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मद्रबाहुचरित्र
” बारि हंस इव क्षीरं सारं गृह्णाति सज्जनः। 3 . यथाश्नुतं यथारुच्यं शोच्यानां हि कृतिमता ।।
..(श्रीवादीमसिंह) AUR . . अनुवादक- 1 MAIN . 'श्री उदयलाल जैन .
काशलीवाल प्रकाशक मैनेजर, जैन भारती भवन
... बनारस सिटी : न्योछावर .
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Priated by Gauri Shankar Bai, at 9. 3. Brand, Beogrcs.
PUBLISHED BY BAORI PRASAD JAIN, BENARES,
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भद्रबाहुचरित
वारि हंस इव क्षीरं सारं गृह्णाति सज्जनः । यथाश्रुतं यथारुच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ॥
( श्रीवादीमसिंह )
वड़नगर निवासी
श्री उदयलाल काशलीवालके द्वारा
अनुवादित
(
प्रकाशक
मैनेजर, जैन भारती भा
बनारस मिटी
MAAAAAN
प्रथम संस्करण ? श्री वीर- निर्वाण सं. {
१०००
૧૪૧૧
शुल्क
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रजिष्टई
बड़नगर निवासी श्री पं. उदयलाल जैन ने इस ग्रन्धको संस्कृत से हिन्दी भाषा में अनुवादित करके श्री जैन भारती भवन बनारस को इस के छापने का सब इक समर्पित किया उसी अनुसार प्रकाशक ने जैक्ट २६ सन् १८६७ के अनुसार रजिस्टरी का के सब एक साधीन रता है-अब कोई इस ग्रन्य की नकल करके पड़ेगा अथवा छपाउँगा तो राजकीय नियमानुसार फल को प्राप्त होवेगा बलम् ।
सूचना.
निस पुस्तक पर हमारी मुहर न होगी वह चोरी की समझी नायगी. इस वास्ते खरीदारों को चाहिये कि लेने समय हमारे कार्यालय की सहर छपा छेवें ।
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प्रस्तावना।
. पाठक महाय!
जिस ग्रन्थको प्रस्तावना लिखनेका हम आरम करते हैं या पासवमें बहुत महत्वका है। अन्यकर्षान इस प्रन्यका संकलन कर अन जातिका बड़ा भारी उपकार किया है। इस प्रन्यके निर्माताका नाम है रखनन्दी । मापके विषयमें बहुत कुछ लिखनेकी हमारी "एकण्ठा थी परन्तु जैन समाज पेतिहासिक विषयोंको सोज करनेमें संसारमै सबसे पीछा पड़ा हुआ है और यही कारण है कि भार कोई किसी जनाचार्यको जीवनी लिखना चाहे वो पहले तो उसे सामग्री ही नहीं मिलेंगी । यदि विशेष परिश्रमसे कुछ भाग कहाँ .पर मिल भी गया तो वह उतना घोड़ा रहता है जिससे पाठकोंकी इच्या
पूरी नहीं होसकती । इसका कारण यदि हम यह है कि मनियोंमें शिक्षाषा प्रचार घहुत कम होगया है और इसीसे कोई किसी विषयकी खोजेमें नहीं लगताई"वो कोई मनुचित नहीं होगा क्योंकि ऐतिहासीय बातोंका शिक्षासे बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है |आज संसारमें युद्धका नाम इतना प्रसिद्ध कियषा र उन्हें जानने लगा है । परन्तु जन धर्म इतने महत्वका होकर भी उसे बहुत कम लोग जानते हैं। इसका कारणच्या है ? और कुछ लोग जानते भी है तो इनमें कितने ऐसे हैं जो जनमतको स्वतंत्र मन न समझ कर पौद्धादिकी शाखा विशेष समान है। इसे हम जैनियोंकी भूल छोड़कर दूसरोंकी गल्ती नहीं कह सकते। क्योंकि जिस प्रकार बौदोंका इतिहास प्रसिद्ध होनेसे उन्हें सब जानने लगगये यदि उसी प्रकार जैनियोंका इतिहास आन यदि संसारमें प्रचलित होता तो क्या यह संभवथा कि जैनी डोग पोही संसारक किसी कोनेमें पड़े र सड़ाकर हम इसमन्ध श्रद्धापर विश्वास नहीं कर सकते।स्या माननियोंमें विद्वान, महात्मा या परोपकारी पुरुषोंकी किसी तरह कमी है जो उनके प्रसिद्ध होनेमें कोई प्रतिबन्ध हो? नहीं।
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हां यदि कमी है तो उन प्राचीन महर्षियोंके वास्तविक ऐतिहासिक वृत्तान्त की । यदि जैन समाज इस बात पर लक्ष देगा और इस विषयको सोजमें जी जानसे लगेगा तो कोई आश्चर्य नहीं किवह फिर भी अपने पूर्वजोंका उज्वल सुयशस्थम्म संसारके एक छोरसे लेकर दूसरे छोरतक गाढ़ दे। और एकवक सारे संसारमें जनधर्मका पाखविक महत्त्व प्रगट कर दे। .. क्योंकि
उपाये सत्युपयेस्त्र मास का मतिबन्धता ।
पावालस्थं जलं यन्वाकरस्थं क्रियते यतः ॥ प्राप्त होनेवाली वस्तु के लिये उपाय किया जाय तो उसमें कोई प्रतिरोधक नहीं हो सकचा । क्योंकि-यनके द्वारा तो पातालसे भी जल निकाल लिया जाता है।
हमारे प्रन्थकारका भी इतिहास गाढान्य कारमें पड़ा हुआ है .और न हमारे पास सामग्रीही है जो उसे अन्धकारसे निकाल कर उजालेमें ला सके । अस्तु, प्रन्यकारने अन्यके अन्तिम श्लोकमें कुछ अपना परिचय दिया है उसीपर कुछ श्रम करके देखते हैं कि हम कहां तक सफल मनोरय होंगे! वादीमेन्द्रमदनमर्दनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः
शिष्यं श्रीमदनन्तकीर्चिगणिनः सत्कीर्चिकान्ताजुपः । स्मृता श्रीललितादिकीचिमुनिपं शिक्षागुरुं सद्गुणं
चक्रे चारु चरित्रमेतदनपं रत्नादिनन्दी मुनिः ।। भाव यह है कि-परवादीरूप गजरानके मदका नाश करने वाले, शीलामृतके समुद्र और उज्वल कीर्ति कान्तासे विराजित श्रीमनन्तकोनि महाराज के शिष्य और अपने विद्या गुरु श्रीललितकीर्ति मुनिराजका हृदयमें मरण कर रजनन्दी मुनिने यह निर्दोष चरित्र बनाया है । यही प्रन्यकारके इतिहासको नींव है। अथवा यो कहिये कि-पहली सीढ़ी है। पाठकखयं विचारेंकि-यह नीव कहां तक काम मा सकेगी। खरस सोकसे यह तो मालूम होगया कि-पवनन्दी
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( ३ )
चलितकीचि मुनिके शिष्य हैं। और लठितकीर्ति भीमनन्तकीचि आचार्यके शिष्य हैं। इन महानुभावोंका संसारमें कम अवतार हुआ यह निश्चय करना तो जरा कठिन है। परन्तु भद्रबाहु चरित्रमें श्रीरत्ननन्हीनें एक नगई लिखा है कि
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मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपञ्चशतेऽन्दानामतीते मृणुतापरम् ॥ लुकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विचाजितनिर्जरे ॥ अणलिपत्तने रम्ये प्राग्वाट कुलजो मवत् । लुकाभिषो महामान वेतांशुकमताश्रयी ॥ दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपितः पापमण्डितः । तीत्रमिध्यात्वपाकेन लुङ्कामतमकल्पयत् ॥ अर्थात् -- महाराज विक्रम की मृत्यु के बाद १५२७ वर्ष बीत जाने पर गुजरात देशके अणहिल नगरमें कुलुम्बी वंशीय एक महामानी लंका नामक श्वेताम्बरी हुआ है। उसी दुष्टने तीच मिध्यात्वके उदसे . कामत ( इंडियामत) का प्रादुर्भाव किया। यह मत प्रतिमाओं को नहीं मानता है।
मन्थकारके इस लेखसे यह सिद्ध होता है कि विक्रम सं० १५२७ के बाद वे हुये हैं । क्योंकि तभी तो उन्होंने अपने प्रन्यमें ढूंढियों का . उडेख किया है । परन्तु यह खुलासा नहीं होता कि उनके अवतारका निश्चित समय क्या है ? सुदर्शन चरित्रके रचयिता एक जगह रांकीचिका उलेख करते हैं----
मूलसङ्घाग्रणीर्नित्यं रनकीर्त्तिगुरुर्महान् ।
नत्रयपवित्रात्मा पायान्मां चरणाश्रितम् ॥
यद्यपि भद्रबाहु चरित्रके रचयिताने अपना नाम रतनन्दी लिखा है परन्तु माचर्य नहीं कि उन्हें उनसे पीछेके सुनियोंने रमकोचि नामसे भी लिखे हों। क्योंकि रतनन्दी और रनकीर्तिक समय में विशेष
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अन्तर नहीं दीखता । इससे भी यही प्रतीत होता है कि रजनन्दीको हो सुदर्शन-परित्रके रचयिता विद्यानन्दीने रवीति लिखा है। विद्यानन्दी भट्टारक हैं। इनके गुरु का नाम है देवेन्द्रकीति जैसाल सुदर्शन चरित्रके इस लेखसे जाना जाता है--
जीवानीवादितत्वानां समयोनदिवाकरम् । . भन्दे देवेन्द्रकीर्षि च मरिचय दयानिधिम् ।। मगुरुपोंविषेण दीक्षालक्ष्मीप्रसादकत् । ।
तमहं भक्तितोवन्दे विद्यानन्दी सुसेवकः ।। मावार्थ-जीवाऽजीबादि पलों के प्रकाश करनेमें सूर्यकी अमा धारण करने वाले और इयासागर श्रीदेवेन्द्रकीचि आचार्यके लिये में अभिवन्दन करता है। जो विशेषतया मेरे गुरु हैं। इन्हीं के द्वारा मुझे दीक्षा मिली है।
देवेन्द्रकीति भट्टारक विक्रम सन्दत १६६२ में सागानेरके पट्टपर नियोजित हुये थे। इनके बनाये हुये बहुत से कथाकोषादि अन्य हैं। इससे यह सिद्ध वो ठीक तरह होगया कि सुदर्शन चरित्रके कर्चा विद्यानन्दी भी विक्रम सं० १६६२ के अनुमान हुये है। यह हम ऊपर लिस आये हैं किरनीति और रखनन्दी एकही होने चाहिये। क्योंकि भद्रबाहुचरित्र दोनों के बनाये हुये लिखे हैं।परन्तु रखनन्दीक मंद्रबाहूं. चरित्रको छोड़ कर रखकीका भद्रबाहुचरित्र अभी तक देखने में नहीं आता और.न इन दोनों के समयमें विशेष फर्क है । भद्रबाहुचरित्रके अनुसार जनंन्दीका समय दि. १५२७ के ऊपर जचता है और विद्यानन्दीके सुदर्शनचरित्र के अनुसार रखकीर्चिका समय भी १६६२ के भीतर होना चाहिये। वैसे अन्वर है १५ वर्षका परन्तु विचार करनेसे इवना अन्तर नहीं रहता है। मद्पाहुचरित्र में जो रबन्दीने इंडियोक मतका प्रादुर्भाव वि. १५२७ में हुमा लिखा है इससे रखनन्दीका इढियाँस पछि होना तो सहन सिद्ध है। परन्तु वह कितना पीछे यह 'टीक निश्चय नहीं किया जा सकता यदि अनुमानसे यह कहें कि उस समय इंढियोंकों पैदा हुये सौ सवासौ वर्ष होजाने चाहियें तो वि.
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१६२५ के आस पास उनका होना जाना जाता है यह बात भद्रबाहुपरिनमें इंटियोंकी उत्पत्तिसे जानी जाती है। .
दूसरे भद्रवाहु-चारिक बनानेवाळे रखनन्दी तयारतकीर्ति के एक होनेमें यह भी एक प्रमाण मिलता है कि जहां परिच्छेद पूरा होता है वहां-रवनन्दी तथा रनको इन दोनोंका नाम पाया जाता है। इस लिये यही निश्चित होता है कि मद्रयाहु-परित्रके बनाने वाले दोनों महानुभाव एकही है। वैसे रनकोचि और भी हुये हैं। पाठक यदि इस विषयमें परिचित हों तो अनुग्रह करें पुनरावृश्चिमें ठीक कर . दिया जावेगा। . ' रजनन्दी किस कुलमें तथा किस देशमें हुये हैं यह ठीकर नहीं जाना जा सकता। जिससे कि हम उनके विषयमेंछ और विशेष लिख सकें। और न हमारे पास विशेष साधन ही है।
रखनन्दीने भद्रवाहुचरित्रमें एक जगहें यह लिखा है कि
तांशुफमतोद्भूतमूढान् भापयितुं जनान् । । । • व्यरीरचमिर्म ग्रन्यं न स्त्रपाण्डित्यगतः ॥ . . . इससे यह माना जाता है कि उनके भगवाहुचरित्रके लिखनेका “मसली अमिमाय वेताम्बर मतकी उत्पति तथा उसकी जिन शासनसे
बाहितता बताना था।इम भी कुछ प्रकर्णानुसार श्वेताम्बर मतके यादव विचार करेंगे-पाठक जरा पक्षपात रहित वालिक दृष्टिसे दोनों मतकी । तुलना करें कि प्राचीन मत कौन है ? और कौन उपादेय क्या जीवोंक सुखका साधन है।
श्वेताम्बर और दिगम्बरोंमें जो मत भेद है वह तो रहे । सबसे पहले हम अपने लेख में यह बात सिद्ध करेंगे कि दोनों में प्राचीन मन कोन है ? और किसका पीछेसे प्रादुर्भाव हुआ है ? इस विषयका पर्या'लोचन करनेसे दोनों मत वाले दोनों की उत्पचि अपने २ से कहते हैं। - इसलिये. हम सबसे पहले दोनोंकी ओरसे एक २ की उत्पत्रिका उपक्रम दोनों सम्प्रदायके अन्योंके अनुसार लिखे देते है.--::
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वेताम्बर लोग कहते हैं फि— दिगम्बरस्तावत् — श्रीवीरनिर्वाणानवोचरपट्शतवर्षातिक्रमे शिवभू
व्यपरनान्न:- सहस्रमछतः सश्चातः-यथा—छन्वाससयाई नवुत्तराई तईयासिद्धि गयरस वीरस्स ।
तो पोडिभाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा || (प्रवचनपरीक्षा भावार्थ - श्रीवरिनायके मुक्ति जानेके ६३९ वर्ष बाद रथवीर पुरमें शिवमूर्ति (सहस्रम) से दिगम्बरोकी उत्पत्ति हुई है। इसका हेतु यों कहा जाता है
“रहवीरेत्याद्यार्यान्त्रयाणायमर्थ:
तात्पर्य यह है कि-रथवीर पुरमें एक शिवभूति रहता था । उसकी श्री अपनी सासुके साथ लड़ा करती थी । उसका कहना था कि-- तुम्हारा पुत्र रात्रिके समय बाहर २ बजे सोनेके लिये आता है सो मैं कब तक जगा करूं। शिवभूतिकी माताने इसके उत्तर में कहा कि आज तूं. सोला और मैं जागती हूं। बाद यही हुआ भी। शिवभूति सदाके अनुसार आज भी उसी समय घर आये और कवांड़ खोलनेके लिये कहा तो भीतरसे उत्तर मिला कि इस समय जहां दरवाजा खुला हो वहीं पर चले जाओ * । शिवभूति माता की भर्त्सनासे चल दिये । घूमते हुये उन्हें एक साधुओंका उपाश्रय खुला हुआ दीखं पड़ा । शिवभूतिने भीतर जाकर साधुओंसे प्रवृजाकी अभ्यर्थना की । परन्तु साधुओं को उनकी अभ्यर्थना स्वीकृत नहीं हुई । तब निरुपाय होकर वे स्वयं प्रवृजित हो गये। फिर साधुओंकी भी कृपा होगई यो उन्होंने शिवभूविको अपने शामिल कर लिया । बाद साधु लोग वहांसे बिहार करगये ।
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- क्यों पाठकों । आपने भी यह बात कभी सुनी है कि जरासे जीके कहने में खाकर माता अपने हृदय टुक्रेको अपनेसे जुदा कर सकती है ? जिसके विषय मे यहां तक कहावत प्रसिद्ध है कि " पुत्र चाहे पुत्र भले ही होगा परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती " तो यह कल्पना कहां तक ठीक है ! बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये ।
शिवभूतिको उस समय दीक्षा क्यों नहीं दी गई ? और जब इन्कार ही था हो फिर क्यों दीगई कुछ विशेष हेतु होना चाहिये ।
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कुछ कालके बाद फिर भी उसी नगरमै उन सब साधुओका माना हो गया। उस समय वहाँके राजाने शिवभूतिको एक रनकम्बल दिया। उसे देखकर साधुओंने शिवभूतिसे यह कह कर कि-साधुमाको रत, कमल लेना पचित नहीं है छीन लिया। और उसके टुकड़े करके .. रजो हरणादिके काममें लाने लगे। माधुओंके ऐसे पावसे शिवभूविको बहुत दुःख पहुंचा।
किसी समय उस संघके भाचार्य जिनकल साधुनोंकास्वरूप कह रहे पेव शिवभूचिने यह जाननेकी इच्छाकी कि-जब जिनकल निषरिग्रह होता है तो आपलोगोंने यह आडम्बर किस लिय स्वीकार किया वास्तविक मार्ग क्यों नहीं अङ्गीकार करते हैं । इसके बारमें गुरु महाराजने कहा कि इस विषम कलिकामें जिनकल्प कठिन होनेसे धारण नहीं किया जा सकता । जन्यूखामोके मोम जाने वाद जिनकल्प नाम शेष रह गया है। शिवमूतिने सुनकर उचरमें कहा कि देखिये तो मैं इसे ही धारण करके बताताई। इसके बाद गुरुने मी उसे बहुत समझाया परन्तु शिवभूतिने एक न सुनी और जिनकल्प धारण करही तो लिया।" यही श्वेवांवरियोंके शास्त्रों में दिगम्बरियोंकी उत्पाधिका हेतु है। इसकी समीक्षा नोहम मागे चलकर करेंगे अब जरा दिगम्बरोंका भी कथन सुन लीजिये--
वामदेव (जो बि. की दशमी शताब्दिमें हुये हैं। उन्होंने भावमहमें लिखा है कि. भाव यह है--विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद जिनचनके द्वारा श्वेताम्बर मतका संसारमें समाविर्भाव हुमा । कारण यह है कि उन्नायिनीमें श्रीमद्रबाहु मुनिराजका संघ आया । भद्रबाहु मुनि मटा निमित्त (ज्योतिषशाब)के बड़े भारी विद्वान थे । निमित्र मानसे जानकर उन्होंने सब मुनियोंसे कहा कि देखो! यहाँ बारह वर्षकाघोर दुभिक्ष पड़ेगा। सब साधु लोग उनके वचनो परसद विश्वासकर अपनेर गणके साथ दूसरे देश की ओर चले गये।क्योंकि भुनानीके वचन कमी . अलीक नहीं हो सकते । वैसा हुआ भी। सो एक दिन शान्याचार्य विहार करते हुये बसमीपुरीमें पले आये और वहीं पर रहने छो।
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(८) , जयिनी में भीषण दुर्भिक्षपड़ा। वह यहां तक कि मिलक लोग एका एक उदर फाड़कर भीतरका अन्न निकालरकर खाने लगे। उससमय साधु लोग वास्तविक मार्गको नहीं रख सके। परन्तु किसी तरह अपना पेट सोभरनाही पड़ता था। इसलिये धीरे २ शिथिल होकर वल, वर,भिक्षापात्र, कम्बलादि धारण कर लिये। इसी तरह जव कितना काल बीता
और सुभिक्ष हुआ तब धान्यापार्यने अपने सब संघको बुलाकर का कि अब इस बुरे मार्गको छोड़ो और वास्तविक सुमार्ग अङ्गीकार करो। उस समय जिनचन्द्र शिष्यने कहां कि हम यह पलादि रहित मार्ग कभी नहीं खीकार कर सकत । ओर न इस सुखमागेका परिस्याग ही कर सकते हैं । इसलिये आपका इसीमें मला है कि आप
चुपसाब जावें । शान्त्याचार्यने फिर भी समझाया कि तुम भले ही इस 'कुमार्गको धारण करो परन्तु यह मोक्षका साधन नहीं होसकताहांउदर
मरनेका वेशक साधन है । शान्त्याचार्यके वचनोंसे जिनपन्द्रको :बला कोष आया और उसी अवस्थामें उसने अपने गुरुके शिरकी दण्डों २ से खूब अच्छी तरह खबर छी-जिससे उसी समय शान्याचार्य शान्त परिणामोसें भर कर न्यन्तर देव हुये । और अपने प्रधान शिष्य .जिनचन्द्रको शिक्षा देने लगे। उससे वह दरा सो उनकी शान्तिके लिये उसने आठ महुल चौड़ी तथा लम्बी एक काठको पट्टी बनाई और उसमें शान्त्याचार्यका संकल्प कर पूजने लगा सो वह उसी रूपमें आज मी लोकमें जलादिसे पूजा जाता है । मब हो वही पर्युपासन 'नाम कुछदेव कहलाने लगा । बाद श्वेत बल धारण कर उसकी पूजन "की गई तमीसे लोकमें श्वेताम्बर मव प्रख्याव हुआ।*
हमारे पाठमोको यह सन्देह होगा कि-भद्रबाहुचरित्रमें तो स्पूनाचार्य मारे गये लिखे हैं और भावसंग्रहमें शान्ताचार्य सो यह फर्क क्यों? ___मादम होता है कि-शान्याचार्यही का अपर नामस्थूलाचार्य है। क्योंकि यह पात खेदोनों अन्धकारने मानी है कि पताम्बर मतका संचालक जिनचन्द्र हुला है और उन्होंने दोनोंका से शिष्य भी बताया है। दूसरे दर्शनसारमें भी 'चान्याचार्य शिष्य जिवचन के द्वाराही श्रेताम्बर मतकी उत्पत्ति बतलाई गई। 'और यह अन्य प्राचीन भी अधिक है। इसलिये हमारी समझमें तो स्मूलाचार्यका हो इसरा पाम मिनरन्न था। ऐसाही जचता है और न ऐसा होमा मसम्मान हो।
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(९) | यही दोनों मनाके शासका सिद्धान्त है। इसमें किसन्न फाइना
सत्य है तथा कान पुरातन है यह जरा पर्यालाचनस आगे नल कर । अवगत होगा । दिगम्बरियांकी उत्पत्ति यावत वाम्बर लोगोया । कहना है कि ये लोग विक्रमको री शताब्दिमें हुये हैं । अग्नु, यदि । थोड़ी देर के लिये यही श्रद्धान फर लिया आप तौभी उसमें यह मन्दह कम
निराकृत हो सकेगा ? श्वेताम्बर भाइयोंक पास अपने अन्योंक लिन्ने हुये प्रमाणको छोड़कर और ऐसा कौन मुस्ट प्रमाण है जिसस सर्व साधारणमें यह विश्वास होताय कि पथार्थ दिगम्बर मतका समावि. भाव विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें हुआ ई? क्योंकि प्रतिवादीका संशय दूर करने के लिये ऐसे प्रमाणको बड़ी भारी करता है। हमने दिगम्बर मतके खण्डनमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके आधुनिक विद्वानोंकी बनाई हुई कितनी पुस्तकें देखीं परन्तु आजवक किसी विद्वानने प्रबल प्रमाणके द्वारा यह नहीं खुलासा किया-जसा वताम्बर शात्रोंमें दिगम्बरोंका रख किया गया है। इसलिये यातो इस विषयको सिद्ध करना चाहिये अन्यथा हरिभद्र सूरिके इन वचनोंका पालन करना चाहिये कि
पक्षपाती न मे वीरे न वेषः कापिलादिषु ।
मुक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ केवल कथन मात्रसे निष्पक्षपाती होनेकी हींग मारनेको कोई बुद्धिमान भला नहीं कहता । जैसा कहना वसा परिपालन भी करना चाहिये । उपदेश केवल दूसरोक लिय ही नहीं होता किन्तु स्वतः भी उसपर लक्ष्य देना चाहिये। ___ हम यह बात तो आगे चलकर प्रतावंग कि पुराना मन कान है?
