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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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ॐ
सचित्र
बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
मनोहर २९ चित्रों सहित ४२४ पृष्ठों में १९१ चुने हुए दो भागों में आवश्यक सम्पूर्ण नित्यमा का
अपूर्व संग्रह
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ममममममममममममममममा
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प्रथम भाग के संग्राफर्ताखुरई (मागर ) निवासी मास्टर छोटलाल मैनेस
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प्रकाशक
जेन-साहित्य-मन्दिर, सागर [म. प्र. ]
ज्येष्ठ १९८३ घोर सं० २४५२ ।
प्रथमवार
पो जिल्द ।
सुनागरी जिल्द )
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మందును ముందుకు సుములు * हमारी छपाई पुस्तकों और चित्रों की सूची।
वड़ा जन-ग्रन्थ-संग्रह-[ सेचित्र ] अनेक पुस्तकों का संग्रह) उपदेशभजन माला-सचित्र ] उपदेशप्रद ड्रामा और भजन By जैन-जीवन-संगीत-[ सचित्र ] मुनि आहार विधि,
चुने हुए अनेक बारहमासा तथा कविताओं का संग्रह j की मेरी भावना और मेरी द्रव्य पूजा-लाखों प्रतियां छप चुकी
द्रव्य-संग्रह हिन्दी पद्यानुवाद- भैया भगौतीदास कृत ] . रत्नकरण्ड श्रावकाचार-हिन्दी पद्यानुवाद-[पं० गिरधर
__शर्मा कृत ] बहुत ही सरल और सुन्दर कविता में .." a) जैनस्तव रत्नमाला-सचित्र [ पं० गिरधर शर्मा कृत]
वारहभावना, सामायिकपाठ, आलोचनापाठ, महाबीर,
शान्तिनाथ, पाश्वनाथ आदि सुन्दर स्तोत्रों का संग्रह भगवान पाश्वनाथ-[ सचित्र ] उपन्यास के दङ्ग पर बहुत
ही ललित रचना में भगवान का चरित्र लिखा गया है | ढला चला-सुधारकों और स्थितिपालकों का मनोरंजक संवाद | । अतिशयक्षेत्र चांदखेड़ी का इतिहास और पूजन-सचित्र) प्राकृत षोड़शकारण जयमाला-भापा टोका-सचित्र, भापा ।
टीकाम१६भावनाओंका स्वरूप बड़ी अच्छी तरहसे बताया गया। है, व्रत, कथा उद्यापन की विधि और यंत्र-मंत्र सहित
चित्र। हमारे यहाँ हमेगा नये २ भावपूर्ण,, पौराणिक तीर्थों मुनियों । भादि के चित्र तैयार होते रहते हैं। और बढ़िया चिकने आर्ट पेपर पर उत्तम स्पाही में छप ये जाते हैं। प्रत्येक सन्दिरों तथा घरों में लगाकर धर्म शिक्षा और सजावट दोनों का लाभ उठाइये। ____ पता:-जैन-साहित्य-मन्दिर, सागर (म०प्र०)
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बाहुबलस्वामी, (श्रणबेलगोला)
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सर्वाधिकार मितजन-साहित्य-मन्दिर, सागर ( म०प्र०)
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पिसनहारी की महिया, जबलपुर ।
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श्रीवीतरागाय नमः
बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह
पहिला भाग ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, हिन्दी - पद्यानुवाद |
( पं० गिरधर शर्मा कृत ) पहिला परिच्छेद ।
सकल कर्ममल जिनने धोये, हैं वे वर्द्धमान भगवान । लोकालोक भासते जिसमें, ऐसा दर्पण जिनका ज्ञान ॥ बड़े चाव से भक्तिभावसे; नमस्कार कर वारंवार | उनके श्रीचरणों में, प्रणमूं, सुख पाऊँ हर विघ्न - विकार ॥ १ ॥ जो संसार दुःखसे सारे जीवों को सु बचाता है । सर्वोत्तम सुखमें पुनि उनको, भलीभांति पहुँचाता है ॥ उसी कर्मके काटनहारे, श्रेष्ठधर्मको कहता हूँ । श्रीसमन्तभद्रार्यवर्यका, भाव बताना चहता हूँ ॥२॥ धर्म किसे कहते हैं ।
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गणधरादि धर्मेश्वर कहते, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित धर्मरम्य हैं, सुखदायक सब भांति निदान ॥ इनसे उलटे मिथ्या हैं सब, दर्शन ज्ञान और चारित्र । भव कारण हैं भय कारण हैं, दुख कारण हैं मेरे मित्र ॥३॥ सम्यग्दर्शन का लक्षण |
आठ अंगयुत, तीन मूढ़ता रहित, अमद जो हो श्रद्धान ।. सच्चे देव शास्त्र गुरु पर दृढ़, सम्यग्दर्शन उसको जान ॥ सच्चे देव शास्त्र गुरुका मैं, लक्षण यहाँ बताता हूँ । तीन मूढ़ता आठ अंग-मद, सबका भेद बताता हूं ॥४॥
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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह |
सच्चे देव का स्वरूप । जो सर्वज्ञ शास्त्र का स्वामी, जिसमें नहीं दोष का लेश । वही आप्त है वही आप्त हैं, वही आप्त है तीर्थ जिनेश ॥ जिसके भीतर इन बातों का, समावेश नहि हो सकता । नहीं आप्त वह हो सकता है, सत्य देव नहिं हो सकता ॥५॥ भूख प्यास बीमारि बुढ़ापा, जन्म मरण भय राग द्वेष | गर्व मोह चिन्ता मद अचरज, निद्रा अरति खेद औ स्वेद ॥ दोष अठारह ये माने हैं, हों ये जिनमें जरा नहीं । आप्त वही है देव वही है, नाथ वही है और नहीं ॥६॥ सर्वोत्तम पद पर जो स्थित हो, परम ज्योति हो, हो निर्मल। वीतराग हो महाकृती हो, हो सर्वज्ञ सदा निश्चल || आदि रहित हो अन्त रहित हो, मध्य रहित हो महिमावान । सब जीवों का होय हितैषी, हितोपदेशी वही सुजान ॥ ७॥ बिना रागके बिना स्वार्थके, सत्यमार्ग वे बतलाते । सुन सुन जिनको सत्पुरुषोंके, हृदय प्रफुल्लित हो जाते ॥ उस्तादोंके कर स्पर्शसे जब मृदङ्ग ध्वनि करता है । नहीं किसी से कुछ चहता है, रसिकों के मन हरता है ॥८॥ शास्त्र का लक्षण |
जो जीवोंका हितकारी हो, जिसका हो न कभी खंडन जो न प्रमाणों से विरुद्ध हो, करता होय कुपथ-खंडन ॥ वस्तुरूपको भलीभांतिसे, बतलाता हो जो शुचितर । कहा आप्तका शास्त्र वही है, शास्त्र वही है सुन्दरतर ॥ ॥ तपस्वी या गुरु का लक्षण ।
विषय छोड़कर निरारम्भ हो, नहीं परिग्रह रक्खें पास | ज्ञान ध्यान तप में रत होकर, सव प्रकार की छोड़ें आस ॥
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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह ! . .. ...
भूल भाल उसको तज देना, या तज देना धार प्रमाद ॥ ऊँचे नीचे आगे पीछे, अगल बगल मित्रो बढ़ना। दिग्वतके अतिचार कहाते,. याद न मर्यादा रखना ॥६०॥
अनर्थदण्डविरति । दिगमर्यादा जो की होवे, उसके भीतर भी विन काम। पाप योगसे विरक्त होना; है अनर्थदंडवत नाम ॥ हिंसादान प्रमादचर्या, पापादेश-कथन अपध्यान । त्योंही दुःश्रुति पाँचों ही थे, इस चुतके हैं भेद.सुजान ॥६॥
हिंसादान। . . . छुरी कटारी खंग खुनीता, अग्न्यायुध फलसा तलवार। सांकल सींगी अस्त्र-शस्त्रका, देना, जिनसे होवें वार॥ हिंसादान नामका मित्रो, कहलाता है अनरथदंड । बुधजन इसको तज देते हैं, ज्यों नहिं होवें युद्ध प्रचंड ॥६॥
प्रमादचयों। पृथ्वी पानी अग्नि वायुका, विना काम आरंभ करना। व्यर्थ छेदना वनस्पतीको, बे-मतलव चलना फिरना ॥
औरों को भी व्यर्थ घुमाना, है प्रमाद चर्या दुखकर । कहा अनर्थदंड है इसको, शुभ चाहे तो इससे डर ॥३॥
पापोपदेश या पापादेश। जिससे धोखा देना आवे, मनुज करे त्यों हिंसारम्भ । तिर्यंचोंको संकट देवे, वणिज करे फैलाकर दम्भ ।। ऐसी ऐसी बातें करना, पापादेश कहाता है। इस अनर्थदंडकको तजकर, उत्तम नर सुख पाता है ॥६॥
अपध्यान । . . , रागद्वेष के बसमें होकर, करते रहना ऐसा ध्यान । उसकी प्रिया मुझे मिल जावे,मिल जावे उसके धनधान॥ वह मर. जावे वह कट जावे, उसको होवे जेल महान । वह लुट जाचे संकट पावे, है अनर्थदंडक अपध्यान ॥६५॥
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रनकरण्ड-श्रावकाचार-हिन्दी पद्यानुवाद।
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. दुःश्रुति ।
जिनके कारण से जागृत हो, राग द्वेप मद काम विकार । आरंभ साहस और परिग्रह, त्यों. छावें मिथ्यात्वविचार। मन मैला जिनसे हो जावे, प्यारो सुनना ऐसे प्रन्य। दुःश्रुति नाम अनर्थ कहाता, कहते हैं ज्ञानी. निग्रंथ ।। ६६ ।।
अनथेदण्डवतके अतिचार । . . स्मराधीन हो हंसी दिल्लगी-करना भंडवचन कहना। बकवक करना आंख लड़ाना, कायकुचेष्टा में बहना ।। सजधज के सामान बढ़ाना, पिना विचार त्यों प्रियवरतनमनवचन लगाना कृतिमें हैं अतिचार सभी वृतहर॥६७।।
भोगापभोगपरिमाण । इन्द्रिय-विपयों को प्रतिदिन ही, कम कर राग घटा लेना। है व्रत भौगोपभोगपरिमित, इसकी ओर ध्यान देना. ॥ पंचेन्द्रिय के जिन विषयों को भोग छोड़ दें ये हैं मोगः। जिन्हें भोगकर फिर भी भोगें मित्रो घे ही हैं उपभोग ॥६॥ प्रस जीवों की हिंसा नहिं हो-होने पावे नहीं प्रमाद । इसके लिये सर्वथा त्यागो, मांस मद्य मधु छोड़ विपाद ॥ अदरख निम्बपुष्प बहुवीजक, मक्खन मूल आदि सारी। तजो सचित चीजें जिनमें हो, थोड़ा फल हिंसा भारी॥६॥ जो भनिष्ट हैं सत्पुरुषों के सेवन योग्य नहीं जो है। उन विषयों को सोच समझकर, तज देना जो वत सो है। भोग और उपभोग त्याग के, बतलाये यम नियम उपाय । अमुक समयतकत्याग 'नियम' है,जीवन भरका यम कहलाय७०
नियम करने की विधि । भोजन वाहन शयन स्नान रुचि, इत्र पान कुकुम-लेपन । गीत वाद्य संगीत कामरति, माला भूपण और वसन ॥
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बड़ा जैन-प्रन्थ-संग्रह।
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इन्हें रात दिन पक्ष मास या, वर्ष आदि तक देना त्याग। कहलाता है 'नियम' और 'यम, आजीवन इनका परित्याग७१
भागोपभोगपरिमाणके अतिचार ।। विषय विषों का आदर करना, भुक विषय को करना याद । वर्तमान के विपयों में भी, रचे पचे रहना अविषाद ।। आगामी विषयों में रखना, तृष्णा या लालसा अपार । विन भोगे विषयों का अनुभव करना,ये भोगातिचार ||७२।।
पांचवां परिच्छेद।
शिज्ञावत-देशावकाशिका पहला है देशावकाशि पुनि, सामायिक प्रोषध उपवास-1 वैयावृत्य और ये चारों, शिक्षाक्त हैं सुख-आवास ।। . दिग्नत का लम्बा चौड़ा स्थल, कालभेद से कम करना। प्रतिदिन व्रत देशाविकाश लो, गृही जनों का सुखझरना||३|| अमुक गेह तक अमुक गली तक, अमुक गांव तक जाऊंगा। अमुक खेत से अमुक नदी से, आगे पग न बढ़ाऊंगा। एक वर्ष छहमास मास या, पखवाड़ा या दिन दो चार। सीमाकाल भेदले श्रावक, इस व्रत को लेते हैं धार ॥४॥ स्थूल सूक्ष्म पांचों पापों का, हो जाने से पूरा त्याग । सीमा के बाहर सघ. जाते, इस वृत से सुमहावत आप ॥ हैं अतिचार पांच इस वृत के, मैंगवाना प्रेषण करना। रूप दिखाय इशारा करना, चीज फैंकना, ध्वनि करना ॥७५||
सामायिक । पूर्ण रीति से पञ्च पाप का, परित्याग करना सज्ञान । मर्यादा के भीतर बाहर, अमुक समय धर समता ध्यान ॥ है यह सामायिक शिक्षावत, अणुवतों का उपकारक । विधि से अनलस सावधान हो, बना सदा इसके धारक ॥७६!
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बड़ा जैन - ग्रन्थ-संग्रह |
तन जीभ नाक आंख कान ये ही पंचइन्द्री, जाके जे ते होय ताहि सो सर्दहीजिये । संख द्वै पिपीलि तीन भौंर चार नर पंच, इन्हें आदि नाना भेद समुझि गहीजिये ॥ ११ ॥
पंच इन्द्री जीव जिते ताके भेद दाय कहे, एकनिके मन एक मनविना पाइये । और जगवासी जंतु तिनके न मन कहूँ, एकेंद्री बेइन्द्रो तेंद्री चौइन्द्री बताइये || एकेंद्रीके भेद दोय सूक्षम बादर होय, पर्यापत अपर्यापत सर्वे जीव गाइये । ताके बहु विस्तार कहे हैं जु ग्रन्थनि में, थोरे में समुझि ज्ञान हिरदै अनाइये ॥ १२ ॥
चउदह मारगणा चउदह गुणस्थान, होहिं ये अशुद्ध नय कहे जिनराजने । येही भाव जोलों तोलों संसारी कहावै जीव, इनको उलंघनकरि मिर्ले शिव साजने ॥ शुद्धनै विलोकियेता शुद्ध है सकलजीव, द्रव्यकी उपेक्षा सो अनन्त छवि छाजने । सिद्ध के समान थे विराजमान सबै हंस, चेतना सुभाव धर करें निज काजनै ॥ १३ ॥
अष्टकर्महीन अष्ट गुणयुत चरमसु, देह तातें कछु ऊने सुख 'को निवास है । लोकको जु अत्र तहां स्थित है अनन्त सिद्ध, उत्पादव्यय संयुक्त सदा जाको बास है | अनन्तकाल पर्यंत थिति है अडोल जाकी, लोकालोकप्रतिभासी ज्ञानको प्रकाश है । निश्चै सुखराज करै बहुरि न जन्म घरै, ऐसे सिद्ध राशन को आतम विलास है ॥ १४ ॥
प्रकृति ओ थितिबन्ध अनुभाग बंधपरदेशबन्ध एई चार बन्ध भेद कहिये । इन्हीं चहुं बन्ध अवन्ध के चिदानन्द, अग्निशिखा सम ऊर्वको सुभावी लहिये ! और सब जगजीव तजें निज देह जब, परभोको गौन करे तबै सर्ल गहिये । ऐसें ही अनादिथिति नई कछू भई नाहिं, कही ग्रन्थमांहि जिन तैसी सरदहिये ॥ १ ॥
( इति जीवस्य नवाधिकाराः )
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द्रव्यसंग्रह-कवित्तवन्ध ।
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___ अजीबदरव पंच ताके नांच भिन्न सुना, पुद्गल ओ धर्मद्रव्यको सुभाव जानिये । अधर्म द्रव्य आकाश द्रव्य काल दर्व एई, पांचों द्रव्य जग में अचेतन पखानिये ।। तामें पुग्गल है मूरतीक रूप रस गन्ध, पर्शमई गुणपरजाय लिये जानिये। और पंच जीव जुन कहे हैं अमूरतीक, निज निज भाव धरै भेदी है पिछानिये ॥ १५ ॥
' शबद वन्ध सूक्षम थूल ओ आकार रूप, हैवो मिलियो ओ विछुरियो धूप छाय है । अंधारो उजारो ओ उद्योत चन्दकांतिसम, आतप सु भानु जिम नाना भेद छाय है ।। पुद्गल अनन्त ताकी परजाय अनन्त, लेखो जो लगाइये तोऽनंता. नन्त थाय है। एकही समॆमें आय सव प्रतिभास रही, देखी शानवंत ऐसी पुद्गल प्रजाय है।॥ १६ ॥
जब जीव पुद्गल चलै उठि लोकमध्य, तवै धर्मास्तिकाय सहाय आय होत है। जैसें मच्छ पानी माहिं आपुहीतें गीन करे, नीरकी सहाय सेती अलसता खोत है। पुनि यों नहीं जो पानी मीन को चलावे पंथ, आपुहीतै चलै तो सहाय कोऊ नेोत है । तैसें जीव पुद्गलको और न चलाय सके, सहजे ही चले तो सहायका उदोत है ॥१७॥
जीव अरु पुद्गलको थितिसहकारी होय,ऐसा है अधर्मद्रव्य लोकताई हद है । जैसे कोऊ पथिक सुपंथमध्य गौन करे, छाया के समीप आय बैठे नेऊ तद है । मैं यों नहीं जु पंथी को राखतु बैठाय छाया, आपुने सहज बैंठे बाको आश्रे. पद है। तैसें जीव पुद्गलं को अधर्मास्तिकाय सदा, होत है सहाय 'भैया' थितिसमें जद है ॥ १८ ॥ ... जीव आदि पंच पदार्थनिको सदाही यह देत अवकाश तात आकाश नाम पायो है । ताके भेद दोय कहे एक है अलो
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बड़ा जैन-अन्य-संग्रह।
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काय, कात्रामाश जिन अन्यनि गाया है ।। क? घर होय ना मुत्र लें लोय, ना पंचद्रव्यहका सदन चदाई चाही में उर्व है पनिज निज सना गहै, यात परें औरमा अनाक होताया है।
जिनने आशाशनाहि हैं ये दरवपत्र, दिदने प्रकाश काजु लामाकाग कहिये। बद्रय अधनंग्य कालद्रव्य पुदगल,न्य जीव इन्य पई पत्रों जहां लहिये। इन अधिक कनु और लोविराज रहो, नाम तो अलोकानाश पेला सरदहिये । दया दानवंदन अनन्तुहान चनुरि, गुगपरजाय सासुमात्र शुद्ध गहिये ॥२०॥
जाई सर्वतव्यका प्रवत्तावन समरय, साई कालद्रव्य बहुमंदमात्र राजई निज निज परजाय विर्ष परजर्व यह, काल की सहाय प्राय कर निज काजई ॥ ताही कालव्यर के विराज रहे भेद वीय, एक व्यवहार परिणाम आदि छाजई। दृजा परमार्थकाल निश्चयवना चाल, कायन रहित लोकाकागों युगानई ॥२॥
लोक्राकाश के जु एक एक परदेश विष, एक एक काल अणुविराज रहे हैं। वात काल अणु के असंख्यद्रव्य ऋहियतु, रद्धन की रात्रि में एक पुज ल्हे हैं । काहुलन मिल कोई रत्नजान दृष्टि जाई, तैसें काल अणु होय भिन्नमात्र नहे है। आदि अन्त मिल नाहिं वना सुभाव मांहिं, सम पल मह परजाय भेद कहे हैं ॥ २२॥
दाहा। जीव अजीवहि द्रव्य के, मेद सुपविध जान । तामें पंच सु फाय घर, कालद्रव्य विन मान ॥२३॥
यमरान' ऐसा मी पाठ है।
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बड़ा जैन- प्रन्ध-संग्रह |
इविधि अनेक गुण प्रगट करि, लहै सुशिवपुर पलकमें। चिद्विलास जयवंत लखि लेहु 'भविक' निज झलक में ॥ २ ॥ दोहा !
