Book Title: Baras Anupekkha
Author(s): Kundkundacharya, Vidyasagar, Chunilal Desai, Atmanandji Maharaj Maharaj
Publisher: Satshrut Sadhna Kendra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 UUUUUUUU 10000 श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचिता बारस अणुवेक्खा 事 श्री सत्श्रुत-सेवा-साधना केन्द्र श्रीमद राजचंद्र आध्यात्मिक साधना केन्द्र कोबा - ३८२००९ ( जिला गांधीनगर) गुजरात Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAING समर्पण OF संसार समुद्रका किनारा जिनका सन्निकट है, जिनके अन्तःस्तलमें सातिशय विवेकज्योति प्रकट हुई है, समस्त एकान्तवादरूप अविद्याका अभिनिवेश जिनका अस्त हुआ है, पारमेश्वरी अनेकांत-विद्याके जो पारगामी हैं, समस्त पक्षपरिग्रहसे मुक्त हो जानेसे जो अत्यन्त मध्यस्थ हैं, सर्व पुरुषार्थोमें सारभूतपना होनेसे आत्माके लिए अत्यन्त उत्कृष्ट, परम हितरूप, भगवान पंचपरमेष्ठीके प्रसादसे उपजन्य परमार्थसत्य अविनाशी मोक्षलक्ष्मीको जिन्होंने उपादेयरूप निश्चित किया है ऐसे सातिशय भेदविज्ञानी, अध्यात्मविद्याविशारद, युगप्रधान, अप्रमत्त योगीश्वर श्री कुन्दकुन्द आचार्यके अति पावन चरणोंमें यह ग्रन्थ सादर समर्पित है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-द्विसहस्राब्दि वर्षके उपलक्षमें प्रकाशित भगवद् आचार्य कुन्दकुन्दविरचिता बारस अणुवेक्खा ( द्वादश अनुप्रेक्षा ) हिन्दी पद्यानुवाद : आचार्यश्री विद्यासागरजी गुजराती पद्यानुवाद : ब्र.श्री चुनीलालजी देसाई (राजकोट) श्रद्धेय श्री आत्मानन्दजी (कोबा) प्रकाशक श्री सत्श्रुत-सेवा-साधना केन्द्र मुख्य स्थल : श्रीमद् राजचन्द आध्यात्मिक साधना केन्द्र कोबा - ३८२ ००९ जि. गांधीनगर (गुजरात) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान : श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्मिक साधना केन्द्र, कोबा- ३८२ ००९ (जि. गांधीनगर) गुजरात फोन : ०२७१२-२२९५८ प्रथमावृत्ति २००० वि.सं. २०४५, वीर.नि.सं. २५१५. ईस्वी सन् १९८९ मूल्य : पांच रुपये मुद्रक : राकेश के देसाई चन्द्रिका प्रिन्टरी लेसर टाइपसेटिंग युनिट मिरझापुर रोड अहमदाबाद – ३८० ००१ फोन - २०५७८, २४१८८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमत्त योगीश्वर आचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्ममंगल मुनिदीक्षा : अध्यात्मयुगप्रवर्तक आचार्य श्री कुन्दकुन्द वीर नि.सं.५१४, ईसुकी प्रथम शताब्दीमें अनन्तपुर जिले (आन्ध्रप्रदेश) के गुण्टूकल स्टेशनसे लगभग चार मील दूर कोण्डकुण्डमें जन्मे। वीर नि.सं. ५२५, जिनशासनकी प्रभावना एवं आध्यात्मिक क्रान्तिकी जन्मघूटी पीकर, उसे साकार करने हेतु मात्र ११ वर्षकी आयुमें ही मुनिव्रत अंगीकार किये। : आचार्यपद : वीर नि.सं. ५५८, सातिशय ज्ञान, उत्तम संयम और सर्वतोमुखी प्रतिभा के बलसे केवल ४४ वर्षकी आयुमें आचार्यपदकी गरिमा एवं दायित्वका अनदेखा निवर्हन । स्वर्गारोहण साहित्यनिर्माणःः आचार्यश्री मूलसंघके अग्रणी हुए एवं भगवान महावीरके जगहितकारी उपदेशको सूत्रबद्ध किया । तत्कालीन जनभाषा प्राकृतमें लगभग चौरासी पाहुडोंका प्रणयन। जिनमें समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड, रयणसार, बारस अणुवेक्खा आदि प्रमुख तथा उपलब्ध ग्रन्थ हैं। विश्रुति है कि परिकर्म' नामक विशालकाय ग्रन्थके प्रणेता भी आप ही हैं। विश्वप्रसिद्ध 'कुरलकाव्य की रचना भी आपकी मानी जाती है। अपूर्व प्रभाव : पश्चाद्वर्ती सभी आचार्यों पर कुन्दकुन्दका अमिट प्रभाव रहा है। आ. अमृतचन्द्र, आ. जयसेन, आ. पद्मप्रभमलधारिदेव, आ. देवसेन आदि सभी प्रभावशाली आचार्योंने उनका अनुसरण किया है। : वीर नि.सं. ६०९, करीब ९५ सालकी उम्र में, कुन्दादि पर्वत (कर्णाटक) । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सच्चे ज्ञान और वैराग्यके माध्यमसे देहदेवलमें स्थित आत्माके विकासको सिद्ध करके शाश्वत अतीन्द्रिय आनंदको प्राप्त करनेकी परम्परा हमारे देशमें अति प्राचीन कालसे सुचारु रीतिसे चली आयी है । तीर्थकरोने, ऋषि-मुनियोंने और संतोने इसी मार्ग पर चलकर जीवनके चरम लक्ष्य को सिद्ध करनेका दिव्य, महान, आश्चर्यकारक एवं अनुपम पराक्रम किया है। उन्हींके द्वारा दिग्दर्शित पावन पथ पर चलकर आज भी साधकगण अपने जीवनको दिव्य ज्ञान और अतीन्द्रिय आनंदकी ओर अग्रेसर कर रहे हैं। वैराग्यभावकी उत्पत्ति, संरक्षण एवं संवर्धनको लक्ष्यमें रखकर श्रमण परम्परामें बारह भावनाओंका बहुत बड़ा महत्त्व है। प्राग्-ऐतिहासिक कालसे लेकर प्राचीनयुगमें, मध्ययुगमें एवं अर्वाचीन युगमें महान आचार्योने, सन्त-ज्ञानी पुरुषोंने एवं विद्वानोंने कोडीबद्ध उत्तम रचनाएं गद्य-पद्य मय शैलीमें की है । दोनों आम्नायोंके आगम-ग्रन्थोंमें, तत्वार्थसूत्रकी सभी मुख्य टीकाओंमें, मध्ययुगीन आचार्योंके ग्रन्थोंमें, पूजाग्रन्थोंकी जयमालाओंमें तथा अर्वाचीन युगमें प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और प्रान्तीय भाषाओंमें लिखित रचनाओंकी संख्या एक शतकसे भी अधिक होगी। मूलग्रन्थोंके भागरूप होनेसे बारह भावनाएं ऐसे तो प्रचुर मात्रामें पढी जाती हैं फिर भी पृथकरूपसे पढी जानेवाली और विशेष प्रचलित एवं लोकप्रिय रचनाएं श्री स्वामिकार्तिकेयकी, श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी, श्री उमास्वातिके प्रशमरतिप्रकरणकी, श्री विनयविजयजीकी एवं पंडित भूधरदासजीकी रही हैं। प्रस्तुत पुस्तिकामें आचार्यप्रवर, अध्यात्मविद्याविशारद श्री कुन्दकुन्दस्वामीकी रची हुई बारह भावनाओंको प्रस्तुत कर रहे हैं। उन महापुरुषका मानवमात्र | पर महान उपकार है, क्योंकि शाश्वत आनन्दकी प्राप्तिका मार्ग उन्होंने अपनी अनुभव वाणीसे हम सबके सामने प्रस्तुत किया है। उनकी २००० वीं जन्मजयन्तिमहोत्सवके उपलक्ष्यमें उनकी यह कृति उन्हींके पावन चरणकमलोंमें समर्पित करते हैं। इस लघुकृतिमें प्रत्येक पृष्ठ पर एक एक गाथा अवतरित की है। सबसे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर मूल गाथा और बादमें हिन्दी पद्यानुवाद, गुजराती पद्यानुवाद, हिन्दी गद्यानुवाद एवं गुजराती गद्यानुवाद ऐसा अनुक्रम रक्खा है। हिन्दी पद्यानुवाद पूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज रचित है, जबकि गुजराती पद्यानुवादकी रचना लेखकद्वय ब्र. श्री चुनीलालजी देसाई एवं श्रद्धेय श्री आत्मानंदजी की हैं। इनमें हरिगीत छंद के रचयिता स्व.ब्र. श्री चुनीलालजी (राजकोट) और 'वसंततिलका के रचयिता इस प्रकाशक-संस्था के प्रेरक एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रद्धेय श्री आत्मानन्दजी (डो. सोनेजी) हैं। गुजराती गद्यानुवाद ब्र.श्री चुनीलालजी एवं श्री प्रकाशभाई शाह ने किया है। मूल ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय, जैसा कि उसके नामसे ही विदित होता है, वैराग्य है। यह वैराग्यका विषय जगतके समस्त साधकोंको अभिप्रेत है क्योंकि विवेकज्ञान/आत्मज्ञान/सम्यकत्व की उत्पत्ति उसके बिना संभव नहीं है। एक और विशेषता इस ग्रन्थकी यह है कि उसमें कोरा वैराग्य प्रतिपादित नहीं किया गया है। यद्यपि इस ग्रन्थकी उद्भूति एक महा वैराग्यवान् युगपुरुषसे हुई है, फिर भी उसमें जगह जगह वैराग्यरूप साधनसे प्राप्त करने योग्य शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यघन-आनंदघन स्वभाववाला जो आत्म-तत्त्व, उसकी ओर लक्ष करनेकी, उसको ध्यानमें रखनेकी और उसीके साक्षात्कारके उद्यममें जागृत रहनेकी आज्ञा दी गई है, ताकि वैराग्यका सच्चा फल भी आत्माके अतीन्द्रिय आनन्दको प्राप्त करना ही है - यह द्रष्टि छूटने न पावे। हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रकाशक संस्थाकी नीतिके अनुरूप प्रगट हुई इस कृतिको पाठक-अभ्यासी-विद्वान-त्यागीगण स्वागत करेंगे और पुस्तकमें जो कुछ भी क्षतियां मालूम पडें तो उसकी ओर भी अंगुलिनिर्देश करेंगे जिससे कि अगले संस्करणमें उनको सुधारा जा सके। ऐसी भी भावना है कि अभी तक हमारे प्रकाशन (कुल संख्या लगभग २५), जो मुख्यरूपसे गुजराती माध्यमसे प्रकट हुए हैं, उनमें हिन्दी एवं अंग्रेजी प्रकाशन भी सम्मलित होंगे जिससे कि स्व-पर जीवनके बहुलक्षी विकासमें उपयोगी ये प्रकाशन विशाल पाठकगण तक सरलतासे पहुंच सकें। पूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराजने उनकी कृतिको प्रकाशित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेकी हमें सम्मति दी, अतः हम उनके ऋणी हैं। संस्थाके प्रकाशनोंमें जिनका हार्दिक सहयोग हमेशा रहेता है ऐसे ब्र.श्री प्रकाशभाई डी. शाहने इस कृतिको प्रकाशित करनेमें काफी प्रेम-परिश्रम किया है, इस विशिष्ट सहयोगके लिए हम सधन्यवाद उनके आभारी हैं। बहनश्री बिन्दबहेन पारेखने भी इस ग्रन्थके प्रकाशनमें अच्छा सहयोग दिया है, अतः हम उनके भी आभारी हैं। आशा है कि आगेके प्रकाशनोंमें भी वे ऐसे ही सक्रिय रहकर अपने ज्ञानार्जनकी एवं साहित्यरुचिकी वृद्धि करेंगे। ग्रन्थके प्रकाशनमें श्रीमती मुक्ताबहेन पारेख हस्ते. उषाबहेनबिन्दुबहेन- नयनाबहेन पारेख (राजकोट), श्रीमती शान्ताबहेन डी. शाह हस्ते. श्री प्रकाशभाई एवं श्री प्रकाशभाई एस.शाह (गांधीनगर) का आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। __ ग्रन्थका लेसर कम्पोझिंग कार्य बडी तत्परता से श्री राकेशभाई, चन्द्रिका प्रिन्टरीवालोंने किया है, अतः वे धन्यवादके पात्र हैं। प्रूफरीडींगके कार्यमें श्री बाबुलाल सिद्वसेन जैन ने जो सहयोग दिया है, उसके लिए हम उनके आभारी अन्तमें अभ्यासी और साधकसमुदाय इस उत्तम ग्रन्थका अध्ययनअध्यापन करके स्व-पर कल्याणमें लगेंगे ऐसी भावनासहित, अध्यात्मसाधकोंकी सेवामें तत्पर, ग्रन्थ प्रकाशन समिति, श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्मिक साधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर (गुजरात) * विषय-सूचि * १. अनित्यभावना ८ ७. अशुचिभावना ४८ २, अशरणभावना १३ ८. आम्रवभावना ५२ ३. एकत्वभावना १९ ९. संवरभावना ६६ ४. अन्यत्वभावना २६ १०. निर्जराभावना ७१ ५. संसारभावना २९ ११. धमभावना ७३ ६. लोकभावना ४४ १२. बोधिदुर्लभभावना ८८ M Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचिता बारस अणुवेक्खा ( द्वादशानुप्रेक्षा ) णमिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे । दस दस दो दो य जिणे दस दो अणुपेहणं वोच्छे॥१॥ मंगलाचरण प्रतिज्ञावाक्य वसंततिलका उत्कृष्ट ध्यान बलसे भव बंध तोडा, वे सिद्ध, ढोक उनको द्वय हाथ जोडा । चौबीस तीर्थकरकी कर वंदना मैं, पश्चात् कहूं सुखद द्वादश भावनाएं ।। १ ।। (पसं:15t) ઉત્કૃષ્ટ ધ્યાનબળથી અવધ તોડી, સિદ્ધિ વર્યા વંદુ હું યહાથ જોડી. ચોવીશ તીર્થપતિને કરું છું પ્રણામ, પશ્ચાદ્દ કહું છું ભાવના સુખકાર બાર. ૧ अर्थ- अपने परमशुक्ल ध्यानसे अनादि अनंत संसारको क्षय करनेवाले सम्पूर्ण सिद्धोंको तथा चौबीस तीर्थंकरोंको नमस्कार करके मैं बारह भावनाओंका स्वरूप कहता हूं। પરમશુક્લ ધાનથી અનાદિ અનંત સંસારનો ક્ષય કરવાવાળા સર્વ સિદ્ધ-ભગવંતોને તથા ચૌવીસ તીર્થંકરોને નમસ્કાર કરીને હું બાર ભાવનાનું સ્વરૂપ કહું ६ बारस अणुवेक्खा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह अनुप्रेक्षाओंके नाम अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णसंसार लोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोहिं च चिंतेज्जो ॥ २ ॥ संसार, लोक, वृष, आम्रव, निर्जरा है, अन्यत्व औ अशुचि, अध्रुव, संवरा है । एकत्व औ अशरणा अवबोधना ये, भावे सुधी सतत द्वादश भावनाएं || २ || संसार, लोड, वृष, खास्रव, निर्जरा छे, અન્યત્વ ને અશુચિ અવ સંવરા છે, એકત્વ ને અશરણા અવબોધના જે, આ બાર ભાવનાને સુધી નિત્ય ભાવે. ર अर्थ - अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आम्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ इन बारह भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिये । खनित्य, खशराएर, खेडत्व, अन्यत्व, संसार, बोड, अशुयित्व, खासव संवर, નિર્જરા, ધર્મ અને બોધિદુર્લભ આ બાર ભાવનાઓનું ચિન્તવન કરવું જોઇએ. बारस अणुवेक्खा ७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अनित्यभावना वरभवणजाणवाहणसयणासण देवमणुवरायाणं । मादुपिदुसजणभिच्चसंबंधिणो य पिदिवियाणिच्चा || ३ || सर्वोत्तमा भवन वाहन यान सारे, ये आसनादि शयनादिक प्राण प्यारे । माता पिता स्वजन सेवक दास दासी, राजा प्रजाजन सुरेश विनाश राशी ||३|| (हरिगीत) મનુ દેવ રાજનના મહેલ રથ શયન આસન વાહનો, માતા પિતા સ્ત્રી સ્વજન દાસ અનિત્ય સર્વ સંબંધીઓ. ૩ अर्थ- देवताओंके, मनुष्योंके और राजाओंके सुन्दर महल, यान, वाहन, सेज, आसन, माता, पिता, कुटुम्बीजन, सेवक, सम्बन्धी ( रिश्तेदार) ओर काका आदि सब अनित्य हैं अर्थात् ये कोई सदा रहेनेवाले नहीं हैं। भवधि बीतनेपर सब अलग हो जावेंगे। देवताखो, मनुष्यो भने राभखोना सुन्दर भडेल, यान, वार्डन, सेन, खासन, માતા, પિતા, કુટુંબીજન, સેવક, સંબંધી અને કાકા વગેરે સર્વ અનિત્ય છે. અર્થાત્ આ કોઈ કાયમ ટકવાનાં નથી. સમય પૂરો થયે બધાં અલગ થઈ જશે. ८ बारस अणुवेक्खा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामग्गिंदियस्बं आरोग्गं जोवणं बलं तेजं । सोहग्गं लावण्णं सुरधणुमिव सस्सयं ण हवे ॥४॥ लावण्य-लाभ बल यौवन रूप प्यारा, सौभाग्य इन्द्रिय सतेज अनूप सारा । आरोग्य संग सबमें पल आयुवाले, हो नष्ट ज्यों सुरधनू बुध यों पुकारे ।।४।। ઇન્દ્ર ધનુ સમ ઇંદ્રિયો આરોગ્ય યૌવન બલપણું, સૌભાગ્યને સૌંદર્ય કાંતિ કોઈ નહિ શાશ્વત કહ્યું : अर्थ- जिस तरहसे आकाशमें प्रगट होनेवाला इन्द्रधनुष् थोडी ही देर | दिखलाई देकर फिर नहीं रहता है, उसी प्रकारसे पांचों इन्द्रियोंका स्वरूप, आरोग्य ( निरोगता ) जोबन, बल, तेज, सौभाग्य और सौन्दर्य ( सुन्दरता ) सदा शाश्वत नहीं हैं। अर्थात् ये सब बातें निरन्तर एकसी नहीं रहती हैं- क्षणभंगुर हैं । જેવી રીતે આકાશમાં દેખાતું મેઘધનુષ્ય ઘોડી જ વારમાં દેખાઈને અદ્રશ્ય | otu ॐ, तेपी शत पाय ठन्द्रियोनु २१३५, २२२५, युपानी, 40, , सौ24 અને સુંદરતા કાયમ ટકતાં નથી. અર્થાત્ આ બધી જ વસ્તુઓ ક્ષણભંગુર છે. बारस अणुवेक्खा ९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलबुब्बुदसक्कधणूखणरुचिघणसोहमिव थिरं णं हवे । अहमिंदट्ठाणाई बलदेवप्यहुदिपज्जाया ||५|| हो के मिटे कि बलदेव नरेन्द्रका भी, नागेन्द्रका सुपद त्यों न सुरेन्द्रका भी । ये मेघ द्रश्य सम या जलके बबूले, विद्युत् सुरेश धनुसे नसते समूले ||५|| (वसंततिलडा) બનીને મટે છે બળદેવ નરેન્દ્રની પણ, નાગેન્દ્ર તેમજ સુરેશની પદવીઓ પણ, આ મેઘ જેમ વળી, પાણી તરંગ જેવા, આકાશ ચાપ વિજળી સમ નષ્ટ થાતાં. ૫ अर्थ - अहमिन्द्रोंकी पदवियां और बलदेव, नारायण, चक्रवर्ती आदिक. पर्यायें पानी के बुलबुलेके समान, इन्द्रधनुषकी शोभाके समान, बिजलीकी चमकके समान और बादलोंकी रंगबिरंगी शोभाके समान स्थिर नहीं है। अर्थात् थोडे ही समयमें नष्ट हो जानेवाली हैं । અહમિન્દ્રની પદવીઓ અને બલદેવ, નારાયણ, ચક્રવર્તીની પર્યાયો પાણીના પરપોટાની માફક, મેઘધનુષ્યની શોભા સમાન, વીજળીના ઝબકારા સમાન અને વાદળોની રંગબેરંગી શોભાની સમાન સ્થિર નથી. અર્થાત્ થોડા જ સમયમાં નષ્ટ थवावाजी छे. १० बारस अणुवेक्खा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्धं । भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥६॥ लो! क्षीर नीर सम मिश्रित, काय यों ही, जो जीवसे द्रढ बंधा नश जाय मोही । भोगोपभोग अघ-कारण द्रव्य सारे, कैसे भले ध्रुव रहें व्ययशील वाले ॥६।। જે ક્ષીરનીરવત્ એક સ્થળે રહે છે તે દેહ જીવ થઈ શીઘ જુદા બને છે ભોગોપભોગકરણ આ સૌ ભિન્ન દ્રવ્યો ક્ષણ જીવી જાણી રે રે! તો મોહ ભવ્યો: ૬ अर्थ- जब जीवसे अत्यंत संबंध रखनेवाला शरीर ही दूधमें मिले हुए पानीकी तरह शीघ्र नष्ट हो जाता है, तब भोग और उपभोगके कारण दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं? अभिप्राय यह है कि, पानीमें दूधकी तरह जीव और शरीर इस तरह मिलकर एकमेक हो रहे हैं कि जुदे नहीं मालूम पडते हैं। परंतु इतनी सघनतासे मिले हुए भी ये दोनों पदार्थ जब मृत्यु होनेपर अलग २ हो जाते हैं, तब संसारके भोग और उपभोगके पदार्थ जो शरीरसे प्रत्यक्ष ही जुदे तथा दूर हैं सदाकाल कैसे रह सकते हैं ? ક્ષીર નીરવત જીવનિબદ્ધ દેહ શીઘ નાશ પામે છે તો ભોગોપભોગના સાધન બીજા પદાર્થો કેવી રીતે નિત્ય હોઈ શકે? बारस अणुवेक्खा ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमट्ठेण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहिं | वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतये णिच्चं ॥७॥ है वस्तुतः नर सुरासुर वैभवोंसे, आत्मा रहा पृथक् भिन्न भवों भवोंसे । ऐसा करो सतत चिंतन, जी रहा है, आत्मा वही अमर शाश्वत ही रहा है || ७ || (हरिगीत) છે સુર અસુર નર ભૂપ વૈભવ ભિન આત્મસ્વરૂપથી; નિજ આત્મ શાશ્વત જ્ઞાનરૂપ નિત ધ્યાવવું પરમાર્થથી ૭ अर्थ- शुद्ध निश्चयनयसे ( यथार्थमें ) आत्माका स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिये कि, यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि विकल्पोंसे रहित है। अर्थात् इसमें देव दिक भेद नहीं हैं - ज्ञानस्वरूपमात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है। દેવ, અસુર, મનુષ્ય અને રાજાઓના વૈભવ આદિથી આત્માનું સ્વરૂપ સદા ભિન્ન છે, અને પોતાનો આત્મા સદા શાશ્વત જ્ઞાનસ્વરૂપ છે, એમ શુદ્ધ નિશ્ચયનયથી ધાવવા યોગ્ય છે. १२ बारस अणुवेक्खा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अशरणभावना मणिसंतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ । जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमयम्हि ||८|| छोडे बडे रथ खड़े मणि मंत्र हाथी, विद्या दवा सकल रक्षक संग साथी || पै मृत्युके समयमें जगमें हमारे, होंगे नहीं शरण ये बुध यों विचारे ||८||| નહિ મરણ સમયે જીવને કોઈ શરણ ત્રણ લોકમાં, રથ હાથી ઘોડા રક્ષકો ણિ મંત્ર ઔષધિ બોધિમાં. ૮ अर्थ- मरते समय प्राणीयोंको तीनों लोकोंमें मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, घोडा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएं हैं, वे कोइ भी शरण नहीं हैं । अर्थात् ये सब उन्हें मरनेसे नहीं बचा सकते हैं । भराग समये छपोने भाग सोड़मां रथ, हाथी, घोडा, रक्षको, भाग, मंत्र, धा, ઔષધિ આદિ કોઈ પણ શરણ નથી. बारस अणुवेक्खा १३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सग्गो हवे हि दुग्गं भिच्चा देवा य पहरणं वज्जं । अइरावणो गइंदो इंदस्स ण विज्जदे सरणं ॥९॥ है स्वर्ग-दुर्ग-सुरवर्ग सुभृत्य होता, है वज्र शस्त्र जिसका वह इन्द्र होता । ऐरावता गज गजेन्द्र सवार होता, ना! ना! उसे शरण अंतिम बार होता ।।९।। છે સ્વર્ગ કિલ્લો ઇન્દ્રને વળી વજનાં હથિયાર છે, ગજરાજ ઐરાવત છતાં નહિ ઈન્દ્રને કો શરણ છે. ૯ अर्थ- जिस इन्द्रके स्वर्ग तो किला है, देव नौकर चाकर हैं, वज्र हथियार है, और ऐरावत हाथी है, उसको भी कोई शरण नहीं है। अर्थात् रक्षा करनेकी ऐसी श्रेष्ठ सामग्रियोंके होते हुए भी उसे कोई नहीं बचा सकता है। फिर हे दीन पुरुषो ! तुम्हें कौन बचावेगा ? ઈન્દ્રને સ્વર્ગરૂપી કિલ્લો છે. દેવલોક જેના નોકર ચાકર છે, વજય જેનાં હથિયારો છે, અને ઐરાવત જેવો શ્રેષ્ઠ ગજેન્દ્ર છે, છતાં તેને કોઈ શરણ નથી १४ बारस अणुवेक्खा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवणिहि चउदहरयणं हयमत्तगइंदचाउरंगबलं । चक्केसस्स ण सरणं पेच्छंतो कदिदये काले ॥१०॥ अश्वादि पूर्ण बल है चतुरंग सेना, दो सात रल, निधियां नव रंग लेना । चक्रेशको शरण ये नहिं अन्तमें हो, खा जाय काल लखते लखते इन्हें वो ॥१०॥ ચતુરંગી સેના ચૌદ રત્નો નવનિધિ આદિક રહે, નહિ ચડીને યે શરણ કોઈ મૃત્યુ જવ આવી ગ્રહે. ૧૦ अर्थ- हे भव्यजनो ! देखो, इसी तरह कालके आ दबानेपर नौ निधियां, चौदह रत्न, घोडा, मतवाले हाथी और चतुरंगिनी सेना आदि रक्षा करनेवाली सामग्री चक्रवर्तीको भी शरण नहीं होती है। अर्थात् जब मौत आती है, तब चक्रवर्तीको भी जाना पडता है। उसका अपार वैभव उसे नहीं बचा सकता है। ચકવર્તન ચતુરંગી સેના, ચૌદરનો, નવનિધિ આદિ સામગ્રીઓ હોવા છતાં | કોઈ મરણ સમયે બચાવી શકતું નથી बारस अणुवेक्खा १५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाइजरमरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥११॥ लो रोगसे जननमृत्यु जरादिकोंसे, रक्षा निजात्म निजकी करता अघोंसे । त्रैलोकमें इसलिए निज आतमा ही, है वस्तुतः शरण लो अघ खातमा ही ॥११।। રક્ષા કરે આત્મા સ્વયં જનિ મૃતિ જરા ભય રોગથી, તેથી શરણ નિજ આત્મ છે ભિન્ન બંધ સત્તા ઉદયથી ૧૧ अर्थ- जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है; इसलिये वास्तवमें ( निश्चयनयसे ) जो कर्मोकी बंध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात् संसारमें अपने आत्माके सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वयं ही कर्मोको खिपाकर जन्म जरा मरणादिके कष्टोंसे बच सकता है। पोतानो माम! o Trम, १२, म२९, रोग, मययी पोतानी २६॥ 3रे छ. કર્મોનાં બંધ, સત્તા, ઉદયથી પોતાનો આત્મા ભિ4 જાણી, પોતાનો આત્મા જ પોતાને શરણ છે. १६ बारस अणुवेक्खा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुहा सिद्धा आइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी । ते वि हु चेट्ठदि जम्हा आदा हु मे सरणं ॥१२॥ ये पांच इष्ट अरहंत सुसिद्ध प्यारे, आचार्यवर्य उवझाय सुसाधु सारे । आत्मा निजात्ममय ही करता इन्हें है, आत्मा अतः शरण है जमता मुझे है ॥१२।। । અરિહંત સિદ્ધ આચાર્યને મુનિ ઉપગુરુ પરમેષ્ઠિ છે, તે આત્માના પરિણામ તેથી આત્મ મારો શરણ છે. ૧૨ अर्थ- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी इस आत्माके ही परिणाम हैं। अर्थात् अरहंतादि अवस्थाएं आत्माहीकी हैं। आत्मा ही तपश्चरण आदि करके इन पदोंको पाता है। इसलिये आत्मा ही मुझको शरण है। અહંત, સિદ્ધ, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય અને સાધુએ પાંચ પરમેષ્ઠિઓ પણ મારા આત્માનાં જ પરિણામ છે, તેથી મારો આત્મા જ મને શરણ છે. बारस अणुवेक्खा १७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं च सत्तवो चेव । चउरो चेट्ठदि आये तम्हा आदा हु मे सरणम् ॥१३॥ सद्ज्ञानं और समदर्शन भी लखे हैं, सच्चा चरित्र तप भी जिसमें बसे हैं। ' आत्मा वही नियमसे समझो कहाता, आत्मा अतः शरण हो मम प्राण त्राता ॥१३।। सुन, दर्शन, यति, त५ नि मात्मना पर्याय छे; તેથી શરણ મુજ આત્મનું મુજ આત્મને જ સદાય છે. ૧૩ अर्थ- इसी तरहसे आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और उत्तम तप ये चार अवस्थाएं भी होती हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शनादि आत्माहीके परिणाम हैं, इसलिये मुझे आत्मा ही शरण है। સમગ્દર્શન, સમ્યજ્ઞાન, સમ્યક્યારિત્ર અને સમ્યક્તપ એ ચાર અવસ્થાઓ પણ આત્માની જ થાય છે, તેથી મારો આત્મા જ મને શરણ છે, તેમ હે જીવ! તું orl. १८ बारस अणुवेक्खा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ एकत्वभावना एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥१४॥ आत्मा यही विविध कर्म करे अकेला, संसारमें भटकता चिरसे अकेला । है एक ही जनमता मरता अकेला, है भोगता करमका फल भी अकेला ॥१४|| જીવ એકલો કરે કર્મ ભ્રમણ કરે અનંત ભવ એક્લો, વળી એકલો જન્મ મરે, ફળ ભોગવે પણ એકલો. ૧૪ अर्थ- यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही अपने कर्मोका फल भोगता है। इसका कोई दूसरा साथी नहीं આ (પોતાનો ) આત્મા એકલો જ કર્મ બાંધે છે, એક્લો જ દીર્ધ સંસારમાં ભ્રમણ કરે છે, એકલો જ જન્મે છે, એકલો જ મરે છે અને એકલો જ પોતાનાં કર્મનું ફળ ભોગવે છે. बारस अणुवेक्खा १९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्को करेदि पाबं विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण । । णिरयतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥१५।। है एक ही विषयकी मदिरा सदा पी, औ तीव्र लोभवश हो, कर पाप पापी । तिर्यचकी नरककी दुःख योनियोंमें, भोगे स्व-कर्मफल एक भवों भवोंमें ||१५|| -ઇંદ્રિય વિયવશ તીવ્ર લોભ પાપ કરતો એકલો, ફળ ભોગવે તિર્યંચ નારક યોનિનું દુ:ખ એકલો. ૧૫ अर्थ- यह जीव पांचइन्द्रियके विषयोंके वश तीव्रलोभसे अकेला ही पाप करता है और नरक तथा तिर्यंच गतिमें अकेला ही उनका फल भोगता है। अर्थात् उसके दुःखोंका बटवारा कोई भी नहीं करता है। આ જીવ, પાંચ ઇન્દ્રિયના વિષયોને વશ થઈ, તીવ્ર લોભથી એકલો પાપ કરે | છે અને નરક તિર્યંચ ગતિમાં એકલો જ તેનું ફળ ભોગવે છે. २० बारस अणुवेक्खा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणेण । मणुवदेवेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥१६॥ दे पात्र दान उस धर्म निमित्त आत्मा, है एक ही करत पुण्य अये महात्मा । होता मनुष्य फलतः दिवि देव होता, पै एक ही फल लखे स्वयमेव ढोता ॥१६।। (संतति) સુપાત્ર દાન દઈ ધર્મ નિમિત્ત આત્મા, संयय ७३ पुष्य नागो महात्म, . તે મનુજ દિવ્યપદ પામી બને દેવાત્મા, ભોગવે સ્વયં સુર-સુખો પણ તે જ આત્મા ૧૬ अर्थ- और यह जीव धर्मके कारणरूप पात्रदानसे अकेला ही पुण्य करता है और मनुष्य तथा देवगतिमें अकेला ही उसका फल भोगता है। આ જીવ ધર્મના નિમિત્તથી પાત્રદાન દ્વારા એકલો જ પુણ્ય સંચય કરે છે અને મનુષ્ય તથા દેવગતિમાં એક્લો જ તેનું ફળ ભોગવે છે. बारस अणुवेक्खा २१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पात्रके तीन भेदों तथा अपात्रका वर्णन उत्तमपत्तं भणयं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू । सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तो हु विण्णेयो ॥१७॥ उत्कृष्ट पात्र वह साधु अहो रहा है, सम्यकत्वसे सहित शोभित हो रहा है । सम्यकत्व धार इक देशव्रती सुहाता, है पात्र मध्यम सुश्रावक ही कहाता ॥१७।। ઉત્કૃષ્ટ પાત્ર અહો! સાધુ ગણાય છે જે સમજ્જરત્ન સહ શોભિત જે વિરાજે, જે શુન્દ્રષ્ટિસહ સંયમને ગ્રહે છે, તે એકદેશવ્રતી શ્રાવક મધ્યમા છે. ૧૭ अर्थ- जो सम्यक्त्वगुणसहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है और जो सम्यग्दृष्टी श्रावक हैं, उन्हें मध्यम पात्र समझना चाहिये। સમ્યકત્વગુણ સહિત મુનિને ( પાત્રદાન માટે ) ઉત્તમ પાત્ર ગણવામાં આવે છે. સમ્યફદ્રષ્ટિ શ્રાવકને મધ્યમ પાત્ર જાણવું. २२ बारस अणुवेक्खा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिदिदट्ठो जिणसमये अविरदसम्मो जहण्णपत्तोत्ति । सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो ॥१८॥ सम्यकत्व पा अविरती रहता सरागी, होता जघन्य वह पात्र न पाप त्यागी । सम्यकत्वसे रहित मात्र अपात्र जानो, भाई अपात्र अरु पात्र सही पिछानो ।।१८।। સમ્યકત્વ પામી પણ, વ્રત નહિ ધારિયું છે, પાત્ર જઘન્ય ને જિનમતમાં કહ્યો છે; बनेन H IS छ सम्प३ प्रताति, - . તેને અપાત્ર ગણવાની છે જૈન નીતિ. ૧૮ अर्थ- जिनभगवानके मतमें व्रतरहित सम्यग्दृष्टीको जघन्यपात्र कहा है और सम्यकत्वरूपी रत्नसे रहित जीवको अपात्र माना है। इस तरह पात्र अपात्रोंकी परीक्षा करनी चाहिये। જિનપરમાત્માના મતાનુસાર અવ્રતી સફદૃષ્ટિને જઘન્ય પાત્ર કહ્યું છે અને સમ્યકત્વરૂપી રત્નરહિત જીવને અપાત્ર કહ્યું છે. આ રીતે પાત્ર અપાત્રની પરીક્ષા કરવી गोऽयो. बारस अणुवेक्खा २३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥१९॥ वे भ्रष्ट हैं पतित दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्मको हैं । चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित ले सिजेंगे, पै भ्रष्ट दर्शनतया नहिं वे सिजेंगे ||१९|| તે ભ્રષ્ટ છે પતિત દર્શનભ્રષ્ટ જે છે, તેને ન પ્રામિ નિર્વાણની થઈ શકે છે; यात्रिट qी प्रास पुन: रीन, . સીઝે ચરિત્ર, નહીં દર્શનભ્રષ્ટ સીઝે. ૧૯ अर्थ- जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं, वे ही यथार्थमें भ्रष्ट हैं। क्योंकि दर्शनभ्रष्ट पुरुषोंका मोक्ष नहीं होता है। जो चारित्रसे भ्रष्ट हैं, वे तो सीझ जाते हैं, परन्तु जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं, वे कभी नहीं सीझते। अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दृष्टी पुरुष चारित्रसे रहित हैं, वे तो अपने सम्यकत्वके प्रभावसे कभी न कभी उत्तम चारित्र धारण करके मुक्त हो जावेंगे। परन्तु जो सम्यकत्वसे रहित हैं अर्थात् जिन्हें न कभी सम्यकत्व हुआ और न जबतक होगा वे चाहे कैसा ही चारित्र पालें, परन्तु कभी सिद्ध नहीं होंगे- संसारमें रुलते ही रहेंगे। જે સમ્યકદર્શનથી ભ્રષ્ટ છે તે જ વાસ્તવમાં ભ્રષ્ટ છે કેમકે દર્શનભ્રષ્ટ પુરુષનો મોક્ષ થતો નથી. જે ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ છે તે તો ક્યારેક સીઝી શકે છે. (પુન: ચારિત્ર ગ્રહણ કરી સિધ્ધ થઈ શકે છે.) પરંતુ જે દર્શનથી ભ્રષ્ટ છે તે ક્યારેય સીઝતા નથી. २४ बारस अणुवेक्खा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुष्टुपश्लोकः एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो । सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ||२०|| मैं हूं विशुद्धतम निर्मम हूं अकेला, विज्ञान दर्शन सुलक्षण मात्र मेरा । एकत्वका सतत चिंतन साधु ऐसा, आदेय मान करते रहते हमेशा ||२०|| (हरिगीत) હું એક શુદ્ધ મમત્વહીન હું જ્ઞાન દર્શન લક્ષી છું, નિત ચિંતવે સાધુ શુચિ એકત્વ ઉપાદેય છું. ૨૦ अर्थ- मैं अकेला हूं, ममतारहित हूं, शुद्ध हूं और ज्ञानदर्शनस्वरूप हूं, इसलिये शुद्ध एकपना ही उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिये। હું એક છું, મમતા રહિત છું, શુદ્ધ છું, જ્ઞાનદર્શન લક્ષી છું, તેથી શુદ્ધ એકત્વજ ઉપાદેય છે, એમ સંયમીએ ચિંતવવું જોઈએ. बारस अणुवेक्खा २५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अन्यत्वभावना मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबंधुसंदोहो । जीवस्स ण संबंधो णियकज्जवसेण वटुंति ॥२१॥ माता पिता सुत सुता वनिता व भ्राता, हैं जीवसे पृथक हैं रखते न नाता । ये बाह्यमें सहचरी दिख भी रहे हैं, मोहाभिभूत मदिरा नित पी रहे हैं ॥२९॥ માતા પિતા બંધુ સહોદર પુત્ર સ્ત્રી આદિક લહું, નહિ તે સંબંધી જીવનાં નિજ કાર્યવશ વર્તે સહુ. ૨૧ __ अर्थ- माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री आदि बन्धुजनोंका समूह अपने कार्यके वश ( मतलबसे ) सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थमें जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं। માતા, પિતા, ભાઈ, પુત્ર, સ્ત્રી આદિ બંધુજનો તે જીવના સંબંધી નથી, પોતાનાં કાર્ય વિશે તેઓ વર્તે છે. २६ बारस अणुवेक्खा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णो अण्णं सोयदि मदोत्ति ममणाहगोत्ति मण्णंतो । अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्ढे ॥२२॥ स्वामी मरा मम, रहा मम प्राण प्यारा, यों शोक नित्य करता जड ही विचारा। पै डूबता भव पयोनिधिमें निजीकी, चिंता कभी न करता गलती यही की ।।२२।। નહિ શોચતો સંસારમાં ડૂબેલ પ્રાણી આત્મને, પરની કરે ચિંતા એ મારું સ્વામીનું એમ માનીને. ૨૨ अर्थ- ये जीव इस संसाररूपी महासमुद्रमें पडे हुए अपने आत्मकी चिन्ता तो नहीं करते हैं, किन्तु यह मेरा है और यह मेरे स्वामीका है, इस प्रकार मानते हुए एक दूसरेकी चिन्ता करते हैं । આ સંસારરૂપી મહાસાગરમાં ડૂબેલો આવ, પોતાના આત્માની તો જરાય ચિંતા કરતો નથી, પણ બીજાઓની ચિંતા કરે છે; વળી આ મારું છે, એ મારા સ્વામીનું छ, मेम मान्या 3रे छे. बारस अणुवेक्खा २७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णं इमं सरीरादिगंपि जं होइ बाहरिं दव्वं । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥२३॥ मैं शुद्ध, चेतन, अचेतनसे निराला, ऐसा सदैव कहता सम द्रष्टिवाला । रे! देह नेह करना अति दुःख पाना, छोडो उसे तुम यही गुरुका बताना ||२३|| આ આત્મથી ભિન્ન શરીર આદિક બાહ્ય સર્વે દ્રવ્ય છે, છે જ્ઞાન પ્રદર્શન આત્મ એમજ, ભાવ-અન્યત્વ ભાવ જે. ૨૩ .. अर्थ- शरीरादिक जो ये बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनेसे जुदे हैं और मेरा आत्मा ..ज्ञानदर्शनस्वरूप है; इस प्रकार. अन्यत्व भावनाका तुमको चिन्तवन करना चाहिये। '२२२६,l64 पर्थो छ १५५ माराथी Y1 : अनेमारो આત્મા જ્ઞાનદર્શનસ્વરૂપ છે. એમ અન્યત્વભાવના ચિંતવવા યોગ્ય છે. २८ बारस अणुवेक्खा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ संसारभावना पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। . जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिंभमदि चिरकालं ॥२४॥ संसार पंच विध है दुखसे भरा है, है रोग शोक मृति जन्म जहां जरा हैं। जो मूढ-मूढ निजको न निहारता है, संसारमें भटकता चिर 'हारता है ||२४|| નહિ જાણતો જિનમાર્ગને જીવ પરિભ્રમે ચિરકાલથી, પંચવિધ આ સંસાર જન્મ જરા મરણ ભય રોગથી ૨૪ अर्थ- यह जीव जिनमार्गकी ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिये जन्म, बुढापी, मरण, रोग और भयसे भरे हुएं पांच प्रकारके संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है। જિનમાર્ગને નહિ જાણતો જીવ, જન્મ, જરા, મરણ, રોગ અને ભયથી પાંચ પ્રકારના સંસારમાં અનંતકાલથી પરિભ્રમે છે. बारस अणुवेक्खा २९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य परिवर्तनका स्वरूप सव्वेपि पोग्गला खलु एगे मुत्तुझिया हु जीवेण । असयं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ॥२५॥ संसारमें विषय पुदगलमें अनेकों, भोगे तजे बहुत बार नितान्त देखो । संसार द्रव्य परिवर्तन वो रहा है, अध्यात्मके विषयमें जग सो रहा है ||२५।। (वसंततिम51) સંસારમાં વિષય પુગલ છે અનેક તયિા છે સર્વ ભોગી જીવે વાર અનેક છોડો અહો ! ભ્રમણની આવી જૂઠી વિધિ પામો સ્વરૂપ સુખને ગ્રહી સત્ય રીતિ. ૨૫ अर्थ- इस पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारमें एक ही जीव सम्पूर्ण पुद्गलवर्गणाओंको अनेकवार-अनन्तवार भोगता है, और छोड़ देता है। भावार्थ-कोई जीव जब अनंतानंत पुद्गलोंको अनंतवार ग्रहण करके छोडता है, तब उसका एक द्रव्यपरावर्तन होता है। इस जीवने ऐसे २ अनेक द्रव्यपरावर्तन किये हैं। આ યુગલ પરિવર્તનરૂપ સંસારમાં એક જ જીવ સંપૂર્ણ પુદગલવણાઓને અનેકવાર- અનંતવાર ભોગવે છે અને છોડે છે. ३० बारस अणुवेक्खा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र परिवर्तनका स्वरूप सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ॥२६॥ ऐसा न लोक भरमें थल ही रहा हो, तूने गहा न तनको क्रमशः जहां हो । छोटे बड़े घर सभी अवगाहनोंको, संसार क्षेत्र पलटे बहुशः अनेकों ।।२६।। એવું ન ક્ષેત્ર જગમાં કોઈ બાકી છે જ્યાં, તે જન્મ વાર બહુ ગ્રહી નહિ છોડિયો જ્યાં, ઊંચ નીચ સર્વ કુળમાં તું ઉપજ્યો છું, સંસાર ક્ષેત્ર પરિવર્તનમાં લ્યો છું. ર૬ अर्थ- क्षेत्रपरावर्तनरूप संसारमें अनेकवार भ्रमण करता हुआ जीव तीनों लोकोंके सम्पूर्ण क्षेत्रमें ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहां पर क्रमसे अपनी अवगाहना वा परिणामको लेकर उत्पन्न न हुआ हो। भावार्थ-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, उन सब प्रदेशोमें क्रमसे उत्पन्न होनेको तथा छोटेसे छोटे शरीरके प्रदेशोंसे लेकर बडेसे बडे शरीर तकके प्रदेशोंको क्रमसे पूरा करनेको क्षेत्रपरावर्तन कहते हैं। ક્ષેત્ર પરાવર્તનરૂપ સંસારમાં અનેકવાર ભ્રમણ કરતો થકો આ જીવ, ત્રણે લોકનાં સંપૂર્ણ ક્ષેત્રોમાં એવું કોઈ પણ સ્થાન નથી જ્યાં વારાફરતી વિવિધ અવગાહના કે પરિણામને કારણે ઉત્પન્ન થયો ન હોય. बारस अणुवेक्खा ३१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल परिवर्तनका स्वरूप अवसप्पिणिउस्सप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु । जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे ॥२७॥ उतसर्पिणि व अवसर्पिणिकी अनेकों, कालावलि बरतती अयि भव्य देखो । यों जन्म मृत्यु उनमें बहु बार पाये, , हो मूढ काल परिवर्तन भी कराये ॥२७॥ ઉત્સર્પિ જીવ અવસર્પિણીના અનેક કલાવલિ સતત સંચરતી વિમંગે આ જન્મ-મૃત્યુ ઘટમાળ મહીં ડૂળ્યો છું હે મૂઢ! કોળિયો કાળ તણો થયો છું. ૨૭ अर्थ- कालपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके सम्पूर्ण समयों और आवलियोंमें अनेक वार जन्म धारण करता है और मरता है। भावार्थ- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके जितने समय होते हैं, उन सारे समयोंमें क्रमसे जन्म लेने और मरनेको कालपरावर्तन कहते हैं। કાલપરિવર્તનરૂપ સંસારમાં ભ્રમણ કરતો જીવ ઉત્સપિણી અવસર્પિણી કાળનાં સંપૂર્ણ સમયો અને આવલિઓમાં અનેક વાર જન્મ-મરણ કરી ચૂક્યો છે. ३२ बारस अणुवेक्खा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव परिवर्तनका स्वरूप णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लवा(गा)दु गेवेज्जा । मिच्छत्तसंसिदेण दु वहुसो वि भवट्ठिदीब्भमिदा ॥