और कौन यथार्थ है ? इस समय श्वेताम्बरियॉन जो दिगन्दरियोंकी धावत कथा लिखी है उसीकी ठीक २ समीक्षा करते हैं
श्वेताम्बारियोंने यह बात तो अपने आप स्वीकार की है कि शिव. भूतिने जिस मतका आदर किया था वह जिनकल्प है और इस वाम इसी कारणसे ग्रहण किया था कि और साधुलोग जो जिनकल छोड़े हुये बैठे थे पह उचित नहीं था। सो उसका प्रचार हो। इससे
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दिगम्बरियोंको तो बड़ा भारी लाभ हुआ जो अनायास उनका भर प्राचीन सिद्ध हो गया । अरे ! जिनकल्प पहले था तभी तो शिवभूति गुरुके मुखसे उसका कथन सुनकर उसके धारण करने में निचल प्रविज्ञ हुआ। इसमें उसने नवीन मत क्या चलाया ? जो पुराना था, जिसे तुम लोग उच्छेद हुआ बताते हो वह नवीन तो नहीं है। नवीन उस हालतमें कहा जाता जब कि जिनकल्पको जैनशास्त्रों में आदर न मिलता । सो तो तुम भी निर्वाद स्वीकार कर चुके हो। उसमें उस समय तुम्हारा विरोध भी तो यही था न ? जो कलियुगमें इसका व्युच्छेद होगया है इसलिये धारण नहीं किया जा सकता। और यही कहकर शिवभूतिको समझाया भी था । यदि तुमने उसे फलियुगकं दोप मात्र से देय समझकर उपेक्षा की तो हम तो यही कहेंगे कि तुम्हारी शक्ति इतनी न थी जो उसे धारण कर सको ? अस्तु, परन्तु केवल तुम्हारे धारण न करनेसे मार्ग तो बुरा नहीं कहा जा सकता। भला ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो एक मिध्यादृष्टिकी निन्दासे पवित्र जैनधर्मको बुरा समझने लगेगा |
कदाचित्कहोकि - शिवभूतिने जो मत धारण किया है वह जिनकल्प भी नहीं है किन्तु जिनकल्पका केवल नाम मात्र है। वास्तवमें उसे कोई ओर ही मत कहना चाहिये ।
यह कहना मी ठीक नहीं है और न उस ग्रन्थ ही से यह अभिप्राय निकलता है। वहां तो खुलासा लिखा हुआ है कि - जिनकल्पका व्युच्छेद होनानेसे कलियुगमें वह धारण नहीं किया जा सकता। इस विषयको देखते हुये दिगम्बरियोंका श्वेताम्बरियोंके बावत जो उल्लेख वह बहुत ही निराबाध तथा सत्य जचता है। बड़ी भारी बात तो यह है कि जैसा दिगम्बरी लोग श्वेताम्बरियोंकी बाबत लिखते हैं उसी तरह बे भी स्वीकार करते हैं जरा देखिये तो
संयमो जिनकल्पस्य दुःसाध्योऽयं ततोऽधुना । व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् ।।
तथा
'दुर्द्धरो मूलमार्गोऽयं न घर्तुं शक्यते ततः ।
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( ११ )
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कहिये जैसा दिगम्बरी लोग उनकी उत्पत्तिके वाचत वास्तविक मार्गका छोड़ना बताते हैं श्वेताम्बरी लोग भी तो वही बात कहते हैं किजिनकल्प वास्तवमे सत्य है । परन्तु कालकी करालतासे उसका व्युच्छेद होगया है । इसलिये वह अब बहुत ही कठिन है। सो उसे हम लोग धारण नहीं कर सकते । यही पाठ शिवभूति से भी कहा गया था न ? तो अब पाठक ही विचारें कि कौन मत तो पुरातन है और फिसका ¡ कहना वास्तव में सत्पथका अनुशरण करता है ? यह बात तो हमने श्वेताम्बरी लोगों के ग्रन्थोंस ही बताई है और उन्हीं से दिगम्बर मत पुरातन सिद्ध होता है। जब स्वयं अपने शास्त्रों में ही ऐसी फया है जो स्वयं अपने को बाधित ठहराती है फिर भी भामहसे दूसरोंको बुरा भला कहना भूल है । जरा हमारे श्वेताम्बरी भाई यह बात सिद्ध तो फरें कि दिगम्बर मत आधुनिक है? वे ओर तो चाहे कुछ कहें परन्तु अपने ग्रन्थका किस रीति से समाधान करते हैं यही बात हमें देखना है ।
दिगम्बर लोग श्वेताम्बरियोंकी बाबत कहते हैं कि यह मत विक्रम सम्बत १३६ में निकला । उसी तरह श्वेताम्बर दिगम्बरियों के बाबत लिखते हैं कि - वि. सं. १३८ में दिगम्बर मत श्वेताम्बरसे निकला । दोनों मतकी कथा भी हम ऊपर उद्धृत कर आये हैं। सार किसके कहते है यह बात बुद्धिमान पाठक कथा पर ही से यद्यपि अच्छी तरह जान सकते हैं और इस हालत में यदि हम और प्रमाणोंको दिगम्बरियोंकी प्राचीनता सिद्ध करनेमें न दें तो भी हमारा काम अटका नहीं रहूंगा। क्योंकि जो बात खण्डन लिखनेवालोंकी लेखनी ही से ऐसी निकल जावे जिससे खण्डन तो दूर रहे और दूसरोंका मण्डन हो जाय तो उसे छोड़कर ऐसा कौन प्रबल प्रमाण हो सकता है जिससे कुछ उपयोग निकले ? श्वताम्बरी भाई यह न समझें कि इस लेखसे हम और प्रमाण देनेके लिये निर्बल हों। हम अपनी और से तो जहां तक हो सकेगा दिगम्बर धर्मके प्राचीन बतानेमें प्रयत्न करेंगे ही। परन्तु पहले पाठकों को यह तो समझादें कि दिगम्बर धर्म श्वेताम्बरले प्राचीन । वह भी श्वेताम्बरके प्रन्थोंसे ! अस्तु, अव हम उन प्रमाणोंको भी उप
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स्थित करते हैं जिनसे जैनियोंका कोई सम्बन्ध नहीं है । और उन्हसि यह भी सिद्ध करेंगे कि दिगम्बर धर्म पहछेका है।
श्वेताम्बरोंके ग्रन्थों में यह लिखा हुआ मिलता है कि दिगम्बर धर्म विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें स्थवीरपुरसे शिवमूषिके द्वारा निकला है। अस्तु, श्वेताम्बर भाइयोंका इस भूल पर चाहे जैसा अन्ध श्रद्धान हो! परन्तु इतिहासके जानने वाले यह बात कमी खीकार नहीं करेंगे। प्राचीन इतिहासके देखने पर यह श्रद्धा नहीं होती कि-इस कथनका पाया कितना गहरा और सुहद होगा? हम अपने प्राचीनत्वके सिद्ध करनेके पहले यह बतला देना बहुत समुचित समझते हैं किदिगम्बर साधु लोग धन वन आदि कुछ भी परिग्रह अपने पास नहीं रखते है। अर्थात् थोड़े अक्षरों में यो कहिये कि वे दिशारूप पलके धारण करने वाले हैं इसीलिये उन्हें दिगम्बर (नम) साधु कहते हैं। जैसा कि-श्रीभगवत्समन्तभद्रने साधुओंका लक्षण अपने रत्नकरण्डउपासकाचारमें लिखा है
विषयाशावशातीतो निरारम्भोभरिग्रहः ।
शानध्यानतपोरक्तस्तपखी स प्रशस्यते ॥ यह दिगम्बरियोंके साधुओंका लक्षण है। और श्वेताम्बरियोंके साधु लोग वन वगेरह रखते हैं। इसलिये थे श्वेताम्बर कहे जाते हैं। अथवा हम यह व्याख्या न मी करें तौमी उनके नाम मात्रसे यह बात हो जाता है कि वे श्वेत वसके धारण करने वाले हैं। इससे यह सिद्ध हो गया कि निर्मन्थ साधुओंके उपासक दिगम्बर लोग हैं और शेव वन धारक साधुओंके उपासक श्वेताम्बरी लोग । अब विचार यह करना है कि-दिगम्बर मत जब प्राचीन बताया जाता है तो ऐसे कौन प्रमाण है जिनसे सर्व साधारण यह समझ जाय कि दिगम्बर मत पाखवमें पुरावन है। , हम यह बात ऊपर ही सिद्धकर चुके हैं कि दिगम्बर लोग नाम साधु क्या नाम देवके उपासक हैं। वो अब देखिये कि-वराहमिहिर जो
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(१३) ज्योतिषशास्त्र के अद्वितीय विद्वान हुये हैं उनके समयका निश्चय करते हैं तो उस विषयमें यह प्रसिद्ध लोक मिलता है।
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशत
वंतालमघटसर्पकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिगे नृपतेः सभायां
रवानि वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ . कहनेका आशय यह है कि-श्रीविक्रम महाराजकी सभामें धन्वन्तरि अमरसिंह कालिदास प्रमृति जो नव रन गिने जाते थे उनमें वराहमिहिर भी एक रन थे। इन्होंने अपने प्रतिष्ठाकाण्डमें एक जगहें लिखा है किविष्णोर्भागवता मयाश्या सवितुर्विमा विदाह्मणां
मातृणामिति मादमण्डलविदः शपोः समस्सा दिनः । शाक्याः सर्वहिताय शान्तमनसो नग्रा जिनानां विदु
यें यं देवमुपाश्रिवाः स्वविधिना ते तस्य कुर्युः क्रियाम् ।। मात्र यह है कि-वैष्णव लोग विष्णुको प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्यको उपासना करें, विन लोग ब्राह्मणकी क्रिया करें, ब्रह्माणी इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डलको उनके जानने वाले अचर्चा करें, वौद्ध लोग बुद्धकी प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर माधु) लोग जिन भगवानकी पर्युपासना करें। थोड़े शब्दोंमें यों कहिय कि जो जिसदेवके उपासक हैं वे अपनी र विधिसे उसीकी क्रिया करें।
अब इतिहासके जानने वाले लोग इस बातका अनुभव करें कि यह वराहमिहिरका ऋयन दिगम्बर मतका अस्तित्व महाराज विक्रमक
• हमने तो यहां तक किम्बदन्ती सुना है कि वराहमिहिर और श्रीमाया ये दोनों सहोदर थे। यह रात कहाँ तक ठीक है ! सहमा विश्वास नहीं होता। क्योंकि इस विषय में हमारे पास कोई ऐसा सबन प्रमाण नदी है जिसमें इस किम्बदन्ती प्रमाणित कर सके । यदि हमारे पाठक इस विषस कुछ जानते हों वो साबित कर हम उनके बहुत मारी होग।
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(१४) समय तकका सिद्ध करता है या नहीं ? यदि करता है वो जो श्वेताम्बरी लोग दिगम्बरी लोगोंकी उत्पत्ति विक्रमको मृत्यु १३८ वर्ष बाद बतलाते हैं यह कहना सत्य है क्या ।हमे खेद होता है कि
ताम्बराचानि इस विषय पर क्यों न लक्ष दिया। अपने ही हरिभद्रसूरिके
पक्षपातो न मे वीरे न देषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ इन बचनोंको क्यों भूल गये ? अथवा यो कहिये कि-"अर्धा. दोपं न पश्यति,, जिन्हें अपने ही मतलबसे काम होता है वे दूसरे की
ओर क्यों देखने वाले है ? क्या वे लोग यह न जानते थे कि यह घात छिपी न रहेगी ! हम कितनी भी क्यों न लिपवि परन्तु कभी न कमी तो उसलेमें आवेगी ही।
यह तो हम अपरही लिख आये हैं कि वराहमिहिर विक्रम के समयमें विद्यमान थे। वो अब यह निश्चय हो गया कि दिगम्बरियोंक धावत जो श्वेताम्बरियोंकी कल्पना है वह-सर्वथा मिथ्या है। उसका एक अंश भी ऐसा नहीं है जो श्रेतय हो । बल्कि दिगम्बरियाने जो श्वेताम्बरियोंकी वावत वि.सं.१३९ में उनकी उत्पत्ति लिखी है वह बिल्कुल ठीक है। इसके साक्षी वराहमिहिराचार्य है। (जिनका जनिषि कुछ भी सम्बन्ध नहीं है) उनके समयमें वेताम्बरियोंको गन्धतक नहीं थी इसीसे उन्होंने "नना " पद दिया है।
• इस विषयमें कितने श्वेताम्बर लोगोंका कहना है जो लोग जैन मनसे अपरिचित तथा प्रामीण होते हैं वे जैन मन्दिर के देखते ही झटसे कह उठते हैं कि-यह नरदेवका मन्दिर है। इसी प्रसिद्धि के अनुसार यदि वराहमिहिरने भी ऐसा लिख दिया हो तो क्या माश्चर्य है । परन्तु कहने वालोंकी यह भूल है। वराहमिहिर विक्रमकी समाके रन गिन जाते थे। वे सब शास्त्रोंक जानने वाले थे । इसलिये ऐसे अपरिचित तथा प्रामीण न थे जो वे शिर पेड़की कल्पना उठा लेते । और यह तो कहो कि उस समय तुम्हारा मत जब विद्यमान था
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दमी उन्होंने तुम्हारे विषयमें न लिखकर दिगम्यरियोंक विषयमें क्यों लिखा ! तुम्हारे कथनानुसार तो दिगम्बर धर्मका उस समय सद्भाव भी न होना चाहिये ? फिर यह गोल माल क्यों हुआ। इसका उत्तर क्या दे सकते हो? तुम वराहमिहिरक इन वचनों को होते हुये यह कभी सिद्ध नहीं कर सकते कि दिगम्बर मत विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें निकला है। किन्तु इतिहास बेचाओंकी दृष्टिम उल्ट तुम ही निरुत्तर कई जा सकोगे।
कदाचित्कहो कि-फेबल नम शब्दके कहने मात्र दो दिगम्बर लोगोंका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है क्योंकि हम भी तो जिन कल्पक उपासक हैं। और जिन कल्प वालोंकी प्रवृचि नम रूप होती है।
केवल कथन मात्रसे कहना कि-हम जिन कल्पके उपासक हैं और जिन कल्प नग्न होता है इससे कुछ उपयोग नहीं निकल सकता। साथ मेंखरूप भी वसाही होना चाहिये । और यदि यही या तो शिवभूति क्यों धुरा समझा गया ? अरे! जब तुम्हारा मतही श्वेताम्वर नाम से प्रसिद्ध है तो उसे नम कहना केवल उपहास कराना है।हमतों फिर भी फडंग कि-साधुलोग वास्तविक नग्न यदि संसारमें किसी मक्के होते हैं तो ये केवल दिगम्बरियोंके । बलादि से सर्वाङ्ग वेष्टित साधुओंको कोई नाम ' नहीं कहेगा यदि तुम अपना पक्ष सिद्धकरनेके लिये कहो मी तो यह बड़ा भारी आश्चर्य है ! दूसरे तुम्हारे ग्रन्थोंमें जब यह बात भी पाई जाती है कि "तीर्थकर देव भी सर्वथा अचेल नहीं होते किन्तु देव दूभ्य बन स्वीकार करते हैं" * तो तुम्हारे साघु नम हो यह कैसे माना जाय? यह बात साधारणसे साधारण मनुष्यस भी यदि पूछी नाय किदिगम्बर और श्वेताम्बरियोंके साधुओंमें ननसाधु कौन है ? तो वह भी दोनोंका खरूप देख कर झटसे कह देगा कि दिगम्बरियों के साधु नग्न होते हैं । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि वराहमिहिरका बचन विक्रम महाराजके समयमें दिगम्बर धर्मका अस्तित्व सिद्ध
इस विषयको श्रीआत्मारामजी साधुन अपने निर्माण किंय हुये तत्वीन. जयपादक ५४ ३ पत्रमें सीकार किया है। पाठक उस पुस्तझसे दस साले हैं।
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करता है वह ससन्देह है। और श्वेताम्बरी लोग जा विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें चला बताते हैं वह बिल्कुल काल्पनिक है ।
महाभारतके तीसरे परिच्छेदको आदिमं दिगम्बरियोंकी बाबत कुछ जिकर आया है । महाभारत वराहमिहिरसे भी बहुत प्राचीन है । इसके बनाने वाले श्रीवेदव्यास महर्षि हैं। जिनके नामको बा २ जानता है। इनके विषय में यदि विशेष शोध करना चाहो तो किसी सनातन धर्मके विद्वानसे जाकर पूछो वह सव या यता सकेगा। वे लिखते हैं कि
* साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोपस्यदय पाध न क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्द्दश्यमानमदृश्यमानं च ||
आशय यह है कि — कोई उत्तक नामा विद्यार्थी अपने गुरुकी भार्याके लिये कुण्डल लाने के लिये गया । मार्ग में पौध्यके साथ उसका वार्तालाप हुआ तो किसी हेतुसे उत्तकन उसे चक्षु विद्दीन होनेका शाप दे दिया। पोप्य भी चुप न रह सका सो उसने घदलेका शाप दे ढाला कि- तूं भी संतान का सुख न देखेगा। अवसानमें यह कहता हुआ कि अच्छा शापका अभाव हो कुण्डल लेकर चल दिया । सो रात में उसने कुछ दीसते हुये कुछ न दीखते हुये नग्न (दिगम्बर) मुनिको वारंवार देखे |
कहो तो नग्न साधु दिगम्बरियोंके ही थे न ? ये वेदव्यास तो आज कलके साधु नहीं हैं। किन्तु इन्हें हुये तो आज कई हजार वर्ष चीत चुके हैं। इस विषय में तुम यह भी नहीं कह सकते कि क्या आश्चर्य है जो ये जिनकल्पी ही साधु हो ? क्योंकि उस समय जिनकल्प विद्यमान था । ब्राह्मणों के प्रन्थोंमें जहां कहीं नमशब्द से सम्बन्ध रखने वाला विषय आता है वह केवल दिगम्बर धर्मसे सम्बन्ध रखता है। खैर ! वैदव्यासतो प्राचीन हुये हैं उनके समयमें तो तुम्हारा
● मुनि आत्मारामजीने भी इस प्रमाणको सत्वनिर्णय प्रासादमे जनमतको प्राचीनता दिखलाने के लिये सद्धृत किया है।
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नाम निशान मी न था किन्तु जो आचार्य विक्रमको समय क्या नवमी शनारिदमें हुये हैं वे भी ना पत्यका प्रयोग दिगम्यरियोंक लिये ही करते हैंकुसुमाचालिके प्रणेता उदयनाचार्य १६ – पृष्टमें लिखत है
निरावरण इति दिगम्बराः इसी तरह न्यायमरीके पनाने वाले जयन्त भट्ट १६७ वें पृष्ठमें लिखते हैं कि
क्रियातु विचित्रा प्रत्यागमं भवतु नाम । यस्सनटापरिग्रहो वा दण्डकण्पहलुग्रहणं वा रक्तपट्यारणं वा
दिगम्बरवा वाऽळम्न्यतां कोत्र विरोधः - इनके अलावा और भी जिवनी जगहुँ प्रमाण आते हैं वे 'विवसन'
दिगम्बर" नम' इत्यादि शब्दोंमें व्यवहृत किये जाते हैं । वे सप दिगम्बर मतसे सम्बन्ध रखते हैं तो फिर क्यों कर यह माना जाय कि दिगम्बर धर्म आधुनिक है । इसके आधुनिक कहने वालोंको ऐसे प्रमाण भी देने चाहियें जिन्हें सर्व साधारण मान सके। केवल मलवाही किसी पर आक्षेप करना सर्वथा अनुचित है। आजका जमाना नवीन ढल्के प्रवाहमें बह रहा है। अब लोग यह नहीं चाहते हैं कि पिना किसी प्रबल यक्षिके कोई बात मानली जावे। किन्तु जहां तक होसके उसे युक्ति और प्रयुक्तियों के द्वारा अच्छी तरह परामर्श करके मानना चाहिये । जब प्रत्येक विषयके लिये यह बात है तो यह तो एक बड़ा मारी विपम विषय है। इसमे तो बहुत ही सुदृढ़ प्रमाण होने चाहिये । हम यह नहीं कहते कि आप लोग हमारे कहे हुयेको अपने हृदय में स्थान दें। परन्तु साथ ही इतना अवश्य अनुरोध करेंगे कि यदि हमारा लिखा हुआ अयुक्त होतो उसे सर्व साधारणमें अयुक्त सिद्ध करो। हमें इसबातसे बड़ी खुशी होगी कि-जिस तरह हमने अपने प्राचीनल सिद्ध करने में एक तीसरे ही मतके प्रमाणोंको उपस्थित किये है इसी तरह तुम भी अपने कहे हुये प्रमाणको सप्रमाणप्रमाणभूत ठहरा दोगे। हम प्रतिक्षा पूर्वक यह बात लिखते हैं और न ऐसे लिखनेस हमें किसी
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(१८) वरहकी विभीषिका है। यदि हमें कोई यह बात सिद्ध करके बचागे कि-दिगम्बर धर्म आधुनिक है। इसका समाविर्भाव विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें हुआ है तो हमें दिगम्वर धर्मसे ही कोई प्रयोजन नहीं है किन्तु प्रयोजन है अपने हितसे सो हम फौरन अपने भवानको दूसरे रूपमें परिणत कर सकते हैं। परन्तु सायही हमारे सर को हुये वचनों का भी पूर्ण खयाल रहे । केवल अपने प्रत्यमात्रके लिखनेसे हम कमी इसे सप्रमाण नहीं समझेंगे । यदि लिखने मात्र पर ही विश्वास कर लिया जाय.तो संसारके ओर २ मताने ही क्या विगाहा है जो अवहेलनाके पात्र समझें जाय। __इस पर प्रश्न यह होसकता है किजैसे तुम्हें अपने धर्म पर लिखेहुपका विश्वास है वह भी वो लिखा हुमा ही है नीवेशक वह लिखा हुमा है और उस पर हमारा पूर्ण विश्वास भी है। क्योंकि वह इमारी. परीक्षामें शुद्ध रन बचा है। और यही कारण है कि-दूसरे पर अभद्धा है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि हमें कोई यह बात समझा कि दिगम्बर धर्म माधुनिक और जीवोंका महित करने वाला फिर भी इस पर प्रधान रहे । अन्यथा हम तो यही अनुरोध करते हैं और करते रहेंगे कि सबसे पहले यह विचारना बरी है कि-जीवका वास्तविक हित किस धर्मके धारा होसकता है और कौन धर्म ऐसा है जो संसार में निरावाध है ? इस विषयको गवेपणामें लोगोंको निष्पक्षपाती । होना चाहिये और नीचेकी नीति चरितार्थ करना चाहिये
चार इस इव सीरं सारं गृहाति सज्जना।
स्याश्रुतं यथारच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ।। वैदिक सम्प्रदायके महाभारतादि प्राचीन प्रन्योंके अनुसार यह बात अच्छी वरह सिद्ध कर चुके हैं कि-दिगम्बर धर्म श्वेताम्बर धर्मसे प्राचीन है और दिगम्बरों ही में से इसकी संसारमें नवीन रूपसे अब. तारणा हुई है । वह केवल अपनी सामर्थ्य के हीन होनेसे। क्योंकि यदि उनकी सकिका हास न होता वोमपेशाब विहिवजिनकल्पका बनादर करते और न उन्हें अपने नवीन मतके चलाने की जरूरत पड़ती।
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(१९) कदाचितकहो कि यदि, जिनकल्पके तुम बड़े अदानी हो और उसे ही प्रधान समझते हो वा बान तुम लोगोंमें यह हालत है किएक साधु तक ऐसा नहीं देखा जाता जो जिनकल्पका नमूना हो ?
और हम लोगोम साधु सो दसनमें आते हैं। क्या जिन भगवानका । यह कहना कि-पचम कालंक अन्त पयत साघुओका सद्भाव रहेगा व्यर्थ ही चला जायगा!
इसके उत्तरमें विशेष नहीं लिखना चाहते । किन्तु इतनाही बहना उचित समझते हैं कि जो बात जिन भगवानकी ध्वनिस निकली है यह वास्तवमें सत्य है और वैसा ही वर्तमानमें दिखाई भी दे रहा है। जिन भगवानने जो यह कहा है कि पश्चमकालके अन्त पर्यन्त साधुओका सद्भाव रहेगा परन्तु इसके साथ यह भी तो कह दिया है कि बहुत ही विरलतासे। तो यदि केवल इस देश में वर्तमान समयमें उनके न भी होनसे यह विश्वास तो नहीं किया जा सकता कि मुनियोंका सर्वथा अभाव होगदूसरे-तुम लोगोंमें शासन विरुद्ध वेपके धारक यदि यहुत भी साधु मिल जावें तो उससे हमें छाम क्या? भरे! आज इस देशमें हंस सर्वथा नहीं देखे जाते तो क्या विश्वास भी यही कर लिया जाय कि इस होता ही नहीं है ? विचारशील इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे । दूसरे
ध्याती गरुड़वोधेन न हि इन्ति विपं वकः । बगलेका गरुड़ रूपमें कोई कितना भी ध्यान क्यों न करे परन्तु वह कमी विपको दूर नहीं कर सकता । वो उसी तरह केवल ऐसे वैसे বাঘ্রদ্ধা করার হীন ঈ অ লী কা লা ভরা জি কামাই अमावकी पूर्ण हो जायगी से तो आज केवल भारतवर्ष में ही पावन लाख साधु हैं। परन्तु उनसे उपयोग क्या संधैगा?
हां! एक बात और श्वेताम्बर लोग कहते हैं जिससे वे अपने प्राचीन होनेका दावा रखते हैं। वह यह है कि हम लोगोंमें अभीतक खास गणधरॉक बनाये हुये अङ्गशास्त्र हैं और तुम लोगोंमें नहीं है। इससे भी हम प्राचीन सिद्ध होते हैं। परन्तु यह प्रमाण भी सगाव नहीं है। इसमें हमें बाधा यह देना है कि यदि तुम खास गणघरों
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के शास्त्र अभीतक अपने में विद्यमान बताते हो तो कोई हर्ज नहीं । हम तो यही चाहते हैं कि - किसी तरह वस्तुका निश्चय होजाय ! परन्तु साथ ही इतनी बातें और सिद्ध करना होंगी ? यदि वे शास्त्र खास गणधरोंके बनाये हुये हैं तो जिस २ अग्रफी तुम्हारे ही शास्त्रों में जितनी २ संख्या कही है उतनीकी विधि ठीक २ मिला वो ? यांद कहोगे कि कलियुग में बहुतसा भाग विच्छेद होगया है । अस्तु, यही सही, परन्तु उन शास्त्रोंके प्रकरण देखनेसे तो यह नहीं जाना जाता कि यहांका भाग खण्डित होगया है वह तो आदि से लेकर अन्त पर्यन्त विल्कुल ससम्बद्ध मालूम पड़ता है फिर यह कैसे माना जाय कि इसका भाग नष्ट होचुका है ? और न इतनी पदोंकी संख्या ही मिलती हैं, जितनी शास्त्रों में लिखी है। फिर भी कदाचित्कहो कि - पद तो हम व्याकरणके नियमानुसार सुबन्त और तिडन्तको मानेंगे। खैर ! यही सही, परन्तु ऐसा मानने पर तो वह संख्या शास्त्रके कथनका भी बाधित कर देगी । फिर उसका निर्वाह कैसे होगा ? फिर भी यदि कहो कि ये जो अङ्ग, शास्त्र हैं वे गणधरोंके कथनानुसार महर्षियोंके द्वारा बनाये गये हैं। यदि यही ठीक है तो महर्षियों उनके रचयिताओंमें अपना नाम न रख कर गणधरोंका नाम क्यों रक्खा ? क्या उन्हें किसी तरहकी विभीषिका थी? जो उन्होंने बड़ों के नामसे अपने बनाये हुये ग्रन्थ प्रकाशित किये। जाति पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा ? उन्होंने अपने दूसरे महाव्रतका उहूंघन करना क्यों उत्तम समझा ! दूसरे गणधरोंकी जैसी गंभीर बाणी होती है वमी इनकी क्यों नहीं ! जसे ऋषियोंके प्रन्थोकी भाषा हैं वैसी ही इनकी भी ह । इत्यादि कई हतुओं से ये अङ्गादि शास्त्र खास गणधरोंके द्वारा विहित प्रतीत नहीं होते । यदि सिद्ध कर सकते हो तो करो ! उपादेय होगा तो सभी स्वीकार करेंगे
1
दिगम्बरोंका तो इस विषय में सिद्धान्त है कि--भङ्ग पूर्वादि शास्त्रोंका लिखा जाना ही जब निवान्त असम्भव है तो उनका होना तो कहांतक सम्भव है इसका जरा अनुभव करना कठिन है । परन्तु अभी जितने शास्त्र हैं, वे सब परम्परा के अनुसार अङ्गशास्त्र के अंश ले २
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कर बने हैं। उनके बनाने वाले गणघर न होकर आचार्य लोग है और यही कारण है कि उन्होंने सब अन्य अपने ही नामसे प्रसिद्ध किय है। यह युक्ति भी श्वेताम्बर मतके प्राचीन सिद्ध करनेमें असमय है तो अभी ऐसा कोई प्रवल प्रमाण नहीं है जिससे वेवाम्बर मत दिगम्बर मनसे पहलेफा सिद्ध होजाय ? और दिगम्बर मत पहलेमा है यह वात वदिक सम्प्रदायक प्रन्योंक अनुसार हम पहले ही सिद्ध कर आये हैं। इसके अलावा दिगम्बरोफे प्राचीन सिद्ध होनमें यह मी हेतु देखा जाता है कि___ उनके किवने आचार्य ऐसे हुये है जो उनका अस्तिल विक्रम महाराजकी पहली ही शवारिदमें सिद्ध होता है। देखिये तो
कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम सं. ४९ में हुये हैं। उन्होंने पश्चास्तिकायादि कितने ही अन्य निर्माण किये हैं । समन्तभद्रस्वामी वि० स० १२५ में हुये हैं इनके बनाये हुये गन्धहस्तिमहाभाप्य, रनकरण्ड, आतपरीक्षादि कितने प्रन्थ बनाये हुये हैं । धनारसका शिवकोटि राजा भी उन्हीं के उपदेशसे जैनी हुआ था । उसने भी भगवतीआराधना प्रभूति कई अन्य निर्माण किये हैं। इनके सिवाय और भी कितने महापं दिगम्बर सम्प्रदायमें विक्रमकी पहली शताब्दिमें हुये है। इसलिये श्वेताम्बरोंकादिगम्बर मनकी उत्पति वि० सं० १३८ में कहना सर्वथा वाधित सिद्ध होता है । जब किसी तरह दिगम्बर मत श्वेताम्बर मतके पीछे निकला सिद्ध नहीं होता तो उनकी कथा-कल्पना कहां तक ठीक है? इसकी परीक्षाका भार हम अपने पाठकोंके ऊपर छोड़ते हैं और प्रार्थना करते हैं कि वे निष्पक्ष दृष्टिसे दोनों मतके ऊपर विचार करें।।
यद्यपि हमारी यह इच्छा थी कि ऊपर लिखे .हुये आचाकि वायत यह सविस्तर सिद्ध करें कि ये सब विक्रमकी पहली शताब्दिमें हुये हैं । परन्तु प्रस्तावना इच्छासे अत्यधिक बढ़ गई है । इसलिये 'पाठकोंकी अगाचि न हो सो यहीं पर विराम लेकर आगे लिये आशा दिलाते हैं कि हम श्वेताम्बर वथा दिगम्बरोंके सम्बन्धमें एक खतंत्र अन्य लिखने वाले है उसमें यह बात भी अच्छी वर
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मति
(१२) सिद्ध करेंगे । पाठक थोड़े समयके लिये हमें अपनी क्षमाका भाजन बनाएँ ।
हमने यह प्रस्तावना ठीक रनिषेयके अभिप्रायसे लिखी है।हमारी यह इच्छा नहीं है कि हम किसीके दिलको दुःखाचे । परन्तु सत्य श्रृंठ के निर्णयकी परीक्षा करनेका अवश्य अनुरोध करेंगे । और इसी भाशवसे हमने लेखनी उठाई है । बदि कोई महाशय इसका समय उत्तर देगे तो उस पर, अवश्य विचार किया जायगा । बस इतना पह कर हम अपनी प्रस्तावमा समाप्त करते हैं और साथही--
गच्छता सखलन कापि भवत्येव प्रमादतः।
इसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सजनाः || इस नीति के अनुसार क्षमाकी प्रार्थना करते हैं। क्योंकि-- .
न सर्वः सर्वे जानाति इसलिये भूल होना छदस्यों के लिये साधारण बात है। बुद्धिमानों को उस पर खयाल न करके प्रयोजन पर दृष्टि देनी चाहिये।
भद्रबाहुचरित्रकी हमें प्रतियें मिली है परंतु वे दोनों बहुधा अशुद्ध हैं। इसलिये संस्कृत पाठके संशोधनमें हम कहां तक सफल मनोरथ हुवे है इसे पाठकही विचारें । तब भी बहुत ही अशुद्धियोंके रहनाने की संभावना है। उन्हें पुनरावृत्तिमै सुधारनेका उपाय करेंगे । हिन्दी अनुवादका यह हमारा दूसरा धन्य है । अनुवाद जहां तक होसका सरल भाषामें करनेका उपाव किया है पाठकोंको यह कहां तक कचि कर होगा इसका हमें सन्देह है। क्योंकि हमारी भाषा वैसी नहीं है जो पाठकों के दिलको लुमाकै । अस्तु, नौ भी मूल मन्थका तात्पर्य वो समझमे मा ही जावैगा । अमी इतने ही में सन्तोष करते हैं। ता०१७।३।१) जातिकादासकाशी
उदयलाल जैन
काशीवाद।
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प्रस्तावनाका शुद्धि-पत्र
पंक्ति
. ... ६ .
२
... .
अशुद्धि सत्युपये बाहर लिय दुमिन जिनचन्द्र
शुद्धि ... सत्युपस्य ... पारह . . दुर्भिक्ष
जिनचन्द्र
*
.
२६ ...
अनुवादका शुद्धि-पत्र
. शुद्धि ।
शुद्धि लक्षमी पुडूबदन
.. ...
लक्ष्मी
विचार
पुष्ट्रबद्धन विचारे चरणाम लिया है एमरत विधाता द्वितीया
घरणामें
लिग है ३ . समस्त ८ . पिता
द्वितिया . ति १२ ... मानदिन्त . . सकपका
..
१. २४
... ... .
... ... ...
आनन्दित सो
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पक्ति
...
१...
अशुद्धि चन्द्रलमण्डल लुटाकर द्वितिया निन्तर इंघन भय
चन्द्रमण्डल लटकर द्वितीया
1.
१३...
..
निरन्तर
मान
.
.
.
भयसे
नम
दशी
नम देशों
गुरू
...
पात्मामाने कहते हुआ रूपशामाग्य उज्यायनी ना संसगमुनि हाजानसे
.
.
पापात्माओंने कहता हुना : रूपसीमाग्य । उमयिनी नाम असामुनि होनानेसे खड्ग भार आधारको होसकती।
आर आहाकी होसती? खिये -
'त्रिय
संयय '... 'संयम नहीं मानी सकती, नहीं मानी जा सकती परीग्रही . 'परिग्रही
अन्तरण सम्यक्त्व
मन्तरग
सम्यक्त्व सम्बन्धी
सम्बन्धि विरद
गुरुपदेश . पुद्धिमानो
विरुद
२
रूपदेश बुदिमानों
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शुद्धिः
पंक्ति अशुद्धिः
... मनल . .. वपन
मावाया
.
- सवंश .... माढाका नान
मूलग्रन्थस्य शुद्धिपत्रम्
.
m com
. पती अशुद्धिः
. . परमेष्टि . ... ..... निर्गतम __- ६ .. विश्वास . . .. विटरम्
प्यापनाम ततो बदवः
शुद्धिः ... परमष्टि ... निर्गतम् ... विश्राम
विटरम्
याफ्नाय ... वो
पहनी
" पाकरो
दवाकरो राजिता हवा
... अजितः
-m ... ..man Rmc
य
चन्दे
... पवन्द
त्वरित
___.. त्यरित
जानन्तपु दरिद्वन्यो मात्रा फा
... जनान्ते
दरिदम्यो ... मात्रामा . रंकाः
५४
.
"
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पन्तोः अशुद्धिः - शुद्धिः : ... . ३ . तच्छुत्वा · तच्छला ५६ न ... . . . ' मात्र ... पात्रं ६५ " . . तय ... तथा ___.. ३ .. प्रार्थना .. प्रार्थ
ध्वरस्चित् । ... न्यरीरचत् मृतेः ...
तार्यकर्ता , ... तार्थफतणा ... ३ . स्वा
. ५ . विरे ... चौरे ... ५ . विरुदैः .. कि ... . .. नातं ... जातं .... ५ . चलोचित ... केचित्केचित ॥ १ ॥ साहात सादादा
.
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नमः श्रीभद्रबाहु नये
श्रीभद्रबाहु-चरित्र॥
(सभाषानुवाद) श्रीशशिविशद जिनेशपद कुगति भ्रमण दुख ताप ॥ हरकर, निजचतन्यगुण करहु दान गतपाप ! ॥१॥ त्रिभुवन जन सुब भक्ति-वश त्रिभुवनफे अवतंस ।। हुये, प्रभो ! अब क्यों न मुझ पर करुणा है अंश १ ॥२॥ दिनमणि मी तुव कान्तिसे निवल कान्ति के नाय! ॥ चूरहिं जगतम, वो न क्यों हरहु हृदय तम । नाय! ॥३॥ जनश्रुति शशि शीतल कहैं मुझे न यह स्वीकार ।। जनन-ताप मिटवा नहीं फिर यह क्यों निरधार ! ॥en इस अपार सन्तापके हुये विनाशक आप ।। ' विहिं मृगाङ्क शीतल प्रभो ! कह लाये जग आप ॥५॥
गुण मुक्तामणि रत्नके पारावार अपार ॥ गुण मुक्कामणि दान कर नाथ ! करहु भवपार ॥६॥ इह विध माल-भव-शुभ-विधि-अमाव व विघ्न । है निरास, इह ग्रन्थ शुभ हो पूरण निर्विन ॥ ७॥ नाय ! सुविनय अनायकी सुनकर करुणापूर ।। अवलम्बन कर कमलका देकर कालिक विचूर ॥८॥ रत्लकीर्ति मुनिरानने रचौ सुजन हित हेतु ॥ भद्रबाहु मुनि विलक हत सोमव नीरधि सेतु ॥ ९ ॥ विहिं भाषा मैं मन्दधी मूल ग्रन्थ अनुसार । लिखहुँ कहीं यदि भूल हो शोषहु सुजन विधार ॥१०॥
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ग्रन्थारम्भ ।
2008
जो अपने केवलज्ञान रूप सूर्यके द्वारा लोगों के हृदयस्थित अन्धकारका भेदन करके महावीर (अनुपम सुभट ) पनेको प्राप्त हुये हैं वे सम्मति ( महावीर ) जिनेन्द्र हम लोगोंके लिये समीचीन बुद्धि प्रदान करें ॥१॥
धर्म से शोभायमान, वृषभ के चिह्न से चिह्नित, इन्द्रसे अर्चनीय, धर्मतीर्थ के प्रवर्त्तक तथा कर्म शत्रुओं के भेदने वाले ऐसे श्रीवृषभनाथ भगवान के लिये मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥
मनोभिलषित उत्कृष्टपदकी प्राप्ति के लिये उत्कृष्टपदको प्राप्त हुये पञ्चपरमेष्ठिके उत्कृष्ट - लक्ष्मी-विराजित चरणोंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ३ ॥
श्रीभद्रबाहुचरित्रस्.