द्रव्यसंग्रह गुण उधिलम, किहँ विधि लहिये पार । यथाशक्ति कछु वरणिये निजमति के अनुसार ॥ ३ ॥ चौपाई १५ मात्रा.. गाथा मूल नैमिचंद करी । महा अर्थनिधि पूरण भरी ॥ बहुत धारी, जे गुणवंत । ते संब अर्थ लखहि विरतंत ||४|| हमसे मूरख समझें नाहि । गाथा पढ़े न अर्थ लखाहि ॥ काहु अर्थ लखे बुधि ऐन । बांचत उपज्यो अति चितंचैन ॥५॥ जो यह ग्रंथ कवितमें होय । तौ जगमाहिं पढ़े सब कोय | विधि ग्रंथ रच्यो सुविकास । मानसिंह व भगोतीदास ||६| संवत सत्रहसे इकतीस । माघसुदो दशमी शुभदीस ॥ मंगल करण परमसुखधाम | द्रवसंग्रहप्रति करहुँ प्रणाम ||७|| इति श्रीद्रव्यसंग्रहमूल सहित कवित्तबंध समाप्तः ।
पुण्य-पापु- फल । [ कवित्त ] ग्रीष्म में धूप परै तामें भूमि भारी जरै,
फूलत है आक पुनि अति हो उमहिकै । वर्षाऋतु मेघ भरै तामें वृक्ष केई फरे,
जरत जवासा अघ पुहीतें डहिकेँ || ऋतु को न दोष कोऊ पुण्य पाप फलै दोऊ,
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जैसे जैसे किये पूर्व तैसें रहे सहिकै । : केई : जीव सुखी होहिं कई जीव दुखी होहिं, देखहु तमासेा 'भैया' न्यारे नेकु रहि कैं ॥
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द्रव्यसंग्रह-मूल ।
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द्रव्यसंग्रह - मूल ।
[ श्रीमन सिचन्द्र सिदान्तचक्रवर्ती कृत ] जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठे' । देविदविंद वंद वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ जीवा उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्या सिद्धो सा विड्ढि गई || २ || तिफाले चदुपाणा इंदिय बलमाउ आपाणो य । ववहारा से जीवा णिश्चयणयदेो दु चेदणा जस्स ॥ ३ ॥ उवओोगो दुवियप्पा दंसणं णाणं च दंसणं चदुधा । चक्खू अचक्खू ओही दंसणमध केवलं पेयं ॥४॥ गाणं अटूट वियप्पं मदिसुदओही भणाणणाणाणि । मगपज्जय केवलमचि पच्चक्षपरोक्खभेयं च ॥ ५ ॥ अट्ठचदुणाणदंसण सामरणं जीवलक्षणं भणियं । ववहारा सुद्धगया सुद्ध पुण दंसणं जाणं ॥ ६ ॥ चरण रस पञ्च गंधा दो फासा अट्ट णिच्चया जीवे । णा सति अमुन्ति तदो चवहारा मुत्ति वंधादो ॥ ७ ॥ पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदेो दु णिच्चयो । चेदणक्रम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥ ८ ॥ ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्म फलं पभुजे दि । आदाणिच्चयणयदो चेदणभावं खु आदस्स ॥ ६ ॥ अणु गुरु: देहपमाणो उवसंहारम्पसम्पदा चेदा असमुहदा ववहारा निचयगयदा असंखदेसेो वा ॥ १० ॥ पुः विजलते उबाऊवणष्पदी विवादी | विगतिग चदुपंचक्खा तसजीवा होंति संवादी ॥ ११ ॥ समणा अमणा णेया पंचेन्द्रिय णिम्मणापरे सव्वे | बादरहमेदी सव्वे पज्जन्त इदरा य ॥ १२ ॥ मग्गणगुणठाणेहिं य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया । विराणेया ससारा सव्वे खुद्धा हु सुद्धगया ॥ १३ ॥ णिक्कम्मा अट्ठगुणा
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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह ।
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किंचूणा चरमदेहदो सिद्धां । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥ १४ ॥ अज्जीवों पुण् णेओ पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं । कालो पुग्गल मुत्तो रुवादिगुणो अमुति सेसा दु ॥ १५ ॥ सद्दो बंधा सुहमा थलो संठाणभेदतमछाया । उज्जादादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥ १६ ॥ गइपरिणयाण धम्मा पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तायं जह मच्छाणं अच्छंताणेव सेो णेई ॥ १७ ॥ ठांणजुदान अधम्मा पुग्गल जीवाण ठाण संहयारी । छाया जय पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥ १८ ॥ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं । जेणं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १६ ॥ धमाधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तों परदा अलोगुत्तो ॥ २० ॥ दव्वपरिवट्टरूत्रो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठी ॥ २१ ॥ लायायासपदेसे इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ २२ ॥ एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददादव्वं । उत्तं काल वित्त णायव्वा पंच अत्थिकाया दु ॥ २३ ॥ संति जदो तेणेदे अत्थीति 'भणंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकायां य ॥ २४ ॥ होंति असंखा जीवे धमाधम्म अनंत आयासे । मुत्तं तिविह पदेसा कालस्सेगा ण तेण सो काभो ॥ २५ ॥ एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदा होदि । बहुदेसा उवयारा तेण य काओ भणति सव्वरहूं ॥ १२६ ॥ जावदियं आयासं अविभांगी पुग्गलाणुवट्ठद्ध तं खु पदेस जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ॥ २७ ॥ आसवबन्धणसंवरणिज्जर मोक्खा सुपुरणपावा जे । जीवाजीव विसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ २८ ॥ आसवदी जेण कम्मं परिणा
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धड़ा जैन-ग्रंथ-संग्रह।
कलकी वात रही कल ऊपर, भूल अभी को जावे ॥ मत० पीनेवाला-भंग नहीं यह शिव की वूटी, अजर अमरहै करतो।
जन्म जन्म के पाप नशा कर सब रोगों को हरती॥चलो. विरोधी-भंग नहीं यह विप की पत्ती, करे मनुष को ख्यार।
जीते जी अन्धा कर देती, फिर नर्को दे डाल | मनः पीनेवाला-कुण्डो में खुद वसे कन्हैया, औ सोटे में श्याम ।
विजया में भगवान वसे हैं, रगड़ रगड़ में राम ॥ चलो. विरोधो-अरे भंग के पीनेवाले भङ्ग बुद्धि हरलेत ।
होशयार औ चतुर मई को, खरा गधा कर देत ॥ मत. पीनेवाला-झूठी बातें फिरे बनाता, ले पी थोड़ी भंग।
एक पहर के बाद देखना कैला छावै रंग ॥ चलो. विरोधी-लानत इस पर, लानत तुझ पर, चल चल होजा दूर ।
भंग पिये भंगड़ कहलावे अरे पातकी क्रूर ॥ मत० पीनेवाला-भंग के अदभुत मजे को तूने कुछ जाना नहीं।
रंग को इसके जरा भी मूढ़ पहचाना नहीं ॥ आंख में सुरखी का डोरा मन में मौजों की लहर।
शांति आनँद विन इसी के कोइ पालकता नहीं ॥ (चलत) साधू संत सङ्ग सव पीते क्या कंगाल अमोर !
ईश्वर से लोलीन करावै ये इसकी तासीर ॥ चलो. 'विरोधी-है नहीं यह भङ्ग कातिल अक्ल को तलवार है।
वेहोश करती है यही जानों महा मुरदार है। खौफ जिनको नर्क का है वह इसे ते नहीं।
चात सच मानो हमारो नर्क का यह द्वार है। . (घलत) यह सव भूठी बातें भाई भंग नरक में डाले।
आखें खोल जगत में देखो लाखों काम विगाड़े मत. पीनेवाला-सुनकर यह उपदेश तुम्हारा हमें हुआ आनंद ।
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हुक्का का ड्रामा।
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लो मैं छोड़ी भंग आज से ईश्वर की सौगन्द ॥ मत विरोधी-भला किया ये काम आपने दई भंग जो छोड़।
सव से नियम को अय तो कुंडी लोटा फोड़ ॥ मत. पीनेवाला-फुडी कोई सोटा तोडूं भर सड़क पर डालं। मत पोना अब भङ्ग भाइयो बारम्बार पुकार ॥ मनः
हुका का डामा। हुक्केबाज-माहाहा क्या अच्छा हुक्का है ।
है काई हुक्के का पीने वाला ॥ (चलन) क्या हुक्का बनाये आला, भर भर पोलो तुम लाला ।
जो पीयें इसे पिलायें वह लुफ ज़िन्दगो पावें ॥ विरोधी-बुरी आदत है यह भाई मत इसकी करो घड़ाई।
दूर दूर हो लानत लानत यो वनता सौदाई ॥ यह तन को खूब जलावे. बलगम को बहुत बढ़ाये,
जो मुह से इसे लगावे, ना लग्जत कुछ भी पाये ।। हुक्के घाज-जिसको इक चिलम पिलाई बलगम की करी सफाई। विरोधी-दूर दूर हो लानत लानन क्यों बनता सौदाई ॥ हुक्केबाज-क्या हुक्का बना यह माला,भरभर पीला तुम लाला।
जो पी। इसे पिलायें वह अकल मन्द कहलायें ।। विरोधी-जो हुक्के का दम ला, ले निलम आग को जावें।
सौ सी गाली फिर खावे यह मान वड़ाई पा॥ हुक्केवाज--यह कैसी वात वनाई कुछ कहते शरम न आई । विरोधी-दुर दूर हो लानत लानत. क्यों बनता सौदाई ।। . हुक्केवाज-क्या खूब बना यह भाला, गङ्गाजल इसमें डाला।
पीते हैं अदना आला, यह घट में करें उजाला ॥ विरोधी-क्या खाक बना यह आला,दिल जिगर करे सब काला!.
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घड़ा जैन-प्रन्थ-संग्नह ।
भच्छा यह नशा निकाला, दोजख में गिराने वाला हुक्केवाज-यह महफिल का सरदार, क्या जाने मूढ़ गंवार । विरोधी-कब तक कि हुक्का नोशौ मुहल्ला जगाओगे।
घंशी बजा के नाग को कबतक खिलाओगे। एक दिन यह मारे आस्तों उसेगा बस तुम्हें । पंजे से ऐसे देव के वचने न पाओगे ॥ गर चाहते हो जिन्दगो तो इसको तरक करो।
खुद अपना वरना खिरमने हस्तो जलाओगे | (चलत)-जिन इससे प्रीति लगाई, आखिर में हुई दुखदाई।
मान कहा क्यों पागल वनता कहां गई चतुराई ॥ मत० हुक्केबाज-तेरी मान नसीहत छोडू', ले अभी चिलम को तोडू।
नहचे को तोड़ मरोडू, हुक्के को जमी से फोडू॥ ना पीऊ कभी यह हुक्का, लानत लानत यह हुक्का। न पिया कोई यह हुक्का, वेशक लामत यह हुक्का ।।
सिगरेट का ड्रामा। पीनेवाला-यारो मुझे सिगरेट या बीड़ी दिलाना।
वीड़ी दिलाना, माविस लगाना कैसा यह फैशन बना॥ विरोधी-शेम २-छोड़ो जरा सिगरेट का पीना पिलाना।
' पीना पिलाना दिल को जलाना नाहक क्यों करते गुनाह ॥ पीने-दुर२-है जेव खाली डिबिया भी खाली छूटता नहीं यह नशा । विरोधो-शेमरमदिरा पड़ो इसमें लीद भरीहै लानतहै लानतहै नशा॥ पीने-दूर२ वाते हैं कैसी दीवानों यह जैसी गप शपलगातेहो क्या। विरायो-शेमर-हावेगी स्वारी नरकों की तैयारी हटको तात्यागो जरा पीने-दूर२ पीवो पिलाचो जरा मुहको लगावो कैसा यह शीरीं अहा विरोधी-शेमर-शोएल पुकारे जिन दास प्यारे सोचो तो दिल मेंजरा
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बड़ा जेन ग्रन्थ-संग्रह |
बैरी मेरे बहुत से, जो होवें इस जगत में । उनसे क्षमा करालू, तब प्राण तन से निकले ॥ ३ ॥ परिग्रह का जाल मुकपर, फैला बहुत है स्वामी । उससे ममत्व टूटे, जब प्राण तन से निकले ॥ ४ ॥ दुष्कर्म दुख दिखावें, या रोग मुझ को घेरें । प्रभु का ध्यान छूटे, जब प्राण तन से निकले ॥ ५ ॥ इच्छा क्षुधा तृषा की, होवे जो उस घड़ी में । उनको भी त्याग कर दूँ, जब प्राण तन से निकले ॥ ६ ॥ ऐ नाथ अर्ज़ करती विनती पै ध्यान दीजे | होवे सफल मनोरथ, जब प्राण तन से निकले । होवे समाधि पूरी तब प्राण तन से निकले ॥ ८ ॥
वेश्या कुटलाई |
गर लगे बान तो
मत करो प्रीति वेश्या विष बुकी कटारी है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ टेक ॥ औषधि अनेक हैं सर्प डसेकी भाई । पर इसके काटेकी नहि कोई दवाई ॥ जीवित हू रहि जाई । पर इसके नैन के बानसे होय सफाई है रोम रोम विष भरी करो न यारी । है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ १॥ यह तन मन धन हर लेय मधुर बोली में । बहुतों का करै शिकार उमर भोली में ॥ कर दिये हजारों लोटपोट होली. में, । लाखौका दिलकर लिया कैद चोली में ॥ गई इसी कर्म में लाखों की ज़मीदारी । है यही सकल रोगन की खान हत्यारी ॥२॥ हो गये हजारो के बल वीर्य द्वारा । लाखों का इसने वंश नाश कर डारा गठिया प्रमेह आतिश ने देश बिगारा। भारत गारत. हो गया इसीका मारा ॥ कर दिये हजारों इसने चार मरु ज्वारी । है यही सकल दुर्गुणकी खान हत्यारी ॥ ३ ॥ इसही ठगतीने मद्य मांस सिखाया। सब धर्म कर्मको इसने धूर मिलाया ॥ और दया
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शील के भेद, कन्या विनय ।
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क्षमा लज्जा को मार भगाया। भकोका मूल नाश करवाया। हो इसके उपासकरौरव के अधिकारी । है यही०॥४॥ वह नव युवकोंको नैन सैनले खाये। और धनवानों को चट्ट गट्ट कर जावे ॥ धन हरण कर फिर पीछे राह बतावे । करे तीन पांच तो जूते भी लगवावे ।। पिटवा कर पीछे ल्यावै पुलिस पुकारी। है यहो. ॥५॥ फिर किया पुलिस ने खूब सतिथि सत्कारा । हो गई सजा मिला मा इश्क का सारा | जो झूठ होय तो सज्जन करा विचारा|दोत्याग झूठ करो सत्य वचन स्वीकार ।। अब तो कर्म यह भति निन्दत दुखकारी । है यही सकल रोगगेको खानि इत्यारी ॥६॥
शील के भेद । ये भेद शोल के जाना जो हो सतवंती नारी-टेक पर पुरुषों से बात न करना, पिंडुक जन का साथ न करनापर घर वाला रात न करना, काम कथा मत गारी ॥ जो हो. इक आसन पर कभी न बैठो, पर पुरुषों के साथ न सेठी-- पिता भ्रात पति को तुम भेंटो, वनो कुटुम की प्यारी ॥जो हो. पर पुरुषों के अंग न निरखो, अंग कीती सुन मत होंकुटिल सरल को मन से परखो, तू नीची नजर रखारी॥जो हो हाट बाट में खड़ी न होना, किले घर में जाय न सोना-, जैनी, समय व्यर्थ ना खोना, लज्या से सुयश बहारी ॥ जो हो.
कन्या विनय करै हैं। मव करो विचार, कन्या विनय करै हैं ॥ अचान महा नदि भारो, हम इय रहीं अब सारी | तुम करो उवार, कन्या विनय कर हैं। अज्ञान तिमिर अंधियारी, अब छाई कारी कारी । तुम फरो उजार, कन्या विनय करै हैं ॥ विद्या इस जग में प्यारी, सुग्व देतो.हमको भारी-तुम करो प्रचार, कन्या विनय कर हैं । बिगड़ी है दशा
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• बड़ी जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
हमारी, तुम चेतो सब ही नारी । तुम सो सुधार, कन्या विनय करै हैं । तुम घोर अविद्या टारो, अब अपनी दशा सुधारो। त्यागी कुविचार, कन्या विनय करै हैं ॥ विषयों ले करके यारी, क्यों अपनी देशा विगारी। करो जल्दी उपशार, कन्या विनय कर हैं। संती अंजना गयी निकारी, वह रोती आँन् दारी । अव लगा शील में दाग, कन्या विनय कर हैं। ये शील महातम भारी..वन में भी हुमा सुखारी। फिर मिल गये कुमार, कन्या विनय करै हैं । हा सीता शील अपारी, कूदी थी अग्नि मझारी। हुई अग्नि जल धार, कन्या विनय करै हैं ॥ मैं विनय कम कर जोरो, सुन लो माताओ मेरी । करो शिक्षा संचार, कन्या विनय करै हैं ॥
खुशामद का भजन । खुशामद ही से आमद है. बड़ी इसलिये खुशामद है। टेक । महाराज ने कहा एक दिन, बैंगन बड़ा बुरा है। खुशामदी ने कहा, तभी तो, वेगुन नाम पड़ा है। खुशामद से सब कुछ रद है, बड़ो इसलिये खुशामद है । टेक महाराज कुछ देर में वोले, बैंगन तो अच्छा है। खुशामदी ने कहा तभी ता, शिर पर मुकुट धरा है ।। खुशामद में इतना मह है, बड़ी इसलिये खुशामद है । टेक स्वामी दिन को रात कहे तो, वह तारे चमका दें। यदि वह रात को दिन कह दें तो, सूरज भी दिखलाः ॥ खुशामद की भी कुछ हद है, बड़ी : नलिये खुशामद है । टेक स्वामी कहें मद्य कैसा है ? कहें सुरा सुखकर है। स्वासी पूछे हिंसा जायज ? कह दें जीत्र असर है॥ पुरा है भला, भला वह है, बड़ी इसलिये खुशामद है । टेक
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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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दया का असर ही नहीं। कैसे प्राणी के प्राणों का घात करे तेरे दिल में दया का असर ही नहीं ॥ जो तू हिरनों का वन में शिकार करे क्या निगोद नरक का खतर ही नहीं ॥ टेक जैन बानी सुनो, जरा गोर करो, जान औरों की अपनी सी ध्यान धरो, ज़रा रहम करो, अपने दिल में डरो, प्यारे जुल्म का अच्छा समर ही नहीं ॥१॥ भोले वन के पखेरू हैं डरते फिरें, मारे डरके तुम्हारे से दूर रहें । वो तुम्हारा न कोई विगाड़ करें, उनका वन के सिवा कोई घर ही नहीं ॥२॥ तृण घास चर अपना पेट भरें, घंन देश तुम्हारा न कोई हरें । प्यारे बच्चों से अपने वा प्रीती करें, उनके दिल में तो कोई भी शर ही नहीं॥३॥ कामी लोगों ने इसको रवा है किया, झूठा अपनी तरफ से है मसला घड़ा। वरना पुरान कुरान में जीवों के मारन का, आता कहीं भी ज़िकर हो' नहीं ॥४॥ दयामई है धरम सत जाना सही, जिन राज ने है यह बात कही। सुना न्यामत विना जिन-धर्म कभी प्यारे होगा मुकत में घर ही नहीं ॥५॥
भूठा है संसार। मूठा है संसार आँख खोल कर देखो। टेक॥ जिसे कहता मेरा २ नहीं तू मेरा मैं तेरा मतलबी है संसार ॥१॥ जीतेजी के सव साथी; क्या घोड़ा ऊंट और हाथी, बताये क्या परिवार ॥२॥ अव काल अचानक आवे, तब कंठ पकड़ ले जावे, चले न कुछ तकरार ॥ ३ ॥ यहाँ बड़े२ योधा माये, सब ही को काल ने खाये, समझ तू मूर्ख गंवार ॥ ४ ॥ यह सुपने कैसी माया, क्यों देख मार्ग में आया, बिनस जाय लगे न वार क्यों मोह नीद में सेवि, और जन्म वृथा क्यों को मिले न बारबार । ६॥ जो प्रभुजी का गुण गावे, से जन्मोसफल को महायुह-जोहा हे पुकार ॥॥
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श्रीमान
पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी ।
बाबा भागीरथजी वर्णी ।
पं० दीपचन्द्रजी वर्णी ।
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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह
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चतुर्मास का दृष्य । क्षेत्रपाल-ललतपुर ।
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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह |
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पयानी | भव डूबत बोधे प्राणी, जिन ये वसन्त जिय जामी ॥ चेतन सो खेलें होरी, ज्ञान पिचकारी, योग जल लाके ॥११॥ जिम० जबलगे महीना फाग करें अनुराग, सभी नरनारी । ले फिरे फैंटमें कर गुलाल पिचकारी || जब श्रीमुनिवर गुणखान अचल धर ध्यान, करें तप भारी । कर शील सुधारस कर्मन ऊपर डारी | ( झड़ ) - कीर्ति कुम कुमें घनावें, कर्मोंसे फाग रचावें । जे बारामासा गावें, से अजर अमर पद पा ॥ यह भाषै जीया-. चाल, धर्म गुणमाल योग दर्शाके ॥ १२ ॥ जिन अधिर लखाe
बारहमासा - राजुल ।
राग मरहठी [झड़ी ]
मैं लूंगी श्रोअरहन्त, सिद्ध भगवन्त, साधु सिद्धान्त चारका सरना । निर्नम नेम विन हमें जगत् क्या करना - ॥ टेक आषाढ़ मास (झड़ी)
1
सखि आया अषाढ़ घन घोर, मोर चहुंओर, मचा रहे शोर इन्हें समभावो । मेरे प्रीतम की तुम पवन परीक्षा लावो ॥ हैं कहां मेरे भरतार, कहां गिरनार, महाव्रत धार वसे किन घन में । यो बांध मोड़ दिया तोड़ क्या सोची मन में !