२८॥ तूने जघन्य नरकायु लिए बिताये, ग्रैवेयकांततक अंतिम आयु पाये । मिथ्यात्व धार भवके परिवर्तनोंको, पूरे किये बहु व्यतीत युगों-युगोंको ।।२८।। પામી જઘન્ય નરકાયુ બહુ ભ્રમાયો, રૈવેયકો સુધીનું આયુ તું દીર્ધ પામ્યો; મિથ્યાત્વ ધારી પરિવર્તન ભવ તણાં આ, પૂરાં કર્યાં ભટકતાં બહુ યુગયુગોમાં. ૨૮ अर्थ- इस मिथ्यात्वसंयुक्त जीवने नरककी छोटीसे छोटी आयुसे लेकर ऊपरके ग्रैवेयिक विमान तककी आयु क्रमसे अनेकवार पाकर भ्रमण किया है। भावार्थ- नरककी कमसे कम आयुसे लेकर ग्रैवेयिक विमानकी अधिकसे अधिक आयु तकके जितने भेद हैं, उन सबका क्रमसे भोगना भवपरावर्तन कहलाता है। નરકની જધન્ય આયુશી માંડી રૈવેયિક વિમાન પર્વતની ઉત્કૃષ્ટ આયુમાં વારાફરની અનેકવાર મિથ્યાત્વસહિત આ જીવે પરિભ્રમણ કર્યું છે. बारस अणुवेक्खा ३३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव परिवर्तनका स्वरूप सव्वे पयडिट्ठिदिओ अणुभागप्पदेसबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ॥२९।। लो सर्व कर्म स्थिति यों अनुभाग बंधो, बांधे प्रदेश विधिके सुन भव्य बंधो ! मिथ्यात्वके वश हुए भवमें भ्रमाये, ऐसे अनंत भव भावमयी बिताये ।।२९।। હા! સર્વ કર્મસ્થિતિને અનુભાગબંધો. --wiया प्रदेश विधिना सुर (मप्य पा; મિથ્યાત્વને વશ થઈ ભવમાં ભ્રમાયો, આવા અનંત ભવ ભાવમયી કમાયો. ર૯ अर्थ- इस जीवने मिथ्यात्वके वशमें पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधके कारणभूत जितने प्रकारके परिणाम वा भाव हैं, उन सबको अनुभव करते हुए भावपरावर्तनरूप संसारमें अनेक वार भ्रमण किया है। भावार्थकर्मबंधोंके करनेवाले जितने प्रकारके भाव होते हैं, उन सबको क्रमसे अनुभव करनेको भावपरावर्तन कहते हैं। આ જીવે મિથ્યાત્વને વશ થઈને પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશબંધના કારણભૂત જેટલાં પ્રકારનાં પરિણામ કે ભાવ છે, તે સર્વનો અનુભવ કરીને ભાવ પરાવર્તનરૂપ સંસારમાં અનેક્વાર પરિભ્રમણ કર્યું છે. ३४ बारस अणुवेक्खा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अज्जयदि पाबबुद्धिए । परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ॥३०॥ स्त्री पुत्र मोह वश ही धन है कमाता, पापी बना विषम जीवन है चलाता । तो दान धर्म तजता निज भूल जाता, संसारमें भटकता प्रतिकूल जाता ।।३०।। (&२०ीत) જે જીવ પુત્ર કલત્ર અર્થે ધન કમાયે પાપથી, તે દયા દાન તજી ભટકતો દીર્ધ ભવ સંતાપથી ૩૦ अर्थ- जो जीव स्त्रीपुत्रोंके लिये नानाप्रकारकी पापबुद्धियोंसे धन कमाता है, और दया करना वा दान देना छोड़ देता है, वह संसारमें भटकता है। જે જીવ પુત્ર, સ્ત્રી નિમિત્તે પાપ બુદ્ધિથી ધન કમાય છે અને દયા તથા | દાન છોડે છે. તે સંસારમાં ભટકે છે. बारस अणुवेक्खा ३५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम पुत्तं मम भज्जा मम धणधण्णोत्ति तिव्वकंखाए । चइऊण धम्मबुद्धिं पच्छा परिपडदि दीहसंसारे ॥३१॥ स्त्री पुत्र धान्य धन ये मम कोष प्यारे, यों तीव्र लोभ मद पी सब होश टारे । सदधर्मसे बहुत ही बस ऊब जाते, मोही अगाध भवसागर डूब जाते ||३९।। આ પુત્ર મારી પત્ની મારી ધાન્ય ધન માાં કહે, જીવ તીવ્ર મોહે ધર્મ છોડી દીર્ધ સંસારે વહે. ૩૧ अर्थ- 'यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है और यह मेरा धन धान्य है। इस प्रकारकी गाढी लालसासे जीव धर्मबुद्धिको छोड देता है और इसी कारण फिर सब ओरसे अनादि संसारमें पडता है । આ મારો પુત્ર છે, આ મારી સ્ત્રી છે, અને આ મારા ધન-ધાન્ય છે, એવી ! તીવ્ર કક્ષાથી જીવ ધર્મબુદ્ધિને છોડે છે અને તે કારણે દીર્ધ સંસારમાં પડે છે. ३६ बारस अणुवेक्खा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिच्छोदयेण जीवो णिदंतो जेण्णभासियं धम्मं । कुधम्मकुलिंगकुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ॥३२॥ मिथ्यात्वके उदयसे जिनधर्म निंदा, पापी सदैव करता नहिं आत्मनिंदा । जाता कुतीर्थ, व कुलिंग कुधर्म माने, संसारमें भटकता, सुन तू सयाने ||३२|| મિથ્યાત્વ ઉદયે જિન કથિત જીવ ધર્મની નિંદા કરે, કુધર્મ ગુરુ તીર્થ માની ભવ મહીં ભટક્યા કરે. ૩ર अर्थ - मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव जिनभगवानके कहे हुए धर्मकी निंदा करता है और बुरे धर्मों, पाखंडी गुरुओं और मिथ्याशास्त्रोंको पूज्य मानता हुआ संसारमें भटकता फिरता है । મિથ્યાત્વના ઉદય વડે જીવ, જિન ભગવાને કહેલા ધર્મની નિંદા કરી, કુધર્મ કુગુરુ અને કુતીર્થોને માની સંસારમાં ભટકે છે. बारस अणुवेक्खा ३७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंतूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्वपरकलत्तं गहिउण य भमदि संसारे ॥३३॥ हो क्रूर जीववध भी कर मांस खाता, पीता सुरा मधु चखे तन दास भाता । पापी पराय धन स्त्री हरता सदा है,, संसारमें गिर, सहे दुःख आपदा है ||३|| (संततिम51) જે ક્રૂરતાથી હિંસા કરી માંસ ખાતો, मधु-भय-मत्त अनी निपने वासरतो; ५२-अंगना-पन पणी ५५ छीनपी सेतो, संसा२-धो२-२५24. म&ि ते २४तो. 33 अर्थ- यह प्राणी जीवोंके समूहको मार करके, शहद (मधु) और मांसका सेवन करके, शराब पीके, पराया धन और पराई स्त्रीको छीन करके संसारमें भटकता है। આ આત્મા જીવરાશિને ક્રૂરતાપૂર્વક હણીને, મધ માંસનું સેવન કરીને, શરાબ-પાન કરીને, પરધન તથા પરસ્ત્રીનું હરણ કરીને સંસારમાં ભટક્યા કરે છે. ३८ बारस अणुवेक्खा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्तेण कुणइ पाबं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो। मोहंधयारसहिओ तेण दु परिपडदि संसारे ॥३४॥ संसारमें विषयके वश जो रहेगा, सो यत्न रात-दिन भी अघका करेगा । मोहांघकारयुत जीवन जी रहा है, संसारमें भटकता लघुधी रहा है ॥३४॥ સંસારમાં વિષયને વશ જે બને છે, તે રાત્રિદિન અધવશ કરણી કરે છે; મોહાંધદ્રષ્ટિયુક્ત જીવન જીવતો છે, અલ્પજ્ઞ લોકહિ તે ભટક્યા કરે છે. ૩૪ - अर्थ- यह जीव मोहरूपी अंधकारसे अंधा होकर रातदिन विषयोंके निमित्तसे जो पाप होते हैं, उन्हें यत्नपूर्वक करता रहता है और इसीसे संसारमें पतन करता है। મોહરૂપી અંધકારથી અંધ એવો આ જીવ રાતદિવસ વિષયોને નિમિત્તથી થતા પાપમાં યત્નપૂર્વક લાગેલો રહે છે અને તેથી જ સંસારમાં તેનું પતન થાય છે. बारस अणुवेक्खा ३९ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्चिदरधातुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोददस मणुवे सदसहस्सा ॥३५॥ दोनों निगोद चउ थावर सप्त सप्त, हैं लक्ष हो विकल इन्द्रिय है षडत्र । हैं वृक्ष लक्ष दश चौदह लक्ष मत्यं, चौरासि लक्ष सब योनि सुजान मत्यं ॥३५।। બન્ને નિગોદ ચઉ સ્થાવર સાત સાત, --लामो तथा पिछन्द्रिय छ: पिछानो; છે વૃક્ષ લાખ દસ માનવ ચૌદ જાણો, ચોરાશી લાખ સૌ. બાર ઉમેરી જાણો. ૩૫ अर्थ- नित्यनिगोद, इतर निगोद और धातु अर्थात् पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय और वायुकायकी सात सात लाख (४२ लाख), वनस्पतिकायकी दश लाख, विकलेन्द्रियकी (द्वीन्द्रिय, तेइन्द्री, चोइन्द्रीकी) छह लाख, देव, नारकी और तिर्यंचोंकी चार चार लाख और मनुष्योंकी चौदह लाख, इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख योनियां होती हैं । નિત્ય નિગોદ, ઇતર નિગોદ અને ધાતુ અર્થાત્ પૃથ્વીકાય, જલકાય, અગ્નિકાય અને વાયુકાયની સાત સાત લાખ ( ૪ર લાખ ) વનસ્પતિકાયની દસલાખ, વિલેન્દ્રિયની (બે,ત્રણ ચાર ઇન્દ્રિયની) છ લાખ, દેવ નારકી અને તિર્યંચની ચાર ચાર લાખ અને મનુષ્યની ચૌદ લાખ આ રીતે બધી મળીને ૮૪ લાખ યોનિઓ થાય ४० बारस अणुवेक्खा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोगविप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च । संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च ॥ ३६ ॥ मानापमान मिल जाय अलाभ होता, होता कभी सुख कभी दुःख लाभ होता । होता वियोग विनियोग सुयोग होता, संसारको निरख तू उपयोग जोता ||३६|| (हरिगीत) સંસારમાં સહુ પ્રાણીને સંયોગ વિયોગો થાય છે, સુખ દુ:ખ લાભાલાભને માનાપમાનો થાય છે. ૩૬ अर्थ- संसारमें जितने प्राणी हैं, उन सबको मिलना, बिछुरना, नफा, टोटा, सुख, दुख और मान तथा अपमान (तिरस्कार) निरन्तर हुआ ही करते हैं। આ સંસારમાં સર્વ પ્રાણીઓને સંયોગ, વિયોગ, લાભાલાભ, સુખદુ:ખ અને માન અપમાન થયાં જ કરે છે. बारस अणुवेक्खा ४१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे । जीवस्स ण संसारो णिच्चयणयकम्मणिम्मुक्को ॥३७॥ हैं कर्मके उदयसे जग जीव सारे, दिगमूढ घोर भवकाननमें बिचारे । संसार तत्त्व नहि निश्चयसे तथापि, हैं जीव मुक्त विधिसे चिरसे अपापी ॥३७|| પણ નિશ્ચયે નથી બંધ નથી સંસાર આત્માને ખરે, જીવ કર્મ કારણ ઘોર વન સંસારમાં ભટક્યા કરે. ૩૭ अर्थ- यद्यपि यह जीव कर्मके निमित्तसे संसाररूपी बडे भारी वनमें भटकता रहता है परन्तु निश्चयनयसे (यथार्थमें) यह कर्मसे रहित है, और इसीलिये इसका भ्रमणरूप संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं है । આ જીવ કર્મના નિમિત્તથી સંસારરૂપ ઘોર વનમાં ભટક્યા કરે છે, પરંતુ નિશ્ચયનયે આત્મા કર્મબંધ રહિત છે, તેને સંસાર નથી. ४२ बारस अणुवेक्खा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारमदिक्कंतो जीवोवादेयमिदि विचितिज्जो । संसारदुहक्कंतो जीवो सो हेयमिदि विचिंतिज्जो ||३८|| होता अतीत भवसे पढ़ आत्मगाथा, आदेय - ध्येय वह जीव सदा सुहाता । संसार दुःख सहता दिन रैन रोता, ऐसा विचार वह केवल हेय होता ||३८|| સંસારથી અતિક્રાન્ત જીવનું ધ્યાન કરવા યોગ્ય છે, સંસાર દુ:ખાક્રાન્ત જીવનું ધ્યાન તજવા યોગ્ય છે. ૩૮ अर्थ- जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिये और जो संसाररूपी दुःखोंसे घिरा हुआ है, वह हेय अर्थात् ध्यानयोग्य नहीं है, ऐसा चिन्तवन करना चाहिये । भावार्थपरमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, बहिरात्मा नहीं है । સંસારથી અતિક્રાન્ત ( પાર પામેલા ) જીવ ઉપાદેય છે અને તેમનું ધ્યાન કરવા યોગ્ય છે. પણ સંસાર દુ:ખથી આક્રાન્ત ( ઘેરાયેલા ) જીવનું ધ્યાન કરવા યોગ્ય નથી. बारस अणुवेक्खा ४३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ लोकभावना जीवादिपयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो । तिविहो हवेइ लोगो अहमज्झिमउड्ढभेयेण ॥३९।। जीवादि द्रव्य-दल शोभित हो रहा है, है लोक स्वीकृत सुनो तुम वो रहा है । पाताल मध्य पुनि ऊध्व प्रभेद द्वारा, सो लोक भी त्रिविध है दुःखका पिटारा ॥३९।। જીવાદિ ષટુ દ્રવ્યો તણો જે સમૂહ છે તે લોક છે, તે અધો ઊદ્ધ સુમધ ભેદે ત્રણ પ્રકારે લોક છે. ૩૯ अर्थ- जीवादि छह पदार्थीका जो समूह है, उसे लोक कहते हैं और वह अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्वलोकके भेदोंसे तीन प्रकारका है । જીવાદિ છ પદાર્થોનો સમૂહ છે તે લોક કહેવાય છે. અને તે અધોલોક, મધ્યલોક અને ઉષ્યલોકના ભેદથી ત્રણ પ્રકારે છે. ४४ बारस अणुवेक्खा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णिरया हवंति हेट्ठा मज्झे दीबंबुरासयोसंखा । सग्गो तिसठि भेओ एत्तो उड़ढं हवे मोक्खो ॥४०॥ नीचे जहां नरक, नारक नित्य रोते, हैं मध्यमें जलधि द्वीप असंख्य होते । हैं ऊध्व में स्वरग त्रेसठ भेदवाले, लोकान्तमें परम मोक्ष, मुनीश पालें ॥४०॥ છે અધો લોકે નરક, ટીપ સાગર અસંખ્યા મધ્યમાં, ત્રેસઠ પ્રકારે સ્વર્ગ ને છે મોક્ષ ઊર્ધ્વ વિલોકમાં ૪૦ अर्थ - नरक अधोलोकमें हैं, असंख्यात द्वीप तथा समुद्र मध्यलोकमें हैं, और त्रेसठ प्रकारके स्वर्ग तथा मोक्ष ऊध्वलोकमें हैं । નરક અધોલોકમાં છે, અસંખ્યાત દ્વીપ તથા સમુદ્ર મધ્યલોકમાં છે અને ત્રેસઠ પ્રકારના સ્વર્ગ તથા મોક્ષસ્થાન ઉર્ધ્વલોકમાં છે. बार अणुक्खा ४५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंगितीस सत्त चत्तारि दोणि एक्केक्क छक्क चदुकप्पे । तित्तिय एक्केक्केंदियणामा उडुआदितेसट्ठी ॥४१॥ हैं एकतीस पुनि सात व चार दो हैं, है एक एक छह यों क्रमवार जो हैं । औ तीन बार त्र हैं इक एक सारे, ऋज्वादि ये पटल (पसंततिसडा) છે એકત્રીસ વળી સાત ને ચાર ચાર વળી એક એક બડ઼ એ ક્રમવાર જે છે ત્રણ ત્રણનું ત્રિક વળી એકનું એક જેમ જવાદિના પટલ ત્રેસઠ જાણો એમ. ૪૧ अर्थ - स्वर्गलोक में ऋतु, चंद्र, विमल, वल्गु, वीर आदि ६३ विमान इन्द्रक संज्ञाके धारण करनेवाले हैं। उनका क्रम इस प्रकार है, - सौधर्म ईशान स्वर्गके ३१, सानत्कुमार माहेन्द्रके ७, ब्रह्म ब्रह्मोत्तरके ४, लांतव कापिष्टके २, शठ हैं उजाले ||४१|| शुक्र महाशुक्रका १, शतार सहस्रारका १, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चारकल्पोंके ६, अधोमध्य और ऊध्व ग्रैवेयिकके तीन तीनके हिसाबसे ९, अनुदिशका १ और अनुत्तरका १ सब मिलाकर ६३ । સ્વર્ગલોકમાં ઋતુ, ચંદ્ર, વિમલ, વલ્કુ, વીર આદિ ત્રેસઠ વિમાન ઇન્દૂક સંજ્ઞાને ધારણ કરવાવાળાં છે. તેમનો ક્રમ આ પ્રમાણે છે- સૌધર્મ ઇશાન સ્વર્ગમાં ૩૧સાનકુમાર માહેન્દ્રના ૭- બ્રહ્મ બ્રહ્મોત્તરનાં ૪ - લાંતવ કાપિષ્ટના ૨ - શુક્ર મહાશુક્રના - ૧ - શતાર સહસ્રારના ૧ - આનત, પ્રાણત, આરણ અને અચ્યુત આ ચાર કલ્પોના ૬ - અધો મધ્ય અને ઉર્ધ્વ ત્રૈવેયિકના ત્રણ ત્રણના હિસાબે ૯ - અનુદિશના ૧ અને અનુત્તરના ૧ આમ બધા મળીને કુલ ૬૩ વિમાન થયાં. ४६ बारस अणुवेक्खा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुहेण णिरयतिरियं सुहउबजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥४२॥ स्वर्गीय मत्य सुख हो शुभसे सुनो रे ! शुद्धोपयोग बलसे शिव हो गुणो रे । पाताल हो अशुभसे पशु या विचारो, यों लोकचिंतन करो अघको विसारो ||४|| (रिगीत) જીવ અશુભ ભાવે નરક પશુ, શુભ દેવ નર સુખ ભોગવે, ને મોક્ષ પ્રાપ્તિ શુદ્ધથી એ લોકભાવો ચિત્તવે. ૪૨ अर्थ- यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक तथा तिर्यंचगंति पाता है, शुभविचारोंसे देवों तथा मनुष्योंके सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिन्तवन करना चाहिये। આ જીવ અશુભ ભાવે નરક અને તિર્યંચગતિ પામે છે. શુભભાવે દેવ તથા મનુષ્યનાં સુખ ભોગવે છે અને શુદ્ધ ભાવથી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. એમ લોકભાવનાનું ચિંતવન કરવું. बारस अणुवेक्खा ४७ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अशुचिभावना अट्ठीहिं पडिबद्धं मंसविलित्तं तएण ओच्छण्णं । किमिसंकुलेहिं भरिदम, चोक्खं देहं सयाकालं ॥४३॥ पूरी ढकी चरमसे बहु अस्थियोंसे, काया बंधी वलिपटी पल पेशियों से । कीडे जहां विलविला करते सदा हैं, मैली घृणास्पद यही तन संपदा है ॥४३|| છે અસ્થિથી પ્રતિબદ્ધ, માંસ વિલિમ ચર્મ મઢેલ છે, ભરપૂર કૃમિઓના સમૂહે દેહ સતત મલિન છે. ૪૩ अर्थ- हड्डियोंसे जकडी हुई है, मांससे लिपी हुई है, चमडेसे ढकी हुई है, और छोटे २ कीडोंके समूहसे भरी हुई है, इस तरहसे यह देह सदा ही मलिन હાડકાંઓથી પ્રતિબદ્ધ, માંસથી વિલિત ચામડીથી મઢેલ અને કૃમિઓના ! સમૂહથી ભરપૂર એવો દેહ સદા મલિન છે. ४८ बारस अणुवेक्खा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुग्गंधं बीभत्थं कलिमल(?) भरिदं अचेयणो मुत्तं । सडणपडणं सहावं देहं इदि चिंतये णिच्चं ॥४४॥ बीभत्स है तन अचेतन है विनाशी, दुर्गन्ध मांसमलका घर रूपराशी । धारा स्वभाव सडना गलना सदा ही, ऐसा सुचिंतन करो शिव-राह-राही ॥४४।। દુર્ગંધમય બીભત્સ તન મળમૂત્રથી ભરપૂર છે, જડ મૂર્ત પતન સ્કૂલનશીલ નિત ભાવનાની જરૂર છે. ૪૪ अर्थ- यह देह दुर्गधमय है, डरावनी है, मलमूत्रसे भरी हुई है, जड है, मूर्तीक (रूप, रस, गंध, स्पर्शवाली )है और क्षीण होनेवाली तथा विनाशीक स्वभाववाली है, इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिये। આ દેહ દુર્ગમય, બીભત્સ (ચીતરી ચડે તેવો) અનિષ્ટતમ, મૂત્રથી ભરપૂર, | १७, भूति छ भने २५पन (पतन) समावी छ, मेम सह ति१५॥ योय छे. बारस अणुवेक्खा ४९ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरुहिरमंसमेदट्ठीमज्जसंकुलं मुत्तपूयकिमिबहुलं । दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिच्चमचेयणं पडणम् ॥४५॥ मज्जा व मांस रस रक्त व मेदवाला, है मूत्र पीब कृमिधाम शरीर कारा दुर्गन्ध है अशुचि चर्ममयी विनाशी, जानो अचेतन अनित्य अरे विलासी || ४५|| (वसंततिला) મજજા ને માંસ રસ રક્તને મેદવાળી પરૂથી ભરેલ વળી મૂત્ર-કૃમિ ભરેલી દુર્ગંધ અશુચિમય ચર્મથી છે મઢેલી હે અજ્ઞ ! જાણ જડ દેહ અહો વિનાશી. ૪૫ अर्थ - यह देह रस, रक्त, मांस, मेदा और मज्जा ( चर्बी) से भरी हुई है, मूत्र, पीब और कीडोंकी इसमें अधिकता है, दुर्गन्धमय है, अपवित्र है, चमडेसे ढकी हुई है, स्थिर नहीं है, अचेतन है और अन्तमें नष्ट हो जानेवाली है। खा हेड रस, रक्त, मांस मेघा खने यजर्थी भरेलो छे. भूत्र, प३ खने मि (डीडाखो ) नी तेनामां अधिकता छे, दुर्गंधमय छे, अपवित्र छे, थामडाथी भढेसो છે, અસ્થિર છે, અચેતન છે અને અંતે નષ્ટ થવાનો છે. ५० बारस अणुवेक्खा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T देहादो वदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतसुहणिलयो । चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥ ४६ ॥ है कर्मसे रहित है तनसे निराला, होता अनन्त सुखधाम सदा निहाला । आत्मा सचेतन निकेतन है अनोखा, भा भावना सतत तू इस भांति चोखा ||४६ || (हरिगीत) આ દેહથી છે ભિન્ન આત્મા કર્મહીન વિશુદ્ધ છે, એ ભાવના ભાવો નિરંતર સૌષ્યધામ સમૃદ્ધ છે. ૪૬ अर्थ- वास्तवमें आत्मा देहसे जुदा है, कर्मोंसे रहित है, अनन्त सुखोंका घर है, और इसलिये शुद्ध है, इसप्रकार निरन्तर ही भावना करते रहना चाहिये। આત્મા દેહથી જુદો, કર્મરહિત, અનંત સુખનું ધામ છે, તેથી તે શુદ્ધ છે એમ નિત્ય ભાવના ભાવવી જોઈએ. बारस अणुवेक्खा ५१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्रवानुप्रेक्षा मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति । पणपणचउतियभेदा सम्मं परिकित्तिदा समए ॥४७॥ मिथ्यात्व औ अविरती व कषाय चारों, औ योग आस्रव रहें इनको विसारो । ये पांच पांच क्रमशः चउ तीन भाते, सतशास्त्र शुद्ध इनका शुचि गीत गाते ॥४७॥ મિથ્યાત્વ ને અવિરત કષાયો યોગ આસવ દ્વાર છે, પંચ પંચ ચતુવિક ભેદ સમકથી કહ્યા જિનશાસને. ૪૭ ___ अर्थ- मिथ्यात्व, अविरति (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) कषाय और योग (मन वचन कायकी प्रवृत्ति) रूप परिणाम आम्रव अर्थात् कर्मोके आनेके द्वार हैं, और उनके क्रमसे पांच, पांच, चार और तीन भेद जिनशासनमें भले प्रकार कहे हैं। भावार्थ-आत्माके मिथ्यात्वादिरूप परिणामोंका नाम आम्रव મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય અને યોગરૂપ પરિણામ આસ્રવાર છે. તેના ક્રમશ: પાંચ, પાંચ, ચાર અને ત્રણ ભેદ જિનશાસનમાં સમ્યકારે કહ્યા છે. ५२ बारस अणुवेक्खा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच । अविरमणं हिंसादी पंचविहो सो हवइ णियमेण ॥४८॥ एकान्त औ विनय औ विपरीत चौथा, अज्ञान संशय करे निजरीत खोता । मिथ्यात्व यों नियमसे वह पंचधा है, हिंसादिसे अविरती वह पंचधा है ।।४८।। (पसंतति) એકાંત ને વિનય ને વિપરીત ચોથું અજ્ઞાન સંશય કરે નિજ જ્ઞાન ખોટું, મિથ્યાત્વ આમ નિયમ પંચવિધ ધારો, હિંસાદિ પાંચ વળી પાપ પ્રસિદ્ધ માનો. ૪૮ अर्थ- मिथ्यात्वके एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान ये पांच भेद हैं, तथा अविरतिके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच भेद होते हैं। इनसे कम बढ नहीं होते हैं। મિથ્યાત્વના એકાન, વિનય, વિપરીત, સંશય અને અજ્ઞાન આ પાંચ ભેદ છે તથા અવિરતિના હિંસા, જૂઠ, ચોરી, કુશીલ અને પરિગ્રહ આ પાંચ ભેદ નિયમથી बारस अणुवेक्खा ५३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहो माणो माया लोहोवि य चउविहं कसायं खु । मणवचिकायेण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ॥ ४९ ॥ माया प्रलोभ पुनि मान व क्रोध चारों, होते कषाय दुःख दे, इनको विसारो । वाक्काय और मन ये त्रय योग होते, वे सिद्ध योग बिन हो उपयोग ढोते ||४९ || માયા પ્રલોભ વળી માન ને ક્રોધ ચારે ते छे उपाय हुः महायी अहो ! ते त्यागे; ભાખ્યાં ત્રિયોગ મન ચંચળ દેહ વાણી ભવ્યો અહો ! અવધરો ઉપયોગ આણી ! ૪૯ अर्थ - ऐसा जानना चाहिये कि, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायके भेद हैं और मन, वचन तथा काय ये तीन योगके भेद हैं । ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ આ ચાર ક્યાયના ભેદ છે અને મન, વચન તથા કાયા એ ત્રણ યોગના ભેદ છે, એમ જાણો. ५४ बारस अणुवेक्खा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कं वण्णिदं हवे दुविहं । आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि ॥५०॥ होता द्विधा वह शुभाशुभ भेद द्वारा, प्रत्येक योग समझो गुरुने प्रकारा । आहार आदिक रही वह चार संज्ञा, होता वही अशुभ है 'मन' मान अज्ञा ॥५०॥ તે હોય છે દ્વિવિધ શુભ-અશુભ પ્રકારે પ્રત્યેક યોગ ગુરુ તેજ રીતે પ્રમાણે સંજ્ઞાઓ જે તુરીય કહી આહાર આદિ તે અશુભ ચિત્તરૂપ ભવ્યજને પ્રમાણી. ૫૦ अर्थ - मन, वचन और काय ये अशुभ और शुभके भेदसे दो दो प्रकारके है । इनमेंसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार प्रकारकी संज्ञाओं ( वांछाओं) को अशुभमन जानना चाहिये । भावार्थ- जिस मनमें आहार आदिकी अत्यन्त लोलुपता हो, उसे अशुभमन कहते हैं । મન, વચન અને કાયાના અશુભ તેમજ શુભ એમ બે પ્રકાર છે. તેમાં આહાર, ભય, મૈથુન અને પરિગ્રહરૂપ ચાર સંજ્ઞાઓને અશુભમન જાણો. अणुवेक्खा ५५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किण्हादितिण्णि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिदिदरिणामो । ईसाविसादभावो असुहमणंत्ति य जिणा वेंति ॥५१॥ लेश्या संगी अशुभ जो प्रतिकूल बाना, धिक्कार इन्द्रिय सुखो नित झूल जाना । ईर्षा विषाद इनको जिनशास्त्र गाता, ये ही रहे अशुभ सो मन दुःखदाता ॥५१।। લેશ્યા બધી અશુભ ને પ્રતિકૂળ જાણો સુખ ઇન્દ્રિના વિષરૂપે કરી નિત્ય માનો ઈર્ષા વિષાદ કેવળ દુઃખરૂપ માનો ભાવો બધા અશુભ આ સૌને પ્રમાણો. ૫૧ __ अर्थ- जिसमें कृष्ण,नील, कापोत ये तीन लेश्या हों, इन्द्रियसम्बन्धी सुखोंमें जिसके लोलुपतारूप परिणाम हों और ईर्षा (डाह) तथा विषाद (खेद) रूप जिसके भाव रहते हों, उसे भी श्रीजिनेन्द्रदेव अशुभ मन कहते हैं। જેનામાં કૃષ્ણ નીલ, કાપોત આ ત્રણ લેહ્યા હોય, ઈન્દ્રિય સુખોમાં લોલુપતારૂપ પરિણામ હોય અને ઈર્ષા તથા વિષાદરૂપ જેમના ભાવ રહેતા હોય તેને શ્રી જિનેન્દ્રદેવ અશુભ મન કહે છે. ५६ बारस अणुवेक्खा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागो दोसो मोहो हास्सादी-णोकसायपरिणामो । थूलो वा सुहुमो वा असुहमणोत्ति य जिणा वेंति॥५२॥ नौ नोकषायमय जो परिणाम होना, संमोह रोष रतिको अविराम ढोना ।। हो स्थूल सूक्ष्म कुछ भी जिनका बताना, वे ही रहे अशुभ सो मन दुःख बाना ||५२।। નૌ નોકષાય રૂપ જે પરિણામ થાય વળી મોહ રોષ રતિ ભાવ વિભાવ થાય, તે સ્થૂળ સૂકમ વળી મિશ્રપણે વિરાજે તે સર્વને અશુભરૂપ જિનો નિવાજે. પર* अर्थ- राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणाम भी चाहे वे तीव्र हों, चाहे मन्द हों, अशुभमन है, ऐसा जिनदेव कहते हैं। रा, द्वेष, मोड, खास्य, रति, २२ति, शो5, मय, शुगुप्सा, स्त्री३६, पुरुषवेद અને નપુંસકવેદરૂપ પરિણામ- ભલે પછી તે તીવ્ર હોય કે મર્જ હોય - અશુભમન રૂપ છે, એમ જિનદેવ જણાવે છે. बारस अणुवेक्खा ५७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तिच्छिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि । बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति ॥५३॥ स्त्री राज चोर अरु भोजनकी कथायें, माना बुरा वचन योग करें व्यथायें । औ छेदनादि वधनादि बुरी क्रियायें, सो कायका अशुभ योग यती बतायें ॥५३।। સ્ત્રી રાજ ચોર વળી ભોજનની કથાઓ અપ્રશસ્ત વાણીરૂપ યોગ પ્રભુએ ભાખ્યો ને છેદ-ભેદ-વધ રૂપી બુરી ક્રિયાઓ તે કાયયોગ દુ:ખદાયી અશુભ ગાયો. ૫૩ अर्थ- भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा करनेको अशुभवचन जानना चाहिये। और बांधने, छेदने और मारनेकी क्रियाओंको अशुभकाय कहते हैं। ભોજનકથા, સ્ત્રીકથા, રાજકથા અને ચોરકથારૂપ વચનવ્યવહારને અશુભવચન જાણો તથા છેદન-ભેદન-બંધનરૂપ ક્રિયાઓને અશુભકાય જાણો. ५८ बारस अणुवेक्खा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोत्तूण असुहभावं पुव्वुत्तं णिरवसेसदो दव्वं । वदसमिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे ॥५४॥ पूर्वोक्त जो अशुभ भाव उन्हें विसारे, छोड़े तथा अशुभ द्रव्य अशेष सारे । हो संयमी समिति शील व्रतों निभाना, जानो उसे शुभ रहा मन योग बाना ॥