सद्घोषभाना मित्वा बनानामन्तरं तमः । यः सम्मतित्वमापन्नः सन्मति सम्मतिः क्रियात् ॥ १ ॥ षर्म वृषमं वन्दे वृषभानुं वृथाऽर्थितम् । वृपतीर्थप्रणेतारं भेत्तारं कर्मविद्विषाम् ॥ १ ॥ परमेष्टपदाप्तानां परमेष्टपदाप्तये । परमेष्टपद बन्दे सत्यश्वपरमेष्ठिनाम्॥ ३ ॥ आईसी भारती पूज्या लोकालोकप्रदीपिका । रजो विधून
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समूलभाषानुवाद।
लोक तथा अलोकके अवलोकनके लिये प्रदीपकी समान जिनवाणी (सरस्वती)हमारे पाप रूपरजका नाश कर निरन्तर निर्मल बुद्धि प्रदान करे ॥ ४॥
संसार समुद्र में पवित्र आचरण रूप यानपात्रके द्वारा गौरव को प्राप्त हुये साधुओंके पदपङ्कज मेरे मनोभिलषित अर्थकी सम्प्राप्तिके करने वाले होवें ॥ ५ ॥
ग्रन्थकार साधुराज रत्नकीर्ति महाराज अपनी लघुता बताते हुये कहते हैं कि यद्यपि मैं ग्रन्थ निर्माण करनेकी शक्तिसे रहित हूं तथापि गुरुवर्यकी उत्तेजनासे जैसा उनके द्वारा भद्रबाहु मुनिराजका चरित्र सुना है उसे उसीप्रकार कहूंगा ॥६॥ जिसके श्रवण से-मूर्ख बुद्धियों के मिथ्या-मोहरूप गाढान्धकारका नाश होकर पवित्र जैनधर्ममें निर्मल बुद्धि होगी ॥७॥
इस भरतक्षेत्र सम्बन्धि मगधदेशमें अलकापुरीके समान राजगृह नगर है॥ ८॥ उसके पालन करने वाले जिन्हें समस्त राजमण्डल नमस्कार करते हैं तथा
नो निलं तनोतु विमला मतिम् ॥ ४ ॥ खेयार्थसिद्धिकरमाधरणाः सन्तु गौरवाः । गौरवासाः सुचरणस्तरण भवाम्युधा ॥ ५॥ शकपा होनोऽपि पायेऽई गुरुभकपा प्रणोदितः। श्रीमद्रयाहुचरितं यथा पतं गुरुजितः ॥ ६ ॥ यसतं मुग्यपुतीनां मियामोहमहातमः । धुनुते तनुते शुद्धां अनमागेऽमा मतिम् ॥ ७॥भपाऽम भारते व विषये मगधामिये। पुरं राजगृह भाति पुन्दपरोपमम् ।
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भद्रबाहु चरित्र
कल्याणके निलय भव्यात्मा महाराज श्रेणिक, हैं । और उनकी कान्ताका नाम चेलनी है ॥ ९ ॥ एकसमय महाराज श्रेणिक - वनपाल के मुख से विपुलाचल पर्वत पर श्री महावीर जिनेन्द्रका समवशरण आया सुनकर उनके अभिवन्दनकी अभिलाषासे गीत नृत्य वादिनादि प्रचुर महोत्सव पूर्वक (जिनके द्वारा समस्त दिशायें शब्दमय होती थीं) चले ॥ १०-११ ॥ और देवता लोगोंसे महनीय तथा केवलज्ञान रूप उज्वल कान्तिके धारक श्रीवीरजिनेन्द्रका समवलोकन कर तथा स्तुति नमस्कार पूजन कर मनुष्यों की सभा में बैठे ॥ १२ ॥
वहाँ जिन भगवानके द्वारा कहे हुये यति और श्रावक धर्म का स्वरूप विनय पूर्वक सुना तथा करकमल-मुकुलित कर नमस्कार पूर्वक पूछा- देव ! इस भारतवर्ष में दुःषम पञ्चम कालमें मागे कितने केवलज्ञानी तथा कितने श्रुतकेवली होंगे? और आगे क्या क्या होगा ! ॥ १३-१४ ॥
नताशेषनृपश्रेणिः श्रेणिकः श्रेयसो निधिः । भावुकः पालकस्तस्य बेलनी महपीशिता ॥ ९ ॥ एकदाऽसौ विशांनाषो विदित्वा वनपालतः । विपुलाउदो महावीरसमचसृतिमार्गताम् ॥ १० ॥ परानन्दमापन्नोऽचेयं विवन्दिपुः । तौर्यत्रिकवरारानवधिरीकृतदिङ्मुखम् ॥ ११ ॥ निरीक्ष्य सुरसंसेव्यं केनलोज्नवरोचिषम् । स्तुत्वा मत्वा समम्बर्च्य तस्थिवानरसंसदि ॥ १२ ॥ द्विघा धर्मे जिनोद्गीतमधावांप्रायान्वितः । प्रणिपत्य ततोऽयाक्षीत करो मुकुलयन्नृपः ॥ १३॥ देवाऽत्र दुःषमे काले केवल श्रुतबोधनाः नियंतोऽये भविष्यन्ति किं किं वान्ते भविष्यति ॥ १४ ॥ श्रुत्वा तदीनं व्याहार
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समूलभावानुवाद। श्रेणिक महासजके प्रश्न के उत्तर में भगवान वीरजिनेन्द्रनामीर मेघ समान दिव्यध्वनिके निनाद से भव्यरूप मयूरोको आनन्दित करते हुये बोलेनराधिनाथ ! मेरे मुक्ति जानेके वाद-गौतम, सुधर्म, जम्व्ये तीन केवलज्ञानी होंगे और समस्त शास्त्रके जानने वाले श्रुतकेवली-विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोव. ईन तथा भद्रबाहु ये पांच महर्षि होंगे । और पंचम कलिकालमें ज्ञान धर्म धन तथा सुख ये दिनों दिन घटते जावेंगे ॥ १५-१८॥
हे श्रेणिक ! अब आगे तुम भद्रबाहु-मुनिका चरित्र सुनो । क्योंकि-जिसके श्रवणसे मूर्ख लोगोंको अन्यमतोंकी उत्पत्ति मालुम हो जायगी ॥ १९॥ उस समय श्रेणिक महाराजने-श्री वीरजिनेन्द्र के मुखसे भद्रबाहु मुनिका चरित्र जिसप्रकार सुनाथा उसे उसी . प्रकार इससमय संक्षेपसे गुरुभक्तिके प्रसाद से मैं
कहता हूँ ॥२०॥ प्याजहार गिराम्पतिः। गंभारयननिपिदियन मन्त्रीकनः ॥ १५॥मयिमुकिमित राजन् गौतमाश्यः स्वधर्मवाक् । जम्बूनामा भविष्यन्नि प्रयोऽमा लेक्षणाः ॥ ६॥ विश्वश्रुतविदो विष्णुः नदिमित्रोऽपराजितः । वो गोवर्द्धनो भदो भद्रवाहलयान्तिमः ॥ १७ ॥ श्रयनिसामानः पर्वतेत्रमया योपो पमा धनं साध्य कलो हीनत्वमेष्यति ॥ १८॥
युग्म भगवाहमवं वृतं श्रेणिकानो निराम्यताम् । पोचमतोत्सातिईस्पत मुग्धमानः ॥ ९॥ श्रेणिकेत पाप्रावि श्रीवारमुनिर्गतम् । तपाश्मना
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भद्रवाहु-चरित्रइस लोक में विख्यात जम्बूद्वीप है । वह आदि होने पर भी अनादि है । परन्तु यह असम्भव है कि-जो आदि हैं वह अनादि नहीं हो सकता। इस विरोधका परिहार यों करना चाहिये कि यह जम्बूद्वीप और २ धातकी खण्ड: आदि सब द्वीपोंमें आदि (पहला) द्वीप है । इसलिये जम्बूद्वीपके आदि होकर अनादि होनेमें दोष नहीं आता । यह द्वीप षटकुलाचल पर्वतों से सेवनीय है। अर्थात्--इसके भीतर छह कुलाचल शेल हैं तो समझिये कि-प्रचुर लक्षमी तथा कुलकमसे वशवाः राजाओंके द्वारा सेवनीय क्या वसुन्धराधिपति है ? उस जम्बूद्वीपके ललाटके समान उत्तम भरत क्षेत्र सुशोभित है। और उसके तिलक समान पुडूवर्द्धन देश है॥२१-२२||
जिस देशमें-धन धान्य तथा मनुष्यॊसे युक्त, धेनुओंके समूहसे विभूषित तथा महिष ( भैंस) निवहसे परिपूर्ण छोटे २ ग्राम राजाओंके समान मालूम देते हैं। क्योंकि-राजा लोग भी धन धान्य जनसमूह पृथ्वीमण्डल तथा राणियोंसे शोभित होते हैं ।। २३ ॥
वधि समासेन गुरुचितः ॥ ३० ॥ जंबद्वीपोष विख्यात आयोऽनादिरपीरितः । कुलभूषरसेव्यो नृपो वा विपुलनिया ॥२१॥ तदीयमाबद्भाति भारत क्षेत्रमुत्तमम् तमालपत्रवतस्य देशोऽभूत्पौण्डवर्द्धनः ॥ २२ ॥ धनधान्यजनाकीर्णा गोमंडलवि. अदिताः । प्रामा यत्र पायन्ते महिषीकुलसंकलनः ॥ १३॥ फलदा विहितच्छाया:
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समूलभाषानुवाद । जिस देशमें-आश्रित पुरुषोंको उत्तम फलके देनेवाले, शीतल छायाके करने वाले, विशाल शोभासे युक्त, पृथ्वीके आश्रित तथा देखने में मनोहर वृक्ष श्रावकों के समान मालम होते हैं। क्योंकि-श्रावक लोग भी लक्ष्मीसे युक्त, उत्तम क्षमाके स्थान तथा सम्यग्दर्शनके धारक होते हैं ॥ २४ ॥ जिस देशमें नदीमात्रसे निप्पन्न तथा मेघ मात्रसे निष्पन्न क्षेत्र (खेत) से सुशोभित तथा मनोमिलपित धान्य की देने वाली वसुन्धरा चिन्तामणिके समान मालूम पड़ती है। क्योंकि-चिन्तामणि भी तो वांछित वस्तुओं का देने वाला होता है ॥२५॥
जिस देशमें पुरुषोंको-भ्रमर विलसित कमललोचनोंसे आनन्द की बढ़ाने वाली, पक्षियोंकी श्रेणियोंसे शोभित, निर्मलजलसे परिपूर्ण तथा जिनका सुन्दर आकार देखने योग्य है ऐसी सरसिये शोभती हैं तो समझिये कि देशकी उत्कृष्ट शोमा देखनेके लिये कौतूहल से प्रगट हुई पृथ्वी रूप कान्ता की आनन श्री है क्या?क्योंकि मुखश्री भी लोचनोंसे आनन्द देनेवाली दाँतोंकी पंक्तिसे विराजित, निर्मल, तथा देखने योग्य होती है ॥ २६-२७ ॥ संश्रितानां पशुधियः । प्रादायन्तं नगा यत्र क्षमाधारा: मुदर्शनाः ॥ २४ ॥ नदीमातृकसदेवमातृकक्षेत्रमंडिताः। चिंतामणीयते यत्र स्वरमान प्रदा नही | सरस्यो यन्त्र राजन्तै सालिवारिजलोचनैः । पुंसां प्रमोदकारिण्वो द्विजराजिविराजिताः ॥ २६॥ प्रवमा दर्शनीयाना धनयवा मुखाधियः । यदादा मुनमा हष्ट्र ऋतुकाला विजृम्भिताः ॥ २॥
युग्नम.
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भद्रबाहु-चरित्रतथा जिस देशमें प्रसूति गृहमें अरिष्ट शब्द का व्यवहार होता था, प्रतारण पना जम्बुक (श्याल) में था, बन्धन हाथियोंमें था, पल्लवोंमें छेदन होता था, भङ्गपना जलतरंगमें था, चपलता बन्दरोंमें थी, चक्रवाक रात्रिमें सशोक होता था, मद विशिष्ट हाथी था तथा कुटिलता स्त्रियोंकी भूवल्लरियोंमें थी। इन बातोंको छोड़ कर प्रजामें न कोई अरिष्ट (बुरा करने वाला ) था, न ठगने वाला था, न किसी का बन्धन होता था, न किसीका छेदन होता था, न किसीका नाश होता था, न किसीमें चपलता थी, न किसीको किसी तरह का शोक था, न कोई अभिमानी था तथान किसी में कुटिलता थी। भावार्थ-पुण्डूवर्द्धनदेशकी प्रजा सर्व तरहआनन्दित थी उसमें किसी प्रकार का उपद्रव न था ||२८-२९॥
जिस पुण्डूवईन देशमें खर्गके खण्ड समान अत्यन्त मनोहर कोट्टपुर नाम नगर अट्टाल सहित बडे २ ऊँचे गोपुरद्वार खातिका तथा प्राकार से सुशोभित है ॥३०॥
प्रसूतियेहेअरिधाख्या जम्बुके वञ्चकम्वनिः । बंधो गलै छदे छेदो पत्र मारत रखके ॥ १८ ॥ चापल्यं तु कमी नवं कोक शोको मदो द्विपे । क्राठिस्य बीधयोर्म स्मात्ततोऽसौनिरुपद्रवः ॥ २९॥
युग्मम्. तत्र कोहपुरं रम्यं धोततेनाकखण्डवत् । अगापोतुसाचलः सातिकापालगो पुरैः ॥ ३० ॥ प्रोतुंगशिखरा यत्राबः प्रासादपंशयः । फलईश वियोलॉप
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समूलमापानुबाद। जिसमें-अतिशय उन्नत २ शिखरवाली हर्यश्रेणियें ऐसी मालूम पड़ती हैं समझिये कि-अपने ध्वजा रूप हाथोंसे चन्द्रमाका कलंक मिटाने के लिये खड़ी हैं ॥३१॥ जिस नगरीमें-निर्मल, सुकृतके समूह ममान भव्यपुरुषों के द्वारा सेवनीय जिन चैत्यालयांक शिखर सम्बन्धि अनेक प्रकार महा अमौल्य-मणि-माणिक्यसे जड़े हुये सुवर्णों के कलशोंकी चारों ओर फैलती हुई किरणों से गगन मंडलम विचित्र चन्द्रोपक (चंदोवा) की शोभा हाती थी ॥३२-३३॥ जिस नगरीमें दानी लोग यद्यपि थे तो दयाशाली परन्तु विचार कुवेरकोतो निर्दव होकर निरन्तर महापीड़ा करते थे । भावार्थ-वहाँके दानी लोग धनदसे भी अधिक उदार थे॥३॥ जिन लोगों का धन तो जिन पूजादिमें व्यय होता था, चित्त जिनभगवान्के धर्ममें लीन रहता था, गमन अच्छे २ तीर्थोकी यात्रा करनेके लिये होता था, कान जैन शास्त्रों के श्रवणमें लगते थे, वे लोग स्तुति गुणवानोंकी करते थे तथा ननस्कार जिनदेवके चरणामें करते फेतुहस्तः समुबताः ।।३॥ नानानेकनहानप्यमणिमाणिश्नमस्तिः नानक फुम्भारप्रसारकिरणोत्तरः ॥३३॥ विविसिषयोल्लोचश्रियं बकुनै भो । विशदाः पुण्यपिण्डामा मयसेय्या जिनालयाः ॥ १३ ॥
युग्मम् पनयास्यागिनो लोकाः सदया अपि निर्दयम् । दुराधि धनपस्थापि मममा. निरन्तरम् ॥ ३४ ॥ वित्तं येपी जिनज्यादौ चितं येषां पंऽनः । गति
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भद्रबाहु-परित्रथे। अधिक क्या कहें; कोटपुर नगर निवासी सब लोग धर्म-प्रवृतिमें सदैव तत्पर रहते थे ॥ ३५-३६ ॥ उस पुड्वर्द्धनका-जिसने अपने तेजसे ससस्त राजा लोगों को वश कर लिये हैं, सन्तानके समान प्रजाको देखने वाला, राजा लोगोंके योग्य तीन शक्तिसे मंडित, काम क्रोध लोभ मोह मद प्रभृति छह अन्तरङ्ग शत्रुओंको जीतने वाला तथा उत्तम मार्गमें सदैव प्रयत्नशील पद्मघर नाम राजा था ॥ ३७-३८ ॥ उसके-दूसरी लक्ष्मीकी समान पद्मश्री नाम महिषी थी । तथा सोमशर्म पुरोहित था ॥ ३९ ॥ वह पुरोहित विचारशील, विशुद्ध हृदय तथा वेदविद्याका ज्ञाता था और द्विज राज (ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ) होकर भी द्विजराज (चन्द्र अथवा गरुड) न था। क्योंकि द्विज नाम नक्षत्रोंका है और नक्षत्रों का राजा चन्द्र होता है,अथवा द्विजनामपक्षियोंका है और उनका राजा गरुड़ होता है। परन्तु यह दोनों न होकर ब्राह्मणोंमें उत्तम था। क्योंकि
येषां मुयात्रादौ श्रुतियेपा विनोदिते ॥ ३५ ॥ स्तुतिपां गुणिवर नतियों जिनक्रमे । तत्रत्यास्तेऽखिला लोका रेबिरे धनवर्तनात् ॥ ३॥ तत्रचामायते भूपः ख्यातः माघसमिधः । करदीवनिः शेयभूपालो निजतेजसा ॥ ३५ ॥ स्वप्रमावसबालोको शचित्रविराजितः । जितान्तरारिषदों यः सन्माने समुशनी ॥३८॥ बभूव तन्महादेवी पन्नश्रीः श्रीरिवापरा । पुरोधा सोमशाह आसीसस्य महीक्षितः ॥ ३९ ॥ विवेकी विशदत्वान्तो वेदविद्याविशारदान चन्द्रो दिन.
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समून्द्रभाषानुपाद ।
द्विज नाम ब्राह्मणका भी है ॥ ४० ॥ सोमशर्मकचन्द्रवदनी, विशाल लोचन बाली, स्वाभाविक अपने सौन्दर्यले देवाङ्गनाओं को जीतने वाली तथा सूर्यकी जैसी कान्ति होती है चन्द्रमा की जैसी चन्द्रिका होती हैं अभिकी जैसी शिखा होती हैं उमी समान सुन्दर लक्षणोंकी घारक प्रशंसनीय सोमश्री नाम कान्ता थी ॥ ११-१२ ॥ सोमशर्म अपनी सुन्दरीके साथ अतिशय रमण करता हुआ सुख पूर्वक कालको विता था जिसप्रकार कामदेव अपनी रतिकान्ता के साथ प्रणय पूर्वक रमण करता हुआ कालको बिताता है ॥ ४३ ॥ पुण्य कर्मके उदय से कृशोदरी सोमश्रीने - शुभनक्षत्र शुभ ग्रह तथा शुभल में अनेक प्रकार शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा कामदेव के समान सुन्दर स्वरूपशालि पुत्ररत्न उत्पन्न किया, जिसप्रकार उत्तम वुद्धि ज्ञान उत्पन्न करती है । उस समय सोमशर्मने पुत्रकी खुशीमें याचक लोगों के लिये उनकी इच्छानुसार दान दिया ||४४-४५|| और स्त्रिये - मधुर २ गाने लगी, नृत्यकरने राजाऽपि न चापि गरुडी यकः ॥४०॥ सती मतविका नाम्ना सोमश्रीसखिया:भवत् । चन्द्रानना विशालाक्षी रूपापास्तमुराद्दना || ४१ || मानोविभव चन्द्रस्य चन्द्रिकेष दया यतेः । शिखा दीपस्य वा सफा तस्याऽऽमीत्मा गुलक्षणा ॥ ४२ का रम्यमाणोऽसौ कान्तवा कान्तया समम् । अनीनयामुले कार्ड प्रीत्या रत्या यया स्मरः ॥ ४३ ॥ पुण्यात्यासूत सा तन्त्री पुष्यलक्षणलक्षितम् । तनूजं स्मरसंकाचं सुबोध वा सती मतिः ॥ ४४ ॥ शुभे शुभ लग्ने शुभे तातस्तदा मुदा । वित्तं विधानयामास माचकेभ्यो यथेप्सितम् ॥ ४५ ॥ कामिनीकलानोत्यदुन्दुभि•
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१२ भद्रबाहु-चरित्रलगी, दुंदुमि बजने लगे तथा गृहों पर ध्वजायलटकाई गई । इत्यादि नाना प्रकारसे पुत्रका जन्म महोत्सव मनाया गया॥४६॥ अधिक क्या कहा जाय उस पुण्यशाली मुमुतके अवतार लेने से सभीको आनन्द हुआ। जैसे सूर्यके उदयाद्रि पर आनेसे कमलोंको तथा चन्द्रोदयसे चकोरोंको आनन्द होता है।४७॥यह वालक कल्याणका करनेवाला होगा, सौम्यमूर्तिका धारक है, सरलचित है इसलिये बन्धुओंके द्वारा भद्रबाहु नामसे सुशोभित कियागया ॥४८॥ सो सुन्दर स्वरूप शाली भद्रबाहु शिशु स्त्रियोंके द्वारा खिलाया हुआ एक के हाथसे एकके हाथमें खेला पृथ्वीमें कभी नहिं उतरा ॥ १९ ॥ सारे संसारको आल्हादका देने वाला शुक्ल द्वितियाका चन्द्र जैसै दिनों दिन कलाओंके द्वारा वृद्धि को प्राप्त होताहै उसीतरह आखिल जगतको आनन्द देने वाला यह वालकभी अपने गुणों के साथही साथ प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥५०॥अपने सौभाग्य, धैर्य, गम्भीरता तथा रूप लावण्यसे
बादनः । तस्य जन्मोत्सवं चके केतुमालावलम्बनः ॥ ४६॥ तज्जन्मतो जनाः सः सुप्रमोद प्रपेदिरे । सूर्योदयादिवानानि चकोरा वा विधूदयात् ॥ ४० ॥ माहरो भद्रमतिबालोऽसौ मद्रमानसः । मद्रयाहरिविख्याति प्राप्तवान्यन्धुवर्गतः ॥४॥ सोऽभका सुन्दराकारो लालितो ललिताजनैः । कदाचिन स्थितो मयां कालरतले चरन् ॥ ४९ ॥ दिने दिने तदा वालो क्वृधे सद्गुणैः समम् । कलानिधिः फलाभित्री अगदानन्ददायकः ॥५०॥ सौभाग्यधैर्यगाम्भीर्यरुपरांजितभूतला । क्रमाकुमा
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समूळमापानुवाद । पृथ्वी मण्डलको मुग्ध करने वाला भद्रबाहु शिशु, कुमारअवस्थाको प्राप्त होकर देवकुमारोंके समान शोभने लगा ॥५१॥कला विज्ञानमें कुशल भद्रबाहु अपने समान आयुके धारक और २ कुमारोंके साथ आनन्द पूर्वक खेलता रहता था ॥५२॥ सो किसी समय यह कुमार जब अपने नगरके वाहिर और २ कुमारोंके साथ खेलता था उससमय इसने अपनी कुशलतासे एकके ऊपर एक इसतरह क्रमशः तेरह गोली चढादी और शीघही उनके ऊपर चतुर्दसमी गोलीभी चढादी ॥५३॥५४॥
जिसप्रकार चन्द्रमा ताराओंसे विभूषित होताहै, उसीप्रकार मुनि मण्डलसे विराजित, अनेक प्रकार गुणों से युक्त, अपने उत्तम ज्ञान रूप शशिकिरण-सन्दोहसे सर्व दिशायें निर्मल करने वाले तथा शोभायमान चारित्र रूप सुन्दर आभूषणसे शोभित श्रीगोवर्द्धनाचार्य गिरनार पर्वतमें श्रीनेमिनाथ भगवानकी यात्राकी अभिलापासे विहार करते हुये कोट्टपुरमें आनिकले ॥ ५५ ॥ ५७ ।। रतागाप्य रेजेऽनकुमारवत् ॥ ५॥ भद्रबाहुकमारोऽसा सवयोमिरमा ना! कलाविज्ञानपारीणी रममाणोवतिटने । ५१॥ एकदा दिव्यता सेन कुमारडुभिः समम् । दिव्यकोचरस्यान्ते स्वेच्छया याकरलम् ॥५१॥ एककोपरि पिन्यास्ता पाकास्त्र प्रयोदश । स्वकाशल्याहस तेषु निपपात चतुर्दा ॥ ५४ ॥ तदा गुणगः पूणे गोवद्धनगणाधिपः । माण्डितो मुनिमण्डल्या विधुस्तारगरिय ॥ ५५ ॥ विमलीकृतविश्वासः सोधेन्दुकरोवरः । पासपुचारिनचंचमाविभूयणः ॥५६॥ विको नमिताशयात्रा खतकाचले । विहल्कापि पूतात्मा कोपरमवाप सरा
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भद्रबाहु चरित्र ।
पुरके समीप आते हुये दिगम्बर साधु-समूहको देखकर खेलते हुये वे सब बालक भयसे भाग गये ॥ ५८ ॥ उनमें केवल बुद्धिमान, शुद्धात्मा, विचारशील तथा सन्तोषी भद्रबाहु कुमारही वहां पर ठहरा ॥ ५९ ॥ गोवर्द्धनाचार्यने - एकके ऊपर एक गोली इसीतरह ऊपर १ चतुर्दश गोली चढाते हुये उसे देखकर अपने अन्तरङ्गमें विचार किया कि - पञ्चमश्रुतकेवली निमित्त से जाना जायगा ऐसा केवलज्ञानी श्रीवीर भगवानने कहा है सो वह महातपस्वी, महातेजस्वी, ज्ञानरूपी समुद्रका पारगामी तथा भव्य रूप कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये सूर्य की समान भद्रबाहु होगा ||६|||६२|| सो निमित लक्षणोंसे तो यह उत्पन्न हो गया ऐसा जाना जाता है। इसप्रकार हृदयमें विचार कर कुमारसे गोवर्धनाचार्य ने कहा- दशनश्रेणी रूप चाँदनीके प्रकाश से समस्त दिशाओंको उज्वल करने वाले हे कुमार ! हे महाभाग्यशालि ! यह तो कह कि तेरा नाम क्या है ? तूं तत्पुराऽभ्वर्गमायातं वीक्ष्य दिग्वाससां ग्रजम् । अपीपलन्कुमारास्ते क्रीडन्त खस्तचेतसः ॥ ५८ ॥ तेषां मध्ये सुधीरेको भद्रवाहुकुमारकः तस्थिवांस्तत्र शुद्धा त्मा विमेकी इष्टमानसः ॥ ५९ ॥ तं कुमारं विलोक्यालां गांवदनगणाधिपः । उपर्युपरि कुर्वाणं कांस्तचतुर्दश ॥ ६० ॥ खखान्ते चिन्तयामास निमितश श्रुतान्तगः । इत्युकं वीरदेवेन पुरा केवलचक्षुषा ॥ ६१ ॥ महातपा महातेज बोधाम्मोनिधिपारगः। भब्बाम्बोरुचण्डांशुर्मद्रबाहुर्मविष्यति ॥ ६१ ॥ निमित्तै क्षणैः सोऽयं समुत्पन्नावबुध्यते । इति निखिल योगीन्द्रः कुमारं तं वचोऽदत् ॥१३२॥
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ममूलभाषानुवाद । । किस कुल में समुत्पन्न हुआहै और किसका पुत्र है ! मुनि
राजके उचम बचन सुनकर और उनके चरणोंको बारम्बार प्रणाम कर विनय पूर्वक कुमार बोला-विभो ! मेरा नाम भद्रबाहु है, द्विजवंशमें मैं समुत्पन्न हुआ हूं तथा सोमश्री जननी और सोमशर्म पुरोहित मेरे पिता हैं ॥६३॥६६॥फिर मुनिराज बोले-महाभाग ! हमें अपना घरतो, बताओ। मुनिराज के बचनसे-विनयसे विनम्र मस्तक और सन्तुष्ट चित्त भद्रबाहु, स्वामीको अपने गृह पर लेगया । भद्रबाहुके माता पिता महामुनिको आते हुये देखकर अत्यन्त प्रसन्नमुख हुये; और सानन्द उठे तथा मुनिराजको भक्ति पूर्वक नमस्कार कर उनके विराजनेके लिये मनोहर सिंहासन दिया । जिसप्रकार उदयाचल पर सूर्य ठहरता है उसीतरह मुनिराज भी सिंहासन पर बैठे । इसके बाद कान्ता सहित सोमशर्मने हाथ जोड़ कर कहा-दयासिन्धो !
दन्वातिचन्द्रिकायोतप्रयोतितदिगन्तः । मो फुमार | महाभाग ! किं नामा कि कुतस्त्वकम् ॥ १४॥ किं पुत्री बद वाक्यं मां निशम्यति चोवरम् । नाम नाम पुरोः पादी प्रोवाच प्रभयान्वितः ॥६॥ भद्रयारह नाना भगवन् ! द्विजवंशकः । सोमाधियां समुद्भुतः सोमरामपुरोधसः ॥ ॥ जगाद तं ततो योगी महामाग ! निदर्शय । तापकीयं निशान्त में धुत्तामा हसमानमः ॥ ६ ॥ अभीनयमिग गेहं विनयानतमस्तकः । तदीया पितरी बोल्यान्त ते महामनिम् ॥६॥ प्रफुल्वदनी क्षिप्रं मुदा समुदतियताम् । विधाय विनयं मपत्या प्रादायि धाविष्टरम् ॥ १९ ॥ उपावित्रन्मुनिस्तत्रोदवाही वा दिवाकरः । सजाति: गामार्मानो
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१६ भद्रबाहुबरित्र। आज आपके चरण-सरोजके दर्शनसे मैं सनाथ हुआ । तथा आपके पधारनेसे मेरा गृह पवित्र हुआ । विभो! मुझदासके ऊपर कृपाकर किसी योग्य कार्यसे अनुग्रहीत करिये। बाद मुनिराज मधुर बचनसे. बोले-भद्र ! यह तुम्हारा पुत्र भद्रबाहुमहामाग्यशाली तथा समस्त विद्याका जानने वाला होगा। इसलिये इसे पढ़ानेके लिये हमे देदो । मैं बड़े आदरसे इसे सब शास्त्रबहुत जल्दी पदाऊंगा । मुनिगजके वचन सुनकर कान्ता. सहित सोमशर्म बहुत प्रसन्न हुआ। फिर दोनों हाथ जोड़ कर बोला-प्रभो ! यह आपहीका पुत्र है इसमें मुझे आप क्या पूछते हैं। अनुग्रह कर इसे आप लेजाईये और सब शास्त्र पढ़ाईये । सोमशर्मके कहनेसे-भद्रबाहुको अपने स्थान पर लिवालेजाकर योगिराजने उसे व्याकरण,साहित्य तथा न्याय प्रभृति सब शास्त्र पढ़ाये । यद्यपि भद्रबाहु
व्याच विहिताबाली ॥ ४० ॥ सनायो नाय ! बातोऽय त्वत्पादाम्भोजवीक्षणार । माम समभदव पूर्व गेहं त्वदागतेः ॥ ॥ विमो [ मयि कृपां कृत्वा कलं किचिनिरुप्यताम् । व्याजहार ततो योगी गिरा प्रस्पमिया ॥ ४२ ॥ भवदीया
त्मनो भद! मद्रयासमायः । मविवाध्य महामाग्यो विश्वविद्याविशारदः ४६ ततो मे दीवतामेषो स्थापनाय महादरात् । शास्त्राणि सकलान्येनं पाठयामि यथाऽबिरात ! ॥ गुरुव्याहारमावण्यं चमाण सप्रियो द्विनः। महानन्दधुमापो मुलीशस सल्करी ॥ ५ ॥ यौसाकोऽयं सुतो देव ! किमन परिपच्च्यते । पाठयन्तु कृपां कुत्ला शाखापनमनेकशः ॥ ॥ इति तद्वाक्यतो नौवा कुमार स्थानमात्मनः बन्दसाहित्सवकोदिशामाण्यध्यापयशम् ॥ १. गुरूपदेशा
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समूलभाषानुवाद । तीक्ष्ण बुद्धिशाली था तौभी गुरूके उपदेशसे उसने सर्व शास्त्र पढ़े । यह बात ठीक है कि मनुष्य चाहे कितना भी सूक्ष्मदर्शी नेत्र वाला क्यों न हो परन्तु प्रदीपके विना वहवस्तु नहिं देख सकता।सो भद्रबाहु-गुरु रूप कर्णधारके द्वारा चलाई हुई अपनी उत्तम बुद्धि रूप नौकामें चढ़कर विनय रूप वायुवेगसे सुशास्त्र रूप समुद्रके पार होगया ॥ १७ ॥ ॥ ७९ ॥ फिर कितने दिनों के अनन्तर प्रसन्न-मुखसरोज भद्रबाहुने करकमल जोड़कर गुणविराजित गुरुवरसे प्रार्थना की कि-प्रभो ! खामीकी कृपासे मुझे सब निर्मल विद्यायें संप्राप्त हुई । आप जन्म देने वाले माता पिताके भी असन्त उपकार करने वाले हैं। माता पिता तो जन्म जन्ममें फिर भी प्राप्त होसकते हैं किन्तु मनोभिलषित फलकी देने वाली और पूजनीय ये उत्तम विद्यायें बहुत ही दुर्लभ हैं ॥ ८० ॥ ८२ ॥ यदि आप आज्ञा देतो मैं अपने गृह पर जाऊं ? इस प्रकार
सोशासाच्छास्त्राणि सूक्ष्मधारपि । एस्मेक्षणापि कि दीपं पिना वस्तु विलोक्यते [७८ ॥ सद्युदिनावमास्त्र गुस्लाविनोदिताम् । विनयानिलयोगास नानाभः पारमाप्तवान् ॥ ७९ ॥ ततो विज्ञापयामास प्रफुकानननीरजः । अमलोहन्य इस्लामी गरीयांसं गुमगुरुम् ॥१८॥ प्रभो ! प्रभुप्रसादेन विद्या सपा नयाऽमला। जन्मदेम्पोपि पितृभ्यो मशं त्वमुपकारकाः ॥ ८॥ पितर प्राणिमितच्या नन जन्मनि बन्मनि । अभीष्टफलदाऽभ्यां सदिया दुलमा जनः ॥ १ ॥ मा.