( भर्बर्ट) नजारे पपैया जारे, प्रीतमको दे समकारे । रहिनों भव संग तुम्हारे, क्यों छोड़ दई मधारे ॥
(झड़ी) - क्यों विना दोष भये रोष, नहीं सन्तोष, यही अफसोस बात नहिं बूझो । दिये जादों छप्पन कोड़ छोड़ क्या सूझी। मोहिं राखो शरण मंझार, मेरे भर्तार, करो उद्धार, क्यों दे गये भुरना । निर्लेम नम बिन हमें जगत् क्या करना
श्रावण मास (झड़ी)
सखि श्रावण संचर करे. समन्दर भरे, दिगम्बरधरं क्या
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वारहमासा-राजुला
करिये। मेरे जी में ऐसी आवे महान धरिये । सब तजदार श्रृंगार, नजूसंसार. क्यों भव मंझार में जी भरमाऊ। फिर पराधीन तिरिया का जन्म नहिं पाऊं ॥ (झर्वट) सबसुन लो राजदुलारी। दुख पड़गया हम पर भारी। तुम तज दो प्रीति हमारी-कर दो संयम की त्यारी॥
(झड़ी)-अब आगया पावस काल, करो मत राल, भरे सयताल महा जल बरसे। विन परसे श्रीभगवन्त मेरा जी तरसे । मैं तज दई तीज सले.न, पलट गई पोन, मेरा है कौन मुझे जग तरना। नम नेम चिन दमें जगत क्या करना ॥
भादों मास ( झड़ी) सखि भादी भरे तलाव, मेरे चितचाच. करगी उछाव से सोलहकारण । कर दसलक्षण के व्रत से पाप निवारण | करू' रोटतीज उपवास, पञ्चमी अकाल, अष्टमी खास निशल्य मनाऊ । नपकर सुगन्ध दशमी को कर्म जला॥
(झ)-सग्नि दुर रस पी था। तजिहार चार परकारा। करू उन उस तप सारा क्यों नाय गेग निस्तारा।
(झड़ी,-मैं रत्नत्रय व्रत धर; चतुर्दशी फ', जगत से तिरू कर पवघाड़ा । मैं मम मे समाउं दोप न सब राड़ा। मैं सातों नत्व विचार के गाऊ महार, तजा संसार तो फिर क्या करना । निर्ने नेम विन हमें जगत् क्या करना-
आसोज माग्न (अड़ी) सखि या मान कुधार, लो भूषण तार, मुझे गिरनार । की दे दो आमा । मेरे पाणिपात्र आहार की है परतिज्ञा। लो तार ये चूडामणी, रतन की कणी, सुनो सब जड़ी ग्वाल दो नी। मुझको अवश्य भरतारहिं दीक्षा लेनी॥
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बड़ा जैन-ग्रंथ-संग्रह।
(झर्व ) मेरे हेतु कमण्डलु लायो । इक पीछी नई अंगावो । मेरा मत जी भरमावो। मम सूते कर्म जगावो ॥ _ (झड़ी) है जगमें असाता कर्म, बड़ा बेशर्म, मोह के भ्रमसे धर्म न सूझै। इसके वश अपना हित कल्याण न बूझै। जहां मृग तृष्णा की धूर, वहां पानी दूर.भटकना भूर कहां जल झरना॥ निर्नेम नेम बिन हमें जगत् क्या करना
कार्तिक मास ( झड़ी) सखि कातिक काल अनन्त, श्रीधरहन्त,की सन्त महन्तने आज्ञा पाली । धर योग यत्न भव भोगकी तृष्णा टाली। सजे चौदह । गुण अस्थान, स्वपर पहचान, तजे रु मकान महल दिवाली । लगी उन्हें मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥
(झर्व)-उन केवल ज्ञान उपाया। जगका अन्धेर मिटाया। जिसमें सब विश्व समाया । तन धन सब अथिर बताया।
(झड़)-है अथिर जगत् सम्बन्ध, अरो मतिमन्द, जगत्का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतमने सत जानके जगत् विसारा । मैं उनके चरणकी चेरी, तू आज्ञा देरी, सुनले मा मेरी है एक दिन मरना । निम नेम बिन हमें जगत क्या करना
___अगहन मास ( झड़ी) सखि अगहन ऐसी घड़ी,उदै में पड़ी, मैं रहगई खड़ी दरस नहिं पाये। मैंने सुकृत के दिन विस्था योही गवाये ।
नहि मिले हमारे पिया, न जप तप किया, न संयम लिया . अटक रही जगमें। पडी काल अनादिसे पापकी बेड़ी पग में ।
(झर्वY)-मत भरियो माँग हमारी । मेरे शीलको लागेगारी। मत डारो अञ्जन प्यारी । मैं योगन तुम संसारी॥
(झडी)-हुये कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती, पलट गई रती तो धर्म नहि खण्ड । मैं अपने पिताके बंशको कैसे भई।
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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह |
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सके तनकी जहां दुर्लभताई ।
नित्य निगेोद अनादि रहो ज्यों क्रम से निकला वह तें त्यों इतर निगोद रहो चिरछाई ॥
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सूक्ष्म बादर नाम भयो जबही यह भाँति घरी पर्यायी । चारहि०॥७॥
औ जय हो पृथ्वी जल तेज भये। पुनि होय वनस्पतिकाई । देह अघात धरी जब सूक्षम घातत वादर वीरघताई ॥
एक उदै प्रत्येक भयो सह धारण एक निगोंद बसाई | चार हि०॥८॥ इन्द्रिय एक रही चिरमें कर लब्धि उन्दै स्वय उपशमनाई ।
वे त्रय चार धरी जब इन्द्रिय देह उदै विकलत्रय आई ॥ पंचन आदि कधी पर्यन्त धरे इन इन्द्रियके त्रस काई । वारहि० ॥ काय घरी पशुकी बहु वार भई जल जन्तुनकी पर्याई ।
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जो थल मांहि अकाश रहो चिर होय पखेरू पंख लगाई ॥ मैं जितनी पर्याय धरीं तिनके बरणें कहुं पार न पाई । बारहिं०॥१०॥ नरक मकार लिया अवतार परौ दुख भार न कोई सहाई । जो तिलसे सुख काज किये अघते लब नरकनमें सुधि आई ॥ तातियके तनकी पुतली हमरे हियरा करि लाल भिराई । बारहिं० ॥ ११॥ लाल प्रभा सु महीं जह हैं अरु शर्कर रेत उन्हार बताई । पक प्रभा जु घुआवत है तमसी सुप्रभा सु महातम ताई ॥
जाजन लाख जुपाड़ल पिएड तहां इकही छिनमें गल जाई ॥ चारहि०१२ | जे अघ घात महा दुखदायक मैं विषयारसके फल पाई । काटत है जबहीं निरदय तबही सरिता महि देत वहाई ॥
"देव देव कुमार जहाँ बिच पूरव वैर बताबत जाई ॥ वारहि० ॥१३॥ ज्यों नरदेह मिली क्रम सों करि गर्भ कुवास महादुखदाई ।
जे नव मास कलेश सहे मलमूत्र अहार महाजय ताई ॥
1: जे दुख देखि जर्बेनिकसो पुनि रोवत बालपने दुखदाई | बार हिं० ॥ १४॥ योवन में तन रोग भयो कबहुं विरहानल व्याकुलताई ।
मान विषै रस भोग चहों उन्मत्त भयो सुख मानत ताही ।
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. पुकार पच्चीसी।
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आय गयो क्षणमें विरधापन सो नर भौ इस भाँति गमाईबारहि ॥ .. देव भयों सुर लोक विर्षे तव मेंहि रही परया उर लाई । "
पाय विभूति बढ़े सुरकी पर सम्पति देखत भूरत छाई ॥ . . . . माल जचे मुरझाय रहो थित पूरण जानि.तवें विल-लाई बारहि०१६॥ जे दुख मैं भुगते भवके तिनके वरणे. कहुं पार न पाई । .... काल अनादिन आदि भयो तहँ मैं दुख भाजन हेअघ माहीं.. सो दुख जानत हो तुमही जवहीं यह भांति धरीपर्यायी वारहिं०१७॥ कर्म अकाज करे हमरे हमको चिरकाल भये दुखदाई। मैं न विगाड़ करो इनको बिन कारण पाय भये अरि आई। मात पिता तुमहीं जगके तुम छोडि फिगदि करों कह जाई ॥बारहिं० सो तुम सो सब दुःख कहो प्रभु जानत हो तुम.पीर पराई ।:: मैं इनको सत्संग कियो दिनहूँ दिन अ'वत मोहिं बुराई ॥ ज्ञान महानिधि लूट लियौ इन रङ्क किया यह भांति हराई ॥वारहित मैं प्रभु एक सरूर सहो सब ये इन दुष्टन को कुटलाई।.... पाप सु पुण्य दुहूं निज मारग में हमसो नहिं फांसि लड़ाई ॥..... मोहि थकाय दियो जगले विरहानलं देह है न.बुझाई ॥बारहिं०॥२०॥ ये विनती सुन सेयक की निज मारग में प्रभु लेव लगाई .. .. . मैं तुम - तास रहो तुमरे संग लाज करो शरणागति आई ॥ ..... मैं कर दास उदास भयो तुमरी गुणमाल सदा उर लाई आधारहिं ॥२१॥ देर करो मत श्री करुणानिधि जू यति राखनहार निकाई। योग जुरे क्रममा प्रभुजी यह न्याय हंजूर भयो तुम आई.॥ . :::
आन रहो शरणागति हों तुम्हरी सुनिवे तिहुं लेक बड़ाई ॥ वाहि०२२॥ मैं प्रभु जी तुम्हरी समंको इन अन्तर पाय करो दुसराई। . . . . न्याय न अन्त कटे हमरो न मिले हमको.तुम सी उकुराई..... सन्तन राख करो अपने ढिग दुष्टंनि देहु निकास बहाई । वारईि०॥२३॥ दुष्टन की सत्संगति में हमको. कछू जान परी न निकाई। :::
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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह |
सेवक साहब की दुविधा न रहे प्रभु जी करिये सु भलाई ॥ केरनमों सुकरोंभरजी जसु जाहर जानि परे जगताई || वारहिं० ॥ २४ ॥ ये विनती प्रभु के शरणागति जे नर चित्त लगाय करेंगे । जे जगमें अपराध करे अघ ते क्षणमात्र भरे में हरेंगे । जे गति नीच निवास सदा अवतार सुधी स्वरलोकधरेंगे । देवीदासकहें क्रम सों पुनि ते भवसागर पार तरेंगे ||२५||
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शीलमहात्म्य |
जिनराज देव कीजिये मुझ दीन पर करुना । भवि वृन्दको अव दीजिये बस शीलका शरना ॥ टेक ॥ शीलकी धारा में जो स्नान करें हैं। मल कर्मको सो धोय के शिवनार वरें हैं ॥ व्रतराज सो वैताल व्याल काल डरें हैं । उपसर्ग वर्ग घोर कोट कष्ट टरें हैं ॥ १ ॥ तप दान ध्यान जाप जपन जोग अचारा । इस शील से सव धर्मके मुह का है उजारा ॥ शिवपन्थ ग्रन्थ मंध के निर्ग्रन्थ निकारा । विन शील कौन कर सके संसार से पारा ||२|| इस शीलले निर्वाण नगरी है अवादी । त्रेसठ शलाका कौन ये ही शील सवादी ॥ सब पूज्य की पदवी में है परधान ये गादी । अठारा सह भेद भने वे अवादी ||३|| इस सील से सीता को हुआ आग से पानी । पुर द्वार खुला चलनिमें भर कूप सो पानी ॥ नृप ताप रा शील से रानी दिया पानी । गङ्गामें ग्राह सों बचीं इस "शीलसे रानी ॥ ४ ॥ इस शोल हीसे साँप सुमन माल हुआ है । दुख अंजना का शील से उद्धार हुआ है | यह सिन्धुर्मे श्रीपालको आधार हुआ है । वप्राका परम शील होसे यार हुआ है ||५|| द्रोपदी का हुआ शीलसे अम्बर का अमारा । जा धातु द्वीप कृष्ण ने सव कष्ट निवारा ॥ सब चन्दना सनी की व्यथा शीलने टारा।
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पड़ा जैन-प्रन्थ-संग्रह।
दारा, परिवार, किसी का न कोई साथी सब हैं अकेले हो। गिरिधर छोड़कर दुविधा न सोचकर, तत्त्व छान बैठके एकान्त में अकेले ही। कल्पना है नाम रूप झूठे राव रंक भूप, अद्वितीय चिदानन्द तू तो है अकेले ही ॥४॥
- सन्यत्व भावना। घर बार धन धान्य दौलत खजाने माल, भूषणा वसन बड़े बड़े ठाठ न्यारे हैं। न्यारे न्यारे अवयव शिर धड़ पांव न्यारे, जीभ त्वचा आँख नाक कान आदि न्यारे हैं। मन न्यारा चित न्यारा चित्त के विकार न्यारे, न्यारा है अहंकार सकल कर्म न्यारे हैं । गिरिधर शुद्ध बुद्ध तूतो एक चेतन है, जग में है और जो जो तासे सारे न्यारे हैं ॥५॥,
- अशुचि भावना। .. - गिरिधर मल भल .सावू खूब न्हाये धोये, कीमती 'लगाय तेल बार बार बाल में। केवड़ा गुलाब चेला'मोतियां के संघे इत्र, खाये खूब माल ताल पड़े खोटी चाल में पहने बसन नीके निरख निरख कांच, गर्व कर देह का न सोचा किसी काल में । देह 'अपवित्र महा हाड़ मांस रक्त भरा, थैला मलमूत्र का बँधा है नलजाल में ॥६॥ । ..., , प्राश्रव भाषना',
मोह की प्रबलता से कषायों की तीवता से, विषयों में प्राणी मात्र देखो फंस जाते हैं । यहां फंसे वहां फंसे यहां पिटे वहां कुटे, इसे मारा उसे ठोका पाप यों कमाते हैं। पड़ते परन्तु जैसे जैसे हैं कषाय मन्द, वैसे वैसे उत्तम प्रकृति रच पाते हैं । गिरिधर बुरे भले मन बच काय योग, जैसे रहें .सदा वैसे कर्म बन आते हैं ॥७॥
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. बारह भावना।
'तव्य
- संवर भाजा ..... . तोड़ डाल भ्रम जाल, मोह से विरत हो जा, कर न प्रमाद कभी छोड़ दे कषाय तू । दूर हो विचार बात करने से विषयों की,माथे पड़ी सारी सह मत उकताय तू ॥ मन रोक वाणी रोक रोक सव इन्द्रियों को, गिरिधर सत्य मानकर ये उपाय तू | षधंगे न कर्म नये निरपेक्ष होके संदा, कर्तव्य पालन कर खूब ज्यों सुहाय तू ॥८॥ .. . .. निजरा मावना
... . - इससे न बात करो इसे यहांन आने दो,इस को सतामो मारो क्योंकि दोषवान है । कपटी कलेकी कर पापी अपराधी नीच, चोर डाकू, गंठकटा कुकर्मों की खान है। रखके विचार 'ऐसे लोग जो संता। तोभी, सहले विपत्तियों को माने ऋणदान है। गिरिधर धर्म पाले किसी से न वांधे बैर, तपसे नसावे कर्म वही ज्ञानवान है ........... .........लोक भावना। .. .
बांकी कर कोन्हियों को जरा पांव दूरे रख, आदमी को खड़ाकर गिरिधर ध्यान धर । चतुर्दश राजू लोक ऐसा ही है नराकार, उसमें भरे हैं द्रव्य छहों सभी स्थान परं । एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रिन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय त्यों, पञ्चेन्द्रिय संश्यसंझी पर्याप्तापर्याप्त कर । भरे ही पड़े हैं जीव पर सब चेतन हैं स्वानुभव करें त्यों त्यों पावें मोक्ष धाम. वर ॥१०॥...:
बोधिदुर्लभ भावना :...: एक एक श्वास में अठारह अठारह यार, मर मर धरें देह जंगजीव-जानलो । बड़ी ही कठिनता से निकले निगादसे तो, अगणित बार भ्रमे भव भव मानलो । दुर्लभ मनुष्य भव
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बड़ा जन-प्रन्य-संग्रह।
सर्वोत्तम कुलधर्म, पाये हो गिरिधर तो सत्य तत्व छानलो। होकर प्रमाद वश काल क्षेप करो मत, सबकी भलाई करो निजको पिछानला ॥ ११ ॥
- धर्म भावना।
बाहरी दिखावटों को रहने न देता कहीं, सारे दोष दूर कर सुख उपजाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, माया, मिथ्या, तृष्णा, मद, मान,मल सबको नसाता है । तन मन वाणी को बनाता है विशुद्ध और, पतित न होने देता ज्ञान प्रकटाता है। गिरिधर धर्म प्रेम एक सत्य जगवीच, परमात्मतत्व में जो सहज मिलाता है ॥ १२॥
सामायिक । . . हो सत्त्वपै सखिपना, मुद हो गुणी पै । माध्यस्थ भाव . मम होय विरोधियाँपै ॥ दुःखार्तपै अयि दयाधन हो दया ही। हों नाथ कोमल सदा परिणाम मेरे ॥१॥
___धारूंक्षमा सुमृदुता ऋजुता सदा मैं । त्यो सत्य,शौच, प्रिय संयम भी न.त्यागू ॥ छोडूं नहीं तप, अकिंचन, ब्रह्मचर्य, है रत्नराशि दशलक्षण धर्म मेरा ॥२॥
मैं देवपूजन कर, गुरुभक्तिसाधं । स्वाध्याय में रचं सुसंयम आदरू मैं ॥धारू प्रभो तप, निरंतर दान दूं मैं। षट्कर्म ये-नितकरू जबलौं गृही हूं ॥३॥
पाऊं महासुख प्रभो, दुख वा उठाऊं। सोऊं पलंग-पर, भूपर ही पडू वा ॥ सोहे तथापि समता अति उच्च मेरी। सामायिक प्रबल हो मम नाथ ऐसा॥४॥ . चाहे रहूं भवनमें, वनमें रहू',या-प्रासाद में बस रहूं
अथवा कुटीमें ॥ साह तथापि समता अतिउच्च मेरी-सामायिक '- प्रबल हो मम नाथ ऐसा ।।५॥ ..
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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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डरें क्म अस्त्रशस्त्रों से, छुवे क्या अस्त्रशस्त्रों को । हमारा राष्ट्रही जव है, स्वयंसेवक अहिंसा का ॥३॥ 'बिना जीते महारणके, न जीते-जी टलेंगे हम । तजेंगे त्यों न तिलभर को, कभी रस्ता अहिंसा का ॥४॥ भले पालेसियां चल चल, हमें कोई भुलावे दें। भुलावों में न आवेंगे, दिखा विक्रम अहिंसा का ॥५॥ न हम नापाक खूनों से, रगेंगे पाक हाथों को। हमारा खून होतो हो, विजय होगा अहिंसा का ॥६॥ कभी धीरज न छोड़ेंगे, जहां में शांति भर देंगे। सिखावेंगे सबक सब को, अहिंसा का अहिंसा का ॥७॥ हमारे दुश्मने जानी भी, होंगे दोस्त कल आके। कहेंगे सर झुकाके यों; बतादो गुर अहिंसाका ॥८॥ तमन्ना है, न दुनियां में, निशा भी हो गुलामी का। सभी आजाद हों कोमें, बजे डंका अहिंसा का ॥६॥
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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह
ज्ञानांवर णी कर्म
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
नोट-कुलकरों में नाभिराजा, दान देने में श्रेयांस राजा, तप करने में बाहुवली जो एक साल तक कायोत्सर्ग खड़े रहे। भाव की शुद्धता में भरत, चक्रवर्ती को दीक्षा लेते ही केवल ज्ञान हुआ। वलदेवों में रामचन्द्र, कामदेवों में हनुमान, सतियों में सीता, मानियों में रावण, नारायणों में कृष्ण, रुद्रों में महादेव, बलवानों में भीम, तीर्थंकरों में पार्श्वनाथ, ये पुरुष जगत् में बहुत प्रसिद्ध हुए हैं ।
दूसरे सिद्धक्षेत्रों के नाम । १ मांगीतुंगी, २ मुक्तागिरि (मेढ़गिरि),३ सिद्धवरकूट, ४ पावागिरि (चेलना नदी के पास), ५ शेत्रुञ्जय, ६ बड़वानी, ७ सोनागिरि, = नैनागिरि (नैनानन्द ), दौनागिरि, १० तारंगा, ११ कुन्थुगिरि, १२ गजपंथ, १३ राजग्रही, १४ गुणावा, १५ पटना, १६ कोटिशिला।
चौदह गुणस्थान । १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरत सम्यरव, ५ देशवत, ६ प्रमत्तविरत, ७ अप्रमत्तविरत, - अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्म सांपराय, ११ उपशान्त कषाय वा उपशान्त मोह, १२ क्षीण कषाय वा क्षीण माह, १३ सयोगकेवली, १४ अयोगकेवली।
श्रावक के २१ उत्तर गुण। . '. १ लज्जावन्त, २ दयावन्त, ३ प्रसन्नता, ४प्रतीतिवन्त, ५परदेोषाच्छादन, ६ परोपकारी, ७ सौम्य दृष्टि, गुणग्राही,
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
& श्रेष्ठ पक्षी १० मिष्टवादी, ११ दीर्घ विचारी, १२ दानवन्त, १३ शीलवन्त, १४ कृतज्ञ, १५ तत्वज्ञ, १६ धर्मज्ञ, १७ मिथ्यात्व-रहित, १८ सन्तोषवन्त, १६ स्याद्वादभाषी, २० अभक्ष-त्यागी, २१ षट्कर्म-प्रवीण। ।
श्रावक की ५३ क्रियायें।
८ मूलगुण, १२ व्रत, १२ तप, १ समताभाव, ११ प्रतिमा, ४ दान, ३रतत्रय, १ जल-छाणन-क्रिया,१रात्रिभोजन-त्याग और दिन में अन्नादिक भोजन सोधकर खाना अर्थात् छानबीन कर देख-भाल कर खाना।
श्रावक के - मूलगुण-पू उदम्बर। ३ मकार। १२ व्रत-५ अणुव्रत, ३ गुणवत,४ शिक्षावत।
५ अणुवत-१ अहिंसाअणुव्रत, २ सत्याणुव्रत, ३ परस्त्री त्याग अणुव्रत, ४ अचौर्य (चौरी-त्याग अणुव्रत), ५ परिग्रहप्रमाण अणुव्रत ।
३.गुण व्रत-१ दिग व्रत, २ देशघ्रत, ३ अनर्थ दंड-त्याग
४ शिक्षाव्रत-१ सामायिक, २ प्रोषधेापवास, ३ अतिथिसंविभाग, ४ भोगोपभोग परिमाण ।
१२ तप- आचार्य के ३६ गुणों में लिखे हैं । इनके भी वही नाम हैं। ज्यादे इतना है कि मुनियों के महान ब्रत होते हैं । श्रावकों के अणुव्रत अर्थात् कम परीषहवाले। . . ... ११ प्रतिमा-१ दर्शनप्रतिमा, २ व्रत, ३ सामायिक, ४ मोषधोपवास, ५ सचिचत्याग, ६ रात्रिभुक्ति-त्याग, ७ ब्रह्म
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
चर्य, ८ आरम्भ-त्याग, परिग्रह-त्याग, १० अनुमति-त्याग, ११ उद्दिष्ट-त्याग।
४ दान-आहारदान, औषधदान, शास्त्रदान और अभय-दान । यह ४ दान श्रावक को करने योग्य हैं।
३ रनत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ।
यह तीन रत्न श्रावक के धारने योग्य हैं । इनका खुलासा अर्थ जैन-बाल-गुटले के दूसरे भाग में लम्यक के वर्णन में लिखा है। इनका नाम रत इस कारण से है कि जैसे सुवर्णादिक सर्वधन में रत उत्तम अर्थात् वेश कीमत होता है। इसी प्रकार कुल नियम, व्रत, तप में यह तीन सर्व में उत्तम हैं । जैसे कि विनाअंक विन्दियाँ किसी काम को नहीं इसी प्रकार बगैर इन तीनों के सारे व्रत नियम कुछ भी फलदायक नहीं हैं। सर्व नियम, व्रत मानिन्द विन्दी (शून्य) के हैं। यह तीनों मानिन्द शुरू के अङ्क के हैं। इसलिये इन तीनों को रत्न मोना है।
दातार के २१ गुण- नवधाभक्ति, ७ गुण और ५ आभूषण ।
यह २१ गुण दातार के हैं । अर्थात् पात्र को दान देनेवाले दातामें यह २१ गुण होने चाहिए। ' दातार की नवधाभक्ति-पात्र को देख तुलाना, उच्चासन पर बैठाना, चरण धोना, चरणोदक मस्तक पर चढ़ाना, पूजा करना, मन शुद्ध रखना, वचन विनय-रूप वोलना, शरीर शुद्ध रखना और शुद्ध आहार देना ।
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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यह नव प्रकार की भक्ति दातार है । अर्थात् दातार कहिए दान देनेवाले को यह नव प्रकार की नवधाभकि करनी चाहिए।
दातार के सातगुण-१ थद्धावान् होना, २शक्तिवान होना, ३ अलोभी होना, ४ दयावान होना, ५ भक्तिवान होना, ६ क्षमावान् होना और विवेक वान होना।
दातार में यह सात गुण होते हैं । अर्थात् जिसमें यह सात गुंग हो यह सच्चा दातार है।
___ दातार के पांच भूपण-१ आनन्दपूर्वक देना, २ आदरपूर्वक देना, ३ प्रिय वचन कहकर देना, ५ निर्मल भाव रखना, ५जन्म सफल मानना।
दाता के पांच दूपण-१ विलम्ब से देना, २ विमुख होकर देना, ३ दुर्घचन कहके देना, ४ निरादर करके देना, ५.देकर पछताना। ___यह दाता के पांच दूषण हैं । अर्थात् दातार में यह पांच बातें नहीं होनी चाहिए।
ग्यारह प्रतिमाओं का सामान्य स्वरूप। '
दोहा ।
प्रणम पंच परमेष्टि पद, जिन आगम अनुसार ।
श्रावक-प्रतिमा एकदश काहुँ भविजन हितकार ॥१॥ सवैया-श्रद्धा कर व्रत पाले, सामाफि दोप टालै, पौसी माँड सचित की त्यागै, लो घटायक । रात्रिमुक्ति परिहरै,
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मैं अनादि जग-नाल मांहि फसि रूप न जाण्यो। एकेंद्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो । ते अब जीव समूह सुनौ मेरी यह नरजी । भव भव को अपराध क्षमा कोस्यो करि मरजी ॥१५॥
अथ चतुर्थ स्तवन कर्म । नमूऋपम जिनदेव अजित जिन जीत कर्म को। संभव भव दुःबहरणकरण अभिनन्द शर्म को। सुमति सुमतिदातार तार सदसिन्धु परकर। पद्मप्रभ पझाम सानि समीति नीतिधर ॥१६॥ श्रीसुपार्श्व पाल नाश भर जाल शुद्ध कर ! श्रीचंद्रप्रस कांति सम देह कांतिधर ॥ पुष्पदंत दसि दोपकोश भधि पार रोपहर । शीतल शीतल करन हरन सब साए कपहर ॥१७॥ श्रेयरूप जिन श्रेय धेय तित लेप भन्यजन । वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय हन । विमल विमल मति देन अन्त गत है अनन्त जिन । धर्म शर्म शिनकरन शांनि जिन शांति विधायिद ॥१८॥ कुन्थु कुन्यु मुखजीवपाल अरनाथ जाल हर। मल्लि मल्ललम माहमल्ल मारण प्रचार घर ॥ मुनिसुव्रत ऋतकरण नमत सुर संघहि नमि जिन । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ मांहि ज्ञान धन ॥ १४ ॥ पार्श्वनाथ जिन पार्यउपललम मोक्षरमापति । वर्द्धनान जिन नमू बलू भक्छुः कर्मशत ।। . या विधि में जिन संघल्प चमोल संख्यधर । - स्तऊं नमूहूँ वार वार हौं शिव एखकर ॥ २०॥
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अथ पंचम चंदना कर्म ।
चंद्र: मैं जिनवोर धीर महावीर सु सन्मति ।
मान अंतिवीर बंदिहों मनवचतनकृत ॥ त्रिशलातनुज महेश धीश विद्यापति बंदूं । बन्दू नितप्रति कनकरूपतनु पाप निकंदू ॥ २१ ॥ सिंद्धारथ नृपनंद द्वन्द दुख - दोष मिटावन । दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन ॥ कुंडलपुर करि जन्म जगतजित आनंदकारन । वर्ष वहतरि आयु पाय सब ही दुख टारन ॥ २२ ॥ सप्त हस्त तनु तुरंग भंग कृत जन्म मरण भय । बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय ॥ दे उपदेश उधारि वारि भवसिंधु जीवघन । आप बसे शिवमाहिं ताहि बंदों मनवचतन ॥ २३ ॥ जाके बंदन थकी दोष दुख दूरहि जावे । जाके बंदन थकी मुक्ति तिय लन्मुख जाके बदन थकी वंद्य होवें सुरगन के । , ऐसे वीर जिनेश बंदिहं क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिक षट् कर्म माहिं चंदन यह पंचम | चंदे वीर जिनेंद्र इंद्रशतबंद्य वंद्य मम ॥ जन्म-मरण भय हरो करो अघ शांति शांतिमय । मैं अकोश सुपोप दोष को दोष विनाशय ॥ २५ ॥
आवै ॥
अष्ठम कायोत्सर्ग कर्म ।
काबोत्सर्ग विधान करू अंतिम सुखदाई । 'कायन्यजन मय हाय काय सबकों दुखदाई ॥
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पूरब दक्षिण नमू, दिशा पश्चिम उत्तर मैं । जिन - गृह वंदन करूँ हरु भव पाप - तिमिर मैं ॥ २६ ॥ 'शिरोनती मैं करूं' नमू ं मस्तक कर धरि कैं आवर्त्तादिक क्रिया करू मन वच मद हरि कै ॥ तीन लोकं जिन भवन माहिं जिन हैं जु अकृत्रिम | कृत्रिम हैं इयभर्द्धद्वीपमाहीँ बंदों जिम ॥ २७ ॥ आठको डिपरि छप्पन लाख जु सहस सत्याणु । चारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जाए ॥ व्यंतर ज्योतिषमाहि संख्यरहिते जिनमंदिर | 1. जिन-गृह बंदन करूं हरहु मम पाप संघकर ॥ २८ ॥ सामायिक सम नाहिं और कोड वैर मिटायक ! सामायिक सम नाहि और कोउ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक ।
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यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२६॥
जे भवि आतम काज करण उद्यम के धारी । ते सव काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब । बुध महाचंद्र विलाय जाय तातै कीया अव ॥२०॥ इति सामायिक भाषा पाठ समाप्त ।
श्रीश्रमितगति आचार्य विरचित ( सामायिक पाठ संस्कृत ) ।
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सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥
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जैन - ग्रन्थ संग्रह |
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शरीरतः कर्त्तमननन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र कोपादिव खगयष्टि, तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ॥ २॥ दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा । निराकृताशेष ममत्वबुद्धः समं मना मेऽस्तु सदापि नाथ ॥३॥ मुनीश !लोन वि कीलिताचित्र, स्थिरौ निशाताविव विम्वताविव. पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतां सदा, तमोधुनांनी हृदि दीपकाविव ४ ॥
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केन्द्रयाद्या यदि देव देहिनः, प्रमादतः संचारता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मलिना निपीड़िता, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्टितं तदा ॥५ विमुक्तमार्गप्रतिकूलवर्त्तिना, सया कपाचक्षवशेन दुर्धिया । चारित्रशुर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो ॥६॥ विनिन्दनवन गर्हयैरह, मनेोवचः कायकपाय निर्मितम् । निहन्ति पापं भवदुःखकारणं भिपंग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ॥७॥ अतिक्रमं यं विमनेर्व्यतिक्रमं जिनातिचारं सुचरित्रकर्म्मणः । व्यधादनाचार रपि प्रमादतः, प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥ क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवतेर्विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्त्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिशक्तिताम् ॥॥ यदर्थमात्रापवाद्दीनं मया प्रनादाद्यदि किञ्चनेोक्तम् । तन्ने क्षमित्वाविदधातु देवी, सरस्वती केवलवोधलब्धिः ॥१०॥ वोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्यसिद्धि: चिन्तामणि चिन्तितवस्तुदाने, त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवि ॥ ११॥ यः स्मर्य्यते सर्व्वमुनीन्द्रवृन्दैः यः स्तूयते सर्व नरामरेन्द्रः । ये। गोयते वेद पुराणशास्त्रैः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १२॥ यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः, समस्त संसारविकारवाह्य । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १३ ॥
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३२.