५४।। પૂર્વોકત જે અશુભભાવ સહુ વિસારે ને પાપકારી સૌ દ્રવ્યવળી નિવારે થઈ સંયમી સમિતિશીલ-વ્રતાદિ પાળે તેને પ્રશસ્ત મનયોગ જિનેન્દ્ર ભાખે. ૫૪ अर्थ- पहले कहे हुए रागद्वेषादि परिणामोंको और सम्पूर्ण धनधान्यादि परिग्रहोंको छोडकर जो व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम होते हैं, उन्हें शुभमन जानना चाहिये। પૂર્વોક્ત રાગદ્વેષાદિ પરિણામોને અને સંપૂર્ણ ધન-ધાન્યાદિ પરિગ્રહોને છોડીને | જે વ્રત, સમિતિ, શીલ અને સંયમરૂપ પરિણામ કરે છે તેને શુભમન જાણો. बारस अणुवेक्खा ५९ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिट्ठ । जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा ॥५५ ॥ बोलो वही वचन जो भव दुःखहारी, सो योग है वचनका शुभ सौख्यकारी । सददेव शास्त्र गुरु पूजन लीन काया, सो काय योग शुभ है जिन ईश गाया || ५५ || બોલો સહુ વચન જે ભય દુ:ખહારી –ને વાણી યોગ શુભ છે શિવ સૌખ્યકારી, સત્ દેવ-શાસ્ત્ર-ગુરુપૂજનયુક્ત કાયા તે કાય યોગ શુભ જિન પ્રભુને બતાયા. ૫૫ 'अर्थ - जन्ममरणरूप संसारके नष्ट करनेवाले वचनोंको जिनभगवानने शुभवचन कहा है और जिनदेव, जिनगुरु तथा जिनशास्त्रोंकी पूजारूप कायकी चेष्टाको शुभकाय कहते हैं। જન્મમરણરૂપ સંસારનો નાશ કરવાવાળાં વચનોને જિનભગવાને શુભવચન કહ્યાં છે અને જિનદેવ, જિનગુરુ તથા જિનશાસ્ત્રોની પૂજારૂપ શરીરની ચેષ્ટાને શુભકાય इहे छे. ६० बारस अणुवेक्खा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मसमुद्दे बहुदो (स-वीचिये) दुक्खजलचराकिण्णे । जीवस्स परिब्भमणं कम्मासवकारणं होदि ॥५६॥ जो दुःखरूप जल जंगमसे भरा है, ले दोषरूप लहरें लहरा रहा है ॥ खाता, भवार्णव जहां यह जीव गोता, है कर्म-आस्रव सहेतु सदीव होता ॥५६|| જે જળતરંગ બહુ દુઃખરૂપે ભરેલો સુધા તૃષાદિ દોષે વિધવિધ ભરેલો તેવા ભવાટવીમહિ જીવ ખાય ગોતા ते मास घडी ४५ सेम ता. ५६ - ।। अर्थ- जिसमें क्षुधा तृषादि दोषरूपी तरंगें उठती हैं, और जो दुःखरूपी अनेक मच्छकच्छादि जलचरोंसे भरा हुआ है, ऐसे संसारसमुद्रमें कर्मोके आम्रवके कारण ही जीव गोते खाता है। संसारमें भटकता फिरता है। જેનામાં સુધા-તૃષાદિ દોષરૂપી તરંગો ઊઠતી રહે છે, જે દુઃખરૂપી અનેક જલચરોથી ભરેલો છે. એવા સંસાર-સમુદ્રમાં કર્માસવના કારણે જ જીવ ગોનાં ખાય बारस अणुवेक्खा ६१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मासवेण जीवो वूडदि संसारसागरे घोरे । जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया ॥५७॥ ज्यों ही कुधी करम-आस्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता । सद्ज्ञानमंडित क्रिया कर तू जरासे, है मोक्षका वह निमित्त परंपरासे ॥५७।। (&२०ीत) છે જ્ઞાનપૂર્વક જે ક્રિયા તે મોક્ષનું કારણ બને; સંસારરૂપ અંધારમાં જીવ કર્મ આસવથી ડૂબે. ૫૭ अर्थ- जीव इस संसाररूपी महासमुद्रमें अज्ञानके वश कर्मोका आम्रव करके डूबता है। क्योंकि जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है, वही परम्परासे मोक्षका कारण होती है ( अज्ञानवश की हुई क्रिया नहीं)। જીવ, આ ભયંકર સંસાર સાગરે કર્મોનો આસ્રવ કરીને ડૂબે છે, કેમકે જે કિયા જ્ઞાનપૂર્વક હોય છે તે જ પરંપરા મોક્ષનું કારણ થાય છે. ६२ बारस अणुवेक्खा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसवहेदू जीवो जम्मसमुद्दे णिमज्जदे खिप्पं । आसवकिरिया तम्हा मोक्खणिमित्तं ण चिंतेज्जो ॥५८॥ ज्यों ही कुधी करम आम्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता । जो आस्रवा वह क्रिया शिवका न हेतु, ऐसा विचार कर नित्य नितान्त रे तू ।।५८।। જીવ આસવોના કારણે સંસારમાં ભટક્યા કરે; તેથી કદી આસ્રવ ક્રિયા નહિ મોક્ષનું કારણ બને. ૫૮ अर्थ- जीव आम्रवके कारण संसारसमुद्रमें शीघ्र ही गोते खाता है। इसलिये जिन क्रियाओंसे कर्मोंका आगमन होता है, वे मोक्षको ले जानेवाली नहीं हैं। ऐसा चिन्तवन करना चाहिये। જીવ આસવના કારણે સંસારસમુદ્રમાં ગોથાં ખાય છે, તેથી આસવ કિયા મોક્ષ નિમિત્ત નથી, એમ ચિંતવવું જોઈએ. बारस अणुवेक्खा ६३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंपज्जाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं । संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥ ५९ ॥ हो सास्रवी वह क्रिया न परंपरासे, निर्वाण हेतु तुम तो समझो जरा से । संसारके गमनका वह हेतु होता, है निंद्य आस्रव हमें भवमें डुबोता ॥ ५९ ॥ પૂર્વે કથિત આસ્રવ ક્રિયાથી પ્રાપ્તિ નહિ નિર્વાણની, તે ગમનરૂપ સંસાર કારણ તેથી નિંઘ પીછાણવી. ૫૯ अर्थ - कर्मोका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्वाण नहीं हो सकता है। इसलिये संसारमें भटकानेवाले आस्रवको बुरा समझना चाहिये। કર્મનો આસ્રવ કરનારી ક્રિયાથી પરંપરાએ પણ નિર્વાણની પ્રાપ્તિ થતી નથી, માટે સંસારમાં ભટકાવવાના કારણરૂપ આસ્રવને નિંઘ જાણ. ६४ बारस अणुवेक्खा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुव्वुत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स । उहयासवणिम्मुक्कं अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥६०॥ पूर्वोक्त आम्रव विभेद निरे निरे हैं, आत्मा विशुद्ध नयसे उनसे परे है। आत्मा रहा उभय आम्रव मुक्त ऐसा, चिंते सभी तज प्रमाद सुधी हमेशा ॥६०॥ પૂર્વોક્ત આસવ ભેદ તે નિશ્ચયનયે નહિ જીવને, તે ઉભય આસવ રહિત આત્મા નિત્ય એમ વિચારજે. ૬૦ अर्थ- पहले जो मिथ्यात्व अव्रत आदि आम्रवके भेद कह आये हैं, वे निश्चयनयसे जीवके नहीं होते हैं। इसलिये निरन्तर ही आत्माको द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकारके आम्रवोंसे रहित चितवन करना चाहिये। પૂર્વોક્ત આસવના ભેદો નિશ્ચયનયે આત્મામાં હોતા નથી, માટે આત્માનું દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ બન્ને પ્રકારનું આસ્રવરહિત ચિંતવન સદા કરવું જોઈએ. बारस अणुवेक्खा ६५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ संवरभावना चलमलिणमगाढं च वज्जिय सम्मत्तदिढकवाडेण । मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदिति जिणेहिं णिदिदळं ॥१॥ सम्यकत्व का दृढ कपाट विराट प्यारा, जो शून्य है चलमलादि अगाढ द्वारा । मिथ्यात्वरूप उस आस्रव द्वारको है, जो रोकता जिन कहें जग सार सो है ||६१|| ચલ મલ અગાઢ રહિત સમજ દઢ કમાડે થાય છે, મિથ્યાત્વ આસવ બંધ, જિનથી એમ નિર્દેશાય છે. ૬૧ अर्थ- जो चल, मलिन और अगाढ इन तीन दोषोंसे रहित है ऐसे सम्यकत्वरुपी सघन किबाडोंसे मिथ्यात्वरूप आम्रवका द्वार बन्द होता है, ऐसा | जिनभगवानने कहा है। भावार्थ- आत्माके सम्यकत्वरुप परिणामोंसे मिथ्यात्वका आम्रव रुककर मिथ्यात्व- संवर होता है। ચલ, મેલ અને અગાઢ એવા ત્રણ દોષ રહિત જેના સ ત્વ કમાડો દૃઢ છે, તેમાં મિથ્યાત્વરૂપ આસવોના પ્રવેશદ્વાર બંધ થાય છે, એમ શ્રી જિનેન્દ્ર ભગવાને 5jछ. ६६ बारस अणुवेक्खा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा । कोहादिआसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं(?)॥६॥ पाले मुनीश-मन पंच महाव्रतोंको,. रोके सही अविरतीमय आम्रवोंको । जो निष्कषायमय पावन भाव धारे, रोके कषायमय आस्रव द्वार सारे ॥६२।। વ્રત અહિંસાદિકથી ખરે અવિરમણ રોકાય છે, બંધ દ્વાર આસવનાં બધાં યમ નિષ્કષાયે થાય છે. દર अर्थ- अहिंसादि पांच महाव्रतरूप परिणामोंसे नियमपूर्वक हिंसादि पांचों अव्रतोंका आगमन रुक जाता है और क्रोधादि कषायरहित परिणामोंसे क्रोधादि । आम्रवोंके द्वार बन्द हो जाते हैं। भावार्थ- पांच महाव्रतोंसे पांच पापोंका संवर होता है और कषायोंके रोकनेसे कषाय संवर होता है। અહિંસાદિ પાંચ મહાવ્રતરૂપ પરિણામોથી હિંસાદિ પાંચ આગ્નવોનું આગમન નિશ્ચયપૂર્વક રોકાય છે અને કોંધાદિ કષાયરહિત આસવોના દ્વાર બંધ થઈ શકે છે. बारस अणुवेक्खा ६७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥६३॥ औचित्य है कि शुभ योग विकास पाता, सद्यः स्वतः अशुभ योग विनाश पाता । शुद्धोपयोग शुभयोगनको नशाता, ऐसा वसंततिलका यह छन्द गाता ॥६३|| . શુભ યોગની પ્રવૃત્તિથી સંવર અશુભ યોગ થાય છે, શુભ યોગનો નિરોધ તે શુદ્ધોપયોગ થાય છે. ૬૩ अर्थ- मन वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभयोगका संवर होता है और केवल आत्माके ध्यानरूप शुद्धोपयोगसे शुभयोगका संवर होता है। મન, વચન, કાયાની શુભ પ્રવૃત્તિઓથી અશુભ યોગનો સંવર થાય છે, અને શુદ્ધોપયોગથી શુભ યોગનો નિરોધ થાય છે. ६८ बारस अणुवेक्खा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धवजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ॥६४॥ शुद्धोपयोग बल वो मिलता जिसे है, तो धर्म शुक्लमय ध्यान मिले उसे है । है ध्यान हेतु विधि संवरका इसीसे, ऐसा करो सतत चिंतन भी रुची से ॥६४।। શુદ્ધોપયોગે ધ્યાન શુક્લ ધર્મ જીવને થાય છે, તેથી નિરંતર સંવરોનું ધ્યાન કારણ થાય છે. ૬૪ अर्थ- इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिये संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिये। भावार्थ- उत्तम क्षमादिरूप दश धर्मोके चिन्तवन करनेको धर्मध्यान कहते हैं और बाह्य परद्रव्योंके मिलापसे रहित केवल शुद्धात्माके ध्यानको शुक्लध्यान कहते हैं। इन दोनों ध्यानोंसे ही संवर होता है। વળી શુદ્ધોપયોગથી જીવને ધર્મધ્યાન અને શુક્લધ્યાન થાય છે. તેથી સંવરનું કારણ ધ્યાન છે, એમ નિરંતર વિચારવા યોગ્ય છે. बारस अणुवेक्खा ६९ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो । संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥६५॥ जीवात्मामें न वंर संवर भाव होता, वो तो. विशुद्धनयसे शुचि भाव ढोता । आत्मा विमुक्त वर संवर भाव से रे! ऐसा सुचिंतन सदा कर चावसे रे! ॥६५।। પરમાર્થ શુદ્ધ નિશ્ચયનયે સંવર નહિ કદી જીવમાં, સંવર રહિત નિત ચિંતવો નિજ આત્મ શુદ્ધ સ્વરૂપમાં, ૬૫ अर्थ- परन्तु शुद्ध निश्चयनयसे (वास्तवमें) जीवके संवर ही नहीं है। इसलिये संवरके विकल्पसे रहित आत्माका निरन्तर शुद्धभावसे चिन्तवन करना चाहिये। भावार्थ- आम्रव संवर आदि अवस्थायें कर्मके सम्बन्धसे होती हैं, परन्तु वास्तवमें आत्मा कर्मजंजालसे रहित शुद्धस्वरूप है। પરમ શુદ્ધ નિશ્ચયનયે જીવમાં સંવર જ નથી. તેથી સંવરના વિકલ્પ રહિત આત્માનું શુદ્ધ ભાવપૂર્વક નિરંતર ચિંતવન કરવા યોગ્ય છે. ७० बारस अणुवेक्खा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ निर्जराभावना बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि हि जि (णवरोप)त्तम् । जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे ॥६६॥ जो भी बंधा पृथक हो विधि आतमासे, सो निर्जरा जिन कहे निजकी प्रभासे । हो संवरा जिस निजी परिणाम द्वारा, हो निर्जरा वह उसी परिणाम द्वारा ॥६६।। ગળી જાય બંધ પ્રદેશ તેને નિર્જરા જિનવર કહે, પરિણામથી જે થાય સંવર તેને નિર્જરણા કહે. ૬૬ अर्थ- कर्मबन्धके पुद्गलवर्गणारूप प्रदेशोंका जिनका कि आत्माके साथ सम्बन्ध हो जाता है, झड जाना ही निर्जरा है ऐसा जिनदेवने कहा है। और जिन परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है। भावार्थ - ऊपर कहे हुए जिन सम्यकत्व, महाव्रतादि परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है। भी कहनेका अभिप्राय यह है कि, निर्जराका मुख्य कारण तप है। કર્મબંધના પ્રદેશોનું ગલન તે નિર્જરા છે, એમ શ્રી જિનેન્દ્રોએ કહ્યું છે, અને જે પરિણામથી સંવર થાય છે તેનાથી નિર્જરા થાય છે, એમ હે જીવ! તું જાણ. बारस अणुवेक्खा ७१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा । चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥६७॥ सो निर्जरा द्विविध एक असंयमीमें, होती सभी गतिनमें इक संयमीमें । आद्या स्वकाल विधिका झरना कहाती, दूजी तपश्चरणका फल रूप भाती ॥६७|| વળી બે પ્રકારે નિર્જરા સવિપાક ને અવિપાક છે, - सqिu5 यातुति पो वि5 प्रतसंयुतने. ६७ __ अर्थ- ऊपर कही हुई निर्जरा दो प्रकारकी है, एक वह जो अपना काल पूर्ण करके पकती है अर्थात् जिसमें कार्माणवर्गणा अपनी स्थितिको पूरी करके झड़ जाती हैं, और दूसरी वह जो तप करनेसे होती है अर्थात् जिसमें कार्माणवर्गणा अपनी बंधकी स्थिति तपके द्वारा बीचमें पूरी करके- पक करके खिर जाती हैं। इनमेंसे पहली स्वकालपक्व वा सविपाक निर्जरा चारों गतिवाले जीवोंके होती है और दूसरी तपकृता वा अविपाकनिर्जरा केवल व्रतधारी. श्रावक तथा मुनियोंके होती है। વળી નિર્જરા બે પ્રકારની છે. એક તો જે પોતાનો કાળ પૂર્ણ કરીને પાકે છે છે, અને બીજી તપ કરવાથી થાય છે, તેમાં પહેલી સવિપાક નિર્જરા ચારે ગતિના જીવોને થાય છે અને બીજી અવિપાક નિર્જરા વતીઓને થાય છે. ७२ बारस अणुवेक्खा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ धर्मभावना एयारसदसभेयं धम्म सम्मत्तपुव्वयं भणियं । सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥६८।। है धर्म ग्यारह तथा दश भेदवाला, सम्यकत्वसे सहित है निजवेदशाला । सागार और अनगार जिसे निभाते, पा श्रेष्ठ सौख्य जिन यों हमको बताते ।।