार्षुः न कुर्वन्ति करिष्यन्ति३, अकार्षः न कुर्वन्ति न करिष्यन्ति १४ गौतम ! अस्त्येकके अकार्पः कुर्वन्ति करिष्यन्ति १, अस्त्येकके अकार्पः कुर्वन्ति न करिष्यन्ति२, अस्त्येक के अकार्पः न कुर्वन्ति करिष्यन्ति ३, अस्त्येकके अकापुः न कुर्वन्ति न करिष्यन्ति । सलेश्याः खल्लु भदन्त ! जीवाः पापं कर्म० एवम् एतेन अमिलापेन यैव बन्धिशतके वक्तव्यता सैव निरवशेषा भणितव्या तथैव नवदण्डक संगृहीता एकादशोदेशका भणितव्यासू०१॥ सप्तविंशतितमं करिसु शतकं समाप्तम् ॥२७॥ सत्ताईल वें शतक का पहेला उद्देशेका प्रारंभ २६ वां शतक व्याख्यात हो चुका, अब २७ मत्ताईसवां शतक प्रारम्भ होता है । २६ वे शतक जीव के साथ कर्मबन्ध की क्रिया अतीत સત્તાવીસમા શતકના પહેલા ઉદેશાને પ્રારંભ– છવિસમા શતકનું કથન પુરૂં કરીને હવે કમથી આવેલા આ સત્યા વીસમા શતકને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. છવીસમા શતકમાં જીવની સાથે Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगएतीसरे टीका-'जीवाणं भंते !' जीवाः खलु भदन्त ! 'पावं कम्मं किं करिसु करेंति फरिसंति' पापं कर्म किम् पूर्वकाले यकाः, वर्तमानकाले कुर्वन्ति अनागतकाले • करिष्यन्ति१, कस्सुि करेंति न करिश्त' पूर्वकाले अकाः, वर्तमानकाले कुर्वन्ति, अनागतकाले न करिष्यन्ति२, 'करिसुल करेंति करिस्संति' अकार्ष: न कुर्वन्ति करिष्यन्ति३, 'करिसुन कति न करिस्संति अकापुः न कुर्वन्ति न , फरिष्यन्ति४, इति प्रश्नः, यथा प्रश्ने बन्धिपदसरसाद पइविंशतितम वन्धि आदिकाल विशेष को लेकर कही गई है। अब इस २७ में शातक में जीच के छारा जो फर्ण करने की क्रिया की जाती है वह अतीतादिकाल विशेष को लेकर कही जावेगी, इसी सम्बन्ध से यह २७ वां शतक प्रारम्भ हुआ है। 'जीना णं असे ! पावं कसं किं करिस्तु करेंति करिस्म-इत्यादि टीमार्थ--'जीवाणं भंते !' हे सदन्त ! जीवोंने 'पाचं करमं कि - फरिलु करेंलि, पारिस्सनि१' क्या भूतकाल में पापकर्म किया है ? वर्तमान में वे पापकर्म करते है चया ? और भविष्यत् काल में भी वे पापकर्म करेंगे क्या ? अथशा-'करिसु करेंक्ति, न करिमति' भूतकाल में उन्होंने पापकर्म किया हैं क्या? वर्तमान में भी वे पापकर्म करते या ? मचित काल में पापत्रमें नही करेंगे क्या? अथवा'करिस्तु, न करें लि, बारिति३' भूनकाल में उन्होंने पापकर्म किया क्या ? वर्तमान में वे पापकर्म नहीं करते है क्या ? भविष्यत् में ये पापकर्म करेंगे ? अथवा-करिसु, न करेंति, न करिस्तति' सूनकाल में उन्होंने पाप किया है क्या ? दर्तमान में वे पापकर्म नहीं કર્મબંધની કિયા અતીતકાલ વિગેરે કાલ વિશેષને લઈને કહેલ છે હવે આ સત્યાવીસમાં શતકમાં જીવના દ્વારા કર્મ કરવાની જે ક્રિયા કરવામાં આવે છે, તે અતીત વિગેરે કાલ વિશેષને લઈને કહેવામાં આવશે. આ સંબંધને स. मा सत्यावीसमा शत प्रारम ४२वामा माछे 'जीवा णं भंते पाच कम्म किं करिसु करेंति करिस्मति' इत्यादि टी:-जीवा णं भ'ते' ॐ सन् ७वी 'पाव कम्म किं करिसु करें ति फरिस्संति' सूतम पा५४ युछ १ त भानमा नेमे १४ १२ छ ? म विष्यमा ५ ते ५।