जैन-ग्रन्थ संग्रहः।
त्रिभुवन पति हो ताहि ते छत्र विराजे तीन । अमरा नाग नरेश पद रहे चरण आधीग ॥१५॥ सब निरनत भद आपने तुत्र भामंडल बीच । भ्रल मेटे समता गहे नाहि लहे गति लोच ॥१६॥ दोई और दोरत अबर चौसठ घमर सफेद । निरखत ही भव को हरे भव अनेक सो खेद ॥ १७ ॥ तरु अशोक तुबहरत है भवि जीवन का शोश। आढालता कुल सेटि के क्षरै निराइल जोक ॥१८॥ अंतर चाहिर परिग्रह त्यागी सफल समाज । सिंहासन पर रहत हैं अंतरीक्ष मिनराज ॥१४॥ जीत भई रिपु माह ते यश सूक्त है ताज। देव दुंदुभि के सदा वाजे बजे अज्ञात ॥ २०॥ विन अक्षर इच्छा रहित रुचिर दिव्य ध्वनि होय । सुर नर पशु समझे सबै संशय रहेन लोय ॥ २९ ॥ वरसत मुरतर के कुसुम गुजत गरि बहुं ओर। फैलत झुयश लुवाखदा हरपत भाव सद ठौर ॥ २२ ॥ समुंदवार अरु रोग अहि अर्गल पुलमाम । वित विषम सही टरे सुमरत ही जिन नाम ॥२३॥ श्रीपाल चंडाल पुनि अंजन भील अपार । हाथो हरि बहि सब तरे आज हमारी पार ॥ २४ ॥ वुध जन यह विनती करै हाथ जोड़ मार वाय । 'जव लों शिव नहिं रहे तुव भक्तिक्ष्य अधिकार ४२५॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह
शान्तिनाथाष्टक स्तोत्र। नाना विचित्रभव दुःखं रासी, नाना विचित्रं मोहान् पांशी। पापानि दोपानिहरंति देवा, इह जन्म शरणे श्री शान्तिनाथं ॥१॥ संसार मध्ये मिथ्यात्व चिंता, मिथ्यात्व मध्ये कर्मानि वद्धा । ते वन्ध छेदन्ति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥२॥ कामल्य क्रोधस्य माया त्रिलोभ, चतुः कषाय इह जन्म बन्धम् । ते बन्ध छेदन्ति देवाधिदेवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥३॥ जायस्य मरणं अवृतस्य वचनं वसंति जीवा बहु दुःख जन्म। ते वंध छेदन्ति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथ ॥ ४॥ चारित्र हीने नर जन्म मध्ये सख्यक र प्रतिपाल यंति। ते जीव सीन्ति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥५॥ वृद्ध वायहीने कठिनस्य चिन्ता, परजीव हिसा मनसोच बंधा। ते बंध छेदंति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथा॥ परद्रव्य चोरी परदार सेवा, हिंसादि कक्षा अनुवत्त वेधं । ते वध छेदंति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथं ॥ ७ पुत्रानि मिनानि कलत्र बंधं, इह बध मध्ये वह जीव बंधं। ते बंध छेदंति देवाधि देवा, इह जन्म शरणे श्रीशान्तिनाथम् ॥
जपति पढ़ति नित्यं शान्तिनाथा विशुद्ध स्तवन मधु गिरायां, पापतापाप हार शिवं सुख,निधि पोतं, सर्व सत्वानुरूपं । कृत मुनि गुणमद्र, सर्व कार्या सुनित्यं ।।
वि शान्तिनाय स्तोत्र
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जैन-प्रत्य-संग्रह।
महाबीराष्टक स्तोत्र। कविवर भागचन्दजी कृत।
शिखरनी छन्दा यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः । सम मान्ति धौव्यं व्यय जनिलसन्तोऽन्तरहितः जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिया सहावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (ना) १ अतानं यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पंदरहितम् जनाकोपापायं प्रकटयति वास्यन्तरमपि स्फुटं मूत्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु से (न:) IRIL नमन्नाकेन्द्राली मुकुट मणिंभाजाल जटिल लसत्पादाम्लोज द्वयमिह यदीयं तनुमतां सवज्रालाशान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ॥३॥ यदोभावेन प्रमुदितमना ददुर इह क्षणादासीत्स्वगी गुणगणसमद्धः सुखनिधिः लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुखसमाज किमु तदा ? महावीर स्वामी नवनपय गामी भवतु भे (न:)॥४॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनुर्ज्ञाननिवहो विचित्रात्माप्येको नपतिवरसिद्धार्थतनयः अजन्मायि श्रीमान विगतभवरागोद्धतगतिर महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (ना) ॥५॥ यदीया वागाडा विविधनयकरलोलविमला बृहज्ज्ञानाम्भाभि गति जनतां या स्लपयति
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
नयाको, विरचन योग्य सही है। यह तन पोय महा तप कीजे, इस में सार यही है ॥8॥ भोग बुरे ,भव रोग बढ़ाधे, वैरी हैं जग जीके। वे रस होय विपाक : समय अति, सेवत लागें नीके ॥ वन अग्नि विषधर से हैं वे, हैं अधिके दुःखदाई ! धर्मरत्न को चौर प्रबल अति दुर्गति पन्थ सहाई ॥ १०॥ माह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई . जन खाय .धतूरा, सो जव कंचन माने । ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मन वांछित जन पावे। तृष्णां नागिन,त्यों त्यों झंके लहर- लेम विष लावे ॥.११ । मैं चक्री पद पाय - निरन्तर, भोगे भोग घनेरे । तोभी तनक भये ना पूरण, भोग मनोरथ मेरे ॥ राज समाज महा अघ कारण, वैर वढ़ाकन हारा | वेश्या सम लक्ष्मी अति चचल इसका कौन पत्यारा ॥१२ मोह महा रिपु बैर विचारे, जग जीव :संकट डारे। घर कारागृह वनिता वेड़ी, परजन हैं रखवारे ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप, ये जिय को हितकारी ! ये ही सार असार
और सब, यह चक्री जीय धारी ॥ १२॥ छोड़े. चौदइरन नवोनिधि, और छोड़े संग सायो । कोटि अठारह घोड़े. छोड़े, चौरासी लख हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहुतेरो, जीर्ण तृणावत् त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को, राज्य . दिया बढ़ भागी-॥१४॥ होय निस्सल्य अनेक नृपति संग,
भूपण वशन उतारे । श्रीगुरु चरण धरो जिन मुद्रा, पंच महा घ्रत धारे। धन्य यह समझ सुबुद्धि जगौत्तम, धन्य वीर्य गुण धारी । ऐसी सम्पति छोड़ घले वन, तिन. पद :धोक हमारी ॥ १५ ॥ : · · 'परिग्रह पोठ उतार सब, लीनो चारित्र पंथ। ..
निज स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निर्मथ ।।
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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समाधिमरण भापा
(पं० सूरचन्दजी रचित) धन्दो श्रीवहन्त परम गुरु, जो सवको सुखदाई । इसजगमें दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई । अब मैं अरज कर नित तुमसे, कर समाधि उरमाहीं। अन्तसमयमें यह वर माँगू, सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भवमें तन धार नये मैं, भव भव शुभ सँग पायो। भव भरमें नप ऋद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो। भव भयमें तन पुरुप तनो घर, नारीहूँ तन लीनो। भव भरमें मैं भवो नपुसक, आतमगुण नहिं चीनो ॥२॥ भव भवर्मे सुरपदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव भव में गति नरकतनी धर, दुख पायो विधयोगे । भव भवमें तिर्यच योनि घर, पायो दुख अति भारी। भव भक्में साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भवमें जिनपूजन कोनी, दान तुपानहि दीनो। भव भवमें मैं समवसरणमें, देखो जिनगुण भीनो ॥ एती वस्तु मिलो भव भवमें, सम्यक् गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण करा मैं, ताते जग भारमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरहिं कोनो। एक बारह सम्यकयुत मैं, निज आतम नहिं चोनो॥ जो निजपरको ज्ञान होय तो, मरण समय दुखदाई। देह विनाशी मैं निजमाशो, जोति स्वरूप सदाई ॥५॥ विषय कपायनमें वश होकर, देह थापनो जानो। कर मिथ्याशरधान हिये विच, आवम नाहि रिछानो ॥
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जैन-अन्य संग्रह।
यो कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति मरमायो। सम्यकदर्शन ज्ञान तीन ये, हिरदेमें नईि लायो । अब या अरज कर प्रभु सुनिये, मरणसमय यह मानो रोग जनित पीड़ा मत हाऊ, अरु कंपाय मत जागो ये मुझ सरणसमय दुखदाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरणाहोय मुझ, अरु मिथ्यागद छीजा यह तन सात कुत्रात मई है, देखत ही घिन आवे। चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्टा पावे ॥ . अति दुर्गंध अपाचन सो यह, मूरख प्रीति बढ़ाने । . देह बिनाशी यह अविनाशी, नित्यत्वरूप कहावे या यह तन जीर्ण. कुटीसम मेरो, यात प्रीति न कीजे । नूतन महल मिले फिर हमको, यामें क्या मुझ छीजे ॥ मृत्यु होनले हानिकौन है, याको भय मत लागे। समता से जो देह वजोगे, तो शुभ तन तुम पावो nal मृत्यु मित्र उपकारी तेरो. इस अवसर के माहीं। जीरण तनसे देत नयो यह, या सम साऊ नाहीं॥ या सेतो तुम मृत्युसमय नर, उत्सव अतिही कीजै। क्लेशसावको त्याग सयाने, समताभाव घरीजै ॥ १०॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई । मृत्युमित्र दिन कौन दिखाचे, स्वर्ग सम्पदा भाई ॥ राग द्वेषको छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई।
अन्त समय में समता धारो, पर भव पन्य सहाई ॥११॥ . कर्म महा दुठ वैरी मेरो तासेती दुख पावे ! . तन पिंजरे में बंध कियो मुझ, जालों कौन छुड़ावे ।
भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस हो तनमें गाड़े। . . मृत्युराज अब आप दयाकर तन पिंजर से काढ़ेस
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह ।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी में द्रोहं न मेरे उर श्रावे ।
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गुणग्रहण का भाव रहे नित, कोई बुरा कहो या. अच्छा, लाखों वर्षो तक जीऊ या अथवा कोई कैला ही भय या लालच देने आवे ।
दृष्टि न द्वोषों पर जावे ॥ ६ लक्ष्मी मावे या जावे, l मृत्यु आज ही आ जावे ।
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तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने
पावे ॥ ७ ॥
कमी
न घवरावे ।
नहि भय खावे ।
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अटवी से यह मन, दृढतर वन जावे । सहनशीलता दिखलावे. ॥ ८ ॥
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होकर सुखमें भग्न न फूले, दुखमें पर्वत- नदी - श्मशान - भयानक रहे घडोल - अकंप निरन्तर इष्टवियोग अनिष्टयोग में सुखी रहें. सर्व जीव जगत के कोई कमी न घवरादे । वैरि-पाप- अभमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जायें । ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म-फल सर्व पार्श्वे nsn ईति भीति व्यापे नहि जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे ! धर्मनिष्ठ होकर राजा मी न्याय प्रजा का किया करे। रोग-मरी-दुर्भिक्ष, न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे ॥ १० ॥ फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहि कोई सुख से कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुखं संकट सहा करें ॥११॥
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जैन-प्रन्य-संग्रह।
इष्ट छत्तीसी।
अर्थात् पंच परमेष्ठी के १४३ मूल गुण ।
सोरठा। प्रणमू श्रीधरहंत, दयाकथित जिनधर्मको। गुरु निरग्रंथ महन्त, अवर न मानू सर्वया ॥१॥ . चिन गुण की पहिचान, जाने वस्तु समानता। तात परम वखान, परमेष्ठी के गुण कह ॥२॥ रागद्वषयुत देव-मानै हिंसाधर्म पुनि। . सग्रंथगुरु की सेव ,लो मिथ्याती जग भूमै ॥३॥
अरहंत के ४६ मूल गुण ।
दोहा । ...... चौतीस अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनन्त चतुष्टयं गुणसहित, छीयालीसों पाठ ॥en
अर्थ-३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, ४ अनन्त चतुष्टय ये अरहंत के ४६ मूल गुण होते हैं । अव इनका भिन्न भिनं वर्णन करता है
जन्म के १० अतिशय । अतिशय रूप सुगंध तन, नाहिं . पसेव निहार । प्रियहित पचन अतुल्य अल, रुधर श्वत आकार
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जैन-प्रन्य-संग्रह।
लच्छण सासरुमाठ तन, समचतुम्कसंठान । घनवृषभनाराच जुत, ये जनमत दश नाम: ६॥
अर्य-१ अत्यन्त सुन्दर शरीर, अति सुगन्यमय शरी८३ पसेवरहित शरीर, ४ मलमूत्ररहित शरीर, ५दितमितप्रियवचन घोलना, ६ अतुल्यपळ, दुग्धवत् श्वेत क्षघिर, ८शरीर में एक हजार आठ लक्षण, समचतुरस्त्रसंस्थान, १० घनवृषभनाराचसंहनन । ये दश अतिशत परहंत भयवान के जन्म से ही उत्पन्न होते हैं ॥६॥
केवल ज्ञान के १० अतिशय । योजन शत इकमें सुमिक्ष, गगनगमन मुख चार । . नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाही कवलाहार .
सब विधा ईसुरपनों, नाहिं बढ़े नखकेश। बनिमिषदग छायारहित, दश केवलके पेश ॥
अर्थ-१ एकसौ योजन में सुमिक्षता, अर्थात् जिस स्थान में केवली हो उनसे चारों तरफ लौ सौ कोशमें. सुकाळ होता है, २ माफाश में गमनं, ३ चार मुखों का दीवाना, ४ हिंसाका घमाव, ५ उपसर्गरहित, ६ पल (प्रास) घर्जित आहार, समस्त विद्यायोंका स्वामीपना, ८ नखफेशोका नहीं बढ़वा 8 नेशकी पलकें नहीं झपकना, १० छाया रहित । ये १० अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होने से प्रगट होते हैं ॥८॥
देव-कृत १४ अतिशय । देव रचित हैं चार दश, , अर्द्धमागधी भाष । यापसमांही.. मित्रता निर्मल. दिश. आकाश. ASA
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जन-प्रत्य-संग्रह।
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विभाति कृतावकाशं नैवं तथा हरिहरादिषुनायकेषु । देशः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं नैवं तुकाचशकले किरणाकुलेऽपि ॥ २०॥ मन्ये घरं हरिहरादय एव दृष्टा दृष्टषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । कि चौक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति माय भवान्तरोपि ॥२१॥ खोणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् नान्या सुतं त्वदुपर्म जमनी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्सरश्मि प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-मादित्यवर्णममलं तमसः . पुरस्तात् त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुवीद्र पन्थाः ॥ २३ ॥ त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ युद्धस्त्वमेव विबुधार्वितबुद्धिवोधात्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । यातासि धोर शिवमार्गविधेर्विधानात्व्य स्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥ तुभ्यं नमत्रिभुवनातिहराय नाथ तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमे. श्वराय तुभ्यं नमो जिनभवादधिशोषणाय ॥ २६ ॥ को विस्म योऽत्र यदि नाम गुणरशेषस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश। दोपैल्पासविविधाश्रयजानगः स्वप्नान्तरेऽपिन कदाचिदपीक्षि तोऽसि ॥ २७ ॥ उच्चैरोकतरुसंश्रितमुन्मयूखमाभाति रूपम. मलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोलसत्किरणमस्तमावितानं विम्बं स्वैरिव परिपार्श्ववति ॥ २८॥ सिंहासने मणिमयूखशिखा - विचिने विभाजते तब वपुः कनकावदातम् । विम्बम् वियहिल सदशुलतावितानं तुङ्गोदयादिशिरसीव सहस्ररश्मः ॥२६॥ कृन्दावदातवलचामरचारुशोभ विभ्राजते तव वपुः कलधौत
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जन्य-संग्रह।
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कान्तम् ।उद्यच्छशाशचिनिझरवारिधार - मुस्तटं सुरगिरे रिव शान्तकोम्भम् ॥ ३०॥ छत्रयं तंघ विभाति शंशाकान्तमुंस्थित स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम् प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥ ३१ ॥ गम्भीर ताररंवरितदिग्विभांग-रलोक्यलोंकशुभ संगमभूतिदक्षः । सद्धर्मराजजयघोषणंघोषका सन् खें दुन्दुभिर्षजति ते यशस: प्रवादी ॥ ३२ ॥ मन्दारसुन्दरनमेसुपारिजातसन्तानकादिकसुः मोत्करवृष्टिरुद्ध । गन्धोंदविन्दुशुभमन्दमरुत्मपाता दिव्या शिवः पतति ते पचंसां ततिर्वा । ३३॥शुम्भत्प्रभावलयभूरिवि: भी विभोस्ते लोकत्रयधु तिमतां धु तिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यहिवा फरनिरन्तरभूरिसंख्या दीप्त्याजयत्यपि निशामपि सोमसौम्या ॥३४॥ स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः सद्धर्मतत्वकथनैकपटुं खिलायाः। दिव्यध्वनिर्भवति ते पिंशदार्थसर्वभाषास्वभाव: परिणामगुणैःप्रयोज्यः ॥ ३५॥ उमिंद्र हेमनवपंकजपुञ्जकान्ती पर्युलसंप्रखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः पनानि तंत्र विवुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३६॥ इत्थं यथा तवं विभूतिर जिनेन्द्र धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य याद , संप्रमादिनकृतःप्रहतान्धकारा तादकता ग्रहगंणस्य विकाशिनोंऽपि ॥ ३७॥ श्च्योतन्मदाविलविलोलंकपोलंमूलमत्तभ्रमभ्रम रनादविवृद्धकोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवती ना भवदाश्रितानाम् ॥ ३८ ॥ भिनेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक मुकाफलप्रकरभूषितभूमिभाग । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि माक्रॉमति कमयुगाचलसंधितं ते ॥ ३ फल्पान्तकालपवनोदताहिकल्प दावानल ध्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं त्वबामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥ ४०॥ रकेक्षण
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जैन अन्य-संग्रह।
समदकोकिलकण्ठनीलं क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् । आनामति क्रमयुगेण निरस्तशङ्कस्त्वनासनागदमनी हदि यस्य पुंसः॥४१॥ वल्गनुरङ्गजगर्जितमीमनादमाजी वलं. बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यदिवाकरमयूखशिखापविदं त्वत्कीर्त. नात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ ४२ ॥ कुन्तायभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारणातुरयोधमीमे । युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्त्वत्पादपङ्कजवनायिणा लभन्ते ॥ ४३.॥ अम्न धै।
भितभीषणनश्चक्रपाठीनपीठभयदोल्बणवाडवोनो तरङ्गः . शिखरस्थितयानपांत्रावासं विहायभवतः स्मरगन्त॥४४ उद्भूतभीषण जलोदरभारभूटनाः शोच्या दशामाश्च्युतजीविताशाः त्वत्पादपकजरजोमृतदिग्धदेहा मत : नवन्ति मकर- . नजतुल्यरूपाः ॥ ४५ ॥ . आपादकण्ठमशजलवेष्टितागा गाढं वृहन्निगडकोटिनिघष्टजवा । त्वनाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरंत सद्यः स्वयं विगतवन्धभया भवन्ति ॥४ा मत्तद्विन्द्रि मृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधिमहादरवन्धनोत्थम् । स्या नाशमुपयाति सयं मियेव यस्तावक- स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ स्तनस्त्रज तव जिनेन्द्र गुणैनिवद्धां भक्त्या मयारुचिरवणं विचित्र पुष्पाम् । धत्ते. जनो-य इह कराठगतामजलं. तं मानतु गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४ ॥ , ..
__ इति श्रीमानतुवाचार्यविरचितमादिनाथस्तोत्रं समाप्तम् ।
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जैन -ग्रन्थ-संग्रह 1.
रावणके सुत आदि कुमार । मुक्त गये रेवातट सार । कोड़ि पंच अरु लाख पचास । ते बंदौ धरि परम हुलास ॥ ११ ॥ रेवानदी सिद्धवरकूट । पश्चिमदिशा देह जह छूट ॥ है चक्री देश कामकुमार । ऊडकोड़ि बंदों भवपार ॥ १२ ॥ वडवाणी बडनयर सुचंग । दक्षिण दिश गिरिचूल उतंग ॥ इंद्रजीत अरु कुंभकर्ण । ते बंदों भवसागरतर्ण ॥ १३ ॥ सुवरणभद्र आदि मुनि चार । पावागिरिवर शिखरमकार | चेलना नदी तीरके पास । मुक्ति गये बंदों नित तास ॥ १४ ॥ फलछोड़ी घड़माम अनूप | पश्चिमदिशा द्रोणगिरिरूप || गुरुदत्तादि मुनी सुर जहाँ । मुक्ति गये बंदों नित तहां ॥ २५ ॥ वाल महाबाळ सुनि दोय । नागकुमार मिले त्रय होय ॥ श्रीमष्टापद मुकिमकार । ते बंद नित सुरतसँभार ॥ १६ ॥ अचलापुर की दिश ईशान । तहां मेढ़गिरि नाम प्रधान || साढ़ेतीन कोड़ि मुनिराय ! तिनके चरन नमू चित लाय ॥ १७ ॥ वंशस्थल वनके डिग होय । पश्चिमदिशा कुथगिरि सेाय ॥ कुलभूषण देशभूषण नाम । तिनके चरणनि करुं प्रणाम ॥ १८ ॥ जसरथराज! के सुत कहे । देशकलिंग पांचसौ लहे ॥ कोटि शिला मुनि कोटिप्रमान | वंदन करू जोर जुगपान ॥ १९ ॥ समवसरण श्रीपार्श्व जिनंद | रेसंदीगिरि नयनानंद ॥ वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बंदों नित धरमजिहाज | २० | तीन लोकके तीरथ जहाँ । नितप्रति चंदन कीजे तहाँ ॥ मन वच कायसहित सिरनाय | वंदन करहि भवकि गुणगाय ॥ २१ ॥ संवत सतरहसौ इकताल | अबिनसुदि दशमी सुविशाल "भैया" वंदन करहिं त्रिकाल | जयनिर्वाणकांड गुणमाल ॥ २२ ॥ इति निर्वाहकांट भाषा ।
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बड़ा जैन - ग्रन्थ-संग्रह
आयु कर्म
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जैन-प्रत्य-संग्रह।
पुनि चौदहें सुकलबल, बहत्तर तेरह हती। इमि घाति वसुविधि कर्म पहुंच्यो, समयमें पंचमगती ॥ २२ ॥
लोकशिखर तनुवात,-वलयमहं संठियो। धर्मद्रव्यविन गमन न, जिहि आगे कियो । मयनरहित मूषोदर, अंबर जारिसो।
किमपि हीन निजतनुते, भयौ प्रभु तारिसो॥ तारिसो पर्जय नित्य अविचल, अर्थ पर्जय क्षणक्षयी। निश्चयनयेन अनंतगुण विवहार, नय वसु गुणमयो ।। वस्तू स्वभाव विभावविरहित, शुद्ध परणनि परिणयो। चिद्रप परमानंदमंदिर, सिद्ध परमातम भये ॥ २३ ॥
तनुपरमाणू दामिनिपर, सव खिर गये। रहे शेष नखकेशरूप, जे परिणये ॥ तव हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभ सच्यो ।
मायामई नख केशरहित, जिनतनु रच्यो। रचि अगर चंदनप्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो। पदपतित अगनिकुमारमुकुटानल, सुविधि संस्कारिया। निर्वाणकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भन 'रूपचंद्र , सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥ २४
मंगल गीत । '
मैं मतिहीन भगतिवश, भावन भाइया । मंगलगीतप्रबंध सु, जिनगुण गाइया । जो नर सुनहिं वखामहि, सुर धरि गावहीं । मनवांछित फल सो नर, निहचै पावहीं ।
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जैन-प्रसंन्यग्रह।
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• पावहीं अष्टौ सिद्धि नवनिधि, मनप्रतीति शु आनहीं। . भ्रमभाव छूट सकल.मन के, जिन स्वरूप सो जानहीं ॥.. पुनि हरहि पातक टरहि विधन, सु होय मंगल नित नये। । भणि रूपचंद्र त्रिलोकपति जिन देव चउसंहिं 'जये ।। २५॥
. :: छह ढाला.। . . . . . . . .. . .. .:. . श्रीयुत पंडित दौलरामजी कृत. . . . . .
. . .. .. : सारठा । . . . . . . .
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता। . .. . .: - शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिके..:
. . प्रथमहाल-चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । सुख चाहें दुखतें भयवन्त ॥ ; तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥ १.॥ ताहि सुनो, भविमनथिर. आन । जो चाहो अपनो . कल्यान । मोह महा मंद पियो अनादि । भूल आपको भरमत बादिः॥२.॥ तासंभ्रमणकी है बहु कथा। पै कछु कहूं . कही मुनि यथा ॥ कालं अनन्त निगोद. मझार। बीतो, एकेन्द्री तन धार.॥३॥ एक,श्वासमें अठदशवार । जन्मो मरो भरो दुख भार ॥ .. निकस भूमि जल पावक भयो.। पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ॥४ दुर्लभ लहिये चिन्तामणी। त्यो पर्याय लही त्रस तणी॥ लट पिपील अलि आदि शरीर । धरधर मरो सही बहुपीर . . . . . . . . . . . . . . . . . . . , . .
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जैन - ग्रन्थ- संग्रह !...
कबहूं पंचइन्द्रो पशु भयो । मन विन निपट अज्ञानी थयो । सिंहादिक सेनी है. क्रूर । निवल पना हत खाए भूर ॥ ६ ॥ कबहूँ आप भयो बलहीन | सवलनकर खायो अति दीन ॥ - छेदन भेदन भूखरु प्यास । भार वहनहिम आतप त्रास ॥ ७ ॥ वध बंधन आदिक दुख घणे । कोटि जीभकर जात न भणे ॥ अतिसंक्लेश भावतें मरो । घोर - शुभ्र सागर में परो ॥ ८ ॥ तहाँ भूमि परसत दुख इसो । बीछू सहस डसे नहि तिसो ॥ तहाँ राध शोणित वाहिनी । क्रम कुल-कलित देह दाहनी ॥६॥ सेमलतरु जुतल असिपत्र । असि ज्यों देह विदारे तत्र || मेरुलमान लोह गलिजाय । ऐसी शीत उष्णता धाय ॥ १० ॥ तिल तिल करें देह के खंड । असुर भिड़ावें हुए प्रचंड ॥ सिंधु नीरतें प्यास न जाय । टौ पण एक न बूंद तहाय ॥११॥ तीन लोक को नाज जो खाय । मिटेन भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सागरलों सहै । करमयोगर्ते नरगति लहै ॥ १२ ॥ जननी उदर वसो नवमास, अंग सकुचतै पाई त्रास ॥ निकसत जे दुख पायें घोर, तिनको कहत न आवे ओर ॥१३॥ वालकपन में ज्ञान न लह्यो । तरुण समय तरुणी रति रह्यो ॥ . अर्द्ध मृतक सम· बुढ़ापनो । कैसे रूप लखै आफ्नो ॥ १४ ॥ कभी अंकाम. निर्जरा करे । भवनत्रिक में सुर तन धरै ॥ विपयचाह दावानल देह्यो । मरतं विलाप करत दुःखसह्यो ||१५|| जो विमानवासी हू थाय । सम्यक्दर्शनविन दुख पाय !! तहतॆ चय थावर तन घरै । यो परिवर्तन पूरे करे ॥ १३ ॥
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द्वितीय ढाल - पडरीकंद १५ मात्रा 1.
ऐसे मिध्या द्वरा ज्ञानचर्ण । वश भ्रमत भरतं दुःख जन्म मर्णं ॥ ताते इनको तजिये सुजान। सुन तिन संक्षेप कहूं चखान ॥ १ ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
तीनो अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा। प्रगटी जहाँ दगज्ञानब्रह्म थे, 'तीन धा एकै लशा ॥8॥ ... परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुभवमें दिखै । . : . दृग-ज्ञान सुख-बल मय सदा नहि, आन भाव जो मो विखें। मैं साध्य साधक में अवाधक, कर्म अरतसु फल नितें . : . . चितपिंड चंद अखंड सुगुण करंड, च्युन. पुनि कलनित ॥१०॥ यो चिन्त्य निनमें थिर भए तिन, अकथ जो आनन्द लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र का अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ॥ . .. .. तबही शुकल ध्यानाग्नि कर चउ, धात विधि कानन दह्यो। सव,लख्यो केवल ज्ञान करि भवि, लोककं शिवगम कहो ॥११॥ पुनि घाति शेष अघात विधि, छिनमाहि अष्टम भू बसे। वसु कर्म विनसै सगुण वसु, सम्यक्त आदिक सब लसै॥ संसार खार अपार पारा, वार तरि तीरहिं गये। . . . अविकार अकलं अरूप शुध, चिद्रप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ निजमाहिं लोक अलोक गुण, · पर्याय प्रतिविम्बित थये। . रहि हैं अनन्तानन्त काल-यथा तथा शिव परणये॥ . .: धनि धन्य हैं जे जीव नरं भव, पाय यह कारज, किया।. . . तिनही अनादी भ्रमण पंच, प्रकार तज बर. सुख लिया ॥१३॥ मुख्योपचार दुभेद यों बड़, भाग़ रत्नत्रय धरें।...... अरु धरेंगे ते शिव लहैं. तिन, सुयशजल जगमल हरैं। ..... इमि जानि.आलस हानि साहस, ठानि. यह शिख आदरो। जवलो न रोग जरा गहै तब, लो जगत निजहित करो ॥१४॥ यह राग. आग दहे सदा.. तात. समामृत पीजिये। चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लीजिये। कहा रच्यों पर पदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहै,। " ... अब दौल होऊं सुखो स्वपद रचिं, दाव मत चूको यहै ॥१५॥ .
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
दोहा ।
इक नव वसु इक वर्षको, तोज सुकुल वैशाख । करयो तत्वउपदेश यह, लखि बुध जनकी भाख ॥ १ ॥ लघु धी तथा प्रमादतैं, शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव कूल ॥ २ ॥
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श्रीजिन सहस्रनामस्तोत्रम् |
(भगव बिनसेनाचार्यकृतं)
प्रसिद्धष्टसहस्रे द्धलक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नामष्टसहस्रेण तमोऽभीष्टसिद्धये ॥ १ ॥
तद्यथा, -
श्रीमान्स्वयंभूववभः शंभवः शंभुरात्मभूः । स्वयंप्रभः प्रमुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥ २ ॥ विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः । विश्वविद्विश्वविद्य शो विश्वयोनिरनीश्वरः ॥ ३॥ विश्वश्वा विमुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचनः । विश्वव्यापी विधिर्वेधाः शाश्वतेा विश्वतोमुखः ॥ ४ ॥ विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्निर्जिनेश्वरः । विश्वदृग्विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥ ५ ॥ जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तचिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धनः ॥ ६ ॥ युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्चब्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सन्गतनः ॥ ७ ॥ स्वयंज्योतिरजोऽ जन्मा ब्रह्मये । निरयेोनिजः । मेोहारि - विजयी जेता धर्मचक्रो दयाध्वजः ॥ ८ ॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगी श्वरार्चितः ब्रह्मविद्ब्रह्मतत्वशो ब्रह्मोया विद्यवी
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जैन - प्रन्थ-संग्रह |
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श्वरः ॥ ६ ॥ सिद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धान्तविद्धयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ॥ १० ॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्नः प्रभविणुभवोद्भवः । प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्यः ॥ ११ ॥ विभावसुरसंभूष्णुः स्वयंभूष्णुः पुरातनः । परमात्मा परमज्योतित्रिजगत्परमेश्वरः ॥ १२ ॥
इति श्रीमदादिशतम् ॥ १ ॥
दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासनः । पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥ १ ॥ श्रीपतिर्भगवानर्हश्शरजा विरजाः शुचिः । तीर्थ कृत्केवलीशानः पूजार्हः स्नातकोऽमलः ॥ २ ॥ अनन्त दीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंवुद्धः प्रजापतिः । मुक्तः शको निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः ॥ ३ ॥ निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुकोक्तिर्निरामयः । अचलस्थितिरिक्षोभ्यः कूटस्थः
स्थाणुरक्षयः ॥ ४ ॥ अग्रणीर्ग्रामणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिद्ध धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ ५ ॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषतिर्भर्ता वृषभाङ्को वृषोद्भवः ॥ ६ ॥ हिरण्यनाभिभूतात्मा भूतभृद्भूतभावनाः । प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तकः ॥७ ॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्मः प्रभूतविभवोद्भवः । स्वयंप्रभुः सर्वदृक् सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् ॥ ६ ॥ सुगतिः सुश्रुतः सुश्रुक सुवाक् सुविहुश्रुतः । विश्रुतो विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥ १० ॥ सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वराः ॥ ११ ॥
इति दिव्यादिशतम् ॥ २ ॥
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जैन- प्रन्थ-संग्रह ।
||४०|| धनादिसम्वन्धे च ॥४१॥ सर्वस्य ॥४२॥ तदादी निभाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ ४३ ॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४४ ॥ औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४५ ॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४६॥ तैजसमपि ॥४८ || शुभं विशुद्ध मन्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ||४६|| नारकसम्मूर्छिना नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः ॥५२॥ शेषास्त्रिवेदाः ||५२|| औपपादिकचरमोत्तमहाऽसंख्येयवर्षायु षोऽनपवर्त्यायुषः ॥५३॥
इति तत्वाधिगमे मोराशास्त्र द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
रत्नशर्करावा लुकापङ्कधूम तमे । महातमः प्रभाभूमयेो घनास्वाताकाशप्रतिष्ठाः सप्तोऽधः ॥ १॥ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चानैकनरकश सहस्र णि पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥ २ ॥ नारकानित्याऽशुभतरलेश्यापरिणाम देह वेदनाविक्रियाः ॥३॥ परस्परादीरितदु:म्बाः ||४|| संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ||५|| तेष्वेकत्रि सप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपमा श्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जम्बूद्रोपलवणेदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ||१|| द्विर्द्धिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपणो वलयाकृतयः || || नन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कस्भा जम्बूद्वीपः ||६|| भरतर्हेमचन हरि विदेहरस्यकहैरण्यवतैरावत्तवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवत्रिषधनीलरूक्मिशिखरिणो वर्षधरपताः ॥ ११ ॥ हेमार्जुन तपनीय व ड्रर्यरजत हेममयाः ॥ १२ ॥ सगिविचित्र पाव उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥ १३ ॥ पहा अतिगिष्ठ केस रिमहा उण्डरोक पुण्डरोका हदास्तेषानु ॥ १४ ॥ प्रथमो योजन सहस्रायामस्तदर्द्ध विष्कशोहदः ॥ १५ ॥ दशये ना गाइः ॥ १६ ॥ तन्मध्ये योजनं
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जैन-प्रन्ध-संग्रह।
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पुष्करम् ॥१७॥ तद्विगुणाद्विगुणा हुदाः पुष्कराणि च ॥१६॥ तनिवासिन्यो देव्यः श्रीहोधृतिकीर्तिवुद्धिलक्ष्म्यः पल्यापमस्थितयः सन्नामानिकपरिषत्काः ॥१६॥ गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतादानारीनरकांन्तासुवर्णरूप्य-- कूलारकारतोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥२०॥ द्वयाईयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१॥ शेषास्त्वपरगाः ॥२२॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गणासिन्ध्वादयो नद्यः ॥२३॥ भरतः षडविंशतिपञ्चयोजनशतविस्तारः पट्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥२५॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥ भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्लपिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः, ॥२८॥ एकद्वित्रिपल्यापमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरुवकाः ॥२९॥ तथोत्तराः ॥३०॥ विदेहेषु सङ्घय यकालाः ॥३१॥ भरतस्य विष्कम्भा जम्बूद्रीपस्य नवतिशतभागः॥३२॥ द्विर्द्धात. कोखराडे ॥३३॥ पुष्कराई च ॥३॥ प्रामानुषेोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥३६॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥ नस्थिती परावर निपल्या.. पमान्तर्मुहूर्ते ॥३८॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥
इति वश्यार्थाधिगमे भीषशास्त्र तुतीयोऽध्यायः ॥ ३
देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या: ॥२॥ दशाप्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिपदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण-- कामियोग्याकल्विषिकाश्चैकशः ॥४॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवयाव्यन्तरज्योतिषका ॥५॥ पूर्वयो:न्द्रा ॥६॥'कायत्रवीवार आ ऐशानात् ॥७॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥ परेऽत्रवीचाराः ॥६॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युन्सुर्णािशिवा
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१. ११६
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
maya
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तस्तनितोदधिद्वोपदिक्कुमाराः ॥१०॥ व्यन्तराः किनकिम्पु. रुषमहारगगन्धयक्षराक्षसभूतपिशांचा: १.११ । ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥१२॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयों नृलोके ॥१३॥ नत्कृतः कालविभागः ॥१४॥ वहिरवस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्लोपपन्नाःकल्पातीताश्च ॥१७॥ उपर्युपरि ॥१८॥ सौधम्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशनारसहस्रारे-- घानतप्राणतयोरारणाच्युतानवसुवेयकेषुर्विजयवैजयन्त.. जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥स्थितिप्रभावसुखयु • तिनेश्याविशुद्धोन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥ गतिशरीरपरिग्रहाऽभिमानताहीनाः ॥२१॥ पोनपद्म शुक्ललेश्या द्विविशेषेषु ॥२२॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकोः ॥२४॥ सारस्तादित्यवयरुणगर्दतायतुषिताव्याबाधा-- रिधाश्च ॥ २५ ॥ विजयादिपु द्विचरमाः ॥ २६ ॥ औपपा.. दिक मनुष्येभ्यः शेषास्तियंग्यनियः ॥ २७॥ स्थितिरसुंर नांगसुपर्णद्वीपशेषाणा सागरोपमति ल्योपमा होमिता: ॥२८॥ सौंध शानयोः सागरोपमे, अधिके ॥२६सानत्कुमारः महिन्द्रयोः सप्त ॥३०॥ त्रिसप्तनवे कादशत्रयोदशंपञ्चदशभिरधिकानितु ॥३१॥ आरणाच्युतालमेकैकेन नवसु वेयकेषु विजु- . . यादिषु, स्वथिसिद्धौ च ॥३२॥ अपरा पल्यापममधिकम् ॥३३॥ परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तराः ॥३४॥ भारकाणां च द्वितीयादिषु. isin दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥३६॥ भवनेषु च ॥ ३० ॥ व्यतराणां च ॥३८॥ परापलॉपमधिकम् ॥३६॥ ज्योतिष्काणां च॥४०॥ तदष्टभागोऽपरा ॥४॥. लोकान्ति कानामष्टो सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥४२॥...... ... ... ... ... । इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्ष यात्रे योऽध्यायः ॥४॥
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'जैन-ग्रन्थ-संग्रह। ..... .. ... : " अजीवकाया धमाधम्र्माकाशपुनला द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥३॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥ रुपिणाः पुद्गला: ॥५॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ निष्क्रियाणि च ॥७॥ असङ्ख्य या प्रदेशा धर्माधम्मकजीवानाम् ॥८॥ ऑफाश; स्यानन्ताः ॥ साय यासवय याश्च पुद्गलानाम् ॥१९ नाणी: ॥ ११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुदलानाम् ॥ १४॥ असङ्ख्य यभा गादिषु जीवानाम् ॥१५॥ प्रदेशसंहारविसपाभ्यां प्रदीपषत् . ॥१६॥ गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयारुपकारः ॥रा आकाश: स्याचगाहः ॥१८॥ शरीर बननः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१६॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ परस्पराग्रहो जीवानाम् ॥२॥ वर्तनापरिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे व कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला ॥२३।। शब्द: बन्धसौम्यस्थौल्य...संस्थानभेदतमाछायांऽऽतपोधातवन्तश्च ॥२४॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥२५॥ भेदसखातेभ्य उत्पधन्ते ॥२६॥ भेदादणुः ॥२७॥ भेदसाताभ्यां चाक्षुषः ॥२८॥ सद्: द्रव्य लक्षणम् ॥२६॥ उत्पादध्ययध्रौव्ययुक. लत् ॥३०॥ तभावाध्ययं नित्यम् ॥३१॥ अर्पितानर्पितासिद्धः ॥३२॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः ॥३३॥ न जघन्यगुणानाम्॥३४ा गुणसाये सदृशानाम ॥३५॥ धधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ बन्धेऽधि: को पारिणामिको च ॥३७॥ गुणपर्यायवद्रव्यम् ॥३८॥ काल श्च ॥३६॥ सेोऽनन्तसमयः ॥eon द्रव्याश्रया निगुणः ॥१॥ तद्भावः. परिणामः ॥४२॥ . . . . !... इति वरवाधिगमे भोरेशाने पावभोगवाया Hu