६८।। સાગાર ને અનગાર સમ્યફ સહિત ધર્મ જિનો કહે, બહુ ભેદ તેના ક્રમશ: એકાદશ અને દશ રૂપ છે. ૬૮ 5८ अर्थ- उत्तम सुख अर्थात् आत्मीक सुखमें लीन हुए जिनदेवने कहा है कि, श्रावकों और मुनियोंका धर्म जो कि सम्यकत्वसहित होता है, क्रमसे श्रावकोंका ग्यारह प्रकारका है और मुनियोंका दश प्रकारका है। શ્રાવક અને મુનિનો ધર્મ જે સમ્યકત્વ સહિત છે તેના કમશ: અગિયાર અને દશ પ્રકાર છે. તે ઉત્તમ આત્મિક સુખમાં લીન છે, એવા શ્રી જિનેન્દ્રોએ કહ્યું છે. बारस अणुवेक्खा ७३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसणवयसामाइयपोसहसच्चित्तरायभत्ते य । बम्हारंभपरिग्गहअणुमणमुदिदट्ठ देसविरदेदे ॥६९॥ सददर्शना सुव्रत सामयकी समक्ति, औ प्रोषधी सचित त्याग दिवाभिभुक्ति, है ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक नाम पाता, आरंभ संग अनुमोदन त्याग साता, उद्दिष्टत्याग व्रत ग्यारह ये कहाते, हैं एकदेश व्रत श्रावकके सुहाते ॥६९।। (संततिम) સદર્શના સુવ્રત પોષધ સામભાવ .. સચિત્ત ત્યાગ સંગ-આરંભ દિવાનું ભોજ છે બ્રહ્મચર્ય વ્રત સાર્થક નામ કેવું ઉદ્રિષ્ટાહાર વળી અનુમતિ ત્યાગ રેવું દસ-એક રૂપ કહી શ્રેણી જે ધર્મમાંહિ વિવેકથી અનુસરી લહે શ્રેય પ્રાણી. ૬૯ अर्थ- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभक्तत्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह भेद देशव्रत अथवा श्रावकधर्मके हैं। ये भेद श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाके नामसे प्रसिद्ध दर्शन, अन, सामायि5, प्रो५यो५पास, सयित्तत्या, Eिqाभिमुनित्या, બ્રહ્મચર્ય, આરંભ ોગ, પરિગ્રહત્યાગ. અનુમતિત્યાગ અને ઉદષ્ટાહારત્યાગ આ અગિયાર ભેદ દેશવ્રત અથવા શ્રાવકધર્મના છે. આ ભેદ શ્રાવકની અગિયાર પ્રતિમાના નામથી मोगमाय छे. ७४ बारस अणुवेक्खा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमखममददवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवतागमकिंचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि ॥७॥ प्यारी क्षमा मृदुलता ऋजुता सचाई, औ शौच संयम धरो तप धार भाई । त्यागो परिग्रह अकिंचन गीत गा लो, तो ! ब्रह्मचर्य सरमें डुबकी लगा लो ॥७०॥ (हरिगीत) ઉત્તમ ક્ષમા આર્જવ મૃદુતા સત્ય સંયમ શૌચ ને, તપ ત્યાગ અકિંચન અને બ્રહ્મચર્ય દશવિધ ધર્મ છે. ૭૦ अर्थ- उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश भेद मुनिधर्मके हैं । उत्तम क्षम, माई१, माप, सत्य, शौय, संयम, २५, त्याग, मायिन भने બ્રહ્મચર્ય એ દશ ભેદ મુનિધર્મના છે बारस अणुवेक्खा ७५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति।।७१॥ साक्षातकार यदि हो उससे, खड़ा है, जो क्रोधका जनक बाहरमें अडा है । पै क्रोध लेशतक भी मनमें न लाते, पाते क्षमा धरम वे, मुनि हैं कहाते ॥७१।। (पसंतति45) સાક્ષાત્ કોધ ઉત્પત્તિ કરાવનારું કારણ ભલે ઉપજી પ્રત્યક્ષ સામું આવ્યું તો પણ નહીં આક્રોશ લેશ જેને શ્રી જિનવરો વૃષ ક્ષમાનિધિ કેછે તેને. ૭૧ अर्थ- क्रोधके उत्पन्न होनेके साक्षात् बाहिरी कारण मिलने पर भी जो | थोडा भी क्रोध नहीं करता है, उसके उत्तमक्षमा धर्म होता है। છોધની ઉત્પત્તિનાં સાક્ષાત્ બાહ્ય કારણ મળવા છતાં જેના અંતરમાં કિંચિત માત્ર છોધ ઉત્પન્ન થતો નથી તેને ભગવાને ઉત્તમક્ષમા ધર્મ કહ્યો છે. ७६ बारस अणुवेक्खा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलस्बजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि । जो णवि कुव्वदि समणो मददवधम्म हवे तस्स ॥७२।। हूं श्रेष्ठ जाति कुलमें श्रुतमें यशस्वी, ज्ञानी सुशील अतिसुन्दर हूं तपस्वी । ऐसा नहीं श्रमण हो मन मान लाते, औचित्य ! वे परम मार्दव धर्म पाते ।।७२।। છું શ્રેષ્ઠ જાતિ-કુળમાં શ્રુતમાં યશસ્વી જ્ઞાની સુશીલ અતિસુંદર છું તપસ્વી એવું નહીં શ્રમણ જે મન માંહિ આણે मौचित्य ! ते ५२म भाई धर्म पामे. ७२ . अर्थ- जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शीलादिके विषयमें थोड़ासा भी घमंड नहीं करता है, उसीके मार्दव धर्म होता જે શ્રમણ કુળ, રૂપ, જાતિ, બુદ્ધિ, તપ, શાસ્ત્ર અને શીલાદિ સંબંધી અલ્પ પણ અહંકાર રાખતા નથી તેમને ઉત્તમ માર્દવ ધર્મ હોય છે बारस अणुवेक्खा ७७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो । अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ॥७३॥ कौटिल्य छोड मुनि चारित पालता है, हीराभ सा विमल मानस धारता है । सो तीसरा परम आर्जव धर्म पाता, है अन्तमें नियमसे शिवशर्म पाता ।।७३|| કૌટિલ્ય છોડી મુનિ ચારિત ધર્મ પાળે, ચિત્ત પારદર્શી નિત જે અવધારી રાખે તે તૃતીય ધર્મ આર્જવમહિં નિત્ય રાચે | શિવ સૌખ્ય પામી નિજ આતમને ઉગારે. ૭૩ __ अर्थ- मनस्वी (शुभविचारवाला) प्राणी कुटिलभाव वा मायाचारी परिणामोंको छोडकर शुब्द हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है। भावार्थ- छल कपटको छोड़कर मन वचन कायाकी सरल प्रवृत्तिको आर्जव धर्म कहते हैं। જે શ્રમણ કુટિલભાવ અથવા માયાચારનાં પરિણામોને છોડીને શુદ્ધ હૃદયથી ચારિત્રનું પાલન કરે છે, તેને નિયમથી આર્જવધર્મ હોય છે. ७८ बारस अणुवेक्खा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ॥ ७४ ॥ मिश्री मिले वचन वे रुचते सभीको, संताप हो श्रवणसे न कभी किसीको । कल्याण हो स्वपरका मुनि बोलता है, सो सत्यधर्म उसका द्रग खोलता है ||७४ || ટાઢક મળે વચનથી સૌને રુચે જે, ક્લેશિત બને ન મન કોઈનું જે થકી તે, મુનિ તે વદે સ્વ-પરહિત ઉપજાવનારું તે ધારનાર સત્ ધર્મ બતાવનારું. ૭૪ अर्थ- जो मुनि दूसरेको क्लेश पहुंचानेवाले वचनोंको छोडकर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्यधर्म होता है। जिस वचनके कहनेसे अपना और पराया हित होता है तथा दूसरेको कष्ट नहीं पहुंचता है, उसे सत्य धर्म कहते हैं। જે મુનિ બીજાને કષ્ટ પહોંચાડનારા વચનોનો ત્યાગ કરે છે અને સ્વપરહિતકારક વચનોને ઉચ્ચારે છે તેમને સત્યધર્મ હોય છે. बारस अणुवेक्खा ७९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेग्गभावणाजुत्तो । जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सौचं ॥७५॥ भोगाभिलाष जिसने मनसे हटाया, वैराग्यभाव द्रढसे निजमें जगाया । ऐसा महा मुनिपना मुनि ही निभाता, सो, शौच धर्ममय जीवन है बिताता ||७५।। ભોગાભિલાષ સૌ ચિત્ત થકી હટાવી વૈરાગ્યભાવ મનમાં દ્રઢ ઉપજાવી એવું મહા મુનિપણે મુનિ જે નિભાવે તે ધીર-વીર સાધુ શુચિ ધર્મ ધારે. ૭૫ अर्थ- जो परममुनि इच्छाओंको रोककर और वैराग्यरूप विचारोंसे युक्त होकर आचरण करता है, उसके शौचधर्म होता है। भावार्थ- लोभकषायका त्याग करके उदासीनरूप परिणाम रखनेको शौचधर्म कहते हैं। જે પરમમુનિ ઇચ્છાઓને રોકીને વૈરાગ્યભાવયુક્ત આચરણ કરે છે, તેમને શૌચધર્મ હોય છે. ८० बारस अणुवेक्खा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इन्दियजएण | परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ||७६ || जो पालता समिति इन्द्रिय जीतता है, है योग-रोध करता, व्रत धारता है । ऐसा महा श्रमण जीवन जी रहा है, सदधर्म संयम - सुधा वह पी रहा है ||७६ || જે પાળતો સમિતિ ઇન્દ્રિય જીતતો જે વળી યોગ-રોધ કરી સુવ્રતને ધરે જે એવા મહામુનિનું જીવન દીપતું છે સદધર્મ સંયમ-સુધારસ વેરતું છે. ૭૬ अर्थ- व्रतों और समितियोंके पालनरूप, दंडत्याग अर्थात् मन वचन | कायकी प्रवृत्तिके रोकनेरूप, और पांचो इन्द्रियोंके जीतनेरूप परिणाम जिस जीवके होते हैं, उसके संयमधर्म नियमसे होता है। सामान्यरूपसे पांचो इन्द्रियों और मनके रोकने से संयमधर्म होता है। व्रत, समिति, गुप्ति इसीके भेद है। व्रत-समितिना पालन३य, मन-वयन-डायानी प्रवृत्तिना निरोध३५, પંચેન્દ્રિયના વિષયોને જીતવારૂપ જે જીવનાં પરિણામ હોય છે, તેને નિયમથી સંયમધર્મ होय छे. बारस अणुवेक्खा ८१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसिज्झीए । जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ॥७७॥ फोड़ा कषाय घटको मनको मरोड़ा, लो साधुने विषयको विष मान छोडा । स्वाध्याय ध्यान बलसे निजको निहारा, पाया नितान्त उसने तपधर्म प्यारा ॥७७।। ફોડી કષાય-ઘટને મનને મરોડી જેણે જ્યાં વિષયને વિષ જેમ ઘોળી સ્વાધ્યાય-ધ્યાન-બળથી નિજને નિહાળે નિતાન ધર્મ તપમાં મુનિ તે વિરાજે. ૭૭ अर्थ- पांचों इन्द्रियोंके विषयोंको तथा चारों कषायोंको रोककर शुभ ध्यानकी प्राप्तिके लिये जो अपनी आत्माका विचार करता है, उसके नियमसे तप होता है। વિય-કષાયનો નિરોધ કરીને ધ્યાનની સિદ્ધિ અર્થે જે જીવ પોતાના આત્માનો | વિચાર કરે છે, તેને નિયમથી તપધર્મ હોય છે. ८२ बारस अणुवेक्खा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥७८।। वैराग्य धार भव भोग स्वदेहसे वो, देखा स्वको यदि सुदूर विमोहसे हो । तो त्यागधर्म समझो उसने लिया है, संदेश यों जगतको प्रभुने दिया है ||७८।। વૈરાગ્ય ધારી ભવ ભોગ સ્વદેહથી જે નિર્મમ બની સ્વ, સ્વમાં સ્વથી દેખતો જે તે જાણજો ધરમ ત્યાગ રૂડો ધરે છે તેને જિનાગમ મહી મુનિવર કહે છે. ૭૮ अर्थ-- जिनेन्द्र भगवानने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्योंसे मोह छोडकर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसको त्यागधर्म होता है। જે જીવ સર્વે પરદ્રવ્યોમાંથી મોહ છોડીને સંસાર, દેહ અને ભોગોમાં ઉદાસીન | પરિણામ રાખે છે, તેને ત્યાગધર્મ હોય છે એમ જિનેન્દ્ર ભગવાન કહે છે बारस अणुवेक्खा ८३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । णिदेण दु वट्टदि अणयारो तस्सकिंचन्हं ॥७९॥ जो अंतरंग बहिरंग निसंग नंगा, होता दुःखी नहि सुखी बस नित्य चंगा । निर्द्वन्द्व हो विचरता अनगार होता, भाई वही वर अकिंचनधर्म ढोता ॥७९॥ જે અંતરંગ બહિરંગ નિસંગ ભાવે નિદ્રનું થઈ વિચરતો નિર્લોભી રાહે દુ:ખી નહિ સુખી નહિ નિજ મસ્તી માંહે નિર્મમત ધર્મ મુનિપુંગવ તેને ધારે. ૭૯ अर्थ- जो मुनि सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख दुःखके | देनेवाले कर्मजनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चिन्ततासे आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है । भावार्थ - अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके छोडनेको आकिंचन्य कहते हैं। જે મુનિ સર્વ પ્રકારના પરિગ્રહોનો ત્યાગ કરીને સુખ-દુ:ખ ઉત્પન્ન કરવાવાળા કર્મજનિત ભાવોને રોકીને નિદ્રંન્દ્રતારૂપ આચરણ કરે છે તેમને આકિંચનધર્મ હોય છે. ८४ बारस अणुवेक्खा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावम् । सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ।।८।। सर्वांग देखकर भी वनिता जनोंके, होते न मुग्ध उनमें मुनि हैं अनोखे । तो ब्रह्मचर्य व्रतधारक वे रहे हैं, कन्दर्प-दर्प-अपहारक वे रहे हैं ।।८।। સગ દેખી પણ જે વનિતા જનોના, લવલેશ ભાવ નહીં મોહ તણો ઊગે જ્યાં, તો બ્રહ્મચર્ય વ્રત ધારક તે બને છે - अपक्षा२5 ते ४३ छ. ८० अर्थ- जो पुण्यात्मा स्त्रियोंके सारे सुन्दर अंगोंको देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुद्धर ब्रह्मचर्यधर्मको धारण करता है। જે પુણ્યાત્મા, સ્ત્રીઓનાં સુંદર અંગોનું નિરીક્ષણ થવા છતાં રાગરૂપ પરિણામ | કરતો નથી, તેને દુદ્ધર બ્રહ્મચર્યધર્મ હોય છે. बारस अणुवेक्खा ८५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो । सो ण य वज्जदि मोक्खं धम्म इदि चिंतये णिच्चं ॥८॥ सागार धर्म तज के अनगार होते, शास्त्रानुसार यतिके व्रतसार जोते । रीते रहे न शिवसे अनिवार्य पाते, यों धर्म चिंतन करो अयि ! आर्य तातें ॥८॥ (२०ीत) તજી ગૃહસ્થ ધર્મ મુનિ ધરમ સમ્યક પ્રકારે પાળતો, પ્રાપ્તિ કરે તે મોક્ષની જે ધર્મ નિત્ય વિચારતો. ૮૧ अर्थ- जो जीव श्रावकधर्मको छोडकर मुनियोंके धर्मका आचरण करता है, वह मोक्षको पा लेता है, इस प्रकार धर्मभावनाका सदा ही चिन्तवन करते रहना चाहिये। भावार्थ- यद्यपि परम्परासे श्रावकधर्म भी मोक्षका कारण है, परन्तु वास्तवमें मुनिधर्मसे ही साक्षात् मोक्ष होता है, इसलिये इसे ही धारण करनेका उपदेश दिया है। જે જીવ શ્રાવક ધર્મ છોડી યતિધર્મ આચરે છે, તે મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. એમ | ધર્મ ભાવનાનું સદા ચિંતવન કરવું. ८६ बारस अणुवेक्खा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । मज्झत्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिच्चं ॥८॥ सागारधर्म यतिधर्म निरे निरे हैं, आतम विशुद्धनयसे उनसे परे है । मध्यस्थभाव उनमें रखना इसीसे, शुद्धात्मचिंतन सदा करना रुचीसे ॥८२।। નિશ્ચયનયે સાગાર કે અનગારથી જીવ ભિન્ન છે, માધ્યસ્થ ઉર શુદ્ધાત્મનું નિત ધ્યાન કરવા યોગ્ય છે. ૮૨ अर्थ- जीव निश्चयनयसे श्रावक और मुनिधर्मसे बिलकुल जुदा है इसलिये रागद्वेषरहित परिणामोंसे शुद्धस्वरूप आत्माका ही सदा ध्यान करना चाहिये। જીવ નિશ્ચયનયે શ્રાવકધર્મ અને મુનિધર્મથી ભિન્ન છે, માટે માધ્યસ્થભાવ શુદ્ધાત્માનું જ સા ધ્યાન કરવું જોઈએ. बारस अणुवेक्खा ८७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ बोधिदुर्लभ भावना उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स । चिंता हवेइ बोही अच्चत्तं दुल्लहं होदि ॥८३॥ सद्ज्ञान होय जिसभांति उपाय द्वारा, चिंता करें उस उपायनकी सुचारा । चिंता वही परमबोधि अहो कहाती, सो बोधिदुर्लभ अतीव मुझे सुहाती ॥८३॥ | કોઈ ઉપાયે રત્નત્રયની પ્રાપ્તિ મળવાનું કરો, અત્યંત દુર્લભ બોધિના ઉપાયનું ચિંતન કરો. ૮૩ अर्थ - जिस उपायसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति हो, उस उपायकी चिन्ता करनेको अत्यन्त दुर्लभ बोधिभावना कहते हैं। क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञानका पाना बहुत ही कठिन है। જે કોઈ ઉપાયથી રત્નત્રય (સમ્યગ્દર્શન-જ્ઞાન-ચારિત્રની એકતા) ની ઉત્પત્તિ થાય તે ઉપાયનું ચિંતન કરવું તેને અત્યંત દુર્લભબોધિભાવના કહે છે. ८८ बारस अणुवेक्खा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमियणाणं खु । सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं ॥८४॥ जो भी क्षयोपशम ज्ञाननकी छटायें, हैं हेय कर्मवश लो उपजी दशायें । आदेय मात्र निज आतमद्रव्य होता, , सद्ज्ञान सो यह सुनिश्चय भव्य होता ।।८४|| (पसंततिम) જે પણ ક્ષયોપશમજ્ઞાન જનિત છટાઓ, તે હેય, કર્મવશ થઈ બનતી દશાઓ, આદેય માત્ર નિજ આતમ દ્રવ્ય જાણે, સજ્ઞાન નિશ્ચય થકી જિન એમ ભાખે. ૮૪ अर्थ- अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिकज्ञान कर्मोके उदयसे जो कि परद्रव्य हैं उत्पन्न होता है, इसलिय हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वकद्रव्य है अर्थात् आत्माका निज भाव है, इसलिये उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) है। અશુદ્ધ નિશ્ચયનયથી ક્ષાયોપથમિક જ્ઞાન કર્મોદયવશ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી. | હેય છે અને સમગજ્ઞાન આત્માનો નિરવભાવ છે, તેથી ઉપાદેય છે. बारस अणुवेक्खा ८९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलुत्तरपयडीओ मिच्छत्तादी असंखलोगपरिमाणा । परदव्वं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण ॥८५।। होते असंख्यतम लोकप्रमाण सारे, मूलोत्तरादि विधि ये परद्रव्य न्यारे । आत्मा विशुद्धनयसे निज द्रव्य भाता, ऐसा जिनागम निरंतर नित्य गाता ||८५|| ઉપજે અસંખ્યતમ લોકપ્રમાણ સારા, મૂળોતરાદિ પ્રકૃતિ પરબ ન્યારા, આત્મા વિશુદ્ધ નિજદ્રવ્ય રહી સુહાય, એ ગાન જિનાગમ નિરંતર નિત્ય ગાય. ૮૫ अर्थ- अशुद्ध निश्चयनयसे कर्मोकी जो मिथ्यात्व आदि मूलप्रकृतियां वा उत्तर प्रकृतियां गिनतीमें असंख्यातलोकके बराबर हैं, वे परद्रव्य हैं अर्थात् आत्मासे जुदी हैं और आत्मा निज द्रव्य है । અશુદ્ધ નિયનથી કર્મોની જે મિથ્યાત્વાદિ મૂળ અથવા ઉત્તર પ્રવૃતિઓ છે તે અસંખ્યાન લોકપ્રમાણ છે, તે સર્વ પરબ છે, આત્માથી ભિન્ન છે અને આત્મા | નિજ દ્રવ્ય છે. ___ ९० बारस अणुवेक्खा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं जायद गाणं हेयमुबादेय णिच्छये णत्थि । चिंतेज्जइ मुणि बोहिं संसारविरमणट्ठे य ॥८६॥ ऐसा सुचिंतन जभी दिन रात होता, आय हेय वह क्या वह ज्ञात होता । आय हेय नहि निश्चयमें सयाने, चिंतो सुबोध मुनि सो भवकूल पाने ||८६|| એવું સુચિંતન થતું દિનરાત જ્યારે, આદેય હેય તણું જ્ઞાન થતું જ ત્યારે, આદેય હેય નથી નિશ્ચયમાં અહોહો! ચિન્માત્રરૂપ અનુભૂતિ મુનિ લહો જો. ૮૬ अर्थ - इस प्रकार अशुद्धनिश्चयनयसे ज्ञान हेय - उपादेयरूप होता है, परन्तु पीछे उसमें (ज्ञानमें) शुद्ध निश्चयनयसे हेय और उपादेयरूप विकल्प भी नहीं रहता है। मुनिको संसारसे विरक्त होनेके लिए सम्यग्ज्ञानका (बोधिभावनाका) इसी रूपमें चिन्तवन करना चाहिये । આ રીતે અશુદ્ધ નિશ્ચયનયથી જ્ઞાન હેય-ઉપાદેયરૂપ હોય છે, પરંતુ શુદ્ધ નિશ્ચયનયથી તો જ્ઞાનમાં હેય-ઉપાદેયરૂપ વિકલ્પ પણ રહેતો નથી. સંસારથી વિરક્ત થવા માટે મુનિએ આ રીતે સમ્યજ્ઞાનનું (બોધિભાવનાનું) ચિંતવન કરવું જોઈએ. अणुवेक्खा ९१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसअणुवेक्खाओ पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं । आलोयणं समाही तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥८७।। है वस्तुतः सकल बारह भावनायें, आलोचना सुखद शुद्ध समाधियां ये । येही प्रतिक्रमण है बस प्रत्यख्याना, भा भावना नित अतः इनकी सयाना ||८७|| (हरिगीत) પ્રતિક્રમણ પ્રત્યાખ્યાન આલોચન સમાધિરૂપ છે, દ્વાદશ અનુપ્રેક્ષા નિરંતર ધ્યાન કરવા યોગ્ય છે. ૮૭ अर्थ- ये बारह भावना ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि (ध्यान) स्वरूप हैं, इसलिये निरन्तर इन्हींका चितवन करना चाहिये । આ દ્વાદશાનુપ્રેક્ષા (બાર ભાવના જ) પ્રત્યાખ્યાન, પ્રતિકમણ, આલોચના, | સમાધિસ્વરૂપ છે, માટે નિરંતર અનુપ્રેક્ષાનું ચિંતવન કરવું જોઈએ. ९२ बारस अणुवेक्खा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्तिदिवं पडिकमणं पच्चक्खाणं समाहिं सामइयं। आलोयणं पकुव्वदि जदि विज्जदि अप्पणो सत्ती ॥८॥ आलोचना सुसमता व समाधि पाले, सच्चा प्रतिक्रमणका शुचिभाव भा ले । औ प्रत्यख्यान कर रे दिन रात भाई, है चांदनी क्षणिक तो फिर रात आई ॥८८॥ જો આત્મશક્તિ હોય તો પ્રતિકમણ પ્રત્યાખ્યાનને, નિશદિન કરો આલોચના સામાયિક તેમજ ધાનને. ૮૮ अर्थ- यदि अपनी शक्ति हो, तो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक और आलोचना रातदिन करते रहो। જો પોતાની શક્તિ હોય તો પ્રતિકમણપ્રત્યાખ્યાન, સમાધિ, સામાયિક અને આલોચના રાતદિન કરો. बारस अणुवेक्खा ९३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेक्खं । परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥८९॥ भा बार बार बस, बारह भावनायें, वे भूतमें शिव गये जिन भाव पाये । मैं बार बार उनको प्रणम त्रिसंध्या, मेरा प्रयोजन यही तज दूं अविद्या ।।८।। મોક્ષે ગયા જે અનાદિથી કરી ધ્યાન દ્વાદશ ભાવને, સમ્યક પ્રકારે વાર વાર પ્રણામ કરું હું તેમને. ૮૯ अर्थ- जो पुरुष इन बारह भावनाओंका चितवन करके अनादि कालसे | आजतक मोक्षको गये हैं, उनको मैं मनवचनकायपूर्वक बार बार नमस्कार करता 106 જે મહાપુરુષો આ બાર ભાવનાનું ચિંતવન કરી મોક્ષે ગયા છે, તેમને હું સમપ્રકારે વારંવાર નમસ્કાર કરું છું. ९४ बारस अणुवेक्खा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । . सेझंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥१०॥ जो भी हुए विगतमें शिव और आगे-, होंगे नितान्त पुरषोत्तम और जागे । माहात्म्यमात्र वह द्वादश भावनाका, क्या अर्थ है अब सुदीर्घ प्ररूपणाका ॥९०।। ભૂતકાલ જે ગતિ સિદ્ધ પામ્યા ને ભવિષ્ય પામશે, મહિમા જ દ્વાદશ ભાવનો ચુનિભાવશે તે પામશે. ૯૦ अर्थ- इस विषयमें अधिक कहनेकी जरूरत नहीं है। इतना ही बहुत है कि भूतकालमें जितने श्रेष्ठपुरुष सिद्ध हुए हैं और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओंका चितवन करके ही हुए हैं। इसे भावनाओंका ही माहात्म्य समझना चाहिये। ભૂતકાળમાં જેટલા શ્રેષ્ઠ પુરુષો સિદ્ધ થયા છે અને ભવિષ્યમાં જે સિદ્ધ થશે છે તે આ ભાવનાનું માહાત્મ છે. बारस अणुवेक्खा ९५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदि णिच्चयववहारं जं भणियं कुंदकुंदमुणिणाहें । जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं ॥११॥ जो कुन्दकुन्द मुनि नायकने निभाया, है निश्चयादि व्यवहार हमें सुनाया । भाता विशुद्ध मनसे इसको वही है, निर्वाण प्राप्त करता शिवकी मही है ॥९१।। મુનિ કુંદકુંદે ભાવનાઓ શ્રેષ્ઠ જે ભાવી અહીં વ્યવહાર નિશ્ચયનય વડે તે સર્વને ગૂંથી અહીં, નિજ શ્રેય અર્થે ભજન જો ભાવશો ઉરમાં સદા, તો શીઘ સુખ નિર્વાણ લહી વર પ્રાપ્ત કરશો પદ મુદા ૯૧ अर्थ- इस प्रकार निश्चय और व्यवहार नयसे यह बारह भावनाओंका स्वरूप जो मुनियोंके स्वामी श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने कहा है, उसे जो पुरुष शुद्धचित्तसे चितवन करेगा, वह मोक्षको प्राप्त करेगा। આ પ્રકારે નિમાય વ્યવહારનયથી આ બાર ભાવનાઓનું સ્વરૂપ મુનિનાથ શ્રી કુંદકુંદચાર્યે કહ્યું છે. જે પુરુષ શુદ્ધચિત્તથી તેનું ચિંતવન કરશે તે અવશ્ય પરમનિર્વાણને पामशे. इदि बारसअणुवेक्खा ९६ बारस अणुवेक्खा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्यानुवादक आचार्यश्री विद्यासागरजीकी जीवनझांकी जन्म नामकरण : विद्याधर जन्मतिथि : आश्विन शुक्ला पूर्णिमा वि.सं. २००३; १०-१०-१९४६ जन्मस्थल : ग्राम सदलगा (जि.बेलगाम) कर्णाटक पितृनाम : श्री मल्लप्पाजी (मुनि श्री मल्लिसागरजी) मातृनाम : श्री श्रीमतीजी (आर्यिका समयमतीजी) मातृभाषा : कन्नड मुनि दीक्षा : अषाढ शुक्ला पंचमी वि.सं २०२५ तदनुसार ३० जून १९६८ अजमेरमें । आचार्यपद : मगसिर कृष्ण द्वितीया वि.सं. २०२९ तदनुसार २१ नवम्बर १९७२ नसीराबाद (राज.)में । शिक्षा-दीक्षा गुरु : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज । ___चारित्र चक्रवर्ती आ.श्री शान्तिसागर महाराजके उपदेशामतने बचपनमें विरक्तिके बीज बोये और आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत आ.श्री देशभूषणजीसे ग्रहण किया । आ.श्री ज्ञानसागरजीसे शिक्षा और मुनिदीक्षा प्राप्त की। _ आ.श्री विद्यासागरजीको जहां प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, कन्नड आदि अनेक भाषाओंमें प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त है, वहीं दर्शन, इतिहास, संस्कृति, न्याय, व्याकरण, साहित्य, मनोविज्ञान और योग विद्याओंमें अनुपम वैदुष्य भी उपलब्ध है। आपमें आशुकवित्व और प्रत्युत्पन्नमतित्व अत्यन्त प्रशस्य गुण हैं। आचार्यश्री स्वसाधनाके साथ, निरन्तर ज्ञानाभ्यासमें प्रवृत्त रहते हैं। आपने भव्य जीवोंके आत्मकल्याण हेतु अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन किया है और मां भारतीके भण्डारको भरा है। आपके द्वारा लिखित एवं अनुवादित रचनाओंकी संख्या करीब ५० है। आपसे दीक्षित करीब ५० साधु-साध्वीजी एवं १०० के करीब बालब्रह्मचारी भाई-बहन हैं। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ. कुन्दकुन्दाचार्य-स्तुति वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः / यश्चारु चारण कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् // (चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख) कुन्दपुष्पकी शोभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्तिसे दिशाएं विभूषित हुई हैं, जो चरणोंके - चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके - सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वंदनीय नहीं ? हे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधानमें इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं इसके लिए आपको अतिशय भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं। - श्रीमद् राजचन्द्र जासके मुखारविन्द प्रकास भास वृन्द स्यादवाद जैन बैन इंद कुन्दकुन्दसे तासके अभ्यासतें विकास भेदज्ञान होत मूढ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्दसे / देत हैं असीस सीस नाय इंद चंद जाहि मोह-मार-खंड-मारतंड कुन्दकुन्दसे विसुद्धि-बुद्धि-वृद्धिदा प्रसिद्ध-रिद्धि-सिद्धिदा हुए न हैं न होहिंगे मुनिंद कुन्दकुन्दसे // - कविवर वृन्दावन