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प्रार्थना कर और उनकी आज्ञा लेकर कृतज्ञ तथा सम्यक्त्व रूप सुन्दर भूषणसे विभूषित भद्रबाहु-गुरु महाराजके चरणोंको बारम्बार नमस्कार कर " गुरु माता के समान हितके उपदेश करने वाले होते हैं" इत्यादि उनके गुणोंका चित्तमें संचिन्तवन करता हुआ अपने मकान पर गया । यह बात ठीक है कि जो सत्पुरुष होते हैं वे गुणानुरागी होते हैं ॥ ८३ ॥ ८५ ॥ उस समय माता पिता भी अपने सुपुत्र भद्रबाहुको रूप यौवनसे युक्त तथा सुन्दर विद्याओंसे विभूषित देखकर बहुत आनन्दको प्राप्त हुये ॥ ८६ ॥ यह बात ठीक है कि- सुवर्णकी मुद्रिकामें जड़ा हुआ मणि आनन्द को देता ही है । बाद आनदिन्त भद्रबाहुके मातपिता ने पुत्रका दोनों हाथोंसे आलिहून कर परस्परमें कुशल समाचार पूछे। भद्रबाहु भी अपनी विद्याओंके द्वारा समस्त कुटुम्बको आनन्दित करता हुआ वहीं पर अपने गृहमें रहने लगा ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ किसी
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यदि वहिं यामि निजालयम् । निगद्येति गुरोराज्ञामादाय स कृतकः ॥८३॥ - नामं नामं गणाधीशपादाम्बुजयुगं मुदा । हितोपदेश मातेव वालस्य निलो गुरुः ॥ ८४ ॥ इत्यादितद्गुणांश्विते कुर्वन्सम्यक्त्वभूषणः । श्राजगाम निजागार सन्तो हि गुणरामिणः ॥ ८५ ॥ रूपयौवनसम्पन्नं हृद्यविद्याविभासुरम् पितरौ स्वात्मकं वीक्ष्य परमां मुदमाभतुः ॥ ८६ ॥ नानन्दयति किं हेममुदिकाटियो मणिः । पितरौ तं परिष्वज्य दोम्यों सम्प्रीतचेतसो ॥ ८७ ॥ क्षेमादिकं मियः पुष्ट्या तस्थिवान्स स्वसद्मनि । विद्याविनोदैर्घन्धूनामानन्दं जनयन्यृशम् ॥ ८८ ॥ तत्रा
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समूलभाषानुवाद। १९ समय भद्रबाहु-संसारभरमें जिनधर्मके उद्योतकी इच्छा से-अत्यन्त गर्वरूप उन्नतपर्वतके शिखर ऊपर चढेहुये, अभिमानी, अपनी कपोलरूप झालरीसे उत्पन्न हुये शब्द . से इच्छानुसार प्रचुर रसयुक्त महाविद्यारूप नृत्यकारिणी को नृत्य करानेवाले तथा दुसरोंसे बाद करनेमें प्रवीण ऐसे २ विद्वानोंसे विभूपित महाराज पद्मधर की सुन्दर सभामें गया ॥ ८९॥ ९१ ॥ पद्मधर नृपति भी समस्त विद्याओंमें विचक्षण द्विजोचम भद्रबाहुको आता हुआ देखकर तथा उसे अपने पुरोहितका पुत्र समझकर मनोहर आसनादिसे उसका सत्कार किया। वह भी महा. राजको आशीर्वाद देकर समाके वीचमें बैठगया ॥९॥ ॥९३॥ वहां पर उन मदोडत वाम्हणोंके साथ विवाद करके उदयशाली तथा विशुद्ध आत्माके धारक भद्रबाहुने स्याद्वाद रूप खड्गसे उन सबको जीते ॥९॥ और साथही उनके तेजको दबाकर अपने तेज
सावन्यदा पद्माघरभूपतिसंसदम् । चिकीजिनधर्मस्सोयोत डोके समासद || मलवंगतुगादियानमहोदतः । पण्डिमण्डिता रम्या पादविद्याविनारद: ॥९॥ खगशालरीजम्मानिनादन निजेच्छया । नतपद्रिमहाविद्यानटीनुरमाविताम् ॥ १५ ॥ मद्वाहुमहामटं दृष्ट्वाऽऽयात विद्यापतिः । पुरोषतः मुई झावा विश्वविद्याविचक्षणम् ॥ १२ ॥ बहु संमानयामास मनोनयनादिमिः। दत्वाऽशीर्वचनं सोऽपि मप्येसममुपाविशत् १९३॥ फुर्वतनमहाबाद सन विगैर्मदोस्तैः । साहारकरवालेन सावानजीनयत् ॥ ९॥ विधूप वादिना
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को प्रकाशित किया जैसे चन्द्रादिके तेजको दबाकर सूर्य अपना तेज प्रकाशित करता है ||१५|| बुद्धिमान भद्रबाहुने अपनी विद्याके प्रभावसे सभामें बैठे हुये समस्त राजादिको प्रतिबोधित करके जैनमार्गकी अत्यन्त प्रभावनाकी ॥ ९६ ॥ भद्रबाहुके इसप्रकार प्रभाव को देख कर राजाने जिनधर्मको ग्रहण किया और सन्तुष्टचित्त होकर उसके लिये - वस्त्राभूषण पूर्वक बहुत धन दिया ||१७|| बाद वहांसे भद्रबाहु अपने गृहपर आया । न कोई ऐसा वाग्मी है, न कोई वादी है, न कोई शास्त्रका जानने वाला है, न कोई ज्ञानवान है तथा न कोई ऐसा विनय शाली है, इसप्रकार बुद्धिमानों के द्वारा प्रसिद्धिको प्राप्त हुये बुद्धिशाली भद्रबाहुने एकदिन अपने मातपितासे विनय पूर्वक कहा - || ९८ ॥ ९९ ॥ तात ! मैं संसार भ्रमणसे बहुत डरताहूं । इसलिये इससमय तपग्रहण करनेकी इच्छा है । यदि प्रीतिपूर्वक आज्ञा देतो सुख प्राप्तिके अर्थं तप ग्रहण करूं ॥ १००॥ इसप्रकार पुत्रके
तेजी निजमाविवकार सः । महोदयो विशुद्धात्मा चन्द्रादीनां यथा रविः॥९५ प्रतियोग्य महीपादस्तत्र जनप्रभावनाम् । अकाषीनितरां धीमानात्मविद्याप्रभावतः ॥ ९६ ॥ गृहीतजिनमार्गेण भूभुजा तुष्टचेतसा । दतं बहुधनं तस्मै श्रीमाभरणपूर्वकम् ॥९७॥ ततः स्वावासमापाऽखी नेहम्बाम्मी कविर्भुवि। वादी भागमकः कोऽपि विज्ञानी विनयी पद ॥ ९८ ॥ इत्थं संवर्णितः ख्यातिं परामाप युध्ोत्तमैः । एकदां पितरौ प्रोक्रे प्रश्रयात्वद्विरा सुधीः ॥ ९९ ॥ सवत्रमण भीतोऽहं संगितस्ततोऽधुना । आज्ञाप्रयान्ति चेत्रीत्या तर्हि गृहामि शर्मणे || १००|| भाषितं भाषितं ताभ्यां श्रुत्वेच
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समूलभाषानुवाद । दुःखकारी वचनोंको सुनकर मातापिताने कहा-पुत्र ! इस प्रकार निष्ठुर बचन तुम्हें कहना योग्य नहीं! ॥१.१॥ प्यारे ! अभी तुम समझते नहीं अरे ! कहाँ यह केलेके गर्भ समान अतिशय कोमल शरीर ? और कहाँ अच्छे २ सत्पुरुषों के लियेभी दुर्लभ असह्य व्रतका ग्रहण ॥१०॥ अभीतो बिल्कुल तुम्हारी बाल्यावस्था है इसमें तो पञ्चन्द्रियसमुत्पन्न सुखोंका अनुभव करना चाहिये। इसकेबाद वृद्धावस्था तपग्रहण करना ॥१.३॥ मातापिताके वचनोंको सुनकर सरल हृदय भद्रबाहु बोला-तात ! आपने कहा सो ठीकहै परन्तु व्रतधारण किये बिना यह मानवजीवन निष्फल है, जैसे सुगन्धक बिना पुष्प निष्फल समझा जाता है।॥१०॥देखो!-मोही पुरुषोंके देहको ग्रहण करनेके लिये एक ओर तो मृत्यु तयार है और एक ओर वृद्धावस्था तयार है तो ऐसे शरीरमें सत्पुरुषोंको क्या आशा होसकतीहै॥१०॥और फिर जब जरासे जर्जरित तथा तृष्णाके स्थान इस शरीरमें वृद्धा
सद तुजः । दंते बचो वक्तुं न युकं निमुरं कटु ॥ १.१॥ पुत्र ! पुग्ने
कदलीगर्भवन्मूदु । काऽयं यताहोऽसो महतामपि दुद्धरः ॥१.२॥ मुस्याइ. पुनामुर्खपाल्ये पोन्दियसमुद्भवम् ।ग्रहणीयं ततःसूनो वादिषये विमलं सपा-1 परखदीयमाकपानवांतातं सदाशयः । मतहीन पा तातनाय निगन्यपुष्पपद ॥ १४ ॥ एकतो प्रसते मृत्युरेकतो प्रसते जरा मोहिना देहिना देह कामया तत्र महामनाम् ॥ १.५॥ मादिकमध्ये पुनः पाते जागरिताइके तात!
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भद्रबाहु-चरित्र । वस्था अपना अधिकार जमा लेगी तब तप तथा व्रत कहाँ? दूसरे ये भोग पहले तो कुछ सुन्दरसे मालूम पड़ते हैं। परन्तु वास्तवमें-सर्पके शरीर समान दुःखके देनेवाले हैं, सन्तापके करने वालेहैं और परिपाकमें अत्यन्त दुःख के
देनेवाले हैं ॥१०७॥ कुगतिरूप खारेजलसे भरे हुये तथा पीडारूपमकरादि जन्तुओंसे कलंकष इस असार संसार समुद्रमें जीवोंको एक धर्मही शरण है।।१०८॥देखो! मोही पुरुष इन भोगोंमें व्यर्थ ही मोह करते हैं किन्तु जो बुद्धिमान हैं वे कभी मोह नहीं करते इसलिये क्या मोक्षका साधन संयम ग्रहण करूं १ ॥१०९॥ इत्यादि नाना प्रकारके उत्तम २ वचनोंसे वैराग्यहृदय भद्रबाहुने असन्त मोहके कारण अपने मातापितादि समस्त-बन्धुओंको समझाया । और उसके बाद-मातापिता की आज्ञासे-संयमके ग्रहण करनेकी अभिलाषासे गोवईनाचार्यकेपासगया॥११०॥११९और उन्हें नमस्कार
दृष्यासदे तत्र क तपो क जपो व्रतम् ॥ १.६ ॥ भोगास्तु भोगिभोगाभा दुःखदाखापकारकाः । मापातमधुराकारा विपाके तीबदाखदाः ॥१०७ ॥ संसारसागरेऽसार
गतिक्षारजीवने । यातनानकसकाणे घरएयं धर्ममहिनाम् ॥ १० ॥ मोमुहाति सुधा मूढो न चैतेषु विचक्षणः । ततोऽहं कंग्रही यामि संयम शिवसाधनम् ॥१०॥ बलादिविविधैाक्यमद्रोऽसौ समन्बुषत् । पित्रादीनिखिलान्बन्धून्महामोहनिबन्धनान् ॥ १०॥ ततो निदेवतस्तेषां . निर्वेदाहितमानसः । अयासीत्संयम लिप्सुगोवर्द्धनवणाधिपम् | 113 प्रणम्य प्रनयानोचे सुधीस्तं विहिताअलि । देहि.
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समूलभाषानुवाद । कर विनयर्पूवक हाथजोड़कर बोला-स्वामी ! काँके नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे देओ ॥१६॥ भद्रबाहुके वचनोंको सुनकर गोवर्द्धनाचार्य बोले-वत्स ! संयमके द्वारा अपने मानवजीवनको सफल करो। गुरूकी आज्ञासे भद्रबाहुभी आत्माके दुःखका कारण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर हर्पके साथ दीक्षित होगये ॥११३॥११॥ निषि तथा श्रेष्ठबूतोंसे मण्डित कान्तिशाली, संसारके बन्धु तथा दिगम्बर (निर्गन्य) साधुओंके मार्गमें स्थित भद्रबाहु-संयके समान शोभने लगे । क्योंकि सूर्यभीतो रात्रिसे रहित तथा वर्तुलाकार होता है, तेजस्वी होता है, सारे संसारका बन्धु (प्रकाशक) होता है तथा गगनमार्गमें गमन करता रहता है ॥१५॥ मुनियोके मूलगुण रूप मनोहर मणिमयहारलतासे विभूषित तथा दयाके धारक भद्रबाहु मुनि जीवोंके प्रिय तथा हितरूप बचन बोलते थे ॥१६॥ प्रतिज्ञाओं के ग्रहण पूर्वक दुनिबार कामरूपहाथीको ब्रह्मचर्यरूप वृक्षम बाँधने वाले, परिग्रहमें ममत्व परिणामका छेदन करने
देवामलो दीक्षा कर्मममनियईणाम् ॥ १॥ तद्वारसाकर्णनाद्योगी पार भाषित परम् । विधेहि यस | साफल्यं संपमेनामजन्मनः ॥ १३ ॥ गुरदाहामा प्रामाजीपरया मुदा । हित्वा स द्विधा धीरा देदिदुःसानिवन्धनम् ॥१९निॉपवरपृताभ्यो मानरो लोकवान्धवः । निरम्परपपस्योऽपि रोगी रयिपिम्वन् ! हनिमूलगुणोदारमणिहारविराजितः । उद्यापारमाबादी प्रियपानावदना
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भद्रषाहु-चरित्रवाले, रात्रि आहारके त्यागी, अपने आत्मस्वरूपका जानने वाले, शास्त्रानुसार गमन आलाप भोजनादि करने वाले, यथाविधि आदान निक्षेपणादि समितियोंमें अतिचार न लगाने वाले, इन्द्रिय रूप अश्वको आत्माधीन करनेवाले, छह आवश्यककर्मके पालक, वस्त्रत्याग, लोच, पृथ्वीपर शयन, स्नान, खड़े होकर भोजन, दन्तकान धोना तथा एकमुक्त आदि परीषहके जीतनेवाले, समस्त संघको आनन्दित करनेवाले तथा अत्यन्त विनयी युद्धिमान भद्रबाहुमुनिने अपने गुरूके अनुग्रहसे हादशाङ्ग शास्त्र पढ़े॥ ११७॥१२॥फिर अपनेमें श्रुतज्ञानकी पूर्णता हुई समझ कर भद्रबाहु-जबश्श्रुतज्ञानकी भक्तिसे कायोत्सर्ग धारणकर स्थित थे उससमय प्रातःकालमें समस्तदेव तथा मनुष्यों ने आकर भद्रबाहु महामुनिकी असन्त भक्तिपूर्वक हर्षके साथ पूजनकी ॥१२॥१२३॥ अपने गांभीर्यसे समुद्रको
गृहन् प्रत्तोपयोगीनि शीलशाले नियन्त्रयन् । दुर्वारमारमात मूछी छिन्दम्परिअहे ॥ १७॥ क्षेपयक्षपदाहारं खखरूमाहिताशयः। सूत्रोफगमनालापानान कुर्वन्विशुद्धधीः ॥ १४॥ ययोकादाननिक्षेपमलायुधानमाश्रयन । जितपश्चात दुर्वानी षडावश्यकमाधवद ॥ १६ ॥ विचललोचमूशयास्थानेषु स्थितिभोजने । भदन्तपावने कमके नितपरीषहः ॥ ११ ॥ गुरोलमहादीमान द्वादशाहमपापठन् मोदयन्सकळं सह वहन्विनामुल्वनम् ॥१२॥
पथमिः कुलकम्, श्रुतसंपूर्णतामाप्तमिति संचिन्स भदोः श्रुतमक्त्या समादाय कायोत्सर्गस्थितः प्रये ॥११॥ सदा सुरनरा; सर्वे समभ्येयातिभजितः । चक: पूजां प्रमोदेन भद्रबाहुमहामुनेः ।। १३३ ॥ गाम्भीर्येण जिताम्भोधिः कान्त्या निर्मितशीतगुः ।
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ममूलभाषामुखाइ। - २ जीतने वाला, कान्तिस चन्द्रमाको लज्जित काने वाला, तेजके द्वारा सूर्यको जीतने वाला तथा धैर्यसे सुमेरु पर्वत को नीचा करने वाला इत्यादिगुणमणिमाला नाप भूषणसे विभूषित तथा सम्पूर्ण जगतको आनन्दका देने वाला भद्रबाहु अत्यन्त शोभने लगा॥१२॥१२५।।
फिर कुछदिनों बाद-गोवर्द्धनाचार्यने भद्राहको गुणरत्रका समुद्र समझकर अपने आचार्य पदमें नियोजित किया । भद्रबाहु भी अपने कान्तिसमूहको प्रकाशित करता हुआ तथा महामोह रूप अन्धकारका नाश करता हुआ गोवर्द्धन गुरुके पदमें ऐसा शोभनेलगा जैसा उदयाचल पर्वत पर सूर्य शोभता है। क्योंकिसूर्यभीतो जब उदयपर्वत पर आता है उससमय अपने कान्तिसमूहको भासुर करता है तथा अन्धकारका नाश करता है ॥१२॥१२॥
यह ठीक है कि-पुण्यकर्मके उदयसे जीत्रोंका अच्छे उत्तम वंशमें जन्म होताहै, उत्कृष्ट शरीर संप्राप्त तेसा निससम्म यप जितमन्दर इलादिगुनमाणिमानार भामरः । निःशपमगदानन्ददायक मूरिंगवी । १२५ ॥ मापदंनी पनी माग समप्रमागरम् | खपदे यांनयामान भरपाई गनागि ॥ १२६ भागलिश. मामार महामोहनमोरन् । शुभऽमा गुस्सान इलया पार ! १३॥
विख्यातो तापी जननमुरगुपं देहिना देहमुद
म्या विधानामा गुणगुरुगुरुERITESH
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भद्रबाहु चरित्रहोता है, मनोहर तथा अनवद्य विद्यायें प्राप्त होती हैं, गुणोंसे विशिष्ट गुरुओंके चरणकमलमें अत्यन्त भक्ति होती है, गंभीरता उदारता तथा धैर्यादि गुणोंकी उपलब्धि होती है, उत्तम चारित्र होता है, प्रभुत्वता होती है, जैनधर्म में श्रद्धा (आस्था) होती है तथा चन्द्रमा के समान निर्मल अनन्तकीर्त्ति प्राप्त होती है ॥ १२८ ॥
निर्मल ज्ञानरूप क्षीरसमुद्र की वृद्धि के लिये चन्द्रमाँ, श्रीगोवर्द्धन गुरुके चरण रूप उदयाचल पर्वतके लिये सूर्य, मनोहर कीर्त्तिके धारक, उत्तम २ गुणोंके आलय तथा मुनियोंके स्वामी श्रीभद्रबाहु मुनिराजका आपलोग सेवन करें ||१२९ ॥
इति श्रीरत्नकीर्त्ति आचार्य के बनाये हुये भद्रबाहु चरित्र के अभिनव हिन्दी भाषानुवादमें भद्रबाहुके दीक्षाका वर्णनवाला प्रथम - परिच्छेद समाप्त हुआ ||१||
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गाम्भीयोंदा येधैर्यप्रभृतिगुणगुणी वर्यवृत्तं प्रभुत्वं
श्रद्धा श्रीजेनमार्गे शशिधरविशदाऽमन्तकीर्तिः सुपुण्यात् ॥ १२८ ॥ बिमलबोधसुधाम्बुधिचन्द्रकं
गुरुपदोदमभूधरभास्करम् |
ललितको समुदारगुणाकर्य
भगत भद्रसुतं मुनिनायकम् ॥ १२९ ॥
इति श्रीमद्रबाहुचरित्रे आचार्यश्रीरत्ननन्दिविरचिते भद्रबाहुदीक्षा वर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥९॥
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दितीय परिच्छेद ।
पथात् श्रीगोवईनाचार्य-नानाप्रकार तपश्चरण कर अन्तमें चार प्रकार आहारके परित्याग पूर्वक चार प्रकारकी आराधनाओंके आराधनमें तत्परहुये और समाधि पूर्वक शरीरको छोड़कर देव तथा देवाङ्गनाओंसे युक्त और उत्कृष्ट सम्पत्ति शाली स्वर्गमेंजाकर देव हुये॥१॥२॥ उधर श्रीमद्रबाहु आचार्य-अपने समस्त संघका पालन करते हुये भव्य मनुष्योंको सन्तुष्ट करते हुये तथा दूसरे मतोंको बाधित ठहराते हुये शोमते थे ॥३॥ तथा पृथ्वी मण्डलमें आनन्द बढ़ाते हुये और धर्मामृत वर्षाते हुये श्रीभद्रबाहु मुनिराज-ताराओके समूहसे युक्त जैसा चन्द्रमा गगनमण्डलमें विहरता रहता है उसीतरह पृथ्वीवलयमें विहार करने लगे nan
द्वितीयः परिच्छेदः।
गणी गोवईनवाव विषाय विविध समाप्रान्ते प्रायं समादाय पाएभनारत: समापिनासुसज्य प्रपदे रिशासदम् । देवदेवागणमुष्टं पु परमसम्पदा ॥ २ ॥ ततो गणाधिपो भद्रः पोषयन्सक गणम् । तोपपग्निविडाभयान्तपन्दुर्मतं
वाकुवलयानन्द सिल्पामतं मुवि । मुनितारागणाकीर्णः शशीन विवहार सः ॥ भवन्तीविषमाप विनितापमान।
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भद्रबाहु चरित्र ।
विवेक विनय धनधान्यादि सम्पदाओंसे समस्तदेश को जीतने वाले अवन्ती नामक देशमें प्राकारसे युक्त (वेष्टित) तथा श्रीजिनमन्दिर, गृहस्थ मुनि उतम धर्मसे विभुषित उज्जयिनी नाम पुरी है ॥५॥६॥ उसमें - चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्त्तिका धारक, चन्द्रमा के समान आनन्द का देनेवाला, सुन्दर २ गुणोंसे विराजमान, ज्ञान तथा कला कौशलमें सुचतुर, जिन पूजन करनेमें इन्द्र समान, चार प्रकार दान देनेमें समर्थ, तथा अपने प्रतापसे सूर्यको पराजित करने वाला चन्द्रगुप्ति नाम राजा था ||७||८|| उसके - चन्द्रमाँकी ज्योत्स्नाके समान प्रशंसनीय तथा रूप लावण्यादि गुणोंसे शोभायमान चन्द्रश्री नाम रानी थी ॥९॥
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किसीसमय महाराज चन्द्रगुप्ति-सुखनिद्रामें बात पित्त कफादि रहित (नीरोग अवस्था में ) सोये हुये थे । उस समय रात्रि के पिछले पहर में - आचर्यजनक नीचे लिखे हुये सोलह खोटे स्वप्न देखे । वे ये हैं- कल्पवृक्ष की
विवेकविनयानेकधनधान्यादिसम्पदा ॥ ५ ॥ अमादुवयिनी नाना पुरी प्रकारचेष्टिता । श्री जिनागारसागारमुनिसद्धर्ममण्डिता ॥६॥ चन्द्रावदातसत्कोसिंचन्द्रवन्मोदकर्तॄणाम् । चन्द्रगुप्तिर्नृपस्तत्राऽच चारुगुणोदयः ॥ ७ ॥ ज्ञानविज्ञानपारीणी जिनपूजापुरंदरः । चतुर्द्धा दानदक्षो यः प्रतापचितभास्करः ॥ ८ ॥ चन्द्रश्रीमांमिनी तस्य चन्द्रमः श्रीरिवापरा । संती मतलिका जाता रूपादिगुणशालिनी || ९ || एकदाइसौ विशांनायः अतः पुंन्द्रिया निशायाः पश्चिमे यामे वातपित्तकफातिगः ॥ १० ॥ इमान्
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अमूलभावानुवाद । शाखाका टूटना (१) सूर्यका अस्त होना (२) चालनीके समान छिद्र सहित चन्द्रलमण्डलका उपय (३) बारह फणवाला सर्प (8) पीछे लौटा हुआ देवताओंका मनोहर विमान (५) अपवित्र स्थान पर उत्पन्न हुआ विकसित कमल (1) नृत्य करता हुआ भूतोंका परिकर (७) खद्योतका प्रकाश (८) अन्तमें थोड़ेसे जलका भरा हुआ तथा बीचमें सूखा हुआ सरोवर (९) सुवर्णके भाजनमें श्वानका खीर खाना (१०) हाथीपर चढ़ा हुआ बन्दर (११) समुद्र का मर्याद छोड़ना (१२) छोटे २ बच्चोंसे धारण किया हुआ और बहुत भारसे युक्त रथ (१३)ऊंट पर चढ़ा हुमा तथा धूलिसे आच्छादित राजपुत्र (१४) देदीप्य. मान कान्तियुक्त रत्नराशि (१५) तथा काले हाथियोंका युद्ध (१६) इन स्वप्नोंके देखनेसे चन्द्रगुप्तिको बहुत आश्चर्य हुआ। और किसी योगिराजसे इनके शुभ तथा अशुभ फलके पूछनेकी अभिलाषाकी ॥१०-१७॥ पोया इसमान ददशोऽऽअर्यकारकान् । पात्रपादपयाखाया मामलमन वे ॥ वतीय तितक्षमचन्तं विधुमण्डलम् । तुरीयं फणिनं समे फणद्वादशमण्डितम्॥११॥ विज्ञान माफिनो कर्म व्यापटन्तं विमाहुरं । फममं तु पवारस्थ मूत्यन्त मतान्दम्
॥ वदोतोयोतमहावीरमान्वयजल परः । मध्ये शुष्क ईमपाने पुनः क्षीरामभक्षणम् || १४ | शाखामृगं गजास्यमाधि फुलापनम् । शाममा नपा पत्तभूरिभारमतं रपम् ॥१५॥ रामपुत्रं मयास्वं रजसा पिहितं पुनः बिरामि पनकान्ति युवं बासितदन्तिनोः ॥15॥ सानिमाविमासानिमित. 'मानसः ।
पियनिन पिकतं तेषां शुषाशमम् ॥ १७॥
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भद्रबाहु-परित्र। . उधर शुद्ध हृदय भद्रबाहु आचार्य--अनेक देशों में विहार करते हुये बारह हजार मुनियोंको साथ लेकर भव्य पुरुषोंके शुभोदयसे उज्जयिनीमें आये और पुर चाहिर उपवनमें जन्तु रहित स्थानमें ठहरे ॥१८॥१९॥ साधुके महात्म्यसे वन-फल पुष्पादिसे बहुत समृद्ध होगया । वनपाल-मुनिराजका प्रभाव समझकर वनमेसे नाना प्रकार फल पुष्पादि लेकर महाराजके पास गया और उनके आगे रखकर सविनय मधुरतासे बोला-देव! आपके पुण्यकर्मके उदयसे मुनिसमूहसे विराजमान श्रीभद्रबाहु महर्षि उपवनमें आये हुये हैं। वनपालके बचन सुनकर महाराज चन्द्रगति अत्यन्त
आनन्दित हुये। जैसे मेषके गर्जितसे मयूर आनन्दित होता है। उससमय राजाने वनपालके लिये बहुत धन दिया और मुनिराजके अभिवन्दनकी उत्कण्ठासे नगर भरमें आनन्द मेरी दिलवाकर गीत नृत्य वादिन अपाऽसौ विविषान्देशान्विहरन् गणनायकः । विवादशसहस्रेण मुनिमिः संयुतःशुमार ॥१॥विशालापुरमायातस्तस्थिवान्भव्यपुण्यतमतत्र निनन्तकस्थाने बायोपानेशमाभयः॥१८॥ फलितं तत्मभावेन वनं नानाफलोत्करै । वनपाखतो हाला सन्महात्म्य महामुनेः ॥ १९ ॥ फलादिकं ततो डाला जपाम भूपसानिधिम् । भुमादिकं पुरस्कय जगाद वचनं परम् ॥२०॥ राजस्वदीपपुण्येन भद्रबाहुणामणीः । भावगाम लगाने मुनिसन्दोहसंयुतः ॥ ११॥ समाकर्ण्य वचखास चन्द्रगतिषि
आपतिः । परमामुदमाप शिखांव घननिखनं ॥ २९ ॥ बहु वितं ददौ तसे चिकी(गणिवन्दनाम् । मानन्दमेरिका रम्या दापयित्वा मराषिपः ॥ २३॥ गीतमनवायः धामन्तादिनपर्युतः । निजंगाल महाभूला बन्दित संमताधिपम् ॥३॥
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समूलभाषानुवाद |
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तथा सामन्तादि सहित महाविभूति पूर्वक नगरसे बाहिर निकले || २० - २५|| और आचार्य महाराज के पास जाकर विनय भावसे उनकी प्रदक्षिणाकी तथा जलगन्यादि द्रव्योंसे उनके चरणोंकी पूजन की । पश्चात् क्रमसे ओर २ मुनियोंकी भी अभिनन्दना स्तुति तथा पूजनादि करके उनके मुखारविंद से सप्ततत्व गर्भित धर्मका स्वरूप सुना। उसके बाद मौलिविभूषित मस्तक से भक्ति पूर्वक प्रणाम कर और दोनों करकमलोंको जोड़कर भद्रबाहु श्रुतकेवली से पूछा । नाथ ! मैंने रात्रिके पिछले प्रहरमें कल्पद्रुमकी शाखाका भंग होना प्रभृति सोलह स्वप्न देखे हैं । उनका आप फल कहें । राजाके बचन सुनकर - दांतोंकी किरणोंसे सारे दिशा मण्डलको प्रकाशित करनेवाले योगिराज भद्रबाहु बोले- राजन् ! मैं खप्नोंका फल कहता हूँ उसे तुम स्वस्थ चित्त होकर सुनो। क्योंकि इनका फल - पुरुषोंको वैराग्यका उत्पन्न करने वाला तथा आगामी खोटे कालका
समासाद्य स सूरीशं परोस्य प्रभयान्वितः । समभ्यर्च्य गुरोः पादावसा दिकैः ॥ १६ ॥ प्रणनाम महाभक्त्या क्रमादन्यमुनानपि । सहतत्वान्वितं धर्ममधी श्रीरुवाक्यतः ॥ २७ ॥ ततोऽतिभतितो नवा मौलिमण्डितमदिना । कुसीकृतइस्ताच्यः पप्रच्छेति श्रुतेक्षणम् ॥ २८ ॥ नित्यामहमदाक्षं स्वमान्पोटकाकानिमान् । सुरसासामवादीत्फलं रूपमेश माम् ॥ २९ ॥ निशम्य भापित मान भाषितं खनम् दंतायोतितानेपदिक्वकं योगिनायकः ॥ ३० ॥ प्रणिधाय मरो
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३२
भद्रबाहु चरित्र
सूचन करने वाला है। सबसे पहले जो रविका अस्त होना देखा गया है-सो उससे इस अशुभ पश्चम कालमें एकादशाङ्ग पूर्वादि श्रुतज्ञान न्यून हो जायगा । (१) कल्पवृक्षकी शाखाका भंग देखनेसे अब आगे कोई राजा जिन भगवानके कहे हुये संयमका ग्रहण नहिं करेंगे (२) चन्द्रमण्डलका बहुत छिद्रयुक्त 'देखना पञ्चम कलिकालमें जिनमत में अनेक मतका प्रादुर्भाव कहता है ( ३ ) बारह फणयुक्त सर्पराजके देखनेसे बारह वर्ष पर्यन्त अत्यन्त भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा ( ४ ) देवताओं के विमानको उल्टा जाता हुआ देखनेसे पञ्चमकालमें देवता विद्याधर तथा चारणमुनि नहिं आवेंगे ( ५ ) खोटे स्थानमें कमल उत्पन्न हुआ जो देखा है उससे बहुधा हीन जातिके लोग जिन धर्म धारण करेंगे किन्तु क्षत्रिय आदि उत्तमकुलं संभूत मनुष्य नहिं करेंगे ( ६ ) आश्चर्य जनक जो
राजन्समाकर्णय तत्फलम् निर्वेदजनके पुंसां भाव्य सत्कालसूचकम् ॥ ३१ ॥ खेरखममालोकात्कालेऽन पश्चमेऽनुमे । एकादशाङ्गपूर्वादिचतं हीनत्वमेध्यति ॥ ३२ ॥ सुरद्रुमलतामङ्गदर्शनाद्भूप ! भूपतिः। नातो सयमं कोपि प्रहीष्यति जिमोदितम् ॥ ३३ ॥ बहुरन्धान्वितस्येन्दोमंण्डकालोकनादिह । मतभेदा भविष्यन्ति बहवः जिनशासने ॥ ३४ ॥ द्वादशोदफणाटोपमण्डितारमवीक्षणात् । द्वादशाब्दमितं रौद्रं दुर्भिक्षं तु भविष्यति ॥ ३५॥ व्याघुव्यमानं गीर्वाणविमानं दीक्षितं ततः । काखेऽस्मिनाऽऽगमिष्यन्ति सुरखेचरचारणाः ॥३६॥ कंचाम्बुजमुत्पत्रं दृष्टं प्रायेण तेन वै। जिनधर्मे विवास्यन्ति होना 'न क्षत्रियादयः ॥ ३७ ॥ भूतानां नवनं राजत्राक्षेोरद्भुतं ततः । नीचदेवरतामूडा
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ममूलभाषानुयाद । ३३ भृतीका नृत्य देखा है उससे मालूम होता है कि मनुष्य नीचे दवोंमें अधिक श्रद्धाके धारक होंगे। (0) खद्योतका. उद्यात देखनस-जिन सूत्रके उपदेश करने वाले भी मनुष्य मिथ्यात्व करके युक्त होंगे और जिन धर्म भी कहीं २ रहंगा । (८) जल रहित तथा कहीं थोड़े जलसे भरे हुये सरोवरके देखनसेजहाँ तीर्थकर भगवानके कल्याणादि हुये हैं ऐसे तीर्थस्थानोंमें कामदेवके मदका छेदन करने वाला उत्तम जिनधर्म नाशको प्राप्त होगा । तथा कहीं दक्षिणादि देशमें कुछ रहेगा भी (९) सुवर्णके भाजनमें कुत्तेने जो
खीर खाई है उससे मालूम होता है कि-लक्ष्मीका प्रायः नीच पुरुष उपभोग करेंगे और कुलीन पुरुषोंको दुप्पा. प्य होगी। (१०) ऊंचे हाथी पर बन्दर बैठा हुआ देखनेसे नीच कुलमें पैदा होने वाले लोग राज्य करेंगे क्षत्रिय लोग राज्य राहत होंगे। (११) मर्यादाका
भविष्यन्ताह मानवाः ॥ १८॥ अद्यांना यातनाका दिनमूनोपदेशः । मिलाप बहुलास्तुच्छा जिनपोपि मानन ॥ ३९ ॥ सरसा पपमा रिफनातिच्न । जिनजन्मादिकल्याणक्षेत्र नीयवमाधिते || ४-10 नागमणांत सदनों मारवादनिसा स्वास्थताह कांचनान्द विषय दक्षिणादि ।
युम्नम, जनासमय पाने भपक्षनिक्षलान् । बामपन्ति प्रश्नाः पातमान दुराशया ॥ १२ ॥ नानाननमानानशामृगानगक्षनान् । राहांना विधायनि अकुला न माना ॥ मानामहुनतः सिन्धारस्पनि मरतो कि !