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जैन-ग्रन्थ संग्रह |
संवाद्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् सस्थापयामि कलशांन् जिनवेदिकान्ते ॥७॥
( पुष्प अक्षातादि क्षेपण करके वेदी के कोनों में चार कलशों की स्थापना करना चाहिये )
आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहुलेना मुना चन्दनेन श्रीट्टस्पेयैरमीभिः शुचिरुदकचयै रुद्र मैरेभिरुद्ध हृद्यरेभिनिवेद्य भवनमिदपर्याद्भः प्रदीपैधूपैः प्रायाभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरीभरीशं यजामि || ( यह पढ़कर अघ चढ़ना चाहिये ).. दूरावनम्रसुरनाथ किरोटकोटोलंलग्नरक्ष किरणच्छविधूसरांघ्रिम् | i प्रस्वेदताप मलमुकमपि प्रकृष्टैर्भकत्या जलैजिनपति बहुधाऽभिषिचे ॥॥
( शुद्ध जल की धार प्रतिमा पर छोड़ना चाहिये ) भक्त्या ललाटतटदेश निवेशितेाच्चै -
ईस्तैच्युताः सुरवरः सुरमर्त्यनाद्यैः । तत्कालपी लितमहेक्षरसस्य धारा
सद्यः पुनातु जिर्नावम्वगतैव युष्मान् ।।१०।
( इक्षुरसकी धारा० )
उत्कृष्ट वर्णन व हेमनसाभिराम
'देहप्रभावलय संगमलुप्त दीप्तिम् ।
धारा घृतस्य शुभगन्त्रगुणानुमेयां
वन्देऽर्हतां सुरभिसस्नपनेापयुक्काम् ॥११॥ ( घृत रस की धारा )
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जैन-ग्रन्छ-संग्रह।
संपूर्णशारदशशाकमरीविजाल
स्यन्दरिवान्मयशसामिव सुप्रवाहैः क्षागजिनाः शुचितररभिपिच्यमाणाः
संपादयन्तु मम चित्तसमीहितानि ॥१२॥
(दुग्ध रस की धारा०) दुग्धाधिवीचिपयसंचितफेनराशि
पारसुत्वकान्तिमवधारयतामात्र । दना गता जिनपते प्रतिमा सुधारा
संपद्यतां सपदि चाञ्छितसिद्धये यः ॥१३॥
(दही की धारा०) संसापितस्य धृपदुग्धदधीक्षुहै:
सर्वाभिरोपधिभिरहतमुज्ज्वलाभिः। .. उद्धर्तितस्य विदधाम्पभिपेकमे
लाकालेशकुखमरसोत्कटावारिपूरैः ॥१४॥
(सर्वोपधिरस की धारा०) इष्टमनोरथशतेरिव भव्यपुंसां
पूर्णीः सुवर्णकलशनिखिलैर्वसानः ।। संसार सागरविलडुनहेतुसेतुमा
प्लावये त्रिभुवनैकपति जिनेन्द्रम् ॥१५॥
(कलशों से अभिषेक) द्रव्यैरनरूपघनसार चतुः समाद्यरामोदधासितससस्तदिगन्तरालैः। मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुङ्गवानां त्रैलोक्पपाचनमहं स्नपनं करोमि ॥१६॥ ' (सुगधित जल को धारा०)
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जैन-प्रन्य संग्रह।
मुक्तिश्रीवनिताकगेदक मिदं पुण्याङ्कोत्पादक
नागेन्द्रनिःशेन्द्रचक्रपदवोराज्याभिषेकोदकम् । सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनलासंवृद्धिसंपादकं : कीश्रीज्यसाधकं तब जिन स्नानस्य गन्धोदकम् ॥१७॥ (यह श्लोक पढ़कर गन्धोदक लेकर मस्तक पर लगाना चाहिये)
इति लघुभिषेक पाठ।
... . विनयपाठ। इहि विधि ठाडो होय के प्रथम पढ़े जो पाठ। धन्य जिनेश्वर देव तुम नाशे कर्म जु पाठ ॥१॥ अनंत चतुष्टय के धनी तुम ही हो शिरताज । मुक्ति बधू के कंथ तुम तीन भुवन के राज ॥२॥ तिहुँ जग की पड़ा हरण भवदधि शोषतहार । ज्ञायक हा तुम विश्व के शिव सुखके करतार ॥३॥ हरता अघ अँधियार के करता धर्म प्रकाश । . थिरता:पद दातार हो धरता निजगुण रास । ४॥ धर्मामृत उर जलसों ज्ञान भानु तुम रूप । तुमरे चरण सरोज के नावत तिहुँ जग भूप ॥५॥ मैं चन्दौं जिनदेव कों,कर अति निरमल भाव । कर्म बंदके छेदने. और न कोई उपाय .६॥ भविजन को भविं कूप तैं तुमही काढ़न हार । दीनदयाल 'अनाथपाते अन्तिमगुण भंडार ॥ चिदानन्द निर्मल कियौ धोय. करम रज मैल । शरल करीया जगत मैं भविजनको शिव गैल ॥८॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
૨૨
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तुम पद पंकज पूजते विघ्न रोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरै विष निर विपना थाय ॥ER चक्री खग धर इंद्र पर मिले आपत आप अनुक्रम कर शिव एद लहै नेम सकल हन पाप ॥१०॥ तुम विन मैं व्याकुल भया जैसे जल घिन मीन जन्म जरा मेरो हरो कारा मोह स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुन पावन किये गिनती कौन करे । अंजन से तारे कुची सु जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भत्रि दधि विर्षे तुम प्रभु पार करय । खेवरिया नुम दो प्रभु सो जय जय २ जिनदव ॥१३॥ राग सहित जग में रुले मिले सरागो देव । वीतराग भैटो सबै मेटी राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित नारकी कित तिर्यंच अज्ञान। आज धन्य मानुष भयो पायो जिनवर थान ॥१५॥ तुमको पूजें सुरपनि अहिपति नरपति देव । धन्य भाग मेरो भयो. करन लगो तुम सेव ॥१६॥ अशरण के तुम शरण हो निराधार आधार । में इयत भवसिंगु में खेव लगायो पार ॥१७॥ इंद्रादिकगण गति थकी तम विन्तो भगवान । विनती आप निहारि के फीजे आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुद्रष्ट से जग उतरत है पार। हाहा इयौ जात हो नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं फाहा हूं और सों तो न मिट उर झार। मेरी तो मोसे बनी , तातें करत पुकार ॥२०॥ बंदों पाचों एरंच शुरू सुतुरु बदन जास। रिघ लाल रंग पूरन. पर कप २६३
. , विध
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जैन-अन्य-संग्रह।
ॐ हो जिनमुखोद्भूनस्यार, दनयगर्भितद्वादशांगश्रुतबानाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वयामीति स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सभ्यग्दर्शनशानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्यों. पाध्याय सवसाधुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निवपामीति स्वाहा सद्वारिंगन्धाक्षतपुष्पजातनैवेद्यवीयामलधूपधूः। फलैर्विचित्रैर्धनपुरययोगान् जिनेन्द्रसिद्धान्तयनीन् यजेऽहम18॥ . ॐ हीं परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानराकये अष्टादशदोपरहिवाय षट्चत्वारिंशदगुणसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने अन्ध पदप्राप्तये अर्घ नियंपामोति स्वाहा।
ॐ ह्रीं जिनमुखाद्भूतस्याद्वादनयगर्मितद्वादशाङ्गवनज्ञानाय अनर्घपदपाप्तये अर्घ निवंपामोति स्वाहा ।
ॐ ही. सम्यग्दर्शनशानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्यों. पाध्याय सर्वसाधुभ्योऽनघं ग्दप्राप्तये अघ निवपामीनि स्वाहा। __ये पूजां जिननाथशास्त्रयमिनां भकया सदा कुर्वते • सन्ध्यं सुविचित्र काव्यरचनामुच्चारयन्ता नरा:।
पुण्याच्या मुनिराजकीर्तिसहिता भूत्वा नपोभूषणा· स्ते भव्याः सकलाववोधरुचिरा सिद्धि लभन्ने पराम.on
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलि क्षेपण करना) वृषभोऽजितनामा च संभवश्वाभिनन्दनः । • सुमतिः पद्ममासश्च सु गर्यो जिनसत्तमः ॥२॥ • चन्द्राभः पुष्पदन्तश्च शीतलो भगवान्नुनिः।
श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमलद्युतिः ॥२॥ अनन्तो धर्मनामा च शान्तिः कुन्थुर्जिनोत्समः। अरश्च मल्लिनाथश्च सुबतो नमितार्थकृत् ॥३॥
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जैन प्रन्य-संग्रह।
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हरिवंशसमुद्भूतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वस्तापसर्गदत्यारिः पावो नागेन्द्रपूजितः ॥४. फर्मान्तकृन्महावीर: सिद्धार्थकुलसम्भवः । एते सुगसुरोघेण पूजिता विमलत्विषः ॥५॥ . पूजिता भरतायश्च भूपेन्द्रभू रिभूतिभिः । चतुर्विधस्य सङ्घल्य शान्ति कुर्वन्तु शाश्वतिम् ॥६॥ जिने भक्तिपिने भकिर्जिने भक्तिः सदाऽस्तु मे। सम्यक्त्वमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥७॥
(-पुष्पांजलि क्षेपण) । श्रुते भक्तिः श्रु भक्तिःश्रुते भक्तिः सदाऽस्तु मे। सम्यक्त्वमेव संसारचारणं मोक्षकारणम् ॥८॥
(पुष्पांजलि क्षपण) गुरी भक्तिगुरी भक्तिगुरी भक्तिः सद ऽन्तु मे। वारित्रमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥en
(पुष्पांजलि क्षेपण)
अथ देव जयमाला प्राकृत ।. वत्ताणुहोणे जणघणुदाणे पइपोसिउ तुहु ख़त्तधरु । तुहु चरणविहाणे केवलणाणे तुहु परमप्पउ परमपरु ॥१॥ .
जय रिसह रिसिसर णमियपाय । जय अजिय जियं. गमरोसराय । जय संभव संभवकय विमाय । जय अहिणंदण पदिय पोय ॥२॥ .
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जैन ग्रन्थ-संग्रहा
जय सुमइ सुमइ सम्मयपयास । जय परमप्पह पउम:निवास | जय जयहि सुपास सुपासगत | जय चंद्रह
दाहवत ॥
जय पुप्फयंत दंतंतरंग | जय सीयल सीयलवयभंग | जय सेय सेर्याकर णोहसुन । जयं वासुपुन पुजाणपुत्र ॥ ४ ॥ जय विमल विमलगुण सेढिठाण । जय जयहि अणताताण जय धम्म धम्मतित्थयर संत । जय सांति सांति विहियायवन्त ॥ ५ ॥
जय कुंथु कुंथुपहुसंगिसदय । जय भर भर माहर विहियसमय | जय मल्लि मल्लिओदामगंध। जय मुणिसुन्वय. सुव्त्रयणिबंध ॥ ६ ॥
जय णमि णमियामरणियरसामि । जय णेमि धम्मरहचक्कणेमि । जय पास पास छिंदण किवाण । जय. वड्ढमाण जसवड्ढमाण || e ॥
चत्ता ।
1
इह जाणिय णामहि, दुरियविरामहिं परहिंवि णमिय सुराचलिहिं महणहिं अणाइहिं, समियकुंवाइहिं, समियकुंवाइर्हि, पणविमि
अरहंतावलिहिं ॥
ॐ ह्रीं वृषभादिमहावीरान्तेभ्योऽयं महाघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
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.. इहभाँति अर्ध चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मधू : नरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥
दोहा - वसुविधि अर्ध संजोयके, अति उच्छाद मन कीन । जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्थ पद प्राप्ताये अर्धं निर्वपामिति स्वाहा ||६||
अथ जयमाला |
देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार | भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥
पछडि छन्द |
चकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि जीते अष्टादशदोपराशि जे परम सगुण हैं अनन्त धीर । कहवत के छयालिस गुण गंभीर ॥ २ ॥
- शुभसमवसरण शोभा अपार । शत इन्द्र नमत कर सीस धार देवादिदेव अरहन्त देव । वन्दो मनवचतनकरि सुसेच ॥३॥
जिन की धुनि है ओंकाररूप । निर अक्षरमय महिमा अनूपं । दश अष्ट महाभाषा संमेत । लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥ ४ ॥
सो स्याद्वादमय सप्तभंग । गणधर गंथे बारहसुअंग रात्रि राशि न हरै सो तम हराय । सो शास्त्र 'नमोचहु प्रीति ल्याय ॥ ५ ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
१४६
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गुरू आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेहवैराग धार । निरवांछि तपै शिवपद निहार. ॥६॥
गुण छत्तिस पचिस आठ दोस । भव तारन तरन जिहाजईस । गुरु की महिमा घरनी न जाय । गुरुनाम जपों मनव चनकाय ॥७॥
सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै 'धानत ' सरधावान , अजर अमरपद भौगवै॥ ८ ॥ ॐ हीं देवशानगुरुभ्यो महाव्य निर्वपामीति स्वाहा ।
------- EFTEyer~~-.. 'वीस तीर्थकर पूजा भाषा । दीप पढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थ करवीस तिन लयकी पूजा करू, मनवचतन धरि शीस ॥ १ ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ कग! अत्र अवतरत अवतरत । संघोपट ।
ॐ हों विद्यमान विशतितीर्थकरा.! अन तिष्ठत तिष्ठत. 331 ॐ हों विद्यमान विंशतितीर्थकरा ! अन मम सन्निहिता भवत भवत । वषट् ।
इन्द्रफणींद्रनरेंद्र बंय, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सार गुण हैं अविकारी।
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
क्षीरोदधिसम नीरसों ( हो ), पूजों तृषा निचार I सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेहमँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरणजिहाज ॥६॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्ममत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
यदि वीस पुंज करना हो, तो इस प्रकारमंत्र पढ़े
ॐ ह्रीं सीमन्धर युग्मंधर- बाहु सुवाहु-संजात स्वयंप्रभ ऋषभानन - अनन्तवीर्य-सूराभ- विशाल कीर्ति-वज्रधर-चन्द्रान. न चन्द्रवाहु-भुजगम ईश्वर-नेमिप्रभ-वीर- महाभद्र देवयशाऽजितवीर्येति विशितिविद्यमानतीर्थंकरेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ||१||
तीन लेक के जीव, पाप आताप सताये । तिनको साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ वाचन चंदनसों जजूं (हो) भूमनतपन निरवार। सीमं० ॥२॥
ॐ हों विद्यमान विंशतितीर्थंकरेभ्येा भवातापविनाशनायचन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ||२||
4
यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी तातें तारे बड़ी भक्ति-नौका जग नामी ॥
तंदुल अमल सुगंधसों ( ही ), पूजों तुम गुणसार | सीमं० ॥ ३ ॥
ॐ० हीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान निर्व० ॥
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जैन-प्रन्थ-संग्रह।
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भविक-सरोज-विकासि, निंद्यतमहर रविसे हो।
जति आवक भाचार कथन को, तुम्हीं बड़े हो । फूलसुवास अनेकसों (हो), पूर्जी मदन प्रहार । सीम: ॥४॥
ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थंकरभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुरुष्पं निर्व०॥
कामनाग विषधाम- नाशको गरुड़ कहे हो।
छुपा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो । नेधज बहु घृत मिष्टसों (हो), पूजों भूख विडार । सीम०॥५॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः नुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व०॥
उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है।
मोह महातम घोर, नाश परकाश फरयौ है । 'पूजों दीपप्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं० ॥६॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरभ्य। मोहान्धकारविनाशनायदोपं निर्व.॥
कर्म आठ सय काठ,--भार विस्तार निहारा ।
ध्यान अगनिकर प्रगंट, सरव कीनों निरवारा। धूप अनूपम खेवते (हो), दुख जलै निरधार । सीम०॥ ७ ॥
ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व० ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
ध्यान धरें सो पाइये परम सिद्ध भगवान ॥ . ___इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत् ) . .
सिधपूजाका भवाष्टक ! .. . निजमनोमणिभाजनभारया समरसैकसुधारसधारया। सकलोधकलारमणीयक सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥१॥ जलम् ' सहजकर्मकलकविनाशनरमलभांवसुभाषितचन्दनः । अनुपमानगुणावलिनायकं सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥२॥ चन्दनम् । : सहजभावसुनिर्मलतन्दुलै सकलदोषविशालविशोधनैः। अनुपरोधसुबोधनिधानकं सहजसिद्धमहं परिपूजये।।३।।अक्षतान्
.. समयसारसुपुष्पसुमालया सहजकर्मकरण विशोधया। परमयोगवलेन वशीकृतं सहजसिद्धमहं परिपूजये ।।४। पुष्पम् । .. अकृतबोधसुदिव्यनिवेद्यकैर्विहितजातजरामरणान्तकैः । निरवधिप्रचुरात्मगुणालयं. सहजसिद्धमहं परिपूजये ||५|| नैवेद्यम् । . . . . . . . .
सहजरत्नरुचिप्रतिदीपकै रुचिविभूतितमः प्रविनाशनैः। निरवधिस्वविकाशविकानैः सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥६॥ दीपम्।
निजगुणाक्षयरूपसुधूपनैः स्वगुणधातिमलप्रविनाशनः । विशद्वीधसुदीर्घसुखात्मक.सहजसिद्धमहे परिपूजयोधूपम्।
परमभावफलावलिसम्पदा : सहजभावभावविशोधया । निजगुणाऽऽस्फुरणात्मानिरञ्जनं सहजसिद्धमहंपरिपूजये ॥८॥ फलम् ।...
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
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नैत्रोन्मीलिविकाशभावनिवहैरत्यन्तवोभाय वै वागंन्धाक्षतपुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपैः फलैः । यश्चिन्तामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकैरर्चयेत्
सिद्ध स्वादुमगाधबोधमचलं संचर्चयामो वयम् ||६|| अर्घ्यम् ।
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सोलहकारणका अर्ध ।
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उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्वरुसुदीपसुधूपफलाघंकैः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनहेतुमहं यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धया दिषोड़शकारणेभ्यो अर्घ्यं निर्वपा मीति स्वाहा
दशलक्षण धर्मका अर्थ |
उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्धकैः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनधर्ममहं यजें ॥२॥
ॐ ह्रीं भईन्मुखकमलसमुद्भूतात्तमक्ष मामाद्देवार्जवसत्यशौचसंयमतपत्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्य्य दशलाक्षणिकधर्मेस्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा.
रत्नत्रयका अर्घ Į
उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्व रुसुदीपसुधूपफलार्धकैः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनरत्नमहं यजे ||३||
ॐ ह्रीं अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशप्रकार सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥
बीस तीर्थकर पूजा की अचरी ।
भव अटवी भ्रमत बहु जनम धरत अति मरण करत लह जरा की बिपत अति दुःख पायो ।
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जैन-अन्य-संग्रह।
ताते जल ल्यायो तुम ढिग आयोशांत सुधारस अब पायो।। श्री वीस जिनेश्वर दया निधेश्वर जगत महेश्वर मेरी बिपत हरो। भव संकर खंडो आनंद मंडो मोहि निजातम सुद्ध करो ॥शा पर चाहं अनल मोह दहत सतत अति दुःख सहत भव विपत भरत तुम ढिग भयो । तातें ले चावन तुम अति पावन दाह मिटावन सुक्ख करो ॥२॥ फिर जनम धरत फिर मरण करत भव भ्रमर भ्रमत बहु-नाटक नट अति थकित भयो। तातें शुम अक्षित तुम पद अचंत भव भय तर्जित सुखद भयोश्री मोह काम ने सतायो चारों बामा उर लायो सुध दुध विसरायो बहु विपत गमायो नाना विधकी। तातें घर फूलं तुम निरशूलं मोह विभूल कर अबकी ॥श्री।।४ मोह छुधा ने संतायो तब आशना बढ़ायो बहु याचना करायो तिहुँ पेट न भरायो अति दुःख पायो। ताते चरू धारी तुम निरहारी मोह निराकुल पद बगसो ॥श्री०॥५॥मोहतम को चपेट तातें भयो हो अचेत कियो जड़ ही से हेत भूलो अप्पा पर भेद तुमशरण लही।दीपक उजयारों तुम दिन धारी स्वपर प्रकासों नाथ सही । श्री०॥ ६ कर्म ईंधन है भारी मोको कियो है दुखारी ताकी विपत गहाई नेक सुध हू न धारी तुम चरण नमं ।। ताते बर धूपं तुम शिव रूप कर निज भूपं नाथ हमें ॥श्री०॥ अंतराय दुःख दाई मेरी शक्ति छिपाई मोसो दीनता कराई मोकों अति दुःख दाई भयो आज लो प्रभू । तातें फलल्यायो तुम दिग आयो मोक्ष महा फल देव प्रभू श्रीगाटा आठों कर्मो ने सतायो मोकों दुःख उपजायो मोसो नाचहू नचायो भाग तुम पिसावायो अव बच जाऊँबसु द्रव्य समारी तुम ढिग धारी हे भव तारी शिव पाऊँ । श्री बीस जिनेश्वर दया निधेस्वर जगत महेश्वर मेरी बिपत हरो । भव संकट
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
चौपाई। .. . कंचनझारी निरमल नीर । पूजौं जिनवर गुनगंभीर। ,
परमगुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो। दरशविशुद्धि भावना भाय । “सोलह तीर्थंकरपददाय परमगुरु ही, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥१॥
ॐ हीं दर्शनविशुद्यादिषोडशकारणेभ्यो जन्ममृत्युविनाशाय जलं नि०॥ चंदन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्रीजिनवरके पाय । परम हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश० ॥२॥ ____ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं० ॥ तंदुल धवल सुगंध अनूप । पूजौं जिनवर तिहुँजगभूप ।
परमगुरु हो, जय जय नोथ परमगुरु हो ॥ दरशवि०॥३॥ ____ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्योऽक्षयपदप्राप्ताये अक्षतान् नि०॥
. फूल सुगंध मधुपगुंजार । पूजौं जिनवर जगभाधार । परमगुरु हो जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश० ॥ ४॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्यादिषोडशकारणेभ्यः कामबाणविध्वंसनीय,पुष्पं ॥ . . ... सदनेवज बहुविध पकवान ! पूजौं श्रीजिनवर गुणखान । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरशवि० ॥५॥
ॐ ह्रीं वर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य
. .. .... दीपकजोति तिमर छयकार। पूंजं श्रीजिन केवलधार ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दरश विशुद्ध भावना माय । सोलह तीर्थंकरपद् पाय! . . .