५४ ४२शे ? अथवा 'करिसु, करे ति न करिस्संति' २ सूतमा भए ५५४ युछे ? पतमान ४ ५५ तमा ५.५४ ४२ छे ? मन भविष्यमा तमे। पा५४म नही 32 ? 'करिंसु न करेंति करिस्सति'३, भू म तसोय ॥५४म ध्यु छ १ त भान राणमा તેઓ પાપકર્મ કરતા નથી? અને ભવિષ્યમાં તેઓ પાપકર્મ નહીં કરે ? Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२७ उ. १ सू०१ जीवानां कर्मकरण क्रियानिरूपणम् ६८१ शतकमिति कथ्यते तथैव इहापि प्रश्ने 'करिंसु' इति पदमस्ति तत इदं सप्तविंशसितमं शतकम् 'करिंसु' शतकमित्यभिधीयते इति । ननु वन्धकरणयोः को विशेषः ? उभयो देन उपन्यासो निरर्थक इति चेदत्रोच्यते- या जीवस्य वन्धक्रिया 'सा जीव तुव न तु ईश्वरकालप्रकृतिस्वभावादिभ्यो जायते इति प्रदर्शनाय बन्धस्य करणस्य च भेदेन उपन्यासः । अथवा बन्धः सामान्यतः कर्मणां बन्धम्, 'करणं तु अवश्यं विपाकदायित्वेन निष्पादनं निघत्तान्तादि स्वरूपमिति । भगवानाह करते हैं क्या ? और भविष्यत् में वे पापकर्म नहीं करेंगे क्या ? जिस 'प्रकार प्रश्न में 'बन्धि' पद होने से २६ वे शतक को बन्धी शतक ऐसा कहा गया है, उसी प्रकार से यहां पर प्रश्न में 'करिंसु' यह पद है, इसलिये इस शतक को 'करिंस' शतक कहा गया है । शंका--बन्ध और करण में क्या अन्तर है ? उत्तर -- कोई भेद नहीं है । शंका- तो फिर उसका पृथक रूप से उपादान क्यों किया है ? उत्तर - पृथक रूप से उपादान करने का तात्पर्य ऐसा है कि जीव को जो बन्ध क्रिया होती है वह जीव कर्तृक ही होती है, ईश्वरकाल, प्रकृति या स्वभाव कृत नहीं होती हैं, इसी बात को प्रकट करने के लिये बन्ध का और करण का पृथकरूप से उपादान किया गया है । अथवा सामान्य रूप से कर्म का बन्धन होना इसका नाम पन्ध है । और बन्ध अवस्था को प्राप्त हुए उनकर्मों का संक्रमण आदि दशा रूप જે પ્રમાણે ૨૬ છવ્વીસમાં શતકમાં ‘ધંધા’ એ પદ આવવાથી ખંધ શતક એ પ્રમાણે તેને કહેલ છે. એજ પ્રમાણે આ શતકમાં પ્રશ્નમાં ‘fg’ या पहथी या शनने 'करिसु' शत उटेटस छे. શક-મધ અને કરણમાં શે ફેર છે ? ઉત્તર—કઈ રીતે તેમા ભેદ નથી. શકા—જો ખધ અને કરણમાં ભેદ નથી, તેા પછી તેને જુદા પ્રકરણ તરીકે અહિયાં કેમ કહેલ છે ? ઉત્તર—પૃથક રૂપથી કહેવાનુ કારણ એ છે કે—જીવને જે બંધ ક્રિયા થાય છે તે જીવ ક-એટલે કે જીવ દ્વારા કરવામાં આવેલ હૈાય છે. ઈશ્વર, કાળ, પ્રકૃતિ અથવા સ્વભાવ કૃત હૈતી નથી. એજ વાત બતાવવા માટે બધ અને કરણને જુદા જુદા કહેવામાં આવ્યા છે. અથવા–સામાન્ય રૂપથી કના ખધ થવા તેનું નામ બંધ છે અને અધ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ તે કર્મોના સંક્રમણુ વિગેરે અવસ્થામાં કરવું भ० ८६ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ६८२ 'गोमा' इत्यादि, 'गोगमा' हे गौतम | 'आइए करिंतु करेंति करिस्संति' अस्त्येक के जीवाः पापं कर्म अका: कुर्वन्ति करिष्यन्तीति प्रथमो मङ्ग३१, 'अत्थे गाए करिंतु करेति न करिस्मेति' आत्येक के जीवाः अकार्षुः कर्मन्ति न करिष्यन्तीति द्वितीयो मङ्खः २, 'अत्येगइए करिंसु न करेंति करिस्संति' अस्स्येकके जीवाः कार्षुः न कुर्वन्ति करिष्यन्तीति तृतीयो भङ्गा ३, 'अत्येगइए करिंसु न करेंवि न करिस्संति' अस्त्येक के जीवाः पापं कर्म अकार्षुः न कुर्वन्ति न वा करिष्यन्तीति में करना इसका नाम करण है । इस प्रकार बन्ध और करण में अन्तर प्रदर्शित करके अब प्रभुश्री गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए उनसे कहते हैं - 'गोयमा ! अत्येगइए करिंतु, करेंति, करिस्संति' हे गौतम! कितनेक जीव ऐसे होते हैं कि जिन्होंने पूर्वकाल में पापकर्म किया होता है, वर्तमान में भी वे पापकर्म करते हैं और भविष्यत् में भी वे पापकर्म करेगे १ तथा किननेक जीव ऐसे भी होते हैं कि जिन्होंने पूर्व में पापकर्म किया है, वर्तमान में भी वे पापकर्म करते हैं पर आगे पापकर्म नहीं करेंगेर तथा कितनेक जीव ऐसे होते हैं कि जिन्होंने हां, पूर्व में पापकर्म किया है, पर वे वर्तमान में पापकर्म नहीं करते हैं, आगे वे पापकर्म करेंगे। तथा किननेक जीव ऐसे होते हैं कि जिन्होंने पूर्व में ही पापकर्म किया है, वर्तमान में वे पापकर्म नहीं करते हैं और न भविष्यत् में वे पापकर्म करेंगे। जिस प्रकार से ये चार भंग सामान्य जीव को आश्रित करके यहां कहे गये हैं. उसी प्रकार से जीव તેનુ નામ કરણુ છે. આ રીતે મધ અને કરણમાં અતર બતાવીને હવે प्रभुश्री गौतमस्वामीना प्रश्न उत्तर भारतां डे छे ! - 'गोमा ! अत्येगइए करिंसु, करे थि, करिम्सति' के गौतम ! टस । भेत्रा होय छे, हे भेथेाभे ભૂતકાળમાં ાપકમ કયુ હાય છે, વમાન કળમાં તે પાપકમ કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તેએ પાપકમ કરશે ૧ તથા કેટલાક જીવા એવા પણ હે'ય છે કે જેઓએ ભૂતકાળમાં પાપકમ કર્યુ હાય છે વમાનમાં પણ તેઓ પાપકર્મ કરે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં તેએાપક કરશે નહી' ર તથા કેટલ ક જીવે એવા હોય છે કે-જેએએ પહેલાં પાપકમ કર્યું હાય છે, પરંતુ વર્તમાનમાં પાપકમ કરતા નથી અને ભવિષ્યમાં તેએ પાપકમ શે તથા ઉંટલાક જીવા એવા હાય છે કે-જેએએ ભૂતકાળમાં જ પાકમ કરેલ હાય છે. વમાનમાં તેએ પાપકમ કરતા નથી તથા ભવિષ્ય કાળમાં તેએ પાપકમ એક શે નહિ જે પ્રમાણે આ ચાર ભંગેા સામાન્ય જીવને આશ્રય કરીને અહિયાં કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે જીવ વિશેષના આશ્રય કરીને પણ ચાર ભગે। ભગવાને કહ્યા છે, Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२७ उ.