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भद्रबाहु-परित्र। उल्लंघन किये हुये समुद्रके देखनेसे प्रजाकी समस्त लक्ष्मी राजा लोग ग्रहण करेंगे तथा न्यायमार्गके उल्लंघन करनेवाले होंगे। (१२)बछड़ा से वहन किये हुये रथके देखनेसे बहुधा करके लोग तारुण्य अवस्थामें संयम ग्रहण करेंगे किन्तु शक्तिके घटजानेसे वृद्धा अवस्थामें धारण नहीं कर सकेगें। (१३) ऊंट पर चढ़े हुये राजपुत्रके देखनेसे ज्ञात होताहै कि राजालोग निर्मल धर्म छोड़कर हिंसा मार्ग स्वीकार करेंगे । (१४) धूलिसे आच्छादित रत्नराशिके देखनेसे-निग्रन्थमुनि भी परस्परमें निन्दा करने लगेंगे। (१५) तथा काले हाथियोंका युद्ध देखनेसे मेघ मनोभिलषित नहिं वगे । (१६) राजन् ! इसप्रकार स्वप्नोंका जैसा फल है वैसा मैंने तुमसे कहा। राजा भी स्वप्नोंका फल सुनकर संसारसे भयभीत हुआ और मनमें विचारने लगा ॥ १६-१९ ॥ - अहो ! विपत्ति रूप घातक दुष्टजीवोंसे भोतपोत भरे हुये तथा कालरूपी अमिसे महा भयंकर इस असार
जनानां च भविष्यन्ति भूमिपा न्यायलकाः ॥ ॥ पसरवाहेतोदरपाकासुसंयमम् । तारुण्ये चाचरिष्यन्ति वाधिक्ये नापराजितः ॥ ४५ ॥ क्रमेला समारूढराजपुत्रस्य वीक्षणात् । हिंसाविधि विधास्यन्ति धर्म हत्वाऽमक नृपाः ॥ ४६॥ रजसामच्यादितसमनराशरीक्षणतो भृशम् । करिष्यनित नपाः यो नियन्यमुनयो मिषः ॥ १७ ॥ मत्तमातायोयुवीक्षणाकृष्णयोरिह । मनोमिलपिता वृष्टि न विधास्यन्ति वारिदाः ॥ ४ ॥ इति स्वमफलं प्रोक मयका घरणी पते !| निशम्य भवभीतोऽसा चिन्तयामास मानसे || सारासारकान्तारे विपतिस्वापदाफले । कालाननमहाभीमे मीति प्रमाद्भवा ॥ ५० ॥ देहे नेहे
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ममूखमाषानुवाद |
संसार वनमें केवल भ्रमसे यह जीव भ्रमण करता रहता है ||१०|| अहो ! रोगकेस्थान, नानाप्रकारकी मधुर २ वस्तुओंसे परिवर्धित किये हुये, गुणरहित, तथा दुष्टों के समान दुःख देने वाले इस शरीर में यह आत्मा कैसे मोह करता होगा १ ॥ ५१ ॥ ये भोग सर्वके समान भयंकर है, असन्तोषके कारण हैं, सेवन के समय कुछ अच्छे से मालूम देते हैं परन्तु परिपाक (अगामी) समयमें किम्पाकफलके समान प्राणों के नाशक हैं। भावार्थ - किंपाकफल ऊपर से तो बहुत सुन्दर मालूम देता है परन्तु खाने पर बिना प्राण लिये नहीं छोड़ता । वैसे ही ये भोग हैं जो सेवन समय तो जरा मनोहरसे मालूम देते हैं परन्तु वास्तव में दुःखही कारण हैं ॥ ५२ ॥
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अहो ! कितने खेद की बात है कि यह जीव
भोगों को भोगता तो है परन्तु उत्तरकालमें होने वाले दुःखोंको नहीं देखता जिसप्रकार विलाब प्रीतिपूर्वक दूध पीता हुआ भी ऊपरसे पढ़ने वाली लकड़ीकी मार सहन किये जाता है । इसप्रकार भव भ्रमणसे भय
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जामिष्टेः पोषितेऽपि गुणातिगे मोसु कथं प्राणां पलः ॥५१॥ भोगास्तु भोगिक्ट्रीमा अतृविना मृगाम्। श्रापाने गुन्दाः पाकेक पत्त्राः ॥ ५२ ॥ भुणभांगावे दुदुमायो ।
कुटं नृपदंशकः ॥ ५१ ॥ इति निर्वेदमासाय स्वश्रममभीतीः । राज्यं नये
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भद्रबाहु-चरित्र
भीत महाराज चन्द्रगुतिने शरीर गृहादि सब वस्तुओंसे विरक्त होकर अपने पुत्र के लिये राज्य दे दिया । तथा समस्त बन्धु समूहसे क्षमा कराकर भद्रबाहु गुरुकें समीप गया और विनय पूर्वक जिनदीक्षाके लिये प्रार्थना की । फिर स्वामीकी आज्ञासे बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग कर शिव सुखका साधन शुद्ध संयम स्वीकार किया ॥५३-५५॥
एक दिन श्रीभद्रबाहु आचार्य जिनदास शेठके घर पर आहारके लिये आये । जिनदासनेभी स्वामीका अत्यन्त आनन्द पूर्वक आह्वानन किया । परन्तु उस निर्जन गृहमें केवल साठ दिनकी आयुका एक बालक पालनेमें झूलता था । जब मुनिराज गृहमें गये उससमय बालकने-जाओ !! जाओ !! ऐसा मुनिराजसे कहा । बालकके अद्भुत बचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स ! कहो तो कितने वर्षतक ? फिर बालकने
दवा देहे गेहेऽतिसत्रमात् ॥ ५४ ॥ क्षमाप्य कलान्बन्धून्समासाद्य गुरू ततः। प्रश्रयात्रार्थयामास दीक्षां भवाविरफपीः ॥ ५५ ॥ गागंनोऽनुशया भूपो हित्वा सई विधा सुधीः । अाह संयम शुद्ध साधक सिपशर्मणः ॥ ५६ ॥ अपकस्मिन्दिने भो भद्रषाहुः समाययौ । श्रेष्ठिनो जिनदासस्य कायस्थित्यै निकेतने ॥ ५॥
स्वामी परमानन्दाप्रतिपाइ योगिनम् । तत्र शून्यगई बैको विद्यते केवळ शिवः ॥ ५८ ॥ मोखिकान्तर्गतः पाठदिवसमामितस्तदा । गच्छ गच्छ ।। पोषादीमत्वा मानिना तम् ॥ ५९ ॥ शिशुकः पुनस्तन कियन्तोऽन्दा:
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समूलभाषानुवाद |
कहा - बारह वर्षपर्यन्त । बालकके बचनसे मुनिराजने निमित्त ज्ञानसे जाना कि मालवदेशमें चारह वर्षपर्यन्तभीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा। दयालु मुनिराज अन्तराय समझ कर उसीसमय घर से वापिस वनमें चले गये ॥ ५६-६१॥
पश्चात् श्रीभद्रबाहु आचार्यने-अपने स्थान पर आकर समस्त मुनिसंघ को बुलाया और तप तथा संयमकी वृद्धिके कारण वचन यों कहने लगे - साधुओं ! इस देशमें बारह वर्षका भीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा । धनधान्य तथा मनुष्यादिसे परिपूर्ण और सुखका स्थान यह देश चोर राजादिके द्वारा लुटाकर शीघ्र ही शून्य हो जायगा । इसलिये संयमी पुरुषों को ऐसे दारुण देश में रहना उचित नहीं है । इसप्रकार स्वामी के वचन सम्पूर्ण सङ्घने स्वीकार किये और भद्रबाहु मुनिराजने भी उसीसमय समस्त सङ्घ सहित उस देशके छोड़ने की अभिलापाकी ॥६२-६५॥
जब श्रावकोंने मुनिराजके सङ्घ सहित जाने के
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शिक्षा | पद द्वादशाब्दा मुने 1 चे निशम्य तद्वनः पुनः ॥६- ॥ निर्मितज्ञानती झासीन्मुनिरुत्पात मद्भुतम् शरद्वादश पर्यन्तं दुर्भिक्षं मध्यमण्डले ॥ ६१ ॥ भविष्यतितरां चेति कृपाद्रमनसा मुनिः । अन्तरा विधायाऽऽनु ततो व्यापुटितो गृहात् ॥ ६१ ॥ समभ्यस्याऽऽन्मनः स्थानं समाहूय निजं गणम् । व्याजहार तत योगी तपः संयमबृंहणम् ॥ ६२ ॥ समा द्वादश दुर्भिक्ष भषिनान योगिनः । धनधान्यजनाकीर्णो जनान्तोऽयं मुखाकरः ॥ ६४ ॥ शून्यो भविष्यति क्षिप्रं तस्कर नृपतुष्टनैः । ततः सूयमिनां युकं नात्र स्थातुं गुसिंग ॥ ६५ ॥ निमन गणेनेति प्रतिपणं गुरोषंचः । पिनिईएस्तो जावो गनगनगणान्वितः ॥ ६६ ॥
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भद्रबाहु परित्रसमाचार सुनेतो उसौसमय स्वामी के पास आये और विनयसे मस्तक नवाकर बोले-भगवन् ! आपके गमन सम्बन्धि समाचारोंके सुननेसे भक्तिके भारसे वश हुआ हम लोगोंका मन क्षोभको प्राप्त होता है ॥६६॥ ॥६॥ नाथ ! हमलोगों पर अनुग्रह कर निश्चलतासे यहीं पर रहैं । क्योंकि-गुरूके विना सब पशुओं के समान समझाजाता है।६८॥जिसप्रकार सरोवर कमलके विना, गन्धरहित पुष्प सुगन्धके विना, हाथी दांतके विना शोभाको प्राप्त नहिं होता उसीतरह मव्यपुरुष गुरूके विना नहीं शोभते ॥ ६९ ॥
इसप्रकार श्रावकोंके बचनोंको सुनकर भद्रबाहु मुनिराज बोले-उपासकगण ! तुम्हें मेरे बचनोंपर भी ध्यान देना चाहिये । देखो ! इस मालवदेशमें बारह वर्ष पर्यन्त अनावृष्टि होगी तथा अत्यन्त भयंकर दुर्मिक्ष पड़ेगा । इसलिये व्रत भङ्ग होनेके भयसे साधुओंको इधर नहिं रहना चाहिये । ७०-७१ ॥ समस्त श्रावक क्षुत्वेति सकलाः श्रादा अभ्येस्स मुनिनायकम् । प्रणिपत्य वचः प्रोचुनियानत. मस्त्रकाः ॥ ६ ॥ विजिहीर्षों समाकर्ण्य भगवन् | भवतामतः । क्षोभमेति मनो माकं मफिभारवशीकृतम् ॥ १८ ॥ स्वामित्र रूपा कुत्ला स्थीयता स्थिरचेतसा । यतो गुरू विना सर्वे भवन्ति पशुसानिमाः ॥ १९ ॥ दवाकरो विनापनं निर्गन्ध इसमें यथा । माति दन्त बिना वन्ती तंद्वद्भव्योगु विना ॥५-|| इति तद्वाक्यतो. वोचच्छातात मका द्विादशाऽन्दमनावृष्टिमध्ये देशे भविष्यति॥ दुभिक्ष गैरवं वापि ततो युछन योगिनाम्। कदाचिदत्र संस्थातुं मनभायात्मनाम् ॥२॥
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समूळभावानुवाद। ३९ सङ्घने स्वामीके बचन सुने तो परन्तु हाथ जोड़कर फिर स्वामीसे प्रार्थनाकी ॥ ७२ ॥ नाथ! यह सर्वसङ्घ धनधान्यादि विभूतिसे परिपूर्ण तथा समस्त कार्यके करनेमें समर्थ है और धर्मका भार धारण करनेके लिये धुरन्धर है ||७३|| सो हम उसीतरह कार्य करेंगे जिसप्रकार धर्मकी बहुत प्रवृति होगी । आपको अनावृष्टिका • विल्कुल भय नहीं करना चाहिये । किन्तु यही अच्छा है जोआप निश्चल चित्तसे यहीं निवास करें ॥ ७ ॥ उससमय कुबेरमित्र शेठ बोला-नाथ आपके प्रसादसे मेरे पास बहुत धन है, जो धन दान दिया हुआ भी कुबेरके समान नाशको प्राप्त नहीं होगा। मैं धर्मके लिये मनोभिलषित दान करूंगा ।। ७५-७६ ॥
इतनेमेजिनदास शेठ भी मधुरवाणीसे बोले-विभो !. मेरे यहां भी नानाप्रकार धान्यके बहुतसे कोठे भरे हुये हैं। जो सौवर्ष पर्यन्त दान देनेसे भी कम नहिं होसकते
श्रुत्वा सलकसदेन गिरं गुरुमुखोदितम् । करो अमलता नीत्वा गणी विज्ञापितः पुनः ॥ ५॥ मगवन ! सर्वसतोखि धनधान्यपूरितः । विश्वकायको दक्षा धर्मभारपुरन्धरः ||४|| विधासामस्खया यदर सालन्तवर्धनम् | नारपि भेतभ्यं स्थातव्यं सिरचेतसा ॥ ५ ॥ श्रेष्पी कुचरमित्राख्यदव समुदाहरत् । विपुलं वियते वित्तं लप्रसादेन में किल । || नशाणतामेति पदस्पद मदनम् । दासे ययितं दान धर्मकमांदिहेतवे ||७७ जिनदासलत: श्रेष्टी प्रांचे मत्या गिरा । कोष्टा विविधधान्याला विरान्त विपुला मम ॥४॥
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भद्रबाहु-परित्र। तो बारह वर्षकी कथाही क्याहै ? दीन हीन रङ्कादि दुखी पुरुषोंके लिये यथेष्ट दान देऊंगा फिर यह दुर्मिक्ष क्या करसकैगा ? ॥ ७७-७९ ।। इसकेबाद-माधवदत्त प्रार्थना करने लगा-दयानीरधि! पुण्यके उदयसे वृद्धिको प्राप्त हुई सर्व सम्पति मेरे पासहै सो उसे पात्रदानादिसे तथा समीचीन जिन धर्मके बढ़ानेसे सफल करूंगा। इतने में बन्धुदत्त बोला-देव ! आपके प्रसादसे मेरे पास बहुत धन है सो उसके द्वारा दान मानादि से जिनशासनका उद्योत करूंगा । इत्यादि सर्वसङ्घने . भद्रबाहु आचार्यसे प्रार्थना की । तब मुनिराज बोले
आपलोग जरा अपने मनको सावधान करके कुछ मेरा भी कहना सुनें-यद्यपि कल्पवृक्षके समान यह आपलोगों का सङ्घ सम्पूर्ण कामके करनेमें समर्थ है। परन्तु तौभी सुन्दर चारित्रके धारण करनेवाले साधुओंको यहां ठहरना योग्य नहीं है। क्योकि यहांअत्यन्त भयानक
वर्षशतेनापि न बीवन्त प्रदानतः । का वाता द्वादशाब्दाना तुच्छकालावलाम्यमाम् ॥ ७९ ॥ हीनदीनदखिम्यो ररववादिखिने । दासे यषेप्सितं धान्य दुर्भिक्ष किं करिष्यात 18.1 ततो माधवदचाख्यो विज्ञापयति मे प्रभो। वर्तते सकला संपत्प्रतीता पुण्यपोषिता ॥ ८५ ॥ तत्साफल्यं विधास्यामि पात्रदानादिमिर्मशम् । सद्धर्मबृहणेनापि पन्धुदत्तलतोऽवदत् ॥२॥ देव | देवप्रसादेन सन्ति में विपुला: चियः । विषाखे शासनोद्योतं धानमानक्रियादिभिः ॥ ३॥ इत्यादिसकल: सहयषी विज्ञापितोऽववीत् । समाधाय मनः श्राखा ! महूचा ऋणुतादयत् ॥ ४॥ सय सुरक्षामा समर्थः सर्वकर्मसु । तथापि नात्र योग्यास्था चारचारित्रपारि
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समूलभाषानुवाद |
तथा दुःख देने वाला दुर्भिदा पड़ेगा । संयमकी इच्छा करने वाले पुरुषों को यह समय धान्य के समान अत्यन्त दुर्लभ होने वाला है । यहां पर जितने साधु रहेंगे वे संयमका परिपालन कभी नहि कर सकेंगे । इसलिये हम तो यहांसे अवश्य कर्णाटकदेशकी ओर जायेंगे || ७०-८६ ॥
उस समय सब श्रावक लोग श्रीभद्रबाहु स्वामी के अभिप्रायोंको समझ कर रामल्य स्थूलाचार्य तथा स्थूलभद्रादि साधुओं को प्रणाम कर भक्ति पूर्वक उनसे वहीं रहने के लिये प्रार्थना की। साधुओंने भी जब श्रावकों का अधिक आग्रह देखा तो उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। और फिर बारह वर्ष पर्यन्त वहीं रहनेका निश्चय किया ।
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शेष बारह हजार साधुओं को अपने साथ लेकर श्रीभद्रबाहु आचार्य दक्षिणकी ओर रवाना हुये । ग्रन्थ- कार कहते हैं उससमय श्रीभद्रबाहुस्वामी ठीक तारा मण्डल से विराजित सुधांशुका अनुकरण करते थे ।
णाम् ॥ ८५ ॥ पतिष्यतितरां री दुर्भिक्षं दुःसई दूनाम् । धामी संयमः संयमीपणाम् ॥ ८६ ॥ स्वाम्यन्ति योगिनी येन ते न पास्यन्ति मम् । ततोऽस्माद्वहरिष्यामो फनीतम् ॥ ८७ ॥ विदा गुरु णामाशयं पुनः । रामल्यम्यूलमद्राहस्थूलाचार्यादियांगिनः ॥८८॥ श्रमःय प्रार्थयामाम भक्ला संस्थितिहेतवे । श्रादानानुपधन प्रति तु तद्वनः ॥ ८ ॥ रामल्यप्रमुखारूस्थुः गहस्रद्वाददार्थयः । भट्टधाहुणी तमाचच द्वादशसहर्षेण परीतो गणनायकः । योततं स सुधांशु तारतारादियां कः ॥
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भद्रयाहु-चरित्र । जब श्रीभद्रबाहु साधुराज चले गये तब अवन्ती ( उज्जयिनी ) निवासी लोग स्वामीके चले जानके शोकसे परस्परमें कहने लगे कि----अहो ! वहीं तो देश भाग्यशाली है जिसमें सुन्दर चारित्रके धारक निग्रंथ साधु विहार करते रहते हैं, जो कमलिनियोंसे • शोभित होता है तथा जहां राजहंस शकुन्त रहते हैं। ऐसा जो पुराने कान्तिक (ज्योतिषी ) लोगोंने कहा है वह वास्तवमें बहुत ठीक है ॥ ९२ ॥ .. अहो ! धर्म ही एक ऐसी उत्तम वन्तु है जिससे.. जिन भगवानकी परिचर्याका सौभाग्य मिलता है निर्दोष गुरुओंकी सेवा करनेका सुअवसर मिलता है विशुद्ध वंशमें जन्म तथा ऐश्वर्य समुपलब्ध होता है। इसलिये धर्मका संचय करना समुचित है। इति श्रीरत्ननन्दि आचार्य विनिर्मित श्रीभद्रबाहु चरित्रकेआम नव हिन्दीमापानुवादमें सोलह स्वभोका फल तथा स्वामीके विहार वर्णन नाम द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ॥२॥ यो विचरान्त चारुचरिता निन्धयोगीश्वराः ।
पभिन्योऽपि च राजहंसविहंगावयप माग्योदयः। इत्युकं हि पुरा निमित्तामखत्तप्यतामारिता
स्ववत्याः सुगुल्लयाणजशुचा प्रोमियते जनाः ॥ ११ ॥ धर्मतो जिनपतेः सुसपर्या धर्मतोऽनघगुरोः परिपया । धर्मतोमलकुलं विभवासिवोभवीति हि तत: स विधेयः ||३|| इति श्रीमद्रबाहुचरित्रे आचार्यश्रीरत्ननन्दिविरचिते घोडशस्वप्रफलगुरुबिहारवर्णनो नाम द्वितीयः
परिच्छेदः ॥२॥
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तृतीय परिच्छेद।
श्रीभद्रबाहुम्लामी विहार करते हुये धीरे २ किसी गहन अटवीमें पहुँचे। और वहाँ बड़भारी आश्रयमें डालने वाली आकस्मिक आकाशवाणी सुनी । जब निमित्तज्ञानसे उसका फल विचारा ता उन्हें यह मालूम होगया कि अब हमारे जीवनका भाग बहुत ही थोड़ा है। उसी समय उन्होंने सब साधुसमूहको बुलाया और उनमें-श्रीविशाखाचार्यको गुणरूप विभवसे विराजित, दशपूर्वके जानने वाले तथा गंभीरता धर्यादि उत्तम र गुणों के आधार समझ कर उन्हें समस्त साधुसंघकी परिपालनाके लिये अपने पट्टपर नियोजित किये । और सब साधुओंसे सम्बोधन
तृतीयः परिच्छेदः ।
भयाऽमौ विदरबानी भद्रयाः नः जनः । प्रापन्माइया गयधार गगनवनिम् ॥ १॥ शुन्या महाभुतं निमितमानत: गु । आयुरन्पर. भारमीपनमामोहोचलोचनः ॥ * ॥ ना साधुः ममात्र तन गवानान्सुनान । विशाखाचायनाम या राशुषमापदाद पार गाभागुणवतम् । वागमःक्षा सपद पर्यायवद ॥ ४ मम मसर
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भद्रबाहु-चरित्रकरके कहा-साधुओं ! अब मेरे जीवनकी मात्रा बहुत थोडी बची है इसलिये मैं तो यहीं पर इसी शैलकन्दरामें रहूंगा | आप लोग दक्षिणकी ओर जावें
और वहीं अपने संघके साथमें हैं। स्वामी के उदासीन बचनोंको सुनकर श्रीविशाखाचार्य बोले-विभो ! आपको अकेले छोड़कर हम लोगोंकी हिम्मत जानेमें कैसे होगी ? इतनेमें नवदीक्षित श्रीचन्द्रगुप्त मुनि विनय पूर्वक बोले-आप इस विषयको चिन्ता न करें मैं बारहबर्ष पर्यन्त स्वामीके चरणोंकी सभक्ति परिचर्या करता रहूंगा | उससमय भद्रबाहुस्वामीने-चन्द्रगुप्तिसे जानेके लिये बहुत आग्रह किया परन्तु उनकी अविचल भक्ति उन्हें कैसे दूरकर सकती थी। साधुलोगभी गुरु वियोगजनित उद्वेगसे उद्देजित तो बहुत हुये परन्तु जब स्वामीका अनुशासन ही ऐसा था तो वे कर ही क्या सकते थे ?सो किसीतरह वहां से चले ही! ___ ग्रन्थकारकी यहनीति बहुतही ठीक है कि-वेही बमाणाऽसौ पुनवचः । मदायुविद्यतेऽयस स्थास्याम्पत गुहान्तरे ॥ ५॥ भवन्तो ' विहन्त्वसाइक्षिणं पथमुत्तमम् । संहन महता साधै तत्र तिरन्तु साहयत: ॥ ६ ॥
श्रुत्वा गुरूदितं प्रोचे विशाखो गणनायकः । मुक्त्वा गुरुं कर पामो अयमेकाकिनी • विभो ! ॥ ७॥ चन्द्रगुप्तिसदावादीद्विमवानवदीक्षितः । द्वादशारदं गुरोः पादौ • पर्युपासेऽतिमांशतः ॥ ८ ॥ गुरुगा चार्यमाणोऽपि गुरुभक्तः स तस्थिवान् ।। गुरुशिष्टिवशाइन्ये तसाचलतपोधनाः ॥ ९॥ गुरोविरहसंभूतश्चा संव्यममानसाः।
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समूलमापानुवाद |
일부
तो उत्तम शिष्य कहे जाते हैं जो गुरुकी आज्ञाके पालन करने वाले होते हैं ।
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पश्चात् श्रीविशाखाचार्य - समस्त साधुसंघ के साथ २ ईर्यासमितीकी शुद्धिपूर्वक दक्षिणदेश में बिहार करते हुये मार्ग में भव्य पुरुषोंको सुमार्ग के अभिमुख करते हुये और नवदीक्षित साधुओंको पढ़ाते हुये चौल देश में आये | और फिर वहीं रहकर धर्मोपदेश करने लगे । उधर तत्वके जानने वाले विशुद्धात्मा तथा योग साधनमें पुरुषार्थशाली श्रीभद्रबाहु योगीराजने अपने मन वचन कायके योगों की प्रवृत्तिको रोककर सल्लेखना विधि स्वीकार की । और फिर वहीं पर गिरिगुहामें रहने लगे । उनकी परिचर्या के लिये जो चन्द्रगुप्ति मुनि रहे थे परन्तु वनमें श्रावकोंका अभाव होनेसे उन्हें प्रोषध करना पड़ता था । सो एकदिन स्वामीने उनसे कहा- वत्स ! निराहार तो रहना किसी तरह उचित नहीं है। इसलिये तुम वनमें भी आहारके लिये जाओ ।
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स एव कीर्तिताः शिष्या चे गुर्वाज्ञानुवर्तिनः ॥ १० ॥ विशाखो विदन्यी निदितसोचनः । परीठो मुनिपेन दक्षिणापयन् ॥ ११ ॥ योधान्यध्यादेश समासदत् । श्रोतमठासन जनं पाटयश्रवदीक्षितान् ॥ १३ ॥ तत्र गणाधादाः कुर्वन्धर्मोपदेशनम् । अय बाहुविक्षुद्रमा भट्टपूर्वं सुतरववित् ॥ १३ ॥ निन्थ्य निमितान्योगायोगी योगपरायणः । सम्यासविधिनादाय वरपीन गुद्दान्तरे ॥ १४ ॥ चन्द्रगुप्तिस्य कुले पर्युपासनम् प्रयागगानभवन कुर्वाणः श्रीपर्व परम् ॥ १५ ॥ गुरोदा क्षिप्यो यस्त
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४६ भद्रबाहु-चरित्रक्योंकि यह जैनशास्त्रोंकी आज्ञा है। ___ चन्द्रगुप्ति मुनि गुरूके कहे हुये वचनोंको स्वीकार कर और उनके पादारविन्दीको नमस्कार कर आहारके लिये वनमें भ्रमण करने लगे। उस अटवीमें पांच वृक्षाक नीचे घूमते हुये चन्द्रगुप्ति मुनिको शुरुभक्त तथा सुदृढ़चारित्रके धारण करने वाले समझकर कोई जिनधर्मकी अनुरागिणी तथा शुद्ध हृदयकी धारक वनदेवीनेवहां आकर और उसीसमय अपना रूप बदल कर एकही हाथसे-वृक्षके नीचे धरी हुई, उत्तमर अन्नसे भरी हुई तथा घी शर्करादिसे सुशोभित थाली मुनिके लिये दिखलाई ॥
चन्द्रगुप्ति मुनि इस आश्चर्य को अटवीमें देखकर मनमें विचारते लगे कि-शुद्ध भोजन भले ही तयार क्यों न हो ? परन्तु दाताके विना तो लेना योग्य नहींहै। ऐसा कहकर वहांसे चल दिये और गुरूके पास जाकर
कान्तारचयाँ तवं यषोका श्रीजिनागमे ॥ १६ ॥ गिरं गुरूविता रम्या प्रमाणीकृत्य संयतः। प्रणम्य गुरुपादान्जी भ्रामथै स व्यचीचरत् ॥ १७ ॥ नमस्तन समिक्षार्थ पञ्चानां शाखिनामधः । धनदेषी विदित्वा वे गुरुभवं दृढभूतम् ॥ १८ ॥ मत्सम जिनधर्मस्य तत्रागस खबं स्थिता । पराक्स नि रूममेकैनव स्वपाणिना | १९ ॥ दर्शयन्ती शुभस्वान्ता पादपाधो धृतो पराम् । परमानमा स्थाली सविण्डादिमण्डिताम् ॥ २० ॥ तचित्रं तत्र वीक्ष्याऽसौ चिन्तयामास मानसे । सिद्धं शुद्धमपि भोज्यं न युक्त दातृवनितम् ॥ ३१॥ ततो ब्याधुटिवस्त्रसादासाद्य गुरुमानमत् ।
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ममूटभापानुवाद। उन्हें नमरकार किया तथा वनमें जोकुछ देखा था उसे ज्योंकात्योंगुरूसे कह दिया। उससमय भद्रवाहस्वामीने अपने शिष्यकी प्रशंसाकी तथा बोले-वत्स ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया । क्योंकि जब दाता प्रतिग्रहादि विधिसे आहार दे तभी हमलोगोंको लेना चाहिये।
दूसरे दिन फिर चन्द्रगुप्तिमुनि स्वामीको नमस्कार कर आहारके लिये दूसरे वृक्षोंमें गये । परन्तु वहां उन्होंने केवल भोजन पात्र देखा। उसी वक्तवहांसे लौटकर गुरुके पास गये और प्रणाम कर बीते हुये वृतान्तकों कह सुनाया । गुरूनेभी प्रशंसा कर कहा-भव्य ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया क्योंकि-साधुओंको अपने आप दूसरोंका अन्न ग्रहण करना योग्य नहींहै ॥ ___ इसी तरह तीसरे दिनभी गुरूके चरणपङ्कजोंको नमस्कार कर चन्द्रगुप्तिमुनि आहारके लिये गये । परन्तु उसदिन भी केवल एक स्त्रीको देखकर अपने आहारकी योग्यता न समझ कर शीघ्र ही लौट आये । गुरुके पास पातर सर्व ममाचष्टे गुरोः पुरः ॥ १२ ॥ गुरुणा गांगन गिन्नी परंगद • विदित परन । प्रनिग्रहादिविधिना दत्त दाना रे गवतं ॥ ३॥ चन्द्रगुप्तहिती. यह नत्यामहाराय बोगिनम । जगामान्यमहाजन नमालोटियम् ॥ १४ ॥ गावा गुरुवनमा तन ममराम्यत् । माणा गनिन: nिो भव्य भव्य स्वया ऋवम् ॥ १५ ॥ न युफ यतिनामनामनन्यायमेगनाम् । चन्द्रगतिस्तृतीयेहि प्रबन्ध गुरुप जम् ॥ ३५ ॥ फायरियाय पदाला सत्राप्यमानी
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भद्रवाहु-चरित्र। आकर और उन्हें नमस्कार कर देखे हुये वृतान्तको । कह सुनाया | चन्द्रगुप्तिके वचन सुनकर भद्रबाहुने उनकी प्रशंसा कर कहा-वत्स ! जैसा शास्त्रोंमें कहा वैसाही तुमने आचरण किया क्योंकि जहां केवल एकही , स्त्री हो वहां साधुओंको जीमना योग्य नहीं है। .