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जैन - अन्ध-संग्रह |
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परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥
अगर कपूर गंध शुभ खेय । श्रीजिनवरभागें महकेय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश० ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्येा अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि० ॥ ७ ॥
श्रीफल आदि बहुत फलसार । पूजौं जिन वांछितदातार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमंगुरुं हो ॥ दरश० ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्यो मोक्षफल - प्राप्तये फलं निर्वपामी० ॥ 11
जल फल आठों दरव चढ़ाय । 'द्यानत' वरत करों मनलाय परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दरश ● ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्ध यादिपोडशकारणेभ्येाऽनर्घ्य पदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति ॥
अथ जयमाला । दोहा |
पोशकारण गुण करे, हरै चतुरगतिवास । पापपुण्य सब नाशकै, ज्ञानभान परकास ॥२॥ चौपाई १६ मात्रा । दरशविशुद्ध धरे जो कोई । ताको आवागमन न होई विनय महाधारे जो प्रानी । शिववनिताकी सखी बखानी ॥२॥ शील सदा दृढ़ जो नर पालें । सा औरन की आपद टालें ॥ ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं । ताकै मोहमहातम नाहीं ॥ ३ ॥ जो संवेगभाव विस्तारै । सुरगमुकतिपद आप निहारै ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
दान देय मन हरष विशेखै । इह भव जस परभव सुख देखें। जो तप तपै खपै अभिलाषा । चूरै करमशिखर गुरु भाषा । साधुसमाधि सदा मन लावै! तिहुँजगमोगि भोग शिव जावै॥५॥ निशदिन वैयावृत्य करैया। सौ निहचै भवनीर तिरैया ।। जो अरहतभगति मन आनै । सो मन विषय कषाय न जाना जो आचारजभंगति करै हैं। सो निर्मल आचार धरै है।। बहुश्रुतवंतभगति जो करई । सो नर संपूरन श्रुत धरई ।।७।। प्रवचनभगति करै जो ज्ञाता। लहै ज्ञान परमानंददाता ।। षटआवश्यं काल जो सांधै । सो ही रतनत्रय आराधै टा धरमप्रभाव करें जे ज्ञानी । तिन शिवमारग रीति पिछानी।। वत्सलअंग सदा जो ध्यावै । सो' तीर्थंकरपदवी पावै ॥६॥
. .. :: :: : . . . . दोहा.। . . . . . .. एही सोलहभावना, सहित धरै व्रत जोयं। .
देवइन्द्रनरवंद्यपद, 'द्यानत शिवपद होय ॥१०॥ . . ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्यः पूर्ण निर्वपामी०
(अर्ध के बाद विसर्जन भी करना चाहिये)
‘दशलक्षणधर्म पूजा। : : :
.
.. . अहिल : . ..
उत्तम छिमा मारदव, आरजवभाव है। ...: सत्य.सौच संजमं तप त्यांग उपाव हैं:। ..
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं। ...... चहुँगतिदुखतें कादि मुंकतकरतार हैं ॥१॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
ॐही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म! अत्रावतर अवतर!संवीपट् ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। ॐही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वपट् ।
सोरठा। हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल सुरभ । भवमाताप निवार, दसलक्षन पूजों सदा ॥१॥
ॐही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय जलं निपामि॥२॥ चंदन केशर गार, होय सुवास दर्शों दिशा । भवआ० ।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय चंदन निर्वपामि०२॥ अमल अनंडित सार, तंदल चंद्रसमान शुभ ॥ भवा० ॥३॥
ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान निर्वपामि०॥३॥ फूल अनेकप्रकार, महक ऊरघलोक लों। भवा० ॥ ____ॐही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय पुष्पं निर्वपामि ॥४॥ नेवल विविध प्रकार, उत्तम पटरससंजुउत ॥ भवआ०॥ ५॥
ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षधर्माय नैवेद्य' निर्वपामि० ॥५॥ घाति कपूर सुधार, दीपकजोति सुहावनी ॥ भव०॥६॥
ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय दीपं निर्वपामि०॥६॥ अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगंधता ॥ भवा० ॥७॥ ____ॐ हीं उचमक्षमादिदशलक्षणधर्माय धूपं निर्वपामि॥७॥ फलकी जाति अपार, धान नयन मनमोहने । भवआ० ॥८॥
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं निर्वपामि०॥ ८॥ आठों दरव संचार, 'धानत' अधिक उछाहस ॥ भवा०॥६॥
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मायायं निर्वपामि० ॥ ६ ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
___ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिवेभ्यो नैवेद्यं निक तमहर उज्जल जोति जगाय । दीपसौं पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ.परम सुखं होय ॥ पांचों ॥६॥ ___ॐ ह्री. पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो दीपं नि०॥ खेउं अगर परिमल अधिकाय । धूपसौं पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों०॥७॥
ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो धूपं नि०॥ । . सुरस सुवर्ण सुगंध सुभाय । फलसौं पूजों श्रीजिनरायः। महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचो० ॥ ८॥ .
ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो फलं नि आठ दरवमय अरघ वनाय । 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय,देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाचों० ।।६।।
___ॐ हीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो अध्यं नि०॥ . अथ जयमाला।
सोरठा । . . प्रथम सुदर्शन स्वाम, विजय अचल मन्दर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेरु जग मैं प्रगट ॥१॥
वेसरी छन्द । ...: प्रथम सुदर्शन मेक विराजै । भद्रशाल वन भूपर छाजै॥. चैत्यालय चारों सुखकारी । मनवचतन वंदना हमारी ॥२॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
ऊपर पंच शतकपर सोहै । नंदनवन देखत मन मोहै ।चै० ॥३॥ साढ़े चासठ सहसउंचाई । वन समनस शोभै अधिकाई चै॥४॥ ऊंचाजोजन सहस छतीसं। पांडुकवन सोहै गिरिसीसं चै०५। चारों मेरु समान वखानो। भूपर भद्रसाल चह जानो।चैगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी। मनवचतन वंदनाहमारी चै० ॥७॥ ऊंचे पांच शतकपर भाखे। चारों नंदनवन अभिलाखे ।चै०।। चैत्यालय सोलह सुखकारी।मनवचतन वंदना हमारी चैक साढे पचवन सहस उतंगा। बन सोमनस चार बहुरंगाचै०११०॥ चैत्यालय सोलह सुखकारी।मनवचतनवंदना हमारी।चै०॥१२॥ उचेसहस अट्ठाइस बताये। पांडुक चारों वन शुभ गाये।०१२ चैत्यालय सोलह सुखकारी ।मनवचतनवंदना हमारी।चै०॥१३॥ सुरनरचारनवंदन आवै । सो शोभा हम फिह मुख गावैचै०१४ चैत्यालय अस्सीसुखकारी। मनवचतनवंदना हमारी ।चै०१५॥
दोहा। पंचमेरकी आरती, पढ़े सुनै जो कोय। • 'धानत' फल जानें प्रभू, तुरत महासुख होय ॥१६॥
ॐ हीं पञ्चमेरुसंबंधिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो अयं निर्यपामि॥
रत्तत्रयपूजा।
दोहा। . चढंगतिफनिविपहरनमणि, दुखपावक जलधार शिवसुखसुधासरोवरी, सम्यकत्रयो निहार ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्रवतरावतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं सम्यग्रतत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः । .
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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ॐ ह्रीं सम्यग्रत्तत्रय! अत्र मम सन्निहितं भव भव । वषट् . ..
सोरठा।। क्षीरोदधि उनहार, उज्जल जल अति सोहना। . जनमरोगनिरचार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥३॥
ॐ ह्रीं सम्यग्रतत्रयाय जन्मरोगविनाशनाय जलं . निर्वपामि ॥१॥
चंदन केसर गारि, परिमल महा सुरंगमय । जन्मरोग ॥२॥ . ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामि ॥
. . . ' 'तंदुल अमल चितार, वासमती सुखंदासके । जन्मरो॥३॥
___ॐ हीं सम्यग्रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामि० ॥३॥ .. महक फूल अपार, अलि गुंजें ज्यों थुति करें। जन्मरो० ॥el
. ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय कोमवाणविध्वंसनायः पुष । निर्वपामि ॥४॥ लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगन्धता । जन्मरो० ॥५॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० दीपरतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में । जन्मरो० ॥६॥
ॐ हीं सम्यग्रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं. निर्व .धूप सुवास विथार, चन्दन अर्घ कपूरकी । जन्मरो०॥७॥
ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामि ॥ ७ ॥ फलशोभा अधिकार, लोंग छुआरे जायफल । जन्म०॥८॥ . ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामि० ॥८॥ आठदरव निरधार, उत्तमलों उत्तम. लिये । जन्मरो० ॥६॥ ॐ ह्रीं सम्यग्नत्नत्रयाय अनयंपदप्राप्तये अयं निर्वपामि ॥६॥
सम्यकंदरसनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी।
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
चार सोलै मिले सर्व बावन लहे ॥ एक इक सीसपर एक जिनमंदिरं । भौन० ॥६॥ विच अठ एकसौ रतनमइ सोह ही। देवदेवी सरव नयनमन मोह ही ।। पांचसै धनुष तन पद्मासनपरं । मौन० ।।७।। लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं। स्यामरंग भौह सिरकेश छवि देत हैं। वचन बोलत मनों हँसत कालुपहरं । भौन ॥८॥ कोटिशशि भानदुति तेज छिप जात है। महावैराग · परिणाम ठहरात है ।। चयन नहिं कहैं लखि होत सम्यकधरं । भौन० ॥६॥
सोरठा । नन्दोश्वर जिनधाम, प्रतिमामहिमा को. कहे । 'द्यानत' लीनों नाम, यह भगति सब सुख करे ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
( अर्घ्यके वाद विसर्जन करना चाहिये ।)
चतुर्विशतितीर्थ कर निर्वाणक्षेत्रपूजा।
सोरठा। परम पूज्य चौवीस, जिह जिह थानक शिव गये । सिद्ध भूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करौं ॥१॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्राणि! अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि अन तिष्ठत तिष्ठत । ठाठः। ॐ हीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाण
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जैन - ग्रन्थ-माला |
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क्षेत्राणि अत्र मम सन्निहितानि भवत भवंत । वपट् । गीता छंद ।
शुचि क्षीरदधिसम नीर निरमल, कनकभारोमें भरौं । संसारपार उतार स्वामी, जोर कर विनती करों ॥ सम्मेदगिरि गिरनार चंपा, पाचापुरि कैलासकौं । पूजों सदा चौवीसजिन निर्वाणभूमिनिवासकों ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
केसर कपूर सुगंध चंदन, सलिल शीतल विस्तरौं । भवपापको संताप मेटौ, जोर कर विनती करौं |सम्मे०॥२॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो चंदन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
मोंतीसमान अखंड तंदुल, अमल भानंदधरि तरौं ।
नहरी गुनकरो हमको, जोर कर विनती करौ ॥ सम्में० ॥३ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ शुभफुलरास सुवासवासित, खेद सब मनकी हरौं । दुखधाम काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं॥सम्मे ॥४ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो पुप्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज अनेकप्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरों ॥ यह भूखदूखन टारि प्रभुजी, जोर कर विनती करौं॥ सम्मे० ॥५ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्या नैवेद्य निर्व पामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
दीपक प्रकाश उजास उज्जल, तिमिरसेती नहि डरों । संशय विमोहविभरम तमहर, जोरकर विनती करौं । सम्मे०६
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
- ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
शुभ धूप परम . अनूप पावन, भाव पावन आचरौं । सब करमजलाय दीजे, बोर कर विनती करौंसम्मेगा
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूपं निर्यपा. मोति स्वाहा ॥७॥
वहु फल मंगाय चढ़ाय उत्तम, चारगतिसों निरवरौं। निहचै मुकतफल देहु मोकौं,जोर कर बिनती करौं।सम्मेष्टा ___ 'ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः फलं निर्वपाभीति स्वाहा ॥ ८॥
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं। 'द्यानत'करो निरभय जगततै,जोर कर विनती करौं।सम्मे॥
. ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ .
' अथ जयसाला। ..
सोरठा। श्रीचौवीसजिनेश, गिरिकैलासादिक नमों। तीरथमहाप्रदेश, महापुरुपनिरवाणते ॥१॥
चौपाई १६ मात्रा। ... नमों रिषभ कैलास पहारं । नेमिनाथगिरिनार निहारं ॥ वासुपूज्य चंपापुर बंदौं। सनमति पावापुर अभिनंदौं ॥२॥ वंदौं अजित अजितपददाता । वंदौं संभवभवदुखधाता ।। वंदौं अभिनंदन गणनायक । वंदौं सुमति सुमतिके दायक ॥३॥ वंदौं पदम मुकतिपदमाधर । वंदी सुपार्स आशपासा हर ॥ वंदौं चंदप्रभ प्रभुचंदा. बंदी सुविधिसुविधिनिधिकंदा ॥४॥ वंदौं शीतल अधतपशीतल । वंदों श्रियांसधियांसमहीतल ॥
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रूट
जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
चौपाई (१६ मात्रा) । एक ज्ञान केवल जिन स्वामी । दो आगम अध्यातम नामी । तीन काल विधि परगट जानी। चार अनन्तचतुष्टय ज्ञानी ॥२॥ पंच परावर्तन परकासी। छहों दरवगुनपरजयभासी ॥ सातभंगवानी परकाशक | आठों कर्म महारिपुनाशक ॥ ३॥ नव तत्त्वनकै भाखनहार । दश लध्छनौ भविजन तारे। ग्यारह प्रतिमा के उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥४॥ तेरह विधि चारित के दाता । चौदह मारगना के ज्ञाता ॥ गंद्रह भेद प्रमादनिवारी । सोलह भावन फल अविकारी ॥५॥ तारे सत्रह अंक भरत, भुव । ठार थान दान दाता तुच ॥ भाव उनीस जु कहे प्रथम गुन । वीस अंकगणधरजीकी धुन॥६॥ इकइस सर्व घातविधि जानै । वाइस बध नवम गुन थाने ॥ तेइस निधि अरु रतन नरेश्वर । सोपू चौवीस जिनेश्वर ॥॥ नाश पचीस कषाय करी हैं। देशधाति छब्बीस हरी हैं। तत्त्व दरब सत्ताइस देखे । मति विज्ञान अठाइस पेखे ॥८॥ उनतिस अंक मनुप सब जाने। तीस कुलाचल सर्व बखाने । इंक्रतिस पटल सुधर्म निहारे । बत्तिस दोष समाइक टारे ॥६॥ तेतिस सागर सुखकर आये । चोतिस भेद अलब्धि बताये। पैंतिस अच्छर जप सुखदाई। छत्तिस कारन-रीति मिटाई॥१०॥ सैंतिस मगं कहि ग्यारह गुनमें । अठतिस पद लहि नरक अपुनमें उनतालीस उदीरन तेरम । चालिस भवन इंद्र पूऊँ नम ॥११॥ इकतालीस भेद आराधन ।'उदै बियालिस तीर्थंकर भन ॥ तेतालीस बंध ज्ञाता नहिं । द्वार चवालिस नर चौथेमहि॥१२॥ पैतालीस पल्य के अच्छर । छियालीस बिन दोष मुनीश्वर। नरक उदै न छियालीस मुनिधुन । प्रकृति छियालीस नाश
. .. दशम गुन ॥ १३ ॥
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
छियालीसघन सजु साज भुव । अंक छियालीस सिरसा कहिकुव भेद छियालीस अंतर तपवर । छियालीस पूरन गुन जिनवर ॥ १४॥
२०६
डिल्ल ।
समान हो । भान हो ॥
मिथ्या तपन निवारन चंद मोह तिमिर चारनको कारन काल कपाय मिटावन मेघ मुनीश हो । 'द्यासन' सम्यकरतनत्रय गुनईश हो ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्री
जिनेन्द्र भगवद्यो पूर्णाऽघं निर्वपामि ॥
(पूर्णाध्यके बाद विसर्जन करना चाहिये ) अति श्रीजिनेन्द्रपूजा समाप्ता ।
सरस्वती पूजा | दोहा ।
जनम जरा मृतु लय करे, हरे कुनय जड़रीति । भवसागरसों ले तिरै, पूर्जे जिनवचप्रीति ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वतिवाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ | ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवभव । । चपटू ।
त्रिभंगी !
छोरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा । भरि कंचन भारी, धार निकारी तृखा निवारी, हित चंगा ॥ तीर्थंकरको धुनि, गनधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी, पूज्य भई ॥ १ ॥
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२१०
जैन - ग्रन्थ-संग्रह |
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामि इति स्वाहा ॥ १ ॥
करपूर मंगाया, चंदन आया, केशर लाया, रंग भरी । शारदपद बंदों, मन अभिनंद, पापनिकंदों, दाह हरी ॥ तीर्थं ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्ये चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ सुखदास कमोद, धारकमोद, अतिअनुमोद, चंदसमं । बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मातममं ॥ तीर्थं० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अक्षतान् निर्वपामि ॥ ३ ॥ बहुफूलसुवास, विमलप्रकाशं, आनंदरास, लाय धरै । मम काममिटायौ, शील- बढ़ायौ, सुख उपजायी, दोपहर ॥ तीर्थ ०४ ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्मसरस्वतीदेव्यै पुष्पं निर्वपामि ॥४॥ पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विघ भाया, मिष्ट महा । पूजूं थुति गाऊं. प्रीति बढ़ाऊं, क्षुधा नशाऊं, हर्ष लहा ॥ तीर्थं० ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्य निर्वपामि ॥ ५ ॥
करि दीपक ज्योतं, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े । तुम हो परकाशक, भरम विनाशक, हमघट भासक, ज्ञान बढ़े ॥ तीर्थं० ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामि ॥ ६ ॥
शुभगंध दशकर, पावकमें धर, धूप मनोहर, खेवत हैं। सब पाप जलावें, पुण्य कमावें, दास कहावें, खेवत हैं | तीर्थं० ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै धूपं निर्वषामि ॥७॥ बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं । मनवांछित दाता, मेट असाता, तुम गुनमाता, ध्यावत हैं। तीर्थं ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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ॐहीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै फलं निर्वपामि॥८॥ नयननसुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्वलभारी मोल धरे। सुभगंधसम्हारा, वसननिहारा, तुमतर धारा, ज्ञान करै । तीर्थकरकी धुनि, गनधरने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी, पूज्य भई ॥६॥
ॐहीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै वस्त्रं निर्वपामि। जलचंदन अच्छत, फूलचरूचत, दीप धूप अति, फल लावै । पूजाको ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत, सुख
पावै ॥ तीर्थ ॥१०॥ ____ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अध्यं. निर्वपामि ॥१०॥
प्राय जयमाला।
. सोरठा। ओङ्कार धुनिसार, द्वादशांग वाणी विमल । नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जड़ता हरे॥
वसरी। पहला आचारांग बखानो । पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजा सूत्रकृतं अभिला । पद छत्तीस सहस गुरु भाषं ॥१॥ तीजा राना अंग सुजानं । सहस वियालिस पदसरधान ॥ चौथो समवायांग निहारं । चौसठ सहस लाख इकधारं ॥२॥ पंचम व्याख्याप्रगपति दरशं । दोय लाख अट्ठाइस सहसं । छट्ठा मातृकथा विस्तारं। पांचलाख छप्पन हज्जारं ॥३॥ सप्तम उपासकाध्ययनंगं । सत्तर सहस ग्यारलख भंगं । अष्टम अन्तकृतंदस ईस । सहस अठाइस लाख तेइस ॥ ४ ॥ नवम अनुत्तरदश सुविशालं । लाख बानवे सहस चवालं ।
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
दशम प्रश्नव्याकरण विचारं । लाख तिरानवें सोलहजारं ॥५॥ ग्यारम सूत्रविषाक सुभाखं । एक कोड़ चौरासी लाखें । चार कोड़ि अरु पन्द्रह लाखं । दो हजार सब पद गुरुशार्स ॥क्षा द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसा आठ कोड़ि पन वेदं ॥ , ' अड़सट लाख सहस छप्पन हैं। सहित पंचपद मिथ्याहनहैं l इक सौ बारह कोड़ि वखाना । लाख तिरासी ऊपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने । द्वादश अंग सर्व पद माने ॥८॥ कोड़ि इकावन आयहि लाखं ।सहस चुरासी छहसौ भाख ॥ साढ़े इकीस शिलोक बताये। एक एक पद के ये गाये ॥१॥
घत्ता जा बानो के ज्ञान में, सूझ लोक अलोक। 'द्यानत 'जग जयवंत हो, सदा देत हो धेोक ॥ श्रीजिनमुखोद्वतसरस्वत्यै देव्यै पूर्णाऱ्या निर्वपामि ।
इति सरस्वतीपूजा
गुरुपूजा।
दोहा
चहुँ गति दुखसागरविष, तारनतरनजिहाज । रतनत्रयनिधि नगर तन, धन्य महा मुनिराज ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्रा. वरतावतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र तिष्ट तिष्ट । ठः ठः।
ॐ ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र
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२२०
जन-ग्रन्थ-संग्रह |
उर्जयन्तं गिरिनाम तस, कहो जगति विख्यात । गिरिनारी सासे कहत, देखत मन हर्षात ॥ ३ ॥
अल्लि |
गिरि सुन्नत सुभगाकार है । पञ्चकूट उतंग सुधार है || वन मनोहर शिला सुहावनी । लखत सुंदर मन कोभावनी ||४|| और कूट अनेक वने तहां । सिद्ध थान सुअति सुन्दर जहाँ । देखि भविजन मन हर्पावते । सकल जन चन्दन को आवते ||५||
त्रिभंगी छन्द |
तहां नेम कुमारा, व्रत तप धारा, कर्म विदारा, शिव पाई । मुनि को बहत्तर, सात शतक घर, ता गिरि ऊपर सुखदाई ॥ भये शिवपुरवासी, गुण के राशी, विधिथित नोशी, ऋद्धिधरा । तिनके गुण गाऊ, पूज रचाऊ, मन हर्पाऊ, सिद्धि करा ॥
दोहा |
ऐसा क्षेत्र महान, तिहि पूजत मन बच काय । स्थापत त्रय वारकर, विष्ट तिष्ट इत आय || ॐ हीं श्री गिरिनारि सिद्धिक्षेत्रेभ्यो | अत्र अत्रवतरः सम्वौषटाह्वाननम् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ अत्र ममसन्नहिता भव भव वषट् सन्धीकरण ।
अथाष्टकं ।
माधवी वा किरीट छन्द ।
लेकर नीरसुक्षीरसमान महा सुखदान सुप्रासुक भाई । त्र्य धारजजों वरणा हेरेना मम जन्मजरा दुःखदाई ॥
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श्रीगिरनारजीका नक्शा
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श्री अतिशयक्षेत्र पपाराजी [टीकमगढ़।
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२३.
जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
पढ़े सुने जो प्रीति से, सो नर शिवपुर जाय ॥१७॥ . ...... . .: इत्याशीर्जादः। ' . : . :. ... . . इतिश्री सोनागिरि पूजा सम्पूर्ण । .....
.:. रविव्रत प्रजा. . . . .:: ....: .... अडिल्ल । . : ... .. - यह भवजन हितकार, सुरविवृत जिंन कही | करडे भन्यजन लोग, सुमन देकें सही ।। पूजों पाच जिनेन्द्र त्रियोग लगाय। मिट सकल सन्ताय मिले निध आय के । मति लांगर इक सेठ गन्यन कही। उनहीने यह पूजा कर आनन्द लही । ताते रविवृत सार, सो भविजन कीजिये। सुख संपति सन्तान, अतुल निध लीजिये।दोहा। प्रणमा पार्श्व जिनेश को, हाथ जोड़ सिर नाय । परभव सुख के कारने, पूजा करू बनाय ।। एलवार वृतं के दिना, एक ही पूजन ठान । ता फल सम्पति लर्चे; निश्चय लीजे मान॥
": ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अत्रअवतार अवतर तिष्ठ २३ः अत्रं मम सन्निहितो। . .. .. : अष्टकं : ..