१ सूर जीवानां कर्मकरणक्रियानिरूपणम् ६८३ चतुर्थों भङ्गः । चतुरोऽपि भङ्गान् भगवान् समर्थयामास जीवविशेषमाश्रित्येति । 'सखेस्सा णं भंते ! जीवा' सलेश्या लेश्यावन्तः खलु भदन्त ! जीवाः 'कि.पार्व कम्म करिंसु करति करिस्संति' किं पापं कर्म अकार्ष: कुर्वन्ति करिष्यन्ति१, अकार्पः कुर्वन्ति न करिष्यन्ति२, अकार्षुः न कुर्वन्ति करिष्यन्ति३, अकार्षः न कुर्वन्ति न करिष्यन्तीत्यादि क्रमेण प्रश्नः वन्धिशते लेश्याविशिष्टजीवे ये ये भनाः कथितास्तथैव इहापित एव सर्वे भगा रतेनैव रूपेण उदाहरणीयाः, एतदाशयेनैवाह-'एव' इत्यादि, ‘एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव वधिसए बत्तवव्या विशेष को आश्रित करके भी चार भग भगवान् द्वारा समर्थित किये गये हैं। 'सलेस्लाणं भंते ! जीवा' हे भदन्त ! जो जीव लेश्या सहित होते हैं वे क्या अतीतकाल में पापकर्म किये होते हैं ? वर्तमान में • भी क्या वे पापफर्म करते हैं ? तथा भविष्यत् में भी क्या वे पापकम करेगे ? अथवा-उन्होंने भूतकाल में पापकर्म किया है ? वर्तमान में वे क्या पापकर्म करते हैं ? और क्या भविष्य में वे पापकर्म नहीं करेंगे? अथवा-भूतकाल में क्या उन्होंने पापकर्म किया है ? वर्तमान में क्या वे पापकर्म नहीं करते हैं ? भविष्यत् में पापकर्म करे गे क्या? अथवाभूतकाल में उन्होंने पापकर्म किया है क्या ? वर्तमान में वे पापकर्म नहीं करते हैं क्या? भविष्यत् में भी पापकर्म नहीं करेगे ? इस प्रकार से जैसे पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में लेश्यादि विशिष्ट जीव में जो-जो भंग कहे गये हैं उसी प्रकार से वे सब भंग इस करिस शतक में भी लेश्यादि विशिष्ट जीव में कहना चाहिये। इसी बात को पुष्ट करने के लिये 'एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव बंधिसए 'सलेस्साणं भते ! जीवा' हे भगवन् २ वेश्यावाणा हाय छ, તેઓએ ભૂતકાળમાં પાપકમ કરેલ હોય છે ? વર્તમાનમાં તેઓ પાપકર્મ કરે છે ? અને ભવિષ્યમાં તેઓ પાપકર્મ કરશે ? અથવા તેઓએ ભૂતકાળમાં પાપકર્મ કરેલ છે ? વર્તમાનમાં પાપકર્મ કરે છે? અને ભવિષ્યમાં તેઓ પાપ કર્મ નહિં કરે ? અથવા–ભૂતકાળમાં તેણે પાપકર્મ કરેલ છે? વર્તમાન કાળમાં તેઓ પાપકર્મ કરતા નથી? અને ભવિષ્યમાં તેઓ ૫ પકર્મ કરશે? અથવા ભૂતકાળમાં તેઓએ પાપકર્મ કયું છે? વર્તમાનમાં તેઓ પાપકર્મ કરતા નથી ? તથા ભવિષ્યમાં તેઓ પાપકર્મ નહી કરે? આ પ્રમાણે પાપકર્મ ના બે ધના સંબંધમાં જે રીતે લેફ્સાવાળા જીવમાં જે-જે ભગો કહ્યા છે. तेर प्रमाणे तेत मी म। 'करिसु' शतमा ५ वेश्या युद्धत वाना समयमा सभा , से वातन सिद्ध ४२वा माटे. 'एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीस्त्र सच्चेव निरवसेसा भाणियव्या' एवमेतेन अभिलापेन यैव वन्धिशतके वक्तव्यता सँव निरवशेषा भणितव्या। तथा तहेव नवदंडगसगहिया एकारसउदेसगा भाणियन्या' तथैव नवदण्ड संगृहीता अप्ट कर्मप्रकतिः एकश्च पापकर्मबन्ध इति सालनया नत्र दण्डका भवन्तीति एकादशोदेशका भणितव्याः। चन्धिशतक पदेव 'करिसु' शतकेऽपि सर्वाऽपि वक्तव्यता वक्तव्या॥ स० 1 // इति श्री विश्वविख्यात जगवल्लभादिपदभूपित बालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पदभूषित पूज्यश्री 'घासीलाल' बतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां सप्तविंशतितमशतकस्य प्रथमतः एकादशान्ता. उद्देवा:समाताः॥२७-१-११॥ समाप्तं सप्तविंशतितमं शतकम् // 27 // वत्तव्यया सच्चेच निरचसेसा भाणियच्या' यह सूत्रपाठ कहा गया है, अर्थात् पन्धिशतक में लेझ्यादि विशिष्ट जीव में जो-जो भंग कहे गये हैं वे सब भंग यहां कहना चाहिये इस प्रकार इम अभिलाप से जो पन्धिशतक में वक्तव्यता कही गई हैं वही सम्पूर्ण वक्तव्यता यहां पर भी कहनी चाहिये, तथा-तहेच नव दण्डगसंगहिया एकारस उद्देसगा भाणियव्वा' उसी प्रकार से नव दण्डक सहित अष्ट कर्म प्रकृति और एक पापकर्म बन्ध इन नौ दण्डों से युक्त-ग्यारह उद्देश यहां कहना चाहिये / तात्पर्य कहने का यही है कि इस 'करिसु' शतक में भी बन्धिशतक के जैसे ही सर्व वक्त पता कहनी चाहिये ॥सू० 1 // जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूजाश्री घासीलाल जीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेघ चन्द्रिका व्याख्याके सत्ताईमवे शतकका पहला उद्देशक से ग्यारहवां पर्यन्त के ग्यारह उद्देशक समाप्त।२७-१-११॥ - सत्ताईसवां शतक समाप्त // 27 // बंधिसए वत्तव्वया सच्चेव निश्वसेसा भाणियव्वा' मा सूत्रपा४ ४स छ अर्थात બંધ શતકમાં લેશ્યાવાળા જીવમાં જે-જે અંગે કહ્યા છે, તે સઘળા અંગે અહિયાં પણ સમજી લેવા. આ રીતે આ કથનથી બંધી શતકમાં જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે પૂરેપૂરું કથન અહિયાં પણ કહી લેવું તથા'तहेव नवदंडगसंगहिया कारस उसगा भाणियव्वा' से प्रभारी नव 64 સહિત આઠ કર્મ પ્રકૃતિ અને એક પાપકર્મ બંધ આટલા દંડકથી યુક્ત અગીયાર ઉદેશાઓ અહિયાં કહી લેવા કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-આ “ક સુ” શતકમાં પણ બંધી શતકના કથન પ્રમાણે જ તમામ કથન સમજી લેવું. સૂ૦૧૫ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકુત ભગવતીસૂત્ર ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના સત્યાવીસમા શતકના પહેલા ઉદેશ થી અગીયારમાં ઉદ્દેશા સુધીના અગીયાર ઉદ્દેશ સમાપ્ત ર૭-૧-૧૧ છે સત્યાવીસમું શતક સમાપ્ત કેરા