फिर चौथे दिन गुरूको प्रणाम कर आहारके लिये जब चन्द्रगुप्तिमुनि घूमने लगे तब वनदेवीने उन्हें निश्चलवतके धारण करने वाले तथा पवित्र हृदय समझ कर उसीसमय वनमें गृहस्थजनोंसे पूर्ण नगर रचा। मुनिराजने भी मनुष्योंसे पूर्ण नगर देखकर उसमें प्रवेश किया और वहां गृहस्थोंसे पदपदमें नमस्कार किये हुये होकर श्रावकोंके द्वारा यथाविधि दिया हुआ मनोहर
आहार ग्रहण किया ॥ - चन्द्रगुप्ति मुनिराज पारणा करके अपने स्थान पर
त्रियम् । विलोक्यायोग्यतां मत्वा बिरराम ततो जमात् ॥ २७॥ गुरुमभ्येत्य वन्दित्वा पुनस्तदृतमालपत् । तदाकर्ण्य समाचले दीक्षित संशयः ॥ ३०॥ यदुसमागमे पत्स ! तदेवानुष्ठितं त्वया । न युकं यत्र वामका यानां तत्र जेमनम् ॥ २९ ॥ चतुर्थेऽहि शुरु नत्वा लेपार्थ व्यचरन्मुनिः । ज्ञात्वा दृढवतं धीर देव्या ने शुद्धबेतसम् ॥ ३० ॥ नगरं निर्मित एल सागारिजनं संकुलम् । गच्छंस्तत्र मानवाक्ष्य नगरं नागरमतम् ॥ ३१ ॥ प्रपिछत्तत्र सागौरवन्धमानः पदे पदे । चाह शाचराहारं प्रत्तं प्रायथाविधिः ॥ ३२॥ कृत्वाऽसौ पारणं गत्ला स्वस्थाने त्वरित
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समूलमापानुवाद। तथा दुःख देने वाला दुर्भिक पड़ेगा । संयमकी इच्छा करने वाले पुरुषोंको यह समय घान्यके समान अत्यन्त दुर्लभ होने वाला है। यहां पर जितने साधु रहेंगे वे संयमका परिपालन कमी नहिं कर सकेंगे। इसलिये हम तो यहांस अवश्य कर्णाटकदेशकी ओर जावेंगे ॥ ७०-८६ ॥
उससमय सब श्रावक लोग श्रीभद्रबाहुस्वामीके अभिप्रायोको समझ कर रामल्य स्थूलाचार्य तथा स्थूलभद्रादि साधुओंको प्रणाम कर भक्ति पूर्वक उनसे वहीं रहने के लिये प्रार्थना की। साधुओंने भी जब श्रावकोंका अधिक आग्रह देखा तो उनकी प्रार्थना स्त्रीकार कर ली। और फिर बारह वर्ष पर्यन्त वहीं रहनेका निश्चय किया।
शेष बारह हजार साधुओंको अपने साथ लेकर श्रीभद्रबाहु आचार्य दक्षिणकी ओर रवाना हुये । ग्रन्यकार कहते हैं उससमय श्रीभद्रबाहुस्वामी ठीक तारा मण्डलसे विराजित सुधांशुका अनुकरण करते थे। णाम् ॥ ४५ ॥ पतिप्यतितरां रो दुल कुलद गाम् । पारपर्दुभी गाली संयमः गनमपिणाम् ॥८६॥ स्याम्यन्ति मोगिनी पंतन पाम्यन्त गम् । सतोऽसाहिरिप्यामोऽयं वांटनामम् ॥ ४० ॥ पिभिन्ना पि . पामाशयं पुन: । रामल्यस्थूलभदाम्पत्यूलाचायांदियोगिनः RR प्रार्थयामास भात्या मरियनिहस । भासानानुपरेषन प्रतिपादनः ।। रामल्यप्रमुग्लानधुः महावादाभदमागीमानाबान सम्मा द्वादशापिंसदमा रातो गगनात म मांस बात
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भद्रयाहु-चरित्र। जब श्रीभद्रबाहु साधुराज चले गये तब अवन्ती ( उज्जयिनी ) निवासी लोग स्वामीके चले जानेके शोकसे परस्परमें कहने लगे कि-अहो ! वहीं तो . देश भाग्यशाली है जिसमें सुन्दर चारित्रके धारक निग्रंथ साधु विहार करते रहते हैं, जो कमलिनियोंसे शोभित होता है तथा जहां राजहंस शकुन्त रहते हैं। ऐसा जो पुराने कान्तिक ( ज्योतिषी) लोगोंने कहा है वह वास्तवमें बहुत ठीक है ॥ ९२ ॥ .
अहो ! धर्म ही एक ऐसी उत्तम वस्तु है जिससे जिन भगवानकी परिचर्याका सौभाग्य मिलता है निर्दोष गुरुओंकी सेवा करनेका सुअवसर मिलता है विशुद्ध वंशमें जन्म तथा ऐश्वर्य समुपलब्ध होता है। इसलिये धर्मका संचय करना समुचित है। इति श्रीरत्ननन्दि आचार्य विनिर्मित श्रीभद्रबाहु चरित्रकेआम नव हिन्दीभापानुवादमें सोलह स्वमोका फल तथा स्वामीके विहार वर्णन नाम द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ॥२॥ यहे विचरन्त चारचरिता निग्रन्थयोगीश्वराः
पभिन्योऽपि च राजहंसबिहगासत्रय भाग्योदयः। इत्युकं हि पुरा निमित्तकालखतभ्यतामाश्रिता
स्त्रयाः सुगुपयाणजाचा प्रोजुर्मियते जनाः ॥ १२॥ धर्मतो निनपतेः सुसपर्या धर्मतोऽनघगुरोः परिचर्या । धर्मतोमलकुलं विमवाप्तिर्वोभवीति हि ततः स विधेयः ॥१३॥ इति श्रीमद्रयाहुचरित्रे आचार्यश्रीरत्ननन्दिविरचिते घासशस्वमफलगुरुबिहारवर्णनो नाम द्वितीयः
परिच्छेदः ॥२॥
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तृतीय परिच्छेद । . श्रीभद्रवाहस्वामी विहार करते हुये धीरे ३ किसी गहन अटवीमें पहुंचे। और वहाँ बड़भारी ' आश्चर्यमें डालने वाली आकस्मिक आकाशवाणी सुनी। जब निमित्वज्ञानसे उसका फल विचारा तो उन्हें यह मालूम होगया कि अब हमारे जीवनका भाग बहुत ही थोड़ा है। उसी समय उन्होंने सब साधुसमूहको बुलाया और उनम-श्रीविशाखाचार्यको गुणरूप विभवसे विराजित, दशपूर्वके जानने वाले तथा गंभीरता धैर्यादि उत्तम २ गुणों के आधार समझ कर उन्हें समस्त साधुसंघकी परिपालनाके लिय अपने पट्टपर नियोजित किये। और सब साधुओंसे सम्बोधन
तृतीया परिच्छेदः ।
अमाशौ पिरन्मामी भद्रयाः नः शनः । HTRA TE गगन पनिम् M E महाअइसन बार AfERAT: A giry. मारमीयमशागीद्वाषनगर ॥ * ना माय: सान र । विमानामा माMetatuit. गणपत व RE HERE
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भद्रवाहु-चरित्रकरके कहा-साधुओं ! अब मेरे जीवनकी मात्रा बहुत थोड़ी बची है इसलिये मैं तो यहीं पर इसी शैलकन्दरामें रहूंगा। आप लोग दक्षिणकी ओर जावें
और वहीं अपने संघके साथमें रहैं | स्वामीके उदासीन बचनोंको सुनकर श्रीविशाखाचार्य बोले-विभो ! आपको अकेले छोड़कर हम लोगोंकी हिम्मत जानेमें, कैसे होगी ? इतनेमें नवदीक्षित श्रीचन्द्रगुप्ति मुनि विनय पूर्वक बोले-आप इस विषयकी चिन्ता न करें मैं बारहबर्ष पर्यन्त स्वामीके चरणोंकी सभक्ति परिचर्या करता रहूंगा । उससमय भद्रबाहुस्वामीने-चन्द्रगुतिसे जानेके लिये बहुत आग्रह किया परन्तु उनकी अविचल भक्ति उन्हें कैसे दूरकर सकती थी। साधुलोगभी गुरु वियोगजनित उद्देगसे उद्देजित तो बहुत हुये परन्तु जब स्वामीका अनुशासन ही ऐसा था तो वे कर ही क्या सकते थेसो किसीतरह वहां से चले ही!.
ग्रन्थकारकी यहनीति बहुतही ठीक है कि-वेही षमाणाऽसौ पुनर्वचः । मदायुर्विधतेऽत्यल्प स्थास्थाम्यत शुद्दान्तरे ॥ ५॥ भवन्तो । विहरन्वसाइक्षिण पथमुत्तमम् । संशन महता साथै तत्र तिष्ठन्तु सौख्यत: ॥ ६ ॥. श्रुत्वा गुरुदितं प्रोचे विशालो गणनायकः । मुक्त्वा गुरुं कसं यामो वयमेकाफिनो विभो । ॥ ७॥ चन्द्रगुतिस्तदाबादीद्विभयानवदीक्षितः । द्वादशान्दं गुरोः पादो यंपासेऽतिमचितः ॥ ८॥ गुरुपा वार्यमाणेऽपि गुरुभकः स तस्थिवात् । गुरुशिष्टिक्वाइन्य तमाबेलतपोधनाःगुरोविरह भूतक्षुषा संव्यममानसाः।
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समूलभावानुवाद। * ४५ तो उत्तम शिष्य कहे जाते हैं जो गुरूकी आज्ञाके पालन करने वाले होते हैं। ___पश्चात् श्रीविशाखाचार्य-समस्त साधुसंघके साथ २ ईयाँसमितीकी शुद्धिपूर्वक दक्षिणदेशमें विहार करते हुये मार्गमें भव्य पुरुषोंको सुमार्गके अभिमुख करते हुये और नवदीक्षित साधुओंको पढ़ाते हुये चौलदेशमें आये। और फिर वहीं रहकर धर्मोपदेश करने लगे।
उधर तत्वके जानने वाले विशुद्धात्मा तथा योग साधनमें पुरुषार्थशाली श्रीभद्रबाहु योगीराजने अपने मन बचन कायके योगोंकी प्रवृत्तिको रोककर सल्लेखना विधि स्वीकार की और फिर वहीं पर गिरिगुहामें रहने लगे। उनकी परिचर्या के लिये जो चन्द्रगुप्त मुनि रहे थे परन्तु वनमें श्रावकोंका अभाव होनेसे उन्हें प्रोषध करना पड़ता था । सो एकदिन स्वामीने उनसे कहा-वत्स ! निराहार तो रहना किसी तरह उचित नहीं है। इसलिये तुम वन में भी आहारके लिये जाओ। पएप कीर्तिताः शिष्या चे गुांशानुपतिनः ॥ १०॥ विशाम्रो विदम्मामाली निहितलोचनः । परीतो मुनिनन दक्षिणापथमुप | बोपनम्याचादेश समासदत् । योसपासनं जनं पाटपस्वाभिमान :: न तन मगाधीशमुकयोदशनमाश्य यारियादमा मद्री मता ॥ निय निरिलायोगान्योगी योगसराप । अन्नामा पत्र शुहाम्तरे || १४ || चन्द्रगुप्तरोनय गरने पगमनाम् । गागल सुमाग पोषय परम् ॥ १५॥ गुरानीपस्तदा लिदा पवार
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भद्रबाहु चरित्र -
क्योंकि यह जैनशास्त्रोंकी आज्ञा है ।
चन्द्रगुप्ति मुनि गुरू के कहे हुये बचनोंको स्वीकार कर और उनके पादारविन्दोंको नमस्कार कर आहारके लिये वनमें भ्रमण करने लगे। उस अटवीमें पांच वृक्षों के नीचे घूमते हुये चन्द्रगुप्ति सुनिको गुरुभक्त तथा सुदृढ़चारित्रके धारण करने वाले समझकर कोई जिनधर्मकी अनुरागिणी - तथा शुद्ध हृदयकी धारक वनदेवीनेवहां आकर और उसीसमय अपना रूप बदल कर एकही हाथसे - वृक्ष के नीचे घरी हुई, उत्तमर अन्नसे भरी हुई तथा घी शर्करादिसे सुशोभित थाली मुनिके लिये दिखलाई ॥
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चन्द्रगुप्त मुनि इस आश्चर्य को अटवीमें देखकर मनमें विचारने लगे कि - शुद्ध भोजन भले ही तयार क्यों न हो? परन्तु दाताके बिना तो लेना योग्य नहीं है । ऐसा कहकर वहांसे चल दिये और गुरू के पास जाकर
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कान्तारचर्या एवं यथोतां श्रीविनायमे ॥ १६ ॥ गिरं गुरुदितां रम्यां प्रमाणीकृत्य संवतः । प्रणभ्य गुरुपादाब्जी ग्राम स व्यचीचरत् ॥ १७ ॥ भ्रमंस्तत्र भिक्षार्थ पचानां शाखिनामधः । वनदेवी विदित्वा तं गुरुमकं दृढतम् ॥ १८ ॥ वत्सला जिनधर्मस्य तत्रागत्य खर्ग स्थिता । परावृत्य निकं रूपमेकैनन खपाणिना ॥ १९ ॥ दर्शयन्ती शुभस्वान्ता पादपाधी तां पराम् परमानभूतां स्थाली सपिण्डादि मण्डिताम् ॥ १० ॥ तचित्रं तत्र वीक्ष्याऽसी चिन्तयामास मानसे । सिद्धं शुद्धमपि भोज्यं न युकं दातृतम् ॥ २१ ॥ तो माधुरितखरमा दाचाथ गुरुमानमत् ।
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ममूलमापानुबाद। उन्हें नमस्कार किया तथा वनमें जोकुछ देखा था उसे ज्योका त्यों गुरूसे कह दिया । उससमय भद्रबाहुस्वामीने अपने शिष्यकी प्रशंसाकी तथा बोले-वत्स ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया। क्योंकि जब दाता प्रतिग्रहादि विधिसे आहार दे तभी हमलोगोंको लेना चाहिये।
दूसरे दिन फिर चन्द्रगुप्तिमुनि स्वामीको नमस्कार कर आहारके लिये दूमरे वृक्षोंम गये। परन्तु वहां उन्होंने केवल भोजन पात्र देखा । उसी वक्त वहांसे लौटकर गुरूके पास गये और प्रणाम कर बीते हुये वृतान्तकों कह सुनाया । गुरुनेभी प्रशंसा कर कहा-भव्य ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया क्योंकि-साधुओंको अपने आप दूसरोंका अन्न ग्रहण करना योग्य नहींहै ॥
इसी तरह तीसरे दिनभी गुरूके चरणपङ्कजोंको नमस्कार कर चन्द्रगुप्तिमुनि आहारके लिये गये । परन्तु उसदिन भी केवल एक स्त्रीको देखकर अपने आहारकी योग्यता न समझ कर शीघ्र ही लौट आये। गुरुके पास
यदृष्टं रान तत्स्य ममान गुरोः पुरः ॥ २२ ॥ मुरणा गिनः निमो माग विदिन बाम । प्रनिमहादधिना दस दामाद एन चन्द्रगान यति नत्यानाराव नागिन । जगामाया नमामि RTH गरया शुरबमा मरनाकमा परिक्षा नागाः म म त्वया पुनम् । ५ ॥ न गुभ परिनामनगाणगाना गन्द्रगतिरिसोयदि प्रवन्ध गुमनाम ॥ दादा REAR REM
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४८ · भद्रवाहु-धरित्र। आकर और उन्हें नमस्कार कर देखे हुये वृतान्तको कह सुनाया | चन्द्रगुप्तिके बचन सुनकर भद्रबाहुने उनकी प्रशंसा कर कहा-वत्स ! जैसा शास्त्रोंमें कहा वैसाही तुमने आचरण किया क्योंकि जहां केवल एकही स्त्री हो वहां साधुओंको जीमना योग्य नहीं है।
फिर चौथे दिन गुरूको प्रणाम कर आहारके लिये जब चन्द्रगुप्तिमुनि घूमने लगे तब वनदेवीने उन्हें निश्चलवतके धारण करने वाले तथा पवित्र हृदय समझ कर उसीसमय वनमें गृहस्थजनोंसे पूर्ण नगर रचा। मुनिराजने भी मनुष्योंसे पूर्ण नगर देखकर उसमें प्रवेश किया और वहां गृहस्थोंसे पदपदमें नमस्कार किये हुये होकर श्रावकोंके द्वारा यथाविधि दिया हुआ मनोहर आहार ग्रहण किया।
चन्द्रगुप्ति मुनिराज पारणा करके अपने स्थान पर
त्रियम् । विलोक्यायोम्यतां मत्वा विरराम सतो नमात् ॥ २७॥ गुरुमभ्येत्य पन्दित्वा पुनस्तवृत्तमालपत् । तवाकये समाचठे दीक्षित संशयन्गुरुः ॥ २८॥ यदुतमागमे वत्स ! तदेवाऽनुष्ठितं त्वया । न युकं यत्र वार्मका यीनां तत्र
मनम् ॥ २९ ॥ चतुर्थेऽडि गुरुं नत्वा लेपार्थ व्यचरन्मुनिः। ज्ञात्वा नतं धीर देव्या पुरवतसम् ॥ ३० ॥ नगरं निर्मित तत्र सापारिजनं संकृतम् । गच्छंस्तत्र मानवाक्ष्य नगर नागरवम् ॥ ११ ॥ प्रविष्टस्ता सागरैर्वन्धमानः पदे पदे । समाह सविराऽऽहार प्रतं पायथाविधिः ॥ ३२॥ कृत्वाऽसौ पारणं गत्वा स्वस्थान त्वरित
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ममृभाषानुवाद
भोजन लाकर दिनमें किया करें तो अच्छा हो । जबतक काल अच्छा न आवै तबतक इसी तरह कीजिये । और जब काल अच्छा आजाय, देश में सुभिक्ष होने लगे तब तपश्चरण करिये। उस समय समस्त साधुओंने श्रावकों के चचनोंको स्वीकार किये। इसीतरह वे साधु धीर २ शिथिल होकर व्रतादिमें दोप लगाने लगे । ग्रन्थकार कहते हैं यह बात ठीक है कि -कुमार्गगामी लोग क्या २ अकार्य नहि करते हैं ।
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इसप्रकार अत्यन्त दुःख पूर्वक जब बारह वर्ष बीत चुकै, अच्छी वर्षा होने लगी, लोग सुखी होने लगे तथा दशमें सुभिक्ष होने लगा तो विशाखाचार्य सब सुनियोंको साथ लेकर दक्षिण देशसे उत्तर देशकी ओर आये | और जहां श्रीभद्रबाहु आचार्यने समाधि ली श्री वहीं आकर ठहरे तथा विनय पूर्वक श्रीभद्रबाहु गुरु पदपङ्कजको प्रणाम किया | पश्चात् श्रीचन्द्रगुप्ति मुनिरा
भर्फ समानीय पाखरे कुरुनाशनम्। यावदर्शनः सन्नम्॥८१॥ कमला पुनस्तद
॥ ८३ ॥ व्याचरन्तस्ते प्रापुः तु शनैः शनैः । किन कुर्युः कदम्याः || ८४ इथं तु द्वादशादेषु
मौर्य ममिवं ममजावत ॥ ८५ अधाशयोजन शिवां
उत्तरापथम
गुन
गुन देवियाविनः ॥ ८ ॥ चन्द्रादिः
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५८ - भद्रबाहु-चरित्रजने विशाखाचार्यको प्रणाम किया। उस समय विशाखाचार्यने मनमें विचारा कि श्रावकोंके बिना ये यहां कैसे रहे होंगे इसी विचारसे प्रतिवन्दनाभीन की। उस जगह श्रावकोंका अभाव समझकर उस दिन सव मुनियाने उपवास किया। तब चन्द्रगुप्ति मुनिराज बोले-भगवन ! उत्तम २ लोगोंसे परिपूर्ण बड़ाभारी यहाँ एक नगर है। उसमें श्रावक लोग भी निवास करते हैं। वहां आप जाकर आहार करिये । चन्द्रगुप्ति मुनिके चचनोंसे सब साधुओंको आश्चर्य हुआऔरफिर वेभी वहीं पारणाके लिये गये। नगरमें पदर में श्रावक लोगोंके द्वारा नमस्कार किये जाकर वे मुनि विधिपूर्वक आहार कर जब अपने स्थान पर आये उस समय नगरमें एक ब्रह्मचारी अपना कमण्डल भूल आया था परन्तु जब वह फिर उसे लेनेके लिये गया तो वहां पर नगर न देखा किन्तु किसी वृक्षकी डाली पर कमण्डल टैंका हुआ उसे दीख पड़ा।उसे लेकर ब्रह्मचारी
सूरिसत्तमः । फयं श्राद्धं विनाप्रास्थलेष प्रतिवन्दितः ॥ ८॥ तहिने मुनिमिः सर्वशवासं कृतं शुभम् । सागाराभावमन्वानेश्चन्द्रगुप्तिस्ततोऽसपत् ॥ ६ ॥ भगवन् । भूरियागारं नगर नागरैमृतम् । विद्यते विपुलं तत्र क्रियता कायसंस्थितिः ॥१०॥ साश्चर्यदयाले तत्मारणार्थे प्रपेदिरे । सकलराद्धवन्धमानाः पदे पदे ॥११॥ विधाय विधिनाऽधारमाजग्मुस्ते निनाथयम् । तत्रैको काण्डकां वर्णी विस्मृती बरपरा ॥ १२॥ स गतस्ता पुनातु नेक्षते तत्र तपुरम् 1 कुण्डिकां शाखियामास्यां बलोकिवि केवलम् ॥ १३ ॥ मादाय तो बदा वर्णी प्राप्य नहरुमालपत् ।
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समूल भाषानुवाद
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गुरुके पास आया और वह आश्चर्य जनक समाचार उयों का त्यों कह सुनाया। विशाखाचार्य भी इस वृत्तान्तको सुनकर मनमें विचारने लगे ।
अहो ! यह चन्द्रगुप्ति सुनि शुद्ध चारित्रका धारक है। मैं तो निश्चयसे यही समझता हूं कि - इसीके पुण्यप्रताप देवता लोगोंने यह नगर रचा था। इस प्रकार शुद्ध चारित्रके धारक चन्द्रगुतिमुनि की प्रशंसा कर उन्हें वहांका सव उदन्त कह सुनाया । और फिर प्रति वन्दना कर कहा कि देवता लोगों के द्वारा कल्पना किया हुआ आहार साधुओं को लेना उचित नहीं है । इसलिये सच को प्रायश्चित लेना चाहिये । विशाखाचार्यके कहे अनुसार चन्द्रराप्ति मुनिराजने प्रायश्रित लिया। और उसी समय सारे संघने भी स्वामी से प्रायश्चित लिया। इसकेबाद- पापरूपी मेघोंक. नाश करनेके लिये वायुके समान, उत्तम २ चरित्रके धारक माधुओंम प्रवान, सूर्यके समान तेजस्वी तथा विशुद्ध ज्ञानके अद्वितीय
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॥९९॥ रघु
तदनं निशम्यात चिन्तयामान् ॥ ९ ॥
गुहामुनिः । तयग्नो नूनं श्रस्याप्राशदादादम्
म योग्य तीन म
नम् ॥ ९६ ॥
स्वामी कन्यकुब्ज गमाव९ ॥ अपमननयमानः रा
॥९६
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भद्रबाहु-चरित्रस्थान श्रीविशाखाचार्य साधुओंके सङ्गके साथ र दक्षिण वेशकी ओरसे बिहार करते हुये उज्जयिनी नगरीमें आकर फलफूलादिसे समृद्ध उसके उपवनमें ठहरे ।
निरन्तर सिद्धभगवानका ध्यान करनेवाले, अज्ञान रूप अन्धकारके समूहका विध्वन्स करने वाले तथा विशुद्धचारित्रके धारक श्रीभद्रबाहु रूप सूर्यके लिये
अपने मनोभिलषित स्वाभाविक सुखकी समुपलब्धिके लिये बारम्बार अभिवन्दन करता हूं। इस श्लोकों श्रीमद्रबाहु स्वामीको सूर्यकी उपमा दी है क्योंकि सूर्य भी निरन्तर आकाशमें रहताहै अन्धकारका नाश करने वाला होता है तथा निष्कलङ्क होता है। . इति श्री रत्ननन्दि आचार्यविरचित भद्रवाहु-चरित्रमें बादश वर्ष पर्यन्त दुर्मिक्ष तथा विशाखाचार्यके दक्षिण देशसे भागमनका वर्णन वायतृतीय अधिकार समाप्त हुआ||३||
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फलितनगनिवेशे तत्सुरोशानदेशे मुनिवररायपूर्णः सुरिषयोऽवतीर्णः ॥ ७ ॥
निरन्तरानन्तयतात्मवृत्ति
निरस्तदुवोधतमोवितावम् । श्रीमद्रबाहूणकरं विभुखं
वितमीमीहितवाससिद्धपै ॥ ९९ ॥ इति श्रीभद्रबाहुचरित्रे श्रीरत्ननन्द्याचार्यविरचिते द्वादशवर्षभिक्षविशाखाचार्यगमनवर्णनो
नाम तृतीयोऽधिकारः ॥३॥
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चतुर्थ परिच्छेद ॥ ४ ॥
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जब स्थूलाचार्यने-सुना कि श्री विशाखा -
चार्य समस्त सङ्घ सहित दक्षिण देशसे मालव देशको ओर आये हुये हैं तो उनके देखनके लिये अपने शिष्यांको भेजे । शिष्य भी स्वामीके पाम जाकर भक्ति पूर्वक उनकी वन्दना की । परन्तु श्रीविशाखाचार्यने उनलोगों के साथ प्रति बन्दना न की और पूछा कि मेरे न होते हुये यह कौन दर्शन तुम लोगों ने ग्रहण किया है ?
शिष्य लोग श्रीविशाखाचार्यके वचनों को सुनकर लज्जित हुये और उसी समय जाकर सब वृत्तान्त अपने गुरूसे कह सुनाया। उस समय रामल्य स्थूलभद्र तथा स्थलाचार्य अपने २ सङ्घके सब साधुआं को बुलाकर उनसे कहने लगे कि हम लोगों को अब क्या करना
ॐ
चतुर्थः परिच्छेदः ।
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स्थूलाचार्याभिधानोऽप ममानयं यन्निनम् । विद्यायाचार्यमा
मयाची विजयादि ॥ १ ॥
नाः शिष्या मनात सु
सौ यन्दितः
मुनिः ॥ ६ ॥ विनगर मे
I
वन्दना । किमिदं दर्शनं नूनमानं नेति भारितन ॥ ३ ॥ व्यायुव्य तद्गुरं जगुः । रामस्थूलभद्राचा एकीनेोनिः
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भद्रपाहु-चरित्रचाहिये ? तथा; ऐसी कौन, स्थिति है जिससे हमें सुखः होगा ! उस वक्त विचारे. वृहस्थूलाचार्यने कहासाधुओं ! मनोभिलषित सुख देने वाले मेरे कहने पर: जरा ध्यान दो। ___ श्रीजिनभगवानके कहे हुये मार्गका आश्रय प्रण कर शीघ्र ही इस बुरे मार्गका परित्याग करो।
और मोक्षकी प्राप्ति के लिये छेदोपस्थापना लेओ। स्थूलाचार्यके कहे हुये हितकर बचन भी उन लोगोंको अनुराग जनक नहु: । ग्रन्थकार कहते हैं यह ठीक है कि जो लोग पित्तज्वरग्रसित होते हैं उन्हें शर्करा मी कड़वी लगती है । उस समय और २ मुनिलोग यौवनके घमण्डमें आकर बोले-महाराज! तुमने कहा तो है परन्तु ऐसा कहना तुम्हें योग्य नहि। क्योंकि-. इस विषम पश्चम कालमें क्षुधा पिपासादि दुस्सह वावीस परीघहोंको तथा अन्तरायादिकों कोन सहेगा ! मालूम होता है कि अब आप वृद्ध होगये हैं इसीसे सुखादा । ५ ॥ स्यूलाचार्यस्तदा धूलो ब्याजहार चची घरम् । शृणुध्वं मामिकों वाचं सापकोऽभीष्टसौख्यदाम् ॥६॥ जिनोजमार्गमादित्य हित्वा कापयमासा करध्वं शिवसंसिद्धषे छद्रोपत्यापन परम् ॥ ७. न.तयां वचः प्रील : साधूनां हितमप्यमूत । पितज्वरवा किं.न सितासि काटुकायते ॥॥ ततोऽन्ये मुनयः प्रोबुयौवनोइतबुदयः । यदुकं खरका सूरे ! तत्ते वक्तुं न युज्यते ॥९॥ यतोष विषमे काले द्वाविंशतिपरीपहान् क्षुत्पिपासातरायादोन्कः सहेताऽति-- हुस्सहान् ॥ १०॥ भवन्तः स्थविराः किचिन पिदन्ति क्षुमाऽशुभम् । मुखमाध्य
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समूलमापानुवाद अच्छे बुरेको नहिं जानते हैं। भला यह नो कहा किऐसे मुखसाध्य मार्गको छोड़कर कौन ऐसा होगा जो कठिन मार्गका आचरण करेगा: फिर भी विचार स्थूलाचार्यने कहा-तुम यह निश्चय राजो कियह मत उत्तम नहिं है। इस समय तो किम्पाकफलके समान मनोहर मालूम देता है परन्तु आगे अत्यन्त ही दुःखका देने वाला होगा। जो लोग मूलमार्गको छोड़कर खोटे मार्गकी कल्पना करते हैं वे संसार रूप बनमें भ्रमण करते हैं। जैसे मारीचादिने कुमार्ग चलाकर चिर काल पर्यन्त संसार में पर्यटन किया। यह मार्ग कभी मुक्तिप्रद नहिं हो सकता किन्तु उदर भरनेका साधन है । जब स्थूलाचार्यके ऐसे वचन मुने तो कितने भव्य साधुओंने तो उसी समय मूलमार्ग (दिगम्बर मार्ग) स्वीकार कर लिया और कितने मुनि महाक्रोधित हुये । यह टीक है कि शीतल जलस भी क्या गरम तेल प्रचलित नहिं होता ! किन्तु अवश्य होता ही है ॥७-१५॥ मिन नागनुपस्या का शुमा चरम् ॥ ॥ धूलागायन प्री म. बनमम । पारसलान्यमागप्रति मन RT ee प्राय सन्ति । अनान ने मद मकर राम मागों मनसाय परंवारनन । नसतो माया नमा चिरापला सत्सापि मनपा पनामा; I मापन. .