- उज्जल जल भरके अति लायो रतन कटोरन माहीं। धार देत अति हर्ष बड़ावत जन्म जरा मिट जाहीं ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजों रविवृत के दिन माई । सुख सम्पति वहु होय तुरतही, भानन्द मंगलदाई ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।। मलया.
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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गिर केशर अति सुन्दर कुमकुम रंग बनाई। धार देत जिन चरनन आगे भव आताप नसाई ।। पारसनाथ० ॥ सुगंधं । मोती सम अति उज्जल तन्दुल ल्यावो नीर पखारो । अक्षय पद के हेतु भावलो श्री जिनवर ढिग धारो ..। पारस०॥ अक्षतं । वेला अरमच कुन्द चमेली पारजात के ल्यावो । चुन चुन-श्री जिन अन चढ़ाऊं मनवांछित फल पावो । पारस ॥ पुष्पं । वावर फेनी गोजा आदिक घृत में लेत पकाई । कंचन थार मनोहर भरके चरनन देत चढ़ाई ॥ पारस ॥ नैवेद्य ।। मनमय दीप रतनमय लेकर जगमग जोत जगाई। जिनके आगे आरति करके माह तिमिर नस जाई पारस०॥ दी। चूरन कर मलयागिर चन्दन धूप दशांक बनाई। तट पावक में खेय भावस कर्मनाश हो जाई । पारसनाथ ॥ धूपं ॥ श्रीफल आदि बदाम सुपारी भांत मांत के लावो । श्री जिन चरन चढ़ाय हरप कर तार्ते शिव फल पावो ॥ पारस० ।। फलं ।। जल गंधादिक अट दरब ले अर्घ बनावो भाई। नाचत गावत हर्प भाव सो कंचन थार भराई पारसा। अधी| गीतका छंद ।। मन वचन काय त्रिशुद्ध करके पार्श्वनाथ सुपूजिये। जल आदि अर्घ चनाय भविजन भक्तिचन्त सुहूजिये ।। पूज्य पारसनाथ जिनवर सकल सुख दातारजी। जे करत है नरनार पूजा लहत सुःख अपारजी ॥ पूर्ण अर्धे ॥दोहा॥ यह जगमें विख्यात है, पारसनाथ महान। जिन गुनकी जयमालका भाषा करौं बनान।। पद्धरी छंद ॥जय जय प्रणमा श्री पार्श्व देव । इन्द्रादिक तिनकी करत सेव।। जय जय सुबनारस जन्म लीन । तिहुँ लोक विषे उद्योत कोन ॥१॥ जय जिनके पितु श्री विश्वसेन । तिनके घर भये सुख चैन एन । जय वामादेवी माय जान । तिनकै उपजे पारस महान ॥२॥ जय तीन लोक
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
आनन्द देन । भविजनके दाता भये एन || जय जिनने प्रभु का शरन लीन । तिनको संहाय प्रभुजी सो कोन ॥ ३ ॥ जय नाग नागनी भये अधीन । प्रभु चरणन लाग रहे प्रवीन । तजके सो देत स्वर्गे सु जाय ! धरनेद्र पद्यवति भये आय ॥४॥ जे चोर अंजना अधम जान । चौरी तज प्रभुको घरो ध्यान ॥ जे मृत्यु भयें स्वर्गे सु जाय । रिद्ध अनेक उनने सुपाय ॥५॥ में मंतिसागर इक सेठ जान ।'जिन, रविवृत पूजा करी ठान । तिनके सुत थे परदेश माहिं । जिन अशुभ कर्म काटे सु ताहि ॥६॥जे रविवृत पूजन करी शेठ । ताफलकर सबसे भई-भेंट | जिन जिनने प्रभुका शरन लीन । तिन रिद्धसिद्ध पाई नवीनं ॥ ७॥ जे रविवृत पूजा करहिं जेय । ते. सुख्य अनंतानन्त लेय॥ धरनेन्द्र पद्मवति हुय सहाय । प्रभु भक्ति जान ततकाल आय ॥ ८॥ पूजा विधान इहिं विध रचाय । मन वचन काय तीनों लगाय ॥ जो भक्तिभाव जैमाल गाय । सोही सुख सम्पति अतुल पाय ॥६॥ वाजत मृदंग धीनादि सार गावंत नाचत नाना प्रकार ॥ तन ननं नन नन नन ताल देत । सन नन नन.सुर भर सुलेत ॥१०॥ ता थेई थेई थेई पग धरत जाय । छम छम छम छम घुघरू बजाय ॥जे करहिं विरत इहिं भांत भांत । ते लहहिं सुख्य शिषपुर सुजात॥११॥ दोहा ॥ रविव्रत पूजा पावकी, करे भवक जन कोय । सुख सम्पति इहिं भव लहै, तुरतः सुरा पद होय ॥ अडिल्ल ॥ रविव्रत पार्श्व जिनेन्द्र पूज्य भव मन परे। भव भवके आताप सकल छिनमें टरें । होय सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि पदवी लहै.। 'सुख सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी रहे. फेर सर्व विध पाय भक्ति प्रभु अनुसरें।नाना विध सुख भोग बहुरि शिव त्रियवरै॥
. इत्यादि आशीर्वादः।
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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
छाया तनकी नाहीं सो होय । टमकार पलक लागे न कोय ॥६॥ नख केश वृद्धि ना होंय जास । ये दश अतिशय केवल प्रकाश ॥ farst हम बन्दे शोशनाय । भव भवके अघ छिनमै पलाय ॥७॥ ॐ ह्रीं केवलज्ञानजन्मदशातिशयसुशोभिताय श्रीजिनाय अर्ध नि० ॥
+
चौबोला छंद ।
अब देवनकृत चौदह अतिशय, सो सुन लीजे भाई । सकल अरथमय मागधि भाषा, सब जीवन सुखदाई ॥ मैत्रीभाव सकल जीवनके, होत महा सुखकारी । निर्मल दिशा लसें सब ओरी, उपजें भानंद भारी ॥ ८ ॥ अरु निर्मल आकाश विराजत, नीलवरन तन धारी । षट् ऋतुके फल फूल मनोहर, लागे द्रमोंकी डारी । दर्पण सम सो धरनि तहाँकी, अति जिय आनंद पावे । froies मेदनि विराजे, क्यों कवि उपमा गावे ॥ ६ ॥ मन्द सुगन्ध वयारि वृष्टि, गन्धोदककी चहुँधाई । हरषमई - सब सृष्टि विराजे, आनंद मंगलदाई ॥ चरण कमल तल रचत कमल सुर, चले जात जिनराई । मेघ कुमाकृत गंधोदक, वरले अति सुखदाई ॥ १० ॥ च प्रकार सुर जय जय करते, सब जीवन मन भावे । धर्मचक्र चले आगे प्रभुके, देखत भानु लजावे ॥ दश विधि मंगलद्रव्य धरों, तहाँ देखत मनको मोहे | विपुल पुण्यका उदय भयो है, सब विभूतियुत सोहे ॥११॥ दोहा ।
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ये चौदह देवन सु कृत, अतिशय कहे बखान: ।
इन युत श्रीअरहंतपद, पूजों पद- सुख मान ||१२||
ॐ ह्रीं सुरकृत चतुर्दशातिशयसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घनि० ॥ -
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जैन - ग्रन्थ-संग्रह |
1
-लक्ष्मीधरा छन्द । प्रातिहार्य वसु जान, वृक्ष सोहे अशोक जहाँ । पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, सुर ढोरें सु चमर तहाँ ॥ छत्र तीन सिंहासन, भामण्डल छबि छाजे । बजत दुन्दुभी शब्द श्रवण, सुख हो दुख भाजे ॥१३॥ ॐ ह्रीं अष्टविधिप्रातिहार्यसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घं नि०॥ चौपाई :
२४३
ज्ञानावरणी करमं निवारा, ज्ञानं अनन्त तवैः जिनां धारा ॥ नाश दरशनावरणी सुरा । दरशन भयो अनन्त सु पूरा ॥१४॥ दोहा |
मोह कर्मको नाशकर, पायो सुक्ख अनन्त । अन्तरायको नाशकर, बल अनन्त प्रगटन्त ॥ १५ ॥ ॐ ह्रीं अनन्तचतुष्टयं विराजमानश्रीजिनाय अघ नि० ॥ पाईता छन्द
अतिशय चौतीस बखाने । वस प्रार्तहारज शुभ जाने ॥ पुन चार चतुष्टय लेवा । इन छयालिस गुण युत देवा ॥ १६ ॥ ॐ ह्रीं पट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय श्रीजिनाय अर्ध मि० ॥
श्रीसिद्धगुण पूजा
"अडिल
दर्शन ज्ञानान्त, अनन्ता वल लहो । सुख.
1-2 ..
अन्नत विलसंत, सुसम्यक् गुण कहो ॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह ।
अवगाहन सु अगुरुलधु, अव्यावाध है।
'इन वसु गुण युत सिद्ध, जजों यह साध है ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टगुण विशिष्टाय सिद्धपरमेष्ठिनेऽधं नि० ॥
....... .. श्रीआचार्य पूजा. . . . .
दोहा-आचारज भाचारयुत, निज पर भेद लखन्त ।
- तिनके गुण षट् तीस हैं, सो जामो इमि सन्त ॥१॥ . . . . . वेसरी.छंद । . : . . उत्तम क्षमा धरे मन माहीं । मारदव धरम मान तिहिं नाहीं॥ आरजव सरल स्वभाव सु जानो । झूठ न कहें सत्य परमानो। निर्मल चित्त शौच गुण धारी । संयम गुण धारे सुखकारी॥ द्वादश विधि तप तपत महंता । त्याग करें मन वच तन संता॥ तज ममत्व आकिंचन पालें । ब्रह्मचर्य धर कर्मन टालें । ये दश धरम धरे गुण भारी । आचारज पूजों सुखकारी ॥४॥ ....ॐ ह्रीं दुशलाक्षणिकधर्मधारकाचार्य परमेष्टिने अर्धं नि० ॥
".. 'वेसरी छन्द । . . “अब द्वादश तप सुनिये भाई, अनशन ऊनादर सुखदाई ॥ व्रतपरिसंख्या रस नहिं चाहें। विविक्तशैय्यासन अवगाहें ॥५॥ कायकलेश सहें दुख भारी, ये छह तप बारह गुण धारी।। प्रायश्चित लेवें गुरु:शास्त्रे विनयभाव निशिदिन चित्त राखे॥६॥
"दोहा। वैयावृत्य स्वाध्यायकर, कायोत्सर्ग सुजान । ध्यान करें निज रूप को, ये बारह तप मान ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं द्वादशविधितायुक्ताय आचार्यपरमेष्टिने अब
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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स्वाहा ॥३॥ फूल सुगंध सु ल्याय-हरष सो आन चड़ायौ । रोग शोक मिट जाय मदन सब दूर पलायौ ॥ पूजी शिखिर । ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वंस नाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४॥ षट् रस कर नैवेद्य कनक थारी भर ल्यायो । क्षुधा निवारण हेतु सुहूजी मन हरषायो.॥-पूजी शिखिर० ॐ ह्रौं श्री सम्मेदशिखिरं सिद्धक्षेत्रे भ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ लेकर मणिमय दीप सुज्योति.. उद्योत हो । पूजत होत. स्वज्ञान मोहतम नाश हो ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ हीं. श्रीसम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो महान्धकार. विनाशनाय . दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दस विधि धूप अनूप. अग्नि मैं खेवहूँ। अणुकर्म को नाश होत सुख पावहू ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्रीसम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्योअष्टकर्मदहनाथ धूपं निर्वपामीति स्वाहा।। भेला लोंग सुपारी श्रीफल ल्याइये । फल चढ़ाय मन वांछित •फल सु पाइये । पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रौं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफलं प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ जल गंधाक्षित फूल सु नेवज लीजिये । दीप धूप फ़ल लेकर अर्घ चढ़ाइये ॥ पूजौ शिखिर० । ॐ ह्रीं श्री संम्मेदंशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनय॑पद प्राप्ताय अर्घ-निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ पद्धड़ी छन्द-श्रीविलति तीर्थंकर जिनेन्द्र । अरु है असंख्य बहुते मुनेद्र ॥ तिनकौं करजोर करों प्रणाम.। तिनको पूंजो. तज .सकल काम, ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यों अनयं. पद प्राप्ताय अर्घ ढार. योगीरायसा-श्री सम्मेदशिखिर गिर ।उन्नत शोभा अधिक प्रमानों। विंशति सिंहपर कूट मनाहर अद्भुत रचना, जानौ ॥ श्री तीर्थंकर वीस तहांते शिवपुर पहुंचे जाई । तिनके पदं पंकज युग पूजौ प्रत्येकं अर्घ चढ़ाई, ॐ ह्रीं
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
.. : :. 'अथाष्टक छंद अष्टपदी।":.: ' ... .... क्षीरोदधिसम शुचिं नीर, कन्चन ग भरौं। प्रभु वेग हरौ भवपीर, या धार करौं । श्रीवीर महा अतिवीर सनमतिनायक हों। जय वर्द्धमान गुणधीर, सनमतिदायक हो। .
। ॐ ह्रीं-श्रीमहावीरजिनेन्द्रायः जन्मजरामृत्युविनाशनाम जलंनिर्वपाभीति स्वाहा ॥ १ ॥.:... ... .. . . ..... मलयागिरचंदन सार, केसरसंग घसौं । प्रभुभव आताप निवार, पूजत हिय हुलसौ ॥ श्रीवीर ॥ जय वर्द्धमान०॥". ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि० ॥ .. " तंदुललित शशिसम शुद्ध, लीने थारंभरी । तंसु पुज धरौ अविरुद्ध, पाऊं शिवनगरी ॥ श्रीवीर जय वर्धमान ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षातान् नि०॥३॥
..सुरतरु के सुमनसमेत, सुमंत सुमन प्यारे । सो मनमथ भंजन हेत, पूजू पद थारे ॥ श्रीवीर०॥ जय वर्तमान० ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि०॥।
__ रसरज्जतं. सज्जत सद्य, मज्जत धारभरी । पदजज्जत . रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी ॥ श्रीवीर०॥ जयवर्द्धमान ॥ . ॐ ह्रीश्रीमहावीरजिनेन्द्रायक्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि०॥५॥
तमखंडित मंडित नेह, दीपक जोवत हूँ। तुम पदतर.हे सुखगेह, ममतम खोवत हूँ॥ श्रीवीर जय वर्द्धमान०॥ . ॐ ह्री. श्रीमहावीर जिनेन्द्रायः माहान्धकारविनाशनाय. दीपं नि०॥६॥ . . . . . . . . . . . . . . . . . - हरिचन्दन अगर कपूर, चूरि सुगन्धं करें। तुम पदतर खेवत भूरि, आठौं कर्म जरे ॥ श्री वीर ॥ जयवर्द्धमानः ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं नि०॥७॥ "रितुफल कलवर्जित लाय, कंचनथार भरौं। शिव फल हित
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह
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है जिनराय, तुम ढिग भेट धरौ ॥ श्री वीर० ॥ जयवर्द्धमान०॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि०॥ ८॥ जलफल वसु सजि हिमथार, तनमन माद धरों । गुण गाऊ भवदधितार, पूजत पापहरौं ॥ श्रीवीर० ॥ जयवद्धमान ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय अनयंपदप्राप्तये अयं नि०॥॥
पंचकल्यानक-राग टप्पा । मोहि राखौ हो सरना, श्रीवर्द्धमान जिनरायजी, मोहि राखौ हो-सरना ॥ टेक ॥ गरभ साढसित छट्ट;लियौ तिथि, त्रिशला उर. अघहरना । सुर सुरपति तित सेव करत नित, मैं पूजू भवतरना ॥ मोहि राखौ० ॥१॥
ॐ हीं आषाढशुक्लषष्ठिदिने गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा० ॥१॥
. जन्म चैत सित तेरस के दिन, कुंडलपुर कनवरना । सुरगिर सुरगुरु पूज रचाया, मैं पूजु भवहरना ॥ मोहिराखौ०
ॐ ही चैत्रशुक्लत्रयोदशीदिने जन्ममङ्गलप्राप्ताय श्रीमहा. वीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा ॥२॥ मगशिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरणा। नृप कुमारघर पारन कीना, मैं पूजं. तुम.चरना। मोहि राखौ हो०॥३॥
ॐ ह्रीं मार्गीकृष्णंदशभ्यां तपोमङ्गलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वयामीति स्वाहा ॥३॥
शुकलदशै वैशाखदिवस अरि, धात चतुक छ्य करना। केवल लहि भवि भवसर तारे, जजू चरन सुख भरना ॥ मोहि राखौ० ॥४॥.....
___ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
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जैन - ग्रन्थ-संग्रह |
कांतिक श्याम अमावस शिवतिय पावापुरतै वरना । गनफनिवृदं जजै तित बहु विधि, मैं पूजूं भवहरना ॥ मोहिराखौ ॥५॥ ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावास्यायां मोक्षमङ्गलमंडिताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
अथ जयमाला | छंदहरिगीता ( २८ मात्रा )
गनधर असनिधर चक्रधर, हरघर गदाधर वरवदा । 'अरु चापधर विद्यासुघर, तिरंसूलधर सेवहि सदा ॥ दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुन मणिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ छेद धत्तानंद (३१ मात्रा )
जय त्रिशलानंदन हरिकतवंदन, जगदानंदनचंद वरं । भवताप निकंदन तनमनवंदन, रहितसंपंदन नयन घरं ॥२॥ छंद तोटक
जय केवलभानुकलासदनं । भविकेोकविकाशन कंजवनं ॥ जगजीत महारिपु मोहहरं । रजज्ञानद्गांवरचूरकरं ॥ १ ॥ गर्भादिक मंगल मंडित हो । दुख दारिदको नित खंडित हो । जगमाहितुमी सत पंडित हो। तुमही भवभावविहंडित हो ॥ १ ॥ हरिवंससरोजनको रवि हो । वलवंत महंत तुमी कवि हो ॥ लहि केवल धर्मप्रकाश किया। भवलौं सोई मारग राजतियौ ॥३॥ पुनि मापतने गुणमाहिं सही। सुर मग्न रहें जितने सब हो । तिनकी वनिता गुण गावत हैं। लय ताननिसों मनभावत हैं ||४|| " पुनि नाचत रंग अनेक भरी । तुव भक्तिविषै पगं एम धरी ।
झननं झनन झनन झननें । सुर लेत तहाँ तननं तननं ॥५॥
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
है । सुइंद्रने उछाहसों जिनेंद्रको चढ़ाई है ॥६॥ सुमागहीं अमोल माल हाथ जोरि वानियें । जुरी तहां चुरासि जाति रावराज जानिये । अनेक और भूपलोग सेठ साहु को गर्ने । कहाल नाम वर्णिये सुदेखते सभा वनें ॥७॥ खंडेलवाल जैसचाल अग्रवाल आइया वरवाल पोरवाल देशवाल छाइया ।। सहेलवाल दिल्लिवाल सेतवाल जातिके । बघेरवाल पुष्पमाल श्री श्रीमाल पांतिके ॥८॥ सुओसवाल पल्लिवाल चूरुवाल चौसखा । पद्मावतीय पोरवाल दूसरा अठसखा ॥ गंगेरवाल बंधुराल तोर्णवाल सोहिला । करिदवाल पचिवाल मेडवाल खाहिला | लवेंचु और माहुरे महेसुरी उदार हैं । सुगोलालारे गोलापूर्व गोलहूं सिंघार हैं । चंधनौर मागधी विहारवाल गूजरा। सुखंड राग होय और जानराज दूसरा ॥१०॥ भुराल और मुराल और सोरठी चितौरिया। कपाल सोमराठ वर्ग हूमड़ा नागौरिया ॥ सीरीगहोड़ भंडिया कनौजिया अजो धिया। मिवाड़ मालवान और जोधड़ा समाधिया ॥१॥ सुभट्टनर रायवल्ल नागरा रुघाकरा। सुकंथ रारु जालु रारु वालमीक भाकरा ॥ पमार लाड़ चोड़ कोड़ गोड़ मोड़ संभरा। सु खंडिआत श्री खंडा चतुर्थ पंचमं भरा ॥१२॥ सु रत्नकार भाजकार नारसिंघ हैं पुरी । सुजंबूवाल और क्षेत्र ब्रह्म वैश्य लौंजुरी। सु आइ हैं चुरासि जाति जैनधर्मकी धनी । सवै विराजी गाठियो जु इन्द्रकी सभा बनी ॥१३॥ सुमाल लेनको अनेक भूपलोग आवहीं। सु एक एकतें सुमाग मालको बड़ावहीं ॥ कहेंजु हाथ जोरि जोरि नाथ माल दीजिये। मगाय दे हेमरत्न सो भंडार कीजिये ॥१४॥ बधेलवाल धाकड़ा हजार बीस देत हैं 1 हजार दे पचास दे परिवार फेरि लेत हैं। सुजैसवाल लाख देत माल लेत चोपलों ।जु दिल्लिवाल,
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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। 277 दोय लाख देत है अगोपसों // 15 // सु अग्रवाल वोलिये जुमाल मोह दीजिये। दिनार देंहु एक लक्ष सो गिनाय लीजिये / खंडेलवाल बोलिया जु दोय लाख देंउगो। सुवांटि केतमोल मैं जिनेन्द्रमाल लेउँगो // 16 // जु संभरी कहें सु मेरि खानि लेहुं जाय / सुवर्ण खानि देत हैं चितौडिया बुलायके / अनेक भूप गांव देत रायसो चंदेरिका / खजान खोलि कोठरीं सु देत हैं अमेरिका // 17 // सुगौड़वाल यों कहै गयन्द वीस लोलिये। मदाय देउ हेमदन्त माल मोहि दीजिये / पमार के तुरङ्गः लोजि देत हैं विनागने / लगाम जीन पाहुड़ जड़ाउ हेमके वने // 18 // कनौजिया कपूर देत गाड़िया भरायके। सुहीर मोति लाल देत ओशवाल आयके / सु हमड़ा हकारहीं हमैं न माल देउगे / भराइये जिहाज में कितेक दाम लेउगे॥१॥ कितेक लोग आयके खड़ते हाथ जोरके / कितक भूप देखिके चले नुवाग मोरिकें / कितेक सूम यों कहूँ जु कैसै लक्षि देत है।। लुटाय माल आपनों सु फूलमाललेत हौ // 20 // कई प्रवीन श्राविका जिनेन्द्र को वधावहीं। कई सु कंठ रागसों खड़ी जुमाल गावहीं / कईसु नत्यको करैं नहैं अनेक भावहीं। कई मृदङ्ग तालपे सु अंगको फिरारहीं // 22 // कहैं गुरू उदार धी सुयों न माल पाइये // कराइये जिनेन्द्र यज्ञ विवहू भराइये। चलाइये जु संघ जात संघही कहाइये / तचे अनेक पुण्यस अमोल माल पाइये // 22 // संबोधि सर्व गोटिसो गुरू उतारके लई / दुलाय के जिनेंद्रमाल संघ रायको दई / अनेक हर्षसो करें जिनेंद्र तिलक पाईये / सुमाल श्रीजिनेंद्रकी विनोदीलाल गाइये // 23 // दोहा / माल भई भगवन्तकी, पाई संग नरिन्द /