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भद्रबाहु चरित्र
तब वे क्रोधी मुनि बोले- यह बुड्ढा है क्या जानता है जो ऐसा विना विचारे बोलरहा है। अथवा यों कहिये कि वृद्धावस्था में बुद्धि के भ्रम से विक्षिप्त होगया है । और जबतक यह जीता रहेगा तबतक हमलोगों को सुख कहो ? ऐसा विचार कर पात्माओंने स्थूलाचार्य के मारने का संकल्प किया । और फिर अत्यन्त कुपित होकर उन दुष्ट तथा मूखौने निर्विचारसे विचारे 'स्थूलाचार्यको डंडों डण्डोंसे मारकर वहीं पर एक गहरे खड्डे में डाल दिया । नीतिकार कहते हैं कि यह ठीक है - खोटे शिष्यों को दी हुई उत्तम शिक्षा भी दुष्टोंके साथ मित्रताकी तरह दुःख देने वाली होती है ।
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उस समय स्थूलाचार्य आर्त्तध्यान से मरण कर व्यन्तर देव हुआ और अवधिज्ञानसे अपने पूर्वजन्मके वृचान्तको जानकर उन मुनि धर्माभिमानियोंके ऊपरजैसा उपद्रव पहले तुमने मेरे उपर किया था वैसा ही उपद्रव
म्युनापि हि ॥ १५ ॥ कुपितास्ते तदा प्रोचुर्वर्षीयानेष वैत्ति किम् । वची वातुलीभूतो वार्धिक्ये वा मतिभ्रमात् ॥ १६ ॥ वृद्धोऽयं यावदत्रास्ति तावत्रो न सुख• स्थितिः । इति सचिन्ा ते पापास्तं हन्तुं मतिमादधुः ॥ १७॥ दुखण्डः शिष्यैम.
देर्दण्डेो हठात् । जीणांचायस्ततो क्षिप्तो गर्ने कूटन तत्र तैः ॥ १८ ॥ कुशिष्याणां हि शिक्षाऽपि खलमैत्रीव दुःखदा । सुत्वाऽऽध्यानतः सोऽपि व्यन्तरः • समजायत || १९ || विदित्वाऽधिबोधेन देवोऽसौ पूर्वसंभवम् । चकार सुनिमन्या
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समूलमापानुवाद मैं भी अब तुम्हारे ऊपर करूंगा ऐसा कहते हुआ-यूलि पत्थर तथा अमि आदिको वृष्टिसे धार उपद्रव करने लगा ॥ ११ ॥२१॥ ___ तब साधुलोग अत्यन्त भय भीत होकर व्यन्तरसे प्रार्थना करने लगे- देव ! हमारा अपराध क्षमा करो। यह हमलोगोंने मुर्खतासे किया था । देव बोला--- यही यदि तुम्हें इच्छित है तो जब तुमलोग इस कुमार्ग को छोड़कर यथार्थ मार्गको ग्रहण करोगे तबही तुम्हें उपद्रच रहित करूंगा देवके वचन सुनकर साधुओंने कहा-तुमने कहा सो तो ठीकहै परन्तु मूलमार्ग (निम्रन्यमार्ग) को हमलोग धारण नहीं कर सकते क्योंकि वह अत्यन्त कठिन है। किन्तु आप हमारे गुरु हैं इस लिये भक्तिपूर्वक आपकी निरन्तर पूजन करते रहेंगे। इस प्रकार अत्यन्त विनयसे उस क्रोधित व्यन्तरको शान्त करके गुरुकी हडिये लाये और उसमें गुरुकी कल्पना की । आजभी लोकमें हहियें पूजी जाती हैं नो नितरां दरुपदानम् ॥ 0 मामिषारदाप्रति पराभवम् । मन्द विपास्य यो यथा में विदितं पुरा गर्नेमणुः गंप्रता । समस्त मामकांनागो देना हानाहानिमिनन् ॥ १॥ दी प्रहप्पथ मुसंगमन । सदा जन्पादिमीर ने सार्म मे १४॥ पंग गुलमागायन ने नमः | पास पूEिntry: ॥ ३४ ॥ नास्पासिधिन-METARIABE : Tiri MER गंमत २५foramin
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भद्रबाहु-चरित्रतथा नमस्कार की जाती हैं और उनमें क्षपण (मुनि) की इसीकी कल्पना होनेसे "खमणादिहडी" व्रत भी उसी दिनसे चलपड़ा है । इसके बाद उसकी शान्तिके ही. लिये आठ अंगुल लम्बी तथा चार अंगुल चौड़ी एक लकड़की पट्टी बनाकर यह वही गुरु हैं ऐसी कल्पना कर उसे पूजने लगे । इस प्रकार यथायोग्य उसकी स्थापना करके भयभीत अर्द्धफालक लोगोंने जब पूजना आरम्भ किया तब उसने उपद्रव करना बन्द किया । फिर धीरे २ इसी तरह पुजाता हुआवह देव पर्युपासन नामक कुलदेवता कहलाने लगा। सो आजमी जलगन्धादि द्रव्योंसे पूजा जाता है। वही आश्चर्य जनक भईफालक मत कलियुगका बल पाकर आज. सब लोगोंमें फैल गया । जैसे जलमें तैलकी बिन्दु फैल जाती है ॥ २२-३०॥
यह अईफालक दर्शन जिन भगवानके वास्तविक सूत्रकी विपरीत कल्पना करके विचारे मूर्खलोगोंको
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णादिष्डीसाख्यं क्षपणास्थिप्रकल्पनात् ॥३९॥ तथा वान्तये काएपहिवाश्यालामता। पतुरमा स एषयमिति संकल्प्य पूषिता ॥ २५ ॥ यथाविधि परिस्थाप्य पूजितः सो फालक । परियकं ततस्तेन वेष्टित विकियामयम् ॥२०॥ पर्युपासनमामा कुलदेवोऽभवत्ततः । नक्सा महीयतेऽद्यापि चारिगन्धाक्षतादिकैः ॥२९॥ मसोईफलक बोके न्यानसे मतमतम् । कलिकालबलं प्राप्य सलिले तेल निन्दुपत् ॥३०॥ भोमानिनेन्द्रधनस्य सूत्र संकल्पतेऽन्यथा । वर्तयन्ति स दुर्मार्ग बना
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समूलमाषानुवाद लोटे मार्गमें फंसाता है। जिसप्रकार इन इन्द्रियों के वशवाचे लोगोंने स्वयं ही व्रत धारग किया उमी तरह जिन भगवान के सूत्रकी भी अपनी बुद्धि के अनुसार मिथ्या कल्पना की ।। ३१-३२॥
इसी तरह बहुत काल बीत जाने पर उज्जयिनी में चन्द्रकीर्ति नामका राजा हुआ। उसके लक्ष्मीकी समान चन्द्रश्री नामकी पट्टरानी तथा उन दोनोंमें रूपलाबण्यादि गुणोंसे सुशोभित चन्द्रलेखा नामकी उत्तम एक कन्या हुई । उसने उन कुपथगामी अईफालक साधुओंके पास शास्त्र पढ़ा। ___ सौराष्ट्र (सौरठ ) देशमें उत्तम बलभीपुर नाम , पुर था। उसका-अपने तेजसे समस्त शत्रुओंको सन्तापित करने वाला तथा नीति शास्त्रका जानने वाला प्रजापाल नामका राजाथा। उसके-मुन्दर २ लक्षणोंसे सुशोभित प्रजावती नामकी रानी थी। उन दोनोंमें मुन्दर
न्मूगावमाश्रितान् ॥ ३१ ॥ यथा स्वयं समाmti Ma: निरालया सूने मभित्र निजपुदिनः ॥ ३३॥ एवं तर म ग पसरे यिन्या विशांनापचन्द्रवपन्द्रकीतिला ॥ ३२ ॥ चन्द्रश्रीः . मयावा तस्याममहिनी शुभापगलाचन्द्रलपात्या नाम सायासे मनिमन्यानो समापि यमपाटन, ISRRIERREETiers पुमाविता राष्ट्रपिम्पाना मुननम् | virgam. नाना नायितः॥३६॥ निजरिनारन AnsaANIपनी
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भद्रयाहु-चरित्रगुणोंका धारक, रूपशौभाग्य लावण्यादिसे युक्त तथा ज्ञान विज्ञानका जानने वाला लोकपाल नामका पुत्र था ॥ ३३-३८ ॥
प्रजापालने-अपने पुत्रके लिये गुणों से उज्वल. चन्द्रकीर्तिकी-नव यौवनवती चन्द्रलेखा पुत्री के लिये प्रार्थना की । लोकपालभी चन्द्रलेखाके साथ विवाह करके उसके साथ नाना प्रकारके उपभोगोंको भोगने लगा। जैसे शचीके साथ इन्द्र अनेक प्रकारके भोगोंको भोगता रहता है । पश्चात् धीरे २ शुभोदयसे अपने पिताके विशाल राज्यको पाकर चन्द्रलेखाको अपनी पट्टरानी बनाई। और फिर समस्त राजा लोगोंको अपने शासनकी आधीनतामें रखकर रानीके साथ उपभोग करता हुआ राज्यका निर्भय पालन करने
किसी समय जब चन्दलेखाने स्वामीको प्रसन्नचित्त
गिरा रानी तस्यासीवादलक्षणा ॥ ३४ ॥ लोकपालामियस्तोकनयायागुणाई भवत् । रूपसौमाम्यम्पनो ज्ञानविज्ञानपारगः ॥ ३८॥ प्रजापाला खपुत्रार्थ चन्द्रकीर्तिपात्मनाम् । प्रमोदात्प्रार्थनायामासचन्द्रलेखांणोज्वलाम् ॥ ३॥ उपयम्य कुमारोऽसौ तो कन्या नवयौवनाम् । योमुजाति तया भोगान् शच्या षा सुरनायकः ॥४०॥ क्रमासंप्राप्य पुण्यन प्राज्यं राज्यं पितदा । चकार चन्द्रलेखां तां सदप्रमहियोपदे ॥ १ लोकपालो नृपः सार्थ कुर्वनामात्मनो मृशम् । विध. विशदं राज्यं नताशेषमहीपतिः ॥ ४२ ॥ एकदाऽनन्दवितासी रामया विज्ञापितो
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ममूलभावानुपाद . ९ देखा तो प्रार्थना की ! नाथ ! मेरे गुमरग्ययिनी पुरी में ' है। उन जगत्पूज्य गुरुओंको मेरे कहने से आप अवश्य
बुलावें । राजाने इस भय से कि कहीं यह असन्तुष्ट न होजाय इसलिये उसके बचनोंको स्वीकार किये । और उनके लिबाने के लिये अपने लोगोंको भेजे । वहाँ आकर उन लोगोंने गुरुओंको भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और वलभीपुर चलनेके लिये प्रार्थना की। उनकी चार २ प्रार्थनासे तथा बिनग्रसे जिनचन्द्रादि अईफालक वलभीपुरमै आये।जब राजाने उन लोगोंका आगमन सुनातो बहुत आनन्दित होकर-सामन्त मंत्री पुरवासी तथा परिवार के लोगाके साथ २ गीत नृत्य संगीतादिके उत्तम शब्दसे दशों दिशाओंको परिपूर्ण करता हुआ उनकी बन्दनाके लिये नगरसे निकला । और दूरहीसे साधुओंको देखकर मनमें विचारने लगा
अपनायाऽसद्गुरकः सन्ति कन्यकुब्जालपाने | नानायर गेन जगत्पूज्यान्मदामहान प्रियाप्रिक्सया भूरसदनी माननगुहा htrg ঈয়ায় সামযিলন। গলা ল গা মা পা শerশান্ত ॥४५॥ नमभ्यर्षिता भूमा पिनपादानराजिनमा सापुरभदनम् || ४ || Trisna marries निगमाग परानन्दयुतानिः ॥ १५ मnिfrare | मामAISमापारस्पपरिवार
पEIGHT TIMEHARMt.
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७४ । भद्रबाहु-चरित्रअहो ! लोकमें अपनी विटम्वना करने वाला तथा निन्दनीय यह कोनमतप्रचलित हुआ है। नग्र होकरभी । वस्त्रयुक्त तो कोई साधु नहिं देखे जाते हैं । इसलिये इनके पास जाना योग्य नहीं है। ऐसे नूतन मतका आविष्कार देखकर राजा शीघही उस स्थानसे लौटकर अपने मकान पर आगया। तब रानीने राजाके हृदयका भाव समझ कर गुरुओंकी भक्तिसे उनके लिये वस्त्र भेजे । साधुओंने भी उसके कहनेसे वस्त्रोंको ग्रहण किये। उसके बाद-राजाने उन साधुओंकी भक्तिपूर्वक पूजनकी तथा सन्मान किया । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बात ठीक है कि-स्त्रियोके रागमें मनुरक्त हुये पुरुष क्या २ अकार्य नहिं करते हैं ?
उसी दिनसे श्वेतवस्त्र के ग्रहण करनेसे अर्द्धफाल कमतसे श्वेताम्बर मत प्रसिद्ध हुआ । यह मत महाराज विक्रम नृपतिके मृत्युकालके १३६ वर्षके बाद लोकमें
सचिन्तयत् । किमतादर्शन निन्य साकेत्र खविडम्बकम् ॥ ४५ ॥ नमा वरेण संबीता नेक्ष्यन्ते यत्र साधवः । गन्तुं न युज्यते नोच ननदर्शनदर्शनात् ॥ ५० ॥ म्याधुव्य भूपतिस्तस्मानिजमन्दिरमेयिवान् । शात्वा राशी नरेन्द्रस्य मानसं सहसा स्फुटम् ॥ ५५ ॥ गुरूणां गुरुभक्त्या सा प्राहिणोत्सिंचयोधयम् । तेहीतानि वासासि सुदा तानि वचितः ॥ ५२ ॥ ततस्ते भूमृता भक्त्या पूजिता मानिता भृशम् । किमकार्यन कुन्ति रामारागण रजिताः ॥ १३ ॥ धूतानि चेतवासांसि सदिनासमजायत । श्वेताम्बरमत ख्यात तताईफालकमतात ॥ ५५ ॥ मते विक्रमभूपाळे पनिशदधिक पाते । यतेऽन्दानाममूहोके मत वेताम्बराभिधम् ॥ ५५ ॥ भुनकि
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समूलमायानुवाद प्रादुर्भूत हुआ है । फिर उस मूल जिनचन्द्रने-जिन प्रतिपादित आगमसमूहका केवली मंगवान कवलाहार करते हैं, त्रियोंको तथा संतगमुनि लोगोंको उनी भवमें मोक्ष होता है और महावीर स्वामी गर्भका अपहरण होना इत्यादि प्रतिकूल रीतिमे वर्णन किया ॥ ४३ ॥ ५७ ॥ परन्तु यह कथन प्रत्यक्ष बाधित है इसेही सिद्ध करते हैं। जिले अनन्त मुख है उनके आहारकी कल्पनाका संभव मानना ठीक नहि है। यदि कहोगे कि केवलीके कवला आहार है तो टमकं अनन्त सुखका व्याघात होगा। क्योंकि आहार तो क्षुधाके लगने पर ही किया जाता है और केवली भगवानके तो क्षुधाका अभाव रहता है । क्षुधाके अभाव में आहारकी भी कोई आवश्यक्ता नहिं दीखती। यह है भी तो ठीकजैसे मूलका नाश होजान पर वृक्ष किमौतरह नहीं बढ़ सकता। उसी तरह क्षुधाका अभाव होजानस आहार करना भी नहि माना जासकता । यदि फिरभी आहारको कल्पना की जाय तो जिन भगवानके शरीर में सदापता आती है ।। ५८ ॥५॥ केपटानी श्रीमो मानि रदयामाग ग rierarun
गागमसन्दाह तिरिदिनन् । माननी ॥ ५५ ॥ अनन्तसल्ला प EERE: व्यापातोऽनन्नागम् ॥ THE TERMeet इंडिताः मनग्नता : Erri
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भद्रवाहु चरित्र
ये बुमुक्षा आदितो वेदनीय कर्मके सद्भावमें होती हैं और जिने भगवान के मोहनीय कर्मका नाश होजाने से वेदनीय कर्म अपना कार्य करने में शक्ति विहीन ( असमर्थ ) है । जैसे जली हुई रस्सी बन्धनादि कार्यके उपयोग में नहि आसकती । इसलिये केवली भगवान के दोषप्रद कवला आहरिंकी कल्पना करना अनुचित है । और मोहमूल ही वेदनीय कर्म क्षुधादिवेदनाका देने वाला होता है । जिन भगवानके मोहनीय कर्मका नाश हाजानेसे वेदनीय कर्म अपना कार्य नहि कर सकता जैसे मूल रहित वृक्ष पर फल पुष्पादि नहि हो सकते । भोजन करनेकी इच्छाको बुभुक्षा कहते हैं और वह मोहसे होती है और मोहका जिन भगचानके जब नाश हो गया है तो क्योंकर आहार की कल्पनाका संभव माना जाय ? ॥ ६० - ६४ ॥ उसे ही स्फुट करते हैं-
जो इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें विरक्त हैं तीन
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वेद्यकम्र्म्मणः । मुक्तिः केवलिनां तस्मान्न युक्ता दोपदायिनी ॥ ६० ॥ क्षीणमोहे जिने वैद्यं खकार्यकरणेऽक्षमम् । खकीयशकिरहितं दग्धरज्जुवदअसा ॥ ६१ ॥ मोहमूलं 'भवेद्वेयं क्षुभादिफलकारकम् । तदभावेऽक्षमं बेयं छिन्नमूलतथा ॥ ६२ ॥ भोकुमिच्छा बुभुक्षा स्वारस्वच्छापि मोहसंभवा । तद्विनाचे जिनेन्द्रस्य कथं स्याद्भुक्ति संमदः ॥ ६३ ॥ तद्यथा ॥ विरकस्येन्द्रियार्थेषु गुप्तित्रितयमीयुपः । मुनेः संजायते ध्यानं कर्म मर्मनिबर्हणम् ॥ ६४ ॥ ध्यानात्साम्यरसः शुद्धस्तस्मात्स्यात्मावबोधनम् ।
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समून्द्रभाषानुवाद
४)
गुप्तिके पालन करने वाले हैं ऐसे साधुओंके कम के
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. नाश करने वाले ध्यानकी सिद्धि होती है ध्यानमे शुद्ध शान्तरसका समुद्रव होता है शान्तरससे आत्मज्ञान होता है और फिर उसी आत्मावबोधले मोहनीय कर्मका नाश करके साधु लोग क्षीणमोही होकर और शुलध्यान रूप खङ्गके द्वारा चार घातिया कमका नाश करके जब केवली होते हैं तो क्षुधा तृपादि अठारह दोपांसे रहित अनन्त सुख रूप पीवृपके पानसे सन्तुष्ट तथा लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञानके धारक ऐसे केवली भगवान आहार क्या कर सकते हैं ? यदि ये श्रुधादि दोष जिन भगवानमें माने जायें तो दोष रहित शुद्ध स्वरूप जिनदेव फिर वीतराग कैसे कहे जासकेंगे ?
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कदाचित कहो कि - जिस तरह भोजन करते हुये उदासीन साधुओंके वीतरागता बनी रहती हैं तो केवली भगवानके क्योकर न रहेगी !
विमाननः ॥ ६५० मा पात्रोमा
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॥६॥
पादः
॥ ६८ ॥ श
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भद्रबाहु-चरित्रपरन्तु वह कहना बुद्धिमानोंका नहीं है किन्तु विक्षिप्त पुरुषोंका केवल प्रलाप है । मुनियोंके आहार . करनेसे वीतरागताका अभाव नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उनमें केवल उपचार (कथनमात्र) से वीतरागता है
कदाचित्कहो कि-आहारके विना शरीरकी स्थिति कहीं पर नहीं देखी जाती है इसीलिये केवली भगवानके आहारकी कल्पना अनुचित नहीं है ॥ ६७-७१ ॥ यह कथनमी अवाधित नहीं है। सोही स्फुट किया जाता है-नोकर्म आहार (१) कर्म आहार (२) कवला. हार (३) लेप. आहार (8) उजाहार (५) मानस आहार (६) ऐसे आहारके छह विकल्प हैं। तो अब यह कहो कि-शरीर धारियोंके शरीरको स्थितिका कारण कवलाहार ही है या और से भी शरीरकी स्थिति रह संकती है। हम लोग तो कर्मनोकर्म आहारके ग्रहणसे केवली भागवानके शरीरकी स्थिति मानते हैं । कदाचित्कहो कि-शरीरकी स्थिति कवलाहार ही से है तो
पिणाम् । यसखोपचारेण वीतरागत्वकल्पना ॥ ॥ तस्थितिनवाजहार विना कापीह श्यते । केवलज्ञानिमितसादाहारो गृह्यतेऽनिशम् | नोकर्म की नामा च कवलो पनाम भाक् । उजश्व मानसाभार-आहारः पविधो मतः ॥७२॥ देहिनामेवमाहारसनुसंस्थितिकारणम् । सन्मध्ये कवलाहाराबन्यमाद्वा वस्थितिः avan . कमनोकर्मकाहारग्रहणादेहसंस्थितिः । मवेलेवलिना बैतत्सम्मतं नो मते स्फुटम् Prआहोस्मिल्कवस्त्रहारपूर्विकाहस्पितिर्मवत् । त्वयैवं कथ्यते तत्र संसिया
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समूलभाषानुवाद भी व्यभिचार आता है। क्योंकि एकेन्द्री जीवोंके लेप आहारका संमत्र है, देवताओंके मानसाहार होता है आर पक्षियोंके उजाआहार होता है । यही बात दूसरे अन्यों में भी लिखी है..___ * केवली भगवानके नोकर्म आहार होता है, नारकियोंके कर्म आहार होता है, देवताओंके मानस आहार होता है, पक्षियोंक ऊजाआहार होता है तथा एकेन्द्रियोंके लेप आहार होता है ।।
इसलिये स्वप्नमें भी बुद्धिमानोंको केवली भगवानके लिये कवलाहारकी कल्पना करना योग्य नहीं है। अथवा दूससे यह भी बात है कि उनके आहाकी भी कल्पना केवल वेदनीय कर्मके सद्भाव होनेसे मानी जाती है ॥७२-७८|| अस्तु वह रहै परंतु यह तो कहो कि-जब केवन्द्री भगवान सर्व लोकालोकके देखने जानने वाले हैं तो संसारमें नाना प्रकारके जीवोंका बध देखते हुये कैसे भोजन कर सकते हैं: अथवा जिन भगवान भी अल्पज्ञानी लोगोंकी तरहशुद्ध तथा अशुद्ध भोजन करेंगे क्या और यदि अन्तरायो होते हुये भी भोजन करेंगे तो केवली भगशनके श्रावको
यमिवारिता एमक्षenile River दार उजम प y aven साम्य | A finger rriris मागअमरेपलानाshritainsti मागा
." निना पसन्जE THE AREETTE
।
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भद्रबाहु चरित्र
भी अत्यन्त निन्दनीय हीनता ठहरेगी। उनके आहार की भी कल्पना केवल वेदनीय कर्मके सद्भाव होनेसे मानी जाती है ॥७२-७८॥ ___ अरे! मांस रक्त आदि अपवित्र वस्तुओंको देखते हुये भी यदि केवली भगवान आहार करें तो फिर तो यों कहिये कि जिन भगवानने अपने सर्वज्ञपनेको जलाञ्जलि दे दी। तौभी केवली भगवान कवला आहार करते हैं ऐसा जो लोग कहते हैं समझिये कि वे निर्लज्ज हैं खोटे मतरूपी मदिराके मदमें चकनाचूर हो रहे हैं ॥७९-८२॥ इस प्रकार केवली भगवानके कवला आहारका प्रतिषेध किया गया। उसी तरह जो लोग स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष प्राप्त होना कहते हैं समझिये कि वे लोग दुराग्रह रूप पिशाचके वशवर्ति हैं । अथवा यो कहिये कि वे विक्षिप्त होगये हैं। यदि स्त्रिये अत्यन्त घोर तपधरण भी करें तौमी उस जन्ममें उन्हें मोक्ष नहीं हो सकता ॥ ८३-८४॥ किम् ॥ ७९ ॥ अविनाश्तरायाणां पुरते यदि मोचनम् । श्रादेभ्योऽध्यातिहीनत्वमाझ्याताई गहितम् ॥ ८० ॥ विलोक्य मौसरकादीनान्तरायान्करोति च। तदा सशभावस्य तेन प्रत्तो जलाबलिः केवलो कवलाहार करोतीति वदन्ति ये । समापि ते न लबान्ते दुर्मसातवमोहिताः ॥ २॥
॥ति केचालिमुकिनिराकरणम् ।। अथ तस्मिन्मवे श्रीणां मोक्ष ये निगदन्ति ते दुराग्रहमास्ता बनाः किं वातिवानुवाः ॥ ३ ॥ तपोजीप दुदर घोरं करते बदि योषितः । तथापि तद्भवें
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ममूलमापानुवाद
कदाचित्कहो कि - निश्रयनवते न्त्री और पुरुषांक आत्मामें कुछ भी विशेषता न होनेसे उसी भव त्रियों को मोक्षकी समुपलब्धि क्यों नहीं होती ! परन्तु यदि केवल तुम्हारे कथनानुसार सब जीवांके नामान्य होने ही से स्त्रियोंको मोक्षकी प्राप्ति मानली जाये तो चाण्डाली तथा घीवरी आदिकी स्त्रिये क्योंकर मोक्षमें नहीं जातीं ? क्योंकि ये भी तो स्त्रियं ही हैं न १ तथा स्त्रियों के योनिस्थान में प्रवादिसे निरन्तर अशुद्धता घनी रहती है और महीने २ में निंद्यनीय रजोधर्म होता रहता है। स्तन कुक्षि तथा योनि आदि स्थानोंमें शरीर स्वभाव से ही सूक्ष्म अपर्याप्त मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं। स्त्रियोंकी प्रकृति (स्वभाव) बुरी होती है । लिङ्ग अत्यन्तही निन्दित होता है उनके साक्षात्संयय ( महाव्रत) भी नहीं हो सकता तो मोक्ष तो बहुत हैं । दूसरे स्त्रीलिङ्ग तथा स्तनोंसे युक्त स्त्री रूपमें बनी हुई तीर्थकरों की प्रतिमायें कहीं हो तो कहो ! इन
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नूनं तपः दी || ८४ ॥ तुन नि मोक्षायामिनुं नारीणां का
श्रीरामसः । मानवाः मिनि
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भद्रबाहु-चरित्रदोषोंसे स्त्रियोंको मोक्षकी संभावना नहीं मानी सकती! देखो! स्त्रियोंको चक्रवर्ति, नारायण, बलभद्र, मण्डलेश्वर
आदि पद तथा श्रुतज्ञान, मनापर्ययज्ञान जब नहिं होते हैं, और उसीतरह गणधर, आचार्य, उपाध्याय आदि पद भी नहीं होते हैं तो उन्हींके त्रैलोक्य महनीय सर्वज्ञपनेका कैसे सद्भाव माना जाय ? इसलिये समझो कि-सुकुलमें पैदा हुआ, कुशल, संयमी, परिग्रह रहित तथा इन्द्रियोंका जीतने वाला पुरुष ही मुक्ति कान्ताके साथ परिणय कर सकता है । ९०-९४ ॥
॥ इति स्त्री मुक्तिनिराकरणम् ॥ ___ जो मुर्ख लोग निग्रन्थ मार्गके बिना परिग्रहके सद्भावमें भी मनुष्यों को मोक्षका प्राप्त होना बताते हैं उनका कहना प्रमाण भुत नहीं हो सकता। यदि परिग्रहके होने परमी मोक्षका होना ठीक मान लिया जाये तो कहो कि भगवान आदिजिनेन्द्रने अपना प्रशस्त
विद्यन्ते विहताः कापि प्रतिमाश्चनिगवत ॥९. ॥ पक्षहानिनं चेत्सन्ति सन्ति बदण्डिमास्सदम् । इति दोषद्वयावाप्ती न खाणां शिषसंभः ॥ ९ ॥ चक्रिकेशनरामाजमण्डलेशादिसत्पदम् । तथव श्रुतकैवल्यं मनापर्यययोधनम् ॥५१॥ गणेशसुप्र्यपाध्यायपदं स्त्रीणां मवेभ चेत् । फयं सर्वक्षता तासां जगत्पूज्या घटामटेन ॥१३॥ ॥ कुलीनः कुशलो धौर संयमी संगपर्मितः । निजिताक्षः पुमानेष वृणीते मुकिमामिनीम् ॥ ४॥
बीमुकिनिराकरणम् ॥ निर्घन्धमार्गमुत्सृज्य समन्यत्वेन ये जडाः । म्याचक्षन्ते शिवं नृणां तो न अयमंत् ॥५५॥ अमलेन निर्माणसाधनं यदि विद्यते । प्राज्यं राज्य कर्म
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समूटभाषानुवाद
७६
राज्य किस लिये छोड़ा ? उत्तम कुलमें समुन्द्रत्र, महाविहान तथा वज्रवृषभ-नाराच संहननका धारक पुरुष भी यदि परीग्रही हो तो वह भी मोक्षमं नहीं जा सकता तो ओरों की क्या कहें ? इसलिये शिव सुखाभिलाषी साधुओंको वस्त्र, कम्बल, दंड तथा पात्रादि उपकरण कभी नहि ग्रहण करने चाहियें। क्योंकि वस्त्रों के ग्रहण करनेसे उनमें लीखें तथा जूं आदि जीवांकी उत्पत्ति होती रहती है और उनके घरने उठाने तथा धोने में जीवोंकी हिंसा होती है । दूसरे वस्त्रके लिये प्रार्थना करनेसे दीनता आती है और वस्त्र प्राप्त होने पर उसमें मोह होजाता है मोहसे संयमका नाश होता है तो उससे निर्मलता होना तो दुर्लभ हीं नहीं किन्तु नितान्त असम्भव है । इसलिये अन्तरग तथा बाह्य परिग्रहके त्यागयुक्त साक्षाज्जिनलिङ्ग हो श्लाघनीय हैं। और सम्यक्त युक्त जीवोंके शिव सुखका हेतु है । ९५-१०१ ।। कदाचित यह कहो कि - जिनकल्प लिङ्गके बहुत
मादिदेवेन हि मे ॥ ९६ ॥
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साधुना भोपकरणे॥९८॥ नि
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सौरम्यस्य साधनम् ॥ १०१
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भद्रवाहु-चरित्रकठिन तथा दुःसाध्य होनेसे हमलोगोंने स्थविर कल्प, संयम धारण किया है । परन्तु जिनकल्प तथा स्थविरकल्पका लक्षण जबतक न समझ लो तबतक ऐसे मिथ्या बचनमी मत कहो । क्योंकि स्थविर कल्प भी तुम्हारे कथनानुसार परिग्रह सहित नहीं होता है। ___ अब पहले ही जिनकल्प संयमका लक्षण कहा जाता है--जिसके द्वारा मुनिराज मुत्यङ्गनाके आलिङ्गनके सुखका उपभोग कर सकते हैं। जो सम्यक्त्व रूप रत्नसे भूषित होते हैं, जिन्होंने इन्द्रियरूप अश्वोंको अपने वशमें कर लिये हैं, जो एकाक्षरके समान एकादशाङ्ग शास्त्रके जानने वाले हैं, जो पांवोंमें लगे हुये कांटेको तथा लोचनोंमें गिरी हुई रजको न तो स्वयं निकालते हैं और न दूसरोंसे कहते हैं कि तुम निकाल दो, निरन्तर मौन सहित रहते हैं, वज्रवृषम नाराच संहननके धारक होते . हैं, गिरिकी गुहाओंमें वनमें पर्वतमें तथा नदियों के
स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराषितम् ॥ १०१ ॥ मावदैतद्वनोऽसत्यमहावा लक्षणं तयोः । ततः स्थविरकल्पेऽपि नैबास्ति सरसामः ॥१३॥ ____ अथाऽभिधीयते तावजिनकल्पापसंयमः। मुक्तिकान्तापरिखासौख्यं मुहरू यतो मुनिः ।।१०४॥ सम्यक्त्वरमसद्भपा विजितेन्द्रियवाजिनः। विदन्त्येकादशा ये शुतमेकाक्षरं यथा ॥ १.५॥ क्रमयो कण्टक भन चक्षुपोः सात रजः । खयं न फेटयन्त्यन्वैरपनीतममाषणम् ॥ १०६ ॥ वधानाः सन्ततं मौनमायसंहननाऽऽश्रिताः। कन्दयों कानने शैले घसन्ति तटनीतटे ॥ १०७॥ षण्मासमवतिछन्ते प्रावूटकालेशि
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समूलभारानुवाद किनारोमें रहते हैं, वर्षाकालमें मार्गको जीवोंसे पूर्ण हो जाने पर छह मास पर्यन्त आहार रहित होकर कायोत्सर्ग धारण करते हैं, परिग्रह रहित होते हैं, रनअयसे विभूषित होते हैं, मोक्षके साधनमें जिनकी निष्ठा होती है, धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान हीमें निरत रहते हैं, जिनके स्थानका कोई निश्चय नहीं होता तथा जो जिन भगवानके समान विहार करने वाले होते हैं ऐसे साधुमोंको जिन भगवानने जिन कल्पी साधु कहा है।।२-१०॥ ___ और जो जिनलिङ्गके धारक होतेहैं, निर्मल सम्यक्ल रूप अमृतसे जिनका हृदय क्षालित होता है, अठाईत मूलगुणोंके धारण करने वाले होते हैं, ध्यान तथा अध्ययनमें ही निरत रहते हैं, पञ्च महाव्रतके धारक होते हैं, दर्शनाचार ज्ञानाचार प्रभृति पश्चाचारके पालन करने वाले होते हैं, उत्तम क्षमादि दश धर्मसे विभू. पित रहते है, जिनकी ब्रह्मचर्य व्रतमें निष्टा (श्रद्धा)
सरकुले । सात मागे निसहाराः कापासी समातिमा Heakire. मापमा मतियमाता निर्माणसापने नि या पतपोषितावासा दिनानिमित है। मामात भिनMera
11. अब स्पायरकन्या निमियागः मुनकमा मन्धीतपेतमMAHA का रविणाम पर पंचना तपम महा
नागिन मतदु मतिर मागानन्याय ॥
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८१.
भद्रबाहु चरित्र
होती हैं, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे विरक्त होते हैं, तृण में मणिमें नगर में वनमें मित्रमें शत्रुमें सुखमें तथा दुःखमें सतत समान भावके रखने वाले होते हैं, मोह अभिमान तथा उन्मत्तता रहित होते हैं, धर्मोपदेशके समय तो बोलते हैं और शेष समयमें सदैव मौन रहते हैं, शास्त्ररूपी अपार पारावारके पारको प्राप्त हो चुके हैं, उनमें कितने तो अवधिज्ञानके धारक होते हैं, कितने मन:पर्ययज्ञानके धारक अवधिज्ञानके पहले पञ्च सुत्रकी - सुन्दर पिच्छी प्रतिलेखनके (शोधनके) लिये धारण करते हैं, सङ्घके साथ २ बिहार करते हैं, धर्म प्रभावना तथा उत्तम २ शिष्योंका रक्षण करते रहते हैं, और वृद्ध २ साधु समूहके रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं । इसीलिये उन्हें महर्षिलोग स्थविर कल्पी कहते हैं। इस भीषण कलिकालमें हीन संहनन के होने से वे लोग स्थानीय नगर ग्रामादिके जिनालय में रहते हैं । यद्यपि यह काल दुस्सह है शरीरका संहनन
सुखेनले समानमतयः शश्वन्मोहमानमदोज्झिताः ॥ ११४ ॥ धर्मोपदेशतोऽ न्यत्र सदाऽभाषणधारिणः । श्रुतसागरपारीणाः केवनावधिबोधगाः ॥ ११५ ॥ ममः पविणः केचिद्गृहन्त्यवधितः पुरा चारु पश्चगुणं पिच्छे प्रतिलेखनहेतवे ॥ ॥ ११६ ॥ विरहन्ति गणः साकं नित्यं धर्मप्रभावनाम् । कुर्वन्ति च सुशिष्याणां प्रहणं पोषणं तथा ॥ ११७ ॥ स्थविरादिप्रतिवातप्राणपोषणचेतसः । ततः स्थावरकल्पस्थाः प्रोच्यन्ते सूरसत्तमः ॥ ११८ ॥ साम्प्रतं कलिकालेऽस्मिन्नसंहननत्वतः ।
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समूदभाषानुवाद होन है मन अत्यन्त चञ्चल है और मिथ्या मत सारे संसारमें विस्तीर्ण होगया है तो भी वे लोग संयमके
पालन करने में तत्पर रहते हैं ॥११-२०॥ , दुमरे अन्यमै भी कलियुगक पावत चा लिया है-"डो कर्म
सकते हैं ये करियर
एकपम भी ना किये जा सकने' यह मोबागाण मनगशा मयं । परन्तु यह गाया विएकुल अशुद्ध है। हमारे पास दो प्रतिय भी इन दोनाम ऐसा ही पाइ हानेस परवन यही पार एपमाना
वास्तवम ऐसा मयं होना चाहिये "जा यमं पूर्य पालम एकवर्षमै नाश कर दिये जाने पे उतने ही कर्म स फाटयगर्म हजार वर्षमै भी नाश नहीं किये जा सकते।। इसीसे मोक्षाभिलाषी साघुलोग संयमियोंके योग्य पवित्र तथा सावध (आरंभ ) रहित पुस्तकादि ग्रहण करते है। इस प्रकार सर्व परिग्रहादि रहित स्थविर कल्प कहा जाता है। और जो यह वस्त्रादिका धारण करना है वह स्थविर कल्प नहि है किन्तु गृहस्थ कल्प है। मैं तो यह समझता हूं कि-इन श्वेतादरियाने जो इस गृहस्थ कल्पकी कल्पना की है वह मोक्षकी प्राप्ति के लिये नहीं
स्थानानगरमामजिनमानियासिनः
दो Rater मन मियामवातिव्यासं पारि गंगोय .॥ (१)रक्त परिवहन पुगपर्म पर।
मार गिरि मह # रवि शामिन A TREET
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भद्रबाहु चरित्र
किन्तु इन्द्रिय सम्बन्धि विषयानुभवन करनेके लिये
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की है ॥ २१-२४॥ ॥
तथा देखो ! इनलोगोंकी सूर्खता अथवा विवेक :- शून्यता जो श्रीवर्द्धमान' स्वामी के गर्भका अपहरण हुआ कहते हैं । जब श्रीवीरजिनेन्द्रको — वृषभदत्त
ब्राह्मणकी - दिवानन्या नाम स्त्रीके गर्भमें आये हुये
·
: तिरासी ८३ दिन बीत गये तब इन्द्रने भिक्षुकका कुल :: समझ कर श्रीवीरनाथका गर्भ वहांसे लेजालर सिद्धार्थ राजाकी कान्ताके 'उदरमें स्थापित किया । परन्तु यह 'बात कैसे होसकती हैं ? अस्तु हमारा कहना है कि'पहले तुम यह कहो - इन्द्रने पहले उस कुलको जाना · था या नहिं १ यदि कहोगे जाना था तो पहिलेही
"
"
: गर्भका हरण क्यों न किया ? यदि कहोगे नहिं जाना ; था तो गर्म शोधनादि क्रियायें कैसे की होगी ? यदि फिर भी कहोगे कि गर्भ शोधनांदि क्रियायें ही नहीं की गई
→
+
मोन्यो यत्र फेलाविधारणम् ॥ १२३ ॥ नच गृहस्थकालेोऽयं कल्पितः पाण्डुराक ।। परमक्ष सौख्याय न चार्य शिवशर्मणे ॥ १२४ ॥
• ॥ इति सङ्गनिर्वाणनिराकरणम्
कपयन्ति कथं मूढा वर्षमान जिनेशिनः । धर्मापहरणं निन्यं विवेकविलाश्रयाः . ॥१२५॥ दिवानन्यास्त्रिया गर्ने वृषदत्तद्विजन्मनः । भवतीर्णे जिन मिरे व्यसीति दिवसा - गताः ॥ १२६ ॥ ततो भिक्षुकुलं ज्ञात्वा शक्रस्तं गर्भमापयत सिद्धयनृपतेः पत्न्यां कथमे १. सद्वनो भवेत् ॥ १२७॥ वज्रिणा तत्कुलं पूर्व विदितं नाम कि बद । विदितं चत्पुरा किं -न. श्रणापहरणं कृतम् ॥१३८॥ न ज्ञातं चेत्कर्म, धर्म, प्रोभनाविक्रिया कृतानुशा
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समुलमापानुबाद
तो तुम्हीं कहो फिर तीर्थकरोमें तथा और सामान्य मनुष्यों में विशेषताही क्या रही ? दूसरे यह भी है कि जब हिजके यहांसे गर्भ हरण किया गया तो उसकी नालका तो छेद वहीं पर होगया फिर छिन्ननाल गर्भ दूसरी जगहँ क्योंकर बढ़ सकता है ? जैसे जिस फलका बंधन एक जगहँ छिन्न होजाता है फिर वह दूसरी जगह नहीं बढ़ सकता । किन्तु उसी समय नष्ट होजाता है। कदाचित कहो कि जैसे ही दूसरी जगहँ भी रोपी हुई वृद्धिको प्राप्त होती है तो गर्म क्योंकर नहिं बढ़ सकता १ परन्तु यह कहना भी ठीक नहि है क्योंकि लता तो माता के समान होती है और सुत फलके समान होता है । कदाचित फिर
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भी कहो कि माताके सम्बन्धसे गर्भ दूसरी जगह रख दिया गया तो गर्मका क्या बिगड़ा १ बिगड़ा तो कुछ नहिं परन्तु यही दुःख होता है कि तुम्हारे सदोप वचन विचारे सत्पुरुषोंको संताप उत्पन्न करते हैं । इसी तरहसे श्वेताम्बरी लोग नाना प्रकार के मिध्या
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१३५ ॥
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एवं बहुविविः संनयम ना
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भद्रबाहु चरित्र
बचनोंसे शास्त्रोंकी कल्पना करते हैं और विचारे मूर्ख लोगों को संशय में डालते हैं । इसके कुछ दिनों बाद यही मत सांशयिक कहलाने लगा । इसीप्रकार अपने कपोल कल्पित मार्गर्मे ये दुराग्रही लोग रहते हैं ॥२५-३४॥ इन्हींके भक्त जो लोकपाल तथा चित्रलेखा रानी थी । उनके सुवर्णकी तरह कान्तिकी धारक तथा अपने सुन्दर रूपसे देवाङ्गनाओं को भी जीतने वाली मनोहर लक्षणोंसे शोभित नूकुलदेवी नामकी बाला हुई । सो उसने उन गुरुओंके समीप अनेक शास्त्र पढ़े | और फिर क्रम २ से युवा लोगोंको अत्यन्त प्रिय मनोहर तरुण अवस्थाको प्राप्त हुई ।
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धनसे परिपूर्ण एक करहाटाक्ष नामका नगर है। अनिवार्य पराक्रमका धारक भूपाल नामका उसका राजा है। उसने उस सुन्दर शरीरकी धारक नूकुलदेवीके साथ अपना विवाह किया । नृकुलदेवी भी पूर्व पुण्य कर्मके उदयसे और सर्व रानियों में प्रधान पट्टरानी हुई
॥ १३३ ॥ ततः सांशयिकं नातं मतं धवलवाससाम् । एवं स्वकल्पिते मार्गे वर्तन्ते ते दुराशयाः ॥ १३४ ॥ तद्भकलोकपालाख्यमहीक्षिचित्रलेजयोः सुता नकुलदेव्याख्या बसून भरलक्षणा ॥ १३५ ॥ अध्येष्टाऽनेकशास्त्राणि सनीडे स्वगुरांस्तु सा । कळाकुलकनत्कान्ती रूपापास्तराना ॥ १३६ ॥ अवाप तारखाग्यं सारथ्योस्तनृप्रियम् । अथास्ति करहाटाक्षं गं द्रविणसंसृतम् ॥ १३७ ॥ तच्छास्ताऽशर्य पर्योऽभूद्र भूपो भूपालनाम भाकू । कन्यां तां कमनीयाङ्गीं प्रमोदात्परिणीतवान् ॥ १३८ ॥
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समूटभाषानुवाद और यह भूपाल भूपति भी उसके साथ नानाप्रकारके भोगोंको भोगने लगा ॥ ३५-३९ ॥
किसी दिन रानीने सुअवसर पाकर स्वामीसे प्रार्थना की कि-प्राणप्रिय ! मेरे पिताजीके नगरमें मेरे गुरु हैं। उन्हें धर्म प्रभावनाके लिये आप भक्तिपूर्वक बुलाईये । राजाने रानीके बचन सुनकर उसी समय अपने बुद्धिसागर मन्त्रीको बुलाया और उन्हें सत्कार पूर्वक लाने के लिये उसे करहाटाक्ष पुर भेजा । मन्त्री मी उनके पास गया और अत्यन्त विनयपूर्वक नमस्कार कर तथा बार २ प्रार्थना कर उन्हें अपने पुरमें लिवा लाया। राजाने जब उनका आगमन सुनातो बहुत आनन्दित हुआ और बड़े भारी आनन्दपूर्वक उनकी वन्दना करने के लिये चला । परन्तु दूरसे ही जब उन्हें देखें तो आचर्य युक्त हो विचारने लगा- अहो ! निम्रन्यता रहित यह दण्ड पात्रादि सहित सामान्सनराजापु गुम्या पुस्पपिपात मामा figurasi lars. मतिमदासमयसमा महतो ETAEET पुरुषAPE पुरे | | बानादयन मान्ममा रमपमानित feree कागदाहलामासमश्या 14 मारनामस! भासालामा गुरु मन्या प्रमाण मान मिनमानयर । नियामनं गला इमाम सापना गुस्न । इगदान गमगारा rat निन्दनानि नारनं मम्मान पुन हसाला
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भवान्धरित्र नवीन मत कौन है। इनके पास मेरा जाना योग्य नहीं: है। ऐसा कहकर उसी समय वहाँसे अपने महलकी
ओर लौट गया और जाकर अपनी कान्तासे कहाखोटे मार्गके चलानेवाले, जिनः भगवानके शासन: विरह मतके धारण करने वाले तथा परिग्रह रूप पिशाचके वशवति ये ही तुम्हारे गुरु हैं ? मैं उन्हें कमी नहीं मानूंगा ! वह राजाका आशय समझ कर उसी समय गुरुके पास गई और विनय विनीत मस्तकसे नमस्कार कर प्रार्थना करने लगी 180-94 , . भगवन ! मेरे भाग्रहसे आप सब परिग्रह छोड़कर पहले ग्रहण की हुई देवताओंसे पूजनीय: तथा पवित्र निम्रन्थ अवस्था ग्रहण कीजिये । उन. सब श्वेताम्बर साधुओंने रानीके बचन सुनकर उसी समय वस्त्रादि सब परिग्रह छोड़ दिया । और हाथमें: कमण्डल तथा पीछी लेकर जिन भगवानकी दिग'म्बरी दीक्षा अङ्गीकार की। फिर राजा भी उनके सन्मुख ||१४५॥ न्याय भूपतितसादागल निजमन्दिरम् । भाषते स महादेवी गुरवस्खे. कमार्गगाः ॥ १४६ ॥ बिनोवितबहिर्भूतदर्शनाभितवृत्तयः । परिमहप्रहमास्वत्रता-: मन्यामहे वयम् ॥ १४ ॥ बा-तु मनोगतं राशो शात्वाऽगादारुसनिधिम् ॥ नत्वा । विज्ञापयामास, विनयानतमस्तका ||. १४८ ॥ भगवन्मदामहादान्या गृहीतामरमिसम् निन्धपदवीं पता हिला सामुदायिकम् ॥१४९ ॥ उररीकृय के, रामा वचनं बिदुवार्धितम् । तत्यजुः सकलं सई वसनादिकमनसा ॥ १५॥ करे. कमळ छत्वा पिच्छिक च जिनोदिताम् । चमहुर्जिनमव से पलाशधारिणः,
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समूलभापानुपा गया और अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपने नगरमें उन्हें लिया लाया ॥ ४९-५२ ॥
उस समय राजादिके द्वारा सत्कार किये हुये तथा पूजे हुये वे साधुलोग दिगम्बरका व धारणकर श्वेताम्बर मतके अनुसार आचरण करने लगे ॥५३-५६॥ गुरुपदेशके बिना नटके समान उपहासका कारण लिङ्ग धारण किया। और फिर कितने दिनों बाद इन्हीं कुमा. गियोंसे यापनीय सङ्घ निकला।
फिर इसी मिथ्यात्व मोहसे मलीन श्वेताम्बर मतमे शुभ कार्यसे पराङ्मुख कितनेही मत प्रचलित होगये। उनमें कितनेतो अहंकारके वशसे; कितने अपने आप आचरण धारण करनेसे, कितने अपने र आश्रयके भेदसे तथा कितने खोटे कर्मके उदयसे निकले । इसी तरह अनेक मतोंका समाविर्भाव होगया ।
औरभी सुनो॥ १५॥ विशतिलसो गापामगुन मात्रमा | RAITTER. पानमानगत् ११५ मागिन मापामा माeart finis समाना गिनाममाम् ॥ १५१ || Raineri PrazTRETERI को मापनमभूगर कापनाम I
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भद्रबाहु-चरित्र
महाराज विक्रमकी मृत्युके १५२७ वर्ष बाद धर्मकर्मका सर्वथा नाश करने वाला एक लुंकामत (ढूँढियामत) प्रगट हुआ । उसीकी विशेष व्यवस्थायों है—
९०
अपनी अलौकिक विद्वत्तासे देवताओं को भी पराजित करने वाले गुर्जर (गुजरात) देशमें अणहल नाम नगर है । उसमें प्राग्वाट ( कुलम्बी ) कुलमें लुंका नामका धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस पापी दुष्टात्मा ने कुपित होकर तीव्र मिध्यात्वके उदयसे खोटे परिणामोंके द्वारा लुंकामत चलाया । और जिन सूर्यसे प्रतिकूल होकर - देवताओंसे भी पूज्यनीय जिन प्रतिमा, उसकी पूजा तथा पवित्र दानादि सब कर्म उठा दिये
॥७५-६१॥
उस मतमे भी कलिकालका बल पाकर अनेक भेद होगये सो ठीक ही है कि- दुष्ट लोग क्यार नहीं करते हैं ? । अहो ! देखो ! मोहरूप अंधकारसे ये लोग स्वयं भी आच्छादित हुये और इन्हीं पापी लोगोंने
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लङ्कामतमभूदेकं लोपर्क धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिजरे ॥ १५८ अगलिपत्तने रम्ये प्राग्वाट कुनोऽभवत् । लुङ्ाऽभिषो महामानी शुक्राश्रयी ॥ १५९ ॥ दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपितः पापमण्डितः । तीब्रमिध्यात्वपाकेन छामरामकल्पयत् ॥ १६० ॥ सुरेन्द्रार्थी जिनेन्द्रार्चा तत्पूजां दानमुतमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतीपो जिनसूत्रतः ॥ १६१ ॥ तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदाः समाश्रिताः । कलिकालवलं प्राप्य दुष्टाः किं किं न कुर्वते ॥ १६२॥
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समूटमापानुवाद जिन भगवानका निर्मल शासन भी कलङ्कित किया। परंतु मुखाभिलापी बुद्धिमानोको इस लुकामतमें प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात् इसे ग्रहण नहीं करना चाहिये। किन्तु उन्हें अपनाही मत ग्रहण करना उचित है। क्योंकि कर्दमसे (कीचडस) लिप्त महामणिको कीन ग्रहण नहीं करता है ? किन्तु सभी करते हैं । अरे! निःशक्त (जत तथा सम्यक्त्व रहित) पुरुषों के दोषसे क्या धर्म भी कभी मलीन हो सकता है ? किन्तु नहीं हो सकता।सो ठीक है-मंढकके मरनेसे समुद्र कहीं दुर्गधित नहीं होता । इसी तरह सब मतोंमें सार देखकर सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको अपनी बुद्धि सर्वज्ञ भगवानके दिखाये हुये मार्गमें लगानी चाहिये ॥६२-६६|| ___ अब उपसंहार करते हुये आचार्य कहते हैं कि जो वस्त्र रहित होकर भी सुन्दर है, अलङ्कारादि विहीन होकर भी देदीप्यमान है तथा जो क्षुधा तृपादि अठारह दोषोंसे रहित है वही तो वास्तव में देव कहलाने योग्य
महमा मितीय पाहायलम: नाममागोमा RETREETTE
Hain प्रमापति REE Kiv ARE MARK पूति एमना मन्तिः मिदमोEिERICA 16
gisपो मानि परिमATE SAME TARA सदर्शनाः नि म firistia | RATE निरागरसभामा पनि मामा मामी: शुभारमा taar
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भद्रवाहु-चरित्र है और शेष क्षुधादि सहित कभी देव नहीं कहे जासकते ॥ ६७ ॥ उसी जिन भगवानके मुख-चन्द्रसे विनिर्गत स्याहादरूप अमृतसे पूरित तथा परस्पर विरुद्धता रहित जो शास्त्र है वही तो शास्त्र है और दूसरे लोगोंके द्वारा कहा हुआ शास्त्र नहीं होसकता ॥६॥
और जो नानाप्रकारके ग्रन्थ (शास्त्र) सहित होकर भी निथ (परिग्रह रहित) हैं. तथा जो सम्यम्दर्शन सम्यज्ञान सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयसे विराजित हैं वेही यथार्थमें गुरु हैं और जो धनादिसे पराभिमृत हैं वे गुरु-नहीं होसकते ॥६९॥ इसलिये बुद्धिमानोंको दूसरी ओरसे बुद्धि हटाकर सत्यार्थ देव, शास्त्र, गुरुके श्रद्धानमें उसे लगानी उचित है । और सप्त तलोंका निश्चय करके उत्तम सम्यक्त्व स्वीकार करना चाहिये ॥७०॥ . . अन्तमें ग्रन्थकार कहते हैं कि-श्रेणिक महाराजके ' प्रश्न के उत्तरमें जैसाश्री वीजिनेन्द्रिने भद्रबाहु चरित्रका वर्णन किया था उसी तरह जिन शास्त्र के द्वारा समझकर "मैंने भी श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीका चरित्र लिखा है।।७१॥ मनेन्दुसम्भूतं स्याहामृतमितम् । विरुद्धतागितं शाँवं शस्यते नान्यजल्पितम् ॥ १६ ॥ निप्रेन्यो प्रन्ययुजोऽपि मात्रितयराजितः । उहिरन्ति गुरुं रम्यं वमन्यं नैव प्रन्थिलम् ॥ १६९ ॥ श्रद्धातव्यं त्रयं चेति हित्वान्यमतदुमतिम् । सपा निखिल सत्लानि प्राय सम्यक्त्वमुत्तमम् ॥९७० ॥ श्रेणिकानतोऽबोचाया वीरजिनधरः। तबोदिल मयात्रापि शाला.श्रीजिनसूत्रतः ॥ ११॥ . .. . '.
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सगूलभाषानुवाद
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जिसका अवतार स्वर्ग समान मनोहर कोटपुरमें हुआ है, जो शोमशर्म तथा श्रीमती सोमश्रका अनेक गुणोंका धारक पुत्र ग्न है, जिसने गांवई नाचार्य सरी महात्माका आश्रय लेकर निर्मलज्ञान रूपी वाकर तिर लिया है वे श्रीभद्रबाहु महर्षि मेरे हृदय में प्रकाश करें।
जो स्नेह (राग) का नाश कर देनसे यद्यपि आभरणादिसे विरहित हैं तौभी बहुत ही सुन्दर है, जो वेद्यनीय कर्म के अभाव हो जानेसे यद्यपि निराहार है तौभी निरन्तर सन्तुष्ट है, जो काम रूप प्रचण्ड हाथीका नाश करने के लिये केशरी गिना जाता है और जो इन्द्रिय रूप काननके जलानेके लिये चह्नि कहा जाता है उसी जिनराजकी मैं सप्रेम स्तुति करता हूं वह इसी - लिये कि वे मुझे मनोमिलपित सुख वितीर्ण करें ।
यः श्रीकोटपुरे दितामरपुरे मामादादरः मोमश्रियां गदाम | मनपरि महा॥१॥
नाम: -
महाम
निदे
G
Arata
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भावाहु-परिन- .. ___ सम्यग्दर्शन जिसका मूल कहा जाता है, जो श्रुत सलिलसे अभिसिंचित किया गया है, उत्तम चारित्रका, अहण जिसकी शाखायें मानी जाती हैं, जो सुन्दर २ गुणोंसे विराजित है और जिसमें इच्छानुसार फल प्रदान करनेकी अचिन्त्य प्रभुत्वता है तो फिर आप लोग उसी धर्म रूप मन्दारतरुका क्यों न आश्रय करें ?
ग्रन्थकर्ताका परिचय - जो प्रतिवादी रूप गजराजके मदका प्रमर्दन करनेके लिये केशरीकी उपमासे विराजित हैं, जिन्हें शीलपीयूषका जलधि कहते हैं और जिसने उज्वल कीर्चिसुन्दरीका आलिङ्गन किया है उन्हीं अनन्त कीर्ति आचायके विनय और अपने शिक्षा गुरु श्रीललितकी. मुनिराजका ध्यान करके मैने इस निर्दोष चरित्रका सङ्कनल किया है।
सदधिमूलं भूततायसिकं सुवृत्तवास प्राणोद्गुणाव्यम् ।। बर्व सदाऽमोटफलप्रदाने भो धर्मदेवडममायन्यन्तु ॥ पादीमेन्द्रमाप्रमईनहरे, शीलामृताम्मोनिषः ।
शिष्य श्रीमदनन्तकोलिंगणिनः सस्कार्तिकान्तानुषः । स्मृता श्रीललितादिकीर्तिमुनिपं शिक्षापूर सद्गुर्ण
चके वारुचरित्रमेतदनपं प्लादिनन्दी मुनिः ॥१५॥
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समूलमाषानुवाद यदि परमार्थसे देखाजाय तो मुझ सरीखे मन्द बुद्रियोंके लिये भद्रबाहु सरीखे महात्माओंका वृत्तान्त लिखना बहुतही कठिन था तोमी श्रीहीरकमवाल ब्रह्मचारीके अनुरोधसे थोड़ेमें लिखा ही गया । यह मेरा सौभाग्य है। __ मैंने जो यह चरित्र लिखा है वह केवल इसी लिये कि वेताम्बर लोग वास्तविक स्वरूप समझ जाय।
आप लोग यह कभी खयाल न करें कि मैंने अपने पाण्डिसकं अभिमानसे इसे बनाया हो । इति श्रीरवकीर्ति आचार्य निर्मित श्रीभद्रबाहु चरित्र अभिनव हिन्दीमापानुवादमें पताम्बरमती उत्पत्ति _तया आपलीसहकी उत्पत्तिके वर्णन वाला
चतुर्य अधिकार समाम हुआ था
मददीबरित यपपिया कपम् । तपाप्पा लोकाinrne turn সুনীলমবি সনা।
परवमिम न निगम::l इति श्रीधानमन्यायाविरचित मद्रमाहुरिने पताम्यरमनपाया. पलीसंघोत्पतिवणना नाम पतुधिER: HRIRECH
समाis su
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- अनुवादकका परिचय. . श्रीवेश्यवंश-अवतंस ! जिनेन्द्रभक्त ! 'शान्तस्वभाव ! सब दोष-कलङ्क-मुक्त। हीराविचन्द शुभ नाम विराजमान !
हे पूज्यपाद ! तुव पाद. करौं प्रणाम ॥१॥ हा तात ! पापविधिका नहिं है ठिकाना . जो आपके अब सुदर्शनका न होना।
हा ! मन्दभाग्य मुझको दुखमें दुबोके ___ मो भी हुई सुपथगामिनि आपहीके ॥२॥ . आधार तात ! अब है नहिं कोई मेरा
हा ! और संसृति-निवास बचा धनेरा । कैसे दुखी उदय जीवन पूर्ण होगा? हा! कर्मके उदयको किसने न भोगा? ॥श
. जिनेन्द्रसे प्रार्थना हे देव ! देख जगमें अवलम्ब हीन : '.
आलम्ब देकर करौ अध-कर्म हीन । संसार-नीरनिधि, अब छोड़ दोगे .'
तो दासका कठिन शाप विभो ! लहोगे ॥४॥ १-मा, जननी और लक्ष्मी इन दोनौका बाचक है । हमारी माताका लक्ष्मी था।
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निवेदन।
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पाठक महाशय
भदवाहु-चरित्र आपकी सेवामें उपस्थित करते हैं यह ग्रन्थ कितने महत्वका है वह इसके पढ़नेसे खयं अनुभव हो जायगा । इस ग्रन्थको श्रीरबनन्दी सरिने बनाकर जैन जातिका बड़ा भारी उपकार किया है। ऐसे २ अमूल्य । रनोंकी आनभी जैनियों में कमी नहीं है। कमी है केवल आपके पुरुषार्थ की । सौं हम प्रार्थना करते हैं कि यदि । आप जैन समाजका हृदयसे भला चाहते हैं तो उन रखोंको । अन्धेरैमैसे निकाल कर उजेलेमें लाइये। और तभी हमारा जैनधर्म पाना- सार्थक होगा जब हम अपने पूर्वनोंकी..
कीर्तिका विस्तार दिगदिगन्तमें करने की चेष्टा करेंगे। * . . इस रत्नके अलावा-. . . .
भावसंग्रह ( धामदेव) . . .. सप्तव्यसन-चरित्र ( सोमसेन )
वर्द्धमान पुराण ( सकल-कीर्ति ).. . . “धन्यकुमार-चरित्र ( सकलकीर्ति) .. र ये ग्रन्थ तयार होरहे हैं। इन्हें हम जल्दी ही आपकी ! सेवाग्रे उपस्थित करेंगे।
बद्रीप्रसाद जैन
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भवदीय
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बनारस सिटी
एम
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